Book Title: Jivajivabhigamsutra Part 02
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/009336/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAMRARMA RAMERARTNAUKRIES MPSC KOKGES CARS RAN GOOGUGGDAMAGE जैनाचार्थ-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री-घासीलालजी-सहाराजविरचितया प्रमेयद्योतिकारख्यया व्याख्यया समलङ्कतं हिन्दी-गुर्जर-भाषाऽनुवादलहितम् FIRST ॥ পী-জাকিম্বন্ধু । (द्वितीयो भागः) ... नियोजक संस्कृत-प्राकृतज्ञ-जैनागमनिष्णात-प्रियव्याख्यानि पण्डितमुनि-श्रीकन्हैयालालजी-महाराजः प्रकाशक: AGAL पालनपुरनिवासि-श्रेष्टिश्री-रसिकलाल मणीलाल महेता तत्पुत्र प्रदत्त-द्रव्यसाहाय्येनं ___ अ० भा० श्वे० स्था० जैनशास्त्रोद्धार समितिप्रमुखः ' श्रेष्ठि-श्रीशान्तिलाल मङ्गलदासलाई-महोदयः मु० राजकोट ईसवीसन प्रथमा-आवृत्ति प्रति १२०० चीर-संवत् २४९९ विक्रम संवत् २०२९ १९७३ मूल्यम्-रू० ३०-०० . 39 BASHER Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ મળવાનું ઠેકાણું : श्री स... -३. स्थानवासी જૈનશાદ્ધાર સમિતિ, है. गठिया वा २४, २००४ र, (सौराष्ट्र) Pablished by: Shri Akhil Bharat S. S. Jain Shastroddhara Samiti, Garedia Kuva Road, RAJKOT, (Saurashtra ), W. Ry, India. ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञां, जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैप यत्नः। उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी ॥१॥ म हरिगीतच्छन्दः करते अवज्ञा जो हमारी यत्न ना उनके लिये। जो जानते हैं तत्त्व कुछ फिर यत्न ना उनके लिये ॥ जनमेगा मुझसा व्यक्ति कोई तत्त्व इससे पायगा । है काल निरवधि विपुलपृथ्वी ध्यान में यह लायगा ॥१॥ भूस्यः ३. 30-00 પ્રથમ આવૃત્તિ પ્રત ૧૨૦૦૦ વીર સંવત્ ૨૪૯ વિક્રમ સંવત ૨૦૨૯ ઇસવીસન ૧૯૭૩ मुद्र: મણિલાલ છગનલાલ શાહ નવપ્રભાત પ્રિન્ટીંગ પ્રેસ, ઘીકાંટા રોડ, અમદાવાદ, Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिवाभिगमसूत्रं भांग दूसरे की विषयानुक्रमणिका अ.नं. विषय तीसरी प्रतिपत्ति उ.१ १ नैरयिक जीवों का निरूपण २ रत्नप्रभा पृथ्वीके भेदों का निरूपण ११-१७ ३ प्रत्येक पृथिवी में रहे हुवे नरकावासों का निरूपण १७-२३ ४ रत्नप्रभा पृथ्वीके खरकांड आदिका एवं अन्य पृथ्वी में रहे हुवे घनोदध्यादि के बाहल्य का निरूपण २३-३१ ५ रत्नप्रभा पृथ्वी के क्षेत्रच्छेद का कथन ३२-४७ ६ रत्नप्रभा पृथ्वी के संस्थानका निरूपण ४७-५३ ७ सातों पृथिवीयां लोकको स्पर्शनेवाली है या अलोकको स्पर्शकरती है? ५३-६५ ८ सातों पृथ्वीके घनोदधि धनवात, तनुवातके तिर्यग्वाहल्यकानिरूपण ६५-९३ ९ जीवों की उत्पत्ति का निरूपण ९३-११० १० प्रति पृथ्वीके विभाग पूर्वक उपरके एवं अधस्तन चरमान्त के अन्तर का कथन ११०-१४३ ११ रत्नप्रभादि पृथ्वीयों के परस्पर में अगली२ पृथिवीवियों को लेकर पूर्व पूर्वकी पृथिवीका बाहल्य एवं विस्तार सेतुल्यवादिका निरूपण १४३-१५१ दुसरा उद्देशा १२ प्रत्येक पृथ्वी में कितने कितने नरकावास होनेका कथन .१५२-१७१ १३ नरकावासों के संस्थान-आकार का निरूपण १७२-२८६ १४ नरकावासों के वर्णगन्ध आदिका निरूपण १८६-१९८ १५ नरकावासों के महत्व-विशालपनेका निरूपण १९८-२०७ १६ नरकावास किं द्रव्यमय याने किसके बने है ? २०७-२११ १७ नारक जीवों की उत्पत्ति का निरूपण २११-२४२ १८ प्रत्येक नारक जीवों के संहनन का निरूपण २४२-२५२ १९ नारक जीवों के उच्छवास आदिका निरूपण २५२-२७० २० नारकों के क्षुधा एवं पिपासा आदिका निरूपण २७०-२८६ २१ नारकों के नरकभव दुःख के अनुभवनका निरूपण २८७-३२७ २२ नारकों की स्थितिकालका निरूपण ३२७-३४१ २३ नरक में पृथिव्यादि के स्पर्शादिका निरूपण ३४२-३५८ तीसरा उद्देशा २४ नैरयिकों के पुद्गल परिमाणका निरूपण ३५९-३७४ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिर्यग्योनिक अधिकारको प्रथम उद्देशक २५ तिर्यग्योनिके जीवों का निरूपण ३७५-३९९ २६ पक्षियों की लेश्या आदिका निरूपण ३९९-४२० २७ गंधागो का निरूपण ४२०-४३० २८ स्वस्तिक आदिक विमानो का निरूपण ४३०-४४५ तिर्यग्योनिक अधिकारका दूसरा उद्देशा २९ संसारसमापनक जीवों का निरूपण ४४५-४५३ ३० भेदसहित पृथिवी आदि के स्थित्यादिका निरूपण ४५३-४७३ ३१. अविशुद्ध एचं विशुद्ध लेश्यावाले अनगार का निरूपण ४७३-४८१ ३२ सम्यक्-क्रिया एवं मिथ्याक्रिया ये दो क्रिया एक काल में एक जीव में होने का निषेध ४८१-४८८ तीसरा उद्देशा ३३ भेदसहित मनुष्यों के स्वरूपका निरूपण ४८९-४९६ ३४ दक्षिणदिशाके मनुष्यों के एकोरुक द्वीपका निरूपण ४९६-५०२ ३५ एकोरुक द्वीपके आकार आदिका निरूपण ५०२-५३८ ३६ एकोरुकद्वीप में रहे वृक्षों का निरूपण ५३८-५६५ ३७ एकोरुकद्वीप में रहनेवाले के आकारादिरूप आदिका निरूपण ५६५-५९३ ३८ एकोरुकद्वीप की मनुष्य स्त्री के रूप आदिका निरूपण ५९३-६१६ ३९ एकोरुफद्वीपस्थ जीवों के आहार आदि का निरूपण ६१६-६३८ ४० एकोषकद्वीप में इन्द्रमहोत्सव आदि महोत्सव विषय प्रश्नोत्तर ६३८--६६२ ४१ एकोषकद्वीप में डिव-डमर कलह आदि विषयका निरूपण ६६२-६८१ ४२ आभापिक द्वीपका निरूपण . ६८१-६८५ ४३ हयकर्ण द्वीपका निरूपण ६८५-७१६ ४४ देवों के स्वरूपका निरूपण ७१६-७३९ ४५ उत्तर दिशा में रहे हुवे असुरकुमार देवों का निरूपण ७३९-७४६ ४६ नागगकुमारों के भवनादिद्वारों का निरूपण ७४७-७७१ ४७ वानव्यन्तर देवों के भवन आदिका निरूपण ७७१-७८५ ४८ ज्योतिपिक देवों के विमान आदि का निरूपण ७८५-७८९ ४९ द्वीप एवं समुद्रों का निरूपण ७९०-८०४ ५० जगती के उपरके पनवरवेदिका का निरूपण ८०४-८२८ ५१ वनपण्ड आदिका वर्णन ८२८--९०२ ॥ समाप्त॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ અ - - 1 , * * * * 2 * * * * , , , શ્રી રસિકલાલ મણીલાલભાઈ મહેતા જન્મ : તા. ૧૫ નવેમ્બર-૧૯૨૧ શ્વર્ગવાસ ઃ તા. રર જુલાઈ-૧૯૭૨ Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "ના માધમુરબ્બીશ્રીઓ શેઠ શ્રી શાંતિલાલ મંગળ સભાઈ અમદાવાદ (સ્વા.) શેઠશ્રી શામજીભાઈ વેલજીલ્લા વીરાણું-રાજકોટ સ્વ, સુધીરભાઈ જયંતીલાલ ઝવેરી મુંબઈ (સ્વ) શેઠશ્રી છગનલાલ શામળદાસ ભાવસાર અમદાવાદ ના કામકાજ રે ક { * * ના જાજે શ્રી રામજીભાઈ શામજીભાઈ વિરાણુ-રાજકેટ, अच्चे बेठेला लालाजी किशनचंदजो सा. जोहो उभेला मात्र चि. महेतावचन्दजी सा. नाना-अनिलकुमार जैन दोयत्ता दिल्ही Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयमुरब्बीश्रीओ 2lanaasaal Femamachymage m aa ... KE ई-29 ' .. hdManandhanterachancement.duine .. n શ્રીમાન શેઠ પોપટલાલ માવજીભાઈ મહેતા, જામજોધપુર श्रीमान् शेठ धनराजजी पन्नालालजी जांगडा, मु. जालना P1 THEAT 2017 -RENDRA शेठश्री मिश्रीलालजी लालचंदजी सा. लणिया : प्रभुदासलाइ मुसलमाशी तथा शेठश्री जेवंतराजजी अमदावाद રાજકેટ, . का AIST Hindi me दानवीर शेठश्री अगरचन्दजी भेरुदानजी सा.सेठिया, मु बांकानेर स्वः श्रीमान् शेठश्री मुकनवंदजी सा वालया पाली मारवाड Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીઓ : માં , , ર * * કિમ * દર * . , ન I E 1 E - - (સ્વ) શેઠશ્રી હરખચંદ કાલીદાસ વારિઆ ભાણવડ (સ્વ) શેઠ રંગજીભાઈ મોહનલાલ શાહ અમદાવાદ, * * * (સ્વ.) શેઠશ્રી દિનેશભાઇ કાંતિલાલ શાહ અમદાવાદ, સ્વ, શેઠશ્રી જીવરાજભાઈ મૂલચંદભાઈ ધ્રાંગધ્રા = . ! નાકામ ર - ? - Gિ શેઠશ્રી જેસિંગભાઈ પાચાલાલભાઈ અમદાવાદ સ્વ, શેઠશ્રી મામામ માણેકલાલ અમદાવાદ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પટેલ ાસાભાઇ ગાયાલદાસ ૩ સાણંદ (જી. અમદાવાદ) આદ્યમુખીશ્રીએ शाहजी श्री मोडीलालजी गलुन्डिया मुः उदयपुर .: સ્વ. શેઠ માણેકચઢ નેમચંદ મુ. માંગરોલ ૧ અમીરભાઈ તથા ૨ ગીરધરભાઈ માંઢવિયા મુ. બે ગલેફ્ મદ્રાસવાલા સ્વર્ગસ્થ ન્યાયમૂર્તિ રતીલાલભાઈ ભાયચંદભાઈ મહેતા श्रीमान् शेठ कानुगा श्री घीगडमलजी अहमदाबाद Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આમુરબ્બીશ્રીએ સ્વ, શેઠશ્રી હરિલાલ અનેાષ શાહે लात श्रीमान् शेठ सा. चीमनलालजी सा. ऋषभचदजा सा. अजीतवाले (सपरिवार ) सच्चे बेठेला मोटाभाइ श्रीमान मूलचंदजी जवाहरलालजी बरडिया बाजुमा बेटेका भाई निभीलालजी बरडिया नमेला सौनी नानाभाई पूनमचंदजी बरडिया स्व. शेठ ताराचंदजी साहेब गेलडा मद्रास. शेठ कीशनलालजी फुलचंद सा० बेंगलोरवाळा... श्रीमान् सेठश्री खींवराजजी सा. चोरडिया मु. मद्रास Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ આઘમુરબ્બીશ્રીઓ 1 tris . HMMITMEN . naina... -R ATTA .. in . Emm पारख छोगमलजी मुलतानमलजी शेठ रघुनाथमलजी, शेठ वावुलालजी ,, पन्नालालजी, शेठ सुगनचंदजो ભાનુભાઈ રેશવલાલ ભણસાલી પાલનપુર-મુંબઈ megram थीमान लालाजी हजारी लालजी झवेरी-देहली श्री लक्ष्मीचंदजी जसकरणजी प्रधेरी पालनपुर Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यमुरव्वीश्रीओ R શ્રીમન શેઠ મણીલાલ પોપટલાલ વોરા અમદાવાદ, જન્મ તા. ૧–૬–૧૯૦૪ શ્રીમાન ર ગ્રાહ્યાની પૂરી नाहटा, मु. देहली * ન અપ શ્રી વૃજલાલ દુર્લભજી પારેખ રાજકોટ, કેકારી હરગોવિંદ જેચંદભાઈ રાજકેટ, શ્રી મણીલાલ જેઠુભાઈ પાલનપુરવાળા શ્રીમાન લાલાજી કપુરચંદજી નાહટા દેહુલીવાલા Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यमुरब्बीश्रीओ કે... ૪ * 1 * અને તેમાં એક * (સ્વ) શેઠશ્રી ધારશીભાઈ છાણલાલ જમીન શેર જ્ઞાનવામાં રતનસીમ का वगडिया, मु. दामनगर ભારસી ડિ 'S છે . 3 કે જ. ' * --- : * - ---- M « - .... . ખ+ = vik ૪ મ trvsv " ST 1 - * 1. * * " * ( શ્રી વિનેશકુમાર વીરાણું રાજકેટ, * * રન ; शेठश्री देवनंदभाई फोजीलालभाई बलाणी-सुरत અમુલખભાઈ મલકચંદ પાલનપુરવાલા Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી રસિકલાલ મણીલાલ મહેતાની જીવન-ઝરમર મદ્રાસના અગ્રગણ્ય નાગરિક, વિશાળ એવી પ્રજ્ઞા–મેધાથી મંડિત વ્યાપાર ઉદ્યોગપતિ શ્રી રસિકલાલ મણીલાલ મહેતાનું વ્યક્તિત્વ અનેકવિધ ક્ષેત્રોમાં સબળતાને વર્યું હતું, અને એટલે જ કદાચ એમની પાસે સ્વાનુભવના અને ધર્યના પ્રસંગેની તે ખાણ હતી. ઉત્તર ગુજરાત-બનાસકાંઠા ધાનેરામાં ૧૯૨૧ ના ૧૫મી નવેમ્બર દિવાળીના દિવસના પૂર્વાહમાં તેમને જન્મ થયો હતો. પિતાનું નામ મણીભાઈ, માતાનું નામ પારૂબેન. પિતાશ્રી મણીભાઈ હીરાના વેપારમાં હતા. તેમના બંધુ ચંદુભાઈની સાથે “મણલાલ ચંદુલાલ એન્ડ કુ.” ની સ્થાપના કરી હતી. તેમાંથી છૂટા થયા બાદ હાલની જાણીતી “મણીલાલ એન્ડ સન્સ” કુ. ની તેમણે સ્વતંત્ર સ્થાપના કરી હતી. - શ્રી રસિકભાઈએ પ્રાથમિક શિક્ષણ મદ્રાસમાજ મેળવ્યું હતું. ૧૯૩૮ માં મેટ્રીકયુલેશન પાસ કર્યા બાદ વ્યાપારમાં જોડાયા હતા. ઉમદા ખ્વાહિશે સાથે વેપારમાં પ્રવેશ કર્યો ત્યારે શી ખબર કે બીજે જ વર્ષે માતાના અવસાન રૂપ વિટંબણા કુટુંબ ઉપર આવી પડશે ! ૩૮ વર્ષની વયે પારૂબેનનું અવસાન થયું ત્યારે રસિકભાઈની ઉમર ફક્ત ૧૮ વર્ષની હતી. ૧૮ વર્ષના યુવાનની કર્તવ્ય, સહનશક્તિ અને ધીરજની કસોટી કરવા પર કુદરતે મીટ માંડી હોય તેમ પિતાશ્રીની તબિયત પણ લથડતી ચાલતી હતી. તેમની સેવા, સંભાળ સારવારની જવાબદારી પણ રસિકભાઈની ઉપર આવી પડી એમણે આ જવાબદારીને હિંમત પૂર્વક ઉઠાવી લીધી એટલુંજ નહિ, તે સાથે વ્યાપારી જ્ઞાનાનુભવની પ્રતિમા કચાશ રહેવા ન પામે તે પણ એમણે લક્ષમાં રાખ્યું. લગ્ન ઈ. સ. ૧૯૪૦ મા ધર્મપત્નીનું નામ જયાબેન રસિકભાઈનું દામ્પત્ય જીવન ખૂબજ સુખી હતુ. પતિ પત્ની બન્ને એકમેકના પૂરક થયા. એવું સંતોષી અને આનંદી જીવન ગુજાર્યું. યુદ્ધ સમયે, મદ્રાસ ખાલી થવાના સ જેગે ઉપસ્થિત થયા એ વેળાએ કેટલેક સમય પાલનપુરમાં ગાળ્યું. એ વખતે મદ્રાસ, કારાકુડી વિ. દક્ષિણ ભારતના સ્થળેએ એમની ધંધાકીય પ્રવૃત્તિ અંગે આવાગમન તે ચાલુજ રહેલું. ૧૯૪૫માં તેમના જયેષ્ઠ પુત્ર શૈલેશને જન્મ પાલનપુરમા થશે. આ અરસામાં યુદ્ધ પૂરું થતાં મદ્રાસનું રહેઠાણ પુનઃ ચાલુ કર્યું. પિતાશ્રીની માદગી પણ વધુ જોર પકડતી ચાલી. ૧૯૪૭માં ૫૫ વર્ષની વયે તેઓ અવસાન પામ્યા. એ વખતે ભાઈશ્રી રસિકભાઈની ઉમ્મર ૨૬ વર્ષની અને નાના ભાઈ રજનીકાંતની ઉમ્મર ૨૩ વર્ષની હતી. Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પિતાશ્રીના સ્વવાસથી કૌટુમ્બિક જવાબદારી સવિશેષ પ્રમાણમાં આવી પડી. તે ઉંચકતા ચકતા સ્વમળે અને આપ સુઝથી તેમજ પિતાશ્રીએ જે ધ ધાકિય શિક્ષણ સેવ્યું હતુ તેના આધારે હિંમતભેર અને નિષ્ઠાપૂર્વક ઝવેરાતના ધ ધામા ગતિ–પ્રગતિ કરતા રહ્યા, એટલુ જ નહિ સાથે ખીજા ઉદ્યોગે પધા સ્થાપવાના પણ સપ્રમાણ રસ લીધે, અને પરિશ્રમ ઉઠાવ્યેા. આના અનુક્રમે ૧૯૫૩ મા યુરેપ પ્રવાસ કર્યાં તેના ફળસ્વરૂપ યુરોપની કેટલીક કપનીએ સાથે એજન્સી વિગેરે ધંધાદારી સંબંધ સ્થાપ્યા, આ ગાળા દરમ્યાન એમની મનેભૂમિમાં કેટલીક આતરરાષ્ટ્રિય યાજનાએ પણ આકાર લઈ રહી હતી. ત્યાર ખાદ ૧૯૫૫-૫૬ માં ભારત જુનીયર ચેમ્બરના સંસ્થાપક અને અગ્રણી સભ્ય તરિકે આતરરાષ્ટ્રિય જુનિયર ચેમ્બરની વિશ્વ પરિષદ માં તેમને નિમ ત્રણ મળ્યુ . આ અધિવેશન એડિનબરા (સ્કલેન્ડ) માં ચેાજવામાં આવ્યું હતુ. અત્રેની જુનિયર ચેમ્બરનું પ્રતિનિધિત્વ ઉત્તમ ક્લાએ પાર પાડી તેને માટે વિશ્વ સ સ્થા તરફથી ચાર્ટર (Charter) પણ હાસલ. કરી આવ્યા. પરિષદના અધિવેશનનુ કાર્ય પૂરૂ થયા ખાદ તેમાથી પરવારીને એમણે ફરી યુરોપના પ્રવાસ કર્યાં. નાખેલ પારિતાષિકના વિજેતા સ્થાપક આલફેડ નાખેલે સ્થાપેલી વિશ્વવિખ્યાત કે પની ડાયનેમીટ નાખેલ (Dynamit Nobel) ની એજન્સી દક્ષિણ ભારત માટે પ્રાપ્ત કરી સાથે બીજી અનેક એજન્સીએ ખાસ કરીને દેશના ઔદ્યોગિક વિકાસને અનુલક્ષીને મેળવી પાછા આવ્યા. આ પ્રકારના ખાહ્યજીવનની કે વ્યાવહારિક જીવનની પ્રવૃત્તિએ વિશાળ પટ પર પથરાયેલી હાવા છતા એમના આંતર-જીવનની સંસ્કાર વાટિકા તે જ્ઞનાદ્વારની પ્રમળ ભાવનાથી મહેકી રહી હતી. જૈનધર્મ, જૈનદર્શીન, પક્ષાપક્ષ રહિત સર્વાંગી અને સમગ્રદ્રષ્ટિવાળી ધાર્મિક વિચારણા તેમના આતરમનથી કઢિ વિખુટી નહાતી પડી. સંપ્રદાયના વાદ કે મતમતાતરમા પડયા વિના ધર્માંને આચરણમાં મૂકવામાંજ તેમના ભાવ વધારે રહ્યો હતા. શ્રી શ્વેતાંખર સ્થાકવાસી જૈન સંસ્થાઓની ધાર્મિક પ્રવૃત્તિઓમાં તેઓ હમેશા સક્રિય હતા. પાલનપુર આયંબીલ શાળાના આજીવનદ્રષ્ટી તરીકે જિન શાસનના સુયોગ્ય પગલે ચાલ્યા હતા. ૧૯૪૯ માં ભરાયેલ અખિલ ભારતીય શ્વેતાંબર સ્થાનક વાસી જૈન કેન્સ માં સ પૂર્ણ રીતે અને ધમ રસમાં એકાકાર થઈ ગયા હતા. એ તેમની આધ્યાત્મિક વિકાસ દૃષ્ટિના દ્યોતક પ્રસગ કહી શકાય. એમની માદગી વખતે પણ ધાર્મિક ચર્ચા અને નવકાર મ ત્રમાજ એમનું રટન હતું. સામાજિક ક્ષેત્રે જોતા રસિકભાઇને શિક્ષણ કેળવણીની મામતમાં વધુ રસ હતા. મદ્રાસની કેટલીક નામાકિત અને પ્રથમ પંક્તિની સ સ્થાએ ગણાય છે તેમાં શ્રી શ્વેતાખર સ્થાનકવાસી જૈન એજ્યુકેશનલ સેાસાયટીનું પણ સ્થાન Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : આવે છે. આ સંસ્થાની કાવાહક સમીતીના સભ્ય પદે ચૂંટાયા પછી ધીમે ધીમે આજ સંસ્થાના સહમત્રી પદે પહેાંચ્યા તે એમની નિરંતર સેવા અને કાર્યોત્સાહને કારણે હતુ. શ્રી અમેાલકચંદ ગેલડા જૈન હાઇસ્કુલના મંત્રી પદેથી પણ એમણે સેવાઓ આપી છે. આ હાઇસ્કુલે જે વિજ્ઞાન પ્રદર્શન યોજ્યું હતું અને શાળાના ઇતિહાસમાં જે મહત્વનુ સીમા ચિહ્ન બનીને રહ્યું છે તે રસિકભાઇના મંત્રીપદને આભારી હતું બીજા સામાજિક ક્ષેત્રે પણ એમણે સુંદર નામના મેળવી હતી. સામાન્ય માનવીથી શરૂ કરીને વિશિષ્ટ ધધાદારી કે ઉદ્યોગપતિ હર કેઇ વ્યક્તિને એમના સમાગમમાં આન થતા. એમની નિખાલસતા એ એમનુ ભારે આકષ ણુ હતુ. અને એટલેજ સાવ વિભિન્ન પ્રકારની સસ્થાઓનું કામ, તેને લગતી પ્રવૃત્તિઓમાં સમકક્ષ રસ લઈ, કરી શકતા. ઇન્ડીયન વેજીટેરીયન કોંગ્રેસ’ ના સ્થાપક સભ્ય તરીકે મુલ્યવાન સેવા આપી હતી. (Indian councin of cultural relations) ના માનનીય સભ્ય હતા તથા Hospitality Association · ના ઉપપ્રમુખ પદે હતા. રસિકભાઈએ એમની સામાજિક સેવા પ્રવૃત્તિઓના ભરચક દબાણમાં પણ વ્યાપાર ધંધાની અવગણના કરી ન હતી. સ્વતંત્ર તથા ભાગીદારીમાં ભિન્નભિન્ન વ્યાપાર ઉદ્યોગાના ઉમેરા કર્યાં હતા. આ વિકાસ સાધવામાં એમના વિદેશ પ્રવાસોના અનુભવ અને ધંધાકિય સુઝે મહત્વનું જ્ઞાન અર્પણ કર્યુ હતું. પાંડીચેરીમાં સાઇકલ તથા રેાલર ચેઇનની ફેકટરી. મદ્રાસમાં સીમેન્ટ તથા સીમેન્ટ પેઇન્ટના ઉદ્યોગ તેમજ એજન્સીઓ અને ઇમ્પોર્ટ એપાટ અને શેર, એ સઘળા વ્યાપાર ઉદ્યોગેાએ એમને યશ અને અથ બન્નેની પ્રાપ્તિ કરી આપી હતી. ૧૯૬૦ માં ફરી યુરોપ અમેરિકાની યાત્રા કરી. Far Eaet American Council” ના સભ્યપદે નિયુક્ત થયા. ‘આંધ્ર ચેમ્બર ઓફ કોમ”ની કા વાહક સમિતિમા ચુટાયા અને તે દ્વારાજ રેલ્વે એડવાઈઝરી એડ” પેટ્રસ્ટ’ વિગેરેના માનનીય સભ્ય તરીકે તેમની નિમણુંક કરવામાં આવી. એ તમામ હાદાઓ પરથી તેમણે આપેલી સેવાઓ એમની સમીક્ષક શક્તિ, સામાના ટિ’િદુને સમજવાની તથા માન આપવાની દૃષ્ટિ તથા ભલમનસાઇ ખરી પણ ગેરવ્યાજખી ભલામણા સામે અવાજ ઉઠાવવાની સ્પષ્ટ વકતૃત્વતાને કારણે આદરપાત્ર કરી હતી. અને તેથીજ ૧૯૬૬ માં Indian International Trade fair તરફથી તેઓને dauraTnaekogk' માં અભ્યાસ માટે પ્રતિનીધિ તરીકે જવાનું આમંત્રણ મળ્યુ હતુ. આમ એમના પ્રતિભાશાલી વ્યક્તિત્વની પાંખડીએ એક પછી એક ખુલ્યે જતી હતી, તેવામાં ૧૯૬૭ના જાન્યુઆરીમાં પ્રથમવાર ‘હાર્ટ એટેક’ આબ્યા, તેથી ૧૯૬૮માં જ્યારે ઇન્ટરલેાકન (સ્વીટ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ લેડમાં) માં યોજાયેલી વિશ્વ પરિષદમાં ભાગલેવાનું નિમંત્રણ મળ્યું ત્યારે નાદુરસ્ત તબિયતના કારણે તેમનાથી નિમંત્રણને સ્વીકાર કરી શકાશે નહિ. નાદુરસ્ત તબિયત હોવાને કારણે પણ સ્થાનિક પ્રવૃત્તિઓ તદન બંધ કરી શક્યા નહિ ૧૯૬૯ મા તેમને “આંધ્ર ચેમ્બર ઓફ કોમર્સ ના પ્રમુખ પદે ચૂંટવામાં આવ્યા. એ સ્થાને તેમણે બે વરસ સુધી કામગીરી બજાવી.તે દરમ્યાન વ્યાપારી આલમની વિવિધ સમસ્યાઓને સરકાર સમક્ષ રજુ કરવામાં અદમ્ય ઉત્સાહ દાખવ્યો તેમના સૂચિત ઉકેલેનું રહસ્ય રહેતું વધુ ઉત્પાદન અને આમજનતાની સુખ વૃદ્ધિ. તેમને અભ્યાસ વિષય હતો અર્થશાસ્ત્ર અને કરવેરા. સરકાર તરફથી તેમને Regional Board of direct taxes” ના સભ્યપદે નિમવામા આવ્યા હતા. સાથે તેઓ “All India Manufacturer's Association ” ના મદ્રાસ બોર્ડની કાર્યવાહક સમીતિમાં તે હતા. આમ હૃદય રોગના હુમલા પછી પણ એમણે સંસ્થાકીય પ્રવૃત્તિઓમાં તે સક્રિયતા દાખવ્યાજ કરી. શરીર પર માઠી અસર તે ચાલુજ રહી ને બે મહિનાની માંદગીને અંતે ૧૯૭૨ ના જુલાઈની રરમી તારીખે તેમને સ્વર્ગવાસ થયો એ માંદગી દરમિયાન પણ તેમની ધાર્મિક પ્રવૃત્તિઓમાં એકદમ વધારે તેજ રહ્યો. ધર્મના પુસ્તક અને ચર્ચા ચાલુ રાખી. છેવટ સુધી નવકાર મંત્રનું રટણ ચાલુજ હતું કુટુમ્બી જનેએ વત્સલ પિતા અને વડિલ, જ્ઞાતિજનોએ પ્રભાવશાળી વ્યક્તિત્વ, સમાજે સંનિષ્ઠ કાર્યકર અને દાતા તથા વ્યાપારી આલમે બુદ્ધિમાન કાર્યદક્ષ પ્રતિનીધિ અને માર્ગદર્શક ગુમાવ્યા. હાદિક દુખ સાથે અંતિમ એજ મહેચ્છા કે સ્વર્ગસ્થ આત્મા પરમ સુખને પ્રાપ્ત કરે. મંત્રી શ્રી શાસ્ત્રોદ્ધાર સમિતિ, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री वीतरागाय नमः॥ श्री जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्यश्री घासीलालबतिविरचिताया प्रमेयधोतिकाख्यया व्याख्यया समलकृतम् हिन्दी-गुर्जरभाषानुवादसहितम् ॥श्री जीवाभिगमसूत्रम् ॥ (द्वितीयो भागः) तृतीया पतिपत्तिः प्रारभ्यतेद्वितीया प्रतिपत्ति निरूपिता तोऽवसरमाप्तां तृतीय पतिपति निरूपयति तत्र नरयिकादि चतुर्विधसंसारसमापन्नकजीवेषु प्रथमं नैरयिकपरूपणामाह'तत्थ णं जे ते' इत्यादि। मूलम्-तत्थ णं जे ते एवमाहंसु चउविहा संसारसमावण्णगा जीवा ते एवमासु तं जहा-गैरइया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा ॥ से किं तं घोरइया ? जेरइया सत्तविहा पन्नत्ता तं जहा-पढम पुढवी जेरइया दोच्चा पुढवी णेरइया, तच्चा पुढवी णेरइया, चउत्थी पुढवी जेरइया, पंचमी पुढवीणेरइया, छटी पुढवी णेरड्या सत्तमी पुढथी नेरइया॥ पढमाणं भंते ! पुढवी किं नामा किं गोत्ता पन्नत्ता ? गोयमा ! णामेणं धम्मा गोत्तेणं रयणप्पभा। दोच्चा णं भंते ! पुढवी किं नामा किं गोत्ता पन्नत्ता? गोयमा! णामेणं वसा गोत्तेणं सकरप्पभा। एवं एएणं अभिलावेणं सव्वासिं पुच्छा, णामाणि इमाणि सेला तच्चा, अंजणा चउत्थी रिट्ठा पंचमी मघा छटी माघबई सत्तमा जान तमतमा गोत्तेणं पन्नत्ता ॥ इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी केवइया बाहल्लेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! इमाणं रयणप्पभा पुढवी असीउत्तरं जोयणलयसहस्सं बाहल्ले णं पण्णत्ता। एवं एएणं अभिलावेणं इमा गाहा-अणुगंतव्वा जी०१ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्त्र 'असीयं बत्तीलं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । अटारस सोलसगं अटुत्तरमेव हिट्रिमिया' ॥सू० १॥ छाया-तत्र खल्ल ये ते एमाहुश्चतुर्विधाः संसारसमापनका जीवास्ते एवमाहुः तद्यथा नैरयिकारितयंग्योनिका मनुष्या देवाः । अथ के ते नरयिकाः ? नरयिकाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ता स्तद्यथा-प्रथमपृथिवी नैरथिकाः द्वितीयपृथिवी नैरयिकाः तृतीय पृथिवी नरयिका श्चतुर्थपृथिवीनैरयिकाः पञ्चमपृथिवीनरयिकाः षष्ठ पृथिवीनरयिकाः सप्तमपृथिवीनरयिकाः । प्रथमा खलु भदन्त ! पृथिवी किं नाम्नी कि गोत्रा प्रज्ञाता ? गौतम नाम्ना धी गोत्रेण रत्नप्रभा । द्वितीया खलु भदन्त ! पृथिवी किं नाम्नी किं गोत्रा प्रज्ञप्ता ? गौतम ! नाम्ना वंशा गोत्रेण शरायमा । एवम् एतेन अमिलापेन सर्वासां पृच्छा नामानि इमानि शैला तृतीया, अञ्जना चतुर्थी, रिष्टा पश्चमी सधा पप्ठी माघवती सप्तमी यावत् तमस्तमा गोत्रण प्रज्ञप्ता ? इयं खल भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी फियता वाहल्येन पक्षप्ता ? गौतम ! इयं खल्लू रत्नप्रभा पृथिवी अशीयुत्तरं योजनशतसहस्र पाहल्येन प्राप्ता । एवमेतेनाभिलापेन इयं गाथा-- 'अशीति द्वात्रिंशदष्टाविंशति स्तथैव विंशतिथ । अष्टादश षोडशैकमष्टोत्तरमेवाधस्तना ॥१॥ टीका-'तत्थ' तत्र-तेषु दशसु मतिपत्तिमत्सु मध्ये 'जे से ये ते आचार्या "एवमाइंस' एवमाहुः-एवमाख्यातवन्तः, कियाख्यातवन्त स्तत्राह-'चउबिहा' तीसरी प्रतिपत्ति का प्रारभद्वितीय प्रतिपत्ति का निरूपण करके अब सूत्रसार तृतीय प्रति पत्ति का निरूपण करते हैं उसमें नैरथिकादि चार प्रकार के संसार समापनक जीवों में प्रथम नैरयिकों की प्ररूपणा करते है 'तस्थ णं जे ते एकमासु बउबिहा लन्चारसमावण्णगा जीवा' इ० टीकार्थ-तत्इन दश प्रतिपति वादियों के बीच में 'जे ते एवमासु' जिल आचार्यों ने 'एवमासु ऐसा कहा है कि 'चव्धिहा त्रील प्रतिपत्तिन प्रारमબીજી પ્રતિપત્તિનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર ત્રીજી પ્રતિપત્તિનું નિરૂપણ કરે છે–તેમાં નરયિક વિગેરે ચાર પ્રકારના સંસાર સમાપન્નક જીમાં પહેલાં નરયિકેનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. " तत्थ ण जे ते एपमाहंसु चउव्विहा संसारसमावन्नगा जीवा" त्याल. ___ ---'तत्थ गं' मा ४२५२नी प्रतिपत्ति वाहियामा ‘जे ते एवमाहंसु' रे भायान्मे थे यु छ. हैं " चउव्विहा संसारममावन्नगा Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ सू.१ नैरयिकजीवनिरूपणम् इत्यादि, 'चउब्विहा' चतुर्विधा श्चतुः प्रकारकाः, 'संसारसमावन्नगा जीवा' संसारसमापन्नका जीवाः 'ते एमाहंस' ते-भाचार्या एवम्-वक्ष्यमाणपकारेण जीवसंख्याविषये आहुः-कथितवन्तः। चारविध्यमेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' वधया-रहया' नैरपिका, 'तिरिक्व जोणिया' तिर्यग्योनिकाः, तथा-मणुस्सा' मनुष्याः, तथा- देवा' देवाः, तथा च नारकतियङ्.. मनुष्यदेवभेदेन संसारसमापनका जीवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ता इति। चतुर्विधजीवेषु मध्ये प्रथमं नारकं ज्ञातुं प्रश्नयनाह-'ले कित' इत्यादि, ‘से किं तं जेरइया' अथ के ते नैरयिकाः नारकाणां किंलक्षणं कियन्तश्च भेदा इति प्रश्ना, उत्तरयति. 'णेरड्या सत्तविहा पण्णता' लेयिकाः सविधाः-सप्तमकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिता इति । सप्तविधभेइमेव दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा'पढमा पुढवी णेरड्या प्रथम पृयिवानरायकाः प्रथमायाँ रत्नप्रभापृथिव्यां समुदभवा नारकाः प्रथमपृथिवीनारका इत्यर्थः 'दोच्चा पुढवी नेरइया' द्वितीय पृथिवीनैरयिकाः द्वितीयस्यां शर्कराषभापृथिव्यां समुद्भवा नैरयिकाः द्वितीयसंसारसमावन्नगा जीवा' संसार समापनक जीव चार प्रकार के हैं 'ते एवमासु' उन्होंने इस सम्बन्ध में ऐसा कहा है-'णेरड्या तिरिवखजोणिया, मणुस्सा, देवा' नैरथिक (१) तिर्यग्योनिक (२) मनुष्य (३) और देव (४) इस तरह नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव के भेद से संसारी जीव चार प्रकार के कहे गये हैं। ___ 'से कि तं णेरड्या' हे भदन्त ! नारकों का क्या लक्षण है और कितने उनके भेद हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'णेरड्या सत्तविहा पन्नत्ता' हे गौतम ! नैरथिक सात प्रकार के कहे गये है "तं जहा-'जैसे-पढमा पुढवी णेरइया प्रथम पृथिवी के नरथिक-रत्न प्रभा नाम की पहिलि पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक 'दोच्चा पुढची नेरक्ष्या' वितीय पृथिवी जीवा " संसारी व यार ५४२॥ ४॥ छ, “ ते एवमाहंस" तमाम मा सभा मे ४ह्यु छ. हे 'णेरड्या तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा' नै२थि(१) तियानि (२) मनुष्य (3) भने । (४) मारीत ना२४, तियय मनुष्य અને દેના ભેદથી સંસારી જીવે ચાર પ્રકારના કહેલા છે.” " से किं तं जेरइया” 8 सावनू नानु शुक्षय छ १ मा प्रश्ना उत्तरभ प्रभु गौतभस्वामीन छ “णेरइया सत्तविहा पण्णत्ता" है गीतम नैयिही साता२ना ह्या छे. "त जहा" ने माप्रभारी छ.रेभ3- 'पढमा पुढवी णेरइया' ५3दी स्नमा नामनी पृथ्वीमा उत्पन्नथयेमा नहि। १, 'दोच्चा पुढवी रइया' भी पृथ्वीना नथि। मे शरामा पृथ्वीमा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्र पृथिवीनैरयिका इत्यर्थः । तच्चापुढवी णेरइया' तृतीय पृथिवीनैरयिका स्तृतीयस्यां पृथिव्यां समुद्भवा नारका स्तृनीय पृथिवीनारका इत्यर्थः 'चउत्थी पुढवी णेरइया' चतुर्थ पृथिवीनैरयिकाः चतुर्थी पृथिव्यां समुद्भवा नारकाश्चतुर्थपृथिवी नारका इत्यर्थः 'पंचमी पुढवी णेरड्या' पञ्चम पृयिवोनेरयिकाः पञ्चम्यां पृथिव्यां समुद्भवा नैरयिकाः पञ्चमपृथिवी नरयिका इत्यर्थः । 'छट्ठी पुढवी जेरइया' षष्ठपृथिवी नैरयिकाः षष्ठयां पृथिव्यां समुद्भवाः नैरयिकाः 'सत्तमी पुढवी णेरइया' सप्तमपृथिवी नैरयिकाः सप्तम्यां पृथिव्यां समुद्भवा नैरयिकाः सप्तम पृथिवीनरयिका इत्यर्थः तथा च नारकपृथिवीनां सप्तविधत्वाचदाश्रिता नारक जीवा अपि सप्तप्रकारका भवन्ति आधारभेदेनाधेयभेदस्यावश्यकत्वादिति । सम्पति प्रति पृथिवीनाम, गोत्रं वक्तव्यमिति तत्र-नाम गोत्रप्रतिपादनार्थमाहके नैरयिक-द्वितीय शर्करा प्रभा पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक २, 'तच्चा पुढवी णेरड्या' तृतीय पृथिवी नैरयिक-तृतीय घालुका प्रभा पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक ३, ‘च उत्थी पुढयी णेरड्या' चतुर्थी पृथिवी नैरयिक-चौथी पङ्कप्रभा पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक ४, 'पंचमी पुढवी णेरइया' पांचवीं पृथिवी के नैरथिक पांचवीं-धूमप्रभा पृथिवी में उत्पन्न हुए नरयिक५, 'छट्ठी पुढवी णेरक्या' छठी पृथिवी के नरयिक छठी-तमा पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक ६, और 'सत्तमी पुढवी णेरड्या' सातवीं पृथिवी के नैरपिक सातवीं तमतमा पृथिवी में उत्पन्न हुए नैरयिक७, इस तरह नारक पृथिवीयों की सप्त प्रकारताले तदाश्रित नारक जीवों में भी सप्त प्रकारता कही गई है क्योंकि आधार के भेद से आधेय में भी भेद हो जाते हैं अप इनमें प्रत्येक पृथिवी के नाम और गोत्र उत्पन्न थये। नयि? ' तच्चा पुढवी जेरइया' त्री पृथ्वी २ वायुप्रमा नामनी के तमा न थये। नैयिो । 3, 'चउत्थी पुढवी णेरइया' याथी ५४मा नामनी पृथ्वीमा संपन्न थये। नैयि। ' पंचमी पुढवी णेरइया' પાંચમી પૃથ્વી જે ધૂમપ્રભા નામની પૃથ્વી છે, તેમાં ઉત્પન્ન થયેલા નરયિકે ૫, 'छवी पुढवी णेरड्या' छट्ही पृथ्वी १२ तमानामनी पृथ्वी छ, तमा उत्पन्न थये। नरयि ६ भने 'सत्तमी पुढवी णेरड्या' सातभी तमस्तमा नामनी પૃથ્વીમાં ઉત્પન્ન થયેલા નરયિકો છ, આરીતે સાત પ્રકારની નારક પૃથ્વી હોવાથી તેમાં રહેવાવાળા નારક પણ સાત પ્રકારના કહ્યા છે. કેમકે –આધારના ભેદથી આધેયમાં પણ ભેદ આવી જાય છે. ' હવે આ પ્રત્યેક પૃથ્વીના નામ અને તેના ગોત્રનું કથન કરવામાં આવે Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.१ नैरयिकजीवनिरूपणम् 'पढमाण' इत्यादि, 'पढमाणं भंते ! पुढवी' प्रथमा खलु भदन्त ! पृथिवी 'कि नामा' कि नाम्मी किमनादिकाल प्रसिद्वान्धर्थरहित नामवती 'किं गोत्रा किमन्वर्थयुक्त नामवती 'पन्नता' मज्ञप्ता-कथितेति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णामेणं धम्मा गोत्तेणं रयणप्पभा' नाम्ना धर्मा गौत्रण रत्नप्रभा त्याचा रस्नानां प्रभा बाहुल्यं यत्र सा रत्नप्रभा रत्नबहुलेत्यर्थः । 'दोच्चाणं भंते ! पुढवी' द्वितीया खल्ल भदन्त ! पृथिवी 'कि नामा कि गोत्तापन्नत्ता' किं नाम्नी कि गोत्रा च प्रज्ञप्तेति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'णामेणं वंसा गोत्तेणं सक्करप्पभा' नाम्ना द्वितीया पृथिवी वंशा कथयते गोत्रेण च शर्कराप्रपा प्रज्ञप्ता, शर्कराणां प्रभा-बाहल्यं यत्र सा शकराप्रमा शर्करा बहुलेत्यर्थः ‘एवं एएणं अमिलायेणं सवासिं पुच्छा' एवम् कहते हैं-'पढमाणं भंते ! पुढवी किं नामा कि गोत्ता' हे भदन्त ! प्रथम पृथिवी किस नाम वाली है ? किस गोत्र वाली हैं? क्या वह अनादि काल से प्रसिद्ध अन्धर्थ रहित नाम वाली है ? या अन्वर्थ युक्त नाम वाली है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! नामेणं धम्मा गोत्तेणं रयणप्पभा' हे गौतम! प्रथम पृथिवी नाम से धर्मा है और गोत्र से रत्न प्रभा है क्योंकि रत्नों की प्रभा अर्थात् बाहुल्य यहां रहता है इसलिये यह सार्थक गोत्र घाली है 'दोच्चाणं भंते पुढची किं नामा कि गोत्ता पन्नत्ता' हे भदन्त ! द्वितीय पृथिवी किस नाम वाली और किस गोत्र वाली हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! नामेणं वंसा-गोत्तेणं सकरप्पभा' हे गौतम ! द्वितीय पृथिवी नाम से वंशा है और गोत्र से शर्करामभा है क्योंकि यहां पर शकरा की पभा का बाहुल्य है एवं एएण छे. 'पढमा णं भंते ! पुढवी किं नामा किं गोत्ता' सावन् पडली पृथ्वीन' નામ છે? અને તેનું ગે.ત્ર શું છે? શું તે અનાદિકાળથી પ્રસિદ્ધ અન્વર્થ રહિત-વિનાના નામવાળી છે ? અથવા અન્વયેં ગ્યનામવાળી છે? આ પ્રશ્ન नउत्तरमा प्रभु गौतम स्वामी ४ छ है 'गोयमा! ण,मेणं घम्मा गोत्तेणं રચનcqમા” હે ગૌતમાં પહેલી પૃથ્વીનું નામધર્યા છે, અને તેનું ગોત્ર રત્નપ્રભા છે. કેમ કે રત્નોની પ્રત્યે અર્થાત તેમાં રત્નનું અધિકપણું રહે છે. તેથી તે साथ ४ गोत्रवाणी छे. 'दोच्चा णं भंते ! पुढवी किं नामा किं गोता पण्णत्ता' है ભગવદ્ બીજી પૃથ્વીનું શુંનામ છે? અને તેનું ગોત્ર શું છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४ छे , 'गोयना ! नामेणं वंसा गोत्तेणं सकरप्पभा' गीतमा બીજી પૃથ્વીનું નામ વંશા છે, અને તેનું ગોત્ર શર્કરાપ્રભા છે. કેમકે ત્યાં शरानी प्रसानु मधि पा २ छ. 'एवं एएणं अभिलावेणं सवासिं Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे ६ उपरिदर्शिता मिलापेन प्रकारेण सर्वासां पृथिवीनां पृच्छा ययोक्तरूपेण सर्वत्र प्रश्नः करणीय इत्यर्थः । तथाहि - ' णामाणि इमाणि' नामाणि आसां सप्तानां पृथिवीनाम् इमानि तथाहि - 'सेला' इति नाम तृतीयस्याः 'अंजणा चउत्थी' अञ्जनेतिनाम चतुर्थ पृथिव्याः | 'रिहा पंचमी' रिष्टेति नाम पञ्चम- पृथिव्याः । 'मघा छुट्टी' मधेवि नाम षष्ठी पृथिव्याः । 'माघवती सत्रामा' माधवती च सप्तम पृथिव्याः नाम भत्रति 'जाब तमतमा गौत्तेणं पन्नता' यावत् तमस्तमः प्रभा गोत्रेण प्रज्ञा अत्र यावत्पदेन मथमा गोत्रेण रत्नमभा द्वितीया गोत्रेण शर्कराममा, तृतीया गोत्रेण वालुकाममा चतुर्थी गोत्रेण पङ्कमभाः पञ्चमी गोत्रेण धूममभा अभिलावेण सव्वासि पुच्छा' इसी प्रकार तृतीयादि पृथिवीयों सम्बन्ध में भी प्रश्न करना चाहिये । 'णामाणि' इत्यादि इनके नाम इस प्रकार हैं - 'सेला' - यह तृतीय पृथिवी का नाम है 'अंजणा' यह चतुर्थी पृथिवी का नाम है 'रिट्ठा' यह पंचमी पृथिवी का नाम है 'मघा' यह छठी पृथिवी का नाम है 'माघवती' यह सातवीं पृथिवी का नाम है 'जाव तमतमा गोतेणं पन्नता' यावत्पद से यहां ऐसा समझाया गया है कि 'रत्नप्रभा' यह प्रथम पृथिवी का गोत्र है ' शर्करा प्रभा' यह द्वितीय पृथिवी का गोत्र है 'बालु का मभा' यह तृतीय पृथिवी का गोत्र है ' पङ्कप्रभा' यह चतुर्थी पृथिवी का गोत्र है 'धूम प्रभा' यह पंचमी पृथिवी का गोत्र है 'तमः प्रभा' यह छठी पृथिवी का गोत्र है और 'तमस्तमः प्रभा' यह सातवीं पृथिवी का પુત્ત્તા' આજ પ્રમાણે ત્રીજી, ચાર્થી વિગેરે પૃથ્વીયેાના સંબંધમાં પણ પ્રશ્ન પૂછ્યા જોઇએ C ' णामाणि त्याहि तेना नाभी मा प्रभाये छे. 'सेला ' त्री पृथ्वी नाभ शैला छे. ' अंजणा' थोथी पृथ्वी नाम ना . ' रिष्टा' यांयभी 'पृथ्वीतु नाम रिष्टा छे, ' मघा ' छडी पृथ्वीतु नाम भधा से अमाथे थे, ' माघवती ' सातभी पृथ्वीतुं नाम भाघवती छे. जाव तमतमा गोत्तेज पण्णत्ता' यावत्पथी मडियां भेषु समन्वु लेईखे है 'रत्नयल' से पहेली પૃથ્વી' ગાત્ર છે. ‘શર્કરાપ્રભા' એ મીજી પૃથ્વીનું ગાત્ર છે. ‘ વાલુકાપ્રભા’ એ ત્રીજી પૃથ્વીનું ગેાત્ર છે. ‘પ્’કપ્રભા' એ ચેાથી પૃથ્વીનુ' ગેાત્ર છે. ‘ધૂમપ્રભા’ એ પાંચમી પૃથ્વતુ' ગેાત્ર છે. ‘તમઃપ્રભા' એ છઠ્ઠી પૃથ્વીનું ગેાત્ર છે અને સમસ્તમપ્રભા એ સાતમી પૃથ્વીનું ગેાત્ર છે, તેના આલાપક આ પ્રમાણે છે. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.१ नैरयिकजीवनिरूपणम् षष्ठी गोषेण तमः प्रभा-एतदन्त पृथिव्याः ग्रहणं भवतीति । आलापकाश्चेत्थस्____ 'तच्चाणं भंते ! पुढवी किं नामा किं गोता ? गोयमा! नामेण सेला, गोत्तेण वालयप्पमा चउत्थीणं भंते ! पुढवो कि नामा किं गोत्ता ? गोयमा ! नामेणं अंनणा गोत्तेण पंकप्पमा ।४। पंचमाणं भंते ! पुढवी किं नामा किं गोता ? गोयमा ! नामेगं रिहा गोत्तेण धूमप्पमा ५ । छहाणं भंते | पुढवी किं नामा कि गोवा ? गोयना ! नामेणं मघा गोत्तण तमप्पमा।६ सत्तमाणं भंते ! पुढची किं नामा कि गोत्ता ? गोयमा ! नामेणं माघबई गोत्तेणं तमतमप्पमा ७।' इति व्याख्या-तच्चाणं भंते ! पुढवी' तृतीया खल भदन्त ! पृथिवी 'किं नामा कि गोत्ता पत्रता' कि नाम्नी कि गोत्रा च धज्ञप्ता ? भगवानाह-हे गौतम । नाम्ना शैला गोत्रेण बालुकाममा, बालुकायाः प्रभा बाहुल्यं यत्र सा वालका बहुलेत्यर्थः 'चउत्थीर्ण भंते ! पुढवी' चतुर्थी खलु भदन्त ! पृथिवी 'किं नामा किं गोत्ता पनत्ता' कि नाम्नी किंगोत्रा च प्रहप्ता भगवानाह-हे गौतम ! नाम्ना अञ्जना गोत्रेण पङ्कममा पङ्कस्य प्रभा-बाहुल्यं यत्र सा पङ्कपमा पङ्कबहलेत्यर्थः 'पंचमीणं भते ! पुढवी' पञ्चमी खलु भदन्त ! पृयिदी 'किं नामा कि गोत्ता पन्नत्ता' कि गोत्र है। आलापक इस प्रकार होते हैं-जैसे-'तच्चाण' इत्यादि। 'तच्चाणं भंते ! पदवी किं नामा किंगोत्ता' हे भदन्त ! तृतीय पृथिवी का क्या नाम है और कौन गोत्र है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा' तृतीय पृथिवी नाम से शेलो है और गोत्र से बालुका प्रभा है क्योंकि बालुका की प्रमा बाहुल्य यहां पर है 'चउत्थीणं भंते ! पुढबी कि नामा कि गोत्ता' हे भदन्त ! चतुर्थी पृथिवी किस नाम वाली और किस गोत्र वाली है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! चतुर्थी पृथिवी नाम से तो अञ्जना है और गोत्र से पड प्रभा है क्योंकि पर कीचड़ का बाहुल्य यहां रहता है 'पंचमीणं भंते ! पुढवी' हे भदन्त ! पांचवीं रभ ' तच्चाण' त्याह 'तच्चाणं भंते ! पुढवी किं नामा किं गात्ता' હે ભગવન ત્રીજી પૃથ્વીનું શું નામ છે ? અને તેનું ગોત્ર શું છે ? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतम स्वामीन 3 छ 'गायमा ! गौतम !त्रील પૃથ્વીનું નામ શૈલા છે. અને તેનું ગોત્ર “વાલુકા પ્રભાછે કેમકે તેમાં વાલુકાની प्रभानु मधिपा हेतुं छे. 'चउत्थी णं भंते ! पुढवी किं नामा किं गोत्ता' હે ભગવન ચોથી પૃથ્વીનું શું નામ છે? અને તેનું ગોત્ર શું છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४३ 'गोयमा!' ' गोतम ! याथी पृथ्वीतुं नाम मन' એ પ્રમાણે છે. અને તેનું ગોત્ર “પંકપ્રભા” છે. કેમકે તેમાં પંક એટલે કે हनु भघि पार २तुं छे. 'पंचमीणं भंते ! पुढवी 'भगवन पांचमी Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे नाम्नी किं गोत्रा च प्रज्ञप्ता, भगवानाह-'गौतम ! नाम्ना रिटा गोत्रेण धूमप्रमा धृमस्येव प्रभा यरयाः सा धृमप्रभा । 'सहीणं मंते ! पुढवी' पाठी खलु भदन्त ! पृथिवी 'किं नामा किं गोत्ता पन्नत्ता' किं नाम्नी वि. गोत्रा च प्रशप्ता, भगवानाह-हे गौतम ! नाम्ना मघा गोत्रण तमानमा तपसोऽन्धकारस्य प्रमा बादल्यं यत्र सा तमः प्रभा बहुलेत्यर्थः । 'सत्तमी णं भंते ! पुढी' सप्तमी खल भदन्त ! पृथ्वी 'किं नामा कि गोत्ता' किं नाम्नी किं गोमा च मज्ञप्ता, भगवानाद-हे गौतम ! नाम्ना माघक्ती गोत्रोण तमस्तमः प्रभा, तमस्तमसः प्रकृष्टतमसः प्रमाबाहुल्य यत्र सा तमस्तमः प्रभा प्रकृष्टतमो बहुलेत्यर्थ तदुक्तम्- 1 धम्मा वंसा सेला अक्षणरिट्टा मघाय माघबई। सत्तण्णं पुढवीणं एए नामा उ नाव्या ॥१॥ प्रथिवी किस नाम वाली और किस गोमवाली है ? उत्तर में प्रभु कहते कहते हैं-हे गौतम ! पांचवी पृथिवी नाम से रिष्टा है और गोत्र से धूमप्रभा है-क्योंकि धूम के प्रभा जैसी प्रभा यहां रहती है । 'छट्टेणं भंते पुढवी' हे भदन्त ! छठवीं पृथिवी किस नाम वाली और किम गोत्र वाली है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-गौतम ! छठवीं पृथिवी नाम से मघा है और गोत्र से तमः प्रभा है-क्योकि यहां अधिकार की प्रभा का बाहुल्य रहता है 'सत्तीणं भंते ! पुढवी' हे भदन्त ! सातवीं पृथिवी किस नाम वाली और किस गोत्र पाली है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! सातवीं पृथिवी नाम से माघवती है और गोत्र से तमस्तमः प्रभा है क्योंकि यहां पर गाढ अन्धकार का बाहुल्य होता है जैसे कहा પૃથ્વીનું શું નામ છે ? અને તેનું નેત્ર કયું છે ? તેના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે गोयमा' ! गौतम ! पांयमी भानु नाम २ि०४। छे भने तनु गोत्र ધૂમપ્રભા ” છે. કેમકે ધૂમાડાની પ્રભા જેવી પ્રભાનુ અધિપણું તેમાં રહે છે 'छद्रीणं भंते ! पुढवी' 3 भगवन् ७४ी पृथ्वीनु शु नाम छ ? भने तेनु सत्र शुछ १ मा प्रश्नमा उत्तरमा प्रभु ४९ छे , 'गोयमा !' हे गौतम ! છઠી પૃથ્વીનું નામ મઘા છે. અને તેનું ગોત્ર “તમપ્રભા" છે. કેમકે તેમાં અંધકારની પ્રભાનું વિશેષ પણું રહે છે. ‘सत्तमीणं भंते ! पुढवी ' ' भगवन् ! सातभी पृथ्वीनु शु नाम छ ? भने तेनु गोत्र शु छ १ तेना उत्तरमा प्रभु से छे हैं 'गोयमा ! गौतम સાતમી પૃથ્વીનું નામ “માઘવતી !” એ પ્રમાણે છે. અને તેનું ગોત્ર તમસ્તમ પ્રભા એ પ્રમાણેનું છે. કેમકે તેમાં ગાઢ અંધારાની વિશેષતા રહેલી છે. જેમ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ सू० १ नैरयिकजीवनिरूपणम् रयणा सक्कर वालुय पंका धूमा तमाय तमतमाय सहं पुढवीणं एए गोता मुणेयव्दा' ॥२॥ 'धर्मा वंश शैला अञ्जनारिष्टा मघा च माघवति । सप्तानां पृथिवीनामेतानि नामानि तु ज्ञातव्यानि ॥ १ ॥ रत्ना शर्करा बालुका पङ्का धूमा तसा च तमस्तमा । सप्तानां पृथिवीनानि गोत्राणि ज्ञातव्यानि ॥२॥ इतिच्छाया | सम्प्रति प्रति पृथिवी बाहुल्यदभिधातुमाह-' इमाणं संखे ! इत्यादि, 'इमाणं भंते ! इयं खलु भदन्त ! ' रयणप्पमा पुढवी' रत्नप्रभा पथमा नारक पृथिवी 'केवइया व हल्लेणं पन्नता' कियता वाढल्येन स्थौल्येन प्रज्ञप्तेति मनः, भगवा नाह - 'गोया' इत्यादि, 'गोवमा' हे गौतम | 'इमाणं रयणप्पभा पुढवी' इयं खल रत्नप्रभा पृथिवी 'असी उत्तरं जोषणसचसहस्सं बाहल्लेणं पन्नत्ता' अशीत्युत्तरं योजनशतसहस्रं वाहल्येन प्रज्ञप्ता - कथिता, अशीति योजनसहस्राधिकैकलक्षयोजनवरिमितं रत्नघमा पृथिव्याः स्थूलत्वमित्यर्थः । ' एवं एएणं है- 'बम्मा वंसा, सेला' इत्यादि । तात्पर्य यह है- धर्मा, वंशा, शेला, अञ्जना, रिष्टा, मघा एवं माघवती ये सात पृथिवियों के क्रमशः ७ सात नाम है, तथा रत्ना, शर्करा, बालुका, पङ्का, धूमा, तमा और तमस्तमा, ये हात पृथिवियों के मशः ७ सात गोत्र हैं । अब सूत्रकार हर एक पृथिवी का बाहुल्य-स्थूलता -‍ - मोटाइ कहते है- 'इमाणं भंते! रचणपभा पुढवी केवइया बाहल्लेणं पन्नत्ता' हे भद. न्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी कितनी मोटाइ वाली है ? उत्तर में भगवान् कहते हैं' 'असी उत्तर जोषण सवलहस्सं बाहल्लेण पन्नत्ता' हे गौतम! प्रथम पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है एवं धुं छे ! 'धम्मा वंखा खेला' इत्यादि भा गाथानु तात्पर्य मे छे धर्मा व ंशा, शैक्षा, भौंकना, रिष्टा, भधा, मने भाधवती, या सात पृथ्वीसोना उभशः सात नाभेो छे, तथा रत्ना, शङ्कुश, वालुआ, या, धूमा, अने तभा, અને તમસ્તમા આ સાત પૃથ્વીચેાના ક્રમશઃસાત ગેાત્ર છે. હવે સૂત્રકાર દરેક પૃથ્વીનુ બાહુલ્ય અધિકપણું, અર્થાત્ સ્થૂલપણાનું स्थन ४२. 'इमाणं भंते । रयणप्पभा पुढवी केवइया वाइल्लेणं' हे लभवन् मा રત્નપ્રભા પૃથ્વી કેટલી ત્રિસ્તાર વાળી કહેલી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'असीउत्तर जोयणखयसहस्से बाहल्लेणं पन्नता ' હૈ ગૌતમ ! પહેલી પૃથ્વીને વિસ્તાર એક લાખ એંસીહજાર ચેાજનના છે, ‘ä जी० २ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगम अभिलावेणं' एवं रत्नप्रभा बाहुल्याभिलापेन 'इमा गाहा' इयं गाथा-द्वितीयादि । तत्तत्पृथिवी बाहल्यप्रतिपादिका 'अणुगंतव्या' अनुगन्तव्या अनुसरणीया, तथाहि-'असीयं' इत्यादि, 'असीय' इति रत्नप्रभा पृथिव्या बाहल्यं सूत्र एव कथितम् १। द्वितीय शर्करापमा पृथिव्याः 'बत्तीस' इति द्वात्रिंशत्सहस्रयोजनाभ्यधिकशतसहसयोजनपरिमितं दाहल्यम् २ । ठतीय वालुकाममा पृथिव्याः 'अट्ठावीसं' इति-अष्टाविंशति सहस्त्रशेजनाभ्यधिकैकशतसहस्त्रयोजनपरिमितं बाहम्पम् ३ । 'वहेब' तथैव-तेनैव प्रकारेण चतुर्थ पङ्कममा पृथिव्याः 'वीसंच' इति विशति सहस्रयोजनाभ्यधिकशतसहस्रपरिमितं वाइल्यम् ४ । पञ्चम धूमप्रभा पृथिव्याः 'अट्ठारस' इति-अष्टादश सहस्रयोजनास्यधिकशत सहस्रयोजन परिमितं बाहल्यम् ५ । पष्ठतमः या पृथिव्याः 'सोलसगं' पोडशसहस्रथोजनाभ्यधिकशत सहस्त्रयोजनपरिमितं वाहल्या ६ । सप्तम तपस्तमा भभा पृथिव्याः 'अछुत्तरमेव हिहिमिया' अधस्तनाया अष्टसहस्रयोजनाभ्यधिकशत सहस्रयोजन परिमितं वाहल्यमस्तीति । एवं सर्दासां पृथिवीनां वाहल्यमवगन्तव्यमिति ॥१॥ एएणं अभिलावण' इसी तरह इस अभिलाप के अनुसार 'इमा गाहा अणुगंतव्चा इस गाथा का अनुगमन करना चाहिये-वह गाथा-इस प्रकार है-'असीयं बत्तीसं' इत्यादि इस गाथा का तात्पर्य ऐसा है-प्रथम पृथिबी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है दूसरी पृथिषी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की तीसरी पृथिवी की मोटाई एक लाख अठाईस हजार योजन की है चौथी पृथिवी की मोटाई एक लाख बीस हजार योजन सी है पांचही पृथिवी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजल की है छठी पृथिवी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन की है तथा लालबों पृथिवी की मोटाई एक लाख भाठ हजार योजन की है। झु० ॥१॥ एएणं अभिलावेणं' शत मा भलिसा५ प्रमाणे 'इमा गाहा अणुगंतव्वा' 24 गाथातु मनुगमन-मनुस२१३ ४२खें ने. ते गाथा मा प्रभारीनी छे. 'अस्रीय बत्तीस' त्याहि म गाथातुं तात्पर्य से छे है पडेली पृथ्वीना વિસ્તાર એક લાખ એંસી હજાર જોજન પર્યતા છે. બીજી પૃથ્વીને વિસ્તાર એકલાખ બત્રીસ હજાર જનો છે. ત્રીજી પૃથ્વીને વિસ્તાર એક લાખ અઠયાવીસ હજારયોજન છે જેથી પૃથ્વીનો વિસ્તાર એકલાખ વીસ હજાર જનને છે. પાંચમી પૃથ્વીને વિસ્તાર એક લાખ અઢાર હજાર એજનને છે. છઠી પૃથ્વીને વિસ્તાર એક લાખ સોળ હજાર એજનને છે. તથા સાતમી પૃથ્વીને વિસ્તાર એકલાખ આઠ હજાર જનો છે. સૂ ૧ | Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ खू.२ रत्नप्रभापृथिव्याः मेदनिरूपणम् ___मूलम्-इमाणं भंते ! रयणप्पना पुढवी कहाविहा पन्नत्ता, गोयमा तिविहा पन्नत्ता तं जहा-खरकडे एंकबहुले हंडे आवबहुलेकंडे इमीसे णं भंते! रयणप्पसा पुढनीए सरकंडे कविहे पन्नत्ते गोयमा! लोलसविहे पन्नले तं जहा-रयणकंडे बहरे २, रूलिए३, लोहियक्खकंडे ४, मसारणले ५, हलगभेद,पुलए७, लोगंधित जोतिरसे ९ अंजणे १० अंजणपुलए ११, रथाए१२, जायलदो १३, अंके १४, फलिहे१५, रिटेकंडे १६, इलीले णं संते ! स्यणप्पमाए पुढवीए रयणकंडे कविहे पणते गोयामा ! एमागारे पत्ते एवं जाव रिटे । इमीले र्ण भंते ! रयणप्पभा पुढवीर पंकबहुले कंडे कविहे पन्नत्ते ? गोयमा! एमागारे पन्नते । एवं आबबहुले कंडे कइ. विहे पन्नत्ते ? गोयमा! एगागारे पन्नत्ते । सञ्जरप्पमाणं भंते । पुढवी कइविहा पन्नत्ता ? गोयसा ! एगागारा पन्नता एवं जाव अहे सत्तमा ॥सू० २६ छाया-इयं खल्ल भदन्त ! रत्नममा पृथिवी कसिविधा प्रज्ञप्ता ? गौतम ! त्रिविधा मज्ञप्ता सधथा-खरकाण्डम् १, पशबहुलं काण्डम् २, अन्नहुलं काण्डम् ३, अस्यां खलु भदन्त ! रत्नम मापृथिव्यां खरकाण्ड कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! षोडशविध प्रज्ञप्तस् । तघधा-रत्नकाण्डम् १, बज्रम् २, वेड्यम् ३, लोहिताक्षम् ४, मसारगल्लम् ५, पगर्भम् ६, पुलकम् ७, लौगन्धिकहा, ८, ज्योतीरसम् ९, अञ्जनम् १०, प्रञ्जनपुलाकम् ११, रजतम् १२, जातरूपम् १३, अङ्कम् १४, स्फटिकम् १५, रिष्टंकाण्डम् १६, एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नलमा पृथिव्या रत्नकाण्ड कतिविध प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! एकाकारं घज्ञप्तम् । एवं यावद्रिष्टम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिव्यां पङ्कबहुलं काण्ड कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! एकाकारं प्रज्ञप्तम् । एवमबहुलं काण्ड कतिविधं पज्ञप्तम ? गौतम ! एकाकारं प्रज्ञप्तम् । शर्कराममा खलु भदन्त ! पृथिवी कतिविधा मज्ञप्ता? गौतम ! एकाकारा प्राप्ता एवं यावदधः सप्तमी ॥सू०२॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम । टीका-'ईमा णं भंते । इयं खलु भदन्त ! 'रयणप्पभा पुढवी' रत्नममा पृथिवी "कइविहा पन्नत्ता' कतिविधा-फतिप्रकारका प्रनप्ता-कवितेति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ३ गौतम ! 'तिविहा पन्नत्ता' त्रिविधात्रिपकारिका प्रज्ञप्ता-कथिता, प्रकारत्रयं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'खरकंडे' खरकाण्डम्-काण्ड नामविशिष्टो भूभागः खरं कठिनम् तया च कठिनो भूमागः खरकाण्डम् । 'पङ्कबहुले कंडे' पकबहुलं काण्ड द्वितीयम्, पङ्कस्य कर्दमस्य बहुलता-आधिक्यं विद्यते यत्र तादृशं काण्डं पङ्कबहुलं काण्डमिति । 'आवबहुळे कंडे' अब्बहुलं काण्डम् अपो जलस्य बाहुल्य माधिक्यं विद्यते यत्र तादृशं काण्डमबहुलं काण्डम् तत्तृतीयमिति, तदेवं खरकाण्ड पङ्कबहुलकाण्डा अब सूत्रकार रत्नप्रभा आदि पृथिवी सम्बन्धी भेदों के प्रकार पाहते हैं__ 'इमाणं भंते ! रयणप्पमा पुढवी का विहा पन्नत्ता'-इत्यादि। टोकार्थ-गौतम ने प्रभु से ऐला पूछा है-हमा णं भते ! रयणप्पभा पुढवी काविहा पन्नत्ता 'हे भदन्त | यह रत्नप्रभा पृथिवी कितने प्रकार की कही गई हैं ? उत्तर में प्रयु कहते हैं-'गोयमा! तिविहा पन्नत्ता' 'हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी तीन प्रज्ञा की कही गई है 'तं जहा' जैसे'खरकंडे' खरकाण्ड विशिष्ट भूभाग का नाम काण्ड हैं कठिन का नाम खर है तथाच-फठिन जो भूभाग है यह खरकाण्ड है 'पंक बहुले कंडे' इस काण्ड में पक-फीचड़-की बहुलता है इसलिये इस काण्ड का नाम 'पङ्क पहुसकाण्ड' ऐसा कहा है अबाहुले कंडे' इस काण्ड में पानी की अधिकता है इसलिये इसे आबहुलझाण्ड कहा है इस तरह खर * હવે સૂત્રકાર રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીઓના ભેદનું કથન કરે છે – 'इमाणं भंते रयणप्पभा पुढवी कइविहा पण्णत्ता' त्यादि -गौतमवामी प्रभुने मेवे प्रश्न पूछये। छे 'इमा णं भंते ! रयणसभा पुढवी कइविहा पण्णत्ता' 3 सगवन् मा २त्नप्रस पृथ्वी 21 २ नी ही छे १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ, 'गोयमा! तिविहा पण्णत्ता' 8. गीतमा २(नामा पृथ्वी र प्रारनी ४ही छे. 'तं जहा' त त्रय प्राश 'खरकंडे' भ२ is विशिष्ट भूभाग नाम छ, भने ४५यानु નામ પર છે. તેથી કઠણ એ જે ભૂસાગ–પૃથ્વીને પ્રદેશ હોય તે ખરકોડ डिपाय छे. 'पंकबहले कडे' २ मां य ह विशेषपदामा डाय तने અંક બહુલ કાંડ' કહે છે. તેથી આ કાંડનુંનામ પિંક બહુલ કાંડ એ પ્રમાણે बुछ.' 'आवबहुले कडे' २ मां पातुं अधिपाडाय ते ४isने Rangasis' ४ छे. मा शते १२मांड, uis, भने म gaisil. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ . २ रत्नापृथिव्याः मेदनिरूपणम् १३ बहुकाण्डभेदेन रत्नभा पृथिवी त्रिविधा भवतीति । 'इमीणं भंते' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणमा पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिव्यास् 'खरकंडे कइ विहे पन्नते' खरकाण्ड कतिविधं कतिप्रकारकं प्रज्ञप्तं कचितमिति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सोलसविहे पन्नत्ते' षोडशविधं पोडश प्रकारकं प्रज्ञप्तं कथम् ? षोडशविध मेदं दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा ' तद्यथा - 'रयणकंडे' रत्नकाण्डम्. रत्नानि - मर्कवादीनि तत्प्रधानं काण्डं रत्नकाण्ड प्रथमम् १ || 'वइरे' वज्रम् - काण्डपदस्य प्रत्येकस्मिन् अन्दयस्तेन वज्रकाण्डमित्यर्थः वज्रमिति हीरकम् वज्रप्रधानं काण्डं वज्रकाण्डं द्वितीयम् २ | 'देरुलिए' वैर्यकाण्ड बैड्ररत्नप्रधानकं काण्डं बैडूर्यकाण्डं तृतीयत् ३ । 'लोडियक्खे' लोहिताक्ष काण्डम् - कोहिताक्षरस्नप्रधानं काण्डं लोहिताक्षकाण्डं चतुर्थम् ४ 'मसारगल्ले' काण्ड, पङ्ककाण्ड, और अन्यहुलकाण्ड के भेद से रत्नप्रभा पृथिवी तीन प्रकार की होती है 'इमीसेर्ण भंते ! रथणपमा पुढवीए खरकंडे कवि पत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो खरकाण्ड है वह कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोपमा ! सोलसविहे पन्नन्ते' हे गौतम ! खरकाण्ड सोलह प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे - 'रयणकंडे' रत्नकाण्ड यह रत्नकण्ड मरकत आदि रश्नों की प्रधानता वाला है । 'वहरे' वज्र काण्ड काण्ड पदका प्रत्येक के सोध अन्यध है अतः यहां वज्र शब्द के साथ काण्ड शब्द का योग कर लेना चाहिये इस तरह वज्र काण्ड बज्र - हीरे का नाम है वज्र की प्रधा नतावाला काण्ड वज्रकाण्ड दुसरा काण्ड है। 'वेखलिए' वैडूर्य काण्ड - इस काण्ड में वैडूर्य रत्नों की प्रधानता है 'लोहियक्खकंडे' लोहिताक्ष काण्ड लेঃथी रत्नप्रलापृथ्वी त्रयु प्राश्नी थाय छे. 'इमीसे ण रयणप्पभापुढवीए खर कंडे कइविहे पन्नत्ते' हे भगवन् मा रत्नप्रभा पृथ्वीलो के भरड छे ते કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રશ્નનાં ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે 'गोमा ! सासविहे पण्णत्ते' हे गौतम! भरड सोज अमरनो डेस छे. 'तं जहा ' ते सो प्राश था असा छे. 'रयणकंडे' रत्नांड; या रत्नभंड भरत विगेरे रत्नानी प्रधानतावाणी छे, 'वइरे' वनखंड, अंडे पहने। हरेनी સાથે સ'મધ રહેલે છે. તેથી અહિયાં વજ્ર શબ્દની સાથે કાંડ શબ્દના ચેાગ કરવાથી વાકાંડ એ પ્રમાણે કહેવાય છે, વજા એ હીરાનુ નામ છે, વાની પ્રધાનતા વાળા પ્રદેશનુંનામ વા કાંડ કહેવાય છે. વજ્રકાંડ એ બીજે કાંડ છે, 'बेरुलिए' वैडूर्य ंशंड-या मंडभा वैडूर्य रत्नालु, प्रधानय रहेतु' छे, 'लोहिय Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्त्र मसारगल्लकाण्डं पश्चमम् ५, 'हंसगम्भे सगर्भ काण्डं पप्ठम् ६ । 'पुलए' पुलक काण्डम्, सप्तमम् ७ 'सोगंधिए' सौगन्धिक काण्डमष्टमम् ८ 'जोतिरसे' ज्योती___ रसकाण्डं नवमम् ९ 'अंजणे' अञ्जनकाण्ड दशमम १० "अंजणपुलए' बञ्जन पुलाक काण्डमे कादशम् ११ 'रयते' रजतकाण्डं द्वादशम् १२ 'जायरूथे' जातरूप काण्डं त्रयोदशम् १३ 'अंके' अङ्ककाण्डं चतुर्दशम् १४ 'फलिहे' स्फटिककाण्डं पञ्चदशम् १५ 'रिहे कंडे' रेिण्टरत्नकाण्डं पोडशम् १६ एतानि सर्वाणि स्वस्वना. मख्यातानि रत्नान्येब, तदेवत् पोडश प्रकार खरकाण्डं भवतीति । 'इमीसेणे इस काण्ड में लोहिताक्ष नाम के रत्नों की प्रधानता है 'मसारगल्छे' मसारल्ल काण्ड-इस काण्ड में बलार गल्लरत्नों की प्रधानता। 'हंसगठभे हंसरामकाण्ड-यह हलगर्भ रत्न की प्रधानता वाला उठवा काण्ड है 'पुलए' पुलमजण्ड यह लातयां काण्ड है 'सोगं. थिए' सौगन्धाकाण्ठ-यह आठवां काण्ड है 'जोतिरसे' ज्योतिरस. फाण्ड-यह नौषां काण्ड है अंजणे' अञ्जन काण्ड, यह दशवां काण्ड है 'अंजण पुलाए' अंजनपुलाककाण्ड यह ग्यारहवां काण्ड है 'रयए' रजतकाण्ड-यह बारहवां काण्ड है 'जायस्वे' जातरूप काण्ड यह तेरहवां काण्ड है 'अके' अङ्कमाण्ड-यह चौदहवां काण्ड है 'फलिहे' स्फटिककाण्ड-यह पन्द्रहवां काण्ड है और 'रिटे कंडे' रिष्टकाण्ड यह सोलहवां काण्ड है ये सब अपने नाम से प्रसिद्ध रत्न है । इस प्रकार क्खकडे' साहित'क्ष is A i हितार नामाना २त्नानु प्रधानपा रहेछ 'मसारगल्छे' भसा२REAxis-म! 13 Hi ससा रत्नानु प्रधान पाशु रहेछ. 'हसगन्भे' सगम - Biswi सन २त्तानु अधि પણું રહેલું છે. આ હંસગર્ભની પ્રધાનતા વાળા ઠા કાંડનું નામ છે. 'पुलए' gets is सातsis छे. 'सोगंधिए' मा सीमाधि ४ नामना मामी xis छे. 'जोतिरसे' नवभi sisनु नाम यातिरस ४is से प्रभा छे. 'अंजणे' A13 मा ४शमा xis छे. 'अंजण पुलर' मायामi sis नाम 'A ya' छे. 'रयए' मारमा xisiनाम '२०४४is, मे प्रभार तु छ. 'जायसवे' तेरमा उनुनाम त३५ मे प्रभाये छ. 'अंके' योहमा gisi नाम से प्रभानु छे 'फलिहे' ५४२मा उनु नाम. २३टिxis से प्रभारी छे. 'रिट्रे कंडे' सौभानु नाम २ि८is' से प्रभायेनु छे. આ સઘળા કાંઠે પિત પિત ના નામથી પ્રસિદ્ધ રને છે. આ રીતે આ ખર is से प्रारन छे.. Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3A प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ .२ रत्नप्रभापृथिव्याः भेदनिरूपणम् भंते' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभा पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिव्यास् ‘रयणकंडे' रत्नकाण्डम् 'कइविहे पन्नत्ते' कतिविधम्-कति पकारक प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्न भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोषमा' हे गौतम ! 'एगागारे पन्नत्ते' एकाकारं रत्नकाण्डं प्रज्ञप्तं कथितम् । 'एपं जाव रि?' एवं रत्नकाण्डवदेव यावद् वज्ररत्नादारभ्य रिष्टरत्नकाण्डपर्यन्तमपि एकाकारमेव भवति यावत्पदेन वज्रकाण्डादारभ्य स्फटिककाण्डपर्यन्तस्य संग्रहो भवति तथा च-सर्वयेव रत्नकाण्डादारभ्य रिष्टरत्नकाण्डपर्यन्त काण्ड मेकरकारमेव भवतीति भावः ॥१॥ 'इमीसे णं भंते ! पतस्यां खल्ल सदन्त ! 'रयणप्पमा पुढबीए' रत्नप्रभापृथिव्याम् 'पंकबहुले कंडे कइविहे पन्नत्त' एकवहुलं काण्डं फतिविधं कति प्रकारकं यज्ञप्तं कथितमिलि प्रश्नः, भगानाह-'गोयसा' इत्यादि, 'गोयला' से खरकाण्ड सोलह १६ प्रचार का है। 'हनीसेण भंते' हे भदन्त ! इस 'स्यणप्पभाए पुढीए' जत्नप्रभा पृथिवी में जो 'रघणकंडे' रत्नकाण्ड है वह 'काविहे पण्णत्ते' फितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! 'एगागारे पन्नत्ते' रस्नकाण्ड'एक प्रकार का ही कहा गयो है । 'एवं जाव रिटे' इसी प्रकार से यावत् रिष्टकाण्ड भी एक प्रकार का ही कहा गया है ऐसा जानना चाहिये यहां यावत्पद से 'वज्रकाण्ड से लेकर स्फटिककाण्ड-तक के चौदा १४ काण्डों का संग्रह हुआ है । तथा च-रत्नकाण्ड से लेकर रिष्टकाण्ड तक के समस्त ही काण्ड एक प्रकार के ही हैं । 'हमी से णं भंते !' हे भदन्त ! इस 'रयणप्पभा पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी में 'पंकबहुले कंडे कहविहे पन्नत्ते' जो दूसरा पक बहुलकाण्ड है-वह कितने प्रकार का कहा गया 'इमीसे णं भंते' 3 सावन मा 'रयणप्पभाए पुढवीए' २त्नप्रभा पृथ्वीमा २ 'रयण कंडे' २त्नis छे, ते 'कइविहे पण्णत्ते' 2 मारना । छे. मा प्रश्न उत्तरमा प्रमु । छ। 'गोंयमा!' 8 गौतम! 'एगागारे पन्नत्ते' '२रना से मारने १ ४डेस छ. 'एवं जाव रिटे' 20४ प्रमाणे यावत् रिटxis પણ એક જ પ્રકારને કહેલ છે. તેમ સમજવું અહિયાં યાત્પદથી વાકાંડથી લઈને ફટિકકાંડ સુધીના ચૌદ ૧૪ કાંડેને સંગ્રહ થયો છે. તથા રત્નકાંડથી न Pिoexis सुधाना सा xisी मे४०४ ५४२॥ छे. 'इमीसे णं भंसे है भगवन् 'रयणप्पभा पुढवीए' २त्नप्रभा थीमा 'पंकवहुले कडे कइविहे पण्णत्त' બીજે જે પંક બહુલકાંડ છે. તે કેટલા પ્રકારને કહ્યો છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु ४३ छे , 'गोयमा ! गौतम ५ मgasis 'एगागारे पण्णत्ते' मे Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F ast जीवाभिगमसूत्रे हे गौतम ! 'एगागारे पन्नत्ते' एकाकारमेक यकारकमेव पदबहुलं काण्डं मज्ञप्तं कथितमिति । 'एवं आवबहुले कंडे' एवं हे सहन्न । एतस्यां रत्नप्रमाप्रथिव्या मबहुलं काण्डम् 'काविहे पन्नत्ते' रूतिविधं कतिपकारकं प्रज्ञातं करितमिति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'योयमा' हे गौतम ! 'एगागारे पन्नत्ते' एकाकारम्-एकमकारकमेव अनहुलं काण्डं प्राप्त कधिमिति । 'सक करपरमाणं भंते ! पुढी' शर्कराममा खल्लु मदन्त ! पृथिवी करिहा पन्मत्ता' फरिविधाकतिप्रकारका प्रज्ञप्ता-कथितेति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'एगा. गारा पन्नत्ता' शर्करामभा पृथिवी एकामाग-एकप्रकारिका प्रज्ञप्ता-कवितेति । 'एवं जाव अई सत्तमा' एवं शरामभावदेव याद वाटका-प-धृत-उमः प्रभा पृथिवी, तथाऽधः सप्तम्यपि एकाकारा ज्ञातव्याःर्वत्र प्रश्नः उत्तरश्च स्वयमेवोहनीयम् तपाहि-वालुकाप्रभा खलु भदन्त ! पृथिवी कनिमकारका है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोय!' हे गौतम ! पंकबहकाण्ड 'एगागारे पत्नत्ते' एक प्रकार का ही कहा गया है। एवं अव्याहळे कंडे' इसी प्रकार से हे गौतम ! जो रत्नप्रभा पृथिवी में अव्यहुलकाण्ड है वह भी 'एगागारे पन्नत्ते' एक प्रकार का ही कहा गया है 'सकरपाभाणं पुढवी फहविहा पन्नत्ता' हे भदन्त ! जो शर्कराप्रभा पृथिवी है वह कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है-गोयमा ! 'एगागारा पन्नत्ता' हे गौतम! शर्कराप्रभा पृथिवी एक प्रकार की ही कही गई है। 'एवं जाव अहे लत्तला' इसी प्रकार से यावत् बालुकामभा, पङ्कप्रभा तमाप्रभा पृषियी और अधः सप्तमी पृथिवी भी एक प्रकार की ही कही गई है। यहां स्वर्वत्र प्रश्न और उत्तर स्वयं उद्नाक्षित करलेना चाहिये, जैसे-वालकाप्रभा पृथिवी हे अदन्त ! कितने प्रकार की कही गई है? हे गौतम । चालु साप्रभा पृथिधी एक प्रकार की कही गई है। आरनार ४९३ छे. 'सकरप्पभाण पुढरी फइविहा पण्णत्ता' 3 बान ।। પ્રભા પૃથ્વી કેટલા પ્રકારની કહી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ स्वाभान है 'गोयमा। एगागारा पण्णत्ता' गौतम ! शशमा पृथ्वी मे २नी ही छ. 'एवं जाव अहे सत्तमा' मा प्रभाये यावत्यु પૃથ્વી, પંક પ્રભા પૃથ્વી અને અધઃ સપ્તમી પૃથ્વી પણ એક જ પ્રકારની કહી છે. અહિયાં તેના સંબંધમાં પ્રશ્ન અને ઉત્તર વાકયે સ્વયં સમજી લેવા. જેમકે હે ભગવન વાલુકા પ્રમા પૃથ્વી કેટલા પ્રકારની કહી છે? હે ગૌતમ! વાલુકાકક્ષા પૃથ્વી એક પ્રકારની જ કહી છે. ફરીથી ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે કે હે Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ . ३ प्रतिपृथिव्याः नरकावास संख्या निरूपणम् १७ प्रज्ञप्ता ? गौतम ! एकाकारा एकप्रकारका प्रज्ञप्ता, पङ्कप्रभा खल भदन्त ! पृथिवी कतिप्रकारा प्रज्ञप्ता ? गौतम ! एकाकारा - एकमकारा प्रज्ञप्ता इत्यादि रूपेण यावद् अधः सप्तम्यां प्रश्न मुत्तरञ्च स्वयमेत्र निर्माय विज्ञातव्यमिति ॥२॥ सम्प्रति प्रतिपृथिवी नरकावास संख्या प्रतिपादनायाऽद 'इमीसेन' इत्यादि, मूळम- इमीले णं अंते ! रयणप्पभा पुढवीए केवइया निरयावासलय सहस्सा पन्नता ? गोयमा ! तीसं निरयावास - सयसहस्सा पन्नता ? एवं एषणं अभिलावेणं सव्वासिं पुच्छा, इमा गाहा अणुगंतव्वा तीसा य पणवीसा पण्णरस दसेव, तिण्णि य हवंति । पंचूण लयहरूसं पंचेन अणुत्तरा परगा ॥१॥ जाव आहे समाए पंच अणुत्तरा महइमहालया महारंगा पन्नत्ता तं जहा - काले १, महाकाले२, रोरुए३, महारोरुए४, अपट्टा५ । अस्थि णं भंते! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे घणोदहीति वा घणवाएइ वा तणुवाई वा ओवासंतरेइ वा ? हंता अस्थि एवं जाव अहे सत्तमाए ॥सू० ३ ॥ छाया - एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां कियन्ति निरवावासशतसहस्राणि मज्ञतानि ? गौतम ! त्रिशन्निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । एव तेनाभिलापेन सर्वासां पृच्छा, इमा गाथा अनुगन्तव्या त्रिंशच्च पञ्चविंशतिः पञ्चदश दशैव, त्रयश्च भवन्ति । पञ्चोनशतसहस्रं पञ्चैवानुत्तरा नरकाः ||१|| यावदधः सप्तम्यां पञ्चानुत्तरा महन्महाळया महानरका ः मज्ञप्ताः, तद्यथापङ्कप्रभा पृथिवी हे भदन्त ! कितने प्रकार की कही गई है ? हे गौतम ! पङ्कप्रभा पृथिवी एक प्रकार की ही कही गई है । इत्यादि रूप से यात् अधः सप्तमी पृथिवी तक स्वयं ही प्रश्न कर के उसका उत्तर कर लेना चाहिये | ० २॥ ભગવાન્ પંક પ્રભા પૃથ્વી કેટલા પ્રકારની કહી છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હું ગૌતમ! પ'કપ્રસા પૃથ્વી એક પ્રકારનીજ કહી છે. ઇત્યાદિ પ્રકારથી યાવત્ અધઃસપ્તમી પૃથ્વી સુધી પાતેજ પ્રશ્ન કરીને તેના ઉત્તર સમજી देवे। लेभे ॥ सू.२ ॥ जी० ३ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस कालो १ महाकालो २ रौरवो ३ महारौरवो ४ ऽमतिष्ठान: ५ अस्ति खलु भदन्त ! एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधो घनोदधीति वा, घनवात इति वा, तनुवात इति वा अवकाशान्तरमिति वा ? हन्त, अस्ति । एवं यावद्धः सप्तम्या: ॥३॥ टीका-'इमीसे णं भंते' एतस्यां खलु भदन्त ! 'ररणप्पमाए पुढवीए' रत्नप्रभायां नारक पृथिव्याम् 'केवाया' कियन्ति कियरख्यकानि निरयावास. सयसहस्सा पन्नत्ता' निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तीसं नीरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता' विशन्निरयावा सशतसहस्राणि प्राप्तानि, सनप्रमापृथिव्यां त्रिशल्लक्षपरिसिता नैरयिकावासा भवन्तीत्यर्थः एवं एएणं अभिलावेण एवमेतेनाभिलापेन 'सव्वासि पुच्छा' सर्वासां नारक.पृथिवीनी पृछा, सर्वा एव अब सूमकार प्रत्येक पृथिवी में जितने नरकावास है उनकी संख्या प्रकट करते है 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढदीए'-इत्यादि । टीकार्थ-गौतम । ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'इमीसे गं भंते !'हे भदन्त ! इस 'रयणप्पभा पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी में 'केवड्या निररया वाससयसहस्सा पन्नत्ता' कितने लाख नरकावास कहे गये हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! तीसं निरयावाससपसहस्सा पभत्ता' हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में तीस लाख नरकावास कहे गये हैं। 'एवं एएणं अभिलावेणं सव्वेसिं पुच्छा' यहां 'जाव अहे सत्त. माए' इस आगे आनेवाले पदका यहां संबंध है। इसी प्रकार से शराप्रभा पृथिवी से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्त समस्त पृथि હવે સૂત્રકાર પ્રત્યેક પૃથ્વીમાં જેટલા નરકાવાસે છે. તેની સંખ્યા प्रमट ४२ छ, 'इमीसे णं भंते रयणप्पभाए पुढवीए' त्यहि ___Ai-गीतभस्वामी प्रभुने भनु पछे छे । 'इसीसे णं भंते !' भगवन् मा 'रयणप्पभा पुढवीए' २त्नप्रमा पृथ्वीमा 'केवळइया निरयावाससयसहस्सा पमत्ता' કેટલા લાખ નરકાવાસે કહેવામાં આવ્યા છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગોતમ स्वामीन डे छे 'गोयमा ! तीस निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता' हे गौतम! मा २त्नमा पृथ्वीमा श्रीस म ना२४वासे ४ा छ. 'एवं एएण अभिछावेणं सव्वेसि' पुच्छा' अडिया 'जाव अहे सचमाए' मा भागना पहाना અહિયા સંબંધ છે. એ રીતે શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીથી લઈને અાસપ્તમી પૃથ્વી Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ १.३ प्रतिपृथिव्याः नरकावाससंख्यानिरूपणम् ए नारक पृथिवीरधिकृत्य नारकवासविषयका प्रश्नः यथा-'मीसे णं भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए केवइया निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता' एतस्यां खलु भदन्त ! शर्कराप्रभा पृथिव्यां कियन्ति निरयावासशतसहस्राणि महप्तानि एवमेव बालुकापमा पङ्कममा धूमप्रभा तमा तमस्तमा पृथिव्यामपि प्रश्न: उन्नेतन्यः उत्तरश्च सर्वत्र वक्ष्यमाणगाथानुसारेण कर्तव्यम् अतएवाह-हमा गाहा अणुगंतव्वा' इयं गाथा अनुगन्तव्या 'जाच अहे सत्तमाए' इत्यग्रेग संबन्धः, एषा पृच्छा शकरामभात अरभ्य अधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्तं कर्तव्येति भावः तथाहि-गाथा-'तीसाय' इत्यादि, 'तीसाय पण्णवीसा' त्रिंशव पञ्चविंशतिः 'पण्णरसदसेव' पञ्चदश दशेव' वियों के सम्बन्ध में प्रश्न करना चाहिये-अर्थात्-रत्नप्रभा पृथिवी में जिस प्रकार से नरकावासों के होने का प्रश्न किया गया है-वैसा ही शर्करा आदि पृथिवियों में कितने लाख नरकावास कहे गये हैं-ऐसा प्रश्न करना चाहिये-तथाहि-'हमीसेणं भंते सक्करप्पभाए पुढवीए केवइया निरयावासलयलहला पन्नत्ता' हे भदन्त ! इस शर्कराप्रभा पृथिवी में कितने लाख नरकावास कहे गये है ? इसी प्रकार से घालुका प्रभा में, पङ्कप्रभा में धूमप्रभा में, तमःप्रभा में और अधः सप्तमी तमस्तमाप्रभा पृथिवी में भी कितने २, लाख नरकाबास कहे गये हैं ? ऐसा प्रश्न करना चाहिये-और इस प्रश्न का उत्तर इस गाथा के अनुसार कहना चाहिये-वह गाथा ऐली है-'तीलाय' इत्यादि । इस गाथा के अनुसार प्रथल पृथिवी तील लाख मरकावास, द्वितीय पृथिवी में पचीसलाख नरकापास है तृतीय पृथिवीमें-बालकाપર્યન્ત સઘળી પૃથ્વીના સંબંધમાં પ્રશ્ન કરવો જોઈએ. અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં જે પ્રમાણે નરકાવાસે હોવાના સંબંધમાં પ્રશ્ન કર્યો છે, એ જ પ્રમાણે ને પ્રશ્ન શર્કરા પ્રભા વિગેરે પૃથ્વીઓમાં કેટલા લાખ નરકાવાસે કહ્યા છે? मा शतना प्रश्न ४२ नये. मे ४ छे 'इमीसेणं भते । सक्करप्पभाएं पढवीए केवइया निरयावाससयसहस्वा पण्णत्ता' 3 सावन मा शशमला પૂવીમાં કેટલા લાખ નરકાવાસો કહેવામાં આવ્યા છે ? આજ રીતે વાલુકાપ્રભામાં. પંક પ્રભામાં, ધુમપ્રભામાં, તમ પ્રભામાં, અને અધ સપ્તમી તમતમા પ્રભા પૃથ્વીમાં કેટલા કેટલા લાખ નરકાવાસે કહેલા છે ? આ પ્રમાણેને પ્રશ્ન કરવો જોઈએ અને આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આ નીચે આપવામાં આવેલ ગાથા प्रमाणे ४ न. a गाथा मा प्रमानी छे. 'तीसाय' त्याडि આ ગાથામાં કહ્યા પ્રમાણે પહેલી પૃથ્વીમાં ત્રીસ લાખ નરકાવાસ છે. બીજી પૃથ્વીમાં પચ્ચીસ લાખ નરકાવાસે છે. ત્રીજી પૃથ્વીમાં એટલે કે વાલુકા Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्टे 'तिण्णिय हवंति' त्रयो भवन्ति 'पंचूणसयसहस्स' पञ्चोनशतसहस्रम् 'पंचेव अणुत्तरा णरगा' पञ्चैवानुत्तरा नरकाः, तथाहि-रत्नप्रभायां त्रिंथच्छतसहस्राणि नरकावासाः १। शर्करामभायाम् पञ्चविंशतिः शत सहस्राणि नारकावासाः २। वालकाममायां पञ्चदशशतसहस्राणि नरकावासाः । पङ्कममायां दशशतसहस्राणि नारकावासः ४ धूमप्रभायां त्रीणिशत सहस्राणि नारकावासा भवन्ति ५ तमः प्रभायां पश्चोनमेकं शतसहस्रं निरयावासा भवन्ति ६ अनुत्तरा नरकाः पञ्चैव भवन्ति । तत्राधः सप्तम्यां पृथिव्यां पञ्च अनुत्तरा नरकाः महानरकाः सन्ति, इति गाथार्थः 'जाव अहे सत्तमाए' यावदधः सप्तम्याम् यावत्पदेन शर्करामभायां बालुकाप्रभायां, पङ्कप्रभायां धूममायां, तमःमभायाम, अधः सप्तम्यां, तमस्तमः प्रभायां पूर्वोक्तगाथानुसारेण नरकावासा विज्ञेयाः। अत्राधासप्तम्यां नारकपृथिव्याम्, 'पंच अणुत्तरा महामहालया महाणरगा पन्नत्ता' पञ्चानुत्तरा महमहालया महानरकाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा 'काले' कालनामकः प्रथमः 'महाकाले' महाकालनामको द्वितीयः, 'रोरुए' रौरव:-रौरव नामक स्तृतीयः, 'महारोरुए' महारौरव चतुर्थः 'अप्पाहाणे' अमतिष्ठान नामका प्रभा में पन्द्रहलाख नरकावास हैं चतुर्थ पङ्कमभा पृथिवी में दशलाख नरकावाप्त हैं । पंचमी पृथिवी-धूमप्रभा पृथिवी में तीनलाख नरकावास हैं । छठी-तम-प्रभा पृथिवी में पांच न्यून एकलाख नरकावास हैं। सातवीं-पृथिवी में-अधः सप्तम पृथिवी में अनुत्तर नरक पांच ही होते हैं । 'जाव अहे सत्तमाए' यावत् अधः लप्तत्री पृथिवी में पांच अनुत्तर महानरकावास कहे गये है। ये पांच अनुत्तर नरकावास बहुत ही अधिक विस्तारवाले हैं-इनके नाम इस प्रकार से हैं-'काले १ काल, 'महाकाछे २ महाकाल, 'रोरुए' रौरव ३, 'महारोरुए' ४ महारौरव और पांचवां 'अप्पतिवाणे' अप्रतिष्ठान ये पांच अनुत्तर महानरकाबास सातवीं पृथिवी में होते हैं। अधस्तन पृथिवी પ્રભા પૃથ્વીમાં પંદર લાખ નરકવાસો છે, પાચમી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રણ લાખ નરકવાસે છે. છછી તમઃ પ્રભા નામની પૃથવીમાં પાચ કમ એકલાખ નરકવાસે छ. सातमी असतभी पृथ्वीमा पाय अनुत्त२ नवासे छे, 'जाव 'अहेसत्तमाए' यावत् अथः सप्तमी पृथ्वीमा पांय मनुत्तर महा न२वास કહેલા છે. આ પાંચ અનુત્તર નષ્કાવાસે ઘણું વધારે વિસ્તાર વાળા છે. તેના नाभा मा प्रभारी थे. 'काले' 10 १. 'महाकाले' भडाण, २, 'रोहए' शै२५ 3, 'महारोरूए' भडारी२४, भने पायभु 'अप्पतिठाणे' अप्रतिष्ठान ५, मा પાચ અનુત્તર મહાનરકાવાસ સાતમી પૃથ્વીમા હોય છે. અધતન પૃથ્વીમાં Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका ग्रं. ३ . ३ प्रतिपृथिव्याः नरकावास संख्या निरूपणम् २१ पञ्चमः ५। ते एते महानरकाः तमस्वमासिधावामधः सप्तम्यां पृथिव्यां ज्ञातव्याः । तत्र अधः सप्तम्यां पृथिव्यां ये कालादयो महानरकाः सन्ति तेषामप्रतिष्ठाननामक महानरको मध्ये वर्त्तते तस्य चतुर्दिक्षु अन्ये चत्वारो महानरकाः पूर्वादिदिक क्रमेण भवन्ति । उक्तञ्च 'yoवेण होइ कालो अवरेणं अप्पर महाकालो | रुद्राणि पासे उत्तरपासे महारोरू' ॥१॥ ――― छाया -- पूर्वेण भवति कालोऽपरेणापतिष्ठस्य महाकालः । रौरवो दक्षिणपार्श्वे उत्तरपार्श्वे महारौरवः ॥ १॥ इतिच्छाया ॥ अस्या अर्थः- अप्रविष्ठाननामक महानरकस्य तमस्वमा संबन्धिनः पूर्वभागे काल नामको महानरकः, तथा अप्रतिष्ठानस्य पश्चिममागे महाकालनामको महानरको भवति दक्षिणपार्श्वे रौरवः, उत्तरपार्श्वे महारौवनामको महानरकः । सम्मति - प्रति पृथिवी घनोदध्यादीमस्तित्व प्रतिपादनार्थमाह- 'अस्थिपं भंते' इत्यादि, 'अस्थि णं भंते' अस्ति खलु मदन्त ! 'इमी से रयणप्पभाए पुढवीए' में जो काल आदि महानरकावास हैं वे अप्रतिष्ठान नामक महानरक के पूर्व आदि दिशाओं में हैं - तदुक्त 'पुवेण होइ कालो अवरेणं अध्यइड महाकालो । रोरु दाहिणपासे उत्तरपासे महारोरू ॥१॥ अप्रतिष्ठान नाम के महानरक की पूर्व दिशा में काल नाम नरका वास है । पश्चिम दिशा में महाकाल नामका नरकावास है । दक्षिणदिशा में रौरव नामका नरकावास है और उत्तर दिशा में महारौरव नामका नरकावास है ॥ १ ॥ अब सूत्रकार प्रत्येक पृथिवी में घनोदधि आदि के अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं - इस में गौतम ने प्रभुश्री से ऐस पूछा है-'अस्थि णं કાળ વિગેરે જે મહાનરકાવાસો છે. તે અપ્રતિષ્ઠાન નામના મહાનરકની પૂ વિગેરે દિશાઆમાં છે તેજ કહ્યું છે 'पुव्वेण होई कालो, अवरेणं रोरू दाहिणपासे, उत्तरपासे પ્રતિષ્ઠાન નામના મહાનરકની પૂર્વ દિશામાં કાળ નામના નરકાવાસ છે. પશ્ચિમદિશામાં મહાકાળ નામના નરકાવાસ છે. દક્ષિણ દિશામાંૌરવ નામના નરકાવાસ છે. અને ઉત્તર દ્વિશામાં મહારૌરવ નામના નરકાવાસ છે. ।।૧। अप्पट्टमहाकालो । महारोरू ॥ १ ॥ હવે સૂત્રકાર દરેક પૃથ્વીમાં ધનાઢધિ વિગેરેના અસ્તિત્વનું' પ્રતિપાદન रे छे. सभां गौतम स्वामी अलुने मे' पूछे छे 'अस्थि णं भंते ! इमीसे Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीयाभिगमस्ते एतस्या रत्नप्रमाया पृथिव्याः 'अहे' अधा-अधोभागे घणोदही वा' घनोदधिरिति वा घन:-कठिनीभूत उदधिा-उदक समूह इति घनोदधिः सकिमेतस्याः प्रत्यक्षा उपलभ्यमानाया रत्नप्रभायाः पृथिव्या अधोभागे विद्यते किम् ? 'घणवा. एइ वा' घनबात इति वा, घनः पिण्डीभृतो वायुरिति घनवातः स चास्याधो विद्यते किम् ? 'तणुवाएइ वा तनु वात इति वा 'ओबासंतरेइ वा' अवकाशान्तरमिति अवकाशान्तरं शुद्धं गगनं तदस्या अधो-विद्यते किमिति प्रश्नः भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'हंता अत्थि' हन्त अस्ति हे गौतम ! रत्नपभाया अबोभागे घनोदधिरप्यस्ति धनवातोऽपि विद्यते तनुवातोऽपि विद्यते अवकाशान्तरमपि विद्यते एवेति भावः । 'एवं जाव आहे सतमाए' एवं रत्नप्रमाया अधोमागे यथा घनोदधि प्रभृतयः सन्ति तथैव यावच्छ राप्रभा वालुकाप्रमा, भंते ! इमीसे रयणप्पभाए-पुढवीए अहे घणोदहीदवा घणवाए। वा तणुवाएइ वा-ओवासंतरेह वा ? ॥ हे मदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के अधोभाग में धनोदधि, है क्या? घनवात है क्या? तनुवात है-क्या ? अवकाशान्तर शुद्ध आकाश-है क्या ? कठीन भूत उदक का नाम घनोदधि है पिण्डी भूत वायु का नाम घनवात है। इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री.कहते है-'गोयमा ! हंता, अस्थि' हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के अधोभाग में घनोदधि भी है। घनवात भी है। तनुवात भी है और अवकाशान्तर-शुद्ध आकाश-भी है एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी प्रकार का-घनोदधि आदि के अस्तित्व का कथन 'पापत् तमस्तमः प्रभा पृथिवी के अधोभाग तक में जान लेना चाहिये। यास्पद से रत्नप्रभा के अधोभाग में घनोदधि आदि का सद्भाव प्रकट किया है उसी प्रकार से शराप्रभा के अधोभाग में बालुका प्रभा के रयणप्पमाए पुढवीए अहे धगोदहोइवा, घणवाएइवा, तणुवाएइवा, ओवासंतरेइवा' लगवन् मा २नमा पृथ्वीना नायना सागमा धनाधा छ શું ? ઘનવાત છે શું ? તનુવાત છે ? અવકાશાતર શુદ્ધ આકાશ છે? કઠણ બનેલા પાણીનું નામ ઘોદધિ છે. પિંડાકાર થયેલ વાયુનું નામ ઘનવાત છે. मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४३ छे , 'गोयमा! हंता अत्थि' है गीतम! मा રતનપ્રભા પૃથ્વીની નીચેના ભાગમાં ઘોદધિપણુ છે, ઘનવાત પણ છે તનુવાત पछे, अन अशान्त२ शुद्ध माश५ छ. 'एवं जाव अहे सतमाए' ઘને દવિ વિગેરેના અસ્તિત્વનું કથન યાવત્ તમસ્તમાં પ્રભા પૃના નીચેના ભાગ સુધીમાં સમજવું. અહિયાં ભાવપદથી રતનપ્રમ પૃથ્વીને નીચેના ભાગમાં ઘને દષિ વિગેરેને સદૂભાવ પ્રગટ કરેલ છે એજ રીતે શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.४ खरकाण्डादि धनोदध्यादेहिल्यम पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा तमस्तमःममा पृथिवीनामधो मागेऽपि घनोदध्यादयः सन्त्येवेति भावः ॥सू०३॥ पृथिवीगत खरकाण्डादीनां, शेषकाकार शर्कराप्रभादि षट् पृथिवीगत घनोदध्यादीनां च बाहल्यं प्रतिपादयन्नाह -'इमीसे णं भंते' इत्यादि, . मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा! सोलल जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते ॥ इमाले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा! एकं जोयणसहस्स बाहल्लेणं पन्नत्ते । एवं जाव रिट्रे। इसीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए पंकबहुले कंडे केवइयं वाहल्लेणं पन्नत्ते? गोयमा ! चउरालीइ जोयणसहस्लाइं बाहल्लेणं पन्नत्ते? इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए आवबहुले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते, गोयमा! असीइ जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदही केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा ! वीसं जोयणसहस्लाई बाहल्लेणं पन्नत्ते। इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए केवइयं बाहल्लेणं पन्नते ? गोयमा! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते । एवं तणुवाए वि ओवासंतरे वि। सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोदही केवइयं अधोभाग में, पङ्कप्रभा के अधोभाग में धूमप्रभा के अधोभाग में तमःप्रभा के अधोभाग में और तमस्तमः प्रभा पृथिवी के अधोभाग में भी इनका सदभाव है सू० ॥३॥ નીચેના ભાગમાં, વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ભાગમ, પંકપ્રભા પૃથ્વીના નીચેનાભાગમાં, ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ભાગમાં, તમઃપ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ભાગમાં, અને તમસ્તમાં પ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ભાગમાં પણ ઘનેદધિ વિગેરે । सइमा समाव. ॥ सू. 3 ॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामि गम सूत्रे बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा ! वीसं जोयणसहरुलाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । सक्करप्पभाए घणवाए केवइयं वाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते । एवं तणुवाए वि ओवासंतरे त्रि । जहा सक्करपभाए पुढवीए एवं जाव अहे सत्ताए ॥ सू० ४ ॥ २४ छाया - एतस्याः खलु भदन्त | रत्नप्रभायाः पृथिव्याः खरकाण्डं कियद बाहल्येन प्रज्ञतम् ? गौतम ! पोडश योजन सहस्राणि बाहल्येन मनप्तम् । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः रत्नकाण्ड कियद् बाल्येन मज्ञप्तम् ? गौतम ! एकं योजनसहस्रं वाहल्येन प्रज्ञप्तम् एवं यावदिष्टम् । एतस्याः खल मदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पङ्क - बहुलं काण्ड किय बाहल्येन मज्ञप्तम् ? गौतम ! चतुरशीति योजनसहस्राणि बाहल्येन मम्रप्वम् । एतस्याः खल भदन्त ! रत्नमभायाः पृथिव्याः अलकाण्डं कियद् बाहल्येन मज्ञप्तम् १ गौतम | अशीतियोजन सहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्तम् । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः घनोदधिः कियान् वाहव्येन मचप्तः ? गौतम ! विंशतिर्योजन सहस्राणि वाइल्येन प्रज्ञप्तः । एतस्याः खल भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्शः घनवातः क्रियान् वाल्येन प्रज्ञप्तः ? गौतम ! असंख्येयानि योजन सहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्तः । एवं तनुत्रावोऽपि, अवकाशान्तरमपि । शर्करामसायाः खलु भदन्त | पृथिव्या घनोदधिः कियान वाइल्येन प्रज्ञप्तः ? गौतम ! विंशतिर्योजन सहस्राणि बाहल्येन प्रज्ञप्तः। शर्करामभायाः खलु मदन्त ! पृथिव्याः बनवाः क्रियान् वहल्येन प्रज्ञप्तः ? गौतम ! असंख्येयानि योजन सरस्राणि वाइल्येन मनः । एवं तनुवातोऽपि, अवकाशान्तरमपि । यथा- शर्कराममायाः पृथिव्याः, एवं यावदधः सप्तम्याः ॥ ४ ॥ अब सूत्रकार रत्नप्रभा पृथिवी के खरकाण्ड आदि का तथा पांकी की एकाकार शर्करा प्रभा आदि छह पृथिवियों में रहे हुए घनोदधि आदि का बाहल्य- मोटपना कहते हैं 'इमी से णं भंते ! रयप्पभाए पुढवीए खरकंडे' इत्यादि હવે સૂત્રકાર રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ખરકાંડ વિગેરેનું તથા બાકીની એકાકાર શર્કરાપ્રભા પૃથ્વી વિગેરે છ પૃથ્વીયેામાં રહેલા ઘનેદધિ વિગેરેનુ ખાતુલ્ય અર્થાત્ વિસ્તારનું કથન કરે છે, 'इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए ख़रकंडे' इत्याहि Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.४ खरकाण्डादि घनोदध्यादेर्वाहल्यम् २५ - टीका-'इभीसे गं भंते !' एतस्याः प्रत्यक्षत उपल-पमानायाः खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढबीए' रत्नम मायाः पृथिव्याः सम्बन्धि त्रिषु काण्डेषु प्रथमं यत 'खरकंडे' खरकाण्डं तत् 'केवइयं कियत् 'बाहल्लेणं पन्नत्ते' वाहस्पेन स्थौल्येन पक्षप्तम् कियद्वाहल्यं-खरकाण्डामिति प्रश्न: भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'सोलस जोयण सहस्साई' षोडश योजनसहस्राणि 'बाहल्लेणं' पणते' वाइल्येन प्रज्ञप्तम् रत्नपमा सम्बन्धि खरकाण्ड' पोड योजनसहस्रवाहल्येन युक्तं भवतीति भावः 'इमीसेणं भवे' एतस्या खलु सदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नपभाशाः पृथिव्याः षोडशविध खरकाण्ड सम्बन्धि प्रथमं यत् 'रयणकंडे' रत्नकाण्ड तत् 'केवयं कियत् 'बाहललेणं पन्नत्ते' वाहल्पेन प्रज्ञप्तम् इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! एक्कं जोयणसहस्सं' एकं योजनसहस्रम् 'बाहल्लेगं पणत्ते' वाइल्येन प्रज्ञप्तम्-कथितमिति ? 'एवं टीकार्थ-इसमें गौतम ने प्रभुश्रीले ऐसा पूछा है हे भदन्त ! 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे' हल रत्नप्रभा पृथिवी के तीन काण्डो में से पहला जो खरकाण्ड है वह 'केवयं पाहल्लेणं पन्नत्ते' कितनी मोटाई वाला है? उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयना !' हे गौतम । रत्नप्रभा पृथिवी का जो खरकाण्ड है वह सोलह हजार योजन की मोटाईवाला है 'इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे केवयं पाहल्लेणं पन्नत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो खरकाण्ड सोलह प्रकार का कहा है उल का पहला मेद जो रत्न काण्ड है वह कितनी मोटाई वाला है ? उत्ता प्रसुश्री कहते हैं-'गोषमा! एक्कं. जोयणसहस्सं' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी का जो रत्नकाण्ड है वह ટીકાળું—આ સૂત્ર દ્વારા ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવું પૂછે છે કે હે ભગવન 'इमीसे रयणप्पभाए पुढबोए खरकंडे' मा २त्नमा पृथीना व is पछी पहेस रे म२४ छे, ते 'केवइय बाहल्लेणं पन्नत्ते' हैं। विस्तार हो छ ? । प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतम. २॥भान ४ छ , 'गोयमा!' 3 गीत ! રત્નપ્રભા પૃથ્વીનો જે પ્રકાંડ છે, તે સોળ હજાર એજનના વિસ્તાર पाणी यो छ. शथी गौतम स्वामी प्रभुने पूछे छे । 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते' में भगवन् मा २रनामा પૃથ્વીને જે ખરકાંડ છે, તે કેટલી મોટાઈ (વિસ્તાર) જાડાઈ વાળે કહ્યો છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु हे छ ? 'गोयमा! एक्क जोयणसहस्स" है गीतम! રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે રત્નકાંડ છે, તે એક હજાર એજનની જાડાઈ-વિરતારવાળો जी०४ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीयामिगमको जाब रिटे' एवं यावद्विष्ट काण्ड, अत्र यावत्पन, वन २ बंडूर्य ३ रोहिताशा, मसारगल्ल ५ इंगम ६ पुलक ७ सौगन्धिक ८ ज्योतीरसांचनपुलक १० रजत ११ जावस्याङ्क १२ १३ स्परिकान्न १४ जाण्डानां संग्रहो भवति, तयार यथा रत्नप्रभा पृथि खस्काण्ड सम्बन्धि रत्न काण्ड योजनमहस्रबाहल्येन युक्तं कथितं तथैव वजमाण्डादारस्य रिष्ट रत्नभाण्डान्त सर्वाण्यापि काण्डानि एकक योजनसहस्रपरिमितबाहल्येन युक्तानीति मा। 'इमीसे णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पभा पुढबीए' रत्नपमा पृथिव्याः संबन्धि यत् द्वितीयम् 'पंकबहुछे कंडे' पंकबहुलं काण्डम् नत् 'केवायं कि पद 'वाहल्लेग पन्नत्ते' वाइल्येन प्रान्तम् एक हजार योजन की मोटाई वाला है ? 'एवं जाव रितु' इसी प्रकार से चावत् रिष्टकाण्ड तक के जो मोह काण्ड हैं वे सब भी एक २ हजार योजन की मोटाई वाले है १६ इस प्रकार खरकाण्ड आदि मब काण्ड पूरा लोलह हजार यो मन कालो जाता है। यहाँ यावत् शब्द से 'वज्र ताण्ड २, वडूय काण्ड ३, लोहिताक्ष काण्ड ४, मसारगल्लकाण्ड ५, हम्म गर्मकाण्ड ६, पुल काण्ड ७, सौगंधिककाण्ड ८,ज्योति रस. काण्ड ९, अचमकाण्ड १०, अञ्जनपुलामकाण्ड ११, रजतकाण्ड १२, जातरूपाण्ड १३, अङ्ककाण्ड १४, और स्फटिकाण्ड १५, इन काण्डों का ग्रहण हुआ है और होलहवां रिकाण्ड है १६। इमीले भले!' हे अदन्न ! इस 'रघणपभा पुढचीए पंकवाले कंडे' हे भगवन् इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो दूसरा एकाकार पंक बहुलकाण्ड है वह 'केवड्य शाहल्लेणं पन्नत्ते' कितनी मोटाई वाला कहा ही छ. 'एव जाव रिट्रे' से प्रमाणे यावत रिट सुधीन २ सोm sisi છે, તે બધાજ એક એક હજાર જનની જાડાઈ-વિસ્તારવાળા છે ૧૬, આ પ્રમાણે બરકાંડ વિગેરે બધાજ કાંડે પૂરા સેળ હજાર એજનના થઈ જાય છે. महियां यावत् शपथी 'qoamist२, पैड्रय ४i313, साहिताक्षsis.४, 'भसार ગલકાંડપ” “હંસગર્ભકાંડ' “પુલકકાંડ 9 “સૌગધિકકાંડ” “જે તિરસકાંડ૯ 'Arisis १० 'uryalsis ११' '२४dis १२' ३५ is १३' અંકકાંડ ૧ અને “રફટિકકાંડ' આ કાંડ ગ્રહણ કરાય છે. અને સળગે રિભ્રકાંડ છે. તેમ સમજવું _ 'इमीसे णं भंते!' है भगवन् मा 'रयणप्पभाए पुढवीए पंकवहुले कंडे' २९नमा पृथ्वीना मारे १२ ५४ मा छे, 'केवइयं वाहल्लेण" કેટલી જાડાઈવિસ્તાર વાગે કહ્યું છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.४ खरकाण्डादि घनोद्ध्यादेबर्बाहल्यम् २७ भगवानाइ-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चउरसीति जोयण सहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते' चतुरशीति योजनप्सहस्राणि वाहल्येन प्रज्ञप्तम् इति । 'इसीसेणं भंते' एतस्याः खलु मदन्त ! 'रयणपनाए पुढवीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः यत्तृ तीयम् 'आवबहुले कंडे' अब्बहुलं काण्डं तत् 'केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते' कियद् बाहल्येन प्रज्ञमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'असोइ जोयण नहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते' अशीतिर्योजन सहस्त्राणि वाइल्येन मज्ञप्तमिति । अत्र रत्नप्रभा पृथिव्याः प्रथम खरकाण्डस्य बाहल्यं षोडशहस्र योजनपरिमितम्-१६००० । द्वितीय पङ्कबहुलकाण्डस्य वाहल्यं चतुरशीतिसहस्त्रयोजन परिमितम् ८४००० । तृतीयाबहुलकाण्डस्य बाहल्यम् अशीविसहस्रयोजनपरिमितम् गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोधमा ! च उरालीइ जोषण सहस्लाई पाहल्लेणं पत्ते 'हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो पङ्क बाहुल काण्ड है वह चौरासी हजार योजन की मोटाईघाला कहा गया है। ___'इमीले णं भंते ! हे भदन्त ! इस 'स्यणप्पाए पुढबीए' रत्नप्रभा पृथिवी का जो तोलरा 'आब बहुले कंडे' अब्बहुलकाण्ड है-वह केव. इयं पारल्लेणं पन्नत्ते' क्षितनी मोटाई वाला कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोषमा! अलीइजोयणसहस्साई बाहल्लेणं पत्नत्ते' हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो तीलश अनझुल काण्ड है वह अस्सी हजार योजन की मोटाई वाला कहा गया है यहां रत्नप्रभा पृथिवी का जो खरकाण्ड है उसकी मोटाई सोलह हजार (१६०००) योजन की है। इसका दूसरा जो पङ्कयाहुल काण्ड है उसकी मोटाई ४ छ है 'गोयमा ! चउरसीइ जोयणसहस्साई बोहल्लेणं पन्नत्ते' गौतम ! આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે પંક બહુલ કાંડ છે, તે ચર્યાશી હજાર જનના વિસ્તાર-જાડાઈવાળ કહેવામાં આવેલ છે. ___ 'इमीसे णं भंते' 3 मापन मा 'रयणप्पभाए पुढवीए' २नमा पृथ्वीना त्रीने 'आबबहुले कंडे' अga is छे ते 'केवइय बाहल्लेण पन्नत्ते' मा વિસ્તાર-જાડાઈ વાળે કહો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગતમ સ્વામીને 'गोयमा! असीइ जोयणसहस्साई बाहल्लेण पन्नत्ते' गौतम! 241 २नप्रसा પૃથ્વીને ત્રીજે જે અખૂહલકાંડ છે, તે એંસી હજાર જનની જાડાઈવાળ કહ્યો છે. અહિંયા રત્નપ્રભા પૃથ્વીને પહેલો જે ખરકાંડ છે. તેની જાડાઈ ૧૬૦૦૦ સેળ હજાર જનની છે. અને તેને બીજે કાંડ જે પંક બહુલ કાંડ છે. તેની Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ जीवामि नमसूत्रे ८००००, इति सर्व संकलनया रत्नप्रभा पृथिव्या वाइल्यमशीति सहस्राधिक लक्षममाणस् १८०००० भवतीति । 'इमीसे णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त | 'रयणपमा पुढवीए' रत्नम मायाः पृथिव्या अधः 'घणोदही' वनोदधिः 'केवइयं ' कियान वाइल्लेणं पन्नत्ते' बाहल्येन प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'वोसं जोयणसहस्साई वा हल्लेणं पन्नत्ते' विंशतियजनसहस्राणि वाढल्येन मज्ञप्तो घनोदधिः । ' इमी से णं भंते!' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रणभा पुढवीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः घनोदघेरधः 'घणवाए' घणवातः सः 'केवइयं' कियान् 'वाइल्लेणं पन्नते' बाहल्येन प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, चौरासी हजार (८४०००) योजन की है । तीसरा जो अव्धहुलकाण्ड है उसकी मोटाई अस्सी हजार (८००००) योजन की है इस तरह इन काण्डों की मोटाई को मिलाकर इस रत्नप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार (१८००००) योजन की होती है । 'इमीसे णं ते! स्थणप्पभाए पुढबीए' हे भदन्त । इस रत्नप्रभा पृथिवी के नीचे जो 'घणोदही' घनोदधि है वह 'केवइयं बाहल्लेणं पश्नत्ते' कितनी मोटाई वाला कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोधमा ! बीमं जोयणसहस्लाई बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नीचे जो घनोदधि है वह बीस हजार योजन की मोटाई वाला कहा गया है यह घनोदधि रत्नप्रभा पृथिवी के अधो भाग में व्यवस्थित है 'इमी से णं भंते : रयणपभाए पुढवीए घणवाए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के घनोदधि के नीचे जो घनत्रात है वह 'केवइयं જાડાઈ–વિસ્તાર ૮૪૦૦૦ ચાર્યાશીહજાર ચેાજનની કહેલ છે. ત્રીજો જે અલ્પ્સહુલ કાંડ છે, તેની જાડાઇ-વિસ્તાર એ.સી હજાર ૮૦૦૦૦ ચેાજનની કહી છે. આ રીતે આ બધા કાડાની જાડાઈ-વિસ્તાર મેળવતાં આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીની જાડાઇ વિસ્તાર ૧૮૦૦૦૦ એક લાખ એસી હજાર ચૈાજનની થઈ જાય છે. 'इमोसे ण' भवे! रयणप्पभाष पुढवीए' हे भगवन् या रत्नप्रभा पृथ्वीनी नीथे ? 'घणोदही' धनोऽधि छे, ते 'केवइय' काल वाइल्ण पन्नत्ते' उeal વિસ્તાર વાળા કહ્યો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે है 'गोमा ! वीख' जोयणसहस्साइ बाहल्लेण पन्नत्ते' हे गौतम! પ્રભા પૃથ્વીની નીચે જે ઘનેાધિ છે, તે વીસ હજાર ચેાજનના વિસ્તારવાળા કહેલ છે. આ ઘનાદધિ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નીચેના ભાગમાં વ્યવસ્થિત , 'इमीसे णं भवे ! रयणप्पभाए पुढवीप घणवाए' हे लगवन् मा रत्नप्रभा रत्न Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iration टीका प्र. ३ छू.४ खरकाण्डादि घनोदयादेहिल्यम् भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'असंखेज्जाई जोयणसहस्साईं बाहल्लेणं पन्नत्ते' असंख्येयानि योजनसहस्त्राणि बादल्येन प्रज्ञप्तः घनोदधेरधस्तात् असंख्येययोजन सहस्रपरिमित वाढल्येन घनवातः प्रज्ञप्तः, घनोदघेरधस्तात् असंख्येययोजन सहस्रपरिमितः वाहल्येन घनवातः प्रज्ञप्तः इत्यर्थः । 'एवं तणुवाए वि ओबासंतरे वि' एवं यथा - रत्नपमा सम्बन्धि घनवातो घनोदधेरधस्वात् असंख्येययोजनबाहल्येन विद्यते तथा वनवातस्यादि अधोदेशे रत्नप्रभा संबन्धी तनुत्रावोऽपि असंख्येययोजनसहस्र परिमित वाहल्येन प्रज्ञप्तः एवं तनुवातस्यापि अधोभागे रत्नममा संबन्धि अवकाशान्तरम संख्येययोजन सहस्र गरि मितं बाहल्येन विद्यते इति भावः । रत्नप्रभgथिवी संबन्धि घनोदधि घनगाव तनुवावावकाशान्वराणां वाइल्यं दर्शया शर्करा सम्बन्धि घनोदध्यादीनां बाहल्यं दर्शयितुमाह- 'सक्करणबाहल्लेणं पन्नत्ते' कितनी मोटाई वाला कहा गया है ? उसर में प्रभु कहते हैं 'गोधना ! असंखेजाई जोयणसहस्साई पाहणं पते' हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो घनवात है वह असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला कहा गया है यह घनत्रात घनोदधि के नीचे हैं । 'एवं तणुवाए वि ओवसंतरे वि' इसी तरह घनवाल के नीचे तनुदात है और यह भी असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है तथा - तनुचात के नीचे अवकाशान्तर - शुद्ध आकाश है वह भी असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है । इस प्रकार से रत्नप्रभा सम्बन्धी घनोदवि, घनवाल, तनुशत, और अवकाशान्तर इनकी मोटाई दिखाकर अब सूत्रकार शर्करा प्रभा सम्बन्धी घनोदधि आदि को की मोटाई दिखलाते हैं- इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'सक्करप पृथ्वीना धनहिचिनी नीथे ने धनवात छे ते 'केवइयं बाहल्लेण पन्नत्ते' टला विस्तारवाणी डेस छे. या अश्रुना उत्तरमां अलुछे ते 'गोयमा ! असखेजाई' जोयणसहस्साई बाल्लेणं' पन्नत्ते' हे गौतम! था रत्नप्रभा पृथ्वीना ઘનવાત છે. તે અસંખ્યાત હજાર ચૈાજનના વિસ્તાર વાળા કહ્યો છે. આ धनवात धनोधिनी नीथे छे. 'एव' तणुत्रापवि, ओवसंतरे वि' से प्रसाध ઘનવાતની નીચે તનુવાત છે અને તે પણ અસખ્યાત હજાર ચૈાજનના વિસ્તાર વાળા છે. તથા તનુવાતની નીચે અવકાશાન્તર શુદ્ધ આકાશ છે. આ પ્રમાણે રત્નપ્રભા સંબંધી ઘનેા ંધ, ઘનવાત, તનુવાત, અને અવકાશાન્તર, એના વિસ્તાર બતાવીને હવે સૂત્રકાર શકરાપ્રભા પૃથ્વી સંભ`ધી ઘનેાધિ વિગેરે ના વિસ્તાર ખતાવે છે. મામાં ગૌતમ સ્વામી પ્રભુને એવુ' પૂછે છે કે Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमले भाएणं भंते' इत्यादि, 'सकार पभाएणं भंते ! पुढवीए' शर्करामभायाः खलु भदन्त ! पृथिव्याः 'धगोदही केवइयं वाइल्लेणं पन्नत्ते' घनोदधिः कियान् बाहल्येन प्रज्ञप्त इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'वीसं जोयणसहस्साई' विंशतियोंजनसहस्राणि 'वाहल्लेणं पण्णत्ते' वाहरयेन प्रज्ञप्तो घनोदधिरिति । 'सक्करप्पमारणं भंते ! पुढबीए' शर्करापभायाः खलु भदन्त ! पृथिव्याः 'घनवाते केवइयं वाहल्लेग पन्नत्ते' घनवातः कियान् वाइल्येन मज्ञप्तः, इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'असंखेज्जाई जोयण सहस्साई' असंख्येयानियोजनसहस्राणि 'वाहल्लेणं पन्नत्ते' बाहल्येन प्रज्ञप्तः, शर्कराप्रभा सम्बन्धि घनवातोऽसंख्येययोजनसहस्रपरिमित बाहल्ययुतो घणोदधेरधोदेशे विद्यते इत्यर्थः । 'एवं तणुवार वि ओवासंतरे वि' भाए णं भंते ! पुढवीए' हे भदन्त ! शर्कराप्रभा पृथिवी का जो 'घणोदही' घनोदधि है वह 'केवयं बाहल्लेणं पण्णत्ते' कितनी मोटाई घाला कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोषमा! वीसं जोषणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्त' हे गौतम! शर्करा प्रभा पृथिवी का जो धनो. दधि है वह 'बीसं जोषण सहस्साई बीस हजार योजन की मोटाई घाला कहा गया है। 'सक्काप्पभाएणं भंते ! पुढवीए' हे भदन्त ! शर्करा प्रभा पृथिवी का जो 'धन वाते' धनवाल है वह 'केवयं बाहल्लेणं पन्नत्ते' शितनी मोटाई वाला कहा गया है ? उत्तर प्रभु कहते हैं'गोयना! 'असंखेलाई जोयणसहरूलाई बाहल्लेणं पन्नत' हे गौतम! शर्करा प्रभा पृथिवी का जो घनवाल है वह असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला कहा गया है यह घनवात घनोदधि के नीचे के भाग में 'सकारप्पभाए णं संते! पुढवीए' मगन् १४२प्रमा पृथ्वीनारे 'घणोदही' घनधि छ, त 'केवइयं बाहल्लेणं पन्नत्ते' मा विस्तार वाणा ह्यो छ । प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतम स्वामीन छ है 'गोयमा वीसं जोयणसहस्साई पाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गौतम! शरामा पृथ्वीनारे धनाधि छ, त वीस १२ જનના વિસ્તાર–જાડાઈ વાળે કહેલ છે. ફરીથી ગૌતમસ્વામી પ્રભુને પૂછે છે है 'सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए' सगवान् श६२५मा पृथ्वीनार 'धनवावे' धनात छे. ते 'केवइय बाहल्लेणं पण्णत्ते' मा विस्तारना यो छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ । 'गोयमा! असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गीतम! शशमा वाना २ धनवात छ, त असण्यात t२ જનના વિસ્તારવાળો કહ્યો છે. આ ઘવાત, ઘને દધિની નીચેના ભાગમાં છે, Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --- -- - प्रमेययोतिका टीका प्र.३ सू.४ खरकाण्डादि घनोदध्यादेहल्यम् १ एवं घनवातवदेव तनुवातोऽपि धनवातस्याधोदेशेऽसंख्येययोजनसहस्रबाहल्येन विधते तथा-तनुवातस्यापि अधोदेशेऽप्रकाशान्तरमसंख्येय योजन बाहल्येन पज्ञप्तम् 'जहा सक्करप्पभा पुढवीए एवं जाब अहे सत्तमाए' यथा शराममाया एवमधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्तं घरोदधि घनबात तलुवातावकाशान्तराणां. तब दधोदेशे तेन तेन बाहल्येन युक्त ज्ञातव्यमिति ॥४॥ मूलम्-इमीले णं भंते ! रयणप्पाए पुढवीए असीइ उत्तर जोयणसयसहस्सा बाहल्लाए खेत्तच्छेएणं छिन्नमाणीए अस्थि हैं एवं तणुवाए वि ओवासंतरे वि' घनात की तरह तनुवात भी जानना चाहिये और अवकाशान्तर भी जानना चाहिये इसी तरह घनवात के अधोभाग में यह तलुवात है और यह असंख्घात हजार योजन की मोटाई वाला है तशा-तनुवात के अधोभाग में अबकाशान्तर है और यह भी असंख्यात योजन की मोटाई वाला है 'जहा सकरप्पभा पुढवीए एवं जाच अहे सत्तमाए' जिस प्रकार से शर्करा प्रभा पृथिवी के घनोदधि आदि की मोटाई और अवकाशान्तर की मोटाई कही गई है उस्ली प्रकार ले यावत्-अधः सप्तमी पृथिवी तक की पृथिवियों के घनोदधि आदि की और अकलाशान्तों की मोटाई जाननी चाहिये घनोदधि अपनी २. पृथिवियों के अधोभाग में है धनवात घनोदधि के अधो भाग में हैं और तनुवान धनवाल के अधोभाग में हैं अवकाशान्तर तनुवान के अधोभाग में हैं। ॥१०४॥ 'एव तणुवाएवि ओवासतरे वि' धनवात प्रभारी तनुपात ५४ छ तमसमજવું અને અવકાશાતર પણ એજ પ્રમાણે એટલે કે ઘનવાતના કથન પ્રમાણે १ छ, त सभा આ રીતે ઘવાતની નીચેના ભાગમાં આ તનુવાત છે, અને આ અસં. ખ્યાત હજાર એજનના વિસ્તારવાળે છે. તથા તનુવાતની નીચેના ભાગમાં भ१४१-२ छ, भने ते ५ असण्यात येना विस्तारवाणु छ. 'जहा सक्करप्पभा पुढवीए एवं जाव अहे सत्तमाए' ले प्रमाणे राप्रमा पृथ्वीना ઘનેદધિ વિગેરે વિસ્તાર અને અવકાશાન્તરને વિરતાર કહેલ છે. એજ પ્રમાણે યાવત્ અધઃસપ્તમી પૃથ્વી સુધીની પૃથ્વીના ઘોદધિ વિગેરેનો અને અવકાશાન્તરનો વિસ્તાર સમજીલે. ઘોદધિ પિતાપિતાની પૃથ્વીના અધેભાગમાં છે, ઘનવાત, ઘોદધિની નીચેના ભાગમાં છે. અને તનુવાત ઘનવાત ની નીચેના ભાગમાં છે. અને અવકાશાન્તર તનુવાતની નીચેના ભાગમાં છે. સૂ. ૪ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगममा दवाइं वण्णओ कालनीललोहियहालिहसुकिल्लाई, गंधओ सुरभिगंधाई, रसओ तितकडुयकसायअविलमहुराई, फासओ कक्खडसउयगरुयलहुयलीयउलिणणिहलुक्खाई, लंठाणओ परिमंडलवतंस चउरल आययसंठाणपरिणयाइं अन्नमन्नवद्वाई अण्णमण्णपुठ्ठाइं अन्नमन्न ओगाढाई अण्णमपण सिणेह पडिबद्धाइं अण्णमण्ण घडताए चिटुंति ? हंता अस्थि ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडस्स सोलस जोयणसहस्स बाहल्लसत खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स अस्थि दवाई वण्णओ काल जाव घडताए चिटुंति ? हंता अस्थि । इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणनामगस्त कंडस्ल जोयणसहस्स बाहल्लस्त खेत्तच्छेएणं छिन्नमाणस्स तं चेव जाव हंता अत्थि। एवं जाव रिटुस्त ॥ इमीले गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पंकबहुलस्त कंडस्स चउरातीइ जोयणसहस्स चाहल्लस्स खेत्त० तं चेब, एवं आवबहुलस्स वि असीइ जोयणलहस्स वाहलस्स खेत्तच्छेएणं तहेव ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहिस्स वीसं जोयणप्तहस्स बाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं तहेव । एवं घगायस्स असंखेज्जजोयणसहस्ल वाहल्लस्त तहेव । ओवासंतस्स वि तं चेव ॥ सक्करप्पभाए पं भंते ! पुढवीए बत्तीसुत्तरं जोयणसयसहस्त बाहल्लाए खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणीए अस्थि दव्वाई वण्णओ जाव घडताए चिटुंति ? हंता अस्थि । एवं घणोदहिस्स वीस जोयणसहस्स बाहल्लस्स, घणवातस्स असंखेजजोयणसहस्स बाहल्लस्स, एवं जाव ओवासंतरस्स, जहा सकरप्पभाए एवं जाव अहे सत्तमाए ॥सू० ५॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.५ रत्नप्रभापृथिव्याः क्षेत्रच्छेदः छाया-एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नपमायाः पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्याया क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानायाः सन्ति द्रव्याणि वर्णतः फालनील. कोहितहारिद्रशुक्लानि, गन्धतः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि, रसतः तिक्त. कटुक कषायाम्लमधुराणि, स्पर्शतः कर्क शमृदुकगुरुकळघुकशीतोष्ण स्निग्धरूक्षाणि, संस्थानतः परिमण्डल वृत्तव्यस्र वतुरस्रायत संस्थानपरिणवानि, अन्योन्यवद्धानि, अन्योन्यस्पृष्टानि, अन्योन्यावगाहानि, अन्योन्यस्निग्ध प्रतिबद्धानि, अन्योन्य. घटतया तिष्ठन्ति ? हन्त सन्ति । एतस्याः खल भदन्त ! रत्नपभायाः पृथिव्याः खरकाण्डस्य षोडशयोजनसहस्र बाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि वर्णतः कालयावत् घटतया तिष्ठन्ति ? हन्त सन्ति । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नपभायाः पृथिव्याः रत्ननामकस्य काण्डस्य योजनसहस्रबाहल्यस्य क्षेत्रच्छे. देन छिद्यमानस्य तदेव यावत् हन्त सन्ति ? एवं यावद्रिष्टस्य । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नपभायाः पृथिव्याः पङ्कबहुलत्य काण्डस्य चतुरशीतियोजनसहस्रः वाहल्यस्य क्षेत्र० तदेव । एवमब्बडुलस्यापि अशीतियोजनसहस्रवाहल्यस्य । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नममायाः पृथिव्याः घनोदधेविंशतियोजनसहस्रबाहत्यस्य क्षेत्रच्छेदेन तथैव । एवं घनवातस्यासंख्येययोजनसहस्रबहल्यस्य तथैव, आकाशान्तरस्यापि तदेव । शक राममायाः खच भदन्त ! पृथिव्याः द्वात्रिंशदुत्तरशतसहस्रबाहल्यायाः क्षेत्रच्छेदेन छियासानायाः सन्ति द्रव्याणि वर्णतो यावत घटतया तिष्ठन्ति ? हन्त, सन्ति । एवं घनोदधेविंशति योजनसहस्रवाहल्यस्य, धनवातस्यासंख्येययोजनसहरसबाहल्यस्य, एवं यानरकाशान्तरस्य । यथा शर्क. राममायामेवं यावदधः सप्तम्याम् ।।९० ५|| टीका-'इसीसे गं' भंते' एतस्याः खल्ल भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्न प्रभायाः 'अलीइ उत्तरजोयणमयसहस्स वाहल्लाए' अशीत्युत्तर योजनशतसहस्त्र. इमीसे णं भंते ! रमणपसाए पुढचीए अली उत्तर जोयण इत्यादि। सू० ॥५॥ टोकार्थ-गीलम ने इस स्त्र द्वारा प्रभु से ऐखा पूछा है-हमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढ बीए' हे अदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के जो कि 'असीह उत्सर जोरणय सहस्सयाहल्लाए' एक लाख अस्सी 'इसीसे गं भंवे! रयणप्पभाए पुढवीए असीइउत्तर जोयण' त्याल टहाथ-गौतभस्वामी मा सूत्रा। प्रभुनेमे पूछ्यु छ है 'इमीसे णं भवे! रयणप्पभाए पुढवीए' मगवन् मा २त्नप्रभा पृथ्वीना २ असोड उत्तर जोयणसयसहस्सवाइल्लाए' मेसा मेसील२ १८०००० योजना जी० ५ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्र पाहल्यायाः, अशीतिसहस्र योजनोत्तरैकलक्षवाहल्यायाः 'खेत्तच्छेएणं' क्षेत्रच्छेदेन केवलिवुद्धया प्रतरकाण्ड विभागेन 'छिज्जमाणीए' छिद्यमानाया'-विभज्यमानायाः 'अस्थि' सन्ति अस्तीति निपातोऽत्र बहुवचनार्थगर्भः, 'दवाई द्रव्याणि सन्ति । 'वण्णओ' वर्णतः 'कालनीललोहियहालिमुकिकलाई कालनीक लोहित हारिद्रशुक्लानि तानि द्रव्याणि वर्णतः कालानि-कालगुणोपेतानि-एवं नीलादिष्यपि ज्ञातव्यम् नीलानि लोहितानि हारिद्राणि शुक्लानि 'गंधयो सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि 'रसओ तित्तकडुयशसायअंविळमहुराई रसतः तिक्तरसानि कटुकानि कषायाणि अभ्लानि सधुराणि 'फामयो' स्पर्शतः 'कक्खडमउयगरुयलहुयसीय उसिणणिद्धलुक्खाई कर्क शानि मृदुनि गुरुकाणि लघुकानि शीतानि उष्णानि स्निग्धानि रूक्षाणि, 'संठाणओ परिमंडलबहस चउरंस आयय संठाणपरिणयाई' संस्थानतः परिमण्डलानि वृत्तानि व्यस्राणि हजार (१८००००) योजन के पिण्ड हो 'खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणीए' केवलज्ञानी की बुद्धि से जब हम प्रत्तर काण्ड रूप से विभाग-खण्ड खण्ड करते हैं तो इनके 'दव्याई द्रव्य चण्णओ' वर्ण की अपेक्षा 'कालनील लोहिय हालिहसुकिल्लाइं अत्यि' क्या कृष्ण वर्ण वाले, नीले वर्ण वाले, लाल वर्ण वाले, पीले वर्ण वाले और शुक्ल वर्ण वाले होते हैं ? 'गंधभो' गंध की अपेक्षा 'सुभिगंधाई दुम्मिगंधाई' क्या वे सुरभिगंध वाले और दुरीमगंध वाले होते हैं ? 'वसओ' रस की अपेक्षा क्या वे 'तिल कडुयशलाविलमहराई' तिक्त, कटुक, कषाय, अम्ल और अधुर रस घाले होते हैं ? 'फासओ कक्खड, मउय, गरुय, लहय, मीय-उसिण-णिद्ध-लुक्ख." स्पर्श की अपेक्षा क्या वे कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूक्ष स्पर्श वाले होते हैं ? पिथे, 'खेत्तच्छेए णं छिज्जमाणीए' ज्ञानानी भुद्धिधा न्यारे तना अतर ४is uथी विमा मेटले , भ3 ४२वामां आवे छे, तो त 'दव्वाइ द्रव्य 'वण्णओ' पनी अपेक्षाथी 'काल नील लोहिय हालिद्द सुकिल्लाई अत्थि' “શું કૃષ્ણ કાળા વર્ણવાળું નીલવર્ણવાળું લાલ વર્ણવાળું પીળાવણુંવાળું અને શુકલ ४हेतi सवा पाणु हाय छे? गंधओ' मधनी अपेक्षाथी 'सुन्भिगंधाइं, दुभि गंधाई'शु सुरक्षी नाम सुमधाणु डाय छे ? हुमिनाभ हुतागु-डाय छ ? 'रसओ' २सनी अपेक्षाथी शुत 'तित्तडुयकसायविलमहुराई' तित, ४९४, पाय, तु। म मांट भने मधुर भी। २सागुडीय छ १ 'फासओ कक्खड मय गाय, लहुय, सीय उसिण णिद्ध लुक्खाई' १५शनी अपेक्षाया શું તે કર્કશ, મૃદુ, ગુરૂ, લઘુ, શીત, ઉષ્ણુ સ્નિગ્ધ અને રૂક્ષ સ્પર્શ વાળું Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.५ रत्नप्रभापृथिव्याः क्षेत्रच्छेदः चतुरस्राणि आयतानि, एतावत्संस्थानपरिगतानि-कथंभूतानि एतानि सर्वाणि तत्राह-'अन्नमन्न' इत्यादि, अन्नमान बद्धाइ' अन्योऽन्यं संबद्धानि 'अण्णमण्ण पुट्ठाई' अन्योऽन्यं स्पृष्टानि, अन्योन्यं परस्परं स्पृष्टानि-स्पर्शयुक्तानि, तथा'अण्णमण्ण ओगाढाई' अन्योन्यावगाढानि अन्योऽन्यं परस्परमवगाढानि, यत्रैक द्रव्यमवगाढं तत्र अन्यदपि द्रव्यं देशतः क्वचित् सर्वतोऽवगाढ मित्यर्थ: ? 'अण्णमण्णसिणेहपडिवदाई' अन्योऽयं स्नेहप्रतिवद्धानि अन्योन्यं परस्परं स्नेहेन चिकगत्वेन प्रतिबद्धानि-मिलित्तानि येनैकस्मिन् चाल्यमाने गृह्यमाणे वाऽपरमपि चलनादि क्रियोपेतं भवति । तथा-'अण्णमण्ण घडताए चिटुंति' अन्योन्य घटतया तिष्ठन्ति, अन्योन्यं परस्परं घटनवे संबध्नन्ति द्रव्याणि यत्र तत् अन्योन्य'संठाण- परिमंडल- वह-तो-चउरंस- आयय-संठाण परिणयाई' संस्थान की अपेक्षा क्या वे परिमंडल संस्थान बाले, वृत्त संस्थान वाले, व्यस्त्र संस्थान वाले, चतुरस्त्र संस्थान वाले और आयत्त संस्थान वाले होते हैं ? 'अन्न मन्न बदाइ" ये रूप द्रव्य आपका आपस में एक दूसरे से सम्बद्ध हैं क्योंकि ये सब द्रब्ध एक ही स्थान पर रहते हैं 'अन्न मन्न पुट्ठाई तथा आपस में ये एक दूसरे के साथ स्पृष्ट है 'अण्ण मण्ण ओगाढाई' जहां एक द्रब्ध अवगाढ है वहीं पर दूसरा द्रव्य कहीं एक देश से और कहीं सर्वदेश ले भनगाह होता है 'अण्ण मण्णसिणेह पडिबधाई' ये आपस में स्नेह गुण को लेकर प्रतिबद्ध रहते हैं। मिले हुए रहते हैं इसी कारण एक के चलायमान होने पर अथवा गृहीत होने पर दूसरा द्रव्य भी चलनादि क्रियोपेत होता है 'अण्ण मण्णघडत्ताए चिट्ठति से वष द्रव्य एक दूसरे में लमुदाय रूप से डाय छ ? 'संठाणओ परिमंडलवद्वत सचउरंस्त्र आयय संठाण परिणयाई સંસ્થાનની અપેક્ષાથી શું તે પરિમંડલ સંસ્થાનવાળું, વૃત્તસંસ્થાનવાળું, વ્યસ્ત્ર ત્રણ સંસ્થા નવાળું, ચતુરસ્ત્ર સંસ્થાનવાળું, અને આયત સંસ્થાનવાળું હોય છે? 'अन्नमन्न पुटाइ तथा ५२२५२मा मे मे भीतनी साथे २५०८ भगेस छे. 'अज्गमण्ण ओगाढाइ' भयो । २०५ Aq थयेर छे, त्यां भी द्रव्य ५ यis ये देशथी भने या सशथी अपमा थने २९ छ, 'अण्ण मणा सिणेह पडिवद्धाई' से ५२२५२मा स्नेह गुण पशात् धाये २७ छ, અર્થાત્ મળેલ થઈને રહે છે. એ જ કારણથી એકના ચલાયમાન થવાથી અથવા अस वाथी भानु, द्रव्य ५ यसन वि३ छिया पाणु थाय छे. 'अण्ण मण्णधडत्ताए चिढवि' मा या द्रव्या गे: olneी साथे समुदाय पाया Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम घटम्, अथवा अन्योन्यं परस्परं घटाः समुदायरचना यत्र तत् अन्योन्यघटम्, तस्य भावोऽन्योन्यघटता तया अन्योऽन्य घटतया परस्परसमुदायतया तिष्ठति किमिति प्रश्नः, भगवानाह 'हंता अत्थि' हन्त, इति स्वीकारे तथा च हे गौतम ! सन्त्येव यया त्वया पृष्टानि तानि तथैव सन्तीत्यर्थः 'इमीसेणं भवे' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणभाए पुढवीए' रत्नपभायाः पृथिव्याः 'खरकंडस्स' खरनामकाण्डस्य 'सोलस जोयणसहरस बाहल्लरस' पोडश योजनसहस्रबाहल्यस्य 'खेच. च्छेएण छिज्जमाणस्स' क्षेत्रच्छेदेन क्षेवलि वुद्धचा प्रतरविभागेन छिद्यमानस्य मिलकर क्षीर नीर की तरह अविभक्त होकर समाए रहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हना, अस्थि' हां गौतम! इस एक लोख अस्सी हजार योजन की मोटाई वाली रत्नप्रभा पृथिवी के जप केवली के ज्ञाना ले क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करते हैं तो उन २, विभागों के आश्रित द्रव्य वर्ण की अपेक्षा पांवों वर्ण वाले होते हैं, गंध की अपेक्षा सुरभि दुरभिगंध चाले होते है रसकी अपेक्षा पांचों रसों वाले होते हैं स्पर्श की अपेक्षा आठों स्पर्शों वाले होते हैं संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि पांचों संस्थान वाले होते हैं और अन्योन्य सम्बद्ध आदि विशेषण वाले होते हैं और परस्पर समुदाय रूप से रहते हैं। 'इमीसे णं भंते ! श्यणप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो सोलह हजार मोटाई वाला खर काण्ड है उसके 'खेत्त. મળીને ક્ષીર નીરની માફક અવિભકત થઈને અર્થાત જુદા પડયા વિનાના એક રૂપ થઈને સમાઈ રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે है 'हता अस्थि' । गीतम! मा मेसा मेसी ॥२ याराना विस्तार વાળી રત્નપ્રભા પૃથ્વીના જ્યારે કેવલીના જ્ઞાનથી ક્ષેત્ર છે પણાથી વિભાગ કરવામાં આવે છે, તો તે તે વિભાગના આશ્રિત દ્રવ્ય વર્ણની અપેક્ષાથી પાંચ વર્ણવાળા હોય છે. ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ દુરભિ અર્થાત્ સુગંધ અને દુર્ગધ વાળા હોય છે. રસની અપેક્ષાથી પાંચ પ્રકારના રસવાળા હોય છે. સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે આઠે પ્રકારના સ્પર્શીવાળા હોય છે. સંસ્થાન ની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે પાંચે સંસ્થાન વાળા હોય છે અને અન્ય અન્ય સંબદ્ધ વિગેરે વિશેષાવાળા હેય છે. અને પરસ્પર સમુદાય પણથી રહે છે, 'इमीसे णं भंते ! रयणपसाए पुढवीए' 3 मापन मा २नमा पृथ्वीनारे सो १२ योजना विस्तारवाणी म२४is नाम i. 'खेतच्छेएण Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिका टीका प्र. ३ . ५ रत्नप्रभापृथिव्याः क्षेत्रच्छे ४ 'अस्थि दव्वाई' सन्ति द्रव्याणि 'वण्णओ' वर्णतः 'काळ जाव घडत्ताए चिईति' काळ यावत् घटतया तिष्ठन्ति, वर्णतः कालानि नीलानि लोहितानि दारिद्राणि शुक्कानि, गन्धतः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानीति, रसवस्तिक्तरसानि कटु कानि कषायाणि अम्लानि मधुराणि स्पर्शतः कर्कशानि मृदुनि गुरुकाणि कधुनि शीतानि उष्णानि स्निग्धानि रूक्षाणि, संस्थानतः परिमण्डलानि वृत्तानि व्यस्राणि चतुरस्राणि ध्यायतानि एतावत्संस्थानपरिणतानि यावद् घटतया तिष्ठन् किमिति यावत्पदघटित प्रश्नः भगवानाह - 'हंता अस्थि' हन्त सन्धीति । 'इमीसे णं भंबे ! एतस्पाः खल भदन्त ! 'स्यणप्पसार पुढचीए' रत्नपथायाः पृथिव्याः 'रवणणामगस्स कंडस्स' रत्ननामकस्य काण्डस्य 'जोयणसहस्सबाहल्लस्स' योजन सहस्रवाहच्छेएण छिज्जमागस्स' केवली की बुद्धि से प्रतर भाग के रूप मेंखण्ड करने पर जो उसके आश्रित द्रव्य हैं वे क्या 'वग्गओ काल० जात्र घड़त्ताए चित' वर्ण की अपेक्षा कृष्ण आदि वर्ण वाले होते हैं गन्ध की अपेक्षा - सुरभि दुरभि गंध वाले होते हैं क्या ? रस की अपेक्षा तिक्तरस आदि वाले होते हैं क्या ? स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि स्पर्शो वाले होते हैं क्या ? तथा संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि संस्थान वाले होते हैं क्या ? परस्पर सम्बन्ध आदि रूप होकर परस्पर समुदाय रूप से रहते हैं क्या? इस तरह से पूर्वोक्त जैसा यह प्रश्न है इसके उप्तर में प्रभु कहते हैं- 'हंता, अस्थि' हां गौतम ! वे द्रव्य पूर्वोक्त कथनानुसार होते हैं । 'इमीण भंते! रयणम्पमाए पुढत्रीए स्थण णामगस्त कंडस्स' हे छिज्जमाणस्त्र' ठेवणीनी बुद्धिथी अतर विलागना ३ये भड ४२वाथी तेना माश्रयथी रडेस ने द्रव्य छे, ते शुं' 'वण्णओ काल, जाव, घडत्ताए चिट्ठति' વધુ ની અપેક્ષાથી કૃષ્ણ-કાળા વિગેરે વધુ વાળા ડેાય છે. ? ગધની અપેક્ષાથી સુરભિ, દુરભિ, સુગંધ અને દુધવાળા હોય છે ? રસની અપેક્ષાથી તિકતરસ વિગેરે રસેાવ ળા ચાય છે? સ્પર્ધાની અપેક્ષાથી કકશ વિગેરે સ્પર્શીવાળા હાય છે તથા સસ્થાનની અપેક્ષાથી પરમ'ડલ વિગેર સસ્થાનવાળા હાય છે ? પરસ્પરમાં સમૃદ્ધ વિગેરે પણાથી પરસ્પરમાં સમુદાય પણાથી રહે છે ? આ પ્રમાણે પહેલાંની માફ્ક આ પ્રશ્ન પૂછેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહેછે કે દૂત્તા અસ્થિ” હા ગૌતમ! તે દ્રવ્ય પૂકિત પ્રશ્ન વાકયના કથન પ્રમાણેનુ' હાય છે. 'इमसे णं भंते । रयण पभाव पुढवीए रयणणामगस्स कंडस' हे भगवन् ! Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईट जीवामगमसूत्रे ल्यस्य 'खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स तं चेत्र जाव' क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य तदेव यावद छिद्यमानस्य द्रव्याणि किं वर्णतः कालादि पञ्चवर्णोपेतानि, गन्धतः सुरभिदुरभिगन्धयुक्तानि रसवस्तिक्तादि पञ्चरसोपेतानि, स्पर्शतः कर्कशा द्यष्टस्पर्शयुक्तानि, संस्थानदः परिमण्डलादि पञ्चसंस्थानै परिणतानीति प्रश्नः, भगवानाह - 'हंता अस्थि' हन्त सन्वीति । ' एवं जाव रिट्ठस्स' एवं याचद्रिष्टस्य रत्नप्रभार्यां रस्नकाण्डस्य यथा-वर्णादिना परिणामो दर्शितस्तथैव वज्रकाण्डादारभ्य रिष्टकाण्डपर्यन्तस्थितकाण्डद्रव्याणां वर्णादिना तथा परिणामवचं ज्ञातव्यमिति । 'इमीसे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो रत्न नाम का काण्ड हैं कि जिसकी मोटाई 'जोयणसहस्रू बाहलस्स' एक हजार योजन की हैं उसके क्षेत्रच्छेद से प्रतर विभाग के रूप में खण्ड २, करने पर जो इसके आश्रित द्रव्य है क्या वर्ण की अपेक्षा कालादिवर्ण वाले होते हैं ? गन्ध की अपेक्षा सुरभि गन्ध वाले होते हैं क्या ? रस की अपेक्षा-तिक्त आदि रस वाले होते हैं क्या ? स्पर्श की अपेक्षा-कर्कशादि स्पर्श वाले होते हैं क्या ? और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि संस्थान वाले होते हैं क्या ? परस्पर संबध आदि होते हुए परस्पर समुदाय रूप से रहते है क्या ? इसके उत्तर में प्रभु करते हैं- 'हंता, अस्थि' हां गौतम | उसके आश्रित द्रव्य, रूप, गन्ध, स्पर्श और संस्थान वाले आदि पूर्वोक्तानुसार होते हैं । ' एवं जाव रिट्ठस्स' रत्नप्रभा के रहनकाण्ड के द्रव्य के रूप, गंध, रस आदि से युक्त होने के कथन की तरह वज्रकाण्ड रिष्टकाण्ड तक के द्रव्यों का वर्ण गंध, रस, स्पर्श संस्थान रूप से परिणाम भा रत्नप्रमा पृथ्वीना ने 'रत्नांड नामनेोड छे, नेता विस्तार 'जोयण सहस्व वाहल्लस्स' भे४ डलर योजना है, तेना क्षेत्रष्टेथी प्रतिविभाग पाथी ખંડ ખંડ કરવાથી તેના અશ્રિત જે ન્ય છે તે શું વણુથી કાળા વિગેરે વઘુ વાળુ હાય છે ? ગધની અપેક્ષાથી સુરભિગ ધવાળું કે દુરભિગ ધવાળુ હાય છે? રસની અપેક્ષાથી તિકત વિગેરે રસવાળુ' હાય છે ? સ્પર્શેની અપેક્ષાથી કશ વિગેરે સ્પર્શીવાળુ હાય છે ? અને સસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમડલ વિગેરે સંસ્થાનવાળું હાય છે? પરસ્પર મળીને પરસ્પર સમુદાય પણાથી રહે छे १ मा प्रश्नना उत्तरमां अलु गौतमस्वामीने हे छे 'हंता अस्थि' ગૌતમ ! તેના આશ્રયથી રહેલ દ્રવ્ય રૂપ, ગંધ, રસ, સ્પેશ અને સંસ્થાન विगेरे पूर्वेति उथन प्रभाषेनु' होय छे. 'एवं जाव रिट्ठस्स' रत्नप्रभा पृथ्वीना રત્નકાંડના દ્રવ્ય રૂપ, રસ, ગંધ, વિગેરેથી યુકત હાવાના કથન પ્રમાણે વજા કાંડ, ષ્ટિકાંડ' સુધિના દ્રગૈા વણ, ગધ, રસ, ઉપ સંસ્થાન પણાથી Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.५ रत्नप्रभाथिव्या क्षेत्रच्छेदः गंभंते ! एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पमाए पुढवीए' रस्नषभायाः पृथिव्याः 'पंकबहुलस्स कंडस्स' पङ्कबहुलनामकस्य काण्डस्य 'चउरासीइ जोयणसहरस वाह लस्स' चतुरशीतियोजनसहस्रबाहल्यस्य 'खेत्तच्छे रण तं चेव' क्षेत्रच्छेदेन च्छिद्यमानस्य द्रव्याणि वर्णतः काळादिना, गन्धतः सुरभ्यादिना, रसतस्तिक्तादिना, स्पर्शतः कर्कशादिना, संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि भवन्ति किमिति प्रश्नः, इन्त सन्तीति पूर्ववदेवोत्तरम् 'एवं आबबहुलस्स वि असोइ जोयणसह. स्सवाइल्लस्स' एवं पङ्कबहुलकाण्डवदेव रत्नप्रभायां पृथिव्यं विद्यमानस्याबहु. लस्यापि अशीतियोजनसलस्रबाहल्यस्य क्षेत्रच्छे इन छिद्यमानस्य द्रव्याणि वर्णत: होता है इत्यादि कथन जानना चाहिये। 'हमीसे णं भंते ! रयणपभाए पुढवीए पंक बहुलकण्डस्ल चउरासो योजणसहस्स पाहल्लस्स' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के पङ्कमहुल. काण्ड के जो कि चौराली हजार योजन की मोटाई वाला है 'खेत्तच्छे. एण तं चेव' जब केवली की बुद्धि ले क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करते हैं तो उनके द्रव्यों का परिणाम वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभिम आदि रूप से, रस की अपेक्षा तिक्तादि रूप से, स्पर्श की अपेक्षा फर्कशादि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमउल आदि रूप से होता है क्या? तथा परस्पर संबद्ध आदि होते हुए रहते हैं क्या? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंगा अस्थि हां गौतम ! होता हैं एवं आन्द बहुलास बि असीड जोयणलहस्स बाह. ल्लस्स' इसी प्रकार से अस्सी हजार योजन की मोटाई वाले अपहल પરિણામવાળા હોય છે. વિગેરે પ્રકારનું કથન સમજવું. __ 'इमीसे गं भंवे! रयण पभाए पुढवीए पंकबहुल कंडस्स चउरासी जोयणसहस्स बाहल्लस्स' हे भगवन् २॥ २त्नमा पृथ्वीना ५'महुरे यार्याशी M२ योननी ants पामे छे. 'खेत्तच्छेएण त चेव' वकीनी भुद्धिथा જ્યારે ક્ષેત્રચ્છેદના રૂપમાં વિભાગ કરવામાં આવે તે તેના પ્રત્યેનું પરિણામ વર્ણની અપેક્ષાથી કાલાદિપણાથી, ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ વિગેરે પણાથી રસની અપેક્ષાથી તિક્તાદિ પણાથી સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશાદિ પણાથી અને સંરથાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે રૂપથી હોય છે ? ___मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतभस्वामी ४ छ । 'हता 3 त्थि' है। गौतम ! ते प्रभारी डाय छे. “एवं आव वहुलस्सवि असीइ जोयणसहस्स बाहરાણ' આ પ્રમાણે એંસી હજાર જનની જડ ઈવાળા અમ્બહુલકાંડના ક્ષેત્ર Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमने ४० कालादिना गन्धवः सुरभ्यादिना रसतः तिक्तादिना, स्पर्शतः फर्कशादीना, संस्थानः परिमण्डलादिना, परिणतानि भवन्ति किमिति पश्ने हन्त सन्तीत्युत्तरं ज्ञातव्यमिति । 'इमोसे णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! ' रयणमा पुढवी ' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'घणोदहिस्स वीसं जोयणसहस्स चाहल्लस्स' घणोदधेविंशतियोजनसहस्र गहल्यस्य 'खेत्तच्छेषण सत्र' क्षेत्रच्छेदेन तथैवेति क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि तानि वर्णत: कालादिना, गन्धतः सुरभ्यादिना, रसवस्तिक्तादिना, स्पर्शतः कर्कशादिना संस्थानतः परिमण्डलादिना, परिणतानि काण्ड के क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर उनके आश्रित द्रव्य वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभि दुरभि आदि रूप से, रस की अपेक्षा तिक्तादि रूप से और स्पर्श की अपेक्षा कर्कशादि रूप से तथा संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से परिणत होते हैं। और परस्पर संप आदि होते हुए समुदाय रूप से रहते हैं 'इमीले णं भंते' हे भदन्त ! इस 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी के नीचे 'घणोदहिस्स वीसं जोघणसहस्स पाहल्लस्स' जो घनोदधि है कि जिसकी मोटाई २, बीस हजार योजन की है उसके जय केवली की वृद्धि से क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करते हैं तो वे उसके द्रव्य वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप में, गन्ध की अपेक्षा सुरभि दुरभि गंध के रूप में, रस की अपेक्षा तिक्तादि रूप में स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि रूप में और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप में परिणत होते हैं क्या ? तथा परस्पर संबद्ध आदि होते रहते हैं क्या ? तो उत्तर में प्रभु कहते हैं-हां गौतम ! वे उस उस रूप में परिणत होते हुए परस्पर संब રચ્છેદ્યથી વિભાગ કરવામાં આવેતે તેના આશ્રયથી રહેલ દ્રવ્ય વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વિગેરેણાથી ગંધની અપેક્ષાએ સુરભિ, દુરભિપણાથી રસની અપેક્ષાએ તીખા, કડવા વગેરે રૂપથી અને સ્પર્શની અપેક્ષાથી કશ વિગેરે રૂપથી તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમ’ડલ વિગેરે રૂપથી પરિજીત થાય છે. અને પસ્પર સંબદ્ધ વિગેરે થઈ સમુદાયપણાથી રહે છે. 'इमीसे णं भंते!' हे लगवन् मा 'घणोदहिस्स वीसं जोयणसहरस बाहल्लरस' ? धनोहधि छे, बेनी लडाई विस्तार २० र योनना है, તેના જ્યારે કેવલીની બુદ્ધિથી ક્ષેત્રછેદ્યનપણાથી વિભાગ કરવામાં આવે તે તેના દ્રબ્યા વધુ ની અપેક્ષા કાળાદિ રૂપથી ગધની અપેક્ષાથી સુરભિ દુરભિ ગધપણાથી રસની અપેક્ષાથી તીખા વગેરે રૂપે, સ્પેની અપેક્ષાથી કશ વિગેરે રૂપથી Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.५ रत्नप्रभापृथिव्याः क्षेत्रच्छेदः किमिति प्रश्नस्य हन्त सन्तीति पूर्ववदेवोत्तरमिति । 'एवं घणवायस्स असंखेज्जजोयणवाहल्लस्स तहेव' एवं घनोदधिवदेव रत्नमभायां घनोददेरथो विद्यमानस्य धनवातस्यासंख्येययोजनसहस्रबाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि वर्णतः कालादिना, गन्धतः सुरभ्यादिना, रसतस्तिक्तादिना, स्पर्शतः फर्कशा. दिना, संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि किमति प्रश्नस्य हन्त सत्रीत्युत्तरं पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति, एवं तनुवातस्यापि घनवावाधो विद्यमानस्या संख्येय योजनसहस्रबाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि तानि दूध आदि होकर रहते हैं 'एवं घणघायस्प्ल असंखेज्ज जोयण वाहल्लस्स तहेव' इसी तरह घनोदधि के नीचे विद्यमान जो घनवात हैं कि जिसकी मोटाई असंख्यात हजार योजन को है उसके जब क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करते हैं तो उसके द्रव्य वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप में गंध की अपेक्षा सुरभि आदि के रूप में, रस की अपेक्षा तिक्तादि के रूप में और स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि स्पर्श के रूप में तथा संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि में परिणत हुए परस्पर संघद्ध आदि होकर रहते हैं। इसी तरह से घनवात के नीचे विद्यमान असंख्यात हजार योजन को मोटाई वाले तनुवात के क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करने पर भी वे उसके द्रव्य पाँच वर्णरूप में, दो गंधरूप में, पांच रस અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરમંડલ વિગેરે પણામાં પરિણમે છે.? તથા પરસ્પર સંબદ્ધ વિગેરે થઈને રહે છે ? એ જ પ્રમાણે ઘનેદધિની નીચે વિદ્યમાન છે ઘનવાત છે, કે જેની પહોળાઈ જાડાઈ અસંખ્યાત હજાર યોજનની છે, તેના જ્યારે ક્ષેત્રના રૂપમાં વિભાગ કરવામાં આવે તો તેનું દ્રશ્ય વર્ણની અપેક્ષા થી કાળા વિગેરે રૂપથી ગંધની અપેક્ષાથી, સુરભિ, દુરભિરૂપથી, રસની અપેક્ષા થી કર્કશ વિગેરે પ્રકારથી તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરેમાં પરિણત થઈને પરસ્પર સંબદ્ધ આદિ થઈને રહે છે. એ જ રીતે ઘનવાતની નીચે વિદ્યમાન અસંખ્યાત હજાર એજનની પહોળાઈ જાડાઈ વાળા તનુવાતના ક્ષેત્રચ્છેદથી વિભાગ કરવામાં આવે તે પણ તેમાં રહેલ દ્રવ્ય પાંચ વર્ણ રૂપ થી બે ગંધપણાથી, પાંચરસપણાથી, આઠસ્પર્શપથાથી અને પરિમંડલ વિગેરે પાંચસંસ્થાન પણાથી પરિણમે છે. એ જ પ્રમાણે રત્નપ્રભામાં તનુવોતની નીચે. जी०६ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगम કર वर्णतः कालादिना गन्धतः सुरम्यदिना, रमतस्तिकादिना, स्पर्शठः कर्षशादिया संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि किमति प्रश्नस्य इन्त सन्तीवि पूर्ववदेव उत्तरमिति । 'ओचा संतरस्स वितं चैव' अवकाशान्तरस्यापि तदेव, रत्नमभायां तgarat विद्यमानस्यासंख्येययोजन सहस्रबाहुल्यस्यावकाशान्तरस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि तानि वर्णतः कालादिना गन्धतः सुरभ्यादिना, रसवस्तिक्तादिना, स्पर्शतः कर्कशादिना, संस्थानवः परिमण्डलादिना परिणतानीति प्रश्नस्य दन्त सन्तीति पूर्ववदेव उत्तरमिति । 'सरमाए णं भंते । पुढवीए' शर्कराप्रमायाः खलु मदन्त । पृथिव्याः 'वतीचर जोयणस्य सहरबाहल्लाए' द्वात्रिंशोत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्यायाः 'खेतच्छ्रेषण विज्ञमाणीए' रूप में, आठ स्पर्श रूप में और परिमंडल आदि पत्र संस्थान रूप में परिणत होते हैं। इसी तरह से रत्नप्रभा में तनुवात के नीचे विद्यमान और असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाले अवकाशान्तर के आदि पहले की तरह जान लेना चाहिये, क्षेत्रच्छेद के रूप में जब केवली की बुद्धि से विभाग करते हैं तो उसके द्रव्य वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गन्ध अपेक्षा की सुरभि आदि रूप से, रस की अपेक्षा तिक्तादि रूप से, स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से परिणत होते हैं आदि सही कथन पूर्वोक्त जैसा जनना चाहिये 'कापभाषणं भंते! पुढबीए' हे भदन्त । शर्करा प्रभा पृथिवी के जो 'बत्तीसुत्तर जोषण सरस्समाहल्ल्स' एक लाख बत्तीस हजार योजन की मोटाई वाली है उसका 'खेत्तच्छेपण जिરહેલ અને અસખ્યાત હજારચે જનની પહેાળાઈ વાળા અવકાશાન્તર વિગેરેના ક્ષેત્રàદથી વિભાગ કરવામાં આવે વિગેરે પહેલા કહ્યા પ્રમાણે સમજી લેવું જોઈએ. અર્થાત્ ક્ષેત્ર ́તાપણાથી જ્યારે કેવળીની બુદ્ધિથી વિભાગ કરવામાં આવે,તે તે એનું દ્રવ્ય વણની અપેક્ષાથી કાળાદિપણાથી ગધની અપેક્ષાથી સુરભિ વિગેરે પ્રકારથી, રસની અપેક્ષાથી તીખા, કડવા, વિગેરે પ્રકારથી પ ની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે રૂપે અને સસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમડલ વિગેરે પ્રકારથી थाय छे. विगेरे मधु धन पडेला उद्या प्रभानु' समवु' 'सक्कर पभाए भते ! पुढवीए' हे भगवन् श२यला पृथ्वीना ने 'वत्त' सुत्तरजोयणसयस इस्सबाइल्डस्स' थे साथ मत्रीस हन्तर योजननी होजाध वाणी छे, तेना 'खेतच्छेएणं छिज्जमाणीए' क्षेत्र यथाथी न्यारे विभाग उरवामां Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३सू.५ रत्नप्रभापृथिव्याः क्षेत्रच्छेदः क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानायाः 'अस्थिव्वाई' सन्ति द्रव्याणि 'वणी जाव घडताए चिट्ठति' वर्णतः कालानि नीलानि लोहितानि हारिद्राणि शुक्लानि, गन्धतः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि, रसतस्तिक्तानि कटुकानि कपायाणि अम्लानि मधुराणि, स्पर्शतः कर्कशानि मृदूनि गुरुकाणि लघुकानि शीतानि उष्णानि स्निग्धानि रूक्षाणि, संस्थानतः परिमण्डलानि वृत्तानि त्र्यसाणि चतुरस्त्राणि आयतानि, लैः परिणतानि अन्योन्य बद्धानि अन्योन्य स्पृष्टानि अन्योऽन्यावगाढानि अन्योऽन्यस्नेहबद्धानि अन्योऽन्य घटतया तिष्ठन्ति, इति प्रश्न:, भगवानाह-'हंता अस्थि' हन्त गौतम ! शर्कराप्रभाश्रितानि तानि द्रव्याणि यथोक्तविशेषणयुक्तानि भवन्त्येवेत्युत्तरम् । 'एवं घणोदहिस्स बीसं जोयणसहस्सवाहल्लस्स' मणीए' क्षेत्रच्छेद के रूप में जो विभाग करते हैं तो उसके द्रव्य क्या __ 'वण्णओ जाव घडताए चिट्ठति वर्ण की अपेक्षा फाल, नील, लोहित, हारिद्र और शुक्ल रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभि दुरभि गंध रूप से, रस की अपेक्षा, तिक्त, कटुक कषाय, अरूल एवं मधुर रस रूप से स्पर्श की अपेक्षा कर्कश, मृदु, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष रूप से तथा संस्थाल की अपेक्षा परिमंडल, वृत्त, यस्र, चतुरस्त्र, और आयत लम्बे रूप से परिणत होते हैं क्या? क्योंकि ये द्रव्य अन्योन्य बद्ध होते हैं, अन्योन्य स्पृष्ट होते हैं, अन्योन्य अवगाढ होते हैं, अन्योन्य स्नेह गुण से बद्ध होते हैं तथा परस्पर में अविभक्त होकर मिले रहते हैं। इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-हाँ गौतम ! शर्करा प्रभा पृथिवी के आश्रित वे द्रव्य यथोक्त विशेषणों से युक्त होते ही हैं। "एवं घणोदहिस्ल वीसं योजणलहा बाहलम' इसी प्रकार साव, तातना द्रश्यना 'वण्णओ जाव घडताए चिटुंति' पनी अपेक्षाया નીલ, લેહિત, હારિદ્ર, અને શુકલ સફેદ પણાથી ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ દરભિ ગંધપણાથી રસની અપેક્ષાથી તીખા, કડવા. કષાય તુરા અમ્લ, ખાટા અને મધુર મીઠા રસથી ૨૫ની અપેક્ષાથી કર્કશ, મૃદુ ગુરૂ, લઘુ, શીત સ્નિગ્ધ, અને રૂક્ષપણાથી તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ, વૃત્ત, વ્યસ ચતુરસ્ક, અને આયત લાંબાપણાથી પરિણત થાય છે ? કેમકે આ દ્રવ્યો પરસ્પર બદ્ધ હોય છે. પરસ્પર અવગાઢ હોય છે. પરસ્પર સ્નેહ ગુણથી બદ્ધ હોય છે. તથા પરસ્પરમાં અવિભક્ત થઈને મળીને રહે છે. ૨ આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હા ગૌતમ ! શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીને આશ્રિત થઈ રહેલા તે દ્રો યકત વિશેષણોથી યુકત હોયજ છે. 'एव प्रणोदहिस्स वीसं जोयण सहस्त्रबाहल्लस्स' म मा २५ पृथ्वीनी Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमत्र एवं शर्कराधभावदेव शर्कराप्रभातोऽधो विद्यमानस्य घनोदवेविंशति योजनसहस्रबादल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि यानि वर्गतः कालादिना, गन्धतः सुरभ्यादिना, रसतस्तिक्तादिना, स्पर्शतः कर्कशादिना, संस्थानमः परिमण्डलादिना परिणतानि अन्योन्यवद्धादि विशेषणविशिष्टानि अन्योन्य घटतया तिष्ठन्तीति प्रश्नस्य पूर्ववदेव इन्त सन्तीति भगवत उत्तरं ज्ञातव्यम् इति । 'एवं घगवातस्स असंखेज्जजोयणसहस्सवादल्लस्स' एवं घनोदधिवदेव घनोदधेरधोभागे विद्यमानस्य घनवातस्यासंख्येययोजनसहस्रवाहल्यस्य क्षेत्र शर्करा प्रभा के नीचे विद्यमान घनोदधि के जो बीस हजार योजन की मोटाई वाली है क्षेत्रच्छेद के रूप में जो विभाग करते हैं तो यहां जो द्रव्य हैं वे वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से गंध की अपेक्षा सुरभि आदि रूप से, रस की अपेक्षा तिक्त आदि रूप से, स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से क्या परिणमित होते हैं क्या? क्योंकि तद्गत द्रव्य अन्योन्य बद्ध आदि विशेषणों वाले होते हैं। इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं हां गौतम! शर्करा प्रभा के घनोदधि के आश्रित द्रव्य-वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान रूप से परिणत होते हैं। और अन्योन्य संघद्ध आदि विशेषणों वाले होते हैं । 'एवं घणवायस्त असंखेन्ज जोयण सहस्स बाइ ल्लस्स' इसी तरह से शर्करा प्रभा के घनोदधि के नीचे रहे हुए धन. घात के जो असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है क्षेत्रच्छेद के નીચે રહેલ ઘને દધિના કે જે વીસ હજાર જનની પહોળાઈ વાળે છે, તેના ક્ષેત્રચ્છેદ પટ્ટાથી પાર વિભાગ કરવામાં આવે, તે શું ત્યાં જે દ્રવ્ય છે, તે વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વિગેરે રૂપે ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ. દરભિગંધપણાથી, રસની અપેક્ષાથી તીખા કડવા વિગેરે પણાથી સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે પણાથી અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે પણુથી શું પરિણત થાય છે? કેમકે તેમાં રહેલ દ્રવ્ય અન્ય બદ્ધ વિગેરે વિશેષ વાળું હોય છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હા ગૌતમ! શર્કરા પ્રજાના ઘને દધિના આશ્રયે રહેલ દ્રવ્ય, વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શ, અને સંસ્થાન પણાથી પરિત થાય છે. અને અન્ય સંબદ્ધ વિગેરે વિશેષાવાળું હોય છે. 'एव घणवायत्स, असखेज्ज जोयणसहस्सवाहल्लरस' से प्रभार શર્કરપ્રભાના ઘોદધિની નીચે રહેલા ઘનવાત કે જે અસંખ્યાત હજાર જનની પહેળાઈ વાળે છે, તેના ક્ષેત્રપણાથી વિવારા કરવામાં આવે તે તેમાં Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ . ५ रत्नप्रमापृथिव्याः क्षेत्रच्छेदः च्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि यानि वर्णतः कालादिना गन्धतः सुरभ्यादिना, रसवस्तिक्तादिना, स्पर्शतः कर्कशादिना संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि भवन्तीति प्रश्नस्य हन्त गौतम ! सन्तीति यावत उत्तरं ज्ञातव्यमिति । ' एवं जाव ओबासंतरस्स' एवं यावदवकाशान्वररूप, हे भदन्छ ! यावत्पदेन aratara विद्यमानस्यासंख्येय योजना सहस्रवाहल्यस्य तनुत्रातस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि वर्णतः कालादिना यावत् संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि अन्योन्य वद्धानि विशेषण विशिष्टानि अन्योन्य घटतया तिष्ठन्तीति प्रश्नस्य इन्व गौतम | सन्तीति भगवत उत्तरं रूप में विभाग करने पर तगत द्रव्य क्या वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभि आदि रूप से, रस की अपेक्षा तिक्त रस आदि रूप से, स्पर्श की अपेक्षा पर्कश आदि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि से परिणत होते हैं क्या और अन्योन्य संबद्ध आदि विशेषण वाले होते हुए रहते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - हां, गौतम ! वे लगत द्रव्ध वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और संस्थान आदि से परिणत आदि पूर्वचन होते हैं । इसी तरह शर्करा प्रभा के घनवात के नीचे स्थित सनुवात के जो कि असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है केवली की वुद्धि से क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करने पर लगत द्रव्य क्या वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभि आदि रूप से, रख की अपेक्षा कर्कश आदि રહેલ દ્રવ્ય શુ' વની અપેક્ષાથી કાળા વિગેરે પણાથી, ગંધનો અપેક્ષાથી સુરભિ વગેરે રૂપથી રસની અપેક્ષાથી તીખા કડવા રસ વિગેરે પ્રકારથી સ્પર્શની અપેક્ષાથી કકશ વિગેરે રૂપથી અને સસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમડલ વિગેરે પણાથી પદ્યુિત થાય છે. અને અન્યોન્ય સખદ્ધ વિગેરે વિશેષણેાવાળો થઈને રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હા ગૌતમાં તેઓ તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, વ, ગધ. રસ, શ, અને સંસ્થાન વગેરેથી પરિણત વિગેર પૂર્વવત્ હાય છે, એજ પ્રમાણે શરપ્રભાના ઘનવાતની નીચે રહેલ તનુવાત, કે જે સખ્યાત હજાર ચેાજનની પહેાળાઇ વાળા છે, તેના કેવળીની બુદ્ધિથી ક્ષેત્રચ્છેદથી વિભાગ કરવામાં આવે તે તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, શુ' વણુની અપેક્ષાથી કાળાદિ પણાથી ગધની અપેક્ષાએ સુરભિ વગેરે રૂપથી રસની અપેક્ષાથી તીખાં વિગેરે રૂપથી સ્પર્શીની અપેક્ષાથી કશ વિગેરેપણાથી અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમ’ડલ વિગેરે રૂપે પરિણમે છે. વિગેરે પૂર્વવત કથન સમજી લેશું. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमन पतिपत्तव्यम् । एवं तनुपातस्याधोभागे विद्यमानस्यावकाशान्तरस्यासंख्येययोजनसहस्रबाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि यानि वर्णतः कालादिना यावत्संस्थानतः परिमण्डलादिना परिणतानि द्रव्याणि वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानयुक्तानि अन्योन्य बद्धानि विशेषणयुक्तानि अन्योन्य घटतया तिष्ठन्ति किमिति प्रश्नस्य हन्त गौतम ! भवन्त्येव तानि द्रव्यानि तथाविधानीत्युत्तरं ज्ञेयम् 'जहा सक्करप्पभाए एवं जाब अहे सत्तमाए' यथा शर्कराप्रभायां घणोदधि धनवात तनुवातावकाशान्तराणां क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानानां यानि तद्गत द्रव्याणि वर्णतः कालादिना यावत्संस्थानतः परिभण्डलादि परिणतानि अन्योन्य बद्धादि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से परिणत आदि पूर्ववत् होकर रहते हैं, ऐसा कथन पूर्ववत् जान लेना। इसी प्रकार असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाले अवकाशान्तर के जो कि तनुवात के नीचे स्थित है क्षेत्रच्छेद के रूप में विभाग करने पर तद्गत जो द्रव्य है वे वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, गंध की अपेक्षा सुरभि दुरभि गंध रूप से, रस की अपेक्षा तिक्त आदि रस रूप से, स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि रूप से और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से परिणमित होकर आदि पूर्ववत रहते हैं ऐसा जानना चाहिये 'जहा सकरप्पभाए एवं जाव अहे सत्तमाए' जिस प्रकार शर्करा प्रभा के घनोदधि, घरवात और तनुवात और अवकाशान्तर है, इन सब के क्षेत्रच्छे हक रूप में विभाग करने पर तदन्तर्गत द्रव्यों का वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, यावत् संस्थान की अपेक्षा परिमंडल એજ પ્રમાણે અસંખ્યાત હજાર એજનની પહોળાઈ વળો અવકાશાન્તર કે જે તનુવાતની નીચે છે. તેના ક્ષેત્રરડેદ પણાથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ જે દ્રવ્ય છે. તે વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વગેરે રૂપે ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ દરભિ ગંધપણાથી. રસની અપેક્ષાથી તીખા, કડવા, વિગેરે પણુથી સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે પ્રકારથી અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે રૂપે પરિણનિત થઈને વિગેરે પહેલા કહેલ પ્રકારથી રહે છે, તેમ સમજવું 'जहा सक्कापभाए एव जाव अहे सचमाए' रे प्रभारी श६२१ प्रमामi ઘદધિ, ઘનવાત, તનુવાત અને અવકાશાન્તર છે એ બધાના ક્ષેત્ર છેઃ પણાથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ દ્રવ્યનું વર્ણની અપેક્ષાથી કાલાદિ રૂપે યાવત્ સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે પણાથી પરિણત થવાના સંબંધમાં Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.६ रत्नप्रभापृथ्व्याः संस्थाननिरूपणम् विशेषणानि अन्योन्य घटतया तिष्ठन्ति तेषामवस्थानं व्याख्यातं तथैव बालका. पमा पङ्कममा धूमप्रभा तमाममा तमस्तमः प्रभास्वपि घनोदधि घनवात तनुवासावकाशान्तर सम्बन्धि द्रव्यविषयेऽपि प्रश्नोत्तरेण व्यख्यातव्यमिति । प्रकारस्तु सर्वत्र पूर्ववदेन तव्य इति संक्षेपः ॥५॥ सम्मति रत्नममा पृथिवीनां संस्थान प्रतिपादनार्थमाह-इमाणं भंते' इत्यादि। __ मूलम्-इमा णं भंते ! रयणप्पमा पुढची किं संठिया पन्नत्ता? गोयमा! झल्लरी संठिया पन्नत्ता । इमीसे गं भंते! स्यणप्प. भाए पुढवीए खरकंडे किं संठिए पन्नत्ते ? गोयमा! झल्लरी संठिए पन्नत्ते । इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे किं संठिए पन्नत्ते ? गोयमा ! झल्लरी संठिए पन्नत्ते । एवं जाव रिटे। एवं पंकबहुले वि, एवं आबबहुले वि, घणोदही वि, घणवाए वि, तणुवाए कि, ओवासंतरे वि सव्ने झल्लरी संठिए पन्नत्ते । सकरप्पभा णं भंते ! पुढवी किं संठिया पन्नत्ता ? गोयमा ! झल्लरी संठिया पन्नता। सकरप्पभाए पुढवीए घणोदही किं संठिए पन्नते ? गोयमा ! झल्लरी संठिए पन्नत्ते, आदि रूप से परिणमित होना आदि कहा गया है उसी प्रकार से बालुका प्रभा, पङ्क प्रभा, धूम प्रभा, तमः प्रभा और तमरतमः प्रभा, इन पृथिवीयों में भी वर्तमान घनोदधि, घनवात, तनुवात और अब. काशान्नर सम्बन्धी द्रव्यों का वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से, यावत् संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि रूप से, परिणमन आदि होता है, ऐसा जानना चाहिये इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार सर्वत्र पहिले के जैसा ही बनाना चाहिये। ० ॥५॥ કથન કર્યું છે. એ જ પ્રમાણે વાલુકાપ્રભા, પંકપ્રભા, ધૂમપ્રસા, ત :પ્રભા અને તમતમપ્રભા આ પૃથ્વીયમાં રહેલા ઘોદધિ, ઘનવડત તનુવાત, અને અવકાશાન્તર સંબંધી દ્રવ્યોનું વર્ણની અપેક્ષાથી કાળાદિ રૂપથી, યાવત્ સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે પાથી પરિણમન વિગેરે થાય છે તેમ સમજવું આ સંબંધમાં આલાપકેન પ્રકાર બધેજ પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે સમજી લે. સૂ પા Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છૂટ जीवाभिगम क्षेत्र एवं जाव ओबासंतरे, जहा सकरप्पभाए वत्तव्वया एवं जाव अहे सन्तमा वि ॥सू० ६ ॥ छाया - इयं खलु भदन्छ ! रत्नप्रभा पृथिवी किं संस्थिता प्रज्ञप्ता ? गौतम ! झल्लरी संस्थिता प्रज्ञप्ता । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः खरकाण्ड' किं संस्थितं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! झल्लरी संस्थितं प्रज्ञप्तम् । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः रत्नकाण्ड' किं संस्थितम् प्रज्ञसम् ? गौतम | झल्करीसंस्थितं प्रज्ञयम्, एवं यावद्रिष्टम् । एवं पंकबहुलमपि, एवमब्बहुलमपि, घनोदधिरपि, घनापि तनुत्रावोsपि, अवकाशान्तरमपि सर्वः झल्लरी संस्थितः प्रज्ञप्तः । शर्कराप्रभा खलु भदन्त ! पृथिवी कि संस्थिता प्रज्ञप्ता ? गौतम ! झल्लरीसंस्थिता प्रज्ञप्ता शर्कराप्रमायाः पृथिव्याः घनोदधिः किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ? गौतम | झल्लरी संस्थितः प्रज्ञप्तः । एवं यावदधः सप्तम्या अपि ||सू० ६ || टीका- 'इमाणं भंते' इयं खलु भदन्त ! ' रयणप्पभा पुढवी' रत्नप्रभा पृथिवी 'कि संठिया' कि संस्थिता कीदृशेन संस्थानेन संस्थिता इति किं संस्थिता कीदृशे संस्थानेन संस्थानवती 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ता कथितेति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'झल्लरी संठिया पन्नत्ता' झल्लरी संस्थिता मज्ञप्ता कथिता झल्लरीव संस्थिता विस्तीर्णवलयाकारत्वात् । एवमस्या एव रत्नप्रमायाः यत् खरकाण्ड' तस्य संस्थानं 'इमोर्ण भंते! रयणाभा पुढवी किं संठिया पन्नत्ता' - इत्यादि । टीकार्थ- गौतम ने यहां प्रभु से ऐसा पूछा है - 'इमाणं भंते! रणभा पुढवी किं संठिया' हे भदन्त ! यह जो रत्नप्रभा पृथिवी है वह किस प्रकार के स्थान वाली कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोमा ! झल्लरीसंठिया पनत्ता' हे गौतम! यह रत्नप्रभा पृथिवी झल्लरी- झालर - के जैसे गोलाकार संस्थान वाली कही गई है क्योंकि यह विस्तीर्ण वलय के आकार वाली है - 'इमाण' भंते! रयणप्पभा पुढची कि सठिया पन्नत्ता' इत्यादि ટીકા-ગૌતમ સ્વામીએ આ સૂત્રદ્વારા પ્રભુને એવું પૂરેલ છે કે ‘માળ’ भते । रयणप्पभा पुढवी किं सठिया' हे लगवन् ने मा रत्नअला पृथ्वी छे, તે કેવા પ્રકારના સંસ્થાન વાળી કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ स्वाभीने कुडे छे है 'गोयमा ! झल्लरी खंठिया पण्णत्ता' हे गौतम! भा રત્નપ્રભા પૃથ્વીના અલ્લરીઝલરના આકાર જેવી અર્થાત્ ગાળાકાર સથાનવાળી કહેવામાં આવી છે કેમકે આ વિસ્તારવાળા, વલય-મલેાયાના આકાર જેવી છે. ગૌતમ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.६ रत्न भापृथ्व्याः संस्थाननिरूपणम् ४९ पृच्छति-'इमीसे णं' इत्यादि, 'इपीसे णं भंते' अस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्प. भाए पुढवीए' रत्नपभायाः पृथिव्याः 'खरकंडे' खरकाण्डम् 'कि संठिए पण्णत्ते' कि संस्थान कीदृशसंस्थानयुक्तं प्राप्तम् ? 'गोयमा !' हे गौतम | 'झल्लरी संठिए पण्णत्ते' झल्करी संस्थानं झल्लाकारं प्रज्ञप्तम् । 'इमीसे णं भंते' एतस्याः खल भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नपभायाः पृथिव्याः 'रयणकंडे' रत्न. काण्डम्, 'कि संठिए पनत्ते' तत् रत्नकाण्ड किं संस्थितं कीदृक् संस्थानयुक्तं प्रज्ञप्तं कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा !' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अल्लरीसंठिए पत्ते' झल्लरी संस्थित रत्नकाण्डस्यापि विस्तीर्णवलयाकारत्वादेवेति १ । 'एवं जाव रिट्टे' एवं रत्नकाण्ड यथा झल्लरी संस्थितम्, तथैव वनकाण्डादारभ्य यावद्रिष्टकाण्डमिति वनकाण्डम् २, चैडूर्यकाण्डम् ३, लोहिताक्ष 'इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे कि संठिए पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो खरकाण्ड है वह सिंठिए पन्नते' किस संस्थान वालो कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! झल्लरी संठिए पन्नत्ते' हे गौतम! इस रत्न प्रभा प्रथिवी में जो खरकाण्ड है वह झल्लरी के जैसा आकार वाला कहा गया है क्योंकि यह भी विस्तीर्ण बलय के आकार जैसी है 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभाए पुढपीए रयणकंडे किं संठिए पन्नत्ते ?' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो रत्न काण्ड है वह कैसे आकार वाला कहा गया है ? 'गोयमा! झल्ली संठिए पन्नत्ते' हे गौतम ! बह झालर के जैसे आकार वाला कहा गया है 'एवं जाव रिट्टे' रत्नशाण्ड की तरह यावत् रिष्टकाण्ड भी झल्लरी के आकार जैसा ही कहा गया है यहां "इमोसे णं भंते। रयणप्पभाए पुढवीए खरकडे किं सठिए पण्णत्ते के भगवान मा २त्नमा ४ीमा २ प२४ छे, ते 'किं सठिए पन्नत्ते' या संस्थान पाणी ४३ छ ? | प्रशन उत्तम प्रभुशीतभाभीने ४ छ ? 'गोयमा! मल्लरी संठिए पन्नत्ते' है गीतम! मा २त्नप्रभा पृथ्वीमा रे मो , ते ઝલ્લરી-ઝાલરના જેવા ગોળ આકારવાળો કહ્યો છે. કેમકે આ પણ વિસ્તૃત मसायान मा२ ।४ छ. 'इमीसेणं भते । रयणग्पभाए पुढवीए रयणकड़े किं सठिए पन्नत्ते १' हे भगवन् मा २नमा पृथ्वीमा २ २isis છે, તે કેવા આકારવાળો કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે, 'गोयमा! ज्ञल्लरी सठिए पन्नत्ते' 3 गौतम ! ते आसरना मार 24 भा२पाणी हे छ १ 'एव जाव रिट्टे' २४isना ४थन प्रमाणे यावत् रिट કાંડપણ ઝાલરના આકાર જેવાજ આકારવાળો કહેલ છે. અહિંયા યાવત્ શબ્દથી जी०७ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम काण्डम् ४, मसारगल्लकाण्डम् ५, हंसग काण्डम् ६, पुलककाण्डम् ७, सौगन्धिककाण्डम् ८, ज्योतीरसकाण्डम् ९, अञ्जनकाण्डम् १०, अञ्जनपुलककाण्डम् ११, रजतकाण्डम् १२, जातरूपकाण्डम् १३, अंककाण्डम् १४, स्फटिककाण्डम् १५, एवं रिष्टकाण्ड चेति सर्वाणि षोडशापि काण्डानि झल्लरी संस्थानसंस्थितान्येवेति ज्ञातव्यम् । 'एवं पंकबहुले वि' एवं खरकाण्डादिवदेव रत्नममा पृथिव्याः यद् द्वितीयं पंकबहुलं काण्ड तदपि झल्लरी संस्थानसंस्थितमिति ज्ञातव्यम् । 'एवं आवत्रहुले वि' एमबहुलमपि पंकबहुलकाण्डनदेव रस्नममा पृथिव्यां विद्यमानमकाण्डं तृतीयमपि अल्लरी संस्थान संस्थितमिति ज्ञातव्यम् । 'घणोदही वि' घणोदधिरपि रत्नममाया अधोभागे वर्तमानो घणोदधिरपि झल्लरी संस्थानसंस्थित एवेति ज्ञातव्यम् । 'घणवाए वि' धनवातोऽपि घणोदधेरधस्ताद्विद्ययावत् शब्द से वज्र काण्ड २, वैडूर्यकाण्ड ३, लोहिताक्षकाण्ड ४, मसारगल्लकाण्ड५, हंसगर्भकाण्ड६, पुलाककाण्ड ७, सौगन्धिककाण्ड ८, ज्यो. तिरस काण्ड ९, अञ्जन काण्ड १०, अञ्जन पुलाफ ११, रजत काण्ड१२, जातरूप काण्ड १३, अङ्क काण्ड १४, स्फटिशकाण्ड १५, और रिष्ट कोण्ड । १६, ये सब सोलह ही काण्ड झल्लरी के जैसे आकार वाले कहे गये हैं। ____ 'एवं पंकरहुले वि' खरकाण्ड आदि की तरह ही रत्नप्रभा पृथिवी में जो दूलरा बहुल काण्ड है वह भी झल्लरी के जैसे-ही आकार वाला ही कहा गया है एवं आवघहुले वि' इसी प्रकार से रत्नप्रभा पृथिवी में जो अब्धहुल भाग है वह भी झल्लरी के जैसे आकार घाला कहा गया है 'घणोदधि वि' रत्नप्रभा पृथिवी के अधोभाग में वर्तमान घनोदधि भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाला Radis २, वैय ४is 3, asiasis ४, मसारnaxis ५, Insis ક, પુલાકાંડ ૭, સૌગંધિકકાંડ ૮, જ્યોતિરસકાંડ ૯, અંજનકાંડ ૧૦, અંજન પુલાકાંડ ૧૧, રજતકાંડ ૧૨, જાતરૂપકાંડ ૧૩, અંકકાંડ ૧૪, સ્ફટિકકાંડ ૧૫, અને રિષ્ણકાંડ ૧૬, આ બધાજ સોળે કાંડે ઝલરના આકાર જેવા આકાર વાળાજ કહેલા છે. एव पकवहुले वि' भ२विरेन। ४थन प्रभारी १२नमा पृथ्वीमा બીજે જે પંકબહુલકાંડ છે, તે પણ ઝાલરના જેવા આકારવાળેજ કહેવામાં आवे छे. 'एवं अव्बहुले वि' से प्रभारी २नमा पृथ्वीमा अgavis छ त ५ तसरना २५४२ २५ मारवाणी व छे. 'घणोदहि वि' २त्न પ્રભા પૃથ્વીની નીચેના ભાગમાં રહેલ ઘનોદધિ પણ ઝાલરના જેવા આકાર नाणा ४३ थे, 'घणवाएवि' घोधिनी नीयन। भाभी धनवात५९ में न Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योति का टीका प्र.३ सू.६ रत्नममापृथ्व्याः संस्थाननिरूपणम् मानो घनवातोऽपि झल्लरी संस्थित एव । 'तणुवाए वि' तनुवातोऽपि घनवातस्याधस्ताद् विद्यमानस्तनुरातोऽपि झल्लरी संस्थित एवेति ? 'ओवासंतरे वि' अवकाशान्तरमपि रत्नप्रभायामेव तनुवातादधो विद्यमानमवकाशान्तरमपि झल्लरीसंस्थितमित्यवगन्तव्यमिति, किंबहुना 'सव्वे विझल्लरी संठिए पन्नत्ते' सर्वेऽपि पंकबहुलादारभ्यावकाशान्तरपर्यन्तः प्रस्ताव: झल्लरी सस्थितः प्रज्ञप्तः । 'सक्करप्पभाणं भंते ! शर्कराममा खलु भदन्त ! 'पुढवी' पृथिवी 'किं संठिया पन्नत्ता' कि संस्थिता कीदृश संस्थानयुक्ता प्रज्ञप्ता-कथितेति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'झल्लरी संठिया पन्नत्ता' झल्करी संस्थिता प्रज्ञप्ता विस्तीर्ण वळसाकारत्वादिति । शर्करामभायाः संस्थानं प्रदश्यं शर्करापमाया अधोकहा गया है । 'घणवाए वि घनोदधि के अधोभाग में वर्तमान घन. वात भी इसी प्रकार के आकार वाला कहा गया है । 'तणुवाए वि' घनवात के अधोभाग में वर्तमान तनुवात भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाला कहा गया है। 'ओवासंतरे धि' तलुवात बलय के अधो. भाग में वर्तमान अवकाशान्तर भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाला कहा गया है। 'सव्वे वि झल्लरी संठिए पन्नत्ते' इस विषय में अधिक क्या कहा जावे पंकबहुल काण्ड से लेकर अवकाशान्तर पर्यन्त सब ही झल्लरी के जले ही आकार वाले कहे गए हैं 'सकरप्पभाणं भंते ! पुढची' हे भदन्त ! शर्कराप्रभा नाम की जो प्रथिवी है वह 'कि संठिया कैसे आकार वाली है ? उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा ! झल्लरी संठिया पन्नत्ता' हे गौतम ! शर्करा प्रभा नाम की जो पृथिवी है वह भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाली है। क्यों प्रभारी आसरना २ २१ २२नेउस छे. 'तणुवाए वि' धनपातनी નીચેના ભાગમાં રહેલ જે તનુવાત છે, તે પણ ઝાલરના આકાર જે કહેલ छ, 'ओवासतरे वि' तनुपात १सयना नीयन मागमा २२स अशान्तर सरना वा २१२ वाणु अवाम मावस छे. 'सव्वे वि झल्लरी मठिए पन्न' । समयमा विशेष शुं ४उपाय ? ५४मgisथी छन અવકાશાન્તર પર્યન્ત બધાજ કાંડે ઝાલરના આકાર જેવા આકારવાળા કહ્યા છે. ___ 'सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवी' 8 भवन् प्रमानामनी रे थ्वी . 'कि सठिया' वा मा२पाणी छे १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभु, ४ 'गोयमा ! झल्लरी संठिया पन्नत्ता' गौतम ! शममा पृथ्वी पर Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जीवाभिगमध्ये विद्यमानस्य घनोदधेः संस्थानं दर्शयितुमाह-सक्करप्पाए' 'इत्यादि, 'सक्करप्पभाए पुढवीए' शर्करामभायाः पृथिव्याः 'घणोदही किं संस्थितः मज्ञप्त:-कथित इति प्रश्नः, भगवानाम-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'झल्लरी संठिए पन्नत्ते' शर्करोममायाः घनोदधिः झल्लरी संस्थानसंस्थित एक प्रज्ञप्तः विस्तीर्णवलयाकारत्वादेवेति । एवं जाव ओवासंतरे' एवं यावदवकाशान्तरम्, यावत्पदेन धनवात तनुवातयोः संग्रहः तथा च शर्करापमाऽधोविधमानधनवाततनुवाता वकाशान्तर मेतत् सर्व झल्लरी संस्थितमेवेति ज्ञेयम् । 'जहा सकरप्पभाए क्त्तव्बया कि यह भी विस्तीर्ण वलय के जैसी-है 'सकरप्पभाए पुढवीए घणो. दही किं संठिया' हे भदन्त ! शर्करा प्रभा पृथिवी के अधोभाग में जो घनोदधिवात बलय है वह कैसे आकार वाला है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं गोयमा 'हे गौतम ! 'झल्लरी संठिए पन्नत्ते' शर्कराप्रभा पृथिवी के अधो भाग में अवस्थित जो घनोदधि वातवलय है वह भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाला है। क्योंकि इसका जो आकार है वह विस्तीर्ण वलय के जेसा ही है। 'एवं जाव ओवासंतरे' इसी तरह से यावत् अवकाशान्तर तक कथन जानना चाहिये जैसे-शर्करा प्रभा गत जो घनोदधि वातवलय है-सो उस घनोदधि वातवलय के नीचे वर्तमान जो धनवात बलय है वह, और इस घनवात वलय के नीचे वर्तमान जो तनुवान वलय है वह एवं इस वातवलय के नीचे वर्तमान जो अवकाशान्तर है वह सष झल्लरी के जैसे ही आकार वाले हैं ऐसा जानना चाहिये 'जहा सक्करप्यभार वत्तव्यया एवं जाव आहे सरना मा२ २१ मा २वाजी ही छे. 'सक्करप्पभार पुढवीए घणोदही कि संठिया' है सावन् श४२५मा पृथ्वीना नीयन मामा २२ रे घनादि વાતવલય છે. તે કેવા આકાર વાળે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે गोयमा ! 13 गौतमी 'झलरी सठिए पन्नत्ते' श६२२मा पृथ्वीनी नायना ભાગમાં રહેલ જે ઘનેદધિ વાતવલય છે, તે પણ ઝાલરના જેવાજ આકાર पापा 2. भ त २ विस्तृत मायाना वा छे. 'एवं जाव ओषा संतरे' से ४ प्रमाणे यावत् अवशन्त२ सुधिनु ४थन सभाभ શર્કરપ્રભામાં રહેલ જે ઘોદધિ વાતલય છે, તે ઘોદધિ વાત વલયની નીચે રહેલ જે ઘનવાત વલય છે, તે અને એ ઘનવાત વલયની નીચે રહેલ જે તનુવાત વલય છે, તે અને એ તનુવાત વલયની નીચે રહેલ જે અવકાશાન્તર છે. તે બધા ઝાલરના આકાર જેવાજ ગોળ આકારવાળા છે. તેમ સમજવું. - Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ . ६ रत्नप्रभा पृथ्व्याः संस्थाननिरूपणम् ५३ एवं जाव अहे सत्तमा वि' यथा शर्करामभायाः संस्थानविषये वक्तव्यता तथैव बालकामभा पंकप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा तमस्तमः प्रमाणामपि पृथिवीनां संस्थानविषये वक्तव्यता ज्ञेया, सर्वाऽपि नारकपृथिवी झल्लरी संस्थितैवेति । एवं वालुकाप्रभात आरभ्य तमस्तमा पृथिवी पर्यन्ताः सर्वा अपि पृथिव्याः झल्लरी संस्थिताः, तथा तत्सम्बन्धि घनोदधि घनवाद तनुवातावकाशान्तराण्यपि झल्लरी संस्थितान्येवेति ज्ञातव्यमिति ॥ ६ ॥ ननु सप्ताऽपि एताः पृथिव्यः सर्वा किमलोकस्पर्शिन्यो नवे ? ति उच्यतेनालोक स्पर्शिन्यः किन्तु लोकस्पर्शिन्य एत्र उक्तञ्च -- नविय फुर्सति अलोगं चउसु वि दिसासु सन्त्र पुढवीओ' इति नापि च स्पृशन्ति अलोकम्, चतुसृष्वपि दिक्षु सर्व पृथिव्याः, इतिच्छाया एतदेव दर्शयति- 'इमी से णं' इत्यादि, मूलम् - इसीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमि ल्लाओ चरिमंताओ केवइयाए अबाहाए लोयंते पण्णत्ते ? गोयमा ! दुबालसएहिं जोयणेहिं अबाहाए लोयंते पन्नन्ते, एवं सत्तमाए वि' जिस प्रकार की यह संस्थान विषयक वक्तव्यता शर्करा प्रभा के सम्बन्ध में कही गई है उसी तरह की वक्तव्यता बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा, और तमस्तमः प्रभा के भी संस्थान के सम्बन्ध में है ऐसा जानना चाहिये क्योंकि ये सब पृथिवीयां झल्लरी के जैसे ही आकार वाली हैं। इसी प्रकार बालुका प्रभा से लेकर तम स्तमा पृथिवी तक के जो घनोद्धि, घनवात, तनुदात एवं अवकाशान्तर हैं वे सब भी झल्लरी के जैसे ही आकार वाले है यह भी स्वतः समझ लेना चाहिये सू० ||६|| 'जहा सक्कर पभाए बत्तव्वया एवं जाव अहेखत्तमा वि' ने अ આ સંસ્થાન સ ંબંધી કથન શકાપ્રભા પૃથ્વીના સબંધમાં કહેલ છે, એ જ પ્રમાણેનુ' કથન વાલુકાપ્રભા, પંકપ્રભા, ધૂમપ્રભા, અને તમતમા પ્રભાના સસ્થ નતા સંમ્ ધમાં પણ સમજવું કેમકે આ બધી પૃથ્વીચે ઝાલરના આકાર જેવાજ આકારવાળી છે. એજ પ્રમાણે વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને તમસ્તમા પૃથ્વી સુધીના જે ઘનેાધિ, ઘનવાત, તનુવાત અને અવકાશાન્તર તે બધા પણ ઝાલરના આકાર જેવાજ ગાળ આકારવાળા છે. તેમ સ્વતઃસમજી લેવુ'. ।। સુ. ૬ ।। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामि गम सूत्रे दाहिणिल्लाओ पच्चत्थिमिल्लाओ उत्तरिल्लाओ । सक्करप्पभाए पुढचीए पुरथिमिल्लाओ घरिमंताओ केवइयाए अब हाए लोयंते पन्नते ? गोयमा ! तिभागूणेहिं तेरसहिं जोयणेहिं अबहाए लोयंते पन्नत्ते, एवं चउद्दिसिं पि । बालुयप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्लाओ पुच्छा, गोयमा ! सतिभागेहिं तेरसेहिं जोयणेहिं अवाहाए लोयंते पन्नत्ते, एवं चउद्दिसिं पि । एवं सव्वालिं चउसु वि दिलासु पुच्छियन्त्रं । पंकप्पभाए पुढबीए चोदहि जोयणेहिं अबाहाए लोयंते पन्नत्ते । पंचमाए तिभागूणेहिं पन्नरसहिं जोयणेहिं अवाहाए लोयंते पन्नत्ते । छट्टीए सतिभागेहिं पन्नरसहिं जोयणेहिं अवाहाए लोयंते पन्नन्ते । सतमीए सोलसहिं जोयणेहिं अबाहाए लोयते पन्नत्ते । एवं जाव उत्तरिल्लाओ ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते कइविहे पन्नत्ते ? गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते तं जहा घणोदहिवलए घणवायबलए तणुवायवलए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए दाहिणिल्ले चरिमंते कवि पन्नसे ? गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते तं जहा एवं जाव उत्तरिल्ले, एवं सव्वासिं जाव अहे सत्तमाए उत्तरिल्ले | ०७ 24 छाया-- एतस्याः खल्लु भदन्त ! रत्नमभायाः पृथिव्याः पौरस्त्यात् चरमान्तात् कियत्या अवधपा लोकान्तः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! द्वादशभिर्योजन - स्वाधया लोकान्तः मज्ञप्तः एवं दाक्षिणात्यात् पाश्चात्यादौत्तरात् । शर्क राममायाः पृथिव्याः पौरस्त्यात् चरमान्तात् कियत्याऽवाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! त्रिमागोनै त्रयोदशभियोजनैरवाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः, एवं चतुर्दिक्ष्वपि । वालुकामभायाः पृथिव्याः पौरस्त्यात् पृच्छा, गौतम ! सत्रिभागे त्रयोदशभियोंजनैरवाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः, एवं चतुर्दिक्ष्वपि एवं सर्वासां चतसृष्वपि दिशास प्रष्टव्यम् । पङ्कमभायाः पृथिव्याः चतुर्दशभिः योजनैरव धपा लोकान्तः प्रज्ञप्तः । पञ्चम्या त्रिभागोनैः पञ्चदशभि यजनैरबाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः । षष्ठयाः Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atratfar tet प्र. ३ . ७ सप्तापिपृथिव्य लोकस्वशिन्यनवेति ५५ सत्रिभागेः पञ्चदशभि यजनैरवाधया लोकान्तः प्रज्ञप्तः । सप्तम्याः षोडशभि राधा लोकान्तः प्रज्ञप्तः । एवं यावदौत्तरात् । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्यः चरमान्तः कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! त्रिविधः तद्यथा - घनोदधिवलयः घनवातरलयः तनुवातवलयः । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः दाक्षिणात्यश्वरमान्तः कतिविधः प्रज्ञप्तः ? गौतम त्रिविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा - एवं यावदौत्तरं, एवं सर्वासां यावदधः सप्तम्या औतरः ||०|७|| टीका--' इमी से णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'स्यणप्पमाए पुढवीए' रत्नमभायाः पृथिव्याः 'पुरथिमिल्लाओ' पौरस्त्यात् पूर्वदिग्भाविनः 'चरिमं ताओ' चरमान्तात् - अन्तिमभागात् 'केवइयाए' कियत्या - कियत्परिमितया 'अवाहाए' अवाधया - अपान्तरालरूपया 'लोयंते' लोकान्त'लोकावधि परिच्छिन्नः 'पन्नत्ते' प्रज्ञप्तः ? इति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, गोधमा' हे गौतम ! शंका- ये सातों ही पृथिवीयां क्या समस्त दिशाओं में अलोक का स्पर्श करती हैं या नहीं करती है ? उत्तर- ये सातों ही पृथिवीयां समस्त दिशाओं में अलोक का स्पर्श नहीं करती हैं- जैसे कहा है- 'नविय फुर्हति अल.गं, चसुवि दिसासु सन्व पुढवीओ' इत्यादि । किन्तु लोक का ही स्पर्श करती है इसी बात को अब सूत्रकार प्रकट करते हैं- 'इमी से णं भंते' इत्यादि । टीकार्थ- 'इमीण भंते । रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ केवहए अवाधाए लोयंते पण्णत्ते' हे भदन्त ! जो यह प्रभा नाम की पृथिवी है उस पृथिवी के पूर्व दिशावर्ती चरमात से कितनी दूर पर लोकान्त-लोक का अन्तभाग कहा गया है ? उत्तर में प्रभु શ'કા—આ સાતે પૃથ્વીચે સઘળી દિશાઓમાં અલેકના સ્પ કરે છે ? કે નથી કરતી ? ઉત્તર—આ સાતેય પૃથ્વીયેા સઘળી દિશાએમાં લેકને સ્પર્શક તી नथी. भई अधु छे 'नवि य फुसति अलग, चउसु दिखासुवि सव्व पुढवीओ' इत्यादि પરંતુ લેાકનાજ સ્પ કરે છે. એજ વાતને હવે સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે. 'इमीसे ण' भ'ते !' इत्यादि टीडार्थ' - 'इमीसे ण' भते रयणप्पभाए पुढवीए पुरत्थि मिल्लाओ चरिमताओ care अवधाए लोयते पण्णत्ते' हे भगवन् या रत्नप्रभा नामनी ने पृथ्वी છે. એ પૃથ્વીની પૂ॰દિશાના ચરમાંતથી કેટલે દૂર લે!કાન્ત-સેફના અત્ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - . जीवामिगम 'दुवालमएहि जोयणेहि द्वादशमि योजन:-द्वादशयोजनपरिमितया 'अवाहाए' अवाधया 'लोयते' लोकान्तोऽलोकान्तादर्वाग्भागः 'पन्नत्ते' प्रज्ञप्त:-कथितः, अयं भावः-रत्नमभायाः पृथिव्याः पूर्वस्यां दिशि चरमपर्यन्तात् परतः अलोकादकि अपान्तरालं द्वादशयोजनानि, 'एव दाहणिल्लाओ, पञ्चस्थिमिल्लाओ उत्तरिल्लाओ' एवम् दक्षिणस्यामपि द्वादशयोजनानि अपान्तरालम् पश्चिमदिग्भागेऽपि द्वादशयो. जनानि अपान्तरालम्, एवमुत्तरदिग् विभागेऽपि द्वादशयोजनानि अपान्तगलम् । दिग्ग्रहगमुपलक्षणम्. तेन विदिक्ष्वपि द्वादशयोजनानि अपान्तरालं ज्ञातव्यमिति । शेषाणां शर्करा प्रभादितमस्तमः प्रमापर्यन्तानां पृथिवीनां सर्वासुदिक्षु विदिक्षु च कहते हैं-'गोयमा! दुवालसएहिं जोयणेहिं अवाधाए लोयंते पाणसे' हे गौतम ! रत्नप्रभा नामकी पहली पृथिवी के पूर्व दिशावर्ती घरमान्त से बारह योजन के बाद लोक का अन्त-अलोक-कहा गया है तात्पर्य इसका ऐसा है कि-रत्नप्रभा पृथिवी की पूर्व दिशा में जो चरमान्त हैउससे आगे और अलोक के पहिले थारह योजन प्रमाण अपान्तराल में यहीं से अलोक प्रारम्भ होता है अलोक की मर्यादा का प्रारम्भ होना ही लोक का अन्त है। 'एवं दाहिणिल्लाओ, पञ्चथिमिल्लाओ, उत्तरिल्लाओ इसी प्रकार दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशा में भी बारह पारह योजन का अपान्तराल है। यह दिशा सम्बन्धी अपान्तराल कथन उपलक्षण रूप है इससे यह भी जानना चाहिये कि विदिशाओं में भी इतना ही अपान्तराल हैं विदिशाओं में भी इस अपान्तराल दूरी के बाद ही अलोकाकाश का प्रारंभ होता है इस रत्नप्रभा रह्यो छे १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रमु छ है 'गोयभा! दुवालसएहि जोय णेहि अबाधाए लोय ते पण्णत्ते' गौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वीनी पूरी हिमां રહેલ ચરમાંતથી બાર એજન પછી લેકને અંત અલક કહ્યો છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પૂર્વ દિશામાં જે ચરમાન્ત છે, તેનાથી પછી અને અલકની પહેલાં બાર યોજન પ્રમાણુ અપાન્તરાલ છે. ત્યાંથી જ અલેકને પ્રારંભ થાય છે અલેકની મર્યાદાનું પ્રારંભ થવું એજ લેકને मत छ 'एव दाहिणिल्लाओ, पच्चत्थिमिल्लासो, उत्तरिल्लामो से प्रभार દક્ષિણ દિશામાં પશ્ચિમ દિશામાં અને ઉત્તર દિશામાં પણ બાર બાર જનને અપાન્તરાલ છે. આ દિશા સંબંધિ અપાન્તરાલનું કથન ઉપલક્ષણથી કહેલ - છે, તેથી એમ પણ સમજવું કે વિદિશાઓમાં પણ એટલું જ અપાન્તરાલ છે Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ traliant टीका प्र.३.७ सप्तापि पृथिव्य : लोकस्पर्शिन्यो नवेति पूर्वादिदिक् चरमपर्यन्ताल्लोकान्तः क्रमेणाधोऽघास्त्रिमागोनेन, त्रिभाग इति तृतीयो भाग विभागः । एकस्य योजनस्य त्रयोमागाः कल्पितव्याः तेषु भागेषु एक तृतीयो भाग स्तृतीयोऽशखिभाग उच्यते, तेन तृतीय, भागन्यूनेन एकेन योजनेन योजनस्य आगत्रयमध्याद् भागद्वयेनाऽधिरधिकैर्योजने ज्ञातव्यः, तथाहि - शर्करामभा पृथिव्याः सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च चरमपर्यन्ताल्लोकान्तस्य अन्तराल, त्रिभागोनानि त्रयोदश योजनानि, योजनस्य भाग-त्रय मध्याद्भाग द्वयसहित द्वादशयोजानीत्यर्थः । वालुका प्रभायाः पृथिव्याः सत्रिभागानि त्रयोदशयोजनानि । पूर्वोक्तेषु भागद्वयसहितद्वादशयोजनेषु भागद्वयसंमेलनेन तृतीयभागसहितानि पशुप्रमायाः परिपूर्णानि चतुर्दशयोजनानि, एवं धूमपृथिवी के अतिरिक्त शेष शर्करामभा से लेकर अधः सप्तमी पर्यन्त सब पृथिवियों की सब दिशाओं में और सब विदिशाओं में पूर्व आदि दिशाओं के चरम पर्यन्त भाग से लोकान्त क्रमले नीचे नीचे त्रिभाग अर्थात् एक योजन के तीन भाग किये जावे, उन तीन भागों में एक जो तृतीय - तीला आग अर्थात्- तीसरा अंश है वह त्रिभाग कहलाता है ऐसे विभाग न्यून एक योजन से अर्थात् योजन के तीन भाग में से दो भाग से अधिक योजनों से जान लेना चाहिये, जैसे रत्नप्रभा पृथिवी से लोकान्त का अपान्तराल बारह योजन का होती है उसके नीचे शर्करा प्रभा पृथिवी की सप दिशा विदिशाओं में पूर्व आदि के चरम पर्यन्त भाग से लोकान्त का अपान्तराल तृतीय भाग न्यून तेरह योजन का अर्थात् बारह योजन के ऊपर योजन के વિદિશાઓમાં પણ આ અપાન્તરાલ જેટલા દૂર પછી જ અલેાકાકાશના પ્રારભ થાય છે. આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી શિવાય માકીની શાપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વી સુધી બધીજ પૃથ્વીયેાની બધી દિશાઓમાં અને વિદિશાએમાં પૂર્વ વિગેરે દિશાઓના ચરમ સુધિના ભાગથી લેાકાન્ત ક્રમથી નીચે નીચે ત્રિભાગ અર્થાત્ એક ચાજનના ત્રણ ભાગ કરવામાં આવે, એ ત્રણ ભાગા પૈકી જે ત્રીજે ભાગ અર્થાત્ ત્રીજો અંશ છે, તે ત્રિભાગ કહેવાય છે. એવા ત્રિભાગથી ન્યૂન એક ચૈાજનથી અર્થાત્ ચેાજનના ત્રણ ભગોમાંથી એ ભાગોથી વધારે ચેાજનવાળો સમજવા, જેમકે રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લેાકાન્તના અંતરાલ ખાર ચેાજનનેા હેાય છે. તેની નીચે શ`રપ્રભા પૃથ્વી ઋષીજ દિશા અને વિદિશામાં પૂર્વ દિશા વિગેરેના ચરમાન્ત સુધીના ભાગથી લેાકાન્તના અપાન્તરલ ત્રીજા ભાગથી યૂન તેર ચેાજનનેા છે, અર્થાત્ ખાર ચેાજન जी० ८ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्र प्रमाया विभागोनानि पञ्चदशयोजनानि, तमःमभायाः सत्रिभागोनानि पञ्चदशयोजनानि अधः सप्तमपृथिव्याः परिपूर्णानि पेडशयोजनानि । तदेवाह- मूत्रकारः 'सकरप्पभाएण' इत्यादि, 'सक्करप्पमारणं भंते ! पुढवीए' शर्करापभायाः खल्ल भदन्त ! पृथिव्याः द्वितीयनारकपृथिव्याः, , 'पुरस्थिमिल्लाशे चरिमंताओ' पौररत्या पूर्वदिग्भाविनश्चरमान्तात् 'केवड्याए भवादाए' शियत्या बाधया अपान्तराललक्षणया 'लोयंते पण्णत्ते' लोकान्तभाग: दो भाग बढकर शर्करा प्रभा पृथिवी में लोकान्त का अपान्तराल योजन के दो भाग सहित बारह योजन का हो जाता है।२। इसी प्रकार घालुकाप्रमा पृथिवी की सब दिशा विदिशाओं में लोकान्त का, अपा. न्तराल तृतीय भाग सहित अर्थात् पूर्वोक्त दो भागों ले सहित बारह योजन में दो भाग मिलाने पर तीसरे भाग सहित तेरह योजनों का हो जाता है।३। इसी रीति से पङ्कप्रभा पृथिवी के पूरे चौदह योजन का अपान्तराल हो जाता है।४। धूमप्रसा पृथिवी में नृतीय भाग न्युन पन्द्रह योजन का अपान्तराल हो जाता है।५। तमाप्रभा पृथिवी में तृतीय भाग सहित पन्द्रह योजन का हो जाता है ।६। एवं अधः सप्तमी पृथिवी में जाकर लोकान्त का अपान्तराल पूरे सोलह योजनों का हो जाता है । अब इसी बात को सूत्रक्षार स्पष्ट करते हैं-'सक्करप्पभाएणं' इत्यादि। ___ 'सकरप्पभाए णं अंते ! पुढवीए पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ केवइए अयाहाए लोयंते पण्णत्ते' हे अदन्त ! शर्करा पृथिवी के पूर्व दिग्भागवती घरमान्त ले कितनी दूर परलोक का अन्त कहा गया है ? ઉપર તેરમા એજનના બે ભાગથી વધારે શકરપ્રભા પૃથ્વીમાં કાન્તને અપાન્તરાલ ચાજનના બે ભાગ સાથે બાર જનને થાય છે. ૨, એજ પ્રમાણે વાલુકાપ્રશા પૃથ્વી બધી દિશા વિદિશાઓમાં લોકાન્તને અપાન્તરાલ ત્રીજા ભાગ સહિત અર્થાત્ પૂર્વોક્ત તેરમાં જનના બે ભાગ બાર એજનમાં મેળ વવાથી ત્રીજા ભાગ સહિત તેર જન થઈ જાય છે. ૩, એજ પ્રમાણે પંક પ્રભા પૃથ્વીમાં પૂરા ચૌદ એજનને અપાતરાલ થઈ જાય છે. ૪. ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રીજા ભાગથી ન્યૂન પંદર એજનને અપાતરાલ થઈ જાય છે. ૫, તમપ્રભા પૃવીમાં ત્રીજા ભાગ સહિત પંદર જન થઈ જાય છે. ૬, અને અધઃ સપ્તમી પૃથ્વીમાં જઈને લે કાન્તને અપાતરાલ પૂરા સેળ જન થઈ જાય છે. હવે આ ઉપરોક્ત કથનને જ સત્રકાર વિશેષ રૂટતાથી કહે છે, 'सक्करपभाए गं' त्यादि ___'सक्करप्पभाएणं भते पुढवीए पुरथिमिल्लानो चरिमताओ केवइए आबाहाए छोयते पण्णत्ते' ३ मापन श४२५मा पृथ्वीना हिमावती २२भातथा ३८ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टोका प्र.३ सू.७ सप्तापि पृथिव्य लोकस्पशिन्यो नवेति ५९ प्रज्ञप्तः कथितः, शर्करापमा पृयिव्याः पूर्वभागे कियदरे लोकान्तो भवति, इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिमागणेहि तेरस जोयणेहि त्रिभागन्यूनैस्त्रयोदशभियोजनैः 'अबाहाए' अबाधया 'लोयंते पन्नत्ते' लोकान्तः प्रज्ञप्त:-कथितः शर्करा प्रभायाः पूर्वदिशि अलोकात्पूर्व विभागोनत्रयो. दशयोजनस्य व्यवधान भवति विभागोनत्रयोदशयोजनान्तरमलोकस्य स्थिति. रित्यर्थः । एवं चउद्दिसिपि' एवं पूर्वदिग्भागे यावत्कमन्तरं कथितं सावत्कमेवान्तरं दक्षिणदिशि पश्चिमदिशि उत्तरदिशि, सर्वासु विदिक्ष्वपि भिमागोन त्रयो. दश योजनस्यैव व्यवधानम् त्रिभागोन त्रयोदशयोजनाद्दुरे अलोकाकाशो भवतीति भावः । 'वाल्लयप्पभाए .पुढबीए' बालुकाप्रमायाः पृथिव्या: 'पुरत्थि. मिल्लाओ पुच्छा' पौरस्त्यात् पृच्छा, हे भदन्त ! बालुकाममायाः पृथिव्याः पौरस्त्यात चरमान्ताव कियत्याऽबाधया लोकान्तः पज्ञप्त इति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयना' हे गौतम ! 'सविभागेहि तेरसहि जोयणेहि इसके उत्तर प्रभु कहते हैं-'तिभागूणेहिं तेरस जोयणेहिं अमाधाए लोयते पण्णत्ते' हे गौतम ! तृतीय भाग कम तेरह योजन की दूरी पर दो भाग सहित बारह योजन की दूरी पर-लोक का अन्त कहा गया है। 'एवं चहिसि वि' शर्कराप्रभा के पूर्व दिग्भाग में जितना यह अन्तर कहा गया है-इतना ही अन्तर शहराप्रमा के दक्षिण दिग्भाग में और उत्तर दिग्भाग में तथा विदिशाओं में भी जानना चाहिये 'बालुप्पभाए पुढवीए पुरस्थिमिल्लाओ पुच्छा' हे भदन्त ! बालुका प्रभा के पूर्व दिग्भावी चरमान्त से कितनी दूर पर लोक का अन्त कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयमा! सतिभागेहिं तेरस ६२ मत ४ छे १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभु ॐ छ । 'तिभागूणेहि तेरसजोयणेहि अबाधाए लोयते पण्णत्ते' 8 गौतम ! त्रीमाथी ४५ तेर यान २ मे माग सहित मा२ थान २ ने मत a छे. 'एव' घउहिसि वि' ५४२७मा पृथ्वीनी पूशामा रेयु मत२ ४ थे. એટલુંજ અંતર શર્કરપ્રભા પૃથ્વીની દક્ષિણ દિશામાં, પશ્ચિમ દિશામાં અને ઉત્તરદિશામાં તથા વિદિશાઓમાં પણ સમજવું. बालुयप्पभाए पुढवीए पुरिथिमिल्लाओ पुच्छा, मापन वादुप्रिमानी પૂર્વ દિશામાં આવેલા ચરમાન્તથી કેટલે દૂર લેકને અંત કહ્યો છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीन ४ है 'गोयमा ! सतिभागेहि सेरसहि Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमले सत्रिभागः 'त्रयोदशभियोजनेः 'अबाहाए' अवाधया 'लोयंते' लोकान्तः ‘पन्नत्ते' प्रज्ञतः कथित इति । 'एवं चउदिसिपि' एवं यथा वालका प्रभायाः पूर्वे चरमान्ते सत्रिभाग त्रयोदशयोजनानि आपान्तरालम् तथैव चतुर्दिक्ष्वपि तावत्प्रमाणे व अपान्तरालं ज्ञातव्यम् बालुकाममाया दक्षिणस्यां दिशि, पश्चिमाया मुत्तरस्यां दिशि च सत्रिभाग त्रयोदशयोजनात् ट्रेऽनोकाकाशो भवतीति भावः । 'एवं सब्बासि चउमवि दिसामु पुच्छियन्वं' एवं यथा वालुका प्रमा पृथिव्या व्यवधानविषयकः प्रश्नः कृत स्तेनैव रूपेण सर्वासां पृथिवीनां पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमः प्रभातमस्तमः प्रभाणां चतसृष्वपि दिक्षु विदिक्षु च प्रश्नः कर्तव्य इति । अध भगवान् पङ्कममादि पृथिवीनां विषयेऽपान्तरालं दर्शयति-पंकप्पमाए' इत्यादि, 'पंकप्पभाए' पङ्क जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते' हे गौतम! बालुकाप्रभा के पूर्व दिग्भावी चरमान्त ले तृतीय भाग सहित तेरह योजन के बाद लोक का अन्त कहा गया है ' एचउद्दिसिदि' इसी तरह का अन्तर घालुका प्रभा के दक्षिण दिग्भाग में, पश्चिम दिग्भाग में और उत्तर दिग्भाग में हैं ऐसा समझना चाहिये 'एव सव्वासिं चउसु विदिसास्लु पुच्छियचं' जैसा हा प्रश्न घालुका प्रभा प्रथिवी के चारों दिशाओं में अलोक के व्यवधान के सम्बन्ध में किया गया है वैसा ही प्रश्न शेष पृधिनियों की चारों दिशाओं में भी अलोक के व्यवधान -दूरी में-कर लेना चाहिये तथा च पंकप्रभा और तमस्तमाप्रभा की चारों दिशाओं में ऐसा प्रश्न करना चाहिये इसी प्रश्न को लेकर भगात् पङ्कप्रभा आदि पृथिचियों का अपान्त. राल दिखलाते हैं-'पंकणभाए' इत्यादि। हे भदन्त ! पङ्कप्रभा, धूमजोयणेहि अवाधाए लोयते पण्णत्ते 3 गौतम ! वायुसमानी पूर्व हिशामा આવેલા ચરમાંતથી ત્રીજા ભાગ સહિત તેર જન પછી લેકને અંત કહેલ छे. 'एव च उदिसि वि' मा प्रभायेनु मत२ पासमा पृथ्वीनी क्षिर દિશામાં, પશ્ચિમ દિશામાં અને ઉત્તર દિશામાં છે તેમ સરજવું. .. 'एवं सव्वासिं चउसु वि दिसासु पुच्छियव" वाला पृथ्वीनी यारे દિશાઓમાં અલેકના વ્યવધાનના સંબંધમાં જે પ્રમાણે આ પ્રશ્ન કર્યો છે. એજ પ્રમાણેને પ્રશ્ન બાકીની પૃથ્વીની ચારે દિશાઓમાં અલેકના વ્યવ ધાનના સંબંધમાં કરી લેવું જોઈએ. પંકપ્રભા અને તમસ્તમાં પ્રભાની ચારે દિશાઓના સંબંધમાં એજ પ્રમાણેને પ્રશ્ન કર જોઈએ. એજ પ્રશ્નને લઈને ભગવત્ પંકપ્રભા Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योति का टीका प्र.३.७ सप्तापि पृथिव्या लोकस्पशिन्यो नवैति ६१ प्रभायाः पृथिव्याः पूर्वादि चतुर्दिग्दति चरमान्तात् 'चउद्दसहि जोयणेहि' चतु. देशभियोजनैः 'अवाहाए लोयंते पन्नत्ते' अवाधया लोशान्तः प्रज्ञप्तः चतुर्देशयोजनात परतोऽलोकाकाशो भवतीति भावः । 'पंचमाए' पञ्चम्याः धूमनभायाः पृथि. व्याः पूर्वादि चतुदिग्वतिचरमान्यात् 'तिमागणेहिं पन्नरसहिं जोयणेहि' त्रिभागोनै स्तृतीय भागहीनः पञ्चदशभिः योजनैः 'अबाहाए' अबाध्या 'लोयंते' लोकान्तः 'पन्नत्ते' प्रज्ञप्तः 'छटीए सतिभागेहिं पन्नरसहिं जोयणेहि' षष्ठ्याः प्रभा, तमःप्रभा और तमस्तमामा की पूर्व दिशा के चरमान्त से कितनी दूर लोक का अन्त रूप-अलोक है ? तो इसके उत्तर में क्रमशः ऐसा आलापक कहना चाहिये-हे गौतन ! 'पंझपराए चउद्दसाहिं जोय. णेहि अवाहाए लोयंते पण्णत्ते' पङ्कप्रभा की पूर्व दिशा के चरक्षान्त से चौदह योजन से आगे लोक का अन्त है इसी प्रकार से शेष दक्षिण पश्चिम उत्तर दिशाओं के चरमान्त स्ले चौदह योजन आगेलोक का अन्त है ऐसा जानना चाहिये। पंचनाए' पांचवी पृथिवी जो धूमप्रभा है उसके पूर्व दिग्भागवर्ती घरमान्त से कितनी दूर पर लोक का अन्त हैं ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते है-हे गौतम ! 'तिमागूणेहिं पनरसहि जोयणे हिं अवाधाए लोयंते पत्ते' पांचवी पृथिवी जो धूमप्रभा है उसके पूर्व दिग्भागवर्ती एवं दक्षिण पश्चिम उत्तर दिग्वती घरमान्त मे तीसरा भाग कम पन्द्रह योजनों के आगे लोक का अन्त होता है। 'छट्ठीए सतिभागेहिं पन्नरसहिं जोयणेहि अबाधाए लोयंते पन्नत्ते छठी विगरे पृथ्वीयानु' भयान्तरास मताव 2. 'पकप्पभाए' त्या समपन् પંકપ્રભા. ધૂમપ્રભા, અને તમસ્તમપ્રભાની પૂર્વદિશાના ચરમાંથી કેટલે દર લેકના અન્ત રૂપ અલક છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ક્રમશ એ અલાપક डन गीतम ! 'पकप्पभाए चउहसहि जोयणेहि अयाहाए लोयते पण्णत्ते' ५४ानी पूना समान्तथा यौह यो२४ पछी सोना मत છે. એ જ પ્રમાણે બાકીની દક્ષિણ, પશ્ચિમ ઉત્તર દિશાઓના ચરમાન્તથી ચૌદ योन पछी माने। मत. तभ समन्यु 'पचमाए' पांयमी २ धूमप्रमा પૃથ્વી છે, તેની પૂર્વ દિશામાં રહેલ ચરમાન્તથી કેટલે દૂર લેકને અંત કહ્ય छ १ २ प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ । गौतम ! 'तिभागूणेहि पनरसहि जोयणेहि अबाधाए लोयते पन्नत्ते' पांयमी २ धूममा पृथ्वी छ, तेनी . દિશામાં રહેલ અને દક્ષિણ, પશ્ચિમ, ઉત્તર વિગેરે દિશામાં આવેલ ચરમાન થી ત્રીજા ભાગમાં પંદર જે જન પછી લેકને અંત કહ્યો છે. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम पृथिव्या स्तमः प्रभायाः पूर्वादि चतुर्दिवर्निचरमान्तात् सत्रिमागैः पञ्चदनभियोजनैः 'अचाहाए' अवाधरा 'लोयंते पन्नत्ते' लोकान्तः प्राप्तः-कथित इति । 'सत्तमीए' सप्तम्या:-तमस्तम प्रभायाः पृथिव्याः पौरस्त्यात चरमान्ताद 'सोलसहि जोयणेहि' पोडशभियोजनः 'अबाहाए लोयंते पन्नत्ते' अवाधया लोकान्तः प्रज्ञप्त: कथित इति ‘एवं जाव उत्तरिल्लायो' एवं यावदुत्तरतः, यथा सप्तम पृथिव्याः पौरस्त्यात् चरमान्तात् पोडशयोजनदूरे लोकान्तो भवति तथैव दक्षिणपश्चिमोत्तरचरमान्तेभ्यः पोडशयोजनदुरे लोकान्तो भवतीति । ___ अथैतानि रत्नप्रभादितमस्तमान्त प्रथिवीनां द्वादशादि योजन प्रमाणान्य. पान्तराळानि तानि किमाकाशरूपाणि धनोदध्यादि व्याप्तानि वा तत्रोच्यते धनो पृथिवी के पूर्व दिर भागवती चरमोन्त से, दक्षिण दिग्भागवती चरमान्त से पश्चिम दिग्भागवर्ना चरमान्त से और उत्तर दिग्भागवती एवं विदि. शाओ के चरमांत ले तृतीय भाग सहित पन्द्रह योजन के आगे लोक का अन्त है 'सत्तमीए सोलसएहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पन्नत्ते एवं जाव उत्तरिल्लाओ' इसी तरह सातवीं पृथिवी के पूर्व दिग्भागधर्ती चरमान्त से, दक्षिण दिग्भागवती चरमान्त से, पश्चिम दिग्भी. गवती चरमान्त से और उसर दिग्भागवती चरमान्त से एवं विदिशाओं के चरमान्त से पूरे सोलह योजन के बाद लोक का अन्त है ___ अथ सूत्रकार इस बात को प्रकट करते हैं कि-रत्नप्रभा पृथिवी से लेकर तमस्तमान्त पृधियियों का जो अलोक तक यारह आदि योजनों का अन्तराल कहा गया है वह क्या आकाश रूप है या घनो. 'छट्रीए सातिभोगेहि पन्नरसहि जोपणेहि अबाधाए लोयते पण्णत्ते' छट्टी પૃથ્વીની પૂર્વ દિશામાં આવેલ ચરમાતથી, દક્ષિણ દિશામાં આવેલ ચરમાન્સથી પશ્ચિમ દિશામાં આવેલ ચરમન્તથી અને ઉત્તર દિશામાં આવેલ ચરમાન્તથી અને વિદિશાઓના ચરમાન્ત ત્રીજા ભાગ સહિત પંદર જન પછી લેકને मत छ. 'उत्तमीए सोलसएहि, जोयणेहि', अाधाए लोय ते पन्नत्ते एवं ભાવ રૂરિસ્ટો ' એજ પ્રમાણે સાતમી પૃથ્વીની પૂર્વ દિશામાં આવેલ ચરમાતથી, દક્ષિણ દિશામાં આવેલા ચરમાંતથી, પશ્ચિમ દિશામાં આવેલ ચરમાન્તથી અને ઉત્તર દિશામાં આવેલ ચરમાંતથી અને વિદિશાઓના ચરમાન્તથી પૂરા સેળ ચીજન પછી લેકને અંત કહ્યો છે. - હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રગટ કરે છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને તમતમાં સુધીની પૃથ્વીનું જે અલોક સુધી બાર વિગેરે જનેનું અંતરાલ કહ્યું છે, તે શું આકાશરૂપ છે ? અથવા ઘોદધિ વિગેરેથી વ્યાપ્ત છે? આ પ્રશ્નના Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.७ सप्तापि पृथिव्यः लोकस्पशिन्यो नवेति ६३ दध्यादिव्याप्तानि तत्र कस्मिन् अपान्तराले कियान् घनोदध्यादिरिलि प्रतिपाद नार्थमाह-'इमीसे गं' इत्यादि, 'हमीसे णं भंते' एतस्याः खलु अदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढकीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'पुरस्थिभिल्ले चरिमंते' पौरस्त्यः पूर्वदिग् भावीचरमान्तोऽपान्तराललक्षणः सः 'कइविहे पन्नत्ते' कतिविधः-कति प्रकारका मज्ञप्तः-कथित इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि' 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिविहे पन्नत्ते' विविध खिपकारका प्रज्ञप्त-कथितः 'तं जहा' तद्यथा-'धणो. दहिवलए' घनोदधिवलय:-वलयाकार घनोदधिरूयः 'धणवायवलए' घनवातदलया वलयाकार घनवातरूप इत्यर्थः 'तणुवायदलए' तनुशतवलमः वलयाकार तनुदधि आदि से व्याप्त है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं कि यह अन्तराल घनोदधि आदि से व्याप्त है इस विषय में गौतम ने प्रभु ले ऐसा पूछा है-'इमोसे णं भंते ! स्यणप्पभाए पुढचीए' हे भदन्त ! पस रत्नप्रभा पृथिवी का पूर्व दिग्भागवर्नी जो चरमान्त है तो वहां तक और अलोक से पहिले जो अपान्तराल है वह 'कइविहे पन्नत्त' कितने प्रकार का कहा गया है ? रत्नप्रभा पृथिवी से पूर्व दिशा की ओर बारह योजन आगे जाने पर ठीक यहीं से अलोक का प्रारम्भ हो जाता है इसी तरह से अन्यत्र भी ऐसा ही समझना चाहिये सो यह जो रत्न प्रभा पृथिवी से अलोक प्रारम्भ होने के पहिले २, बीच का जो व्यवधान स्थान है उसमें क्या है ? ऐसा इस प्रश्न का भाव है इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है कि गोयमा! लिबिहे पन्नत्ते' हे गौतम ! वह अपान्तराल तीन प्रकार का कहा गया है-“घणोदहिवलए' वलयाकार ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે તે અતરાલ ઘોદધિ વિગેરેથી વ્યાપ્ત છે. તે સંબંધમાં गौतमस्वामी प्रभुने मे पूछ्यु छ है 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' ७ मापन ॥ २नमा पृथ्वीनी ५ शाम सवेवर २२मान्त छे, त्या सुधी भने मनी ५i २ मांसल छ 'कइविहे पण्णत्ते' કેટલા પ્રકારને કહેલ છે? રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી પૂર્વ દિશા તરફ બાર જન આગળ જતાં બરાબર ત્યાંથી જ અલકને પ્રારંભ થાય છે. એ જ પ્રમાણે અન્યત્ર પણ એજ પ્રમાણેનું કથન સમજવું. તે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી અલકનો પ્રારંભ થતાં પહેલાં વચ્ચેનું જે વ્યવધાન સ્થાન છે, તેમાં શું છે ? આ પ્રમાણેને આ પ્રશ્ન પૂછવાનો હેતુ छे. मान उत्तरमा प्रभु ४३ छे हैं 'गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते' के गौतम । मे मयान्तरास त्रय प्रानु ४८ छे घणोदहिवलए' वलया।२ घनधि, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जीवाभिगमसूत्रे वातरूप इत्यर्थ: । ' इसी से णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! ' रयणप्पभाए पुढचीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'दाहिणिल्ले' चरिमंते' दाक्षिणात्यः- दक्षिणदिशि विद्यमानः चरमान्तोऽपान्तराललक्षणा, 'कवि पन्नत्ते' कतिविधः - कवि मकारकः प्रज्ञप्तः - कथित इति नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'तिविपन्नत्ते' त्रिविध स्त्रिमकारकः गज्ञः 'तं जहा जाव उचरिल्ले' तयथा यावदौत्तरः- उत्तर दिग्भावी, यावत्पदेन वगोदधिवलयरूपो वनवाखवलयरूप स्वनुनातवलयस्वरश्चेति है यदन्त ! रवपयायाः पाश्चात्यश्वरमान्तः कति · विधः प्रज्ञप्तः हे गौतम । त्रिविधः सप्त तथा घनोदधिवलयरू घनवातवलयरूप स्तनुत्रात दलयरूपश्च । हे भदन्त ! रत्नभाया उत्तरदिग् विभाग चरमान्तः कतिविधः प्रज्ञप्तः हे गौतम ! त्रिविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा-वनोदधि वलयरूपो घनोदधि 'घनवायचलए' वलयाकार घनचात 'तणुवायवलए' और वलयाकार तनुवात अर्थात् इस अपान्तराल स्थान में ये तीन वात वलय हैं अन्यत्र भी ऐसा ही भाव जानना चाहिये । 'हमीले णं भंते! रणप्पा पुढचीए दाहिणिल्ले चरिमंते कइविहे पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का दक्षिण चरमान्त रूप अपान्तराल कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! तिषिद्धे पत्ते' हे गौतम! यह तीन प्रकार का कहा गया है 'तं जहां' तद्यथा – घनोदधि रूप, घनवात रूप और तनुयात रूप 'एवं' जाव उत्तरिल्ले' इसी तरह रत्नप्रभा पृथिवी का जो पश्चिम दिग्वर्ती अपान्तराल है वह भी इन्हीं तीन बात वलय रूप है तथा उत्तर दिग् 'घणवायवलए ' વલયાકાર धनवात 'तणुवायवलए' तथा वसयाीर तनुबात અર્થાત આ પાન્તરાલ રૂપ સ્થાનમાં આ ત્રણ વાતવલય આવેલા છે. અન્યત્ર પણ એજ પ્રમાણેના ભાવ સમજવા. 'इमोसे ण' भवे ! रयणप्पा पुढबीए दाहिणिल्ले चरिमते कइविहे पण्णत्ते' હું ભગવન્ આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના દક્ષિણુ ચરમાતરૂપ અપાન્તરાલ કેટલા अहारने! उडेल छे ? या प्रश्नना उत्तरभां अलु हे हे हे 'गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते' हे गौतम! ते अभरन उस छे. 'व' जहा' ते भा प्रभारी छे. धनाधिप, धनवात३य भने तनुवात३य ' एवं ' जाव उत्तरिल्ले' से प्रभा રત્નપ્રભા પૃથ્વીની જે પશ્ચિમદિશામાં આવેલ પાન્તરાલ છે તે પણ આ ત્રણ વાત વલય રૂપ છે, તથા ઉત્તરદિશામા આવેલ જે અપાન્તરાલ છે, તે પણુ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.८ सप्तपृ. धनोध्यादीनां तिथग्वाहल्यम् घनवातक्लयरूप स्तनुवातवलयरूपश्चति । 'एवं सवासि जाव अहे सत्तमाए उत्तरिल्ले' एवं रत्नघभायाश्चतुर्पु दिगूभागेषु यथा त्रयश्वरमान्ताः घनोदधि घनवात तनुवातरूपा कथिता स्तेनैव प्रकारेण शकंरामभावालकाममा पङ्कप्रभाधूमप्रभा तमममा अधः सप्तस्याः चतुर्पु दिनविभागेषु प्रत्येकं त्रयः त्रयः घनोदधिधन वात तनुवात रूपावरमान्तास्त्रिपकारका वक्तव्या इति ॥सू०७॥ सम्मति रत्नप्रभादित आरश्य तमस्तमानमा पर्यन्तानां प्रथिवीनां घनोदधि घनवावतलुवाताना तिर्यग् बाहल्यं प्रतिपादयितुकामः प्रथमं रत्नममा पथिव्याः घनोदधिर लस्य तिर्यग् बाहत्यमानमाह-'इमी से गं' इत्यादि, मूलम्-इमीसे भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहिवलए केवइए बाहल्लेणं पण्णत्ते, गोयमा ! छ जोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । सकरप्पभाष पुढवीए घणोदहिवलए केवइए बाहल्लेणं पन्नत्ते ? गोयमा ! लति आगाई छ जोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । बालुयप्पभाए पुच्छा, गोयमा ! तिभागूणाई सत्तजोयणाइं बाहल्लेणं पन्नत । एवं एएणं अभिलावणं पंकप्पभाए सत्तजोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । धूमप्पभाए सतिभागाइं सत्तजोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । तमप्पभाए तिभागू. वती जो अपान्तराल है वह भी इन्हीं तीन वात वलय रूप है 'एवं सन्यासि जाय अहे मतमाए उत्तरिल्ले जिस प्रकार से रत्नमभा पृथिवी के चारों दिग्भागों के ४ अपान्तराल तीन तीन वातवलय रूप कहे गये हैं उसी प्रकार से शर्कराप्रभा के बालुकामभा के, पङ्कप्रभा के, धूमप्रभा के तमःप्रभा के और अपालप्तमी पृथिवी के चारों दिशाओं में जो अपान्तराल प्रकट किये गये हैं-बे सब भी तीन २, वातवलय रूप ऐसा जानना चाहिये। सू०-1|७|| मा १५ पात सय ३५ छ. 'एव सव्वासि जाव आहेसत्तमाए उत्तरिल्ले' २ પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીની ચારે દિશાના ૪ અપાન્તરાલ ત્રણ ત્રણ વાતલય રૂપ કહ્યા છે. એ જ પ્રમાણે શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના, વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના, પંકપ્રભા પૃથ્વીના ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના તમપ્રભા પૃથ્વીના વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના સાતમી પૃથ્વીની ચારે દિશાઓમાં જે ચાર અપાન્તરાલે કહ્યા છે, એ સઘળા ત્રણ ત્રણ વાતવલય રૂપ છે તેમ સમજવું. | સૂ. ૭ जी० ९ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम णाई अजोयणाई। तमतमप्पभाए अट्ठजोयणाई॥ इमीसे गं भंते ! श्यणप्पाए पुढचीए घणवायवलए केवइए वाहल्लेणं पन्नते ? गोयमा ! अद्धपंचलाई जोयणाई वाहल्लेणं पन्नत्ते । सकरप्रभाए पुच्छा, गोयसा ! कोसूणाई पंचजोयणाई वाहल्लेणं पन्नत्ते । एवं एएणं अभिलावणं वालुयप्पभाए पंचजोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते । पंकप्पभाए सकोसाइं पंचजोयणाई वाहल्लेणं पन्नते। धूमप्यमाए अद्धछटाई जोयणाई वाहल्लेणं पन्नत्ते। तमप्पसाए कोलूणाई छजोयणाई वाहल्लेणं पण्णते। अहे सत्तमाए छजोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते ॥ इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तणुवायवलए केवइए वाहल्लेणं पन्नत्ते? गोयमा ! छक्कोसे बाहल्लेणं पन्नते । एवं एएणं अभिलादेणं लकरप्पभाए सतिभागे छकोले बाहल्लेणं पन्नत्ते । वालुयप्पभाए तिभागूणे सत्तकोले बाहल्लेणं पन्नत्ते । पंक्षप्पमाए पुढबीए सत्तकोसे वाहहल्लेणं पन्नचे । धूमप्पाए लतिभागे लत्तकोसे। तमप्पभाए तिभागूणे अहकोसे बाहलेणं पन्नते । अहे सत्तमाए पुढवीए अट्रकोले बाहल्लेणं पन्नत्ते ॥ इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए धणोदहिवलयल्ल छ जोयणबाहरुलस्स खेत्तच्छेएणं छिन्नमाणस्ल अस्थि दवाई वष्णओ काल जाच हंता अस्थि । सक्करप्पभाए भते ! पुढवीए घणोदहि वलयस्स सतिभाग छ जोयणबाहलल्स खेत्तच्छेषणं छिन्नमाणस्ल जार हंता अत्थि । एवं जाव अहे सत्तमाए जं जस्स बाहल्लं ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढीए घणवायवलयस्स अद्धपंचमजोयणबाह- लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणल्स जाव ईता अस्थि ॥ एवं जाव Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ . ८ सप्तपुं. घनोदध्यादीनां तिर्यग्बाहल्यम् 2 अहे समाए जं जस्स बाहलं । एवं तणुवायवलयस्स वि जाव अहे लत्तमाए जं जस्स बाहुलं । इसीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवी घणोदहिवलए कि संठिए पन्नते ? गोयमा ! वहे वलयागारसंठाणसंठिए पन्नन्ते । जेणं इमं स्यणप्पलं पुढवि सव्वओ समता संपरिक्खिताणं विटूह एवं जाव अहे समाए पुढवीए घणोदहिवलए, णवरं अन्यणप्पणं पुढविं संपरिक्खिवित्ताणं. चिट्टइ । इमीसे णं भंले ! रयणप्पभाष पुढषीए वणवायवलए किं संठिए पनले ? गोयमा ! वट्टे वलयागारे तहेब जाव जे इमीसे णं रथणपणभार पुढवीर घणोदहिवलयं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्टह । एवं जाव आहे ससमाए घणवायवलए ॥ इसीसे णं रयणपभाए पुढवीए सणुवाचवलय किं संठिए पन्नत्ते ? गोयमा ! वह्ने वलयगारसंठाणलंठिए जाव जे णं इमीले णं रयणभार पुढवीण घणवायवलयं सव्वओ समंता संपरिक्खिताणं विदुइ, एवं जाव अहे सत्तमाए तणुवाचवलए ॥ इमाणं भंते! रयप्पा पुढी केवइया आयासविक्लंभेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेजाई जोयणसहरूलाई आयामविक्खंभेणं, असंखेजाई जोयणसहस्साइं परिवखेवेणं पण्णत्ता एवं जाव अहे सत्तमा, इमाणं भंते! रयणप्पभा पुढवी अंतेय मज्झे य सव्वत्थ समा बाहल्लेणं पन्नन्ता । एवं जाव अहे सत्तमा ||सु० ८॥ छाया——एतरयाः खलु अदन्त ! रत्नममायाः पृथिव्या घनोदधिवलयः क्रियान् बाल्येन प्रज्ञप्तः ? गौतम ! षड्योजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्तः । शर्करामभायाः पृथिव्याः घनोदधिवलयः कियान् बाहल्येन प्रज्ञप्तः १ गौतम ! सत्रिभागानि षड्योजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्तः । बालुकाप्रभावाः पृच्छा, गौतम ! त्रिभागोनानि सप्रयोजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्तः । एवमेतेनासिलापेन पंकप्रसायाः सप्तयोजनानि बाल्येन मज्ञप्तः । धूममभायाः सत्रिभागानि सप्तयोजनानि बाहल्येन मज्ञतः तमःम मायाःत्रिभागोनानि अष्टयोजनानि । तमहतसःमभाया अष्टुयोजनानि । जस Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमन एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः घनवातवलयः कियान् बाहल्येन प्रज्ञप्तः ? गौतम ! अर्द्धपश्चमानि योजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्तः। शरामभायाः मच्छा, गौतम ! क्रोशोनानि पश्चयोजनानि वाहल्येन प्रज्ञप्तः । एवमेतेन अमिलापेन बालकामभायाः पञ्चयोजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्तः । पङ्कपमाया: सक्रोशानि पञ्चयोजनानि बाहल्येन प्राप्तः । धूमप्रभायाः अर्द्धषष्ठानि योजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्तः। तमःमभायाःक्रोशोनानि षट्योजनानि वाइल्येन प्राप्तानि । अधः सप्तम्याः षड़योजनानि वाहल्येन प्रज्ञप्तः । एतस्याः खल भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः तनुवातवलयः कियान् वाहल्येन प्रज्ञप्तः ? गौतम ! षटक्रोशान् वाइल्येन प्राप्तः। एवमेतेन अभिलापेन शर्कराप्रभायाः सत्रिभागान् षट्क्रोशान वाहल्येन प्रज्ञप्तः। वालुकाममायाः त्रिभागोनान् सप्तकोशान् बाहल्येन प्रज्ञप्तः पङ्कप्रभायाः सप्तक्रोशान् वाहल्येन प्रज्ञप्तः । धूमममायाः सत्रिभागान् सप्तकोशान् तमामभायाः त्रिभागोनान् अष्टक्रोशान् वाइल्येन प्रज्ञप्तः अधः सप्तम्याः पृथिव्या अष्टक्रोशान् वाल्हयेन प्रज्ञप्तः। एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभायां प्रथिव्यां घनोदधिवलयस्य पड्योजन वाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि वर्णतः काल यावत् हन्त सन्ति । शर्करामभायां खल भदन्त ! पृथिव्यां घनोदधिवलयस्य सत्रिभागषड्योजन वाइल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य यावद् हन्त सन्ति । एवं यावद्धः सप्तम्याः यद् यस्य वाहल्यम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभापृथिव्यां घनवातवलयस्याईपश्चमयोजनवादल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य यावद् हन्त सन्ति । एवं यावदधः सप्तम्या यद् यख्य वाहल्यम् । एवं तनुवातवलयस्यापि यावदधः सप्तम्यां यद्यस्य बाहल्यम् । एतस्याः खल भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृयिव्या धनोदधिवलयः किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ? गौतमः ! वृत: वलयाकारसंस्थान सस्थितः प्रज्ञप्तः। यः खलु इमां रत्नप्रभा पृथिवीं सर्वतः समन्तात् संयरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । एवं यावदधः सप्तस्याः पृथिव्या घनोदधि वलयः नवरम् आत्मीयात्मीयां पृथिवीं संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नपभायाः पृथिव्याः घनवातवलयः किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! वृत्तः वलयाकारः तथैव यावद् खलु एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या घनोदधिवलयं सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । एवं यावधः सप्तम्या घनवातवलयः । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्यास्तनुवातवलयः किं संस्थितः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! वृत्तः वलयाकारसंस्थानसंस्थितः यावद् यः खलु एतस्या रत्नप्रभा पृथिव्याः घनवातवलयं सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य खलु तिष्ठति । एवं यावदधः Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेगद्योर्तिका टीका प्र.३ ५.८ सप्तपृ. धनोदध्यादीनां तिर्यग्वाहल्यम् सप्तम्यास्तनुवातवलयः । इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी कियती आयामविष्कम्भेण प्रज्ञप्ता ? गौतम ! असंख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण असंख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता । एवं यावदधा सप्तमी । इयं खलु भदन्त ! रत्नममा पृथिवी अन्ते च मध्ये च सर्वत्र समा बाहल्येन प्राप्ता? हन्त गौतम ! इयं खलु रत्नप्रभा पृथिवी अन्ते च मध्ये च सर्वत्र समा बादल्येन प्रज्ञप्ता । एवं यावदधः सप्तमी ॥८॥ टीका-'इमीसे णं भंते !' एतस्याः खलु भदन्त ! 'श्यणप्पभाए पुढवीए' रत्नपभायः पृथिव्याः 'घणोदहिवलए' घनोदधिवलयः रत्नप्रभा पृथिव्याः दिक्षु विदिक्षु च चरमान्ते घणोदधि वलय इत्यर्थः 'केवइए' वाहल्लेणं पन्नत्ते कियान् कियत्परिमितः बाहल्धेन प्रज्ञप्त-कथित इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'छ जोयणाणि बाहल्लेणं पन्नत्ते' षड्योजनानि षड्योजनपरमितः बाहल्येन घनोदधिवलयः प्रज्ञप्त:-कथिव इति । 'सकरप्पमाए पुढवीए' शर्करामभायाः पृथिव्याः घणोदधिवलए' घनोदधिवलयः 'केवइए ___'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढ बीए-इत्यादि । टीकार्थ-गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-इनीखे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का 'धनोदहिवलए' घनोदधि वलय-रत्नप्रभा पृथिवी की समस्त दिशाओं और विदिशाओं के चरमान्त में जो घनोदधि दलय है-वह केवइए बाहल्लेण पन्नत्ते' तियर बाहल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! छ जोयणाणि बाहल्लेणं पण्णत्ते' हे गौतम ! वह तिर्यग्याहल्य की अपेक्षा छह योजन का मोटा कहा गया है'सकरप्पभाए पुढवीए घनोदद्धि वलए केवहए बाहल्छेणं पनत्ते' हे भदन्त ! शर्करा पृथिवी का धनोदधि बलय तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा 'इमीसे ण' भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' त्यहि 12---गीतभस्वामी प्रसने से पूछयु छ है 'इमीसे ण भते ! रयणप्पभाए पुढवीए', सावन मा २नमा पृथ्वीना 'घणोदहिवलए' ઘનેદધિવલય રત્નપ્રભા પૃથ્વીની સઘળી દિશાઓ અને વિદિશાઓના ચરમાન્તમાં २ घनधिवनय छ, ते 'केवइए बाहल्ले ण पन्नत्ते' तिय मायनी अपेक्षा डेट मोटी ४७स छ ? 'गोयमा ! छ जोयणाणि बाहल्लेण पन्नत्ते' गौतम ! हतियायनी अपेक्षाधी छ योनी मोटा४ पाणी ४ छे. 'सक्कर पभाए पुढवीए घणोदधिवलए केवइए बाहल्लेण पन्नत्ते' लगवन् प्रमा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवा मिगमसूत्रे ॐ० " वाहल्लेणं पन्नत्ते' क्रियान् तिर्यग्वाद्दल्येन प्रज्ञप्तः - कथित इति मश्नः भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम | 'सतिमागाईं छ जोयणाई' सत्रिभायानि-तृतीमागेन सहितानि पयोजनानि 'वाइल्लेणं' विर्य बाहल्येन 'पन्नत्ते' प्रज्ञप्तः - कथित इति । 'बालुवप्पमाए पुच्छा' वालुकाममायाः पृच्छा, हे भदन्त ! बालुकाममायाः पृथिव्या घनोदधिवलयः क्रियान् तिर्यग्वाहल्येन प्रज्ञप्त इति पृच्छा - प्रश्नः संगृह्यते भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयस' हे गौतम ! 'विभागूणाई सोयणाई बाल्लेणं पन्नचे' त्रिमागीनानि तृतीय मागेन हीनानि समयोजनानि तिर्यग् वाइल्येन पज्ञप्तः कथितो वालुकामसाया घडोदधिवळय इति । एवं एएवं अभिलावेगं' पंपधाए सत्तनोणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते' एवं यथोक्तेन अमिलापेन प्रकारेण पङ्कममायाः वणोदधिः सप्तयोजनानि तिर्यग् वाढल्येन प्रज्ञप्तः, हे भदन्त ! पपमायाः पृथिव्याः घनोदधिवयः क्रियान् तिर्यग्वाल्येन प्रज्ञप्तः ? हे गौतम । पङ्काभायाः घनोदविवलयः सप्तयोजनानि कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु करते है- 'गोला ! सतिभागाईं छ जोयणा' वह योजन के तृतीय भाग सहित छह योजन का कहा गया है 'बालुयपभाए पुच्छा' हे भदन्त । वालुका प्रभा पृथिवी का घनोदधि वलय तिर्यगवाह को अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु करते हैं-'गोयना ! तिभागूणाई सत्तोमा बाहल्लेणं पनन्ते' हे गौतम | यह योजन के तृतीय भाग कम सात योजन का मोटा कहा गया है- अर्थात् योजन के दो भाग सहित छह योजन का मोटा तिर्यग बाल्य की अपेक्षा कहा गया है 'एवं एएवं अभिलावेण पंद्मप्पभाए सत्तजोषणा बाहल्लेण नत्ते' इसी प्रकार से पङ्कनभा का जो घनोदधि वलय है वह भी निर्यग्ग्राहलय की अपेक्षा सात પૃથ્વીના ઘનાદવિવલય તિગ્માહત્ત્વની અપેક્ષાથી કેટલા માટે કહેલ છે ? भी प्रश्नमा उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीने हे छे 'गोयमा । सतिमोगाई' छ जोयणाइ” ते येोभ्नना श्री लाग सहित छ भनने। इस छे. 'वालु भाए પુષ્કા' હે ભગવન્ વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના ઘનાદધિ તિગ્માહુલ્યની અપેક્ષાએ डेटा भोटो डेस छे ? या प्रश्नना उत्तरमा अलु उडे हे 'गोयमा ! तिभागूणाई खत्तजोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गौतम! आयोनना श्रील ભાગથી ઓછા સાત ચેાજનની મેાટાઇવાળેા કહેલ છે. અર્થાત ચેાજનના એ आग सहित छ योजननी मोटाई तिर्यग्य' दयनी अपेक्षाथी उस छे. 'एव' एए अभिलावेण पं कप्पभाए सत्तजोयणाई बाहल्लेण पन्नत्ते' खेल अभाये પુકપ્રભા પૃથ્વીના જે ઘનેધિવવય છે. તે પણ તિગ્માહત્યની અપેક્ષાથી - Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ १.८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तियग्वाहत्यम् ७१ तिर्यग्वाहल्येन प्राप्त इति भावः । 'धूमपभाए सतिभागाई सत्तजोयणाई पन्नत्ते' धूममभायाः सत्रिभागानि तृतीयभागेन सहितानि सप्तयोजनानि प्रज्ञप्तः, हे भदन्त ! धूमप्रभायाः पृथिव्याः धनोदधिवलयः कियान तिर्यमाल्येन प्रज्ञप्त: ? हे गौतम ! धूमनभायाः घनोदधिरळयः सत्रिभागानि सप्तयोजनानि प्रज्ञप्त इति भावः । 'तमप्पभाए तिमागणाई अजोयणाई' तमाशाया निभागोनि अष्टयोजनानि, हे मदन्त ! तमःप्रभायाः पष्ठ पृथिव्याः घनोदधिवक्रायः कियान तिर्यम्बा हल्येन प्रज्ञप्तः१ हे गौतम ! तमायभायाः पृथिव्याः घणोदधिवलयः त्रिभागोनानि तृतीय भागहीनानि अप्टयोजनानि तिर्यवाहल्येन प्रज्ञप्त इति । 'तमतमप्पभाए अजोयणाई' तमस्तमाप्रभाया अष्टयोजनानि, हे भदन्त ! समस्तमममाया: पृथिव्याः घनोदधिवलयः किसान तिर्यग्वाहल्येन यज्ञप्त: ? गौतम ! तमस्तमा योजन का मोटा कहा गया है 'धूमपाए लति भागाई लत्त जोय. गाई पनन्ते' धूमप्रभा पृथिवी का जो घनोदधि वातवलय है वह तिर्यग्णाहल्य की अपेक्षा कितना मोटा हा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हे गौतम! धूमप्रभा पृथिवी का जो घनोदधि बलय हैं वह तृतीय भाग सहित सात थोजन का कहा गया है 'तमप्पाए तिमागूणाई अट्ठजोयणाई' हे सदन्त ! छठी समाप्रमा पृषिबी का जो घनोदधि बलय है वह लियबाहल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया १ उत्सव में प्रभु कहते हैं-हे गौतम। लमप्रभा पृथिवी का जो घनोदधि बलय है वह योजन का तृतीय भाग कम आठ योजन को तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा मोटा कहा गया है 'तमतमप्पमाए अयोज. णाई" हे भदन्त ! सातवीं पृथिवी जो तारतमा प्रभा है उसका घनोदधिवलय तिर्यग्वाहल्द की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में सात यासननी माटा वाणा हो है. 'धूमपाए सतिभागाई सत्त जोयणाई' पन्नत्ते' धूमला पृथ्वीन। २ घनधि पातसय छ, त તિર્યબાહલ્યની અપેક્ષાથી કેટલું વિશાળ કહેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ ! ત્રીજા ભાગ સહિત સાત જનન हे छे 'तमप्पभाए तिभागूणाई अट्ट जोयणाई" सन् तमःला પૃથ્વીનો જે ઘને દધિ વલય છે તે તિર્યંબાહલ્યની અપેક્ષા કેટલે વિશાળ કહેલ છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ! તમ પ્રભા પૃથ્વીને જે ઘોદવિલય છે તે જનના ત્રીજા ભાગ કમ આઠ રોજનનો તિર્યંબાહલ્યની अपेक्षाथी विस्तार वाणी ४९ छे. 'तमतमप्पभाए अटुजोवणाई सन् સાતમી પૃથ્વી કે જે તમતમા નામની છે, તેને ઘોદધિવલય તિર્યઆહલ્યની Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जीवामिगमस्ते मभायाः पृयिव्या घनोदधिवलयोऽष्टयोजनानि तिर्यग्वाहल्येन प्रक्षप्त इति भावः। अथ रत्नप्रभादि पृथिवीनां घनदातस्य पाहल्पमाह-'इमीसे णं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंसे' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पमाए पुढीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः घणवायवलए घनवातवलयः 'केवइयं वाहल्लेण पनत्ते' क्रियान् तिर्यग्वाइल्येन प्राप्त इति मश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यदि, 'गोग्रा' हे गौतम ! 'पद्धपंचमा' अपंचमानि सार्दानि चत्वारि इत्यर्थः 'नोयणा' योजनानि 'बादल्लेणं वाहल्येन तिर्यग्वाहल्येन प्राप्त इति । सक्करप्रमाए पुच्छा'शर्करामभायाः पृच्छा, हे भदन्त ! एतस्याः शर्करा प्रभायाः पृथिव्या घनवातवलय कियान तिर्यवाहल्येन पसप्तः ? इति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते भगवानाह-'गोठमा' इत्यादि, 'गोवमा' हे गौतम ! प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! तमस्तमःप्रभा पृथिधी का जो घनोदधि वलय है वह तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा आठ योजन का कहा गया है। अब रत्नप्रभा पृथिवियों के घन बात का पाहल्य कहते हैं-'हमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घनवायएलए केवयं पाहल्लेणं पनत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो घनवातवलय है वह तिर्यगूबाहल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! अद्ध पंचमाईजोयणाई थाहल्लेणं पन्नत्ते' हे गौतम ! वह अर्द्ध पञ्चम अर्थात् साढे चार योजन का विर्यग्वाहल्य की अपेक्षा मोटा कहा गया है। 'सकरप्पभाए पुच्छा' हे मदद! इस शर्कराप्रभा पृथिवी का घनवात. वलय तिर्यग्रवाहल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! कोसूणाई पंचजोषणाई बाहल्लेणं पन्नत्त' हे અપેક્ષાથી કેટલું વિશાળ કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીને જે ઘને દધિવાતવલય છે, તે તિર્યબાહલ્પની અપેક્ષાથી આઠ એજનને કહ્યું છે. - હવે રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીના ઘનવાતના બાહલ્યનું કથન કરે છે. 'इमीसे ण भवे! रयणप्पाभाए पुढवीए घणवायवलए केवइयं पाहल्लेणं पन्नत्त' હે ભગવન આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે ઘનવાતવલય છે, તે તિર્ય બાહદયની અપેક્ષાથી કેટલે વિશાળ કહ્યો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને ४९ छ है 'गोयमा ! अद्ध पंचमाई जोयणाई बाहल्टेणं पन्नत्ते' ७ गातभा તે અર્ધ પંચમ અર્થાત સાડાચાર જનને તિર્યંમ્બાહની અપેક્ષાથી વિશાળ ४ह्यो छे. 'सक्करप्पभाए पुच्छा' हे वन मा शरामा पृथ्वीन ધનવાત વલય છે, તે તિર્યબાહલ્યની અપેક્ષાથી કેટલું વિશાળ કહેલ છે ? उत्तरमा प्रभु ४९ छ । 'गोयमा ! कोसृणाई पचजोयणाई वाहल्लेणं पन्नत्त' 8 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ७.८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तिर्यग्वाहल्यम् ७३ 'कोमणाई पंचजोरणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते'क्रोशोनानि क्रोशैकेन हीनानि पञ्चयोजनानि शर्कराप्रमाया घनवासनलय शिष्यग्वाइल्येन प्रज्ञप्त इति । 'एवं एएणं अभिलावणं, एवम् एतेन पूर्वोक्तेन अभिलाषेन-मालाएकम सारेण 'बालुपप्पभाए पंचजोयणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते' बालुझायभायाः पञ्चयोजनानि वाहल्येन प्रज्ञप्ता, हे भदन्त ! एतस्या वालुकाममाया घनत्रास्ववलयः कियाल तियरबाहल्येन प्रज्ञप्तः १ भगवान आह-हे गौतम ! बालुकाममाया घनदातबलयः पञ्चयोजनानि तिर्यग्वाहल्येन मक्षप्तः, इति भार पंकप्पमार सकोसाई पंचजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते' पङ्कभायाः सक्रोशानि कोशमहितानि पञ्चयोजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्ता, हे भदन्त । एतस्याः पङ्कममायाः पृविष्याः घनवादवलयः कियान् तिर्यग्नाइल्येन प्रज्ञप्त इति प्रश्ना, भगवानाइ-हे गौतम ! पङ्कप्रभायाः पृथिव्याः घनवातवलयः क्रोशकाधिक पञ्चयोजनानि तिर्थवाहल्येन प्रज्ञप्त इतिभावः। 'धूमप्पभाए अद्धगौतम! शशमा का धनवालय तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा एक कोश कम पांच योजन का नोटा कहा गया है एवं एएणाभिलावणं' इसी आलापक प्रकार से ऐसा भी प्रश्न करना चाहिये-हे भदन्त ! बालुकाप्रभा का जो वातवलय है वह तिर्थ ग्वाहल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है उत्तर में प्रभु कहते हैं-गौतम ! 'चालुयप्पाए पंचजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते' पालुशाप्रभा का धनबोतवलय तिर्यग्याहल्य की अपेक्षा पांच योजन का मोटा कहा गया है 'पंकप्पाए सक्कोसाइपंचजोयणाई पाहल्लेणं पन्नते' हे भदन्त ! पंकप्रभा पृथिवी के घनयातबलय तिर्यगवाहल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते है-पक्षमा का धनवातवलय एक कोश अधिक पांच योजन का मोटा तियग्बाहल्ध की अपेक्षा कहा गया है 'धूम्मप्प. भाए अद्ध छट्ठाई जोषणाई बाहल्लेणं पन्नत्ते' धूमप्रभा पृथिवी का घनवात वलय ॥५॥ अषष्ठ अर्थात् साढे पांच योजन का मोटा तिर्य ગૌતમ! શર્કરામભાને ઘનવાતવલય તિર્યબાહલ્યથી અપેક્ષાથી એક કેસ કમ पाय योजननी सछे. 'एवं एएणाभिलावेण” मे प्रमाणे मामासान પ્રકારથી એ પણ પ્રશ્ન કરે જોઈએ કે હે ભગવન વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીને જ ઘનવાતવલય છે, તે તિર્યબાહલ્યની અપેક્ષા કેટલું વિશાળ કહેલ છે? આ प्रअन त्तरमा प्रम छ । गौतम ! 'वालुयप्पभाए पंचजोयणाई बहल्लेण पम्नत्ते' पापमान बनात सय छ, a तियायनी मपेक्षा पांय योजना छ 'पंकप्पभाए सक्कोसाईपंचजोयणाईबाहल्लेण' पन्नते હે ભગવન્ પંકપ્રભા પૃથ્વીને ઘનવાતવલય તિર્યંબાહુલ્યની અપેક્ષાએ કેટલો जी०१० Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे ४ छट्टाई जोयणाई' बाहल्लेणं पत्ते धूम्प्रभायाः पृथिव्या घनवातवळ्योऽर्द्धपष्ठानि - सार्द्धानि पश्चयोजनानि बाहल्येन प्रज्ञप्तः । ' तमप्पभाए कोसूणाई छ जोयणाई वाहरुलेण पचते' एटस्याः तमःघभायाः पृथिव्या घनवातवलयः क्रोशोनानि पड्योजनानि वाल्येन प्रज्ञप्तः । ' अहे सत्तमा छ जोयणाहं वाहलेण एकत्ते' एतस्या एधः सप्तम्याः पृथिव्याः घनवातबलयः षड्योजन परिfeat area a इति ॥ सम्मति - रत्नप्रभादि पृथिवीनां ततुवातवलयस्य तिर्यगू बाल्यपरिमाणप्रतिपादनार्थमाह-' इमी से णं' इत्यादि, 'हामीले णं भंते' एतस्याः खल भदन्त ! 'श्यणप्पसार पुढचीए' रत्नप्रभायाः प्रथिव्याः ''णुवायचलए' तनुवातवलयः 'केवए बाहल्लेणं पन्नत्ते' कियान् तिर्यगू वाद्दल्येन प्रज्ञप्तः - कथित इति verter की अपेक्षा कहा गया है। 'तमप्पभाए कोहणाई छजोयणाइ' बाइरणं पनन्ते' तथा प्रभा पृथिवी का घनवात वलय तिर्यग्बाहल्य की अपेक्षा एक कोश कम छह योजन का मोटा कहा गया है। 'भहे सत्तमए छजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते' अधः सप्तमी पृथिवी का घनवात वलय तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा छह योजन का मोटा कहा गया है अव रहना आदि पृथिवियों के सनुवात के बाल्य का प्रमाण कहते है- 'इमीले णं भंते ! रणभार पुढचीए तणुवायवलए केवइए पाइल्लेणं पन्नत्ते' हे भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी में जो तनुवातवलय है વિશાળ કહ્યો છે ? આા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે પકપ્રભાના ઘનવાતવલય એક કૅસ અધિક પાંચ ચાજનના તિય ગ્બાહુલ્યની अपेक्षाथी डेटा छे. 'धूमप्पभाए अद्ध छुट्टाई जोयणाई बाइल्लेण पन्नत्ते' ધૂમપ્રભા પૃથ્વીને ઘનવાતવલય ૫ અધષ્ઠ અર્થાત્ સ્રાડા પાંચ ૨ાજનના विशाण तिर्यग्याहस्यची अपेक्षाथी हेवामां आवे छे. 'तमप्पभाए कोसूणाई 5 जोयणाइ वाइल्लेणं' पन्नत्ते' तअला पृथ्वीनो धनवातवाय तिर्यमाहृदयनी अपेक्षाथी भेउ अश उभ छ योन्ननो विशाण हे छे, 'अहे सत्तमा छ जोयणाइ' बाहल्लेणं पन्नत्ते' मधःश्री पृथ्वीनो धनवातवाय तिर्यमाहुल्यनी અપેક્ષાથી છ ચેાજનના વિશાળ કહ્યો છે. હવે રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીયાના તનુવાતના માહત્યનુ' પ્રમાણ કહે છે 'इमं सेण' भ'ते ! रयणप्पभाए पुढवीप तणुवायवलए केवहए बाहल्लेण पन्नत्ते' Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.८ सप्तपृ. धनोध्यादीनां तिर्यग्वाहल्या ७५ प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम 'छक्कोसे वाइल्लेणं पन्नत्ते' पक्रोशान् बाइल्येन प्रज्ञप्त स्तनुबादलय इति । इति 'एवं एएणं अभिलावणं' एवमेतेन अभिलापेन आलापक प्रकारेण 'सकरपमा सतिमागे छक्कोसेबाहल्लेणं पन्नत्ते' शर्करामभायाः पृथिव्या स्तनुवातवलयः सत्रिभागान क्रोशस्य तृतीयभागसहितान् षट्कोशान् बाहल्येन प्रज्ञाप्त इति । 'बाल्लयपना लिमागणे सत्तकोसे बहल्लेणं पणत्ते' बालु झामसायाः पृथिव्या स्तनुजाखवलमा भियागोनान् क्रोशस्य तृतीयभागहीनान् सप्तकोशान बाहल्येन प्रक्ष ! पंझपनाए पुढवीए सच कोसे वाहल्लेणं पणत्ते' पङ्कप्रमानाः पृथिव्या स्तनुवातवलयः सप्त. क्रोशान बाहल्येन प्रज्ञप्त इति । 'धूमध्यभाए सतिभागे सत्तकोले' धूसमभाया: पृथिव्या स्तनुवातयलयः सत्रिभागा सप्तकोशान वाहल्येन प्रशस्त इति । 'लप्पभाए पुढवीए तिमागूणे अट्ठकोसे बाहर लेणं एम्नत्ते' समझाया रुतबातवळया स्त्रिमागोनान् अष्टक्रोशान् बाहल्येन प्राप्त इति । 'अह सत्तमाए पुढबीए वह तिर्यग् पाल्य की अपेक्षा कितना मोटा कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते है-गोचला ! छचोले बाहलेणं पन्नत' हे गीतम! रत्नप्रमा पृथिवी में जो तनुवातबलय है वह तिर्थरबाहल्य की अपेक्षा छह कोश का मोटा कहा गया है। 'एवं एएणं भिलावण' इली अभिलाप प्रकार से शशिमला का लनुवात बलण तिर्यग्वाइल्य की अपेक्षा कोश के तृतीय भाग सहित छह कोश का लोटा कहा गया है घालुका प्रभा में तनुवात पलप तिर्यगूधाहल्य की अपेक्षा कोश के तृतीय भाग कम सात कोश का लोटा कहा गया है 'पंचप्पभाए पुढधोए सत्तकोसे पाहल्लेणं पन्नत्ते' पकला पृथिवी का तनुचात बलय तिर्थरबाहल्फ की अपेक्षा खान कोश का मोटा कहा गया है 'धूमलप्पाप सातिभागे હે ભગવન રતનપ્રભા પૃથ્વીમાં જે તનુવાતવલય છે, તે તિર્યબાહલ્યની અપેક્ષાથી કેટલી વિશાળતાવાળે કહ્યો છે ? या प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीर ४ छ है 'गोयमा ! छक्कोसे बाहल्लेण पन्नत्ते' हे गौतम ! रत्नमा वाम तनुपातपय छ, तिय पाडल्यनी अपेक्षाथी ७ सनी विशणतादाजी ४९ छे. 'एव एएण' अभिलावण' मेरी प्रमाणे मा मनिसाथी २४२मा पृथ्वीना तनुपातपस्य તિબાહલ્યની અપેક્ષાથી કેસના ત્રીજા ભાગ સહિત છ કેસની વિશાળતા વાળો કહ્યો છે. વાલુકાપ્રભામાં તનુવાતવલય તિર્યા માહુલ્યની અપેક્ષાથી કેશના त्री माथी स. सात आसनी विशालता वाणो ४ थे. 'पंकप्पभाए पुढवीए सत्तकोसे बाहल्लेण पन्नत्ते' ५४मा पृथ्वीना ततुवातसय तिमाहुल्यना अपेक्षाथी सात शनी विशात पाणी ४ छे. 'धूमप्पभाए सतिभागे Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमन अट्ठकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते' अधः सप्तम्याः पृथिव्या स्तनुवातवलयः परिपूर्णान् .. अष्टकोशान् बाहल्येन प्रज्ञप्त इति । उक्तश्च 'छच्चेव१अद्धपंचमरजोयण सह३ च होइ रयणाए । उदही१ घण२ तणुवाया३ जहासंखेण निदिवा ॥१॥ सतिभाग१ गाउयं२ च तिभागो गाउयस्स३ वोद्धव्यो। आइधुवे पक्खेवो अहो अहो जाव सत्तमिया ॥२॥ 'पडेवार्द्ध पश्चमयोजनं सार्द्धं च भवति रत्नायाः। उदधि धन तनुवावा यथासंख्येन निर्दिष्टाः ॥१॥ सत्रिभागगव्यूतञ्च त्रिभागो गव्यूतस्य बोद्धव्यः । आदि ध्रुवे प्रक्षेपोऽधोऽधो यावत् सप्तम्याः ॥२॥ इतिच्छाया। अस्य गाथाद्वयस्यायं भावः-'छच्चेव' इत्यादि । पट १, अर्द्ध पञ्चमानि २, सार्द्धयोजनं ३ चेति क्रमशो रत्नप्रभा पृथिव्यां घनोदधे १, घनवातस्यर, तनुः सत्सकोसे' धूमप्रभा पृथिवी का तनुवातबल तृतीय भाग सहित सात कोश का तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा मोटा कहा गया है। 'तनप्पभाए पुढबीए अट्ठकोले बाहल्लेणं पनन्त' समातमा पृथिवी का तनुवात बलय कोश के तृतीय आग कम आठ कोश का तिर्यग्पाइल्य की अपेक्षा मोटा कहा गया है 'अहे सत्तमाए पुढवीए अहः कोले बाहल्लेणं पन्नत्ते' सातवीं पृथिवी का तनुबात बलय तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा आठ कोश का मोटा कहा गया है। जैसे अन्यत्र कहा है'छच्चेव' इत्यादि गाथा ॥२॥ , इन दो गाथाओं का भावार्थ इस प्रकार है-'छच्चैय' इत्यादि । रत्नप्रभा के घनोदधि पृथिवी के बाहल्प का प्रमाण 'छच्चेव' छह सत्तकोसे' धूममा पृथ्वीना तनुपातपतय श्रीn an सहित सात सना विश तियायनी अपेक्षाथी उस 2. 'तमनभाए पुढवीए अद्वकासे बाहल्ले ण पन्नत्ते' तभप्रमा पृथ्वीना तनुपातसय अस ॥ त्रीon माथी प्रभ मा ने तियायनी अपेक्षा ४ छ. 'अहे सत्तमाए पुढवीए अठुकोसे पाहल्लेण' पन्नत्ते' सातमी पृथ्वीना तनुपातपय तियायनी अपेक्षायी આઠ કેષની વિશાળતા વાળો કહેલ છે. જેમકે બીજે કહ્યું છે કે 'छच्चेव' इत्याहि गाथा २ मामे गाथाना अथ' मा प्रभार छ 'छच्चेव' त्यादि - २नमा पृथ्वीना धन धिना माझ्यनु प्रभाएर 'छच्चेव' ७ थाना Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तिर्यग्वाहल्यम् वातस्य३ च बाहल्यममाणं भवति, तथाहि-रत्नप्रभापृथिव्यां घनोदधेहिल्यम् 'छच्चेव' षड्योजनानि१, घनवातस्य 'अद्ध पंचम' अर्द्ध पश्चमानि-साद्ध चतुर्योजनानि बाहल्यम्२, तनुवातस्य बाहल्यम् 'जोयणसहूं' अर्द्धयोजनेन सहित मेकं योजनम्-षट्कोशा नित्यर्थः, एतद्रस्लपमा पृथिवीगत घनोदधिधनबात-तनुवातबाहल्यानां तत्तत्ममाणमादिध्रुवं परिकल्याग्रेऽधोऽधः शर्कराप्रभादि सर्वपृथिवीनां पूर्व पूर्व प्रथिवीगत घनोदध्यादि बाइल्यममाणेऽत्रापस्थित गाथोक्तप्रमाणं क्रमश: पक्षिप्याग्रेऽग्रे स्थित पृथिवीगत घनोदध्यादि बाहल्यप्रमाणं कर्तव्यम् ॥१॥ तदेव प्रक्षेप्य प्रमाणं द्वितीयगाथया प्रदर्शयति-'सति भाग' इत्यादि, रत्नप्रभा पृथिवीगत घनोदधि बाहल्यममाणे 'सतिभाग' खत्रिभागमिति योजनस्य तृतीयं योजन का है ? धनवात के बाहल्य का प्रमाण 'अद्धपंचम' साढे चार योजन का है। और तनुपात का प्रमाण 'जोयणसड़े डेढ योजन अर्थात् छह कोश का है।३। इन घनोदधि-घनवात-तलुवात के पाहल्य का जो प्रमाण है उसको आदि ध्रुव-मुख्य-मानकर आगे आगे नीचे नीचे की शर्करा प्रभा आदि अधः सप्तमी पर्यन्त पृथिवीयों में पूर्व पूर्व पृथिवी गत घनोदधि आदि के बाहल्य प्रमाण में इस आगे कहे जाने वाली गाथा में कहे हुए प्रमाण को कम से घनोदधि आदि के पाहल्य प्रमाण में मिला मिलाकर आगे आगे की पृथिवी स्थित घनोदधि आदि का बाहल्य प्रमाण कर लेना चाहिये ॥१॥ अघ दूसरीगाथा से वही मिलाने योग्य प्रमाण को दिखलाते हैं-'सतिभाग' इत्यादि। रश्न ममा पृथिवी के धनोदधि बाहल्य के प्रमाण में 'सतिभाग ४यु छे. धनवातना मायनु प्रभा ‘अद्धपचम' सार या२ योननु छु' छे, २, भने तनुवात प्रभार 'जोयणसड्ढे' 316 याननु अर्थात छान છે. આ ઘદધિ ઘનવાત, તનુવાતના બાહ૫નું જે પ્રમાણ છે તેને આદિ ધ્રુવમુખ્ય માનીને આગળ આગળ નીચે નીચેની શર્કરામભા પૃથ્વી વિગેરે અધઃ સપ્તમી પૃથ્વી પર્યન્તની પૃથ્વીમાં પહેલી પહેલી પૃથ્વીમાં રહેલ ઘનોદધિ વિગેરેના બાહલ્યના પ્રમાણમાં આ આગળ કહેવામાં આવનારી ગાથામાં કહેવામાં આવેલ પ્રમાણને કમથી ઘોદધિ વગેરેના બાહલ્ય પ્રમાણમાં મેળવીને પછી પછીની પૃથ્વીમાં રહેલ ઘોદધિ વિગેરેના બાહલ્યનું પ્રમાણ वु नये. ॥ १ ॥ वे भी आयामांथा से मेजय प्रभा मताव छ. 'सतिभाग' Uत्या २नमा पृथ्वीना ना मायना प्रभाएमा 'सतिमाग' Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगम भागं पक्षिप्य प्रक्षिप्य क्रममोऽग्रेऽने शर्करामभादि सर्वपृथिवीगतघनोदधि वाहल्यप्रमाणं ज्ञातव्यम् ॥१॥ एवम् 'गाउयं' इति गव्यूतम्-एक क्रोशं रत्न प्रमा पृथिवीगत घनवातवाहल्ये पक्षिप्य प्रक्षिप्य क्रमशोऽग्रेऽग्ने शरामभादि सर्व पृथिवीगत घनदातवाहल्यप्रमाणं ज्ञातव्यम् २ । एम्मेव 'तिमागो गाउ. यल्ल' इति त्रिभागो गव्यूतस्य, इति गव्यूतस्य क्रोशस्य त्रिभागः तृतीयो भागः प्रक्षेपणीय इति रत्नप्रया पृथिवीगत तनात बादल्ये क्रोशस्य तृतीयं भाग प्रक्षिप्य प्रक्षिप्य क्रमशोऽग्रेऽग्रे शर्वराप्रभादि सर्व पृथिवीगत तनुवातवाहल्य प्रमाण ३ ज्ञातव्यमिति गाथाद्वय भावार्थ इति । सम्प्रति एतेषु धन दध्यादिवलयेषु वर्णाद्युपेत द्रपारितत्वपतिपादनार्थ. माह-'इमीसे णं मंते ! एतस्याः खलु भदन्त ! 'स्यणप्पभाए पुढवीए' रत्नयोजन के तीन भाग करके उनमें का तीसरा भाग मिलावे, इस प्रकार योजन का तीसरा भाग मिला मिलाकर क्रमशः आगे भागे की शर्करा प्रभादि लष पृथिविधों का घनोदधि प्रमाण जान लेना चाहिये ।। इसी प्रकार 'जाउय' इति गव्यूत-एक कोश रत्नम्मा पृथिवी के पाहल्य प्रमाण में मिलाकर क्रमशः आगे आगे फी शर्करा प्रभादि सब पृथिवियों के घनवात के बाहल्य का प्रमाण जान लेना चाहिये ।। इसी प्रकार 'तिभागो गाउयस्ल' रत्नप्रभा पृथिवी गत तनुवात के बाहल्य प्रमाण में कोश का तीसरा भाग मिला मिलाकर कम से आगे आगे की शर्करा प्रभादि सप पृथिषियों का तनुवात पाहल्य प्रमाण जान लेना चाहिपे ।३। यह दोनों गाथाओं का भावार्थ हुआ। अब सूत्रकार इन घनोदधि आदि वात वलय में कृष्णवर्णादि वाले જનના ત્રણ ભાગ કરીને તે પૈકીને બીજો ભાગ મેળવો. આ રીતે જનને ત્રીજો ભાગ મેળવીને કમશા આગળ આગળની શર્કરપ્રભા વિગેરે सघणी पृथ्वीयानु धनाधिनु प्रभार सभ७ १, २४ प्रभा 'गाउय" ઈતિ ગભૂત એક ગાઉ. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના બાહુલ્ય પ્રમાણમાં મેળવીને ક્રમશ પછી પછીની શર્કરપ્રભા વિગેરે સઘળી પૃથ્વીના ઘનવાતના બાહલ્યનું प्रमाण सभ देवू नये, २, ४ प्रमाणे 'तिभागो गाउयस्स' २त्नाला પૃથ્વીમાં રહેલ તનુવાતના બાહલ્ય પ્રમાણમાં ગાઉનો ત્રીજો ભાગ મેળવવાથી કમથી પછી પછીની શર્કરામભા વિગેરે સઘળી પૃથિવિયેના તનુવાતના બાહલ્યનું પ્રમાણ સમજી લેવું (૩) આ રીતે આ બને ગાથાઓને ભાવાર્થ છે. હવે સૂત્રકાર ઘનેદધિ વિગેરે વાતવલયમાં કૃષ્ણ વર્ણ વિગેરે વાળું દ્રવ્ય છે. ? એ વાત પ્રગટ કરે છે. 'इमीसे ण भंते' त्याह के समय मा २नमा पृथ्वीनार घनधि Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेय धोतिका टीका प्र.३६.८ सप्तपृ. घनोदण्याद ना तिर्यवाहत्यम् ५९ म भायाः पृथिव्याः 'घनोदधिलयरस' छ जोया बाहला ड्यो न बाहल्यस्य 'खेत्तच्छेएण छिज्जमाणरस' क्षेत्ररछेदेन छिद्यमानस्य 'अस्थि दवाई' सन्ति. द्रव्याणि 'वष्णमओ काल जाब' वर्णतः काल यादल वर्णतः काल्नीललोहितहारिद्र. शुक्लानि, गन्धतः सुरभिगन्धानि दुरभिगन्धानि, रसतः वित्तक टुकषायाम्ल म धुराणि, रपर्शतः क केश दुकगुरुकलघुक शीतोष्णस्निग्धरूक्षाणि, संस्थानतः परिमण्डल वृत्त यस चतुरस्सायातसंस्थानपरिणतानि अन्योन्यबद्धानि अन्योन्य स्पृष्टानि अन्योन्यावगाढानि अन्योन्यरनेहप्रतिबद्धानि, अन्योन्य घटतया द्रव्य है यह बात प्रकट करते हैं-'इमीले णं भंते !" इत्यादि । हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो घनोदधि चलब है कि जिसकी 'छ जोयण बाहल्लस्स' छ योजन की मोटाई है क्षेत्रच्छेद ले विभाग करने पर सद्गत द्रव्य 'वाओ काल जाव' क्या वर्ण की अपेक्षा कृष्ण वर्ण वाले नील वर्ण वाले, लोहिल-लाल वर्ण वाले, पीले वर्ण बाले और शक्ल धर्ण वाले होते हैं ? गन्ध की अपेक्षा के सुरभि दुरभिगाध बाले होते हैं ? रस की अपेक्षा तिक्त, फड, कषाय, अम्ल एवं मधुर रस वाले होते हैं ? स्पर्श की अपेक्षा वे ककश, स्मृदुक, गुरूक, लघुक, शीत, उष्ण, स्निग्ध, और रुक्ष पर्श वाले होते हैं क्या ? तथा संस्थान की अपेक्षा वे परिमंडल वृत्त पत्र चतुरस्त्र आयत संस्थान थाले होते हैं क्या? ये द्रव्य अन्योन्य पद्ध होते हैं क्या? अन्योन्य स्पृष्ट होते हैं क्या ? अन्योन्य अवगाढ होते हैं ? स्नेह गुण खे अन्योन्य बद्ध होते हैं क्या ? तथा वे अधिभक्त होकर ये अन्योन्य धन-समुदाय रूप १सय छ, 'छजोयण बाहालस्व' छ योजना वि छ. ना क्षेत्र छेध्या विमा ५२वामा मावेतो तभा २ द्रव्य 'वण्णओ काल जाव' વર્ણની અપેક્ષથી કૃષ્ણવર્ણવાળું પીળાવર્ણવાળું અને શુકલનામ સફેદ વર્ણવાળું હેય છે ? ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ દુરભિ ગંધવાળું હોય છે ? રસની અપેક્ષાથી તે તીખુ, કડવું તરૂ, ખાટું, અને મીઠારસવાળું હોય છે? પર્શની અપેક્ષાથી તે કર્કશ, મૃદુ, ગુરૂ, લઘુ, શીત ઉષ્ણ, સ્નિગ્ધ અને રૂક્ષ સ્પર્શવાળું હોય છે ? તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી તે પરિમંડલ ગોળ ઝાલરાકાર વ્યસ ચતુર, આયત સંસ્થાનવાળું હોય છે? આ દ્રવ્ય અન્ય બદ્ધ હોય છે? અન્ય પૃષ્ટ હોય છે? અન્યૂન્ય અવગાઢ વાળું હોય છે ? મને હગુગથી અન્ય બદ્ધ હોય છે? તથા પરસ્પરમાં અવિભક્ત થઈને આ અન્ય ઘન સમુદાયપણાથી મળેલું રહે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जीवामिगमसूत्रे तिष्ठन्ति किमिति प्रश्नः, भगवानाह - हे गौतम! 'हंवा अस्थि' हन्त सन्ति यथा स्वया पृष्टानि उथैव तादृशानि तानि द्रव्याणि दिष्ठन्ति इति । 'सकरपभाए भंते! पुढवीए' शर्करामभायाः खलु भन्द ! पृथिव्याः 'घगोदविलयस्स सतिभाग छजोयणवादल्लस्स' घनोदधिवच्यस्य सत्रिभाग पड्योजनवाद्दल्यस्य 'खेतच्छेषण छिज्जमाणस्स जाव' क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि वर्णतः कालादीनि, गन्धतः सुरभिदुरभिगन्धानि रसवः- विक्तादीनि, स्पर्शतः कर्कशादीनि संस्थानतः परिमण्डलसंस्थानपरिणतानि, अन्योन्यवद्धादिविशेषणयुक्तानि अन्योन्यसमुदायरूपेण तिष्ठन्ति किम् ? भगगनाह - हे गौतम! 'हंना अस्थि' से मिले रहते हैं क्या ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'हंता, अस्थि' हां गौतम ! गत द्रव्य तूने जैसा पूछा है उसी प्रकार से इन पूर्वोक्त विशेषणों वाले होते हैं । 'स्कायलाए णं भंते! पुढबीए घणोदधि वलयस सतिभाग छ जोयणषाल्लास खेत्तच्छेरण छिजमाणस्स जाव' हे भदन्त ! शर्करा प्रभा पृथिवी का जो घनोदधि यात वलय है कि जिसकी योजन के तृतीय भाग सहित ६ योजन की मोटाई है उसके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर तगत द्रव्य वर्ण की अपेक्षा क्या कृष्ण आदि वर्ण से परिणत होते हैं क्या ? गंध की अपेक्षा सुरभि दुरभि गंध से परिणत होते हैं क्या ? रस की अपेक्षा तिक्तादि रस रूप से परिणत होते हैं क्या ? स्पर्श को अपेक्षा फर्क शादि स्पर्श से परिणत होते हैं क्या ? तथा संस्थान की अपेक्षा वे परिमंडल आदि संस्थान उडे 'ह'ता अस्थि' हा गौतम ! तेमां रडेल द्रव्य तमे ने रीते प्रश्न કરેલ છે, એજ પ્રકારનું એટલે કે આ પૂર્વોક્ત વિશેષ@ાવાળુ હાય છે. 'सक्कर पभाए णं भवे ! पुढवीए घणोदधिवलयस्स सतिभाग छ जोयणबाइकस्म खेत्तच्छेपण' छिज्जमाणस्स जाव' हे भगवन् शराना पृथ्वीना ઘનેાદિષ્ઠ વાત વલય છે, કે જેની વિશાળતા ચેજનના ત્રીજામાગ સહિત ૬ છ ચેાજનની છે. તેના ક્ષેત્રèઢથી વિભાગ કરવામાં આવેત તેમાં રહેલ દ્રવ્ય વર્ણની અપેક્ષાથી શું કૃષ્ણ વિગેરે વવાળુ હાય છે ? ગધની અપેક્ષાથી મુર, દુરભિ ગંધથી પરિણત ાય છે ? રસની અપેક્ષાથી તીખા, કડવા રસેવાળું હાય છે ? ભૃપની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે સ્પથી પરિણત હાય છે ? તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમલ વિગેરે સ’સ્થાનપણાથી પરિણત થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હૈ ગૌતમ ! 'हंसा अस्थि, ते पूर्वोति विशेष वाणु होय हे Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ स्तु.८ सप्तपृ. घनोद्ध्यादीनां तिर्थग्वाहल्यम् ८५ हन्त सन्तित थाविधानि द्रव्याणि इति । एवं जाव अहे सत्तमाए जं जस्स बाइल्लं' एवं यावदधः सप्तस्याः ययय बाहल्यम् हे भदन्त ! बालकामभाया तृतीय पृथिव्या: घनोदधिक्लयस्य त्रिभागोनसनुयोजनबाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्धि द्रव्याणि, वर्णतः कालादि पञ्चवर्ण द्विगन्ध पञ्चरसाष्टस्पर्शयुक्तानि पञ्चसंस्थानपरिमलानि अन्योन्य संद्धादि विशेषणयुक्तानि परस्परं समुदायरूपेण तिष्ठन्ति किम् ? इति प्रश्ना, भगवानाह-हे गौतम ! सन्ति बानि द्रव्याणि तथाविधानीति । पकामापा पृथिव्याः खलु सदन्त ! घनोदधिवलयस्य सप्तरूप से परिपन्न होते है क्या ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं'हे गौतम! ' हंना मारिय' पूनोक्त विशेषणों काले होते हैं। 'एवं जाय अहे समाए जंजाल बाहल्लं' इसी तरह से आगे भी ऐसा ही पूछना और प्रभु की ओर से दिया गया उत्तर ऐसा ही जालना-जैलेहे भदन्त ! बाल मा पृथिषी का जो घनोदधि बात बलय है कि जिसकी मोटाई योजना के तृतीय भाग कमलात योजल की है उसके क्षेत्रच्छेद ले विनाश करने पर तदत दव्य क्या वर्ण की अपेक्षा कालादि रूप से मान्द की अपेक्षा सुरथि दुलि गन्ध रूप से रख की अपेक्षा तिक्त आदि रख रूप हो स्पर्श को अपेक्षा कर्कश आदि स्पर्श से हथा -संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि संस्थान रूप से परिणत एवं अन्योन्य संबद्ध आदि विशेषणों वाले होकर परस्पर समुदाय रूप से रहते हैं क्या ? इसके जन्तर में प्रभु कहते हैं-हां गौतम ! तद्गत द्रव्य पूर्वोक्त विशेषणों के रूप में एरिणत होते हैं। हे भदन्त ! पङ्कप्रभा 'एव जाव अहेसत्तमाए ज जस्म बाहल्ल' का प्रमाणे मानिस विषय સંબંધમાં પણ એવા જ પ્રશ્નો પૂછવા જોઈએ અને તેના ઉત્તરે પણ એજ પ્રમાણે સમજવા. જેમકે હે ભગવન વાલુકા પ્રભા પૃથ્વીને જે ઘને દધિવાત વલય છે, કે જેની વિશાળતા જનના ત્રીજા ભાગ કમ સાત જનની છે, તેના ક્ષેત્ર. છેદથી વિભાગ કરવામાં આવે તેમાં રહેલ દ્રવ્ય વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વિગેરે વર્ણપણાથી, ગંધની અપેક્ષાથી સુરભિ, દુરભિ ગંધ પણાથી રસની અપેક્ષાથી તીખાકડવા વિગેરે રસરૂપે, સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે સ્પર્શથી તથા સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે સંસ્થાન પણાથી પરિણત થાય છે? તથા અન્ય બદ્ધ વિગેરે વિશે વાળું થઈને પરસ્પર સમુદાય પણાથી રહે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે છે હા ગૌતમ ! તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, પૂર્વોક્ત વિશેષણથી પરિણત થાય છે. હે ભગવન પંકપ્રભા પૃથ્વીનું જે जी० ११ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्र योजनवाइल्यस्य क्षेत्र छेदेन छिचमानस्य सन्ति द्रव्याणि पूक्तिस्वरूपाणि विम् हे गौतम ! सन्ति । धरममायाः घनोदधिवलयस्य सत्रिभागसप्तयोजनवादल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि पूर्ववत् किम् ? हन्त गौतम ! सन्ति ताशालि लानि । लम:प्रभायाः घनोदधिवलयस्य विभागोनाष्टयोजन बाहल्यरय क्षेत्र छेदेन विद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि पूर्ववत् किम् ? उम्त गौतम ! पृथिवी का जो घोधि बलय है कि जिलकी मोटाई तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा पूरे मात योजन की है उलके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर तद्गत द्रव्य क्या पूर्वोक्त रूप वाले अर्थात् वर्ण की अपेक्षा कृष्णादि वर्ण रूप से गन्ध की अपेक्षा छुरभि दुरदिगाध रूप से, रस की अपेक्षा तिक्त आदि रस रूप से, स्पर्श की अपेक्षा कर्कश आदि स्पर्श रूप से, एवं संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि संस्थान रूप से परिणत तथा अन्योन्य संबद्धादि विशेषणों से युक्त होते हैं क्या ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- गौतम ! वे पूर्वोक्त विशेषणों वाले होते हैं। हे भदन्त ! धूमप्रभा पृथिवी का जो घनोदधि वातवलय है कि जिसकी मोटाई तिर्यग्वाहल्य की अपेक्षा योजन के तृतीय भाग सहित सात योजन की है उसके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर तद्गत द्रव्य क्या पूर्वोक्त विशेषणों वाले होते हैं क्या ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-हां, गौतम! थे पूक्ति विशेषणों पाले होते हैं। हे भदन्त ! तमममा पृथिवी का जो घनोदधि जान बलय है कि जिसकी मोटाई तिर्यग्याल्फ की अपेक्षा पोजन के तृतीय भाग फल आठ योजन की है उसके क्षेत्रच्छेद से ઘનેદધિ વલય છે, કે જેની વિશાળતા તિર્યગાહલ્યની અપેક્ષાથી પૂરા સાત ચેજનની છે. તેના ક્ષેત્રદથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, પૂર્વોક્ત પ્રકારવાળું અર્થાત્ વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વિગેરે વર્ણરૂપે, ગંધની અપેક્ષાથી સુરક્ષિ, દુરભિ ગંધપણાથી, રસની અપેક્ષાથી તીખા વિગેરે રસ પણુથી, સ્પર્શની અપેક્ષાથી કર્કશ વિગેરે સ્પર્શ પણાથી અને સંરથાનની અપેક્ષાથી પરિણત આદિ સંસ્થાન પણથી યુક્ત હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! એ પર્વોક્ત વિશેષવાળું હોય છે. હે ભગવન ધૂમપ્રભા પૃથ્વીને જે ઘનોદધિવાત વલય છે. કે જેની વિશાળતા તિર્યવાહત્યની અપેક્ષાથી જનના ત્રીજા ભાગ સહિત સાત જનની છે, તેના ક્ષેત્રચ્છેદથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, શું પૂર્વોકત વિશેષણોવાળું હોય છે? હે ભગવન તમપ્રભા પૃથ્વીનો જે ઘનેદધિવાત વલય છે, કે જેની વિશાળતા તિર્યબાહુલ્યની Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ लू. ८ सप्त. घनोदध्या शेनां तिर्यग्वाहल्यम् क्षेत्रच्छेदेन सन्ति । तमस्तमः प्रभायाः घनोदधिवलयस्याष्ट्रयोजनवादल्पस्य छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि पूर्ववत् कि ? हन्त गौतम ! सन्ति वानि वाशानीति | अथ घनवातस्य स्वरूपलाह - 'इमीसेण भंते !' एतस्याः खलु 'रवणप्पभाए' रत्नप्रभायां पृथिव्याम्' घणवायवलयस्स' घनवातवलयस्य 'अद्ध पंचमजोयण नाहएलएस' अर्द्धपञ्चम] योजन बहल्यस्य सार्द्ध चतुर्थोजनबाहल्यस्य 'खेतच्छेएण छिज्ज माणस्स जाव' क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य सन्ति द्रव्याणि, सर्व वर्ण गन्धरसस्पर्शसंस्थान परिणतानि तथा अन्योन्य संबद्धादिविशेषणयुक्तानि परस्पर समुदायरूपेण तिष्ठन्ति विभाग करने पर लगत द्रव्य पूर्वोक्त विशेषणों वाले होते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - हां गौतम ! वे पूर्वोक्त विशेषणों वाले होते हैं । हे भदन्त ! तमस्तपःप्रभा पृथिवी में जो घनोदधिवलय है कि जिसकी मोटाई तिर्यग्वाहत्य रूप से परे आठ योजन की है उसके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर तद‌ाश्रित द्रव्य क्या पूर्ववत् विशेषणों से युक्त होते हैं? इसके उत्तर में प्रमुख कहते हैं-हां गौनम ! वे पूर्वोक्त विशेषणों वाले होते हैं अब घनबात का स्वरूप कहते हैं- 'हमी से णं भंले ! रणभार पुढबीए घणवायवलपस्ल' हे भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिबी में जो घनवात वलय है कि जिसकी मोटाई ४ ||) योजन की है उसके क्षेत्रच्छे से विभाग करने पर द्रव्य क्या सब प्रकार के वर्ण गंध रस स्पर्श से युक्त परिमंडलादि संस्थानों से परिणत तथा अन्योन्य संबद्धादि विशेषणों से युक्त होकर परस्पर समुदाय रूप से रहते हैं क्या ? हलके અપેક્ષાથી ચેાજનના ત્રીજા ભાગથી કસ આઠ ચેાજનની છે, તેના ક્ષેત્રઢથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ દ્રશ્ય શુ પૂર્વક્તિ વિશેષણેાવાળું હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હા ગૌતમ! તે પૂર્વોક્ત વિશેષ@ાવાળુ હાય છે. હું ભગવત્ તમતમપ્રભા પૃથ્વીમાં જે ઘનેાધિ વલય છે, કે જેની વિશાળતા તિય ગ્બાહુલ્ય પણાથી પૂર આઠ ચેાજનની છે, તેના ક્ષેત્રòઢથી વિભાગ કરવાયી તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, પૂર્વકિત વિશેષશેવાળુ હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કેહા ગૌતમ ! તે પૂર્વક્તિ વિશેષણાવાળું હોય છે. हवे धनवानुं स्त्र३५ सूत्रार अरे छे. 'इमीसेण' भ'वे ! रणणप्पभाए पुढवी घणवायवलयस्स' से लगवन् मा रत्नला पृथ्वीमां ने धनवातवसय छे, જેની વિશાળતા જાા સાડા ચાર ચૈાજનની છે, તેના ક્ષેત્રચ્છેદથી વિભાગ કરવામાં આવેતે તેમાં રહેલ દ્રવ્ય, બધા પ્રકારથી વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શથી યુકત પરિમ’ડલ વિગેરે સસ્થાનાથી પરિણત તથા અન્યાન્ય સબદ્ધ વિગેરે વિશેષણે Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगम सूत्रे किम् ? इति प्रश्नः, भगवानाह - हे गौतम ! 'हंता अस्थि' हन्त सन्ति, 'एवं जाव अहे सत्रामाए जं जस्स वाहल्लं' एवं यथा रत्नमभाश्रित घनवातस्य अर्द्ध पञ्चमयोजन प्रमाणवाइल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य वर्णाद्युपेत द्रव्यास्तित्वं प्रतिपादितम् एंवमेव शर्कराप्रभात आरभ्याधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्ताश्रित वनवातवलयस्य यस्यां पृथिव्यां यद् यस्य घनवातस्य वादल्यं भवदि तत्तद्विषये तदनुसारेण प्रश्न उत्तरं च बोध्यम् । तथाहि - द्वितीय शर्करामभा पृथिव्याः क्रोशोन पञ्चयोजन वाल्यस्य तृतीयाया वालुकाममा पृथिव्याः पञ्चयोजनवाहल्यस्य, चतुर्थ्या पंकप्रभा पृथिव्याः सक्रोश पञ्चयोजन बाहल्यस्य पञ्चम्याः धूमप्रभा पृथिव्याः सार्द्ध पञ्चयोजन बाहल्यस्य, पष्ट्या स्तमः प्रभा पृथिव्याः क्रोशोन पड्योजन वाल्यस्य, सप्तम्याः परिपूर्ण षड्पोजन बाहल्यस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'हता अस्थि' हां गौतम ! वे पूर्वोक्त विशेषणों से युक्त होते हैं। 'एवं' जाव अहे सत्तमाएं जं जस्स बाहल्ल' इसी प्रकार शर्कराप्रभा से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्त आश्रित जो घनवात बलय है कि जिसकी तिर्यग्याहलय की अपेक्षा जितनी मोटाई हो वह समझ लेना चाहिये जैसे शर्कराप्रभा पृथिवी में एक कोश कम पांच योजन की मोटाई है, बालुकाप्रभा में पांच योजन की मोटाई है, पङ्कप्रभा में एक कोश अधिक पांच योजन की मोटाई है, धूम प्रभा में ५ || साडे पांच योजन की मोटाई है, तमः प्रभा में एक कोश कम छह योजन की है और तमस्तमः प्रभा में पूरे छह योजन की मोटाई है उसके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर उस उसमें रहे हुए द्रव्य व प्रकार के वर्ण गंध रस और स्पर्शो से युक्त, तथा परिमंडलादि स्थानों से परि ચુકત થઈને પરસ્પર સમુદાય પણાથી રહે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ गौतमस्वाभीने हे छे } 'हता अस्थि' हा गौतम ! तेथेो मे यूवेति विशेष । वाजा होय छे ‘एव ं जात्र अहे सत्तमाए ज जस्स वाइल्लं' खेन प्रभाचे शश પ્રભા પૃથ્વીથી લઇને અધઃસપ્તમી પૃથ્વી પન્ત તેના આશ્રિત જે ઘનવાત વલય છે, કે જેની તિગ્માહુલ્યની અપેક્ષાથી જેટલી વિશાળતા હાય તેટલી સમજી લેવી. જેમકે શક શપ્રભા પૃથ્વીમાં એક ગાઉ એછા પાંચ રેજિનની છે વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીમાં પાંચ ચેાજનની વિશાળતા છે. પ'કપ્રભા પૃથ્વીમાં એક ગાઉ અધિક પાંચ ચેાજનની છે. ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં સાડા પાંચ યેાજનની છે. તમઃ પ્રભા પૃથ્વીમાં એક ગાઉ કમ છ ચેાજનની છે. અને તમસ્તમપ્રભામાં પૂરા છ ૬ ચેાજનની વિશાળતા છે. તેના ક્ષેત્રછેદથી વિભાગ કરવાથી તેમાં તેમાં રહેલા દ્રન્ગેા અધા પ્રકારના વર્ણ, ગંધ, રસ, અને સ્પર્ઘાથી ચુત, તથા Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्यौतिका टीका प्र.३ शु.८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तिर्यग्वाहल्यम् ८५ कालवर्णाद्युपेस द्रव्यास्तित्व ज्ञातव्यम्, अयमेव भावः 'एवं जाव अहे सत्तमाए जं जस्स बाहल्लं' इति प्रकरणस्येति । एवं तणुवायजलयस्स विजाब अहे सत्तमाए जं जस्स वाहल्लं' एवं तनुवातवलयल्याषि सावधः सप्तम्याः यद यस्य वाहल्पम्, अयं भाणा-यथा रत्नपभाव आरभ्य सप्तमपृथिवी पर्यन्त घणोदधि घनवातवळयख्य तत्तद्वाहल्ययुक्तस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य वर्णाधुपेतद्रव्यास्तिस्वम् अन्योन्य संबद्धादित्वं च निरूपितम्, एवमेव रत्नप्रभात आरभ्य यावदधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्त पृथिवीगत तनुवातवलयस्यापि तत्तद्वाहल्योपेतस्य क्षेत्रच्छेदेन छिद्यमानस्य वर्णाधुपेत द्रव्यास्तिस्वादि प्रतिपादनीयम् तथाहि वाइल्पपमाणम्-रत्नप्रभाया स्तनुशाववलयस्य षट्क्रोशं वाहल्यम् १, शकराप्रभायाः सत्रिभाग षट्क्रोशं क्रोशस्य तृतीयभाग सहित पक्रोशं वाहल्यम् २, णत, एवं अन्योन्य संबद्धादि विशेषणों से युक्त परस्पर समुदाय रूप से रहते हैं, ऐसा जानना चाहिये। ‘एवं तणुवायवलयस्ता वि जाव अखत्तमाए जं जस्स बाहल्लं जिला प्रकार से रत्न प्रभा से लेकर सातवीं तमस्तमः सभा पृथिवी लक आश्रित धनोदधि और घनवात जो अपने अपने बाहल्य ले युक्त हैं उनके क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर उन उन में रहे हुए द्रव्य का वर्णादि युक्त होला कहा गया है उसी प्रकार रस्नमला पृथिवी से लेकर सातवीं तमसमाप्रभा पृथिवी पर्यः न्त अपने अपने बोहल्या से युक्त उनके क्षेत्रच्छेद से विजक्त तनुवात वलय में रहे हुए द्रव्यों का भी अादि वाला होना जान लेना चाहिये। जसे तलुवात की मोटाई प्रथम पृथिवी में छह कोश की कही गई है द्वितीय शर्करा पृथिवी में एक कोश के तृतीय भाग सहित छह પરિમંડલ વિગેરે સંસ્થાનેથી પરિણુત અને અન્ય સંબદ્ધાદિ વિશેષણેથી યુકત પરસ્પરમાં સમુદાય પણાથી રહે છે. તેમ સમજવું. एवं तणुवायवलयस्स वि जाव अहे खत्तमाए जौं जस्स बाहाल्ल" પ્રમાણે રતનપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને સાતમી તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વી સુધીમાં તે તે પૃથ્વીના આશ્રિત ઘનોદધિ અને ઘનવાત કે જે પિત પોતાના બાહલ્યથી યુકત છે. તેના ક્ષેત્ર છેદથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલા દ્રવ્યોને વર્ણાદિથી યુક્ત હોવાનું કહેલ છે. એ જ પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને સાતમી તમને તમા પ્રભા પૃની પર્વત પિતપિતના બાહલ્યથી યુકત તેના ક્ષેત્રછેદથી વિભાગ કરેલા તનુવાત વલયમાં રહેલા દ્રવ્યનું પણ વર્ણાદિવાળા હેવાનું સમજવું જેમ તનુવાતની વિશાળતા પહેલી પૃથ્વીમાં છ ગાઉની કહી છે. બીજી શર્કરામભા પૃથ્વીમાં એક ગાઉના ત્રીજા ભાગ સહિત છ ગાઉની કહેલ છે. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जीवाभिगमन वालुकाममाया स्त्रिभागोन सप्तकोशं वाहल्यम् ३, पङ्कप्रमायाः परिपूर्णसप्तकोशं. वाहल्यम् ४, धूमनभायाः सत्रिभागसप्तकोशं बाहल्यम् ५, तमःप्रभाया खिमा. गोनाष्टक्रोशं वाहल्पम् ६, अधः सप्तम्पाः पृथिव्यास्त नुवातवलयस्य परिपूर्णाष्टक्रोश वाहल्यम् ७, एवं यद् यस्याः पृथिव्यास्त नुवातरलयस्य बाहल्यं तस्य क्षेत्रच्छेदेन छियमानस्य द्रव्येषु सर्व वर्ण गन्धरसस्पर्शसंस्थानास्तित्व मन्योन्यसंवद्धादित्वं च बोध्यम् इति । सम्मति-धनोदध्यादीनां संस्थानमतिपादनार्थमाइ-'इमीसे गं' इत्यादि, 'मीसे णं भंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पलाए पुढवीए' रत्नमभायाः फोश की कही गई है बालुका प्रभा में होश के तृतीय भाग कम सात कोश की कही गई है, पंक मना में सात कोश की कही गई है, धूम प्रभा में कोश के तृतीश भाग हित सात कोश की कही गई है, तमः प्रभा पृथियो में कोश के तृतीय भाष कम आठ कोश की कही गई है और अधः सप्तमी में पूरे आठ कोश की कही गई है उन उनको क्षेत्रच्छेद से विभाग करने पर लगत द्रव्य वर्ण की अपेक्षा कृष्णादि पांच वोंले युक्त गंध की अपेक्षा सुरभि दुरभि गन्ध युक्त रस की अपेक्षा तिक्त आदि पांचों रसों से युक्त स्पा की अपेक्षा कर्कश आदि पाठों स्पर्शों से युक्त और संस्थान की अपेक्षा परिमंडल आदि संस्थान रूप ले परिणत हैं, लथा अन्योन्य संघद्धादि विशेषणों से युक्त होकर परस्पर समुदाय रूप ले रहते है, ऐसा जानना चाहिये। વાલુકાપ્રભ પૃથ્વીમાં ગાઉના ત્રીજા ભાગથી કમ સાત ગાઉની કહી છે. પંક પ્રભા પૃથ્વીમાં સાત ગાઉની કહી છે ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં ગાઉના ત્રીજા ભાગ સહિત સાત ગાઉની કહી છે. તમપ્રભા પૃથ્વીમાં કેશને ત્રીજા ભાગથી કમ આઠ ગાઉની કહી છે. અને અધ સપ્તમી પૃથ્વીમાં પૂર આઠ, ગાઉની કહી છે. તેને તેના ક્ષેત્રથી વિભાગ કરવાથી તેમાં રહેલ દ્રવ્ય વર્ણની અપેક્ષાથી કાળા વગેરે પાંચ વર્ણથી યુકત, ગંધની અપેક્ષા સુરભિ દુરભિ ગંધથી યુક્ત, ચિની અપેક્ષથી તીખા વિગેરે રસેથી યુકત, સ્પર્શની અપેક્ષા કર્કશ વિગેરે આઠ સ્પર્શથી યુક્ત અને સંસ્થાનની અપેક્ષાથી પરિમંડલ વિગેરે વિશેષણેથી પરિણત થાય છે. તથા પરસ્પરમાં સંબદ્ધ વિગેરે વિશેષથી ચુકત થઈને પરસ્પર સમુદાયપણાથી રહે છે. તેમ સમજવું. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तियंग्वाहल्यम् ८७ पृथिव्याः 'घणोदहिवलए कि संठिए पन्नत्त' घनोदधिवलयः किं संस्थितः कीदृश संस्थानदान प्रज्ञप्त:-कथित इति प्रश्ना, भगदानाह-'गोपया' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'वट्टे' वृत्तः 'दलयागारसंठाणसं ठिए पचते' वलयाकारसंस्थानसंस्थितः यज्ञप्तः, वृत्ता-चक्राकारचर्तुलो यस्य-मध्यथुपिरस्य वृत्तविशेषस्याकार आकृति बलयाकारः स इन संस्थानमिति वलयाकारसंस्थानं तेन संस्थानेन संस्थितः, इति वलयाकार संस्थान संस्थित इति । कथं पुनरिदं ज्ञायते यदयं घनोदधि वलयो वलयाकारसंस्थानसंस्थित इति तत्राह-'जेणं' इत्यादि, 'जे ण इमं रयणप्पमं पुढवि' येन खल्ल कारणेन इमां रत्नप्रभा पृथिवीस् 'सबओ समंता' सर्वतः समन्तात् सासु दिक्षु विदिक्षु च 'संपरिविवत्ताण' संपरिक्षिप्य ___अप्य सूत्रद्वार घनोदधि आदिकों के संस्थान को यतिपादन करते है-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'इबीले णं भंते ! रमणप्पाए पुढधीए घणोदहिवलए किं संठिए एन्नत्ते' हे सदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो घनोदधि बलय है उसका संस्थान कैसा कहा था है? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'कोयला! बट्टे वलयामारसंठाणसंठिए पन्नत्त' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी के घनोदधि वलय का संस्थान बलय के आकार जैसा गोल अध्या भाग खाली ऐसा कहा गया हैहे सदन्त ! यह कैसे ज्ञात होता है कि धनोदधिबलय का आकार वलय जैसा गोल मध्य मामा में खाली ऐला आकार जैसा है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जे णं इम स्थणप्प पुढपि सभी समंता' हे गौतम ! जिस कारण से इल रत्नममा पृथिवी को यह घनोदधि यलय चारों दिशाओं में एवं विदिशाओं में संपरिक्खित्ता' હવે સરકાર ઘનોદધિ વિગેરેના સંસ્થાનું પ્રતિપાદન કરે છે. તેમાં गौतमस्वामी प्रसन मे च्यु छ , 'इमीले णं भते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहीवलए किं सठिए पन्नत्ते' हे साप ! या २५ पृथ्वीना જે ઘોદધિવલય છે, તેનું સંસ્થાન કેવું કહ્યું છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ गौतमस्वामीन छ 'गोयमा ! बढे वलयागारसठिए पन्नत्ते' हे गौतम ! રત્ન પ્રભા પૃથ્વીના ઘોદધિવલયનું સંસ્થાન વલય બયાના આકાર જે ગળ પણ અધ્યભાગમાં ખાલી એ કહેલ છે. હે ભગવન ઘને દધિને આકાર બલેયા જેવો ગોળ અને મધ્ય ભાગમાં ખાલી એ છે, તે કેવી રીતે જાણી शय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमत्वामीन ४३ छे , 'जे ण इम' रयणप्पभ पुठवि सबओं समता' 3 गौतम ! २॥ २८नमा पृथ्वीन २ . Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमन सामस्त्येन वेष्टयित्वा खल्लु 'चिट्ठई' तिष्ठति-वर्तते तेन कारणेन वलयाकारसंस्थानसंस्थितो घनोदधिवलय इति ज्ञायते । ‘एवं जाव अहे सत्तमाए पुढ पीए घनोदधिवळए' एवं यावदधः सप्तम्याः पृथिव्याः घनोदधिरलया, यथा रत्नपमा पृथिव्याः घनोदधिवलयो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः तथैव शर्करामभा वालका प्रभा पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमःममा तमस्तमःममा पृथिवीनामपि घनोदधिक्लयोदलयाकारसंस्थानसंस्थित एव ज्ञातव्यः, 'नवरं अरणप्पणं पुढविं संपरिक्खिचाणं चिट्ठई' नवरमिति विशेषत्वयम्-यद् घनोदधिवलयः आत्मीयात्मीयां शर्कराधमातोऽधः सप्तमी पर्यन्तं स्वस्त्र सम्बन्धिनी पृथिवीं संपरिक्षिप्य 'खलु अच्छी तरह से परिवेष्टित करके ठहरा हुआ है, इस कारण यह ज्ञात होता है कि यह घनोदधि वलय वलय के आकार हा गोल है एवं जाव अहे सतमाए पुढवाए घनोदहिवलए' रत्नप्रभा पृथिवी का घनोदधि वलय जिस प्रकार ले दलयाकार के संस्थान से संस्थित कहा गया है उसी तरह ले शर्करा प्रभा पृथिवी का पङ्कप्रभा पृथिवी का, धूम प्रभा पृथिवी का, तमः प्रभा पृथिवी का, और तमस्तमः प्रभा सातवीं पृथिवी का घनोदधि बलय भी वलयाकार के संस्थान से संस्थित कहा गया है ऐसा जानना चाहिये 'नवरं अपणप्पणं पुढवि संपरिक्खित्ताण चिट्ठ' परन्तु इस कथन में ऐसी विशेषता जाननी चाहिये कि घनोदधि अपनी अपनी पृथिवी को घेरे हुए है जिस प्रकार से रत्नप्रभा पृथिवी का बनोदधिषलय रत्न प्रमा पृथिवी के चारों ओर से हुए हैं उसी प्रकार ले शर्करा पृथिवी का धनोदधि वलय वाधिवय यारे हिशाममा मन शामामा सपरक्खित्ता' सारी शत વીટળાઈને રહેલ છે, તે કારણથી એમ જણાય છે કે આ ઘને દધિ વલય मायाना मा२ । गण थे, ‘एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए घणोदही वलए' २नमा पृथ्वीन घनधि पसय म मायाना આકાર જેવા સંસ્થાનથી રહેલ કહ્યો છે, એ જ પ્રમાણે શકરપ્રભા પૃથ્વીને, ધૂમપ્રભા પૃથ્વીને, તમપ્રભા પૃથ્વીને, અને તમસ્તમપ્રભા પૃત્રીને ઘને દધિવલય પણ બયાના આકર જેવા સંસ્થાનથી ચુકત કહેલ છે. તેમ सभा'. 'नवर' अप्पणप्पण' पुढवि स परिक्खित्ताण चिदई' ५२ तु मा ४थनमा એવું વિશેષ પણું સમજવું જોઈએ કે તે બધા વિનોદધિ પિતપોતાની પૃથ્વીને ઘેરીને રહેલા છે જેમ રત્નપ્રસા પૃથ્વીને ઘનેદધિ વલય રત્નપ્રભા પૃથ્વીને ચારે તરફથી ઘેરીને રહેલ છે, એજ પ્રમાણે શકરપ્રભા પૃથ્વીને ઘનેદધિ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.८ सप्तपृ. घनोदध्यादीनां तिर्यग्वाहल्यम् तिष्ठति । यश-वलयाकारसंस्थानप्रतिपादनसमये शर्करामभायाः पृयिव्या घनोदधिवलयः शर्करा पृथिवीं सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठतीति वक्तव्यं तथा बालुकापभाषा घनोदधिवलयो बाल्नुकाप्रभां पृथिवी संपरिक्षिप्य तिष्ठेती. स्यादि रूपेण यावत् तबस्तमःममा पृथिवीगत घनोदधिवळयः सप्तमी तमस्तम:मां पृथिवीं संपरिक्षिप्य विष्ठतीति वक्तव्यमिति । 'इसीसे णं भंते' एतस्याः खल भदन्त ! 'रयणप्पाए पुढनीए' रत्नषभायाः पृथिव्याः 'घगवायवलए' घनवातदलयो घनोदधेरधस्ताद्विद्यमानः किं संठिए पन्नत्ते' किं संस्थितः कीदृश संस्थानसंस्थितः शज्ञप्त:-कथित इति पश्नः. भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'बडे वळयागारे' वृत्तो वलयाकारः संस्थानसंस्थितः मज्ञप्तः कथ ज्ञायते यदयं धनवानरलयो वलयाकारसंस्थानसं स्थित इति, वत्राह-'तहेव' शर्कराममा पृथिवी को चारों ओर घेरे हुए हैं, चालुकाप्रभा पृषियी का घनोदधि बलय बालुकाप्रमा पृथिवी को चारों ओर से घेरे हुए हैं, इत्यादि रूप से अपनी अपनी पृथिवी को घेरे हुए सामवीं पृथिवी तक के घनोदधि तक जानना चाहिये 'इमीले णं भंत!' हे अदन्त ! इस 'रयणप्पमाए पुढवीए घनवाय वलए किं संठिए पनन्ते' रत्नप्रभा पृथिवी का जो धनधात बलय है उसका संस्थान-आकार कैसा है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा!' हे गौतम! यह 'वढे बलयागारसंठाणसंठिए' बलय के मध्य के आकार (भीतर के) जैला गोल आकार वाला कहा गया है। हे भदन्त ! यह कैसे ज्ञात होता है कि रत्नमा पृथिवी का घनवालवलय बलय के मध्य के आकार जैसा गोल आकार याला कहा गया है ? तो इसके उत्तर વલય શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીને ચારે તરફથી ઘેરીને રહેલા છે. વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીને ઘને દધિવલય વાલુકાબભા પૃથ્વીને ચારે તરફથી ઘેરીને રહેલ છે. ઈત્યાદિ પ્રકારનું કથન પિતાપિતાની પૃથ્વીને ઘેરીને સાતમી પૃથ્વી સુધીના ઘને દધિ પર્યન્ત સમજવું 'इमीसे णते ! है भगवन् ! 'रयणप्पभाए पुढवीए घणवायवलए कि सठिए पन्नत्ते' २त्नमा पृथ्वीना २ धनवातसय छे तेनु संस्थान मथात् मा वा छे ? प्रशन उत्तरमा प्रभु ४९ छ है 'गोयम। गौतम! वटे वलयागारस'ठाणसठिए' मायाना मध्यभागनी क्यमानी मार જે ગોળ આકારવાળે કહેલ છે. હે ભગવન એ કેવી રીતે જાણી શકાય કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીને ઘનવાતવલય બલોયાના મધ્ય ભાગના આકાર જેવા ગોળ मारने छ १ मा प्रश्नना इत्तरमा प्रभु ४९ छ 'तहेव गौतम। जी० १२ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमने ' इत्यादि, 'तहेब जाव जे णं इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए घणोदहिवलए' तथैव यावद येन एतस्याः खलु रत्नप्रभायाः पृथिव्याः सम्बन्धि घनोदधिवलयम 'सव्वओ समंता' सर्वतः समन्तात् सर्वासु दिक्षु विविक्षु च 'संपरिक्खिताणं चिटई' संपरिक्षिप्य खलु सामस्स्येन वेष्टयित्वा खलु तिष्ठति तरमाज्ज्ञायते यदयं घनवातो वलयाकर संस्थान संस्थित इति । एवं जार बहे सत्तमाए धणवायवलए' एवं रत्नपमा घनदातदेव शर्कराममा वालुकाममा धूमप्रभा तमाममा तमस्तमा ममा सम्बन्धिनो घनवाढवलया अपि तत्तद् घणोदधि सामस्त्येन परिवेष्टय स्थिता अतो वलयाकारसंस्थिता एवेति भावः । 'मीसे णं मंते' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नमभायाः पृथिव्याः 'तणुवायवलए कि संठिए पन्नत्त' तनुवातवलयः कीदृश संस्थानेन संस्थितः प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा में प्रभु कहते हैं तहेव०' हे गौतम ! यह धनवात क्लय रत्न प्रभा सम्बन्धी घनोदधिषलय को चारों ओर से वेष्टित करके रहा हुआ है अतः ज्ञात होता है कि यह वलय के मध्य के आकार जैसा गोल आकार वाला है 'एवंजाब अहे ससमाए घणवायवलए' इसी तरह आकार कथन शर्करा प्रभा के पालुका प्रभा के, पङ्कप्रभा के, तमः प्रभा के और तमस्तमःप्रभा के घनात वलयों का भी कर लेना चाहिये ये सष घनसात वलय अपनी २ पृथिवी के घनोदधि वलय को चारों भोर से परिवेष्टित धारके रखे हुए हैं। अतः ज्ञात होता है कि ये सब घनवातवलय वलयाकार संस्थान हे संस्थित है। 'इमीले णं भंते ! रक्षणप्पलाए पुढबीए तणुवायवलए कि संठिए पपत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो तनुवात बलय है वह कैसे આ ઘનવાતવલય રનપ્રભા પૃથ્વી સંબંધી ઘનોદધિવલયને ચારે તરફથી વીંટળાઈને રહેલ છે. તેથી એમ જાણી શકાય છે કે આ બલોયાના મધ્યભાગ न मा२ २ मा मा२नी छे. 'एव जाव आहे सत्तमाए, घणवायवए' એજ પ્રમાણેના આકાર સંબંધીનું કથન શર્કરાપભાના, વાલુકા પ્રજાના, પંકપ્રભાના, ધૂમપ્રભાના, તમ પ્રભાના, અને તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીના ઘનવાતાલ સંબંધમાં પણ સમજી લેવું. આ સઘળા ઘનવાતવલયો પિતા પોતાની પૃથ્વીના દષિ વલયને ચારેતરફથી વીંટળાઈને રહેલા છે. તેથી એમ જણાય છે કે આ બધા જ ઘનવાતવલય બલેયા આકાર જેવા સંસ્થાનથી રહેલા છે, 'इमीसे ण' भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तणुवायवलए कि सठिए पन्नत्त' હે ભગવનું આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે તનુવાતવલય છે, તે કેવા આકારવાળા Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योर्तिका टीका प्र.३ सू.८ सप्तपृ. धनोध्यादीनां तिर्यग्वाहल्यम् .२५ इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'बटूटे बलयागारसंठाणसंठिए' वृत्तो वलयाकारसंस्थानसंस्थितः प्रज्ञप्तः । कथं ज्ञायते तत्राए-'जेणं इमीसे रयणपभाए पुढवीए' येन करणेन एतस्या रत्नममायाः पृथिव्याः 'घगवायवलयं सम्मो ससंता' घनवातवलयं सर्वतः समन्तात् सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च 'संपरिक्खिसाणं चिट्ठई' संपरिक्षिप्य सागस्त्येन वेष्टयित्वा तिष्ठति तस्मादयं तनुवराववलयो वळयाकारसंस्थित इति । 'एवं जाव अहे सत्तमा वणुवायवलए' एवं रत्नपमा तन्नुवातवलयवदेव शकरापमा बालुकापमा पङ्कप्रभा धूमममा तमायभा तमस्तमम्ममा सम्बन्धिनोऽपि तनुवातवलया वलयकारसंस्थानसंस्थिता स्त्रीयानि स्वीयानि घनवातवलयानि सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्य तिष्ठन्तीति ज्ञातव्यम् इति ॥ आकार वाला कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! बढे वलयाकारलंठाणसंठिए पनसे' हे गौतम! रत्ननमा पृथिवी का जो तनुवातदलय है वह बलय के मध्य का-भीतर का जैसा आकार गोल होता है-वैसे हो गोल आकार वाला कहा गया है 'जे णं' क्यों कि वह 'इमीसे रयणप्पभापुढवीए घणवायथलयं सन्धओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठह रत्नप्रभा पृथिवी के घनवातवलय को चारों ओर से परिवेष्टित करके रहा हुआ है इस स्थिति में इसका पूर्वोक्त चलया. कार जैसा ही आकार हो जाता है एवं जाप अहे समाए तणुवात. वलए' इसी तरह के आकार थाले शर्कराप्रभा के, बालुकाप्रभा के, पङ्कपभा के, धूमप्रभा के, तनाप्रभा के और तमस्तमःप्रभा के जो तनुवा. तवलय हैं वे भी वलयाकार संस्थान से संस्थित हैं ऐसा जानना चाहिये। छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु शीतभस्वामीन ४ छे , 'गोयमा! वट्टे वलयाकारसठाणसठिए पन्नत्ते' हे गौतम ! २नमा पृथ्वीनारे तनुपातय છે, તે બયાના મધ્યભાગના આકાર જેવો ગોળ છે. એટલે કે અંદરના पोसा माना २ गोल छे. 'जे ण' म त 'इमीसे रयणप्पभा पुढवीए घणवायवलए सव्वओ समता स परिकिखत्ता ण चिट्ठई' मा २नमा પૃથ્વીના ઘનવાતવલયને ચારે તરફથી વીટળાઈને રહેલ છે. આ સ્થિતિમાં तेना वस्ति सोयाना मा२ vair मा२ थई तय छे. 'एव जाव अहे सत्तमाए तणुवातवटए' मे०४ प्रमाणुना १२वाणा शशमा पृथ्वीना વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીને પંકપ્રભા પૃથ્વીને ધૂમપલા પૃથ્વીને, તમ પ્રભા પૃથ્વીને અને તમારતમાં પૃથ્વીને જે તનુવાતવલય છે, તે પણ બયાના આકાર જેવા સંસ્થાનથી યુકત છે તેમ સમજવું Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमत्र अथ रत्नप्रभादि पृथिवीनामायामविष्कम्भपरिमाणमाह-'इमा णं भंते' इत्यादि, 'इमा णं भंते ! रयणप्पमा पुढवी' इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी 'केवइया आयामविक्खंभेणं पण्णसा' कियता आयामविष्कम्भेण-आयामदेय विष्कम्भः विस्तार, ताभ्यामायामविष्कम्माभ्यां प्रज्ञप्ता-कथितेति प्रश्नः, मगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'असंखेज्जाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणे' असंख्येयानि योजनसहस्राणि आयामेन देयेण तथा विष्कम्भेण विस्तारेण असंख्यानि योजनसहस्राणि रत्नममा पक्षप्ता । 'असंखेज्जाई जोयसहस्साई परिक्खेवेणं' असंख्पानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण परिधिना 'पन्नत्ता' प्रज्ञप्ता-कथिवा इति । 'एवं जाव अहे सत्तमा' एवं यावदधः सप्तमा, शराप्रभात आरभ्य तमस्तमःपमा पर्यन्ताः पृषिव्यः असंख्येयानि योजनसह 'इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी केवया विश्वभेणं पन्नत्ता' हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी आघाम-लम्बाई विष्कम्भ-चौडाई में कितनी कही गई हैं ? अर्थात्-फितनी लम्बाई चौड़ाई वाली कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! असंखेनाई जोयण सहस्साई आयामविक्खंभेणं' हे गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथिवी असंख्यात हजार योजनों की लम्बी चौड़ी कही गई है। लम्बाई में भी असंख्यात हजार योजन की कही गई है और चौड़ाई में भी असंख्यात हजार योजन की कही गई है। तथा 'असंक्षेज्जाई जोयणलहस्सा परिक्खेवेणं पनत्ता' इसप्ती परिधि भी असंख्यात हजार योजन की कही गई है। "एवं जाव अहे खत्तमा' इसी तरह शरामबा पृथिवी से लेकर 'इमा 'ण' भते । रयणप्पभा पुढवी केवइया विक्खंभण पन्नत्ता' ભગવદ્ આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી આયામ લંબાઈ–વિષ્કભ-પહોળાઈમાં કેટલી કહે વામાં આવી છે? અર્થાતુ કેટલી લંબાઈ પહોળાઈ વાળી કહેવામાં આવી છે? या प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीन ४ छ ? 'गोयमा! अस खेऽजाई जोयणसहस्साई आयामविसंभेगं' । गौतम ! मा रत्नप्रभा पृथ्वी असभ्यात હજાર એજનથી લંબાઈ પહેળાઈ વાળી કહેલ છે. લંબાઈમાં પણ અસંખ્યાત હજાર જનની કહી છે અને પહોળાઈમાં પણ અસંખ્યાત હજાર ચિજનની छ. तथा 'असखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ता' मानी परिधि ५५] असभ्यात 61२ योनिनी ४डस छे. 'एव जाव अहेसत्तमा' એજ પ્રમાણે શર્કરપ્રભા, પૃથ્વીથી લઈને સાતમી પૃથ્વી પર્યાની બધી પૃથ્વીની લંબાઈ પહેળાઈ અને પરિધિનું પ્રમાણ સમજવું. Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ लू.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् स्राणि आयामविष्कम्भेग तथा परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता इति भावः । 'इमाणं भंते रयण प्पभा पुढवी' इयं खलु भदन्त ! रत्नपभा पृथिवी 'अंते य मझेय सब्बत्थ' अन्ते च मध्ये च सर्वत्र 'समा बाहल्लेणं पन्नचा' समा-तुल्या एकरूपेत्यर्थः बाइल्येन पिण्ड भावेन प्रज्ञप्ता-कथितेति प्रश्नः भगवानाह-'हंता गोयमा' हन्त गौतम ! 'इमा णं रयणप्पभा पुढवी' इयं खल्ल रत्नप्रभा पृथिवी, 'अंते यज्ञ सम्वत्थ समा बहल्ले ण' अन्ते मध्ये सर्वत्र समा तुल्यैव बाहल्येनेति । 'एवं जाव अहे सत्तमा' एवं रत्नप्रभावदेव शर्करामभात आरभ्य यावत् अधः सप्तमी तमस्तमा पृथिवी अन्तेमध्ये च सर्वत्र वाहल्येन समैव विज्ञेयेति ॥८॥ ____ मूलम्-इमासेणं भंते ! रयणप्पभा पुढवीए सव्वजीवा उववण्णपुव्वा सव्वजीवा उबवण्णा ? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए सजीवा उववण्णपुवा नो चेव णं सातवीं पृथिवी तक की पृथिवियों की लम्बाई चौडाई और परिधि का प्रमाण जानना चाहिये। ___ 'इमाण भंते ! रयणप्पभा पुढवी अंतेय मज्झेष सव्यत्यसमा पाहल्लेण पन्नत्ता' हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी क्या अन्त में और मध्य में सर्वत्र पिण्ड भाव की अपेक्षा समान-घराबर-एक सी-कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'हना गोयमा !' हां गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथिवी अन्त में, सर्वत्र मोटाई की अपेक्षा एकसी कही गई है 'एव जाप अहे सत्तमा' रत्नप्रभा की तरह शर्कराप्रभा से लेकर अधः सप्तमी भी तमस्तमाप्रमा तक की पृथिविधां अन्त में और मध्य में सर्वत्र वाहल्य की अपेक्षा अपने २ में एकसी कही गई हैं ऐसा जानना चाहिये । १० ॥८॥ 'इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी अंतेय मज्झे य सव्वत्थ समा बाहल्ले णं पन्नता' 3 सावन मा २त्नप्रसा पृथ्वी सन्तमा मने मध्यमा मधेस પિંડભાવની અપેક્ષાથી સરખી બરાબર એક સરખી કહી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु छ , 'हंता 'गोयमा!' । गौतम ! ॥ २नमा पृथ्वी मतभा, मध्यमा भने सधै विस्तारनी पेक्षाथी मे सभी ४३८ छे. 'एव जाव अहेसत्तमा' 21 २त्नमा पृथ्वीनी रेभ श६२मा पृथ्वीथी इन माससभी તમતમા પૃથ્વી સુધીની પૃથ્વી અન્તમાં અને મધ્યમાં બધેજ બાહ"ની અપે. ક્ષાથી પિતાપિતાનામાં એક સરખી કહેવામાં આવેલ છે. તેમ સમજી લેવું સૂ. ૮ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्टे सव्वजीवा उववष्णा, एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए ॥ इमाणं भंते ! रयणप्पसा पुढवी सव्वजीवहिं विजढपुव्वा, सव्वजीवहिं विजढा ? गोयमा ! इमाण रयणप्पभा पुढवी सव्वजीवहिं विजढपुवा नो चेव णं सव्वजीवविजढा, एवं जाव अहे लत्तमा । इसीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए लव्यपोग्गला पविट्रपुव्वा सव्वपोग्गला पविट्टा ? गोयमा! इमीसे गं रयणप्पभाए पुढवीए सव्वपोग्गला पविठ्ठपुवा णो चेव णं लव्यपोग्गला पविटा, एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए इमाण भंते! रय गप्पसा पुढवी सव्वपोग्गलेहिं विजढपुवा सव्व. पोग्गला विजढा ? गोयमा ! इनाणं रयणप्पभा पुढवी सम्वपुग्गलेहिं विजढ पुवा नो वेव णं सव्वपोग्गलेहिं विजढा, एवं जाव अहे सत्तमा ॥ इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं सालया असासया ? गोयमा ! सिय सासया, लिय असासया॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासया सिय असासया ? गोयमा ! दबट्टयाए लालया दण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहि रसपज्जवेहिं फासपज्जवहिं असासया, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ तं चेव जाव सिय सासया सिय अासया, एवं जाव अहे सत्तमा । इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी कालओ केवञ्चिरं होइ ? गोयमा ! ण कयाइ ण आली ण कथाइ अस्थि, ण कयाइ ण भबिस्लइ ॥ भुवि च भवइय सविस्सइ य धुश णियया सासया अक्खया अव्वधा अवटिया णिचा, एवं जाव अहे सत्तमा।सू०९। ___ छाया-एतस्यां खल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वे जीवा उत्पन्नपूर्वाक, स जीवा उत्पन्नाः ? गौतम ! एतस्यां खलु रत्नपभायां पृथिव्यां सर्वे जीवा उत्पन्नपूर्वाः नो चैव खलु सर्वजीवा उत्पन्नाः। एवं यावदधः सप्तम्यां पृधिव्याम्। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभापृथिवी सर्वजीवः परित्यक्तपूर्वा, सर्वजीवैः परित्यक्ता ? गौतम ! इयं खल्लु रत्नप्रभा पृथिवी सर्वजीवैः परित्यक्तपूर्वा, नो चैव खलु सर्वजीव परित्यक्ताः, एवं यावदधः सप्तमी । एतस्यां खलु भवन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां सर्वपुद्धलाः प्रविष्टपूर्वाः सर्व पुद्गलाः भविष्टाः ? गौतम ! एतस्यां खलु रत्नपभायां पृथिव्यां सर्वपुदलाः पविष्टपूर्वाः नो चैव सई पुद्गलाः पविष्टाः, एवं यावदधः सप्तम्या । इयं खलु भदन्त ! रत्नपभापृथिवी सर्वपुद्गलैः परित्यक्तपूर्वी सर्वपुद्गलाः परित्यक्ताः ? गौतम ! इयं खल्ल रत्नप्रभापृथिवी सर्वपुद्गलैः परित्यक्तपूर्वा, नो चैन खल्लु सर्वपुद्गलैः परित्यक्ता, । एव यावदधः सप्तमी। इयं खल भदन्त ! रत्नपमा प्रथिवी कि शाश्वती शाश्वती ? गौतम! स्यात् शाश्वती स्यादशास्वती । तत्केनार्थेन भदन्त ! एव मुच्यते-स्यात् शाश्वती स्थादशाश्वती ? गौतम ! द्रव्यार्थतथा शाश्वती वर्णपर्याय गन्धर्यायः रसपर्यायः स्पर्शपर्यायैरशाश्वती तत्तेनार्थेन गौतम ! एक युच्यते तदेव यावत् स्यात् शाश्वती स्यात अशाश्वती । एवं यावदधः सप्तमी । इयं खलु भदन्त! रत्नमभापृथिवी काळतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! न कदापि नासीत् न कदापि नास्ति न कदापि न भविष्यति, अमवच्च भवति च भविष्यति च ध्रुवा नियता शाश्वती अक्षया अव्यया अवस्थिता नित्या, एवं यावदधः सप्तमी ।।०९।। टीका- 'इमीसे णं भंते । एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढबीए' रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'सजीवा' सर्वजीवा सामस्त्येन 'उपचण्णपुवा' उत्पन्न पूर्वाः पूर्वमुत्पन्ना इति उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेण, तथा-'सबजीवा उचवण्णा' सर्व जीवा उत्पन्ना युगपदस्यां रत्नपभायामिति प्रश्न: भगवानाह-'गोयमा' इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढीए लक्ष जीवा उववण्णपुव्वा इत्यादि सू०॥९॥ ____टीकार्थ-गौतम ने इस सूत्र द्वारा प्रभु से ऐसा पूछ। है-'इलीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उबवणव्या, सत्र जीवा उपवण्णा' हे भदन्त! रत्नपमा पृथिवी में क्या क्रम २ ले-समय २. पर-पहिले समस्त जीव उत्पन्न हुए हैं या युगपत् समस्त जीव उत्पन्न 'इमीसे गं भंते ! रयण'पभाए पुढबीए सव्व जीवा उववण्ण पुव्वा' त्या ટીકાઈ-ગૌતમસ્વામી આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુને એવું પૂછે છે કે 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववण्णपुव्वा, सव्व जीवा उववण्णा' हे भगवन् । २त्नप्रभा पृथ्वीमा भपूर्व अर्थात् समये सभये पडला સઘળા જી ઉત્પન્ન થયા છે ? અથવા એક સાથે સઘળા જીવ ઉત્પન્ન થયા છે? અર્થાત ભૂતકાળમાં સઘળા જીવે ત્યાં રત્નપ્રભા પૃથ્વમાં નારકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે કે નથી થયા ? Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमक्ष इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! इसीसे गं स्यणप्पभाप पुढवीए' एतस्यां खलु रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'सन्च जीवा' सर्वजीवाः प्रायो वृतिमाश्रित्य सामान्येन 'उववन्नपुवा' उत्पन्नपूर्वाः कालक्रमेग संसारस्य अनादित्वात् 'जो चेव णं' नो चैव खल्लु-न पुनः 'सबजीवा उववन्ना' उत्पन्ना: युगपत् सकल जीवाना मेककालं रत्नममायामेव नरामरनारकादि भेदाभावपसंगात्, न चैवं संभाति जगत्स्व. भावस्य तथाविधत्वात् इति । एवं जाव आहे सत्तमाए पुढची' एवं रत्नममावदेव यावदध: सप्तम्यां पृथिव्यां मतिपत्तव्यम् । एवं पद्धमभात आरम्य तमस्तमा पर्यन्त पृयिव्यां जीवाना मुत्पाद पकारस्त निषेध प्रकारश्च स्वयमेव ज्ञातव्य हुए हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयना! इसीसेणं स्यणप्पमाए पुढवीए सव्व जीवा उचवन्नपुव्वा, णो चेव णं सरजीना उचचण्णा' हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी में समस्त जीव प्रायः कर के क्रम २ कर उत्पन्न हो चुके हैं, परन्तु एक साथ सघ जीव उत्पन्न नहीं हुए हैं। क्यों कि एक साथ-एक काल में समस्त जीवों का उत्पाद यदि रत्नप्रभा पृथिवी में हुआ मान लिया जावे तो नर, अमर, नारक और तिर्यश्च रूप भेद का अभाव मानना पडेगा परन्तु ऐसा तो सम्भावित होता नहीं है क्यों कि जगत का स्वभाव विचित्र है एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए' इसी तरह से यावत् अधः सप्तमी पृथिवी तक की समस्त पृथिवियों में भी समस्त जीव काल कम से ही उत्पन्न होते है युगपत् सब जीव वहां उत्पन्न नहीं हुए हैं ऐसा जानना चाहिये इस विषय में आलापक हम प्रकार करना चाहिये-हे भदन्त ! शर्कराप्रभा पृथिवी Aal Xl Sत्तरमा प्रभु गौतम स्वामीन ४९ छ 'गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववन्नपुव्वा, णो चेव णं सव्वजीवा उववण्णा' હે ગૌતમ! આ રત્નપભા પૃથ્વીમાં સઘળા જી પ્રાયઃ કમે કરીને ઉત્પન્ન થયા છે પરંતુ એકી સાથે સર્વ જી ઉત્પન્ન થયા નથી કેમકે એકસાથે એક કાળમાં સઘળા જીને ઉત્પાદ-ઉત્પત્તી જે રાનપ્રભા પૃથ્વીમાં થયો છે, તેમ માની લેવામાં આવે, તે નર, અમર, નારક, અને તિર્યંચ રૂપ ભેદને અભાવ માનવે પડશે. પરંતુ એવું તે સંભવતુ નથી, કેમકે જગતને સ્વભાવ वियित्र छे एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए' से प्रभारी अधःससभी पृथ्वी પર્યંતની સઘળી પૃથ્વીમાં પણ સઘળા છે કાળ ક્રમથીજ ઉત્પન્ન થાય છે, યુગપત સૌ જીવે ત્યાં ઉત્પન્ન થયા નથી. તેમ સમજવું આ વિષયમાં આલાપકો આ નીચે પ્રમાણે કરવા જોઈએ હે ભગવદ્ આ શર્કરામભા પૃત્રીમાં શું સઘળા જી કાલક્રમથી ઉત્પન્ન થયા છે? અથવા Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोंतिका टीका प्र.३ सू.९ जोवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् इति । 'इमाणं भले ! रयणप्पभा पुढवी' इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी 'सध्ध जीवेहि' सर्वजीवः सांव्यावहारिक 'विजह पुव्वा' कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, तथा-'सय जीवेदि' सर्व जीवैः युगपत् 'विनढा' परित्यक्ता किमिति प्रश्नः, भगवालाह- गोयमा' इत्यादि, गोधमा' हे गौतम ! 'इमाणं रयणप्पमापुढवी' इयं खलु रत्नपभा पृथिवीमायो वृत्तिमाश्रित्य 'सव्यजीवेदि' सर्वजीवैः कालक्रमेण 'विजलपुना' परित्यक्तपूर्वा 'जो चेवणं सम्यजीवविजढा' नो चैव खल्ल न तु में क्या समस्त जीव कालकर रखे उत्पन्न हुए है या युगपद् उत्पन्न हुए हैं ? उत्तर में मनु कहले है-हे गौतम! कालक्रम से ही प्रायः करके समस्त जी शासभा विधी में उत्पन्न हो चुके हैं-एक साथ समस्त जीव उत्पन्न नहीं हुए ह-शाकि इस मान्यता लें नर अमर (देवता) आदि रूप जोसेबबह घन नहीं सकता। इसी तरह से पालकामभा में भी जाना जीव कालक्रमाले प्रायः कर के उत्पन्न हएँ हैं, युगपत् लबस्त जीच वहां उत्पन्न नहीं हुए हैं ऐला जानना चाहिये इसी तरह का प्रश्न और उसका उत्तर रूप कथन पंचाममा से लेकर तमस्तमामा पर्यन्त शेष पृथिचियों में भी उत्पाद प्रकार और निषेध प्रकार जान लेना चाहिए 'इमाण मंते ! रयणप्पा पुढवी सम्धजीवेहि विजढ'चा' हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिया क्या कालक्रम से सर्व जीवों ने पहले छोडी था युगपत् सर्व जीवों ने छोड़ी है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! इमाण रयणभा पुढवी सन्मजीवहिं विजढ पुव्या जो चेवण सव्धजीव विजढा' हे गौतम! यह रत्नप्रभा पृथिवी યુગપતું એકી સાથે ઉત્પન્ન થયા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ! કાલકમથીજ ઘણુકરીને શર્કરપ્રભા પૃથ્વીમાં સઘળા છે ઉત્પન્ન થયા છે. કેમકે આ માન્યતામાં નર, અમર (દેવ) વિગેરે જે ભેદે છે. એજ પ્રમાણે વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીમાં પણ સઘળા જ કાળક્રમથી પ્રાય:ઉત્પન્ન થયા છે. યુગપત્ એકી સાથે સઘળા છે ત્યાં ઉત્પન્ન થયા નથી તેમ સમજવું. એજ પ્રમાણેને પ્રશ્ન અને તેના ઉત્તર રૂપ કથન પંકપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વી પર્વતની બાકીની પૃથ્વીયોમાં પણ ઉત્પાદ ઉત્પત્તીને પ્રકાર भने निषेध ४२ सभ देव नसे. 'इमा ण भते ! रयणापभा पुढवी सव्व जीवेहि विजढपुव्वा' उपन् । २नमानी समयी मा वामे પહેલાં છેડી છે? અથવા યુગપતુ એકી સાથે બધા એ છેઠી છે ? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतम स्वामीन ४९ छे , 'गोयमा ! इमाणं रयणप्पभा जी० १३ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · जीवाभिगमने युगपत् सर्वजीवैः परित्यका सर्वजीवे रेककालपरित्यागस्या संभवात्, तथाविधनिमित्ताभावादिति । ' एवं जाब असत्तमा' एवं रत्नप्रभावदेव यावदधः सप्तम्यामपि सर्वजीव परित्यक्तस्वात्यत्वे ज्ञातव्ये आलापमकारश्च स्वयमेव ऊहनीय इति । 'इमी से णं भंते | रमणपसा पुढवीए' एतस्य खल्ल अदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'सन्नपोग्गला पवित्रा' सर्वे पुद्गला लोकाकाशोदरुर्तिनः काळक्रमेण प्रविष्टपूर्वाः सद्भावेन परिणतपूर्वाः किम् तथा-'सन्दोला पद्विपुवा' प्राय: करके समस्त जीवों ने क्रमशः ही छोडी है समस्त जीवों ने युगपत् नहीं छोडी है क्योंकि तथा प्रकार के के अभाव से एक काल में समस्त जीवों द्वारा उह - पृथिवी का परित्याग करना नहीं हो सकता है 'एवं जाब अहे सन्तमा' जिस प्रकार से रत्नप्रभा पृथिवी समस्त जीवों ने क्रमशः ही छोडी है युगपत् नहीं छोडी है उसी प्रकार से शर्करा पृथिवी, बालुकाप्रभा पृथिवी, पङ्कप्रभा पृथिवी, धूमप्रभा पृथिवी, तपःप्रभा पृथिवी, और तमतयःप्रभा पृथिवी भी रूप जीवों ने कालक्रम से ही छोडी है- युगपत् नहीं छोडी है ऐसा जानना चाहिए इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भावित कर लेना चाहिए । 'इमी से णं' रयणप्पभाए पुढथीए सव्व पोग्ला पaिgyoवा' हे भदन्त । इख रत्नप्रभा पृथिवी में क्या समस्त पुद्गल - लोकाकाशवर्ती समस्त पुद्गल कालक्रम से प्रविष्ट हुए हैं ? तद्भव से - रत्नप्रभा रूप पुढवी सव्वजीवेहि विजढपुव्वा णो चेद णं सव्वजीवा विजढा' हे गौतम! આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી પ્રાયઃ કરીને સઘળા જીવાએ ક્રમશ: છેાડી છે. સઘળા જીવાએ એકી સાથે છેડી નથી. કેમકે તથા પ્રકાર નિમિત્તના અભાવથી એક કાળ માં સઘળા જીવેા દ્વારા એ પૃથ્વીના ત્યાગ કરવા તે બની શકતુ નથી. 'पवं जाव अहे सत्तमा । ? प्रमाणे रत्नप्रभा पृथ्वी सधणा वा भ પૂર્ણાંક ાડી છે, એકી સાથે બધાજ જીવાએ દેડી નથી. એજ પ્રમાણે શર્કરા પ્રભા પૃથ્વી, વાલુકાપ્રભા પૃથ્વી, પકપ્રભા પૃથ્વી, ધૂમપ્રભા પૃથ્વી, તમ પ્રભા પૃથ્વી અને તમસ્તમા પૃથ્વી પણ ખધા જીવાએ કાળ ક્રમથીજ છેડી છે, એકી સાથે છેડી નથી, તેમ સમજવુ'. આ વિષયમાં આલાપને પ્રકાર સ્વય* છનાવીને સમજી લેવે. 'इमीसे ण रयणप्पभा पुढवीए सव्व पोग्गढा पविट्ठपुव्वा' हे भगवन् આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં સઘળા પુદ્ગલે-લાકાકાશમાં રહેલા સઘળા પુદ્દગલે કાલ ક્રમથી પ્રવેશ્યા છે ? કે તદભાવથી આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી પણાથી પરિવ્રુત થયા છે ? અથવા એકી સાથે પ્રવેશ્યા છે ? Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ५.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् सर्वपुद्गलाः एककालं तभायेन प्रविष्टपूर्वाः किमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोथमा' हे गौतम ! 'दमीसे णं श्यणप्पमाए शुढभीए' एतस्यां खल रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'सबपोग्गला पविठ्ठपुया' लोकोदरवर्तिनः सर्ने पुद्गला. प्रविष्टपूर्वा तदभावेन परिणतपूर्णः संसारस्थानादित्वाब को चेवणं सव्वषोग्गला पविट्ठा' नैव खल्लु न.पुनरेककालं लवपुद्गला प्रविष्टा स्तभावेन परिणताः, सर्व पुद्गलानां तद्भावेन परिणतौ रत्नशमा पतिरेक्षणान्या सर्वत्र पुद्गलाभावप्रसङ्गात् न चैवं संभवति तथा जगत्स्वाभाज्यादिति । ‘एवं जाव अहे सत्तमा' एवं यावदधः समभ्याम् एवं रत्नममा पृथिवीवदेव सर्वासु शर्करादि पृथिवीषु से-परिणत हुए हैं ? था युगपत् प्रविष्ट हुए हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! हमी सेणं रयणयमाए पुढचीए खच पोराला पविठ्ठ पुवा' हे गौतम ! इस रत्नप्रभा पृथिवी ने समस्त लोकावर्ती पुद्धल क्रमश: प्रविष्ट हुए हैं 'लो चेश सव्व पोग्गला पचिट्ठा' वे एक साथ सभी पुनल वहां प्रविष्ट नहीं हुए हैं क्योंकि यदि एक ही साथ्य समस्त पुगल रत्नप्रभा पृथिवी में प्रविष्ट हुए हैं ऐली बात मान ली जाये तो फिर शर्करा. प्रभा आदि पृथिवियों में पुद्गलों का प्रवेश हुआ नहीं माना जा सकता है अतः यही मानना चाहिए की समस्त पुगलों का प्रवेश रहनादि पृथिवियों में क्रमशः ही हुआ है-अर्थात् क्रम २ ले ही समस्त पुद्गल जगत के स्वभाव की विचित्रता होने से रत्नप्रभा आदि रूप से परिणत हुए हैं एवं जाव अहे खतमा' रत्नप्रभा पृथियों के विषय में जैसे कहा गया है-वैसे ही शार्क राषमा पृथिवी से लेकर सातवीं AL प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामी ४ छ , 'गोयमा! इसीसेण रयणप्पभाए पुढवीए वन पोग्गला पविटुपुव्वा' गौतम ! ! प्रमा पृथ्वीमा सघn aalत पुसा भ पू४ प्रवेशमा छे. 'नो चेव सव्व पोग्गला पविद्वा' त्या तमामधा सीनाथे प्रवेशमा नया भने ४ साथे સઘળા પુદ્દગલો રત્નપ્રભા પૃત્રીમાં પ્રવેશેલા છે, એ વાત માની લેવામાં આવે પછી શર્કરપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીમાં પુદ્ગલોને પ્રવેશ થયો તેમ માની શકાય તેમ નથી. તેથી એમજ માનવું જોઈએ કે બધાજ પુદ્ગલેને પ્રવેશ રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીમાં ક્રમથી જ થયેલ છે. અર્થાત્ કમક્રમથીજ સઘળા પગલે જગતના સ્વભાવની વિચિત્રપણાથી રત્નપ્રભા વિગેરેપણથી પરિણત થયેલ છે. ‘एवं जाव अहे मत्तमा' २नमा पृथ्वीन समयमा प्रभातु थन Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमस्त्र क्रमण वक्तव्यं यावदधः सप्तम्याम् एवं रत्नमभापृथिवीवदेव सर्वासु शर्करादि पृथिवीषु क्रमेण वक्तव्यं यावदधः सप्तम्यां पृथिव्याम् आलापप्रकारः स्वयमेयोहा नीयः। 'इमाणं भंते ! रयणप्पमा पुढवी' इयं खल रत्नप्रभा पृथिवी 'सवपोग्गलेहि विजढपुत्रा' सर्वपुद्गलैः लोकोदरवर्तिभिः कालक्रमेण परित्यक्तपूर्वा, तथा-'सधपोग्गलेहिं विजढपुव्वा' सर्वपुद्गलैरेककालं परित्यक्ता किमिति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इलाणं रयणप्पभापुढवी' इयं खलु रत्नप्रभापृथिवी काळक्रमेण सर्वपुद्गलैः परित्यक्तपूर्वा संसारस्थानादित्वात् 'यो चेव णं सबपोग्गलेहिं विजढा' न तु सर्वपुद्गलैरेककालं परित्यक्ता, सर्वपुद्गलै रेककालपरित्यागे तस्या रत्नप्रभायाः सर्वधा स्वरूपाभावपसक्तेः, न चैतत्संभवति पृथिवी तक में ही समस्त्र पुद्गलों का प्रवेश-उनका उस २ रूप से परिणमन-क्रमशः ही हुआ है युगपत् नहीं हुआ है ऐसा कह लेना चाहिये यहां आलाप प्रकार स्वयं ही उभावितक लेना चाहिये 'इमाण भंते ! रयणप्पा पुढधी सव्व पोग्गल्लेहिं विजहपुन्छा' हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी समस्त पुद्गलों ने कालकर से छोडी है ? था युगपत्-एक ही काल में सब पुद्गलों ने छोडी है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! 'इमाण रमणप्पभा पुढबी०' हे गौतम ! यह रत्नममा पृथिवी काल क्रम ले ही समस्ता पुद्गलों ने छोडी है-युगपत् नहीं छोडी है क्यों कि एक ही काल में समस्त उद्गलों ने इले छोडा है ऐल्ला मान लिया जावे तो फिर रत्नप्रभा पृथिवी के स्वरूप का अभाव प्रसक्त होता है परन्तु ऐसा तो है नहीं क्योंकि जगत् का स्वभाव शाश्वत है इस बात को કરવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે શર્કરામભા પૃથ્વીથી લઈને સાતમી પૃથ્વી પર્યન્તમાં પણ સઘળા પુદ્ગલેને પ્રવેશ તેઓને તે તે પણુથી પરિણમન કમથીજ થયેલ છે. યુગપત થયેલ નથી. તેમ સમજવું આ સંબંધમાં અલાય ४२ २१य मनावी सभ वा नये. 'इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी सव्व पोग्गलेहिं विजढपुव्वा' है मगवन् ! मा रत्नमा वीणा गवा से કાલક્રમથી છેડી છે ? કે યુગપત્ એકી સાથે છેડી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु गीतभस्वामीन ४९ छ -'गोयमा | इमाणं रचणप्पभा पुढवी.' गौतम આ રતનપ્રભા પૃથ્વી કાળક્રમથીજ બધા પુદગલોએ છેડી છે. એકી સાથે છેડી નથી. કેમકે એકજ કાળમાં બધાજ પદગલેએ આ પૃથ્વીને છેડી છે, તેમ માનવામાં આવે તો પછી રત્નપ્રભા પૃથ્વીના સ્વરૂપને અભાવ પ્રાપ્ત થાય છે. પરંતુ એવું તો છે જ નહીં. કેમકે જગતને સ્વભાવ શાશ્વત છે, આ વાત વયં સૂત્રકાર હવે પછી કહેવાના છે. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ . ९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् १०१ तथा जगत्स्वाभान्यतः शाश्वतस्यस्य वक्ष्यमाणत्वादिति । ' एवं जात्र असत्तमा' एवं यावदधः सप्तमी, एवं रत्नमधावदेव एकैका शर्करामभादिरूपा क्रमेण वक्तव्या यावदधः सप्तमी पृथिवीति । 'इमाणं भंते! रयणप्यापुढची इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी, 'किं सासया असासया' कि शास्त्रती अथवा अशाश्वतीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सिय सासया' स्यात् कस्यचिन्नयस्य अभिप्रायेण शाश्वती इयं रत्नप्रथा 'सिय असासया' स्यात् कस्यचिन्नयस्याभिप्रायेण अशाश्वतीयं रत्नप्रभा पृथिवीति । न तु शाश्वतत्वमशाश्त्रतत्त्रं विरुद्धधर्मः स च कथमेकन संमदित्याशयेन शङ्कते - ' से केणद्वेणं' इत्यादि, 'सेकेण द्वेगं भंते! एवं बुच्चई' तत्केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते यत् 'सिय सासया सिय असासया' स्यात् शाश्वती स्वादशाश्त्रती चेति अवान्तरप्रश्नः भगवानाह स्वयं सूत्रकार आगे कहने वाले हैं । 'एवं जाच अहे खत्तमा' इसी तरह का समस्त पुद्गलों द्वारा छोडने का यह कथन शर्करा आदि छह पृथिवियों में भी जान लेना चाहिये । 'इमाण' भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं वासया अलासया' हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी कथा शाश्वत है ? या अशाश्वत है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोमा । सिय सासया लिय असासया' हे गौतम! यह रत्नप्रभा पृथिवी किसी अपेक्षा शाश्वत है और किसी अपेक्षा अशाश्वत है जब शाश्वत धर्म और अशाश्वत धर्म परस्पर में विशुद्ध है - तो फिर यहां आप इन दोनों धर्मो को युगपत् कैसे प्रतिपादित करते हो ? इसी अभिप्राय को लेकर गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'से केणटुणं भंते ! एवं बुच्चइ-लिय सासवा लिघ अलासया' हे भदन्त ! ऐसा 'एवं जाब अहे त्तमा' असा घणा युगलों द्वारा छोडवानु આ કથન શકરાપ્રભા વિગેરે છએ પૃથ્વીયામાં પણુ સમજવુ જોઇએ. 'इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढत्री किं साखया अखासया' हे भगवन् मा રત્નપ્રભા પૃવી શું શાશ્વત છે ? કે અશાશ્વત છે ? या प्रश्नना उत्तरमां अलु गौतमस्वामीने हे छे 'गोयमा ! सिय सासया सिय असासया' हे गौतम! मा रत्नला पृथ्वी अर्ध अपेक्षाये शाश्वत છે અને કઈ અપેક્ષાથી અશાશ્વત છે. જ્યારે શાશ્વતધમ અને અશાશ્વતધમ પરસ્પર વિરૂદ્ધ છે, તે પછી અહિયાં આપ આ અને ધર્મોનું એકી સાથે કેવી રીતે પ્રતિપાદન કરેછે ? આ અભિપ્રાયને લઈને ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને मेनुं पूछयु छे' से केणट्टेणं भवे ! एवं वुच्चइ सिय सासया सिय असासया' Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૦૨ . जीवाभिगमसूत्रे 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दबट्टयाए सासा' द्रव्यार्थतयाशाश्वती, तत्र द्रव्यं सत्रापि सामान्य मुच्यते त्वति-गच्छति तान् तान् पर्यायान् विशेषानिति द्रव्यम् इति द्रव्यपद व्युत्पत्ते द्रव्यमेव अर्थस्ताविकः पदार्थों यस्य न तु पर्यायः स द्रव्यार्थः द्रव्यमानास्तित्वप्रतिपादको नय विशेषस्तस्य भावो द्रव्यार्थता तया द्रव्यमानास्तित्व यतिपादकनयाभिप्रायेण रत्नप्रभा शाश्वती द्रव्याथिकनयमतपर्यालोचनायामेवंविधाकारस्य रत्नप्रभाराः सर्वदामादादिति ।। आप मिल प्रकार कहते हैं कि रत्नप्रभा पृथिवी-किसी नय के अभिप्राय की मान्यता के अनुसार-शाश्वत है और किसी अपेक्षा-किसी लय के अभिप्राय के अनुसार अशाश्वत है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयना! दमट्टयाए सामया' हे गौतम! रत्नपभा प्रथिवी द्रव्याथिक मय की अपेक्षा शाश्वती है-क्यो कि इस नय का विषय केवल शुद्ध द्रव्य ही होता है-द्रव्य का ही नाम सामान्यजो उन २ पर्यायों को प्राप्त करता है-उन पर्यायो में जाता है-उसी का नाम द्रव्य है ऐली द्रव्य शब्द की व्युत्पत्ति है यह द्रव्य ही जिलका विषय होता है वह द्रव्यार्थिक है इस तरह द्रव्य मात्र के अस्तित्व का प्रतिपादक जो नय है यह नय केवल एक द्रव्य को ही तात्विक पदार्थ मानता है पर्याय को नहीं अतः इस लय के अभप्राय के अनुसार रत्नप्रभा पृथिची शाश्वत है क्योंकि रत्नप्रभा पृथिवी का ऐसा હે ભગવન આપ એવું શા કારણથી કહો છો કે રતનપ્રભા પૃથ્વી કોઈ અપેક્ષા અર્થાત્ કોઈ એક નયની માન્યતા પ્રમાણે શાશ્વત અને કેઈ અપેક્ષા એટલેકે કેઈ નયના અભિપ્રાયની માન્યતા પ્રમાણે અશાશ્વત છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु ४ छ । 'गोयमा ! दवद्वयाए साप्पया' हे गीतम! २नमा पृथ्वी દ્રવ્યાકિનયની માન્યતા પ્રમાણે શાશ્વતી છે. કેમકે આ નયને વિષય કેવળ શુદ્ધ દ્રવ્ય જ હોય છે. દ્રવ્યનું જ નામ સામાન્ય છે. જે તે તે પર્યાને પ્રાપ્ત કરે છે તે તે પર્યામા જાય છે. તેનું જ નામ દ્રવ્ય છે. આ પ્રમાણે ની દ્રવ્ય શબ્દની વ્યુત્પત્તિી છે. આ દ્રવ્યજ જેને વિષય હોય છે, તે દ્રવ્યાર્થિક કહેવાય છે. આ પ્રમાણે દ્રવ્ય માત્રના અસ્તિત્વનું પ્રતિપાદન કરવાવાળે જે નન્ય છે, તે દ્રવ્યાર્થિક નય કહેવાય છે. આ નય કેવળ દ્રથનેજ તાત્વિક પદાર્થ માને છે. પર્યાયને નહીં તેથી આ નયની માન્યતા પ્રમાણે રત્નપ્રભા પ્રથ્વી શાશ્વત છે. કેમકે રત્નપ્રભા પૃથ્વીને એ આકાર, હમેશાં વિદ્યમાન Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ १.९ जीवात्पत्तिविषयनिरूपणम् १०३ रत्नप्रभायाः शाश्तत्वे कारण मभिधाय तस्या अशाश्वतत्वे कारणं दर्शयति'दण्णएज्जवेहि वर्णपर्यायैः कालनीललोहितपीत्शुक्ला, रसपज्जवहि' रसपर्यायस्तितष टुक्षायाम्लम धुरैः 'गंधएज़्जवेहि' सन्धपर्यायः मुरभिदुरभि भेदभिन्नैः ‘फालपज्जवेहि स्पर्गपर्यायैः कर्कश मृदुगुरुलघु शीतोष्ण निरधरूपः 'असासया' अशाश्वती अनित्येत्यर्थः तेषां वर्णगन्धरलारपर्शपयाणां पतिक्षणं कियरकालान्तरं वा अन्यथा मनात अतावस्यस्येव चानिस्यत्वात । न चैवं द्रव्यावच्छेदेन नित्यत्वस्य पर्यायाद छरेन चानित्यदस्य स्वीकारे विभिन्नाधिकरणे द्वयोः समावेशाद् कथं नित्यानित्यत्वयोरेक त्राधिकरणे समन्द यः नित्यत्वावआकार सर्वदा विद्यमान रहता है तथा--'पण पज्जवे हिं' कृष्ण, नील, लोहित, पीत, और हालसप वर्ण पर्यायों की अपेक्षा 'रम पज्जवेहि' तिक्त, कटुस, कषाय, अम्ल एवं पधुर रूप रल पर्यायों की अपेक्षा, 'गंध पज्जवेहिं सुरभि एवं दुरभि रूप गंध पर्यायों की अपेक्षा तथा-'फाहा पज्जोहि' कर्कश, मृदु, गुरू, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध एवं रूक्ष रूप स्पर्श पर्यायों की अपेक्षा यह रत्नपना पृथिवी 'असासया' अशाश्वत है-अनित्य है क्योंकि धर्ण गन्ध रस और स्पर्श की पर्याय हरएक क्षण में अथवा किन्नेक समय पाद अन्य २ . रूप से बदलती रहती है। इस तरह का परिवर्तन होना ही अनित्य है शंका-नित्यता द्रव्य के आश्रय से है और अनित्यता पर्याय के आश्रय से है अतः नित्यता और अनिरवत्ता के अधिकरण जब भिज २, हैं तो फिर इनमें एकाधिशरणता कैले आ सकती है ? । २ छ. नथा-'वण्णपज्जवेहि' ४०], नla, दात, ana, alon मन सई ३५ १ पर्यायानी मपेक्षाथी 'रसपज वेहिं' तामा, ४तुरा, माट! अने भीमेवा २सना पर्यायानी अपेक्षाथी 'गघ पज्जवेहिं' सुरलि मने दुरभि ३५ अ'धनपर्यायानी अपेक्षाथी तथा 'फास्ट पज्जवेहिं' ४'श, भृढ, गु३' सधु, શીત, ઉગ્ર, સ્નિગ્ધ અને રૂક્ષ રૂપ સ્પર્શના પર્યાની અપેક્ષાથી આ રત્ન प्रभा पृथ्वी, 'असासया' मशाश्वत अर्थात् मनित्य छे. भवए), 'ध, २स, અને સ્પર્શના પર્યાયે દરેક ક્ષણે અથવા કેટલાક સમય પછી બીજા બીજા રૂ૫ થી બદલાયા કરે છે. આ પ્રમાણેનું પરિવર્તન થવું તેનું નામ જ અનિત્ય પણું છે. શકા–નિત્યપણું દ્રવ્યના આશ્રયથી છે, અને અનિત્યપણુ પર્યાયના આશ્રયથી છે. તેથી નિત્યપણું અને અનિત્ય પાનું અધિકરણ જ્યારે જુદુ જુદુ છે. તે પછી તેમાં એક અધિકરણપણું કેવી રીતે આવી શકે છે ? Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जीवाभिगमसूत्र च्छेदेक द्रव्यस्यैव नित्यत्वाधिकरणत्वात्तथा अनित्यत्वावच्छेदक वर्णादि पर्यायस्यैव चानित्यत्वाधिकरणत्वादिति वाच्यं, द्रव्यपर्याययोरेकान्तभेदरानयुपगमेन कथंचिद् भेदाभेदयोरेवाभ्युपगमादिति । अन्यथा द्रव्यपर्याययोरेकान्तभेदे उभयोरपि असचापाताद, तथाहि-एरपरिकल्पितं द्रव्यमसत् पर्यायरहितत्वात, नवपुराणत्वपर्यायशून्यगगनकुसुमवत्, वालवादि पर्याय शून्य वन्ध्यासुतवद्वा तथा परपरिकल्पिताः पर्याया असन्तः द्रव्यव्यतिरिक्तत्वात् वन्ध्यासुतगतदालत्वादि पर्यायवदिति, तदुक्तम् 'द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्यावा व्यजिताः । कब कदा केन किं रूपा दृष्टा मानेन देन ना ॥१॥ इति । ____ उत्तर-ऐसी आशंका इसलिये उचित नहीं है कि द्रव्य और पर्याय ये जुदे २, नहीं माने गये हैं क्योंकि सिद्धान्तकारों ने इनमें कथंचित् भेदाभेदात्मकता स्वीकार की हैं यदि यह सिद्धान्त स्वीकार नहीं किया जाय और एकान्त रूप से-सर्वथा रूप से इनमें-भेद ही स्वीकार किया जाय तो न द्रव्य की लत्ता सिद्ध हो सकती है और न पर्याय की ही जो इस बात को मानता है कि द्रव्य पर्याय से भिन्न है तो उसके वह द्रव्य की लत्ता इसलिये नहीं बनती है कि वह नव पुराण आदि पर्यायों से शून्य गगन कुसुम की तरह पर्यायों से रहित होने के कारण असत् हो जाता है अथवा-चालत्व आदि पर्यायों से शून्य बन्ध्यासुत की तरह यह हो जाता है इसी तरह द्रव्य ले भिन्न होने के कारण पन्ध्यासुनगन बालत्व आदि पर्यायों की तरह पर्याय भी असत् रूप हो जाती है। तदुक्तम् ઉત્તર–આવી શંકા એ માટે એગ્ય નથી કે દ્રવ્ય અને પર્યાય આ જુદા જુદા માન્યાનથી કેમકે સિદ્ધાંતકાએ આમાં કથંચિત ભેદ અને અભેરાત્મકપણને સ્વીકાર કર્યો છે, જે આ સિદ્ધાંત સ્વીકારવામાં ન આવે અને એકાન્ત પણાથી અર્થાત નિશ્ચિતપશાથી સર્વ પ્રકારથી તેમાં ભેદ જ માનવામાં આવે તો દ્રવ્યની કે પર્યાયની સત્તા સિદ્ધ થઈ શકતી નથી જે આ વાતને માને છે, કે દ્રવ્ય પર્યાયથી જુદું છે, તે તેના આ દ્રવ્યની સત્તા એ માટે બનતી નથી કે તે નવા પુરાણ વિગેરે પર્યાથી શૂન્ય આકાશ પુષ્પની જેમ પર્યાથી રહિત હોવાના કારણે અસત થઈ જાય છે અથવા બાલપણા વિગેરે પર્યાથી શૂન્ય વંધ્યાસુતની માફક તે થઈ જાય છે એજ પ્રમાણે દ્રવ્યથા ભિન્ન હોવાના કારણે વંધ્યાસુતમાં રહેલ બાળપણ વિગેરે પર્યાની માફક પર્યાયપણુ અસત્ રૂપ થઈ જાય છે, એજ કહ્યું છે Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेrद्योतिका टीका प्र. ३.९ जीवोत्पत्तिविषयनिरूपणम् १०५ उपसंहरन्नाह - 'से तेणद्वेणं' इत्यादि, 'सेरोपद्वेग गोयमा ! एवं बुच्चर' सत्तेनार्थेन तेन कारणेन गौतम ! एव मुच्यते- 'तं चैव जात्र सिय सासया सिय असासया' यत् स्यात् - कदाचित् रत्नप्रभा शाश्वतीस्या दशावती इति । ' एवं जाव आहे सत्तम।' एवं रत्नप्रभार्यां यथा शाश्वतत्वमशाश्वतत्वमुभयमपि द्रव्यपर्यायभेदेन कथितं तथैव शर्करामभाव आरभ्याधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्तं शाश्वतत्वमशाश्वतस्वमुभयमपि व्यवस्थापनीयम् अलापमकारथ सर्वत्र स्वयमे बोहनीय इति ॥ 'द्रव्यं पर्यायवियुतं पर्यायाः द्रव्यवर्जिता । क कदा केन किं रूपा:-दृष्टा मानेन केन वा ॥१॥ अर्थात्-पर्याय रहित द्रव्य और द्रव्य रहित पर्याय क्या कहीं कभी किसी ने किसी प्रमाण से देखे हैं क्या ? ॥ उपसंहार करते हैं'से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चद्द' इस कारण हे गौतम! मैंने ऐसा कहा है कि 'तं चैव जाव लिय असासया' रत्नप्रभा पृथिवी कथंचित् शारदत है और एक कथंचित् अशाश्वत है 'एवं' जाव अहे सत्तमा ' जिस प्रकार से नेघ विविक्षा को लेकर रत्नप्रभा पृथिवी को शाश्वत और अशाश्वत कहा गया है इसी प्रकार से शर्करापभा से लेकर सातवीं पृथिवी तक की पृथिवियों को भी शाश्वत और अशाश्वत नय विवक्षा के अनुसार कर लेना चाहिये इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भ भावित कर लेना चाहिये 'द्रव्यं' पर्यायवियुत, पर्याया. द्रव्यवर्जिताः क्व कदा केन कि रूपा, द्रष्टा मानेन केन वा ॥ અર્થાત્ પર્યાય રહિત દ્રવ્ય અને દ્રવ્ય રહિત પર્યાય કાંઇ પણ કેઇએ કયારેય પણ કે ઈ પણ પ્રમાણથી દેખ્યા છે ? ।। ૧ ।। १ ॥ हुवे या स्थनने। उपस हार ४२त सूत्र हे छे 'से वेणट्टेणं गोयमा एवं बुच्चइ' या अणुथी हे गौतम ! हुं वु डुछु 'त' चेत्र जात्र सिय अस्वास्चया' २त्नप्रभा पृथ्वीति शाश्वत छे अने उचित अशाश्वत छे, ' एवं जाव अहे सत्तमा' | ने अमाना नयनी विवक्षा तो स्वीर अरीने રત્નપ્રભા પૃથ્વીને શ શ્વેત અશાશ્વત કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે શરાપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને સાતમી પૃથ્વીપન્નની સઘળી પીયાને પણ શાશ્વત અને અશાશ્વત નયવિવક્ષા પ્રમાણે કહેવી જોઇએ. આ સબંધમાં તેના માલાપકાના પ્રકાર સ્વયં મનાવીને સમજી લેવા જોઈએ, जो० १४ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम TI-METHSmruta HTTERTAITaree इह खलु यद्वस्तु यावत्संभवासादं तच्चे गायन्तं कालं प्राइ'द्भवति तदा तदापि शाश्वत मुच्यते यथा शास्त्रान्तरेषु 'आरटाई पुढवी सासमा आकल्पस्थायिनी पृथिवी शाश्वती, इत्यादि, तदिह संशयो जायते-कि.मयं रत्नपभादि पृथिवी कि सकलकालावस्थायितया शाश्वती अथवा यत्किञ्चित्कालावस्थायितया शाश्वती यथा शास्त्रान्तरीयः कथयते-आगलास्थायिनी प्रक्षित्री शाश्वती इति, एतादर्श संशयमपाकर्तुं प्रश्नयन्नाह-'इमा णं' इत्यादि, 'इमा णं भंते ! रयणपमा पुढवी' इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी 'कालमो केवञ्चिरं होई' कालत: कियविरं भवति-कियत्कालं तिष्ठतीति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'न कयाइ ण आसी' न कदापि न आसीद नवयं प्रकृतमर्थ ब्रूते' शंका-हे भवन्त ! जो वस्तु जिनने समय तक रहती है-वह उतने समय के अनुसार शाश्वत सहलानी है-जैसे-अन्य सिद्धान्त कारों ने आकल्प स्थायी पृथिवी को शाश्वा कहा है-तो इसमें यह संशय होता है कि यह रत्नप्रभा पृथिवी लकल फालों में अयस्थायी होंने से शाश्वत है या अन्य सिद्धान्तकारों की तरह कुछ काल तक स्थायी होने से शाश्वत है ? अतः इसी आशंका को हृदय में धारण कर गौतम ने प्रसु से पूछा है-'इमाणं भंते ! रयणपना पुढवी कालो केवच्चिरं होई' हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी काल की अपेक्षा कितने काल तक स्थाची रहती है? तो इस आशंका के उत्तर में प्रमु कहते हैं-'गोयमा! न कपादण आली' हे गौतम! यह रत्नप्रभा पृथिवी कभी नहीं थी-ऐसी बात नहीं है-यहां ये दो नञ् प्रकृत अर्थ શંકા–હે ભગવદ્ જે વસ્તુ જેટલા સમય પર્યત રહે છે, તે એટલા સમય માટે શાશ્વત કહેવાય છે જેમકે બીજા સિદ્ધાંતોએ આકર્ષ સ્થાયી પૃથ્વીને શાશ્વત કહી છે તે આમાં એ સશપ થાય છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વી બધાજ કાળમાં રહેનારી હોવાથી શાશ્વત છે, અથવા અન્ય સિદ્ધાંતકારોના કથન પ્રમાણે કંઈક કાલ સુધી સ્થાયી હોવાથી શાશ્વત છે? તેથી આ શંકાને भनमा पार गौतमस्वामी प्रभुने से पूछ्यु छ , 'इमाणं भंते रयणप्पभा पुढवी कालओं केवच्चिर होई' है भगवन् मा २नप्रभा या કાળની અપેક્ષાએથી કેટલ કાળ સુકી થાયીપણાથી રહે છે? આ શંકાના उत्तरमा प्रभु गौतम स्वामान : छे है 'गोयमा । न कयाइ ण आसी' 3 ગૌમમ! આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી કયારે પણ ન હતી એવી વાત નથી અહિયા આ વાકયમાં આવેલા નિષેધાર્થક બે નન્નુ પ્રકૃત અર્થ પ્રગટ કરવા માટે આપ્યા Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.९ जीवोत्पत्तिविपनिरूपणम् इति नियमाव अभावाभावस्य प्रकृत प्रतियोगिरूपार्थबोधकत्या न कदपि ना सीत् रत्नमभा, अपितु सर्वदैवासीत् इत्यर्थः, एतावता अतीतकालिक सत्त्वं रत्नप्रभाया आवेदितम् अनादित्वात् । यदि कदाचित् पूर्वकाले असत्त्वं भवेत्तदा अनादित्वमेव न स्यात् । न विद्यते आदिः कारणं यस्य सोऽनादिरिति निर्वचनात् पूर्वकालिक सत्वमावेदितं भवतीति । 'ण कयाइ णत्थि' न कदापि नास्ति सर्वथैव वर्तमानकालचिन्तायां भवत्येवेति भावः सदा भावाद अस्त्येवेति । 'ण कयाइ ण भविस्सई' न कदापि न भविष्यति अपितु अविष्यच्चिन्तायां सर्वदैव मरिष्यति अनन्तत्वात । नास्ति अन्तो विनाशो यस्य सोऽनन्त इति व्याख्यानेन सर्वदा अवस्थानात् इत्येवं रूपेण कालत्रयेऽपि निषेध द्वारेण रत्नप्रभायाः सत्यं प्रदर्श. को प्रकट करने के लिये प्रयुक्त हुए हैं-क्यो कि यह नियम है कि गत दो नब्-'न'-प्रकृल अर्थ का कथन करते है-अतः इस कथन के अनु. सार यह रत्नप्रभा पृथिवी सदा ही थी ऐसा समर्थित होता है इससे भूतकाल में इस रमपमा पृथिवी की सत्ता समर्थित हो जाती है क्यों कि यह रत्नप्रभा पृथिवी अनादि काल से है यदि भूतकाल में इसमें असत्त्व माना जाये तो फिर इसमें अनादिता नहीं बन सकती है जिसका आदि कारण नहीं होता है-उसे ही अनादि कहा जाता है 'ण कयाइ णस्थि' तथा-यह रत्नप्रभा पृथिवी वर्तमान काल में नहीं हैकिन्तु यह वर्तमान काल में भी है क्योंकि इसका रसदाकाल सद्भाव कहा गया है। 'ण कयाइ ण भविस्सइ' तथा यह रत्नप्रभा पृथिवी भविष्यतकाल में नहीं होगी-ऐसी भी नहीं है-किन्तु भविष्यत् काल में भी रहेगी क्योंकि यह अनन्त्य है-जिलका अन्त-विनाश- नहीं છે કેમકે એ નિયમ છે કે વાક્યમાં આવેલ બે ન “ની પ્રકૃતિ ચાલું અર્થને પ્રગટ કરે છે તેથી આ કથન પ્રમાણે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી સર્વદા હતી એવું સમર્થન થાય છે. તેથી ભૂતકાળમાં આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીની સત્તાનું સમર્થન થઈ જાય છે.તેમકે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી અનાદિ કાળથી વિદ્યમાન છે. જે ભૂતકાળમાં તેનું અસત્વ માનવામાં આવે, તે પછી તેમાં અનાદિપણું આવી શકતું નથી रेनु मा ४.२५ लातु नयी तन मनासिवाय छे. 'ण कयाइ णस्थि' तथा मा રત્નપ્રભા પૃથ્વી વર્તમાન કાળમાં નથી. તેમ નથી પરંતુ આ વર્તમાન કાળમાં પણ छे. 'ण कयावि ण भविस्सइ' तथा २॥ २त्नप्रभा की मविष्य भी नहीं હેય તેમ પણ નથી. પરંતુ ભવિષ્ય કાળમાં પણ તે રહેશે. કેમકે આ અનંત અંત વિનાની છે, જેને અંત વિનાશ ન હોય તેજ અનંત કહેવાય છે આ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जीवामिगमसूत्रे यता सार्वकालिक सच्चकथनात् शाश्वतत्वं प्रदर्शितमिति । नास्तित्वप्रतिषेध द्वारेण शास्त्रतत्वं विधाय सम्मति - विधिमुखेन अस्तित्वं प्रदर्शयति- 'भुवि च' इत्यादि, 'भुवि च भवन्य भविस्सइय' अभूत् पूर्वकाले रत्नप्रभा भवति च वर्तमानकाले अपि विद्यते, भविष्यति चानागकालेऽपि स्थास्यतीति चेति । एवं भूत वर्तमान भविष्यद्रूप त्रिकाकवर्त्तित्वात् 'घुस' घुत्रा इयं रत्नममा । यव एग 'णियया' नियता नियतावस्थाना, धर्नास्तिकायादिवत् कदापि स्वावस्थानात् न प्रच्यवति । नियतत्वादेव च 'लासवा' शाश्वती मलयाभावाद् अस्याः शश्वद्भावः । शाश्वतत्वादेव चानवरतगङ्गा सिन्धु मवाह प्रवृत्तावपि पद्मपौण्डरीकद इवान्तर पुद्गलापचयेऽपि अन्यतर पुगल' पचयाभावात् 'अक्खया' होता है - वही अनन्त कहा जाता है इस तरह यह रत्नप्रभा पृथिवी त्रिकालावस्थायी हैहै- अतः इसमें शाश्वतता है इस प्रकार निषेध मुख से रत्नप्रभा में त्रिकालवर्ती सूत्र का कथन का शाश्वतता दिखलाई अब विधिमुख से वे इसमें अस्तित्व का कथन करते हैं- 'भुवि च भवह च, भविस्सइय' यह रत्नप्रभा पृथिवी पूर्वकाल में थी, वर्तमान काल में है, और भविष्यत् काल में रहेगी इस रीति से यह भूत, वर्तमान और भविष्यत् काल में अस्तित्त्व विशिष्ट शेने से 'धुवा' अव है, ध्रुव होने से यह 'णियया' धर्मास्तिकायादि द्रव्यों की तरह कभी भी अपने स्थान से चलिन नहीं होती है नियत होने से यह 'सासया' शाश्वत है क्योकि इसका प्रलय नहीं होता है। शाश्वत होने से ही यह अक्षय-विनाश रहित है-जैसे पद्महूद और पुण्डरीक हूद गंगा રીતે આ રત્નપ્રભા પૃથ્વી ત્રણે કાળમાં રહેવાવાળી છે. તેથી તેમાં શાશ્વતપણું છે. આ પ્રકારના નિષેધ મુખથી રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રિકાલવત્તિ સત્વ બતાવીને શાશ્વતતા ખતાવવામાં આવેલ છે. हवे विधिभुमथी तेथे। यामां अस्तित्वनुं थन रेछे 'भुविष, भवइ य, भविस्सइ य' या रत्नाला पृथ्वी पडेसां हुती, वर्तमानभां छे, અને ભવિષ્યકાળમાં રહેશે. આ રીતે આ ભૂત, વર્તીમાન, અને ભવિષ્યકાળમાં अस्तित्ववाणी होवाथी 'ध्रुव' ध्रुव छे अने धुत्र डे' वाथी ते 'नियया' धर्मास्तिय વિગેરે દ્રવ્યની જેમ કાઇ પણ વખતે તે પેાતાના સ્થાનથી ચલાયમાન થતી नथी. मने निश्चित होव थी ते 'सासया' शाश्वत छे उभ तेना असाय થતા નથી. શાશ્વત હેાવાથીજ તે અક્ષય અવિનાશી છે, જેમ પદ્મ કમળ સરાવર અને પુ'ડરીક સરૈાવર ગંગા અને સિધુ નદીચેના પ્રવાહમાં પ્રવૃત્તિ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.९ जीवोत्पतिविषयनिरूपणम् अक्षया क्षयो नाशमुद्रक्षिता । अक्षयत्वादेव च 'अव्यया' अव्या व्ययो विनाशस्तद्रहिता मानुषोत्तराद्वहिः समुद्रवत् । अव्ययवादेव 'अचट्ठिया' अवस्थिता स्व प्रमाणावस्थिता सूर्यमण्डलादिवत् । एवं सदाऽवस्थानेन चिन्त्यमाना णिच्चा' नित्या अपच्यावातुत्पन्न स्थिरैकरूण नीद रूपवत् अथवा धुवादयः शब्दा इन्द्रशक्रादिवत् पर्याय शब्दाः नानादे राज विनेयानुप्रहार्थमुपन्यस्ता इति न पौनरुक्त्यमिति । सिन्धु नदियों के प्रवाही प्रवृत्ति बाले ई-फिर भी अक्षय है-श्योंकि उनमें से अन्धतर पुनलों के विघटन होने पर भी अन्यतर पुद्गलों द्वारा उनका उपचन होता रहता है इसी प्रकार रत्नममा पृथिवी में से अनेक पुद्गलों का विघटन होता रहता है और अनेक पुद्गलों द्वारा उसका उपचश होता रहता है। अक्षय होने से ही यह 'अश्या ' भानु षोत्तर से बाहर में समुद्रो की तरह अव्यय है अर्थात् विनाश से रहिन है। और अव्यय होने से ही यह 'अवडिया' अवस्थित है-सूर्य मण्डलादि की तरह यह अपने प्रमाण में लदा स्थित है और अपने प्रमाण में सदा स्थित होने से ही यह णिच्चा' जीव स्वरूप की तरह अपच्युत, अनुत्पन्न स्थिर एक रूप है अथवा-ध्रु शादिक ये सब शब्दइन्द्र, शक, पुरन्दर आदि शब्दों की तरह पर्याय शब्द है । इनका जो यहां उपन्यास किया गया है तो वह अनेक देशों के-भिः २, देशों के-विनेयों को समझाने के निमित्त से किया गया है अतः इनके कथन में पुनरुक्ति दोष नहीं आता है। વળા છે, તે પણ અક્ષય છે. કેમકે તેમાંથી અન્યતર પુદ્ગલે ના વિઘટન થવા છતાં પણ અન્યતર પુદ્ગલે દ્વારા તેને ઉપચય થતું રહે છે. એ જ પ્રમાણે રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાંથી અન્યતર પુદ્ગલેનું વિઘટન થતું રહે છે અને અનેક પગલે દ્વારા તેને ઉપચય થતું રહે છે. समय हाथी मा 'अब्वया' मानुषीत्तरथी माना समुद्रानी म २५०यय छे. अर्थात् विनाश २हित छ. अने भव्यय वाथी २४ मा 'अवड्डिया' અવસ્થિત છે. સૂર્ય મંડલ વિગેરેની જેમ તે પોતાના પ્રમાણમાં સદા સ્થિત २वाथी मा णिच्वा' १ ९१३५नी नभ मप्रत्युत, अनुत्पन्न स्थि२ मे રૂપ છે. અથવા ધુવાદિક આ બધા શબ્દ ઈન્દ્ર, શર્ક, પુરંદર વિગેરે શબ્દોની માફક પર્યાય શબ્દ છે. તેને જે આ ઉપન્યાસ-કથન કરવામાં આવ્યો છે તે આ અનેક દેશોના અર્થાત્ જુદા જુદા દેશોના વિને નામ શિષ્યોને સમજાવવા માટે જ કરવામાં આવે છે. તેથી તેઓના કથનમાં પુનરૂક્તિદોષ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जीवामिगमस्त्र ___'एवं जाब अहे सत्तमा' एवं यावदधः सप्तमी। तथाहि-शर्कराममा खल भदन्त ! कालतः कियच्चिरं भवति ? गौतम ! न कदापि नाभूत्, न कदापि न भवति, न कदापि न भविष्यति, अपितु पूर्वमपि अभूत् वर्तमानेऽपि भवति। अनागतेऽपि भविष्यत्ये। ध्रुषा नियता शाश्वती अक्षया अव्यया अबस्थिता नित्या, इत्येवं रूपेण शर्कराप्रमात आरभ्य बालुकापमा धूमप्रभा पङ्कप्रपा तमामभा तमस्तमः प्रभासु शाश्वमादिकं प्रदर्शनीयम् इति सू० ॥९॥ ___ सम्पति-भतिपृथिवि विभाग उपर्यवस्वनचरमान्तयोरन्तरं प्रतिपादयितु. माह-'इमीसे गं' इत्यादि, ___ मूलम्-इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए घुढवाए उवरिल्लाओ परिसंताओ हेठिल्ले चरिमंते एएणं केवइयं अवाधाए अंतरे पन्नत्ते ? गोयसा! असीउत्तरं जोयणलयसहस्सं अबाधाए अंतरे पन्नते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ खरस्ल कंडस्स हेठिल्ले चरिमंते एएणं केवइयं अबाधाए अंतरे पन्नते ? गोयमा! सोलसजोयणसहस्साई अबाघाए अंतरे पन्नत्ते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए _ 'एवंजाब अहे-सत्तमा' इसी तरह का कथन यावत् अधः सप्तमी प्रथिवी में कर लेना चाहिये जैसे-हे भदन्त ! झालझी अपेक्षा शर्केराप्रभा पृथिवी शाश्वत है या अशाश्वत है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं हे गौतम! शर्करात्रमा पृथिवी किसी अपेक्षा शाश्वत है, और किसी अपेक्षा अशाश्वत है इत्यादि-रूप से जैसा कथन रत्नप्रभा पृथिवी के प्रकरण में किया गया है-वैसा ही वह सघ क.थन यहां पर भी कह लेना चाहिये और ऐसा ही यह कथन सातवों पृथिवी तक कहते जाना चाहिये । सू० ॥८॥ मावता नथी. 'एवं जाव अहे मृत्तमा' मा प्रमाणेनु ४थन यावत् अधःससभा પૃથ્વી પર્યરત કરવું જોઈએ. જેમકે હે ભગવન કાળની અપેક્ષાથી શર્કરામભા પૃથ્વી શાશ્વત છે? કે અશાશ્વત છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! શર્કરા પ્રભા પૃથ્વી કેઈ એક અપેક્ષાથી શાશ્વત છે અને કોઈ અપેક્ષાથી અશાશ્વત છે. ઈત્યાદિ પ્રકારથી જે પ્રમાણેનું કથન રન પ્રભા પૃથ્વીના પ્રકરણમાં કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન અહિંયાં પણ કહેવું જોઈએ અને એ જ પ્રમાણેનું કથન સાતમી પૃથ્વી પર્યન્ત કહેવું नमे सू, दा Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३सू.१० प्रतिपृथिव्या: उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १११ उवरिल्लाओ चरिमंताओ रयणस्स कंडस्स हेठिल्ले चरिमंते एएणं केवइयं अबाधाए अंतरे पन्नत्ते ? गोयमा! एकजोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पन्नत्ते । इमीसे णं भंते ! रक्षणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ वइरस्त कंडस्ल उरिल्ले परिमंते एसणं केवइयं अबाधाए अंतरे पन्नते ? गोयमा ! एक जोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पन्नत्ते । इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ वइरस्त कंडस्स हेठिल्ले चरिमंते एएणं केवइयं अबाधाए अंतरे पन्नत्ते ? गोयमा ! दो जोयणसहस्साइं अबाधाए अंतरे पन्नते। एवं जाव रिट्रस्स उवरिल्ले चरिमंते पन्नरस जोयणसहस्साई, हेठिल्ले चरिमंते लोलस जोयणसहस्लाई । इमीले णं भंते ! रयण. प्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ पंकबहुलस्स कंडस्ल उवरिल्ले चरिमंते एसणं अबाधाए केवइयं अंतरे पन्नत्ते? गोयमा! सोलस जोयणसहरूलाई अबाधाए अंतरे पन्नते। हेठिल्ले चरिमंते एक जोयणसहस्सं ॥ आवबहुलस्स उवरिल्ले चरिमंते एक जोयणसयसहस्सं हिठिल्ले चरिमंते असी उत्तरं जोयणसयसहस्तं॥ धणोदहिस्स उवरिल्ले चरिमंते असी उत्तर जोयगसयसहस्सं, हेठिल्ले चरिमंते दो जोयणसयलहस्लाइं। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उरिल्लाओ चरिमंताओ घणवायरस उवरिल्लं चरिमंते दो जोयणसहस्साई हेडिल्ले चरिमंते असंखेजाई जोयणसयसहस्लाइं। इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ तणुवायस्त उवरिल्ले चरिमंते असंखेजाई जोयणसयसहस्साई अवाहाए अंतरे, हेठिल्ल वि असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई । एवं ओवालंतरे वि । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जीवामिगमस्ते दोच्चाए भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेठिल्ले चरिमंते एलणं केवइयं अबाधाए अंतरे पन्नत्ते ? गोयमा! बत्तीसुत्तरं जोरणसयसहसं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते । सकरप्पभाए पुढबीए उबरिल्लाओ चरिमंताओ घणोदहिस्स हेठिल्ले चरिमंते बावण्णुत्तरं जोयणलय सहस्तं अबाहाए। घणवायस्स असंखेजाई जोयणसयलहस्साइं पन्नत्ताई। एवं जाव ओवासंतरस्स बि, जाव अहे सत्तमाए, नवरं जीसे जं बाहल्लं तेण घणोदही संबंधेयडशे बुद्धीए । सकरप्रभाए अणुसारेणं घणो. दहि सहिताणं इमं पमाणं । वालुयप्पभाए अडयालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं । पंकप्पभाए पुढबीए पत्तालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं। धूमप्पभाए पुढवीए अकृतीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं। तमाए पुढवीए छत्तीसुतरं जोयणलयसहस्सं । अहे सत्तमाए पुढत्रीए अट्ठावीसुत्तर जोयणलयसहस्सं जाव अहे सत्तमाए णं भंते ! पुढवीए उमिलाओ चरिमंताओ उवासंतस्स हेठिल्ले चरिमंते केवइयं अबाहाए अंतरे पन्नते ? गोयमा! असंखेजाइं जोयणलयलहरूलाई अबाहाए अंतरे पन्नत्ते ॥सू० १०॥ छाया-एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपस्तिनाच्चरमान्तात् अधाननदरमान्तः एतत् खलु कियद् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम । अशीयुत्तर योजनशतसहस्रम् श्वाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । एतस्याः खल्ल भदन्त । नप्रमाया' पृथिव्या उपरितनाद चरमान्तात् खरस्य काण्डस्याधस्तनश्चरमान्त, एतत् खल कियत्या अबाधथा अन्तरं प्रज्ञप्तम् । तस्याः खलु भदन्त ! रत्नपभायाः पृथिव्या उपरितनात् चरमान्तात् रत्नस्य काण्डस्याधस्तनश्वरमान्तः, एतत् खलु कियत् अबाधा अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम । पकं योजनसहस्रमवाधया अन्तर मज्ञप्तम् । एतस्माः खलु भदन्त ! रत्नममायाः पृथिव्या उपरितनात् चरमान्तात् बज्रस्य काण्डस्योपरित नश्वरमान्तः, एतत्खलु कियत् अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । गौतम ! एक योजनमहसम् अवाश्या अन्तरं प्रज्ञप्तम् । एतस्याः खलु भदन्त । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिकारीका प्र.३ २.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् ११३ रत्नपभायाः पृथिव्या उपरितनात् चरमान्तात् वज्रस्य काण्डस्याधस्तनश्वरमान्तः एतत्खल अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! द्वे योजनसहरू अबाधया अन्तरं प्रजप्तम् । एवं यावद्रिष्टस्योपरितनश्वरमान्तः पञ्चदशयोजनसहस्राणि, अधस्तनश्वरमान्तः षोडशयोजनसहस्राणि । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रभायाः पृथिव्याः उपरितनात् चरमान्तात् पङ्गबहुलस्य काण्डस्योपरितनश्वरमान्तः एतत् खल फियद् अवधिया अन्तर प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! षोडशयोजनसहस्राणि अबाधया अन्तरं प्रज्ञतम् । अधस्तनश्चरमान्न एक योजनशतसहस्रम् । अबहुलस्योपरितन. श्वरमान्त एक योजनशतसहस्रम्, अघस्तनश्वरमान्त: अशीत्युत्तरं योजनशतसहस्रम्। घनोदधेरुपरितनश्वरमान्तः, अशीत्युत्तरयोजनसहस्त्रम्. अघस्तनश्चरमान्तो द्वे योजना शतसहसे । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नपभायाः पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्तात् घनवातस्योपरितनश्वरमान्तो हूँ योजनशतसहस्र, अधस्तनश्वरमान्त: असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि । एतस्याः खल भदन्त ! रश्नप्रभाया पृथिव्या उपरितनाचरमान्तात् तनुवातस्य उपरितनश्वरमान्त:, असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि । अवधिया अन्तरम्, अधस्तनोऽपि असंख्येयानि योजनसहस्राणि एवमरकाशान्तरमपि । द्वितीयायाः खलु भदन्त ! पृथिव्या उपरितनाव चरमान्तात् अधस्तनश्चरमान्तः, एतत् खलु कियदबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! द्वात्रिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । शकराप्रभायाः पृथिव्या उपरितनाच्चरमा. न्तात् घनोदधेरधस्तनश्वरमान्तो द्विपञ्चाशदुत्तरं योजनशतसहस्रमबाधया घनवातस्यासंख्येयानि योजनशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि एवं यावदवकाशान्तरस्यापि यावदधः सप्तम्याः । नवरं यस्याः यद वाइल्यं तेन घनोदधिः संबन्धयितव्यो बुद्धया । शर्करामभाया अनुसारेण घनोदधि सहितानामिदं प्रमाणम् । बालुका भभाया अष्टचत्वारिंशदुत्तरं योजनशतसहस्रम् ३ पङ्कपभायाः पृथिव्या श्चत्वारिंशदुतरं योजनशतसहस्रम् ४, धूमप्रभायाः पृथिव्या अष्टत्रिंशदुत्तरं योजनसहस्रम् ५ तमःप्रभायाः पृथिव्याः पत्रिंशदुत्तरं यं जनशन हस्रम् ६ अधः सप्तम्याः पृथिव्या अष्टाविंशत्युत्तरं योजनशतसहस्रम् ७ । यावदधः सप्तम्या: खल भदन्त ! पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्ताव अवकाशा न्तरस्याधस्तनश्वरमान्तः कियद् अवाधया अन्तरं प्राप्तम् ? गौतम ! असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि अब धया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ॥१०॥ अब सूत्रकार प्रत्येक पृथिवी के विभाग से उपरितन अधस्तन घरमान्त का अन्तर प्रतिपादन करते हैं હવે સૂત્રકાર દરેક પૃથ્વીના વિભાગ પૂર્વક ઉપરિત–ઉપરને અસ્તન અને ચરમાન્તના અંતરનું પ્રતિપાદન કરે છે मो० १५ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीशमिगमसूत्रः . टीका--'इमीसे णं भंते !' एतस्याः खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'उबरिल्लाओ चरिमताओ' उपरितनाव चरमान्तात् । ऊदेशावस्थितभागात्-रत्नप्रभाया मारम्भमागादित्यर्थः 'हेठिल्ले चरिमंते' अधस्तनः अधोभागविद्यमान श्वरमान्तः रत्नप्रभाया अन्तियो भाग इत्यर्थः 'एए थे' एतत् खलु एत्यो द्वयोश्चरमान्तयोर्मध्यक्षेत्ररूपम्, एतदिति अन्तरस्य विशेषम् अतः पुंस्त्व निर्दिष्टस्यापि नपुंसकत्वेन विपरिणामः सूत्रे तु थार्षवाद पुलिङ्गनिर्देशः 'केवायं अवाहाए' शियन अबाधया अन्तरत्व व्याघातरूपया 'अंतरे पन्नत्त' अन्तरं व्यवधानं प्रज्ञप्तं कथितम् रत्नप्रभाया आदि भागा दन्तभागः कियद्दुरे भवतीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम । 'असी उत्तर जोयणसयसहस्तं' अशीत्युत्तरं योजनशतसहस्त्रं-अशीति सहस्राधिक लक्षयोजनम् (१८००००) अवाधया 'अंतरे' अन्तरम् आद्यन्तभागयोव्र्यवधानम् 'पन्नत्ते' पक्षप्तं कथितम् ॥ सामान्यतो रत्नमभायामुपरिसनाधस्तनचरमान्तयो. मध्येऽन्तरं पदश्य विशेषतोऽस्याः काण्डत्रयस्याऽन्तरं दर्शयितुमाह- 'इमीसे णं 'इमीसे णं भंते ! स्थणप्पभाए पुढबीए-इत्यादि। टीकार्थ-गौतम ने इसमें प्रलु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से नीचे का जो चस्मान्त है वह कितना दूर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोधमा! असी उत्तर जोयण सयलहस्सं अबाधाए अंगरे पन्नत्ते' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी के उपरित चरमान्त से नीचे का जो चरथान्त है वह एक लाख अस्सी हजार योजन दूर है अर्थात् एक लाख अस्सी हजार योजन का पाहल्य पिण्ड है । इस प्रकार से सामान्य रूप में रत्नप्रभा के उपरितन और अधस्तन चरमान्तों में अन्तर प्रकट कर अब विशेष रूप से इसके 'इमीसे णं ते | रयणप्रभाए पुढवीए' त्यादि ટીકાર્ય–ગૌતમસ્વામીએ આ સૂત્ર દ્વારા પ્રભુને એવું પૂછયુ છે કે હે ભગવદ્ આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરિતન ચરમાતથી નીચેનો જે અરમાન્ત છે તે કેટલે विश छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीन ४ छ , 'गोयमा ! असी उत्तर जोयणसयसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते' हे गौतम ! २नमा पृथ्वीना ઉપરના ચરમાતથી નીચેનો જે અરમાન છે, તે એક લાખ એંસી હજાર ચોજનની વિશાળતાવાળે છે અર્થાત્ એક લાખ એંસી હજારનો તે બાહલ્ય પિંડ છે. આ પ્રમ ણે સામાન્ય પણાથી રતનપ્રભાના ઉપરિતન અને અધસ્તન ચરમાનેનું અંતર બતાવી ને હવે વિશેષ પ્રકાર થી તેના ત્રણ કાંડનું અંતર પ્રગટ કરે છે, આમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું છે કે Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् ११५ भंते' इत्यादि, 'इमी से णं भंते' एतस्याः खल्लु 'रयणप्पभाए' रत्नप्रभायाः 'उरिल्लाओ चरिमंताओ' उपस्तिनात् चरमान्तात् 'खरल्स कंडस्स हेठिल्ले चरिमंते' खरस्य काण्डस्याधस्तनश्चरमान्तः 'एस गं' एवल्खलू 'केवइयं अबाहाए अंतरे पन्नत्त' । कियत् अवधया अन्तरं-वधान प्रज्ञप्तम् ? इति प्रश्न: भग. वानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सोलस जोयणसहस्साई अंत. रे पन्नते' पोडशयोजनसहस्राणि अन्तरं मज्ञप्तम्-कथितम्, खरकाण्डस्य प्रत्येक मेकैक सहस्रयोजल प्रमित तभेदरूप रत्नकाण्डादि पोडशमकारकात्मकत्वात् । 'इमीसे णं मंते' एतस्याः ख स भदन्त ! 'रयणप्रभाए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'उवरिल्लाओ चरिमंताओ' उपरितनाल चरथान्तात् 'रयणस कंडस्स' खरकाण्डप्रभेदरूपस्य रत्ननामक प्रथमकाण्डस्य यः 'हेठिल्ले चरिमंते' अधस्तनोऽधः तीन काण्डों का अन्तर प्रकट करते हैं-इसमें गौतम्ब ने प्रभुसे ऐसा पूछा हैं-'मीसे भंते ! रथणपाए पुढशीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ खरस्स कंडस्ल हेठिल्ले परिमंते एलणं केवयं अबाधाए अंतरे पन्नत्त' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से खर. काण्ड का अधस्तन्न चरमान्त अवाधारले अर्थात् विभाग पूर्वक प्रत्येक का कितना अन्तर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोया । लोलसजायण सहस्साई अंतरे पन्नत्ते' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी के ऊपर के चरमान्त से खरकाण्ड के अधस्तन चस्मान्त लश सोलह हजार योजन का अन्तर है क्योंकि अपने विभाग रूप प्रत्येक एक एक हजार योजन के रस्नकाण्ड आदि सोलह काण्ड वाला है 'हमीप्लेण अंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओं' हे बदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त रखे रयणस कंडस' रत्न काण्ड के 'हेटिल्ले 'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उजरिल्लाओ चरिमताजी, खरस्स हेठिल्ले चरिभंते एएणं केवइयं अबाधाए अतरे पन्नत्ते' ७ सगवन् मा रत्नप्रभा પૃથ્વીના ઉપરિતન ચરમાન્તથી બરકાંડના અધસ્તન-નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં વિભાગપૂર્વક દરેકનું કેટલું અંતર કહેલું છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रसु गीतसस्वामीन. ३ छ, 'गोयमा ! सोलस जयणसह. स्माइं अतरें पन्नत्ते' गौतम! २त्नमा पृथ्वीना 6५२न। यरमान्तथी ખરકાંડના અધસ્તનચરમાન્ત પર્યન્ત સેળ હજાર જનનું અંતર કહેલું છે. કેમકે તે પિતાના વિભાગ રૂપ દરેક એક એક હજાર એજનના રત્નકાંડ વિગેરે सो आणा. 'इमोसे णं भंते ! रयण पभार पुढबीए उव रिल्ला भो चरिमताओ ..सगवन् मा २त्नला पृथ्वीना ५२ना . य२मान्तया 'रयणस्स' कडस्स' Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम प्रदेशवर्तीवरमान्त:-चरमपर्यन्तः 'एस णं' एतत् खलु 'केवइयं अवाहाए' कियत् अबाधया कियद् योजनप्रमाणं अन्तरम् अबाधया अन्तरत्व व्याधातरूपया 'अंतरे पनत्ते' प्रज्ञप्तं कथियम् रत्नपमा पृथिव्याः खरकाण्डस्य विभागरूपं रत्नकाण्डनामकं यत् प्रयमं काण्डं तस्य य उपरितन चरमान्तस्तदपेक्षया एतस्य अधस्तनश्वरमान्त एतयोरन्तरं कियद् योजनप्रमाणमवाधया कथितमिति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एक जोरणसहस्सं अबाधाए अंतरे पनत्ते' एकं योजन पहस्रमवाधया अन्वरं प्रज्ञप्तम्, खाकाण्डविभागभूतानां चरिमंते' नीचे के चरमान्त तक 'एस ण केवइयं अवाहाए अंतरे पण्णत्ते' कितना अन्तर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा। एक जोयणसहस्सं प्रवाहाए अंतरे पण्णत्ते' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से रत्न काण्ड के नीचे के चरमान्त तक एक हजार योजन का अन्तर कहा गया है क्योंकि खरकाण्ड के विभाग भूत रत्नकाण्डादि सोलहों काण्ड प्रत्येक एक एक हजार का होता है। 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभा पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ वहरस्स कंडस्त उधरिल्ले चरिमंते एसण केवयं अथाधाए अंतरे पण्णत्ते' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी का जो उपरितन चरमान्त है उससे द्वितीय बज्रकाण्ड के उपरितन चरमान्त तक कितना अन्तर कहा गया है? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! एक जोयणसहस्तं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से २९४isना 'हेठिल्ले चरिमते' नायना यारमात सुधा 'एणं केवइय अबाहाए मंतरे पण्णत्त' ३९ मत२ ४ामा मावस छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गीतमयाभार ४ छ , 'गोयमा ! एक जोयणसहस्स अबाहाए तरे पण्णत्त' 8 गीतम! २नमा पृथ्वीना ५२ना २२मान्तथी २नisनी नायना ચરમાન સુધીમાં એક હજાર જનનું અંતર કહેવામાં આવેલ છે. કેમકે બરકાંડના વિભાગ રૂ૫ રત્નકાંડ વિગેરે ૧૬ સેળે કાંડે કે જે દરેક એક એક હજાર એજનના હેય છે. ___ 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभा पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ वइरस्स कंडस्म उवरिल्ले चरिमते एखणं केवइय अबाधाए अंतरे पन्नत्ते' मापन् ! २त्नाला भी। જે ઉપરિતન ચરમત છે. તેનાથી બીજા વાકાંડના ઉપતિની ચરમાંત સુધી કેટલું અંતર કહેવામાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ તમવામીને કહે છે કે 'गोयमा! एकं जोयणसहस्स सषाधीए अतरे पण्णत्ते' हे गौतम! Reign galना Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - .. -. . प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् ११७ रस्नकाण्डादीनां षोडशानामपि प्रत्येक मेकसहस्त्रयोजनप्रमाणत्वात् । इमीसे गं भंते' एतस्थाः खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभायाः पृथिव्याः 'उरिल्लामो चरिमंताओ' उपरितनात् चरमान्तात् 'वइरस्स कंडस्स' वज्रस्यवज्रनामक द्वितीयकाण्डस्य 'उरिल्ले चरिमंते' उपरितन श्वरमान्तः 'एस' पतस्खल 'केवइयं अबाहाए कियद् अबाधया 'अंतरे पन्नत्ते' अन्तरं व्यवधानं मज्ञ प्तम, रत्नप्रभा पृथिव्या रत्नकाण्डस्य प्रथमस्य य उपरितन श्वरमान्तस्तदपेक्षया एतस्या एव पृथिव्या द्वितीयस्य वनकाण्डस्य य उपरितनो भागः एतयोः कियद अन्तरमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! एक्कजोयणसहस्सं अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' एकं योजनसहस्रमबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तमिति, रत्नकाण्डाधस्तनचरमान्तस्य वज्रकाण्डोपरितनचरमान्तस्य च परस्पर संलग्नतया उभयत्रापि तुल्यप्रमाणत्वादिति । 'इमीसे गं मंते ! रयणप्पभा पुढवीए' एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नमभायाः पृथिव्याः 'उपरिल्लाओ चरिमंतामो' उपरितनात चरमान्तात 'वइरस्स कंडस्प्त हेठिल्ले चरिमंते' वजकाण्डस्याधस्तन श्वरमान्तः 'एस गं' एतत्स्वल 'केवइयं अबाहाए अंतरे पन्नत्ते' कियत् अबाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् रत्नकाण्डस्योपरितनश्वरमान्त वज्रकाण्डस्याधस्तनश्वरमान्तयोरन्तराले कियद् योजनप्रमाणमन्तरं विद्यते इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'दो जोयणसहस्साई अवाहाए अंतरे पत्ते' द्वे योजनसहस्र अबाधया अन्तरं प्रज्ञतम् रत्नकाण्डस्योपरितनचरमान्ताव वज्रकाण्ड ; द्वितीय वनकाण्ड के उपरितन तक एक हजार योजन का अन्तर कहा गया है। 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभा पुढवीए'.हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के 'उवरिल्लाओ चरिमंतामो' उपरितन चामान्त से 'वहरस्स कंडस्प्त हेठिल्ले चरिमंते.' बज्रकाण्ड का जो अधस्तन चरमान्त है यहां तक कितना अन्तर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमा ! दो जोगणसहस्साई अबाधाए अंगरे पन्नत्ते' हे गौतम ! रस्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से काण्ड के अधस्तन चरमान्त ઉપરના ચરમાન સુધીમાં એક હજાર એજનનું અતર કહેવામાં આવેલ છે. 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' हे सगवन् मा २नमा पृथ्वीना 'उवरिल्लाओ चरिमंता मो' १२२. ३२ नयी वइरस हेडिल्ले चरमते, qasis अस्तन ચરમાન્ડ છે, ત્યા સુધીમાં કેટલું અંતર કહેવામાં આવેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ गीतमस्वामीन ४ छे'गोयमा ! दो जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पन्नत्ते के ગૌતમ!રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તથી વાકાંડના નીચેના ચરમાંત સુધીમાં Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवा मिगमसूत्रे 何开 ११८ - स्वाचस्तन वरमान्तयोर्मध्ये द्विसहस्रयोजनस्यान्तरं भवति, प्रत्येककाण्डस्यैकसहस्रयोजनाप्रमाणत्वेन द्वयोः काण्डयोद्विसहस्रयोजन सद्भावात् । एवं प्रतिकाण्डे दो-दो आलापको वक्तव्ौ, काण्डस्योधस्तनचरमान्ते चिन्त्यमाने प्रत्येकस्मिन् योजनसहस्र वृद्धिः करणीया, यावद्रिक्तकाण्डस्या वस्तन चरमान्ते चिन्त्यमाने पोडशयोजन सहस्राणि अवाययाऽन्तरं प्रज्ञप्तमिति स्वयमेत्र सूत्रकारो वक्ष्यति, तदेव दर्शयति एवं जाव रिस्स उवरिल्ले चरिमंते पनरमजोयण सदस्साई एवं यावद्रिष्टका ण्डस्योपरितने चरमान्ते रत्नकाण्डस्योपरितनात् चरमान्तात् रत्नकाण्डस्योपरितनात् तक दो हजार योजन का अन्तर कहा गया है । अर्थात् रत्नकाण्ड के उपरितन चरमान्त से वज्र काण्ड के अधस्तन तक बीच में दो हजार योजन का अन्तर है। क्योंकि प्रत्येक काण्ड की एक एक हजार योजन का प्रमाण होने से दो काण्डों का दो हजार योजन हो जाते हैं इम तरह हर एक काण्ड में दो दो आलापक कह लेना चाहिये जब काण्ड के अधस्तन चरमान्त का विचार हो तो वहां एक एक हजार योजन की वृद्धि कर लेनी चाहिये इस तरह अन्तिम जो सोलहवां रिष्टकाण्ड है उसके अधस्तन चरमान्त का जय विचार आता है तो वहां सोलह हजार योजन की वृद्धि करने में आ जाती है, अतः जब रिष्टकाण्ड का अधस्तन चरमान्त का विचार होता है तो वहां पर सोलह हजार योजन का अन्तर आ जाता है। इस बात को सूत्रकार स्वयं स्पष्ट करते है-' एवं जाव रिहरु उवरिल्ले चरिमंते पनरस जोयण सहस्लाई' इसी तरह रत्नकाण्ड के उपरितन चरमान्त से रिट વચમાં એ હજાર ચેજનનુ અ`તર કહેલ છે કેમકે દરેક કાંડ એક એક હુજાર ચેાજન પ્રમાણુ હાવ થી બે કાંડાનુ અંતર બે હાર ચેાજનનું થઈ જાય છે. આ રીતે દરેક કાર્ડ'નુ' અંતર બે હજાર ચેાજનનું થઈ જાય છે આ રીતે દરેક કાંટમાં અબ્બે આલાપકા કહેવા જોઇએ જયારે કાંડના અધસ્તન ચરમતના વિચાર કરવાના હાયતા ત્યાં એક એક હજાર ચૈાજનની વૃદ્ધિ કરી લેવી જોઇએ. આ રીતે છેલ્લા જે સેાળમે રિટકાંડ છે, તેના અધસ્તન ચરમાંતને જયારે વિચાર કરવામાં આવે છે તે ત્યાં સેાળ હાર ચેાજતની વૃદ્ધિ કરવામાં આવે છે. તેથી જયારે રિદ્ધકાંડના અધસ્તન ચરમાંતના વિચાર કરવામાં આવે ત્યાંરે ત્યાં સેળ હજાર ચૈાજનતુ' અંતર આવી જાય છે. આ વાત સ્વયં सूत्र४२ स्पष्ट ४रे छे. 'एव जात्र रिट्ठा अरिल्ले चरिमते पन्नरसजोयण 'सहस्वाइ' मा रीते रत्नांड उपरना थरमतिथी रिटांडना उपरना थरमांत Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेगधोतिका टीका प्र.३ २.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् ११९ घरमान्ताव पञ्चदशयोजन सहस्त्राणि अन्तरं भवति, 'हे ठल्ले चरिमंते सोळसजोयण सहस्साई" रत्नकाण्डस्योपरितनचरमान्तात् रिष्टकाण्डस्य योऽधस्तनश्वरमान्तस्तयोमध्ये षोडशयो जनसहनमन्तरं भवतीति । अयं भावः रत्नपभायां त्रीणि खरकाण्ड पतालकाण्डाकाण्डानि कथितानि तत्र प्रथमे खरकाण्डे पोडशाशन्तरकाण्डानि रस्न १ वज २ वैडूर्य ३ लोहिताक्ष ४ मसारगल्ल ५ हंसगर्भप पुलक७ सौगन्धिक ८ ज्योतीरसा ९ जना १० अनपुलक ११ रजत १२ जात १३ रूपाङ्क १४ स्फटिक १५ रिष्ट १६ रत्ननामझानि कथितानि, तत्र रत्नमभायाः खरकाण्डस्योपरितनचरमान्ताद रत्नकाण्डस्याधस्तनचरमान्ते वनकाण्ड काण्ड का उपरितन चरमान्त तक पन्द्रह हजार योजन का अन्तर होता है 'हेटिल्ले चरिमंते सोलस जोयणसहस्साह और रत्नकाण्ड के उपरितन चरमान्त से रिष्टकाण्ड का जो अधस्तन चरमान्त है वहां तक सोलह हजार योजन का अन्तर हो जाता है । तात्पर्य यह हैरस्नप्रभा पृथिवी में तीन काण्ड हैं-(१) खरकाण्ड (२) पङ्कबहुलकाण्ड और (३) अब्बहुलकाण्ड-जलकाण्ड पहिले खरकाण्ड में सोलह अवान्तर काण्ड हैं-इनके नाम ये हैं-रत्नकाण्ड १, वज्रकाण्ड २, वैडूर्यकाण्ड ३, लोहिताक्षकाण्ड ४, मसार-गल्ल काण्ड ५, हंसगर्भकाण्ड ६, पुलककाण्ड ७, सौगन्धिकाण्ड ८, ज्योतिरसकाण्ड ९, अञ्जनकाण्ड १०, पुलककाण्ड ११, रजतकाण्ड १२, जातरूपकाण्ड १३, अङ्ककाण्ड १४, स्फटिककाण्ड १५, और सोलहवां रिष्टकाण्ड १६ । इनमें रत्नप्रभा के खरकाण्ड के उपरितन चरमान्त से रत्न काण्ड के अधस्तन वरमान्त सुधी ५२ M२ योशननुं मत२ थाय छे. 'हे द्विल्ले चरिमते सोलर जोयणसहस्साई' भने २-४is S५२।। २२भतिथी २ष्ट is Aधरतन नायना ચરમાંત છે, ત્યાં સુધીમાં સોળ હજાર એજનનું અંતર થઈ જાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે પ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રણ કાંડે આવેલા છે. ५२४13 (१) ५'महुस४i3 (२) अभईaxis (3) ५९ ५२४isti भात સેળ અવાંતર કોડ આવેલા છે. તેના નામે આ નીચે પ્રમાણે છે રત્નકાંડ (1) q००४is (२) वैय°४is (3) allsahasis (४) मसाRAxis (५) स. म.3 (6) Jti (७) सोधिzzis (८) ये ती२४४i3 (6) Aoraxis (१०) ५३४is (११) २raxis (१२)11३५४७ (१3) Axis (१४) २६.23 કાંડ (૧૫) અને સોળમો રિષ્ણકાંડ (૧૬) આમાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ખરકાંડને ઉપરિતનું અર્થાત્ ઉપરના ચુરમાન્ડથી રત્નકાંડના અધસ્તન ચરમાતમાં અને Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जीयामिगम स्योपरितनचरमान्ते च एफयोजन सहस्त्रस्यान्तरं भवति, रत्नप्रमाया उपरितन घरमान्नात् द्वितीयस्य बन्न काण्डस्याधरत नवरमान्ते योजनसहस्रद्वयस्यान्तरं भवति, तनो रत्नपभाया उपरितन चरमान्तात् वैडयं नामक तृतीय काण्डस्याधस्तनचरमान्ते त्रियोजनसहस्रान्तरं भवति, एवं प्रत्येकस्मिन् काण्डे अघोऽध. श्वरमान्ते वर्तमाने एकैकस्य योजनसहस्त्रस्य द्धि कर्तव्या, ततश्च तृतीयकाण्डस्याधस्तने चरमान्ते रत्नपभाया उपरितनचरमान्तात् योजनसहनत्रयस्यान्तरं चतुर्यलोहिताक्षकाण्डस्य अधस्तने चरमान्ते योजनसहस्र चदृष्टयस्यान्तरं भवति एवं क्रमेण एकैकवृद्ध या अन्तिमे पोडशे रिष्टकाण्डे उपरिचरमान्ते पञ्चदशयोजनसहस्त्र स्याधस्तनचरमान्ते च षोडशयोजनसहस्रस्यान्तरं भवति । एषां खरकाण्ड विभागरूपाणां रत्नादिरिष्ट पर्यन्तानां पोडशानामपि काण्डानां प्रत्येकस्यैकैक और वज्रकाण्ड के उपरितन चरमान्त में एक हजार योजन का अन्तर है, रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से द्वितीय वज्रकाण्ड के अधस्तन घरमान में दो हजार योजन का अन्तर है रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से वैडूर्य नामके तृतीय काण्ड के अधस्तन चरमान्त में तीन हजार योजन का अन्तर है इस तरह नीचे नीचे रहे हुए प्रत्येक काण्ड में एफ २, हजार योजन की वृद्धि करनी चाहिये तृतीयकाण्ड के अध स्तन चरमान्त में रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से तीन हजार योजन का अन्तर है। चतुर्य लोहिताक्षकाण्ड के अधस्तन चरमान्त में चार हजार योजन का अन्तर है इस क्रम से एक २, की वृद्धि करते २, अन्तिम रिष्टकाण्ड के उपरिनन चरमान्त में पन्द्रह हजार योजन का अन्तर आ जाता है और इसके अधस्तन चरमान्त में सोलह हजार का अन्तर आ जाता है। क्योंकि इन खरकाण्ड के विभाग रूप रत्नकाण्ड વાકાંડના ઉપરના ચરમતમાં એક હજાર એજનનું અંતર છે. રત્નપ્રભા પ્રવીના ઉપરિતન નામ ઉપરના ચરમાંતથી વૈડૂર્યનામના ત્રીજા કાંડના અધતન ચરમતમાં ત્રણ હજાર જનનું અંતર કહ્યું છે. આ રીતે નીચે નીચે રહેલા દરેક કાંડમાં એક એક હજાર જનની વૃદ્ધી કરવી જોઈએ ત્રીજા કાંડનાં અધતન ચરમાંતમાં રત્નપ્રભાના ઉપરિતન ચરમંતથી ત્રણ હજાર જનનું અંતર છે. ચેથી લેહિતાક્ષકડના અધસ્તન ચરમતમાં ચાર હજાર એજનનું અંતર છે. આ ક્રમથી એક એકને વધારતા વધારતા છેલલા રિઝકાંડના ઉપરના નીચેના ચરમાંતમાં પંદર હજાર એજનનું અંતર અવી જાય છે અને તેની નીચેના ચરમતમાં સેળ હજારનું અંતર આવી જાય છે. કેમકે આ ખરકાંડના વિભાગ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयधोतिका टीका प्र.३ २.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरस्तरम् १२१ सास्रयोजनप्रमाणत्वात् । · तदेवं रत्नप्रभायाः पृथिव्याः प्रथमस्य खर काण्डस्य रत्न काण्डादि रिष्टकाण्डान्त षोडश विभागयुतस्य परसारमन्तरं दर्शयित्वा रत्नपभापृथिच्या उप. रितनचरमान्तात् तदीय द्वितीय पङ्कबहुलकाण्डस्य अन्तरं दर्शयितुमाह-'इमीसे गं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्याः खल भदन्त ! रत्नपभायाः पृथिव्याः 'उरिल्लाओ चरिमंताओ' उपरितनात् चरमान्तात् 'पंकबहुलस्स कंडस्स' पड्कबहुलनामक द्वितीयकाण्डस्य 'उबरिस्ले चरिमंते' उपरितने घरमान्ते 'एस णं केवइयं अबाहाए अंग्रे पन्नत्ते' एतत्खलु कियत् अबाधया अन्तरं प्राप्तम् रत्नममाया उपरितनश्चरमान्तः एवं पङ्कबहुलकाण्डस्य उपरितनश्वरमान्त: एतयोमध्ये कियद योजकमन्तरं भवतीति पश्नः भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, से रिष्टकाण्ड पर्यन्त सोलहों काण्डों में प्रत्येक काण्ड एक एक हजार पोजन का होता है। इस प्रकार रत्नप्रभा पृथिवी का जो खरकाण्ड है जिसके रत्नकाण्डे आदि के भेद से सोलह अवान्तर भेद हैं उनका आपस में यह अन्तर प्रकट किया अघ रत्नप्रभा पृथिवी का जो द्वितीय काण्ड पड्डा हलकाण्ड है उसका अन्तर प्रकट करते हैं-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है'इभीसे गं भंते! रयणप्पाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ पंकबहुल्लस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते एसणं केवइए अषाहाए अंतरे पनसे' हे भदन्न ! इस रत्नप्रभा प्रथिवी के उपरितन चरमान्त से पडूबहुलकाण्ड का जो उपरितन चरमानत है उनमें कितना अन्तर है? રૂપ રત્નકાંડથી રિપ્ટ કાંડ પર્યન્ત સોળે કાંડમાં દરેક કડે એક એક હજાર જનના છે. આ રીતે રત્નપ્રમા પૃથ્વીને જે ખરકાંડ છે, કે જેના રત્નકાંડ વિગેરે ભેદથી સોળ અવાન્તર ભેદે છે. તેઓનું પરસ્પરમાં આ અંતર પ્રગટ કરીને હવે રત્નપ્રભા પૃથ્વીને જે “બહુલ” નામને બીજે કંડ છે, તેનું અંતર પ્રગટ કરે છે. આ સંબંધમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું છે કે 'इमीसे णं भते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमताओ पंकबहुलस्म उवरिल्ले परिमते एस णं केवइए अबाहाए अंतरे पन्नत्ते' अन् રત્નપ્રભા પૃથ્વીને ઉપરિતન નામ ઉપરના ચરમાંતથી પંક બહુલકાંડની ઉપર જે ચરમાંત છે, તેમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે ? આ બેઉની વચમાં કેટલું અંતર આવેલું છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે जी० १६ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोवाभिगम सूत्रे १२२ 'गोयमा' हे गौतम ! 'सोलस जोयणसहस्साई अवाहए अंरे पत्ते' पोडशयोजन सहस्राणि अवाया अन्दरं व्यवधानं मज्ञतम् । खरकाण्डस्यान्तिमं विभागकाण्डं रिष्टरत्नकाण्डं तस्यावस्तनचरमान्त रत्नप्रभोपरितननरमान्तात् पोडशयोजन सहस्रान्तरेण कथितः रिष्टकाण्डाऽधस्वन चरमान्व पङ्कबलोपरितन चरमान्तौ परस्परं संलग्नौ अव उभयोरपि तुल्यप्रमाणमेवान्तरं भवतीति । 'हेठिल्ले रिमंते एक्कं जोयणसय सहस्स' रत्नममाया उपरितनात् चरमान्तात् पङ्कवहुलस्याधस्वनश्वरमान्तः एकं योजनशतसहस्रम् रत्नममोपरिचरमान्तात् पङ्कवहुलकाण्डस्याधस्तन चरमान्त एकयोजनशतसहस्रमन्तरं भवतीति ज्ञातव्यम् । यतो 'गोयमा ! सोलस जोयणलाई अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' हे गौतम! इन दोनों के बीच में सोलह हजार का अन्तर है । खरकाण्ड का अन्तिम काण्ड रिष्ट रत्नकाण्ड है इसके अधस्तन चरमान्त में रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से सोलह हजार योजन का अन्तर कहा गया है। क्योकि रिष्ट रत्नकाण्ड का अधस्तन चरमान्त और पङ्कयहुल का उपरितन चरमान्त ये दोनों आपस में लगे हुए है-मिले हुए है। इसलिये दोनों में बगवर अन्तर है । 'हेडिल्ले चरिमंते एक्कं जोपण सपसहस्सं' रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से पङ्कचहुल का जो अधस्तन चरमान्त है वह एक लाख योजन के अन्तर का है । अर्थात् रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से पङ्कवहुलकाण्ड का अवस्तन चरमान्त एक लाख योजन के अन्तर वाला है। क्योंकि रत्नप्रभा पृथिवी का खरकाण्ड सोलह हजार १६००० योजन का है और पङ्कवहुलकाण्ड चौरासी 'गोयमा ! सोलस सहरसाई अबहाए अंतरे पन्नत्ते' हे गौतम! आमन्नेनी વચમાં સેાળ હજાર ચેાજનનું અંતર આવેલુ છે. ખરકાંડને છેલ્લા કાંડ ષ્ટિકાંડ છે. તેના અધસ્તન ચરમાંતમાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંતથી સેળ હજાર ચાજનનું અંતર કહેલ છે. કેમકે ષ્ટિકાંડનુ અધસ્તન ચરમાંત અને પક મહુલનું ઉપરિતન ચરમાંત આ એક પરસ્પરમાં લાગેલા છે. અર્થાત્ મળેલા हे. तेथी थे मेऽभां णरामर अंतर भावेसु छे, 'हेट्ठिल्ले चरिमंते एक जोयण सय सदस्सं' रत्नप्रभा पृथ्वीना उपरना यरभांतथी यं महुसाउनु જે અધસ્તન નીચેનુ' ચરમાંત છે, એ એક લાખ ચૈાજનના અંતરનુ છે. અર્થાત્ રત્નપ્રભાના ઉપરના ચરમાંતથી પ ́ક બહુલકાંડનુ અધસ્તન ચરમાંત એક લાખ ચેાજનના અંતરવાળુ છે. કેમકે રત્નપ્રભા પૃથ્વીને ખરકાંડ ૧૬૦૧° Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ स.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १२३ रत्नप्रभा पृथिव्याः खरकाण्डं षोडशसहस्रयोजनपरिमितम् (१६००) पङ्कबहुलकाण्डं च चतुरशीतिसहस्त्र (८४००० योजनपरिमितमिति द्वयोर्मोलने भवति-एकं योजनशतसहस्र मिति । 'आवबहुलस्त उवरिल्ले चरिमंते एक जोयणसयसहस्सं' एतस्या एव रत्नप्रभायाः अब्बहुलस्य तृतीयकाण्डस्योपरितनश्चरमान्तः रत्नप्रभाया उपरितनचरमान्तात् एकं योजनशतसहस्रमन्तरं भवति, यतः पङ्कमहुलकाण्डस्याध. स्तन चरमान्ता, अबहुलकाण्डस्योपरितनचरमान्तश्च, एतौ द्वौ चस्मान्तौ परस्परं संलग्नौ, अतएव द्वौ तुल्यममाणौ विज्ञेयो । 'हेठिल्ले चरिमंते असीइ उत्तरं जोयणेसयसहस्सं' अब्बहुळस्याधस्तनचरमान्तः रत्नमभाया उपरितनचरमान्तात् अशीत्युत्तरं योजनशतसहस्रम् अशीतिसहस्र योजनोत्तरमेक लक्षयोजनमन्तरं हजार ८४००० योजन का है, इन दोनों को मिलाने से एक लाख योजन हो जाते हैं। 'आवघहलस्प्ल उवरिल्ले चरिमंते एक्कं जोयण सय सहस्सं' इसी रत्नप्रभा के अब्धहुल तृतीय काण्ड का जो उपरितन घरमान्त है वह रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से एक लाख योजन के अन्तर में हैं। इसीलिये अब्बहुल तृतीय काण्ड के उपरितन चरमान्त से रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त तक एक लाख योजन का अन्तर कहा गया क्योंकि पंकबहुल का नीचे का और अपबहुल का उपर का चरमान्त परस्पर संलग्न-मिले हुए हैं इसलिये दोनों तुल्य प्रमाण वाला है। 'हे. द्विरले चरिमंते असीइ उत्तरं जोयण सयसहस्सं' अपहुल काण्ड का जो अधस्तन चरमान्त है बह रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से एक लाख अस्सी हजार योजन का अन्तर कहा गया है रत्नप्रभा पृथिवी સેળ હજાર યોજન છે. અને પંક બહલકાડ ૮૪૦૦૦, ચેર્યાશી હજાર योनिन छे. मा में 32 मेगवाथी के साथ योगन थ य छे. 'आव बहुलस्स उवरिल्ले चरिमते एक जोयणसयसहस्स' मा २नमा पृथ्वीना અબડુલકાંડ કે જે ત્રીજો કાંડ છે, તેને જે ઉપરનો ચરમાંત છે, તે રત્નપ્રભા ના ઉપરના ચરમાંતથી એક લાખ એજનના અંતરમાં છે તેથી જ અમ્બલ નામના ત્રીજા કાંડના ઉપરના ચરમાંતથી રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંત સુધી એક લાખ ચોજનનું અંતર કહેવામાં આવેલ છે. કેમકે પંક બહલની નીચેનો અને અખહલકાંડની ઉપરને ચરમાંત અન્ય મળેલા હોય છે. તેથી तमन्ने समान प्रभाव छ. 'हे द्विल्ले चरिम ! असीइउत्तर' जोयण पयमहरसं' saisa २ मरतन यमात छे, ते २नमा पृथ्वीना ઉપરના ચરમાંથી એક લાખ એંસી હજાર જનના અંતરવાળે કહેલ છે. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमस्ते भवति, परिपूर्ण रत्नप्रभा पृथिव्या एतावत्ममाणबाहल्यवत्त्वात् । अयं भावः-रत्नप्रभा पृथिव्याः परिपूर्णः पिंड:-अशीतिसहस्र योजनोपरक शतसहस्र (१८००००) परिमितो भवति, अत्र रत्नप्रभा पृथिव्यां त्रीणि काण्डानि खरकाण्डं-पङ्कबहुळकाण्डम्-अब्बहुलकाण्डं चेति, काण्डत्रयरूपा रनममा पृथिवी भवति, तत्र प्रथमं खरकाण्डम् पोडशसहस्रयोजनपरिमितम् १६००० पङ्कबहुलकाण्डम् चतुरशीतिसहस्रयोजनपरिमितम् ८४०००' अबहुळकाण्डं चअशीतिसहस्रयोजनपरिमितमू ८००००, एपां त्रयाणां मीलने-१६०००+ ८४०००+८००००-१८००००, भवति-अशीतिसहस्त्र योजनोत्तरमेकं शतसहसं रत्नप्रभा पृथिव्याः पिण्ड इति । एतरया एव रत्नमभाया उपरितनचरमान्तात् 'घणोदहिस्स उबरिल्ले चरिमंते असीइ उत्तर जोयणसयसहस्सं' घनोदधेरुपरितन का पिण्ड एक लाख अस्सी हजार योजन का है इसीलिये यहां इतना अन्तर प्रकट किया गया है। यहां तात्पर्य ऐसा है-रत्नप्रभा पृथिवी का परिपूर्ण पिण्डपाहल्य एक लाख अस्ती हजार योजन का होता है। इस रत्नप्रभा पृथिवी में तीन काण्ड हैं-एक खरकाण्ड १ दूसरा पङ्क बहुलकाण्ड २ और तीसरा अध्यहुलकाण्ड है ३। अर्थात् रत्नप्रभा पृथिवी तीन काण्ड रूप है। उन तीन काण्डों में पहला खरकाण्ड है वह सोलह हजार १६००० योजन का है १ । दूसरा पंकबहुलकाण्ड चौरासी हजार ८४००० योजन का है २। और तीसरा अवबहुल काण्ड अस्सी हजार ८०००० योजन का है ३। इन तीनों को मिलाने पर-१६००८+ ८४००+८००००=१८०००० एक लाख अस्सी हजार રત્નપ્રભા પૃથ્વીને પીંડ એક લાખ એંસી હજાર યોજનાનો છે. તેથી અહિયાં थेट मत२ प्राट यु छे. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીનું પરિપૂર્ણ પિંડ બાહલ્ય એક લાખ એંસી હજાર યોજનાનું થાય છે. આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં ત્રણ કાડ આવેલા છે. તેમાં પહેલો ખરકાંડ, ૧, બીજો અંક બહલકાંડ (૨). અને ત્રીજે અબ્બેહુલ કાંડ છે. (૩) અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વી ત્રણ કાંડ રૂપે છે. એ ત્રણ કાંડેમાં પહેલે જે ખરકાંડ છે, તે ૧૬૦૦૦ સોળ હજાર , જનને કહ્યો છે (૧) બીજો પંકબડુલકાંડ ૮૪૦૦૦ ચોર્યાશી હજાર એજનને છે. (૨) અને ત્રીજે જે અમ્બલ કાંડ છે તે ૮૦૦૦૦ એંસી હજાર યોજનને છે. (૩) આ ત્રણેયને મેળવતાં ૧૬૦૦૦-૮૪૦૦૦, ચોર્યાશી હજાર અને ૮૦૦૦૦ એંસી હજારને મેળવતાં ૧૮૦૦૦૦ એક લાખ એંસી હજારનું પ્રભા પૃથ્વીનું બાહબ્લ્યુ, પિંડ થઈ જાય છે, Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोति का टीका नं. ३ ₹.१० प्रति पृथियाः उपधस्तनेचे रमान्तयोरन्तरंम् १२५ श्वरमान्तः, ́ अशीतिसहस्रयोजनोत्तरे क्रयोजनशतसहस्रमन्तरं भवति, अब्बलकाण्डाधस्तन चरमान्तस्य घनोदध्नुपरितनचरमान्तस्य च परस्परं संलग्नतया उभयत्रापि तुल्यममाणत्वादिति । 'हेटिल्ले चरिमंते दो जोयणस्यसहस्सा " घनोदघेरधस्तन चरमान्तः- रत्नममोपरितनचरमान्तात् द्वे योजनशतसहस्रे कक्ष द्वययोजनमन्तरं भवति । घनोदधेविंशतिसहस्रयोजनममाणत्वात् । अयं मात्रःअशीतिसहस्रयोजनोत्तरैकशतसहस्त्र (१८००००) योजनप्रमिते रत्नप्रभा पृथिवी बाहल्यं घनोदधेर्विंशतिसहस्रयोजनानां (२००००) संमेलने भवतः द्वे योजन-शतसहस्रे, इतो रत्नप्रभा पृथिव्या उपरितनचरमान्तात् घनोदधेरधस्तन चरमान्तस्य का रत्नप्रभा पृथिवी का बाहल्य-पिण्ड हो जाता है । 'घणोदहिस्स उवरिल्ले चरिमंते असीइ उत्तर जोषणसयसहस्सं' रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के उपरितन चरमान्त भी एक लाख अस्सी हजार योजन का अन्तर वाला है क्योंकि अञ्चलकाण्ड का जो अघस्तन चरमान्त है वह और घनोदधि का जो उपरितन चरमान्त है वह आपस में मिले हुए हैं इस कारण इनमें आपस में अन्तर आता नहीं है । 'हेट्ठिल्ले चरिमंते दो जोबणसचसहस्सं घनोदधि वलय का जो अधस्तन चरमान्त रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त इन दोनों में दो लाख योजन का अन्तर है क्योंकि घनोद्धि का प्रमाण बीस हजार योजन का होता है । तात्पर्य यह है कि - रत्नप्रभा पृथिवी के एक लाख अस्सी हजार योजन के बाहल्य में घनोदधि वाहल्य के बीस हजार योजन मिलाने से दो लाख योजन हो जाते है इसलिये रत्नप्रभा के उपरितन चरमान्त से घनोदद्धि का अधस्तन चरमान्त दो 'घणोदहिस्स उवरिल्ले चरिम ते असीइ उत्तर जोयणसयसहस्स' रत्नप्रलानी ઉપરનું ચરમાંત પણ એક લાખ એંસી હજાર ચૈાજનના અંતરવાળું છે. કેમકે અખહુલકાંડની નીચેને જે ચરમાંત છે તે અને ઘનધિની ઉપરના જે ચરમાન્ત છે. તે અન્યાન્ય મળેલા છે. તે કારણથી તેમનામાં અંતર આવતુ नथी; 'हेट्ठिल्ले - चरिमते दो जोयणसयखइस्सं' धनोऽधि वलयन। अधस्तन નીચેના ચરમાંત, અને રત્નપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્ત આ બન્નેમા એ લાખ ચેાજનનુ અંતર છે. કહેવાનુ તાત્પર્ય એ છે કે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના એક લાખ એ.સી હજાર ચૈાજનના ખાહુલ-માં ઘનેાધિના માહુલ્યના વીસ હજાર ચૈાજન મેળવતાં બે લાખ, ચેાજન થઈ જાય છે. તેથી રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના રરમાન્તથી, Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जीवाभिगमन द्वि शतसहस्न (द्विलक्ष) योजनमन्तरं कथितमिति । बिनोदधेहिल्यं सर्व पृथिवीषु विशतिप्सहस्रयोजनप्रमितमेव भवतीति बोध्यम् । 'इमीसे णं भंते ! रयण पभाएपुढवीए' एतस्या खलु रत्नपभायाः पृथिव्याः 'उवरिल्लाओ चरिमंताओ' उपरितनाच्चरमान्ताद 'घणवायस्स उवरिल्ले चरिमंते दो जोयणसहस्साई' घनवातस्योपरित ने चरमान्ते द्वे योजनशतसहस्रमन्तरं कथितम् घनोदध्य. धस्तन चरमान्त घनवातोपरितनचरमान्तयोः परस्पर संलग्नतया उभयत्रापि तुल्पप्रमाणस्य सद्भावात् 'हे ठिल्ले चरिमंते असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई' एतस्यैव घनवातस्याधस्तन श्वरमान्तः असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि अन्तरं भवतीति ज्ञातव्यम् । 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नमभायाः पृथिव्याः 'उवरिल्लाओ चरिमंताओ' उपस्तिनाच्चरमान्ताद तणुवायस्स, तनुवातस्य, 'उवरिल्ले चरिमंते' उपरितनश्वरमान्तः 'असंखेज्जाई लाख योजन का कहा गया है । सातों पृथिवियों के घनोदधि का बाह ल्प प्रमाण बीस बीस हजार योजन का होता है, ऐसा जानना चाहिये। 'इमीसे णं रयणपभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंनाओ घणवायरस उवरिल्ले चरिमंते दो जोयगसयसहस्साई' रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन घरमान्त ले घनवात के उपरितन चरमान्त तक का अन्तर दो लाख योजन का है क्योंकि घनोदधि का अधस्तन चरमान्त और घनपात का उपरितन चामान्तये दोनो आपस में मिले हुए हैं अतः इनमें कोई अन्नर नहीं है। 'हे डिल्ले चारनंत असंखेजाइं जायणसयसहस्साई' तथा रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घन यान वलय का जो अधस्तन चरमान्त है वहां तक असंख्यात लाख योजनों का अन्तर है। 'इमीसेज भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए उवरिल्लाभो चरिमंताओतणुवायस्स उरिल्ले चरिमंते ઘને દધિની નીચેનુ અરમાન્ત બે લાખ જનનું કહેલ છે સ તે પૃથ્વીના ઘને દધિનુ બાહલ્ય પ્રમાણ વીસ હજાર જનનુ જ થાય છે. તેમ સમજવું. 'इमीसे णं भंते ! रयणापभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमताओ घणयायस वरिल्ले चरिम ते दो जोयणसयसहस्साई' २त्नमा पृथ्वीना ५२ना ચરમાતથી ઘનવતના ચરમાર સુધીનું અતર બે લાખ એજનનું છે. કેમકે વનોદધિની નીચેનું અરમાનત અને ઘનવાતનું ઉપરનું ચુરમાના એ બેઉ પરસ્પરમાં મળેલા છે. તેથી તેમાં કંઇ પણ અંતર હેતું નથી. 'हेदिल्ले चरिम ते ! असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई तथा मा २नमा प्वीना ઉપરના ચરમાંતથી ઘનવાતનું જે નીચેનું ચરમાં છે, ત્યાં સુધી અસંખ્યાત લાખ योसन भातर छे, 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ परिमतामो Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ सू.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १२७ जोयण ससस्साई अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि अबाधया अन्तर' प्रज्ञप्तम् 'हेठिल्ले वि असंखेज्जाई' जोयणसय सहस्लाई' तनुवातस्याधस्तनचरमान्तोऽपि असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि अन्तर प्रज्ञप्तमिति ' एवं ओवासंतरे वि' एवमवकाशान्तरमपि रत्नप्रभायाः पृथिव्या उपस्तिनाच्चरमान्वात् अवकाशान्तरस्योपरितनश्चरमान्तः, एतद् असंख्येयोजनशतसह मन्तरं भवतीति ॥ प्रथमरत्नप्रभा पृथिवी विषयकमन्तर घतिपाद्य सम्प्रति द्वितीय शर्कराप्रमादि पृथिवी विषयमन्तरं दर्शयितुमाह- 'दोच्चार णं' इत्यादि, 'दोच्चारणं भंते' असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साह' अबाधाए अंनरे पनते' इस रत्न - प्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से तनुवात वलय का जो उपरितन मान् है वहां तक असंख्यात लाख योजनों का अन्तर है. 'free वि असंखेज्जाई जोयणसय सहस्साई' इसी तरह से तनुचात का जो अधस्तन चरमान्त है वहां तक भी रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से असंख्यात लाख योजनों का अन्तर है । ' एवं ओवासंतरे वि' इसी तरह से रत्नप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से रत्नप्रभा पृथिवी सम्बन्धी अवकाशान्तर का जो उपरितन चरमान्त है वहाँ तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है तथा अवकाशान्तर का जो अधस्तन चरमान्त है वहां तक भी असंख्यात लाख योजन का अन्तर है । इस तरह प्रथम नारक पृथिवी के घनोदवि आदिकों का अन्तर one करके अद्वितीय शर्कराप्रभा पृथिवी का अन्तर सूत्रकार प्रकट तणुत्रायस उवरिल्ले चरिमते अस खेज्जाई जोयणसय सहस्वाइं अबाधार अंतरे पन्नत्ते' या रत्नप्रभा पृथ्वीना थरभान्तथी तनुत्रातवसयनु ने उपरनु थरभान्त छे, त्यां सुधी असंख्यात लाभ योजनतु अंतर है. 'हेट्टिल्ले वि स खेज्जाई जोयणचयवहस्साइ" मेन प्रमाणे तनुवात वसयो ने अधस्तन नीथेन। यरभान्त છે. ત્યાં સુધી પણ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંતથી અસખ્યાત લાખ यो नानु म ंतर छे. 'एवं ओवास तरे वि' प्रमाणे रत्नप्रभा पृथ्वीना ઉપરના ચરમાન્તથી રત્નપ્રભા સંબધી અવકાશાન્તરનું જે ઉપરનું ચરમા ત છે. ત્યાં સુધીમાં અસંખ્યાત લાખ ચૈાજનાનું અંતર છે તથા અવકાશાન્તરનુ જે નીચેનું ચરમાંત છે, ત્યાં સુધી પણ અસંખ્યાત લાખ ચેાજનનું અંતર છે. આ રીતે પહેલી નારક પૃથ્વીના ઘનેદધિ વિગેરેનું અંતર અતાવીને હવે બીજી શક`રાપ્રભા પૃથ્વીનું અંતર સૂત્રકાર પ્રગટ કરે છે. આમાં ગૌતમ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D • १२८ जीवाभिगमरो द्वितीयस्याः शकरामभायाः खलु भदन्त ! 'पुढवीए' पथिव्याः 'उवरिल्लाओ चरिमताओ' उपरितनात् चरमान्तात 'हेठिल्ले चरिमते' अधस्तनश्वरमान्तः 'एस ण' एतत् खल 'केवई अवाहाए अंरे पन्नत्ते' कियत अवाधया अन्तर प्राप्तमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'वत्तीमुत्तरं जोयण सयसहस्स' द्वात्रिंशदुत्तर-द्वात्रिंशत्सहस्राधिकं योजनशतसहस्र-योजनलक्षम् १३२००० 'अयाहाए अतरे पन्नत्त' अवाधण अन्तरं प्रज्ञप्तम्-कथितम् । शर्करा प्रभा पृथिवी द्वात्रिंशत् सहस्रोत्तरैकलक्षयोजनपरिमिता स्वपिण्डरूपेणाऽन्तीति भावः । 'सक्करप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंनाओ' कममायाः पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्ताव 'घणोदहिस्स हेठिल्ले चरिमंते' धनोदधेरधम्तनश्वरमान्तः 'चावण्णुत्तर' द्विपञ्चाशव सहस्रोत्तरम्, 'जोयणसयसहस्सं' योजनशतसहस्रम् करते हैं-हममें गौतम ने प्रभु से ऐमा पूछा है-दोच्चारणं भते ! पुठ. धीए उरिल्लाओ चरिमंताओ हेडिल्ले चरिमते एसणं केवयं अंतरे पण्णत्ते' हे भदन्त ! शर्कराप्रभा नाम की जो द्वितीय पृथिवी है-उसके उपरितन चरमान्त से उसके अधस्तन चरमान्त तक कितना अन्तर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा । यत्तीसुत्तर जोपणसयमहरम' हे गौतम ! द्वितीय शकराप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से उसका अधस्तन चरान्त एक लाख यत्तीस हजार योजन का है क्योंकि शर्कराप्रभा पृधिधी एक लाख बत्तीस हजार योजन के पिण्ड वाली है 'सकरप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! शकराप्रभा प्रथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के नीचे के चरमान्त तक कितना अन्तर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'सकरप्पभाए पुढवीए उरिल्लाओ चरिमंताओं स्वामी प्रभुने मे पूछे छे , 'दोच्चाएणं भते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिम ताओ हेट्टिल्ले चरिम ते । एस णं केवइए अबाधाए अतरे पण्णते' 3 मान् શકરપ્રભા નામની જે બીજી પૃથ્વી છે, તેના ઉપરના ચરમાંત સુધી કેટલું भात२ ४ह्यु छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ'गोयमा ! बत्तीसुचर' जोयणसयसहस्स', गौतम ! मी २४ २५ पृथ्वीना ५२ना यमाता તેની નીચેનું અરમાન એક લાખ બત્રીસ હજાર એજનનું છે. કેમકે શર્કરા प्रमा पृथ्वी से am wी M२ यानना पिपाणी छे. 'सकरप्पभाए पुढवीए' 3 मसन् शराममा पृथ्वीना यन। यरमांतथा धनाधिनी નીચેના ચરમાંત સુધી કેટલું અંતર કહ્યું છે? ગૌતમસ્વામીના આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४ छ है 'सक्करप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमताओ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १९ 'अबाहाय' अबाधया अन्तर प्रज्ञप्तम् घनोदधेशिविसहख योजनप्रमाणत्वात् । 'घणवायस्स असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साई पन्नत्ते' शर्करापभोपरितनात् घरमान्तात् घनवातस्याधस्तन श्चमान्तः असंख्येययोजनशतसहस्रमन्तरं प्रज्ञप्तम् । 'एवं जाव उवासंतररस चि' एवं यथा-घनवातस्यासंख्येययोजनशतसहस्रमन्तर' तथैव शर्कराममाया उपरितनाश्वरमान्तात् तनुवावस्थावकाशान्तरस्य चाधस्तन परमान्तोऽसंख्येययोजनशतसहस्रमन्तर भवतीति ज्ञातव्यम् । कियत्पृथिवी पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि । 'जाव अहे सत्तमाए' यावदधः सप्तम्यां अधः सप्तमी पृथिव्याः अन्तरपकरण पर्यन्तमित्यर्थः । ननु एतत्सर्व शर्कराममा घणोदहिस्स हेटिल्ले चरिमंते बावण्णुत्तरं जोधणसयसहस्सं' हे गौतम | शर्कराप्रभा पृथिवी के उपरितन चस्मान्त से घनोदधि का जो अधस्तन घरमान्त है वह एक लाख पावन हजार योजन के अन्तर से है-अर्थात् वहां से यहां तक एक लाख पावन हजार योजन का अन्तर है क्योंकि घनोदधि का प्रमाण बीस हजार योजन का होता है 'घणवायस्स असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई तथा-रत्नप्रभा के उपरितन घरमान्त तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है 'एवं जाव उवासंतरस्स वि' इसी तरह से शर्कराप्रभा पृथिवी के उपरितन घरमान्त से लेकर तनुवात वलय के अधस्तन चरमान्त तक और अव. काशान्तर के अधस्तन चरमान्न तक असंख्यात लाख योजन का अन्त. राल कहना चाहिये कितनी पृथिवी तक कहना चाहिये? इस पर कहते है-'जाव अहे सत्तमाए' जिस प्रकार शर्कगप्रभा के विषय में अन्तर घणादहिस्स हेट्रिल्ले चरिम ते बावण्णुत्तरं जोयणसयसहस्स” ले गीतम! શકરપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંતથી ઘોદવિ પૃથ્વીને જે નીચે ચરમાંત છે, તે એક લાખ બાવન હજાર જનની અંતરે છે અર્થાત્ ત્યાંથી અહિંયા સુધીમાં એક લાખ બાવન હજાર જનનું અંતર છે. કેમકે ઘન વિનું प्रमाण वास २० M२ ननु . 'घणवायत्स असखेज्जाई जोयणसयसहस्साई' तथा २त्नभाना 6५२॥ यमान्त सुधीमा असभ्यात ani या ननु मत२ छे. 'एव जाव उवासंतरस्स वि' का प्रमाणे शराला પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્સથી લઈને તનુવાતવલયના નીચેના ચરમાત સુધી અને અવકાશાન્તરની નીચેના ચરમત સુધી અસંખ્યાત લાખ જનનું અંતરાલ કહેવું જોઈએ કેટલી પૃથ્વી સુધી તે કહેવું જોઈએ તે બાબતમાં કહે છે કે 'जाव अहे सत्तमाए' २ प्रभारी शमा पृथ्वीना समयमा तनु ५४२६ जी० १७ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जीयामिगम पृथिवी विषयकान्तरपकरणवदेव ज्ञातव्यम् किश्चिदन्यथा वा ? तबाह-'नयर इत्यादि, 'नवर जीसे जं वाहल्लं तेण घगोदही संबंधे यमो बुद्धीए' नवरं यस्याः पृथिव्याः यद् वाहल्यं कथितं तेन बाहल्येन घनोदधिः संबन्धस्तिव्यो मुद्धपा। यस्याः पृथिव्या यावत्परिमितं भवधि तेन वाहत्येन सह घनोदधि वाइल्य. स्य सम्बन्धः स्वबुद्धया कर्तव्यः, यथा-यस्याः पृथिव्या यद् वाइल्यं भवति तस्मिन् पाहल्ये घनोदधि बाहल्यं सर्व पृथिवीगत घनोदधि चाइल्यस्व विशतिसहस्र भोजनपरिमितत्वेन सर्व पृथिवी वाइल्य घनोदधेविंशतिसहस्रयोजनक पाहल्यं प्रक्षेपणीयमिति भावः । तदेव मूत्रकारः स्वयं प्रदर्शति-'सक्करप्पमाए' प्रकरण कहा है उसी प्रकार-पालु काममा से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी पर्यन्त का भी यथोक्त कम से अन्तर जानना चाहिये इस पर प्रश्न होता है कि क्या शराप्रभा के जला ही अन्तर कहना चाहिये अथवा कुछ अन्तर से ? इस पर कहते है-'नवरं जीसेज पाहल्लं तेण घणोदही संबंधेरच्यो बुद्धीए' यहां अन्तर यह है कि जिस पृथिवी का जितना चाहल्य मोटापन कहा गया है उसमें घनोदधि का पाहत्य मोटापन अएनी बुद्धि से मिला देना चाहिए___ अर्थात् जिस पृथिवी का जितना प्रमाण का पाहल्य होता है उसमें घनोदधि का पाहल्प जो सब पृथिवियों के घनोदधि का प्रमाण पीस हजार योजन का होता है वह वीर हजार योजन पिला देना चाहिये। किस पृथिवी का घनोदधि सहित कितना कितना प्रमाण है ? इस पात को सूत्रकार कहते हैं-'सक भाए' इत्यादि । કહ્યું છે, એ જ પ્રમાણે વાલુકાપ્રભ પૃ પીથી લઈને અપસપ્તમી પૃથ્વી પર્યા નું અંતર પણ પૂર્વોક્ત ક્રમ પ્રમાણે સમજવું. આ સંબંધમાં પ્રશ્ન એ ઉપસ્થિત થાય છે કે શું શરપ્રભા પૃથરના અંતર પ્રમાણેનું જ અંતર ४३वानु छ ? ३ ४४ ३२१२ छ ? मा समयमा सूत्र५२ ४ छ 'नवरं जीसे जं बाहल्ल तेण घोंदही संबधेयचो बुद्धीए' मा समयमा अत२ ३२१२ એ છે કે જે પૃથ્વીનું જેટલું બાહય મોટાપારું કહેલ છે, તેમાં ઘને દધિનું બાહલ્ય મોટાપણું પિતપોતાની બુદ્ધીથી મેળવી લેવું જોઈએ. અર્થાત જે પૃથ્વીનું જેટલા પ્રમાણનું બાહુલ્ય થાય છે, તેમાં ઘોદધિનું બાહબ કે જે બધી પૃથ્વીના ઘનોદધિનું પ્રમાણ વીસ હજાર જનનું થાય છે. તે વીસ હજાર મેળવી દેવું જોઈએ. કઈ પૃથ્વીનું ઘોદધિ સહિત કેટલું કેટલું પ્રમાણ है १ . समयमा सूत्रा२ स्वयं ६ छ , 'सक्करप्पभाए' इत्यादि. .. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.१० प्रतिपृथिव्या उपयधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १३१ इत्यादि । 'सक्करपभाए अणुमारेणं घणोदहि सहिताणं इमं पमाणं' शर्करामभाया पृथिव्या अनुमारेण घनोदधि सहितानामिदं प्रमाणमन्तरस्य ज्ञातव्यम् । तदेवाह सूत्रकार:-'बालयप्पभाए' इत्यादि । 'बालुपमाए अडयालीमुतरं जोयणसय. सहस्सं बालकाप्रभायाः पृथिव्या घनोदधि सहिताया अष्ट चत्वारिंशत्सहस्रोत्तरं योजनशतसहस्रम् उपरितनाधस्तन चरमान्तयोर्मध्येऽन्तरम् तथाहि-वालुकामभायां बाहल्यम्-अष्टाविंशति सहस्रोत्तरं योजनशतसहस्रम्, तस्मिन् घनोदधेविंशतिसहस्रयोजनानां प्रक्षेपणे भवति घनोदधि सहिताया वालुकाप्रभाया बाहल्यम्भष्टचत्वारिंशत्सहस्रयोजनोत्तरं योजनशत सहस्रंबालुकाममाया उपरितनाच्चरमान्ताद् घनोदधेरधस्तन चरसान्तस्यान्तर प्रमाणमिति ३ अनयैव रीस्या-'पंकप्प___'सकरप्पभाए अणुसारेणं' जिस प्रकार शर्कराप्रभा पृथिवी में कहा है, उसके अनुसार 'घणोदहि सहियाणं' घनोदधि के सहित वालुकामभा से लेकर अधः सप्तमी तक की पृथिचियों का 'इमं पमाण' यह अन्तर प्रमाण है-उन बालुकाप्रभादि पृथिचियों का अन्तर प्रमाण यहाँ सूत्रकार स्वयं प्रकट करते हैं-'बालुघप्पभाए' इत्यादि । 'बाल्य पभाए अडयालीसुत्तरं जोवणलयलहस्सं घनोदधि के बाहल्य सहित तीसरी वालुका प्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनो दधि के अधस्तन चरमान्त का अन्तर एक लाख अड़तालीस हजार पोजना का है, जैसे बालुकाप्रमा का बाहल्य एक लाख अठाईस हजार योजन का है उसमें घनोदधि के बाहल्य के बीस हजार योजन मिलाने से घनोदधि सहित बालुका प्रभा का एक लाख अङतालीस हजार योजन का चालुकाप्रभा के ऊपरितन चमान्त से घनोदक्षि के अधस्तन चरमान्त 'सक्कर पभाए अणुसारेण' २ प्रमाणे शरामा पृथ्वीमा वाम मा छ, ते प्रमाणे 'वणोदहि सहियाणं' धनाधिनी साथे वाला पाथी दान माससभी सुधिनी पृथ्वीयाना 'इमं पमाणं' तनु मा પ્રમાણ છે. તે વાલુકાપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીનું અંતર અહિયાં સૂત્રકાર સ્વયં प्रगट ४२di / छ है 'वालुयप्पभाए अडयालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं' पनाधि ના બાહલ્ય સહિત ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાંતથી ઘને દધિની નીચેના ચરમાતનું અંતર એક લાખ અઠયાવીસ હજાર એજનનું છે તેમાં ઘને દધિના બાહલ્યના વીસ હજાર યોજન મેળવવાથી ઘોદધિ સહિત વાલકા પ્રભા પૃથ્વીનું એક લાખ અડતાલીસ હજાર એજનનું અંતર વાલુકાપ્રભાની ઉપરના ચરમાંતથી ઘનોદધિની નીચેના ચરમતનું થઈ જાય છે. ૩, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जीवामिगमको भाए पुढवीए चत्तालीमुत्तरं जोयणसयसहस्सं' चतुर्थ्याः पङ्कममायाः पृषिव्या घनोदधि सहिताया उपरितनाच्चरमान्तात् घनोदधेरघस्तन श्वरमान्तः एतच्चस्सारिंशत्सहस्रपोजनोत्तर योजनशतसहस्रमन्तरम्, तत्र पङ्कममाया वाइल्यं विंशतिसहस्रयोजनोत्तरशतसहस्रयोजनममितम् तस्मिन् घनोदधेविंशतिसहस्रयोजन वाहल्यं पक्षिप्यते, तेनायाति घनोदधि सहितायाः पङ्कपमा पृथिव्या उपरितना चरमान्तात् घनोदधेरधस्तन वरमान्तपरिमाणं चत्वारिंशत्सहस्रयोजनान्तर योजनशतसहस्र मेति ४ । 'धूमप्पभाए पुढवीए अनीमुत्तर जोयणसयसहस्सं । धूमप्रभायाः पृथिव्या घनोदधि सहिताया उपरितनाच्चरमान्तात् घनोदधेरधस्तनचरमान्तः एतत् अष्टत्रिंशत्सहस्रयोजनोत्तर योजनशतसहसमन्तरम्, तत्र धूमका अन्तर होजाता है ३ । इसी रीति के 'पंकप्पभाए पुढवीए चत्ताली सुत्तरं जोयणसयसहस्सं' पंकप्रभापृथिवी का घनोदधि सहित का इन दोनों के बीच में एक लाख चालीस हजार योजन का अन्तर है, जैसे पंकप्रभा पृथिवी का बाहल्य एकलाख बीस हजार योजन कारे उसमें घनोदधि का वीस हजार योजन मिलाने से पंकप्रभा के उपरितन घरमान्त से घनोदधि के अधस्तन घरमान्त तक का एक लाख चालीस हजार योजन का अन्तर हो जाता है । 'धूमप्पभाए पुढवीए अमृतीसुत्तरं जोयण सयसहस्सं' घनोदधि सहित धूमप्रभा पृथिवी का अन्तर प्रमाण अडतीस हजार योजन अधिक एक लाख योजन का है जैसे धूमप्रभा पृथिवी का थाहल्य अठारह हजार योजन अधिक एक लाख योजन का है उसमें घनोदधि के बीस हजार योजन मिलाने से धूमप्रभा. पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के अधस्तन घरमान्त का से प्रभारी पंकप्पभाए पुढवीए चत्तालीसुत्तरं जोयणमयसहस्सं' ५ પ્રભા પૃથ્વીના ઘનેદધિ સહિતના આ બન્નેની વચમાં એક લાખ ચાળીમ હજાર એજનનું અંતર છે. જેમકે પંકપ્રભા પૃથરીનું બાહલ્ય એક લાખ વસ હજાર એજનનું છે. તેમાં ઘનોદધિના વીસ હજાર પે. જન મેળવવાથી પંકપ્રભા ની ઉપરના એક લાખ ચાળીસ હજાર એજનનું અંતર થઈ જાય છે. (૪) 'धूमप्रभाए पुढवीए अद्वतीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं' धनापि सहित धूम. પ્રભા પૃથવીને અંતરનું પ્રમાણ આડત્રીસ હજાર જન અધિક એક લાખ જનનું છે. તેમાં ઘોદધિના વીસ હજાર જન મેળવવાથી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનોદધિની નીચેના ચરમતનું અંતર આડત્રીસ હજાર જન અધિક એક લાખ જનનું થઈ જાય છે. ! ! ! Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ सू.१० प्रतिपृथिव्या उपयधंस्तनचरमान्तयोरन्तर १३३ प्रभायाः पृथिव्या बाइल्पम् अष्टादशसहस्र योजनोत्तरशतसहस्रपोजनपरिमितम् , तस्मिन् घनोदधे विंशतिसहस्र योजनबाहल्यं प्रक्षिप्यते तेनायाति यथोक्तं धनो. दधि सहिताया धूमप्रभा-पृथिव्या उपरितनाच्चरमान्तात् घनोदधेरथस्तन चरमातस्य अन्तरममाणमिति ५। 'तमार पुढवीए छत्तीमुत्तर जोयणसयसहस्सं तमामभायाः पृथिव्या घनोदधि सहिताया उपस्तिनाच्चरमान्तात् घनोदधेरधस्तन श्वरमान्तः, एतत् त्रिंशत्सहस्रयोजनोत्तर योजनशतसहस्रमन्तरम् । तत्र तमामभायाः पृथिव्या बाहल्यम्-षोडशसहस्रयोजनोत्तरशतसहस्त्रयोजनपरिमितम्, तस्मिन् घनोदधेविंशति सहस्रपोजनवाहल्यं प्रक्षिप्यते तेनायाति यथोक्तं घनोदधि सहिताया स्तम:ममा पृथिव्या उपरितनचरमान्तात् घनोदधेरधस्तनचरमान्तस्यान्तरप्रमाणमिति ६ । 'अहे सत्तमाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तर जोयणसयसहस्सं' अधः सप्तम्या स्तमस्तमः प्रभायाः पृथिव्याः घनोदधि सहिताया उपरितना चरमान्ताद घनोदधेरधस्तनश्वरमान्तः एतत् अष्टाविंशति सहस्रयोजनोत्तर योजनशतसहस्रमन्तरम् । तत्र तमस्तमम्प्रभा पृथिव्या वाहत्यम् अष्टसहस्रयोजनो. अन्तर अडतीस हजार योजन अधिक एक लाख योजन का हो जाता है 1५। 'तमाए पुढबीए छत्तीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं' घनोदधि सहित तमःप्रभा पृथिवी का परस्पर छन्तीस हजार अधिक एक लाख योजन का अन्तर है, जैसे तमःप्रभा पृथिवी का बाहल्य सोलह हजार योजन अधिक एक लाख योजन का है उसमें घनोदधि के बीस हजार योजन मिलाने से तमःप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के अधस्तन घरमान्त का छत्तीस हजार अधिक एक लाख योजन का अन्तर होता है ६ 'अहे सत्तमाए पुढ बीए अट्ठावीसुत्तरं जोषण सयसहस्सं घनोदधि सहित अधःसप्तमी पृथिवी को परस्पर अन्तर अठाईस हजार योजन अधिक एक लाख योजन का है, जैसे अधः सप्तमी पृथिवी ___ 'तमाए पुढबीए छत्चीसुत्तर जोयणसयमहस्स' धनादि सहित तमः प्रला પૃથ્વીનું અંતર પરસ્પર છત્રીસ હજાર અધિક એક લાખ જનનું છે. જેમકે તમઃ પ્રભા પૃથ્વીનું બાહલ્ય સોળ હજાર જન અધિક એક લાખ જનનું છે, તેમાં ઘને દધિના વીસ હજાર જન મેળવવાથી તમઃ પ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાતથી ઘનોદધિની નીચેના ચરમાતનું અંતર છત્રીસ હજાર અધિક એક म याननु थाय छे. । । 'अहे सत्तमाए पुढवीर अट्ठावीसुत्तर जोयणसय सहस्सं' धनाधि सहित अधःसभी पृथ्वीनु ५२२५२ मत२ २५४यावीस १२ જન અધિક એક લાખ જનનું છે. જેમકે અધાસપ્તમી પૃથ્વીનું અંતર આઠ હજાર યોજન અષક એક લાખ જનનું છે. તેમાં ઘનધિના વીસ હજાર એજન Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमध्ये त्तरशतसहस्रयोजनपरिमितम् तस्मिन् घनोदधेविंशति सहस्रयोजन पाहल्यं प्रक्षिप्यते, तेनायाति यथोक्त घनोदधि सहिताया स्तमस्तमाममा पृयिव्या उप रितनाच्चरमान्तात् घनोदधेरधस्तनचरमान्तस्यानरममाणमिति ७ । कित्पर्यन्त मिदमन्तरप्रकरणं वाच्यम् ? तत्राह-'जात्र' इति, 'जाव' यावत्, अत्र यावत्पदेन तृतीय वासकाममा पृथिवीत आरभ्याधः सप्तमी पर्यन्त पृथिवीनां घनवात-तनु वातावकाशान्तरमूत्राणि संग्राह्याणि, तानि च उपरितनाधस्तनचरमान्तानामन्तराणि असंख्येय शतसहस्रयोजनत्वेन व्याख्येयानि, एषु अधस्तन पृथिव्या अवकाशान्तरस्याधस्तन चरमान्तसूत्रं सूत्रकारः स्वयमेव मदर्शयति-'अहे सत्त. माए णं भंते' इत्यादि, 'अहे सत्तमाए णं भंते ! पुढवीए' अधः सम्पाः खलु फा आठ हजार योजना अधिक एक लाख योजन का है उसमें घनोदधि के बील हजार मिलाने से अधस्तन :थिवी के उपरितन चरमान से घनोदधि के अधस्तन चस्मान्त का अन्तर अट्ठाईस हजार योजन अधिक एक लाख योजन का हो जाता है। ___ यह अन्तर प्रकरण कहां तक कहना चाहिये ? इस पर कहते हैं'जाव' इति 'जाव' यावत् यहां यावत्पद से तीसरी पालुकाप्रभा पृथिवी से लेकर अधःसप्तमी तक की पृथिवियों के धनवात तनुवात और अब काशान्तर के सूत्रों का संग्रह करना चाहिये । उन सूत्रों का 'उपरितन अधस्तन चरमान्तों का अन्तर असंख्यात शतसहस्त्र योजनों का होता है ऐसा शास्वान करना चाहिये। इनमें अधःसप्तमी पृथिवी गत अवकाशान्तर के अधस्तन घरमान्त का अन्न सूत्र सूत्रकार स्वयं दिखलाते हैं-'अहे सत्तमाए णं भंते' इत्यादि । गौतमने प्रभु से ऐसा મેળવવાથી નીચેની પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાનથી ઘને દધિના અધતન ચરમાનનું અંતર અઠયાવીસ હજાર જન અધિક એક લાખ યોજનનુ થઈ જાય છે ! આ અંતર સંબંધી પ્રકરણ કયાં સુધી કહેવું જોઈએ ? તે સંબધમાં सूत्रा२ 'जाव' इत्यादि सूत्र द्वारा डे है. 'जाव' यावत् मडिया यात्५४थी ત્રીજી વાલુકા પ્રમા પૃથકીથી લઈને અધાસપ્તમી પૃથ્વીના ઘનવાત, તનુવાત અને અવકાશનેતર સંબંધી સૂત્રને સંગ્રહ કર જોઈએ. તે સૂત્રોના ઉપરિતન, અધતન ચરમા નું અંતર અસંખ્યાત શતસહસ્ર યોજનેતુ થાય છે. એ પ્રમાણે વ્યાખ્યાન સમજી લેવું તેમાં અધઃસપ્તમીમાં આવેલ અવકાશાતર ना मरतन य२मांतनु मत२ सूत्र सूत्रा२ २१ मतावे छे. 'अहेसत्तमाए ण भंते !' या - गौतमस्वामी प्रभुने मे ५७ ले ? 'अहे सत्तमाए णभते !पुढवीए' Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिका टीका प्र. ३ सू.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १३५ भदन्त ! पृथिव्याः 'उवरिल्लाओं चरिमंताओ' उपरितनात् चरमान्तात् 'ओवासंतररूस' अवकाशान्तरस्य 'हेठिल्ले चरमंते' अधस्तनश्चरमान्त 'केवइयं अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' कियत्यया अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तमिति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' 'इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'असंखेज्जाई जोयणसरसहस्साई' असंख्येयानि योजनशतसहस्राणि 'अवाहाए अंतरे पन्नत्ते' अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तमिति । तृतीयस्याः खलु भदन्त ! वालुकाममायाः पृथिव्या उपरितन चरमान्तादधस्तनचरमान्त एतदन्तरं कियद् अवाधया प्रज्ञम्, भगवानाह - हे गौतम! अष्टाविंशतिसहस्राधिकं योजनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् । हे भदन्त ! बालकामभायाः पृथिव्या उपरितन चरमान्तात् घनोद धेरुपरितनचरमान्त एतदपूछा है- 'अहे सत्तमाए णं भते पुढवीए' हे भदन्त ? इस अधःसप्तमी पृथिवी के 'उवरिल्लाओ चरिमंताओ' उपरितन चरमान्त से 'उवासं तरस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते' अवकाशान्त का अधःस्तन चरमान्त 'केवइयं अवाहाए अंतरे पण्णत्ते' अवाधा से कितने अन्तर पर है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोमा' हे गौतम 'असं' खेज्जाई जोयणसयलहस्साई ? असंख्यात लाख योजन अबाधा से अन्तर कहा गया है । आलापक प्रकार इस प्रकार से है तृतीय वालुकप्रभा पृथिवी के उतरितन चरमान्त से उसी के अवस्तन घरमान्त तक कितना अंतर कहा है ? इस के उत्तर में प्रभुश्रीने कहा है गौतम बालुकाप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से लेकर उसी के अधरतन चरमान्त तक एक लाख अठाईस हजार योजन का अन्तर है क्योंकि बालुकाप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अठाईस हजार योजन हे भगवन् मा अधः सप्तभी पृथ्वीना 'उवरिल्लाओ चरिमंताओ' उपरना थरभान्तथी ‘उवासंतरस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते' अव अशान्तस्तु नीथेतु' यस्मान्त 'वइयं बाहा अंतरे पण्णत्ते' समधाथी डेटा अंतरयर आसु छे ? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभु गौतमस्वामीने उड़े थे ! 'गोयमा !' हे गौतम! 'असं वेज्जाइ जोयणसयस इस्साई' असण्यात साथ योजन समाधाथी अंतर કહેવામાં આવેલ છે. તેના આલાપકના પ્રકાર આ નીચે પ્રમાણે છે ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તથી તેનાજ નચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યુ` છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ ! વાલુક પ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી લઇને તેનાજ નીચેના ચરમાન્ત સુધી એક લાખ અઠ્યાવીસ હજાર ચેાજનનુ' 'તર કહ્યું છે. કેમકે વાલુકાપ્રભા Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमन स्तरं कियद् अबाधया प्राप्तम् ? भगदानाह-हे गौतम ! अष्टाविंशति सहसा. धिक योजनशतसहस्रमवाधाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् बालकाममाया अधस्तन चरमान्त घनोदधेरुपरितनचरमान्तयोः परस्पर संलग्नतया तुल्यप्रमाणत्वभावात् रे भदन्त ! वालुकाममाया: पृथिव्या उपरितनचरमान्तात् घनोदधेरुपरिवन. चरमान्त एतदनरं कियद् अबाधण पापम् भगवानाह-हे गौतम ! अष्टाविंच. सिंहस्राधिकं योजनशतसहस्रमवाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम् चालकाममाया अधस्तन चरमान्त घनोदधेरुपरितन चरमान्तयोः परस्पर संलग्न या तुल्यप्रमाणत्व भावाद, हे भदन्त । वालुकाममाया उपरितन चरमान्तात् घमोदधेरधस्तनचरमान्त एतद. न्तर कियद् अबाधया प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह-हे गौतम ! अष्टचत्वारिंशत्सहस्रोत्तरं की कही गई है। हे भदन्त ! घालुकाप्रभा के उपरितन चरमान्त से घनोदधि का उपरितन चरमान्त जितने अन्तर पर है। प्रभु कहते हैयह भी एकलाख अठाईस हजार योजन का है क्योंकि यालुकाप्रमा का अधस्तन चरमान्त और घनोदधि का उपरितन चरमान्त परस्पर सलग्न होने से घोलुकाप्रभा के बाहल्य के तुल्य प्रमाण कहा गया है। गौतम प्रभु ले पूछते हैं-हे भदन्त ! बालुकाप्रभा के उपरितन चरमान्त से घनोदधि का जो अबस्तन चरमान्त हैं। उनमें कितनी अन्तर है ? तो इसके उत्तर में प्रभु ने ऐसा कहा है कि हे कि हे गौतम! पूर्वोक्त नियम के अनुसार तृतीय पृथिवी की एक लाख अट्ठाईस हजार योजन की मोटाई में घनोदधि की बीस हजार योजन की मोटाई मिला. कर यह अन्तर निकल आता है कि बालुकाप्रभा के उपरितन चरमान्त પૃથ્વીની પહે ળાઈ એક લાખ અઠયાવીસ હજાર જન કહેવામાં આવી છે. હે ભગવન વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્તથી ઘને દધિની ઉપર ચરમાન કેટલા અંતર પર આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે આ પણ એક લાખ અઠયાવીસ હજાર યોજના અંતર પર છે. કેમકે વાલુકાપ્રભા ની નીચેને ચરમાન્ત અને ઘને દધિની ઉપરનો ચરમાંત પરસ્પર મળેલા હોવાથી વાલુકાપ્રભાને બાહલ્યની બરોબરનું પ્રમાણ કહેલ છે. ગૌતમસ્વામી પ્રભુને પૂછે છે કે હે ભગવન વલુકાપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાંતથી ઘોદધિને નીચેને જે ચરમાન્ત છે, તેનું કેટલું અંતર કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગતમ! પૂર્વોક્તનિયમ અનુસાર ત્રીજી પૃથ્વીની એક લાખ અઠયાવીસ હજાર એજનની વિશાળતામાં ઘોદધિની વીસ હજાર યે જનની *, વિશાળતા મેળવવાથી આ અંતર મળી આવે છે, કે વાલુકાપ્રભાની ઉપરના Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीक्षार..सू.१० प्रतिपृथिव्याः उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १३७ योजनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तस्, हे भदन्त ! वालुकाप्रभाग उपरितन चरमान्तात् घन्वानुल्योगस्तिनचरमान्त एसइन्दर किगत् अवाधया प्रज्ञप्तम्, हे गौतम ! अष्टचारिजल्लदस्त्राधिकं योजनशतमालपत्र प्राप्तम् हे भदन्त ! घनवालस्याधरलसपत्नान तनुमाताबकाशान्तयोरुपरित्नाधस्तलचरमान्ता, एतत् कियहन्तरं प्रज्ञपलर हे मौला प्रत्येकासंख्येवयोजन शतसहस्त्राणि अन्तर मज्ञप्तमिहि । पङ्कममायाः पृधिम्या उपरितनचरमान्लादधस्तनचरमान्तः, से घनोदधि का जो महान बरबात है यह एक लाख अड़तालील हजार योजना के अन्तर में हे भात | पालकाममा के उपरितम चरमान्सा ले घनक्षात के उपरिकन चरलामा म कितना अनार है ! उत्तर में प्रभु कहते हैंहे गौतन! घालुकासमाके उभार वा चरमान्स ले घनचात के उपरितन चरमान्य व एक लाख अदालील हजार योजन का सार है ऐसा कहने का कारण यही है कि यहीं पर घनोदधि झा नवस्नल चरमान्त समाप्त होता है। और हनुमान का उपरितम चरब्दान्त प्राररूम होता है। हे भदन्त ! धनवान का अपहलन चरान्त लुधात और आकाशान्तर के उपरितन अपन चशमानत यालु शासभा के उपस्लिम परमात से कितना अन्तर है ! लोक प्रश्न के उत्सर में प्रभु फहते हैं। हे गौतम यहां तक प्रत्येक का असंख्यान लाख चोजन का अन्तर ३। इस्ली तरह से पंकप्रभा के लम्बन्धी उपक्षी बोटाई को लेकर उपरितन ચરમાતથી એક ઘોદધિને જે નીચે ચરમાન છે, તે એક લાખ અડતાલીસ હજીર એજનના અંતર પર છે. હે ભગવન વાલુકાપ્રભા પૃથ ીના ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનવાતના ઉપરના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે ! આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! વાલુકાપ્રભ ની ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનવાતની ઉપરના ચરમાન્ત સુધીમાં એક લાખ અડતાલીસ હજાર એજનનું અંતર કઈ છે. એમ કહેવાનું કારણ એ છે કે ત્યાંજ ઘનોદધિની નીચેનું ચરભાત સમાસ થાય છે. અને તનવાતની ઉપરના ચરપાન્તને પ્રારંભ થાય છે, ફરીથી ગૌતમસ્વામી પૂછે છે કે હે ભગવન્! ઘનવાતની નીચે ચરમાન્ત અને તનુવાત અને અવકાશાસ્તરની ઉપરના નીચેના ચર Iક્ત સુધી વાલુકાપ્રભાની ઉપરના ચરમાન્સથી કેટલુ અંતર કહ્યું છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ ! ત્યાંથી ત્યાં સુધીમાં દરેકનું અસંખ્યાત લાખ જનનું અંતર કહ્યું છે. ૩ એજ પ્રમાણે પંકપ્રભા પૃથ્વીના સંબંધમાં પણ એની વિશાળતા जी० १८ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे १३८ एतत् किदवाया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? भगवानाह = हे गौतम! विंशतिसहस्राधिकं योजनशतसहस्रमबाधयाऽन्तरं प्रज्ञप्तम्, हे भदन्त ! पङ्कमभायाः पृथिव्याः उपरितनचरमान्तात् घनोदधेरुपरितन चरमान्त एतदन्तरं कियद् अवाधया मज्ञप्तम् ? हे गौतम! विशोत्तरं योजनशतसहस्रमवाधयाऽन्तरं महप्तम्, पङ्कममाया अधस्तनचरमान्द-घन ेदधेरुपरितन चरमान्तयोः परस्परं संलग्नतया तुल्यप्रमाणत्वात् । भदन्त ! पङ्कपभाया उपरितनचरमान्तात् घनोदघेरधस्तन चरघरमान्त से उसी के अधस्तन चरम्यान्त तक का अन्तर जानना चाहियेतथा घनोदधि के अधस्तन चरमान्त तक का अन्तर एवं घनवात के उपरितन तनुबात के उपरितन घरमान्त तक का अन्तर, और इनके अधस्तन चरमान्त तक का अन्तर तथा अवकाशान्तर के उपरितन अधस्तन चरणान्त तक का अन्तर निकाल लेना चाहिये-जैसे - हे भदन्त ! पङ्कप्रभा के उपरितन चरमान्त से उसी के अधरतन हरमान्त तक कितना अन्तर है ? हे गौतम । पंकप्रभा के उपरितन चरमान्त से उसी के अधस्तन चरमान्त तक एक लाख बीस हजार योजन का अन्तर है क्योंकि इस पृथिवी की मोटाई इतनी ही कही गई है। हे भदन्त ! पंकप्रभा के उपरितन चरमान्त से घनोदधि का उपरितन चरमान्त में कितना अंतर है ? हे गौतम बही एक लाख बीस हजार योजन का है। क्योंकि पंकप्रभा का अधस्तन भाग और घनोदधि का उपरितन भाग परस्पर संलग्न है । हे भदन्त ! पंकप्रभा के उपरितन चरमान्त से પહેાળાઈના સમધમાં ઉપરના ચરમાતથી તેનીજ નીચેના ચરમાન્ત સુધીનું મંતર સમજવું, તથા ઘનેાધિની નીચેના ચરમાન્ત સુધીનુ' અંતર અને ઘનવાતની ઉપરના અને તનુવાતના ઉપરના ચરમાન્ત સુધીનુ અંતર અને તેની નીચેના ચરમાન્ત સુધીનું અંતર તથા અવકાશ,ન્તરની ઉપર ના અને નીચેના ચરમાન્ત સુધીનું અન્તરસમજી લેવું જોઈએ જેમકે હે ભગવન્ ! પંકપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી તેની નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યુ` છે. ? આપ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ ! પંકપ્રભા ની ઉપરના ચરમાન્તથી તેની નીચેના ચરમાંત સુધીમાં એક લાખ વીસ હજાર ચેાજનનુ અંતર કહેલુ છે. કેમકે આ પૃથ્વીની વિશાળતા એટલીજ કહેવામાં આવી છે. હું ભગવન્ પક પ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમન્ત થી ઘનેાધિની ઉપરના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે ? હૈ ગૌતમ ! એજ એક લાખ વીસ હજાર ચૈાજનનું અ ંતર કહ્યું છે, કેમકે પ્રભા પૃથ્વીની નીચેને ભાગ અને ઘનધિની ઉપરનીેર્ ભાગ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ सू.१० प्रतिपृथिव्या. उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १३९ मान्तः, एतदन्तरं कियद् अवाषया मज्ञतम् ? भगवानाह - हे गौतम । चत्वारिंशत्सहस्रोत्तर' योजनशतसहस्रमवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् । घनवातस्योपरितन चरमान्तोऽपि चत्वारिंशत्सहस्रोत्तर' योजनशतसहस्रमन्तरं भवति, द्वयोः परस्परं संलग्नत्वात् । एवं घनवातस्याधस्तनचरमान्तः तनुवतावाकाशान्तराणामुपरितनाधस्तनचरमान्तः एतद् असंख्येययोजनशतसहस्रमन्तरं प्रज्ञप्तम् ||४|| घनोदधि के अधस्तन चरमान्त तक कितना अन्तर है ? गौतम ! पंक प्रभा के उपरितन चरमान्त से घनोद्धि के अधस्तन चरमान्त तक एक लाख चालीस हजार योजन का अन्तर है यहां घनोद्धि की मोटाई बीस हजार योजन की उसकी मोटाई में मिलाकर यह उत्तर दिया गया है । हे भदन्त ! पंकप्रभा के उपरितन चरमान्त से घनवात के उपरितन चरमान्त तक कितना अन्तर है ? हे गौतम एक लाख चालीस योजन का अन्तर है। क्योंकि घनोदधि को अधरान चरमान्त और घनवात का उपरितन चरमान्त परस्पर संलग्न है । हे अदन्त ! पंकप्रभा के उपरितन चरमान्य से घनवात के अधस्तन चरमान्त तक कितना अन्तर है ? गौतम ! यहां असंख्यात लाख योजन का अन्तर है । है भ ! पंकप्रभा के उपरितन चरमान्त से सजुवात और अवकाशान्तर के उपरितन अधस्तन चरम्यान्त तक कितना अन्तर है ? गौतम ! दोनों के उत्तर में वहां से यहां तक भी असंख्यात लाख योजन का अन्तर है । પરરપર મળેલા છે. હે ભગવનૂ પ`કપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનેદધિની નીચેના ચર્માન્ત સુધીમાં કેટલુ અતર કહ્યું' છે ? ૐ ગૌતમ ! પંકપ્રભાના ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનેાષિની નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં એક લાખ ચાળીસ હજાર યેજનનું અંતર કહ્યું છે. અહિંયાં ઘનેાધિની પહેાળાઈ વીસ હજાર ચૈાજનની તેની પહેાળ.ઈમાં મેળવીને આ ઉત્તર કહેલ છે. હું ભગવનું પક પ્રસાની ઉપરના ચરમાન્તથી બનવાતની ઉપપ્તના ચરમાન્ત સુધી કેટલું' અડતર કહ્યુ છે ? હું ગૌતમ ! એક લાખ ચાળીસ હજાર ચૈાજનતુ અ'તર કહેલ છે, કેમકે ઘનાષિની નીચેના ચરમાત અને ઘનવાતની ઉપરના ચરમાન્ત પરસ્પર મળેલા છે. હું ભગવત્ પ'કપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી ઘનવાતની નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યુ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હે ગૌતમ ! આ સબંધમાં અસખ્યાત લાખ ચેાજનનું અંતર કહ્યું છે, હે ભગવન્ યુ કપ્રસાર પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી તનુવાત અને અવકાશાન્તર ની ઉપરના અને નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યુ છે ? ઉત્તર હે ગૌતમ! આ અને પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ત્યાંથી અહિ સુધી અસખ્યાત લાખ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m जीवाभिगमस्त्रे धूममभायाः पृथिव्या उपस्तिनावरमान्जाद अधस्तनचरमान्तः कियत् अवाधया एतदन्तरं यज्ञप्तम् हे गौतम ! अष्टादशसहलोचर योजनशतसहस्रमन्तर घज्ञप्तम् । हे भहन्त ! धूमप्रभाया उपरितनचरमान्तः एतत् कियदन्तरं - प्रज्ञप्तम् ? हे गौतम ! अष्टादश पहलोत्तर शोजनमतसहस्त्र पसार प्रहप्तम् । हे भदन्त ! धूममभायाः पृथिव्या उपरिवनावरमान्तात् घनोदधेरघरतनचरमान्तः एतद कियद् अवाधया अन्तरं प्रज्ञप्तम् ? हे गौहर ! अष्टत्रिंश इलस्रोत्तर योजनशतसहस्त्रमन्तरं महप्तम् । अस्या एक लपविलचरसान्तादू घनवातस्योपरितनचरमान्तेऽपि अष्टचिंगसहस्रोतर योजनशतराहसमेवान्ताव, घनोदध्यधस्तनचरमान्त घनदातोपरितनचरमान्तयोः परस्पर संलग्नवाच । धनवातस्याधस्तनहे अदन्त धूमप्रमा पृथिवी के उपरितन चश्मान्त से उसी के अधस्तन 'चरमान्त तक का कितना अन्तर है ? गौतम ! यही एक लाख अठारह हजार योजल का अन्तर है। सदन्छ! धूमला के उपरितन चस्मान्त से घनोदपि के अघल्हम बरसान्त कशितना अन्तर है ? हे गौतम | यहां अन्तर एक लाख अड़तीस हजार योजल का धूमप्रनाले शाहल्य में घनोदधि के पीस हजार योजन खिलाने ले इतना हो जाता है । हे अदन्त सुरप्रभाले परितन घरमामाले घनकात उपरितन चरमान्त तक कितना अन्तर है ? औलन ! यहाँ एक लाख अउतील हजार योजन का अन्तर है क्योकि धूमप्रभा के घनोदधि का पतन बरसान्त और घनचाल का उरिक्तन चरभान दलद है। है नमन ! धूलमभा के उपरितन धमाल ले धनवान जस्तन पलान्त और तनुवात જનનું અંતર કહેલ છે. પ્રશ્ન હે ભગવન ! ધૂમ વભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાતથી તેની નીચેના ચરમાન સુધીમાં કેટલું અંતર કહેલ છે? ઉત્તર હે ગૌતમ! આ સંબંધમાં એક લાખ અઢાર હજાર જનનું અંતર કહ્યું છે. પ્રશ્ન-હે ભગવન ધૂમપ્રભા પૃથરીની ઉપરના ચરમ નથી ઘનોદધિની નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહે છે? ઉત્તર હે ગૌતમ! આનું અંતર એક લાખ અડતાલીસ હજાર એજનનું કહ્યું છે. કેમ કે ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના બાહત્યમાં ઘોદધિના વીસ હજાર જન મેળવવાથી રબા પ્રમાણે થાય છે. પ્રશ્ન-હે ભગવન્ ધૂમપભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી નીચેના ઘનવાતના ઉપરના અરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે? ઉત્તર-હે ગૌતમ ! આ સંબંધમાં એક લાખ આડત્રીસ હજાર જનનું અંતર કહ્યું કે, ૧૩૮૦ ૦૦ કૅમર્ક ધૂમપ્રભા પૃથ્વીની નીચેને ચરમાન્ત અને ઘનવાતની ઉપરના ચરમાન મળેલા છે. પ્રશ્ન-હે ભગવન્ ધૂમપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાતથી ઘનવાતની નીચે Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , प्रमेयद्योति कायका प्र.३ ३.१० प्रति पृथिया: उयधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १५१ चरमान्तः, तनुवातासकाशान्तरयोरुपतिनाथस्तनचरमान्तः प्रत्येकमसंख्येययोजनशतसहस्र पन्तर ज्ञातव्यम् ५। नमःमभावाः पृथिव्या उपरितचरमान्ताद अधस्तन वरमान्तः, एतत् क्रियदन्तरं अज्ञासम् हे गौतम ! पोडशसहस्वान्तर योजनशतसहस्त्र पन्तर प्रज्ञप्सम् एतदेवान्तर तमःमाया उपस्तिनवरमान्तात् घनोदधेपरिवनचरमान्तेऽपि झेपसू उपयो: परस्पर संग्नतया तुल्यममाणत्वादिति।। तम प्रभायाः उपरितनचरमानना घनोदधेरधस्तनचरमान्तः, एतत् कियद अवाघयाऽन्तरमिति प्रश्नः । समवानाह-पत्रिंसहस्त्रयोजनोत्तर योजनशतसहतके अधस्तन चरम्मान्स लक कितना अन्तर है ? यहां दोनों के अन्तर में असंख्यात लाख योजन्म कहना चाहिये हे भदन्त ! धूमप्रथा के उपरितन चरमानको अभाशान्तर के उपरितन अधस्तन चरमान्त तशकिलना अन्तर है । हे गौतम ! यहाँ पर भी असंख्यात लाख योजन का अन्तर है । हे भदन्त ! तमामा पृथिवी के उपरितन चरलान्त से अधस्तम चरमान्ल तक कितना अन्तर है ? मौतम ! लमप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से अधरतन चस्मान्त तक वन्तर एक लाख सोलह हजोर का है तथा यही अन्तर तक प्रभाव उपरितन चस्मान्त से घनोदधि के उपरितन चरमान भी एक लाख लोलह हजार योजन का अन्तर है। तमाममा पृथिवी के उरितन चरमान्त ले कक्षा के घनोदधि का जो अधस्तनचरमान्त है। यहां तक शितना अन्तर है ? गौतम ! ચરમાન્ત અને તનુવાતની નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે? ઉત્તર-હે ગૌતમ! આ બન્નેના અંતરમાં અસંખ્યાત ચીજનનું અંતર કહેવું જોઈએ. પ્રશ્ન–હે ભગવન ધૂમપ્રભાની ઉપરના ચરમાન્તથી અવકાશાન્તરના ઉપર નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે ? ઉત્તર-હે ગૌતમ આ સંબંધમાં પણ અસંખ્ય લાખ એજનનું અંતર સમજવું. પ્રશ્ન- ભગવત્ તમ પ્રભા પૃથ્વીના ચરમાન્તથી નીચેના ચરમત સુધી કેટલું અંતર કહેલ છે ? ઉત્તર-હે ગૌતમ! તમ પ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્ડથી નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં એક લાખ સેળ હજાર જનનું અંતર કહ્યું છે. તથા આજ પ્રમાણેનું અંતર તમઃપ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના ચુરમાનતથી ઘોદધિના ઉપરના ચરમાત સુધીમાં પણ એક લાખ સોળ હજાર જનનું અંતર સમજવું પ્રશ્ન-તમપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાતથી ત્યાંના ઘદષિની નીચે જે ચરમાન છે. ત્યાં સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે ? Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १४२ जीवामिगमहले मन्तरं भवतीत्युत्तरम् । तमःमभाया उपरितनचरमान्तात् घनवातस्योपरितनचरमान्तस्यापि अन्तरमेतावदेव ज्ञातव्यम्-पत्रिंशत्सहस्रोत्तरमेकं लक्षमिति । तमः प्रभाया उपरितनचरमान्तात् घनवातस्याधस्तन चरमान्तः तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधस्तन चरमान्ताश्च प्रत्येकमसंख्येय योजनशतसहस्रमन्तरं ज्ञातव्यमिति ६ । हे भदन्त ! अधः सप्तम्याः पृथिव्या उपरितनचरमान्तादधस्तनचरमान्तः, एतत् कियदन्तर प्रज्ञप्तम् ? हे गौतम ! अष्टसहस्रयोजनोत्तरं योजनशतसहस्रमन्तरं प्रज्ञप्तम्, अधः सप्तम्या उपस्तिनचरमान्तात् घनोदघेरुपरितनचरमान्तः एतत् अष्टपइस्रोत्तरं योजनशतसहस्रमन्तरं भवति । ___ अधः सप्तमपृथिव्या उपरितनचरमान्तात् घनोदधेरधस्तनचरमान्तः एतद तःप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के अधस्तन चरमांत तक अन्तर एक लाख छत्तीस हजार योजन का है तमःप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनवात के उपरितन चरमान्त तक भी इतना ही एक लाख छत्तीस हजार योजन का अन्तर है तथा तमःप्रभा पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनवात के अधस्तन चरमान्त तक अन्तर असंख्घात लाख योजन का है। और इतना ही अन्तर अवका. शान्तर के उपरितन अधस्तन चरमान्त तक है। हे भदन्त ! अधःसप्तम पृथिवी के उपरितन चरमान्त से उसके अधस्तन तक कितना अन्तर है? उत्तर में प्रभु कहते हैं हे गौतम ! अधःसप्तमी पथिवी के उपरितन चरस्मान्त से इसी के अधस्तन चरमान्त तक अन्तर एक लाख आठ हजार योजन का है तथा अधासप्तमी पृथिवी के उपरितन चरमान्त से ઉત્તર હે ગૌતમ! તમ પ્રભા પૃથ્વીની ઉપરના અરમાન્તથી ઘનોદધિની નીચેના ચરમાત સુધીમાં એક લાખ છત્રીસ રંજાર એજનનું અંતર કહ્યું છે. પ્રશ્ન-તમપ્રભા પૂર્વાના ઉપરનાં ચરમાન્તથી ઘનવાતના ઉપરના ચરમાન્ત સુધીમાં આટલુ જ એટલે કે એક લાખ છત્રીસ હજાર એજનનું અંતર કહ્યું છે. તથા તમપ્રભા પૃથ્વીના ઉપરના ચરમાન્ડથી ઘનવાતની નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં અસંખ્ય લાખ જનતુ અંતર કહેલ છે. અને એટલું જ અંતર અવકાશાન્તર ના ઉપર અને નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં કહ્યું છે. પ્રશ્ન-હે ભગવદ્ અધઃસપ્તમી તમસ્તમાં પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્તથી એની નીચેના ચરમાંત સુધીમાં કેટલું અંતર કહ્યું છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! અધ:પ્તમી તમસ્તમાં પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાતથી તેની નીચેના ચરમાંત સુધીમાં એક લાખ અયાવીસ હજાર ચાજનનું અંતર કહેલ છે. પ્રશ્ન-અધા સપ્તમી તમતમાં પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાંતથી ઘનધિની Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ७.१० प्रतिपृथिव्या. उपर्यधस्तनचरमान्तयोरन्तरम् १५३ कियद् अबाधया अन्तर प्रज्ञप्तम् भगवानाह-हे गौतम ! अत्र धनोदधेः प्रमाण संमेलनेन अष्टाविंशतिसहस्रयोजनोत्तर योजनशतसहस्रमन्तरं प्रज्ञप्तम् । अध:सप्तम्याः पृथिव्या उपरितनचरमान्तात् घनवातस्योपरितनचरमान्तोऽपि अष्टाविशतिसहस्रोत्तरमेकं लक्षम् । घनोदधेरधस्तनचरमान्तस्य घनवातस्योपरितन. चरमान्तस्य च-द्वयोः परस्पर संलग्नत्वा तुल्यममाणस्वमिति ।। एवं घनवातस्याधस्तनचरमान्तस्य तनुवातावकाशान्तरयोरुपरितनाधरतनचरमान्तानां च प्रत्येकमसंख्येययोजनसहरमन्तरं भवतीति ज्ञातव्यम् ॥१०॥ सम्पति-रत्नप्रभादि पृथिवीनां परस्परमग्राग्रेन पृथिवीमपेक्ष्य पूर्दपूर्व पृथिव्या पाहल्यविस्ताराभ्यां तुल्यत्वादिकं प्रतिपादयन्नाद-इमाणं अंते' इत्यादि। मूलम्-इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला विसे लाहिया संखेजगुणा? वित्थरेण किं तुल्ला विसेसहीणा संखेजगुणहीणा ? गोयमा! इमाणं रयणघनोदधि का उपरितन चरमान्त कितने अन्तर में हैं ? हे गौतम एक लाख आठ हजार योजन का है। अधासप्तम पृथिवी के उपरितन चरमान्त से घनोदधि के अधस्तन चरमान्त तक अन्तर एक लाख अठाईस हजार योजन का है अधःसप्तमी पृथिवी के उपरितन चारमान्त तक भी अन्तर एक लाख अठाईस हजार योजक का है। अधिसप्तमी पृथिवी के उपरितन चरमान्त से धनवात के अधस्तन चरमान्त तक अन्तर असं. रूपात लाख योजन का है। तथा इतना ही अन्तर तलुवात के उपरितन अधस्तन चरमान्त तक है इसी प्रकार अवकाशान्तर के भी उपरितन अवस्तन चरमान्त तक भी असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। ऐसा स्पष्टीकरण इस कथन का है। सूत्र ॥१०॥ ઉપરના ચરમાંત સુધીમાં કેટલા જનનું અંતર કહેલ છે ? ઉત્તર- હે ગૌતમ એક લાખ અઠયાવીસ હજાર એજનનું અંતર કહેલ છે. પ્રશ્ન-અધઃસપ્તમી તમસ્તમાં પ્રથ્વીની ઉપરની ચરમાનતથી ઘને દધિની નીચેના ચરમાંત સુધીમાં કેટલું અંતર કહેલ છે ? ઉત્તર–હે ગૌતમ ! એક લાખ અઠયાવીસ હજાર એજનનું અંતર કહ્યું છે. અધઃસપ્તમી પૃથ્વીની ઉપરના ચરમાન્ત સુધીમાં પણ અસંખ્યાત લાખ એજનનું અંતર કહ્યું છે. તથા એટલું જ અંતર તનવાતની ઉપરના અને નીચેના ચરમાંત સુધીમાં કહેલ છે. આજ પ્રમાણે અવકાશાન્તરની ઉપરના અને નીચેના ચરમાન્ત સુધીમાં પણ અસંખ્યલાખ જનનું અંતર સમજવું. એ પ્રમાણેનું આ કથનથી સ્પષ્ટી ३२८३ रे छे. ॥ २ १० ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जीवामिगमस्ये प्पभा पुढची दोचं पुढत्रि पणिहार वाहल्लेणं नो तुल्ला विसेसाहिया नो संखेज्जगुणा, विस्थारेणं नो तुला विसेलहीणा णो संखेजगुणहीणा । दोच्चा णं भंते ! पुढवी तञ्च पुढीव पणिहाय बाहल्लेणं कि तुल्ला एवं देव भागियध्वं । एवं तच्चा चउत्थी पंचमीछट्री । छट्री णं संते! पुढवी तत्तलं पुनर्वि पणिहाय बाहल्लेणं कि तुल्ला वित्तमाहिया संखेनगुणा एवं चैव भाणियव्वं । सेवं भंते ! लेवं संते ! ॥ __णेरइय उद्देलओ पढमो ॥सू० १९॥ छाया--इयं खलु भदन्त । रत्नम मा पृधिती द्वितीयां पृथिवी प्रणिधाय बाहल्येन किं तुल्या विशेषाधिका संख्येषगुणा ? विस्तरेण किं तुल्या विशेषडीनासंख्येयगुणहीना ? गौम ! इयं खलु रत्नप्रभा पृथिवी हितीयां पृथिवीं प्रणिधाय वाहल्येन नो तुल्या विशेषाधिका नो संख्यगुणा, विस्तारेण नो तुल्या विशेषहीना नो संख्येवगुणहीना। द्वितीया खलु भदन्त ! पृथिवी तृतीयां पृथिवीं पणिधाय वाहल्येन कि तुल्या एवमेव मणितव्यम् । एवं तृतीया चतुर्थी पञ्चमी पष्ठी। षष्ठी खल मदन्त ! पृथिवी सप्तमी पृथिवीं प्रणिधाय बाहल्येन कि तुला विशेपा. धिका संख्येयगुणा एवमेव मणिल्व्यम् । तदेवं भदन्न ! तदेव भदन्त ! ॥मू०१॥ ___टीका-'इमा णं मंते ! रयणपमा पुढी' इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी 'दोच्चं पुर्वि पणिहाय' द्वितीयं शर्करापृथिवीं मणिधाय-याश्रित्य द्वितीय अब रत्नप्रभादि पृशिधियों का परस्पर अगली-गली पृधिदियों को लेकर पूर्व पूर्व की पृथिवी का वाहल्य और विस्तार से तुल्यत्यादि प्रतिपादन धारते हैं 'इमा णं संते ! रयणप्पला पुढवी दोच्चं पुढत्यादि सू०११॥ टीफाई-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'इमा णं भंते ! रथणया पुढची' हे अदन्त ! यह पत्तनमा वृधिवी 'दोच्चं पुढवि હવે રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વી પરસ્પર પછી પછીની પૃથ્વીઓને લઈને પહેલાં પહેલાંની પૃથ્વીનું બાહલ્ય અને વિસ્તારથી સમાનપણાનું પ્રતિપાદન કરે છે, 'इमाण भंते ! रयण पभा पुढली दोच्च पुढवि' या स -मामा गीतमस्वाभीये प्रभुन को पच्यु छ है 'इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी' 3 मापन ! म २नमा पृथ्वी 'दोच्चं पुढविं पणिहाय' Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ स्. ११ सप्तापि पृथ्वीनां परस्परापेक्षया बाहल्यम् १४५ पृथिव्यपेक्षयेत्यर्थः ' बाहल्ले णं' बाहल्येन बहलताया भावो बाहल्यै पिण्डभाव स्तेन पिण्डभावात्मकबाहल्येन 'किं तुल्ला विसेसाहिया संखेज्जगुणा' कि तुल्या - सदृशी विशेषाधिका संख्येयगुणाधिका वा भवतीति बाल्य मधिकृत्य प्रश्न त्रयम् । ननु रत्नप्रभापृथिवी अशीति सहस्रोत्तरैक शतसहस्र योजन बाहल्या, शर्करा - पृथिवी च द्वात्रिंशत्सहस्त्रो त रेक रात सहस्त्रयोजनबाहल्येति सर्वपृथिवीनां वाढल्य पूर्वसूत्रेऽनुपदमेव भगवता प्रदर्शितमिति सत्यपि अर्थावगमेऽस्य वाल्यविषयक प्रश्नत्रयस्य नैरर्थक्यमेव भवतीति सत्यम् प्रश्नो द्विविधो भवति-ज्ञ प्रश्नः अज्ञ प्रश्नश्च ज्ञपश्नः स प्रोच्यते, यः स्वस्यार्थावगमे सभ्यपि मन्दबुद्धि विनेयजनव्यामोहापनोदाय क्रियते, अज्ञ प्रश्नच सः, या स्वस्यानर्थावगये सति वज्जिज्ञासार्थ पणिहाय' द्वितीय शर्करा प्रभा पृथिवी को आश्रित करके 'वाल्लेणं किं तुल्ला विसेलाहिण, संखेज गुणा " घोटाई में क्या परावर है ? या विशेषाधिक है ? या संख्यात गुणी अधिक है ? वहाँ कोई शंका करता है कि रत्नप्रभा पृथिवी एक लाख अस्सी हजार योजन बाहल्य वाली है और शर्कराप्रभा पृथिदी एक लाख बत्तीम्म हजार योजन की है, इस प्रकार सब पृथिवियों का वाहत्य इसी सूत्र के पूर्व सूत्र में भगवान ने बतला दिया है तो इस विषय का अर्थबोध होने पर भी ये बाहल्य विषय के तीन प्रश्न यहां निरर्थक होते हैं। हां तुम्हारा यह कथन ठीक हैं परन्तु प्रश्न दो प्रकार का होता है- एक ज्ञप्रश्न और दूसरा अज्ञ प्रश्न, ज्ञप्रश्न वह कहलाता है जो अपने जानते हुए भी समीपस्थ मन्द बुद्धि किं तुल्ला विसेसाहिया विशेषाधि है ? अथवा કરેકે રત્નપ્રભા પૃથ્વી मील शर्करायला पृथ्वीने माश्रय उरीने 'बाहल्लेणं संखेन्जगुणा' होणाभां शु मरोभर छे ? अथवा સંખ્યાતગણી વધારે છે ? આ સબંધમાં કાઇ શકા એક લાખ એ'સી હજાર ચાજન બાલ્યવાળી છે, અને શર્કરાપ્રભા પૃથ્વી એક લાખ ખત્રીસ હજાર ચેાજન માહલ્યની છે. આ રીતે બધી પૃથ્વીયાનુ બાહુલ્ય આ સૂત્રની પહેલા સૂત્રમાં ભગવાને બતાવેલ છે. તે આ વિષયને મેાધ થવા છતા પણુ જે ખાહુલ્યના સંબંધમાં ત્રણ પ્રશ્ન કરવામાં આવ્યા છે તે અહિયાં નિરથ ક જણાય છે. ઉત્તર-હા તમારૂ આ કથન ખરાमर छे. परंतु प्रश्नो मे अहारना हाथ है. ये 'ज्ञ प्रश्न भने जीले 'ज्ञ' પ્રશ્ન' ન પ્રશ્ન એ કહેવાય છે કે જે પાતે જાણવા છતાં પણ બધા સમીપમાં રહેવાવાળા મંદ બુદ્ધિવાળા વિનયશીલ શિષ્યની શંકાના નિવારણુ માટે પૂછવામા जी० १९ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमस्ये क्रियते। अत्रेद प्रश्नत्रयं ज्ञत्रिपकं मन्दबुद्विविनेयजनबोधार्थ गौतमेन कृतमिति नात्रास्य प्रश्नत्रयस्य नैरर्थवयामिति । कथमेतज्ज्ञायते यदेतत् प्रश्न त्रयं जविषयकम् ? इति चेत् स्वावबोधाय तत्रैवाग्रे घनान्तरोपन्यासात् ।। __अथ विस्तारविपये प्रश्न माह-तथाहि-'वित्वरेणं' विस्तरेण विष्कम्भेण 'तुल्ला विसेसहीणा संखेनगुणहोणा' तुल्या-शी विशेपहीना संख्येयगुणहीना वा भवतीति प्रश्नः, । भगवानाह ‘गोयमा' इत्यादि, 'गोत्रमा' हे गौतम ! 'इमा णं स्यणप्पसा पुढची' इयं खलु रन्नपमा पृथिवी 'दोच्चं पुढवि पणिहाय' द्वितीयां शर्करापमा पृथिवीं पणिधाय-माश्रित्य तदपेक्षयेत्यर्थः । 'वाहल्लेण' विनीत शिष्य की शंका निवारण के लिये पूछा जाय । और जो अपने नहीं जानते हुए जिज्ञासा बुद्धि से पूछा जाय वह अज्ञ प्रश्न कहा जाता है। यहां जो गौतम स्वामी ने न किया है वह मन्द बुद्धि विनेय शिष्य के जानने के लिये किया गया होने ले यह ज्ञ प्रश्न है इसलिये यह निरर्थक नहीं है । यह कैसे जाना जाय कि यह ज्ञ प्रश्न है ? इसका उत्तर यह है कि-अपने जानने के लिये यहीं पर भागे दूसरा प्रश्न विस्तार जानने के लिये पूछा जा रहा है इससे सिद्ध होता है कि यह ज्ञ प्रश्न है। अप विस्तार के विषय में कहते है- 'वित्वरेणं किं तुल्ला, विसेसहीणा, संखेज्ज गुण हीणा' तथा विस्तार की अपेक्षा यह उस से तुल्य है ? या विशेष हीन है ? या संख्याल गुणहील है ? प्रभु इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं-'गोयमा' इमा परधनपरभा पुढकी 'हे गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथिवी 'दोच्च पुढदि पणिहाय' द्वितीय पृथिवी की अपेक्षा આવે. અને જે પિતે ન જાણવા થી જીજ્ઞાસા-જાણવાની ઈચ્છાથી પૂછવામાં આવે તે “અજ્ઞ' પ્રશ્ન કહેવાય છે. અહિયાં ગૌતમસ્વામીએ જે પ્રશ્ન પૂછેલ છે, તે મંદ બુદ્ધિ વિનય શીલ શિષ્યની સમજ માટે પૂછેલ હોવાથી આ પ્રશ્ન '' प्रश्न छे. तेथी मा ४थन नि२४ नथी. એ કેવી રીતે સમજી શકાય કે ઓ “જ્ઞ પ્રશ્ન છે? આ પ્રશ્નને ઉત્તર એ છે કે પિતાને સમજવા માટે અહિંયાં જ આગળ બીજો પ્રશ્ન વિસ્તારના સંબંધમાં પૂછવામાં આવેલ છે. તેથી નિશ્ચિત થાય છે કે આ “જ્ઞ પ્રશ્ન છે व विस्तारना समयमा वामां आवे छे. 'वित्थरेण किंतुल्ला ! विसेसहीणा, स खेज्जगुणहीणा' तथा विस्तानी अपेक्षाथी 2 तनी परामर છે ? અથવા વિશેષ હીન છે ? કે સંખ્યાત ગુણથી રહિત છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४९ छे है 'गोयमा ! इमाणं रयणप्पभा पुढची' हे गौतम ! ! २नमा पृथ्वी 'दोच्च पुढवि पणिहाय' भी पृथ्वी ३२ता 'वाहल्लेणे णो तुल्ला' Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.१२ सप्तापि पृथ्वीनां परस्परापेक्षया बाहल्यम् १४७ वाहल्येनापि पिण्ड मावेन ‘णो तुल्ला-सदृशी न भवति रत्नप्रभाया अशीतिसहस्रोतरलक्षयोजनमानत्वात् शर्करामभायाश्च द्वात्रिंशत्सहस्रोत्तरलक्षयोजनमानत्वात् किन्तु शर्करामभापेक्षया रत्नपमा बाल्येन विशेषाधिका भवति, किन्तु 'नों संखेज्जगुणा' संख्येयगुणाधिका न भवति रत्नममाया अष्टचत्वारिंशत्सहस्रयोजनमात्रस्यैवाधिक्येन संख्येयगुणत्वाभावात् इति । 'वित्थारेणं नो तुल्ला' रत्नपमा पृथिवी शर्करा प्रभापृथिव्यपेक्षया विस्तारेण विष्कम्भेनापि न तुल्या किन्तु'दिसेसहीणा' विशेषहीना किन्तु 'णो संखेज्जगुणहीणा संख्येयगुणहीना न, अस्या हीनत्वे संख्येयगुणत्वाभावाद, प्रदेशादि वृद्धया प्रवर्द्धमाने तावतिक्षेत्रे शर्करामभाया एव वृद्धिसंभवादिति 'दोच्चा णं भंते ! पुढी' द्वितीया खल्लु शर्कराममा 'बाहल्लेण णो तुल्ला' मोटाई में बराबर नहीं है क्योंकि रत्न प्रभा पृथिवी की सोटाई एक लाख अस्सी हजार योजना की है और शर्करा प्रभा की मोटाई एक लाख बत्तील हजार योजल की है अतः आपस में दोनों समानता नहीं है प्रत्युत्त शर्करा प्रभा की अपेक्षा रत्नप्रभा पृथिवी ही मोटाई में विशेषाधिक है यह कि संख्यात गुणी अधिक उसकी अपेक्षा इललिये नहीं हो सकती है कि शर्करामभा की अपेक्षा इसकी मोटाई केवल अडतालीस हजार योजन ही अधिक है 'विस्थरेण नो तुल्ला' रत्नप्रभा पृथिवी शर्कराप्रभा की अपेक्षा विस्तार में भी बराबर नहीं हैं किन्तु वह विशेष हीन ही है 'णो संखेज्ज गुणहीणा' इसलिये वह संख्यात गुण हीन नहीं है क्योंकि प्रदेश आदि की वृद्धि से प्रवर्धमान उतने ही क्षेत्र कार्करा प्रभा की वृद्धि होती है। दोच्चा भंते ! पुढची तच्चं पुढविं पणिहाय किं बाहल्लेण तुल्ला પહોળાઇથી બરાબર નથી. કેમકે રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પહેળાઈ એક લાખ એ સી હજાર જનની છે. અને શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીની પહોળાઈ એક લાખ બત્રીસ હજાર જનની છે. તેથી પરસ્પરમાં બન્નેમાં સરખાપણું નથી. બલકે શર્કરા પ્રભા કરતાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પહોળાઈ વિશેષાધિક છે. આ કારણથી તેના કરતાં સંખ્યાત ગણી વધારે તે થઈ શકતી નથી. શર્કરપ્રભા કરતાં તેની પહોળાઈ ३१७ मतालीम M२ या qधारे छे. 'वित्थरेण' नो तुल्ला' २त्नमा પૃથવી શર્કરપ્રભા પૃથ્વી કરતાં વિસ્તારમાં પણ ખબર નથી. પરંતુ તે વિશેષ डीन छ. 'णो संखेज्जगुणहीणा' तथा ते ज्यात गुनडीन नथी. भो પ્રદેશ વિગેરેની વૃદ્ધિથી વધતા એટલાજ ક્ષેત્રમાં શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીની વૃદ્ધિ થાય છે 'दोच्चा णं भंते | पुढवि पणिहाय किं बाहल्लेणं तुल्ला एवं चेव भाणि Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमध्ये क्रियते। अत्रेदं प्रश्नत्रयं ज्ञविषकं मन्दबुद्विविनेयजनबोधार्य गौतमेन कृतमिति नावास्य प्रश्नत्रयस्य नरर्थवयामिति । अयमेतज्ज्ञायते यदेतत् प्रश्न त्रयं जविषयकम् ? इति चेत् स्वावबोधाय तत्रैवाग्रे पटनान्तरोपन्यासाद । ___अथ विस्तारविपये प्रश्न माह-तथाहि -'वित्थरेणं' विस्तरेण विष्कम्भेण 'तुल्ला विसे सहीणा संखेनगुणहोणा' तुल्या-महशी विशेपहीना संख्येयगुणहीना चा भवतीति प्रश्नः । भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इमा णं रयणप्पमा पुढती' इयं खलु रत्नममा पृथिवी 'दोच्च पुढवि पणिहाय' द्वितीयां शर्कराममा पृथिवीं पणिधाय-माश्रित्य तदपेक्षयेत्यर्थः । 'वाहल्लेणे' विलीन शिष्य की शंका निवारण के लिये पूछा जाय । और जो अपने नहीं जानते हुए जिज्ञासा बुद्धि से पूछा जाय वह अन प्रश्न कहा जाता है। यहां जो गौतम स्वामी ने प्रश्न किया है वह मन्द बुद्धि विनेय शिष्य के जानने के लिये किया गया होने ले यह ज्ञ प्रश्न है इसलिये यह निरर्थक नहीं है । यह कैसे जाना जाय कि यह ज्ञ प्रश्न है ? इसका उत्तर यह है कि-अपने जानने के लिये यहीं पर भागे दूसरा प्रश्न विस्तार जानने के लिये पूछा जा रहा है इससे सिद्ध होता है कि यह ज्ञ प्रश्न है । अय विस्तार के विषय में कहते है- 'वित्धरेणं किं तुल्ला, विसेसहीणा, संखेज्ज गुण हीणा' तथा-बिस्तार की अपेक्षा यह उस से तुल्य है ? या विशेष हीन है ? या संख्याल गुणहीन ? प्रभु इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं-'गोयना' इमा पस्यणपरभा पुढवी 'हे गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथिवी 'दोच्च पुढपिणिहाय बितीय दृथिवी की अपेक्षा આવે. અને જે પિતે ન જાણવા થી જીજ્ઞાસા-જાણવાની ઈચ્છાથી પૂછવામાં આવે તે “અજ્ઞ પ્રશ્ન કહેવાય છે. અહિયાં ગૌતમસ્વામીએ જે પ્રશ્ન પૂછેલ છે, તે મંદ બુદ્ધિ વિનય શીલ શિષ્યોની સમજ માટે પૂછેલ હોવાથી આ પ્રશ્ન '' प्रश्न छे. तेथी मा ४थन नि२५४ नथी. એ કેવી રીતે સમજી શકાય કે ઓ “જ્ઞ પ્રશ્ન છે? આ પ્રશ્નને ઉત્તર એ છે કે પિતાને સમજવા માટે અહિંયાં જ આગળ બીજો પ્રશ્ન વિસ્તારના સંબંધમાં પૂછવામાં આવેલ છે. તેથી નિશ્ચિત થાય છે કે આ “જ્ઞ પ્રશ્ન છે 6 विस्तारना समयमा उपामा भावे छे. 'वित्थरेण कितुल्ला ! विसेसहीणा, स खेज्जगुणहीणा' तथा विस्तानी अपेक्षाथी से तनी सम२ છે ? અથવા વિશેષ હીન છે કે સંખ્યાત ગુણથી રહિત છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु है 'गोयमा ! इमाणं रयणप्पभा पुदी' है गौतम ! भा २०मा पृथ्वी 'दोच्च पुढविं पणिहाय' भी पृथ्वी १२०i 'वाहल्लेणं णो तुल्ला' Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 प्रद्योतिका टीका प्र. ३ . १२ संप्तापि पृथ्वीनां परस्परापेक्षया बाहल्यम् १४७ वाल्येनापि पिण्डपावेन 'णो तुल्ला - सदृशी न भवति रत्नप्रभाया अशीतिसहखोतरलक्षयोजन मानत्वात् शर्कराप्रमायाश्व द्वात्रिंशत्सहस्रो तरलक्षयोजनमानत्वात् किन्तु शर्कराप्रभापेक्षया रत्नपमा बाहल्येन विशेषाधिका भवति, किन्तु 'नों संखेज्जगुणा' संख्येयगुणाधिका न भवति रत्नपमाया अष्टचत्वारिंशत्सहस्रयोजनमात्रस्यैवाधिक्येन संख्येयगुणत्वाभावात् इति । 'विस्थारेणं नो तुल्ला' रत्नप्रभा पृथिवी शर्करा प्रभापृथिव्यपेक्षया विस्तारेण विष्कम्भेनापि न तुल्या किन्तु - 'दिसेसहीणा' विशेषहीना किन्तु 'णो संखेज्जगुणहीणा' संख्येयगुणहीना न, अस्या हीनत्वे संख्येयगुणत्वाभावाद, प्रदेशादि हृदया मवर्द्धमाने तावतिक्षेत्रे शर्करा प्रभाया एव वृद्धिसंभवादिति 'दोच्चा णं भंगे ! पुढची' द्वितीया खलु शर्करामभा 'बाहल्लेण णो तुला' मोटाई में बराबर नही है क्योंकि रहन प्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है और शर्करा प्रभा की मोटाई एक लाख बत्तील हजार योजन की है अतः आपस में दोनों में समानता नहीं है प्रत्युत शर्करा मला की अपेक्षा रत्नप्रभा पृथिवी ही मोटाई में विशेषाधिक है यह कि संख्यात गुणी अधिक उसकी अपेक्षा इसलिये नहीं हो सकती है कि शर्करा प्रभा की अपेक्षा इसकी मोटाई केवल अडतालीस हजार योजन ही अधिक है 'विस्थरेण नो तुला' रत्नप्रभा पृथिवी शर्कशप्रभा की अपेक्षा विस्तार में भी बराबर नहीं है किन्तु वह विशेष हीन ही है 'णो खेज्ज गुणहीना' इसलिये वह संख्यात गुण हीन नहीं है क्योंकि प्रदेश आदि की वृद्धि से प्रवर्धमान उतने ही क्षेत्र में शर्करा प्रभा की वृद्धि होती है । दोनाणं भंते ! पुढची तच्च पुढचं पणिहाय कि बाहल्लेणं तुला પહેાળાઈથી ખરાખર નથી. કેમકે રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પહેઠળાઇ એક લાખ એ સી હજાર ચાજનની છે. અને શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીની પહેાળાઇ એક લાખ ખત્રીસ હજાર ચેાજનની છે. તેથી પરસ્પરમાં બન્નેમાં સરખાપણુ નથી ખલ્કે શરા પ્રભા કરતાં રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પડે,ળઇ વિશેષાધિક છે. આ કારણથી તેના કરતાં સખ્યાત ગણી વધારે તે થઈ શક્તી નથી. શક શપ્રભા કરતાં તેની પહેાળાઇ ठेवण अडतासीन हुन्नर योजन वधारे छे. 'बित्थरेण' नो तुल्ला' रत्नप्रभा પૃથ્વી શર્કરાપ્રભા પૃથ્વી કરતાં વિસ્તારમાં પશુ ખરેખર નથી, પરંતુ તે વિશેષ डीन छे. 'जो सखेज्जगुणहीणा' तेथी ते सख्यात गुबुद्दीन नथी. भ પ્રદેશ વિગેરેની વૃદ્ધિથી વધતા એટલાજ ક્ષેત્રમાં શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીની વૃદ્ધિ થાય છે 'दोच्चाणं भंते । ढषि पणिहाय किं बाहल्लेणं तुल्ला एवं चैव भाणि Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ जीवाभिगमसूत्रे पृथिवी भदन्त ! 'तच्चं पुढवि पणिहाय' तृतीयां वालुकाममा पृथिवीं प्रणिधायअश्रित्य 'किं वाहल्लेणं तुल्ला एवं चेव माणियचं किं वाहल्येन पिण्डमावेन तुल्या, एवमेव मणितव्यम् यथा द्वितीयां पृथिवीमाश्रित्य प्रथमाया स्तुल्यत्वादि कथनं कृतं तथैवात्रापि सर्व वक्तव्यम् तथा-हे भदन्त ! तृतीयां वालकाममा पृथिवीमाश्रित्य शर्कराममा पृथिवी किं वाहल्येन तुल्या विशेषाधिका संख्येय. गुणाधिका वा तथा द्वितीया पृथिवी तृतीयां पृथिवीमपेक्ष्य विस्तारेण किं तुल्या विशेषगुणहीना संख्येयगुणहीना वा भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-हे गौतम ! इयं द्वितीया शर्कराप्रमा पृथिवी तृतीया माश्रित्य वाहल्येन न तुल्या किन्तु विशेषा. धिक्का न तु संख्येयगुणाधिका, शर्करा पृथिवी बाहल्येन द्वात्रिंशत्महत्रोत्तर लक्षयोजनममाणा भवति वालकापमा तु अष्टाविंशतिसहस्रोत्तरलक्षयोजन प्रमाणा, अतः बालुकापमावाहल्यापेक्षया शर्कराममा वाइल्यस्य न तुल्यत्वम् किन्तु विशेषाधिकत्वमेव नतु संख्येयगुणाधिकत्वमिति । तथा विस्तारेगापि शर्करामभा एवं चेव भाणिय 'हे भदन्त ! द्वितीय शराममा पृथिवी क्या तृतीय वालुका प्रभा पृथिवी की मोटाई की अपेक्षा में बराबर है ? रत्नप्रभा की तरह यहां भी कहना चाहिये या विशेषाधिक है ? या संख्यात गुणी अधिक है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते है-हे नौतम! तृतीय बालुका प्रभा पृथियो की अपेक्षा द्वितीय शर्करा प्रमा पृथिवी घरायर नहीं है किन्तु विशेषाधिक है द्वितीय पृषिधी की मोटाई तृतीय पृधिवी की अपेक्षा संख्यात गुणी नहीं है इसी तरह विस्तार में भी वह तुल्य नहीं हैं विशेष हीन है एतावता यह संख्यात गुण हीन नहीं है शर्करा प्रभा को मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की है और वालुका प्रभा यव्व' 8 मापन् पी शरामा पृथ्वी, शु १ श्री वासुप्रभा पृथ्वीनी પહોળાઈની અપેક્ષાએ બરોબર છે ? રત્નપ્રભા પૃથ્વી પ્રમાણેનું કથન આ સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ અથવા વિશેષાધિક છે? કે સંધ્યાત ગુણ અધિક છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! ત્રીજી વાલુકા પ્રભા પૃથ્વી કરતાં બીજી શર્કરામભા પૃથ્વી ખબર નથી. પરંતુ વિશેષાધિક છે. બીજી પૃથ્વીની પહેળાઈ ત્રીજી પૃથ્વી કરતાં સંખ્યાતગણી નથી. એજ પ્રમાણે વિરતારના સંબંધમાં પણ તે તુલ્ય નથી વિશેષહીન છે. એથી જ તે સંખ્યાત ગુણહીન નથી. શર્કરાપ્રભ પૃથ્વીની પોળાઈ એક લાખ બત્રીસ હજાર જનની છે. અને વાલુકામા પૃીની પહેળાઈ એક લાખ અઠયાવીસ હજાર જનની છે. તેથી પહોળાઈની અપેક્ષાથી શર્કરામભા પૃથ્વીમાં વાલુકા Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ . ११ सप्तापि पृथ्वीनां परस्परापेक्षया बाहल्यम् १४९ बालुकाप्रभाया विस्तारापेक्षया नो तुल्या, किन्तु विशेषहीना संख्येयगुणहीना । ' एवं तच्चा चउत्थी पंचमी छट्ठी' एवं तृतीय चतुर्थी पञ्चमी षष्ठी, अयं भाव:हे भदन्त ! तृतीया बालकाममापृथिवी चतुर्थी पङ्कप्रभा माश्रित्य बाहल्येन किं तुल्या विशेषाधिका संख्येयगुणाधिका वा तथा विस्तारेण तुल्या विशेषगुणहीना संख्येयगुणहीनावेति प्रश्नः, भगवानाह - हे गौतम ! इयं तृतीया वालुकाममा पृथिवी चतुर्थी पङ्कममामाश्रित्य बाहल्येन न तुलया किन्तु विशेषाधिका न तु संख्येयगुणाधिका बालुकाममा तृतीया पृथिवी बाहल्येनाष्टाविंशति सहस्रोत्तरलक्षयोजनममाणा भवति, पङ्कपमा चतुर्थी पृथिवी तु विंशति सहस्त्रोत्तरलक्षयोजनममाणा भवति अतो न तुलया किन्तु विशेषाधिका, न संख्येयगुणाधिकेति । हे भदन्त ! चतुर्थी प्रमापृथिवी पञ्चमीं धूमप्रभा पृथिवीमाश्रित्य बाहल्येन कि तुल्या विशेषाधिका संख्येयगुणाधिका वा तथा विस्तारेण तुल्या विशेषगुणहीना वा ? हे गौतम! इयं चतुर्थी पङ्कममा पञ्चमीं धूमममा माश्रित्य बाहल्येन न तुल्या किन्तु विशेषाधिका न संख्येयगुणाधिका । चतुर्थपृथिव्याः विशतिसहस्रो त्तरलक्षयोजन मानत्वात् पञ्चम्यास्तु अष्टादशसहस्रो तरलक्षयोजनमानत्वाद तथा विस्तारेण पञ्चमी पृथिव्यपेक्षयाऽपि चतुर्थी पङ्कमभा न तुल्या किन्तु विशेषहीना की मोटाई एक लाख अठाईस हजार योजन की है इसलिये मोटाई की अपेक्षा शर्करा प्रभा में बालुका प्रभा की अपेक्षा विशेषाधिकता ही आती है संख्यात गुणाधिकता या तुल्यता नहीं आती है । तथा-विस्तार की अपेक्षा भी शर्करा प्रभा वालुका प्रभा की अपेक्षा तुल्य या संख्यात गुण अधिक नहीं है किन्तु विशेष गुणाधिक ही है । 'एवं लच्चा चन्थी, पंचमी छट्ठी ' इसी तरह चतुर्थी की अपेक्षा तृतीय पंचमी की अपेक्षा चतुर्थी छठ की अपेक्षा पंचमा, और सातवीं की अपेक्षा छठी पृथिवी विशेषाधिक हैं । तुल्य या संख्यात गुगांधिक नहीं हैं। इन पृथिवियों की मोटाई इस प्रकार से हैं પ્રભા પૃથ્વી કરતા વિશેષાધિક પણુ,જ આવે છે. સંખ્યાત ગુણુ અધિક પણું અથવા તુષ્ટપણું', આવતું નથી. તથા વિસ્તારની અપેક્ષાથી પણ શરાપ્રભા પૃથ્વી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વી કરતાં તુલ્ય અથવા સંખ્યાતગુણુ અધિક નથી. પરંતુ विशेष गुणाधिक ' छे. 'एव' तच्चा, चउत्थी पंचमी छुट्टी' मे४ प्रभाषे ચેાથી પૃથ્વી કરતાં ત્રીજી, પાંચમી પૃથ્વી કરતા ચેથી છટ્ઠી પૃથ્વી કરતાં પાંચમી અને સાતમી પૃથ્વી કરતાં છઠ્ઠી પૃથ્વી વિશેષધિક જ છે. તુલ્ય અથવા સખ્યાત શુષુ ષિક નથી. આ પૃથ્વીચેની પહેળાઈ આ પ્રમાણે છે, Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगम न संख्येण हीना । हे भदन्व ! पञ्चमी धूमघमा पष्ठीं तमः प्रमामाश्रित्य बाहल्येन कि तुल्या विशेषाधिका संख्येयगुणाधिका वा तथा विस्तारेण तुल्या विशेषहीना संख्येयगुणहीना वा हे गौतम! इयं पञ्चमी धूपममा वाइल्येन पष्ठों तमः ममामाश्रित्य न तुल्या किन्तु विशेषाधिका न संख्येयगुणाधिका पञ्चम्या अष्टादशसहस्रोत्तरलक्षयोजन प्रमाणत्वात् षष्ठ्यास्तु षोडशहस्त्रोत्तरलक्षयोजन मानत्वात् तथा विस्तारेण न तुलया किन्तु विशेषहीना न संख्येयगुणहीनेति । अथ षष्ठ पृथिवीविषये सूत्रकारः स्वयमाह - 'छट्टी णं भंसे' इत्यादि, 'छट्टीणं संते ! पुढची' पष्ठी खलु भदन्द ! तमःगमा पृथिवी 'सत्तमं पुढर्वि पणि दाय' सप्तमीं तमस्तम ममा पृथिवीं प्रणिधाय - आश्रित 'बादल्लेणं कितुल्ला विसे साहिया संखेज्जगुणा' बाहल्येन कि तुल्या विशेषाधिका संख्येयगुणा वा 'एवं चैत्र भणियच्चे' एवमेव पूर्ववदेव मश्नोत्तरादिकं भणितव्यम् तथाहि - विस्तारेण तुल्या विशेषहीना वा ? हे गौतम ! इयं पष्ठी तमःप्रमा पृथिवी सप्तमीमपेक्ष्य वाहल्येन न तुल्या किन्तु विशेषाधिका न संख्येयगुणाधिका पष्टचाः पृथिव्याः रत्नप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है. द्वितीय पृथिवी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की है. तृतीय पृथिवी की मोटाई एक लाख अठाईस हजार योजन की है. चतुर्थ पृथिवी की मोटाई एक लाख बीस हजार योजन की है. पांचवीं पृथिवी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन की है. छठवीं पृथिवी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन की है. सातवीं पृथिवी की मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है. इस पर से यह अच्छी तरह से जाना जा सकता है कि द्वितीय पृथिवी की अपेक्षा से प्रथम पृथिवी विशेषाधिक है, तृतीय की अपेक्षा રત્નપ્રભા પૃથ્વીની પહેાળાઈ એક લાખ એ સી હજાર ચેાજનની છે. ખીજી શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીની પહેાળાઈ એક લાખ બત્રીસ હજાર ચાજનની છે. ત્રીજી પૃથ્વોની પહેાળાઇ એક લાખ અઠયાવીસ હજાર ચેાજનની છે. ચેાથી પૃથ્વીની પહેાળાઇ એક લાખ વીસ હજાર ચેાજનની છે, પાંચમી પૃથ્વીની પહેાળઈ એક લાખ અઢાર હજાર ચેાજનની છે. છઠ્ઠી પૃથ્વીની પરાળાઇ એક લાખ સેાળ હજાર ચાજનની છે સાતમી પૃથ્વીની પહેાળાઇ એક લાખ આઠ હજાર યોજનની છે. આના ઉપરથી એ સારી રીતે સમજી શકાય છે કે ખીજી પૃથ્વી કરતાં પહેલી પૃથ્વી વિશેષાધિક છે, ત્રીજી પૃથ્વી કરતાં ખીજી પૃથ્વી વિશેષ ષિક છે Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.११ सप्तापि पृथ्वीनां परस्परापेक्षया बाहल्यम् १५१ पोडशसहस्रोत्तरलक्षयोजनमानत्वात् सप्तम्यास्तु अष्टसहस्रोत्तरलक्षयोजनमानत्वात् तथा विस्तारेण न तुल्या किन्तु विशेषहीनान संख्येयगुणहीनेति । "सेवं भंते ! सेव भंते ! त्ति' खदेव भदन्त ! तदेवं भदन्त ! इति, हे महन्त ! रत्नपभादीनां पृथिवीनां प्रमाणे यद् देनानुपियेण कथित्तम् तत्सर्वम् एमे र आप्तवचनस्य तथैव सत्यस्वादिति कथयित्वा गौनो भगवन्तं वन्दते नमस्यति वन्दित्वा नरस्यित्वा संगमेन तपप्ता आत्मानं भावयन विहरतीति ।।११।। इति श्री विश्वविख्यात-जगदल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा: कलिनुललितकलापालापकाविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूषित -के ल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य - जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालचतिविरचितस्य श्री जीवाभिगमसूत्रस्य प्रमेयद्योतिका ख्यायां व्याख्यायां तृतीयपतिपत्तों प्रथमोद्देशकः समाप्तः॥ द्वितीय विशेषाधिक हैं-चतुर्थी की अपेक्षा तृतीय विशेषाधिक है पंचमी की अपेक्षा चतुर्थी पृधियी विशेषाधिक है छठी पृथिवी की अपेक्षा, पांचवीं पृथिवी विशेषाधिक है। एवं सातवीं की अपेक्षा छठी विशेषाधिक है और विस्तार की अपेक्षा जे तुल्प नहीं हैं किन्तु विशेष हीन है वह भी संख्यात गुण हीन नहीं है। यही इस स्त्र का कथन है । सूत्र ॥१०॥ जैनाचार्य जैनधर्मक्षिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'जीवाभिगमन्त्री प्रलेयद्योति का नामक व्याख्या में ॥ तृतीय प्रतिपत्ति का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥३-१॥ ચેથી પૃથ્વી કરતાં ત્રીજી પૃથ્વી વિશેષાધિક છે. પાંચમી પૃથ્વી કરતાં ચોથી પૃથ્વી વિશેષ ધિક છે. છઠી પૃી કરતાં પાંચમી પૃથ્વી વિશેષાધિક છે અને સાતમી પૃથ્વી કરતાં છઠી પૃથ્વી વિશેષાધિક છે. અને વિસ્તારની અપેક્ષાથી તુલ્ય નથી પરંતુ વિશેષ હીન છે. તે પણ સંખ્યાત ગુણ હીન નથી. એજ આ સૂત્રનું કથન છે. તે સૂ ૧૧ છે જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રીઘાસંલાલજી મહારાજકૃત ‘જીવભિગમસૂત્ર'ની પ્રમેયોતિકા નામની વ્યાખ્યામાં ત્રીજી પ્રતિપત્તિને પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩-૧ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जीवाभिगमसूत्रे अथ तृतीयप्रतिपत्त द्वितीयोदेशकः मारभ्यते- मूलम् - क णं भंते! पुढवीओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! सत्त पुढीओ पन्नताओ तं जहा - रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा ॥ इसीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए असीड़ उत्तरजोयणसयसहस्स बाहल्लाए उवर केवइयं ओगाहित्ता हा केवइयं वजित्ता मज्झे केवइए केवइया निरयावासस्य सहरसा पन्नत्ता ? गोयमा ! इमीले णं स्यणप्पसार पुढवीए असी उत्तर जोयणसयसहरूस बाहल्लाए उवरि एगं जोयणसहस्लं ओगाहित्ता एट्टा वि एवं जोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे असत्तरी जोयणसयसहस्नं, एत्थ णं रयणप्पा पुढवी पेरइयाणं तीसं निरयावाससय सहस्साइं भवंति त्ति मक्खायं ॥ तेणं णरगा अंतोवा वाहिं चउरंसा जाव असुभा णरएसु वेयणा । एवं एएणं अभिलावेणं उवजिऊणा भाणियव्वं गणप्पयानुसारेणं, जत्थ जं बाहल्लं जत्थ जन्तिया वा नरयावासस्यसहस्सा जाव अहे सत्तमा पुढवीए । अहे सत्तमाए of मज्झे केवइए केवइया अणुत्तरा महद्द महालया सहाणिरया पन्नत्ता एवं पुच्छियन्वं वायव्वं पि तव ॥ सू० १२|| छाया -- कति खलु भदन्त ! पृथिव्यः मज्ञप्ताः ? गौतम ! सप्त पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा - रत्नप्रभायावदधः सप्तमी । एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नप्रमायाः पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्र वाढल्याया उपरि कियद् अवगाव अधस्तात् कियद् वर्जयित्वा मध्ये कियति कियन्ति निरयावासशतसहस्राणि प्रज्ञतानि ? गौतम ! एतस्याः खलु रत्नममायाः पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रबाहल्याया उपरि एकं योजनसह खमवगाह्य अधस्तादपि एकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्येऽष्टवप्वतियोजनशतरह से अत्र खल रत्नप्रभा पृथिवी नैरयिकाणां त्रिंशन्निरयावासशतसहस्राणि भवतीत्यारूपातम् । ते खलु नरका अन्तो वृत्ता बहि चतुरस्रा यावदशुभा नरकेषु वेदनाः । एवमेतेनाभिलापेन उपयुज्य भणितव्यम् Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RADE प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावासाः १५३ स्थानपदानुसारेण । यत्र यद् बाहल्यं यन यावन्ति वा नरकाचासशतसहस्राणि यावधः सप्तम्याः पृथिव्याः अधः सप्तायाः मध्ये कियत् कति अनुत्तरा महमहालया महानिरयाः प्रज्ञप्ता एवं ष्टव्य व्याकतव्यमपि तथैव ॥१२॥ ___टीका--'कइणं भंते !' कति-कित्संहपकाः खलु भदन्त ! 'पुढवीओ' प्रथिव्यः पन्नताओ' प्रज्ञप्ता:-कथिताः, यद्यपि पृथिव्या संख्या: पूर्व कथिता एव तथापि एतद्विषये किञ्चिद्विशेषभिधातुं पुन: प्रवचनम्, तदुक्तम्--- 'पुचभणियं पिजं पुण मन उत्थ कारण मस्थि । पडि से होय अणुण्णा हारण विसेसोक्लंभो वा ॥१॥ पूर्वमणितमपि यत् पुन भरते तत्र कारणमस्ति । भतिषेधे नुज्ञा कारण विशेषोपलम्मश्चतिच्छाया॥ यत्र पूर्व प्रतिपादित स्यैव पुनः कथनं क्रियते तत्र भतिषेधानुज्ञाकारणविशे. पाणां वा उपलरमा ज्ञातव्य इति प्रश्ना, अगशमाह-'गोयमा' इत्यादि, गोयमा दुसा उद्देशे का प्रारंभतृतीय प्रतिपत्ति में प्रथम उद्देशक सालात हुआ अब सूत्रकार द्वितीय उद्देशक प्रारम्भ करते हैं। इसमें किल पृथिवी के क्षिस प्रदेश में कितने नरकावास है इस विषय का प्रतिपादन करते हैं। 'कइ, णभंते ! पुढचीओ पन्नत्ताओ-इत्यादि ॥ टीकार्थ-गौतमतले प्रभु से ऐसा पूछा है-'कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ' हे भदन्ता ! पृशिधीयां शिलनी कही गई है, ? यद्यपि पृथिवि । यों की संख्या के सम्बन्ध कथन पहिले किया जा चुका है परन्तु यहां जो इस विषय में पुनः प्रश्न किया गया है वह इनमें विशेषता प्रतिपादन करने के लिये किया हैतदुक्तम्-'पुन्छ भणियंपि' इत्यादि lan शान घालત્રીજી પ્રતિપત્તીને પહેલે ઉદ્દેશ સમાપ્ત કરીને હવે સૂત્રકાર બીજા ઉદ્દેશાને પ્રારંભ કરે છે. આ બીજા ઉદ્દેશામાં કઈ કઈ પૃથ્વીના કયા પ્રદેશમાં કેટલા નરકાવાસે છે ? આ વિષયનું પ્રતિપાદન કરે છે. 'कइण भते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ' याहि । ट -गीतमस्वामी प्रसुन मे छे छे 'काणं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ' भगवन् पृथ्वीय। टी डेवामा मापी छे १ पृथ्वीयोनी સંખ્યાના સંબંધમાં પહેલા કથન કરવામાં આવેલ છે પરંતુ અહિંયાં આ સંબંધમાં જે ફરીથી પ્રશ્ન કરવામાં આવેલ છે, તે તેમાં વિશેષપણાનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કરેલ છે. ४ घुछे 'पुन्छ भणियापि' त्या जी० २० Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमपुत्रे १५४ हे गौतम! 'सत पुढवीओ पन्नत्ताओ' सप्तसंख्यकाः पृथिव्यः प्रज्ञप्ताः - कविता इति, सप्त-भेदान् दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा- 'श्यणप्पमा जाव आहे सत्ता' रत्नप्रभा यावदधः सप्तमी यावत्पदेन शर्कराप्रमा बालुकाप्रभा पङ्कममा धूमप्रभा तमः प्रभा तमस्तमः प्रभा इति भेदात् सप्त नरकपृथिव्यः मज्ञप्ता इति । 'इमी से णं भंते । रणप्पमाए पुढवीए' एतस्याः खलु भदन्त ! रत्नेमभायाः पृथिव्याः 'अल्लोउत्तर जोयणसयसहम्स बाहल्लाए' अशीतिसहस्रो चर योजनयतसहस्रबाद्दल्योपेताया 'उबर' उपरि- उपरितनभागात् 'केवायं' कियत्ममाणम् 'ओगाहिया' अवगाह्य - उपरितनभागात् कियदतिक्रम्येत्यर्थः 'हा' अधस्तात् 'has' seमाणम् 'वज्जित्ता' वर्जयित्वा - परित्यज्य 'मज्झे' मध्ये पूर्व में कहा गया विषय यदि दुवारा पूछा जाता तो उसमें कोई न कोई कारण विशेष अवश्य होता है अतः गौतम से प्रभु उत्तर के रूप में कहते हैं ( 'गोमा ! ' हे गौतम । 'सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ 'पृथिवियां सात कही गई हैं । 'तं जहां' जो इस प्रकार है- ' रयणप्पभा जाव आहे सतमा' रत्नप्रभा यावत् अधः सप्तमी इस तरह से 'रत्नप्रभा शर्करा प्रभा, बालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा धूमप्रभा, और तमस्तमःप्रभा' ये सात पृथिवियां हैं। 'इमी से णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त । इस रत्नप्रभा पृथिवी के जो कि 'असी उत्तर जोयण सय सहस्स पाहल्लाए' एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी है 'उवरिं' उपरितन भाग से 'hari ओगाहित्ता' कितनी दूर जाने पर और 'हेट्ठा केवइयं वज्जित्ता' नीचे का कितना भाग छोडकर 'मज्झे केवइए 'चीच में कितने योजन પહેલાં કહેવામાં આવેલ વિષય જો ફરીથી પૂછવામાં આવે તે તેમાં કંઈને કંઈ વિશેષકારણ જરૂર હાય છે તેથી ગૌતમસ્વામીને પ્રભુ ઉત્તર આ पतां हे हे हे 'गोयमा !' ३ गौतम ! 'खत्त पुढत्रीओ पण्णत्ताओ' पृथ्वीयो सात हेवामां आवे छे. 'त' जहा' ते मा प्रभाये छे. 'रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा ' રત્નપ્રભા પૃથ્વી યાવત્ અધઃસપ્તમી આ પ્રમાણે રત્નપ્રભા, શર્કરાપ્રભા, વાલુકા પ્રભા, પંકપ્રભા, ધ્રુમપ્રભા, તમઃપ્રભા અને તમસ્તમ,પ્રભા આ સાત પૃથ્વીયો छे. 'इमीसे णं भवे रयणप्पभाए पुढवीए' हे भगवन् मा निला पृथ्वीना ● 'अबीउत्तर जोयण सय सहस्त्र बाहल्लाए, ये साथ मेसी હેજાર યોજન नी विशाजता वाणी छे, 'उवरि' उपरना भागथी 'केवइयं' ओगाहित्ता' टखे दूर गया पछी भने 'ट्ठा केवइय' वज्जित्ता' नीथेन। हेटो लाग छोड़ी छे Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उं.२ २.१२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावासोः १५५... 'केवइए' कियति कियत्सरिमिते भागे 'केवइया' कियन्ति 'निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता' नरकावासशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि-कयितानीति प्रश्न: भगवानाह-'गोयमा', इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'इनीसे णं रयणप्पमा पुढवीर' एतस्याः खल रत्नप्रभा पृथिव्याः 'असीउपर जोयणसयसहस्स वाइल्लाए' अशीतिसहस्रोत्तरयोजनसहस्रबाइल्पयुक्ताया: 'उपरि एग जोयणसहस्सं उपयक योजनसहस्रम् 'भोगाहित्ता' अवगाह्य 'हेट्ठा वि एगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता' अधस्तनादपि एक योजनसहस्र वर्जयित्वा 'मज्झे' मध्ये 'अडसत्तरि जोयणसयसहस्से' अष्टसप्ततिसहसाधिके योजनसहने 'एत्य णं' अत्र एतस्मिन् इयत्परिमिते क्षेत्रे खलु 'रयणप्पमा में केवड्या निरयावाससयसहस्ला पन्नत्ता 'कितने नरकावास को गये हैं ? अर्थात् एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई वाली जो प्रथम पृथिवी कही गई है उसके ऊपर लथा नीचे के कितने २, हजार योजन छोडकर थाकी के मध्य भाग में कितने लाख नरकायास है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! इमीलेणं रयणप्पा पुढवीए असी उत्तर जोयणसयसहस्स पाहल्लाए' हे गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई वाली इस रत्नप्रभा पृथिवी के 'उवरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहिता' ऊपर के एक हजार योजन को अवगाह कर अर्थात् एक हजार योजन को छोडकर एवं 'हेट्ठा वि एगं योजण सयसहस्सं वजित्ता' नीचे के भी एक हजार योजन को छोडकर 'मज्ञ अइसत्तरि जोयण सय सहस्सा' एक लोख ७८ अठहत्तर हजार योजन में 'रयणप्पभाए पुढवी नेरयाण' रत्नप्रभा पृथिवी के नारकों के 'मज्जे केवइए' यांसा योनम 'वेवइया निरयावाखसयसहस्सा पन्नत्ता કેટલા નરકવા કહેવામાં આવ્યા છે અર્થાત્ એક લાખ એંસી હજાર જનની પહેલાઈવાળી જે પહેલી પૃથ્વી કહેલ છે, તેની ઉપર અને નીચેના ભાગમાં કેટલા કેટલા હજાર પેજને છોડીને બાકીના મધ્યભાગમાં કેટલા લાખ નરકવાસે કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोयमा ! इमीसे ण' रयणप्पभा पुढवीए असी उत्तर जोयणघयसहस्सबाहल्लाए' એક લાખ એંસી હજાર એજનની પહોળાઈવાળી આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના 'स्वरि एग जोयणसहस्त ओगाहित्ता' ५२ना ४ २ यामनन . हित NR अर्थात् मे तर यौन छोडी मने 'हेवा वि एग जोयण. सयसहस्न वज्जित्ता' नीयमा ५५ मे १२ यातन छे. 'मझे अडसत्तरि जोयणस्रयसहस्त्रा' मे ९५ ७८ म४यात२ २ योन 'रयणप्पभाए Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १५६ जीवाभिगम 'पुढवी नेरइयाणं' रत्नममा पृथिवी नैरयिकाणां योग्यानि 'तीसं नस्कावाससयसहस्साई त्रिंशन्नरकावासशतसहस्राणि 'भवंति ति मक्खाय' भवन्तीति आख्यातम्, मया शेपैश्च तीर्थकरः, एतारता सर्व तीर्थकृताम विसंवादिवचनता प्रवेदितेति । कि प्रकारकास्ते नारकाः १ इत्याह-'तेणं णरगा' ते खल नरकाः 'अंतो वट्टा' अन्तः मध्यभागे वृत्ताः वृत्ताकाराः 'वहिं चउरंसा' बहि:-बहिर्भागे चतुरस्राः चतुष्कोणाः इदं पीठोपरिवर्तिनं मध्यभागमधिकृत्य कथितम् सकल पीठायपेक्षया तु आव. लिका प्रविष्टा वृत्तव्यत्र चतुरस्रसंस्थानाः पुष्पावकीर्णास्तु नानासंस्थाना । ज्ञातव्याः । एतन् स्वयमेवाग्रे कथयिष्यते, 'अहे खुरप्पसंठाणसंठिया जाव .अमुभा अधः क्षुरपसंस्थानसंस्थिताः यावदशुभाः, अत्र यावत्पदेन-'णिञ्चधयार. योग्य तीसं नरकावाससबसहरूलाई तीस लाख नरकाबास 'भवंति. त्तिमक्खायं मैने तथा शेष तीर्थकरों ने ऐसा फहा है। इस कथन से समस्त तीर्थ करों के वचनों में अविसंवादिता प्रकट की गई है वे नरकावास पिस प्रकार के हैं ? उत्तर में कहते है-'तेणं णरगा अंतो वहावहि चउरंसा' वेरका बालबध्यले गोल और बहिर्भाग में चकोर आकार वाले हैं यह पीठ के ऊपर सें वर्तमान जो मध्य भाग गोल है उसको लेकर कहा गया है तथा-लकल पीठादि की अपेक्षा से तो आवलिका प्रविष्ट नरकाबाल तिकोण, चौकोर संस्थान वाले कहे गये हैं, और जो पुष्पाटीर्ण नरमापासवे अनेक प्रकार के संस्थान घाले हैं। 'जाय अस्तुभा' यहां यावत् पद से 'अहे खुरप्प पुढवी नेरइयाणं' २त्नमा पृथ्वीना नारीने यो२५ 'तीस नरकावाससय, सहस्साई' श्री राम न२४पास 'भवंतित्तिमक्खाय' थाय छ, तभ में तथा - બાકીના બધાજ તીર્થકરેએ કહેલ છે. આ કથનથી સઘળા તીર્થકરોના વચનેમાં , અવિસંવાદિ પણું પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. અર્થાત્ એક વાક્યતા બતાવેલ છે. , તે નરકવાસે કેવા પ્રકારના છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે . 'ते णं णरगा अंतो वट्टा बहिचउरसा मा नासो मध्यमा गण छे. भने - બહારના ભાગમાં ચાર ખુણાના આકાર વાળા છે. પીઠના ઉપરના ભાગમાં રહેલ મધ્યભાગ ગોળ છે. તેને લઈને કહેલ છે તથા સકળ પીઠે વિગેરે ની અપેક્ષાથી તે આવલિકામાં પ્રવિષ્ટ નરકાવાસ ત્રિકેણ, ચતુષ્કોણ, સંસ્થાન વાવાળા હોવાનું કહેલ છે, અને જે પુષ્પાવકીર્ણ નારકાવાસો છે, તે બધા અનેક પ્રકારના સંસ્થાનવાળા કહેવામાં આવેલ છે. આ વાત સૂત્રકાર સ્વયં હવે પછી प्रगट ४२वाना छे 'जाव असुभा' महिया यावत् ५४थी 'अहे खुरप्पस ठाण Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3AES प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ १.१३ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावासा १५७ तमसा वगयगहचंदमुरणक्खत्तजोइसपहा, मेयरसा पूयरु हरमंसचिक्खिल्ल लित्ताणुलेपणतला असुई बीभत्या परमभिगंधा काऊ आणि पन्नाभा कक्खड फासा दुरहियासा' एतदन्तमकरणस्य संग्रहो भवति । एतेषामयमर्थ:-अधस्तले. क्षुरपस्येव 'उस्त।' इति प्रसिद्ध पहरणविशेषस्येव यत् संस्थानमाकारविशेष'स्तीक्ष्णता लक्षणः तेन संस्थिता इति क्षुरप्रसंस्थानसंस्थिताः, तथाहि-तेषु नरकावासेषु भूमिलले मसृणत्याभावात् शरिले क्षेत्रे पादेषु न्यस्यमानेषु शर्करा मात्रसंस्पर्शेऽपि क्षुरपणे पादाः कृत्यन्ते, तथा-णिच्चंधयारतमसा' नित्यान्धकारतामसा नित्यान्धकाराः उद्योताभावतो यत्तमस्तेन तमसा नित्यं सर्वकालम् अधिकारो येषु ते नित्यान्धकारतामसाः अथवा-नित्यान्धकारेण-सर्वकालान्धकार संठाणसठिया, णिच्चधयारतमाला वचायगडचंदसूरनक्खत्त जोहसपहा, मेयवसा पूयरुहिरसंसचिक्खिल्ललिताणुलेषणतला असुइ बोभत्था परमभिगंधा काऊ अगाणिवन्नाभा फक्खडफासा दुराहियासा' इस पाठ का संग्रह हुमा है। इसका अर्थ इस प्रकार से है-'अहे-खुरप्पा ठाण मंठिया' नीचे के भाग में थे नरकाबास क्षुग जैसे-तीक्ष्ण आकार वाले हैं इसका तात्पर्य ऐसा है कि इन नरकावासों का जो भूमितल है वह असण-चिकना नहीं है किन्तु कंकरीला है अतः जब उस पर नारकी पैर रखते हैं तो उन्हें ऐसा लगता है कि जैसे क्षुरा की तीक्ष्ण धार से ही उनका पैर छिद गया है। नरकावासों में उद्योत का अभाव रहता है इस्ली ले उनमें सवेंदा गाढ अन्धकार बना रहता है नित्यान्धकार पद से सूचकार ने यह सूचित किया है कि जैसा सठिया, णिच्चधयारतमसा वषगयगह-चद-सूर-नक्खातजोइसपहा, मेयवसा पूयहहिर मसविक्खिल्ललिताणु लेवणत्तला, असुइबीभत्था परमदुभिगधा काउ अगणिवण्णाभा फक्खडफाखा दुरहियासा' ! पाइने 6 यये छे. આને અર્થ આ પ્રમાણે છે. ___ 'अहे खुरप्पस ठाणसठिया' नायना सामi An M२पास सुस-७२। (અસ્તરા) ના જેવા તીક્ષણ આકારવાળા છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે આ નારકાવાસનો જે ભૂમિ ભાગ છે, તે મસૃ–ચિકણું નથી પરંતુ કાંકરીયાલ છે. તેથી નારકીય જ્યારે તેના પર પગ મૂકે છે, ત્યારે તેઓને એવું સમજાય છે કે અતરાની તીણું ધારથી તેઓના પગ કપાઈ ગયા ન હોય તેમ લાગે છે. નરકાવાસમાં પ્રકાશને અભાવ રહેલ છે તેથી જ તેમાં હરહંમેશાં ગાઢ અંધારૂજ રહ્યા કરે છે. નિત્યાન્વકાર, એ પદથી સૂત્રકારે એ સૂચવ્યું છે કે Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम १५८ भावेन तामसा:-तमोमयाः तत्र यद् अपयरकादिषु तमोऽधकारो भवेत, केवलं स बहिः सूर्यप्रकाशे मन्दतमो भवति किन्तु नरकेपु तीर्थकरजन्म दीक्षादि काम व्यतिरेकेणान्यदा सर्वकालमपि प्रकाशलेशस्यापि अभावतो जात्यन्धस्येव मेघ. च्छन्नकालार्द्धरात्रातीव बहुलतरोऽधकारो भवति, तत उक्तम्-नित्यान्धकार तामसाः नरकाः, तमश्च तत्र नरके सर्वदेवावरियतमुद्योतकारिणां तत्र अभावाद, तथाचाह- 'ववगयगडचंदमूरणक्खतजोइसपहा' व्यागतग्रहचन्द्रसूर्य नक्षत्र ज्योतिषपयाः व्यपगतः विनष्टो ग्रहचन्द्रमूर्यनक्षत्ररूपाणामुपलक्षणत्वात्तारारूपाणां च ज्योतिष्काणां पन्था मार्गो येषु ते व्यपगतग्रहचन्द्रसूर्यनक्षत्रज्योतिष्कपया जहां मर्त्यलोक में कोठरी आदि में अन्धेरा घना रहता है और सूर्य के प्रकाश में वह मन्द तम होता रहता है-ऐसा अन्धकार वहां नहीं होता वहां तो सिर्फ तीर्थकर के जन्म समय में एवं दीक्षादि के समय में ही अन्धेरा कुछ समय के लिये दूर हो जाता है बाकी के और सब लमयों में वहां उद्योग लेश्यावाले पदार्थों के अभाव होने से जास्यन्ध पुरुष की दृष्टि में जैसा गाढ अन्धेरा छाया रहता है और जैसा अन्धेरा मेघों से युक्त वर्षाकाल की अर्द्धरात्र के समय में होता है इसी तरह का बहलतर अन्धकार वहां नरकावासों में छाया रहता है अर्थात् वहां नित्य गाढ अंधेरा छाया रहता है इस बात की प्रष्टि करते हैं 'चवगयगह चंद सूरनक्षत्त जोइसपहा' इसका तात्पर्य यही है कि वहां पर ग्रह, चन्द्र सूर्य, नक्षत्र, तारा इन ज्योतिषकों का रास्ता नहीं है ये प्रकाश शील पदार्थ वहां नहीं हैं। तथा वहां की भूमि જેમ અહિયાં આ મૃત્યુલોકમાં ગુફા ભોયરા વિગેરેમાં અંધારું બન્યું રહે છે અને સૂર્યના પ્રકાશમાં મંદતમ થઈ જાય છે, એ અંધકાર ત્યાં હોતા નથી. ત્યાં તે કેવળ તીર્થકરના જન્મ સમયે અને દીક્ષા વિગેરે સમયે જ થોડા સમય માટે જ અંધારું દૂર થઈ જાય છે. બાકીના બધા જ સમયમાં પ્રકાશક લેશ્યાવાળા પદાર્થોને અભાવ હોવાથી જાત્કંધ પુરૂષની દષ્ટિમાં જે પ્રમાણે ગાઢ અંધકાર છવાઈ રહેલ છે અને મેઘ-વાદળાઓવાળી ચોમાસાની અધિરાત્રિઓમાં જેમ અંધકાર હોય છે. એ જ પ્રમાણે બહલતર અંધકાર ત્યાં નરકવાસમાં છવાઈ રહે છે. અર્થાત્ ત્યાં હરહંમેશાં ગાઢ અંધારું જ છવાઈ રહે છે. એ વાતની पुष्टि ४i सूत्र.२ ४ छ'ववगयगहच दसूरनक्खत्तजोइसपहा' AL કથનનું તાત્પર્ય એજ છે કે ત્યાં આગળ ગ્રહ, ચંદ્ર, સૂર્ય, નક્ષત્ર, તારા આ તિષ્ક દેને પ્રવેશવાને રસ્તે જ નથી. અર્થાત પ્રકાશ કરનાર પદાર્થોને Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१२ करयां पृथिव्यां कति नरकावासा १५९ नरकाः सूर्यादिप्रकाशरहिता इत्यर्थः, तथा मेंयवसापृयरुहिरमंसचिक्खिल्ल लित्ताणुलेवणतला' स्वभावत एव सम्पन्नः मेदो वसा पूतिरुधिरमांसः चिक्खिल्ला -कर्दमः तेन लिप्तमुपलिप्तम् अनुलेपेन सकृत् लिप्तस्य पुनः पुनरुपलेपेन वलंतद्गतभूमितलं येषां ते भेदो वसा पूतिरुधिरमांसचिविखल्ललिप्तानुलेपनतला नरकाः, अतएव 'असुई' अशुचयः-अपवित्राः 'वीभत्था' बीभत्साः दर्शनेऽपि अतिजुगुप्त्सोत्पत्तेः 'परमदुभिगंधा' परमदुरभिगन्धाः मृतगवादिव लेवरेभ्योऽपि अतीवानिष्ट दुरभिगन्धाः। 'काऊ अगणि वनामा' कापोताग्निवर्णामाः लोहे धम्यमाने यादृकपोतो बहुकृष्णरूपोऽग्नेर्वर्गः, अयमर्थ:-लोहे धम्यमाने यादृशी कृष्णवर्ण रूपाग्निज्वाला विनिर्गच्छति तादृशी आभा वर्ण यरूपं येषां ते कापोताग्निवर्णाभाः । तथा 'वक्खडफासा' कर्व शरुपर्शाः कर्कशोऽति दुःसहोऽसि का तल भाग स्वभावतः मेद-वशा-चर्वी पूति (रसी) पीप-रूधिर और मांस जनित कीचड से सनी रहती है बार २, उपलिप्त होती है अत: वह अशुचि अपवित्र है इसलिये वह वीभत्स देखने में बड़ी भारी ग्लानि दायक होती है उससे एसी अनिष्ट गन्ध दुर्गन्ध निकलती रहती है कि जैसी दर्गन्ध मरे हए गाय आदि जानवरों के कलेवर-शरीर में से निकलती रहती है उन नरकावासों की आभा-कान्ति-वर्ण-स्वरूप ऐसी होती है कि जैसी लोहे को लाल करते समय अग्नि की ज्वाला होती है। लोहे को भट्टी में लाल करते समय अग्नि की ज्वाला अत्यन्त कृष्ण रूप घाली हो जाती है इसलिये यहां 'काऊ अगणिवन्नाभा' ऐसा विशेषण दिया गया है 'कक्खड फासा' यहाँ कर्कश स्पर्श असि ત્યાં અભાવજ છે તથા ત્યાંની પૃથ્વીને તલભાગ સ્વભાવથી જ મેદવશા-ચબી પૂતિ, પીપ પરૂ, લેહી. અને માંસના કાદવથીજ વ્યાસ બની રહે છે. અને વારંવાર ઉપલિપ્ત ખરડાયેલ થતી રહે છે. તેથી એ અશુચિ નામ અપવિત્ર છે. તેથી તે બીભત્સ ભયાનક બીહામણું અને દેખવામાં ઘણું જ ભારે ગ્લાનિકારક હોય છે. તેમાંથી એવી અનિષ્ટ ગંધ અર્થાત દુર્ગધ નીકળતી રહે છે, કે મરેલા ગાય વિગેરે જનાવરોના કલેવર-શરીરમાંથી નીકળ્યા કરે છે. તે નરકાવાસની આભ કાંતિ, વર્ણ સ્વરૂપ, એવી હોય છે કે જેવી કાંતિ લેખંડતે અગ્નિમાં તપાવવાના સમયે અગ્નિની વાલા હોય છે. અર્થાત લેખંડને ભઠીમાં લાલ કરતી વખતે અગ્નિની જવાલા કાળા વર્ણવાળી થઈ જાય છે, તેથી અહિંયાં 'काठ अगणिवण्णाभा' 'माप्रमाणे विशेष मापामा मावस छ 'कक्खड- .. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जीवामिगमको पत्रस्येव स्पर्णी येषां ते कर्कशपी, एव 'दुरहियासा' दुरध्यासाः दुःखेन अध्यास्यन्ते-सह्यन्ते इति दुरध्यासाः, 'असुभा' अशुभा दर्शनतो नरकाः, तथा-गन्धरसस्पर्शशब्द रशुभा:-अतीदासातरूपाः, 'गरएमु वेयणा' नरकेपु वेदना इति । 'एवं एएणं अभिलावेणं उवजुंजिकण भाणियन्नं णाणपएयाणुसारेणं' एवमेतेनामिलापेन-आलापकप्रकारेण उपयुज्य-सम्र विविच्य भणितव्यम्-वक्तव्यम् स्थानपदानुसारेण प्रज्ञापनाया द्वितीय स्थानपदे (पृ-२४३ -२५३) यथा रथितं तदनुसारेणैव 'जस्थ जं वाहल्लं' यत्र यस्यां पृथिव्यां यत् यावत्कं बाहल्यम् 'जत्थ जत्तिया वा' यत्र यस्यां यावन्ति वा 'नरयावाससयपत्र की तरह अतिदुः सह होना है अत एव वे नाकाचास 'दुरहियासा' घडे दुःख के साथ २. सहन घि.ये-योगे जाते हैं। ये 'असुभा' देखने में अशुभ होते हैं । तथा इन नरकों में जो गन्ध होता है वह, जो रस होता है वह, और जो स्पर्श होता हे वह सघ अशुभ ही होता है शुभ नहीं होता है यहां जो जीवों को वेदना होती है वह भी अत्यन्त असाप्त रूप ही होती है, 'एवं एएणं अभिलावणं उचजंजिऊण भाणियन्वं ठाणप्प याणुमारणं' इसी प्रकार से और भी बाकी समस्त पृथियों में अच्छी तरह से विवेचन करके कथन करलेना चाहिये जैसा कि इस सम्बन्ध में कथन प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद में किया गया है 'जत्थ जे पाहल्लं' इस तरह प्रज्ञापना के दितीय स्थान पद के अनुसार जहां जिस पृथिवी में जो जसी बाहल्य-मोटाई कहा गया है और 'जस्थ जत्तिया वा नरयावास फासा' महिना ४४ २५ गसिपत्रनी तसवारनी घा२ २१॥ ५i314 ઝાડની જેમ અત્યંત દુસહ અર્થાત્ અસહય હોય છે. અને તેથી જ તે नवासे 'दुरहियासा' अत्यंत म पू४ सहन ४२१य छ अर्थात् दु:मधी ભોગવી શકાય તેવા હેય છે. તે નરકાવાસે “બહુમા” જેવા અશુભ હોય છે તથા આ નરકમાં જે ગંધ હોય છે, તે અશુંભ જ હોય છે. અને જે રસ હોય છે તે તથા જે સ્પર્શ હોય છે તે બધાજ અશુભ હોય છે શુભ હેતા નથી. અહિંયા જી ને જે વેદના થાય છે તે પણ અત્યંત અશાતા રૂપ જ हाय छे 'रएण अभिलावेणं उवजु जिउण भाणियव ठाणप्पयाणुसारेणं' मा પ્રમાણે બીજી બાકીની સઘળી પૃથ્વીના સંબંધમાં સારી રીતે વિવેચન કથન કહેવું જોઈએ. જેમકે આ સંબંધમાં પ્રજ્ઞપના સૂત્રના બીજા સ્થાન પદમાં ४थन ४२वामां मारा छे. 'जत्थ जे बाहल्ल' मा प्रभारी प्रज्ञापन। सूत्रना બીજા સ્થાન પદમાં કહ્યા પ્રમાણે જ્યાં જે પ્રવીમાં જેનું જે પ્રમાણેનું બાહથ ५९णा ४ामा मावत छ, भने 'जत्थ जतिया वा नरयावाससयसहस्सा' Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ६.१२ करयां पृथिव्यां कति नरकावासाः १६१ सहरसा' नरकायासशतसहस्त्राणि तानि सर्वाणि स्थानपदानुसारेणोपयुज्य वक्तव्यानि, कियपर्यन्त वक्तव्यानि, तबाह-जाव' इत्यादि, 'जाव अहें सत्तमाएं पुढवीए' यावदधः सपमुख्या:पृथिव्या नरकावासा वर्णिता स्तारपर्यन्तमित्यर्थः। अथाध समस्या नरकारासान् सत्रकार प्रदर्शयति-'अहे लत्तमाए' इत्यादि, 'अहें सत्तमाए' इत्यस्यालापकमकारो यथा-अहे सत्तलाए पं संते ! पुढवीए अछुत्तर: सयसहसवाहल्लाए उबरि केवइयं मेगाहित्ता हे केवइयं रज्जेत्ता पज्झे' अधः सप्तम्या: खलु महन्त ! पृषिमा अष्टोत्तरशतसहस्त्रबाहल्याचा उपरि कियत्कम् अगाध पक्षः शिवरकं यजयित्वा मध्ये केवइए' कियति-फियत्ममाणे क्षेन्ने कवाया' किसन्तः 'अणुता' अनुत्तरा नोत्तर येभ्यरते अनुत्तरा: सर्वोत्कृष्टा अतएव महान्या महातिमहालया:- अतिविशा, अतएव 'महानिरया' महानिरया महानरकाः ANATE ? 'एवं पुच्छियचं' एवं-पूर्वोक्तसयसहरला' जहाँ जितने लाख मकाबा कहे गये हैं जहां वह सब अच्छी तरह विधार कार के 'जाम महे समाए पुढबीए' यावत् अधः सप्तमी पृथिवी तक लेना चाहिये। ___अव सूत्रनार अधः सभी पृथिवी के नरकाचारों को कहते हैं'अहे खत्तमाए' इत्यादि । हे सलाए' हे गदन्त अवासप्तमी पृथिवी के जिसका बाइल्प एक लाख आठ हमार योजन का है उसके उपर के भाग में कितना सहनाद करके अर्थात् तितला भाग छोडकर तथा नीचे का शितमा मामा छोडर मज्झे मध्य के कितने खाली भाग में कितने 'अणुत्ता' लुत्सर बोत्कृष्ट अत्यन्त विशाल જાં જેટલા લાખ નરકાવાસો કહેવામાં આવેલ હોય, ત્યાં તે બધા જ સારી सते विचार पुरीने 'जाद अहे सत्तमाए पुढवीर' यावत् मधासभी मेट કે તમસ્તમા નામની સાતમી પૃથ્વી સુધી કહી લેવું જોઈએ. वे सूत्र।२ ५:सभी पृथ्वीना न२पासानु ४थन ७२ छ 'आहे सत्तमाए'. त्या 'अहे सत्तमाए'. सावन अवसभी पृथ्वीना रेनु माडल्य ने લાખ આઠ હજાર એજનનું છે. તેની ઉપરના ભાગમાં કેટલું અવગાહન કરીને अर्थात् स मा छडी तथा नीयन sear मा छोडीन 'मज्झे' ने क्यमान an माजी सभा सा 'अणुतरा' अनुत्तर भत्कृिष्ट अत्यात विशाण या मोटर सते. तेथी ४ 'महानिरचा' मछ। न२४ ४सा? जो० २१ . Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સર जीवामिगमसूत्रे प्रश्नानुसारेण प्रष्टव्यम् पश्नः कर्त्तव्यः, 'वागरेयच्वंपि तद्देव' व्याकर्त्तव्यं तथैव उत्तरमपि तथैव दातव्यम् यथा - अर्थः सप्तम्याः पृथिव्या अष्टसहखोत्तरशतसहस्वयोजनवाद्दल्यतः उपर्यधोभागात् प्रत्येकं सार्द्धद्विपञ्चाशत् सहस्रयोजनानि क्वामध्ये त्रिस्रयोजनममिते शुपिरभागे 'काल महाकालरौरव महारौरवा' प्रतिष्ठानाभिधाः पञ्च महानरकावासाः सन्धि, हत्येचं रूपेण उत्तरं दातव्यम् । तदालापका बेत्थम् 'सक्करभार णं भंदे ! पुढचीए बत्तीसुत्तरजोयणसय सदस्सबाहल्काप उवरि केवइयं ओमाहित्ता हेट्ठा के इयं वज्जेता वझे चैव केवइए केवइया निरयाबहुत बडे अतएव 'महानिरया' महानरक कहे गये हैं ? एवं पुच्छि - यव्वं इस प्रकार प्रश्न करलेना चाहिये । तथा-" वागरेयव्वंपि तहेब" इसका उत्तर भी यहाँ जितने प्रमाण के मध्यभाग में जितने नरकवास हैं अर्थात् अधः सफमी पृथिवी के एक लाख आठ हजार योजन के वाल्य में से साढे घावन हजार उपर के भाग को और इतने ही नीचे के भाग को छोडकर बीच के तीन हजार योजन के पोलाण में पाँच महानरकावास है काल १ महाकाल २ रौरव ३ महारौरव ४ और बीच में पांचवां अप्रतिष्ठान नरक ५ है इस प्रकार से कह देना चाहिये आलापक इस प्रकार हैं- 'सक्करप्पभाएणं भंते पुढवीए यत्तीसुत्तर जोयण सय सहरसबाहल्लाए' हे भदन्त ! एक लाख बत्तीस हजार योजन की मोटी शर्कराप्रभा नाम की द्वितीय पृथिवी के 'उवरिं केवइयं ' एवं ' पुच्छियव्व" मा रीते प्रश्न पूछी सेवा थे तथा 'वागरेय पि સદેવ' તેના ઉત્તર પણ અહિંયાં જેટલા પ્રમાણુવાળા મધ્યભાગમાં જેટલાં નરકાવાસા છે, અર્થાત્ ધઃસપ્તમી પૃથ્વીના એક લાખ આઠ હજાર ચેાજનના માહુલ્યમાંથી સાડા બાવન હેર ઉપરના ભાગને અને એટલાજ નીચેના ભાગને ફ્રાઢીને વચલા ત્રણુ હજાર ચેાજનના પેાલાણુમાં પાંચ મહાનરકાવાસે છે. તે प्रभा छे. ४ १, भहाण २, रौव 3, મહારૌરવ ૪, અને વચમાં પાંચમું ક્મપ્રતિષ્ઠાન ૫ નામનું નરક છે. આ પ્રમાણે કહેવું જોઈએ. તેના આસાપા આ પ્રમાણે છે 'सक्करत्पभाए ण' पुढवीए बत्तीसुचरणोयणस्वयंसहस्सा हल्लाए' से भगवन् शे साथ मत्रीस डेन्तर योजननी विशाजता बाजी शर्श्वशप्रभा नाभनी मील पृथ्वीनी 'उचरिं केवइयं ओगांहित्ता हेट्ठा केवइय बजेता मज्झे केवइ केवइया णिरयावासस्यसहरसा पण्णत्ता' (५२ भने नीथेना Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिको टीका प्र.३ उ.२ २.१२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावासाः '६॥ पासयसहस्सा पन्नत्ता ! गोयमा ! सकरप्पभाए णं पुढवीर बत्तीमुत्तरजोयणसहस्सबाहल्लाए उपरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहित्ता हा एग जोयणसहस्से वज्जेचा मज्झे तीसुत्तर जोयणसयसहस्से, एत्थ णं सकरापुढवी नेरल्या गं चीसा नरयावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं, ते गं गरगा अंतो वट्टा जाव अमुमा नरएस वेयणा'। भोगाहित्ता हेहा केवड्यं वज्जेता मज्झे केवहए केवड्या गिरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता 'ऊपर नीचे के कितने हजार योजन क्षेत्र को छोड कर बाकी के मध्य भाग में कितने लाख नरकावास कहे गये है ? 'गोयमा! सक्करप्पभाएणं पुढ बीए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्स पाहल्लाए उरि एगं जोयणसयसहस्सं ओगाहित्ता हेट्टा एक्कं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे तीसुत्तरजोयणलयसहस्से एस्थण सक्करप्प भापुढवो गैरक्ष्याण बीला गरयावासलपसहस्सा भवतीति मक्खाय' हे गौतम! एक लाख बत्तीस हजार योजन की मोटी शर्कराप्रभा नाम की द्वितीय पृथिवी के ऊपर नीचे के एक-एक हजार योजन प्रमाण क्षेत्र को छोडकर एक लाख तीस हजार योजन परिमित मध्य के क्षेत्र में शर्कराप्रभा पृथिवी के नैरथिको के योग्य बीस लाख नरकावास कहे गये हैं। ये सब नरकावास मध्य में गोल है यावत् देखने में अशुभ है। इसमें महा असाता रूप वेदना हैं इत्यादि सब व्याख्यान रत्नप्रभा प्रकरण के जैसा ही सर्वत्र कर लेना चाहिये કેટલા હજાર જન છેડીને બાકીના મધ્ય ભાગમાં કેટલા લાખ નરકાવાસે su छ १ २AL प्रश्न उत्तरभां प्रभु गौतभस्वामी ने 'गोयमा सक्करप्पभाएण' पुढवीए बत्तीसुत्तर जोयणत्रयसहस्त्रबाहल्लाए उवरि एग जोयणसयमहरन ओगाहित्ता हेदा एक्कं जोयणसहस्स पज्जेत्ता माझे तिसुत्तरजोयणसयसहासे एत्थ ण सक्करप्पमाए पुढवी णेरइयाण पीसा णरयाव ससयसहस्सा भवतीतिमक्खाय” हे गौतम! मे दाम मत्रीस હજાર યોજનાની વિશાળતાવાળી શર્કર પ્રભા નામની બીજી પૃથ્વીની ઉપર નીચે ના એક એક હજાર જન પ્રમાણુ ક્ષેત્રને છેડીને એક લાખ વીસ હજાર મધ્યના ક્ષેત્રમાં શર્કરામભા પૃથ્વીના નિરયિકોને ચગ્ય એવા વીસ લાખ નરકાવાસો કહ્યા છે. આ બધા જ નકાવા મધ્યમાં ગોળ છે. યાવત જોવામાં અશુભ છે. તેમાં મહા અસાતા રૂપ વેદના છે. ઈત્યાદિ સઘળું વ્યાખ્યાન રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણેનું બધેજ સમજી લેવું Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगम सूत्रे 'बालयप्पभाएणं भंते! पुढवीए- अहाचीचरजोणसय सहस्स वाइल्लाए वरि केवइयं ओगाहित्ता देहा केवइयं वज्जित्ता सज्झे केवहया निरयावास सयसहस्सा पत्ता ? गोयमा ! बालयप्पथाप पुढवीए अठ्ठावीसुत्तर जोयणसयसहस्त बाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्सं ओगाहिता देवा एवं जोवणसहस्सं वज्जित्ता _मझे. छत्रे जोणसयस हस्से, एत्थ णं बालुयप्पमापुढवी नेरहया णं पण्णरस निरयावास सय सहस्सा भवंति त्ति मक्खायें, से णं णरगा जाब असुभा नरएसु वेयणा' 'कपमा णं असे ! पुढवीए वीसुत्तर जोयणसयलट्स्स वाहल्लाए उवरिं hari भगादित्ता हा केवइयं वज्जित्ता मज्छे केवre केन्या निरयावास- सय सहस्सा पन्नता ? गोयसा | पंऋप्पमाए णं पुढवीए वीसुत्तरजोयणसयसहस्स बालुपमाएणं भते ! अट्ठावीसुत्तर जीवमलचलहरुसवाहल्लाए - caft hast ओगाहिता हेडा सेवइयं बजित्ता मज्झे केयइए + के वइयं नित्यावातसयलहस्सा पण्णसा - गोषता ! बालुपप्पभाए - पुढवीए अट्ठावीसुत्तर जोपणलचलहरुलपाहल्लाए उबर एगं जोयसहस्सं ओगाहिता हेडा एवं जोयणसहस्सं वजित्ता मज्झे छवी - सुत्तरे जोयणसयलहरुले एत्थ णं वलुप्पभा पुढवी नेरइयाण - पण्णरसनिरथावास सपलहस्सा भवतीति नक्खाये' हे भदन्त ! बालु* काप्रभा पृथियों जो कि एक लाख अठाईस हजार योजन की मोटी है उसके ऊपर नीचे के एक २ हजार योजन के क्षेत्र को छोड़कर बीच के एक लाख छ हजार योजन प्रमाण मध्य के क्षेत्र में बालुका प्रभा पृथिवी के नैरयियों के योग्य पन्द्रह लाख नरकावास है। ये नरक यावत् अशुभ हैं इन में अतिशय असाता रूप वेदना है। to 'वालुयप्पभाए णं भवे ! पुढवीए अट्ठावीसुत्तर जोयणायसहस्व वाहल्लाए - वरिं केवइयं ओमाहित्ता हेट्टा केवइयं वन्नित्ता नज्ज्ञे केवइया निरयावाच सहस्सा पण्णत्ता ? गोयना ! वालुयप्पभाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तर जोयणस्रयसहस्सा हल्लाए उवरि एगं जोयणस्यसहस्सा ओगाहित्ता हेट्टा एग जोयणसहस्स वज्जित्ता मज्ज्ञे छव्वीसुत्तरे जोयणस्य सहस्त्रे एत्थण वालुवप्पभा पुढवी नेरइयाण पण्णरस निरयावास सयवहस्सा भवतीति मक्खाय' हे लगवन् वाला પૃથ્વી કે જે એક લાખ અઠયાવીસ હજાર ચેાજનની પહેાળાઇ વાળી છે. તેની ઉપર નીચેના એક એક હજાર ચૈાજન ક્ષેત્રને ઈંડીને વચમાંના એક લાખ છવ્વીસ હજાર ચૈાજન પ્રમાણવાળા મધ્યના ક્ષેત્રમાં વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના નૈયિકાને ચાગ્ય પંદર લાખ નરકાવાસેા છે. આ બધા નરકે યાવત્ અશુભ છે, તેમાં અત્યંત અશાતારૂપ વેદના છે. TI - Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ झू.१२ क्रस्यां पृथिव्यां कति नरकावासा १६५ वाहल्लाए उरि एग जोयणसयसहस्सा ओगाडित्ता हेहावि एगं जोयणसहस्सं वज्जित्ता मज्झे अहारसुत्तरे जोयणसयसहस्से, एल्थ णं पंकप्पभा पुढवी नेरइयाणं दस निरयावाससयसहस्सा भवतीति सवखाय, तेणं गरगा जाव अजमा णरएस वेयणा' - 'पंकप्पभाएणं भंते ! पुढबीए कीलुत्तर जोषण सय सहस्ल थाहल्लाए उपरि केवइथं ओगाहित्ता हेहा केवइयं बजित्ता मज्झे केवया णिरयावाललयलहरला पणता ? गोजमा! पंकणभाएणं पुढवीए वीसुत्तर जोयण सयलहस्स बाहल्लाए उर्ति एगं जोयण लथलहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठा वि ए जोषणमहर बजिजत्ता मज्झे द्वारसुतरे जोधणस्यसहस्से एस्थणं पंकप्पमा पुढवी जेर हयाणं दह निरयावास. सयलहरुमा भवतीति मक्खाय' हे भदन्त ! एक लाख वीस हजार योजन की खोटी पङ्कपमा पृथिवी के ऊपर और नीचे कितने हजार योजन क्षेत्र को छोडकर बीच के भाग में कितने नरकाचास हैं ? हे गौतम! एक लाख बीस हजार योजन की मोटी पक्षप्रमा पृथिवी के ऊपर नीचे के एक एक हजार योजन के क्षेत्र को छोडकर बीच के एक लाख अठारह हजार योजन क्षेत्र में पङ्कममा पृथिवी के नैरथिकों के दस लाख नरकावास हैं। तेणं णरगा जाव अनुहा, गरएस्सु वेषणा' ये नरक यावत् अशुभ हैं इन नरकों में महा अलात रूप वेदना है। 'पप्पभाए ण भते ! पुढवीए वीसुत्तर जोयणसयसहस्ख बोहल्लाए उबरि केवइय' ओगाहित्ता हेट्टा केवइयं वज्जित्ता मज्झे केवइए केवड्या शिरयावास सयसहस्सा पण्णत्ता गोयमा ! प फप्पभाए ण पुढवीए वीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उत्ररि एग जोयणसयसहस्त्र भोगाहिता हेहा वि एग जोयणसहस्स वज्जित्ता मज्झे अद्वारसुत्तरे जोयणस यसहस्से पत्थ ण पप्पभा पुढवीए णेरइयाण दस निरयावासमयसहस्सा भवतीति मक्खाय' है मगन् એક લાખ વીસ હજાર જનની વિશાળતાવાળી પંકપ્રભા પૃથ્વીની ઉપર અને નીચે કેટલા હજાર જન ક્ષેત્રને છેડીને વચલા ભાગમાં કેટલા નરકા વાસે છે? હે ગૌતમ ! એક લાખ વીસ હજાર એજનની વિશાળતાવાળી પકે પ્રભા પૃથ્વીની ઉપર અને નીચેના એક એક હજાર એજનના ક્ષેત્રને છેડીને વચલા એક લાખ અઢાર હજાર જન ક્ષેત્રમાં પંકપ્રભાના નિરયિકેના દસ alम नपासो छे. 'वेण गरगा जाव असुहा णरएसु वेयणा' मा न२ है। થાવત્ અશુભ છે. અને આ નરકમાં મહા અશાતા રૂપ વેદના રહેલ છે. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - _. जीवामिगमको 'धूमप्पमाए णं भंते ! पुढवीए अट्ठारमुत्तरजोयणसयसहस्सवाहल्लाए उवरि केवइयं ओगाहे ना हेटा केवइयं वज्जेत्ता मज्झे केवइए केवइया निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता, गोयमा ! धूमप्पभाए णं पुढवीए अहारसुत्तरजोयणसयसहस्स बाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेहा एगं जोयणसहस्सं वज्जेता मज्झे सोलसुत्तरे जोयणसयसहस्से, एस्थ णं धूमप्पभा पुढवी नेरइया गै तिनि नेरइयावाससयसहस्सा भवंति त्ति मक्खायं, तेणं णरगा अंतो वट्ठा जाब अमुभा नरएसु वेयणा'। 'तमप्पभाए णं मंते ! पुढवीए सोळसुत्तरजोयणसयसहस्सपाहल्लाए उपरि केवइयं ओगाहेत्ता हेहा केवइयं वज्जेत्ता मज्ज्ञे केवइए केवइया नरगाबाससयसहस्सा पन्नत्ता ? गोयमा ! तमप्पमाए णं पुढवीए सोलमुत्तरजोयण सयसहस्सवाहल्लाए उपरि एगं जोयण सहस्सं ओगाहेत्ता हेहा एणं जोयणसहस्सं रज्जेत्ता मज्ज्ञे चोदसुत्तरे जोयणसहस्से, एत्य णं तमा पुढवी नेरझ्याणं एगे पंचूणे नरयावाससयसहस्से भवतीति मक्खायं ते ण नरगा अंतो वहा जाव असुमा नरगेमु वेयणा'। 'धूमप्पभाएणं भते । पुढवीए' इत्यादि । धूमप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन की है इस में से ऊपर नीचे एक-एक हजार योजन क्षेत्र को छोडकर पीच के एक लाख सोलह हजार योजन के क्षेत्र में तीन लाख नरकावास हैं इन में धूमप्रमा पृथिवी के नैरयिक रहते हैं। ताप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन की है इसमें से एक-एक हजार उपर नीचे का छोडकर वाकी के बीच के क्षेत्र में-एक लाख चौदह हजार योजेन प्रनाण क्षेत्र में तमःप्रभा पृथिवी के नैरयिका के पांच कम एक लाख नरकाचास हैं। _ 'धूमप्पभाए. ण भ ते ! पुढबीए' या धूमप्र पृथ्वीनी विता એક લાખ અઢાર હજાર યોજનાની છે. તેમાંથી ઉપર નીચેના એક એક હજાર જન ક્ષેત્રને છોડીને વચલા એક લાખ સોળ હજાર યોજનના ક્ષેત્રમાં ત્રણ લાખ નરકવાસ છે. તેમાં ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના નિરયિકે રહે છે. તમપ્રભા પૃથ્વીની વિશાળતા એક લાખ સોળ હજાર ચોજનની છે. તે પૈકી એક એક હજાર ઉપર નીચેના ક્ષેત્રને છોડીને બાકીના વીમાના ક્ષેત્રમાં એક લાખ ચૌદ હજાર જન પ્રમાણે ક્ષેત્રમાં તમાપ્રભ પૃથ્વીના નેરયિકના પાંચ કમ એક લાખ નરકાવાસે છે. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावासाः १६७ ... 'अहे सत्तमाए णं भते ! पुढवीए अढोत्तर जोयणस यसहस्सबाहल्लाए उपरि केवइयं ओगाहित्ता, हेट्ठा केत्रइयं वज़्जेत्ता पज्झे केवइए केवइया अणु. तरा महइमहालया महानरगावासा पन्नत्ता ? गोयमा ! अहे सत्तमाए पुढवीए अठ्ठत्तर जोयणसयप्तहस्स वाइल्लाए'उवरि अद्धतेवणं जोयणसहस्साई ओगा. हेचा हा वि अद्धतेवणं जोर्यणसहस्साई वज्जिता समझे तिसु जोयणसहस्सेसु ऐस्थ णं अहे सत्तम पुढवी नेरइयाणं पंच अणुत्तरा महइमहालया महानिरया पन्नता जहा-काले महाकाले रोरुए महारोरुए मज्झे अप्पाहाणे, ते णं महानरमा अंतो बट्टा जाव असुभा नरगेसु वेयणा ॥ छाया-शर्करामभायाः खल भदन्त ! पृथिव्याः द्वात्रिंशसहस्त्रोत्तरयोजनशतसहस्रवाहल्ययुक्ताया उपरितनमांगे कियदवसाय अधस्ताद वर्जयित्वा मध्ये एव कियत्ममाणं कियन्ति नरकाचासशतसहस्त्राणि प्राप्तानि, भगवानाह-हे गौतम ! शर्कराममायाः खलु पृथिव्या द्वात्रिंशत्सहस्त्रोत्तरयोजनसहस्त्रबाहल्योपेताया उपरि एकं योजनसहस्रपवगायाधस्तादेकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्ये त्रिंशत्सहस्रोत्तरयोजनशतसहस्र. अत्र खलु शर्करामभा पृथिवी नैरयिकाणां योग्यानि विंशति नरकावासशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं तीर्थकरैः, ते खल्ल नरका अन्तमध्यमागे वृत्ताकारा यावदशुभा नरकेषु वेदना। बालकापभायाः खलु भदन्त ! पृथिव्या अष्टाविंशत्युत्तर योजनशतसहस्रबाहल्याया उपस्तिनमागे कियदवगाह्याधस्तात् कियवर्जयित्वा मध्ये कियस्ममाणं : अधः सप्तमी पृथिवी की मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है इसमें से ऊपर नीचे के साढेघावन-साढेवाचन ५२॥) हजार योजन प्रमाण क्षेत्र को छोडकर बीच के तीन हजार योजन क्षेत्र में पांच महा नरकाचास हैं। ये नरकावास बहुत ही अधिक विशाल हैं। इनके नाम काल, महाकाल रौरव महारौरव और अप्रतिष्ठान हैं अप्रतिष्ठान सब के मध्य में हैं पृथिवियों के बाहल्य के परिमाण को नरकावास के स्थानभूत मध्य भाग के परिमाण को और नरकावासों की संख्या को प्रकट करने वाली ये चार गाथाएँ हैं અધઃસપ્તમી પૃથ્વીની વિશાળતા એક લાખ આઠ હજાર જનની છે. તેમાંથી ઉપર નીચેના સાડા બાવન સાડા બાવન હજાર જન પ્રમાણુવાળા ક્ષેત્રને છોડીને વચલા ત્રણ હજાર જનના ક્ષેત્રમાં પાંચ મહી નરકાવાસ આવેલા છે. આ નારકાવાસે ઘણુ જ વધારે વિશાળ છે. તેના નામે આ પ્રમાણે છે. કાલ ૧, મહાકાલ ૨. રીરવ ૩, મહારૌરવ ૪ અને અપ્રતિષ્ઠાન ૫, તે પકી અપ્રતિષ્ઠાન નામનું નરકાવાસ સૌની મધ્યમાં છે પૃથ્વીના બાહલ્યના પરિમાણને તથા નરકાવાસના સ્થાનભૂત મધ્યભાગના પરિમાણને અને નરકાવાસેની સંખ્યાને બતાવવા વાળી આ નીચે આપેલ ચાર ગાથાઓ છે. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जीवामिगमसूत्र कियन्ति निरयावासशतसहस्राणि मधानि ? हे गौतम ! वालुकामभायाः पृथिव्या अष्टाविंशत्युत्तर योजनशतसहसवाहरु रोपेताया उपरि एकं योजनसहस्रपवगाह्य अधस्तादेकं योजनसहस्र वर्जयित्वा मध्ये पइविंशतिमहोत्तरे योजनमतसहस्रे । अत्र खलु वालुकाप्रभा पृथिवी नारकाणां पञ्चदशनिरयावासमतामहस्राणि भवन्तीत्याख्यातं तीर्थकरैः, ते खल नरका यारदशुमा नरकेषु वेदना ॥ पडूपमायाः खल्ल भदन्त पृथिव्याः विंशति सहस्त्रोत्तरयोजनमतसलवाहल्योपेताया उपरि कियदवगाहावस्तार कियहर्जयित्या मध्ये शियत्पमाणकं कियन्ति निरयावासशतसहस्राणि घज्ञप्तान गौतम ! पङ्कपमायाः खलु पृथिव्या विंशति. सहसोत्तर योजनशतसहस्र वाइल्पयुक्ताया उपर्य योजनसहसमचगान अधस्तादपि एकं योजनसहस्त्रं वर्जयित्वा मध्ये अष्टादशोत्तरयोजनशतसहस्र, अत्र खलु पङ्क. प्रभा पृथिवी नैरयिकाणां दश निरयायासशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् ते खल नरका यावदशुमा नरकेषु वेदना इति ।। 'धृमममायाः खलु भदन्त ! पृथिव्या अष्टादशसहस्रोत्तरयोजनशतसहस्र बादल्ययुक्ताया उपरितनमागे कियदवगाह्य अधस्ताद् वर्जयित्वा मध्ये किया कियन्ति नरकावासशवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, भगवानाह-हे गौतम ! धूमपभायाः पृथिव्या अष्टादशसहस्र त्तर योजनसहस्र वाहल्ययुक्ताया उपस्तिनमागे एक योजनसहस्रमवगाह्य अधस्ताददि एक योजनसहस्र वर्जयित्या मध्यभागे पोडशसहस्रोत्तर योजनशतसहस्र, अत्र खलु धूममा नैरपिकाणां योग्यानि त्रीणि नरकावास शतसहासाणि भवन्तीत्याच्यातं तीर्थकरैरिति, ते खलु नरका अन्तर्भागे वृत्ताकारा यावत् अशुमा नरकेषु वेदना इति । तमामभायाः खलु भदन्त ! पृथिव्याः पोडश सहस्रोत्तरयोजनशतसहस्रपाइल्ययुक्ताया उपरितनमागे कियदवा ह्य अधस्तात् कियवर्जयित्वा मध्ये कियत्प्रमाणं कियन्ति नरकासशसहस्राणि प्रज्ञप्तानीति प्रश्नः भगवानाह-हे गौतम ! तमामभायाः खल्ल पृथिव्याः पोडशसहस्रोत्तर योजनशतसहस्त्र वाहल्ययुक्ताया उपरित्नभागे एक योजऽसहस्रमवगाह्य अधस्तादेकं योजनसहस्र वर्जयित्वा मध्ये चतुर्दशसहस्रोत्तर योजनशतसहसे, अन खलु तमःममा पृधिव्याः पोडशसहस्रोत्तर योजनशतसहस्राहल्ययुक्ताया उपरितनमागे एकं योजनसहस्त्रमग ह्य:धस्तादपि एक योजनसहस्र वर्जयित्वा'मध्ये नरकावास शतसहस्रे, अत्र खलु तमा पृथिवी नैरयिकाणामेकं पञ्चोपनरकावासशतसहसं भरतीत्याख्यातम् ते खल नरका अन्तमध्ये भागे वृत्ताकारा यावदशुभा नरकेषु वेदना इति ।। अधः सप्तम्याः खलु भदन्त ! पृथिव्या अष्टोत्तरयोजनशतमस्रवाहल्य युक्ताया उपस्तिनमागे कियदव गाह्य अधस्ताव कियहर्जयित्वा मध्ये कियत्प्रमाण Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ १.१२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावासा. १६९ कियन्तः अनुत्तरा महन्महालया महालरकाबासाः प्रज्ञप्ता इति प्रश्नः भगवानाहहे गौतम ! अधः सप्तस्याः पृथिव्या अष्टोत्तर योजनशतसहस्त्रबाहल्याया उपरितनभागेऽर्द्धनिपञ्चाशद् योजनसहस्त्राणि अवगायाधस्तादपि अर्द्धत्रिपञ्चाशद योजनसहस्राणि वर्जयित्वा मध्ये त्रिषु योजनलहस्त्रेषु अत्र खलु अधःसप्तमी पृथिवी नैररिकाणां पञ्चानुत्ता महन्महालया हानिरयाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा कालो महाकालो रौरवो बहारोस्लो मोऽप्रतिष्ठानमामकाः। ते खलु महानरका अन्तर्मध्य भागे वृत्ताकारा याचदशुमा महानाकेषु देदला इति। रत्नप्रभादि पृथिवीना बाल्मपरिमाण-तद्गत नरकाचा योग्य माध्यमिक शुषिरभागपरिमाणलावाससंपापादका इराश्चतस्लो गाथा: सन्तितथाहि-असीयं वतीसं अहाबीसं तहेश वीसंच। अट्ठारस लोलसगं अट्ठसरखेच हिमया ॥१॥ अहसत्तरचतीसं छन्त्रीसं जेब सयसहस्सं तु । अट्ठारस सोलसगं चोइस पहियं तु छट्टीए ।।२।। अद्धतिवृष्ण सहस्सा उबरि अई बजऊणतो भणिया। मज्झे विसु सहस्लेसु होति निश्या वपतलाए ॥३॥ तीसाय पणवीसा पास दस चेव सय सहस्साई । दिल्लि य पंचूोग पंचेन अणुतरा निश्या' ॥४॥ अशीतं द्वात्रिंशतमष्टाविंशतं तथैव विंशतं च । अष्टादशं षोडशकमष्टोत्तरसेवाधस्तना, १॥ अनेन क्रमशो रत्नममादीनां शाहल्यमानं कथितम् तथा अष्ट सप्ततिश्च निशव षड्विंशतिश्च शतसहसं तु । यष्टादश पोडशक चतुर्द रामधिकंतुषष्ठयास् ॥२॥ 'असीयं बत्तीसं-इत्यादि ॥१॥ . "अडसत्तरंच तील' इत्यादि ॥२॥ "अद्धतिक्षण सामा" इत्यादि ॥३॥ "तीसाय पणचीला" ॥४॥ इन चारों गाथाओं का अर्थ स्पष्ट है उनमें प्रथम गाथा में सातों 'असीय बत्तीस त्या ॥ १ ॥ 'अड्सत्तरच तीस' त्याहि ॥ २ ॥ 'अद्धतिवण्ण सहस्ला' इत्या ॥ ३ ॥ 'तीसाय पणवीसा' छत्याहि ॥ ४ ॥ આ ચારે ગાથાઓનો અર્થ સ્પષ્ટ જ છે. તેમાં પહેલી ગળામાં સાતે जी०.२२ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे अर्द्ध त्रिपञ्चाशत्सहस्राणि उपर्यधो वर्जयित्वा ततो भणिताः । मध्ये त्रिषु सहस्रेषु भवन्ति निरया स्वमस्वमायाम् || ३॥ आभ्यां गायाद्वयाभ्यां सप्तसु पृथिवीषु मध्यगतशुपिरभागपरिमाणं कथिनम्, त्रिंशच्च पञ्चविंशतिः पञ्चादश चैव शतसहस्राणि । त्रीणि च पल्योनमेकं १७० पृथिवियों को मोटाई कही गई, है - जैसे- एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी प्रथम पृथिवी १। एक लाख बीस हजार योजन की दूसरी पृथिवी २ | एक लाख अठाईस हजार योजन की तृतीय पृथिवी ३। एक लाख बीस हजार योजन की चतुर्थ पृथिवी ४। एक लाख अठारह हजार योजन की पांचवी पृथिवी ५। एक लाख सोलह हजार योजन की छठी पृथिवी ६। और एक लाख आठ हजार योजन की सारथी पृथिवी है ७| ||१|| दूसरी और तीसरी गाधा में मध्य क्षेत्र का परिमाण कहा है जैसे प्रथम पृथिवी में एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाण का मध्य भाग पोलाण है १ । द्वितीय पृथिवी में एक लाख तीस हजार योजन का मध्य भाग है २। तीसरी पृथिवी में एक लाख छव्वीस हजार योजन प्रमाण का मध्य भाग है ३। चौथी पृथिवी में एक लाख अठारह हजार योजन प्रमाण का मध्य भाग है | पांचवी पृथिवी में एक लाख सोलह हजार योजन का मध्य भाग है ५। छटी पृथिवी में एक लाख પૃથ્વીયેાની વિશાળતા ખતાવી છે. જેમકે એક લાખ એસી હજાર ચેાજનની વિશાળતાવાળી પહેલી પૃથ્વી છે. ૧, એક લાખ ખત્રીસ હજાર ચેાજનની વિશાળતા વાળી ખીજી પૃથ્વી છે. ૨, એક લાખ અઠયાવીસ હજાર ચેાજનની વિશાળતા વાળી ત્રીજી પૃથ્વી છે. ૩, એક લાખ વીસ હજાર ચેાજનની વિશાળતા વાળી ચેાથી પૃથ્વી છે. ૪, એક લાખ અઢાર હજાર ચેાજનની વિશાળતા વાળી પાંચમી પૃથ્વી છે. ૫, એક લાખ સેાળ હજાર ચેાજનની વિશાળતા વાળી છઠ્ઠી પૃથ્વી છે. ૬, અને એક લાખ આઠ હજાર ાજનની વિશાળતા વાળી સાતમી પૃથ્વી છે. ૭, ૫ ૧ ૫ મીજી અને ત્રીજી ગાથામાં મધ્યક્ષેત્રનું પ્રમાણ બતાવેલ છે જેમકે પહેલી પૃથ્વીમાં એક લાખ અઢયાતુર હજાર ચેાજન પ્રમાણુનેા મધ્ય ભાગ-પેાલાણુ છે. ૧, બીજી પૃથ્વીમાં એક લાખ વીસ હજાર ચેાજનના મધ્યભાગ છે. ૨, ત્રીજી પૃથ્વીમાં એક લાખ છવ્વીસ હજાર ચાજન પ્રમાણુના મધ્ય ભાગ છે ૩, ચેાથી પૃથ્વીમ! એક લાખ અઢાર હજાર પ્રમાણના મધ્યભાગ છે. ૪, પાંચમી પૃથ્વીમાં એક લાખ સેાળ હજાર ચેાજનના મધ્યભાગ છે. પ છટ્ઠી પૃથ્વીમાં એક લાખ ચૌદ હજાર Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ سم ० ० ه م ० ० ०० ०. ० ० 5. ० ० . ० ०० ० ० ० ० م م rom प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ .१२ कस्यां पृथिव्यां कति नरकावा ला: ७१ पञ्चैवानुत्तरा निरयाः ॥४.। अनेन सतानां पृथिवीना नरकाबाससंख्या प्रतिपादिता तत्पदंशक कोष्ठक यथा ॥ रत्नप्रभादि सप्तपृथिवीनां वाइल्यादि प्रमाणकोष्ठकम् ॥ संख्या पृथिवी नाम बादल्यम् मध्यभागोलाण नरकावास संख्या (लाख-हजार) । (लाख) | रत्नमभापृथिवी | १,७८००० | ३०,००००० शर्करामभापृथिवी १,३२००० १,३०००० २५,००००० | बालुकापमापृथियो १,२८००० १.२६००० १५,०० पङ्कममापृथिवी १,२०००० १०,०० | धूमपभाधियों १,१८००० समाप्रमापृथिवी १,१६००० १,१४००० ९९९९५ तमस्तमामभापृथिवी १, ८००० । ३००० ॥० १२॥ चौदह हजार योजन को मध्य भाग है। और सातवीं अधःलप्तमी पृथिवी तील हजार योजन का मध्य भाग है ७ ०२-२॥ चौथी गाथा में उपरोक्त मध्य भाग में रहे एए संख्या कही गई है जैसे-प्रथम पृथिवी में तीस लाख लरकावा है १ । द्वितीय पृथिवी में पचीस लाख नरकावास है २। तृतीय पृथिवी में पन्द्रह लाख नरकावास है ३। चौथी पृथिवी से दस लाख नरकाशात है ४ पांचवों पृथिवी में तीन लाख नरकायास है। छठी प्रथियों में पांच कम एक लाख नरकावास है। और सातवीं अधःपममी प्रथिवी में पांच महा नरकावासन सब को कहने वाला कोष्ठ टीका में देख लेना चाहिये । सूत्र-१२॥ એજનને મધમભાગ છે. ૬. અને સાતમી અધ સસમી પૃથ્વીમાં ત્રણ હજાર थालनी भयला छे. ॥ .. २-३ ॥ ચેથી ગાથામાં ઉપર કહેલ મધ્યભાગમાં રહેલા નરકાવાસની સંખ્યા બતાવવામાં આવી છે. જેમકે પહેલી પૃથ્વીમાં ત્રીસ લાખ નરકાવાસે છે. ૧, બીજી પૃથ્વીમાં પચ્ચીસ લાખ નરકાવાસે છે. ૨, ત્રીજી પૃથ્વીમાં પંદર લાખ નરકાવાસે છે. ૩. ચોથી પૃથ્વીમાં દસ લાખ નરકાવાસ છે. ૪, પાંચમી પૃથ્વીમાં ત્રણ લાખ નરકાવાસે છે. પ, છઠી પૃીમાં પાંચ કમ એક લાખ નરકાવાસ છે , અને સાતમી જે અધઃસપ્તમી નામની પૃથ્વી છે, તેમાં પાંચ નરકાવાસો છે. આ બધા કથનને બતાવવા વાળું કેપ્ટક ટીકામાં આપવામાં આવેલ છે, તે જીજ્ઞાસુઓએ તેમાંથી જે વિચારી લેવું. સૂ. ૧૨ છે Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जीवामिगमस्टे सम्भति-नरकावाससंस्थानातिपादनार्थमाह-'इमीले णं' इत्यादि, मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पाए पुढवीए णरगा कि संठिया पन्नत्ता ? गोयमा ! दुबिहा पन्नत्ता तं जहा-आवलियप्पविटा य आवलिय बाहिराय, तत्थ णं जे ते आवलियपविट्रा ते तिविहा पन्नत्ता तं जहा वट्टा तंला चउरला, तत्थ णं जे ते अवलियबाहिरा ते नाणासंठाणलंठिया पन्नता, तं जहाआयकोसंठिया पिठ्ठ पयणगसंठिया कंदु संठिया लोहीसंठिया कडाह संठिया थालीलंठिया पिठरणसंठिया (किमियडसंठिया) किन्नपुडगसंठिया उडवसंठिया सुरसंठिया सुयंगलंठिया नंदिमुयंगसंठिया आलिंगकसंठिया सुघोलतंठिया ददर य संठिया पणवसंठिया पडहलंठिया भेरीसंठिया झल्लरीलंठिया कुतुंवकसंठिया, नालिसंठिया। एवं जाव तसाए। अहे सत्तलाए गं भंते ! पुढवीए गरमा किं सठिया पन्नता ? गोवसा! दुविहा पन्नत्ता तं जहा बढेश तलाय । इसीले णं संते ! त्यणप्पमाए पुढवीए णरगा केवइयं बाहलेणं पल्लत्ता ? गोपमा ! तिल्लि जोयणसहस्साइं बाहल्लेणं पन्नता तं जहा हेहा घणासहस्सं मज्झे. झुसिरा सहस्सं उरि संकुइया सहरूलं, एवं जाव अहे लत्तमाए। इमीले णं भंते ! रयणप्पलाए पुढबीए गरमा केवइयं आयामविक्खंभेणं केवइयं परिकलेवेणं पन्नता ? गोयना ! दुविहा पन्नत्ता तं जहा संखेजवित्थडाय असंखेजवित्थडाथ, तत्थ णं जे ते संखेजवित्थडा ते णं संखेज्जाई जोषणसहरूलाई आयाम विखंभेणं, संखेज्जाइं जोयणसहस्साइं परिकलेवेणं पन्नत्ता तत्थ णं जे ते असंखेजवित्थडा ते णं असंखेजाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१३ नरकावाससस्थाननिरूपणम् ____१७३ पन्नत्ता, एवं जाव तमाए। अहे सत्तमाए णं भंते ! पुच्छा गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता तं जहा-संखेज्जविस्थडे य असंखेज्ज वित्थडा य, तस्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडे से णं एवं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं, तिन्नि जोयणलयलहस्साइं लोलसलहस्साइं दोन्निय लत्तावीसे जोरणसए तिन्नि कोसेय अटावीसं च धगुसरं तेरसय अंगुलाई, अद्धंगुलयं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ता । तत्थ णं जे ले असंखेज्ज वित्थडा ते णं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई आयामविकखंभेणं, असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पन्नता ॥सू० १३॥ छाया-एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः किं संस्थिताः प्रज्ञप्ताः ? गौचम्म ! द्विविधाः प्रज्ञप्ता स्तद्यथा भावलिकापविष्टाश्च आवलिकावाद्याश्च । तत्र खलु ये ते आवलिका प्रविष्टास्ते त्रिविधाः प्रज्ञप्ता-स्तद्यथा-वृत्तास्पताश्चतुरस्राः। तत्र खलु ये ते आवलिका बाह्यास्ते नानासंस्थानसंस्थिताः मज्ञप्ता, तद्यथा-अयकोष्ठ संस्थिताः १, पिष्टपचनक संस्थिताः २ कन्दुसंस्थिता ३, लोही (कोडी) संस्थिताः ४, कटाह संस्थिताः ५ स्थाली संस्थिताः ६ विठरकसंस्थिताः७ किमियडसंस्थिता ८ कीर्णपुटक संस्थिताः ९ उटज संस्थिताः१०, मुरजसंस्थिताः ११ मृदङ्गसंस्थिताः १२, नन्दीमृदङ्ग संस्थिताः १३ आलिङ्गक संस्थिताः १४, सुघोषसंस्थिताः १५, दर्दरकसंस्थिताः १६, पणवसंस्थिताः १७ पटइसंस्थिताः १८, भेरी संस्थिताः १९ झल्करीसंस्थिताः २० कस्तुवकसंस्थिताः २१, नाडीसंस्थिता:२२ एवं यावत्तमायाम् । अधासप्तस्यां खलु भदन्त ! पृथिव्यां नरकाः किं संस्थिता मञ्जप्ताः गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ता स्तद्यथा-वृत्ताश्च व्यस्राश्च । एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नपमायां पृथिव्यां नरकाः कियत्काः वाहत्येन प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! त्रीणि योजनसहस्राणि वाइल्पेन प्रज्ञप्ताः तद्यथा-अधस्तने घनाः सहस्रम् मध्ये शुपिराः सहस्रम्। उपरि संकुचिताः सहस्त्रम् । एवं यावदधः सप्तम्याः। एतस्याः ख महन्त ! रत्नपभायाः पृथिव्याः नरकाः कियका आयामविष्कम्भेग कियत्काः परिक्षेपेग प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! द्विविधाः प्रजपता तद्यथा-संख्येय विस्तराखासंख्ये यविस्तराश्च तत्र खल ये ते संरूपे यविस्तरास्ते Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे ૯૪ खल्लु संख्येयानि योजन सहस्राणि आयाम - विष्कम्भेण, संख्येयानि योजन सहस्राणि परिक्षेपेण मक्षप्ताः । तत्र खल्ल ये ते असंख्येयविस्तरास्ते खलु असंख्येयानि योजन सहस्राणि आयामविष्कम्भेण । असंख्येयानि योजनसहस्राणि परि क्षेपेण प्रज्ञप्ताः । एवं यावत्तमायाम्। अधः सप्तम्यां खलु भदन्त ! पृच्छा, गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - संख्येसविस्तरथासंख्येयविस्तराच, तत्र खलु यः संख्येयविस्तरः स खलु एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेग त्रीणिशतसहस्राणि षोडशसहस्राणि द्वे सप्तविंशत्यधिके योजनशवे, त्रयः क्रोशाच अष्टविंशञ्च धनुः शतं त्रयोदशाङ्गुलानि, अर्द्धाङ्गुलञ्च किश्चिद्विशेषाधिकं परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् । तत्र खलु ये ते असंख्येय विस्तरास्ते खलु असंख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण असंख्येयानि योजन सहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्ताः || १३|| टीका- 'इमीसे णं संवे ! रयणप्पमार पुढवीए' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नममार्या - प्रथमनार कपृथिव्याम् 'परगा कि संठिया पन्नत्ता' नरकाः किं संस्थिताः प्रज्ञप्ताः ? रत्नममा सम्बन्धिनरकाणां संस्थानं कीदृशं भवतीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविधा पन्नत्ता' रत्नममा नरकाः द्विविधाः-द्वि प्रकारकाः यज्ञप्ता - कथिताः द्वैविध्यं दर्शयति- 'तं जहा अब सूत्रकार नरकावासों के संस्थान का कथन करते हैं'इमीणं भरते ! रणनभाए' पुढचीए-इत्यादि । ! टीकार्थ- गौतम ने प्रभु से ऐखा पूछा है - 'हमी से णं भंते! रयनध्यभा पुढवी 'हे भदन्त । इस रत्नप्रभा पृथिवी के नरक' किं संठिया पत्ता 'कैसे संस्थान वाले कहे गये हैं ? अर्थात् रत्नप्रभा पृथिवी सम्बन्धी जो नरक हैं उनका आकार फैला है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'नोयमा दुबिहा पन्नता' हे गौतम! प्रथम पृथिवी में जो नरकावास हैं वे दो प्रकार के कहे गये है- 'तं जहा' जैसे- 'आवलिया हवे सूत्रार नरवासना संस्थानातु उथन उरे छे. 'इमीसे ण' भवे श्यणप्पभार पुढवीए' त्याहि टीडार्थ — गीतभस्वाभी अलुने खेषु पूछयु छे 'इमीसे णं भंते ! रयणभाए पुढत्रीए' हे भगवन् मा रत्नप्रभा पृथ्वीना नरहे। 'किं संठिया पण्णत्ता' કેવા સંસ્થાનવાળા કહ્યા છે ? અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં જે નરકાવાસા છે. તેના આકાર કેવા પ્રકારના છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને डे छे ! 'गोयमा ! दुविधा पण्णत्ता' हे गौतम! पडेली पृथ्वीमां ने नर छे, ते मे प्रारना वामां आवे छे. 'त' जहा' ते मे अहारी मा प्रभाये Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२.१३ नरकावास संस्थाननिरूपणम् १७५ 1 इत्यादि, 'तंजहा' तद्यथा - आवलिया पविद्वाय' आवलिका परिष्टाच 'आवलिया 'बाहिरा' आवलिका बाह्याथ, उभयत्रापि च शब्दौ उभयेषामशुमत्य तुल्यता सूचकौ तत्रावलिका प्रविष्टा नाम अष्टासु दिक्षु समश्रेण्यवस्थिताः आवलिकासु श्रेणीषु प्रविष्टा व्यवस्थिता इति आवलिका प्रविष्टाः । ' तत्थ णं जे ते आवलियविद्वा' तत्र खलु ये ते नरका आवळिका अवलिकायां श्रेण्यां व्यवस्थिताः 'से विविहा पन्नत्ता' ते आवलिका प्रविष्टा नरकास्त्रिविधालिप्रकारका प्रज्ञा कथिता त्रैविध्यं दर्शयति--'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहां' तथा बट्टा ला चउरंसा' वृत्तास्वस्राचतुरस्रा चतुकोणाः चतुविभागेषु समरूपेणावस्थिता इति । 'तस्थ णं 'जे ते आवलिया बाहिरा' तत्र खलु ये ते नरका आवलिका बाह्या: 'ते जाणापरिद्वाय आवलिया बाहिराय' आवलिका प्रदिष्ट और आवलिका बाह्य यहां जो दोनों पदों के साथ 'च' का प्रयोग किया गया है वह दोनों में समान रूप से अशुभता है इस बात को सूचित करने के लिये किया गया है जो नरकादास आठ दिशाओं में समश्रेणि में अवस्थित हैं वे नरकावास आवलिका प्रविष्ट है । आयलिका शब्द का अर्थ श्रेणी है । इस श्रेणि में जो व्यवस्थित होते हैं वे भावलिका प्रविष्ट है । 'तत्थ णं जे ते आवलियप्पविद्वा ते तिविहा पत्ता' इन में जो आंचलिका प्रविष्ट नरक है वे तीन प्रकार के कहे गये हैं'तं जहा' जैसे - 'बट्टा तथा ' 'वृत्त-गोल - ज्यख - तिखूटे, और चतुरस्रचौखुटे 'तत्थ णं जे ते आमलिया बाहिरा तथा जो आवलिका प्रविष्ट से भिन्न आलिका बाह्य नरकावोस हैं वे 'नाणासठाणसंठिया छे. 'आवलियपविद्वाय आवलिया बाहिराय' भावसि प्रविष्ट भने व्यावसिा બાહ્ય. યાં જે એ પદોની સાથે ' શબ્દના પ્રયોગ કરવામા આવ્યે હાય તે ખન્નેમાં સમાનપણાથી અશુભપણુ છે, એ વાતને સૂચવવા માટે કરવામાં આવેલ છે. જે નરકાવાસેા આઠ દિશાઓમાં સમશ્રેણીમાં રહેલા છે. તે નરકા વાસે આવલિકા પ્રવિષ્ટ કહેવાય છે. આવલિકા શબ્દના અર્થ શ્રેણી છે. આ श्रीमां ने व्यवस्थित होय हे, ते भावसि प्रविष्ट उडेवाय छे 'तत् जे ते आवलियप्पविट्टा वे तिविहा पन्नत्ता' तेमां ने भावसिा प्रविष्ट २४ छे. ते त्र प्रहारना उसेवामां आवे छे. 'त' जहा' ते प्रा या अभावे छे. 'वट्टा तसा चउर सा' वृत-गो यस-त्रिए भने तुर शार वा 'तस्थ णं' जे ते आवलिया बाहिरा' तेमां ने भावसि પ્રષ્ટિથી જુદા એટલે કે આવલિકા जानरावासी छे ते 'नाणासं ठाण सठिया पन्नत्ता' ने अहारना सारे 'त' जहा' ते या अभाएँ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीचाभिगमसूत्रे १७६ संठाणसंठिया पन्नत्ता' वे आवलिका वाह्या नका नानासंस्थान संस्थिताः प्रज्ञताः - कथिताः 'वं जहा' तद्यथा- 'अयको संठिया' अयः कोष्ठ संस्थिताः अयः कोgiries: neद्वत् संस्थिताः इत्यय कोष्ठमंस्थिता इति १ । 'पिपयणग संठिया' पिष्टपचनसंस्थिताः, यत्र सुरानिर्माणाय पिष्टादिकं पच्यते तत् पिष्टपचनकं तद्वत् संस्थिता इति पिष्टपचन संस्थिता २, तथा-कंदू संठिया' कन्दुसंस्थिताः कन्दुः कान्दविकस्य मिष्टान्नमाकपात्रम् दत् संस्थिताः ४ ' कडाइ संठिया' कटाहसंस्थिताः - कटाहः शाकादिपाचकः पात्रविशेषः उद्वत् संस्थिता इति पटास स्थिताः ५ 'थाली संदिश' स्थाली ओदनादि पाचनपात्रं तद्वत् संस्थिता इति स्थाली संस्थिताः ६ 'पिटरसंठिया' पिठरकं यत्र प्रभूतजन योग्यं धान्यादिकं पच्यते तद्वत् संस्थिता इति पिठरकसंस्थिता ७ किमियग संठिया' 'कृमिकसंस्थिताः' जीवविशेष युक्ताः इदं पदं पुस्तकान्तरे न लभ्यते पन्नन्ता' अनेक प्रकार के आगरों वाले है- 'तं जहा' जैसे- 'अयकोह संठिया' कितनेक लोहे के कोष्ठ के जैसे आकार वाले हैं कितनेक 'पिट्ठ पयणग संठिया' मदिरा बनाने के लिये जिसमें पिष्ट आदि पकाया जाता है उस वर्तन के जैसे आकार वाले हैं 'कंदु संठिया' कितनेक कन्दु - हलवाई के पाक पात्र के जैसे आकार वाले हैं 'लोही संठिया ' कितनेक लोही-तबा के जैसे आकार वाले है किनेक 'कडाह-मंठिया' कटाह - कडाही - के जैसे आकार वाले हैं 'थाली - संठिया' कितनेक थाली-ओदन पका ने के बरतन के जैसे आकार वाले हैं। कितनेक 'पिटर संठिया' जिसमें बहुत अधिक मनुष्यों के लिये भोजन आदि पकाया जाता है ऐसे पिठरक के जैसे आकार वाले हैं कितने 'कि मियम संठिया' कृमिक जैसे- आकार वाले हैं यह पद कहीं कहीं नहीं - छे 'अकोट खट्टिया' डेटला सोडन ष्ठना लेवा सरवाजा छे. हेटसा 'पिट्ट पयणग सं'ठिजा' भहिरा हा३ मनाववा भाटे मां पिष्ट-सोट विगेरे शंधवामां आवे छे. ते वासना देवा आमरना होय से 'कंदु संठिया ' કેટલાક કનું કદઈના રાંધવાના પાત્રના આકાર જેવા આકાર વાળા હાય છે 'लोहोस 'ठिया' કેટલાક લેાઢી—તવાના જેવા આકારવાળા છે. કેટલાક 'कडाहा संठिया' याना नेवा भारवाणा होय छे. 'थाली मठिया' टा ભાત મનાવવાના વાસણના આકાર જેવા આકારવાળા હાય છે, અને ala 'पिटर संठिया' भी वध रे भाणुसो भाटे लोन सामग्री बनावी शाय तेवा परत्ना लेवा भारवाणा होय छे, डेटला 'किमियग सठिया' भि नेवा भारत्राजा होय छे. आ यह हैटवाई श्रथम आवाम Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका ठीका प्र.३ ३.२ सू.१३ नरकावाससंस्थाननिरूपणम् १७७ 'किमपुडगसंठिया' कीर्णपुटकसंस्थिताः 'उडय संठिया' उटजसंस्थिता:, उटजस्तापसाश्रमस्तद्वत् संस्थिताः९ । 'मुरयसंठिया' मुरजसंस्थिताः, मुरजो वायविशेषः तद्वत् संस्थिता इखि सुरजसंस्थिताः १० 'सुयंगठिया' मृदङ्गसंस्थिताः । मृदङ्गोऽपि वाचविशेष एव तद्वत् संस्थिताः ११ । 'नंदीमुयंग संठिया' नन्दीमृदङ्गसंस्थिताः १२ 'आलियरसंठिया' आलिंजरसंस्थिताः आलिंजरो मृषयो मुरजस्तद्वत संस्थिता इति आलिजरसस्थिताः १३ 'सुघोससंठिया' सुघोषसंस्थिताः सुधोषो देवलोकप्रसिद्धो घण्टा विशेष आबोधबिशेषो वा तद्वत् संस्थिताः १४ 'ददरयसंठिया दर्दरकसंस्थिताः दो नाधविशेष स्तवन संस्थिताः १५ 'पणवसंठिया' पण वाचविशेषो लोकप्रसिद्ध स्तद्वद् संस्थिता इति पणवसंस्थिताः १६ 'पडह संठिया' पटह संस्थिताः पटहो बाघविशेषो लोकपसिद्ध है कितनेक-' शिन्न पुडा सं कीर्ण फुटक के जैसे आकार वाले हैं कितनेक 'उडथ संठिया बडज झोपड़ी सापखाम-के जैसे आकार वाले हैं । फितनेक 'शुरवलंठिया' सुरज-वाद्यविशेष-से जैले आकार वाले हैं कितनेश 'मुयंगठिया वृदङ्ग-वाद्यविशेष - के जैसे आकार वाले हैं। क्षितनेक-'नंदीऽयंगठिया' नन्दी मृदंग के समान स्थित हैं। कितनेक 'आलिंजर संठिया आलिंजर-मिट्टी के बने हुए मृदंग के समान आकार वाले है अर्थात् कोठो के जले कितनेक 'सुघोलसंठिया' सुघोष-देवलोक प्रसिद्ध सुघोष घंटा के जैसे आकार वाले है कितनेक 'ददरय संठिया' दरनाम के वाद्यविशेष के जैसे आकार वाले हैं। 'पणव संठिया' कितनेक पण नामक वाद्यविशेष के जैसे आकार वाले है छोटा नगारा कितनेक 'पटह संठिया' पटह (ढोल) नाम के वाद्यविशेष भावेद नथ. सार 'किन्नपुडगसठिया' ही घटना २१ मा२ पाणाहाय छ मा 'उडयसठिया' 620-जु५-तापसाश्रमना ! मा.२. पाहाय छे. रखा 'मुरयसठिया' भृग-पाचविशेषना २१ मार पापा डाय छे. ४८८18 'नदीमुयंगसठिया' नदी भृगना २१मारवाणा छे. मन 'आलिंजरसठिया' मालि२-भाटिना मनावेत माना આકાર જેવા આકારવાળા છે. એટલે કે કેઠીના આકાર જેવા છે मर ४८ 'सुघोसमठिया' मा सुघोष विभा प्रसिद्ध सुधाष नामना टन 241 मा.२१ छ. ४८मा 'पहरयसठिया' ४६°२नामना पाचविशेषना 24 मा२वार 2. 'पणवसठिया' als पायुक् नामना वाचविशेष रे मारवा डाय छे. 2013 'पटह सठिया' पट-टास नामना वाचविशेषना २१ मा१२ हाय छे. टमा 'भेरीसठिया' मेशनामना पाविशेषनामे मार पाणा जी० २३ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे १७८ एव तद्वत् संस्थिता इति पटहसंस्थिताः १७ 'भेरीसंठिया' भेरी ढक्का तद्वत् संस्थिता इति भेरी संस्थिताः १८ 'झल्लरी संठिया' झल्लरी संस्थिताः झल्लरी - चर्मावनद्धा विस्तीर्णवलयाकारा वाद्यविशेषरूपा तद्वत् संस्थिता इति झलरी संस्थिताः १९ 'कुत्थुवग संठिया' कुस्तुम्नकः -- वाद्यविशेष स्वछत् संस्थिता इवि कुस्तुम्बक - संस्थिताः २० 'नाली संठिया' नाडी- घटिका तद्वत् संस्थिता इति नाडीसंस्थिताः २१ नरका रत्नमायामिति । अत्र द्वे संग्रहमा - 'अबको १ विद्युपयणग-२ कंद ३ कोही ४ कडाह ५ संठाणा । थाली ६ पिटरग ७ किष्णग ८उडर ९ मुरवे १० मुयंगे य ११ ॥१॥ नदि सूयंगे १२ आलिंग १३ सुधोने १४ दद्दरे १५ च पणवे १६ | पडद्दगे १७ भेरी १८ झल्लार १९ कुत्थु वग२० नाडि संठाणा' ॥२॥ अय: कोष्ठक - पिष्टपचनक- कन्दु-लहि-पटाह- संस्थानाः । स्थाली-पिठ रक - फीर्णक- उटजो पुरजो मृदङ्ग ||१|| नदिमृङ्गः आलिङ्गः सुघोषः दर्दरव पणरथ । पटहक - भेरी झल्लरी कुत्थुचग नाडीह यानाः इति ॥ 'एवं जाव तसाए एवं' यावत् नाममा पर्यन्तम् । एवं यथा रत्नप्रभाया नरकाः कथिता स्वथैव शर्कराप्रभा वालुकाममा पद्मना धूपमा सम्मभानामपि नरका के जैसे आकार वाले है । कितवेक 'भेरी संठिया' भेरी नामक वाद्य विशेषके जैसे आकार वाले है जितनेक 'झ ेलरी लेठिया' चमडे से मडी हुई विस्तीर्ण वलयाकार झल्लरी नामक वाय विशेष के जैसे आकार वाले है । 'कुम्भुं संठिया' कितनेक कुस्तुंवक वाद्य विशेष के जैसे आकार गये है । मिलनेक 'नाडी संठिया' नाडी - जल घटिका के जैसे आकार वाले है २१। यहां दो संग्रह गाथाएं हैं'rosis' इत्यादि, इनका अर्थ उपर प्रमाण समझदेवें । 'एवं जाव तमाए' जिस प्रकार से रत्नप्रभा के नरक कहे गये हैं उसी तरह से तमा पृथिवी तक कह देना चाहिये जैसे- शर्कराप्रभा, बालुकाप्रथा, पङ्कपमा, धूमप्रभा और तमःप्रभा के नरकों का भी कथन छे. डेटला 'झलरी सांठिया याभडाथी भठेशी विस्तृत सोयाना सार જેવા ઝાલર નામના વાદ્યવિશેષના જેવા આકાર वाजा हे 'कुत्थु वगख'ठिया' डेंटला कुस्तु' वाद्यविशेषता वा 'आरवाजा छे 'नाडी सठिया ' નાડી જલઘટિકાના જેવા આકારવાળા છે ૨૧ા આ સમધમાં એ સગ્રહ गाथाओ छे. 'अयकोट्टे' इत्यादि मानो अर्थ उपर उस प्रहारथी सम सेवे ' एवं जाव तमाए' ? प्रमाणे रत्नला पृथ्वीना नरडे उडेला छे. એજ પ્રમાણે તમા નામની પૃથ્વી સુધી કથન કરવું જોઇએ. અર્થાત્-શર્કરા પ્રભા વાલુકાપ્રભા પકપ્રભા, ધૂમપ્રભા, અને તમઃપ્રભના નરકેતુ' પણ થત Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ शु.१३ नरकावाससंस्थाननिरूपणम् १७९ वक्तव्याः, आलापपकारस्तु एवम्-'सक्करप्पभार णं भंते ! पुढवीए नरगा कि संठिया पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तं जहा भावलियप्पविठ्ठा य आवलिय वाहिरा य, तल्थ णं जे ते आवलियप्पविष्टा ते तिविहा पन्नत्ता तं जहा बट्टा तसा चउरंसा ? तत्थ णं जे ते आलिए वाहिरा ते णं जाणास ठाणसठिया पन्नत्ता तं जहा-अयकोहमाठेया' इत्यादि, एवं बालकाममा पङ्कममा घृगममा तमः. पमा मूत्रालापका अपि स्वयमेवोहनीयाः। ___ अधः सप्तमी पृथिवीविषयकं खून सूत्रकारः स्वयमेव दर्शयति-'अहे सत्तमाए गं' इत्यादि, 'अहे सत्तमाए णं भंते ! पुढचीए' अधः सप्तम्यां खलु भदन्त ! पृथिव्याम्, 'गरणा किं सठिया पत्नत्ता' नरकाः किं संस्थिताः किलिद संस्थिता मज्ञप्ताः १ इलि प्रश्ना, भगवाना-गोयमा !' इत्यादि, 'गोलमा' हे गौतम ! 'दुविहा परत द्विविधा:-द्विपकारकाः प्रसप्ता-कथिताः 'तं जहा' तघथा'बटूटे य तंशय' वृत्तो वृत्ताकारश्च व्यस्त्राश्च । अधः सप्तम्यां पृथिव्यां ये नरका: करलेना चाहिये यहां आलाप प्रकार 'लहरमाणं संत पुढीए परमा' इत्यादि स्वयं कर लेना चाहिये। ___अभालतमी पृथिवी के नरकों के कथन के सम्बन्ध में स्त्रकार स्वयं ही कथन करते है- गौरमाने प्रभुले ऐसा पूछा-'अहे लसमाएणं अंते ! पुढीए करता कि संठिया पन्नत्ता' हे भदन्त ! अध:सप्तमी पृथियो के भरत किए आकार वाले कहे गये है ? उन्टर प्रभु कहते हैं-'गोषमा ? दुविधा पानता' हे गौतम ! अधः सप्तली पृथिवी के नरक दो प्रकार के कहे गये-'तं जहा' जो "वडे यतलाच एक वृत-गोलाकारह और चार वस्त्र लिखूटे क्योकि अयालयतमी पृथिवी ४२ मे. तनमा ५ प्रामा प्रभाव छ.-'सकरप्पभाएणं भंते । पुढवीए णरगा' त्याहारथी २५५' यनावाने सभ७ वा. અધસપ્તમી પૃથ્વીના નરકોના કથન સંબંધમાં સૂત્રકાર સ્વયં કથન हरे छे. समां गौतमस्वामी प्रसुन मे पूछे---'अहे सत्तमाएणं भंते ! पुढवीए गरगा किं सठिया पन्नत्ता' सन् २माससमी पृथ्वीना है। કેવા આકારવ ળ હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામી ને કહે छ -'गोयना ! दुविहा पन्नत्ता' 8 गौतम ! म ससमी पृथ्वीना नरहे। બે પ્રકારના કયા છે. ___'तं जहा' ते मा प्रमाणे छ. 'वट्टे य तंसाय' मे वृत्त गौण मा७.२१. मन यार 'यस' बि२ छ म-माससमी पृथ्वीमा २31 छ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे सन्ति से आलिका प्रविष्टा एव न तु आवळिका वाह्याः आवलिका प्रविष्टा अपि काळमहाकालादयः पञ्चैत्र, नाधिकाः, तत्र मध्ये अप्रतिष्ठाननामाभिधानो नरकेन्द्रो वृत्ताकारः, सर्वेषामपि नरकेन्द्राणां वृत्ताकारत्वात् शेषास्तु चत्वारः काळमहाकालरौरवमहारौरवाः पूर्वादिषु दिक्षु वर्तमानास्ते च व्यस्राः, अतएवोक्तं वृत्तश्च त्र्यस्राश्चेति । सम्प्रति नरकावासानां बाहल्यप्रतिपादनार्थमाह-' इमीसे णं' इत्यादि, 'इमी से णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए' अस्यां खलु भदन्त ! रत्नमभायां पृथिव्याम् 'नरगा केवइयं वाइल्लेणं पन्नत्ता' नरकाः कियत्काः वाहल्येन वहळस्य भावो चाल्यं पिण्डभावः तेन बाहल्येन प्रज्ञप्ताः कथिताः ? इति नरकवाल्यविषयकः प्रश्नः सूत्रे 'केवयं' इति प्राकृतत्वादेकवचनम्, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, में जो नरक हैं वे आवलिका प्रविष्ट ही है आवलिको बाह्य नहीं हैं । आवलिका प्रविष्ट होने पर भी वे पांच ही है अधिक नहीं । इनमें जो अप्रतिष्ठान नामक नरकावास है वह इनके मध्य में है और यह गोलाकार वाला है क्योंकि जितने भी नरकेन्द्र हैं वे सब गोल आकार वाले ही होते हैं। बाकी के और जो चार नरकावास है -काल, १ महाकाल, २ रौरव ३ और महा रौरव ४ ये पूर्व आदि चार दिशाओं में हैं । अब सूत्रकोर नरकावासों की मोटाई प्रकट करते हैं - इसमें गौनम ने प्रभु से ऐसा पूछा है 'इमी से णं भंते! रयणप्पभार पुढवीए' हे भदन्त ! इस रस्नममा पृथिवी में 'नरगा' जो नरक हैं वे 'केवहथं बाहल्लेणं पन्नत्ता' कितनी मोटाई वाले कहे गये है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - उत्तर - 'गोयमा ! તે આવલિકા પ્રવિષ્ટ જ છે. આવલિકા ખાદ્ય નથી આવલિકા પ્રવિષ્ટ હાવા છતાં પણ તે પાંચ જ છે. વધારે નથી તેમાં જે અપ્રતિષ્ઠાન નામનું. નરકેન્દ્ર छे. ते यानी मध्यभां हे अने ते गोण आारवाणु हे प्रेम-भेटला નરકેન્દ્રો છે. તે બધા ગોળ આકારવાળા જ હાય છે. બાકીના ખીજા જે ચાર નરકાવાસો છે. જેમકે-કાલ ૧ મહાકાલ ર, રૌરવ ૩ અને મહારૌરવ ૪ આ ચારે પૂર્વ વિગેરે ચારે દિશાઓમાં છે. હવે સૂત્રકાર નરકાવાસેાની વિશાળતા પ્રગટ કરે છે. તેમાં ગૌતમસ્વામી એ પ્રભુને એવું પૂછ્યું' છે કે 'दमी से णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' के लगवन् ! मा रत्नप्रभा पृथ्वीभां 'नरगा के नरहै छे. ते 'केवइयं वाइल्लेगं पन्नत्ता', डेंटली विशाजता बाजा કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમ સ્વામીને કહે છે કે Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ स.१३ नरकाबाससंस्थाननिरूपणम् १८१ 'गोयमा'हे गौतम तिन्नि जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ता' त्रीणि योजनसहस्राणि बाहल्येन नरका: प्रज्ञप्ता:-कथिता इति । 'तं जहा' तद्यथा-हेट्ठा घणा सहस्स' अधस्तने पादपीठे धनानिचिताः सहस्रम् योजनसहस्रम् 'माझे सुसिरा सहस्स' मध्ये पीठस्योपरि मध्यभागे सुपिराः सहस्रं योजनसहस्रम् 'उपि संकुइया सहस्सं' उपरि संकुचिताः शिखराकृत्या संकोचमुपगता योजनसहस्रम् तत एवं सङ्कलनया नरकावासानां त्रीणि योजनसहस्राणि बाहल्यतो भवन्तीति । ‘एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधासप्तम्याम् एवं शराप्रभात आरभ्य सप्तमपृथिवी पर्यन्तम् । पतिपृथिव्यां नरकावासानां त्रीणि सहस्राणि बाहल्येन भवन्तीति ज्ञातव्यानि । तदुक्त मन्यत्रापि-- 'हेटा घणासहरसं, उप्पि संकोचतो सहरसं तु । मज्झे सहस्सं सुसिरा, तिनि सहस्सुस्सिया नरया' ॥१॥ तिमि जोयणा सहस्साई पाहल्लेण पन्नत्ता' हे गौतम ! ये नरक तीन हजार योजन की मोटाई वाले कहे गये हैं। 'तं जहा' जैसे-'हेट्ठा घणासहस्सं' ये अधस्तनपादपीठ में एक हजार योजन तक घनरूप से निचित है। 'मज्झे सुसिरा सहस्स' पीठ के ऊपर में मध्यभाग में ये एक हजार योजन तक सुषिर (खाली) हैं तथा-'उपि संकुझ्या सहस्सं' अपर में शिखर के जैसे एक हजार योजन तक ये संकुचित होते गये हैं। इस प्रकार से ये मोटाई में तीन हजार योजन के हो जाते हैं। 'एवं जाय अहे सत्तमाए' इसी तरह से शर्कराप्रभा से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी तक हर एक पृथिवी में वहां के नरकावासों की मोटाई तीन २, हजार योजन की है-ऐसा जानना चाहिये, अन्यत्र भी ऐसा ही कहा गया है'गोयमा! तिन्नि जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पन्नत्ता' है गोतम ! म न२४३ १२ योननी विशालता वाणा सा छे. 'तं जहा' त मा प्रभात 'हेटा घणसहस्सं ते नयनी पापामा र योन सुधी धनपाथी नायत-नाम २७सा छ, 'मज्झे सुसिरा सहस्सं थीइन। 6५२ना मध्य भागमा ते २ योन सधी सबिर (मासी) छे. तथा 'उप्पि संकुइया सहरसं' ઉપરમાં શિખરના જેવા એક હજાર યોજન સુધી તે સંકુચિત થતા ગયા છે. मा शत मा विशालतमा २ याना थ तय छे. 'एबं जाव अहे ઘરમાણ આજ પ્રમાણે શર્કરપ્રભાં પૃથ્વીથી લઈને અધ સમી પૃથ્વી સુધી દરેક પૃથ્વીમાં ત્યાંના નરકાવાસો ની વિશાળતા ત્રણ હજાર યોજનની છે. તેમ સમજવું અન્યત્રપણું એમજ કહ્યું છે. Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जीवामिगमसूत्र 'अधस्तनाद् धनाः सहस्रमुपरि संकोचतः सहसं तु । मध्ये सहस्रं शुपिरा त्रीणि सहस्राणि उच्छिाः । इतिच्छाया' सम्पति-नरकावासानामायामविष्कम्भ प्रतिपादनार्थमाह-मीसे णं मंते । इत्रादि, 'हमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए' एतस्यां खलु मदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्याम् ‘णरगा' नरकाः 'केवइयं आयामविक्खंभेणे' कियत्का आयामविष्कम्भेण किं प्रमाणा आयामविष्कम्भेण, आयामश्च विष्कम्भश्चेति समाहार स्तेन 'केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ता' कियत्काः परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता:-कथिता नरका इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहा पन्नत्ता' द्विविधा:-द्विभकारका नरकाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः 'तं जहा' तद्यथा-'संखेज्ज वित्थडाय' संख्येय विस्तराश्च संख्येयः-संख्येययोजनप्रमाणो विस्तारो येषां 'हेवाघणा सहस्सं उपि संकोचतो सहस्सं तु। मज्झे सहस्सं सुसिरा तिन्नि सहस्तुसिया नरया ॥१॥ इस गाथा का अर्थ स्पष्ट है । अब सूत्रकार नरकाबासों का आयाम और विष्कम्भप्रतिपादन करते है इस में गौतमने प्रभुश्री से पूछा है-'इमीसे गंभंते ! रयणप्पमाए पुढ वीए' हे भइन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो 'नरगा' नरक हैं वे केवय आयाम विक्खंभेणं' कितनी लम्बाई पाले एवं चौडाई वाले कहे गये हैं और 'केवइयं परिक्खेवेणं पन्नत्ता' कितना इनका परिक्षेप-घेरा कहा गया हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! दुविधा पन्नसा' हे गौतम ! प्रथम पृथिवी में दो प्रकार के नरक कहे गये हेदा घणासहस्सं उपि संकोचतो सहस्संतु । मझे सहस्स सुसिरा तिन्नि सहस्सुसिया नरया ॥१॥ આગાથાનો અર્થ સ્પષ્ટ જ છે – હવે સૂત્રકાર નકાવાસોના આયામ અને વિભનું પ્રતિપાદન કરે છે. भाभा गौतम स्वामी से प्रसुन स पूछे छे है-'इमीसे णं भवे ! रयणप्पभाए पुढ जीए' 3 भगवन् मा २(नामा पृथ्वीमा २ 'नरगा' त न२। छे. a 'केवइयं आयामविक्खंभेगं' सीमा व भने ४८सी पाg ani ४डस छ ? भने, 'केवइयं परिक्खेवेणं पण्णत्ता' मन तना परिक्ष५ ३२०३। तो ४९ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४९ छ है-'गोयमा ! दुविहा पण्णता . गीतम! पडेसी पृथ्वीमा में प्रा२ना न२४ ४९स छ. 'तं जहा' १ मा प्रमाणे Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ १.१३ नरकावालसंस्थाननिरूपणम् १८३ ते संख्ये पविस्ताराः 'असंखेन्जविस्थडाय' असंख्पेयविस्ताराश्च असंख्येयः असंख्येय योजनमाणो विस्तारो येषां ते असंख्येययोजनविस्ताराः, तथा च संख्येयविस्तृतासंख्येय वितृतभेदेन नरका द्विविधा भवन्ति । 'वस्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडा' तत्र-तयोयोर्मध्ये ये नरकाः संख्येयविस्ताराः 'ते णं संखेन्जाई जोयणसहस्साई' ते खलु संख्येयानि योजनसहस्राणि, 'आयामविक्खंभेणं' आयामवि. कम्भेण प्रज्ञप्ताः कथिता इति । 'तत्थ णं जे ते असंखेजवित्थडा ते थे' तत्रद्वयोर्मध्ये खलु ये नरका असंख्येयविस्तारास्ते खच 'असंखेज्जाई जोयणसहस्साई आयामविक्ख भेणं' असंख्येयानि यो जनसहस्त्राणि आयामविष्कम्भेण 'असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेण पन्नत्ता' असंख्पेयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता इति । 'एवं जाव तमाए' एवं रत्नमभायां यथा पायामविष्यम्म परिक्षेपैनर कावासाः प्रदर्शिता स्तथैव शर्कराप्रभात आरम्य तमापभापर्यन्त पृथिवीहै-'तं जहा' जैसे-'संखेज्ज वित्थडा य असंखेन वित्यहाय संख्यात योजन के विस्तार वाले और असंख्यात योजन के विरतार वाले 'तत्य णं जे ते संखेज्ज वित्थडा' इन में जो संख्यात योजन के विस्तार वाले नरक हैं वे 'संखेज्जाइं जोयणसहस्साह" संख्यात हजार योजन के 'आयामविक्खंभेणं' लम्बे चौडे हैं । 'तत्य णं-जे ते असंखेज्ज वित्थडा ते णं असंखेजाई जोयणसहस्साह-आयम विक्खंभेणं' और जो असंख्यात योजन के विस्तार वाले हैं वे असंख्यात योजन के लम्बे चौडे है । तथा इनकी परिजि भी असंख्यात हजार योजन की है एवं जाव तमाए' जिस प्रकार रत्नप्रभा पृथिवी में वहां के नरकों की लम्बाई चौडाई और परिधि का प्रमाण कहा गया छ.-'संखेज्जवित्थड़ा य असंखेज्जवित्थडा य' सभ्यात योजना विस्तार मने असभ्यात यातना विस्तारमा 'तत्थ णं जे वे संखेन्जवित्यडा' तमारे भ्यात योरन विस्तारवा छे, नर। छ त मा 'संखेज्जाइं जोयणसयसह. रसाई' सभ्यात तर योगनना 'आयामविक्खंभेणं' Gin पडा छे. 'तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा वेणं असंखेन्जाइं जोयणसहस्त्राइ आयामविखंभेणं' भने જે અસંખ્યાત યોજનાના વિસ્તાર વાળાં છે. તેઓ અસંખ્યાત યોજનાના લંબાઈ પહેલાઈવાળા છે. તથા તેની પરિધિ પણ અસંખ્યાત હજાર યોજનની छे. “एवं जाव तमाए' २ प्रम. रत्नमा पृथ्वीमा त्यांना न२नी मा પહોળાઈ અને પરિધિનું પ્રમાણ કહ્યું છે. એ જ પ્રમાણે શર્કરામભા પૃથ્વીથી Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्ते संबन्धिनां नरकावासानामपि आयामविष्कम्मपरिक्षेपाः वक्तव्या, आलापकप्रकारस्त्वेवम्-'सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए नरगा केवइयं आयामविक्वं भेणं केवइयं परिक्खेघेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविदा पन्नत्ता, ते जहा-संखेज्ज. वित्थडाय असंखेजनित्थडाय, तत्य गं जे ते संखेज्जविस्थडा ते णं संखेज्जाई जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं सखेज्जाई जोयणसहस्साई परिवखेवेणं पन्नत्ता तत्थ णं जे ते असंखेन्जवित्थडा ते णं असंखेजाई जोयणसहस्साई आयाम विखंभेग असंखेज्नाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पप्णत्ता'। शर्करापभायां खलु भदन्त ! पृथिव्याम् नरकाः कियत्का आयामविष्कम्भेण कियस्काः परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता ? गौतम ! द्विविधाः प्रज्ञप्ता स्तघया-संख्ये. यविस्ताराथासंख्येयविस्ताराश्च । तत्र ये खलु संख्येविस्तारा स्ते खल संख्येयानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्मेण, संख्येयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण मज्ञप्ता, तत्र खलु ये ते असंख्येयविस्तारा स्ते खलु असंख्येयानि योजनसा. है इसी तरह से शर्करामभा से लेकर तमःप्रभा पृथिवी तक के नरका वासों की लम्बाई चौडाई और परिधिका भी प्रमाण जानना चाहिये । इस सम्बन्ध में आलापक प्रकार-'सक्करप्पभाएणं भंते! पुढवीए नरगा' इत्यादि टीको में देख लेना चाहिये। सूत्र-पाठ का अर्थ रत्नप्रभा पृथिवी के नरकावासों की लम्बाई- ' चौडाई एवं परिधि के सम्बन्ध में जला कहा गया है वैसा ही वह अर्थ यहां पर भी शर्कराप्रभा पृथिवी के नरकों की लम्बाई चौडाई और परिधि के सम्बन्ध में भी कह लेना चाहिये। इसी प्रकार से यालुकाप्रभा, पप्रभा, धूमप्रमा, और तमाप्रभा के नरकों की लम्बाई चौडाई एवं परिधि के प्रमाण के सम्बन्ध में भी सूत्रपाठ स्वयं उद्भावित कर લઈને તમઃપ્રભા પૃથ્વી સુધીના નરકાવાસોની લંબાઈ પહોળાઈ અને પરિ ધિનું પ્રમાણ પણ સમજી લેવું આ સંબંમાં આલાપ પ્રકાર પ્રમાણે છે'सकरप्पभाएणं भंते ! पुढवीए नरगा' त्याहि १२ मां भावामां आवस છે. તે ત્યાંથી સમજી લેવું આ સૂત્રપાઠનો અર્થ આ પ્રમાણે છે-રતનપ્રભા પૃથ્વી ને નરકાવાસેની લબાઈ પહોળાઈ અને પરિધીના સંબંમાં જેમ કહેવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેને અર્થે અહિયાં આ શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના નરકેની લંબાઈ પહોળાઈ અને પરિધિના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. એ જ પ્રમાણે તાલુકા પ્રભા પંકપ્રભા ધૂમપ્રભા, અને તમઃ પ્રભાના નરકોની લંબાઈ પહોળાઈ અને પરિધિના પ્રમાણુના સંબંધમાં પણ સૂત્રપાઠ સ્વયં બનાવીને Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ प्रतिका टीका प्र.३ उ.२.१३ नरकावास संस्थाननिरूपणम् स्राणि आयामविष्कंभेण, असंख्येयानि योजन सहस्राणि परिक्षेपेण मज्ञप्ता इतिच्छाया । एवमेव वालुकाश्रमा पङ्कममा धूपघमा तमः प्रमा सूत्राण्यपि स्वयमेवोहनीयानि । अधः सविषये सूत्रकारः स्त्रयमाह - ' अहे सत्तमा णं' इत्यादि, 'अहे सताए ! पुच्छा' अवासप्तम्यां खलु भदन्त ! पृच्छा हे भदन्त ! अधः सप्तम्यां पृषिव्यां ये भकास्ते कियत्काः किं प्राणा आयामविष्कम्भेण कियत्का:- वित्परिवित्ताः परिक्षेपेण वा इति प्रश्नः पृच्छया संगृह्यते भगवानाह - गोयवा' इत्यादि, 'दोष' के गौतम ! ' दुविधा पत्ता ' अधः सप्तमीनरका द्विविधाः-हिपकारकाः प्रधाः कथिताः 'वं जहा' तद्यथा - 'संखेज्जबित्थडेय' संख्येवविस्तृतथ 'अमखेज्जवित्थडाय' असंख्येयविस्तृताश्च 'तत्थ गं जे ते संखेज्जवित्थडे' तच द्वयोर्मध्ये यः स संख्येयविस्तृनः 'से णं एक्कं जोयणसयसहस्से आयामविवखंभेणं' स खल्वेकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेण 'तिन्ति जोयणस्यहरुलाई' त्रीणेि योजनशतसहस्राणि 'सोलसहरसाई' षोडशलेना चाहिये । अधः सप्तमी के विषय में सूत्रकार स्वयं कहते हैं 'अहे समाए वं संते पूछा ?' हे भदन्त ! अधः सप्तमी पृथिवी में जो नरक है वे कितनी लम्बाई वाले, कितनी-चौडाई वाले और कितनी परिधिवाले हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्रीने कहा है 'गोमा ! दुविहा पन्नता' हे गीत ! अधः ससमी पृथिवी में जो नरक है वे दो प्रकार के है- 'तं जहा' जैसे- 'लेखेज्ज वित्थडे य, असंखेज्जवित्थडा य' संख्यात विस्तार वाला एक और असंख्यात विस्तार वाले चार 'तत्थ णं जे ते संखेज वित्थडे' हन में जो नरक संख्यात विस्तार वाला है वह एक अप्रतिष्ठान नरक ही है 'से णं एक्कं जोयण सघसहस्सं आयोमविक्खंभेणं' वह एक लाख योजन की लम्बाई चौडाई वाला है-तथा સમજી લેવા. અધઃ સપ્તમીના સમૃધમાં સૂત્રકાર સ્વયં કહે છે. 2 'अहे उत्तमाए णं भंदे ! पुच्छा' हे भगवन् अध ससभी पृथ्वीमां ने नरो छे, તે કેટલી લખાઈ વાળા, અને કેટલી પહેાળાઇ વાળા અને કેટલી પરિધિવાળા છે? या अश्नना उत्तरभां अलु डे हे 'गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम! अधःसप्तभी पृथ्वीमां ने नरहे, ते मे प्रअरना है. 'त' जहा' ते मा प्रभाले छे.-'स खेज्जवित्थडेय अस खेज्ज वित्थड़ाय' संध्यात विस्तारवाणु मे सने सभ्यात विस्तार वाजा यार 'तत्थ णं जे ते सखेज्ज वित्थडे' तेमां ने न२९ सौंध्यात विस्तारषाणु छे. ते खेड याप्रतिष्ठान न२४०४ हे 'सेण' एक' जयसहस्सं आयाम विक्स' भेणं'ते थे साथ यन्ननी समाई यहाजार्ड जी० २४ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीयामिगम सहस्राणि दोनिजोयणसए सत्तावीसाटिए वे योजनशते सप्तविंशत्यधिके 'सिग्निकोसेय' अयः क्रोशाः 'अट्ठावीसं धणुतये' अष्टाविशं धनुश्शतम् 'तेरस अंगुलाई त्रयोदशाइगुलानि 'अद्धंगुलं य किंचि विसेसाहिय' अर्दागुलश्च किश्चि दिशेपा. धिकम् 'परिक्खेवेणं पन्नत्ते' परिक्षेपेण प्रज्ञस्तः कथित इति । 'तत्य णं जे ते असंखेन्ज वित्थड।' तत्र खल ये ते असंख्येयविस्तृताः 'ते णं असंखेन्नाई जोयणसहस्साई आयामविखंभेणे' ते खलु असंख्येयविस्तता नरकाबासाः असंख्येशानि योजनसहस्राणि आयामविष्कम्भेण 'असंखेज्जाई जोयणसहस्पाई परिक्खेघेणं पन्नत्ता' असंखपेयानि योजनसहस्राणि परिक्षेपेण पज्ञप्ताफथितास्ते नरकावासा इति ॥मू०१३॥ सम्मति-नरकाबासानां वर्णगन्धस्पर्श पतिपादनार्थमाह-'इमोसेणं इत्यादि, मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसया वष्णेणं पन्नत्ता ? गोयसा! काला कालोभासा गंभीर लोमहरिसा भीमा उत्तासणया परमकिण्हा वणणं पन्नत्ता, एवं जाव अहे सत्तमाए । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरगा केरिसगा गंधेणं पन्नत्ता? गोयमा! से जहा इसकी परिधि-तिन्नि जोधणसयसहस्साई सोलससहस्साई दोन्निजोषणसए सत्तावीसाहिए तिन्नि कोप्लेय अट्ठावीसं धणुमयं तेरस अंगुलाई अद्धगुलं च किंचि बिखेलाहियं तीन लाख सोलह हजार दो .सौ लत्ताईस योजन तीन कोश, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढे-तेरह अंगुल से कुछ अधिक है तथा-'तत्थ णं जे ते असंखेज्ज जोयण विस्थडा' जो नरक असंख्यात योजन के विस्तार वाले है-वे चार है वे असंख्यात हजार योजन के लम्बे चौडे हैं। तथा-इनकी परिधि भी असंख्यात हजार योजन की है। सूत्र ॥१३ । (पाणु छे. तथा तनी परिधि 'तिन्नि जोयणम इस्साई सोलससहस्साई दोन्नि जोयणसए सत्तावीसाहिए तिन्नि कोसेय अट्ठावीस धणुमय' तेरसगुलाई अद्धगुलं च किंचि विसे खाहिय' त्रय म सोण M२ असो सत्यापीस यासन ત્રકસ એકસો અઠયાવીસ ધનુષ સાડાતેર આગળથી કંઈક વધારે છે. તથા< 'तत्थ णं जे ते अस खेज्जजोयणवित्थडा' सभा २ न२४ असभ्यात यानना વિસ્તાર વાળા છે. તે ચાર છે. તે અસંખ્યાત જનની લંબાઈ પહોળાઈ વાળે છે. તથા–તેની પરિધિપણુ અસંખ્યાત હજાર એજનની છે. સૂ–૧૩ી Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ३.२ सू.१४ नरकावासानां वर्णादिनिरूपणम् णामए अहिमडेइ वा गोमडेइ वा सुणगमडेइ वा मजारमडेई मणुस्लमडेइ वा महिसमडेइ वा मुसगमडेइ वा आसमडेइ वा हत्थिसडेइ वा सीह मडेइ वा वग्घमडेइ वा विगमडेइ दीविय मडेइ वा, मयकुहिय चिरविण? कुणिम वावण्ण दुब्भिगंधे असुइ विलीणविगय बीभत्थ दरिलणिज्जे किमिजालाउलसं सत्ते । भवे एयारूवे सिया ? जो इण समटे, गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढबीए णरगा एलो अणितरमा वेच अकंत तरगा चेव जाव अमणामतरगा चेन गंधेणं पन्नता, एवं जाव अहे सत्माए पुढवीए ॥ इमीले गं अंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरया केरिसया फालेणं पन्नता? मोयमा! ले जहां णामए असिपत्तेइ वा खुरपत्तेइ बा कलंबचीरिया पत्तेइ वा लत्तग्गेइ वा कुंतरगेइ वा तोमरग्गेइ वा नारायस्गेइ का सूलग्गेइ वा लउलग्गेइ वा भिंडिपालग्गेइ वा सूचिकालावेइ वो कवियच्छूनइ वा विंचुय कंटएइ वा इंगालेइ वा जालई वा मुम्सुरेइ वा अञ्चित्ति वा अलाएइ वा सुद्धागणी वा, भवेश्या रूवे लिया ? जो इणट्रे समटे, गोयमा ! इमीले गं स्यणप्पभाए पुढचीए णरगा एत्तो आणिट्रतरा चेव जाव असणामतरगा चेव फालेणं पन्नत्ता । एवं जाव अहे लत्तमाए पुढवीए ॥सू०१४॥ छाया-एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः कीदृशा वर्णन प्रशंशाः ? कालाः कालावभासा गम्भीररोमहर्षाः भीमा उत्त्रासनकाः परमकृष्णा वर्णेन प्रज्ञप्ताः। एवं यावद्धः सप्तम्याम् । एतस्यां खल्ल रत्नप्रभायां पृथिव्याम् । नरकाः कीदृशा गन्धेन प्रज्ञप्ता ? गौतम ! स यथा नामकः अहिमृत इति वागोमृत इति वा शुनकमृत इति वा मार्जारमृत इति वा मनुष्षत, इति वा महिपमृत इति वा मृषामृतं इति वा अश्वमृत इति वा हस्तिमृत इति वा सिंहमृत इति वा व्याघ्रमृत इति वा वृकमृत इति वा द्वीपिकमृत इति वा मृतकुषित Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस् चिरविनष्ट कुणिमन्यापन्न दुरभिगन्धा, अशुचिविलीनविगतवीभत्सदर्शनीयः कृमिजालाकुळसंसक्तः। भवेयुरेतद्रूपाः स्याद् ? नायमर्थः रामर्थः गौतम । एतस्यां खलु रत्नपभायां पृथिव्यां नरका इतोऽनिष्टतरा एक अकान्ततरा एवं यावदमनोऽ. मतरा एव गन्धेन प्राप्ताः । एवं यावदधः सप्तम्यां प्रथिव्याख् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः कीदृशाः पशॆण प्रज्ञप्ता ? गौतम ! तद् यथा नामकम् 'असि पत्रमिति वा क्षुरपत्रमिति वा कदम्बचीरिकापत्रमिति वा शक्त्यग्रमिति वा कुन्ताग्रमिति वा तोपराग्रमिति वा शूलाग्रमिति वा ळगुडायमिति वा, मिण्डिपालाममिति वा चिकलाप इलिया कपिकच्छुरिति वा दृश्वकपटक इति वा अङ्गार इति वा ज्वालेति वा सुम्सुर इति वा अफिरिति वा, अलादमिति वा शुद्धाग्निरिति वा भवेयुरेतद्रूपाः स्यात् ? नायमर्थः समी, गौतम ! एतस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरका इतोऽनिष्टतरा एव यावदमनोऽमतराएव स्पर्शेण मज्ञप्ता, एवं यावधः सप्तम्यां पृथिव्या मिति'छ० ॥१४॥ टीका- 'इसीसे णं भंते ! रयणप्षमाए पुढीए' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रमायां पृथिव्या 'नेरइया केरितया दण्णे पडसा' दरकार कीशाः कि रूपाः वर्णन प्रज्ञप्ता:-कथिताः ? दरकाणां वर्णः कोशो भवतीति मन: भगवानाह-'योयमा' इत्यादि योयमा' हे गौतम ! 'काला' काला • अच्च सूत्रकार छन्न नरकासालों के वर्णगन्ध और समर्श कैसे हैं- इसका वर्णन करते है-- 'इमीले भते । सरजमाए पुढधीए-इस्पादित० ॥१४॥ टीकार्थ-यहां गौतमने प्रशुश्रीले ऐसा पूछा है-'हामीण भंते । रयणप्पभाए पुढचीए नेरवा केरिसथा क्षण्णेणं पन्नता हे लदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नरकाबाल कैले वर्ण बाले कहे गये हैं ? अर्थात् रत्नप्रभा पृथिवी के नरकों का वर्ण केला है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं। હવે સૂત્રકાર આ નરકવાસોના વર્ણ, ગg, અને સ્પર્શ કેવા છે. ? તેનું वन ४२ छ.-'इमीसे ण भाते ! रयण पभाए पुढवीए' छत्याह -मसूत्रद्वारा गीतमाभीये. प्रसुन मे पूछ्यु छ -'इमीसे ण भते ! रयण पभाए पुढवीर नेरइया केरिसया इण्णेण' पन्नत्ता' 3 मावन् આ રનપ્રભા પૃથ્વીને નરકાવાસ કેવા વર્ણવાળા કહેલા છે ? ' અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીને નરકોને વર્ણ કે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु ४ छ -'गोयमा ! काला कालाभासा, गभीरलोमहरिम्रा, भीमा, Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २ ० १४ नरकावासानां वर्णादिनिरूपणम् ૮૨ कृष्णवर्णा नरका इति । तत्र कोऽपि निष्प्रतिभतया मन्दकालोऽपि आशक्येत ततस्तदा व्यवच्छेदार्थ विशेषणान्तरमाह - 'कालोमासाः कालः कृष्णोऽत्रभासः - प्रतिभाविनिर्गमो येभ्यस्ते कालावभासः कृष्णप्रभापदलोपचिता इत्यर्थः । अara 'गंभीर लोमहरिसा' गम्बीरलोमहर्षा :- गम्भीरः अवीवोत्कटः रोमहर्षोरोमोद्गमो भयवशाद्येभ्यस्ते गम्भीरलोमहर्षा', अयं यावः- एवं खलु मासा यद्दर्शनमात्रेणापि नारकजन्तूनां भवसंपादनेन सततं रोमहर्षमुत्पादयन्तीति यत एवमतः 'भीमा' भीमाः - अतीव भयानकाः । यतो भीमा अतएव 'उत्तालणया' कृष्णाव 'नोमा ! काला, कालोभासा, गंभीर लोमहरिया, भीमा, उत्ता सणया, परम किव्हा वष्णे णं पण्णत्ता' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी के नरक - नरकावास - काले, कालावभासवाचे, जिन्हें देखते ही रोम खडे हो जावें ऐसे भयंकर, त्रास उत्पन्न करनेवाले और परमकृष्णवर्णवाले कहे गये हैं । अर्थात- इन नक्कों का वर्ण काला है - इसलिये इन्हें कृष्ण कहा गया है वर्ण में काले होने पर भी कितनेक पदार्थ कृष्णवर्णरूप से नहीं चमकते हैं-सो थें नरक ऐसे नहीं हैं क्यों कि ये स्वरूपतः भी काले हैं और काप से ही ये चमते हैं - अतः भी इन्हें कृष्णावभास कहा गया है इस से यह समझाया गया है कि ये कृष्णप्रभा समूह से उपचित हैं । इन्हें' देखते ही नारक जीवों के शरीर के भय के मारे रोम २, खडे हो जाते हैं-ऐसी भयोत्पादक हनकी कृष्ण प्रभा है । ये भयानक । हैं - इसी कारण ये नारकजीवों के अन्तःकरण सदा भयभीत बने रहते हैं । इनके आगे और भी जितने कृष्णवर्णवाले पदार्थ है-वे सब उत्तास्रणया, परमकिण्हा वण्णेण पण्णत्ता' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथ्वीना नरो નરકાવાસો કાળા અને કાલાવભાસવાળા, જેને નેતાંજ રૂવાડાં ઊભા થઈ જાય એવા ભયંકર, ત્રાસ ઉત્પન્ન કરવાવાળા અને અત્યંત કૃષ્ણવર્ણ વાળા કહેલા છે અર્થાત્ આ નરકે ના વળું કાળો છે. તેથી તેને કૃષ્ણ કહેવામાં આવેલ છે. વણુથી કાળા હૈાવા છતાં પણ કેટલાક પદાર્થો કૃષ્ણવર્ણ પાથી ચમકતા નથી તેથી તેને કૃષ્ણાવલાસ કહેલ છે. આ કથનથી એમ સમજાવવામાં આવેલ છે કે- કૃષ્ણુવર્ણ વાળી પ્રભાસમૂહથી યુકત છે. આને જોતાંજ નારકજીવોના શરીરના રૂવાંડાએ ભયને લીધે ઉભા થઈ જાય છે. આ રીતે ભય ઉત્પન્ન કરવાવાળી તેની કૃષ્ણવણુ વાળી કાંતી છે. આ ભયાનક છે. અને તેજ કારણથી આ નારક જીવાના અતઃકરશે! હમેશાં Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमन उत्माप्सनकाः उत् त्रास्यन्ते-भयभीतान्त:करणाः क्रियन् नारका एमिरिति उत त्रासनाः ते एव उत्त्रासनकाः । किं बहुना 'दण्णेण परम किण्हा' वर्णेन परमकृष्णाः पन्नत्ता' वर्ण मधिकृत्य नाकाः परमकृष्णाः यतः परं न किमपि भयानक कृष्णमस्तीतिभावः । एवं जाब अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम्, रत्नममा वदेव शर्करापमा बालुकापमा पङ्कममा धूमप्रभा तमाममा तमस्तमप्रभास्वपि वर्णमधिकृत्यातीव भयानका नरका प्रतिपादनीया। अतः परं गन्धमधिकृत्याह-इमीसे णं भंते' इत्यादि, 'इसीसे णं भंते ! रयणपाए पुढवीए' एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रमायां पृथिव्याम् 'णरगा के रिसया गंधेणं पन्नत्ता' नरकाः कीदृशा गन्धेन प्रज्ञप्ता:-कथिताः? नरके कीशो गन्धो भवतीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे फीके मालूम पड़ते हैं-ऐसे ये अति परम कृष्णवर्णवाले हैं । 'एवं जाव अहे सत्समाए' रत्न प्रभा के लरकावासों के वर्ण के सम्बन्ध में जैसा यह कथन किया गया है वैसा ही शर्करा प्रभा, वालुका प्रभा, पक्षप्रमा, धूमप्रचा, तमःप्रभा और तमस्तमः प्रमा इन पृथिचियों के नरकावासों के वर्ण के सम्बन्ध में भी कथन कर लेना चाहिये आर्थात् इन पृथिवियों के भी नरकादास काले, फालावभासदाले आदि पूर्वोक्त विशेषणयुक्त हैं। ___ अब गन्ध को लेकर कथन करते हैं-'इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जरगा' हे भदन्त ! इस रस्न प्रभा पृथिवी के नरक । केरिसथा. गंधेणं पन्नत्ता' किस प्रकार के गन्धवाले कहे गये हैं ? इसके उत्तर में प्रभु ભયભીત બન્યા રહે છે. આની આગળ બીજા જેટલા કાળા વર્ણવાળા પદાર્થો છે, તે બધાજ ફિક જણાય છે એવા આ અત્યન્ત પરમ કાળાપર્ણ વાળા છે. 'एव' जाव अहे सत्तमाए' २९नमा पृथ्वीना न२४पासोना पना समयमा જે પ્રમાણે આ કથન કરવામાં આવેલ છે એજ પ્રમાણેનું કથન શર્કરા પ્રભા વાલુકાપ્રભા, પંકપ્રભા, ધૂમપ્રભા, તા:પ્રભા અને તમસ્તમપ્રભા આ પૃથ્વી ના નારકાવાસોના વર્ણના સંબંધમાં પણ કથન કહેવું જોઈએ અર્થાત્ આ પૃથ્વીયોના નારકાવાસોમાં પણ કાળા, કાલાવભાસ વાળા, વિગેરે પૂર્વોક્ત વિશેષણ વાળા છે. डवे गन्ना संयम ४थन ४२१मां भाव छ. 'इमीसेण भते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा' 3 लापन मा २त्नमा पृथ्वीना नसे. 'केरिसया ग'धेणं पन्नत्ता' हेपा १२ना ग प ४ छ १ मा प्रश्नमा अन्तरमा प्रभु Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेय धोतिका टीका प्र.३ उ.२९.१५ नरकावासानां वर्णादिनिरूपणम् १९१ गौतम ! 'से जहा नामए' स यथानामकः 'अहिमडेइवा' अमृत इति वा अहिमृतः मृतसर्पशरीर इत्यर्थः मृतात् सर्पशरीरात् याशो गन्धः पादुर्भवति तादृशो गन्धो नरकाणामिति, एवं सर्वत्रापि योजनीयम् । 'गोमडे का' गोस्त इति वा, 'सुगगमडे वा' शुनकमृत इति था, 'मज्जारमडेइ वा' मानारमृत इति वा 'मणुस्स मडेइया' मनुष्यमृत इति वा 'महिसमडेगा महिषमृत इति वा 'मृसगमडेइ वा मूषकमृतइति वा 'आसमडेइ का' अश्वमृत इति का 'हथिमडेइ वा हस्ति मृत इति वा, सीहमडे वा' सिंह मृत इखि वा, 'दग्यमडेवा' ध्याघ्रमृत इति वा, 'विगमडे वा' वृस्मृत इति का, 'दीविय मडेइ बा' द्वीपस्मृत इति वा, द्वीपकश्चित्रका सर्वत्र अहिश्चासौ मृतश्चेत्यहि इति रूपेण विशेषण समासः । इह सधोमृतं शरीरन दुर्गन्धि भवति तमाह-'मय कुहिचिरविण कहते हैं-'गोयमा! से जहानामए अहिडेह व्या गोमडेह वा सुणामडेह धा' हे गौतम ! जैसा सर्प का मृतकलेवर होता है, सास का कृतकलेचर होता है, कुत्ते का मन कलेवर होता है, 'मज्जारपडेइ वा बिल्ली का मृतकलेवर होता है, 'मणुसपमडेइ वा मनुष्य का मृतकलेवर होता है, 'महिलमडे वा' असे का मृमकलेवर होता है, 'मुलगमडे घा' मूषक का मृतकलेवर होता है । 'आलमडेह वा' घोडे का मृतकलेवर होता है। हथिमडेह वा हाथी का मृतकलेवर होता है, 'सीहपडे इशा सिंह का मृतकलेवर होता है, 'वग्यमडे या' व्याघ्र का स्मृतकलेवर होता है, 'विगमडेइ वा' वृक का मृतकलेवर होता है। 'दीषियमडे वा' चित्ता का मृतकलेव होना है और ये सब मृतकलेवर 'भयकुहिध चिक्षिण?गौतम स्वामी ने छ, 'गोयमा ! से जहानामए अहिसडेइ वा गोमडेइ वा सुणगमडेइवा' 3 गीतम! भरेता साप २ प्रमाणे ४१२ शरी२ हाय छ, મરેલી ગાયનું જેનું કલેવર શરીર હોય છે, મરેલા કૂતરાનું શરીર જેવું હોય છે, 'मज्जारमडेइवा' भरेती मीनु रे प्रमायेनु शरी२ छ।य 'मणुम्स मडेइवा' भरेता मनुष्यनु २ प्रभानु शरी२ सय छ, 'महिसमडेइवा' भरेकी सनु रेवु शरीर खाय छ 'मुसगमडेइ वा' भरेखा नु शरी२ २ इय छे. 'आसमडेइ वा' भरेखा पातु शरी२ हाय छ, 'हत्थिमडेइ वा' भरे। हाथीनु' - शरीर हाय छ, 'सीह मडेइव।' भरेता सिंह ने शरीर छोय छे. 'वघडेइवा' भ२॥ पाचनु २ शरीर छ।य छ, “विगमडेइवा' १४ मा १३नु नवु शश२ हाय छ, 'दीवियमडेइवा' भरेता दीपानुरे शरीर Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमस्त्र कुणियाण्ण दुभिगंधे' मृतकुथितदिलष्ट कुणि व्यापन्नदुरभिगन्धः मृतः सन् कुथित पूतिभावं समाप्तः एतादृशश्वेच्छ वानस्यामात्र गठऽपि भरति, न च स तथा दुर्गन्ध रतत्राह-'चिर' इत्यादि, चिरमिनष्टः-चिरकालसुच्छ्त्ताइस्थांमाप्य स्फुटित इत्यर्थः, सोऽपि तथा दुरभिदान्ध न हलति तत्राह-'कुणिम्' इत्यादि, व्यापन्न विशीणीभूतं शटितं कुणिमं सांसं यस्य स मृत्त थिचिरविनष्ट कुणिमव्यापन्नः। अतएन दुरभिगन्धः दुरभिः-सर्वेषानाभिख्येन दुष्टो गन्धो यस्यासौ दुरभि गन्धः । 'असुइक्लिीण विगय बीशत्थ दरिसणिज्जे' अशुचि विलीन वितवीभत्सा दर्शनीयः, अशुचिरपवित्ररूपः दिलीलो मनसः कृलिसलपरिणामहेतु विगतं विनष्टं यदभिमुखतया प्राणिनां गतं गमनं यस्मिन् स तथा, तथा वीभत्सया निन्दया दर्शनीयो द्रष्टु योग्य इति बीमत्ता दर्शनीयः सतो विशेषण समासा, अशुचिविलीनविगतबीभत्सा दर्शनीयः। 'किमिजालाउलसंसत्ते' कृमिजाळा कुलसंसक्तः परस्परसबद्धतया संहक्तः सन कृमिजाला कुलोजात इति कृमिजाला कुणिम यावण्ण दुभि गंधे' भानो धीरे २, खज-फूलकर सड़ गये हों, और जिनमें से दुर्गन्ध आरही हो और इसी कारण जो । 'असुह विलीण विगयी भन्थदरिसणिज्जे' अशुचि छुने योग्य न रहे हो मन में अत्यन्त ग्लानि के उत्पादक बने रहे हों, जिनके सन्मुख जाना भी कोई नहीं चाहता हो, अथवा जिनके पास से होकर भी कोई निपल ना नहीं चाहना हो, जो पीअत्सा ले-ग्लानि से-देखे जाने के योग्य घन रहे हो 'किभिजालाउलसंलत्ते' एवं जिस में कीडों का समूह यिल दिला रहा हो-इल पर गौतम ! पूछते हैं-'भवे एघारूवे सिया' तो क्या हे भदन्त ! जैली दुर्गन्ध इन अहिमृतक आदि के सडे गले कलेबर की होती है तो क्या ऐसी सी दुर्गन्ध उन मरकों में होती है ? छाय छ, भने मामधा भरवाना शरी। 'मय कुहियचिरविणट्ट कुट्टिमवावण्ण दुन्भिग घे' माने। धीरे धीरे सीन सही गया साय, सीन. टी गया हाय, मन माथी दुम भावती हाय सने ४२९था २ 'असुइ विलीण विगय बीभत्थदरिसणिज्जे अशुशि-अपवित्र २५श ४२१॥ ये२५ न डाय, તેમજ મનમાં અત્યંત લાની ઉત્પન્ન કરાવનારા બન્યા હોય, અને જેની પાસે જવા પણ કાઈ ઈચ્છતા ન હોય અથવા જેની પાસે થઈને કેઈ નીકળવા પણ (२७ता न डाय, मे। खनाथ पपाने योग्य मन्या हाय 'किमिजालाठलसं सत्ते' मने रेमा श्रीमान। समुह य महमही २७यो डाय 'भवे एयारूवे सिया' ગૌતમ સ્વામી પૂછે છે કે જે પ્રમાણેની દુર્ગધ આ મરેલા સર્પ વિગેરેના Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. उ.२ सू.१४ नरकावासानां वर्णादिनिरूपणम् १९३ कुलसंसक्तः । एतावति कथिते सति गौतम आह-'भवे एयारूवे सिया' भवेदेतावद्रूपः रयान-कदाचित् भले युरेन्दूपाः यथोक्तविशेषणविशिष्टाः अहिमृतादिरूपा गन्धेनाधिकृता नरकाः; सूत्रे च बहुवचनेषु एकवचनं माकृतत्वादापत्वाद्वेति । भगवानाह-'जो इणढे सरडे' नायमर्थः समर्थः उपपन्नो यतोऽस्यां रत्नप्रभा पृथिव्यां नरका इतो यथोक्त विशेषणविशिष्टाहिमृतादेरप्यधिका अनिष्टतराः, एतदेव दर्शयति-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयना' हे गौवन ! 'इमोसे णं श्यणप्पभाए पुढबीए एतस्यां खल्ल रत्नप्रभा पृथिव्यास् ‘णरणा एत्तो अणिहतरगा चे नरका इतोऽनिष्टतरा एक हिमृतादितोऽपि अधिका नरका अनिष्टतराः। तत्र किश्चिद्रव्यमपि कस्याऽपि अनिष्टतरं भवति रुचीनां वैचित्र्यात् तत पाह'अकंततरगा चेव' अशान्तसरा एक लरकाः। 'जाय अमणामतरा चेव' यावदमनोऽमतरा एक, यावत्पदेनापिएतरा अमनोज्ञा एतयोग्रहणं भवति । तत्राकान्तमपि वस्तु कस्मैचिल् प्रियं भवति यथा शूरस्थाशुचिवस्तु तत्राह-अप्रियतरा एव न इसके उत्तर में कहते हैं 'जोजावे लषष्ठे' यह अर्थ समर्थ नहीं हैं क्यों कि 'गोयामा! हमीले णं रक्षणप्पभाए पुढधीए गरणा एत्तो अनिट्ठ तरका चेय' हे गौतम । इलले श्री अनंतगुनी अधिक दुर्गन्ध वहां कही गई है इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो नरक हैं वे इस अहि आदि के मृत हुए सड़े गलेशरीर की दुर्गन्धा ले ली अनिष्ट तर दुर्गन्धवाले होते हैं। किसी को अनिष्ट पदार्थ श्री रम्घ होना है। ___अतः थे नरक ऐले नहीं थे तो एकान्ततः 'अकंनतरकाचेव' अरम्य ही हैं । 'जाच अमणामतराचेब' यावत् मन को रूचे ऐसे नहीं हैं अकाना ही है । यहां यावत् पद ले 'अप्रियतश अमनोज्ञा' इन दो સડેલા, ગળેલા, શરીરની હોય છે, એવી જ દુર્ગન્ય એ નરકેટમાં હોય છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतम स्वामीन ४३ छ -'णो इणद्वे समटे' मा जथन मराम नथी भ-गोयमा! इमीसेणं रयणप्पमाए पुढवीए गरगा एत्तो अणिट्टतरका चेव' गौतम ! A1 S५२ व भरेता सहिना ससा, गणेता મૃત શરીર કરતાં પણ અનંતગણું વધારે દુર્ગધ એ નરકામાં હોય છે. આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં જે નરકે છે, તે બધા આ મરેલા સર્પ વિગેરે ના સડેલા, ગળેલા. શરીરની દુર્ગધ કરતાં પણ અનિષ્ટતર–ખરાબમાં ખરાબ દુર્ગધ વાળા હોય છે. કેઈને અનિષ્ટ પદાર્થ પણ રમ્ય-સુંદર લાગે છે. પણ આ નરક એવા नथी मा न२३ तो 'अकंततर काचेव' मसु२ ॥ छ. 'जाव अमणा मतराचे' यापत भनने से तवा हाता १ नथी. मत छे. महियां यावत ५६था 'अप्रियतरा समनोज्ञा' मा मे ५३ १ ४शयां छे. तेथी १ मामधा जी० २५ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्र कस्यापि प्रिया इति भावः । अतएव अमनोज्ञा अमनोऽमतराः 'गंधेणं पन्नचा' गन्धेन इत्थं भूता नरकाः पक्षप्ता:-कथिता इति। एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए' एवं यावदधा सस्तभ्यां पृथिव्याम् यथा रत्नप्रभा नरका अहिमृतादेरपि अधिकतरा गन्धेन कथिता स्तथैव शर्करापमा बालुकापमा पङ्कममा धूमपमा तमाममा तमस्तमःममा नरका अपि अहिमृतादेरपि अधिकतरा गन्धेन ज्ञातव्या इति भावः । ___ स्पर्शमधिकृत्याह-'इमी से णं' इत्यादि, इत्यादि, 'इमीसे णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्यां खलु रत्नपभायां पृथिव्याम् ‘णरगा केरिपदों का ग्रहण हुआ है । इसीलिये ये अप्रियतर और मनोऽनुकूल नहीं है। अमियतर पद यह प्रकट करने के लिये दियागया है कि मसान्त पदार्थ भी शूकर को विष्टा की तरह प्रिय होता है-तो ऐले येथे नरक नहीं हैं ये तो सर्वथा अप्रिय तर ही हैं-किसी को भी प्रिय नहीं हैं। ___ गंधेणं पत्नत्ता' इस प्रकार के विशेषणों वाले ये नरक पूर्वोक्त विशेषणों वाली दुर्गन्ध ले भी अधिक. दुर्गन्धवाले हैं। 'एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए' इसी तरह से शर्करा प्रभा के, बालुका प्रभा के, पङ्कप्रभा के, धूमप्रभा के, तमःप्रभा के और तमस्तमः प्रमा पृथिवी के नरक के भी अहिमृतकादि के कलेवरों की दुर्गन्ध से भी अधिक दुर्गन्ध वाले हैं ऐसा कथन करलेना चाहिये। - अब उन नरकों के स्पर्श के विषय में कहते हैं-'इमीसे गं भंते ! અપ્રિયતર-અત્યંત અપ્રિય છે અને મનને અનુકૂલ હોતા નથી. અપ્રિયતર એ પદ એવાત પ્રગટ કરે છે કે-આકાંત પદાર્થ પણ સૂકરને વિષ્ટા જેમ પ્રિય હોય છે, તેમ કંઈ તેવા પ્રકારના પ્રાણી ને તે પ્રિય હોય છે, પણ આ નરકે એવા એટલે કે કોઈને પણ પ્રિય લાગે તેવા હેતા નથી. આ તો હમેશાં અપ્રિયતર જ હોય છે. અર્થાત તે કોઈને પણ પ્રિય લેતા નથી, __ 'गंधेण पन्नत्ता' मावा ४ाना विशेषण A1 न२ मे ५७i ga यथा पय पधारे ५ती दुध पापा डाय छे. 'एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए' मा प्रमाणे श२१ प्रमा पृथ्वीना, पाबु। प्रला पृथ्वीना, પંકપ્રભા પૃત્રીના, ધૂમપભા પૃથ્વીને, તમ પ્રભા પૃથ્વીના, અને તમસ્તમાં પૃથ્વીના નરકેના શરીરો મરેલા સપદિના શરીરની દુર્ગધથી પણ વધારે પડતી દુર્ગધ વાળા હોય છે. આ પ્રમાણેનું કથન સમજી લેવું જોઈએ. वे सूत्रा२ से १२४१ना २५ना मधमा ४थन ४३ छे. 'इमीसे गं Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ. २ ८.१४ नरकावासानां वर्णादिनिरूपणम् १९५ सया फासेणं पन्नत्ता' नरकाः कीदृशाः स्पर्शेन मज्ञप्ता इति प्रश्न, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! ' से जहाणामए' तद् यथानामकम् 'असिपत्तेइ वा' असिपत्रमिति वा असिः खनं तस्य पत्रं तद्वत् तीक्ष्णम् 'खुरपते वा' क्षुरपत्रमिति वा क्षुरपत्रम् नापितस्य केशच्छेदकसाधनविशेषः 'कलंब चिरिया पत्तेइ वा' कदम्बचीरिकापत्रमिति वा कदम्बचीरिका तृणविशेषः दर्भादपि अतीवच्छेदकः ( सरपत ) इति - लोकप्रसिद्धः । 'सतग्गे वा शक्त्यग्रमिति वा, शक्तिः प्रहरणविशेषः तदग्रमिति वा 'कुंनग्गे वा' कुन्ताग्रमिति वा 'तोमरग्गेह वा' तोमराग्रमिति वा कुन्ततोमरावधि प्रहरणविशेषौ तदग्रमिति वा । 'नारायग्गेइ वा' नाराचाग्रमिति वा, 'सलग्गेइ वा' शूलाग्रमिति वा । 'लउलग्गेइ वा' लगुडा · ग्रमिति वा 'भिडिपालग्गेइ वा भिण्डिवालाग्रमिति वा मिण्डिमालः प्रहरणविशेषः तमिति वा 'सूचिकळावे वा' सूचिकलाप इति वा सूचीनां कलापः समूहरयणष्पभाए पुढवीए णरगा केरिया फासे णं पन्नता' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो नरक हैं वे किस प्रकार के स्पर्शचाले हैं ? उत्तर में प्रभु करते हैं - 'गोवा ! से जहानाबए अलिपले व ' हे गौतम ! जैसा असिपत्र तलदार का 'खुरपते या' क्षुरा की धार का 'कलं चीरिया पत्ते वा' कदम्बचीरिका पत्र, यह एक नुकीली धारवाला घास होता है उसका 'सत्तग्गेह वा' शक्ति नामके प्रहरण विशेष की धार का 'कुंग्गेइ वा' भालाकी धार का, 'तोमरगेड वा' तोमर शस्त्र विशेष की धार का 'नारायग्गेह वा' बाण के अग्रेभाग का 'सूलग्गेया' शूल के अग्रभाग का, 'लउलग्गेह वा' लगुड के अग्रभाग का 'मिडिवालग्गे वा' भिण्डिपाल के अग्रभाग का, 'विकलावे वा' सूईयों के समूह के अग्रभाग का, 'कवियच्छूह वा' करेंसे लगवन् भा સ્પર્શ વાળા હોય છે ? - 'गोयमा । से जहा वा स्यर्श होय छे, भंते ! रयणप्पभाष पुढवीए णरगा पेरिसया फासेणं पण्णत्ता' રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં જે તરા છે. તે બધા કેવા પ્રકારનાં या प्रश्न ना उत्तरमा प्रभु गौतमस्वाभीने नामए असिपत्तेइ वा' हे गौतम! असिपत्र- तलवारने तेवे। तथा 'खुरपत्तेइवा' अस्तरानी धारन। 'कलंवचीरियापत्ते वा' उदथीરિકા પત્ર–એટલે કે આ એક તીક્ષ્ણ ધારવાળા પાનવાળું ઘાસ હૈય छे. तेन। 'सत्तग्गेइवा' शक्ति नामना आयुध विशेषनी धारने। 'कुतग्गेइव!' लालानी धारना 'तोमरग्गेइवा' तोमर नामना शस्त्र विशेषनी धारनो 'नारायगेइ वा' मधुना अग्रभागना 'सूरुग्गेइ वा' शूहना अग्रभागना 'लउलग्गेइ वा' सगुड-साउडीना अग्रभागना 'भिंडिपालगेइ वा' लिडियसना अभलागने। 'सूचिकलावेइ या' साधना भूडाना अथलागने। 'कवियच्छ्रह वा' Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जीवामिगमसूत्रे स्वद्वदिति वा 'कवियच्छ्रति दा' कपिकच्छूरिति वा, कपिकच्छुः कण्डू जनको वल्ली विशेष: 'कवाछु इति लोकप्रसिद्ध ' 'विच्छुप कंटपति वा वृधिक कण्टक इति वा 'इंगालेति वा' अङ्गार इति वा, अङ्गारो निर्धूमाग्निः । 'जाखेड़ वा' ज्वाळा इति वा ज्वाळा नळसंबद्ध 'मुम्मुरे वा' मुर्मुर इति वा मुर्मुरः फुफुकादौ म 'सृणाग्निः । अच्चीति वा' अर्चिरिति वा, अर्चिरनल विच्छिन्ना ज्वाळा । 'अलाएर वा अलातमिति वा, अलातमुल्मुकम् । 'सुद्धागणी वा' शुद्धाग्निरितिवा, शुद्धाग्निरय: पिण्डानुगतोऽग्निर्विद्युतादिव इति शब्दः परस्परसमुच्चये इह कस्यापि नरकस्य स्पर्शः शरीरावयवच्छेदकः, अपरस्य भेदकोऽन्यस्य व्यथाजनकोsपरस्य दाहकः इत्यादि साम्यप्रतिपत्यर्थ ससिपत्रादीनां नानाविधानाant 'विच्छुrice वा' वृश्चिक के डंक वा 'इंगालेति वा' निर्धूम अग्निका, ' जालेह वा' ज्वाला का 'मुम्मुरे वा' मुर्मुर अग्नि का, 'अच्चीति वा' अनिर्विच्छिन्न ज्वाला का 'अलाएइ वा' अलात जलते हुए काष्ट की अग्नि का, 'सुद्धागणी वा' शुद्ध अग्नि- तपे हुए लोह पिण्ड की अग्नि का या विद्युत आदि का जैला स्पर्श होता है गौतम ! पूछते है ? तो क्या 'भवेयास्वे लिया' हे भदन्त ! ऐसा ही स्पर्श उन नरकों का होता है ? यहां सूत्र में सर्वत्र इति शब्द उपमाभूत वस्तुके स्वरूप की परिसमाप्ति का सूचक हैं- - तथा 'वा' शब्द परस्पर में समुच्चय का वाचक है इसलिये वहां किसी नरक का स्पर्श शरीर के अवयवो का छेदक होता है किसी नरक का स्पर्श शरीर के अवयवों का भेदक होता है किसी नरक का स्वर्श व्यथा जनक होता है किसी नरक का स्पर्श दाह ४२'यने। (वेहने।) 'बिच्छु कंटए वा' वीछिता मते 'इंगालेति वा' मजाराना स्थर्शने। ‘जालेइ वा' अग्निनी न्यासानो 'मुम्मुरेह वा' भुर्भर अग्निना 'अच्चीति वा' अनिविच्छित सग्जिनी ल्वासानो 'भलाएइ वा' असातनाभ भजता लाउडानी अग्निना 'सुद्धागणीइ वा' शुद्ध अग्नि-अर्थात् तयेसा લાખડના પિડના અગ્નિના અથવા વીજળી વિગેરેના જેવા સ્પર્શ હાય छे, ‘भवेएयारूवे सिया' गौतमस्वामी अलु ले पूछे छे - लगवन् शेवोन સ્પર્શ આ નરકાના હૈાય છે ? અહિયાં સૂત્રમાં બધે ઈતિ શબ્દ ઉપમાભૂત વસ્તુસ્વરૂપની પરિસમાપ્તિ સૂચક છે. તથા વા’ શબ્દ પરસ્પરમાં સમુચ્ચયના વાચક છે. તેથી અહિયાં કાઇ પણ નરકાવાસને સ્પર્શે શરીરના અવયવાના છેક ડાય છે. કેઈ નરકાવાસને સ્પર્શ શરીરના અવયવાના ભેદક હાય છે. કાઇ નકાવાસને સ્પર્શે વ્યથા જનક હાય છે. કાઈ તરકાવાસને Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१४ नरकाशासानां वर्णादिनिरूपणम् १९७ मुपादानमिति । एतावति उक्ते भगवति गौतमः माह 'भवेएयाख्थे सिया' भवेयुरेतावद्रूपाः स्यात्-कदाचित् यथोक्त विशेषणविशिष्टासियत्रादिरूपाः स्पर्शनाधिकृता नरकाः किम् ? भगवानाह=णो इणहे समडे' नायमर्थः समर्थ:-उपपन्ना, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णरगा' एतस्यां रत्नममायां पृथिव्यां नरकाः 'एत्तो अणितरा चेव जाव अमणालतरगाव फासेणं पन्नत्ता' इत:-असि पत्रादितोऽपि अनिष्टतरा अकान्ततरा अघियतरा अमनोज्ञतरा अमनोऽ मतराश्चैव स्पर्शेन मज्ञप्ताः कथिता इति । 'एवं जाब अहे सत्तमाए पुढवीए' एवं यावदधः सप्तम्यां पृथिव्याम् रत्नपमा पृथिवी नरकवदेव शर्करापमा बालकाममा जनक होता है-इत्यादि रूप ले समता दिखाने के लिये नाना प्रकार के इन उपमानभूत पदार्थों का यहां ग्रहण किया है । अत: जय गौतम ने प्रभु से पूछा कि जैसा इन उपमानभून असिपत्रादिकों का स्पर्श होता है तो क्या ऐसा ही स्पर्श इन नरकों का होता है ? तो इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'णो इणढे समठे' यह अर्थ समर्थ नहीं हैं क्योंकि 'गोयमा!' हेगौतम ! 'इमीले रचणप्पभाए पुढवीए णरगा' हरू रत्नप्रभा पृथिवी के नरक 'इतोणितरा चेव जाव असणामतरका चेष फासे गं पन्नत्ता' इन अलि पत्रादिकों के अग्रभाग से भी अनिष्टतर अकान्ततर अप्रियतर, अमनोमतर, अपने स्पर्श से कहे गये हैं। ___ एवं जाव अहे सत्तमाए' रत्न प्रमा पृथिवी के नरकों की तरह ही शर्करामभा, बालुकाप्रमा, पङ्करमा, धूमप्रभा, तमाममो और સ્પર્શ દાહજનક હોય છે. ઈત્યાદિ પ્રકારથી સમતા બતાવવા માટે અનેક પ્રકારના આ ઉપમારૂપ બનેલા પદાર્થો અહિંયાં ગ્રહણ થયેલ છે. તેથી જ્યારે ગૌતમરવામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું કે-આ ઉપમા રૂપ અસિપત્ર વિગેરેને જેવો સ્પર્શ હોય છે, શું એ જ સ્પર્શ આ નારકાવાસોને હોય છે? गौतमस्वामीनासा प्रश्न उत्तरमा प्रभु छ है-'णो इणटे समढे' मा ४थन १५२ नथी. भ? 'गोयमा'! गौतम ! 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए गरगा' । २त्नप्रमा पृथ्वीना न२पासे! 'इत्तों अणिटुतराचेव जाव अमणाम तराचेव फासे णं पण्णत्ता' मा मसिपत्र विगेरेना मागता५शतi પણ અત્યંત અનિષ્ટતર અકાંતતર, અપ્રિયતર, અમનેમતર, એવો તેને સ્પર્શ કહેલ છે. एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए' २त्नमा पृथ्वीना न२४पासनी म જ શર્કરામભા, વાલુકાપ્રભા પંકપ્રભા ધૂમપ્રભા તમઃપ્રભા, અને તમસ્તમઃપ્રભા પૃથ્વીના નરકાવાસ પણ અસિપત્ર વિગેરેના સ્પર્શકરતાં પણ અનિષ્ટ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जीवाभिगमन पङ्कपमा धूमप्रपा तमाप्रभा तमस्तमःप्रभा पृथिवी नरका अपि पत्रादितोऽपि अधिकतरा अनिष्टा अकान्ता अमिया अमनोज्ञा अमनोऽमतरा ज्ञातव्याइति ॥१४॥ सम्पति-नरकावासानां महत्त्वं कथयितुमाइ-इमीसे ण' इत्यादि, मूलम्-इभीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका के महालिया पन्नत्ता ? गोयला ! अयणं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीव समुदाणब्अंतरए लव्वखुड्डाए बट्टे तेल्ला पूर्वसंठाणसंठिए बट्टे रहकबालसंठाणसंठिए बढे पुकखरकण्णियासंठाणसंठिए बट्टे पडिपुण्णचंदसंठाणलंठिए एवं जोयणसयसहस्सं आयामविकखंभेणं जाव किंचि विलेसाहिए परिक्खेवेणं, देवेणं महड्डिए जाव महाणुभागे जाव इणामेव इणामेव त्ति कहु इमं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छरानिवाहि ति सत्तखुत्तो अणुपरिवहिताणं हवमागच्छेज्जा, सेणं देवेताए उकिटाए तुरिथाए चलाए चंडाए सिग्घाए उद्धृयाए जवणाए छेगाए दिवाए देवगईए वीतिवयमाणे वीतिवयमाणे जहन्नेणं एगाह वा दुयाहं वा तिआहे वा उक्कोसेणं छम्नासं वीतिवएज्जा, अत्थेगइए वितिवएज्जा अत्थेगइए नो वितिवएज्जा ए महालयाणं गोयमा ! इमीसे गं रथणप्पभाए पुढवीए णरगा पन्नता । एवं जान अहे सत्तमाए । नवरं अहे सत्तमाए अत्थेगइयं नरगं बीतिवएज्जा, अत्थेगइए नरगं नो वीतिवएजा ॥सू०१५॥ छाया-अस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकाः कियन्महान्तः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! अयं खल्ल जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वद्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरः तमस्तमःप्रभा पृथिवी के नरक भी असिपत्र आदि के स्पर्श से भी अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोयतर स्पर्शवाले कहे गये हैं ऐसा जानना चाहिये ।।१०१४॥ અકાંત, અપ્રિય, અમનેશ, અને અમનમત સ્પર્શ કહેવામાં આવેલ છે. તેમ સમજવું સૂ૦૧૪ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१५ नरकावासानां विशालत्वनिरूपणम् १९९ सर्वक्षुल्लको वृत्तस्तैलापूपसंस्थानसंस्थितो वृतो रथचक्रशमसंस्थानसंस्थितः वृतः पुष्करकणिका संस्थानसंस्थतो वृत्तः परिपूर्ण चन्द्रसंस्थानसंस्थितः एक योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेण यावत् किश्चिद्विशेषाधिका परिक्षेपेण, देवः खलु महद्धिको यावन्महानुभागो यावत् एतदेव एतदेखि कृत्वा इमं केवलकल्पं जम्बूद्वीपं द्वीपं त्रिभिरप्सरसोनिपातैः त्रिसप्तकृत्योऽनुपरिचय हव्यापागच्छेत् स खल्लु. देवः बयोत्कृष्टया त्वरितया चपलया चण्डया शीघ्रया उधूतया जवनया छेकया दिव्यया देवगत्या व्यतिवमन् व्यतिनजन् जघन्येन एकात्रा द्वयका व्यहं वा, उत्कर्षेण षण्मासान् व्यतिव्रजेत् तत्रैककान् व्यतिब्रजेत् तत्रैकान् नो व्यक्तिबजेत, एतावन्तो महान्तो गौतम ! एतस्यां रत्नममायां पृथिव्या नरकाः प्रज्ञप्ताः । एवं यावदधः सप्तम्याम् । नरमधः सप्तम्याम् । अस्त्येककं नरक व्यतिब्रजेत् । अस्त्येककान् नरकान् नो व्यतिव्रजेत् ॥१५॥ टीका--'इमी से णं भंते' एतस्यां खलु भहन्त ! 'रयणप्षमाए पुढीए गरगा' रत्नपभायां पृथिव्यां नरकाः 'के महलिया पन्नत्ता' नरका नरकादासा: कियन्महान्तः कियत्ममाणा महान्तः प्रज्ञप्ताः- कथिताः, पूर्व हि असंख्येययोजन विस्तृता नरका इति कथितम्, तच्चासंख्येयत्वं नाबबुद्धयते इति पुनरपि कृतः प्रश्न इति । अत एव अनोत्तरं भगवान् उपमया कथयति-'गोयमा' इत्यादि, अप सत्रकार नरकावासों के महत्व का कथन करते हैं'हमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढचीए नरका के महालया-' इत्यादि ॥१५॥ टीकार्थ-'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभाए पुढचीए' हे भदन्त ! इस रत्न. प्रभा पृथिवी में 'नरगा' जो नरकावाप्त हैं वे 'के महालया पन्नत्ता' कितने घडे हैं ? यद्यपि पहिले असंख्यात योजन के विस्तार वाले नरकावास है ऐसा कह दिया गया है। परन्तु वह असंख्येयता क्या है इस बात को समझाने के लिये ही यह प्रश्न किया गया है। प्रशुश्री उपमा द्वारा હવે સૂત્રકાર નરકાવાસોની મોટાઈનું કથન કરે છે'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका के महालया' या साय-'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' 3 मापन् ! या न प्रभावामा 'नरगा' २ १२वास छ, ते मया के महालया पन्नत्ता કેટલા વિશાળ છે? જે કે પહેલાં અસંખ્યાત એજનના વિસ્તારના નરકાવાસે છે, તેમ કહી દેવામાં આવેલ છે. પરંતુ તે અસંખેય પણું શું છે? એ વાત સમજાવવા માટે જ આ પ્રશ્ન પૂછવામાં આવેલ છે. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्से २०० 'गोयमा' हे गौतम ! 'अयणं जंबुद्दीवे दीवे' अयं खलु यत्र वयं संस्थिता जम्बू द्वीपो द्वीपः, अष्ट शेजनोच्छूित या रत्नमय्या जम्ब्या-जम्बू-दर्शनया उपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपः 'सन्दीवसमुदाणं' सर्वद्वीपसमुद्राणां धातकीखण्डलवणा दीनाम् 'सब्वभंतरए' सर्वाभ्यन्तरः सर्वेषामादिभूतः 'सव्वखुड्डाए' सर्वक्षुल्लकः सर्वेभ्यो द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लक:-हस्व इति सर्वक्षुल्लकः तथाहि-सर्वे लवणादयः समुद्राः सर्वे धातकोखण्डादयोद्वीपाः अस्माज्जम्बूद्वीपादारभ्य प्रवचनोकतेन क्रमेण द्विगुणा द्विगुणायामविष्कम्मपरिधि मन्तस्ततोऽयं जरबृढीपः शेपसर्वद्वीपसमुद्रापेक्षया लघुर्भवतीति । तथा-'नटे' वृत्तः वृत्ताकारः, यतः 'तेल्ला पूर्वसंठाणसंठिए' तैलापूपसंस्थानसंस्थितः, तैलेन एकाऽपूपरतेलापूपः तेटेन परिपक्वोऽपूपः मायः परिपूर्णवृत्तो भवति न तथा घृतेन पक्व इति तेळविशेषणम् तेलापूपबत् संस्थानमिति तैलापूपसंस्थानम्, तेन तैलापूरसंस्थानेन संस्थित इति तैलापूप संस्थानसंस्थितः। तथा-'बट्टे' वृत्तो वृत्ताकारः, यतः 'रहचक्कबालसंठाणसंठिए' रथचक्रवालसंस्थानसस्थित:-रथचक्रसदृश वृत्ताकार तथा 'वट्टे' वृत्तः यत:-'पुक्खरफणिया संठाणसठिए' पुष्करकर्णिका संस्थानसंस्थिता कमलइस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं-'गोयमा ! अघणं जम्बूद्दीवे दीवे' हे गौतम ! यह जम्बूद्वीप नाका जो द्वीप है कि जहां हम लोग रहते है और जो 'सव्वदीवसमुदाणं सवाभतरए' समस्त द्वीप और ममुद्रों के मध्य में वर्तमान सत्र से प्रथम है 'सन खुड्डाए' तथा सब द्वीप समुद्रों से जो छोटा है 'चट्टे' गोलाकार है इसीलिये 'तेल्लापूर्वसंटाण संठिए' जिमका संस्थान तैल, पके हुए पुरे के जैसा है अथवा यह ऐसा 'चट्टे' गोल है जैसा कि 'रहचकवालसं ठाणसटिए' रथ का पहिया गोल होता है। अथवा यह ऐस्ता 'वत्त' गोल है 'पुक्खर कनिया संठाणसं ठिए' कि जैसा पुष्कर-कमल कर्णिका के समान आकर ___५भावा। तेन उत्तर भापता महावी२५ छ ?-गोयमा ! अयणं जंबुद्दीवे दीवे' 3 गौतम! द्वीप नामना २ मा दी५ छ, है च्यां भा५ २डी छीमे सन २ द्वीप 'सव्वदीवस मुद्दाणं सव्वळ तरए' सघाची मने सभुदीनी मध्यमा सौथी या २२स छे. 'सव्वखुड्डाए' तथा मा ५ समुद्रात २ नाना छे. 'वढे' गाया।२ . तथा 'तेल्लापूवसठाणसठिए' रेनु सस्थान तेलमा ५ian । अर्थात् भातवाना ने छे अथवा त ते मे 'वढे' नाम ४-'रहचक्क वालस ठाणसठिए' २थर्नु पैड २ ५ सय है, तवा गारवाणा साय छे. अथवा ते मे 'वर्त्त हेतi छ है-'पुक्खरकणियास ठाण Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ प्रमेयोतिका टीका प्र०३ उ. २.१५ नरकावासानां विशालत्व निरूपणम् कळिकावद् गोलाकारः तथा - 'वट्टे' वृत्त वृत्ताकार : ' परिपुण्ण चंदसं 'ठाणसं'ठिए' परिपूर्णचन्द्रस स्थानस स्थितः - पौर्णमासी चन्द्रतुल्यसंस्थानेन संस्थितः - अनेक प्रकारकोपमानोपमेयभावो नानादेशजविनेयमतिपत्यर्थः । ' एक्कं जोयणसयसहस्स' आयामविवखंभेणं' एकं योजनशतसहस्रमायामविष्कम्भेण दैर्घ्यविस्ताराभ्यां लक्षयोजनमधितम् 'जान किंचिविसे साहिए परिवखेवेणं' यावत् किञ्चिद्विशेहोता है अथवा यह 'बहे' ऐसा गोल है कि जैसा 'पडिपुण्ण चंदस ठाण संठिए' पूर्णिमा का पूर्ण चन्द्र गोल होता है 'एक्क' जोणसयसहस्स' आयामविवत्ख भेग जाब किंचिविसेलाहिए परिकखेवेण', यह एक लाख योजन का लम्बा चौडा है यावत् त्रिगुण से कुछ अधिक परिधि से परिवेष्टित है । उस जम्बूद्वीप का नाम जम्बूद्वीप इसलिये. हुआ है कि इसके ठीक बीच में अनादि अनन्त एक जम्बू सुदर्शन नामका वृक्ष है या आठ धोज ऊंचा है और रत्न है । जम्बू द्वीप के बाद समुद्र औरत को घेरे हुए द्वीप और द्वीपों को, घेरे हुए समुद्र हैं यह जम्बूद्वीप उन द्वीप समुद्रों में से सब से पहिला द्वीप है और उन सब के पीच में है । हसका आकार गोल है यहां जो तैल में पके हुए पूए के जैसा अथवा रथ के पहिये जैसा, पुष्करकर्णिका के जैसा, या परिपूर्ण चन्द्र के जैसा हलका आकार गोल भिन्न भिन्न उपमानों द्वारा प्रकट किया है यह भिन्न २, देशों के विनेय (शिष्य) 1 પંડિ' જેમ પુષ્કર-કમળની કળીના આકારના જેવા આકારવાળું હાય છે. अथवा तो या 'वट्टे' मेवु' गोण होय छे उ-नेव गोणार - 'पडिपुण्णचंद'ठाणस ठिए' लिभाना शुद्र व गोण आअरवाणी होय छे. 'एक जोयणस्यसहस्सं आयामविक्खंभेणं जाव किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं' मा द्वीप એક લાખ ચેાજનની લંબાઇ પહેળાઇ વાળે છે યાવત ત્રણ ગણુાથી કઇંક વધારે પરિધિથી વીટળાએલ છે. આ જમૃદ્વીપનું નામ જ ખૂદ્વીપ એ પ્રમાણે થવાનું' કારણ એ છે કે તેની ખરેખર મધ્યમાં અનાદિ અને અનત એક જખુ સુદર્શીન નામનુ* વૃક્ષ છે તે આઠ ચેાજનની ઉંચાઇવાળું છે. તથા રત્ન મય છે. જંબુદ્વીપ પછી લવણુ સમુદ્ર છે. અને સમુદ્રને ઘેરેલા દ્વીપા અને દ્વીપાને ઘેરેલ સમુદ્ર છે. આ પ્રમાણે અસખ્યાત દ્વીપે। અને સમુદ્રો છે. આ જમૂદ્રીપ એ દ્વીપ સમુદ્રોમાં સૌથી પહેàા દ્વીપ છે. અને તે ખધાજ દ્વીપાની મધ્યમાં છે. આ જ બુદ્વીપના આકાર ગેાળ છે. અહિયાં જે તેલમાં પકવેલા યુવા (માલપુવા) જેવા તથા રથના પૈડા જેવા તથા કમળની કળીના જેવા અથવા પૂ ચન્દ્રમાના જેવે તેનેા ગાળ આકાર છે તેમ જુદી જુદી ઉપમાએ આપીને કહેલ છે, તે જુદા જુદા દેશના વિનય કહેતાં શિષ્ય સમુદાયને સમ जी० २६ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जीवामिगमसूत्रे पाधिक परिक्षेपेण, अत्र यावरपदेन जम्बुद्वीपपरिक्षेपर्णनं संग्रह्यम्, यथाहिश्रीणि योजनशतसहस्त्राणि, पडशर खाणि द्वे योजनशते सर्विशे त्रयः क्रोशाः अष्टाविंशं धनुः शतं त्रयोदश अंगुलानि अद्धांगुलं च किश्चिद्विशेषाधिक परिक्षेपेण जम्यूद्वीपः यज्ञप्त इति । एतत्पमाणकं सम्पूर्ण जम्बूद्रीपं यो महद्धिको देवः त्रिचप्पुटिकाक लमात्रेण एकविंशतिवारान् व्यटिस्वा परावर्तते, एतायशो देवः स्वस्य सर्वोत्कृष्टया त्या यदि एकद्वित्रिदिवसान सारत उत्कृष्टतः मांसपर्यन्तं तेषां नरकाणामुल्लंघने प्रवृत्तो भवेत् तथापि तस्य नस्य केपाश्चिनरकाणामुल्लंघनं भवेत् केपाश्चित्तु न वा भवेदित्येतावन्तो नरकाः सन्तीति प्रमाणोपमानार्थ प्रथम जनों को समझाने की अपेक्षा से कहा गया है यह जम्बूद्रीप एकलाख योजन का लम्बा चौडा है इसकी परिधिका प्रमाण यावत्पद संगृहीत हुआ वह प्रमाण इस प्रकार है-तीन लाख लोलह हजार दो लो सत्ताईस योजन तीनकोश एक सौष्ठाईस धनुष साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक हैं। यहां जो तेल में तले हुए पूर की उपला गोलाई में कही है उसका कारण ऐसा है कि तेल में पका हुआ पुभाबिलकुल गोल हो जाता है। इस प्रमाण थाले जम्बूद्वीप का जो महद्धिकदेव तीन चुटकी बजाने का काल मात्र में इक्कीसवार पर्यटन करके लौट आ सके ऐसा शक्तिमान् देव अपनी सर्वोत्कृष्ट गति से यदि एक दो तीन दिन पर्यन्त उत्कृष्ट से छहसास पर्यत उन नरकों का पर्यटन-उल्लंघन करतारहे तो भी वह देव फितलेक लन नरकासासों का उल्लंघन कर सकता है और कितनेक लछी भी कर सकता है, इतने बडे ये नरक हैं, इस प्रमाण જાવવા માટે કહેવામાં આવેલ છે. આ જંબુદ્વીપ એક લાખ યોજનની લંબાઈ પહોળાઈ વાળે છે યાવત્પદથી સંગ્રહિત થયેલ તેની પરિધિનું પ્રમાણ આ પ્રમાણેનું છે, ત્રણ લાખ સોળ હજાર બસો સત્યાવીસ જન ત્રણ (કેશ) ગાઉ એક અઠયાવીસ ધનુષ સાડા તેર આંગળથી કંઈક વધારે છે. આ કથનમાં ગળાકાર બતાવવા તેલમાં તળેલા માલપુવાની ઉપમા બતાવી છે, તેનું કારણ એ છે કે તેલમાં પકાવવાથી તે એક દમ ગોળ બની જાય છે. આ ઉપર બતાવેલા પ્રમાણવાળા જંબુદ્વિીપનું જે મહર્ષિક દેવ છે તે ત્રણ ચપટિ વગાડે તેટલા કાળમાત્રમાં એકવીસવાર પરિક્રમણ કરીને પાછા આવી જાય એવી શક્તિવાળો દેવ પિતાની સર્વોત્કૃષ્ટ ગતિથી જે એક અથવા બે અથવા ત્રણ દિવસ પર્યત અને ઉત્કૃષ્ટથી છ માસ પર્યન્ત તે નરકાવાસોનું ઉ૯લંઘન કરતા રહે તે પણ તે દેવ કેટલાક નારકાવાસેનું ઉલ્લંઘન કરી શકે Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३उ.२ सू.१५ नरकावासानां विशालत्वनिरूपणम् ।२०३ जम्बूद्वीपस्य प्रमाणं संगृहीतम् एतदेव प्रदर्शयति-'देवे णं' इत्यादि, 'देवेणं' देव खलु कल्पितः 'महिडिए जाव महाणुभागे' महद्धिको यावन्महानुभागः तत्र महतीऋद्धिः विमानपरिवारादिका विद्यते यस्य स महद्धिकः, तथा-महाधुति शरीरा. भरणविषया यस्य स महाद्युतिकः तथा महाबल:-महद् बलं शरीरः प्राणो यस्य स महाबलः, तथा-महायशाः महद् यशः-ख्यातिर्विद्यते यस्य स महायशा तथा 'महेसक्खे' महेश:-महानईशः ईश्वर इत्याख्या यस्य स महेशाख्यः अथवा ईशन मीशः भावे घञ् प्रत्यये ऐश्वमित्यर्थः ततः ईश्वन मैश्वयम् आत्मनः ख्याति अन्तभूतण्यर्थतया पापयति प्रथयति स ईशाख्या महांश्चासौ ईशाख्यश्चेति महेशाख्या अथवा-'महासोक्खे' महासौख्या, महत्सौख्यं यस्य प्रभूतोदयवशात् स महासौख्यः तथा-'महाणुभागे' महानुभाग:-महान् अनुभागो विशिष्ट-चौक्रयादिकरणके उपमित करने के लिये यहां पहले जम्बूद्वीप के प्रमाण संग्रह किया गया है । इसी बात को मन्चकार प्रकट करते हैं-'देवेणं' इत्यादि । ___ 'देवेण महडिए जाब महाणुभावे जान इणानेवत्ति कटु इमं केवलकप्पं जम्बूद्दीवं दीवं तिहिं मच्छरानिवाएहिं तिलत्तखुत्तो अणुपरियहिताणं हवमागच्छेज्जा । ऐसे हल जम्बूद्वीप को कोई विमान परिवार आदि महती ऋद्धिवाला शरीर आभरण की महाद्युतिवाला बहुत अधिक शारीरिक बलवाला, बहुत बडी ख्यातिवाला, तथा-'महा. सक्खे' एवं जिसकी ख्याति 'यह बहुत बड़ा ऐश्वर्यवाला है ऐसी हो रही है अथधा 'महालोक्खे' महालुख वाला 'महाणुभागे' विशिष्ट क्रियादि करने की अचिन्त्य शक्तिवाला, ऐसा देव यावत् तीन चुटकी છે. અને કેટલાક નરકાવાસનું ઉલંઘન નથી પણ કરી શકતા. એટલા માટે તે નરકાવાસે છે. આ પ્રમાણને પહેલાં ઉપમિત (ઘટાવા) કરવા માટે પહેલાં અહિંયાં બૂઢીપના પ્રમાણને સંગ્રહ કરેલ છે હવે સૂત્રકાર એજ વાત 'देवेण' त्या सूत्र५।। द्वा२॥ ५४८ ४२ छे. ___'देवेण मह ढिए जाव महाणुभावे जाव इशामेव इणामेवत्ति कटु इम' केवलकप्प नंबूदीव दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तक्खुत्तो अणुपरियद्वित्ताणं हव्वमागच्छेज्जा' से॥ मा दीपने ४ विमान परिवार विसरे भाटि અદ્ધિવાળે, શરીર આભૂષણની મહાદ્યુતિવાળે, અત્યંત વધારે શારીરિક બળ पाणी, अत्यात भाटियातिवाणा, तथा 'महासक्खे' बेनी प्याति मा धया मोटा औश्व वागाछे. सेवा डाय अथवा 'महासोक्खे' महासुभपाण। 'महाणुभागे' Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ . जीवाभिगमन विषयाऽचिन्त्या शक्तिः विद्यते यस्य स महानुभागः एतानि-महर्द्धिक इत्यादीनि नानाविशेषणानि देवस्य सामर्थ्यातिशयप्रतिपादकानि एतादृशो देवः 'जाव' यावत्, इति चप्पुटिकात्रयकरण कालावधि प्रदर्शनपरम् 'इणामेव इणामेवति कटु' एवमेव एवमेवेति कृत्वा, इति कृत्वेति विशेपणं हस्तदर्शित चप्पुटिका प्रयकरण सूचकम् । 'इमं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं' इमं केवलकल्पं परिपूर्ण जम् द्वीपं द्वीपम् 'तिहिं अच्छरानिवाएहि' त्रिभिरप्सरो निपातैः, अप्सरा निपातो नाम चप्पुटिका ततश्च तिमभिश्वप्पुटिकाभिरित्यर्थः चप्पुटिकाश्च कालोपलक्षणम्, 'ततो यावताकालेन-तिस्रश्चप्पुटिकाः पूर्यते तावत्कालमध्ये इत्यर्थः तिसत्तक्खुत्तो' 'त्रिसप्तकृतः एकविंशतिवारान् 'अणुपरिष हत्ताणं' अनुपरिवर्त्य-सामस्त्येन परि• भ्रम्य खलु 'हबमागच्छेज्जा' इव्वं शीघ्रमागच्छेत् ‘से पं देवे' स खलु देवः स एतादृशगमनशक्तियोग्यो देवः 'ताए' तया देवेजनपशिद्धयां 'उक्किट्ठाए' उत्कृष्टया प्रशस्तया 'तुरियाई स्वरितपा-शीघ्रसंचरणात् त्वरित्या, त्वरासजाता अस्यामिति त्वरिता तया त्वरितथा शीघ्रपरमेव तया देशान्तराक्रमणं भवतीति 'चवलाए' चपलया चपलेन विधुदिव चपला तया 'चंडाए' चण्डया क्रोधाविष्टस्येव श्रमासंवेदनाद चण्डे व चण्डा तया चण्डया, 'सिम्घाए' शीघ्रया निरन्तरं शीघ्रत्वगु-णयोगात्-शीघ्रया 'उद्धृयाए' उधृत्या वातचालितस्य रजसो दिगन्तव्यापितेव यां गाँतः सा उधूता तया उधूनया अथवा उद्धृतपा-दातिशयेनेत्यर्थः 'जबपजाने में जितना समय लगता है-इतने समय में 'इमं केवलकप्पं जवुद्दीवं दी, इस के बलशल्प-सम्पूर्ण-जम्बूद्वीप को ति सत्तखुत्तो' ' 'इक्कीस बार 'अणुपरिट्टित्ता णं परिभ्रमण करके शीघ्रता से आ जाते हैं 'लेणं देवे' ऐली उस गलनशक्तिले युक्त वह देश 'ताए' उस देव जवन पसिद्ध 'उनिहाए' उत्कृष्ट-प्रक्षास्त 'तुरिसाए' वेगवती 'चचलाए' चपल 'चंडाए' चण्ड क्रोध से युक्त हुए पुरुष के जैसी प्रचण्ड 'बिग्घाए' शीघ्र 'उधूताए' उद्धृत-चलते लमय जिसके बारा धूलि उठ २ कर | વિશિષ્ટ વૈકિય વિગેરે કરવાની અચિંત્ય શક્તિવાળો એવો દેવ યાવત્ ત્રણે यपटि पाभा । समय लागे. मेटसा समयमा 'इम केवलकप्प जबूद्दीव दीव' मा ४६५ मर्थात सपू भूदाय? 'तिसत्तखुत्तों' सपीस पार 'अणुपरियट्टित्ताण' परिभ्रम ४शन शातिथी मादी तय छे 'से ण देवे' मेवी गभन शतिवाणी मेवात हे 'ताए' ते वन प्रसिद्ध 'उक्किट्टाए' Gट प्रशस्त 'तुरियाए' गाणी 'चवलाए' २५८ 'चडाए' 23 अर्थात् जोधा ५३पना २वी प्रय सिम्बाए' २७ 'उद्धृताए' मधूत अर्थात् જેના ચાલવાના સમયે ધૂળ ઉડે એવી અથવા જે ગતિમાં ચાલવાનું અભિમાન Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका नं. ३ उ.२ सू.१५ नरकावासानां विशालत्वनिरूपणम् २०५ र - गाए' जवनया परमोत्कृष्ट वेगपरिणामोपेता जवना तया जवनया - अथवा 'जडणयाए' जितया विपक्षनेतृत्वेनेति । 'छेगाए' छेकया निपुणया 'दिव्त्राए' दिव्ययादिवि देवलोके भवा दिव्या तया दिव्यया 'देवगईए' देवगल्या देवसम्बन्धिन्यागया 'वितीयमाणे चितीवयमाणे' व्यतिव्रजन् २ तान् नरकान् उल्लंघयन् २ 'जहन्नेणं' जघन्येन 'एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा' एकाहं वा एकम् अहर्यावत् द्वयहं वा त्र्यहं वा- द्वित्रिदिनपर्यन्तं यावत् 'उक्को सेणं' उत्कर्षेण 'छम्मासे' षण्मासान् यावत् नरकान् 'वीइवएज्जा' व्यतिव्रजेत् - उल्लंघयेत् तथापि तेषु नरकेषु मध्ये 'अत्थेrइए वीइवएज्जा' अस्त्येककान् कश्चिननरकान् 'वीइवएज्जा' व्यविव्रजेत् - उल्लंघय परतो गच्छेत् 'अत्थेगइए नो वीइवएजा' तथा अस्त्येककान् यत् उपरोक्तयाऽपि गत्या षण्मासानपि यावन्निरन्तरं गच्छन् एककान् कांचननरकान् नो व्यतिव्रजेत् नो ल्लंघय परतो गच्छेत् अतिषभूतायामतया तेषां नरउडे ऐसी अथवा जिस गति में चलने का अभिमान भराहो ऐसी 'जबणाए' परमोत्कृष्ट वेगशालिनी - - अथवा 'जणाए' विपक्षजनों की गति को भी परास्त करनेवाली 'छेतार' छेक-निपुण - 'दिव्वाए' दिव्यदेवलोक सम्बन्धिनी 'देवगइए' देवगति से 'विश्वयमाणे २' बार २ अतिक्रमण करता हुआ 'जहन्नेणं' कम से कम 'एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा' एक दिन, दो दिन और तीन तक और 'उक्कोसे णं' अधिक से अधिक 'छम्मासे' छह महिने तक 'बीइवएज्जा' वे निरन्तर उल्लंघन करता रहे तो 'अत्थेगइए वीइवएज्जा' हो सकता है कि वह fears, नरकावासों को पार कर सके और 'अत्थे गइए नो बीsarat' कितनेक नरकावासों को पार नहीं भी कर सके । क्योंकि न नरकावालों को लम्बाई बहुत ही अधिक घडी है अतः लथ्रु' होय, शेवी 'जत्रणाए' परमेोत्सृष्टवेगवाणी अथवा 'जहणार' शत्रुपक्षनी गतिने पशुपति उरवावाणी 'छेगाए' छे नियुयु 'दिव्वाए' दिव्य हेवसे स ंभ ंधिनी ‘देषगइए’ देवगतिथी 'बिइयवयमाणे विश्वयमाणे' वारंवार उल्t: धन ४२तां ५२तां ‘जहन्नणं' गोछामा ओछा 'एगाह' वा दुयाह वा. सियाहं वा' ये हिवस मे हिवस, अनेत्र दिवस सुधी भने 'उकोसेणं' वधारेभां वंधारे 'छम्मासे' छ महीना सुधी 'वीइवपज्जा' तेथेो निरंतर उदधन अता रहे तो 'अत्थेइ वीइवपज्जा' भनी श है ते डेंटला नरहावासाने बार ४ A. ने 'अत्थेगइए नो वीइवएज्जा' डेटला नरश्वासाने पार न पा मेरी श કેમકે એ નરકાવાસેાની લખ્ખાઈ ઘણી વધારે મેટી છે. તેથી તેને પાર Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्ते २०६ काणामन्तस्य प्राप्तुमशक्यत्वादिति । 'ए महालयाणं गोयमा' एतावन्तः पूर्वोक्तोपमानेन उपमिता महान्तो हे गौतम ! 'इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्याम् ‘णरगा पण्णत्ता' नरकाः प्रज्ञप्ताः । एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावद्धः सप्तम्याम्-यथा रत्नमभायां नरका: महत्त्वेन प्रतिपादिता. स्तथैव शर्करापभात आरभ्य यावत्सप्तमी पृथिवी पर्यन्त नरका अपि महत्त्वेन सातव्याः। 'णरं अहे सत्तमाए' नवरमेतावद्वैलक्षण्यम् यद् अधःसप्तम्याम् 'अत्थेपइयं नरगं वीश्वरज्जा' अस्त्येककनरकमप्रतिष्ठानाख्यं व्यतिव्रजेत् अप्रतिष्ठा ननामकनरकरूप लक्ष योजनायामविष्कम्भतया तदन्तस्य प्राप्तुं शक्यत्वात् 'अत्थेगइए नरगे नो वीइवएज्जा' अस्त्येककान् नरकान अपतिष्ठानादितरान् नो उनका अन्त पाना उसे छह महिना तक भी निरन्तर उपरोक्त देवगति से लांघके वाले देव को भी अशक्य है । 'ए महालाया णं गोयमा ! इमीसे ण रघणपभाए पुढवीए णरगा पण्णत्ता' अतः हे गौतम | ऐसी उपमाबाले इतने बडे विस्तारवाले नरक इस रत्नप्रभा पृथिवी में कहे गये हैं । 'एवं जाद अहे सत्तमाए' रत्नप्रभा पृथिवी में जैसे ये नरकावास बहुत बडे विस्तारवाले कहे गये हैं-उसी प्रकार से शर्कराप्रभा से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी तक जो नरकावास है-वे भी ऐसे ही महाविस्तारवाले कहे गये हैं। 'नवरं' अधः सप्तमी में जो विशेषता हैयह इस प्रकार-'अहे सत्तमाए अस्थेगइयं नरगं वीइवएज्जा अस्थेगइए नरगे नो वीहवएज्जा' अधःसप्तमी पृथिवी में जो एक लाख योजन का लम्बा चौडा अप्रतिष्ठान नामका नरकावास है उसका तो वह उल्लंघन પામ તે છ માસ પર્યત નિરંતર ઉપર કહેવામાં આવેલ દેવ ગતિથી Gee न ४२वापावा हेवने ५९] मशय छे. 'ए महालयाणं गोयमा ! इमीसेण रयणप्पभाए पुढव ए गरगा पण्णत्ता' तथा 8 गौतम! मेवी ७५भावामन पेट मार विस्तार न२४पासे! मा २नमा थ्वीमा ४ा छे. 'एवं जाव अहे सत्तमाए' रत्नप्रभा पृथ्वीमा मा न२४पास भ प विद्या છે, એ જ પ્રમાણે શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીથી લઈને અધ સપ્તમી પૃથ્વી સુધીમાં જે નરકાવાસે છે, તે બધા પણ એવા જ પ્રકારની મહાવિશાળતાવાળા કહ્યા છે, 'नवर' मधसभी पृथ्वीमा २ विशेषता छ, ते या प्रमाणे छ, 'अहे सत्तमाए अत्थेगइयं नरग वीइवएपजा अत्थेगइए नरगे ना वोइवएज्जा' અધઃસસમી પવીમાં એક લાખ જનની લંબાઈ પહેળાઈ વાળું જે પ્રતિષ્ઠાન નામનું નરકાવાસ છે. તેનું ઉલંઘનતે તે કરી શકે છે, પરંતુ અસંખ્યાત Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ स.१६ कि द्रव्यमया नरका इति निरूपणम् २०७ व्यतिवनेत तेषाममतिष्ठानेतराणां कालमहाकाल रक्कमहाशेरबकाणां चतुर्णानारकाणाम् अतिमभूताऽसंख्येययोजन कोटि कोटी प्रमाणत्वेनान्तस्य प्राप्तुमशक्यत्वादिति ॥१५॥ सम्पति-किं द्रव्यमया नरका इति धरूपणार्थमाह-'इमीसे गं' इत्यादि, मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा किं मया पण्णात्ता ? गोयमा ! सव्ववइरा मया पन्नत्ता । तत्थ णं नरएसु बहवे जीवा य पोग्गला य अवक्रमति बिउक्कमति चति उबबजंति, सासयाणं ते णरगा दक्ट्रयाए, वण्णपज्जवेहि गंध. पजवेहिं रसपज्जवेहि फासपज्जवेहि असासया एवं जाव अहे सत्तमाए ॥सू० १६॥ छाया-एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नममा पृथिव्यां नरकाः किं मयाः पज्ञप्ताः? गौतम ! सर्वे वज्रमयाः प्रज्ञप्ताः तत्र खलु नरकेषु बहवो जीवाश्च पुद्गलाश्च अवक्रामन्ति व्युत्क्रामन्ति च्यवन्ते उत्पद्यन्ते, शाश्वताः खलु ते नरकाः द्रव्यार्थतया, वर्णपर्यायैर्गन्धपर्यायः रसपर्यायैः स्पर्शपर्यायैरशाश्वताः । एवं यावदधः सप्तम्याम् ॥१६॥ __टीका-'इमीसे णं भंते । एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्रभाए पुढवीए' कर सकता है पर जो असंख्घात कोडा कोडे योजन के विस्तारवाले अन्य चार नरकावास हैं उनका यह देव उल्लंघन नहीं कर सकता हे वे चार नरकावास काल, महाकल रौरव और महारोरक्ष हैं ॥१५॥ ये नरकाबाल किस वस्तुमय-किसके घने हुए हैं-ऐसा स्मृत्रकार प्रतिपादन करते हैं-- 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा-इत्यादि ॥१६॥ टीकार्थ--गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'इमीसे णं भंते ! रयणકેડા કેડિ એજનના વિસ્તારવાળા, બીજા જે ચાર નરકાવાસે છે. તેનું ઉલ્લા ઘન તે દેવ કરી શકતું નથી તે ચાર નરકાવાસોના નામ આ પ્રમાણે છે. કાલ ૧, મહાકાલ ૨, રૌરવ ૩. અને મહારૌરવ ૪ | સૂ. ૧૫ છે આ નારકાવાસે કઈ વસ્તુમય અર્થાત્ શેના બનેલા છે ? સૂત્રકાર હવે से मताव छ 'इमोसेणं भाते रयणप्पभाए पुढवीए णरगा' त्यादि साथ-गीतमस्वामी प्रभुने मे ५७यु छ , 'इमीसे णं भते! Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे २०८ रत्नमभायां प्रथमनारक पृथिव्याम् ' नरगा कि मया पन्नत्ता' नरकाः किं मया किं द्रव्यमयाः प्रज्ञता : - कथिता इति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सव्वा मया पन्नत्ता' सर्व वज्रमयाः - सर्वात्मना वज्रमयाः वज्रद्रव्यमयाः प्रज्ञप्ताः- कथिताः वज्रवदति कठिना नरका भवन्तीति । 'तत्थ णं नरएसु' तत्र खलु तेषु रत्नप्रभानरकेषु 'वढवे जीवा च पौग्गका य' वदयो विविध प्रकाराः जीवाश्च स्वरवादस्पृथिवी कायिकरूपाः पुद्गलाच 'अवकमंति विउक्कमंति' अपक्रामन्ति - च्यवन्ते व्युत्क्रामन्ति समुत्चन्ते - एनुदेव शब्दद्वयं यथाक्रमं पर्यायद्वयेन विवृणुते - 'चयंति उपवज्जेति' च्यवन्ते उत्पद्यन्ते । अयं माचः - एके rter: पुद्गलाश्च यथायोगं नरकाद् गच्छन्ति तथा अपरे जीवाः यथाक्रमं नरः केषु आगच्छन्ति । यस्तु प्रतिनियतसंस्थानादिरूप आकारः स तु तदवस्य एव भाए पुढचीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो 'णरगा' नरकावास है वे 'किमया' किस वस्तुमय है ? किस वस्तु के बने है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! सव्ववदरामया पन्नत्ता' हे गौतम | रत्नप्रभा पृथिवी के नरक सर्वात्मना वज्रमय हैं-वज्र के बने हुए हैं- वज के जैसे अति कठिन हैं 'तत्थ णं नरए बहवे जीवाय पोग्गलाय rarकमंत विक्कमंति' उन नरको में अनेक खरचिनश्वर बादरपृथिवीकायिक जीव और पुङ्गल 'अवकम्मति - विकर्मति' आते जाते रहते हैं, 'चयंति उववज्जंति' यही बात इन दो पदों द्वारा प्रकट की. गई है इससे यह समझाया गया है कि अनेक जीव वहां से बाहर निकलते रहते हैं और अनेक जीव वहां आकर के उत्पन्न होते रहते हैं इसी तरह से अनेक पुद्गल वहां से बिछुडकर बाहर आ जाते हैं और रयणभाए पुढजीए' हे भगवन् मा रत्नला पृथ्वीमां ने 'जागा' नरवास छे, ते मधा किं मया' वस्तुभय छे ? अर्थात् ४४ वस्तुथी मनेवा छे ? मा प्रश्नना उत्तरभां अलु गौतमस्वामीने 'गोयमा ! सव्व वइरामया पन्नत्ता' हे गौतम ! २त्नप्रभा पृथ्वीना नरसावासो सर्वात्मना अर्थात् सर्व પ્રકારથી વામય છે. અર્થાત્ વના મનેલા છે. અને વા. જેવા અત્યંત ४४ छे, 'तत्थ णं नरपसु बहवे जीवा य पोग्गला य अवक्कम ति विउक्कम ति' નરકામાં અનેક ખર-વિનશ્વર ખાદર પૃથ્વીકાયિક જીવ અને પુદ્ગલ ‘ક मति विउक्कमति' भावता ता रहे छे. 'चयंति उत्रवज्जंति' से वात भ्या એ ક્રિયાપદો દ્વારા પ્રગટ કરવામાં આવી છે. આ કથનથી એમ સમજાવવામાં આવેલ છે કે અનેક જીવા ત્યાં આવીને ઉત્પન્ન થતા રહે છે. એજ પ્રમાણે અનેક પુગલે ત્યાંથી વષ્ટિને નીકળીને બહાર આવી જાય છે, અને ખહારના Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमे यद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१६ किं द्व्यमया नरका इति निरूपणम् २०१ भवति । 'एतदाशयेनैवाह-'सासबाण ते नरगा दवट्ठयाए' शाश्वता नित्याः खल ते रत्नप्रभानरका द्रव्यार्थतया प्रतिनियल तथाविधसंस्थानादिरूपतया । किन्तु 'वष्णपज्जवेहि वर्णीयः कालनीललोहितगीतशुक्लपर्यायरित्यर्थः तथा-'गंधपज्जवेहि गन्धर्यायः सुरभि दुरभि धन्धपर्यायरित्यर्थः 'रसपज्जदेहि' रसपर्याय तिक्तरूटुरूपाएलमधुरारित्यर्थः, तथा- फालपज्जवेहि कर्कशमृदुकगुरुक घुकशीतोष्णस्निग्धरूक्षल्पर्शपयायः पुनरेते नरका: 'अमासया' अशाश्वताः बाहिरी अनेक पुगल यहां पहुंच जाने हैं। क्योंकि जीव और पुगल ये दो ही द्रव्य शासि किया और हिनि क्रियाशील है। परन्तु-'लालयाणं ते णरगा दन्काए' वे नरक यार्थ हरेट वे शाश्वत हैं- क्योंकि उनके संस्थान आदि कोई परिवर्तन नहीं होता है । वह तो उनका प्रतिलियत ही बना रहता है हजएजजहिं गंभ पज्जवेहि रमपज वेहि फागपज्जो लाल' या दृष्टि ले थे शाश्वत हैं ऐसा यह कथन एकान्तरूप से नहीं किसी अपेक्षा रे माश्चत भी है-यही बात इस खूनशठ बारा स्पष्ट की गई है । कृष्ण, नील, लोहित पीत और शुक्ल हन रूप पर्याय ले शाध पर्याय से, रमा पर्यायों से और स्पर्श पर्यायों को यो अशाश्वत भी हैं । कृष्ण शुक्ल आदि रस की पर्यायें हैं सुरथिगन्ध और दुरभिगन्ध ये पन्ध की पर्याये हैं तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर येथे रस्त की पर्यायें है और कर्कश, मृदुक, गुरुक, लघुक शीला, उष्ण, स्निग्ध, मक्ष ये स्पर्श की पर्याये है। અનેક પુદ્ગલે ત્યાં પહોંચી જાય છે. કેમકે જીવ અને પુદ્ગલ આ બે જ द्रव्य गति लिया भने स्थिति लियाशील छे. ५२'तु 'सासयाणं ते णरगा व्व ट्ठयाए' ते न२४पासा द्रव्याथ थी शाश्वत छ. म माना संस्थान વિગેરેમાં કંઈ પણ પરિવર્તન થતું નથી. તે તે તેની પ્રત્યે નિયતજ બન્યા २९ छे. 'वण्णपज्जवेहि गंधपज्जवेहि रसपज्जवेहि फासपज्जवेहि असासया' દ્રવ્યા રષ્ટિથી તે શાશ્વત પણ છે. એ પ્રમાણેનું આ કથન એકાન્તરીતે નથી. કોઈ અપેક્ષાથી એ અશાશ્વત પણ છે. એજ વાત આ સૂત્રપાઠ દ્વારા સ્પષ્ટ કરવામાં આવી છે. કૃષ્ણ, નીલ, લહિત લાલ પીત–પીળો અને શુકલ કહેતાં વેત સફેદ આ વર્ષે રૂપી પર્યાથી આ બધા અશાશ્વત પણ છે, કૃષ્ણ, શુકલ, વિગેરે રસના પર્યા છે. સુરભિગંધ અને દુરભિગંધ આ ગધના પર્યાયે છે. તીખા, કડવા, કષાય- તુરા, અમ્લ-ખાટા અને મધુર કહેતાં મીઠા આ રસના પર્યાય છે. તથા કર્કશ, મૃદુ, ગુરૂ, લઘુ, શીત, ઉષ્ણ સિનગ્ધ અને રૂક્ષ આ સ્પર્શના પચે છે. जो० २७ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जीवाभिगमसूत्रे अनित्याः, नरकगतवर्णादीनामुत्पादविनाशेऽपि नरका न एकान्दोऽनित्याः सर्वदा स्थास्नु स्वभावस्य द्रव्यरुष विद्यमानत्वात् नापि सर्वया दिल्या एव विनश्वर स्वभावानां वर्णगन्धरसस्पर्शानामपगमात् किन्तु स्थश्चित स्वद्रव्यरूपेण नित्यः, arr कथञ्चित् धरलस्पर्श पर्यायरूपेणानित्य इति नित्यानित्यत्वरूपाम्यांसंमिटितत्वात्मवाहरूपेण नित्या एव नरकाः ॥ 'एवं नाव आहे सत्तमाए' एवं रत्नमात्रदेव शर्करामभा वालुकाममा पङ्कप्रभा धूमभावमा त प्रभावपि नारकाणां वज्रमयत्वं तत्र जीवानां पुद्गलानां चोत्पादविनाशौ क्रयरूपेण नित्यत्वं पर्यायरूपेणानित्यत्वं ज्ञातव्यमिति । नरक वर्णादियों का उत्पाद विनाश होने पर भी नरक एकान्त से नहीं है क्योंकि पर्वदा स्थिर स्वभाववाला द्रव्य विद्यमान रहता है और तहत निश्वर स्वभाववाले वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श इनके परिणयन होने से वे एकान्ततः नित्य भी नहीं हैं अतः इस कथन से उन में कथंचित् नित्यता और अनित्यता प्रकट की गई है । अर्थात् द्रव्पार्थिकलय से नित्य हैं और पर्यायार्थिकनय से ये अनित्य है। 'एवं जाए अहे समाए' इसी तरह से शर्कराभा के बालुकाप्रभा के, पङ्कमभा के, धूलामा के, तमःप्रभा के और तमस्तमःप्रभा के नरक भी वज्रमय है वहां जीवों का और पुद्गलों का आना जाना बना रहता है। और वे नरक व द्रव्यार्थ दृष्टि से नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य हैं ये व सर्वधा नित्य हैं और न सर्वथा अनित्य ही हैं । आलाप प्रकार प्रथम पृथिवी के नरक प्रकरण में कहे गये अनुसार ही तमस्तमा નરકમાં આવેલ વણુ આદિકની ઉત્પત્તિ અને વિનાશ થવા છતાં પણુ નરકાવાસ એકાન્ત અનિત્ય નથી. કેમકે સદા સ્થિર સ્વભાવવાળું દ્રવ્ય વિદ્યમાન રહે છે. અને તદ્ગત તેમાં રહેલ વિનશ્વર સ્વભાવવાળા, વણુ, ગંધ, રસ, અને સ્પના પરિણમન થવાથી તે બધા એકાન્તતઃનિત્ય પણ નથી, તેથી આ કથનથી તેએામાં કથ'ચિત્ નિત્યપણુ અને કથ'ચિત્ અનિત્યપણુ' પ્રગટ કરન વામાં આવેલ છે. અર્થાત્ દ્રબ્યાર્થિ કનયના મતથી નિત્ય છે. અને પર્યાયાથિ કનયના भतथी अनित्य छे ‘एव ं जाव अहे सत्ताए' मा प्रभा शरायला पृथ्वीना વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના, પંકપ્રભા પૃથ્વીના, ધૂમભા પૃથ્વીના, તમઃપ્રભા પૃથ્વીના અને તમસ્તમાપ્રભા પૃથ્વીના નરકાવાસ પણ વામય છે. ત્યાં જીવાનુ અને પુદ્ગલેાનુ આવવુ. જવું બન્યું રહે છે. અને એ બધા નરક દ્રવ્યા દૃષ્ટિથી નિત્ય છે, અને પર્યાય દૃષ્ટિથી અનિત્ય જ છે. તેના આલાપ૪ના પ્રકાર પડેલી Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ लू.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् ॥ आलापपकारस्तु 'इसीसे णं भंते ! सक्करप्पभाए पुढवीए नरगा कि मया पन्नसा' इत्यादि, एवं क्रमेण तमस्तमान्तपृथिव्यामालापप्रकारः स्वयमेवोहनीय इति ।१६। सम्पति-नारकजीवानामुपपातं दर्शयितुमाह-'इमीसे थे' इत्यादि, ___ मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पसाए पुढवीए नेरइया कओहिंतो उववज्जति किं असणीहितो उपवज्जति सरीसिवे. हिंतो डक्वज्जंति पक्खीहितो उववज्जति चउप्पएहितो उववज्जति उरगहितो उववज्जति इस्थियाहिंतो उववज्जति मच्छमणुएहितो उववज्जति ? गोयमा! अलपणीहितो उपबति जाव मच्छमणुएहितो उबवज्जति लेसासु इमाए गाहाए अणुगंतवा असण्णी खलु पढसं, दोच्चं च वरीलदा तइय पक्खी। सीहा जंति अस्थि, उरगा पुण पंचलि जति ॥१॥ छट्टिं च इत्थियाओ मच्छा सणुयाय ललर्मि जंति । जाव अहे सत्तमाए पुढवीए नेरइया णो असणीहितो उववजंति जाब जो इत्थियाहिंतो उवज्जति मच्छसणुस्लेहितो उववज्जति ॥ इभीसे णं भंते ! स्थणप्पभार पुढदीए गेरइया एकं समएणं केवड्या उवज्जति ? गोसला ! जहन्नेणं एवं वा दो वा तिलि वा उकोलेणं संखेज्जा वा अलंखेज्जा वा उववज्जति । एवं जाब अहे लतमाए। इसीसेशंसते ! रयणप्पभाए पुढनीए लेरड्या खलए सलए अवहीरसाणा अबहीरमाणा केवइयं कालेणं अवहिथा लिया? गोयमा ! तेणं असंपर्यन्त पृथिजियों के आलापक स्वयं उद्भावित कर लेना चाहिये जैसे. 'इमीले णं भंते ! सक्करच्यभाए पुढवीए लरणा किं मघा पत्ता इत्यादि सूत्र ॥१६॥ પૃથ્વીના નારકાવાસના પ્રકરણમાં કહ્યા પ્રમાણે જ તમતમાં પૃથ્વી પર્યન્તની पृथ्वीयाना म.साप। स्वयं मनावी सभ७ वा नये. रेभ. 'इमीसे भते । सकरप्पभाए पुढवीए नरगा किंमया पण्णत्ता' ऽत्यादि ॥ सू. १६ ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्र खेज्जा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा असंखेज्जाहि "उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं अवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिया जाव अहे सत्तमा ॥ इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं के महालिया सरीरोगाणा पन्नत्ता ? गोयमा! दुखिहा सरीरोगाहणा पन्नता तं जहा-अवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्वियाय तत्थ णं जा ला अवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोलेणं सत्तधणूइं तिन्नि य रयणीओ छच्च अंगुलाई, तत्थ जाला उत्तरवेउब्विया सा जहन्नेणं अंगुलस्त संखेज्जइभागं उक्कोसेणं पण्णरसधणूई अड्डाइज्जाओ रयणीओ। दोच्चाए सवधारणिज्जा जहन्लेणं अंगुलालंखेजभागं उक्कोलेणं पण्णरसधणू बाइज्जाओ स्यणीओ, उत्तरवेउविया जहन्नेणं अंगुलस्त संखंज्जाभागं उन्होलणं एकतीसं धणूई एक्का रयणी। तच्चाए अवधारणिज्जा एकतीसं घाई एक्का रयणी, उत्तरवेउंविधा बासीटुं धणूइं दोन्नि रयणीओ। चउत्थीए भवधारणिज्जा बाली, धणूइं दोषिणध रचणीओ। उत्तरवेउव्विया पणवीस धणुसयं पंचसीए अवधारणिज्जा पणवीसं धणुसयं उत्तरवेउत्रिया अड्डाइ ज्जाइं अणुलवाई। छट्ठीए भवधारणिज्जा अड्डाइज्जाई धणुलबाई उत्सरवेउब्बिया पंचधणुसयाई । सत्तमाए मनधारणिज्जा पंचधासयाई उत्सरवेडविया धणुसहस्सं ॥सू०१७॥ छाया--एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभाग पृथिव्याम् नैरयिकाः कुत उत्पद्यन्ते किमसंज्ञिम्य उत्पद्यन्ते सरीसृपेभ्य उत्पधन्ते पक्षिभ्य उत्पद्यन्ते चतुष्पदेभ्य उत्पद्यन्ते उरगेभ्य उत्पद्यन्ते स्त्रीभ्य उत्पद्यन्ते मत्स्यमनुजेभ्य उत्पद्यन्ते ? गौतम ! असंज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते मत्स्यमनुजेभ्य उत्पद्यन्ते शेपासु अनया गाथया अनुगन्तव्याः। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योति का टीका प्र.३ उ.२ खू.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् २१३ 'असंज्ञिनः खल्ल प्रथमां, द्वितीयां च सरीसृपाः, तृतीयां पक्षिणा, सिंहा यान्ति चतुर्थी मुरगाः पुनः पञ्चमी यान्ति ॥१। षष्ठी च स्त्रियो मत्स्या मनुजाश्च सप्तमी यान्ति ॥ यावदधः सप्तम्यां पृथिव्यां नैरपिका नो असंज्ञिभ्य उत्पन्ते यावद् नो स्त्रीभ्य उत्पद्यन्ते मत्स्यमजुजेभ्य उत्पद्यन्ते । एतस्यां खल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरयिका एकसमयेन कियन्त उत्पधन्ते ? गौतम ! जघन्येनैको वाद्वौ वा-त्रयो वा उत्कर्षेण संख्येया वा-असंख्ये या वोत्पद्यन्ते । एवं यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नपभायां पृथिव्यां नैरयिकाः समयं समयम् अपहियमाणा अपहियमाणाः क्रियत्कालेनापहृताः स्युः ? गौतम ! ते खल असंख्येयाः समये समये अपहियमाणा अपहियमाणा असंख्येयाभि रुत्सपिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते नैन खलु अपहताः स्युः, यावधः सप्तमी। एतस्यां खश भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरपिकाणां कियन्महती शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता, गौतम ! द्विविधा शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अवधारणीया उत्तरक्रिया च, तत्र खल या सा भवधारणीया सा जघन्येन अङ्गुलस्यासंख्येयभागम् उत्कर्षण सप्तधनू षि लिखश्च रत्नयः षट्चाङ्गुलस्य संख्येयभागम् उत्कर्षेण पञ्चदश धनषि साईद्विरत्नी । द्वितीयस्यां भवधारणीया जघन्येनाङ्गुलासंख्येयभाग मुश्कर्षेण पञ्चदश धन् पि सार्द्ध द्विरनिः, उत्तरक्रिश जघन्येनामुलस्याऽसंख्येयभागमु. स्कर्षेणैकशिद्धनूंषि एका रनिः, वत्तीयस्यां भवधारणीया एकत्रिंशद् धषि एका रनिा, उत्तरवैक्रिया द्वाषष्टि धषि द्व रत्ली। चतुर्था भवधारणीया द्वापष्टिधनषि द्वे च रत्नी-उत्तरक्रिया पञ्चविशति धनु: शतम् । पञ्चम्यां भवधारणीया पञ्चविशति धनु: शतम् उत्तर क्रिया साद्विधनुः शतानि । षष्ठयां भवधारणीया साई द्वे धनु: शते, उत्तरक्रिया पञ्च धनु: शतानि । सप्तम्यां भवधारणीया पञ्च धनुः शतानि उत्तरवैक्रिया धनुः सहस्त्रम् ।।०१७॥ टीक-'इमीसे गं अंते !' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नभभायां पृथिव्याम् ‘ने रहया नैरपिका, कमोहितो उपवज्जंति' कुत:-कस्मा अब लत्रकार नारक जीवों का उपपात दिखाते हैं'इमीले णं भंते ! रघणप्पभाए पुढ बीए-इत्यादि ॥१७॥ टीकार्थ-गौतम ! ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'इलीसे ण भंते ! હવે સૂત્રકાર નારકનો ઉ૫પાત–ઉત્પત્તી બતાવે છે. 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' त्यादि टीज-गीतमस्वामी प्रसुने आयु पूच्युछे 'इमीसे गं भते ! Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ जीवाभिगमसूत्र स्थानादागत्य अत्र-नरकाबासे समुत्पधन्ते किं असणीहितो उपवनंति' किमसंज्ञिभ्य आगत्य आगत्योत्पद्यन्ते, अथवा-'सरीसिवेहितो उववज्जति' सरीसपेस्य आगत्योत्पद्यन्ते, अथवा पक्खीहितो उववज्जति पक्षिभ्य आगत्योत्पमन्ते अथवा -'चउप्पएहितो उववजंति' चतुष्पदेभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते, अथवा-'उरगेहितो उववज्जति उरगेभ्यः सभ्य अगस्योत्पधन्ते, अथवा-'इस्थियाहिंतो उववज्जति' स्त्रीभ्य आगत्योत्पद्यन्ते, अथवा-'मच्छमणुएहितो उववज्जति' मत्स्यमनुष्येभ्य आगत्योत्पद्यन्ते नरकावासे नरका:? इति प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, __ 'गोयमा' हे गौतम ! 'असणीहितो उववज्जति' असंशिभ्यः संमृच्छिम पञ्चेन्द्रि येभ्य आगत्यात्र-प्रथम पृथिव्या मुत्पद्यन्ते नारकाः, 'जाव मच्छमणुएहितो वि रयणपाए पुढवीए नेरहया' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नरकवासों में नरयिक जीव 'कओहितो उर्ववति' किस स्थान से किस गति से आकर के उत्पन्न होते हैं ? 'कि असण्णीहितो उववज्जति' श्या असंजियों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? 'सरीसिवेंहितो उव. वज्जति' या सरीसृपों-भुजा से सरकार चलनेवाले मोहनेवला आदि में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या 'पक्खीहितो उववज्जति चतु. उपदों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? था 'उरगेहिंतो उववज्जति' सों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ! या 'इस्थियाहिंतो उववज्जति' स्त्रियों में ले आकरके उत्पन्न होते हैं ? या 'मच्छमणुएहितो उवव. ज्जति मत्स्य एवं मनुष्यों में से आकरके उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! असणीहितो उबवज्जति जाव मच्छ. अणुरहितो वि उघवज्जति' हे गौतम ! रस्लप्रभा पृथिवी के नरकावासों रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया' 3 मावन् ! भा २ नमा पृथ्वीना न२४ावासमा नै२यि व 'कओहिता उववज्जति' या २थानमांथी मत गतिभाक्षी मावा. पन थाय 'छे १ 'कि असण्णीहिता उववज्जति' शु असशीय भांथा भावीन उत्पन्न थाय छ ? 'सरीसिवेहिता उववज्जति' अथवा सरीस। ભુજાઓથી ચાલવાવાળા ઘે, નેળીયા વિગેરેમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? अथवा 'पक्खीहि वो उववज्जति' या प्राणायामाथी मावी अत्यन्न थाय छ ? अथवा 'उरगेहिता उववज्ज ति' समाथी मावी Gपन्न थाय छ ? अथवा 'इत्थियाहिता उववज्जति' नियामांथा भावान सत्पन्न थाय छे ? अथवा 'मच्छमणएहितो उववज्जति' भत्रय भने मनुष्यामाथी मावी पन्न थाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ, 'गोयमा ! असण्णीहितो उववज्जति' जाव मच्छमणुएहितो वि उववज्जति गौतम! रत्नप्रमा પૃથ્વીના નરકાવાસોમાં નરયિક જી અસંજ્ઞીચામાંથી પણ આવીને Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् २१५ उपवनंति' सरीसृपेभ्योऽपि आगत्य रस्नमायामुत्पद्यन्छे नारकाः पक्षिभ्योऽपि आगत्योत्पद्यन्ते चतुष्पदेभ्योऽपि आगत्योत्पधन्ते उरगेभ्योऽपि आगत्योत्पधन्ते, स्त्रीभ्योऽपि थागत्योत्पद्यन्ते, मत्स्यमनुष्येभ्योऽपि आगत्य रत्नप्रमाणे नारकाः समुत्पद्यन्ते इति । 'सेसाठ इमार गाहाए अणुगंतव्चा' शेषासु-शर्कराममा प्रभृ. विषु पृथिवीषु अनया गाथा-वक्ष्यमाण सार्द्धगाथ या नारकाणां समुत्पद्यमानता अनुगन्तव्या-अनुसरणीया 'असन्नी खल्ल पढम' इत्यादि, 'असणी खलु पढमं' असंझिनः खलु संपछिम पञ्चेन्द्रियाः खलु प्रथयां नरकपृथिवीन गच्छन्ति १, में नैरयिक जीव असंज्ञियों में से श्री आकर के उत्पन्न होते हैं और यावत् मत्स्यों और मनुष्यों में से आकर के श्री उत्पन्न होते हैं, एके. न्द्रिय से लेकर असंज्ञो पश्चेन्द्रिय तक के समस्न जीव समूच्छिम ही होते हैं इसलिये सामान्धरूप से यहां ऐसा कर दिया गया है कि असंज्ञी जीव नरकों में-प्रथम नरक के नरकासासों में-उत्पन्न होते हैं इसी तरह से सरीसृपों-सरककर चलनेवालों में ले भी आकर के जीव प्रथम नरक के नरकावासों में नारक रूप से उत्पन्न होते हैं पक्षियों में से, चतुष्पदों में से, उरगों में से, स्त्रियों में से, और मत्स्यों एवं मनुष्यों में से, आकर के जीव यहां प्रथम नरक के नरकावासों में उत्पन्न होते हैं । वाकी की पृथिवियों के नरकावासों में उत्पन्न होने के सम्बन्ध में यह डेढ गाथा ई-वह इस प्रकार है 'असण्णी खलु पढम' इत्यादि । जो असंज्ञी पञ्चन्द्रिय जीव है वे तो प्रथम पृथिवी के ही नरकावासों में नारक रूप से उत्पन्न होते हैं आगे की पृथिवियों के नरका ઉત્પન્ન થાય છે. અને યાવત મલ્યા અને મનુષ્યમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થાય છે. એક ઈદ્રિયવાળા જીવોથી લઈને અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય સુધીના સઘળા જ સંમૂર્ણિમજ હોય છે. તેથી સામાન્ય પણુથી અહિયાં એ પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. કે અસંજ્ઞીજી નરકાવાસોમાં એટલે કે પહેલા નરકના નરકાવાસમાં નારકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. પક્ષિામાંથી, ચોપગા પ્રાણીમાંથી, સર્પોમાંથી, સિમાંથી અને માછલીઓમાંથી તથા મનુષ્યોમાંથી આવેલા જીવ આ પહેલી નરકના નરકાવાસમાં ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં આ દેઢ ગાથા ४ही छे. ते मा प्रभारी छे. 'असन्नी खलु पढन' त्यादि. એટલે કે જે અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય જીવે છે, તેઓ તે પહેલી પૃથ્વીના નરકાવાસમાં જ નારપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે પછીની પૃથ્વીના નાકા Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3A जीवाभिगमन २१६ खल्लु शब्दोऽधारणे, तथा च-यदि असंज्ञिनो नरके गच्छन्ति तदा मयमामेव नरकपृथिवीं गच्छन्ति न तु परत इति न तु ते संमृच्छिम पञ्चेन्द्रिया एत्र प्रथमामिति गर्भजसरीसृपादीनामपि उत्तर पटकपृथिवीगामिनामपि तत्र गमनादितिएवमुत्तर पृथिव्यादावपि अवधारण माननीयमिति । 'दोच्वं च सरीसिया' द्वितीयामेव शर्करामभाल्यां पृथिवी याबगच्छन्ति सरीसपा गोधानकुलसदियो गर्भव्युक्रान्ता न परत इति । 'तत्यपक्खो' तृतीयां वालुकाप्रमाख्यां पृथिवीं यावत् प्रथमपृथिवीत आरम् तृतीय पृथिदीपर्यन्त पक्षियो धादयो गच्छन्तीति । 'सीहा जंति चास्थि' चतुर्थी मे पृथिती यावत् पङ्का मारतां पृथिवी यावत् सिंहा वालों में वे उत्पन्न नहीं होते हैं ऐसा अवधारण यहां गाधा में रहे हए खलु पद से किया गया है इस्लले यह निपत्र नहीं समझना चाहिये कि सरीसृप आदि आगे की छहों पृधिचियों में जाने वाले प्रथम पृथिवी के नरकावासों में उत्पन्न नहीं होते है ये मरीसृप आदि यहां पर भी उत्पन्न हो सकते हैं-- __यही विषय हल गाथा द्वारा समझाया गया है-'दोच्चं च सरीसिया' सरीसृप-गोधा नकुल आदि गर्भज पञ्चेन्द्रिय जीव शर्कराप्रभा पृधिवी तक केही नरकावासों में नारक रूप से उत्पन होते हैं। इससे आगे की पृथिवियों के नरकाचासों में ये नारक रूप से उत्पन्न नहीं होते है। 'तईय पकाखी' पालुज्ञापमा पृथिवी तक केही नरकवालों में पक्षी गृद्ध आदि पञ्चेन्द्रिय गर्भज पक्षि नारक रूप से उत्पन्न होते हैं इससे आगे की पृथिवियों के नरक्षावालों में ये नारक रूप से उत्पन्न नहीं होते। 'सीहा जति चउत्थी' चौथी जो पडुमभा नाम की पृथिवी है વસોમાં તેઓ ઉત્પન્ન થતા નથી આ પ્રમાણેનો અર્થ આ ગાળામાં આપેલ 'खलु' ५४थी ४२पामा मावेस छ. तेथी मेवा निषेध समस्या नहीं है सशसुप વિગેરે પછીની છએ પૃથ્વીમાં જવાવાળા પહેલી પૃથ્વીના નરકાવાસોમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. આ સરીસૃપ વિગેરે તેમાં પણ ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. એજ વિષય આ નીચે આપવામાં આવેલ ગાથા દ્વારા સમજાવવામાં આવેલ છે. 'दोच्च च सरीसिवा' सरीस५ ।, नाणीया विणे / पांय द्रियावाणा જી શર્કરપ્રભા પૃથ્વી સુધીના નરકવાસમાં જ નારકપણાથી ઉત્તપન્ન થાય છે. તે પછીની પૃથ્વીના નરકાવાસમાં તેઓ નારકપણાથી ઉત્પન્ન થતા નથી. 'तईय पक्खी' पादुमा पृथ्वी सुधीना न२४पासोमा ४ पक्षी भी वारे પાંચ ઈદ્રિયવાળા ગર્ભુજ પક્ષી નારકાપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે પછીની पृथ्वीयाना ना२पासोमा तेसो ना२४पाथी (4न यता नथी. 'सीहा जति Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् २१७ यान्तीति । 'उरगा पुण पंचमि जति' पञ्चमी धूमप्रभाख्यां पृथिवीमेव यावद् उरगा यान्ति इति । 'छष्टिं च इस्थियाओ' षष्ठी तमाममाख्यां पृथिवीमेव यावत् खियः स्त्रोरस्नाद्या महाराध्यबसायिन्यो गच्छन्तीति । 'मच्छामणुयाय सत्तमि जंलि सप्ली समस्तमां पृथिवी याबदू मत्स्या मनुजा अति क्रूराध्यवसायिनो सहापापकारिणो यान्ति-गच्छन्तीति गाथार्थः । 'जाव' इति यावत्,यावस्प देन षष्ठी पृथिवीपर्यन्तं रत्नमा पृथिवीवदेवालापकाः कर्तव्याः, अधः सप्तम्या आलापकं तु सुत्रकारः परमेन नक्ष्यति । तथाहि-क्करप्रभाए णं भंते ! पुढवीए नेरइया कि असणीहितो उज्जति जाव मच्छरणुएहितो उवधज्जति गोयमा! नो अप्सनीहितो उपवज तिसरी लिहितो उज्जवि जाव मच्छमणुरहितो उववज्जति' वहीं तक के रचालों में सिंह भरकर नारक रूप से उत्पन्न होता है 'उरगो पुण पंचमि जति' रूप पवित्री पृथिवी तक के हीन नरकावासों में नारक रूपले उत्पन होना है॥१॥ _ 'छहिंच हस्थियाओ' छठी पृथिवी तक ही स्त्री नारक रूप से उत्पन्न होती है और बच्छा मणुणा य सत्तमि जति' महा शुभ अध्यवसाय वाले मत्स्य और मनुष्य सातवी पृथवी तक जाते है। यह गाथा का अर्थ हुभा ॥१॥ इसी कथन के अनुसार 'जाव' यावत्पद से छठी पृथिवी तक रत्नप्रभा पृथिवी की तरह आसापक बना लेना चाहिये । अधासप्तमी के विषय में सूत्रकार स्वयं आगे रहेंगे। आलापक इस प्रकार 'सकरप्प भाएणं भंते ! पुढवीए णेइया कि अलपणीहिता उववज्जंति, जाव मच्छमनुएहितो उवधज्जति' हे भदन्त ! शर्कराममा पृथिवी के नरका चउत्थी' ५४मा नामनी २ याची पृथ्वी छ त्यो सुधाना २४ नवासमा सिंह भशन ना२४पाथी उत्पन्न थाय छे. 'उरूगा पुण पंचमि जति' सय પાંચમી પૃથ્વી સુધીના નારકાવાસમાં જ નારકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. તે ૧ | 'छट्रिच इत्थियाओ' ७०ी पृथ्वी सुधी खी ना२४ाथी सत्पन्न याय छे भने 'मच्छा मणुया य सत्तमि जति' महा पशुस मध्यसाय पणा મસ્યા અને મનુષ્યો સાતમી પૃથ્વી સુધી જાય છે. આ ગાથાનો અર્થ થયે + ૧ છે આ કથન પ્રમાણે જ “ગાય” યાવદધી છઠી પૃથ્વી સુધી રત્નપ્રભા પૃથ્વીની જેમ આલાપક સમજી લેવા. અધાસપ્તમી પૃથ્વીના સંબંધમાં સૂત્રકાર સ્વયં હવે પછી કથન કરશે. તેના આલાપ ને પ્રકાર આ પ્રમાણે છે 'सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए णेरइया कि असण्णीहि तो उववज्जति जाव मच्छ जी० २८ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्ने (शर्कराममायां खलु भदन्त ! पृथिव्यां नरयिकाः किमसंनिय उत्पधन्ते यावन्मत्स्य मनुष्येभ्य उत्पधन्ते ? गौतम ! नो असंज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते किन्तु सरीसपेम्य उत्पद्यन्ते यावन्मत्स्यमनुष्येय उत्पधन्ते इति ।) 'वालुपप्पमाए णं भंते ! पुढवीए नेरहया कि असणीहितो उपवनंति जाव मच्छमणुएहितो उववज्जति ? गोयमा ! नो ऽसण्णीहितो उववज्जति लो सरीसिवे हितो उवदज्जति पक्खीहितो उववज्जति, जाव मच्छमणुएहितो उववज्जति' 'वालुकामभायां खलु भदन्त ! पृथिव्यां नैर. यिकाः किमसंज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते यावन्मत्स्यमनुष्येभ्य उत्पद्यन्ते गौतम ! नो वासों में नरयिक क्या असंज्ञी जीवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं या यावत् मत्स्य एवं मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा णो असन्नीहितो उववज्जति सरीसिवेहितो उपबति जाय मच्छमणुएहितो उज्जति' हे गौतम ! शर्करामभा पृथिवी के नरकावासों में नारक जीव असंज्ञियों में आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं-किन्तु संज्ञी सरीसृपों में से आकर के उत्पन्न होते हैं और यावत् मत्स्य एवं मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं । ____ 'बालुथप्पभाएणं भंते ! पुढवीए णेरड्या किं असण्णी हिंतो उवयज्जति, जाव मच्छमणुएहितो उववज्जति'हे भदन्त ! पालुकाप्रभा पृथिवी के नरकावासों में नैरयिक क्या असंज्ञी जीवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या भारत मत्स्य या मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? मणुएहि तो उववज्जति' भगवन २०७मा पृथ्वीना नवासामा नयिह। शु અસંસી છમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા યાવત મત્સ્ય અને મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને छ । 'गोयमा! णो असन्नीहितो उववज्ज ति सरीसिवेहिं तो उववज्जति जाव मच्छमणुएहि तो उववज्जति' 8 गौतम! शशमा पृथ्वीना न२વાસમાં નારક છે અસંશિમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ સંસી અર્થાત્ સરીસૃપમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. અને યાવત મત્સ્ય અને મનુષ્યોમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. _ 'वालुयप्पभाए णं भंते ! पुढवीए णेरइया कि' असण्णीहितो उववज्जति जाव मच्छमणुएहितो उववज्जति' मापन वायुप्रमा पृथ्वीना न२४वासमा ઉત્પન્ન થવાવાળા નિરયિકે શું અસંસી છમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા યાવત મત્સ્ય અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ વાલુકાપ્રભા Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टोका प्र. ३ उ.२ सू. १७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् असंज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते नो सरीसृपेभ्य उत्पद्यन्ते किन्तु पक्षिभ्य उत्पद्यन्ते यावन्मत्स्य मनुष्येभ्य उत्पद्यन्ते' 'पंकपभाए णं भंते! पुढवीए नेरइया, किं असण्णीहितो उववज्जंति जाव मच्छमणुरहितो उपवज्जति ? गोयमा ! नो असन्नीहिंतो उववति, नो सरीसिवेहिंतो उववज्र्ज्जति, नो पक्खीहिंतो उज्जेति चउप्पर हितो उववज्र्ज्जति । 'पङ्कप्रभायां खलु भदन्त ! पृथिव्यां नैरयिकाः किम् असंज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते यावन्मत्स्यमनुजेभ्य उत्पद्यन्ते, गौतम नो असंज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते नो सरीसृपेभ्य उत्पद्यन्ते नो पक्षिम्य उत्पद्यन्ते किन्तु चतुष्पदेभ्य उत्पद्यन्ते । एवमुत्तरोत्तर उत्तर प्रभु कहते हैं हे गौतम! बालुकाप्रभा पृथिवी के नरकावासों में नैरयिक 'नो असण्णीहिंतो उवबज्जेति नो सरीसिवेहितो उववज्जंति' असंज्ञी जीवों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते है, और न सरीसृपों में से आकर के उत्पन्न होते हैं किन्तु 'पक्खीहिंतो उबवज्जति, संज्ञी पक्षियों में से आकर के उत्पन्न होते हैं। 'जाव मच्छमणुरहितो वववनंति' यावत् महस्य और मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं। 'पंपभाएणं भंते! पुढवीए नेरइया किं असण्णीहिंतो उववज्र्जति जाय मच्छमणुए हिंतो उववज्जंति' हे भदन्त ! पङ्कप्रभा पृथिवी के नरकावासों में नैरयिक क्या असंज्ञी जीवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या घावत् मत्स्य में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे गौतम ! पद्मभा पृथिवी के नरकावासों में नैरयिक असंज़ी जीवो में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं सरीसृपों में से पृथ्वीना नरहावासोमा नैरयि। 'नों असण्णीहि तो उवत्रजति नो सरीसिवेहितो ववज्जति' मसज्ञी लवासांथी भावीने उत्पन्न थता नथी. ते सरीसृपोर्भाथी व्यावीने यशु उत्पन्न थता नथी. परतु' 'पक्खीहिंतो ! वषजति' संज्ञी पक्षियो भांथी भावीने उत्पन्न श्राय 'जॉव मच्छमणुपहितो उबजति' यावत् मत्स्य मने मनुष्याभांथो भावीने 'न थाय छे 'प' कप्पभाषणं भंते! पुढवी नेरइया किं असण्णीहितो उववज्जति जाव मच्छमणुएहिं तो उववજ્ઞ'ત્તિ' હે ભગવન્! પકપ્રસાપૃથિવીના નરકાવાસે માં ઉત્પન્ન થત્રાવાળા નૈરિયકા શુ' અસ'ની જીવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? ગૌતમસ્વામીના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હું ગૌતમ ! પંકપ્રભા પૃથ્વીના નરકાવાસામાં ઉત્પન્ન થવાવાળા નૈરિયકા અસન્ની જીવેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. તેમજ સરીસૃપામાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી. પરંતુ ચાપગા સિંહામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, યાવત Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T३२० जीवामिगमसूत्रे पृथिव्यां पूर्व पूर्व जीव प्रतिषेधसहितोत्तर पृथिवी प्रतिपेधस्ताद्वक्तव्यः यावत् षष्टयां पृथिव्यां स्त्रीभ्य आगत्य नारका उत्पद्यन्ते नत्वा सप्तम्याम् इति, स्त्रीणामधः सप्तमी पृथिवीगमननिषेध इति । अधःसप्तमी सूत्रं तु एवम् - ' अहे सत्तमाएणं भंते ! पुढबीए' अधःसप्तम्यां खलु भदन्त ! पृथिव्याम् 'नेरइया किं असण्णीहिंतो उनवज्र्जति जाव मच्छमणुस्सेहिंतो उववज्जंति' नारकाः किम् असंज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते सरीसृपेभ्य उत्पद्यन्ते, पक्षिभ्य उत्पद्यन्ते चतुष्पदेभ्य उत्पद्यन्ते, अथवा स्त्रीभ्य उत्पद्यन्ते - मत्स्य मनुयेभ्यो वोत्पद्यन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं पक्षियों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु चतुष्पद - सिंहो में से आकर के उत्पन्न होते है यावत् मत्स्यो में से आकर के उत्पन्न होते हैं । इस तरह आगे २, की पृथिवियों के नरकावासों में पूर्व पूर्व के जीवों का प्रतिषेध सहित उत्तर की पृथिवी का प्रतिषेध वहां तक करना चाहिये कि जहां छठी पृथिवी के नरकावासों में स्त्रियों में से आकर के जीव नारक रूप से उत्पन्न होते हैं, किन्तु अधःसनी में नहीं, ऐसा स्त्रियों का अधःससमी में जाने का प्रतिवेध आ जाता है । अधःसप्तमी पृथिवी का सूत्र इस प्रकार से है- 'अहे समाएणं भंते! पुढवीए नेरइया कि अण्णीर्हितो वववज्जति, जाव मच्छमणुपर्हितो उबवज्जंति' हे भदन्त ! सप्तमी पृथिवी के नरकावालों में नैरयिक क्या असंज्ञी जीवों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या याचत् मत्स्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? यहां મત્સ્યામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. અને મનુષ્ચામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. આ પ્રમાણે પછી પછીની પૃથ્વીયેાના નરકાવાસેામાં પૂર્વ પૂર્વીના નિષેધ સહિત પછીની પૃથ્વીને પ્રતિષેધ ત્યા સુધી કરવેા કે જયાં સુધી છઠ્ઠી પૃથ્વીના નરકાવાસેામાં સ્રિચેામાંથી આવીને જીવ નારકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે. પરંતુ અધઃ સપ્તમી પૃથ્વીમાં થતા નથી. આ પ્રમાણેના પ્રતિષેધ શ્રિયાને સાતમી અધઃસપ્તમી પૃથ્વીમા ઉત્પન્ન થવાના સંબંધમાં નિષેધ આવી જાય છે. અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના सभधभां या नीचे प्रमाणे सूत्रपाठ डेस छे. 'अहे खत्तमाए णं भंते ! पुढवीए नेरइया कि असण्णीहि तो खबजति जाव मच्छमणुरहितो व वज्जति' ભગવન અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના નરકાવાસેામાં ઉત્પન્ન થવાવાળા નૈર્રિયકા શુ? અસંજ્ઞી જીવેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા યાવત્ મત્સ્યામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યેામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र. ३. उ. २ सु. १७ नारक जीवोत्पातनिरूपणं २२१ गौतम ! 'नो सण्णीहिंतो उववज्जति, जाव नो इत्थियाहिंतो उचचज्जेति मच्छमणुस्सेर्हितो उववज्जति' नो असंज्ञिभ्य उत्पद्यन्ते न वा सरीसृपेभ्य उत्पद्यन्ते, नवा पक्षिभ्य उत्पद्यन्ते न वा चतुष्पदेभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते, न वा उरगेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते, न वा स्त्रीभ्य आगत्योत्पद्यन्ते किन्तु सप्तमी पृथिव्यां नारकाः मत्स्य मनुष्येभ्य आगत्य समुत्पद्यन्ते इति ॥ सम्पति - एकस्मिन् समये कियन्तो नारकाः अस्यां रत्नप्रभायां पृथिव्या यावत् शब्द से ऐसा पाठ गृहीत हुवा है- 'या सरीसृपों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या पक्षियों में से आकर के उत्पन्न होते ? या चतुष्पदों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या उरगों में से आकर के उत्पन्न होते हैं या स्त्रियों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या मत्स्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? या मनुष्यों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुकहते हैं- 'गोयना ! णो अण्णीहितो उववज्जंति' अधःसप्तमी पृथिवी के नरकों में नैरविक जीव असंज्ञी जीवों में से आकर के उत्पन्न नहीं होते है, न सरीसृपों में से आकर के उत्पन्न होते हैं न पक्षिों में से आकर के उत्पन्न होते हैं न चतुपर्दो में से आकरके उत्पन्न होते हैं न सर्पों में से आकर के उत्पन्न होते हैं ? न स्त्रियों में से आकर के उत्पन्न होते हैं किन्तु सत्स्वों में से और मनुष्यों से आकर के उत्पन्न होते हैं । અહિયાં યાવત્ શબ્દથી આ પ્રમાણેના પાઠ ગ્રહણ કરાયા છે. સરીસૃપે માંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા પક્ષિયામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા ચાપગા પ્રાણિચામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? કે સોંમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા સ્ત્રિયામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, અથવા મત્સ્યામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યેામાંથીખાવીને ઉત્પન્ન થાય છે ? गौतमस्त्रासीना था अश्श्रा उत्तरसां अलु उडे छे 'गोयमा ! णो अण्णीहिंतो उववन्ज'ति' अधःससभी पृथ्वीना नरावासीमां नैरवि भवेो અસ’જ્ઞી જીવામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. તેમજ સરીસૃપેામાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી કે પક્ષિયેાાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. અથવા ચાપગા પ્રાણિયામાંથી આવીને પણુ ઉત્પન્ન થતા નથી. અથવા • સર્પમાંથી આવીને પણ ઉત્પન્ન થતા નથી. કે ક્રિયામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થતા નથી. પણ મત્સ્યા-માછલાએ માંથી અને મનુષ્યમાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जीवामिगमस्त्रे मुत्पद्यन्ते इति निरूपणार्थमाह-'इमीसे णं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते !' एतस्या खल्ल महन्त । 'एयणप्पभाए पुढवीए' रत्नममायां पृथिव्याम् 'नेरइया एगसमएणं केवइया उवनज्जति' नैरयिका एकसमये कियन्त उत्पद्यन्ते ? इति प्रश्नः, भगवा. नाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं एकको वा दो वा तिम्भिचा' जघन्येन एको वा, द्वौ वा, त्रयो वा, एकममयेऽस्यां रत्नमभायां नारकाः समुत्पद्यन्ते 'उक्कोसे णं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उच्चज्जति' उत्कण संख्येया वा असंख्येया वा उत्पद्यन्ते एकसमयेनास्यां रत्नप्रमापृथिव्यां नारका इति। 'एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावद्धः सप्तम्याम् अबालापप्रकारश्चेत्थम्-शर्कराममायां खलु भदन्त ! पृथिव्यां नारका एकसमये कियन्त उत्पधन्ते हे गौतम ! जघन्येन एको वा द्वौ या त्रयो वा एकसमये ___अप सूत्रसार एक समय में इस रत्नप्रभा पृथिवी में कितने नारक उत्पन्न होते हैं इसका निरूपण करते है-'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढबीए नेरइया' हे भइन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नरयिक 'एगसभएणं केवइया उवधज्जति' एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, प्सर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्निवा' हे गौतम ! रत्नप्रभा पृथिवी में नैरयिक एक समय में कम से कम एक, अथवा दो अधका तीन तक उत्पन्न होते है और 'उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उचबज्जति' अधिक से अधिक संख्यात भी उत्पन्न होते हैं और अलंख्यात भी उत्पन्न होते है। ‘एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी तरह का एक समय में उत्पत्ति विषयक कथन शराजमा से लेकर अधःससमी पृथिवी तक कर लेना चाहियो अर्थात् शर्श राप्रभा पृथिवी હવે સૂત્રકાર એક સમયમાં આ રતનપ્રભા પૃથ્વીમાં કેટલા નારક છે ७५-न थाय छ ? को पातनु नि३५ अरे छे. 'इमीसे गं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया' 3 सगवन् मा २त्नप्रता पृथ्वीमा नरथि 'एगसमएण के. वइया उववज्जति' से समयमा डेटापन्न थाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा असु गीतमस्वामीन छ है 'गोयमा, ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा' ગૌતમ ! રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં નારક છે એક સમયમાં ઓછામાં ઓછા २४ मया मे मथवा त्रए सुधी ५-थाय छे. सन 'उकोसेणं सखेज्जा पा असंखेज्जा वा उववज्जति' ५५ रेभा पधारे सध्यात५y Gurन थाय छ मने मसभ्यात५y Sपन्न धाय छे. 'एवं जाव अहे सत्तमाए' मा प्रभातुं એટલે કે એક સમયમાં ઉત્પન થવા સંબંધનું કથન શર્કરપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને અધઃસસમી પૃથ્વી પર્યરતમાં પણ કરી લેવું જોઈએ. અર્થાત્ શર્કરા પ્રભા Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २ सु. १७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् समुत्पद्यन्ते उत्कर्षेण संख्येया या असंख्येया वा समुत्पद्यन्ते । वालुकामयागं खल भदन्त । पृथिव्यामेक समये नारकाः कियन्त उत्पद्यन्ते हे जौतम ! जघन्येनैको चाहो वा त्रयो वा समुत्पद्यन्ते उत्कर्षेण संख्येया वा अख्या वा एकसमये नारकाः समुत्पद्यन्ते । हे महन्त । पङ्कप्रभायां चतुर्थ पृथिव्यामेकसमये नारकाः fara उत्पद्यते ? हे मौत ! जघन्येन एको वा द्वौ वा श्योका समुत्पद्यन्ते उत्कर्षेण संख्येया वा असंख्येया वा एकसमयेन नारकाः समुत्पद्यन्ते, एवं धूपप्रभातमःम्मा तपस्तत्रःपमा पृथिवीण्यपि जघन्योत्कर्षास्त्रमेकसमये नार समुत्पादों ज्ञातव्यः, एतदाशयेनैत्र कथितम् -' एवं जात्र अ सत्तमाए इति । साम्प्रत प्रतिसमय मे कैकनारकापहारेण सकलनारकापहारकालमानं विचिन्वयन्नाह - 'इमोसे णं संसे' इत्यादि 'इमी से णं संते ! एतस्यां खलु भदन्त | 'रयणभाष पुढवीए' रत्नमभायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिकाः 'समए समए' समये समये प्रति समयमित्यर्थः 'अवहीरमाणा अवदीरमाणा' अपह्रियमाणा अपह्रियमाणाः, 'केवश्यकाळेणं में भी एक समय में कम से कम नारक एक या दो या तीन तक उत्पन्न होते हैं और अधिक से संख्यात भी उत्पन्न होते है और असंख्यात भी उत्पन्न होते हैं। इसी तरह से बालुकाप्रमा आदि पृथिवियों में भी समझ लेना चाहिये इसी आशय से लेकर सूत्रकार ने 'एवं जाव अहे सत्तमाए' ऐसा कहा है। अब प्रति समय एक एक नारक के निकाले जाने पर समस्तनारकों का अपहरण कोल का विचार करते हुए कहते है- 'इमीलेणं इत्यादि' 'हमी से णं भंते! रयणप्पभाष पुढवीए नेरइया सनए- समए' हे भदन्त ! इस रहनप्रभा पृथिवी में से यदि नारक जीव प्रति समय 'अव પૃથ્વીમાં પણ એક સમયમાં એછામાં આછા એક અથવા બે અથવા ત્રણ નારક સુધી ઉત્પન્ન થાય છે અને વધારેમાં વધારે અસંખ્યાત પશુ ઉત્પન્ન થાય છે या अभिप्रायनेसने सूत्रारे 'एवं जाव अहे खत्तमाए' था प्रभाये सूत्रया उद्योछे, २२३ હવે પ્રતિસમયે એક એક નારકને મહાર કહેાડવામાં આવે તેા સઘળા નારકાને મહાર કહાઢવામાં કેટલેા સમય લાગે ? તે અપહરણ કાળના વિચાર ४२तां सूत्रार आहे छे 'इमीसे णं' त्याहि 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया समए समप' हे भगवन् भा रत्नअला पृथ्वीमांथी ने नार४ भवने प्रतिसमये 'अवहीरमाणा अवहीरमाणा' तमांथी महार हावामां आवे तो ते मघा त्यांथी 'केवइयकालेन अवहिया Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जीवामिगम अवहियासिया' कियता फालेन अपहताः स्युरिति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तेणं असंखेज्जा समए समए अबहीरमाणा अव. हीरमाणा' ते खलु नारका असंख्येयाः समये समये प्रतिममयम् अपहियमाणा अपहियमाणा: 'असंखेज्जाहि उस्सपिणी ओसप्पिणीहि अबहीति' असंख्येयामि. रुत्सपिण्यवसर्पिणी भिरपहियन्ते 'णो चेवणं अबहियासिया' नैद खल्लु अपहतास्युः यदि प्रतिममयसंख्यात संख्यया असंख्येयोत्सर्पिण्यवतयिणी कालैस्तेपामपहरणं हीरमाणा अबहीरमाणा' निकाले जावे तो वे सब वहां से 'केवय कालेणं अक्षमिया लिया कितने साल के बाद कितने काल में पूरे निकाले जा सकते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं__गोयमा! तेणं असं खेज्जा समए समए अबहीरमाणा अवहीरमाणा असं खेज्जाहिं उत्सप्पिणी ओसचिपणीहिं अवहीरंति' हे गौतम | प्रथम पृथिवी के नारकियों में से यदि एक एक समय में असंख्यात २ नारकी निकाला जावे तो इस तरह करते २ असंख्घात उत्सर्पिणी और असंख्यात अपलर्पिणी काल भले ही समाप्त हो जाते पर वहां से पूरे नारकी नहीं निकाले जा सकते हैं-अर्थात् प्रति समय वे असंख्यात २ की संख्या में वहां से निकाले जाव और यह निकालने का काम असंख्यात उत्सर्पिणी अवरूपिणी तक भी चालू रहे तो भी वे वहां से पूरे नहीं निकल सकते हैं। 'णो चेवण अवहिया सिया' इस तरह से उनका वहां से निकालना हुआ नहीं है और न भविष्य में भी ऐसा सिया' सण । अर्थात् हेटसा मा ५३५२१ महा२ ४811 शाय मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतभावामीन ४ छ 'गोयमा ! तेणं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा अस खेज्जाहिं उस्स प्पिणी ओसप्पिणीहिं અવહીતિ હે ગૌતમ! પહેલી પૃથ્વીના નરયિકોમાંથી જ એક એક સમયમાં અસંખ્યાત અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને અસંખ્યાત અસંખ્યાત અવસર્પિણ કાળ ભલે પૂરો થઈ જાય તે પણ તે ત્યાંથી પૂરેપૂરા નારકી બહાર કાઢી શકાતા નથી. અર્થાત્ પ્રતિસમયે તેઓને અસંખ્યાત અસંખ્યાતની સંખ્યામાં ત્યાંથી બહાર કહાડવામાં આવે અને આ રીતે બહાર કહાડવાનું કામ અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને અસંખ્યાત અવસર્પિણી કાલ પર્યત તે રીતે બહાર કહાડવાનું ચાલુ જ રહે તે પણ તેઓ ત્યાંથી પૂરેપૂરા બહાર કહાડી શકાતા નથી, “જો चेव णं अपहियों सिया' मा शने तेमाने त्यांथी १४२ ४९उपानु थयु नथी. અને ભવિષ્યમાં પણ તેમ થશે પણ નહીં અને વર્તમાનમાં પણ તે રીતે થતું Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् २२५ कुर्यात् तदा ते सर्वे नारका नरकाद् नोवृत्ता भवेयुरितिभावः । 'जाव अहे सत्तमाए' यावदधः सप्तम्बाम्, एवं रत्नपभावदेव शर्करामभा बालकामभा, पसपमा धूमप्रभाः तमप्रभा तसस्तापमा पृथिवीष्वपि यदि प्रतिसमयमसंख्याता नारका अपहृता भवेयुस्तदा असंख्यातोल्सपिण्यवसर्पिणी कालेनापि नारकाणां ततो निःसारणं न संभवतीवि ज्ञातव्यमिति ॥ सम्पति नारक्षाणां शरीरपरिमाणपतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं भंते ! इत्यादि, 'इसीसे णं भंते एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्न पमायां पृथिव्याम् 'नेरइयाण के हालिया सरीरोगाहणा पन्नत्ता' नरयिकाणां कियन्महतीशरीरावगाहना अज्ञमा-कथिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि होगा-वर्तमान में भी ऐसा होना नहीं है- परन्तु ऐसा जो कहा गया है वह उनकी असलयात संख्या को पुष्ट करने के लिये ही कहा गया हे 'जाव अहे स्वत्तमाए' रत्नमया के नारकों की तरह ही शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा, पङ्कमला, अमममा, समाप्रभा, और समस्तराभा पृधिवियों में से भी शदि प्रत्येक समय में असंख्यात उत्सर्पिणी काल और असंख्यात अवसर्पिणी काल भी समाप्त हो जावे-पर वे जीव वहां से कभी भी पूरे नहीं निकाले जा सकते हैं । ___ अथ नारकजीवों के शरीर का परिमाण प्रतिपादन करते हैं'इमीसे णं मंत!' हे भदन्त ! इस 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी में 'रइयाणं के माहालिमा सरीरोगहणा पन्नत्ता' नरयिक जीवों को शरीरवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैंનથી. પરંતુ આ જે કથન કરેલ છે, તે તેઓની અસંખ્યાત સંખ્યાને પુષ્ટ ४२१। भाटे ४ ४स छे. 'जाब अहेसत्तमाए' રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારકના કથન પ્રમાણે જ શર્કરા પ્રભા, વાલુકાપ્રભા, પંકપ્રભા, ધૂમપ્રભા, તમ પ્રભા અને તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીમાં પણ જે પ્રત્યેક સમયમાં અસંખ્યાત અસંખ્યાત નારક જીવોને બહાર કહાડવામાં આવે તો તેવી રીતે બહાર કહાડતાં કહાડતાં ભલે અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણીકાળ અને અસંખ્યાત અવસર્પિણી કાળ પણ સમાપ્ત થઈ જાય પરંતુ તે છે ત્યાંથી કયારેય પણ પૂરા બહાર કહાડી શકાતા નથી. હવે નારક જીના શરીરનાં પરિમાણુ પ્રમાણુનું પ્રતિપાદન કરવામાં भाव छे. 'इमीसे ण भते 18 लगवन् मा २९नमा पृथ्वीमा 'नेरइयाणं के महालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता' समपन् नायि: ७वाना शरीशनी અવગાહના કેટલી મોટી કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને जो० २९ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ जीवाभिगमसूत्र 'गोयमा' हे गौतम ! 'दुविहा सरीरोगाणा पन्नत्ता' द्विविधा-द्वि प्रकारका मारकजीवानां शरीरावगाहना प्रज्ञप्ता कयिता द्वैविध्यं दर्शयति-'तं जहा' इत्यादि तं जहा' तद्यथा-'अवधारणिज्जाय उत्तरवेउब्धियाय' भवधारणीया चोत्तर क्रिया च 'तत्थ पंजा सा भवधारणिज्ना' तत्र तयोर्द्वयोरवगाहनयोमध्ये या सा भवधारणीया शरीरावगाहना नारकाणाम् 'सा जहन्नेण अंगुलस्स असंखेज्जइ भार्ग' सा शरीरावगाहना अंगुलस्यासंख्येपमागप्रमाणा भवति । 'उक्कोसे ण सत्तधणूइं तिनि रयपणीओ छच्च अंगुलाई उत्कग भवधारणीया शरीरावगाहना सप्तधनूंषि स्रिो रत्नयः षड् अंगुलानि सप्तधनूंपि, तिस्रो रत्नया-त्रयो हस्ता इत्यर्थः पट्परिपूर्णानि अंगुलानि एतावत्यमाणा भवतीति । 'तत्य ण नासा उत्तर'वेउब्जिया' तत्र त्योर्मध्ये खलु याला उत्तरवैक्रिया 'सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जा भाग' सा जघन्येन अंगुलस्य संख्येयभागममाणा भवति, 'उक्कोसे ण पनरस. गोयना ! दुविहा सरीशेगाहणा पन्नत्ता' हे गौतम ! नैरयिक जीवों की शरीरावधाहना दो प्रकार की कही गई है-'तं जहा 'जैसे- 'भवधा. रणिज्जा घ उत्सरवेबिया य' भवधारणीया और उत्तर वैक्रिया 'तत्थ णं जा मा भवधारणिज्जा' इन में जो भवधारणीया शरीराव गाहना है वह 'जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभार्ग' जघन्य से अंगुल के असंख्पात भाग रूप होती है 'उकोसेणं सत्तधणूइं तिन्नि य रयणीओ छच्च अंशुलाई और उत्कृष्ट से वह सात धनुष तीन हाथ पूरे छ अंगुल प्रमाण होती है। तत्थ णं जे से उत्तरवेउध्विया' तथा जो उत्तर वैक्रिया रूप शरीराव नाहना है वह 'जहन्नेणं अंगुलस्त संखेज्जा भाग जघन्य से अंगुल के संख्पातवें भांग रूप है और 'उक्कोसेणं' छ । 'गोयमा ! दुविहा सरीरोगाहणा पन्नता' गीतमा नायि: जवाना शरीशनी भाना प्र४२नी ४३ छ. 'त जहा' ते मे प्रा२। मा प्रमाणे छ, 'भक्धारणिज्जा य उत्तरवेठब्विया य' अवध.२९य से सने भी उत्तरवैश्यि माना छ. 'तत्य णं जा सा भवधारणिज्जा' तेभारे सवधारणीय शरीरासाउन छ, ते 'जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग' धन्यथी भजन मण्यातमा RIL ३५ डाय छे 'उक्कोसेणं सत्तधणूई तिन्नि य रयणीयो उच्च अगुलाइ' भने उत्कृष्टथी ते सात धनुष ३ 14 भने ५२। छ म प्रभाएनी य छे. 'तत्थ णं जे से उत्तरवेउव्विया' तेभा उत्तर वठिय३५ शरीराना छे, ते 'जहण्णेणं अंगुलस्म खेज्जइभाग' धन्यथा मांगना भ्यातभा मा ३५ छ, भने 'उनकोसेणं' कृष्टथी ‘पन्नरस Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिको टीका प्र.३ उ.२ ६.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् २२७ धणूई अड्राइज्जाओ रयणीओ' उत्कएँग पञ्चदश धपि साढे द्वे रत्नी पञ्चदशधनु द्वौं हस्तौ एका वितस्तिरेतावत्पमाणा भवतीति । 'दोच्चाए' द्वितीयायां शराप्रभा पृथिव्यां ये नारकास्तेषां शरीरावगाहना 'भवधारणिज्जा जहन्नओ अंगुलासंखेज्जइमार्ग' या भवधारणीया सा जघन्यतो अंगुलासंख्येयभागप्रमाणा भवति 'उकोसेण पण्णरसधण्इं अडाइजाओ रयणीओ' उत्कर्षेण पश्चदशधनूंषि साः द्वे रत्नी, 'उत्तर वेउविया जहन्नेण अंगुलस्स संखेज्जइमागं' उत्तरवैक्रियाशरीरावगाहना जघन्येनाङ्गुलस्य संख्येयभागप्रमाणा भवति, 'उक्कोसेण एक्कतीसं धणूई एक्का रयणी' उत्कएँग एकत्रिंशद्धषि एका रनिः,एतावत्ममाणा भवतीति । 'तच्चाए' तृतीयस्यां वालुकाममा पृथिव्यां ये नारकास्तेषां शरीरावगाहना-'भवधारणिज्जा एक्कतीस धणूई एक्का रयणी' अवधारणीया शरीरावगाहना जघन्येनाङ्गलासंख्येयभागप्रमाणाः उरकणेकत्रिंशद् धनपि एका रनि: 'उत्तरवे उधिया बासढि धणूइं दोन्नि रयणीयो' उत्तरक्रिया शरीरावगाहना जघ. उस्कृष्ट से 'पन्नरसधणूई अड्डाहज्जाओ रयणीओ' बह पन्द्रह धनुष ढाई हाथ प्रमाण 'दोच्चाए' द्वितीय शकरामभा पृथिवी में जो नारक हैं उनकी भवधारणीयशरीरावगाहना जघन्य से तो अंगुल के असंख्यात भाग रूप हैं और उत्कृष्ट से 'पण्णरलधणूई अडाइज्जाओ रघणीओ' पन्द्रह धनुष ढाई हाथ की है. लथा-यहां जो उन्तरक्रिया रूप शरीरा वगाहना है वह 'जहन्नेणं' जघन्य से तो अंगुल के संख्यात वे भाग है और 'उक्कोसेणं' उत्कृष्ट ले 'एश्कातीसं धणूई एका रथणी' एकतीस धनुष एक हाथ है 'तचाए' तृतीय पृथिवी जो बालापमा है उसमें नारकों की भषधारणीय शरीरावणाहना बह जघन्य ले तो अंगुल के असंख्यात वे भाग रूप है और उस्कृष्ट से इकतीस धनुष एक हाथ धणूई अड्ढाइज्जाओ रयणीओ' त ५१२ धनुष मढी डाथ अमानी छ. 'दोच्चाए' भी श मा पृथ्वीमा २ ना२३। छ, तनी सधारणीय शरी વગાહના જઘન્યથી તે આગળના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂ૫ છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી 'पण्णरस धणूई अड्ढाइन्जाओ रयणीओ' ५४२ धनुष मने ही खायनी छे. तथा उत्तर वैयि नामनी शरीरावाना छे, ते 'जहन्नेणं' न्यथा तो भांगणना सयातमा मा ३५ छ, भने 'उकोसेण' थी 'एक्कती धणूई एक का रयणी' येत्रीस धनुष मन मे लायनी छे. तच्चाए' श्रील તાલુકા પ્રભા નામની જે પૃથ્વી છે, તેમાં નારકની ભવધારણીય શરીર વગાહ ના જઘન્યથી તે આગળના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂપે છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી એક Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जीवाभिगमसूत्रे न्यतोऽङ्गुलस्य संख्येयभागप्रमाणा, उत्कर्पण द्वापष्टिधपि द्वे रत्नी एता. वत्ममाणा भवतीति । 'चउत्थीए' चतुर्थ्यां पङ्कममायां पृथिव्यां ये नारकास्तेषां शरीरावगाहना-'भवधारणिज्जा वासद्विधाई दोन्नि य रयणीओ' अवधारणीया शरीरावगाहना जघन्यतोऽङ्गुळासंख्येयभागममाणा उत्कर्षेण द्वापष्टिधनू पि द्वे च रत्नी । 'उत्तरउबिया पणवीसं धणुमयं' उत्तरक्रिया जघग्यतोऽगुळस्य संख्येयभागप्रमाणा उत्कर्पण पञ्चविंशत्यधिकं धनुःशत मिति । 'पंचमीए' पञ्चम्यां धूमप्रमायां ये नारकास्तेषां शरीरावगाहना 'भवधारणिज्जा पणवीसं धणुसयं' भवधारणीया जघन्यतोऽङगुलस्यासंख्येयभागममाणा भवति, उत्कर्षेण पञ्चविंशत्यधिकधनु शतम् 'उत्तरवेउनिया अट्टाइज्जाई रूप है तथा यहां उत्तर वैक्रिय रूप जो शरीरावगाहना है वह जघन्य से तो अंगुल के संख्पातवें भागरूप है और उत्कृष्ट से घासठ धनुष और दो हाथ अर्थात् साढे बासठ ६२॥ धनुष है।। ___'चउत्थीए' चतुर्थ पङ्कप्रभा पृथिवी में जो नारक हैं उनके शरीर की भवधारणीय अवगाहना जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से बह ६२ पासठ धनुष दो हाथ की हैं तथा -उत्तर वैक्रिय रूप जो शरीरावगाहना है वह जघन्य से तो अंगुल के संख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से पह १२५ एक सौ पच्चीस धनुष की है 'पंचमीए' पांचवी जो धूमप्रभा पृथिवी है उसमें रहने वाले नारकों की भवधारणीय रूप शरीरावगाहना जघन्य से तो अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से वह १२५ एक सौ पचीस धनुष प्रमाण है तथा-उत्तर वैक्रिय रूप शरीरावगाहना जघन्य ત્રીસ ધનુષ અને એક હાથ પ્રમાણની છે. તથા અહિંયાં જે ઉત્તરક્રિયરૂપ શરીરવગાહના છે, તે જઘન્યથી તે આગળના સંખ્યાતમા ભાગ રૂપ છે અને અને ઉત્કૃષ્ટથી બસઠ ધનુષ અને બે હાથ અર્થાત્ સાડા બાસઠ ધનુષની છે. 'उत्थीए' याथी ५मा पृथ्वीमा २ नार? छे, तेगाना शरीरनी वधार શ્રીય અવગાહના જઘન્યથી ૬૨ બાસઠ ધનુષ અને બે હાથની છે. અને ઉત્તર વૈક્રિયરૂપ જે અવગાહના છે, તે જઘન્યથી તે આંગળના સંખ્યાતમાં ભાગ રૂપે છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી તે ૧૨૫ એકસપચ્ચીસ ધનુષની છે. 'पंचमीए' पायमी २ मममा नामनी पृथ्वी छ, तभा २डेवावा नानी ભવધારણરૂપ શરીરવગાહના જઘન્યથી તે એક આંગળના અસંખ્યાતમાં ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી તે ૧૨૫, એક પચીસ ધનુષ પ્રમાણની છે. તથા ઉત્તર વૈક્રિયરૂપ શરીરવગાહના જઘન્યથી એક આંગળના સંખ્યાતમાભાગ ३५ छ भनष्टथी ते मढीस धनुष है. 'छट्ठीए' छी तम:प्रमानामनी पृथ्वीमा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.२ .१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् २२२ धणुसयाई उत्तरक्रिया जघन्यतोऽङ्गुलस्याऽसंख्येयभागममाणा उत्कर्पतः सार्दतृतीयानि धनु शतानीति । 'छट्ठीए भवधारणिज्जा अड्डाइजाई धणुसयाई' षष्ठयां नारकपृथिव्यां नारकाणां भधारणीया शरीरागाहना जघन्येनाङ्गुलासंख्येयभागप्रमाणा, उत्कर्षेण साद्ध द्वितीयानि धनुः शतानीति ॥ 'उत्तर वेउव्विया पंचधणुसयाई उत्तर वैक्रिया जघन्येनाङ्गुलस्य संख्येययभागप्रमाणा, उत्कर्षेण पञ्च धनुः शतानीति । 'सत्तमाए भवधारणिज्जा पंचधणुसयाई' सप्तम्यां तमस्तमा पृथिव्यां नारकाणां भवधारणीया शरीरावगाहना जघन्यतोऽङ्गुलस्यासंख्येयभाग प्रमोगा, उत्कर्षेण पञ्चधनुः शतानि 'उत्तरवेउनिया धणुसहस्स' उत्तरक्रिया जघन्यतोऽङ्गुलस्य संख्येयभागप्रमाणा, उत्कर्पतो धनुः सहस्रं भवतीति ।। से अंगुल के संख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से यह सार्द्ध तृतीय धनुःशत-ढाइ सौ धनुष रूप है. 'छट्ठीए' तनाप्रभा पृथिवी में नारक जीवों की भवधारणीय शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवे भागरूप है और उत्कृष्ट से वह २५० ढाई सौ धनुष है तथा उत्तर वैक्रिय रूप शरीरावगाहना जघन्य ले तो अंगुल के संख्यातवें भाग रूप है और उत्कृष्ट से ५०० पांच सौ धनुष प्रमाण है 'सत्तमाए भवधारणिज्जा पंचधणुसयाइं सातवीं पृथिवी में भवधारणीय शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग रूप हैं और उत्कृष्ट से वह ५०० पांच सौ धनुष रूप है. तथा-'उत्तरवेउध्विया' उत्तर क्रिय रूप शरीरावगाहना जघन्य से तो अंगुल के संख्यात भाग रूप है और उत्कृष्ट से एक हजार धनुष रूप है. નારકીય ની ભવધારણીય શરીરવગાહના જઘન્યથી તે એક આંગળના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી તે ૨૫૦ બસો પચાસ ધનુષ પ્રમાણુની છે. તથા ઉત્તરક્રિય રૂ૫ શરીરાવગાહના જઘન્યથી તે એક આંગળના સંખ્યાતમા ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ૫૦૦ પાંચસો ધનુષ प्रभायनी छे. 'सत्तमाए भवधारणिज्जा पंच धणुसयाई' सातभी पृथ्वीमा सप ધારણીય શરીરવગાહના જઘન્યથી એક આંગળના અસંખ્યાતમા ભાગ રૂપ છે. भने दृष्टया ते ५०० पायसे। धनुष प्रमाणुनी छे. तया 'उत्तरवेउब्धिया' ઉત્તર વૈક્રિયા રૂપે શરીરવગાહના જઘન્યથી તે એક આંગળના સંખ્યાત ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી એક હજાર ધનુષરૂપ છે. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जीवाभिगमस्त्रे अत्र रत्नप्रभादि पृथिवीगत नारकाणां प्रतिप्रतरं भवधारणीयशरीरस्योत्कृष्टा वगाहनापमाणपतिपादकं गाथादशकं यथा 'त्यणाए ढमपयरे, हत्थतिय देह उस्सए प्रणियं । छप्पन्नंगुल सट्टा, पयरे पयरे हवइ वुड्डी ॥१॥ सो चेव य वीयाए, पढमे पयरंमि होइ उस्सेहो ? हस्थतिय तिन्नि अंगुल, पयरे पयरे य बुट्टीय ॥२॥ एक्कारसमे पयरे, पण्णरस धणि दोणि रयणीओ। पारस य अंगुलाई, देहपमाणं तु विन्नेयं ॥३॥ सो चेव य तइयाए, पढमे पपरस्मि होइ उस्सेहो । सत्तय रयणी अंगुल गुणवीसंसड्युड़ीय ॥४॥ पयरे पयरे य तहा नवमे पयमि होइ उस्सेहो । धणुयाणि एगवीसं, एका रयणीय णायचा ॥५॥ सो चेव च उत्थीए, पढमे पयरम्मि होइ उस्सेहो । पंचधणु वीस अंशुल, पयरे पयरे य वुडोय । ६।। जाव सत्तमए पयरे, नेरइयाणं तु होइ उस्से हो । बासट्ठी धणुयाई, दोणि य रयणीय बोद्धव्वा ॥७॥ सो चेव पंचमीए पढमे पयरम्मि होइ उस्सेहो। पण्णरस धणि दोहत्य सडू पयरेसु बुढोय ॥८॥ तह पंचमए पयरे, उम्सेहो घणुमयंत पणवीसं । सो चेव य छट्ठीए, पढमे पयरम्मि होइ उस्सेहो । ९। बालहि धणु य सट्टा, पयरे पयरे य वुडीय । छठ्ठीए तइपयरे, दो सय पण्णानया होति ॥१०॥ छाया-लाया. प्रथममतरे, हस्तत्रिक देहाच्छ्राये भणितम् । पट् पञ्चाशदङ्गुलानि सार्द्धानि, प्रवरे मारे भवति वृद्धिः ॥१॥ स एव च द्वितीयायाः पथमे पतरे भवति उत्सेधः । हस्तत्रिकं त्रीणि अंगुलानि, मतरे प्रतरे च वृद्धिश्च । २॥ एकादशे प्रतरे पञ्चदश धन् पि वै रत्नी। द्वादश चाङगुलानि देहप्रमाणं तु विज्ञेयम् ॥३॥ स एव च तृतीयाया प्रथमे प्रतरे भवति उत्सेधः । सप्त च रहलयः, अङ्गुलानि एकोनविंशतिः सार्धा वृद्धिश्च ।।४॥ पतरे प्रतरे च तथा, नवमे प्रतरे भवति उत्सेधः। धनुष्काणि एकत्रिंशत्, कए। रत्निश्व ज्ञातव्या ॥५॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २ सु. १७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् स एव चतुर्थ्याः, प्रथमे मतरे भवति उत्सेधः । पञ्च धनूंषि विंशतिरङ्गुलानि प्रवरे पतरे च वृद्धिश्च । ६ । यावत्सप्तमे प्रतरे, नैरयिकाणां तु भवति उत्सेधः । द्वाषष्टिधेनुकाणि, द्वे च रत्नी च बोद्धव्ये ||७|| स एव पञ्चम्याः प्रवरे भवति उत्सेधः । पश्चदश धनूंषि, द्वौ हस्तौ सार्द्धं प्रवरेषु वृद्विश्व ||८|| तथा पञ्चमके प्रतरे, उत्सेधो धतुः शतं तु पञ्चविंशस् । स एव च षष्ठ्याः, प्रथमे मतरे मनति उत्सेधः ॥ ९ ॥ द्वाषष्टिः धनूंषि च सार्द्धा, थवरे प्रवरे य वृद्धिथ । षष्ठ्या स्तृतीया रे, द्वे शते पञ्चशते भवतः ॥ १० ॥ २३१ प्रत्येक पृथिव्याः प्रतरसंख्या यथा-१ रत्नमाया त्रयोदशवतराः १३, २ शर्कराप्रमायामेकादश मतराः ११, ३ बालुकाममा नवमतराः ९४ पङ्कमायां सप्तमतः ७, ५ - धूमममायां पञ्चमः ५, ६ - यभायां त्रयः प्रतराः यहां रत्नप्रभा आदि पृथिवियों में रहे हुए नारकों की प्रत्येक प्रतर की भवधारणीय जघन्य मध्यम उत्कृष्ट अवगाहना के प्रमाण को कहने थाली दश गाथाएं हैं जो टोका में दी गई है 'रथणाए पढमपधरे' इत्यादि प्रत्येक पृथिवी की प्रतरसंख्या इस प्रकार है - रत्नप्रभा में १३ तेरह प्रतर है १, शर्कराप्रभा में ११ ग्यारह प्रतर हैं २, बालुकाप्रसा में ९ नौ प्रतर है ३, पंकप्रभा में ७ सात प्रतर हैं ४, धूमप्रभा में ५, पांच हैं ५, तमः प्रभा में ३ तीन प्रतर हैं ६, और खातवीं तमस्तमःप्रभा में एक ही प्रतर है ७| इन सातों पृथिवियों के नारकों की अथनाहना અહિયાં રત્નપ્રભા વિગેરે પૃથ્વીચેમાં રહેલા નારકેાની દરેક પ્રતરની ભવધારણીય જઘન્ય, મધ્યમ, અને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનો ના પ્રમાણુને બતાવવા વાળી દસ ગાથાઓ છે. કે જે ગાથાએ ટીકામાં આપવામાં આવેલ છે. 'रयणाए पढमपयरे' इत्यादि દરેક પૃથ્વીના પ્રતરની સખ્યા આ પ્રમાણે છે-પહેલી રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં તેર પ્રતરા છે. ૧, શકરાપ્રભા પૃથ્વીમાં અગીયાર પ્રતા છે ૨, વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીમાં ૯ નવ પ્રતરા છે ૩, પ’કપ્રભા પૃથ્વીમાં સાત પ્રતરે છે. ૪, ધૂમ પ્રભા પૃથ્વીમાં પાંચ પ્રતરે છે. ૫, તમઃપ્રભા પૃથ્વીમાં ૩ ત્રશુ પ્રતરે છે ૬, અને સાતમી તમતમા નામની પૃથ્વીમાં એક જ પ્રતર છે. ૭, આ સાતે Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे २३२ २, ७ - तमस्तमःमभायामेकः मतरः १ इति । सर्व पृथिवीगतनारकाणामवगाहना द्विविधा भवति धारणीया उत्तरवैक्रिश च तत्र भवधारणीयाऽवगाहना जघन्यतोऽगुलस्यासंख्येपभागममाणा उत्तखैक्रियाऽवगाहना च जघन्यतोऽङ्गुलस्य संख्येयभागप्रमाणेति विशेषः । भवधारणीया उत्तरक्रिया चेति द्वे अपि अवगाहने उत्कृष्टतः सर्व पृथिवीगत नारकाणां पूर्व पूर्व पृथिवीगतावगाहनात उत्त तर पृथिवी स्वापेक्षया द्विगुणा द्विगुणाऽवगन्तव्येति । अत्रोत्कृष्टतो भवधारणीयावगाहनार्माश्रित्य परिमतरगतनारकावगाहना प्रतिपादिकानां पूक्त गाथानामयं आवः दो प्रकार की होती है - एक भवधारणीय दूसरी उत्तरवेक्रिय । इन में जो भवधारणीय अवगाहना है वह सयों की जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण की होती है और जो उत्तरवैकिय अवगाहना है वह सत्रों की जघन्य से अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण को होती है यह इन दोनो में विशेष है सब पृथिवियों के नारकों की भवधारणीय और उत्तर वैक्रिय ये दोनों अवगाहनाएं पूर्व पूर्व की पृथिवी के नारकों की अवगाहना से आगे आगे की पृथिवियों में अपनी अपनी, अपेक्षा से दुगुणी, दुगुणी होती चली जाती है, ऐसा समझना चाहिये | अब यहाँ उत्कृष्ट भवधारणीय अवगाहना को लेकर प्रत्येक प्रतर के नारकों की अवगाहना का प्रतिपादन करने वाली जो दश गाथाएं है उनका भाव इस प्रकार है 'रयणाए' इत्यादि । પૃથ્વીચેાના નારકની અવગાહના એ પ્રકારની હાય છે. એક ભવધારણીય અને ખીજી ઉત્તર વૈક્રિય. તેમાં જે ભવધારણીય શરીરાવગાહના છે, તે બધાની જઘન્યથી એક આંગળના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુની હાય છે. અને જે ઉત્તર વૈક્રિય શરીરાવગાહના છે, તે બધાની જઘન્યથી આગળના સખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણુની હોય છે. આ મન્નેમાં વિશેષતા છે બધી પૃથ્વીચેાના નારકીચેની ભત્રધારણીય અને ઉત્તરવૈક્રિય આ બેઉ અવગાહનાથી પછી પછીની પૃથ્વીચેમાં ખેત પેાતાની અપેક્ષાથી ખમણી બમણી થતી જાય છે. તેમ સમજવુ. હવે અહિયાં ઉત્કૃષ્ટથી ભવધારણીય અવગાહનાને લઈને દરેક પ્રતરેાંના નારકાની અવગાહનાનું પ્રતિપાદન કરવાવાળી જે દસ ગાથાઓ છે, તેના ભાવ अताववामां आवे छे. भडे 'रयणाए' इत्याहि Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ १.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् ..... २३॥ रत्नप्रभायाः प्रथमपतरे नारकाणामवगाहना इस्तत्रयप्रमाणा, इत आरभ्य पतरे प्रतरे 'छप्पन्नंगुल सट्टा' सार्द्ध षड् पश्चाशदङ्गुलानि संवयं संवर्य प्रयो. दशस्वपि प्रतरेषु नारकाणामवगाहना ज्ञातव्या । एवं क्रमेण संवर्द्धनेनान्तिमे त्रयोदशतमे प्रतरे सप्तधषि त्रयो हस्ताः षट्चाङ्गुलानि समायान्ति ॥१॥ एवं 'सों वेव रत्नप्रभा पृथिवी के पहले प्रत्तर में नारको की अवगाहना तीनहाथ की होती है। इससे आगे के बारह प्रतों में प्रत्येक प्रतरमें 'छप्पन्नंगुल. सड़ा'साढे छप्पन (५६) अंगुल बढा हा कर बारहों प्रतरों की अवगा. हना कर लेनी चाहिये । ऐले करते करते अन्तिम तेरहवें प्रतर में जाकर उत्कृष्ट अवगाहना सात धनुष तीन हाथ और छह अंगुल की आ जाती है वह इस प्रकार है-दस्न आ के प्रथम प्रत्तर में तीन हाथ की अवगाहना होती है १, दूसरे प्रतर में एक धनुष एक हाथ और साढे आठ अंगुल की २, तीसरे प्रतर में एक धनुष तीन हाथ सतरह अंगुल की ३, चौथे प्रतर में दो धनुष दो हाथ और डेढ अंगुल की ४, पांचवें प्रतर में तीन धनुष और दश अंगुलकी ५, छठे प्रतर में तीन धनुष दो हाथ और साढे अठारह अंगुल की ६, सातवें प्रतर में चार धनुष एक हाथ और तीन अंगुलको ७, आठवें प्रतर में चार धनुष तीन हाथ और साढे ग्यारह अंगुलकी ८, नौवे प्रकार में पांच धनुष एक हाथ और घीस अंगुलकी ९, दशवे प्रतर में छह धनुष और साढे चार अंगुलकी १०, રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં નારાની અવગાહના ત્રણ હાથની डाय छ, पछीना सार प्रतरामा २४ प्रतशमा 'छप्पन्नंगुलसढा' यस છપ્પન આગળ વધારીને બારે પ્રતની અવગાહના અલગ અલગ સમજી લેવી. તેમ કરતાં કરતાં છેલ્લા તેરમા પ્રતરમાં જઈને ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના સાત ધનુષ ત્રણ હાથ અને છ આંગળની થઈ જાય છે. તે આ પ્રમાણે છે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં ત્રણ હાથની અવગાહના હોય છે. ૧ બીજા પ્રતરમાં એક ધનષ એક હાથ અને સાડા આઠ આગળની છે. ૨' ત્રીજા પ્રતરમાં એક ધનુષ ત્રણ હાથ અને સત્તર આંગળની છે. ૩, ચોથા પ્રતરમાં બે ધનુષ અને બે હાથ અને દઢ આગળની છે. ૪, પાંચમા પ્રતરમાં ત્રણ ધનુષ અને દસ આંગળની છે. ૫, છટ્ઠા પ્રતરમાં ત્રણ ધનુષ બે હાથ અને સાડા અઢાર આગળની છે. ૬, સાતમાં પ્રસરમાં ચાર ધનુષ એક હાથ અને ત્રણ આંગળની છે. ૭ આઠમા પ્રતરમાં ચાર ધનુષ ત્રણ હાથ અને સાડા અગ્યાર આગળની છે. ૮, નવમા પ્રતરમાં પાંચ ધનુષ એક હાથ અને વીસ આગળની છે. ૯. દસમાં પ્રતરમાં છ ધનુષ અને સાડા ચાર આંગળની છે. ૧૦ અગીયારમાં પ્રતરમાં जी०३० Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जीवामिगमसूत्रे fature' इत्यादि, रत्नप्रभायात्रयोदशतमपतरममाणैव, शर्कराममायाः प्रथमे पवनाहना-पट गुलाधिक त्रिहस्तोत्तराणि सप्तधनपि इत्येवं प्रमाणा भवति, - इस आरभ्यास्यामवगाहनायाम् प्रतिपतरम् 'हस्थतिय विन्नि अंगुला ' ' हस्तप्रयं-यों हस्ताः त्रीणि अंगुलानि प्रक्षिप्यन्ते |२| तेनास्य अन्तिमे एकादशे + मंतरे पञ्चदश धनूंषि द्वौ हस्तौ द्वादशाङ्गुलानि, इत्येवं प्रमाणाऽवगाहना मंत्रति । " • " ग्यारहवें प्रतर में छह धनुष दो हाथ और तेरह अंगुलकी ११, बारह वे प्रतर में सात धनुष और माढे इक्कीस अंगुलकी १२, और अन्तिम के तेरहवें अंतर में जाकर सूत्रोक्त सात धनुप तीन हाथ और पूरे छर्द अंगुलफी रेनप्रभा पृथिवी के नारकों को भवधारणीय अवगाहना नित्कृष्ट से होती है । यह 'रत्नप्रभा के नारकों की उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है || १|| अब शर्करा प्रभा पृथिवी के विषय में कहते है 'सो 'चैव य यीयाए ' इत्यादि । जो 17 foi pe ce isr रत्नप्रभा में तेरहवें प्रतर में जितने प्रमाण की अवगाहना कही है, वही अवगाहना-सात धनुष तीन हाथ छह अंगुल - शर्कराप्रभा पृथिवी के प्रथम प्रतर में होगी, फिर इस अवगाहना के प्रमाण में ' इत्थतिय, तिन्नि अंगुलं' तीन हाथ और तीन अंगुल आगे आगे के હવે શકાપ્રભા પૃથ્વીના સખ ધમાં કથન કરવામાં આવે ''सों चैव य बीयाएं' त्याहि 1 A raj - : छ धनुष मे हाथमें तेर आगजनी है. ११, मारभा अतरभां सात धनुष અને સાઢાએકવીસ આંગળની છે. ૧૨, અને છેલ્લા તેરમા પ્રતરમાં સૂત્રેાક્ત સાતધદુષ ત્રણ હાથ અને પૂરા છ આંગળની રત્નપ્રભા‘પૃથ્વીના નારકાની ભવધારણીય અવગાહના ઉત્કૃષ્ટથી થાય છે. આ રીતે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારકાની उत्कृष्ट अवगाहना हड्डी छे, ॥१॥ ד - م its, રત્નપ્રભા પૃથ્વીના તેરમા પ્રતરમાં જેટલાં પ્રમાણુની અવગાહના કહેવામાં આવી છે. તેજ પ્રમાણેની અવગાહના સાત ધનુષ ત્રહાથ અને છ આંગળની શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં થાય છે. પછી આ અવગાહનાના प्रभाशुभां “इत्थतिय तिन्नि अंगुलं' : साथ मने त्रासांग पछी पछीना २४ प्रतरभां भेजवता वुले ॥२॥ - આ રીતે મેળવવાથી દેલ્લા અગીયારમા તરમાં પ ́દર ધનુષ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mit प्रमेयोतिका टीका प्र. ३.२ सु. १७ नारक जीवोत्पातनिरूपणम् ३३५ प्रत्येक प्रतर में मिलाते जाना चाहिये ||२|| ऐसे मिलाने से अन्तिम ग्यारहवें, प्रतर में पन्द्रह धनुष दो हाथ और बारह अंगुल अर्थात् एकवितस्ति' क्योंकि बारह अंगुलकी एक वितस्ति- वेंत होती है। यह प्रतिप्रतर की. अवगाहना इस प्रकार है दूसरी शर्कराप्रमा पृथ्वी के प्रथम प्रतर मे सात धनुष तीन हाथ छह अंगुलकी, अवगाहना होती हैं १, दूसरे प्रतर में आठ धनुष दो हाथ और नौ अंगुलकी २५, तीसरे प्रतर में नौ धनुष एक हाथ और बारह अंगुलकी, ३ चौथे प्रतर में दस धनुषऔर पन्द्रह अगुलकी ४, पांचवें प्रतर में दस धनुष तीन हाथ और अठारह अंगुलकी, ५, छठे प्रतर में ग्यारह धनुष, दो हाथ और इक्कीस अंगुलकी ६, सातवें प्रतर में बारह- धनुष और दो हाथ की आठवें प्रतर में तेरह धनुष एक हाथ और तीन अंगुलफी ८, नौवे, प्रतर में चौदह धनुष और छह अंगुल की ९, दसवें प्रतर में चौदह धनुष तीन हाथ और नो अंगुल की १०, एवं अन्त के ग्यारहवें प्रतर में सूत्रोक्त पन्द्रह धनुष दो हाथ और बारह अंगुल अर्थात् एक वितरित की होती है ११ | यह दूसरी शर्कराप्रभा पृथिवी के नारकों की उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है २ ॥ ॥०३ || १९८ 67 "f f - हाथ, भने भर आंगण अर्थात् से वितस्ति (वेत) भट्ठे पर आंग जनी खेड- वितस्तिनाभ वेत थाय छे, ते ६२४ प्रतरनी अवगाडेना. आ. પ્રમાણે થાય છે –શરાપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં સાત ધનુષ ત્રણ હાથ अने छ आगजनी, अवगाहना थाय छे. १, बील अंतरम સ્માર્ટ ધનુષ મૈં હાથ અને નવ આંગળની ૨, ત્રીજા પ્રતરમાં નવ ધનુષ એક હાથ, અને ખાર આંગળની ૩, ચેથા પ્રતરમાં દસ ધનુષ અને પંદર આંગળની ૪, " J • · પાંચમા પ્રતરમાં. દસ ધનુષ ત્રણ હાય. અને मदार भांगजनी ६, સાતમા પ્રતરમાં ખાર ધનુષ અને એ હાથની છ, આઠમા પ્રતરમાં તે ધનુષ એક હથ અને ત્રણ આંગળની ૮, નવમા પ્રતમાં ચૌદ ધનુષ અને છ મગળની હું, દસમા પ્રતરમાં ચોંડ ધનુષ ત્રણ હાથ અને નવ માંગળની, ૧૬, અને છેલ્લા અગીયારમા પ્રતરમાં સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે પદર ધનુષ બે હાથ અને ખાર આંગળ અર્થાત્ એકવિતસ્તિ નામ વેતનો હાય. છે. ૧૧, આ અવગાહના ખીજી શ`રાપ્રભા પૃથ્વીના નારકેટની ઉત્કૃષ્ટથી કહેવામાં भावे छे. २ ॥ . 3 ॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३.६. जीवामिगमसूत्रे || गा. ३ || 'सो चैव य- वइयाए ' इत्यादि । स एव द्वितीया पृथिव्या अन्तिमैकादर्शतमपतरमरूपिताऽवगाहना प्रमाण उत्सेधः तृतीय पृथिव्या वालुकाप्रमायाः प्रथमे प्रतरे भवति, अस्मिन् प्रमाणे 'सत्त य रयणी अंगुळगुणवीसस बुद्धीय' सप्त च रत्नयः सार्द्धानि एकोनविंशत्यङ्गुलानि प्रतिषतरं संवर्द्धन्ते |8| तेनान्ति मे नवमे प्रतरे एकत्रिंशदधन् पिएको हस्तः, इत्येवं ममाणाऽवगाहना जायते ३। अब तीसरी वालुकाप्रभा पृथिवी के विषय में कहते हैं-'सो चेव यतझ्याए' इत्यादि जो द्वितीय पृथिवी के अन्तिम ग्यारहवें प्रतर में जितना अवगाहना का प्रमाण बताया है पन्द्रह धनुष दो हाथ बारह अंगुल - वही प्रमाण तीसरी बालुकाप्रभा पृथिवी के प्रथम प्रतर में होता है, इस प्रमाण 'सत्त य रयणी अंगुल गुणवीसं सड' सात हाथ साढे उन्नीस अंगुल आगे आगे के प्रति प्रतर में मिलाते जाना चाहिये || गा०४ || ऐसे मिलाते जाने से अन्तके नौवे मतर में इकतीस धनुष एक हाथ की अवगाहना हो जाती है ३ || वह प्रति प्रतर की अवगोहना इस प्रकार है - इसके प्रथम प्रतर में पूर्वोक्त पन्द्रह धनुष दो हाथ और बारह अंगुल की अवगाहना होती है १, इसके बाद दूसरे प्रशर में सत्रह धनुष दो हाथ और साढ़े सात अंगुल की २, तीसरे प्रतर में. उन्नीस धनुष दो हाथ और तीन अंगुल की ३, चौथे प्रतर में इक्कीस धनुप एक हाथ और साढे बाईस अंगुल की ४, पाचवें प्रनर में तेइस धनुष एक हाथ और अठारह अंगुलकी ५, छठे प्रतर में पचीस धनुष હવે ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના સમધમાં કથન કરવામાં આવે છે. ધ્રો चैव य तहयाए' त्याहि मील में पृथ्वीये ना हेला भगीयारमां प्रतरभां भेटतुं અવગહિના નું પ્રમાણુ ખતાવવામાં આવેલ છે, એટલે કે પદર ધનુષ એ હાથ અને ખાર આંગળ કંહ્યુ' છે, એજ પ્રમાણુ ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં थाय छे. मा प्रभाष 'सत्त य रयणी अंगुलगुणत्रीसं सडूढं' सात हाथ साडा भोग ગ્રીસ ૧૯ા આંગળ પછી પછીના દરેક પ્રતરમાં મેળતા જ જવુ જોઈએ. ગા. ૪ા મા પ્રમાણે મેળવતા જતાં છેલ્લા નવ પ્રતરમાં એકત્રીસ ધનુષ એક હાથની અવશાહના થઈ જાય છે. ૩ !! એ દરેક પ્રતરની અવગાહના આ પ્રમાણે છે. તેના પહેલા પ્રતરમાં પહેલાં કહ્યા પ્રમાણે પંદર ધનુષ એ હાથ અને ખાર આંગળની અવગાહના થઈ જાય છે. ૧, તે પછી ખીજા પ્રતરમાં સત્તર ધનુષ એ હાથ અને સાડા સાત આંગળની ૨, ત્રીજા પ્રતમાં ૧૯ ઓગણીસ ધનુષ એ હાથ અને ત્રણ આંગળની, ૩, ચેાથા પ્રતરમાં એકવીસ ધનુષ એક હાથ અને સાડા ખાવીસ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१७ नारकंजोबोत्यातनिरूपणम् गा. ५। 'सो चेव चउत्थीए' इत्यादि । स एव वतीय पृथिव्या अन्तिम नवमपतर प्रदर्शित उत्सेधश्चतुर्था, पङ्कममायाः प्रथमे भतरे भवति ततोऽस्मिन् प्रमाणे 'पंचधणुवीस अंगुल' पञ्चधनषि विंशतिरछुलानि प्रतिप्रतरं वर्द्धयेत् ।गा. ६। एवं क्रमेण वद्धिते सति सप्तमेऽन्तिमे प्रतरे द्वापष्टिधषि द्वौ हस्ती, इत्येवं प्रमाणाऽवगाहना पङ्कपमानारकाणां समायाति ४। गा. ७। 'सा चेव पंचमीए' इत्यादि, एक हाथ और साढे तेरह अंगुलकी ६, सातवें प्रतर में सत्ताईस धनुष एक हाथ और नौ अंगुलकी ७, आठवें प्रतर में उनतीस धनुष एक हाथ और साढे चार अंगुलकी ८, ऐसे अन्त के नौवें प्रतर में इकतीस धनुष और एक हाथ की सूत्रोक्त उत्कृष्ट भवधारणीय अव. गाहना तीसरी वालुकाप्रभा पृथिवी के नारकों की होती है ॥३॥गा०५।। अब चौथी पंकप्रभा पृथिवी के विषय में कहते हैं-'सो चेव चउस्थीए' इत्यादि। ___ जो इसके अन्तिम नौवे प्रतर में जितना अवगाहना का प्रमाण कहा गया है-इकतीस धनुष एक हाथ-वही प्रमाण चौथी पंकप्रभा के प्रतर में होता है, इसमें प्रत्येक प्रतर को लेकर आगे आगे के प्रतर में-'पंच. घणु वीस अंगुल' पांच धनुष बीस अंगुल मिलाते जाना चाहिये. ॥ग०६॥ ऐसे क्रम से मिलाने पर अन्त के सातवें प्रतर में-बासठ धनुष दो हाथ की अवगाहना हो जाती है, वह इस प्रकार पंकप्रभा के प्रथम રરા આંગળની ૪, પાંચમા પ્રતરમાં ત્રેવીશ ધનુષ એક હાથ અને અઢાર આંગળની ૫, છઠા પ્રતરમાં પચીસ ધનુષ એક હાથ અને સાડા તેર ૧૩ આંગળની ૬, સાતમાં પ્રતરમાં સત્યાવીસ ધનુષ એક હાથ અને નવ ૯ આંગળની ૭, આઠમા પ્રતરમાં ઓગણત્રીસ ધનુષ, એક હાથ અને સાડા ચાર આંગળની ૮, છેલ્લા નવમા પ્રતરમાં એકત્રીસ ધનુષ અને એક હાથની સૂત્રોક્ત ઉત્કૃષ્ટ ભવપારણીય અવગાહને ત્રીજી વાલુકાપ્રભ પૃથ્વીના નારકેની હોય છે. એ ૩ ગા. ૫ | हवे याथी मा थाना सधमा ४पामा मा छे. 'सो चेव. चउत्थीए' त्यादि આના છેલ્લા નવમાં પ્રતરમાં જેટલા અંતરનું પ્રમાણુ કહ્યું છે, એટલે કે એકત્રીસ ધનુષ એક હાથનું એજ પ્રમાણ ચેથી પંકપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં થાય છે. તેમાં દરેક પ્રતરને લઈને પછી પછીના પ્રતરમાં 'पंच घणुवीस अंगुल' पांय धनुष वास मां भगवता न ये . सा. ૬આ ક્રમથી મેળવતાં છેલલા સાતમા પ્રતરમાં બાસઠ ધનુષ બે હાથની અવગાહના થઈ જાય છે. તે આ પ્રમાણે છે. પંકખભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जीवामिगमस्त्रे स एव चतुर्थ पृथिव्या अंन्तिम सप्तम प्रतरप्रदर्शित एव उत्सेधः पञ्चम्याः धृतप्रभा पृथिव्याः प्रथम प्रतरे भवति, ततोऽस्मिन् प्रमाणे पण्णरस धणूणि दो हत्य सड़' पञ्चदशधषि साद्धो द्वौ हस्तौ प्रविमतरी संवर्द्धयेत् । गा..८ एवं वृद्धयाँ. मे पश्च मे प्रारे पञ्चविंशत्यधिकं धनुःश धूमपभा पृथिवीनारकाणामवगा.. प्रतर में इकतीस धनुष एक हाथ की अवगाहना होती है १ दूसरे प्रतर. में छतीस धनुष एक हाथ और बीस अंगुल की २, तीसरे प्रतर में इकतालील धनुष दो हाथ और सोलह अंगुल की ३, चौथे प्रतर में छीयालीस धनुष तीन हाथ और बारह अंगुल की ४, पांचवें प्रतर में पावन धनुष और आठ अंगुल की ५, छठे प्रतर में सतावन धनुप एक हाथ और चार अंगुलकी ६, और अन्त के सातवें प्रतर में सूत्रोक्त बासठ धनुष और दो हाथ की उत्कृष्ट अवगाहना हो जाती है ७॥गा०७॥. . ___ अब पांचची धूमप्रभा पृथिवी के विषय में कहते हैं-'सोचेव-पंचभीए' इत्यादि। चौथा पत्रमा पृथिवी के अन्तिम के सातवें प्रतर में जो अवगाहना का प्रमाण कहा गया है-पासठ धनुष और दो हाथ-वही प्रमाण पांचवीं धूमप्रभा पृथिवी के प्रथम प्रतर में होता है इस के आगे आगे के प्रत्येक प्रतर में 'पगरसवणूणि दो हत्थस' प्रन्द्रह धनुष और अढाई हाथ मिलाते जाना चाहिये । गा०८। ऐसे मिलाते जाने पर धूमप्रभा के એકત્રીસ ધનુષ એક હાથની અવગાહના હોય છે. ૧, બીજા પ્રતરમાં છત્રીસ ધનુષ એક હાથ અને વીસ આગળની. ૨, ત્રીજા પ્રતરમાં એકતાળીસ ધનુષ બે હાથ અને સેળ આંગળની. ૩ ચેથા પ્રતરમાં બેંતાલીસ ધનુષ ત્રણ હાથ અને બાર આંચળની. ૪, પાંચમા પ્રતરમાં બાવન ધનુષ. અને આઠ આગળની ૫, છઠા પ્રતરમાં સત્તાવન ધનુષ એક હાથ અને ચાર આંગળની ૬, અને છેલ્લા સાતમા પ્રતરમાં સૂત્રમાં કહ્યા પ્રમાણે બાસઠ ધનુષ અને બે હાથની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના થઈ જાય છે. ૭ | ગા. ૭ હવે ૫ ચમી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના સંબંધમાં કથન કરવામા આવે છે. 'सो चेव पंचमीए' त्यादि ચેથી પંકપ્રભા પૃથ્વીના છેલ્લા સાતમા પ્રતરમાં જે અવગાહનાનું પ્રમાણ કહેલ છે. જેમકે ૬૨ બાસઠ ધનુષ અને બે હાથ, એ જ પ્રમાણે પાંચમી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં થાય છે. તેનાથી પછી પછીના દરેક પ્રતરમાં 'पण्णरस धणूणि दो हत्थ संढ' ५४२ धनुष भने मढी डाय भगवता . જોઈએ. એ ગા. ૮ આવી રીતે મેળવતા જતાં ધૂમપ્રભાના છેલ્લા પાંચમાં Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् हना प्रमाणं समागच्छति ॥ 'सो चेव य छट्ठीए' इत्यादि, स एव एतावत्पमाण एवोत्सेधः षष्ठया स्तमःपमा पृथिव्याः प्रथमे पतरे भवति ततोऽस्मिन् प्रमाणे 'बासद्विधणुय सट्टा' सार्दानि द्वापष्टि धनूषि पतिपतरं संवर्ध्यन्ते. ततः समायाति अन्त के पांचवें प्रतर में नारकों की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना एक सौ पचीस धनुष की आ जाती है। वह प्रति प्रतर की अवगाहना इस प्रकार है' धूमप्रभा के प्रथम प्रतर में पूर्वोक्त बासट धनुष और दो हाथ की होती है। इस के आगे दमरे प्रतर में अठहत्तर धनुष और एक क्ति'स्ति अर्थात् चारह अंगुल की २, तीसरे प्रतर में तिनवे ९३ धनुष और तीन हाथ की ३, चौथे प्रतर में एक सौ नौ धनुष एक हाथ और 'एक वितस्ति' अर्थात बारह अंगुल की ४, और अन्त के पांचवें प्रतर में धूमप्रभा पृथिवी के नारकों की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना एक 'सौ पचीस धनुष की आजाती है। ' 'अब छठी तमाप्रभा पृथिवी के विषय में कहते हैं-'सोचेव य छट्टीए' इत्यादि। " पांचवीं धूमप्रभा पृथिवीं के अन्त के पांचवे प्रतर में जो अवगाहना को प्रमाण-एक सौ पचीस धनुष है वही प्रमाण छठी साप्रा पृथिवी 'के-प्रथम प्रतर में होता है ॥गा०९॥ इसमें 'बालधिणुयलडा' साढे પ્રતરમાં નારકોની ભવધારણીય ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના એકસો પચ્ચીસ ૧૨૫, ધનુષની થઈ જાય છે. તે દરેક પ્રતરની અવગાહના આ પ્રમાણે છે. ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં પૂર્વોક્ત ૬૨ બાસઠ ધનુષ અને બે હાથની થાય છે. ૧, તે પછી બીજા પ્રતરમાં અઠતેર ધનુષ અને એક વિતસ્તિ (વંત) અર્થાત્ બાર આંગળની. , ત્રીજા પ્રતરમાં ૯૩ ત્રાંણ ધનુષ અને ત્રણ ‘હાથની ૩, ચેથા પ્રતરમાં ૧૦૯ એકસો નવ ધનુષ એક હાથ અને એક વિતરિત અર્થાત બાર આગળની ૪, અને છેલ્લા પાંચમાં પ્રતરમાં ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના નારકોની ભવધારણીય ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના ૧૨૫ એકસો પચીસ ધનુષની થઈ જાય છે. ૫, हवे ही तमामा पृथ्वीना समयमा ४थन ४२वामां आवे छे. 'सो चेव छडीए' त्यादि * પાંચમી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના છેલા પ્રતરમાં જે અવગાહનાનું પ્રમાણ ૧૨૫ એકસો પચ્ચીસ ધનુષ છે એજ પ્રમાણ છઠી તમપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા अतरभा-याय छे. ॥ ६ ॥ . . Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जीवामिगमत्र तमःममा पृथिव्या अन्तिमे तृतीयप्रतरे नारकाणामवगाहना पञ्चाशदधिके द्वे शते धनुषाम्, इत्येवं प्रमाणा भवति ६ । इति गाथादशकस्य भावार्थः ।गा. १०॥ सप्तम्यामधःसप्तम्यां तमस्तमःममा पृथिव्यामेक एव पतर इति षष्ठ पृथिवीगतावगाहनाममाणतो द्विगुणाऽत्रत्यानां नारकाणामवगाहना भवतीति समायाति पञ्चधनुः शत प्रमाणा सप्तम पृथिवी नारकाणामवगाहनेति । घासठ (६२॥) धनुष आगे आग के प्रत्येक प्रतर में मिलाते जाना चाहिये, ऐसे मिलाने पर अन्तके तीसरे प्रतर में तमाप्रभा पृथिवी के नारकों की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना दो सौ पचास अर्थात् ढ ई सौ धनुष की हो जाती है । प्रति प्रकार की अवगाहना इस प्रकार है-तम-प्रभा पृथिवी के प्रथम प्रतर में अवगाहना एक सौ पचीस धनुष की होती है, १, एवं दूसरे प्रतर में एकसो साढे सतासी (१८७॥) धनुष की होती है २, अन्तिम के तीसरे प्रतर में दो सौ पचास २५०) अर्थात् ढाई सौ धनुष की हो जाती है ३, ' यह दश गाथाओं का भावार्थ हुआ ॥०१०॥ ____आगे सातवीं तमस्तमःप्रभा पृथिवी में एक ही प्रतर होता है उसमें रहे हुए नारकों की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना छठी पृथिवी के नारकों की उत्कृष्ट अवगाहना से दनी अर्थात् पांचसौ धनुष की होती है ऐसा जान लेना चाहिये 'मातों पृथिवियों के नारकों की प्रत्येक मामा 'बासद्विघणुयमडूढा' साडी मास (१२॥) धनुष पछी पछीना દરેક પ્રતરમાં મેળવતા જવું જોઈએ એવી રીતે મેળવતાં છેલ્લા ત્રીજા પ્રતરમાં તમપ્રભા પૃથ્વીના નારકેની ભવધારણીય ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના બસે પચાસ ૨૫૦ અર્થાત્ અઢીસો ધનુષની થઈ જાય છે. દરેક પ્રતરની અવગાહના આ પ્રમાણે છે. તમઃપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતરમાં ૧૨૫ અકસે પચીસ ધનુષની અવગાહના થઈ જાય છે. ૧, અને બીજા પ્રતરમાં ૧૮ એક સાડી સત્યાસી ધનુષની થાય છે. ૨, અને છેલ્લા ત્રીજા પ્રતરમાં ૨૫૦ બસો પચાસ અર્થાત્ અઢીસે ધનુષની થઈ જાય છે. ૩, આ પ્રમાણે દસ ગાથાઓને ભાવાર્થ थाय छे. ॥ ॥ १० ॥ સાતમી તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીમાં એકજ પ્રતર હોય છે. તેમાં રહેલા નારકેની ભવધારણીય ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના છઠી પૃથ્વીના નારકેની ઉક્ટ અવગાહનાથી બમણું અર્થાત પાંચસો ધનુષની હોય છે. તેમ સમજવું. “સાતે પૃથ્વીના નારકોની દરેક પૃથ્વીના દરેક પ્રતરની ભવધારણીય ઉત્કૃષ્ટ અવગા Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ m9 प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ ७.१७ नारकजीवोत्पातनिरूपणम् (१) रत्नप्रभापृथिवी नारकाणां प्रतिमतरावगाइना कोष्ठकम् पत्र सं. ।। २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९१०/११/१२ धनूषि हस्ताः १३.२० २ १ ३ १ २ ० अंगुलानि०८॥ १७॥१८१८॥३१॥२०४॥ १३॥२१॥ ६ (२) शर्कराश्भापृथिवी नारकाणां प्रतिमत रावणाहना कोष्ठकम् प्रतर सं. १२ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९/१० ११ ७/८९१०१०११/१२/१३/१४/१४ १५ हस्ता । अंगुलानि ०१२१६१८२१ ० ३६, ९/१२वितरित धषि (३) बालुकापमापृथिवी नारकाणां प्रतियतरमवगाहना कोष्ठम् मतर सं. | १ २ ३ ४ ५ ६ । ७ धन्षि २५/१७१९२१ २३२५ २७२९ हस्ता२ २ २ १ १ १ १ ११ अगुलानि १२७॥ ३२२।। १८१३॥ ९४॥ ० (४) पङ्कपभापृथिवी नारकाणां प्रतिषतरमवशाहना कोष्ठकम् मतर सं. | १ २ ३ ४ ५ ६ ७ धनूषि ३१३०/४१/४६५२५७६२ हस्ताः अंगुलानि | ०२०/१६२८४/० (५) धूमप्रमापृथिवी नारकाणां प्रतिप्रतरमवगाहना कोष्ठकम् मतर सं. श २ धन षि २ ७८ इस्ताः अंगुलानि ०१२ वितरित १२ वितरित . ३ | ४ पृथिवी के प्रत्येक प्रतर की भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना बताने वाले कोष्ठकों को टीका में देख लेना चाहिये' હના બનાવવા વાળું કોષ્ટક સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ છે તે ત્યાંથી જોઈને સમજી લેવું. जी० ३१ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ | . जीवामिगमस्ते (६) तमःप्रमापृथिवी नारकाणां पतिप्रतरमवगाहना कोष्ठकम् मतर स. धषि १२५१८७॥२५० हस्ताः अंगुलानि (७) तमस्तम:प्रभापृथिवी नारकाणामेकस्मिन् प्रतरेऽवगाहना कोष्ठकम प्रार सं. धनपि हस्ता अंगुलानि एषा भवधारणीय शरीरापेक्षया उत्कृष्टाऽवगाहना, उत्तरवैक्रिय तु सर्वत्र भव. धारणीयोत्कृष्टारगानाऽपेक्षया द्विगुणप्रमाणा सर्वत्र ज्ञातव्या तेन रत्नप्रभा पृथिवीत आरम्य द्विगुण द्विगुणी करणेन सवति सप्तम्यां तुमस्तम प्रभायां पृथिव्या नारकाणामुत्तरवैक्रियोत्कृष्टाऽवगाहना धनुःसहस्रममाणेति । इत्यवगाहना प्रकरणम् ॥मू० १७॥ सम्पति-नारकजीवानां संहनन प्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे गं' इत्यादि, मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया किं संघरणी पन्नत्ता, गोयमा! छण्हं संघयणाणं असंघयणी, णेवट्ठी व छिरा णवि पहारू णेव संघयणं मस्थि, यह अवधारणीय शरीर की अपेक्षा उत्कृष्ट अवगाहना कही गई है, उत्तर वैक्रिय शरीर की उत्कृष्ट अवगाहना भवधारणीय शरीर की उत्कष्ट अवगाहला से दुगुणी दुगुणी सच पृथिषियों में समझ लेनी चाहिये । ऐसे द्विगुण विगुण-दूनी २, होते हुए सातवीं तमस्तमःप्रभा पृथिवी के नारकों की उत्तर वैक्रिय उत्कृष्ट अवगोहना एक हजार योजन की हो जाती है।सूत्र १७॥ . ' આ ભવધારણીય શરીરની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના કહેવામાં આવી છે. ઉત્તર વૈક્રિય શરીરની ઉત્કૃષ્ટ અવગાહનાથી બમણી, બમણી બધી પૃથ્વીમાં સમજી લેવી જોઈએ. એ પ્રમાણે બમણું બમણી થતાં થતાં સાતમી તમસ્તમાં પ્રભા પૃથ્વીના નારકેની ઉત્તર વૈક્રિય ઉત્કૃષ્ટ અવગાહના એક હજાર એજનની थई लय छ, ।। १७ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ.२.१८ नारकजीवानां संहनननिरूपणम् जे पोग्गला अणिट्ठा जाव अमणामा ते तेसिं. सरीरसंघायत्ताएं परिणमंति, एवं जाव अहे सत्तमाए । इमीसे णं भंते! रयणभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरा किं संठिया पन्नत्ता ? गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता तं जहा भवधारणिजाय उत्तरवेउब्विया य, तत्थं जे ते भवधारणिजाते हुंडर्सठिया पन्नत्ता, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउच्विया ते इंडसंठिया पन्नत्ता, एवं जाव अहे सत्तमाए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरंगा केरिया वष्णेणं पन्नत्ता ? गोयमा ! काला कालोभासा जाव परम किन्हा वण्णं पन्नत्ता, एवं जाव अहे सत्तमाए ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया केरिलया गंधेणं पन्नता ? गोयमा ! से जहा णामए अहिमडेइ वा तं चैव जाव अहे सत्तमाए ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया केरिया फावेणं पन्नता, गोयमा ! फुडितच्छवि विच्छ्वया खर फरुस झाम झुासेरा फासेणं पन्नत्ता एवं जावं अहे सत्तमाए ॥ सू० १८॥ ૨૪૨ छाया -- एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां शरीराणि किं संहननानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! षण्णां संहनना मसंहननानि, नैवास्थि, नैत्रशिराः नापि स्नायवः, नैव संहननमस्ति, ये पुद्गला अनिष्टा यावदमनोऽसाः ते तेषां शरीरसंघाततया परिणमन्ति । एवं यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खच भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां शरीराणि किं संस्थितानि प्रज्ञप्तानि, गौतम ! द्विविधानि तद्यथा-भवधारणीयानि चोत्तरवै क्रियाणि च तत्र खलुयानि तानि भवधारणीयानि तानि हुण्डसंस्थितानि प्रज्ञवानि, तत्र खल्ल यानि तानि उत्तरवैकियाणि तान्यपि हुण्डसंस्थितानि प्रज्ञप्तानि एवं यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खलु भदन्त । रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां शरीराणि की शानि वर्णेन प्रज्ञप्तानि ! गौतम ! काळानि कालावभासानि यावत् परमकृष्णानि वर्णेन ज्ञप्तानि । एवं यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खलं भदन्त । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्र रत्नपभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां शरीराणि कीदृशानि गन्धेन प्रज्ञप्तानि ? गौतम स यथानामका अहिमृत इति वा, तदेव याबदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नपभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां शरीराणि कीदृशानि स्पर्शन मज्ञप्तानि ? गौतम ! स्फटितच्छवि विच्छवयः खरपरुपध्माममपिराणि स्पर्शेन प्रज्ञप्तानि । एवं यावदधः सप्तम्याम् ॥१० १८॥ टीका--'इमीसे णं भंते' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढबीए' रत्नपभायां पृथिव्याम् 'नेरइयाणं' नैरयिकाणास् 'सरीरया किं संघयणी पनत्ता' शरीराणि कि संहननानि-कीदृशसंहननयुक्तानि भवन्तीति प्रश्ना, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, गोयमा ! हे गौतम ! 'उण्हं संघयणाणं बसंघयणा' पण्णासंहननानामसंहननानि नारफशरीराणि भवन्तीति । नारकशरीराणि कुतः संहननवन्ति न भवन्ति तत्राह-'णेवट्ठी' इत्यादि, 'णेवट्ठी' नैवास्थि, नारकशरीरे अघ स्त्रकार नारक जीवों का संहनन प्रकट कहते हैं 'इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरयाणं सरीरया किं संघयणी' इत्यादि सूत्र-१८ टीकार्थ-गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछे है-'इसीसे णं भंते !' हे भदन्त ! इस 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी में 'सरीश्या' नैरकियों के शरीर 'किं संघयणी पनत्ता' किल संहनन थाले कहे गये हैं? 'गोयमा छह संघयणाणं असंघयणा' उत्तर में प्रयु कहते है-हे गौतम! नारकों के शरीर छह संहननों के बीच में से किसी भी एक संहनन वाले नहीं कहे गये हैं। क्योंकि नारकों के शरीर संहनन से हीन होते हैं। ये संहनन से हीन क्यों होते हैं ? इसका कारण का कथन करते हुए सूत्रकार कहते हैं-'णेवट्ठो' नारक के शरीर में हड्डियां नहीं हैं 'णेव छिरा' वे सूत्रा२ ना२४ वेना सनननु नि३५९ ४रे छ. 'इमीसे ण भते ! रंयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया किं संघयणी' त्यादि टाय-गीतमस्वामी प्रसुन मे पूछ्यु छ, 'इमीसे णं भंते ! है महन्त ! मा 'रयणप्पभाए पुढवीए' २नमा पृथ्वीमा 'सरीरया' नैयिाना शरी। 'कि संघयणी पण्णत्ता' या सडनना । छ ? 'गोयमा ! छह संघयणाणं असं घयणा' मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४३ छ 2 3 गौतम! નારકોના શરીર છ સંહને પકી કઈ પણ એક સંહનનવાળા હોતા નથી. કેમકે નારકેના શરીરે સંહનન વિનાના હોય છે. તેઓ સંહનન વિનાના भ डाय छे. ये समयमा तेनु २१ मताता सूत्रा२ ४ छे । 'णेवट्ठी' Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेमैयद्योति का टीका प्र.३ उ.२ सू.१८ नारकजीवानां संहनननिरूपणम् २४५ अस्थीनि न भवन्ति 'णेत्र छिरा' नैव शिरा भवन्खि गरि हारू नापि स्नायवो भवन्ति 'णेव संघयणमस्थि' नैव संहननमस्ति-यत्रैच शरीरे अस्थ्यादीनि भवन्ति तत्रैव संहननमपि भवति नारकशरीरे अस्थायभावात संहननाभावो भवतीति । संहननामावे तेषां शरीराण्येव कथमित्याशङ्कायामाह-'जे पोग्गला' इत्यादि, 'जे पोग्गला अणिवा जाव अमणामा' ये पुद्गला अनिष्टा यावदमनोऽमाः, यावत्पदेनाकान्ता अपिया अमनोज्ञाः एषां विशेषणानां संग्रहो भवतीति । 'वे तेसिं संघायत्ताए परिणमंति' ते पुद्गला अनिष्टादि विशेषयुक्ताः तेषां नारकाणां शरीरसंघातत्या शरीराकारेण परिणमन्ति अनिष्टादिविशेषणयुक्ताः पुद्गलाः नारकाणां शरीराकारेण परिणमन्ति किन्तु तत्र शरीरे अस्थ्यादीनामभावेन संहननं शिराएँ नहीं होती हैं। णविहारू' स्नायुएं नहीं होती है । 'णेच संघयण मरिय' इसलिये नारफों का शरीर संहनन ले हीन कहा गया है क्योकि जिस शरीर में अस्थि आदि होते है वहीं पर संहनन होता है. नारको के शरीर में अस्थि आदि हैं नहीं इस कारण वहां संहनन का अभाव है शंका-यदि नारको के शारीर संहनन से हीन हैं तो फिर ये शरीर पदवाच्य कैसे हो सकते हैं ?-इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जे पोग्गला अणिहा, जाव अमणामा' हे गौतम । जो पुद्गल अलिष्ट यावत् अननो. ऽम होते हैं वे 'लेसि सरीर संघयत्साए परिणति' उनके शीर रूप से परिणलते हैं। यहां चावल्पद से 'अशान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ' इन पदों का संग्रह हुआ है. तात्पर्य कहने का यही है कि यद्यपि नारकों का नाहीना शरीशमा मोहता नथी. 'णेवछिरा शिरामा हाती नथी. 'णवि हारू' स्नायुयो हात नथी. वसंघयणमत्थि' तथा नारी ને શરીરે સંહનન વિનાના કહેવામાં આવેલ છે. કેમકે જે શરીરમાં હાડકા વિગેરે હેય છે, ત્યાં જ સંહની હેય છે. નારકના શરીરમાં હાડકા વિગેરે હતાજ નથી તે કારથી તેઓને સહનનને અલાવ કહેલ છે. શંકા–જે નારકોના શરીરે સંહનન વિનાના છે, તે પછી તેઓ “શરીર એ પદથી યુકત કેવી રીતે હોઈ શકે ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ । 'जे पोगाला थणिवा जाव अमणामा' है गीतम ! २ पुस मनिष्ट यावत् मभने। होय छे, तो 'वेसि सरीरसंघायत्ताए परिणमति' तमेाना शरी२३३ परिणभे . महियां यावत्पा था 'अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ' 21 वर पाना सब थयो छे. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે જો કે નારકેના શરીરે સહનન નામ કર્મ ના ઉદયના અભાવમાં હાડકા વિગેરેના અભાવમાં સંહનન વાળા હોતા નથી, Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जीवामिगमस्त्र वन ऋपमादिष्जन्यममपि न माति इति । 'पत्रं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावद अधः सप्तस्यास् यथा रत्नप्रभा नारकाणां शरीराणि संहननवन्ति न भवन्ति तथैव शर्करापमा वालुकाममा पङ्कपमा धूमपभा तम:पमा तमस्तमःममा नारकाणामपि शरीराणि संहनननिशिष्टानि न भवन्ति आथ्यादीनामभावादिति । शरीर संहनन नापकर्म के उदय के अभाव से अस्थि आदिकों के अभाव में लहनन वाला नहीं होता है-परन्तु फिर भी उनके वैक्रिय शीर होता है, क्योंकि नारकों के शरीर रूप से जितने अनिष्ट आदि विशेषण थाले पृङ्गल में ये सम परिणमते रहते है । ऐली व्याप्ति नहीं है कि जहां २, शरीर होता है वहां २, संहनन होता है क्योंकि देवों के शरीर होने पर भी संहनन नहीं होता है संहनन का सम्पन्ध संहनन नाम काम के उद्याधीन है और शरीर का सम्बन्ध शरीर नाम कर्म के उदयाधीन है-शरीर पांच होते हैं और संहनन छह होते हैं वज्र कषभनानाच आदि इनके भेद हैं । इनमें से एक भी संहनन इनके नहीं होता है। 'एवं जाच अहेसत्तमाए' जिस प्रकार से रत्नप्रभा पृथिवी के नरकाघालों में रहने वाले नारकजीवों का शरीर संहनन रहित होता है उसी प्रकार ले शहराप्रभा, दलकाममा पङ्कप्रभा धृमप्रभा तभाप्रमा और तमस्तमामा के नरकावासों में रहने वाले नारक जीवो का भी शरीर संहनन से हीन होता है ऐसा जानना चाहिये इस तरह लमस्त पृथिषियों के नारकों का शरीर संहनन वाला नहीं होता છતાં પણ તેઓને વૈક્રિય શરીરે હેય છે. કેમકે નારકોના શરીર પણાથી જે કેઈ અનિષ્ટ વિગેરે વિશેષણ વાળા પુદ્ગલે હોય છે, તે બધા તેઓના શરીર રૂપે પરિણમતા રહે છે. એવી વ્યક્તિ નથી કે જ્યાં જ્યાં શરીર હોય ત્યાં ત્યાં સંહનન હોય છે. કેમકે દેવેને શરીરે હોવા છતાં પણ સંહના હોતા નથી સંહને સંબંધ સંહનન નામ કર્મને ઉદયાધીન છે. શરીર પાંચ પ્રકારના હોય છે. અને સંહનન છ પ્રકારના હોય છે જ, ત્રષભ, નારા, વિગેરે તેના ભેદો છે. આ સંહનને પિકી એક પણ સિંહનન નારકે ને डातुनथी. 'एव जाव अहेसत्तमाए' २ प्रमाणे २त्नप्रभा पृथ्वीना नावासमा રહેવાવાળા નારક જીના શરીરે સંહનન વિનાના હોય છે, એ જ પ્રમાણે શરામભા, તાલુકા પ્રભા, પંકપ્રભ, ધૂમપ્રભા તમ પ્રભા અને તમતમપ્રભાના નરકાવાસમાં રહેવાવાળા નારક જીના શરીરે પણ સંહનન વિનાના હેય છે. તેમ સમજવું. આ રીતે સઘળી પૃથ્વીના નારકોને શરીરે સંહના Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१८ नारक जीवानां संहनननिरूपणम् २४७ ___ सम्पति-नारकाणां संस्थानप्रतिपादनार्थमाह-'इसी से पं.' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्प भाए पुढीए' रत्नममायाँ पृथिव्याम 'नेरइयाणं सरीरा सिंठिया पन्नत्ता' नैरयिकाणां शरीराणि झिं संस्थितानि-- कीदृशसंस्थानयुक्तानि प्रज्ञतानि-कथितानीति प्रश्न:, भगवानाह-योयमा' इत्यादि 'गोरमा' हे गोलम ! 'दुविहा पन्नता' नारकाणां शरीराणि द्विविधानि द्विप्रकारकाणि प्रज्ञप्तानि-कथितानि 'तं जहा' तम्घथा 'भधारपिज्जाय' अवधारणीयानि च 'उत्तर देउनिया य' उत्तरक्रियाण च 'तत्थ ण जे ते भववारणिज्जा' - तयोर्मध्ये यानि तानि शरीराणि भवधारणीयानि 'ते हुडसंठिया पन्नता तानि हुण्ड संस्थितानि-हुण्ड संस्थान युक्तानि प्रज्ञप्तानि, मधारणीयानि नारक.मबस्वाभाहै चाहे वह अवधारणीय गरीर हो, चाहे उत्सर बैंक्रिय रूप शरीर हो। अघ सूत्रकार नारक जीवों का शरीर कि संस्थान घाला होता है-इस चाल का कथन करते हैं इनमें गौतमले प्रभु खे ऐसा पूछा है. 'हमीसे णं भंते ! रयणपाए पुढीए' हे भदन्त ! इस रस्मममा पृथिची के नरकावासों के नैयिकों के शरीर कि संस्थान वाले होते है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! दुविहा पन्नता' हे गौतम । लारकों के शरीर दो प्रकार के कहे गये हैं-'तं जहा' जैसे सवधारणिज्जा य उत्तर वेच्वियाय' एक भवधारणीय शरीर और दूसरा उत्तर वैक्रिय शारीर 'तत्थ गंजे ते भवधारणिज्जा' इनमें जो नारकजीवों के अवधार. णीय शरीर हैं वे 'हुंड संठिया पन्नत्ता' हुण्डक संस्थान वाले होते हैंजो शरीर मारक भव की प्राप्ति होते ही प्राप्त होता है वह शरीर भव. धारणीय शरीर है और यह वैक्रिय शरीर ही है नारकजीयों के हुण्डक વાળા હોતા નથી, ચાહે તે ભવધારણીય હોય કે ચાહે ઉત્તર વૈકિય રૂ૫ શરીર હોય ? હવે સૂત્રકાર નારકોના શરીરે કયા સંસ્થાન વાળા હોય છે, એ વાતનું કથન કરે છે. આ સંબંધમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું કે 'इमीसे गं भंदे ! रयणप्पभाए पुढवीए' सगवन् मा २त्नमा पृथ्वीना न२४1વાસના નૈરવિકેના શરીર ક્યા સંસ્થાન વાળા હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु गीतमस्वामीन छ, 'गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता' हे गौतम ! ना२४ वन शरीये प्रा२ना डेपामा मावस छे. 'तं जहा' मे २ मा प्रभाव छ. 'भवधारणिज्जाय उत्तर वेउम्वियाय' से सधारणीय शरी२ मिने भी उत्तर वैध्य शरी२ 'तत्थ ण जे ते भवधारणिज्जा' ते १२ न.२४ वनपधारणीय शशश छ, तमे। 'इंडसठिया पन्नत्ता' हु७४ स २५ नवा હોય છે જે શરીર નારકભવની પ્રાપ્તિ થતાં જ પ્રાપ્ત થાય છે, તે શરીરને Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे व्यादश्यं हुण्डनामकर्मोदयाद् हुण्डसंस्थानानि भवन्तीति । 'तस्थणं जे ते उत्तरवेव्त्रिया तेवि हुडसंठिया पन्नता' तत्र खच यानि उत्तरवेक्रिपाणि शरीराणि तान्यपि यद्यपि 'शुभमहं वैक्रिये करीष्यामीति' चिन्तयन्ति तथापि तथाभवस्वा मा व्यतो हुण्डसंस्थाननामकर्मोदयतः उत्पादित सकललोमपिच्छकपोतपक्षिण इव हुण्डसंस्थानान्येव भवन्तीति । 'एवं जान अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् यथा रत्नप्रभानारकाणां द्विविधान्यपि शरीराणि कुण्ड संस्थितानि तथैव शर्कराप्रभा वालुकाममा एङ्कप्रभा धूममभा तम्ममा तमतमामभानारकाणां भवधारणीयानि उत्तग्वैक्रियशरीराणि हुण्डसंस्थानानि भवन्तीति ज्ञातव्यम् इति । ૨૪૮ SEVENLY संस्थान नामकर्म के उदय से यह अवधारणीय शरीर हुण्डक संस्थान वाला ही होता है 'तस्थ णं जे ते उत्ता वेउनिया ते बिडटिया पत्ता ' तथा -जो उत्तर वैक्रिय रूप शरीर होता है वह भी 'इंडसंठिया पन्नत्ता' हुण्डक संस्थान वाला ही होता है इस कारण वे नारक जीव 'हम शुभ विक्रिया करें 'ऐसा विचार तो करते हैं परन्तु उनके द्वारा हुंड संस्थान नाम धर्म के उदय के कारण अशुभ विक्रिया ही की जाती है-इसमें उनका वह उत्तर वैक्रिय रूप जिल्ल के शरीर से समस्त रोम और पंख उखाड़ दिये गये हो ऐसे कबूतर के जैसा हुंडक संस्थान वाला ही होता है । 'एवं जाव अहे लत्तमाए' जिस प्रकार से रत्नप्रभा के नारकों के दोनों प्रकार के शरीर हुण्डक संस्थान वाले होते हैं उसी प्रकार से शर्कराप्रमा, वालुकाप्रभा, पंकजा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तमः ભધારણીય શરીર કહેવાય છે. અને તે વૈક્રિય શરીર જ છે. નારક જીવાને હુંડક સસ્થાન નામ કર્મીના ઉદયથી આ ભવધારણીય શરીર હું ડકસ સ્થાન वाणु होय हे 'तत्थ णं जे ते उत्तरवेउब्विया ते वि इंडस 'ठिया पणत्ता' तथा ? उत्तर वैडिय ३५ शरीर होय छे, ते पशु 'हु' उस 'ठिया पण्णत्तो' હુંડક સ’સ્થાનવાળું જ હાય છે. આ કારણથી તે નારક જીવા અમે શુભ વિક્રિયા કરીએ ૧૫ એવા વિચાર તેા કરે છે, પરંતુ તેઓ દ્વારા હુડસ સ્થાન નામ ક્રમના ઉદય થવાને કારણે અશુભ વિક્રિયા જ કરી શકાય છે. તેમાં તેઓના તે ઉત્તરવૈક્રિયશરીર કે શરીરમાંથી સઘળા રૂંવાડા અને પાંખ ઉખડી દેવામાં આવેલ હાય એવા કમ્રુતરના જેવા હુંડક સંસ્થાન વાળા જ હાય છે. ‘વ’ जाव असत्तमाए' ? असो रत्नप्रभा पृथ्वीना नारोना भन्ने अठारना શરીર હુ′ડક સ્થાન વાળા હાય છે, એ જ પ્રમાણે શકાપ્રભા, વાલુકાપ્રભા પકપ્રભા, ધૂમપ્રભા, અને તમસ્તમપ્રભા, પૃથ્વીના નારકાને પણ બંન્ને પ્રકારના Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ४.१८ नारकजीवानां संहनननिरूपणम् २४९ सम्प्रति-नारकाणां शरीरेषु वर्णपत्पिादनार्थमाह-'इमीसे णं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते' एतस्यां खलु भइन्त ! 'स्यगप्पमार पुढवीए' रत्नप्रभायां पृथिव्यास् 'मेरइयाण' रविळाणार ‘सरीरया केरिसया वण्णेणं पन्नत्ता' शरीराणि कीदृशानि वर्णेन प्रज्ञप्तानि-कशिक्षानीति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोषमा' हे गौतम ! 'बालासोमा जार परमकिण्हा चण्णेणं पन्नत्ता' कालानि कालालभालानि यावत् भसीरलोजरूपाणि सीमानि उत्रासनकानि परमकृष्णानि नारकाणां शरीराणि वर्णेन शान "एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्त प्रभा पृथिवी के नारकों के भी दोनो प्रकार के शरीर हुण्डक संस्थान वाले होते हैं- ऐसा जानना चाहिये. - अब बारकों के शरीर के वर्ण कैसे होते हैं इसका कथन सत्रकार करते हैं इल गौतम प्रभु से ऐसा पूलले 'इमीले णं भंते ! रथणप्पमाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्तामा पृथिवी के नरकाबालों के 'रक्ष्याणं सरीरा केरिसथा छण्णेणं पणता' नैरषिकों के शरीर वर्ण से कैसे होते है-अर्थात् ले पर्ण काले होते हैं ? उत्तर में प्रभु पाहते हैं-'गोधमा। कोला, कालोनासा, जाच परमारिहा क्षणेणं पन्नता' हे गौतम ! प्रथम पषिची के नरकचालो के नाराजीचों के शरीर वर्ण की अपेक्षा काले कृष्णा पाले देखते ही शरीर में रोगटे खड़े कर देने वाले, भयजनक और परम कृष्ण होते हैं। 'एवं जाव भई लत्तमाए' इसी શરીરે હુંક સંસ્થાનવાળા હોય છે. તેમ સમજી લેવું હવે નારકોના શરીરને વર્ણ કે હેાય છે ? એ સંબંધમાં સૂત્રકાર કથન કરે છે. ___भा समयमा गीत .स्वामी प्रभुने मे ५७यु छ । 'इमीसेण भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' है मगर मा २त्नप्रक्षा पृथ्वीना न२४पासेमा २७वापामा 'नेरइया ण सरीरा केरिसया वण्णेण पण्णत्ता' नै२यिहीना शरी। पाप વાળા હોય છે? એટલે કે તેના શરીરને વર્ણ કે હોય છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४२ छ है 'गोयमा ! काला कालोभासा, जाव परमकिण्हा वणे ण पण्णत्ता' गौतम ! पदी पृथ्वीना न२४पासोमा २३वावाजा ना२४ wal ના શરીરને વર્ણ કાળે, કાળી કાંતી વાળે કે જેને જોવાથી જ શરીરના રૂંવાડા ઉભા થઈ જાય એવા અને ભયકારક અત્યંત કૃષ્ણ કાળા હોય છે. 'एव' जाव अहे सत्तमाए' मा प्रभा0 मी0 पृथ्वीथी as अधःससभी जी० ३२ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे २५० म्याम् यथा रत्नप्रभानारकशरीराणि वर्णेन कालकालावभासादि विशेषणयुक्तानि तथैव शर्कराप्रभात आरभ्य तमस्वमा पृथिवीनारकशरीराण्यपि कालादि वर्णयुक्तानि ज्ञातव्यानीति । 'इसी से णं' संते' एक्स्यां खलु भइन्त ! ' रयणप्पभापुढवीए' रत्नप्रभा पृथिव्याम् 'नेरइयाणं' सरीरया केरिसया गंवेणं पन्नत्ता' नैरयिकाणां शरीराणि कीदृशानि गन्धेन मज्ञप्तानि, भगवानाह - 'गोवा' हे गौतम! 'से जहाणामर अहिमडे वा तं चैव जान आहे सत्ता' व यथा नामको हिमृत इति वा तदेव यावदधः सप्तमी, अहितादितोऽपि अधिकतर दुर्गन्धयुक्तानि नारकशरीराणि एवमेत्र यावदत्रः सप्तमी नारकशरीराण्यपि दुर्गन्धयुक्तानि ज्ञातव्यानि । तरह के द्वितीय पृथिवी से लेकर असमी पृथिवी तक के नरकावासों में रहने वाले नारकजीवों के शरीर होते हैं ऐसा जानना चाहिये 'इमी से णं भंते! रयणपसाए पुढबीए नेरइयाणं बरीरया केक्सिया गंधेणं पन्नन्ता' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नैरमिकों के शरीर गंधकी अपेक्षा कैसे होते हैं ? अर्थात् प्रथम पृथिवी के नैरयिकों के शरीर कैसी गन्धवाले होते हैं ? ऐसा इस प्रश्न का सारांश है- इस पर गौतम से प्रभु कहते हैं- 'गोषमा ! से जहानामए अहिम डेहवा तं चेव जान अहे सत्तमा ' हे गौतम | जैसा पहिले कहा जा चुका है कि अहि-सर्प आदि के मृतक कलेचर से जिस प्रकार की दुर्गन्ध आती है उससे भी अधिक अनिष्टतर आदि विशेषणों वाली दुर्गन्ध इन नारकों के शरीर से आती है इसी प्रकार का कथन दुर्गन्ध के सम्बन्ध में यहाँ पर भी समझ लेना चाहिये. પૃથ્વી સુધીના નરકાવાસેામાં રહેવાવાળા નારક જીવેાના શરીરા વ્હાય છે. તેમ सभ' 'इमीसेणं रयणप्पभार पुढवीए नेरइया णं सरीरया केरिसया गंधेण પદ્મત્તા' હે ભગવન્ ! આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નાયિકાના શરીર ગધની અપેક્ષાથી કેવા ાય છે ? અર્થાત્ પહેલી પૃથ્વીના નૅયિકેાના શરીરા કેવા ગધ વાળા હાય છે. ? આ પ્રમાણેના આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ગૌતમસ્વામીને પ્રભુ કહે छे! 'गोयमा ! से जहानामए अहिमडेइ वा त चेत्र जाव असत्तमा' डे ગૌતમ! જે પ્રમાણે પહેલાં કહેવામાં આવેલ છે કે-અહિ-અર્થાત્ મરેલા સાપ વિગેરેના શરીરમાંથી જેવા પ્રકારની દુગંધ આવે છે, તેનાથી પણ વધારે અનિષ્ટતર વિગેરે વિશેષણેા વાળી દુર્ગંધ આ નારક જીવેાના શરીરોમાંથી આવે છે, એજ પ્રમાણેનુ દુંગ ધ વિષયનુ તે કથન આ પ્રકરણમાં પણ સમજી લેવું. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.१८ नारकजीवानां संहनननिरूपणम् २५५ 'इमीसे गंमते ! रयणप्पसाए पुढबीए' एतस्यां खल्ल भदन्त । रत्नप्रभा पृथिव्याम् 'नेरइयाण सरीरया' नेरयिकाणां शरीराणि 'केरिसया फासेणं पन्नत्ता' कीदृशानि स्पर्शेन प्रज्ञप्तानि भगबानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'फुडियच्छविविच्छवया' स्फुटितच्छवि विच्छ वयः' प्रथमच्छवि शब्दस्त्वग्रवाची द्वितीयश्च्छायााची, तथा च स्फुटितया राजिशतसंकुलया त्वचा विच्छषयो विगतच्छाया इति स्फुटितच्छविविच्छचयः । 'खरफरुसझामझुसिरा' खरपरुषमाम शुषिराणि खराणि अतएव अतिशयेन परुषाणि ध्मामानि दग्धच्छायानि शुषिराणि-शुपिरशत कलितानि ततः पदद्वयस्य पदद्वयेन विशेषणसमासः सुपक्वे___ तथा इली प्रकार की अनिष्टलर आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाली दुर्गन्ध द्वितीय पृथिवी के नैरपिकों से लेकर अधःसप्तमी पृथिवी के नारकों के शरीर से आती है ऐसा जानना चाहिये. ___ 'इमोसे न भंते स्थणप्पभाए पुढचीए नेरयाणं सरीरया केरिलया फालेणं पण्णसा' हे बदन्त ! इस इलमा पृथिवी के नैरमिकों के शरीर स्पर्श से कैसे होते है ? अर्थात् प्रथम पृथिवी नैरयिकों के शरीर का स्पर्श केला होता है ! उत्सर में प्रभु कहते हैं-'गोथमा ! कुठिच्छवि विच्छषया' हे गौतम ! प्रथम पृथिवी के नैरपिकों के शरीर जितकी स्वचा के ऊपर सैकडो झुरियां पड रही है और इसी से जो छायाकान्ति से रहित हो रहा है. लथा-'खरफरूम०' जिसका स्पर्श एसष कठोर है सैड़ों जिससे छेद हो रहे हैं और जिलकी छाया-कान्ति जली हुई वस्तु की जैली है-इस प्रकार के स्पर्श-ठोर सर्श वाले होते हैं। તથા આવા પ્રકારની અનિષ્ટતર વિગેરે પૂર્વોક્ત વિશેષ વાળી ગધ બીજી પૃથ્વીના નૈરયિકથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના નાકજીના શરીરેभाधा मावे . तेभ समय, 'इमीसे ण भंते ! स्यशप्पभाए पुढत्रीए नेरइयाण' सरीरया फेरिस्था फासेण पण्णत्ता' है लगन् । २त्ना चीन नैयिाना शरी। २५शथा કેવા હોય છે? અર્થાત્ પડેલી પૃથ્વીના નિરયિાના શરીરનો સ્પર્શ કેવો હોય છે? ___ प्रशन उत्तरमा प्रमुभीतमाभीने ४९ छ है 'गोयमा ! फुडिय च्छविविच्छविया' के गौतम । पहेली पृथ्वीना नैयिनशरी। यानी ચામડી ઉપર સેંકડે ઝુરિયા-ઉઝરડાં કરચલી પડેલી હોય અને તેથી જ જેઓ કાંતિવિનાના હે ય છે તથા ૩ REG. જેનો સ્પર્શ પરૂષ કઠેર છે. અને જેમાં સેંકડે છેદ થઈ રહ્યા હોય છે, અને જેની છાયા-કાંતિ બળેલી વસ્તુના જેવી હોય Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्ये ष्टका संतप्तघ्मामतुल्यानि इति भावः 'फ:सेणं पन्नत्ता' स्पर्शन प्राप्तानि एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् रत्नमभावदेव शर्करामभात आरभ्य तमस्तमा पर्यन्त नारकाणां शरीराणि पूर्ववदेव स्पर्शन ज्ञातव्यानीतिभावः ॥१८॥ . सम्पति-नारकाणामुच्छ्वासादि मतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए' इत्यादि, • मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं केरिसया पोग्गला ऊसासत्ताए परिणति ? गोयमा ! जे पोग्गला अणिटा जाव अमणामा ते तेलि उल्लासत्ताए परिणमंति, एवं जाव अहं लत्तसाए एवं आहारस्ल वि सत्तसु वि। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढीए नेरहमाणं का लेस्लाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! एका काउलेमा पन्लत्ता । एवं लहरप्पभाए वि । वालुयप्पभाए पुच्छा, गोयता ! दो लेस्लाओ पन्नत्ताओ, तं जहा-नीललेस्ला कापोयलेस्सा य, तत्थ जे कापोयलेस्सा ते बहुतरा जे नीललेस्ता ते थोत्रा । पंचप्पलाए पुच्छा, एक्का -नीललेस्सा पन्नत्ता । धूमप्यभार पुच्छा गोयमा! दो लेस्ताओ पन्नत्ताओ तं जहा-किण्हलेला य नीललेला य ले बहुतरगा जे नीललेस्ता ते थोक्तरमा जे कण्हलेस्सा। तमाए पुच्छा, गोयमा ! एका कण्हलेश्सा, अहे लत्तलाए एक्ला परम कण्हलेस्ला ॥ इसीले णं भंते ! रयणप्माए पुढीए नेइया कि सम्मट्टिी मिच्छादिही सल्लालिच्छादिछी ? गोयना ! सम्मबिट्टी 'एवं जाब अहे सत्तमार' इसी तरह के प्ठोर पर्श बाले द्वितीय पृथिवी से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी तक के नारकों के शरीर ह ऐला जानना चाहिये। स्त्र॥१८॥ छे, मा ४१२ना २५शवाणा अर्थात् २ २५शा हाय . 'एवं जाव अहे सचमाए' मा १२ना ठार ५५शाभी वीथी सन मधासभा પૃથ્વી સુધીના નારકને શરીરે હોય છે. તેમ સમજવું. એ સૂ. ૧૮ ! Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१९ नारकाणासुच्छ्वासादिनिरूपणम् २१३ मिच्छादिट्टी वि सम्मामिच्छादिही वि एवं जाव अहे सत्तमाए । इमीसे गंभंते ! रयणप्पसाए पुढवीए नेरइया किं नाणी अन्नाणी? गोयमा!णाणि वि अन्नाणी विजे नाणी तेनियमा तिण्णाणी तं जहा-आभिणिबोहियनाणी सुषणाणी ओहिणाणिजे अन्नाणीते अत्थेगइया दु अन्नाणी अत्थेगइया ति अन्नाणी जे दु अन्नाणी ते नियमा महअन्लाणी य सुयअन्लाणी थ, जे ति अन्नाणी ते नियमा मइ अन्नाणी सुश अन्नाणी विभंगनाणी वि । सेसाणं गाणी वि अन्नाणी वि तिषिण, एवं जाव अहे सत्त. माए ॥ इमीसे णं रयणप्पसाए पुढबीए लेरइया किं मणजोगी वइजोगी कायजोगी ? गोयमा ! तिगि वि एवं जाव अहे सत्तमाए॥इमीले णं भंते ! श्यणप्पाए पुढबीए नेरहयाकिं लागारोवउत्ता अणागारोव उत्ता? गोपला! लागारोव उत्ता वि अणागारोवउत्ता वि एवं जाव अहे सत्तमाए ॥इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया ओहिणा केवइयं खेत्तं जाणति पासंति ? गोयमा? जहन्नेणं अछुट्टगाउयाई उझोलेणं चत्तारि गाउयाई॥ सकरप्पभाए पुढवीए नेरइया जहणं लिन्नि गाउयाई उक्कोसेणं अछुट्टाई, एवं अद्धद्धगाउयं परिहायइ जाध अहे लसमाए जहन्नेणं अद्धगाउयं उनोसेणं गाउयं ॥ इसीले णं स्थणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कइ स्खमुग्धाया पन्नत्ता ? गोयला ! चत्तारि लमुग्घाया पन्नत्ता, तं जहा-यणा ससुरघाए, कसायलमुरघाए, मारणांतिय समुग्घाए । एवं जाब अहे लत्तमाए ॥सू० १९॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमन . छाया-एसस्यां खलु मदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां कीदृशाः पुद्गला उच्छ्वासतया परिणमन्ति ? गौतम | ये पुद्गला अनिष्टर यावदमनोऽमारते तेषामुछ्वासतया परिणमन्ति एवं यावदधः सप्तम्याम् । एक्याहारस्यापि सप्त. स्वपि एतस्यां खलु सदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाणां पतिलेश्याः प्रताः गौतम ! एका कापोतलेश्या प्रज्ञप्ता । एवं शर्कराममायामपि, बालकाममायां पृच्छा गौतम ! दे लेश्ये प्रज्ञप्ते तद्यथा-नीललेश्या कापोतलेश्या च । तत्र ये कापोतलेश्यास्ते बहुतराः, ये नीललेश्यास्ते स्तोकाः। एडममायां पृच्छा गौतम ! एका नीलेश्या प्रज्ञप्ता । धूमप्रभायां पृच्छा गाँतम ! द्वे लेश्ये प्रज्ञाते, तद्यथा-कृष्णलेश्या च नीळलेश्या च, ते बहुतराः ये नीललेश्याः, ते लोकतराः ये कृष्ण श्याः । तमायां पृच्छा, गौतम ! एका कृष्णलेश्या । अयः सप्जन्यामेका परम कृष्णलेश्या । एतस्यं खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः किं सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयः सम्यगमिथ्यायः ? गौतम ! सम्बनष्टयोऽपि मिथ्यादृष्टयोऽपि सम्यग्रमिथ्यादृष्टयोऽपि, एवं यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः किं ज्ञानिकोऽज्ञानिनः ? गौतरा ! ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि ये ज्ञानिनस्ते नियमत स्त्रिज्ञानिनः तबमा-आमिनियोधिक ज्ञानिनः श्रुन ज्ञानिनोऽवधिमानिना, ये अशानिनस्ते सन्त्येकके द्वयज्ञानितः सन्त्येकके व्यज्ञानिनः ये द्वयज्ञानिनस्ते नियमाद मत्यज्ञानिनश्च श्रुताज्ञानिनश्च, ये व्यज्ञानिनस्ते नियमात् मत्यज्ञानिनो श्रुताज्ञानिनो विसङ्गज्ञानिनोऽपि, शेषाः खल शानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि, यो यारधः सप्तम्याम् ॥ एतस्यां खल रत्नममायां पृथिव्यां नैरयिकाः किं मनोयोगिनो वचोयोगिनः काययोगिनः ? गौतम ! प्रयोऽपि, एवं यावदधः सप्तभ्याम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः किं साकारोपयुक्ता आकारोपयुक्ताः ? गौतम ! साकारोपयुक्ता अपि, अनाकारोपयुक्ताअपि एवं यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खलु रत्नममायां पृथिव्यां नैरथिका अवधिना क्रियत् क्षेत्र जानन्ति पश्यन्ति ? गौतम ! जघन्येन अर्द्ध चतुर्थ गव्यू तानि उत्कर्षेण चत्वारिगव्युतानि। शरामभायं पृथिव्यां नैरयिकाः जघन्येन त्रीणि गव्यूहानि उत्कर्षे णार्द्ध चतुर्थानि एवमचिगव्यूतं परिहीयते यावदधः सप्तस्मां जघन्येनार्द्धगव्यूत मुत्कर्षण गव्यूतम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रन्नपभायां पृथि नैर्शयकाणां कति समुद्घाता: प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! चत्वारः समुद्वाताः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-वेदना समुद्घातः कषाय समुद्घातो, मारणान्तिक समुद्घातो, वैक्रियप्तमुद्घातः एवं पावधः सप्तम्याम् ॥सू० १९॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र. ३ उ.२ ६.१९ नारकाणामुच्छवासादिनिरूपणम् २०५ टीका - - ' इमी से णं भंते ! स्यगप्पभाए पुढवीए' एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्याम्, 'नेरइयाणं' नैरविकाणाम् 'केषिया पोग्गला' कीदृशाः पुद्गला 'उस्सासचार परिणमति' उच्छ्वासतया - श्वासोच्छ्वासरूपेण परिणमन्ति-परिणामं प्राप्नुवन्ति ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे tatara ! 'जे फैला अणिडा बार अरुणामा' ये पुद्गला अनिष्टा यावदआकान्ता अपियामा अमनोज्ञा अनोमाः, तत्र न इष्टाः न अभिलषिता इत्यनिष्टाः तत्रानिष्टयपि किञ्चित् सर्वस्मै अनिष्टं न भ तिरुवैिचित्र्य दतः अब सूत्रकार नारकीयों के उच्छ्वास आदि का कथन कहते हैं। 'इमीले णं भंते! यजष्माए पुढबीए जैरइयाणं केरिलया पोग्ला' हादिसूत्र १९ टीकार्थ- जौलव ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'इमीले णं भंते! रयणप्पभाष पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के 'नेरइयाण' नैरयिकों के 'केरिया पोगला' कैसे पुद्गल 'उस्सासतया परिणमंति' उच्छ्वास रूप से श्वासोच्छ्रास रूप से परिणत होते है ? अर्थात् किस प्रकार के पुद्गल नारक जीवों के श्वासोच्छ्वास रूप से परिणमते हैं? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गोयमा ! जे पोग्ला अणिट्टा जाव अमणामा' 'हे गौतम! जो पुल अनिष्ट यावत्-अकान्त अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अपनsa, जिन्हें ग्रहण करने की मन से भी इच्छा नहीं होती है-ऐसे पुद्गल ही नारक जीवों के श्वासोच्छ्वास रूप से परिणमते હવે સૂત્રકાર નારક જીવાના ઉચ્છવાસ વિગેરેનુ કથન કરે છે, 'इमी से णं भंवे ! रयणप्पभाए पुढीए णेरइयाणं केरिया पोग्गला ४त्याहि टीठार्थ — गौतमस्वामी मे अलुश्रीने शो पूछयु !' इमीसे णं भवे ! रणभाए पुढवीए' हे भगवन् मा रत्नअला पृथ्वीना 'णेरइया णं' नैरयि अने 'केरिया पोगला' देवा अभरना युद्धगसेो 'उस्साखतया परिणमंति' (२ वास પણાથી એટલે કે શ્વાસેાચ્છવાસ રૂપે પરિણમે છે ? અર્થાત કેવા પ્રકારના પુદ્ગલા નરકજીવેના શ્વાસેાચ્છવાસ પણાથી પરિણમે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री गौतमस्वाभीने हे छे ! 'गोयमा ! जे पोग्गला अणिट्टा जाव अमणामा ' હે ગૌતમ જે પુદ્ગલેા અનિષ્ટ યાવત્ અકાંત, અપ્રિય, અશુભ, અમને જ્ઞ અને અમનેડમ કે જેને ગ્રહણ કરવાની ઇચ્છા મનમાં પણ હેાતી નથી. એવા પુદ્ગલાજ નારક જવાના શ્વાસેાચ્છવાસ રૂપે પરિણમે છે. જે ઇષ્ટ નાય Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ जीवाfarnes आकान्ताः, तत्राक्रान्तमपि किञ्चित् कस्मैचिद्रोचते गया शुकस्य विष्ा तत्रादअप्रिया अशुभाः अत एवामनोज्ञः अमनोऽमाः मनमापि पारं ग्रहीतुमयेोग्याः, यद्यपि समानार्थकाः माय एते शब्दा रतथापि बहुदेशज विनेय वो क्येन हैं । जो इष्ट नहीं होते हैं वे पुल अनिष्ठ है वे अनिष्ट भी सब को अनिष्ट ही हो सो यह तो नहीं है क्यों की विनि ता से अनिष्ट वस्तु भी दृष्ट होनी हुई देखी जाती है-अन वे पुद्दल ऐसे नहीं है इस बात की स्पष्ट करने के लिये 'अन्त' यह पद दिया गया है वे पुल जो नारफ जीनों के श्वाच्छ्वास रूप से परि - मते हैं वे ऐसे अनिष्ट नहीं है कि किन्हीं नारक जीवों को इष्ट अभिलषित भी हो क्योंकि वे सर्वथा अन्त होते हैं इसलिये वे अरिष्ट ही होते हैं । यदि फिर भी पर ये कहा जाय कि जो कोई पदार्थ अकान्त भी होता है यह भी न्हीं २, जीवों को कचना हुआ देखने में आता है जैसे घर को अन्त विष्टा रुचती है सो ऐसी कल्पना कोई यहां करलें इस बात पष्ट करने के लिये 'अमिय' यह पद दिया है इस प्रकार के ये अशुभ यावत् असतो पुद्गल नारक जीवों के श्वासोच्छ्वास रूप से परिणमते है । यद्यपि ये सब शब्द समान अर्थ वाले हैं तब भी इन जो यह स्वतंत्र रूप से प्रयोग करने में आया है उसका कारण भिन्न २, देशों के दियजनों को समझा તેવા પુદ્ગલેા અનિષ્ટ કહેવાય છે અને તે અનિષ્ટ પણ બધાનેજ અનિષ્ટ હાય તેમ ખનતું નથી કેમકે રૂચિની વિચિત્રતાથી અનિષ્ટ વસ્તુ પણ કેટલાકને ટ હાય તેમ દેખવામાં આવે છે. જેથી તે પુદ્ગલે એવા હાતા નથી એ વાત સ્પષ્ટ કરવા માટે માન્ત' આ પદને પ્રયાગ કરવામાં આવેલ છે તે પુદ્ગલા કે જે નારક જીવેાના શ્વાસેછવાસ પણાથી પરિણમે છે. તે એવા અનિષ્ટ હાતા નથી કે કેાઈ કાઇ નારક જીવાને ઇષ્ટ અભિલષિત પશુ હાય, કેમકે તે સર્વથા અકાંત હાય છે. તેથી તે પુદ્ગલા અનિષ્ટજ હાય છે. તે પક્ષ R આનાપર એમ કહેવામાં આવે કે જે કેાઇ પદાર્થ અકાન્તપણુ રાય છે, તે પશુ કાઈ કે.ઇ જીવાને રૂચતા હાય તેમ જોવામાં આવે છે. જેમકે શૂકરને અકાન્ત એવી વિષ્ટા રૂચિકર હાય છે. તે કાઇ અહિયાં એવી કલ્પના ન કરીલે એટલા માટે ‘ક્ષત્રિચ' એ પદના પ્રત્યેાગ કરવામાં આવેલ છે. આવા પ્રકારના મા અશુભ, યાવત્ અમનેાડમ એવા પુગલેા નારકજીવેાના શ્વાસે ૰વાસ પણાથી પરિણમે છે. જો કે આ બધા શબ્દો સમાન અથ વાળા છે, તા પણ તેના સ્વતંત્ર પણાથી અહિયાં જે પ્રયાગ કરવામાં આવ્યેા છે, તેનુ કારણ જૂદા જૂદા દેશેાના Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१९ नारकाणामुच्छवासादिनिरूपणम् २५७ उपात्ताः अथवा नारकै रुच्छवासतया परिगृहीत पुद्गलानामत्यन्तदुष्ट व ज्ञापना. येति। 'ते तेसिं उसासत्ताए परिणमंति' ते उपरि दर्शिता अनिष्टन्दादि विशेषणयुक्ताः पुद्गला स्तेषां नारकाणाम् उच्छनासतया उच्छ्वासनि श्वासरूपेण परिण. मन्ति-परिणामं प्राप्नुवन्तीति । एवं जान भहे सलमाए' एवं यारधः सप्तम्याम् रत्नप्रभानारकरदेव शर्कराममा बालु काममा पलप्रभा धूमममा तमःप्रभा तमम्तमः प्रभानारकाणामपि श्वासोच्छ्वासत्या परिगृह्यमाणाः पुगला अनिष्टा अप्रिया अशुमा अमनोज्ञा अमनोऽमा एवेति ज्ञातव्याः । एवं आहारस वि सत्तमु वि' एवमेव श्वासतया परिणत पुद्गल देव आहारतया परिणताः पुद्गला अपि अनिष्टना है अथवा-नारकजीवों द्वारा श्वासोच्छ्वास रूप ले गृहीतल्लए पुद्गल अत्यन्त दुष्ट-बुरे ही होते हैं-किसी भी प्रकार से इनमें अदुष्टता नहीं है इस बात को समझाने के लिये इन समानार्थक शब्दों को कहा गया है 'ते तेलि उसाहस ए परिणति' ऐले थे पूर्शक्त विशेषणों वाले पुशल नारक जीवों के उच्छ्वाह निवास रूप से परिणत होते हैं। 'एवं जाव अहे सातमाए' रत्नप्रभा पृथिवी के नारको के जैसे शर्कराममा बालु काममा, पङ्कप्रभा, धूमप्रमा तमाप्रमा और तमस्तमासा दृथिवी के नारकों के भी श्वासोच्छ्वास रूप से गृहीत हुए पुशल पृघोक्त विशेषणों वाले ही होते हैं ऐला जानना चाहिये 'एवं आहाररस वि सत्तल शि' जिस प्रकार से श्वासोच्छ्वास रूप से परिणाहुए पुदाल पूर्वोक्त अनिष्टादि विशेषणोंधाले होते हैं उसी प्रकार से प्रथम रत्नममा पृथिवी से लेझर सातवीं तम. શિષ્ય જનેને સમજાવવા માટે કહેલા છે. અથવા નારક છે દ્વારા શ્વાસો૨છવાસ રૂપે ગ્રહણ કરાયેલા પુદ્ગલે અત્યંત દુષ્ટ-ખરાબ જ હેય છે. કેઈ પણ પ્રકારથી તેમાં આદુષ્ટ પણું આવતું નથી એ વાત સમજાવવા માટે આ समान अर्थ वाणा शvो ४ा छ. 'ते तेसिं उसासत्ताए परिणमति' मेवा मा પૂર્વોક્ત વિશેષાવાળા પુદ્ગલે નારક એના ઉચ્છશ્વાસ અને નિઃશ્વાસ રૂપથી परिश्त थाय छे. 'एव जाव अहे सतमाए' २नमा पृथ्वीना ना ना ४थन प्रभाशा , पासप्रमा, प्रमा, धूमप्रमा, तभ:प्रमा, मन तभस्तमः પ્રભા પૃથ્વીના નારકોના શ્વાસોચ્છવાસથી ગ્રહણ કરાયેલા પુદ્ગલે પણ પૂક્તિ विशेषो। १ सय छे. तम सभा'. 'एवं आहारस्स वि सत्तसु वि' જે પ્રમાણે શ્વાસોચ્છવાસ પણાથી પરિણમેલા પુદ્ગલે પહેલા કહેલા અનિષ્ટ વિગેરે વિશેષણ વાળા હોય છે, એ જ પ્રમાણે પહેલી રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઈ जी० ३३ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे २५८ स्वादियुता एव रत्नप्रभात आरभ्य वमस्वमा पृथिवी पर्यन्तमिति । आलापप्रकारश्रेत्थम् - हे भदन्छ । रत्नमया नैरयिकाणां श्रीयाः पुद्गला आहारतया परिणता भवन्ति ? हे गौतम | ये पुद्गला अनिष्टा अकान्वा अभिया अशुमा अमनोना अमनोमास्ते तेषामाहारतया परिणता भवन्ति, एकमेव शर्करामात आरभ्य यावत् सप्तन पृथिवी नारकाणामपि आशयापुढला कान्ता अधिया शुभा अनोज्ञा असनोमा ज्ञात्व्य इति सर्वजालापमकारः स्यनीयः । सम्मतिले विपादनार्थमाह- 'मी' इत्यादि, 'इसीसे णं भंते ।' एतस्यां खल्ल भदन्त ! 'श्यगणभार पुढी' राममायां पृथिव्याम् 'नेरस्याणं तमःप्रभा पृथिवा तक के जीवों के आहार रूप से जो पुदगल परिणत होते हैं वे भी अनिष्ट आदि पूर्वोक विशेषणों वाले को होते हैं। यहां आलाप प्रकार ऐसा है - हे भदन्त ! राभा पृथिवी के नैरयिकों के कैसे पुद्गल आहार रूप ले परिणति होते हैं ? उत्तर में प्रभु ने ऐसा ही कहा है कि हे गौतम! जो पुद्गल भविष्य, जकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और मनोम होते है वे ही पुद्गल उनके आहार रूप से परिणत होते हैं । इसी तरह से आहारूप से परिणत हुए पुद्गल द्वितीय पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के मारकों के होते हैं ऐसा जानना चाहिये रल सम्पन्ध में आलाप प्रकार सर्वत्र स्वयं ही उद्भाबित कर लेना चाहिये । अब लेश्या का प्रतिपादन किया जाता है- 'हमी से णं भंते । रणभाए पुढदीए नेरइयाणं कहलेस्ताओ पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! ને સાતમી તમસ્તમપ્રભા પૃથ્વીના કથન સુધીના નારક જીવાને આહારપણાથી જે પુદ્દગલા પરિણત થાય છે, તે બધા પણ અનિષ્ટ વિગેરે પૂર્વોક્ત વિશેષશે. વાળા જ હાય છે. તેના આલાપકાના પ્રકાર આ પ્રમાણે છે હું ભાન્ત! રત્ન પ્રભા પૃથ્વીના નૈરયિકાને કેવા પુદ્ગલે હાર પાથી પરિણત થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે હૈ ગૌતમ ! જે પુદ્ગલેા અનિષ્ટ, અકાન્ત અપ્રિય, અશુભ, અમનેા, અને અમનેાડમ હોય છે. તેજ પુદ્દગલા તેમના આહાર પણાથી પરિણમે છે. એજ પ્રમાણે આહાર રૂપે પશુમેલા પુદ્ગલેા ખીજી પૃથ્વીથી લઇને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નારકાને હાય છે તેમ સમજવું આ સમધમાં આ લાપકના પ્રકાર અધેજ સ્ત્ય' બનાવીને સમજી લેવે. હવે લેશ્યાના સમધમાં પ્રતિપાદન કરવામાં આવે છે. આ સબધમાં गौतमस्वामी प्रभुने पूछे हे 'इमीसे णं भते ! रयणप्पभार पुढवीए 'नेरइया Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ५.१९ नारकाणासुच्छ्वासादिनिरूपणम् २५२ कइलेस्साओ पन्नताओ' नैरयिकाणा कति-कियत्संख्यकाः लेश्याः प्रज्ञप्ताःकथिताः ? इति प्रश्नः, अगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एक्का काउलेस्सा पनत्ता' एका एकैव कापोतलेश्या प्रज्ञप्ता रत्नममा नारक जीवानामेका कापोतलेश्या भवतीति । एवं सकरप्रभाए बि एवं शर्करामभायामपि यथा रत्नममा नारकाः कापोतलेश्यावन्तस्तथैव शर्कराममा नारका अपि कापोतलेश्यावन्तो भवन्तीति । 'बालुरप्पभाए पुच्छा' वालुकामभायां पृच्छा हे भदन्त ! बालकाप्रभायां तृतीयनरक पृथिव्यां नारकाणी कतिलेश्या भवन्तीति पृच्छया संगृह्य ते प्रश्नः, भगवानाह--'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! दो लेस्साओ पन्नताओं वालुकाप्रभा नाराणां द्वे लेश्य भवतः तं जहा' तघथा'नीललेस्सा काउलेस्सा बनीललेवा हापोतलेक्शा च 'तत्थ जे काउलेस्सा ते बहुतरणा' तन-त्यो ईमध्ये ये कामोरलेश्यास्ते बहुतरा अधि का उपरितन इस रत्नप्रभा पृथिवी के लैधिों को कितनी लेश्याएं कही गई है ! उत्तर में प्रभु कहते हैं-गोयला! एकमा काउलेस्ला पन्नता' 'हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी नरमिकों के क्षेवल एक ही कापोत लेश्या कही गई है-'एवं लक्करमाए घिसी प्रकार ले शर्करापमा के नारकाजीकों के भी केवल एक कापोत लेश्या ही होती है 'बोलु. यप्पभाए पुच्छा' हे भदन्त ! चालुकाममा के नरमिकों के शितनी लेश्याएं होती है ? उत्तर प्रनु कहते हैं-'गोया! दो लेस्साओ पत्नत्ताओ' 'हे नौतर ! बाल काममा के नैरधिज्ञों के दो लेश्याएं होती-तं जैहले-लीला कारल्ला 'लील लेश्या और कापोत लेश्या' 'लत्थ जे झालेला से बहुतरा' इनमें जो पापोत लेश्या बाले हैं ये अधिक हैं-जयो कि उपरितन मानवी नारकों को ण का लेस्वामी पन्नतामो' 80 AM RAHE पृथ्वीना नैशिकार કેટલી વેશ્યાએ કહી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोयमा ! एकमा काउदेस्सा पणत्ता' गौतम! नमसा श्वाना नथिकान ठेवणसे पातोश्री ही छ 'एव' सक्करप्पभाए वि' से प्रभार શકેરાપ્રભ પૃથ્વીના નારજીને પણ કેરળ એક કપોત લેશ્યાજ ોંય છે. 'चालुयप्पभाए पुच्छा' से 'महत | पादु क ना नविन टी अश्यायालाय छ १ मा प्रशन उत्तरमा सु ? 'गोयमा ! दो लेना ओ पन्नत्ताओ' 3 गौतम ! 'दु४ मा पृथ्वीना नयिकोने में बेश्य से। डायछे. 'त' जहा'तमा प्रमाणे छे 'नीटलेसा काउल्लेस्साय' नीरसेश्या भने पातश्या, 'तस्थ जे काउल्लेस्सा ते बहुतरा' मामा रेसा अपात Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 0 ... जीवाभिगमन प्रस्तटवतिनां नारकाणां कापोतलेश्याकत्वात् तेषां चातिभूयस्कस्वादिति । 'जे नीललेस्सा वंतो पन्नत्ता ते थोवा' ये नीललेश्यावन्तः यज्ञप्तास्ते स्तोकाः कापोतले. श्यापेक्षया न्यूना इति । 'पंकप्पभाए पुच्छा' पङ्कमभायां पृच्छा हे भदन्त ! पङ्कममा पृथिवी नारकाणां कतिलेश्या भवन्तीति पृच्छया संगृह्यते इति प्रश्नः, भगवानाइ'गोयमा' हे गौतम ! 'एक्का नीललेस्सा पन्नत्ता' एका नीललेश्या पङ्कपमा नारकाणां भवति, सा च तृतीय पृथिवीगत नीललेश्यापेक्षया अविशुद्धतरा भवतीति । 'धूमप्पभाए पुच्छा' धूप्रममायां पृच्छा हे भदन्त ! धूममभानारकाणां कतिलेश्या भवन्तीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दो लेस्साओ पन्नत्ताओ' द्वे लेश्ये प्रज्ञप्ते 'तं जहा' तद्यथा-'किण्हलेस्साय नीललेस्साय' कृष्णलेश्या च नीललेश्या च 'ते बहुवरगा जे नीकलेस्सा' ते बहुतरा कापोत लेश्या होती हैं और ये उपरितन प्रस्तटबत्ती नारक अधिक हैं । तथा 'ये नील लेश्यावन्तः' जो नारक यहां नील लेश्या वाले हैं वे कापोत लेश्यावालों की अपेक्षा न्यून-कलह-'पंकप्रभाए पुच्छा' 'हे भदन्त ! पङ्कममा पृथिवी के नारकों के कितनी लेश्याएं होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते है-'गोयमा! एक्का नीललेस्थापन्नत्ता 'हे गौतम पङ्कप्रभा के नारकों के केवल एक नील लेश्या ही होती है। वह तीसरी पृथिवी की नीललेश्या की अपेक्षा अविशुद्ध होती है ! 'धूमपभाए पुच्छा' हे भदन्त ! धूमप्रभा के नैरयिकों के कितनी लेश्याएं होती हैं ? 'गोयमा' हे गौतम! धूमप्रभा के नैरमिकों के दो लेस्लामओ पन्नात्ताओ' 'दो लेश्चाएं होती हैं। 'तं जहा' जैसे किपालेस्लाय नीललेस्ला य' कृष्ण લેશ્યાવાળા હોય છે, તેઓ વધારે છે, કેમકે ઉપરના પ્રસ્તટમાં રહેવાવાળા નારને કાપત લેશ્યાજ હોય છે. અને તેવા આ ઉપરના પ્રસ્તટમાં રહેવાવાળા ना२। मरि छ. तथा 'ये नीललेश्यानन्तः' रे नारी नील वेश्यावाणा હોય છે, તેઓ કાપતલેશ્યાવાળા નારકોની અપેક્ષાએ ન્યૂન-થોડા છે. ‘प कप्पभाए पुच्छा' सावन ५.४७मा पृथ्वीना नानसी वेश्या। हाय छे ? RAL प्रश्न उत्तरमा प्रभु के 'गोयमा! एक्का नील लेस्सा पन्नत्ता' गीतम! ५४मा पृथवीना नान 4 नीलेश्या હેય છે. અને તે ત્રીજી પૃથ્વીના નીલ વેશ્યાની અપેક્ષાએ અવિશુદ્ધ હોય છે. 'धूमप्पभाए पुच्छा' , मापन भरमा पृथ्वीना नयिन टी श्याम डाय छे ? उत्तरमा प्रभु ४९ छे है 'गोयमा र गौतम ! धूमप्रमा पृथ्वीना नरयिमेने दो लेस्साओ पण्णताओ' में वेश्यास। ४ी छे. 'त' जहा' ते मे श्याम मा प्रमाणे छे. 'किण्हलेस्सा य नीललेस्सा य' से वेश्या मन Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका मं.३ उ. २ सु. १९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् રદ ये नीलेश्याः धूममभायां नीललेश्या नारका अधिकाः सन्ति 'ते थोवतरगा जे horलेस्सा' ते स्तोकतराः सन्ति ये कृष्णवेश्याः भावना प्राग्वदेव, 'तमाए पुच्छा' तमायां पृच्छा हे भदन्त ! तमःप्रभानारकाणां कतिलेश्या भवन्तीति पृच्छया संगृह्यते प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'एक्at fourलेस्सा' एका कृष्णलेश्या सववि तषामा नारकाणाम्, साच धूमप्रभा पृथिवीगत कृष्णलेश्यापेक्षया अविशुद्धतारा भवति 'अहे. लत्तमाए एका परमकिण्हसा' हे दन्तःसवमी नारकाणां कतिलेश्या भवन्ति हे गौतम ! अधःसप्तमी नारकाणामेका परम कृष्णकेश्या भवति वदुक्तम् 'काऊ दो वइयाए मीसिया नीलिया चउत्थीए । पंचमिया मीसा कण्हा वत्ती परम कहा ' ॥१॥ कापोती द्वयोस्तृतीयस्यां मिश्रा नीला च चतुर्थ्याम् । पञ्चम्यां मिश्रा कृष्णा ततः परम कृष्णा || १॥ इतिच्छाया । ठेश्या और नीललेश्या 'ते बहुतरका जे नीललेस्ला' इनमें से धूमप्रभा पृथिवी में नीललेश्यो वाले नारक अधिक है और 'ते धोतरका जे कण्हलेस्ता 'कृष्ण लेइया बाले जीव कम है । भावना पूर्ववत् समझ लेना चाहिये | 'तमाए पुच्छा' 'हे भदन्त ! तमःप्रभा पृथिवी के नैरयिकों के कितनी लेइयाएं होती हैं ? 'गोघमा एक्का किण्ड लेस्सा' एक कृष्ण या ही होती है और यह कृष्णले धूमप्रभा गत कृष्णलेश्या की अपेक्षा अविशुद्धतर होती है । 'अहे सतताए एक्का परम किण्हलेस्सा' हे भदन्त ! अधः मी पृथिवी के नारकों के कितनी बेश्याएं होती है ? हे गौतम! अवः सप्तमी पृथिवी के नारकों के केवल एक परम कृष्ण लेश्या ही होती है । तदुक्तम्- 'ऊसु०' इत्यादि अर्थात् रत्नप्रभा और शर्कराप्रमा, इन दोनों पृथिवियों में कापोत देश्या होती है, मील नीलेश्या 'ते बहुतरका जे नीललेस्सा' तेमांथी धूमअला पृथ्वीमां नील सेश्यावाजा नारो वधारे होय छे भने 'वे थोवतरका जे कण्ट्लेस्सा' दृष्य बेश्या વાળા નારક જીવે. ઓછા હૈાય છે. આની ભાવના પહેલા કહ્યા પ્રમાણે સમજવી. 'तमाए पुच्छा' हे भगवन् तमःप्रमा पृथ्वीना नैरयिझे डेंटली बेश्यावाजा होय छे ? 'गोयमा एक्का किण्हलेस्सा' हे गौतम! मे हृष्य बेश्या તેમને હાય છે અને આ કૃષ્ણુ લેસ્યા ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં કહેલી કૃ′લેશ્યાની अपेक्षा अविशुद्धतर होय छे. 'यहे सत्तमाए एका परमकिण्हलेस्सा' हे ભગવત્ અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના તારકાને કેવળ એક પરમ કૃષ્ણુ લેશ્યાજ હાય Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ जीवाभिगमन सम्पति-नारकाणां सर रग्दृष्टिलादि विशेषमतिपादनार्थमाह-इमीसे में इत्यादि, 'इमीसे गं भंते' एतस्यां खल सदन्त ! 'रयणप्पमाए पुढवीए' रत्नप्रभागं पृथिव्याम् ‘नेरहया' नैरयिकाः किं सम्मादिही मिच्छादिट्टी सम्माविच्छादिट्टी' कि सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयो वा सम्पमिथ्या (मिश्र) हटयो वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सम्माविट्ठी वि पिन्छादिट्ठी वि सम्मामिच्छादिट्ठी वि' रत्न पभानारकाः सम्यग्दृष्टयोऽपि भवन्ति मिथ्यादृष्ट योऽपि भवन्ति, सम्पमिथ्यादृष्टयोऽपि यवन्तीति । पवं जाव अहे सत्तमाए' एवं तीसरी वालुकामभा में मिश्र नील और नापोत चेदा लेश्याएं होते हैं। चौथे पंकप्रभा पृथिवी में नील होती है। पांचवी धूमप्रथा पृथिवी में मिश्र-कृष्ण लेश्या और नीलेश्या ये दोटेश्याएं होती है। छटो तमाप्रभा पृथिवी में कृष्ण लेश्या और स्थानों में परमकृष्ण लेश्या होती है। १। अब नारकों की दृष्टि विषय के में कहते हैं-'इमीणं भी!' हे भदन्त! इस 'स्यणप्पभाए पुढी' रत्मप्रथा पृथिवी में रहने चाले 'नेरया' नरयिक कि सम्मादिट्टी, मिच्छादिट्टी सम्मानिच्छादिदी' क्या सम्बग्दृष्टि होते हैं ! या मिथ्याष्टि होते हैं ? या निहित है? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! सम्मदिही घिमिच्छादिही वि' हे गौतम ! प्रथम पृधिवी गत नेरयिक सम्पदृष्टि होते हैं मिथ्या दृष्टि भी होते हैं और मिश्रदृष्टि भी होते हैं 'एवं जाय अहे सत्तमाए' इसी तरह छ तदुक्तम् 'काउदो०' त्य स्मात् २(न पसा, गने २४२२५मा मामे પૃથ્વીમાં કાપત લેશ્યા હોય છે. અને ત્રીજી વાલુકાભા પૃથ્વોમાં મિશ્ર રીતે નીલ અને કપિત એ બે વેશ્યાઓ હોય છે. ચોથી પંકખભા પૃથ્વીમાં નીલ લેહ્યા હોય છે. પાંચમી ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં મિશ્ર એટલે કે કૃષ્ણ વેશ્યા અને નીલ ગ્લેશ્યાઓ બે વેશ્યાઓ હોય છે. છઠી તમપ્રભા પૃથ્વીમાં કૃષ્ણ લેશ્યા અને સાતમી તમતમા નામની પૃથ્વમાં પરમકૃષ્ણ લેશ્યા હે ય છે . ૧૫ वे लानी हल्टिन समयमा अयन ४२वामी माने 'इमीसे ण भते । मगवन् ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' २त्नमा पृथ्वीमा २९वावाणा 'मेरइया' नैरपि। 'कि सग्मादिद्री, मिच्छादिदी सम्मामिच्छादिदी' शु अभ्यय દષ્ટિ વાળા હોય છે ? કે મિ દૃષ્ટિ વાળ હોય છે? અથવા સમ્ય મિથ્યા દષ્ટિવાળા એટલે કે મિશ્ર દષ્ટિવાળા હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ४ छ है 'गोयमा ! सम्मट्ठिो, वि मिच्छादिट्ठी वि, सम्मामिच्छ दिट्ठी वि' के ગૌતમ! પહેલી પૃથ્વીમાં રહેલા નરયિક સમ્યગ્ર દષ્ટિવાળા પણ હોય છે, मिथ्या टिपा ५४ हाय छ, मन मिश्र टाप डाय छ. 'एव Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ६.१९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् २६३ यावदत्रः सप्तम्यम् रत्नमनानारदेव शर्कराभा वालका प्रभा पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमाममा तमस्तमयमा नारकाः सम्यग्दृष्टयोऽपि भवन्ति मिथ्यादृष्टोऽपि भवन्ति । सम्यसिमा (मिश्र) दृष्टोऽपि भवन्तीति भावः । सम्पति- ज्ञानित्वाज्ञानित्वं दर्शयति- 'इसी से णं' इत्यादि, 'इमी से णं भंते !' एतस्यां खलु भदन्छ ! ‘रचणपभाष पुढवीए' रत्नममाणं पृथिव्याम् 'नेरइया कि नाणी अन्नाणी' नेविकाः किं जानिनो सवन्ति अज्ञानिनो वा भवन्तीति प्रश्नः भगवानाह - 'गोळा' इत्यादि, 'गोयवा' हे गौतम! 'पाणी व अन्नाणी वि' ज्ञाfaaisfy अन्ति अज्ञानिनोऽपि भवन्ति रत्नप्रभा नरका इति । 'जे नाणी ते नियमातिन्नाणी' तत्र ये ज्ञानमस्ते नियमतस्त्रिज्ञानिनः, 'तं जहा ' तद्यथा'आमणिवोहाणी' आमिनिवोधिक ज्ञानिनः 'सुयनाणी' श्रुतज्ञानिनः 'ओहिना का फन द्वितीय पृथिवी से लेकर अबः सप्तमी पथिवी तक के नारकों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये अर्थात् द्वितीय पृथिवी के नैरयिकों से लेकर खातवीं पृथिवी तक के नैयिक सम्पादष्टि भी होते हैं मिथ्या दृष्टि भी होते हैं और मिश्रदृष्टि भी होते हैं । अब नैरधिको का ज्ञान अज्ञान द्वार कहते हैं- 'हमी से णं भंते रयणभाए पुढची नेहा कि नाणी अन्नाणी' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के कम ज्ञानी होते हैं ? या अज्ञानी होते है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयना ! णाणी चि अन्नाणी बि' हे गौतम! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नैरषिक ज्ञानी भी होते है और अज्ञानी भी होते हैं। 'जे नाणी ते तिन्नाणी' जो ज्ञानी होते हैं वे नियम से तीन ज्ञान जाब अहे स्वत्तमाह' मा प्रभानु ईथन मील पृथ्वीधी सहने अधःससमी પૃથ્વી સુધીના નારકેાના સુખ...ધમાં પણ સમજવું' અર્થાત્ મીજી પૃથ્વીના નૈયિકાથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નૈયિકા સમ્યક્ દૃષ્ટિ વાળા પણ હાય છે. મિથ્યાર્દષ્ટિ વાળા પણ હેાય છે અને મિશ્ર દૃષ્ટિ વાળા પણ હાય છે. આ હવે નાયિકાના જ્ઞાન અને અજ્ઞાન દ્વારના સંબંધમાં કથન કરવા માંઆવે છે. स'मधमां गौतमस्वामी प्रभुने पूछे 'इमीसे णं भवे ! रयणनभाए पुढवीर नेरइया कि नाणी अन्नाणी' हे भगवन् या रत्नअला पृथ्वीना नैरयि है। જ્ઞાની હાય છે ? કે અજ્ઞાની હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને छे 'गोयमा ! णाणी वि अण्णाणी वि' हे गौतम! सा रत्नप्रभा પૃથ્વીના નૅરિયકા જ્ઞાની પણ હાય છે, અને અજ્ઞાની પણ હાય છે ને સાળી ते नियमा तिन्नाणी' से गौतम । જ્ઞાની હાય છે, તેએ નિયમથી. ત્રણ ज्ञान वाजा होय छे. 'तं जहा' ते त्र ज्ञान भी प्रभाये छे. मडे 'अभि Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जीवा मिगमस् णीय' अवधिज्ञानिन 'जे अन्नाणी' येत्वज्ञानिनः, 'अत्थे गइया दुअन्नाणी' सन्त्येकके द्वयज्ञानिनः 'अत्थे गढ़या ति अग्लागी' सन्त्येक के व्यज्ञानिनः 'जे दुअन्नाणी वे नियमा मइ अन्नाणी व सुय अन्नाणीय' तत्र ये द्वयज्ञानिनस्ते नियमती मत्य ज्ञानिनः श्रमाज्ञानिन ये असंजिपञ्चेन्द्रियेभ्य उत्पद्यन्ते ते अपावस्थायां द्वय ज्ञानिनः शेष काले तु तेषामपि व्यज्ञानिता 'जे ति अन्नाणी विभंगनाणी वि' येत त्र्वज्ञानिनः ते नियमा सरअन्नाणी सुय अन्नाणी ते नियमो मत्यज्ञानोनः श्रुताज्ञानिनो विभङ्ग ज्ञानिने ऽपि भवन्तीति । सेसा णं चाले होते हैं - 'तंज' 'जैसे- 'आभिणिषोहियनाणी, सुथनाणी, ओहि नाणी' मतिज्ञान वाले होते हैं ज्ञान वाले होते हैं और अवधि ज्ञान वाले होते है । 'जेअन्नाणी' और जो अज्ञानी होते हैं वे 'अत्थेगइया दुअन्नाण्णी ' किसने तो दो अज्ञान वाले होते है ' अत्थेगइया ति अन्नाणी' और कितने तीन अज्ञान वाले होते हैं । 'जे दुअन्नाणी' जो नारक दो अज्ञान वाले बोते हैं - वे 'विवमा मह अग्नाणी य सुय अन्नाणी य' नियम से एक मतिअज्ञानवाले और दूसरे श्रुन अज्ञानवोले होते हैं तथा - 'जे ति अन्नाणी ते निवमा-यह अन्हाणी, सुय अन्नाणी विभंगांनाणी वि'जो नारकी तीन अज्ञान वाले होते हैं वे नियम से मति अज्ञान वाले होते हैं, श्रुल अज्ञान वाले होते हैं, और विभंगज्ञान वाले होते हैं । जो जीव संजी पञ्चेन्द्रियों में से आकर के उत्पन्न होते हैं पर्यावस्था में ही दो अज्ञान वाले होते है और पीछे के समय में तो वे भी तीन अज्ञान वाले हो जाते हैं । इसीलिये कितनेक नारकी दो अज्ञान वाले होते हैं ऐसा कहा गया है । 'सेसाण णिवोहिय नाणी, सुयनाणी, ओहिनाणी' भतिज्ञान दाणा होय छे. श्रुतज्ञान बाजा होय छे, भने अवधिज्ञानी वाजा होय छे 'जे अन्नाणी' भने भेमो अज्ञानी होय छे, तेथे। निषभथी ‘अत्थे गइयो ति अन्ताणी' भने डेटलाई त्र ज्ञानवाण होय 'छे, 'जे दु अण्णाणी' ? नारो मे अज्ञान वाजा होय हे, तेथे । 'नियमा मइ अन्नाणी यस्य अन्नाणीय' नियमथी ? भति अज्ञ नवाजा भने श्रुत ज्ञान वाजा छे. 'जे ति अन्नाणी ते नियमा मइ अन्नाणी सूय अण्णाणी विभंग नाणी' के नारडीये। वायु अज्ञन वजा होय छे. तेथे नियभथी भति अज्ञान વાળા હાય છે, શ્રત અજ્ઞાન વાળા હોય છે અને વિભ’ગજ્ઞાન વાળા હાય છે. જે જીવેા અસ'ની પંચેન્દ્રિધામાંથી આવીને ઉત્પન્ન થાય છે, તે અવસ્થામાં જ એ મજ્ઞાન વાળા હોય છે. અને પછીના સમયમાં તે તેએ પણ ત્રણ અજ્ઞાનવાળા થઈ જાય છે. તેથી જ કેટલાક નારકીચેા એ અજ્ઞાનવાળા हाय छे. तेभ वामां मान्य हो. અપર્યાપ્ત Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीकाप्र.३३.२ सू.१९ नारकाणामुच्छवासादिनिरूपणम् २६५ णाणी वि अन्नाणी वि विभि जाव अहे सत्तमाए' शेषः खलु ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि त्रीणि याचदधः सप्तम्याम् इति, शेषाः शर्कराप्रभात आरभ्य अधःसप्तमी पर्यन्त षट् पृथिवीस्थितनारका ज्ञानिनोऽपि सन्ति अशानिनोऽपि सन्ति, तत्र 'तिम्नि' इति तेषां ज्ञानानि नियमात् त्रीणि भवन्ति तथैव अज्ञानान्यपि च तेषां नियमात् त्रीण्येव 'अत्थेगइया दुअन्नाणी' इति वक्तव्यम् इति विशेषः । तथाहि= शर्करापृथिवी वालुकाममा पङ्कप्रभा धृमममा तमःममा तमस्तमःप्रभा नारकाः नियमाव त्रिज्ञानिनोऽपि व्यज्ञानिनोऽपि भवन्ति आलापप्रकार श्वेत्थम् । तथाहि-- शर्करापमा पृथिवी नारफाखलु भदन्त ! किं ज्ञानिनोऽज्ञानिना, भगानाह गौतम ! शानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि शर्करायमायामपि सम्यग्दृशां मिथ्याशां च भावाव तन्त्र ये ज्ञानिनस्ते नियमात् त्रिज्ञानिनः तद्यथा-भामिनियोधिकज्ञानिरः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च, ये अज्ञानिनस्ते नियमाद् व्यज्ञानिनो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनो णाणी वि, अन्नाणी वितिन्नि जाव आहे लन्तमाए' इसी प्रकार ले शर्करा प्रभा के, बालुकाप्रभा के पंकप्रभा के, धूमप्रभा के तमामभा के और तमस्तमःप्रभा पृथिवी के नारक जीव भी ज्ञानी और अज्ञानी दोनों होते हैं यदि वे ज्ञानी होते हैं तो नियम से तीन ज्ञान काले होते है। और यदि अज्ञानी होते हैं तो तीन अज्ञान वाले होते । इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार प्रथम पृथिवी में जैसा आलाप प्रकार कहा गया है वैसा द्वितीय पृथिवी आदि शब्द लगाकर स्वयं उद्भावित फार लेना चाहिये परन्तु द्वितीय शर्करप्रभा पृषिधी से लगाकर सप्तमी पृथिवी तक के नारकों में 'इनमें कितनेक दो अज्ञान वाले होते हैं 'ऐल्ला कथन नहीं करना चाहिये क्योंकि यह कथन असंज्ञी जीवों से आकर जो जीव नारक पर्याय से उत्पन्न होता है उसकी अपेक्षा से किया गया _ 'सेसाणं नाणी वि अण्णाणि वि तिन्नि जाव अहे सत्तमाए' मा प्रभावी શર્કરામભાના, વાલુકાપ્રભાના, પંકપ્રભાન, ધૂમપ્રભાના, તમઃપ્રભાના અને તમ સ્તમપ્રભા પૃથ્વીના નારક જીવ પણ જ્ઞાની અને અજ્ઞાની હોય છે જે તેઓ જ્ઞાની હોય છે, તે તેઓ નિયમથી ત્રણ જ્ઞાનવાળા હોય છે અને જે અજ્ઞાની હોય છે, તે ત્રણ અજ્ઞાનવાળા હોય છે. આ સંબંધમાં આલાપકેન પ્રકાર પહેલી પૃથ્વીમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, તે જ પ્રમાણે બીજી પૃથ્વી, અને ત્રીજી પૃથ્વી વિગેરે શ૦ લગાવીને સ્વયં સમજી લેવા. જોઈએ પરંતુ બીજી શર્કરામભા પૃથ્વીથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નારકમાં “તેઓમાં કેટલાક બે અજ્ઞાન વાળા હોય છે. આ પ્રમાણેનું કથન કરવું ન જોઈએ. કેમકે આ કથન અસંસી જીમાંથી આવીને જે છો નારકપર્યાયથી ઉત્પન્ન થાય છે, તેની અપેક્ષાથી जी०३४ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जीवाभिगमको विभङ्गज्ञानिनश्च संक्षिपञ्चन्द्रियेभ्य एवागत्य शर्करामभावामुत्पादाद ? एवं वालुकाप्रभा पङ्कप्रभा धूममभा तम प्रभा पृथिवीप्यपि नारक्षाणां लिययात्मिज्ञानित्वं नियमात् व्यज्ञानित्वं च ज्ञातव्यम्, मर्वन संज्ञिपश्चेन्द्रिये भ्य एवागत्योत्पादभावात् । तमस्तमःममा पृथिवी नारथाः खलु यन्तु । विज्ञान्तिोऽज्ञानिनो वा गौतम । ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि सहररामपि संक्षिपञ्चेन्द्रियेभ्य एवागन्य उत्पादाद तत्र ये ज्ञानिनस्ते नियमान विज्ञानियः भाभिलियोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनथेति ये त्वज्ञानिनाते नियमात् उस ज्ञानिनः तद्यथा-मस्यज्ञानिनः श्रुताज्ञा निना विभङ्गज्ञानिनश्चेति । ___ सम्प्रति--योगप्रतिपादनार्थमाह--'मी ' इत्यादि, 'मीसे णं भंते !' एतस्यां खलु भदन्त ! 'स्यणप्पमार गुढीट' रत्नमसायों पृथिव्याम् कि मणहै परन्तु द्विलीयादिक पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारक संज्ञी पञ्चेन्द्रियों में ले ही भाकद टस्पन्न होते हैं, अतः इन समस्त पृथिषियों के नाएक ज्ञा और अज्ञानी भी होते हैं। ऐसा जब कहा जाता है तो इन अहल्या ये नियम से तीन मति श्रुत अनधिज्ञान वाले होते, जो ज्ञानी होते वेनियम ले मतिअज्ञानी श्रुतअज्ञानी और विभंगज्ञानी होते ऐसा ही कहना चाहिये किन्तु 'अत्थे गया दुअन्नापी' कितनेको अज्ञाल बाले होते 'ऐमा नहीं कहना चाहिये क्योंकि रत्नप्रभा के सिवाय की सब पृथिवियों में नारक तीन अज्ञान वाले होते हैं। अब योग का प्रतिपादन करते-मीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढधीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृदिधी के 'रेरइया' नरयिक 'कि કરવામાં આવેલ છે. પરંતુ બીજી પૃથ્વીથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નારીજી સંજ્ઞી પંચેન્દ્રિમાથી જ આવીને ઉત્પન્ન થાય છે. તેથી આ સઘળી પૃથ્વીના નારકો જ્ઞાની અને આજ્ઞાની હોય છે. એમ જ્યારે કહેવામાં આવે છે, તો આ અવસ્થામાં આ નિયમથી મતિજ્ઞાન શ્રતજ્ઞાન અને અવધિજ્ઞાન એ ત્રણ જ્ઞાનવાળા હોય છે. અને જેઓ અજ્ઞાની હોય છે તેઓ નિયમથી મતિ અજ્ઞાનવાળા, શ્રત અજ્ઞાન વાળા, અને વિર્ભાગજ્ઞાનવાળા હોય છે. भम ४ ४ न. ५२तु 'अत्थे गइया दुअन्नाणी' उटसा मे भज्ञान વાળા હોય છે. તેમ કહેવું ન જોઈએ કેમકે રતનપ્રભા પૃથ્વી સિવાયની બધીજ પૃવીયામાં નારકે ત્રણ અજ્ઞાનવાળા હોય છે व योगना समयमा प्रतिपादन ४२वामां आवे छे 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पनि मापन, मा २नमा पृथ्वीना 'नेरइया' नेशय। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.१९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् २६७ जोगी वइजोगी कायजोगी' किं मनोयोतिनो वचोयोगिनः काययोगिनो वेति प्रश्नः, भगवानाद -'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिणि वि' प्रयोऽपि हे गौतम ! रत्नपभानारका मनोयोगिनो भवन्ति वचोयोगिनोऽपि भवन्ति काययोगिनोऽपि भवन्तीति । एवं जाव अहेसत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् रत्न प्रभा नारकवदेव शर्करामभात पार समस्तमापर्यन्त नारका मनोयोगिनोऽपि भवन्ति वचो योगिनोऽपि भवन्ति काययोगिनोऽपि भवन्तीति ज्ञातव्यमिति । सम्पति--साकारानाकारोपयोग दर्शायमाह-'इसीसे णं भंते !' एतस्या खल्ल भदन्त ! 'रयणप्रसाए पुढवीए मेरइया' रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः किं सागारोपउत्ता अणागारोवउत्ता' रिसाकारोपयोगयुक्ता भवन्ति अनाकारोप. योगयुक्ता वा भवन्तीति भश्नः, भभवाना-गोरा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सागारोवउत्तावि अनागारोबउत्तावि' साकारोपोगयुक्ता अपि भवन्ति रत्नप्रभानारका स्तथा अनाकारोषयुक्ताभविमान्तीति । एवं जाव अहेलत्तमाए' एवं याव मणजोगी, वहजोगी कायजोगी' च्या मनोयोगी होते है ? या वचनयोगी होते हैं या काययोगी होते है ? उन्तन मनु शाहते है-'गोयमा तिपिण वि' हे गौतम ! प्रथम पृथिवी के वधिक तीनों योग वाले होते हैं। - 'एवं जाव अहे समतमाए' ही तरह से द्वितीय पृथिवी के नैयिको से लेकर सातवीं पृथिवीं तक के नैरयिक भी तीनो योग वाले होते है। __ अब सूत्रकार उपयोग हार का सामान करते हैं। रत्नप्रभा पृथिधी के नरयिक 'कि सामारोजउत्ता अजय इत्ता' क्या लाकारोपयोग वाले होते हैं ? या अनाकारोपयोग बाले रोते है? तर में प्रभु कहते हैं-'गोथमा। सागारोवउत्ता वि अनागारोवता वि' हे गौतम! रत्नमा पृथिवी के जीव खासारोपयोग वाले भी होते हैं और अनाजारोपयोग वाले भी होते हैं। 'एवं जाच आहे मतभार इस तरह से यावत् अवाससमी 'कि' मणजोगी, वइजोगी, काय जोगी' शु. मनये डाय ? અથવા વયન ચોગવાળી હોય છે ? કે ઠાથ ચગવાળા હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभु ४१ छ गोयमा ! तिणि वि' हे गौतम ! ५३दी पीना नयि त्र येnanाय छ 'एय जार अहे सत्तमार' मारी प्रभाग બીજી પૃથ્વીના નિરયિકોથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નિરયિકે પણ ત્રણે પ્રકારનાં ગવાળા હોય છે. २त्नप्रभा पृथ्वीना नैरायो। 'कि सागरावउत्ता अणागारोवता' सार ઉપગવાળા હોય છે ? કે અનાકાર ઉપ વાળા હોય છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४३ छ -'गोयमा! सागरोच उत्ता वि अनागारोव उत्ता वि' गौतम। રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નારક જી સાકાર ઉપગવાળો પણ હોય છે, અને અનાકાર 64211 डाय छे. 'एव' जाव अहे खत्तमाए मार प्रमाणे यावत Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬૮ जीवांभिगमसूत्रे दधः सप्तम्याम् रत्नमभानारकवदेव शर्करामभा वालुकामभावङ्कममा धूमममा तमः प्रभा तमस्तमःप्रभा नारका अपि साकारोपयोगयुक्ता भवन्ति अनाकारोपयोगयुक्ता - अपि ज्ञानापेक्षया साकारोपयुक्ता दर्शनापेक्षया अनाकारोपयुक्ता भवन्तीति भावः । नैरयिकाः कियत्परिमितं क्षेत्र जानन्ति पश्यन्तीत्याह - 'इमी से णं भंते । रयणप्पभाए पुढवीए नेरहया' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां : पृथिव्यां नैरयिका: 'ओहिणा केवइयं खेत्तं जाणंति पासंति' अवधिज्ञानेन कियत् क्षेत्रं जानन्तीति नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम! 'जहन्ने णं अट्टगाउयाई' अर्द्ध चतुर्थानि सार्द्धानि त्रीणि गव्यूतानि 'उक्को सेणं चत्तारि गाउयाई' उत्कर्षेण चत्वारि गव्यूतानि जानन्ति पश्यन्तीति चेति । 'सकरपभाए पृथिवी तक के नारक जीव भी दोनों प्रकार के उपयोग वाले होते हैंऐसा जानना चाहिये अर्थात् द्वितीय पृथिवी के नैरयिकों से लेकर सप्तमी पृथिवी के नैरयिक भी दोनों प्रकार के उपयोग वाले साकारो पयोग वाले और निराकारोपयोग वाले होते हैं । ज्ञान की अपेक्षा सारोपयोग वाले होते हैं और दर्शन की अपेक्षा अनाकारोपयोग वाले नारक होते है । • अब नैरथिकों के ज्ञान के विषय में कहते हैं- 'इमीसे णं भंते! रण पुढीए नेरया' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नैरधिक 'ओक्षिणा' अवधिज्ञान से 'केरइयं खेत्तं जाणंति पासंति' कितने क्षेत्र को जानते हैं और कितने क्षेत्र को देखते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोमा ! जहत्रेण अट्टगाउयाई उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई' हे गौतम । रत्नप्रभा पृथिवी में नैरयिक कम से कम अवधिज्ञान से साढे तीन ३|| कोश तक के पदार्थों को जानते हैं और उत्कृष्ट से चार कोश तक અધઃસપ્તમી સુધીના નારક જીવે પણુ ખન્ને પ્રકારના ઉપચેગ વાળા એટલે કે મીજી પૃથ્વીના નૈયિકાથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નૈરિયા સાકાર ઉપચાગવાળા પણુ હોય છે. અને અનાકાર ઉપયોગવાળા પણુ હાય છે. ડાય છે. જ્ઞાનની અપેક્ષાએ સાકારાપયેગ વાળા હાય છે, અને દશનની અપેક્ષાએ અનાકારાપયેાગવાળા હાય છે. हुवे नैरयिना ज्ञानमा संघमा थन खाभांगावे छे 'इमीसे णं भवे रयण पभाए पुढदीए नेरइया' हे भगवन् सा 'ओहिणा' अवधि ज्ञानथी 'केवइय' खेत्तं जाणंति पासंति' डेंटला क्षेत्रने भये રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં નૅરિયકો છે, અને કેટલા ક્ષેત્રને દેખે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વાંમીને ४ 'गोयमा ! जहणेणं अद्धट्ट गाउयाइ उक्केासेण चत्तारि गाउयाई' से Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ स्.१९ नारकाणामुच्छ्वासादिनिरूपणम् २६९ पुढवीए' शर्करामभायां पृथिव्याम् 'जहन्नेणं तिन्नि गाउयाई' जघन्येन त्रीणि गव्यतानि, 'उक्कोसेणं अधट्ठाई उत्कर्षेण अर्द्धचतुर्थानि एवं अद्धद्धगाउयं परिहाया' एवमर्धाधगव्यूतं परिहीयते परिहरणीयमित्यर्थः 'जाव अहेसत्तमाए' यावदधः सप्तम्याम् । तथाहि--३ वालुकापभायां जघन्येन-साईयोजनद्वयम्. उत्कण त्रीणियोजनानि, ४ पङ्कमभायां जघन्येम द्वे योजने, उत्कण सार्द्ध द्वे योजने, ५-धूम. प्रभायां जघन्येन सार्द्ध योजनमेकम् उत्कर्षेण द्वे योजने, ६-तम प्रभायां नारका जघन्येन एकं योजनम् उत्कर्षेण सार्द्ध मेक योजने यावत् अवधिज्ञानेन जानन्ति पश्यन्ति च । अधः सप्तमपृथिव्यां नारकाः 'जहन्नेणं अद्धगाउयं' जघन्येनाद्ध गव्य॒तम् 'उक्कोसेणं गाउयं' उत्कर्षेण गव्यूतमिति ।। सम्पति-नारकाणां समुद्धात दर्शयितुमाह-'इमीसे णं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाण' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां के पदार्थों को जानते हैं। 'सक्कर पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! शर्कग. प्रभा पृथिवी के नैरयिक अवधिज्ञान से कितने क्षेत्र को जानते है और देखते हैं ? 'गोयमा! जहन्नेणं तिनि भाउयाई उक्कोसे णं अट्ठाई हे गौतम! शर्कराप्रभा के नैथिक अवधिज्ञान से कम से कम तीन कोश तक के पदार्थों को जानते हैं और उत्कृष्ट से साढे तीन कोश तक के पदार्थों को जानते हैं। 'एवं अद्धद्धगाउयं परिहायति' इस तरह अधः सप्तमी पृथिवी तक आधा आधा कोश कम करते जाना चाहिये. इस प्रकार से सप्तमी पृथिवी के नैयिक जघन्यसे आधे कोश तक के और उस्कृष्ट से एक कोश तक के पदार्थों को अपने अवधिज्ञान द्वारा जानते हैं। अथ समुद्घात का कथन करते है-'इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए ગૌતમ ! રત્નપ્રભા પૃત્રીમાં નૈરયિકે ઓછામાં ઓછા ૩ સાડાત્રણ ગાઉ સુધીના પદાર્થોને અવધિજ્ઞાન નથી જાણે છે. અને ઉત્કૃષ્ટથી ચ ર ગાઉ સુધીના पहान छे. 'सक्करप्पभाए पुढवीए' 3 मगवन् शUAL पृथ्वीना नैयिही अवधिज्ञानथी सा क्षेत्रने छ १ अने हे छ १ गोयमा ! जहण्णेण तिन्नि गाउयाइ' उकासेण अद्ध द्वाई गौतम शरामा पृथ्वीना રયિકો અવધિજ્ઞાનથી ઓછામાં ઓછા ત્રણ ગાઉ સુધીના પદાર્થોને જાણે છે. मन था सा सुधीनपानि त छ. 'एवं अद्वद्धगाउ परिहायति' मा प्रमाणे माससमी पृथ्वी सुधी मधे मधे 16 191 ४२॥ જવું જોઈએ. એ રીતે સાતમી પૃથ્વીના નૈરયિકે જઘન્યથી અર્ધા ગાઉ સુધી અને ઉત્કૃષ્ટથી એક ગાઉ સુધીના પદાર્થોને પિતાના અવધિજ્ઞાન થી જાણે છે. समुदधात दार ४थन ४२वामा माय छे. 'इमीसे ण भंते । रयण Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्र प्रथिव्यां नरयिकाणाम् 'कइ समुग्घाया एन्नत्ता' कति समुद्धाताः प्रज्ञप्ता इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोरमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! चत्तारि समुग्घाया पन्नता' चत्वारः समुद्घाताः प्रज्ञप्ता:-कथिताः "तं जहा' तद्यथा-वेयणा समु ग्घाए' वेदना समुद्घातः 'कसायसमुग्घाए' पाय समुद्घाः 'मारणंतियसमु. मुग्घाए' मारणान्तिकसमुदघाला वेउब्बियसमग्घाए' क्रियसमुद्घातश्चेति । एवं जाव अहेसत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् रत्नप्रभानारकरदेव शर्करामभावालुकाप्रभा पङ्कपमा धूमपमा तमाममा तमस्तमःप्रभा नारकाणामपि वेदनाकपाय मारणान्तिक वक्रियाख्याश्चत्वारः समुद्घाता भवतीति ।मु० १९॥ सम्प्रति--रत्नप्रमादिनारकाणां क्षुपिपासादि स्वरूपं दर्शयितुमाह-'इमीसे णं भंते' इत्यादि । मूलम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं खुहप्पिवासं पञ्चणुभवलाणा विहरीते ? गोयमा ! एगमेणस्ल णं स्यणप्पभा पुढवी लेरइयस्ल अलभावपटूपुढवीए नेरच्या गं' हे लदन्त ! इस रत्नपला पृथिवी थे नैरपिकों के 'कर समुग्घाया पन्नत्ता' कितने ससुद्धात कहे हैं ! उत्तर में प्रभु कहते हैं'गोयमो ! चत्तारि समुग्धा पण्णत्ता' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नरयिकों के चार लमुद्धात कहे गये हैं 'तं जहा' जो इस प्रकार से है'वेयणा समुरघाए, कसायलमुग्याए मारणतिय समुग्याए, बेब्धियसमुग्घाए' वेदना समुद्धात, कषाय मुद्धात मारणान्तिक समुद्धात, और वैक्रिय समुद्धात एवं जाव अहे सत्तमाए' इस प्रकार से यावत् शर्कराप्रमाके, घालुहारमा के, पंकप्रभा के, भ्रमप्रभा के, तमःप्रभा के और तमस्तनाप्रभा के नारक जीवों के भी आदि ये चार समुद्धात होते हैं।१९। प्पमाए पुढबीए नेरइयाणं' 8 सन् २५॥ २त्नप्रमा पृथ्वीमा नैयिाने 'कह समुग्धाया पण्णत्ता ४८वा समुद्धात वाम भाव्या छ ? या प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४७ छ है 'गोयमा ! चत्तारि समुग्धाया पण्णवा' ७ जीतम ! मा २रन असा पृथ्वीना नयि या समुधात। आमा भाव्या . त जहा' त या प्रमाणे छे. 'वेयणासमुग्घाए, कसायसमुग्याए, मारण तियसमुग्याए, वउ वियम मुग्याए' वेडनसमुद्धात, पाय समुद्धात, भारान्ति मधात मन वैठिय समुद्धात. एवं जाव अहे सत्तमाए' 4 प्रभाए यात श3 २१ પ્રભાના, વાલુકાપ્રભાના, પંકપ્રભાના, ધૂમપ્રભાના, તમસ્તમાં પ્રાના ના૨ક જીવી ને પણ પહેલાના આ ચાર સમુદ્દઘાતે હોય છે. સૂ. ૧૯ છે Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ७.२० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम् २०१ बणाए सपोग्गले वा सम्बोदही वा आलयंसि पविखवेज्जा गो चेव णं से रयणप्पमा पुढवी नेरइए तित्ते वा सिया वितण्हे वा लिया एरिलया णं गोयमा ! रयणप्पभाए नेरइया खुहप्पिवासं पञ्चणुभवमाणा बिहरंति, एवं जात्र अहे लत्तमाए । इसीले णं भले ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया कि एगतं पभू विउविवतए पुरतं पि पल विउवित्तए ? गोयमा! एगत्तं पि पभू पुरतं पिपभू विउविलए एगत्तं विउव्वेमाणा एवं महं मोग्गररूर बा एवं मुसुंढि करवत्त अलि लन्ती हलगदामुसलचवणाराय कुंततोमरसूललउडभिंडमालाय जार भिंडमालरूवं 'वा, पुहत्तं विउ माणा मोग्गररूवाणि वा जाद भिंडमालरूवाणि वा ताई संखेजाइं जो असंखेन्जाइं, संबद्धाई नो असंबद्धाइं, सरिसाई नो असरिलाई दिउबंति, विउवित्ता अण्णमण्णस्स कार्य अभिणमाणा अभिहणमाणा वेयणं उतारेति, उज्जलं विउलं पगाढं ककले कडुयं फरुसं निठुरं चंडं तिव्वं दुक्खं दुग्गं दुरहियालं, एवं जाव धूमप्पभाए पुढवीए । छटुं सत्तमासु णं पुढवीसु नेरइया बहुमहंताई लोहिय कुंथु रुवाई वामइतुंडाइं गोषय कीडसमाणाई विडव्वंति, विउवित्ता अन्नमन्नस्स कायं समतुरंगेमाणा खायमाणा खायमाणा सथपोराग किमिया विद चालेमाणा चालेमाणा अंतो अंतो अणुप्पविसमाणा अणुप्पविसमाणा वेयणं उदीरति उज्जलं जाव दुरहियासं ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया कि सीयं वेयणं वेदेति उलिणं वेचणं वेदेति सीयउसिणं वेयणं वेदति ? गोयमा ! णो सीयं वेयणं वेदेति उसिणं वेयणं वेदेति नो सीतोसिणं वेदेति, वेदेति, ते अप्पयरा उपहजोणिया एवं जाव वालुय Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २७२ जीवाभिगमसूत्रे प्पभाए, पंकपएभाए पुच्छा गोयमा! सीयं पि वैयणं वेदेति उसिणं पि वैयणं वेदेति जो लीओलिणं वेयणं वदति ते बहुतरगा जे उसिणं वेयणं वेदेति, ते थोवतरगा जे सीयवेयर्ण वेदोंत । धूमप्पभाए पुच्छा गीयमा! सीयंपि वेयणं वेदेति उसिणं पि वेयणं वेदेति णो सीओसिणं वेयणं वेदेति ते बहुतरगा जे सायं वेयणं वेदेति ते थोवतरगा जे उसिणं वेयणं वेदेति । तमाए पुच्छा गोयमा ! सीयं वेयणं वदेति ना उसिणं वेयणं वेदेति नो लीओलिणं देणं वदंति एवं अहे सत्तमाए णवरं परमसीयं सू० २०॥ छाया--एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरयिकाः कीदृशं क्षुत्पिपास प्रत्यनुभवन्तो बिहान्ति ? गौतम ! एवैवस्य खलु रत्नपमा पृथिवी नैरयिकस्यासद्भाव प्रस्थापना सर्वपुद्गलान् वा सर्वोदधीन वा आस्यके प्रक्षिपेत् नैव खल रत्नप्रभा पृथिवी नरशिकस्तृप्तो वा स्यात् वितृष्णो वा स्यात् ईदृशं खलु गौतम ! रत्नप्रभायां नरयिका क्षुत्पिपासं प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति । एवं यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः किमे. फत्वं प्रभवो विकुरितम् पृथक्त्वमपि प्रमको विकुर्वितुम् ? गौतम ! एकत्वमपि प्रभवः पृथक्त्वमपि प्रभवो विकुर्वितुम् एकत्वं विकुर्वन्तं एकं महमुद्गररूपं वा एवं मुपण्डिकरपत्रासि शक्ति हलगदमुशचक्रनाराच कुन्ततोमरशुललगुड भिण्डमालानि च यावत् भिण्डमालरूपं वा पृथक्त्वं विकुर्वन्तो मुद्ग-रूपाणि वा यावद् मिण्डमालरूणि दा तानि संख्येयानि नो असंख्येयानि, संबद्धानि नो असंबद्धानि सहशानि नो अप्तशानि, विकुर्वन्ति, विकुर्वित्वा अन्योऽन्यस्य कायममिघ्नन्तोऽभिघ्नन्तो वेदनामुदीरयन्ति, उज्वलां विपुलां प्रगाढां कर्कश कटुको परुषां निष्ठुरां चण्डां तीत्रां दुःखां दुर्गा दरधिमह्याम् । एवं यावद धूमप्रमायाँ पृथिव्याम् । पष्ठी सप्तम्योः खलु पृथिव्योः नैरयिकाः बहूनि महान्ति लोहित कुन्थुरूपाणि वज्रमयतुण्डानि गोमयकीटसमानानि विकुर्वन्ति, विकुर्वित्त्वा अन्योऽन्यस्य कार्य समतुरङ्गायमाणाखादयन्तः शतपर्वकृमय इव चलन्तःचलन्ताऽन्तरन्तः अनुपविशन्तो वेदनामुदीरयन्नि, उज्ज्वला यावद् दूरधिसह्याम् । एतस्या खलु भदन्त ! रत्नपभायां पृथि नरयिकाः किं शीतां वेदनां वेदयन्ति उष्णा वेदनां वेदयन्ति शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ति ? गौतम ! नो शीतां वेदनां वेदयन्ति उष्णां वेदनां वेदयन्ति नो शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ति । (ते अल्पतरा उष्णयोनिका) Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीकाप्र.३ उ.२ स.२० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम् २७३ वेदयन्ति एवं यावद् वालुकाममायाम् ? पङ्कममायां पृच्छा गौतम ! शीतामपि वेदना वेदयन्ति उष्णामपि वेदनां वेदयन्ति नो शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ति । ते बहुतरकाः ये उष्णां वेदनां वेदयन्ति ते स्वोकतरकाः ये शीत वेदनां पेदयन्ति धूमप्रभायां पृच्छा गौतम ! शीतामपि वेदनां वेदयन्ति उष्णोमपि वेदनां वेदयन्ति नो शीतोष्णां वेदनां वेदयन्ति ते बहुतरकाः ये शीतवेदन वेदयन्ति ते स्तोकतरकाः ये उष्णवेदनां वेदयन्ति । दमायां पृच्छा मौतम ! शीतां वेदनां वेदयन्ति नो उष्णां वेदनां वेदयन्ति, एचयधः सप्तम्याम् नवरं परमशीताम् ।।२०।। टोका--'इमीसे णं भंसे । एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढचीए' रस्नप्रभायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिकाः 'केरिसयं' कोशीस्- किमा कारिकाम् 'खुइप्पिवासं' क्षुत् पिपासाम्-क्षुधां भोजनेच्छाम् पिपासा-जलेच्छास् 'पच्चणुब्भवमाणा' प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक क्षुधा पिपासा च वेदयमानाः 'विहरंति' विहरन्ति-तिष्ठन्तीति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयसा' हे गौतम ! 'एगमेगस्त रयणमा पुढवी नेरइयरूप' एककस्य खलु रत्नममा पृथिवी नैरयिकस्य 'असम्भावपहरणाए' असामस्थापनश-असद्भावकल्पनया ये केचन पुद्गला वा उदधयो वा इति शेषः, 'सब्य पोग्गले बा सन्चो___ अप नारकों की क्षुधा और पिपासा आदि के स्वरूप का सूत्रकार कथन करते हैं 'इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेइया के रिश्वयं खुप्पिवाय' 'इत्यादि । सूत्र ॥२०॥ टीकार्थ-गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'हमीले णं भंते ! श्याप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नैरयिक केली क्षुधा और प्यास का अनुभव कहते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं -गोषमा! एगमेग. स्सणं रयणप्पभा पुढवी नेरइयस्त' हे गौतम ! एक रत्नप्रभा पृथिवी के नैरयिक के 'असन्माषपदवणाए' असत् कल्पना कर के 'लव्धपोग्गले હવે નારકની સુધા અને પિપાસા તરસ વિગેરેના સ્વરૂપનું સૂત્રકાર ४थन ४२ छे. 'इमीसे णं भंते रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसय खुइप्पिाय' ७० ___टीय-गीतमस्वाभा असुन म पूछे छे । 'इमीसेणं भवे ! रयणप्पभाए. पुढवीए' मापन मा रत्नप्रभा पृथ्वीमा नै२थियो वा ४२नी भूम भने तरसना अनुभव ४२ छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रमु छ ? 'गोयमा ! एगमेगस्मण रयणप्पभा पुढवी नेरइयस्स' 8 गौतम ! ४ २त्नप्रभा पृथ्वीना नेयजानी 'असम्भावपट्टवणाए' असतू ४६५ना री 'सव्वपोग्गलेवा स्मन्बोदही वा' जो ३५ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ जीयामिगमस दहीवा' सर्व-पुद्गलान् वा सोधीन् वा 'आसयसि आस्थके-मुखे 'पक्खिवेज्जा' प्रक्षिपेत-निक्षिपेत् दद्यादिति यावत् तथापि 'जो चेवणं से रयणप्पभा पुढवी नेरइए' नैव खनु स रत्नप्रभा पृथिवी नरयिकः 'तित्ते वा सिया' तृप्तीश-विगतक्षुधः स्यांत 'वितण्हे वा सिया' वितृष्णो विगापिपासा का स्यात् सर्वान् वा पुद्गलान् सौनपि समुद्रान् यदि एका लाकजीवस्य मुखे पक्षिपेत् तथापिनारकस्य क्षुधा पिपामा वा न विघा सदत, दया भस्मक दोषदृपितोदरस्य बहुभक्षणेनापि तृप्तिन मदति एतरापि मन्तगुणा नारकाम क्षुधापिपासा च भवतीतिभावः । 'परिसयाण गोयया एताशी ग्वलु गौतम ! 'रयणप्पभाए णेरइया' रत्नप्रमायां नैरयिकाः 'खुइपिपासं पच्चणु प्रमाणा विहरंति' क्षुत् पिपासा घा सनोदहीवा' समस्न पुगों को और समस्त मुद्रों को 'आसयंसि' मुख में 'पक्खिवेजा' यदि डाल दिया जाये तो भी 'जोचेव णं से रयणप्पभा पुढवीणेरहए' रत्नममा पृधिधी का नैरयिक तत्ते वासिया' तृप्त क्षुधा रहित नहीं हो सकता है जिनहे वा लिया' वितृष्ण-प्यास रहित नहीं हो सकता है तात्पर्य इस कथन का ऐसा है कि नरक में नारक जीवों को इतनी अधिक भूख व प्यास लगती है कि उनके मुख में जितनी पुद्गल है वे सब डाल दिये जावें और जितने समुद्र है वे सब उडेल दिये जावे तो भी इनकी भूग्व व प्यास नहीं बुझ सकती है जिस प्रकार भस्मक व्याधि से युक पुरुषों को बहुत अन्न भक्षण कर जाने पर भी तृप्ति नहीं होती है नारक जीवों को तो इससे भी अनन्त गुणी अधिक भूख और पचान होती है 'एसियाणं गोयमा' हे गोतम! इस प्रकार की 'रयणप्पभाए नेरहया' रत्नपभा के नैरयिक सधा पुगतान भने सपा समुद्रार 'आमयसी' भुपमा 'पविखवेन्जा' ने नामामा भाव तो ५५ णो चेव णं से रयणप्पभा पुढवी णेरइए' २प्रमा पृथ्वीना नरथि। 'तित्त वा सिया' तृस यता नथी 'वितण्हे वा सिय! વિણ તરસ-રહિત પણ થતા નથી. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે નકારમાં નારક જીવોને એટલી વધારે ભૂખ અને તરસ લાગે છે. કે તેઓના મુખમાં જેટલા પુદ્ગલે હોય છે. તે બધાજ નાખવામાં આવે અને જેટલા સમુદ્રો હોય છે તે બધા ઠાલવવામાં આવે તે પણ તેઓની ભૂખ અને તરસ શાંત થતા નથી. જેમ ભસ્મક વ્યાધિવાળા પુરૂષને ઘણું જ સન્ન ખાઈ જવા છતાં પણ તૃપ્તિ થતા નથી. નારક જીવને તેનાથી પણ અનન્ત ગણી વધારે ભૂખ અને તરસ હોય छे. 'एरिसयाण गोयमा ! के गौतम म प्रारनी 'रयणप्पभाए णेरड्या' २त्न प्रभा पृथ्वीना नैरपि। 'खुहसपिवास' पच्चणुव्भवमाणा विहरति' भूम भने तरसना भनुम ४२ता । २ छे. 'एवं जाव अहे सत्तमाए' मा प्रभा भूभमान Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ४.२० नारकागां क्षुत्पिपासास्वरूपम् २७५ प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति-तिष्ठन्तीति । एवं जाव अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम्, रत्नममा पृथिवी नारकरदेव शर्कराममा बालकाममा पङ्कममा धूमप्रभा तमाममा तमस्तमःप्रमा पृथिवीनारकाणां प्रत्येकैकस्य मुखे यदि सर्वान् समुद्रान् सर्वाश्च पुद्गलान् प्रक्षिपेत्तदा तेषां क्षुत्पिपासे नोपशाम्यत इतिभावः आलापकसूत्राणि सर्व पृथिव्यां स्वर में बोहनीलानि । ___ सम्प्रति नारकाणां क्रियशक्ति दर्शयितुमाह-'इसीसे गं' इत्यादि, 'इमीसे णं भंते' एतस्यां खल्ल भदन्त ! 'श्रणयमार पुढवीए' रस्नपभायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिकाः प्रत्येकं किम् ‘एगत्ते' (भू विउचित्तए' एकत्वं प्रभवो विकुर्वितुम् एकं रूपं विकुक्तुिं प्रभवः किम् अयना-पुत्तपि पभू विउरित्तए' पृथकत्वमपि प्रभवो विकुर्दितुम्, अत्र पृथक्टर दो नानावाची तथा च-प्रभूतानि अनेका 'खुपियासं पच्चणुम्भवनाविहरति' भूख प्यास का अनुभव करते हुए रहते हैं । 'एवं जाव आहे सत्तमाए' इसी प्रकार का कथन भूख और प्यास के लगने के सपन्ध में रस्मप्रभा पृथिवी के नारकों की तरह द्वितीय पृथिवी के नैथिको से लेकर सप्तमी पृथिवी के नैरपिकों तक में कर लेना चाहिये इस प्रकार से 'हे गौतन | नरकों में नारक जीय ऐसी भूख व प्यास की वेदना का अनुभचन करते हैं। इस सम्बन्ध में समस्त पृथिवियों के-भिन्न २ पृधिषियों के लैरधिकों के भूख और प्यास की वेदना के अनुबन करने में-भालाप प्रकार स्वयं ही उद्भाषित कर लेना चाहिये। अब नारकों की वैकिच्छ शक्ति का वर्णन करते हैं-'इमीसे गं रयणप्पभाए पुपीए नेरइया' हे अदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी के नैरयिक क्या 'एमत्तं पन बिचित्तए' पकरूप की विकुर्वणा करने में समर्थ है ? जसर में प्रभु कहते हैं-'गोया । एगत्तपि पभू તરસ લાગવાના સંબધનું કથન રણા પૃથ્વીના નારકની જેમ બીજી પૃથ્વીના વૈરવિકેથી લઈને સાતમી પૃથ્વી સુધીના નૈરયિકેના સંબંધમાં સમજી લેવું આ પ્રમાણે છે ગૌતમ ! નારક જીવો નરકમાં આવા પ્રકારની ભૂખ અને તરસની વેદનાને અનુભવ કરે છે આ સંબન્ધમાં સઘળી પૃથ્વી ના એટલે કે જુદી જુદી પૃથ્વી માં નૈરયિકોની ભૂખ અને તરસની વેદનાને અનુભવ કરવામાં તેના આલાપોનો પ્રકાર સ્વયં બનાવીને સમજી લેવું જોઈએ. नानी वैलिय शतिर्नु पर्थन ४२वामा माव छ 'इसीसे ण रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया' मगवन् ! मा २त्नप्रभा पृथ्वीना नविकी 'पगत्तं पभ ! विउवित्तए' से ३५नी विशु ४२वामा समय छ १ प्रता Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्र न्यपि रूपाणि विकुर्वितं प्रभवः किमिति प्रश्न:-मगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एग पि पभू पुहु पि पभू विउवित्तए' एकत्वमपि एकमपि रूपं विकुक्तुिं प्रमत्रस्ते नारकास्तथा प्रथक्त्वमपि-नानारूपाण्यपि विकृवितुं प्रभवः-समर्थास्ते नारका भवन्तीति । तत्र-'एगत्तं विउव्वेमाणा' एकत्वमेकं रूपं विकुर्वन्तः 'एगं महं मोग्गरख्वं वा' एकं महन्मुद्गररूपं वा-मुद्गरो लोकप्रसिद्धएव 'एवं ममुढि' मुपण्ढि रूपं वा, मुपण्डिः शस्त्रविशेषः, 'करवत्त' फरपत्र रूपं वा 'असि' असि पत्ररूपं वा 'सत्ती' शक्तिरूपं वा 'हल' हवरूपं वा 'गदा' गदारूपं वा 'मुसल' शकरूपं वा 'चक्क' चक्ररूपं वा 'णाराय' नाराचरूपं वा वाणरूपमित्यर्थः 'कुंन' कुन्तरूपं वा 'तोमर' तोमररूपं वा, 'मूळ' शूलरूपं वा 'लउड' लगुडरूप वा 'भिंड मालाय' भिण्डमालानि वा 'जाव मिंडमालस्वं वा' यावद् पुत्तपि पभू' हे गौतम! रत्नप्रभा के प्रत्येक नैरपिक एक रूपकी भी विकर्षणा करने में समर्थ है और अनेक रूपों की भी विकुर्वणा करने में समर्थ हैं। यहां पृथक्त्व शब्द 'अनेक' का वाचक है । 'एगत्तं विउव्वेमाणा' जब वे नाहक एक रून की विकुर्वणा करते हैं तब 'एगं महं मोग्गररूवंका' वे एक विशाल सुदर की भी विकुर्वणा कर सकने में समर्थ होते हैं 'एवं मुढि' यवं मुषण्डि सुसल रूप शस्त्र विशेष की भी विकुर्षणा कर साशने में समर्थ होते हैं 'करवत्त' करपत्र-करोंत की भी चिकुर्वणा कर जाने में समर्थ होते हैं 'असिपत्र रूवं वा' असिपत्र -तलवार-की भी विश्र्वगा कर सकने में समर्थ होते है 'सत्ती' शक्ति रूप शन विशेषकी भी विवणा सकने में समर्थ होते हैं 'चक-नारा थ-कुंत-तोपर-शूल-लउड मिडिमाला ' चक्र की नाराच-याण की उत्तरमा प्रभु श्री छ है-'गोयमा! एमपि पभू पुहत्तंपि पभू' हे गीतम! રતનપ્રભા ના દરેક નરયિક એક રૂપની વિમુર્વણા કરવામાં સમર્થ છે. અને અનેક રૂપોની વિમુર્વણ કરવામાં સમર્થ છે. અહિંયા “પૃથકવ શબ્દ “અનેક २४ाकाणे छे. 'एगत्तं विउव्वेमाणा' ल्यारे ना२। ४ ३५नी विव! ४२ छे, त्यारे 'एगौं महमोग्गरलव' वा तशा . वि भुगनी ५५ वि ! ४३ २४मा समय है।य छे. 'एव मुसढि' से ४ प्रमाणे भुति भुसत ३५ शस्त्र विशेषनी ५ विक्षु । ४ी शपाभांसम डायछे 'करवत' કરપત્ર એટલે કે કરવતની પણ વિકુર્વણ કરી શકવામાં સમર્થ હોય છે 'सत्ती' शति३५ श विशेषनी विय! ४२वामा य सभ डाय छे. 'चक्क नाराय कुंत-तोमर-सूल-लउड़-भिंडिमालाय' यनी, नाराय मानी. अंत Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योति का टीका प्र.३ उ.२ ५.२० नारकागां क्षुत्पिपासास्वरूपम् २७ भिण्डमालरूपं वा भिण्डमालः शस्त्रजातिविशेषः, यावत्पदेन मुसण्डिपदादारभ्य भिण्डिमालपर्यन्तं रूपं वा इति पदं संयोजनीयम् तच्च संयोज्य प्रदर्शितमेव । मुद्रादि भिण्डमालान्तरूपं विकुक्तुिं समर्था भवन्ति नारका इति । अत्र मुद्गरादि शस्त्रनामसंग्राहिका गाथा-- 'मुग्गर मुसुढि करवत्त असि सचि हल गया मुसल चक्का । नाराय कुंततोमर मूललउडभिडमालाय' ॥१॥ मुद्गरमुषण्डि करपत्रालि शक्ति हळगदा मुशल चक्राणि । नाराच कुन्ततोमर शूल लगुड भिण्डिमालानि च ॥१॥ इतिच्छाया 'पुहुत्तं विउव्वेमाणा' पृथक्त्वम्-अनेकरूपाणि विकुरन्तः 'मोग्गररूपाणि वा जाव भिंडिमालरूबाणि वा' मुद्गररूपाणि वा करपत्ररूपाणि या अतिरूपाणि बा, शक्तिरूपाणि वा, इलरूपाणि या गदारूपाणि वा मुशलचक्रनाराच कुन्त. तोमर शूउलगुड मिण्डिमालरूपाणि वा 'वाई' तानि मुद्गरादि भिण्डिमालान्तः रूपाणि 'संखेज्जाई नो असंखेज्जाई' संख्येयानि नो न तु असंख्येयानि संख्या-कुन्त-भाले तोमर की, शुलकी, लकुट-लाठी की और भिण्डिमाल नामक शस्त्र विशेष की 'जाव भिडनाल रूपं वा' यावत् भिण्डिमाल रूप की-यावत-मुसुण्ढि पद से लेकर सिण्डिाल तक सब शस्त्रों के रूपकी विकुर्वणा कर सकने में समर्थ होते हैं। 'पुष्टत्तं विउध्वेमाणा' जन्म देनारक अनेक रूपों की विकर्वणा करते हैं-तब वे 'मोग्गररूवाणि वा जाब भिण्डिमालख्याणि वा' अनेक मुद्गर रूपों की यावत्-अनेक मुषुण्डि रूमों की अनेक करपन्न रूपों की अनेक असिरूपों की अनेक शक्ति रूपों की, अनेक हल रूपों की अनेक गदा रूपों की, अनेक मुसल, चक्र, नाराच, कुन्त, तोमर एक प्रकार का वाण शूललगुड और भिण्डमाल रूपों की बिकुर्वणा कर सकने ભાલા, તેમર, ની. શલની, લકુટ કહેતાં લાકડીની અને બિંદિપાલ નામના श२ विशेषनी 'जाव भिंडिमालरूव वा' यावत् निभास ३५नी यावत् भुसुदी પદથી લઈને બિંદિપાલ સુધીના બધાજ શાસ્ત્રાના રૂપની વિમુર્વણ કરી શકવામાં સમર્થ હોય છે. 'पुहुत्तं विउठवेमाणा' न्यारे ते ना२। अने४ ३पानी विgu 3रे छे. त्यारे तेसो 'मोग्गरवाणि वा जाव भिण्डिमालस्वाणि वा' मने भुग२३थानी યાવત્ અનેક મુકુંઢિ રૂપની અનેક કરવાના રૂપની અનેક તલવારની અનેક શક્તિની અનેક હળની અનેક ગદાઓની અનેક મુસલ, ચક, નારાચ, કુંત તેમ એટલે કે એક પ્રકારના બાણુની શૂલ, લાકડી અને બિંદિપાલની વિમુ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭. जीवामिगमत्र तीतानि विसदृशकरणे असंख्येयकरणे वा तादृशशक्तेरभावादिति तानि पुनः-संव दाई नो असंवद्धाइ, संवद्धानि स्वात्मनः गरीरसंलग्नानि न संवद्धानि स्वशरीरात् पृथगू भूतानि, स्वशरीराद पृथग्भूतकरणे सामामावादिति 'सरिसाई नो अमरिसाई" सदृशानि-स्वशरीर तुल्यानि नो असहशानि विरूपाणि विरूपकरणे सामयाभावात् 'विउव्वंति' विकुर्वन्ति "विउवित्ता' विकुर्वित्ता 'अण्ण मण्णस्स' अन्योऽन्यस्य 'कायं अभिणमाणा अभिडणमाणा' कायं-शरीरम् अभिन्नन्तोऽमें समर्थ होते हैं। 'ताई संखेजाई नो असखेजाई' ये मुद्गरादि रूपों से लेकर भिण्डिमाल तक के रूपों की जो नारक विकुर्वणा करते हैं वे संख्यात रूपों की बिकुर्वणा करते हैं असंख्यात रूपों की विकर्षणा नहीं करते हैं-अर्थात् नारक के अनेक रूपों की जो नारफ विकर्षणा करते हैं वे उनके विक्रुर्वित रूप संख्यात ही हो सकते है-असंख्यात नहीं होते है क्यो कि असंख्यात रूपों को चिकुर्षित करने की उनमें शक्ति नहीं होती है 'संघद्धाई नो असंबद्धाई' ये पिकर्षित हुए रूप उन नारक जीों के शरीर से संबद्ध होते हैं 'नो असंरद्धाई' असंबद्ध नहीं होते हैं । अर्थात् शरीर से अलग नहीं होते हैं। क्योंकि शरीर से पृथक् भूत करने में उनमें सामर्थ्य का अभाव रहता है-'सरिसाई नो असरिसाई' ये उनके द्वारा विकुर्षित किये रूप उनके ही अपने शरीर के तुल्य होते हैं असदृश -विरूप नहीं होते हैं क्योंकि विरूप करने की उनमें शक्ति का अभाव है 'विउवित्ता अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणा अभिहणमाणा देयणं वा ४३शामी समर्थ हाय छे. 'ताईसंखेजाईनो अस खेज्जई' मा મુદ્ગર વિગેરેથી લઈને ભિંડિપાલ સુધીના રૂપની જે નારકે વિકુણા કરી શકવામાં સમર્થ હોય છે, તેઓ ય ખ્યાત રૂપની વિમુર્વણા કરે છે. અસંખ્યાત રૂપની વિકુણા કરતા નથી. અર્થાત્ જે નારકે અનેક રૂપોની વિકૃર્વ કરે છે. તે તેઓએ વિકર્ષિત કરેલા રૂપે સંખ્યા જ હોય છે. અસંખ્યાત હતા નથી કેમકે અસંખ્યાત રૂપની વિમુર્વણા કરવાની તેઓમાં શકતી જ હતી नथी. 'सबखाई नो असबदाइ' । विदित ४२१.मां आवेता ३२॥ में ना२४ वाना शरीरथी समर साय छे 'नो अमबद्धाइ' असाता नथी. અર્થાત્ શરીરથી જુદા હોતા નથી. કેમકે શરીરથી જુદા કરવામાં તેઓમાં साभाय ने। ममा २ छे. 'सरिसाईनो असरिसाइ' मा तसा द्वारा विनित કરવામાં આવેલા રૂપે તેમના પિતાના શરીરની બરાબર દેય છે અસદશ वि३५ खाता नथी. उभ qि३५४२पानी तमामा शतिना मला छे. विउवित्ता Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र.१ उ.२ सु.२० नारकाणां श्रुत्पिपासास्वरूपम् २७९ मिनन्तः 'वेषणं उदीरेति' वेदनामुदीरयन्ति, कीदृशीं वेदनामुदीरयन्ति तत्राह 'उज्जल' इत्यादि, 'उज्जलं' उज्ज्वलाम्- दुःखरूपल्या जाज्वल्यमानाम् सुखलेशेनापि वर्जितामित्यर्थः पुनः किं भूतां तत्राह - 'पगाढां' प्रगाढाम् प्रकर्षेण धर्मप्रदेश व्यपिता अतीच समवगाढम् 'कर्कशाम् कर्कशामिव कर्कशास् - कठोराम्, अयं भावः यथा कर्कशः पाषाण संघर्षः शरीरस्य खण्डानि त्रोटयन्ति एवमात्ममदेशान चटयन्तीव वेदना संजायते सा कर्कशा तां फर्कशास् 'षड्यं' कटुकाम् कामित्र बटुकाम्, पित्तप्रकोप परिकलितवपुपो रोहिणीं कटुकद्रव्- मिवो भुज्यमानाम् अतिशयेनापीतिजनिकामिति । 'फरुसं' परूषां मनसोऽतीव रूक्षताजनिउदीरेति' एक अनेक रूपों की विकुर्वणा करके ये आपस में एकदूसरे के रूपों के साथ उसे लड़ाकर शरीर में चोट पहुंचा कर वेदना उत्पन करते हैं वह वेदना 'उज्जलं' सुख के लेश से भी वर्जित होने के कारण अत्यन्त दुःख रूप से उन्हें जलाती रहती है 'पगाढ' मर्म प्रदेशों में प्रवेश कर के समस्त शरीर में व्यापक हो जाती है अतः वह प्रत्येक प्रदेश में समवगाढ होती है 'कक्कसं' बहुत अधिक कठोर होती हैजैसे कर्कशपाषाणखण्ड का संघर्ष शरीर के अवयवों को तोड देता है - उसी तरह से वह वेदना भी आरन प्रदेशों को तोड सी देती है, अतः उसे यहां कर्कश कहा गया है । 'कडुयं' कटुक यह वेदना इसलिये कही गई है कि यह पित्त प्रकोप वाले व्यक्ति को जैसे खाई गई रोहिणी - औषधि विशेष - अप्रीति जनक होती है उसी प्रकार से वह वेदना अप्रीति जनक होती है 'फरुसं' वह नारको' के मन में अतीव रूक्षता की "o" अण्णमणस्व कार्य अभिहणमाणा अभिदणमाणा वेयण उदीरे 'ति' अने४ ३योनी વિકા કરીને તેઓ પરસ્પરમાં એક બીજાના રૂપાની સાથે તેને લડાવીને શરીરમાં धन्न पडयाने वेदना उत्पन्न रे छे. ते वेहना 'उज्जलं ' સુખનાલેશથી પણુ રહિત હાવાના કારણે અત્યંત દુઃખ રૂપે તેને माती रहे छे 'पगाढां' भर्भ अशोभां प्रवेश ४रीने समस्त शरीरमां व्याप्त ' थ लय छे. 'ककस' घड़ी वधारे ठोर होय छे. प्रेम ४ पत्थरना टुअडानो સ'ધ શરીરના અવયવને તેડી નાખે છે, એજ પ્રમાણે તે વેદના પણ मात्मप्रदेशाने तोडी नाथे छे. तेथी मडियां तेने हे हे. 'कड्यं' તે વેદનાને કટુ એ માટે કહી છે કે તે પિત્તપ્રાપ વાળી વ્યક્તિને ખાવામાં આવેલ રે.ડિણી (વનસ્પતિ વિશેષ) અપ્રીતિકારક હાય છે, એવી જ તે વેદના અપ્રીતિકારક હાય છે. ૩” તે નાફોના મનમાં અત્યંત રૂક્ષતા જનક હાય Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮૦ जीवामिगमपणे काम् । 'निठुरं' निष्ठुराम्-अशक्यमीक्षाराम् । 'पडे' चण्डाम् रोद्राध्यवसाय. हेतुन्चात् रुद्रास् 'ति' सीवास्-अनिशामितीम् दुवख' दुःखाम्- दुरवरूपाम् 'दुग्ग' दुर्गान्- दुर्लध्या भाएर 'रहिवास' दुरधिमाताम्-दुखेन सोटु योग्याम् एतादृशी वेदना ते नारा अनुभवन्तीति पूणान्वयः 'एवं जाव धूमप्पमाए' एवं यादद् धूमामायां पृथिव्याप, एवं जनम भारदेव शर्कराममा बारकापमा जनक होती उसका इलाज-प्रनिमार-नहीं हो सकता है इसलिये यह निष्ठुर होती है उसके होने पर नारक जीदों के परिणामों में अत्य. न्त रुद्रताआजाती है ल झारण करना होनी है 'ति' इस वेदना से अधिक और कोई वेदना नहीं - वेदना की पराकाष्ठा रूप होती है-इसलिये इसे तीव्र का गधा है 'दुकान' ग्रह वेदना सुग्व के सेश से भी वर्जित होती है-इसमें केवल दुःख फा ही साम्राय अत्यन्त दुःख भरा रहता है, अथवा या स्वयं वृख ल्प होती है इसलिये इसे दुःख कहा गहा है 'दुग्गं' इससे जब तक जीव नरक में रहता है तब तक छूट नहीं सकता है अनः इसे दुर्ग दुर्लध्य कहा गया है, 'दुरहि यासं' इले नारक जीव प्रसन्न जित्त से नहीं सोगते हैं किन्तु पडी कठि. नता के साथ दुरध्यवसाय पूर्वक भोगते हैं मनाया दुख से सहन करने योग्य होने से दुरधिमा है ऐले विशेषणों वाली वेदना को वे नारक जीव आयु पर्यन्त वहां हम करते रहते हैं एवं जाव धूमप्प भाए' છે. તેને ઉપાય અર્થાત્ પ્રતીકાર થઈ શકતો નથી. તેથી તે નિષ્ફર હેય છે. તે હેવાથી નારક જીવોના પરિણામોમાં અત્યંત રૂકતા આવી જાય છે તેથી तय उपाय छे 'तिच' मा वेहनाथी मोटी ना ती नयी. मर्थात् मा वहनानी ५२१४६०४॥ ३५ ७.५ . तथा तीनही छे. 'दुक्खं" આ વેદના સુખના લેશથી પણ વત હોય છે. આમાં કેવળ દુઃખનું જ સામ્રાજા ભર્યું હોય છે. અથવા આ વેદના સ્વયં દુઃખ રૂપ હોય છે. તેથી તેને દુઃખ એ પ્રમાણે કહેલ છે “દુ તેથી જ્યાં સુધી જીવ નરકમાં રહે છે, ત્યાં સુધી છૂટી શકતા નથી. તેથી તેને દુર્ગ અર્થાત દુર્લય કહેલ છે 'दुरहियास" ना२४ । प्रसन्न चित्तथी ते पता नथी. परंतु घlar કઠણાઈથી દુરધ્યવસાય પૂર્વક ભગવે છે. તેથી તે દુઃખથી સહન કરવા ગ્ય હોવાથી “દુધિસહય છે. આવા વિશેષાવાળી વેદનાને એ નારક છે આ યુધ્ધ સમાપ્ત થતાં સુધી ત્યાં રહીને સહન કરતા રહે છે. 'एवं जाव धूमपभाए' मा प्रमाणे ना२४ 0ो, शशा , Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ स.२० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम् २८१ पङ्कपमा पञ्चमी धूमममा पृथिवीष्वपि नारकाणामतिशयितवेदना वेदकत्वं ज्ञातव्यमिति भावः । 'छ? सचमासु णं पुढचीनु' षष्ठ सप्तम्यां पुनः पृथिव्योः तम:प्रभा तमस्तमामभयोः 'नेरइया' नैरयिकाः 'बहुमहंताई वहुनि-अनेकानि महान्ति 'लोहिय कुंथुरूबाई' लोहित कुन्थुरूपाणि रक्तवर्णानि कुन्थुजातिक जीवानि 'वहरामयतुंडाइ” वन्नमय तुण्डानि-वज्र पस्कठोर तीक्ष्ण मुखानि गोमय कीडलमाणाई' गोमय कीटसमानानि नारशाः 'बिउति' बिकुन्ति-वैकिंच क्रियया निष्पादयन्ति 'विडिया रिपुर्विवा 'अन्नसन्मरस' अन्योऽन्यक्ष्य-पदस्परस्य 'कार्य' कार्य-शरीरम् 'समतुरंगेगाणा' समतुशायमाणा - तुरना पक्ष याच रन्त:-अश्वा इवान्योन्य मारोहन्त इव इत्यर्थः 'खायमाणा खायमाणा' खादयन् । खादयन्त एकेऽन्यान् 'सयपोराग किमियावित्र' शतपर्वकमन्य इज वंश कृस्य च इसी तरह नारक जीव शर्कशपमा, बालुकाप्रमा, पंकप्रभा और धूमप्रभा में भी अतिशयित वेदना को भोगते हैं । 'छहसतम्बाखु णं पुढवीसु' छठी और सातवी पृथवी में 'नेरहया नरथिक जीव 'बहुमहं ताई लोहिय कुंथुरूवाइं पथराषय तुडाई अनेक बडे २, रक्तवर्णवाले कुन्थु जीवों के रूपों के जैसे-लालवर्ण के और बयार जयतुंडाई' जिनका मुख वज्र का ही मानों बना हुआ सा है ऐसे शरीर मा कि जो 'गोमय कीडन्तमाणाई' गाय के गोबर के कीडे के जेले होते है विकुर्वणा करते हैं विउव्दिन्ता' शरीरों की विफुर्वणा करके अन्नमनस्स कायं' फिर परस्पर में एक दूसरे के शरीर पर 'लमातुरगेमाणा' घोडे की तरह सवार होकर अर्थात् चढकर 'खाशमाणा २' उसे परस्पर में पारंवार काटते हैं-बटका भरते है 'सयपोराकिभियाइच एवं शतવાલુકાપ્રભા, પંકપ્રભા, અને ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં પણ અત્યંત વેદના ભેગવતા २७ छ. 'छटुसत्तमासु णं पुढवीसु' ७२४ी मने सातभी पृथ्वीमा 'नेरइया' नैरयिर ७। 'बहुमताई लोहियकुंथुरूवाई वयरामयतुडाइ” भने मोटा मोटा सता ३ाना थुनामना वान। ३।२uary नाम 'वयरामयतुडाई भाना नुभुम १०११ मनछे, सेवा शरीशनी है 'गोमयकी समाणाई' ગાયના છાણના કીડા જેવા હોય છે. તેવા જીવોની વિકુબા કરે છે, 'विउव्वित्ता' तवा शरीरानी वियरीन 'अन्न मन्नस्स कायं त पछी ५२ २५२मां से मीलना शरी२ ५२ 'समतुर गेमाणा' घानी म समा२ २४२ मयात यढी 'खायमाणा खायमाणा' ५२२५२ तेने पार वा२ ४२3 छे. र्थात् म मरेछे. 'सयपोराकिमियाइव' मन से माही पाणी शेडनाहीनी भा३४ 'चालेमाणा चालेमाणा' म १२ ने म२ सनसनाट ४२ता थपेसी तय जी०३६ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rammar - जीयामिगम २८२ अथवा शत पइक्षु स्तथा चेक्षु कृषय इत्र 'चालेमाणा चालेमाणा अंतो अंगो' अन्तरन्तः शरीरस्य मध्यभागेन संचरन्त संचरन्त एकम्य शरीरदेशेऽनुमविशन्तस्ते नारकाः 'वेयणं उदीरयंति उज्जलं जाव दुरहियासं' वेदना मुदीरयन्ति उज्वला यावत्-विपुलां प्रगाढा कर्कशक्टका एसपी नडा निष्टुगं तीनां दुर्गा दरधिसपामिति, एतादृशी वेदनामुदीरयनि-शटयति पष्ठ सप्तम पृथिवी नारका इति । सम्पति-क्षेत्रस्य भावनां वेदना गनिगादयनि-'इश्रीसे णं इत्यादि, 'इमी से णं भंते ।' रयणप्पभाए पुढबीए' एका वा भदन्त ! नपमायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नरयिकाः 'फि. सीयं देणं ' किंमत वेदना चेदयन्ति अथवा 'उसिण वेरणं वेदेति' उष्ण वेदना वेदयति गया-'सीय उमिन वेयणं वेदेति' शीतोष्णवेदना वेदयन्तीति ना भग ६-'गोशमा' इत्यादि, 'गोयमा गौतम ! 'णो सीयं वेरणं वेदेति' नो शीरा वेदनां वेदयन्ति, किन्तु 'उसिनं पर्ववाली इक्षु के किडेकी तरह चाटेमणा २' भीतर को भीतर मन. सनाहट करते हुए घुस जाते हैं इससे वे 'वेयणं उदीरयंति' उज्वल आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाली वेदना को उसे उत्पन्न करते हैं यही बात 'उज्जलं जाव दूरहियासं' हर मृत्रण द्वारा प्रकट की गई है। अय सूत्रकार क्षेत्र स्वभावज वेदना का कथन करते हैं। 'इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुत्रीए नेरझ्या' हे भदन्त । इम रत्नप्रभा पृथिवी के नैरयिक शि सीवेयणं वेदें नि उसिणवेयणं वेदेति' क्या शीतवेदना को भोगते है ? या उपनवेदना को भोगते हैं। या 'सीय उसिणवेयणं वेदेति' शीतोष्ण वेदना को भोगते हैं। इस प्रकार के गौतम के प्रश्न का उत्तर देते नए भगवान कहते हैं 'गोयमा! जो सीयं वेयणं वेदेति' हे गीतम! देना जीव शीनवेदना का वेदन छ. तथा तमा 'वेयण उदीरयति' Sarge (वगैरे पास विशेषणवाणी वेहना ने 6त्पन्न ४शवे छे. ४ वात 'उज्जलं जाव दुरहियास' मा सूत्र દ્વિારા પ્રગટ કરવામાં આવી છે. वे सूत्रा२ क्षेत्र २१॥4जी वहनाना सधमा थन ४२ ७. 'इमोसे णं भते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया' है सावन मा २नमा पृथ्वीना राय। 'किं सीयवेयणं वेदेति उसिणवेयण वेदेति" शुशीत वहनातुं वहन ४२ छ, ना सोश १ मा 'सीय उसिणवेयणं वेदेति' शीत वनाने लागव छ । गौतमस्वामीना मा प्रश्न उत्तर मापता प्रभु ४ छ । 'गोयमा ! पो सीयं वेयणं वेदेति' के गीतम! ना२३ शात वहनानु' वहन ४२ता नयी: Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ. २ सु. २० नारकाणां क्षुत्पिपासास्वरूपम् ૨૮૩ वेणं वेदेति' उष्णां वेदनां वेदयन्ति ते हि नारकाः शीतयोनिकाः योनिस्थानानां केवल हिमपुञ्जसदृश शीतमदेशात्मकत्वात् योनिस्थानव्यतिरेकेण चान्यत्सर्वमपि भृम्वादि खदिराङ्गारादपि महापतप्तम् अतस्ने उष्णामेव वेदनामनुभवन्तीति । 'नो सीओ सिणं वेणं वेदेति' नानि शीतोष्णवेदनां वेदयन्ति शीतोष्ण स्वभावतया नरकेषु मूळतोऽपि असंभवादिति । ' एवं जाव वालुयप्पभाए' एवं यावद् बालकाममायाम् रत्नमभानारकत्रदेव शर्कराममा वालुकाप्रभा नारका अपि न शीतवेदनां वेदयन्ति किन्तु उष्णामेव वेदनां वेदयन्ति, नापि शीतोष्णवेदनां वेदयन्तीति ॥ 'पंकष्पभाए पुच्छ।' पक्कममायां पृच्छा हे भदन्त ! पङ्कममा चतुर्थ पृथिवी नारकाः किं शीतवेदनां वेदयन्ति किं वा उष्णवेदनां वेदयन्तीति पृच्छया संगृह्यते शश्नः, भगवानाह - 'गायमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सियं वेयणं वेदे खि उसिपि चेवणं वेदेति' शीतामपि वेदनां वेदयन्ति नहीं करते हैं किन्तु 'उणिवेषणं वेदेति' वे उष्णवेदना का वेदन करते हैं ये नारक यद्यपि शीतयोनिक होते हैं क्यों की इनके उत्पत्तिस्थान केवल हिमानी - हिमसंतति के तुल्य शीत प्रदेशात्मक होते हैं परन्तु इन से व्यतिरिक्त जो और तम स्थान आदि हैं वे सब खैर के अङ्गार से भी अधिक उष्ण होते हैं - अलावे केवल एक उष्ण वेदना को ही भोगते हैं । शीन या 'नो सीघोलि णं वेदेति' शीतोष्ण वेदना को नहीं भोगते हैं । 'रूप्पसार पुच्छा' हे भदन्त ! पङ्कमभा नाम की जो चतुर्थ पृथिवी है उसके नाक क्या शीत वेदना का अनुभवन करते हैं ? या उष्णवेदना का अनुब्बन करते हैं ? या शीतोष्णरूप से मिली हुई वेदना का अनुभव करते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं परंतु 'उणिवेणं वेदेति' तेथे उष्णु वेदनातु वेहन हरे हे मे नार है। ले કે શીતયેાનિ વાળા હાય છે. કેમકે તેએાનું ઉત્પત્તિસ્થાન હિમાની હિમસ હૃતિ જેવા શીત પ્રદેશાત્મક હાય છે. પર`તુ તેના સિવાયના જે બીજા સ્થાને છે. તે બધા ખેરના અંગારાથી પણ વધારે ઉષ્ણુ હાય છે. તેથી તેએ કેવળ એક उलु वेहना लोगवे छे. ठंडी अथवा 'सीयोसिणं णो वेदेति' शीतोष्णु वेहना लोगवता नथी. 'पंकप्पभाए पुच्छा' हे लगवन् य अला नामनी ने येथी પૃથ્વી છે, તેમાં રહેતાવળા નારકે શું શીત વેદનાને અનુભવ કરે છે ? કે ઉષ્ણુ વેદનાના અનુભવ કરે છે ? અથવા શીતાણુ વેદનાના અનુભવ કરે છે ? मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामीने हे 'गोयमा ! स्त्रीयं विबेयर्ण Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे - नरकावास भेदेन पङ्कप्रभा नारकाः तथोष्णामपि वेदनां वेदयन्ति, नरकावास -भेदेनेव किन्तु 'नो सीओसिणवेयणं वेदेति' नो नैव शीतोष्ण वेदनां वेदयन्ति । 'ते बहुतरंगा जे उसिणं वेषणं वेदेंति' तत्र ते बहुतरका ये उष्णां वेदनां वेद'यन्ति मभूततराणां शीतयोनित्वात् । 'ते थोक्तरगा जे सीयं वेयणं वेदेंति' ते स्वोकतरा ये शीतवेदनां वेदयन्ति अल्पदराणामुष्णयोनित्वादिति । धूमप्पमाए पुच्छा' धूपभभायाँ पृच्छा हे भदन्त ! धूमप्रभा नारकाः किं शीतवेदनां वेदयन्ति उष्ण वेदनांचा, शीतोष्णवेदनां वा वेदयन्ति इति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोवा' हे गौतम ! 'सीयंपि वेषणं वेदेति' शीतामपि वेदनां वेदयन्ति - 'गोयला ! लीयंपि वेयणं वेदेति उसिपि वेधणं वेदे सि' हे गौतम | वे नारक नरकावास के भेद से शीत वेदना का भी अनुभवन करते है और उसी प्रकार लरकावास के भेद से ही उष्ण वेदना का भी अनुभवन करते हैं - पर् 'णो सीतोसिणं देणं वेदेति' शीतोष्ण वेदना हा अनुभवन नहीं करते हैं । 'ते बहुतरगा जे उसिणं वेयणं वेदेति' ऐसे नारक जीव वहां अधिक हैं जो उष्णवेदनों का अनुभवन करते हैं क्योंकि प्रततर नारक जीवों की योनि शीत होती है । तथा 'ते थोतरा से लीयं वेषणं वेदेति' जो नारक जीन शीतवेदना का अनु -भवन करते हैं वे स्तोक तर बहुत घोडे हैं। क्यों कि यहां अल्पतरों की उष्णयोनि होती है । 'धूपभाए पुच्छा' हे भदन्त ! धूमप्रभा के नारक क्या शीतवेदना का अनुभवन करते हैं या उष्णवेदना का अनु भवन करते है ? या शीतोष्णरूप मिश्र वेदना का अनुभवन करते हैं । वेदेति उसिपि वेयण वेदेति' गौतम ! ते नारी नरावासना लेदृथी शीत વેદનાને! પણ અનુભવ કરે છે. અને એજ પ્રમાણે નરકાવાસના ભેરુથી જ G] वेदनाना पशु अनुभव उरे छे. परंतु 'णो खीयोसिणं वेयणं वेदेति' शीतोष्णु वेहनाना अतुलव ४२ता नथी. 'वे बहुतरगा जे उक्षिणं वेयणं वेदे ति' એવા નારક જીવે ત્યાં વધારે છે કે જેએ ઉષ્ણુ વેદનાને અનુભવ કરે छे. प्रभूततर नार वोनी योनी शीत होय छे, तथा 'वे थोवतरगा जे सीय वेयण' वेदेति' ? नार व शीत वेहनानो अनुभव उरे. तेथे સ્તાકતર અર્થાત્ ઘણા ઘેાડા હોય છે કેમકે અહિંયા અલ્પતરાની ઉષ્ણુચાની હૈાય છે. 'धूमप्पभाए पुच्छा' हे भगवन् धूमला पृथ्वीना नार व शुद्ध शीत વેદનાને અનુભવ કરે છે? અથવા ઉષ્ણુ વેદનાને અનુભવ કરેછે ? શીતેશ્ર રૂપ મિશ્ર વેદનાને અનુભવ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે i - २८५ ▾ - Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ.२ सु.२० नारकाणां श्रुत्पिपासास्वरूपम् ૨૮૬ 'उसिपि वेयणं वेदेति' उष्णामपि वेदनां वेदयन्ति 'नो सोवोसिणं वेयणं वेदेति' नो शीतोष्णवेदनां वेदयन्ति, 'ते बहुतरगा जे सोयचेचणं वेदे वि' ते 'बहुतरका ये शीतवेदन वेदयन्ति बहूनामु'णपोनित्वात् ' ते धोतरगा जे उसिणवेयणं वेदेति' ते स्वोकतरा ये उष्णवेदनां वेदयन्ति अल्पउराणां शीतयोनित्वात् । 'तमाए पुच्छा' तमःमभायां पृच्छा, हे भदन्त ! तमःप्रभा नारकाः किं शीतवेदनां वेदयन्ति उष्णवेदनां वा वेदयन्ति शीतोष्णां वा वेदनां वेदयन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयवा' हे गौतम! 'सीयं वेषणं वेदेति' शीत उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोषमा ! सीतंपि देवणं वेदेति, उसिणंपि वेण वेदेति' हे गौतम । धूमप्रभा के नारक शीतवेदना का भी अनुभ वन करते हैं, उष्णवेदना का भी अनुभवन करते हैं परन्तु 'णो सीतोसि णं वेषणं वेदेति' शीतोष्णरूप मिश्रवेदाका अनुभवन नहीं करते हैं 'ते बहुतरगा जे लीयदेषणं वेदे लि' जो शीत वेदना का अनुभवन करते हैं ? ऐसे नारक जीव बहुतरक है क्योंकि यहां बहुत नारक जीवों की योनी उष्ण होती है, तथा 'ते थोयलरगा जे उणिवेदणं वेदेति' जो उष्ण 'वेदनाको अनुभवन करते हैं वे स्मोकर है क्योंकि यहां अल्पतर नारक जीवों की योनि शीत होती है 'माए पुच्छा' हे भदन्त ! तमःप्रभा पृथिवो के नैरयिक क्या शीत वेदना का अनुभवन करते हैं ? या उष्णवेदना का अनुभव करते हैं ? या शीतोष्ण वेदना का अनुभव कहते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'गोमा ! सीयं वेधणं 'गोयमा ! सीतंपि वेयग’वैदेति, उसिपि वेयण' वेदेति' हे गौतम! धूममला પૃથ્વીના નારકા શીત વેદનાને પણ અનુભવ કરે છે, ઉષ્ણુ વેદનાને પણ अनुभव रेहे, परंतु 'णो सीतोसिणं वेय्णं वेदेति' शीतोष्णु ३५ बेहनाना अनुभव उरता नथी. 'ते बहुतरंगा' जे खीयवेयण वेदेति' थे। शीत वेहना ના અનુભવ કરે છે, એવા નારક જીવા મહુતરક છે. કેમકે અહિ'યા મહુતરક लवोनी उपयोनी होय छे. तथा 'ते थोक्तरगा जे. उखिणदेयण वेदेति' જેએ ઉષ્ણવેદનાના અનુભવ કરે છે. તેએ સ્નેાકતર છે. કેમકે અહિયાં અલ્પતર નારક જીવાની ચેનિ શીત હાય છે. ‘तमाए पुच्छा' हे गलवन् तभःप्रमा पृथ्वीना नैरायेो शुं शीत वेहनाने! અનુભવ કરે છે ? ઉષ્ણુવેદનાનેા અનુભવ કરે છેકે શીતેાણુ વેદનાના અનુભવ કરે छे? या प्रश्नना उत्तर भां अलु गौतमस्वामीने हे छे ! 'गोयमा | सीय' वेयण' Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ जीवामि गम वेदनां वेदयन्ति, तमःप्रमानारकाः । 'नो उसिणं वेयणं वेदेति' नो उष्णां वेदनां वेदयन्ति 'नो सीयोसिणं वेयणं वेदेति' नो शीतोष्ण वेदनां वेदयन्ति, तमःप्रमा नारकाणां सर्वेषामुष्णयोनित्वात् योनिस्थान व्यतिरेकेण चान्यस्य सर्वस्यापि नरक भूम्यादेर्महाहिमानी तुलस्यादिति । 'एवं अहे सतनाए नारं परमपीयें' एवं तमःप्रभानारकरदेव अधः सप्तमीनारका अपि शीतामेत्र वेदनां वेदयन्ति न तु उष्ण वेदनां न वा शीतोष्णाम् नवरं शीतामपि परमशीताम् तमापृथिवीत स्वमस्तमापृथिव्यां शीत वेदनाया अतिमत्वादिति ॥२०॥ वेदेति' हे गौतम यहां के नारक शीत वेदना का अनुभवन करते हैं 'जो उसणं वेषणं वेदेति' उष्णवेदना का अनुभवन नहीं करते है और 'णो सीतोसिणं वेषणं वेदेति' न शीतोष्णरूप मिश्र वेदना का अनुभवन नहीं करते हैं। क्योंकि समप्रभा पृथिवी के समस्त नारकों की उष्ण योनि होती है यहां योनिस्थान के सिवाय अन्य और सम नरक भूमि आदि महाहिम के तुल्य होते है । 'एवं अहे सत्ताए नवरं परमसीयं तमःप्रभा नारक की तरह ही अथ सप्तमी पृथिवी के नारक भी केवल एक शीन वेदना का ही वेदन करते है । उष्णवेदना का नहीं | और न शीतोष्णरूप मिश्रवेदना का ही । यहाँ विशेष इतना है किसप्तम पृथिवी के नारकों को जो शींनवेदना का अनुभव होना है सो यह शीत तमःप्रभा पृथिवी में जो शीत है उसकी अपेक्षा बहुत अधिक होती इस पृथिवी में वहां की अपेक्षा शीत वेदना अति प्रबल है। सू०२०॥ वेदेति'डे गोतम ! त्यां ना न रहो शीन बेहनानो अनुभव रे छे. 'जो उक्षिण' देचणं' वेदे'ति' उष्यु वेढनान! अनुभव ४२ता नथी. थाने 'जो सीचोसिणं वेयण' वेदेति' શીતેષ્ણુ રૂપ મિશ્ર વેદનાને અનુભવ પણ કરતા નથી. કેમકે તમઃપ્રભા પૃથ્વીના સઘળા નારકોની ઉષ્ણુયેની હાય છે. અહિયાં ચૈાનિસ્થ નશિવાય ખીજુ બધુ જ થન એટલે કે નારક ભૂમિ સબધી ટથન મહિમાની પ્રમાણે હેાય છે. વં अहे सत्तमा नवरं परमसीय " तमः प्रला पृथ्वीना ना२४ वे प्रभा અષ:સપ્તમી પૃથ્વીના નારક જીવે પણ કેવળ એક શીત વેદનાનું જ વેદન કરે છે. ઉષ્ણુ વેદનાનેા અનુભવ કરતા નથી અને શીતેાણુ રૂપ મિશ્રવેદનાનું પણ વેદન કરતા નથી. અહિયાં એ જ વિશેષતા છે કે સાતમી પૃથ્વીના નારકોને જે શીત વેદનાના અનુભવ થાય છે તેા તે શીત વેદના તમઃપ્રભા પૃથ્વીમાં જે શીત વેદના છે, તેની અપેક્ષાએ ઘણી વધારે હાય છે, આ પૃથ્વીમાં તમઃપ્રભા પૃથ્વી કરતા શીત વેદના ઘણીજ પ્રમળ હાય છે. । . ૨૦ ૫ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.२१ नारकाणां नरकभवानुमवननिस्पणम् २८७ सम्पति-नारकाणां नारकभवानुभवमतिपादनार्थमाइ ‘इमीसे णं' इत्यादि, मलम्-इमीसे णं अंते ! स्थणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं णिरयभवं पञ्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! तेणं तत्थ णिचं भीया, णिचं तसिया, णिचं छुहिया, णिच्चं उविगा, णिच्चं उपप्पुआ, णिच्वं बहिया, णिच्चं परममसुअमउलमणुबद्धं निरयभर पच्चणुभवलाणा विहरति एवं जाव अहे सत्तमाएणं पुढबीए पंच अणुत्तरा सहइमहालया सहाणरगा पन्नत्ता तं जहा-काले१ महाकाले२, रोरुए३, महारोरुए ४, अप्पइट्टाणे५, तत्थ इमे पंच महापुरिसा अणुत्तरेहिं दंडसमादाणेहिं कालमासे कालं किच्चा अप्पइटाणे गरए गैरइयत्ताए उबवण्णा, तं जहा-राले जमदग्गिपुत्ते१, दढाऊलच्छइ पुत्ते२, वसूउवरिचरे३, सुभूमे कोरवे४, बंभदत्ते चुलणिसुए५, । ते णं तत्थ गेरइया जाया काला कालोभासा जान परमकिण्हा वणेणं पन्नत्ता, तं जहा-तत्थ वेयणं वेएंति उज्जलं विउलं जाव दुरहियासं । उलिणवेयणिजेनु णं भंते ! णिरएसु नेरइया करिसयं उसिणवेयणं पच्चणुब्भवमाणा विहरति ? गोयमा ! से जहा नामए कम्मारदारए सिया तरुणे बलवं जुगवं अपायके थिरग्गहत्थे दढपाणिपायपासपिटुंतरोरुसंघायपरिणए लंघणपवणजवणवग्गणपमद्दणसमत्थे तलजमलजुयलफलिहणिभबाहू, घणणिचिय वलियवदृखंधे चम्मेदृगदुहणमुट्ठिय समाहय णिचियगत्तगत्ते उरस्सबलसमण्णागए छेए दक्खे कुसले णिउणे मेहावी णिउणसिप्पोवगए एगं महं अयपिंडं उदगवारसमाणं गहाय तं ताविय ताविय कोट्टिय कोट्टिय उभिदिय उभिदिय चुपिणय चुण्णिय जाव एगाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उक्को Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ जीवामिगमस्ये सेणं अद्धमास वा संहणेजा सेणं तं सीयं सीईभुयं अओमएणं संदसएणं गहाय अलमारपट्रहणाए उसिणवेदणिज्जेसु गरएसु पक्खिवेजा, लेणं तं उम्लिसिय णिमिसियंतरेणं पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामि तिकट्टु पविश्यमेव पासेजा पविलीणमेव पासेज्जा पविद्धत्थमेव पासेजा गो वेव संचाएइ अविरयं वा अविलीणं वा अविद्धत्थं वा पुणरवि पच्चुरिन्तए । से जहावामत्तमायंगे दिवए कुंजरे लट्रिहायणे पढमसरय कालसमयसि वा चरमनिदाध कालसम्यति वा उपहाभिहए तण्हाभिहए दवग्गिजालाभिहए आउरे सुलिए पिपासिए दुबले किलंते एकं महं पुरखरिणि पासेजा बाउकोणं समतीरं अणुपुव्वसुजाय वप्पगंभीर सीयलजलं संघण्ण पत्तभिसमुणालं. बहुउप्पलकुमुय लिण सुभगसोगंधिय पुंडरीय महापुंडरीय सयपत्त सहस्तपत्त केसरफुल्लोवचियं छप्पय परिभुजमाणकसल अच्छविमलसलिलपुण्णं पडिहत्थगलसंतमच्छकच्छभं अणेगसउणगणमिहुणय वि रइय सदुन्नइय महुरस्सरनाइयं तं पालइ, पालित्ता तं ओगाहइ ओगाहित्ता से णं तत्थ उण्हं पि पविणेज्जा तण्हं पि पविणेजा, खुहं पि पविणेजा जरं पि पविणेजा दाहं पि पविणेज्जा णिहाएज्ज वा पचलाएज वा लई वा रई दा धिइंवा मइंवा उवलभेज्जा, सीए सीयभुए संकलमाणे साया लोक्ख बहुलेया वि विहरिज्जा, एवामेव गोयमा! असम्भावपटवणाए उसिणवेयणिज्जेहिंतो रएहितो गैरइए उबट्टिए ससाणे जाइं इमाई मणुस्सलोयंसि भवंति गोलियालिंछाणि वा सोंडियालिंछाणिवालिंडियालिंछाणि वा अयागराणि वा तंबागराणि वा तउयागराणि वा सीसागराणि वा रूप्पागराणि वा सुबन्नागराणि वा हिरण्णागराणि Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ लू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् २८९ या कुंभारागणीइ वा मुसागणी वा इह्यागणीइ वा कवेल्लुयागणी वा लोहारंबरीसेइ वा जलवाडचुल्लीइ वा गोलियांलिंछागणी वा सोडियालिंछागणीइ वा लिडियालिंछागणीह वा लागणाइ वा तिलागणीइ वा तुलागणीइ वा तत्ताई समज्जोइ भुयाई फुल्लकिं सुयमाणाई उकासहस्लाई वि निम्मुयमांणाई जालासहस्साई पमुच्खमाणाई इंगालसहरलाई पक्खिरमाणाई अंतो अंतो हुहुयमाणाई चिट्ठति, ताई पास, ताई पासिता ताई ओगाहेइ, ओगाहित्ता से णं तत्थ उपपि पविणेजा तहं पि पविणेज्जा खुद्धं पि पविणेज्जा जरंपि ( पविणेज्जा दाहपि पविणेज्जा णिद्दाएज्ज वा पयलाएज्ज वसई वा रई वा धिरं वा मई वा उवलभेज्जा, सीए सीयभुए संकसमाणे संकममाणे सायासोक्खबहुले यावि विहरेज्जा, भवेयारूवा सिया ? णो इणट्टे समट्टे गोयमा ! 1 उसिण वेयणिज्जेसु णेरएस नेरइया एत्तो अणितरियं व उसिणवेयणं पञ्चणुभवमाणा विहरंति ॥ सीयवेयणिज्जेसु णं भंते! णिरसु नेरइया केरिया सीयवेयणं पच्चणुभवमाणा विहति ? गोयमा ! से जहा णामए कम्मारदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं जाव सिप्पोवगए एगं महं अयपिंड दगवार 'समाणं गहाय ताविय ताविय कोट्टिय कोट्टिय जहन्नेणं एगाई वा - दुयाहं वा तियाहं वा उक्कोसेणं मासं वा हणेजा से णं, उसिणं उसि I भुयं अयोमपणं संपूर्ण गहाय असम्भावपटूवणाए सीयवैयणिज्जेसु नरपसु एक्खिवेज्जा, से तं उम्मिसिय निमिसियंतरेण पुणरवि पच्चद्धरिस्सामी तिकट्ट पविरायमेव पासेज्जा, तं वेव णं जाव णो चेव णं संघापज्जा, पुणरवि पच्चुद्धरित्तए, 1 -- Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जीवामिगमध्ये से णं से जहाणामए मत्तमायंगे तहेत्र जाव सोक्खबहुले यावि 'विहरेज्जा, एवामेव गोयमा! असम्भावपटुरणाए सीयवेयणहितो पोरएहितो नेरइए उबटिए समाणे जाई इहं माणुस्सलोए हलि, से जहा-हिमाणि वा हिलपुंजाणि वा हिमपडलाणि वा हिमपडलपुंजाणि वा तुसाराणि वा तुलारपुंजाणिवा हिमकुंडाणि श्रा. हिंमकुंडपुजाणि वा लीयाणि वा ताई पासइ पासित्ता ताई ओगाहइ ओगाहिता से ण तत्थ लीय पि पविणेज्जा, तण्हंपि पविणेज्जा, खुहपि पविणेजा जरंघि पविणेज्जा दाहपि पविणेज्जा निहाएज्ज पयलाएज्ज वा जाव उसिणे उसिणभुए संकममाणे संकलनाणे साया सोक्खबहुले यावि हरेज्जा, भञ्या रूवा सिया? जो इगो सट्ठ; गोयमा! सीयवेयणिज्जेसु नरएसु नेरइया 'एत्तो अणिट्रलरियं घेवसीय वेयणं पञ्च्णुभवमाणाविहरति।सू. २१॥ - छाया-एतस्यां खल भदन्त ! रत्नपमायां पृथिव्यां नैरयिकाः कीदृशं निरयम प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति गौतम ! ते तत्र नित्यं भीताः नित्यं प्रस्ता नित्य क्षुधिताः निस्यमुद्विग्नाः नित्यमुप्लुताः नित्यं वधिकाः नित्यं परममशुभमतुलमनुबद्धं निरयभवं प्रत्यनुभवन्तों विहरन्ति । एवं यावदधःसप्तम्यां खल पृथिव्यां पञ्चांनुत्तरा महन्मालया महानरकाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-कालो महाकाली रौरवो महारौरवोऽपतिष्ठानः। तत्रेमे पश्चहापुरुषा अनुत्तरैर्दण्डसमादानः कालमासे कालं कृत्वाऽमलिष्ठाने नरके नैरयिकतया उत्पन्नाः, तद्यथा-रामो जदग्निपुत्र:१, -ढायुः लच्छकिपुत्रः २, वसुः उपरिचरः ३, सुभूमः कौरच्या ४, ब्रह्मदत्तश्चुलनी 'मुनः ५, ते खलु तत्र नैरयिका जाता: काळा: कालावभासा यावत परमकृष्णा वर्णेन प्राप्ताः, तद्यथा-ते खलु तत्र वेदना वेदयन्ति उज्ज्वलां विपुलां यावद् दुरघिसद्याम् । उष्णवेदनीयेषु खलु भदन्त ! नरकेषु नैरयिकाः कीदृशीमुष्ण वेदना प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ? गौतम ! स ययानामकः कर्मकारदारकः स्यात् तरुणो वळनान् युगवान् अल्पालङ्का स्थिराग्रहस्तः दृढपाणिपादपार्थ पृष्ठान्तरोरुसंघात्परिणत: लवन प्लवनजवनवर्गणपमर्दनसमयः, तलयमलयुगल परिघनिभवाः ।हुः घननिचित बलिसवृत्तस्कन्धः, चर्मेष्टक द्रघणमुष्टिका समाहतनिचितगाप्रगात्रा, Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S , प्रमेययोतिका टीका प्र. ३. उं. २ ३.२१ नारकार्णा नरकभंवानुभवननिरूपणम् २९१ औरसबलसमन्वागनः छेको दक्षः मष्ठः कुशलो निपुणः सेधावी निपुणशिल्पोपगतः, एक महदयःपिण्डदारकानं गृहीला तं खापयित्वा तापयित्वा कुट्टशि कुंवा उद्योद्भिद्य चूर्णयित्वा चूर्णयित्वा यावदेकाद्वहं वय वा उत्कर्षेण अर्द्धमासं वा संहन्यात्, अथ खल तं शीतं शीतीभूतमयोमयेन संदेशन गृहीत्वा असद्भाव प्रस्थापनया उपवेदनीयेषु नरकेषु प्रक्षिपेत् स खलु तम् उन्म निमिषितान्तरेण पुनरपि मृत्युद्धरिष्यामीतिकृत्वा मतिरमेव पश्येत् हवा. प्रविलीनमेव पश्येत् प्रविध्वस्तमेव पश्येत् नैव खल शक्नुयात्, अवितरं वा अत्रिलीनं वा, विध्वस्तं वा पुनरपि प्रत्युद्धर्तुम् । स यथा वा मत्तमातङ्गः द्विपकः कुञ्जरः ष्टिहायनः प्रथमशरत्कालसमये वा, चरमनिदाघकालसमये वा, उष्णाभिहतः तृषाभिहतो दावाग्निज्वालाहिता आतुर शुषितः पिपासितो दुर्वका क्लान्तः, एकां महतीं पुष्करिणी पश्येत् चतुष्कोणां समवीरा मानुपूज्य सुजातवमगम्भीरश्री तक जलाम् संछन्नपत्रविमृणाला, बहूत्पलकुमुदन लिनसुभग सौगन्धिकपुण्डरीकं महापुण्डरीक शतपत्रसहस्त्रपत्रके सरफुल्लोपचिताम् पट्पदपरिभुज्यमानकसलाम् अच्छविमलसलिल पूर्णाम् पडिइत्यभ्रमन्मत्स्य कच्छपासू अनेक शकुन गण मिथुन कविरचित शब्दोन्नतिक मधुरस्वरनादिवा, सां पश्यति तां दृष्ट्वा तामवगाहेत, अवगाद्य स खलु तत्रोष्णमपि प्रविनयेत् तृषामपि प्रचिनयेत् क्षुधामपि प्रचिनयेत् ज्वरमपि विनयेत् दाहसपि प्रविनयेत् निद्रायेत वा प्रचलायेव वा स्मृर्ति वा रति वा धृति वा मर्ति वा उपलभे शीतः शीतीभूतः संक्रामन् संक्रामन् सावासौख्यबहुलचापि विहरेत्, एवमेव गौतम ! सद्भाव प्रस्थापनमा उष्ण वेदनीयेभ्यो नरकेभ्यों नैरयिक उद्वृत्तः सन् यानि इसानि मनुष्यलोके भवन्ति, नौडिकालिछानि वा शौंडिकालिछानिवा, लिण्डिकालिछानिवा, अय आकरा इति वा, ताम्रांकरी इति वा, पुकारा इति वा, सीसकाकरा इति वा, रूप्या करा इति वा सुवर्णाकरा इति वा हिरण्याकरा इति वा काराग्निरिति वा, मुषाग्निरिति वा इष्टकाग्निरिति वा कवेलुकानिरिति वा कोइकाराम्बरीष इति वा यन्त्र पाकचुल्लीरिति वा, गौडिकालि-, छानिरिति वा क्षौण्डिकलिंछाग्निरिति वा, लिण्डिकालिंछाग्निरिति वा नलाग्निरिति बा, तिलाग्निरिति वा, तुपाग्निरिति वा ततानि समज्योतिर्भूतानि फुल्लकिंशुकसमानानि उल्कासहस्राणि विमुच्यमानानि ज्वालासहस्राणि प्रमुच्यमानानि अङ्गार सहस्राणि मविक्षरन्ति अन्तरन्तहूहूयमानानि तिष्ठन्वितानि पश्यन्ति । तानि दृष्ट्वा तानि अवशात तानि अवमाद्य स खलु तत्रोष्णमपि प्रविनयेत् क्षुधामपि प्रविनयेत् ज्वरमपि प्रविनयेत् दाइयपि भविनयेत्, निद्रायेत वा, पचलायेतं वा स्मृति वा रति वा धृतिं वा मति वा उपलभेत शीतः शीतीभूतः संक्रामन् संक्रामन् साता " Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ जीवामिगमक्ष सौख्यवहुळश्चापि विहरेत् । भवेदेत दूपा स्याद ? नायमर्थः समर्थः गौतम ! उष्ण वेद. नीयेषु नरकेषु नैरपिका इतोऽपि अनिष्टतरामेव उष्णवेदनां मत्यनुमवन्तो विहरन्ति शीतवेदनीयेषु खलु मदन्त ! निरयेषु नेरयिकाः कीदृशीं शीत वेदना प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ? गीतम! स यथानामकः कर्मकारदारकः स्यात् तरुणो युगवान् वळचान यावत् शिल्पोपगतः, एकमहान्तमयः । पिण्ड दफार समानं गृहीत्वा तापयित्या तापयित्वा कुट्टयित्वा कुट्टयित्या जघन्येन एकाहं दा द्वन्यहं वा व्यहं वा उत्कर्षण .मासं वा दन्यात् स खलु तम् उमाष्णीभूवमयोमयेन संदेशन गृहीत्वा असदभाव प्रस्थापनया शीतवेदनीयेषु नरकेषु पक्षिपेत् स तमुन्मिपितनिमिपितान्तरेण पुनरपि मत्युद्धरिष्यापीति कृत्वा पवितरमेव पश्येत् तमेव खलु यावत् नैव खल्ल शक्नुयात् पुनरपि प्रत्युद्धर्तुम् स खलु स यथा नामको मत्तमातमः तथैव यावत् माग्व्य बहु आपि विहरेत् । एवमेव गौतम । असद्भाव मस्थापनया शीतवेदनीयेयो नरके. भ्यो नैरयिक उद्धृत्तः सन् यानीमानि इहमनुष्य कोकेषु भवन्ति तद्यथा हिमानि का-हिमपुञ्जानि वा हिमपटलानि वा हिमपटलपुतानि वा तुपाराणि वा तुपारपुञ्जानि वा हिमकुण्डानि वा हिमण्ड पुञ्जानि तानि शीतानि वा तानि पश्यति दृष्ट्वा वानि अवगाहते अवगाह्य स खल तत्र शोतमपि प्रविनयेत् तृपामपि प्रविनयेद श्यामपि मविनयेत् ज्वरमपि मविनयेन दाहमपि मविनयेत् निद्रायेतवा पचलायेत वा-यावर उष्णः उष्णभूतः संक्रमन् शातासौख्यवहुलश्चापि विहरेत् । मवेदेतपा स्यात् ? नायमर्थः समर्थः। गौतम ! शीत वेदनीयेषु नरकेषु नरयिका इतोऽपि अनिष्ट सरामेव धीतवेदनां प्रत्यनुमवन्तो विहरन्ति ।मू० २१॥ , टीका--'इमीसे णं, भते । एतस्यां खल भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नभायां पृथिव्याम् । नेरइया' नैरयिक जीवाः 'केरिसयं णिस्यमवं' कीदृशंकिमाकारक नैरयिकभवम् 'पच्चणुव्मवमाणा' प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक वेदयमानाः अय सूत्रकार नारक जीवों के नारकभव का अनुभव प्रतिपादन करते 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरच्या केरिसयं' इत्यादि २१ टीकार्थ-गौतम ने प्रभुश्री ऐसा पूछा है-'इमीसे णं भंते !' हे अदन्त ! इस रत्नप्रभा पृधिवी में नरयिक जीव 'केरिसय गिरयभवं' - હવે સૂત્રકાર નારક જીના નારકભવના અનુભવનું પ્રતિપાદન કરે છે 'इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसय' ईत्यादि ___ -गीतभस्वामी प्रभुने मे ५च्यु छ है 'इमीसेण भंते !' 8 भगवन् स २नला पृथ्वीमा नैरपि । 'केरिसय णिरयभव' वा 48 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेयद्योतिकाटीका प्र.३ ७.२ ७.२१ नारकाणा नरकयानुभवननिरूपणम २९३ हरन्तीति-तिष्ठन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे तिम! 'तेणं तत्थ णिच्च भीता' ते खलु नारका स्तत्र-रत्नप्रभानरके नित्यम्वकाले क्षेत्रस्वभावज महानिविडान्धकारदर्शनतो भीताः सर्वतः समुपजात कृत्वात् । तथा-णिञ्च तसिया' नित्यं प्रस्ताः नित्यम्--सर्वकालं क्षेत्रस्वभावम हानिविडान्धकारदर्शनतस्त्रस्ता:-अतिशयेन भयमीता:-परमधार्मिकदेव परस्पदीरित दुःखसंपातभयात् त्रासमुत्पन्नाः । तथा-'णिच्चं छुहिया' नित्यं सर्च लं क्षुधिता:-क्षुधया व्याप्ताः। तथा-'णिच्चं उचिगा' नित्यं सर्वकालमुग्नाः परमाधार्मिकदेव परस्परोदीरित दुःखानुभवतः तद्गतावासपराङ्मुख. वत्ताः तथा-'णिच्च उपप्पुआ' नित्यं-सर्वकालम् उपप्लुता उपालवेनोपेता कस प्रकार के होकर नैरपिक अब का 'पच्चणुभवमाणा विहरंति' अनुभव करते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'गोयमा ! तेणं तत्थ गच्च भीता' हे गौतम ! वे नारक वहां नरक में सर्वदा भयभीत होकर त्रि स्वभाव से जन्य महागौढ अन्धकार के देखने से चारो ओर शङ्का क्त होकर-तथा-णिच्चंतसिता' सर्वदा क्षेत्र स्वभाव से जन्य अन्धकार के देखने से घबडाये हुए होकर अथवा-परमाधार्मिक देवों के परा आपस में एक दूसरे के पूर्वभवीय वैरो को प्रकट करने के कारण 'दला लेने 'रूप कष्टो के आने से दुखित होकर तथा-'णिच्चं इहिया' सर्वदा भूख से पीडित होकर 'पिच्चं उब्बिग्गा' सर्वदा द्विग्न होकर-खेद खिन्न होकर-परमाधार्मिक देवों द्वारा आपस में [द कराये गये पूर्वभवों के वैरों के कारण एक दूसरे के आवास से राहमुखचित्त होकर नित्य 'उपप्पुआ' उपद्रव युक्त होकर उस णिच्चं २॥ धन नरथि अपना 'पच्चणुभवमाणा विहरति' अनुभव ४२ छ, मा प्रशन उत्तरमा असु गीतमस्वामीन छ । 'गोयंमा ! ते णं 'तत्थ, णिच्च भौता' है. गौतम! नार? त्यां न२मा सही मयलीत यधने क्षेत्रमाथा થવા વાળા મહા ગાઢ અંધકારને લેવાથી ચારે બાજુની શંકા યુકત યઈને तया 'णिच्चं तसिता' सहा क्षेत्रमाथी थवावाणामधाराने नेपाथी - કરાયેલા થઈને અથવા પરમધામિક દેવે દ્વારા પરસ્પર એક બીજાના પૂર્વભવ ના વેરેને પ્રગટ કરવાના કારણે બદલે લેવા રૂપ દુખે આવવાથી દુઃખિત 'न तथा ‘णिच्चं छुहिया'मेशा भूमया पीछन जिच्चं उब्विग्गा सही ઉદ્વિગ્ન થઈને અર્થાતું ખેદ ખિન્ન થઈને પરમધાર્મિક દેવે દ્વારા પરસ્પર યાદ કરાવવામાં આવેલ પૂર્વભવના વેરના કારણે એકબીજાની રહેઠાણથી પરાક भुम यित्ता ७२ नित्य 'उपप्पुआँ उपद्रवाया थने 'णिच्चं परमम Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमको ने तु ईपदपि मुखमासादयन्ति । तथा-'णिच्चं वहिया' नित्यं वधिकाः, तथा'णिच् परममसुभमउलमणुबद्धं नित्यं-सर्वकालम् परममशुभमतुलम्-अशुभत्वेन अनन्यसदृशमसाधारणम् अनुबद्धम् अशुभत्वेन निरन्तरमुपचितम् एतारषा 'निरयमवं' नारकमवम् पच्चनुभवमाणा' प्रत्यनुमवन्त:-प्रत्येक वेश्यमाना 'विहरंति' निहान्ति-तिष्ठन्ति । एवं जाव' एवं यावत् यारपदेन परामभात आरभ्य सप्तम नरकपर्यन्तमेव दुःखं प्रत्यनुभवन्तो नारकास्तिष्टन्ति श्वासप्तम्या च क्ररकर्माणः पुरुषा उत्पधन्ते नान्ये उत्पधन्ते तदेव दर्शयति-'भो सतमाए णं पुढवीर' अधःसप्तम्यां पृथिव्याम् 'पंच अणुत्तरा' पञ्चानुत्तरा अतीपदुःसानुभये उत्कृष्टाः 'महति महाकया महाणरगा पन्नत्ता' महन्महाळया महानरकाः प्राप्ताः परममसुभम उलमणुषद्धम्' हमेशा परम अशुभरूप एवं जिसकी तुलना नहीं हो सकती ऐसे अनुपद्ध-निरन्तर परम्परा से ही अशुभ रूप से चले आये हुए 'निरयमवं' नारक के भवको 'पच्चणुभव माणो विहरंति' भोगते हैं। 'एवं जाव अहे सत्समाए णं पुढवीए' इसी प्रकार से नारक जीय द्वितीय पृथिवी से लेकर सप्तम पृथिवी तक के नरकावासों में नारक के भक्ष को भोगते हैं। अध: सप्तमी पृथिवी में जो मनुष्य सों स्कृष्ट प्रकर्ष प्राप्त कर कर्म करते हैं वे ही उत्पन्न होते हैं अन्य जीव नहीं। यही बात सूत्रकार ने 'अहे सत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महति. महालया महाणरगो पन्नत्ता' इस सूत्रपाठ द्वारा स्पष्ट की है अध: सप्तमी पृथिवी में पांच ही अनुत्तर महानरक है ये बहुत ही विशाल हैं। यहां पर नारफ जीव थाहुत ही अधिक दुःखों का अनुभव करते हैं। सुभम उलमणुबद्धम्' मेय ५२भ अशुभ ३५ भने न तुलना - Azती નથી એવા અનુબદધ નિરંતર પરમ્પરાથી જ અશુભ પણાથી આવેલા 'निरयभव' ना२४ सपने 'पच्वणुभवमाणा विहरति' सागवे छे, 'एष जाव 'अहे सत्तमाए f पुटवीर' मा प्रमाणे ना२४ वे भी पृथ्वीथी धन સાતમી પૃથ્વી સુધીના નારકાવાસોમાં નારકના ભવને ભગવે છે. . ' ' અધઃસપ્તમી પૃથ્વીમાં જે મનુષ્ય સ ષ્ટ પ્રકર્ષ પ્રાપ્ત ક્રૂર કર્મ કરે છે; એ જ ઉત્પન્ન થાય છે. બીજી જીવે ત્યાં ઉત્પન્ન થતા નથી. એ જ વાત सूत्रधारे 'अहे सत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुचरा महतिमहालया महाणरगा पन्नत्ता' આ, સત્રપાઠ દ્વારા સ્પષ્ટ કરેલ છે. અધસપ્તમી પૃથ્વીમાં પાંચ જ અનુંત્તર મહાનરક છે, તે ઘણાજ વિશાળ છે. ત્યાં નારક જીવે ઘણા મેટા દુઃખને अनुभव ४२ छ, त अनुत्तर महानीना नामी मा प्रभारी छ. 'काले' -१ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् २९५ कथितार, 'तं जहा तद्यथा-'काले' काला-काकनामको महानरकः, 'महाकाले महाकाळनामको महानरका, 'रुरुए गैरवनामकः 'महारुरुए' महारौरवनामकर, मे चत्वारो नरकाः समस्तमाप्रमायाः सप्तम्यात दिक्षु वर्तन्ते, मध्येतु अपतिकाणे पाविष्ठाननामको महानरको विद्यते । 'तस्थ' तत्र-अपतिष्ठाननामके महानरके 'इमे वक्ष्यमाणस्वरूपा वक्ष्यमाणनामधेयाश्च 'पंचमहापुरिसा' पञ्चमहापुरुषाः "मणुत्तरेहि' अनुत्तरी सर्वोत्कृष्ट प्रकर्षमाप्तैः 'दंडसमादाणेहि' दण्डसमादान: समादीयते कर्म एभिरिति समादानि कर्मोपादानहेतवा दण्डाएव-मनोदण्डादयः 'प्राणव्यपरोपणाध्यवसायरूपाः समादानि इति दण्डसमादानि, दैर्दण्डसमादान: "काळमासे कालं किच्चा' कालमासे कालं कृत्वा 'सस्थ अपरतिद्वाणे नरए' अपतिः .ष्ठ ननामके नरके 'नेरइयत्ताए' नैरस्कितया उत्पन्नाः। के ते पश्चोत्पन्नास्ववाहइनके नाम हैं 'काले १, काल २, 'महाकाले' महाकाल 'रोरुए ३, रौरव 'महारोहए' ४, महा रौरव और 'अप्पाहाणे' ५, अप्रतिष्ठान' इनमें यह अप्रतिष्ठान नरक सातवी पृथिवीं के मध्य में है और काल आदि चार - महानरक उसकी चारों दिशाओं में हैं। सातवी में ये वक्ष्यमाण स्वरूप वाले 'पंचमहापुरिसा' पांच महा पुरुष 'अणुत्तरे' अनुत्तर-जिन से अधिक और दण्ड समादान नहीं हो सकते हैं ऐसे 'दंडसमादाणेहि' 'दंडसमा दानः' मन दण्ड समादानों के प्रभाव से अर्थात् कर्मों की सर्वोत्कृष्ट स्थिति और सर्वोत्कृष्ट अनुभागबंध कराने वाले प्राणि हिंसा आदि के अध्यवसाय रूप कारणों के प्रभाव से 'कालमासे कालं किच्चा' मृत्यु के अवसर पर मरण करके 'तत्थ अप्पतिट्ठाणे' उस अप्रतिष्ठान नाम के निरकावास में उत्पन्न हुए हैं । तात्पर्य कहने का यही है कि सातवी पृथि स, 'महाकाले २. महा 'शेरुए' ३ शै२५ 'महारोरुए' ४ महाराष अपइटाणे'५ अप्रतिहान-माभासा मतिन न२४ सातमी पृथ्वीना मध्यमा છે. અને કાલે વિગેરે ચાર મહા નરકે તેની ચારે દિશાઓમાં છે. સાતમી धामा-भावामा भावना२ २१३५ पास 'पंचमहा पुरिसा' पाय महा .''३५ 'अणुतरे' भनुत्तर मेट नाथी पधारे भी न खाय पा 'द उपमादाणेहि' दडसमादानैः' ते 3 समानाना प्रमाथी अर्थात् કર્મોની સંસ્કૃષ્ટ સ્થિતિ અને સર્વોત્કૃષ્ટ અનુભાગબંધ કરાવવાવાળા પ્રાણિહિંસા गरेना मध्यवसाय ३५ ॥२॥ना प्रमाक्या 'कालमासे काल किच्चा भुत्यु नमसरे भरण पाभान 'तत्थ अप्पइदाणे' मप्रतिष्ठान नामनी नवास भां- Sपन्न यया छ:- . . * આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે સાતમી પૃથ્વીની આ અપ્રતિષ્ઠાને નામ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ जीवामिगम 'हां' तद्यथा- 'रामे जमदग्निवृत्ते' रामो जमदग्निपुत्रः परशुराम इत्यर्थः 'द कछपुते' एढायुः लच्छातिपुत्रः उपरिचरे' वसुः-दराजा उपरिचरःराजादि देवताधिष्ठिताकाशस्फटिक सिहासनोपविष्टः सन् भाकाशेष्फटिकमय स्व सिंहासनस्याददर्शनतो लोकेष्वेवं प्रसिद्धिमंगमत् संस्यवादी रमेष राज प्राणात्ययेऽपि लोकं न आपते ततः सत्यावर्जितदेवाकृत मातिहार्यः परिआकाशे चरतीति स च कदाचित् काळान्तरे हिंस्रवेदार्थमरूपकस्य पर्वतस्य पमश्री के इस अप्रतिष्ठान नाम के नरकावास में ही मनुष्य जाते हैं कि जिनके मन वचन और काय की प्रवृत्ति रात दिन संक्लिष्ट बनी रहती है प्राणियों के प्राण देने आदि कुकृत्यों में जो रात दिन त्रियोग त्रिरण द्वारा निरत रहते हैं ऐसे मनुष्यों को ही उनके वे कर्तव्य कर्मो को उत्कृष्ट स्थिति की और अनुभागबन्ध का धन्ध कराते हैं फिर वे मरण कर नारके रूप से उत्पन्न होते हैं । अप्रतिष्ठान महानरक में जो पांच 'महापुरुष उत्पन्न होते हैं उनके नाम इस प्रकार से हैं- 'रामे जमदग्गिते' जमदग्नि का पुत्र राम - परशुराम 'ढाऊलच्छ पुत्ते' लच्छाति पुत्र दृढायु 'वसु उवरिचरे' उपरिचर वसुराज 'सुभूमे कौरव्वे' कौरव्य सुभूम और "भदन्ते चुलणी सुते' चुलनी का पुत्र ब्रह्मदत्त वसुराजा के विषय में ऐसा कथानक हैं कि वसुराजा जिस स्फटिक के सिंहासन पर बैठता • था वह आकाश के जैसा बिलकुल शुभ्र था और देवताधिष्ठित था अतः देखने वालों को ऐसा लगता था कि वह वसुरोज सत्य के प्रभाव से }' 1 ના નરકાવાસમાં એ જ મનુષ્યેા જાય છે. કે જેના મન, વચન અને કાયાની : પ્રવૃત્તિ રાતદિવસ સક્લિષ્ટ બની રહે છે. પ્રાણિયાના પ્રાણે લેવા વિગેરે કુલ્યામાં જે રાત દિવસ ત્રણુ ચેગ અને ત્રણ 'કરણ દ્વારા પ્રવૃત્ત રહે છે એવા મનુષ્યને જ તેના તે કન્ય કર્મોની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિના અને અનુભા ગ બંધના બધ કરાવે છે તે પછી તેઓ મરીને નારકપણાથી ઉત્પન્ન થાય છે, ઋપ્રતિષ્ઠાન નામના મહાનરકમાં જે પાંચ મહા પુરૂષા ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ ना नाभी था प्रभा] है. 'रामे जमदग्निपुत्ते शुशुभ 'वढाउ_लच्छइपुत्ते' सरछातिने। पुत्र दृढायु " बसु उवरिषरे'- उपस्थिर वसुरा 'सुभूमे कौरव्वे' गैरव्य सुश्रूम ने वभदत्ते चुळणी- सुते' युद्धनी। પુત્ર પ્રદત્ત. વસુરાજાના સંબધમાં એવી કથા છે કે વસુરાજાએં સ્ફટિકમા સિંહાસન પર બેસતા હતા તે આકાશના જેવું એકદમ ફેર્ક હતુ, અને દેવતાઓથી યુક્ત હતુ. જેથી જેવાવાળાઓને એવું લાગતુ હતુ કે તે વસુરાજા भाग्निना पुत्र रामप " 1 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ २.२१ नारकाणां नरकभवानुभयननिरूपणम् २९५ मिगृह्य सम्यग्दृष्टेनारदस्य पक्षमनभिगृह्णन्. अलीकवादित्वात् प्रकुपित देवताः जपेटाइतः सिंहासनाव परिभ्रष्टो रौद्रध्यानमभिरूढः सप्तम पृथिव्यामप्रतिष्ठान नामकनरकं पाप्तवान् इति । 'छु)में कौरव्वे सुभूपः कौरव्यः 'वंमदत्ते चुलणी मुए' ब्रह्मदत्तश्चूजनीसुतः। तेणं तस्य णेरइया जाया' ते खलु परशुरामादयः तत्राप्रति ठाननाम के नरके नैरयिका जाताः, 'काला कालोमासा जाव परमक्किण्हा वण्णेणं आकाश में अधर यैठा है क्योंकि यह जनता में सत्य वादीरूप से मसिद्ध सा जनता इसे ऐसा ही समझती थी कि यह प्राण भले ही चले जावें पर • असत्य नहीं बोलता है इसने अपने सत्य के प्रभाव से देवताओं को भी जीत लिया हैं इसलिये इनके सिंहासन आकाश में अधर रहते थे। एक समय की बात है कि पर्वत और नारद में अज शब्द को लेकर विवाद छिउ गया पर्वत अज शब्द का अर्थ बकरा करता था और नारद अज . शब्द का अर्थ तीन वर्ष का पुराना धान्य करता था। जब उसके पास मज शब्द के अर्थ का निर्णय कराने के लिये दोनों पहंचे तब चलने भी अज शब्द का अर्थ बकरा रूप पर्वत के पक्षका ही समर्थन किया एवं सम्यग्दृष्टि नारद के पक्षका तिरस्कार किया पर्वत का असस्पक्ष ब्रहपा करने के कारणे देवता ने उसे असत्य वादी जानकर थप्पड़ों से पीटा और सिंहासन से नीचे पटक दिया तो वह रोद्र ध्यान से सरकार सात. वों पृथिवी के अप्रतिष्ठान नाम के नरक में नारकी की पर्याय से उत्पन સત્યના પ્રભાવથી આકાશમાં અદ્ધર બેઠેલા છે. કેમકે તે વસુરાજા લોકોમાં , સત્યવાદી તરીકે પ્રસિદ્ધ હતું. જોકે તેને એમજ સમજતા હતા કે પ્રાણ જવા છતાં પણ આ વસુરાજા જડું બેલતા નથી. તેણે પિતાના સત્યના પ્રતાપથી દેવને પણ જીતી લીધા હતા. તેથી તેઓ આ વસુરાજાના સિંહાસન ને આકાશમાં અદ્ધરજ રાખતા હતા. એક વખતે પર્વત અને નારદ બંનેને “અજ' શબ્દની બાબતમાં વિવાદ ઝઘડે ઉત્પન્ન થયે, પર્વત અજ શબ્દને અર્થ બકરો એ પ્રમાણે કરતો હતો, અને નારદ “અજ' શબ્દનો અર્થ ત્રણ વર્ષનું જુનું ધાન્ય નામ અનાજ એ પ્રમાણે કરતા હતા જ્યારે આ બને અ” શબ્દના અને નિર્ણય કરાવવા માટે વસુરાજા પાસે આવ્યા ત્યારે વસુરાજાએ પણ “અજ' શબ્દને અર્થ બકરા રૂપ પર્વતના પક્ષનું જ સમર્થન કર્યું. અને સમ્યગ્દષ્ટિ એવા નારદના કથનનો તિરસ્કાર કર્યો. પર્વતના અસત્પક્ષ ગ્રહણ કરવાના કારણે દેવોએ તેને અસત્યવાદી સમજીને થપ્પડ મારી અને સિંહાસની નીચે ફેંકી દીધા તેથી તે રૌદ્રધ્યાનથી મરીને સાતમી Sીના અપ્રતિષ્ઠાન નામના નરકમાં નારકીના પર્યાયથી ઉત્પન્ન થયે. આ બધા जी० ३८ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " २९८ जीवामिगमसूत्रे पन्नचा' काळा काळामासा यावत् परमकृष्णा वर्णेन प्राप्ताः कथिताः, अत्र घावत्पदेन ' गभीरलोम हरिसजणणा, भीमा, उत्तासणचा ' हत्येपी संग्रहः । गम्भीर छोइननाः, सीमा, उत्त्रासनाः इतिच्छाया । काला, कृष्णा, काला अपि केचित् पूर्णतया काला न भवन्तीत्यत आह-काळामासा : - कृष्णकान्ति फलिताः, गम्भीरलोमजना गम्भीराथ ते भीषणस्वाद रोमहर्षजननाः रोमा वोत्पादकाचेति लोमष्टर्पजननाः, तत्र हेतुमाह-भीमाः भयङ्कराः, अतएव उत्यास नफा: उत्नासजनका इति । 'तं जहा ' तद्यथा - नरकगत वेदनास्वरूपं यथा- 'ते ate' ते परशुरामादयः तत्राप्रदिष्ठाननाम के नरके 'वेयणं वेदे 'ति' वेदनां वेद' यन्ति, कीदृशीं वेदनां वेदयन्ति तत्राह - 'उज्जलं ' इत्यादि, 'उज्जलं' उज्ज्वला दुःखरूपतथा जाज्वल्यमानाम् 'विरलं' विपुकां मकलशरीरव्यापितया विस्तीर्णाम् हो गया ये सब नारक जीव वहां कृष्ण वर्ण वाले उत्पन्न हुए यहां 'काठे कालोमा जाव परलकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता' यहां यावत्पद से 'गंभीर लोरि जणणा भीमा उत्तामणिय' इन पदो का ग्रहण होता है अर्थात् वे वर्ण से काले होते हैं वे मात्र पाले ही नहीं उनकी कांति भी काली होती है भीषण होने से उनको देखते ही शरीर में रोमाञ्च खडे होने लगते हैं क्योंकि वे भीम भयजनक होते हैं इसी से वे देखने वालों को उत्त्रास उत्पन्न करने वाले होते हैं। वे वर्ण से परम अन्य कृष्ण वर्ण वाले कहे गये हैं । 'तद्यथा' वहां की वेदना इस प्रकार की होती है- उन परशुराम आदिको ने उज्ज्वल आदि वक्ष्यमाण विशेषणों वाली वेदना का अनुभवन करना होता है। इस उज्ज्वल, faye, प्रगाढ आदि वेदना के विशेषणों का अर्थ पहिले इसी प्रकरण में स्पष्ट लिख दिया गया है-जैसे -: - उज्ज्वल - दुख रूप से जाज्ज्वल्यमान, 2 नार व त्यांना वर्षावाजा उत्पन्न या. 'काले कालोभासे परम किव्हा वणेण पण्णत्ता' गडिया यावत्पथी 'गंभीरलोम हरिसजणणा भीमा उत्तास'जिया' मा होना संग्रह थयो छे अर्थात् तेथे। वाशुथी अणा होय छे. तेथे ફક્ત કાળા જ હાય છે, તેમ નહીં પણ તેએની કાંતી પણ કાળી જ હાય છે. તેએ ભીષણુ હાવાથી તેઓને જોતાંજ શરીરમાં રામાંચ ઉભા થઇ જાય છે. કેમકે તેઓ એકદમ ભયંકર ભય ઉત્પન્ન થાય તેવા હાય છે. તે વર્ષોંથી પરમ કહેતાં અત્યંત કાળા વર્ણવાળા હૈાવાનુ કહ્યુ છે. તદ્યથા’ તે આ પ્રમાણે ત્યાંની વેદના માવા પ્રકારની હોય છે. તે પરશુરામ વિગેરે એ ઉજજવલ વિગેરે વક્ષ્યમાણુ વિશેષણેાવાળી વેદનાના અનુભવ કરે છે. અર્થાત્ ભાગવે છે. આ ઉજજવલ, વિપુલ, પ્રગાઢ, વિગેરે વેદનાના વિશેષણેાના અ પડેલા આજ પ્રકરજીમાં સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. જેમકે ઉજજવલ દુઃખ રૂપે જાજવલ્યમાન, f Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उं.२.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् २९९ • प्रगाढाम् - प्रकर्षेण प्रदेश व्यापिताऽजीव समत्रगाढाम् कर्कशाभिव वर्कशास् यथा - कर्कशः पाषाणसङ्घः शरीरस्य खण्डानि त्रोटयति एवमात्मप्रदेशान् ओटपतीव या वेदया जाय सा ककेचा ताम्र, कटुकामि । कटुकाम्-पिचम कोप - परिकलितशरीरस्य रोहिणी बटुदयमिव उपयुज्यमानाम् अतिशयेनामीतिजनिकाम् परुषां मनसोऽजीव रौक्ष्यजनिकाम् निष्ठुगम् अशक्यमतीकारतया दुर्मेधा, चण्डां रुद्राध्यवसायकारणत्या तीव्राम्-अतिशायिनीम् दुःखां दुःखरूपाम् दुर्गा दुर्लभ्याम् दुरधिसामेतादृशीं वेदनासपतिष्ठाननर के परशुरामादयो वेदयन्तीति । f सम्प्रति नरकेषु उष्ण वेदनायाः स्वरूपमभिधातुमाह- 'उणिवेणिज्जेसु' इत्यादि, 'उणिवेनिज्जेसु णं मंसे ! णिरएखु' उष्णदेदनीयेषु खल भदन्त ! विपुल - सकल शरीर व्यापी होने से विस्तीर्ण, प्रगाढ मर्म देश व्यापी होने से अत्यन्त समवगाढ, कर्कश - जैसे - कर्कश पाषाण के संघर्षण से शरीर के टुकडे हो जाते हैं उसी प्रकार आत्म प्रदेशों को तोडने जैसी कटुक - पित्तप्रकोप वाले शरीर वाले को रोहिणी वनस्पति जो अत्यन्त कटु होती है उसी प्रकार अभीति जनक, पुरुष - मन में रूक्षता उत्पन्न करने वाली निष्ठुर उलका प्रतीकार न होने से दुभैच चण्ड रौद्र अध्यवसाय उत्पन्न करनेवाली तीव्र - अतिशय थाली दुःख दुःखरूप दुर्ग दुर्लवय, दुरधिसा - सहने में कठिन इस प्रकार की वेदना को अप्रतिष्ठान नरक में परशुराम आदि अनुभव करते हैं । सूत्रकार अब नरकों में उष्णवेदना का स्वरूप प्रकट करने के लिये कहते हैं - इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'उसिणवेणज्जेसु વિપુલ, સકળ શરીરમાં વ્યાપ્ત રહેવાવાળું, એટલે જ વિસ્તીર્થં પ્રગાઢ, મમ દેશમાં વ્યાસ થયેલ હાવાથી અત્યંત સમવગાઢ, કર્કશ જેમ કશ એવા પત્થરના સ ંઘષ ણુથી શરીરના ટુકડા થઇ જાય છે, એજ પ્રમાણે આત્મપ્રદેશેશને તેડવા જેવી, કટુ, પિત્તના પ્રકાપ વાળાના શરીરને રાહિણી નામની વનસ્પતિ કે જે અત્યંત કડવી ાય છે. અને તેથી તે જેમ અપ્રિય લાગે છે, તેવીજ રીતે અપ્રીતિકારક અને પુરૂષના મનમાં રૂક્ષતા ઉત્પન્ન કરવાવાળી, નિષ્ઠુર તેના પ્રતીકાર સામને થાય તેવી ન હાવાથી દુર્ભેદ્ય, ચન્ડ રૌદ્ર અધ્યવસાય ઉત્પન્ન કર.વવાવાળી, તીવ્ર :અતિશય દુઃખ રૂપ, ૬ ઠ્ઠલ ય, દુરધિસહય સહન કરવામાં અત્યંત કઠણુ આવા પ્રકારની વેદનાના પરશુરામ નરકમાં અનુભવ કરે છે. 3 વિગેરે અપ્રતિષ્ઠાન નામના હવે સૂત્રકાર નરકામાં ઉષ્ણવેદનાનું સ્વરૂપ युछे " । भाभां गौतमस्वाभीमे असुनेो ખતાવવા માટે થન કરે છે. 'उसिणवेयणिज्जेसु णं भंते ! Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमको निरयेषु 'नेरइया केरिसयं उसिणवेयण' नैरविकाः कीदृशीगणवेदनाम् 'पदणु. ज्मवमाणा विहरंति' प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येक वेद पगानाः विहरन्ति-तिष्ठन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतन ! 'से नहा नामए' स यथानामक--अनिर्दिएनामकः कश्चित् 'यम्मारदारए मिया' कर्मारदारकोलोहकारदारकः-लोहयापुर: स्यात् कीदृशः मः ? उनि दार सम्य विशेषणान्या. 'वरुणे' तरुणः - मजल मानवयाः । 'बल' बाल पान बलं शारीरिक मामयं तदम्या. स्तीति पकवान शारीरिक बलविशिष्ट इस्यथः 'जुमवं' युगवान युगं नृपमदापमादिकालः स स्वेन रूपेण विद्यते यम्य न दोपदुष्टः स युगवान् अयं भावः-कालो. पद्रवोऽपि सामर्थ विघ्नहेतुर्भवति स चास्य नास्तीति महिपत्त्यर्थ युगवानिति विशेषणम् 'अप्पायंके' अल्पाततः अपातको वा अल्पमोऽत्रागाववाचकः तव. ण भंते ! णेरइएसु' हे भदन्न ! जिन नरकों से उम्ण वेदना का अनुम वन होता है उन नरकों में 'नेरक्ष्या के ग्लियं उणिवेषणं पच्चणुमय माणा विहरंति' नरथिक जीव की उनवेदनाफा अनुभवन करते हैं? इसके उत्तर में प्रलु कहते हैं-'गोषमा! से जहाणामए फम्मारदारए सिया' हे गौतम ! जैहो योई लहार का पुत्र हो और वह 'तरणे' जवान हो 'पलव' शारीरिक सामर्थ से शुकहो 'जुगवं' स्तुपमाघम वादि काल में उत्पन्न हुआ हो 'युगवान् ऐसा कहने का तात्पर्य यह फि इसकाल में कोई उपद्रव नहीं होता है अतः उपद्रयाभाव से शारीरिक सामर्थ्य का विकास ही होता है सोपद्रवकाल में शारीरिक सामर्थ्य हा विकास नहीं होता प्रत्युन वह सामर्थ्य के विकात विन्न का हेतु ही होता हैं। 'अप्पायके' अल्प आतङ्क चालाको-अर्थात् ज्वरादि रोग से मधा णेरइएसु' मपन् रे न२ मा पहनाना अनुभव घाय छ त नरीमा 'नेरइया केरिसय' उसणवेयण पच्चगुभवमाणा विहरंति, नरथिः । ४ी ઉણ વેદનાને અનુર્ભાવ કરે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને छ, 'गोयमा । से जहा नामए कम्मारदारए सिया' से जीतम ! २ ४ सपारने पुत्र डाय भने त 'तरूणे' युपान खाय 'बलवं' शारीरि सामथ्य यी युत डाय, 'जुगव', सुषम सुपम विगेरे म पनि ये डाय, 'युगवान्' એમ કહેવાનું કારણ એ છે કે તે કાળમાં કોઈ પણ ઉપદ્રવ થતો નથી. તેથી ઉપદ્રવના અભાવમાં શારીરિક સામર્થ્યને વિકાસ થાય છે. ઉપદ્રવ વાળા સમયમાં શારીરિક સામનો વિકાસ થતો નથી. પરંતુ તે સમર્થ્યના વિકાસમાં Gिarl ३२९ ३५ सय छ 'अपाय के ४६५ भात पाणा 31य अर्थात तार Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ छू.२१ नारकागां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३०१ थाल्पः सर्वथा अविद्यमान आतङ्को ज्वरादिर्यस्य असो अल्पातकः अथवा-अप. अपगत आतङ्को रोगो यस्मात् सोऽपातङ्कः 'विरगहत्थे स्थिरी अग्रहस्तो यस्य स स्थिराग्रहस्तः 'दढपाणि पाय पास पिटुतरोरुपरिणर' दृढ पाणिपादपाच पृष्ठान्त. रोरुपरिणतः दृढानि अतिनिविडच्यापन्नानि पाणिपादपाश्च पृ ठान्तरोरूणि परिणतानि यस्य स दृढपाणिपाश्च पृष्ठान्तरोरुपरिणतः तथा-'लंघणपवणजवणंवग्गण पमहण संमत्थे' लङ्घन प्लवनजवनममर्दनसमर्थः, तत्र लंघने- अतिक्रमणे प्लवने-मनाक् पृथुतर विक्रमगति गमने कूदने था, जवने-अतिशीघ्रगती प्रमदेने-कठिनस्य बस्तुनश्चू करणे समर्थः इति लंघनप्लवनजवनमार्दनसमर्थः। तलजमळ जुगल बहुफलिहणिभवाहू' तलयमलयुगलपरिघनिमबाहुः तलेतितलौ-तालवृक्षों, तयोर्थमलयोः समकक्षोः युगलं- युगसम् तथा परिधः-अर्गलालोहसंबद्धहस्तममाणो विशालाकारो लगुडविशेपो वा, तिन्निमौ तत्तुल्यौ कठिनी पाहू-भुजौ यस्य स तथा आयत विशाल वलिष्ठ बाहुरित्यर्थः 'घणणिचिय बलियवदृखंघे धननिचित बलितहत्तस्कन्धः धनमतिशयेन निचितौ-निविडतरचयमापनी दलिताविक पालती वृत्तौ गोलाकारौं स्कन्धौ यस्य स धननिचितवलित रहित हो, यहां अल्प शब्द अभाय का पाचक शिरग्गहत्थे' जिसके दोनों हाथ दृढयाने स्थिर हो कंपन हो 'दढपाणिपाटपासपिङ्खनोरुपरिणए' जिसके पाणिपाद दोनों पार्श्वभाग और पृष्ठान्तर एवं दोनों जांघे खूच२ मजबूत हो, 'लघणपवणजव गवग्गण पमण लमत्थे जोलांघने में चतुर हों कूदने में होशियार हों, जल्दी २, चलने में मजबूत हो, कठिन से कठिन वस्तु को भी जो चूर्ण २, कर देता हो 'तलजमलजुगल पह 'फलिहणिभवाह' दो ताल वृक्ष के जैसे सरल लम्बे पुष्ट हाथों वाला 'घणणिचियबलियबट्टाखंघे' दोनों कंधे जिसके पुष्ट और गोल हो વિગેરે રોગથી સર્વથા રહિત હોય એટલે કે હમેશાં નિરોગી રહ્યો હોય અહિંયાં ४५ श५६ समापन पाय छे. 'थिरगाहत्थे' रेना भन्ने थे। स्थिर हाय अर्थात् पायमान यता न डाय, 'दढपाणिपादपासपिटुतरोपरिणए' ना या કહેતાં હાથ પાદ નામ ૫ગ બનને પડખાં અને પૃષ્ઠ ભાગ તથા બન્ને જાશે भूम भभूत है।य, "घण रवणजवणवग्गणपमद्दण समत्थे' २ धन तi કૂદવામાં સમર્થ હોય, ઉતાવળથી ચાલવામાં મજબૂત હે ય કઠણ વસ્તુને પણ જે श्रेयू२॥ ४॥ नामत हाय, 'तलजमलजुगलबहुफलिहणिभवाह' मे ताना स२१ अने तथा भुट खायावाणा हाय 'घणणिचियवलियवदृखंधे' नाम समय पुष्ट भने डाय 'चम्भेट्टगदुहणमुट्ठिय समाहय Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - जीवामिगमले वृत्तसन्धः तथा-'चम्मेगहणमुट्टिय समाहयणिचियगर गत्ते' चर्मेप्टक दुघणमौष्टिक समाहतनिचितगात्रगात्रा, तत्र चर्मेप्टकम्-इष्टकारखण्डादि पूर्णचर्म कुतुपः द्रुघणः-मुद्गरः, मौष्टिकमुष्टपरिमितं चमरज्जुपोतं पापाण गोलकादि, तैः चर्मेष्ट कद्रुघणमौष्टिकैः समाहतानि सम्यगाइतानि व्यायामसमये ताडितानि अतएव निचितानि निविडानि दृढाणि नत्राणि-अङ्गानि यत्र ताशं गात्रं-शरीरं यस्य स स चर्मेष्टकद्रुघणमौष्टिकसमाद्दतनिचितमात्रगात्रः। तथा-'उररसवलसमष्णागए' औरसवळसमन्दागतः,-उसि भवौरसम् आन्तरं यदलं-सामातिशयः, तेन समन्वागत:-समनुप्राप्त इति आन्तर सामर्थ्ययुक्त इत्यर्थः। 'छेए' छेको द्वासप्तति कलासु पण्डितः 'दक्खे' दक्षः-सार्याणामविलम्बितकारी । 'पट्टे' पष्टः-वाग्मी हितमितभाषीत्यर्थः । 'कुसले' कुशल:-सम्यक् क्रियापरिमानवान् । 'णिरणे निपुण:-चतुरः। 'मेधावी' मेधावी-परस्पराव्याहत पूर्वापरानुसन्धान दक्षः, अतएव निउणसिप्पोवगए' निपुणशिल्योपगतः निपुणं यथा भवति एवं शिल्पं क्रियासु कौशलमुपगतः प्राप्तो निपुणशिल्पोपगतः। एतादृशविशिष्टः यदि 'चस्मेहग हणमुहिय लमायणिचियगत्त गत्ते जिसका शरीर चमडे की वर्त्त के प्रहारों से मुद्गरों के प्रहारों से एवं मुष्टि के प्रहारों से खुत्र परिपुष्ट हो गया हो ऐसे पहलवान मनुष्य की तरह जिसका शरीर पुष्ट हो 'उरस्सपलसमण्णागर' जो आन्तरिक उत्तबार और घय से युक्त शे 'छेए' ७२ कलाओं में निपुण हो, 'दक्खे' कार्यों का अविलम्पकारी हो 'पट्टे' पृष्ठ-वाग्मी-हितमित भाषी हो 'कमले' कर्तव्य हार्यों का जिसे समीचीन रूप से ज्ञान हो 'णि उणे' निपुण हो "मेहावी' परस्पर में अव्याहत ऐसे पूर्वापर के अनुसन्धान करने में दक्ष हो 'णिउणसिप्पोचाए' अच्छी तरह से जिसे हर एक क्रियाओं में -- पूर्ण रूप से कुशलता प्राप्त हो चुकी हो-ऐसा वह लुहार का दारक णिचियगत्तगत्त' ने शरी२ यामाना यामुना प्रहारथी, मुद्राना પ્રહાથી અને મુષ્ટિકાઓના પ્રહારોથી ખૂબજ પરિપુષ્ટ થયેલ હોય એવા पसवान मनुष्यनी म रेनु शरीर पुष्ट छाय, 'उरस्सवलसमण्ण,गए' २ આન્તરિક ઉત્સાહ અને વીર્યથી યુક્ત હોય, “છે બોતેર ૭૨ કળાઓમાં નિપુણ -डीय दक्खे' । २पामा क्ष यतुर है।य, 'पढे' पाभी हित मने मित भाषी हाय, 'कुसळे' तव्य' नुरेने साशशते ज्ञान हाय, 'णितणे' निपुण होय, 'मेहावी' ५२२५२मा अभाव सेवा पूर्वापरतुं अनुसंधान ४२वामा 'बाय, "णिउणसिप्पोवगए' २२ १३ मा पाया पुणता प्राप्त थई यूडी खाय, वो वरना पुत्र 'एगं मह अयपिड' - घार Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.२ २.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३०३ 'एग-महं अयपिंड' एक म्हान्तमयः पिण्डम् - कियत्परिमिमित्याह-'उदगवार समाण गहाय' उदकवारफसमानं मलपूर्ण लघुघटपरिमितं गृहीत्वा-समादाय 'त' तम् अयः पिण्डम् 'ताविय ताविय' तापयित्वा तापयित्वा 'कोट्टिय कोटिय' । देतो घनेन कुट्टयित्वा कुट्टयित्वा 'उमिदिय उभिदिय' उद्भिध उद्भिध-द्विधा द्विधा कृत्वा 'चुणिय चुणिय' चूर्णयित्वा चूर्णयित्वा तस्य सूक्ष्म सूक्ष्मतरपूर्ण कस्वा 'जहन्नेणं एगाहं वा दयाहं वा; तियाई वा जघन्येन एकाई वा, द्वन्यहं थी, ज्यहं वा, 'उकोसेणं अद्धमास' उत्कर्षणाद्धमासं-पञ्चदशदिनानि यावत् 'संहणेन्जा' 'एंगं महं अयपिड' एक षडे भारी लोहे के गोले को 'उदगवार समाण गहाय जल से भरे हुए छोटे से घोडे के समान लेकर 'तं ताविय २१ उसे पार २, अग्नि में सपावे तपाकर फिर वह उसे 'कोट्टिय.कोट्टिय' बार २, हथोडे से कूट-कूटकूटकर 'उभिदिय २' जब यह चौड़ा हो जाये तब उसे काटे-काटकर 'चुणिय' २, उसका चूर्ण करें-चूर्णकर 'जन्नेणं एगाहंवा दुयाया तियाहंवा कम से कम एक दिन दो दिन और तीन दिन 'उकोसेणं' और अधिक से अधिक अद्धमास' पन्द्रह दिन-तक 'संहणेजा' इसी तरह से वह करता रहे-शर्थात् उस गोले को वह अग्नि में तपावे कूटे, चौड़ा करे, चूर्ण करे और फिर उसका गोला घनावे-इस तरह करने से वह एक बहुत ही अधिक मजबूत लोहे का गोला बन जावेगा बाद में उसे कम-से कम तीन दिन तक और अधिक से अधिक पन्द्रह दिन तक ठण्डा होने के लिये रखा 'सारे मे मना गणार 'उद्गवारत्रमाणं गहाय' पाglथी स मे नाना घानी भ ने 'तं ताविय २' तेन वारपार मनिमा तपातपावन पछी त 'कोट्रिय कोट्टिय' पार पा२ स्थाथी धूट गने तेवी रीत टीन 'उभिदियर' ब्यारे ते पाणु थर्थाय त्यारे तन मन धान 'चुणियर' तेनु यू मनावे यु मनावीन. 'जहण्णेण एगाह वा दुयाहवा तिया. हवा' माछामा माछा मे हिपस में हिस, अने तर हिवस सुधा उक्कोसेणं' म अष्टया मेटले पधारेमा धारे 'अद्धमास' ५२ हिस सुधा 'संहणेज्जा' मा प्रभाये रत। २९ अर्थात् ते सामान त सुपारने छ। અગ્નિમાં તપાવે, ફરે, તેને પહેલું બનાવે ચૂકરે અને તે પછી પાછો તેને ગોળ બનાવે આ પ્રમાણે કરવાથી તે એક ઘણે મોટે અને મજબૂત લેખંડનો ગેળ બની જશે. તે પછી ઓછામાં ઓછા ત્રણ દિવસ સુધી અને વધારેમાં વધારે ૧૫ પંદર દિવસ સુધી તેને ઠંડે પાડવા રાખી મૂકવામાં આવે. આ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे ३४ हन्यात् संहृतं कुर्यात् पुनः पण्डितं कुर्यात् 'से णं ते' स खलु तम् अयः विडम् 'सी' श्रीतम् ल च पिण्डो निष्कासनमात्रेणापि संभवेदत आह- 'सोवीभूतं शीविभूतं सर्वात्मना शीतत्वेन परिणतम् 'अयोमपणं संपूर्ण महाय' अयोमयेन प्रोदनिर्मितेन संदंशकेन तमयः पिण्डं गृहीत्वा 'असम्भावपरणार' असद्भाव' मस्थापनया असद्भावकल्पनया नैतदभूत् न भवति न भविष्यति वा केवल मस तमेव कल्प्यते इति 'उसिणं वेयणिज्जेसु नरपस्ट पक्खिवेज्जा' उष्ण वेदनीयेषु नरकेषु तमयःपिण्डं प्रक्षिपेत् । ' से णं तं' स खलु तमयःपिण्डम् 'उम्मिसियः णिमिसियंतरेण' उन्मिति निमिषितान्तरेण 'पुणरवि पच्चुद्ध रिस्तामीति कटु' पुनरपि प्रत्युद्धरिष्यामि पतितं नरके अयःपिण्डं पुनरपि निःसारयिष्यामीति 'कृत्वा यावता अन्तरेण यावता व्यवधानेन निमेवोन्मेषौ क्रियेते तावदन्तरणमा C रहने देवे- इस तरह वह बिलकुल ठण्डा हो जायेगा-ठंडा हो जाने पर फिर वह उस गोले को 'अयोमपूर्ण संदंसण' गहाव' लोहे की साडसी से पकडकर 'असम्भावपट्टदणाए' असतकल्पना से-यदि ऐसा कभी नहीं हुआ है न होगा न होता है परन्तु अपने मन की कल्पना से ऐसी कल्पना कर लेना चाहिये और उस कल्पना के अनुसार संडासी द्वारा पकडे हुए, उस लोहे के गोले को वह 'उसिणवेदणिज्जेसु नरपसु पक्खिवेज्जा' उष्ण वेदना वाले नरकों में रख देवे 'से णं तं जम्मिसिय णिमिसियतरेण' रखते समय यह ऐसा विचार कर लेवे कि में इसे अभी २, पलक मारकर उघाडते ही 'पुणरवि पच्चरिस्तामीतिः कट्ट' उठा लवंगा - इस विचार से वह उसे वहां रख देता है परन्तु निमिषोन्मेष करने के बाद ही ज्यों ही वह उसे निकालने के लिये प्रभाते मिल्स डी पडी लय त्यार पछी दूरी ते गेोजाने ' अयोमरण संसरणं गद्दाय' सोम उनी सांडसीथी पडीने 'असम्भावपट्टणाएं' अस म्हपनाथी જો કે આ પ્રમાણે કેઇ વખત થયુ' નથી, અને થશે નહી. તેમજ થતું પણ નથી પરંતુ પેાતાના મનની કલ્પનાથી એવી કલ્પના કરી લેવી જોઇએ અને तेन प्रभा सांडसीथी पाडेले ते बोउन गेलो ते 'उणि वेदणि 'जेसु नरपसु पक्खिवेज्जा' उष्णु वेदनांवाजा नारभां रावामां आवे 'सेणं त उम्मिसिय णिमिसियतरेण' अने तेवी रीते रामती वमते ते सेवा विचार ४२ है हु माने हम भट भारे तेसास 'पुणरवि पच्चु दूषरिस्सामीतिकट्टु' उठावी सशि से विचारथी ते ते गोजाने त्यां भूडी પરંતુ નિમેષેન્મેષ કર્યા પછી જ જ્યારે તે એ ગાળાને અહાર કહેાડવા Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ ५.२१ नारकाणां नरक श्वानुभवननिरूपणम् ३०५ णेन कालेनातिक्रान्तेन पुनरपि नरकादयःपिण्डं निःसारयिष्यामीति कृत्वा यावदृष्टुं मवर्तते तावत् 'पचिरायमेव पासेज्जा' वितरं प्रस्फुटितमेवायःपिण्डं पश्येत् । यदि वा 'पविलीणमेव पासेज्जा' पक्लिीनमेव नवनीतादिवत् सर्वथा गमितमेव पश्येत् यदि वा 'पविद्धत्थमेव पासेज्जा' प्रविध्वस्तमेव सर्वथा भस्मसाद्भूता, मेव पश्येत् णो चेवणं संचाएंति' नैव खलु शक्नुयात्-समर्थों भवेत् तमयापिण्ड नरकासमुद्धर्तुम् अचिरात्तम् 'अचिरायं वा अवितरम्, अपस्फुटितं का, 'अविलीण वा' अवलीनं वा 'अविद्धत्थं वा' अविध्वस्तं वा 'पुणरवि पच्चुद्ध रिसए' पुनरपि पायुद्धतुम्, तत्र सोऽयःपिण्ड उन्मेषनिमेष मात्रकालेनैव तद्गतोष्णप्रभावान्नवनीत-. मिव विलीनं भवति, एतादृशी खल्लु उष्णदेदनीयेषु नरकेषु उष्णवेदना भवतीति । देखता है कि इतने ही में वह गोला वहां 'पविरायमेव पासेज्जा' वहां टुकडे २, रूप में होता हुभा उसे दिखाई पड़ता है अथवा-वह नवनीत मक्खन आदि की तरह सर्वथा गलता पिघलता हुआ प्रतीत होता है 'पविद्धमेष पालेज्जा' अधवा-भस्मरूप अवस्था को प्राप्त हुआ वह उसे दिखाई देता है अतः बह लुहार दारक 'जो चेक्षण संचाएंति' उस अयापिण्ड लोहपिण्ड को वहां से निकालने में असमर्थ हो जाता है'अविरायबा' जल्दी से अथवा अप्रस्फुटितरूप से 'अविलीणंवा' अथिलीन रूप से अखंड रूप से-जैसा वह गोला था उस रूप से-'अविद्धत्थंवा एवं सापितरूप से 'पकचुद्धरित्तए' पुनःनिकालने के लिये उस गोले को। ऐसी उष्णवेदना उहणता वाले नारकों में हैं। तात्पर्य यह है कि वह लुहार दारक जय उस लोहे के गोले को उष्ण वेदना वाळे नरकों में निमेषो. भोट पियारे छ, earwin . त्या 'पविरायमेव पासेज्जा' त्यो ४४॥ કડાના રૂપમાં થયેલે તેને નજરમાં આવે છે. અથવા તે નવનીત કહેતાં माम विगेरेनी म सर्वथा तो पता हेमाय छे. 'पविद्ध मेव पासेज्जा અથવા તે ભરમ રૂપ અવસ્થાને પ્રાપ્ત થયેલ છે તેની નજરમાં આવે છે. તેથી ते बुखारने पुत्र णो चेवणं सचाएंति' ते मना पिउने त्यांचा ४ापामा ससमय थ य छे. 'अविराय वा' हीथा 4241 24रित ३५था 'अविलीणं वा' माविकीन साथी अर्थात् मम ३५था व ते गाणे । तपा प्रा२शी 'अविद्धत्थंवा' भने स२॥ ५gin 'पच्चुद्धरित्तए' ફરીથી તે ગોળાને કહાડવામાં અસમર્થ થાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે તે લુવારને છોકરો જ્યારે તે લોખંડના ગેળાને ઉgવેદનાવાળા નારકમાં નિમેષ માત્ર કાળ સુધીના ફાળ માટે પણ મૂકે છે, અને તેટલે કાળ जी० ३१ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे is अस्यैवास्य स्पष्टतरभावनार्थ दृष्टान्तान्तरमाए - ' से जहावा' इत्यादि 'से हावा मतमातंगे' स यथा वा मदमातृतः, अब 'से' शब्द : सफलजनमसिद्धः यथेखिष्टान्तत्वोपदर्शने, वा शब्दो विकल्पते अयं वा दृष्टान्तो विवक्षितार्थप्रति पराये ज्ञातव्य इति विषल्पभावना मत्तमातङ्ग इत्यत्र मत्तति मदवित इत्यर्थः मस्ती | अत्र पाठोऽस्यजोऽपि संभवति ततस्तदा शंकान्युदासार्थे नाना' देशजवियजनानुग्रहाय वाss- 'दिए' द्विषय:- द्वाभ्यां मुखेन करेण च वि afa face: 'मूलविभुजादयः' इतिफ प्रत्ययः । एतादृशः 'कुंजरे' कुञ्जरः बौ पृथिव्यां जीर्यतीति कुञ्जरः- अथवा कुखे वने रमते इति कुवरः 'सहिहायणे' षष्टिहायनः पष्टि:- पष्टिसंख्यका हायना वर्षाणि विद्यन्ते यस्य स पष्टिहायनः षष्टि वर्षायुकः 'पढससरयकालसमयसि वा' प्रथमशरत्कालस्मये वा शरत्काळरय ३०६ मात्र बाल तक के लिये भी रख देता है और यह उस काल के निर्गत हो जाने पर जब उसे उसी रूप में पुनः निकालने को तैयार होता है तो वह उस गोठे को उसी रूप में वरां से नहीं निकाल सकता है क्यों कि वह वहां रखते ही मक्खन के जैसा गल जाता है और पिघल जाता है इतनी अधिक उष्णता उन उष्ण वेदना वाले नरकों में हैं इसी दृष्टान्त को समर्थ करने के लिये यह दूसरा दृष्टान्त - ऐसा है-' से जहा पाए वा मत्तमातंगे' जैसे कोई मदोन्मत्त हस्ती होमाग से यहाँ चाण्डाल नहीं लेना चाहिये किन्तु - 'कुंजरे' कुंजर - गजहाथी ही लेना चाहिये इसी बात को मरुद करने के लिये 'कुंजर' शब्द का प्रयोग किया गया है- क्योंकि मातंग नाम चाण्डाल का भी है और वह मत्तमातङ्ग 'सहाणे' २० साठ वर्ष का हो और जब वह 'पढमसरयकाल समयंसिया' प्रथम शरत्काल के समय में अर्थात् પૂરા થતાં યારે તે તેને એ રૂપે જ બહાર કહાડવા તૈયાર થાય છે, તે તે એ ગાળાને એ રૂપે ત્યાંથી કહાડી શકતે! નથી. કેમકે તે ત્યાં મૂકતાંજ માખણની જેમ ગળી જાય છે, અને પીગળી જાય છે. એવી અધિક ઉષ્ણતા તે ઉજ્જુવેદનાવાળા નારકામાં છે. આ દૃષ્ટાંતને પુષ્ટ કરવા માટે બીજું દૃષ્ટાન્ત आयतां सूत्रभर हे छे ट्ठे 'से जहा नामए वा मत्तमात गे' भी મદોન્મત્ત હાથી હાય, માત’ગ શબ્દથી અહિંયા ચડાલ ગ્રહણ કરવાનેા નથી. परंतु 'कुंजरे' ०४२ त हाथी ग्रह उराय छे से वात ताववा માટે જ કુંજર શબ્દને પ્રયાગ કરવામાં આવેલ છે. કેમકે માતંગ ચાંડાળને वामां आवे छे भने ते भक्त भातंग 'संविहायणे' ६० सात वर्ष हमने न्यारे ते 'पढम सरय कालसमय सि वा' चहेता शरहू आज सभयभी Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ उं. २ झु.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३०७ प्रथमे समये आश्विनमासे इत्यर्थः इह ऋतवः सूर्यऋ1 गृह्यन्ते ते च द्विद्विमासममाणा भवन्ति, यत उक्तम्- 'एगंतरिया मासा' एकान्तरितौ मासौ एक मासमन्तरे मुक्ला द्वितीये मासे ऋतुः समाप्तिमुपैति । तथाहि - प्रथमः मांड् ऋतुर्भवति, स च एक ज्येष्ठमासमन्तरे मुक्त्वा द्वितीये आपाढमासे प्रावृड् ऋतुः समाप्तिमुपैति । तथाहि - प्रथमः मावृद, ज्येष्टापादरूपः द्वितीयो वर्षाराजः श्रावणभाद्रपदरूपः तृतीयः शरद, आश्विन कार्त्तिकरूपः चर्थी हेमन्तः मार्गशीर्ष - पौषरूपः पञ्चमो वसन्तः माघ फाल्गुनरूपः पष्ठो ग्रीष्मः - चैत्रदेशाखरूपः । तदुक्तम् - "पाउस वासारतो सरओ हेमंतदसंतनिम्हो य । एए खलु छप्पिरिक जिणवर दिट्ठामए सिट्टा ' 'प्राड् बर्षा रात्रः शरद् हेमन्तो वसन्तो ग्रीष्मश्च । एते खलु पत्र वो जिनवर दिष्टा मया शिष्टाः' इतिच्छाया' 'चरम निदाघकालसमयंसि वा' चरमनिदाघकालसमये वा, चरम निदाघकाळसमयो ग्रीष्म ऋतोरन्तिममासः - आषाढमासस्तस्मिन् चरम निदाघकालसमये आश्विनमास में यहां ऋतु शब्द से सूर्य ऋतु का ग्रहण होता है । वे दो दो मासो की होती है - जैसे कहा है- 'एतरिया मासा' एक मास के अन्तर से दूसरे मास में ऋतु समाप्त होती है । यहां पहली ऋतु प्रावृ माना गया है, वह एक ज्येष्ठ मास को छोडकर दूसरे आषाढ मास में समाप्त होता है अर्थात् पहला ज्येष्ठ आषाढ का प्रावृट् ऋतु दूसरा श्रावण भाद्रवद वर्षा ऋतु, तीसरा आश्विन कार्तिक शरत् ऋतु ater मार्गशीर्ष पौष हेमन्त, पांचवां माघ फाल्गुन वसन्त और छठा चित्र वैशाख ग्रीष्म ऋतु होता है। कहा भी है- 'पाउसवासारतो' अथवा 'चरम निदाघकालसमयंसि वा' निदाघ - ग्रीष्म ऋतु के चरम अन्तिम અર્થાત્ આસે। મહિનામાં અહિયાં ઋતુ શબ્દથી સૂર્ય ઋતુ ગ્રહણ થાય છે. मने ते सूर्य ऋतु जे सासनी हाय है, नेम! 'एग तरिया माखा' भेड માસના 'તરથી ખીજા મહીનમાં એક ઋતુ પૂરી થાય છે. અહિંયા પ્રાવૃતૢ ઋતુને પહેલી માનવામાં આવેલ છે. તે પ્રાવૃત્ ઋતુ એક જેઠ માસને છેડીને ખીજા અષાઢ માસમાં પૂરી થાય છે. અર્થાત્ જેઠ અને અષાઢ એ માંસની પ્રાવૃ ઋતુ, મીજી શ્રાવણ અને ભાદરવામાં વર્ષાઋતુ, ત્રીજી આસા અને કાર્તિક એ એ માસમાં શરતૢ ઋતુ, ચેાથી માગશર અને પાષ માસમાં હેમન્ત ઋતુ, પાંચમી મહા અને ફાગણ માસમાં વન્ત ઋતુ, અને છઠ્ઠી ચૈત્ર વૈશાખ भासभां ग्रीष्म ऋतु होय छे, छे! 'पाउस वासारचो' अथवा 'चरम निदाघकालमसिवा' निहाध ग्रीष्म ऋतुना यरभ हेतां अन्तिम समये Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ जीवामिगमहले 'उहामिहए' उष्णाभिहता- सूर्यखरकिरणयतापपरिभूतः, अतएकोष्णः सूर्यकिरणः प्रतप्ताङ्गतया शोषणभावतः 'तहासिहए' तृपाभिहतः तत्रापि पानीयगवेषणार्थमिवस्ततः स्वेच्छया परिभ्रमतः कश्चिद्दावाग्निमत्यासत्त गमनतः 'दाग्निकालाभिहतः अतएव 'आउरे' आतुरा क्वचिदपि स्वास्थ्यमलममानः सन् भाकुलः 'मुसिर' शुपितः सर्वाङ्गपरितापसंभवेन गलतालुशोपणभावात् शुपितः। 'पिवासिए' पिपासिता-असाधारणतपावेदना समुन्छळनाद पिपासितः, अत एव 'दुबले' दुर्वल: शारीरमानसावष्टम्मरहितत्वाद् बलहीना, अतएव 'किलंते' क्लान्ता-ग्लानिमुपगतः एतादृशः कुञ्जर। 'एगं म्हं पुक्खरणि' एकां महतीं पुष्करणीम् पुनरपि किं विशिष्टा तत्राह-'चाउकोणं' चतु.कोणाम् चरवारः समय में अर्थात् ज्येष्ठ मास में 'डाभिहए' धूपसे तप्त होकर-सूर्य की तीक्ष्ण प्रताप से परिभूत होकर 'तण्हाभिहए' 'प्यास से आकुल पाकुल हो जाता है-तब वह अपनी इच्छाले पानी की गवेषण करता छुआ इधर से उधर फिरने लगता है इधर-उधर फिरता हुआ वह हाथी जो जंगल में लगी हुई अग्नि से परितप्त हो चुका है,-पीडित-हो-चुको है-किसी भी तरह से जिले चैन नहीं पड रही है जिसके 'सुसिए' कण्ठ और ताल दोनों सूख गये हैं 'पिवासिए' असाधारण तृषा वेदना से जो पार वार तडफडा रहा है 'दुव्बले शारीरिक स्थिरता और मानसिक स्थिरता से जो एक तरह से रहित सा हो चुका है और इसी से जिसका शरीर किलंते' अपने शरीर के भार को वहन करने में ग्लानिका अनु 'भव करने लगा है जब 'एगं महं पुक्खरणि' एक विशाल पुष्करिणी को 'पासई' देखता है कि जिसके 'चाउकोणं' चार कोणे हे 'समतीरं' जिसकी अर्थात २४ महिनामा 'उण्हाभिहए' तपथी तपान सूर्य ना तय ताथी ५२म पाभान 'तण्डाभिहए' तरथी व्याकुल थय छे. त्या तानी ઈચ્છાથી પાણીની શોધ કરતાં કરતાં આમ તેમ ફરવા મંડે છે. આમ તેમ ફરતાં ફરતાં, તે હાથી કે જે જંગલમાં લાગેલ આગને લીધે ખૂબજ તપાય માન થયેલ છે, પીડા ૫ પે છે, જેને કોઈ પણ પ્રકારે ચેન પડતું નથી અને रना सुसिए' गणु भने त भन्ने सू या हाय, अने 'पिवासिए' असाधारण नरसनी वहनाची २ वारवार तरती २ छ, 'दुव्बले' शारी સ્થિરતા અને માનસિક સ્થિરતા વિનાને બની ગયેલ હોય, અને તેથીજ જેનું शरी२ 'किल ते' पाताना मारने पहन रखामा खानीना मनुल ४२41 सायुडाय, त अवस्थामा न्यारे 'एग महं पुक्खरणि' से मोटी ०२यीन मथात् सरोपरने 'पासई' मे छे, है न 'च उक्कोणं' या२ भूधामो छे. 'समतीर' Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रमेयोतिका टीका प्र. ३. उ. २ . २१ नारकार्णा नरकभवानुभवननिरूपणम् ३०९ 'कोणाः यस्यास्ताम् चतुष्कोणाम् 'समतीरं' समतीरम् सम-विषमोन्नतिवर्जित सुवावतारं वीरं श्टं विद्यते यस्यां पुष्करिण्यां तां समनीराम - 'आणुपुञ्च 'सुजाय गंभीर सीतलजलं' आनुपूर्व्य सुजातवमगम्भीर शीतलजलाम्-आनुपूर्व्येण नीचे नीचे तर भात्ररूपेण नतु एकहेलयैव कचिद्रर्तरूपा कचिदुन्नतिरूपा इत्यर्थः, सुष्ठु अतिशयेन यो जातो वमः - केदारो जलस्थानं तत्र गम्भीरम् अतएव शीतलं जलं यस्यां सा आनुपूर्व्यसुजातप्रमी रशीतलजला ताम् । 'संछष्णपत्त मिसमुणाले ' संछन्नपत्र बिसमृणालाम् तत्र - संछन्नानि - जलोपरि आस्कृतानि पत्र विमृणाकानि यत्र सा ताम्, इह बिसमृणालसाहचर्यात् पत्राणि पद्मिनी पत्राणि ज्ञातव्यानि, तत्र'बिसानि - कन्दाः मृणालानि - पद्मनालाः । तथा - 'बहु उप्पलकुसुदन लिन सुभगसोगंधिय पुंडरीय महा पुंडरीय सयप च सहस्त्र] पत्त के सर फुल्लोवचिय' बहुत्पलकुमुदननिसुभगसौगन्धिकपुण्डरीकमहापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्रैः केसरै:- केशरपधानैः फुरले विकशित रुपचिता इति चहूत्पलकुमुदन लिन सुभगसौगन्धिकपुण्डरीक महापुण्डरीकशतपत्र सहस्रपत्र केशरफुल्लोपचिता तां पुष्करिणी तथा-' छप्पयपरिशु ज्ञमाणकमलं' षट् पदपरिभुज्यमान कमलाम् षट् पदैर्भ्रमरैः परिभुज्यमानानि तीर विषम उन्नत प्रदेशों से विहीन है सुख पूर्वक जिससे होकर उस पुष्करणी (बावडी ) में प्रवेश किया जासकता है 'आणुपुत्र सुजायवप्पगंभीरखीतलजलं' क्रमशः जो गहरी होती गई है जलस्थान जिसका बहुत गंभीर है अत एव जिसका जल बहुत ही ठंडा हो रहा है, 'संछण्णपत्तभिसमुणालं' जिसमें कमल पत्र और मृणाल से जल ढका हुआ है 'यह उप्पलकुमुदणलि सुभगसोगंधियपुंडरीय सयपत्तसहस्स पत्त के सर फुmarati' जो विकसित अनेक उत्पलों से अनेक कुमुदों से अनेक नलिनों से सुन्दर और सुगन्धित अनेक पुण्डरीकों से, अनेक महापुण्डरीकों से और शतपत्रसहस्रपत्रों के प्रफुल्लित केशरों से युक्त हो જેના કિનારાએ ઉન્નત પ્રદેશેા વિનાના અર્થાત્ સમ સરખા હાય, કે જે પુષ્કરિણી (बाव)नी अंडर प्रवेश ४२वा सूज पूर्व ४ ४४ शाय, तेवा होय तेभन' 'आणुपुत्र सुजा यवगभीरसीतलजल' उभश: ? उडी थती गई होय मने स સ્થાન જેવું ઘણુંજ ગંભીર અર્થાત્ ઉંડુ છે, અને તેથી જ જેનુ પાણી ઘણું ड्डु र हेतु होय, 'स'छण्णपत्तभिसमुणाल' लेनी हरतु पाथी उस पत्र मने मृषावधी हा रघु होय, 'बहु उप्पलकुमुदण लिणसुभगसोगं धियपुंडरीय महापुरंदरीय स्वयपत्तसहस्वपत्त के सरफुल्लोवचिय' ? पीसा ४ भणोथी, અનેક કુમુદૃથી, અનેક નલીનેાથી, સુદર અને સુગધિત અનેક પુ'ડરીકાથી અનેક મહા પુંડરીકેાથી અને ખીલેલા શતપત્ર અને સહસ્રપત્રના કેશાથી Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे कमलानि उपलक्षण त्वात्कुमुदादीनि यस्यां पुष्करिण्यां वापिका सा पपदपरिभुज्यमानकमला ताम्, वया- 'परिहत्य मर्मतसच्छकच्छ' परिहत्थ भ्रमन्मत्स्यकच्छपाम् परिहत्थोऽतिरेकताः - अतिपभूताः भ्रनन्तो मत्स्यकच्छपा यस्यां सा तथा ताम्, 'अच्छविमलसलिलण ' अच्छविमलसलिल पूर्णम् अच्छे स्वतः स्फटिकवत् शुद्धेन विमलेन आगन्तुकमलरहितेन सबिलेन जलेन पूर्णा इति अच्छविमलसलिलपूर्णा ताम् तथा-'अणेग सउणिगणमिण य विरइय सदुन्नइय महुरसरनाइयें' अनेकशकुनिगणमिथुनक विरचित शोन्नतिक 'मधुरस्वरनादिवाम् अनेकैः शकुनिगण मिथुन कैर्विरचिते rिataa: स्वेच्छया प्रवृत्तेः शब्दोन्नतिकम् उन्नतशब्दं मधुरस्वरं नादितं यस्यां सा तथा ताम, 'तं' ताम् - एतादृशविशेषणयुक्ताम् पुष्करिणीम् 'पास' पश्यति 'तं पासिता तंगा' ai पुष्करिणीं दृष्ट्ातामवगाहते 'ओगाहिता' अगाद्य तां पुष्करिणीम् 'से णं तत्थ उपि पविणेज्जा' स खलु मत्तमातङ्गः तत्र पुष्करिण्या मवगाहनेन शरीरस्य उष्णं परिदाहमपि मविनयेत् प्रकर्षेण सर्वात्मना अपनयेत् तथा'तिपि पविणेज्जा' तृपामपि प्रविनयेत् जलपानेन, तथा - 'खुईषि परिणेज्जा' रही है तथा 'छप्पयपरिभुज्जमाणकमलं' जिस पुष्करिणी-वाव. डीके कमलों के ऊपर भ्रमर गुञ्जार कर रहे हैं 'परिभमंतमच्छकच्छ में' जिसमें अधिक रूप से मत्स्य और कच्छा इधर ले उधर घूम रहे हैं ' अच्छविमलसलिलवणं' | स्वच्छ और निर्मल पानी जिसमें भरा हुआ है 'अगसउणिगण मिट्टगपचिरइय, सदुना यमहरसरनाइयं' जो अनेक जोडा युक्त पक्षियों के समूह के मधुर स्थर चह चहाने से किये गये जोर २, के शब्दों से शब्दायमान हो रही है उसको 'पासई' देखता है 'पासित्ता' ऐसे विशेषणों वाली उस पुष्करिणी को देखकर वह मत्त हाथी 'तं ओगाहई' उसमें प्रवेश करता है 'ओगाहिता' और प्रवेश करके 'से णं तत्थ उण्हंपि पविणेज्ज' उससे युक्त मनेस होय, तथा 'छप्पयपरिभुज्जमाणकमल' ने पुष्करिणी - वावडीना रभक्षीय म्भणोनी उपर अमराओ गुरव ४री रह्या होय, 'परिहत्थमभं तमच्छकच्छ ' જેમાં વધારે પ્રમાણમાં માંછલાએ અને કાચબાએ! આમ તેમ ફરતા હાય, "अच्छ विमलसलिलपुरणं' २१२४ याने निर्भयाली मां लदे छे, 'अणेग सरणिगणमिहुणपविरइय दुन्नइयमहुरसरनाइयं' मां पक्षियाना ने लेडाએના સમૂહ હાય અને તેઓના મધુર સ્વરોના ધ્વનિથી શબ્દાયમાન બનેલ हाय वा सरोवरने 'पासई' लुवे अने ते 'पासित्ता' भाषा विशेषज्ञोवाणा ते ! 'सुपरने लेने से भत्त' सेवा हाथी 'तं श्रोताहइ' तेमां प्रवेश रे . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीकाप्र.३ ३.२ सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३११ क्षुधापपि पत्रिनयेत् प्रत्यासन्न तटवत्तिशल्लक्यादि किशकयमक्षणाव तथा-'जरंपि पविणेजा' ज्वर परितापजनितमपि प्रविनयेत्-अपनयेत् । 'दाईपि पविणेज्जा दाहमपि प्रविनयेत् परिदाहक्षुत्पिपासावगमात् । 'निदाएजज का पयलाएज्जवा. एवं सकल क्षुधादि दोषापगमतः मुखादिभावेन निद्रायेत वा मचलायेत वा, सत्राः अनिद्रावान् निद्रावान् इव भवतीति क्विप्पत्ययार्थविवक्षायां निद्रादिभ्यः कर्मणि कंचप्पत्ययः, एवं प्रचलाशब्दादपि निद्रादेराकृतिगणत्वादिति । तत्र सुख प्रबोधा स्वापावस्था निद्रा, ऊर्वस्थितस्यापि या पुनश्चैतन्यमस्फुटीकुर्वती निद्रा समुपजायते सा प्रचलेति । एवं च क्षणमात्र निद्रालामतः अति स्वस्थी भृतः 'सइंवा स्मृति वा-पूर्वानुभूतस्मरणम् 'रई वा' रति वा तदवस्याऽऽसक्तिरूपाम् ‘धिई वा' वह अपनी गर्मी को अच्छी तरह रखे शान्त फर लेता है और 'तिण्हंपि पविणेज्जा' तृषा को वुझा लेता है तथा 'खुहंपि पविणेज्जो' तटके पास के शल्लकी तृणजातिविशेष आदि के किसलयों (कूपलों) के भक्षण से क्षुधा को भी दूर कर देता है 'जरपि पविणेज्जा एवं परिताप जनित ज्वर को भी नष्टकर देता है 'दापि पविणेज्जा' और परिदाह, क्षुधा, पिपाला के शान्त हो जाने से यह शरीर में व्याप्त हुई गर्मी को दूर कर देता है निदाएज्ज वा पयलाएज्जवा 'इस तरह से जय उसके शरीर में शीतलता का अनुभवन होने लगता है तो वह वहीं पर निद्रा लेने लग जाता है अर्द्ध निमी लितनेत्रों से प्रचला वाला बन जाता है जिसमें चेत रहे और सुख पूर्वक निद्रा भी आजावे उस अवस्थाका नाम निद्रा है और खडे २ पुरुष के चमन्य को आच्छादित करती हुई निद्रा जैसी घूर्णता आती है वह प्रचला 'मोगाहित्ता' तमा प्रवेश ४शन से गं तत्थ उह पि पविणेज्जा' तनाथा से हाथी पातानी भीन सारी रीत शांत रीसे छे. तथा 'खुहपि पविणेज्जा' કિનારાની પાસેના શલકી એક જાતનું ઘાસ વિગેરેના કિસલય (ઉપળે)ને ખાઈને पातानी सूप पर ह२ ४री है छे. 'जर पि पविणेज्जा' तम परितापथी येस नरना: नाश ४श हे छ. 'दाह पि पविणेज्जा मने परिवार, भूम, तरसना, શાન થઈ જવાથી તે શરીરમાં વ્યાપ્ત થયેલ ગમને પણ દૂર કરી દે છે 'निहाएज्जवा पयलाएज्जवा' साशत न्यारे तना शरीरमा अने। अनुभव થવા માંડે છે, ત્યારે તે ત્યાંજ નિદ્રા લેવા માંડે છે. અર્થાત્ ઊંઘી જાય છે, તથા અર્ધ મચેલી આંખેથી પ્રચલા યુકત બની જાય છે જેમાં જાગ્રતા રહે અને સૂખ પૂર્વક નિદ્રા પણ આવી જાય તે અવસ્થાનું નામ નિદ્રા છે, અને ઉભા ઉભા પુરૂષના ચૈતન્યને આચ્છાદિત કરતી શકી નિદ્રા જેવી આંખે ઘેરાય છે તેને પ્રચલા કહે છે. આ રીતે ક્ષણ માત્ર નિદ્રા પ્રાપ્તિથી સ્વસ્થ થયેલ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ जीवामिगमस्ये धृति पा-चित्तस्वास्थरम् 'मई वा' मति वा सम्यगीहापोहरूपाम् उवल. भेज्जा'- उपळभेत-माप्नुयात् ततः 'सीए' शीतः वापशरीरशीती भावाद 'सीई खूप शीतीभूतः शरीरान्तरपि नितीभूतः सन् 'संकममाणे' सम्-एकीमावेन. कमत्-गच्छन् ‘सायासोरखबहुले यावि विहरिजा' साहासौख्याहुलश्चापि. साख माछाद स्तस्यधानं सौख्यं न तु अभिमानजनित माहलादपिरस्तिम्. सारसौख्यवहुलश्चापि विरहेछ-स्वेच्छया परिभ्रमेदिति । 'एवामेव गोयमा.. एवम्-अनेन पूर्वकथित दृष्टान्तप्रकारेण हे गौतम! 'असम्भावपट्ठवणाए'. असदभाव प्रस्थापनया-असदभावकल्पनया नेदं यक्ष्यणाणमभूत केवलं नरकगतोष्णवेदनाशः याथार्थ पतिपत्तये अतत्कल्प्यने इत्ययः, 'उसिण है। इस तरह क्षण मात्रकी निदो के लाभ से स्वस्थ हुआ वह हाथी 'सइंया' अपनी स्मरण शक्ति को 'रतिषा' आनन्द को 'धिइंचा' धैर्य को चित्त की स्वस्थता को-'उचल भेज्जा' पा लेता जय गी से हाथी आकुल व्याकुल हो रहा था तो उस स्थिति में उसकी स्मृति रति आदि सय मन्द पड गये थे अब जब उसे चैन प्राप्त हुभो तो यातें उसे यदि आने लगी चित्त में प्रफुल्लता आ गई और मन में धैर्य जग गया इस तरह शरीर में शीतलता के प्रभाव से 'सीयभूप' स्वयं शीती भूत हमा बह गजाम 'संकममाणे २, 'अप वहां से चल देता है और 'साया मोक्खाबहुलेयाधि विहरिज्जा' चित्त में जगी हुई एक प्रकार की आहूल द रूप प्रसन्नता रूप सुख परिणति से अपने आपको अनन्द विभोर मानने लगता है और इटलाता हुआ इधर उधर घूमने लगता है. 'एयामेय गोयमा।' इसी तरह से हे गौतम ! 'असमाव पटवणाए' त हाथी 'सइवा' पातानी भर शतने रतिं वा' मानने "घिई वा धेन थित्तनी २३स्थताने 'उबलभेज्जा' पामे छ, न्यारे सभी थी त साथी माण વ્યાકુળ થો હતો ત્યારે એ સ્થિતિમાં તેની સ્મૃતિ રતિ વિગેરે મંદ થઈ ગયા હતા. અને જ્યારે તેને આ રીતે ચેતન પ્રાપ્ત થયું ત્યારે તેને અનેક વાતે યાદ આવવા લાગી ચિત્તમાં પ્રફુલ પણું આવી ગયું અને મનમાં भावी आयु मा शत मा शशमा ४1 प्रसावया 'सीयभूर' पाते शाती भत येते ४२४ 'स'कममाणे, सकममाणे ते त्यांचा यावा ये छे. भने 'सायासोकख बहुलेया वि विहरिता' वित्तमा नगेटी मे ५४नी આહલાદ રૂપ પ્રસન્નતા રૂપ સુખ પરિણતીથી પોતે પોતાને આનંદ રૂપ માનવા an-छ. भने ५४ मत माम तम ३२१ सागे छ 'एवामेव गोयमा !' और प्रमाणे गौतम! 'असन्भावपट्ठवणाए' भस भाव ४६पनाने सधन Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ७.२ ५.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणस्त ३१३, वेयणिज्जेहितो णरएहितो' उष्णंवेदीयेश्य नरकेभ्यः, ‘ोहए उटिए समाणे' नैरविकोऽनन्तरमुर्तितो विनिर्गतः सन् 'जाई इसाई अपुरसलोगति भवंति' यानीमानि, इह मनुष्यलो के स्थानानि भवल्लि तघथा--'मोतियालिंछाणि वा सोडिया लिंछाणि वा लिंडिया लिंछाणि वा' गोलिकालिंछालिया सौण्डिका लिंछानि वा-लिण्डिया लिंछाति वा पछि' शब्दोऽत्रदेशीयः अग्निस्थानवाचकः, तेन गोलिका लिंछानि झुडपाजस्थावलि, शौण्डिकालिंकालि-गद्यपाकस्थानानि, लिण्डिकालिछानि-लिण्डिका-अजापुरीपं तस्ववन्धि यहि स्थानानि 'अयावाणि ना' अप आसरा इतिजा या मानार्थ मय उत्काल्यते से अय आकरा:, एकमेश ताम्राकरावीला स्पस्प ज्ञातव्यम् । 'तंबागराणि वा' ताम्राकरा इति वा 'तउयामराणिका' अप्वापारा इतिचा 'सीसागराणि या सीसकारा इलिया हवागराणि १ सयाका प्रति ना, असाच कल्पना को लेकर विवेचणिज्जेलिलो जोडपण वेदना पाले नरकों से मेरह ए वहिप नजाणे जिला हुआ नायिक 'जाइं इमाईलणुललोगंलि अति जो मनुष्य लोक अति - ता के स्थान है-जेहे-बलिया लिंछाणिक्षा सोरियालिछाण या लिडिया लिंछाणि हा गौडिका लिंछ शौण्डिका लिछ, लिण्डिका लिंछ अर्थात्-गुड पकाने की बट्टी, मध पकाने की नही बकरी पी डी की अग्निका स्थान ऐसे स्थानों में उष्मता बहुत अधिक होती है. 'अयागा णिवा' लोहे को गलाने पे बट्टे 'शाराणि या अपर तारये की गलाने के भट्टे 'हल्यागणिया रांगे को गलाने के बावे 'लीलामिया' शीशे को गलाने के भट्टे 'रुघागराणिका चांदी को गलाने के बहे 'सुपना गराणि वा सोने को गलाने के बट्टे हिदण्णागमणि वा हिरण काउने 'उसिणवेयणिज्जेहिंतो णरएहितो' 6 वना वाणा नरमाथा नेहए उव्वहिए समा'णे नाणे नै२यि४ 'जाई इमाई सणुस्सलोगंसि भवंति' ने मा मनुष्य मां सत्यत ताना स्थान। म 'गोलिया लिछ।णि वा खोडिया लिछाणिवा लिंडिया लिछाणिवा' itsle, dils , Bale, અર્થાત ગેળ બનાવવાની ભઠી, મદ્ય બનાવવાની ભઠી, બકરીની લીડીના मनिनुत्थान, मेका स्थानमा पई पधारे २भी हाय छे' 'अगागराणि वा' सामने पानी भी 'त'बागराणि वा' अथवा तयार पानी मी 'तउयागराणि वा' संगने सोगाणवानी सही 'सीसागराणि वा' सीमान मागवानी सही रूप्पागराणि वा' यदान मागासवानी सही 'सुबण्णागरा णि वा सोनान वानी सही 'हिरण्णागराणि वा' डिएय तां या सोनान' जी० ४० Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जीयामगमसूत्रे 'सुवन्नागराणि वा' सुवर्णाकरा इति वा 'हिरण्णागराणि वा' हिरण्याकरा इति वा, अग्निस्थानानि निरूप्य अग्निस्वरूपं निरूपयति- 'कुंभारागणीड वा' कुम्भका राग्निरिति वा कुम्भकारस्य भाण्डपाकाग्निर्वा 'मुमागणी वा' मृपारिनरिति वा 'भूषा' इति धातुगालनपात्रं तद्वताग्निर्वा 'यामणी वा' इष्टकाग्निरिति वाइष्टकापानि 'कवेल्लयागणी वा' कवेल्लकाग्निरिति श-कवेल्लुकपाकाग्निर्वा 'लोहांवरीसेइ चा' लोहकाराम्बरीष इति वा अम्बरीषः कोष्टकः ''सट्टी' इति प्रसिद्धः 'जंतवाडचुल्लीइवा' यन्त्र पाटक चुल्ली इति वा यत्र- इक्षुपीडनयन्त्रम् तत्प्रधानः पाटकः यत्र चुली यत्र इक्षुरसः पच्यते 'थोलियविछागणीड वा' गौण्डिकालिछाग्निरिति वा= गुडपाक स्थानाग्निर्वा 'सोडियालिछागणीइ च शौण्डिकलिंछाग्निरिति वा, मद्यपाकस्थानाग्नि व 'लिडिया लिंछागणीइ वा ' लिण्डिकालाग्निरिति वा अजापुरिपस्थानगताग्नि व 'जटारोह स' डा ग्निरिति वा नड:- अन्तर्विवर न्डशः तम्याग्नि व 'तामणी वा' तिलाग्निसोने को गलाने के भट्टे, अग्नि के स्थानों को कह पर अब अग्नि का स्वरूप कहते हैं 'कुभागाराणिवा कुंभ-वर्तन के भट्टे की अग्नि 'मुसागणी इवा' 'भूषा' - धातु गलाने का पान उसकी अग्नि 'हागणीइवा' ईटों को पकाने वाले भट्टे की अग्नि' 'कल्लुवा गणीइया' 'कवेल्लु-खपरा को पकाने के आवा की अग्नि 'लोटायरीलेइवा' लोहे को गलाने वाले लुहार के भट्टी की अग्नि' 'जंतवाड चुल्ली वा' ईक्षु-गन्ने के रसको पकाने की अग्नि 'गोलिया लिंछागणीह था' गुड पकाने के स्थान की अग्नि 'सोडिया लिंछागणीहवा 'शौंडिक अग्नि मथ पकाने की अग्नि लिंडिया लिंछागणीइवा' बहरी की लिंडी की अग्नि' गडागणीहवा 'नडाग्नि नडवंश की अग्नि ' तिलागणीचा 'तिल की अग्नि ગાળવાની ભટ્રુડી, આ રીતે અગ્નિના સ્થાનેા કહીને હવે અગ્નિના સ્વરૂપતુ' કથન रे छे. 'कुंभागाराणि वा' लोटते हे वासाने पहाववानी लट्ठीना अग्नि 'मागणीइ वा ' ભૂષા એટલે કે ધાતુને ગાળવાના ભદ્રાના અગ્નિ 'इट्टियागणीइवा' 'टोने पाववावाजा भट्ठानो अग्नि 'कवेल्लुयागणीइ वा ' वेल्लु नजीया पहाववानी लटहीनो अग्नि 'लोहांवरीसेड वा सोभડને ગાળવાવાળા सवारना लट्ठानो अनि 'ज'तवाल चुल्लीइ वा' क्षु शेलडीना रसने ५४ववानी अग्नि 'गोलिया लिंछागणीइ ना' गोज अनाबवानी लट्ठीनो मग्नि, 'सोडिया लिंछागणीइ वा' शांडिला सग्नि अर्थात् भद्य मनाववानी भट्ठीनो अग्नि 'लिं'डिया लिागणीइ वा' अरीनी सीडीनी मग्नि 'जडागणी वा' नाग्नि अर्थात् नडवशनी अग्नि 'तिळा Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र. ३७.२ लू.२१ नारकाणां नरकभवानुर्भवननिरूपणम् ३१५ रिति वा 'तुसागणी वा' तुषाग्निरिति वा 'तत्ताई' इत्थंभूतानि यानि स्थानानि मनुष्यलोके तानि तानि वह्नि संपर्कत स्वप्तीभूतानि तानि च कानिचित् अय आकर प्रभृतीनि कदाचिदुष्ण स्पर्शमात्राण्यपि संभवन्ति ततो विशेष प्रतिपादनार्थमाह - 'समजोइभूयाई' ज्योतिः समभूदानि मखरवह्निसंपर्कात् साक्षादग्निवर्णानि जातानि एतदेव सादृश्येन दर्शयति- 'फुल्ल किसुयसमाणाई' फुल्लकि शुकसमानानि प्रफुल्लरला कुसुम तुल्यानि ' उक्कासहस्साई विणिम्यमाणा " उल्कासहस्राणि विनिर्मुच्यमानानि ये मूलाग्नितो वित्रुय अग्निकणाः प्रसर्पन्ति ते उल्का इति कथ्यन्ते तासां साहस्राणि प्रमुञ्चन्ति, 'जालासहस्साई पमुच्चमाणाई' ज्वालासहस्राणि प्रमुच्यमानानि 'इंगालसस्साई पविक्खरमाणाई' अङ्गार 'तुसामणीहवा' तुषकी अग्नि हत्यादि' ' तत्ताई' ये सब स्थान मनुष्य लोक में बह के संपर्क से संतप्तबने हुए रहते हैं. इनमें कितनेक लोहे के लाने के भट्टे आदि रूप स्थान - उष्ण स्पर्श मात्र वाले भी होते हैं, अतः इनकी विशेषता दिखलाते हैं वे स्थान और वे अग्नि किस प्रकार के होते हैं ? सो कहते हैं- 'समजो इभ्याई' ये साक्षात् अग्नि के ही स्थानापन्न हो रहे है । इनका जो वर्ण है वह 'फुल्ल किंसुयस माणाई' फूले हुए किंशुक पलास के फूल जैसे लाल २ प्रतीत होता है 'उक्का सहसा विणिमाणाई' जो हजारों उल्काओं (मूल अग्नि से टूट टूट कर स्फुलिंग को निकाल रहे ) 'जाला सहस्साई पमुच्चमागाई' ये स्थान हजारों ज्वालाओं का ही मानों वमन कर रहे हैं 'इ' गाल सहरलाई पक्खिरमाणा ' हजारों अंगारों को ही अपने गणीइ वा' तसनी व्यक्ति 'तुलागणीइ वा' तुषनी अग्नि ४त्याहि 'सत्ताई' म બધા સ્થાનેા મનુષ્યલેાકમાં અગ્નિના સપથી તપેલા રહે છે. આમાં કેટલાક લાઢાને ઓગાળવાના ભટ્ટા વિગેરે રૂપ સ્થાનેા ઉષ્ણુ સ્પર્શ માત્ર વાળા પશુ હાય છે. તેથી તેની વિશેષતા ખતાવતાં તેવા સ્થાને અને તેવી અગ્નિ કેવા अारना हाय हे? ते बतावे छे. 'समजोंइभूयाई' ते स्थान साक्षात् अग्निना स्थानापन्न होय छे. तेना ने वागु छे, ते 'फुल्लकि सुयस माणाइ" बेला કિંશુ–પલાશના ફૂલા જેવા અર્થાત્ કેસુડાના જેવા લાલ લાલ દેખાય છે, 'उक्काखहस्साइ बिणिम्मुयमाणाइ" હુજારા ઉલ્કાઓ (મૂળ અગ્નિથી छूटेसा स्टुसिंग अग्निने महार हाडे छे. 'जाला बहरसाई' पमुच्चमाणाई' આ સ્થાનેા હજારા વાલાઓને જ જાણે વમન કરતા ન હૈાય તેવા હાય છે, 'इंगाल सहस्सा ई' पविकखरमाणाई' हमरो मगारामने पोतानी महस्थी Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्टे सहस्राणि प्रतिक्षरंति 'अंतो अंतो हूहूयमाणाई' अन्तरन्तहहूयमानानि अतिशयेन जाज्वल्यमानानि 'चिटुंखि' तिष्ठति 'ताई पासइ' तानि-उपर्युक्तविशेषणविशिष्टस्थानानि पश्येत् स नारकः, 'ताई पासित्ता ताई ओगाहइ' तानि स्थानानि दृष्ट्वा तानि स्थानानि अवगाहते 'ताई ओगादित्ता' तानि स्थानानि अवगाह्य 'से णं तत्थ उहपि पविणेज्जा' स खलु नारक स्तन स्थानेषु उष्णमपि नरकोष्ण वेदना जेनि बहिःशरीरस्य परिखापमपि प्रविनयेत्-विनाशयेदिति। 'तण्हंपि पविणेज्मा तृष्णामपि मविनयेन् 'खुहपि पविणेज्जा' क्षुधामपि प्रविनयेत् 'जरंपि पविणेज्जा' बरं शरीरान्तः परितापयपि प्रविनयेतू 'दापि पविणेज्जा' दाहमपि भीतर ले निकाल रहे हैं 'अंतोअंतोहर्यमाणाई' भीतर ही भीतर मानों ये हू हू शब्द करते हुए जल रहे हैं-'ताई पास ऐसे विकट गर्मी की दाह रूप क्षेला को उत्पन्न करने पाले इन स्थानों को यदि उष्ण वेदना वाले लारको का नारकी देख लेता है और पालिता देखकर वह 'ताई मोगा जब ले शिली एक स्थान में प्रवेश कर जाता है ताई ओगाहिला' वहां भवेश करके ले णं तस्य उण्हपि परिणेज्जा' यह नारकी वहां पर भी अपनी मरय जन्य उषा देवना को दूर कर सकता है अर्थात् इन स्थान भी उसे उलटण वेदना के आगे शीत का ही अनुभव होता ह नरक जन्य उपज घेदनाक्षा पाव शरीर में परिताप नहीं होता है. पह की हिण्हं विपक्षिणेजा हवा-धाल को भी नष्ट कर देता है, 'खुही परिणेज्जा' अपनी क्षुधा को भी शान्त कर लेता है. 'जरंपि पाषणेज्जा' अपने शरीर के भीतर रहे हुए परिताप रूप धर को भी ५९२ ४६१ २॥ छाय, 'भंतो अंतो ह्हूयमाणाई' ४२२ म२ नये तमा डू शहे। ४२ता ४२ता मणी २धा डाय 'ताई पासई' अवा वि४८ અગ્નિના દાહ રૂપ વેદનાને ઉત્પન્ન કરવાવાળા આ રથાનેને જે ઉષ્ણ વેદના 41 नाना ना२ये ननदो आने 'पाक्षिता' नछन ते 'ताई ओगाहई' तमाथी मे स्थानमा प्रवेश ४ नय छे. 'ताई ओगाहित्ता' त्या प्रवेश ४श से णं तत्थ उह पि पविणेज्जा' नाही त्या ५४ पोतानी न२४०१न्य ઉણ વેદનાને દૂર કરી શકે છે. અર્થાત્ રમા સ્થાનમાં પણ તેને તે ઉપ્સ વેદનાની આગળ શીત વેદનાનેજ અનુભવ થાય છે. નરક જન્ય ઉવેદનાને परिता५ मा शरीरमा थने नथी. ते त्या तहपि पविणेज्जा' तरसने ५५ ना२१ ४१ हे छ. 'खुहपि पविणेज्जा' पातानी भूभने ५ शांत रीसे छे, 'जरंपि पविणेज्जा' पाताना शरीरनी म४२ २७ता परिता५ ३५ ४१२ने पर Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेश्योतिका का प्र.३ उ.२ १.२१ नारकाणां नरक मानुभवननिरूपणम् ३१७ पविनयेत् । नरकगतोष्णस्पर्शान् अय आकदि गतोष्ण स्पर्शस्यातीय मन्दत्वेन तदपेक्षयात्र शरीरपरिवापापबोदः संभवत्येवोत ततश्च 'निदाएज्ज वा पयलाएज्ज वा' स नारको निद्रायेत वा प्रचलायेत का तपादि दोपापमसेन निद्रादीनां संभवात् ततश्च-'सई वा रई वा घिई वा मइंवा उबल भेजा स्मृति वा रति वा दूर कर लेता है. 'दापि पविणेज्जा' और दाह को भी शान्त कर लेता हे यद्यपि ऐसा होता नहीं हैं न पाली हुआ ही है और न कभी आगे होगा भी परन्तु नरकों में नाराजीब को कितनी अधिक उत्कट उष्ण वेदना का अनुभवन होता है और वह उष्णता वहां शितनी है यह बात इस कथन से प्रतीति पक्ष में आ जाती है अतः सूमशार ने इललिये यह बात यहां असत्कल्पना कर के समझाई है ।इलो को स्पष्ट करने के लिये उन्होंने 'अलब्भाव पटवणाए' ऐसा सब से पहिले स्त्र में पद रखा है । तात्पर्य इस कथन का केवल यही है कि अय आकर (लोहा गरम करने की भट्टी) आदि गत जो उष्ण स्पर्श है, वह उस नरक की उष्णता के आगे अत्यल्प है-मन्द है इसी लिये शरीर परिताप आदि नष्ट हो सकता है जब उस नारकी को इन स्थानों भी उस मातङ्ग के जैसी शीतलला का अनुभवन होता है तो वह पणिहाएज्ज बा' क्षणिक निद्रा का भी सुख प्राप्त कर लेता है 'पघलाएज्ज या' अथवा खडे २ वहीं पर ऊँध भी लेता है। इस तरह कीअवस्था हो जाने पर फिर वह 'सई का रइंचा धिहवा मईवा उपल. १२ ४श छे. 'दाहंपि पविणेज्जा' भने ६.२ ५९ शांत है. આમ થતું નથી. તેમ કયારે પણ તેમ થયું નથી. તેમ હવે પછી તેમ થશે પણ નહીં પરંતુ નરકોમાં નારક જીવને કેટલી વધારે ઉત્કૃષ્ટ ઉષ્ણવેદનાને અનુભવ થાય છે. અને તે ઉણપણ ત્યાં કેટલું છે ? એ વાત આ કથનથી જાણવામાં આવી જાય છે. તેથી સૂત્રકારે આ વાત અસત્કલ્પના કરીને સમ पी छ. तर २५८ ही पता। माट तेशामे 'असभावपदवणाए' मा પ્રમાણેનો પાઠ સૌથી પહેલાં સૂત્રમાં કહ્યું છે. આ કથનનું તાત્પર્ય કેવળ એ જ છે કે અય આકર (લેખંડને ગરમ કરવાની ભઠી) વિગેરેમાં રહેલ જે ઉણ સ્પર્શ છે, તે એ નરકનીઉષ્ણતા આગળ અત્યંત અ૯પ હોય છે. અર્થાત મંદ છે. તેથી શરીરના પરિતાપ વિગેરે નાશ પામી જાય છે. જ્યારે એ નારકીને આ સ્થાનોમાં પણ એ માતંગના જેવી શીતળતાનો અનુભવ થાય છે, त्यारे ते 'णिहाएज्ज वा, क्षा निद्राना ५४ अनुभव प्रास शनिद्र.३पी सुम ava छे.मापा मारनी मवस्था थ य त्यारे ते 'सई वा रइं वा धिई वा Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमचे धृति वा मति वा उपलभेत स नारकः, तत:-'सीए' शीतः 'सीई भृए' शीती भूतोऽतिशयेन शान्तः 'संकममाणे संक्रममाणे संक्रामन् संक्रामन् 'साया सोक्ख बहुलेयावि' सातासौख्य बहुलश्चापि 'विहरेज्जा' विहरेदित स्ततः परिभ्रमेदिति । एतावत् कथिवे भगवति गौतमः पृच्छति-'भवेयारूवा सिया' भवेदेतद्रूपा वेदना स्यात् संभाव्यते एतद् यथा भवेद् उप्णवेदनीयेषु नरकेपु एतद्रूपा उप्णवेदनेति । भगवानाह-'णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः 'गोयमा' हे गौतम ! कोऽर्थों न समर्थः स्तत्राह-'उसिणवेयणिज्जेसु नरएसु' उष्ण वेदनीयेषु नरकेषु रिथता ये 'नेरइया' नैरयिकास्ते 'एत्तो अणितरियं चेव उसिणवेचणं पच्चणुभवमाणा विहरंति' इतोऽनिष्टतरिकामेव उष्णवेदनां प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति इतोऽनन्तरं मतिपादिताया भेज्जा' अपनी भूली हुई स्मृति को, थोडी पछुत शान्ति को चित्त की स्वस्थता रूप धृति को एवं मति को, भी पा लेता है अतः 'सीए सीती भूए' शीत रूप हुआ और शीतीभूत हुआ-अपने आप में शान्ति का अतिशय रूप से अनुमक्ष करता हुआ-वह नारक 'संगममाणे संकमा माणे' वहां से हट कर 'सायासोक्खबहुले बाधि विहरेजा' साता और लुख बहुल स्थिति वाला बन जाता है प्रभु के इल प्रकार के कहने पर गौतम ने प्रलु से ऐसा पूछ। हे भदन्त ! 'भवेयारूवे लिया तो क्या उन उष्ण वेदनीय नरकों में इस प्रकार की उष्ण वेदना है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'णो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'उलिणवेयणिज्जेसु नभएप्लु नेरक्या उष्ण वेदना वाले नरकों में स्थित नैरपिक 'एत्तो अणिमारियं चेव उसिणवेधणं पच्चणुभत्रमाणा अई वा उपलभेजा' पाताना मुली स्मृतिन याडीह शांती भित्तनी २६३५ ३५ तिन मन भतिने ५ पामे छे. तेथी 'सीए सीतीभूए' शीत ३५ थयेस અને શીતભૂત થયેલ પિતે પિતાનામાં શાંતિને અતિશયપણાથી અનુભવ કરતે थ त ना२४ 94 'संकममाणे संकममाणे त्यांची टीने 'सायासोक्खबहुले શાવિ વિદોદના” સાતા અને સુખ બહુલ સ્થિતિવાળો બની જાય છે. પ્રભુએ આ પ્રમાણે કહેવાથી ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવું પૂછે છે કે હે ભગવન 'भवेयारूवेसिया' तो शुमा युवेना वा नारीमा मा। प्रारनी Beeg बहना छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसु 'णो इणढे समदे' गौतम! मा म मरेराम२ नथी. भ 'उसिगवेयणिज्जेसु नरए नेरइया' वेहना q न२ मा २४सा मेथि। 'एत्तो अणिद्वतरिय चेव उसिणवेयण पच्चगुभवमाणा विहरंति' पूति नाथी ५ पधारे मनिष्टत२ मेवी वहनाना Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ खू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३१९ अय आकरादिरूपाया उष्णवेदनाया अनिष्टन्तरिकामेव अप्रियतरिकामेव अमनोज्ञतरिकामेव अमनोऽमतरिकामेव उष्ण वेदना प्रत्यनुभवन्तः-प्रत्येक वेदय मानाविष्ठन्तीखि हे गौतम ! दृष्टान्तमात्रमय आकरादिकं प्रदर्शितम् नतु तस्सदृशीमेववेदनां वेदयन्ति किन्तु ततोऽपि अधिकारामिति भावः। सम्पति-शीतवेदनीयेषु नरकेषु शीतवेदनास्वरूपं प्रतिपादयति-'सीयवेयणिज्जेसु' इत्यादि, 'सीयवेयणिज्जेसु णं भंते ! नरएस' शीतवेदनीयेषु खलु भदन्त ! नरकेषु 'नेरइया' नैयिकाः 'ले रिमय सी वेयणं' कीदृशीं-हिमा. विहरति' हल पूरित वेदना से अधिक अनिष्टतर उष्ण वेदना को भोगले हैं । अर्थात् ऊपर में जो अय आकारादि अन्य अर्थात् लोहे आदि की भट्ठी से उत्पन्न हुई उष्ण वेदना का प्रतिपादन किया गया है उससे अत्यन्त अनिष्ट अप्रिय अमनोज्ञ और अननोऽम ऐसी उष्ण वेदना को प्रत्येक मारक भोगता है। यह जो अभी हे गौतम ! अय आकदि जन्ध वेदना प्रदर्शित की गई है वह तो एक दृष्टान्तमात्र है। अतः अय आकरादि जैसी ही वेदना का अनुभवन नहीं करते हैं किन्तु इससे भी अधिकतर उष्ण वेदना का वे अनुभबन करते हैं। अत: पूर्वोक्त उष्ण वेदना को वे ठंडक के रूप में ही मानेगें। अध्य सूत्रकार शील वेदना बाले नरकों में शीत बेदना कैसी होती है-इसका प्रतिपादन करते है-इसमें गौतम! ने प्रसु से पूछा है किहे भदन्त ! 'सीतवेदणिज्जेसु णं भंते ! नर एसुनेरहया केरिस मीत वेशणं' शीत वेदना वाले नरको में नारक कैसी शीत वेदना का पच्च અનુભવ કરે છે. અર્થાત્ ઉપર જે અય આકર વિગેરેથી થવાવાળા અર્થાત લખંડના ભઠી વિગેરેથી ઉત્પન્ન થયેલ ઉષ્ણ વેદનાનું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે, તેનાથી પણ અત્યંત અનિષ્ટ, અલિય, અમનોજ્ઞ, અને અમને ગમ એવી ઉણુવેદના દરેક નારકે ભેગવે છે. હે ગૌતમ ! જે આ હમણાં અય આકર વિગેરેથી થવાવાળી વેદના વર્ણવી છે, તે તે એક દષ્ટાન્ત માત્ર છે. તેથી અય આકર વિગેરેના જેવી જ તે વેદનાને અનુભવ કરતા નથી. પરંતુ તેનાથી પણ વધારે એવી ઉણ વેદનાને તેઓ અનુભવ કરે છે. તેથી પૂર્વોક્ત ઉsણ વેદનાને તેઓ ઠંડક જેવીજ માનશે. હવે સૂત્રકાર શીતવેદના વાળા નારકમાં શીતવેદના કેવી હોય છે ? તે સંબંધમાં કથન કરે છે. શીત વેદનાના સંબંધમાં ગૌતમસ્વામી પ્રભુને એવું ५ छ । भगवन् 'सीतवेदणिज्जेसु णं भंते ! नरएसु नेरइया केरिसय सीत वेयणं' शीतवहनावाणा नरामा नारस। 8वी शीतवहनाना पच्चणुभ वमाणा Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे ३२० , कारिकां शीतवेदनाम् ' पच्चणुकभनगाणा' पत्यनुसनन्तः- प्रत्येकं वेदयमानाः विहरन्ति - तिष्ठन्ति इति गीतवेदाविषयक प्रश्नः भगवानाह - 'से जहाणामए' इत्यादि, 'से जाणा स यथा नारका अनिर्दिष्टनामकः कथित 'कम्मारदारए' कर्मकारदारका निरिदारका 'दिया' स्वात् कथं भूतः कर्मकारदारकइति तद्विशेषणानि कथयति- 'तरुणे' वणः- मानवाः, 'जुग' युगवान् युगसुमदुमादिकालः सस्वेन रूपेण पारित न दोषः स वृधवान 'वलने' वलवान् वलं सामर्थ्य तष्ठान 'जा पोषण' यान्द हिल्पोपगत, अन यावत्पदेन उष्णवेदनीयन प्रणीतानि सर्वाणि विशेषणानि संग्राहाणि, तथाहिअल्पातङ्कः स्थितः दिपाठान्तरोरुपरिणतः लङ्घनप्लवन जनगणमनसमर्थः तलबलगलनिवाह यननिचितवति वृत्त स्कन्धः चर्मेघणमौष्टिक समनिनितगात्रात्रः औौरसवलसम्म्वा गतः छेकः दक्षः प्रष्ठः कुल: नि: निपुर्णशिल्पोपगत हति । एां पदानामर्थ उष्णवेदनीयनरकवेदनाप्रकरणे निलोकनी, एतादृशः स कर्मकारदारकः 'एग जुग्भवमाणा विहति' अनुभव करते हैं? उनके उत्तर में प्रभु कहते है- ' से जहाणामए करवा दिया' हे शौतम | जैसे कोई लुहार का लड़का हो और वह पूर्वोक्त जैसे विशेषणों वाला हो' अर्थात् 'तरुणे' तरुण हो 'जुई' सुदिल में उत्पन्न हुआ हो 'पलव' चलशाली हो आतङ्क विहीन से जिसके हाथों के अग्रभाग स्थिर हो कम्पन शील न हो और पैर तथा दोनों पार्श्व योग एवं पृष्ट तथा उम् जिसके खूब पुत्र हो, इत्यादि रूप से जैहा इसका वर्णन पहिले उष्ण वेदनीय नरक के प्रकरण में किया जा चुका है वैसा यह लुहार का लड़का हो अब वह एक बहुत बडे लोहे के पिण्ड को पानी के कलश के विहरति' अनुभव रे ? म अनना उत्तरमा अलु' से जहाना मए कम्मारदारए सिया' हे गौतम! प्रेम अर्ध सवारना हो। होय, भने તે પહેલા વર્ણવ્યા પ્રમાણેના વિશેષણેા વાળા દાય અર્થાત્ તરને તરૂણુ होय 'जुगव" सुषभ दुष्षमाहि असणं उत्पन्न थयेश होय 'बलव' जसवन् હાય આત ંકવગર નિગી હૈાય અને જેના હાથે ના અગ્રભાગા સ્થિર હાય કાંપતા ન ચાય, હાથ, પગ અને બન્ને પડખા તથા પૃષ્ઠભાગ અને ઉરૂ જેના ખૂબ પુષ્ટ હોય ત્યાદિ પ્રકાથી જે પ્રમાણેનું આ સંખ ́ધનું વર્ણન પહેલાં ઉષ્ણુ વેદનીય નરકના પ્રકરણમાં ક્યુ છે, એજ પ્રમાણેના વન પ્રમાણેના લવારના છોકરા હાય, અને તે એક ઘણા માટા લેખંડના પડને પાણીના Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३२१ महं अयपिंड' एकं महदयापिण्डस् 'दग्वारसमाणं' उदकवारसमानम् लघुपानीय घटसमानम् 'गहाय' गृहीत्वा अनायासेन 'ताविय ताविय तापयित्वा तापयित्वा 'कोटिय कोट्टिय' कुट्टयित्वा कुरित्या 'जहणेणं एगाहं वा दुयाहं पा लिया वा' जघन्येन एका वा द्वयहं वा यहं वा यावत् कुट्टयेलू तययापिण्डस् 'उक्को सेणं मासं हणेजा' उत्कर्षेण मातपर्यन्तं इन्याद ततः 'से गं तं उतिणं उसिणभूयं' स कर्मकारदारकः खल्लु तमयापिण्ड उष्णम् सचारपिण्डः उष्णो वाह्यपदेश. मात्रापेक्षयापि स्यादत आह-'उसिणभूयं' उष्णीभूतं सीरममाऽग्निवर्णभूतम् 'अयोमरण संदसएण गहाय' अशोषयेन-लोहनिर्मिविन संदंशोल गृहीत्या 'असभावपट्टवणाए' अमद्भावस्था परया-असद्मावकल्पलया 'सीय वेयणिज्जेछु नरएस पक्खिवेज्जा' शीतवेदनीयेषु नरकेषु प्रक्षिपेत् अत्युलोकपिण्डम् 'सेत उम्मिसिय निमिसियमंतरेण स कर्मकारदारकः तं तहमयापिण्डं तरके शक्षिप्त जैसा लेकर एक बडी भारी लोहे की ही बार २ सपाने, और लपा तपा कर फिर उसे पार २, कूटे इस लरह यह मान ले क्षमा एक दिन सक, दो दिन तक तीन दिन तक और अधिक से अधिक एक महीना तक करता रहे इस तरह भीतर बाहर दोनों रूपले उ हुमाह अयः पिण्ड ऐसा दिखने लगे कि मानों यह एक अग्नि का गोलाही है तब उसे वह 'अयोमएण संदंसएणं गहाय' लोहे की संडाली ले पशडशर मारलो 'सीयवेयणिज्जेलु नरएस्तु पक्खिवेजा' शील वेदना वाले नरकों में डाल दे. डालते ही वह फिर ऐसा विचार करे कि मैं इले 'उमिलिय निखि सिय मंतरेण पुणरवि पच्चुद्धरिस्लामि' बहा ले अभी अली नेत्र की पलक के झपने में और उघडने में जितना समय लगता है इतने फाल કલશની માફક ઉપાડીને એક ઘણી મોટી લેઢાની ભઠિમાં તેને વારંવાર તપાવે અને તપાવી તપાવીને તે પછી તેને વારંવાર ફૂટે આ રીતે ઓછામાં ઓછા એક દિવસ સુધી અથવા ત્રણ દિવસ સુધી અથવા વધારેમાં વધારે એક મહીના સુધી તે પ્રમાણે કરતે રહે આ પ્રમાણે અંદર અને બહાર બન્ને બાજુ ગરમ થયેલ તે લેખંડને પિંડ એ દેખાય કે જાણે આ એક અગ્નિને જ गोको छे. त्यारे तन त बुखार 'अयोमएण सदसएणं गहाय' सोमनी सांसीथी ५४ी भाना, 'सीयवेयणिज्जेसु नरएसु पक्खिवेज्जा' शीत વેદન વાળા નાકમાં નાખી દે અને તેને નાખતાં જ પાછો એ વિચાર કરે है हु भान 'उम्मिसिय निमिसिय मतरेण पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामि' माने હમણાંજ આંખનું મટકુ મારે તેટલામાં જ એટલે કે આંખ મીચીને ઉઘાડે जी० ४१ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमले मुन्मेपनिमेषान्तरेणैव यावता कालेन निमेपोन्मेष स्तावता कालेनेवायःपिण्डम् 'पुणरवि' पुनरपि ' पद्धरिस्सामित्ति कटु' प्रत्युद्धरिष्यामि नारकात् झटित्येव निष्कासयिष्यामीति कृत्वा पश्यति तावत् 'पविरायमेव पासेज्जा' वितरं प्रस्फु. टितमेव पश्येत् 'तं चेव णं जाव णो चेवणं संचाएज्जा पच्चुद्ध रित्तए' तदेव खल्लु यावत् अत्र यावत्पदेन-'पविलीणमेव पासेज्जा पविद्धत्यमेव पासेज्जा' इति पदयोः संघहो ज्ञातव्यः, तत्र-मविळीनमेव गलितमेव पश्येत् प्रविध्वस्तमेव पश्येत् नैव खलु शक्नुयात्-समयों भवेत् तमयं पिण्डं नरकात्मत्युद्धर्तुम् । पुनरपि दृष्टान्त. माह-'से ' इत्यादि, 'से णं से जहाणासए सत्तमायंगे' यथा वा स खल्ल स यथा नामको मत्तमातङ्गः कश्चित्कुञ्जर: 'तदेव जान सोक्खवहले यावि विहरेज्जा' तथैव यथा उष्णवेदनीयनरकवेदनामकरणे कुअरविशेषणानि प्रोक्तानि तान्येव विशेषणानि अत्रापि ग्राह्याणि, कियपर्यन्त मित्याह 'जाव' यावत स कुञ्जरः सोख्यवहुलश्चापि विहरेत, तथाहि___ 'सहिहायणे पढमसरयकालसमयसि चरमणिवाघसमयंति उहासिहए तण्हा. भिहए दवाग्गिजालाभिहए आउरे सुलिए पिवासिए दुबले दिलते एगं महई के पाद निकाल लेता हूं तो इतने काल में ही वह शीत वेदना वाले नरकों में डाला गया संतप्त लोहे का गोला यहां पिघलने और गलने लगा है ऐसा साक्षात् दिखलाई दे सकता है इल तरह वह लुहार का लड़का अब 'तं चेव णं जाच णो चेव णं संचाए पच्चुरित्तए' उस गोले को वहां से पुनः बाहर निकालने में समर्थ नहीं हो सकता है इस तरह से-यह भी और दूसरा एक दृष्टान्त इसी विषय को पोषण करने के लिये ऐसा है कि-'से णं से जहाणामए मत्तमातगे कुंजरे' जैसे-कोई एक मदोन्मत्त गजराज हो और वह ६० लाठ वर्ष का हो शरस्काल के प्रथम समय में-अश्विन मास में या चरम निदाघकाल के समय में जेठ તેટલામાં જ આને કહાડી લઉં છું તો એટલા કાળમાંજ તે શીતવેદનાવાળા નરકોમાં નાખેલ તપેલ લોખંડનો પીંડ ત્યાં ઓગળવા અને ગળવા માંડે છે. તેમ તેને સાક્ષાત્ દેખાય છે. આ રીતે લવારને છોકરી તે પછી તો चेव णं जाव णो चेव णं संचाए पच्चुद्धरित्तई' सामान त्यांथी पाछ। महार કહાડવાને શક્તિમાન્ થતો નથી. એ જ પ્રમાણે આ એક બીજું એક દૃષ્ટાંત આ વિષયને જ સમર્થન કરવા માટે બતાવવામાં આવે છે તે આ પ્રમાણે છે. 'से णं से जहानामए मत्तमातगे कुजरे' मा ४ महाभत्त गरा હાય, અને તે ૬૦ સાઈઠ વર્ષના હોય, તે શત્ કાળના પ્રથમ સમયમાં અર્થાત્ આ મહિનામાં અથવા છેલ્લે નિદાઘ કાળના સમયમાં અર્થાત જેક. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणमे ३२३ पुक्खरिणों पासेज्जा चउक्कोणं समतीरं आणुपुन्धि सुजायवप्पगंभीरसीयनजलं संछण्णपत्चभिसमिणालं बहुप्पलकुसुयणलिण सुभग सोगंध पुंडरीय महापुडरीय सयपत्त सहस्तपत्त केसर फुल्लोवचियं छप्पयपरिभुज्जमाणकमलं अच्छविमल सलिलपुण्णं परिहत्थममंतमच्छकच्छभं अणेगस उणिगणमिहुणगविरइ यसमायमहुर सरनाइयं तं पासइ, पासित्ता तं ओगाहइ ओगाहिसा सेणं तत्य उण्डंपि पविणेज्जा खुइपि पविणेज्जा जरंपि पविणेज्जा दापि पविणेज्जा, निदाएज्जवा पयलाएज्जवा सईबाई वा धिई वा उवलभेज्जा, सीए सीई 'भूए संकममाणे संक्रममाणे सायासोक्खबहुले यावि विहरिज्जा' पष्टिहायन: प्रथमशरत्कालसमये (आश्विनमासे) चरमनिदाघकालसमय वा (आषाढमासे) उष्णाभिहतः तृषामिहतो दावाग्निज्वालाभिहतः आतुरः शुषितः पिपासितो दुर्बलः क्लान्तः एका महतीं पुष्करिणी पश्येत् चतुष्कोणां समतीराम् आषाढ के ललय में-जच बह गी से अत्यन्त संतप्त हो जाने के कारण पिपालाले आकुल व्याकुल होकर पानी की तलाश में इधर से उधर चक्कर काटने लगे चक्कर काटते मान लो वह जंगल में लगी हुइ अग्नि के पास अचानक पहुंच जावे-ऐसी स्थिति में गमी की वेद. ना से और प्यास की वेदना से आकुल बने हुए उस हाथी को उस अग्नि की दाह से संतप्त होने के कारण और क्या अवस्था हो सकती है-तो था उस समय और अधिक घबड़ा जाता है, उसके कण्ठ और तालु तथा ओष्ठ बिलकुल स्लूख जाते है पहिले से भी अधिक वा पिपासा से बाधित हो जाता है शारीरिक धैर्य और मानसिक पल उस. का विलकुल ढीला पड़ जाता है और एक तरह से उत्पन्न रूग्ण, धर्म जैसी उसकी परिस्थिति बन जाती है इस हालत में पड़ा हुआ वह हाथी અષાઢ મહિનામાં જ્યારે તે ગરમીથી અત્યંત તપાયમાન થવાના કારણે તરશથી આકુળ વ્યાકુળ થઈને પાણુની તપાસમાં આમ તેમ ફરવા મંડે અને ફરતાં ફરતાં માને કે તે જંગલમાં લાગેલ આગની પાસે અચાનક પહોંચી જાય, આવી પરિસ્થિતિમાં ગરમીની વેદનાથી અને તરસની વેદનાથી આકુળ વ્યાકુળ બનેલા તે હાથીની તે અનિના દાહથી કેવી અવસ્થા થઈ શકે ? અર્થાત તે સમયે એ હાથી વધારે ગભરાઈ જાય છે. તેનું ગળું અને તાળવું અને હોઠ એકદમ સુકાઈ જાય છે, પહેલાં કરતાં પણ વધારે પડતી તરસથી વ્યાકુળ બને છે. શારીરિક ધીરજ અને તેનું માનસિક બળ એક દમ નરમ પડી જાય છે, એક તરફથી થયેલ રૂણાવસ્થાની જેમ તેની પરિસ્થિતિ બની જાય છે, આ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे आनुपूर्व्यसुजातवमगम्भीरशीदलजलाम् संछन्नपत्तबिसमृणाला चहू पलकुम्भु - नलिनसुभगसौगन्धिकपुण्डरीक महापुण्डरीकशतपत्रसहस्रपत्र के सरफुल्लोपचिताम् पट्ट्पदपरिभुज्यमानकमलाम् अच्छविमलसलिलपूर्णां परिहत्थभ्रमन्मत्स्य कच्छपासू अनेकशकुनिगण मिथुन क विरचितशब्दोन्नतिकमधुरस्त्ररनादिताम् तां ( पुष्करिणी) पश्यति दृष्ट्रा तामवगाहतेऽवगाद्य स खलु तत्रोष्णमपि प्रवि नयेत् तृपामपि घविनयेत् क्षुधामपि प्रविनयेत् ज्वरमपि प्रविनयेत् दाहमपि प्रविनयेत् निद्रायेत वा मचलायेत वा स्मृति वा रर्ति वा धृतिं वा मर्ति वा उपकभेत, शीतः शीतीभूतः संक्रामन् संक्रामन् 'साया सोक्खबहुले यावि विह'रेज्जा' साता सौख्यबहुलः समधिगत परमानन्दचापि विहरेत् 'एवामेव गोयमा' जब एक बड़ी भारी पुष्करिणी को कि जिसका वर्णन अभी अभी चतुकोण आदि विशेषणों से किया जा चुका है देखता है और देखकर वह उसमें प्रवेश कर जाता है । प्रवेश करके वह वहां अपनी गर्मी को शान्त करता है प्यास को बुझाता है एवं पास में लगे हुए शल्लकी आदि के पत्तों को खाकर उनसे अपनी भूखको भी शान्त कर लेता है। इस तरह गर्मी जन्य ज्वर से रहित हो जाने के कारण भीतर बाहर में शान्ति के आ जाने से वह वहीं पर क्षण भर के लिये निद्रा भी ले लेता है अथवा प्रचला नाम की निद्रा के आधीन हो जाता है ऊंघ जाता है इस प्रकार से भीतर बाहर में शान्ति के मिल जाने के कारण चवडा जाने से गुंधी हुई स्मरण शक्ति को हर्षोल्लास रूप रति को, धृति को और प्रति को वह गजराज प्राप्त कर लेता है । और शीतलता स्वरूप પરિસ્થિતિમાં પડેલે તે હાથી જ્યારે એક મેાટા સરાવરને દેખે કે જેનું વર્ણન પહેલા ચાર ખૂણા વાળા વિગેરે વિશેષશેા આપીને કરવામાં આવેલ છે. એવા સરાવરને રૃખીને તે એ સાવરમાં પ્રવેશ કરે છે. પ્રવેશ કરીને તે પેાતાની ગરમીને ત્યાં શાંત કરે છે. અને તરસને પણ બુજાવે છે, તેમજ સરાવરની પાસે લાગેલાં શાકી વિગેરે વનસ્પતિયેાના પાંદડાને ખાઇને તેનાથી પેાતાની ભૂખને પણ શાંત કરે છે. આ રીતે ગરમીથી થયેલ પીડાથી મુક્ત થવાના કારણે અને અંદર તેમજ ખહાર શાંતી આવી જવાથી એકાદ ક્ષણુને માટે ત્યાંજ ઘી પણ જાય છે. અથવા પ્રચલા નામની નિદ્રાને આધીન ખની જાય છે. અર્થાત્ ઉંઘી જાય છે. આ પ્રમાણે અંદર અને બહાર શાંતી મળવાના કારણે પહેલાં ગભરાઈ જવાના કારણે ગયેલી સ્મરણુ શક્તિને તેમજ હોલ્લાસ રૂપ રતિને ધૈયને, અને મતિને તે ગજરાજ ફરીથી પ્રાપ્ત કરીલે ३२४ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिका टीकाप्र. ३. उ. २ ०.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३२५ एवमेव अनेनैव अधिकृत दृष्टान्तोक्तेन प्रकारेण गौतम ! 'असम्भावपट्टणाए ' असद्भाव प्रस्थापनया-असद्भावकल्पनया 'सीथवेयणिएर्हितो नरएहिंतों' शीतवेदनीयेभ्यो नरकेभ्य 'नेरइए उच्चट्टिए समाणे' तैरयिको नरकाद् उद्वृत्तः सन् 'जाई' इमाई इहं मणुहसलोए हवंति' यानीमानि इह मनुष्यलोके भवन्ति शीतप्रधानानि स्थानानि, 'तं जहा तद्यथा - 'हिमाणि वा हिमपुंजाणिवा' हिमानिवा हिमपुखानि वा 'हिमपडलाणि वा हिमपडलपुंनाणि या हिमपटलानि वा हिमपटलपुञ्जानि वा 'तुसाराणि वा तुसारपुंजाणिवा' तुषाराणि वा तुषारपुञ्जानि वा 'हिमकुंडाणि वा हिमकुंड पुंनाणि वा' हिमकुण्डानि या हिमकुण्डपुखानि वा 'सीयाणि वा सीयपुंजाणि वा' शीतानि वा शीतपुञ्जानि वा 'ताई पालई' तानी हुआ वह अपने स्थान पर महत चाल से चलकर पहुंच जाता है- एवं वहां साता सौख्य मय होकर शेष जीवन को सुखमय निकाल देता है 'एवामेव गोषमा!' इसी तरह से हे गौतम! यह भी असत् कल्पना से समझ लेना चाहिये कि 'सीयमणिएहितो नरहितो' शीत वेदनावाले नरकों से 'नेरइए उबहिए' कोई नैरभिक उद्घृत हुआ और उद्घृत होकर (निकलकर ) वह 'जाई हमाई इहं मनुस्खोए हवंति' जो ये मनुष्य लोक में शीत प्रधान स्थान है - जैसे कि 'हिमाणि वा हिम पुंजाणि वा' हिम हिम पुंज, 'हिम पडलाणि वा हिमपडल पुंजाणिवा' हिम पटल, हिम पटल पुंज, 'तुसाराणि वा तुसार पुंजाणिवा' तुषार तुषार, पुंज 'हिम कुंडाणि वा हिमकुंडपुंजाणिवा' हिमकुण्ड, हिम कुण्ड पुंज 'सीयाणि वा सीय पुंजाणि' शीत अथवा शीत पुंत्र वगैरह 'लाई लम्बाई पासह' उन सप स्थानों को वह देखे-'पाशिता' और देखकर 'ताई' ओगाहई' उनमें अथ છે. અને શીતલ સ્વરૂપ ખનેલે તે ગજરાજ પેાતાના સ્થાન પર મસ્ત ચાલથી ચાલીને પહોંચી જાય છે. અને ત્યાં શાતા અને સુખમય ખનીને બાકીના भुवनने सुख पूर्व वीतावे हे 'एवासेव गोमा !' मा प्रभा डे गौतम ! मायालु सपना समभवी लेड से 'सीयवेयणिएहिंतो नरएहितो' शीत बेहना वाजा नरोयांथी 'नेरइए उखट्टिए' धनैरयि महार नहत्या होय, भने महार नीम्जीने ते 'जाई' इमाई इह मणुस्सलोए हवति' ने मा मनुष्यताम्मां शीतप्रधान स्थान छे, प्रेम 'हिमाणि वा हिमपुंजाणिवा' हिम डिभयुं 'हिमपडलाणि वा हिमपडल पु जाणिवा' डिभपटा भरनो गोणी हिम पटसन अरइना गोजाना ढगले 'हिमकुडाणिवा, हिमकुंडपु जाणिवा' हिम ॐ डिभड यु 'सीयाणिवा खीयपु'जाणिवा' शीत अथवा शीतयुन विगेरे 'ताई' सव्वाई' पास' मे मधा स्थानाने ते हेथे छे, 'पासित्ता' भने हेमीने Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ 'जीवाभिगमसूत्र मानि लोके शीतस्थानानि पश्यति 'पासित्ता' दृष्ट्वा 'ताई ओगाई' तानि स्था. नानि अवगाहते 'ओगाहित्ता से णं तत्थ सीयांप पविणेज्जा' तानि स्थानानि अवगाह्य स खल नारका तत्र स्थाने शीतं नारकशीतपि प्रविनयेत-विनाशयेत 'तण्डपि पविणेज्जा' तृपामणि प्रविनयेत् 'खुपि पविणेज्जा क्षुधामपि प्रविनयेत "जरीप पविणेज्जा' ज्वरमपि प्रविनयेत् 'दाही पविणेज्जा' दाहमपि भविनयेद नरकवेदनाय नरकसंपर्कसमुत्थितं दाइमाप पारहरेदित्यर्थः, ततः शांतत्वादिदोषा पगमताऽनुत्तरं सुखं लभमानः 'निदाएज्ज वा पयलाएज्ज वा जाव उसिणे उसिण भूए' निद्रायेत वा पचलायेत वा स्मृति वा रति वा धृति वा पति वा लभेत ततो नरकगत जाडथापगमात् उष्णः, स च वान प्रदेशमानतोऽपि स्यात् तव गाहन करे 'ओगाहित्ता' अवगा हन कर 'से णं तस्य सीयं पिपविणेज्जा' वा उनके संपर्क से अपनी नरक जन्य शीत की निवृत्ति करले 'तण्हं पिपविणेज्जा' तृषा फी भी निवृत्ति कर लेता है 'खुहं पि पविणेज्जा' क्षधा को भी निवृत्ति करले 'जरपि पविणेज्जा' शीतजन्य ज्वर की भो निवृत्ति करले, 'दाहं पि पविणेज्जा' और जो उसके शरीर में शीत वेदनीय नरक के संपर्क ले शीतजन्य दाह हो रहि थी उसकी भी निवृत्ति करले, इस तरह शीतता आदि दोषों के नष्ट हो जाने से अनुत्तर सुख को प्राप्त हुशा वह नारक जीव वहां पर थोडी देर के लिये निद्रा भी ले लेवे और प्रचला झीम-भी ले लेवे (चलते या बैठे बैठे आने वाली निद्रा) तथा-स्मृति रति-धृति और मति इन्हें भी प्राप्त कर लेवे-इस तरह नरक गत जड़ता के दर हो जाने से भीतर से उणीभूत हुआ वह नारकी उत्साह संपन्न बन बाई ओगोहद तमाम न ४२ छे. अर्थात् ४४ भारे छे. 'ओगाहित्ता' असाहन रीत से णं तत्थ सीय पि पविणेज्जा' ते तेना सपथी नर न्य पोताना शीतनी निवृत्ति ४री छे. 'तह नि पविणेज्जा' तत्स५५ शांत श . 'खहपि पविणेज्जा' भूभने ५ शांत से छे. 'जर पि पविणेज्जा' शीतन्य ने ५ शांत शव छ 'दाईपि पविणेज्जा' भने तना शरीरमा શીત વેદનીય નરકના સંપર્કથી જે શીત જન્ય દાહ થઈ રહેલ હોય તેની પણ નિવૃત્તિ કરી લે છે. આ પ્રમાણે શીતલતા વિગેરે દેને નાશ થવાથી અનુત્તર સુખને પ્રાપ્ત કરેલ તે નારક જીવ ડીવાર માટે ત્યાં જ ઉંઘી પણ જાય અને પ્રચલા અર્થાત્ ચાલતા ચાલતા કે બેઠા બેઠા આવનારી ઊંઘ પણ લઈ લે છે. આ રીતે નરકમાં રહેલ જડતા દૂર થઈ જવાથી અંદરથી ઉ રૂ૫ બનેલ આ નારકી ઉત્સાહ યુક્ત બનીને ધીરે ધીરે આનંદ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिकाटीका प्र.३ उ.२ १.२१ नारकाणां नरकभवानुभवननिरूपणम् ३२७ उष्णीभूतोऽन्तरमपि नरकगत जाडयापगमात् जातोत्साहः संकममाणे संकममाणे' एवं भूतः सन् यथा सुखं संक्रामन् संक्रामन् 'सायासोक्ख बहुले यावि विहरेज्जा' साता सौख्यबहुलश्चापि विहरेत् । एतावति यतिपादिते गौतमः माह-हे भदन्त ! एतावत्प्रमाणा नरके शीतवेदना भवेत् भगदानाह-हे गौतम ! नायमर्थः समर्थः 'सीय वेयणिज्जेसु नरए सु नेरइया' शीतवेदनीयेषु नरकेषु नायिकाः 'एत्तो अणि? तरियं चेव सीयवेयणं' इतोऽपि अनिष्टतरिका मकान्ततरिका ममियतरिको मम नोज्ञ तरिका ममनोऽमतरिका शीतवेदनाम् 'पञ्चणुभवमाणा विहरंति' प्रत्यनुभवन्तः प्रत्येकं वेदयमाना विदरन्ति-तिष्ठन्तीति ।मु०२१॥ ___ सम्मति नारकाणां स्थिति प्रतिपादनार्थमाह-'मी सेणे' इत्यादि, मूलम्-इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, गोयमा ! जहन्नण वि उकोलेण वि ठिई माणिशव्या जाव अहे सत्तमाए ॥ इमीले ण भंते ! रयण. प्पभाए पुढवीए नेइया अणंतरं उवट्टिय कहिं गच्छंति कहिं उववति, किं नरइएसु उववजति किं तिरिक्खजोणिएसु कर धीरे २ वहां ले आनन्द मग्न होकर चल देवे और इस तरह से वह साता सुख बहुल भी हो जाये । इस प्रकार प्रभु के कहने पर पुनः गौतमस्वामी ने उनसे पूछा-तो क्या ऐली शीत वेदना नरक में होती है ? इसके उत्तर में प्रभु करते हैं-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्योंकि 'सीयवेणिज्जेसु नरएस्सु नेरहया एत्तोअणि तरियं चेव सीयवेयणं पच्चणुभषमाणा विहरंति' शीत वेदना वाले नरकों में नैरधिक इससे भी अनिष्टतर, अकान्तर अप्रियतर अमनोजतर एवं अमनोऽमतर शीत वेदना को भोगते है। अतः उनको यहां की शीतता उष्णता रूपमें प्रतीत होगी। सूत्र ॥२१॥ મગ્ન થઈને ત્યાંથી ચાલત થાય છે, અને આ પ્રમાણે તે સાતા અને સુખ પૂર્ણ પણ બની જાય છે, આ રીતે પ્રભુના કહેવાથી ગૌતમસ્વામીએ ફરીથી પ્રભુને પૂછ્યું કે તે શું ? એવી શીત વેદના નરકમાં હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अस से छ ह गौतम ! मा म १२१५२ नथी. म 'सीयवेयणिज्जेस नरएसु पच्चणुभवमाणा विहरति' शीत वहनावा नरोमा नायि। मानायी પણ અનિષ્ટતર, અકાઃતર. અપ્રિયતર, અને અમને ગમતર, શીત વેદનાને ભગવે છે. તેથી તેને અહિની શીતળતા, ઉષ્ણતાપણાથી જણાશે, એ સૂ. ૨૧ છે Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ जीवामिगमले उववज्जंति, एवं उबट्टणा माणियच्या जहा वकंतीए तहा इह वि जाच अहे लतलाए ॥सू० २२॥ ___ छाया-एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिव्यां नैरयिकाणां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम । जघन्येनापि उत्कर्पणापि स्थितिर्भणितव्या यावदधः सप्तम्याम् । एतस्यां खल सदान्त ! नमामायां पृथिव्या नैरयिका अनन्तरमुत्य कुत्र गच्छन्ति, हुनोत्पधन्ते, किं नैरयि के पूत्पधन्ते किं तिर्यग्यो. निके पुत्पधन्ते । एवमुद्वर्तना सणि व्या यथा व्युत्क्रान्तों तथा इहापि यावदधःसप्तम्याम् ॥०२१॥ टीका-'इसीसे णं मंते !' एलयां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाप पुढचीए' रत्नघमायां पृथिव्याश् 'नेरइयाण' रिहाणाम् 'कइयं कालं टिई पन्नत्ता' कियन्तं कालं स्थितिः यज्ञप्ता-कथितेति नेविस्थिति विषयकः प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'मोयमा' हे गौतम ! 'जहन्मेण वि उक्को सेणनि' जघन्येनापि उत्कर्पणापि 'ठिई माणिराया जाव अहे सत्तमाए' स्थितिर्भणितव्या यावदधः सप्तम्याम् सर्वस्यामेव नारफपृथिव्यां नारकाणां स्थितिवक्तव्या, तथाहि अथ सूत्रकार नरकों की स्थिति का प्रतिपादन करने के लिये सूत्र कहते हैं-'इभी से गं अंते ! रणप्पभाए'-इत्यादि। टीकार्थ-गौतमस्वामी ने प्रभु ने ऐसा पूछा है-'इमी से णं भंते!' हे भदन्त ! इस 'रयणप्पभाए पुढबीए' रत्नप्रभा पृधिची में 'नेर इयाणं' नर यिकों की 'केवाइयं कालं ठिई पता कितने साल की स्थिति कही गई है ? इलके उत्तर में प्रभु कहते हैं-शोधमा!' हे गौतम! यहां नारकों की जघन्य स्थिति और उत्कृष्ट सिति दोनों प्रकार की स्थिति होती है अतः दोनों प्रकार की स्थिति यहां पर कर लेनी चाहिये इस तरह प्रथम હવે સૂત્રકાર નરકેની સ્થિતિનું પ્રતિપાદન કરવા માટે કથન કરે છે. 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभाए' त्यादि । य-गीतभाभी प्रभुन से ५ यु. है 'इमीसे णं भंते !' डे भगवन् मा 'रयणप्पभाए पुढवीए' २त्नमा वीमा 'नेरइयाण' नहिना 'केवइय काल ठिई पण्णत्ता' टसा आनी स्थिति ही छे १ मा प्रश्रना उत्तरमा प्रभु गौतमस्वामी छ गोयमा ' है गौतम | डिया નારકેની જઘન્ય સ્થિતિ અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એમ બન્ને પ્રકારની સ્થિતિ હોય છે તેથી અહિંયાં બન્ને પ્રકારની સ્થિતિનું કથન કરવું જોઈએ. આ પ્રમાણે પહેલી પૃથ્વીના નારકની જઘન્ય સ્થિતિ દસ હજાર વર્ષની છે અને Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ खु.२२ नारकस्थितिनिरूपणम् ____३२९ -रत्नप्रभा पृथिवीनारकाणां जघन्येन दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण सागरोपणम् । शर्करामभा पृथिवी नैरयिकाणां जघन्यत एक सागरोपमम् उत्कर्पत स्त्रीणि सागरों पमाणि, बालुकापमा पृथिवी नरयिकाणां जघन्येन त्रीणि सागरोपमाणि उत्कर्षतः साप्त सागरोषमाणि । पङ्कप्रभा पृषिबीनर शिकाणां जघन्यतः लाल सागरोपमाणि उत्कर्षतो दशसागरोपमाणि, धूमप्रभा पृथिवीनरयिज्ञाणां जघन्यतो दशसाबरोपमाणि उत्कर्षतः सप्तदशसागरोपमाणि, तमाघमा पृथिवी नरहियकाणां जबन्यतः सप्तदशसागरोपमाणि उत्कर्षतो द्वाविंशति सागरोत्राणि तपस्टम प्रभा पृथिव्यां नैरयिकाणां जघन्येन द्वाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्षतः त्रयस्त्रिंशस्लामशेषाणि । पृथिवी के नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपन की है शर्करमा पृथिवी में जघन्य स्थिति एक सागरोपम की है और उष्ट स्थिति तीन लागीएमद की है बालसाप्रभा के नारकों की जघन्य स्थितितीन सोमवार की ओर सशष्ट स्थिति सात सागरशेपन की है पडामा पृथिवी के बारको भी स्थिति जघन्य से सान सागरोपल की है और उस्कृष्ट से बह दस लामारोपम की है। धूमप्रभा के नारकों की जघन्य स्थिति दस लाशेपसही है और उत्कृष्ट स्थिति सत्रह सामरोपण की है-तमामा पृथिवी के नारकों की जघन्य स्थिति सत्रह सागरोपम की है और उत्कृष्ट रिपति पाईस सागरोपम की है तथा अधः सप्तमी पृथिवी के नैरधिकों की जघन्य स्थिति बाईस सागरोपल की है और उत्कृष्ट स्थिति तेतील सागरोपम की है। इस तरह ले पाए.सामान्य रूप से पति वृथिवी में नारकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का कथन किया है अब हर ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સાગરોપમની છે શર્કરામભા પૃથ્વમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરેપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ સાગરોપમની છે. તાલુકા પ્રભા પૃથ્વીના નારકેની જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સાગરોપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાત સાગરોપમની છે. પંપ્ર પૃથ્વીમાં નારકેની જઘન્ય રિથતિ સાત સાગરોપમની છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી દસ સાગરોપમની છે. ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના નારકેની જઘન્ય સ્થિતિ દસ સાગરોપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ રિથતિ સત્તર સાગરોપમની છે તમ:પ્રભા પૃથ્વીના નારની જઘન્ય સ્થિતિ સત્તર સાગરોપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ રિથતિ ૨૨ બાવીસ સાગરેપની છે. તથા અધઃસપ્તમી પૃથ્વીના નરયિકેની જઘન્ય સ્થિતિ બાવીસ સાગરોપમની છે, અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ તેત્રીસ સાગરોપમની છે. આ પ્રમાણે સામાન્ય પણાથી દરેક પૃથ્વીમાં રહેલા નારકેની જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિનું કથન કરવામાં આવેલ છે. - जी० ५२ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 जीवामिगमसूत्र .. तदेवं सामान्यतः प्रति पृथिवीस्थितिपरिमाणं कथितं यद्येतत्पतिप्रस्तटं स्थि. तिपरिमाणं विचार्यते तदा एवं ज्ञातव्य रत्नप्रभा प्रथिव्यां प्रथमें प्रस्तटे जघन्या स्थिति: दशवर्षसहस्राणि, उत्कृष्टा तु नवतिषसहस्त्राणि रस्तरमा हितीय प्रस्तुटे जघन्या दशवर्षलक्षा स्थिति रुत्कृष्टा नतिर्वपलक्षा, रत्नामा तृतीय प्रस्तटे जघन्यतो नवनिवर्पलक्षा, उत्कृष्टतः पूर्वकोटी, रत्नप्रभा पृथिव्याः चतुर्थमस्तटे जघन्या पूर्वकोटी उत्कृष्टा सागरोपमम्य दशगो मामा, मामा पञ्चमप्रस्तटे जघन्या सागरोपमस्यैको दशभागः उत्कृष्टा द्वौ दशमागी, रत्नप्रमायिन्या: षष्ठ प्रस्तटे जघन्या सागरोपमस्य द्वौ दशमागों उत्कृष्टा स्त्रयोदशभामा रत्नमा सप्तमे प्रस्तटे जघन्या स्त्रयः सागरोपमस्य दशभागाः उत्कृष्टाश्चत्वारो दशएक प्रस्तर में स्थिति के प्रमाण का कश्न किया जासलो वह इस प्रकार से है-रलप्रभा में प्रथम प्रस्तट में जघन्ध स्थिति दस हजार वर्षे की है उत्कृष्ट स्थिति नब्बे (९०) हजार वर्ष की है। रत्नप्रथा के द्वितीय प्रस्तट में जघन्य स्थिलि दल लाग्न वर्ष की और उसकट स्थिति नन्ये लाख वर्ष की है रत्नप्रभा के तीसरे प्रस्तट में जघन्य स्थिति नब्वे लाख वर्ष की है और उत्कृष्ट स्थिति एक पूर्व कोटि की है रत्नप्रभा के चतुर्थ प्रस्तट में जघन्य स्थिति एक पूर्व कोटी फी और उत्कृष्ट स्थिति एक सागर के दस वे भाग प्रमाण है रत्नप्रभा के पांचवें प्रस्तट में जघन्य स्थिति साधरोपम के दल विभाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति दो दश भाग प्रमाण है । रत्नप्रभा के छठे प्रस्तट में जघन्य स्थिति सागरोपम के दो दश भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति त्रयोदश भाग प्रमाण है रत्नप्रभा के सप्तम प्रस्तट में जघन्य स्थिति હવે દરેક પ્રસ્તટમાં સ્થિતિના પ્રમાણનું કથન કરવામાં આવે છે. તે આ પ્રમાણે છે. રતનપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય રિથતિ દસ હજાર વર્ષની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ૯૦ નેવું હજાર વર્ષની છે રત્નપ્રભા પૃથ્વીના બીજા પ્રતરમાં જઘન્ય સ્થિતિ દસ લાખ વર્ષની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ નેવું લાખ વર્ષની છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ત્રીજા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એવું લાખ વર્ષની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક પૂર્વ કાટિની છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના ચેથા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક પૂર્વકેટિની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સાગરના દસમાં ભાગ પ્રમાણની છે. નકલ પૃથ્વીના પાંચમા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમના દસમાં ભાગ પ્રમાણુની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બે દસમા ભાગ પ્રમાણુની છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના છઠા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમના બે દસમા ભાગ પ્રમાણુના છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ તેરમા ભાગ રૂપ છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના સાતમા Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योति का टीका प्र.३ उ. स.२२ नारफस्थितिनिरूपणम् भागाः, रत्नप्रभा पृथिव्याः अष्टमे प्रस्तटे जघन्याश्चत्वारः सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टाः पञ्चदश भागाः, रत्नप्रभा लवमे प्रस्तटे जघन्या पश्च-सागरोपमस्य दशभागाः पृथिव्याः उस्कृष्टा पट्, रमपमा दशमे प्रस्तटे जघन्या षट् सागरोपमस्य दशभागा: उत्कृष्टा सप्त, रत्नमाया एकादशे प्रस्तटे जघन्याः सप्त सागोपमस्य दशभागाः, उत्कृष्टा अष्टौ, रत्नप्रमाद्वादशमनटे जघन्या अष्टौ सागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टा नद, रत्नप्रभा त्रयोदशास्तटे जघन्या नवसागरोपमस्य दशभागा उत्कृष्टादश, तदेवं परिपूर्णमेकं सागरोपमं भवति रत्नप्रभा नारकाणां स्थितिरिति । एक लागरोपम के यो दश भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट स्थिति चार दश माग रूप है रत्नप्रभा के आठवें प्रस्तर में जघन्य स्थिति सागरोपन के चार श लोग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति पांच दश भाग रूप है रत्नप्रभा के नौवें प्रस्तट में जघन्य स्थिति सोगरोपम के पांच दश भाग है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपन के छह दश भाग रूप है रत्नप्रभा के दसवें प्रस्ट में जघन्य स्थिति सागरोपमा के छह दश भाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपन के सात दश माग रूप है रत्नप्रभा के ग्यारह वें प्रस्तट में जघन्य स्थिति सामारोपम के सात दश भागरूप है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपन के आठ दश भाग रूप रत्नप्रभा के बारह वे प्रस्तट में जघन्य स्थिति सागरीपन के आठ दश भाग रूप है और उस्कृष्ट रिति लापरोपम के नौ दशभाग रूप है तथा रत्नप्रया के तेरह में प्रस्तट में जघन्य स्थिति लागरोपम के नौ , પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમના તેરમા ભાગ પ્રમાણુની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ચાર દસ ભાગ રૂપ છે. રતનપ્રભાના આઠમા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમના ચાર દસમાં ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પાંચ દસ લાગ રૂપ છે. રત્નપ્રભાના નવમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમના પાંચ દસ હજાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાગરોપમના છ દસ ભાગ રૂપ છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના દસમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોયનના છ દસ ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાગરોપમના સાત દસ ભાગ રૂપે છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના અગીયારમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમના સાત દસ ભાગ રૂપ છે અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાગરોપમના આઠ દસ ભાગ રૂપ છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીના બારમા પ્રતટમાં જઘન્ય રિથતિ સાગરોપના આઠ દસ ભાગ છે, અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાગરોપમના નવ દસ ભાગ રૂપ છે. તથા રતનપ્રભા પૃથ્વીના તેરમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમના નવ ભાગ્ય Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे 17 (२) शर्कराममायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थितिरेकं सागरोपमम् उत्कृष्टा एकं सागरोपमं द्वौ च सागरोपमस्यैकादशमागो, द्वितीयमस्तटे जघन्या एक सारोपमम् द्वौ च सागरोपमस्यैकादशभागौ, उत्कृष्टा एकं सागरोपमं चत्वारः : सागरोपमस्यैकादशभागाः, तृतीयमस्तटे जघन्या एकं सागरोपमं चत्वारः सागरो- पमस्यैकादश भागाः उत्कृष्टा एकं सागरोपमं पहू सागरोपमस्यैकादशभागाः, चतुर्थमस्तटे जघन्या एकं सागरोपमं पद् सागरोपमस्यैकादशभागाः, उत्कृष्टा एकं सागरोपममष्टौ सागरोपमस्यैकादशभागाः, पञ्चमे प्रस्तटे जघन्या एकं - सागरोपमम् अष्टौ सागरोपमस्यैकादशभागाः, उत्कृष्टा एकं सागरोपमं दशदशभाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम के दस भाग रूप है इस तरह से यहां एक परिपूर्ण सागर की उत्कृष्ट स्थिति आजोती है। 2 २ शर्कशप्रभा के प्रथम प्रस्तट में जघन्य स्थिति एक सागरोपम की है और कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की और एक सागरोपम के दो ग्यारह भाग रूप है द्वितीय प्रस्तव में जघन्य स्थिति एक सागरोपम की और एक सागरोदय के दो ग्यारह भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति पूरे एक सागर की और खागरोपम के चार ग्यारह भाग रूप है। तृतीय प्रस्तट में जघन्य एक सागरोपम की और एक सागरोपम के चार ग्यारह भाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपस की है और एक लागरोन के ग्यारह भाग रूप है चौथे प्रस्तर में जघन्य स्थिति एक सोगरोपन के छह ग्यारह भाग रूप है. एवं उत्कृष्ट स्थिति एक सागरो · "३३२ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાગરાપમના દસ ભાગ રૂપ છે. આ પ્રમાણે અહિયા એક પરિપૂર્ણ સાગરની ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ આવી જાય છે. · (૨) શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રસ્તટમાં જધન્ય સ્થિતિ એક સાગરીપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સાગરોપમની અને એક સાગરાપમના એ અગીયારના ભાગ રૂપ છે ખીજા પ્રસ્તટમા જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરે યમની અને એક સાગરાપસના એ અગીયારમા ભાગ પ્રમાણુની છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પૂરા એક સાગરની અને સાગરાપમના ચાર અગીયારમા ભાગ પ્રમાણુની છે. ત્રીજા સ્તટમાં જધન્ય સ્થિતિ એક સાગરાપમની અને એક સાગરીચમના ચાર અગીયારમા ભાગ પ્રમાણુની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સાગ ચાપક્ષની તથા એક સાગરાપમના છ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. ચેાથા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરાપમની અને એક સાગરી વમના છ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સાગરોપમની છે, અને એક સાગરોપમના આઠે અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. J Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैयद्योतिकाटीका प्र.३ उ.२ रू.२२ नारकस्थितिनिरूपणम् सागरोपमस्यैकादशभागाः, षष्ठे मस्तटे जघन्या एकं सामरोपमं दशसागरोपमस्यैकादशभागाः, उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे, एकः सागरोपमस्यैकादशभागाः, सप्तमे प्रस्तटे जघन्या द्वे सागरोपमस्यैकादशो भागः, उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे त्रयः सागरो. पमस्यैकादशभागाः, अष्टमे प्ररतटे जघन्या द्वे सागरोपमे त्रयः सागरोपमस्य एकादशभागाः, उत्कृष्टा द्वे सागरोपसे एश्वसामोपमस्यैकादशभागा। नवये प्रस्तटे जघन्या व सागरोपमे पञ्च सागरोपमस्यैकादशभागाः, उत्कृष्टा द्वे सागरो. पमे सप्त सागरोपमस्यैकादशभागाः, दशमे प्रस्तटे जघन्या द्वे सागरोपमे पम की है और एक सागरोपम के आठ ग्यारह भाग रूप है पांचवेप्रस्तट में जघन्य स्थिति एक सागरोपम की और एक लागरोपम के आठ ग्यारह भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की और सागरोपम के दश ग्यारह भाग रूप है छठे-प्रस्तर में जघन्य स्थिति एक सागरोपन की और स्लागरोपम के दस ग्यारह भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति दो खागोपल की और सागरोपन का एक ग्यारह भाग रूप है-सातवें प्रस्तट- जघन्य स्थिति दो सागरोपम की है और सागरोप का एक ग्यारह भाग रूप है तथा उस्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की है और एक सागरोपल के तीन ग्यारह भाग रूप है आठवे प्रस्तट में जघन्य स्थिति दो सागरोपल की है और एक सागरोपम के तीन ग्यारह भाग रूप है तथा उस्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की है और एक सागरोपन के पांच ग्यारह भाग रूप है नौवें प्रस्तट-में जघन्य પાંચમા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરોપમની અને એક સાગશે. પમના આઠ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ એક સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના દસ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. છઠા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ એક સાગરોપમની અને સાગરોપમના દસ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બે સાગરોપમની અને સાગરેપમના એક અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. સાતમાં પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ બે સાગરેપમની અને સાગરોપમના એક અગીયારમાં ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બે સાગરોપમની અને એક્ર સાગરોપમના ત્રણ અગીયારમાં ભાગ રૂમ છે. આઠમાં પ્રસ્તટમાં જશુન્ય સ્થિતિ બે સાગરોપમની અને એક સાગર પમના ત્રણ અગીયારમાં ભાગ રૂપ છે. તેમજ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બે સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના પાંચ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :३३४ जीवाभिगमसूत्र सप्त सागरोपमस्यैकादशभागाः, उत्कृष्टा द्वे सागरोपमे नवसागरोपमस्यैकादश भागाः । एकादशे प्रस्तटे जघन्या द्वे सागरोपमे नवसागरोपमस्यैकादशभागाः, उत्कृष्टा त्रीणि सागरोपमाणि । (३) बालुकामभायां प्रथममस्तटे जघन्या स्थिति स्त्रीणि सागरोपमाणि उत्कृष्टा त्रीणि सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य नवभागाः। द्वितीयप्रस्तटे जघन्या त्रीणि सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य नवभागाः, उ कृष्ण त्रीणि सागरोपस्थिति दो सागरोपम की और एक सागरोपम के सात ग्धाहर भाग रूप हैदशवें प्रस्ताट-में जघन्य स्थिति दो सागरोपम की है और एक सागरोपम के सात ग्यारह भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति दो सागरोपम की है और एक सागरोपम के नौ ग्यारह भाग रूप है लथा-ग्यारहवें प्रस्तट में जघन्य स्थिति दो सागरोपम की है और एक सागरोपन के नौ ग्यारह भाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की है। यहां ग्यारह प्रस्तट है असः उनमें रहने वाले लारक जीवों की यह स्थिति कही गई है. ३ बालुकाप्रभा में प्रथम-प्रस्तट में जघन्य स्थिति तीन सागरोपम की और सागरोपमा के चार नौ भाग रूप है द्वितीय प्रस्तट में-जघन्य स्थिति तीन सागरोपम की और एक सागरोपम के चार नौ भाग रूप है तथा उस्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की और एक सागरोपम के आठ નવમાં પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ બે સાગરેપમની અને એક સાગરપમના સાત અગીયારમાં ભાગ રૂપ છે. દસમા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ બે સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના સાત અગીયારમાં ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બે સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના નવ અગીયારમા ભાગ રૂપ છે. અગીયારમાં પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ બે સાગરોપમની અને એક સાગરપમના નવ અગીયારમાં ભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ સાગરે પમની છે. આ શરામભા પૃથ્વીમાં અગીયાર પ્રતટો છે તેમાં રહેવાવાળા તાર૪ જીની આ સ્થિતિ કહેવામાં આવી છે. ૩–ત્રીજી વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સાગરોપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ સાગરોપમની અને સાગર પમના ચાર નવ ભાણ પ્રમાણુની છે, બીજા પ્રસ્તમાં જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સાગરોપમની અને એક સાગરપમના ચાર નવ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ત્રણ સાગરેપમની અને એક સાગરોપમના આઠ ભાગ પ્રમાણુની છે. Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.२ १.२२ नारकस्थितिनिरूपणम् ३३५ माणि अष्टौ सागरोषमस्य नवभागाः । तृतीय प्रस्नटे जघन्या त्रीणि सागरोपमाणि अष्टौ सागरोपमस्य नवभागाः, उत्कृष्ट चत्वारि सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य नवभागा: । चतुर्थ प्रस्तटे जघन्या चत्वारि सागरोपमाणि जया सागरोपमस्य नवभागाः, उत्कृष्टा चत्वारि सागरोपमाणि सप्तसागरोपमस्य लाभागाः। पञ्चमे जघन्या चस्वारि सागरोपमाणि सप्लसागरोपमस्थ नवजागाः, उत्कृष्टा पञ्चसागरोपमाणि द्वौ सागरोषमस्य ववसागौ । षष्ठे यस्तटे जघन्येन पञ्चसागरोपमाणि द्वौ सागरोपमास नवभागो उत्कृष्टा पञ्चसागरोपमाणि षट् सागरोपमस्य नव मागाः । सपनु मे जघन्या पश्चमागरोपमाणि षट् सागरोषमस्य नवभागाः, उत्कृ. नौ भाग रूप है वृतीय स्नट में- जघन्थ्य स्थिति तीन लागरोपम की और एक स्वासरोपम के आठ नौ नागरूप है. तथा उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोषन की और एक सागरोपम के तीन लो भाग रूप है। चतुर्थ प्रस्तट- जघन्य स्थिति चार लागरोपम की और एक सागरोपम के तीन नौ भाग रूप है-और उत्कृष्ट स्थिति चार सागरोपन की और एक सागरोपन के सात नौ भाग है। पञ्चम प्रस्तट-में जघन्य स्थिति चार सागरोपम की और एक सागरोपण के सात नौ भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति पांच सागरोपम की है और सागरोपम के दो नौ भाग रूप है। छठे प्रस्तट- जघन्य स्थिति पांच लागरोषस ही और एक सागरोपम के दो नौ भाग रूम है और उत्कृष्ट स्थिति पांच लागरोपम की एवं एक सागरोपनले छह नौ भाग रूप है। स्वातकें प्रस्तट-में जघ ત્રીજા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ ત્રણ સાગરેપમની અને એક સાગરેએમના આઠ નવ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ચાર સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના ત્રણ નવ ભાગ રૂપ છે. ચોથા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ ચાર સાગરોપમની અને એક સાગર ૫મના પણ નવભાગ રૂપ છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ચાર સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના સાત નવ ભાગ રૂપ છે. પાંચમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ ચાર સાગરેપમની અને એક સાગરેપમના સાત નવ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પાંચ સાગરોપમની અને સાગરોપમના બે નવ ભાગ રૂપ છે. છઠા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ પાંચ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના બે નવ ભાગ રૂપે છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પાંચ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના છ નવ ભાગ રૂપ છે. સાતમા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ પાંચ Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ जीवामिगमत्र टा षट् सागरोपमाणि एकः सागरोपमध्य नवभागाः । अgमें प्रस्तटे जघन्या पट सागरोपमाणि एकः सागरोपमाय नमो भामा, उत्कृष्टा पट् सागरोपमाणि पश्च सागरोपमस्य नवभागाः । ननमे प्रस्तटे जघन्या पटू सागरोपमाणि पञ्चसागरी पमस्य नव भागाः, उत्कृष्टा परिपूर्णानि सप्त लागरोपमाणि ।। (४) पङ्कमभायां प्रथमे भरत टे जघन्या स्थितिः सप्त सागरोपमाणि उत्कृष्टा सप्त सागरोपमाणि त्रयः सागरो परस्य सप्त भागाः। द्वितीये प्रस्टे जघन्या सप्त सागरोपमाणि यः सागरोपमस्य सप्तभागाः, उत्कृष्टा सप्त सांगरोपमाणि न्य स्थिति पांच सायरोपी और एक सागर के छह नौ भाग रूप है और उत्कृष्ट स्थिति छह सामोपल की तश्या एक सागरोपम के एक नौवें आग रूप है. जाठमें प्रतट-में जघन्य स्थिति छह सोगरो. पम की है और एक लागोप के एक नौ- भाग रूप है तथा उस्कृष्ट स्थिति छह लागरोएम और एक सागरोपम के पानी भाग रूप है. और नौवें प्रस्तट-में जघन्य स्थिति छह सागरोपन की है और एक सागरोपम के पांच नौ भाग रूप है। और उत्कृष्ट स्थिति पूरे सात सागरोपम की है। यहां नौ ही प्रस्तर हैं अत: उनकी यह जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। ४:-पडपभा के प्रथम प्रस्ताट-में जघन्य स्थिलि सात सागरोपम की और एफ लागरोपम के तीन सात भाग रूप है। वित्तीय प्रस्तट में जघन्य સાગરેપમની અને એક સાગરોપમના છ નવભાગ રૂપે છે. અને ઉત્કૃષ્ટ રિથતિ છ સાગરોપમની તથા એક સાગરોપમના એક નવ ભાગ રૂપ છે. આઠમા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ છ સાગરોપમની અને એક સાગરપમના એક નવમા ભાગ રૂપે છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ છ સાગરેપમ અને એક સાગરોપમના પાંચ નવ લાગ રૂપ છે. નવમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય રિથતિ છ સાગરોપમની અને એક સાગરેપમના પાંચ નવ ભાગ રૂપ છે અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પૂરા સાત સાગરોપમની છે. અહિયાં નવ જ પ્રસ્ત છે. તેની આ જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ કિથતિ બતાવવામાં આવી છે. ૪ પંકણભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાત સાગરેપમની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાત સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના ત્રણે भाग ३५ छे. બીજા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાત સાગરોપમની અને એક સાગરે Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ मनु.२२ नारस्थितिनिरूपणम् --- --- ३३७ षट् सागरोपमस्य सप्तमागाः। तृतीयमस्तटे जघन्या सप्लसागरोपमाणि षट् सागरोपमस्य सप्तमागा, उत्कृष्टा अप्टी सागरोपमाणि हौ सागरोषसस्य सप्त भागौ । चतुर्थ प्रस्तटे जघन्या अष्टौ साबरोपमाणि हौ सागरोषार सामागौ उस्कृष्टा अष्टौ सागरोपमाणि पञ्च सागरोपमल्ल सप्तमामा। पञ्चमे घरटे जघन्या अष्टौ सागरोषमाणि एञ्चसागरोपपत्य सप्तमामा उत्कृष्टानब सागरोपमाणि एका सागरोपखस्य सप्तमामा ! पष्ठ स्तटे जवल्या नर सानोमाणि एका सागरोपणस्य सप्तभाजाः, उत्कृष्टा नव साजशेषमाणि दरबार सादरोपपत्य स्थिति खाला लागोपन की और एक सापक केसी पहै तथा उत्कृष्ट स्थितिमा सारोप और एक साल के छह सात भाग रूप है। तृतीय रूप में जघन्य स्थिति का पोषण की और एक सागरोपस के छह लाला मारूप है कमा सकृष्ट रिलि बाट सागरोपन की और एक लाना के होला रूप है । तुर्षत प्रस्तट में जघन्य स्थिलि आठ हामशेली और एक लापन के दो सात भाग रूप है. तथा अष्ट स्थिति आठ हमारी की है और एक सागरोपम के पांच साल माग रूप है पंच परत जघन्य स्थिति आठ लामहोपन और एका स्वागदोपत के पांच साल बाद रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति नौ सागोना और एमालापो के एन र माया रूप है. छठे-प्रस्तट जघन्य स्थिति को लागी पलकी और एक बागरोपम के एक हात माग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थितिको सानोपण की પમના ત્રણ સાત ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ સાત સાગરેપમની અને એક સાગરોપમના છ સાત ભાગ રૂપ છે. ત્રીજા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના છ સાત ભાગ રૂ૫ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ રિથતિ આઠ રસાગરેપમની અને એક સાગરોપમના બે સાત ભાગ રૂ૫ છે. ચોથા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ આઠ સાગરોપમની અને એક સાગરે પમના બે સાત ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ આઠ સાગરેપમની અને એક સાગરોપમના પાંચ સાત ભાગ રૂપ છે. પાંચમા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ આઠ સાગરોપમ અને એક સાગરે ૫મના પાંચ સાત ભાગ રૂ૫ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ નવ સાગરોપમના એક સાત ભાગ રૂપ છે. છઠા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ નવ સાગરેપની અને એક સાગરોપजी०४३ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमहणे सप्तभागाः । सप्तमें जघन्या नव सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य सप्तभागाः, उत्कृष्टा परिपूर्णाणि दश सागरोपमाणि ॥ (५) धूमममायां प्रथमे प्रस्तटे जघन्या स्थिति दश सागरोपमाणि उत्कृष्टा एकादश सागरोपमाणि द्वौ सागरोपमस्य पञ्चभागौ। द्वितीय प्रस्तटे जघन्या एकादश सागरोपमाणि द्रौ सागरोपमस्य पञ्चभागो उत्कृष्टा द्वादशसागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य पञ्चभागः । तृतीय प्रस्तटे जघन्या द्वादश सागरोपमाणि चत्वारः सागरोपमस्य पञ्चभागाः, उत्कृष्टा चतुर्दश सागरोपमाणि एका साग और एक सागरोपम के चार सात भाग रूप है। सप्तम-प्रस्तट में जघन्य स्थिति नौ सागरोपम की और एक सागरोपम के ४ चार सात भाग रूप है तथा उस्कृष्ट स्थिति पूरे दश सागरोपम की है इसमें सात प्रस्तट है। ५ धूमप्रभा के प्रथम प्रस्तट में जघन्य स्थिति दश सागरोपम की है उत्कृष्ट स्थिति ग्यारह सागरोपम की और एक सागरोपम के दो पांच भाग रूप है द्वितीय प्रस्तट-में जघन्य स्थिति ग्यारह नागरोपम की और एक सागरोपम के दो पांच भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति बारह सागरोपम और एक सागरोपम के चार पांच भाग रूप है। तृतीय प्रस्तट-में जघन्य स्थिति बारह सागरोपम की और एक सागरोपम के चार पांच भाग रूप है और उस्कृष्ट स्थिति चौदह सांगरोपम की एवं एक सागरोपम के एक पांच भाग रूप है। चतुर्थ-प्रस्तंट में जघन्य મના એક સાત ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ નવ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના ચાર સાત ભાગ રૂપ છે. સાતમા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ નવ સાગરેપમની અને એક સાગરોપમના ૪ ચાર સાત ભાગ રૂપે છે. અને ઉકૃષ્ટ સ્થિતિ પૂરા દસ સાગરેપ૫મની છે. આમાં સાતજ પ્રસ્ત છે. (૫) ધૂમપ્રભા પૃથ્વીમાં પહેલા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ દસ સાગરોપમની અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અગીયાર સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના બે પાંચ ભાગ રૂપ છે. બીજા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ અગીયાર સાગરોપમની અને એક સાગામના બે પાંચ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બાર સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના ચાર પાંચ ભાગ રૂપ છે. - ત્રીજા પ્રસ્તટમાં જઘન્ય સ્થિતિ બાર સાગપમની અને એક સાગરેપમના ચાર પાંચ ભાગ રૂપે છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ ચૌદ સાગરોપમની અને એક સાગરોપમના એક પાંચમાં ભાગ રૂપ છે. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतेपयोति का टीका प्र.३ उ.२ सू.२२ नारकस्थिंतिनिरूपणेर तिनिरूपणम् ३६९ रोपमस्य पञ्चभागाः । चतुर्थ प्रस्तटे जघन्या चतुर्दश सागरोपमाणि एक सागरोपमस्य पञ्चभागाः, उत्कृष्टा पञ्चदश सागरोपमाणि या सागरोपमस्यः पह भागाः । पञ्चम मस्तटे जघन्या पश्चदश सागरोपमाणि त्रयः सागरोपमस्य पत्र. भागाः, उत्कृष्टा परिपूर्णानि सप्तदश सागरोपमाणि ॥ (६) तमामभायां षष्ठ पृथिव्यां प्रथममस्तटे जघन्या स्थितिः सप्तदशसोगरोपमाणि उत्कृष्टा अष्टादश सागरोपमाणि द्वौच सागरोपलस्य त्रिभागौ ॥ द्वितीय मस्तटे जघन्या अष्टादश सागरोपमाणि द्वौच सागरोपमस्य त्रिभागौ, उत्कृष्टा विंशतिः सागरोपमाणि एका सागरोपमस्य त्रिभागः। तृतीयमस्तटे जघन्याविंशतिः स्थिति चौदह सागरोपम की और एक सागरोपम के एक पांच भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह लागरोपन और एक सागरोपम के तीन पांच भाग रूप है। पञ्चल प्रस्तट-में जघन्य स्थिति पन्द्रह सागरो. पम को और एक सागरोपम के तीन पांच भागरूप है तथा- 'उत्कृष्ठ स्थिति पूरे सत्रह सागरोपम की है। यहां पांच प्रस्तट है। __ (६) तमःप्रभा के-प्रथम प्रस्ताट में जघन्य स्थिति सत्रह सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति अठारह सागरोपम की एवं सागरोपम के दो तीन भाग रूप है। द्वितीय प्रस्तट में जघन्य स्थिति अठारहःसागरोपम और एक सागरोपम के दो तीन भाग रूप है तथा उत्कृष्ट स्थिति बीस सागरोपम की और एक सागरोपम के एक तीन भाग रूप है। तृतीय प्रस्तट में जघन्य स्थिति बीस सागरोपम की और एक सागरोपम ચેથા પ્રસ્ટમાં જઘન્ય સ્થિતિ ચૌદ સાગરોપમની અને એક સાગરે - ૫મના એક પાંચ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પંદર સાગરોપમ એને એક સાગરોપમના ત્રણ પાંચ ભાગ રૂપ છે. પાંચમાં પ્રસ્તટમાં જઘન્ય રિથતિ પંદર સાગરેપમની અને એક સા. ગરેપમના ત્રણ પાંચ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ પૂરા સત્તર સાગરે પમની છે. આમાં પાંચ જે પ્રસ્ત છે. (૬) તમ પ્રભા પૃથ્વીના પહેલા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ સાર સાગરે પની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ અઢાર સાગરોપમની અને સાગરોપમના બે ત્રણ ભાગ રૂપ છે. બીજા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ અઢાર સાગરોપમની અને એક સાગર પમના બે ત્રણ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ વીસ સાગરેપમની અને એક સાગરેપમના ત્રણ ભાગ રૂપ છે. બીજા પ્રતટમાં જઘન્ય સ્થિતિ વીસ સાગરોપમની અને એક સાગરેપમના એક Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० जीवाभिगमसूत्रे सागरोपमाणि ।। (७) सप्तम्यां पृथिव्यां तु एक एव मस्तटोऽत्र जघन्येन द्वाविंशतिः सागरोपमाणि उत्कर्पतत्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थिति भवति नारकाणामिति ॥ ___ सम्पति-नैरथिकाणा मुदतनामाह-'इमीसे णं' इत्यादि, 'इमीसे णं मंते' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया' रत्नप्रभापृथिव्यां नैरयिकाः अतरं उबटिय कर्हि गच्छति' अनन्तरमुत्य-रत्नममातो विनिर्गत्य तदनन्तरं कुत्र गच्छनित, 'कहिं उबवज्जति' कुत्र-कस्मिन् स्थाने उत्पद्यन्ते 'कि रएसु अवज्जति कितिरिक्खजोणिए उववज्जति' कि नरयिकेपत्पधन्ते किंवा तिर्ययोनिकेषु उत्पधन्ते नारकाः नरकाताः किं पुन नारकगतावेव उत्पधन्ते देवगतौ बोत्पयन्ते इति प्रश्ना, अतिदेशद्वारेण उत्तरयति-'एवं उच्चके एक तीन भाग रूप हे त्या उत्कृष्ट स्थिति बाईस सागरोपम की है। यहां तीन प्रस्तट है। - ७-नावी पृधिली में एक ही प्रस्तट है इसलिये यहां जघन्य स्थिति बाईल (२२) सागरोपम की है और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस ३३ लागरोपन की। . अब नैरपिशों की उतना का कथन करतेहै-'इनीले णं' इत्यादि 'हामीले णं संते!' हे माता ! इस स्थणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभा पृथिवी र बिरहया लेषिक 'अपातरं जट्टिय कहिं नाच्छति' सीधे निकलकर कहां जाते हैं कहिं उबवति ' हा उत्पन्न होते हैं ?' किं रह एलु उबपति विं तिरिक्व जोणिएसु उज्जति 'क्या वे नरथिकों में ही उत्पन्न होते है ? पा तियोलिकों में उत्पन्न होते है ? या मनुष्य भक्ति में ही उत्पन्न होते है ? देव गति में उत्पन्न होते हैं ? अति ત્રણ ભાગ રૂપ છે. તથા ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ બાવીસ સાગરોપમની છે. આમાં ત્રણજ પ્રતટ છે. (૭) સાતમી પૃથ્વીમાં એક જ પ્રતટ છે. તેથી અહિંયાં જઘન્ય રિથતિ બાવીસ સાગરોપમની છે. અને ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિ તેત્રીસ સાગરોપમની છે. - वे नैयिानी दत्त नाना समयमा ४थन ४२वामां आवे छे 'इमोसे ण' छत्साह इसीसे ण म समय मा 'रयणप्पभाए पुढबीए' २त्नप्रसा-पृथ्वीना 'णेरइया' नैश्य त्यांची 'अग तर उज्वट्रिय कहिं गच्छति' सीधा नीजान या नय छ ? 'कहिं उबवज्ज ति' या उत्पन्न थाय छे १ "किं णेरइएसु उववज्जति किं तिरिक्खजोणिरसु उववज्जति' शुतमा नविष्ठीमा उत्पन्न थाय छ ? તિર્થસ્થાનિકેમાં ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા મનુષ્યમાં ઉત્પન્ન થાય છે? અથવા દેવગતિમાં ઉત્પન્ન થાય છે? અતિદેશ દ્વારા આ પ્રશ્નનો ઉત્તર આપતાં પ્રભુ ४३ छ । 'एव उणा भाणियबा जहां वक्कतीए तह इह वि जाव अहेस Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂપ! प्रमेययोति का टीका प्र.३ उ. २ . २२ नारकस्थितिनिरूपणम् घृणा' इत्यादि, 'उणा भाणियव्त्रा जहा चक्कंती तहा इह वि जात्र अहे सत्तमाए' एवमुद्वर्तना, नारकजीवानां नरकादुदुवृत्तानां सणितव्या । यथा व्युक्रान्तिपदे तथेहापि याचदधः सप्तम्याम् प्रज्ञापनाया व्युत्क्रान्तिपदे येन प्रकारेणोद्वर्तना कथिता तथैवात्रापि ज्ञातव्या, भज्ञापनाया द्वितीय व्युत्क्रान्ति पदमति विस्तृतं विद्यते अतः पाठकैः स्वयमेव तत्मकरणं द्रष्टव्यम् संक्षेपतस्तु इत्थम् - रत्नप्रभात आरभ्य यावत् समयमा पृथिवी नैरयिकाः आपः पृथिवीभ्य उद्धृत्य नैरयिक देवैकेन्द्रिय विकलेन्द्रिय संसूच्छिम पञ्चेन्द्रियासंख्येय वर्षायुष्कवर्जेषु शेषेषु उत्पद्यन्ते, तमस्तमा पृथिवीनारकास्तु अनन्तरमुत्ताः सन्तो गर्भजतिर्यक् पञ्चेन्द्रियेष्वेव उत्पद्यन्तेन शेर्पातिर्यक्षु न वा देवेषु न वा मनुष्येषु इति ॥० २२ ॥ देश द्वारा इस प्रश्न का उत्तर देते हुए प्रभु गौतमस्वामी से कहते हैं 'एवं उववट्टणाभाणियव्था जहा यक्कतीए तह इह यि जाव अहे सत्तमाए' हे गौतम ! जैसा नारकों की उहर्त्तन के सम्बन्ध में प्रज्ञापना के छठे व्युत्क्रान्ति पद में कथन किया गया है वैसा ही कथन यहां पर भी कर लेना चाहिये प्रज्ञापना का वह व्युत्क्रान्ति नाम का छठा पद बहुत विस्तृत है अतः जिज्ञासुओं को यह प्रज्ञापना में देखना चाहिये संक्षेपतः उसका कथन इस प्रकार से है - रत्नप्रभा से लेकर तमः प्रभा तक से निकला हुआ नैरथिक देव एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रि, संमूच्छिम पञ्चेन्द्रिय, और असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। बाकी के तिर्यङ्ग मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं तथा अधःतमी पृथिवी से निकला हुआ नैरविक जीव सीधा गर्भज तिर्यक् पञ्चेन्द्रियों में ही उत्पन्न होता है शेष तिर्यश्वों में, देवों में और मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होता है | सूत्र ॥ २२ ॥ तमाए' हे गौतम! नारोनी उद्वर्तनाना संधसां असा प्रज्ञायना સૂત્રના છઠ્ઠા વ્યુત્ક્રાંતિ પદમાં જે પ્રમાણે કથન કરવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણેનુ કથન અહિયાં પણ કહેશું જોઇએ. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રનું તે વ્યુત્ક્રાન્તિ નામનુ છઠ્ઠું પદ્મ ઘણું મેટુ' છે. તેથી જીજ્ઞાસુઓએ તે પ્રજ્ઞાપુના સૂત્રમાં જોઇ લેવું. સક્ષેપથી તેનુ કથન આ પ્રમાણે છે. રત્નપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને તમઃપ્રભા પૃથ્વીમાંથી નીકળેલા નૅરયિક જીવેા સીધા નૈયિક, દેવ, એકેન્દ્રિય, વિકલેન્દ્રિય, સ’મૂ`િમ પંચેન્દ્રિય અને અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા જીવેશમાં ઉત્પન્ન થતા નથી. તે શિવાયના તિય ગ્, મનુષ્ચામા ઉત્પન્ન થાય છે. તથા અધસપ્તમી પૃથ્વીમાંથી નીકળેલા નૈયિક જીવા સીવા ગજ તિક્ પંચેન્દ્રિયામાં જ ઉત્પન્ન થાય છે. બાકીના તિય ચામાં, દેવામાં અને મનુષ્યામાં ઉત્પન્ન થતા નથી. ાસૂ. રા Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રૂછે ? जीवाभिगमसूत्र सम्प्रति-नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूप प्रतिपादनार्थमाह-'इमीसे णं' इत्यादि। __ मूळम्-इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं पुढवीफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिटुं जाव अमणानं, एवं जाव अहे सत्तमाए। इमासे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं आउफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरति ? गोयमा ! अणिटुं जाव अमणामं, एवं जाव अहे लत्तमाए, एवं जाव वण्णप्फइ फासं अहे सत्तमाए पुढवीए । इमाणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय सत्रमहंतिया बाहल्लेणं लम्वखुडिया सव्वतेसु ? हंता, गोयमा ! इमाणं रयणप्पा पुढवी दोच्चं पुढवि पणिहाय जाव खुड्डिया सव्वतेसु । दोच्चा ण भंते ! पुढवी तच्चं पुढविं पणिहाय सवमहतिया बाहल्लेणं पुच्छा, हता, गोयमा! दोच्चाणं पुढवी जाव सव्व खुड्डिया सव्वं तेसु। एवं एएणं अभिलावेणं जाव छट्ठिया पुढवी अहे सत्तमं पुढवि पणिहाय जावः सव्वखुड्डिया सव्वतेसु ॥ इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए, पुढवीए तीलाए नरयावाससयसहस्लेसु इकमिकसि निरयावासंसि सव्वे पाणा लव्वेभूया सबजीका सव्वेसत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव वणलइकाइयत्ताए रहयत्ताए उववन्नपुवा ? हंता, गोयमा ! असई अहवा अणंतखुत्तो, एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए, नवरं जत्थ जत्तिया परया। इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु जे पुढवीकाइया जाव वणस्सइकाइया ते णं भंते! जीवा महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महाआसवतरा चेव महावेयणतरा चेव ? हंता, Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ सू.२३ नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वर पम् ३४३ गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु तं घेव जाव महादेयणतरा घेद, एवं जाव अहे सत्तमाए ॥ पुढविं ओगाहित्ता परमा संठाण भेव बाहल्लं। विक्खंभपरिकखेवे वणो गंधो य फालो य ॥१॥ तेसिं महालयाए उक्मा देवेण होइ कायव्वा । जीवा य पोग्गला वकर्मति तह लालया निरया ॥२॥ उववायं परिमाणं अवहारुच्छत्तमेव संघयणं । संठाण वाणगंधा फासाऊसालमाहारे ॥३॥ लेस्सादिट्टी नाणे जोगुवओगे तहा समुग्घाया। तत्तो खुहा पिवासा विउठवणा वेयणा य भए ॥४॥ उववाओ पुरिसाणं ओवरनं वेयणाए दुविहाए । उव्वदृणं पुढवीउ उववाओ लवजीवाणं ॥५॥ एयाओ संगहणि गाहाओ ॥सू०२३॥ ॥बीओ उद्देलो सलत्तो ॥ छाया-रतस्यां खल्लु भदन्त ! रत्नपभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कीदृशं पृथिवी स्पर्श प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ? गौतम ! अनिष्टं यावदमनोऽमम् । एवं यावधः सप्तम्याम् । एतस्यां खल्ल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कीदृशम् अप्स्पर्श प्रत्यनुभवन्तो विहरन्ति ? गौतम ! अनिष्टं यावदमनोऽमम । एवं यावदधः सप्तम्या एवं यावद्वनस्पति स्पर्शम् अधः सप्तम्यां पृथिव्याम् । इयं खलु भदन्त ! रत्नपमा पृथिवी द्वितीयां पृथिवीं प्रणिधाय सर्वमहती पाहल्येन सर्वेक्षुल्लिका सर्वान्तेषु ? हन्त गौतम । इयं खल्ल रत्नप्रभा पृथिवी द्वितीय पृथिवीं मणिधाय यावत् सर्वक्षुल्लिका सर्वान्तेषु । द्वितीया खलु भदन्त ! पृथिवी तृतीयां पृथिवीं प्रणिधाय सर्वपहनी बाहल्येन पृच्छा हन्त, गौतम ! द्वितीया खलु पृथिवी यावर सर्वक्षुल्लिका सर्वान्तेषु, एवमे से नाभिलापेन यावत पष्ठी पृथिवी अधः सप्तमी पृथिवा पणिधाय याचन सर्वहल्लिका सन्तेिषु । एतस्यां खल भदन्त ! रत्नममायां पृथिव्यां त्रिशतिनरकावामशतसहस्रेषु एकैम्मिन् नरका. चासे सर्वे माणाः सर्वे भूताः सर्वे जीवाः सर्वे सत्त्वाः पृथिवीकायिकतया यावद्वनस्पति कायिकतया नरयिकतया उत्पन्नपूर्वा ? हे गौतम ! असकृत् अथवा अनन्त Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे ३४४ कृत्वः । ‘एवं यादवः साय्यां पृथिव्याम् नवरं यत्र यावन्तो नरकाः । एतस्यां खल भदन्त । रत्नप्रभायां पृथिव्यां नित्यपरिसालन्तेषु ये पृथिवीकायिका याव द्वनस्पतिकायिका तेल भदन्त ! जीवा सहाकरीता एव महाक्रियतरा एवं महावत एव महावेदनतरा पव ? इन्द, गौतम । एतस्यां खल रत्नप्रभायां पृथिव्यां नरकपरिक्षामन्तेषु वदेव माद् महावेदनतरा एव, एवं यावदधः सप्तम्याम् । पृथिवीमवाकाः संस्थानमेव वाल्वम् । विषयपरिक्षेत्र ण गन्धश्व स्पर्शश्च ॥१॥ ते महत्तायामुपसात भवति कर्त्तव्या । जीवाथ पुलाः व्युत्क्रामन्ति तथा शाश्वताः निरयाः ||२|| उपपातः परिमाण गपहारोच्चत्वमेव संहननम् । संस्थानवगन्धाः स्पर्धा उच्छवास आहार ॥३॥ लेश्या दृष्टिज्ञानं योगोपयोगी तथा समुद्घाताः ।ततः क्षुधा पिपासा विकुर्वणावेदना च ययम् ॥ ४ ॥ उपपतिः पुरुषाणा सौपम्यं वेदनायां द्विविधायाः । उद्वर्त्तना पृथिवीतु उपयातः सर्वजीवानाम् ||५|| एताः संग्रहिणीनाथा ||सु०२३|| तृतीयप्रतिपत्त द्वितीयदेशकः समाः ॥ टीका – 'इमी से णं भंते ।' एतस्यां खलु भदन्त ! 'रयणप्पभाए पुढवीए' रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिका :- नारकजीवाः 'केरिसयं' कीदृशं - किमाकारकम् 'पुढची फार्स' पृथिवीस्पर्श वर्कशपृदुत्वादिकम् 'पच्चणुवमवसाणा' प्रत्यनुभवन्तः वेदयमानाः 'विहरंति' विहरन्ति - तिष्ठन्तीति प्रश्न, भगवानाह - अब नरकों में पृथिव्यादि के स्पर्श का कथन करते हैं'इमीले णं भंते! रयणप्प लाए पुढबीए - इत्यादि' | टीकार्थ- 'इषीसे णं भंते' हे सदना ! इस 'रणपभाए पुढथीए' रत्नप्रभा पृथिवी में नैरविक जीव 'केरियं पुढवी फार्स' कैसी पृथिवी स्पर्शका 'पच्चणुभवयाणा विरति' अनुभव करते है ? उत्तर में प्रभु स्थन वामां आवे छे. 'इमीसे हवे नारभां पृथिव्याहिना स्पर्श ण भवे रयणप्पा पुढवीए' इत्यादि टीडार्थ - 'इमीसे णं भवे' हे अगवन् भा 'रणभार पुढवीए' भ्या रत्नप्रभा पृथ्वीभां नैरयि दे। 'केरिमयं पुढधीफास" देवी पृथ्वीना स्पर्श'ना 'पच्चणुभवमाणा विहारति' अनुभव उरे छे ? मा अश्नमा उत्तरभा Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र.३ ७.२ सू.२३ नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् ३४५ 'गोमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अणि जाव अमणामं' अनिष्टं यावत् विष्ठन्ति, रत्न- अकान्तमप्रियममनोज्ञममनोऽमं पृथिवीस्पर्श वेदयमानाः प्रभानारका अनिष्टत्वादिगुणोपेतानेव पृथिवीस्पर्शान् प्रत्यतुभदन्ति न तु स्वल्पमपि सुखकारणं पृथिवीस्पर्श संवेदयन्थीति ' एवं जाव आहे समाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् । एवम् - अनेनैव प्रकारेण शर्करामभात आरभ्य अधः सप्तमी - पर्यन्तं नारकास्तत्र तत्र पृथिव्या मनिष्टादि रूपयेव पृथिवीरपर्श यनुभवन्ति । तथाहि - हे भदन्त ! शर्करामभायां पृथिव्यं नारकाः कीदृशं पृथिवीस्पर्शमनुभव न्ति, हे गौतम | अनिष्टमकान्तमभिय ममनो ममनोऽयं पृथिवीरुपम भवन्ति । एवं वालुकाममा - पङ्कपमा - धूपमभा - तमः प्रभावमस्त्यः ममापृथिवीष्वपि कहते हैं - 'गोयमा ! अहिं जाब अप्रणामं' हे गौतम! वहां तारक जीव अनिष्ट यावत्- अकाल अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनोम रूप- पृथिवी स्पर्श का अनुभवन करते हैं । तात्पर्य कहने का यही है कि सरफ जीवों का स्वयं स्पर्श ही जब अनिष्टत्यादि गुणों वाला होता है तो फिर भूख के कारणभूत पृथिवी स्पर्श का वे अनुभवन कैसे कर सकता है ? अतः उनको थोडे से भी सुख के कारणभूत स्पर्श का संवेदना नहीं होती है 'एवं जाव अहे सत्तामाए' इसी तरह शर्कराप्रभा पृथिवी से लेकर अःसप्तमी पृथिवी तक के नारक भी सुख के कारण सूत पृथिवो स्पर्श का अनुभवन नहीं करते हैं । अर्थात् वे सब भी अनिष्ट, अकाल, अप्रिय, अमनोज्ञ एवं अलनोम पृथिवी स्पर्श का अनुभव करते हैं । इस तरह से पृथिवी स्पर्श के सम्बन्ध में शर्कराप्रभा से अधः सप्तमी अनु गौतमस्वाभीने छे 'गोयमा ! अणि जाव अमणाम' हे गौतम! ત્યાં નારક જીવા અનિષ્ટ યાવત્ અક્રાન્ત, અપ્રિય, અમનેાજ્ઞ, અને અમનેડમ રૂપ પૃથ્વીના સ્પના અનુભવ કરે છે. આ કથનનુ તાત્પર્ય એ છે કે નારક જીવાના સ્વય સ્પર્શીજ જ્યારે અનિષ્ટાદિ ગુણ્ણા વાળો હાય છે, તેા પછી સુખના કારણભૂત પૃથ્વીના સ્પર્શને અનુભવ તેઓ કેવી રીતે કરી શકે? તેથી તેઓને ઘેડા એવા सुमना ४।२५ ३५ स्यर्शनुं सवेहन थतु' नथी. 'ए' जाव अहे खत्तमाए' शे પ્રમાણે ચાવત્ચક રાપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને અધઃસપ્તમી પૃથ્વી સુધીના નારકજીવે પણ સુખના કારણરૂપ એવા પૃથ્વી સ્પર્શના અનુભવ કરતા નથી. અર્થાત્ તેએ બધાજ અનિષ્ટ, મકાન્ત, અપ્રિય, અમનાજ્ઞ, અને અમનેાડમ પૃથ્વી સ્પર્શીને અનુભવ કરે છે. આ પ્રમાણે પૃથ્વીના સંબંધમાં શર્કરાપ્રભા પૃથ્વીથી અધ:સમી પૃથ્વી પન્તના સૂત્રાના આલાપકાને પ્રકાર સ્વયં મનાવીનેસમજી લેવે. जी० ४४ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगम विविच्य सूत्राणि स्वयमेवोहनीयानीति | 'इमीसे ण भंते ! रयणावमाए पुढवीए नेरइया' एतस्यां खल भदन्त ! रत्नप्रमायां पृथिव्यां नारकाः, 'केरिसयं आउ. प्फासं पच्चणुभवमाणा विहरंति' कीदृशं किमाकारकम् अपस्पर्श-जनस्पर्शप त्यनु भवन्तः वेदयमाना विहरन्ति तिष्ठन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अणिटुं जाब असणाम' अनिष्टम् यावद् अकान्तम् अप्रियम् अमनोज्ञम् अमनोऽमम् अपस्पशमनुभवन्तोऽवतिष्ठन्ते इति । एवं जाव अहेसत्तमाए' एवं यावत् शर्कराप्रभा पृथिवीत आरभ्य स्मरतमापृथिवी पर्यन्तं नारकाणाम स्पर्शोऽनिष्टत्वादिगुणोपेतो ज्ञातव्य इति । 'एवं जाव रणरसइफासं हेसत्तमाए पुढवीए' एवं यावद्वानस्पति स्पर्श मधासप्तम्यां पृथिव्याम् इति । एवम्-एवमेव पर्यन्त के सूत्रों का आलाप प्रकार स्वयं ही उद्भादित्त कर लेना चाहिये अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभा पुढवीए नेरइया' हे भदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में नरयिक केरिसयं आउफासं पच्चगुभवमाणा' जल स्पर्श कैसा अनुभवते हैं ? अर्थात रत्नप्रभा पृथिवी के नैरयिकों को जल का स्पर्श किस प्रकार प्रतीत होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं 'गौयमा अणिढे जाव अमणाम' रत्नप्रभा के नैरयिकों को जलका स्पर्श अनिष्ट यावत् अमनोऽम होता है एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी तरह से द्वितीय पृथिवी के नरपिकों से लेकर अधः सप्तमी पृथिवी तक के जो नैरपिक है उन्हें भी जलका स्पर्श अनिष्ट यावत् अमनोऽम ही होता है 'एवं जाव वणस्सहफासं अहे सत्तमाए पुढवीए' इसी प्रकार से यावत् तेज का स्पर्श, और वायु का स्पर्श भी उन्हें अनिष्ट यावत् अमनोऽम व गौतमस्वामी प्रभुने से पूछे छे हैं 'इमीसे ण भंते ! रयणप्पभा पुढवीए नेरहया' मावन मा २त्नप्रभा पृथ्वीमा नैयिही 'केरिसय जाउफास पच्चणुभवमाणा' 4 सना २५शन मनुमप ४२ छ ? अर्थात् २त्नप्रमा પૃથ્વીના નૈરયિકને જલને સ્પર્શ કેવા પ્રકારથી જણાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु श्री गौतमपामीर ४ छ । 'गोयमा ! अणिट्र जाव अमणाम' २नमा पृथ्वीना नरयिही सन २५श मनिष्ट यावत् ममनोऽभ डाय छे. 'एवं जाव अहे सत्तमाए' मा प्रभारी भी पृथ्वीना नैयिाथी ४२ अध:सभी પૃથ્વી સુધીના જે નારકછ છે. તેમને પણ જલને સ્પર્શ અનિષ્ટયાવત અમને ઇમ हाय छे. एवजाव वणसइफास अहे सत्तमाए पुढवीए' मे प्रमाणे यावत् तेना પર અને વાયુને સ્પર્શ પણ તેઓને અનિષ્ટ યાવત્ અમનેડમ હોય છે. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योति का टीका प्र.३ उ.२ ३.२३ नरकेपु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् । रत्नप्रभापृथिवीगताप्स्पर्शवदेव शर्कराप्रभा पृथिवीनारकार वालुकाप्रमा पृथिवीनारकाः, पङ्कपमा पृथिवीनारकाः, धूपपमा पृथिवीनारकाः, तमः प्रभा पृथिवी नारकाः, अधः सप्तमी पृथिवीनारकाश्चेति सऽपि नारका स्तत्र तत्र पृथिव्याम अपस्पर्श तेजः स्पर्श वायुस्पर्श वनस्पतिस्पर्श चानिष्टादिरूपमेव प्रत्यनुभवन्तो विहरन्तीति यावच्छव्हग्राह्यो भावः । अब सूत्राणि स्वयमेवोहनीयानि । नवरं तत्र तेजः स्पर्शस्तु उष्णतापरिगत नरककुडयादि स्पर्शः परोदीरित वैक्रियरूपी वा तेज स्पर्णी ज्ञातव्यो नतु साक्षाद् बादराग्निकायस्पर्शा,नारकपृथिवीषु बादराग्निकायस्याऽभावात् नरकाणा मत्युग्रान्धकारव्याप्तत्वेन तेजः स्पर्शा संभवादिति । होता है तथा वनस्पति कायिक का भी स्पर्श उन्हें इसी तरह का अनिष्ठ यावत् अननोऽम होता है ऐसा यह कथन शर्कराममा पृथिवी के नैरपिकों से लेकर सातवीं तमस्तमा पृथिवी तक के नैरयिकों के सम्बन्ध में भी सम. झना चाहिये अर्थात् शर्करामभा के नैरथिकों को चालुकाप्रभा के नैरथिकों को पङ्कप्रभा के नैरयिकों को धूमप्रभा के नरथिकों को तमाप्रभा के नैरयिकों को और तमस्तमःप्रक्षा के नैरयिकों को तेज का स्पर्श, वायु का. यिक का स्पर्श और वनस्पति कायिक का स्पर्श अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय अमनोज्ञ एवं अमनोऽमही होता है। परन्तु यहां इतनी विशेषता जाननी चाहिये-कि बादाग्नि काय तो वहां होता नहीं है इसलिये जो यहाँ तेजः स्पर्श कहा गया है वह उष्णता परिणत नरक कुडय-भित्तिआदि का स्पर्श या दूसरों के द्वारा किये वैक्रिय रूप का स्पर्श जानना તેમજ વનસ્પતિ કાયિકને સ્પર્શ પણ તેઓને આજ પ્રમાણે અનિષ્ટ થાવત અમનેમ હોય છે. આ પ્રમાણેનું આ કથન શર્કરપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને સાતમી તમસ્તમાં પૃથ્વી સુધીના નૈરયિકના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું. અર્થાત શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીના નિરયિકેને વાલુકા પ્રભા પૃથ્વીના નૈરષિકાને, પંકપ્રભા પૃથ્વીના નૈરયિકેને, ધૂમપ્રભા પૃથ્વીના રિવિકેને, તમ પ્રભા પૃથ્વીના નરયિકને, અને તમસ્તમાપ્રભા પૃથ્વીના નરયિકને, તેજને સ્પર્શ, વાયુકાવિકને સ્પર્શ અને વનસ્પતિકાયિકને સ્પર્શ અનિષ્ટ, અકાન્ત, અપ્રિય, અમનેશ, અને અમનોમ જ હોય છે. પરંતુ અહિયાં એ વિશેષતા સમજવી કે ત્યાં બાદરાગ્નિ કાયો હોતા નથી. તેથી અહિયાં જે તેજને સ્પર્શ કહ્યો છે, તે ઉતા પરિણત નરક કુડય ભિત્તિ વિગેરેને સ્પર્શ અથવા બિજાની માફક કરવા માં આવેલ વૈકિય રૂપનો સમજો. કેમકે નારના નિવાસસ્થાને અત્યંત ઉગ એવા અંધકારથી વ્યાપ્ત રહે છે. તેથી ત્યાં તેજના સ્પર્શન सम खाती नयी Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८. जीवाभिगमसूत्रे इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी' इयं खलु भदन्त ! रत्नप्रभा पृथिवी 'दोच्चं पुढवि पणिहाय' द्वितीयां शर्करामभापृथिवीं प्रणिधाय-प्रतीत्य 'सचमहंतिया वाहल्लेणं' सर्व महती वाहल्येन 'समक्खुड्डिया सव्वं तेसु' सर्वक्षुद्रिका सर्वान्तेषु द्वितीय पृथिव्यपेक्षया प्रथमा रत्नप्रभा पृथिवीवाहल्येन सर्वमहती सर्वान्तेषु सर्वक्षुद्राकिमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'हंता गोयमा' इन्त हे गौतम ! 'इमाणं रयणप्पभा पुढवी' इयं खलु रत्नप्रभा पृथिवी 'दोच्चं पुर्वि पणिहाय जाव सम्बखुडिया सव्वतेसु' द्वितीयां पृथिवीं प्रणिधाय अपेक्ष्य सर्वमहती बाहल्येन, सवैता क्षुद्रिका सर्वान्तेषु इति । ___यता-रत्नमा पृथिव्या बाहल्यम् अशीतिसहस्राधिक लक्षयोजनप्रमितम् शर्कराममायास्तु द्वात्रिंशत्सहस्राधिकलक्षयोजनप्रमितमेव ततो द्वितीय पृथिन्यपेक्षया प्रथमा पृथिवी सर्वमहतीत्युक्तम् । आयामविष्कम्मापेक्षया प्रथमा सर्व झुल्लिका यतः शर्कराममा द्विरज्जुप्रमाणा इयं रत्नप्रभातु एकरज्जु प्रमितेव चाहिये क्यो कि नारकों के निवास स्थान अत्युन अन्धकार से व्याप्त रहते हैं माता कहां लेज रूपर्श की असंभवता है। 'हमा णं भंते !श्यणप्पा पुढवी दोच्चं पुर्विपणिहाय' हे भदन्त ! यह रत्नप्रभा पृथिवी द्वितीय श राप्रभा पृथिवी की अपेक्षा क्या मोटाई में बड़ी है और लष अन्तर्भागों में अर्थात् लम्बाई चौड़ाई में क्या छोटी ? इस के उत्तर में प्रलु कहते हैं-'हंता गोथमा! हां गौतम ! ऐसा ही है क्यों कि 'इमाणं रथणपला पुढची दोच्चं पुढवि पणिहाय जांच सदा खुड्डिया लचंतेलु 'इस रत्नप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख असली हजाम् योजन की है और शर्कराममा पृथिवी की मोटाई एक लाख पतीस हजार योजन की है तथा रत्नप्रभा पृथिवी की लंबाई चौडाई एक राजू की है और शर्कराप्रमा प्रथिवी की लम्बाई चौड़ाई दो राजू की है 'दोच्चाणं मंते पुढवी हे भदन्त ! द्वितीय शर्कराप्रभा पृथिवी 'इमाण भंते ! रयणप्पभा पुढवी दोच्च पुढविं पणिहाय' 8 अगवन् । રત્નપ્રભા પૃથ્વી બીજી શર્કરાખલા પૃથ્વીની અપેક્ષાએ શું વધારે મેટી છે? અને મધ અંતર્ભાગોમાં અર્થાત્ લંબાઈ પહોળાઈમાં શું નાની છે? ગૌતમસ્વામી न २मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४९ छे , 'इमाण रयणप्पभा पुढवी दोच्य पुढवि पणिहाच जाव सव्व खुट्टिया सव्व टेसु' मा २नमा पृथ्वीनी मोटाई (વિશાળતા) એક લાખ એંસી હજાર જનની છે. તથા રત્નપ્રભા પૃથ્વીની લંબાઈ પહોળાઈ એક રાજુની છે, અને શર્કરપ્રભ પૃથ્વીની લંબાઈ પહોળાઈ शकुनी छ. 'दोच्चाणं भंते ! पुढवी' लापन भी शरामा पृथवा Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोति का टीका प्र.३ उ.२ रु.२३ नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् ३४९ आयामविष्कम्माभ्या मतो द्वितीय पृथिव्यपेक्षया प्रथमा सर्वक्षुद्रिका सर्वान्तभागेषु इति प्रोक्तम् । एवं सर्वप्रथिवी प्रकरणे पनातन पृथिव्यपेक्षया तत्तत्पृथिव्या अक्तिना पृथिवी बाहल्येन महती, आयामविष्णम्याभ्यां शुद्रिकेति वाच्यम् । उक्तश्च क्रमशो बाहल्यविषयेपये--'असीयं बचीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । अवारस सोलसगं, अठुत्तरमेव हेडिमया ॥१॥ छाया--अशीतिः ८० द्वात्रिंशत् ३२, अष्टविंशतिः २८, तथैव विंशतिश्च । अष्टादश १८, षोडश १६, अष्टोत्तरमेव अधः सप्तमिका ॥१॥ 'सच्चं पुढविं पणिहाय' तृतीय पृथिवी चालुकाप्रभा की अपेक्षा क्या 'सव्वमहंतिया बाहल्लेणं पुच्छा' मोटाई में बडी है ? और लम्बाई में छोटी है ? उत्तर में प्रभु कहते है 'गोथमा ! दोच्चाणं पुढवी जाव सव्व खुडिया सव्वंते' हे गौतम ! द्वितीय पृथिवी क्षी अपेक्षा मोटाई में बडी है और लंबाई चौडाई में कम है “एवं एएणं अभिलावेणं जाव छट्टिया पुढवी' इस अभिलाप के अनुसार यावत् छठी पृथिवी सप्तमी पृथिवी की अपेक्षा लंबाई चौडाई में कम है ऐसा जानना चाहिये । इस विषय में कहा भी है-'असीयं बत्तीसं' इत्यादि । अर्थात् रत्नप्रभा पृथिवी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार की है १, एवं शर्कराप्रभा की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार २, बालुकाममा की एक लाख अट्टा ईस हजार ३, पंकप्रभा की एक लाख बीस हजार ४, धूमप्रमा की एक लाख अठारह हजार ६, तमासभा की एक लाख सोलह हजार ६, और 'तच्च' पुढवि पणिहाय' श्री वासुमा पृश्वी ४२ता 'लव्वमहतिया वाह. लेग पुच्छा' विशालामा शुभाटी छ ? 41 प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री ४ छ । 'गोयमा ! दोच्चाण पुढवी जाव सव्व खुट्टिया सन्न तेसु' गौतम । બીજી પૃથ્વી ત્રીજી પૃથ્વી કરતા વિશાળતામાં મોટી છે. અને લબાઈ પહોળાઈ . मा माछी छ. 'एव एएण अभिलावेणं जाव छद्विया पुढवी' या मालिसा પ્રમાણે યાવત્ છઠ્ઠી પૃથ્વી સાતમી પૃથ્વી કરતા લંબાઈ પહોળાઈમાં ઓછી छे तम सभा मा समयमा यु ५६ छ है 'सीय बत्तीस' या અર્થાત્ રત્નપ્રભા પૃથ્વીની મોટાઈ એક લાખ એંસી હજાર જનની છે. ૧ અને શર્કરા પ્રભા પૃથ્વીની મોટાઈ એક લાખ બત્રીસ હજાર યોજનની છે. ૨ વાલુકાપ્રભા પૃથ્વીના મેટાઈ એક લાખ અઠયાવીસ હજાર એજનની છે. ૩, પંકપ્રભા પૃથ્વીની મોટાઈ એક લાખ વીસ હજાર ચાજનની છે, ૪, ધૂમપ્રભા પ્રથ્વીની ટાઠ એક લાખ અઢાર હજાર જનની છે. આ તમ પ્રભા પથ્વીની Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे अत्र गाथोक्त सहस्रयोजनसंख्या लक्षयोजनोपरि विज्ञेया । नारक पृथिवीनामायामविष्कम्भप्रमाणं रत्नप्रभा पृथिवीत आरभ्याग्रे - ग्रे प्रत्येक पृथिव्याः प्रमाणमेकैकरज्जु रूपमधिकमधिकं भवति यावद् अधः सप्तमी यथा प्रथमा रत्नप्रभा पृथिवी आयामविष्कम्भाभ्यामेक रम्जुप्रमाणा, द्वितीया द्विरज्जुपमाणा, तृतीया त्रिरज्जुममाणा, चतुर्थी चतुरज्जुममाणा, पश्चमी पञ्च रज्जुप्रमाणा, षष्ठी पडू रज्जुप्रमाणा, सप्तमी सप्तरज्जुममाणा । रज्जुश्व असंरूपात सहस्रयोजनममाणो भवति, अतोऽत्रैव तृतीयपतिपत्ती पूर्वमुक्तम्- 'इमाणं भंते! रयणपमा पुढची केवइया आयामदिक्खंभेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं आयामविवखमेणं । असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परि क्खेवेण पण्णत्ता, एवं जाव असत्तमा' इति । अत एव पूर्वा पूर्वा पृथिवी अग्रा ग्रेन पृथिव्यपेक्षया सर्व क्षुद्रिका, इत्युक्तम् 'दोच्चाणं भंते ! पुढी' द्वितीया खल भदन्त ! पृथिवी 'तच्चं पुढवि पणिहाय' तृतीयां पृथिवों मणिधाय प्रतीत्य 'सव्वमर्हनिया वाल्लेण पुच्छा अधः सप्तमी तमस्तमा पृथ्वी की मोटाई एक लाख आठ हजार की है ७ | इस प्रकार आगे आगे की पृथिवी की मोटाई कम कम होती जाती है इसलिये आगे आगे की पृथिवी की अपेक्षा पीछे पीछे की पृथिवी की मोटाई अधिक होती है इसलिये 'सर्व महती बाहल्ये' ऐसा कहा है । और लम्बाई चौडाई आगे आगे की पृथिवी की बढती चली जाती है इसलिये आगे आगे की पृथिवी की अपेक्षा पीछे पीछे की पृथिवी की लम्बाई चौडाई कम होती है इसलिये 'सर्व क्षुल्लिका सर्वान्तेषु' ऐसा कहा है । प्रत्येक पृथिवी की लम्बाई चौडाई आगे आगे पृथिवी में एक एक राजू बढ़ता जाता है ऐसे सातवीं अधः सप्तमी तमस्तमा पृथिवी की लंबाई चौडाई सात राजू की हो जाती માટાઇ એક લાખ સેાળ હજાર ચેાજનની છે. ૬, અને અધઃસપ્તમી તમસ્તમા પૃથ્વીની મેાટાઇ એક લાખ આઠ હજારÄાજનની છે. ૭, આ પ્રમાણે પછી પછીની પૃથ્વીની મેાટાઇ આછી આછી થતી જાય છે તેથી પછી પછીની પૃથ્વી કરતાં पडेसां पडेलानी पृथ्वीनी मोटाई वधारे होय छे तेथी 'सर्व महती बाहुल्येन ' એ પ્રમાણેનુ કથન કરવામાં આવેલ છે. અને લખાઇ પહેાળાઈ પછી પછીની પૃથ્વીની વધતી જાય છે. તેથી પછી પછીની પૃથ્વી કરતાં પહેલાં પહેલાની पृथ्वीनी सम्मार्थ होजा थोछी मे छी थाय छे. तेथा 'सर्वक्षुल्लिका सर्वा તેવુ' એ પ્રમાણેનુ કથન કરવામાં આવેલ છે. દરેક પૃથ્વીની લખાઇ પહેાળાઇ પછી પછીની પૃથ્વીમાં એક એક રાજી વધતી જાય છે. એ રીતે સાતમી અધઃ સપ્તમી તમસ્તમા પૃથ્વીની લ ખાઇ પહેાળાઇ સ્રાત રાજુની થઈ જાય છે. એક રાજુનું ३५० Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३उ.२ सू.२३ नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् ३५१ सर्वमहती वाहल्येन सर्व क्षुल्लिका सर्वान्तेषु किमिति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'दोच्चाणं पुढवी जाव सब्दवखुइडिया सचंतेमु' द्वितीया खलु पृथिवी यावत् वृत्तीयां पृथियौं प्रतीत्य सर्वमहती बोहल्येन सर्व. क्षुल्लिकैच भवति सन्तेिषु इति । 'एवं एएणं अभिलावेणं जाव' एस् एतेनाभिलापेन-पूर्वकथितमकारेण, यावत्-इति पष्ठ पृथिव्याः प्रश्न पर्यन्तं वाच्यम् । षष्ठ पृथिवी प्रश्नो यथा-'छट्ठिया णं भंते ! पुढवी अहे सत्तसं पुढदि पणिहाय सध्यमहंगिया बाहल्लेणं सदखुइडिया सव्वं ते सु ?' छाया-षष्ठी ग्वल भदन्त ! पृथिवी अधः सप्तमी पृथिवीं प्रणिधाय सर्वमहती बादल्येन सर्वक्षुद्रिका सा तेषु ? पति प्रश्नवाक्यपर्यन्तं याचस्पदेन संग्राह्यम् । भगवानुत्तरमाह-'छट्टिया पुढी' इत्यादि, 'छट्टया पुढनी हे सत्तम पुढवि पणिहाय जाच सबक्खुडिया सम्वतेसु' षष्ठी-तमः प्रभा पृथिवी अधः सप्तमी पृथिवीं प्रणिधाय-प्रतीत्य यावत् सर्वमहतीबाहल्येन सर्वेक्षुद्रिका सर्वान्तेषु भवतीति ।। __ 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्यां खल भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्याम् 'तीसाए णरयावाससयसहस्से सु' त्रिशति नरकावासशतसहस्रेषु 'इक्कमिकसि निरयवासंसि' एकैकस्मिन् नरकावासे मतिनरके इत्यर्थः 'सवे पाणाः' सर्वे प्राणाः द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रिया: 'सव्वे भूया' सर्वे भूताः वनस्पतिकायिकाः, 'सव्वे जीचा' सर्वे जीवाः पञ्चन्द्रियाः 'सव्वे सत्ता' सर्वे सत्त्वाः पृथिवीकायिकादयः । है एक राज असंख्यात सहस्र योजन का होता है इसी बात को भगवान ने इसी सूत्र की इसी तीसरी प्रतिपत्ति में पहले कह चुके हैं वह पाठ टीका में देखलेना चाहिये। 'इमीले णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' हे भदन्त! इस रत्नप्रभा पृथिवी में जो 'तीलाए गरयावाससयसह स्सेसु' तीस लाख नरकाबान है उनमें 'इक्कमिकसि निरया वासंलि' एक २ नरकावास में 'सव्वे पाणा सव्वेभूया' समस्त प्राणी द्वीन्द्रियतेन्द्रिय और चौईन्द्रिय प्राणी समस्त वनस्पतिकायिक भून 'सच्च जीवा' समस्त जीव-पंचेन्द्रिय 'सव्वे सत्ता' एवं समस्त पृथिवी कायिक પ્રમાણ અસંખ્યાત સહસ્ત્ર જનનું હોય છે. એજ વાતને ભગવાને આ સૂત્ર ની આ ત્રીજી પ્રતિપત્તીમાં પહેલાં કહેલ છે. એ પાઠ સંસ્કૃત ટીકમાં જોઈ લે. _ 'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' हे भगवन् ! I त्नमा पृथ्वीमा २ 'तीसाए नरयावाससयसहस्से सु' बीस साप नापास छ तेभा इक्कमिकसि निरयावाससि' से मे न२४ावासमा 'सव्वे पाणा सव्वेभूया' सघणा प्रारिया એટલે કે દીન્દ્રિય, તેઈન્દ્રિય,અને ચૌઈન્દ્રિય પ્રાણુ સઘળા વનસ્પતિ કાંયિક भूतो 'सव्वजीवा' सणाला पयन्द्रिय छ। 'सव्वे सचा' भने सधमा पृथ्वी Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ जीवाभिगमसूत्रे यदुक्तम् - प्राणाः द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूताच तरत्रः स्मृताः । जीवाः पञ्चन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सच्वा उदीरिताः ॥ १ ॥ ते माणादयः 'पुढवीकाइयत्ताए' पृथिवीकारिकतया 'जाव वणस्स इकाइयचाए' यावत् - अपकायिकतया तेजस्काविकतया वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकया 'रइयचाए' नैरयिकतया 'उत्रवन पुत्रा' उत्पन्न पूर्वाः पूर्वमुत्पन्ना ए प्राणादयः पृथिव्यादिता नैरयिकल्या का ? इति प्रश्नः भगवानाह - 'हवा' इत्यादि, 'हंता गोया !' इन्त, गौतम ! 'अपई अदुवा अणदत्तो' असकृत्अनेकवारम् अथवा अनन्तकृत्योऽनन्तान् वारान् पृथिव्यादि कायिकतया नैरयिक तया च सर्वे प्राणादयः समुत्पन्न पूर्वाः संसारस्यानादित्वात् । ' एवं जात्र अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम् शर्कराप्रभाव आरभ्य सप्तम नरक पृथिवी सत्व 'प्राणा द्वित्रिचतुःप्रोक्ता भूताश्चनरवः स्मृता जीवा पञ्चेन्द्रि याज्ञेपा शेषाः सत्वा उदीरताः 'पुढविधा इयत्ताए जाव वणरसइकाइयन्ताए नेरइय'प्ताए उपवन्न पुग्चा' पृथिवी कायिक रूप से, यावत् अच्काधिक रूप से, तेज कायिक रूप से, वायुकायिक रूप से और वनस्पतिकायिक रूप से तथा "नरयिक रूप से पहिले उत्पन्न हो चुके है ? इसके उत्तर में प्रभुः कहते हैं'हंता गोयमा ! अलई अदुवा अनंतखुत्तो' हां गौतम | ये सब प्राणादिक जीवा अनेक वार अथवा अनन्त वार पृथिवीकाधिक आदि रूप से पहिले रत्नप्रभा पृथिवी के प्रत्येक नरकावास में उत्पन्न हो चुके हैं। क्यों कि संसार अनादि रूप है 'एवं जाव भई सत्तमाए' इसी तरह से शक् प्रभा से लेकर अधः सप्तमी तमस्तसा पृथिवी तक के नरकों के नरका घासों में समस्त प्राणी आदि पृथिवी कायिक आदि रूप से एवं नैरयिक रूप प्रायिष्ठ सत्वे। ‘प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोका भूताश्च तरच स्मृत्ताः, जीवा पच्चेन्द्रिया ज्ञेया, शेषाः स्वत्वा उदीरिताः, 'पुढविक्का इयत्ताए जाव वणस्सइ काइयत्ताए नेरइयताए उववन्न पुव्वा' पृथ्वी४।यि पदाथी, यावत् सायि यात्राथी, वायुठायिष्ठ પણાથી, અને વનસ્પતિ કાયિકપણાથી, તથા નૈરયિક પણાથી, પહેલાં ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયાં છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે ‘તાगोमया ! असई अदुवा अण तखुत्तो' हा गौतम ! भा સઘળા પ્રાણ વિગેરે જીવા અનેકવાર અથવા અન તવાર પૃથ્વીકાયિક વિગેરે પણાથી પહેલાં રત્ન પ્રભા પૃથ્વીના દરેક નરકાવાસેમાં ઉત્પન્ન થઇ ચૂકયા છે કેમકે સ`સાર અનાદિ ३५ छे. एव ं जाव अहे स्वत्तमार' प्रभावे शरायला पृथ्वीथी बहने અધઃસપ્તમી તમસ્તમા પૃથ્વી સુધીના નરડાના નરકાવાસેામાં સઘળા પ્રાણી વિગેરે Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोरपोतिकाटीका प्र.३ उ.२ २.२३ नरकेपु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् ३५१ वन्तेषु नरकेषु सर्वे प्राणादयः पृथिव्यादि कायिकतया नैरपिकल्या च' असंत अनन्तकृत्वा समुत्पन्नाः, पति पृथिवी सूत्राणि स्वयमेवोहनीयानि । 'णवरं जत्थ बत्तिया णरगा' नवरं यत्र यावत्संख्यका नरकाबासा स्तत्र पृथिव्यां तावत्संख्यकार नरकावासा वक्तव्या इति ।। ___'इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढ दीए' एतस्यां खल्ल मदन्त ! रत्नप्रमाया पृथिव्याम् 'निरयपरिसामंतेमु' नरकाः परिसामन्तेषु नरसापासपर्यन्तवचिषु प्रदेशेषु 'जे पुढवीकाइया' ये बादरपृथिवीमाथिकाः 'जाव वणस्तकाइया' यावत् पादराकाधिकाः, बादरवेनस्कापिका, बादर वायुकायिका, बादरवनस्पसिकायिका जीवा' णं भंने ! जीवाः ते खल्लु पृथिवी कायिकादयः जीवा: 'महाकम्मतराचे' महायतरा एव महत्मभूत असातावेदनीयं कर्म येषां तेषां ते महाकर्माणः, अतिशयेन महाकर्माणो महाकर्मराः वेत्यवधारणे तथा च महाकर्माणः, अतिशयेन महाकर्माणो महाकर्मतगः चेवे. से अनेक पार अथवा अनन्तपार उत्पन्न हो चुके हैं ऐसा जाना चाहिये इस सम्बन्ध में शर्करादि छहों पृथिवियों के आलापक सूत्रों का अपने भाप कर लेना चाहिये । 'णवरं जत्थ जत्तिया गरमा विशेषता केवल इतनी सी ही है कि जहां जिसने नरप्लावास हैं वहां वे उलने ही कहना चाहिये। 'इमीसे णं भंते । रयणप्पाए पुढवीए' हे बदन्त ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में 'निरय परिसामसु' नरकावास के अन्त तक के प्रदेशों में 'जे पुढवी काइया जाच वणस्सइकाइया' जो बादर पृथिवी कायिक पापत् मादर अप्कायिक बादर तेजस्कायिक, चादर वायु काधिक पादर बनस्पतिकायिक जीव हैं 'ते णं भंते ।' हे भदन्त ! वे पृथिवीकाधिका दिजीव 'महाकम्मतरा चेव' क्या महाकर्मतर वाले-अतिशथ असाप्ता કાયિક વિગેરે પૃથ્વી વિગેરે પણાથી અને નૈરયિકપણાથી અનેક વાર અથવા બનતવાર ઉત્પન્ન થઈ ચૂકયા છે, તેમ સમજવું આ સંબંધમાં શર્કરા પૃથ્વી विगैरे छये स्वीयाना माता। पाते मनावी सभ७ वा. 'णवर जत्थ जतिया परगा' विशेषता Banatale छे ४ न्यारे न२४पास छ, ત્યાં તે એટલા જ કહેવા જોઈએ, 'मीसे गं भवे ! रयणप्पभाए पुढवीए भगवन् मा २रनमा पृथ्वीमा "निरयपरिसामसु' नासाना मत सुधीनप्रदेशमा जे पुढवी काझ्या जॉब बस्मा काइयो' ने 8२ पृथ्वीक्षिा यावत् पाह२ माथि माहर बनस्पति यि छ, 'ते में भंते ! जीवा' हे भगवन्ते पृथ्वी wो 'मही कम्मतराचेव' मा ४२ वाणा मेटले तिशेयसी मी० ५५ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. जीवामिंगमस्से त्यवधारणे तथा च महाकर्मतरा एव । कुतो महाकर्मतरा एवेत्यत आह-यतस्ते महाकिरियतराचेच' महाक्रियतरा एव महती क्रिया प्राणातिपादिका आसीद पूर्वजन्मनि तद्भवेष्वपि तदध्यवसाया, निवृत्त्या येषां ते महाक्रियाः, अतिभयेन महाक्रिया इवि महाक्रियतराः । महाक्रियतरत्वं कुतः ? तत्राह-'महा आसवतरावेव' महाश्रवत्तरा एच, महान्त आशश पायोपादान देतवः आरम्भादयः पूर्व जन्मनि येषा मासीत् ते महाश्रयाः महाश्रया एव महाश्रक्चराएव तदेवं यतो महाकर्मतरा एव ततः 'महावेयणतराचेच' महावेदनवराएव नरकेपु क्षेत्र पेदनीय कर्म उदय वाले है ? 'महा किरियामरा चेव' अतिशय महा क्रिया पाछे हैं ? 'महा आसवतराचे अतिशय महा आस्रव चाळे हैं? यहां जो ऐसा प्रश्न किया गया है उस का तात्पर्य ऐसा है कि नरकों में पृथिवी फाथिकादि जीव की पर्याय से वही जीव उत्पन्न होता है कि जिसने पूर्व जन्म में प्राणातिपात आदि क्रियाओं के करने में ही अपना जीवन ध्यतीत किया होता है तथा वहां पहुंच कर भी वह जीव रातदिन इन्हें प्राणातिपात आदि क्रियाओं के करने वाले परिणामों वाला बना रहता हि-इसलिये उसके इन क्रियाओं के कारण अतिशय महा असाता वेदनीय आदि कर्मों का बन्ध होकर उसमें स्थिति और अनुभाग प्रकृष्टतर पडजाता है। पापोपादान के हेतुभूत आरम्भ आदि इन जीवों के पूर्व भव में हुए है अतः इन्हें महाक्रिया वाला कहा गया है। अतः यही हेतु हेतु-: अद्भावप्रदर्शित करने के लिये गौतम ने प्रभु ले ऐला प्रश्न किया है. जप वे पृथिवीकाधिक आदि जीव पूर्व भव में ऐसे थे और वर्तमान में तावनीय ४भना या छ? 'महा आसवतराचेव' मत्यत महा मा- .. સ્ત્રવવાળા છે? કે જેઓએ પૂર્વ જન્મમાં પ્રાણાતિપાત વિગેરે ક્રિયાઓ કરવામાંજ પિતાનું સમગ્ર જીવન વીતાવેલું હોય છે. તથા ત્યાં પહોંચીને તે છ રાત દિવસ એ જ પ્રણાતિપાત વિગેરે કિયાએ કરવાવાળા પરિણામો -- વાળી બની જાય છે. તેથી પ્રાણાતિપાત વિગેરે કરવાવાળાને આ ક્રિયાઓ - કરવાને કારણે અત્યંત મહા અસાતા વેદનીય વિગેરે કમેને બંધ થઈને તેમાં સ્થિતિ અને અનુભાગ પ્રકૃષ્ટ રીતે પડી જાય છે. પાપ કરવાના કારણભૂત આરગ્સ વિગેરે આ ને પૂર્વ ભાવમાં થયા છે. તેથી તેઓને મહાક્રિયાવાળા કહેવામાં આવે છે. તેથી આજ હેતુ હેતુમભાવ બતાવવા માટે શ્રીગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુને આ પ્રમાણેનો પ્રશ્ન પૂછે છે કે જ્યારે તે પૃથ્વીકાયિક - વિગેરે છે. પૂર્વભવમાં એવા હતા અને વર્તમાનમાં પણ તેઓ આ જ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ शु.२३ नरकेपु पृथिव्यादि स्पर्शस्वरूपम् ३५५. स्वभावजायाअपि वेदनायाः अति दुःसहलादिति प्रश्न:, भगवानाह-'ता' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त गौतम ! 'इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुदवीएं' एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नमभायां पृथिव्याम् 'निरयपरिसामंतेसु' नरकारि सामंतेसु' नरकपरिसामन्तेषु नरकावासपर्यन्तवत्तिषु पदेशेषु 'तं चेव नाव महा. वेयणतरगा चेव' बादर पृथिवीकायिकाः, बादराफायिकाः, वादरतेजस्कायिकार बादर वनस्पतिकायिका जीवा महाकर्मतरा महाक्रियतरा महाश्रवतरा महावेदनतरा एवेति । 'एवं जाव अहे सत्तमा एवम् अनेनैव प्रकारेण यावद् अधः सप्तम्याम् शर्कराममात आरभ्य अधः सप्तम्या मणि सर्व विज्ञेयम् । । भी वे इसी प्रकार के जीवन से जीते है तो क्या वे उन नरकों के महा वेदनतर क्षेत्र स्वभाव अन्य वेदना के मोक्ता होते हैं? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से कहते हैं-'हंता गोधमा !' हां गौतम ! 'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढधीए' हल रत्नप्रभा पृथिवी में जो 'निरयपरिसामंतेसु' नरकावाल तक के प्रदेशों में पृथिवीकाधिक ओदि जीव है वे 'तं घेव जाव महा वेषणतरका चेव उसी प्रकार के है-जैसा कि प्रश्न में पूछो गया है-अर्थात् महा कर्न तर है-क्योंकि वे पूर्व में महा क्रिया तर थे, महास्रवतर थे और वहां पहुंच कर भी वे ऐसे ही है-अतः वे वर्तमान, में वहां महा वेदना वाले ही हैं। ___ अब सूत्रकार इस्ल तृतीय प्रतिपत्ति के इस वित्तीय उद्देशक में जितने पदार्थ-जितना घषय कहे गये हैं उन सब को संग्रह करके प्रकट करने वाली ये गाथाएं कहते हैंપ્રમાણેના જીવનથી જીવે છે. તે શું તેઓ એ નરકમાં મહાદતર ક્ષેત્રના સ્વભાવથી થવા વાળી વેદનાને ભેગવવા વાળા બને છે ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ छ है 'हता गोयमा" है। गौतम ! 'इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' मा रत्नप्रसाभार 'निरय. परिसाम तेसु' न२४पास सुधीना प्रदेशमा पृथ्थायि विगैरे छ। छे, त्या ''त' चेव जाव महा वेयणतरका चेव' सेवा प्रारना छे, २ प्रमाणे प्रत સૂત્રમાં કહ્યા છે. અર્થાત્ મહાકર્માતર છે. કેમકે તેઓ પૂર્વમાં મહાક્રિયાવાળા હતા. મહા આસવવાળા હતા, અને ત્યાં પહોંચીને પણ તેઓ એવાજ છે. તેથી તેઓ વર્તમાનમાં ત્યાં મહાદના વાળાજ છે. હવે સૂત્રકાર આ ત્રીજી પ્રતિપત્તિના આ બીજા ઉદેશામાં જેટલા પદાર્થો અર્થાત જે જે વિષયે કહ્યા છે, તે બધાને સંગ્રહ કરીને બતાવવા વાળી આ गया। ४. छे.. 'पुढवी मोगाहित्ता' त्यादि Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिनाए ६. सम्पति-तृतीयाविपत्ते द्वितीयोशे यावन्तः पदार्थाः कविता श्वे. संग्रहणीमाथा इमा, 'पुढवी ओगाहित्ता' इत्यादि, अथमम् 'पुढचीजो नारक पूषिव्यः कति भवन्तीति कथनम् तद्यथा-कह भंते ! पुढवीओ पमचानो' 'मोयमा." हे गौतम ! 'सतपुढवीओ पनसाओं' इत्यादि, सदनन्तरम् मोबा. हिसा - णरगा' इत्यादि, यस्यां पृथिव्यां यदवगाय यारसाथ नारा स्तदभिधेयम् यथा-'इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए असी उत्तर जोरम सहस्स वाइल्लाए उवरि केवइयं ओगाहिसा' इत्यादि, 'संठाण मेव मारता संस्थानं वाइल्यं च, प्रतिपादितम् । 'विक्वंभ परिक्खेवे' ततो विष्कम्मपरियो। . - 'पुढची ओगाहिता-इत्यादि-सब से पहिले इस तृतीय प्रतिपत्तिक द्वितीय उद्देशक में गौतम ने प्रभु से पृथिवियां कितनी है। ऐसा प्रश्न पूछा है-हलके उत्तर में प्रभु ने 'पृथिवियां सात है। ऐसा उत्तर दिन है, द्वितीय प्रश्न गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है कि इस रत्नप्रभा पृषियी जोकि एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटी है उसमें कितने योजन के ऊपर नीचे के प्रदेश को छोडकर नरकाबास हैं ? प्रभु ने इसी जत्तर ऐला दिया है कि हे गौतम ! एक हजार योजन का ऊपर का एक हजार योजन का नीचे का प्रदेश छोडकर बाकी के एक लाख अठहत्तर ७८ हजार योजन की भूमि में नरकवास हैं २। तृतीय प्रश्न गौतम में प्रभु से ऐल्ला पूछा है कि हे अदम्त ! नरक का संस्थान कैसा है ? उत्तर में मनु ने कहा है कि हे गौतम ! नरक का संस्थान मृदङ्ग आदि झाझार जैसा है, फली तरह से नरक की मोटाई कितनी है यह पात - સૌથી પહેલા આ ત્રીજી પ્રતિપત્તીના આ બીજા ઉદ્દેશામાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને પૃથિવી કેટલી છે? એ પ્રમાણેને પ્રશ્ન પૂછે છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુએ ગૌતમસ્વામીને “સાત પૃથિવિ છે એ પ્રમાણે કહ્યું. છે. ફરીથી ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને પૂછયું કે હે ભગવન આ રત્નપ્રભા નામની પહેલી પૃથવી કે જે એક લાખ એંસી હજાર જેનના વિસ્તારવાળી રે, તેમાં કેટલાક એજનના ઉપર નીચે પ્રદેશ છોડીને નરકાવાસ આવેલા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુએ એવું કહ્યું કે હે ગૌતમ! એક હજાર એજન ઉપર અને એક હજાર યોજન નીચે પ્રદેશ છોડીને બાકીના એક લાખ मध्याते२ ॥२ याननी भूभीमा न२पास छ, २. * ગૌતમસ્વામીએ ત્રીજો પ્રશ્ન પૂછતાં પ્રભુને કહ્યું કે હે ભગવદ્ નરકનું સંસ્થાન કેવું છે? આના ઉત્તરમાં પ્રભુએ કહ્યું કે હે ગૌતમ ! નરકનું સંસ્થાના મૃદંગ વિગેરેના આકાર જેવું છે. એ જ પ્રમાણે નરકની વિશાળતા કેટલી છે? Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिका टीका नं. ३ उं.२०२३ नरकेषु पृथिव्यादि स्पर्श स्वरूपम् ३५ 1 नौगंध फासोय' ततो वर्णो गन्ध स्पर्शश्च । 'तेसि महालयास उन्मादेवेश तयः तदनन्तरं तेषां नरकाणां महत्तायां देवेन उपमा-सा पर्चा भवति । 'जीवाय पुग्गलाय' ततो जीवाः पुद्गलाथ नरकेषु व्युम्क्रामन्तीति व्यम् । 'वह सासया निरया' तथा शाश्वताऽशाश्वता नरका इति वक्तव्यम् 'माओ' तत उपपातो नारकाणां वक्तव्यः तद्यथा - 'इमी से णं मंते । भार पुढवीर नेरहया कओ उबवज्जेति' इत्यादि, 'परिमाणं' तव एकसमयेनोपमामानां नरकाणां परिमाणं वक्तव्यम् 'अवहारुच्चत मेव संघयणं' ततोऽपहारी नरकानं वक्तव्यो नारकजीवानाम्, तत उच्चत्वं ततः संहननं वक्तव्यम् । 'ठाणवण्णगंधा फासा उसासमाहारे' तदनन्तरं नारकजीवानां संस्थानं वक्तव्यं, सदनन्तरं वर्णगन्धस्पर्शाः वक्तव्याः, तत उच्छ्वासनिःश्वास वक्तव्यौ तदनन्तर माहारो वक्तव्यः । 'लेस्तादिहीनाणे' तदनन्तरं लेश्यानक्तव्या, तदनन्तरं दृष्टिकही है इसके बाद 'विक्ष परिकखे वे' नरफों का विष्कंभ-चौडाईऔर परिधिका प्रमाण क्या है ? यह कहा गया है 'षण्णों' नरक के वर्ण गंध और स्पर्श के सम्बन्ध में कथन किया गया है 'तेसिं महालबाए उवमा देवेण होइ कायव्वा' नरक कितने बडे हैं यह देव का द्रष्टाइस देकर समझाया गया है। 'जीवाघ पुग्नलाघ' जीव पुद्गल नरक में जाते हैं, सासया निरया' ये नरफ शाश्वत हैं 'उपवाओ' एक समय में कितने नारकी वहाँ उत्पन्न होने हैं और वहाँ से कितने उद्वर्तित होते है सरकावास कितने ऊंचे हैं- नारक जीवों के संहनन होता है या नहीं ! इनके संस्थान कौनसा होता है ? इनके शरीर का वर्ण, गंध रस ब स्पर्श कैसा होता है ? इनको श्वासोच्छ्वास कैसा होता है ? यह कथन मे सभधभांप उथन यु छे. ते पछी 'विक्खंभपरिक्खेवे' नारीना વિષ્ણુભ પહેાળાઇ અને પરિઘેિતુ' પ્રમાણુ શું છે? તે સબધમાં પણ કથન म्यु ं छे. 'बण्णो.' नरउना वर्षा, गंध, भने स्पर्शना संबंधां स्थन ४२वामां "मायु छे. 'सि' महालयाए उबमा देवेण होह कायव्वा' न२४ हैटा भोटा छे 'शे सभधभां हेवनु दृष्टांत आधीने सभलववामां आव्यु ं छे. 'जीवाय पुगछाय' व युगसेो नरम्भां लय छे ? 'सासया निरयो' मा नरमे शाश्वत है. ? "उदवाओ' समयमा डेंटला नाहीये त्यां उत्पन्न थाय छे ? भने त्योभी કેટલા નારકી બહાર નીકળે છે ? નરકાવાસ કેટલા ઉંચા ? નારકવાન સહનન હોય છે? કે નથી હાતુ? તેઓના સંસ્થાને કયા કયા છે? તેના શરીરના વણુ, ગધ, રસ અને સ્પર્શ કેવા હાય છે ? તેઓના શ્વાસેાચ્છવાસ દવા જાય છે? આ સબંધમાં કથન કરવામાં આવ્યું છે. તે પછી આ, Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे ૩૧= कन्या वदन्तरं ज्ञानं वक्तव्यम् । 'जोगुवजोगे तहा समुग्धाया' तदनन्तरं योग:मनोवाक्कायादिर्वक्तव्यः, तदनन्तरं साकारानाकारोपयोगो वक्तव्यः, तदनन्तरं'याता वर्णनीयाः । ' तत्तो खुद पिवासा' तदनन्तरं क्षुधा वक्तव्या, तदनन्तरं 'पिपाला वक्तव्या 'विउव्वणा' ततो नारकाणां विकुर्वणा वक्तव्या, तद्यथा - ' रयण- भा पुढवी नेरयाणं भंते ! किं एगत्तं पभू विउव्वितए' इत्यादि, 'वेयणा'aapat arrari कीदृशीवेदना भवतीति वक्तव्यम् 'भयं' तदनन्तरं अयम् 'उपवाओ पुरिसाणं' तदनन्तरं विंशतितमसूत्रोक्तानां जमदग्नि रामादीनां पञ्चानां पुरुषाणा मधः सप्तम्यामुपपातो वक्तव्यः । 'ओम्मं वेयजाए - दुबिहाए' तत औपम्यं द्विविधाया वेदनाया:- उष्णवेदनायाः शीतवेदना: या । ततः स्थितिर्वक्तव्या । 'उचट्टणा' तत उद्वर्तना वक्तव्या 'पुढवीउ' ततः स्पर्श :- पृथिव्यादिस्पर्शी वक्तव्यः । ततः 'उववाओ सव्वजीवाणं' ततः सर्व जीवानामुपपाती वक्तव्यः, तद्यथा - ' इसी से णं मंते ! रयणप्पमाए पुढवीए तीसाए नयावास सय संहस्ले एगमेगंसि निरयावासंसि सव्वे पाणा सव्वे भूया' इत्यादि, 'एयाओ संगणिगादाओ' एताः पश्च संग्रहणी गाथाः कथिता इति ॥ ०२२ ॥ तृतीयप्रतिपच द्वितीयो नारकोदेशकः समाप्तः ||२॥ किया गया है । बाद में आहार लेश्या दृष्टि ज्ञान योग, उपयोग, समुद्वात, क्षुधा, तृषा, विकुर्वणा वेदना भय जमदग्नि पुत्र राम आदि पांच पुरुष सातवीं पृथिवी के अप्रतिष्ठान नामके नरकावास में उत्पन्न हुए है यहां यह सब कहा गया है । बाद में वेदना प्रकार स्थिति, उद्वर्तना, वहां के स्पर्श का कथन तथा पृथिव्यादिक रूप से जीवों का उत्पन्न होना यह म विषय इस उद्देशक में कहा गया है। सूत्र - ॥२२॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'जीवाभिगमसूत्र' की प्रमेयद्योतिका नामक व्याख्या में - ॥ तृतीय प्रतिपत्ति का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥३-२॥ बेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, समुद्घात, क्षुधा, तृषा, विदुवा, बेहना ભય, જમદગ્નિ પુત્ર રામ વિગેરે પાંચ પુરૂષા સાતમી પૃથ્વીના અપ્રતિષ્ઠાન નામના નરકાવામાં ઉત્પન્ન થયા છે. એ સમધમાં કથન કરવામાં આવ્યું. છે તે પછી વેદના પ્રકાર, સ્થિતિ. ઉદ્દતના ત્યાના સ્પર્શનું કથન તથા પૃથિવ્યાદિક પણાથી જીવે'નુ' ઉત્પન્ન થવું આ તમામ વિષય આ ઉદ્દેશામાં वामां आवे छे. ॥ सू. २३ ॥ જૈનાચાય જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રીઘાસીલાલજી મહારાજકૃત ‘જીવાભિગમસૂત્ર’ની પ્રમેયદ્યોતિકા નામની વ્યાખ્યામાં ત્રીજી પ્રતિપત્તિના ખીજો ઉદ્દેશ સમાસ ૩–રા Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न 'प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ख.२४ नैरयिकाणां पुद्गकपरिमाणादिकम् "३५९ अथ तृतीयोदेशका सम्प्रति-तृतीयप्रतिपत्तौ तृतीय द्देशक आरभ्यते तत्रेदमादिम सत्रम्-'मीसे णं भंते ! रयणप्पभाए' इत्यादि, ...मूलम्-इनीसे भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरड्या केरिसयं पोग्गलपरिणामं पच्छणुभवमाणा विहरति ! गोयमा! अणिटुं जाव असणासं, एवं जाव अहे सत्तमाए। एवं यई। गोहा-पोग्गलपरिणामे वेयणा य२ लेस्ला य३ नाम४ गोए य५। अरई६ भए य७ सोगेट, खुहा९पिवासा य१० वाही यं ११ ॥१॥ ऊसासे१२ अणुतावे१३ कोहे१४ माणे य१५ माय-लोभे य१६ १७ पत्तारि य सण्णाओ २१ लेरइयाणं तु परिणामा ॥२॥ एत्थ किर अइवयंति, नरवलहा केलवा जलयराव । मंडलिया रायाणो जे य महारंभ कोडंबी ॥१॥ भिन्नमुहुत्तो नरएसु होइ.. तिरिय मणुएसु चत्तारि । देवेसु अद्धमालो उक्कोस विउव्वणा .. भणिया ॥२॥ जे पोरगला अणिटा नियमा सो तेसि होइ आहारो .. 'संठाणं तु जहण्णं नियमा हुंडं तु नायव्वं ॥३॥ असुभा विउ: व्वणा खल्लु नेरइयाणं तु होइ सव्वेसिं । वेउत्रियं सरीरं असं घयण हुंडसंठाणं ४॥ अस्साओ उववण्णो अस्साओ चेव, चयइ निरयंभवं। सव्व पुढवीसु जीवो सव्वेसु ठिइ विसेसेसु।५।। उववाएणं व सायं नेरइओ देव कम्मुणा वा वि । अज्झवसाण निमित्तं अहवा कम्माणुभावेणं ॥६॥ नेरइयाणुप्पाओ उक्कोसं पंचजोयणसयाई। दुक्खेणाभिदुयाणं वेयणसयसंपगाढाणं 19) अच्छिनिमीलियमत्तं नत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं । नरए नेरइयाणं अहोनिसं पच्चमाणाणं ॥८॥ तेया कम्मसरीरा सुहमसरीराय जे अप्पज्जत्ता, जीवेण मुक्कमेत्ता वच्चंति सहस्ससो भेयं ।।९॥ अइसीय अइउण्हें अइतण्हा अइखुहा अइभयं वा। निरए नेरइयाणं दुक्खसयाइं अविस्साणं ॥१०॥ एत्थ य भिन्न Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीपामिन मुहत्तो पोग्गल असुहाय होइ अस्साओ। उववाओ अप्पाओ च्छिलरीरा उ बोद्धवा ॥११॥ से तं नेरइया ॥सू०२४॥ ॥नारय उद्देसओ तइओ ॥ छाया--एतस्यां खलु भदन्त ! रत्नप्रभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कीदृशं पुकूल परिणाम मत्यनुमवन्तो विहरन्ति ? गौतम ! अनिष्टं यावदमनोऽमम्, एवं याव. या सप्तम्याम् । एवं ज्ञातव्यस्, गाथा:-पुद्गलपरिणामः १ वेदना२ च लेश्या ३ नाम ४ गोत्रे ५ च । अरति : ६ भयं ७ च शोक ८, क्षुधा ९ पिपासा १० पक्ष्याधिश्च ११॥१, उच्छ्वासः १२ अनुतापः १३, क्रोधते १४ मानय १५ माया १६ लोभश्च १७ चत्तस्त्रश्च संज्ञाः १८-२१ नैरयिकाणां तु परिणामाः॥२॥ आज किलातिलवनन्ति, नरकृषभाः केशवा जलचराश्च । माण्डलिका राजानो प महारम्भकुटुम्बिनः ॥१॥ भिन्नमुहूतौ नरकेषु भवति तिर्यमनुजेषु चत्वारि । हेवेवर्ड मास उत्कृष्ट विद्युणा भणिता ॥२॥ ये पुद्गला अनिष्टा नियमात् स तेषा सपल्याहारः। संस्थानं तु जघन्यं नियमाद् हुण्डं तु ज्ञातव्यम् ॥३॥ अभुमा रिहा क्षणा खल नैरयिकाणां भवति सर्वेषाम् । वैक्रियं शरीरमसंहननं हुण्डसंस्थानम् ४॥ असात उपपन्नोऽसात एव त्यजति निरयभवम् । सर्व पृथिवीषु जीव: लाई स्थितिविशेषेषु ॥५। उपपातेन वा सातं नैरयिको देवकर्मणा वाऽपि । एवसाननिमित्त मथवा कर्मानुभावेन ६। नैरयिकानुपपात उत्कर्षेण पत्र योजनशणानि । दुःखेनाभिद्रुतानां वेदना शतसंप्रगाढानाम् ॥७। अक्षिनिमीन मानं नास्ति सुख दुःखमेव पतिबद्धम् । नरके नैरयिकाणा महानिर्श. पच्यमानामाम् ॥८॥ तेजस कर्मशरीराणि सूक्ष्मशरीराणि च यान्यपर्याप्तानि । जीवन मुक्तमात्राणि ब्रजन्ति सहस्रशो भेदम् ॥९॥ अतिशीत मत्युष्ण मतितृष्णाति एषा. इति भयं वा । नरके नैरथिकाणां दुःख पतानि अविश्रामम् ॥१गा अपवभिन्न हू, पुद्गलाशुमाय भवति उश्वास उपपातः उपपातोऽस्ति शरीराणि तु पोइन्पानि - नारकोद्देशक स्तृतीयः। ते एते नैरयिकाः ।।०२४॥ . .८ टीका--'इमीसे णं भंते ! रयणप्पमाए पुढवीए' एतस्यां खलं भदन्त ! रत्नमभायो पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिका: 'केरिसर्य' कीदशम् किमी. - तृतीय प्रतिपसिका तृतीय उदेशक 'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीर गैरइया'-इत्यादि। - ત્રીજી પ્રતિપત્તિના ત્રીજા ઉદેશાને પ્રારં 'इमोसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रया' या Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सु. २४ नैरयिकाणां पुलपरिमाणादिकम् ३६१ कारकम् 'पोग्गल परिणाम' पुलपरिणामम् - आहार पुद्गलादि विपाकम् 'पच्चणुभवमाणा' प्रत्यनुभवन्तः - वेदयमाना विहरंति' विहरन्ति - अवतिष्ठन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गवस ! 'अहिं जीव अमनामं' अनिष्टं यावत् - अकान्तम् अप्रियम् अमनोज्ञम् अमनोऽयं पुलपरिणामं वेदयमाना विहरन्तीति | 'एवं जान अहे सत्तमाए' एवं यावदधः सप्तम्याम्, एवं शर्करामभापृथिवीतः आरभ्य तमस्तला पृथिवी पर्यन्त नारका अपि अनिष्ट मकान्तमप्रियममनोज्ञ समनोऽयं पुद्गलपरिणामं वेदयमानास्तिष्ठन्तीति । ' एवं नेयन्वं' एवम् अनेन प्रकारेण पुलपरिणाममधिकृत्य मैथुन संशापर्यन्तमेक टीकार्थ- गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है- 'हमीण भंते । यणये 'भाए पुढवीए' हे मदत ! इस रत्नप्रभा पृथिवी में 'रश्या' नैरपिक 'केरिस पोग्गल परिणामं पच्चणु नषमाणा विहरंति' केले पुगल परिणाम को - आहारादि पुल विपाक को भोगते हैं? उसर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! अहिं जाव अमणास' हे गौतम! रत्नप्रभा पृथिवी में नैरथिक अनिष्ट यावत्-अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ - और अमनोम पङ्गल परिणाम रूप आहार आदि का अनुभव करते है- भोगते हैं 'एवं जाव आहे सत्तमाए' इसी तरह से नारक जीव द्वितीय पार्करामभा पृथिवी से लेकर अधः सप्तमी तमस्तमा पृथिवी 'तक आहारादि का अनुभव करते हैं 'एवं नेयब्वं' इसी तरह वेदना १, लेइया २, नाम ३, गोत्र ४, अरति ५, भय६, शोक ७, क्षुधा ८, पिपासा ९, व्याधि, १० उच्छूबास, ११ अनुताप १२ क्रोध, १३ मान १४ माया, १५ लोभ १६ - टीअर्थ - श्रीगीतभस्वाभीगे अलुने मे पूछयु डे 'इमीसे णं भंते रयर्णभा पुढबीए' हे भगवन् मा रत्नप्रभा पृथ्वीमां 'नेरइया' नैरयि । 'देरिखय' पोग्गुळ परिणाम पच्चणुभवमाणा विहर'ति' वा પુદ્દગલ પરિણામને એટલે કે આહાર વિગેરે પુગવિપાકને ઊગવે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં 'है 'गोयमा ! अणि जाव अमणाम'' हे गीतभ ! रत्नप्रभा पृथ्वीमां नैयि । અનિષ્ટ યાત્ મકાંત, અપ્રિય, અમનેજ્ઞ, અને અમનેાડમ પુદ્ગલ પરિણામ ३५ भाडार विशेश्ना अनुभव रे छे. अर्थात् लोगवे छे. 'एव' जाव अहे प्रतमाए' આજ પ્રમાણે ચાવત્ નારકજીવા ખીજી શકાપ્રભા પૃથ્વીથી લઈને ધસમસી તમસ્તમા પૃથ્વી સુધી આહાર વિગેરે વિપાકને અનુભવ કરે છે. વં नेयव्वं मे अभा] बेहना १, बेश्या २, नाभ 3, गोत्र ४, अरति य, भय, शेो ७, भूम ८, तरस् &, व्याधि १०, ७२छ्वास ११, अनुताप १२ ष १३, भान १४, भाया १५, बोल १६, आहार १७, लय १८, मैथुन १८, परिग्रह २०, जी० ४६ કહે છે अलु Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुहत्तो पोग्गल असुहाय होइ अस्साओ। उववाओ अप्पाओ साच्छिलरीरा उ बोद्धवा ॥११॥ से तं नेरइया ॥सू०२४॥ नारय उद्देसओ तइओ॥ छाया--एतस्यां खलु भदन्त ! रस्नाभायां पृथिव्यां नैरयिकाः कीदृशं पुल परिणाम प्रत्यनुमवन्तो विहरन्ति ? गौतम ! अनिष्टं यावदमनोऽमम्, एवं याव. एका सप्तम्याम् । एवं ज्ञातव्यम्, माथा:-पुद्गलपरिणामः १ वेदना२ च छेश्या ३ नाम ४ गोने ५ च । अरति : ६ भयं ७ च शोका ८, क्षुधा ९ पिपासा १० व व्याधिश्च ११॥१, उच्छ्वासः १२ अनुतापः १३, क्रोध्ते १४ मानध १५ साया १६ लोमश्च १७ चतस्त्रश्च संज्ञाः १८-२१ नैरयिकाणां तु परिणामाः ।।२।। या किलातिलबजन्ति, नषभाः केशवा जलचराश्च । माण्डलिका राजानो ये व मदारम्भकुटुम्बिनः ॥१॥ भिन्नमुहूतौ नरकेषु भवति तिर्यड्मनुजेषु चत्वारि । देवेष्वर्द्धमास उत्कृष्ट विद्युणा भणिता ॥२॥ ये पुद्गला अनिष्टा नियमात् स तेषां सपत्याहारः । संस्थानं तु जघन्यं नियमाद् हुण्डं तु ज्ञातव्यम् ।।३॥ अभुमा रिड क्षणा खलु नैरयिकाणां भवति सर्वेषाम् । वैक्रियं शरीरमसंहननं हुण्डसंस्थानम् ४ असात उपपन्नोऽसात एव त्यजति निरयमवम् । सर्व पृथिवीषु जीव: सर्वे स्थितिविशेषेषु ॥५। उपपातेन वा सात नैरयिको देवकर्मणा वाऽपि । तष्यबसाननिमित्त मथवा कर्मानुभावेन ६। नैरयिकानुपपात उत्कण पत्र योजनशतानि । दुःखेनाभिद्रुतानां वेदना शतसंप्रगाढानाम् ॥७। अक्षिनिमीकन पानं नास्ति सुख दुःखमेव पतिवद्धम् । नरके नैरयिकाणा महानिर्श पच्यमाना. नाम् ।।८।। तेजस कर्मशरीराणि सूक्ष्मशरीराणि च यान्यपर्याप्तानि । जीपन सुरुमात्राणि व्रजन्ति सहस्रशो मेदम् ॥९॥ अतिशीत मत्युष्ण मतितृष्णाऽति क्षुषा. अति भयं वा । नरके नैरयिकाणां दुःख शतानि अविश्रामम् ॥१॥ अव भिम्ब. घहूपुद्गलाशुमाय भवति उश्वास उपपात: उपपातोऽस्ति शरीराणि तु बोल्पानि नारकोद्देशक स्तृतीयः। ते एते नरयिकाः ।।मु०२४॥ .८ टीका--'इमीसे णं मंते ! रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्यां खलं भदन्त ! रत्नभायां पृथिव्याम् 'नेरइया' नैरयिका: 'केरिसर्य' कीदशम्-किमा. - - - .. तृतीय प्रतिपत्तिका तृतीय उद्देशक 'इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्या'-इत्यादि। ત્રીજી પ્રતિપત્તિના ત્રીજા ઉદેશાનો પ્રારંબ 'इमोसे णं भवे ! रयणप्पभाए पुदवीए णेरया' त्यादि Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिकाटीका प्र.३ उ.३ स.२४ नैरयिकागां पुद्गलपरिमाणादिकम् .. ३६५ कारकम् 'पोग्गल परिणाम' पुद्गलपरिणामम्-आहार पुद्गलादि विपाकर बच्चेणुम्भवमाणा' प्रत्यनुभवन्त:-वेदयमाना विहरंति' विहरन्ति-अवतिष्ठन्ते इति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अणिढं जाव अमणाम' अनिष्टं यावत्-अकान्तम् अप्रियम् अपनोज्ञम् अमनोऽयं पुद्गलपरिणाम वेदयमाना विहरन्तीति । 'एवं जाब अहे सत्तमाए' एवं यावधः सप्तम्यास्, एवं शर्करामभापृथिवीतः आरभ्य समस्तमा पृथिवी पर्यन्त नारका अपि अनिष्ट मकान्तमपियममनोज्ञ भमनोऽमं पुद्गलपरिणामं वेदयमानास्तिष्ठन्तीति । 'एवं नेयन्वं' एवम्-अनेन प्रकारेण पुद्गलपरिणाममधिकृत्य मैथुन संज्ञापर्यन्तमेक टीकार्थ-गौतम ने प्रभु ने ऐला पूछा है-इध्यीले गं अंते ! स्याप्प भाए पुढवीए' हे भदन्त ! इस रनमाया पृथिवी में इया' नैरपिक 'केरिसयं पोग्गलपरिणामंपचणुमणमा विरंति' केले पहल परि. णाम को-आहारादि पुरल बिपाक को भोगते हैं ? उत्तर प्रसु कहते है-'गोयमा! अणिटुं जाच असणा' हे गौतम! रमप्रभा पृथिवी में नैरयिक अनिष्ट यावत्-अशान्त, अप्रिया, अमनोज्ञ-और अमनोम पगल परिणाम रूप आहार आदि का अनुभव करते हैं-ओगते है एवं जाव अहे सत्तमाए' इसी तरह से नारक जीच छित्तीय शर्करानभा पृथिवी से लेकर अधः सप्तमी लभस्तमा पृथिदी विक पाहारादि का अनुभव करते हैं 'एवं नेयध्वं' इसी तरह वेदना १, लेच्या २, नाल ३, गोत्र ४, भरति ५, भय६, शोक ७, क्षुधा ८, पिपासा ९, व्याधि, १० उच्चमास, ११ अनुताप १२ क्रोध, १३ मान १४ माया, १५ लोभ १६ आ. सहाय-श्रीगीतभस्वामी प्रसुन मे पूछयु 'इमीसे णं भंते रयणप्पभाए पुढवीए' मापन मा रत्नमा पृथ्वीमा ‘नेरइया' नैथिो! 'देरिसय पोग्गलु परिणाम पच्चणुभवमाणा विहरति' 4 पुगत परिणामने अटखे આહાર વિગેરે પુગવિપાકને ભગવે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે है 'गोयमा । अणि जाव अमणाम' 3 गौतम ! २नमा पृथ्वीमा नयि?। અનિષ્ટ યાવત એકાંત, અપ્રિય, અમનેશ, અને અમનેકમ પુદગલપરિણામ ३५ माहार विश्न भनुभव ४२ छे. अर्थात् माग छे. 'एव जाव आहे. पचमाए' मा प्रमाणे यावत् ना२४0 मी0 शरामा पृथ्वीथा धन भाभी तभस्तभावी संधी मास.२ विगरे विधान अनुभव रे छ. 'एवं नेयठवं' मे प्रभावन १, वेश्या २, नाम 3, गात्र ४, १२ति ५, भय ६, શકે છે, ભૂખ ૮, તરસ , વ્યાધિ ૧૦, ઉચ્છવાસ ૧૬, અનુતાપ ૨ોધ ૧૩, માન ૧૪, માયા ૧૫, લોભ ૧૬, આહાર ૧૭, ભય ૧૮, મૈથુન ૧૯, પરિગ્રહ ૨૦, जी. ४६ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे હ ८ विश्वतिद्वाराणि ज्ञातव्यानि । 'गाहा अत्र दिपये संग्रहगाथाद्वयं वत्र्त्तते, तथाहि'पोल परिणामे' इत्यादि । तत्र पुलपरिणामसूत्रं सूत्रकारेणैव प्रतिपादितम्, शेषाणि - वेदना १ वेश्या २ नाम ३ गोत्रा ४ रति ५ भय ६ शोक ७ क्षुधा पिवासा ९ व्याध्यु १० च्छ्वासानु ११ ताथ १२ क्रोध १३ मान १४ माया १५ कोमा १६ हार १७ भय १८ मैथुन १९ परिग्रह २० संज्ञा विषयाणि विंशतिः सूत्राण्यपि वक्तव्यानिः तथाहि - हे भदन्त । रत्नप्रभा नारकाः कीदृशीं वेदनां प्रत्यनुभवन्तस्तिष्ठन्तीति हे गौतम ! अनिष्टदशं यावदवनोऽसतरां वेदनां प्रत्यनुभवन्त स्तिष्ठन्ति एवं शर्कराभा वालुकाममा पङ्कपसा घूमममा तमःप्रभा तमस्तमः घमा पृथिवी नारका अपि अनिष्टतरां यावदमनोऽमतरां वेदनामनु भवन्त -- स्तिष्ठन्तीति एवमेव प्रतिपृथिविव्यादि सूत्राण्यपि स्वयमेव ऊहनीयानि । B अत्रेतानि पुद्गलपरिणामादि द्वाराणि समधिकत्य परिग्रह संज्ञापरिणाम वक्तव्यतायां चरमसूत्रं सप्तमनरक पृथिवीविषयं भवति, तदनन्तरम् 'एत्यकिर' हार १७, भय १८, मैथुन १९, परिग्रह २०, संज्ञाविषयक इन वेदना परि जाम से लेकर परिग्रह संज्ञा परिणाम तकके शेष उन्नीस द्वारों के सम्बन्ध में भी सूत्रों का कथन कर लेना चाहिये जैसे - हे भदन्त ! रत्नप्रभा defer कैसी वेदना का अनुभवन करते हैं ? हे गौतम! वे अनिष्ट तर यावत् अमनोमतर वेदना का अनुभवन करते हैं । इसी तरह से हर एक पृथिवी में लेइयादि सम्बन्धी सूत्र भी अपने आप उद्भावित कर लेना चाहिये यहाँ इस विषय में दो संग्रह गाथाएं हैं- 'पोग्गल परिणामें' इत्यादि । यहाँ इस पुद्गल परिणाम को अधिकृत करके परिग्रह संज्ञा परिणाम पर्यन्त के बीस द्वारों की वक्तव्यता मे अन्तिम सूत्र सप्तम नरक पृथिवी સ્રજ્ઞા સમધી આ વેદના પરિણામથી લઈને પરિગ્રહ સ’જ્ઞા પરિણામ સુધીના બાકીના એગથીસારાના સંબધમાં પણ સૂત્રાનું કથન સમજી લેવુ'. જેમકે કે ભગવન રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નૈયિકા કેવી વેદનાના અનુભવ કરે છે, કે ગૌતમ! તેઓ અનિષ્ટતર યાવત્ અમનેાડમતર વેદનાના અનુભવ કરે છે. એજ પ્રમાણે દરેક પૃથ્વીમાં લૈશ્યા વિગેરેના સંબધમાં પણ સૂત્રપાઠ પાતે બનાવીને સમજી તેવા. અહિયાં આ સંબધમાં એ ગાથા કહી છે. જે આ પ્રમાણે છે. 'पोग्गलपरिणामे वेयणा य लेस्साय नाम गोए य ८ res भएय सोगे खुट्टापिवासा य वाही य ॥ १ ॥ से अणुतावे, कोहे माणे य माय लोभेय, पत्तारि यसणाओ, नेरइया णं तु परिणामे ॥ २ ॥ અહિયાં આ પુદ્ગલ પિરણામ વિગેરે દ્વારાને અધિકૃત કરીને પરિગ્રહસંજ્ઞા પરિણામની વક્તવ્યતામાં છે. સૂત્ર સાતમી નરક પૃથ્વીમા છે તે પછી Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२४ नैरयिकाणां पुद्गलपरिमाणादिकम् ॥ इति गाया वक्तव्या। अय चरमसूत्रोक्त सप्तमनरकथिवीमसङ्गात् तन पे गच्छन्ति तान् प्रतिपादयति-'एत्य किर' इत्यादि, 'एत्य' अत्राधा सप्तमरकपृथिव्याम् 'किर' किलेति पदम् आप्तश्च मेतद् यदने कथ्यते-'अतिवमन्ति सप्तमनरक पृथिव्यामग्ने वक्ष्यमाणाः पुरुषा गच्छन्तीति-के ते पुरुषाः ये सदसम. नरकपृथिव्यां गच्छन्ति तत्राह-'नरवसमा' इत्यादि, 'नरवसमा'. नरपमा:नरेषु वृषभतुल्याः कालभोगादौ अत्यासक्तरशत महामहिमवलशालिस्वाहा के। इत्याह-'केसवा' केशवा: वासुदेवाः 'जळचयराय' जलराश्य तन्दुलमत्स्य मभृतयः 'मंडलिया' माण्डलिका वसुप्रभृतयः, 'रायाणो' राजानश्चक्रवर्तिनः मुभूमादया 'जे य महारंभकोडुवी' ये च महारम्भकुटुम्बिनः काळसौकलिकादयः एते. तथा एतत्सदृषाश्च येऽन्येऽत्यन्तक्रूरकर्मकारिणस्ते सप्तमनस्कपृथिव्यां चाइल्यैन के विषय का है, उसके बाद 'पस्थ किर' यह गाथा कहनी चाहिये. अब घरम सूत्रोक्त सप्तम नरक पृथिवी प्रसंग से इस सप्तम नरक पृथिवी में जाने वालों को कहते हैं-'एस्थ फिर' इत्यादि । 'एत्थ' यहां अध सप्तमी पृथिवी में 'अतिवयंति' ये मनुष्य जाते है-जो 'नरवसभा' नरवृषभ होते हैं-मनुष्यों में वृषभ के तुल्य होते हैं-भो गादि को में अस्यासक्त होते है-अथवा-पडी भारी महिमा वाले पल के धारी होते हैं। उनके नाम इस प्रकार से हैं-'केसवा' वासुदेव 'जलयराय' तन्दुलमत्स्य आदि 'मंडलिया' माण्डलिक वसु आदि रायाणो' राजा-चक्रवती सुभूम आदि 'जे महारंभे कोडंपी' तथा-जो काल सौकरिक आदि के जैसे महारम्भवाले कुटुम्बी-गृहस्थजन थे लम खप्तम पृथिवी में जाते है तथा इसी 'एस्थ किर' मा गया हवा नम. હવે ચરમ સૂત્રમાં કહેલ સાતમી નરક પૃથ્વીના પ્રસંગથી આ સાતમી નરક પૃથ્વીમાં જવાવાળાના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવે છે. . 'एस्य किर' त्या. एत्थ' मडियां असभी पृथ्वीमा जति वयांति' २५ भनुष्यो य छे. या 'नरव सभा' न२ वृषम डाय छे. અર્થાત્ મનુષ્યમાં વૃષભ સરખા હોય છે. એટલે કે ભેગાદિમાં અત્યંત આસક્ત હોય છે અથવા અત્યંત મોટા મહિમાવાળા બળને ધારણ કરવા पाणा हाय छे. तयाना नाम मा प्रभारी छे. 'केसवा' वासुदेव 'जलयरीय' समय विगैरे 'मडलिया' भांति सुविगैरे 'रायाण' रामन यती सुभूम विगरे 'जे महारंभे कोडुपी' तथा रेसो ४० सीरि४ विरना २१॥ મહા આરંભવાળા કુટુમ્બી ગૃહસ્થજન આ બધા સાતમી પૃથ્વીમાં જાય છે, Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ARE जीवामि गम छतीति । सम्मति नरकेषु तथा प्रस्तावाद तिर्यगादिपु च उत्तरवै क्रियावस्थान• फालमाह - 'भिन्नमुहुतो नरपसु छोइ' भिन्नमुहूर्ती नरकेषु भवति - भिन्नः - खण्डो हू इवि भिन्नमुहूर्तः, अन्तर्मुहूर्त मित्यर्थः तथा च नरके पूत्कर्षतो विकुर्वणा थितिकालो नारकणामन्तर्मुहूर्त्त भवतीति । 'तिरियमणुपसु चत्तारि' विर्य. मनुष्येषु चत्वारि तिर्यङ् मनुष्येषूत्कर्षतो विकुर्वणा स्थितिकालयत्वारि मन्त पनि 'देवे अद्धमासो' देवे पृत्कर्षतो विकुर्वणास्थितिकालोऽर्द्धमासं यावन प्रति- 'उको विकुन्त्रणा भणिया' उत्कृष्ट विकुर्वणा तीर्थकर्मणिता इति । सम्मति केषु आहारादि स्वरूपमाह - 'जे पोग्गला' इत्यादि, 'जे पोग्गला अणिट्ठा नियम सो तेर्सि होइ आहारो' ये पुद्गला अनिष्टा अकान्ता अमिया अमनोशा तरह जो और भी अन्त क्रूरकर्म करने वाले मनुष्य है वे भी प्रायः करके सप्तम नरक-तमस्तमा पृथिवी में जाते है । +-- अथ नरकों में और प्रसंगवश निर्यगादिकों में उत्तर वैक्रिय के अवथानकाल का सूत्रकार कथन करते हैं- 'भिन्नमुहुत्तो नरएस हो' नरकों में नारक जीव की उत्तर विकुर्वणा की स्थिति का काल उत्कृष्ट लेह अर्थात् एक अन्तर्मुहूर्त्त का है 'तिरियमणुस्से चत्तारि ' : तिर्यञ्च और मनुष्यों में विकुर्वणा का स्थिति फाल चार अन्तर्मुहर्स का 'देवेषु भद्धमासो' देवों में विकुर्वणा का स्थिति काल उत्कृष्ट से अर्धहमास तक का है । 'उक्लोलविणा भणिया' इस तरह का यह विकु - र्वणा का उत्कृष्ट से स्थिति फाल तीर्थंकरों ने कहा है । अब सूत्रकार प नरफी में आहार आदि के स्वरूप का कथन करते है- 'जे पोग्गला अणि દુષ્ટ તથા એજ પ્રમાણે ખીજા પણુ જે અત્યંતક્ર કર્યાં કરવાવાળા મનુષ્યેા છે, તેએ પણ ઘણા ભાગે સાતમી નરક-તમસ્તમા નામની પૃથ્વીમાં જાય છે. હવે સૂત્રકાર નરકામાં અને પ્રસંગવશાત્ તિગૂ વિગેરેમાં ઉત્તર વૈક્રિય ना व्यवस्थान अजनुं स्थन ४रे छे. 'भिन्न मुहुच नरपसु होई' नराभां नार જીવની ઉત્તરવિકુ^ણાની સ્થિતિના કાળ ઉત્કૃષ્ટની ભિન્ન મુહૂત અર્થાત્ એક अ ंतर्भुहूर्त'नो छे. 'तिरिय मणुस्सेसु चत्तारि' तिर्यय भने मनुष्योभां विडुथाना स्थिति और अतर्भुतना हे. 'देवेसु अद्धमासो' देवेाभां विथाना स्थिति उत्कृष्टथी अर्धा भास सुधीना छे. 'उक्कोस विकुव्वणा भणिया' मा प्रभा मा उत्कृष्टथी विदुर्वानी स्थितिाण तीर्थ डे छे. હવે સૂત્રકાર નરકામાં આહાર, વિગેરેના સ્વરૂપનું કથન કરે છે. તે जो अशिट्ठा नियमा स्रो तेखि होई आहारो' हे गौतम! नरोभां ! Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२४ नैरयिकाणां पुद्गलं गरिमाणादिकम् १६५ अमनोऽमास्ते एव पुद्गला नारकाणामाहाराय भवन्तीति । 'संठाणं तु जहण्ण नियमा हुडंतु नायव्य संस्थानं तु पुनस्वेषां नारकाणां हुण्डं भवति तदपि हुण्ड संस्थानं जघन्यमति निकृष्टं नियमतो भवतीति ज्ञातव्यम्, एतच्च संस्थानं भदधारणीयचरीरमधिकृत्य ज्ञातव्यम् उत्तरवैक्रियसंस्थानस्याने वक्ष्यमाणत्वादिति । सम्पति विकुर्वणा स्वरूपमाह-'असुमा' 'इत्यादि 'अनुमा विउवणा खलु नेरइयाणं होइ सम्वेसि' अशुमा चिकुर्वणा खलु नैरयिकाणां तु भवति सर्वेषाम् सर्वेषामपि नारकजीबाना मशुभैव निकुर्वणा भवति ननु कदाचिदपि शुमा, -यंचपि शुभं विकुर्विष्याम इत्येवं ते नारकाश्चिन्तयन्ति, तथापि तथाविधप्रतिकूल हा नियमा सो तेसि होइ आहारो' हे गौतम! नरकों में जो पहल अनिष्ट अकान्त, अप्रिय और अमनोज्ञ तथा अमनोऽम होते हैं ऐसे पुद्गल ही नारक जीवों के आहार के लिये होते हैं । 'संठाणं तु जहणं नियमा हुडंतु नायव्वं' नारक जीवों का संस्थान नियम ले हुंड ही होता है। यह संस्थान भी नियमतः अत्यन्त जघन्य होता है अर्थात निकृष्ठ होता है यह संस्थान भवधारणीय शरीर को लेकर ही कहा गया है.. क्योंकि उत्सर वैक्रिय का संस्थान आगे कहा जायण।। विकुर्वणा का स्वरूप कथन'असभी विव्वणा खलु णेरहयाण छोइ सव्वेलि जितने भी नारक जीव हैं-उन सबके अशुभ ही विकुर्वणा होती है । शुभ विवर्षणा कभी भी नहीं होती है। यद्यपि ये नारफी ऐसा विचार तो करते हैं कि हम शुभ विकुर्वणा करें-परन्तु लथाविध प्रतिकूल कर्म के उदय પુહૂગલે અનિષ્ટ, અકાત, અપ્રિય, અને અમનેશ તથા અમનેમ હોય છે. मेवा पुगale ना२४ वाना माहार भाटे साय छे. 'संठाणं तु अहणं नियमा हुडंतु नायव्वं' ना२४ वार्नु सस्थान नियमयी ४४ हाय छे. આ હુંડ-બેડોળ સંસ્થાન પણ નિયમિત અત્યંત જઘન્ય હોય છે અર્થાત્ નિકૃષ્ટ હોય છે. આ સંસ્થાન ભવધારણીય શરીરને લઈને જ કહેલ છે. કેમકે ઉત્તર પૈક્રિયનું સંસ્થાન હવે પછી કહેવામાં આવશે. विपणना २१३५ ४थन 'असुभा विउव्वणा खलु णेरइयाणं होई सव्वेसि' જેટલા નારક જીવો છે, તે બધાને અશુભ વિદુર્વાજ હોય છે. કયારેય પણ તેઓને શુભ વિફર્વણ હોતી નથી. જો કે આ નારકીયે એ વિચારતે કરે છે કે અમો શુભ વિદુર્વણ કરીએ પરંતુ તેવા પ્રકારના પ્રતિકૂળ કર્મના Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमले फोदयतः तेषां नारकाणा मनिष्टैव विकुर्वणा भवतीति । 'वेउन्धियं सरीरं' वैशियं शरीरं भवति नारकाणाम् तदपि वैक्रिय मुत्तरवैक्रियम् 'असंघयणं' असंह जनम् अस्थयभावेन संहननामावाद उपलक्षणमेतत् भवधारणीयमपि वैक्रियशरीरं सिंहननवनितमेप भवति तथा-'हुंड संठाणं' हुण्डसंस्थानं तत् उत्तर वैक्रियनरी भवति, हुण्डसंस्थाननाम्न एव भवमत्ययत उदयभावात् । 'जीवो' कपिज्जीव: 'सव्वपुढवी सर्वांट रत्नप्रभादिनरकपृथिवीपु 'सव्वेनु ठिइविसे सेमु' सर्वष्वपिप स्थितिविशेषेषु जघन्यादि रूपेषु 'अस्साओ उववण्णो' असात:-असातोदयप. रिझलितउपपन्नः उत्पत्तिसमयेऽपि पूर्वभवमरणकालानुभूतमहादुःखस्यानुवृति भावात् उत्पत्त्यनन्तरमपि 'अस्साओचेव' असात एव असातोदयकलित एवं सकलमपि 'निरयभवं चयई निरयभवं त्यजति क्षपयति न तु कदाचिदपि मुखलेशसे उन नारकों के अनिष्ट ही विकुर्वणा होती है। 'वेडम्वियं सरी' नारक जीवों के जो शरीर होता है वह वैक्रिय ही होता है और वह वैक्रिय भी उत्तर वैक्रिय होता है । 'असंघयणं' यह उत्तर क्रिय शरीर बिना संहननका अस्थि आदि से शुन्ध-इसी तरह भवधारणीय क्रिय -शरीर भी संहनन विना का ही होता है। नरको में वह उत्तर वैक्रिय शरीर हुंड संस्थान वेढय अवयव वाला होता है क्योंकि वहां जन्म खेने से ही इनके हुण्ड संस्थान नाम कर्म का उदय रहता है। 'जीवो सन्ध पुढवीसु-सव्वेसु ठिइ बिसेसेसु अस्सामो उववष्णो' कोई जीव समस्तपृथिवियों में और जघन्यादि रूप स्थिति विशेषों में असातोदय युक्त उत्पन्न हुआ, उत्पत्ति काल में भी वह पूर्व भव में मरण काल में अनुभूत महा दुःखो की अनुवृत्ति के प्रभाव से उत्पत्ति के अनन्तर भी असाता वेदनीय के उदय से युक्त हुआ हो सम्पूर्ण निरयभव को समा. -- यथा त ना२ मनिष्ट विन य छे. 'वेउब्विय' सरीर' ना२५ જીને જે શરીર હોય છે, તે વૈક્રિય શરીરજ હોય છે. અને વૈક્રિયમાં પણ तमान उत्तरवैष्यि शरी२०४ डाय छे. 'असघयणं' मा उत्तर ठिय • शश२ સહનના હાડકા વિનાના હોય છે. એ જ પ્રમાણે ભવપારણીય શૈક્રિય શરીર હંડ સંસ્થાન અર્થાત્ બેઢબ અવયે વાળું હોય છે. કેમકે ત્યાં જન્મ वाथी ५ तयार हु संस्थान नाम भनी मध्य २९ छे. 'ीवो सव्व पुढवीसु सव्वेसु ठिइ विसेसेसु अस्साओ उववण्णो' 4 अधणी पायोमा અને જઘન્ય વિગેરે રૂપે સ્થિતિ વિશેષમાં અસાતેદય યુક્ત ઉત્પન્ન થયે હોય, અને ઉત્પત્તિ કાળમાં પણ પૂર્વભવમાં મરણ સમયે અનુભવેલ મહા દુઃખાની Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयचोतिका टीका प्र.३ २.३ २.२४ नैरयिकाणां पुद्गलपरिमाणादिकम् ६७ मास्वादयति इति । ननु किं कदाचित्-सासोदयोऽपि भवति येनेदमुच्यते उद असातोदयपरिकलित एवोपपन्नोऽसातोदयकलित एव निरयमवं त्यजति' इत्यंत भाइ-'उववाएण' इत्यादि, 'उववाएण व सायं' उपपातेन सातं लभते, उपपातेन इत्यत्र सप्तम्यर्थे वतीया-तथा चोपपातकाले 'साय' सातं सुखं साढावेदनीय स करता है कभी सुख के लेश मात्र का भी आस्वादन नहीं कर पाता है तात्पर्य ऐसा है कि किलनेक जीव ऐसे होते हैं जो समस्त निरयादि पधिधियों में और समस्त स्थितियों में अहाता वेदनीय के उदय जन्य दुःख को ही भोगा करते है और दुःख भोगते २ ही जीवन समाप्त कर देते हैं। ऐसा क्यों होता है ? तो इसका कारण यहाँ ऐसा कहा गया है कि चे दुःख भोगते २, ही मरते हैं और वही संस्कार उनके साथ जहां वे उत्पन्न जिस स्थिति में होते हैं वहां पर भी जाता है अतः ऐले जीव नरकादि भवों को प्राप्त करके वहां पर श्री दुःख भोगते २, ही अपना जीवन पूर्ण कर देते है-वहां उन्हें एक क्षण भी सुख का लेश प्राप्त नहीं होता है-तो क्या नरक पृथिथियों में सुखका लेश भी है कि जिसे छेकर आप ऐसा कह रहे हैं? तो इसका उत्तर ऐसा है कि हाँ वहां पर भी सुख का वेदन सातोदय से कोई २, जीव करता है-यही यात "उववाएण व सायं" इस सूत्र पाठ द्वारा समझाई गई है-'उपपातेन"નિવૃત્તિ ન થવાના પ્રભાવથી યુક્ત થઈને જ સમગ્ર નરયિક ભવને સમાસ કરે છે. કયારેય પણ લેશમાત્ર સુખને પણ સ્વાદ લઈ શકતા નથી. . આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે કેટલાક જી એવા હોય છે કે જે સઘળી નિરયિક પૃથિવિમાં અને સઘળી સ્થિતિમાં અસાતા વેદનીયના ઉદયથી. થવાવાળા દુખેને જ ભોગવ્યા કરે છે. અને દુઃખ જોગવતાંજ પિતાનું જીવન પુરૂં કરીદે છે. એવું કેમ થાય છે? તેનું કારણ અહિયાં એવું બતારવે છે. કે તેઓ દુખ ભોગવતાં ભગવતાં જ મરે છે. અને એજ સંસ્કાર તેઓની સાથે જ્યાં અને જે સ્થિતિમાં તેઓ ઉત્પન્ન થાય છે, ત્યાં પણ જાયછે. તેથી એવા જીવો નરકાદિ ભવેને પ્રાપ્ત કરીને ત્યાં પણ દુખ જોગવતા. લાગવતાં જ પિતાનું સમગ્ર જીવન પુરૂં કરીદે છે. તેઓને ત્યાં એક ક્ષણ પણ સુખને એકલેશ પણ પ્રાપ્ત થતું નથી. અર્થાત લેશમાત્ર સુખ પણ તેઓને त्या भातु नथी. તે શું નરક પૃથિવિમાં લેશમાત્ર પણ સુખ છે? કે જેથી આપ આ પ્રમાણે કહે છે તે તેને ઉત્તર એ છે કે હા ત્યાં પણ સાતેદયથી કોઈ 18 ०१ सुमनु वहन ४२ छ. मेवात 'उववाएण सायं ५५id sal Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ जीवामिगम होदयं कश्चिद्वेतयते यः प्राग्भने दाहच्छेदादिव्यतिरेकेण मरणमुपगतोऽनति संक्लिष्टाध्यवसायी समुत्परते तदानीं न तस्य भागभवानुविद्धमाधिरूपं दुःखं नापि क्षेत्रत्रमावजं नापि परमाधार्मिककृतं नापि पररूपरोदीरितदुःखं तत एवं विष दुःखा मावादसौ सातोदयं कश्चिद्वेदयते इति कथ्य से, 'देव कम्मुणावावि' देव. कर्मणा पूर्वमाङ्गतिकदेव प्रयुक्तया क्रियया तपाहि-गच्छति पूर्वसागतिको देवः उपमाएण'-उपपात काल में कोई २, नारक साता वेदनीय कर्म के उदय जन्य मुख का देदन भी करता है परन्तु ऐसा जीव कैसा होता है-इसके लिये कहा गया है कि ऐसा जीव पूर्वभर में दाह आदि निमित्त के छैन आदि निमित्त के विना-अकाल मरण के साधन जुटाये विना मरण को प्राप्त होता है इल स्थिति में वह भरते समय अतिशय संक्लेश परिणामो वाला नहीं होता है तः अलि संलिप्ट परिणामों वाला नहीं होने से जीब जब नरक में उत्पन्न होता है तो उसके पूर्वभव के त्यागने में मानलिक दुःख का अभाव रहता है, तथा नरक रूप क्षेत्र के स्वभाव से जन्म दुःख भी उसे नहीं होता है, परमाधार्मिक देवों द्वारा किया गया दुःख भी उसे नहीं होता है और न आपस में उदीरित दुःख भी उसे होता है इस तरह के दुःख के अभाव से कोई २, जीव यहां नरक में भी खाता के उदय को भोगता है ऐसा कहा जाता है 'देवकम्मुणा वा वि तथा-कोई पूर्व भव का परिचित जीव हो गया हो और वह अपने ઉત્પત્તીના સમયે કઈ કઈ નારક જીવ સાતા વેદનીય કર્મના ઉદયથી થવા વાળા સુખનું પણ વેદન કરે છે પરંતું તેવા જ કેવા હોય છે, તે સંબંધમાં કહ્યું છે કે એ જીવ પરભવમાં દાહ વિગેરે નિમિત્ત વગર, છેદ વિગેરે નિમિત્તવિના, અકાલ મરણના સાધન છૂટવ્યાં વિના મરણ પામે છે. આવી સ્થિતિમાં તે મરણ વખતે અત્યંત સંકલેશ પરિણામે વાળ હેત નથી. અતિ સંકિલષ્ટ પરિણામોવાળે ન હોવાથી તે જીવ જ્યારે નરકમાં ઉત્પન્ન થાય છે, તે તેના પૂર્વભવને ત્યાગવામાં માનસિક દુખને આ સાવ રહે છે. તથા નરક રૂપ ક્ષેત્રના સ્વભાવથી થવાવાળું દુઃખ પણ તેને હેતું નથી. પરમધાર્મિક દેવે દ્વારા કરવામાં આવેલ દુઃખ પણ તેને હેતું નથી તેમજ પરસ્પરમાં આપેલ દુખ પણ તેને હોતું નથી. આ રીતના દુખના અભાવથી કઈ કઈ જીવે ત્યાં નરકમાં પણ સાતા વેદનીય કર્મના ઉદયને ભેગવે છે. तमाम भाव छ 'देवकम्मुणावा वि' तमलो भवन પરિચિત છવ દેવ થઈ ગયો છે, અને તે પિતાના અવધિજ્ઞાનથી પિતાના Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 - .. मेयोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२४ नैरयिकाणां पुद्गलपरिमाणादिकम् २१६९. पूर्वपरिचितस्य नरयिकस्य वेदनोपशमनार्थम् । स च वेदनोपशमो देवकतो मनानकालमात्र एव भवति, तत ऊर्ध्व नियमाव क्षेत्रस्वभावजा अन्योन्या वा वेदना प्रवर्तते तथा स्वाभाव्यादिति । 'अज्झवसाणनिमित्तं' अध्यवसाननिमित्तं सम्य स्वोत्पादकाले तत ऊर्ध्वंकदाचित्तथाविधविशिष्ट शुभाध्यवसायप्रत्ययं कश्चिन्नैर'यिको बाह्यक्षेत्रस्वभावजवेदना सदभावेऽपि सातोदयमेवानुभवति, सम्यक्त्वस्योत्पादकालेहि जात्यन्धस्य . चक्षु लाइन पहान प्रमोदो जायते तदुत्तरअवधिज्ञान से अपने परिचित को नरक उत्पन्न हुभा जाने तो उस समय में यह देव नरक में अपनी विफिश द्वारा पहुंचकर उस नारक, की वेदना को उपशमाने के निमित उले उपदेश देता है तो इससे भी उस नारक के लिये थोडी बहुत कुछ लमय के लिये शामा मिल जाती है.यह देवकृत वेदनीपशमरूप शाला उस्त जीव को चिरस्थायी रूप से प्राप्त नहीं होती है किन्तु थोडे से लमय के लिये ही होती है हलके साद नियम से उसे क्षेत्र स्वभाष जन्य अथवा दूसरे के छारा कृत वेदना होने लगती है। क्योंकि यहां की हालत ही ऐखी है 'अज्झव. साण निमित्तं' जप किसी नारक को सम्परत्व-उत्पन्न हो जाता है। तो उसके कारण उस नाराजीच को तथाविध विशिष्ट शुल्क अध्य. सायानिमित्तक सातोदय का ही वहां अनुभव होता है यद्यपि इसके बाय-क्षेत्र के स्वभाव से जन्य वेदना का सद्भाव रहता है तब उसके भीतर में साता का उदय ही प्रतीत होता है जिस प्रकार जात्यन्ध पुरुष को वक्षु के लाभ से परम प्रमोद होता है उसी प्रकार से इस नारक મુરિચિતને નરકમાં ઉત્પન્ન થયેલ જાણે તો તે સમયે તે દેવ ત્યા નરકમાં પિતાની વિક્રિયા દ્વારા પહોંચીને તે નરકની વેદનાને શમાવવા માટે તેને ઉપદેશ આપે તે તેનાથી પણ તે નારક જીવને થોડા સમય માટે પણ થોડી ઘણી એક શર્ત મળી જાય છે આ દેવકૃત વેદનપશમરૂપ શાતા તે જીવને થિયી પણાથી પ્રાપ્ત થતી નથી. પરંતુ ઘેડા સમય માટે જ હોય છે. તે પછી નિયમથી તેને ક્ષેત્ર સ્વભાવજન્ય અથર્વો એક બીજા દ્વારા કરવામાં Mid-art थवा सारी छ, म त्यानी siedar मेवी हाय छे. 'अन्सवसा गनिमित्त' ब्यारे 10 ना२४ने सस्य उत्पन्न | नय तो ते थी में નક જીવને તેવા પ્રકારનું વિશિષ્ટ શુભ અવસાય નિમિત્તક, સાતોદયનોજ ત્યાં એભવ થાય છે. જો કે તેના બાહ્યક્ષેત્રના સ્વભાવથી થવાવાળી વેદનાને ” સંભવ રહે છે, ત્યારે તેની અંદર સાતાને ઉદય જ પ્રતીત થાય છે. જેમ કઈ જન્મપે પુરૂષને નેત્રને લાભ થવાથી અત્યંત આનંદ થાય છે એ જ जो. ४७ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० - जीवामिगमसूत्रे कामपि कदाचित् तीर्थङ्करादिगुणानुमोदनाच्यनुगतां विशिष्टां भावनां भावयतः, सतो. वाह्यक्षेत्र स्वभावजवेदना सद्भावेऽपि अन्तः सातोदयो भवत्येवेति । ' अहवा कम्माणमावेणं' अथवा कर्मानुभावेन कर्मणः वाह्यतीर्थंकर जन्मदीक्षा केवलज्ञानापवर्ग कल्याण संभूतिलक्षणबाह्यनिमित्तमधिकृत्य तथाविधस्य सातावेदarrer कर्मणोऽनुभावेन विपाकोदयेन कञ्चित्सावं वेदयते इति ६ । 'वेयणसयपगाढाणं' वेदनाशक संप्रगाढानाम् वेदनाशखानि अपरिमिता वेदनाः संप्रगाढानि अवगाडानि येषां ते वेदनाशतसंपग ढाः यतो वेदनशत संप्रगाढास्वतः 'दुक्खेणा भिदुयाणं' दुःखेनाभिद्रुतानाम् यतो वेदनाशतसंप्रगाढा अतो दुःखेनाभिद्रुता स्तेषाम् 'नेरइयाणं' नैरथिकाणाम् - नैरयिकजीवानाम् 'उपाओ उक्कोसं पंच जोयसंयाई' उत्पातः, उत्पातो नाव कुम्भ्णादिषु पच्यमानानां कुन्तादिभिर्भिद्यमा जीव को भी सम्पक् के लाभ में परम हर्ष होता है इसके बाद भी उसके कभी २, तीर्थंकर आदि के गुणों की अनुमोदना करने रूप विशिष्ट अव्यवसाय वाली भावना के चितवन करते समय बाह्य क्षेत्र स्वाभाविक वेदना के सद्भाव में भी भीतर में लाता का उदय हो ही जाता है 'अहंथा कम्माणुभावेणं' कोई २, नारक तीर्थङ्कर के जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान और मोक्ष कल्याण के समयरूप बाह्य निमित्त को लेकर तथाविध सातावेदनीय कर्म के विपाकोदय से साता का वेदन करता है ॥६॥, . 'देयण सथसंपगाढाणं' अपरिमित वेदनाओं से युक्त हुए अतएव दुःखोंसे परे गये उन 'नेरयाणुप्पाभो' नैरयिकों का कुंभी आदि में पचाने से कुन्त-भाला आदि से भेदे जाने से भयत्रस्त होकर ऊपर उछलना कम से પ્રમાણે આ નારક જીવને પણ સમ્યક્ત્વના લાભમાં પરમ હે થાય છે. તે.. પછી પણ તેને કયારેક કયારેક તીથંકર વિગેરેના શુથેનુ અનુમાદન કરવા. રૂપ વિશેષ પ્રકારના અધ્યવસાય વાળી ભાવનાનું ચિંત્વન કરતી વખતે ખોક્ષેત્રની સ્વાભાવિક વેદનાના સદૂભાવમાં પણ અંદર સાતાના ઉદય થઈ જ જાય छे. ‘अइवा कम्माणुभावेणं' ।४ । ना२४ तीर्थ ४२ना कन्भ, दीक्षा, ठेवणज्ञांन् भने आक्ष ४दयालुना समय: ३५ मा निभितने वर्धने- "तेवा अाश्ना सात वहनीय प्रभुना विषा अध्यथी सातानु वेहन ४२ ॥ ॥ 'ब्रॅंयणस्रयसंपगाढा ण' अपरिमित, बेहनाशाथी, युक्त थयेल अतशेष हुयेोथी पर ंशृयेला ते “नेरइयाणुप्पा ओ' नैरयिाने डुली विगेरेमां- प्रभाववाथी, त -भाता विगेरेथी लेहार्धं भवाथी, लयथी विडवणथर्धने उपर उछ्वानुं सोछाभां 1. T Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उं.२ १.२४ नैरयिकाणां पुद्गलपरिमाणादिकम् . ३७१ नाना भयोत्त्रस्तानां तथाविधप्रयत्नवशाद् ऊर्ध्वमुत्प्लवनम् स जघन्येन गध्यतमात्रम् उत्कर्षेण तु पञ्चयोजनशनानि भवतीति ७ । दुःखेनाभिद्रुतानामिति, दुख: मेव निरूपयति-'नरए नेरइयाणं' नरके नारकाणांमुष्णवेदनया शीतवेदनया वा होणिसं पच्चमाणाण' अहर्निशं पच्यमानानाम् 'अच्छिनिमीलियो नत्यि मुह'. अक्षिनिमीलनमात्रमपि सुखं न भवति किन्तु 'दुक्खमेत्र पडिबद्धं केवलं दुःखमेव प्रतिबद्धम् अनुबद्धं समानुगत मिति भावः । नरके वप्तता नारकाणां रात्रिदिवम् दुःखमेव भवति नतु स्वल्पमपि सुखं भवतीति भावः ८ । अथ यत् तेषां तेषां नारकाणां वक्रि पशरीरं तव नाकाणां मरग काले कथं भवति वाह-'तेयाकम्म' : इत्यादि, 'तेयाकम्म सरीरा' वैनस कामगशरीराणि तिष्ठन्ति 'मुहुमसरीराय : सूक्ष्मशरीराणि च सूक्ष्म नामकोट्याता पर्याप्ताना मपर्याप्तानां च औझारिक कम एक कोश तक और 'उकोलेण' अधिक से अधिक पांच सौ योजन तक होता है नरक में नारक जीवों के दुःखों का कथन इस प्रकार से है-नारक जीवों को लरकों में उष्णवेदना और शीतवेदना जन्य दुःख रात दिन-चौधील घन्टे रहता है इसी से वे यहां दुःखों से ओतप्रोत बने रहते हैं अतः नेत्र के टिमकारे मात्र भी वहाँ सुख नहीं है क्योंकि दुक्खमेव पडियद्ध" दुःख ही यहां सदा से अनुगत है इसी कारण 'नरए नेरझ्याणं अहोनिसं०' नरक में नारक जीवों का 'पच्चमाणाण' वहां रहते २, रात दिन दुःख ही भोगना पडता है।८। 'तेया कम्म सरीरा' इत्यादि, नारक जीयों के स्मृत्यु काल के तेजल और कार्मण शरीर रहता है हनके खिवाय वैशिष शरीर बिखर जाता है-तात्पर्य यही है कि-लक्ष्मनामकर्म के उदय वाले जो पर्याप्त और अपर्यास जीव माछा मे ॥ सुधी भने धारेमा थारे 'उक्कोसेणं' पायस योन सुधा થાય છે. નરકમાં નારક જીવન નું કથન આ પ્રમાણે છે. નારક જીવને નરમાં ઉણુ વેદના અને શીત વેદનાથી થવાવાળું દુઃખ રાત દિવસ ચોવીસે કલાક રહે છે. તેથી જ ત્યાં નારજી દુઃખથી ઓતપ્રોત બનીને રહે છે. તેથી मामन यभात्र तमान त्यां सुप मातु नथी. भ. 'दुःखमेव पडि बद्धं' त्या सहा मन हे छ. तथा 'नरए नेरइयाण अहोनिस'. नामां ना२४ ७वाने 'पच्चमाणा गं' त्या २४ता २ता रात सिम लोग ५छे. ॥ ८॥ 'तेया कम्म सरीरा' छत्या ना२४ लाने मृत्यु मां તૈજસ અને કાશ્મણ શરીર રહે છે. તે સિવાય વૈકિય શરીર વિખરાઈ જાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે સૂમ નામ કર્મના ઉદય વાળા જે પર્યાપ્ત Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્કર जीवामिगमस्य शरीराणि वैक्रियाहारकशरीराणि च तेषामपि मायो मांसचक्षुरयाद्यवया सूक्ष्मत्वाद थी जे अपजता' यानि अपर्याप्तानि अपर्याप्तशरीराणि तानि सर्वाण्यपि वरीज्ञान 'जीवेण 'मुक्कमेत्ता वच्चति सहस्ससो भेयं' जीवेन मुक्तमात्राणि सन्ति सह घोभेद व्रजन्ति विंशफलितास्तत्परमाणु संघाता भवन्तीत्यर्थः ९ । 'आ सीय उ' अतिशीतप्रत्युष्णम् 'अइतहा अहा अइ भयं वा' अति तृष्णा अविष अति भयं वा 'रि' नरके 'नेरइयाणं' नैरथिकाणाम् 'दुक्खसपाई अविस्साम' दुःखशतान्यविश्रामम्, नरके नारकजीवानां सर्वदेव शीतोष्ण तृष्णा क्षुषां भयादि रूपयति दुःसह दुःख महर्निशं विश्रामरहित मेव भवतीति भावः ॥ १० ॥ 12 अथ, सूत्रकार उपसंहरन् एतासामेव गाथानामर्थसंग्राहिकां 'गावाम्राह एत्थ य' इत्यादि, 'एत्थ' अनेन पदेन प्रथमां गाथां स्मारयति यत्र - नरकावासे - है उनके औदारिक शरीर एवं वैक्रिय आहारक शरीर सूक्ष्म होते हैं ग्रंथों कि प्रायः करके चर्मचक्षुओं द्वारा ये अग्राह्य होते हैं और अप- शरीर थे सब शरीर वाले जीव उन जीवों द्वारा मुक्त हो चुकते हैं तो हजारों प्रकार के टुकडों के रूप में बनकर बिखर जाते हैं ||१९|| 'अह खीयं अति उण्हं०' इत्यादि-नरक में नारक जीवों को अति शीत, अति उष्णता अति तृषा अति क्षुधा, अतिभय ये सब प्रकार के दुःख सदा ही बने रहते हैं ॥ १०॥ अब सूत्रकार उपसंहार करते हुए इन गाथाओं का अर्थ संग्रह "करने वाली एक संग्रह गाथा कहते है 'एस्थे' इत्यादि- 'एत्थ' इस प्रथम गाथा से यह समझाया है किइन First a regur seपन होते है ? द्वितीय गाथा द्वारा यह समझाया અને પર્યાપ્ત જીવા છે, તેઓને ઔદારિક શરીર અને વૈક્રિય, આહારક શરીર સૂક્ષ્મ હાય છે, કેમકે પ્રાયઃ-ઘણે ભાગે ચચક્ષુએ દ્વારા તે જોઇ શકાતા નથી. અને અપર્યાપ્ત વિગેરે શરીર ધારી જીવા તે જીવેા દ્વારા મુક્ત થઈ જાય તે હજારો પ્રકારના ટુકડાએના રૂપમાં બનીને વિખરાઈ જાય છે ! ફ્ 'अइ सीयं अति उन्हें' इत्याहि नरम्भां नावाने अत्यंत शीत, અત્યંત ઉષ્ણતા, અત્યંત તરસ, અત્યંત ભૂખ અત્યંત ભય આવા પ્રકારના દુઃખા સદાકાળ અન્યાજ રહે છે. ! ૧૦ ॥ > [ હવે સૂત્રકાર ઉપસંહાર કરતા થકા આ વાળી એક સંગ્રહે ગાથા કહે છે. ગાથાઓના અને અતાવવાં 'एत्थ इत्यादि ‘एत्थ' मा पडेसी गाथामां मे सभलव्यु के हैं मां નરકામાં ઉત્તર, વિકુલ ગ્રાની સ્થિતિ ઉત્કૃષ્ટથી એક અંતર્મુહૂતની હોય છે Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योतिका टीका प्र.३ उ.३ रु.२४ नैरयिकाणां पुद्गलपरिमाणादिकम् ३७३ नसामाः समुत्पद्यन्ते इत्यापिका । 'भिन्न हुत्ते' अनेन :पदेन द्वितीयगाथा गुमते भिन्नमुहूर्तमन्तर्मुहूर्तादिकालं नरकादिपूत्कृष्टा विकुणा भवतीति 'पोगमाय' इत्यनेन अनिष्टादिपुगका स्तेषामाहाराय भवतीति । 'असुभा' इति पदेन नैरयिकाणा मशुमा विकुर्वगा भवतीति चतुर्थगाथोक्तोऽर्थो निरूपितः । 'अस्साओ, भनेन सर्वपृथिवीषु असात एव भवतीति पञ्चमीगाथा कयिता 'उववाओ' अमेन देवादिकमणोपपतिकाले सातं भवतीति षष्ठी गाथया कथितम् । 'उप्पाओ' भनेन दुखाभिद्रतानां नारकाणाम् उत्कर्षण पश्चयोजनशतानि उत्पांतो भवतीति सप्तमगायया प्रदर्शितम् 'अच्छि' इत्यनेन अक्षिनिमीलमात्रमपि मुखं न भवति गया है कि नरकों में उत्तर विकर्षणा की स्थिति उत्कृष्ट से एक अन्त मुहर्त की होती है 'पोग्गलाय' आदि तृतीय गाथा द्वारा यह समझायों गया है कि नारकों का आहार अनिष्टादि विशेषणों वाले पुद्गलों का होता है ॥ 'असुभा' आदि चतुर्थ गाथा से यह समझाया गया है कि नेरर्थिक जीवों की विकुर्वणा अशुभही है ४॥ 'अस्लाओ' यह पांचवी गोथा यह समझाती है कि नारक जीवों को समस्त पृथिवियों में असा. तो का ही उद्य रहता है ५॥ 'उवाओ' छठी गाथा द्वारा यह कहा गया है कि नारक जीवों को पूर्व संगतिक देव की सहायता आदि का. रणों से सातो का भी उद्घ हो जाता है ६॥ 'उप्पाओ' इस सातवीं गाथा द्वारा यह प्रकट किया गया है कि नारक जीवों का नरकावास की कुंभी पाक आदि से इतनी वेदना होती है कि वे कम से कम एक कोश तक और अधिक से अधिक पांच लो योजन तक उछल पड़ते हैं। 'अच्छि' इस आठवीं माथा द्वारा यह समझाया गया है कि नारकजीवों 'पोगलाय' विगैरे त्रील गाथा द्वारा २ सभामा मा०युछे नाना भासा मनिष्ट विगैरे विशेषवाणा पुदवान डाय छे. ॥ 3 ॥ 'असभा' વિગેરે ચોથી ગાથાથી એ સમજાવ્યું છે કે નૈરવિક જીની વિમુર્વણ અશુભ हाय ॥ ४ ॥ अस्साओ' या पांयमी गाथा मे मताव छ । ना२४ वान सधजीवीयामा सशतान य २ छ. ॥ ५ ॥ 'उववाओ' मा छ81 ગાથા દ્વારા એ કહેવામાં આવ્યું છે કે નારક જીને પૂર્વ સંગતવાળા દેવની सहाय विगैरे ॥२॥थी शान मय ५ तय छे. ॥६॥ 'उप्पामो આ સાતમી ગાથા દ્વારા એ વાત પ્રગટ કરવામાં આવી છે કે નારક અને નરકાવાસની કુંભીપાક વિગેરેથી એટલી બધી વેદના થાય છે કે તે ઓછામાં ઓછા એક ગાઉ સુધી અને વધારેમાં વધારે પાંચસે જન સુધી ઉછળે છે. ॥ ७ ॥ 'अच्छि' मा मामी या द्वारा में समायुछे नावाने Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगर्मसूत्रे नारकाणा मित्यष्टमगाथयाऽऽवेदितम् । 'सरीराय' इत्यनेन तैजसकार्मणादि शरीराणि नवमगाथया दर्शितानीति तदेवं नवानां गाथानां संक्षिप्यमाणोऽथोंनयाऽन्तिमया संग्रहणीगाथया निरूपित इति । 'सेत्तं नेरइया' वे एते - नारकाः कथिता इति ॥०२३ ॥ 1 " इति श्री विश्वविरूपातजगवल्ल सादिपद भूषित बालब्रह्मचारि - 'जैनाचार्य' पूज्यश्री-घासीलाल विविरचितायां 'श्रो जीवभिगमसूत्रस्य' प्रमेयच द्योतिका ख्यायां व्याख्यायां तृतीयमतिपत्तौ तृतीयोदेशकः समाप्तः ॥ ३-३॥ - i MAR को नरकावास में आँख के झपकाने के काल बराबर भी सुख नहीं है ८|| 'सरीराय' इस नौंवीं गाथा से यह समझाया है कि तैजस कार्मण शारीर के सिवाय सूक्ष्म नाम कर्म के उदघ वाले पर्याप्त और अपर्याप्तों जीवों का औदारिक शरीर वैक्रिय शरीर और आहारक शरीर सब बिखर जाते हैं-तैजल और फार्मण शरीर जब तक कर्मों का सम्बन्ध है तब तक नहीं बिखरते हैं वे तो जीव के साथ चारों गतियों में रहते है। पूर्वोक्त नवो गाथाओं का संक्षिप्त अर्थ इस दसवीं अन्तिम संग्रह गाथा से दिखला दिया गया है | सूत्र ||२४|| 'जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'जीवाभिगमसूत्र' की प्रमेयद्योतिका नामक व्याख्या में तृतीय प्रतिपत्ति में तीसरा उद्देशक समाप्त ॥ ३-३॥ નરકાવાસેમાં આંખનું મટકું મારે એટલા કાળ સુધી પણુ સુખ પ્રાપ્ત થતુ‘ नथी. ।। ८ ।। ‘खरीरा' आ नवमी गाथामां मे समलग्यु हे हेतैन्स भने કામણુ શરીર સિવાય સૂમનામ કના ઉદયવાળા પર્યાસ અને અપસોને ઔદારિક શરીર, વૈક્રયશરીર, અને આહારક શરીર એ બધા શરીરો વિખરાઈ જાય છે. તેજસ અને કામણુ શરીર ત્યાં સુધી વિખરાતા નથી. તે તે જીવની સાથે ચારે ગતિયામાં રહે છે. પૂર્વાંકત નવે ગાથાઓના અથ આ દસમી છેલ્લી સંગ્રહ ગાથાથી ખતાવવામાં આવેલ છે. " સૂ ૨૪ ! ! 'જૈનાચાર્ય' જૈનધમ દિવાકર પૂજ્યશ્રીઘાસીલાલજી મહારાજકૃત જીવાભિગમસૂત્ર’ની પ્રમેયદ્યોતિકા નામની વ્યાખ્યામાં ત્રીજી પ્રતિપત્તિના ત્રીજે ઉદ્દેશે સમાપ્ત 13–31 品 1 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सु. २५ तिर्यग्योनिवरूपनिरूपणम् K - उक्तो नारकाधिकारः सम्पति- तिर्यगधिकारो वक्तव्यस्तत्र चेदमादिकं सूत्रम्'से. किं तं तिरिक्खजोणिया' इत्यादि, मूळ-से किं तं तिरिक्खजोणिया ? तिरिक्खजोणिया पंच विहा पन्नत्ता, तं जहा - एगिंदियतिरिकख जोणिया बेइंदियतिरिक्ख जोणिया तेइंदियतिरिकखजोणिया चउरिदियतिरिक्खजोणिया पंचिदियतिरिकखजोणिया य । से किं तं एगिंदिय तिरिक्खजोणिया ? एगिंदियतिरिक्खजोणिया पंचविहा पन्नत्ता तं जहा - पुढवीकाइय एगिंदियतिरिक्ख जोणिया जाव वणस्सइकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया । से किं तं पुढीकाइय एर्गिदियतिरिक्खजोणिया पुढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजो - णिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा - सुदुमपुढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया बायरपुढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया य। से किं तं सुहुमपुढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया " सुहुमढवीकाइ एगिंदिय तिरिषखजोणिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा - पज्जत्तसु हुमपुढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया, अपज्जतसुहुम पुढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया, से त्तं सुहुमपुढवीकाइथ एगिंदिय तिरिक्खजोणिया से किं तं बायरपुढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया ? बायर पुढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता जहा - पेजत्तवायरपुढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया अपजतवारपुंढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया । सेत वायरपुढवीकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया । से तं पुढवी- 5 काइय: एर्गिदिय. तिरिक्खजोणिया । से किं तं आउक्काइय पुगिदिय तिरिक्खजोणिया ? आउक्काइय एगिंदिय तिरिक्ख ご Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ जीवामिगम जोणिया दुविहा पन्लत्ता एवं जहेव पुढवीकाइयाणं तहेव आउकाय भेदो एवं जाव वणलइकाइया से तं वणस्सइकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया । से किं तं वेइंदिय तिरिक्खजोणिया.? बेइंदिय तिरिक्खजोणिया दुबिहा पन्नत्ता तं जहा-पजत्तवेइंदिय तिरिकखजोणिया अपज्जत्तवेइंदिर लिरिकखजोणिया, से तं वेई. तिरिक्खजोणिया । एवं जान चउरिदिया। से किं तं पंचिंदिय तिरिक्खजाणिया ? पचिदिय तिरिक्खजोणिया तिविहा पन्नत्ता, सं जहा-जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया खयरपंबिंदियतिरिक्खजोणिया। से कि सं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ? जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा-समुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया गम्भवहतियजलयरपंचिदियतिरिक्खजोंणिया य। से किं तं समुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ? संमुच्छिमजलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा-पज्जत्तग संसुच्छिमजलयरपींचदिय तिरिक्ख. जोणिया अपजत्तग संमुच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया यं । से तं संमुच्छिमजलयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिया। से किं तं गम्भवतिय जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया ? गठभवतिय जलयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता ते जहा-पजत्तगगम्भवभूतिय जलयरपंचिंदियं तिरिक्खजोणियों अपजत्तगगब्भवतिय जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया। से तं गम्भवतिय पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया से कि तं थलयर पंचिंदियतिरिक्खजाणिया ? थलयर पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा-घउप्पयथलयर Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र.३ ७.३ ६.२५ तिर्यग्योनिवरूपनिरूपणम् परिसप्पथलयर पंचिदियतिरिक्ख जोणिया ? पंचिदियतिरिक्खजोणिया जोणिया य । से किं तं चउप्पयथलचरपंचिदिय लिक्खिउप्पयथलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया दुदिहा पन्नत्ता तं जहा - संमुच्छिम चउप्पय थलयरपंचिदिय तिरि क्खजोणिया गब्भवकंतियचउप्पय थलचर पंचिदियतिरिक्खजोणिया य । जहेब जलयराणं तहेब चउको भेदो से तं उपपद थलयर पंचिदिय तिरिक्खजोगिया । से किं तं परिसप्प थलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया ? परिसप थलचरपंचदिय तिरिक्खजोणिया दुबिहा पन्नत्ता तं जहा - उरपरिसप्प थलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया भुवपरिलप थलयर पंदिदिय तिरिक्खजोणिया य । से किं तं उरपरिसप्प थलपरपंचि - दियतिरिक्खजोणिया ? उरपरिसप्प थलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता तं जहा- जहेब जलयराणं लहेब चउकओ भेदो एवं भुयपरिसप्पाणं वि भाणियव्वं । ले तं भुयपरिसप्पथलयर पंचिदियतिरिक्खजोणिया । से तं थलयरपंचिदिय तिरिक्खजोयिया । से किं तं खहयर पंचिदियतिरिक्खजोणिया ? खहयपंचिदिय तिरिकखजोगिया दुविहा पन्नसा तं जहा - संमुच्छिम खहयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया गव्भवक्कंतिय खहयर पंचिदिय तिरिक्खजोणिया य । से किं तं संमुच्छिम खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया ? संमुच्छिम खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया दुबिहा पन्नत्ता तं जहा - पज्जन्तगसंमुच्छिम खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया अपजत्तगसंमु'च्छिम खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया य । एवं गन्भवतिया वि जाव पज्जत्तगगब्भवतिया वि अपजत्तग गव्भवक्कतिया वि । जी० ४८ ३७७ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम वहयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं भंते ! कहविहे जोणिसंगहे पनते ? गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पलते, तं जहा-अंडया पोयया संमुच्छिमा। अंडया तिबिहा पन्नता तं जहा-इत्थीपुरिसा णपुंसगा। पोयया तिविहा पन्नत्ता तंजहा-इस्थिपुरिसा णपुंसगा। तत्थ णं जे ते लंमुच्छिमा ते सव्वे णमुलगा सू०२५॥ छाया--अय के ते तिर्यग्योनिकाः ? तियंग्यौनिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-एजेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः, द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिका स्त्रीन्द्रिय तिर्यग्योनिका श्चतुरिन्द्रियतियग्योनिकाः पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाच । अथ के ते एकेन्द्रिय विर्यग्योनिकाः ? एकेन्द्रियतियग्यौनिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पृथिवि कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः यादद वनस्पतिमायिककेन्द्रियनियम्योनिझाः । अथ के ते पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ? पृथिवी कायिक केन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-सूक्ष्मपृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्यौनिकाः, चादर पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्यौनिकाश्च । अय के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकैकेन्द्रि यतिर्यग्योनिकाः ? सूक्ष्म पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः पाप्ता स्तद्यथा- पर्याप्तकसूक्ष्मपृथिविकायिककेन्द्रियतियग्योनिकाः, अपर्याप्तक सूक्ष्मपृथिविकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च । ते एते मुक्ष्मपृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिय ग्योनिकाः। अथ के ते वादरपृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ? वादरपृथिवी. फायिकै केन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः प्रहप्ता स्तद्यथा-पर्याप्तवादरपृथिविकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिका, अपर्याप्तवादरपृथिविकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च, ते एते वादरपृथिवीकायिकैफेन्द्रियतिर्यग्यौनिकाः। ते एते पृथिविकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । अथ के ते अप्कायिकैकेन्द्रिपतियग्योनिकाः ? अप्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः एवं यथैव पृथिरिकायिकानां तथैव अप्कायिक भेदः, एवं यावद्वस्पतिकायिकाः। ते एते वनस्पति कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः। अध के ते द्वीन्द्रियतियंग्योनिका ? द्वीन्द्रियतियग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-पर्याप्तकद्वीन्द्रियतिर्यग्योनिका अपर्याप्तद्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकाः। ते एते दीन्द्रियतिर्यग्योनिकाः। एवं यावच्चतुरिन्द्रियतियग्योनिकाः। अथ के ते पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः ? पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकालिब्धिाः प्राप्ताः, उद्यया-जलचरपश्चे न्द्वियतिर्यग्योनिकाः, स्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, खेचरपञ्चन्द्रियनियंग्योनिफाः । अथ के ते जलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ? जल वरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संमूच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच गर्भव्युत्क्रा Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका येका प्र.३ उ.३ सू.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३७२ न्तिकजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च । अथ के ते समुच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियतियंग्योनिकाः ? संपूच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधि प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकसंछिमजलचरपञ्चन्द्रियतियग्यौनिकाः अपर्याप्तकसमूच्छिमजलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाच । ते एते संमूच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ? गर्भव्यु क्रान्तिकजलचरपञ्चेन्द्रियविर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्यो निकाः अपर्याप्तकगर्भव्यु-क्रान्तिकजलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाच, ते एते गर्भव्युत्क्रान्ति सजलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, ते एते जलच. स्पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । अथ के ते स्थलचरपञ्चन्द्रियविर्यग्योनिका ? स्थलचरपञ्चेन्द्रियविर्यग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्लाः, तद्यथा चतुष्पद स्थलचरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकाः, परिसर्प स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च । अथ के ते चतुष्पदस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः? चतुष्पद स्थल वरपञ्चन्द्रियति यग्योनिका द्विविधाः पहप्ताः, तयथा-समूच्छिम चतुष्पक स्थलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, गर्भव्युत्क्रातिक चतुष्पद स्थलचरपञ्चन्द्रियतियग्योनिकाच, यथैव जलचाराणां तथैव चतुष्को भेदः, एचे चतुष्पदस्थलचरपञ्चन्द्रियतियग्योनिकाः । अथ के ते परिसर्प स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ? परिसपेस्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधार मज्ञप्ताः, तधया-उसपरिसर्प स्थलचरपश्चेन्द्रियतियग्योनिकाः, भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियातयंग्योनिकाय । अथ के ते उसपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ? उ परिसर्पस्थलचरपञ्चन्द्रियतिबग्योनिकाः द्विविधाः प्रज्ञप्ता स्तधया-यथैव जलचराणां तथैव चतुष्को भेदः, एवं भुनपरिमाणामपि भणितव्यम् । ते एते भुजपरिसर्पस्थल वरपञ्चन्द्रियतिर्यग्यो निकाः। ते एते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । अथ के ते खेवरपञ्चन्द्रियवियग्योनिकाः ? खेचरपञ्चन्द्रियतियग्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-संमूच्छिम खेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, गर्भन्युस्कान्तिक खेवरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाच । अथ के ते संमूछिम खेचरपञ्चेन्द्रियतियग्नोनिका ? संमूछिमख वरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः प्राप्ता स्तद्यथा-. पर्याप्तक संमूच्छिमखेवरपञ्चन्द्रियतियग्योनिकाः, अपर्याप्तकसमूच्छिमपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च । एवं गर्भव्यु क्रान्तिका अपि यावत् पर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिका अपि अपर्याप्तगर्भव्युत्क्रान्तिका अपि । खेचरपञ्चन्द्रियतियग्योनिकानां भदन्त ! कतिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्त: ? गौतम ! त्रिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः, उद्यथाअण्डजाः पोतजाः संमृच्छिमाः। अण्डजा त्रिविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-स्त्रियः पुरुपाः नपुंसकाः। पोतजा स्त्रिवधाः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-स्त्रियः पुरुषाः नपुसका। तत्र खलू ये ते संमूच्छिमास्ते सर्व नपुंसकाः ॥इति ॥ सू० २४॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्ते . टीका-'से कि तं तिरिक्खजोणिया' अत्र 'से' शब्दोऽथार्यकः किंशब्दः प्रश्ने तथाच-अथ के ते विर्यग्योनिकाः, तिर्यग्योनिकानां कियन्तो भेदा इति प्रश्न: भगवानाह-तिरिक्खजोणिया पंचविहा पन्नत्ता' तिर्यग्योनिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा 'एगिदियतिरिक्खजोणिया' एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः । 'वेई. दियतिरिक्खजोणिया' द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकाः। तेइंदियतिरिक्खजोणिया' त्रोन्द्रियतिय ग्यौनिकाः। 'चउरिदियतिरिक्खजोणिया' चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकाः 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया य' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाच, तथाच-एके. न्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पञ्चेन्द्रिय भेदात् तिर्यग्योनिकाः पञ्च. प्रकारका भवन्तीति । एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः कियन्त इति ज्ञातुं मश्नयभाह'से किं तं' इत्यादि, ‘से किं तं एनिदियतिरिक्खनोणिया' अथ के ते एकेन्द्रि • नरकाधिकार कह कर अव स्तूत्रकार तिथंगाधिकार का कथन करते हैं 'ले हितं तिरिक्ख जोणिश-इत्यादि । सूत्र ॥२४॥ टीक्षार्थ-यहां से यह शब्द 'अर्थ' 'अर्थ' में प्रयुक्त हुआ है इस तरह गौतम ने प्रभु ने ऐसा पूछा है हे भदन्त से कि तं तिरिक्खजोणिया' तिर्यग्योनिकों के कितने खेद हैं ? उत्तर में प्रभु ने कहा है-'तिरिक्ख. जोणिया पंचविहा पण्णत्ता' हे गौतम! तिर्यग्योनिकों के पांच भेद कहे गये हैं 'तं जहा' जैले-'एगिदियतिक्खजोणिया, वेइंदिय तिरिक्खजोणिया' एकेन्द्रिय तिर्थयोनिक दो इन्द्रिय लियंग्योनिक, 'तेइंदिय तिरि ख.' इन्द्रिय तिर्थरयोनिक'चरिदियतिरि०' चौइन्द्रिय तिर्यग्योनिक 'पंचिंदिधति०' और पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योलिक, 'से कि तं एगिदियति०' हे ચોથા ઉદ્દેશાનો પ્રારંભ– નરકાધિકાર કહીને હવે સૂત્રકાર આ તિર્યંચના અધિકારનું કથન કરે છે. 'से किं ततिरिक्खजोणिया' त्या ટીકાર્ચ–અહિયાં “ શબ્દ અર્થમાં પ્રયુક્ત થયેલ છે. આ રીત गीतमस्वामी प्रसुन मे पूछ्यु छ है भगवन् 'सेकि त तिरिक्ख जोणिचा' तिव्यनियानी 2 ! उद्या छ ? २॥ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गीतभरपाभीर ४ छ है 'तिरिक्खजोणिया, पंचविहा पण्णत्ता' हे गौतम 'तिय य योनिता यांय ले ह्या छे. 'त जहा' ते मा प्रभाव छे. 'एगि दियतिरिखजोणिया, वेइंदियतिरिक्खजोणिया' से द्रियाणा तिय थे। निभर मेद्रियाणा तिययनि'तेइ दियतिरि.' त्रय द्रियावास तिर्थयानि 'चउरि दियतिरि.' यार द्रियावाणा तिययानि 'पंचिंदिय ति०' અને પાંચ ઈદ્રિવાળા તિર્યાનિક, Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.२ पू.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३८१ यतिर्यग्योनिका,एकेन्द्रियतिरश्वा कियन्तो भेदा इतिपश्ना, उत्तरयति-'एगिदियतिरिक्खजोणिया पंचविहा पन्नता' एकेन्द्रियतियग्योलिकाः पञ्चविधा:पश्चमकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति । पञ्चभेदान् दर्शयति-तं जहा' तद्यथा'पुढवीकाइयएगिदियतिरिक्खनोणिया' पृथिवीकायिकेन्द्रियतिर्यग्योनिका 'जाव वणस्तइकाइय एगिदिय तिरिक्व मोणिया' याबद्वनस्पति कायिकैकेन्द्रियतियग्योनिकाः, यावत्पदेन अफायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तेजस्कायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, वायुकायिकैकेन्द्रियतिर्यगयोनिकाश्चेति संग्रही भवति, तथा च पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकभेदात् एकेन्द्रियनियंग्योनिकाः पञ्चमका रका भवन्तीति । तत्र प्रथमोपात पृथिविकायिकानां भेदं ज्ञातुं प्रश्नयनाइ-'से किं त' इत्यादि, 'से कि तं' पुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोगिया' अथ के ते पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः। पृथिवीकायिकैकेन्द्रिपतियग्योनिक जीवानां कियन्तो भेदा इतिप्रश्नः, उत्तरयति-'पुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजो. णिया दुविहा पन्नता' पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिका जीवाः द्विविधाःभदन्त ! एगेन्द्रिय लियश्च कितने प्रकार के होते है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'एगिदियति पंचविहा पन्नत्ता' हे गौतम ! एकन्द्रिय तिर्यश्च पांच प्रकार के होते हैं 'तंजहा' जैसे 'पुढवीकाइयाए०' पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय तिर्यच 'जाव वणस्सइकाइयएगि०' यावत् जनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तियञ्च यहां यावत्पद से 'अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक' इन एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों का ग्रहण हुआ है लेकितं पुढचीकाश्य एगिदिय०' हे भदन्त ! पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय तिर्यक् योनिक कितने प्रकार के होते है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'पुढवीकाक्ष्य एगिदित्तिक दुविधा पण्णता' हे गौतम ! 'से किं त एगिदिय तिरिवख' में लगन् मे द्रियाणा तिय योनिक જીવે કેટલા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે है 'एगिदियति. पचविहा पण्णत्ता' हे गौतम ! मेद्रियाणा तिय ययानि ७. पाय प्रा२न डाय छे, 'त' जहा' ते प्रभारी छे. 'पुढवीकाइय एगि'.' पृथ्वीयि४ मेद्रियात तिय य 'जाव वणस्सइ काइय एगि.' यावत् વનસ્પતિ કાયિક એક ઈન્દ્રિયવાળા તિર્યચ, અહિયાં યાવત્પદથી “અષ્કાયિક, તેજસ્કાયિક, અને વાયુકાયિા, આ એક ઈદ્રિયવાળા તિર્યંચ જ શહણ ४२॥4॥ 'से कि त पुढवीकाइयएगि दिय.' 8 मापन् पृथ्वी थि: 2 ઈદ્રિયવાળા તિર્યનિક છે કેટલા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४९ छ 'पुढवीकाइय एगि दिय ति. दुविहा पण्णत्ता' 8 गौतम । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्र द्विमकारकाः प्रज्ञप्ताः-कथिता इति । भेइद्वयं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'मुहुम पुढीकाइय एगिदिय तिरिकखजोणिया'मूक्ष्मपृथिवी कायिककेन्द्रियतिथंग्यौनिकाः सूक्ष्मत्वं सूक्ष्मनामकर्मोदयात् । 'वायर पुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोगिया य' वादर पृथिवीकायिके केन्द्रियतिग्मोनिकाच, तथा चसूक्ष्मवादरभेदेन पृथिवीकायिकाः द्विविधा भवन्तीति । 'से कि तं मुहुम पुढवीकाइय एगिदियतिरिक्खजोणिया' अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकेन्द्रिय. तिर्यग्यानिकाः ? सूक्ष्मपृथिवीकापिकानां कियन्तो भेदाः ! इति प्रश्ना, उत्तरयति-'मूहमपुढवीकाइय एगिदियतिरिक्खजोणिया विद्या पण्णता' सूक्ष्म पृथ्वोकायिकेन्द्रियातयेग्योनिका जीवाः द्विविधाः-द्विमकारकाः मज्ञप्ता:-कथिता इति । 'तं जहा' तद्यथा-'पज्जत सुहुमपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया' पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक केन्द्रियतिधयोनिकाः 'अप. पृथिबी काधिक एकेन्द्रिय तिर्यश्च जीव दो प्रकार के होते हैं-'तं जहा' जैसे 'सुहम पु० एगिदिय० सूक्ष्म पृथिवीकाधिक एकेन्द्रियतिर्यञ्च और 'वायर पुढवीकाइयए० ति०' पादर पृथिवी कायिक एलेन्द्रिय तर्यश्च सूक्ष्म नाम कर्म के उद्घ वाले सूक्ष्म पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय जीव होते हैं और बादर नाम कर्म के उद्य वाले बादर पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय जीव होते हैं। लेकितं सुटुमपु० 'हे भदन्त ! सूक्ष्म पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय जीव शितने प्रकार के होते हैं-उत्तर में प्रभु कहते हैं-'सुष्टुमपु० एगि. दिय तिरिक्खजो० दुविहा पन्नत्ता' सूक्ष्म पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं 'तं जहा-जैसे-'पजत्तसुखमपु०' पर्याप्त सूक्ष्मपृथिवी कायिक एकेन्द्रिय तिर्यग्यानिक और 'अपनत्त सुहम पु०' 'अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय लियंग्योनिक 'ले त सुहम इस यायिक सद्रियाणा ति य ७२ मे २ना डाय छे. 'जहा' मे प्रा२। 21 प्रभाय छे. 'सुहुम पु, एगि दिय.' सूक्ष्म पृथ्वी थि: से द्रियाणा तियय अन 'वायर पुढवीकाइय ए. ति.' मा४२ पृथ्वी थि: से ઈદ્રિયવાળાતિર્યંચ સુરમ નામકર્મના ઉદયવાળા સૂમ પૃથ્વીકાવિક એક ઈદ્રિયવાળા જ હોય છે અને બાદર નામ કર્મના ઉદયવાળા બાદર પૃથ્વીકાલિક એક ઈ દ્રિયવાળા જ હોય છે. ____ 'से कि त सुहुम' लगवन् सूक्ष्म पृथ्वी यि मे द्रिया tean 4.१२ना हाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ । 'सुहुम प. एगिदियतिरिक्ख जो. दुविहा पण्णत्ता' सूक्ष्म पृथ्वी।यि मे द्रियपापा ४२॥ य छे. 'त' जहा' र 'पज्जत्त सुहम पु.' पर्याप्त Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३८३ ज्जत्तसुहुमपुढीकाइय एगिदियतिरिक्ख जोणिया' अपर्याप्त सक्षमपृथिवीकायिकैकेन्द्रियनियंग्योनिकाः, तथा च पर्याप्तापर्याप्त भेदेन सूक्ष्म पृथिवीकारिकै केन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधा अवन्तीति । 'से तं सुहुमपुढवीकाइय एगिदितिरिक्खजोणिया से एते सूक्ष्मपृथिवीमारि कैकेन्दिर तिर्यग्योनिकाः सभेदं निरूपिता इति । सक्षमपृथिवीकायिकैकान् निरूप्य वादरपृथिवीकायिकान् लिरूपयितुं प्रनयन्नाह'से मित' इत्यादि से किं तं बादरपुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्वजोणिया' अथ के ते बादरपृथिवीसायिकैकेन्द्रिगतियंग्योलिकाः, बादरपृथिवीकारिककेन्द्रियतियंग्यों निकानां कियन्तो भेदा इति मन:, उत्तरयति-'वायर पुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्वजाणिया दुनिहा पन्नत्ता' वादरपृथिवीकारिक केन्द्रियतिरंग्यौनिकाः द्विविधाः -द्विमकारकाः प्रज्ञप्ता-कथिता इति । 'तं जहा' तद्यथा-'उजत्त वायर पुढवी. काइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया' पर्याप्तवादर पृथिविकारि केन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तथा 'अपज्जत्त बायर पुवीकाइय एगिदिय तिक्खिजोणिया' अपर्याप्त प्रकार से सूक्ष्य पृधिवी झाधिक एकेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के सम्बन्ध में सूत्रकार ने कथन किया है। ___ अब वादर पृथिवी कायिकों का क्षथल करते है-इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'ले स्तिं शायर पुढवीक्षाध्य एगिदिय तिरिक्खजोणिया' हे भदन्न ! चादर पृथिवीकायिक एजेन्द्रिय जीव शिनने प्रकार के हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'बायर पुढवी साहय एगिदियनिरिक्खजोगिया दुधिहा पन्नत्ता 'हे गौतम ! बादर पृथिवी क्षायिक एकेन्द्रिय तिर्थ योनिक जीव भी दो प्रकार के कहे गये हैं-'तं जहां-जैसे-'पजत्तवायर पुढवी काइय एगिदिय तिरिक्वजोणिया' पापिन बादर पृथिवीकायिक एकेसूक्ष्म पृथ्वी यि मेद्रियाणा तिय योनि मने 'अपज्जत सुहम। अपर्याप्त सूक्ष्म यि मेद्रियाणा तियेनि 'से त सुहम' આ પ્રમાણે સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક એક ઈદ્રિયવાળા તિર્યનિક જીના સંબંધમાં સૂત્રકારે કથન કર્યું છે. હવે બાદર પ્રકાયિકોનું કથન કરવામાં આવે છે. આમાં શ્રીગૌતમ स्वाभीये असुश्रीन से ५७यु से वित्त वायरपुढवीकाइय एगि दिय तिरिक्सजोणिया' माह२ .१४ थि: छद्रियवाणा & 2 मारना छ ? । प्रशना उत्तरमा प्रसुश्री छे, 'वायर पुढवीकाइय एगि दिय तिरिक्वजोणिया दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम ! १२ पृथ्वीजयि मेद्रियाणा तिय योनि ! मे रना सेवामा मा०या है. 'तजहा' ते मे अक्षरे भा प्रभारी छे. 'पज्जत वामर पुढवीकाइय एगि दियतिरिक्खजोणिया' पास Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D जीवामिगमस चादर पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्यौनिकाः, तथाच-पर्याप्तापर्याप्तभेदेन वादर. पृथिवीकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्मोनिका द्विविधा भवन्तीति। 'से तं वायरपृथिवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया' ते एते वादस्पृथिवीकायिकैकेन्द्रिय तिर्यग्योनिका निरूपिताः । 'से तं पुढवीकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया' ते पते पृथिवीज्ञापिकन्द्रिपतियग्योनिकाः भेदभेदाभ्यां निरूपिता इति । पृथिवीय र केन्द्रियतिर्यग्योनिकान् भेदमभेदाभ्यां निरूप्य अप्कायिकान् निरूपयितुं प्रश्यन्नाह-से किं तं आउकाइय०' इत्यादि. 'से किं तं आउक्काउय एगिदिय तिरिक्ख जोणिया' अथ के ते अतारिकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ? अप्का. यिकानां कियन्तो भेदा अवन्तीति प्रश्न:. उत्तरयति-'आउक्काइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया दुदिहा पन्नता' अफायिकेन्द्रियतियग्योनिका द्विविधा:द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, 'एवं जन पुढवीकाइयाणं तहेव आउकाइयभेओ' एवं यथैत्र पृथिवी कायिकानां भेदः-धित स्तयैव-तेनैव रूपेण अप्कायकानान्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव और 'अपजत्तनाय पुढवी०' अपर्याप्त पादर पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय तिर्थ योनिक जीव 'सेत्तं वायर पुढवीकाइय एगिदियविखजोणिया' इस प्रकार ले भेद प्रभेद सहित चादर पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव कहे गये हैं। अप्कायिक जीवों का निरूपा-'ले किं तं आउक्काइय एगिदियति रिक्खजोणिया' हे भदन्त ! अपज्ञायिक ऐकेन्द्रिय तिर्यक् योनिक जीव कितने प्रकार के हैं !-'आउभाइच एगिदिय०' हे गौतम ! अप्कायिक एकेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-'एवं जहेव पुढवीकारयाणं महेव आउकासभेओ' हे गौतम इस सम्बन्ध में जैसे-चार भेद पृथिवीकायिक जीवों के कहे गये है- वैसे वे भेद यहां पर भी कह मा४२ पृथ्वयि मेन्दिय तिययानि 4 अन 'अपज्जत्त बायरपुढवी.' अपर्याप्त मा४२ पृथ्वी।यि मेन्द्रिय तिययानि ७१ ‘से त' बायर पुढवीकाइय एगि दियतिरिक्खजोणिया' मा प्रभारी लेह प्रमेह सहित माहर પૃથ્વીકાયિક એકેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવોનું નિરૂપણ કરવામાં આવ્યું છે, वे अ५४.यि वातु नि३५ ४२वामां आवे छे. 'से कि त आ उक्काइय एगि दियतिरिक्खजोणिया' है भगवन् अ५ अथिर सन्द्रिय तियગેનિક જીવ કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वामी हे 'आउक्काइय एगिदिय.' ३ गौतम | अ५४ायि४४दिया तिच्या नि ४२ ४३वामा माया छे 'एवजहेव पुढवीकाइयाणं तहेव आउकाइय भेओ' है गौतम ! भा स भा २ प्रमाणे ના ચાર ભેદ પૃવીકાયિક જીવોના કહ્યા છે, એજ પ્રમાણેના તે ચાર ભેદ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ १.३ .२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३८५ मपि चतुष्को भेदो वक्तव्या, तबधा-अकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः सूक्ष्मा अपका यिकाः, बादरा अकायिकाश्च । स्वक्षमा अशायिकाः नियन्तो भवन्ति ? सूक्षमा अपकायिका द्विप्रकारका भवन्ति तद्यथा-पर्याप्सुक्षपामायिकता अप्तिसक्षणापकाइकाच, ते एते सूक्षमा कायिकाः । वादशापिकाः किषन्तो भवन्लिा ? याद. राष्कायिका द्विविधा मनन्ति तवथा-पर्याप्ता बादराकायिका, पर्याप्ता बादरामायिकाः, से एते बादरासादिकाः, ले एते दादरकायिका भेदमभेदाभ्यां निलपिताः, “एवं जान वणसइकाइया' एवं बारहनापतिकायिका: तेजस्कायिका कतिविधा प्रज्ञप्या: ? तेमकाधिका द्विविधाः प्रज्ञाप्ताः लघथासूक्ष्माश्च, बादराश्च, तत्र सूक्षता अपि द्विविधा भवन्ति लघधा-पर्याप्ताशापर्क प्ताथ, ते एते सूक्ष्मतेजश्कायिकाः । बदर अपि लेजमाविका विविधाः प्रज्ञप्ताः पर्यप्ताथापर्यास्ताश्च ते एते वादरतेनरकाचिकाः, ते एते से जकायि वायुलायिकैकेन्द्रियतियग्योनिका कतिविशाः ज्ञानाः लायुकाविमा द्विविधा प्राप्ताःलेना चाहिये जले-अपमायिक क्षत्र अाचिश और बाद अपनाशिक के भेद से दो प्रकार के होते हैं वही सूक्षा साक्षिक पर्याप्त सूक्ष्म अप्कायिक और अपर्यापन सूक्ष कायिकद देव को शार के होले हली प्रभार पादर अशामिलो पर्याप्त अवर अपात के भेद से दो भेद वाले होते हैं एवं जाश घासलाइया इसी तरह से भेद और पदों का कथन ले जहायिका, वायु महाक और बस्ततिक कायिक जीवों के लम्बन्ध में भी कर लेना चाहिये अर्थात् ये सप एकेन्द्रिय जीव स्वक्षमयादर के भेद ले दो प्रकार के होते हैं और पर्याप्त एवं अपर्याप्त के भेद दे सूक्ष्मवादर भी दो दो प्रकार के होते हैं इस तरह एकेन्द्रिय जीवों के कुल भेद इस प्रकार से बाहर हो जाते हैं। અહિંયા પણ સમજી લેવા જોઈએ. જેમકે અપકાયિકના સૂક્ષમ અપૂકાયિક અને બાદર અપ્રકાયિક એ રીતે બે પ્રકાર હોય છે. એ જ પ્રમાણે સૂમ અપૂકાયિક પણ પર્યાપ્તક સૂમ અપકાયિક અને અપર્યાપ્ત સૂફમ અપૂકાયિકના ભેદથી એ પ્રકારના હોય છે, એ જ પ્રમાણે બાદર અપૂકાયિકે પણ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના मेथी में प्रारना डाय छे. 'एवं जाव वणस्सइकाइया' से प्रमाणे तर કાયિક, વાયુકાયિક, અને વનસ્પતિકાયિક જીવોના સંબંધમાં પણ ભેદ પ્રભેદો સહિતનું કથન સમજી લેવું અર્થાત આ બધા એકેન્દ્રિય સૂક્ષ્મ અને બાદરના ભેદથી બે પ્રકારના હોય છે અને પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના ભેદથી સૂમ બાદર પણ બન્ને પ્રકારના હોય છે. આ રીતે એક ઈદિયવાળા જ ના બધા મળીને કુલ વીસ ભેદ થાય છે जी० ४९ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमने तयथा-सूक्ष्मावायुकायिकाश्च, बादरा वायुकायिकाश्च, मुश्माः पुनदिविधा भवन्ति पर्याप्ताश्चापर्याप्ताश्च, ते एते सूक्ष्मवायुकायिज्ञाः । बाबरा अपि द्विविधा भवन्ति पर्याप्ताश्चापर्याप्ताश्च, ते एते वादवायु झायिकाः, से एले वायुकायिकाः। वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः कतिविधाः प्रज्ञप्ता ? वनस्पतिकायिका द्विविधाः प्रज्ञप्ता स्तद्यथा-सूक्ष्माश्च, बादराश्च । अथ सुक्ष्म नस्पलिकायिकाः कतिविधाः प्रज्ञप्ताः ? सूक्ष्मवनस्पतिकाशियाः द्विविधाः ज्ञप्ता र यथा-पर्या प्ताश्चापर्याप्ताश्च, ते एते सूक्ष्मवनस्पतिकारिकाः, अब के ते सादरवनस्पतिका यिकाः ? वादरवनस्पतिकायिका द्विविधाः मज्ञप्ता तथा-पर्याप्णाश्चापर्याप्ताश्च, ते एते वादरवनस्पतिकायिका', 'से संवणसइकाइन एपिदिय लिरिकखनोणिया' ते एते वनस्पतिकायिकैकेन्द्रियत्तियंग्योनिका ॥ पृथिव्यादितो वनस्पतिकायिकान्तानेकेन्द्रियतिर्यग्योनिशान भेदमभेदाभ्यां निरूप्य द्वीन्द्रियतिबग्योनिकान् निरूपयितुं प्रश्नयामाह-'से कि तं वेइंदिय गिरिक्खजोणिया' अथ के ते द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्वीन्दिराणां कियो भेदा इति प्रश्न', उत्तरयति-'वेइंदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता' द्वीन्द्रियतिरन्यो. निका द्विविधा:-द्विमकारकाः प्रज्ञाप्ता:-कथिता इति ! 'तं जहा' उद्यथा-पज्जत. वेइंदिय तिरिक्खजोणिया' पर्याप्तका-पर्याप्तता शुणविशिष्टा: द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तथा-'अपज्जत्त बेइंदिर लिरिक्खजोणिया' अपर्याप्तक द्वीन्द्रियति____ द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिकों का निरूपण- किं तं वेइंदिधतिरिक्ख. जोणिया' हे भदन्त ! दो इन्द्रियतिर्थयोनिकों के हित मे हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'वेइंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पत्ता' हे गौत्तम ! दो इन्द्रियतिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के होते हैं तं जहा' जसे-पज्जत्तगवेई दियरिक्खजोणिया' पर्याप्तक दो इन्द्रियतिर्यरोनिक और अपजत्तगयेदिय तिरि०' अपर्याप्तक दोहन्द्रिय निर्यग्योनिया जैसे एकेन्द्रि હવે બે ઈ દ્રિયવાળા તિર્યનિક જીવોનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. भा समयमा श्रीगीतभस्वामी प्रभुश्रीन पूछे छ है 'खे कि त बेइंदि 'यतिरिक्खजोणिया' 3 भगवन् मेद्रियाणा तिय योनि वाना ४ा हो जाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री हे छ. है 'वेदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता' गौतम ! मेद्रियामा तिय योनि । मे ४२ना छे. 'त जहा' भो ‘पज्जत्तग बेइंदिय तिरिक्खजोणिया' पर्यात मेद्रिया तिश्योनि भने 'अपज्जत्तगवेइदिय तिरि' भयમતક બે ઈયિવાળા તિર્યનિક. જે પ્રમાણે એક ઈદ્રિયવાળા પૃવિકાયિક - Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योति माटी का प्र.३ उ.३ १.२५ तिर्यग्योनि स्वरूपनिरूपणम् ३८७ यंग्योनिका, अत्र पृथिवीकायिकादिवत् सुक्ष्मवादरभेदो न भवति, द्वीन्द्रियादिना सर्वेषामपि नियमतो वादरनाषकोदयस्यैव सद्भावेन सूक्ष्मस्वाभावेन नियमतो बादरत्वादेवेति । 'से तं बेइंदिप तिरिक्खजोणिया' ते एते द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिका भेदेन निरूपिता इति । एवं जान चउरिदिया' एवं यावत् चतुरिन्द्रियाः, एवं द्वीन्द्रियतिर्यग्योनिका इत्र जीन्द्रियतियोनिका चतुरिन्द्रियाँतर्यग्योनिकाच पर्याप्तकापर्याप्तभेदेन द्विद्वियकारका ज्ञातव्याः, तथाहि-अथ के ते त्रीन्द्रियतिथग्योनिकाः ? जीन्द्रियतियज्योनिका द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-पर्याप्ततीन्द्रियतियग्योनिकाश्चार्याचा त्रीन्द्रियविर्ययोनिकाश्च. ते एते त्रीन्द्रियतियग्योनिका भेदेन निरुपिताः । अथ के ते चक्षुरिन्द्रियतिर्यग्योनिकाः ? चतुरिन्द्रियलियंग्यो. निका द्विविधा प्रज्ञप्ता, बधधा-पर्याप्तचतुरिन्द्रियनियंग्यौनिकाच अपर्याप्तकचतरिन्द्रियविर्षग्योनिकाश्च ते एते चतुरिन्द्रियतिर्यग्योनिका भेदेन निरूपिता इति ॥ पृथिव्यादिको में सूक्षय बादर भेद कहे है, वैला भेद यहां नहीं होता है क्योकि दीन्द्रियादि जीवों के सूक्ष्म नामकर्म का उदय नहीं होता है यहाँ तो बादश नामकर्म का ही उदय रहता है । 'से तं बेइंदियति०' इस प्रकार ले पर्याय एवं अपर्याप्त भेदों द्वारा द्वीन्द्रिय तिर्यग्योनिको के सम्बन्ध में प्रतिपादन करके खून कार 'एवं जाव चरिदिया' इस सूत्र द्वारा या समझाले हैं कि ते इन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों के भी पर्याप्त और पास ऐले थे दोही भेद होते है-इस तरह पर्याप्त तेहन्द्रिय तिर्यग्यानिक और अपर्याप्त तेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, पर्याप्त चौइन्द्रिय लियंग्यानिक और अपर्याप्त नौहन्द्रिय लियंग्योनिक इस प्रकार के भेदों चाले तेहन्द्रिय लिग्योनिक और चौहन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव प्रकट किये गये है। વિગેરેમાં સૂમ અને બાદર એમ બે પ્રકારના ભેદે બતાવવામાં આવેલા છે. એ પ્રમાણેના ભેદો અહિયાં થતા નથી. કેમકે બે ઈદ્રિય વિગેરે જેને સૂક્ષમ નામ કમને ઉદય હોતું નથી. અહિયાં તે બાદર નામ કમજ ઉદય રહે है. से त बेडनिय ति.' मा प्रमाणे पयति भने २५५र्यातना मेथी दान्द्रिय तिय योनिमा थन शन. वे सूत्र २ ‘एवं जाव चरिंदिया' मा સૂત્ર દ્વારા એ સમજાવે છે કે ત્રણ ઈદ્રિય વાળા છે અને ચાર ઈદ્રિવાળા જીને પણ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એ પ્રમાણેના બે જ ભેદે હોય છે. આ રીતે પર્યાપ્ત ત્રણ ઇંદ્રિયવાળા તિર્યાનિક અને અપર્યાપ્તક ત્રણ ઈ દ્વિવાળા તિનિક, પર્યાપ્તક ચાર ઈદ્રિવાળા તિર્યચનિક અને અપર્યાપ્તક ચાર ઈદ્રિવાળા તિર્યનિક આ પ્રમાણેના ભેદોવાળા ત્રણ ઈ દ્રિયવાળા તિર્યનિક અને ચાર ઈદ્રિવાળા તિર્થનિક છાનું કથન કરવામાં આવ્યું છે. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ जीवाभिगमसूत्रे चतुरिन्द्रिया-ततियग्योनिकान् भेदमभेदाभ्यां निरूप्य पञ्चेन्द्रियतियग्योनिकान् निरूपयितुं मश्नयनाइ-'से किं तं पंचिदिय तिरिक्खजोणिया' अथ के ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः पञ्चेन्द्रियविर्यग्योनिकानां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, उत्तरयति-'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया विविहा पन्नत्ता' पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका स्त्रिविधा:-त्रिप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः-कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा-'जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' जलचर पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, जले चरन्ति-गच्छन्ति तिष्ठन्ति वा ये ते जलचराः जलचराश्च ते पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्चेति जलचरपञ्चेन्द्रियलियंग्योनिका इति। तथा-'घलयरपंविदियतिरिक्खजोणिया' स्थलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः, स्थले चरन्ति-गच्छन्ति तिष्ठन्ति वा ये ते स्थलचरा, स्थलचराश्च ते पञ्चेन्द्रिपतियंग्योनिकाचेति स्थलचर पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, 'खहयर पंचेन्द्रिवतियग्योनिशों का निरूपण-से शितं पंचिंदियतिरिक्ख जोगिया०' हे अदन्त ! पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों के कितने भेद हैं ? 'पंबिंदियतिरिवल जोणिया तिदिदा' हे गौतम ! पञ्चेन्द्रिय लियंग्पोनिक जीच तीन प्रकार के होते हैं-'तंजा जैसे-'जलयर पंचिदिशतिरिक्ख जोनिया, थायर चिदिति खहयर पंििदयति०' जलचर पञ्चेन्द्रिय लियम्योनिक, स्खल घर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक और खेचर पंचेन्द्रिय বিস্বস্থীশিল্প, মন্ত্র ও গুলি সহ যি নিবীনি है-धोंबी इन्दका निस्थान जल ही-जल से अतिरिक्त स्थान में न ये रह सकते हैं और न ठहर सकते हैं जो जीव स्थल-जमीन-पर चलले फिरते है-धे स्वलचर हं तथा-जो जीव आमाश लें चलते फिरते हैं હવે પાંચ ઈદ્રિયવાળા તિર્યોનિક જીવોનું નિરૂપણ કરવામાં આવે छ. 'से किंत पंचिदिय तिरिक्खजोणिया.' है लापन पयन्द्रिय तिय यानि જી કેટલા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને छ पचिंदियतिरिक्खजोणिया तिविहा' ५'यन्द्रियतिय यानि वा ४२॥ sal . 'त जहा' ते त्रय प्रा। प्रमाणे छे. 'जलयरपंचि दियतिरिक्खजोणिया, थलयरप चिदियति० खयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिया' य२ ५'यन्द्रिय तिय योनि २५सय२ ५यन्द्रियतियये।નિક અને ખેચર પચેન્દ્રિય તિર્યનિક. મત્સ્ય કરછપ વિગેરે જે જલચર પચેન્દ્રિય તિર્યગેનિક છે. કેમકે તેઓનું નિવાસસ્થાન જલજ છે જલ શિ વાયના સ્થાનમાં તેઓ રહિ શકતા નથી. તેમ સ્થિર પણ થઈ શકતા નથી. જે જ સ્થલ કહેતાં જમીન પર ચાલે છે, ફરે છે, તેઓ સ્થલચર જીવે કહેવાય Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ २.२५ तिर्यग्यौनिस्वरूपनिरूपणम् ३८९ पंचिदियतिरिक्खजोणिया' खेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, खे-आकाशे चरन्तिगच्छन्ति ये ते खेचराः खेचराश्च ते पञ्चेन्द्रियति योनिकाश्चेति खेचरपञ्चन्द्रिय. तिर्यगूयोनिकाः, तथाच-जलचरस्थल वरखेवरभेदात् पञ्चन्द्रिणतिर्यग्योनिका त्रिप्रकारका भवन्तीतिभावः । 'से किं तं जलसरपंचिदियतिरिक्खजोणिया' अथ के ते जलचरपश्चेन्द्रियवियायोनिकाः १ जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यगूयोनिकानां कियन्तो भेदा भवन्तीति प्रश्नः, उत्सत्यनि- 'जलयरपंकिंदियतिरिक्खजो. णिया दुविहा पन्नता' जलचरपश्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधा:-द्विपकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा-संच्छिमजलयरपंचिदियतिरक्खजो. णियाय' संमूच्छिमजलचरपञ्चेन्द्रितिश्योनिकाच, तथा-'गब्भवतियजलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया य' मर्मव्युत्क्रान्तिक जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाय तथाव-संमृच्छिमगर्भजभेदेन जलचरपञ्चन्द्रियतिर्यगूयोनिका द्विप्रकारका भवन्तीति । 'से कि तं संच्छिमजलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' अथ के ते संमू च्छिमजलचरपञ्चेन्द्रियात यग्रयोनिका, संमृच्छिमजलचराणां कियन्तो मेदा वे खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक है। सितंजलयरपंचिंदियति' हे अदन्त ! जलचर पंचेन्द्रिध तिर्यग्बोनिक जीव कितने प्रकार के होते है ? 'जलघर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया दुधिहा पन्नत्ता' हे शोलन ! जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीब दो प्रकार के होते हैं-जैसे-'संनुच्छिमजलयर.' संमूछिम जलचर पंचेन्द्रिय लियंग्योनिक और भयकंति०' गर्भज जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्थयोनिक जीय तथा व संभूच्छिम एवं गर्भज तिर्यग्योनिक के भेद से जलचर पञ्चन्द्रियलियंग्योनिक जीव दो प्रकार है 'से किं संच्छिमजलघरपंचिदिशा' हे अदन्त ! समूच्छिम છે. તથા જે છ આકાશમાં ચાલે છે, અને ફરે છે. તેઓ ખેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક છે. 'से कि त जलयर पचि दियतिरिवखजोणिया' ७ मापन य२ પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવે કેટલા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रसुश्री गौतमस्वामीन ४ छ । 'जलयर पचि दियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता' गीतम! दायर ५'यन्द्रिय तिय योनि । मे मारना ४ा छ. म 'संसुच्छिम जलघरपबिंदिय तिरिख जोणिया' स भूमि सय ५'यन्द्रिय तिय योनि मन. 'गव्भवतियजलयरप चि दिय तिरिक्ख जोणिया' Har सय ५येन्द्रिय तिय योनि५. तथा भूमिछम ४ सयर તિર્યનિક ના ભેદથી જલચર પંચેન્દ્રિય તિર્લગેનિક જી બે પ્રકારના ४ाया छ. 'से कि त समुच्छिमजलयरपंचि दियतिरिक्ख जोणिया' 3 समपन् Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० जीवाभिगमसूत्रे इति प्रश्नः, उत्तरयति - 'संमुच्छिमजल पर पंचिदिय निरिकखजोगिया दुविधा पन ता' संमूच्छिम जलचरपञ्चेन्द्रि” तिर्यग्योनिकाः द्विविधाः द्विमकारकाः प्रज्ञाःकथिताः 'त जहा ' तद्यथा-'पज्जत्तगसंमुच्छम जलपरपंचिदियतिरिकखजोणिया ' पर्यातकसंमूच्छिम जलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः 'अपज्जत संमुच्छिम जलयरपंचिदियतिरिवखजोगिया य' असं डिजलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाइच, तथाच पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन संसूच्छिमजलचराः द्विमकारका भवन्तीति भावः । ' से तं संमुच्छिमजकयरपंचिंदियतिरिक्खजोयणिचा' ते एते पर्या तापादिभेदशिशः द्विमकारकाः संमृछिमनलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिका निरूपिता इवि । ' से किं तं गमक्कविणलयरपंचिदिपतिविखजोणिय।' अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकमलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, गर्भजजळचराणां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, उत्तरयति - 'द तिय जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया दुदिवा पणता' गर्भव्युत्क्रान्तिफजलचर पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः जलचर पञ्चद्रिय तिर्यग्योनिक जीव कितने प्रकार के होते हैं ? 'समुच्छिम जलपर पंचिदि०' हे गौतम संमूर्किजलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के होते हैं- जैसे- 'पज्जन्तग समुच्छिम जलपर पंचेन्द्रिय०' पर्याप्त मच्छिन जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव और 'अपज्जन्तन संमुच्छिम जलयर' अपर्याप्तक समूच्छिम जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव 'से कितं भववकंतिय जलय (०' हे भदन्त | गर्भज जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव किनने प्रकार के होते है ? 'गन्भवतिय जलयर पंचिदिय०' हे गौतम ! नर्भज जलघर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के होते हैं- 'तं जहा' जैसे - સ'મૂચ્છિમ જલચર : ૫'ચેન્દ્રિય તિગ્યેાનિક જીવ કેટલા પ્રકારના કહ્યા છે ? उत्तरमां प्रलुश्री मुडे छे है 'समुहिम जलयर पंचि दिय०' हे गौतम! सभूमि नायर ययेन्द्रिय तिर्यग्योनि मे अारना उद्या है. भडे 'पज्जत्तग संमुच्छिम जलचरपश्चिदिय तिरिक्खजोणिया' पर्याप्त सभूमि सर यथेन्द्रिय तिर्यग्योनि छ भने 'अगज्जत्तगस मुच्छिजलयरप चिदिय तिरि फूख जोजिया' मयर्यास संभूरिम सर ૫ ચેન્દ્રિય તિય ગ્ગેનિક જીવ 'से कि ं तं गव्भवतियजलयर पचिदिय तिरिकख जोणिया' हे लगवन् ગજ જલચર પચેન્દ્રિય તિય ચૈાનિક જીવા કેટલા પ્રકારના હાય છે? उत्तरमा प्रभुश्री छे 'गभक्क' तिय जलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता' हे गौतम! गर्ल ४सयर यथेन्द्रिय तिर्यग्योनि लुवे Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3DD अमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ स.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३९१ द्विविधाः-द्विप्रकारका एज्ञप्ला:-कथिता इति । 'तं जहा' तयथा-'पज्जत्तगठमवतिय जलयरपंचिहियतिरिकखजोगिया पर्याप्त कगर्भव्युत्क्रान्तिकजलचरपञ्चे न्द्रिपतियग्यो निकाः 'एज्जत्ता गम्भववलिय जलयरपंचिदितिरिक्खजोणिया' अपर्यापकगर्भव्युत्क्रान्तिकजल घरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योकाः, तथा च पर्याप्तकापर्या प्तकभेदेन गर्भजजलचरा द्विविधा मन्तीति। 'से त गमकलिय जलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिसा' ते एते गभन्युन्क्रान्तिकाजलचरपश्चन्द्रियनियंग्योनिका निरूपिता से जलापंचिनियतिरिवखन जिसे एसे जलचरपञ्चन्द्रिय तिर्यम्पोनिका जीवा मेदाभेदाभ्यां निरूपिता इति । जलवरान्निरूप्य स्थलचरान् निरूपयितु पश्नयबाह-से कि तं थलयर' इत्यादि, ‘से किं तं थलयर चिदियनिरिक्खजोणिया' अथ के ते स्थल चरपञ्चे न्द्रियतिर्यगोनिकाः १ स्थलचरर चेन्द्रियतिरश्चां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, उत्तरपति-'थलयरपंचिंदियतिरिक्वजोणिया' दिहा एकत्ता' स्थलचरपञ्चेन्द्रिर'पज्जत्तगभश्वकं लिय जलघर निरिक्ख जोणिया पर्याप्तक गर्भज जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक्ष और 'अपज्जत्तम गम्भवतिय तिरिक्खजोणिया' अपर्याप्तक गर्भज जलचर पश्चन्द्रिम तिर्यग्योनिक 'सेत्तं गब्सनक्कलि जलयर पंचिं' इल कार से गर्भज जलचर पचेन्द्रिय तियग्योनिक जीव दो प्रकार के कहे हैं। ____ अब सूबझार स्थलचर पञ्चन्द्रिय तिर्थ योनि जीवों का वर्णन करते हैं-'से कि तं थलचर पंचिदिय तिरिक्ख जोणिया' हे बदन्त ! स्थलचर पञ्चेन्द्रिय लिई योनिक जीत लिने प्रकार के है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'थलयर पंथिलि सिचिवमोणिया सुविधा पानता' हे गीतम! स्थलचर पञ्चन्द्रिय लियोनिका जीव दो प्रकार के है-'तं जहा' जैसेमे प्रा२न डाय छे. 'त' जहा' मे ५४.२ । प्रभाव छ. 'पज्जत्तगगम्भवतिय जलयर पचिदियतिरिकखजोणिया पर्यात or oraय२ ५'यन्द्रियतिय यानि भने 'अपज्जत्तग गभवतिय तिरिक्ख जोणिया' मर्यात ४ सय२५ ये न्द्रिय तिय योनि से तं गमबक्क तिय जलयापचि दियतिरिक्खजोणिया' मा પ્રમાણે આ ગર્ભજ જલચર પંચેન્દ્રિય તિનિક છે બે પ્રકારના કહ્યા છે. હવે સૂત્રકાર સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવેનું વર્ણન કરે છે. तमा गीतमस्वामी ने पूछे छ, 'से कि तं थलयरपंचि दिय तिरि ख. जोणिया' हे भगवन् स्थाय२ चन्द्रिय तिययानि 21 प्रारना ४ा छ १ मा प्रशन इत्तरमा सुश्री गीतमस्वामीन है 'थलयर पचि दिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता' है गौतम ! स्थलय२ ५'यन्द्रिय Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ भीवाभिगमसूत्रे तिर्यग्योनिका द्विविधा:-जिप्रकारकाः प्रज्ञता:-कथिता इति । 'तं जहा तद्यथा'चउप्पययलयरपंचिंदियतिरिक्त जोणिया' चतुष्पदस्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तथा-'परिसप्पथलयरपंचिंतियतिरिकादजोणिया' परिपरथलचरपञ्चन्द्रिगतियग्योनिका, तथा च-चतुदपरिसपभेदेन स्थलचरपञ्चन्द्रिया द्विपकारका भव. न्तीति । 'से किं त उपयश्लयरपंरिदियनिरिकावजोणिया' अथ के ते चतु. पदस्थलचरपञ्चन्द्रियतिवमोनिकाः चतुष्पदस्थन चाणां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, उत्तरयति-'चउप्पयथलयरपचिदितिरिकवणिया दुनिता पन्नत्ता' चतुष्पदस्थलचरपञ्चन्द्रियनियमोनिका द्विन्धिा:-द्रिप्रकारहाप्रज्ञप्ताः-मथिता इति । तं जहा' तथा- 'समृशिम चरप्पय शलयरपचिंदियतिरिखरखजोगिया' संमान्टिम चतुष्पदस्थलचरपञ्चन्द्रियत्तियग्योनिकाः, तथा-'रश दर्शनिय चउष्ण्य यलयरपंचिंदियतिरिवखजोणिया य' राभिव्युत्क्रान्तिकतप्पटाथलचर पञ्चन्द्रियतियग्योनिकाश्च तथा च संमाछिया भज भेदेन स्थलचरताका निप्रकारका भवन्तीति । 'उप्पयशलयर पचिहिय तिरिवखजोजिना' चतुष्पद स्थलचर पम्नन्द्रिय तिर्यग्योनिक और परिकशलयरपंनिदिध निरि०' परिमपन्थलचर पञ्चन्द्रिय सियग्धोनिक 'सेहिं तं घरप्पन थलय परिदिय तिरिक्ख' हे भदन्त ! चतुष्पद स्थलघर पश्चन्द्रिय तिर्थ योनिक जीवों के कितने भेद हैं ? 'उपाय थलयर पनिंदित लिहिले गौतम चतुष्पदस्थलचर पञ्चन्द्रिय नियंग्यानिक दो प्रकार के-जैसे-'संमृच्छिम उपयधल. यर पं०' संच्छिम चतुष्पदस्थलचर पञ्चन्द्रिय तिर्य योनिक और 'भवक्कंतिय प्वउप्पयलियर' गर्मज चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्थरणे तिययानि मे प्राप्त छ 'तंजहा' भ 'चउप्पय थलयर पचि दियतिरिक्खजोणिया' यतुप (या२ ५४ाणा) स्थस-य२ पयन्द्रिय तिय योनि भने 'परिमप्प थलचरपचि दियतिरिक्खजोणिया, परिस श्यस-य२ ५यन्द्रिय तिय य.नि. शथी श्रीगौतमरपाभी पूछे छे ? 'से किंत चटप्पयथलयरपचि दियतिरिक्खजोणिया' हे सगवन् यतु०५४ स्थलय२ પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવોના કેટલા ભેદ કહેવામાં આવ્યા છે? ઉત્તરમાં प्रभुश्री गीतभरपाभी है छ है 'चउपयथलयरप'चि दियतिरिवखजोणियादुविहा पण्णत्तो' हे गौतम | यतुष्य २५सय२ ५'यन्द्रिय तिय योनि । मे प्रा२ना ४ा छे. भो 'समुन्छिमचउपयथलयरपचि दियतिरिक्खजोणिया' सभूरि प्यतुप४ २५सय२ पद्रिय तिययन४ भने 'गम्भवतिय चउप्पय थलयरपचि दिय तिरिक्ख जोणिया' 1 यतु५४ २५० Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ. ३ सू.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३९३ - 'जहेव जलयराणं तहेव चक्कओ भेदो' यथैव जलचराणां चतुष्को भेदः कथित स्वथैव तेनैव रूपेण स्थळचराणामपि चतुष्को भेदो ज्ञातव्य, तथाहि प्रथमतचतुम्पदाः संमूच्छिभेदेन द्विविधा वक्तव्याः वतः संपदापर्यात अपि भवन्ति, अपर्याप्ता अपि भवन्ति, ततो गर्भजचतुष्पदा अधि पर्यायापर्यावापि भवन्ति च संपूछिनपजभेदेन पर्याप्तापर्याप्तभेदेन च चतुष्पद स्थलचरायतुः मकारा भवन्तीति । 'से तं चपय थलवरपंचिदिव विखिखजोणिया ' ते एते चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिका : भेदमभेदाभ्यां निरूपिता इति ॥ चतुष्पद स्थलचरान् निरूप्य परि स्थलचरान् निरूपयितुं मयनयन्नाह'से किं तं परि लयपविदियतिरिक्खजोनिया' अथ के ते परिसर्प स्थल -- निक 'जहेब जलघराणं तहेब चक्क मे ओ' जिस प्रकार से जलचर जीवों के चार भेद कहे गये हैं-उसी प्रकार स्थल नर जीवों के भी नार भेद क लेना चाहिये जैसे- स्थलचर चतुष्पद जीवों के मूल भेवों से दो प्रकार के होते हैं एक संमूच्छित और दूसरे गर्भग, चतुष्पद है वे पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं । इसी तरह संमूछिन चतुष्पद भी पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के होते हैं। अतः संमृच्छित और गर्भज के भेद से तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से चतुष्पदस्थलचर जीव चार प्रकार के हो जाते हैं । 'सेसं चउपयथलपर पंचिदिय तिरिक्खजोगिया' इस तरह से ये चतुष्पद स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव अपने भेद प्रभेदों से निरूपित हुए हैं। परिसर्पस्थलचर निरूपण-'ले किं तं परिपथलयर पंचिदिवरिल थर पयेन्द्रिय तिर्यग्योनि 'जद्देव जलयराण तदेव चउक्कओ भेओ' પ્રમાણે જલચર જીવાના ચાર ભેદ કહ્યા છે . એજ પ્રમાણે થલચર જીવેાના પણ ચાર ભેદ કહેવા જોઇએ. જેમકે સ્થલચર ચતુષ્પદ જીવે ના સ્કૂલ એ ભેદ થાય છે, જેમકે એક સમૂòિ મચતુષ્પદ અને ખીજો ગર્ભ જચતુષ્પદ છે. તેઓ પર્યાપ્ત પણ હોય છે. અને અપર્યાપ્ત પણ હાય છે, એ જ પ્રમાણે સ`સૂચ્છિ મ ચતુષ્પદ પણ પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એમ ખન્ને પ્રકારના હાય છે તેથી સમૂમિ અને ગજના ભેદથી તથા તેના પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તકનાભેદથી ચતુષ્પદ્મસ્થલચર જીવા ચાર પ્રકારના यह लय छे. 'से त्त' चउपय थलयर प'चिदिय तिरिक्ख जोणिया' मा प्रभा मा तुष्य स्थसयर ययेन्द्रिय તિયચૈનિક જીવાનુ` તેમના બે અને પ્રભેદોથી નિરૂપણ કરવામાં આવ્યુ છે. હવે પરિસપ` સ્થલચર જીવાનુ” નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. આ સંખ षभां श्रीगौतमस्वामी अनुश्रीने पूछे छे 'से कि' त' परिप्पथलयर प'चिदिय जी० ५० Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमन परपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, परिसर्पस्थलचराणां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, उस स्यति-'परिसप्पथलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता' परिसपस्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका द्विविधाः-द्विपकारकाः पज्ञप्ता:-कविता इति । 'तं जहा' तद्यथा 'उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खनोणिया' उरः परिसर्पस्थटचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, उरसा-वक्षःस्थलेन परिस्पन्ति-गच्छन्तीति उरः परिस:सदियस्तादृशाश्च ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियनियंग्योतिकाश्चेति ते तया, 'भुयपरिसप्पथलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' भुजपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, भुजाभ्यां परिसर्पन्ति-चलन्ति इति भुजपरिसपीः गोधानकुलादयः, तादृशाश्च ते स्थलचरपञ्चेन्द्रियतियग्योनिकास्ते तथा, नया च-उर परिसर्पभुजपरिस भेदेन परिसर्प स्थलचरा द्विविधा भवन्तीति । 'से हि तं उरपरिसप्पथळयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया' अय के ते उर परिसपस्थलचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, उर:परिसर्पस्थलचराणां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, उत्तरयति-'उरपरिसप्पथलयरपंचिं क्खजोगिया' हे भदन्त ! परिसर्पस्थलचरों के कितने भेद है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'परिसप्पथलयरपंचिदितिः ' हे गौतम ! परिसपस्थलघरों के दो प्रकार हैं। 'तं जहा' जैसे-उर परिसप्प थलयर० भुज परिस प्पयल.' उम्परिसर्पस्थलचर पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक और भुज परिसर्प स्थलचर पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जो स्थलचर पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जाती के सहारे चलते हैं-जैसे-सपं आदि वे स्थलचर पञ्चन्द्रिय उरपरि सर्प है और अपनी भुजाओं के बल से चलते हैं वे गोधी नकल आदि भुज परिसर्पस्थलचर है। 'से किं तं उरपरिसप्पथलयर पंचिं.' हे भदन्त ! उर:परिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के कितने भेद हैं ? तिरिक्ख जोणिया' ७ मगन् । परिसय २थतयशना 32सा हो या छ ? भानना उत्तरमा प्रभुश्री गौतभस्वाभान ४ छ, 'परिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्वजोणिया दुविहा पण्णत्ता' 3 गौतम ! परिस५ २थदायसेना में हो छ. 'तं जहा' ते या प्रमाणे छ. म 'उरःपरिसप्प थलयर०, भुजपरिसप्प थलयर.' १२:५रिस स्यमय२ पयन्द्रिय तिय यानि भने मुल परिस' સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યાનિક, જે સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિનિકે છાતીના બળથી ચાલે છે. જેમકે સાપ વિગેરે તેવા રથલચર પંચેન્દ્રિય ઉર પરિસર્ષ છે. અને જેઓ પિતાની ભુજાઓના બળથી ચાલે છે, જેમકે ઘે, નેળીયે વિગેરે તેઓ ભુજ પરિસર્ષ સ્થલચર છે. ___ 'से कि तं उरपरिसप्प थलयर पचि दिय तिरिक्ख जोणिया' 8 मगवन् ઉર પરિસર્ષ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીના કેટલા ભેદે કહ્યા છે? Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिको टीका म.३ उ.३ खु.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् दियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता' उरः परिसर्पस्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिका द्विविधाः - द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिता इति, 'तं जहा' तद्यथा-' जहेव जलचरार्ण तव चक्क भेदो' यथैव जलचराणां संमूच्छिमगर्भजपर्याप्तापर्याप्ता इति चतु est भेदः कथितः, तथैव - तेनैव रूपेण उरः परिसर्पस्थलचराणामपि संमूच्छिमगर्भपर्याप्तपर्यायेति चतुष्को भेदो ज्ञातव्यः, उरम्परिसर्पाः द्विविधा भवन्ति संमूच्छिमा गर्भजाश्च तत्र संमृद्धिमा अपि पर्याप्तापर्याप्तभेदेन द्विविधा भवन्ति, तथा - गर्भजा अपि पर्यापदापर्याप्तभेदेन द्विविधा भवन्ति तदेवं चतुष्को भेदो भवतीति भावः । ' से तं सुपरिसपथल परपंचिदियतिरिक्खजोणिया' ते एते भुज परिसर्प स्थलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः भेदप्रभेदाभ्यां निरूपिता इति । 'से तं थलयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया' ते एते स्थलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकाः भेदभेदाभ्यां निरूपिता इति ॥ उत्तर में कहते हैं - ' उरपरिसप्पथलयर पंचिंदिय' हे गौतम ! उरः परिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के हैं- 'तं जहा' जैसे - ' जहेच जलवराणं' जलचर जीवों के संमूच्छिम और गर्भज के भेद से दो प्रकार बतलाये गये हैं और इन संमूच्छिम गर्भज के पर्याप्त और ऐसे दो दो भेद और कहे गये हैं- इसी तरह से उरः परिसर्पों के भी मूल में संमूच्छिम और गर्भज ऐसे दो भेद होते हैं और इनके पर्यात और अपर्याप्त के भेद से दो दो भेद और हो जाते है - इस प्रकार उरः परिसर्पस्थलचरतिर्यग्योनिकों के चार भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार से भुजपरिसर्पों" के भी संमूच्छिम और गर्भज के भेद से दो भेद है. और इन भेदों के भी प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो मेद और है। ऐसे चार भेद हो जाते हैं । उत्तरभां पुलुश्री छेडे 'उरपरिसप्प थलयर पंचिदिय' हे गौतम । २ः५रिसर्य स्थसयर प·थेन्द्रिय तिर्यग्योनि मे अक्षरना ह्या छे. 'त'जहा' ते मा प्रभावे छे. भेभड़े 'जहेव जलयराणं' ४ सयर व सभूमि गर्ल मे રીતે એ પ્રકારના કહ્યા છે. અને આ સમૃથ્વિ મ અને ગજના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એ પ્રમાણેના ખએ ભેદે ખીજા કહ્યા છે. એજ પ્રમાણે ઉર:પરિસના પશુ સ`સૂષ્ટિ માં અને ગજ એ પ્રમાણેના મૂલ એ જ ભેદો હાય છે. અને તેના પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્તના બે ભેદથી ખીજા મુખે ભેદા થઈ જાય છે. એ રીતે ઉર:પરિસર્પ સ્થલચર તિય ચૈાનિકોના ચાર ભેદે થઇ જાય છે, એ જ પ્રમાણે ભુજ પરિસ`ના પણ સમૂમિ અને ગજના ભેદથી એ ભેદ થાય છે. અને એ દરેક ભેદ્યમાં પર્યાપ્ત અને અપર્યાપ્ત એ પ્રમાણેના ખીજા એ ભેદા થાય છે. આ રીતે કુલ ચાર ભેદી થઈ જાય છે. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्र - जलचर स्थलचरान्निरूप्य खेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकान् निरूपयितुं प्रश्न यन् आह--'से किं तं खहयर' इत्यादि, 'से कि तं खहयरपंचिंदियतिरिक्खजो. णिया' अथ के ते खेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकार, खेचराणां कियन्तो भेदा भव. न्तीति मना, उत्तरयति-'खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता' खेचरञ्चपन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधाः-द्विमकारकाः प्राप्ताः-कथिता इति, 'तं जहा' तद्यथा-समूच्छिमखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया' संमूच्छिमखेचरपश्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाः, तथा-'गनववंतियखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिया य' गर्भव्युत्क्रान्तिकखेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्यो निकाच, तथा च-गर्मजसंमूच्छिमभेदेन खेचरा द्विग्रकारका भवन्तीति । 'से किं तं संमृच्छिम खहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया' अथ के ते संमृच्छिम खेचरपञ्चन्द्रियतिबन्योनिकाः संमूच्छिमखेचराणां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, उत्तरयति-संमच्छिमखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया ___ 'जलचर और स्थलचरों के खेद प्रभेद कहकर अव सूत्रकार खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्थयोनिक्षा कश्चन करते हैं-'से किं तं खायर पंचि. दियति' हे अदन्त ! खेचर पञ्चेन्द्रिय नियंग्योनिक कितने प्रकार के कहे गये हैं ! 'खबर पंचिदियतिरिक्खजोगिया दुविहा पन्नता' उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! खेचर पञ्चन्द्रिय तिर्ययोनिकों के दो भेद हैं'जैसे-'संच्छिमलहयरपंजिदियति' संमूछिन पञ्चन्द्रिय तिर्यग्योलिक और 'मधमकं लिय खत्थर पंचिदिक्ष' गर्भज खे घर पञ्चेन्द्रिय लियायोनिक और वे किं तं समुच्छिर खयर पंचिदिय तिरि०' हे भदन्त ! लछिन खेचद पन्चन्द्रिय तिर्थयोनिक कितने प्रकार के हैं ? उत्तर में प्रश्नु कहते हैं-'लमुच्छिम खधर पंचिंदिय तिरिक्ख जोणिया જલચર અને સ્થલચના ભેદે અને પ્રભેદ બતાવીને હવે સૂત્રકાર બેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યાનિકેનું કથન કરે છે. આમાં શ્રીગૌતમસ્વામી પ્રભુને मे पूछे छ, 'से कि त ख इयरप चिंदियतिरिक्खजोणिया' भगवान् બેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યાનિકે કેટલા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु श्रीगीतमस्वामीन छ । 'खहयर पचि दिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता' 8 गौतम! य२ ५ येन्द्रिय तिश्योनिओना मे सेहो थाय छे. रेम ‘स मुच्छिम खहचरपचि दियतिरिक्खजोणिया' सभूरिभ पथन्द्रिय तिय योनिः मते 'गम्भवक्क तिय खहयर पंचि दियतिरिक्खजोणिया' । २२ ५येन्द्रिय तिय योनि. शथी गौतम स्वामी ५छे छे , 'से कित समुच्छिमखहयर पचि दिय तिरिक्खजोणिया' मगन् सलिम मेयर પંચેન્દ્રિય તિર્યંચેનિક કેટલા પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैयद्योति काटी का प्र.३ उ.३ १.२५ तिर्यग्योनिस्वरूपनिरूपणम् ३९७ दुविहा पन्नता' संमूच्छिमखेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः द्विविधा:-द्विप्रकारकाः प्राप्ताः-कथिता इति । 'तं जहा' तयथा-'पज्जत्तम संखुच्छिमखहयरपंचिदियतिरिक्खजोणिया' पर्याप्तकमूच्छिम खेचरपञ्चेन्द्रियनिग्योनिकास्तथा-'अपज्जत्तगसंमुच्छिम खहयह चिदियतिरिक्खनोणियाय' अपर्याप्तकसंमृच्छिमखेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिकाश्च, तथा च-पर्याप्तापर्याप्तभेदेन संमृच्छिा खेचरा द्विविधा भवन्तीति । ते एते संमूच्छिमखेचरा भेहोपभेदाभ्यां निरूपिता इति । 'एवं गभवतियाबि' एवं संयूच्छिपखेचश्वदेश गर्भव्युत्क्रान्तिकखेचरपञ्चन्द्रियतिर्यग्योनिका अपि ज्ञातव्याः। किषल्पयन्तं संपूच्छिमप्रकरणमत्र ज्ञातव्यं तत्राह'जाव' इत्यादि, 'जाव पज्जत्तगणवतियावि अपज्जत्तगासवतियावि' यावत्पर्याप्तकगर्भव्युत्क्रान्तिका अपि अपोखक गर्भव्युत्क्रान्तिका अपि । अयभावः-हे भदन्त ! गर्भज खेवर पञ्चन्द्रियति योनिकाः फतिविधा भवन्ति, हे गौतम ! गर्मजा द्विविधाः प्रज्ञप्ता तपा-पर्याप्त जखेचरा: अपर्याप्तगर्भजखेचराश्चेति । ते एते गर्भजखेचरा निरूपिताः । एते खेचरपञ्चन्द्रियतिर्य ग्योनिका निरूपिता इति। सम्पति-खेचराणां मकारान्तरेण भेदप्रतिपादनार्थमाह-'खहयर' इत्यादि, दुविहा' हे गौतम ! संपूच्छिम खेचर पश्चेन्द्रिय तिर्ययोनि दो प्रकार के है-'तं जहा' जैसे-'पज्जता संनुच्छिम्म खहयर०' पर्याप्तक समूच्छिम खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्बोनिक और पजत्ता संच्छिा खयर, अपर्याप्तक संस्मृच्छिस खेचर पञ्चेन्द्रिधतिर्यज्योनिक एवं भत्भवतियावि' इसी प्रकार से गर्भज खेचर पञ्चन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव भी पर्याप्तक और अपर्याप्तक होते हैं ऐसा जानना चाहिये ___ अब खेचर जीवों के दूसरी तरह ले भेदों का प्रतिपादन किया प्रसश्री गीतमस्वामीन छ, 'संमुच्छिम खहयरप चिंदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता' 3 गीतम! सभूमि मेयर पथेन्द्रिय तिय योनिः । मे ना डाय छे. 'त' जहा' म 'पज्जत्ता समुच्छिम खहयर,' पर्याप्त संभूमि मेयर पन्द्रिय तियानि गत अपज्जातंग समुच्छिम खहयर.' અપર્યાપ્તક સંમૂર્ણિમ ખેચર પચેન્દ્રિય તિર્યોનિક, __‘एवं गब्भववतिया वि' १ मा Mar २२ ५'यन्द्रिय તિર્યનિક જીવ પણ પર્યાપ્તક અને અપર્યાપ્તકના ભેદથી બે પ્રકારના होय छे. तेम समश. હવે ખેચર જીવોના ભેદોનું પ્રતિપાદન બીજા પ્રકારથી કરવામાં આવે છે. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमस्टे 'खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते !' खेवरपञ्चेन्द्रियतिय योनिकानां भद. न्त ! 'कविहे जोणिसंगहे पनत्ते' कतिविधः-कतिप्रकारकः योनिसंग्रहः योन्या संग्रहण योनिसंग्रहो योन्युपलक्षितंग्रहणमित्यर्थः मज्ञप्ता-कथित इति । भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, गोयमा' हे गौतम ! 'तिविहे जोणिसंगहे पन्नत्ते' त्रिविध त्रिपकारको योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः। 'तं जहा' तद्यथा-'अंडया पो ग्या संमुच्छिमा' अण्डजा:-अण्डाज्जाता मयूरादयः, पोतना:-बागुल्यादयः, समुच्छिमा:-खच. रीटादयः। 'अंडया तिविहा पन्नत्ता' अण्डजा स्विविधाः प्राप्ताः-कथिताः 'तं जहा' तद्यथा-इस्थीपुरिसा नपुंसगा' स्त्रियः पुरुपाः नपुंसकाः ! 'पोतया तिविहा जाता है-'खहयर पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते !' हे भदन्त ! खेचर पंचेन्द्रियतिर्यग्योनिक जीवों का 'कविहे जोणिसंगहे पण्णसे' योनि संग्रहयोनि रूप से संग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पन्नत्ते' हे गौतम! खेचर पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों का योनिसंग्रह तीन प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे-'अंडया, पोयना, समुच्छिमा' अण्डज, पोतज, और, संमूच्छिम इन में जो अण्डे से उत्पन्न होते हैं वे मयूर आदिक भण्डज हैं जो गर्भ से निकलते ही दौड़ने लगते हैं वे वोगुली-चमगादड आदि पोतज हैं और जो माता पिता के संयोग विना ही उत्पन्न होते हैं वे खञ्जरीट पक्षिविशेष आदि समूच्छिम हैं। 'अंडजा तिविहा 'इन में भी जो अण्डज है-वे तीन प्रकार के होते हैं-'तं जहा' जैसे-'इत्थी, पुरिसा णपुंसगा' श्रीगीतमयामी प्रभुन पूछे छे । 'बयर पचिदिय तिरिक्खजोणिया णं भंते ! मसन् ! मेयर पश्यन्द्रिय तिय योनि योनी 'कइविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते' થાનિસંગ્રહ કેટલા પ્રકારને કહેવામાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી शीतभस्वामीन ४ 'गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पन्नत्ते' गौतम ! २२ પરચેન્દ્રિય તિર્યથોનિક જીને નિસંગ્રહે ત્રણ પ્રકારને કહેવામાં આવેલ છે. जहा' तय २ मा प्रभारी छे 'अंडया, पोयया, समुच्छिमा' म300 પિતજ અને સંમૂચ્છિમ. આમાં જેઓ ઈડાઓમાંથી ઉત્પન્ન થાય છે તે એ અંડજ કહેવાય છે. જેમકે મર વિગેરે જેઓ ગર્ભમાંથી બહાર આવતં જ દેડવા મંડે છે. તેવા વાગોળ વિગેરે પિતજ કહેવાય છે. અને માતાપિતાના સંગ વગર જ ઉત્પન્ન થાય છે. તેવા ખંજરીટ-પક્ષિવિશેષ જી સંમૂરિ૭મ કહેવાય છે. 'अडजा तिविहा' मामा ५ मा भ3०४ सय छ, तम्या ३९ __ाना जाय . 'तं जहा' रेम? 'इत्थी पुरिमा णपुसगा' श्री, ५३५, भने Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ सु. २६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् पत्ता' पोतजा स्त्रिविधाः प्रज्ञशाः 'तं जहा ' तद्यथा - हत्थी पुरिसाणपुंसगा' स्त्रिय: पुरुष नपुंसकाश्च | 'तत्य णं जे ते समुच्छिमा ते सन्वे णपुंसगा' तत्र तेषु त्रिविधखेचरेषु मध्ये ये ते संमुछिमाः पक्षिणस्ते सर्वेऽपि नपुंसका एव भवन्ति संमुच्छिमाना मवश्यं नपुंसकं वेदोदय भावादिति । सु० २५|| ३९९ पक्षीणां लेश्यादिकं दर्शयितुं प्रश्नयन्नाह - 'एएसि णं' इत्यादि, 1 1 मूलम् - एएसि णं भंते! जीवाणं कइलेस्साओ पन्नत्ताओ ? गोयमा । छल्लेस्साओ पन्नत्ताओ, तं जहा - कण्हलेरसा जाव सुक्कलेस्सा । ते णं भंते ! जीवा किं सम्मद्दिट्टी मिच्छादिट्टी सम्मामिच्छादिट्ठी ? गोयमा ! सम्मद्दिट्टी विमिच्छादिट्ठी वि सम्मामिच्छादिट्टी वि । ते णं भंते । जीवा किं णाणि अण्णाणि ? गोयमा । णाणि वि अण्णाणी वि तिष्णि णाणाई तिष्णि अण्णाणाई भयणाए । तेणं जीवा किं मणजोगी वथजोगी कायजोगी ? गोयमा ! तिविहा वि । ते णं भंते! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि । ते णं भंते । जीवा कओ उववज्जंति किं नेरइएहिंतो उववजंति तिरिक्खजोणिएहितो उववजंति पुच्छा ? गोयमा ! असंखेज्जवासाउय अकम्मभूमिग अंतरदविगवजेहिंतो उववजंति । सिणं भंते! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता ? गोयमा । जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं । स्त्री, पुरुष और नपुंसक 'पोतया तिविहा प०' पोतज भी तीन प्रकार के होते हैं - 'तं जहा' जैसे 'इत्थी पुरिला णपुंगा' स्त्री, पुरुष और नपुंसक 'तत्थ णं जेते संमुच्छिमा ते सव्वे पुंसगा' तथा इन में जो संमूच्छिम खेचर जीव हैं - वे सब नियम से नपुंसक ही होते हैं । ० २५॥ जहा न 'पोतया तिविहा पण्णत्ता' पोत वा पशु आहारना होय छे, 'त' 'इत्थी पुरिसा णपुंसंगा' स्त्री, ५३ष, मने नपुंस, 'तत्थ णं जे वे समुचिमा ते सव्वे णपुरंसगा' तथा यामां ने छे, ते प्रधान नियमथी नपुंसकुन होय छे. ॥ सू. २५ ॥ सभूमि मेयर Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० जीवाभिगमस्ये तेसि णं भंते ! जीवाणं कइ ससुग्घाया पन्नता ? गोयमा ! पंच समुग्घाया पन्नता तं जहा-वेषणालमुग्घाए जाव तेया समुरघाए । ते णं भले ! जीवा सारणंतियममुग्घारण किं समोहया सरति अलमोहया सरति ? गोयमा ! समोहया वि मरति, असमोहया विमरति ॥ तेणं मंते ! जीवा अतरं उवाहिता कहिं गच्छति कहिं उदबज्जति ? किं नेइएसु उववजति तिरिक्खजोणिएसु उकजांति ? पुच्छा, गोयमा! एवं उवचट्टणा भाणियबा जहा वरतीय तहेव । तेलि णं भंते ! जीवाणं कई जाइ कुलकोडीजोणिपमुहलयतहस्ता पन्नत्ता ? गोयमा ! बारस जाइ कुलकोडिजोणिपमुहसयसहस्सा पन्नत्ता॥ भुयपरिसप्प थलयरपंचिंदियतिरिवखजोणियाणं भते! कइ. विहे जोणिसंगहे पन्नन्त ? सोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पन्नत्ते तं जहा-अंडया पोयया संमुच्छिमा एवं जहा-खहयराणं तहेव णाण जहन्नेणं अंतोसुहृत्तं उक्कोलणं पुरकोडी उध्वट्टित्ता दोच्चं पुढविं गच्छंति, णव जाइ कुलकोडी जोणीपमुहलयसहस्सा भवंतीति मक्खायं, सेसं तहेव ॥ उरपरिसप्प थलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! पुच्छा जहेव भुजपरिसप्पाणं तहेव, गवरं ठिई जहन्लेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुवकोडी, उध्वट्टित्ता जाव पंचमि पुढदि गच्छति दसजाइ कुलकोडी०॥ घउप्पय थलयरपंचिंदियतिरिकखजोगियाणं पुच्छा गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते तं जहा-जराउया, संमुच्छिमाय । से किं तं जराउया ? जराउया तिविहा पन्नत्ता, तं जहा-इत्थीपुरिसा णपुंसगा, तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा। तेसिं Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीकाप्र.३उ.३ १.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् ४०१ णं भंते ! जीवाणं कइ लेस्साओ पन्नताओ, से जहा-पक्खीणं णाणत्तं ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोलेणं तिन्नि पलिओनमाइं, उव्वाहित्ता चउत्थि पुढविं गच्छति दलजाइ कुलकोडी। जलयर पंचिंदियतिरिक्खोणियाणं पुच्छा जहा-भुजपरिलप्पा णं, णवरं उव्वट्टित्ता जाव अहे सत्तलि पुढदि, अद्धतेर जाइ कुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पन्नता । चाउरिदियाणं भंते ! कइ जाइ कुलकोडी जोणिमुहसबसहरूला पन्नता ? गोथमा ! नवजाइ कुलकोडी जाणीपमुहसयसहस्सा भवतीति लमकलाया। तेइंदियाणं पुच्छा गोयमा ! अटुजाइ कुल० जाच लमस्खाया। बेइंदियाणं भंते ! कह जाइ कुलकोडीपमुहलपसहरला पलता? गोयमा ! लत्तजाइ कुलकोडी जोणिपसुहस्सयसहस्सा भवतीति समक्खाया ॥सू०२६॥ . छाया-एतेषां खल्लु भदन्त ! जीवानां कतिलेश्या यज्ञप्ताः ? गौतम । पडू लेश्या: प्रज्ञप्ता, तद्यया-कृष्णलेश्या यारच्छुकलेश्याः। ते खलु मदन्त ! जीवाः किं सम्यग्दृष्टयो मिथ्या दृष्टया सम्यग् मियादृष्टयः ? गौतम ! सम्यग्दृष्टयोऽपि मिथ्यादृष्टयोऽपि सम्यगमिथ्यादृष्टयोऽपि । ते खल्लु भदन्त ! जीराः किं ज्ञानिनोशानिन: ? ज्ञानिनोऽपि अज्ञानिनोऽपि त्रीणि ज्ञानानि-त्रीणि अज्ञानानि भजनया। ते खलु भदन्त ! जीवाः किं मनोयोगिनो बचोचोगिनः शाययोगिनो वा ? गौतम ! त्रिविधा अपि । ते खलु भदन्त ! जीवाः किं साकारोएयुक्ताः, अनाकारोपयुक्ताः ? गौतम ! साकारोपयुक्ता अपि अनाकारोपयुक्ताः, अपि । ते खलु भदन्त ! जीवा कुत उत्पधन्ते कि नैरयिकेभ्य उत्पद्यन्ते नियंग्योनिकेभ्य उत्पद्यन्ते ? पृच्छा गौतम ! असंख्येयवर्षायुष्काकर्मभूमिकान्तरद्वीपकवर्जेभ्य उत्पद्यन्ते । तेषां खछ भदन्त ! जीवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण पल्योपमस्यासंख्येयभागम् । तेषां खल भदन्त ! जीवानां कइ समुद्घाताः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! पञ्च समुद्घाताः प्रज्ञाप्ताः, तद्यथा-वेदनासमुद्घातो यावत्तेजः समुद्घातः । ते खलु भदन्त ! जीवाः सारणान्तिकसमुद्घातेन किं समवहता नियन्ते असमवहता म्रियन्ते ? गौतम ! समहता अपि म्रियन्ते असम जी० ५१ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ जीवामिगमसूत्रे atar afford | ते खलु भदन्त । जीवाः अनन्तरमुहृत्य कुत्र गच्छन्ति, कुत्रोत्पद्यन्ते किं नैरयिकेषु उत्पद्यन्ते तिर्यग्योनि के प्रत्पद्यन्ते ! पृच्छा, गौतम ! व मुद्वर्त्तना भणितव्या यथा व्युकान्तौ तथैव । तेषां खलु भदन्त ! जीवानां कविजातिकुलकोटियोनिममुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम । द्वादश जाति कुल कोटि योनि प्रमुखशतसहस्राणि मज्ञप्तानि । भुजपरिसर्पस्थटचर पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां भदन्त ! कविविधौ योनिसंग्रहः भज्ञष्ठः ? गौतम । त्रिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः तथथा - अण्डजाः पोरजाः संमृच्छिमार, एवं यथा खेचराणां तथे, नानात्वं च येनान्मुहूर्तमुत्कर्षेण पूर्वकोटिः, उनृत्य द्वितीयां पृथिवीं गच्छन्ति, नव जाति कुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम् शेषं तथैव । उरः परिसर्प स्थलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां मदन्त ! पृच्छा, यथैव सर्पाणां तथैव वरं स्थितिजघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण पूर्वकोटिः ॥ उदहृत्य यावत् पञ्च पृथिवीं गच्छन्ति, 'दस जाइकुलकोडि ०' चतुष्पद स्थलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां पृच्छा गौतम । द्विविधः प्रज्ञप्तः तचा जरायुजाः संमूच्छिमाश्च । अथ के वे जरायुजाः प्रज्ञप्ताः ? जरायुजाः विविधाः पक्षप्ताः तद्यथा - स्त्रियः पुरुषाः नपुंसकाः, तत्र खलु ये ते संमूच्छिमाः ते सर्वे नपुंसकाः । तेषां खलु भदन्त । जीवानां कति लेश्याः मज्ञप्ताः ? शेषं यथा पक्षिणाम् नानात्वं स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि उदवृत्य चतुर्थी पृथिवीं गच्छन्ति दशजातिकुलकोटि ० | जलचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकानां पृच्छा यथा भुजपरिसर्पाणाम् नवरसुदवृत्य यावदधः सप्तमीं पृथिवीम् अत्रयोदशजातिकुलकोटियोनिममुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि । चतुरिन्द्रियाणां भदन्त ! कति जातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि ? गौतम | नवजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि भवन्तीति समाख्यातानि । त्रीन्द्रियाणां पृच्छा, गौतम ? अष्टजातिकुल० यावत् समाख्यातानि । द्वीन्द्रियाणां भदन्त | कतिज्ञातिकुलकोटि शतसहस्राणि मज्ञप्तानि ? गौतम ! सप्तजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि भवन्तीति समाख्यातानि ॥० २५॥ टीका- 'एएसि णं भंते' एतेषां पक्षिणां खल भदन्त ! 'जिवाणं कलेस्साओ पन्नत्ताओ' जीवानां कठिलेश्या:- कियत्संख्यका लेश्याः प्रज्ञप्लाः- कथिता इति पक्षियों की लेइयादि का कथन 'एएसिणं भंते ! जीवाणं कइलेस्सा ओ' - इत्यादि ॥ ० २५ टीकार्थ- गौतम ने यहाँ ऐसा पूछा है - 'एएसि णं भंते ! जीवाणं हवे पक्षियानी येश्याना सब'धमां प्रथन ४२वामां आवे छे. 'एएत्रिण' भवे ! जीवाणं कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ' हत्याहि ટીકાથ –શ્રીગૌતમસ્વામીએ આ સબધમાં પ્રભુને એવુ' પૂછ્યું છે કે Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सु.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् ગુરૂ , प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' हे गौतम! 'छल्लेस्साओ पद्मत्ताओ' पड्लेश्याः प्रज्ञप्ताः - कथिताः 'तं जहा' तद्यथा - कण्हलेस्सा जाव सुकलेस्सा' कृष्णलेश्यायावच्छुक्लेश्याः अत्र यावत्पदेन नीलकापोततेजस पद्मलेश्यानां संग्रहो भवति, पक्षिणां द्रव्यतो भावतो वा सर्वा अपि लेश्या भवन्ति, तथाविधपरिणामसंभवादिति । 'ते णं भंते ! जीवा' ते खलु भदन्त ! पक्षिणो जीवाः 'किं सम्मदिट्टि मिच्छादिट्टि सम्मामिच्छादिद्धि' किं सम्यग्दृष्टयो भवन्ति, अथवा मिथ्यादृष्टयो भवन्ति यद्वा सम्यग्मिथ्यादृष्टयः (मिश्रदृष्टया ) भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा ' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम! 'सम्मदिट्ठी वि' पक्षिणः सम्यग्दृष्टयोऽपि भवन्ति 'मिच्छादिट्ठीवि' मिथ्यादृष्टयोऽपि भवन्ति, 'सम्मामिच्छादिट्ठीवि' सम्यग्मिथ्यादृष्टयः 'मिश्रदृष्टोऽपि भवन्तीति' 'ते णं भंते । जीवा' ते पक्षिणः खलु भदन्त ! कइलेस्साओ पन्नन्ताओ' हे भदन्त ! इन पक्षियों के कितनी लेइयाएं कही गई ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है भाव की अपेक्षा 'गोयमा ! छ लेस्साओ पन्नताओ' हे गौतम ! इन पक्षियों के छह लेश्याएं कही गई हैं । 'तं जहा' जैसे - 'कण्ह लेता जाव सुकलेस्सा' कृष्ण लेश्या, यावत् नीलेश्या, कापसा, तेजस बेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या इस प्रकार से पक्षियों के द्रव्य की अपेक्षा और भाव की अपेक्षा सभी श्याएं होती हैं। क्योंकि इनके इस प्रकार के परिणामों की संभवता है । 'ते णं भंते! जीवा किं सम्मदिट्टी, मिच्छादिट्ठी' हे भदन्त ! वे जीव क्या सम्यग्दृष्टि होते है ? या मिथ्यादृष्टि होते हैं ? या 'सम्मानिच्छादिट्ठी' मिश्र दृष्टि होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा ! सम्मादिडी वि' वे सम्यग्दृष्टि भी होते हैं 'मिच्छादिट्टी वि' मिथ्या'एएसि णं भवे ! जीवाणं कइ लेस्साओ पण्णत्ताओ' हे भगवन् मा यक्षिमने કેટલી લેશ્યાએ કહેવામાં આવી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ગૌતમસ્વામીને 'गोयमा ! छ लेस्खाओ पण्णत्ताओं' हे गौतम! या पक्षिखाने छोश्याओ। हेवामां भावी है. 'तं जहा' भ४ 'कण्ड्लेस्सा जाव सुक्कलेस्सा' सॄष्णुसेश्या' नीससेश्या, अपोतदेश्या, तेभ्सलेश्या पद्मवेश्या, भने शुम्सलेश्या. આ પ્રમાણે પક્ષિઓને દ્રવ્યની અપેક્ષાથી અને ભાવની અપેક્ષાથી પણુ લેસ્યાએ होय. 'ते णं भंते ! जीवा कि सम्मदिट्ट' मिच्छादिट्ठी' हे भगवन् ते वा શું સમ્યક્ દૃષ્ટિ વાળા હેય છે ? કે મિથ્યા દૃષ્ટિવાળા હોય છે ? અથવા 'सम्मामिच्छादिट्ठी' मिश्रहृष्टिवाणा होय हे ? या प्रश्नमा उत्तरमां अनुश्री से छे } 'गोया ! सम्मद्धिट्टी वि' तेयो सभ्यगूहष्टिवाणा भालु होय हे 'मिच्छा दि Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ जीवामिगमन जीवाः किं णाणी अण्णाणी' किं ज्ञानिनो भवन्ति, अथवा अज्ञानिनो भवन्तीति ज्ञानद्वारे प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'नाणी वि अन्नाणी वि' ते पक्षिणो जीवा ज्ञानिनोऽपि भवन्ति तथा-अज्ञानिनोऽपि भवन्ति, तिणि नाणाई तिणि अण्णाणाई भयणाए' तत्र ये ज्ञानिन स्तेषां त्रीणि ज्ञानानि भवन्ति, तद्यथा-मतिबानं श्रुतज्ञानमवधिज्ञानञ्च, तत्र ये अज्ञानिनो भवन्ति तेषां त्रीणि अज्ञानानि भवन्ति मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानं विभज्ञानश्चभजनया-विकल्पेनेति। तथाहि-ये शानिनस्ते द्विशानिन स्त्रिज्ञानिनो वा। येचाज्ञानिनस्तेऽपि द्वन्यज्ञानिन स्यज्ञानिनोवेति भजना। योगद्वारे प्रश्नमाह-'तेणं भंते' इत्यादि, 'तेणं भंते जीया' ते पक्षिण: खल भदन्त ! जीवाः किं मणजोगी, वजोगी कायजोगी' किं मनोयोगिनो भवन्ति वचोयोगिनो दृष्टि भी होते है और सम्मामि मिश्रदृष्टि भी होते हैं। तेणं मंते ! जीवा किंणाणी अण्णाणी' हे सदन्त ! वे जीव क्या ज्ञानी होते हैं ? या अज्ञानी होते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम! वे जीव 'नाणी वि अन्नाणी वि' ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। 'तिनि णाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयाणाए' हम जो ज्ञानी होते है उनके तीन ज्ञान होते हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञाल और अवधिज्ञान और जो अज्ञानी होते हैं उनके तीन अज्ञान होते हैं मतिअज्ञान, श्रुतमज्ञान और विभंगज्ञान के ज्ञान और अज्ञान इनमें भजना से होते कहे गये हैं। अर्थात्-जो ज्ञानी होते है उनके दो ज्ञान अथवा तीन ज्ञान होते है। जो अज्ञानी होते हैं उनके दो अज्ञान अथवा तीन अज्ञान होते हैं यह अजना है। 'लेणं भंते ! जीवा मिणजोगी बहजोगी, कायजोगी' दीवि' मिथ्याष्टिवा पy डाय छे भने 'सम्मामिच्छादिद्वी वि' भित्र दृष्टिवाणा पर डाय छे. 'वे णं भते जीवा कि' णाणी अण्णाणी' उलगवन् તે જ શું જ્ઞાની હોય છે? કે અજ્ઞાની હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभु ४९ छ 'गोयमा' गीतम! तेवा । 'नाणी वि अण्णाणी वि' शानी ५ डाय छे, मन अज्ञानी ५ डाय छे. 'तिन्नि नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए' मामा रन्मे। ज्ञानी हाय छे, तेयान भतिज्ञान, श्रुतज्ञान અને અવધિજ્ઞાન એ ત્રણ જ્ઞાન હોય છે. અને જેઓ અજ્ઞાની હોય છે, તેઓને મતિઅજ્ઞાન, શ્રતઅજ્ઞાન અને વિર્ભાગજ્ઞાન એ ત્રણ અજ્ઞાન હોય છે આ રીતે જ્ઞાન અને અજ્ઞાન તેઓને ભજનાથી હોય છે તેમ સમજવું. અર્થાત્ જેઓ જ્ઞાની હોય છે, તેઓને બે જ્ઞાન અથવા ત્રણ જ્ઞાન હોય છે, અને જેઓ અજ્ઞાની હોય છે, તેઓને બે અજ્ઞાન અથવા ત્રણ અજ્ઞાન હોય છે. આ રીતે सपना छे. 'ते ण भते ! जीवा कि' मणजोगी वइजोगी कायजोगी' भगवन Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उं. ३ . २६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् ઉં भवन्ति काययोगिनो वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'तिविहा वि' त्रिविधा अपि भवन्ति, ते पक्षिणो मनोयोगिनोऽपि भवन्ति वचोयोगिनोऽपि भवन्ति तथा काययोगिनोऽपि भवन्ती युक्त रम् | उपयोगद्वारे प्रश्नमाह - 'ते गं' इत्यादि, 'ते णं भंते ! जीवा' ते खल भदव ! पक्षिणो जीवाः 'किं सागारोत्रउत्ता अनागारोवउत्ता' कि साकारोपयुक्ता अनाकारोपयुक्ता वा भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'सागारो उत्तावि अनागारोवता वि' साकारोपयुक्ता अपि भवन्ति ते पक्षिणो जीवास्तथा अनाकारोपयुक्ता अपि भवन्तीति । उत्पादद्वारे आह- 'ते ते ! जीवा' ते खलु भदन्त । पक्षिमो जीवाः 'कओ उबवज्जैति' कुतः - कस्मारस्थानादागत्य अत्र-पक्षियोनी समुद्यन्ते, 'किं नेरइएहिंतो उबवज्जंति' किं नैरहे भदन्त ! वे जीव पक्षी क्या मनयोगी होते हैं ? या वचन योगी होते हैं ? या काययोगी होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयमा ! तिविहा fa' हे गौतम! ये तीनों योगवाले होते हैं । मनोयोग वाले भी होते हैं वचन योग वाले भी होते हैं और काययोग वाले भी होते हैं' 'ते णं भंते ! जीवा किं सागारोउसा अनागारोवउत्ता' हे भदन्त ! वे जीव क्या साकारोपयोग वाले होते हैं या अनाकारोपयोग वाले होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं' 'जोवना ! सागारोयउत्तावि अनागारोवत्ता वि' हे गौतम ! वे जीव साकारोपयोग वाले भी होते हैं और अनाकारोपयोग वाले भी होते हैं । 'तेणं भंते ! जीवा कओ उववज्र्ज्जति' ये भदन्त ! किल योनि में से आकर के यहां जीव पक्षिरूप से उत्पन्न होते हैं ? 'किं नेररहितो व ० ' क्या नैरयिकों में से તે જીવા-પક્ષિયે શુ મનેાચેગવાળા હાય છે ? કે ચનચેગવાળા હાય છે? અથવા કાયચેાગવાળા હાય છે ? આા પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌત્તમસ્વામીને गोमा ! तिविहा वि' हे गौतम! तेथे। वो प्रहारना योजवाला હાય છે. અર્થાત્ મનાયેાગવાળા પણ ડાય છે, વચનચેાગવાળા પણુ હાય છે. અને કાયયેાગવાળા પણુ હાય છે ફરીથી. ગૌતમસ્વામી પૂછેછે કે તે બૅ भते जीवा किं सागरोत्ता अनागारोवउत्ता' से लगवन् । ते भव। शु સાકાર પચેગ વાળા ડાય છે ? કે નાકારાયેગવાળા હોય છે, તે ન भते जीवा कओ वज्जंति' हे भगवन् ! ते व योनिभांधी भावाने अडियां पक्षि पप्याथी उत्पन्न याय है ? 'कि' नेरइएहि ं तो उववजति' शु નૈરિયકામાંથી આવીને તે જીવે પક્ષિ પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે ? અથવા Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्टे यिकेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते 'तिरिक्खजोणिएहितो उवदज्जति' विय-योनिकेन्य आगत्योत्पयन् ? 'पुच्छा' पृच्छा-प्रश्ना, कि मनुष्येभ्य आगत्योत्पद्यन्ते अथवा -देवगतिभ्य आगत्योत्पद्यन्ते इति प्रश्नः भगरानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'असंखेजवासाउयअम्मभूमिग अंतरदिवगवज्जेहिंतो उववज्जंति' असंख्येयवर्पायुष्काऽकर्मभूमिकान्तर द्वीपकवर्जेभ्यश्चतुर्गतिभ्य उत्पद्यन्ते, अयं भाव:खेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकाः नैरयिकेभ्य आगत्य उत्पद्यन्ते, तियग्योनिकेभ्यः आगत्योत्पद्यन्ते मनुष्येभ्य आगत्योत्पद्यन्ते देवेभ्य आगत्योत्पद्यन्ते किन्तु असंख्येयवर्षायुष्काकर्मभूमिकान्तरद्वीपकमनुष्यतिर्यग्भ्य आगत्य पक्षिषु न समुत्पद्यन्ते तेषां केवलदेवगतिमापकत्वात इति ॥ स्थितिद्वारे प्रश्नमाह-'तेसिं णं भंते ! इत्यादि, 'तेसि णं भते ! जीवाण' तपां खलु भदन्त ! जीवानां पक्षिणाम् 'केवऽयं कालं ठिई आकर के जोव पक्षिरूप से उत्पन्न होते हैं ? 'तिरिक्खजोणिएहितो उवा तिर्यग्योनि में से आशर के जीव पक्षिरूप से उत्पन्न होते हैं? या मनुष्यों में से आकर के जीव पक्षिरूप से उत्पन्न होते है या देवों में से आकर के जीव पक्षिरूप से उत्पन्न होते है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रश गौतम ! से कहते हैं-'गोधमा ! असंखेज्जवासाउथम्नभूमिगअंतर दीवारज्जेहिंतोउच०' हे गौतम ! असंख्यात वर्ष की आयु वाले अकर्मभूमि जीवों को और अन्तर दीपज मतुल्य तिर्यश्चों को छोडकर वाकी नरथिक तिर्थश्च मनुष्य और देवों में से आये जीव पक्षीरूप से उत्पन्न होते है केवल असंख्यात वर्ष की आयु वाले अकर्मभूमिज जीवों से और अंतरद्वीपज मनुष्य निर्यश्चों से आकर पक्षियों में उत्पन्न नहीं होते है क्योंकि वे एक हेच गति में ही जाने वाले होते है . 'तेसिणं भंते ! जीवाणं केवयं झालं ठिई पनत्ता' हे भदन्त ! उन तिरिक्ख जोणिएहि तो उववज्जति' तिय योनिमाथी मावी पक्षि पाया ઉત્પન્ન થાય છે કે દેશમાંથી આવીને જીવ પક્ષિ પણથી ઉત્પન્ન થાય છે? सा प्रश्न उत्तरमा प्रभु गौतमभीर ४९ छ 'गोयमा । अमखेज यासाउय अकम्मभूमिग अतरदीवग वज्जेहि तो उववज्जति' 3 गौतम ! અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા અકર્મભૂમિના છને અને અંતર દ્વીપ જ મનુષ્ય અને તિર્યંચોને છોડીને બાકીના રિયિક તિર્યંચ અને દેવામાંથી આવેલા જો પક્ષી પણાથી ઉત્પન્ન થ ય છે કેવલ અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા અકર્મભૂમિના જીવોમાંથી અને અંતરદ્વીપજ મનુષ્ય અને તિય ચેમાંથી આવેલા છે પક્ષિઓમાં ઉત્પન્ન થતા નથી, કેમકે તેઓ દેવ ગતિમાંજ જાય છે. 'तेसि णं भवे ! जीवाणं केवइय' काल' ठिई पण्णवा' हे समपन्! Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ . २६ पक्षीणां लैश्यादिनिरूपणम् पद्मत्ता' कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता - कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'जहन्त्रेणं अंडोमुहुत्तं' जघन्येनान्तमुहूर्तमात्रं स्थितिर्भवति पक्षिणाम् 'उक्को सेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं' उत्कर्षेण एल्योपमस्या संख्येवभागम् । समुद्घातद्वारे आह- 'तेसिणं भने ! जीणं तेषां खलु मदन्त ! जीवानाम् 'कइ समुग्धाया पन्नत्ता' कति समुद्घाताः झण्डाः - कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह - 'पंच समुग्धाया पन्नत्ता' पञ्च समुद्यताः ज्ञप्ताः, 'तं जहा' तद्यथा'वेपणासमुग्धा जाच तेषासमुग्धार' वेदना समुद्घातो यावतेज समुद्घातः अत्र यावत्पदेन - कपायमारणान्तिक वैक्रियसमुद्घातानां ग्रहणं भवति तथा च-वेदनाकपायमारणान्तिकवै क्रियतैजसाख्याः पञ्च समुद्धःता भवन्तीति । ' से णं भंते ! जीवा' ते खलु भदन्त ! जीवाः पक्षिणः 'सारणांतिक समुग्धाएणं किं समोहया मरंति अममोहया मरंति' धारणान्तिकसमुद्घातेन समवहताः सन्तः म्रियन्ते पक्षिजीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं' 'गोयला ! जहनेणं अंतोमुत्तं कोसेणं पलिओदमस्त असंखे ज्वह भागं' हे गौतम ! उन पक्षिजीवों की स्थिति कम से कम एक अन्तमुहूर्त्त की और उत्कृष्ट से पल्योपस के असंख्यातवें भाग की कही गई है 'सिणं भंते! जीवाणं कह समुग्धाया पन्नत्ता' हे भदन्त ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे गये है ? उत्तर में प्रभु कहते है- 'गोधमा ! पंच समुग्धाया पन्नता' हे गौतम! इन जीवों के पांच समुद्घात कहे गये हैं । तं जहा जैसे- 'वेधणासमुग्धाए जाय लेथा समुग्धाए' वेदना समुद्घात यावत् तैजस समुहघात यहां यावत्पद से कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और वैकिय समुद्घात इन तीन समुद्घातों का ग्रहण हुआ है 'ते णं भंते ! जीवा मारणंतिय समुग्धा ४०७ પક્ષિએની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री छे ! 'गोयमा ! अहन्नेण' अतोमुहुत्त उक्कोसेणं पछिओवमरस असंखेज्जइ भाग' हे गौतम! ते पक्षि लोनी स्थिति खोछाभां भेोछी खे અંતર્મુહૂત ની અને ઉત્કૃષ્ટથી પક્ષેપમના અસખ્યાતમાં ભાગની છે. તૈત્તિ णं भते ! जीवाणं कइ समुग्धाया पन्नत्ता' हे भगवन् ! ते भवनिटसा समुद्द्धात उझा ? उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीने हे छे ! 'गोयमा ! पंचसमुग्धाया' पण्णत्ता' હે ગૌતમ ! આ જીવાને પાંચ સમુધ્ધાત वामां आव्या हे, त जहा' ते या अभाये छे. 'वेयणा समुग्धाए जाव तेयासमुग्धोएँ' वेदना समुइघात यावत तैक्स समुधात, अडियां यावत्यद्दथी પાય સમુદ્ધાત, મારજીાન્તિક, સમુદ્દાત અને વૈક્રિય સમુદ્દાત આ ત્રણ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ जीवामिगमसे असमबहता वा नियन्ते इति प्रश्नः, भगानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'समोहयावि मरंति असमोहया वि मरंति' ते पक्षिणो सारणान्तिकसमुद्घातेन समबहता अपि म्रियन्ते असमवहता अपि नियन्ते इति । उद्वर्तनाद्वारे आह-'ते ण मंते जीवा' ते खलु भदन्त ! पक्षिणो जीवाः 'अणंतरं उन्नहित्ता' अनन्तरं पक्षिभवपरित्यागाद पश्चादउद्धृत्य 'कहिं गच्छंति कहिं उज्जति' कुत्र गच्छन्ति कुत्रोत्पद्यन्ते कि नेरइएमु उववज्जति तिरिक्खजोणिएस्. पुच्छा' किं नैरयिकेवृत्पद्यन्ते तिर्यग्योनिकेषु वा समुत्पद्यन्ते अनुप्यनती वा समुत्पद्यन्ते देवेषु वा समुत्पद्यन्ते इति प्रश्न:, भगनानाह- 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एनं उच्चटणा माणियया जहा वक्कंनीए तद्देव' एचसुद्वर्तना भणितव्या यथा व्युत्क्र न्वी प्रज्ञापनायाः एण किं समोहया पति, अलमोठ्या प्रालि' हे अदन्त ! वे जीव क्या मारणन्तिक समुदघात कार के भरले है ? या चिना मारणान्तिक समुदघात के मरते है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोचमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया चिमति' हे गीतम? वे जीव मारणान्तिक समुद्घात करके भी मरते हैं और विना मारणान्तिक समुदघात के भी मरते हैं 'ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उब्वाट्टित्ता कहिँ गच्छंति कहिं उथवज्जति' हे भदन्त ! वे जीव भरकर सीधे कहा जाते हैं. १ कहां उत्पन्न होते है ? ' किनेरहएस्तुउ०, तिरिक्ख जोणिएसुउ०' क्या नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, या तिर्यग्योनिकों में उत्पन्न होते हैं? अथवा 'मणुस्सेसु' मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! एवं उन्धट्टणा आणियन्या जहा वक्तीए तहेव' हे गौतम! जिस प्रकार से प्रज्ञापना के छठे व्युत्क्रान्ति पद में सभुधात घडय ४२१५ छे. 'ते ण भते जीवा मारणंतियसमुग्धारण कि समाहया मरंति, असमोहया मरति समवन्ते । शुभारति સમૃઘાત કરીને મરે છે? અથવા મારણાતિક સમુદઘાત કર્યા વિના મારે छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री छ, 'गोयमा! समोठ्या वि मर ति, असमाया वि मरंति' गौतम! ते । भारयान्ति समुद्धात કરીને પણ મરે છે, અને મારણાન્તિક સમુદુઘાત કર્યા વિના પણ મરે છે, छ. ' णं भंते ! जीवा अणतर ध्वट्रिना कहिं गच्छति कई उववज्जति' હે ભગવન્ ! તે છ મરીને સીધા કયા જાય છે ? અને કયાં ઉત્પન્ન થાય छ १ 'कि नेरइएसु उववज्जति, तिरिक्खजाणिएसु उववज्जत' शुनयिमा उत्पन्न थाय छे , तिययानि मा स्पन्न थाय छ ? अथवा 'मणुरसेसु०' મનુષ્યમાં ઉત્પન્ન થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તર પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छ ३ 'गोयमा । एव उव्वट्टणी भाणियबा जहा वक्कतीए तहेव' गौतम ! Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम्- - ४४९ षष्ठे व्युत्क्रान्तिकपदे कथिता तथैव तेनैव प्रकारेण इहापि वक्तव्या, अयं भावः - पक्षिभ्य उदत्ता जीवाः चतसृष्वपि गतिषु समुत्पद्यन्ते, तथाहि यदि नैरपिके प्रत्ययन्ते तदा सप्तस्वपि पृथिवीपृत्पद्यन्ते । यदि तिर्यग्योनि के प्रत्पद्यन्ते तदा एकेन्द्रि यतिर्यग्योनिकादारभ्य एवेन्द्रियतिर्यग्योनिकेषु असंख्येय यदि मनुष्येत्पद्यन्ते तदा सर्वेषु मनुष्येपूत्पद्यन्थे, रात्र अकर्मभूमिकान्वद्वपक गर्भग्युत्क्रान्तिका संख्येवर्षयुकेपि समुत्पद्यते इति । उत्पादमकरणादोर्तनायामयं विशेष:-पक्षिणामुत्पादः असंख्येयवर्षायुष्येभ्यो मनुष्यतिर्यग्योन भवति - उद्वर्तनात असंख्येयमयुकेषु मनुष्यविक्षु अपि समति, पक्षिणोहि पक्षिलवादुत्य असंख्येयवर्षायुष्केषु मनुष्यहि समुत्पन् न त आगत्य पक्षिषु समुत्पद्यन्ते इति भावः । 'तेसि णं भंते ।' रोष खलु भदन्छ ! 'जीवाणं' जीवानां पक्षिणाम् 'कह जाइकुलकोडी जोणीरहसयसम्म पनता' कविजालि उद्वर्त्तना कही गई है वैली हो यहां पर भी कर लेनी चाहिये तथा पक्षियों में से मरा हुआ जीम चारों गलियों में भी उसे ममता है - यदि वह नैरयिकों में उत्पन्न होता है तो तीसरी पृथिवी तक में उत्पन्न हो सकता है, यदि वह तिर्यग्गति में उत्पन्न होता है तो वह एकेन्द्रियतिर्यग्योनिकों से लेकर पवेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों में उनमें भी असं ख्येr वर्षायुष्य वाले तिर्यो में भी उत्पन्न हो सकता है यदि वह मनुष्यों में उत्पन्न होता है अर्थात् असंख्यात वर्ष की आयुषले भोग भूमि के मनुष्यों में और अन्तर द्वीप के गर्भज मनुष्यों में भी उत्पन्न होता है 'तेसिं णं भंते !' हे भदन्त ! उन पक्षिरूप 'जीवाणं' जीवों की 'कति जातिकुलकोडी जोणीपमुहसपलहस्सा पत्ता' कितने लाख जाति પ્રમાણે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના છઠ્ઠા વ્યુત્ક્રાંતિ પદમા ઉદ્દતના કહેવામા આવી છે, એ જ પ્રમાણે અહિયાં પણ ઉદ્દના સમજી લેવી. તે આ પ્રમાણેની છે. પક્ષીચેામાંથી મરેલા જીવા ચારે ગતિમાં ઉત્પન્ન થઇ શકે છે. જો તેઓ નૈયિકામાં ઉત્પન્ન થાય તેા ત્રીજી પૃથ્વી સુધી માં ઉત્પન્ન થઈ શકે છે. અને જો તેઓ તિયંગતિમાં ઉત્પન્ન થાય તે તે એક ઈદ્રિયવાળા તિય ચૈાનિકેથી લઈને પચેન્દ્રિય તિય ગ્યેાનિકે માં અને તેઓ માં પણ અસ ખ્યાત વર્ષીની આયુષ્યવાળા તિય ચામાં પણ ઉત્પન્ન થઇ શકે છે, જે તે મનુષ્યમાં ઉત્પન્ન થાયતા તે બધાજ મનુષ્ચામાં ઉત્પન્ન થાય છે. અર્થાત્ અસખ્યાત વર્ષોંની આયુષ્યવાળા ભે!ગભૂમિના મનુષ્યેામાં અને અંતર દ્વીપના ગભજ भनुष्योभां यथु उत्पन्न थाय छे. 'तेसि णं भवे' हे भगवन्ते पक्षि ३५ 'जीवाणं' भवानी 'कति जाति कुलाकोडी जोणी पमुहसयसहरसा पण्णत्ता' जी० ५२ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० जीवामिगमदो कुलकोटियोनि प्रमुख शतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, पति किं प्रमाणकानि जाति कुळकोटिनां योनिपमुखालि-योनिश्वाहानि शतसहस्हाणि योनिममुग्वशतसहस्राणि जाति कुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्वाणि भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतष ! 'वारस जाइकुल कोडी जोणी पशुहसयसहस्सा पन्नत्ता' द्वादश जाति कुलकोटि योनिप्रसुख शासहस्राणि मज्ञप्तानि, तत्र जासि कुल कोटि योनिनामयमर्थ:-जातिरिवि तिर्यजाति तस्याः कुलानि कृमिकीटवृश्चिकादीनि इमानि च कुलानि योनिप्रमुखाणि-तथाहि-एफस्यामेव योनौ अकानि कुलानि भवन्ति तथाहि-छगणयोनी कृषिकुलं कीटकुलं वृश्चिकुल मित्यादि, अथवा-जातिकुलमित्येकपदं-जातिकुलयोन्यो परस्परं विशेषः, एकस्यामेव योनी कुलकोडी योनि काही गई हैं ? इसके उत्तर में पशुश्री करते हैं-'गोयमा! पारस जाइ कुलकोडी जोणी पमुहलथसहला पन्नता 'हे गौतम! उनकी बारह लाख योनिममुख कुलकोडी कही गई हैं। जाति कुल कोटि योनियों का अर्थ इस प्रकार है-जाति से यहां तिर्यग् आदि जाति ली गई है और इस जाति के जो कृमि कीट वृश्चिक आदि जीव है वे कुल शब्द से लिये गये हैं। तथा इनकी जो योनि-उत्पत्ति स्थान है वे योनि शब्द से लिये गये हैं। एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं। जैसे-छगण-गोयर-रूप योनि में कृषिकुल, फीट कुल एवं वृश्चिक कुल आदि होते देखने में आते हैं । अथवा-जातिकुल यह जब एक पद लिया जाता है और योनि अलग पद लिया जाना है तब जाति कुल और योनि इसमें भिन्नता आजाती है क्योंकि एक ही योनि में કેટલા લાખ જાતી કુલકેટીની કહી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે हैं 'गोयमा! पारस जाइ कुलकोडी जोणी पमुइसयसहस्सा पन्नता' 8 गौतम! તેઓની બાર લાખ નિપ્રમુખ કુલકેટી કહેવામાં આવી છે. જાતી કુલ કેટીને અર્થ આ પ્રમાણે છે. જાતી શબ્દથી અહિયાં તિર્યગૂ વિગેરે જાતી ગ્રહણ કરવામાં આવી છે. અને જાતીના જે કૃમી, કીડા, વૃશ્ચિક વીંછી. વિગેરે જીવે છે, તેઓ કુલ શબ્દથી ગ્રહણ કરવામાં આવ્યા છે. તથા તેઓની જે નિ ઉત્પત્તિસ્થાન છે, તે યોનિ શબ્દથી ગ્રહણ કરેલ છે એકજ યોનીમાં અનેક કુલ હોય છે. જેમકે છાણ, રૂપ નિમાં કૃમિકુલ કીટકુલ, અને વૃશ્ચિક કુલ વિગેરે ઉત્પન્ન થતા જોવામાં આવે છે અથવા જાતિકુલ એ એક પદ જ્યારે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, અને યોનિ, જૂદા પદ રૂપે ગ્રહણ કરવામાં આવે છે, ત્યારે જાતિ કુલ અને નિ એમાં જૂદાઈ આવી જાય છે. કેમકે એક જ નિમાં અનેક જાતિ કુલેને સંભવ હોય છે. જેમકે એકજ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ रु.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् કર नेक जावकुलसंभवात् तद्यथा - एकस्यामेव उगणयोनौ कृतिजातिकुलं कीटनातिकुलं वृथिकजातिकुलमित्यादि, एवं चैकस्यामेव योनौ अवान्तर जाति भेदभावादनेकानि योनि प्रवाहाणि जातिकुलानि संभवन्ती श्युत्पद्यन्ते खेचरपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिजानां द्वादशजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि । अत्र भवति संग्रहणी गाथा- 'जोणी संगहस्सा दिड्डी नाणे य जोग उनओगे । उपचाय ठिई समुग्धाय चपणं जाई कुल बिहीउ' ॥१॥ योनिसंग्रहलेश्या दृष्टयो ज्ञानं च योगोपयोगौ । उपपादस्थितिसमुद्घाताय चवनं जातिकुल विधिस्तु ॥ इति च्छाया, ॥ अस्या अर्थः- खेचरपञ्चेन्द्रयतिर्यग्योनिकानां प्रथमयोनिसंग्रहद्वारं ततो अनेक जातिकुलों का संभव होता है । जैसे-एक ही छगण (गोबर) रूप योनि में कृमि जाति कुल, कीट जाति कुल, वृश्चिक जाति कुल जादि प्रत्यक्ष देखने में आते हैं । इसी तरह एक ही योनि में अवान्तर जाति भेद के सद्भाव से अनेक योनि प्रवाह वाले जाति कुल होते हैं। इस तरह से खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनि के जीवों की बारह लाख जाति कुल कोटि है | इन द्वारों के विषय में संग्रहणी गाथा ऐसी है'जोणी- संगह लेस्सा-दिडी नाणेय जोग उबओगे, उपवाटिई समुग्धाय चयणं जाई कुल बिहीउ ॥१॥ इस गाथा का भाव ऐसा है- खेचर पञ्चेन्द्रियों का प्रथम योनि संग्रह द्वार, फिर बेहया द्वार, फिर दृष्टि द्वार फिर ज्ञान द्वार फिर योग द्वार, फिर उपयोग द्वार फिर उपपात द्वार फिर स्थिति द्वार, फिर समु છાણુ રૂપ ચાના કૃમિજાતિકુલ, કીટજાતિકુલ, વાશ્ચિક જાતિકુલ, વિગેરે વિગેરે પ્રત્યક્ષ દેખવામાં આવે છે. એજ પ્રમાણે એક જ ચૈાનીમાં અવાન્તર જાતિ ભેદના સદ્ભાવથી અને ચૈાનિના પ્રવાહવાળા જાતિકુલા હૈાય છે. આ રીતે ખેચર ૫ ચેન્દ્રિયતિય ચૈાનિક જીવાની ખાર લાખ જાતિકુલ કેાટ છે. આ દ્વારાના વિષયને સ'ગ્રહ કરવાવાળી ગાથા આ પ્રમાણે છે. 'जोणी सांगलेस्सा दिट्ठी नाणे य जोग उनओगे ' उवाच ठिई समुग्धाय, चयणं जाई कुल विहीर' ॥ १ ॥ આ ગાથાના ભાવ એવા છે કે, ખેચર પચેન્દ્રિયાનુ' પહેલ' ચેાનિસંગ્રહ દ્વાર, તે પછી લેશ્યા દ્વાર, તે પછી દૃષ્ટિદ્વાર, તે પછી જ્ઞાનદ્વાર, તે પછી ચેાગદ્વાર, તે પછી ઉચેાગદ્વાર, તે પછી ઉપપાતદ્વાર તે પછી સ્થિતિદ્વાર, Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्त्र लेश्याद्वारं ततो दृष्टिद्वारं ततो ज्ञानद्वारं ततो योगद्वारं तत उपयोगद्वारं तत. उपपातद्वार; ततः स्थितिद्वारं ततः समुद्घातद्वारं ततःच्यवनद्वारं ततो जातिकुलकोटिद्वारम् । भुयपरिसप्पथलयरपंचिदिय तिरिक्ख जोणियाणं भंते' भुजपरिसर्पस्थळचर पञ्चेन्द्रियनियंग्योनिकानां खल्ल भदन्त ! 'कइविहे जोणि संगहे पन्नत्ते' कति विधः -कतिपकारको योनिसंग्रहः प्रज्ञप्त:-कथितः, इति प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिविहे जोणिसंगहे पन्नत्ते' भुजपरिसणां निविधः-त्रिप्रकारको योनिसंग्रहः प्रज्ञप्त:-कथितः, 'तं जहा' तद्यथा-'अंडया पोयया समुच्छिमा' अण्डनाः पोतजाः संमृच्छिमाश्च । 'एवं जहा खहयराणं तहेव' एवं यथा खेचराणां पक्षिणां लेश्यादिकं कथितं तथैव निरवशेष भुजपरिसर्पस्थळ चराणामपि वक्तव्यम् । केरलं स्थित्युदर्तनामुलकोटिषु नानात्वं वक्तव्यम्, तदेव 'दर्शयति-'जाणत्त' इत्यादि, 'जाणत्तं' नानात्वं पूर्वापेक्षया भेदः, तत्र स्थिति: द्घात बार, फिर च्यवन बार और फिर जाति कुल कोटि द्वार है. अर्थात् खेघर पञ्चेन्द्रिय लियोनिश जीवों का इनहारों के द्वारा वर्णन किया गया है। - 'सुध परिसप्पथलयापंचिंदिर तिरिक्खजोणियाणं भंते ! 'हे भदन्त! सुजपरिलपरपलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों का 'कविहे जोगिसंगहे पन्नते' कितने प्रकारका योनिलंग्रह कहा गया है ? एलके उत्तर प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! तिषिहे जोणिसंगहे पन्नत्ते' इनका योनिसंग्रह तीन प्रकार का कहा गया है। 'तंजहा' जैसे-'अंडया पोयया, संच्छिला' अंडज, पोलज और संछिन 'एवं जहा सहाराण तहेव' जिस प्रकार से खेचर पक्षियों के सम्बन्ध में लेश्यादिक द्वार को कथन તે પછી સમુદ્રઘાત દ્વાર અને તે પછી જાતિકુલ કેટી દ્વાર છે, અર્થાત્ ખેચર પંચેન્દ્રિય ઉતર્યોનિકનું વર્ણન આ ગાથા દ્વારા કરવામાં આવેલ છે. 'सयपरिसप्प थलयरपंचि दिय तिरि खजोणियाणं भवे' मपन् सुभ परिस स्थलय२ पथन्द्रिय तिययानिन 'कइविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते' यानिस असा प्रश्न छ १ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमामी ४ छे , 'गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पण्णचे' 3 गौतम ! तमान योनिसंग्रह ऋष्य प्रारी वामां आवे छे. 'तं जहा' भ 'अंडया, पोयया, समुच्छिमा' भ31, पात, भने सभूरिभ ‘एवं जहा सहयराणं तहेव' रे प्रभार मेयर' पक्षियोना सभा सेश्या विगैरे દ્વારનું કથન કરવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણે તે સઘળા દ્વારનું કથન Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ झू.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् १३ 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुनकोडी' सुजपरिसणां स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहर्त्तम् उत्कर्षण पूर्व कोटिममाणा भवतीति । उद्वर्तना-'उहित्ता दोच्चं पुढविं गच्छति,' उद्धृत्य भुजपरिसर्षात् निर्गत्य द्वितीयां शर्करानमा पृथिवीं गच्छन्ति उपरि यावत् सहस्रारकल्पं गच्छन्तीति । 'णवजाइकुलकाडी जोणीपमुहसयसहस्सा भवंतीति मक्खायं तेषां भुजपरिसाणां नवजातिकुल कोटियोनिममुखशतसहस्राणि भवन्ति, इत्येव माख्यातम् 'सेसे वहेब' शेषं नवमित्यादिना यत्कथितं तदतिरिक्त लेश्यादि द्वारजातं तथैव-पक्षिवदेव भुजपरिमाणामपि ज्ञतव्योमात । ___ 'उरपरिसप्पथलयरपंचिदिय तिरिक्खजोणियाणं सते! पुच्छा' उरः परिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियतियंग्यौनिकानां खल्ल भदन्त ! कतिविधो योनिसंग्रहः यज्ञप्तः ? कहा गया है वैसा ही वह समय यहां पर भी कहलेना चाहिये णाणत्त' केवल स्थिति में च्यवल उद्वर्तना में और कुल कोटि में-इन द्वारों में भिन्नता है सो अब स्लत्रकार इसी बात को प्रकट करते हैं-'जहन्नेणं अंतोमुटुत्तं उक्कोसेणं पुन्यकोडी' सुजपरिवर्प लियंग्योनिकों की स्थिति जघ. तो अन्त हत्ते की है और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है, 'उत्पट्टित्ता दोच्च पुढवि गच्छति' सुजपरिहार्प की पर्याय ले च्युत होकर ये नीचे को सीधे द्वितीय शर्करा पृथिवा तक जाते हैं । और ऊपर में सहस्रार देवलोक तक जाते है ‘णवजातिकुल भोडोजाणीपचुह सयलहस्सा भवंतीतिसमक्खाया' इन भुज परिसपों की कुल कोटिया नौ ९ लाख होती है। 'सेसं तहेव बाकी का और लब बेश्यादि चारों का कथन पुन मुजपरिसों के सम्बन्ध का पक्षियों के कथन के जैसा ही है। 'उपरिसप्पथलयरपंपिदिय तिरिक्खजोणिया में अंते ! पुच्छा' हे भदन्त ! मडिया पर सभ७ . 'णाणत्तं' १ स्थिति:२, २यवना२, तना દ્વાર, અને કુલટિ દ્વારમાં ભિનપણુ આવે છે. જેથી હવે સૂત્રકાર એ જ पात प्रगट ४२ छे. 'जहण्णेणं अतोमुत्त उक्कोलेणं पुव्वकोडी' सुपरिस તિર્યનિકેની સ્થિતિ જઘન્યથીતે અંતર્મુહૂર્તની છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી પૂર્વ छोटीनी छे. 'उव्वट्टित्ता देोच्च पुढवि गच्छति' सु०४५६२सपनी पर्यायथा क्यवान તેઓ સીધા નીચેની બીજી શરામભા પૃથ્વી સુધી જાય છે. અને ઉપરમાં सहसा२ TRat सुधीय छे. 'णव जातिकुल काडी जेणी पमुइसय सहस्सा भवतीतिमक्खाया' मा मु४ परिजनी gaile न ८ ५ डाय छे. 'सेस' तहेव' मीना देश्या बा२ विगेरे सादा सधनु ४थन मा भुर परिसाना सधना ४थन प्रमाणे ४ छे. 'उरपरिसप्पथलयर पचि Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जीवामिगमसूत्र इति प्रश्नः, उत्तरयति-'जहेछ भुपपरिसप्पाणं तहेव' यथैव भुजपरिसणां लेश्यादिकं कथितं तथैव- तेनैव रूपेण उरःपरिसर्पस्थलचरपञ्चेन्द्रियाणामपि ज्ञातव्यम् । तपाहि-त्रिविधो योनिसंग्रहः प्रज्ञाता, तबधा-अण्डजाः, पोतजार, समूछिमाश्च । शेषद्वाराण्यपि भुजपरिसप्रदेव व्याख्येयानि । यत्र विशेष स्तमाह-'णनरं' इत्यादि, 'णवरं ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उस्कोसेण पुन्चकोडी' नवरं-विशेषस्त्वयम्-उर परिसराणां स्थिविर्जघन्येनान्तर्मुहूत्तम् उत्कर्षण पूर्वकोटिममाणा भवतीति । 'उव्याहिता जाय पंचमि पुढवि गच्छति' उस परिसर्पजीवा उरःपरिसभ्य उवृत्य पञ्चमीं धूमप्रभाथिरी गच्छन्ति, इति । 'दसजाइकुलकोडी' उर-परिसर्पजीवानां दशजातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतउरःपरिसर्प स्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यक् योनिक जीवा का योनि संग्रह कितने प्रकार का है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जहेष भुयपरिसप्पा णं तहेव' हे गौलम! जैसा योनि संग्रह भुजपरिक्षों का कहा गया है वैसा ही वह यहां पर भी है अर्थात् यहां वहां की तरह योनि संग्रह तील प्रकार का कहा गया है और वह अंडज, पोतज और संमूच्छिम रूप है। शेष लय द्वार भी भुजपरिलों के जैसे कहना चाहिये जिन छोरों में भिन्नता है उन द्वारों को बाहते हैं-'लवर' इत्यादि, 'नवरं ठिई जहन्नेणं अतोमुत्त उशोलेणं पुन्यकोडी' यहां उर:परिसों की स्थिति जघन्य ले एक अन्तर्मुहर्त की और उत्कृष्ट से पूर्व कोटि प्रमाण है 'उव्याहिला जाब पंचमि पुढधिगच्छतिथे मरकर के पांचवी नरक पृथिवी लक जाते हैं -'दलजानी छलफोडी' इनकी कुल कोटियाँ दिय तिरिक्खनाणियाणं भले ! पुच्छा' है लगवन् । २.परिसपा स्थायर પંચેન્દ્રિય તિર્થનિક જીને નિસંગ્રહ કેટલા પ્રકાર છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ 'जहेव भुयपरिसप्पाणं तहेव' गीतम! सु४५रिसाना નિસંગ્રહ જે પ્રમાણે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણે તે અહિંયાં પણ સમજ અર્થાત્ ત્યાંની માફક અહિયા નિસંગ્રહ અંડજ, પિતજ, અને સંમૂર્ણિમા એ રીતે ત્રણ પ્રકારને કહેલ છે. તથા બાકીના સઘળા દ્વારે પણ ભુજ પરિ सनी भर सभल सेवा. २ द्वाराम हा मावे छे, ते द्वारा 'नवरं' त्याहि सूत्र द्वारा से छे 'नवरं ठिई जहणेणं अतो मुहत्तं उक्कोसेणं पुबकाडी' मिडिया 6२:५रिसानी स्थिति धन्यथा से मतभुत नी भने 682थी पूटि प्रभानी है. 'उध्वट्टित्वा जाव पचमि पुढवि गच्छति' त भरीने पायभी न२४ पृथ्वी सुधी तय छे. 'दस जाती कुलकोडी.' तेसानी Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ १.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् सहस्राणि भवन्तीति। 'च उपायथलयरपंचिदियतिरिक्खनोछियाणं पुन्छ।' चतुष्पद स्थलचरपञ्चेन्द्रियनियज्योनिकानां अदन्त ! कतिविधो योनिसंग्रह प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' हे गौलम ! 'दुविहे पन्ना विविधो-द्वि प्रकारको योनिसंग्रहः प्रज्ञप्तः-कथित इति, 'तं जहा सधथा-'जराउवा संच्छिमाय' जरायुजाः संमुछिमाश्च, अत्र ये अण्डजव्यतिरिक्ता धर्मव्युत्क्रान्तिकारते सर्वे जरायुजा इति । ___ अत्र जरायुजपोतजयो रूत्पत्तिस्थानस्य समानवाल जरायुजानां बाहल्याच नाम्मा एकस्य गृहीतः पोतमोऽत्रान्तर्गत इति न विवक्षिा इति । 'से कितं जराउया, दस लाख है। 'चउप्पयलपर पबिंदिय तिरिक्खजोणियाण पुच्छर' हे भदन्त ! चतुश्श ल चार पश्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकों का योनि संग्रह कितने प्रकार का है? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोषमा! विहे पन्नते' हे गौतम! हलका योनिसंग्रह दो प्रकार का कहा गया है 'तं जहा' जैसे'जराउया य समुच्छिमाय' जरायुज और संमूच्छिन यहां अण्डज से भिन्न जितने भी गर्भज हैं वे या तो जरायुज होते हैं या पोलज होते हैं। चतुष्पदस्थलचर पञ्चन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव अण्डज नही होते है खेचर पञ्चेन्द्रिय तिम्पोनिक जीव ही अण्डज होते हैं। इसलिये चतुष्प दस्थलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव या तो गर्मज होगे या पोतज होंगे या संमूच्छिम होंगे पर यहाँ जो दो प्रकार का योनि संग्रह कहा गया है वह जरायुज और पोतजों का उत्पत्ति स्थान समान होने से तथा जरायुजों की वाहल्यता को लेकर एक जरायुज नाम का भेद ही ग्रहण इसी सामनी छे. 'चउप्पयथलयर पंचि दिय तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा' હે ભગવન્ ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિનિકોને નિ સંગ્રહ કેટલા પ્રકાર ना छ ? २मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुछे 'गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते' गीतमा तेमानो योनिस में ५४.२न। म मावेत . 'त' जहा' भ 'जराउयाय समच्छिमाय' नरायु मने स भूमि मिडियां 247 थी । જેટલા ગર્ભ જ જીવે છે, તેઓ યાતા જરાયુજ હોય છે, અથવા પિતજ હોય છે. ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જી અંડજ હોતા નથી. ખેચર પંચેન્દ્રિય તિર્યનિક જીવેજ અંડજ હોય છે. તેથી ચતુષ્પદ સ્થલચર પંચેન્દ્રિય તિયંગેનિક જી ગર્ભજ હોય છે, અથવા પિતજ હોય . કે સંમૂરિષ્ઠમ હોય છે. પરંતુ અહિંયાં જે બે પ્રકારને નિસંગ્રહ કહેલ છે, તે જરાયુજ અને પિતાના ઉત્પત્તિ સ્થાનની સરખા હેવાથી તથા જરાયુજેના બહુલપણને લઈને એક જરાયુજ નામને ભેદ જ ગ્રહણ કરેલ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ moms ४१६ जीवामिगमस्त्रे अथ के ते जरायुनाः, जरायु नानां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, भगवानाह'गोयमा' हे गौतम ! 'जराउया विविड़ा पानता' जरायुजास्त्रिविधा:-भिप्रकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति । 'तं जहा' तथा 'हत्तीपुरिसा णपुंमगा' स्त्रियः पुरुषा नपु. सकाश्च । 'तत्थ ण जे ते संच्छिमा से सव्वे णपुसगा एवं तत्र खलु ये ते संम् च्छिमास्ते सर्वेऽपि नपुसका एव भवन्ति नतु त्रिपः पुरुषावेति नियमत रूतेषां नपुं. सकवेदोदयादिति । 'तेसिणं मते ! जीवाणं काइ लेस्सायो पनत्ताभो' तेषां खल मदन्त ! चतुष्पदस्थळचरजीवानां कतिलेयाः-झियत्संख्यकाः लेयाः प्रज्ञप्ता:कयिता इनि प्रायः उत्तरयति-'सेस जहा पक्खीण' शेष च्या पक्षिणाम्, किया गया है। पोलज भेट हलके अन्तर्गत हो ही जाता है इसलिये यहां उल्लकी विचक्षा नहीं की है। इसीलिये यहां 'खे किं तं जराउया' जरायुजों के कितने प्रकार, ऐल्ला प्रश्न मौतम ने किया है ! उत्तर में प्रभु कहते हैं-जहाउयातिविपन्नता' जरायुज तीन प्रकार के कहे गये है 'तं जहा' जले-'हस्थी, पुरिसा, णपुलगा' स्त्री, पुरुष और नपुंसक. जरायुज था तोश्री वेद बाले होते हैं या पुरुष वेद वाले होते हैं या नपुंसक वेदवाळे होते है-इस तरह ले जरायुज जीव तीन प्रकार के कहे गये है। तत्थ पंजे से संच्छिमाले सव्वे णपुंसगा एवं' उनले जो संमृच्छिम जीव होते वे नियम से नपुंसक ही होते स्त्रीवेद पाले या पुरुषवेद बाले नहीं होते हैं । 'तेसि पं भंते ! जीवाणं का लेस्लाओ पनत्तानो' हे अदन्त ! उन चतुष्पद स्थलचर जीवों के कितनी लेश्याएं होती है ? उत्तर में प्रसु कहते हैं-'सं जहा पक्खी છે. પિતજ રૂપી લે તેની અંતર્ગત થઈ જ જાય છે. તેથી તેની વિરક્ષા અહીં ४३८ नयी. तेथी अलियां 'से किं तजरायुउया' ४२युलना ४८मा २ झा છે? આ પ્રમાણેને પ્રશ્ન શ્રીગૌતમસ્વામીએ પૂછેલ છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४ छ । 'जराउया तिविहा पण्णत्ता' हे गौतम रायु र प्रारना होय छे. 'त' जहा' म 'इत्थी, पुरिसा, णसगा' खी, ५३५, भने न જરાયુજ કાંતે સ્ત્રીવેદ વાળા હોય છે, અથવા પુરૂષદવાળા હોય છે, અથવા નપુંસક વેધવાળા હોય છે. આ રીતે જરાયુજ જીવે ત્રણ પ્રકારના કહેવામાં माया छे. 'तत्थ णं जे के समुच्छिमा से सव्वे णपुसगा एव' तभी 70 સંમૂર્છાિમ છે હોય છે, તેઓ નિયમથી નપુંસકજ હોય છે. સ્ત્રી વેદવળા मथपा ३५वहाणात नथी 'वेसिणं भले जीवाणं कई लेरसाओ पण्णत्ताओ' હે ભગવન્ ! તે ચતુષ્પદ સ્થલચર જીવોને કેટલી લે શ્યાઓ હોય છે ? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गीत भस्वामीन ४९ छ'सेस जहा पक्खीण' 3 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्योतका टीका प्र०३ उ. ३ सु. २६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् ४१ चतुष्पद स्थलचरजीवानां कृष्णनीकादिकाः षडपि लेश्या भवन्ति दृष्ट्यादि द्वाराणि पक्षिवदेव चतुष्पदस्थलचरजीवानामपि ज्ञातव्यानीति । खेचरापेक्षया चतुष्पदस्थलचराणां यद्वैलक्षण्यं तत् स्वयमेव दर्शयति- 'णाण तं' इत्यादि, 'णाणत्तं' नाना भेदः, इयम् - 'ठिई जहन्नेर्ण अंतोसुहुत्तं उक्कोसेणं तिचि पलिओ माई ' चतुष्पदस्थलचरपञ्चन्द्रिय तिर्यग्योनिकानां स्थितिर्जघन्येनान्तर्मुहूर्त्त उत्कर्षेण त्रीणि पल्योपमानि । ' उन्बट्टित्ता चउत्थि पुढर्वि गच्छति' इमे चतुष्पदस्थळ चरजीवाः उदवृस्य चतुर्थी पङ्कमभापृथिवी पर्यन्तं गच्छन्तीति ततः परतरपृथिव्यां तेषां गमनाभावादिति ॥ ' दसजाइकुलकोडी' दसजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशत सह of' हे गौतम ! चतुष्पदस्थलचर जीवों के कृष्ण बेवाएं होती हैं । दृष्टि आदि द्वारों सम्बन्धी कथन यहां पक्षि प्रकरण के जैसे ही समझना चाहिये पर खेचरों की अपेक्षा जो चतुष्पदस्थलचर के स्थिति उतना और योनिसंग्रह इन द्वारों में भिन्नता है वह इस प्रकार से है-'णाण प्तं' इस सूत्र द्वारा यही बात समझाई जा रही है - 'ठिई जहन्ने णं अतोसुद्धत्तं उकोसेणं तिनि पलिओ माई' यहां स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त की है और उत्कृष्ट से तीन पल्योषम की है ये 'उव्वट्टित्ता चउत्थी पुढव गच्छति' मरकर नीचे को सीधे चतुर्थ धूमप्रभा पृथिवी तक जाते हैं आगे पृथिवियों में नहीं जाते हैं। क्योंकि वहाँ तक जाने के लिये इनमें गमन शक्ति का अभाव है । 'दसजाती कुल कोडी' इनके कुल फोडी ગૌતમ ! ચતુષ્પદ સ્થલચર જીવાને કુણુલેશ્યા હાય છે અહિયાં દૃષ્ટિદ્વાર વિગેરે દ્વારાનુ કથન પશ્ચિમેના પ્રકરણના કથન પ્રમાણે જ સમજી લેવું પર'તુ ખેચરાની અપેક્ષાએ ચતુષ્પદ સ્થલચરાનુ' સ્થિતિદ્વાર અને ઉદ્દતના દ્વારના अथनभां भूहायागु बेस छे. ते लढाया या प्रभाषे समन्वु' 'जाणते' सूत्र द्वारा से वातनु' प्रथन उरे छे. 'ठिई जहणेण' अतोमुहुत्तं उक्कोसेण तिन्नि पलिओवमाइ” भ्मद्धियां तेखानी स्थिति ४धन्यथी ! तमुहूर्त'ना उसी छे भने उत्सृष्टथी श्रायु यहयोयमनी छे. तेथे 'उन्वट्टित्त चउत्थि पुढवीं गच्छति' भरीने सीधा नाथे थोथी धूभप्रभा पृथ्वी सुधी लयं है. તેનાથી માગળની પૃથ્વીયેામાં જઈ શકતા નથી. કેમકે ત્યાંથી આગળ જવા માટે तेश्रोभां गभनशक्तिनो अभाव छे. 'दख जाती कुलकोबी' तेथोनी समेटी नी० ५३ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ es जीवामिगमसूत्रे खाणि ज्ञानीति ॥ जलचरपंचिदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा' जलचरपञ्चेन्द्रि यतियग्योनिकानां मदन्त ! कतियोनिसंग्रहः प्रज्ञप्त इति प्रश्नः, उत्तरयति - 'जहा ' इत्यादि, 'जाभुवपरिसप्पा' यथा भुजपरिसर्पस्थलचराणां योनिसंग्रहस्तथा खेवरा विदेशेन लेश्यादिकंच कथित तथैव जलचरपञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिकानामपि ज्ञातव्यम्, तथाहि - जलचरपञ्चेन्द्रियाणां त्रिविधो योनिसंग्रह । भज्ञप्तः स्तद्यथा - अण्डजाः पोतनाः संमुच्छिमारच, अण्डजाः पोटजाश्च प्रत्येकं त्रिविधा भवन्ति तद्यथा - स्त्रियः पुरुषाः नपुंसकाथ, तत्र ये ते संपूछिमस्ते सर्वेऽपि नपुंसका एवेति । लेश्यादिद्वारजातं सर्वमपि खेचरातिदेशेन - सुनपरिसर्पत्रदेव ज्ञातव्यम् । भुजपरिसर्पापेक्षया इदं वैलक्षण्यम्- 'णवरं ' नवरं - स्थित्युद्वर्त्तनाजातिकुलकोटिपु नानात्वमस्ति तथाहि--स्थितिर्जघन्येनान्त मुहूर्तम् उत्कर्षतः पूर्वकोटिः । उद्वर्त्तना - 'उच्चट्टित्ता जात्र अहे सत्तमि पुढवि दशलाख हैं । 'जलघर पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं पुच्छा' हे भदन्त ! जलचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीवों के कितने प्रकार का योनिसंग्रह कहा गया है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'जहा भुयपरिलप्पा f' हे गौतम! जैसा योनि संग्रह भुजपरिसर्पस्थलचर तिर्यक् पंचेन्द्रियों के कहा गया है पैसा ही योनिसंग्रह यहां पर भी कहा गया है इस तरह जलचर पंचेन्द्रियों के 'अण्डज, पोतज, और संमूच्छिम' ऐसा तीन प्रकार का योनि संग्रह है- इनमें जो संमूच्छिम होते हैं वे सब नियम से नपुंसक ही होते हैं। यहां लेश्यादि द्वार सब पक्षियों की सदृशता से भुजपरिसर्प के जैसे ही है परन्तु भुजपरिसर्प के कथन की अपेक्षा यहां अन्तर ऐसा है 'णवरं उव्वट्टित्ता जाव अहे सरूमिं पुढवि' कि जलचरों से उद् સ साम छे. 'जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया णं पुच्छा' हे भगवन् જલચર ૫'ચેન્દ્રિય તિયાઁજ્યેાનિક વાને ચેાનિસંગ્રહ કેટલા પ્રકારના કહેવામાં मावेस छे ? या प्रश्नना उत्तरमां अलुश्री गौतमस्वामीने उडे हे 'जहा भुय परिसप्पाणं' हे गौतम! लुम्परिसय स्थायर पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिडेोना ચેાનિસ'ગ્રહ જે પ્રમાણે કહેલ છે, એ જ પ્રમાણેના યાનિસ શ્રઢ અહિંયા પણ સમજી લેવા જોઇએ. આ રીતે જલચર પ'ચેન્દ્રિયાના અડજ, પાતજ, અને સસૂચ્છિ`મ એ રીતે ત્રણ પ્રકારને ચૈાનિસ‘ગ્રહ હાય છે. તેમાં જેએ સંમૂ િમ હાય છે. તે બધા નિયમથી નપુસકજ હાય તે. અહિયાં બધા પક્ષિઓના સમાનપણુાને લઈને વૈશ્યા વિગેરે દ્વારા ભુજરિસર્પોની જેમજ છે. પર`તુ ભુજપરિસર્પના કથન કરતાં અહિયાં જે જુદાપણુ* ખતાવેલછે, તે નીચેના સૂત્ર Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२६ पक्षीणां लेश्यादिनिरूपणम् -४९९ जलचर पञ्चेन्द्रिय जीवा जलचर पञ्चेन्द्रियेभ्य उद्धृत्य यावदधः सप्तम्यां गमनस्य श्रुतत्वात्, ऊन यावत् सहस्रारकल्पमिति जाति कुलकोटि:-'अद्धतेरसजातिकुलकोडी जोणिपमुइसयसहस्सा पन्नत्ता' अर्द्ध त्रयोदशजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशत. सहस्राणि प्रज्ञतानि, जलचर पञ्चन्द्रिय जीवानामिति 'चउरिदिया णं भंते।' चतु. रिन्द्रियाणां जीवानां भदन्त ! 'कइ जाइकुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पनत्ता' कति-किं प्रमाणकानि जाति कुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानीति पश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नवजाइ कुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा भवंतीति समक्खाया' नव जाति कुलकोटि योनि प्रमुखशतसहस्राणि-नवलक्षाणि समाख्यातानि । 'तेइंदियाणं पुच्छा' त्रीन्द्रियाणां जीवानां भदन्त ! कतिजातिकुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्राणि, प्रज्ञप्तानीति प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अट्ठ जाइकुल जाव समक्खाया' अष्ट जाति कुळकोटियोनि प्रमुखशतसहस्त्राणि समाख्यातानीति । 'बेइंदिया णं भंते ! कइ जाई पुच्छा' द्वीन्द्रियजीवानां भदन्त ! कति जाति कुल कोटियोनि वृत हुआ जीव सातवीं पृथवी तक जाता है क्योंकि तन्दुलमत्स्य॑ जो कि महामत्स्य की भृकुटी के बालों में रहता है मरकर सातवीं प्रथिवी में जाता है ऐसा शास्त्रों में सुना जाता है । 'अद्धतेरसजाति कुल कोडी योणि पमुहसयसहस्सा पन्नता' जल चर जीवों की कुलकोडी साढ़े बारह १२॥ लाख हैं 'घउरिया णं भंते !' हे भदन्त ! चौइन्द्रिय जीवों की कितनी लाख कुल कोडियां हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा। नव जाइ कुल कोडी जोणी' हे सदन्त ! तेइन्द्रिय जीवों की कितनी लाख कुलकोडी हैं ? 'गोयना ! अजाइ कुल जाव मक्खाया' हे गौतम! तेइ. 48 द्वारा ४९ छे. 'णवरं उच्चट्टित्ता जाव अहे सत्तमिं पुढवि" सयरामाया નીકળેલા જીવ સાતમી તમસ્તમાં પૃથવી સુધી જાય છે, કેમકે તંદુલમર્યો કે જે મહા ભસ્યની ભામરાના વાળમાં રહે છે. તે મરીને સાતમી પૃથ્વીમાં જાય છે. એ प्रमाणेनु ४५न ४२मा मावस छ. 'अद्धतेरस जातिकुल कोडी जोणिपमुहमयसहस्सा पण्णत्ता' लयरेनी पुस टी १२॥ सा मार रामनी छे. चरि दियाण भते ! है भगवन् । यार ।द्रियावाणा नी रीटा मनी छे ? 24। प्रश्नमा उत्तरमा प्रभु ४७ छ , 'गोयमा ! नव जाइ कुल कोडी जोणो.' गीतम! यार द्रिये। वाणा वानी न aru gatी हाय छे. 'तेइंदियाणं पुच्छा' हे भगवन्त द्रियावासा वानी तहटीटा सामना ४डस छ ? उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ । 'गोयमा ! अद्वजाइ कुल जाव 'मक्खया' गौतम ! द्रियावाणा वानी मा तामस टी छ, Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जीवामिगमस्से प्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानीति प्रश्ना, भगवानाइ-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तनातिकुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा भवंतीति समक्खाया' सप्तजाति कुळकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि भवन्तीति समाख्यातानि ॥०२६॥ ___हजातिकुलकोटयो योनिजातिया स्ततो भिन्नजातियाभिधानप्रसङ्गतो गन्धाङ्गानि मिन्नजातियत्वात् मरूपयति-'कइ णं भते' इत्यादि, मूकम्-कई णं भंते ! गंधा पन्नत्ता ? कइणं भंते! गंधसया पन्नत्ता ? गोयमा ! सत्तगंधा पन्नत्ता सत्तगंधसया पन्नत्ता। कइणं भंते! पुप्फ जाइ कुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पन्नत्ता? गोयमा ! सोलस पुप्फजाती कुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पन्नता तं जहा-चत्तारि जलयराणं चत्तारि महारुक्खियाणं चत्तारि महागुम्मियाणं। कइ णं भंते! वल्लीओ, कइ वल्लिसया पन्नत्ता ? गोयमा! चत्तारि वल्लीओ, चत्तारि वल्लीलया पन्नत्ता। कइ णं भंते ! लताओ, कइ लयासया पन्नत्ता ? गोयमा ! अट्ठलयाओ, अट्रलयासया पन्नत्ता । कइ ण भंते ! हरियकाया हरियकायसया पन्नत्ता ? गोयमा! तओ हरियकाया तओ हरियकायसया पन्नत्ता, फलसहस्सं च बिंटबद्धाणं फलसहस्तं च णालवद्धाणं ते सव्वे वि हरियकायमेव समोयरंति, ले एवं समणुगल्लभाणा, एवं समणुगाहिज्जमाणा न्द्रिय जीवों की आठ लाख कुल कोटियां हैं। 'बेइंदिया णं भंते ! का जाह०पुच्छा' हे भदन्त !दो इन्द्रिय जीवों की कितनी लाख कुलकोटियाँ हैं। 'गोधमा । सत्त जाति कुलकोडोजोणी पमुहसयसहस्सा' हे गौतम! दो हन्द्रिय जीवों की सात लाख कुलकोटी हैं 'इति मक्खाया' ऐसा तीर्थकरों ने कहा है ॥सू० २६॥ 'वेइंदियाणं भते ! कइजाइ. पुच्छा भगवन् मेद्रियावामा तीर्थयानि४ .७वानी रोटी ४८मा स ही छ ? उत्तरमा प्रमुश्री छे , 'गोयमा ! सत्तजाति कुलकोडी जाणीपमुहसयसहस्सा है गौतम ! मद्रियावासवानी सात anटी छ. 'इति समक्खाया' मा प्रभारी तीर्थ शो छ । सू. २६ । Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३६.२७ गन्धासस्वरूपनिरूपणम् ४२६ समणुगाहिजमाणा, एवं समणुपेहिज्जमाणा समणुपेहिज्जमाणा, एवं समणुचिंतिज्जमाणा समणुचिंतिज्जमाणा, एएसु चेव दोसु काएसु समोयरंति तं जहा-तसकाए चेव थावरकाए चेव, एवमेव सपुत्वावरेणं आजीवदिलुतेणं चउरासीति जातिकुल कोडी जोणीपमुहसयसहस्सा भवंतीति मक्खाया ॥सू० २७॥ छाया-कति खलु भदन्त ! गन्धाः प्रज्ञप्ताः ? कति खलु भदन्त ! गन्ध शतानि प्रजातानि ? गौतम! सप्तगन्धाः प्रज्ञप्ताः सप्तगन्धशतानि प्राप्तानि । कति खल्लु भदन्त ! पुष्यजाति कुलकोटियोनि घमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! षोडश पुष्यजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा-चत्वारि जळचराणां चत्वारि स्थळचराणाम्, चत्वारि महावृक्षाणाम् चत्वारि महागुल्मिकानाम् । कति खलु भदन्त ! वल्लयः कति वल्लीशतानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! चतस्रो वल्लया, चत्वारि वल्लीशतानि मज्ञप्तानि । कति खलु भदन्त ! लता: कतिलताशतानि प्राप्तानि ? गौतम ! अौ लता, अष्टौ लताशतानि प्राप्तानि । कति खलु भदन्त ! हरितकाया, हरितकायशतानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! त्रयो हरितकायाः त्रीणि हरितकायशतानि प्रज्ञप्तानि, फलसहस्रंच बृन्तबद्धानां फलसहस्रं च नालबद्धानाम् ते सर्वेऽपि हरितकायमेव समबतरन्ति ते एवं समनुगम्यमानाः समनुगम्यमानाः, एवं समनुग्राह्यमाणाः समनुग्राह्यमाणा एवं समनुप्रेक्ष्यमाणा: समनुप्रेक्ष्यमाणाः, एवं समनुचिन्त्यमानाः समनुचिन्त्यमानाः, एतयोरेव द्वयोः काययोः समवतरन्ति, तद्यथा-त्रसकाये एव, स्थावरकाये एव, एवमेव सपूर्वापरेण अजीबदृष्टान्तेन चतुरशीति जातिकुलकोटियोनि प्रमुखशत. सहस्त्राणि भवन्तीत्याख्यातानि ॥ सू० २७॥ टीका-'करणं भंते ! गंधा पन्नता' कति खलु मदन्त ! गन्धाः-गधा. मानि महप्ता:-कथिताः, यद्यपि गन्धा इत्ये मुलेपाठस्तथापि गन्धा इत्यत्र योनि जातीय ये जाति कुल कोटियां है खोइन से भिन्न जाति पालों के अभिधान के प्रसङ्ग को लेकर अब सूत्रकार भिन्न जातीय होने से गन्धागों की प्ररूपणा करते हैं___ 'करणं भंते ! गंधा पन्नत्ता'-इत्यादि। टीकार्थ-यहां श्रीगौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'कह गंभंते ! गंधा ચેની જાતીય આ જાતીકુલ કોટિ કહી છે. તેનાથી જુદી જાતવાળા અભિયાનના પ્રસંગને લઈને હવે સૂત્રકાર ભિન્ન જાતિવાળા હોવાથી ગંધાની ५३५। ७रे छे. 'कहणं भते ! गंधा पण्णत्ता' छत्यादि Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરર जीवामिगमसूत्रे पदेकदेशे पदसमुदायोपचाराद् गन्धाङ्गानीति द्रष्टत्यानि । 'कइ णं भंते ! गंधसया पत्ता' कवि खलु भदन्त । गन्धशतानि - गन्धाङ्गशतानि मज्ञप्तानि इति प्रश्ना, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सत्तगंधा सत्तगंधसया पन्नता' सप्तगन्धाङ्गानि सप्तगन्धाङ्गशवानि महप्तानि तत्र परिस्थूलजातिभेदादिसानि सप्तगन्धाङ्गानि यथा - मूलं १, त्वक् २, काष्ठम् ३, निर्यासः ४, पत्रम् ५, पुष्प ६, फलंचेति । तत्रमूलं मुस्ता चालकोशीरादिः १, स्वक्कू - सुवर्णछल्ळीत्वचाप्रभृतिः २, काष्ठ चन्दनागुरु ममृतिः ३, निर्यासः कर्पूरादिः ४, पत्र-जाति पन्नन्ता' हे भदन्त ! गन्ध - गन्धाङ्ग - 'कह पन्नत्ता' कितने कहे गये है १ यद्यपि यहां पर मूल में पाठ 'गन्ध' ऐसा है फिर जो यहां गन्धाङ्ग रूप अर्थ लिया गया है यह पद में पद समुदाय से उपचार करने से लिया गया है ? ऐसा यह प्रथम प्रश्न है और दूसरा 'कइ णं भंते ! गंधसया पण्णत्ता' हे भदन्त ! गन्धशत - गन्धाङ्गशत- कितने कहे गये हैं ? यह दूसरा प्रश्न है । उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोधमा ! सत्त गंधा, और सन्त गंधसया पण्णता' हे गौतम । गन्धाङ्ग सात कहे गये हैं, गन्धाङ्गशत सात कहे गये हैं अर्थात् सात सौ कहे गये हैं । जैसे- मूल १, स्वक्-छाल - २, काष्ठ ३, निर्यात - ४, पत्र -५, पुष्प - और फल ७, इन में सुस्ता, वालुका, उशीर, आदि ये मूल शब्द से गृहीत हुए हैं 'सुवर्ण छाल आदि त्वक् शब्द से गृहीत हुए हैं २ चन्दन अगुरु आदि ६, ટીકા-મામાં શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવુ' પૂછ્યું છે કે ગં 'ते ! गंधा पण्णत्ता' हे भगवन् गंध गंधांग डेटा उडेवामां मावेस छे १ ले કે અહિયાં મૂળમાં ધા' એ પ્રમાણેના પાઠ છે, પણ અહિયાં ગધ શબ્દથી ધીંગ એ પ્રમાણેના અર્થ લેવામાં આવેલ છે, તે પદમાં પદ્મસમુદાયને ઉપચાર કરવાથી લેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રમાણેને આ પ્રશ્ન છે, અને ખીજે प्रश्न ' कइ णं भंते ! गंधसया पण्णत्ता' हे लगवन् ! गधशत गंधांगशत डेटला કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રમાણેના આ પ્રશ્ન છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वाभीने हे छे ! 'गोयमा ! सत्त गंधा सत्तगंधसया पण्णत्ता' हे गौतम! ગધાંગ સાત પ્રકારનાં કહેવામાં આવેલ છે. અને ગધાંગશતપણુ સાત જ डेला छे. अर्थात् सातसे सा छे. नेम भूस, १ व छात्र २, 310 3, निर्यास ४, पत्र य, पुष्प है, मने ३ ७, सामां भुस्ता. वालुअ. शीर, विगेरे મૂળ શબ્દથી ગ્રહણ કરેલા છે. સુવણુછાળ, વિગેરે ત્વક્ શબ્દથી ગ્રહણ કરેલ છે. ૨ ચદન અગર વિગેરે કાષ્ઠ શબ્દથી બ્રહરુ થયેલ છે. ૩, કપૂર વિગેર Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ atruोतिका टीका प्र. ३ उ. ३.२७ गन्धाङ्गस्वरूपनिरूपणम् કાર पत्रतमालपत्रादिः ५, पुष्प प्रियङ्गुनागर पुष्पादि ६, फलं जातिफल कलकैलालवंग प्रभृतिः । एते च मूलादयः प्रत्येकं कृष्णनीलादि भेदात् पञ्च पञ्च भेदा भवन्तीति, वर्णञ्च केन गुणिताः सन्तः पञ्चत्रिंशद् (३५) मवन्ति गन्धमधिकृत्यै ते सुरभिगन्धन्त एवेत्येकेन गुणिताः पञ्चत्रिंशदेव (३५) तत्रापि एकैकस्मिन् वर्णभेदे रसञ्चकद्रव्यभेदेन विविक्तं प्राप्यते इति सा पञ्चत्रिंशत् संख्या रसपञ्चकेन गुणिता सती पञ्चसप्तत्युत्तरशतं ( १७५) भवन्ति, स्पर्शश्च यद्यपि अष्टौ भवन्ति तथापि गन्धाङ्गेषु यथोक्तरूपेषु प्रशस्याः स्पर्शः व्यवहारतश्वत्वार एव मृदुलघुशीतोष्णरूपा', ततः पञ्चसप्तत्युत्तरशत स्पर्शचतुष्टयेन गुण्यते तदा जातानि सप्तशतानि ( ७०० ) । तदुक्तम् — काष्ठ शब्द से गृहीत हुए हैं ३, कपूर आदि निर्यास शब्द से गृहीत हुए है ४, जाति पत्र, तमाल पत्र आदि पत्र शब्द से गृहीत हुए हैं ५, मिगु नागर पुष्प आदि पुष्प शब्द से गृहीत हुए है ६, जाति फल एलाफल- कर्कोलक, ऐला - इलायची और लबङ्ग आदि पुष्प शब्द से गृहीत हुए है ये सातों ही प्रत्येक कृष्ण, नील आदि पांच वर्णों के भेद से पांच २ भेद वाले होते हैं इस तरह एक एक के पाँच वर्णों की अपेक्षा लेकर पांच पांच भेद हो जाने के कारण ये मूल आदि गन्धाङ्ग पैतीस हो जाते हैं । गन्ध इन में एक सुरभि ही रहता है, अतः इसकी अपेक्षा ये पैंतीस ही रहते हैं ३५ पांच वर्णों की अपेक्षा जिस प्रकार से सात गन्धाङ्गों से पैंतीस भेद ये कहे गये हैं उसी प्रकार से इनमें पांच रस भी पाये जाते हैं अतः पैंतीस को पांच से गुणा करने पर एक सौ पचहत्तर १७५, ये हो जाते हैं । तथा स्पर्श आठ होते हैं किन्तु आठ स्पर्शो में से इन गन्धाङ्गों में चार प्रशस्य નિર્યાસ શબ્દથી ગ્રહણ થયેલ છે. ૪, જાતીપત્ર, તમાલપત્ર, વિગેરે પત્ર શબ્દથી ગ્રહણ કરેલ છે. ૫, પ્રિયંગુ નાગર પુષ્પ વિગેરે પુષ્પ શબ્દથી ગ્રહણ થયા છે. ૬, જાતિકૂળ અર્થાત્ જાયફળ કકેલિક, એલા કહેતાં ઇલાયચી. અને લવિંગ વિગેરે પુષ્પશબ્દથી ગ્રહણુ કરાયેલ છે. આ સાતે કૃષ્ણ, નીલ, વિગેરે પાંચ વર્ણીના ભેદથી પાંચ પાંચ ભેદવાળા હાય છે. આ રીતે એક એકના પાંચ વધુની અપેક્ષાથી પાંચ પાંચ ભેદ્ર થવાના કારણે આ મૂળ વિગેરે ગયાંગના પાંત્રીસ ભેદા થઈ જાય છે. આમાં ગંધ એક સુરભિ ગ ધજ હોય છે. તેથી ગધની અપેક્ષાથી આ પાંત્રીસજ ડાય છે, પાંચ વની અપેક્ષાથી જેમ સાત ગ’ધાંગાના આ ઉપ૨ ૩૫ પાંત્રીસ ભેદો કહેલા છે એ જ પ્રમણે આમાં પાંચ રસ પણ મળે છે. તેથી પાંત્રીસને પાંચથી ગુજીવાથી ૧૭૫ એકસે પચેાતેર ભેદા થઈ જાય છે. તથા સ્પશ આઠ હાય છે. પરતુ આઠ સ્પર્ધામાંથી આ ગાંગામાં ચાર Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमले 'मब१ तय२ कट्ठ३ निज्जास : पत्त५ पुप्फ६ फळ७ मेयं गंधंगा। 'वण्णादुत्तरभेया गंधांगसया मुणेयव्या' १॥ मूळ१ व २ काष्ठ३ निर्यास५ पत्र५ पुष्प६ फळ७ मेते गन्धानाः। वर्णादुत्तर भेदानि गन्धाङ्गशतानि ज्ञातव्यानीतिच्छाया ॥ अस्य व्याख्यानरूपं गाथाद्वयम्--- 'मुत्था१ सुवण्णछल्ल२ अगुरु३ वाला४ तमालपतं५ च । तहय पियंगू६ जाइफलं७ च जाइए गंधंगा ॥१॥ गुणणाए सत्तसया पंचहि दण्णेहि सुरमिगंधेणं । रसपण एणं तह फासे हिय चउहि मित्तेहि २॥ मुस्ता१ सुवर्णछल्ली२ अगुरु३ वाला४ तमालपत्रं५ च ॥ तथा च भियगृ६ जातिफलं च जात्या गन्धातानि ॥१॥ गुणनया सप्तशवानि पञ्चभिर्वणः सुरभिगन्धेन च । रसपञ्चकेन त्था स्पर्शश्च चतुमिर्मिः ॥२॥ इतिच्छाया मित्रैरिति मित्रभूतैः प्रशस्तैरित्यर्थः॥ स्पर्श ही रहते हैं अत: एक सौ पचहत्तर को चार से गुणा करने पर सात सौ गन्धाङ्गों के भेद निष्पन्न हो जाते हैं। तदुक्तम्-मूलतय-कट्ट-निजासपत्त-पुप्फ-फलमेयं गंधंगा। वण्णादुत्तर भेया गंधगसया मुणेरवा, मुत्था-स्तुषण्ण-छल्ली अगुरुषाला तमालपत्तंच। तह य पियंगू जाई फलंच जाईए गंधंगा ॥१॥ गुणणाए सत्तलया पंचहिं चण्णेहि सुरभि गंधेणं, रसपणएणं तह फालेहिं चहि मित्ते (पसत्थे) हि ॥२॥ પ્રકારના પ્રશસ્ત સ્પર્શ જ રહે છે. તેથી એક સો પચેતેર ૧૭૫ ને ચાર થી ગુણવાથી ગંધાંગના સાતસે ભેદે બની જાય છે. એ જ વાત નીચેની ગાથા દ્વારા કહેવામાં આવે છે. मूलतय कट्ट निज्जासपत्त पुप्फफलमेयं गंधगा वण्णा दुत्तरमेया गंध गसया मुणेयव्वा, मुत्था सुवण्णछल्ली अगुरुवाला तमालपत्तच तह व पिय'गू जाई पल च जाईए गधगा ॥१॥ गुणणाए सत्तसया पंचहि वण्णेहिं सुरभिग'घेणं, रस पण्णएणं तह फासेहिं चउहि मित्ते (पसत्थे) हिं ॥२॥ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीकाप्र.३ उ.३ स्.२७ गन्धाङ्गस्वरूपनिरूपणम् 'कइ णं भंते ! पुप्फजाइकुलकोडी जोणी पमुहसयसहस्सा पन्नता' कति . खलु भदन्त ! पुष्यजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोथमा' हे गौतम ! 'सोलसपुप्फ- . जाइ कुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पन्नत्ता' पोडशपुष्पजातिकुलकोटियोनि प्रमुखशतसहस्राणि प्रज्ञप्यानि-कथितानि । ताल्येव दर्शयति-जहा' इत्यादि, 'तंजहां तद्यथा-'चत्तारि जलपराणं' चत्वारि कुलकोटियोनिममुखशतसहस्राणि जळचराणां जलजानां कमलादीनां जातिभेदेन अवन्ति, समा-'चत्तारि थलचसणं' चत्वारि कुलकोटियोनिप्रमुखशतसहस्त्राणि स्थलचराणां स्थलजाराला कोरण्डका. दीनां जातिभेदेन, तथा 'पत्तारि महारुविखयाणं' चत्वारि कुछकोटियोनि प्रमुग्वशतसहस्राणि महावृक्षाणां मधुझादी वाय. 'चत्तारि महारगिलाण चत्वारि कुल कोटियोनि प्रमुखशतसहस्त्राणि महागुलिमकानां जात्यादीनां नातिभेदेन भवन्तीति। इन सब गाथाओं का अर्थ तथा गणित पहले काह चुके है। 'काणं भंते ! पुप्फ जाइ कुलकोडी जोणी नुह समझा पन्नत्ता' हे भदन्त ! पुष्पों की कितनी लाख कुलोडियांच्याही छाई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'पोयमा ! सोलह पुप्फजाइ कुलकोडी जोणी पमुहसयसहस्सा पन्नत्ता' हे गौतम ! पुष्पों की सोलह लाख कुल कोटियां कही गई है। जो इस प्रकार से है-'चत्तारि जलथरा चार लाख जल में उत्पन्न होने वाले कमलों की 'चत्तारि शलया ' च र लाख स्थल में उत्पन्न होने वाले कोरण्ट आदि के पुष्पों की 'चत्तारि महा गुम्मियाण' और चार लाख महा गुलिक आदि के पुष्पों की कल कोटियां होती है ये कुल कोटिया जोति के भेद से होती है। આ બને ગાથાઓને અર્થ તથા ગણિત પહેલાં ઉપર કહેવામાં भावी गये . श्रीगीतभावामी भगवान श्रीमहावीर प्रसुन पूछे छे । 'कहि णं भंते ! पुप्फजाई कुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता' 3 भगवन् पुण्यानी इस કેટિયે કેટલા લાખની કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वाभी 'गोयमा ! सेलस षुप्फजाई कुलकोही जोणीपमुहसय पहस्सा पण्णत्ता' हे गौतम ! पानी सण सास ४८ टीयो सेवामा भावी छ. २ मा प्रभारी छे 'चत्तारि जलयराणं' बसमा ५न्न थापा मणानी या२ साम 'चत्तारि थलयराणं' स्थमा जपन्न यावर विशेष पुपानी याराम खटिया. तथा 'चत्तारि महा गुम्मियाणं' या२ साप महा ગુલિમક વિગેરેના પુપની કુલ કેટી જાતિના ભેદથી હોય છે. जी० ५४ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जीवामिगमने 'का गं मते ? वल्लीओ कइणं बल्लीसया पन्नता' कति खलु मदन्त ! घरकया? कतिवल्लीशवानि प्रज्ञप्नानि ? भगवानाह-गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि वल्लीओ' चतस्रो बल्लयः पुष्पादिमूलभेदैः ज्ञातव्याः 'चतारि वल्लीसया पनचा' चत्वारि वल्लीशतानि अवान्तरजातिभेदेन प्राप्तानि-कथितानीति । 'कह णे भंते ! लयागो पन्नत्ताओ' कति-कियसंख्यकाः खन्न भदन्त ! लताः प्रसप्ताः, तथा-'कइ लयासया पन्नत्ता' कति लता शतानि मानि-कथितानीति घश्ना, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम | 'अट्टलया अटी लता मूलभेदैः प्रज्ञप्ता, तथा-'अट्ठलया सया पन्नत्ता' अष्टौ लाशतानि आन्तरजातिभेदेन ___'फइ णं भंते ! वल्लीओ कह णं वल्लीलयाओ पन्नत्ता' हे भदन्त ! पल्लियां-एक प्रकार की लताएं-कितनी फही गई है । और दल्लीशत कितने कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु पाते में-'गोयमा! चत्तारियल्लीओ' हे गौतम ! चार वल्लियां कही गई है जो कि पुष्पादि के मूल भेदों से कही गई है और अवान्तर जाति के भेद से चल्लिशत चार कहे गये है अर्थात् चार सौ पल्लियों के अचान्तर जाति के भेद कहे गये हैं तात्पर्य करने का यही है कि मूल में बल्लियों के भेद तो चार है पर एक एक पल्ली के भेद अवान्तर जाति की अपेक्षा से १०० सौ सौ और है 'कइ लताओ पन्नत्ताओ हे भदन्त ! लगाएं कितनी कही गई है और 'कइ लतासया पन्नत्ता' लताशत क्षितने कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! अट्ठ लता' हे गौतम ! मूल में तो लताएं आठ कही गई हैं और 'अट्ठलतासयाप.' एक एक लता के सौ सौ शथी श्रीजीतभस्वामी प्रभुश्रीन पूछे छे , 'कइ णं भंते ! वल्लीओ कइणं वल्लीसयाओ पण्णत्ताओ' लगवन् । अर्थात् ४ मारनी सतासारखा પ્રકારની કહી છે? અને વલીશત કેટલા કદ્દા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतभस्वामीने ४९ छ , 'गोयमा ! चत्तारि वल्लीओ गौतम! वेसी પુષ્પ વિગેરેના મૂળ ભેદથી ચાર પ્રકારની કહેવામાં આવી છે અને અવાસ્તર જાતીના ભેદથી વલ્લિશત ચાર કહેલા છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે મૂળ વલિલ-વેલેના ભેદે ચાર જ છે પણ એક એક વેલના અવાન્તર ભેદ જાતીની अपेक्षा ४ ४ सो भी ५ थाय छे. 'कइलताओ पण्णताओ' & भगवन्तामा टसा प्रा२नी वाम मावीले १ भने 'कइलता सया पण्णत्ता' લતાશત કેટલા કહ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छ । 'गोयमा ! अदृलता' है गोतम भूण सताना मा ले हा छ, भने 'अट्ट लयासया पण्णत्ता' गोनम ! मे मे बताना से से लेहो भवान्त२, Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.२७ गम्धाङ्गस्वरूपनिरूपणम् ધર पज्ञप्तानीति । 'कइ णं भंते ! हरियकाया' कति खलु भदन्त ! हरितकाया भज्ञप्ता:-कथिताः, तथा-'हरिथकायसया पन्नत्ता' कति हरितकायशतानि प्रज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्न:, भगवानाह-'गोषमा' हे गौतम ! 'तओ हरियकाया' त्रयो हरितकाया:, जलजा स्थलजाः उभयजाश्च, एकैक स्मिन् शतमवान्तरभेदा भवन्तीति तो हरियकायसया पन्नत्ता' त्रीणि हरितकायशतानि अवान्तरभेदैः प्रज्ञप्तानि कथितानीति । 'फलसहस्सं च विट बद्धाणं' फलसहस्रं च वृन्तबद्धा. नाम् वृन्ताकप्रभृतीनां फलसहस्रं भवन्तीति । 'फलसहस्रं च नालबद्धाणं' फल. सहस्रं च नालबद्धानाम् नालं-कन्दोपरिवावयव विशेषः, तत्र बद्धानि-संलग्नानि नालवद्धानि तादृशानि फलानि तेषाम् 'ते सव्वे हरियकायमेव समोयाति' ते सर्वेऽपि भेदाः तदन्येऽपि तथाविधाः हरितकायमेव समवतरन्ति हरितकाये भेद और अवान्तर जाति की अपेक्षा से कहे गये हैं। 'कह णं भंते ! हरियकाया प०' हे भदन्त ! हरित काय कितने एकहे गये हैं। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा ! तओ हरियकाया' हे गौतम! हरितकाय तीन कहे भाये है -जसे-जलज, स्थलज और उभयज तथा-'तो हरिः .कायलया पण्णसा' हरितकायशत अवान्तर भेदों की अपेक्षा से तीन कहे गये हैं अर्थात एक एक हरितकाय के सौ सौ और अवान्तर भेद कहे गये हैं इस तरह हरिनकाय के तीन सौ भेद हो जाते हैं। फलसहस्मं पिंटषद्धा गं' वृन्ताक आदि जो फल हैं वे सहस्त्र-एक हजार प्रकार के कहे गये है 'फल सहस्सं च नालबद्धा णं' इसी तरह जो नालपर फलवे भी एक हजार प्रकार के कहे गये है। 'ते सम्वे हरिकायमेव समोयरंति' ये सच भेद तथा इसी प्रकार के जो और भी हरि तीन हथा वामां माव्या . 'फइ णं भते ! हरियकाया पण्णत्ता' 8 ભગવન હસ્તિકાયશત કેટલા કહ્યાં છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને छ 'गोयमा ! तमो हरियकाया पण्णत्ता' गौतम ! Rina tan छ. म रस, २५४४, भने लय तथा 'तओ हरियकायसया पण्णता' હરિતકાયશત અવાન્તર ભેદને લઈને ત્રણ કહેવામાં આવ્યા છે. અર્થાત એક એક હરિતકાયના સે સે અવન્તર ભેદો કહેવામાં આવ્યા છે. આ રીતે હરિ तयन से ले २६ तय छे. 'फलसहस्सं विटवद्धाणं' 18 विगैरे । छे, ते थे. १२५४।२। पाभा मापे छे. 'फलसहस्सच नालबद्घाणं' આ પ્રમાણે જે નાલ બદ્ધ ફળ છે, તે પણ એક હજાર પ્રકારના કહેવામાં मा०या छे. 'ते सव्वे हरिकाय मेव समोयरंति' मा मा हो भने माना જેવાજે હરિતકાયના બીજા ભેદ છે, તે બધાજ હરિતકામાં ગણવામાં આવેલા Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४२८ जीवामिगमले एवान्तर्भवन्ति हरितकायोऽपि वनस्पती अन्तर्भवति वनस्पतिरपि स्थावरेषु अन्तभवति, स्थावरा अपि जीवत्वेन जीवेषु अन्तर्भवन्ति ततः 'ते एवं समणुगम्ममाणा समतगम्यमाणा' ते एवं ते हरितकायादयः समनुगम्यमानाः समणुगम्यमानाः, जात्यन्तर्भावेन स्वतएव सूत्रता, तथा-'एवं समणुगाहिज्जमाणा समणु. -गाहिज्जमाणा' समनुग्राह्यमाणाः समनुग्राह्यमाणाः परेण सूत्रत, एव, तया'समणुपेहिज्जमाणा ,समणुपे हिज्जमाणा' समनुप्रेक्ष्यमाणाः समनुपेक्ष्यमाणाः, अनुप्रेक्षया अर्थालोचनरूपया तथा-'समणुचितिज्जमाणा समणुचिंतिज्जमाणा' समनुचिन्त्यमानाः समनुचिन्त्यमानाः शास्त्रयुक्तिमिः जीवत्वेन सम्यविचार्य माणाः सन्त: "एएसु दोस काएमु समोयरंति' ते हरितकायादयो जीवा एतयो रेव वक्ष्यमाणगोईयोः काययोः समवतरन्ति-समाविष्टा भवन्ति, 'तं जहा' तद्यथा-'तसकाए चेव थावरकाए चेव' त्रसकाये च स्थावरकायेचेति । एवमेव' तकाय के भेद हैं वे भी साब हरितकाय में परिगणित हुए है तथा हरिलकाय जो है वह वनस्पति में परिगणित हुआ है वनस्पतिकाय ... स्थायर जीचों में परिगणित हुआ है स्थावर जीव जीवसामान्य में अन्तर्भूत हुआ है इस प्रकार से वे हरितक्षायादिक सब 'समणु गम्म माण। २' स्वतः ही सूत्र के अनुसार समझे जाकर तथा 'समणुगाहिजखाणा २' पर जेबारा खून के अनुसार समझे जाकर 'समणुपेहिज्जमाणा २१ घार बार अर्शलोचन रूप अनुप्रेक्षा द्वारा विचार किये जाने पर 'लमणु बितिजमाणा३' युक्ति प्रयुक्तियों द्वारा अच्छी तरह से भावित किये जाने पर उनके सम्बन्ध में यही प्रतीत हो जाता है-निश्चय हो • जाता है कि ये हरितकथादिक जीव 'एतेसु दोसु काएसु समोयरंति' इन • दो ही कायों में-स्थाशकाय एवं त्रस काय में ही-अन्तर्भूत हुए हैं। यही बोत 'तसकाए चेव थावरक्षाए चेव' इस पत्र पाठ से प्रकट की છે. તથા હરિતકાયને વનસ્પતિમાં ગણવામાં આવેલા છે. વનસ્પતિકાય સ્થાવર જીમાં ગણવામાં આવેલા છે. સ્થાવર જી જીવ સામાન્યમાં અંતર્ભત थया छे. या प्रमाणे तताय वि२ मा 'समणुगम्ममाणा समणुगम्म माणा' पार पा२ मथना मोष साथे विया२ ४२di Rai तथा 'समणुगाहिज्जः माणा २' मीना द्वारा सूत्र प्रमाणे समलने 'समणुपेहिज्जमाणा २' पार पा२ मावायन ३५ मनुप्रेक्षा द्वारा विया२ ४२di ४२ai 'समणुचिंतिज्जमाणा' 'समणुचिंतिज्जमाणा' युठित प्रयुतिय द्वारा सारीरी ललित ४२वामा આબેથી તેઓના સંબંધમાં એમજ જણાય છે, અર્થાત્ નિશ્ચય થઈ જાય छ ४ मा रिताय विगरे । 'एतेसु दोसु काएसु समोयरंति' स्थावाय, Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ सू.२७ गन्धाङ्गस्वरूपनिरूपणम् ४५९ प्रसस्थावरजीवाधिकाररूपप्रकारेणैव एवमेव-उक्तप्रकारेणैव 'सपुब्वा रेण 'सपूर्वापरेण पूर्वेचापरं चेति पूर्वापरम् पूर्वापरेण सहितं सपूत्रपरं तेन पूर्वापरोक्त समस्त जीव पर्यालोचनया इत्यर्थः । ' आजीवदतेणं' आजीवदृष्टान्तेन, आ - सामस्त्येन जीवा अजीवा सकललोकासिव्याप्त्या स्थिता त्रस स्थावररूपा जीवाः तेषां दृष्टान्तेन समस्तलोकव्यापि जीवनिदर्शनेन तत्र प्रसाः - द्वित्रि- चतुस्तिर्यक् पञ्चेन्द्रिय- नारक - देव - मनुष्याः स्त्रस्त्रापेक्षया अनुक्रमेण प्रत्येकं द्वि-द्वि-द्वि-चतुश्चतुश्रुतु चतुर्दशलक्षसंख्यामाश्रित्य द्वात्रिंशल्लक्षसंख्यकाः 7 , (३२) स्थावराः - पृथिवी - जळ - तेजो - वायु-वनस्पतयः स्वस्वापेक्षयाऽनुक्रमेण - प्रत्येकं सप्त-सप्त-सप्त- सप्त- सप्त- चतुर्निशदि लक्षसंख्यामाश्रित्य द्विपञ्चागई है - इस तरह के कथन से नल और स्थावर की योनियों की पूर्वा पर परिगणना से समस्त लोक के जीवों की चौरासी लाख योनियां हो जाती हैं. यही बात 'एवमेव सपुच्चाचरेण अजीविदिते णं चउरसीह जाइ कुल कोडी जोणी पमुहसयलहस्सा भवंती तिलमक्खोया' इस सूत्रपाठ द्वारा समझाई गई हैं - यहाँ बाजीव दृष्टान्त से अर्थात् समस्त लोक स्थित जीवों की अपेक्षा से चौरासी लाख जाति कुल कोटियां कही है वह इस प्रकार -बस जीव पसौल लाख होते हैं जैसे दो लाख बेन्द्रिय, दो लाख तेइन्द्रिय, दो लाख चतुरिन्द्रिय, चार लाख तिर्यकू पन्द्रिय, चार लाख नारकी चार लाख देव और चौदह लाख मनुष्य जातियां, ऐसे बत्तीस लाख ब्रस जीव है (३२) एवं स्थावर जीव ५२ बावन लाख होते हैं जैसे- बात लाख पृथिवी काय ७, सात लाख मने त्रसहाय मा मे ४ प्रयोगांतलूत थ लय हे, मेन वात 'तकाप ar utarare चेव' मा सूत्रपाठथी अगर श्वामां आवे छे. आ प्रभारना કથનથી ત્રસ અને સ્થાવરાની ચાનિયાની પૂર્વાપર ગણના કરવાથી સઘળા જીવાની योनि ८४००००० योर्याशीसाथ योनियो य लय हे. ४ वात 'एवमेव सपुव्त्रावरेण आजीविदितेणं चउरासीइ जाइ कुलकोडी जोणीपमुहस्रयसहस्सा भवतीति समक्खाया' मा સૂત્રપાઠ દ્વારા સમજાવવામાં આવી છે. અહીયાં અજીવ દૃષ્ટાંતથી અર્થાત્ સમસ્ત લેાકસ્થિત જીવાની અપેક્ષાથી ચાર્યશીલાખ જાતિકુલકોઢિયે કહેલ છે તે આ પ્રમણે છે, ત્રસજીવ ખત્રીસ લાખ થાય છે. જેમકે એ લાખ એ ઇઈંદ્રિયવાળા, બે લાખ ત્રણ ઇઇંદ્રિયવાળા એ લાખ ચાર ઇંદ્રિયવાળા, ચાર લાખ તિય ક, ૫ ચેન્દ્રિય ચાર લાખ નારકી, ચાર લાખ દેવ અને ચૌદ લાખ મનુષ્યની જાતિયે આ રીતે બત્રીસ લાખ ત્રસ જીવે છે. તેમજ સ્થાવર જીવા પણ ખાવન લાખ થાય છે. જેમકે સાત લાખ પૃથ્વીકાય ૭ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० जीवा मिगमसूत्रे शल्लक्षसंख्यकाः (३२–५२ - ८४) इत्येवं समस्तजीव दृष्टान्तेन सर्वे जीवाः 'चउरासीइ जाइ कुळ कोडी जोणि पमुहलयसहस्सा भवतीति मक्खाया' चतुरशीति जाति कुल कोटि योनि प्रमुख शतसहस्राणि चतुरशीतिलक्षसंख्यकाः समस्तजीवानां योनयः भवन्तोति आख्यातं मया अन्यैथ ऋषभादितीर्थकरैरिति । सू०२७| कुलकोटि विचारणे विशेषाधिकाराद विमानान्यपि अधिकृत्य विशेष प्रश्नमाह - 'अस्थि भंते ! विमाणाई' इत्यादि, मूळ अस्थि णं भंते! बिमाणाई सोत्थियाणि वा लोत्थियावत्ताई सोत्थियप्पभाई सोत्थिय कंताई सोत्थिय बन्नाई सोत्थियलेस्लाई सोत्थियज्झयाई सोत्थियसिंगाराई सोत्थियकूडाई सोत्थियलिट्टाई सोत्थियउत्तरवाडिसगाई ? हंता अस्थि । तेर्ण भंते! विमाणा के महालया पन्नता ? गोयमा ! जावइणं सूरिए उदेह, जावइएणं च सूरिए अत्थमइ एवइया तिण्णोवासंतराई अत्येगइयस्स देवस्ल एगे विक्कमे सिया सेणं देवे ताए उछिट्टाए तुरियाए जव दिव्वाए देवगइए वीइवयमाणे वीइवयमाणे जात्र एगाहं वा दुयाहं वा उक्कोसेणं छम्मासा विजा, अरथेगइयं विमानं विईवएजा अत्थेगइयं विमानं णो वीईवएज्जा, ए महालयाणं गोयमा ! ते विमाणा पन्नत्ता । अस्थि of भंते! विभाणाई अच्चीणि अचिरावत्ताई तहेव जाव अच्चुसरवर्डिसगाई ? हंता अस्थि, ते विमाणा के महालया पन्नत्ता ? अकाय ७, सात लाख तेजहकाय ७, सात लाख वायुकाय ७, चोईस लाख वनस्पति काय २४, ऐसे घावन लाख स्थावर काय जीव होते हैं ५२। इस प्रकार बत्तीस और बादन मिलाकर समस्त लोक गत जीवों की चौरासी लाख जातियां है (८४०००००) ऐसा मैने और भगवान ऋषभ आदि अन्य सर्व तीर्थकरों ने कहा है । सूत्र- २७| લાખ અપ્કાય સાત લાખ તેજસ્કાય સાત લાખ વાયુકાય ૨૪ લાખ વનસ્પતિકાય એ રીતે પર લાખ સ્થાવરકાય જીવા થાય છે. આ રીતે ૩૨ ખત્રીસ અને પર મેળવવાથી સઘળા લેાકસ્થિત જીવેાની ચેર્ચાશી લાખ જાતિયે થાય છે. આ પ્રમાણે મેં તથા ભગવાનશ્રી ઋષભ વિગેરે સરે` તીથંકરાએ કહ્યુ` છે. રા Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम् ४३१ गोयमा ! एवं जहा सोत्थियाईणि णवरं एवइयाइं पंचओवासंतराई, अत्थेगइयस्स देवस्स एगे विक्कमे सिया, सेलं तं चैव ॥ अस्थि णं भंते! विमाणाई कामाई कामावसाई जाव कामुत्तरवसियाई ? हंता अस्थि । तेणं भंते! विमाणा के महालया पन्नता ? गोयमा ! जहा सत्थीणि, नवरं सत्तओवासंतराई सेसं तं चैव । अस्थि णं भंते! विमाणाई विजयाई वैजयंताई जयं ताई अपराजिताई ? हंता अस्थि । तेणं संते ! विमाणा के महालया पन्नत्ता ? गोयमा ! जावइए सूरिए उदेश एवइयाई नवओवासंतराई, सेलं तं चैव । णो चेवणं तं विमाणे वीई वएजा एमहालया णं विमाणा पन्नत्ता समणाउसो || सु० २८|| तिरिक्खजोणिय उद्देसओ पढमो || छाया - सन्ति खलु भदन्त ! विमानानि स्वस्तिकानि स्वस्तिकावर्त्तानि स्वस्तिकप्रमाणि स्वस्तिककान्तानि स्वस्तिकवर्णानि स्वस्तिकलेश्यानि स्वस्तिकध्वजानि स्वस्तिशृङ्गाराणि स्वस्तिककुटानि स्वस्तिकशिष्टानि स्वस्तिकोचरावतंकानि १०, सन्ति । तानि खल भदन्त । विमानानि कियन्महान्ति मज्ञप्तानि ? गौतम ! यावत् खलु सूर्य उदेति यावत्केच सूर्योऽस्तमेति एतावन्ति त्रीणि अवकाशान्तराणि, अरत्येककस्य देवस्यैको विक्रमः स्यात् स खलु देव स्तया उत्कृष्टया त्वरितया यावद दिव्यया देवगत्या व्यस्मिन् यावदेकाहं वा द्वयहं वा उत्कर्षेण षण्मासान् व्यतिव्रजेत् अस्त्येककं विमानं व्यतित्रजेद, अस्त्येककं विमानं नो व्यतिव्रजेत एवन्महान्ति खलु गौतम ! तानि विमानानि धज्ञप्तानि । सन्ति खलु मदन्त । विमानानि अर्ची षि अर्चिरावर्त्तानि तथैव यावद अचिरुत्त रावतंसकानि ? हन्त सन्ति । तानि विमानानि कियन्महान्ति मज्ञप्तानि ? iian ! एवं यथा स्वस्तिकादीनि नवर मेतचन्ति पञ्चावकाशान्तराणि अस्त्येककस्य देवस्यैको विक्रमः स्यात् शेषं तदेव | सन्ति खद्ध भदन्त ! विमानानि कामानि कामावर्त्तानि यावत्कामोरारावतंसकानि ? हन्त सन्ति, तानि खलु विमानानि यन्महान्ति प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! यथा स्वस्तिकानि नवर सप्ता वकाशान्तराणि शेषं तथैव सन्ति खलु भदन्त ! विमानानि विजयानि वैजयन्वानि जयन्तानि अपराजितानि ? इन्त सन्ति तानि खल भदन्न ! विमानानि कियन्महान्ति मज्ञप्तानि ? गौतम ! यावत्के सूर्य उदेति एवमेतानि नव अवकाशा Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કાર जीवामिगमस् न्तराणि शेषं तदेव नैव खलु तानि विमानानि व्यतित्रजेत् एतन्महान्ति ख विमानानि प्रप्तानि श्रमणायुष्मन् ! ||३० २७॥ ॥ तिर्यग्योनिकोदेशकः प्रथमः ॥ टीका- 'अस्थि भंते! विमाणाणि' अनास्तीति अव्ययपदं वर्थे, तथा सन्ति-विद्यन्ते खलु सदन्त । विमानानि - विशेषतः पुण्यप्राणिभिर्मन्यन्तेतगत सौख्यानुभवनेन अनुभूयते इति विमानानि 'सोत्थियाणि' स्वस्तिकानि 'सोत्थियावत्ताई' स्वस्तिकानि 'सोत्थियपवाई' स्वस्तिकप्रभाणि 'सोत्थियकं ताई' स्वस्तिकान्तानि 'सोल्थियाई' स्वस्तिकवर्णानि 'सोत्थियलेस्साई' स्व स्तिकलेश्यानि 'सोत्थिझ गई' स्वस्तिकध्वजानि 'सोत्थियसिंगाराई" स्वस्तिकश्टङ्गाराणि 'सोत्थियकूडा स्वस्तिक कूटानि 'सोत्थिमिद्वाई' स्वस्तिक कुल कोटि के विचार में विशेषाधिकार को लेकर गौतम ! विमानों के अस्eिr को लक्ष्य करके ऐसा पूछ रहे हैं 'अस्थि णं भंते । विमाणाई सोत्थियाणि' - इत्यादि । सूत्र २७ टीकार्थ - यहां 'अस्थि' यह अव्यय पद है और यह यह अर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो पुण्यात्माओं द्वारा विशेष रूप से - अर्थात् तद्भुत सौख्य के अनुभवन से-अच्छे माने जाते हैं वे विमान है यहां गौतम ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है 'अस्थि णं अंते ! खोत्थियाणि सोत्थिया बताई' हे भदन्न ! क्या स्वस्तिक स्वस्तिकावर्त्त, 'सोत्थियपभाई' स्वस्तिकप्रभा 'सोत्थिय कंनाई' स्वस्तिक कान्त 'सोत्थिय वन्नाई' स्वस्तिकवर्ण 'सोत्थियलेस्लाई' स्वस्तिक लेगा, 'सोत्थियन्झाई' स्वस्तिकध्वज 'सोत्थिय सिंगाराई' स्वस्तिक श्रृङ्गार 'सोत्थियकूडाई' स्वस्तिक कूट કુલકાટિયોના વિચાર કરતાં વિશેષાધિકારને લઈને વિમાનાના અસ્તિત્વને उद्देशाने श्रीगौतमस्वामी येवु छे छे 'अत्थि णं भंते ! विमाणाई सोत्थि याणि' इत्याहि ટીકાથ—અહિયાં ‘વિ' એ અવ્યય પદ છે. અને એ ખહુલ અથ'માં પ્રયુક્ત થયેલ છે. જે પુણ્યાત્મા દ્વારા શેિષપણાથી અર્થાત્ તગત સુખના અનુભવનથી સારા માનવામાં આવે તેને વિમાન કહેવામાં આવે છે. આ स'मधमां श्रीगौतमस्वामी प्रभुश्रीने खेवु' पूछयु छे 'अत्थि णं भंते ! स्रोत्थियाणि सोत्थियावत्ताई' हे लगवन् ! शु स्वस्ति, स्वस्तिठावर्त 'सोरिय भाई' स्वस्ति प्रभा 'सोत्थिय कंताई स्वस्ति डांत 'सोत्थिय वन्ना' स्पस्वि 'मोत्थिय लेखाइ' स्वस्ति बेश्या, 'सोत्थियनयाई ' સ્વસ્તિય જ 'सोत्थियसिगाराइ' स्वस्ति शृंगार 'सोत्थिय कूडाइ” Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका का प्र.३ उ.३ १.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम् ४३३ शिष्टानि 'सोत्थुत्तरवर्डिसगाई' स्वस्तिकावतंसकानि एतनामकानि विमानानि-- सन्ति किमिति भगवतो गौतमस्य विमानविषये प्रश्न:, भावानाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता अस्थि' हे गौतम ! इन्त.सन्ति यानि विमानानि त्वया पृष्टानि एकादशनामकानि तानि तथाविधान्येव सतीति । पुनगौ तसा प्रश्न यन्नाह-'तेणं भंते' इत्यादि, 'ते णं भंते ! बिमाणा के महालया पनत्ता तानि उपयुक्त नाम: कानि विमानानि कियन्महान्ति-कियत्प्रमाणमहत्वानि तानि दिमावानि सन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जावइएणं मुरिए उदेइ जावइएणं सरिए अस्थमेइ एनइया विष्णोवासंतराई पावति क्षेत्रे खलु सूर्य उदेति सावति क्षेत्रे खलु सूर्योऽस्तमेति एनान्ति उदयक्षेत्रास्तक्षेत्रपितानि प्रत्येकं त्रीणि अवकाशान्तराणि सनि जम्बूद्वीपे रमनस्कृिष्टे दिवसे मीभयन्तरे 'सोस्थियसिद्वाई' स्वस्तिकशिष्ट और 'लोत्थुष्टचाळिसगाई' स्वस्तिमा तरावतंसक इस नामों वाले विधान है क्या? या इसके उतनुश्री गौतम से कहते हैं-'हंता, अस्थि हां, गौतम इन नामों वाले देवों के विमान हैं 'ते णं भंते! विखाणा के महालया पत्नत्ता' हे बदन्त ! ये विमान कितने घडे हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोगमा ! जावइएणं हरिए उदेह जावइएणं सूरिए अत्धमह एवइया लिण्णोवासंताराई' हे गौलन्द ! शाही स्कृष्ट दिन में जितने क्षेत्र में सूर्य उदित होता है और जिलने क्षेत्र में वहअस्त होता है इतने उदय क्षेत्र और अस्त क्षेत्र प्रत्येक क्षेत्र को यहां तीन अवकाशान्तर होने से तिगुना करने पर जितना प्रमाण उस क्षेत्र का आना है.'अत्थेगझ्यस्स देवस्स एगे विक्कमेलिया' उतना किसी देव का एक विक्रम एक बार में धूमने का मार्ग होता है जैसे-जम्बूद्वीप में परित 'सोत्थिय सिदाइ' स्वस्ति शिष्ट भने 'सोत्थुत्तरवळिसगाई स्वस्तिકેત્તરાવસક આ નામેવાળા વિમાને છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ पामीन अछे 'हता अत्थि' है। गौतम ! मे प्रमाणेना नामावाणा । देवानां . विभाना छ. 'ते ण भंते ! विमाणा के महालया पन्नत्ता' भगवन् ! 21 विमाना ४८सा मोटा छ १ मा प्रश्नन। त्तरमा प्रभुश्री ४७ छ । गोयमा ! जावइएणं सूरिए उदेह जावइएणं सुरिए अस्थमइ एवइया तिण्णावास तराई' गौतम सहिष्ट लिनमा સૌથી મોટા દિવસમાં જેટલાક્ષેત્રમાં સૂર્ય ઉગે છે, અને જેટલા ક્ષેત્રમાં સૂર્ય અરત થાય છે, એટલા ઉદયક્ષેત્ર અને અસ્તક્ષેત્રમાં દરેક ક્ષેત્રને અહિયાં ત્રણ અવકાશાનતો હોવાથી ત્રણગણું કરવાથી તે ક્ષેત્રનું જેટલું પ્રમાણ આવે છે, 'अत्थेगइयस्स देवस्स एगे विक्कमे सिया' । हेवनु सतुं विभ-५॥ એકવારમાં ઘૂમવાનો માર્ગ થાય છે. જેમ જ બુદ્વીપમાં સૌથી ઉત્તમ દિવસ मी० ५५ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जीवामिगमसूत्रे पाडले वर्तमानः सूर्यो यापति क्षेत्रे उदेति यावति च क्षेत्रेऽस्तमुपयातीति, उदयक्षेत्रमस्तक्षेत्रं चाधिकृत्य यावत्परिमितं क्षेत्र भवति एतावत्प्रमाणं क्षेत्र मेकस्यावफाशान्तरस्य जायते प्रत्येक मेतावत्प्रमाणमधिकृत्य त्रीणि अवकाशान्तराणि सन्ति अत उदयक्षेत्रमस्तमितक्षेत्र चाधिकृतं क्षेत्रद्वयं प्रत्येकमवकाशान्तराणां त्रिकत्वेन त्रिगुणं कर्तव्यमिति भावः । ततः फिमित्याह-'अस्थेगडयस्स देवस्स एगे दिक्कमे सिया' अरत्येककस्य देवस्यको विक्रमः-'क्रमुपदविक्षेपे' इतिधातो: क्रमणं क्रमः, विशेषेण क्रमः विक्रमा-परिभ्रमणाचक्रं त्रिगुणीकृत सूर्योदयास्तमित क्षेत्रप्रमाणमार्गपरिभ्रमणरूपः स्यात् अस्त्येतद् बुद्धया परिभावनीयमेतद्-यथकस्य विवक्षितस्य देवस्यक: पूर्वोक्तप्रकारको विक्रमो भवेत् । तत्र जम्बूद्वीपे सर्वोत्कृप्टे दिवसे एतावत परिमिते क्षेत्रे सूर्य उदेति, तथाहि-सप्टचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वेशते त्रिपष्टयधिक योजनाना मेवस्य च योजनस्य एकविंशतिः पष्टिभागाः (४७२६३-२४) तदुक्तम्-- 'सीयालीससहस्सा दोणिसया जोयणाण तेवट्ठी । इगवीसहि भागा कक्कडमासंमि पेच्छनरा ॥१॥ सप्तचत्वारिंशत्सहस्राणि द्वेशते योजनानि निषष्टिः। एकविंशतिः पष्टिभागाः कर्कटमासे प्रेक्षन्ते नराः॥१॥ इतिच्छाया । सर्वोत्कृष्ट दिन में बसंक्रान्ति के प्रथम दिन में संतालीस हजार दो सौ तेसठ योजन और एक योजन के इक्कीस सातिया भाग (४७२६३. ३.) योजन दूर से सूर्य दिखता है जैसे कहा है ___ 'सीयोलीससहस्सा दोष्णिलया जोयणाण तेक्ट्ठी' इगवीस सहिमागा सकडमासूमि पेच्छनरा ॥१॥ अय संतालीस हजार दो सौ तेंप्तठ योजन और एक योजन और एक योजन के इक्कीस साठिया भाग (४७२६३१२) इतने योजन परिमित क्षेत्र को सूर्य के उदय क्षेत्र और अस्त क्षेत्र ऐसा दो क्षेत्र होने से दना માં અર્થાત્ કર્કસંક્રાન્તિના પહેલા દિવસે ૪૭૨૬૩૨ સુડતાલીસ હજાર બસ ત્રેસઠ જન અને એક જનના એક વીસ સાતિયા ભાગ યોજન દૂરથી સૂર્ય દેખાય છે. જેમ કહ્યું છે કે – 'सीयालीमसहस्सा दाण्णिसया जोयणाण तेवट्रि' 'गवीमा सट्टिभागा कक्कडमासंमि पेच्छनरा ॥१॥ સુડતાલીસ હજાર બસે ત્રેસઠ યોજન અને એક યોજન તથા એક યોજન એક વીસ સહિયા ભાગ ૪૭૨૬૩૨૩ આટલા યોજનના ક્ષેત્રને સૂર્યનું Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम् ५ एतावत्परिमिते क्षेत्रे एव तस्मिन् सर्वोत्कृष्टे दिवसेऽस्तमुपयाति सूर्य, तत एतरक्षेत्रम् उदयास्तमितक्षेत्रयोदिकत्वेन द्विगुणी कृतमुदयास्तमयान्तरालप्रमाणे भवति, तच्चैतावत्-चतुर्नवतिः सहस्राणि पञ्चशतानि षविंशत्यधिकानि योजनाना मेकस्य च योजनस्य द्वाचत्वारिंशत् षष्टिमागाः (९४५२६-४३) इति । एतावत् क्षेत्रम् अवकाशान्तराणां त्रिकत्वेन त्रिशुणीकृतम् जायते द्वेलक्षे त्र्यशीतिः सहस्राणि पञ्चशतानि अशीत्यधिकानि योजनानाम्, एकस्य योजनस्य च षट्षष्टि भागा: (२८३९८०१०) इति एतावतरिमितं देवस्यैकं परिभ्रमणक्षेत्र भवेत् । 'से देवे' सः- पूर्वोक्त क्षेत्रपरिभ्रमणशक्तिसंपन्नो विवक्षितो देवः 'ताए' तयासकलदेवजनप्रसिद्धया 'उकिटाए' उत्कृष्टया 'तुरियाए' त्वरया 'जाव दिवाएं चपलया चण्डया शीघ्रया उद्धतया जवनया छेऊया दिव्य या 'देवगईए' देवगत्या 'योतीवयमाणे वीतीवयमाणे' व्यतिब जन् व्यतिव्रजन्-गच्छन् गच्छन् 'जाव एंगाई करने पर चौरानवे हजार पांच सौ छब्बीस योजन और एक योजन के बयालीस लाठिया भाग (९४५२६४.) इतने योजन क्षेत्र का परिमाण हो जाता है। यह एक अबकाशान्तर परिमाण है, ऐसे यहां तीन अवकाशान्तर होने से इस क्षेत्र परिमाण को निगुणा करने पर अट्टा. ईस लाख तीन हजार पाँच सौ अस्ली योजन और एक योजन के छह सठिया भाग (२८३५८०६.) योजन क्षेत्र जो हो जाता है वह एक देवका एक एक विकम-श्रमण होता है लेणं देवे' वह देव एक वार में इतने क्षेत्र तक परिभ्रमण करने के सामर्थ्य वाला कोई एक देव 'ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाब दियाए' अपनी उस सफल देव प्रसिद्ध उस्कृष्ट स्वरायुक्त चपल, चंड, शीघ्र, उद्धृत, जवन, छेश और दिव्य 'देव गईए' देव गति ઉદય ક્ષેત્ર અને અતક્ષેત્ર એમ બે ક્ષેત્ર હોવાથી બમણ કરવાથી રાણ હજાર પાંચસો છવીસ યોજના અને એક યોજના બેંતાલીસ સાઠિયા ભાગ (૯૪૫ર 63) આટલા યોજના ક્ષેત્રનું પ્રમાણ થઈ જાય છે. આ અવકાશાન્તર પ્રમાણ છે. અહિંયા એવા ત્રણ અવકાશાન્તર હોવાથી આ ક્ષેત્ર પરિણામને ત્રણ ગણું કરવાથી અઠયાવીસ લાખ ત્રણ હજાર પાંચસો રોજન અને એક જનના છ સાઠિયા ભાગ (૨૮૩૫૮૦) જન ક્ષેત્ર જે થાય છે, તે એક हेना मे विभ. मात् भार थाय छे ‘से ण देवे' त मे पारमा આટલા ક્ષેત્ર સુધી પરિભ્રમણ કરવાના સામર્થ્ય વાળા કેઈ એક દેવ “att उक्किद्वाए तुरिगाए जाव दिवाए' चातानी त प्रसिद्ध Grve, पश युटत, य५स, न्य | Gaa raन, छे भन हिय देवगईए' गतिया Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे ४३६ वा दुयाहं वा' जघन्यतएगाहं वा द्वय (हं वा यावत्, 'उक्को सेणं छम्मासा चीतीवरजा' उत्कर्षेणे पण्मासान् थावत् व्यतित्रजेत् गच्छेद् । तत्रैवं गमने सः ' अत्येगइयं विमाणं वीवीवरज्जा' अस्त्येककं किञ्चन विमानं पूर्वोक्त विमानानां मध्ये व्यतिव्रजेत् उल्लंघ्य परतोऽतिक्रामेत् तस्य विमानस्य पारं लभेत तथा - ' अत्येगtयं विमाणं नो वीतीचएज्जा' अस्त्येककं पूर्वोक्त विमानानां मध्ये किश्वनविमानं नो , व्यतिव्रजेत्-नो अतिक्रामेत् नो उल्लंघ्य पारं गच्छेत् । अयं भावः- उक्त ममाणेनापि विक्रमेण परिभ्रमणरूपेण यथोक्तरूपयापि च गत्या पण्मासानपि यावदधिरुतो देवो गच्छति तथापि सः तेषां विमानानां मध्ये कस्यचिद्दिमानस्य पारं लमते कस्यचिद् विमानस्य पारं न लभते इति । ले 'बीइचयमाणे २' चलता चलता कम से कम एक दिन तक दो दिन -तक और उत्कृष्ट से छह मास तक लगातार चलता है तो ऐसी स्थिति में भी 'अत्गय विमाणं जीवना' वह देव उन विमानों में से किसी एक विमान को पार कर सकता है-उसे लांघकर वह आगे भी निकल जाता है और किसी एक विमान को वह लांघकर पार नहीं जा सकता है तात्पर्य कहने का यही है कि उक्त विक्रम 'चल' वाला कोई एक देव अपनी देव प्रसिद्ध गति से छह मास तक भी लगातार चलता रहे तथ भी वह किसी २, विज्ञान के ही पार जा सकता है सब विमानों के पार नहीं जा सकता है 'ए मशलया णं ते विमाण गोयमा ! पण्णत्ता' हे गौतम ! इतने बडे वे विमान कहे गये हैं । 'वीइवयमाणे वीइवयमाणे' यासता ચાલતા એછામાં ઓછા એક દિવસ સુધી બે દિવસ સુધી, અને ઉત્કૃષ્ટથી છ માસ સુધી લાગઢ ચાલતા રહે તે मेवी स्थितियां या 'अत्थेोगइय' विमाण' नीतीवएज्जा' ते देव से विभानामां શ્રી કેઇ એક વિમાનને પાર કરી શકે છે. તેને ઉલ્લધીને તે આગળ પશુ નીકળી જાય છે. અને કેાઇ એક વિમાનને તે પાર કરી શકતા નથી, કહેવાનુ તાપ એ છે કે આવા પ્રકારના વિક્રમ-મળ વાળે! કેાઈ એક દેવ પેાતાની ધ્રુવ પ્રસિદ્ધ ગતિથી લાગઠ છ માસ સુધી ચાલતા રહે તે પશુ તે કાઇ કેઇ વિમાનનેજ પાર કરી શકે છે, બધા વિમાંનેાની પાર જઈ શકતા નથી. "ए महालया णं भते विमाणा गोयमा ! पण्णत्ता' हे गौतम! ते विभाना આટલા મેટા હોવાનુ કહેલ છે, Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ४.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम् ४३७ 'ए महालयाण गोयमा ! ते विमाणा पनत्ता' एतावन्महान्ति खल्लु गौतम ! तानि विमानानि प्रज्ञप्तानि-कयितानि इति । 'अस्थि णं भंते ! विमाणाई' सन्ति खल्लु भदन्त । तानि विमानानि 'अचीणि' अचिषि-अचिर्नामानि तथा-'अच्चिरावत्ताइ' अचिरावानि तहेव जाव अच्चुनरवळिसगाई' अचिरूत्तरावतंसझानि किम् ? अत्र यावत्पदेन अचिममाणि, अचिःकान्तानि, अचिर्दर्णानि, अचिलेश्यानि, अचिं. नानि, अचिःशृङ्गाराणि, अचिाकूटानि अर्चिशिष्टानि, इत्येतेषां ग्रहणं मव. तीति । भगवानाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता गोयमा' हन्त गौतम ! 'अस्थि' सन्ति हे गौतम ! अचिरादिनामकानि विमानानि यथोक्तनामगुणविशिष्टानि विद्यन्ते इति । ___ 'ते विमाणा के महालया पन्नत्ता' तानि अचिर्नामकादीनि विमानानि कियमहन्ति-कियत्ममाणकमहत्त्वयुक्तानि प्रज्ञप्लानि कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह'एवं जहा' इत्यादि, 'एवं जहा सोस्थियाईणि' एवं यथा स्वस्तिकादीनि सूर्योद. ___ 'अस्थि णं भंते ! विमाणाह" हे भदन्त ! क्या थे विमान है 'अच्ची. णि" अर्चि 'अच्चिशवत्ताई' अधिरावर्त 'तहेच जाव अच्चुत्तरावडिंसगाई' उसी प्रकार यावत् अर्चिः प्रभ, अर्चि कान्ला, अधिर्वर्ण, अचिलेश्य अर्विज अर्चिः श्रृंग, और अर्चिः कूट अविशिष्ट, अर्चिहत्तरावतंसक, ये विमान है क्या ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'हंता गोयमा! अस्थि' हां गौतम ! ये विमाल है 'ते विमाणा के महालया पण्णता हे भदन्त ! ये अर्चि अधिरावत आदि विमान कितने बडे कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'एवं जहा सोत्थियाणि' हे गौतम ! जैसा कथन स्वस्तिक आदि विमानों की महत्ता के रूपन्ध में किया गया है, सा श्रीगोतमस्वामी प्रमश्रीन पूछे छे 'अस्थि ण मते ! विमाणाई” 8 लापन ' विमान छ १ 'अच्चीणि' मयि जच्चिरावचाई' मशिवत' 'तहेव जाव अच्चुत्तरवाडिसगाई' मे प्रमाणे यावत् मथि:प्रस, मशित मणुि , मवेश्य, मयि, मथि:शु, भने मटि , मशिष्ट, અર્ચિરૂત્તરાવંતસ આ વિમાનો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે 'हता गोयमा ! अत्थि' । गीतम ! म विमान छ 'ते विमाणा के महालया पण्णत्ता' गवन् ! मथि:मसित विगेरे विमान १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ । 'एवं जहा सोस्थियाणि' हे गौतम ! स्वस्ति। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमत्रे ४३८ यस्तमितक्षेत्र प्रमाणमधिकृत्य यावत्ममाणेन महान्ति कवितानि तावत्ममाणान्येव अर्चीप, इत्यादि विमानान्यपि महान्ति वाच्यानि । 'नरं पवतियाई पंन ओवासंतराई' नवरं - केवलम् अत्रायं विशेषः । एतावत्कानि अत्र एतावतप्रमाणानि पश्यावकाशान्तराणि सन्ति, स्वस्तिकादिविमानमृगेतु त्रीणि अवकाशान्तराणि प्रोक्तानि । 'अत्थेगइयस्स देवस्स पुगे विकमे सिया' अस्त्वेकस्य देवस्यैको विक्रमः - परिभ्रमणं स्यात् 'सेसं तं चेव' शेषं तदेव, शेषं शेषसूत्रं तदेव - पूर्वसूत्र वदेव व्याख्येयं यावत् 'एमहालपाणे गोयमा ! ते चिमाणा पनवा' एतावत्माणकानि गौतम ! विमानानि प्रज्ञयानीति पर्यन्तम् । ही कथन इन विमानों की महत्ता के सम्बन्ध में भी कर लेना चाहिये, परन्तु अन्तर इतना है कि 'एवतिमाई पंच ओवा संग' यहां पूर्वोक्त प्रमाण वाले पांच अवकाशान्तर होने से जितना क्षेत्र रूप विक्रम ग्रहण किया गया है उतने क्षेत्र को पांच गुणा करने पर 'अत्थे यस्त देवरस एगे चिकमे' इस तरह का इतना क्षेत्र किसी एक देव का एक विक्रम रूप होना है 'सेलं तं चेव' बाकी सन पूर्व की तरह व्याख्यात कर लेना चाहिये अर्थात् एक बार में पूर्वोक्त प्रमाण क्षेत्र तक घूमने की शक्ति वाला कोई एक देव अपनी उत्कृष्ट आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाली गति से निरन्तर कम से कम एक दिन तक दो दिन तक और अधिक से अधिक छह मास तक चलता रहे, तब भी वह देव अर्चिः आदि विमानों में से किसी एक विमान को उल्लङ्घन कर उसके पार जा વિગેરે વિમાનાની મહત્તના સમધમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ કથન આ વિમાનાની મહત્તાના સબંધમાં પણ કરી लेवु लेामे. परंतु मे जन्तेमा सेट ४ अंतर हे 'एवतियाई' पंच भोषास तराइ " मडियां पूर्वेति प्रभावाला पांच अव४.शान्तर होवाथी જેટલા ક્ષેત્રરૂપ વિક્રમ ગ્રહણ કરેલ છે. એટલા ક્ષેત્રને પાચ ગણુ કરવાથી 'अत्थे गचस्स देवरस एगे विकमे' मा प्रभाषेनुसार क्षेत्र मे हेव ना मे विभक्तिश्य होय छे. 'सेस' त' चेव' जाडीनु अघणु' उधन पडेला પ્રમાણે કહી લેવું જોઇએ. અર્થાત્ એક વારમાં પૂર્વક્તિ પ્રમણના ક્ષેત્ર સુધી ઓળંગવાની શક્તિ વાળા કોઈ દેવ પેાતાની એ ઉત્કૃષ્ટ આદિ પૂર્વોક્ત વિશેષ@ાવાળી ગતિથી દરરાજ એછામાં એાછા એક દિવસ સુધી અથવા એ દિવસ સુધી અને વધારેમાં વધારે છ માસ સુધી ચાલ્યા કરે તે પણ તે દેવ અર્ચિ વિગેરે વિાના પૈકી કેઇ એક વિમાનને એળગીને તેને પાર Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ १.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम् ४३९ _ 'अस्थि णं भंते ! विमाणाई' सन्ति खलु भदन्त ! विमानानि 'कामाई' कामानि-कामनामकानि 'कामाबदाई' कापावानि 'जाव कामुत्तरवडिययाइ' याक्कामोत्तरावतंसफानि अत्र यावत्पदेन फामममाणि कामकान्तानि कामवर्णानि कामलेश्यानि कामध्व नानि कामशंगाराणि कामकूटानि कामशिष्टानि, इत्येषां संग्रहो भवति तथा प हे सदन्त ! कामादिनामकानि विमानानि कि सन्ति, इति प्रसा, भगवानाह-'हंता अस्थि' हन्त गौतम ! काम दिनामक नि विमानानि सन्तीति । ते भंते ! विमाणा के महालपा पन्नत्ता' तानि कामा. दिनामकानि विमानानि खलु भइन्न ! कियन्महान्ति मज्ञानीति प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयना' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहा सोस्थियाई यथा स्वतिसकता है. किसी के पार नहीं भी जा सकता है अर्थात् सघ विमानों को उल्लंघन कर पार नहीं जा सकता है। ऐसी विशालता वाले वे अर्चि आदि विमान हैं। _ 'अस्थि णं भंते विभाणाई कामाई' कामावत्ताई जाब कामुत्तरवडिस. याई' हे गौतम! क्या काम, काम वर्त्त, यावत् कामोतरावतंसक विमानहै ? उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'हला अधि' हां गौतम ! काम कामावर्त यावत् वामप्रभ, कामकान्त, कामवर्ण, घामटेश्य, कामध्वज, कामशंग, कामकूट, काम शिष्ट और कामोत्तरादतखक, ये विमान हैं । 'ते णं भंते। विमाणा के महालया पन्नता' हे भदन्त ! काम कालावत आदि विमान कितने बडे कहे गये ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'मोयमा जहा लोत्थियाई हे गौतम ! जैप्ले-स्वास्तिक आदि विमान बड़ी भारी विशालता वाले कहे गये हैं-वैसे ही ये भी बहुत बड़ी विशालता वाले कहे गये हैं। કરી શકે છે, અને કેટલાકને પાર ન પણ કરી શકે. અર્થાત બધા વિમાનોને ઓળંગીને પાર કરી શકતું નથી. આટલી વિશાળતાવાળા આ અર્ચિ વિગેરે વિમાને છે. ___ 'अस्थि गं भंते विमाणाई कामाई कामावत्ताई जाव कामुतर वडिंसयाइ' ભગવદ્ શું કામ, કામાવર્ત, યાવત્ કામોત્તરાવતંસક વિમાન છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरप्रभु ''ता अत्थि' डा गौतम ! म, भावत', यापत કામપ્રભ, કામકાંત, કામવર્ણી કમલેશ્ય, કામદેવજ, કામશંગ, કામકૂટ, કામશિષ્ટ भने मात्तशतसमा विमाना छे. 'ते णं भते ! विमाणा के महालया पन्नत्ता' ७ समपन् ! भि, भावत, विगेरे विमान केटमा भाटा ४॥ छ ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छे 'गोयमा ! जहा साथियाइहै ગૌતમ ! જે પ્રમાણે સ્વસ્તિક વિગેરે વિમાને ઘણું મેટિ વિશાળતાવાળા Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० जीवामिगमस्से कादिनामकानि विमानानि सन्ति तथैव कामादिनामकान्यपि विमानानि सन्ती त्युत्तरम् । 'णवरं सत्तओवासंबराई सेसं तहेन' नवरमत्र सप्तावकाशान्तराणि, शेष-शेषमूत्र तथैव अचिरादि सूत्रवदेव व्याख्येयम् । स खलु देवस्तानि विमानानि पूर्वोक्तया दिव्यया देवगत्या कश्चित कातिव्रजेत् कश्चिद्देवः किश्चनविमान व्यतिक्रमेन किश्चन विमानं नो व्यतिक्रमेदित्यादिकं सत्र पूर्वदेव ज्ञातव्यमिति भावः । ___'अस्थि णं भंते ! विमाणाई' रान्ति खन यदन्त ! विमानानि 'विजयाई विजगनि-विजयनासकानि वेजयंताई वैजयन्तानि 'जयंताई' जयन्तानि 'अपराजियाई' अपराजितानि इति प्रश्ना, भगवाना-'हा अत्यि' हन्त गौतम ! परन्तु यहां इनकी विशालता जानने के लिये 'णवरं महत्तमोधा संतराइ विनमे सेसं तहेच' यहां का अवकाशान्तर शाइना चाहिये इस तरह इतने अवकाशान्तर एक बार में घूमने की शक्तिवाले देव कम से कम एक दिन तक या दो दिन तक अधिक से अधिक छह मास तक चलता हुआ कोई एक देव उन कामादि विमानों में से किसी एक विमान को ही उल्लङ्ग सफला तथा किसी को नहीं भी उल्लंघन कर सकता है। ऐसी घड़ी भारी विशालता न विमानों की है इत्यादि रूप से सब कथन पूर्वोक्त जैसा ही यहां समझ लेना चाहिये, 'अस्थि णं भंते ! विजयाई विमाणाई' हे भदन्त | क्या विजय मानके विमान है ? 'वेजयंताई" वैजयन्त नाम के विमान हैं 'जयताई' जयन्त नाम के विमान में 'अपराजिया' अपराजित नाम के विमान है ? gan . ५९ महिया मा विमानानी विशालता वा माटे 'णवर सत्त आवासंतगई विक्कमे सेसं तहेव' मडियां सात अशान्त वा नये. આ રીતે આટલા અવકાશાન્તરો એક વારમાં ઓળંગવાની શક્તિવાળે દેવ ઓછામાં ઓછા એક દિવસ સુધી અથવા બે દિવસ સુધી અને વધારેમાં વધારે છ મહીના સુધી ચાલતો કે દેવ એ કામ વિગેરે વિમાને પિકી કઈ જ એકાદ વિમાનને જ ઓળંગી શકે છે. તથા કેઈને ઓળંગી ન પણ શકે. અર્થાત્ કઈક જ વિમાનને પાર કરી શકે છે, અને કેઈકને પાર ન પણ કરી શકે. આવી ઘણી મોટી વિશાળતા આ વિમાનની છે. ઈત્યાદિ પ્રકારનું સઘળું કથન પહેલા કહ્યા પ્રમાણેનું સમજી લેવું. 'अस्थि ण भते । विजयाई विमाणाइ' से भगवन् शुविय नाभर्नु विभान छ १ 'वेजय'ताई' यन्त नामनु विभान छ ? 'जयंताई" यात नामर्नु विमान छ १ 'अपराजियाई' २५५२ त नामनु विभान छे? मा Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ shrutfतका टीका प्र.३ उ.३.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम् ४४१. सन्ति विजयादीनि विमानानीति । 'ते णं संते ! विमाणा के महालया पन्नत्ता'यानि खलु भदन्त । विमानानि - विजयादिनासकानि कियन्महान्ति भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह - 'जोयमा' इत्यादि, 'गोरमा' हे गौतम ! जाइए सूरिए उदेह' यावर क्षेत्रे सूर्य उदेति इत्यादि सूक्तं यावत्परिमतं क्षेत्र' भवेत् 'एवइयाण' नव ओवासंतराई' एतावन्ति एवात्पमाणानि अत्र नत्र अवकाशान्तराणि सन्ति 'सेयं तं चेव' शेषं तदेव पूर्वोक्तमेव, तवत्के क्षेत्रे कथन्देवः देवगत्या उत्कृष्टादिदिव्यदेवगत्या व्यतिव्रजेत् 'नो चेत्र णं ते विमाणे बीइनएज्जा' नैव खलु स देवः तानि विजयादीनि विमानानि व्यवित्रजेन्, पूर्वोक्तविशेषणविशिशेऽपि देव उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'हंना अस्थि' हां गौतम ! विजय आदिक विमान हैं । 'ते णं भंते ! विमाणा के महालया पत्रत्ता' हे भदन्त ! ये विजयवैजयंतादिक विमान कितने बडे अर्थात् विशाल कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! जावइए सूरिए उदेह' हे गौसम ! जितने प्रमाण क्षेत्र में सूर्य का उदय होता है और जितने प्रमाण क्षेत्र में वह अस्त होता है 'एवइयाई नव ओयामंनश" इतने प्रमाण के यहां नौ अवकाशान्तर होने से उतने प्रमाण क्षेत्र को नौ गुणा करना चाहिये, इतने प्रमाण वाले क्षेत्र में घूमने की शक्ति वाला कोई एक देव अपनी उस उत्कृष्ट आदि विशेषणों बाजी दिव्य देव गति से कम से कम एक दिन अथवा दो दिन अधिक से अधिक छह मास तक चलता रहे तब भी वह देव 'नो चेत्र णं ते विमाणे बोईवएज्ज।' इन विजयादि विमानों में से एक भी विमान को लांच नहीं सकता है। यहां तात्पर्य यह है कि पूर्वोक्क प्रश्नना उत्तरमा अलुश्री गौतमस्वामीने हे छे 'हता अस्थि, गौतम ! विनय वैन्यंत विशेर विभाने छे. 'वे णं भंते विमाणा के महालया पन्नत्ता' हे ભગવત્ આ વિજય વિગેરે વિમાના કેટલી વિશાળતાં વાળા કહેવામાં ાવેલ છે? या प्रश्नता उत्तरमां प्रलुश्री गौतमस्वामीने हे 'गोयमा । जावतिए सूरिए રેફ' હૈ ગૌતમ ! જેટલા પ્રમાણ ક્ષેત્રમાં સૂર્યના ઉદય થાય છે, અને नेटसा प्रभाष क्षेत्रमां ते भरत थाय छे, 'एवइयाइं नव ओवास तराइ " એટલા પ્રમાણના અહિયાં નવ અવકાશાન્તર હાવાથી એટલા પ્રમાણ ક્ષેત્રને નવગણુ કરવું જોઈએ. આટલા પ્રમાણવાળા ક્ષેત્રમાં ફરવાની શક્તિ વાળા કાઈ એક દેવ પેાતાની એ ઉત્કૃષ્ટ વિગેરે વિશેષણા વાળી દિવ્યદેવગતિથી એાછામા આછે એક દિવસ અથવા બે દિવસ અને વધારેમાં વધારે છ માસ સુધી तर तो ते द्वे 'नो चेत्र णं वे विमाणे वीईवपज्जा' या विषय વિગેરે વિમાના પૈકી એક પણ વિમાનને ઉલ્લ’ઘી શકતાનથી, આ કથનનું जी० ५६ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम उन्कृष्टादिरूपया दिव्यया देवगत्या व्यतिव्रजेत् स्वस्तिकाचिः कामामिधानानां त्रिविधान विमानानां मध्ये किश्चिविणानं व्यतिबजेदपि किन्तु विजयादीनि विवक्षितो देवः कदापि नो परिव्रजे, विजयादि विमानानि उल्लङ्घयितुं कोऽपि देवो न सक्यो भवितुर्ह गीति भावः। 'ए महालयाणं दिमाणा एन्नत्ता' एता. वन्महान्ति तानि विमानानि प्रज्ञमानि 'सममाउलो' हे श्रमण ! हे आयुष्मन्निति । अत्रविषये चतस्त्रः संग्रहमाथाः सन्ति, तथाहि-- 'जावई उदेह सूरो, जारइ सो अत्यमेइ अवरेणं । तियपणसत्तनवगुणं, कापतेय पत्तेयं ॥१॥ सीयालीससहस्सा, दोयसया जोयणाण तेवट्ठा। इगवीस सही भागा ककडमाइस्मि पेच्छनरा ॥२॥ एयं दुगुणं काउं', गुणिज्जइ तिपणसत्तमाईहिं।। आगयफलं च ज त, कमपरिमाणं वियागाहि ॥३॥ चत्तारि वि सम्मेडि, चंडाईगईहिं जंति छम्मास । तहवि य न जति पारं केरिंचि सुरा विमाणाणं ॥४॥ यावति दूरे क्षेत्रे सूर्य उदेति यावति च दूरे क्षेत्रे स सूर्योऽपरदिशि पश्चिमायामस्तमेति, तावत्परिमि क्षेत्र प्रत्येकं प्रत्येकम् 'तियप गसत्तनवगुणं' त्रि-पञ्चपरिभ्रमण की शक्ति बाला देव अपनी उत्कृष्टादि गति से चलता हुभा स्वस्तिक अर्चि काम इन तीन प्रकार के विमानों में से किसी एक का लंघन कर भी पता है किन्तु पिजयादि विमानों में से किसी एक विमान का भी उल्लंघन करने में समर्थन नहीं हो सकता है, यही यहाँ विशेषताहै । 'ए महालया णं विसाणा पन्नत्ता' ऐली विशालता वाले वे विजयादिक विमान कहे गये है 'समणा उलो' हे अमग आयुष्मन् । यहां विमानों के प्रमाण के विषय में चार संग्रह गाधाए हैं वे इस प्रकार 'जावइ उदेह सूरो' इत्यादि १-४॥ તાત્પર્ય એ છે કે પૂર્વોક્ત પરિભ્રમણની શક્તિ વાળો દેવ પિતાની ઉત્કૃષ્ટ વિગેરે ગતિથી ચાલીને સ્વસ્તિક. અર્ચાિ અને કામ આ ત્રણ પ્રકારને વિમાન પૈકી કોઈ એક દ વિમાનનું ઉલઘન કરી પણ શકે છે, પરંતુ વિજય વિગેરે વિમાને પિડી કેાઈ એકાદ વિમાનનું ઉલ્લંઘન કરવાને સમર્થ थता नथी और महियां विशेष पाछे 'ए महालया गं दिमागा पंन्नत्ता' આવા પ્રકારની વિશાળતાવાળા એ વિજય વિગેરે વિમાને કહ્યા છે. 'समणाउसो' 3 श्रम आयु भन् ! महियां विमानाना प्रभाना समयमा न्या२ ड गाथामे ही छे, ते 241 प्रमानी छ. 'जावइ उदेइ सूरो' त्या Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.२८ स्वस्तिकादि विमाननिन्नपणम् ४४३ सप्त-नव-नव-गुणं क्रमेण कर्तव्यद, इति । पूर्वोक्तं क्षेत्रं कियत्परिमितं भवेदित्याह'सीयालीससहस्ता', इत्यादि, सप्त-चत्वारिंशत्सहस्त्राणि, द्वेशते, योजनानि एकस्य योजनस्यैकविंशति स्त्रिषष्टिभागाः (४७२६३२१) इयत्परिमितं भवति, तत्तु कदा भवतीत्याह-ककडमाइम्मि' कर्कटादौ कर्कसंक्रान्से रादौ प्रथमदिने भवति जम्बूद्वीपे सर्वाभ्यन्तरमण्डले गते सूर्ये सर्वोत्कृष्टे दिवसे 'पेच्छन।' मनुष्याः सूर्यप्रेक्षन्ते 'एयं दुगुणं काउं' एतत् क्षेत्रं द्विगुणं कृत्वा उदय-क्षेत्र मस्तक्षेत्र चेति द्वयमाश्रित्य प्रत्येकावकाशान्तरापेक्षया क्रमशः विपण सत्तमाईहि' त्रि-पश्च जितने दूर क्षेत्र में पूर्व दिशा में सूर्य ऊगता है और जितने दूर क्षेत्र में पश्चिमदिशा में सूर्य अस्त होता है उतने प्रमाण के दोनों क्षेत्रों में प्रत्येक क्षेत्र को 'तिपण सत्तनय गुणं' अर्थात् कब ले तीन पांच सात और नव से गुनाना चाहिये, वह पूर्वोक्त सूर्योदधा और सूर्यास्त के अन्तरालका क्षेत्र कितना होता है जिसको तीन आदि से गुलाया जाय उस क्षेत्र का प्रमाण इस प्रकार है 'सीयालीस हल्ला' इत्यादि, तालीस हजार दो सौ तेसठ योजन और एक योजन के इक्कीस साठिया भाग (४७२६३२१) एक सूर्योदय और सूर्यास्त में एक क्षेत्र का प्रमाण हुआ। यह प्रमाण कय होता है उसके लिये कहते हैं-'काकाडमाइस्मि' कर्क, संक्रान्ति के आदि-प्रथम दिन में सूर्य जब सर्वाभ्यन्तर मण्डल में प्रवेश करता है उस समय सर्वोत्कृष्ट-सबसे बडा दिन होता है इस दिन सूर्योदय सूर्यास्त के क्षेत्र का इतना प्रमाण होता है । 'एयं दुगुणं काउं' अर्थात् इस उदय क्षेत्र और अस्त क्षेत्र ये दो होने से उपर्युक्त क्षेत्र को જેટલે દૂરના ક્ષેત્રમાં પૂર્વ દિશામાં સૂર્ય ઉગે છે. અને જેટલા દૂરના ક્ષેત્રમાં પશ્ચિમ દિશામાં સૂર્ય આથમે છે. એટલા પ્રમાણુના અને ક્ષેત્રમાં દરેક क्षेत्रने 'तिपणखत्तनव गुणं' अर्थात् मथी त्रय, पाय, सात, भने नया ગુણવા જોઈએ આ પૂત સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્તના અંતરાલનું ક્ષેત્ર કેટલું હોય છે? જેને ત્રણ વિગેરેથી ગુણાવામાં આવે એ ક્ષેત્રનું પ્રમાણ આ પ્રમાણે छ. 'सीयालीससहस्सा' त्या सुताक्षीस १२ से स४ यान अनं અક જનના એકવીસ સાઠિયા ભાગ (૪૭૨૬૩૨) એક સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્તમાં એક ક્ષેત્રનું પ્રમાણ થયું. આ પ્રમાણે કયારે થાય છે ? તે સંબંધમાં छ। 'कक्कड़माइम्मि' , सन्तिना पहिसे सूर्य पारे साक्ष्यन्तर મંડલમાં પ્રવેશ કરે છે, તે વખતે સત્કૃષ્ટ અર્થાત્ સૌથી માટે દિવસ હોય छ. हिवसे सूहिय सूर्यास्त ना क्षेत्रनु सरलु प्रमाण छ 'एय' दुगुण काउ' અર્થાત્ આ ઉદયક્ષેત્ર અને અતક્ષેત્ર આ બે હોવાથી ઉપરોક્ત ક્ષેત્રને બમણું Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे प्र सप्तादिभि - त्रिपञ्च सप्तनवभिः 'गुणिज्जइ' गुण्यते, एवं गुणनेन 'आगयं फलं च जंतं' यत् आगतं तत् 'कमपरिमाणं' क्रमपरिमाणं देवस्य प्रत्येकविमानश्रेण्यां क्रमेण विक्रमेण विक्रमपरिमाणं परिभ्रमण क्षेत्र प्रमाणम्, 'त्रियाणाहि' विजानीहि |३|| चत्तारि दि' चत्वार्यपि स्वस्तिकार्चिः कामविजयादीनि विमानानि 'संकमेहि दुगुना करना चाहिये यह दुगुना किया हुआ क्षेत्र इतना होता है-चौरानवे हजार पांचसौ छब्बीस योजन और एक योजन के यथालीस साठिया भाग (९४५२६-१३) यह प्रमाण एक अवकाशान्तर का हुआ ऐसे प्रत्येक विमान श्रेणि में क्रम से कितने कितने अवकाशान्तर होते हैं सो बताते है- 'तिपणसत्तमाईहिं' तीन पांच सात और नव, ये क्रम से होते हैं । पूर्वोक्त दुगुने किये हुए सूर्योदय सूर्यास्त क्षेत्र को प्रत्येक विमान श्रेणि 'के अवकाशान्तर से गुनाना चाहिये, जैसे-पूर्वोक्त सूर्योदय सूर्यास्त क्षेत्र को स्वस्तिकादि विमान श्रेणि में लीन ले, अर्चिरादि विमान श्रेणि में पांच से कामादि विधान श्रेणि में सात से और विजयादि विमान श्रेणि में नौसे गुनाना चाहिये सारांश यह है कि पूर्वोक्त सूर्योदयास्न क्षेत्र (९४५२६ - है) को तीन से गुनने पर जो फल आता है वह स्वस्तिकादि विमान श्रेण के प्रकरण में एक देव का विक्रम कहना चाहिये इसी प्रकार पूर्वोक्त सूर्योदयास्त क्षेत्र को पांच से गुना करने पर जो फल आता है वह अर्चिरादि विमान श्रेणि प्रकरण में एक देव का विक्रम कहना કરવું જોઈએ એ પ્રમાણે ખમણું કરવામાં આવેલ ક્ષેત્ર એટલું હોય છે, ચેારાણું હજાર, પાંચસો છવ્વીસ ચેાજન અને એક યેજનના ૪૨ મેતાલીસ સાઠિયાભાગ (૯૪૨૬૪) આ પ્રમાણુ એક અવકાશાન્તનુ થયુ. આવી દરેક વિમાન શ્રેણીમાં ક્રમથી કેટલા કેટલા અવકાશાન્તર હાય છે. તે ताये छे, 'तिपणसत्तमाईहि' ऋणु, पाय, सात भने नव या उभथी थाय છે. પૂર્વોક્ત બમણા કરવામાં આવેલ સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્તના ક્ષેત્રને દરેક વિમાન શ્રેણીના અવકાશાન્તરથી જીણુવા જોઈએ. જેમ પૂર્વોક્ત સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્ત ક્ષેત્રને સ્વસ્તિક વિગેરે વિમાન શ્રેણીમાં ત્રણથી અર્ચિ વિગેરે વિમાન શ્રેણીમાં પાચથી, કામ વિગેરેવિમાન શ્રેણીમાં સાતથી અને વિજયાદ વિજ્ઞાન શ્રેણિમાં નત્રથી, ગુથવા જોઇએ. કહેવાને સારાંશ એ છે કે પૂર્વોક્ત સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્ત ક્ષેત્ર (૯૪૫૨૬૩) તે ત્રણ થી ગુણુવાથી જે ગુણાંક આવે તે સ્વસ્તિક વિગેરે વિમાન શ્રેણીના પ્રકરણમાં એક દેવનું' વિક્રમ-ખલ કહેવુ જોઇએ. એજ પ્રમાણે પૂર્વક્તિ સૂય અને સૂર્યાસ્ત ક્ષેત્રને પાંચથીગુણવાથી જે કલ આવે તે અર્ચિ વિગેરે વિમાન શ્રેણીના પ્રકરણમાં એક દેવત્તું વિક્રમ સમજવું. અને એજ સૂદિય અને Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिकां टीका प्र. ३ उं. ३ खू.२८ स्वस्तिकादि विमाननिरूपणम् É चंडाइगईदि । चण्डादिगतिभिः स्वक्रमैः स्वविक्रमैः स्वपरिभ्रमणचक्रः 'जंति छम्मासं' षण्मासान् याचत् यान्ति गच्छन्ति 'वहवि य न जंति पारं केङ्क्षिचि सुराविमाणा' तथापि च सुरा देवाः केषाञ्चिद् विमानानां विजयादीनां तु पारं न यान्तीति संग्रहगाथा चतुष्टयस्य संक्षेपार्थः । ० २८ ।। तृतीय प्रतिपत्त तिर्यग्योनिका भिधः प्रथम देशकः समाप्तः । कथितः प्रथमोदेशकः इदानीं द्वितीयोदेशकस्यावसरः तत्रेदं प्रथमं सूत्रम्, 'कविहाणं मंधे' इत्यादि मूलम् - कहविहाणं भंते! संसारसमापन्नगा जीवा पन्नत्ता ? गोयमा ! छठिवहा पन्नत्ता, तं जहा पुढवीकाइया जाव तसकाइया । से किं तं पुढीकाइया पुढवीकाइया दुबिहा पन्नत्ता तं जहा - सुहुमपुढवीकाइया बादरपुढवीकाइया । से किं तं सुहुमपुढवीकाइया ? सुहुमपुढीकाइया दुविहा पन्नत्ता तं जहापजत्तगा य अपज्जन्तगा य से त सुहुमपुढचीकाइया । से किं लं चाहिये । एवं उसी सूर्योदयास्त क्षेत्र को सात से गुना करने पर जो फल आता है यह कामादि विमान श्रेणि प्रकरण में एक देव का विकल कहना चाहिये । तथा उसी तरह सूर्योदयास्त क्षेत्र को नौ से गुणने पर जो फल आता है वह विजयादि विमान श्रेणि प्रकरण में एक देव का विक्रम होता है । ये विजयादि विमान लप से बड़े हैं इसलिये स्वस्तिक अर्चि और काम आदि विमानों में तो वह देव किसी किसी विमान को पार भी कर सकता है किन्तु वह देव विजयादि विमानों में से किसी को भी पार नहीं कर पाना है । यह चार संग्रह गाथाओं का अर्थ होता है । ० २८|| तृतीय प्रतिपत्ति में तिर्यग्योनिक अधिकार का प्रथम उद्देशक समाप्त સૂરત ક્ષેત્રને સાતથી ગુણવામાં આવે તેનું જે ફળ આવે તે કામ વિગેર વિમાણુ શ્રેણી પ્રકરણમાં એક દેવનુ વિક્રમ સમજવું જોઇએ અને એજ પ્રમાણે સૂર્યોદય અને સૂર્યાસ્ત ક્ષેત્રને નવથી ગુણતાં જે ગુણાકાર આવે તે વિજય વિગેરે વિમાન શ્રેણી પ્રકરણમાં એક દેવનું વિક્રમ થાય છે. આ વિજય વિગેરે વિમાના સૌથી મેાટા હાય છે તેથી સ્વસ્તિક, અગ્નિ અને ક્રમ વિગેરે વિમાનામાં તે તે દેવ કેાઈ કાઈ વિમાનને એાળંગી પણ શકે છે, પરંતુ તે દેવ વિજય વિગેરે વિમાન પૈકી કઇ પણ વિમાનને એળગી શકતા નથી. આ પ્રમાણે આ ચાર સંગ્રહ ગાયાએ અથ થાય છે. ! સૂ ૨૮ ૫ ત્રીજી પ્રતિપત્તીમાં તિય ચૈાનિક અધિકારના પડેલે ઉદ્દેશે। સમાસ ॥૩-૪ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमत्र बायरपुढवीकाइया ? बायरपुढवीकाइया दुविहा पन्नत्ता तं जहा पजत्तगाय अपज्जत्तगाय, एवं जहा पण्णवणापदे सण्हा सत्त. विहा पन्नत्ता, खरा अणेगविहा पन्नत्ता जाव असंखेज्जा से तं वायरपुढवीकाइया से तं पुढवीकाइया । एवं चेव जहा पण्णवणाएदे तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव वणप्फइकाइया । एवं जाव जत्थेगो तत्थ लिय संखेज्जा लिय असंखेज्जा सिय अगंता, से तं बायरवणप्फइकाइया । से तं वणस्तइकाइया । से किं तं तसकाइया, तसकाइया चउठिवहा पन्नत्ता तं जहाबेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचेंदिया। से किं तं बेइं. दिया ? बेइंदिया अणेगविहा पन्नत्ता, एवं जं चेव पण्णवणापदे तं चेव निरवलेलं भाणियव्वं जाव सव्वटसिद्धगदेवा से तं अणुत्तरोववाइया, ले तं देवा से तं पंचेंदिया, से तं तसकाइया॥२९॥ छाया-अतिविधाः खलु भदन्त ! संसारसमापनका जीवाः प्रज्ञप्ताः गौतम | घडविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-पृथिवीकायिकाः, यावत् त्रसकायिकाः। अथ के ते पृथिवीकायिकाः ? पृथिवीकायिका द्विविधाः प्राप्ताः तद्यथा- सूक्ष्मपृथिवी. कायिकाः, बादरपृथिवी कायिकाश्च, अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः ? सूक्ष्मपृथिवीज्ञायिका द्विविधाः प्राप्ताः तद्यथा-पर्याप्तकाश्चापर्याप्तकाच, ते एवे सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः अथ के ते वादरपृथिवीकायिकाः ? वादरपृथिवीकायिका द्विविधाः प्रज्ञाः तद्यथा-पर्याप्तकाचापर्याप्त काश्च । एवं यथा प्रज्ञापनापदे, स्निग्धाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः, खरा अनेकविधाः प्रज्ञप्ता यावदसंख्याः, ते एते वादरपृथिवीफायिका, ते एते पृथिवीकायिकाः । एवमेव यथा प्रज्ञापनापदे तथैव निरनशेष भणितव्यं यावद्वनम्मतिकायिकाः, एवं यावत् यत्रैक स्तत्र स्युः संख्येयाः स्युः असंख्येयाः स्युरनन्ताः, ते एते बादरवनस्पतिकायिकाः, ते एते वनस्पतिकायिकाः । अथ के ते प्रसकायिकाः ? सकायिकाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्नाः तद्यथाद्वीन्द्रियास्त्रीन्द्रियाश्चरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रियाः । अथ के ते द्वीन्द्रियाः द्वीन्द्रिया अनेकविधाः प्रज्ञप्ताः, एवं यदेव समापदे तदेव निरवशेष भणितव्यं यावत् सर्वार्थ ..वाः । ते एते अनुत्तरोपपातिकाः, ते एते देवाः, ते एते पञ्चेन्द्रियाः, एवे त्रसकायिकाः ॥सू० २९।। Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ stratifier टीका प्र.३ ४.३ ४.२९ संसारसमान्नकजीवनिरूपणम् --- टीका- 'कविहाणं भंते ।' कतिविधाः खल भदन्न । संसार समावन्तगा जीवा पन्नत्ता' संसारसमापन्नकाः चातुर्गतिकसंसारे विद्यमाना जीवाः प्राणिनः पता:- कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' ऐ गौतम ! 'छव्विदा संसारसमान्नगां जीवा पन्नत्ता' संसार समापन्नका जीवाः षड्विधाःषट् प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः - कथिताः 'तं जहा ' तद्यथा - 'पुढ वीकया जा उसकाइया' पृथिवीकायिका यावत् कायिकाः अत्र यावत्पदेना प्रकाशिक - तेजस्कायिकवायुकायिक- वनस्पतिकायिकानां जीवानां संग्रहो भवति तथा च- पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पति त्रसकायात् संपारसमापन्नका जोदाः पविधाः प्रज्ञप्ता इति । 'से किं तं पुढवीकाइया' अथ के ते पृथिवीकाइकाः पृथिवीकायिक जीवानां कियन्तो मेदा इति प्रश्नः, ' के विहाणं भंते ! संसारसमापन्नगा जीवा' इत्यादि । टीकार्थ- गौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'कइ विहाणं भंते! संसारसमावन्नगा जीवा पन्नता' हे भदन्त ! संसारी जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'गोयमा ! छव्विहां संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता' हे गौतम! संसारी जीव छह प्रकार के कहे गये हैं- 'तं जहां' जैसा 'पुढवीकाइया जाव तसकाइया' पृथिवीकायिक यावत् त्र कविक यहां यावत्पद से अकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकाधिक इन जीवों का संग्रह हुआ है. तथा च पृथिवीकायिक, अकायिक, तेजस्काfur, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकाधिक के भेद से संसार समापनक जीव छह प्रकार के कहे गये हैं । 'से किं तं पुढयीकाहया' हे भदन्त ! पृथिवीकायिक जीवों के कितने भेद हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री ४४७ 'कइ विहाण' भंते ! संसारसमावण्णना जीवा' इत्याहि टीअर्थ' – 'श्रीगौतमस्वामी अनुश्री ने भेवु पूछे है 'कइविहाणं भते ! समावण्णा जीवा पण्णत्ता' हे भगवन् संसारी लो डेंटला प्रारना કહેવામાં આવ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोमा ! छन्विद्दा संसारसमावन्नगा जीवा पण्णत्ता' हे गौतम ! संसारी व छ अारना उडेवामां भाव्या छे. 'त' जहा' भडे 'पुढवीकाइया जाव तखकाइया' પૃથ્વીકાયિક ચાવતા ત્રસકાયિક, અહિયાં યાવત્પદથી અકાયિક, તેજસ્કાયિક, વાયુકાચિક વનસ્પતિકાયિક, અને ત્રસકાયિકના ભેદ્યથી સ'સારસમાપન્નક જીવે છ પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે. 'से किं त पुढवीकाइया' हे भगवन् । पृथ्वीश्रयि मा अश्रना उत्तरभां प्रभुश्री गौतमस्वामीने लेउ एवोना डेटसा हे ! 'गोयमा ! Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमले भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'पुढवीकाइया दुविहा पन्वत्ता' पृथिवीकायिकाः जीवाः द्विविधा-द्वि प्रकारकाः प्रज्ञप्ता-कथिताः । भेदद्वयं दर्शयति-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'मुहुमपुढवीकाइया' सूक्ष्मपृथिवीकायिका जीवाः, तत्र सूक्ष्नत्वं सूक्ष्मनामकर्मोदयात् न तु सूक्ष्मत्वम् अल्पत्वम् । 'वायरपुढवीकाइयाय' पादरपृथिवी कायिकाश्च, तन बादरत्वं बादरनामझर्योदयात् नतु बादरत्वं स्थूलत्व. मिति । 'से कि तं सुहुमपुढवीझाइया' अथ के ते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः, सक्षम पृथिरी कायिक जीवानां कियन्तो भेदा इति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' हे गौतम ! 'मुहुमपुढवीकाइया दुविहा पन्नता' सूक्ष्मपृथिवीकायिका जीवाः द्विविधा:-द्वि. कहते हैं-'गोयमा ! पुढचीकाइया दुविहा पन्नत्ता' हे गौतम! पृथिवी कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-'तं जहा' जैसे-'सुष्टुम पुढवी काइया' एक सूक्ष्म पृथिवी कायिक जीव और दूसरे 'यायर पुढवीकाझ्या घ' चादर पृथिवीकायिक जीव जिन पृथिवीकायिक जीवों के सूक्ष्म नाम कर्म का उदय होता है उन्हें सूक्ष्म पृथिवी कायिक जीव कहा गया है और जिन पृथिवीकायिक जीवों के बादर नाम कर्म का उदय होता है उन्हें बादर पृथिवीकायिक जीव कहा गया है। सूक्ष्म नाम अल्पत्व का भी है और बादर नाम स्थूलत्व का भी है तो इस अल्पत्व से और पादरत्व से युक्त जो पृधिवीकायिक जीव हैं उन्हें सूक्ष्म पृथिवीकाधिक और बादर पृथिवीकापिक रूप नहीं कहा गया है 'से किं तं सुहुम पुढवी झाइया' हे भदन्त ! सूक्ष्म पृथिवीकाधिक जीवों के कितने भेद हैं उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं-'गोयमा! सुहुम पुढ धीज्ञाश्या दुचिहा पण्णत्ता' पुढवीकाइया दुविहा पणत्ता' है गौतम ! पृथ्वयि लय में प्रा२ना ४वामा माया छे. 'त' जहा' रेम? 'सुहम पुढवीकाइया' से सूक्ष्म पृथ्वी यि४ 01 भने भी 'बायर पुढवीकाइया' मा४२ पृथ्वी यि १२ પૃથ્વીકાયિક જીવેને સૂફમનામ કમને ઉદય હોય છે, તેઓને સક્ષમ પૃથ્વી કાયિક જી કહેવામાં આવે છે. અને જે પૃથ્વી કાયિક જીવને બાદર નામ કર્મને ઉદય હોય છે, તેમને બાદર પૃથ્વીકાયિક જીવો કહેવામાં આવે છે. સહય નામ અત્યંત અલેપ ત્વનું પણ છે અને બાદર નામ લપણાનુ પણ છે તે આ અલપ પણાથી અને બાદર પણાથી યુક્ત જે પૃથ્વીકાયિક જીવ છે, तमान सूक्ष्म पृथ्वी यि भने मारपृथ्वी थि: पाथी ४ा नथी. 'से कि त सुहुमपुढवीकाइया' मापन समाथि वा ले val छे ? २. प्रश्नमा उत्तरमा प्रभु श्री गौतमत्वामी ४ छ , 'गोयमा ! Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू.२९ संसारसमापन्नकजीवनिरूपणम् प्रकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिता इति । 'तं जहा' तथथा-पज्जत्तमा य अपज्जत्तगा य' पर्याप्ताच अपर्याप्ताश्च तथा च पापर्याप्तभेदेन सूक्ष्मपृथिवीकायिका द्विविधा भवन्तीति भावः । सूक्ष्मपृथिवोकायिकान् उपसंहरन्नाह - 'सेत्तं' इत्यादि 'सेत्तं मढवीकाइया' ते एते सूक्ष्मपृथिवीकायिकाः समेश निरूपिता इति । सूक्ष्मपृथिवीका विकान निरूप्य 'वादरपृथिवीकायिकान् निरूपयितृमाह से कि तं वायर' इत्यादि, 'से किं तं वागरढवीकाइया' अथ के से व दरपृथिवीकायिकाः, वादरत्वं वादरकर्मोदयाद बाद पृथिवीकायिकानां कियन्तो भेदा इति प्रश्न', भगवानाह - हे गौतम! 'बाढीकाइया दुबिहा पन्नत्ता' बादरपृथिवीकायिका द्विविधाः - द्विमकारकाः प्रज्ञप्ताः- कथिता इति । 'तं जहा' तद्यथा'पज्जत्तगा य अपज्ज तथा य' पर्याप्तकाश्चाऽपर्याप्तकाश्च तत्र पर्यापतःगुणविशिष्टा हे गौतम! सूक्ष्म पृथिवीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-'तं जहा ' कैसे - 'पज्जन्तगाय अपज्जत्तगाय' एक पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकाधिक और दूसरे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीपाधिक 'सेत्तं सुमपुढीकाव्या' इस प्रकार से सूक्ष्म पृथिवीकाधकों के सम्बन्ध में यह विवेचन किया गया है - ४४९ अय बादर पृथिवीकाधिको का निरूपण करते हैं- 'से किं तं वायर पुढा' हे भदन्त ! बादर पृथिवीकाधिक जीव कितने प्रकार के हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं - मौनम ! बाघर पुढवी काइया दुबिहा प०' बादर पृथक जीव दो प्रकार के हैं 'तं जला' जैसे- 'पज्जतगाय अपज्जगाय' पर्यासक बादर पृथिवीकायिक और अपर्याप्त यादर मढवीकाइया दुविधा पण्णत्ता' हे गौतम! सूक्ष्म पृथ्वी अयि 21 में प्रहारना वामां आव्या के 'त' जहा' भडे 'पज्जत्तगा य अपज्जन्तगा य' એક પર્યાપ્તસૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયક અને ખીજા અપર્યાપ્તક સૂક્ષ્મ પૃથ્વીકાયિક તે सुमपुढवीकाइया' या अभाये सूक्ष्म पृथ्वीभयिना सधभां भा ઉપરોક્તકથન કરવામાં આવેલ છે. હવે માદર પૃથ્વી કાયિકાતુ નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. આ સંબધમાં श्रीगीतभस्वाभी प्रलुश्री ने पूछे छे है 'से कि त वायरपुढवीकाइया' हे भगवन् ખાદર પૃથ્વીકાયિક જીવે કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે? આ પ્રશ્નના उत्तरभां प्रभुश्री गौतभस्वाभीने 'गोयमा ! वायर पुढवीकाइया दुविहा પળજ્ઞ' હે ગૌતમ ! ખાદર પૃથ્વીકાયિક જીવેાં બે પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા छे. 'त ं जहा' ?भ} 'पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य' मे पर्यास माहर पृथ्वी अयि४ અને બીજા અપર્યાપ્તક ખાદર પૃથ્વીકાયિક જેમને પર્યાપ્તિ નામક ના ઉદય હોય ली० ५७ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ४५० जीवामिगम पर्याप्ताः, अपर्याप्ततागुणविशिष्टास्तु अपर्याप्ता इति । 'एवं जहा-पण्णवणापदे एवमुक्तक्रमेण यथा प्रज्ञापनापदे पृथिवी भेदो वर्णित स्तथैव अत्रापि विज्ञेयः तदेव प्रज्ञापना प्रथमपदं दर्शयति='सहा सत्तविहा पन्नत्ता स्निग्धाः सविधाः प्रप्ता पृथिव्यो द्विविधाः स्निग्धाश्च खराश्च । तत्र स्निग्धाः सप्तविधाः प्रज्ञप्ताः खरा अणेगविहा पन्नत्ता' खराः पृथिव्योऽनेकविधा प्राप्ताः 'जब असंखेज्जा' यावद संख्येयाः पृथिव्य इति चादरपृथिवीकायिकान् उपसंहरन्नाह-'से तं वायरपुढवीकाइया' ते एवे वादरपृथिवीकायिका निरूपिताः । 'एवं चेय जहा पण्णवणापदे पृथिवीकायिक जिनको पर्याप्ति नाम कर्म का उदय होता है वे पर्याप्तक हैं और जितके पर्याप्त नाम कर्म का उदद्य नहीं होता है वे अपर्याप्तक हैं। 'एवं जहा पण्णदणापदे' प्रज्ञापना के प्रथम पद में जिस प्रकार से पृथिवी भेदों का वर्णन किया गया है उसी तरह से वह वर्णन यहां पर भी कर लेना चाहिये प्रज्ञापना के प्रथथ पद में इस सम्बन्ध में ऐसा वर्णन है-'सहा सत्तविहा पण्णत्ता लक्षण पृथिवी सात प्रकार की कही गई है अर्थात् श्लक्ष्णा और खर पृथिवी के भेद से पृथिवी दो प्रकार की होती है इनमें लक्षणा धिरी सात प्रकार की है और 'खरा अणेगविहा' खर पृथिवी अनेक प्रकार की है यावत् 'असंखेज्जा' असंख्यात प्रकार की हैं से तं वायर पुढवीकाइया' इस तरह से यादर पृथिवी कायिक जीवों के सम्बन्ध में यह वर्णन किया गया है ‘एवं चेव जहा છે, તેઓ પર્યાપ્ત કહેવાય છે અને જેમને પણ નામ કર્મને ઉદય થતું नयी तमा अपर्या छे. 'एवं जहा पण्णवणापदे' प्रज्ञायना सूत्रना पडेला પદમાં જે પ્રમાણે પૃથ્વી કવિ કેના ભેદનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે એ જ પ્રમાણેનું તે વર્ણન અહિયાં પણ સમજી લેવું, પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં પૃથ્વીકાચિકેના ભેદનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું તે વર્ણન અહિયાં પણ સમજી લેવું, પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં આ સંબંધમાં એવું पन छे , 'सहा सत्तविहा पण्णत्ता' स] पृथ्वी सात रनी ही छे. અર્થાત્ શ્લફણ અને ખર પૃથ્વીના ભેદથી પૃથ્વી બે પ્રકારની હેય છે. તેમાં सक्ष्य पृथ्वी सात प्रा२नी अवामा भावी छे. अने 'खग अणेगविहा पण्णत्ता' ५२ पृथ्वी मने प्रारनी ही छ. यावत् 'असखेजा' असण्यात ४२नी छे. 'से तं बायर पुढवीकाइया' मा प्रमाणे मा१२ पृथ्वी थियि वाना समयमा मा पन ४२वामां आवे छ ‘एवं चेव जहा पण्णवणा Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ तू.२९ संसारसमापन्नकजीवनिरूपणम् ४५१ तहेव निरवसेसं भाणियचं' एवमेव यथा प्रज्ञापना पदे कथितं तथैव निरवशेष भणितव्यम्, समग्रमपि प्रज्ञापना सूत्रस्य प्रथम प्रज्ञापनाख्यं पदं वक्तव्यमिति । कियत्पर्यन्तं प्रमापनापकरणं वक्तव्यं तत्राइ-'जाव' इत्यादि, 'जाव वणण्फाकाइया' यावद्वनस्पतिकायिकाः पृथिवीकायिकादारभ्य वनस्पतिकायिकान्तजीवानां भेदो निरूपणीय इति । एवं जाव जत्थे को तत्थ सिय संखेज्जा' एवं यत्रको जीव स्तत्र. स्युः संख्येयाः जीया भवन्ति, 'सिय असंखेज्जा' यत्रैको जीव स्तत्र स्युरसंख्येयाः, 'सिय अणंता' स्युरनन्ता जीवा स्तत्र वनस्पतिकायापेक्षयेति । 'सेत्तं वणस्सइकाइया' ते एते वनस्पतिकायिका इति । स्थावरकायिकान् पञ्चविधान निरूप्य त्रसकायिकान् निरूपयति-'से कि तं उसकाइया' अथ के से त्रसकायिकाः, पण्णवणा पदे तहेव निरवलेसं आणिय' ऐसा ही वर्णन प्रज्ञापना के प्रथम पद में किया गया। वैसा ही सब वर्णन यहां पर भी कर लेना चाहिये यह वर्णन वहां पर 'जाव वणफह काझ्या' वनस्पतिकायिक तक किया गया है अतः वहां तक का यह वर्णन यहां पर करने को कहा गया है 'एवं जाच जत्थेगो तत्थ सिय संखेज्जा' जहां पर एक जीव होता है-वहां पर संख्यात जीव भी हो सकते है। तथा 'सिय असं. खेज्जा' असंख्यात जीव भी हो सकते हैं। तथा 'सिय अणंता' अनन्त जीवों के होने का कथन वनस्पतिशायिक जीवों की अपेक्षा से किया गया जानना चाहिये 'से तं घणप्फकाइया' या वनस्पति कारिक जीव का निरूपण हुआ। स्थावर कायिक जीवों का निरूपण कार के अन्य सूत्रकार अलकायिक जीवों का निरूपण करते हैं इसमें श्रीगौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पछा हैपदे तहेव निवरसेसं भाणियव्व' मे४ प्रमाणेतुं वन लिया ५ समल बेवु, नये म पन त्या 'जाव वणप्फइकाइया' वनस्पति यिनाथन -त કરવામાં આવેલ છે. તેથી ત્યાં સુધીનું આ વર્ણન અહિયાં પણ સમજી લેવું तेभ . 'एवं जाव जत्थेगो तत्थ सिय स खेज्जा' ज्यां मे डाय छे. त्यांच्यात व पशु श छे. तथा 'सिय अणंता' मनातला પણ હેઈ શકે છે. આ સંખ્યાત અસંખ્યાત અને અનંત જી હવાના સંબંધનું કથન વનસ્પતિકાયિક જીની અપેક્ષાથી કહ્યું છે તેમ સમજવું. _ 'सेतं पणफइकाइया' मा प्रभार पन२५ति थि: wोनु नि३५० કરવામાં આવેલ છે. વનસ્પતિકાયિક જનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર ત્રસકાયિક જીવનું नि३५५ ४२ थे. भाभा श्रीगीतभपाभी प्रमुश्री नगपूछे छे । 'से कित Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ जीवामिगमन त्रसका यिकानां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' हे गौतम | 'तसकाइया चउबिहा पन्नत्ता' सकायिशाश्चतुर्विधाश्चतुः प्रकारका प्रज्ञप्ता: -कविता इति । 'तं जहा' तद्यथा:-'ये दिया तेइंदिया चउरिदिया पंचें दिया' द्वीन्द्रि शास्त्रीन्द्रिपाश्चतुरिन्द्रियाः पञ्चेन्द्रिया इति । 'से कि वेइंदिया' अथ के ते द्वीन्द्रियाः द्वीन्द्रिय जीवानां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, भगवानाइ हे गौतम! 'इंदिया अणेगविहा पन्नत्ता' द्वीन्द्रियजीवा अनेकविधा:-अनेकप्रकारकाः मनप्ताः-कथिता इति । 'एव चेव पण्णवणापदे तं चेत्र निरवसेसं भणियन्त्रं जाव सबट्टसिद्धपदेवा' एवमेव प्रज्ञापना प्रथमे पदे कथितं तथैव निरवशेष-समग्रमपि भणितव्यं वक्तव्यम् यावत् सर्वार्थसिद्धदेवाः, द्वीन्द्रियादारभ्य सर्वार्थसिद्धदेव पर्यन्तानां होपभेदयुक्तानां प्रज्ञापनाप्रकरणवदेव ज्ञातव्यमिति । 'से अणु त्तरोवाइया' ते एते अनुत्तरोपपातिका देवा निरूपिताः। 'से तं देवा' ते एते 'से किं तं तसफाइया' हे अदन्त !त्रसकायिक जीवों के कितने भेद हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम! 'तसकाइया चाउम्यिहा पण्णत्ता' प्रसकायिक जीव चार प्रकार के हैं-'तं जहा' जैसे-'वेइंदिया, तेइंदिया, चरिदिया, पंचे दिया' दोइन्द्रिय तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, और पञ्चेन्द्रिय 'से कि तं वेइंदिया' हे भदन्त ! दो इन्द्रिय जीवों के कितने भेद हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम ! 'वेइंदिया अणेगविहा पण्णत्ता' दो इन्द्रिय जीवों के अनेक भेद हैं एवं चेव पण्णक्षणा पदे तं चेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव सम्वसिद्धगदेवा' इन सब का वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में किया गया है अतः यह सब वर्णन द्वीन्द्रिय जीवों के वर्णन से लेकर सर्वार्थ सिद्ध के देवों के वर्णन तक का यहां पर प्रज्ञापना से लेकर कर लेना चाहिये वहां इनका वर्णन भेद प्रभेदों तसकाइया' मगन सयि ७वाना ४८सा हो या छ. मा प्रश्नना उत्तरमा प्रसुश्री गौतमस्वामीन में 'गोयमा ! तसकाइया चउबिहा पण्णत्ता' 3 गोतम ! यि या२ ५४२ना हा छ. त जहा' रेभो 'बेईहिया, तेइंदिया, चउरिदिया, पचे दिया' मेद्रियाणा वी, ऋद्रिय વાળા છો, ચાર ઈંદ્રિય વાળા જી અને પાંચ ઈદ્રિય વાળા જી 'से कि त वेइदिया' है सावन मेद्रिय व वाना हो ४ा छ १ मा प्रशन उत्तरमा असुश्री गोतमत्वामीन थे 'गोयमा! बे दिया अणेगविहा पण्णत्ता' गौतम! मे ४ द्रियवाणा वा भने प्रारना वा छे. एवं चेव पण्णवणा पदे त चेव निरवसेस भाणियव्व जाव सव्वद सिद्धगदेवा' આ બધા જીવેનું વર્ણન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાંથી લઈને કહી લેવું જોઈએ. ત્યાં તેઓનું વર્ણન ભેદ પ્રભેદે સહિત ઘણા વિસ્તાર પૂર્વક કરવામાં આવેલ છે. Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ healfant टीका प्र. ३ उ. ३ सू.२९ संसारसमापन्नकजीवनिरूपणम् ४.३ देवा निरूपिता इति । 'सेत्तं पंचिदिया' ते एते पञ्चेन्द्रिया जीवा निरूपिता इति । 'सेतं वसकाइया' ते एते जसकायिका जीवा निरूपिता इति । ०२९ ॥ सम्पति विशेषाभिधानाय पुनरपि पृथिवीकायिक माह 'कडविद्याणं भंते! पुढी पन्नता' इत्यादि, मूळम् - कड़विहा णं भंते! पुढवी पन्नता ? गोयमा ! छविहा पुढवी पन्नता तं जहा-सहा पुढवी १, सुखपुढ वी२, बालुयापुढवी, मणोसिला पुढवी४, सक्करापुढवी ५, खरपुढवी६ । सहापुढवीणं भंते! केवइयं कालं ठिई पन्नन्ता ? गोचमा ! जहणेणं अंतोमुहुतं उक्कोलेणं एवं वाससहस्सं । सुद्धपुढवीणं पुच्छा ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वारसवाससहस्साई । बालुयापुढवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं चोदसत्रास सहस्लाई मणोसिला पुढणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सोलसवाससहरुलाई । सकरा पुढवणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोलेणं अट्ठारसवाससहरुलाई । खरपुढवीणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकासेणं बावीस बाससहस्साइं । नेरइयाणं भंते ! सहित बहु विस्तारपूर्वक किया गया है । 'सेन्तं अणुत्तरोवधाइया' यह अनुत्तरोपपातिक देवों का वर्णन हुआ। एक तरह से इनका वर्णन हो जाने पर देव वर्णन का प्रकरण समाप्त हो जाता है और इस प्रकरण की सम में 'सेत्तं पंचेंदिया' इस सूत्र के अनुसार पंचेन्द्रिय जीवों का भी निरूपण पूर्ण हो जाता है इसकी पूर्णता में 'सेत्तं तसकाइया' कायिक जीवों का वर्णन भी समाप्त हो जाता है || सू० २९|| 'से त्तं अणुत्तरोवइया' आ रीते मा अनुत्तरोपयाति देवानु वर्षान કરવામાં આવ્યુ છે. આ અનુત્તરાપપાનિકદેવેનુ વર્ણન પુરૂ થતાં દેવ વષઁન તુ પ્રકરણ સમાપ્ત થઈ જાય છે તેમજ આ પ્રકરણુની સમાપ્તિમાં ન્ને સં तसकाइया' मा अभाो सूत्रपाठ ह्यो छे ! नसायिक भवनु निश्चाय अभास थाय छे, ॥ सु. २८ ॥ Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D जीवामिगमस्न केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई । एवं सव्वं भाणियवं जाव सबटु सिद्ध देवेत्ति। जीवेणं भंते ! जीव त्ति कालओ केचिरं होई ? गोयमा ! सव्वद्धं । पुढवीकाइएणं भंते ! पुढवीकाइयत्ति कालओ केवञ्चिरं होई ? गोयमा ! सव्वद्धं एवं जाव तसकाइए ॥ पडुपन्न पुढवीकाइयाणं भंते ! केवइय कालस्त णिल्ले वा सिया? गोयसा! जहण्णपदे असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहि, उक्कोसपदे असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीहिं । जहन्नपदाओ उक्कोसपदे असंखेज्जगुणा । एवं जाव पडुपन्न वाउकाइया । पडुपन्न वणप्फइकाइयाणं भंते! केवइय कालस्स निल्लेवा सिया? गोयमा ! पडुपन्नवणप्फइकाइया जहन्नपदे अपदा उकोलपदे अपदा, पडुपन्न वणप्फइकाइयाणं णत्थि पिल्लेवणा । पडुपन्नतसकाइयाणं पुच्छा, जहण्णपदे सागरोवमसमपुहुत्तस्स उकोलपदे सागरोवमसय पुहुत्तस्स जहणगपदा उक्कोसपदे विलेलाहिया ॥सू०३०॥ ___ छाया- विविधाः खलु भदन्त ! पृथिवी प्रज्ञप्ता ? गौतम ! पइविधा पृथिवीपज्ञप्ताः तयथा-लक्ष्णपृथिवी शुद्धपृथिवी वालुकापृथिवी मन:-शिला पृथिवी शर्करापृथिवी खरपृथिवी । इळक्ष्ण पृथिवीनां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौ उम ? जघन्येन अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षेणेकं वर्षसहस्रम् । शुद्ध पृथिवीनां पृच्छा, गौतम! जघन्येनान्तर्मुहूर्तम् उत्कर्पण द्वादशवर्षसहस्राणि, बालुका पृथिवीनां पृच्छ। गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण चतुर्दशवर्षसहस्राणि । मनः शिळापृथिवीनां पृच्छा गौतम ! जघन्येनान्तमुहर्तम् उत्कर्षेण षोडशवर्षसहस्राणि । शर्करापृथिवीनां पृच्छा ? गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्त मुत्कर्षेणाष्टादशवर्षसहस्राणि । खरपृथिवीनां पृच्छा गौतम ! जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुस्कर्षेण द्वाविंशतिः वर्ष सहस्राणि नैरयिकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः पज्ञप्ता, गौतम ! जघन्पेन Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ १.३० समेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूपणम् ४५५ दशवर्षसहस्राणि उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि स्थितिः । एवं सर्व भणितध्यं यावत्सर्वार्थसिद्धदेव इति । जीवः खल्ल भदन्त ! जीव इति कालता कियच्चिरं भवति ? गौतम ! सर्वाद्धाम् । पृथिवीकायिकः खलु भदन्त ! पृथिवीकाइक इति कालता कियच्चिरं भवति ? गौतम ! सर्वाताम् । एवं यावद तप कायिक इति । प्रत्युत्पन्न पृथिवीकायिकाः खलु भदन्त ! कियता कालेन । निर्ले स्युः ? गौतम ! जघन्यपदे असंख्याताभि रुत्सपिण्यवसर्पिणीमिः, उत्कृष्टपदे असंखातमिरुत्सपिण्य. वसर्पिणीभिः जघन्यपदादुन्कृष्टपदे असंख्येयगुणाः । एवं यावत् प्रत्युत्पन्नवायु: कायिकाः । प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकाः खच भदन्त ! कियता कालेन निर्लेपाः स्युः ? गौतम ! प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिका जघन्यपदे अपदा, उत्कृष्टपदे अपदाः, मत्यु पन्नानस्पतिकायिकानां नास्ति निलेपना प्रत्युत्पन्ननसकायिकानां पृच्छा जघन्यपदे सागरोपमशतपृयक्त्वेन, उत्कृष्टपदे सागरोपमशतपृथक्त्वेन जघन्यपदादुत्कृष्टपदे विशेषाधिकाः॥मू०३०॥ टोका-'कइविहा णं भंते !' कति विधा खलु भदन्त ! 'पुढवी पन्नत्ता' पृथिरी मज्ञप्ता-कथिता ? इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'छविहा पुढवी पन्नत्ता' पइविधा-पप्रकारका पृथिवी प्रज्ञप्ताकथिता इति, षट्र प्रकारकभेदमेव दर्शयति-'तं जहा' इत्यादि, 'त जहा' तयधा'सण्डा पुढवी' श्लक्ष्णा पृथिवी श्लक्ष्णा चूर्णितलोष्ट तुल्या या पृथिवी सा श्लक्ष्णा विशेष कथन के निमित्त पुनः सूत्रकार पृथिवो स्त्र का कथन करते हैं 'का विहाणं भंते ! पुढवी पण्णत्ता-इत्यादि सूत्र-२९॥ टीकार्थ-इस सूत्र द्वारा गौतमस्वामी ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'कह विहा णं भंते ! पुढवी प०' हे भदन्त ! पृथिवी कितने प्रकार की कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! छविही पुढवी ५०' हे गौतम ! पृथिवी छह प्रकार की कही गई है 'तं जहां' जैसे-'सहा पुढवी' श्लक्ष्ण पृथिवी यह पृथिवी चूर्णरूप में होती है जैसा कि रूनी (लुगा) लगा વિશેષ કથન કરવા માટે સૂત્રકાર હવે પૃથ્વી સૂત્રનું કથન કરે છે. 'कइविहाणं भंते ! पुढवी पण्णत्ता' या ટીકાઈ–આ સૂત્રદ્વારા શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રી ને એવું પડ્યુ છે કે 'कइविहाणं भते ! पुढची पाणना' मन पृथ्वी 21 प्रा२नी हेवामा भावी छ ? मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री गौतम भीने ४ छ । 'गोयमा ! छविहा पण्णत्ता' गौतम । पृथ्वी छ प्रा२नी वामां आवी छ 'त' जह' २म 'सण्हा पुढवी' Y Yथ्वी, मा पृथ्वी यूरा ३५ लायछे भो Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे पृथिवीति कथ्यते । 'सुद्धपुढवी' शुद्धपृथिवी पर्वतादिमध्ये विद्यमाना द्वितीया शुद्ध पृथिवीति कथ्यते । 'वाल्या पुडवी' वालुका पृथिवी सिकतारूपा पृयित्री, 'मणोसिला पुढवी' मनःशिला लोकमसिद्धा चतुर्थी पृथिवी 'सक्करा पुढवी' शर्करा पृथिवी शर्करामुग्डरूपा लघुपाषाणखण्डमरूपा पृथिवी पञ्चमी । 'खरपुढवी' खरपृथिवी खरा पाषाणादिरूपा पप्ठी एवं च इलक्षण वालका मनः शिलाशकरा खग प्रतिभेदात् पट्पकारा पृथिवी भवतीति भावः । अधुना लक्षणादि पृथिवीना स्थितिनिरूपणार्थमाह-'सहा पुढवी णं भते' इलक्ष्णपृथिवीनां-उरगपृथिवी जीवानां खल भदन्त ! 'केवयं कालं ठिई पन्नत्ता' कियन्तं कालं कियत्काल पर्यन्तं स्थितिः प्रज्ञप्ता-कथिता इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं अंतोमुहत्त' जघन्येनान- मुहर्त यावर उलक्ष्य हुआ खाये हुए पत्थर में ले स्वतः बालुका का चूर्ण होता है 'सुद्ध पुदवी यह प्रथिवी पर्वत आदि के मध्य में विद्यमान रहती है 'यालया पुढवी' घालुका पृथिवी-यह स्वभावतः पालुका के रूप में होती है 'मणोसिला पुढवी' मनः शिला पृथिवी 'खरपुढवी' खरपृथिवी-यह पृथिवी पाषाण आदि रूप होती है। इस तरह लक्षण. शुद्ध घालुका, मनः शिला, शर्करा और खर इन छह भेदों वाली पृथिवी होनी है। अच सूत्रकार लक्ष्म आदि पृथिवियों की स्थिति आदि का निरूपण करते हैं. इस गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछो है-'सहा पुढवी णं भंते । केवइयं काल ठिईपगत्ता' हे भदन्त ! लक्षण पृथिवी की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर में प्रभु करते हैं 'गोधमा ! जहन्ने ण अंतो मुहतं अकोसेणं एगं वामसहस्स' हे गौतम इलक्षण पृधियो दुयेगेस पत्यमांथा चातानी भेजे। तीन' यय-यू। थाय छ 'सुद्धपुढवी' शुद्ध पृथ्वी, पत विरेनी ६यमा विद्यमान २९ छे. 'वालुया पुढवी' दादु। पृथ्वी, मा पृथ्वी विgar वायु। रेताना ३५मा हाय छे 'मणोसिला पुढवी मन:शिव पृथ्वी 'खरपुढवी' ५२ पृथ्वी । पृथ्वी पाषाय पत्थर રૂપ હોય છેઆ પ્રમાણે લક્ષ્ય, શુદ્ધ, વાલુકા, મનઃશિલા, શર્કરા અને ખર આ છ ભેદવાળી પૃથ્વી હોય છે. હવે સૂવાર 8 ફણ વિગેરે પૃથ્વીની સ્થિતિ આદિનું વર્ણન કરે છે. આ सधमा श्रीगौतमस्वामी प्रभुश्री ने पूछे छे है 'सण्हा पुढवी णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता' है सन् १३६४ पृथ्वीनी स्थिति उटमा ४ ની કહેવામાં આવી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणे एवं वाससहस्स' ७ गौतभा. २०६१ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 प्रद्योतिका ठीका प्र.३ उ. ३ सू. ३० सभेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूपणम् ४५७ पृथिवीनां स्थितिर्भवतीति । 'उक्को सेणं एवं बाससदस्से' उत्कर्षेणैकं वर्षसहस्रम् वर्ष सहस्रपर्यन्ता उत्कृष्टा स्थिति श्लक्ष्ण पृथिवीनामिति । 'सुद्धपुढची पुच्छा' शुद्ध पृथिवीनां पृच्छा, हे भदन्त । शुद्ध पृथिवीनां शुद्ध पृथित्रीजीवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता इति प्रश्न:, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ' गौतम ! 'जहनेणं अंदोमुहुतं' जघन्येन न्तर्मुहूर्त यावत् स्थितिर्भवति, 'उक्कोसे णं बारसवासमहलाई उम्कर्षेण द्वादशवर्षसहस्राणि यावत् स्थितिर्भवति शुद्ध पृथिवीनामिति । 'वालुया पुढदीणं पुच्छा' बालुका पृथिवीनां पृच्छा बालकापृथिवीनां वालुकापृथिवी जीवानां कियन्तं कालं स्थितिर्भवतीति प्रश्न:, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! ' जहन्नेणं अंतो मुहुर्त्त' जघन्येन अन्तर्मुह यावत् स्थितिर्भवति, 'उकोसेणं चोसवामसहस्सं' उत्कर्षेण चतुर्दशवर्षसहस्राणि यावत्स्थितिर्भवतीति । 'मणोसिला पुढचीणं पुच्छा की स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त की कही गई है और उत्कृष्ट से वह एक हजार वर्ष की कही गई है 'सुद्ध पुढवी र्णं पुच्छा' हे भदन्त ! शुद्ध पृथिवी की स्थिति कितने काल की कही गई हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोयला ! जहनेणं अंनो मुहुत्तं' हे गौतम! शुद्ध पृथिवी की स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त्त की कही गई और 'उक्को सेर्ण वारसवासमहस्वाई' उत्कृष्ट से वह बारह हजार वर्ष की कही गई है 'बालुया पुढरीणं पुच्छ । 'हे भान्त ! बालुका पृथिवी के जीवों की स्थिति कितने फाल की कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-गोयमा ! जहनेणं अंतो मुत्त' हे गौतम! बालुका पृथिवी के जीवों की स्थिति जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट से 'चोहसवास सहस्सा हूं' c. પૃથ્વીની સ્થિતિ જ ઘન્યથી એક અંતમુહૂત'ની કહી છે અને ઉત્કૃષ્ટથી તે थोड डलर वर्षानी वामां भावी हे 'सुद्ध पुढवीण पुच्छा' हे भगवन શુદ્ધ પૃથ્વીની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री छे 'गोयमा ! जहणेणं अतोमुहुत्तं' हे गौतम । शुद्ध पृथ्वीनी स्थिति धन्यथी मे अतर्मुहूर्तनी उही छे भने 'उक्कोसेणं' वारसवास स्रइरसाई' उत्सृष्टथी णार उमर वर्षानी हडेल छे. 'चालुया पुढवीण' पुच्छा' હે ભગવન્ વલુકા પ્રભા પૃથ્વીના જવાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં भावी छे ? या प्रश्नमा उत्तरमां प्रभुश्री हे 'गोयमा ! जणेणं अतोमुहुत्तं' हे गौतम! वासुप्रला पृथ्वीना छोनी स्थिति धन्यथा खे संत भुडूनी ने उत्सृष्टथी ''चे 'हसवाससहस्वाई' यौ डलर वर्षनी आहेस है, जी० ५० Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमने ४५८ मनःशिला पृथिवीनां पृच्छा, हे भदन्त | मनःशिला पृथिवीनां मनःशिला पृथिवी जीवानां कियन्तं कालं स्थिति यतीति मनः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम ! 'जहर नेणं अंतोगुतं' जघन्ये नान्तर्मुहूर्त्त स्थिति भवतीति, 'उक्कोसेणं सोळसवास सहस्ताह' उत्कर्षेण पोडशवर्ष महस्राणि यावत् स्थिति मनःशिला पृथिवी जीवानामिति । 'रुकरापुढवीणं पृच्छा' शर्करापृथिवीनां पृच्छा, हे भदन्त ! शर्करापृथिवीनां शर्करापृथिदीजीवानां कियन्तं कालं स्थितिभवतीति प्रश्नः, भगवानाह - ' - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम । 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्को सेणं अहारमवास सहरसाई' जघन्येनान्तर्मुहूर्त यावरिस्थति भवति तथा उत्कर्षेण अष्टादशस्राणि स्थितिर्भवतीति । 'खरपुढवीणं पुच्छा' खरचौदह हजार वर्ष की की गई है । 'सगोमिला पुढवीणं पुच्छा' हे भदन्त ! मनःशिला पृथिवी के जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - हे गौतम! मनः शिला पृथिवी के जीवों की स्थिति 'जनेणं अंनोमुत्तं उक्कोलेणं सोलसवाससहस्साई जघन्य से एक अन्तर्मुह की कही गई है और उत्कृष्ट से वह मोलह हजार वर्ष की कही गई है 'सक्करा पुढची णं पुच्छ।' हे भदन्त ! शर्करा पृथिवी के जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं 'जनेणं अंतो मुतं कोणं अहात्सवामसहस्साई हे गौतम! शर्करा पृथिवी के जीवों की स्थिति जघन्य से एक अन्त मुहूर्त की कही गई है और उत्कृष्ट से अठारह हजार वर्ष की कही गई है 'खर पुढवीणं पुच्छा' हे भरत ! खर पृथिवी के जीवों की स्थिति काल की अपेक्षा कितनी कही गई है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं'मणेोखिला पुढवीण पुच्छा' हे लगवन् મન રિલાપૃથ્વીના જીવાની સ્થિતિ ऐसा अजनी उडेल हे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री 'रोयमा ! जहणणं अतोमुहुत्तं उक्कोसे खोलसवास सहरसाइ' हे गौतम! धन्यथी એક અંતમું હત'ની સ્થિતિ કહી છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી સેળ હજાર વર્ષની स्थिति वासां भावी छे 'एक्करा पुढवी पुच्छा' हे भगवन् ! श પ્રભા પૃથ્વીના જીવાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે ? આ प्रश्नना उत्तरमां अलुश्री गौतमस्वामीने हे छे ! 'जहणणेणं अ तोमुडुत्तं उक्को सेणं अट्ठारसवास सहस्ताई' हे गौतम । शराला पृथ्वीना लोनी स्थिति જઘન્યથી એક અંતર્મુહુર્તની અને ઉત્કૃષ્ટથી અઢાર હજાર વર્ષની કહેવામાં भावी छे, 'खर पुढवीणं पुच्छा' ३ लगवन् भर पृथ्वीना वानी स्थिति Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ खू.३० समेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिदपणम् ४५९ पृथिवीजीवानां भदन्छ ! कियन्तं कालं स्थिति भवतीति प्रश्नः, भगवानाह 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं. वास सहस्साइ' जघन्येनान्तमुहत्तै यावत् स्थिति भवति तथोत्कर्षेण द्वाविंशतिपसहस्राणि यावत् स्थिति भवतीति । लक्ष्णपृथिवीत आरश्य खरान्त पृथिवीनामुत्कर्पस्थिति बिषये संग्रहमाथामाह 'सहाय सुद्ध बालय मणोसिला सकराय खर पढवी। इगवार चोदस सोळसट्ठारस बावीस समसहस्सा' श्लक्ष्णा च शुदा बालका च मनःशिला शर्करा च खरपृथिवी। एकद्वादश चतुर्दश षोडशाष्टादश द्वाविंशति समा सहस्त्राणि'इतिच्छाया। अपमा-श्लक्ष्गपृथिव्याः एक वर्षसहस्रमुकर्षतः स्थिति भवति, शुद्ध पृथिव्या द्वादशवर्ष सहस्राणि, बालुका पृथिव्याश्चतुर्दशवर्षसहस्राणि, मनःशिलापृथिव्याः षोडशवर्षसहस्राणि शकरापृथिव्या अष्टादशवर्षसहस्राणि, खरपृथिव्या द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि, सर्वासाममीषां पृथिवीनां जघन्येनान्तर्मुहुर्तमेव स्थितिभवतीति ज्ञातव्यम् ।। 'गोधमा! जहन्नेणं अंगोमुत्त उक्कोलेणं बावीसं वाससहस्साई हे गौतम ! खर पृथिवी के जीवों की स्थिति जघन्य से एक अन्तम हूर्त की और उत्कृष्ट से बाई छ हजार वर्ष की कही गई इस तरह इलक्ष्ण पृथिवी के जीवों से लेकर खर पृथिवी तक के जीवों की जघन्य स्थिति तो सब की एक अन्तर्मुहूर्त की है पर उत्कृष्ट स्थिति में बिनता है जो ऊपर में प्रकट कर दी गई है यही बाल हलमाथा द्वारा समझाई गई है'सण्हा व सुद्धचालु य मणोसिला सक्करा य खर पुढची। इग यारचोद ससोलसद्वारख वादीलवाललहस्सा इसका अर्थ स्पष्ट है । કાળની અપેક્ષાથી કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रसुश्री गौतमस्वामी ४ छे , 'गोयमा ! जहण्णेणं अोमुहुत उक्कोसेण बावीस वायसहस्साई' 3 गीतम ! मरीन वानी स्थिति धन्यथा એક અંતમુહૂર્તની અને ઉત્કૃષ્ટથી બાવીસ હજાર વર્ષની કહી છે. આ રીતે લક્ષણ પૃથ્વીના જીવોથી લઈને ખર પૃથ્વી સુધીના જીની જઘન્ય સ્થિતિ તે બધાની જ એક અંતર્મુહૂર્તની છે. પરંતુ ઉત્કૃષ્ટ સ્થિતિમાં જૂદાઈ આવે છે. જે ઉપર બતાવવામાં આવી છે એ જ વાત આ ગાથા દ્વારા સમજાવवामां भावी छे. 'सण्हाय सुवालु य मणासिला, सक्कराय खरपुब्धी । इगबार चोदर सोलस द्वारस बावीसवास सहस्सा' આ ગાથાને અર્થ ઉપર સ્પષ્ટ કરવામાં આવેલ છે. Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे सम्मति स्थितिनिरूपण प्रस्तावात् नैरयिकादीनां चतुर्विंशति दण्डकक्रमेण स्थिति निरूपयितुमाह- 'नेरइयाणं' इत्यादि, 'नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' नैरयिकाणां भदन्त । कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता- कथिता इति पश्न', भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्नेणं दसवाससहस्साई हे गौतम! नारकजीवानां जघन्येन स्थिरिर्दशवर्षसहस्राणि 'उकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइ ठिई' उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत् सागरोपमाणि स्थिति भवतीति । ' एवं सव्र्व्वं भाणियन्वं जाव सव्वद्ध सिद्ध देवत्ति' एवमेतत्सर्वं भणितव्यं यावत् सर्वार्थ सिद्धदेव एवं मज्ञापना चतुर्थस्थितिपदानुसारेण चतुर्विंशति दण्डकक्रमेण ताद्वक्तव्यं यावत् सर्वार्थसिद्ध विमानदेवानां स्थितिनिरूपणं सवेदिति । पूर्वोक्तप्रकारेण भवस्थितिनिरूपणा कृता । सम्पति कार्यस्थिति-निरूपणार्थमाह-अत्र ४६० अब स्थिति निरूपण के प्रस्ताव को लेकर नैरिचक आदि को की चौबीस दण्डक के क्रम से स्थिति का निरूपण करते हैं- इसमें गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है- 'नेरइया णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पन्नता' हे भदन्त ! नैरधिक जीवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोघमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उक्को सेणं तेत्तीस सागरोवमाई' हे गौतम! नारक जीवों की स्थिति जघन्य से दस हजार वर्ष की कही गई हैं और उत्कृष्ट से तैंतीस सागरोपम की कही गई है 'एवं सव्वं भाणियव्वं जाव सव्वट्ट सिद्ध देवत्ति' इसी तरह चौवीस दण्डक के कम से यहां पर प्रज्ञापना गत चतुर्थ स्थिति पद के अनुसार सर्वार्थ सिद्ध गत देवों तक की स्थिति का निरू पण कर लेना चाहिये यह जो स्थिति का निरूपण किया गया है वह હવે સ્થિતિનું નિરૂપણુ કરવા માટેના પ્રસ્તાવને લઈને નૈરયિક વિગેરની સ્થિતિનું નિરૂપણુ ચેાવીસ દ‘ડંકના ક્રમથી કરવામાં આવે છે. આમાં શ્રીગૌતમ स्वामी प्रभुने मे पूछयु छे 'नेरइयाणं भते ! केवइच काळ ठिई पण्णत्ता' હે ભગવન્ નૈરિયક જીવેાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે ? આ प्रश्नमा उत्तरमां अलुश्री गौतमस्वामीने हे छे 'गायमा । जहणेण दसवा हवाई उक्कोसेणं वेत्तीस सागरावमाई' हे गौतम! नार भवानी स्थिति જઘન્યથી દસ હજાર વર્ષની કહી છે અને ઉત્કૃષ્ટથી તેત્રીસ સાગરાપમની 'हेवासां भावी छे. 'एवं सव्व' भाणियव्व' जाव सव्वट्टसिद्ध देवत्ति' मा ४ પ્રમાણે ચાવીસ દઉંડકના ક્રમથી અહિયાં પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાં કહેલ સ્થિતિ પદ્મ પ્રમાણે સર્વાર્થ સિદ્ધના દેવા સુધીની સ્થિતિનું નિરૂપણ કરી લેવું જોઈએ. જે આ સ્થિતિનુ' નિરૂપણ કર્યું" છે, તે ાવસ્થિતિનું જ નિરૂપણ કર્યું છે. Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिकाटीका प्र.३ उ.३ स.३० समेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूपणम् ४६१ कायस्थिति विषये जीवादीनि द्वाविंशतिद्वाराणि मज्ञापनाया अष्टादशे कायस्थितिपदे पदर्शितानि, तत्संग्राहिके चेमे द्वे गाथे 'जीव १ गई२ दिय३ काए,४ जोगे'५ वेए६ कसाये७ लेस्साय८ । समत्त९ नाण१० देसण,११ संजय१२ उपओग १३ आहारे १४ ॥१॥ भासग१५ परित्त१६ पज्जत्त १७ सुहुम १८ सणो१९ भव२०ऽत्थि चरिमे २२ एएसि तु पयाणं काय ठिई होई नायना' । २॥ (जी,१ गति,२ इन्द्रियं ३ कायः४ योगो५ वेदः६ कषायो७ ले १८ च । सम्यक्त्वं९ ज्ञान१० दर्शन११, संयतो१२ पयोगा १३हारा:१४ ॥१॥ भाषक १५ परीत१६ पर्याप्त १७ सूक्ष्म १८ संज्ञि१९ भवा२०स्ति२१चरिमाश्च२२ भवस्थिति का ही निरूपण किया गया है। अप काय स्थितिका निरूपण किया जाता है यहां काय स्थिति के विषय में जीवादि बाईस द्वार प्रज्ञापना के अठारहवें कायस्थिति पद में कहे गये है इनकी संग्राहक दो गाथाए इस इस प्रकार का है। 'जीवनइंदिघ काए जोए वेए कमाय लेस्साय सम्मत्तनाण दहण संजय उवओग आहारे ॥१॥ भारण परित्त पन्जत्त सुहम सपणी भवऽस्थि चरिमे च । एएसिं तु पयाण काठिई होह नायव्वं ॥२॥ जीव १, गति २, इन्द्रिय ३, काय, ४, योगा ५ वेद ६ कषाय ७ लेश्या ८ सम्यक्त्व ९ ज्ञान १० दर्शन ११, संशत १२, उपयोग १३, आहार १४ भाषक १५ परीन १६ पर्याप्त १७ सूक्ष्म १८ संज्ञी १९ હવે કાયસ્થિતિનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. અહિયાં ક સ્થિતિના સંબંધમાં જીવાદ ૨૨ બાવીસ દ્વારા પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના અઢારમા કાયરિથતિ પદમાં કહેવામાં આવ્યા છે. તેની બે સંગ્રહ ગાથાઓ આ પ્રમાણે છે. 'जीव गई दिय कोए जोए वेए कसायलेस्साय सम्मत्तनाणदसण संजय उवओग आहारे ॥ १ ॥ भासग परित्तपज्जत्त सुहमसणी भवऽस्थि चरिमेय एएनि तु पयाणं कायठिई होइ नायव्वं ॥ २ ॥ ७१ १, गति २, द्रिय 3, आय ४, योग ५, ६ , पाय ७, २५॥ ८, सभ्य , न ११, सयत १२, ५या १3, माहा२ १४, ભાષક ૧૫, પરીત ૧૬, પર્યાપ્ત ૧૭, સૂમ ૧૮, સંસી ૧૯, ભવસિદ્ધિક ૨૦, Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૨ जीवाभिनमसूत्रे एतेषां तु पदानां कार्यस्थिति भवतीति ज्ञातव्या' इतिच्छाया । द्वाविंशति द्वारनामानि यथा - प्रथमं जीवद्वारम् १ एवं गतिद्वारम् २, इन्द्रियद्वारम्३, फायद्वारस्४, योगद्वार ५ वेदद्वारम्६, कपायद्वारम् ७, लेश्याद्वारम्८, सम्यक्त्वद्वारम्९, ज्ञानद्वारम् १०, दर्शन द्वारम् ११, संयतद्वारम् १२, उपयोगद्वारम् - १४, भापकद्वारस् १५ परीव (परिमित) द्वारम् १६, पर्याप्रम् १७ सूक्ष्मद्वारम् १८ स ज्ञेद्वारम् १९ भवसिद्धिकद्वारम् २०, अस्तिकायद्वारम् २१ चरमद्वारम् २२|| तत्र प्रथमं जीवद्वारं व्याचष्टे - 'जीवेणं भंते ! जीवेत्ति कालओ केवचिरं होई' जीवः खलु भदन्त ! जी । इति कालतः क्रियच्चिरं भवति अथ कार्यस्थितिरिति शब्दस्य कोऽर्थः ? तत्रोच्यते कायोनाम जीवस्य विवक्षितः सामान्यरूपी वा पर्यायविशेषस्तस्मिन् स्थितिरिति कार्यस्थितिः, इदमुक्तं भवति यस्य वस्तुनो येन पर्यायेण जीवत्वलक्षणेन पृथिवीकायादित्वलक्षणेन वा आदिश्यते व्यवच्छेदेन यद् भवसिद्धिक २०, अस्तिकाय २१ और चरम २२ इनमें प्रथम जीव द्वार को कहते हैं- 'जीवे णं भंते । जीवेत्ति कालो केवच्चिर होह' हे भदन्त ! जीव जीवरूप से कितने काल तक रहता है ? अर्थात् जीव की कार्यस्थिति का काल कितना है ? कायस्थिति शब्द का अर्थ ऐसा है-जीव की सामान्य रूप अथवा विशेष रूप जो विवक्षित पर्याय है उसका नाम काय है इस काय में जो स्थिति है वह कावस्थिति है ऐसा कार्यस्थिति शब्द का अर्थ है भवस्थिति में वर्तमान अच की स्थिति गृहीत होती है और कार्यस्थिति में जब तक जीव अपनी जीवन रूप पर्याय से युक्त रहता है तब तक की वह स्थिति विवक्षित हुई है प्रकृत में जीव की कार्यस्थिति पूछी गई है सो અસ્તિકાય ૨૧, અને ચરમ ૨૨, આમાં પહેલાં જીવદ્વારનું કથન કરવામાં आवे छे, 'जीवेण भते ! जीवेत्ति कालओ केवश्चिर होह' डे लगवन् व જીવાણાથી કેટલા કાળ સુધી રહે છે અર્થાત્ જીવની કાયસ્થિતિનેા કાળ કેટલેા છે ? કાયસ્થિતિ શબ્દને અથ એવા છે કે સામાન્યપણાથી કે વિશેષ પણાથી જીવની જે વિવક્ષિત પર્યાય છે તેનુ નામ કય છે. આ કાયમાં જે સ્થિતિ છે, તે ક યસ્થિતિ કહેવાય છે. આ પ્રમાણે કયસ્થિતિ શબ્દના અ થાય છે ભવસ્થિતિમાં વમાન ભવની સ્થિતિનું ગ્રહણ થાય છે. અને કાય સ્થિતિમાં જ્યાં સુધી જીવ પેાતાના જીન રૂપ પર્યાયથી યુક્ત રહે છે, ત્યાં સુધીની તે સ્થિતિ નિવૃક્ષિત થઈ છે. આ ચાલુ પ્રકરણમાં છત્રની કાયસ્થિતિ પૂછવામાં આવી છે. તે જે પ્રાર્થેાને ધારણ કરે છે, તે જીવ કહેવાય છે. Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ इ.३० समेदपृथिव्या स्थित्यादिनिरूपणम् ४६३ भवनं सा कायस्थितिः । तत्र जीव इति 'पाणधारणे जीति-माणान् धारयति इति जीवा, प्राणाश्च द्विविधाः द्रव्यप्राणाः मात्रमाणाश्च, तत्र द्रव्यमाणा इन्द्रियप्रभृतयः, तदुक्तम्-'पञ्चन्द्रियाणि विविधं बलं च, उच्छास-नि सबथान्य. दायुः । माणाः दशैते भगवनिरुक्तास्तेषां चियोजीकरणं तु हिंसा । १। इति । भावपाणास्तु ज्ञानादयः तः करणभूतैस्तान् आश्रित्य तदपेक्षया मुक्तोऽविमुक्ति स्थितोऽपि जीव जीवति, जीवः जीति, व्यपदिश्यते, तस्य द्रव्यपाणा भावेऽपि जो प्राणों को धारण करता है वह जीव है प्राण द्रध्य प्राण और भाव माण के भेद से दो प्रकार के कहे गये हैं पांच इन्द्रिय मन वचन काय ये तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वाम थे दस द्रण प्राण है एवं ज्ञान दर्शन सुख और वीर्य ये चार भाव प्राण हैं कहा भी है 'पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविधं बलंच उच्छ्वास निः श्वोसम्मथान्यदायुः, प्राणा दशैते भगवद्भिक्तास्तेषां शियोजी करणंतु हिंला ॥१॥ 'ज्ञानादयस्तु भाव प्राणा मुक्तोऽपि जीवति सहि' इति । पांच इन्द्रियां श्रोत्रेन्द्रियादि, तथा मनोवल, वचनबल और कायबल ये तीन बल, तथा श्वासोच्छवास और आय, ये दल प्राण कहे गये हैं। यहां पर सामान्य से प्राणों का ग्रहण हुआ है अतः दर प्राण और भाव प्राण इन दोनों का ही ग्रहण आजाता है इस तरह से जब यह विचार किया जाता है कि 'जीव जीवन रूप अवस्था में रुव तक रहता है तो यही प्रभु श्री की ओर से उत्तर मिला है कि हे गौतम ! जीव जीवन रूप अवस्था में सर्वकाल रहता है ऐमा एक भी દ્રવ્ય પ્રાણુ અને ભાવ પ્રાણના ભેદથી પ્રાણ બે પ્રકારના કહેલ છે. પાંચ દિય, મન, વચન અને કાય આ ત્રણ બળ આયુ અને શ્વાસોચ્છવાસ આ દસ દિવ્ય પ્રાણ છે. અને જ્ઞાનાદિ ભાવ પ્રાણ છે. કહ્યું પણ છે કે 'पञ्चेन्द्रियाणि त्रिविध बलंच उच्छवास निःश्वास मथान्यदायुः प्राणा दशते भगवद्भिक्ता स्तेपां वियोजी करणं तु हिंसा ।। ज्ञ'नादयस्तु भावप्राणा मुक्तोऽपि जीवति स हि इति પાંચ ઈદ્રિ શ્રોત્રેન્દ્રિય વિગેરે. તથા મનોબલ, વચનબલ અને કાયબલ આ ત્રણ બલ તથા શ્વાસોચ્છવાસ અને અયુ આ દસ પ્ર ણ કહ્યા છે અહિયાં સામાન્ય પણાથી પ્રાણે ગઠણ કરાયા છે. તેથી દ્રવ્યપ્ર ણ અને ભ વપ્ર ણ આ મને પણ ગ્રહણ થઈ જાય છે. આ રીતે જ્યારે એ વિચાર કરવામાં આવે કે “જીવ જીવન રૂપ અવસ્થામાં કયાં સુધી રહે છે ? તે તેને ઉત્તર પ્રભુશ્રી તરફથી એજ મળે છે કે હે ગૌતમ! જીવ, જીવનરૂપ અવસ્થામાં સદા Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे भावमाणसद्भावात् । तदुक्तम्- 'ज्ञानादयस्तु भावमाणा मुक्तोऽपि जीवति सबैरि इति । इह च माणविशेषस्यानुपादानेन सामान्यत उभयेषामपि प्राणानां संग्रहो भवति तच हे मदन्त ! जीवन पर्यायविशिष्टो जीवः, जीवइत्यनेन रूपेण काल:कालमधिकृत्य कियच्चिरं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' हे गौतम ! ‘सव्३द्ध' संसारावस्थायां द्रव्यभावप्राणानधिकृत्य मोक्षावस्थायां च केवलं मात्रप्राणानधिकृत्य सर्वत्रापि जीवनस्य विद्यमानत्वादिति । अथग-जीव इति नैकः प्रतिनियतो जीवो विवक्ष्यते किन्तु जीवसामान्यम्, ततः प्राणधारणलक्षण जीवनाभ्युपगमेऽपि न कश्चिद्विशेधः तथाहि - 'जीवे णं भंते' इत्यादि तत्र जीव क्षण नहीं है कि जीव अपनी इस जीवन रूप अवस्था से रहित हो जाय संसार अवस्था में तो यह प्राण एवं भाव प्राण इन दोनों प्राणों से जीता रहता है और मुक्त अवस्था में यह केवल ज्ञानदर्शन सुख वीर्यादि भव प्राणो से जीता है इसलिये संसार अवस्था में भी और मुक्त अवस्था में भी यह जीव 'जीव' इस नाम से कहा जाता है अथवा जीव पद से यहाँ किसी एक खास जीव का ग्रहण नहीं हुआ है किन्तु जीव सामान्य का ही ग्रहण हुआ है जीव सामान्य प्राण धारण रूप सामान्य अपने लक्षग से जीता है जिया है और जीता रहेगा इसमें कोई विरोध नहीं आता है अतः ऐसे इस सामान्य जीव की कार्यस्थिति का काल अनादि अनन्त रूप है । इस प्रकार जीव द्वार की तरह प्रज्ञापना के अठारह वे फायस्थिति नाम के पद में कहे हुए गति, इन्द्रिय, काय आदि घाईल द्वारों को भी समझलेना चाहिये, इनमें गति ४६४ કાળ રડે છે એવી એક પણ ક્ષણુ નથી કે જીવ પેાતાની આ જીવન રૂપ અવસ્થાથી રહિત થઈ જાય, સંસાર અવસ્થામાં તે આ દ્રવ્ય પ્રાણ અને ભાત્ર પ્રાણુ અને પ્રાળેથી જીવીત રહે છે. અને મુક્ત અવરથામાં આ કેવળ જ્ઞનન સુખવી વગેરે ભાવપ્ર ણેાથી જીવે છે. તેથીજ સ સાર અવસ્થામાં અને મુક્ત અવસ્થામાં પણ આ જીવ ‘જીવ' એ નામથી કહેવાય છે. અથવા જીવપદથી અહિયાં કોઈ એક ખાસ જીવનું ગ્રહણ થયેલ નથી. પરંતુ જીવ સામાન્યનું' જ ગ્રાણુ થયેલ છે. જીવ સામાન્ય પ્રાણધારણ રૂપ સામાન્ય પેાતાના લક્ષશેાથી જીવે છે જીપા છે, મને જીવતા રહેશે. તેમાં કંઇજ વિરે ધ આવના નથી તેથી એવા આ સામાન્ય જીવની કાયસ્થિતિના કાળ અનાદિ અને અનત રૂપ છે. આ પ્રમાણે જીવદ્વારની જેમ પ્રજ્ઞાપુના સૂત્રના અઢ'રમા કાયસ્થિતિ નામના પદમાં કહેલા ગતિ, ઇન્દ્રિય, કાય વિગેરે ખાવીસે દ્વારાને સમજી લેવા જોઇએ, તેમાં ગતિ પટ્ટની અપેક્ષાથી જ્યારે Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पच्या प्रमेयधोशिका टीका म.३ ३.३ ५.३० सभेदपृथिया: स्थित्यादिनिरूपणम् ४५ . इति जीवन्निति प्राणान् धारयन्नित्यर्थः एतादृशो जीव कामतः कियचिरं भवतीति, भगवानाह-हे गौतम ! सर्वाद्धाम् जीवसामान्यस्यानाधनन्तत्वादिति। एवं जीवद्वारबत् गतीन्द्रियकायादिद्वारैर्यथा प्रज्ञापनायामष्टादशे कायस्थिति नामके पदे कायस्थितिः कथिता तथाऽत्राऽपि सर्व निरवशेष वक्तव्यम् । . अत्र गतिविषये सूत्रालापकपकारो शत एवं, तथाहि-'नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ति कालओ केवञ्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेण दसवाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई । 'तिरिक्ख नोणिएणं भंते ! तिरिक्खजोणियति काळो केवश्चिरं होइ, 'गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंता उस्स. की अपेक्षा जब कायस्थिति का विचार किया जाता है-तय वहां पर गति नरक गति, तिर्यग्गति मनुष्य गति और देव गति चार गतियों को लेकर कायस्थिति का विचार किया गया है-यहां थोडा सत्रालापक का प्रकार दिखलाया जाता है-जैसे 'नेरइया णं भंते ! नेहयत्ति कालो केवच्चिरं होई' हे भदन्त ! नैरयिक जी की कायस्थिति का काल कितनो है ? तो इसके उत्तर में प्रभुश्री ने ऐसा कहा है-'गोयमा ! जहन्ने णं दस वाससहस्सोई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई" हे गौतम! नारक जीव की स्थिति काल जघन्य से दस हजार वर्ष का है और उस्कृष्ट से तेतीस सागरोपम का है तिरिक्खजोणिए णं भंते ! 'तिरिक्ख. जोणियत्ति कालओ के वच्चिर होई' हे भदन्त तिर्यग्योनिक जीव को कायस्थिति का काल कितना है ? तो इसके उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है'गोयमा ! जहन्नेणं अतोमुहत्तं उक्कोलेणं अणंत कालं-अणंना उस्स. पिणी मो ओसपिणीओ काल ओ खेत्तभो अणंना लोगा असंखेज्जा કાયસ્થિતિને વિચ ર કરવામાં આવે છે. ત્યારે ત્યાં ગતિ કહેતા નરક ગતિ તિયંગતિ, મનુષ્યગતિ, અને દેવગતિ આ ચાર ગતિઓને લઈને કાયથિતિને વિચાર કરવામાં આવે છે. અહિયાં થડે સૂત્રને આલાપ પ્રકાર બતાવવામાં भाव छ भनेरइयाण भते ! नेरइयत्ति काल ओं केवच्चिर होई मान् નૈરયિક જીવની કાયરિથતિને કાળ કેટલે કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा श्री गौतमस्वामीन छ'गोयमा ! जहण्णण' दसवासमहस्साई एक्कोसेण तेत्तीस सागरोबमाइ गौतम! ना२९ पनी स्थिति જઘન્યથી દસ હજાર વર્ષનો છે, અને ઉત્કૃષ્ટથી તેત્રીસ સાગરોપમને છે. 'तिरिक्स्व जोणिएण भते । तिरिक्ख जाणियत्ति कालओ केबच्चिर होई' हे भगवन તિનિક જીવની કાયરિથતિને કાળ કેટલો કહ્યો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४0 'गोयमा ! जहण्णेण मतोमुहत्तं उक्कोसेण जी० ५९ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमहरे पिणीओसप्पिणीओ कालो, खेत्तो अणंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरिपट्टा, तेणं पोग्गलपरिपट्टा, आवलियाए असंखेज्जा मागो' इत्यादि। सम्पति सामान्य पृथिवीकायादित कायस्थिति निरूपणार्थमाह-'पुढवी. फाइएणं भंते !' इत्यादि, 'पुढवीकाइएणं भंते' पृथिवीकापिकः खलु भदन्त ! अत्र पोग्गलपरियट्टा तेय पोग्गलपरियहा-आवलियाए असंखेज्जह भागो' हे गौतम | तिर्यग्योनिक जीप की फायस्थिति का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट से अनन्त काल रूप है यह अनन्त काल अनन्त उत्सपिणी और अनन्त अवसर्पिणी रूप होता है क्षेत्र की अपेक्षा और काल की अपेक्षा असंख्यात पुद्धलपरावर्त हो जाते हैं ये असंख्यात पुद्गलपरावर्त आधलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण रूप होते हैं। इत्यादि-इसी तरह से मनुष्य गति और देव गति के भी कायस्थिति का काल कितना है-इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार और उनका उत्तर प्रज्ञापना के अठारहवें फायस्थिति पद ले जान लेना चाहिये तथा जो इन्द्रिय-आदि शेष द्वारों को लेकर कायस्थिति का विचार किया गया है यह भी उसी प्रज्ञापना के कायस्थिति पद से जान लेना चाहिये। - अघ सूत्रकार मामान्य पृथिवी कादि की कास्थिति का विचार करते हैं-इसमें गौतम ने प्रभुश्री के ऐसा पृछा है-'पुढदीकाइएणं भंते ! अणत काल अणता उस्पिणीओ ओसप्पिणी ओ कालओ खेत्तओ अणता लेोगा अस खेज्जा पोग्गलपरियट्टा आवलियाए खेसज्जइ भागो' 3 गौतम ! તિયંગેનિક જીવની કાયસ્થિતિનો કાળ જઘન્યથી અંતર્મુહૂર્ત છે અને ઉશ્કટથી અનંતકાળ રૂપ છે આ અનન્તકાળ અનંત ઉત્સર્પિણ અને અનંત અવસર્પિણ રૂપ હોય છે. ક્ષેત્રની અપેક્ષાથી અને કાળની અપેક્ષાથી અસંખ્યાત પુદ્ગલ પરાવર્ત થઈ જાય છે આ અસંખ્યાત પુદ્ગલ પર વ આવલિકાના અસં. ખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણે રૂપ હોય છે ઈત્યાદિ આજ પ્રમ ણે મનુષ્યગતિ અને દેવગતિના કાયસ્થિતિને કાળ પણ કેટલો છે? એ સંબધ | આલાપને પ્રકાર અને તેને ઉત્તર પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના અઢારમા કાયસ્થિતિ પદ માંથી સમજી લે. તથા જે ઈદ્રિય વિગેરે બાકીના કરોને લઈને કાયસ્થિતિનો વિચાર કરવામાં આવ્યો છે, તે પણ એ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના કાયસ્થિતિ પદમાંથી સમજી લે. હવે સૂત્રકાર સામાન્ય પૃથ્વીકાય વિગેરેની કાયસ્થિતિનો વિચાર કરે छ. मा समधमां श्रीगीतभस्वामी प्रसुश्री ने मे पूछ्यु छ , 'पुढवा काइएणं भंते ! पुढवीकाइयत्ति कालओ केवच्चिर होई' है मापन, पृथ्वी 4 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.३० समेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूपणम् ४६७ पृथिवीकायिकः सामान्य रूपोऽतएव जाता वेकवचन नतु व्यकाय करवे एकवचन मिति, 'पुढवीकाइयत्ति काळओ केवच्चिर होइ' पृथिवीकायिक इति पृथिवीकायिकत्वरूपेण कालतः कियश्चिरं भवतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सम्बर्द्ध' सनी हा सर्व कालं यावत् पृथिवी कायिकः पृथिवीकायिकरूपेण भवति पृथिवीकायिकसामान्यस्य सर्वदैव सद्भावादिति । एवं जाव तसकाइए' एवं यावत् त्रसकायिकः अत्र यावत्पदेन-अप्तेजोवायुचनस्पतिपुढवीकाइयत्ति कालओ केवच्चिरं होह' हे सदन्त ! पृथिवीकायिक जीव पृथिवीकायिक रूप से कब तक रहता है ? अर्थात् पृथिवीकायिक जीव की कायस्थिति का काल शितना है ? इस के उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयमा सक्षद्धं' हे गौतम पृथिवीकायिक जीव पृथिवी कायिक रूप से चर्व काल वर्तमान रहता है यहाँ पृथिवी शायिन पद से सामान्य पृथिवी काधिक जीव ही ग्रहीत हुआ है और इसी कारण यहां जाति की अपेक्षा से स्त्रकार ने सूत्र में 'पुढशीलाइए' ऐसा एक वचन का प्रयोग किया है व्यक्ति की अपेक्षा लेकर एशवचन को प्रयोग नहीं किया है । ऐले कोई ला भी समय नहीं हुआ है, और न ऐसा वर्तमान में हैं और न लविष्यत् में ऐसा समय रहेगा कि जिसमें सामान्य पृथिवीकायिक जीक्ष न रहा हो न है, और न होगा सामान्य पृथिवीकायिक जीव सर्वदा इस संसार में वर्तमान हर एक क्षण में रहता है एवं जाव तसकाइए' इसी तरह से सामान्य अकायिक की, सामान्य तेजल काधिक की सामान्य वायुकाधिक की लामान्य बनस्पति છે પૃથ્વી કાવિક પણાથી, કયાં સુધી રહે છે? અર્થાત્ પૃથ્વીયિક જીવની કાયસ્થિતિને કાળ કેટલે કહ્યો છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને ४४ छ में 'गोयमा! सव्वद्ध' के गौतम ! पृथ्वीजयि ४ पृथ्वीय પણાથી સર્વકાળ વર્તમાન રહે છે. અહિયાં પૃથ્વીકાયિક પદથી સામાન્ય પૃથ્વીકાયિક જ ગ્રહણ થયા છે, અને એ જ કારણે અહિયાં જાતિની અપેક્ષાથી એક વચનનો પ્રયોગ કરવામાં આવેલ છે. વ્યક્તિની અપેક્ષાથી એક વચનને પ્રયોગ કરવામાં આવેલ નથી. એવો કોઈ પણ સમય થતો નથી, તેમ વર્તમાનમાં પણ એવું નથી. ભવિષ્યમાં પણ આ સમય રહેશે નહીં. કે જેમાં સામાન્ય પૃથ્વીકાયિક જી રહ્યા ન હોય. તેમ નહી હશે. સામાન્ય પૃથ્વીકાયિક છે આ સંસારમાં સદા સર્વદા દરેક ક્ષણમાં વર્તમાન રહે છે. 'एव जाप तमकाइए' मा अन्य सामान्य मायिनी, सामान्य Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ जीवामिगमसूर कायिकानां संग्रहो भवति, तथा च-पृथिवीकायिकवदेव अप्तेजोवायुवनस्पतित्रसकायिकानामपि कायस्थिति तिव्येति, आलापमकारस्तु एवम्-'आउकाइएणं भंते ! आउकाइयत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अगतं कालं वर्णता उस्सप्पिणीओ सप्पिणीओ कालो, खेत्तओ अणंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा तेयपोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइ भागो' इत्यादि, एवमेव तेजोवायुवनस्पतित्रसकायिक मूत्राण्यपि ज्ञातव्यानि, सर्वत्रालापमकारस्तु स्वयमेवोहनीय इति । सम्पति-विवक्षिते काले जघन्यपदे उत्कृष्टपदेवा कियता कालेनामिनवा उत्पद्य मानाः पृथिवीकायिकादयो निर्लेपास्युः ? इत्येतन्निरूपणार्थमाइ-'पटुप्पन्न पुढवीकाइयाण' इत्यादि, 'पडुप्पन्नपुढवीकाइयाणं भंते' प्रत्युत्पन्न पृथिवीकायिकाः तत्काकायिक जीव की और सामान्य प्रसकायिक जीव की भी कायस्थिति का काल जानना चाहिये इस सम्बन्ध में आलाप प्रकार ऐसा है 'आउ काइए णं भंते ? आउकाइयत्ति कालओ केवच्चिरं होई गोयमा जहन्ने णं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अणतं कालं अणंता उस्सप्पिणीओसप्पि. णीओ कालो खेत्तमो अणंता लोगा असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा तेय पोग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइ भागो' इत्यादि । इसी तरह से तैजस्काधिक वायुकायिक और वनस्पतिकायिक के सम्बन्ध में भी सूत्र जान लेना चाहिये। __अघ सूत्रकार पूर्वोक्त काल में जघन्य और उत्कृष्ट से पृथिवी काधिकादिजीव कितने काल से निर्लेप होते हैं ? इसका निरूपण कहते हैं-'पडप्पन्न इत्यादि । તેજસ્કાયિકની, સામાન્ય વાયુકાયિકની સામાન્ય વનસ્પતિકાયિક, જીવની, અને સામાન્ય ત્રસકાયિક જીવની કાયસ્થિતિનો કાળ પણ સમજી લે. આ સંબંધમાં माताना प्रा२ मा नाय प्रमाणे छे. 'आउ काइएणं भते ! आउकाइयत्ति कालओ केवच्चिर होई, गोयमा ! जहण्णेण अतोमुहत्त' उनकोसेणं अणंत काल अणता उस्स प्पिणी ओस प्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणता लोगा असूखेज्जा पोगगळ परियटी तेय पोग्गलपरियडा थावलियाए असखेज्जइभागो' त्याप्रमाणे ते. સ્કાયિક, વાયુકાયિક અને વનસ્પતિકાયિકના સંબંધમાં પણ સત્રપાઠ સમજી લે. હવે સૂત્રકાર પૂર્વોક્ત કાળમાં જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ પણાથી પૃથ્વીકાયિક વિગેરે છે કેટલા કાળથી નિર્લેપ હોય છે? આ વિષયનું નિરૂપણ કરવા ४४ छ, 'पडुप्पन्न' त्यादि Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ४.३० सभेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूप गम् ४६९ कमुत्पद्यमानाः पृथिवीकायिकजीवाः खलु भदन्त ! 'केवइय कालस' कियत्काल स्य 'केवइय कालस्स' इत्यत्र तृतीयार्थे षष्ठी विभक्तिस्वेन कियता कालेन ‘णिल्ले वा सिया निर्लेपाः स्युः पतिसमयमेकै कापहारेणापहियमाणाः पृथिवी कायिकाः कियता कालेन सर्ने एव निष्ठामुपयान्तीति प्रश्नः भगदानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहण्णपदे' जघन्यपदे यदा सर्वस्तोका भवन्ति तदा-'असं. खेजाहि उस्सप्पिणीओ सप्पिणीहि' असंख्यातासि रुत्सपिण्यवसर्पिणीमिः पृथिवीकायिका निर्लेपा भवन्तीति । 'उकोसपए' उत्कर्षपदे यदा सर्वे बहवो भवन्ति सदाऽपि 'असंखेज्जाहिं उस्सपिणीओ सप्पिणीहि' असंख्याताभिरु सपिण्यवसर्पिणीमि निलेपा भवन्तीति। अत्राय विशेष:-'जहन्नपदाओ उक्कोसपए असंखेज्जगुणा' हे भदन्त ! जितने अभिनव पृथिवी कायिक जीव विवक्षित काल में जघन्य और उत्कृष्ट रूप से उत्पन्न होते हैं वे सब उतने जीव कितने काल के बाद यदि उनमें से एक एक जीव निकाला जावे तो पूरे समाप्त हो जायें ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते है-गोयमा जहन्नपए अस. खेज्जाहिं उस्तप्पिणीओसप्पिणीहिं उनकोसपदे असंखेज्जाहिं उस्सपिणि ओसप्पिणीहिं' हे गौतम ! जघन्य ले अर्थात् जब एक काल में कम से कम उत्पन्न होते हैं उस अपेक्षा ले यदि उनमें से प्रत्येक समय में एक-एक जीव अपहत किया जावे तो उनके पूरे अपहरण होने में असंख्यात उत्सपिणियां और असंख्यात अवलपिणियां समाप्त हो હે ભગવન્! જેટલા નવા પૃથ્વીકાયિક જી વિવક્ષિત કાળમાં જઘન્ચ અને ઉત્કૃષ્ટ પણાથી ઉત્પન્ન થાય છે, તે બધાજ જે કેટલા કાળ પછી તે તેઓમાંથી એક એક સમયમાં એક એક જીવ બહાર કાઢવામાં આવે, તે પૂરે પૂરા બહાર કહાડી શકાય? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छे हैं 'गोयमा ! जहन्नपए अस जाहिं उस्तप्पिणी ओसप्पिणीहि उक्कोसपदे अव खेज्जाहिं उस्सपिणी ओसप्पिणीह' गौतम ! धन्यथी अर्थात् न्यारे ४ કાળમાં એાછામાં ઓછા ઉત્પન્ન થાય છે. તે અપેક્ષાથી જે તેમાંથી પ્રત્યેક સમયમાં એક એક જીવ બહાર કહાડવામાં આવે, તે પૂરેપૂરા તેઓને બહાર કહાડવામાં અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને અસંખ્યાત અવસર્પિણી પૂરી થઈ જાય છે. એ જ પ્રમાણે ઉત્કૃષ્ટથી અર્થાત્ એક જ કાળમાં જ્યારે તેઓ વધારેમાં વધારે ઉત્પન્ન થાય છે. તે અપેક્ષાથી પણ જે તેમાંથી એક એક સમયમાં એક એક જીવ બહાર કહાડવામાં આવે તે પણ તેઓને પૂરેપૂરા બહારહાડવામાં અસંખ્યાત ઉત્સર્પિણ અને અસાત અવસર્પિણ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ जीवामिगमस्ये जयपदा दुत्कृष्टपदिनो जीवा असंख्ये पगुणा अधिका भवन्ति, उत्सपिण्यवसर्पिणीनां जघन्योत्कृष्टपदोक्ता संख्येयत्वमध्ये जघन्यपदोक्ता संख्येवत्वापेक्षया उत्कृष्टपदोक्ता संख्येवस्य असंख्येयगुणाधिकत्वादिति भावः । 'एवं जाव पडप्पन्न बाउकाइया' एवं पृथिवी कायिकवदेव यावद् वायुकायिका जीवा। अघ. न्यो कृष्ट देऽख्येयामि रुत्सपिण्यवसर्पिणीमि निलेपा भवन्तीति यावत्पदेना. प्तेजः कायिकानां ग्रहणं भवतीति तथा च पृथिवीकायिकादारभ्य वायुकायिक जीपाः जघन्योत्कृष्टाभ्यामसंख्याताभि रुत्सर्पिण्यासपिणीमि निलेपा भवन्तीति जाती हैं इसी प्रकार उत्कृष्ट से अर्थात् एक ही काल में जय वे अधिक से अधिक उत्पन्न होते हैं बस अपेक्षा से भी यदि उनमें से भी एक २ समय में एक-एक जीन अपहृत किया जावे तो भी उनके भी पूरे अप. हरण करने में असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंख्यात अव सपिणियां समाप्त हो जावें तब ये पूरे अपहृत हो सकते हैं-'जहण्णपदाओ उक्कोरूपए असंखेज्जगुणा' जाधय पद वाले उत्पद्यमान अभिनव पृथिवी कायिक जीवों की अपेक्षा जो उत्कृष्ट पदवी अभिनव पृथिवी कायिक जीव उत्पन्न होते हैं वे असंख्यात गुणे अधिक होते हैं। क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट पदों में दोनों जगह असंख्घात पद होते हुए भी जयन्यपदोक्त असंख्याल च की अपेक्षा उत्कृष्ट पदोक्त असंख्यातत्व असंरुपातगुणा अधिक होता है। ‘एवं जाच पड्डप्पन्न वाउमाइया इसी तरह से एक फाल में यावत् अभिनव अकायिक तैनस्कायिक और वायुकायिक जीव पम ले कम और अधिक से अधिक इतने उत्पन्न होते हैं कि उनमें से एक एक समय में एक जीव का अपहरण किया जावे तो पृथिवीकायिक समास थ नय छे त्यारे ते पूरे ५२॥ ५७२ ४६11 शय छ 'जहण्ण पदामो उक्कोसपए अस खेज्जणा' धन्य ५४ाणपन्न थना। नवा नवा પૃથવીકાયિક જીની અપેક્ષાથી જે ઉત્કૃષ્ટ પદ વતી નવા નવા પૃથ્વીકાયિક જી ઉત્પન્ન થાય છે, તેઓ અસંખ્યાત ગણું વધારે હોય છે. કેમકે જઘન્ય અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં બન્ને સ્થળે અસંખ્યાત પદ હોવા છતાં પણ જઘન્ય પદમાં કહેલ અસંખ્યાત ચ ની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટ પદમાં કહેલ અસંખ્યાતવ मसभ्याता पधारे हाय छे. 'एजाव पडुप्पन्न वाउक्काइया' मे प्रभा એક કાળમાં યાવત્ નવા નવા અપકાયિક, તેજસ કાયિક અને વાયુકાયિક જીવ ઓછામાં ઓછા એક એક સમયમાં એક એક જીવનું અપહરણ કરવામાં આવે અર્થાત્ બહાર કહખવામાં આવે તે પૃથવીકાયિક જીવોની જેમજ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ उ. ३ ०.३० समेदपृथिव्याः स्थित्यादिनिरूपणम् ४७१ 'पहुवण फरकायाणं भंते' प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकाः तत्काल समुत्पद्यमाना वनस्पतिकायिकाः खलु खलु भदन्त ! 'केनइय - कालरूस निल्लेवा सिया' क्रियता कालेन निर्लेपाः स्युः १ इति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयवा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पटुत्पन्नवण फइकाइया' मत्युत्पन्नास्तरकालं समुत्पद्यमाना areपतिकायिकाः, 'जनपदे अपदा' जघन्यपदे अपदाः यता कालेनापहिय से इत्येतादृशपदरहिता एव भवन्ति । वनस्पतिकायिकानामनन्वानन्तत्वादिति । 'उक्कोसपदे अपया' उत्कृष्टपदे अदा:, यता कालेन अपह्रियते इत्येतादृशपदरहिता), जीवों की तरह ही असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंख्यात ही अच सर्विनियाँ समाप्त हो जावें तब जाकर वे पूरे पहन किये जासकते हैं । 'पपन्नवह काइयाणं भंते! केवहय कालस्स निल्लेवा लिया' हे भदन्त ! वनस्पति कायिक जीव जो अभिनव वनस्पति कायिक जीव रूप से अमुक किसी विवक्षित काल में कम से कम उत्पन्न हुए हों और अधिक से अधिक उत्पन्न हुए हों यदि उन्हें एक-एक समय में अपहृत किया जावे तो कितने काल में वे अपहृत हो पावें ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं - 'गोमा ! पडुप्पन्न वण फह काइका जहण पदे अपया उक्को पदे अपया' हे गौतम! वनस्पतिकायिक जीव जघन्य से और उत्कृष्ट से अमुक विवक्षित-काल में इतने अधिक उत्प न्न होते हैं कि 'वे असंख्यात उत्सर्पिणियों में और असंख्यात अवसर्पि नियों में अपहृत हो पावें' ऐसा वहां नहीं कहा जा सकता है इसका तात्पर्य यही है कि वनस्पति कायिक जीव अमुक-विवक्षित-काल में અસ ખ્યાત ઉપિ ણીયા અને અસંખ્યાત જ અવસર્પિણીયા પૂરી થઈ જાય ત્યારે તે પૂરેપૂરા ખહાર કહાડી શકાય છે. 'पडुन्नवणफ इकाइयाणं भवे ! केत्रइय काउस्स निल्लेवा सिया' ३ ભગવન્! વનસ્પતિક ચિક જીવ જે અભિનવ વનસ્પતિ કાયિક પણાથી કાઈ અમુઢ્ઢ વિવક્ષિત કાળમાં એછામાં ઓછા ઉત્પન્ન થયા હોય અને વધારેમાં વધારે ઉત્પન્ન થયા હાય તેએને જો એક એક સમયમાં મહાર કહ।ડવામાં આવે, તે તે બધા કેટલા સમયમાં બહાર કહાડી શકાય? આ પ્રશ્નના उत्तरमां प्रभुश्री गौतमस्वामीने हे छे गोयमा | पडुप्पन्न वण फकाइया जहण्णपदे अपया, उक्कोसपरे अपया' हे गौतम । वनस्पति अधिक लो જઘન્યથી અને ઉત્કૃષ્ટથી અમુક વિક્ષિત કાળમાં એટલા બધા વધારે ઉત્પન્ન થાય છે. કે તેઓ અસ`ખ્યાત ઉત્સર્પિ`જ઼ીચામાં અને અસ`ખ્યાત અવસર્પિણીયામાં બડ઼ાર કહાડી શકાય એ પ્રમાણે કહી શકાતું નથી. આ કથનનું તાપ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगममा उत्कृष्टपदेऽपि भवन्ति वनस्पतिकायिकानामनन्तानन्तत्वात् । 'पप्पन्नवणफर. काइयाण नत्थि निल्लेवणा' प्रत्युत्पभवनस्पतिकायिकानामनन्तानन्ततया निर्लेपना "नास्तीति । 'पडुप्पन्नतसकाइयाणं पुच्छा' प्रत्युपनत्रसकायिकाः खलु भदन्त ! कियता कालेन निर्लेपा भवन्तीति मनः, भगवानाह-हे गौतम ! 'जहण्णपदे सागरोवमसयपुहवस्स' जघन्यपदे सागरोपमशतपृथक्त्वेन निलेपा भवन्ति 'उस्कोसपदे सागरोवमसय पुडुसस्स' उत्कृष्टपदेऽपि सागरोपमशतपृथकावेन निर्लेषा भवन्ति । नवरम् 'जहागदा उक्कोसपदे विसेसाहिया' जघन्यपदादुत्कृष्ट सर्वदा अनन्तानन्त उत्पन्न होते रहते हैं। इसी कारण 'पटुप्पन्नवणकर झाइया णं नरिथ निल्लेवणा' प्रत्युत्पन्न बनस्पतिकायिक जीवों की निले. पना नहीं होती है क्यों कि चे अनन्तानन्त उत्पन्न होते रहते हैं 'पद्ध प्पन्नतसकाइयाणं पुच्छा' हे भदन्त ! प्रत्युत्पन्न प्रसकायिक जीव लेपरहित तिने काल के बाद होते हैं-अर्थात् जिस किसी विवक्षित समय में कम से कम और अधिक से अधिक जितने त्रस कायिक जीव उत्पन्न होते हैं वे यदि एक-एक समय में एक-एक जीव अपहृत किये जावें तो कितने काल में वे पूरे अपहृत हो पावें? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-हे गौतम ! 'जहण पदे सागरोवममयपुहत्तस्स, उक्कोसपदे मागरोवमलय पुत्तस्म' वे प्रत्युतान्न कायिक जीव जघन्य पद में और उत्कृष्ट पद में इतने अधिक होते है कि यदि उन्हें एक-एक समय में एक-एक जीव के अपहन किया जावे तो पूरे अपहृत करने में सागोपमशन पृथक्त्वा अर्थात् एक सौ सागरोपम से लेकर नौ सौ सागरोपम तक का काल समाप्त हो जावे 'जहन्नपयो उक्कोसपए એ જ છે કે વનસ્પતિ કાયિક જીવ અમુક વિવક્ષિત કાળમાં સર્વદા અનંતાनत न थत! २३ छ अरणे ‘पडापन्नवणप्फइकाइयाण नत्यि निल्लेवणा' પ્રત્યુત્પન્ન-વર્તમાન કાળમાં ઉત્પન્ન થયેલા વનસ્પતિ કારિક જીવની નિર્લેપના थती नथी. भोतमा मन तानत पन थ। २ छे. 'पडुप्पन्नतसकाइयाण પુઝા' હે ભગવન પ્રત્યુત્પન્ન ત્રસાયિક જીવ કેટલા કાળ પછી લેપરહિત થાય છે ? અર્થાત જે કંઈ વિવક્ષિત કાળમાં ઓછામાં ઓછા અને વધારેમાં વધારે જેટલા ત્રસ કાયિક છે ઉત્પન્ન થાય છે, જે તે બધા એક એક સમયમાં બહારહ ઠવામાં આવે, તે તે બધા કેટલા સમયમાં પૂરેપૂરા બહ ૨ કહાડી શકાય? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ जहण्णपदे सागरोवमसयपुहुत्तस्स उक्कोसपदे सागरोवमसयपुहुत्तस्स' ते प्रत्युत्पन्न Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योसिका टीका म.उ.३ सु.३१ गविशुद्ध-विशुद्धलेश्यानगारनि० ४७३ पदे विशेषाधिका भवन्ति, शतपृथक्त्वस्य सामान्यतया कथनेऽपि जघयपदोक्त शतपृथक्त्वापेक्षया उस्कृष्टपदोक्तशत पृथक्त्वस्य विशेषाधिक त्वादिति ॥१० ३० । पूर्व पृथिव्यादि चतुर्विंशतिदण्डकजीवानां स्थित्यादि भावाः प्रदर्शिताः, साम्पतं पूर्वोक्त भाववेत्ताऽनगार एव भवतीति अविशुद्धलेश्य विशुद्धटेश्यानगार वक्तव्यतामाह- ‘अविसुद्धलेस्सेणं भंते' इत्यादि, मूलम्-अविसुद्धलस्सेणं भंते ! अणगारे असंमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ ? गोयमा! नो इणट्रे सम । अविसुद्धलेस्लेणं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणेणं बिसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारे जाणइ पासइ ? गोयमा ! नो इणट्रे समटे । अविसुद्धलेस्ले अणगारे समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासइ ? गोयमा! नो इगट्टे समटे। अविसुद्धलेस्सेणं भंते ! अणगारे समोहएणं अप्पाणेगं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ ? नो इणटे समटे । अविसुद्धलेस्सेणं भंते ! अणगारे समोहया समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पामइ ? नो इणटे समझे। अविसुद्धलेणं विसेमाहिया' जघन्य पद में वे जितने उत्पन्न हुए है उनकी अपेक्षा वे उस्कृष्ट पद में विशेषाधिक तान्न होते हैं क्योंकि मामान्य तया शत पृथक्त्व पद के कहने पर भी जघन्य पद के शत पृथक्त्व की अपेक्षा उत्कृष्ट पद का शत पृत्व विशेषाधिक होता है।मू० ३०॥ ત્રસકાયિક છે જઘન્ય પદમાં અને ઉત્કૃષ્ટ પદમાં એટલા વધ રે હોય છે કે જે તેઓને એક એક સમયમાં એક એક પણાથી બહાર કહાડવામાં આવે તે પૂરે પૂરા બહાર કહાડવામાં સાગરેપમ શત પૃથકવ અર્થાત્ એક સો સાગરેપમથી ૯ઈને નવ સ સ ગરેપમ સુધ ને કાળ પુરો થઈ જાય 'जहन्नपया उक्को सपए बिसेसाडिया' धन्य मां ते 2247 पन्न थया छे, તેઓની અપેક્ષાએ તેઓ ઉત્કૃષ્ટપદમાં વિશેષાધિક ઉત્પન્ન થાય છે કેમકે સામાન્ય તથા શતપૃથફત્વ પદને કહેવા છતાં પણ જઘન્ય પદના તપૃ કુવની અપેક્ષાએ ઉત્કૃષ્ટ પદનું શત પૃથકૃત્વ વિશેષાધિક હોય છે. એ સૂ ૩૦ को ६० Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ जीवामिगम र भंते ! अणगारे लमोहया समोहएणं अप्पाणणं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पालइ ? नो इणट्टे समटे । विसुद्धलेस्सेणं अंते ! अणगारे अलमोहएणं अप्पाणणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पालइ ?हता जाणइ पासइ, जहा अविसुद्धलेस्से. णं आलावणा एवं विसुद्धलेस्रोण वि छ आलावगा भाणियवा। जाव विसुद्धलेस्लेणं भंते ! अणगारे समोहएणं विसुद्धलेस्सं देवं देदि अणगारं जाणइ पालइ ? हंता जाणइ पासइ ॥सू० ३१॥ ___छाया-अविशुद्धलेश्यः खल भदन्त ! अनगारोऽसयबहते नाऽऽत्मना अवि. शुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारं जानाति पश्यति ? गौतम ! नायनर्थः समर्थः अविशुद्वलेश्यः खलु भदन्त ! अनगारः असमबहतेन आत्मना विशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारं जानाति पश्यति ? गौतम ! नायमर्थः समर्थः । पविशुद्धलेश्योऽनगारः समवह तेन आत्मना अविशुद्धळेश्यं देवं देवीमनगारं जानाति पश्यति ? गौतम! नायमर्थः समर्थः, अविशुद्धछेश्यः खलु भदन्त ! अनगारः समवहतेन आत्मना विशुद्धलेश्य देवं देवीपनगार जानाति पश्यति । नायमर्थः समर्थः । यविशुद्धलेश्या - खलु भदन्त ! अनगारः समवहता ममबहतेन आत्मना अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगार जानाति पश्यति ? नायमर्थः समर्थः । अविशुद्धलेश्यः खलु भदन्त ! अनगारः समवहना समवह सेन आत्मना विशुद्धले श्यं देवं देवीमनगार जानाति पश्यति ? नायमर्थः समर्थः । विशुद्धलेश्यः खलु गदन्त ! अनगारः असमवह तेनाश्मना अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारंजानाति पश्यति ? हन्त जानाति पश्यति, यथा-अविशुद्धळेश्येन आलापकाः, एवं विशुद्धलेश्येनापि पडालायकाः भणितव्या यावद विशुद्धलेश्यः खन्नु भदन्त । अनगारः समबहता समवहतेन आत्मना विशुद्धलेश्य देवं देवीमनगार जानाति पश्यति ? न जानाति पश्यति सू. ३१॥ ___ इस से पूर्व पृथिव्यादि चौवीस दण्डश के जचों के स्थित्यादि भाव कहे गये है पूर्वोक्त स्थित्यादि भादों का जानकार अनगार ही हो सकता है इसलिये अब विशुद्ध विशुद्ध लेश्या वाले अनार के विषय में कहते हैं આની પહેલા પૃથિવી વિગેરે ચોવીસ દંડકના જીવોની સ્થિતિ વિગેરે ભા કહેવામાં આવ્યા છે. તે પૂર્વોક્ત રિયાદિ ભાવેને જણવાવાળા અણગારજ હોય છે. તેથી હવે અવિશુદ્ધ વિશુદ્ધ લેશ્યા વાળા અણુગારના સંબંધમાં કથન કરવામાં આવે છે, Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोंतिका टीका प्र.३ उ.२ ५.३१ अविशुद्ध-विशुद्धलेश्यानगारनि० ४७५ ____टीका--अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे' अविशुद्धळेश्या, विशुद्धा लेश्या विद्यते यस्य स विशुद्धलेश्यः न विशुद्धलेश्य इति अविशुद्धळेश्यः कृष्णनीलकापोतलेश्यावान् खलु भदन्त ! अनगारः, न विद्यते अगारं-गृहं यस्य सोऽनगारः साधुः 'असमोहएण' अप्तमवह तेन वेइनादि समुद्घातरहितेन 'अप्पाणेणं' आत्मना 'अविमुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं' अविशुद्धलेश्यं-कृष्णादिलेश्योपेतं देवं देवीं वा अनगारम 'जाणइ पासइ' जानाति-ज्ञानविषयीकरोति, पश्यति दर्शनविषयी. फरोतीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा ! हे गौतम ! 'नो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः अविशुद्धलेश्या वत्त्वेन यथावस्थितवस्तु परिच्छेदा'अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणणारे अलमोहएणं अप्पाणेणं' इत्यादि टीकार्थ-गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है-'अविसुद्धलेस्ले णं भंते ! अणगारे' हे भदन्त ! जो अनगार जिसके-अभार-घर नहीं हो वह अनगार अर्थत-साधु-अविशुद्धि लेश्या वाला है कृष्ण नील कापोत लेश्या वाला है-और 'अलमोहएणं अप्पाणेणं' वेदनादि समुद्रात विहीन आत्मा द्वारा क्या 'अविस्सुद्धले देचं देहिं अणागर" अविशुद्ध लेश्या वाले-कृष्णादि लेश्या वाले देव को या देवी को यो अनगार को 'जाणइ पाल' ज्ञान द्वारा जानता है और दर्शन द्वारा देखता हैइसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयमा ! णो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् अविशुद्ध लेश्या वाला होने के कारण उस अनगार के यथावस्थित बस्तु को जानने वाले ज्ञान का अभाव कहा गया है इस तरह अविशुद्ध लेश्या वाला अनगार यथार्थ 'अविसुद्धलेस्रेण भो अणगारे असमोहएण अपाणेण' त्याह टी-श्रीगीतभस्वामी प्रभुश्रीन मे ५७यु, 'अविसुद्धलेस्से णभ वे अणगारे' हे साप मार मेटले २२ मा२-३२ न डाय त અનગાર અર્થાત સાધુ અવિશુદ્ધ લેશ્યાવાળા છે. કૃષ્ણનલ, કાપત, લેસ્થાવાળા छ, भने 'असमोहएण अपाणेणं' वहन विगेरे सभुधात २डित मामा दास 'अविसुद्धलेस्स देव' देवि अणगार" भविशुद्ध सश्यावा ४ विगेरे वेश्या पाणवने भार वीर मया अगारने 'जाणइ पासइ' ज्ञान द्वारा तो છે? અને દર્શન દ્વારા દેખે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે 'गोयमा ! जो इणटे समढे' 3 गौतम ! २॥ मय पराम२ नथी. अर्थात् वि. શુદ્ધ લેશ્યાવાળા હોવાથી એ અણુગારને યથાવસ્થિત વસ્તુને જાણવાવાળા પાનને અભાવ કહેલ છે. આ પ્રમાણે અવિશુદ્ધ લેશ્યાવાળે અણગાર યથાર્થ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमत्र भावादिति, 'अविसु द्रलेस्सेणं भंते ! अणगारे' अविशुद्धलेश्यः-कृष्णादिलेश्योपेतः खल भदन्त ! अनगार:-साधुः 'असमोहएणं अपाणेण' असमवहतेन-वेदनादि समुद्घातरहितेनाऽऽत्मना 'विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं' विशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारं किम् 'जाणइ पासइ' जानाति-पश्यति, इति द्वितीयः प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो इणटे समढे' नायमर्थः समर्थः, अविशुद्धलेश्यावत्वेन यथाऽवस्थितवस्तुपरिच्छेदाभावादिति ॥२॥ 'अविमुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे' अविशुद्धः -कृष्णादिलेश्यः खल भदन्त ! अनगार:-साधुः 'समोहएणं अप्पाणे णं' समवहतेन-वेदनादि समवघातगतेनात्मना रूप से न अविशुद्ध लेश्या देव को जानता देखना है । 'अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणे णं विसुद्धलेस्सं देवं देवि अण गारं जाणइ पासह' हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध लेश्या वाला है और वेदनादि समुद्घात से विहीन है ऐसा वह अनगार वेदनादि समुद्घात रहित आत्मा के द्वारा क्या विशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या किसी अनगार को क्यो जानता है और देखता है ? इस के उत्तर में प्रभु श्री कहते है-'गोयमा! नो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि अविशुद्ध लेश्या वाले यथावस्थित वस्तु को जानने वाले ज्ञान का अभाव रहा करता है । 'अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे समोह एणं अपपाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासह' हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध लेश्या वाला है-लेश्या की विशुद्धि से विहीन है-परन्तु वेदनादि समुद्घात गत है पाथी भविशुद्ध सेश्यावाणा देवने युत। हेमात नथी. अ वसुद्धलेस्सेण भंते अणगारे असमोहएणं अप्पाण विसुद्धलेस्स देव देवि अणगार' जाणइ पासइ' है ભગવદ્ જે અનગાર અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા હોય છે, અને વેદના વિગેરે સમુદ્દઘાતથી રહિત છે. એ તે અનગાર વેદના વિગેરે સમુદ્રઘાતથી રહિત આત્મા દ્વારા વિશુદ્ધ લેશ્યાવાળા દેવને અથવા દેવીને અથવા તેવા કોઈ અણુગારને શું જાણે છે? કે દેખે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને से छे , 'गोयम। ! नो इणद्वे समटे' गीतम ! म म मशमर नथी. કેમકે અવિશુદ્ધ લેશ્યા વાળાને યથાવસ્થિત વસ્તુને જાણવાના જ્ઞાનને અભાવ हाय छे. 'अविसुद्धलेस्सेणं, भते ! अणगारं समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस देव देवि अणगारे जाणइ पासइ' 3 मापन २ मनसार अविशुद्ध वेश्यावाणा હોય છે, વેશ્યાની વિશુદ્ધીથી રહિત છે. પરંતુ વેદના વિગેરે સમુદઘાતવાળા છે, Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उं.२ .३१ अविशुद्ध-विशुद्धलेश्यानगारनि० ४३७ 'अविसुद्धलेरसं देवं देवि अणगारं' अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाण पासइ' जानाति-ज्ञानविषयीकरोति, पश्यलि- दर्शनविषयी करोति, इति प्रश्ना, भगवा . नाह -'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो इण्टे समढे' नायमर्थ अविशुद्धलेश्यावयेन यथावस्थित पदार्थप रिच्छे स्मशक्यत्शदिति ३। 'अविसद्धले से अणगारे' अविशुद्धलेश्यः-कृष्णादिछेश्यासहितोऽनगारः 'सम हए णं अपाणेणं' समाह सेन-वेदनादि समुद्घातगतनात्मना 'विसुद्ध छेस्सं देवं देवि अण गारं' विशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाणइ पासइ' जानाति सामान्यतः, पश्यति विशेषरूपेणेति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः अविशुदलेश्यतया यधावस्थित वस्तुपरिच्छेदासंभवादिति ४ । 'अविमुद्धलेस्से णं भंते । अगगारे' अविश लेश्यः खल्ल भदन्त ! अनगार:-साधुः 'समोहया समोहएगं अपाणेणं समवष्ठता समवहतेनाऽऽत्मना तो क्या वह स्वयं के द्वारा 'अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगार' आंधशुद्ध टेश्या वाले देव को या देवी को या अनगार को क्या जानता है और देखता है ? इसके उत्सर में प्रभुश्री कहते हैं-'जो इणढे समटे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है इसका कारण लेश्या की अविशुद्धता में यथावस्थित वस्तु परिच्छेदक ज्ञान नहीं होता है अविसुद्धलेरसे अण गारे समोहएणं अप्पाणे विसु द्रलेसन देवं देवि अणगारं जाण पाRE हे भदन्त ! जो अनगाा अविशुद्ध लेश्या वाला है और वेदनादि समुद घात गत रहा हवा है तो क्या वह स्वयं के द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या अनगार को क्या जानता देखता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री करते हैं-हे गौतन! 'लोषण सम' यह अर्थ समर्थित नहीं तो शुत २५य यातनाथी 'अबिसुद्धलेस्व देव देवि अणगार' जाणइ पासइ' અવિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા દેવને અથવા દેવીને અથવા અણગારને શું જાણે છે? भने हेमे छ मा प्रक्षना उत्तम प्रभुश्री गौतम भान छ है जो इणट्रे समटे हे गौतम ! भा मथ म३।१२ नथी. तनु .२५ देश्यानी विशुद्धिमा यथावस्थित परतु परि ज्ञान हा ते हातु नथी. 'अविसुद्धले से अणगारे समोहएण अप्पाण्णं विसुद्धलेस्स देव' अणगार जाणइ पासइ मापन જે અણુગાર અવિશુદ્ધ લેશ્યાવાળો હોય અને વેદના વિગેરે સમુદઘત યુકત હોય તે શું તે સ્વયં તેિજ વિશુદ્ધ લેશ્ય વાળા દેવને અથવા દેવીને કે અણગારને જાણે છે? કે દેખે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! 'नो इण? समटे' मा म र नथी, तेनु र ६५२ वाम मावी Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ जीवामिगमस्त्र समबहता समवहतो नाम वेदनादि समुद्घात क्रियाविशिष्टो न तु परिपूर्णसमवहतो नापि सर्वथा असमवहतः 'अविमुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं' अविशुद्धलेल्यं देवं देविं अणगारं' अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाणइ पास जानाति सामान्यता, पश्यति विशेषरूपेणेति प्रश्नः, भगवानाह-'हे गौतम ! 'णो इणटे समढे' नायमर्थः समर्थः अविशुद्धलेश्यतया यथावस्थितवस्तु परिच्छेदस्याशक्यत्वादिति ५। 'अविसुद्धलेरसे अणगारे' अविशुद्धलेश्या खलु भदन्त ! अनगारः, 'समोहया समोहएणं अप्पाणेणं' समवहता समवह तेनाऽऽत्मना 'अविसुद्धस्सं देवं देवि अणगारं' अविशुद्रलेश्यं देवं देवीमनगारम् 'जाणइ पासइ' जनाति सामान्यरूपेण, पश्यति विशेषरूपेणेति षष्ठः प्रश्नः, भगवानाइ-'गोयमा' हे गौतम । होती है कारण इसका ऊपर में बताया जा चुका है । 'अविसुद्धस्सेणं भंते ! अणगारे समोहया समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि जाणह पास' हे भदन्त ! अनगार अविशुद्ध लेश्या वाला है और वेद. नादि समुद्घात क्रिया से कुछ विशिष्ट है वेदना आदि समुद्घात से कुछ रूप से विशिष्ट नहीं भी है ऐसा वह समवहतासमवहतात्मावाला साधु क्या अविशुद्ध लेश्या वाले देव को या देवी को या अनगार को क्या जानता देखता है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-हे गौतम ! 'नो इणढे सम?' यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योकि यथार्थ दर्शन ज्ञानका उसको अभाव रहता है 'अविसुद्धलेस्ते अणगारे समोया समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अनगारं जाण पास' हे भदन्त ! जो अनगार अविशुद्ध लेश्यावाला है और वेदनादि समुदघात से विशिष्ट और अविशिष्ट भी है तो क्या ऐसा वह अनगार स्वयं के द्वारा विशुद्ध गये छे. ते प्रमाणे सभ७ दे, 'अविसुद्धलेस्सेणं भते ! अणगारे समोहया समोहएण अप्पाणेणं अविसुद्धलेरस देव देवि जाणइ पासइ' 8 भगवन् र અણુગાર અવિશુદ્ધ લેફ્સાવાળો હોય છે, અને વેદના વિગેરે સમૃદુધાત ક્રિયા થી કંઈક વિશેષ છે, અને કંઈક અંશથી વેદના વિગેરે સમુદ્રઘાતથી વિશેષ ન પણ હોય, એ તે સમવહલાસમવહાત્મા વાળે સાધુ અવિશુદ્ધ લેશ્યા વાળા દેવને અથવા દેવીને અથવા અણગારને જાણે છે કે દેખે છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमताभीर ४ छ । गीतम! 'णो इणट्रे समट्टे 41 MI १२१२ नथी. ४ यथाथ ४४ ज्ञानना तेने मला हाय छे. 'अविसुद्धलेस्से अणगारे समोरा समोहएणं अपाणेणं अविसुद्धलेस्स देव' देवि अणगार जाणइ पासई' ७ सावन् ! २ मगर अविशुद्ध वेश्या વાળ હોય, અને વેદના વિગેરે સમુદ્રઘાતથી વિશિષ્ટ અને અવિશિષ્ટ પણ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.२ ५.३१ अविशुद्ध-विशुद्धलेश्यानगारनि० ४९ ‘णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः अविशुद्धलेश्यतया यथावस्थितबरतु परिच्छे. दस्याशक्यत्वादिति ६। तदेवमविशुद्धलेश्पे ज्ञातरि साधौ षट् सूत्राणि प्रदर्य विशुद्धलेश्ये ज्ञातरि साधौ पट सूत्राणि दर्शयति-'विसुद्धलेस्सेणं' इत्यादि, विसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे' विशुद्धलेश्य:-शुक्ललेशायुक्तः अनगार: 'अप्समत्रहरण अप्पाणेणं' असमबहतेन-वेदनादि सप्ठद्घातरहितेन 'अविशुद्धस्सं देवं देवि अणगारं' अविशुद्धलेश्य-कृष्णादिलेश्यायुक्तं देवं देवीमनगारम् 'जाणइ पासइ' जानाति पश्यतिकिमिति प्रश्नः, भगवानाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता जाणइ पास' लेश्या वाले देव को देवी को या अनगार को क्या जानता देखता है ? ऐसा यह छठवां प्रश्न है-इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोयमा ! जो इणढे समडे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि ऐसी स्थिति में उस अनगार का ज्ञान यथार्थ वस्तु प्रदर्शक नहीं होता है। इस प्रकार से अविशुद्ध लेश्या वाले ज्ञाता साधु के सम्बन्ध में छह सूत्रों को दिखाकर अब विशुद्ध लेश्यावाले ज्ञाता साधु के सम्बन्ध में छह सूत्रों को सूत्रकार द्वारा दिखाया जाता है-'विसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणेण अविसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणइ पासई' इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा प्रश्न किया है कि हे भदन्त ! जो अनगार विशुद्ध लेश्या वाला है-प्रशस्त लेश्या घाला है-और वेदनादि समुद्घात से रहित है-तो क्या वह स्वयं के द्वारा अविशुद्ध लेश्या वाले-कृष्णादि लेश्या वाले देव को देवी को तथा अनगार को क्या હોય, તે શું એવો તે અણગાર સ્વયં વિશુદ્ધ વેશ્યાવાળા દેવને કે દેવીને અથવા અનગારને જાણે છે ? કે દેખે છે ? આ પ્રમાણેને આ છઠ્ઠો પ્રશ્ન पूछे छे. या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमत्वामीन ४ छे ४ गोयमा ! णो इणद्वे समझे' गौतम ! । मथ मरा०२ नथी उभ सेवी स्थितिमा તે અનગારનું જ્ઞાન યથાર્થ વસ્તુને જાણવાવાળું હોતું નથી આ રીતે અવિશુદ્ધ લશ્યાને જાણવાવાળા સાધુના સંબંધમાં છ સૂત્રને બતાવીને હવે વિશદ્ધ वेश्यावा ज्ञात साधुना सभा छ सूत्र अपामा भावे छे. 'विसुद्वलेस्सेणं मते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्स देव देवि अणगार जाणइ पासई' मामा श्रीगीतभस्वामी प्रभुश्रीन सेवा प्रश्न पूछये। छ । सन् જે અણગાર વિશુદ્ધ લેશ્યાવાળા છે, અર્થાત્ પ્રશસ્ત વેશ્યાબળા છે, અને વેદના વિગેરે સમુદ્યાત વિનાના છે, તો શું તે સ્વયં અવિશુદ્ધ લેશ્યાવાળા કુણાદિ વેશ્યાવાળા દેવને દેવીને તથા અણગારને શું જાણે છે કે દેખે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રીને ગૌતમસ્વામીને Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे हन्त गौतम ! जान ति पश्यति विशुद्धलेश्याकतया यथावस्थित वस्तुविषयकन्नानदर्शन सद्भावादिति । 'जहा-अविसुद्धलेर सेणं आलावगा एवं विमुद्धलेस्सेण वि छ आलावगा भाणियबा' यथा-येन प्रकारेणाविशुद्धलेश्यस्य पट् मकारका आळापकाः कथिताः, एवं विशुद्धलेश्येनापि पट प्रकारका अलापका भणितव्याः, कियत्पर्यन्तपालापका भणितच्यास्तत्राह 'जाव' इत्यादि, 'जाव विसुद्धलेस्सेणं भते ! अणगारे' यावद् विशुढे ३५ः खलु भदन्त ! अनगारः 'समोहया समोहएणं अपाणेणे' सम. चहता समवहते न आत्मना 'विसुद्धलेस्सं देवं देवि अणगारं जाणड पासई विशुद्ध छेश्यं देव देवीमनगारं जानाति पश्यति सामान्यविशेषाभ्यामिति प्रश्न:, भगजानता देखता है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं 'हंता जाणा पासा' हां, गौतम ! ऐसा यह माधु-अनभार कृष्णदि लेश्या वाले देव को देवी को तथा अनगार को जानता देखता है। क्योंकि उसके ज्ञान में यथार्थ वस्तु प्रदर्शकता का सद्भाव कारक रेश्यो की विशुद्धि है और वह विशुद्धि उस साधु के ज्ञान में वर्तमान है 'जहा अविसुदलेस्से गं आलावगा एवं विसुद्धलेस्सेण वि छह घालावगा भाणिया जिस प्रकार से अविशुद्ध लेख्या वाले साधु के सम्बन्ध में पूर्वोक्त रूप से छह प्रकार के आलापक कहे गये हैं हमी प्रकार से छह आलापक विशुद्ध लेका बाले साधु के सम्बन्ध में भी काट लेना चाहिये करां तक जानना चाहिये लो कहते हैं 'जाव' यावत् अंगिम आलापक तक अन्तिम आलाप हम प्रकार से है-'विसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे समोहया समोहएणं अप्पाणेणं विसद्ध लेस्मं देवं देवि अणगारं जाणइ पासई' हे ४९ छे , 'हता जाणइ पासइ' छ। गौतम 1 सवा ते साधु अरागार १० माहि લેશ્યાવાળા દેવને દેવીને તથા અણગારને જાણે છે અને દેખે છે. કેમકે તેના જ્ઞાનમાં યથાર્થ વસ્તુપ્રદર્શકતાના સદૂભવ કારક લેગ્યાની વિશુદ્ધિ છે. मन त विशुद्वित साधुना ज्ञानमा वर्तमान छ 'जहा अवेसुद्धस्सेणं आला. वगा एवं विसुद्धलेस्सेण वि छह आलावगा भागि यव्वा' २ प्रमाणे मविशुद्ध તેશ્યાવાળા સાધુના સંબંધમાં પૂર્વોક્ત પ્રક રથી છ પ્રકારના આલાપકે કહેવામાં આવ્યા છે. એ જ પ્રમાણે વિશદ્ધ લેફ્સાવાળા સાધુના સંબંધમાં પણ છે આલ પકે સમજી લેવા જોઈએ તે આલાપકે કયાં સુધી સમજવા તે બતાવવા માટે કહે છે “જાવ' યાવત અંતિમ આલાપક સુધી એ પદ મકેલ છે અર્થાત્ છેલા આલાપક સુધીના સઘળા આલાપક સમજવાં છેલે આલાપક मा प्रभा छ 'विसुद्धलेस्सेणं भते अणगारे समोहया समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्स देव देवि अणगार' जाणइ पासइ' सन् विशुद्ध देश्यावाणा Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ स्.३२ सम्यग्मिथ्याक्रिययोरेकदानिषेधः ४८१ वानाह-'हंता' इत्यादि, 'हंता जाणइ पासई हन्त जानाति पश्यति सामान्यविशे पास्यामिति । अत्र यावत्पदेन अविशुद्धले श्यः खलु भदन्त ! अनगारोऽसमवहतेन भास्मना अविशुद्धलेश्यं देवं देवीमनगारंजानाति पश्यति ? हन्त गौतम ! जानाति पश्यति विशुद्रलेश्याकतया यथावस्थित वातु विषयक ज्ञानदर्शनसझावात,तदुक्तम् 'शोभनमशोभनं वा वस्तु यथावद्विशुद्धलेश्यो जानातीति । एवं चत्वारोऽपि मध्यगा आलापका द्रष्टव्या ज्ञातव्याश्चेति ॥०३१॥ तदेवं यतोऽविशुद्धलेश्यो न जानाति न पश्यति विशुद्धलेश्यस्तु जानाति पश्यति ततः सम्यग मिथ्याक्रिययोरेकदा निषेधमभिदिधित्सुराह-'अण्ण उस्थियाणं भंते !' इत्यादि। मूलम्-अण्णउस्थियाणं भंते ! एवमाइक्खंति एवं भासेंति एवं पण्णवेति एवं परूवति एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ, तं जहा-संमत्त किरियं च मिच्छत्तकिरियं घ, जं समयं समत्तकिरियं पकरेइ, तं समयं सिच्छत्तकिरियं पकरेइ, जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ तं समयं समत्तकिरियं पकरेइ,संमत्तकिरियापकरणयाए मिच्छत्तकिरियं पकरेइ मिच्छत्तभदन्त ! विशुद्ध लेग वाला अनगार जो कि समवहत असमवहत अवस्थावाला है क्या वह स्वयं के द्वारा विशुद्ध लेश्या वाले देव को, देवी को तथा अनगार को क्या जानता देखता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है कि हे गौतम ! 'हंता जाण: पासा' हां ऐसा वह अनगार उस देव को उस देवी को तथा ऐसे उस अनगार को जानता और देखता है, यहां यावत् बीच के पंच आलापक गृहीत हुए हैं । लेश्या की विशुद्धि से ज्ञान में यथार्थ दर्शकतो आती है-इस विषय में ऐसा कहा गया है'शोभनमशोभनंवावस्तु यथावद्विशुद्ध लेश्यो जानाति ॥२-३०॥ અણગાર કે જે સમવહત અને અસમવહત અવસ્થાવાળે છે, તે વિશુદ્ધ લેશ્યા વાળા દેવને દેવીને અથવા અનગારને શું જાણે છે કે દેખે છે? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रमुश्री गौतभस्वामी ४ छे 23 गौतम ! हता जोणइ पासइ' હા એ તે અણગાર એ દેવને અને દેવીને તથા એવા અનગારને જાણે છે. અને દેખે છે. અહિયાં યાવત શબ્દથી વચલા પાંચ આલાપ ગ્રહણ કરાયા છે. લેશ્યાની વિશદ્ધિથી જ્ઞાનમાં યથાર્થ દર્શકતા આવે છે. તે સંબંધમાં એવું इ छ । शोभनमशोभन' वा वस्तु यथावद्विशुद्धलेश्यो जानाति' ।सू. ३१॥ जी० ६१ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ जीवामिगम किरियापकरणयाए संमत्तकिरियं पकरेइ एवं खल्लु एगे जीवे एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ तं जहा-संमत्तकिरियंघ मिच्छत्तकिरियं च । से कहमेयं भंते ! एवं गोयमा ! जण्णं ते अन्नउस्थिया एक्साइक्खंति एवं भासंति एवं पण्णवेति एवं परूवेति, एवं खल्लु लगे जीने एगेणं समएणं दो किरियाओ पकरेइ तहे जाव संमत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च। जे ते ___ एबमासु ते ण मिच्छा, अहं पुण गोयना ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एग किरियं पकरेइ तं जहा-लसत्तकिरियं वा मिच्छन्तकिरियं वा जं समयं संमत्तकिरियं पकरेइ को तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ। तं चेत्र जं समय मिच्छन्तकिरियं पकरेइ लो तं समयं संमत्तकिरियं पकरेइ, संमतकिरियापकरणयाए नो मिच्छत्तकिरियं पकरेई मिच्छत्तकिरियाप्रकरणयाए तो संमत्तकिरियं पकरेइ, एवं खलु एगे जी एगणं समएणं एग किरियं पकरेइ तं जहासंमत्तकिरियं वा मिच्छ नकिरियं वा ॥सू०३२॥ तिरिक्खजोणियं उद्देलओ बीओ समत्तो ॥२॥ छाया-अन्ययुथिकाः खल भदन्त ! एवमाख्यान्ति एवं भाषन्ते एवं प्रज्ञापयन्ति, एवं प्ररूपयन्ति, एवं खलु एको जीव एकेन समयेन द्वे क्रिये पकरोति तद्यथासम्यक्त्वक्रिया च मिथ्यात्वक्रियां च, यस्मिन् समये सम्यक्त्व क्रियां प्रकरोति तस्मिन् समये मिथ्यात्यक्रिया प्रकरोति, यस्मिन साये मिथ्यात्व क्रियां प्रकरोति तस्मिन् समये सम्यक्त्व क्रियां प्रकरोति सम्यक्त्तक्रिया प्रारणतया मिथ्यात्वकियां प्रकरोति, मिथ्यात्यक्रिया प्रकरणतया सम्यक्त्वकियां प्रकरोति । एवं खलु एको जीव एकेन समयेन द्वे क्रिये प्रकरोति-तद्यथा-सम्यक्त्व क्रियां च मिथ्यात्वक्रियां च, तत्कथमेतद्भदन्त ! एवं ? गौतम ! एत् खलु ते अन्ययूथिका ___ एवमाख्यान्ति एवं भाषन एवं घज्ञापयन्ति एवं रूपयन्ति, एवं खलु एको जीव एकेन समयेन द्वे क्रिये मकरोति-तथैव यावत् सम्यक्त्वक्रियांच मिथ्यात्वक्रियां च ये ते एत्रमाहुस्तत् खलु मिथ्या, अहं पुनौतम ! एवमाख्यामि यावत्प्ररूपयामि Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ . ३२ सम्यग्मिथ्याक्रिययोरे कदानिषेधः ૪૮૩ एवं खल्ल एको जीव एकेन समयेनैकां क्रियं प्रकरोदि तद्यथा सम्यक्त्वक्रियां वा मिथ्यात्वक्रियां वा यस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति नो वस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति, तदेव यस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति नो तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, सम्यक्त्वक्रिया प्रकरणतया नो मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति, मिथ्यात्वक्तिया प्रकरणतया नो सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, एवं खलु एको जीव एकेन समयेन एकांकियां प्रकरोति तद्यथासम्यक्त्वक्रियां वा मिथ्यात्वक्रियां वा ॥ ३२॥ टीका- 'अण्ण उत्थियाणं भंते' अन्ययूथिकाः खलु भदन्त ! अन्ययूथिका:परतीर्थिकाः चरकादयः - बौद्धमतवादिन ' एवं आइखति' एवम् वक्ष्यमाण प्रकारेण आख्यान्ति - आचक्षये सामान्येन ' एवं भार्सेवि' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण भाषन्ते - स्वशिष्यान् श्रवण प्रत्यभिमुखान्वबुद्धचा विस्तरेण व्यक्तं कथयन्ति, 'एवं - इस तरह के प्रतिपादन से यही निष्कर्ष निकलता है कि जो अविशुद्ध लेश्या वाला जीव होता है-वह पदार्थ के यथार्थ ज्ञान से विहीन रहता है और जो विशुद्ध खेषा वाला जीव होता है वह पदार्थ के सम्यग्ज्ञान से युक्त होता है अतः शुद्र जानना और शुद्ध देखना ज्ञान में court विशुद्धि के आधीन है. लेश्या की अविशुद्धि वाला जीव ज्ञान की सम्पक स्थिति से शून्य रहता है अतः अथ सूत्रकार यह प्रकट कर रहे हैं कि सम्यक किया और मिथ्याक्रिया ये दो एक काल में एक जीव में नहीं होती है इसी बात को अन्य तैर्थियों की प्ररूपण को बताते हुए स्पष्ट करते हैं - 'अण्णउत्थिया णं भंते' इत्यादि ॥ सू० ३२ । टीकार्थ- गौतम स्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है 'अण्णउत्थिया णं भंते! एवमाहखति' हे भदन्त ! अन्यतैविकोंने ऐसा कहा है अपने આ રીતના પ્રતિપાદનથી એજ સારાંશ નીકળે છે કે જે વિશુદ્ધ લેફ્સાવાળા હાય છે. તે પદાર્થોના યથા જ્ઞાનથી શૂન્ય રહે છે. અને તે વિશુદ્ધ લેશ્યાવાળા જીવ હાય છે, તે પદાર્યના સમ્યજ્ઞાનથી યુક્ત હાય છે. તેથી શુદ્ધ જાણવુ અને શુદ્ધ દેખવું તે જ્ઞાનમાં લેસ્થાની વિશુદ્ધિને આધીન છે. લેશ્યાની વિશુદ્ધિવાળેા જીવ જ્ઞાનની સમ્યક્ સ્થિતિથી રહિત હાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર સમ્યક્ ક્રિયા અને મિઘ્ન ક્રિયા એ એ એક જ કાળમાં એક જીવમાં હાતા નથી. એ લાત અન્ય તીથિકાની પ્રરૂપણા ખતાवीने स्पष्ट रे छे. अन्न उत्थिया णं भवे !' इत्यादि टीडार्थ - श्री गौतमस्वामी प्रभुश्रीनेो युयु 'अन्नउत्थिया णं भवे एवमाक्वति' डे अगवन् अन्य तीर्थ अथोम्छे, ते Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- जीवामिगमर्म पण्णवेति' एवं वक्ष्यमाणमकारेण प्रज्ञापयन्ति-प्रकर्षेण ज्ञापयन्ति यथा स्वात्मान व्यवस्थितं ज्ञान तथा परेवपि आपादयन्तीति । एवं परूवेंति' एवं-वक्ष्यमाण प्रकारेण प्ररूपयन्ति । किमाचक्षते किं भाषन्ते किं प्रज्ञापयन्ति-कि प्ररूपयन्ति ते परतीथिका इति जिज्ञासायां वक्तव्यार्थ प्रकाशनायाह - ‘एवं' इत्यादि एवं खल एगे जीवे एवं खलु एको जीवः 'एगेणं समएणं' एकेन समयेन एकस्मिन् समये इत्यर्थः 'दो किरियाो पकरेंति द्वे क्रिये प्रकरोदि-क्रियाद्वयं प्रकरोति-संपादयतीति, किं तत् क्रियाद्वयं तत्राह-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'सम्मत्त किरियंच' सम्यक्त्वक्रियां च शुभाध्यवसायात्मिकाम् 'मिच्छत्त किरियं च' मिथ्यात्वक्रियां च-अशुभाध्यवसायात्मिकां च । एकेन समयेन क्रियाद्वयं दर्शयति-'जं समय इत्यादि, ‘ज समयं सम्मत्तहिरियं एकाइ' 'जं समयं' प्राकृतत्वात्सप्तम्यर्थे द्वितीया विभक्तिः तथा च यस्मिन् समये सम्यक्रियां प्रकरोति, तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरे' यस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रियां पकरोति शिष्यों को ऐसा ही उन्होंने समझाया है, ऐसी ही उन्होंने प्ररूपणो की है और तर्कणा द्वारा ऐसी ही उन्होंने पुष्टि की है कि 'एगे जीवे, एगे गं समएणं दो किरियामओ पकरेइ' एक जीव एक समय में दो क्रियाओं को करता है 'तं जहा' वे दो क्रियाएं ये है-'संमत्त किरियं च मिच्छत्त किरियं च' एक सम्यक्त्व क्रिया है और दूसरी मिथ्यात्व क्रिया है इन में जो सम्यक्त्व क्रिया है वह सुन्दरावसायरूप है और जो मिथ्यात्व क्रिया है वह असुन्दराध्यवसायल्प है 'जं समयं संमत्त फिरियं पकरेइ तं समयं मिच्छत्त किरियं पकरेह जं समय मिच्छत्तकिरियं पकरेइ तं समयं संमत्तशिरियं पकरेइ' जीव जिस समय में सम्यक्त्व क्रिया करता है उसी समय में वह मिथ्यात्य क्रिया भी करता है और जिस समय में वह मिथ्यास्व क्रिया करता है उसी समय में वह सम्यक्त्व પિતાના શિષ્યોને એવું જ સમજાવ્યું છે, એવી જ તેઓએ પ્રરૂપણ કરી छ, भने त! द्वारा तमाये सनी पुष्टि री छे , 'एगे जीवे, एगेण समएण' दो किरियाओ पकरेइ' मे 24 मे समयमा मे मियामा रे छ. 'त जहा' तमे छियायामा प्रभारी छे. 'संमत्त किरियच मिच्छतकिरियच' એક સમ્યક્ત્વ ક્રિયા છે. અને બીજી મિથ્યાત્વ ક્રિયા છે. તેમાં જે મિથ્યાત્વ ક્રિયા છે, તે અસુન્દર અધ્યવસાય રૂપ છે. અથોત સારી રહેતી નથી. “ समय संमचकिरिय' पकरेद, त समय मिच्छत्तकिरिय पकरेइ, ज समय - मिन्छत्तकिरिय' पकरेइ, तं समय ममत्तकिरिय पकरेइ' ४ २ अभय સમ્યકત્વ ક્રિયા કરે છે, એ જ સમયે તે મિથ્યાત્વ ક્રિયા પણ કરે છે, અને Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३२ सम्यग्मिथ्याक्रिययोरेंकदानिपेधः ४८५ पकरेइ' तस्मिन्नेव समये सम्यक्त्व क्रियामपि प्रकरोति । परस्पर सम्बलितोभय नियम पदर्शनार्थमाह-संमत्त किरिया' इत्यादि, 'संमत्त किरियापकरणयाए' सम्यक्त्व क्रिया प्रकरणतया 'मिच्छ त किरियं पकरेइ' मिथ्यात्वक्रिया प्रकरोति, तथा'मिच्छ तकिरियापकरणयाए संमत्तकिरियं पकरेई मिथ्यात्यक्रिया मिथ्यात्वी चासो क्रिया, प्रकरणतया सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति तदुभयकरणस्वभावस्य तत्तत्क्रियाक रणात् सर्वात्मना प्रवृत्तेः, अन्यथा क्रियाया अयोगादिति । 'एवं खलु एगे जीवे' एवम् उक्तमकारेण खलु एको जीवः 'एगेगं समएणं' एकेन समयेन एकस्मिन्नेव समये 'दो किरियाओ पकरेई' द्वे क्रिये-क्रियाद्वयं प्रकरोति-'तं जहा' तद्यथा-'संमत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च' सम्यक्त्वक्रियां च मिथ्यात्वक्रियां चेति ‘से कहमेयं भंते ! एवं' तत्कथमेत भइन्त ! एवम् हे भदन्त ! अन्यतीथिकैरुज्यमानमेकस्मिन्नेव समये क्रियाद्वयं संभवतीति तेषां कथनं किं सत्यम् ? इति गौतमस्य प्रश्नः, क्रिया भी करता है 'समत्तकिरिया पकरणयाए मिच्छत्तकिरिय पकरेड, मिच्छत किरिया एकरणयाए संपत्तकिरियं पकरेह' सम्पक्त्व क्रिया के करने के साथ ही मिथ्यात्व क्रिया भी जो करता है एवं मिथ्यात्व क्रिया के साथ ही सम्यक्त्य क्रिया भी करता है क्योंकि ये दोनों क्रियाएं परस्पर सम्बलित है अत: एक क्रिया के करने में दूसरी क्रिया का होना अनिवार्य है ‘एवं खलु एणे जीवे एगेणं समएणं दो किरियामो पकरेइ' इसी कारण एक जीव एक समय में दो क्रियाओं का कर्ता होता है। 'तं जहा संमत्त फिरियं च मिच्छन्त किरियं च' एक सम्यक्त्व क्रिया का और दूसरी मिथ्यात्व क्रिया का 'से कहमेय भंते! एवं' हे भदन्त ! जो अन्यतैर्थिकों ने एक जीव को एक लमय में दो क्रियाएं જે સમયે તે મિથ્યાત્વ ક્રિયા કરે છે, એજ સમયે તે જીવાત્મા સમ્યક્ત્વ ठिया ५ ४३ छे खमत्तकिरियापकरणयाए मिच्छत्तकिरिय पकरेइ, मिच्छत्तकि रिया पकरणयाए संमत्तकिरियपकरेइ' सभ्यत्व लिया ४२वानी साथे જ મિથ્યાત્વ ક્રિયા પણ કરે છે. અને મિથ્યાત્વ ક્રિયાની સાથેજ સમ્યકત્વ ક્રિયા કરે છે. કેમકે આ બે કિયાઓ પરસ્પર સંબંધવાળી છે. તેથી એક ठिया ४२वामां मील यानडामनिवार्य छे. 'एवं खलु एगे जीवे एगेणं समरण दो किरियाओं पकरेइ' मे २0 ४ ०१ : समयमा मे हियामानी जता-४२१! पाणी डाय छे त जहा समतकिरिय च मिच्छत्त किरिय'च' मे सभ्यइप लिया भने मी मिथ्यात्व ठियाने ४२वावाणे साय छे. 'से कहमेय भते! एवं" है मगन् अन्य तीथि आये मे छपने એક સમયમાં બે ક્રિયા કરવા વાળ કહેલ છે, તે શું તેઓનું એ કથન Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ जीवामिगम तदेवं गौतमेन प्रश्ने कृते भगवान्प्राइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जणं अन्नउत्थिया एक माइक्खति' यत् खलु अन्ययूथिकाः परतीयिका एवम्उक्तमकारेण 'आइक्खंति' आचक्षते 'एवं भासंति' एवं मापन्ते ‘एवं पण्णवें ति एवं प्रज्ञापयन्ति 'ए परूवेंति' एवं रूपयन्ति, तदेव दर्शयति-'एवं एगे जीवे एगेंग समए एवं खलु एको जीव एकेन समयेन-एकस्मिन्नेव समये 'दोकिरियाओ पकरे' द्वे क्रिये प्रकरोति-क्रियाद्वयं संपादयति 'तहेव जाव संमत्तकिरियं चमिच्छ तकिरियं च' तथैव यावत् सम्यक्त्वक्रिया प्रकरोति नरिमन्नेव समये मिथ्यात्वक्रियां च प्रकरोति तथा-यस्मिन् समये मिथ्यात्यक्रिया प्रकरोति तस्मिन्नेव समये सम्पत्त्रक्रियागपि प्रकोतीति । 'जे ते एकमाईस तं गं मिच्छा' ये ते एवम्-उप युक्तमाहुस्ते मिथ्या-असत्यं कथयन्ति, अथ भगवान् स्वमतं प्रदर्शयति-'अहं पुण' इत्यादि, 'अहं पुण गोयमा अहं पुनः, अत्र पुनः शब्दः 'तु' शब्दाय: तेन अहं तु गौतम ! 'एवं आइक्खामि जाव परूवेमि' एवम्-२६५माण प्रकारेणास्पामि, भाषे, प्रज्ञापयामि प्ररूपयामि । किमाख्यामि कि भाषे किं प्रज्ञापयासि कि मरूपयामि करने का कहा सो क्या उनका यह कथन संभावित होता है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'गोधमा । जपणं ते अन्न उत्थिया एव माइ खंति एवं मासंति, एवं पण्णवेति एवं पख्वेति एवं खल एगे जीवे एगणं सम्बएणं दो किरियाो पकरेंति तहेव जाव संमत्तसिरियं च मिच्छत्तकिरिय' च हे गौतम ! जो उन अन्य तीथिको ने ऐसा कहा है ऐला व्याख्यान किया है, ऐसी प्रज्ञापना की है और ऐसी प्ररूपणा की है कि एक जीव एक समय में दो क्रियानो को करता है इस तरह एक ही समय में एक जीव लम्पकत्व क्रिया भी करता है और मिथ्यास्त्रक्रिया भी करता है तो ऐसा उनका कहना यावत् प्ररूपण करना सब मिच्छा' मिथ्या है-असत्य है 'अहं पुण गोधमा । एवमाइक्खामि यथार्थ छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमपाभी है 'गोयमा जण्ण ते अन्न उत्थिया एवमाइक्खंति एवं भास ति, एव' पण्णवे ति एवं परूवेति एवं खलु एगे जीवे एगेण समएण दो किरियाओ पकरे ति तहेव जाव स मत्त किरिय च मिच्छत्तकिरिय' च' गौतम ! ते अन्यता थिय मे हे छ, એવું વ્યાખ્યાન કરેલ છે. એવી પ્રજ્ઞાપના કરી છે, અને એવી પ્રરૂપણું કરી છે કે એક જીવ એક સમયમાં બે ક્રિયાઓ કરે છે એ રીતે એક જ સમયમાં એક જીવ સમ્યક્ વ કિયા કરે છે, અને મિથ્યાત્વ ક્રિયા પણ કરે છે તે એ પ્રમાણેનું તેઓનું કથન યાવત્ પ્રરૂપણ કરવી તે સઘળું મિથ્યા અસત્ય છે. 'अब पुण गोयगा! एषमाइक्खामि जाप परूवेमि' मा मा गौतम ! Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ shelfiet टीका प्र.३ ७.३ सू.१२ सम्यग्मिथ्याक्रिययोरे कदानिषेधः ४८७ तत्राह - ' एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरिये पकरे' एवं खलु एकोजीवः एकेन समयेन - एकस्मिन् समये एकमेव क्रियां प्रकरोति 'तं जहा' तद्यथा 'सम्मत करिये वा मिच्छत्तकिरियं वा' सम्यक्त्वक्रियां वा पकरोति, मिथ्यात्वकियां वा, प्रकरोति, 'जं समयं संमत्तकिरियं पकरे' यरिमन् समये सम्यक्त्व. क्रियां करोति, 'णो तं समयं मिच्छत्तकिरियं षकरेइ' तो नैव तस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति तथा-'तं चैव जं समयं मिच्छत किरिथं पकदेह नो तं समयं संमत्त किरिये पकरेइ' तदेव - पूर्वोक्तवदेव यस्मिन् समये मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोतिनो तस्मिन् समये सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति यस्मात् करणात् सम्यक्त्वक्रियाकरणसमये मिथ्यात्वक्रियां न करोति मिथ्यात्वक्रियाकरणसमये सम्यक्वक्रियां न करोति तस्मात् कारणात् एकस्मिन् समये एकैव क्रिया एकेन जीवेन संपादिता भवतीति । 'संपत्तकिरियारकरणयाए नो मिच्छत्त किरिय पकरेइ' सम्यक्त्वक्रिया प्रकरणतया नो मिथ्यात्वक्रियां प्रकरोति तथा-'मिच्छत्त किरियाकरणयाए नो सम्मत्त करियं पकरेइ' मिथ्यात्वक्रिया प्रकरणतया नो सम्यक्त्वक्रियां प्रकरोति, किन्तु 'एवं खलु एगे जीवे एगं किरियं पकरेइ' एवं खल एको जीवः एकस्मिन् समये एकामेच क्रियां प्रकरोति 'वं जहा' तद्यथाजाव परुवेमि' इस विषय में तो हे गौतम! मेरा ऐसा कहना है ऐसा ही व्याख्यान करना है, ऐसी हो मेरी प्रज्ञापना है और ऐसी ही मेरी प्ररूपणा है कि 'एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरियं पकरे' एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है 'तं जहा' जैसे- 'समस किरियं वा मिच्छन्त किरियं वा' या तो वह सम्यक्त्व क्रिया करता है यामिव क्रिया ही करता है। दोनों क्रियाएं वह युगपत् इमलिये नहीं कर सकता है कि इन दोनों क्रियाओं में आपस में परस्पर परिहार स्थिति लक्षण विशेष है सम्यक्त्व क्रिया के सद्भाव में मिथराव क्रिया नहीं रहती है और मिथ्यात्व क्रिया के सद्भाव में सम्यक्त्व મારૂ' એવુ' કથન છે, એવું જ વ્યાખ્યાન છે, મારી એવીજ પ્રજ્ઞાપના છે, અને भारी सेवी अ३पशु छे 'एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरिय पकरेइ' भे १ ये सभयभां उन डिया पुरे छे. 'त' जहा' म संमत्तरिय वा मिच्छत्तकिरिय' वा' सभ्यत्व प्रिया अथवा मिथ्यात्व दिया જ કરે છે, એ અન્ને ક્રિયાએ એકી સાથે એટલા માટે કરી શકતા નથી કે આ એક ક્રિયાઓમાં પરસ્પરમાં પરિહાર સ્થિતિ લક્ષણ વિરોધ છે. સફૂલ ક્રિયા ના સદ્ભાવમાં મિથ્યાત્વ ક્રિયા રહેતી નથી, અને મિથ્યાત્વ ક્રિયાના સદ્ભાવમાં સમ્યક્ત્વ ક્રિયા રહેતી નથી. તેથી એક જ જીવાત્મા આ મને ક્રિયાએ એકી Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमा संमत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा' सम्यक्त्वक्रियां वा मिथ्यात्वक्रियां वेति । सम्यक्त्पक्रिया मिथ्यात्वक्रिपयोः परस्परपरिहारावस्थानात्मकतया जीवस्य तदुभयकरण स्वभावत्वायोगात्, अन्यथा-सर्वथा मोक्षाभाव प्रसक्तेः कदाचिदपि मिथ्यात्वस्यानिरर्तनादिति ।मु० ३२॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगदाळम-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषाकलितललितकलापालापकमविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर पूज्य श्री घासीलालबतिविरचितस्य श्री जीवाभिगमसूत्रस्य प्रमेयद्योतिका ख्यायां व्याख्यायां तृतीयप्रतिपत्तो तिर्यगाधिकारे द्वितीयो देशकः समाप्तः ॥२॥ क्रिया नहीं रहती है. इसलिये एक जीव इन दोनों क्रियाओं को युगपत् नहीं कर सकता है। यदि एक जीव एक समय में इन दोनों क्रियाओं का कर्ता माना जावेगा तो मोक्ष का सर्वथा अभाव प्रसक्त होता है क्योंकि मिथ्यात्व की निवृत्ति तो कभी होगी ही नहीं ॥३२॥ जैनाचार्य जैनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'जीवाभिगमसूत्र' की प्रमेयद्योति का नामक व्याख्या में तृतीय प्रतिपत्ति में तिर्यग्योनिक अधिकार का दूसरा उद्देशक समाप्त॥३-२॥ વખતે એક સાથે કરી શકતા નથી. જે એક જવ એક સમયમાં આ બને ક્રિયાઓનો કર્તા માનવામાં આવે તે મોક્ષને સર્વથા અભાવ પ્રાપ્ત થાય છે. કેમકે મિથ્યાત્વની નિવૃત્તિ તો ક્યારેય થઈ જ શકતિ નથી. સૂ. ૩૨ છે જૈનાચાર્ય જૈનધર્મદિવાકર પૂજ્યશ્રીઘાસીલાલજી મહારાજકૃત “જીવાભિગમસૂત્રની પ્રમેયોતિકા નામની વ્યાખ્યામાં ત્રીજી પ્રતિપત્તિને તિર્યનિક અધિકારને બીજો ઉદ્દેશ સમાપ્ત ૩-રા Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेय धोतिका टीका प. ३ ७.३.३३ सफेद मनुष्यस्वरूपनिरूपणम् ॥ तृतीयोदेशकः ॥ व्याख्यातस्तिर्यग्योनिकाधिकारः सम्प्रति- मनुष्याधिकार व्याख्यावसरः तत्रेदमादिमं सूत्रम् - से किं तं मणुस्सा' इत्यादि, मूळम् - से किं तं मणुस्सा ? मणुस्सा दुबिहा पन्नत्ता तं जहासंमुच्छिममणुस्लाय गब्भवक्कंतिय मणुस्साय । से किं तं संमुच्छिम मणुस्सा संमुच्छिम मणुस्सा एगागारा पन्नत्ता । कहि णं भंते! संमुच्छिम मणुस्सा संमुच्छंति ? गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते जहा - पण्णवणाए जाव से त्तं संमुच्छिममणुस्सा || से किं तं भवतिय मणुस्सा ? गव्भवतिय मणुस्सा तिविहा पन्नत्ता, तं जहा - कम्मभूमिगा अकम्मभूमिगा अंतरदीवगा । से किं तं अंतरदीवगा ? अंतरदीवगा अट्ठावीसइविहा पन्नत्ता तं जहाएगोरुया, आभासिया, वेमाणिया णंगोलिया (१) हयकण्णी गयकपर्णा, गोकपणा, सक्कुलिकपर्णा (२) आयंसमुहां, मेंढमुहीं, अयोमुही, गोमुही (३) आसमुहों, हत्थिमुह, सीहमुद्दों, मुद्दों (४) आकण्णों, सीहकण्णों, अकण्णी, कण्णपाउरण (५) उक्कामुहों, मेहमुहां, विज्जुमुहौं, विज्जुदत (६) घणदंतों, लट्ठदंती, गूढदंतों, सुद्धत (७) ॥ ०३३॥ छाया- - अथ के ते मनुष्याः ? मनुष्या द्विविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-संमूच्छिम मनुष्याच गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याश्च । अथ के ते संपूछिममनुष्याः ? संमूच्छिममनुष्या एकाकाराः प्रज्ञप्ताः । कुत्र खल्लु भदन्त । संच्छिममनुष्याः संमूच्छन्ति ? गौतम ! अन्तर्मनुष्यक्षेत्रे यथा प्रज्ञापनायां यावत् ते एते संमूच्छिममनुष्याः । अथ के ते गर्भव्यक्रान्तिक मनुष्याः गर्भन्युक्रान्तिक मनुष्या त्रिविधा मज्ञाः तद्यथा - कर्मभूमिका अकर्म भूमिका अन्तरद्वीपकाः । अथ के ते अन्तरद्वीपका अंतरद्वीपका अष्टाविंशतिविधाः मज्ञप्ताः, तद्यथा - एकोरुकाः, १ आभाषिकाः, २ वैषाणिकाः ३, नाङ्गोलिकाः, ४ हयकर्णाः ५, गजकर्णाः ६. गोकर्णाः ७. शकुळीकः ८, आदर्शमुखाः ९. मेंढ (मेणो) मुखाः १०, अयोमुखाः ११, गोमुख ||१२ अश्वमुखाः १३, हस्तिमुखाः १४, सिंहमुखाः १५, व्याघ्रमुखाः १६, अश्वकर्णाः १७, सिंहकर्णाः १८, अकर्णाः १९ कर्णमावरणाः २०, उल्कामुख : २१, मेघमी० ६२ ४८९ Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४१० जीवाभिगम मुखाः २२, विद्युन्मुखाः २३ विद्युताः २४, घनदन्ताः २५, लष्टदन्ता: २६, ' गूढदेवाः २७, शुद्धदन्ताः स्रु० ॥३३॥ टीका - 'स्ले किं तं मनुस्सा' अथ के ते मनुष्याः, मनुष्याणां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, उत्तरमाह - ' मणुस्सा' इत्यादि, 'मणुस्सा दुविहा मनुष्या द्विविधा. - द्विप्रकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिता - इति, द्वैविध्यं दर्शयति- 'तं जहा' इत्यादि, 'तं जा' तद्यथा - 'समुच्छिममणुस्साय गव्मदक्कंतियमणुस्साय' संमूर्छिममनुष्याच गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याश्च तत्र शुक्रशोणितादि सन्निपातव्यतिरेकेण जायमानाः संमूच्छिमाः शुकशोणितादि सन्निपातेन जायमानाः गर्भजा, तथा च - गर्भजागर्भजभेदेन मनुष्या द्विविधा भवन्तीति भावः । 'से किं तं संमुच्छिममणुस्सा' अथ के ते संमूच्छिममनुष्याः संमूच्छिममनुष्याणां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः भगवानाह - 'संमुच्छिम' इत्यादि, 'संमुच्छिममणुस्सा तिर्यग्योनिक अधिकार समाप्त कर अब सूत्रकार मनुष्य के अधि कार का कथन करते है । 'से किं तं नपुस्ता' - इत्यादि । टीकार्थ- 'से किं तं मणुस्सा' हे भदन्त ! मनुष्यों के कितने भेद हैं? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं- हे गौतम ! 'मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता' मनुष्यों के दो भेद हैं 'तं जहा' वे इस प्रकार से हैं- 'संमुच्छिम मणुस्सा य गग्भवक्कंतिय मणुस्सा य' एक संमूच्छिम मनुष्ध और दूसरे गर्भज मनुष्य इनमें शुक्र शोणित आदि सम्बन्ध के विना जो मनुष्य उत्पन्न हो जाते हैं वे समूच्छिम मनुष्य है । एवं शुक्र शोणित आदि के सम्बन्ध से जो जीव उत्पन्न होते हैं वे गर्भज मनुष्य हैं, 'से किं तं संमुच्छिम मणुम्सा' हे भदन्त ! संमूच्छिम मनुष्यों के कितने भेद हैं ? उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं- 'संमुच्छिम मणुस्सा તિય Àાનિક અધિકાર સમાપ્ત કરીને હવે સૂત્રકર મનુષ્યના અધિકારનું अथन ४२ छे. – 'से किं तं मणुस्सा' इत्याहि टीअर्थ - ' से किं तं मणुस्सा' हे भगवन् मनुष्येना डेंटला लेहो उद्या छे ? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री गौतमस्वाभीने हे छे ! 'मणुस्सा दुविधा पण्णत्ता' भनुष्यो मे अमरना ह्या छे. 'त' जहा' ते मे 3४ । प्रभा छे संमुच्छिम मणुखाय गत्र्भवतिय मणुस्साय' : सभूमि मनुष्य मने ખીજા ગર્ભજ મનુષ્ય આમાં શુક્ર અને શ્રોણિતના સ’મધ વિના જે મનુષ્યા ઉત્પન્ન થાય છે, તેએ સમૂઈિમ મનુષ્ય કહેવાય છે. અને શુક્ર શાણિતના संबंधधी ने उत्पन्न थाय छे ते गर्भ मनुष्य वाय छे. 'से किं तं समुच्छिम मनुस्सा' हे भगवन् ! सभूमि मनुष्योना डेटा सेहो उद्या हे ? या प्रश्ना Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३३ समेद मनुष्यस्वरूपनिरूपणम् ४१ एगागारा पन्नचा' संमूच्छिममनुष्या एकाकारा:- एकस्वरूपाः प्रज्ञप्ताः-कथिता इति संच्छिममनुष्याणां कुत्रोत्पत्ति भवतीति जिज्ञासु गौतमः पृच्छति-'कहि णं' इत्यादि, 'कहिणं भंते ! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति' कुत्र कस्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! संमच्छिममनुष्याः संमूर्छन्ति-समुत्पधन्ते इति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'अंतोमणुलखेत्ते' अन्तर्मनुष्यक्षेत्रो मनुष्यक्षेत्राभ्यन्तरे एव समुत्पद्यन्ते मनुष्याणामेव उच्चारमस्रवणाद्यशुचिस्थानेषु अन्त महत्तकालायुष एव कालं कुर्वन्ति 'जह पण्णवणाए जाव से तं समुच्छिममणुम्सा' यथा प्रज्ञापनायां कथितं यावत ते एते संमृच्छिसमनुष्या इति, संमृच्छिममनुष्याणां विस्तरतो निरूपण प्रज्ञापनायाः प्रथम प्रज्ञापना पदोक्तानुसारेणेव ज्ञातव्यम्, __अत्र 'जा' यावर शब्दग्राह्याः प्रज्ञापना सूत्रच प्रथमपदोक्तास्तदालापकाः यथा-'पणयालीसाए जोयणसयसहस्सेसु अड्डाइज्जेसु दीवसमुद्देसु पण्णरससु कम्म एगागारा पन्नत्ता' हे गौतम ! संमूच्छिम मनुष्यों के सेद नहीं होते हैंक्योंकि संमुच्छिम मनुष्य एक स्वरूप वाले कहे गये हैं। 'कहिणं भंते ! समुच्छिम मणुस्सा संमुच्छंति' हे भदन्त ! इन संभूच्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति कहां पर होती है ? उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते' हे गौतम ! ये संसूच्छिम मनुष्य मनुष्य क्षेत्र के भीतर ही उत्पन्न होते हैं। तथा मनुष्यों के ही सल सूत्रादिक रूप अशुचि वस्तुओं में ही ये उत्पन्न होते हैं और इनकी आयु केवल एक अन्तर्मुहूर्त की होती है 'जहा पण्णक्षणाए जाव ले तमुच्छिममनुस्सा संमुच्छिम मनुष्यों के सम्बन्ध में विस्तार से कथन प्रज्ञापना सूत्र के प्रशम पद में किया गया है अतः उसी के अनुसार यहां पर भी इनके सम्बन्ध में कथन समझ लेना चाहिये. यहां पर 'यावत्' शब्द से ग्रात्य प्रज्ञापना मूत्र उत्तरमा प्रसुश्री छे संमुच्छिस मणुस्सा एगागारा पण्णत्ता' गौतम! સંમૂર્ણિમ મનુષ્યના કેઈપણ ભેદ હોતા નથી. કેમકે સમૂર્ણિમ મનુષ્યો એકજ ३१३५वाणा वातुं छे. शथी श्रीगोतमत्वामी पूछे छे ४ 'कहिणं भते! समुच्छिम मणस्ता समच्छिति' 3 मावन मास भूरिभ मनुष्यानि अत्पत्ती ४या याय छे ? 24। प्रश्न उत्तम प्रभुश्री ४९ छ, 'गोयमा ! जतो मणुस्सखेत्ते' હે ગૌતમ ! આ સંમૂર્ણિમ મનુષ્ય મનુષ્ય ક્ષેત્રની અંદર જ ઉત્પન્ન થાય છે. તથા મનુષ્યનાજ મલ મૂત્રાદિ રૂપ અશુદ્ધ વરતુઓમાંજ તેઓ ઉત્પન્ન થાય छे. मन तमानपारायण मतभुइन नुन हाय छे. 'जहा पण्णवणाए जाव से त संमुच्छिमणुस्सा' सभरिछम मनुष्याना समयमा प्रज्ञायनासूत्रमा વિસ્તારપૂર્વક વર્ણન કરવામાં આવેલ છે, તેથી તે કથન પ્રમાણે અહિયાં પણ તએના સંબંધમાં ન સમજી લેવું જોઈએ, “થાવત્' પદથી ગ્રહણ કરવામાં Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्र भूमीसु तीसाए अकम्मभूमीम छप्पन्नाए अंतरदीवेसु गम्भवतियमणुस्साणं चेत्र उच्चारेसु वा पासवणेसु वा खेलेसु वा सिंघाणेसु वा वंतेम पा पित्तेनु वा पूएसु वा सोणिएसु चा सुक्केसु वा सुक्कपोग्गलपरिसाडेसु वा विगयजीवकलेवरेसु वा थोपुरिससं नोएसु वा नगरनिद्धमणेसु वा सव्वेसु चेव असुइटाणेनु एत्थ णं समुच्छिपमणुस्सा संमुच्छंति अंगुलस्स असंखेज्जदमागमेताए ओगाहणाए, असन्नीमिच्छट्टिी अन्नाणी सव्वाहि पज्जत्तीहिं अपज्जत्तगा अंतोमुहुत्ताउया चेव कालं करेंति' इति । छाया-पञ्च वत्वारिंशति योजनशतसहस्रेषु अर्द्धतृतीयेषु द्वीपसमुद्रेषु पश्चदशसु कर्मभूमिषु त्रिंशति अकर्मभूमिषु षट् पञ्चाशति अन्तरद्वीपेषु गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याणामेव उच्चारेषु वा प्रस्रवणेषु वा खेलेषु सिद्धाणेषु वा वान्तेषु वा पित्तेषु वा पूयेषु वा शोणितेषु वा शुक्रेषु वा शुक्रपुद्गलपरिशाटेषु वा विगत जीव कलेवरेपु वा स्त्रीपुरुषसंयोगेषु वा नगरनिर्धपनेषु वा सर्वेषु चैत्र अशु चेस्थानेषु संमूच्छिममनुष्याः संमूर्छन्ति अगुलस्य असंख्येयभाग मात्रयाऽवगाहनया असंज्ञिनो मिथ्यादृष्टयः अज्ञानिनः सर्वाभि: पर्याप्तिभिरपर्याप्तका अन्तर्मुहूत्र्तायुष्का एव कालं कुर्वन्तीति । एषामर्थश्छायागम्यः । का आलापक इस प्रकार है-'पणयालीसाए' इत्यादि । सूत्रपाठ का अर्थ यहां कहा जाता है-वे समूच्छिम मनुष्य मनुष्य क्षेत्र के बीच में पैंता. लीस लाख योजन विस्तार वाले अढाई द्वीप समुद्रों में पन्द्रह कर्म भूमियों में तीस अर्म भूमियों में, छप्पन अन्तर द्वीणे में रहने वाले गर्भज मनुष्यों के ही उच्चार प्रस्रवण खेलसिंघाण धान्त-(वमन) पित्त पूय-(पीप) शोणित शुक्र तथा शुक्र पुद्गलों के परिशाट-सड.न-में मृतकलेवरों में स्त्री पुरुष के संयोग में तथा नगर के नाले (गटर) में इन सब अशुचिस्थानों में यहां पर अंगुल के असंख्यात वें भाग मात्र अवगाहना से संमूच्छिम मनुष्य संमूञ्छित (उत्पन्न) होते हैं। वे भावर प्रज्ञापना सूत्रन या५४ मा प्रमाणे छे. 'पणयालीसाए' या. સૂત્રપાઠને અર્થ અહિયાં કહેવામાં આવે છે. તે સંમૂરિ મ મનુષ્ય મનુષ્ય ક્ષેત્રની મધ્યમાં ૪૫ પિસ્તાળીસ લાખ એજનવાળા અઢાઈ દ્વીપ સમુદ્રમાં પંદરકર્મભૂમિમાં, ત્રીસ અકર્મભૂમિમાં છપ્પન અંતર દ્વીપમાં રહેવાવાળા ગર્ભજ મનુષ્યના જ ઉચ્ચાર. પ્રસ્ત્રવણ, ખેલ સિંઘાણ વાન્ત (વમન-ઉલટી પિત્ત પૂય (પરૂ) શેણિત, (લેહી) શુક-વીર્ય તથા શુકપુદ્ગલેના પરિશાટ સડેલામાં મરેલા કલેવરે કહેતાં શરીરમાં, સ્ત્રી પુરૂષના સંગમાં તથા નગરના નાળા (ગટર)માં આ બધા અશુચિસ્થાનમાં આગળના અસખ્યાતમા ભાગ માત્ર અવગાહનાથી સંમૂર્ણિત (ઉત્પન્ન) થાય છે તેઓ અસંજ્ઞી. મિથ્યાદષ્ટિ, અજ્ઞાની, Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिकाटीका प्र.३ उ.३ १.३३ सभेद मनुष्यस्वरूपनिरूपणम् ४२३ ___सम्प्रते-गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यप्रतिपादनार्थमाह-'से कि तं' इत्यादि, 'से किं तं गमवक्कंतिय मणुस्सा' अथ के ते गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्याः गर्भव्यु स्क्रान्तिकमनुष्याणां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, भगवानाह-गम्भवतिय' इत्यादि, 'गमवक्कंतियमणुस्सा तिविहा पन्नत्ता' गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्या स्त्रिविधा त्रिपकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, तत्र विध्यं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'कम्मभूमिगा अम्मभूमिगा अंतरदीवगा' कर्मभूमिकाः कर्मभूमिपु मरतैरवतादि पञ्चदशसु कर्मभूमिषु जायमानाः कर्मभूमिकाः, एवमकर्म (मिधुहैमवतादि त्रिंशद्विधासु भोगभूमिषु जाता अकर्मभूमिकाः, अन्तरद्वीपकाः लवणसमुद्रमध्येऽन्तरेऽन्तरे द्वीषा इति अन्तरद्वीमा, अन्तरद्वीपेषु षट्पञ्चाशत्संख्यकेषु अमज्ञी मिथ्यादृष्टि अज्ञानी और सभी पांचों पर्याप्तियों से अपयाप्त होते हैं वे अन्तर्मुहूर्त की आयु में ही फाल कर जाते हैं। 'सेत्तं समुच्छिम मणुस्सा' से समूर्छिम मनुष्य है। गर्भज मनुष्यों का विवेचन-से कि तं गम्भवतिय = णुस्सा' हे भदन्त ! गर्भज मनुष्यों के कितने भेद हैं ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैंहे गौतम ! 'गम्भवपकमियमणुस्ला तिविशा पणत्ता' गभव्युत्क्रान्तिकगर्भजमनुष्यों के लीन भेद हैं । 'तं जहा' वे भेद इस प्रकार हैं-'क.म्म. भूमिगा, अकम्मभूमिमा, अंतरदीममा कर्मभूमिक, अकर्मभूमि और अन्तरद्वीपक इनमें जो कर्म भूमियों में-भरत ऐरबत्तादि पन्द्रह क्षेत्रों मेंउत्पन्न होते हैं के कर्मभूमिकामवन आदि तील अकर्मभूमियों में जो उत्पन्न होते हैं-वे अकर्मभूमि कहलाते हैं। दो लाख घोजन के विस्तारव ला लवण समुद्र के भीतर भीतर जो द्वीप है, वे अन्तर बीप हैंइन छपरन अन्तरद्वीपों में जो उत्पन्न होते हैं वे अन्तर द्वीपक मनुष्य हैं। અને બધી પાંચે પર્યાપ્તિથી અપર્યાપ્ત હોય છે આ અંતમુહૂર્તના આયુષ્યમાંજ ४.१ ४२ छ. 'से तसंमुच्छिममणुस्मा' मा स भूमि भनुप्यातुं नि३५९ ४थु छे. वे म भनुध्यान ३५ ४.पामा मावे छे 'से कि त गम्भ वक तिय मणुस्सा' मावन् गम भनुष्याना टसा लेड ह्या छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमी गीतम! 'गम्भवक्क तिय मणुस्सा तिविहा पण्णत्ता' गम युति - भनु याना न हो Bal छ, 'त जहा' त हो । प्रभारी छ 'कम्मभूमिगा, अकम्मभूमिगा, अतरदीवगा' કર્મભૂમિક અકર્મભૂમિક, અને અંતરીપજ, આમાં જે કર્મભૂમિમાં એટલે કે ભરત, એરવત, વિગેરે પંદર ક્ષેત્રમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ કર્મભૂમિક કહેવાય છે બે લાખ યોજનાના વિસ્તારવ ળા લવણ સમુદ્રની અંદર અંદર જે દ્વીપ છે, તે અંતરદ્વીપ છે. આ છપન અંતરદ્વીપમાં જેઓ ઉત્પન્ન થાય છે. તેઓ અંતરદ્વીપક મનુષ્ય છે, Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जीवाभिगमसूत्रे आन्तरद्वीपकमनुष्य भेदान् अंतरदीवगा' अथ के ते કરી भत्र आन्तरद्वीपका इति । एतेषु त्रिषु मनुष्येषु ज्ञातुं प्रश्नपत्र. ह - 'से कि तं' इत्यादि, 'से किं तं आन्तरद्वीपकाः? आन्तरद्वीपकानां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, भगवानाह - 'अंतरfair as fai' इत्यादि, 'अंतरदीवगा अट्ठावीसइ विहा पत्ता' आन्तरद्वीपका अष्टाविंशति विधा:- अष्टाविंशति प्रकारकाः मज्ञप्ताः - कथिताः 'वं जहा ' उद्यथा तेषां नामानि यथा - एकोरुकाः, १ अमापिका : २, वैपाणिका ३, नाङ्गलिकाः ४ इयकर्णा. ५, गजकर्णाः ६, गोकर्णाः ७ शष्कुली कर्णाः ८, आदर्शमुखाः९ मे 'मेष' मुखा, १०, अयोमुखाः ११, गोमुखाः १२, अश्वमुखाः १३, इस्तिमुखाः १४, विमुखाः १५, व्याघ्रमुखाः १६, अश्वकर्णाः १७, सिंहकर्णाः १८, अकर्णाः १९, कर्णमावरणा २०, उल्कामुखाः २१, मेघमुखाः २२, विद्युन्मुखाः २३ विद्युद्दन्ताः२४, घनदन्ता २५, लष्टदन्ताः २६, गूढदन्ताः २७, शुद्धदन्ताः २८ इति । इनमें प्रथम अन्तर द्वीप के मनुष्धों का कथन करते हैं- 'से किं तं अंतरदीबगा' हे भदन्त ! अन्तरद्वीपक मनुष्यों के किनने भेद हैं? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'अंतर दीवगा अट्ठावीसविहा' हे गौतम! अन्तर द्वीपक मनुष्यों के अठाईस भेद हैं 'तं जहाँ ' वे भेद इस प्रकार से हैं-'एगोरुया' इत्यादि । एकोरुक१ 'आभाषिक, २, वैषाणिक, (वैशालिक) ३, नाङ्गोलिक ४, हमकर्णक ५, गजकर्णक ६. गोकर्णक ७, शष्कुलीकर्णक ८, आदर्शमुख ९, मेद्र - मेषमुख १० अयोमुख ११, गोमुख १२ अश्वमुख १३, हस्तिसुख १४, सिंह मुख१५, व्याघ्रमुख १६, अश्वकर्ण १७, सिंहकर्ण १८, अकर्ण १९, कर्णप्राथरण २०, उल्कामुख २१, मेघमुख२२, विमुख २३, विद्युद्दन्त २४, घनदन्त२५ लष्ट दन्त २६, गूढदन्त२७, और આમાં પહેલાં અંતર દ્વીપના મનુષ્યનુ યન કરવામાં આવે છે. તેમાં गौतमस्वाभी अनुश्रीने पूछे छे है 'से किं तं अंतरदीवगा' हे भगवन् અ તરદ્વીપના મનુષ્યના કેટલા ભેદ કહ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतभस्वाभीने हे छे है ' अतरदीवगा अट्ठावीसइविहा पन्नत्ता' हे गौतम! अंतर द्वीपना मनुष्योना २८ अध्यावीस लेतेो ह्या छे. 'त' जह' ते यावीस लेते। मा प्रभाये छे. 'एगोरुया' इत्यादि मे । ३४ १, भाषिक २, वैषालि उ, नांगो सिङ ४, यालुङ, ६, गो४७, शण्डुसी ४८, आदर्श, भेटू - भेषभुण १०, मयोभु ११, भुस १२, હસ્તિમુખ ૧૪, સિંહમુખ ૧૫, વ્યાઘ્રમુખ ૧૬, અણુ ૧૭, સિદ્ઘકશું १८, १८, प्रवरा २०, भुभ २१, भेषभुभरर, विधुन्भु 23, વિદ્યુતૃન્ત ૨૪, ઘનદત્ત ૨૫, લદન્ત ૨૬, ગૂઢદન્ત ૨, અને શુદત ૨૮, Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ shrafter टीका प्र.३ उ. ३.३३ समेद मनुष्यस्वरूपनिरूपणम् एतेऽष्टाविंशतिरन्तरद्वीपका यादृशा एवं यात्रत्यमाणा यावदपान्तरालवन्तः यन्नामानो हिमवत्पत पूर्वापरदिव्यवस्थिताः सन्ति, तादृशा एव तावत्प्रमाणास्वावदप्रान्तराळवन्तस्तन्नामान एव शिखरिपर्वत पूर्वपरदिव्यवस्थिता अन्येऽपि अष्टाविंशतिरन्तरद्वीपाः सन्तीति मिलित्वा सर्वे षट् पञ्चाशदन्तर द्वीपा इति कथ्यन्ते किन्त्वत्र सूत्रोऽस्यन्तसदृशतया व्यक्ति भेदमनपेक्ष्याष्टाविंशति विधा एव आन्सरद्वीपा विवक्षिता इति । तत्र जाता मनुष्या अपि एकोरुकादयः अष्टाविंशतिविधाः प्रोक्ताः 'वात्स्यात्तद्वयपदेश:' इति न्यायात् यथा पञ्चालदेशनिवासिनः पुरुषाः पाश्चाला इति । ४९५ " एते अष्टाविंशतिरन्तरद्वीपाः चतुभिर्विभज्यन्ते ततचतुष्टयं चतुष्टयं कृत्वा सप्त चतुष्काणि भवन्ति तानि च प्रत्येकं स्वस्वक्षेत्रे समप्रमाणानि भवन्ति, वानि सप्त यथा - एकोरुकादयश्चत्वारः प्रथमं चतुष्कम् १, इण्कर्णादयश्चत्वारो द्वितीयं चतुकम् २ | आदर्शमुखादयश्चत्वार स्तृतीयं चतुष्कम् ३ । अश्वमुखादयश्वत्वार चतुर्थी शुद्धदन्त२८, सूत्रोक्त ये अठाईस द्वीप जिस प्रकार के जितने प्रमाण के जितने अपान्तराल वाले और जिस नाम के हिमवान पर्वत के पूर्व पश्चिम दिशा में हैं उसी प्रकार के उतने ही प्रमाण वाले उतने ही अपा न्तराल वाले और उसी नाम के शिखरी पर्वत के पूर्व पश्चिमदिशा में दूसरे भी अठाईस अन्तर द्वीप फिर हैं, ये सब मिलकर छप्पन अन्तर द्वीप कहलाते हैं । किन्तु इस सूत्र में इनकी अत्यन्त सदृशता के कारण व्यक्ति भेद को न मानकर अठाईस प्रकार के ही अन्तर द्वीपों की विवक्षा की गई है। एकरुक आदि नाम वाले द्वीप हैं मनुष्य नहीं परन्तु उन द्वीपों में रहने वाले होने के कारण 'तारस्थ्यात्तद् व्यपदेश:' इस मान्यतानुसार સૂત્રમાં કહેલા આ અઠયાવીસ ૨૮ દ્વીપા જે પ્રમાણેના જેટલા પ્રમાણુના અપાન્તરાલવાળા અને જે નામના હિમવાન પર્વતના પૂર્વ અને પશ્ચિમ દિશામાં છે, એજ પ્રકારના એટલાજ પ્રમાણુવાળા એટલાજ અપાન્તરાલવાળા અને એજ નામના શિખરી પતની પૂર્વ અને પશ્ચિમ દિશામાં બીજા પણ ૨૮ અઠયાવીસ અંતરદ્વીપેા ફરીથી કહ્યા છે. આ મધા મળીને કુલ ૫૬ છપ્પન અંતરદ્વીપા કહેવામાં આવે છે. પર`તુ આ સૂત્રમાં તેએની અત્યંતસમાનતાને કારણે વ્યક્તિભેદને ન માનતાં અઠયાવીસ પ્રકારના જ અંતરદ્વીપાની વિવક્ષા કરવામાં આ વી છે. એકાક નામવાળા દ્વીપા છે, મનુષ્યે એ નામવાળા હાતા નથી પરંતુ ते द्वीपोभां रद्धेनारा हावाने रखे 'तारध्यात् तद् व्यपदेशः' मा भान्यता Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीबाभिगमसूत्रे चतुष्कम् ४ । अश्वकर्णादयत्वारः पञ्चमं चतुष्कम् ५ । उल्कामुखादयश्ववार: षष्ठं चतुष्कम् ६ । घदन्तादयश्चत्वारः सप्तमं चतुष्कम् ७। इति सत चतुष्काणि मिलित्वाऽष्टाविंशतिरन्तरद्वीपाः सन्तीति ।मु० ३३॥ ____ अथ दाक्षिणात्यकोरुकमनुष्याणामेकोरुकद्वीपं पिच्छिषुरिदमाह-'कहिणं भंते' इत्यादि, मलम्-कहिणं भंते ! दाहिणिल्लाणं एगोरुय मणुस्तासं एगोरुय दीवे मं दीवे पण्णत्ते? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदस्त पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरपुरस्थिंमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुहं तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थणं दाहिणिल्लाणं एगोरुय मणुस्ताण एगोरुय दीवे णामं दीवे पण्णत्ते, तिन्नि जोयणसयाई आयामविश्खंभेणं, नब एगणपण जोयणसयाइं किंचि विसेसेणं परिवखेवणं, एगाए पउभवरबेइयाए एगेणं च वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। साणं पउमबरवेइया अटू जोयणाई उड्नं उच्चत्तेणं, पंच धणुसथाइं विक्खंभेणं, एगोरुयं दीवं समंता परिवखदेणं पन्नत्ता। तीलेणं पडमवरवेइयाए अयमेयारूवे वण्णावासे पन्नत्ते, तं जहा- बरामया निम्मा एवं वेइया वण्णाओ जहा रायपसेणईए तहा भाणियन्वो ॥ साणं पउमवरवेइया एगेणं वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ता । से वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चकवालविक्खंभेणं वेइयासमेणं परिकालेवणं पण्णत्ते, लेणं वणसंडे किण्हे किण्हाभासे, एवं जहा-रायपलेणईए वणसंडे वण्णओ तहेव निरवसेसं यहां के मनुष्यों का नाम भी एकोरुक आदि कह दिया गया है जिन प्रकार पंचाल आदि देश वासी पुरुष को पञ्चाल शब्द से व्यवहार में कह दिया जाता है ।। मुत्र ३३॥ પ્રમાણે ત્યાંના મનુષ્યના નામો પણ એકૈરૂક વિગેરે પ્રકારથી કહ્યા છે. જેમ પંચાલ વિગેરે દેશમાં રહેવાવાળા પુરૂષને વ્યવહારમાં પાંચાલ વિગેરે પ્રકારથી કહેવામાં આવે છે. તે જ પ્રમાણેનું આ કથન છે, સૂ. ૩૩ ! Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका का प्र.३ .३ ७.३३ दाक्षि० मनुष्याणामेकोरुकद्वीपवर्णनम् ४९७ भाणियव्वं, तणाणयवाणगंधफासो, सहोतणाणं, बावीओ उप्पायपव्वया पुढवीसिलपट्टगाय भाणियव्वा जाव तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाब विहरति ।सू०३३। छाया-कुत्र खलु भदन्त दाक्षिणात्यानाम् एको रुकमनुष्याणाम् एकोरुकद्वीपको नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणे क्षुल्ल हिमवतो वर्षधरपर्वतस्योत्तरपौरस्त्यात् चरमान्तात् लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु दाक्षिणात्यानामेकोरुकमनुष्याणाम् एकोहकद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञतः त्रीणि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, नवएकोन पञ्चा शानि किञ्चिद्विशेषेण परिक्षेपेण, एकया पद्मवरवेदिकया एकेन च वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः । सा खलु पद्मवरवेदिका अष्टयोजनानि ऊर्ध्वमुच्च स्वेन पञ्चधनुः शतानि विष्कम्भेण एकोरुकद्वीपं समन्ताद परिक्षेपेण प्रज्ञप्ता । तस्याः खलु पद्मवरवेदिकाया अयमेरुद्रूपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तद्यथा वज्रमयी. नेमिः, एवं वेदिकावर्णको यथा राजप्रश्नीये तथा अणितयः । सा खलु पदमवरवेदिका एकेन वनषण्डेन सर्वतः समन्तात् संररिक्षिप्ता । तत् खलु वनषण्डं, देशोने द्वे योजने चक्रवालविष्कम्भेण वेदिकासयेन परिक्षेपेण प्रज्ञप्तम् । तत् खलु वनखण्डं कृष्णं कृष्णावभासम्, एवं यथा राजमश्नीये वनषण्ड वर्णक म्तथैव निरवशेष भणितव्यः । तूणा नाश्च वर्णगन्धराशेः, शब्द स्तृणानां वाप्पा, उपपातपर्वताः पृथिवी शिलापट्टकाश्च भणितव्याः यावत् तत्र खल्ल बहवो वानव्यन्तरा. देवाश्च देव्यश्च आसते यावद्विहरन्ति ॥मू०३३।। टीका-'कहि णं भंते' कुत्र-कस्मिन् स्थाने भदन्त ! 'दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं' दाक्षिणात्यानाम् एकोरु मनुष्याणाम् इह एकोरुकादयो मनुष्याः शिखरि पर्वतेऽपि विद्यन्ते, ते च मेरोरुत्तरदिग्रवर्तिन इति तदव्यवच्छेदार्थ दाक्षि__ अप दक्षिण दिशा के एफोरुक मनुष्यों के एकोरुक द्वीप के विषय में कहते हैं-'कहि णं अंते । दाहिणिल्लाणं एगोरुष मणुस्साणं इत्यादि टीकार्थ-श्रीगौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'कहि पं भते ! दाहि णिल्लाणं एगोरुधमनुस्साणं एगोरुपदीवे णामं दीदे पन्नत्ते' हे भदन्त ! હવે દક્ષિણ દિશાના એકરૂક મનુષ્યના એકેરૂક દ્વીપના સંબંધમાં अपामा मात्र छे. 'कहिणं भवे । दाहिणिल्लाणं एगोरूय मणुस्साण' त्याle ___ य-श्रीगीतमस्वाभास प्रभु श्रीन मे ५७यु हैं 'कहि णं भवे ! दाहिणिल्लाण' एगोरुयमणुस्साण' एगोरुयदीवे णाम दीवे पण्णत्ते' गवन् क्षिय जी० ६३ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fterfernet णात्यानामित्युक्तम् ' एगोरुपदी वे णामं दीवे पन्नत्ते' एकोरुकद्वीपो नाम द्वीपः मज्ञप्तः कथितः ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे मन्दरपर्वतस्यान्यत्राभावात् अस्मिन् जम्बूद्वीपे इति ज्ञातव्यस् 'मंदरस्स पन्चयस्स दाहिणेणं' मन्दरस्य पर्वतस्य 'दक्षिणेन' इत्यत्र प्राकृतत्वात्सप्तम्यर्थे तृतीया, तेन मेरोर्दक्षिणस्यां दिशि 'चुल्ल reat वासरप' क्षुल्लहिमवद्वर्षघरपर्वतस्य क्षुल्लग्रहणं महाहिमवद्वर्षधरस्य व्यवच्छेदार्थम् ' उत्तर पुरथिमिल्लाओ चरिसंताओ' उत्तरपौरस्त्यात् ईशानकोणगतात् चरमान्तात् 'कवण समुद्द' लवणसमुद्रम् ' दिन्नि जोयणसयाई ' श्रीणि योजनशतानि यावत् 'ओगाहिता' अवगाह्य उल्बम अत्रान्तरे क्षुल्ल हिमवदंष्ट्राया उपरि 'एणं' अत्र खल 'दाहिणिल्काणं एगोरुयमणुस्साणं' दक्षिण दिशा में रहने वाले एकोरुक मनुष्यों का जो एकोरुक द्वीप है वह किस स्थान पर कहा गया है ? एकोरुक मनुष्य शिखरी नाम के पर्वत पर भी रहते हैं सो ये मनुष्ध सेरु की उत्तर दिशा में रहने वाले कहे जाते हैं अतः इनका ग्रहण यहां न हो इसलिये दक्षिण दिशा में रहने वाले एकोरुक मनुष्यों के एकोरुक द्वीप के विषय में गौतम ने पूछा है इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'गोमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स व्वयस्ल दाहिणेणं चुल्लहिम्मतस्व वासहरपव्वहल उत्तरपुर थिमिल्लाओ चरिताओ लवणसमुदं तिनि जोयणसपाह ओहिता' हे गौतम! जम्बूद्रीप नाम के द्वीप में जो सुमेरु पर्वत है उसकी दक्षिण दिशा में एक क्षुद्र हिमवान् नाम का वर्षधर पर्व की ईशान विदिशा के चरमान्त से लवण समुद्र में तीनसौ योजन जाने पर 'एत्थ णं दाहिजिल्ला દિશામાં રહેવાવાળા એકેરૂક મનુષ્યાના જે એકેક દ્વીપ છે, તે કયા સ્થાન પર કહેવામાં આવેલ છે? એકારૂક મનુષ્ય શિખરી નામના પર્વત પર પણુ રહે છે. તે આ મનુષ્ય મેરૂ પર્વતની ઉત્તર દિશામાં રહેવાવાળા એકાક મનુષ્યેાના એકારૂક દ્વીપના સંબધમાં શ્રીગૌતમસ્વામીએ ઉપર પ્રમાણેના પ્રશ્ન ભગવાનશ્રી મહાવીર પ્રભુશ્રીને પૂછ્યા છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वाभीने ४हे छे } 'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस पव्वयस्स, दाहिणेण चुल्लहिमव तस्स, वास्खहरपव्त्रयस्त, उत्तरपुरत्थिमिल्लाओ चरिम'ताओ लवण समुद्द तिन्नि जोयसाई ओगाहित्ता' हे गौतम । द्वीप नामना द्वीपमां ने भे३पर्वत છે, તેની દક્ષિણ દિશામાં ક્ષુદ્રહિમવાન્ નામના વધર પવત છે. આ વર્ષધર પર્વતની ઈંશાન દિશના ચરમાન્તમાં લવણુ સમુદ્રમાં ત્રણસો યેાજન ગયા પછી 'पत्थण' दाहिणिल्लाण' एगोरुय मणुस्खाणं एगोरुयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' ४९८ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उं. ३ सु. ३३ दाक्षि० मनुष्याणामेकोरुकडी पवर्णनम् ४९९ दाक्षिणात्यानामेको रुकमनुष्याणाम् 'एगोरुयदीये णामं दीवे पन्नत्ते' एकोरुकद्वीपो नामद्वीपः प्रज्ञप्तः - कथितः, स च द्वीपः 'विन्नि जोयणसयाई आयामविवखंभेणं' त्रीणि] योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, अत्रायामो दैर्घ्यम्, विष्कम्भः - विस्तारः आयामेन विष्कम्भेण चेत्यर्थः 'जव एगूण पण्णजोयणसए' नौकोनपञ्चाशानि - एकोनपञ्चाशदधिकानि नवयोजनशतानि 'किंचि विसेसेणं परिवखेवेणं' किञ्चिद्विशेषेण परिक्षेपेण 'एगाए पउमवरवेइयाए' एकया पद्मवर वेदिकया 'एगेण च वणसंडे' एकेन च वनपण्डेन - उपवनेनेत्यर्थः 'सन्नओ समता संपरिक्खित्ते' सर्वतः समन्तात् चतुर्दिक्षु संपरिक्षिप्तः परिवेष्टित इति 'साणं पउमचरवेइया' सा खलु पद्मवेदिका 'अट्ट जोयणाई उडूं उच्चतेणं' अष्टयोजनानि ऊर्ध्वमुच्चैः 'पंचणुसया दिवखंभेणं' पञ्चषणु । शतानि विष्कम्भेग - विस्तारेण 'एगोरुयदीवं' ratorद्वीपम् अभिव्याप्य 'समता परिवखेवेणं पन्नत्ता' समन्तात् - चतुर्दिक्षु णं एगोरुष मणुस्सा णं एगोरुप दीवे णामं दीवे पण्णत्ते' यहाँ क्षुद्र हिमवान् की दंष्ट्रा के ऊपर दाक्षिणात्य एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नाम का द्वीप कहा गया है. 'सिनि जोयणखयाएं आधामविक्खंभे णं णव एकूणपण्णजोधणस्त्रयाएं किंचि विलेलेण परिक्खेवेणं एगाए परमवर वेश्याए एगे णं वणलंडे णं सभी सत्ता संपरिक्खिते' यह द्वीप लम्बाई चौडाई में तीन सौ (३००) योजन का है इसकी परिधि नौ सौ उनचास योजन ९४९ से कुछ अधिक है इस द्वीप के चारों तरफ एक पञ्चवर वेदिका है। इस पद्मवर वेदिका की चारों दिशाओं में इसे घेरे हुए एक बन है । 'साणं पयवर वेश्या जोयणाई उड्ड उच्चत्तेण पंच धणुसचाई विवखंभेणं एनोरु दीचं समता परिक्खेवे णं पण्णत्ता' यह पद्मवर वेदिका आठ योजन की ऊंची है और पांचसौ અહિયાં ક્ષુદ્ર હિમવાન પર્વતની દાઢ ઉપર દક્ષિણ દિશમાં રહેવાવાળા એકેક मनुष्योना थे। ३४ नामने। द्वीप वामां आवे छे. 'तिन्नि जोयणसयाई आयाम विक्खणं व एगूणपन्न श्रीयणसयाइ किचिविसेसेण परिक्खेवेणं एगाए परमवरवेइयाए एगेग वणसंडेणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ते' मा द्वीप લખાઈ પહેાળ ઈમાં ત્રણસે ૩૦૦ ચેાજનના છે. તેની પરિધ નવસે એગણુ પચાસ ૯૪૯ ચેાજનમાં કંઇક વધારે છે. આ દ્વીપની ચારે ખાજુ એક પદ્મવર વેદિકા આવેલી છે. આ પદ્મવર વેદિકાની ચારે દિશાએમાં તેને ઘેરિને वन मंडावेलु छे. 'साणं पउवरवेदिया अट्ठ जोयणाई उड्ढ उच्चत्तेणं पंचणुयाई विखणं एगूरूयवदोष समता परिक्खेवेणं पण्णता' या पद्मवर Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० जीवामिगम परिक्षेपेण-परिवेष्टनेन प्रज्ञप्ता सा पद्मवरवेदिका ! 'तीसे णं पउमवरवेइयाए' तस्याः खलु पद्मवरवेदिकाया: 'अयमेयारूवे वण्णावासे पन्नते' अयमेतावद्र्पो वर्णावासः प्रज्ञप्त:-कथितः 'तं जहा' तद्यथा 'बहरामया' वञमयी 'निम्मा' नेमिः-परिधिः 'एवं वेइया वणो जहा-रायपसेणईर तहा माणि यन्यो' एवम्उक्तपकारेण वेदिकाया:-पदूमवर वेदिकायाः वर्णको-वर्णनं यथा राजमश्नीये कृत स्तथैव भणितव्यः। ___'साणं पउमवरवेदिया' सा खल्लु पद्मवरवेदिका ‘एगेगं वणसंडेणं सबओ समंता संपरिक्खित्ता' एकेन वनपण्डेन सर्वतः समन्तात् चतुर्दिक्षु संपरिक्षिप्तापरिवेष्टिता ! 'से णं वणसंडे देणाई दो जोयणाई चक्कचालविवखंभेण वेइयासमेण परिक्खेवेणं पण्णत्ते स खलु वनपण्डः देशोने द्वे योजने चक्रवाळविष्कधनुष की चौड़ी है यह एकोरुक द्वीप को चारों ओर से घेरी हुई है। 'तीसे णं पउमवर वेदियाए' इस पद्मवर वेदिका का 'अयमेयारूवे वण्णा वासे' वर्णावास-वर्णन-इस प्रकार से है-'त जहां-जैसे-'वइरामया निम्मा' नेमि नीव वज्ररत्न की बनी है 'एवं वेश्या वण्णओ जहा राय पसेणईए तहा भाणियो ' इस वर्णन के सम्बन्ध में कथन 'रायपसेणी' स्सूत्र में है अतः जैसा इसका वर्णन वहां किया गया है-वैसा ही वह सब यहां पर भी इनका वर्णन कर लेना चाहिये। __ 'साणं पउमबर वेदिया एगेण वणसंडेणं सबओ समंता संपरिक्खित्ता' इस पदूमवर वेदिका के चारो ओर एक वनषण्ड है 'से ण वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चक्कवालविक्खंभे ण वेदिया समेण परिक्खेवेणपण्णत्ते' यह वनषण्ड देशऊन कुछ कम-दो योजन વેદિકની ઉચાઈ આઠ જનની છે. અને તેની પહોળાઈ પાંચસે ધનુષની છે. 'एगोरुय दीव समता परिक्खेवेण पण्णत्ता' मा ५१२ all १३४ द्वीपन न्यारे माथी धेशन २७दी छ. 'तीसेणं पउबरवेदियाए' मा पद्म१२ जानु 'अयमेयारूवे वण्णावासे' पर्यावास-वन सा प्रभारी छ 'तं जहा' रेभ 'वइरामया निम्मा' भि परिधि मय सनदी छे. 'एव वेइया वण्णो जहा रायपसेणईए तहा भाणियव्यो' माना पन समयमा प्रश्नीय' सूत्रमारे प्रभानु કથન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. 'सा ण प उमबरवेदिया एगेण वणसंडेण समता संपरिक्खित्ता' या ५५१२ हानी यारे PAY 28 वष भाव छ. 'से ण वणसंडे देसूणाई दो जोयणाईचक्कवालविक्खभेण वेदिया समेण परिक्खेवेण पण्णत्ते' मा बन Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.३३ दाक्षि० मनुष्याणामेकोषकद्वोपवर्णनम् ५०१ म्भेण वेदिका समेन-वेदिका तुल्येन परिक्षेपेण प्रज्ञप्तः । 'सेणं वणसंडे किण्हे किण्डोभासे' स खलु वनषण्डः कृष्णः कृष्णावभासः, ‘एवं जहा रायपसेणईए वणसंडवण्णभो' एवं यथा राजमश्नीये वनपण्डवर्णकः 'तहेच निरवसेसं भाणिय' तयैव निरवशेष भणितव्यः 'तणाणय वण्ण गंध फासो, सदो तणाणं वावीओ' तगानाञ्च वर्णगन्धस्पर्शः, शब्द स्तृणानाम्, अत्र तृणानां शब्दो वाच्यः अन्यत्र-'वणसंड वण्णओ तण सदं बिहूगो नेवो' इति वर्तते । तथा-वाप्यः 'उप्पोय पन्चया' उपपातपर्वताः 'पुढवीसिलापट्टगाय' पृथिवीशिलाकाश्च 'माणियन्या' भणितव्याः कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव' इत्यादि, 'जाब तत्थ णं की गोलाकार चौडाई पाला है । और इसकी परिधि का विस्तार वेदिका के बराबर है। 'से ग वणसंडे शिहोभासे एवं जहा रायपसेणईए वणसंडवण्णो तहेव निरवसेसं भाणियव्यं' यह वन षण्ड घहुत अधिक घन होने के कारण काला दिखता है और प्रकाश भी इससे काला ही निकलता है। इसका इस प्रकार का वर्णन रायालेणी सूत्र में किया गया है-सो वह सब वर्णन यहां पर भी कह लेना चाहिये. 'ताणाण य बण्णगंधफासोस हो तणाण, बादीओ इप्पाय पश्या पुढवि. सिला पट्टगाय भाणियव्या जाव तत्थ ण बहवे देवाय देवी मोय आप्तयंति जाब विहरति' यहां के तृणों का वर्ण, गन्ध, स्पर्श और तृणों का शब्द इन सब का तथा वापिकाओं का और उपपात पर्वनों का और पृथिवी शिला पट्टको का जो कि यहां पर वर्तमान है वह सब वर्णन भी कर लेना चाहिये यावत् यहाँ अनेक वानन्यन्तर देवी एवं देवता પંડ દેશઉન, કંઈક કમ બે જનના ગોળાકાર પહોળાઈ વાળું છે અને તેની परिधिना विस्तार हानी मराम२ छे. 'से ण वणसंडे किण्हे किण्होभासे एवं जहा रायपसेणइए वणसवण्ण) तहेव निरवसेस भाणियव्व' मा नष' धार ગાઢ ઉંડુ હોવાના કારણે કાળું દેખાય છે. અને તેને પ્રકાશ પણ કાળા જ નીકળે છે. તેનું આ પ્રકારનું વર્ણન રાજપ્રશ્નીય સૂત્રમાં કરવામાં આવેલ છે. તે से मधु' त्यानुन मडियां ५५ समझ से 'तणाण य वण्ण गंध फासो महोतणा णं बहवे देवाय देवीओ य आसयाति जाव विहरति' महिना तृऐना વર્ણ, ગંધ, રસ, સ્પર્શ અને તૃણના શબ્દ આ બધાનું અને વાવડિયાનું અને ઉપપાત ૫તેનું અને પૃથ્વી શિલાપટ્ટનું કે જે અહિયાં વર્તમાન છે, એ બધાનું વર્ણન પણ કરી લેવું જોઈએ. યાવતું અહિયાં અનેક વાવ્યતર દેવ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ जीवामिगमस्टे वहवे वाणमंतरा देवाय देवीयो य आसयंति जाव विरंगि' यावद् तत्र बहवो वानव्यन्तरदेवाश्च देव्यश्चासते यारद्विहरन्ति, अत्र यारपदेन-'सति चिट्ठति निसीयति तुयति हसति रमंति ललंति कील ति मोहंति पुरा पोराणाणमुपरिक्वाणं सभाणं कडाणं कम्माण कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा' इति संग्राह्यम्, ___ छाया-शेरते रिष्ठन्ति निपीदन्ति दर्तयन्ति हमन्ति रमन्ते ललन्ति क्रीडन्ति मुद्यन्ति मोहयन्ति पुरा पौराणानां मुचीर्णानां मुपरिक्रान्तानां शुभानां कृतानां कर्मणां कल्पाणं फलवृत्तिविशेष प्रत्यनुमवन्तः, विहरन्तीति सम्बन्धः । तत्र पद्मवरवेदिका वर्णनं वनपण्डवर्णनं मणितृणानां वर्णादिवर्णनम् उत्पात पर्वतानां पृथिवी शिलापकानां च वर्णन राजपश्नीयसूत्रे सर्व विलोकनीयमिति ।३३ मूळम्-एगोरूय दीवस्त णं भंते ! दीवस्त केरिसए आगार भावपडोयारे पन्नते ? गोयमा! एगोरुयदीवस्ल णं दीवस्स अंतोबहुतमरमणिजे भूमिभागे पन्नत्ते, से जहा-णामए आलिंग पुक्खरेइ वा एवं सयणिज्जे भाणियब्वे जाव पुढवी सिलापट्ट गंति तत्थ णं बहवे एगोरुयदीवया मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति जाब विहरति एगोरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे उद्दालगा कोदालगा कतमाला णयमाला उठते बैठते हैं, हत्यादि। इल तरह 'आलयंति' इस अन्तिम पद तक व्यन्तर देव और देवियों का वर्णन वहां पर किया गया है सो वह सब वर्णन यहां पर कर लेना चाहिये तात्पर्य यही है कि पद्मवर वेदका का वर्णन और वनपण्ड का वर्णन जैसा आगे जम्बूदीप की जगति के ऊपर की पदमवर वेदिका और वनषण्ड का वर्णन आने घाला है अतः वहीं से यह जानने में आजायगा ।। सूत्र-३३॥ मन वाया 813. ४२११ मा छे से छे. त्या माशत 'आसय ति' આ છેલા પદ સુધી વ્યક્તર દેવ અને દેવીનું વર્ણન અહિયાં કરવામાં આવેલ છે તે તે બધું જ વર્ણન અહિયાં કરી લેવું જોઈએ કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે પદ્મવર વેદિકાનું વર્ણન અને વનખંડનું વર્ણન જેમ આગળ જંબુદ્વીપની ઉપરની પાવર વેદિક અને વનખંડનું વર્ણન આવવાનું છે. તે પ્રમાણે ત્યાંના તે વર્ણન પ્રકરણુથી આ સમજવામાં આવી જશે. સૂ ૩૩ ! Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका ठीका प्र०३ उ. ३ सु. ३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५०३ माला सिंगमाला संखमाला दंतमाला सेलमालगा णाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो ? कुतविकुलविसुद्ध रुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो जाव बीयसंतो पत्तेहिय पुप्फेहिय अच्छण्ण परिच्छण्णा सीरीए अई अईव उवसेोभमाणा उवसोभेसाणा विति एकोरुयदीवेणं दीवे रुक्खा बहवे हेरुयालवणा भेरुयालवणा मेरुयालवणा सेरुयालवणा सालवणा सत्तवण्णवणापूर्वफलिवणा खज्जूविणा णालिएविणा कुतविकुल विसुद्ध जाव चिति, एगोरुप दीवेणं तत्थर बहने तिलयालवया नग्गोहा जाव रायरुक्खा मंदिरुत्रखा कुल विकुस विसुद्ध रुक्खमूला चिट्टेति । एगोरू दीवेणं तत्थ बहुओ पउमलयाओ जाव सामलताओ णिचं कुसुमियाओ एवं लया वण्णओ जहा उववाइए जाव पडवा । एगोरू दीवेणं तत्थर बहवे सेरिया गुम्मा जाव महाजाइगुम्मा ते णं गुम्मा दसद्धवपणं कुसुमं कुसुमंत विधूयग्गसाहा जेण वाय विधूयग्गसाला, एगुरूपदीवरूल बहुममरमणिजभृमिभागं मुक्कपुष्फ पुंजोबयारकलियं करेंति, एगोरुय दीवेणं तत्थर बहुओ वणराईओ पन्नताओ, ताओ णं वणरा - इओ कि हाओ किण्होभासाओ जाव रम्माओ महामेहणिउचभूषाओ जाव महई गंधद्धणि सुयंतीओ पासादीयाओ४ । गोदीवे तत्थर बहवे मत्तंगा बाम दुसगणा पन्नत्ता समणाउसो ! जहा से चंदप्पभ मणिलिलागवर सीधुपवरवारुणी सुजायपत्तपुष्पफल चोयणिज्जा ससार बहुदब्यजुत्ति संभारकाल संधि - यासवा महुमेरग रिट्टाभदुद्धजाइय पसन्न मेल्लगसयाउ खज्जुरमुद्दिया सारका विसायण सुपक्क खोयरसवर सुरादपणरमगंधफरिस जुत्तबलवीरियं परिणामा मज्जविहित्थ बहुप्पगारा तदेवं Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ जीवामिगम ते मत्तंगया वि दुमगणा अणेग बहुविविह वीससा परिणयाए मजविहीए उववेश फलेहिं पुण्णा वीसहति कुसविकुस विसुद्धः रुक्खमूला जाब विसति १। एगोरुए दीवे तत्थ तत्थ बहवो भिंगंगया णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से बारग घडगकरगकलसककरिपायकंचणिया उदंकवद्धणिसु पइगपारी च सकभिंगार करोडिया सरगपत्तीथालमल्लग चवलिय. दगवारकविचित्तवक मणिवट्टक सुत्ति च'रुपीणया कंचणमणि. रयणभत्तिचित्ता भायणविधीए बहुप्पगारा तहेव ते भिंगंगया वि दुमगणा अणेग बहुगविविहवीससा परिणयाए भायण. विहीए उववेया फलेहिं पुन्ना विसहति कुसविकुस विसुद्धरुक्खमूला जाव विसति२। एगोरुय दीवेणं दीवे तत्थ२ वहवे तुस्थिंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो !, जहा से आलिंगमुयंगपणवण्डहदद्दरग करडिंडिम भंभाहोरंभकण्णियार खरमुहिमुगुंद संखिय परिलीवव्वग परिवाइणि वंसावेणु वीणा सुघोसविवंचि महइकच्छभिरगसगा, तलताल कंसताल सुसंपउत्ता आतोजविहिणिउणगंधव्व समयकुमलेहि फंदिया तिटाणसुद्धा तहेव तं तुडियंगया वि दुमगणा अणेग बहुविविहवीससा परिणयाए ततविततघणसुसिराए चउठिवहाए आतोजविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसति, कुसविकुस विसुद्ध रुक्खमूला जाव विसति३। एगोरुय दीवे तत्थर बहवे दीव सीहाणाम दुमगणा पण्णता समणाउसो ! जहा से झंझा विराग समए णवणिहि पइणो दीविया चकवालविंदे पभूयवट्टिपलित्तहे धणिउज्जालिय तिमिरमद्दए कणगणिगरकुसुमिय पालिया Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % DCCCEED प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.३ २.३४ पकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५०५ तयवणप्पगासो कंचणमणिरयणविमलमहरिहतणिज्जुज्जल विचित्तदंडाहिं दीवियाहिं सहसा पनलिऊसवियणिद्धतेय दिपंत विमलगहगणसमप्पहाहिं वि तिमिरकरसूरपसार उज्जोय बिल्लियाहि जालुज्जलपहसियाभिरामाहिं लोहेसाणा तहेव ते दीवसिहा चि दुमगणा अणे बहुविविहवासला परिणायाए उज्जोयविहीए उक्वेसा फलेहिं पुण्णा वितहति कुसविकुस विसुद्ध रुक्खमूला जाब चिदंति४ । एगोरूय दीवे तत्थ तत्थ बहवे जोइसिया माम दुभंगणा पणत्ता लमणाउसो ! जहा से अचिरुग्गय सरयसूरमंडल पडतउकासहस्त दिपंत विज्जुजालहुयवहनिर्धमजलियनिद्धंतधोयतहलवणिज किंसुया सोयजवाकुसुमत्रिमुरलियपुंजमणिरयणकिरणजञ्चर्हिगुलय णिगर रूवाइरेगरूवा तहेव ते जोइलिया वि दुमगणा अणेग बहुविविहवीसला परिणयाए उज्जोयविहीए उश्वेया सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदायवलेस्ला कूडायइव ठाणठिया अन्नभन्न समोगाढाहिं लेस्लाहिं लाए पसाए लपदेसे सव्व ओलमंताओ भासंति उज्जोवति पभाति कुलरिकुसविसुद्धरुखमूला जाव चिटंति।३४॥ छाया-एकोहक द्वीपस्य खलु भदन्त ! द्वीपस्य कीदृश आकारभाव. मत्यवतारः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! एकोख्कद्वीपस्य खलु द्वीपस्यान्त बहुममरमणीयो भूमिभागः प्रज्ञप्तः, स यथा नामक आलिङ्ग पुष्कर इति बा, एवं शयनीयं भणितव्यं यावत्पृथिवी शिलापटके, तत्र खल्लु बहन एकोरूक द्वीपकाः मनुष्याश्च मनुष्यश्चासते यावद्विहरन्ति । एकोरूकद्वीपे खल द्वीपे तत्र तत्र देशे तत्र २ बहद उद्दालकाः कोदालकाः पतकमालाः मतमाला नाटयमालाः शङ्गमाला शंखमाला दन्तमालाः शैलसालका नाम दुरगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन ! कुशचिकुश विशुद्ध घृक्षमूला मूलवन्तः कन्दवन्तो यावद बीजवन्तः पत्रैश्च पुप्पैश्च याच्छन्न प्रतिच्छनाश्रिया अतीवातीवोपशोभमाना उपशोममानास्तिष्ठन्ति । पकोख्य द्वीपे खल द्वीपे वृक्षा वहतो हेरुकालवना भेरुकालपना रुकालचनाः सेरुकालवनाः सालवना: सरल बनाः सप्तपर्णवनाः पूगफलीवनाः खजूरीवनाः नारिखेलवना: कुशविवश जी० ६४ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ जीवाभिगम विशुद्ध वृक्षम्ला स्तिष्ठन्ति । एकोहीपे खलु तत्र २ बहर स्तिळकलवका म्यग्रोधा यावद्राजक्षा नन्दिपृक्षाः कुशनिकुश विशुद्ध घृक्षमृलास्तिष्ठन्ति । एकोरूकद्वीपे खलु तत्र वदन्यः पदमलना यावत् श्यामलता नित्यं कुछ गिताः, एवं कता वर्णको यथा यथा औपपातिके यावर प्रतिरूपाः । एशोरूनद्वीपे खल तत्र २ वहवः सेरिकागुल्माः यावन्महाजातिगुल्माः, ते खलु गुल्मादशावणं कुZमं कुसुमयन्ति विधूताग्रशाखाः येन वाताविधृताप्रशालाः एकोक द्वीपस्य बहुसमरमणीय भूमिभाग मुक्तपुष्रपुखोपचारफलितं करोति । एकोस्कद्वीपे खल तत्र २ बहव्यो वनराजयः प्रज्ञप्ता, ताः खलु वनराजयः कृष्णाः कृष्णावमासाः यावद् रम्याः महामेघनिकुरम्बभूताः यावन्मही गन्धघ्राणी मुश्चन्त्य मासादीयाः ४। एकोरूकद्वीपे तन तत्र वहतो मत्ताना नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुमन् ! यथा ते चन्द्रमाममणिशिलाकवरसीधु प्रवरवारुणी मुजातपत्रपुष्षफलचोयनियसिसार बहुद्रव्ययुक्तिसंभारवालसन्धितासवा मधुमेरकरिष्टामदुग्धजाति प्रसन्न मेल्लकशतायुः खजू रमृद्दीशासार कपिशायन मुएक्वक्षोदरसपर मुरारंग रसगन्धस्पर्शयुक्त बलवीर्यपरिणामाः, प्रविधिना उपेता बहु प्रकारास्तदेवं ते मत्तगाजा अपि द्रुमगणाः अनेक बहुविविधविस सापरिणतेन मचविधिनोपपेताः फलैः पूर्णाः विलसन्ति कुशविद्याश विशुद्ध वृक्षाला यावत्तिष्ठन्ति १ । एकोख्के द्वीपे तत्र २ बहवो भृङ्गाङ्गका नाम दुरगणाः प्राप्ताः प्रवणायुष्मन् ! यथा वे वारक घटककर कलश कर्करीपाद वनिका उदक नीमुमतिष्ठकपारी चषक भृङ्गार करोटिका सरक परकपात्री स्थाल मल्ल र चपब्ति दवारक विचित्र वर्तक शुक्तिचारूपीनकाः काञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्रा माजन विधिना बहुमफारा स्तयैव ते भृङ्गागका अपि द्रुमपणा अनेक बहुविविधविस्र सापरिणतेन भाजनविधिनोपपेताः फलैः पूर्णा दिलसन्ति, कुधविकुश विशुद्धशमूला यावतिष्ठन्तिर एकोरूकद्वीपे खलु द्वीपे तत्र २ वहवस्त्रुटिताङ्गा नाम द्रुमगणाः पज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! यथा ते आलिंग मृदङ्गपणव पटहदर्दरककरहिं डिमभंगाहोरम्भकर्णिकार खरमुखी मुकुन्द शंखिक परिलीका घरपरिवादिली वंशवेणुवीणासुघोषविपञ्ची महती कच्छपी रगसगातलमालकांस्यतालसुसंपयुक्ता आतोय विधि निपुणगन्धव समयकुशलः स्पन्दिताः त्रिस्थानशुद्धास्तथैव ते त्रुटिताङ्गका अपिद्रुमगणा अनेक बहुविधविस्त्रसापरिणतेन तत नितत घणपिटेष चतुर्विधेन जातोचविधिनोपेताः फलैः पूर्णाः विदलन्ति कुशविकुश विशुद्ध वृक्षलाः यायत्तिष्ठन्ति ३ । एकोरूके द्वीपे तत्र तत्र वहको दीपशीखा नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! यथा ते सन्ध्या विरागसमये नवनिधिपते दीपिका चक्रवालवृदे प्रभूतवत्ति-प्रदीपैः Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०७ प्रद्योतिका टीका प्र.२ उ. ३ यु.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् धणिय उज्ज्वालित तिमिरमर्दकं कनकनिकरकुसुमितपारिजातक बनप्रकाशं कनकमणिरत्नविमलमद्दा है तपनीयोज्यक विचित्र-दण्डमिर्दी पिकाभिः सहसा प्रज्व लितोच्छ्रायित स्निग्धतेजोदीप्यमान विमल ग्रहगणसमाभिः वितिमिरकर सूर्य प्रतोद्यतदीप्यमानामिः ज्वालोज्वलमहलिताभिरामाभिः शोभमाना तथैव ते दीपशिखा - अपि दुगणाः अनेक बहुविधविससापरिणतेन उद्योतविधिनोपपेताः फलै पूर्णा विलन्ति कुशविकुश विशुद्धवृक्षमूत्रा यादत्तिष्ठन्ति ४ । एकोकद्वीपे तर बहवो ज्योतिषिका नाम द्रुमगणाः घज्ञताः श्रमणायुष्मन् ! यथा ते अचितशरत्सूर्यमण्डल पर दुल्कासहस्रदीव्य दूद्दिद्युज्जा लहुतवह निर्धूमज्यकितनिर्मातधौतपनीय किंशुकाशोकजपाकुसुमविमुकुलित पुञ्जमणिरत्नकिरणजात्य हिङ्गुलक निकररूपातिरेकरूपा स्वचैव ते ज्योतिषिका अपि द्रुमगणा अनेक बहुविविधविसापरिणतेन उद्योत विधिनोपपेताः सुखलेश्या मन्दलेश्या मन्दातपलेश्या कूटानीच स्थानस्थिता अन्योन्य समवगाढाभिर्लेश्याभिः स्वकया प्रभया स्वदेशे सर्वतः समन्तात् अवभासते उद्योतन्ते घमासन्ते कुशविकुशविशुद्ध वृक्षमूला यावतिष्ठन्ति ॥ ०३४ ॥ टीका- ' एगोरूप दीवस णं संते !" इत्यादि । 'गोरूय दीवस्स णं भंते । दीवस्स' एकोरुकद्वीपस्य खलु भदन्त । द्वीपस्य 'केरिसो' कोदृशः 'आयारभाव पडोयारे' आकार भावमत्यवतारः - भूम्यादिस्वरूपप्रकारः 'पण्णत्ते' मज्ञतः कथितः, भगवानाह - 'गोयमा' हे गौतम! 'एगोख्य दीवस्स णं दीवस्स' एकtosद्वीपस्य खलु द्वीपस्व 'अंतो बहुसमर णिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' अन्तः मध्यभागे बहुतमरमणीयोऽविरमणीयः समी भूमिभागः बज्ञतः कथितः । अथ 'गोरुवदीवस संते दीवस्स' इत्यादि । टीका - श्रीमतवामी ने प्रमुश्री से ऐसा पूछा है कि 'एगोरुय दीवस्स णं भते ! दीयस्स केरिस आगार भाव पडोयारे पण्णत्ते' हे भदन्त ! एकोरुक नामके द्वीप का आकार भाव प्रत्यवतार भूमि आदि का वर्णन केसा किया गया है। इसी विषय को उपमा वाचक पदों द्वारा प्रकट करते हैं-' से जहा नामए आलिंग पुक्खरेवा' इत्यादि । वहां की जो 'एगोरुय दीवस्त्रणं भवे ! दीवस्स' छत्याहि टीडार्थ-श्रीगौतभस्वाभीये अनुश्रीने भेषु पूछयु छे 'एकोरुयदीव स्व भते | दीवस केरिसे आगारभाव पडे यारे पण्णत्ते' हे भगवन् ! भेोइम् નામના દ્વીપના આઠાર ભાવપત્યવતાર અર્થાત્ ભૂમિ વિગેરેનુ' વધુ ન કેવી રીતે કરવામાં આવેલ છે? આજ વિષયને ઉપમાવાચક પદ્મા દ્વારા પ્રગટ ४२वामां आवे छे. 'से जहा नामए आलिंग पुरखरेइ वा' धत्याहि त्यांनी Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ जीवाभिगमसूत्र कीदृशः स बहुसमरमणीयो भूमिभागा ? इति तस्सादृश्ये दृष्टान्तानि मदर्शयति से जहाणामए' इत्यादि से जहाणामर' स यथानामकः 'आलिंग पुक्खरेह वा' आलिङ्ग पुष्कर इति बा, तत्र-आलिङ्गो मुरजो बाद्य विशेषः, तस्य पुष्करं चर्मपुटकं तद्वद अत्यन्तसमः पावत् नानाविधपञ्चवर्णैस्तुणमणि मिश्च उपशोभितः स भूमिभाग इति, अत्र यावच्छदादेवानि पदानि संग्राह्याणि-'मुइंग-पुक्खरेइ वा सरतलेइ वा करतलेइ वा चंदमंडलेइ वा सूरमंडलेइ वा आयंसमंडलेइ वा उरव्मचम्मेइ वा उसभवम्मेह वा वराहवम्मेइ वा सीहचम्मेइ वा बग्घचम्मेइ वा विगचम्मेइ वा दीवियचम्मेह वा अगसंकुकीलगसहस्सवितते आवड पञ्चावड सेणिपसेणि सोस्थिय सोवत्थिय-पूममाणवद्धमाणमच्छंडग मकरंडपजारमार फुल्लावळि पउ. मपत्त सागर-तरंगवासंतिलय पउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाए सप्पभेहि सरिसरीएहि समरीइहिं सउज्जोएहि नाणाविह पंचवण्णेहिं तणेहि य मणिहि य उदसोहिए' एषां पदानामयमथे:-मृदङ्ग पुष्कर इतिवा, तत्र मृदङ्गो मदलो लोकपसिद्धस्तस्य पुष्करमिति वा एषु इति शब्दाः सर्वेऽपि वस्त्रोपमाभूत वस्तुपरिसमाप्तियोतकार, वा शब्दो समुच्चपार्थे । एवमग्रेऽपि विज्ञेयाः ! सरः पानीयेन परिपूर्ण भृतं तडागं, तस्य तलम्-जळोपरितनोमागः, सरस्तलम् । करतलं-मसिद्धम् । चन्द्रमण्डलम्, यद्यपि तत्वदृष्टया उत्तानीकृतकपिस्थाकार-पीठप्रसादापेक्षया वृत्ता-लेखमिति तद्वत्तो दृश्यमानो भागो न समतलस्तथापि प्रतिभालते समतल इति चन्द्रमण्डलो. पादानम् । सूर्यमण्डलम्, दृश्यमानमूर्यबिम्वम्, आदर्शमण्डलंदर्पणतलम् । अथ भूमि है वह भालिंग पुष्कर जैसी चिकनी और समतल वाली है आलिङ्ग नाम का वादिन उसका जो बढा हुआ चर्म पुट दमतल होता है वैसा है जैसा मृदङ्ग हा मुख चिकना और समलल वाला होता है अथवा पानी से भरे हुए तालाब का पानी के उपर का भाग जैसा समतल और चिकना होता है. कर हथेली का तलिया जैसा चिकना और सम होता है चन्द्र मण्डल सूर्य मण्डल जैसा होता है आदर्श मण्डल दर्पण जैसा चिकना और समतल वाला होता है-उरभ्रचर्म ऊरलिया ભૂમિ છે, તે આલિંગ પુષ્કરના જેવી ચીકણું અને સમતલવાળી છે. આલિંગ નામનું વાછત્ર હેય છે. તેને મલું ચામડું કેવું સરખું હોય છે, તેવી સમતલ સરખા તળીયાવાળી હોય છે. મૃદંગનું મુખ જેવું ચિકણું અને સમતલ હોય છે, તેવી સમતલ હોય છે. અથવા પાણીથી ભરેલા તળાવના પાણીને ઉપરને ભાગ જે સમતલ અને ચિકણે હોય છે, અથવા હાથના તળીયા જે ચિકણે અને સમ હોય છે. ચંદ્રમંડળ અને સૂર્યમંડળ જેવા હોય છે. આદર્શમંડલ અર્થાત્ દર્પણ જે ચિકણે અને સમતલ હોય છે. ઉદ્મચર્મ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ५.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५०९ स भूमिभागश्चमभिरुपमीयते-'उरब्मचम्मेइ वा' इत्यादि, अत्र उरभ्रवर्मत आरभ्य द्वीपिचर्म-पर्यन्तं सर्वत्र 'अणेगसंकुकीलग सहस्सवितए' इति विशेषणस्य योगः कर्तव्यः, तथाहि-भनेकैः शङ्कुममाणैः कीलकसहस्रैः-महद्भिः कीलरताडितं चर्म मायो मध्यक्षामं भवति किन्तु न समतलं ततोमहमिः कीलक विततं-वित. नौकृतं ताडितं सत् चर्म अत्यन्तं बहुसमं भवति तत इदं विशेषणं चर्मस सर्वत्र योज्यम् । तथाहि अनेक शङ्कुशीलकसइस विततम्, एतादृशम्-उरभ्रचर्म, उरभ्रः ऊरणस्तस्य चर्म, एवम्-पूर्वोक्त विशेषणविशिष्टं वृषचर्म, वराहचर्म, सिंहचर्म, व्याघ्रचर्म, वृकचर्म-वृकश्वापदजन्तुविशेष: 'भेडिया' इति प्रसिद्धः तस्यचम द्वीपिकचर्म-द्वीपिकः चित्रका 'चित्रा' इति प्रसिद्धः श्वापदजन्तुविशेषः । एतानि सर्वाणि चर्माणि अनेक शङ्कुकीलकसहस्रतितानि लमतलानि भवन्ति तद्वत् एकोरुक द्वीपस्यान्तर्गवो बहुसमरमणीयो भूमिभागो भवतीति । पुनः कथम्भूतः स भूमिमागः ? इत्याह-'तणेहि मणिहि य उबसोहिए तृणैः मणिमश्च उपशोमितः, इत्यग्येण सम्बन्धः । कीदृशैतृणैः मणिभिः ? इति तद् विशेषणानि पदर्शन्ते 'आवड' इत्यादि । 'भावड पच्चावड०' इति आवर्त प्रत्यावर्त श्रेणि सेणि स्वस्तिकसौवस्तिक पुष्पमान बर्द्धमानमत्स्याण्डक-मकराण्डकजारमार पुष्पावलि. पद्मपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलता पदमलता, एते सर्व माङ्गलिक विक्षरूपा आकार विशेषास्तेषां भक्त्या-विच्छित्त्या रचनया चित्र विचित्रैस्तुणैर्मणिभिश्च उपशो. मित इति योगः। पुनश्व कीदृशैस्तैः ? इत्याह-'सच्छाएहि' सच्छायैः-सवी शोभना छाया अमासो येषां तैः 'सप्पभेहि' सममः सतीशोभना पभा कान्ति येषां अर्थात् भेड़ बैल लूआ सिंह व्याघ्र वृक-मेडिया और चीता इनके चमें जो बडे पंडे कीलो खूटियों से समतल बनाया गया है वैसी घह भूमि ओचत प्रत्यावर्त श्रेणि प्रश्रेणि स्वस्तिक लौयस्तिक पुष्यमान घद्धमान मत्स्याण्ड मकराण्ड जार मार पुष्पावलि पद्मपत्र सांगर तरङ्ग यासन्ती लता पइमलता इत्यादि नाना प्रकार के मांगलिक रूपों की रचना से चित्रित ऐसे तथा सुन्दर दृश्य बाले सुन्दर कान्ति सुन्दर ઉરવિયા અર્થાત્ ઘેટા, બળદ, સુવર, સિંહ, વાઘ વૃક ઘેટાની એક જાતઅને ચિત્તો આ બધ ને ચર્સને જે મોટા મોટા ઓજારોથી સમતળ બનાવવામાં આવેલ હાય, એવી તે ભૂમી આવ, પ્રત્યાવર્ત, શ્રેણી પ્રશ્રેણે સ્વસ્તિક સૌવસ્તિક, पुष्यमान, मान, भस्मांड, ४२७ २, भार ५०पाटी, ५५५त्र, सासरत२१, વાસંતીલતા, પદ્મલતા વિગેરે અનેક પ્રકારના માંગલિક રૂપની રચનાથી ચિત્રેલા એવા તથા સુંદર દશ્યવાળા સંદરકાંતી વાળા અને સુંદર ભાવાળા ચમકતા ઉજજવલ કિરણોના પ્રકાશવાળા, એવા અનેક પ્રકારના પાંચ વાવાળા તૃણાથી Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० जीवाभिगमसूत्रे तैः, सश्रीकैः सह श्रिया शोमया ये ते स श्रीकास्तैः 'समरीइपहि' समरीचिकैः वहिर्विनिर्गत किरण जालसहितैः, स उज्जोएहिं' सोद्यतः- वहिव्यवस्थित प्रत्या सन्न-वस्तुस्वोमप्रकाश करोद्र धोवसहितैः पुनश्च एवंभूतैः - 'नाणाविह पंचवष्णेहि’ नानाविधैः नानाजातीयैः पञ्चवर्णैः कृष्णनीलादि पञ्चवर्णैः वर्णः मणिभिश्च उपशोभितः स एकोरुरु द्वीपस्यान्तो बहुसमरमणीयो भूमिभाग इति । एवं सयणिज्जे भाणियन्दे' एवं शयनीय सादृश्यमपि भणितव्यम्, तथाहि - 'आईण - गरूपवर णवणीय तूलफासमउए सच्चरयणामर अच्छे सहे घट्टे मट्ठे णीरए निम्नले गिष्पके निक्कंकडच्छाए सप्पभे सस्सिरीए स उज्जोए पासादीए दरिस - णिज्जे अमिरुवे पडिलवे' छाया-आजिनकरुतवूर नवनीत तूळस्पर्शमृदुकः सर्वरत्नमयः अच्छः श्लक्ष्णः घृष्टः सृष्टः नीरजाः निर्मल: निष्पङ्कः निष्कङ्कटच्छायः सममः सश्रीकः सोदूधोतः प्रासादीयः दर्शनीयः अभिरूपः प्रतिरूपः । एतादृशो भूमिभागः प्रज्ञप्तः । 'जाव पुढविसिलापहगंसि' इति, अत्र यावच्छेदेन पृथियौशिलापट्टकवर्णनं ग्राह्यम् । तथाहि - ' तत्थ णं महं एक्के पुढविलाप पण्णत्तेचे विक्खमायाम उस्सेह सुप्पमाणे किण्हे अंजणघण किवाण कुवलय हलहर कोसेज्जाग्गकेस कज्जलंगी खंजण सिंगभेदरिद्वयजंबू फळ असणगसणबंधन नीलुप्पलनिगर अयसि कुसुमप्यासे मरनयमसारकलित्ते यणकासवणे णघणे अट्टसिरे आयंसत छोदसे ईहामिय उसभ तुरगणरमगरविहगत्राक गरिन्नररुरुसर भचमरकुंजरवणलय पडमलयभत्तिचित्त आईणगरूप बूर णवणीय तूलफरिसे सीहासणसंठिए पासाईए दरिसणिज्जे अभिवे परूिये, सि वारिसगति' इति संग्राह्यम् एषां व्याख्या - - औपपातिक सूत्रस्य पीयूतवर्षिणी टीकायां दशमे सूत्रे द्रष्टव्या, तस्मिन् तादृशे 'पुढचीसिला पहगंसि' पृथिवीशिळा शोभा वाले चमकती हुई उज्जवल फिरणों वाले प्रकाश वाले ऐसे नाना प्रकार के पांच वर्णों वाले तृणों और मणियों से उपशोभित होती रहती है 'एवं सघणिज्जे भाणिपव्वे' उसकी शय्या का चिक नाई के विषय में भी वर्णन कर लेना चाहिये-जैसे आजिनक- चिकना चर्म रुई बूर मक्खन तूल जैसे स्पर्श वाली कोमल तथा रत्नमय स्वच्छ चिकना घृष्ट सृष्ट निर्मल इत्यादि विशेषण वाला भूमि भाग है । 'पुढचीलिलापट्टगंसि' पृथिवी शिलापट्ट भी है सो इसका भी वर्णन अने भशियेोधी, शोलायमान थती रहे छे- 'एव' स्यणिज्जे भाणियव्वे' तेना શૈય્યાની ચિકણાઈના સબંધમાં પણ વર્ણન કરી લેવુ' જોઇએ જેમકે આ જીનક–ચિકણું ચામડું રૂ, મૂર, માખણુ, અને તૂલના સ્પ જેવા કામલ તથા રત્નમય સ્વચ્છ, ચિકણા ઘષ્ટ સૃષ્ટ અને નિર્દેલ વિગેરે વિશેષોાવાળા भूमिला छे. 'पुढवी विलापसँग सि' पृथ्वी शिलापट्ट है, तो तेनु वान Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५११ इमैचोत्रिका ठीका प्र.३ उ.३ ट.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् 1 पट्टके 'तस्थ णं' तत्र पृथिवीशिलापट्ट के खलु 'बहवे एगोख्य दीवया' वहव एक रूकद्वीपकाः 'मनुस्सा मणुस्सीओ य' हनुष्याच मानुष्यय 'आसयंति - जाव विहरंति' यत्र यावत्पदेन - 'सरांति चिह्नंति निसीयंति तु ति संति रमंति छलंति कीलति मोहंति पुरा पोराणं सुचिण्गाणं सुपरिक्कं नाणं सुमाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्ति दिसेसे पच्चशुन्मवमाणा' इति संग्राम् छायाशेरते तिष्ठन्ति निषीदन्ति त्वग्वर्त्तयन्ति सन्ति रमन्ते ललन्ति atta मुद्यन्ति मोहयन्ति-पुरा पौराणिकानां सुषीणां सुपरिक्रान्तानां शुभानां कृतानां कर्मणां कल्याणं फलवृत्तिविशेषं प्रत्यनुभवन्तः, इति संग्राह्यम् । एषामर्थः स्पष्ट एव । 'एगोरुप दीवेणं दीवे' एकोरुकद्वीपे खल द्वीपे 'तत्थ देते तर्हि तर्हि वह वे ' तत्र तत्र देशे तत्र तत्र देशावयवे बहवोऽने के 'उद्दालका कोद्दालका' 'उद्दालकाः वृक्षविशेषाः कोद्दालका अपि वृक्षविशेषाः 'कतमाला जयमाला' कृतमाला : नतमाला नामका वृक्षविशेषाः, एक्स् 'णमाला सिंगमाला संखमाला देवमालासे मालगा' नर्तमालाः शृङ्गमाळा : शंखमाळाः दन्दमाला शैलमाळा: 'णाम औपपातिक सूत्र से कर लेना चाहिये 'तत्थ ण' उस शिलापट्टक पर 'बहवे एगोरुय दीषया मणुहसा मणुस्तीओ आसयति जाव विहरंति' अनेक एकोरुक द्वीपवासी स्त्री पुरुष उठसे बैठते हैं एवं लेटते हैं आराम करते हैं और पूर्वकृत शुभ कर्मों के फलका अनुभव करते हैं 'ए दीवेणं' दीवे तत्थ तस्थ देते तर्हि २ बहवे उद्दालका, कोदालका कतमाला नरमाला बहुमाला सिंगमाला, संखमाला दंतनाला, सेलमालगा णाम दुरगणा पण्णत्सा समणाउसो' हे श्रमणायुष्मन् उस एकोरुक नामके द्वीप में जगह २ पर अनेक उद्दालक नामके वृक्ष, अनेक कोद्दालक नामके वृक्ष, अनेक कृतमाल नाम के वृक्ष, अनेक नसमाल नाम के वृक्ष, अनेक श्रृङ्गमाल नामके वृक्ष अनेक शंखपाल नाम के वृक्ष, पालु मोपपाति सूत्रमां प्रभासमल बेवु' 'तत्थ णं' ते शिसायट्टम्यर 'बहवे एगोरुय दीवया मणुस्सा मणुस्खीओ आसयति जाव विहरति मे । ३४ ઢીપમા રહેવાવાળા અનેક મનુષ્યે અને તેની અચેા ઉઠતી બેસતી રહે છે. તેમજ સૂતી રહે છે. આરામ કરે છે. અને પહેલાં કરેલા શુભકર્માના અનુભવ रे छे. 'एगे रूयदीवेण दीवे तत्थ तस्थ देखे तहि तहि बहवे उद्दालका कोद्दालका कतमाला, नतमाला, णट्टमाला, सिंगमाला सखमाला, दांतमाला, सेलमालगो, णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' से श्रमायुष्मन् ! श्रमो ते थे ।३४ नामना द्वीपभां સ્થળે સ્થળે આવેલ અનેક ઉદ્દાલક નામના વૃક્ષેા, અનેક કાર્દાલક નામના વૃક્ષેા, અનેક કૃતમાલ નામના વૃક્ષ, અનેક નત માલ નામના વૃક્ષ, અનેક ન માલ નામના વૃક્ષેા, અનેક શગમાલ નામના વૃક્ષ, અનેક શખમાલ નામના વૃક્ષે Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोवाभिगम दुमगणा पन्नत्ता समाणाउसो !' एतनामका द्रुमगणाः वृक्षसमूहाः प्रज्ञप्ता कथितां हे श्रमण ! आयुष्मन् | इथंभूता एते उमगणाः तत्राह-'कुस' इत्यादि, कुसवि. कुमविमुद्धरुक्खमूला' कुशविकुशविशुद्ध मूलाः तत्र कुशाः-दर्भा, विकुशा: वल्कलादयस्तृणविशेषास्तै विशुद्ध रहितं घृक्षमूलं तदधोभागो येषां ते तथा ___ 'मूलमंतो कंदमंतो जाच बोयमंतो' ते वृक्षाः मूलवन्तः कन्दवन्तः स्कन्धवन्तः त्वग्वन्तः शाखावन्तः प्रवालवन्तः पत्रवन्तः पुष्पवन्तः फलवन्तो वीजवन्तः, 'पत्तेहि य पुप्फेहि य अच्छण्ण परिच्छण्णा' पत्रैश्च पुष्पैश्वाच्छन्नमतिच्छन्ना:-पत्रपुष्पैः 'आच्छन्न परिच्छन्ना' सर्वतः आच्छादिता पुत्रपुष्पाकी इत्यर्थः, "सिरीए अतीव २ उपसोभेमाणा उपसोभेमाणा चिट्ठति' श्रिया-शोभया अतीवातीर-अतिशयेन उपशोभमाना उपशोभमानास्तिष्ठन्ति ते वृक्षा इति, 'एगोरुष बीवेणे दीवे अनेक दन्तमाल नामके वृक्ष, और अनेक शैलमाल नामके वृक्ष है इन वृक्षों का मूल भाग 'कुलविकुस विसुद्ध हक्खमूला' कुश-और कांश के सद्भाव से सर्वथा रहित है अर्थात् इन वृक्षों के नीचे न घास है और न काश है दर्भ जातिका जो घास है उनका नाम कुश है तथा जो काश जाति का घाख होता है उसका नाम विकुश है ये सय वृक्ष 'मूलमतो, कंदवतो जाड बीयमंतो' प्रशस्त मूल वाले हैं, प्रशस्त कन्द वाले है, प्रशस्त स्कन्ध वाला है प्रशस्त छाल वाले प्रशस्त शाखाओं वाले हैं प्रशस्त प्रवालों-कोपलों-वाले है प्रशस्त पत्तों वाले हैं, प्रश स्त पुष्पों वाले हैं सुन्दर फलों वाले हैं, और सुन्दर घोजों वाले है। 'पत्ते हिय पुप्फेहिय, अच्छपण परिच्छण्णा' ये वृक्ष निरन्तर पत्रों और पुष्पों से लदे रहते हैं 'सिरीए अतीव २, उवलोभेमाणा २, चिति' અનેક દંતમાલ નામના વૃક્ષો અને અનેક શિવમાલ નામના વૃક્ષે છે. આ વૃક્ષેને भूभा 'कुस विकुस विसुद्धरुक्खमूला' पुश-हर्म गने सना समावया सर्वथा રહિત છે. અર્થાત્ આ વૃક્ષની નીચે ઘાસ કે ઠાસ લેતા નથી. દર્ભની જાતનું જે ઘાસ હોય તેને કુશ કહે છે અને કાસની જાતનું જે ઘાસ થાય છે તેને विश ४. छे. मा आधा 'मलमतो, कदमतो, आव बीयमता' प्रशस्त મૂળવાળા હોય છે. પ્રશસ્ત કંદવાળા હોય છે. પ્રશસ્ત સ્કધવાળા હોય છે. પ્રશસ્ત છાલ વાળા હોય છે તેમજ પ્રશસ્ત શાખાઓ વાળા હોય છે. પ્રશસ્ત પ્રવાલે. કૃપળ વાળા હોય છે પ્રશસ્ત પાનાએ વાળા હોય છે પ્રશસ્તવાળા હોય છે. સુંદર ફલેવાળા હોય છે. અને સુંદર બીજવાળા हाय छे. 'पत्तेहिय पुप्फेहिय. अच्छण्ण परिच्छण्णा' मा वृक्ष निर२ पत्रा पाथी बहाया हे छे, 'सिरीए अतीव अतीव उपसोभेमाणा उवसोभेमाणा Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३ ५.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५१३ तत्य बहवे रुक्खा' एको रूकद्वीपे खलु द्वीपे तत्र वहयो वृक्षाः 'हेरुयालवणा' हेरुसाळवना:-हेरुतालनामकवृक्षाः, तथा भेरुयालवणा' भेरुतालवना:-भेरुतालनाम: कक्षाः, मेंरुतालवनाः-मेरुवालनामवृक्षाः, 'सेरुयालवणा' सेरुतालगनाः सेरु. सालनामकक्षाः 'सालवणा' शाक्षाः 'सरळवणा' सरलवृक्षाः, 'सत्तवण्णवणा' सप्तपर्णवृक्षाः 'पुगफलियणा' पूगफलीवृक्षाः, 'खज्जूरिवणा' खरवृक्षा, 'नारिएरिवणा' नारिकेलघृक्षाः एतेषां वृक्षविशेषाणां वनानि-समुदाया. स्तत्र सन्तीति । कथं भूना एने वृक्षविशेषातमाह-'कुप्त' इत्यादि, 'कुस विकुस जाव चिट्ठीति' कुश विकुश विशुद्ध वृक्षम्ला मूलवन्तः कन्दवन्तः यावदबीजवन्त: पत्रः पुष्पैश्च आच्छन्न प्रतिच्छन्न श्रिया अतीवानीव उपशोभमानास्तिष्ठन्ति इति । अतएव इनकी सुन्दरता अत्यन्त मनको लुभानेवानी पनी रहती है 'एगोरुपदीवे णं दीवे तत्थ बह रुक्खा हेस्यालक्षणा, भेरुचालवणा, मेरुयालवणा, सेरुपालवणा, सालवणा, लरलवणा, स्तरपणदणा' उम एकोहक नाम के द्वीप में जगह २. अनेक वृक्ष तो है ही साथ में हेरुताल के वन भी है, भेरुताल के बन मेरुनाल के बन हैं, सेरुनाल के वन सालवृक्ष के वन हैं सरलवृक्ष के वन हैं सप्तपर्णवृक्ष के वन हैं 'पूयफलिवणा' पूगफल के-सुपारी के चल है 'खज्जूनिवणा' खजूर के वन हैं और 'नारिएरिवणा' नारिकेल के धन हैं ये सब बन 'कुल चिकुसरुक्ख, मृला' वृक्षों के नीचे के भागकुश और काशले रूबंधा रहित हैं। इन पनों के जो वृक्ष है वे भी सम्म प्रशस्त स्मृल चाहे हैं, प्रशस्तकन्द वाले हैं, याशत् प्रशस्त धीज वाले हैं। लथा-पत्रों और पुष्पों से ये सब सवेदा व्याप्त है। अत एव मे अपनी सुखद सुषत्र शोमा से विशेष चिट्टति' तथा तन सोहय मत्यात भनन मावना हाय छे. 'एगोस्यदावण दीवे तत्थ बह वे रुक्खा हेरुयालवणो, भेरुयालवणा, मेरुयालवणा, सेरुयालवणा, सालवणा, सरलवणा, सत्तवण्णवणा' मा ३४ नोभना द्वीपमा स्थणे स्थणे. અનેક વૃક્ષેતો છે જ તેની સાથે હેરૂતાલના વન પણ છે. ભેરૂતલના વન પણ છે. મેરૂતાલના વન પણ છે. સેરતાલના વન પણ છે. સાલ વૃક્ષના વન છે. सरस वृक्षाने। वन छ. सीप नामना वृक्षाना वा छे. 'पूयफलिवणा' भी ३ ता सापाशना पृशाना बन छ, 'खज्जूरिवणा' भरीवृक्षाना ना छे. 'नारिएरिवणा' नाशयेसना पन छे. मा अधापन। 'कुस विकुसरुक्ख मूला' વૃક્ષની નીચેના ભાગમાં કશ અને કાશ વિનાના હોય છે. આ વનમાં જે ક્ષા છે, તે બધાજ પ્રશસ્ત મૂળવાળા છે, પ્રશસ્ત સ્કંદવાળા છે. યાવત્ પ્રશરત બીજ વાળા છે. તથા આ બધા વૃક્ષે પત્ર અને પુષ્પોથી હંમેશાં યુક્ત રહે છે. તેથી જ તે પિતાની સુખકર સુષમાથી વિશેષ પ્રમાણુમાં સુહાવના जी. ६५ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम 'एगोरुयदीवेणं तत्थ २ बहवे' एकोषकद्वीपे खलु तत्र २ बहवः 'तिळयालवया नग्गोधा जाब रायरुक्खा शंदिरुक्खा' तिलकालबकान्यग्रोधा-यावद् राजवृक्षाः तिलकादयो नन्दिरक्षान्ता वृक्षविशेषाः सन्ति, कथं-भूतारते वृक्षास्तिककादयस्तपाह-'कुस' इत्यादि, 'कुपविकुप्स-वि० जाव चिट्ठति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्षमूला मूल पन्तः कन्दवन्तो यावद बीजवन्तः पौ. पुष्पैराच्छन्न प्रतिच्छन्नाः श्रियाऽ. तीवातीव शोभमानास्तिष्ठन्तीति । 'एगोरुपदीवेणं तस्य २ वहओ पउमलयाको जाव सामलयाओ' एकोहरुद्वीपे खल्लू सत्र २ वहव्योऽनेकमकाराः पमळता यावत् नागलवा अशोकलताः चष्पकळताः चूतलताः वनलताः वासन्तिकालता अतिमुक्तकळता कुन्दलता: श्यामलताः सन्ति ताश्च पमलताधा: णिच्चं कुसु. मियाओ' नित्यं कुसुमिताः मरिताः स्तवकिताः पल्लविताः गुलिमताः पुरुषमालावनद्धाः 'एवं लया रणो जहा उनवाईए जाव-पडिरूवायो' एवम्-उक्तपकारेण लतावर्णनं कर्तव्यम् यशोषपातिक सूत्रे कृतम् ता लता प्रासादीयाः दर्शनीया अधिक रूप में सुझावने बने रहते हैं । 'एगोरुय दीवे णं तत्थ यहूओ पउपलयाओ, जाच सामलयाओ णिचं कुसुनियाओं' उस एगोरुक नालके द्वीप में अनेक प्रकार की अनेक लताएं भी है-जैसे-पालताएं यावत् यहाँ यावत् शब्द से नाग लताओं का, अशोकलताएं तथा चम्पकलता आमलना बनलता वासन्तीलता अतिमुक्तकलता कुन्दलता श्यामलसा इनलताओं का ग्रहण हुश्रा है। ये ललाएं नित्य कुसुमित स्तबकित, पल्लविन, गुल्मित और पुष्पमालाओं से व्यास रहा करती हैं। 'एवं लतापनओ जहा उवयाईए जाव पडिहवाओ' इस प्रकार से यहाँ लगाओं का वर्णन कर लेना चाहिये जैसा कि सोपपातिक सूत्र में इन लताओं का वर्णन किया गया है। ये लताएं प्रासादीए हैं, दर्शनीय हैं अभिरूप मन्या २४ छ. 'एगोरुयदीवेणं तत्थ बहूओ परमलयाओं, जाव सामलयाजो णिच्छ कुसुमियाओ' ते ३४ नामना दीयमा भने प्र.१२नी मने सताये। વેલે પણ હોય છે. જેમકે પદ્મલતાઓ, યાવતુ અહિયાં યાવત શબ્દથી નાગ લતાઓ, અશકતતાઓ, ચમ્પકલતાઓ, આમલતાએ, વનલતાઓ, વાસન્તી લતાએ, અતિમુક્તકલતાઓ, કુંદલતાઓ, અને શ્યામલતાઓ આ બધી લતાએ પ્રહણ કરાઈ છે. આ બધી લતાઓ નિત્ય કુસુમિત, સ્તભકિત, પલવિત, ગુહિંમત, अने पुण्याथी सहा व्यास २ छे. 'एवं लता वण्णओ जहा उसवाइए जाव पडिरूवाओ' मा शत महियां सताया वन समछ यु. मोत: સૂત્રમાં જે પ્રમાણે આ લતાઓનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે તે પ્રમાણે સમજી લેવું આ બધી લતાએ પ્રાસાદીય છે, દર્શનીય છે, અભિરૂપ અને Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ७.३ .३४ एकोषकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५१५ अभिरूपाः पतिरूपा इति। 'एमोल्य दीवेणं दीवे तत्थर" एकोषकद्वीपे खल्ल द्वीपे तत्र 'बहवे सेरिया गुम्मा जाच महाजाइगुरुमा' बहवः सेरिकागुलमा नवमालिकागुल्मा बन्धूजीवकगुल्माः यदीयपुष्पाणि मध्यान्हे विकसन्ति, अनोदगुल्माः बीजकगुल्मा बाणगुल्मा: कुञ्जगुल्मा: सिन्धुवारगुल्मा: जातीगुल्मा सुद्रगुल्माः यथिकागुल्मा: मल्लिकागुल्माः वासन्तिकगुलमा वस्तुलगुल्माः सेवालगुल्माः आगस्त्यगुल्माः चम्मकगुल्माः नवनीतिकागुल्माः कुन्दगुल्मा महाजातिगुलाः गुल्मानाम इस्व स्कन्ध बहुकाण्ड पत्रपुष्प फलोपेताः, एतेषां मध्ये प्रसिद्धाः केचित् देशविशेषतोवगन्तव्या। ते गुल्मा महामेघनिकुरम्यभूनाः 'तेणं गुरुमा' ते खलु गुल्माः 'दसद्धवणं कुसुमं कुखुमंति' दशार्द्धवर्णम्-पञ्चर्ण कुसुमं-पुष्पं कुसुमयन्ति-समु. एवं प्रतिरूप हैं। 'एगोरुय दीवे णं दीके तत्थ २, बहवे सेरिया गुम्मा, जाव महाजालि गुरुमा उल्ल एकोहक नाम के द्वीप में जगह जगह अनेक सेरिका गुल्म (शुच्छे) नमालिका गुल्म जिनके पुष्प मध्याह्न में खिलते हैं ऐसे बन्धू जीवक गुलर अनोवलम, बीजक गुल्म, वाणगुल्म, कुन्ज गुल्म सिन्दुवार गुल्म, जाती गुलम, मुद्गर गुल्म, युधिशा गुल्म, वासस्तिका गुल्म, बस्तुल गुल्म, शेवाल गुल्म, अगस्त्य गुल्म, चम्पकगुल्न, नवनीतिका गुल्म, इन्द गुल्म एवं महाजाति गुल्म, है जिनका स्वान्ध तो छोटा होता है परन्तु जो बहुत काण्डों से-शाखाओं से-युक्त रहते हैं पत्र पुष्प और फलों से सदा लदे रहते हैं ऐसे वृक्षों का नाम गुल्म है। इनमें कितने तो प्रसिद्ध है, और शिलनेक वहां २, के देश विशेष ले जान लेना चाहिये। ये शुल्म अत्यन्त सघन होते हैं अतः ये ऐसे मालूम पड़ते हैं खिजैसे-महामेयों का समूह हो 'ते प्रति३५ है. एगोरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ वहवे सेरिया गुम्मा, जाव महा જાતિનુ' આ એકેરૂ નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અનેક સેરિકા ગુમ નવમાલિકા ગુલમે, કે જેના પુષ્પ મધ્યાહૂ–બપોરે ખીલે છે, એવા બંધુ જીવકના પુછે, અનેવગુમ, બીજકગુલ્મ, બાણગુદમ, કુંજગુલ્મ, સિંદુવાર ગમ, જતીગુલમ, મુદ્રગુમ, યૂથિકાશ્મ, લિકા ગુલ્મ, વ.સંતીકા ગુમ વસ્તુલગુલ્મ, શેવાલગુમ, અગરત્યગુલમ, ચંપકગુલમ, નવનીતિકા ગુમ, કંદગુમ અને મહા જાતિગુમ છે. જેનું સ્કંધ થડ નાનું હોય પરંતુ જેની શાખાઓ ડાળે ઘણી ફેલાએલી હેય પત્ર, પુષ્પ અને ફળોથી જે સદા લદાયેલ રહે એવા વૃક્ષને ગુલમ કહે છે. આમાં કેટલાક તે પ્રસિદ્ધ છે, અને કેટલાક ત્યાંના પિતા પોતાના દેશ વિશેષશી જાણી લેવા આ ગુમે ઘણાજ ગાઢ હોય છે. તેથી તે એવા भाय रेभ. महामेघना सहाय, 'तेणगुम्मा दसवण्णकुसुम कुसुमति' Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमन स्पादयन्ति 'विधूयग्गसाहा' विधूताप्रशाखाः 'जेण वायविधूयमसाला' येन वातविधूतानशाखाः येन वातविधूतानशाखाः तेन वातविधूतनेन 'एगोख्य दीवस्स बहुसमरमणिज्नं भूमिभाग' एकोहक द्वीपल्य बहुसमरमणीय भूमिभाग 'मुक्कपुष्फ पुंजोवयार कालयं करेंति' मुक्तपुष्प पुञ्जोएचारकलितं कुर्वन्ति वातविधताः -वायुकम्पिताः या अग्रशाखास्ताभिर्मुक्तो यः पुष्पपुञ्जः-कुसुम समुदायः स एवोपचार:-प्रकारः तेन कलितं युक्तं कुवन्ति, इति । 'गोरुयदीवेणं तत्थ तत्य बहूमो वणराईओ' पण्णत्ताओ' एकोरूकद्वीपे खल्ल द्वीपे तत्र तत्र देशे बहन्यो। ऽनेक प्रकारका वनराजयः प्रज्ञप्ता:-कथिताः। 'तागो णं वणराईओ किण्हायो किण्होभासा जाब रम्मा भो' वाः खल बनराजयः कृष्णा कृष्णावभासाः यावत् -नीला नीलावभासावरम्याः 'महामेहणिकुरबभृयाभो' महामेघनिकुरम्बभूता::गुम्मा दसद्ध षण्ण कुसुमं कुसुमंति' ये गुल्म पांचों वर्णों वाले कुसुमों को उत्पन्न करते हैं। 'विधूपरगलाहा-जेण वाय विधूयग्णसाला' इनकी शाखाएं अप्रभाग में पवन के झोकों मह सदा हिलती रहती हैं। अतः ये 'एगोरुव दीवस्स बहु समरमणिज भूमिभागं मुक्कपुफपुंजोदयारकलियं करेंति' एकोरुक द्वीप के बहु समरमणीय भूमि भाग को मानों पुष्प पुंजों से ही ढक रहे हैं-ऐसा प्रतीत होता है तात्पर्य ऐला है कि गुल्मों की अनशाखाएं जब वायु के झकोतों से प्रकम्पित होती हैं तो उनसे अनेक पुष्प जमीन पर नीचे गिरते हैं-अतः ऐसा प्रतीत होता है कि मानो ये उस एकोरुक द्वीप के बहु समरमणीय भूमि भाग पर पुष्पों की वर्षा कर रहे हैं । 'एगोरुघदीवेण तत्थ २, बहनो वणराईओ पण्ण. साओ' एकोहक द्वीप में अनेक स्थानों पर अनेक प्रकार की वनराजियां भी हैं 'ताओ णं वणराईओ किण्हाओ शिहोमासाओ जाव रम्माओ भी शुमा पांय वा पुयान अपन्न ४२ छ. 'विधूवगसाहा जेण वाय विधूवग्गसाला' तना पाया जायेपवनना ओ४थी सही सती २७ छे. तेथी त 'एगोरुय दीवस्त्र बहुसमरमाणिज्जं भूमिभाग मुक्कपुःफजावयार कलियं करेंति' ३४ दीपना भई समरमणीय भूभिलागने माना पुण्याना પુજેથીજ ઢાંકી દે છે. એમ જણાય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે ગુલમોની અગ્ર શાખાઓ જ્યારે પવનના ઝપાટાથી કંપાયમાન થાય છે. ત્યારે તેમાંથી અનેકપુપ જમીન પર નીચે પડે છે. તેનાથી એવું જણાય છે કે જાણે આ એકેક દ્વીપના બહુ સમરમણીય ભૂમિભાગ પર પુપને વરસાદ परसावी २३॥ छे. 'एगोरुय दीवेण तत्थ तत्थ बहूओ वणराइओ पण्णत्ताओ' ३. द्वीपमा भने स्थान५२ अना२नी सु४२ वनस्पतिया पर छ. 'ताओ गं वणराईओ किण्हाओ किण्हो भासाभो जाव रम्माओ महामेघनिकुर बभूयाओ' Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५५७ नवजलधर वदतिशयित पाम वर्णाः 'जाब महतीं गंधद्वाणि यंती यो पासादीयायो' यावन्महतीं गन्धघ्राणी मुश्चन्तः त्यजन्तः पालादीयाः-दर्शनीयाः अभिरूपाः, इति ।४। ___ 'एगोरुष दीवे तत्थ २ बहवे इत्तंमा णाम दुमगणा इण्यासा-सरणाउसो' एकोरुकद्वीपे तत्र तत्र देशे बहोऽने के मथानानाम द्रुमगणाः पक्षप्ता:-कथिताः श्रमणा-युष्मन् ! तत्र मत्तो-मदः प्रमोदरतरूपाङ्गं कारणं येपु से मत्ताङ्गा 'जहा से चंदप्पभमणिसिलागवरसीधुपयरवारुगी सुनाय पत्त-पुष्क-फल-चोयणिमहामेघनिकुरंषभूयाओं ये वन राजियॉ अत्यन्त सघन होने से कहीं २ काली२, मेघ जैसी दिखती हैं। इनमें से जो प्रकाश पुंज निकलता है बह भी काला ही प्रतीत होता हैं यावत थे वनराजियां कहीं २, नीली भी और नीलावभास-नीली कान्ति बाली प्रतीत होती है फिर भी ये घडी अच्छी देखने में लगती है इन्हें देखने पर देखने वाले तो यही समझते हैं कि मानों ये बडे २, मेघों की घटाएं ही यहां एकत्रित हुई है। 'जाव महती गंधद्धाणि सुयंतीभो पालादीयाओ' इन धनहाजियों के भीतर से जो गन्ध की राशि निकलती है वह व्राणेन्द्रिय को बिलकुल सराबोर कर देती है उसे भर देती है और तृप्त कर देती है ये सबही राजियां पंक्तियां प्रासादीय हैं दर्शनीय हैं अभिरूप और प्रतिरूप है. _ 'एगोरुय दीये तस्थ २, बहवे मत्तंगा णाम दृमगणा पण्णत्ता लम. जाउसो!' एकोहीप शत्र तत्र जहाँ तहाँ स्थानों में अनेक मत्तागर नाम के दुषमण हैं, हे श्रमण आयुष्मन् ! के मस-सद अर्थात् प्रमोद के कारण भूत होने से उनका नाम प्रसाङ्ग ऐसा पड़ा है। वे किस प्रकार આ વનરાજી અત્યંત ગાઢ હોવાથી કયાંક ક્યાંક કાળી કાળી મેઘની ઘટા જેવી દેખાય છે. તેમાંથી જે પ્રકાશ પુંજ નીકળે છે, તે પણ કાળેજ જણાય છે. યાવતુ આ વનરાજી બે કયાંક કયાંક નીલ વર્ણની પણ હોય છે. તેથી નીલાવભાસવાળી જણાય છે. તો પણ એ દેખવામાં ઘણી જ સુંદર લાગે છે. તેને જેનારા તે તેને જોતાં એવું જ સમજે છે કે જાણે આ મોટામોટા મેઘ-વાદળાઓની घटाया। महियां येडी थये। छ 'ज व महती गधद्धाणि मुयतीओ पासादीयाओ આ વનરાજીની અંદરથી જે ગંધરાશી નીકળે છે. તે ધ્રાણેન્દ્રિયને બિલકુલ સરાબર-તર કરી દે છે. અર્થાત તેને ભરી દે છે. અને તૃપ્ત કરી દે છે. આ બધીજ રાજી પ્રાસદીય છે. દર્શનીય છે. અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. ____'एगोरुयदीवेण तत्थ तत्थ बहवे मत्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' એકેડરૂક દ્વીપમાં જ્યાં ત્યાં અનેક સ્થળે મત્તાંગોના મગણો છે. હે શ્રમણ આયુશ્મન્ તે મત્ત-મદ અર્થાત્ પ્રમોદના કારણું રૂપ હેવાથી તેનું નામ મત્તાંગ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५.८ जीवामिगमत्र ज्जाससार-वहुदव्यजुत्तिसंसारकाळसंधियासवा' यथा ते चन्द्रप्रमणिशलाका सीधुपबरवारुणीगुजानपत्रपुष्प-फल चोयनिर्याससार-बहुव्ययुक्ति संभारकाल सन्धितासवाः, यथा चन्द्रपभादयो रसविशेषा बहुप्रकारा: तत्र-चन्द्रः-कपः चन्द्रमा वा तस्येव प्रभा-आकारो यस्थाः सा चन्द्रप्रभा, मणिशलाकेव-मणिमरकतादि स्तस्याः शलाका मणिशलामा वर्ण सदृशा रसविशेषाः सीधुपक्वेझु(सं-सीधु पारा च सा वारुणी-पण्डदूर्श-दूर्वाजातीयो वनस्पतिविशेषः पताहां, पुनश्च-सुजाताना सुपरिपाकावस्था माप्तानार पत्राणां पुष्पाणां फलानो चोयानां गन्धद्रव्याणां च निर्यासस्य सारः बहूनां द्रव्याणां युक्तः-संयोजनस्य के होते है इम्प पर उसके गुण और रस्म की सदृशता दृष्टान्त द्वारा कहते हैं 'जहा ले' इत्यादि, 'जहा से चंदप्पामणि लिलागनरसीधुप. वरचाहणीलुजायपत्तपुप्फफलचोयनिजास सारघहुदाजुत्ति संसारकाल संघियासा' चन्द्र मालक्षपूर का तथा चन्द्रमा का है उनका रस चन्द्रममा अर्थात् पूर अथवा पसन्द्र के जैशा वर्ण वाला होता है, तथा मणिशलाका-अर्थात् मणि मरफत आदि मणि की शलाका-सली गाढा होने से लली दार और मणि के वर्ण वाला रस होता है तथा वर सीधु घर श्रेष्ठ लोधु-सीधु का अर्थ है पकाये गये ईक्षु का रस वह जैसा होता है. तथा मधर वाहणी अर्थात् श्रेष्ठ-उत्तम वारूणी, वारुणी नाम गण्ड दीका है एक इक्षकी जाति है लक्षा जैसा रस होता है । तथा सुजात-अर्थात् परिपाक अवस्था को प्राप्त-पके हुए, यहा निर्यात भार पदका पत्र पुष्प आदि सबके साथ संबध होता है એવુ પડેલ છે તે કેવા પ્રકારના હોય છે? તે પ્રશ્નના ઉત્તર રૂપે તેના ગુણ मन तनी समानता दृष्टांत द्वारा छे. 'जहा से' त्यादि। 'जहा से चदप्पभमणिसिलागवरसीघुपवर वारुणीसुजाय पत्तपुप्फालचोय निज्जाससारबहु दव्वजुत्तिस भारकालख धियासवा' यद्रनाम ४५२ मन यद्रभानु છે. તેને રસ ચંદ્રપ્રભા અથવા કપૂર અથવા ચંદ્રના જે વર્ણવાળો હોય છે તથા મશિલાકા અર્થાત્ મણિ સરકત વિગેરે મણિ વિગેરેની શલાક – સળી, જાડી હેવાથી સળી જે, મણીના વણ જે, રસ હોય છે તથા વરસિંધુવર શ્રેષ્ઠ સીધુ અર્થાત્ પકાવેલ સેલડીને રસ તેના જે હેય છે તથા પ્રવર વારૂણી અર્થાત્ શ્રેષ્ઠ ઉત્તમ વારૂણું વારૂણી ગંડદુને કહે છે તે સેલડીની એક જાત છે. તેના જે રસ હોય છે. તથા સુજાત અર્થાત પરિપાક અવસ્થાને પ્રાપ્ત થયેલ એટલે કે પાકા થયેલ. અહિયાં નિર્યાસ સાર એ પદ પત્ર, પુષ્ય વિગેરે તમામની સાથે લગાવવામાં આવે છે. તેથી પાકેલા Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५१९ संमारैः प्राचुर्यैः कालसन्धिताः स्वस्वेचिने-काले संयोनिता थे आसवाः अपक्वेक्षुरसा ते तथाविधाः, 'महुमेरगरिहामदुद्ध जाती पसलमेललग सत्ताउखजूर मुदियासारका दिसायण सुपक्वखोयरसहरसुराधणारसगंध फरिसजुत्तबलबीरिय परिणामा' मधुमैरेय करिष्टाम दुग्धजाति मसन येल्लष्कशतायुः खजूर मृद्रीकासार कापिशायन सुपक्षोदरसवरसुराः तथा-अधु-पुष्परस:, मेरेयं धातकीपुष्पगुडधानाऽम्बुमिः संयोजितो रस एव रिष्टं-फेनिलं तद्वर्णामाः तत्सशी, दुग्धनाती: सदृशी, प्रसन्नीरसविशेषः, मेल्लकोऽपि रसभेदमिन्न, शतायु:-आस्वादतो दुग्ध जिससे पके हुए पत्तों का पुष्पोंक्षा फलों का और-गन्ध द्रव्यों का जो निर्यास हार अर्थात् सारभूत रस ऐसे जो ये रल होते हैं इस पसार के ऊंचे ऊंचे रस द्रव्यों के विश्रणकी प्रचुरता वाले तथा अपने अपने उचित काल में संयोजित करके बनाये हुए जो आलम-संमिश्रित रस जैसा मधुर और लुगन्धित होता है वैले ले मन्तांग द्रुमगण है। फिर कैसे हैं-'बहुमेरगरिठ्ठाभदुद्ध जाई पलन्न मेल्लगसताउखज्जूर मुहियासारकाविलायणखोथरतवरमुख जले-मधु-पुष्प रस, मैरेयगुडधानी (भुने हुए धान) और पानी ले संमिलित झर धात की पुष्पों को पक्षाने पर जो रस होता है वह मेरेय कहलाता है, रिष्टाभा रिष्ट फेन वाले पदार्थ उनका जो श्वत्तवर्ण होता है उस के जैसी आमापाला रस विशेष दुग्ध जाति अर्थात् दृध के स्वाद जैश्ते स्वाद वाले रस दुग्ध जाति रस कहलाता है वह रस विशेष, तथा स-जो रस स्वच्छ स्फटिक जैसा होता है जो मन को प्रसन्न करने वाला होने से પાનડાઓને, પાકેલા પુષ્પને પાકેલા ફળ અને ગંધ દ્રવ્યને જે નિર્યા સસાર અર્થાત્ સારભૂત જે રસ હોય છે આવા પ્રકારના ઉંચા ઉંચા રસ દ્રના સંમિશ્રણની પ્રચુરતાવાળા તથા પિત પિતાના ઉચિત કાળમાં સંચે જીત કરીને બનાવેલા જે આસવ સંમિશ્રિત મધુર રસ વિશેષ રસ જે મીઠે અને સુંગધવાળ હોય છે, એવા તે મત્તાંગદ્ગમ ગણો છે. વળી તે કેવા छे १ तेनुं वन ४२i छ , 'महुमेरगरिद्वाभदुद्धजाई पसन्न मेल्लग मताज खज्जूर मुहिया सारकाविसायणखोयरसवरसुग' म मधु ०५२स, મરેય ગોળ ધાણ અને પાણીમાં મેળવેલા ધાતી પુષ્પને પકવવાથી જે રસ થાય છે, તે મરેય કહેવાય છે. રિષ્ટાભ-નિષ્ટ એટલે કે ફેણવાળા પદાર્થ તેને જે વેત વર્ણ હોય છે તેના જેવી આભા-કાંતીવાળે રસ વિશેષ દુગ્ધ જાતી દૂધના સ્વાદ જેવા સ્વાદવાળો રસ દુગ્ધજાતીને રસ કહેવાય છે તે રસ વિશેષ, તથા પ્રસન્ન એટલે કે જે રસ સ્વચ્છ સ્ફટિકના જેવું હોય છે. અને Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे ५२० तत्र शत-शववर्षाणि आयु जीवित कालो यत्पानान्सुरक्षितं भवेत् तत्-शतायु. रिति कथ्यते, शतवर्षायुः प्रदोरसविशेष इत्यर्थः, 'खज्जूर-मुदियासार' खर्जूरमृद्वीकयोसार:-वर्जूर-द्राक्षाभ्यां निष्प नो रसविशेष रूपिशायनं 'कापियां फक्' इति पाणिनि सूत्रेण निपात्यते तच्च विशिष्टं मधु एकतानां-सुपरिपाकगतानाम् ओषधीना या क्षोदश्चूर्गस्तचद्रसनिष्पन्नावरसुराः 'सुरा प्रत्यक् च शारुणी' इत्यमरः' रसनिसारणका प्रथमतो निसास्तिरसाः येषु ते तथाविधा मदोत्पादका हर्षहेतवः द्रुपगणास्तव सन्ति । एते रसविशेषः कथंभूता इत्याह-वनगंधरसफासजुत्तबलवीरिय परिणामा' इति, प्रशस्तेन वर्णेन, प्रशस्तेन रसेन-स्वादिष्टेन, प्रशस्तेन गन्धेन-सुरमिगन्धेन, प्रशस्तेन रूपशेन चाऽपि युक्ताः, पुनश्च ले बलतको वीर्य उसका नाम प्रसन्न रखा गया है ऐसा रस विशेष, मेल्लक-जो दूसरे रस के मिलने पर बल कारक होता है ऐसे रस विशेष का नाम मेल्लक है शतायुःएक ऐसा रख होता है जिसके सेवन करने से आयु सौ वर्ष तक सुरक्षित रह सकता है अर्थात् आयु बढाने वाले रस विशेष का नाम शतायु है, तथा ख र मृद्रीका (द्राक्षा) लार-अर्थात् खिजूर __और द्राक्षा से निष्पन्न सार भूल रस, तथा कापिशायन कपिश-धूम्र वर्ण का गुड निष्पन्न रस विशेष, तथा क्षोदरस-क्षोद-चूर्ण परिपक्व मधु काष्टादि औषधियों के चूर्ण का रस होता है जो प्रथम बार में निकलता है अर्थात् प्रथम नम्बर के रस को घर सुरा करते हैं. जैसे पूर्वोक्त सध्द प्रकार के रस होते हैं, वे रस किस प्रकार होते, 'वन्नगंध रस फासजुत्ता' वे पूर्वोक्त रस प्रशस्त वर्ण शुक्लादि से, प्रशस्त गंध सुरभि गन्ध से, प्रशस्त रल इक्षु गुड शर्करा पत्रपण्डिफा मिसरी के જે મનને પ્રસન્ન કરવાવાળો હોવાથી તેનું નામ પ્રસન્ન એ રીતે રાખવામાં અવેલ છે એ રસ વિશેષ મેલક જે બીજા રસના મેળવવાથી બળ કરનારબલ વધારનાર હોય છે, એવા રસ વિશેષનું નામ મેલક છે. શતાયુ, એ એક એ રસ હોય છે કે જેના સેવન કરવાથી સો વર્ષનું આયુષ્ય ભોગવી શકાય છે. અર્થાત્ આયુષ્યને વધારનારા રસનું નામ “શતાયુ છે. તથા ખજૂર મૃદ્ધિકાસાર અર્થાત્ ખજૂર અને દ્રાક્ષમાંથી બનાવેલ સારભૂતરસ, તથા કાપિશાયન, કપિશ વાડાના જેવા ગોળમાંથી બનાવેલ રસવિશેષ તથા દરસ ક્ષેદ ચૂર્ણ પરિ પકવ મધુર કાષ્ઠ વિગેરે ઔષધિના ચૂર્ણને રસ મધ કે જે પહેલી જ વારમાં નીકળે છે. અર્થાત્ પહેલા નંબરના રસને વર સુરા કહે છે. જેમ પૂર્વોક્ત બધા પ્રકારના રસ હોય છે. તે રસે કેવા પ્રકારના હોય છે તે હવે બતાવવામાં भाव छ 'वण्ण गधरस फासजुत्ता' ते पूरित २स प्रशस्त वर्ष मेले Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ १.३४ एकोषकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५२१ · परिणामे परिपाके बळवीयहेतबो भवति, 'मग्नविहि बहुप्पगारा' मयस्य विधिना विधानरीया यदि गण्यन्ते तदेते रमा आलवाऽरिष्टाऽवलेह-क्याथ वटिकादिभिभैदैर्वहुप्रकाराः 'तदेवं से मत्तंगा वि दुमगणा' तदेवम्-बहुरसभेदवन्तस्तेऽपि मत्तागा द्रुमगणा झेयाः किं ते वनपालादिना समारोपन्ते ? तत्राह-'अणेग बहुविविवीससा परिणयाए मजविहीए उपवेया' अनेक बहुविविधविस्त्रपा परिणतेन बनेको- व्यक्तिभेदात् बहु प्रभूनम्, यथास्यात्तथा विविधो-जाति भेदानानामकारो विधिः-सच-केनापि लोकपालादिना निष्पादितोऽपि न भवेत्तत आह-विस्रसाजैसे प्रशस्त रस से, प्रशस्त स्पर्श से मृदु स्निग्ध उष्ण स्पर्श से युक्त ___ अब उन रसों के गुण का वर्णन करते हैं-'बलचीरिय परिणामा' पूर्वोक्त सय रस फिर बल, शारीरिक घल, वीर्य आन्तरिक बल इन दोनों में परिणत होने वाले होते है अर्थात् वे रस बल और वीर्य को बढाने पाले होते हैं । 'मजविहिबष्टुप्पगारा' मद्य अर्थात् प्रमोद जनक रस विशे के विधान से बहुत प्रकारके बताए गये हैं जैसे-आलव, अरिष्ट अथलेह क्वाथ वटिकादि भेद होते हैं। पूर्वोक्त दृष्टान्नों को भत्तांग ब्रुम गणों पर घटाते हैं-'एवं मत्तंगावि दुमगणा' इन्ही पूर्वोक्त प्रकार के पस जैसे रस वाले वे मत्तांग नाम के द्वमगण एकोक दीप में होते हैं। क्या द्रुमाण किसी लोकपाल लथा वनपाल आदि द्वारा लगाये जाते हैं ? इस शंका का निराकरण करने के लिये सूत्रकार कहते हैं-'अणेगबहुविविहवीससा परिणयाए जज विहीए उववेया' अनेक व्यक्ति भेद ले શુક્લાદિ વર્ણથી, પ્રશાંત ગંધ, એટલે કે સુરભિ ગંધથી, સેલડી, ગોળ, સાકર, અને મર્ચંડિકાના જેવા પ્રશસ્ત રસથી પ્રશસ્ત સ્પર્શથી, મૃદુ, સ્નિગ્ધ ઉણ સ્પર્શથી યુક્ત હોય છે. ..वे सोना शुशानुन श्वामा भाव छ. 'बलवीरिय परिणामा' પવીત બધા રસે પાછા બળશારીરિક બળ-વીર્ય આંતરિક બળ આ બનેમાં પરિત થવાવાળા હોય છે. અર્થાત આ રસ બળ અને વીર્યને વધારનારા काय छे 'मजविहि बहप्पगारा' मध अर्थात् प्रभाह २४ २ (शषना વિધાનથી ઘણા પ્રકારના બતાવવામાં આવ્યા છે. જેમકે આસવ. અરિષ્ટ, અવલેહ, કવાથ વાટિકા વિગેરે તેના ભેદ હોય છે. હવે પૂર્વોક્ત દષ્ટાંતેને મત્તાગ દૃમગ પર घटा छे. 'एव मत्तांगावि दुमगणा' मा पूर्वात २ना २४ २५ २८ વાળા તે મત્તાંગ નામના દ્રમગણ એકરૂક દ્વીપમાં હોય છે શું? તે મગણ કાઈ લેપાલ તથા વનપાલ વિગેરે દ્વારા લગાવવામાં આવે છે ? આ શંકાનું नपा२१ ४२१। सूत्रा२ है 'अणेगबहुविविहवीससापरिणयाए मज्ज मी० ६६ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगम स्वभावत एव परिणाम प्राप्तेन मद्यविधिना पूर्वोक्त रसविधिना उपपेताः युक्ताः पुनश्च 'फलेहि पुण्णा' फलैः पूर्णाः संभृताः सन्तः 'दिसटुंति' दलिधातुः चूर्णीकरणे विकासे च तत्र वर्तमानादळेः 'दलिपल्पोर्विसट्टफौ' 'माकृत व्याकरणे८-४-१७६' इति सूत्रेण दलेर्धातोः विसदादेशः अतो विसबैति' इत्यस्य दलन्ति-विकसन्ती-त्यों बोध्य एवमग्रेऽपि । 'कुसविकुस सिद्धरुक्खमला जाव चिट्ठति' कुशविकुश विशुद्धवृशमूलाः यावच्छन्देन-मूलकन्दादिमन्तः प्रसाद नीया अभिरूपा प्रतिरूपास्तिष्ठन्तीति । ____ अथ द्वितीयकल्पवृक्षजातिस्वरूपमाख्यानुमाइ-'एगोरुयदीवे' इत्यादि, 'एगोस्व दीवे तत्थ २, एकोलकद्वीपे खलु तत्र तत्र देशे 'वहवे मिगंगया णाम दुमगणा पणत्ता समणाउसो' बहनो मृगङ्गा नाम द्रुमगणा:-कल्पवृक्षाः प्रज्ञप्ताकथिताः हे श्रमण आयुष्मन् । तत्र भृतं भरणं पूरणमित्यर्थः तत्र भरणे बहुत और विविध-नाना प्रकारक जाति भेद को लेकर अपने स्वभाव से ही ये वहां अनादि काल से रहते हैं ये लोकपाल आदि के लगाये हुए नहीं होते हैं। वे स्वाभाविक रूप से परिणत ऐली मद्य विधि से युक्त होते हैं । वे 'फलेहिं पुण्णा' फलों से लदे हुए 'घिस्स॒ति' विक सित होते रहते हैं। और 'कुसाधिकुल विसुद्धरुक्खमूला' इन वृक्षों के मूल दर्भ आदि घालसे विशुद्ध-रहित शेते हैं ऐसे थे मत्तांग द्रुमगण प्रासादीय दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप होते हुए वहां रहते हैं । यह मत्तांग नाम के प्रथम कल्पवृक्ष का वर्णन हुआ ॥१॥ द्वितीय जाति के कल्एवृक्ष का स्वरूप इस प्रकार से है 'एगोरुष दीवे तत्थ २, बहवे गिंगया णाम दुमगणा पण्णत्ता' हे श्रमण आयुष्मन् ! उस एगोरुक नाम के द्वीप में जगह २, अनेक भृत्ताङ्ग नाम के कल्पवृक्ष हैं ये कल्पवृक्ष वहां के निवासी मनुष्यों को अनेक प्रकार विहीए उववेया' अने व्यतिना मेथी घा विविध भने अरना जति ભેદને લઈને પોતાના સ્વભાવથી જ તે અનાદિ કાળથી ત્યાં રહે છે. આ લોકપાલો વિગેરેએ લગાવેલ હોતા નથી. તેઓ સ્વાભાવિક રૂપથી પણિત એવી મધ विधि (प्रमोहनxl)थी यु४. डाय छे. मने 'फलेहिं पुष्मा' जोशी सहायता 'विसह ति' विस्ति यता २ छे. मने 'कुमविकुसविसुद्धरुन खनृला' या वृक्षाना મૂળ દર્ભ વિગેરે ઘાસથી વિશુદ્ધ રહિત હોય છે. એવા આ મત્તાંગ કુમગણ પ્રાસાદીય, દર્શનીય, અભિરૂપ, અને પ્રતિક્ષ હોય છે. અને ત્યાં રહે છે. આ મત્તાંગ નામના પહેલા ક૯૫ વૃક્ષનું વર્ણન થયું. ૧ | वे भीतना ४८५१क्षनु २१३५ मतावामा मावे छे. 'एगोरुय दीवे तत्थ तत्थ भिंगंगयाणाम दुमगणा पण्णत्ता' ७ श्रम मायुभन ! त Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ७.३४ एकोरुकद्वोपस्याकारादिनिरूपणम् ५२३ अङ्गानि कारणानि भरणक्रिया भरणीयं भाजन वा स्थालादिकं पृथक् न भवति इति भरणसंपादकत्वात् रक्षा अप भृताङ्गाः कथ्यन्ते 'जहा से बारग घटक करगकलसकरिपायकंचणिय उदकवणसु पविठ्ठगपारीचसक भिंगार करोडिया सरगपरग पत्तीवालमल्ल गवालिय दकवारक विचित्तवट्टक मणिबट्टक मुत्तिचारुपीणया कंचणमणि-रयणभत्तिचित्ता' यथा ते बारक घटकरककलशकर्करी पादकाचनिका उदकवार्थानी सुपतिष्ठक पारीचषक भृङ्गार करोटिका खरकपरकपात्री स्थाल मल्लकचलपितदकबारक विचित्र वर्तक मणिवत्तक शुक्ति चारु पीनका कञ्चनमणिरत्नभक्तिचित्राः, तत्र धारको मरुदेश प्रसिद्धो माङ्गल्यघटः घटको लघुघटः, कलशो महाघटः करकोऽपि घट एव कर्करी घटविशेषरूपा, पादकाचनिका-पादधावनयोग्या काञ्चनके वर्तन आदि पदार्थों को देते रहते हैं, 'जहा से घारगघटककरगकलसकरि पायकंचणिय उदंशवणिसु पक्टिग पारीचलक भिंगार करोडिया सरगपरमपत्ती बालमल्ल गचबलिय दकचारक विचित्त वहक मणिवक सुत्तिचारु पीणया कंचण मणिरयण भत्तिचित्ता' मारवाड़ में प्रलिद्ध जो माङ्गल्य घट है उसका नाम बारक है. इससे जो छोटा घट होता है उसका नाम घट है उसकी अपेक्षा जो महाघट होता है उसका नाम कलश है करक नाम भी फलश का ही है कर्करी छोटी सी जो कलशी होती है उसका नाम है। जिससे पैर धोये जाते हैं और जो सुवर्ण की बनी होती है ऐली पात्री का नाम पादकाञ्चनिका है जिसमें से पानी भर कर पिया जाता है उसका नाम उदक है लंलिका नाम बर्दानी तथा लोटा भी कहते है । पुष्पों के धरने के पात्र का એકરૂક નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અનેક ભૂત્તાંગ નામના કલ્પ વૃક્ષે છે. એ ક૯૫વૃક્ષે ત્યાં રહેવાવાળા મનુષ્યોને અનેક પ્રકારના વાસણ ભાજન વિગેરે ५ मा ४२ छ. 'जहा से वारगघटक करगकलसककरिपायक'चणि उदक वद्धणिसु पविद्वग पारीच सकभिंगार करोडिया सरगपरगपत्ती वालमल्लग चवलियग दकवारक विचित्त वट्टक मणिबट्टक सुत्तिचारु पीणया कंचणरयणमणिभत्तिचित्ता' મારવાડમાં પ્રસિદ્ધ જે માંગલ્ય નામને ઘડે છે તેને “વારક' કહે છે. તેનાથી નાના ઘડાને ઘડે કહે છે. તેના કરતાં જે મહા ઘટ હોય છે. તેને કલશ કહે છે. કરક એ નામ પણ કલશનું જ છે. નાના કળાને કરી કહે છે, જેનાથી પગ ધોવામાં આવે છે. અને જે નાની બનાવેલી હોય છે. એવા પાત્રનું નામ પાદકોચનિ' છે, જેમાં પાણી ભરીને પીવામાં આવે છે. તેનું નામ ઉદંક છે, Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ जीवामिगम मयीपात्री, उदको येनोदकं मुदश्चते वार्दानी गलतिको, यद्यपि करकरी वा नीनां न कश्चिद्विशेषस्तथापि संस्थानादिकृतो भेदो लोकादवगन्तव्यः । सुपतिष्ठका पुष्पपात्र विशेषः, पारी घृतादि स्नेहभाण्डम् चपकः पानपात्रम् भृगारः कनकालका 'झारी' इति मसिद्धः, शरकपरशौ पात्रविशेषौ पात्रीस्थाले लोकप्रसिद्ध एच मल्लकं-शराबविशेषः चपलितं-पात्रविशेषः दकवारको जलघटः विचित्राणि विविध चित्रोपेतानि वत्तकानि-मोजनकालोपयोगि-घृतादि पात्राणि तान्येव मणि वत्तकानि मणि प्रधानकानि वर्तकानि शुक्तिश्चन्दनाद्याधारभूताः शेषास्तु पात्रविशेषास्तत्तकालपसिद्धा लोकतो यथाशक्यं ज्ञातव्या । एते भाजन विधयः कथम्भूताः ? इत्याह 'कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता' काञ्चनमणि रत्नानमिक्तयो विच्छित्तयस्ताभिश्चित्राः । 'भायणविधीए' भाजन विधिना भाजन-विधिमधिकृत्य 'बहुनाम सुप्रतिष्ठक है घी तेल रखने के पात्र का नाम पारी है पान पात्र का नाम चपक है झारी का नाम भृगारक है शरक पात्र विशेष का नाम है स्थाली और पात्री ये तो प्रसिद्ध ही है । जल भरने के घटका नाम दकदारक है भोजन काल में उपयोगी जो घृतादि रखने के पात्र हैं उनका नाम यहां वत्तक शब्द से कहा गया है ये पात्र उन कल्प वृक्षों के दिये जाते हैं पर वे सब मणि के बने हुए दिये जाते हैं तथा ये सय पात्र विविध प्रकार के चित्रों से युक्त होते हैं यही बात यहां मणिवर्तक शब्द से प्रकट की गई है घिसकर जिस में चन्दन आदि रखे जाते है उसका नाम शुक्ति है बाकी के जो और यहां पात्र कहे गये हैं उन्हें लोक ले या संप्रदाय विशेष से जान लेना चाहिये. इन सब पात्रों के ऊपर सुवर्ण से मणियों से और रत्नों से नाना प्रकार વંતિકાને વધની તથા લેટે પણ કહે છે. પુ રાખવાના પાત્રનું નામ સુપ્રતિષ્ઠક છે ઘી તેલ વિગેરે રાખવાના વાસણનુ નામ “પારી છે. પાન પાત્રનું નામ “ચષક છે. જારીનું નામ ભંગારક છે. શરક એ પાન વિશેષનું નામ છે. થાળી અને પાત્રી આ બન્ને પ્રસિદ્ધજ છે. પાણી ભરવાના ઘડાનું નામ “દકારક છે જમતા વખતે ઘી વિગેરે રાખવામાં ઉપયોગી એવું જે પાત્ર છે. તેને અહિયાં “વર્તક શબદથી કહેલ છે, આ પાત્ર એ કલ્પવૃક્ષેથી અપાય છે પણ તે બધા મણિચાના બનાવવામાં આવેલ અપાય છે. આ બધા પાત્રો અનેક પ્રકારના ચિત્રોથી યુકત હોય છે. એજ વાત અહિંયા “મણિવર્તક એ શબ્દથી પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે. ચંદન વિગેરે ઘસીને જેમાં રાખવામાં આવે છે તેનું નામ “શક્તિ છે. બાકીના બીજા જે પાત્રો અહિયાં બતાવવામાં આવ્યા છે. તેને લોક રૂઢીથી અથવા સંપ્રદાય વિશેષથી સમજી લેવા જોઈએ. આ બધા પાત્રોની ઉપર સેનાથી મણિયોથી, અને પત્નથી અનેક પ્રકારના ચિત્રોની રચના કરવામાં આવેલ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५५५ पगारा' बहुप्रकाराः एकै कस्मिन् विधौ अवान्तरानेकभेदसद्भावादिनि । 'ह हेव ते मिर्गगया वि दुमगणा' तथैव ते भृताङ्गा अपि द्रुमगणाः 'अणेग बहुविविहीससा परिणयाए' अनेक बहुविविधमकारेण विसापरिणतेन-स्वभानत एव परिणतेन विस्रसापरिणामेनानेकपकारतया परिणतेन न तु केनचित्तथा संपादिता इति । 'भायणविधीए उववेया' भाजनविधिनोपपेता:-युक्ताः, 'फलेहि पुण्णा विसद्वृति' फलैः पूर्णा दलन्ति-विकसन्ति 'कुसविकुस जाब चिट्ठति' कुविकुश विशुद्ध क्षमूला: मूलकन्दादि मन्तो यावत् प्रासादनीया अभिरूपाः प्रतिरूपास्ति'ठन्तीति । के चित्रों की रचना की गई होती है भाजन विधि अनेक प्रकार की होती है-अर्थात् भाजन अनेक प्रकार के होते हैं क्योंकि इनके अवान्तर भेदों की गिनती नही है-इसलिये 'मिगंगया वि दुभगया तहेव' ये जो भृताङ्ग जाति के कल्पवृक्ष ईवे भी एक प्रकार के न हो कर अनेक प्रकार के ही होते है। तभी तो ये भिन्न २, जाति के रूप में परिणत होते रहते हैं । 'अणेग बहु विविस्वीसला परिणयाए' इनका जो इस प्रकार से विविध पात्रों के देने रूप परिणाम है रक्षा भाविक है किसी के द्वारा किया गया नहीं छोमा 'मायणविहीए उश्वेया' इस तरह भाजन प्रदान करने की विधि से युक्त हुए ये भृत्ताङ्ग जाति के कल्पवृक्ष 'फलेहिं पुण्णा विरुष्टुति' फलों से भरे हुए विकसित होते रहते हैं और भिन्न २, प्रकार के पात्रों को प्रदान करते रहते हैं। 'कुस विकुस जाब चिट्टति' इनकी भी नीचे की जमीन पर बुश आदि नही होते है ये प्रशस्त मूल आदि विशेषणों वाले होते हैं ॥२॥ હોય છે. ભાજન વિધિ અનેક પ્રકારની હોય છે. અર્થાત અનેક પ્રકારના ભાજન વાંસ હોય છે. કેમકે તેના અવાન્તર ભેદની ગણત્રી થઈ શકે તેમ નથી તેથી 'भिंगंगया वि दुमगया तहेव' २ मा मृतin नतीना ४८५ वृक्ष छे, ते ५५ એક પ્રકારના ન હોઈ અનેક પ્રકારના જ હોય છે. ત્યારેજ તેઓ જૂદી જૂદી तना पात्राना ३५मा परियत थता पर छे. 'अणेगबहु विविहवीससा परिणयाए, २मा प्रमाणे विविध पात्राने मायका ३५ भानु २ परिणाम छ, त स्वाभावि छ. धिना द्रा२। २वामां माता नथी. 'भायणविहींए उबवेगा' આ રીતે ભજન પ્રદાન કરવાની વિધિથી યુક્ત એવા આ ભૂતાંગ જાતિના ४८५ वृक्ष! 'फलेहिं पुण्णा विसति' णाथी मरे ७२ विसित थता रहे छे. सन पू ५४२ना पात्र माया ४२ छ. 'कुमविकुस जाव चिदंति' તેની નીચેની જમીન પર પણ કુશ વિગેરે હોતા નથી. અને તે બધા પ્રશસ્ત મૂળ વિગેરે વિશેષાવાળા હોય છે, જે ૨ | Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमले ____ अथ तृतीयकल्पवृक्षस्वरूपमाख्यातुमाह-एगोख्य दीवेणं' इत्यादि, 'एगोरुपदीचे' एकोरूफद्वीपे खल द्वीपे 'तत्य तत्र तत्र देशे 'वहवे डि यंगाणाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो' बहवोऽनेकमकाराः त्रुटिताना नाम द्रुमगणा:-- वाद्यविशेष रूपाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'जहा से आलिंग मुयंग-पणवपडददरगकरडिडिडिम भंभाहोरंभ कणियार खरगुही-मुगंद संखियपरिलीवचग परिवाइणि बंसवेणुवीणामुघोस विवंचीमहई कच्छपीरिगसिगातल. ताल कंसवालसुसंपउत्ता' यथा ते आलिङ्गय मृदङ्ग पणचपटइ दर्दरककरटीडिडिमभंभाहोरम्भ-क्वणित खामुखी मुकुन्द मंखिका परिलीयच्चक परिवादिनी वंशवेणु-वीणासुघोप विपश्वी महती कच्छपीरिगसिकाः तलताल कांस्यतालमुसं. मयुक्ताः, तत्र-आलिंग्यो नाम यो वादकेन मुरज आलिंग्य वायते उरसि निधाय तृतीय कल्पवृक्ष का स्वरूप कथन-'एगोरुय दीवे णं दीवे तरथ २, बहवे तूडियंगा णाम दुषगणा पण्णत्ता' हे श्रवण अयुष्मन् ! एकोरुक नाम के द्वीप में जगह २, अनेक त्रुदितांग जाति के कल्पवृक्ष कहे गये है। इन कल्पवृक्षों के द्वारा वहां के मनुष्यों की वाद्य की आवश्यकता की पूर्ति की जाती है यही बात इस सूत्र द्वारा यहाँ समझाई गई है 'जहा ले-प्रालिंग मुयंग पण पडह दद्दरगकरडडिडिम भंभाहोरं भक्षणियारखरमुशिमुगुद संखिय परिली बच्चग परिवाइणिवंस वेणुवीणासुधोलविवंचि महतिकच्छभिरिगलिगा तल ताल कंस. ताल सुसंपउत्ता' जो बाजा बजाने वाले के द्वारा गोद में रखकर बजाया जाता है इस चाय का नाम आलिंडय है मृदङ्ग नाम का बाजा जग प्रसिद्ध है या छोटा होता है ढोल चाहे बड़ा हो या छोटा हो इसका हवेतील ४६५ वृक्षना २१३५नु ४थन ४२वामां मावे छे. 'एगोरुय दोवेणं दीवे तत्थ तत्थ बहवे तुडिय गा णाम दुमगणा पण्णत्ता' 8 श्रभर આયુમન ! એકેક નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અનેક ત્રુટિતાંગ જાતના ક વૃક્ષો હોવાનું કહેલ છે. આ કલ્પવૃક્ષે દ્વારા ત્યાંના મનુષ્યની વાઘની આવક્તાની પૂર્તિ કરવામાં આવે છે. એજ વાત આ સૂત્ર દ્વારા અહિયાં समन्तवाम मावी छे 'जहा से आलिंगमुयगपणवपटह दद्दरगकरलिडि डिमभभाहोरभकणियारखरमुहि सुगुदसखियपरि लीवच्चगपरिवाइणि वंसवेणु वीणा सुधोम विवंचिमहति कच्छभिरिंगसिगातलतालकसतालसुम पउत्ता' रेन વાજા વગડવાવાળા ખેાળામાં રાખીને વગાડે છે, એવા વાજાઓને આલિંડય’ કહે છે. મૃદંગ નામનું વાજુ જગ જાહેર છે. તે નાનું હોય છે. દેવા માટે દેય કે ના હોય તેને પણ કહેવામાં આવે છે. ઢોલનેજ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका का प्र.३ ७.३ सू.१४ एकोषकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५२७ पायते इत्यर्थः, मृदङ्गो लघुर्मर्दला, पणको भाण्डपटहो लघुपटहो वा, पटडो लोक पसिद्ध एव, दर्दरका यस्य चतुर्मिश्चरणैरवस्थानं भुवि तथा सगोधा चविनद्धो पाचविशेषः करटीकोक-मसिधैव' डिडिमः प्रथमप्रस्तावना सूचकः पणवविशेष: भंभाढक्कानिः स्वनानीति संपदायः, होरंभा महादको कणिता वीणाविशेषरूपा खरमुखी-काहला मुकुन्दो मुरजवाधविशोषो यः प्रायोऽमिलीनं वाद्यते शंखिका लघुशंखरूपा अस्याः स्वर ईपत्तीगो भवति न तु शंखपदतिगंभीरः परिली. नाम पणव है ढोल का ही जो एक प्रकार का आकार प्रकार कृत भेद होता है उसका नाम पटह है जो चार पाद वाली काष्ठ की चौकी पर रखकर बजाया जाता है और जो गोधा विगेरे प्राणियों के चमडे से मढा होता है उसको नाम दर्दरक कहलाता है फरटी भी एक जाति का लोकप्रसिद्ध वाद्य विशेष है प्रथम प्रस्तावना का सूचक जो पणच विशेष है उसका नाम डिडिम है भंसा और ढका ये भी एक प्रकार के वाद्य विशेष है इनमें से जो शब्द निकलता है वह भर भर जैसा निकलता है होरंभा भी ढका ही जैसा होता है परन्तु यह ढक्का की अपेक्षा बड़ा होता है कणित एक प्रकार की विशेष वीणा होती है खरमुखी भी एक प्रकार का वाद्य विशेष है-जिसे मुंह से फूंक देकर बजाया जाता है-इले बुन्देलखण्डी भाषा में रमतूला कहते हैं-इसका आकार प्रकार गधे के मुख जैसा होना है मुकुन्द भी एक प्रकार का वाजिंत्र होता है । यह तबला के आकार का होता है पर कुछ २, लम्बा होता है और दोनों तरफ ले. बजाया जाता है शंखिका यह खर शंखिका और ईपत्तीक्ष्ण शंखिका એક પ્રકારને આકાર પ્રકારના ભેદ જે હોય છે. તેનું નામ પણ છે જે ચાર પાયાવાળી લાકડાની ચેકી પર રાખીને વગાડવામાં આવે છે, અને જે ઘો વિગેરે પ્રાણિના ચામડાથી મઢેલ હોય છે, તેનું નામ દર્દક કહેવાય છે. કટિ પણ લેકપ્રસિદ્ધ એક જાતનું વાદ્યવિશેષ છે. પહેલી પ્રસ્તાવના સૂચક જે પણ વિશેષ છે, તેનું નામ ડિડિમ છે. લંભા અને ઢકકા એ પણ એક પ્રકારનું ઢેલ નામનું વાદ્ય વિશેષ છે. તેમાંથી જે અવાજ નીકળે છે, તે ભર ભર જે નીકળે છે. હોરંભા નામનું વાદ્ય વિશેષપણ ઢકકાના જેવું જ હોય છે. પરંત તે ઢકકા કરતાં મેટુ હોય છે. કવણિત એ એક પ્રકારની વિશેષ વથા હોય છે. ખરમુખી પણ એક પ્રકારનું વાઘ વિશેષ છે જેને મોઢાથી કંકમારીને વગાડવામાં આવે છે, તેને બુંદેલખંડની ભાષામાં “રમતુલા' કહે છે. તેને આકાર ગઘેડાના મુખ જે હોય છે. મુકુંદ પણ એક પ્રકારનું વાજીંત્ર હેય છે. તે તબલાના આકારનું હોય છે. પરંતુ તેનાથી કંઈક લાંબુ હોય છે. અને બન્ને Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवrforans ५१८ 9 चच्छक तृणरूपयाप्यविशेषौ परिवादिनी सप्ततन्त्री वीणा, वंशो लोकमसिद्धः वेणुशविशेप, वीणा प्रसिद्धा, सुघोषा पीणाविशेषाः, विपञ्ची-तन्त्री वीणा, महनी-शत्रिका नारद ऋषेः वीणा, कच्छपी - भारत्याचीणा, रिगसिका घर्ण्यमाणवाद्यविशेषः, एते वाद्य विशेषाः कथम्भूताः इत्याह- 'तलताळकंसताच संपउता ' तलताला:- हस्तपुटवाला: कांस्यतालाच लोक प्रसिद्धा एव एतैः - तळतालकंसतालः व्यविशेषैः सुसंयुक्ताः - सुसुष्ठु अतिशयेन सम्यग् यथोक्तरीत्या प्रयुक्ताः के भेद से दो प्रकार की होती है जो विशेष जोर देकर मुंह से बजायी जाती है वह खरशखिका है और जो थोड़ा जोर देकर मुह से बजायी जाती है वह ईषत्तीक्ष्ण शंखिका कहलाती है यह शंखिका शङ्ख के जैसे अति गंभीर स्वरवाली नहीं होती है । परिली एवं वचक ये भी दो वादित्र ऐये घास के तृणों को गूंथ कर बनाये जाते हैं। परिवादिनी नाम वीजा का है इसमें सात तार होते हैं। वंश-नःम बांसुरी का है वीणा, सुघोषा विपची महती, कच्छपी, ये सब वीणा के ही भेद हैं महर्षि नारद जिस वीणा को अपने पास सदा रखते हैं उस वीणा का नाम महती है सरस्वती जिस वीणा को अपने हाथ से बजाती है उसका नाम कच्छपी है घमाण जो वाद्य विशेष होता है उसका नाम रिगसिका है हस्त पुट ताल का नाम तल ताल है कांसे का जो बाजा होता है कि जो ताल देकर बजाया जाता है उसका नाम कांश्य ताल है इन सब वादित्रों से ये त्रुटितांग जाति के कल्पवृक्ष युक्त होते हैं अतः ये ऐसे ज्ञात होते हैं कि इन्हें गान विद्या में गंधर्व शास्त्र में निपुण व्यक्तियों ने માજીથી વગાડી શકાય છે. ‘શ‘ખિકા’ એ ખરશ’ખિકા અને ઇષત્તીક્ષ્ણ શખિકાના ભેદથી એ પ્રકારની હૈાય છે. જેને વિશેષ જોર દઇને મેઢાથી વગાડવામાં આવે છે, તેને ખરશ'ખિકા કહે છે અને જેને ઘેાડુ જોર દઇને મેઢાથી વગાડવામાં આવે છે. તેને ‘ઇત્તીક્ષ્ણ શંખિકા’ કહેવામાં આવે છે. આ શંખિકા શંખના જેવા અત્યંત ગભીર સ્વર વાળી હૈાતી નથી પરિલી' અને વચકા' આ પણ એ વાજીંત્ર છે. તે ઘાસના તણખલાએને ગુ'થીને બનાવવામાં આવે छे. 'परिवाहिनी' वीच्छानु नाम छे. तेने सात तार होय . वांसजीने 'व'श' हे छेवी, सुघोषा, वियंशी, भडती, उच्छपी, या मघा वीणानान ભેદે છે મહાષિ નારદ જે વીણાને સા પેાતાની પાંસે રાખે છે. એ વીણાનું નામ મહતી છે જે વીણાને સરસ્વતી પેાતાના હાથથી વગાડે છે. તે વીણાનુ નામ કચ્છપી છે. ષ્યમાન જે વાદ્ય વિશેષ હાય છે, તેનું નામ 'रिसिभ' હસ્તપુર તાલનું નામ તલતાલ છે કાંસાનું જે વાજું હાય છે, કે જે તાલ દઇને વગાડવામાં आवे छे. तेतु नाभस्यताल है. આ બધા વાજીંત્રોથી આ ત્રુટિતાંગ જાતના કલ્પવૃક્ષા યુક્ત હાય છે. તેથી Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३४ एकोषकद्वीपस्थाकारादिनिरूपणम् ५२९ दाः आतोद्यविधयः पुनः कथम्भूताः ? इत्याह-'आतोज्जविहि णिउण गंधव्य य कुसलेहि फंदिया' अतोधविधिनिपुणगान्धर्वसमयकुशलैः स्पन्दिताः, तत्रातोवेधौ ये निपुणा गान्धर्वसमये नाटयशास्त्रे कुशलाः-दक्षास्तैः स्पन्दिताः व्यापा वादिता इति भावः पुनः कीदृशास्तत्राह-'तिट्ठाणकरणसुद्धा त्रिस्थानकरण दाः, तत्र त्रिषु आदि मध्यावसानेषु स्थानेषु करणेन-क्रिया-यथोक्तवादन यया शुद्धा:-निर्दुष्टाः न तु अस्थानकरण-व्यापाररूपदोषेण कलङ्किताः 'तहेव तरियंगया वि दुमगणा' तथैव-तस्मकारेणेव ते त्रुटिनाङ्गा:-त्रुटिताङ्गनामका । इस प्रकार से सिखा वुझा तैयार किया है यहीं घात आगे के सूत्र ठ से प्रकट की गई है 'आतोज्जयिहि निउणगंधवध समय कुसलेहि दिया' जिस प्रकार गंधर्व आतोद्य विधि में निपुण होते हैं और घि शास्त्र में दक्ष होते हैं अतः वे जिस वादिन को चाहते हैं उम दिन को तैयार कर लेते है और पजाते है इसी प्रकार से जो दिन यहां के मनुष्यों को आवश्यक होता है वही वादिन वे कल्प क्ष उन्हे दे देते हैं-अतः उसी वादिन की प्रदान विधि में वे त्रुटितांग कल्पवृक्ष व्यापार युक्त होते हैं और वे उन्हें उन्हीं वादिन्नों को देते हैं। नथा 'तिट्ठाण करणसुद्धा' ये कल्पवृक्ष वादिन वादन क्रिया में निपुण -पक्ति की तरह वादित्र तथा गाने की विधि में त्रिस्थान करण से आदि नध्य अवसान रूप तीनों स्थानो से शुद्र होते हैं। अस्थानकरण व्यापार रूप दोष से कलङ्कित नहीं होते हैं । 'तहेव ते तुरियंगया वि दुमगणा' તેઓ એવા જણાય છે કે આમને ગાનવિદ્યામાં, ગંધર્વ શાસ્ત્રમાં નિપુણ વ્યક્તિઓએ જ આ પ્રકારથી શીખવીને તૈયાર કરેલ છે એજ વાત હવે પછીના सूत्रपाया प्रगट ४२वामां मावी छ 'आतोजविधीनिउणधव्वसमयकुसलेहि फंदिया' २ मा मध माताध विधिमा नियुष्य डायथे. अने माधव શાસ્ત્રમાં ચતુર હોય છે. તેથી તેઓ જે વાજાને ચાહે છે, તે વાજાને તૈયાર કરી લે છે. અને તેને વગાડે છે. એ જ પ્રમાણે જે વાજીંત્ર ત્યાંના મનુષ્યને જરૂરી હોય છે. તે જ વાજીંત્ર તે કલ્પવૃક્ષ તેને આપે છે. તેથી એ વાજીત્રની પ્રદાનવિધિમાં વૃટિતાંગ કલ્પવૃક્ષ વ્યાપાર યુક્ત હોય છે. અને તેઓ તેમને म वाली मापे छे. तथा 'तिट्ठाणकरणसुद्धा' मा ४६५वृक्ष वा पाहन ક્રિયામાં નિપુણ વ્યકિતની જેમ વત્ર તથા ગાવાની વિધિમાં ત્રિસ્થાનકરણથી અર્થાત્ આદિ, મધ્ય અને અવસાન રૂપ ત્ર સ્થાનેથી શુદ્ધ હોય છે. અવस्थान ४२५ व्यापार ३५ होषयी तिता नथी. 'तहेव ते तुरियंगयावि दुमगणा' तथा पारवानी विधामा मने पात्राने मनापानी विमा यतुर जी० ६७ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम दुमगणाः घृशाः अपि 'अणेग बहुविचिवीससा परिणयाए' अनेक बहुविविधविसमापरिणतेन तत्र अनेको व्यक्ति भेदात् बहुपभूतं यथा स्यात् व्या विविधो माति भेदतो नानापकारेण ते, न केनापि लोकपालादिना संपादिता। किन्तु विसमापरिणतेन विसया-स्वभावेनैव ताशपरिणाममाप्तेन । 'ततस्तितघण पसिराए चउचिहाए आतोज्ज-विहीए उक्वेया' उतविततघनशुपिरेण चतुर्विधेन आलोधविधिनोपपेनाः, तत्र ततं वीणादिक, विततं-पटहादिव स्, घनकांस्यसालादिकम्, शुपिरं-वंशादिकम् एतद्रूपेण सामान्यतयार्विधेन-चतुःमकारेण अतः बजाने की विद्या में एवं वादिनों के निर्माण करने की विद्या में चतुर गन्धर्यों की तरह निपुग ये त्रुटिनांग जाति के कल्पवृक्ष भी हैं वे कल्पवृक्ष 'अणेग बहु विविहवीलला परिणोयाए तत वितत घण सुसिराए चउब्धिहाए आतोज्जविटीए उबवेपा' अपने अनेक वादिन प्रदानरूप कार्य में स्वाभाविक रूप से परिणाम वाले होने हैं अर्थात् हमका यहीतत वितत, घन, सुपर रूप अनेक प्रकार के शादित्रों को देनेरूप कार्य है इस प्रकार के कार्य करने रूप परिणाम वाले होते हैं इन्हें किसी ने बनाया नहीं है इन पूर्वोक्त वादित्रौकी सष प्रशारता इन्हीं तत, वितत घन, और सुपर रूए चार बादिनों में ही समा जाती है तत में वीणादिकों का समावेश हो जाता है वितत में पट ढोल आदिको का समावेश हो जाता है, घन में क्षांस्पतालादिकों का समावेश हो जाता है और सुषिर में वांसुरी आदिका समावेश हो जाता है इसी चार प्रकार की वाद्यविधि के स्वरूपन्न करने में ये कल्पवृक्ष तत्पर रहते हैं એવા ગંધર્વોની જેમ નિપુણ આ ત્રુટિતાંગ જાતીના ૯૫ વૃક્ષો પણ છે. मे मा ४८५१क्षो 'अणेगबहुविविह वीससा परिणायाए तत वितघणसुसिराए घउबिहाए आतोन्जविहीए उववेया' पाताना वाहन ३५सने मां વાભાવિક રીતે પરિણામવાળા હોય છે. અર્થાત તેનુ તત, વિતત, ઘન, સુષિર, રૂપ અનેક પ્રકારના વાજી ને આપવા એજ કાર્ય છે. આવા પ્રકારનું કાર્ય કરવા રૂપ પરિણામ વાળા હોય છે. તેને કેઈએ બનાવેલ નથી. એ પૂર્વોક્ત વાજીત્રની બધી જ પ્રકારતા આજ તત, વિતત, ઘન અને સુષિર રૂપ ચાર વાજીંત્રોમાંજ સમાઈ જાય છે. તતમાં વીણુ વિગેરેને સમાવેશ થઈ જાય છે વિતતમાં પટહુ-હેલ વિગેરેનો સમાવેશ થઈ જાય છે “ઘ' માં કાંસ્ય તાલાદિકને સમાવેશ થઈ જાય છે. અને સુષિરમાં વાંસળી વિગેરેનો સમાવેશ થઈ જાય છે. આ ચાર પ્રકારની વાદ્યવિધિને મેળવવામાં આ કલપ વૃક્ષો દત્ત वित्त २९ छे. तथा 'फलेहिं पुण्णा' णोथी ५ तमा सरेसा १ सय छे. Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३१ प्रद्योतिका टीका प्र. १ उ. ३ . ३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् वायविधिना उपपेताः - युक्ताः, 'फलेहिं पुण्णा विसंहति३' कुशविकुशविशेषवृक्षपूलाः मूलकन्दादिमन्तो यावद - प्रसादनीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा स्तिष्ठन्ति वर्त्तन्ते इति ३ ॥ अथ चतुर्थ कल्व वृक्षस्त्ररूपमाह - ' एगोरूय दीवेणं' इत्यादि, 'एगोरुय दीवेण दीवे' एकोरुद्वीपे खलु द्वीपे 'तत्थ ?' तत्र तत्र देशे 'बहवे दीवसिहा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' बहवोऽनेके द्वीपशिखा नाम दीपशिखा इव दीपशिखाः दीपवत् प्रकाशकत्वात् अन्यथा - तत्राग्नेरभावात् दीपशिखानामपि तत्रासंभवात्, तादृशा द्रुमगणाः कलरवृक्षाः प्रज्ञप्ताः - कविता', हे श्रमण आयुष्मन् ! 'जहा से संझादिरागसमए नवणिहिपक्षिणो दीन्रियाचक्क बालविदे' यथा ते सन्ध्यातथा 'फलेहि पुण्णा०' फलों से भी परिपूर्ण होते हैं इनके नीचे की जमीन भी 'कुलत्रिकुविद्धरुक्खमूला जाव चिह्नंति' कुश एवं विकुश से विहीन रहती है तथा ये भी प्रशस्त मूल स्कंध आदि वाले होते हैं । तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार यहां पर वादित्र अनेक प्रकार के होते हैं वैसे ही वहां के ये कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार के होते हैं | ३ | चतुर्थ कल्पवृक्ष का स्वरूप कथन 'एगोरुप दीवे' एकोरुरु द्वीप में 'तत्थ तथ' जगह २, 'बहवे दीन सिहा णाम दुमगणा पण्णत्ता समाउलो !' हे श्रमण आयुष्मन् ! अनेक दीप शिखा नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं । दीप में से जैसा प्रकाश निकलता है वैसा ही प्रकाश इनमें से निकलता है इसी कारण इनका नाम दीप शिखा कहा गया है यहां अग्नि नहीं होती है अतः यहां दीपों की शिखा का भी अभाव है पर यहां जो प्रकाश होता है तेमनी नीथेनी नमीन पशु 'कुस विकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति' भुश अने વિકુશ વિનાનીજ હાય છે. તથા તે પણ પ્રશસ્ત મૂળ સ્કંધ વિગેરે વાળા હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ અહિયાં અનેક પ્રકારના વાછા હેાવાનું કહેલ છે. એજ પ્રમાણે ત્યાંના આ કલ્પવૃક્ષે પણ અનેક પ્રકારના હાય છે. ૩ हवे थोथा उपवृक्षना स्वयतुं थनवासी गावे . ' एगोमयदीवे' शे४।३४ द्वीपसां 'तत्थ तत्थ स्थणे स्थणे. 'बह वे दीवसीहाणाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउलो' डे श्रमण आयुष्मन् द्वीयशिया नामना मने मध्यवृक्षो પ્રકાશ આમાંથી કહ્યા છે. દીવામાંવી જેવા પ્રકાશ નીકળે છે, એવાજ પશુ નીકળે છે, તેથીજ તેનુ' નામ દીપશિખા એ પ્રમાણે કહેલ છે. અહિયાં અગ્નિ હૈાતી નથી, તેથી અહ્રિયાં દીવાની શિખાને પણ અભાવ છે. પરંતુ मडियां ? अाश होय छे, ते से उत्पवृक्षोभ थी आवेसो होय छे, 'जहासे Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम विरागसमये नवनिधिपतेर्दीपिका चक्रवालवृन्दम्, तत्र संध्यारूपो विद स्तिमिररूपत्वात् रागः संध्याविरागस्तत्समये तवसरे नवनिधिपतेय. वर्तिन इव दीपिका चक्रबालवृन्दं तत्र हवा दीपा दीपिकाः तासां दीपिकानां चक्रयालं-चक्रसमूहः सर्वतः परिमण्डलरूपं वृन्दम् तत् कीटक वाह'पभूयवहिपलित्तणेहे' प्रभृतवर्तिपर्याप्तस्नेहम् तत्र प्रभूताः-भूयस्यः स्थूगः वर्तयः दशा यस्य तरथा एवं पर्यायः-परिपूर्णः स्नेहस्तेलादिरूपो यस्य सद पर्याप्तस्नेहम् 'घणि उज्जालियतिमिरमहए' घणयोज्वालिनु तिमिरमर्दकम् तत्र घणिय देशी शब्दोऽतिशयार्थः, तेन अतिशयोज्यालितम् अतएव तिमिरमर्दकम् अन्धकार विनाशकं तवृन्दम्, पुनः किं विशिष्टं दीपिका चक्रवाधवृन्दम् ? तबाह'कणग' इत्यादि । 'कणगणिगा कुसुमित पालियातय वणप्पगासे' कनकनिकर-कुसुमित पारिजातकवनप्रकाशम्, तत्र कनकनिकर:- सुवर्णराशिः कुमुमितं च तत् पारिजातकवनं चेति कुसुमित पारिजातकवनम् अनयोः प्रकाशेन तुल्या प्रकाशो विद्यते यस्य तत् कनकनिकर कुसममित पारिजातकवनप्रकाशम् एतत्तेपां तेजो. वर्णनं कृतम् । अथ दीपशिखा द्रुमगणवर्णनं क्रियते 'कंचणमणि रयण विमल यह इन्हीं कल्पवृक्षों से होता है जहा से संघाविरागसमए नवनिहि पइणो दीविया चकवालविंदे पभूयवस्पिलित्तणेहिं घणिउज्जालिय तिमिरमदए' अतः जिस प्रकार संध्या के समय में नव निधिपति अर्थात् चक्रवर्ती के यहां का दीपिका घृन्द कि जिस में अच्छी तरह से वत्तियां जल रही हों और जो तैल से भरपूर हो प्रज्वलित होता हुआ शीघ्रता के साथ तिमिर का विध्वंसक होता है और जिसका प्रकाश 'कणगनिगरकुसुमितपालि यातयणप्यगासे' कनक निकर के जैसे प्रकाश वाले कुसुमों से युक्त पारिजातक (देव वृक्ष विशेष) के वन के प्रकाश जैसा-प्रकाश होता है तथा-'कंचण मणिरयणविमल महरिय तवणिज्जुजल विचित्तदंडाहिं दीवियाहिं' जिन दीपिकाओं संज्झा विरागसमए नवविहि पदपणे दीविया चकवालविंदे पभूयवत्तिपलित्तणेहि घणिज्जालियतिमिरमदए' तथा रेभ सध्या समये नविपति मर्थात् ચક્રવતિને ત્યાંને દીપિકાવૃંદ દિવાનો સમૂહ કે જેમાં સારી રીતે બત્તી બળતી હોય અને જે તેલથી ભરપૂર હોય, પ્રજજવલિત થઇને એક દમ २२ नाश श छे. मने रेनो श 'कणगनिगर कुसुमितपालिया तयवणप्पगासो' 31 नि४२॥ २॥ शवामा सुमोथा युत सेवा पार Pandsना पनना ४/A वारेन डाय छे. तथा 'कंचणमणिरराण विमा Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३. उ.३ ३.३४ एकोरुकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५३३ महरिह तवणिज्जुज्जळ विचिचदंडाहिं दीवियाहिं' काञ्चनमणिरत्न बिमलमहार्ह तपनीयोज्जलं विचित्रदण्डामि दीपिकाभिः तत्र काञ्चनमणिरत्न - विमलाः काश्चनमणिरश्नवत् स्वाभाविकागन्तुकमलरहिताः, तथा महाई - महोत्सवा है तपनीयं - सुवर्णविशेषः तद्वदुज्ज्वलानि विचित्रवर्णानि दण्डानि यासां वास्तथा इत्थंभूताभिः दीपिकाभिः की श्रीभिः इत्याह 'सहसा पज्जकिऊसवियणिद्ध यदि पंत विमलमहमण समथाहिं' सहसा प्रज्वलितोत्सर्पितस्निग्ध तेजो दीव्यद् विमलग्रहगणसमप्रमाभिः, तत्र सहसा समकालं प्रज्वलितं च व उत्सर्पितं च सर्पणेन तथा स्निग्धं मनोहरं न तु नेत्रकटुतेजः ते दीयमानाः देदीप्यमानास्वापिः, तथा विमलोऽत्र शरत्कालिक रजनी गतत्वेन निर्मलो ग्रहगणो ग्रहसमूह - स्तेन समा प्रभा कान्तिर्यासां तास्ताभिर, पदद्वयोः समाहारद्वन्द्वः, 'वितिमिरकर सूरपसरिज्जोय चिल्कियाहि' वितिरिकर दीवेटों - पर ये दीपों की पंक्तियां रखी गई हो वे दीवेट कंचन के बने हों, मणियों के बने हों और रत्नों के बने हों कि जिनमें न स्वाभाविक मैल हो और न आगन्तुक मैल हो ऐसे निर्मल हों तथा जो महोत्सव के समय में ही स्थापित करने के योग्य हो तथा जिन दोवेटों के दण्ड तपनीय सुवर्ण विशेष-से दीप्त हों और जिनके ऊपर वह दीपावली 'सहसा पज्जलिय ऊसविगणिद्वतेय दिप्पंत विमल गहगणसमभाहिं' एक साथ ही एक ही समय जलाई गई हो और बन्सी को उसकेर कर जो अधिक प्रभा वालीकी गई हो और इसी से जिनका तेज ऐलामनोहर हो गया हो जैसा कि शरत्कालकी रात्रि में धूलि वगैरह रूप आवरण के अभाव से ग्रहगणों का-चन्द्र आदिकों का हो जाता है 'चितिमिरकर मरियत वणिज्जुज्जल विचित्तदंडाहिं दी वैयाहि' ने डीवीथानी हीवेट पर आ દીવાઓની પંક્તિયા રાખવામાં આવી હોય, તે દીવેટા સુવણુની બનેલી હાય છે મણિયાની ખની હાય છે, અને રત્નાની ખની હાય છે, કે જેમાં સ્વાભાવિક મેલ ન હય, તેમ આગંતુક મેલ પણુ ન હેાય, એવી નિર્દેલ હોય, તથા જે મહે।ત્સવના સમયેજ સ્થપિત કાવા લાયક હાય, તથા જે દીવેટાને દંડ તપનીય કહેતાં સુવર્ણ વિશેષથી પ્રકાશમાન હોય અને જેના ઉપર એ દીપાવલી दीवानी पडती ‘सहसा पज्जलिय ऊसवियणिद्धतेय दिपंत त्रिमलगहगणसमप्पभाहि એકી સાથે અને એકજ સમયે પ્રગટવામાં આવી હાય અને તેથીજ જેનુ' તેજ એવું મનેાહર બની ગયુ` હોય છે કે જેમાં શરકાળની રાત્રિમાં ધૂળ વિગેર भावरशुना अलावथी । द्रविगेरे होतुं ते होय छे. 'वितिमिरकर सुरपचरिय उज्जोयचिल्लियाहि" अने अधारतो नाश अरनारा रिवाजा Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे सूर्य प्रस्नोयोत दीप्यमानाभिः, तत्र वितिमिराः उज्ज्वलाकारा:-किरणा यस्य अप्तौ वितिमिरकरः- समुज्वलोकरण: स चासौ मूरश्च तस्येव प्रसृत उद्योत:प्रभा समूहः तेन 'चिल्लि पाहि' देशी शब्दोऽयम् दीप्यमानामिरित्यर्थः, 'जाल ज्जल पहसियामिराम हि' ज्वाले.ज्ज्वल प्रहसिताभिरामामिः तत्र ज्वाला एच यदुज्वलं प्रहसिबमिव महसितं प्रहसनं तेन अभिरामाः-रमणीयास्ताभिर्दीपिकामिः 'सोभेमाणा' शोभमानाः तत्र ते दीवसिहा वि दुमगणा' तथैव ते द्वीपशिखा थपि द्रुमगणाः 'गणेगबहु विविवीससापरिणयाए उज्जोयविहीए उबवेया' 'अणेगबहुविविध-दिखसापरिण तेन उद्योतविधिनोपपेताः 'फलेहिं पुण्णा' फलै पूर्णाः 'विसति' दलन्ति-विकसन्ति .'कुसविकुस वि० जाव चिटति' कुशवि. कुश विशुद्ध घृक्षमूला मूल पन्तः कन्दवन्तो यावत्तिष्ठन्ति इति ।४।। सूर पलरिय उज्जोय चिल्लियाहिं' और जो अन्धकार विनाशक हिरणों शले सूर्य की फैली हुई प्रभा के जैसी चमकीली पनी हुई हो तथा-'जालु जलपसिधाभिरामाहि' जो अपनी मनोहर उजज्दल प्रभा ले मालो हंस ही रही हो ऐली प्रनीति में आरही हो तो जैसी-'सोभेमाणा' वह दीपावली शोभित होती है 'तहेव' उसी तरह से 'ते दीव सिहा बिदुमपणा' दीपशिखा नाम के कल्पवृक्ष भी 'अणेग बहु विचिहवीलसा परिणघाए उज्जोयविहीए उश्वेधा फलेहि पुष्णा' अनेक विविध प्रकार के उद्योत परिणाम से स्वभावतः परिणत होने बाली उद्योत विधि से युक्त होते हैं तथा-फलों से परिपूर्ण यने रहते हैं इनका भी नीचे का नाम 'कुसविकुस' कुश और विकुश से रहित होता है और ये भी प्रशस्त मूल आदि विशेषगों वाले होते है। तात्पर्य यही है कि जिस प्रकार से यहां दीपक अनेक प्रकार के होते हैं सूर्यना ये शनापी यमसी मने य तथा 'जालुज्जल पहमि याभिरामाहि' पातानी मनोहर मन Ena प्रमाथी माना भी २४० हाय, मेवी पात्री थती हाय तातहीपणा व 'सोभेमाणा' श.साय मान थ.य छे, 'तहेव' मे प्रमणे 'ते दीवसिहावि दुमगणा' ५शिमा नामना ४८५ वृक्षपाय 'अणेगबहु विविहवी सापरिणयाए उज्जोयविहीए उववेया फले हिं पुण्णा' विवि५ ५२ना भने धोत परिणामथा स्वमाथी परिणत થવાવાળી ઉદ્યત વિધીથી યુક્ત હોય છે તથા ફળેથી પરિપૂર્ણ બનીને २७ छ. तनी नायनी माग 'कुस विकुस' सुश भने विश विनाना હોય છે અને તે પણ પ્રશસ્ત મૂળ વિગેરે વિશેષ વાળો હોય છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એજ છે કે જેમ અહિયાં અનેક દીવાઓ હોય છે, એ જ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिकाटीका प्र.३ उ.३ ७.३४ एकोसकद्वीपस्याकारादिनिरूपणम् ५३५ भय पञ्चमकल्पवृक्षस्वरूपमाह 'एगोरुप दीवे' इत्यादि 'एनोख्य दीवेणे' एको. रुक द्वीपे खलु तत्थ २' तत्र तत्र देशे 'बहवे-'जोसियाणामदुमक्षणा पणत्ता समणाउसो' बहवो ज्योतिषिका नाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ता:-कषिताः, हे श्रमण आयुष्मन् ! ज्योतींषि ज्योतिष्काः देवाः ते एव ज्योतिषिकाः, अब ज्योतिषिक शम्देन ज्योतिष्क देवाधिपतित्वात् सूर्या गृयते सूर्य प्रकाशकारित्वेन वृक्षा अपि ज्योतिषिकाः कीदृशास्ते ? वाह-'जहा से अरिरुग्गयसरयस्सर मंडल पड़त. उक्कासहस्सदिप्पंतविज्जुज्जालहुयबहनिर्धमलिय निद्धंत धोयतत्त तवणिज्ज किनुपातोयजनाकुसुम विमउलिय पुनमणिरयणकिरण नञ्च हिंगुलयणिगर रूवापैसे ही वे कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार के होते हैं ।४। पांचवे कल्पवृक्ष का स्वरूप कथन । 'एगोरुय दीवेणं' उस एकोरुक नान के द्वीप तथ्य २' जाह २ 'यहवे जोतिलिया णाम दुमणा पण्णता' अनेक ज्योतिषिक नाम के द्रुमगण कल्पवृक्ष-कहे गये हैं यहां ज्योतिपिश शब्द से ज्योतिषिक देव लिये जाते हैं यहां ज्योतिपिक देवाधिपति सूर्य होने से सूर्य गृहीत हुआ है जैसा सूर्य सर्वत्र प्रकाश करता है वैसा ही प्रकाश ये ज्योतिपिक कल्पवृक्ष भी करते हैं-अतः प्रकाशकारित्व को समानता को लेकर इन वृक्षों का नाम भी ज्योतिषिक ऐसा हो गया है ऐसे वहां ज्योतिषिक नामक द्रुमगण हैं-हे अमण आयुष्मन् ! वे कैसे हैं ? उनका वर्णन करते हैं-'जहा से अचिरुग्णयसरयसूरमंडलपडतासहस्क्ष दिपंत विज्जुज्जालहुयवह निधूमजलिय रिद्धंन घोषत्तत्ततवणिज किया પ્રમાણે આ કલ્પવૃક્ષ પણ અનેક પ્રકારના હોય છે. ૪ ___ पायम ४६५वृक्षना स्व३५नु वे थन ४२१मा आवे छे. 'एगोरुय दीवेणं' ते ३४ नामना द्वीपमा 'तत्थ तस्य' २थले २थणे 'ववे जोतिसिया णाम दुमगणा पण्णत्ता' भने च्यातिषि नामना दुभाय ४६५वृक्ष वा छे. माडियां તિષિક શબ્દથી તિષિકદેવ લેવામાં આવેલ છે. અહિયાં તિષિક દેવના અધિપતિ સૂર્ય હોવાથી સૂર્યને ગ્રહણ કરાયેલ છે. સૂર્ય જે પ્રમાણે સર્વત્ર પ્રકાશ કરે છે. એ જ પ્રમાણેને પ્રકાશ આ તિષિક નામના ક૫ વૃક્ષે પણ કરે છે. તેથી પ્રકાશ કારિતાના સમાન પણાને લઈને આ વૃક્ષેના નામ પણ જ્યોતિષિક એ પ્રમાણે થયા છે એવા એ જ પોતિષિs નામના દ્રષગણ છે है श्रम मायुभन् । सेवा छ ? ते पन ४२वामां भाव छ, 'जहाले अविरुगय सरय सूरमडलपडत उक्कासहस्सदिप्प विज्जुज्जालवह निमअलिय निद्धत घोयतत्ततवणिज्ज किसयासोयजवाकसमविमउलियजमणिरयण Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमत्र हरेगल्या' यथा से अचिरोद्त-तत्कालोदित्त शररर्यमण्डपतदुल्कासहस दीप्यमान विधुज्जालहुयह निधूप्रज्वलित निर्मातधीततप्ततपनीय किंशुका. शोक नपाकुसमविमुकुलित पुजमणि रत्नकिरण जात्यहिगुलक निकररूपाति: रेकरूपाः, तत्र कल्पवृक्षाः कोशा इति तेषां रक्तवर्णवं वर्णयति-'जहा तेथचिराग' इत्यादि, अचिरोन्नता तहकालोदितं शरत्कालिक सूर्यमण्डलम्, यया पा पतदुल्कासह दीप्यमानं विद्युज्नालय विद्यु-द्रुहरूम् यथा निधूपो धृमरहितो जालियो दीप्तो पो हुनबहः अग्नः निर्धूम बलिरपदयोः परनिपातः सौत्रत्वाद, तथा नि तिमग्नि संयोगेन शापितं पुनश्च धोतं-शोधितं पुनस्तप्तं च तादृशं तपनीयं-सुवर्णविशेषः, तथा-भत्र कुमुप शब्दम्य किंशुकाशोम-जपाशब्दैः सह प्रत्येकं सम्बन्धम्तेन विमुकुलितं विकसितमफुल्लिवं यत विशुककुसुमम् अशोक कु उपम्, जपाकुसुपं चेति, ते पुजः, समुदाय, तथ। मणिरस्नानां किरणाः, तथा जात्यहि गुलकनिकरः शुद्धः-जातीय हिंगुलकसमुदायः, एतेषां पूर्वोक्तानामचिः रोद्तशरत्सूर्यादीनां रूपेभ्योऽतिरेकेण अतिशयेन यथायोग्यं वर्णतः प्रभया च रूपं-स्वरूपं येषां ते तथा । 'तहेव ते जोइसिया वि दुमगणा' तथैव अचिरोद्गत सोय जवा कुसुमदिमउलिय पुंज मणिरयणकिरण जच्चहि गुलुय णिगररूबाइ रेगरूया' जैसा अचिरोद्गत तुरंत उदित हुवा शरद कालका सूर्य मण्डल, गिरता हुआ उल्का सहन, चमकती हुई विजली ज्वाला सहित निर्धूम प्रदीप्त अग्नि, अग्नि संयोग से शुद्ध हुमा तप्ततपनीय सुवर्ण विकसित हुए किंशुक पुष्पों अशोक पुष्पों, और जपापुष्यों का समूह, मणियों एवं रत्नों की किरणे एवं श्रेष्ठ 'जातिवं' हिंगुलका समुदाय अपने२ स्वरूप से अधिक सुहावना लगता है-या अधिक तेजस्वी होता है 'तहेव ते जोनिसिया वि दुमगणा' उसी प्रकार से ये ज्योतिषिक कल्पवृक्ष भी हैं अर्थात् सूर्यादिक के जैसे प्रकाश देने वाले ये कल्पवृक्ष भी अधिक तेजस्वी होता हैं। 'अणेग यह किरण जच्च हि गुलुय णगर स्वाइरेगरूवा' म तरतना l श२६ કાળને સૂર્ય પડતી એવી ઉલકા સહસ્ત્ર, ચમકતી વિજળીની જવાલા સહિત ધૂમાડા વગરના અગ્નિના સંયોગથી શુદ્ધ થયેલ તપેલું સેનું, ખીલેલા કેસુડાના પુ, અશોકના પુષ્પ, અને જપા-જાવંતિના પુપને સમૂહ, મણિ અને रत्नानार! अन श्रेष्ठ 'जातिवंत' हंगाना समुदाय पतिचाताना १३५ थी पधारे ते सायमान सागे छ अथवा पधारे तस्वी साय छे. 'तहेव ते जोतिसयावि दुमगणा' से प्रभारमा स्यातिषि द्रुभगः। ५६ छे. मात् સૂર્ય વિગેરેની જેમ અધિક પ્રકાશ આપવાવાળા આ કલ્પવૃક્ષો પણ અધિક Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३५ एकोषकद्वीपस्थाकारादिनिरूपणम् ५३७ सर्यादिवदेव ते ज्योतिपिका अपि द्रुमगणाः, 'अणेग यहुविविहवीससा परिणयाए उज्जोयविहीए उबवेया' अनेक बहुविविध विस्रसापरिणतेन उद्योत विधिना. उद्योत प्रकारेण उपपेता युक्ताः 'मुहलेस्ता' शुभलेश्या:, अथ यदि सूर्यमण्डलमत् इमे टेक्षा अपि प्रकाशकास्तहि सूर्यादिवदेव दुनिरक्ष्यत्व तीवत्व जङ्गमत्यादि धर्मोपेता अपि हे वृक्षा भविष्यन्तीत्यत आह-'सुहलेस्सा' शुभलेश्या:-शुमारे तेजः पदम शुक्लरूपाः सुखा सुखकारिणी वा लेश्या येषां ते शुभलेश्या सुखलेश्या वा, तथा ता अपि 'मंदलेरसा' मन्दा तीघ्रता रहिता लेश्या येषां ते मन्दलेश्या:, अतएव 'मंदायवस्टेस्सा' मन्दातपलेश्या:, मन्दातपा-मन्दो य आतपः सूर्यप्रकाशस्तत्साशा लेश्या येषां ते मन्दातपलेश्याः, सूर्यमण्डलाघातपस्य तेजो यथा दुस्सहं भवति न तथा तेषां वृक्षाणां तेनो दुःयह मित्यर्थः, 'कूडा इच ठाणठिया' कूटानीव स्थानस्थिताः, तत्र-कूटानि-पर्वतादि शृङ्गाणि तद्वत् स्थानस्थिताः स्थिरा इत्यर्थः, समयक्षेत्र वहिर्वतिनो ज्योति का इत्र ते वृक्षा अवमासय. विविहवीसेसापरिणयाए उज्जोयविहीए उववेया' इस प्रकार की वस्वभाव से ही परिणत होने वाली अनेक रूपवाली उद्योत विधि से युक्त होते हैं। 'सुहलेला' इनकी लेश्या सुख कारिणी है. सूर्यादिक के प्रकाश जैसी दुनिरीक्ष्य नहीं है आतापकारिणी नहीं है 'मंदलेस्सा' किन्तु मंद है तथा 'मंदायवलेस्सा' इनका जो आताप है वह भी मन्द है तीव नहीं है सूर्यातप समयानुसार दुःसह भी होता है वैसा-उनका आताप प्रकाश दुःसह नहीं है 'कूडा इव ठाणठिया' जिस प्रकार पर्वतादि के शिखर एक स्थान पर बने रहते हैं-खडे रहते -अचल रहते है-अर्थात् समय क्षेत्र से बाहर रहा हुवा जैसा ज्यो. तिष्क मण्डल एक स्थान पर अचल कहा गया है वैसे ही ये भी अपने ती छे. 'अणेगबहु विविहवीससा परिणयाए उज्जोयविहीए ववेया' मा પ્રકારના સ્વભાવથીજ પરિણત થવાવાળા અનેક રૂપવાળી ઉદ્યોત વિધિથી યુકત हाय छे. 'सहलेस्सा' तमनीवेश्या सुमारी डाय छे. सूर्य विना प्र શની જેમ ન જોઈ શકાય તેવી તીવ્રરૂપ હોતી નથી. તેમ તાપ પહોચાડવાવાળી ५ नथी 'मदस्मा' तनी वेश्या सुभ ४२वावाणी छे. ५ मह छे. तथा 'मदायवलेस्सा' तेने, २ माता५ छे, ते ५५ भई छ, तीन नयी. सूर्यना તડકે સમય પ્રમાણે અસહા પણ હોય છે. આને આતપનામ પ્રકાશ એવો असा हात नथी. 'कूडाइव ठाणठिया' म त विगैरेना शिम से સ્થાન પરજ સ્થિર રહે છે. અર્થાત્ અચલ રહે છે, અર્થાત સમય ક્ષેત્રની બહાર રહેલ જેમ જ્યોતિષ્કમંડળ પણ એક સ્થાન પર અચળ રહે છે, એજ जी. ६८ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ श्रीवाभिगम न्तीति भावः । 'अन्नमन्न- समोगावाहि लेस्साहि' अन्योऽन्य समचगादाभिर्लेश्याभिः सहितास्ते वृक्षाः 'साए पभाए सपएसे सम्बओ समंता ओमासंति' ते वृक्षाः स्वकीयया प्रभया स्मदेशान् सर्वतः सर्वासु दिक्षु समन्ताद= सामस्त्येन अवमासन्ते 'उज्जोदेति पभासे 'ति' उद्योतन्ते प्रभासन्ते 'कुसचिकुस वि जाव चिह्नंति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्षमूला यावत् मूलकन्दादिमन्तः प्रासदीया दर्शनीया अभि रूपाः पतिरूपस्तिष्ठन्तीति, व्याख्यानं पूर्ववदेव ज्ञातव्यमिति ५ || ० ||३५|| मूळम् - एगोरुय दीवे तत्थ २ बहवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से पेच्छाघरे विचित्ते रम्मे वरकुसुमदाममालुजले भासंत मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए विरलि विचित्त महसिरिदाममहसिरि समुदयपगन्भे गंथिम वेढिम पूरिम संघाइमेण सल्लेण छेयसिप्पियं विभागरइएण सव्वओ वेव समवद्धे पविरललं बंत विप्पइट्ठेहिं पंचवण्णेहिं कुसुमदामेहिं सोभमाणेहिं सोममाणे वणमालकयगाए चेव दिप्पमाणे तहेव विगया विदुमगणा अणेगवहुविविह वीससा परिणयाए मलविहीए उपवेया कुपत्रिकुसविसुद्ध जाव चिति६ । एगोरुय स्थान पर अचल रहते हैं 'अन मन्न समोगाढाहि लेस्साहि साए पभाए सपदे से सभी क्षमता ओभासेति' एक दूसरे में समाये हुए अपने प्रकाश द्वारा ये अपने प्रदेश में रहे हुए पदार्थो को सब दिशाओं में सम्पूर्ण रूप से प्रकाशित करते हैं 'कुल विकुस जाय चिट्ठति' इन पदों का व्याख्यान पूर्व के ही जैसा है। तात्पर्य यही है कि जैसे ये प्रकाश शील पदार्थ विविध प्रकार के हैं उसी प्रकार से ज्योतिषिक नामक कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार के हैं। सूत्र ३५|| प्रभा मा पशु पोताना स्थान पर अयस रहे छे. 'अन्नमन्नसमोगाढाहि लेस्साहि खाए पभाए सपदेसे सव्वओ समता ओभासेति' थे श्रीलमां સમાવેલા પેાતાના પ્રકાશ દ્વારા આ પેાતાના પ્રદેશમાં રહેલા પદ્મ ચેનેિ બધીજ तरस्थी अधी हिशासभां संपूर्ण पद्याथी प्राशित उरे छे. 'इस विकुसजाव चिट्ठति' मा होना अर्थ पहेला उद्या प्रभावेन हे अहेवानु' तात्पर्य છે કે જેમ આ પ્રકાશશીલ પદાર્થ અનેક પ્રકારના ઢાય છે, એજ પ્રમાણે આ નૈતિષ્ઠ નામના કલ્પ વૃક્ષ પણ અનેક પ્રકારના છે. સૂ. ૩પપ્પા Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३९ प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उ. ३ . ३६ पकोरुकद्वीपस्थितद्रुमगणवर्णनन् दीवे तत्थर बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से सुगंधबरकलमसालि विसिट्ट निरूवहयदुद्धरद्धे सारयघयगुड खंडम हुमेलिए अइरसे परमण्णे होज उत्तम वण्णगंधमंते रण्णो जहा वा चक्कवट्टिस्स होज णिउणेहिं सूयपुरिसेहि सज्जिएहिं वाउक पलेय सित्ते इव ओदणे कलमसालिणिव्वत्तिए विपके Hoatia विसयसगल सित्थे अणेगसालणगसंजुत्ते अहवा पडिपुण्ण दव्वक्खडेसु सक्कए वण्णगंधरसफरिसजुत्त बलवीर परिणामे इंदिय बलपुविद्धणे खुप्पिवासमहणे पहाण कुहियगुलखंड मच्छंडी घयउवणीए पमोयगे सहसमियगन्भे हवेज परमइहूंगसंजुते तहेव ते चित्तरसा वि दुमगणा अगबहुविविध वीससा परिणयाए भोयणविहीए उववेया, कुसविस विसुद्ध जाव चिट्ठति७ । एगोरुय दीवेणं तत्थ तत्थ बहवे मणिगंगा नाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से हारद्धहार वट्टणम मउडकुंडलवामुत्सग हेमजाल मणिजाल कणगजालग सुत्तगउच्चिइकडगा खुड्डिय एमावलि कंठसुत्तपगरिय उरक्खंध गेवेज सोणिसुत्रागचूलामणिकणग तिलगफुलसिद्धस्थय कण्णवालि ससिसूर उसभचकगतल मंगतुडिय हत्थमालगवलक्खदीणारमालिया चंदसूरमालिया हरिसय केयूरवलय पालंब अंगुलेजग कंची मेहलाकलाव पयरगपाडिहारिय पाउजलघंटिय खििखखिणि रयणोरुजालत्थिमियवरणेउरचलणमालिया कणगणिगरमालिया कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता भूसगविहि बहुप्पगारा तव ते मणिगंगा विदुमगणा अणेगबहुविविह वीससा परिणयाए भूमणविहीए उक्वेया, कुपत्रिकुस विसुद्ध जाव चिट्ठति ८ । गोरु दीवे तत्थर बहवे गेहागारा नाम दुमग़णा पण्णत्ता सम Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DIRED ५४० जीवाभिगमसूत्र णाउसो! जहा से पागारट्टालगचरिय दारगोपुर पासाया कासतलमंडव एगसाल विसालगतिसालगचउरंस चउसालगन्भघरमोहणघर वलभिघर चित्तसालमालयभत्तिघर वहृतंस घउरंस गंदियावत्त संठियायत पंडुरतल मुंडमालहम्मियं अहवणं धवलहरअद्धमागह विब्भमसेलद्धसेलसंठिय कूडागारट्ट सुविहिकोटुग अणेगघर सरणलेण आवण विडंगजालचंदणिज्जूह अपवरक दो वारिय चंदसालियरूव विभत्तिकलिया भवणविहि बहुविगप्पा तहेव ते गेहागारा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वीससा परिणयाए सुहारुहण सुहोताराए सुहनिक्खमणप्पवेसाए ददरसो. पाणपंति कलियाए पइरिकाए सुहविहाराए मणोऽणुकूलाए भवणविहीए उववेया, कुसविकुसविसुद्ध जाव चिटुंति९ । एगोरुयदीवे तत्थर बहवे अणिगणा णामं दुमगणा पणत्ता समणाउसो! जहा से अणेगसो आजिणन खोम कंवल दुगुल्लकोसेज्जकालमिग पट्टचीणंसुय वरणातवार वणिगय तुआ भरणचित्तसहिणगकल्लाणगभिंगिणीलकज्जल बहुवण्णरत्तपीयसुक्किलमक्खयमिगलभिहमप्फ रुण्णग अवसरत्तगसिंधु ओसभदानिलवंगकलिंग नेलिणतंतु मय भत्तिचित्ता वत्थविहि बहुप्पकारा हवेज्जवरपट्टणुग्गया वण्णरागकलिया तहेव ते अणियणा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वीससा परिणयाए वत्थ विहीए उववेया कुसविकुसविसुद्ध जाव चिटुंति१० ॥सू० ३६॥ छाया-एकोरुकद्वीपे तत्र तत्र वहश्चित्राङ्गानाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणा युष्मन् ! यथा तत् प्रेक्षागृहं विचित्रं रम्यं वरकुसुमदाम-मालोज्यलं भासमानमुक्त पुष्पपुञोपचारकलितम्, विरल्लितविचित्र माल्य श्रीदाममाल्य श्रीसमुदाय प्रगल्भं ग्रन्थिम वेष्टिम पूरिम संघातिमेन माल्येन छेक शिल्पि विभागरवितेन सर्वत एव समन्वद्धम् मविरलम्बमान विभकृष्टैः पञ्चवर्णैः कुसुमदाममि शोभ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३.२६ एकोरुकद्वीप स्थितद्रुमगणवर्णन ५४१ मानैः शोभमानं वनमाळकृत प्रमेव दीप्यमानम्, तथैव ते चित्राङ्गका अपि द्रुमगणाः अनेक बहुविविध वित्रसावरिणतेन माल्यविधिना उपपेताः कुशविकुश विशुद्ध यावतिष्ठन्ति ६ । एकोरुरुद्वीपे तत्र तत्र वहवचित्ररसा नाम दुवगणाः मज्ञप्ताः श्रमणा युष्मन् ! यथा तत् सुगंधवरकळमशालिविशिष्ट निरुन्द्दत दुग्धराद्धम्, शारदघृतगुडखण्डमधुमेलित मतिरसं परमान्नं भवेत् उत्तमवर्णगन्धवद् राज्ञो यथा वा चक्रवर्त्तिनो भवेत् निपुणैः सूपपुरुः सज्जितैः चटुफला सेकसिक्त इचौदनः कलमशाल निर्वर्त्तितो विपक्वः सवाष्पमृदु विशदसकल सिक्थः अनेक शालनकसंयुक्तः अथवा परिपूर्ण द्रव्योपस्कृतः वर्णगन्धरसस्पर्शयुक्त वळवीर्यपरिणाम इन्द्रियबलपुष्टिवर्द्धनः क्षुत्पिपासामथनः प्रधानक्वथित गुड खण्ड मत्स्यण्डिका घृतोपनीतः प्रमोदकः श्लक्ष्ण समितगर्भो भवेत् परमेष्टाङ्ग संयुक्त स्तथैव ते चित्ररसा अपि द्रुमगणा अनेक बहुविविध विश्वसापरिणतेन भोजनविधिनोपपेताः कुशविकुश विशुद्ध यावतिष्ठन्ति ७ । एकोरुकद्वीपे खलु तत्र तत्र बहवो मण्यङ्गानाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! यथा ते हारार्द्धहारवर्त्तनक मुकुट कुण्डल वामुत्त हेमजाल मणिजाल कनकजाळक - सूत्रोकाच्ययित कटक केकावलि कण्ठसूत्रमकरिकोरः स्कन्धग्रैवेयक श्रोणीसूत्रक चूडामणि कनकतिलकपुल्ल सिद्धार्थककर्णपालिशशि सूर्य ऋषभचक्रकतल भंग त्रुटितहस्त माळकर लक्षदी नारमालिका चन्द्रसूर्यमालिका हर्षक केयूरवळ्य प्रालम्बाङ्गुलीयककाञ्चीमेखळाकलापमतरकमातिहारिक पादोज्ज्वल घण्टिका किङ्किणीरत्नोरुजाकस्तिमित वरनूपुरचरणमळिका कनकनिकरमालिकाकाञ्चन मणिरत्नभक्तिचित्राभूषणविधि बहुप्रकारास्तथैव ते - यङ्गा अपि द्रुमगणाः अनेक बहुविविध विस्रसापरिणतेन भूषण - विधिनोपपेताः कुशविकुश विशुद्ध यावतिष्ठन्ति ८ । एकोरूद्वीपे तत्र तत्र बहवो गेहाकारानाम द्रुमगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्यन् ! यथा ते प्राकाराट्टालक चरिकद्वार गोपुरमासा दाकाशतलमण्डपे शाल- द्विशालक त्रिशालक चतुरस्र चतुःशाल गर्भगृहमोहनगृहचकभी गृह faraientosafaगृह वृत्तत्र चतुरस्रनन्दिकावर्त संस्थितायतपाण्डुरतलमुण्डनार्म्यम् अथवा खलु धवलहरादूर्द्ध मागध-विभ्रमरौला दुर्धशेल संस्थित कूटाकारस्थ सुविधि कोष्ठकाने कगृह-सरणलयनापण विडंक जाल चन्द्रनिव्यूहापवरक aire चन्द्रशालिकारूप विभक्ति कलिता भवन विधिवहुविकल्पाः तथैव ते गेहाकारा अपि द्रुमगणाः अनेक बहुविविवित्र सापरिणताः सुखारोहणेन सुखोत्तारेण सुखानिष्क्रमणः प्रवेशेन दर्दरसोपानपंक्तिकलितेन प्रतिरिक्तेक सुखविहारेण मनोऽनुकूलेन भवनविधिनोपेताः कुशविकुश विशुद्ध वृक्षमूला यावत्तिष्ठन्ति ९ । एक रुकद्वीपे तत्र तत्र वस्त्रोऽग्नानाम द्रुमगणाः प्रज्ञताः श्रमणायुष्मन् ! यथा ते अनेक आजिनकक्षौमकम्बलकूल कौशेयकालमृत पट्टचीनांशुकरणात वरवणिगयतु आगरण चित्रश्लक्ष्ण कल्याणक भृङ्गीनोलकज्जल - बहुवर्ण रक्तपीतशुक्ल Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પરું जीवाभिगमसूत्र म्रक्षितमृगलोमहेम अदरुत्तरग सिन्धुऋषभ-तामिलवंग करिङ्ग नेलिन तन्तुमय भक्तिचित्रा वस्त्र विधि बडुपकाराभवेयुर्वर पतनोद्गताः वर्णराग कलितास्तथैव ते अनग्ना अपि द्रुमगणाः अनेकवहुविविध विस्रसापरिणतेन वस्त्रविधिनोपपेताः कुशविकुश विशुद्ध यावत्तिष्ठन्ति १०॥ सू० ३५॥ टीका-'एगोरुपदीवे' इत्यादि । 'एगोरुपदीवे तत्थ २ एकोरुकद्वीपे तत्र तत्र देशे 'वह वे चिचंगा णाम दुमगणा पन्नत्ता समणाउसो' वह्वोऽनेके चित्राङ्गा नाम द्रुमगणा:-कल्पवृक्षाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण आयुष्मन् ! चित्राणिनानाविधानि अङ्गानि वस्तुविभागरूपाणि तत्संपादकत्वाद् वृक्षा अपि चित्राङ्गाः कथयन्ते । 'जहा से पेच्छाघरे' यथा तत् प्रेक्षागृहम-नाटयशाला 'विचित्ते विचि. त्रम्-नानामकारक चित्रोपेतम् एव 'रम्मे' रम्पम्-द्रष्टणां मनस आल्हादजनकम्, पुनः कथं भूतं प्रेक्षागृहम् तत्राह-'वरकुसुमदाममालुज्जले' वरकुसुम छठे कल्प के वृक्ष का वर्णन 'एगोरुग दीवे तत्थ २ षहवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता' इ. टीकार्थ-हे अषण आयुष्मन् ! उस एकोरुक नाम के द्वीप में जगह २'यहवे चित्तंगा नाम दुमणा पण्णत्ता' अनेक चित्राङ्ग नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं। ये कल्पवृक्ष मांगल्य के कारण मृत अनेक प्रकार के चित्रों को प्रदान करते हैं इसलिये उनके प्रदाना होने के कारण उनका नाम भी चित्राङ्ग हो गया है वे कैसे हैं उनको वर्णन करते हैं-'जहा से पेच्छाघरे' जैसा कोई प्रसिद्ध प्रेक्षागृहनाट्यशाला हो विचित्ते' नाना प्रकार के चित्रों से युक्त होकर 'रम्मे' देखने वालों के मन को आहलाद देता है, और जिस प्रकार वह 'वर कुसुमदाम मालुज्जले' हवे छट्४। ४६५ वृक्षनु वन ४२वामां आवे छे 'एगोरुग दीवे तत्थ तत्थ बहवे चित्तंगा णाम दुमगणा पण्णचा' त्या. ટીકર્થ–હે શ્રમણ આયુશ્મન એ એકરૂક નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે 'बहवे चित्तंगा नाम दुमगणा पण्णत्ता' Nिain नामना मने ४६५gal हेस છે. આ કલ્પવૃક્ષો માંગલ્યના કારણભૂત અનેક પ્રકારના ચિત્રો આશ્ચર્ય જનક વસ્તુ આપતા રહે છે. તેથી ચિત્ર આપનાર હોવાથી તેનું નામ પણ ચિત્રાંગ એ પ્રમાણે થયેલ છે. તે કેવા છે ? તે સંબંધમાં તે વૃક્ષોનું હવે વર્ણન કરपाभा मा छे. 'जहा से पेच्छाधरे' रेभ प्रसिद्ध प्रेक्षाय ना लाय, ''विचित्तेत भने ५४२ना चित्राथी युश्त ने 'रम्म भावना भनन त्य' HAadi surन ४२ छ, भनभ 'वरकुसुम दाम मालुज' ०४ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ १.३६ एकोरुकीपस्थितद्रुमगणवर्णनम् ५४३. दाममालोज्वलम् वरकुसुमदाम्नां माला:-श्रेयस्ताभिरुज्वलम् अतिशयितशोभाकारकम् 'भासंतमुक्कपुप्फ पुंजोवयारकलिए' भासमानमुक्त पुष्पपुञ्जोपचारकलितम् विकासितक्या मनोहारतया भासमानो दीप्यमानो मुक्तो यः पुष्पपुस्रोपचा. रस्तेन कलितं युक्तम् ‘विरल्लिय विचित्तमल्लसिरिदायमल्लसिरि समुदयप्पगम्भे' विरल्लित विचित्र माल्य श्रीदाम माल्यश्री समुदय प्रगलमम्, तत्र विरल्लितानि-- विस्तारितानि विचित्राणि यानि माल्यानि श्रीदाममाल्यानि च-अथित पुष्पमालाः तेषां य: श्रीसमुदायः- शोमापकर्षः तेन प्रगल्भम्-अतीव परिपुष्टम् 'गंथिमवेढिमपूरिमसंघाइमेण मल्लेण छैयसिप्पिविभागरइएण' ग्रन्थिमवेष्टिम पूरिमसंघातिमेन माल्येन छेकशिल्पिविभागरचितेन, तत्र ग्रन्थितं कौशलातिशयात्. पुष्पाणां ग्रन्थिसमुदायेन निसितम्, सुत्रेण प्रथितं वा वेष्टिमम्-पुष्पसमुदायेन वेष्टयित्वा वेष्टयित्वा यनिर्मित तत् संघातिमम्-संघातेन समूहेन निर्मितम्, यत् पुष्पाणां परस्परतोनाल संघातेन संघातितम् पुष्पं पुष्पेण परस्परं नालमदेशेन संयोज्य संयोज्य निर्मितम् । एवंविधेन चतुष्प्रकारकेण माल्येन माल्या कीदृशेन ? इत्याह-छेकश्रेष्ठ पुष्पों की सुन्दर २, मालाओं से अतिशय रूप में शोभित होता है, 'भासंत मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए' तथा-विकसित होने से मनोहर बने हुए दीप्यमान ऐसे इधर उधर पडे पुष्प पुंजो से वह जैसा सुहावना लगता है 'विरल्लिय विचित्त सिरिदाममल्ल सिरि समुदयप्पगन्भे' तथा जैसा वह विरल पृथक पृथक् रूप से स्थापित की हुई विविध प्रकार की गूधी हुई मालाओं की शोभा के प्रकर्ष से जनमन हर्षक होता है. 'गंथिम वेढिम परिमसंघाइमेणं मल्लेण छेगसिप्पि विभागरइएणं सब्द ओचेव समणुबद्धे' ग्रन्थित जो चातुर्यता से फूलों की परस्पर गांठों से गूंथी हुई अथवा सूत्र से गूथी गई होती है-वेष्टित आपस में एक दूसरी माला के साथ तरके ऊपर तर करके यानी सुर सु२ भागामाथी सत्यत मायमान हाय छ भासतमक्क पुप्फपुजोवयारकलिए' तथा विसित पाथी ते अत्यत शमायमान सागे छे. 'विरलियविचित्तसिरिदाममल्लसिरिसमुदयप्पगन्मे' तथा विस मे है જુદા જુદા સ્થાપિત કરવામાં આવેલ અને અનેક પ્રકારથી ગુંથવામાં આવેલ भावामानी शालाना थी न भनने 61वे छे 'गंथिम वेढिह पूरिमसंधाइमेण' मल्लेण छेगसिप्पिविभागरइएणं सव्वओ चेव समणुवर्द्ध' थिम એટલે કે ચાતુર્યતાથી કુલની પરસ્પર ગાંઠેથી ગુંથવામાં આવેલ અથવા દોરાથી ગુંથવામાં આવેલ હોય છે વેષ્ટિત પરસ્પર એક બીજી માળાઓની સાથે ઉપર નીચે કરીને ગૂંથેલ હોય છે. પૂરતિ કોઈ આકૃતિ વિશેષના છિદ્રોમાં પુષ્પો Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ जीवाभिगमन शिलिपना-परमद क्षेण कळावा विभागरचितेन-विभक्तिपूर्वक कृतेन 'सम्बो चेव समणुवर्धे' सर्व:-सर्वासु विक्षु समनुवधम् 'पविरलवंत विप्पडडेहि' पविरलक-मानविमकृष्टैः, वत्र मविरलैः पृथक् पृथक् भूतैर्लम्बमानः तत्र प्रवि. श्लत्वं मनागपि असंहतत्वमात्रेण भवति, तो विप्रकृष्ट प्रतिपादनायाह-विमकृष्टैर्महदन्तरालः 'पंच वण्णेहि' पञ्चवर्णै:- काकनीलादिविशिष्टः 'कुमुमदामेहि कुसुग्दाममि:-पुष्पमालामिः 'सोभमाणेहिं' शोभमानः सुन्दरैस्तैः 'सोममाणे' शोभमानम् ‘वणमालकयग्गए चेव दिपमाणे वनमाला वन्दनमाला कृता अग्रभागे यस्य तत् वनमालकृताग्रम् तथाभूतं संदीप्यमानम् अतिशयेन शोममान भवति । तव चित्तंगया वि दुमगणा' तथैव-प्रेक्षागृहमिव ते चित्राङ्गका अपि गंधी गई होती है पूरित-किसी आकृति विशेष के छिद्रों में पुष्पों को भर भर कर चतुराई के साथ की गई होनी है और संघातिमपुष्पों के घृन्द जिसमें एक दूसरे पुष्पों के वृन्दों के साथ संघातित कर-मिलाकर गूथे गये होती है. ऐसी ग्रन्धित, वेष्टित, पूरित और संघातिम के भेद से मालाएं चार प्रकार की होती है-सो चतुर कारीगर के द्वारा गंथी गई ये चारों प्रकार की मालाए जिसमें बड़ी ही चतुराई के साथ सजाकर मव ओर रखी गई हों और इनके द्वारा जिसकी सौन्दर्य वृद्धि में अधिकता आगई हों तथा 'पविरललंयंत विप्पड हि' अलग अलग रूप से दूर-दूर पर लटकती हुई ऐसी 'पंचवण्णेहिं' पाँच वर्णी घाली 'सोभमाणेहि सुन्दर फूल मालाओं से 'सोभमाणे' शोभायमान 'वणमालयग्गए' जो विशेष रूप से सजाया गया हो तथा अग्रभाग में लटकाई गई वनमाला से जो विशेष रूप से चमक रहा हो तो ऐसा वह प्रेक्षा गृह जितना अधिक शोभा की वृद्धि से जो शोभा का ભરી ભરીને ચતુરાઈપૂર્વક કરવામાં આવેલ હોય છે અને સંઘાતિમ પૂના સમૂહું જેમાં એક બીજા પુપોના સમૂહની સાથે સંઘાતિમ કરીને અર્થાત્ મેળવીને ગૂંથેલ હોય છે. એવી ગ્રંથિત, વેષ્ટિત, પરિત, અને સંઘતિમના ભેદથી ચાર પ્રકારની માળાઓ હોય છે. ચતુર કારિગર દ્વારા ગૂંથવામાં આવેલ આ ચારે પ્રકારની માળાઓ કે જેમાં ઘણીજ ચતુરાઈની સાથે સમજાવીને બધી તરફ રાખવામાં આવેલ હોય, અને તેના દ્વારા જેના સૌંદર્યવૃદ્ધિમાં વધારે थयेस डाय तथा 'पविरललब'त विप्पइट्रे हि' 1 Ran ३ र २ 8ती सेवा पचवण्णेहि पांय वाणी सुन्दर सभासामाथी 'मोभमाणे' मायभान 'वणमालयग्गए' विशेष ३५थी सलवामां भाव हाय, तथा અગ્રભાગમાં લટકાવવામાં આવેલ તેરણથી પણ જે વિશેષ પ્રકારથી ચમકી રહેલ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सु.३६ एकोषकद्वीपस्थितगमगणवर्णनम् ५४५ द्रमगणाः 'अणेग बहुविविड वीससापरिणयाए' अनेकबहुविविध विस्रसापरिणतेन 'मल्लविहीए उबवे या' माल्य-विधिनोपपेताः-युक्ताः सन्तः 'कुप्तविकुस विसुद्ध जाव चिट्ठति' कुशविकुश दिशुद्ध वृक्षमूलाः मूलवन्तः कन्दवन्तो यावत्तिष्ठन्ति इति षष्ठकल्पवृक्षस्वरूपं वर्णनम् ६ । ___ 'एगोरुयदीवे णं दीवे तत्थ २ वहवे चित्तरसाणाम दुमगणा पण्णता समणाउसो।' एकोरुकद्वीपे खल द्वीपे तत्र तत्र देशे बहवश्चित्ररसा: चित्रो धरादि भेदभिन्नत्वेन अनेकमकारक आस्वादयितृणामाश्चर्यकारी तृप्तिकारी वा रसो येषां ते चित्ररसा नाम द्रुमगणा वृक्षाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण आयुष्मन् ! 'नहा धाम बन जाता है 'तहेव ते चित्तं गया वि दुमगणा' उसी तरह से ये चित्रांग जाति के कल्पवृक्ष भी 'अणेग बहु विविहवीलसापरिणयाए मल्लविहीए उववेया' स्वभावतः अनेक प्रकार की माल्य विधि से परिणत होकर सुशोभित होते रहते हैं । 'कुल विक्कुल जाव चिट्ठति' इन पदों का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है ।६। सातवें कल्पवृक्ष के स्वरूप का वर्णन इस प्रकार से है__'एगोरुय दीवे तत्थ २, बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! उल एकोरुक नाम के द्वीप में अनेक चित्ररस नाम के कल्पवृक्ष जगह२, कहे गये हैं। इनका मधुर आदि नाना प्रकार का रस भोक्ता जनों को आश्चर्य कारी होता है एवं तृप्ति कारी होता है अतः इस अनेक विध रस के सम्बन्ध से इन वृक्षों का नाम भी चित्र रस हो गया है वे किस प्रकार के होते हैं ? मो હાય, એવું તે પ્રેક્ષાગ્રહ જેટલા વધારે શેભાની વૃદ્ધિથી જે શોભાનું ધામ मनी लय छे. 'तहेव चित्तंगया वि दुमगणा' मे०४ प्रमाणे मा यिain andal ४६५g३ ५५ 'अणेगबहु विविवीसखापरिणयाए मल्लविहीप उववेया' २१माવતા અનેક પ્રકારની માલ્ય વિધિથી પરિણત થઈને સુશોભિત થતા રહે છે 'कुसविकुस जाव चिट्ठति' 2 पहोना पडेल ह्या प्रमाणे छे. ६, हवे सातमा ५८५ वृक्षना २१३५नु प न ४२वामां आवे छे एगोलय दीवे तत्थ तत्थ बहवे चित्तरसाणाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' श्रमाय આયુશ્મન એ એકેક નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અનેક ચિત્ર રસ નામના વૃક્ષે કહ્યા છે. તેને મીઠે વિગેરે અનેક પ્રકારને રસ ભેકતાઓને આશ્ચર્ય કારક હોય છે, અને તૃપ્તિ કારક હોય છે, તેથી આ અનેક પ્રકારના રસના સંબંધથી આ વૃક્ષોનું નામ પણ ચિત્રરસ એ પ્રમાણેનું થઈ ગયેલ છે. તેઓ जी० ६९ Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ जीवाभिगमसे से' यथा-तत् परमान्नं पाचिन दुग्धजन्य पायसमित्यर्थः भवेदित्यप्रतनेन सम्बन्ध किमाकारकं परमान्न तवाह-'मुगंध' इत्यादि, 'सुगंधवरकळम-सालिदिसिह णिरु. घहतदुद्धरद्धे' सुगन्धवरकालमशालि विशिष्ट निरुपहनदुग्धराद्धम् तत्र सुगन्धाः पवरगन्धोपेताः परा:-प्रधानाः दोपरहिताः क्षेत्रकालादि सामग्रीसंपादितात्मलामा इत्यर्थः कलमशालेः शालिविशेषस्य निस्तुपास्तण्डुलाः यत् च विशिष्ट विशिष्टगवादि संवन्धि निरुपहतं पाकादिभिरविना शतं दुग्धं क्षीरं तैः राद्धम्-वाचितम्, तथा 'सारयधयगुडखंडमहमें लिए' शारघृतगुडखण्डयधुमेलितस्, तत्र शारद शरत्कालिकं घृतं गुडखण्ड प्रसिद्धं पधु-करा परपर्यायं मेलितं यत्र परमान्ने तव तया-अतएव 'अतिरसे' अतिरसम्-उत्तमवर्णगन्धरसयुक्तम्, कि त ईक तत्राह-'परणे' परमान्नं पायसम् ‘खीर' इति लोक पसिद्धम्, 'होना' भवेत् उत्तयवण्णगंधमते' उत्तमवर्णगन्धयुक्तमिति 'रण्णो जहा वा चकवहिस्स होना' उनका वर्णन करते हैं-'जहा से सुगंध बरकलपनालिविलिट्टणिस्वहया दुद्धरद्धे' जिस प्रकार से परमान-दुग्धपाक-खीर-प्रवरगन्धोपेत श्रेष्ठ दोष विहीन-क्षेत्रकाल आदि रूप विशिष्ट सामग्री से जिनकी उत्पत्ति हुई हो ऐसे शाल विशेष के कण विकीन चावलों से जो निष्पन्न किया गया हो और विशिष्ट गदादि सम्बन्धी दुग्ध द्वारा कि जो पाकादि से अविनाशित होकर रूप रसादि से विशिष्ट श्रेष्ठ स्वादिष्ट हो गया हो पकाया गया हो तथा-'सारयघयगुड खंडमहुमेलिए' जिसमें शरद काल में निष्पन्न हुआ घृन तथा गुडखाण्ड-सघ शर्करा मिलाई गई हो अतएव जो 'अतिरसे' उत्तम वर्ण गंध रस वाला हो गया हो, तो वह जैसा श्रेष्ट परमान-चायत (ग्वीप) होता है कैसा होता है सो दृष्टान्त कहते हैं-'जहावा' इत्यादि । 'जहा वा उत्तम वण गंधमंते र णो चक्कवटिस्स वा ४२ डाय छ ? सानु हवे - ४२पामां आवे छे. 'जहा से सुगंधवरकलमसालि विसिटुणिरूवय दुद्धरद्ध' ने प्रभो ५२मान्न (मार શ્રેષ્ઠ ગંધથી યુક્ત દોષ રહિત ક્ષેત્રકાલ વિગેરે રૂપ વિશેષ પ્રકારની સામગ્રીથી જેની ઉત્પત્તી થઈ હોય, એવી ડાંગર વિશેષના કણ રહિત રેખાથી જે બનાવવામાં આવેલ હોય, અને વિશેષ પ્રકારના ગાય વિગેરેના દૂધ દ્વારા કે જે પાકાદિથી નાશ પામ્યા વિના રૂપ રસ વિગેરેથી શ્રેષ્ઠ સ્વાદિષ્ટ થયેલ હેય, અર્થાત્, वामां मावेस हाय तथा 'सारयघय गुडखड महुमेलिए' भां श२६४मा नियन थये घी, गो. मांड, मध, सा४२, मेणामां मावाय, भने तथा रे 'अतिरसे' उत्तम सेवा वा भने युरत थ गयेस डाय तो તે પાયસ-દૂધપાક કેવું ઉત્તમ હોય છે, એ કેવું શ્રેષ્ઠ હોય છે ? તે સૂત્રકાર Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ४.३६ एकोषकद्वीपस्थितमगणवर्णनम् ५४७ यथा वा राज्ञश्चक्रवत्तिनः परमान्नं भवेत् । चक्रवर्तिनः परमानं कल्याण भोजन मिति मसिद्धम् तथाहि-चक्रवत्ति सम्बन्धिनीनां पुण्ड्रेक्षु वारिणीनां निरातङ्कानां लक्षसंख्यकानां गर्वा अार्धक्रोण पीतगोक्षीराणां माध्यत् पर्यन्ते यावदेवादृश्याः सर्वगोक्षीराया एकस्याः गोः सम्बन्धि यद क्षीरं तत्माप्तकलमशालि परमान्नरूपम नेक संस्कारक द्रव्य संमिश्र कल्याण-भोजनमिति प्रसिद्धम् यथैतत् राज्ञश्चक्रवर्तिनः परमान्नं तत्सदृशमित्यर्थः ‘णि उणेहि सूदपुरिसेहिं सज्जिएहि चाउकप्पसे असित्ते इव' निपुणः-परमदः सूपपुरुपैः-पाचकः सजिता-निष्पादितः चत्वारः कल्पा उत्कालनरूपा यत्र स चासौ सेकश्च तेन सिक्त इव' पाकहोज्ज' जैसा उत्तम वर्ण, गंध वाला चक्रवर्ती राजा का परान्न पायस होता है वह चक्रवर्ती राजा हा पायस-खीर-कल्याण भोजन के नाम से प्रसिद्ध है। वह इस प्रकार से बनता है-पुण्डू जाति के इक्षु-गन्ने को चर ने वाली नीरोग चक्रवर्ती के जिनकी लाख गायों के दूध को पचास हजार गायों को पिलाते हैं पचास हजार गायों का दूध पचीस हजार गायों को पीलाते हैं इस प्रकार आधे आधे के क्रम से पिलाते पिलाते अन्त में लब गायों के दूध को पी गई हो उस प्रकार की एक गाय के दूध का पापस बने उहल में फलम शालि जाति के चावल डाले जाते हैं और अनेक प्रकार के लेवा आदि संस्कारिक द्रव्य मिलाये जाते हैं। ऐसा चक्रवती की खीर शल्याण ओजन के नाम से प्रसिद्ध हैं। जैसा-कि राजा चक्रवती का परमान्न हो उसी प्रकार का यह पूर्वोक्त परमान भी होता है वह परमान-णिउणेहिं सूयपुरिसेहि सज्जिए चाउकप्प से आसिते एव ओदणे' परम दक्ष पाचकों द्वारा निष्पादृष्टांत २१ मताव छ 'जहा वा' म 'उत्तमवण्णगधम रणाचक्कवहिस्स होज्ज' व उत्तम, मध, वागे। यति सानु ५२मान पायस डाय છે. ચક્રવર્તી રાજાનો પાયસ-દૂધપાક કલ્યાણ ભજનના નામથી પ્રસિદ્ધ છે. તે આવી રીતે બનાવવામાં આવે છે. પુંડ્ર જાતીની ઈશું કહેતાં શેલડીને ખાવાવાળી એવી ચક્રવતીની કે જે એક લાખ ગાના દૂધને પચાસ હજાર ગાચોને પાવામાં આવે છે પચાસ હજાર ગાયનું દૂધ પચીસ હજાર ગાને પાવામાં આવે છે આ રીતે અધ અર્ધાના કામથી પીવરાવતાં પીવરાવતાં છેવટે બધી ગાયના દૂધને પી ગયેલ એવા પ્રકારની એક ગાયના દૂધને દૂધપાક બનાવવામાં આવે અને તેમાં કલમ શાલિ નામની જાતના ઉત્તમ ચોખા નાખવામાં આ અને અનેક પ્રકારના મેવા વિગેરેથી સંસ્કારિત પદાર્થો મેળવવામાં આવે, આવા પ્રકારને ચક્રવતીને દૂધપાક ઉલાણ ભેજનના નામથી પ્રસિદ્ધ છે. જેવી રીતે રાજા ચક્રવર્તીનું પરમાત્ત હોય, એવાજ પ્રકારનું આ પર્વોક્ત પાન્ન Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ जीयाभिगमसूत्र शास्त्राभिज्ञा हि ओदनेषु सौकुमार्योत्पादनाय सेकविषयान् चतुरः कल्पान् विदधति, इत्थं भूनः 'ओदणे' ओदनः 'कलमसालि-णिव्वत्तिए विपक्के' कळमशालि निर्वतितः कलमशालिभिनिवर्तितः कलमशालिमय इत्यर्थः विपक्को विलक्षण परिपाकमागतः 'सवाफमिउबिसयसगलसित्थे' सवाष्पमृदुविशदसकलसिक्धः, सवाष्पानि-वाष्पं मुश्चन्ति मृदुनि-कोमळानि चतुष्कल्प सेकादिना परिकमितत्वात् विशदानि सर्वथा तुपादि मलापगमात् सकलानि पूर्णानि सिक्थानि कणाः यत्र स तथा 'अणेगसाळणगसंजुत्ते' अनेकशाल नकसंयुक्तः, अनेकानि शालनकानि-द्राक्षापुष्पफलमभृतीनि तैः संयुक्त ओदनो भवेत्, इत्यग्रिमेण दित किया जाता है और पाक शास्त्राभिज्ञ रसोइओं के द्वारा उसमें विशेष सुस्वादु सुवर्ण आदि लाने के लिये फिर चार कल्प किये जाते हैं-अर्थात् उसमें से भाड निकाल कर उसे चार घार पुनः थोडी देर के लिये अग्नि पर रखा जाता है इससे उस ओदन में विशेष चिकना हट और नरमाई आजाती है इसी का नाम बल्प है । ऐसा वह ओदन भात जो कि 'कलम सालिगिन्दत्तिए विपक्के' कलम शालि -विशेष कीमती धान्य के चावलों का बना हुआ होता है तो वह इस स्थिति में-'सव्वप्फमिउविसयसगलसित्थे अणेग सालणग संजुत्ते' वह भात वाष्प को छोड़ता हश्रा अपने समस्त चावलों के दाने २ में पक जोता है नरम हो जाता है, और तुषादिरूप मैल के अपगम से बिलकुल विशद निर्मल हो जाता है फिर उसमें अनेक-शालनक-मेवा द्राक्षा, पुष्प, फल आदि मिला दिये जाते हैं तो ऐसा वह ओदन एक पर डाय छे. से ५२मान्न ‘णि उणेहिं सूयपुरिटेहि सज्जिए चाउकापसे आसित्ते इव ओदणे' ५२म यतु२ सोध्या। द्वा२स पाहित ४२वामां आवे છે. અને પાક શાસ્ત્રને જાણવાવાળા રસોઈયાઓ દ્વારા તેમાં વિશેષ સ્વાદ લાવવા તથા સુવર્ણ વિગેરે લાવવા માટે તેના ફરીથી ચાર કલપ કરવામાં આવે છે. અર્થાત્ તેમાંથી ઓસામણુ કહાડીને તેને ચારવાર શેડી ડી વાર માટે અગ્નિ પર રાખવામાં આવે છે. તેથી ભાતમાં વિશેષ ચિકણાઈ અને નરમાઈ આવી જાય છે. તેનું જ નામ કર્યું છે. એવો તે ભાત કે જે 'कलमसालि णिवचिए विपक्के' सम साति विशेष सट डीमती धान्यना योमाना मनाda डाय छे. तो स्थितिमi a 'सव्वाफ मिउविसय मगल सित्थे अणेगनालणगमजुत्ते' ते मात पाय पणन छोडता छ।उता मया। ચોખાના દાણે દાણે ચડી જાય છે, અર્થાત નરમ થઈ જાય છે. અને તુષાર વિગેરે રૂપ મેલના નીકળી જવાથી એક દમ નિર્મલ થઈ જાય છે. તે પછી તેમાં અનેક પ્રકારને મે જેમકે દ્રાક્ષ, પુષ્પ ફલ વિગેરે મેળવવામાં આવે Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ५.३६ एकोरुको स्थितत्रुम गणवर्णनम् ५४९ सम्बन्धः, 'पदिपुण्ण दव्युबक्खडे परिपूर्णद्रव्योपस्कृतः, तत्र परिपूर्णानि द्रव्याणि एला प्रभृतीनि तैः उपस्कृतानि-नियुक्तानि यत्र स तथा, 'सु पक्कए' सुसंस्कृत:यथोक्त-मात्रव्यापारादिना परमसंस्कारपनीतः । 'वण्णगंधरसफरिसजुत्तवलवीरियपरिणामे' वर्णगंधरसस्पर्शयुक्त बलबीर्यपरिणामः, तत्र वर्णगन्धरसस्पर्शा: सामर्थ्यादतिशायिनस्तयुक्खा वलवीयहेतवश्व परिणामा आवतिकाले यस्य स तया, अतिशायिभिर्वर्णादिभि बलवीर्य हेतु परिणामैचोपपेत इत्यर्थः तत्र वलं शरीरं वीर्यमान्नरोत्साहः । 'इदिय बल पुटिवद्धणे' इन्द्रिय बळपुष्टिवर्धनः इन्द्रियाणां चक्षुरा. दीनां बलं स्त्र स्वविषय ग्रहण पटुत्त्वं तस्य पुष्टिः-अतिशयित पोषस्तां बयति प्रकार का विशिष्ट खाद्य बन जाता है, 'अहवा पडिपुण्ण दाखडे सुसक्कए वण्ण गंधररू फरिसजुत्तश्ल वीरियपरिणामे' अधक्षा वह इस स्थिति में निष्पन्न हुआ भात जघ-परिपूर्ण द्रव्यों से उपस्कृत हो जाता है-एलाइची आदि सुगंधित पदार्थों से युक्त कर दिया जाता है और 'सुसक्कए' यथोक्त मात्रा में बघार देकर सुसंस्कार युक्त शिया गया हो चण्णगधरसफरिसजुत्तबल वीरियपरिणामे' तष उसका परिपाक पल-शारीरिक बल का और वीर्य आन्तरिक शक्ति का बर्धक हो जाता है-क्योंकि वह वर्ण, गंध रस और सपा कम गुणों की विशिष्टता से संपन्न हो जाता है तथा यह 'इंदियनल पुट्टिवद्धणे' भात-ओदन उप. भोग करने पर इन्द्रियों में इतनी बलिष्ठना भर देना है कि जिस से वे अपने-अपने विषय को ग्रहण करने में पहु बनी रहती हैं। यह पटुता उनमें कम नहीं होने पाती है प्रत्युन इसको उससे पोषण हो છે. તે એવા પ્રકારનો તે ભાત એક વિશેષ પ્રકારનું ખાદ્ય બની જાય છે. 'अहवा पडिपुण्ण व्वुर खडे मुसक्कए वणगंवरसफरिसजुत्तबलवीरिय परिणामे' अथवा मा स्थितिम त मनापामा मावस मात ४५२ स५५ પદાર્થોથી સંપાદિત કરવામાં આવે છે, ઈલાયચી વિગેરે સુગંધદાર પદાર્થોથી साहित ३२वामा मावे छे, अन 'सुसक्कए' यात प्रभाथी पधारीत सु २४।२ युद्धत ४२वामा भावेस डाय, 'वण्णगंधरसफरिसजुत्तवलवीरिय परिणामे' त्यारे तेना प२ि५५७ शरी२ संधी मणने तथा वाय मात:२४ શક્તિને વધારનાર બને છે. કેમકે તે વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ, આ ચારે પ્રકારના ગુણોની વિશિષ્ટતાથી સંપન્ન થઈ જાય છે. તથા આ ભાતને 'इंदियवल पुद्विवड्ढणे' Sun ४२१थी दियोमा म रितु छ. रथा તે ઈદ્રિયો પિતાના વિષયને ગ્રહણ કરવામાં તત્પર રહે છે. અને તેની શકિત Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० जीवाभिगमक्ष इति यः स तथा 'खुप्पिवालमणे' क्षुत् पिपासामथनः क्षुत् पिपासे मथ्नाति विनाशयति यः स तथा, 'पहाण कुथियगुडखंडमच्छं उघय-उवणीए' प्रधान __ क्वथितगुडखण्ड मत्स्यप्डीघृतोपनीतः, प्रधान:-सुन्दरः कथितः क्याथरूपः कृतः प्रधानतया निष्पादित इत्यर्थः गुडः तादृशं वा खण्डं तादृशी दा मरस्यण्डी. मिसरीति भाषा प्रसिद्धा तादृशं घृतं च तानि उपनीतानि-योजितानि यस्मिन् स तथा 'पमोयगे' प्रमोदकः आहादजनकः 'सह समियगम्भे' इलक्षण समितगर्भः, तत्र अतिश्लक्ष्णतया समितः परिणतः गर्भः आन्तरो भागो यस्य स तथा अतिइक्ष्णीभूत-कणिकालदल इत्यर्थः । 'हवेज' भवेत् 'परमइटंग संजुत्ते' परमेष्टान संयुक्त', परमम् इष्टम् अत्यन्तवल्लभम् अन्नम् अगभूतं तदुपयोगि द्रव्यं तेन संयुक्तः 'तहे व ते चित्तरसा धि दुमगणा' तथैव परमानादिवदेव चित्तरमा अपि द्रुमगणाः 'अणेग बहुविविद वीससापरियाए' अनेक बहुविविधविस्रप्तापरिणतेन 'भोजण मिलता है. 'खुप्पिवास महणे' यह क्षुधा और पिपासा का भी मिटाने वालो होता है । 'पहाण ऋषिय गुल खंड मच्छंडिघय उवणीए' अतः यह एक उत्तम पदार्थ बन जाता है तथा-जब इसमें गुड गलाकर डाला जाता है या खांडकी चासनी धनाफर या मिसरी की चासनी बनाकर डाली जाती है तथा उस्ती प्रकार का अर्थात् तपाया हुआ घी डाला जाता है तब यह 'पसोयगे' हर्षवर्धक होता है 'सह समियगम्भे' और जय लक्षणता-चिकना ले जिसका अन्दर परिणत होजाता है तप दह अत्यन्तनरम और चिकना होता है-'तहेव' उसी प्रकार 'ते चित्तरसावि उमगणावे चित्ररस नामके पाल्पवृक्ष भी 'अणेग यह विविहवीसमा परि to भोजन विहीए उपवेया' अनेक प्रकार की भोजन रूप सामग्री से साली ती नधी. Red तनाथा द्रियानी शतिभा था। थाय छ 'खुप्पि वासमहगे' मा मात भूम मन तरसने पर मटका वाणे। डाय छे. 'पहाणकुथिय गुल व डनच्छडिघाय उवणीए' तथा ते मे 6त्तम पहा બની જાય છે તો જયારે તેમાં ગોળ નાખીને ઓગાળમાં આવે છે. અથવા ખાંડની ચાસણી બનાવીને અથવા સાકરની ચાસણી બનાવીને નાખવામાં આવે તથા એજ પ્રમાણે અર્થાત્ ઘી ગરમ કરીને તેમાં નાખવામાં આવે, ત્યારે તે मोयो' ७ वधारना२ २. छे. 'खण्ड समिय गम्भे' मने न्यारे सा તેની અંદર ભાગ ચિકાસ વાળો બની જાય છે, ત્યારે તે અત્યંત નરમ અને थि: 25 Mय छे. 'तहेव' मेरी प्रमाणे 'ते चित्तरमा वि दुमगणा' त यित्र२स नामना ४८५ga ५५ 'अणेगबहुविविहवीससा परिणयाए भोयणविहीए जवेया' मने Rनी सान सामश्रीथा युस्त है.य छे. भाव। २नु Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतका टीका प्र.३ ७.३ ५.३६ एकोहीपस्थितद्रुमगणवर्णनम् ५५१ विहीए उपवेया' भोजनविधिनोपपेक्षाः 'कुसविकुम वि० जाब चिट्ठीति' कुशदिकुश विशुद्ध वृक्षमूला: मूलवन्तः कन्दवन्तो यावन्तो यावत्तिष्ठन्तीति, सप्तमकल्पवृक्ष स्वरूपवर्णनम् ॥७॥ __'एगोरुय दीवे णं तस्थ २ देसे वह एकोहकद्वीपे खलु द्वीपे तत्र तत्र देशे बहवः-अनेके 'मणियंगा णाम दुमगणा पणत्ता समणाउसो' पण्यङ्गा, मणि मयानि आभणानि आधाराधेयोपचाराव मणीति लान्थेव अङ्गानि-अवयवा येषां ते मण्यनाः-भूषणसंपादका नाम द्रुमगणा:-कल्पवृक्षाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण-आयुष्मन् ! 'जहा से' यथा ते 'हाराहार पायउडकुंडल वामुत्तग हेमजाल मणिजाल कणगजालग सुत्तग उच्चिइय कडशा-खुडिय एकाचलि कंठ सुत्तमगरि मउरपखंधगेवेज्ज सोणिसुत्तगचूडामणि कणा लिलग फुल्ल सिद्धन्थय युक्त होते हैं यह इस प्रकार का उनका परिणमन स्वाभाविक है परकृत नहीं है 'कुसविकुश्त०' इत्यादि पदों का अर्थ पूर्वोक्त नेला ही है ७॥ ८-आठवे पल्पवृक्ष के स्वरूप का थन 'एगोरुय दीवे तत्थ २ बह वे मणियंगा णाम दुनगणा पण्णत्ता समणा उसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! उस एकोहक नाम के द्वीप में जगह २ अनेक मण्यङ्ग नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं यहां-मणिमय आभरणों को ही आधाराधेय के उपचार मणिनाम से कहा इस कारण मणिरूप अचयवों वाले-वे मण्यङ्ग कल्पवृक्ष होते हैं। इन से वहां के निवासियों को मणिमय आभूषण प्राप्त होते रहते हैं। वे किस प्रकार के आभू षणों को देने वाले होते हैं-इस दृष्टान्त कहते हैं- 'जहा से हाराहार वट्टणगम उड कुंडल यामुत्तग हेम जाल मणिजाल कणगजालग सुत्ता તેનું પરિણમન રવાભાવિક છે. તેમ પરકૃત અર્થાત્ બીજાથી કરવામાં આવેલ नथी. 'कुसविकुस' त्याहि योनअर्थ ५९४वा प्रमाणेना छे ॥७॥ हवे मा४मा ४६५ वृक्षन। २१३५नु थन ४२वामा भारे छे 'एगोस्य दीवेणं दीवे तत्य तत्थ बहवे मणियगा नाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' है શ્રમ આયુમન્ તે એકેક નામના દ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અનેક મહેંગ નામના કપ વૃક્ષ કહ્યા છે. અહિંયાં મણિમય આભને જ આધાર અને આધેયના ઉપચારથી મણિનામથી કહેલ છે. તેથી મણિરૂપ અવયવે વાળા એ મર્મંગ નામના ક૯૫ વૃક્ષો હોય છે. ત્યાં રહેનારાઓને તેમાંથી મણિમય આભરણે પ્રાપ્ત થતા રહે છે. તે કેવા પ્રકારના આભૂષણે આપે છે તે सत्र२ मा नायनां सत्रमा द्वा२। ४हे छे. 'जहा से हाराहार वट्टणगमउह. कुडल वामुत्तग हेमजाल मणिजाल कणगजालग सुत्तग उच्चिइयकडग खइडिय Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ जीवाभिगमसूत्र घण्णवालि ससिम्र-उसम चक्कपल भंगतुडिय इत्थमालय दलक्खदीणार मालिया' हाराहार वर्तनव मुकुट कुण्डल दामोत्तग हेमजाल मणिजालकलकजाल सूत्र कोच्चयित कटक क्षुदकै कादलि कण्ठ सूत्रमकरिकोरः स्कन्धवेय श्रोणी सूत्रकचूडामणि कनकतिलक पुष्पक सिद्धार्थक कर्णपालि शशिवर्यऋषभचक्र कतल भङ्कक त्रुटित हस्तमालका-लक्षदीनार मालिकाः, तत्र हारोऽष्टदशसरिका, अर्धदारो. नवसरिका, वर्तनका-कर्णापरणविशेषः, मुकुटम्, कुण्डलम्, लोक-मसिद्धमेव, वामोत्तकं हेमनाल सच्छिद्र सुवर्णालङ्कारविदोषः एवम्-मणिजाळ कनकजाले अपि कर्णाभरणविशेषरूपे एव, अनयो/शे लोकादयसेयः, सनकम्-सुवर्ण सूत्रम् विश्य कडग खुडूडिय एकाव'लकंठसुत्तमरिषउरखंधगेवेज लोणिसुत्तम- चुडामणि जण तिला फुल्ल लिद्धत्यय कणवालि ससिसूर उसम चरगतलभंग तुडिप हत्थ मालगवलक्ख दीणार मालिया जिस प्रकार से थे जगत्प्रसिद्ध आभूषण है जैसे-कि हार, अहार, वेष्टनक, मुकुट, कुण्डल, वामोत्तक, हेमजाल, मणिजाल, कनक जाल, सुवर्ण सूत्र, अच्चषित कटक, क्षुद्रिका (मुद्रिका) एकाबलिहा, कंठसूत्र मकरिका, उरस्कन्ध ग्रेवेश, श्रेणीमत्र, चूडामणि, कन कतिलक, पुष्पक, सिद्धार्थक, पर्णपाली, शशि, सूर्य, ऋषभ, चक्रतल भङ्गक, त्रुटित, हस्तमालक और दलक्ष इनमें अठारहलरों का हार होता है नौ लरों का अर्धहार होता है जो कर्ण का आभाण विशेष होता है उस को नाम वेष्टनक है मुकुट और कुण्डल ये प्रसिद्ध ही हैं। छिद्र सहित जो सुवर्ण का आभरण विशेष होता है उसका नाम वामोत्तर-हेमजाल है मणिजाल और कनकजाल ये भी कोनो के एक वलिक'ठ सुचमगरि मउरव खंधगेवेज सोणिसुत्तग चूडामणि कणगतिलग फुल्लसिद्धत्थय कण्णवालिससिसूरउसभ चक्कगतलभंगतुडियहत्थ मालगवलक्ख दोणारमालिया' २ प्रमाणे या प्रसिद्ध भामुषो छ भई ७२, मा२, वेष्टन४. भुट, दुस, पाभात्त, रमली. मशिनस, ४isand, सुवर्णसूत्र, १२ययितट४, शुद्रिी , (भुद्रि) सि४४सूत्र, भRI, ९२२४५, शैवेयर, श्रेपासूत्र, यूामणि, नतिय४, ०५४, सिद्धार्थ, ४९°nel शशि, सू, ऋषम य, तAHz, त्रुटित, ४२तमा, म सक्ष, मा માં અઢાર સેરવાળો હાર હોય છે નવસેરોવાળો અધહાર હોય છે. કાનનું જે આભરણ વિશેષ હોય છે, તેનું નામ વેષ્ટનક છે મુકુટ અને કુંડલ એ પ્રસિદ્ધજ છે. છિદ્રવાળું જે સેનાનું આભૂષણ હોય છે, તેનું નામ “વામોત્તક હમજાલ છે. મણિશાલ અને કનકાલ, એ પણે કાનના આભરણ વિશેષજ છે. Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ सू.३६ एकोषकद्वीपस्थितद्रुमगणवर्णनत् ५५३ उच्चयितकटकानि-उच्चीभूतवलयानि, शुद्रिका-अंगठी' इति लोक प्रसिद्धा, एकावळिका-विचित्रमणिकृता एक मूत्रिका, कण्ठसूत्रम् मसिद्धम् मकरिकामकराकार आभरणविशेषः, उरःस्कन्धोवेयकम् उर:स्कन्धं ग्रीवां चाभिव्याप्यतिष्ठति तत् हृदयाभरणविशेषः, श्रोणीसूत्रम्-कटिसूत्रकम् चूडामणि म शिरो भूषणम्, कनकतिलकम्-कलाटाभरणम्, फुल्लकं पुष्पाकारकलाटाभरणम् सिद्धा. र्थकं सर्प रममाणसुवर्णकणरचित आभरणविशेषा, कर्णपाली-कर्णोपचित विभाग ही आभरण विशेष हैं। इनमें अन्तर क्या क्या है यह लोक से जानना चाहिये सोने का जो सूत्र-डोरा-होता है जिसे सुवर्णोप नयन कहते हैं उसका नाम सूत्रक है जो योग्य वलय कड़ा होता है उसका नाम उच्चयित कटक है। वीटी का नाम क्षुद्रिका दूसरा नाम मुद्रिका है. विचित्र मणियों में बनाई गई एक डोरे की जो माला होती है उसका नाम एकावलिका है कण्ठ सूत्र प्रसिद्ध ही है मकर के आकार का जो सोने का आभूषण होता है उसका नाम मकरिका है हृदय-उरछाती स्कन्ध कंधे को व्याप्तकर के जो रहता है उसका नाम उर: स्कन्ध ग्रैवेयक है करधनी (कन्दोरा) का नाम श्रोणि सूत्र है शिरोरत्न का नाम चुडामणि है सुवर्ण का जो तिलक होता है उसका नाम कनक तिलक है वह लल ट का आभरण है । पुष्प के आकार के जो ललाट का आभरण होता है उसका नाम पुष्पक है बुन्देल खण्डी भाषा में इसे सोने की टिकली कहते हैं । सिद्धार्थक भी एक प्रकार का आभारण તેમાં શું ફેર છે? તે લેક વ્યવહારથી સમજી લેવું જોઈએ. સોનાને જે સૂત્ર દેરે હોય છે, કે જેને સૂવર્ણપ નયન કહેવામાં આવે છે. તેનું નામ સૂત્રક છે જે રોગ્યવલય (બલોયા) હોય છે તેનું નામ ઉચ્ચયિત કટક એ પ્રમાણે છે. વીટી નું નામ શુદ્રિકા અને તેનું બીજું નામ મુદ્રિકા છે. વિચિત્ર પ્રકારના મણિથી બનાવવામાં આવેલ એક દોરાની જે માળા હોય છે. તેનું નામ એકાવલિકા છે. કંઠસૂત્ર પ્રસિદ્ધ છે. મઘરના આકારનું જે સોનાનું આભૂષણ હોય છે. તેનું નામ મકરિકા છે. હદય, ઉર છાતિ સ્કંધ ખભાને વ્યાપ્ત કરીને જે રહે છે, તેનું નામ ઉરસ્કંધ રૈવેયક છે. કરબનીનું નામ (કંદ) શ્રેણ સૂત્ર છે શિરે રનનું નામ ચૂડામણિ છે. સોનાનું જે તિલક હોય છે તેનું નામ કનકતિલક છે તે કપાળનું આભૂષણ છે પુષ્પના આકારનું જે કપાળનું આભૂષણ હોય છે, તેના નામ પુષ્પક છે. બુદેલખંડની ભાષામાં તેને સોનાની ટિકળી કહે છે. સિદ્ધાથંકપણ એક પ્રકારનું આભૂષણ વિશેષજ છે. આ આભરણમાં સર્ષવા પ્રમાણના जी० ७० Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम भूषणविशेषः शशिमूर्यऋषभाः-स्वर्णमयचन्द्रकादिरूपा आभरण विशेषाः, चक्रकचक्राकार आभूषणविशेषः, तलभगकं त्रुटितं च वाह्वाभरणम्, हस्तमालकम्-माला. कारं हस्ताभूषणम्, चलक्षम्-शलम्पणम् . दीनारमालिका-दीनाराधाकृति मणिकमाला । 'चंदमूरमालिया' चन्द्रमूर्यमालिका-चन्द्रमृर्याकार पणिकामय आमरणवि. शेषः 'हरिसय के यूर वलय पालंब अंगुलेन्जग कंचीमेहला कळाव पयरगपाडिहारिय पाउज्जाल घंटिय खिखिणि ग्यणोरुजालत्यिमियवर नेउर चलणमालिया' हर्षक केयूर वलव मालम्बाङ्गुली रक काञ्चीमेखला कशाप मतरक प्रतिहारिकपादजाल घण्टिकाकिङ्किणी रत्नोरुनाल स्तिमित वरनपुर चरणमालिका, तत्र हप-भूषणविशेषः, केयूरम्-अगदम् बलयम्-कंकणम्, पालस्वरं झुम्बनकं भूपणविशेषः, अंगुलीयकं प्रसिद्धम्, काञ्ची, मेखला, कलापः एते स्त्रिय आभरणविशेषाः प्रतरकवृत्त प्रतल थाभरणविशेषः, पातिहारिकम्-आभरणविशेषः पादोज्वलघण्टिका विशेष ही है इस आभरण में सर्पप प्रमाण सोने के कण भरे जाते हैं और यह मणियों का बना हुभा होता है कर्ण पाली-वर आमरण - विशेप है जो कानों में लटकता हुआ पहिला जाता है जैसे-कि आज कल के टोप्स आदि चन्द्रमा के आकार का जो आभरण होता है उसका नाम शशि आभरण है यह मस्तक के ऊपर वालों को संयमित करने वाला होता है इसी प्रकार का स्वयं के आकार का जो आभरण होता है उसका नाम सूर्याभरण है यह भी मस्तक के ऊपर ही पहिरा जाता है इसे वुन्देल खण्डी भाषा में केकर पान कहते हैं वृपभ के आकार का आभरण होता है उसका नाम वृषभाभरण हे छोटे २ घच्चों को यह गले में पहिराया जाता है-इसे बुन्देल खण्डी भाषा में वठला कहते हैं। कठले के जो ताबीज होते हैं उनमें किन्हीं २, ताथीजों में बैल का સોનાના કણે ભરવામાં આવે છે અને આ મણિના બનાવવામાં આવે છે. કપાલી એ આભૂષણ વિશેષ છે જેને કાનોમાં લટકાવીને પહેરવામાં આવે છે. હાલમાં જેમ ટેસ વિગેરે ચન્દ્રમાના આકારના અ ભૂણ હોય છે. તેવું તે હોય છે. તેને શશિ આભરણ પણ કહે છે. તે માથાના વાળાને જોડી રાખવા વાળું હોય છે. એ જ પ્રમાણે સૂર્યના આકારનું જે આભરણ હોય છે તેનું નામ સૂર્યાભરણ છે. એ પણ માથાની ઉપરજ પહેરવામાં આવે છે. તેને બુંદેલ ખંડની ભાષામાં કેકર પાન કહે છે. વૃષભના આકારનું જે સેનાનું આભૂષણ હોય છે, તેનું નામ વૃષભાભરણ છે. તે નાના નાના બચ્ચાને ગળામાં પહેરવવામાં આવે છે. તેને બુદેલખંડની ભ ષામાં કંટેલે કહે છે કંઠલામાં જે તાવીજ હોય છે. તેમાં કોઈ કોઈ તાવીજેમાં બળદને કાર Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५५ सार्क बिहान प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ.३ ६.३६ एकोरुकडी स्थित द्रुमगणवर्णनम् पादेषु जाल तो घण्टिका घटिका, किङ्किणी क्षुद्रघण्टिका, रत्नोरुजालं रत्नमयं षोः लम्बमानं श्रृङ्खलारूपं कटिदवरकम् 'कणदोरा' इति प्रसिद्धम् स्विमि तत्ररनूपुरम् चरणमालिका संस्थानविशेपकृतपादा भरणस्, 'कणगणिगरमाळीया' कनकनिकरमाळिका एते चाभरणविशेषाः, संप्रदायतो लीकतथ यथायथं ज्ञातव्याः, कथंभूता एते आमरणविशेषास्तत्राह - 'केचणमणि' इत्यादि, 'कंचणमणिरयण Té भतिचित्ता' काञ्चनमणिरत्नानां भक्त्या विच्छिच्या चित्रा:- विलक्षणा: 'भूसणविहि बहुष्पगारा' भूषण विधिना बहुपकाराः - अनेकप्रकाराः 'तहेच ते मणियंगावि दुमगणा' तथैव हारादिवदेव ते मण्या अपि द्रुमगणः, 'अग बहुविविहदीससा आकार उत्कीर्ण - खोदा हुआ होता है । चक्र के आकार वाले आभूषण का नाम चक्र है तल भङ्गक और त्रुटिक ये बालुओं के आभरण विशेष है हस्तमालक - हाथ का आभूषण विशेष है, बलक्ष गलेका आभूषण दीनार मालिका, दीनार मुहरों के आकार के मणियों से बनी हुई मुक्ति माला नाम का आभरण विशेष है 'चन्द सूर मालिया, हरिसय, केयूरवलय पालंब अंगुलेज्जगकंची मेहला फलावपयरग पाडिहारिये पाय घंटियखिखिणिरचणोहजालत्थिमिद्यवर णेउरचलण मालिया' चन्द्र सूर्य मालिका, यह चन्द्र सूर्य के आकार वाले मणकों की माला होती है हर्षक, केयूर, बलय, प्रालम्बनक-झुमका अंगुलीयक, काची मेखला, कलाप प्रतर प्रातिहारिकपादो-ज्जूल घण्टिका, किङ्किणीक्षुद्र घंटिका, रस्नोरुजाल व नूपुर चरण बालिका ये सब आभरण विशेष है 'कणगणिगर मालिया, कंचणमणिरघणसत्तिचित्ता भूषण विहि प्र जाल मिय स 학업 ना કોતરવામાં આવેલ હાય છે. ચક્રના આકારવાળા આભૂષણુનું નામ ચકક છે, તલભ'ગક અને ત્રુટિક તે ખાડું હાથના આભરણુ વિશેષ છે. હસ્તમાલક હાથનુ’ આભૂષણ વલક્ષ ગળાનું આભુષણુ, દીનાર માલિકા, દીનાર મહેારના આકારના મણુકાએથી બનાવવામાં આવેલ મુક્તિમાળા નામનુ આભરણુ વિશેષ છે. 'चंद सूरमालिया, हरिसय केयूर वलय पलिंब अगुलेज्जगक'ची मेहलाकलापरगपाडिरिये पायजाल घंटिय खिखिणिरयणोरुजालत्थिमिय वरणे उर 'चरणमालिया' चंद्र सूर्य मासि मा यद्र सूर्यना आरवाजा भथुभयोनी भाजा होय छे. हर्ष, म्यूर, वलय, प्रासम्भ, शुभम गुसीय मंथी-भेजवा, उसाप, अतसड, आतिहारिए, होन्नूस वटिश, डिडिसी क्षुद्रध टिम (घटडी) रत्नाइस भने नूपूर यरलुमादि सा मघा भावार विशेष छे. 'कणगणि गरमा किया, कं चणमणियरयणभत्तिचिना भूषणविहि चहु पगारातच ते मणि Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्ने परिणयाए भूसणविहीए उबवेया' अनेक न्हुविविध विस्रसापरिणतेन भूपणविधिनोपेताः-युक्ताः, फलैपूर्णा 'विसति' दलन्ति-विकसन्तीत्यर्थः, 'कुसविकस वि० जाव चिट्ठति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्षम्ला मूलवन्तः कन्दवन्तः यावत् मासादीया दर्शनीया अभिरूपाः प्रतिरूपास्तिष्ठति । इत्यष्टमकल्पवृक्षवर्णनम् ।८। _'एगोरुय णं दीवे तत्थर' एकोरुकद्वीपे तत्र तत्र खल 'वहवे गेहागारा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!' बहवः गेहाकारा नाम द्रुमगणाः पल्पवृक्षाः प्राप्ताःकथिताः हे श्रमण आयुष्मन् ! 'जहा से' यथा ते 'पगारट्टालग चरियदारगोपुर बहुप्पगारा तहेव ते मणियंगा वि दुमगणा अणेग यहुविविहवीससा परिणताए भूसणविहीए उववेया कुस वि० जाच चिटुंति' और कनक निकर मालिका, ये सब ही आभूषण हैं और ये कितनेक सुवर्ण की रचना से, कितनेक मणियों की रचना से और कितनेक रत्नों की रचना से चित्रित सुंदर होते हैं। इनकी जातियां अनेक प्रकार की होती है। इसी प्रकार से ये मण्यङ्गनाम के कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार की भूषण जातियों के रूप स्वतः स्वभाव से परिणत हो जाते हैं वाकी के 'कुस विकुस' आदि पदों का अर्थ स्पष्ट है ॥८॥ ९ नौवें कल्पवृक्ष के स्वरूप का वर्णन__'एगोरुय दीवे तत्थ २' उस एकोरुक नामक द्वीप में जगह २, 'बहवे गेहागारा णाम दुमगणा पणत्ता समणाउसो' हे श्रमण! आयुष्मन् ! अनेक गेहाकार नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं। वे किस प्रकार के होते हैं वह दृष्टान्त से समझाते हैं-'जहा से पागारद्यालग यगा वि दुमगणा अणेगबहुविविहवीससापरिणताए भूसणविहीए उववेया कुसविकुम जाव चिटुंति' भने उन नि४२ भाति, मा या माभूषर વિશેષ જ છે. અને તે પૈકી કેટલાક સેનાની રચનાથી તથા કેટલાક મણિયની રચનાથી અને કેટલાક રત્નોની રચનાથી ચિત્ર વિચિત્ર સુંદર જણ ય છે. તેની અનેક પ્રકારની જાતો હોય છે. એ જ પ્રમાણે આ મર્યાગ નામને કલ્પવૃક્ષો પણ અનેક પ્રકારના ભૂષના રૂપથી સ્વતઃ પિતાની મેળેજ એટલેકે સ્વાભાવિક રીતે જ પરિણુત થઈ જાય છે. બાકીના કુશ વિકુશ વિગેરે પદનો અર્થ સ્પષ્ટ છે ૮ हवे नमः ४६५वृक्षना २१३५० वन ४२वामां आवे छे. 'एगोरुय दीवेणं दीवे तत्थ तत्य' 2 ॥३४ नामना द्वीपमा स्थणे स्थगे 'बहवे गेहा गारा णोम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो' श्रम आयु भन् ! गेडा२ न'भना અનેક કલ્પવૃક્ષ કહેવામાં આવેલ છે. તે કેવા પ્રકારના હોય છે? તે દૃષ્ટાંત २। सूत्र४२ मतावे छे. 'जहा से पागारट्टालगचरियदार गोपुर पामाया Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धोतिका टीका प्र. ३ उ.३ लू. ३६ एकोरुकद्वीप स्थितद्रुमगणवर्णनम् पासायाका सतलमंडव एगसाळ विसाळ विसालग चउरं स चउमाल गन्मघरमोहण घरवलभिघर चित्तसालमालयभत्तिघरवट्टतंस चतुरंसणं दियावत्चसं ठेयायय पंडुर तल मुंडमाल इम्मियं प्राकाराट्टालक चरिकद्वारगोपुप्रासादाकाशतल मण्डपेकशाल द्विशालक त्रिशालक चतुरस्र चतुम्शालगर्भगृह मोहनगृहवलमीगृह चित्र शालमालकभक्तिगृह वृत्तत्रयस नन्दिकावत संस्थितायत पाण्डुतलमुण्डमालहर्म्यम्, तत्र माकारोवमः, अट्टालकः - प्रासादोपरिवर्त्त्याश्रयविशेषः, चरिकानगर माका - रान्तमूले अष्टहस्तप्रमाणो मार्गः, द्वारं स्पष्टम्, गोपुरं पुरद्वारम्, प्रासादः सिद्धः चरिदार गोपुर पासायाकास तल मंडव एग साल विसालगतिलाल गचउरंस चडसाल गन्न घर मोहण घर वलभिघर चित्तसाल मालयभत्ति घर वट्टतं चतुरंसणंदियाचत्त संठियायत पंडुरतल मुंड माल हप्रियं' जिस प्रकार से संसार में प्राकार, अट्टालक, चरिका, द्वार, गोपुर, प्रासाद, आकाशतल, मंडप, एकशाल, विशाल, त्रिशाल, चतु रस्र, चतुःशाल गर्भगृह, मोहन गृह, वलभी गृह, चित्रशाल मालक भक्ति गृह, वृत्त, त्रयस्र, चतुरस्र, नंदिका वर्त्त, संस्थितायत पाण्डुरतल मुण्डमाल हर्म्य, इनमें कोट का नाम प्राकार हैं जो नगर या राजमहल के चारों ओर होता है प्रासाद के ऊपर जो आश्रम विशेष होता है उसका नाम अट्टालक है इसे आजकल की भाषा में अटारी नाम से कहा जाता है नगर और प्राकार के बीच में जो आठ हाथ प्रमाण रास्ता रहता है उसका नाम चरिका है। दरवाजे का नाम द्वार है नगर के प्रधान द्वार का नाम गोपुर है राजमहल का नाम प्रासाद है बिलकुल कासतलम डव एगसाल विसालगतिखालगच उरखच उसाल गव्भघरमोहणघर वळभिघर चित्तसाल मालय भत्तिधर व तंस चठरंस नंदियावत्तसठिया यत्तप ंडुरतलमुंडमालाहम्मिय" ? अभागे भगत्मा आअर, सट्टा, यरिम, द्वार, गोपुर, आसाह, अशतल, भांडेय, सेम्शाल, द्विशास, त्रिशास यतुरस्र, यतुःशास, गर्भगृह, भोडनगृह, वसलीगृह, चित्रशाल भाषा, लतिगृह, वृत्त यख यतुरख, नहिभत्रर्त, संस्थितायत, पांडुरतव, મુ ડમલહુમ્ય, તેમાં કાટનું નામ પ્રાસાદ છે કે જે નગર અથવા રાજમહેલની ચારે તરફ હાય છે. પ્રાસાદની ઉપર જે આશ્રય વિશેષ હાય છે. તેનુ' નામ અટ્ટાલક છે. તેને હાલની ભાષામાં અટારી કહેવામાં આવે છે, નગર અને પ્રાકારની વચમાં આઠ દ્વાય પ્રમાણના જે રસ્તે રાખવામાં આવે છે, તેનું નામ રિકા છે. દરવાજાનું નામ દ્વાર છે, નગરતા મુખ્ય દરવાજાનુ નામ ગેપુર છે, ५५७ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ जीवामिगमले आकाशतलं कूटायाछिन्न-कुटिमम्, मण्डपः-छायाधथ पटादिमय आश्रयविशेषः एकशाल द्विशाले भवनविशेपो त्रिशालमपि भवनविशेषः, चतुरस्रं चतुः शालं च भवनविशेषः, गर्भगृह-सर्वतोवत्ति गृहान्तरम् अभ्यन्तरगृहम्, मोहनगृह-शयन. गृहम्, बल भीगृह, चित्रशालमालकम्, भक्तिगृहम् वृत्तव्यस्रचतुरस्रम्, नन्दिकावतः प्रासादविशेषः तहत् संस्थितायत पाण्डुरतलमण्डुमालहम्यम्-उपरि आच्छादन. साफ छन को भूमि का नाम आकाश तल है यह निरावृत्त प्रदेश रूप होता। छाया आदि के निमित्त जो तम्बू तान लिया जाता है उसका नाम अण्डप है एक शाल द्विशाल ये भवन विशेष होते है । तीन शाला वाले और चार शाला वाले भी भवन ही होते हैं और विशेष भवन के रूप में बनाये जाते हैं शाला शब्द का अर्थ खण्ड है जो भवन दो खण्ड वाले होते हैं वे द्विशाल भवन हैं इसी तरह से आगे भी समझ लेना चाहिये जो मकान चौखूटा होता है वह चतुरस्त्र गृह है घर के नीचे जो भी हरा होना हैं उसका नाम गर्भ गृह है शयन घर को मोहन गृह कहते है छाजो वाला जो घर होता है उसका नाम वलभी गृह है चित्रशालालय-जिसमें अनेक प्रकार के चित्रों से सुसज्जित स्वतंत्र प्रकोष्ठ होता है ऐसे गृह का यह नाम है वृत्त जो गोल आकार में पनाया जाता है वह वृत्त घर त्रिकोण के आकार में बना होता है उसका नाम न घर हैं चोखूटे आकार के बने हुइ घर का नाम चतुरस्त्र घर है नन्दिकावर्त स्वस्तिक के जैसा जो आलय होता है રાજમહેલનું નામ પ્રાસાદ છે. એકદમ સાફ અગાશીના તળીયાનું નામ આકાશતલ છે. આ નિરાવૃત્તપ્રદેશ હોય છે. છાયા વિગેરેને માટે જે તબૂતાણવામાં આવે છે. તેનુ નામ મડપ છે. એક શાલ દ્વિશાલ, આ ભવન વિશેષ હોય છે ત્રણ શાલાવાળા અને ચાર શાળા વાળા પણ ભવન જ કહેવાય છે. અને વિશેષ ભવન રૂપે બનાવવામાં આવે છે. શાલા શબ્દનો અર્થ ખંડ છે. જે ભવન બે ખંડવાળા હોય છે. તેને દ્વિશાલ ભવન કહેવાય છે. એ જ પ્રમાણે આગળ પણ સમજી લેવું. જે મકાન ચખૂણિયું હોય છે તે ચતુરાસગૃહ કહે વાય છે. શયનભવનને મેહનગૃહ કહે છે. છાજાવાળું જે ઘર હોય છે, તેનું નામ વલભીગુડ કહેવાય છે. ત્રિશાલાલય જે અનેક પ્રકારના ચિત્રોથી સુસજજીત સ્વતંત્ર ગૃહ હોય છે, તેવા ગૃહનું નામ ચિત્રશાલાલય કહે છે. વૃત્ત એટલેકે જે ઘર ગોળ આકારનું બનાવવામાં આવે છે, તે વૃત્તઘર કહેવાય છે. જે ઘર ત્રિકેણાકાર બનાવવામાં આવે છે. તેને ચૂસવર કહે છે. ખૂણિયા આકારનું બનાવવામાં આવેલ ભવનને ચતુરન્સ ઘર કહેવાય છે. નંદિકાવ Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ३.३.३६ एकोषकद्वीपस्थितमगणवर्णनम् ५५९ रहितं शिखरादि रहित हर्म्यम् ! 'अहवणं धरलहर अद्धमागहविभमसेलद्ध सेलसंठिय कूडागारसुविहिकोढग अणेगघरसरणलेण आवण डिगजालविंदणि. ज्जूह अववरक दोवारिय-चंदसालियरूवविभत्ति कलिया' अथवा खलु धदलगृहाच मागधविभ्रमशैलार्द्धशैलसंस्थित कटाकाराढय सुविधिकोष्ठकानेक गृहसरणलयनआपण विडंकजालवृन्द नि! हापवरभदौवारिस चन्द्रशालिकारूपविभक्ति कलिताः तत्र-धवलगृहं सौधम्, अर्धमागध विभ्रमाणि गृहविशेषाः, शैलाशेल संस्थितानि उसका नाम नन्दिका वर्त गृह है जिसकी नीचे की भूमि शुभ्र हो और ऊपर जिस पर छान-छप्पर न हो ऐले आंगन वाले घर का नाम पाण्ड. रतल मुण्ड माल गृह है धनिक जनों के रहने के मकान का नाम हर्म्य है 'अहव णं धवलहर अद्धमागह विभम लेलद्ध लेल संठिय कूडा. गारड सुविहिकोट्ठा अणेग घरसरणलेण आक्षण विडंग जालविंद णिज्जूह अवरक दोबारिय चंद सालिग रूवा विभत्ति कलिया अधण विहिबहु विकप्पा' धवलगृह-लौध अर्धगृह सागधगृह एवं विभ्रमगृह, शैलार्द्ध गृह, शैल संस्थितगृह, कूडाकार गृह, सुविधि कोष्टक गृह, शरण लयन आपण, इत्यादि रूप से भवनों के भेद अनेक होते है. इनमें अर्ध गृह मागध गृह और विभ्रम गृह ये कोई विशेष प्रकार के घर होते है पहाड़ के अर्ध भाग का जैसा आकार होता है इस आकार का को घर होता है उसका नाम शैलाद्ध गृह है तथा पर्वत का जैसा आकार होता है इस आकार का जो घर होता है वह शैल संस्थिन સ્વરિતકના જેવું છે ઘર હોય તેનું નામ નંદિકાલતંગ્રહ કહેવાય છે જેની નીચેની ભૂમિ શુદ્ધ હોય અને જેની ઉપર છાજ-છાપરૂ. ન હોય એવા આંગણું વાળા ઘરનું નામ પાંડુરતલ મંડમાલ ગૃહ કહેવાય છે. ધનવાનોને રહેવાના महाननु नाम उभ्य' छे. 'अहव ण धवलइर अद्धमागहविभम सेलद्धसेल सठिय कूडागार सुविहिकोटुग अणेगघरसरणलेण अविण विडंग जालविदणिज्जूह अवरक दोवारिय चंदसालिय स्व विभत्तिकलिया भवणविहि बहुविकप्पा' धक्सગૃહ સીધ, અર્ધગૃહ માગધગ્રહ અને વિભ્રમગૃહ, શિલાર્ધગૃહ, શિલ સંસ્થિતગૃહ કૃડાકારઘર, સુવિધિકેષ્ટકઘર, અનેગૃહ, શરણલયન, આપણ વિગેરે પ્રકારથી ભવનના અનેક ભેદ હોય છે. તેમાં અર્ધગૃહ, માગધગ્રેડ, અને વિભ્રમગૃહ આ કોઈ વિશેષ પ્રકારના ઘર હોય છે. પહાડના અર્ધભાગને જે આકાર હોય છે, એ આકારનું જે ઘર હોય છે, તેનું નામ શૈલાઈગ્રેડ છે. તથા પર્વતને જે આકાર હોય છે, તેવા આકારનું જે ઘર હોય છે, તે શલ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m A - - - - -- - ५६० जीवामिगम पर्वताकाराणि गृहाणि' फूटाकाराय शिखराकृतिकानि 'मुविहि-क मुग' मुविधिकोष्ठ कानि, 'अणेपघा' अनेकाः गृहा: 'आवण' आपणा-टूटाः इत्यादिका भवनविधयो बहुविकल्पाः इत्यन्वयः। विटंका-कपोतपाळी, जालन्दो गवाक्षसमूह 'णिज्जू' नियूह द्वारोपरितन पावविनिर्गतदारुः 'अपचरकः 'दोवारिय' द्वारिकः 'चंदसालिय' चन्द्रशालिका-शिरोगृहम् 'स्वविभत्तिचित्ता' इत्येवं गृह है पर्वत की चोटी का जैसा आकार होता है ऐसे आकार वाला जो घर होता है वह कूडाकार गृह है जिस घर में अनेक कोठे अच्छे प्रकार के बने होते हैं वह सुविधिकोष्ठक है जिस घर में एक से प्रमाण के अनेक घर बने रहते हैं वे अनेक घर कहलाते हैं। दुकान का नाम आपण है बाजार में जिस प्रकार से प्रत्येक वस्तुएं यथास्थान मिलती है उसी प्रकार से जिस घर में प्रत्येक उपयोगी वस्तुएं यथास्थान पर रखी हुई मिलती हैं ऐसे घर का नाम आपण गृह कहते है इत्यादि रूप से भवनों की विधियां अनेक प्रकार की है कापोत पाली-छज्जा का नाम विटंग है इसके आकार के जो घर है वे भी यहां विटंक शब्द से गृहीत हुए हैं जाल वृन्द नाम गवाक्ष का है द्वार के ऊपर के भाग में निकला हुआ जो काष्ठ होता है उनका नाम नि!ह है अपवरक नाम छोटी २, कोठरियों का है छत्त के ऊपर जो घर होता है उसका नाम शिरो गृह है इस तरह भवन विधियां गृह प्रकार-अनेक भेदों वाले हैं 'तहेव સંસ્થિત ઘર કહેવાય છે. પર્વતના શિખરને જે આકાર હોય છે, એવા આકારવાળું જે ઘર હોય છે, તે કૃડાકાર ઘર કહેવાય છે. જે ઘરમાં અનેક પ્રકારના સારા કોઠાઓ બનાવવામાં આવેલ હોય, તે સુવિધિ કેઠક કહેવાય છે. જે ઘરમાં એક સરખા આકારવાળા અનેક ઘરે બનાવેલા હોય છે, તે અનેક ઘર કહેવાય છે દુકાનનું નામ આપણ છે. બજારમાં જે પ્રમાણે દરેક વસ્તુઓ ગ્ય સ્થાને મળે છે, એ જ પ્રમાણે જે ઘરમાં દરેક ઉપયોગી વસ્તુઓ યથાસ્થાન પર રાખેલ મળે છે, તેવા ઘરનું નામ પણ આપણું ગૃહ કહેવાય છે ઈત્યાદિ પ્રકારથી ભવનની અનેક પ્રકારની વિધિ છે. કાપોટપાલી છજાનું નામ વિટંક છે. તેના આકાર જેવું છે ઘર હોય તે પણ અહિયાં વિટંક શબ્દથી ગ્રહણ કરાય છે. જાલવૃન્દ ગવાક્ષ બારીને કહે છે, તેનું નામ નિબૃહ છે. અપવરક નાની નાની ઓરડીને કહે છે અગાસીની ઉપર જે ગ્રહ હોય છે તેનું નામ શિરાગ્રહ છે. આ પ્રમાણે ભવન વિધિ ભવન પ્રાકાર વિગેરે અનેક ભેદેવાળી हाय छ, 'तहेव ते गेहाकारा वि दुमगणा' ५१ प्रमाणे ते १२ नाममा Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ सू.३६ एकोरुकद्वीप स्थितद्रुम गणवर्णनम् रूपाभिः विभक्तिभिः - विच्छित्तिभिः कलिताः- युक्ताः 'भवणविहीवहुविकप्पा' भवनविधि बहुविकल्पाः - भवनविधिना अनेकप्रकाराः, 'तहेव ते गेदागारा वि दुमगणा' तथैव प्राकारादिवदेव ते गेहाकारा अपि द्रुमगणाः 'अोग बहुविविवीससापरिणयाए' अनेक बहुविविधविस्रसापरिणतेन भवनविधिना, कथं भूतेन भवनविधिना तत्राह - 'सुहारुहाए सुहोत्तराए' सुखारोद्दणेन सुखोत्तारेण, सुखेनारोहणमूर्ध्वगमनं यस्य तेन सुखेन अधस्तादवतरणं यस्य स तथा तेन, 'सुइनिकखमणपसाए' सुखनिष्क्रमण प्रवेशेन सुखेन-अनायासेन निष्क्रमणं निर्गमः प्रवेशथ यत्र स तथा तेन - 'दद्दरसोपाणपतिकलियाए' दर्दरसोपानपङ्क्ति कलितेन दर्दरा - घनी भूता सोपानपङ्क्तिस्तया कलितेन युक्तेन 'पइरिकाए ' प्रतिरिते हागारा वि दुमगण।' इसी प्रकार से वे गृहाकार नाम वाले कल्पवृक्ष भी 'अणेग बहु विविधवीससा परिणघाए सुहारूहणे, सुहोतराए सुह निक्खमणप्पवेसाए, दद्दर सोपाण पंति कलियाए परिक्काए सुह विहाराए, मणोऽणुकूलाए, भवग बिहीए उववेया' अनेक प्रकार की बहुत सी स्वाभाविक भवन विधि से भवनों की रचना रूप प्रकार से कि जिन भवनों के ऊपर चढने में और नीचे उतर ने में किसी भी प्रकार का परिश्रम - खेद - थकावट नहीं होता है सुख पूर्वक जिनपर चढ़ा और उत्तरा जा सकता है आनन्द के साथ जिनके भीतर जाना होता है और आनन्द के साथ ही जिनसे बाहर निकलना होता हैतथा - जिनकी सोपान पङ्कियां दर्दरी घनीभूत- पाम पाम में होती है, और जिसमें विशालता को लेकर विहार सुख पद ही होता है, एवं जो मनोनुकूल होती है उस प्रकार की भवनविधियों से युक्त होते हैं 'कुम० जाव चिति' इन पदो का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है तात्पर्य ५६१ वृक्ष या 'अणेग बहुविविध वीससा परिणयाए सुदारुहणे, सुहोत्तराए सुहनिक्खमणप्पवेसाए, दद्दरसपाण पतिकलियाए पइरिस्वाए सुहविहाराए, मणोऽणु कुलाए, भवणविहीर उववेया' भने प्रहारनी घी सेवी स्वाभावि लवनविधिथी અર્થાત્ ભવનેાની રચના રૂપ પ્રકારથી એટલે કે જે ભવનેાની ઉપર ચડવામાં અને નીચે ઉતરવામાં કાઇ પણ પ્રકારના પરિશ્રમ-ખેદ-થાક લાગતા નથી અને જેના પર સુખ પૂર્વક ચડાય ઉતરાય છે. તથા આનંદ પૂર્ણાંક જેની અંદર જઈ રાકાય છે, અને આનંદ પૂર્વક જેની મહાર નીકળી શકાય છે. તથા જેના પગથિયા ઘનીભૂત પાસે પાંસે હેાય છે. અને જેના વિશાળ પણાને લઇને જવા આવ વાનું સુખદ થાય છે. અને જે મનને અનુકૂલ હોય છે. એવા પ્રકારની ભવન विधियोधी युक्त हाय है. 'कुसविकुस जाव चिट्ठति' या होना अर्थ पढेतां जी० ७१ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ जीवामिगमल क्तेन-विशालेन, 'सुहविहाराए' सुखरिहारेण-सुखः सुखरूपः विहारो गमनागमनं यत्र स तथा तेन 'मणोणुकूलाए' मनोऽनुक्लेन 'भवणविहीर' भवनविधिनाभवनप्रकारेण 'उबवेवा' उपपेताः, 'कुसविकुस विसुद्ध जाव चिटंति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्ष मला मुलान्दमन्तो यावत् तिष्ठन्तोति नमः कल्पवृक्षः ।२।। ___ 'एगोरुय दीवेणं दीवे' एकोरुकद्वीपे 'तत्थ तत्थ बहवे गणिगणा णाम द्रुमगणा एण्णत्ता समणाउपो' तत्र तत्र वहवः अनग्नाः विचित्र विविधवस. दायित्वात् न विद्यन्ते नग्नास्तत्कालीनास्त-देशस्थाच जना येभ्यः ते अनग्ना नाम द्रुमगणा:-कल्पवृक्षाः यज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण आयुष्मन् 'जहा से' यथा ते 'अणेगसो' अनेकशः 'आजिणग खोम कंवल दुगुल्ल कोसेज्जकालमिग पट्टचीणं सुयवरणातवारवणिगयतुश्रामरण चित्तसहिणा कल्लाणगर्मिगिणील कज्जल बहुयही है कि-जैसे यहां घर अनेक प्रकार के होते हैं-वैसे ही ये कल्पवृक्ष भी अनेक प्रकार के होते हैं ॥९॥ १०-दशवें कल्पवृक्ष का स्वरूप कथन 'एगोरुय दीये तत्य २, वह अणिगण। णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउलो' हे श्रमण आयुष्मन् ! उस एशोरुक द्वीप में जगह २, अनग्न नाम के बहुत से कल्पवृक्ष कहे गये हैं। ये विविध प्रकार के वस्त्रों के प्रदाता होते हैं-अतः उस काल के और उस देश के मनुष्य इनके कारण कभी नग्न नहीं रहते हैं इसी कारण इनका नाम अनग्न कहा गया है उन वस्त्रों का वर्णन करते हैं 'जहा से अणेगसो ओजि. णगखोम कंवल दुगुल्लकोलेज फाल प्रिग पट्ट चीणंसुयररणात वार वणि गय तुप्राभरणचित्तसहिणगकल्लाणग भिगिणीलकज्जल बह કહ્યા પ્રમાણે જ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે જેમ અહિયાં અનેક પ્રકારના ઘરે डाय छ, ४ प्रमाणे २मा ४६५वृक्षा ५ मन: ५४।२ना हाय छे. । ९ । व समा ४८५वृक्षना २१३५नु ४थन ३२वामां आवे छे. 'एमोरूय दीवे तत्थ तत्थ बहवे अणिगणाणाम' दुमगणा पण्णत्ता सरणाउसे' 3 श्रमय આયુશ્મન એ એકરૂકદ્વીપમાં સ્થળે સ્થળે અનગ્ન નામના ઘણાજ કલ્પવૃક્ષો હોવાનું કહેલ છે. તેઓ અનેક પ્રકારના વસ્ત્રોને આપવાવાળા હોય છે. તેથી તે કાળના અને તે દેશના મનુષ્યો વસ્ત્રોના કારણે કે સમયે નગ્ન રહેતા નથી. તેથી જ તેમનું નામ અનગ્ન કહેવામાં આવેલ છે. તે વસ્ત્રોનું વર્ણન ४२त सूत्र २ ४९ छ , 'जहा से अणेगसो आजिणग खोमबल दुगुल्ल कोसेज काल मिगपट्टचीणंसुच वरणातवारवणिगय तुआभरण चित्तसहिणग Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.३६ एकोरुकद्वीपस्थितटुमाणवर्णनम् ५६३ वण्ण रत्तपीत मुक्किल मक्खियमिगलोम हेमरुप्पण्णम अवसरत्तग सिंधुओस भदामिलवंग कलिंग नेलिण तंतुमयभत्तिचित्ता' आजिनक क्षौम कम्बल दुकूल कौशेयकाल मृगपट्टचीनांशुक वरणातवार वणिगयतु आमरण चित्रश्लक्ष्णकल्याणकभृङ्गीनीलकज्जल बहुवर्णरक्तपीतशुक्ल म्रक्षित मृगलोम हेमरुप्यवर्णक अबरुत्तरग वण्णरत्तगपीत सुक्किल मक्खिय मिथलोभ हेमरुप्पक्षण्णण अवसर त्तग सिंधु ओखभदाखिलवंगकलिंगनेणिलतंतुमयअत्तिचित्ता' जैसे जगप्रसिद्ध वस्त्र अनेक प्रकार के होते -घधा-आजिनक-चर्मवस्त्रक्षौम-कपास का वस्त्र कंचल-प्रसिद्ध है दुकूल, कौशेय-रेशमीवस्त्रकालमृगपट्ट-फाले मृग के चमड़े से बना हुआ वस्त्र चीनांक-चीन देश का बना हुआ वस्त्र 'वरणातवा रवणिणयतु देश विशेष प्रसिद्ध ये भी कोई वस्त्र विशेष ही समझें, आमरणवस्त्र आभरणों से विचित्र वस्त्र जिस पर नाना प्रकार के आभरणों के वेल बूटो द्वारा चित्रकढे हुए होते हैं ऐसे, बारीक तन्तुओं द्वारा चुने गये वस्त्र कल्याणक वस्त्र मौके मौके पर पहिरने के योग्य आनन्द प्रवस्त्र, भृगी नील कज्जल भौरे के जैसे नील वर्ण वाले वस्त्र, जमलबर्णवस्त्र-छज्जल के वर्ण जैसे काले वस्त्र, रक्तवस्त्र, लाल वस्त्र पीतवस्त्र-पीले वस्त्र शुक्लवस्त्र, अक्षतवस्त्र-बीच में नहीं फटा हुआ वस्त्र, नवीनवस्त्र, मृगलोमवस्त्र मृग के रोमों का बना हुआवस्त्र, हेमवस्त्र-लोने के तारों से घना कल्लाणगभिगिणी लकज्जल बहुवण्ण रत्तपीत सुकिलमक्खय मिगलोमहेमप्फरूण्णग अवसरत्तग सिधुओसभदामिलव'गकलिंगनेणिलत'तु मयभत्तिचित्ता' म ११ પ્રસિદ્ધ વસ્ત્રો અનેક પ્રકારના હોય છે. જેમકે આજીક ચામડાને વસ્ત્ર, લીમ કપાસના વસ્ત્રો, કંબલ ઉનને સ્ત્ર પ્રસિદ્ધ છે. દુકૂલ વૃક્ષની છાલમાંથી બનાવેલ વસ્ત્ર કૌશય રેશમી વસ્ત્ર, કાલમૃગપટ કાળા મૃગના ચામડાથી બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, ચીનાંશુક ચીન દેશમાં બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર .'वरणातवारवणिगयतु' हेश विशमा प्रसिद्ध मेQ आप विशेष નું જ નામ છે. આભરણ વસ્ત્ર આભૂષણેથી વિચિત્ર વસ્ત્ર, જેના પર અનેક આભરણેની વેલબૂટો દ્વારા ચિત્ર કહાડવામાં આવેલ હોય એવા વ, જીણા તારોથી બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, કલ્યાણક વસ્ત્ર, સમયે સમયે પહેરવા ગ્ય આનંદ આપનારા વસ્ત્ર, ભંગીનીલકજજલ ભમરાના જેવા નીલ વર્ણવાળા વ. કાજલવર્ણ વસ્ત્ર, કાજળના જેવા વર્ણવાળા કાળાવ રક્તવર્ણવાલાવો લાલ વ પીતવસ્ત્ર, પીળાવ શુલ વસ્ત્ર, સફેદ વસ્ત્ર, અક્ષતવસ્ત્ર, વચમાં ફાવ્યા શિવાયના વ, નવીન વ, મૃગલેચન વસ્ત્ર, મૃગના રૂંવાટાને બનાવેલ નો Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - जीवामिगमसूत्रे सिन्धुऋषमतामिलचङ्गकलिङ्गनेलिन तन्तुमयभक्तिचित्राः, तत्र-आजिनकं चर्ममयवस्त्रम्, सौमम्-कासिवस्त्रम्, कम्बलं प्रसिद्धम्। दुकूळम् - श्लक्ष्णवस विशेषः 'कोसेज्ज' कौशेयम् विलक्षणकीटतन्तुनिर्मितम्, 'कालमृर पट्ट' कालमृगपट्टाकालमृगचर्म 'चीणांसुय' चीनांशुकम् चीनदेशोद्भवोवस्त्र विशेषः, नानादेश प्रसिद्धः 'वरणातवार वणिगयतु' इति पाठशुद्धेः कर्तुमशक्यत्वाद् यथादेशं यथा संप्रदाय वस्त्र जाति विशेषमधिकृत्य व्याख्येयम् । 'आभरणचित्तं' आमरणचित्राणि-आभ. रणैर्विचित्राणि 'सहिणग' इलक्ष्णानि-मूक्ष्मतन्तु निष्पन्नानि 'कल्लाणग' कल्याण कानि-परमलक्षणोपेतानि-भिगिनीलकज्जल' भगीनीलकज्जलेति, तत्र-भृङ्गीकीटविषः, नीलं-रागविशेषः तथा-कज्जलं' मसिद्धम्' 'बहुवण्णरत्तपीतमुक्किल्ल' बहुवर्णानि रक्तपीतशुक्लानि 'मक्खियमिगलोम' म्रक्षितं तैलादिना स्निग्धीकृतं यत् मृगलोम 'हेमरुप्पवण्णग' हेमरूप्यवर्णकं-सुवर्णरजतवर्णात्मकम् 'अवरुतगसिंधु ओसभदामिलवंगकलिंग नेलिण तंतुमयभत्तिचित्ता' अवरुत्तरगसिन्धुऋषभतामिल. बङ्गकलिङ्ग नेलिन तन्तुमयचित्राः तत्र-अपर:-पश्चिमदेशः, उत्तरः-उत्तरदेशः, सिन्धुदेशविशेषः 'ओसभ' इति ऋषभः संप्रदाय गम्योदेशः, तामिलबङ्ग कलिङ्ग नेलिनाः देशविशेषा:-मसिद्धाः एतद्देशोद्भवा ये तन्तवः-सूक्ष्मतन्तवः, मन्मयायाः भक्तयो विच्छित्तयो विशिष्टरचनाः तामिश्चित्रा इत्यादिकाः 'वत्थविहिबहुप्प. गारा हवेज्ज' वस्त्र विधिना बहुपकारा भवेयुः 'वरपट्टणुग्गया' वरपरनोद्गतार, हुआ वस्त्र अपरवस्त्र-पश्चिमदेश में बना हुआ वस्त्र,-उत्तर देश में बना हुआ वस्त्र, सिन्धुवस्त्र,-सिन्धु देश में बनो हुआ वस्त्र, ओसभ ऋषभ नामके देश के वस्त्र, तामिलवस्त्र-तमिल प्रदेश में बना हुआ तमिल देश का वस्त्र, बङ्गवस्त्र-बंगाल देश में बना हुआ बंगाल का वस्त्र, इसी प्रकार से कलिङ्गवस्त्र-कलिङ्ग देश में बना हुमा कलिङ्ग देश का वस्त्र, नेलिणन्तु-वस्त्र सूक्ष्म तन्तुओं से बना हुआ पतला वस्त्र, इत्यादि विविध प्रकार की रचना वाले वस्त्र जैप्ता तत्तद्देश भेद से अनेक प्रकार के होते हैं और 'वरपदृणुग्गया' श्रेष्ठ पत्तन के अर्थात् હેમવઝ, સેનાના તારથી બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, અપરવસ્ત્ર, પશ્ચિમદેશમાં બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, ઉત્તરવસ્ત્ર, ઉત્તર પ્રદેશમાં બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, સિંધુવસ્ત્ર, સિધુ દેશમાં બનેલા વચ્ચે, એ સભ, ઋષભ નામના દેશમાં બનેલા વઓ, તામિલવસ્ત્ર, તામિલપ્રદેશમાં બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, બંગવસ્ત્ર, બંગાળ દેશમાં બનાવવામાં આવેલ વસ્ત્ર, એજ પ્રમાણે કલિંગવસ્ત્ર, કલિંગદેશમાં બનાવવામાં આવેલવસ્ત્ર, નેલિયું તુવસ્ત્ર, જીણતારથી બનાવવામાં આવેલ છાણું વસ્ત્ર, 'ત્યાદિ અનેક પ્રકારની રચનાવાળા વસ્ત્રો જેમ તે તે દેશ પ્રદેશના ભેદથી અનેક Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.३६ एकोरुकद्वीपस्थितद्रुमगणवर्णनन् ५६५ वरपत्तनं तत्तत् प्रसिद्धपत्तनं तस्मादुद्गताः-विनिर्गताः 'वण्णरागकलिया' वर्णरागकलिताः वगैरनेपजिष्ठादिभिः कलिताः युक्ता', 'तहेच ते अणियणावि दुमगणा' तथैव ते अनग्ना अपि द्रुमगणा:-कल्पवृक्षाः 'अणेगबहुविविहवीसका परिणयाए वत्थविहीए उववेया' अनेकवहुविविध विस्रसापरिणवेन वस्त्रविधिनोपेता:'कुसविकुप्त वि० जाव चिट्ठति' कुशविकुश विशुद्ध वृक्षमूला यावत् तिष्ठन्तीति ।३६। ___मूलम्-एगोरुय दीवेणंभंते ! दीवे मणुयाणं केरिलए आयारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा! तेणं मणुया अणुवमतर सोमचारुरूवा भोगुत्तमगयलक्खणा भोगसस्तिरीया सुजाय सव्वंगसुंदरंगा सुपइट्रियकुम्मचारुचलणा रतुप्पलपत्तमउयसुकु. मालकोमलतला नगनगरलागरमगर चर्ककबरंकलक्खणकिय चलणा अणुपुव्वसुसाहतंगुलीया उणयतणुतंबणिद्धणखा संठियसुसिलिगूढगुप्फा एगीकुरुविंदाकतवट्टाणु पुठवजंघा समुग्गणिमग्गगूढ जाणू गयससणसुजायसपिणभोरू वरवारणमत्ततल्लविकमविलासियगई सुजायवरतुरगगुज्झदेसा आइण्णभिन्न २, देशों में यहां की संस्कृति के अनुसार इनका निर्माण होता 'यणरापलिया' तथा मंजिष्ठादि रंगों से ये जैसे भिन्न २ देश की पद्धति के अनुसार रंगे होते हैं 'तहेव ते अणियणा विदुमणा' इसी प्रकार से णे अनग्न नाम के कल्पवृक्ष भी 'अणेग बहु विविहवीससा परिणयाए वत्थविहीए उववेया' अनेक बहुत प्रकार की स्वाभाविक वस्त्र, विधि से परिणत होते हैं 'कुस विकुस' इत्यादि, पदों का अर्थ पूर्वोक्त जैसा ही है सूत्र-३६।। ४२ना हाय छे. अन 'वरपट्टणुग्गया' श्रेष्ठ पत्तनथी मत् हो ! देशमा यांनी त्यांनी संस्कृती प्रमाणे तेनु निर्माएर थाय छे. 'वण्णरागकलिया' તથા મંજીષ્ઠાદિ રંગથી જેમ જૂદા જૂદા દેશની પદ્ધતિ અનુસાર રંગવામાં मावेस डाय छे. 'तहेव ते अणियणा वि दुमगणा' तेच प्रमाणे मा मनन नाना ६५वृक्ष! ५५ 'अणेग बहु विविहवीस सापरिणयाए वत्यविहीए उववेया' भने प्रा२नी २१मावि विधिथी परियत डाय छे. 'कुसविकुस' या पहानी म पडai sil प्रभाष्ये समाव. ॥ सू. 360 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमले होठवणिरुवलेवा पमुइयवस्तुरिय सीह अइरेगवट्टियकडी साहयसोणंदमुसलदप्पणणिगरितवरकणगच्छरु सरिसवरवइरवलियमज्झा उज्जुयलमसंहिय सुजाय जच्च तणुकलिणणिद्ध आहे नलडह सुकुमालमउयरमणिज्जरोमराई गंगावत्तपयाहिणावत्त तरंग भंगुररविकिरण तरुणबोहिय अकोसायंतपउम. ' गंभीर वियडणाभी झलविहगसुजायपीण कुच्छी झलोदरा सुइकरणा पम्हवियडणाभा लण्णयपासा संगयपासा सुंदरपासा सुजायपाला मियमाइयपीणरइदपासा अकरुंडुय कणगरुयग निमलसुजाय निरुवहयदेहधारी पलत्थ बत्तीसलक्खणधरा कणगलिलातलुज्जल पसत्थ समतलोवचिय विच्छिन्न पिहुलवस्था लिरिवच्छंकियवच्छा पुरवरफलिहवट्टियभुया भुयगीसरविउलभोग आयाणफलिहउच्छूढ दीहबाहू जूयसन्निभपीणरतियपीवरपट संठियमुसिलिटु विसिट घणथिर सुबद्ध सुनिगूढपब्वसंधी रत्ततलोवइयमउयमंसल पसत्थलक्खण सुजाय अच्छिद जालपाणी पीवरवट्टिय सुजायकोमलवरंगुलीया आयंवतलिणसुचिरुइरणितणक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा चक्रपाणिलेहा दिसासो अस्थिय पाणिलेहा चंदसूरसंखचक्कंदिसाओ अस्थिय पाणिलेहा अणेगवरलक्खणुत्तम पसत्थ सुचिरइंदपाणिलेहा वरमहिसवराहलीहरू दूल उसभणागवर पडिपुन विउल उन्नयखंधा च उरंगुलसुप्पमाणकंबुवर सरिसगीवा अट्रिय सुविभत्त सुजाय चित्तमंसूमंसलसंठियपसत्थ सद्दूलविउलहणुया ओयत्रियलिलप्पवाल बिंबफलसन्निभा हरोट्रा . पंडुरससिसगलविमलनिम्मलसंखगोखीर फेगदगरयमुणालिया Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३.३७ एकोरुकमनुष्याणामाचारादिनिरूपणम् ५६७ धवलदंतसेढी अखंडदंता अप्फुडियदला अविरलदंता सुजायदंता एगदंत सेढिव्य अणेगदंता हुतवह निद्धंतधोयतत्ततरणिज्जरत्ततलतालुजीहा गरुलायय उज्जुतुंगणाला अबदालियपोंडरीयणयणा कोकासियधवल पत्तलच्छा आणामियचावरुइल किण्हन्भराइय संठियसंगय आयय सुजाततणुकलिणनिद्धभूमया अल्लीणप्पमाण जुत्तसवणासुरलवणा पीणमंललकवोलदेलभागा अचिरुग्गयबालचंद संठियपसथविस्थिन्न समणिडाला उडुवई पडिपुण्णसोमवदणा छत्तागारुत्तमंगदेला घणिचिय सुबद्धलक्खणुण्ण कूडागारणिभपिंडिशसिहसा दाडिमपुप्फपगालतकणिज्ज सरिसनिम्मलसुजाय केलंतकेसमूली साललिबोंडघणणिचिय छोडियमिउविसय पसत्थसुहमलकखणसुगंधसुंदर भुयमोयगभिंगि णीलकज्जलपहभमरगणणिणिकुरंबनिषियकुंचियचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरया लक्खष्णवंजणगुणोदया सुजायसुविभत्तसुरूवगा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। ते णं मणुया हंसस्सरा कोंचस्तरा नंदिघोला सीहस्सरा सीहघोसा मंजुस्सरा मंजुघोला सुस्सरा सुस्तरणिग्घोला छाया उज्जोइयंगमंगा वज्जरिसभनारायसंघयणा समचउरंससंठाण संठिया सिणिद्ध छवीणिरायंका उत्तमपसत्थ अइसेस निरूदमतणू जल्लमलकलंकसेयरयदोसवज्जियसरीरा निरुक्लेवा अणुलोभवाउवेगा कंकग्गहणी कवोपरिणामा सउणिव्यपोसपिर्ट तरोरुपरिणया विग्गहियउन्नयकुच्छी परमुग्लसरिलगंधणिस्साससुरभिवदणा अट्टधणुसयं ऊसिया तेर्सि मणुयाणं च उलट्रि पिटिकरडंगा पण्णत्ता समणाउसो ! । ते णं मणुया पगइभदया पगइविणीयगा पगइउवसंता पगइपयणुकोहमाणमायालोभा Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमले मिउमद्दवसंपण्णा अल्लीणा भद्दगा विणीया अप्पिच्छा असंनि. हिसंचया अचडा विडिमंतरपरिवसणा जहिच्छियकामकामिणो य ते सणुयगणा पण्णत्ता समाउसो!। तेसिं भंते ! मणुयाणं केवइकालम आहारठे समुप्पज्जइ ? गोयमा ! घउस्थभत्तरस आहारटे समुप्पज्जह ॥सू०३७॥ छाया- एकरूप द्वीपे खल भदन्त ! द्वीपे मनुजाना कीदृश आकार मात्र प्रत्यवतारः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! ते खलु मनुजाः अनुपमतरसोमचारुरूपाः मोगोत्त. मगतलक्षणाः भोगसश्रीकाः सुजातसहि मन्दराङ्गा सुपतिष्ठितमंचारूचरणा रक्तो. साल मृदुमुकुमारकोमकालाः नगनगरसागरमकर चक्राङ्गरागलक्षणाङ्कितचरणाः आनुपूर्व्य सृसंहताङ्गुलीयाः उन्नततनुताम्रस्निग्धनखाः संस्थितसुश्लिष्टग्रहगुल्माः एगीकुरुविन्दावर्त्तवृत्तानुपूर्व्यजड्डाः समुद्कनिमग्नग्रह नानवः, गजश्वसनसृजातसनिमोरवः वर वारण मत्ततुल्यविक्रमविलासितगतयः सुजातवरतुरगगुह्य देशाः आकीणहयइत्र निरूपलेपाः प्रमुदितवरतुरगसिंहातिरेकत्तकटयः संहतसौनन्दमुशल दर्पण निगरित्तवरकनकत्सरू सहश वरवज्रवलितमध्याः , ऋजु कसमसंहित सुजात जास्यतनु कृष्ण स्निग्धादेवलडह(सुन्दर) सुकुमारमृदुरमणीयरोमराजयः गडावर्तमदक्षिगावरन भंगुर रविकिरण बोधिता कोशायमान पद्माम्मीर विकटनामयः झविहगसुजातपीनकुक्षयः अबोदराः शुचिकर्णाः पद्मविकटनामाः सनतपाः संगतपाः सुन्दरपार्थाः सुजातपााः मितमात्रिकपीनरतिदपावाः अकरूण्डुककन करूच र निर्मलसुनातनिरूपहतदेहधारिणः, प्रशस्त द्वात्रिंशल्लक्षणधराः कनकशिलातलोज्वल प्रशस्तसमतलोपचितविस्तीर्ण पृथुलवस्तयः श्रीवत्सांकितवक्षस: पुरवरपरिषवृत्तभुनाः, भुजगेश्वरविपुलभोगादामपरिधोत्क्षिप्त दीर्घघाहवः युग सन्निभपीनर तदपीचरअपुष्टसंस्थित मुश्लिष्ट विशिष्ट धनस्थिरसुबद्ध सुनिगूढप वसन्धयः रक्ततळोपचितमृदुकमांसलपशस्तलक्षणसुजाताच्छिद्रजालपाणयः पीव. वृत्त, सुजात कोमलवरांगुलीयाः आताम्रलिन (पतल) शुचि रूचिरस्निग्धनखाः चन्द्रपाणिरेखा सूर्यपाणिरे वाः शङ्ख मणिरेखाः चक्रपाणिरेखाः दिक्सौवस्तिकपाणिरेखाः चन्द्र सुर्य शङ्ख चक्र दिव सौवस्तिकाणिरेखाः अनेकवरलक्षणोत्तममशस्त शुचिरतिदपाणिरेखाः वरमहिपवराहसिंहशार्दूल ऋषभनागवरप्रतिपूर्ण विपुलोघनस्कन्धाः चतुरंगुल सुपमाणकग्वु नरसदृशग्रीवाः अवस्थित मविभक्त सुजातचित्रइमश्रुः मांसल संस्थित प्रशस्तशार्दूलविपुलहनुकाः ओयविय (परिकर्मित) Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सु. ३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५६९ शिकामवाल विम्बफलसन्निभाधरोष्ठाः पाण्डुरराशि शकल विमलनिर्मक शहगोक्षीर फेनोदकरजोमृणालिकाः धरलदन्त गयः अखण्डदन्ताः अस्फुटितदन्ताः अविरलद न्वाः सुनातदन्ताः एकदन्तश्रेणिरीवा ने कदन्ताः हुतवहनिर्मातधौतपनीयरतालुजिहाः गरुडायतऋजुतुङ्गनासाः अवदाळितपुण्डरीकनयनाः कोकासित - वलयश्लाक्षाः आनामितचापरुचिरकृष्णा भ्रराजिकसंस्थित संगतायत्सुजाततनुकु ortaraar: आलीनममाणयुक्तश्रवणाः सुश्रवणाः पीनमांसल पोलदेश भागाः अविरोद्गत बालचन्द्रसंस्थितप्रशस्त विस्तीर्णसमललाटा: उडुपतिपरिपूर्ण सोमवदनाः छत्राकारोत्तमाङ्गदेशाः घननिचित सुबद्धलक्षणोन कूट(कारनिभपिण्डितशीर्षाः दाडि मध्यपकाश उपनीसह निर्मलसुनात केशान्त केशभूमयः, शात्म लियोण्डधननिचि. छोटि मृदु विशद प्रशस्त सूक्ष्मलक्षणसुगन्धसुन्दरभुजमोचक भृङ्गीनी लकज्जरप्रहृष्टभ्र मरगण स्निग्धनिकुरम्वनिचितकुञ्चितचितमदक्षिणावर्त्तमूर्द्वशिरोजाः लक्षणव्यखगुणोपेताः सुजात सुविभक्तरूपकाः प्रासादीयाः दर्शनीयाः अभिरूपाः प्रतिरूपाः । ते खलु मनुनाः इंसस्वराः क्रौंचस्वराः नन्दिघोषाः सिंहस्वराः सिंहघोषाः मज्जुस्वराः मज्जुघोषाः सुस्वराः सुरनिर्घोषाः छायोद्योतिताङ्गाङ्गाः वज्रऋषभनाराच संहननाः समचतुरस्र संस्थान संस्थिताः स्निग्धच्छवयः निरातङ्काः उत्तममशस्ता तिशय निरूपम तनव: जल लकलकवे नरजोदोषवर्जितशरीराः निरूपलेपाः अनुलोमवायुवेगाः कङ्कग्रहणयः कपोतपरिणामाः शकुनिरिवपोस पृष्ठान्तरोरुपरिणताः विगृहीतोमतकुक्षयः पद्मोत्पलसदृशगन्धनिः श्वाससुरभिवदनाः अष्टधनुशतमुच्छ्रिताः । तेषां मनुजानां चतुःषष्टिपृष्ठ करण्डकाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ।। ते खलु मनुजाः प्रकृतिभद्रकाः छतिविनीतकाः प्रकृत्युपशान्ताः प्रकृतिमत्तनुक्रोधमानमायालोमाः मृदुमादेव संपन्नाः अलीनाः भद्रकाः विनीताः अल्पेच्छाः असन्निधिसंचयाः अच विडिमंतरवखितनाः यादृच्छिक कामका सिन्थ ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! | तेषां खदन्त ! मनुनानां क्रियता कालेन आहारार्थः समुत्पद्यन्ते ? गौतम | चतुर्थस्याहार्थः समुत्पवन्ते || ३६ || टीका- 'गोरु दीवेणं भंते! दीवे' इत्यादि । 'एगोरुय दीवे णं भंते ! दीवे' ratorद्वीपे खलु मदन्त ! द्वीपे 'मणुयाणं केरिसए आयारसावण्डोयारे पण्णत्ते' 'एगोरुप दीवे णं भंते ! दीवे मणुयाणं केरिसए आगारभाव पडो यारे पण्णसे' - इत्यादि । सूत्र- ३६ । टीकार्थ- गौतमने इन सूत्र द्वारा प्रभुश्री से ऐसा पूछा है 'एगोरुयदीवेणं भंते ! दीवे मणुयाणं केरिए आगारभाव पड़ोयारे पण्णत्ते' इत्यादि ટીકા –શ્રીગૌતમસ્વામીએ આ સૂત્રઢારા પ્રભુશ્રીને એવું. પૂછ્યુ છે કે जो० ७२ Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७० जीवामिगमत्र मनुनानां मथमयुग्मिनां कीदृशा-किपाकारका आकारभावप्रत्यवतार:-शरीराका. रादिस्वरूपलक्षणः प्रत्यवतारः प्रज्ञप्ता-कथित इति प्रश्नः । भगवानाइ-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'ते णं मणुया' ते खल युग्मिमनुजाः 'अणुवमतरसोमचारुरूवाः' अनुपमतरसोमचारुरूपाः चन्द्रयत् अत्यन्त सुन्दररूपवन्तः 'भोगुत्त. मगयलक्खणा' भोगोत्तमगतलक्षणाः अत्रोत्तम शब्दस्य परनिपातः प्राक्रतस्वात. तेन उत्तमाच ते भोगाश्चेति उत्तमभोगाः, तद्गतानि तत्समूचकानि लक्षणानि येषां ते तथा उत्तमभोगमचकलक्षयुक्ता इत्यर्थः । 'भोगसस्सिरीया' भोगसश्रीका:-भोगेनशरीरेण सश्रीकाः शोभायुक्ताः 'सुजायसवंग सुंदरंगा' सुजात्सर्वात सुन्दराजाः सुजातानि यथोक्तप्रमाणोपेतत्वेन शोमनजन्मानि यानि सर्वाणि उशिरः प्रभृत्यगानि, तैः सुन्दरमङ्ग शरीरं येषां ते तथा । 'सुपइष्टिप कुम्नचारुचलणा' सुप्रतिष्ठित कूर्मचारुचरणाः सुपतिष्ठिते सुन्दराकारेण स्थिते कूर्मवत् कर्मपृष्ठवदुन्नते चरणे येषां ते वथा, 'रत्तुप्पलगत्तम् उय सुकुमाल कोमलतला' रक्तोत्पल पत्र मृदुकसकुमार. भदन्त ! उस एकोरुक द्वीप रहने वाले मनुष्यों पा आकार भाव का प्रत्यवतार अर्थात् आकारादि रूप वगैर-कैसा कहा गया है? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयमा ।' हे गौतम । तेणं मणुया' एकोरुक द्वीप के मनुष्य 'अणुषमतरसोमचारुरूवा' चन्द्रमा की तरह बहुत अधिक सुन्दर रूपवाले होते है 'भोगुत्तमगयलक्खणा' वे मनुष्य उत्तम २, भोगों के सूचक लक्षणों वाले होते हैं। 'भोग लस्सिरीया' भोग जन्य श्री शोभा से युक्त होते हैं। 'सुजाय लव्वंग सुंदरंगा' शरीर प्रमाण के अनुसार प्रमाणोपेत सस्तक आदि उनका अंग जन्म से ही अधिक सुन्दर होने से उसका शरीर सुन्दर होता है 'सुपइडिय कुम्भचारूचलणा' सुन्दर आकार वाले तथा कच्छपकी पीठ जैसे उन्नत चरण वाले होते हैं હે ભગવન તે એકરૂક દ્વીપમાં રહેવાવાળા મનુષ્યને આકાર ભાવ પ્રત્યવતાર અર્થાત્ આકાર વિગેરે રૂપ કેવું કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतमस्वामीन ४ छ । 'गोयमा ! गौतम! 'तेणं मणुग' ३४ द्वीपना ते मनुष्य। 'अणुवमतर सोमचारुरुवा' यद्रनीभ घास पधारे सु१२ ३५१७ डाय छ 'भोगुत्तमगयलक्खणा' ते मनुष्य। त्तम उत्तम मागीना सूय क्ष। पाणा हाय छे. 'भोगसस्सिरीयो गाय श्री नाम शालाया युत काय छे. 'सुजायसव्वांगसुदरगा' AN२ना प्रभार अनुसार प्रमाण युक्त મસ્તક વિગેરે તેઓનું અંગ જન્મથી જ અત્યંત સુંદર હોવાથી તેમનું શરીર सुहर डाय छे. 'सुपइद्रिय कुम्म चारू चलणा' सु१२ मारवाणा तथा आयमा ना वांस न्नत वाणा हाय छ, 'रतुप्पलपत्तमउयसुकुमालकोमल Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ रु.३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५७१ कोमलतलाः तत्र-रक्तोत्पलपत्रवत् लालिमायुक्तं पुनश्च मृदुकं मार्दवगुणोपेतम् अकर्कशम् अतएव सुकुमारं कोमलं तलं चरणतलं येषां ते तथा, नगनगर सागर मगर चक्कं-कघरंकलक्खगकिय चळणा' लगनगरसागरमकरचक्राङ्कधराङ्कलक्षणाकितचरणाः, तत्र नगो-गिरि नगर सागर मकर चक्राणि प्रसिद्धानि, अङ्कधरश्च. न्द्रस्तस्याङ्को लांछनम् एवं रूपैलेक्षणैरुक्तवस्त्वाकार परिणताभिः रेखामिरङ्किते चरणे येषां ते तथा, 'अणुपुव्वसुसाहतंगुलीया' आनुपूर्वी सुसंहताङ्गुलीयाः, आनुपूर्येण-परिपाटया वर्द्धमाना होयमानाः सुसंहता:-अविरलाः अंगुलयः पादाग्रावयवा येषां ते स्था, 'उण्णयतणु तंबणिद्धणखा' उन्नततनु ताम्रस्निग्धनखाः, सत्र उन्नता मध्ये तुंगाः तनवा-पतलाः ताम्रा रक्तवर्णाः स्निग्धाः-स्निग्धकान्तिमन्ता नखाः-पादगता येषां ते तथा, 'संठियसुसिलिट्ठगुप्फा' संस्थितमुश्लिष्टः 'रतुप्पल पत्त मउथ सुकुमाल कोबलतला' इनका चरण तल रक्त-लाल होता है एवं उत्पल के पत्र के जैसा वह मार्दव गुण से युक्त रहता हैकठोर नहीं होता तथा शिरीष पुष्प के जैसा वह कोमल होता है 'नगनगर सागर मगर चक्कंकरिंकलक्खणंकियचलणा' इन के चरणों में पहाड़ नगर सागर समुद्र मकर-मगर, चक्र एवं अङ्कधर चन्द्रमा इनके चिह्न, रहते है अर्थात् इन आकार की उनके चरणों में रेखाएं होती है 'अणुपुवस्सुसायंगुलिया' इनके पैरों की अंगुलियां जैसी जहाँ प्रमाण में पडी और छोटो होनी चाहिये वैसी वह वहां संहत-मिली हुई होती है 'उण्णयतणु तंपणिद्धणखा' इनके पैरों की अंगुलियों के नख खन्नत ऊंचे उठे हुए पलले, ताम्र-लालक्षणे के-और स्निग्ध-स्निग्ध कान्ति शाली होते हैं । 'संठिय सुसिलिट्ठ गुप्फा' इनके તા તેના ચરણનું તળીયું. લાલ હોય છે. અને ઉ૫લ કહેતાં કમળના પાનના જેવા મૃદુતા ગુણવાળા હોય છે. અર્થાત્ કઠોર હોતા નથી. તથા शिरीषन ०५ना 24 त अभय छे. 'नगनगरसागर मगर चक्क कधर कलक्खणकियचलणा' तमना २२ मा ५, नगर, सागर, સમુદ્ર, મકર-મધર, ચક, અને અંકધર-ચ દ્વમાં એએના ચિહનો હોય છે. मर्थात् मा भारानी माया तयाना २२२ मा य छे. 'अणुपुव्वसुसाह यंगुलिया' तमना पगानी भगजाये। प्रभार सरनी भेटले नानी મોટી જ્યાં જે પ્રમાણની હોવી જોઈએ તેવી જ ત્યાં ત્યાં મળેલી રહે છે, 'उण्णयतणु तंबणिद्धणखा तमना पानी मांगजीयाना न उन्नत 62 ઉઠેલા પાતળા, લાલવર્ણવાળા અને સિન, ચિકાશ યુક્ત કાંતીવાળા હોય છે. 'संठियसुसिलिटुगुप्फा' माना गुर (गडी ५२नी is) प्रभात Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ जीवाभिगमसूत्र गूढगुल्फा, संस्थिता-सम्यकू स्वरूपप्रमाणतया स्थिती मुश्किष्टी-मुघनी गृढौ मांसलत्वादनुपलक्ष्यौ गुल्फो-घुटिको येषां ते तया, 'एणीकुरुविंदावत्त वट्टाणुपुनजंघा' पणीकुरु विन्दावर्त्तवृत्तानुपूर्व्यजङ्घाः' तत्र एणी-हरिणी, कुरुविन्द:तृणविशेषः, वर्त्त मूत्रवलनकम्, एतानीववृत्ते-चतुले आनुपूव्र्येण-क्रमेण अचं स्थूलत रे जंघे येषां से तथा, 'समुग्गणिमग्ग गूढ जाण' समुद्गक निमग्नगूढ जानवः समुद्गनिमग्ने संपुटान्तः स्थिते इव मांसलत्वादनुपलक्ष्ये जानुनी येषां ते तया, 'गयससण सुजात-सण्णिभोरू' गजश्यसनमुजातसन्निमोरवा, गजस्य हस्तिन: श्वसन:-शुण्डादण्ड: मुजात:-मुनिष्पन्नः तस्य सन्निमा-हल्यो अरू-जंधे येषां ते तथा, 'वरवारणमचतुल्ल विक्कम विलासितगई' वरवारणमत्ततुल्यविक्रमविलासितगतयः, तत्र वर-प्रधानो भद्रजातीयो यो मत्तवारणो हस्ती तस्य विक्रमश्चक्रमणं तद्वत् विलासित विलासं संजातो यस्य, विलासिता विलासवती गतिर्येषां ते तथा, 'सुजातवरतुरगगुज्झदेसा' सुनातवरतुरगाह्मदेशाः वरतुरगस्येव गुल्फ-टुकने-यमाणोपेत होते हैं सघन होते हैं, मांसल होने से गूद होते हैं वे अलग दिखने में नहीं आते हैं 'एणी कुमविंदावत्तवट्टाणु पुव्वजंघा' इनकी दोनों जंघाएं हरिणी की जांघों जैसी क्रमशः स्थूलस्थूलतर होती हैं और कुरुविन्द नाम के तृण विशेष और वर्त-यटे हुए सूत की रस्सी के जैसी गोल होती हैं तथा दोनों जानु-घुटनेंइनके मांसल होने से समुद्ग-संपुट में रखे हुए की तरह अनुपलक्ष्यनहीं जाना जासके ऐसा होते हैं 'गयससणसुजातसणि भोरू'इन के दोनों उरु हस्ती के शुण्डादण्ड के समान सुन्दर गोल और पुष्ट होते हैं 'वरवारणमत्ततुल्ल विक्कमविलासिथ गई' मदोन्मत्त हाथी के समान घलनेके विलास से युक्त इनकी गति होती है 'सुजातपरतुरगगुज्झदेसा' इनका गुह्य प्रदेश श्रेष्ठ घोड़े के गुह्य प्रदेश के હોય છે. સઘન હોય છે. માસલ “પુષ્ટ હોવાથી ગૂઢ હોય છે. તેઓ અલગ हेमामा भारती नथी. 'एणीकुरूविदावत्तवट्टाणुपुत्वजघा' भनी मन्न। હરિણીની જાજો જેવી ક્રમશઃશૂલ અને સ્થૂલતર ચઢઉત્તરની હોય છે. તથા કુરૂવિંદનામના તૃણ વિશેષ અને વર્ત–વણેલા સૂતરની ડેરીના જેવી ગોળ હોય છે. તથા તેમના અને ગોઠણે માંસ યુક્ત હોય છે. સમુદ્ર-સંપુટમાં રાખેલાની भाए न ४ाय सेवा हाय छे. 'गयससण सुजातसण्णिभोरू' माना બને ઉરૂઓ હાથીની ગુંડાદંડના જેવા સુંદર અને ગોળ તથા પુષ્ટ હોય છે, 'वरवारण तत्ततुल्लविक्कम विलासियगई' भन्मत्त हाथीना वा विसास युत तभानी गति य छे. 'सुजातवरतुरगगुज्झदेसा' तयाना शुद्ध प्रदेश श्रेष्ठ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ .३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिक र ५७३ मुजातः सुगुप्तत्वेन निष्पन्नो गुह्य देशो येषां ते तथा, 'आइण्णहओम बिरुषलेवा' अकीर्णहय इव निरुपलेपाः आकीर्ण इय इन जात्याश्चइव निरुपलेपाः जात्यश्वोहि मूत्राघननुलिप्तशरीरो भवति, तथा निरुपलेपशरीरा इति 'पमुइयवस्तुरयसीह अतिरेगवट्टियकडी' प्रमुदितवर-तुरगसिंहातिरेक पतित टया, सत्र प्रमु. दिता-रोगाधभावेनातिपुष्टः यौवन याप्त इत्यर्थः एवं विधो यो बरतुरगः रसिंहश्च तद्वत् वनिता वर्तुला कटिर्येषां ते तथा, 'साहय सोणंदमुसलहप्पणणिगरिय-परकणगच्छरुसरिसवरवइर वलियमज्झा' संहृतसौनन्दमुनल-दर्पण निगस्तिवरकनकत्सरु सदृशवरवज्रवलितमध्याः , सत्र संहृत-संकुचितं सौनन्दं त्रिकाष्टिका (तिपाई) इति प्रसिद्धा, मुसलं-प्रसिद्ध दर्पण शब्देनावर वे सख़ुदायोपचाराद दर्पण गण्डो गृह्यते यो हस्तेन गृह्यते तथा निगरित शुद्धीकृतं यद् बरकनकं तस्य त्सरु:समान सुगुप्त होता है 'आइण्णहओव्वणिरूपलेवा' आकीर्ण हय श्रेष्ठ आकीर्ण जाति के घोडे के जैसा इनका शरीर मल मूत्रादि से निरूप लिप्त रहता है। 'पमुहय वर तुरय सीह अतिरेगाष्ट्रिय कडी' रोगादिक के अभाव से अति पुष्ट हुए घोड़े और सिंह की कटि से भी अतिशय अधिक इनकी गोल कृश कटि होती है-अर्थात् ये बहुत ही अधिक पतली कमर वाले होते हैं 'साहय सोणंद मुसलदपण णिगरियवर कणगच्छरुसरिसवरवहरवलियमज्झा' इनका वह मध्य भाग बीच से इस आकार का पतला होता है-कि जेला संकुचित किया हुआ सोनन्द अर्थात् लिपाई जिसके पाये सकुडलिये गये हों तब जैसा आकार होता है वैसे आकार वाला तथा उध्वीकृत मुसल का मध्य भाग बीच से जिस आकार का पतला होता है और दर्पण यहाँ दर्पण घाना गुह्य प्रदेश समान मत्य शुस डाय छे. 'आइण्णहोव्वणिरूवलेवा' શ્રેષ્ઠ આઠી જાતના ઘડાના જેવા તેમના શરીરો મલમૂત્રાદિથી નિરૂપલિસ ५२या पिनाना हाय छे. 'पमुइयवर तुरियसीह अतिरेगवट्टियकडी, शाहिना અભાવથી અત્યંત પુષ્ઠ થયેલ ઘાડ અને સિંહની કમ્મર કરતાં પણ અત્યંત અવિક પાતળી કમ્મરવાળા હોય છે. અર્થાત્ તેમની કમ્મર ગોળ અને કૃશ तi पातजी डाय छ 'साहरा सोण'द मुसल दप्पणगिगरियकरणगच्छरूसरिस परवइरवलियमज्झा' तमना ते मध्यमाग वयमांथी सवा पातका डाय छे. सभ સંકુચિત કરવામાં આવેલ સીનન્દ અર્થાત્ સિપાઈ અર્થાત્ ત્રણ પાયાવાળી ઘાડી હોય કે જેના પાયાએ સ કેચી લીધેલા હોય, ત્યારે તેને જે આકાર હોય છે, એવા આકારવાળા તથા ઉંચે કરેલ મુસલ સાંબેલાને મધ્યભાગ વચમાંથી જે પાતળો હોય છે, તથા દર્પણુ અહિયાં દર્પણ શબ્દથી દપને Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ जीवाभिमसूत्रे खङ्गमुष्टिः एते सर्वे पदार्थाः मध्ये तनवः उभयोः पार्श्वयोस्थूळा भवन्ति तैः तेषामिवेत्यर्थः, तथा-वरवज्रस्येव क्षामः वलितो वळित्रयोपेतो मध्यभागो येषां ते तथा 'उज्जुयसम संहित सुजावजच्च तणुकसिणणिद्ध आदेज्जक्डर सुकुमालमउय रमणिञ्जरोमराई' ऋजु कसमसंहित सुजातजात्य तनुकृष्ण स्निग्धादेयळडह सुकुमार- मृदुक रमणीय रोमराजयः, तत्र ऋजुका - अवक्रा, समा न क्वापि कुटिला, संहिता - सन्ततिरूपेण व्यवस्थिता न तु अपान्तराल व्यवच्छिन्ना सुजाता-सुजन्मा न तु कालादि वैगुण्याद् दुर्जन्मा अतएव जात्या - प्रधाना, तन्वी कृशा न तु शब्द से दर्पण की गण्ड - हाथ में पकडने का डंडा-लिया जाता है उसके जैसी शुद्ध किये गये सोने से बनी हुई मूंठ होती है, ये सब पदार्थ बीच से पतले और ऊपर नीचे स्थूल होते हैं इनके जैसा उनका मध्य भाग होता है वैसा, वर श्रेष्ठ - वज्र का जैसा आकार होता है वैसा उनको कटिभाग सदा निवलि से विराजित रहता है। 'उज्जयसमसंहिय सुजाय उच्चतणुरुसिणणिद्ध आदेज्जलडउ सुकुमालमउय रमणिज्ज्ञरोमराई' इन के शरीर की रोमावलि सघन होती है वह टेडी मेडी नहीं होती है अर्थात् किसी भी जगह वह वक्र नहीं होती है सम रहती है सघन होने पर भी अन्तर से भी व्यवस्थित रह सकती हैइसके लिये कहा गया है वह ऐसी नहीं है किन्तु शरीर का कोई मा भी ऐसा प्रदेश नहीं बचता है कि जहां पर वह अन्तर रहित हुई घनी भूत न हो यह सुजात - सुन्दर रूप से जन्म से ही होती है तथायह स्वभावतः ही पतली होती है मोटी-स्थूल नही होती। खूब काली હાથેા અર્થાત્ હાથમાં પકડવાના હાથેા ગ્રહરુ થયેલ છે. તેને જેવી શુદ્ધ કરવામાં આવેલ સેાનમાથી અનાવવામાં આવેલ મૂઢ હાય છે, આ બધા પદાર્થોં વચમાંથી પાતળા અને ઉપર નીચે સ્થૂલ જાડા હૈાય છે. તેના જેવા તેઓના મધ્યભાગ અર્થાત્ કટિપ્રદેશ પાતળા હાય છે. તથા વર-શ્રેષ્ઠ વજાને જેવા આકાર હોય છે. એવા તેમના કટિસાગ હમેશાં ત્રિવતીથી શાભાયમાન होय हे 'उज्जुय समसहिय सुजायजच्च तणुकसिण णिद्ध आवेज लडह सुकु माल मउयरमणिज्जरोमराई' तेभना शरीरना शुभ यति सघन हाय है. તે આડી અવળી હાતી નથી. અર્થાત્ કોઈ પણ સ્થળે તે વાકીચૂકી હાતીનથી. સરખીજ રહે છે. સઘન હેાવા છતાં પણુ અન્તરથી પણ વ્યવસ્થિત રહી શકે છે. તેથી કહેવામાં આવેલ છે કે તે રામરાજી એવી નથી પણ શરીરને ઇ પણુ ભાગ એવેનથી રહેતા કે જ્યાં તે અંતર વિનાની થયેલ ઘનીભૂત ન હાય, આ સુજાત જન્મથીજ સુદર રૂપવાળી હાય છે. ત્યા તે સ્વાભાવિક રીતે જ પાતળી હાય છે. જાડી હાતી નથી, ખ઼મજ કાળી હાય છે, માંકડાના Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिकारीका प्र.३ .३ २.३७ एकोषकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५७५ स्थूग, कृष्णा न तु मर्कटवर्णा, कृष्णापि किञ्चिन्निर्दीप्तिका भवतीत्याह-स्निग्धा'चिक्कणा' आदेया-दर्शनपथमुपगता सती पुनः पुनः आकांक्षणीया लडहा सलवणिमा-लावण्ययुक्ता अतएव आदेया इति भावः, सुकुमारा-सुकुमारत्वमपि किश्चित्कर्कशस्पर्श भवेतत्त आह-मृदुला-अतिकोमला अतएव रमणीया मनोरमा रोमराजि:-रोमावलियेषां ते तथा, 'गंगावत्तपयाहिणावत सरंग भंगुर रविकिरण तरुणवोधिय अकोसायंत पउमगंभीर वियडणाभी' गङ्गावर्त प्रदक्षिणावर्चतरंगमंगुर रविकिरणतरुणवोधिताकोशायमानपद्मगंमोर विकटनामयः, तत्र गङ्गाया भावती-पयसां विनमः तद्वत् प्रदक्षिणावर्ती न तु वामावतीः तरङ्गा-इव तरङ्गाः तिस्रो वलयः ताभिर्भङ्गुरा वक्रा रविकिरण स्तरुणैरभिनवैः वोधितं विकसितं सत् धकोशायमानं प्रफुल्लितं पद्म-कमलं तद्वत् गम्भीरा विकटा-विशाला च नाभियेषा ते तथा, 'झसविडग सुजातपीणकुच्छी' झषविहण सुजातपीनकुक्षयः झषो मत्स्यः विहगः पक्षी तयोरिव सुजातो सुनिष्पन्नौ जन्मदोषरहितो पीनौ उपचितौ पुष्ठौ कुक्षी उदरोभयभागौ येषां ते तथा, 'शसोदरा' झषोदराः कृशोदर होती है. मर्कटवर्ण के जैसी मट मैली नही होती स्निग्ध-चिकनी होती है-अदेय होती है-यदि यह एक वार भी देख ली जाती है तो पुन: पुन: देखने की दर्शक की इच्छा जगती रहती है लावण्य युक्त होती है सुकुमार होती है-अति कोमल होती है ऐसा रमणीय इनकी रोघरजि होती है ___ तथा--'गंगावत्त पयाहिणावत्ततरंगभंगुररविकिरणतरुणबोधियअकोसायंतपउमगंभीररियडणाभी' इनकी नाभि गंगा की प्रदक्षिणावर्त्तवाली भ्रमि-भौर के जैसी होती है तथा तरङ्ग के जैसी त्रिवली से वह भुग्न टुकडे-टुकडे रूप में होती है एवं तरुण-अभिनव-रवि किरणों से घोधित हुए-खिले कमल के समान विशाल होती है । 'झसविहगसु. जातपीणकुच्छी' कुक्षि-पेट-इनकी झषमछली और विहग पक्षी की कुक्षि વર્ણ જેવી મલીન હતી નથી. સ્નિગ્ધ ચીકણી હોય છે. અર્થાત તે એક વાર પણ જોવામાં આવેતો વારંવાર તેને જોવાની જેનારની ઈચ્છા થતી રહે છે. સૌદર્ય યુક્ત હોય છે. આવી રમણીય તેમની રેમરાજ હોય છે. ___ तथा 'गंगावत्तपयाहिणावचतरंगभंगुर रवि किरण तरुण बोधिय अकोसाय' तपउमग'भीरवियडणाभी तमनी नमी न क्षियात वादी भि-५५शया જેવી હોય છે. તથા તરંગન જેવી વિવલીથી તે ભગ્ન એટલે કે ખંડ ખંડના રૂપ હોય છે. તથા તરૂણ અને અભિનવ સૂર્યના કિરણથી બધિત થયેલ भात माता भजन 24 विशाय 'झस विहग सुजात Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - - नीवाभिगमस्ये वन्त इत्यर्थः 'सुइकारणा' शुचिकरणा:-शुचीनि पवित्राणि निरूपलेपस्वाद करणानि इन्द्रिाणि ये पा से ज्या, 'रम्ह वियडणाभा' पाविकटनामया-पद्म-कमलं तद्वत् सदाकारा विकटा-विशाळा नामिर्यपां ते तथा 'सण्णयपामा' सन्नतपाt, सम्यक् क्रमेण अधेऽधः नते पार्थे येषां ते तथा, 'संगतपासा' संगतपार्था:सङ्गते-देवमाणोचिते पायें येषां ते तया, अतएव 'सुंदरपासा' सुन्दरपार्धाः 'मुनातपासा' सुजातपाः -जन्मजातसुन्दरपाश्र्वाः 'मियमाइय पीणरतिय. पासा' पितमात्रिफपीनरतिदप,वाः, मिते-परिमिते मारिके मात्रया उपेते अन्यूनाधिके पोने-उपचिते रतिदे-आनन्दप्रदे पार्वे येषां ते तथा, 'अकरंड्यकणगरुयगनिम्मल सजाय निरुवहय देहधारी' अकरण्इककनकरुवा निर्मळ मजात निरुाहतदेहधारिणः, तत्र अविद्यमानं मांसलत्वेन अनुपलक्ष्यमाणं करण्डुकं पृष्ठ जैली सुजात-सुन्दर और पुष्ट होती है 'झसोदरा इनका उदर मत्स्य के उदर जैप्ता क्रश होता है 'सुकरणा' इनके करण अर्थात् इन्द्रियां पवित्र और निर्लिप्त होते है पम्हवियडणाभी' इनकी नाभिकमल के जैमी विशाल होती है 'सण्णघपासा' अच्छे रूप में क्रमशः इनके दोनों पाच माग नीचे २, नत-झुके हुए होते हैं। 'संगतपासा' और वे देह प्रमाण उपचित-पुष्ट-होते हैं अतएव 'सुदरपासा' वे दोनो पाच भाग इनके बडे सुहावने लगते हैं। 'सुजातपासा' इसी कारण वे सुजात जन्म से ही सुन्दर पाच वाले कहे गये हैं। 'मितमाझ्य पीणरतियपामा' और इसी कारण वे उनके दोनों पाव भाग परिमित न फमती न बढती किन्तु मात्रोपेत, पुष्ट एवं आनन्द दायक वर्णित किये गये हैं। 'अकम्ड. यकणगख्यगनिम्मलसुजाय निरुवाहय देहधारी' वे ऐसे देह के धारी होते पीणकुच्छी' मुक्षी हेता पटना ५मानामा तमना ष नामनी माछबीना अने पक्षीना ये वो सुनत सुंदर भने घुट उय छे. 'जसोदरा' भर्नु पेट भाछवीना टरे श यातणु डाय छे. 'सुहकरणा' तमना २] अर्थात् धादिया सत्यत पवित्र भने निति य छे. 'पम्हा वियड़णामी' तमनी नाली भजन २वी विशण डाय छे. 'सण्णयपामा' भश तमना मन्त्र पाव' मा नीय नाय नभेला डाय छे 'संगतपासा' भने ते हेड प्रभाए पयित नाम पुष्ट हाय छे 'सुंदरपासा' ते मे 300-40 घर सु४२ सय छे. 'सजातपासा' मे १२ तेया सुमात अर्थात् मिथी सु२ ५७मावासा वामां मावत छे मितमाइय पीणरतियपासा' मन ४२ साना अन्न पावભાગે પરિમિત હોય છે ઓછાવત્તાં હોતા નથી પરંતુ પ્રમાણપત, પુષ્ટ અને मानहाय पानुपामा भावेस छे 'अकरुंडुय कणगरुयगनिम्मल सुजाय निरूवय देहधारी' तमो मेवा शरीरने धारण ४२वापणा हाय छे । मना Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- प्रमेयोतिकाटीका प्र.३ उ.३ सू.३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५७७ शास्थिकं यस्य स अरण्डुकस्तम् तथा कनकस्येव रुचको रुचिर्दीप्ति स निर्मल स्वाभाविकागन्तुकरलरहितः सुजातो-गर्भजन्म दोषरहितः, निरुपहता-ज्यराघुप पातरहितः, एवंविधो यो देहस्तं धारयन्तीत्येवं शीला ये तथा, तथा 'पमत्थ बत्तीसकरखणधरा' द्वात्रिंबल्लक्षणानि प्रशस्तानि अप्रशस्तानि च भवन्ति त ते प्रशस्त द्वात्रिंशल्लक्षणधराः, 'कणगसिला तलुज्जल पसत्थसमग्लोवचियपिस्थिन्नपिडुलबत्थी' कनकशिळातळोज्वल प्रशस्त समतलोपचित विस्तीणपृथुलबस्तयः सत्र कनकशिलातळवदुज्वला प्रशस्ता समतमा उपचिता मांस विस्तीर्णा सर्वतो. विधाला पृथुला परिपुष्टा बस्तिः नाभेरधोमागो येषां ते तथा 'सिरिवच्छंकियवच्छा' श्रीवत्साङ्कितवक्षसः, तत्र श्रीवत्सो लांछनविशेष: तेनाङ्कितं वक्ष उरो येषां ते तथा, 'पुरवरफलिह वट्टिय भुया' पुरवर परिघवर्तित भुजाः, तत्र पुरवरपरिषः महानगरद्वारकपाटागला तद्वद् वत्तितौ वृत्तौ पुष्टौ च भुनौ येषां ते तथा, है कि जिसके पृष्टकी हड्डी नहीं दिखती है, कनक के समान जो दीसि वाला होता है, निर्मल-स्वाभाधिक एवं आगन्तुक मल से जो रहित होता है गर्भजन्म के दोष से रहित होता है और निरूपहत होता है-ज्वरादि रूप उपघात से विहीन होता है 'पसस्थयत्तीस लक्खणधरा' ये प्रशस्त बत्तीस लक्षणों के धारी होते हैं। 'कणगसिलातलुजल पसत्थ समयलोवचिय विस्थिन्नपिलवस्थी इनका वक्षास्थल कनक की शिला के तल जैसा उज्ज्वल होता है, प्रशस्त होता है, समतल होता है, उपचिन-पुष्ट होता है-मांसल होता है ऊपर की ओर और नीचे की ओर विस्तीर्ण होता है तथा दक्षिण और उत्तर की ओर वह पृथुल होना है। 'सिरिरच्छंकियवच्छा पुरवर फलिहवाहियभुश, सुयगीलर विपुलभोगायाण फलि. ह उच्छूट दोहबाह तथा उनका वह वक्षःस्थल श्री वत्स के चित्र से युक्त उच्छूढदीहयाहू' तथा तयाना मे पक्षस्यको श्रीवत्सना यह वाणा વાંસાના હાડકાં દેખાતા નથી સેનાના જેવી દીપ્તિવાળા હોય છે, નિર્મલ સ્વાભાવિક તથા આગંતુક મળ વિનાના હોય છે. સુજાત હોય છે, અર્થાત્ ગર્ભજન્મ દેષ વિનાના હોય છે, અને નિરૂપવત હોય છે. એટલે કે તાવ ॐ 31 टी विगेरे पधात विनाना काय छे. 'पत्थसबत्तीस लक्खणधरा' तसा उत्तम सेवा सतीश सक्षयान या ४२वावा डाय है, 'कणगसिलातलुज्जल पसत्थसमयलोवचियवित्थिन्नपिहलवत्थी' तेयाना वक्षस्थले सोनानी शिखाना તળીયા જેવા ઉજજવલ હોય છે. અત્યંત પ્રશસ્ત હોય છે. સમતલ હોય છે. ઉપચિત પુષ્ટ હોય છે. માંસલ હોય છે. ઉપરની બાજુ અને નીચેની બાજુ विस्तृत साय छे. तथाक्षिय भने उत्तरनी भानु ते पृथुन हाय छे. 'सिरिबन्छकियवच्छा पुरवरफलिह वट्टियभुया भुयागीसर विपुलभोगआयाणफलिह सी०७३ Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .५७८ जीयामिगमसूत्र 'भुयगीसर विपुलभोग आयाण फलिह उच्छूढदीवाह' भुजगेश्वर विपुळ मोगा दान परिघोरिक्षप्त दीर्घवाहवा, तत्र भुजगेश्वर -सर्पराजस्तस्य विपुलो यो भोगः शरीरम्-तथा-यादीयते-द्वारस्थगनाथ गृयन्ते इत्यादानः स चासौ परिधोऽगंठा 'उग्छूढत्ति' उक्षिप्तः स्वस्थानादुक्षिप्त जीकृनः निष्कास्य ततो द्वार पृष्ठमागे दत्त इत्यर्थः तद्वद् दीघो-लम्बायमानौ बाहू येषां ते तथा, 'जूयसन्निपीणरतियपीवरपउछ संठियमुसिलिट्ट निसिघण थिर सुबद्ध सनिगूढ पञ्चसंधी' यूपसन्नि. भरतिदपीवर प्रकोष्ठसंस्थित सुश्लिष्टविशिष्ट धनस्थिर सुबद्ध मुनिगृहपर्वसन्धयः तत्र यप सन्निमौ-युषः शक्राटावयवदिशेषः यो पम स्कन्धोपरिम्याप्यते उत्स. हशी वृत्तत्वेन आयतत्वेन च तत्तुल्यौ मांसलो रतिदौ पश्यतां दृष्टिसुखदी पीवर भकोष्ठको अकृशकलाचिकौ येषां ते तथा सस्थिता:-संस्थानविशेपवन्तः मश्ष्टिाः सुघना: विशिष्टा:-प्रधानाः, घना निविडाः, स्थिरा:-नातिश्लयाः, मुबदाः स्नायुमि:-सुष्टु नद्धाः, निगढाः पर्वसन्धयः-अस्थिसंधानानि येषां ते तया, होता है इनकी दोनों भुजाएँ महालगर के अर्गला के जैसी लम्बी होती हैं । इनके दोनों बाद शेषनाग के विपुल शरीर के जैसे एवं स्वस्थान से खंचकर द्वार पृष्ठ में दिये गये परिघ के जैसे लम्वे होते हैं। 'जूपसन्निभपीणरतिय पीवरपउनु संठिय सुसिलिट्ठ विसिढ घणधिर सुबद्ध सुनिगूढपवलंधी' इनकी दोनों हाथों की कलाईयां इथेली गोल और लम्बी होने से युग बैलों के कन्धे पर रखे जाने वाला जुना के जैसी मज व्रत होती है, मांसल होती है देखने वालों को आनन्दप्रद होती हैं और पतली नहीं होती हैं तथा इनकी अस्थि संधियां संस्थान विशेष संपन्न होती है सुश्लिष्ट होती हैं सघन होती हैं उत्तम होती है पास-पास में होती हैं स्थिर होती है अति शिथिल नहीं होती हैं और स्नायुषों से अच्छी तरह वे जकडी हुई होती है एवं निगूढ रहती है। 'रत्तनलोवड्य હોય છે. તેઓની બનને ભુજાઓ મહાનગરની અર્ગલાના જેવી લાંબી હોય છે. તેમના બને બાહૂ શેષનાગના વિશાળ શરીરના જેવા અને સ્વસ્થાનથી ખેંચીને द्वा२ पटमा साववामां आवत परिधना 24 मा हाय छे 'जयसन्नि भपीणरतियपीवर पउ8 संठिय सुसिलिठ्ठ विसिट्ठ धणथिर सुबद्ध सुनिगूढ पव्वसंधीं' તેમના બને હાથના કાંડાઓ ગાળ અને લાંબા હોવાથી યુગ બળદના ખાંધ પર રાખવામાં આવતા જૂચરાના જેવા મજબૂત સહામણું હોય છે. અને માંસલ પુષ્ટ હોય છે. જેવાવાળાને ખૂબજ આનંદ આપનાર હોય છે. અને પાતળા હૈતા નથી. તથા તેના હાડકાને સંધી ભાગ સંસ્થાન વિશેષથી સંપન્ન હોય છે સુશ્લિષ્ટ હોય છે સઘન હોય છે. ઉત્તમ હોય છે નજીક નજીક હોય છે સ્થિર હોય છે. અત્યંતશિથિલ હતા નથી, અને સ્નાયુઓથી સારી રીતે જકડાયેલ Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ५.३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५७२ 'रत्ततळोवइयमउय मंसल पसत्थलक्खणसुजाय अच्छिदजालपाणी रक्ततलोपचित मृदु कमांसल प्रशस्तलक्षण-सुजाताच्छिद्र जालपाणय:, अरक्ततलौ-अरूणौ अधोभागे उपचित्तौ-उन्नतौ औपचषिको वा क्रमेण हीयमानोपचयौ मृदुको-कोमलो मांसलौ-परिपुष्टौ प्रशस्तशुभचिह्नयुक्तौ लक्षणों सुजाती-जन्मतः सुव्यवस्थिती अच्छिद्रजालौ-अन्तरालरहिताङ्गुलि समुदायौ एतादृशौ पाणी इस्ती येषां ते तथा, 'पीवर वट्टिय सुजायकोमलवरंगुलिया' पीयर वृत्तमुजातकोमलवरागु. लिंकाः, तत्र पीवरा:-शरीरौचित्येन स्थूला वृत्ता वर्तुलाः सुजालाः मुष्पयस्थिताः कोमला वराव प्रशस्तलक्षणोपेता अगुलयो येषां ते तथा 'यातंवलिण मुचिरुइरणिद्धणक्खा' आताम्र तलिन शुचि रुचिर स्निग्धनखाः, आताम्रा:-इषद्रक्ताः तलिनाः-मतलाः शुचयः-पविना:-निर्मला रुचिरा मनोज्ञाः स्निग्या:-चिक्कणा मउयमंसलप सत्य लक्खणसुजाय अच्छिद्दजालपाणी' इनके दोनों हाथ रक्त तल वाले होते हैं-अरुण होते हैं-उपचित होते हैं-अधोभाग पुष्ट होते हैं, उन्नत होते हैं-नीचे की ओर अधिक झुके रहते हैं। मृदुलचिकने, मांसल-मजबूत, प्रशस्त लक्षण युक्त, सुन्दर-आकार संपन्न, और छिद्र रहित अंगुलियों वाले होते हैं। 'पोवर पट्टिय सुजाय कोमल. वरंगुलिया' ये अंगुलियां इनकी पीयर मजबून होती हैं वृत्त-गोलाकार होती है-सुजात-सुन्दर होती हैं एवं शोमल होती हैं 'आतंबतलिणसुधिरूहर णिद्धणखा चंदपाणि लेहा, स्रपाणि लेहा संखपाणि लेहा, चक.. पाणिलेहा, दिसालोअस्थियपाणिलेहो हाथों के अंगुलियों के नख कुछ २ लाल होते हैं, तलीन-पतले होते, शुचि-पचिन्न होते हैं-साफ होते है, रूचिर-मनोहर होते हैं, स्निग्ध-चिकने होते हैं । रूक्षता से हीन होय छे. साने गुन २७ छ रचतलोवइय मउय मंसलपसत्थलक्खणसुजाय अच्छिद्द जालपाणी' तमनामे हाथी शतातणीय वाणा डाय छे. अर्थात तेमनी हथेली એ લાલ હોય છે. ઉપસ્થિત હોય છે. અર્થાત્ નીચેનો ભાગ પુષ્ટ હોય છે. ઉન્નત હોય છે. નીચેની તરફ ઝુકેલો રહે છે. મૃદુલ ચિકાશવાળા, માંસલ, મજબૂત, પ્રશસ્ત લક્ષાવાળા, સુંદર આકારવાળા અને છિદ્રોવિનાની આંગળીવાળા ' डाय 2. 'पीवरवद्विय सुजाय कोमलवर गुलिया' तमनी मांजणीय पी१२ भारत હોય છે. વૃત્ત-ગળ આકારવાળી હોય છે. સુજાત અને સુંદર હોય છે. 'आतंबतलिण सुचिरुइरणिद्धणखा, चंदपाणिन्छेहा, सूरपाणिलेहा, संखपाणिलेहा, चकपाणि लेहा, दिमासोअत्थियपाणिलेहा' तमना हाथानी सांगणायानां नमा કંઈક કંઈક લાલ હોય છે. તલીન કહેતાં પાતળા હોય છે. શુચિનામ પવિત્ર હોય છે. અર્થાત સાફ હોય છે. રૂચિર કહેતાં મને હર હાય છે, સિનગ્ધ. Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८० जीवामिगमस्त्र नखा येषां ते तया, 'चंदपाणिलेहा' चन्द्रपाणिरेखाः, चन्द्रइव चन्द्राकारा पाणिरेखा-हस्तरेखा येषां ते तथा, 'सरपाणिलेहा' सूर्यपाणिरेखाः, सूर्य इच सूर्याकारा पाणिरेखा येषां ते तथा, 'संखपाणिलेहा' शङ्खपाणिरेखा, शङ्ख इव शङ्खाकारा पाणिरेखा येषां ते तथा, 'चकपाणिलेहा' चक्रपाणिरेखा; चक्र इव चक्राकारा पाणिरेखा येषां ते तथा, 'दिसासोअस्थिय पाणिलेहा' दिक् सौवस्तिक पाणिरेखाः, दिक् प्रधानः स्वस्तिकः दक्षिणवत्तः स्वस्तिका तदाकारा पाणौ रेखा येषां ते तथा, 'चंदमूरसंखचक्कदिसा सोमस्थिय पाणिलेहा' चन्द्रसूर्यशङ्ख चक्र. दिक्सौवस्तिक पाणिरेखाः, पूर्वोक्त मेव विशेषण पञ्चकं प्रशस्तता प्रकर्ष सूचनाय संग्रह्य कथितमिति न पौनरुक्त्यम् । 'अणेगचरलकावणुत्तम पसस्थ सुचिरतिय पाणिलेहा' अनेकवरलक्षणोत्तम प्रशस्त शुचिरतिद पाणिरेखाः, अनेक वरैःप्रधान: लक्षणे रुत्तमाः प्रशस्ता:-प्रशंसास्पदीभूताः शुचय:-पवित्रा:-निर्मला: रतिदाः-प्रीत्युत्पादकाः पाणिरेखा येषां ते तया, 'वरमहिसवराह सीहसल होते हैं ! इनके हाथों में चन्द्र के आकार की रेखाएँ होती हैं, सूर्य के आकार की रेखाएँ होती हैं शंख के आकार की, चक्र के आकार की और श्रेष्ठ दक्षिणावर्त वाले स्वस्तिक के आकार की रेखाएँ होती है 'चंदसरसंखचक्कंदिसासोआस्थिय पाणिलेहा अणेगवरलक्खणुत्तमपसस्थ सुचिरतियपाणिलेहा' इस तरह चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र, और श्रेष्ठ स्व. स्तिक की रेखाएँ इनके हाथो में होती है तथा इनको और भी सुन्दर२, उत्तम लक्षण वाली बहुन रेखाएँ होती हैं अतएव वे प्रशस्त-प्रशंसा के योग्य होते हैं, पवित्र होते हैं और अपने २, फल देने रूप कर्तव्य के अनुसार निष्पन्न हुई रेखाओं वाले होते हैं। 'वरमहिसवराहसीह सल उसभणागवर पडिपुग्णविउल उन्नपखंधा' इनके दोनों स्कंधચિકણા અને રૂક્ષતા વિનાના હોય છે. તેમના હાથમાં ચંદ્રના આકારની રેખાઓ હોય છે. સૂર્યના આકાર જેવી રેખાઓ હોય છે. શંખના આકાર જેવી, ચક્રના આકાર જેવી, અને ઉત્તમ દક્ષિણ વર્તવાળા સ્વસ્તિકના આકાર જેવી રેખાઓ डाय छे 'चंदसूरसंख चक्कदिसासोअस्थिय पाणिलेहा अणेगवरलक्खणुत्तमपसत्थ सुचिरतियपाणि लेहा' मा प्रमाणे यंद्र, सूर्य, शम, यॐ अन श्रे०४ स्वस्तिना જેવી રેખાએ તેમના હાથમાં હોય છે. તથા અનેક બીજા પણ સુંદર સુંદર ઉત્તમ લક્ષણે વાળી ઘણીજ રેખાઓ હોય છે. તેથી જ તેઓ પ્રશસ્ત પ્રશંસા કરવાને યોગ્ય હોય છે. પવિત્ર હોય છે. તથા પિત પિતાના ફળ આપવા રૂપ तन्य प्रमाणे नाणेदी ३मा वाणा डाय छे. 'वरमहिस वराहसीह सदुल उमभणागवरपडिपुण्णविउल उन्नयखंघा' भनी मन्ने मनाया Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ. ३ . ३७ पकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५८१ उस मणागवर पडिपुण्णविउलउन्नयखंधा' वरमहिषवराद सिंहशार्दूल वृषभ नागवरं परिपूर्ण विपुलोन्नत स्कन्धाः, तत्र वरमहिषः - प्रधानमहिषः, वराह:वर शब्दस्यापि सम्बन्धात् वरवराह: - वनशूकरः, सिंह: - केशरी, शार्दूलो व्याघ्रः, वृषभो बलीवर्द | नागवर - प्रधानगजः एतेषामित्र परिपूर्णो - स्वप्रभावेणाहीनौ, agat विस्तीर्णो उन्नतौ च स्कन्धौ येषां ते तथा 'चउरङ्गुलसुप्पमाण कंबु - वर सरिसगीवा' चतुरङ्गुल सुप्रमाण कम्बुवर सदृशग्रीत्राः, चतुरङ्गुलं स्वशरीरापेक्षया चतुरङ्गुलपरिमितं सु-सुष्ठु शोभनंपमाणं यस्याः सा तथा कंबुवर सदृशी छन्नतया बलित्रययोगेन च प्रधान शङ्ख सन्निभा ग्रीवा येषां ते तथा, 'अवद्विय सुविभत्तसु जाय वित्तमंत्' अवस्थित सुविभक्त सुजात चित्रश्यश्रवः, तत्र अवस्थितानि - अवर्धन शीलानि सदाकालं तथारूपेणैवावस्थितानि सुविभक्तानि विविक्तानि सुजातानि सुष्ठुवया समुत्पन्नानि श्मश्रूणि कूर्च केथाः पुरुषमुखोपरि समुदभूत केशसमूह: 'दाढी-मूंछ ' इति प्रसिद्धानि येषां ते तथा 'मंसल संठिय पस्थ सद्दुलविल हणुया' मांसल संस्थित प्रशस्त शार्दूल चिपुल हनुका, मांसलं पुष्टम् तथा संस्थितं - शुभ संस्थानेन संस्थितं तेन प्रशस्तं कमलाकारस्वात् शुलक्षणोपेतं शार्दूला- व्याघ्रस्वस्येव विपुलं विस्तीर्ण हजुककंधे वनकर - जंगली सुअर, सिंह, शार्दुल, वृषम एवं श्रेष्ठ गज के एकन्धों के जैसे भरे हुए विकसित रहते हैं, और परिपूर्ण प्रभाववाले होते हैं, विस्तीर्ण होते हैं, उन्नत होते हैं । 'चतुरंगुल सुप्पमाणकंबुषर स रिसगीवा' चतुरङ्गुलपरिमित होने से शोभन प्रमाणवाली एवं वलित्रय से युक्त होने के कारण सुन्दर शंख जैसी इनकी ग्रीवा होती हैं । 'अवद्वियसुविभत्तसुजाव चित्त मंत्र मंसलठिय पसत्थसद्दूल बिउलहणुया ' इनकी दाढी अवस्थित सदा एक समान रहने वाली सुविभक्त अलगअलग सुजात - सुन्दर रूप से बनी हुई विचित्र होती है और मांस से भरा हुआ पुष्ट तथा सुन्दर संस्थान से युक्त होने से प्रशस्त और व्याघ्र સૂવર, સિંહ, શાલ, અને ઉત્તમ હાથીના ખભામેના જેવા ભરેલા અને વિશાલ રહે છે, અને પરિપૂર્ણ પ્રભાવવાળા હાય છે. વિસ્તૃત હાય છે, અને ઉન્નત डाय छे. 'चतुर' गुलसुप्पमाण कंबुवरसरिसगीवा' या आंगण भेटला भापनी होवाथी ચૈાગ્ય પ્રમાણવાળી અને ત્રણ રેખાએ વાળી હાવાથી સુંદર 'ખ જેવી તેમની श्रीवा-गणु होय है, 'अवद्विय सुविभत्त सुनाय चित्तमंसूमंसल सठियप सत्यखदुल विउलहणुया' तेभनी हाढि अवस्थित अर्थात् सहा એક સરખી રહેવાવાળી સુવિભક્ત અલગ અલગ સુજાત સુંદર પણાથી શાભાયમાન અને વિચિત્ર રાય છે, તથા માંસથી ભરેલ પુષ્ટ તથા સુંદર સસ્થાનથી યુક્ત ડાવાથી Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ जीवामिगमसूत्र चिबुकम् अधरोष्ठाधो भाग: 'ड.ढी' इति प्रसिद्धं येषां ते तथा. 'ओय. वियसिलपवालविवफलसनिभाधरोहाः' ओयवियशिला प्रवालविलम्ब फलसन्निभाधरोष्ठाः तत्र-ओयविय' इति देशी शब्दः परिकर्मितार्थवाचकस्तेन ओयवियं-परिकमित्तं शिलामवालं शिलारूपं प्रवालं-विद्रुम, विम्बफलं-स्वनासख्यातो रक्तवर्णफनविशेषः तयोः सन्निभा रक्ततया तत्सदृशः अधरोष्ठः अधस्तन ओष्ठो येषां ते तथा, 'पंडरससि सगल विमल निम्मल संखगोखीर फेगदगरय मुणालिया धवलदंतसेढी' पाण्डुरशशिशकल विमलनिर्मलश गोक्षीर फेदकरजोमृणालिका धवलदन्तश्रेणयः, तत्र-पाण्डुरं यत् शशिशकलम-चन्द्र मण्डळखण्डम्-अलङ्कश्चन्द्रभाग इत्यर्थः विमल-आगन्तुकमलरहितः मध्ये निर्मजश्च-स्सामात्रिकालवर्जितः शलो गोक्षीरं फेनश्च दकरजा वाताहत जलकणः, मृणालिकाच पद्मिनी सूत्रं तद्वद धवला-स्वच्छा दन्त श्रेणिः-दन्तपंक्तिः येषां ते तथा, 'अखंड दंता' अखण्डदन्ताः- अत्रुटिताः परिपूर्णाकारा दन्ता येषां ते तथा 'अफुडियदंता' अस्फुटि: दन्ता-अनजरदन्ताः, 'अविरळदंता' अविरलदन्ताः निरन्तरालाः परस्परं घनीभूता दन्ता येषां ते तथा, अतएव 'मुजायदंता' सुजात के जैती विस्तीर्ण हनुक-चिवु अधरोष्ठ के नीचे का भाग होता है। 'ओयवियसिलप्पवाल विधफलसन्नि माहरोहा' इनके अधरोष्ठ-नीचे के ओष्ठ घर्षण आदि से परिमित किया हुआ शिलारूप प्रवाल-असली मंगा के समान एवं पिम्ब फल कुन्द फल के सलान लाल वर्ण वाले होते पंडरससिछगल विमल निम्मल संत्र गोखीर फेणगरएमुणालिया तसेढी हनकी दंतश्रेणी पांडुर-श्वेन-चन्द्रमा के टकडो जेपी विमल उज्जवल तथा निर्मल-स्वच्छ शंख के जैसी गाय के दूध के जैसी फेन जैसी पचन से उडे हुए जल कण के जैसी एवं कमल नाल के तन्तु जैतीशन-धवल-होती है। 'अखंडदंता, अप्फुडियदला. अविरलदंता, सुजा. तदंता एगदंतसेटिव्यमणेगदंता, हुनवह निद्धतधीत तत्त तवणि जरत्त પ્રશરત અને વાઘની ડાઢી જે વિરતૃત હનુક-ચિબુક નીચેના હોઠની नायनी माय हाय छे. 'ओयविय सिलपवाल बिंबफलसन्निभाहरोट्रा' तमना ઓષ્ટ અધરોષ્ઠ ઘર્ષણ વિગેરેથી પરિકમિત કરવામાં આવેલ શિલાપ્રવાલ અસલ મુગાના જેવો અને બિંબફલ, કંદ ફલના જે લાલ રંગવાળે હેય छ. 'पडुर ससिछगल विमल निम्मल संख गोखीरफेणगरयमुणालिया धबछ तसेढी' तस. नीत हित पांडर घाजी मर्थात् माना ४२वी વિમલ, ઉજાલ, અને નિર્મલ અર્થાત્ સ્વચ્છ શંખના જેવી ગાયના દૂધ જેવી, सावी शुभ्र अर्थात् घाणी डाय छे. 'अखंड दंता, अफूडीयता, अवि. रलता, सुजातदंता, एगद तसेदिव्व अणेगद् ता, हुतवह निद्धत धोततस्त Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ steadfast टीका प्र.३ उ.३.३७ एकोरुकद्वीवस्थानामाकारभावादिकम् ५८३ दन्ताः जन्मदोष रहितदन्ताः 'एगदंत सेटिव्त्र अणेगदंता' एक दन्त श्रेणिरिव एक दन्तंश्रेणिखि अनेकादन्ता येषां ते तथा, तथा परस्परानुपलक्ष्यमाण दन्तविभागत्वाद् एकदन्त श्रेणिरिव अनेके द्वात्रिंशदन्ता अवस्थित येषां ते तथा, ' हुतवह निर्द्धतधोय तस तत्रणिज्जरत लालु जीहा' हुतवह तिततपनीय रक्त तलवालुजिह्वाः, हुतवहेन वह्निना निर्मात अतएव धौतं शोधितमलं तप्तं संतापितं यत् तपनीयं सु. विशेषः तद्वत् रक्ततले लोहितरूपे तालु जिह्वे येषां ते तथा, 'गरुलायय उज्जुतुंगणासा' गरुडायत ऋजुतुंग नासाः, गरुडस्य - पक्षिराजस्येव आयता दीर्घा ऋज्वी सरला तङ्गा उन्नता नतु पर्वतीयवत् चिपिटा नासा नासिक येषां से तथा, 'अवदालिय पौडरीयणयणा' अवदालितपुण्डरीक नयनाः, अब्दालितं सूर्यकिरणैर्विकाशितं यत् पुण्डरीकं श्वेतकमलं तत्तुल्ये नयने- नेत्रे येषां ते तथा 'कोकासित घदल पत्तलच्छा' कोकासित धवल पत्रलाक्षाः, फोकासित - विकसितश्वेतकमले द्वन् तल तालु जीहा' ये एकोरुक द्वीपवासी मनुष्य अखण्ड दांतों वाले होते हैं - अर्थात् परिपूर्ण दंतों वाले होते हैं इनके दांत कभी भी जर्जरित नहीं होते हैं दांतों की पंक्ति इनकी विरल छुटी - छुटी नहीं होती है ये अविरल - परस्पर संलग्न दन्तपंक्ति वाले होते हैं । अतएव - इनके दांत जन्म दोष से सर्वथा विहीन रहते हैं और इनके वे अनेक दांत एक दन्तश्रेणि के जैसे प्रतीत होते हैं इनके पूरे बत्तीस दांत होते हैं इनका तालु और जीभ अग्नि में तपाकर धोए गये और पुनः तप्त किये गये सपनीय सुवर्ण के जैसे लालवर्ण के होते है 'गरुलाययउज्जुत्सुंगणाला ' इनकी नासिका गरुड की नासिका के जैसी लंबी ऋजु सिधी और तुग - ऊँची होती है 'अवदालिय पोंडरीपणयणा' कोका सिपचवलपत्तलच्छा, वणिज्जरत तळ तालु जीहा' मा ३५ द्वीपभां रहेवावाजा मनुष्यो सम દાંતાવાળા હાય છે. અર્થાત્ પરિપૂર્ણ દાંતા વાળા હોય છે તેના દાંતે કઈ અવસ્થામાં જર્જરિત થતા નથી. તેએ અવિરલ કહેતાં પરસ્પર એક મીજાને લાગેલ એવી દાંતાની પ’ક્તિવાળા હોય છે. તેથીજ તેમનાં દાંતા જન્મ દેષથી રહિત જ રહે છે, અને તેએના તે અનેક દાંતા એક 'તપક્તિના જેવા જણાય છે. તેમેને પૂરેપૂરા ખત્રીસ દાંતા હૈાય છે. તેએવું તાલુ અને જીભ અગ્નિમાં તપાવીને ધેાવામાં આવેલ અને ફરીથી તપાવેલ તપનીય કહેતાં તપા साना वा सास वर्षाना होय छे. 'गरुलायय उज्जुतुंगणासा' तेन्नु ना ना ना ने सांभु सीधु भने यु मने मशवहार होय छे. 'अवदा लिय पोंडरी यणयणा' कोकासिथघवल पचलच्छा आणामियचावरुइल किन्हभराइय Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८४ जीवामिगम धवले पत्रले-मयुक्ते घ अक्षिणी नेत्रे येषां वे स्था, 'आणामियचावकरलकिण्हमराह सं ठप संगय आयय सुजाय तणुकसिणनिद्धभूमया' आनामित चाप रुचिर कृष्णाभ्रराजिसंस्थित सगतायत सुजात तनु कृष्णस्निग्ध भ्रवः, तम आनामितम्-ईपदारोक्तिम् यद् धनुः तद्वद् रुचिरे संस्थान भावतो रमणीये, कृष्णाभ्रराजीव संस्थिते संगते-ययोक्तप्रमाणोपपन्ने आयते दीये सजातेमनिष्पन्ने तनू-तनुके इलक्षण परिमित्वारपतयात्मशत्वान कृष्णे-कालिमोपेते स्निग्धे भ्रुवो येषां ते तथा, 'अल्ली गप्पमाण जुत्तसवणा' आलीन प्रमाण युक्त श्रवणार, आलीनौ मस्तकमित्तौ किञ्चिल्लग्नौ प्रमाणयुक्तौ-स्वप्रमाणोपेतों श्रवणौ कणौ येषां ते तथा, विशालकर्णा इत्यर्थः, 'सुस्सवणा' अत एव सुश्रवणाः पीणमंसल कवोल देसमागा' पीन मांसलकपोलदेशमागाः, पीनः पुष्टौ मांसलः-- आणामियचावरूइल किसहभरायसंठिय संगय आयय सुजाय तणुक सिण निद्वभूप्रयाअल्लीणप्पमाणजुसतयणा' सूर्य किरणों से विकाशित श्वेत पुण्डरीक के जैसी इनको दोनों खिं होती है, तथा वे विकसितखिले हुए श्वेत कमल के जैसी-झोनों पर लाल बीच में काली और धवल और पक्ष्म पुट वाली होती है इनकी भौएँ ईषत्-आरोपित धनुष के समान वक्र होनी है, रूचिर-संस्थान की अपेक्षा रमणीय होती है, कृष्ण अभ्रपंक्ति के जैसी काली होती हैं अपने प्रमाण के अनुकूल सघन होती हैं, दीर्घ होती है, सुनिष्पन्न जन्म रहित होती है, पतली होती हैं काली और स्निग्ध होती हैं। इनके कान नम्नक के भाग तक कुछ २ लगे हुए होते हैं और अपने २ प्रमाण के अनुरूप होते हैं। अर्थात् ये विशाल कानों वाले होते हैं। 'मुस्सत्रणा, पीणमंपलकवोलदेतभागा, मठिय सगयआयय सुजाय तणुकसिण द्विभूमया अल्लोणप्पमाण जुत्तसवणा' સૂર્યના કિરણેથી ખીલેલા શ્વેત કમળના જેવી તેઓની બન્ને આખો હોય છે તથા તેઓ ખીલેલા શ્વેત કમળોના જેવી એટલે કે ખૂનું પરલાલ વચમાં કાળી, અને ઘોળી અને પાંપણે વાળી હોય છે. તેમની ભ્રમરે કંઈક ચઢાવેલા ધનુષના જેવી વાંકી હોય છે. રૂચિર એટલે કે સંસ્થાનની અપેક્ષાથી મણીય હોય છે કૃષ્ણમેઘની પંક્તિ જેવી કાળી હોય છે, પિતાના પ્રમાણને અનુકૂલ સઘન હોય છે. દીર્ઘ લાંબી હોય છે. સુનિષ્પન્ન અર્થાત્ જન્મદેષ વિનાની હોય છે. પાતળી હોય છે કાળી અને રિન ચિકણી હોય છે, તેમના કાને માથાના ભાગ સુધી કંઈક કંઈક ચેટેલા હોય છે. અને પોત પોતાના પ્રમાણાનું ३५ डाय छे. अर्थात् त। विशाण अनोवाडायटे, 'सुस्सवणा, पीण मंसलकवोलदेसभागा, अविरुग्गयबालचंद ठिय पसत्थवित्थिण्ण समणिडाला Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका का प्र.३ १.३ १.३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५८५' उपचितः कपोकयो देशभागो मुखावयवो येषां ते तथा, 'अचिरुग्णय बालचंदसंठियपसस्थविस्थिन्नसमणिडाला' अचिरोद्गतबालचन्द्रसंस्थितप्रशस्त विस्तीर्णसमळलाटाः, तत्र अचिरोगद्तो यो बालचन्द्रोऽष्टमी चन्द्रस्तद्वत् संस्थित प्रशस्त विस्तणे सम-समतलं च कलाटं येषां ते तया, अथवा 'निव्वणसमलट्ठमट्ट चंददसमनिडाला निव्रणसमलष्ट मृष्टचन्द्रार्धपमललाटा, तत्र-निणं-विस्फोट कादि सतरहितं सम-समतळभूतम् अतएव लष्टं-मनोज्ञ-मृष्टं-मसृणं चन्द्रार्द्धसमम्-अष्टमीचन्द्रसदृशं ललाटं येषां ते तथा । 'उडुपतिपडिपुण्ण सोम्मवयणा' Bहुपति परिपूर्ण सोमवदना, तत्र परिपूर्ग:-पौर्णमासीयः उडुपतिश्चन्द्रः तद्वत् सौम्यं-शान्त वदनं-मुखं येषां ते तया, 'छत्तागारुत्तमंगदेसा' छत्राकारोनमानदेशा, छत्राकार:-छत्रसदृशउत्तमाङ्ग रूपो देशो येषां ते तथा, 'घगणिविय मुबद्ध लक्खणुग्णयकूडागारणिपिडियसिरसे' घननिचित सुबद्धलक्षणोन्नत कूटागार निमपिण्डित शेर्षाः, तत्र घनत्वेन निचित्तं-अतिशय निविडं सुचढ़-मुष्ठु म्नायुअचिरगयषालचंद संठियपसविस्थिण्ण समणिसाला उडवहपडिपुण्ण सोमवयणा उत्तागारूत्तमंगदेसा' इसी कारण उन्हें सुश्रवण वाला कहा गया है इनकी कपोल पालीपीन और मांसल होली है-इनका निडालभाल प्रदेश-ललाट अचिरोद्गत-बालचन्द्र के जैसा होता है अर्थात् अचि. रोद्गत भष्टमी के चन्द्रमा के जैसा आकार वाला होता है एवं प्रशस्त विस्तीर्ण चौडा और समतल होता है। इनका मुख पौर्णमासी के चन्द्रमण्डल जैसो सौम्य होता है। इनका उत्तमाज-मस्तक-रूप प्रदेश उघडा हा छत्र का जला आकार होता है वैसे आकार वाला होता । 'घणणिचिय सुबद्ध लक्खणुण्णय कूडागार णि विडिय सिरसेदा. डिम पुष्फ पगासतवणिज्ज सरिछ निम्मल सुजायकेसंतकेमभूमी' इनका मस्तक घन सघन पोलाण वाला नहीं होने से निबिड होना है उडुवइ पड़िपुण्ण मोभवणा छत्तागारुत्तमंग देसा' ४ ४२0 तेयाने सुश्रवार વાળા કહ્યા છે. તેઓની કપોલ પાલી પીન અને માંસલ હોય છે, તેઓને ભાલ પ્રદેશ અર્થાત લલાટ તરતના ઉગેલા બાલચંદ્રના જે આકારવાળો હોય છે અર્થાત્ તરતના ઉગેલા અષ્ટમીના ચન્દ્રમાના આકાર જેવા હોય છે. તથા પ્રશસ્ત વિસ્તૃત પહેાળે અને સમતલ હોય છે. તેઓનું મુખ પુનમના ચંદ્રમંડલ જેવું સૌમ્ય હોય છે, તેઓને ઉત્તમાંગ કહેતા મસ્તકને પ્રદેશ ઉઘાડવામાં मावत छत्रन २ मा डाय छ, सेवा मा२ वाणी डाय छे. 'घणणिचियसुबद्धलक्खणुण्णय कडागारणिभपिडियसिरसे दालिमपुप्फ पंगांसतवणिज्ज सरिस निम्मल सुजाय कसत केसभूमी' तसानु' भरत: धन सघन पासावाणु जी०७४ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम घवं लक्षणं- शुभलक्षगोपे ठम् उन्नत-मध्यभागे उच्चम् कूटाकारनिम-शिखराकार सदृशं पिण्डित-पापाणवस्पिण्डीयूतं शीर्ष येषां ते तथा, 'दाडिम पुष्फागासतवणिज्ज सरिसनिम्मलसुजायके संत केसभूमी' दाडिम पुष्पपकाशतपनीय सशनिर्मलमुजातकेशान्तकेशभूमयः, तत्र-दाडिमपुष्पप्रकाशा-दाडिमपुष्पवर्णा ईष. द्रक्ता तथा तपनीयेन सुवर्णविशेषेण सदृशाः ईप-पीतत्वेन सुवर्णवर्णाः निर्मला: -स्वभाविकागन्तुकमलरहिताः, सुजाता:-मुसंस्थिता केशान्ताः-केशचरणमागाः, तथा पूर्वोक्त स्वरूपाः केशभूमिश्च केशोत्यत्ति स्थानभूता मस्तक त्वय्येषां ते तथा, 'सामलि बोड घणणिचिय छोडियमिउविसयपसस्थ मुहुमळक्खणसुंगध सुंदर भुयमोयगर्मिगिणीलकउजळ पहट्ट भमरगणणिद्ध णिकुरुंबनिचियकुंचिय चिय पया. हिणावत्तमुद्धसिरया' शाल्मलीबोण्ड घननिचितछोटितमृदु विशद प्रशस्त सूक्ष्मलक्षण सुगन्धसुन्दर भुजमोचक भृङ्गनीळ कज्जल हृष्ट भ्रमर गण स्निग्ध निकुरम्ब. स्नायुओं से वह सुषद्ध होता है और प्रशस्त लक्ष गों से समन्वित (दृढ) होता है तथा जैसा कूट-शिखर का भाकार होता है वैसा आकार वाला होता है और पाषाण की जैसी पिण्डी होती है ऐसी पिण्डी के समान वह मजवून और गोल होती है इनके मस्तक के केशों का अग्रभाग, तथा मस्तकके ऊपर की चमडी कि जिसमें केश उत्पन्न होते हैं दाडिम पुष्प के प्रकाश-वर्ण जैले कुछ लालिमा काला होता है एवं तपनीय सुवर्ण के जैसा कुछ पीत वर्ण वाला और आगन्तुक मलरहित होने से निर्मल होता है 'सामलिघोंडघणणिचिय छोडिय मिउविसय पसत्थ सुहम लक्खण सुगंध सुंदर भुश्मोयग भिगिणील जलपट्टभामरगणगिद्ध णिकुरंपनिचिय कुंचियचियपचाहिणा वत्त सुद्धमिरया' इनके मस्तक ન હોવાથી નિબિડ ગાઢ હોય છે. તે સ્નાયુઓથી સુબદ્ધ હોય છે. અને ઉત્તમ એવા લક્ષથી સમન્વિત (દઢ) હોય છે. તથા જે પ્રમાણે (ફટ) શિખરો આકાર હોય છે. એવા આકારવાળું હોય છે. તથા પષાણ અર્થાત્ પત્થરની પિંડી જેવી હોય છે. એવી પિંડીની માફક મજબૂત અને ગોળ હોય છે. તેમના મસ્તકના કેશને અગ્રભાગ તથા માથાના ઉપરની ચામડી કે જેમાં વાળ ઉગે છે, તે દાડમના પુષ્પના પ્રકાશ વગ જેવા કંઈક લાલિમા વાળી હોય છે. તેમજ સેનાના વર્ષો જેવા કંઈક પીળાશ યુક્ત તેમના વાળ હોય છે. તથા આગ-તુક મલથી રહિત હોવાથી તે નિર્મલ હોય છે. 'सालि बोंद घणणिचिय छोडियमिउविसयपसत्य सुहुम लक्खण सुगधनुदरभुय मोयाभिगिणीलकज्जलपहद भमरगणणि? णिकुरव निचिय कुंचिय चियपदाहिणावद्ध मुद्धसिरया' त्याना मस्त ९५२ २ वाण य छे, ते 6341 छता Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.३७ ऐकोलंकद्वीपस्थानामाकारभावादिका ५८७ निचित कुञ्चित चित प्रदक्षिणावर्त्तमूर्द्धशिरोजाः, तत्र-छोटिताः विच्छिन्नीकृता अपि मूर्द्धनाः शाल्मल्याः-वृक्षविशेषस्य यद बोण्डं फलं तद्वद् घननिचिता स्वभावत एवातिशयेन निविडा भवतिष्ठन्ते तथा मृदयः कोमलाः विशदा निर्मला प्रशस्ता-प्रशंसास्पदीभूताः, सूक्ष्माः-इलक्ष्णा: लक्षणवन्तः मुगन्धा:-परमगन्धो. पेताः अत एव सुन्दराः तथा-भुजमोचकः कृष्णवर्णरत्नविशेषः, भृङ्गो-भ्रमरः, नीलो-नीलमणि-मरकतमणिः, कज्जलम्-प्रसिद्ध प्रहृष्टः प्रमुदितो भ्रमरगण: तरुणावस्थायां भ्रमरोऽतीवकृष्णो भवत्यतः प्रहृष्टविशेषणग्रहणम् । त इव स्निग्धा निकुरम्भभूताः सन्तः निचिताः नतु विकीर्णाः सन्तः कुञ्चिताः ईषत कुटिला: कुडूमलीभूताः प्रदक्षिणावर्ताश्च मूर्द्धनि-मस्तके शिरोजाः केशा येषां ते तथा, 'लक्खणजण गुणोववेया' लक्षणव्यञ्जनगुणोपपेवार, लक्षणानि-स्वस्तिकादीनि, व्यञ्जनानि-मषीतिलकादीनि गुणा:-क्षान्त्यादय एमिरुपपेता युक्ताः-गाम्भीऊपर जो केश-पाल-होते हैं वे छोटित-खुले-खुले शिये जाने पर भी स्वभाव से ही शाल्मली वृक्ष विशेष के फल जैसे बने होते हैं, निचित -अत्यन्त निबिड होते हैं मृदु-नरल-होते हैं विशद निर्मल-होते है, प्रशस्त-प्रशंसास्पद होते हैं सूक्ष्म होते है-बडे २ नहीं होते हैं लक्षण वाले होते हैं, सुगन्ध से युक्त रहते हैं, सुन्दर होते हैं तथा भुजमोचक नामक रस्न विशेष के सलान, नीलमणि-घरकत मणि के समान कज्जल के सलान, हर्षित हुए भ्रमर के समान अत्यन्त काले और स्निग्ध होते हैं ये निचित होते हैं अर्थात् इधर उधर बिखरे हुए नहीं होते हैं घुघराले होते हैं और प्रदक्षिण आवर्त वाले-दाहनी तरफ झुके हुए होते हैं । 'लक्खणवंजणगुणोषवेधा' ये एकोरुक द्वीप निवासी मनुष्य स्वस्तिय आदि लक्षणों ले, मश तिलक आदि व्यञ्जनों से और પણું સ્વભાવથીજ શામલી વૃક્ષવિશેષના કુલના જેવા ગાઢ હોય છે. નિશ્ચિત અત્યંત લાગેલા હોય છે. મૃદુ નરમ હોય છે. વિશદ નિમલ હેય છે. પ્રશસ્ત પ્રશંસા કરવા ગ્ય હોય છે. સૂક્ષમ હોય છે. મોટા મોટા હોતા નથી. પ્રશસ્ત લક્ષણવાળા હોય છે. સુગંધ યુક્ત હોય છે. સુંદર હોય છે. તથા ભુજમોચક નામના રત્નવિશેષ પ્રમાણે, નીલમણિ મરકતમણિ સમાન, કાજલ સમાન, હર્ષિત થયેલ ભમરાની જેમ, અત્યંતકાળ અને સ્નિગ્ધ સુંવાળા હોય છે. તેઓ નિશ્ચિત હોય છે. અર્થાત આમતેમ વિખરાયેલા રહેતા નથી. ઘુઘરાળા હોય छे. सन क्षिय भगवा अर्थात् भएमा मुसा डाय छे. 'लगखणपंजणगुणोववेया' मा ३४ द्वीपमा २२वावा मनुष्ये। स्वस्ति विरे લક્ષણેથી મશીતિલક વિગેરે વ્યંજનથી અને ક્ષતિ વિગેરે સદ્ગુણોથી યુક્ત Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ जीवामिगमसूत्रे यदि गुगोपपेता इत्यर्थः, सुजापसुविभत्त सुरुवगा' सुजात सुविभक्त रूपकाः, सुजातं - सुनिष्यन्नं जन्मदो परहितत्वाद, सुविभक्तम् अङ्गमत्यङ्गोपाङ्गानां यथा स्थान स्थितत्वात् सुरूपं समुदायगतं येषां ते तथा । 'पासाईया' प्रसादिकाः 'दरिसणिज्जा' दर्शनीया', 'अभिरूचा' अभिरूपाः, 'पडिरूपा' प्रतिरूपा इति । 'ते णं मणुवा इंसस्सरा' ते - एकोरुकद्वीपकाः खलु मनुजाः हंसस्वराः, हंसस्य पचिविशेषस्य स्वरवत् मधुरः स्वरः - शब्दो येषां ते हंसस्वराः, 'कौंचस्सरा' क्रोञ्चस्वराः-क्रौञ्चाभिधपक्षिशब्द सदृशशब्दवन्तः अनायास विनिर्गतस्यापि स्वरस्य दीर्घदेशव्यापित्वात् 'नंदिघोसा' नन्दिघोषाः- नन्दिनमद्वादशविधवाय विशेषसंमिश्रितस्वर सदृशस्वरयुक्तो वाद्यविशेषः, तद्वत् घोषो ध्वनिर्येषां ते नन्दिघोषाः, 'सीहस्सरा' सिंहस्वराः 'सीहघोसा' सिंहघोपाः 'मंजुस्सरा मंजुघोसा' क्षान्ति आदि सद्गुणों से युक्त होते है । 'सुजाय सुविभन्त सुरुवगा पासाईयो दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिवा' उनका रूप बड़ा ही अच्छा स्वरूप वाला होता है क्योंकि उसके प्रत्येक अवयव जन्म जात अपने२, पूर्ण प्रमाण से युक्त होते हैं ये प्रासादिक होते हैं दर्शनीय होते हैं अभिरूप होते हैं और प्रतिरूप होते हैं' 'तेणं मणुवा हंसस्सरा, कोचस्सरा, नंदिधोसा, सीहस्सरा, सीह घोसा, मंजुस्सरा, मंजुघोसा, सुस्सरा, सुस्सरणिग्घोसा छाया उज्जोतियंगमंगा' ये मनुष्य हंस के स्वर जैसे स्वर वाले होते हैं क्रौंच पक्षी के स्वर जैसे अनापास निकलने पर भी दीर्घ देश व्यापी स्वर वाले होते हैं नंदिके घोष-गर्जना वाले होते हैं अर्थात् यह नन्दि- बारह प्रकार के वाद्य विशेषों का जैसा संमिश्रित स्वर होता है उस प्रकार के वाद्य विशेष कानाम नन्दि है उसके जैसी ध्वनि वाले सिंह के स्वर जैसे गंभीर स्वर वाले होते हैं सिंह के जैसे घोष होय छे. 'सुजायसु विभत्तसुरुवगा, पासाईया दरिसणिज्जा अभिवा परिवा' तेथेोनु રૂપ ઘણુંજ સુંદર સ્વરૂપવાળુ હાય છે. કેમકે તેમના દરેક અવયવેા જન્મથીજ પેાત પેાતાના પૂર્ણ પ્રમાણુથી યુક્ત ય છે. તે બધા પ્રાસાદીય હોય છે. દશનીય हाय छे. अभिय होय छे भने अतिश्य होय छे. 'वेणं मणुया हंसस्सरा, कचिग नदिघोसा, सीहस्सरा, सीहषोसा मंजुस्सरा, मंजुघोसा, सुरसरा, सुरसरणिग्धोंसा, छाया उज्जोतियं गमगा' मा मनुष्यो हंसना स्वर नेवा स्वर વાળા હોય છે. કૌચપક્ષિના સ્વરની જેમ અનાયાસ નીકળવા છતાં પણુ દી દેશવ્યાપી સ્વરવાળા હાય છે, નદિના ઘેાષ જેવા ઘાષ ગજનાવાળા હોય છે. અર્થાત્ તે નદિ કહેતાં ખાર પ્રકારના વાદ્યવિશેષનું નામ ન ંદ છે. તેના જેવા ધ્વનિવાળાં, સિ’હુના સ્વર જેવા ગંભીર સ્વર વાળા ડાય છે. સિ`હના જેવા Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका .३ उ.३ सू.३७ एकोषकद्वीपस्थामामाकारभावादिक र ५८९ मज्जुघोष:-प्रियध्वनिमन्तः 'सुस्सरा सुस्सरणिग्घोसा' सुस्वराः-सुस्वरवन्तः सुस्वर निर्घोषाः 'छाया उज्जोइयंगमंगा' छायोयोतिताङ्गमत्यङ्गा-छायया शरीर. प्रभया उयोतितानि अङ्गप्रत्यङ्गानि येषां ते तथा 'इज्जरिसमनारायसंघपणा' वज्रऋषभनाराचसंहनिनः, 'समचउरंससंठाणसंठिया' समचतुरस्रसंस्थानसंस्थिताः 'सिणिद्धछवी' स्निग्धच्छवया-स्निग्धकान्तयः-स्निग्धा उदात्तवर्णा सुकुमारा च छविः त्वक् येषां ते तथा, 'निरायंक उत्तम पसत्थ इसेसनिरुवमत] उत्तम प्रशस्तातिशेषनिरूपमतनवः निरातङ्का रोगरहित अतएव उत्तमा उत्तमलक्षणोपेता प्रशस्ता प्रशस्त गुणयुक्ता च तथा अतिशेषा-कर्मभूमिजमनुष्यापेक्षयाऽतिशय वती अतएव निरूपमा उपमारहिता तनुः शरीरं येषां ते तथा । 'जल्लमलकलंकसेयरयदोसवज्जियसरीरा' जल्कमलकलङ्कस्वेद रजोदोषवर्जितशरीरा:-जल्लं-शरीरमळम् मलम्-आगन्तुकमलम्, कलङ्क:-अनिष्ट सूचका शरीरजातश्चितविशेषा, ध्वनि वाले होते हैं तथा इनका स्वर मंजु-घड़ा मीठा-सुनने में ओनन्दोत्पादक-होता है घोष भी इनका ऐसा होता है अत एव ये सुस्वर पाले कहे गये हैं, और सुस्वर से युक्त घोष वाले कहे गये हैं, 'छाया उज्जोतियंगमंगा' इनका प्रत्येक अंग-अंग कान्ति से चमकता रहता 'वज्जरिसभनोराय संघयणा' ये वज्रऋषभनाराच संहनन वाले होते हैं। 'समचउरंससंठाणसंठिया' इनका समचतुरस्त्र संस्थान होता है 'सिणिद्धछवी' इनकी कान्ति स्निग्ध होती है 'णिरायंका' ये आतंकव्याधि रहित होते हैं 'उत्तमपलस्थ महसेस निरुवमतणू' इनके शरीर उत्तम, प्रशस्त, अतिशय शाली और निरुपम होते हैं । 'जल्ल. मल्लकलंक सेयाय दोल वज्जिय सरीरा' इनके ये शरीर जल्ल-शरीर से उत्पन्न मल सामान्य-मैल आदि दोष से रहित होते हैं। कलङ्क ઘષવનિવાળા હોય છે તથા તેને વર મંજુલ મીઠો એટલે સાંભળવામાં આનંદ જનક હોય છે. તેને ઘેષ પણ આનંદ જનકજ હોય છે. તેથી જ એ सा२। २१२थी युत धेषामा ४९ . 'छायाउज्जोतिय गमगा' तमनु प्रत्ये Aniतिथी यमतु २९ छ. 'वज्जरिसभ नाराय संघयणा' ते व पन नाराय नन पा हाय छे. 'समचरं स स ठाणसं ठिया' तमान संस्थान सभन्यतुरन यतुण्डी काय छे. 'सिगिद्धछवी' तेमनी तिनिहाय छे. ‘णिरावंका'-ते मात-याधि २हित हाय छ 'उत्तम पसत्थ अइसेस निरू. वमतणू' माना शरीर उत्तम, प्रशस्त, अतिशय शाजी, अन नि३५म हाय छ. 'जल्लमल्ल कसेयरय दोस वज्जियसरीरा' ते ना शरी२ शरीरथा ઉત્પન્ન થયેલ મળ, મલ સામાન્ય મેલ વિગેરે દેષથી રહિત હોય છે. કલંક અનિષ્ટ સૂચક ચિહન, પરસે અને ધૂળ હેય વિગેરેથી રહિત Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___जीवामिगमस्ने स्वेदः 'पसीना' इति प्रसिद्धः, रजा-उड्डीयसकग्नो रजः कणः, इत्यादि दोपवर्जितं शरीरं येषां ते तथा, 'निरुवलेवा' निरुपलेपा:-मलमूत्रादिलेपरहिताः 'अणुलोमवाउवेगा' अनुलोमवायुवेगाः अनुलोमः-अनुकूलः वायुवेगः-शरीरान्ततिवायुसंचारो येषां ते तथा वायुगुल्मरहितोदरमध्यपदेशा इत्यर्थः, उदरमध्यप्रदेशगतवायुगुल्मवतामनुकूलवायुवेगस्यासंभवात् । 'कंकरगहणी' कङ्कग्रहणया, कङ्कस्य तन्नामख्यातपक्षिविशेषस्य ग्रहणिः गुदाशयो येषां ते तथा नीरोगवर्चस्क तया निलेप गुदाशया इत्यर्थः, 'कवोयपरिणामा' कपोतपरिणामाः, कपोतस्येव __ परिणाम आहारपाको येषां ते तथा, कपोतस्य जठराग्निः पाषाणकणानपि जरयतीति प्रसिद्धिः तद्वत्तेषामाहारपाको भवति न जातु चित्तेषामनर्गलाहारग्रहणेऽपि अजीर्णदोषाः संभवन्तीत्यत उक्तं कपोतपरिणामा इति । 'सउणिवपोसपिढे तरोपरिणया' शकुनेरिव पोसपृष्टान्तरोपरिणताः, अत्र निष्ठान्तस्य परनिपाता, अनिष्ट सूचक चिह्न पसीने और घूलि से विहीन होते हैं । 'निरूबलेवा अणुलोमवावेगा कंक महणी कवीयपरिणामा' किसी भी प्रकार का उपलेप इनके शरीर पर नहीं होता है 'अणुलोमवाउवेगा' वातल्म-वात गोला से रहित उदर भाग वाले होने से अनुकूल वायु वेग वाले होते हैं क्योंकि उदर स्थित वात गोले वाले का वायु वेग अनुकूल नहीं हो सकता है 'कंकरगहणी' जैसे कंक नाम के पक्षी का गुदा भाग निर्लेपहोता है उसी प्रकार इनका गुदा भाग नीरोग मल वाले होने से निर्लेप गुदाशयवाले होते हैं। 'कवोयपरिणामा' जिस प्रकार कबूतर की जठराग्नि कंकर को भी पचा सकती है इसी प्रकार की इनकी जठराग्नि होने से ये कपोत परिणाम वाले कहे जाते है। अर्थात् ये कपोत के जैसी पाचन क्रिया वाले होते है। 'सउणिव्व पोस पिटुंतरोपरिणयो' छ. णिरुवलेवा अणुलोमवाउवेगा, फकग्गहणी कवोयपरिणामा' म ५ प्रारना ७५५ उता नथी. 'अणुलोमवाउ वेगा' पातम-वायुना गाथा २हित २ ભાગ વાળા હોવાથી અનુકૂળ વાયુ વેગવાળા હોય છે. કેમકે પેટમાં રહેલ पायुना जावाजानी वायुवेग अनु० जात नथा 'ककगहणी' २४ નામના પક્ષને ગુદાને ભાગ નિર્લેપ મલરહિત હોય છે. એ જ પ્રમાણે તેમનો जहाना मा भत ना हाथी नि ५ गुशियाणा हाय छे. 'कवोय परिणामा' २ मृतरनी ०४४२fAxiराने ५५ पयावी श? छे. मे प्रभार એમની જઠરાગ્નિ હોવાથી કપોત પરિણામવાળા કહેવાય છે. અર્થાત્ તેઓ B२ना २वी पायन यावाणा डाय छे. 'सउणिव्व पोसपिटुतरोरूपरिणया' Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ ३.३ .३७ एकोषकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५९५ तेन शकुनेरिव परिणतपोसपृष्टान्तरोरवा-शकुनेः पक्षिण इव परिणतः पुरीपोत्सर्गे निलेपतया सुपरिणामं माप्त पोस:-अपातदेशः, पृष्ठं पृष्ठभागः अन्रं-पृष्ठोदर योरन्तरालभागः अरुश्च येषां वे-तथा। 'विग्गहिय उन्नयकुच्छी' विगृहीतोन्नतकुक्षया-विगृहीता मुष्टिग्राह्या उन्नता च कुक्षिरुदरभागो येषां ते तथा, 'पउमुप्पलसरिसगंधणिस्तासमुरभिवदणा' पद्मोत्पलसदृश गन्ध नि श्व समुरभिवदनाः तत्रपद्म-कमलम् उत्पलं नीलकमलम् अथवा पमं पद्मकाभिधानं गन्धद्रव्यम् उत्पलम्उत्पलकुष्ठं गन्धद्रव्यविशेष एव तयोर्गन्धेन-सौरभ्येण सदृशः समो यो निःश्वासः घ्राणवायुः तेन सुरमि-सुगन्धयुक्तं वदनं मुखं येषां ते तथा । 'अधणुसयं उसिया' अष्टधनुशवमुच्छ्रिताः-अष्टधनुशोच्छ्रायवन्तः। 'तेसि मणुयाण' तेपामें कोरुकाणां खलु मनुजानाम् 'चउसटिपिट्टि करंडगा पन्नत्ता समणाउसो !' चनुः षष्टिः - चतुः षष्टिसंख्या परिमिता पृष्ठ करण्डका यज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'ते णं मणुया पगइ भद्दगा पगइविणीयगा' ते खलु मनुजाः प्रकृति भद्रका.पकस्या-स्वभावेनैवभद्राः सरलाः प्रकृति विनीतकार, प्रकृत्यैव विनयान्विताः इनका अपान देश-गुदाभागपुरी पोत्सर्ग के लेप रहित होता है तथा पृष्ट भाग तथा उदर और पृष्ट का बीच का भाग तथा ऊरू जाधं ये सय सुन्दर परिणत सुन्दर संस्थान वाले होते हैं। 'विग्गहिय उन्नय कच्छो' उनका पेट का भाग इतना कृश-पतला होता हैं कि वह मुट्ठी में आसकना है। इनका नि:श्वास सामान्य कमल नील कमल तथा गन्ध द्रव्य के समान सुगन्धित होने से इनका मुख सुगन्ध वाला होता है। 'अट्ठ. धणुप्तयं उखिया' आठसौ (८००) धनुष के ऊंचे होते हैं 'तेमि मणुयाणं चउसटिपिढिकरंडगा' हे श्रमण आयुष्मन् ! उन मनुष्यों की पृष्ठ करंडक अर्थात पसलियां की हड्डियां चौसठ (६४) होती हैं. 'तेणं मणुया पगतिभद्दगा, पगति विणीतगा, पगति उवसंता पतिपय णु તેઓને અપાન દેશ અર્થાત ગુદા ભાગ પરિષેત્સર્ગના લેપ વિનાનો હોય છે. તથા પૃષ્ઠભાગ તથા ઉદર અને પૃષ્ઠની વચ્ચેનો ભાગ તથા જાંધ આ બધા सु४२, परिष्यत, मन सुंदर संस्थान पाय छे. 'विग्गहिय उन्नयकुच्छी' તેમના પેટને ભાગ એટલે પાતળો હોય છે કે તે મૂઠીમાં આવી જાય છે. તેઓને નિઃશ્વાસ સામાન્ય કમલ, નીલકમલ, તથા ગન્ધ દ્રવ્યની સમાન सुगन्धित पाथी त्यानु भुम सुरमिगधवा हायटे. 'भट्ट धणुसय उसिया' ८०० मासे। धनुष २टा या हाय छे. 'तेसि मणुयाण च उस द्विपिट्टिकर'डगा.' 8 श्रम सायुज्यमन् ते मनुष्यानी पासणीयाना ४i (१४) यास डाय छे. 'ते णं मणुया पगतिभद्दगा, पगति विणीतगा, पगति Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९२ जीवामिगमको 'पगइ उपसंता' प्रकृत्युपशान्ताः-स्वभावत एव शान्ता: 'पगइ पयणुकोइमाणमा. यालोमा' प्रकृत्यैव पतनु कोधमानमायालोमा:-स्वभावत एव अतिमन्दीभूतकवाय चतुष्ट पपन्त इत्यर्थः, 'खिउमद्दवसंयण्णः' मृदुमादवसंपन्नाः, मृदु-मनोझं परिणाम सु वाव्हं यन्माद तेन सपन्नाः 'अल्लोणा' आलीना:-आ-समन्तात् सर्वासु किय सु लीना गुप्ता नोल रण चेष्टाकारिण इति भावः । 'मदगा' भद्रका:-सकल. तरक्षेत्र कल्याण मागिना, 'विणीया' विनीता:-वृहत्पुरुषविनयकरणशीलाः, 'अपेच्छ।" अल्पेच्छाः अल्पशब्दोऽत्रा भाववाचकः तेन अल्पेच्छा इति इच्छावर्जिताः मणिकनकादि पतिबन्धरहिता, अनु एव 'असंनिहिसंचया' असंनिधिसंच गा, न विद्यते सन्निधिरूपः संचयः कस्यापि वस्तु जातस्य संग्रहो येषां ते तथा अन एव 'अचंड।' अचण्डा' अवग इत्यर्थः विडिमंतरपरिवसणा' विडिमान्तर परिवसनाः विडिमान्तरेषु प्रसादाघाकृतिपु शाखान्तरेषु परिवसनम् थाकारमावासो येषां ते तया, 'जहिच्छिय कामकामिणो य' यथेप्सित कामकामिन:-यथेप्सितान मनोवांछितान् कामान् शब्दादीन् कामयन्ते इत्येवंशीलाः 'ते मणुयगणा पण्णता समणाउसो' पूर्वोक्तलक्षणयुक्ता स्ते एकोरुक वास्तव्या कोह माणमायालोभा, मिउमद्दवसंपन्न, अल्लीणा भद्दगा, विणीता, अप्पेच्छा,' ये मनुष्य स्वभावतःभद्र परिणाभी होते हैं स्वभावताही विनयशील होते हैं, स्वभाव से ही शान्त होते हैं, स्वभाव से ही ये अल्प कषाय वाले अल्प क्रोध, मान, माया और लोभ-वाले होते हैं स्वभाव से ही ये मृदु-मार्दव सम्पन्न होते हैं. स्वभाव से ही ये विनय आदि मद्गुगों वाले होते है इस प्रकार स्वभावतः भद्रक और विनीत भाव से युक्त हुए ये अल्प इच्छा वाले होते हैं 'असंनिहि संचया' इसी कारण ये कोई वस्तु का संचय संग्रह करने वाले नहीं होते हैं और 'अचंडा' ये क्रूर परिणामों वाले नहीं होते हैं। विडिमंतर परिव सणा' वृक्षा की शाखाओं के मध्य में रहते हैं 'जरिच्छिय कामगा. बस ता, पगति पयणु कोहमाण माया लोभा, मिउमद्दवस पन्ना, अल्लीणा भहगा, विणीता, अप्पेच्छा' में मनुष्ये। २१माथी मद्र परियाभवाजा खाय छे. स्वभाव થી જ વિનયશીલ હોય છે સ્વભાવથીજ અ૫ કષાયવાળા, અ૯૫ ક્રોધ, માન, માયા, અને લેભ વાળા હોય છે. તેઓ સ્વભાવથી જ મદ માર્દવ સંપન્ન હોય છે. એ જ પ્રમાણે સ્વભાવથી ભદ્રક અને વિનીત ભાવથી ચુકત થયેલા तसा अ६५ ४२पापा डाय है. 'असनि हि सचिया' मे वस्तुना सड ४२वा नशी. अने 'अचंडा' तेथे।४२ परिणामवाण होता नथी. 'विडिम'तर परिवसणा' वृक्षानी शामायानी भध्यमा २ 'जहिच्छिय कामगामिणो य ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' तया से मनुष्य पानानी Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ shrafter टीका प्र. ३ उ. ३. सू. ३७ एकोरुकद्वीपस्थानामाकारभावादिकम् ५९३ मनुजगणाः प्रज्ञताः - कथिता: हे श्रमण आयुष्मन् ! 'तेसि णं भंते ! मणुवाणं' पाककानां खल भदन्त ! मनुजानाम् 'केवडकाळस्स आहारडे समुप्पज्जइ' कियति काले अत्र सप्तम्यर्थे पष्ठी तेन किति काळे गते सति पुनराहारार्थ:आहारप्रयोजनं समुत्पद्यते, एकदा भोजनानन्तरं पुनः कियता कालेन आहार विप यिणी इच्छा समुत्पद्यते इति पश्नः, श्रीभगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम 1 'चउत्थमत्तस्स - आह रहे समुपपन्नइ' अत्रापि सप्तस्वर्थे षष्ठी तेन चतुर्थ भक्ते अतिक्रान्ते सति अहारार्थः- आहार प्रयोजनं समुध्यद्यते, यद्यपि सरसाहारित्वे taraकालिकी, तेषां क्षुद्वेदनोदयाभाव देर अभक्तार्थता न तु कर्म निजरायै तपः तथापि अभक्तार्थत्वात् चतुर्थभक्तस्येति कथनमिति ॥ ४०३७|| मिणोय ते मणुघगणा पण्णत्ता समणाउसो' तथा चे मनुष्य अपनी इच्छा के अनुसार स्वतन्त्रता पूर्वक विचरण करते हैं इस प्रकार से हे भ्रमण आयुष्मन् ! इन एकोरुक द्वीप वासी मनुष्यों के परिचय के सम्बन्ध में ऐसा मैंने कहा है 'तेसि णं भंते ! केवतिकालस्स आहारट्ठे समुपज्जइ ' हे भदन्त । इन एकोरुक द्विप के मनुष्यों को एक बार आहार कर लेने पर पुनः आहार की इच्छा कितने काल के व्यतीत होने पर होती है ? 'गोयमा ! उत्थभत्तस्स आहारट्ठे समुप्पजह' हे गौतम! उन मनुष्यों के चतुर्थ भक्त अर्थात् एक दिन को छोड़कर दूसरे दिन आहार की इच्छा होती है क्योंकि क्षुधा वेदनीय कर्म का उदय इनके एक दिन को छोड़कर दूसरे दिन ही होता है इसलिये अभक्तार्थता में इनके कमों की तपोजन्य निर्जरा नहीं होती है । क्योंकि इनके इन्छा पूर्वक भोजन का त्याग नहीं होता है । सून्न- ३७॥ ઇચ્છા પ્રમાણે સ્વતંત્રતા પૂર્વક વિચરણુ કરે છે. આ રીતે હે શ્રમણ આયુષ્મન્ આ એકારૂક દ્વીપમાં નિવાસ કરવાવાળા મનુષ્યના પરિચયના સંબંધમાં આ प्रभाछे भें' 'धुं छे. 'तेसि णं भंते ! केवतिकालस्स आहारट्टे समुत्पज्जइ' डे ભગવત્ આ મનુષ્યને એકવાર આહાર કર્યાં પછી ફ્રી અહાર કરવાની ઈચ્છા भेटलो आज बीत्या यछी थाय छे ? 'गोयमा ! वउत्थभत्तस्व आहारट्टे समुपज्जइ' હે ગૌતમ ! એ એકેક દ્વીપના મનુષ્યને ચતુર્થાં ભકત અર્થાત્ એક દિવસ છેડીને ખીજે દિવસે આહાર કરવાની ઇચ્છા થાય છે. કેમકે ક્ષુધા વેદનીય ક્રમ ના ઉદય તેમને એક દિવસ હેાડીને બીજે દીવસેજ થાય છે. તેથી અભકતાતામાં તેને તપેાજન્ય કર્માની નિરશ થતી નધી. કેમકે તેએને ઈચ્છા પૂર્વક ભાજનના ત્યાગ થઈ શકતે નથી. 1 જૂઠા जी० ७५ Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९४ जीवामिगमसूत्रे ___ मूलम्-एगोरुय मणुईणं भंते ! केरिलए अगारभावपडोचारे पन्नत्ते ? गोयमा! ताओ णं मणुईओ सुजाय सव्वंगसुंदरीओ पहाण महिलागुणेहिं जुत्ता अच्यंत विसप्पमाण पउम सूउमालकुरसंठिय विसिट्रचलगा उज्जुमिउय पीवर निरंतर पुट संहियंगुलीया उण्णसरतियनलिणतवसुईणिद्धणखा रोमरहियबललंठिय अजहष्ण लक्खण अकोप्प जंघजुयला सुणिस्मिय सुगूढजाणूमंडल सुबद्धसंधी कयलिक्खंभातिरेग संठियणिठवणसुकुमालमउयकोमल अविरयसमसंहित सुजातवद्दपीवरणिरंतरोरु अटावयवीधीपट्टसंठिय पसत्थ वित्थिन्न पिहुललोणी वदणायामप्यमाणदुगुणित विसालमसलसुबद्ध जहणवरधारणीओ वजदिराइयपसस्थलक्खणणिरोदरा तिवलिवलियतणुणमियमज्झिमाओ उज्जुयललसंहियजच्चतणुकलिण णिद्धआदेजलडह सुविभत्तसुजायकंतलोभतरुइलरमणिज्जरोमराई गंगावत्तपयाहिणावत्ततरंग भंगुररविकिरण तरुण बोहिय अकोसायंत पउपवणगंभीरवियडणाभी अणुब्लडपसत्थपीणकुच्छी सपणयपासा संगयपाला सुजायपाला, मितभाइयपीणरइयपासा अकरंडुयकणगरुषग निम्मलसुजायणिरुवहय गायलटी कंचणकलसलमपमाणसमसहिष सुजायलटचूचूय आमेलगजमलजुगलवट्टिय अमुण्णयरतिय संठियपयोधराओ भुयंगणुपुब्बतणुयगोपुच्छवसमसंहिय णमिय आएजललियवाहाओ तंबणहा मंसलग्ग हत्था पीवरकोमलवरंगुलीओ णिद्धपाणिलेहारविसत्तिख वकालोस्थिय सुविभनसुइरतियपाणिलेहा पीणुण्णयकक्खवस्थिदेसा पडिपुणगल्लकवोला चउरंगुल सुप्पमाण Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू.३८ एकोरुक० मनुजीनामाकारादिक कंबुवरसरिसगीवा मंसलसंठियप सत्थहणुया दाडिमपुप्फप्पगासपीवरकुंचियवराधरा सुंदरोत्तरोडा दधिदगरयचंद कुंद वासंतिमउल अच्छिदविमलदसणा तुप्पलपलमउयसुकुमालतालुजीहा कणयवरमउल अकुडिल अन्भुग्गयउज्जुतुंगणासा सारयणवकमलकुमुदकुवलयविमुक्कदलणिगरसरिसलक्खण अंकियकंतणयणा पत्तलचवलायंत तंबलोयणाओ आणामितचावरुइल किण्हन्भराइ संठियसंगय आययसुजायकसिणमिद्धभसुया अल्लीणपमाणजुत्तसवणा पीणमटूरमणिज्जगंडलेहा चउरंसपसत्थसमणिडाला कोमुइरयणिकरविमलपडिपुन्न सोमवयणा छत्तुन्नय उत्तिमंगा कुडिल सुसिद्धिदहितिरया छसज्झयजुगथूमदामिणिकमंडलुकलसवाविसोत्थिय पडागजव मच्छकुम्मरहवरमगरसुकथाल अंकुस अट्ठावयवी सुपइटुकमयूर सिरिदासाभिसेय तोरणमे इणिउदधिवरभवणगिरिवर आयंसललियगय उसमसीहचमर उत्तम पसत्थबत्तीसलक्खणधराओ हंससरिलयईओ कोइलमधुरगिर सुस्सराओ कंता सव्वस्स अणुनयाओ ववगय वलिपलियावंग दुव्वण्णवाही दोभग्गसोगमुक्काओ उच्चतेण य नराण थोवून मूसियाओ सभावसिंगारागार चारुत्रेला, संगयगयहलिय भणियचेट्टिय विलास लावणिउण जुत्तोवयारकुसला सुंदरथणजहणवदणकरचरणणयणमाला वण्णलावण्णजोवणविलासकलिया नंदणवणविवरचारिणीउन अच्छराओ अच्छेरेग पेच्छणिजा पासाइचाओ दरिसणिजाओ अभिरुवाओ पडिरुवाओ । तासि णं भंते! मईणं केवइकालस्स आहारट्टे ससुप्पजइ ? गोयमा ! चउत्थ भन्तस्स आहारट्टे समुप्पाइ ॥ सू० ३८॥ P ५९५ Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ D जीवामिगमसूत्र छाया-एकोरुक मनुजीनां भदन्त ! कीश आकारभावमत्यवतारः पवतः ? गौतम | ताः खलु मनुज्यः सुजातसङ्गिसुन्दर्यः प्रधान-महिलागुणैयुक्ता अत्यन्त विसर्पस्पद्म सुकुमार कूर्मसंस्थित विशिष्टचरणाः ऋजुमृदुक पीवर निरन्तर पुष्टसंहनाङ्गुलयः उन्नतरतिदतलिनताम्रशुचिस्निग्धनखाः रोमरहित वृत्तलष्टसंस्थिता जघन्य प्रशस्तलक्षणाकोप्यजंघयुगलाः सुनिर्मित मुगूढजानुमंडळ सुबद्धसन्धयः कदलीस्तम्भातिरेक संस्थित निबग सुकुमार मृदुझकोमलाविरळसमसंहितसुनातवृत्तपीवर निरन्तरोरयः, अष्टापदवीचि पट्टसंस्थित प्रशस्त विस्तीर्ण पृथुळ श्रोणयः वदनायाम प्रमाण द्विगुणित विशालमांसल सुबद जघनवरधारिण्यः वज्र विराजित प्रशस्त लक्षणनिरुदराः त्रिवलीवलितत्तनुनमितमध्यिकाः ऋजुकसमसंहितजात्यतनुक कृष्णस्निग्धादेयलडइललित सुविभक्त सुजातकान्तशोभमान रुचिररमणीयरोमराजथा गंगावत्त प्रदक्षिणावर्ततरङ्ग भङगुररविकिरणतरुणवोधिता कोशायमान पद्मवनगम्भीर विक्रटनाभयः अनुट प्रशस्तपीनकुक्षयः संनतपाश्र्धाः सङ्गपावीः सुजातपाः मित्रमात्रिकपोनरतिदपाश्वर्याः अकरण्ड कनकरुचक निमलसुजात निरुपहतगात्रयष्टयः काञ्चनकलश समप्रमाण समसहितसुजातलष्टचुचूकामेलकयमलयुगल वर्तिताभ्युम्नतरतिद संस्थितपयोधराः भुजङ्गानुपूर्यतनुके गापुच्छवृत्तसमसंहित नतादेयललितवाह्यः ताम्रनखाः मांसकाग्रहस्ताः पीवरकोमलवराजगुळयः स्निग्धपाणिरेखाः रविशशिश वक्र स्वस्तिक सुविभक्त शुचिरतिदपाणिरेखाः पीनोन्नतकक्षवस्तिदेशा: परिपूर्णगल्ळकपोलाः चतुरङ्गुलम्चप्रमाण कम्वुवरसदृशग्रीवा मांसवसस्थित प्रशस्तहनुकाः दाडिमपुप्परकाशपीवर कुश्चित. वराधराः सुन्दरोत्तरौष्ठाः दधिदकरजश्चन्द्रकुन्दवासन्तीमृदुलाछिद्रविमळदशनाः रक्तोत्पलपत्रमृदुकसुकुमारतालुजिया। कणकवर मृदुलकुटिलाभ्युद्गतऋजुतुगनासाः शारदनवकमलकुमुदकुवलय विमुक्तदल निकर सहशलक्षणाङ्कितकान्तनयनाः पत्रक चपळायमानताम्रकोचना आनामितचापरुचिरकृष्णाभ्रराजिसंस्थितसङ्गतायत सुजा. तकृष्णस्निग्धभ्रषः आलीनप्रमाणयुक्तश्रवणा: पीनमृष्टरमणीयगण्डरेखाः चतुरस्त्र प्रशस्तसमललाटाः कौमदीरजनिकरविमलपरिपूर्णसौम्यवदना छत्रोन्नत्तोत्तमाङ्गाः कुटिकमुश्लिष्टदीर्घशिरोजाः छत्रध्वजयुगस्तूपदामिनिकमण्डलकलशवापीस्वस्तिकपत्ताकायवमत्स्य कूर्मरथवरमकरशुकस्थालाङ्कशाप्टापदवीज सुप्रतिष्ठकमयुरश्रीदामाभिषे तोरणमेदिन्युदधिवरमवनगिरिवरादर्शललितगजऋषभसिंह चामरोत्तमप्रशस्त द्वात्रिंशल्लक्षणधराः हंससदृशगतया कोपिला धुरगीः मुस्वरा: कान्ताः सर्वस्यानुनता व्यपगतवलिपलिताः व्यङ्गदुर्वणव्याधि दौर्भाग्यशोकमुक्ताः उच्चत्वेन च नराणां स्तोकेनोच्छ्रिताः समावशृङ्गारागारचारुवेपार, संगतगतइमित-मणितचेष्टित विलाससंकापनिपुणयुक्तोपचारकुशलाः सुन्दरस्तन जघन Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३८ एकोरुक० मनुजीनामाकारादिका ५९.७ वदनकरचरणनयनमालाः वर्णलावण्ययौवनविलासकलिताः नन्दनवनस्विर चारिण्य इव अप्सरसः, आश्चर्थप्रेक्षणीयाः प्रासादीयाः दर्शनीयाः अमिरूपाः प्रतिरूपाः । तासां खल भदन्त ! मनुजीनां कियति काले आहारार्थे समुत्पद्य ? चतुर्थभक्तस्याहारार्थः समुत्पद्यते ॥सू०३८.। ____टीका-अथ युगलधर्म समानेऽपि माभूत् पङ्क्तिभेद इति युग्मिनी स्वरूपं प्रश्नयन्नाह-'एगोरुय मणुईणं' इत्यादि । 'एमोरुय मणुईणं भंते' एक रुकमनुजीनां भदन्त ! 'केरिसए आगारभावपडोयारे पन्नत्ते' कीदृशः-कि.माकारव: आकार भावप्रत्यवतारः स्वरूपं प्रज्ञप्तः कथित इति प्रश्न:, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि 'गोयमा !' हे गौतम ! 'ताओ णं अणुई शो' ताः खल मनुजयः 'सुजाय सन्मंग सुंदरीओ' सुजात सर्वाङ्गसुन्दय्य:, सुजातानि यथोक्तप्रमाणोपेतया शामनजन्मानि सर्वाणि अङ्गानि-शिरः प्रभृतीनि यासां ताः, अतएव सुन्दर्य:-सुदराकाराः। 'पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता' प्रधानमहिलागुणयुक्ताः-प्रधानाः ये हिलागुणा:पियंवदत्व भचिन्तानुवर्तकस्वादयस्तैर्युक्ता इति । 'अच्चंत विसप्पम ण एउम सुकुमाल कुम्मसंठियविमिचल गाओ' अत्यन्त विसमृदु सुकुमार मसंस्थित 'एगोरुपमणुई णं भंते ! केरिसए आगारभाव पडोधारे पानत्ते' इत्यादि ॥सूत्र-३८॥ टीकार्थ-हे भदन्त ! इन एकोहक द्वीप की मनुष्य स्त्रियों का रूप आदि कैसा कहा गया है ? उत्तर में प्रभुश्री गौतम स्वामी को कहते हैं-'गोयमा! ताओणं मणुई ओ सुजायसव्वंगसुंदरीओ पहाण महिलागुणेहिं जुत्ता अच्चंत विसपमाण पउम लुकुमाल कुंम संठित विसिट चलणा उज्जुमिउय पीवर निरंतर पुल साहितंगुलीया' हे गौतम्ब ! एकोरुक द्वीप की मनुष्य स्त्रियां यथोक्त प्रमाण में उत्पन्न हुए समस्त अंगों से विशिष्ट होने के कारण बड़ो सुन्दर होती है। प्रधान महिला गुणों से-वे प्रियंवदत्व भतीचित्तानुश्तैकत्व-प्रिय बोलनेवाली पति के विचारो को मानने वाली आदि गुणों से युक्त होती हैं। उनके दोनो पैर 'एगोरुय मणुईणं केरिसए आगारभावपडोयारे पन्नत्ते' त्याह ટીકાર્થ–હે ભગવન! એ એકરૂક દ્વીપની મનુષ્ય સ્ત્રિનુ રૂપ વિગેરે કેવું કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोयमा ! ताओणं मणुईओ सुजायसग सुदरीओ पहाणमहिला गुणेहिं जुता अच्चंत विसप्पमाण पउम सुकुमाल कुंभ संठितविसिद्धचलणा, उज्जुमिउय पीवर. निरंतरपुट्टसाहित गुलीया' 3 गौतम ! मे४।३४ द्वीपनी मनुष्य किया ચોક્ત પ્રમાણથી ઉત્પન્ન થયેલા સઘળા અંગોથી વિશિષ્ટ હેવ ના કારણે ઘણી જ સુંદર હોય છે. પ્રધાન મહિલા ગુણોથી એટલે કે તેઓ પ્રિય બલવા Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ जीवामिगमले विशिष्ट चरणाः, अत्यन्तं विसर्पन्तो चलन्तावपि मृदूनां मध्ये मृकुमारी-मनोजौकूर्मवत् कर्म पृष्टबत् संस्थिती उन्नतत्वेन कच्छपपृष्ठ संस्थानसंस्थिती विशिष्टौ चरणों यासां तास्तथा, 'उज्जुमिउय पीवर निरंतरपुढसाहियंगुलीया' ऋजुमृदुकपीवर निरन्तर पुष्टसंहता अंगुलयः, ऋज्व्यः सरला न तु पक्राः मृदुकाः कोमला: पोवरा:-उपचिताः निरन्तराः-परस्परान्तररहिताः पुष्टा:-मांसलाः संहताश्च मुश्लिष्टा अंगुल्या-पादाङ्गुलयो यासां तास्तथा, 'उण्णयतियवलिण तंब. सुइणिद्ध नखा' उन्नतरतिद तलिन ताम्रशुचिस्निग्धनत्वाः' तत्र उन्नता:-अभ्युन्नताः रतिदाः, तलिना:-प्रतलाः, ताम्रा ईपद्रक्ताः शुचयः-पवित्राः स्निग्धाय नखा यासा तास्तथा, 'रोमरहिय वट्टलट्ठसठिय अजहण्ण पसत्थ लक्खण अकोप्प जंघजुपला' रोमरहित वृत्तलष्टसंस्थिताजघन्य प्रशस्तळक्षणा कोप्पजंघ युगलाः रोमरहितं वृत्तं वर्तुलं लष्टं संस्थितम्, तथा अजघन्यनि-उत्कृष्टानि लक्षणानि यत्र तव तथा, एताशमकोयम द्वेष्यं प्रीतिकरमित्यर्थः जङ्घा युगलं यामां तास्तथा, 'सुणिमिमय सुग्रहजाणुमंडलमुबद्धसंधी' मुनिर्मित सुगूढ जानुमण्डल सुबद्ध चलते समय पहुत सुन्दर रीति से चलते हैं पद्म के जैसे ये सुकुमार होते हैं। इनका संस्थान कूर्म कच्छप की पीठ के जैसा उन्नत होता है। इनके चरणों की अगुलियाँ ऋजु-सीधी छिद्र रहित पीवर-पुष्ट रहती हैं और संहत आसपास में एक दूसरी अंगुलि से सटी हुई रहती है। उपवायरतियतलिपातंसुणिद्धणखा' इनके नख उन्नत होते हैं रति मद होते है, तलिन-पतले होते हैं, ताम्र-ईषद्रक्त होते हैं शुचि-पवित्र साफ होते हैं और स्निग्ध होते हैं । 'रोम रहिय वट्ट लट्ठ संठिय अज. पण पसत्थलक्खण अकोप्प जंघजुयला' इनका जंघा युगल रोम रहित गोल, सुन्दर होता है और उत्कृष्ट लक्षणों वाला होता है तथा-अद्वेष्य વાળી, પતિના વિચારોને અનુસરનારી વિગેરે ગુણવાળી હોય છે. તેમના બેઉ. પગ ચાલતી વખતે ઘણુજ સુંદર રીતે ચાલે છે પદ્મના જેવા તે સુકુમાર હોય છે તેનું સંસ્થાના કાચબાના વાંસાની જેમ ઉન્નત હોય છે. તેમના પગની આંગળી બાજુ સીધી છિદ્રવિનાની પીવર પુષ્ટ હોય છે. અને પરસ્પર सात तास मी भांजीयान भजीन २७ छ. 'उन्नयरतिय तलिण तवसुइणिद्धणेखा' तसाना ना मन्नत डाय छे. मान प्राय छे. તલિન કહેતાં પાતળા હોય છે. તામ્ર ઈષદ્રકત હોય છે. શુચિ પવિત્ર હોય છે. मन स्निग्ध डाय छे. 'रोमरहिय वट्टल्दुसठिय अजहण्ण पसस्थलक्खग अकोप्प जयजयलो' भनी धा युगल भिविनानु गाण सु४२ हाय छ. म कृष्ट क्षये! पाणु हाय छे. तया स्मद्वेश्य सु२ ताणे ते डायटे. 'सुणिम्मिय Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिकारीका प्र.३ उ.३ सू.३८ एकोलक मनुजीनामाकारादिक ५५० संघया, तत्र-सु-मुठु अतिशयेन निर्मिते-रचिते सुगढे-मसलतयाऽनुएलक्ष्ये ये जानुमण्डले ताभ्यां मुबद्ध दृढस्नायुक्त्वादश्लथः संधि-जानुपधिभागो यामा तास्तथा, 'कलिक्खंभातिरेग संठिय णिवण सृकुमाल मउय कोमन्छ अविरल समसंहित सुजात वट्टपीवर जिरंतरोरू' कदलीस्तम्मातिरेक संस्थित निगसुकुमार मृदुककोमलाविरलसमसंहत सुजातवृत्तपीचरनिरन्तरोरवः तत्र कदलीस्तम्भाभ्यामतिरेकेण अतिशायितया कदलीस्तस्यसंस्थानापेक्षयाप्यतिशयेन सौन्दर्ययुक्त संस्थितं ययोस्ती निर्बणी-विस्फोटकादिक्षतवनिती अतएन सुकुपारी चिकणौ मृदुकौ-मादेवगुणसंपन्नौ, अतएव कोमली-वहिर्भागापेक्षय पेशको अविरलौ-परस्परासन्नौ समौ प्रमाणतस्तुल्यो सन्तौ संहती-समश्रेणिस्थिती सुजातीमुनिष्पन्नौ-जन्मजातदोषजितौ वृत्तौ-वर्तुलौ पीवरी पुष्टौ निरन्तरों परस्परनिर्षिशेषौ-ऊरू यास तास्तथा, 'अट्टाक्यवीची पदृसंठिय-पसत्य विस्थिन्न पिहसुन्दर लगने वाला होता है 'सुणिम्पिथ गृहजाणु मंडल सुबद्ध संधी' इनकी संधि सुनिर्मित एवं लुगूढ-अनुपलक्ष्य उपर से नहीं दीखने वाले जानु मण्डल से सुषद्ध होती है-दृढस्नायु युक्त होने से अशिथिल शेती है 'कलिक्खंभातिरेक संठिय निधण सुकुमालयउय कोमल अविरल समसहित सुजात वह पीचर णिरंतरोइन के दोनों उरूसदली स्तम्भ के जैसे आकार वाले होते हैं, रिव्रण-विस्फोटक-फोडे आदि से रहित होते हैं सुकुमार सुहाले होते हैं, मृदु होते हैं कोमल होते हैं अविरल होते हैं-परस्पर निकट-पास पाल में होते है सम होते हैं-प्रमाण में बराबर होते हैं सहित होते हैं-जुटे हुए होते है सुजान-सुनिष्पन्नवृत्त गोल आकार के होते हैं पीवर-पुष्ट होते है और आपल में निः शेष-समान-एक से-होते हैं । 'अट्टाययवीची चट्ट रंठिय पथ चिन्थि गृहजाणुमदल सुबद्धसंधी' तमानी सधी सुनिमित मन सुट सट थी ન દેખાય તેવા જાનુ મંડલથી સુબદ્ધ હોય છે. દઢ સ્નાયુ ચુકત હોવાથી શિથિલ हाय छे. 'कयलिाख भातिरेक संठियनिव्वण सुकुमालमउय कोसल रिल समसहितसुजातवट्टपीवरणिरतरोरू' तयाना भन्ने ७३ (घ) ना સ્તંભના જેવા આકારવાળા સુંદર હોય છે, નિર્વાણ વિરાટક એટલે કે ફલા વિગેરે વિનાના હોય છે. સુકુમાર અને શોભાયમાન હોય છે મૃદુ કેમળ હોય છે. અવિરલ હોય છે પરસ્પર એક બીજાની નજીક નજીક હોય છે. સમ કહેતાં સરખા હોય છે. પ્રમાણસરના હોય છે. સહિત હોય છે. એક બીજાને લાગે છે. સુજાત અને સુપિન્ન હોય છે વ્રત્ત નામગોળ આકારના ડેય છે, પીવર પુષ્ટ હોય છે. અને આપસમાં નિવિશેષ સરખા એક જેવાજ Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०० जीवामिगमस्त्र लसोणी' अष्टापदधीचि पट्टसंस्थित प्रशस्त-विस्तीर्ण पृथुलश्रोणया, वीचिविगत घुणाधक्षत एवं विधो योऽष्टापदपट्टा धूत फलकपट्टः तद्वत् संस्थिता तत्सदृश संस्थानवती प्रशस्ता सुन्दरा विस्तीर्ण पूर्वापरमागविस्तारयुक्ता पृथुला-स्थलाश्रोणिः-कटेरनमामो यास तास्तथा 'वदणायामप्पमाणदुगुणित विसारमंसल मुबद्ध जहणबरधारणीओ' वदनायाममयाण द्विगुणिन विशालमंसल सुवद. जघनवरधारिण्यः, तत्र वदनायामप्रमाणस्य-मुखदैर्य द्वादशाङ्गुलप्रमाणं तस्माद द्विगुणितं द्विगुणं-चतु विशत्यङ्गुलं विशालं घिरतीर्ण मांसलं पुष्टं सुबद्धम् अतीव सुबद्धावयव न तु एतादृशं जघनवरं-वरजघनद्वयं धारयन्ति एवं शीला यास्तास्तथा, 'वज्जविराय पसत्थलवखण गिरोदरातिवलिवलिय तणु णमिय मज्झि गयो' बन्न विराजिन प्रशस्तलक्षण-निरुदरा त्रिवळिचालितनुनमितमध्यिकाः न पिद्दल लोणी' इमकी श्रोणि-कमर के पीछे का भाग धुण आदि से अक्षत जो अष्टापद- धूल फलफ उसके पृष्ठ के आकार जैसी होती है प्रशस्त होती है विस्तीर्ण होती है और लम्बी होती है-तथा-मोटी होती है 'पदणायामप्पमाण दुगुणित विसाल मंसल सुपद्ध जहणवर धारणीओ' बारह अंगुल मुख प्रमाण से द्विगुणित-चौबीस अंगुल प्रमाण हुनका जघन प्रदेश होता है और यह विशाल, मांसल एवं सुबद्ध होता है स्नायुयों से अच्छी तरह जकड़ा हुआ रहता है 'वज विराइय पसत्वलस्वणिरोदरा' ये अल्पोदर वाली याचिकृत उदर से हीन शेती हैं, उनका यह उदर क्षाम होने ले कृश-होने से बज्र की तरह सुशोभित होना है तथा सामुद्रिक शास्त्रोक्त प्रशस्त लक्षणों से युक्त होता है 'लिवलो बलियतणुणमिय मज्झितो उजुप सम सहित डाय छे. 'अट्टावयवीची पट्ट सठिय पनत्थ वित्थिन्न पिहुलसेणी' तयानी श्रेणी એલેકે કેડની પાછળ ધુ વિગેરેના ક્ષત વિનાની જે અષ્ટાપદ ઘન ફલકના પૃષ્ઠના આકાર જેવી હોય છે. પ્રશસ્ત હોય છે. વિસ્તીર્ણ હેય છે અને समी हाय छे तथा भाटी डाय छे. 'वद गायामप्पमाणदुगुणित विसाल मसल सुबद्ध महणवर धारणीओ' मा२ मin भुप प्रमाणुथी नभए। २.वीस આગળ પ્રમાણને તેઓને જઘન પ્રદેશ હોય છે. તે સ્નાયુઓથી સારી રીતે ४४.2 २९ छे. 'वज्जविराइयप सत्थ लक्खणणिरोदरा' त म વાળી અને વિકૃત ઉદરથી રહિત હોય છે તેઓનું આ ઉદર ક્ષામ હોવાથી કૃશ હોવાથી વજીની જેમ સુશોભિત હોય છે, તથા સામુદ્રિક शात प्रशस्तरक्षाथी युति य छे. तिवलिबलियतणुण मगमझियातोज उज्जुयसमसहित जच्च तणुकसिणणिद्ध आदेजलउड् सुविभत्त सुजाय Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतका टीका प्र.३ ३.३ ३.३८ एकोरुक0 मनुजीवानामाकारादिकम् ६०१ तत्र वाद्विराजितं क्षमात्वेन तथा प्रशस्त लक्षणं सामुद्रिकशास्रोक्त प्रशस्त गुणोपेतं-निरुदरं-कृशोदरं यासा तास्तथा, यथा त्रिलि वलितम्-वलिर्नामनाभेरुपरि उदरगता रेखा, तिसृणां वलीनां समाहारः त्रिवलि उदरगतरेखात्रयं, तेन बलितम्-ईपद्वक्रीभूतं तनुनमितम् ईपन्नम्रोभूतं मध्यं शरीरमध्यभागो यासां तास्तथा, 'उज्जुयसमसंहितजच्च तणुकसिणणिद्ध आदेज लडह मुविभत्त सुजातकंत सोभतरुइल रमणिज्जरोमराई ऋजुक समसहितजात्य तनुकृष्ण स्निग्धादेय. कलित मुविभक्त सुजातकान्त शोभमानरुचिररमणीयरोमराजयः, तत्र-जुकानां समानां-तुल्यानाम्, संहितानां-सन्तताम् न तु अपान्तराल व्यवच्छिन्नानाम् जन्मयातानाम्, तनूनां सूक्ष्माणाम्, कृष्णानां भ्रमरावत् कृष्णवर्णानां स्निग्धानां-सतेजस्कानां न तु रुक्षाणां आदेयानां दृष्टिग्राह्याणां 'लडाइ' ति ललितानां सुविभक्तानां सुष्टु विभाग प्राप्तानां परस्पराऽश्लिष्टानां सुजातानां सुष्टुतया समुद्गतानाम् कान्तानां-कमनीयानाम् अतएव शोभमानानां-शोभासंपन्नानां, रुचिराणां-कान्तियुक्तानां, रमणीयाना-पृष्टजन मनोहारकाणां रोम्णां तनूरुहाणां राजिः-पङ्क्तिांसां तास्तथोक्ताः 'गंगावत्त पयाहिणावत तरंग भंगुररविकिरणजच्च तणुकसिणणिद्ध आदेज लड़ह सुविभत्त सुजोतकंत सोभंत रुहल रमणिज्ज रोमराई' इनके शरीर का मध्य भाग त्रिवली तीन रेखाओं से वलिन-मुडा हुआ होता है. पतला-कृश-होता है, नमित होता है-ईषत् नम्र होता है, इनकी रोमराजि सरल होती है समबराबर होती है. सघन होती है, बीच २ में छूटी हुई नहीं होती है कृत्रिम नहीं होती है-स्वाभाविक होती है पतली होती है, काली होती है, स्निग्ध होती है, आदेय-सुहावनी होती है ललित-सुन्द्र-होती है, सुविभक्त-अलग-अलग होती है, सुजात-जन्म दोष रहित होती है कान्त मन को हरने वाली होती है शोभा युक्त होती हैं, रुचिर होती है और रमणीय होती है। 'गंगावत्तपत्राहिणावत्त रंग भंगुर रवि कंत सोभतरुपलरमणिज्जरोमराई तमना शरीरको मध्यमा मासाथी વળેલા હોય છે. પાતળો અથત કંઈક કૃશ હોવાને લીધે નમેલ હોય છે. ઈષત્ નમેલે હોય છે. તેઓની રેમ પંકિત સરલ હોય છે સમ બરાબર સરખી હોય છે. સઘન ગાઢ હોય છે. વચમાં વચમાં છૂટેલી હેતી નથી. કૃત્રિમ હોતી નથી, સ્વાભાવિક હોય છે પાતળી હોય છે, કાળી હોય છે સ્નિગ્ધ હોય છે. આ દેવ કહેતાં સોહામણી હોય છે. લલિત એટલે કે સુંદર હોય છે. સુવિભકત અલગ અલગ હોય છે. સુજાત જન્મદેષ વિનાની હોય છે. કાંત મનને હરણ કરવાવાળી હોય છે, શોભાયમાન હોય છે. અને રમણીય मो० ७६ Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम तरुणबोहिए आकोसायंत पउम गंभीर वियडणाभी' गङ्गावर्त प्रदक्षिणावर्ततरङ्गमगुररविकिरणतरुणयोधिताकोशायमानपझगम्भीरविकटनामयः, तत्र-गङ्गायाः आवतों विभ्रमः स इव दक्षिणावर्ताः न तु वामावतीः तरङ्गा इव तरङ्गास्तिस्रो वलयस्तभिभारा विच्छित्तियुक्ताः रविकिरणैस्तरुणैः योधित-विकासीकृतं सत् अकोशायमानं-विकची भवत् पद्म-कमलं तद्वद् गम्भीरा-गर्तबदुद्वेधयुक्ता विक्टा-विशाला च नाभिर्यासां तास्तथा, 'अणु० मड पसत्थपीण कुच्छी' अनुटपशस्तपीन कुक्षयः अनुद्भटो-अनुवौँ प्रशस्ती पीनौ कुक्षी यातां तास्तथा, 'सगपपासा' सन्नत. पाश्वाः 'संभयपासा' सङ्गतपाः 'सुजायपासा' सुजातपावाः, एतानि पदानि पूर्वव्याख्यात मनुजतिबद् व्याख्येयानि, 'मियमाइयपीण रइयपासा' मितमात्रिक पीनरतिदपाश्वाः, तत्र मिते-परमिते मात्रिके-मात्रयोपेते पीने-उपचिते रतिदेभीतिकरे पात्र यासां तास्तथा 'अकरंड यरूणगरुयग निम्मल सुजाय णिरुवाय. गायलट्ठी' अकरण्डककनकरुचक निर्मल-सुजात निरुपहतगात्रयष्टयः, तत्र अविद्यमान किरण तरुणवोहिय अशोसायंत पदण गंभीरविथडणाभी' गंगा की भौर के समान प्रदक्षिणावर्त वाली, त्रिवलि से भुग्न तथा मध्याह के रवि किरणों से विकसित हुए कमल के जैसी गंभीर एवं विशाल इनकी नाभि होती है 'अणुम्भडपसत्थ पीण कुच्छी' अतुल्वण-उग्रता रहित प्रशस्त, और पीन इनकी कुक्षि-उदर भाग होती है. 'सण्णयपासा' इनके दोनों पार्श्व भाग कुछ कुछ झुके हुए होते हैं । 'संगपपासा' अतएव वे संगत पार्श्व वाली और 'सुजायपासा' सुजात पार्च वाली होती है । इन पदों का विस्तृत अर्थ पहले आचुका है. 'मियमा इयपीण रइयपासा' इनके दोनों पाच मित-परिमित, अपने-अपने प्रमाण युक्त, पुष्ट और रतिप्रद-आनन्दवर्धक-होते हैं । 'अकरंडुयकणग य छे. 'गंगावत्तपयाहिणावत्त तरंग भगुर रवि किरण तरुण वण्णेहिय अकोसायं तपउमवणगभीर वियडणाभी' गानी सम२-भजन २१ प्रहाक्षया વર્તવાળી ત્રિવલીથી યુકત તથા મધ્યાહનના સૂર્યના કિરણેથી વિકસિત થયેલા भजना ननावी गली२ मते विशाल तेसानी नानी हाय छे. 'अणुभ इपसत्थ पीण कुच्छी' अनुमा यता विनानी प्रशस्त मन पान तयानी क्षी ४di S२ रु.य छ 'सण्णयपामा' तसाना भन्न पावलागी ४ ४ असा सराय छे. 'संगयपासा' मगेस पाश्ववाणी सोय छे. 'सुजातपासा' सुलताव पाणी डाय छे. २मा ५होना विरार पूर्व ने सथ ५i मावी गयेस छे. 'मियमा इय पीणरइयपासा' तयाना व ५७ भित परिभित पात बताना प्रमाणुथा युत पुष्ट भने मान भावावा डाय छे. 'अकरडुय कणगल्या Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ रु.३८ एकोरुक० मनुजीवानामाकारादिकम् ६०३ मांसलत्वेन अनुपलक्ष्यमाणं करण्डक-पृष्ठवंशास्थिकं कनकस्येव रुचकोरुचिर्यस्या:सा निर्मला-स्वाभाविकागन्तुकमलरहिता सुजाता जन्मदोषरहिता निरुपहताज्वरादिदंशादि दोषोपद्रवरहिता एवं भूता गात्र यष्टिविधते यासा तास्तथा, 'कंचण कलससमप्पमाण समसंहय सुनाय-लठ्ठचूचुय आमेल गजमलजुयल चट्टिय अन्भुण्णयरहयसंठिय-पयोधराओ' काश्चनकलशसमममाणसमसंहत सुजातलष्ट-चुचुकामेलकयमलयुगलचतिताभ्युम्नतरतिदसंस्थितपयोधराः तत्र काश्नकलशसम प्रमाण ययोस्तौ तथा समौ-परस्परतुल्यौ संहतौ परस्परमत्यन्तश्लिष्टौ अनयोरन्तराले मृणालसूत्रमविभवेशं न लभते एतादृशी सुनाती-जन्मदोपरहिती लष्टचूचु कामेळको-मनोरुयग निम्मल सुजाय णिरुक्ह्यगाय लट्ठी' इनका शरीर इतना अधिक मांसल पुष्ट होता है कि उसमें पललियां और पीठ की हड्डी दिखाई नहीं पड़ती है तथा यह उनका शरीर ऐली कान्ति वाला होता है कि जैसी कान्ति बाला सुवर्ण होता है आगन्तुक और स्थालाविक किसी भी प्रकार का मैल उनके शरीर पर उत्पन्न नहीं होता है जन्म के दोषों से विहीन होता है एवं ज्वर आदि रोगो के उपद्रवों से यह बिलकुल रहित होता है 'कंचणकलन समप्पमाण लष संहय सुजात लहचूचुय आमेलग जमल जुगल वट्टिय अभुण्णय रहिय संठिय पयोधराओ' इनके दोनों स्तन कंचन के कलश जैसे गोलमटोल होते है, अथधा कंचन के कलश जैसे मोटे प्रमाण में होते हैं या उनके जैसे बड़े होते हैं इनमें एक बडा हो एक स्तन छोटा हो ऐसे ये नहीं होते हैं किन्तु प्रमाण में दोनों परापर होते हैं ये इतने विशाल एवं मोटे होते हैं कि आपस में दोनों ऐसे सटे हुए होते है कि इनके बीच में से होकर मृणाल तन्तु-कमल निम्मल सुजाय णिरुवहयगायलवी' सानु शरीर मेटयु मधुमास पुष्ट छाय છે કે જેથી તેમની પાંસળી અને વાંસાના હાડકા દેખાતા નથી. તથા તેઓના શરીરે એવી કાંતીવાળા હોય છે કે આગંતુક અને સ્વાભાવિક કઈ પણ પ્રકારને મેલ તેઓના શરીર પર ઉત્પન્ન થતો નથી. જન્મના દેથી રહિત હોય છે. અને જવર વિગેરે જેગોના ઉપદ્ર વિનાની હોય છે. 'कंचणकलस समप्पमाण समसंहय सुजात लटु चूचुय आमेलग जमल जुगलवट्टिय अण्णयरतिय संठियपये धराओ' तमना भन्ने २तना सानानां ५५ २१ ગળ મટેળ હોય છે, અથવા કંચનના ઘડાને જેવા મેટા હોય છે. અથવા સુવર્ણના જેવા તેજસ્વી અને અત્યંત આકર્ષક હોય છે. એક સ્તન માટે હોય અને એક નાનું હોય તેવા એ હતા નથી, પરંતુ તે અને પ્રમાણમાં બબર હોય છે. એ એટલા વિશાળ અને મોટા હોય Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम ज्ञस्तनमुखशेखरौ यमौ - समश्रेणिको युगों-युगलरूपी वर्त्तितौ-वर्तिकाविवर्त्तितो कठिन इत्यर्थः अभ्युम्नत्तौ-उपस्थित रतिसंस्थितौ रतिदा प्रीतिदा संस्थितिः संस्थानम् आकार - विन्यासो ययोस्तौ रतिदसंस्थितौ एतादृशौ पयोधरौ कुचौ यासां तास्तथा 'भुगणुपुञ्चतणुयगोपुच्छ वट्टसंहियसम आएग्ज कलिय वाहाओ' भुजङ्गानुपूर्व्यतनुक गोपुच्छवृत्तसमसंहितनता देयकळित वाहवः, तत्र भुजद्गगरीवत् आनुपूर्व्येण क्रमेण अधोऽधो भागे इत्यर्थः तनुकौ अतएव गोपुच्छवद् वृक्षौ समौ परस्पर तुल्यौ संहिती रवशरीरसंश्लिष्टो नवौ स्कन्धदेशस्य नतत्वात् नम्रौ - नाल का सूत्र भी नही निकल सकता है ये सुजात दोष से रहित होते हैं इन स्तनों के अग्रभाग में जो चुचुक होते हैं - वे उनसे अलग ही पड़ते हैं सो ऐसा प्रतीत होता है कि मानों इनके उपर शेखर मुकुटही रखने में आया हो वे स्तन आगे पीछे उत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु एक साथ उत्पन्न होते हैं और एक ही साथ वृद्धिंगत होते हैं वक्ष स्थल पर ये विषय श्रेणि में स्थित नही है किन्तु समश्रेणि में स्थित है आमने सामने ये एक दूसरे के समान उन्नत अवस्था वाले ऊंचे उठे हुए होते हैं इनका संस्थान आकार अत्यन्त सुन्दर प्रीतिकर होता है. 'भुयंगणुपुत्रतणुय गोपुच्छ वह सम सहिय णमिय आएज्जललिय बाहाओ' इनके दोनों बाहु भुजंग की तरह क्रमशः नीचे की ओर पतले होते हैं गोपुच्छ की तरह वे वृत्त गोल होते हैं आपस में वे समानता लिये हुए होते हैं संहत- अपनीर, संधियों से वे सटे हुए रहते हैं, ६०४ છે કે પરસ્પરના બને એવા લાગતા હાય છે કે તે બન્નેની વચમાથી મૃણાલતંતુ અર્થાત્ કમલ નાલના તાંતણેા પણ નીકળી શકતે નથી, તેઓ સુજાત અર્થાત્ જન્મ દોષથી રહિત હૈાય છે. આ સ્તનેાના અગ્રભાગમા જે ચુચુક (ટ્વીટી) હાય છે તે તેનાથી જુદીજ જણાઇ આવે છે. તે એવી જણાય છે કે માના આ સ્તનપર શેખર અર્થાત્ મુગુટ જ રાખવામાં આવેલ હાંય છે. આ સ્તને આગળ પાછળ ઉત્પન્ન થતા નથી પણ એક સાથેજ ઉત્પન્ન થાય છે. અને એકીસાથે જ વધતા રહે છે. વક્ષસ્થળ છાતી પર તે વિષમશ્રેણીથી રહેતા નથી. પરંતુ સમશ્રેણીમાંજ રહેલા ઢાય છે. સામસામા તે એક ખીજાના સરખી ઉન્નતાવસ્થાવાળા અને ઉંચે ઉઠેલા હાય છે. તેઓનુ` સસ્થાન આકાર અત્યંત સુંદર અને પ્રીતીજનક होय हे 'भुयं गणुपुव्वतणुय गोपुच्छ्वट्टसम सहियणमिय आएज्जब लियवाहाओ' તેઓના અને માહુએ ભુજ`ગની જેમ ક્રમશઃ નીચેની તરફ પાતળા હોય છે. ગાયના પુડાની જેમ વૃત્ત ગેાળ હાય છે. તેએ પરસ્પરમાં સમાનતાવાળા હાય છે. સહુત-પાત પેાતાની સ ધીયેથી તેએ મળેલા રહે છે. નત-નમ્ર એટલે કે Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ स.३८ एकोरुक मनुजीयानामाकारादिक र ६०५ आदेयौ-अतिसुन्दरौ ललितौ-मनोज्ञचेष्टा कळितौ वाहू यासां तास्तथा 'तवणहा' ताम्रनखाः, ईपद्रक्तनखाः 'मंसलमहत्था' मोपलाग्रहस्ताः-परिपुष्ट कराग्रभागा 'पीवरकोमलवरंगुलीओ' पीवरकोमलरालिकाः, पीवरा:-स्थूलाः कोमलावरा:-प्रमाणलक्षणोपेतस्वेन श्रेष्ठा अंगुलयो विद्यन्ते यासा तास्तथा, 'णिद्ध पाणिलेहा' स्निग्धपाणिरेखाः 'रविससि संखचकसोस्थिय मुविभत्त सुविरतिय पाणि खेहा' रविशशिशङ्खचक्र स्वस्तिक सुविभक्त मुविरचित पाणिरेखाः, तत्र रविशशि शङ्खचक्र स्वस्तिका एव सुविभक्ताः-सुपटाः- सुविरचिताः स्पष्टतया दृष्यमानाः एतादृश्यः पाणिरेखाः यासां तास्तथा, 'पीणुण्णयकक्ख वस्थिदेसा' पीनोन्नत. कक्षनस्तिदेशाः, पीना उपचिता उन्नता अभ्युन्नताः कक्षवरितदेशा कक्षयोः-हस्तमूलाधोभागयोः, बस्तेः-नाभेरधोभागस्य च देशो यासां तास्तथा, 'पडिपुण्णगल्लकवोला' परिपूर्णगल्लकपोलाः, परिपूर्णों मांसलत्वेन स्थूलो गल्लौ गण्डदेशी च यांसां तास्तथा, 'चउरंगुल सुप्पमाण कंवर सरीसगीवा' चतुर हगुल सुपमाण कम्बुवर सदृशग्रीवाः चतुरगुलं-चतुरङ्गुळपाभितं सु-सुष्टु शोभनं माणं यस्याः सा तथा कम्वुवरेण प्रधानशङ्खन सहशो छन्नतया बलिययोगेन च प्रधानशङ्ख. तुल्या ग्रीवा यासां तास्तथा, 'मंसलसंठिय पसस्थहणुया' मांसलसंस्थित प्रशस्तहनुका:-मांसलं पुष्टं संस्थित शुभाकारं प्रशस्तं च इनुकं चिबुकं यासां तास्तथा नत-नम्र झुके हुए होते हैं आदेय अति सुन्दर होने से उपादेय होते हैं और ललित मनोज्ञ चेष्टा से युक्त होते है । 'तंष्णहा' इनके नख ताम्र होते हैं-कुछ२, ललाई लिये हुए होते हैं 'मंसलग्ग हत्था' इनका पंजा मांसल-पुष्ट होता है 'पीरकोमलवरंगुलीओ' इनकी अंगुलियां पीवर-विशेष-मजबूत होती है कोमल होती है एवं उत्तम होती है. 'णिद्धपाणिलेहा' इनके हथेलियों में जो रेखाएं होती हैं -वे स्निग्ध होती हैं 'रवि ससि संखचक्क सोस्थिय सुधिभत्त सुविरस्य पाणिलेहा' इनकी हथेली मांसल-पुष्ट-होती है सुन्दर आकार की होती है और हथेली में નમેલા હોય છે. આદેય અર્થત અત્યંત સુંદર હોવાથી ઉપાદેય અથત મનને शुभ तक डाय छे. मन मलित तो भनाज्ञ येटर प. य छे. 'तंब. णहा' तयाना नमो ताने मारा होय छ, अर्थात् ४४ ७४ हातिमा प. डाय है. 'पीवरकोमलवर'गुलीओ' तमानी मागणीसा पा२ विशेष भराभूत डाय छे. मस डाय छे. भर उत्तम होय छे. “ णिपाणिलेहा' भनी यति ચમાં જે રેખાઓ હોય છે, તે નિષ્પ સુંવાળી હોય છે. સુંદર આકારવાળી खाय छे. सन प्रशसा ४२१॥ येय डाय छे. 'रविससिसंखचक्करोत्थिय सुविरदय पाणीलेहा' तमनी हथेली मांसद पुट बोय छे. सुह२ मारनी होय हो, Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ जीवामिगमत्र 'दाडिमपुप्फप्पगासपीवरकुचियर राधरा' दाडिमपुष्पप्रकाशपीवरकुश्चितराधरा, तत्र दाडिमपुप्पवद् प्रकाशः रक्त इत्यर्थः, पीव-उपचितः, कुश्चित:-आकुश्चितो मनाग पलितो नरः प्रधानोऽधरः-अधरौप्ठो यासां तास्तथा, 'सुंदरोत्तरोहाः सुन्दरोत्तरीष्ठाः 'दधिदगरयचंद-कुंदवासंति मउल अच्छिद्द विमलदसणा' दधिदकरजश्चन्द्रकुन्द-वासन्तीमुकुलाच्छिद्र विमलदशनाः, तत्र दधि लोक प्रसिद्ध दकरजो-जलकणः, चन्द्रा शशी कुन्द-कुन्दकुसमम् वासन्तीमुकुलंवासन्तीकलिका तद्वत् शुक्लाः अच्छिद्राः-विवररहिताः विमला:-मलरहिताः दशनाः दन्ता यास तास्तथा, 'रत्तुप्पलपत्तमउय सुकुमालतालुजीहा' रक्तोत्पण पत्र मृदुल सुकुमारतालुजिहाः, तत्र रक्तोत्पलपत्रवत मृदु के सुकुमारे ताजिये सूर्य, चन्द्र, शंख, चक्र एवं स्वस्तिक की रेखा होती है ये रेखायें प्रशस्त प्रशलास्पद होती है 'पीणुण्णयणकक्खपत्धिदेसा' कुछ कुछ ऊंचा इठा हा ऐसा यक्ष प्रदेश एवं नाभी के नीचे का भाग जिनका रम. णीय है ऐसी डिपुण्ण गल्ला वोला' परिपूर्ण एवं पुष्ट जिनक कपोल (गाल) प्रदेश है ऐसी एवं 'चउरंगुल सुपमाण कंधुवर सरीसगीवा' इनकी ग्रीन पूर्ण मांसल-पुष्ट चार आंगुल प्रमाण शंख के जैसी तीन रेखा युक्त होती है 'मंसल संध्य पसत्य हणुपा' टोडो-होठ के नीचे का भाग मांसल-पुष्ट होता है सुन्दर आकार वाली होता है. और प्रशस्त होता है. 'दाडिमपुप्फप्पगास पीवर कुंचियपराधरा' इनके अधरोष्ठ दाडिम-अनार के-पुष्प जैसे प्रकाशवाले सुहावने होते हैं अर्थात् लाल और चमकदार होते हैं, पीवर-पुष्ट होते हैं एवं आकश्चित कुछ२, वलित होते हैं अत एव वे देखने में बड़े अच्छे અને તે હથેલીની અદર સૂર્ય ચદ્ર, શંખ, ચક, અને સ્વસ્તિકની રેખાઓ डाय छे. ते २॥सा प्रशसार५४ होय छे. 'पोषुण्णयणकक्खवत्थिदेसा' તેઓના કાખને ભાગ કંઈક ઉચે ઉપડેલ હેય છે. તેમજ ડુંટીની નીચે मा सेसने सु२ हाय छ 'पडिपुण्ण गल्लकवोला' भनी ४पास प्रदेश अर्थात् गासन मा परिपूर्ण मने युष्ट हाय छे. 'चउरगुल सुप्पमाण कवु घरसरिसगीवा' तमना गाना मा मांसस पुष्ट य.२ मजिसमा तथा प्रधान शना मा२ २३ र २४ा युक्त डाय छे. 'मसल संठिय परत्य ggવા તેમની દાઢી (હેઠની નીચેનો ભાગ) માંસલ અને પુષ્ટ તેમજ સુંદર मारने डाय छ भने प्रशसार५४ डाय छे. 'दाडीमपुप्फ पगाच पीवर कुंचिथवरा પ’ તેઓના અધરેષ્ઠ દાડમના પુપની જેવા પ્રકાશવાળા અને સેહામણા હોય છે. અર્થાત્ લાલ અને ચમકદાર હોય છે. પીવર કહેતાં પુષ્ટ હોય છે, Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , shrutani टीका प्र. ३ उ. ३.३८ एकोरुक मनुजीवानामाकारादिकम् ६०७ यासां तास्तथा, 'कणवीरउल अकुडिल अम्भुम्गतउज्जुतुंग णासा' करवीरमुकुला - कुटिलाभ्युद्भत ऋजुतुङ्गनासाः, तत्र - करवीरयुकुलं- कर्णिकार कलिका तद्वत् अकुटिला अवका अभ्युद्रता उपर्युत्थिता ऋज्वी सरका सती तुङ्गा- तीक्ष्णा एवंविधा नासा यासां तास्तथा, 'सारदणवकमल कुमुदकुवलय चिमुकदलणिगर सरिसवखण अंकियकंतणयणा' शारदनवकमल कुमुदकुवलय विभुक्तदल निकर सहय लक्षणाविकान्तनयनाः तत्र - शरदि भवं शारदं नवं नवीनं कमळ सूर्यविकासि कुमुदे चन्द्रविकासि कुवलयं नीलोत्पलं एतेषां यो विमुक्तः पृथग्भूतो दलनिकरः पत्र समुदाय स्तत्सदृशे लक्षणाङ्कित आयतदीर्घ-शुषलक्षणयुक्ते अतएव कान्से मनोज्ञे नयने-नेत्रे यासां तास्तथा, 'पत्तलचवलायय तंबलोयणाओ' पत्रलचपलायमान ताम्रलोचनाः पत्रले - पक्ष्मले चपलायमाने चापल्ययुक्ते ताम्रे ईपत्र क्ले दिखाई देते हैं । 'सुंदरोत्तरोट्ठा' ऊपर का शेठ भी इनका बड़ा सुहा वना होता 'दधिदगर चंद कुंदवासंति मउल अच्छिद विमतदसणा' इनके दाँत दधिके जैसे शुभ्र होते हैं, पानी के कण जैसे निर्मल होते हैं चन्द्र के जैसे अकलङ्क होते हैं कुन्द पुष्प के जैसे सफेद होते हैं, वासन्ती कली की तरह शुभ्र होते हैं बीच में इनकी पङ्कियां छेद विहीन होती हैं अतएव इनमें अत्यन्त धवलता रहती है 'पप्पलपत्त मउ सुकुमालताल जीह।' इनके तालु और जिह्ना ये दोनों रक्त कमल के पत्र की तरह लाल होते हैं, मृदु नरम होते हैं, और विशेष सुरुमार होते हैं' 'कणवीर मुउल अकुडिल अन्भुग्गगत उज्जुतुंगणासा' इनकी नासिका कनेर की कली के जैसी होती है अकुटिल - सीधी होती है sa नहीं होती है अग्रभाग में प्रमाणानुसार कुछ २, ऊंची उठी हुई અને આકુચિત કઈક કઇંક વળેલા હોય છે. તેથીજ તેએ દેખવામાં ઘણાજ सुंदर हेभाय छे. 'सुंदरोत्तरोदृ । ' तेभना उपरना पशु धन सोडामा डोय छे. 'दधिदगर चंदकुंद वासंति मरल अच्छिद विमल दसणा' तेयोना हांते। દહિના જેવા સફેદ હોય છે. પાણીના બિંદુ જેવા નિર્મળ હોય છે. ચંદ્રની જેમ નિષ્કલંક હોય છે. કુન્દ પુષ્પની જેમ સફેદ ડાય છે. વાસન્તીની કળીની જેમ ધવલ ડાય છે, તેની પ*ક્તિયે વચમાં દેદ્ર વગરની હોય છે. તેથીજ તેમાં अत्यत श्वेतयालु रहे छे. 'रतुप्पल वतमय सुकुमाल तालुजीहा' तेभना तालु અને જીભ એ એક લાલ કમળના પાનની માફક લાલ હૈાય છે. મૃદુ કહેતાં नरभ होय छे. मने विशेष सुकुमार होय छे. 'कणवीर मुउल अकुडिल अन्गाय उज्जुंगणास्रा' तेभनी नासि खुनी जीना लेवी होय छे, अञ्जुटिस ง Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ जीवामिगम च लोचने यास तास्तथा, 'आणामिय चावरुइल किण्हन्भराइसठिय संगय भायय मुजात कसिण गिद्ध ममुया' आनामित चापरुचिर कृष्णभ्रराजी संस्थित संगतायत मुजात कृष्णस्निग्धभ्रवः तत्र आनामित ईपन्नामितो यश्चापो धनुस्तद्वद् वक्रतया रुचिरे-संस्थानभाषतो रमणीये कृष्णाभ्ररानिरिवकृष्णमेघपङ्क्तिरिव संस्थिते संगते यथोक्त प्रमाणोपएन्ने आयते-दीचे मुजाते मुनिप्पन्ने कृष्णे कालिमोपेते स्निग्ये स्निग्धच्छायोपेने भ्रवों यासा तास्तथा 'अल्लीणपमाण जुत्रसवणा' पाबीनप्रमाण युक्तश्रवणाः, आलीनौ मस्तकमित्तौ किञ्चि लग्नी ममाणयुक्तों-स्वप्रमाणोपेती श्रवणौ-कर्णी यासां तास्तथा, 'पीणमट्ट रमणिज्जगंडलेहा' पीनमृष्ट रमणीयगण्ड लेखा, तत्र पीना मांसला मृष्टा चिक्कणा अतएव रमणीया गण्डलेखा-कपोळपाली यासा तास्तथोक्ताः 'चउरंस पसत्य समणिडाला' चतुरस्रप्रशस्तसमललाटाः, चतुर्यु होती है चपटी नहीं होती ऋज्वी-सरल एवं तुङ्ग तोते की चोंच जैसी तीखी होती है 'लारदणक्ष कमलकुमुदकुवलयविमुक्क दल जिगर सरिल लक्खण अंकियकंतणयणा' इनके दोनों नेत्र सूर्य विकाशी शरद काल का कमल एवं चन्द्र विकाशी कुमुद कुवलयनील कमल इन से जुदा पड़ा हुआ जो पत्र समूह होता है उसके जैसी कुछ श्वेतता कुछ लालिमा कुछ सामना लिये हुए बीच में कृष्ण पुतलियों से अडिन होने से ये बाल कान्त सुन्दर लगते हैं 'पत्तल चालायय तंव लोयणाओ' फिर उनके नेत्र पक्ष्म पुट से युक्त होते हैं स्वभावतः चपल बने रहते हैं कर्ण तक लम्बे होते हैं और फोरों पर ईषत् रक्त होते हैं 'आणामिय चापलाल किण्हन्भर।इसंठियसंगत आयय सुजातक सिणिदभमुया' इनफी दोनों भी एं कुछ२ नम्रीभूत किये गये धनुष કહેતા વાંકી ચૂકી નહીં પણ સીધી હોય છે. અગ્રભાગમાં પ્રમાણુનુસાર કંઈક ઉંચી હોય છે. ચપટી હોતી નથી. ત્રાજવી સરલ અને તુંગ કહેતાં પોપટની यांय वाताभी डाय छे. 'सारद णव कमल कुमुदकुवलय विमुक्कदल जिगरसरिसलक्खण कियक तणयणा' तमना भन्ने नेत्री सूर्य विशी श२६ ઋતુનું કમળ અને ચંદ્ર વિક શી કુમુદ કુવલય નીલકમળ એ બન્નેમાંથી અલગ પડેલા એવા જે પત્રને સમૂહ હોય છે. તેના જેવી કંઈક વેતતા અને કંઈક લાલાશ અને કંઈક કાળાશવાળા અને વચમાં કાળી પુતળીયાથી અ કિત डापाथी त मत्यन्त सु१२ मा छे 'पत्तल चवलायतबलोयणाओं वजी तमाना નેત્રો પાંપવાળા હોય છે. સ્વભાવથી જ ચપલ હોય છે. કાન સુધી લાંબા जय छ भने १२५२ डाय छ, 'आणामियचाप रूइल किण्हम राइ संठिय संगत आयय सुजात कसिणणिद्धभमुया' तेमनी भन्ने भ्रम। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका म.३ उ.३९.३८ एकोरुक० मनुजीवानामानारादिकम् ६०९ अस्रेषु-कोणेषु पूर्वपश्चिमदक्षिणोत्तररूपेषु प्रशस्तमहीनाधिकलक्षत्वात् समम्चतुर्दिक्षु समप्रमाणं लल टं यासां तास्तथा 'कोमुई रयणीयरविमलपडिपुन्न सोम्मवयणा' कौमुदीक रजनीकर विमल परिपूर्णसौम्यवदनाः तत्र कौमुदीकार्तिकी पूर्णिमा तस्याः रजनीकरश्चन्द्रस्तद्वत् विमलं शरद् ऋतुमभावाद्विगत रजोमल परिपूर्ण पूर्णिमा वर्तित्वात् तद्वत् सौम्यम् आहादजनकं वदनं यासा तास्तथा 'छत्तमय उत्तिमंगा' छत्रोन्नतोत्तमाङ्गाः छत्राकारं छत्र सदृशमुन्नतमुत्तमाङ्गं यासा तास्तथा, 'कुडिलमुसिणिद्धदीहसिरया' कुटिल मुस्निग्धदीर्घशिराजाः, तत्र कुटळा पक्राः कुस्निग्याः चिक्कगाः दीर्घाः लम्बनानाश्च शिरोजा:-मस्तककेशा यासा तास्तथा 'छत्त२ ज्झय२ जुग३ थुभ ४ दामिणि५ कमंडलु ६ कलस७ वाविसो८ स्थिय९ पडाग१० जव११ मच्छ १२ कुम्भ १३ रहबर १४ मगर१५ सुकथाल अंकुस१७ अठावयवीइ१८ सुपटक १९ मयूर२० सिरिदामि२१ से य२२ तोरण२३ मेइणि उदधिवर२५ भवण२६ गिरिवर२७ आयस२८ ललियगय२९ उसम३० सीह३१ चमर३२ उत्तमपसत्य वत्तीसलक्खणधराभो' छत्र ध्वजर युग३ के समान टेढी होने से इनका संस्थान रमणीय होता है कृष्ण मेघमाला के जैसी काली होती है संगत-अपने प्रमाण के अनुकूल होती हैं, आयत जितनी लम्बाई होनी चाहिये उतनी लम्बाई घाली होती है सुजात होती है-अपने ढंग से ही ये उत्पन्न होती हैं कृश होती हैं, स्निग्ध होती हैं 'अल्लीणपमाणजुससवणा' इनके दोनों कान आलीन मस्तक तक कुछ २, लगे हुए रहते हैं और प्रमाण युक्त-अपने२, प्रमाण से सहित होते हैं पीणमट्टरमणिज गंडलेहा' इनकी कपोलपाली -गाल और कान के बीच का भाग पीन-मांसल-पुष्ट-भरावदार होती हे मृष्ट-चिकनी होती है, अतएव वह रमणीय होती है 'चरंन पमस्थ કંઈક કંઈક નમાવેલા ધનુષની જેમ વાંકી હોવાથી તેમનું સંસ્થાન રમણીય લાગે છે, કાળા મેઘોના સમૂહ જેવી કાળી હોય છે. સંગત પિતાના પ્રમાણ સરની હોય છે. આયત અર્થાત્ જેટલી તેની લંબાઈ હોવી જોઈએ એટલી લંબાઈ વાળી હોય છે. સુજાન હોય છે. પિતાના ઢંગથી જ તે ઉત્પન્ન થાય છે दृश डाय छे. सन सिन डाय छे. 'अल्लीण पमाण जुत्तसवणा' तमना 26 કાને આલીન અર્થાત્ મસ્તક સુધી કંઈક કંઈક લાગેલા રહે છે. “ધન मट्टर मणिज्ज गंडलेहा' तमनी पास ५ति गर भने अननी १२येन। ભાગ પીન માંસલ પુષ્ટ હોય છે. મૃષ્ટ ચિકાશવાળો હોય છે તેથી જ તે २मलाय हाय छे. 'चउरस पसत्थ समणिडाला' भनुसाट यतुरस जी० ७७ Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० श्रीवामिगमसूत्रे " कमण्डलुः - तापसपानी यत्रो - धान्यविशेषः ११, स्तूप४ दामिनी५ कमण्डलु६ कलश ७ वापी८ स्वस्तिका ९ पताक१० यवो ११ मत्स्य १२ कूर्म १३ रथवर १४ मकर १५ शुकस्याला १६ ङ्कुशा १७ ष्टापदवीच १८ सुपविष्ठक१९ मयूर२० श्रीदामा २१ भिषेक २२ तोरण २३ मेदिनी२४ उदधिवर २५ भवन २६ गिरिवरा २७ दर्शलळित२८ गज२९ ऋपम ३० सिंह३१ चमरोत्तम३२ प्रशस्तद्वात्रिंशल्लक्षणधराः, तत्र छत्र लोकप्रसिद्धम् १, ध्वजः २, युगः३, स्तूपः स्तम्भः४, दामिनी-पुष्पमाली५ य पात्रम्६, कलशः७, वापीट स्वस्तिकः ९ पताका १० मत्स्यः१२ कूर्मां १३ इमौ प्रसिद्धौ रथवरः १४, मकरः १५ शुकस्थाल- शुक्रभोजनपात्रम् एवम्माङ्गळिकचिह्न विशेष: १६, अङ्कुशः १७, अष्टापदवीचिः- धूतफलकम् १८ सुप्रतिष्ठकं स्थापनकम् १९ मयूरः- प्रसिद्धः २० श्रीदामसुन्दर माळाकार आभरणविशेषः १२, अभिषेकः - कमलाभिषेकः हस्तिद्वय क्रियमाणाभिषेकयुक्तलक्ष्म्याकारचिह्नविशेषः २२, तोरणम् २३, मेदिनी - मेदिनीभृतराजा २४, उदधिः- समुद्रः २५, वरभवनं प्रासादः २६, गिरिवरः - प्रधानपर्वतः २७, आदर्श :- दर्पणम् २८, ललितगजो मनोज्ञदन्डी २९ भो गौः ३० सिंह:समणिडाला' इनका ललाट चतुरस्र-पूर्व पश्चिम दक्षिण उत्तर ऐसे चारों कोनों में घरायर प्रमाण वाला और समतल वाला होने से रमणीय होता है 'कोमुहरयणिश्वर विमलपडिवुन सम्प्रवयण' इनका सौम्य मुख कार्तिकी पूर्णमासी के चन्द्र की तरह विमल होता है और परिपूर्ण होना है 'छत्तन्नयउत्तिमंगा' छत्र के जैसे आकार वाला ऊपर से गोल इनका मस्तक होता है 'कुडिल लुसिणिद्ध दीहसिरपा' इनके मरतक के केश कुटिल- -वक्र होते हैं, सुस्निग्ध होते हैं और लम्बे होते हैं । 'छत्तज्झयजुमधूमदामिणि कमंडलुकल सचाविसोत्थियपडाग जव मच्छ कुम्भरहवरमगर सुकथ लअंकुमअट्ठायवीईसुपरटुक मयूर પશ્ચિમ દક્ષિણુ અને ઉત્તર એમ ચારે ખૂણુાએમાં પ્રમાણ સરના અને સમતલ वाजा होवाथी भलीय होय छे. 'कोमुइरयणिक र विमलप डिपुन्नसोग्मवयणा' તેનું' સૌમ્યમુખ કાતિ ઝી પૂર્ણ માસીના ચંદ્ર જેવું નિ`લ અને પરિપૂર્ણ હોય છે 'छत्तुन्नय उत्तम गा' छत्रना नेवा भारवाणु उपरथी गोण तेनुं भरत हाय छे. 'कुडिल सुसिणिद्ध दीह सिरया' तेना भाथाना है। टिस वांडा हाय है. सुस्निग्ध होय छे. माने सांगा होय छे. 'छत्तज्झयजूगथूमदामिणि कमंडलु कलस वावि मोत्थिय पडागजव मच्छ कुम्भ रहवर मगर सुकथाल अंकुस अट्ठावय बीई सुपईट्टक मयूर सिरिदामा भिसेय तोरण मेइणि उदधिवर भवणगिरिवर Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्योतिका टोका प्र.३ उ. ३ छू. ३८ एकोरुक० मनुजीवानामाकारादिकम् ६११ मृगेन्द्रः ३१, चमरः ३२ एतानि उत्तमानि - प्रधानानि प्रशस्तानि - सामुद्रिक शास्त्रेषु प्रशंसास्पदी भूतानि द्वात्रिंशल्लक्षणानि चान्यत्रैवंविधानि लभ्यन्ते, तथाहि - 'छत्रं १, तामरसं २, धनू ३, रथवरी ४ दम्भोलि ५, कूर्मा ६, ऽङ्कुशा ७, वापी ८, स्वस्तिक ९, तोरणानि १०, च सरः ११, पञ्चाननः १२, पादपः १३, चक्रं १४, शङ्ख १५, गजौ १६, समुद्र १७, कलशौ १८, मासाद १९, मत्स्यौ २०, यवो २१, ग्रुप २२, स्तूप २३, कमण्डलू २४, न्यवनिभृत् २५, सच्चामरो २६, दर्पणम् २७, ॥१॥ उक्षा २८, पताका २९, कमलाभिषेकः ३०, मुद्दाम ३१, केकी ३२ घन पुण्यभाजाम् । इति । 'हंसस रिसईओ' हंस सदृशगतयः, हंसस्य सदृशी गतिर्गमनं यासां तास्तथा, 'कोइल मधुर . गिर मुस्सराओ' कोकिलमधुरगीः सुस्वराः, कोकिलस्य या मधुरा गिरः तद्वत् सुरुवरा यासां तास्तथा, 'कंता' कान्ताः - कमनीयाः सर्वेषामभिमताः, 'सन्त्रस्स अणुनयाओ' सर्वस्यानु नताः न कस्यापि द्वेष्याः, 'वत्र गय वलिपलिया' व्यपगतवलिपलिताः, तत्र वलि:शैषिल्पसमुद्भयमविकारः पलितं जरया केशशौक्लपम् व्यपगते बळिपलिते सिरियामाभि से यतोरण मेइणि उदधिवर भवण गिरिवर आयंसललिपगयउ सभसीहचमरउत्तम पसत्यबत्तीस लक्खगधराओ' छत्र १, ध्वज, २, युग ३, स्तूप ४, दामिनी ५, पुष्प माला कमण्डलु ६, कलश ७, वापी ८, स्वस्तिक ९, पताका १०, यव ११, मत्स्य १२. कुम्भ १.३, रथवर-श्रेष्ठरथ १४, मकर १५, शुक स्थाल १६, अङ्कुश १७, अष्टा पदवीचि पूत फलक १८, सुप्रतिष्ठक -स्थापनक १९, मयूर २०, श्री दाम मालाकार आभरण विशेष २९, अभिषेक-कमलाभिषेक युक्त लक्ष्मी जिसका दो हाथियों से अभिषेक किया जाता है ऐसा चिह्न २२, तोरण - २३, मेदिनी - पृथिवी पति - राजा २४, उदधिवर - समुद्र२५, भवन आय स ललिय गय उसभ सीहचमरउत्तम पखत्थबत्तीस लक्खणधराओ' छत्र १, धन्न २, युग 3, स्तूप ४, हामिनी य, पुष्पभासा उभडस ६, उदश ७ वा ८, સ્વસ્તિક ८, पताका १०, यव ११, मत्स्य १२, કુમ્ભ ૧૩, રથવર શ્રેષ્ઠ રથ ૧૪, મઘર ૧૫, શુકસ્થાલ ૧૬, અ’કુશ ૧૭, अष्टायड वीथि-यूतइस १८, सुप्रतिष्ठ- स्थापन કામમાળાના આકારનું ભરણુ વિશેષ ૨૧, અભિષેક યુકત લક્ષ્મી કે જેને અભિષેક એ હાથીચેાથી કરવામાં २२, तार २३, भेहिनी - पृथ्वी पति-शल २४, धि१२ समुद्र २५, लवन १७, मयूर - भोर २०, श्री કમલાભિષેક અભિષેક આવે છે, એવુ' ચિહ્ન Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 ६१२ जीवामिगमरने यासां वास्तथा जराजन्य शरीरकेशवैम्प्यरहिता इत्यर्थः, 'वंगवण्ण वाही दो. भग्गसोगमुक्काओ' व्यंगदुर्वर्ण व्याधिदौर्माग्य शोकमुक्ताः, तत्र विरद्धमझं व्यङ्गम् विकारवानवयवः दुर्वर्णो विकृतशरीरच्छविः, व्याधिः-ज्वरादिः दौमीग्यं शोश्व एतैर्मुक्ता रहिता स्तास्तथा, तेषां व्यङ्गादेः स्वप्नेप्यसंमवात् 'उच्चत्तेणय नराण थोवूगमूसियाओ' उच्चत्वेन च नराणां स्तोकेनोच्छ्रिताः, उच्चत्वेन च नराणां स्तोकमनं यथा स्यात्तथा उच्छ्तिा किञ्चि-यूनाष्ट धनुः शतोन्छया इत्यर्थः 'सभाव सिंगारागारचारुवेसा' स्वभाव जन्य एव शृङ्गारः स्वभावद्वारः प्रमाणो. पेत यथावस्थितसुन्दर शरीरावयवजन्यसौन्दर्यवान् नतु वाह्य रस्त्रभूषणादि जन्यः, प्रासाद २६, गिरि-वर-श्रेष्ठ पर्वत २७, दर्पण २८, ललित गज श्रेष्ठ २९, वृषभ ३०, सिंह ३१, एवं चमर ३२, इन सामुद्रिक शास्त्र प्रसिद्ध श्रेष्ठ बत्तीस लक्षणों को ये धारण करती है 'हंससरिसगइओ' हंस के जैसी इनकी गति-चाल होती है 'कोइलमधुर गिरसुस्तराओ' कोयल की मधुरवाणी के जैसा इनका सुन्दर मधुर स्वर होता है-'सव्वस्स अणुन. याओ ववगयलिपलिया, वंगवण वाही दोभग्गसोगमुक्कामो ये बहुत ही अनुपम सुन्दर होती हैं ये सथके लिये अनुनयविनयवाली होती है इनके शरीर में किंचित् भी शैथिल्य समुद्भव चर्म विकार नहीं होता अर्थात् शरीर में इनके खाल का कुकर-संकोच जाना रूप विकार नहीं होता। बाल इनके सफेद नहीं होते हैं-इन के अंग विकृत नहीं होते हैं अर्थात् हीनाधिक होने रूप विकार से रहित होते हैं-शरीर की छवि में किसी भी प्रकार की विकृति नहीं आती है व्याधि से ज्वरादि रोग से ये सदा मुक्त रहती हैं दुर्भाग्य का इनके लेशमात्र भी नहीं होता है शोक का इनके नामो निशान भी नहीं होता है अर्थात् ये सदा हर्षित પ્રાસાદ ૨૨, ગિરિવર શ્રેષ્ઠ પર્વત ર૭, દર્પણ ૨૮, લલિતગજ-શ્રેષ્ઠ હાથી ૨૯, વૃષભ ૩૦, સિંહ ૩૧, અને ચમાર ૩૨, આ સામુદ્રિક શાસ્ત્રમાં પ્રસિદ્ધ શ્રેષ્ઠ सेवा मत्रीस तक्षयने तमे। धारा ३२ छ. 'हस सरिसगइओ' सना २वी तमानी गति-यास डाय छे. 'कोइल मधुरगिरसुस्सराओ' अयसनी मधुर पाएन । सु४२ सने मधुर यानी २१२-४४ डाय छे. 'सव्वस्म अणुनयाओ ववगयवलिपलिया, वंग दुबण वाही दोभगगसोगमुकाओ' તેઓ ઘણીજ અનુપમ સુ દર હોય છે. તેઓ બધા પ્રત્યે વિનયવાળી હોય છે. તેઓના શરીરમાં જરાય શિથિલતા યુકત ચર્મવિકારો હોતા નથી. અર્થાત્ તેમના શરીરમાં ચામડી સંકેચાઈ જવારૂપ વિકાર હોતે નથી. તેઓના વાળ સફેદ હોતા નથી, તેઓના અંગ વિકૃત હોતા નથી. અર્થાત્ જૂનાધિક હેવારૂપ Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयोतिका टीका मं.३ उ. ३.३८ एकोरुक मनुजीवानामाकारादिक ् ६१३ earer आकारः शरीरकृतिः, तथा चारुः सुन्दरः वेपः खभूरणादि रूपो वा यासां तास्तथा । ' संगयगय हसिय भणियचेडिय विकाससं लावणिउपजुत्तोत्रयार कुसला' सङ्गगतदसित मणितचेष्टितविलाससंलापनिपुणयुक्तोपचारकुशलाः, तत्रसंगतम् उचितं यद् गतं गमनं हंपीगमनवत् हसितं - हसनं कपोलविकाशि प्रेम संदर्शिच, भणितं मणनं वाणीविलासः दुर्लक्ष्यचेष्टितं चेप्टन शरीरकम्पनादिरूपं, संलापः - परस्परसंभाषणं, तत्र निपुणाः कुशलास्तथायुक्ताः संगता ये उपचाराः लोकव्यवहारा स्तन कुशलाः दक्षा इति । पूर्वोक्त मेदार्थसंगृह्याह- 'सुदर थणजहण वदणकरचळणणयणमाला' सुन्दर स्तन जघन्वदनकरचरणनयनमालाः, स्पृष्टम् ' दण्णलावण्णजोन्त्रण विकासकलिया' वर्णलावण्य यौवनविलासकलिताः, 5 ही रहती हैं 'उच्चतेण य नराण धोवूण मूसियाओ' इनके शरीर की ऊंचाई अपने २, पतियों के शरीर से किञ्चित् न्यून रहती है एकशेरुक द्वीप के मनुष्यों के शरीर की ऊंचाई आठ सौ धनुप की होती है लो ये एकरुक द्वीप की महिलाएं कुछ कम आठ सौ धनुष के शरीर की ऊंचाई वाली होती है 'सभाव सिंधारागार चारुवेसा' यों तो स्वभाव ही इनका प्रमाणोपेत यथावस्थित-जो जैसे होने चाहिये वैसे वैसे सुन्दर अवयव जन्य सौन्दर्य वाली शरीरा कृति होने से इन का शरीर स्वाभाविक श्रृंगार पाला होता ही है किन्तु बाह्य वस्त्राभूषण जन्य नहीं फिर भी वस्त्राभूषण रूप सुन्दर वेप से सुसज्जित होती है 'संगयं ग हसिय भणिय चेट्ठिय विलास संलावणिउपजुत्तोवयारकुसला' ये વિકાર વિનાના હૈાય છે. શરીરની કાંતીમાં કાઈ પણ પ્રકારની વિકૃતિ આવતી નથી. વ્યાધિથી તાવ વિગેરે રાગથી તેઓ હમેશાં મુકત હાય છે. લેશમાત્ર પણ દુર્ભાગ્ય તેમાં હેતુ નથી. તેઓને શાકનુ નામનિશાન પણ હોવુ नथी. अर्थात् तेथे। डु'भेशां मन भग्न रहे छे. 'उच्चत्तेण नराण थोवूण જૂલિયાળો' તેઓની ઉંચાઇ પાત પેાતાના પતિચેના શરીરથી કંઇક ન્યૂન હાય છે. એકેારૂક દ્વીપના મનુષ્યેાના શરીરની ઉંચાઇ આઠસો ધનુષની હાય છે. તે આ સ્ટ્રિયાના શરીરની ઉંચાઈ કંઈક એછા આઠસા ધનુષ પ્રમાણુની होय छे. 'खभाव सिंगारागारचारुवेसा' भाभतो वलाविभाषेत યથાવસ્થિત જેઅવયવા જેમ હાવા જોઈએ એવાજ સુંદર અવયવ જય સૌન્દય વાળી શરીરની આકૃતિ હાવાથી તેએના શરીર સ્વાભાવિક શૃંગારવાળા જ હાય છે પરતુ બહારના વસ્ત્રાભૂષણ જન્ય સુંદરપણું હેતુ' નથી. તે પણ વઆભૂષણ ३५ सु४२ वेषभी सुसभ्त होय हे 'संगयगयहसियमणिय चेट्ठिय विलास संलाव Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमध्ये तत्र वर्ण:- कृष्णगौरादिः, काम्-आकारस्य स्पृहणीयता यौवनविलास:स्त्रीणां चेष्टाविशेषः एमिः कलिता-युक्ता तास्तथा, 'नंदणवणविवरचारिणी उब्दअच्छाओ' नन्दनवनविवरचारिण्य इव अप्सरसः नन्दनवनस्य विवराणि लतागृहाणि तेपु चरितुं शीलं यास ता, एतादृश्योऽप्सरसइव 'अच्छेरगपेच्छ. णिज्जा' आश्चर्यप्रेक्षणीयाः-आश्चर्यजनक प्रेक्षणं दर्शनं यासां तास्तथा 'पासाईयागो' प्रासादिकाः, 'दरिसणिज्जाओ' दर्शनीयाः, 'अभिस्वाभो' अभिरूपाः 'पडिरूपाओ' प्रतिरूपाः । 'तासि णं भवे ! मणुई णं' तासां खलु मदन्त ! मनुजी नाम् 'केवइ कालस्स' अत्र सप्तम्यर्थे पष्ठी, तेन कियति काले 'आहारट्टे' आहास्वभावतः ही हंसी के गमन तुल्य सुन्दर गमन क्रिया युक्त होती हैं। इनका हास प्रेम प्रदर्शक है और दोनों कपोल विकसित हो जावे ऐसा होती है इनकी पोल चाल पड़ी गंभीर होती है चेष्टाएं अंग प्रत्यंग को ढंकना, उनको फिर देखना आदि रूप तथा आंखों का मटकाना आदि रूप विलास अपने पति के साथ संभाषण करने का चातुर्य इन सब में ये पहुन अधिक निपुण होती हैं तथा युक्त-संगत जो उपचार लोक व्यवहार है-उनमें भी ये अधिक दक्षहोती हैं ये सप विशेषण पति की अपेक्षा से ही समझना चाहिये क्योंकि उस क्षेत्र के स्वभाव से उसके पर पुरुष के प्रति अभिलाषा की संभावना ही नही होती है 'सुन्दर यणजहणवदणकारचलणणयनमाला' इनके स्तन, जघन, वान-मुख णिउगजुत्तोवयारकुसला' तमे २५माथी सिन गमन तुल्य सु२ गमन કિયાવાળી હોય છે. તેઓનું હાસ્ય પ્રેમ પ્રદર્શક હોય છે. અને બેઉ કપિલ વિકસિત થઈ જાય એવા હોય છે. તેઓની વાણી ઘણી જ ગંભીર હોય છે. ચેષ્ટાઓ અંગ પ્રત્યંગને ઢાંકવા, પાછા તેને જેવા વિગેરે રૂપ તથા આંખોને મટકાવવી વિગેરે રૂપ વિલાસ, પિતાના પતિની સાથે સંભાષણ કરવા રૂપ ચાતુર્ય આ બધામાં તેઓ ઘણીજ વધારે નિપુણ હોય છે તથા યુકત સંગત જે ઉપચાર નામ લેકવ્યવહાર છે, તેમાં પણ ઘણી જ વધારે દક્ષ-ચતુર હોય છે. આ બધા વિશેષણે પતિની અપેક્ષાથી સમજવા. કેમકે તે ક્ષેત્રના વિભાવથી तयार ५२ ५३५ प्रत्ये मलिसापानी संभावना ती नथी. 'सुदर थण जहण वदण करचलणणयणमाला' ताना स्तना, धन, वन, भुम हाथ, ५, नत्र, विगेरे गधा मी मयत मुहर हाय छे. 'वण्णलावण्ण जोवण विलास कलिया' त गीर बिर थी, एयथी, यौवनथी, मन सिथी, હંમેશાં યુકતજ બનીને રહે છે, કેમકે ત્યાં ક્ષેત્રસ્તભાવથી વૃદ્ધ અવસ્થા આ Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ shruोतिका टीका प्र.३ उ०३ सु. ३८ एकोरुक० मनुजीवानामाकारादिकम् ६१५ रार्थ:- आहार प्रयोजनं 'समुप्पज्जइ' समुत्पद्यते कियतिकाले गते सते पुनरा हारविषयिणी इच्छा प्रादुर्भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोमा' इत्यादि 'गोयमा हे गौतम! 'चउत्थमंत्तस्स आहारडे समुप्पज्जर' चतुर्थभक्ते तृतीयदिवसे आहाराः समुत्पद्यते, यद्यपि सरसाहारित्वेनैतावत्कालं तासां क्षुद्वेदनोदयाभावादेवा हाथ पैर नेत्र आदि सब ही बहुत सुन्दर होते हैं 'बण्णलावण्ण जोन्वण विलासकलिया' ये गौरादि वर्ण से, लावण्य से, यौवन से और विलास से सर्वदा युक्त ही बनी रहती है क्योंकि वहां क्षेत्र स्वभाव से वृद्धावस्था नही आती है 'णंदण वणविवरचारिणी उच्च अच्छराओ' ये ऐसी प्रतीत होती है कि मानों नन्दन वन में भ्रमण करने वाली अप्सराएं हैं इसलिये ये 'अच्छेरग पेच्छणिजा' ये आश्चर्य से प्रेक्षणीयदेखने योग्य होती हैं. अर्थात् जो इन्हें देखता है उसे यही विस्मय होता है कि ये मनुष्य स्त्रियां है या अप्सराएं हैं । 'पासाईयाओ दरिस णिजाओ, अभिरूवाओ, पडिरुवाओं' ये प्रासादिक होती हैं दर्शनीय होती हैं अभिरूप होती हैं और प्रतिरूप होती है इन पदों का अर्थ पीछे यथास्थान लिखा जा चुका है। 'तासिणं भंते! मणुईणं केवइ कालस्स आहारडे समुप्पज्जह' हे भदन्त ! इन मनुष्य स्त्रियों की आहारेच्छा कितने काल के बाद होती है अर्थात् एकबार आहार कर लेने के बाद पुनः आहार करने की इच्छा पती नथी. 'णदणवणविवरचारिणी उव अच्छराओ' तेथे। मेथी प्रतीत आहारट्टे समुप्पज्जइ' हे गौतम! तेथे सरस आहार उरे हे, तेथी खाने થાય છે કે જાણે નદન વનમાં ફરવાવાળી અપ્સરાએ જ હાય, તેથી તેએ 'अच्छे रंग पेच्छणिज्जा' माश्चर्यथी प्रेक्षणीय लेवासाय होय छे, अर्थात् तेथे ને જે દેખે છે, તેમને એજ આશ્ચય થાય છે કે તેએ મનુષ્ય શ્રિયે છે ? अप्सराओ छे ? 'पासाइयाओं, दरिसणिज्जाओ - अभिरुवाओं, पडिवाओं' તેએ પ્રાસાદીય હાય છે. દર્શીનીય હાય છે. અભિરૂપ હાય છે. પ્રતિરૂપ હોય છે. આ પઢાને અ પહેલાં આપવામાં આવી ગયેલ છે. 'तासि णं भवे ! मणुईणं केत्रइकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ' हे भगवन् આ મનુષ્ય સ્રિાને આહારની ઇચ્છા કેટલા કાળ પછી થાય છે? અર્થાત્ એકવાર આહાર કરી લીધા પછી ફરીથી આહાર કરવાની ઇચ્છા તેને કયારે Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्से - भक्तता किन्तु न कर्मनिजरार्थ तासां तत्तपः तथापि अभक्तार्थत्वमाधम्यात चतुर्थ मक्तशब्देन कयितमिति ॥मू०३८॥ मूलम्-तेणं भंते ! सणुया किमाहारमाहारेति ? गोयमा ! पुढवि पुप्फफलाहारा ते मणुयगणा एण्णत्ता समणाउसो !। तीसे णं भंते ! पुढवीए केरिसए आसाए पण्णत्ते ? गोयमा ! से जहा णामए गुलइ वा खंडेइ वा लकराइ वा मच्छंडियाइ वा भिसकंदेइ वा पप्पडसोयएइ वा पुप्फउत्तराइ वा पउमुत्तराइ वा अकोसियाइ वा विजयाइ वा महाविजयाइ वा आयंसाइ वा उवमाइ वा अणोकमाइ वा चाउरके गोखीरे चउठाणपरिणए गुडखंडमच्छंडि उवणीए मंदग्गि कढिए वण्णेणं उववेए जाव फालेणं, भवेयारूवे सिया? नो इणटे समटे, तीसे णं पुढवीए एत्तो इट्टयराए चेव जाव मणामतराए चेव आसाए णं पणत्ते, इन्हें कर होती है ? इसके उत्तर में प्रभु फरते हैं-'गोयमा ! चउत्थभत्तस्स आहारले समुप्पन' हे गौतम ! ये सरस आहार करती हैं इमलिये इन्हें खाने के दूसरे दिन आहार की अभिलाषा नहीं होती है तीसरे दिन आहार करती हैं इनके क्षुधा वेदनीय के उदय के अभाव से ही इनमें एक दिन की अभक्तता है यह अभक्तता इनके कर्मों की निर्जरा का कारण भून नहीं होती है क्योंकि यह तपः रूप नहीं है कर्मों की निर्जरा तो तपः साध्य होती है। तथापि इसको अभक्तार्थता के साधर्म चतुर्थ भक्त शब्द से कह दिया है ।सूत्र-३८॥ थाय १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ३ छ 'गोयमा! चउत्थ भत्तस्स એક વખત આહાર કર્યા પછીના બીજે દિવસે આહાર કરવાની ઈચ્છા થતી નથી. ત્રીજે દિવસે આહાર કરે છે. તેમને સુધાવેદનીયના ઉદયના અભાવથી જ તે એમાં એક દિવસનું અભક્તપણું–આહારની અનિચ્છા રહે છે. આ અભક્ત પણું તેઓના કર્મોની નિર્જરાના કારણભૂત હેતું નથી. કેમકે આ તપ રૂપ હતું નથી. કર્મોની નિર્જરા તપ સાધ્ય હોય છે. છતાં પણ તેને અભક્તાર્થતાના સાધર્મથી ચતુર્થ ભકત શબ્દથી કહેવામાં આવેલ છે. જે સૂ. ૩૮ છે Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३९ एकोषकस्थानामाहारादिकम् ६१७ तेसिणे भंते ! पुष्फफलाणं केरिसए आलाए पण्णत्ते? गोयमा! से जहा णामए चाउरंतचकवष्टिस्त कल्लाणे पवरसोयणे सय. सहस्सनिष्फन्ने वण्णेणं उबवेए गंधेगं उबवेए रलेणं उववेए फासेणं उवचेए आसाइणिजे वीलायणिज्जे दीवणिजे विहणिजे दप्पणिज्जे मयणिजे साबिंदियगायपल्हायणिजे, अवेयारूवे सिया? जो इणटे सम?, तेसिणं पुप्फफलाणं एत्तो इट्टत्तराए चेव जाव आस्सापणं पण्णत्ते। तेणं मणुया तमाहारमाहारित्ता कहिं वसहि उति? गोयमा ! रुक्ख गेहालयाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। ते णं भंते ! रुक्खा कि संठिया पण्णता ? गोयमा! कूडागार संठिया पेच्छाधर संठिया सत्तागार संठिया झयसंठिया थूमसंठिया तोरणसंठिया गोपुरवेइयचोप्पालगसंठिया अहालगसंठिया पासायसंठिया हम्मतलसंठिया गवक्खसंठिया बालग्गपोत्तियसंठिया वलभीसंठिया अण्णे तत्थ बहवे वरभवण सयणासणविसिट संठाणसंठिया सुहसीयलच्छाया णं ते दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीव दीवे गेहाणि वा गेहायणाणि वा ? जो इण? समटे, रुक्खगेहालयाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं भंते ! एगोस्य दावे २ गामाइ वा गराइ वा जाव सन्निवेसाइ वा?, णो इणटे लमटे, जहिच्छियकामगामिणो ते मणुयगणा पणत्ता समणाउसो ! । अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे२ असीइ वा मसीह वा कसीइ वा पणीइ वा वणिज्जाइ वा ?, नो इणटे समटे, बवगय असिमसिकिलिपणियवाणिज्जा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे हिर जी० ७८ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवा मिगमसूत्रे ६१८ पणे वा सुन्ने वा कंसेइ वा दूसेइ वा मणीइ वा मुत्तिएइ वा विउलघणकणगरयणमणिमोत्तिय संखसिलप्पवाल संतसार सावज्जेइ वा ?, हंता अस्थि, णो चेव णं तेसिं मणुयाणं तिवे ममत्तभावे समुपज्जइ । अस्थि णं एगोरुयदीवेर रायाइ वा जुवरायाइ वा ईसरे वा तलवरे या माडपियाइ वा कोहुंबि या वा इभाइ वा सेट्टीइ वा सेणावतीइ वा सत्थवाहाइ वा ? णो इट्टे समट्ठे, गहड्डी सकारा णं ते सणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! | अस्थि संते ! एगोरूय दीवेर दासाइ वा पेसाइ वा सिस्लाइ वा भयगाइ वा भाइलगाइ वा कम्मगर पुरिसाइ वा ? णो इणट्टे समहे, ववगय अभिओगिया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समनाउलो ! | अस्थि णं संते ! एगोरुय दीवे दीवे मायाइ वा पियाइ वा सायाइ वा भइणीड़ वा भजाइ वा पुत्ताइ वा धूयाइ वा सुण्हाइ वा ? हंता अस्थि, नो चेवणं तेसि णं मणुयाणं तिचे पेमबंधणे समुप्पज्जइ, पयणुपेमबंधणाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता जमणाउसो ! अस्थि णं भंते । एगोरुय दीचे २ अरी वा वेरिएइ वा वायएइ वा वहएइ वा पडिणीएइ पञ्चमित्तेइ वा ? जो इणट्टे समट्टे, ववयवेराणुबंधाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! | अस्थि णं भंते! एगोरुप दीवे२ मित्ताइ वा वंतसाइ वा घडिताइ वा सहीइ वा सुहियाइ वा महाभागाइ वा संगतियाइ वा ?, णो इण्ट्टे सट्टे वबयपेम्मा ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । अस्थि णं भंते! एगोरुप दीवेर आबाहाइ वा विबाहाइ अण्णाइ वा सद्दाइ वा थालिपाकाइ वा चेलोवणयणाइ वा सीमंतुण्णयणाइ वा मयपिंड निवेयणाइ वा ? णो इण्डे समद्दे, ववगय आवाह विवाह जपण Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र०३ उ.३ ६.३९ एकोरुकस्थानामाहारादिकम् भद थालिपाग चोलोवणयण सीमंतुण्णय णमतपिंड निवेयणा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! ||सू० ३८|| FL , छाया - ते खलु भदन्त ! मनुजाः किमाहारस् आहारन्ति ? गौतम ! पृथिवीपुष्पफलाहारास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्त 7 : श्रमणा युष्मन् | तस्याः खल भदन्त ! पृथिव्याः कीदृश आस्वादः प्रज्ञतः ? गौतम । स यथा नामकः गुड इति वा खण्डमिति वा शर्करा इति वा मत्स्यण्डिकेति वा विसकन्द इति वा पर्पटमोदकमिति वा पुष्पोत्तरमिति का पद्मोत्तरमिति वा अकोशितमिति वा, विजयेति वा महाविजयेति वा आदर्शोपसेति वा अणोदसाति वा चतुष्कं गोक्षीरं चतुः स्थान परिणतम् गुड़ खण्डमत्स्यण्डिकोपनीतं मन्दाग्निकृतं वर्णेनोपेतं यावत्स्पर्शेन भवे देवद्रूपं स्यात् ? नायमर्थः समर्थः तस्याः खलु पृथिव्याः इस इष्टतर एव यावद् मनोऽमतर एव आस्वादः खलु प्रज्ञप्तः, तेषां खलु भदन्छ ! पुष्पफलानां कीदृश आस्वादः खलु प्रज्ञप्तः, ? गौतम ! स यथा नामकः चातुरतचक्रवर्त्तिनः कल्याणं मत्ररभोजनं शत सहस्र निष्पन्नं वर्णेनोपपेतं गन्धेनोपपेतं रसेनोपपेतं स्यनोपपेतम् आस्वादनीय विस्वादनीयं दीपनीयम् वृहणीयं दर्पणीयं मदनीयं सर्वेन्द्रियगात्रप्रल्हादनीयं भवेदेवद्रूपः स्यात् ?, नायमर्थः समर्थः तेषां खलु पुष्पफलानाम् इस इष्टतर एव यावर आस्वादः खलु प्रज्ञप्तः । ते खलु भदन्त ! मनुजाः समाहारमा हा कुत्र बसत उपयान्ति ? गौतम ! वृक्षगृहालयाः खलु ते मनुजगणाः प्राप्ताः श्रामणायुष्मन् ! से खछ मदन्त ! वृक्षाः किं संस्थिताः भज्ञताः ? गौतम | कूटागार संस्थिताः मेक्षागृहसंस्थिताः छत्राकार संस्थिताः ध्वजसंस्थिताः स्तूपसंस्थिताः तोरणसंस्थिता. गोपुर वेदिका - चोप्पालकसंस्थिताः अट्टालकसंस्थिताः मासाद संस्थिताः हर्म्यतळ संस्थिताः गवाक्ष संस्थिताः बालायपोतिकासंस्थिताः वलभीसंस्थिताः अन्ये तत्र बहवो दरभवनशयनासनविशिष्टसंस्थानसंस्थिताः सुख शीतलच्छायाः खलु ते द्रुमगणाः प्रज्ञप्ताः श्रवणायुष्मन् ! सन्ति खलु भदन्त ! rator द्वीपे द्वीपे गृहीँ वा गृहायनानि वा ? नायमर्थः समर्थः, वृक्षगृहाळयाः खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् । अस्ति खलु मदन्द ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे ग्राम इति वा नागरमिति वा यावत् सन्निवेश इति वा, नायमर्थः समर्थः, यथेच्छ कामगामिनस्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुरुद्वीपे द्वीपे अतिरिति वा मपी इति वा कृपिरिति वा पण्यमिति वा वाणिज्यमिति वा, नायमर्थः समर्थः, व्ययगवासिमपी कृषिपण्यवाणिज्याः खलु ते मनुजगणाः शप्ताः श्रमणायुष्मन । अस्ति खल भदन्त । एकोरुकद्वीपे Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० जीवामिगमन द्वीपे हिरण्यमिति वा, सुवर्णमिति वा कांस्यमिति वा दुष्यमिति वा मणिरिति वा मुक्तिकेति वा, विपुल धनकनकरत्नमणिमौक्तिकशब्दशिलामवालसन्त सारस्वापतेयमिति दा ? हना, अस्ति, नैव खलु तेषां मनुजानां तीतो ममः स्वभावः समुपपद्यते । अस्ति खलु भदन्त ! एकोस्कद्वीपे द्वीपे राजेति वा युवराज इति वा ईश्वर इति वा तलवर इति वा माडम्बिक इति वा कौटुम्बिक इति वा, इभ्य इति वा, श्रेष्ठीति वा सेनापविरिति वा सार्थवाह इति वा ? नायमर्थः समर्थ व्यपगतऋद्धि सत्काराः खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खल्लु भदन्त | एकोरुक द्वीपे २ दास इति वा प्रेष्य इति वा शिष्य इति वा भृतक इति वा, मागिक इति वा, कर्मकर पुरुप इति दा ? नायमर्थः समर्थः, व्यपगतामि योगिकाः खल ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्त ! एको. रुक द्वीपे द्वीपे माता इति वा, पिता इति वा, भ्राता इति वा, भागिनीति वा, भार्येति वा पुत्र इति वा दुहितेति वा स्नुषेति वा ? हन्त अस्ति, नेव खलु तेषां खलु मनुजानां तीनं प्रेमवन्धनं समुपश्यते, प्रतनुप्रेमबन्धनाः खलु ते मनुज गणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्त ! एकोहक द्वीपे द्वीपे अरिरिति वा वैरिक ति वा घातक इति वा, वधक इति वा प्रत्पनीक इति वा प्रत्यमित्र इतिवा? नायमर्थः समर्थः व्यपगत वैरानुबन्धाः खल ते मनुजगणा: मप्ता: श्रमणायुष्मन् । अस्ति खल भदन्त ! एकोरुक द्वीपे२ मित्रमिति वा वयस्य इति वा घडिआ इति वा सखा इति वा सुहदिति वा महाभाग इति वा सांगतिक इति वा नायमर्थः समय: व्यपगत मेमाणस्ते मनुजगणा: प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्त ! एको रुकद्वीपे द्वीपे आवाह इति वा विवाह इति वा यज्ञ इति वा श्राद्धमिति वा स्थाळी पाक इति वा चौलोपनयनमिति वा सीमन्तोन्नयन मिति वा मृत विण्डनिवेदनमिति वा? नायमर्थः समर्थः, व्यपगताबाइविवाह यज्ञ श्राद्ध स्थालीपाक चौलोपनयन -सीमन्तोन्नयनमृतपिण्ड निवेदनास्ते मनुज गणाः प्रज्ञप्ताश्रमणायुष्मन् ॥३८॥ टीका-तेणं मंते ! 'मणुया' इत्यादि, 'तेणं भंते ! मणुया किमाहारमाहारेति' ते खल एकोरुक द्वीपिका मजाः भदन्त ! किम्-कीदृशमाहार माह 'ते णं भंते ! भणुया किमाहार माहरेति' इत्यादि ।।सूत्र-३८॥ टीकार्थ-हे भदन्त ! एकोरुक मैप के मनुष्य कैसा आहार करते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रशुश्री कहते हैं-'गोयमा ! पुढवि पुप्फ फला 'वे ण मते ! मणुया किमाहार माहरे ति' त्यहि ટીકાર્થ– હે ભગવન્ એકેરૂદ્વીપના મનુષ્યો કેવો આહાર કરે છે ? આ प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४७ छ 'गोयमा ! पुढवि पुष्फफलाहारा ते मणुयगणा Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ द.३९ एकोरुकस्थानामाहारादिकम् १२१ रन्तीति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि गोयमा' हे गौतम ! 'पुढवी पुप्फफगहारा ते मणुयगणा पण्णत्ता सम्मणाउसो' पृथिवी पुष्पफलाहारास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ते पृथिवी पुष्फलानि आहारा र्थमाहरन्तीत्यर्थः, एवं भूता मनुजगणाः कथिता इति, 'तीसेणं भंते ! पुढवीए' तस्या आहार्थतया उपादीयमानाया: खल्लु पृथिव्याः 'केरिप्तए आसाए एण्णत्ते' कीदृशः-किमाकारक आस्वादः रसः प्रज्ञप्तः-कथित इति प्रश्ना, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'से जहा गामए' स यथा नामकः 'मुळेइवा' गुड इति वा इक्षुरसक्वायो गुडः, 'खंडेइ पा' खण्डमिति वा खण्डं गुडविकारः, 'सक्कराइ वा, शर्करेति वा शर्कराकाशादि प्रभवा 'मच्छंडियाइ वा' मत्सण्डिकेति वा, मत्सण्डिका खण्डशर्कराषिसरीति भाषापसिद्धाः, 'मिसकंदेइ वा' विसकन्दमिति वा, विसकन्दं-कमल-मूलम्, 'पप्पडमोएइ पा, पर्पटमोदक इति चा स च खाधविशेषः, 'पुप्फउत्तराइ वा' पुरुषोत्तरेति वा, पुष्पविशेष निष्पन्ना हारा ते मणुयगणा पण्णता ममणाउलो।' हे श्रमण आयुष्मन् गौतम ! वे एकोरुक द्वीप के मनुष्य पृथिवी पुष्प एवं फलों का आहार करते हैं 'तीसे णं भंते ! पुढवीए के रिसए आसाए पण्णत्ते हे बदन्त ! उस पृथिवी का कैसा आस्वाद रस-या गया है ? उत्तर में प्रभु करते हैं-'गोषमा! से जहाणामए गुलेइवा खंडेइ वा सक्राइघा मच्छंडिया इका मिस. कंदेह वा पपण्ड मीथएइ वा पुष्प उत्तराचा पउमुत्तरापा, अकोसिया वा, विजया वा, महा बिजयाइ बा' हे गौतम ! जला गुड़ का स्वाद होता है, खांड का स्वाद होता है, शक्कर का स्वाद होता है जिसरी का स्वाद होता है कमल बन्द का स्वाद होता है पपेट मोदक खाद्य विशेषका स्वाद होता है 'पुष्पोत्तर-पुष्प विशेष से बना शकर का जैसा स्वाद हो पद्मोत्तर-कमल विशेष से उत्पन्न शकर अफोशित पण्णत्ता समणाउसो' श्रम आयुज्यमन् गौतम ! 31३४ दीपना मनुष्य! पृथ्वी, ५०५, मन सोन। माहार ४२ हे. 'तीसे णं भाते ! पुढवीए केरिसए आवाए पण्णत्ते' मगर पृथ्वीना । मारवाह-२स 38ो छ ? मा प्रश्ना उत्तरमा प्रसुश्री से छे है 'गोयमा ! से जहा नामए गुलेइवा, खडेइवा, सस्कराइवा, मच्छडियाइवा, भिसक देइवा, पप्पडमोयपइवा, पुष्प उत्तराइवा, पउमुतराइवा, अकोसियाइवा, विजयाइया, महाविजयाइवा' गौतम ! गोजना वाह होय છે, ખાંડનો જેવો સ્વાદ હોય છે, સાકરને સ્વાદ જે હોય છે, મિસરીને સ્વાદ જેવો હોય છે. કમલકંદનો વાદ જેવો હોય છે, પર્પટ મેદકને જેવો સ્વાદ आय छ 'पुप्पोत्तर' पु०५ विशेषथा नाद सा२ना वाहवा डाय छ, पशोत्तर Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२५ जीवामिगमले शर्करानाति: 'एउमुत्तराइ वा 'पद्मोत्तरेति वा कमलविशेष निष्पना शर्कराजातिः 'अकोसियाह वा' अकोशितेति वा, 'विजयाइ वा' विजयेति वा, 'महाविजयाइ वा' महाविजयेति बा, 'आयसाइ वा, आदर्शेति वा, 'उवमाइ वा' उपमेति वा 'अणोरमाइ बा' अनुपमेति वा, पते अकोशितादयो मधुरद्रव्य विशेषा कोकतोऽव. सेया इति । 'चाउरक्के-गोखीरे' चातुरक्ये गोक्षीरम् 'चउहाणपरिणए' चतु:स्थानारिणतम् तत्र-चातुरक्यमिति चतुर्वारपरिणतम्-तथाहि-पुण्डजातीयेशुचारिणी नामनातङ्कानां कृष्णानां गवां यत्क्षीरं तच्चतमृभ्यो यथोक्तगुणाभ्यो गाम्या पान दीयते, तासां ताशीनां चतहणां गवां यत्क्षीरं तत्तिसभ्यस्तादृशीभ्यो गोभ्यः पानं दीयते, तासां ताशीनां गवां यत्क्षीर तद् द्वाभ्यां गोभ्यां पानं दीयते, तयो योस्तादृश्योर्गवोर्थत्क्षीर तदेकस्यास्ताश्या गोः पानं दीयते, तस्या यत्क्षीरं तत् चातुरक्यं क्षीरं मोच्यते, एवं चतुः स्थानपरिणतं-पतुर्मिः स्थानः परिणाम प्राप्तम् पुनः कीदृशमित्याह-'गुडखेडमच्छंडिय उवणीए' गुडखण्ड मत्स्यण्डिकाभिरुपनीत मिलितम् ‘मंदग्गिढिए' मन्दाग्निकथितम्-मन्दाग्निना पाचित मित्यर्थः 'वष्णेणं विजयामहा विजया भादर्श-उपमा अनुपमा ये अकोशितादि मधुर द्रव्य विशेष है सो लोक से जान लेना चाहिये, इन सब का जैसा स्वाद होता है अथवा-'चाउरके गोखीरे चउहाण परिणए गुडखंडमच्छंडियउवणीए मंदग्गिकदिए चण्णेणं उक्वेए जाव फासेणं' अथवा-चतुःस्थान परिणतचार नापों के दूध को तीन गायों को पिलाना, तीन गायो के द्ध को दो गायों को पिलाना दो घायों के दूध को एक गायको पिलाना, दो गायों के दूध को एक गाय को पिलाना ऐले चतुः स्थान परिणत-हुए गो दूध को कि जिन्हमें गुड, खांड या मिलरी मेवा के साथ प्रमाण में मिलाई गई हो और फिर जो मंद मंद अग्नि पर पकाया गया हो ऐसा वह गोदुग्ध एक विशेष प्रकार के वर्ण से गन्ध से रस से स्पर्श से युक्त बन जाता કમલ વિશેષથી બનાવેલ સાકરનો સ્વાદ જે હોય છે, અંકેશિત વિજ્યા, અહાવિજ્યા, આદર્શ ઉપમાં અનુપમા આ અકેશિત વિગેરે મધુર દ્રવ્ય વિશેષ છે. તે લેકવ્યવહારથી સમજી લેવા જોઈએ આ બધાને જે સ્વાદ હોય છે, मथवा 'चउरक्के गोखीरे चउढाणपरिणए गुडख डमच्छडियउवणीए, मदगिकदिए वण्णेणं उबवेए जाव फासेणं' यतु:श्यान परित-यार गायोना धन त्रय ગાયને પીવરાવવું, ત્રણ ગાયનું દૂધ બે ગાયને પીવરાવવું અને બે ગાયનું દુધ એક ગાયને પીવડાવવું. આ પ્રમાણે ચાર સ્થાન પરિણત થયેલા ગાયના આવા દુધમાં જેમ ગોળ, ખાંડ, અથવા સાકર અને મેવાને પ્રમાણસર મેળવવામાં આવેલ હોય અને તે પછી ધીમા અગ્નિ પર પકાવવામાં આવેલ હોય, એવું તે Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका ठीका प्र.३ ७.३ १.३९ एकोसकस्थानामाहारादिकम् ६२३ उववेए' वर्णन उपवेतं युक्तम् 'जाव फासेणं' यावत्स्पर्शेन, अत्र यावत्पदेन गन्धेन युक्तं, गौतमः पृच्छति 'भवेयारूवे सिया' भवेदेतद्रूपः पृथिव्या आस्वादः स्यात् कदाचित् किमिति प्रश्नः, भगवानाद-गोयमा' हे गौतम ! 'नो इणढे समडे' नायमर्थः समर्थी, नहि गुडादि रससह शो रसः पृथिव्याः किन्तु 'तीसे गं पुढवीए तस्याः खलु पृथिव्याः 'एत्तो पट्टयराए चेव जाच सणामतराए चे३ आसाए णं पण्णत्ते' इतो गुडादिस्य इष्टतर एक यावत् कान्तवर एब मियतर पत्र मनोज्ञतर एव मनोऽमतर एव आस्वादः खल प्रज्ञप्तः । 'तेसि णं भंते ! पुष्प फलाणं केरिसए आसाए पण्णत्ते' तेषां खलु भदन्त ! पुष्पफलानां कीदृशः आस्वादो रसः पत्रप्त:-कथित इति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयसा' हे गौतम ! 'से जहा णामए' है और इस गोक्षीर का जैसा अनुपा स्वाद होता है श्रीगौतमस्वामी प्रमुश्री से पूछते हैं तो क्या हे भदन्त ! 'इमेयारवे लिशस प्रकार का स्वाद वहां की पृथिवी का होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री करते'णो इणढे समढे' हे गौतम ! इस कथन का ऐसा अर्थ समर्थ नहीं होता है-अर्थात् गुड आदि के रस जैसा स्वाद यहां की पृथिदी का नहीं होता है-'तीसेणं पुढवोए एत्तो इतराए चेव जाक्षमणामलराए चेव आनाए णं पण्णत्ते' किन्तु उस उस पृथिवी का स्वाद लो-इल के दल की अपेक्षा भी अधिक इष्टतर ही होता है यावत्-कान्त तर ही होता है प्रियार ही होता है मनोज्ञतर ही होता है और मनोऽम तर ही होता है 'तेसिणं भंते ! पुप्फफलाणं केरिसए आसाए पण्णत्ते' हे भदन्त ! बयां के उन पुष्प एवं फलों का स्वाद कैसा होता है ? इनके उत्तर में प्रसुश्री कहते ગાયનું દૂધ એક વિશેષ પ્રકારના વર્ણથી, ગંધથી રસથી સ્પર્શથી યુક્ત બની જાય છે, આ ગે દુગ્ધને જે અનુપમ સ્વાદ હોય છે, શ્રીગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને पूछे छे है भगवन् 'इमेयारूवेसिया' तो शुभाव। प्रा२ने। स्वाद त्यांनी पृथ्वीना हाय छ ? म प्रश्न उत्तरमा सुश्री छे 'णो इण्ट्रे समट्रे' હે ગૌતમ! આ કથનનો એ અર્થ સમર્થિત થતો નથી. અર્થાત્ ગોળ विगेरेन। २सना व ४ स्थाई त्यांनी पृथ्वीन हात नथी. 'तीसे ण पुढवीए एत्तो इतराए चेव जाव मणामतराए चेव आसाए ण पण्णत्ते' ५२ से પૃથ્વીને સ્વાદ તે તેને તેના રસ કરતાં પણ વધારે ઈષ્ટતર જ હોય છે. ચાવત્ કાતરજ હોય છે. પ્રિયતરજ હોય છે. મનેzતરજ હોય છે. અને भनेोऽमत२ डाय छे. 'तेसिं णं भंते ! पुष्पफलाणं केरिसए आसाए पण्णवे' હે ભગવન ત્યાંના એ પુછપ અને ફલેને સ્વાદ કેવો હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री ३ छे' मासे जहानामए चाउरत चकवट्टिरस कल्लाणे Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દુષ્ટ fter मिगमसूत्रे स यथा नामऊः 'चाउरंत चक्क हिस्स' चातुरन्तचक्रवर्तिनः चतुर्षु अन्तेषु समुद्र जय हिन्द परिच्छिन्नेषु चक्रेग - चक्रवत्सर्वतः समन्ताद्वर्तितुं शीलं यस्य स तथा तस्य 'कल्लाणे पत्ररथरणे' कल्याणमेकान्त सुखावहं मदरभोजनं विशिष्ट भोजन 'सयनहरू निफन्ने' जतसहस्रनिष्यन्नम् लक्षगोक्षीरसंपादितम्, तथाहिचक्रवर्त्ति सम्वन्धिनीनां - पुण्ड्रेक्षु वारिणीनामनातङ्कानां गवां लक्षस्य यत्क्षीरं तस्य पञ्चाशत्सहस्र गोभ्यः पानं दीयते एवमर्द्धाद्वक्रमेण पीतगोक्षीराणां गवां पर्यन्ते यावदे या गोः सम्बन्धि यत् क्षीरं तत्प्राप्तकलमशाल परमान्नरूपमनेकसंस्काइक द्रव्य मिश्र यद् भोजनं तत् फल्पाणमवर भोजनं वयते, तद् या शास्वादकं भवेत् ताशास्त्र दोपेतम् पुनस्तत् कीदृरा ? इत्याह- 'वणेणं उबवेए' वर्णेनाति शायिना शुक्लेनोपपेतं युक्तम् 'गंधेणं उव' गन्धेनातिशायिना सुरमिनोपपेतं हैं- 'गोमा ! से जहा नामए चाउरंत पक्वट्टिस्स कल्लाणे पवरभोपणे मतसहल निफन्ने चणेणं उचदेषु गंधेणं उदवेष, रसेण उच ए फालेणं उबवेए' जैसा चातुरन्त चक्रवर्ती का भोजन जो कल्याण भोजन के नाम से प्रसिद्ध है वह चक्रवर्ती का कल्याण भोजन इस प्रकार होता है - चक्रवर्ती की ही गाये हों और वे पुण्ड़ जाति के उत्तम क्षु को चरने वाली हों शरीर में नीरोग हों वैसी एक लाख गायों का दूध पचास हजार गायों को पिलाया जावे, और पचास हजार गायों का दूध पचीस हजार गायों को पिलावे इस तरह से आधी गायों को पिलाने के क्रम से वैसे दूध को पी हुई गायों के अन्तिम की एक नाथ का जो दूध हो उस दूध की बनाई हुई खीर जिसमें अनेक प्रकार के मेंवे आदि संस्कारक द्रव्य डाले गये हों वह कल्याण प्रवर भोजन चक्रवर्ती का कहलाता है वह वर्ण शुक्रवर्ण से गन्ध से सुरभिगन्ध से रस से मधुरादि रस से, स्पर्श से मृदुरिन पवर भोयणे सत्तहस्स निकन्ने वण्णेण उजवे गंधेणं उबवेए रसेणं उबवेए फासेणं उरवेए' प्रेम यातुरंत यवर्ति रामनुं लेकिन है ? उदयालु लेोभनना નામથી પ્રસિદ્ધ છે. ચક્રવર્તિ રાજાનુ તે કલ્યાણ ાજન આ રીતે બને છે. ચક્રવત્તિ નીજ ગાય હાય, અને તે પુરીૢ જાતીની ઉત્તમ શેલડીને ચરવાવાળી હાય, શરીરથી નિરાગી હાય, એવી એક લાખ ગાયાનુ દૂધ પચાસ હજાર ગાયાને પીવરાવવામાં આવે, પચાસ હજાર ગાયાનું દૂધ પચીસ હજાર ગાયાને પીવરાવવામાં આવે, આ રીતે અધિ અધિગાયાને ક્રમથી દૂધ પીવરાવતાં પીવરાવતાં એવી રીતે દૂધને પીનારી છેવટની એક ગાયનું જે દૂધ ઢાય છે એ દૂધથી બનાવેલ દૂધપાઠ કે જેમાં અનેક પ્રકારના મેવા વિગેરે સ્કાર વાળા પઢાર્યાં નાખવામાં આવ્યા હોય તે ચ¥વતિ રાજાનુ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोतिका ठीका प्र. ३ उ. ३.३९ एकोरुकस्थानामाहारादिकम् ६२५ तदा 'रसेणं उपवेए' रसेनातिशायिना मधुरादिनोपपेतं तं युक्तम् ' फासे णं उपवेए' स्पर्शेनातिशायिना मृदुस्निग्धादिनोपपेतम् 'आसाइणिज्जे' आस्वादनीयं सामान्यतः कल्याणभोजनम् 'वीसाइणिज्जे' विस्वादनीयं विशेषतः आस्वादनीयम् 'दीवणिजे ' दीपनीयम् - जठराग्नि प्रज्वाळनम्, 'विहणिज्जे' वृहणीयं धातूपचयकारित्वात् 'दप्पणिज्जे' दर्पणीयं समुत्साह वृद्धिहेतुकत्वात् 'मयणिज्जे' मदनीयंहर्षोत्पादकत्वात् 'सर्विवदियगायपल्हायणिज्जे' सर्वेन्द्रियगात्रप्रल्हादनीयं -आनन्दजनकत्वात, गौतमः पृच्छवि - 'भवेारूवे सिया' भवेदेतावद्रूपः चक्रवत्तिपरमभोजन सहशास्त्राद: पुष्पफलानां स्यात् कदाचित् किमिति प्रश्नः भगवानाह - 'गोयमा' 'हे गौतम! 'णो इमडे समहे' नायमर्थः समर्थः किन्तु 'तेसि णं पुप्फफळाणं तेषां पुष्पफलानाम् 'एतो इतराए चेत्र जाव आसार णं पण्णत्ते' इतः परम धादि रूप से युक्त जैसा होता है वह 'आसायणिज्जे' आस्वादनीय होता है, 'विसावणिज्जे' विशेष रूप से स्वाद के योग्य होता है, 'दीवणिज्जे ' दीपनीय होता है-जठराग्निकावर्धक होता है 'विए णिज्जे ' वृहणीय होता है-धातु आदि का वृद्धिकारक होता है, 'दप्पणिज्जे' दर्पणीय होता है - उत्साह आदि की वृद्धि करने वाला होता है 'मयणिज्जे' मदनीय होता है- हर्षोत्पादक होता है, 'सबिंदियणापपल्हायणिज्जे' और समस्त इन्द्रियों को एवं शरीर को प्रह्लादनीय - आनन्दवधक होता है श्रीगौतमस्वामीकहते हैं तो क्या है भदन्त ! 'भवेद्यावे सिया' इसी तरह का स्वाद वहां के पुष्प फलों का होता है ? उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं णो ण समट्टे' हे गौतम ! इस कथन से यह अर्थ समर्थ नहीं होता है- क्योंकि- 'तेसिणं पुष्कफलाणं एतो इत्तराए चेत्र जाव કલ્યાણ પ્રવર ભેાજન કહેવાય છે તે વર્ણની અપેક્ષાએ શુકવ વણથી ગન્ધની અપેક્ષાથી સુરભિ ગધથી અર્થાત્ સુગ ંધથી રસની અપેક્ષાએ મધુર વિગેરે રસથી मने स्पर्शनी अपेक्षा मे भृटु स्निग्ध विगेरे पशुाथी युक्त होय है. 'आता यणिज्जे' भारवाहनीय होय छे, वीसायणिज्जे' विशेष ३पथी वाह वाणी होय है, 'दीवणिज्जे दीपनीय होय छे. अर्थात् राज्जिने वधारतार होय हे. 'वि हूणिज्जे' शृंडीय धातु विगेरेने वधारनार होय छे, भेटते हे शक्ति वर्ध હાય છે ‘વૃઘ્ધનિને' દણીય હાય છે. ઉત્સાહ વિગેરેને વધારનાર હોય છે. 'मयणिज्जे' भहनीय होय छे. उषेरपा होय छे. 'सव्त्रि दियगाय पल्हा यणिज्जे' भने सधणी है द्रियाने माने शरीरने असाहनीय मानं १६४ होय छे. श्रीगोतमस्वाभी डे छे से लगवन् 'भवेया रुवेसिया' तो शु ત્યાંના પુષ્પ અને કળે ને સ્વાદ આ પ્રકારના હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री पुडे हे } 'जो इण्डे समट्टे' हे गौतम! या स्थनथी से अर्थ समर्थित मी० ७५ Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमन ६२६ भोजनास्वादाद पुष्पफलानामास्वाद इष्टतर एव यावद-प्रियतर एव कान्ततर एव मनोज्ञतर एव मनोऽमतर एव आस्वादः खल प्रज्ञप्तः कथित इति । 'ते णं भंते ! मणुया' ते खल भदन्त । एकोहरुद्वीपका मनुजाः 'तमाहारमाइरिचा' तमाहारमनन्तरवर्णित स्वरूपकमाहारमाहार्य-उपभुज्येत्यर्थः 'कहिवसहि उति' कुन-कस्मिन् स्थाने-गृहविशेषे वसति-चासं उपयन्ति उपगच्छन्ति शयनाद्यर्थमिति प्रश्नः भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'रुक्खगेहालयाणं ते-मणु पगणा पण्णत्ता समणाउसो' वृक्षगेहालयाः खल ते मणुजगणाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण ! आयुष्मन् ! वृक्षरूपाणि गृहाणि थालया, येषां ते तथा । अथै ते गेहाकारावृक्षाः किं स्वरूपाः इति पृच्छति-'ते भंते ।' इत्यादि, 'ते णं भंते ! रुक्खा कि संठिया पण्णत्ता' ते खल वृक्षाः यत्र ते वसतिमुपयन्ति ते कि संस्थिताः कीदृश संस्थानवातो भवन्तीति प्रश्नः, भग आसाएणं पण्णत्ते' वहां के फलों का आस्थाद इस चक्रवर्ती के भोजन से भी इष्टतर ही होता है यावत् मनोऽमतर ही होता है 'ते गं भंते ! मणुया तमाहारमाहारित्ता कहिं वसा उति' हे भदन्त ! वे एकोरुक द्वीप निवासी मनुष्य इस प्रकार का आहार करके कहाँ निवास करते हैं अर्थात शयन आदि के लिये ये किस गृह विशेष में जाते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं 'रुक्खगेहालया णं ते मणुषगणा पण्णता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् गौतम ! वे एकोक द्वीप निवासी मनुष्य गृहाकार परिणत वृक्ष ही के घर वाले होते हैं अर्थात् सोने आदि के लिये वृक्ष रूप गृहों पर जाते हैं क्योंकि इनके वृक्ष ही गृह रूप होते है 'ते णं भंते ! रुक्खा कि संठिया एण्णसा' हे भदन्त ! वे वृक्ष केसे थत नथी. भले 'तेसि णं पुफिफलाणं एचो इट्टतराए चेव जाव आसारणं पण्णत्ते' त्यांना सेन। स्वाई 21 शतना यत्तिन लेनथी ५५ ४८तर होय छे. यावत मनात होय छे. 'ते ण भते ! मणुया तमाहार माहरित्ता कहि वसहि उति' भगवन् ४३४ वापत મનુષ્ય આવા પ્રકારને આહાર કરીને કયાં નિવાસ કરે છે ? અર્થાત્ શયન વિગેરે માટે કયાગ્રહ વિશેષમાં જાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે छे, 'रुक्रुखगेहालया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' श्रमाय मायुभन् તમ! એકરૂક દ્વીપમાં રહેવાવાળા તે મનુષ્ય ગૃહાકારથી પરિત વૃક્ષના જ ઘરે વાળા હોય છેઅર્થાત્ સુવા બેસવા વિગેરે માટે વૃક્ષ રૂપ ગૃહમાં तयछ तभाना गृह ३५ वृक्षा हाय छे. 'ते णं भ' ! रुक्खा कि सठिया पण्णत्ता भगवन् वृक्षावा अाय छ । या प्रश्नन। उत्तरमा प्रभुश्री ४३ छ । Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सु. ३९ एकोरुकस्थानामाहारादिकम् ६२७ वानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! 'क्रडागारसंठिया' कूटाकारसंस्थिताः कूटं - शिखरं तादृशसंस्थानवन्तः तदाकारेण परिणताः वृक्षाः 'पेच्छाघरसंठिया' प्रेक्षागृह संस्थिताः प्रेक्षागृहत् संस्थिताः - नाटयशालाकारेण परिणताः 'सत्तागारसंठिया' सत्राकार संस्थिताः - सत्रं - - दानशाला वदाकारपरिणता: 'झयसंठिया' ध्वजसंस्थिताः- ध्वजासंस्थानसंस्थिताः 'धूमसंठिया' स्तुपसंस्थिताः 'तोरण संठिया' तोरण सदृश संस्थानसंस्थिताः 'गोपुर वेइय चोप्पालगसंठिया ' गोपुवेदिका चोप्पाळकसंस्थिताः, तत्र गोपुरं - पुरद्वारम् वेदिका - उपवेशन योग्या भूमिः, चोप्पालकं - मत्तवारणं तत्सदृशसंस्थानेन संस्थिताः 'अट्टालग संठिया ' महालकसंस्थिताः - अट्टालकं-मासादोपरिभागस्तदाकारपरिणताः, 'पासायसंठिया' प्रासादसंस्थिताः प्रासादो राशो गृदं वत्सदृशाः, 'हम्मतळसंठिया' हर्म्यतलहोते हैं ? उत्तर में प्रभु श्री कहते है 'गोषमा ! कूडागार संठिया, पेच्छाघरसंठिया, सत्तागारसंठिया, झयसंठिया, धूमसंठिया, तोरणसंठिया, गोपुरवेश्य चोपालमसंठिया' हे गौतम! ये वृक्ष जैसा-आकार गिरिशिखर का होता है ऐसे आकार वाले गोल होते हैं अर्थात् ऐसे वृक्ष सर्वथा स्थिर होते हैं - तथा फोई २ वृक्ष प्रेक्षागृह - रंगशाला के जैसे होते हैं, कोई - कोई वृक्ष छत्र के जैसे आकार वाले होते हैं कोई २ वृक्ष ध्वजा के जैसे आकार वाले होते हैं, कोई कोई वृक्ष स्तूप के जैसे आकार वाले होते हैं, कोई २, वृक्ष तोरण के जैसे आकार वाले होते हैं कोई २, वृक्ष गोपुरनगर के प्रधान द्वार के जैसे आकार वाले होते हैं, कोई २, वृक्ष वेदिका चबूतरी के आकार वाले होते हैं कोई २, वृक्ष चोप्पाल-मल हाथी के आकार वाले होते हैं 'अट्टालगसंठिया, पासादसंठिया, हम्मतलसंठिया, 'गोयमा ! कूड़ागारस'ठिया, पेच्छाघर सठिया, सत्तागारसठिया, क्षयसठिया, थूमस ठिया, तोरणसठिया, गोपुरवेइयचोप्प लगसठिया' हे गौतम! आ વૃક્ષા જેવા ગાળ આકાર પર્વતના શિખરના ઢાય છે. એવા આકારવાળા ગાળ હાય છે. અર્થાત્ એવા વૃક્ષાસથા સ્થિર હોય છે. તથા કાઈ કઈ વૃક્ષ પ્રેક્ષાગૃહ ર’ગશાળાના જેવા હાય છે કાઈ કાઇ વૃક્ષેા છત્રના જેવા આકારવાળા ડાય છે. કેઈ કેઈ વૃક્ષે ધજાના જેવા આકારવાળા હાય છે, કોઇ કાઇ વૃક્ષે સ્તૂપના જેવા આકારવાળા હૈાય છે. કાઈ કાઈ વૃક્ષેા તારણના જેવા આકારવાળા હાય છે. કાઇ કાઈ વૃક્ષેા ગેપુરનગરના મુખ્ય દ્વારના જેવા આકારવાળા હોય છે. કાઈ કાઇ વૃક્ષેા વૈકિા ચખૂતરીના આકાર જેવા આકાર વાળા હોય છે. કોઈ કોઈ વૃક્ષેા ચેાપ્પાલ-મત્ત હાથીના જેવા આકાર વાળા હોય છે. 'अलग संठिया, पासाद संठिया, हम्मतल 'ठिया, गवक्खसठिया, वालग्ग Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२८ जीवाभिगमस्त्र संस्थिताः, हयं शिखररहितं धनिनां गृहं तत्सदृशाः 'गवखसंठिया' गवाक्षसंस्थिताः गवाक्षो हर्थजालं तादृशाः 'बालग्गपोतियसंठिया' वालाग्रपोति. कसंस्थिताः तत्र वालाग्रपोतिका नाम जलस्योपरिमासादः 'वळभीसठिया' वलभीसंस्थिताः, तत्र वकभी छदिराधारस्तत्मधानकं गृहम्, 'अण्णे तत्थ बहवे वरभवण सयणासणविसिटसंठाणसंठिया' अन्थे तत्र बहवो नरभवनशयनासन विशिटसंस्थानसंस्थिताः 'सुइसीयलच्छाया' शुभशीतलच्छायाः शुमा शीतला छाया येषां ते वथा, 'ते दुमगणा पण्णता समणाउसो' ते द्रुमगणा:-कल्पवृक्षाः यथोक्त वर्णित स्वरूपाः प्रज्ञप्ता:-कथियाः हे श्रमणायुष्मन् । 'अत्यि णं भंते ! एगोस्य गवक्खसंठिया, वालरंगपोहयसंठिया, बलभीसंठिया कोई २, वृक्ष अटारी-महल के उपर के भाग जैसे आकार वाले होते है कोई २, वृक्ष राजमहल के जैसे आकार वाले होते हैं कोई वृक्ष शिखर विहीन धनिकों के गृह के जैसे आकार वाले होते हैं कोई २, वृक्ष गवाक्ष झरोखे-के जैसे आकार काले होते हैं, कोई २, वृक्ष वालाग्रपोतिका-जल के ऊपर पने हुवे प्रासाद के जैसे आकारवाले होते हैं, कोई कोई वृक्ष बलभीछज्जे के जैसे आकार वाले होते हैं 'अण्णे तत्थ बहवे वरभवणसयणासण विसिट संठाणसंठिया' और भी जो वहां वृक्ष होते हैं वे भी कितनेक श्रेष्ठ भवन के जैसे विशिष्ट आकार वाळे, कितनेक शयन के जैसे विशिष्ट आकार वाले, कितनेक आसन के जैसे विशिष्ट आकार वाले होते हैं 'सुहसीयलच्छाया' इन वृक्षों की छाया शुभ और शीतल होती है 'ते दुमगणा पण्णत्ता०' हे श्रमण आयुष्मन् ! इस प्रकार के आकार पोइयसठिया वलभीसठिया' । वृक्ष मटारी भवना ५२॥ माग જેવા આકારવાળા હોય છે. કેઈ કોઈ વૃક્ષે રાજમહેલના આકાર જેવા આકારવાળા હોય છે. કેઈ કઈ વૃક્ષ શિખર વગરના ધનવાનોના ઘરના જેવા આકારવાળાં હોય છે. કઈ કઈ વૃક્ષે ગવાક્ષ ઝરૂખાના જેવા આકારવાળા હોય છે. કોઈ કઈ વૃક્ષ વાલાપતિકા પાણીની ઉપર બનાવેલા પ્રાસાદ મહેલના જેવા આકારવાળા હોય છે. કેઈ કઈ વૃક્ષે વલભીછજાના જેવા मारवाडीय छे. 'अण्णे तत्थ बहवे घरभवणसयणासण विसिट्ट संठाण सठिया' मी पण त्या वृक्षा होय छे. ते अधा पोटमा उत्तम ભવનેના જેવા વિશેષ પ્રકારના આકરવાના કેટલાક શયનના જેવા વિશેષ પ્રકારના આકારવાળા, કેટલાક આસનના જેવા વિશેષ પ્રકારના આક્રરવાળા हाय छे. 'सुहसीयलच्छाया' या वृक्षानी छाया शुम मर शीतल डाय छे. 'वे दुमगणा पण्णत्ता' श्रम मायुभन माया ना मा२पाणा भा Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ . ३९ एकोरुकस्थानामाहारादिकम् ફર્ दीवे दीवे' सन्ति खलु भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'गेहाणि वा गेहायणाणि वा ' गृह वा गृहायनानि वा, गृहा अस्मद्गृह सदृशा-स्था, गृहायनानि, तत्र गृहाणाम् भयनं मार्गः गृहपङ्क्तौ गमनमार्गः, वानि संति किं वा ? इति प्रश्नः, भगवानाह 'गोयमा' हे गौतम! 'गो-इणद्वे समट्टे' नायमर्थः समर्थ:- :-तत्र गृहादिकानि न सन्तीत्यर्थः, यतस्ते ' रुक्ख गेहालया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणारसो' वृक्ष हालयाः खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमणायुष्मन् ! वृक्षा एव तेषां गृहादयः, वृक्षमात्राश्रयमाश्रित्य ते मनुजा वसन्ति न तु तदतिरिक्त गृहादेस्तेपारावश्यकतेति भावः । ' अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे' अस्ति खलु भदन्त । एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'गामाइ चा ' ग्रामा इति वा 'नगराइ वा' नगराणीति वा 'जाब संनिवेसाइ वा' यावत्सन्निवेशा इति वा, यावत्पदेन खेट बटादीनां सग्रहो भवतीति प्रश्नः, भगवानाह - 'णो इट्टे समट्टे' नायमर्थ समर्थः तत्र एकोरुकद्वीपे ग्रामादयो न भवन्तीति भावः । 'जहिच्छिय कामगामिणो वे मणुषणा पण्णत्ता समणाउसो' वाले ये वृक्ष कहे गये हैं । 'अत्थि णं भंते! एगोरूप दीवे दीवे गेहाणि वा हायणाणि वा' हे भदन्त ! एकोरूप नाम के द्वीप में घर अथवा घरों के बीच का मार्ग हैं क्या इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'णो इट्ठे समट्टे' हे गौतम | ऐसा अर्थ समर्थ नहीं है । 'रुकखगेहालयाणं ते मणुत्रा पणसा' क्योंकि वृक्ष ही आश्रयस्थान जिन्हों का ऐसे ही वे - मनुष्य कहे गये हैं | 'अस्थि भंते ! एगोरुव दीवे २, गामइ वा नगराइ या जाय सन्निवेसाह वा' हे भदन्त ! एकोरुक द्वीप में क्या ग्राम या नगर यावत् सन्निवेश हैं - यहां यावत्पद से खेट - हर्बट आदिकों का ग्रहण हुआ है इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं- 'जो हणडे समट्टे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् यहां पर ग्राम आदि कुछ भी वृक्ष उद्या छे. 'अस्थि णं भते ! एगोरूय दीवे गेहाणिवा मेहायाणि वा ' હે ભગવન એકેક નામના દ્વીપમાં ઘર અથવા ઘાની વચ્ચેના રસ્તા છે ? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री छे हैं णा इणट्टे समट्टे' हे गौतम सेवा अर्थ समर्थित थतो नथी. 'रुकुख गहालयाणं वे मणुया पण्णत्ता' भ वृक्षोण भेगोना माश्रयस्थान ३५ हे, सेवान ते मनुष्या ह्या छे, 'अस्थि णं भवे ! एगोरूय दीवे दीवे गामाइ वा नगराई वा, जाव सन्निवेखाइ वा' डे ભગવન એકરૂક દ્વીપમાં ગ્રામ અથવા નગર કે સન્નિવેશ છે ? અહીયાં યાવત્યદથી ખેટ, કટ વિગેરે પદે ના સંગ્રહ થયેલ છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वाभीने हे हे हे 'णा इणट्टे समट्टे' हे गीतभ ! आा अर्थ अरोर નથી. અર્થાત્ ત્યાં આગળ ગામ વિગેરે કઇ પશુ નથી, કેમકે ત્યાંના મનુષ્યે 'जच्छि कामगामिणो से मणुयगणा पण्णत्ता' पोतानी इच्छा प्रभा गमन Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्र यथेच्छितकामगामिनः स्वेच्छानुसार गमनशीला: न तेषां ग्रामादीनामावश्यकता वर्तते, एताशास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः कथिताः हे श्रमणायुष्मन् ! 'अत्यि णं भंते ! एगोरुय दीवे २' अस्ति खल्ल भदन्त । एकोषकद्वीपे खलु द्वीपे 'असीइ वा' असिरिति वा असिः-खड्गा, इति वा 'मसीइश' मपी-कज्जलं 'स्याही' इति प्रसिद्ध मपीपात्रं वा यमुपजीव्य लेखका उपजीवन्तीति । 'कसीइ वा कपीरिति वा कृषिः कर्षणम् रिणीति का पण्यमिति वा, पण्यं-क्रयाणकम् 'दणिज्जाइ वा' वाणिज्यमिति वा, वाणिज्यं-क्रयविक्रयरूपं वा तत्रास्ति किम् ? भगवानाह-'नो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः, 'ववगय असिमसि कसि पणियवाणिज्जाणं ते मणुयगणा पणत्ता समणाउसो' व्यपगतासिमपीकृषि पण्यवाणिज्याः खल खड्गादि व्यापाररहितास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमणायुष्मन् ! 'अस्थि णं मंते ! एगोरुयदीवे२, अस्ति खल भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'हिरण्णे वा' हिरण्पमिति वा, हिरण्यं सुवर्णविशेषः, 'मुण्णेइ वा' सुवर्णमिति वा 'कंसेइ वा' कांस्यमिति वा, कास्यं त्रपुताम्रसंयोगजन्य धातुनिमितपात्रविशेषः, 'सेइ वा' नहीं है क्योंकि यहां के मनुष्य जहिच्छिय कामगामिणोते मणुषगणा पणात्ता' अपनी इच्छा के अनुसार गमन करने वाले होते हैं। इनके ग्राम आदि की आवश्यकता भी नहीं होती हैं 'अस्थि णं भंते ! एगो. रूय दीवे अतीति वा मसीह वा कसीह वा पणीति वा वणिजति वा' हे भदन्त । वहां पर क्या अखि, मपी, कृषि, पय-ऋयाणक-और वाणिज्य-व्यापार-ये छह कर्म होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-'णो गढे समढे हे श्रमण आयुष्मन् गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् वहां पर असि मषी आदि कर्म नहीं होते हैं ये कर्म तो कर्म भूमि में ही होते हैं अकर्मभूमि में नहीं होते हैं । 'अस्थि णं भंते । एगोख्य दीवे णं दीवे हिरणेति वा सुवानेति वा कंसेति वा दुसे ति था કરવાવાળા હોય છે. તેઓને ગામ વિગેરેની આવશ્યકતા પણ હોતી નથી. 'अस्थि णं भते ! एगोरुय दीवे असीति व , मसीइवा, पणी तवा, वणिज्जति ” હે ભગવન ત્યાં તે એક રૂક દ્વીપમાં અસિ. મશી, કૃષિ ખેતિ પૂણ્ય વેચવાનું થાન અને વાણિજ્ય વ્યાપાર આ છ કામ થાય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री गीतमस्वामीन ४ छ । 'जो इणटे सम?' 8 श्रम आयुभन् ગૌતમ! આ અર્થ ખબર નથી. અર્થાત ત્યાં આગળ અસિ, મણી, વિગેરે ક થતા નથી. આ કમ તે કર્મભૂમિમાં જ થાય છે. અકર્મભૂમિમાં થતા श्री. 'अस्थि णं भवे ! एगोरुयदीवेणं दीवे हिरण्णेति वा, सुवण्णे तिवा, क. Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिका टीका प्र. ३ उ.३ ६.३९ एकोरुकस्थानासाहारादिकस् ६३१ व्यमिति वा तन्तुसन्तानसंभवं वस्त्रं दुष्यम् 'मणी वा' मणिरिवि वा 'सुतिएति वा मौक्तिकमिति वा 'चिउलधणकणगरयणमणिमोत्तिय संख सिलप्पबाल संतसारसावज्जेति वा विपुलधनकनकरत्नमणिमौक्तिकशङ्क शिलाप्रवालानि प्रसिद्धानि, एतद्रूप सत्सारस्वापतेयमिति प्रधानद्रव्यमिति वा, भगवानाह - हंवा अस्थि' हन्त सन्ति ते हिरण्यादय इति किन्तु 'णो चेव णं तेसि मणुयाणं' नेव खलु तेषां मनुजानामेको रुकडींपवासिनाम् तत्र सुवर्णादि धनेषु 'ति समभावे समुप्पज्जइ' तीव्रो ममस्वभावः समुपपद्यते, समय क्षेत्रवासिनामिव तेशं धनाद ममत्वं न भवतीति भावः 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे णं दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुद्वीपे खलु द्वीपे 'रायाइ वा' राजा इति वा चक्रवदि 'जुत्ररायाइ वा युवराज इति बा - राजपदामिषितो राजपुत्रादिः 'ईमरे वा' ईश्वरो भोगिकादिरिति वा, तलवर इति वा, तलवरः - सन्तुष्टनर पतिमदत्तसौवर्णष्ट्राल _मणीति वा मुसिएति वा विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तिय संसिल वाल संतसार सावएज्जे तिवा' हे भदन्त ! उस एकोरुक द्वीप में क्या चांदी, सुवर्ण, कांसा, पु, ताम्र, दृष्य- वस्त्र, मणि, मौक्तिक आदि धातुएं होती हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'हंता अस्थि' हां गौतम ! ये सब वहां पर भी होती है । परन्तु 'णो चेव णं तेसि मणुवाणं तिन्त्रे मम 'तभावे समुप्पज्जद्द' वहां के मनुष्यों का इनके प्रति तीव समय भाव नहीं होता है-जैसे कि ढाई द्वीप में कर्मभूमिज मनुष्यों का इनके प्रति तीव्र ममत्व भाव होता है 'अस्थि भंसे । एगोरुय दीवेणं दीवे रायाइ वा जुवरायाइ वा ईसरेह वा तलवरेह वा माविया वा को बियाह वा इमोह वा सेट्टी वा०' हे भदन्त ! उस एकोरुक द्वीप में यह राजा है सेतिवा दूसेति वा मणाति वा मुत्तिएत्तिवा, विपुलधणकणगरयणमणिमाप्तिय संख सिलवाल संतसारसावपज्जेति वा' हे भगवन् खे खे हैं । ३४ द्रीयभां थांदी, सोनु, अंसु, त्रयु, ताम्र दृष्य - वस्त्र, भधि, भोति, विगेरे धातुसो होय हे ? या प्रश्नना उत्तरमां प्रभुश्री गौतमस्वामीने हे छेडे 'ह'ता अस्थि' 1 ગૌતમ! આ બધી વસ્તુ ત્યા આગળ પણ થાય છે પરંતુ ‘નો ચેત્ર નં देसि णं मणुया तिव्वे ममत्तभावे समुपज्जइ' त्यांना मनुष्याने या वस्तुभे। પર તીવ્ર મમત્વભાવ હાતે નથી. કે જેવી રીતે અઢાઈ દ્વીપના કભૂમિજ भनुष्योनो मे वस्तु। पर तीव्र भभत्व लाव होय छे, 'अस्थि ण' भते । एगोरू दीवेण दीवे रायाइवा, जुवरायाइवा ईसरेश्वा, तलवरेइवा, माड बियाइवा कोडु चियाइवा, सेट्टीइवा.' हे भगवन् खे खे है । ३४ द्वीपमा आ राल छे, मा યુવરાજ છે, આ ઇશ્વર છે, આ તલવર છે, અર્થાત્ પ્રસન્ન થયેલા રાજાએ Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३२ -- जीवाभिगम कृतशिरस्कः चौरशोधाधिकारी । 'साडवियाइ वा' माण्डविक इति, छिन्नभिन्नजनाश्रयाधिपतिः 'कोड'विया वा' कौटुम्बिक इति वा, कौटुम्बिकः कतिपयकुटुम्बमभुः 'इवाइ वा' इभ्य इति वा' इवो हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमर्द्दनीति इभ्यो धनिकः 'सेडोइवा' श्रेष्ठीनि वा कम्पाध्यासि वसौवर्णपट्टालकृतशिराः नगरप्रधानव्यवहर्त्तेति भावः 'सेणावईति चा' सेनापतिरिति वा, सेनानायक', 'सत्यवाइवा' सार्थवाह इति वा, यो हि गणिमादि क्रयागकं गृहीत्वा देशान्तरं गच्छन् सहचारिणां मार्गे महायको भाति स सार्थवाहः, भगवानाह - 'णो इण्डे समट्टे' नायमर्थः समर्थ', 'ववगयइडी सक्काराणं ते मणुपगणा - पण्णा समणाउसो !' व्यपगतऋद्धिसत्काराः खलु व्यपगताऋद्धिविभवैश्वर्य सत्कारच येभ्यस्ते यह युवराज है यह इश्वर - भोगिक आदि है यह तलचर हैं-संतुष्ट हुए नरपति द्वारा दिया गया जिसके मस्तक पर सौवर्ण का पट्ट अलङ्कृत हो रहा है ऐसा थानेदार जो नगरादि में चोरों की छानवीन किया करता है उन्हें दण्डित करता है यह मॉडविक छिन्न भिन्न वसति का स्वामी है, यह कौटुम्बिक है कतिपय कुटुम्ब का स्वामी है, यह इभ्य हस्ति प्रमाण द्रव्य का मालिक है, यह श्रेष्ठि-लक्षाधिपति है यह सेनापति है, यह सार्थवाद - गणिमादिक ऋषाणक को वेचने के लिये देशान्तर जाते हुए जो अपने सहचारियों को मार्ग में सहायक होता है ऐसा वह संघाधिपति हैं, 'क्या ऐस व्यवहार होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं - 'णो इट्टे समट्टे' हे गौतम ! वहाँ पर ऐसा व्यवहार नहीं होता है क्योंकि- 'ववगयइढी सकारा णं ते मणुवगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्प्रन् ! ये सब एकोरुरु द्वीप वासी मनुष्य ऋद्धि, આપેલ સેાનાના પટ્ટ જેના માથા પર શેલે છે, તેવા થાણુદાર (મામલતદાર) જે નગર વિગેરેમાં ચારાની શેાધ ખેળ કરે છે, તેમના દડ કરે છે તેને તલવર કહે છે આ માર્ડ'મિક છિન્ન ભિન્ન વસતિના સ્વામી છે. આ ઈલ્ય હાથીના જેટલા પ્રમાણુ વાળા દ્રવ્યના માલીક છે, આ શેઠ અર્થાત લક્ષાધિપતિ છે આ સેનાપતિ છે. આ સાથ વાહ છે, ણિમ પરિમ, વિગેરે વેચવા ચૈાગ્ય પદાર્થને વેચવા દેશાન્તરમાં જનારાઓને તેમની સાથે જેઆ સહચારી–સાથે રહેવાવાળાઓને માર્ગમાં સહાયક હોય છે. એવા તે સઘના અધિપતિ છે. શુ' ? એવા વ્યવઙાર થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वामीने हे छे! 'णो इणट्टे समट्टे' हे गौतम! त्यां भागण सेवे। व्यवहार थतेो नथी. भिडे 'ववगय इड्ढी सक्कारा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समगाउसो' हे श्रमायु आयुष्मन् भागधा थे। द्वीयभां रहेवावाणा भन्नुष्यो Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.३९ एकोषकस्थानामाहारादिकम् ६३३ तथा, ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, हे श्रमणायुप्मन् । 'अस्थि ण भंते ! एगोरुयदीवे२' अस्ति खलु भदन्त ! एकोहीपे द्वीपे 'दासाइ वा दास इति वा, क्रयक्रीतो दासः दासीपुत्रो वा 'पेसाइवा' घेष्य इति वा प्रेषणाहौँ दूतादिः, 'सिरसाइ वा शिष्य इति या उपाध्यायोपासक-शिक्षणीय इत्यर्थः 'अयगाइ दा' भृतक इति वा यत्कालमवधि कृत्वा वेतलेन कर्मकरणाय नियुक्तः स मृतका 'माइलगाइ वा माशिक इति वा-द्रव्यांशमाहीमाणिकः, 'कम्मका पुरिसाह वा' कर्मकरपुरुष इति वा, भगवालाह-'नो इण्डे समहे' लायमर्थः समर्थन तत्र दासादयो भवन्ति, किन्तु-वाय आभिगिया णं ते वणुयगणा पण समणाउसो' व्यपमहाभियोगिराः खल उपगलस् आमियोगिक दासादि कर्मयेवरते स्था, मनुजमणार मता:-कविताः हे श्रम गायुष्मन् ! 'अस्थि भंते ! एगोरुपदीये दीये' अस्ति खलु मदन्त ! एकोहाताप द्वापे 'पायाइ दा' जाता इति वा' माता-जनली पियाइ वा पिता इखि बा पिता जनकः 'भायाइ वा' भ्राता सहोदरः, 'भइणीइ चा गमिनीति वा भोगनी सहोदरा मज्जा वा भार्या इति वा, भार्या पत्नी 'पुलाइ वा पुत्र इति वा, 'शाइ वा धृता इति तत्र धूता दुहिता पुत्रीत्यर्थः, 'सुहाइ वा स्नुपा-पुत्रवधूः, एते पूत्तरस योजना सन्ति न वेति प्रश्नः, भगवानाह-'हंता अस्थि हन्त, सन्ति, एते जननी जन कादयो भवन्ति किन्तु 'जो चेन तेहिं मणुशाणं लिव्ये पेगवंधणे सुपएज्जई नैव खलु विभव, ऐश्वर्थ, और सत्कार आदिकों से रहित होते हैं इनमें रुब में समानता ही होती है विषमता नही होती है। अधिकं मंते ! एगोरुय दीवे दीवे मायाह वा पियाइ वा भाषा का, अइजीह वा, मनाइवा, पुत्ताइ वा, थुचाइ वा सुझाइ वा, हे मदन्त ! एकोहक द्वीप में 'पह माता है, यह पिता है, यह भाई है, यह पहिन है, यह मार्श है, यह पुत्र है, यह दुहिता-पुत्री-है, यह स्नुषा-पुत्रमधू है' इत्यादि व्यवहार होना है क्या? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते है-हे मौत! 'हना अस्थि हां वहां ऐसा व्यवहार होता है, परन्तु जो वेत्रगं तेषि पं अणुयाणं तिथे કદ્ધિ, વિભવ, એશ્વર્ય અને સાર વિગેરેથી રહિત હોય છે તેઓ બધામાં समाना होय छ ? विष ५ कोतु नथी. 'अत्धि भते ! गोमय दीवे दीवे मायाइवा, पियाइवा, भायाइव', भइणीवा, भजाइवा, पुत्ताइवा धुयाइवा सुण्हाइवा' है मगन सौ३४ द्वीपमा मा भाता छ, पिता छे. આ ભાઈ છે, આ બહેન છે, આ સ્ત્રી છે આ પુત્ર છે, આ પુત્રી છે. આ નુષ પુત્રવધુ છે આવા પ્રકારનો વ્યવહાર હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભા गोतमस्वामीन छे गौतम । 'हता अस्थि' हा त्यां मे प्रमोना जी. ८० Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवrnगमसूत्रे ६३४ तेषामेको रुकमनुजानां तत्र - मादपित्रादौ तीव्रः प्रेमबन्धनः समुद्यते प्रेमबन्धो न जायते तत्राह - 'प' इत्यादि, 'पयणुपेज्जवंधणाणं ते मणुपणा पणचा समणाउसो' मत तुमचन्धनः- प्रेरबन्धनरहितान्ने मनुजगणाः शप्ताः कथिताः हे श्रमणायुजन् ! 'अस्थि णं भते ! एगो रुपढीवे२' अस्ति खलु भदन्त । एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'अरीविना देरिति ना' अरिदिति वा, वैरिरिति वा, तत्रारिः- सामान्यशत्रुः, वैरि:- जातिनिबन्धवैरीपेतः, यथा - सर्पनकुल:, 'घाव वा' घातक इति वा, घाटको योऽव्येन चारगति 'चहए था' व इति' स्वयं हन्ता व्यथको वा चपेादिना ताडक: 'पढिणीएड वा' प्रत्यनीक इति व गत्यनी - करिछद्रान्वेषी कार्योपधातका 'पच्चमिते वा' प्रत्यमित्रः यः पूर्वलित्रं भूत्वा पश्चादमित्री नाट: अमित्रसहाय, भगवानाह - 'नो ३हे समट्ठे ' पेमबंधणे लघुप्पनए उन मनुष्यों को माता पिता आदिकों में तीव्र स्नेहानुबंध नहीं होता है क्योंकि 'पयणुपेज्जयंधणा णं ते मणुघमणा पण्णत्ता समपाउ' हे श्रमण आयुष्मन् | यहां के निवासी मनुष्ष अल्प प्रेम बन्धन वाले कहे गये है 'अस्थि णं भंते ! एगोरुव दीवे २, दासा वा पेला, विहसाह वा भवनाह वा, भाएलगाई ना, कम्मरगरपुरिसाह या' हे भोक दीप में 'वह दास है-त्र क्रीत नौकर है, यह प्रेष्य है- दूतादिक है, यह शिष्य है, यह मृतक हैनियत वेतन देकर रखा गया काम करने वाला मनुष्यहै, यह भागीदार है, यह कार्यकर पुरुष है 'ऐसा व्यवहार होता है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुत्री कहते हैं - हे गौतम! 'जो इकट्ठे सबड़े' ऐसा अर्थ समर्थ नहीं है- अर्थात् नहां पर सान आदि का व्यवहार नहीं होता है -क्रय व्यवहार होय है. परंतु 'णा चेव णं बेसिणं मणुयाणं विव्वे पेमबंधणे समुप्प રા' તે મનુષ્યાને માતા, પિતા, વિગેરેમાં અત્યંત ગાઢ સ્નેહાનુભ'ધ હાતા नथी, भट्ठे 'पयणुपेज्जब घणा णं से मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे શ્રમણુ આયુષ્મન્ ! ત્યાંના રહેવાવાળા મનુષ્યા અલ્પ પ્રેમમ ધનવાળા કહ્યા છે. 'अस्थि ण भवे । गोरुय दीवे दीवे दाखाइवा, पेसाइवा, सिरसाइवा, भयगाइवा. भाइ लगाइबा. कम्मरपुरिसाइवा' हे भगवन्! मे मेोइड द्वीपमा 'आहास छे. भरी। नाउर छे, मा प्रेष्य छे. अर्थात् इत विगेरे हे, मशिष्य छे, આ ભૃતક છે. અર્થાત્ નકકી કરેલ મુદત સુધી પગાર આપીને રાખવામાં આવેલ કામ કરનાર મનુષ્યને ભૃતક કેહે છે. આ ભાગીદાર છે, આ કાય કર પુરૂષ છે. આવા પ્રકારના વ્યવહાર ધાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે ‘ના ફળકે समट्टे' हे गौतम! मा अर्थ गरेर नथी. अर्थात् त्यां हास विगेरे व्यवहार Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका मान.३ उ.३ छु.३९ एकोरकस्थानामाहारादिकम् ६३५ नायमर्थः समर्थः नैते आयोदयो भवन्ति यतः 'वनगयवेराणुबंधाणं ते मणुयगणा पणत्ता समणाउसो' व्यपगत वैरानुसन्धास्ते अनुजगणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमणायुष्मन् ! व्यपगतः वैरजन्योऽनुबन्धः सम्बन्धो येभ्यस्तथा भूतास्ते मुक्तिमार्गावरोधकारणभूते कृतपूर्व भववरादि विषयेऽपि पश्चात्तापं कुर्वन्तीति । क्योंकि-'अवगत आभिओमियाणं ते मणुयाणा पण्णता समणाउसो' हे श्रमण आयुषन् ! इन्हके अभिनवोमिक कर्म नहीं होता है अर्थात् वहां के व्यक्ति किली के दबाव में आर या पैला के दास बनकर किसी के दास आदि नहीं होते हैं। 'अक्षि गं भंते ! एगोरुवदीवे रीति वा वेरिएति बाघातकालिया वहएका पडिपीएलिया पच्चाभितथा' हे भदन्त ! एशोक द्वीप 'यह अदि है-सामान्यतः शत्रु है, यह वैरी है विशेष किसी कारणवश वैर भाव से युक्त है यह दे मोच कहीं २, स्वाभाविक होता है-जैस्ला-हि-(अप) और कुछ (योला) में होता है यह घातक है मरवाने वाला पक्षधक है-स्वयं मारने वाला है अथवा थप्पड आदि छारापीडा पहुंचाने वाला है यह प्रत्यालिक है-काय क्षा विनाशक है शह प्रत्यानित्र है जो पहिले मित्र होकार शत्रु हो गया है अथवा जो अस्किन का सहायक है वह शत्यलिन कहलाना है-'ऐला व्यवहार होता है ? इसे उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं-गो हणटे लम्हे' हे गौतम ! ऐसा अर्थ अनर्थ नहीं है क्योंकि 'बाय बेराणुवंशाणं ते मणुषाणा पण सा' हे अषण आयुष्मान ! यहां के लनुष्क में वैरानुबंध थ। नथी. 'ववगय आभिमोगियाणं ते मणुयगणा पण्णता समणाउसो' શ્રમણ આયુષ્યન્ ! તેઓને અભિગિક નામનુ કર્મ થતું નથી. અર્થાત્ ત્યાંની વ્યક્તિ કેઈના દબાણમાં આવીને અથવા પિસાના દાસ બનીને કેાઈના દાસ विगेरे मनता नथी. 'अस्थि णं माते ! एगोरुयदीवे अरोति वा, वेरिएति वा घावकाति वा, वहएइ ना, पडिणीएति वा, पच्चारित्ते इस सन् १३४ દ્વીપમાં આ અરિ છે, અર્થાત્ સામાન્ય શત્રુ છે, ચા વિરી છે. અર્થાત્ કોઈ વિશેષ કારણવશાત્ આ વેરભાવ રાખનાર કયાંક કયાંક સ્વાભાવિક હોય છે જેમકે સાપ અને નળીયામાં હોય છે. આઘાતક છે. અર્થાત્ મરાવનાર છે. આ વધક છે. અર્થાત્ પિતે જ મારવાવાળો છે. અથવા થડ વિગેરે દ્વારા પીડા પહોંચાડનાર છે, આ પ્રત્યમિત્ર છે, અર્થાત જે પહેલા મિત્ર હોય અને પછીથી શત્રુ બની ગયેલ હોય અચવા જે અમિત્રને સહાય કરવાવાળે હોય તે પ્રત્યમિત્ર કહેવાય છે. આ વ્યવહાર થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ સ્વામીને કહે છે है 'णो इणटे समटे' से गौतम ! २५॥ म परामर नयी भो 'वयगय राण पंधाण ते मणुयगणा पण्णत्ता' है श्राए मायुभन् त्यांना मनुष्यामा वरान Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E वाभिमसूत्रे 'अस्थि णं एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खढ एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'मित्ताइ वा' मित्रमिति वा, 'वयंसाह वा' वयस्य इति वा वयस्यः समानवयाः गाढतर प्रेमयुक्तः 'घडिआइ वा ' घडिमा इति वा 'घडिया' इति देशी शब्दः गोष्ठीवाची, तेन घडिमा गोष्ठी 'सहीति वा' सखा इति वा तत्र सखा - समानखादनपानादौ सदचारी 'सुहियाइ वा' सुहृद इति वा सततसहचारी हितोपदेशदायी च 'महाभागाइ वा' वहाभाग इदि वा 'संगइयाइवा' सांगतिक दवि वा तत्र लाङ्गतिः सङ्गतिमात्रघटितः संगतिशीलः परिचित इत्यर्थः, भगवानाह - 'णो इण्डे सट्टे' नायमर्थः समर्थः यतः 'वयम्मा ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' व्यपगत - प्रेमास्ते मनुजगणाः प्रजप्ताः हे श्रमणायुष्मन् न च खलु तेपायेको कनतुजानां रामरूपं बन्धनं समुत्पद्यते इति । ' अस्थि भंते ! एवोऽयदीवे२' अस्ति खलु महन्त | एकोरुरुद्वीपे द्वीपे 'आवाहाइ वा ' नहीं होना है 'अस्थिपणं भेते एगोरु दीवे २, मिता वा, वयंसाह छा, घडियाइ वा सरी बा, सुहिए था' हे भदन्त ! एकोरुक द्वीप में 'यह मित्र है यह वह है - समान अवस्था वाला और गाढवर प्रेम से युक्त है यह घटित हैं यह देशी शब्द है गोष्टी बाची वहां गोष्ठी - मित्र मण्डली है यह सखा है - खान पान आदि में लाथ रहने वाला है यह सुहृद हैंनिरन्तर साथ रहने वाला है और हित का उपदेश दाता है- 'नहायागाति वा, संगतिघाति वा वह यहा भाग्यशाली है, यह सांगतिक हैसंगति करने नान ले जो दिन वन क्या है वह है 'ऐसा व्यवहार होता है ? इसके उसर में प्रभुश्री कहते हैं - हे भ्रमण आयुष्मन् ! णो इट्टे समाते मषणा पण्णला' यह अर्थ समर्थ नहीं है वहां कोई किसी का मित्र है वयस्य आदि हैं-क्योंकि वे मनुष्य प्रेमानुबन्ध रहित होते हैं | 'अस्थि भंते! एवोरुप दीवे २, याबाहाति अंध होता नथी. 'अस्थि णं भते । एगोरुचदीवे दीवे, सित्ताइ वा, वय'साइ वा घडियाइवा, सहीवा, सुहियाइवा' हे लगवन् । ते ३ द्वीपमां 'या भित्र છે. આ વયસ્ય સમાન ઉમ્મવાળે અને ગાઢ પ્રેમથી યુક્ત છે, આ ઘટિક છે, આ દેશી શબ્દ છે તે ગેાપ્તિવાચી છે. ગ્રેષ્ઠી-મિત્ર મડલીને કહે છે. ક્ષા સખા છે. અર્થાત્ કાયમ સાથે રહેવાવાળે છે. અને હિતના ઉપદેશ કરનાર છે. 'मभागातिवा, संगतियाति वा' मा महा लाग्यशाली है, या सांगति छे, अर्थात् સંગતિ કરવા માત્રથી જે મિત્ર મની જાય છે તે સાંતિક કહેવાય છે આ प्रश्नना उत्तरभां प्रभुश्री गौतम स्वामी हे हे हे 'णा इणट्टे समट्टे ववगयपेम्मा वे मणुयगणा पण्णत्ता' मा अर्थ रोगर नथी. डेम ते मनुष्या प्रेमानुबंध विनाना होय छे, 'अस्थि णं भते ! एगोरुय दीवे दोवे अबाहातिवा, विवाह ति Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ५.३९ एनोरुकस्यानामाहारादिका ६३७ आवाह इति वा उत्सवादी आहूयन्वे स्वजना यत्र स आपाहा विवाहापूर्वं ताम्बु लादिदानोत्सवः, 'वीवाहाइ वा' इति वा विवाहः परिणयनमित्यर्थः 'जण्णाइ वा' यज्ञ इति वा' यज्ञः प्रसिद्धः 'साइ वा श्राद्धमितिमा थालियाकाइ वा स्थाकीपाक इति वा-स्थालीपाको चरचंधूभ्यां वनिवेदनम् 'चोलोवणयणाइ वा' चौलो. पनयनमिति वा-चौलोपनपने शिखाधारणसंस्कारविशेषः 'सीमंत गयणाइ वा' सीमन्तोन्नयनमिति वा, सीमन्तोन्नयन अभसंस्कार विशेष: 'मलपिंड निवेयणाइवा' मृतपिण्डनिवेदनमिति बा, मृवेभ्यः पितृ तृतीयनवमादि दिनेषु कुलाचारेण श्मशाने पिण्डदानम् भगबानाह- इग सल' नायमरः समर्थः यतः-'वनगय आवाहविवाहजण्णसद्धथालिपामचोलोणयासीसंतुणतरणमय पिडनिवेयणाणं ते मणुयाणा पण्णता समणाउसो' व्यपगतावाहविशाहमाद्धस्थालीपाकचौलोबा, विवाहाति का, जपणा वर, खदाइ वा थालिपाकाइ वा, चेलोवणयणा वा, सीमंतुण्णयाणा पा, बर्षिडनिशाइ का' हे भदन्त ! उस एगोरुक द्वीप के मनुष्यों में 'आमा--विवाह आदि उल जहां जन बुलाये जाते हैं और उन्हें लाम्बूलादि देकर सस्कृत किया जाता हो ऐसा काम-होता है क्या? विवाह होलाईया ? यज्ञ होता है क्या ? वर वधू को खाना पीना दिया जाता है क्या बोल पार्म उपनयन संस्कार होता है क्या ? सीमन्तोनयन सार होता क्या ? मरे हुए पिता को तृतीय नौवें आदि दिनों में पिण्डदान लिया जाता है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे श्रमण आयुमत् ! 'जोहण समढे' यह अर्थ समर्थ नहीं है-अर्थात् यहां आवाह-विवाह आदि कुछ भी नहीं होता है क्यो कि ये मनुष्य 'बवाय आधाइ विवाह जरुयालि पास इन आचाह विवाह, यज्ञ, श्राद्ध, स्मालीपास, आदि पूर्वोक्त कार्यों से रहित वा, जगाइवा, सहाइवा, थालिपाकाइबा, चेलोवणयगोइवो, सीमतुण्णयणाइवा मयपिंडणिवेदणाइवाइ मापन सम३६ द्वीपमा 'मामा-विवार विशेष ઉત્સવમાં કે જ્યાં જનસમૂહને બોલાવવામાં આવે છે, અને તેઓને પાન સોપારી વગેરે આપીને સંસ્કૃત કરવામાં આવે છે, એવા કામ થાય છે? વિવાહ થાય છે? યજ્ઞ થાય છે? વર વધુને ખાવા પીવાનું દેવામાં આવે છે શું ? ચૌલકર્મ અને ઉપનયન સંસ્કાર થાય છે ? સીમાન્નયન સંસ્કાર થાય છે ? મરેલા પિતાને ત્રીજે કે નવમાં વિગેરે દિવસે પિંડદાન કરવામાં રાવે છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गौतभामा ४ छ , 'णे इगढे नमढे मामय ५२५२ नथी. અથત ત્યાં આવાહ-વિવાહ વિગેરે કઈ પણ થતું નથી કેમકે તે મનુષ્ય वागय आवाइविवाहजसद्ध थालिपांग.' मापाड, विचार, यस श्रद्धा Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे पनयन सीमन्तोन्नयनमुतपिण्ड निवेदनारले मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमणायुष्मन् ! एकोरुकमनुनानामादाह विवाहादिकाः क्रिया न भवन्ति युगलिकत्वेन ताश क्षेत्रकालस्व मावल: पूर्वोक्त संस्कारस्थानावश्यकत्वादिति भावः।मु०॥३९॥ मूलम्-अस्थि भंते ! एगोरुय दीवे दीवे इंदमहाइ वा खंदमहाइ का रुद्द महाइ वा सिक्महाइ वा वेसमणमहाइ वा मुगुंदमहाइ वा जायसहाइ वा जखमहाइ वा भूतमहाइ बा कूकमहाइ का तलायाईमहाइ चा, दहमहाइ वा पव्ययमहाइ या रुक्खोवा महाइ वा चेहयमहाइ वा थूभानहाइ वा ? णो इणडे समटे बवगयसहमहिमाणं ते अणुयगणा पण्णत्ता लमणाउलो।। अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे णडपेच्छाइ वा पहच्छाइ का जल्लपेच्छाइ मल्लरेच्छाइ वा मुटियपच्छाइ वा विडंबगपेच्छाइ वा कहगषेच्छाइ वा परगपेच्छाइ वा अक्खायगच्छाइ वा लालगपेच्छाइ वा लंखपेच्छाइ वा मंसपेच्छाइ वा तूगलपेच्छाइ वा तुंववीणदेच्छाइ वा कावपेच्छाइ वा मागहपेच्छाइ बा ? णो इणटे समटे, वरमयकाउहल्लावं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! । अस्थि गं भंते! एगोरुय दीवे दीवे सगडाइ वा रहाइ वा जाणाइ वा जुगाइ वा गिल्लीइ वा पिल्लीइ वा पिल्लीइ वा पवहणाइ वा लिवियाइ वा संदमाणियाइ वा ? णो इ8 समढे, पादचारविहारिणो णं ते मणुस्लगणा पण्णत्ता समपाउसो!। अत्थि णं भंते ! एगोरुय दीवेणं दीवे आसाइ वा हत्थीइ वा उइदा भोगाइ वा महिलाइ वा खराइ वा घोडाइ होते हैं। यहां का क्षेत्रकाल ऐसे हो स्वभोर का होना है तथा युगलिक होने से इन्हें ऐसे पूर्भेक्त संस्कारों की आवश्यकता नहीं होनी हे ॥३९॥ સ્થાલીપાક વિગેરે પર્વોક્ત કાર્યોથી રહિત હોય છે. ત્યાના ક્ષેત્રકાળ એવા જ સ્વભાવનો હોય છે. તથા તેઓ યુગલિક હોવાથી તેઓને આવા પૂર્વોક્ત સંસ્કારેની આવશ્યકતા હોતી નથી. સૂ. ૩૯ Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योंतिका टीका प्र.३ उ.३ रु.४० ५० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६३९ वा अजाइ वा एलाइ वा ? हंता अस्थि, नो वेव णं तेखि सणुयाणं परिभोगत्ताए हबमानच्छंति । अस्थि गां भंने | एगोरुय दीवे दीवे सीहाइ वा वधाइ वा बिगाइ वा दीवियाइ वा अच्छाइ वा परसराइ वा तरच्छाइ बा लियालाइ वा विडालाइ वा सुणगाइ वा कोलसुणगाइ वा कोतियाइ वा सल गाइ वा चित्तलाइ वा चिल्ललगाइ वा ? हंता अस्थि नो वेवणं ते अण्णमण्णस तेति वा मणुयाणं किंचि आवाहं वा पत्राहं वा उप्पायंति वा छविच्छेदं वा करेंति, पगइमदगाणं ते लावयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अस्थि णं अंते ! एगस्य दीवे णं दीवे सालीइ बाबीहीइ वा गोधूमाइ वा जवाइ वा लिलाइवा इक्खूइ का ? हंता ! अस्थि, नो चेन तेलि मणुयाणं परिभोगत्ताए हटनमागच्छति । अस्थि णं भंते ! एगोरुस दीवे दीवे गत्ताइ वा दरीइ वा घसीइ वा लिइ वा ओवाएइ वा विलमेइ वा विजलेइ वा धूलीइ वा रेणूइ वा पंछेइ वा चलणीइ वा ? णो इण समष्टे, एगोरुय दीवे णं दीने बहुलमरमणिज्जे भूमिमागे पण्णत्ते ससणाउसो। अस्थि णं संते ! एगोरुय दीवे दीवे खाणूइ वा कंटएइ वा हरिएइ हा सकराइ वा तणकयवराइ वा पत्तकयवराई वा असुईलि बा पूइयाइ वा दुनिभगंधाइ बा अचोक्खाइ वा ? णो इणटे समढे, ववनयखाणु कंट गहीरयसकर तणकयवर पत्तकयवर असूइपूइ यदुन्निगंधमचोकरने णं एगोरुयदीवे पण्णत्ते समणाउसो !। अस्थि णं संते ! एगोरुय दीवे दीवे दसाइ वा मसगाइ वा पिसुयाइ वा जूयाइ वा लिक्खाइ वा ढंकुणाइ का? वा? णो इणट्रेसमटे, वायदंसमलगपिसुयजय लिक्खढंकुयोणं एगोरुय दीवे पण्णत्ते लमणाउलो !। अस्थि णं भंते ! एगोस्य Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे ૪૦ दीवे दीवे अहह वा अयगराइ वा महोरगाइ वा ? हंता अस्थि णो वेव णं ते अन्तस्तु तेसिं वा अणुयाणं किंचि आवाहं वापवाहं वा छविच्छेयं वा करेंति, पराइसद्दगाणं ते वालगगण पपगता समणाउसो ! | अस्थि णं संते ! एगोरुय दीवे दीचे गहदंडाइ वा महसुसलाइ वा गृहगजियाइ वा गहजुदाइ वा गहसंघाडगाइ वा गहअवसव्वाइ वा अन्लाइ वा अवरुखाइ संझाइ वा नगराइ वा गजिराइ वा विज्जुयाह वा उकापाया वा दिसाद हाइ रिघाचाह वा पंसुविट्टी वा जुवगाइ वा अखालिलाइ वा धूमियाइ वा महियाइ वा रउघाया वा चंदोवरागाइ वा सूरोवरागाह चंदपरिवेसाई वा सूरपरिवेसाइ वा पडिवंदाह वा पडिसूराइ वा इंदधणू वा उदगमच्छाइ वा अलोहाइ वा कविहसियाह पाईणवायाइ वा पडीणवायाइ वा जाव सुखवायाइ गामदाहा वा नगद हाइ वा जाव खणिवेतदाहाइ वा पाणवखयजणस्वय कुलक्खय धणक्य व सणसूयरणारिवाद वा ? णो इण्डे समट्टे ॥ सू० ४०॥ , छाया - अस्ति खरु भन्छ ! एकोरुपद्वीपे द्वीपे इद्र इति वा स्कन्दमह इति वा रुद्रम इति वा शिवम् इति वा वैश्रमणमा इति वा मुकुन्दमह इति वा नागमद इति वा रक्षम इति वा भूतमह इति वा कूपसह ति वा तडागनदीमह इति ह्रद इति वा पर्वतमह इति वृक्षारोपण६ इति या चैत्यसह इति वा स्तूपमह इति वा ? नायमर्थः समर्थः व्यपगतमहमहिमानस्ते मनुजगणाः मज्ञताः श्रमणा युष्मन् ! अस्ति खलु मदन्त ! एकोरुरुद्वीपे द्वीपे नटप्रेक्षेति वा नाटयप्रेक्षेति वा जल्लप्रेक्षेति वा मल्लप्रेक्षेति मौष्टिकपेक्षेति वा विस्मेति वा कृषकमेक्षेति वा प्लाकमेति वा आख्यायमेक्षेति का लासक प्रेक्षेति वा लेखप्रेक्षेति वा मखमेक्षेति वा तूणिकप्रेक्षेवि वा तुजवीणात्रेति वा कारवमेति वा मागधप्रेक्षेति वा ? नायमर्थः सयर्थः, व्यपगता: खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुरुद्वीपे द्वीपे शकटमिति वा रथ इति वा यानमिति वा युग्यमिति वा मिल्कीनि वा विल्लीति वा पिल्लीति वा प्रवहणमिति वा शिविकेति वा स्थन्दमानिकेति वा नागमः समर्थः पादचारविहारिणः खल्ल मनु 2 Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतका टीका प्र.३ उ.३ .४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६४१ जगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन् ! एकोसम्द्वीपे द्वीपे अश्व इति वा हस्तीति वा उष्ट्र इति वा गोण इति वा महिष इति चा खर इति वा घोंटक इति वा अजेति वा एडकेति वा ? हन्तु अस्ति, नेत्र खलु तेषां मनुजानां परिभोगतया हव्यमागच्छन्ति । अस्ति खलु भवन्त ! एक रुकद्वीपे द्वीपे सिंह इति वा व्याघ्र इति वा वृक इति वा द्वीषिका इति वा ऋक्ष इति वा पराशर इति तरक्ष इति वा शृगाल इति वा विडाल इतिबा शुलक इति वा कोलशुनक इति वा कोक:दन्तिकेति वा शशक इति वा चित्रल इति वा चिल्ठल इति वा ? हन्न अस्ति, नैव खलु ते अन्योऽन्यस्य तेषां वा मलुजान किश्चिदावाधां वा प्रवाधां वा उत्पादयन्ति वा छविच्छेदं वा कुर्वन्ति, प्रकृतिभद्रकाः खलु ते श्वापदगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अरिख खलु भदन्त ! एकोरुपे द्वीपे शालिरिति का ब्रीहिरिति वा गोधूम इति वा रव इसी वा तिक इति इक्षुरिति या ? हन्त अस्ति, नैव खलु तेषां मनुजाणां परिभोगत्या हव्यमागच्छन्ति । अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे भी इति का दरी इति वा घंपी इति वा भृगुरिति अवपात इति वा विषममिति वा विजलमिति वा धूलिरिति वा रेणु रिति वा पङ्क इति वा चलनीति वा ? नायमर्थः समर्थः, एकोरुकद्वीपे खल्ल द्वीपे बहुसपरमणीयः भूमिभाग: यज्ञप्तः श्रमणायुगमन् ! । अस्ति खल्ल सदन्त । एकोषकद्वीपे द्वीपे स्थाणुरिति वा कण्टक इति वा हीरक इति वा शर्करा तृणाचबर इति वा पत्रकचवर इति वा अशुचिरिति वा पूतिकमिति वा दुरभिगन्ध इति वा अचोक्ष इति वा ? नायमर्थः समर्थः, व्यपगत स्थाणुकण्टकहीरक शर्करा तृणकचवरपत्रः कचवराशुचि पूतिकदुरभिगन्धाचोक्षः खल्लु एकोकद्वीपः प्रज्ञप्तः श्रमणायुष्मन। अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे दंश इति वा मशक इति वा पिशुक्र इति वा युकेति वा लिक्षेति वा ढंकुण इति वा ? नायमर्थः समर्थः, व्यपगतदंशमशकपिशुक यूकालिक्षाढकुणः खलु एकोरुकद्वीपः प्रज्ञप्तः श्रमणायुष्मन् ! । अस्ति खल भदन्त । एकोहकद्वीपे द्वीपे अहिरिति वा अजगर इति वा महोरग इति वा ?, हन्त ! अस्ति नैव खलु ते अन्योऽन्यस्य तेषां वा मनुजानां किञ्चिदाबाधां दा पवार्धा वा छविच्छेदं वा कुर्वन्ति, प्रतिभद्रकाः खलु ते व्यालगणाः प्रज्ञप्ता श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे ग्रहदण्ड इति वा ग्रह मुशलमिति वा प्रहगजितमिति वा ग्रहयुद्धमिति वा ग्रहसंघाट कमिति वा ग्रहापसव्यमिति अभ्रइति वा अभ्रवृक्ष इनि वा सन्ध्येति वा गन्धर्वनगरमिति वा गर्जितमिति विद्युदिति उल्कापात इति वा दिग्दाह इति श निर्घात इति वा पांसुवृष्टिरिति वा यूपक. इति वा यक्षादीप्तमिति वा धूमिकेति वा महिकति वा रज उद्धात इति वा जी० ८१ Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % जोवाभिगमसूत्र चन्द्रोपराग इति वा, सूर्योपराग इति वा चन्द्रपरिवेष इति वा सूर्यपरिवेष इति वा भतिचन्द्र इति वा पतिसूर्य इति वा इन्द्रधनुरिति वा उदकमत्स्य इति वा अमोघ इति वा कपिदसितमिति वा प्राचीनवात इति वा प्रतीचीनवान इलि वा यावद् शुद्धचात इति वा ग्रामदाइ इति वा नगरदाह इति वा यावत् सन्निवेशदाह इति वा प्राणक्षय जनक्षयकुलक्षयधनक्षयव्यसनभूतानार्या इति का ? नायमर्थः समर्थः ॥१० ४०॥ टीका-'अस्थि णं भंते !' इत्यादि, 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे पं दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोषकद्वीपे खल द्वीपे 'इंदमह'इदा' इन्द्र यह इति वा तत्र महः प्रतिनियत दिवसमावी उत्सवः इन्द्रमधिकृत्य संपाद्यमान उत्सव इन्द्रमा इति एवमग्रेऽपि स्कन्दोत्सवादयो ज्ञातव्याः। 'खंदमहाइ वा स्कन्दमह इति वा तत्र स्कन्दः कार्तिकेयस्तस्योत्सव इत्यर्थः 'रुद्दमहाह वा' रुद्रमहइति दो रुद्रो यक्षाधिपतिस्तस्य महः उत्सवः। 'सिक्सहाइ वा' शिवमह इति वा 'वेसमण महाइ वा' वैश्रमणः कुवेर उत्तरदिग्लोकपालस्तस्योत्सवः । 'मुगुंदमहाइ वा मुक 'अस्थि णं भंते ! एगोरुप दीवे २, इंद महाइघा'-इत्यादि । टीकार्थ-हे भदन्त ! एकोरुक द्वीप में 'इंद महाइया' इन्द्र मोहत्सव अमुक प्रकार होने वाले उत्सव का इन्द्रमहोत्सव नाम है यह जो उत्सव इन्द्र को लक्ष्य करके किया जाता है उसका नाम इन्द्र महहै। इसी तरह से आगे के उत्सव समझ लेना चाहिये 'खंदमहार या' कातिकेय का नाम स्कन्द है इस स्कन्द को लक्ष्य करके किये गये उत्सव का नाम स्कन्दोत्सव है 'रुद्दमहाहवा' यक्षों के अधिपति का नाम रुद्र है इस रुद्र को लक्षित करके किये गये उत्सव का नाम रुद्रोत्सव है। 'सिव महाइ वा' शिव नाम महादेव का है इस महादेव-शाङ्कर-को लक्षित कर के किये गये उत्सव का नाम शियोत्सव है 'धेसमण महाए वा' बैश्रमण नाम कुवेर का है यह उत्तर दिशाका एक लोकपाल है इस कुबेर को लक्षित कर होने वाले उत्सव का नाम बैंश्रवणोत्सव हे बत्थि णं भते ! एगोश्य दीवे दीवे इंद महाइवा' त्याह टी - गवन् मा ३४ द्वीपमा 'इंद महाइवा' महोत्सव भभु પ્રકારના ઉત્સવનું નામ ઈદ્રમહોત્સવ છે. આ ઉત્સવ ઈદ્રને લક્ષ્ય કરીને કરવામાં આવે છે. એ જ પ્રમાણે આ પછીના ઉત્સવેના સંબંધમાં પણ સમજી લેવું જોઈએ. सद महाइवा' तियर्नु नाम. २४१ छे. मा २४हने देशीन ४२वामा भावना। इसपर्नु नाम २४४ महोत्सव छे. 'रुद्दमहाइवा' यक्षाना मधिपतिनु નામ રૂદ્ર છે. આ રૂદ્રને ઉદ્દેશીને કરવામાં આવેલા ઉત્સવનું નામ રૂદ્ર મહોત્સવ छे. "सिवमहाइवा' सिनाम महावनु छ. भा भडाव २४२२. शीन Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ उ. ३.४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६४३ न्दमह इति वा - मुकुन्दः - कृष्णः तमधिकस्य क्रियमाण उत्सवः, 'णागमद्दाइ बा' नागो नागकुमारी भवनपतिविशेषः तस्य मह उत्सवः । 'जक्ख महाइ वा' यक्षमह इति 'भूमावा' भूतमह इति वा, तत्र यक्षभूत व्यन्तर विशेषौ तयोर्मह उत्सवः 'कूवमहाइ वा' कूपमह इति वा, नवनिर्मापित कूपस्योत्सवः, 'तलायणई महाद वा ' तडागनदीम इति वा, वडागः नदी चेति द्वयं प्रसिद्धं 'दहमहाह चा' ह्रदमह इति वा, तत्रऽगाधजलो इदः तस्योत्सवः, 'पन्चयमदाइ वा' पर्वतमह इति वा, 'रुक्ख 'मुमहा वा' मुकुन्द नाम कृष्ण का है इस कृष्ण को लक्षित कर किये गये उत्सव का नाम मुकुन्दोत्सव है 'नागमहाइ वा' नाग नाम नाग कुमार का है यह भवनपति देव का एक भेद है इस नाग कुमार को लक्षित कर किये गये उत्सव का नाम नागोत्सव है 'जक्ख महाइ वा' यक्ष यह व्यन्तर देवों का एक भेद है इस पक्ष को लक्ष्य कर के किये गये उत्सव का नाम यक्षोत्सव है 'भूत महाइ वा' भूत भी व्यन्तर देवों का ही एक भेद है हल भूत को लक्ष्य कर किये गये उत्सव का नाम भूत मह है 'कू महाइ वा' नये बनाये गये कूप को लक्षित कर किये गये उत्सव का नाम कूप महोत्सव है 'तलायणई महाइ चा ' तालाब एवं नदी को लक्षित कर किये गये उत्सव का नाम तडागमह और नदी मह है 'दह महाइ वा पव्य महाइ वा' अगाध जल वाले जलाशय को हूद कहते हैं ऐसे हूद विशेष को एवं पर्वत को लक्षित कर ४२वामां आवेला उत्सव नाम शिवोत्सव हे 'बेस्रमण महाइवा' 'वैश्रभधुनाभ ખેરનું તે ઉત્તર દિશાના એક લેાકપાલ દેવ છે. આ કુબેરને ઉદ્દેશીને થવા दाणा उत्सवनुं नाम वैश्रवत्व छे. 'मुगुंद महाइवा' भुकुहनु नाम पृ॒ष्णुनु छे. मे पृ॒ष्णुने उद्देशीने धनाश उत्सव नाम भुटुहोत्सव है. 'णागमहाइवा ' નાગનામ નાગકુમારનુ છે, આ ભવનપતિ દેવના એક ભેદ રૂપ છે. આ નાગકુમાર छे खेने उद्देशाने उरवामां आवे उत्सवनुं नाभ नागोत्सव छे. 'जक्ख महाइवा ' યક્ષ એ વ્યુત્તર દેવના એક ભેદ છે. આ યક્ષને ઉદ્દેશીને કરવામાં આવેલ उत्सव' नाम यचेोत्सव हे 'भूतमहाइवा' भूत या व्यन्तर देवनाथ मे लेह છે. આ ભૂતને ઉદ્દેશીને કરવા આવનારા ઉત્સવનુ નામ ‘ભૃતમહોત્સવ' છે. 'कुव महाइवा' नवा नाववामां गावेस हुषाने उद्देशाने ४२रवामां आवे भडे/त्सव छे. 'तलावणई महाइवा' तणाव भने नदीने उद्देशीने उरवामां यावेस उत्सवनु' नाम 'तडाग नही महोत्सव अहेवाय छे. 'दहमहाइवा पव्वय महाइवा ' અગાધ પાણીવાળા જળાશયને એવા હ્રદ વિશેષને અને પવ તને Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जीवामिगमस्से रोवणमहाइ चा' वृक्षारोपणमह इति वा, 'चेइयमहाइ वा' चैत्यमह इति वा चैत्यं यक्षायतनम् 'धूममहाइ वा' स्तूपमह इति वा स्तूपः पीठविशेषः तस्य मह उत्सवः, भगवानाह-'णो इणहे समढे' नायमर्थः समर्थः एतेपामिन्द्रादीनामुत्सवा न भवन्तीत्यर्थः, यता-'ववगयमहहिमाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो !' व्यपगतमहमहिमानः खल्ल ते-एकोषकद्वीपक मनुजगणा: मश:-कथिताः हे श्रमणायु. मन् ! 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खल भदन्त ! एकोषकद्वीपे द्वीपे 'णडप्रेच्छाइ वा' नटप्रेक्षेवि वा उन नटा:-नाटयकर्तारः तेषां प्रेक्षा-प्रेक्षणकंकौतुकदर्शनोत्सुकजनसमुदाया, 'जट्टपेच्छाइ वा' नृत्यानृत्यकार स्तेपां प्रेक्षणकं तदर्शकिये गये उत्सव का नाम हद महोत्सव और पर्वत महोत्सव है 'रुक्खरोवणमहाहवा, चेहय महाइ वा वृक्षारोपण करने को लक्षित करके एवं यक्षायतन को लक्ष्य करके किये गये उत्सव का नाम वृक्षारोपण मह और चैत्य मह है 'थून महाह वा पाठी विशेष का नाम स्तूप है इस स्तूप को लक्षित कर के किये गये उत्सव का नाम स्तुप मह है सो हे भदन्त ! ये सघ महोत्सव क्या उस एकोरुक द्वीप में होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जोहण समट्टे' हे गातम ! यह अर्थ समर्थ नही है अर्थात् ये इन्द्रादिनह (उस्मान) यहां पर नहीं है। क्योंकि-'ववगयमहमहिमाण लेमणुयाणा पण्णत्ता लमणाउसो! हे श्रमण आयुष्म. न् ? ये एकोस द्वीप निवासी नुपम उत्सव करने की महिमा से विहीन होते है। अस्थि णं अंते एगोरुय दीवेणं दीवे णड पेच्छाइ का' हे भद. मत ! उस एकोलक द्वीप में मानटों के खेल होते है ? 'नदृपेच्छाइवा' नृत्य करने वालों के कृत्य को देखने के लिये उत्कंठित हुए मनुष्यों ઉદેશીને કહેવામા આવેલ મહત્સવનું નામ હદમહોત્સવ અને પર્વત મહોત્સવ छे. 'रुखरोवणमहाइवा चेइय महाइवा' वृक्षारा ४२वाने शीन सने यक्षाયતનને ઉદ્દેશીને કરવામાં આવેલા ઉત્સવનું નામ “વૃક્ષારોપણ મહત્સવ અને चैत्य भडात्र छे. 'थूम महाइवा' पीही विशेषनु नाम स्तू५ छे. भारतूपने ઉદેશીને કરવામાં આવેલા ઉત્સવનું નામ સ્તૂપમહોત્સવ છે. તે હે ભગવદ્ આ બધા જ મહોત્સવ એ એકરૂક દ્વીપમાં થાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रमश्री गीतभस्वामीन ४ छ । 'णा इण२ समहे' हे गौतम ! म अथ समर्थ नथी. अर्थात् २मा छन्द्रा महात्सव। त्यो यता नथी. उभ 'ववगय महामहिमाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' 8 श्रम मायुश्मन् ! मा એકરૂક દ્વીપમાં રહેવાવાળા મનુષ્ય ઉત્સવ કરવાનો મહિમા વગરના હોય છે. 'अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे णं दीवे णडपेइच्छाइव' ७ मावन मे सी. ३४ बीमा शुनटाना मे थाय छ ? 'नट्टपच्छाइवा' नृत्य ४२वापाजामाना Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका ६.३ उ.३ .४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६४५ नोत्सुकजनमेलकः 'जल्लपेच्छाइ वा जल्लनेक्षेति था, तत्र जल्ला वरना खेच्का स्तेषां प्रेक्षा-प्रेक्षणकम् 'मल्लपेच्छाइ वा मल्लपेक्षेति वा, तत्र मल्ला:-बाहुयुद्धकारिणः, 'मुद्वियपेच्छाइ वा मौष्टिकप्रेक्षेति वा, ते एव मल्लाः, मौष्टिकाः ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति । 'विडंबगपेच्छाइ का विडम्वर प्रेक्षेखि वा वन विडस्वका:विषकाः मुखविकारादिभिर्जनहास्योत्पादकारतेषां प्रेक्षणकमिति । 'कहा पेच्छाइ वा' कथकप्रेक्षेति वा तत्र करकाः सरसकथा कथनेन अं तृणां रसोत्पादकास्तेषां प्रेक्षणकम्, 'पवगपेच्छाइ वा लगमेक्षेति वा, तत्र प्लवकास्ते ये झम्पादिभिर्गवा दिकमुत्प्लवन्ते नद्यादिकं वा वरधि से उत्तीदि लड्चन कारिण इत्यर्थः 'अक्खायग पेच्छाइ वा' आख्यायकप्रेक्षेति वा-आख्यान्न शुभाशुभमिति-माख्यन्यकास्तेषां का मेला भरता हैं क्या ? 'जल पेच्छाह वा वरत्रा-डोरी पर खेलने बालों के खेल को देखने वालों का मेला अरता है क्या? 'सल्लपेच्छाह वा' भुज युद्ध करने वाले मल्लो के भुज युद्ध को देखने के लिये मनुष्यों का मेला भरता है क्या ? 'बुष्टिय पेच्छाह वो' खुष्टि युद्ध करने वालों के मुष्टि युद्ध को देखने का मनुष्यों का मेला भरता है क्या ? 'विडंग पेच्छाइ वा मुख विशार आदि विविध विक्रियाओं द्वारा मन. व्यों को हसाकर चित को बिनादित करले थाले चिदूषक जनों की चेष्टाओं को देखने के इच्छुक जनो का मेला भरला है क्या? हग पेच्छाइ वा सरस कथा के कहने श्रोताओं को रसोत्पादन करने वाले कथक जनों की प्रथाओं को सुनने के लिये भक्त मानवों का मेला भरता है क्या? 'पवा पेच्छाह बा' प्लवकजनों की उछल कूद को देखने वालों का मेला रस्ता क्या ? 'अवखाया पेच्छाह बा' शुभा शुभ का आख्यान करने वालों की जो लमा भरती है, उसका नृत्याना भाटे वाण येता मनुष्याना भी सराय छे ? 'जलपेच्छा જવા’ ગરવા દેરી પર ખેલ કરવા વાળાઓના ખેલને જેવાવાળાઓને મેળે मराय छे? 'मल्लपच्छाइवा' पाहु युद्ध ४२वा मसान माई युद्धन नेपा भाटे मनुष्याना भेजे। सराय छ ? 'मुट्टियपेच्छाइवा' मुष्टियुद्ध ३२१। पाणसाना मुष्टियुद्धने लेवावाणा मनुष्याना भेजो सराय छे १ 'विड़बगपेच्छा રૂવા” મુખવિકાર વિગેરે અનેક પ્રકારની વિકિયાઓ દ્વારા મનુષ્યોને હસાવીને ચિત્તને પ્રસન્ન કરવાવાળા વિદૂષક જનની ચેષ્ટાઓને જેવા ઈછનારા मनुष्याना भी सराय छ ? 'कहगपेच्छाइ वा' सु२ था। उवामा શ્રેતાઓને રસ ઉપજાવનારા કથક જનની કથાઓને સાંભળવા માટે भरत। ३५. मनुष्याना मी सराय छे ? 'पवग पेच्छाइवा' 6 ४२२पा मनुष्यानी नेनारामान भी सराय छे ? 'अक्खायग Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्र प्रेक्षा-प्रेक्षणम् 'लास गपेच्छाइ वा लासकमेक्षेति वा, लासकाः ये रासकान ऐति हासिक गीतरूपान् गायन्ति ते जयशब्दप्रयोक्तारो वा लासकारतेषां प्रेक्षा 'लंख. पेच्छाइ वा लंखप्रेक्षेति वा, लङ्खा महावंशाग्र पारुह्य नृत्यकारः 'मंखपेच्छाइ वा' मसा प्रेक्षेति वा, मङ्खा ये चित्रपट्टादिहस्लामिक्षां चरन्ति, 'तूणहल्लपेच्छाइ वा तूग. इल्पेक्षेति वा-तूणानामक वाद्यवादकास्तेषां प्रेक्षा, प्रेक्षणकमित्यर्थः. 'तुंबवीण पेच्छाइ वा तुम्बीणापेक्षेति वा, तुम्नवीणा अलावुफलनिर्मिता विशेषरचनयानिमिना वीणा 'कावपेच्छाइ या' कावप्रेक्षेति बा, कावा:-कावडिकावाहकास्तेषां प्रेता। 'पागडपेच्छाइ वा' यधपेक्षेनि वा मागधारतुति पाठकास्तेषां प्रेक्षा वा एतानि मेला अरता है क्या ? 'लालग पेच्छाइ बा' लास जनों के-ऐतिहा सिक रातों-गीतों को गाने वालों अथवा जर जय शब्द बोलने वालों के लास्थ को-देखने वालों का मेला भरता है क्या? 'लंख पेच्छाइदा मंख पेच्छाइ बा, तू गहल्ल पेच्छाइ वा लख-कांस पर चढकर खेलने वालों के खेल को देखने वालो का मेला भरता है क्या ? मंख-चित्र पहल हाथ में लेकर हर एक घर से भिक्षा मांगने वालों को देखने बालों का मेला भरता है क्या! तुणा नामक बाविशेष को बजाने वालों के उस वाद्य पजाने की हाला को देखने वालों का मेला भरता है क्या? 'तूंबदीण पेच्छाइ वा तंबडी की वीणा बजाने वालों की वादन क्रिया को देखने वालों का मेला भरता है क्या ? 'काव पेच्छाइ वा कंधे पर कावड लिये फिरने वालों की विचित्र प्रसार भी लीलाक्रीडा-को देखने वालों का सेला है क्या ? 'सागह पेच्छाइ दा' स्तुति વિછારૂવા” શુભ અને અશુભનું આખ્યાન કરવાવાળાઓની જે સભા ભરાય छ. तन मे १२.५ छ ? 'लोग पेच्छाइवा' सास गनानी अर्थात् ઐતિહાસિક રાસ ગરબા ગાવાવાળા અથવા જય જય શબ્દ બોલવાવાળાઓના सायने नारासोन। भणी मराय छ १ 'लखपेच्छ इवा मंस्वपेच्छाइवा, तणडल्लपेच्छाइवा' -पास ५२ यढीन. २मत ४२वावाणायानी २भतन જેનાર મનુષ્યનો મેળો ભરાય છે ? મ ખ-ચિત્રપટ હાથમાં લઈને દરેક ઘરમાં ભિક્ષા માગનારાઓને જેનારાએ ને મેળા ભરાય છે? તૂણ નામના વાદ્ય વિશેષને વગાડવાવાળાઓના તે વાદ્ય વગાડવાની કળાને દેખનારાઓને મેળો माय छ ? 'तू चवीण पेच्छा इवा' तुपडीनी वीए। पापावाणासानी पाहन ठियान लेना।माना भी सराय छे ? 'काबपेच्छाइवा' मा ५२ अपर લઈને ફરવાવાળાઓની વિચિત્ર પ્રકારની લીલા કીડાને જોનારાઓનો મેળે मराय छ ? 'मागहपेच्छा इवा' स्तुति ५४ ४२वावा भाग नाना स्तुति Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६४७ पूर्वोक्तानि नटपेक्षादीनि प्रेक्षणकानि तत्र भवन्ति विम् ? भगवानाह-'णो णटे समडे' नायमर्थः समर्थः यतः 'ववरणयकोउहल्लाणं ते अणुअगणा पणत्ता समणाउसो' व्यपगत कौतूहलाः खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमणायुष्मन् ! अन्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोषकद्वीपे द्वीपे 'सगडाइ वा' शकट मिति वा' शकट-लोकप सिद्धम् ‘रहाइवा' रथ इति वा सत्र स्थो द्विविधाक्रीडारथः संग्रामरथश्च, तत्र संग्रामस्थस्य प्राकारानुमारिणी फलकसयी वेदिका भवति, क्रीडारथस्य सान भवतीत्ययमेव विशेषः 'जाणाड या' यानमिति वा यायन्ते-गम्यन्ते अनेनेति यानं ग गदि, 'जुग्गा: चा' युग्यमिति वा तत्र युग्यमिति गोल्लदेशमसिद्धं द्विहस्तप्रषाणं चतुरस्त्र वेदिकोएशोभितं पुरुषद्वयोरिक्षप्त पाठक मागधजनों के स्तुति पाठ को सुनने बालों का मेला भरता है क्या? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! 'णो इणढे सट्टे' यह अर्थ समर्थ नहीं है-अर्थात् ये नट के खेल आदि कहां पर नहीं होते हैं 'क्योंकि 'वश्वगयकोउल्लाण तेमणुयाणा षण्णत्ता' हे श्रमण आयुष्मन् वे मनुष्य गण कौतुहल ले बिहीन होते हैं । अर्थात् उनके मन में किसी प्रकार का कौतूहल आदि देखने की इच्छा नहीं होती है, 'अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीधे दीवे लाडा का रहाइवा, जाणाइ वा, जुग्गा वा गिल्लीह वा थिल्लीति वा पिल्लीइ वा, पवणाणि वा सियाइ वा लंदनाणियाइ वा' हे भदन्त ! उस एगोरुक द्वीप क्या माडा होता है ? रथ होता है स्थ दो प्रकार का होता है कीडा रथ और संग्राम रथ, संग्राम रथ में अनेक प्राकार के आकार की काष्ठ नयी वेदिका होती है और क्रीडा स्थ में वह नही होती है। यान-गाडी होती है ? युग्ध गोल्ल देश प्रसिद्ध પાઠને સાંભળનારાઓનો મેળો ભરાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગીतभावामान छ 'णा इण खमट्टे' ॥ अथ मरे२ नथी. अर्थात मा नटोना मे विशेरे त्यांडता न. मविवगय कोउहल्ला ण वे मणुयगणा पण्णत्ता' श्रम आयुष्सन ! मनुष्यगए तुडस विनाना डाय છે. અર્થાત્ તેઓને મનમાં કઈ પણ પ્રકારનું કૌતુક જોવાની ઈચ્છા હતી नथा. 'अस्थि णं भवे! एगोरुयदीवे दीवे सगडाइवा, रहाइवा, जाणाइवा, जुग्गा इवा, गिल्लीइवा, थिल्लीतिबा रिल्लोइवा, पवहणाणि वा, सियाइवा, सदमाणी श्वा' ७ मापन् । मे १३४ द्वीपमा शुगर हाय छ १ २५ य छ १२थ બે પ્રકારના હોય છે. તેમાં એક કીડા રથ અને બીજો સંગ્રામ રથ કહેવાય છે. સંગ્રામરથમાં અનેક પ્રકારના આકારની લાકડાની વેદિકા હોય છે. અને ફીડા રથમાં તેવી વેદિકા હોતી નથી. યાન ગાડી હોય છે? યુગ્મ ગોલદેશ પ્રસિદ્ધ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४८ जीवामिगमस यानं जपानमित्यर्थः, हल्लीइवा' गिल्लीति का उत्र दिल्ली या हरितन उपरिकोल्लरूपा-थालीरूपा-या मनुष्यं गिल्ती प्रतिभाति सा, अथवा पुरुषद्वयो क्षिप्ता डोलिका, 'थिल्लोलि बा' दिल्ली यानविशेषरूपा, यद् लाटदेशे अडूडपल्लाणमिति प्रसिद्धं यानं उदन्यदेशे थिल्लिरित्युच्यते, पिल्लीइ वा' पिल्लिरिति वा. पिल्ली:-लादेशप्रसिद्ध यद् उपभ्राणनाम्ना मसिद्ध यानविशेष तदन्यदेशे पिल्लिरिन्युच्यते, 'पवहणा इवा' महणनिति वा प्रवहणं -नौका "सिबियाइ वा शिविका इति वा-कूटाकार आच्छादितो जम्गनविशेषः पालखी लोक प्रसिद्धः, 'संदमाणिवाइ वा स्यादसालिको पुरुष प्रमाणो. जम्पानविशेषः सापि शिविका विशेष रूपैवेति । भगनानाह- ''इणटे सम हे' नाय. मर्थः समर्थः, यतः पादचारविरिणो ण ते मणुयमणा पण्णता समणाउसो' पादचार विहारिणः खलु ते मनुजगणा प्रज्ञप्ता-कथिताः श्रमण युष्मन् ! पादचारित्वेन तेषां न शकटादीनामावश्यक नेति । 'अस्थि णं भंते ! एगृरुय दीवे. ण दीवे' अस्ति खल्लु भदन्त ! एकोहकदीपे बलु द्वीपे 'आसाइ वा हत्थीइ वा' चतुष्कोण वेदिका युक्त जपान जिसे दो पुरुष उठाते है ऐसा यान-होता है क्या ? गिल्ली हाथी के उपर रखा जाने वाला थाली के आकार का आसन होता है क्या? दिल्ली-पिल्ली-लाट देश प्रसिद्ध दोनों एक प्रकार के विशेष धाग-होते हैं क्या ? प्रवहण-जहाज होता है क्या ? शिविका-पालखी होती है क्या ? स्यन्दमानिका-विशेष प्रकार की पालखी होती है क्या ? इनके उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम ! 'गो इणढे सम? यह अर्थ लमर्थ नहीं है क्योकि 'पादचारविहारिणों णं ते मणुयगणा पणत्ता समणामो' वे मनुष्य हे श्रमण आयुष्यन् ! पादचारी ही होते हैं । ये वाकट मादि में बैठकर नहीं चलते हैं । 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे भासावा, हाथीप चा, उट्ठाइ वा गोणाइ वा, ચતુષ્કોણ વેદિકા યુક્ત યાન વિશેષ પાલખી કે જેને બે પુરૂષે ઉઠાવે છે. આવા યાને હેાય છે? ગિલ્લી એટલે હાથીના ઉપર રાખવામાં આવનારા થાલીના આકારનુ આસન હોય છે ? થિલી પિલી લાટદેશ પ્રસિદ્ધ બને એક પ્રકારના થાન વિશેષ છે તેવા યાનવિશેષ ત્યાં હોય છે ? પ્રવહાણ જહાજ હોય છે? શિબિકા પાલખી હોય છે? સ્ટેન્ડમ નિક વિશેષ પ્રકારની પાલખી હોય છે? આ प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री गौतमस्वाभान ४ छह गौतम ! 'पादचार विहारिणो ण ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ३ श्रभर मायुष्यभन्! त મનુષ્ય પગથી ચાલનારાજ હોય છે તેઓ ગાડા વિગેરેમાં બેસીને ચાલતા नथी. 'अत्यि णं भाते ! एगोरूयदीवे दीवे, आसाइवा, हत्थीइवा, उट्टाइवा, Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.३ .४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तरा: ६४९ अश्व इति वा' अश्वः-जात्या शीघ्रगमनशीलः, हस्ती इति वा, 'उहाइ वा' उष्ट्र इति वा 'गोणाइवा' गौरिति दा, गौ-मूलीपद , घोटक उति वा, घोटकः सामान्याश्वः यः 'टट्ट' इति मसिद्धः, 'अजाइ वा अन इसिदा 'एलाडवा' एडक उाभ्र इति वा, भगवानाह-'हंता अस्थि हन्त सन्ति, अश्वादयो भवन्ति एकोहक द्वीपे इत्यर्थः किन्तु 'जो चेव णं शिमगुगाणं परिभोगणार नमामाञ्छति' लैव खलु ते अश्वादयस्तेषामेकोरुपमनुजानां परिभोगतबा अशणादि तथा उपभोगाय कदाचिदपि नागच्छन्ति पादविहारिण एच से पबन्तीति । 'अस्थि णं भंते ! एगो. रुयदीवे दीथे' अस्ति खलु मदन्त ! एकोहक द्वोपे हीपे 'सोहाइ वा सिंह इति त्रा, सिंह:-केसरी 'बग्घाइवा' व्याघ्राः-शार्दूल हलि वा 'विगाइ का' वृक इति ना, कः -'भेडिया' श्वान जातिको हिंसक बन्यपशुः इन्दि गमिदः 'दीविया इस' द्वीपिक इति वा, द्वीपिकश्चित्रका 'चीता' इति प्रसिद्धा, 'अच्छाइ वा ऋभ इति वा ऋक्षो -भल्लुका, 'परस्सराइ वा एराशर इन दा, पराशरः गेण्डाभिधः पशुः ‘गेंडा' इति प्रसिद्धः 'तरच्छाइ वा तरक्ष इनि वा' ल च गमक्षको व्याघ्रजातीयः महिलाइ घा, खराइ वा घोडा बा, अजाहा , एलाइ दा' हे भदन्त ! एकोरुक द्वीप में क्या अश्व जातिवंत शीघ्र बाली उत्तम छोडा होते हैं ? हाथी होते हैं ? ऊंट होते ? गाय बैल होते ? भैल जैसा होते हैं ? गधे होते हैं ? घोटक सामान्य घोड़ा जो टट्टु कहलाते से होते हैं ? अजा-बकरी बकरा झोले है ? भेंड-णिया हैं ? उत्तर प्रभुश्री कहते हैं-'हंता अत्यिहां गौतम! एकोक द्वीप में ये खप प्राणि होते हैं ! परन्तु 'णो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्यारागच्छंति' ये सब उन मनुष्यों के काम में नहीं माले हैं। कपोकि ये मनुष्य पाद विहारी ही होते हैं ! तथा इनका दुग्ध भी थे लोग काम में नहीं लेते गोणाइवा, महिसाइवा, खराइवा, घोडाइवां, अजाइवा एलाइवा,' 3 सपन् એકેક દ્વિીપમાં ઉત્તમ જાતવંત શીઘગામી ઘડાઓ હોય છે ? હાથીઓ હોય છે? ઉંટ હોય છે ? ગાર્યો અને બળદે હોય છે ? ભેંસો અને પાડાઓ હોય છે ? ગધેડાઓ હોય છે જે સામાન્ય પ્રકારના ઘોડા કે જેને ટહુ કહેવામાં આવે છે તે હોય છે ? બકરી અને બે કડાઓ હોય છે? ભેડ ઘેટી અને ઘેટાઓ હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ वाभान छ 'हता अस्थि' हा जीतम ! ३४ द्वीपमा मा मधा प्राणियों डाय छे. परंतु णो चेत्र णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्दमागच्छंति' આ બધા તે મનુષ્યના કામમાં આવતા નથી. કારણ કે આ મનુબે પગથી ચાલવાવાળા જ હોય છે. તથા : નું દૂધ પણ તેઓ કામમાં લેતા નથી. जो० ८२ Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० जीवामिगमस्त्रे श्वापदविशेषः, 'सियालाइ वा' शृंगाल इति वा 'विडालाइदा' विडाळ इति वा, सच मार्जारः 'मुणगाइ वा' शुनक इति वाल च श्वा 'कोलसुणगाड चा' कोलशुनक इति वा स च ग्रामस्करः 'कोकंतियाइ वा कोन्तिका, सा या रानी 'को को' शब्द करोति 'लोमडो' इति प्रसिद्धा 'ससगाइवा' शासक इति वा 'खरगोस' 'ससळा' इति प्रसिद्धः 'चित्तलाइ वा' चित्रल इतिचा, चित्रल: चित्रवों मृगाकारो द्विखुरः पशुविशेषः, 'चिल्लगाइ वा चिल्लक इति वा-श्वापद पशुविशेषः, एते तंत्र भवन्ति विम् ? भगवानाह-हंता अस्थि' इन्त, गौरन ! एकोहक द्वीपे सिंहादयः सन्ति किन्तु 'नो चेव ण ते अण्णरणरस तेसि वा एणुयाण' नैव खलु हैं। 'अस्थि णं भंते ! एगोरुथ दीवे दीदे सीहाइ वा बरघाइ वा दिगाइ का दीधियाइ वा अच्छाइ वा पररसराइ वा तरच्छाइ चालियालाइ वा, विडालाइ दा सुणगाति वा कोलसुणगांतिघाकोतियादा सस. गाति था, चित्लाति वा चिल्ललगाति घा' हे भदन्त ! एकोसक द्वीप में सिंह होते हैं क्या? व्याघ होते हैं क्या? मेडिया-धूक होते हैं क्या? दीपी-चीता होते हैं क्या ? अच्छ-बाल-होते हैं क्या ? परासर-गेंडा होता है क्या? तरक्ष-मृग को खाने वाले रिपक जानवर विशेष-होते क्या? सियाल होते हैं क्या? पिडाल होते हैं या शुक-कसे-होते हैं क्या? कोल शनक-ग्राम स्कर-गंड सूर-होते क्या? रात्रि में 'कोको' शब्द करने वाली कोकंतिका-लोमडी-होती है क्या? शशकखरगोशहोते हैं क्या ? चित्रल-चितफादर जंगली जानवर जो मृग के आकार का दोखुर वाला होता है वे सर्व प्राणियहां होते हैं क्या? और चिल्लकश्वापद पशु विशेष होते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैंहे गौतम । 'हंता अस्थि हां, ये सब जानबर यहां होते हैं । परन्तु-'नो 'अस्थि ] भंते ! एगोरूय दीवे दीवे सीहाइ वा, वधाइ वा, विगाइ वा, दीवियाइ वा, बच्छाइवा, परस्सराइ वा, तरच्छाइ वा, सियालाइवा, विडालाइवा, सुणगाति वा, कोलसुणगातिवा, कोक तियाइवा, ससगातिवा, चित्तलातिवो, चिल्ललगातिवा,' 8 ભગવન એકરૂક દ્વીપમાં સિંહ હોય છે ? વાઘ હોય છે? ભેડિયા–અર્થાત નાર (ાય છે? ચિત્તાઓ હોય છે ? રીછે હોય છે? ગુંડાઓ હોય છે ? તરચ્છ મૃગોને ખાનારક હિંસક પશુ વિશેષ હોય છે? શિયાળિયા હેય છે? બિલાડાઓ હોય છે? કુતરાઓ હોય છે? ભુંડ હોય છે ? રાતમાં ‘કેકો” એવા શબ્દો કરવાવાળી કડી ત્યાં હોય છે? સસલાઓ હોય છે? ચિત્રલ ચિત કાબર જંગલી જાનવર જે મુગના આકારનું બે ખરીયોવાળું હોય છે, તે ત્યાં સર્વપ્રાણિ હોય છે? અને ચિલલક શ્વાદ પશુ વિશેષ હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री ४ छ है 3 गौतम ! 'हंता अस्थि' ! ! ! नपरेत्यो डाय Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उं.३ टू.५० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तरा: ६५५ ते सिंहादयः अन्योन्यस्य तेषां वा मनुजानाम् "किंचि आवाहं वा पपाहं वा उप्पायति वा किश्चिदाबाधां वा ईपबाधा प्रवाधां वा प्रकर्षण वाधाम् उत्पाद यन्ति-कुर्वन्ति वा 'छविच्छेयं वा-करेंति' छविच्छेद-चर्मकर्तनादिकं वा न कुर्वन्ति, एमिरेषां न कापि बाधा क्रियते इति भावः, कुतस्ते श्वापदा हिंसका अपि बाधां न कुईन्ति तत्राह-पगइ पदमा णं ते 'सावयगणा पण्णचा समणा. उसो' प्रकृति भद्रका: स्वभावत एक सरलाः खलु ते श्वापदगणा: प्रज्ञप्ता:कथिताः, हे श्रमणायुष्मन् ! 'अस्थिय मंते ! एगोरुय दीवे दीवे' अस्ति खछ भदन्त ! एकोहक द्वीपे द्वीपे 'सालीइ वा शालिरिति वा शालिः-फलमः 'चीही इवा' ब्रीहिरिति वा 'गोधूमाइ चा' गोधूमइति वा 'जवाइ वा' यव इति वा 'तिलाइ वा तिल इति वा 'इक्खूड का' इप्नु रिवि वा ? भगवानाह-'हंता अत्यि' चेव णं ते अगमा तेहिवा मणुया णं किंचि आषाहं वा पदाहं वा उपायंति वा छविच्छेधं या कारेंति' ये जानवर आपस में एक दूसरे को अथवा उन मनुष्यों को धोडी ली भी बाधा था बहुत बाधा नहीं उत्पन्न करते हैं उन के शरीर को काटते नहीं हैं फाड़ते नहीं है. इत्यादि कुछ भी क्रिया नहीं पाते हैं। ये मांस भक्षक होने पर भी किस कारण से ऐसा काम नहीं करते हैं तो इसके लिये सूत्रकार ने बताया है कि 'पगतिमगाणं हे सावयाणा पणता०' वे श्वापद-जंगली जानपर प्रकृति से ही भद्रक सरल-होते हैं । 'अत्यि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे सालीलि का, चीहिया गोधूमाइ ना, जवाइवा, तिलाइ वा इक्खूह वा' हे बदन्त ! एकोषक द्वीप में शाली-धान्य विशेष होता है क्या ? ब्रीहि धान्य विशेष होता है क्या ? गोधूम गेहूं होते हैं क्या ? जो छे. परंतु 'णो चेव गं ते अण्णमणस्थ वेसिंवा, मणुयाणं किंचि आवाहवा पवाहवा, उप्पायतिवा, छविच्छेयं' वा करें 'ति' PAL -१२। ५२६५२मा ४ બીજાને અથવા તે મનુષ્યોને ગેડી કે વધારે પ્રમાણમાં બાધા કરતા નથી. તેઓના શરીરને કરડતા નથી. ફાડતા નથી વિગેરે કોઈ પણ હરકત પહોંચાડતા નથી. આ માંસ ભક્ષક હોવા છતાં પણ શા કારણથી આવા કામ કરતા નથી ? AL मा सूरे [ छ । 'पगतिभद्दगा " ते साक्यगणा पण्णत्ता' ते श्वा५६ ली जनवरे। प्रकृतिथी मद्र सरस खाय छे. 'अत्थि ण भंवे एगोरुय दीवे दीवे खालीतिबा, वीहिवा. गोधूमाइवा, जवाइवा, तिलाइवा, इक्खुइवा' હે ભગવન્ ! છેકેરૂક ઢીગમાં શલીધાન્ય વિશેષ હોય છે? વીહિ ધાન્ય વિશેષ હેય છે ? ઘઉં હોય છે. જવ હોય છે ? તલ હોય છે ? સેલડી હોય છે ? Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमत्र इन्त गौतम ! सन्ति एकोरुक द्वीपे शालिव्रीहि यवादिकाः, किन्तु 'नो चेव गं तेसि मणुयाणं परिमोगत्ताए हव्वमागच्छंति' नैव खल्ल ते शाल्यादयः तेषा. मेकोरुकमनुजानां परिभोगतया-उपभोगाय कदाचिदपि आगच्छन्तीति । 'अस्थि णं भंते ! 'एगोरुय दीवे दीये' अस्ति खल्ल भदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे 'गत्ताइ या' गर्ता इति वा, गती असती खड्डा, 'दरीइ वा' दरी इति वा, दरी मूपिकादिककृता लषी खड्डा, 'घसीइ वा' घसी इति वा, घसी-भूमिरजः 'भिगुत्ति वा भृगुरिति वा, पर्वत शिखररूप प्रयातस्थानम् 'ओवाएइ वा अवपात इति वा, अपातो निम्ना भूमिः यत्र जनः स प्रकाशेऽपि पतति, "विसमेइ चा' विषममिति बा, विषमम्-उच्चनीचत्वेन दुरारोहारोहस्थानम्, 'विज्जलेइ वा' विजलमिति वा, विजलें शुकमायकदमस्थानम्, 'धूलीइ वा धूलिरिति वा होते है क्या ? तिल होते हैं क्या ? इक्षु होते है क्या ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'हता अल्थि' हा गोलर ! ये सच यहां होते हैं। किन्तु णो चेव णं तेलिं मणुयाणं परिमोत्ताए हवामागच्छति' वे वहां के मनुष्यों के खाने आदि के काम में नहीं माते हैं 'अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे भत्ताइ वा दीहला घलोइ का, भिगुत्ति बा, ओवाएइ वा, विस मेइ वा, विज्जलेह था, रेणूह वा, पंकेइ वा चलणीइ बा हे भदन्त ! उस एकोहक छीप में बडे २, गत्त-खड़े होते हैं क्या! दरी-मूषिकों द्वारा किये गये छोटे २, गड़े-पिल-होते हैं क्या ? घसी फटी हुई लकीर वाली भूमि होती है क्या ? भृगु-पर्वत-शिखरादि उच्चप्रदेशहोते क्या! अपात-ऐले भी स्थान होते हैं क्या! कि जहाँ पर मनुष्य प्रकाश में भी गिर पड़े ! विषम ऐसे भी स्थान होते हैं क्या! कि जहां मनुष्य का चढना उतरना कठिन होता है ऐसे भी स्थान मा प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री ४७ छ 'हता अत्थि' गौतम । म। मधु त्यां डाय छे. परंतु 'णो चेत्र णं तेहिं मणुयाण परिभोगत्ताए हव्वमागच्छ नि' त धान्यो त्यांना मनुष्ये ना म'डार माहिना अममा मावत नथी. 'अत्थि ण भते! एगोरुरदीवे दीवे गत्ताइवा, दरीइवा, घसीइवा, भिगुत्ति वा ओवाएइवा, विसमेइवा,' है भगवन् । ३५ द्वीपमा माटा मोटर ગર્તા ખાડા હોય છે ? દરી ઉંદરડાઓ દ્વારા કરવામાં આવેલ નાના નાના ખાડા હોય છે ? અર્થાત્ નાના દરે હોય છે ? ઘસેલી અર્થાત ફાટેલી તરાડવાળી જમીન હોય છે? પર્વત શિખર વિગેરે ઉંચા પ્રદેશ હોય છે. અપાત એવા સ્થાને હોય છે? કે જ્યાં મનુષ્ય પ્રકાશમાં પણ પડી જાય ? વિષમ એવા સ્થાને હોય છે? કે જ્યાં મનુષ્યોને ચઢવા ઉતરવાનું કઠણ બને ? જ્યાં થોડા Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टोका प्र.३ ३.३ ब्लू.४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६५३ रेणूइ वा' रेणुरिति-रजो बा, 'पंकेइ वा एक इति वा जलाविच कर्दमः 'चल णीइ वा चलनीति वा, चलनीचरणमात्रस्पर्शीदन एव, भगवानाह-'णो इणढे समठे' नायमर्थः समर्थः यतः एगोरुष दीवेणं दीधे' एकोरुक द्वीपे खल्ल द्वीपे 'वहुसमरमणिज्जे भूमिमागे पण्णत्ते सनणा उसो' बहुसमरमणीयः भूमिभागः मज्ञप्तः हे श्रमणायुष्मन् ! 'अस्थि णं भंते ! एगोरुपदीचे दी' अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे 'खाइ बा' स्थाणुरिति पा स्थाणुः - उत्खातितधान्यमूल मूर्ध्वकाष्ठं वा 'कंटएइ वा इण्टक इति या, 'होर९३ वा' होरकमिति वा, मची मुखकाष्ठविशेष?, 'सककराइ पा' शर्करा इति वा शर्करा लघु प्रस्तर खण्ड रूपा 'तणकर वराइ वा कृणक वर इति वा पत्तायवराइ वा' पत्र कचवर होते हैं क्या ? कि जहां पर थोडे पानी का कीचड़ हो ? क्या ऐसे भी स्थान होते हैं जो धृलिकाले रेणुवाले एवं पङ्क-कीचड-काले हों तथा विजल-क्या ऐले भी स्थान होते हैं कि जिन में पैराम लिप्त हो ऐसे विना पानी का कीचड-झादध रहता हो ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जो इजद्वे सलडे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नही है-अर्थात् यहाँ पर गर्त आदिबाले स्थान नहीं है क्योंकि-'बहुममरमणिज्जे भूमि भागे पण्णत्ते समजाउसो' हे अक्षण आयुगमन । वहां का भूमिभाग बहुसम-समतल और रमणीय कहा गया है। 'अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दी हे भदन्त ! एकरुक नाम के द्वीप में 'खागृह था' क्या स्थाणु-उखाडे गये धान्य का सूल टूठ होता है ? 'कंटएइ था' कंटक होते हैं ? 'हीरएति बा' हीक-जिसका मुख शचि के सुख के जैसा तीक्षा होता ऐसा काष्ठविशेष-होता है क्या ? 'सकराति वा' પાણી વાળો કાદવ હોય એવા સ્થાને હોય છે ? જે ધૂળ વાળા રેતવાળા અને કાદવવાળા હોય એવા સ્થાને હોય છે ? અને જેમાં પગ મૂકવાથી બગડે એવા પણ વિનાને કાદવ હોય તેવા સ્થાને હોય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तर प्रभुश्री गौतमत्वामीन छ, 'णा इणट्रे समटे गौतम! ॥ म समय नथा. अर्थात् त्यो मापा स्थान होता नथी म 'बहु समरमणिज्जे भूमिभागे पण्णते समणाउसो' श्रम गायुष्मन् । त्यांना मूभिमाय मसम 0 स२ । सने २मय सुह२ हाय छ 'अस्थि णं भंते ! एगोरुअ दीवे दीवे' भगवन् ! 11३४ नामना दीपभा 'खाणूडया' जमानामा सात धान्यना भूण ४॥ य छे ? 'क टरबा' ट! हाय ? हिरएइका' डी२४-२ना म. ભાગ સોઈની અણી જે તીક્ષણ હોય એવું એક જાતનું કાષ્ઠ વિશેષ હોય છે? 'सकराइवा' नाना पथ्थराना ४४ ३५ सा४२ हाय ? 'तण कयवराइवा' Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीचामिगमस्टे इति वा, पन्नाण्येव कत्रवरः 'असुईइ वा' अशुचिरिति वा अशुचिः इच्छेप्मादिदेह. मकम् 'पूइय'इ वा पूतिकमिति वा, पूतिकं कुथितं स्त्र स्वभावचलितं दुर्गन्धिवस्तु. जातम् 'दुम्मिगंधाइ वा दुरभिगन्ध इति वा; मृतकले वरादिजन्यमिव 'पचोक्खाइ वा' अचोक्षमिति वा-अचोक्षमपवित्र मस्पादिन भगवानाइ-'णो इणढे समठे' नासमर्थः समर्थः, यतः वयगयखाणुकंटकहीरगसककर तणकयवर पत्तायवर अनुइ पूख्य दुभिगंधमचोक्खेणं एगोरुपदोवे पण्णत्ते समजाउमो' पगत स्थाणु इण्टक हीरक शर्करा तृणरुचवर पत्रकाराशुचि पूतिक दुर्राभगन्धाचोक्षः खलु एक रुक द्वीपः प्रज्ञप्तः हे श्रमणायुप्मन् ! 'अस्थि णं भंते ! एग रुष दीवे दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोहक द्वोपे द्वीपे 'दंताइवा' दंश इति वा 'मसगाइ वा मशक इति वा एतो लोकपसिद्धौ ‘पिसुगइ वा पिचक इति या 'जुयाइ वा' यूक्षा इति वा, लघु प्रस्तरों की खण्ड रूप शर्करा होती है ? 'तण करबराइ वा तृणों का कूड़ा-कचरा होना है क्या ? 'पत्ताचवराह पा' पत्तों का कूडाकचरा होता है क्या ? असुइ वा अपविन्न पदार्थ होता है क्या ? 'पूतियाति वा पूतिक-स्वभाव से चालत दुर्गन्धी सडांश से भरा हुआ पदार्थ होता है क्या ? 'दुभिगंधाइ वा जिलशी गंध बूरी हो ऐसा होला है क्या? 'अयोक्खाइ था' मृतकलेवरादि के जैसा होता है क्या? इसके उत्तर में मभुश्री कहते हैं-'णो इणढे लमट्टे' हे गौतम ! ऐसा श्रर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि-'श्वगयखाणुकंटक हीरगसकरतण कयवरपत्सकयवर असुइ पूतिय दुनिभगंध सचोक्खे णं एगोरुय दीवे पात्त हे श्रमण आयुष्मन् ! यह एगोरुक द्वीप स्थाणु कण्टक, होरक, शर्करा, तृणकचथर, पत्तकाचवर अशुचिता आदि से रहित होता है अस्थि णं अते ! एगोरुष दीवे दीवे दलाइ था, मस्सगाइ वा पिलुयाह तगाना ४५२। डाय छ ? 'पत्तकचवराइवा' पानामानी ४य खाय छ १ 'असुइवा' अपवित्र हा डाय छे ? 'पूतियातिवा' पूति २सायी न्यसायमान थी नारस पहा हाय छ १ 'दुभिगधाइवा' रेनी गय राम हाय तवा पहा हाय १ 'अचोक्खाइवा, भृत वाहिना का डाय छ १ मा प्रश्नना उत्तरमा प्रसुश्री ३ छेउ 'णा इणने समटे' गौतम! ! म परोपर नथी. भ. 'क्वगयखाणु कटक होरगरकर तणकयवर पत्तफयवर असुइ प्रतिय नभिगंधमचोखणं एगोरुय दीये पण्णत्ते' श्रम मायुज्मन् ते ३४ द्वीप स्था, til, १४२२, भ२डीया, घासना ४५, ५६उनी ध्यरे।, मशुयिया लिग रिनाना हाय छ, 'अत्थि ण भते ! एगोरुयदीवे दीवे दसाइवा, मसगाइवा, पिसु पाइवा, जुयाइ वा, लिक्खाइ वा, ढंकुणाइवा' भगवन् सी. Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ . ३ सू.४० ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६५५ 'लिक्खा चा' लक्षा इति वा ढकुणाइ वा ढंकुण इति वा ढंकुणो-म कुणः ? इति प्रश्नः, भगवानाह - ' णो इट्ठे समट्ठे' नायसर्थः समर्थः यतः 'चचगय दममसापसुयजूय छिक्वढं कुण एगुरुपदीवे पण्णत्ते समणाउसो ! व्यपगतदेशमशक पिशुकयू काढकुण एकोरुक द्वीपः पज्ञः हे श्रमणायुष्मन् 'अस्थि णं भंते । एगोरुय दीवे दीवे' अस्ति-खड भदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे 'अही वा' अहिसर्प इनि वा 'जयगराइ वा' अजमरा इति वा, अजगरः स्थूलकाया सर्प: 'महोरगाइ वा 'महोरग इति वा, विशालकायः सर्प इति प्रश्नः, भगवाराह'दा अस्थि' हन्त, गौतम ! सन्ति सर्पादयो जन्तव इति, किन्तु 'नीचेवणं ते - वा जुयाह वा लिक्खाह वा ढकुणाइ वा' हे भदन्त । एकोरुरु द्वीप में दंश, मशक, पिस्सू जू लोख, या मत्कुण-सटमल होते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं- 'जो इहे समहे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् यहां देश-बिच्छू आदि डंक से काटने वाले और मशक - मच्छर वगैरह ये एक भी नहीं होते हैं । क्योंकि - 'बदगयदंससकपिष जय लिक्खढिकुणे णं एगोरुय दीवे पण्णत्ते' क्योंकि हे श्रमण आयुष्मन् ! यह एकोरुक द्वीप देश शक, पिस्सु, जू, लीख और मत्कुण इन से सर्वथा रहित कहा गया है 'अस्थि णं भंते ! एगोरुप दीवे दोवे अहोई दा, अयगराह वा, महोरगाइ वा' हे भदन्त ! एकोरुरू द्वीप में क्या सर्प होते है ? अजगर होते हैं ? या महोरग महाकाय वाले सर्प विशेष होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है - 'हता, अस्थि' हां गौतम ! ये सर्प आदि जीव यहां एकोरुक द्वीप में होते हैं किन्तु 'नो चेवणं ते अन्न मन्नस्स तेलिया मण्यार्ण किंचि રૂક દ્વીપમાં ઇ'શ, મશક મચ્છર, પિસ્ક્રૂ, જૂ, લીખ અથવા માર્કેડ હાય છે ? આ प्रश्नना उत्तरमां अलुश्री गौतमस्वाभीने 'णा इट्ठे समट्टे' हे गौतम! આ અ ખરેખર નથી. અર્થાત્ ત્યા દઈશ, મશ પિસ્સુ જૂ' લીખ વીછી વિગેરે ડ'ખથી કરડવાવાળા અને મચ્છર વિગેરે ઉપદ્રવ કરવાવાળા જીવેા હાતા નથી. भ 'वजय' समपिसुयजूय लिक्खढिकुणेणं एगोरुयदीवे पण्णत्ते' हे श्रम આયુષ્મન્ આ એકારૂક દ્વીપમાં દશ, મચ્છર પિસ્સુ જૂ, લીખ અને માકડ विनाना होय हे ते वामां आवे छे 'अस्थि णं भते ! एगोरुय दीवे दीवे हीईवा, अयगराइवा, महोरगाइवा' ભગવન્ ! એક દ્વીપમાં સ હાય છે? અજગર હાય છે ? અથા મહેારગ હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अलुश्री गौतमस्वाभीने 'हता अस्थि' हा गौतम | आमचे विगेरे व। सहियां मा मेोइड द्वीपमा होय छे, परंतु 'नो चेत्र र्ण ते अण्ण Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे अन्नमन्नस्स' नैव खल्ल ते सदियोऽन्योन्यस्य परस्परस् 'तेसि वा मणुयाणं किंचि आवाई वा पावाहं वा छविच्छे यं वा करेति' सेप वा एक रुक मनुजानामावाधा मीषद वार्धा वा प्रवाधां वा छविच्छेदं शरीर कलादिकं वा न कुर्वन्ति, कुत एवं तबाह-पगइमहगाणं ते बाळगणा पञ्चता समणाउसो' प्रकृति भद्रका:-स्वभावत एव सरलाः ते खल्ल ते व्यालपणाः सपा प्रज्ञप्ता-कृथिताः हे श्रमणायुमन् ! 'अस्थिणं भंते । एमोस्यदीवे दीवे' बस्ति खलु भवन्त ! एकोरूकद्वीपे खलु द्वीपे 'गदंडाइवा' ग्रहदण्ड इति वा, ग्रहदण्डः दण्डाकारो समुदायः, स चाकाशे दृश्यमानो लोकेऽनर्थोप निपातहेको अवति । एवं 'गहमुसलाइ वा' ग्रहमुशलाकारो ग्रहमादायः 'पहाजिज शाइना' प्रनितमिति बा-ग्रहसंचारजन्या ध्वनिः, 'महजुद्धाइ वा' ग्रहयुद्धमिति झा, एकग्रहमध्याद द्वितीयस्य संचरणम् . द्वयोऽहयोरेक नक्षत्रे दक्षिणोत्तरेण समश्रेणियाऽवस्थानं दा 'गहसिंघाडगाड वा' ग्रहशृङ्गाटकमिति वा-शृङ्गाटकाकार त्रिकोणो ग्रहसमुदायः 'गहअवसव्वाइ वा' ग्रहापसव्यमिति वा, सदा चन्द्रो प्राणां नक्षत्राणां च दक्षिणमागे गति कुर्याचदा ग्रहापसव्यमिति कथ्यत्ते, उकाच-दक्षिणेनापसव्यं स्याद्-उत्तरेण मदक्षिणम् । प्रहाणां चन्द्रमाज्ञेयो, नक्षत्राणां तथैव च' 'ग्रहयुद्धाध्याय' 'अभाड का' अभ्रमिति वा-सामान्याकृतिको मेघ:, 'अम्मरक्खाइ बा' अभ्रक्ष इति चा-गगने. आवाहं वा पछाहं वा छविच्छेयं का करेंति' वे आपस में एक दूसरे जीव को या वहां के बनुष्यों को थोडीही सी सामान्य रूप से भी बाधा नहीं पाते हैं, विशेष रूप से भी बाधा नहीं पहुंचाते हैं और न उनके शरीर आदि का छेदन भेदन आदि ही करते हैं। क्यो कि 'पगइ भद्दमा णं ले वालगणा पजन्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! ये सर्प आदि प्रकृतिले अद्र होते कहे गये हैं । 'अस्थि णं भंते ! एगोरुध्द दीवे दीये महदंडाइ हा गह मुसलाइ वा, गहमज्जियाइ वा गहजुद्धाइ हा गह संघाडगाइ वा मह अथव्वाइ या अभाइवा, मण्णस्स तेसि वा मणुयाणं कि चि सावाहं वा, पवाईवा, छविच्छेय वा करें ति' तमे। ५२२५२ मे मील ने मथवा त्यांना मनुष्याने सामान्य પ્રકારથી થેડી પણ બાધા પહોંચાડતા નથી અને વિશેષ પ્રકારથી પણ બાધા પહોંચાડતા નથી. તેમજ તેઓના શરીર વિગેરેનું છેદન ભેદન પણ કરતા નથી. म 'पगइभद्दगाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' श्रम मायुभनू આ સપ વિગેરે પ્રકૃતીથીજ ભદ્ર હોય છે. તેમ કહેવામાં આવેલ છે, 'अस्थि णं भंते ! एगोश्य दीवे दीवे गहदंडाइवा, गह मुसलाइवा, गह गज्जियाइवा गहजुधाईवा गह संधाडगाइन गह अवसव्वाइवा, अभाइवा, Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असेयधोतिका टीका प्र.३ म.३ २.४१ ५. इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तरा: ६५७ वृक्षाकारोऽभ्रपरिणामः, उक्तञ्च-'दधिसदृशाम्रो नीलो भानुच्छ दीखमध्यगोऽभ्रतरु इति । संझाइ वा' सन्ध्येति वा, अहोरात्रस्य यः सन्धिः सा सन्ध्या, उक्तञ्च'अर्धास्तमितानुदिताव, सूर्यादस्पष्टभं नमो यावत् । तावत्संध्याकालश्चिनरेतैः फलं चास्मिन् ॥१॥ किञ्च- अहोरात्रस्य यः सन्धिः, सा च संध्या प्रकीर्तिता । द्विनाडिका भवे साधु यावदाज्योति दर्शनम् । ॥१॥ सन्धिकाले रक्तनीलाद्यभ्र परिणतिरूपा, गंधवनगराइ वा गन्धर्वनगरमिति वा, गन्धर्वेनगरम्-देवभवन मासादोपशोभित नगराकारतया तयारिधनभः परिणतपुद्गलराशिरूपम् गज्जियाइ अभरूक्खाइ वा, संझाइ वा, गंशव्धनगराइ वा, गजिया वा, विज्जु. याइ वा उक्का पायाइ वा, दिसादाहाइ बा, णिग्धायाइ वा, पंसु वट्टी था, जुवगाइ वा हे भदन्त ! एकोहक द्वीप में शिखा वाले ग्रह का उदित होना, ग्रह दण्ड-अनिष्ट सूचक दण्डाकार ग्रह समुदाय, ग्रह मुसलमुशल के आकार का ग्रह समुदाय, ग्रह गर्जित-ग्रह संचार से होने वाली ध्वनि, ग्रह शुद्ध एक ग्रह के मध्य से दूसरे ग्रह का संचरण, अथवा दो ग्रहों का एक नक्षत्र पर दक्षिण अथवा उत्तर में समश्रेणि से आना ग्रहसंघाटक-दो ग्रहों का युग्मरूप से एक नक्षत्र रहना, ग्रहापसव-ग्रहों का वाम (बांया) भाग से दक्षिण भाग में चलना अर्थात् ग्रहों का व्यतिक्रमण-चक्र-होना, अनलारान्याकृति बाले मेघों का उत्पन्न होना, अभ्र वृक्ष के आकार का बादलों का परिणाम, सन्ध्या-राते नीले बादलों का परिणाम, गन्धर्धनगर-देव भवन प्रासाद से शोभित नगर के आकार से परिणत आकाश में मेघ पुद्गल राशि का होना अम्भरुक्खाइमा, सझाइवा, गधव्वनगराइवा, गज्जियाइवा, विज्जुयाइ वा उक्कापायाईना, दिसादाहाइ वा, णिग्घायाइ वा, पंसुविट्ठीइइा, जुवगाईवा' ભગવદ્ ૨ કેરૂક દ્વીપમાં શિખાવાળાગ્રહનુ ઉદય પામવું, ગ્રહદંડ-અનિષ્ટ સૂચક ડાકાર ગૃહસમુદાય, ગ્રહમુસલ-મુસલના આકારને ગ્રહ સમુદાય ગ્રહ ગજીત. -यहनासयारथी थापाजी पनि, (141) अहयुद्ध- अनी ममाथी બીજા ગ્રહનું સંચરણ, અથવા બે ગ્રહોનું એક નક્ષત્રપર દક્ષિણ અથવા ઉત્તરમાં સમશ્રેણથી આવવું. ગ્રહ સંધાટક બે ગ્રહનું યુમરૂપે એક નક્ષત્રમાં રહેવું. ગ્રહાપસવ ગ્રહોનું વામ ડાબી બાજુથી દક્ષિણ જમણી બાજુ ચાલવું. અર્થાત ગ્રહનું વ્યતિક્રમણ એટલે કે વક થવું. અશ્વસામાન્ય આકૃતિવાળા મેનું ઉત્પન્ન થવું. અમ્રવૃક્ષના આકારના વાદળાઓનું પરિણામ, સંધ્યા રાતા નીલા વાદળા એનું પરિણામ ગંધર્વનગર-દેવભવન પ્રાસાદથી શુભતા નગરના આકારથી પરિણત થયેલા આકાશમાં મેઘ પુદ્ગલ રાશિનું થયું વિદ્યુત વાદળો વિના जी० ८३ Page #680 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम वा' गजितमिति वा. अभ्राभावे मेंघध्वनि:. विजुयाइ वा विधुदिति बा, अनभ्रा. विधुच्चमत्कृतिः, 'उक्कापायाइ बा' उल्कापात इति वा' उल्का-स्वर्गाच्च्यवमानस्य देवस्य यादृशो वर्णस्तत्तदशवर्णा, तस्यापातः पतनं आकाशे संमृछिताग्नि ज्वालानिपतनरूपः उक्तश्च-'दिविभुक्तशुभफलानां पततां रूपाणि यानि तान्युल्का' इति, 'दिसादाहाइ वा' विग्दाह इति वा, कस्यांश्चिदेवस्यां दिशि छिन्नमूलाग्निज्वालाकरालिताकाशप्रतिमासरूपः, दिग्दाहस्य फलं यथा ___ 'दाहोदिशां राजभपाय पीतो देशस्थ नाशाय हुताशवर्णः । __ यच्चारुणः स्यादपसव्वायुः, सस्यस्य नाशं स करोति दृष्टः' ।१॥ 'णिग्घायावा' निर्घात इति वा-निर्घातो विद्युत्मपतनध्वनिः, 'पंसु. विट्ठीइ वा पांशुवृष्टिरिति वा गगनतो धूलिवर्षणम्, 'जुगाइ वा' यूपक इति वा, यत्र संध्याप्रमा चन्द्रप्रभा च युगपद् भवतः स यूपक इति कथ्यते सन्ध्या प्रभाचन्द्रमभयोर्मिश्रत्वं यूपक इति । उक्तञ्च-'संझच्छेयाचरणो, उजूदगो मुक्कदिणदिन्न ।' सन्ध्याछेदावरणस्तु यूपः शुक्लदिनानि त्रीणि, इतिच्छाया । स च शुक्ल. पतिपदिषु त्रिषु दिनेषु भवति तत्र सन्ध्याविभागो न लक्षितुं शक्यते स इति । गर्जित-विना बादल के मेघ ध्वनि होना, विद्युत-विना यादल के बिजली का चमकना, उल्कापात-आकाश में संमूर्छिम अग्नि ज्वाला का गिरना, दिग्दाह-किसी एक दिशा में छिन्न स्कूल अग्नि ज्वाला का भयानक प्रतिभान होना, निर्यात-बिजली के पड़ने का कडाका, पांशु वृष्टि-आक्षाश से धूलि का गिरना, यूपक उसको कहते हैं, जिस दिन संध्या की प्रभा और चन्द्रमा की प्रभा एक साथ मिली हुई होती है जिससे संध्या का पता नहीं चलता है इसीलिये कहा 'संध्या प्रभा चन्द्र प्रभयोर्मित्वं यूपकेः' कहा भी है 'संझच्छेया चरणो' अर्थात् संध्या छेइ-संध्याके विभाग मे आवरण हो जावे-संध्या का पता नहीं चले वही यूपक वही बालचन्द्र का दिन है वह शुक्ल पक्ष की વિજળીનું ચમકવું. ઉલકાપાત આકાશમાં સંમૂર્ણિમ અગ્નિજવાલા પડવી, દિગ્દાહ કોઈ પણ એક દિશામાં છિન્નમૂળ અગ્નિવાલાને ભયંકર પ્રતિભાસ થ, નિર્ધાત વિજળી પડવાના કડાકા, પાંશુવૃષ્ટિ આકાશમાંથી ધૂળ પડવી, જે દિવસે સંધ્યાની પ્રભા અને ચંદ્રમાની પ્રભા એક સાથે મળી હોય તેને ચૂપક કહે છે કે જેથી સંધ્યા થયાનું જાણી શકાતું નથી. તેથી જ કહ્યું છે કે 'सध्या प्रभा चन्द्रप्रभयो मिश्रत्वं यूपक.' मी पय ४ ४ 'सझच्छेयावरणो०' અર્થાત્ સંધ્યાકેદ–સ ધ્યાના વિભાગમાં આવરણ આવી જાય, સંધ્યા જાણી ને શકાય, તેજ યુપક તેજ બાલ ચંદ્રને દિવસ, અને એજ શુકલ પક્ષને પડો વિગેરે ત્રણ દિવસમાં થાય છે. અર્થાત્ પ્રતિપદા વિગેરે ત્રણ દિવસમાં થાય Page #681 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ सू.४१ ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६५९ 'जक्खालित्ताइ वा' यक्षादीप्तकमिति आकाश दृश्यमानमग्निसहित पिशाचरूपम् | 'धूमियाइ वा' धूमिकेति वा' धूमिका नाम या रूक्षा प्रविरला धूमामा दृश्यते ! 'महियाइ वा 'महिकेति वा महिका या स्निग्धा घनाघनत्वादेव भूमौ घसारिता तृणाद्यग्रस्थित जलकणदर्शनत उपलक्ष्यमाणा धूमामा । 'रउग्वाह वा' रजउद्धात इति वा रजसा सूक्ष्मधूलिकया दिशां व्याप्तत्वस् 'भद्य रजस्वलादिशः' लोके कथ्यते । 'चंदोवरागाइ वा' चन्द्रोपरागचन्द्रग्रहणमिति वा 'सरोवरागेइ वा' सूर्योपरागः सूर्यग्रहणमिति वा । 'चंद्रपरिवे वाइ वा' चन्द्र परिवेष इति वा 'सुरपरिवेसाइवा' सूर्यपरिवेष इति वा' परिवेषो नाम चन्द्रसूर्ययोश्चतुर्दिक्षु गोलाकार परिमण्डलम् | 'पडिचंदाइ वा' प्रतिचन्द्र इति वा उत्पातादि सूचको द्वितीयश्चन्द्रः प्रतिचन्द्रः चन्द्रसमीपे यदा प्रतिपदा आदि तीन दिनों में होता है प्रतिपदा द्वितीया और तृतीया, इन तीन दिनों में प्रायः संध्धा विभाग दुर्लक्ष्य हो जाता है । यक्षादीस - आकाश में दिखने वाली अग्लि सहित पिशाच का रूप, धूमिका रूक्ष बिनाजलकण की छुट्टी- छुटी धूआं जैसी होता है, महिकास्निग्ध घन, तथा घन, होनेसे ही भूमि पर फैली हुई तृण के अग्र भाग में जलकणों के देखने से जानी जाती हुई धूआं जैली होती है। रजउद्धात सूक्ष्म धूलि से दिशाओं का भर जाना, उस समय दिशा रजस्वला है, ऐसा लोक कहते हैं । चन्द्रोपराग-चन्द ग्रहण, सूर्योपराग सूर्य ग्रहण, चन्द्रपरिवेष - चन्द्र के चारों तरफ होने वाला • गोलाकार परिमण्डल-गोल कुंडाला, एवं सूर्य परिवेष सूर्य के चारों तरफ होने वाला परिमण्डल प्रतिचन्द्र एक चन्द्र से दूसरा चन्द्र दिखना, एवं प्रति सूर्य-दो सूर्यो का दिखना, इन्द्र धनुष-धनुष के आकार का છે. એટલે કે પડવા, ખીજ અને ત્રીજ થ્યા ત્રણ દિવસમાં ઘણે ભાગે સંધ્યા વિભાગ દુČશ્ય થઈ જાય છે, યક્ષાદીમ-માકાશમાં દેખાવાવાળા અગ્નિ સહિત પિશાચનું રૂપ મિકા રૂક્ષ પાણિના ખટ્ટુ શિવાય છૂટિ ટિ ઝાકળ જેવી होय छे. महिला - स्निग्ध, धन, तथा धन होवाथीन भीन पर सायसी ઘાસના અગ્રભાગમાં પાણીના ખિદુઆના જોવાથી જાણવામાં આવેલ વાડા જેવી ડાય છે. રજઉદ્દાત જીણી ધૂળથી દિશાએ ભરાઈ જવી. તે સમયે દિશા રજસ્વલા છે તેમ લકા કહે છે. ચ ંદપરાગ–ચંદ્રગ્રહણુ, સૂૉંપરાગ સૂર્ય ગ્રહણુ, ચંદ્ર પરિવેષ ચદ્રની ચારે ખાજુ થવાવાળું ગાળ આકારનુ પરિ भडस, अर्थात् गोफ डुडाणु', 'सूर्यपरिवेप' सूर्यनी यारे मात्रु थवावाणु परि Page #682 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे तनुधनोमवेत्तदाचन्द्रमकाबाद् द्वितीय श्चन्द्र इव तत्र लक्ष्यते 'पडिमुराइ वा प्रतिसूर्य इति वा' एवं प्रतिमूर्योऽपि, उक्तहि-'उदयात्मभृति प्रहरैकदिनं यावत् तनुघनोऽर्क समीपे यदा भवति तदा अरश्मिवशात्तत्र द्वितीयोऽर्क इव लक्ष्यते स प्रतिसूर्य उच्यते, एवमस्तसमयेऽपि संभवति' इति । 'इंदधणइ ना' इन्द्रधनुरिति वा सन्ध्या समये धनुराकारा नानावर्णा रेखा, 'उदगमच्छाइ वा' उदकमत्स्य इति वा-उदकमत्स्यः तात्कालिकष्ट सूचको गगने दृश्यमान इन्द्रधनुए एव खण्डरूपः 'अमोहाइ वा' अमोघ इति वा, अमोघः-सूर्यास्तनन्तरं तत्कालमेव सूर्यविम्बानिस्सृतागगने शकटोद्धिसंस्थिता वृष्टयादि सूचिकाश्यामादिरेखा 'कविहसियाइ वा कपि इसिमिति वा, अकस्मान्नमसि श्रूयमाणं वा नरमुखसशस्य विकृतमुखस्य इसनबज्ज्वलभीमशब्दरूपम्, 'पाईणवायाइ वा माचीनवात इति वा 'पडीणवायाइ वा' प्रतीचीनवात इति, 'जाव' यावत् 'सुद्ध वायाइ या' शुद्धवात इति वा अत्र यावत्पदेन प्रज्ञापनाप्रथमपदोक्ता एकोनविंशविइदिवायुकायभेदाः संग्राह्याः-तथाहि'पाईणवाए १, पडीणवाए२, दाहिणवाए३, उदोणवाए४, उड़ायाए५ अहोवाए६ तिरिययाए७ विदिसीवाए८ दाउभामे९ बाउकलिया१० वायमंडनिया११ नाना वर्ण वाली रेखा, उदकमत्स्य-तत्काल में होने वाली दृष्टि का सूचक उसी इन्द्र धनुष का टुकडा, अमोघ-सूर्यास्त के बाद आकाश में तत्काल सूर्य बिम्ब से निकलती हुई शकट के ओधण के आकार की वृष्टि आदि की सूचक श्याम आदि वर्ण वाली रेखा, कपिहसित-अकस्मात् आकाश में सुनाई देने वाला भयंकर शब्द प्राचीन वात-पूर्व का वायु प्रतीचीनवायु-पश्चिम का वायु, यावत् शब्द वायु । वायु १९ उन्नीस प्रकार का प्रज्ञापना सूत्र के प्रथमपद में कहा गया है वे उन्नीस प्रकार के वायु इस प्रकार है-पूर्व वात १, पश्चिम दात २, दक्षिण यात ३, उत्तर મંડળ, પ્રતિચંદ્ર-એક ચંદ્રથી બીજા ચ દ્રાં દેખાવું એવં પ્રતિસૂર્યબે સૂર્યનું દેખાવું, ઇંદ્ર ધનુષ, ધનુષના આકારની અનેક રંગવાળી રેખાનું આકાશમાં દેખાવું. ઉદકમસ્ય-તત્કાલમાં થવાવાળી વર્ષો સૂચક, એ જ ઈદ્રધનુષને ખંડ, અમેઘસૂર્યાસત પછી આકાશમાં તેજ વખતે સૂર્ય બિંબમાંથી ગાડાના - ધણના આકારને વરસાદ વરસવાની સૂચના બતાવનારી શ્યામ વિગેરે રંગની રેખા, કપિટસિત-અકસ્માત આકાશમાં સંભળાનાર ભયંકર શબ્દ, પ્રાચીવાત પૂર્વ વાયુ, પ્રતીચીનવાયુ-પશ્ચિમને વાયુ યાવત્ શબ્દથી ૧૯ ઓગણીસ પ્રકારને વાયુ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં કહેલ છે. તે ૧૯ ઓગણસ વાયુ આ પ્રમાણે છે. પૂર્વવત ૧, પશ્ચિમવાત ૨, દક્ષિણવાત ૩, ઉત્તરવાત Page #683 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टोका प्र.३ उं.३ १.४१ ए० इन्द्रमहोत्सवादि वि. प्रश्नोत्तराः ६६१ उक्कलियावाए १२ मंडलियावाए १३ गुनावाए १४, झंझावाए १५ संवाए १६ घणवाए१७ तणुवाए१८ सुद्धवाए१९' इति छाया-माचीनवातः१ मतिचीनवात:२ दक्षिणवातः३ उदीचोनवातः ४ अर्ववातः५ अधोवातः६, तिर्यग्वातः७ विदिग्वातः८ वातोद्भाम:९ वातोस्कलिका१० वातमण्डलिका११ उत्कलिकावात:१२ मण्डलिकावात:१३ गुञ्जाबातः१४ झझावातः१५ संवर्त्तवात १६ घनदातः१७ तनुवातः१८ शुद्धवातः१९ इति । 'यामदाहाइ वा' ग्रामदाह इति वा 'नगरदाहाइ वा' नगरदाह इति वा 'जाव सन्निवेसदाहाइ वा' यावत् सन्निवेशदाह इति वा यावत्पदेन खेटकवटादीनां संग्रहा, तत्र ग्रामदाहायसंमवात्तजनितः पाणक्षयादिरपि न भवतीत्याह-'पाणक्खय' इत्यादि । 'पाणक्ख यजणक्षयकुछ खयधणक्खय वसणभूयमणारियाइ वा' माणक्षयजनक्षयकुलक्षयधनक्षय वसनभूतानार्या इति वा, माणक्षयादयोहि व्यसनभूता दुःखरूपा अतएव अनार्याः ते तत्र एकोरुकवात ४, उर्ध्व पात ५, अधो वात ६, तिर्यग्रवात ७, विदिग्बात ८, वातोशाम ९, दातोत्कलिका १०, दात मण्डलिका ११, उत्व लिका चात १२, मण्डलिका वात १३, गुंजा बाप्त १४, झंझा वात १५, सवर्तवात १६, घनवात १७, तनु वात १८, और शुद्ध वात १९। 'गाम दाहाइ वा, ग्राम दाह 'नगर दाहाइ वा नगर दाह 'जाक्ष रूनिवेत दाहाइ वा यावत् सनिवेश दाह-यावत्पद से खेट दाह, कट दाह मडव दाह इत्यादि का ग्रहण होता है, इन ग्राम दाहादि की असंभावना से प्राणक्षयादि नही होते है वह कहते हैं-'पाणक्खय जणक्खय कुलवखय घणक्खय, वसणभूतमणारिया ति वा' प्राणक्षय, जनक्षय, कुलक्षय, धनक्षय व्यसन-कष्ट आदि अनार्य-उत्पात-होते हैं क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'जो इणढे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ४. Bq qid ५, अधावात ६, तिपात ७, विहिपात ८, पाताप्राम વાતેકલિકા ૧૦, વાતમંડલિકા ૧૧, ઉત્કલિકાવાત ૧૨, મંડલિકાવાત ૧૩, ગુ જાવાત ૧૪, ઝંઝાવાત ૧૫, સંવત વાત ૧૬, ઘનવાત ૧૭, તનુવાત ૧૮, भने शुद्धपात १६, 'गामदाहाइवा' महाड 'नगर दाहाइवा' नगा 'जाव सन्निवेसदाइाइवा' यावत् सन्निवेशहा यावत् ५४थी मेहार, भ3 महार, ઈિત્યાદિનું ગ્રહણ થાય છે. આ ગ્રામદાહ વિગેરેની અસંભાવનાથી ત્યાં પ્રાણુ નાશ विजे२ यता नयी तसा छ 'पणिक्खय जणखय कुलक्खय धणक्खय, वसणभूत मणारियातिवा,' प्राणुक्षय, नक्षय, इतक्षय, धनक्षय, व्यसनકારક અનાર્ય ઉપદ્રવ, ઉત્પાત થાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ साभान डे छ । 'णो इणट्रे समढ़े 8 गौतम! म अर्थ राम नथी. Page #684 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६२ जीयामिगमसूत्र द्वीपे भवन्ति न वेति प्रश्नः, भगवानाह-'णो णढे समढे' नायमर्थः समर्थः, हे गौतम ! एते ग्रहदण्डादयो धनक्षयान्ताः एकोषकद्वीपे न भवन्तीति । अयं भाव:अत्र 'नोह गट्टे समठे' अनेन पदेन पूर्वोक्त सर्ववस्तूनां-निषेयः सिध्यति-किन्तु अत्र वायुनां यो निषेधः सः अमुखहेतुभूतविकृतरूपवायुविषयको वोध्यः न तु सामान्यवायुविषयकः मुख हेतुभूतसामान्य पूर्वा दिवातस्य तत्रापि संभवादिति ॥२० ४१॥ मूलम्-अस्थि शं भंते ! एगोरुष दीवे दीवे डिबाइ वा डमराइ वा कलहाइ वा वोलाइ वा खाराइ वा वेराइ वा विरुद्धरजाइ वा?, णो इणठे समटे, ववगय डिंबडमरकलहबोलखारवेरविरुद्धरजाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो!। अत्थि णं भंते ! एगोरुथदीवे दीवे महाजुद्धाइ वा महासंगामाइ वा महा'सत्थनिवडणाइ वा महापुरिससन्नाहाइ वा महारुहिरपडणाइ वा नागवाणाइ वा खेबाणाइ वा तामसवाणाइ वा णो इणद्वे समढे ववगयवेराणुवधाणं ते अणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे दुभूइयाइ वा कुलरोगाइ वा गामरोगाइ वा णगररोगाइ वा मंडलरोगाइ बा सिरोवेयणाइ वा अच्छिवेयणाइ वा कण्णवेयणाइ वा णकवेयणाइ वा दंतवेय. णाइ वा नखवेयणाइ बा कासाइ वा सासाइ वा जराइ वा दाहाइ अर्थात्-ग्रहदण्ड, ग्रहमुसल आदि ये मब उत्पात वहां नहीं होते हैं। यहां सारांश यह है कि-यहां 'नो इणटे सम?' इस पद से पूर्वोक्त सष वस्तुओं का निषेध सिद्ध होता है किन्तु यहां जो वायु विषयक निषेध है वह असुख का हेतुभून विकृत-प्रतिकुल वायु का निषेध परक है किन्तु सुखोत्पादक सामान्य वायु का निषेध नही है. क्योंकि सुख का हेतुभूत सामान्य पूर्वादि वायु का वहां भी सद्भाव है ॥ सूत्र ४१॥ અર્થાત ગ્રહ દંડ ગ્રહ મુસલ, વિગેરે આ બધા ઉત્પાતો ત્યાં થતા નથી. આ ४थन। सा२।श मे छे ४ महियां 'णो इणद्वे समडे' मा ५४या પ્રશ્ન વાક્યના તમામ પ્રશ્નોને નિષેધ થાય છે. પરંતુ અહિયાં જે વાયુના સંબંધમાં નિષેધ છે, તે અસુખના કારણ રૂપ વિકૃત-પ્રતિકુળ વાયુને નિષેધ બનાવનાર છે. પરંતુ સુખકારક સામાન્ય વાયુને નિષેધ નથી. કેમકે સુખના કારણરૂપ સામાન્ય પૂર્વાદિ વાયુને સદ્ભાવ ત્યાં પણ છે જ છે સૂ ૪૧ | Page #685 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिकाटीका प्र.३ ३.३ २.४२ एको विडमर-कलहादिनिरूपणम् ६६३ वा कच्छुइ वा खसराइ वा कुटाइ वा कुडाइ वा दगोयराइ वा अरिसाइ वा अजीरगाइ वा भगंदराइ वा इंदग्गहाइ वा खंदग्गहाइ वा कुमारग्गहाइ बा णागरगहाइ वा जबखग्गहाइ वा भृतग्गहाइ वा उब्वेयग्गहाइ वा धणुग्गहाइ वा एगाहियग्गहाइ वा बेयाहियगहियाइ वा तेयाहियगहियाइ वा बाउत्थगाहियाइ वा हिययसूलाइ वा मत्थगसूलाइ वा पाससूलाइ वा कुक्षिसूलाइ वा जोणिसूलाइ वा गाममारीइ वा जाव सन्निवेस. मारीइ वा पाणक्खय जाव बसणभूयमणारियाइ वा ? णो इणटे समटे, ववगयरोगायंका णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउलो!। अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे अतिवालाइ वा मंदवासाइ वा सुवुट्टीइ वा दुव्वुढीइ वा उच्वाहाइ वा पवाहाइ वा दगुब्भेयाइ वा दगुप्पीलाइ वा गामवाहाइ वा जाव सन्निवेसवाहाइ वा पाणक्खय० जाव वसणभूयमणारियाइ वा ? णो इण? समटे ववगयदगोवद्दवाणं ते मणुयगणा पणत्ता समणाउलो!। अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे अयागराइ वा तंबागराइ सीसागराइ वा सुवण्णागराइ वा रयणागराइ वा वइरागराइ वा वसुहाराइ वा हिरण्णवासाइ वा सुवण्णवासाइवा रयणवासाइ वा वइरवासाइ वा आभरणवासाइ वा पत्तवासाइ वा फलवालाइ वा बीयवासाइ वा मल्लवासाइ वा गंधवासाइ वा वणवासाइ वा चुण्णवासाइ वा खीरवुट्ठीइ वा रयणवुट्टीइ वा हिरण्णवुट्टीइ वा सुवण्णवुट्टीइ वा तहेव जाव चुण्णवुट्ठीइ वा सुकालाइ वा दुकालाइवा सुभिक्खाइ वा दुभिक्खाइ वा अप्परघाइ वा महग्याइ वा कयाइ वा महाविक्क्याइ वा सणिहाइ वा संचयाइ वा निधीइ वा घिरपोराणाइ वा पहीणसामियाई वा पहीणसेउयाइ वा Page #686 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम पहीणमग्गाइ वा पहीणगोत्तागाराइ वा जाई इमाइं गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसन्निवेसेसु सिंघाडगतिगचउक्कचच्चर चउम्मुहमहापहपहेसु णगरणिद्धमणसुसाण गिरिकंदरसंतिसेलोवटाणभवणगिहेसु सन्निक्खित्ताई चिट्ठति ? नो इणटे समटे। एगोरुय दीवे गं भले ! दीवे मणुयाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेजइभागं असंखेजहभागेण ऊणगं उक्कोसेण पलिओवमस्त असंखेजइभागं । ते णं भंते ! मणुया कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छंति कहिं उववजंति ? गोयमा! ते णं मणुया छम्मासा. वसेसाउया मिहुणयाई पसवंसि अउणासीइ राइं दियाई मिहुणाई सारक्खंति संगोविति य, सारक्खित्ता संगोवित्ता उस्लसित्ता निस्सासित्ता कासित्ता छीइत्ता जंभइत्ता अकिट्टा अवहिया अपरियाविया पलिओवनस्ल असंखिजइभागं परियाविय सुहसुरेणं कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, देवलोय परिग्गहाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता लमणाउसो ! ॥सू० ४२॥ छाया-अस्ति खलु खदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे डिम्ब इति वा डमर इति वा कलह इति वा बोल इति वा क्षार इति वा वैरमिति का विरुद्धराज्यमिति वा ?, नायपर्थः समर्थः 'व्यपगतडिम्बड मरकलहबोलक्षारवैरविरूद्धराज्याः खल्ल ते मनुजगणाः प्रज्ञा श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु मदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे महायुद्ध इति वा महासंग्राम इति वा महाशस्त्रनिपतनमिति वा महापुरुषसन्नाह इति वा महारूधिरपतनमिति वा नागवाण इति वा खेवाण इति वा तामसवाण इति वा नायमर्थः समर्थः व्यपगतवेरानुबन्धाः खलु ते मनुज गणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खल भदन्त ! एकोहक द्वीपे द्वीपे दुर्भूतिक इति वा कुलरोग इति वा ग्रामरोग इति वा नगररोग इति वा मण्डलरोग इति वा शिरोवेदनेति वा अक्षिवेद. नेति वा, कर्ण वेदनेति वा नासिकावेदनेति वा दन्तवेदनेवि वा कास इति वा श्वास इति वा ज्वर इति वा दाह इति वा कच्छूरिति वा खसर इति वा कुष्ठ Page #687 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ .४२ एको० डिवडमर-फलहादिनिरूपणम् ६६५ इति वा कुड इति वा दगोदर इति वा अर्श इति वा अजीरंग इति वा भगन्दर इति वा इन्द्रग्रह इति वा स्कन्दग्रह इति वा कुमारग्रह इति वा, नागग्रह इति वा यक्षग्रह इति वा भूतग्रह इति वा उद्वेगग्रह इति वा धनुग्रह इति वा एका हिकाग्रह इति वा द्वयाहिकग्रह इति वा व्याहिकग्रह इति वा चतुराहि ग्रह इति वा हृदयशूलमिति वा, मस्तकशूलमिति वा, पार्श्वशूलगिति वा कुक्षिशूलमिति वा योनिशुलमिति वा, ग्राममारी इति वा यावत् सचिवेशमारी इति वा, प्राणक्षय यावद् व्यसनभृतानार्या इति वा ? नायमर्थः समर्थः, व्यपगतरोगातङ्का खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् । । अस्ति खल्ल भदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे गतिवर्प इति वा मन्दवर्प इति वा सुवृष्टिरिति वा दुर्वृष्टिरिति वा उद्वाह इति वा प्रवाह इति गदकोदभेदइति वादकोत्पीछेति वा ग्रामवाह इति वा यावन मनिवेशबाह इनि वा माणक्षय० यावद् व्यसनथूतानार्या इति वा नायमर्थः समर्थः, व्यपगतोदकोपद्रवाः खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! अस्ति खलु भदन्त ! एकोरुक द्वीपे द्वीपे भय आकर इति वा ताम्राकर इति वा शीसकाकर इति वा सुवर्णाकर इति वा रत्ना कर इति वा वजाकर इति वा वसुधारेति वा, हिरण्यवर्प इति का सुवर्णवर्ष इति वा रस्नवर्ष इति वा बजवर्ष इति वा आवरणदर्प इति वा पत्रवर्ष इति वा पुष्पवर्ष इति वा फलवर्ष इति वा बीजवर्ष इति वा माल्यवर्ष इति वा गन्धर्ष इति वा वर्णवर्ष इति वा चूर्णवर्ष इति वा क्षीरदृष्टिरिति वा रत्नवृष्टिरिति वा हिरण्यवृष्टिरिति वा सुवर्णवृष्टिरिति बा तथैव यादद् चूर्णष्टिरिति वा, सुकाल इति वा दुष्काळ इति वा मुभिल इति वा दुर्भिक्ष इति वा अल्पायमिति वा महाध्यमिति वा क्रय इति वा महाविक्रय इति वा सन्निधिरिति वा सञ्चय इति वा निधिरिति वा निधानमिति वा चिरपुराणमिति वा, प्रहीणस्वामिकमिति वा पहीण सेतुकमिति वा पहीणमामिति वा महोणगोत्रागारमिति वा यानि इमानि नामाकरनगरखेटकर्यटमडम्बद्रोणमुग्वपट्टनाश्रमसंब हम भवेशेषु सिंधाडकत्रिकचतुष्कचत्वरचतर्मुग्वमहापथपथेषु नगरनिधमनश्मशानगिरिकन्दरसच्छलोपस्थानभवनगृहेषु संनिक्षिप्तानि तिष्ठन्ति ?, नायमर्थः समर्थः । एकोहक द्वीपे खलु भदन्त ! द्वीपे मनु नानां किय. न्तं कालं स्थितिः प्रज्ञाप्ताः ? गौतम ! जघन्येन पल्योपमस्य असंख्येय मागम असं ख्येयभागेनोनकम् उत्कर्षेण पलोएमस्यासंख्येयभागम् । ते खलु भदन्त | मनुजाः कालमासे कालं कृत्वा कुत्र गच्छन्ति ? कुत्रोत्यघते गोतम ! ले बल्ल मनजाः पण्मासावशेषायुष्का मिथुनकानि ममन्ति, एकोनाशीति रात्रि दिवानि मिथुनानि संरक्षन्ति संगोपयन्ति च, संरक्ष्य संगोप्य उच्चास्य निश्वस्य कामित्या या जम्भयित्वा अक्लिप्टा अन्यथिता अपरितापिताः सुखं सुखेन कालमासे कालं जी० ८४ Page #688 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ जोयाभिगमसूत्रे कृत्वा अन्यतरेषु देवलोकेषु देवतया उपपचारो भवन्ति, देवलोकपरिग्रहाः खल वे मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! ॥ श्र० ४१॥ टीका- 'अस्थि भंते' इत्यादि । 'अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे णं दीवे' अस्ति खल भदन्त ! एकोरुकद्वीपे खल्ल द्वीपे ठिवाइ वा' डिम्ब इति वा डिम्बः स्वदेशोत्थो विप्लवः 'डसराइ वा' डमरः परराजकृत उपद्रव इति वा 'कलहाइ वा' कलह इति वा, कलहो वाग्युद्धम्, 'बोलाइ चा' बोल इति वा वोलो दहूनामार्त्तानाम् अव्यक्ताक्षररूपः कलकलध्वनिः 'खाराइ नी' क्षार इति वा क्षारः परस्परं मारसर्यम् 'वेराइ बा' वैरमिति वा वैरं परस्परमसहमानतया हिंस्यहिंसकताध्यवसायः, 'विरुद्धरज्जाद वा' विरुद्धराज्यमिति वा भगवानाह - 'णो इट्टे समहे' नायमर्थः समर्थः यतः 'aar डिबडमरकलह बोलखारवेर विरुद्धरज्जा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो !" व्यपतडिम्बडमरकलहबोळक्षार वैर विरुद्ध राज्याः खलु ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खल भदन्त ! एकोरुद्वीपे द्वीपे 'महाजुद्वाइ चा' महायुद्धमिति वा' महायुद्धं 'अत्थि णं भंते एगोरुय दीवे दीवे डिवाइवा डमराइया' इत्यादि । टीकार्थ- हे भदन्त ! एकोरुक नाम के द्वीप में डिव-स्वदेश का विनाश - उमर - अन्य देश द्वारा किया गया आक्रमण 'कलहाइवा' वाणी की लढ़ाई झगड़ा क्लेश 'वोलाइवा' दुःखित जीवों का कलकलाट 'खाराइवा' परस्पर में वैर इर्ष्या भाव, 'वेराइया' परस्पर में हिंस्य हिंसक भाव 'विरुद्धर जाइवा' विरुद्ध विरोधी का आक्रमण राज्य ये सब वाले होती है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं । 'णो णडे समट्टे' हे गौतम ये सब बाते वहाँ नहीं होती है क्योंकि 'ववगय डिंव डमर कलह बोल खार वेर, विरुद्ध रज्जाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् ! वहां के मनुष्य डिंब डमर कलह वैर आदि से स्वभावतः एलो 'अस्थि णं भते ! एगोरुय दीवे दिवे डिंबाइबा, डमराइ वा 'छत्याहि ટીકા હૈ ભગવત્ એકેક નામના દ્વીપમાં ડિમ સ્વદેશના વિનાશ उभर अन्य देश द्वारा श्वासां भावे भाउभयु 'कलाइवा' वालीनी सडाध 'अघडे। 'से 'बोलाइवा' दुःखी भवन जाट 'खाराइवा' परस्परभां वैर- धर्ष्या लाव 'विरुद्धरज्ज ईवा' वि३द्ध - विरेधिरान्नयनु आम आ तभाभ त्यां डाय छे? या प्रश्नना उत्तरमां प्रलुश्री गौतमस्वाभीने उडे छे ! 'जो इट्टे समट्टे' हे गौतम! या तभाभ ममते। त्यां होती नथी. डेम 'ववगय डिंबडमर कलह बोल खारवेर विरुद्धरताण ते मणुयगणा पण्णत्तों भ्रमणाउसो !' हे श्रमद આયુષ્યમન ત્યાંના મનુષ્યા ડિંખ, ડમર, કલહ વર વિગેરેથી સ્વભાવથીજ રહિત Page #689 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैका टीका प्र. ३. उ. ३.४२ एको० डिवडमर - कलहादिनिरूपणम् ६६७ मार्यमाणमारकभावेन युद्धम् 'महासंगामाइ वा ' महासंग्रामाः - चेटककोणिकयोरिव रथमुशलसंग्रामरूपः, 'महासत्य निवडणार वा' महाशस्त्रनिपतनमिति वा, महाशस्त्राणि वक्ष्यमाणानि नागवाणादीनि तेषां निपतनम्, महाशस्त्रत्वं च नागवाणादीनां विचित्रशक्तिमत्चात्, 'महापुरिससंगाहाइ चा' महापुरुषसन्नाह इति वा, महापुरुषाणां वासुदेव वलदेव चक्रवदीनां सन्नाहः कवचादिना सज्जीभवनमिति, 'महा रुधिरपणा ' महारुधिरपतनमिति दा, युद्धादौ बहुरुधिरस्य पतनमिति, तथा - 'नागात्राणाइवा' नामवाण इति वा नागरूपो वाणस्तथाहि - नागवाणी धनुषि ही रहित होते हैं' 'अस्थि णं भंते' एगोरुथ दीवे दीवे महाजुद्वाइवा महासंगामाइया महासत्थनिवडणाइवा' हे भदन्त । एगोरुक द्विप में आपस में मारने की भावना वाला युद्ध महायुद्ध होता है। क्या ! महासंग्राम चेटक और कोलिक का रथमुसलसंग्राम जैसा सुव्यवस्थित महासंग्राम होता है क्या ? महाशस्त्रनिपतन नामवाण आदि जो आगे कहे जायेंगें उन महाशस्त्रों का एक दूसरे के उपर गिराने का प्रयोग किया जाता है क्या ? ये नागवाण आदिकों को जो महाशस्त्र कहा गया है वह उनकी विचित्र शक्ति यत्ता को लेकर कहा गया है । 'महापुरिसाहा वा' महपुरुष जो चक्रवर्ती वासुदेव बलदेव आदि है उन महापुरुषों के कवच आदि से सज्जित होना होता है क्या ? 'महारुधिर पडणाइ वा' युद्ध में महारुधिर का गिरना होता है ? 'नागवाणाद वा' नागवाणों का उपयोग किया जाता है क्या ? यह नामवाण जब धनुष पर आरोपित किया जाता है तब तो इसका वाण जैसा ही आकार रहता है और जब यह धनुष पर चढाकर छोडा जाता है। तब यह जाज्वल्य मान होय छे. 'अत्थि णं भवे ! एगोरुय दीवे दोवे महाजुद्धाइवा, महासंगामा इवा, महात्थ निवड़णाई वा' हे भगवन् मे है। ३४ द्वीपसां परस्यरने भारवानी भावना વાળું યુદ્ધ કે મહાયુદ્ધ થાય છે ? મહા સગ્રામ-એટલે કે ચેટક અને કણિકના રથમુશલ સગ્રામ જેવા મહા સગ્રામ થાય છે ? મહાશસ્ત્રનિપાત-નાગમાણ વિગેરે કે જે હવે પછી કહેવામાં આવશે તે મહાશÀા એક મીજાના પર મારવા રૂપ પ્રયાગ કરવામાં આવે છે? ખાણ વિગેરેને જે મહાશસ્ત્ર કહેવામાં આવ્યા छे. ते तेनी विचित्र शक्तिमत्ताने सहने 'महापुरिस संणाहाइवा ' મહાપુરૂષ વાસુદેવ બલદેવ ચક્રવતી વિગેરે કહેવાય છે. તેવા મહાપુરૂષોનું કવચ विगेरेथी सन्न् थवानु थाय छे ? 'महारुधिरपडणाइवा' युद्धमा महा३धिर पडवा थाय छे ? 'नागवाणाइवा' नाग मानो उपयोग रवामां आवे छे. આ નાગમાણુ જ્યારે ધનુષપર આરેાષિત કરવામાં આવે છે, ત્યારે તેને આકાર પાણુ જેવાજ હાય છે, અને જ્યારે તેને ધનુષ પરથી છેડવામાં આવે Page #690 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६८ जीवामिगमसूत्र आरोपितो वाणाकारो मुक्तश्च जाज्वल्यमानाऽसह्योल्कादण्डरूपः, परशरीरे संक्रा तो नागमूर्त्यपाशत्वं प्राप्नोति । एवमेवाग्रे बाणान्तराणामपि महात्म्यं ज्ञातव्यम् । 'खे बाणाइ वा खे बाण इति वा खे बाणः आकाशगामीवाणः, आकाशगमनशक्तिमतवाद, 'तामसवाणाइ वा' तामसवाण इति वा सकलरणव्यापि महान्धकार परिणमनरूपशक्तिमत्त्वात् । 'नो इणट्टे समटे' नायमर्थः समर्थः यतः 'वयगयवेराणुबंधाणं ते मणुयगणा पणत्ता समणउसो! हे श्रमणायुष्मन् ते एकोनकद्वीपगता मनुजगणा व्यपत्रानुवन्धाः मज्ञप्तास्ततो न तेपा महायुद्धादि प्रयोजनमिति । 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोहकद्वीपे द्वीपे दुभूइयाइ वा' दुर्भूतिकमिति बा-अशिवम् 'कुलरोगाइ वा, कुरोग इति वा-कुल होता हुमा शीघ्र हल्कादण्ड रूप हो जाता है और शत्रु के शरीर में प्रविष्ट होकर नाग रूप में परिणत हो जाता है और फिर नागपाश वनकर उसके शरीर को बांध लेता है इसी प्रकार दूसरे बाणों का भी माहात्म्य जान लेना चाहिये। 'खे वाणा वा' आकाश गामी वाणों का उपयोग किया जाता है क्या ? 'तामसवाणाइ वा तामस वाणों का समस्त युद्ध में अन्धकार कर देने वाले वाणों का उपयोग किया जाता है क्या? . इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'णो इणढे समटे' यह अर्थ समर्थ नहीं हैं अर्थात् वहां महायुद्ध आदि होते नहीं है क्योकि 'ववगय घेराणुबंधाणं ते मणुषगणा पण्णत्ता रमणाउसो' उनके परस्पर में वैरानुबन्ध नहीं होता है इसलिये उनके महायुद्ध आदि का प्रयोजन ही नहीं होता है । 'अस्थि णं भंते' एगोरुष दीवे दीवे' हे भदन्त ? एकोहक द्वीप में 'दुभूयाइ वा दुर्भूतिक वहां विभूति नष्ट हो जाय ऐसा अशिव होता ત્યારે તે જાજ્વલ્યમાન થઈને એકદમ ઉલ્કા દડ રૂપ બની જાય છે, અને શત્રુઓના શરીરમાં પ્રવેશીને નાગ રૂપે પરિણમી જાય છે. અને પછી નાગ પાશ રૂપ બનીને તેના શરીરને બાંધી લે છે. આ જ પ્રમાણે બીજ બાણાનું महास्य पा] समोसे खे वाणाइ वा' शमां अमन ४२वावाणा मानि। ५या ४२वामां भाव छ ? 'तामसबाणाइवा' तामस माना : સઘળી ચુદ્ધ ભૂમીમાં અંધારું કરવાવાળા બાણે ઉપાગ કરવામાં આવે છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री गौतमस्वामीने ४९ छ में 'णो इणद्वे समटे' 3 ગૌતમ આ કથન બરાબર નથી. અર્થાત્ ત્યાં મહાયુદ્ધ વિગેરે થતા નથી. કારણ है 'ववगयवेराणुबधाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता साने ५२२५२मां वैरानुमध थते। नथी. तेथील त्याने महायुद्धविरेनी १३२ ० होती ना. 'अस्थि णं भते एगोरुय दीवे दीवे' असन् ३४ीपमा 'दुभूइयाइवा' ति अर्थात् Page #691 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.४२ एको० डिंवडमर-कलहादिनिरूपणम् ६६९ क्रमागतो रोगः 'गामरोगाइ वा ग्रामरोग इति वा-ग्रामव्यापीरोगः, 'णगररोगाइ वा नगररोग इति वा नगरव्यापीरोगः 'मंडलरोगाइ वा' मंडलरोग इति वा जनसमुदायव्यापी रोगः, 'सिरोवेयणाइ वा शिरोवेदनेति वा शिरोमागे समुद्भूता पीडा एवं 'अच्छि वेयणाइ वा' अक्षिवेदनेति वा 'कण्णवेयणाह वा' कर्ण वेदनेति वा' णक्कवेयणाइ वा' नासिकावेदनेति बा, 'दसवेयणाइ वा' दन्त वेदनेति वा 'णखवेयणाइ वा' नखवेदनेति वा-अक्षिवेदनादयः भसिद्धाः। 'कांसाहा' कास इति वा-कफवायुजनितो रोगः 'खांसी' इति मतिद्धा 'सासाइ वा' श्वास इति वा, अयमपि कफवातजनितो रोग एवेति । 'जराइ वा' उधर इति वा वातमिश्रित पित्तरोगः, 'दाहाइ का' दाह इति वा, विकृतपिच बाहुल्यजनितो रोगः 'कच्छूइ वा' कच्छूरिति वा कच्छू। खर्जनप्रधानो रोगविशेषः, 'खसराइ वा' खसर इति वा 'खप्त' इति लोकमसिद्धो रोगः 'कुट्ठाइ वा' कुष्ठमिति वा प्रसिद्धम्, है क्या ? 'कुलरोगाइ पा' वहां कुलरोग कुल कम से आने वाले रोग होता है क्या ? 'गामोमाइया' ग्राम रोग समस्त ग्राम व्यापीरोग होता है क्या ? 'णगररोगाइ वा' नगररोग नहार व्यापी रोग होतो है क्या ? मंडलरोगाइ वा 'मंडलरोग-जन समुदाय मापीरोग होता है क्या ? 'सिरोवेषणाइ वा वहां पर शिरोवेदना होती है क्या ? 'अच्छि. वेयणाइ वा कण्णवेयणाइ वा णक वेषणाइ का, दंतवेषणाइ था' उली प्रकार अक्षिवेदना हर्णवेदना नासिकावेदना एवं दन्तवेदना आदि होती है क्या ? 'णखवेयणाइ बा, कासाह वा, सासाइ छ, जराइ दा, दाहाह वा, कच्छू वा, खसराइ वा इसी प्रकार नख वेदना-खासी-श्वास-दमा ज्वर-दाह-खाज-खसरा 'कुठाइवा, कुडाइ वा, दशोदाइ का, अरिसाइ विभूति नाश पामे तवा अशिष हु हाय छ ? 'कुलरोगाइवा' त्या पुस । अर्थात् स भथा 11वावाणे। सहाय छ १ 'गामरोगावा' यामाग અર્થાત્ સમગ્ર ગામમાં વ્યાપ્ત થવાવાળે ફેલાવાવાળી રે હાય છે? “નાર रोगाईवा' नगशश नसभा व्यास थापा । डाय ? 'मडलरोगारवा' भस।। अर्थात् नसभुहायमा व्यास थवावाणा शा हाय छे ? 'सिरोवेयणाइवा' त्यो शिशवहना अर्थात् भरत पी31 डाय छ ? 'अच्छिवेयणाइनगा कण्णवेयणाइवा, णक्कवेयणाइवा, दंतवेयणाईवा' 21 शत मक्षिवहना, मांस સંબધી પીડા, કાન સંબંધી પીડા, તથા નાક સંબંધી પીડા અને દાંત सधी पीविगैरे हाय छ ? 'णखवेयाइवा, कासाइवा, सासाइवा, जराइवा दाहाइवा, कच्छावा, खसरा इवा' तथा नसहना, GU२स श्वास, भ, ताप हाई जा२ मस। २४ 'कुटाइवा, कुडाइवा, दगोदराइवा, अरिसाइना अ Page #692 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० जीवामिगम 'कुडाइ वा कुड इति वा, कुडः डमरुवातनाम्ना प्रसिद्धो रोगविशेषः 'दगोयराइ वा' जलोदरेति रोगो लोकप्रसिद्धः, 'अरिसाइ वा' अर्श इति वा 'ववासीर' इति लोक प्रसिद्धः 'अजीरगाइ वा' अजोरग इति वा अपक्वाहारजन्यउदररोगविशेषः 'अजीर्ण' इति प्रसिद्धः 'भगंदराइ वा' भगन्दर इति वा, गुदास्थानसमुद्भवो नाडीव्रगविशेषः । ग्रहरोगमधिकृत्य श्री गौतमस्वामी प्रश्नयति-इंदग्गहाइ वा' इन्द्रग्रह इति वा ग्रहसब्दोऽत्र-आवेशार्थको रोगरूपस्तेन इन्द्रग्रह इति इन्द्राधिष्ठित आवेशः स्वनाम्ना, मसिद्धो रोग विशेष इत्यर्थः एवमग्रेऽपि सर्वत्र । एवम्-'खंदग्गहाइ वा' स्कन्द्ग्रह इति वा, स्कन्दः कार्तिकेयः 'कुमारग्गहाइ वा' कुमारग्रह इति वा-बालग्रह इति लोकमसिद्धः. 'णागग्गहाइ वा' नागग्रह इति वा 'जक्खग्गहाइ वा, यक्षग्रह इति वा, 'भूतग्गहाइ वा' भृतग्रह इति वा 'उन्वेयग्गहाइ वा' उद्वेगग्रह इति वा, शोकादि जन्य आवेशः 'धणुग्गहाइ वा धनुग्रह इति वा, धनुर्वाताभिधो रोगविशेषः ‘एगाहियग्गहाइवा' एकाहोरात्रमात्रस्थायीज्वरविशेषः स च एकमहोरात्रमन्तरे मुक्त्वा द्वितीयदिने, मनुष्यं गृह्णातीत्यत एकाहिकया इत्युक्तम् 'एकान्तराज्वर' इति नाम्ना प्रसिद्धः, 'वेयाहियग्गहाइ वा द्वयाहिकप्रह वा, अजीरगाइ वा'-कुष्ठ-कोढ-कुडा-डमरुवात-जलोदर-अर्श-पवासीर, अजीरग-अजीर्ण-उदर रोग विशेष, एवं 'भगंदराइ' वा भगंदर, गुदा स्थान पर होने पाला नाडीव्रण नासूर ये सब रोग होते है क्या? 'इंदग्गहाइ था, खंदग्गहाइ वा, कुमारग्गहाइ वा, णाग्गहाइ वा, जखम्गहाइ था, इसी तरह इन्द्र ग्रह इन्द्र के आवेशजन्य रोग इन्द्र ग्रह रोग कहलाता है, इसी प्रकार स्कन्दग्रह कुमारग्रह नागग्रह यक्षग्रह 'भूतगहाइ वा, भूतग्रह' 'उज्वेयग्गहाह वा, उद्वेगग्रह शोकादिजन्य आवेश, 'धणुग्गहाइ वा' धनुर्ग्रह धनुर्वात नामकरोग 'एगाहियग्गहाइ वा' एकाहिक ग्रह दिन रात रहने वाला एकान्तरिक का ज्वर रोग 'वेया जीरगाइवा ४०-३८ । भात Malt२ २४३५-४२४ २५७२ मा तथा 'भग दराइवा' मगर, गुहा स्थान ५२ पापा नाडीन नासू२ मा मा शगे। त्यो १३४ द्वीपमा डाय छे ? 'इंदगाहाइवा, खद्गगहाइवा, कुमोर गहाइवा, णागगहाइवा, जम्खग्गहाइवा' तथा ईन्द्रगुड न्द्रना आवशयी थनारे। રેગ ઈદ્રગ્રહ રેગ કહેવાય છે તે જ પ્રમાણે જીન્દગ્રહ કુમારગ્રહ, નાગગ્રહ यक्षय, 'भूतगाहाइवा' भूत उव्वेयग्गहाइवा' द्वेग थी यनार मावेश 'धणुग्गहाइवा' धनु धनुर्वात नाभने । 'एगाहियगहाइवा, मे. शित २वावाणे तश्यिा ताप 'वेयाहियगगहाइवा' या Page #693 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ . ४२ एको) डिवडमर - प लहादिनिरूपणम् ६७१ इति वा, दिनद्वयमन्तरे मुत्वा तृतीयदिनग्राहीज्वरः 'वेयांतर' इति प्रसिद्धः, 'तेयाहियरगहाइ वा' व्याहिकग्रह इति वा, दिनत्रयमन्तरे मुत्वा चतुर्थदिनग्राहीज्वर: 'तेजरा' इति प्रसिद्धः 'चाउत्थगाहियाइ वा' चतुर्थीहिकग्रह इति वा, दिनत्रयमन्तरे मुक्त्वा चतुर्थ दिनग्राहीज्वरः 'चोथियाज्वर' इति प्रसिद्धः 'हिययलाइ वा ' हृदयशूलमिति वा, हृदये शुलरूपेण जायमानो रोगविशेषः । एवम् ' मत्थगनुलाइ चा' मस्तकशूलमिति वा 'पाससूलाइ वा' पार्श्वशूलमिति वा, 'कुच्छिमूलाइ वा ' कुक्षिशुलमिति वा, 'जोणिस्लाइ वा' योनिशुलमिति वा, 'गाममारी वा' नाममारी इति वा, 'जाव संनिवेसमारीइ वा, यावत् सन्निवेशमारी इति वा, अत्र यावत्पदेन 'आकर नगर - खेटकबंटमडंब - द्रोणमुख-पत्तनाऽऽश्रम संवाहानां संग्रहः तेन - आक रमारीति वा नगरमारीति वा, इत्यादि पदेषु मारी शब्द संयोजनेनाऽऽलापको विधातव्य इति । एभिरिंद्रग्रहादिभिस्तत्र 'पाणक्खयजाव वसणभूयमणारियाई वा ' प्राणक्षय यावत् जनक्षयकुलक्षयधनक्षयव्यसनभृतानाय इति वेति प्रश्नः, भगवाferrett at surfहक ग्रह-दोदिन छोड़कर आने वाला वे आन्तरा ज्वर रोग 'तेयाहियग्गहातिवा' व्याहिक ग्रह -तीन दिन के बाद आने वाला तेजराज्वर 'चाउरथगाहियाइ वा' चौथियाज्वर 'हिययसलाइ वा ' हृदय शूल - हृदय रोग, 'मत्यगसूलाइ वा' मस्तक शूल - मस्तक का रोग, 'सलाइ वा' पार्श्वशुल पसलिका दुखना 'कुच्छिलाइवा' उदर रोग, 'जोणिस्लाइ वा' योनिशूल 'गाममारोह वा' 'ग्रामारी - ग्राम में मारी मरकी आदि होना 'जाव सन्निवेलमारीइ वा' यावत् आकर मारी नगरमारी एवं खेट कर्वट महम्वद्रोण मुख पट्टन, आश्रमसंवाह सन्निवेशमारी इन इन्द्र ग्रहादिरोगो से वहां 'पाणक्खय जाव वसणभूय्मणारिवाइ वा' प्राणक्षय, यावत् - कुलक्षय एवं धनक्षय, ये सब कष्ट भूत अनार्य यह मे हिवसने यांतरे भावनाशे ताव 'तेयाहियग्गहातिवा' त्रायु हिवसने यांतरे भावना। ताव “चाउत्थगाहियाइवा' या थियो ताव 'हियय सूलाइवा' (हृदयशूत हृदयरोग 'मत्थसूलाइवा' भस्तम्शूस भाथाने रोग 'पाससूलाइव।' पार्श्वशु पांसनीय दुःवी ते 'कुच्छिसूलाइवा' उ४२रोग 'जोणिसूलाइवा योनीशुल 'गापमारीइ वा' ग्रामभारी भरडी विगेरे ने आभा गाभभां देसाई नार होय छे तेवा रोग 'जाव सन्निवेसमारीइवा' यावत् आरभारी नगर भारी शेव भेटभारी, उट भारी, भठभ्य, द्रोण पट्टन आश्रम संवाडे, સન્નિવેશમારી, વિગેરે રાગા ત્યાં હાય છે? તેમ આ ઇંન્દ્રગ્રહ વિગેરે રાગેથી त्यां 'पाणक्य जाव वखणभूयमणारियाडवा' आयुक्षय यावत् सक्षय तथा પનક્ષય આ બધા કષ્ટ કારક અના ઉપદ્રવે ત્યાં હ્રાય છે ? Page #694 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . . . . . . . . . . . जीवामिंगम नाह-'जो इणडे मम?' नायमी समर्थः, महायुद्धा दारभ्य कुलक्षयाधनार्यान्ता आपदः एकोलसद्वीपे न भवन्ति यतः 'धगयरोगायंकाणं ते मणुयगणा पणत्ता 'समणाउसो' व्यपगतरोगातकार, व्यपगता विनष्टा रोगा ज्वरादयः आतङ्काः सद्यो घातिशलादयो येभ्यस्ते तथा ते मनुजगणा: ममताः -कथिता, हे श्रमणायुष्मन् || ___'अस्थि णं भंते । एगोरुयदीवे दी यस्ति खल भदन्त ! एकोरुकद्वीपे द्वीपे 'अइवासाइ या' अतिवर्ष इति वा, अतिवर्षः-वेगतः प्रमाणतोऽधिकं जलपनिमित्यर्थः 'मंदवासाइ वा मन्दवर्ष इति वा, मन्दवर्षः शनैः शनैः प्रयोजनादल्पं वा दर्प गट, 'सबुट्टीइ चा सुवृष्टिरिति वा, धान्यादिनिष्पचिगुणयुक्ता सष्टिरिति । 'दुव्बुद्दी का' दुर्वृष्टिरितिवा धान्यायनिष्पत्तिहेतुका, 'उच्चाहाइ वा' उद्वाह इति वा, उत्कर्षेण जलवहनम् पाहाइ वा प्रवाइ इति वा प्रवाहो जलपूरः 'दगुल्भेउपद्रव-होते है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'जो इणट्टे सम?' हे गौतम ! ये चन्द्र ग्रह से लेकर धनक्षयान्त आपत्तियां एकोषक द्वीप में नही होती है। क्योकि 'ववगयरोगायंकाणं ते मणुयगणी पण्णत्ता सम णाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् । वे मनुष्य रोग एवं आतङ्क से रहित होते है। 'अस्थि णं अंते ! एगोरुष दोवे दीवे अतिवासा वा' हे भदन्त ! एको र द्वीप में अस्धन देश में होने वाली अतिवृष्टि होती है क्या ? 'भेद वाम्मातिवा' भेद वृष्टि धीरे धीरे होने वाली प्रयोजन से कम वृष्टि होती है क्या ? 'सुवहीवा' सुवृष्टि-धान्यादि सीनिष्पत्ति करने वाली वृष्टि वरसाद होती है क्या ? 'दुवुट्टीइवा' धान्यादिकी निष्पन्ति नहीं करने अथवा अपश्योजिका वृष्टि होती है क्या ? 'उन्याहाति वा जिस वर्षा से पानी का प्रवाह बहुत उचेर स्थानों तक पहुंच जावे ऐसी वृष्टि होती है मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री णो इणटे समटे हे गौतम ! 21 આ ઈદ્રગ્રહથી લઈને ધનક્ષય સુધીની આપત્તિ એકરૂક દ્વીપમાં હતી નથી भो 'क्वगयरोगायकाणं ते मणुथ गणा पत्ता समणाउसो' श्रम भायुभन તે મનુષ્ય રેગ અને આતક વિનાના હોય છે 'अस्थि णं भते ! एगोरुय दीवे दीवै अतिवासाइवा' सन् ! ३४द्वीपमा गपू थनारी अतिवृष्टि थाय छ ? 'भेदवासातिवा' Age धीमे धाम थनारी प्रयोगनथी माछी वृष्टि थाय छ १ 'सुवुद्रीइवा' धान्य विगैरेनी उत्पत्ति ४२पापाजी वृष्टि १२साह थार छ ? दुवुद्रीइवा' धान्याहिनी पत्ति न ४२वावाणी अथवा प्रयन पिनानी वृष्टी थाय छ ? 'उव्वाहातिवा' २ १२साथी પાણીને પ્રવાહ ઘણે ઉચે સુધી પહોંચી જાય તેવે વરસાદ થાય છે ? _ 'पवाहाइवा' २ १२साथी पीनु ५२ मावी लय मेव! १२साह थाय छ ? Page #695 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ७.३ सु ४२ डिवडमर-कलहादि निरूपणम् ६७३ याइ चा' उदकोभेद इति वा पर्वतात्पत्ति मुभेदजन जलवहनम् भूमिमुद्भिद्य. जलनिस्सरणं वा 'दगुप्पीलाइ बा' उदकोत्पीडेति वा जळस्योचैः प्लवनम् 'गामपाहाइवा' ग्रामवाहा इति वा, ग्रामस्य जलपूरेण वहनम् 'जाव संनिवेसवाहाइ वा' यावत् सनिवेशवाह इतिवा, यावत्पदेन-आकरनगरखेटकटगडम्बद्रोणमुखपत्तनाश्रमसंवाहानां ग्रहणं भवति, तत्र ग्रामादीनां जलपूरेण वहनमिति वा 'पाणक्खय० जाव वसणभूयमणारियाइ वा प्राणक्षय यावत् जनक्षय कुलक्षयधनक्षयघसनभूतानार्या इति वा प्राणक्षयादयो लोकानां व्यसनभूताः आपद्भूता बनार्याः-पापा. स्मकाः ते एते एकोरुकनिवासिनां भवन्ति किमिति प्रश्नः, भगवानाह-'णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः, एते अविवर्षादयोऽनाः एकोरुमवासिनां न भवन्ति क्या ? 'पवाहाइ वा जिस वृष्टि से ऐसा प्रवाह-जल का पूर-आ जावे ऐसी पुष्टि होती है क्या ? 'दगुठभेयाइ वा क्या ऐसी वृष्टि होती है कि पर्वत से पडने के कारण जमीन के भीतर खड्डे पड जावे, अथवा जमीन के भीतर से भी पानी बाहर निकलने लग जावे 'दगुप्पीलाह वा' क्या ? ऐसी वृष्टि होती है कि जिस से पानी का प्रवाह टकर खाकर इधर उधर फैल जाये 'गामवाहाइ वा क्या ऐसी वहां वृष्टि होती है जो ग्राम को बहा ले जाये ? 'जाब संनिवेसवाहाइ वा थायत सन्निवेश को वहा ले जावे! यहां चामाद से आकर घाह नगरवाह खेट बाह इत्यादि पदों का ग्रहण हुआ है ऐसे जल के उपद्रव से 'पाणक्खयजाज बसणभून मणारियाह वा' क्या वहां जो प्राणियों का विनाश हो ? यहां यावत् शब्द से 'जनक्षय धनक्षय कुलक्षय' इन पदों का संग्रह हुआ है इस तरह कैप्ते है भदन्त ! क्या पहा एकोरुक द्वीप निवासियों को कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसके उत्ता में प्रभुश्री करते है-'यो अणट्टे लबट्टे' हे .. 'दगुभेयाइवा' सवा १२साह थाय छे, पत५२थी ५वाना જમીનમાં ખાડા પડી જાય છે? અથવા જમીનની અંદરથી પણ પાણી બહાર नाणी मावदाप्पीलाइवा' मे १२साह थायले पालना प्रवाह २४२ माउन पामतेम य? 'गामवा हाइवा' त्या सेवा RHI थाय छ । भामा गामने ajी तय 'जाव स निवेसवाहाइवा' यावत् सनिवेशने तीन संघ (ગામને તાણી) જાય? અહી યા યાવ૫દથી આકરવાહ, નગરવાહ, ખેટવાહ વિગેરે पौने से यह थय। छे । शतन पासीना थी 'पाणालय जाव वसणभूतमगारियाइमा' या प्रालियाना विनाश थाय यावत् नक्षय 'क्षय याय ga ક્ષય થાય આવા પ્રકારના ઉપદ્રનો એરૂક દ્વીપ વાસિયોને સામનો કરવો 43 छ ? 20 प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ५ छ है ‘णो इणटे समढे हे गौतम ! जी. ८५ Page #696 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७४ जीवामिगमसूत्र यतः 'ववमयदगोवदवाणं ते मणु पठाणा पण्णत्ता समजाउसो! व्यपगतदकोपद्रवार, व्यपगता:-विनष्टा उदकानामुपद्रवाः भतिवृष्टयादिरूपा येभ्यस्तथा भूतास्ते एकोरुक द्वीपनिवासिनो मनुजगणा:-प्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमणायुष्मन् । इति । 'अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे' अस्ति खलु भदन्त ! एकोहक द्वीपनामके द्वीपे 'अयागराइ वा अय आकर इति वा. अयसो लोहस्य आकर:-उद्भवस्थान स विद्यते नवेति गौतमल्य प्रश्नः, एवमग्रेऽपि आकरविषयक प्रश्न उन्नेयः। 'तंबागराइ वा ताम्राकर इति वा, ताम्रक्ष्य-धातुविशेपस्याफरः 'सीसागराइ वा' शीसकाकर इति वा, शोसकः 'सीसा' इति लोकमसिद्धः, 'सुवण्णाभरावा' सुवर्णाफर इति वा, स्यणाचराइ वा' रत्नस्य-वनवैड्योदेराकर इति वा, 'वइरागराइ वा वज्राकर हतिवा, वज्र-हीरकम् 'वसुहाराइ वा वसुधारेति वा, वसुधाराधारारूपेणाकाशतः पतिता सुवर्णष्टिः, 'हिरणवासाड वा हिरण्यस्य-रजतस्य वर्षः सामान्यतो वर्षणम्, इति बा, 'मुन्नवासाइ वा सुवर्ण इति का, 'रयणवासाइ गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् ये पोक्त अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि उपद्रव वहाँ पर नहीं होते है। क्योंशि पवायदगोबद्दवाणं ते मणुयगणा पण्णा सरणाउसो' मनुष्य हे श्रमण आयुष्मन् जलीय उपद्रव से सर्वथा रहित होते है 'अस्थि गं भंते! एगोरुय दीवे दीवे अयागराह या लम्बामदाह वा सीसागराइ वा सुषण्णागराइ वा रयणागशह वा वसुहारा दा, शिक्षणासाचा 'हे भदन्त ! क्या उस एको रुक नाम के दीप में लोह की खाने है ? ताम्बे की खाने है ? सीसे की खाने है ? सुवर्ण की खाने है ? रत्नों को खाने है ? रज्र हीरे की खाने है ? तथा वसुधारा-ना- कर से सोनेषों की वृष्टि होती है क्या? हिरण्य की वर्षा होती है ? 'सुपण्णवालाहवा' सुवर्ण की वर्षा होती है ? 'रयणઆ અર્થ બરોબર નથી અર્થાત્ આ પ્રમાણે કહેવું તે યોગ્ય નથી, એટલે કે A पूर्वेति तिवृष्टि, अनावृष्टि विगैरे 6पद्रवे यता नयी. 'ववगयदगो वदत्राणं ते भ गुयाणा पण्णता सपण उसो' ते मनुष्ये। है मायुभन् va नधी उपद्रव विना काय छ 'अस्थि णं भते ! एगोरुय दीवे दीवे अया. गराइवा तम्मा गराइवा सीसागर इवा सुक्ष्णागराइवा रयण गराइवा वइरागराइवा वसुधाराइना' हिरण्णवासाइवा' सन् ! सेय३४ दी५मा सोमनी पाये। છે તાંબાની ખાણે છે? સીસાની ખાણે છે? સેના ની ખાશો છે? રાની ખાણે છે? વજની ખાણે છે? હીરાની ખાણે છે? તથા વસુધારા ધારા प्रवाधी सनियानी वृष्टि ५.? हिरयन। १२४ थाय छे ? 'सुवण्णवा साह वा' सेनानी १२साह थायछ ? 'रयणवासाइवो २त्नान १२साह थाय छे ? Page #697 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका रक्षा प्र.३ उ.३ पृ.४२ डिवडमर-कलहादि निरुपणम् ___६७५ वा' रत्नवर्ष इति घा, 'वहरवासाइ वा' वज्रवर्पः, ही निघा, 'आभरणा साइ वा' आभरणम्-अलङ्कारस्तस्य नर्ष इति का 'पत्तवासाइ वा पत्राणां वर्ष इति वा, 'पुप्फवासाइ वा' पुष्पवर्षे इति बा, 'फलासाइ चा' फलदृष्टिी 'वीयवासाइ वा' बीजदर्प इति बा, 'मल्लयाप्साह वा' माल्यर्ष इति वा 'गंधवासाइ वा' गंधवर्ष इति वा-गन्धद्रव्यस्य वर्पणम् वणवासाइ वा' वर्णवर्ष इति वा, विलेपनवर्षणम् 'चुण्णदासाइ वा चूर्णवर्ष इति वा, गन्धद्रव्यचूर्णवर्पणम्, 'खीरवु. द्वीइ वा क्षीरवृष्टिरिति वा, क्षीरसहशजलस्य वृष्टिरित्यर्थः, विशेषतो वर्पणं वृष्टिः, _ 'रयणवुट्टीइ वा' रत्तवृष्टिरिति वा, हिरणवुट्टीइ वा हिरण्यवृष्टिरति वा, 'सुवण्णवुट्ठीइ वा' सुवर्णदृष्टिरिति वा, 'तहेब जाच चुण्णबुट्ठीइ वा' तथैव यावत् चूर्णष्टिरिति वा, अत्र याल्पदेन सुवर्णदृष्टि, रत्नवृष्टिः, वज्रष्टिः, आमरणदृष्टिा, तथा-पत्र पुष्प फलवीजमाल्यगन्धवर्णवृष्टिना संग्रहो भवतीति । 'सुकालाइ वा' वासाइवा' रत्लों की वर्षा होती है ? 'वहरवासाइवा' वन्न हीरों की वर्षा होती है 'आभरणवासाइदा आमरणों की वर्षा होती हैं ? 'पुप्फपासाह वा' पुष्पों की वर्षा होती है ? 'फलबासाइ वा फलों की वर्षा होती है ? 'वीयवासाइ वा वीजों की वर्षा होती है ? 'मल्लवासाइ वा' मालाओं की वर्षा होती है ? 'गंधवाला ' गन्ध गन्धद्रव्य की वर्षा होता है ? 'घण्णवालाइ था' रिलेपन-पिष्ट द्रव्य विशेष की वर्षा होती है ? 'चुणवासाइ वा द्रव्य के चूर्ण की वर्षा होती है? 'खीरखुट्ठीह का दृध की वृष्टि होती है ? 'हिरण्णवुट्टी का हिरण्य-चांदी की दृष्टि होती है ? 'सुक्षपणहीइ चा सुवर्ण की दृष्टि होती है। तहेछ जाव चुणवुडीइ चा यावत् चूर्ण की दृष्टि होती । यही यावत्पद से रस्न वृष्टि आदिकों का ग्रहण हुआ है। वर्षा में सामान्य रूप से वृष्टि 'वइरवासाइवा' १०१ हीरानी परसाई याय छ १ 'आभरण वासाइ वा मासरयानी १२सा थाय छे? 'पत्तवासाइवा' पाना माना परसाई याय छे 'पुप्फवासाइवा' पानी १२साह थाय छ ? ‘फल वासाइवा' सानो १९सा थाय? 'बीयवा साइवा' मीनन। १२साह थाय छ ? 'मल्टवाग्राइव।' भासामान। १२साई याय छ १ 'गंधवासाइ वा अन्य द्रव्योन। १२सा थाय छे ? 'वण्णवासाइवा' विपन पिष्ट द्र०य (पी) विशेषना १२साह थाय छ ? 'चुण्णवासाइवा' गन्धद्रव्यनायूचना परसाई थाय छ ? खीरखुट्टीइवा' धनी १२साह थाय छ ? 'रयणवुट्टीइपा' २.नाना १२सा थाय छ १ 'हिरण्णबुट्टीइ वा' Cि२९५ याहीन। १२साह थाय छ १ 'सुवण्णवुद्दीइया' सोना। ५२साह थाय छ ? 'तदेव नाव चुण्णवुट्ठीइवा' થાવત્ ચૂર્ણને વાત થાય છે. અહિયાં પાસ્પદથી રતનટિ વિગેરે પદે Page #698 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे ६७६ पचः कालः, सुकाल:- उपद्रवादि रहितः कालः 'दुकाला वा' हुकाउ इति 'सुनवाइ वा' मिक्ष इति वा, सत्यादिनिष्पत्तिख्यः, 'दुनिकवाड वा' दुर्भिक्ष इणि वा-सस्याद्यावरूपः, 'अपग्वा वा' अल्पार्ध इति वा अल्पमूल्येन वस्तुप्राप्तिः, 'महग्घाइना' महार्घ इति वा, बहुमूल्येन वस्तुपाप्तिः 'कयाड़ वा' क्रयाक्रयणकमिति वा, मूल्येन वस्तुन आदानम् 'महाविकशइ वा महाविक्रय:-महाविक्रयणकमिति वा, बहुमूल्येन वस्तुनः पदानम् 'सन्गिडीई वा' सन्निधिरितिवा 'संचाइ वा' संचय इति वा, सत्यपि वस्तुनि पुनस्तस्य संग्रणम्, 'निधी वा' निधिरिति वा, बहुमूल्य वस्तुस्थापनम् 'निक्षणाह वा' निधानमिति वा, भूम्याद्यन्तः स्थापितधनादिकम् 'चिरपोराणाह वा' चिरपुराणमिति वा चिरपतिष्ठित्वेन पुराणं चिरकालस्थापितम् । अतएव 'पहीणसामियाह वा' हीस्वामिकमिति वा प्रहीण: होती हैं और वृष्टि में घनी वृष्टि होती है इसी तरह 'सुकालाइ वा ' उल एकोरुक द्वीप में सुकाल रहता है या 'दुक्कालाई वा' दुष्काल होता है । 'सुभिक्खाह वा' सुभिक्ष धान्यादि की निष्पत्ति रूप होता है या 'दुभिकखाइ वा' दुर्भिक्ष धान्यादि की निष्पत्ति का अभाव रूप होता है । 'अप्पधाइ वा' वस्तुऐं अल्प मूल्य में मिलती है ? 'महग्घाइ वा ' बहुत मूल्य में मिलती है ? 'कयाह महाविक्याइ वा' वहां वस्तुओं की खरीदी होती है ? या बहुत अधिक विक्री होती है ? 'सणेही वा' लोगों के वहां भोग्य पदार्थों का संग्रह होता है ? 'संचयाइ वा' वहां के लोग वस्तुओं के होते हुए फिर आगे के लिये संचय करते है ? 'निधीह बा' बहुमूल्य वस्तुओं का संग्रह होता है ? 'निहाणातिवा' लोग वहां द्रव्य को जमीन में गाढकर रखते हैं ? 'चिरपोराणाइ या' यहां पर लोग ગ્રહેણુ કરાયા છે. વર્ષાકાળમા સામાન્ય રીતે વરસાદ થાય છે? અને વર્ષો अणभां पधारे प्रभाषथी वरसाह थाय छे ? रीते 'सुकालाइवा' से थे हैं। ३४ द्वीपमा सुहा रहे थे ? अथवा 'टुक्कालाइवा' दुष्डाण होय छे ? 'सुभि क्खाइमा धान्याहिती उत्पत्ति ३५ सुभगा होय छे ? 'दुभिकखाइवा' धान्याहिनी ઉત્પત્તિના અભાવરૂપ દુકાળ હાય છે? અવ્વીા' વસ્તુ અલ્પ મૂલ્યથી सोधी भणे छे ? अथवा 'महग्घाइवा' महुभूदयथी (भांधी) भजे छे ? 'कया इमहाविक्याइवा वस्तुगोनी भरीही थाय हे? अथवा वधारे प्रभाणुथी वेशाथ थाय छे ? 'सणे हीइवा' सोडी त्यां लेोग्य यहाथैना संग्रह रे है ? 'स ंचयाइवा' त्यांना सो वस्तु होवा छतां भविष्य माटे संयय रे छे ? 'निधीइवा अधि भृहयवाली वस्तुओोनो संग्रह थाय छे ? 'निहाणा तिवा' त्यांसाठी घनते मीरा ? 'चिरपोराणाइवा त्यांना सोडी यांसे Page #699 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ . ३ . ४२ डिबडसर - फलहादि निरूपणं ૬૭૭ यः स्वापी धनस्वामी यस्य तत्तथा अलामिकं द्रव्यजातम्, 'हीणसे उयं' प्रहीणसेचकम् - प्रहीणाः प्रणष्टाः सेक्तारः सेचकाः धनप्रक्षेतारो यस्य तत् संपति न तत्र धनस्थापिता वर्त्तते एतादृशं स्थानम्, अथवा महीणसे नुक्रमिति, प्रहीणः सेतुः गमनागमनभूमिर्यस्य उत् । भूमेरुन वनतत्वेन 'पहीणग्गाहाचा' प्रहीणमार्ग मिति वा पहीणः प्रणष्टः मार्गः जनानां गमनागमनं यस्य तत् । 'पक्षीणगोतागाराइ वा' प्रहीणगोत्रागारमिति वा, प्रहीणं प्रणष्टं गोत्रागारं तत्स्वामि गोत्रीयजनस्यापि अगार यस्य वत्, निक्षितधनराशि स्वामिनो गोत्रीयजनोऽपिन जीव तीत्येतादृगं स्थानम् । एतानि वस्तूनि सन्ति किम् ? तथा - 'जाई इमाई' यानि इमानि 'गासागर नगरखेड क व ड मडं वदोणमुहपट्टणासमसं सहसन्निवे से सु' ग्रामाकरनगरखेटक दमडपद्रो मुखात्तनाथमसंवाहसन्निवेशेषु सिंघाड पतिगच उकचच्चरअपने पास पुरानी वस्तुएं संग्रहित करते हैं? बहुत पुराना होने से 'पहीण सामिधाइ वा' वहां ऐसा भी द्रव्य होता है, कि जिसका कोई स्वामी न हो । 'पहीणसेउचाइ वा' ऐसा भी वहां द्रव्य होता है, कि जिसमें फिर कोई धन जमा करने वाला जन भी न हो । 'पहीणमग्गाइ वा ' जिसकी भूमी जाने आनें योग्य नही हो । 'पहीणगोत्तागाराह वा' वहां ऐसे भी धन स्थान होते है कि वहां धन रखने वालों के गोत्रका फोह भी मनुष्य न बचा हो अर्थात् सब मर गये हो और उसका घर भी नष्ट हो गया हो, वहां ऐसे स्थान होते है क्या फिर 'जाइ इमाई गामागर नगर खेडकर यदोगपट्टणासमसंवाहसनिषे ते सु' जो ये वहां ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्दट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन, आश्रम, संध और सनिवेश है उनमें तथा उनमें जो 'सिघाडग' शृङ्गाटक के आकार जैसे रास्ते है 'तिगचक्कचच्चर चउम्मुहमहोप हेसु' त्रिक तीन लुनी वस्तुनो सभड़े होय हे ? धागु नुनु होवाथी 'पहीणस मियावा' त्यां मेवु या द्रव्य होय हे लेना है। भासी४४ न होय ? 'पहीणसे ज्याइवा' ત્યાં એવું પણ ધન હેાય છે કે જેમાં પાછું, કેાઇ જમા કરાવનાર માણસ होय अथवा लेनी भूमी नवा भाववा योग्य न होय 'पहीणगोत्तागाराइवा' ત્યાં એવા પણ ધનસ્થાના હાય છે કે ત્યાં ધન રાખવાવાળાઓના વશને કેઈ પણુ માણુસ ખચ્ચે ન હેાય ? અર્થાત્ ખધાજ મરી ગયા રાય ? અને तेनु' घर पशु नाश यभ्यु होय ? सेवा स्थान होय छे ? 'जाई इमाई गामागरणगर खेडकव्न्रडम बदोण मुद्दपट्टणासमस वाइसन्निवेस' ने थमा त्यां ग्राम આકર નગર ખેટ કરેંટ મખ દ્રોશમુખ પત્તન અશ્રમ, સ`વાહ અને स ंनिवेश छे, तेभां तथा तेमां ? 'सिंघाडग' शिधोराना आहार वा रस्ता Page #700 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमत्र चउम्मुहमहापहप हेसु' श्रृङ्गाट कत्रिकचतुष्कचत्वरचतुर्मुखमहापथपथेषु 'णगरगिद्ध मणसुसाणगिरिकंदरसंतिसेलोवट्ठाण भवणगिहेसु' नगरनिधमनश्मशानगिरिकन्दरसच्छे कोपस्थानभवनगृहेपु. हिरण्यसुवर्णादिबहुमत्पद्रव्याणि 'संनिक्खित्ताई चिट्ठति' सन्निक्षिप्तानि तिष्ठन्ति किम् ? इति प्रश्ना, भगवानाह-'णो इणढे समझे' नायमर्थः समर्थः नैतानि अय आफरादीनि एकोरुक द्वीपे भवन्तीति भावः। एकोरुकमनुनानां स्थिति दर्शयितु प्रश्नन्नाह-'एगोरुयदीवे गं' इत्यादि, 'एग्ररुयदीवे णं भंते ! दीवे' एकोरुकद्वीपे खलु भदन्त । द्वीपे 'मणुयाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?' मनुनानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता-कथितेति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'जहन्ने] पलिओवमस्स असंखेज्जइ भाग असंखेज्जइमागेण ऊगर्ग' जघन्येन पल्योपमस्यासंख्येयभागम् मार्ग बाले रास्ते हैं 'चक' चार मार्ग वाले रास्ते है। चत्वर चतुर्मुख मार्ग है और महापथ रूप मार्ग है। उनमें एवं 'णगर णिद्धमणसुसाणगिरिकंदरसेलोवट्ठाण भवगिहेसु' नगर की नाली गटर में श्मशानों में गिरि एवं गिरि की कन्दराओं में ऊंचे पर्वत इत्यादि स्थानों में 'सनिक्खित्ताई चिटुंति' द्रव्य गड़ा हुआ होता है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते है-हे गौतम ! 'णो इणढे सम?' यह अर्थ समर्थ नहीं है-अर्थात् पूर्वोक्त प्रश्न की विषय भूम कोइ भी वान वहां नही होती है और न ग्रोमादिकों में कहीं पर भी घन गड़ा हुआ रहता है। __ अव सूत्रकार एकोहक द्वीप के मनुष्यों की स्थिति कहते हैं-'एगोरुय दीवेणं भंते दीवे मणुपाणं केवतियं कालंठिई पण्णत्ता' हे भदन्न एक रुक 'छीप के मनुष्यों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? उत्तर में छे, 'तिग वउचिच्चर चउम्मुहमहापहेसु' ४ि मा वा २स्तामा हाय છે. ચાર માર્ગવાળા રસ્તા છે. ચત્વર ચાર રસ્તા ભેગા થતા હોય તે ચેક तथा मा५५ ३५ भागमा तथा ‘णगरणिद्धमणमुसाणगिरि कंदरसेलोवट्ठाण भवणगिहेसु' नगनी नाव गटरमा स्मशानामा त मे 'तानी शुशमामा या ५ विगैरे स्थानामा 'स'निविखचाई चिट्ठति' हटाये धन डाय छे। सा प्रशन उत्तरमा प्रसुश्री गौतभाभीन ४७ छ , 'णों इणठे समटे है ગૌતમ ! આ અર્થ બરાબર નથી. અર્થાત્ પૂર્વોક્ત પ્રશ્ન સંબંધી કઈ પણ વાત ત્યાં હોતી નથી. તેમજ ગામ વિગેરેમાં કયાંય પણ ધનદટાયેલું હોતું નથી હવે સૂત્રકાર એકરૂક દ્વીપના મનુષ્યની સ્થિતિનું વર્ણન કરે છે. 'एगोरुयदीवणं भते । दीरे मणुयाण केवतिय काल ठिई पण्णत्ता' भन् એકેક દ્વીપના મનની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવી છે Page #701 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ४.३ ल्यु.४२ डिंबडमर-कलहादि निरूपणम् १७९ असंख्येयभागेनोनकम् 'उक्कोसेण-पलिओचमस्स असंखेज्जहभागं' उत्कर्षण पल्योपमस्यासंख्येयभागम् । 'ते णं भंते ! मणुया' ते एकोषकद्वीपनिवासिनः खल भदन्त ! मनुजाः मनुष्याः 'कालमासे कालं किच्चा' काळमसे कालं कृत्वा 'कहिं गच्छति कहि उववज्जति' कुत्र-कस्मिन् स्थाने गच्छन्ति तथा कुत्र कस्मिन् स्थाने उत्पद्यन्ते इति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, "गोयमा' हे गौतम ! 'ते ण मणुया' ते खलु-एकोरुपद्वीपीय मनुजाः 'छम्मासावंसेसाउया' षण्मासावशेषायुषः कृतपरभवायुर्वन्धा इति गम्यम् 'मिहुणयाइं पसवंति' मिथुनकानि प्रसवते-समुत्पादयन्ति, 'अउणासीई राइंदियाई मिहुणाइ सारक्खंति संगोवितिय' एक'नाशीति रात्रिदिवालि- अहोरात्राणि मिथुनकानि संरक्षन्ति संगोपायन्ति च, संरक्षन्ति उचितोपचारकरणतः पालयन्तिप्रभु श्री कहते है 'गोयमा !' हे गौतम ! इनका जहन्नेणं 'पलिश्रोमस्स असंखेज इभागं असंखेज्जा भागेण ऊणगं' अपने असंख्यातवे भाग से होन पल्पोपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य स्थिति है और 'उक्कोसेणं पलि भोकमस्ल असंखेज्जइ भाग' उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है 'ते णं भंते! मणुस्सा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छंति, कहिं उववज्जंति' हे भदन्त वे मनुष्य काल मासमें मरण करके कहां जाते है ? कहां उत्पन्न होते है ? उत्तर में प्रभु श्री कहते है 'गोयमा तेणं मणुया छम्मासायसेसाउया मिहुणयाइ पसवेंति, अउणासीइं राइं दियाई मिहुणाई सोरक्खेंति संगोविंतिय 'हे गौतम ! जब उनकी छह मासकी आयुशेष रहती है तब वे पुत्र और पुत्री रूप जोड़े को उत्पन्न करते है अस्सीमे एक कम-७९ दिन तक वे उस जोडे मा प्रश्नमा उत्तरमा प्रमुभी गौतमस्पाभीने ४ छ 'गोंयमा गौतम। तेनी स्थिति 'जहण्णेण पलिओमरस असखेज्ज इभाग अस खेजइमागेण ऊणग" પોતના અસંખ્યાતમાં ભાગથી ઓછા પલ્યોપમના અસંખ્યાતમા ભાગ પ્રમાણ वन्यथा छ भने 'उक्कोसेणं पलि ओवमस्स असंखेज्जइभांग' १८ स्थिति पक्ष्या ५मना मसज्यातमा माग अमानी छे. 'तेणं भ ते ! मणुस्सा कालमासे काल किन्चा कहिं गच्छति, कहि उत्रवज्ज ति' भगवन् ते मनुष्य सना अपસરે કાળ કરીને કયાં જાય છે ? અને કયાં ઉત્પન્ન થાય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री छेउ गोयमा ! तेणं मणुया छम्मासावसेसाव्या मिहणयाई पसवे ति, अउणासीइं राइंदियाई मिहुणाई सारखेति संगोविति' गीतम જ્યારે તેઓનું છ માસનું આયુષ્ય બાકી રહે છે ત્યારે તેઓ પુત્ર અને પુત્રી રૂપ જેડાને ઉત્પન્ન કરે છે. અને ૭૯ ઓગણ્યાસી દિવસ પર્વત તેઓ એ બેડલાનું પાલન પિષણ કરે છે. અને તેને સારી રીતે સંભાળે છે, Page #702 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८० जीवामिगमत्र अनामोगेन हस्तायकृष्टेभ्यः। 'सारक्खित्तार' संरक्ष्य संक्ष्यि 'संगोषित्ता' संगोप्य; 'उस्ससित्ता, निस्सासित्ता' उच्छ्वस्य निःश्वस्य-उच्छ्वासं कृत्वा निश्वासं कृत्वा श्वासोच्छ्वासं गृहीत्वेत्यर्थः 'कासित्ता' कासित्वा-कासं विधाय 'छीइत्ता' क्षुत्वा क्षुत्वं विधाय 'अविहा' अक्लिष्टाः स्वशरीरोत्यक्लेशवर्जिताः 'अव्व हिया' अव्यथिता:-परेणाऽनापादितदुःखाः, 'अपरियाविया' अपरितापिताःस्वतः परतो वा अनुपजातकायमनः परितापाः, 'मुहं सुहेणं' सुखं सुखेन सुवपूर्वकं 'कालपासे कालं किच्चा' काळयासे-कालदिने आयुर्दलिक्क्षये कालं-मरणं कृत्वा 'अन्नयरेसु देवलोएस' अन्यतरेषु देवलोके पु-भवनपत्यादीशानान्तदेवलोकेषु 'देवत्ताए उबवत्तारो मति' देवत्वेन उपपत्तारो भवन्ति समुत्पद्यन्ते स्वसमानायुष्षसुरेष्वेव तदुत्पत्तिसंभवात् । अत्र कालपासे इति क्यनेन तत्काल तद्देश भाविमनुजानामकालमरणामाः सूचितः, अपर्याप्तकान्तमुहर्त कालान्तरमनपर्वत का प्रति पालन करते है, उसे अच्छी तरह संभाल कर रखते है, 'सारखित्ता संगोवित्ता' उसी अच्छी तरह पालन और संभाल करके 'उस्समित्ता, निस्सासित्ता, कालित्ता, छीईत्ता, अमिटा, अन्याहत्ता, अपरियाविया फिर घे उच्छवास नि:श्वास लेकर खास कर एवं छींक लेकर विना किसी क्लेश के भीति विना सथा विना किसी परिताप 'सुहं सुहेर्ण' शान्ति पूर्वक 'कालमासे कालं किच्चा मरण के अवसर में मरकर 'अन्न गरेसु देवलोएस्सु देवत्ताए उबवत्तारो भवंति' भवन पत्यादिइशान देव लोक तक के किसी एक देव लोक में उत्पन्न हो जाते है। अर्थात् अपनी आयु के समान आयुवाले देवो में ही इनकी - उत्पत्ति होती है । इनका अकाल में मरण नहीं होता है क्योकि असं ख्यात वर्षायुष्क आयुवालों को अनपवर्तनीय आयुशला सिद्धार में कहा गया है. यही वात प्रकट करने के लिये 'काल मासे' इस शब्द का 'सारखिता स गोवित्ता' तेनु सारी रीत पालन पोषय शन. 'उस्सासित्ता, निस्सासिवा कासिता छीईत्ता अकिट्ठा अवहिता अपरियाविया' ते ५छी तमे। ઉછવાસ નિ શ્વાસ લઈને ખુ ખારે ખાઈને છી કીને કંઇ પણ કલેશ ભગવ્યા विना तया | ५६५ on-न परिता विना 'सुह सुहेण' शान्ति । 'कालमासे फाल किच्चा' होताना गवस ४ रीने 'अन्नय रेसु देवले एसु देवत्ताए उबवतारो भवति' भवनपतिथी शान सुधीना 3 पै. छ પણ એક દેવલોકમાં ઉત્પન્ન થઈ જાય છે. અર્થાત્ પોતાન અ ચુખ્ય સરીખા આયુષ્યવાળા દેવકમાંજ તેઓની ઉત્પત્તી થાય છે. તેઓનું અકાલસરણ થતું નથી. કેમકે અસંખ્યાત વર્ષાયુષ્ક આયુષ્ય વાળાઓને અનપવર્તનીય આયુષ્યવાળા Page #703 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ.३ ३.४३ आभाषिकद्वीपनिरूपणम् ६८१ नीयायुष्कत्त्रात् । 'देवलोयपरिगहियाणं ते मणुवगणा पण्णत्ता समणाउसो !' देवलोक परिग्रहाताः देवलोक एव भवनपत्यादीशानान्तरूपस्तथाक्षेत्र स्वाभाव्यात योग्यायुर्वन्धनेन परिगृहीतो येस्ते तथाभूतास्ते मनुजगणाः प्रज्ञप्ताः हे श्रमणा युष्मन्निति । ०४२॥ मूलम् - कहिं णं भंते! दाहिणिल्लाणं आभालिय मणुस्साणं आभासिय दीवे णामं दीवे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स बासहरपवयस्स दाहिण पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिन्नि जोयणसाई ओगाहित्ता एत्थ णं आभासिय मणुस्साणं आभासिय दीवे णामं दीवे पण्णत्ते, सेलं जहा एगोरुयाणं णिरवसेसं सव्वं । कहि णं भंते! दाहिणिल्लाणं वेसालियमणुस्साणं पुच्छा, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुहिमवंतस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणपच्चत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिष्णि जोयण० सेसं जहा एगोरुयाणं । कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं णंगोलियनणुस्वाणं पुच्छा, गोथमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पत्रयस्स दाहिनेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्यपस्स उत्तरपचत्थिमिल्लाओ घरिमंताओ लवणसमुहं तिष्णि जोयणसयाई० सेसं जहा एगोरुव मणुस्साणं ॥ सू० ४३ || - 1 यहां प्रयोग किया गया है । 'देवलोयपरिमाहियाणं ते मणुज्न पण्णत्ता 'समणउसो' हे श्रमण आयुष्यन् । ये मनुष्य उस प्रकार के क्षेत्र के स्वभाव से ही देव संबंधी आयु का वध करने से भवन पति से ईशान देव लोक तक के देवलोक के सिवाय अन्यलोक में उत्पन्न होने वाले नहीं होते है || सृ० ४२ ॥ सिद्धांत छे. वात प्रगट १२वा भाटे 'कालमासे' मे पहने। सड्डियां प्रयोग रेस छे. 'देवलोयपरिगाहियाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समगाउसो' હે શ્રમણ આયુષ્મન્ તે મનુષ્યે તે પ્રકારના ક્ષેત્રના સ્વભાવયીજ દેવ સંબધી આયુષ્યના અંધ કરવાથી ભવનપતિથી ઇશાન દેવલેાક સુધીના ફેલેક સિવાયના બીજા દેવલેાકમાં ઉત્પન્ન થતા નથી, ા સૂ. ૪૨ ૫ नी० ८६ Page #704 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८२ जीवामिगमसूत्रे छाया-कुन खलु भदन्त ! दाक्षिणात्यानासाभापिकमनुष्याणाम् आभाषिक द्वीपो नाम द्वीपः प्रजातः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे द्वीपे मंदरस्स पर्वतस्य दाक्षिणेन क्षुद्रहिमश्तो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणपौरस्त्यात् चरमान्तात् लवणसमुद्रं त्रीणियोजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु आयापिक मनुष्याणाम् आपिकद्वीपो नाम द्वीपः पज्ञशः । शेषं यथा एकोरुकाणां निरवशेष सर्वम् । कुत्र खलु भवन्त ! दक्षिणात्यानां वैशालिक मनुष्याणां पृच्छा मौतम | जस्ट्टीपे द्वीपे मदरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन क्षुद्रहिमबलो वर्षधरपर्वतस्य दक्षिणपाश्चात्यच रातात् लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतानि शेएं यथा ए को रुकाणाम् । कुन खलु दन्त ! दक्षिणात्यानां नागोलिक मनुष्रणां पृछा, गौतम ! जस्बृद्वीपे द्वीपे मदररय पतस्य दक्षिणेन क्षुद्रदिमरतो र पंधरपर्वतस्य उत्तरपाश्चात्यात चरमान्तात् लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतानि० शेष यथा एकोरुकमनुष्याणाम् ।।मु० १३॥ टीका-एको रुकमनुष्याणां स्वरूपादिव मुपये आमापिकमनुष्याणां स्वरूपा. दिकमुपश्र्णयितुं प्रश्नयनाइ-'कहि णं भते !' इत्यादि । 'कहिण भंते ! दाहिजिल्लाणं भामासिवमणुरसाणं' हुन रूलु भवन्त । दाक्षिणात्यानामामापिक मनुष्याणाम् 'आभासियदीवे पाम दीवे पणत्ते' आभाविपद्वीपो नाम द्वीप: घज्ञप्त:-कथितः, इति मन:, भगवालाह-गोयमा' इत्यादि 'गोयमा' हे गौतम ! 'जबुद्दीवे दीवे' जरबृढीपे द्वीपे 'मंदररा-पच्चर रस दाहणेणे' मन्दरस्य पर्वतस्य दक्षिणेन-दक्षिणयां दिशि 'चुल्लहिमवंतस्स चासहरपब्वयस्स' क्षुद्रहिमवतो वर्षधर पर्वतस्य 'दाहिणपुरस्थिमिल्लाओ परिमंताओ' दक्षिणपौरस्त्यात् आग्नेयकोणात् 'कधि णं संते ! बाहिणिल्लाणं आभासिन मणुम्लाण' इत्यादि। टीमार्थ-हे भदन्न । दक्षिण दिशा के आभापिक मनुष्यों का आभाषिक नामका द्वीप कहां पर है ? उत्तर में प्रभु श्री कहते है'गोयमा जवुद्दीवे दीके मंदर स्स पवधस्स दाहिणे णं चुल्लहिमवंतस्स घासहर पधस्स दाहिण पुरथिमिल्लामो परिमंताओ' हे गौतम ! इस जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशा में क्षुद हिमवंत नाम का बडा सुंदर पर्वत है उसके दक्षिण पोरस्य अग्नि कोण के चरमान्त से 'कक्षिण भते ! दाहिणिल्छीण' आमानियमणुस्त्राण' त्यादि ટીકાર્થ– હે ભગવન્ દક્ષિણ દિશાના આભાષિક મનુષ્યને આભાષિક नाभन द्वीप या मा छे १ मा प्रश्न उत्तम प्रभुश्री हे छे 'गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे म दरस्स परयस्त दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स बासहरपव्ययस्स दाहिणपुरथिमिल्लाओ चरिम ताओ' गीतम! भाद्वीपमा म२५ तनी क्षिय દિશામાં ક્ષુદ્રહિમાવંત નામને સુંદર પર્વત છે. તેના દક્ષિણ પરત્વ અગ્નિ Page #705 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योंतिकाटीका प्र.३ उ.३ ५.४३ ऑभाषिकद्वीपनिरूपणम् ६८३ चरमान्तात् 'लजणसमुदं तिनि जोधणसयाई भोगादित्ता का सुदं त्रीणि योजनशतानि अवगाह्य 'एस्थ णं पाभासियमणुरक्षाणं आभासियदोवे णामं दीवे पण्णत्ते' अत्र खलु आभापिकमनुष्याणाम् आभाषिकद्वीपो नागद्वीपः प्रज्ञप्तः, 'सेसं जहा एगोरुयाणं निरवसेसं सव्वं शेष यथा एकोरुकाणां निरवशेष सर्वम् एकोरुकमनुष्यवदेव आमापिक द्वीपस्य वर्णनम् आभाषिकमनुष्यस्वरूपादिकं च स निरव शेष वक्तव्यम् । 'कहि णं भंते' कुन खलु भदन्छ ! 'दाहिणिल्लाणं वेसालिय मणुस्साणं पुच्छा' दाक्षिणात्यानां वैशालिकमनुष्याणां वेशालिक नामको द्वीपः प्रज्ञप्तः इति पृच्छया संगृह्य में प्रश्ना, मनवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'जंबुद्दीचे णं दोवे' जम्बूद्वीपे खलु द्वीपे 'मंदरस्स एव्ययस्स' मन्दरनामकास्य पर्वतस्य 'दाहिणे णं' दक्षिणेन 'चुल्लदिमवंतस्स वासहरपव्ययस्स' चुल्लहिपरतो पंधरपर्वतस्य 'दाहिणपच्चस्थिमिल्लाओ चरिमंताओ' दक्षिणपाश्चात्याद नैऋतकोणादित्यर्थः चरमा'लवणसमुई तिनि जोधणमयाई ओगाहित्ता' लवण लघुद्र में लीनसौ योजन जाने पर हलो स्थान पर 'एत्थ णं आवालिया मणुल्साणं आभा. सिय दीवे णामं दीवे घण्णन्ते' आमाषिक मनुष्यों का आभाषिक नाम का द्वीप है। 'सं जहा एगोरुषाण णिरक्खे सव' इस द्वीप के सम्बन्ध में एवं यहां के मनुष्यों के सम्बन्ध में बाकी का और लव कथन एकोरुक द्वीप के प्रकरण में जैसा किया गया है वैसा ही जान लेना चाहिए । 'कहिणं भले ! दाहिणिल्लाणं सालिय वेलानिय भणुस्लाणं पुच्छा' हे अदन्त ! दक्षिण दिशा के बैशालिक वैषाणिक मनुष्यों का वैशालिक वैषाणिक नामका द्वीप कहां पर है। उत्तर मे प्रभुश्री कहते है'गोयमा जवहीवे दीवे महल पक्षयस्त दाहिणे णं चुहिमवंतस्स वासहरपव्वयम दाहिण पच्चशिपिल्लाओ चरिमंताओ समुदं माना यरमा-तथी 'लवणख मुदं तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता' सव समुद्रमा त्रसे। योभनय त्यारे 'एत्थणं आभासियमणुस्ताण आभासिय दीवे णाम दीवे पण्णत्ते' में स्थान५२ मषि मनुष्यान मालापि नामना दी५ छ. 'सेस' जहा एगोरुय णं णिरवसेस सव्व' मा दीपना समयमा तम त्यांना મનુષ્યના સંબંધમાં બાકીનું તમામ કથન એકરૂક દ્વિપનાં પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે पामा मावस छे से प्रभाय सभ लेन्थे 'कहिणं भते ! दाहिणिल्लाण वेसालिय वेसाणिय मगुस्साण पुच्छा' मपन् ! इक्षिण शिना पैशाति અને વૈષાણિક મનુષ્યના વૈશાલિક અને વૈષાણિક નામના દ્વીપે ક્યાં આવેલ છે AL प्रशन उत्तम श्री तासीन से छे । 'गोयमा ! वृद्द वे दीवे मदरस सरस दादिगं चुल्ल इमवंतल कान्ताः - दहिण Page #706 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे ક न्वात् 'लवण समुदं विन्नि जोयणसयाई' लवणसमुद्रं त्रीणि योजनशतानि अवगाह्यात्र खलु दाक्षिणात्यानां वैशालिकमनुष्याणां वैशालिक नामको द्वीपः प्रज्ञप्तः कथितः 'सेसं जहा एगोरुयाणं' शेषं यथा एक रुकद्वीप निवासिनां मनुष्याणां कथितं तदेतत्सर्वं निरवशेषमिह वक्तव्यमिति । 'कहिणं भंते !' कुत्र खल भदन्त ! ' दाहिणिल्लाणं गंगोलियमणुस्साणं पुच्छा' दाक्षिणात्यानां नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गोलिको नाम द्वीपः प्रज्ञप्तः - कथित इति प्रश्न, 'भगवानाह - 'गोयमा' हे गौतम ! 'जबूद्दीवे दीवे' जम्बूद्वीपे द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं' मन्दरनामकस्य पर्वतस्य दक्षिणेन 'चुल्ल हिमवतस्स वासहरपव्वयस्स' चुल्लहिमवतो वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरपच्वत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ' उत्तरपाचाच्यात् वायव्यकोणादित्यर्थः तिनि जोयणस्स से से जहा एगोरुवाणं 'हे गौतम' इस जंबूदीप नाम के वर्त्तमान सुमेरु पर्वत की दक्षिण दिशा की ओर रहे हुए क्षुद्र हिमवंत पर्वत के दक्षिण पश्चिम नैऋत कोण के चरमान्त से लवणसमुद्र में तीनसौ योजन जाने पर ठीक इसी स्थान पर दक्षिण दिशा के वैशालिक वैषाणिक मनुष्यों का वैशालिक (वैषाणिक) नामका द्वीप है। वाकी का इसके सम्बन्ध में शेष और सब कथन एकोरुक के प्रकरण जैसा ही है । 'कहि णं मंते' दाहिणिल्लाणं गंगोलियमणुस्साणं पुच्छा' हे भदन्त | दक्षिण दिशा के नांगोलिक मनुष्यों का नौगोलिक द्वीप कहां पर है। उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा' जंबूहीवे दीवे मंदरस् पव्यस्त दाहिणे चुल्ल हिमवतस्स वासहरपव्वपस्स उत्तर पच्चस्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लक्षणसमुद्दे तिणि जोयणसयाई सेसं जहा पच्चत्थिमिल्लाओ चरिम ताओ लवणसमुदं तिन्निजोयण खयाई सेस जहा एगोरुय स्वाण' हे गौतम! या द्वीपमा सुभे३ पर्वतनी दक्षिण दिशा त२३ રહેલા ક્ષુદ્રહિમવ'ત પર્યંતના દક્ષિણ, પશ્ચિમ નૈઋત્ય ખૂણાના ચરમાન્તથી લવણુ સમુદ્રમાં ત્રણસેા ચેાજન જવાથી ખરેખર એજ સ્થાનપર દક્ષિણ દિશાના વૈષાણિક અનેં વૈશાલિક મનુષ્યેાના વૈષાણિક અને વૈશાલિક નામના દ્વીપા છે. એટલે કે વૈશાલિક મનુષ્યના વૈશાલિક દ્વીપ અને વૈષાણિક મનુષ્ચાનો વૈષાણિક દ્વીપ છે. આ સંબધમાં બાકીનું તમામ કથન એકરૂક દ્વીપના કથન પ્રમાણેનુંજ કહેલ છે. 'कहि णं भवे । दाहिणिल्लाण णंगोलियमणुस्साणं पुच्छा' हे भगवन् દક્ષિશુ દિશાના નામેાલિક મનુષ્યાને નાંગેાલિક દ્વીપ કયાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે 'गोमा | जबूद्दीवे दीवे मंदस्स पव्त्रयस्थ उत्तरपच्चत्थिमिल्लाओ चरिम दाओ लवणसमुदं तिण्णि जोय सोइ सेस जहा एगोरुयमणुस्साणं' हे गौतम! उत्तर पश्चिम आ દ્વીપના મોંદર પર્વતની દક્ષિણ દિશામાં આવેલ ક્ષુદ્રહિમવંત પર્વતના વાયવ્ય Page #707 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - प्रमेयद्योतिका का प्र.३ ७.३ सू.४४ हय कर्णद्वी निरूपण स् चानान्तात् 'लपण समुदं तिनि जोयणमया६०' लवण पमुद्रं त्रीणि योजनशतानि अवगाह्यात्र खलु नाङ्गोलिकमनुष्याणां नाङ्गोलिकनामको द्वीपः प्रज्ञप्तः, 'सेसं जहा एगोरुपमणुस्सा' शेषं यथा एकोकमनुष्याणाम् एतदतिरिक्त सर्वमेकोरुकमनुव्यपकरणवदेव ज्ञातव्यम् ।।सू. ४३॥ हयकर्णद्वीपं वर्णयितुमाह-'कहिणं भंते !' इत्यादि । मूळम्-कहि णं अंते ! दाणिहिल्लागं हयकण्णमणुस्साणं हयकण्णदीवे णामं दीवे पन्नत्ते ? गोयमा! एगोरुयदीवस्स उत्तरपुरथिमिल्लाओ चंरिसंताओ लवणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ ण दाहिणिल्लाणं हयकपणमणुस्सागं हयकागदीवे जामं दीवे पन्नत्ते, बत्तारि जोयणलयाई आयामविक्खंभेणं, बारसजोयणलया पन्नट्टी किंधि विसेसृणा परिकखेत्रेणं, से ण एगाए पउसवरवेइयाए अवसेसं जहा एगोरुयाणं। कहि पं भंते ! दाहिणिल्लाणं गयकण्णमणुस्ताणं पुच्छा, गोयमा! आभासिय दोबस्स दाहिणपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं जोयणस्याइं लेसं जहा हयकपणाणं । एवं गोकण्णमणुस्साणं पुच्छा, वेसाणिय (वेसालिय) दीवस्त दाहिणपच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणससुई चत्तरि जोयालयाई सेसं जहा हयकपणाणं। सक्कुलिकण्णाणं पुच्छा, गोयमा! गंगोएगोरुघमणुस्साण' हे प्रीतम उत्तर पश्चिम इम जम्बूद्वीप के मन्दर पर्वत की दक्षिण दिशा में दर्लान क्षुद्र हिमवन पर्वतके वायव्य कोण के चरमान्त से लक्षण समुद्र में तीनसी योजन जाने पर ठीक इसी स्थान पर दक्षिण दिशा के नांगोलिक मनुष्यों का नांगोलिक नामा द्वीप है इस द्वीप और ही मनुष्यों के सम्बन्ध में और रूप दादी का कथन एशोरुक के प्रकरण में जैसा लिखा जा चुका है वैसा ही है। ॥४३॥ ખૂષાના ચરમાન્તથી લવણ સમુદ્રમાં ત્રણસો જન જવાથી બરાબર એજ સ્થાન પર દક્ષિણ દિશાના નાગોલિક મનુષ્યને નાગલિક નામને દ્વીપ આવેલ છે. આ દ્વીપ અને દ્વીપમાં રહેલા મનુષ્યના સંબંધમાં બીજુ તમામ બાકીનું કથન એકરૂક દ્વીપના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે. એજ प्रमाणे on नये. ॥ सू. ४३ ॥ Page #708 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे ६८६ for free उत्तरपच्चत्थिमिल्लाओ वरिमंताओ लवणसमुद्द वत्तारि जोयणसयाई सेसं जहा हयकपणाणं । आर्यसमुहाणं पुच्छा, हथकण्णदीवस्स उत्तरपुरत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ पंचजोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं आयंसमुहमणुरसाणं आयंसमुहदीवे णामं दोवे पन्नत्ते, पंच जोयणसयाई आयामविवखंभेणं । आसमुहाईणं छ सया, आसकन्नाईणं सत्त, उक्कामुहाईणं अटू, घगदंताईणं जाव नव जोयणसयाई, एगोरु परिक्खेवो नत्र चेव सयाई अऊणपन्नाई । वारसपन्नट्टाई हयकण्णाईणं परिक्खेवो ॥१॥ आसमुहाईणं पन्नरसे कालीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, एवं एएणं कमेणं उवउंजिउण णेयव्वा चत्तारि चत्तारि एगपमाणा, णाणत्तं ओगाहे, विक्खंभे परिखेवे, पढमबीय तईय चउक्काणं उग्गहो विक्खंभो परिक्खेवो भणिओ । चउत्थ चउक्के छजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं अट्टारस सत्ताण्उए जोयणसए परिक्खेवेणं । पंचमचउके सत्त जोयणलाई आयामविक्खंभेणं बावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं । छट्टचउके अजोयणसयाई आयामविवखंभेणं, पणवीसं एगूणतीलं जोयणसए परिक्खेवेणं । सत्तमचउक्के 'नव जोयणसयाई आयामविश्वंभेणं, दो जोयणसहस्साइं अटू पणयालं जोयणसए परिवखेवेणं । जस्स य जो विक्खंभो ओगाहो तस्ल तत्तिओ घेव । पढमाइल परिरओ से साणं जाण अहिओ ३ ॥१॥ सेसा जहा एगोरु दीवस्स जाव सुद्धदंत दीवे देवलोग परिगहियानं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! कहि णं भंते! उत्तरिल्याणं एमोस्य मणुस्साणं एगोरुय दीवे णामं दीवे Page #709 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् ६८७ पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्त पव्वयस्त उत्तरेणं सिहरिस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिन्नि जोयणसहस्लाइं ओगाहित्ता, एवं जहा दाहिणिलाणं तहा उत्तरिल्लाणं भाणियव्वं । णवरं सिहरिस्त वासहरपव्वयस्ल विदिसासु एवं जाव सुद्धदंतदीवे ति जाव से तं अंतरदीवया ॥ से किं तं अकम्मभूमगमणुस्ला ? अकम्मभुमगमणुस्सा तीसविहा पन्नत्ता तं जहा-पंचहिं हेमवएहिं एवं जहा पण्णवणापदे जाव पंचहिं उत्तरकुरूहिं, लेत्तं अकम्म भूमगा । से किं तं कम्मसूमगा? कम्मभूमगा पण्णरसविहा पन्नत्ता, तं जहा-पंचहिं भरहहिं पंचाहिं एरवएहिं पंचाहिं महाविदेहेहि, ते समासओ दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-आरिया मिलेच्छा एवं जहा पण्णवणापदे, जाव सेत्तं आरिया, सेत्तं गमवकंतिया सेत्तं मणुस्सा ॥सू० ४४॥ ___ छाया-कुत्र खलु भदन्त ! दाक्षिणात्यानां हयकर्ण मनुष्याणां हय कर्ण द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञत: ? गौतम | एकोरुकद्वीपस्य उसरपौरस्त्याच चरमान्तात कवण समुद्रं चत्वारि योजनशतानि अवगाह्य अत्र खलु दक्षिणात्यानां हयकर्णमनुष्याणां हयकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञप्ता, चत्वारि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण द्वादश योजनशतानि पञ्चषष्ठानि किञ्चिद्विशेषोनानि परिक्षेपेण, स खलु एकया पदमव रवेदिकया, शेपं यथा एकोरुकाणाम् । कुत्र खल भदन्त ! दाक्षिणात्यानां गजकर्णमनुष्याणां पृच्छा, गौतम ! आभाषिक द्वीपस्य दक्षिणपौरस्त्यात चरमान्तात लवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतानि, शेष यथा-हयफर्णानाम् । एवं गोकर्ण मनुव्याणां पृच्छा, वैषाणिक (वैशालिक) द्वीपस्य दक्षिणपाश्चात्यात् चरमान्तात लवणसमुद्र चत्वारि योजनशतानि शेष यथा हयकर्णानाम् । शकुळीकर्णानां पृच्छ', गौतम | नाङ्गोलिक द्वीपस्योत्तरपाश्चात्यात् चरमान्ताद् ळवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतानि, शेष यथा ह्यकर्णानाम्। आदर्शमुखानां पृच्छा, हगणद्वीपग्योपरपोरस्त्यात् चरमान्तात् पञ्चयोजनशतानि अवगाह्यात्र खल दाक्षिणात्याना मादर्शमुखमनुष्याणा मादर्शमुग्व द्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञः, पञ्चयोजनशतानि बाया. मविष्कम्भेण, अश्वमुखादीनां पट्शतानि, अर्श्वकर्णादीनां सप्त उल्का मुखादीना Page #710 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्र मष्टों, घनदन्तादीनां यावन्नवयोजनशतानि । एकोरुकपरीक्षेपो, नरव शतानि, एकोनपञ्चाशत् । द्वादशपञ्चषष्ठानि हयकर्णादीनां परिक्षेपः ॥१॥' आदर्शमुखा. दीनां पश्चदशै काशीजानि योजनशतानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण । एवमे तेन क्रमेण उपयुज्य नेतव्यानि चत्वारि चत्वारि एकप्रमाणानि, नानात्धम् अब गाहनायाम, विष्कम्मः परिक्षेपः, प्रथमद्वितीयवतीयचतुष्कानाम, अग्रहो विष्कम्भः परिक्षेपो भणितः । चतुर्थ चतुष्के षड्योजनशतानि आयामविष्कम्भेण, अष्टादश सप्तनवतानि, योजनशतानि परिक्षेपेण । पञ्चमचतुष्के सपनयोजनशतानि आयामविष्कम्भेण, त्रयोद्वाविंशति योजनशतानि त्रयोदशोत्तराणि परिक्षेपेण । षष्ठचतुष्के अष्टयोजनशतानि, आयामविष्कम्भेण, पञ्चविंशतियोजनशतानि एकोनत्रिशानि परिक्षेपेण । सप्तमचके नवयोजनशतानि आयामविष्य म्भेण, द्वे योजनसहस्रेऽष्ट पञ्चचत्वारिंशानि चोजनशतानि परिक्षेपण । 'यस्य च यो विष्कम्भः, अवगाहस्तस्य तावत्कएच । प्रथमादीनां परिरयः, शेषाणां जानीहि अधिकस्तु ।।१। शेषा यथा एकोरुकद्वीपस्य यावत् शुद्धदन्तद्वीपः, देवलोकपरिगृहीताः खलु ते मनुजगणाः प्राप्ताः श्रमणायुष्मन् ! कुत्र खलु भदन्त ! औत्तराणामेकोरुकमनुष्याणा मेको रुकवीरो नाम द्वीप प्रज्ञप्त्तः ? गौतम ! जम्बूद्वीपे डीपे मन्दरस्य पर्वतस्योत्तरेण, शिखरिणो वर्ष धरपर्वतस्योत्तरपौरस्त्यात् चरमान्तात लवणसमुद्र त्रीणि योजनशतानि अमाह्य एवं यथा-दाक्षिणात्यानां तयौतराणां भणितव्यम् । नवरं शिखरिणो पधरपर्वतस्य विदिशासु, एवं यावत् शुद्धदन्त द्वीप इति यावत् ते एते अन्तरद्वोपकाः ॥ अथ के ते अमर्मभूमिकमनुष्याः ? अकर्मभूमिकमनुष्या: त्रिंशद्विधाः पज्ञप्ताः, तद्यथा-रश्चमिमवता, एवं यथा प्रज्ञापनापदे यावत् पञ्च मिरुत्तरकुरूभिः. ते एते अकर्मभूमिकाः । अथ के ते कर्मभूमिका ? वर्मभूमिकाः पञ्चदशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-पञ्चभिर्भरतः पञ्चभिररस्तैः एश्चभिर्महाविदहे, ते समासतो द्विविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-आर्या म्लेच्छाः, एवं यथा प्रज्ञापनपदे यावर ते एते आर्याः, ते एते गर्भव्यु-क्रान्तिकाः, ते एते मनुष्याः ॥मू० ४४॥ टीका-'कहिणं भंते !' कुत्र खल-फस्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! 'दाहिणि. सला णं हयका मणुप्साणं' दाक्षिणात्यानाम् - दक्षिणदिकस्थितानाम्, अन्नरद्वीपाः 'कहिण भते ! दाहिणिल्लाणं हयकार णुस्साणं हथक पणदीवे'-इत्यादि टीकार्थ-हे भदन्ल | दक्षिण दिशा के हथकर्ण मनुष्यों का हयकर्ण नामका जीप कहां पर है अन्तर छीर छप्पर-५६ होते हैं उनमें अठाईप 'कहि ण भ ते दाहिणिल्ला णं हयझण्ण मणुस्खाणं हय झण्णदीवे' या ટીકાર્થ-હે ભગવન દક્ષિણ દિશાના હયકર્ણ મનુભ્યોને હયક નામને દ્વીપ કયાં આવેલું છે? અંતર દ્વીપ ૫૬ છપ્પન હેય છે, તે પૈકી ૨૮ અઠયાવીસ Page #711 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.ने उ.३ सू.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् ६८९ षट्पञ्चाशत् सन्ति तेषु एकोरु कादयोऽष्टाविंशतिर्दक्षिणस्यां दिशि सत्र अष्टाविंशतिरेव, उत्तरस्यां दिशीत्यत्र दक्षिणा दिवस्थितान्तरद्वीपानां प्रकरण मित्यतो दाक्षिणा त्याना मित्युक्तम्, हयकर्ण मनुष्याणाम्, 'हयकण्ण दीवे नामं दीवे पण्णत्ते' दयकर्ण द्वीपो नामद्वीप प्रज्ञप्तः, हे भदन्त ! हयकर्णमनुष्याणां हयकर्णद्वोपो नाम निवासस्थानं कुत्र कथित इति पश्नः, अगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगोलपदीक्स्स' एकोहनामक द्वीमाय 'उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंनाओ' उत्तरपौरस्त्याच-उत्तरपूर्व-ईशानकोणे विद्यमान त् चरमान्तात् 'ल.पण समुद्द चलारि जोयणसयाई अगाहित्ता' लवणसम्मु चत्वारि योजनशतानि अबाह्य-व्यतिक्रम्य 'एत्थ णं दाहिणिल्लाणं इयकण्णमणुस्साणं' अत्र खलु दाक्षिणात्यानां हयकर्णनु. व्याणाम् इयण दीवे णामं दीवे पण्णत्ते' 'हथकर्णद्वीपो नामद्वीपः प्रज्ञप्तः-कथितः, दक्षिण दिशा में और वैसे ही अठाईस उत्तर दिशा में होते है यहां दक्षिण दिशा के अन्तर ही का प्रकरणा होने से दाहिणिल्ला' ऐसा कहा है। इसके उत्तर में सुश्री कहते हैं-'गोयमा! एग्गोरुय दीवस उत्तर पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लमासमुई चत्तारि जोयण सयाई ओगा. हित्ता एत्थणं दाहिल्लिाणं हयारणसणुरुपाणं हयफपणदीवे णामंदीवे पण्णत्ते' एको रुक द्वीप के ईशान कोने में विद्यमान चरमान्त ले लक्षण समुद्र में चार की योजना चलने पर इसी स्थान में दक्षिण दिशा के ह्यकर्ण मनुष्चों का यकर्ण नामका द्वीप है। तात्पर्य इस कथन क्षा एसा है कि एकोहावीप के पूर्व घरमान्त से ईशान दिशा में लवण समुद्र में चारली योजन जाने पर यहां क्षुल्ल हिमंत पर्व की दाहा आती है तो इस दाढा के ऊपर जम्वृद्धीपशी वेदिका के अना भाग से चार सौगोजन के अन्तर में दाक्षिणात्य शिक्षण मनुष्यों का घद्ध हरकणे नामका द्वीप कहा गया है। यह द्वीप की 'चत्तारि जोयणसीई દક્ષિણ દિશામાં અને બીજા ૨૮ ઋયાવીરા ઉત્તર દિશામાં હોય છે અહિયાં Blay EिL मत२ दीपान ४२६ वाथी 'दाहिणिल्लाणं' 2 प्रमाणे स . या प्रश्नमा उत्तरमा प्रसुश्री गौतम२वामी हे छ 'गोयमा ! एगोरुय दीवस्स उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवगसमुद चत्तार जोगाणसयाई ओगाहित्ता एत्थ ण दाहिणिल्लाणं हयकण्णमणुम्माण हयकण्ण दीवे णाम दीवे पण्णत्ते' ३दीपना शान भूशामा मावस य२मान्तधी ale समुद्रमा ચારસો જન સુધી જવાથી એજ રથાનપર દક્ષિણ દિશા વકર્ણ મનુ ખ્યાને હયકઈ નામને દ્વીપ આવેલ છે આ કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે એક દ્વિપના પૂર્વ ચરમાન્સથી ઈશાન દિશામાં લવણ સમુદ્રમાં ચાર જન જવાથી ત્યાં સુલ હિમવંત मी० ८७ Page #712 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमध्ये अयं भावः-एकोषकद्वीपस्य पूर्वस्मात् चरकान्तात् उत्तरपूर्वस्यां दिशि लवणसमदं चत्वारि योजनशतानि अगाह्याऽत्रान्तरे क्षुल्लहिमवद दंष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्तादपि चतुर्योजनशतान्तरे दाक्षिणात्यानां हयकर्णपनुष्याणां हयकर्णद्वीपो नाम द्वीप कथित इति । स च 'चत्तारि जोयणसयाई आयाम विक्खंभेणं चत्वारि योजनशतानि आयामविष्कम्भेण कथितः आयामो दैर्ध्य विष्कम्भो विस्तारः, तयोः समाहोरस्तेन 'बारसजोयणसया पन्नही किंचि विसेमूणा परिक्खेवेणं' द्वादशयोजन शतानि पञ्चषष्टानि पञ्चषष्टयधिकानि किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण । 'से गं एगाए पउमनरयेदियाए सेसं जहा एगोरूयाणं' स खलु हयकर्ण द्वीप एकया पनवर वेदिकया अवशेष यथा एकोरुकाणा यथैव एकोरूक द्वीपे पद्मवरवेदिकाया अनेकविधद्रुमशतावृतवनस्य इनपण्डस्य च वर्णनं कृतं तयैव हयकर्णद्वीपोऽपि पद्मवरवेदिकाया अनेकविधद्रुमोपलक्षितवनस्य वनपण्डस्य च वर्णनं पूर्वव बोध्यम् ॥५॥ आयामविवखंभेणं' लम्बाई एवं चौड़ाई चार सौ गोजन की है। 'पारसजोषणसया पन्नही किंचियिले स्मृणा' परिक्खेदेश' हलकी परीधि कुछ अधिक बारहलो पेंसठ योजन की है। 'खेणं गाए एउपवरचेदियाए अवसेसं जहा एगोरुयाणं' यह द्वीप एक पावर वेदिका से चारों ओर घिरा हुआ है । इत्यादि रूप से सब क्थन इस के वर्णन के सम्बन्ध में जैसा कि एशोरुक द्वीप के प्रकरण में किया गया है वैसाही यह यहां पर कहलेना चाहिये । अर्थात् ग्रह हयसर्णद्वीप भी एक पद्मवरवेदिका एवं अनेक प्रकार के वृक्षो से सुशोभित वन एवं वनषंड से घिरा हुवा है उन बनना एवं बनखंडको वर्णन पहिले कहे गये अनुसार समझ लेना चाहिये। પર્વતની દાઢા આવે છે તે દાઢાની ઉપર જંબુદ્વીપની દિશાના અંત ભાગથી ચાર એજનન અંતરમાં દક્ષિણ દિશાને હયકર્ણ મનુષ્યના હકણું નામ द्वा५ ४हो छे. मादीपनी 'चत्तारि जोयणमयाइ आयामविक्ख'मेणं' मा पडाणा यारसे योननी छ. 'बारस जोयणसया पन्नही किंचिविसेसूणा परिक्खेवेणं' तेनी परिधी ४४४ पधारे मासे पां-४ यानी छ. 'से णं एगाए पउमवरवेइयाए अवसेस जहा एगोंख्याणं' द्वा५ ये प२ हाथी ચારે તરફ ઘેરાયેલા છે. ઈત્યાદિ પ્રકારથી તેનું સઘળું વર્ણન જેમ એકરૂક દ્વીપનું વર્ણન તે પ્રકરણમાં કર્યું છે એજ પ્રમાણે સમજી લેવું. અર્થાત આ હયકર્ણ દ્વીપ પણ એક પાવર વેદિકા અને અનેક પ્રકારના વૃક્ષોથી શોભ યમાન વન અને વનખ ડથી ઘેરાયેલ છે. તે વનનું અને વનખંડનું વર્ણન પહેલાં કહેલ પ્રકારથી સમજી લેવું જોઈએ, Page #713 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ ५.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् ६९१ हयकर्णमनुष्याणां हयकर्णद्वीपं निरूप्य गजकर्गमनु याना गजकर्णहीपं निरूपयितुं प्रश्न यन्नाइ-'कहिणं भने !' इत्यादि, 'कहिण मंते दाहिणिल्लाणं गजकण्णमणुस्साणं पुच्छा' कु-करिनन स्थाने खलु भदन्त ! दाक्षिणात्यानां गजकर्णमनुष्याम्, गजकर्णाख्यो नाम द्वीप: यज्ञप्तः-कथितः ? इति पृच्छया संगृह्य ते, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयला' हे गौतम ! 'आभासियदीवरस' आमाविकनामक द्वीपस्य 'दाहिणपुर तिमिल्लाओ चरिगंनाओ' दाक्षिणपौरस्त्यात आग्नेयकोणस्थितात् चरमान्तात् 'लणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई सेसं जहाहयकण्णाण' लवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतानि शेपं यथा हयकर्णानाम्-आभाषिक द्वीपस्य पूर्वस्मात् चरमान्यात दक्षिणपूर्वस्यां दिशि चत्वारि योजनशतानि लवण. समुद्रमवगाह्यात्रान्तरे क्षुल्लहिणवदंष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् चतुर्योजनशतान्तरे गजकर्णमनुष्याणां गजकर्णद्वीपो नाम द्वीपः प्रज्ञाप्तः, अस्यायामष्किम्भपरिधिपरिमाण हयकर्णद्वीपवत लथाहि-सच चत्वारि योजनशतानि आयामविकम्भेण, द्वादशयोजनशतानि पञ्चपष्टयधिकानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण 'कहि णं भंते' दाहिणिल्लाणं गजकण्ण अणुस्वाणं पुच्छ।' 'हे भदन्त' दक्षिण दिशा के गजकर्ण मनुष्यों का गजकर्ण नामका द्वीप कहां पर है ? इसके उत्तर में प्रभुत्री कहते है 'गोयमा' आभासियदीवस्स दाहिजपुरस्थिशिल्लामओ चरिमंताओ लक्षणसमुदं चत्तारि जोयणसयाइं से सं जहा यकजाणं' हे गौतम आभाषिक द्वीप के आग्नेय कोन स्थित घरपात से लबण समुद्र आगे चाव सौ योजन घुसने पर क्षुद्र हिनधान पईत माता है-इस क्षुद हिमवान पर्वत की दंष्ट्रा के उपर जम्बूद्वीप के वेदिकान्त से चार सौ योजन के अन्तर में गजकर्ण मनुष्यों का यह गजकर्ण नाम का ही कहा गया है। यह छीप चार सौ योजन की लम्बाई चौड़ाई वाला है और कुछ अधिक ___'कहि णं भंते। दाहिणिल्लाणं गजकण्णमणुस्साणं पुच्छा' ७ सन् દક્ષિણ દિશાના ગજકર્ણ મનુષ્યાનો ગજકર્ણ નામને દ્વિીપ કયાં આવ્યું છે? मा प्रश्न उत्तरमा प्रसुश्री गौतमस्वामीने ४९ छे 3 'गोयमा ! आभासिय दीवस्स दाहिणपुरथिमिल्लाओ चरिमताओ लवण समुदं चत्तारि जोयणसयाई सेस' जहा हयकण्णणं' हे गौ म ! सामापिः द्वीपना मसियामा रहेस ચરમાન્તથી લવણમુદ્રમાં ચારસો યોજન જવાથી શુદ્રહિમવાનું પર્વત આવે છે. આ ક્ષુદ્ર હિમાવાન પર્વતની દાઢા ઉપર જમ્બુદ્વીપના વેદિકાતથી ચાર એજનના અંતરે ગજકર્ણ મ ને ગજ નામનો દ્વીપ કરેલ છે. આ દ્વીપ ચા જનની લ ઈ બહેન ઈ વળે છે અને કંઈક ગારો કંઠ જ ન Page #714 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९२ मीवाभिगमसूत्र प्रज्ञप्तः, एवम नेकविधद्रुमोपेतवनस्य पदमबरवे दिशाया वनपण्ड च वर्णनमेको. रुद्वीप नदेव विज्ञेशमिति १६९ ____'एवं गोक्षणमणुस्सा णं पुच्छा' हे भदन्त ! दाक्षिणात्यानां गोकर्णमनुष्याणां गोकर्णनामको द्वीपः प्रज्ञात इति मश्नः, भगवानाह-'गोमा' हे गौतम ! 'वेसाणियदीपस्स' पाणिक (वैशालिक) द्वीपस्य दाक्षिणपच्चस्थिमिल्लाओ चरिमंताओ' दक्षिणपाश्चात्यात् चरमान्तात् चत्वारि योजनशतानि 'सेसं जहा हयभणाण' शेषं सर्व प्रकरणं यथा हयकर्ण मनुष्याणां तथैवात्र निज्ञेयम् तथाहि करणसमयमाह्यान्तरे क्षुल्लाहिमवदंष्ट्राया उपरि जम्बूद्वीप वेदिक्षान्ताद चतुओंजनशलान्तरे गोकर्णमनुष्याणां गोकर्णद्वीपो नापद्वीप: ममता, स च चत्वारि योजनशतानि मायामविष्कम्भेग द्वादशपञ्चपप्ठानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषाधारह सौ पैलट योजन की इसकी परिधि है यदी पर भी एकोरुक द्वीप की तरह एमबर वेदिका है और धनग्यण्ड है इन का वर्णन सब एकोहरु द्विप के जैसा ही है। ___एवं गोकपणमणुस्साणं पुच्छा' 'हे भदन्त' दक्षिण दिशा के गोकर्ण अनुष्यों का गोकर्ण नामका द्वीप शहाँ पर है। इसके उत्तर में प्रनुश्री फाहते है । 'गोयमा' माणियदीवस्त दाक्षिणपच्चथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि जोयणसयाइं सेसं जहा हय क गाणं' हे गौतम वैषाणिक द्वीप के दक्षिण पाश्चात्य चरमान्त से चार सो योजन लवण समुद्र में घुस जाने पर आगत क्षुद्र हिमवान पर्वत की दाढा पर जम्बूद्वीप की वेदिका के अन्त से चार लो योजन के अन्तर में गोकर्ण मनुष्यों का यह गोकर्ण नामका द्वीप कहा गया है। यह द्वीप भी चारलौ योजन का लम्बा चौड़ा है और कुछ अधिक थारह તેની પરિધિ છે અહિયાં પણ એકરૂક દિપની જેમ પાવર વેદિકા છે. અને 'વનખડ છે. તેનું તમામ વર્ણન એકરૂક દ્વીપના વર્ણન પ્રમાણે જ છે. 'एब गोकण्णमणुस्साणं पुच्छा' ॐ साप! इक्षिण हिशाना : મનુષ્યને ગોકર્ણ દ્વીપ કયાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वाभान ४ छ त 'गोयमा ! वेसाणियदीवस्स दाहिणपच्चस्थिमिल्लाओ चरि. म ताओ लवणसमुद्द चत्तारि जोयणसयाइ सेस जहा हयकग्णाणं' है गीतमा વૈષાણિક દ્વીપના દક્ષિણ પશ્ચિમના ચુરમાન્સથી ચારસે જન લવણ સમુદ્રમાં જવાથી ત્યાં આવેલ સુદ્રહિમવાનું પર્વતની દાઢા પર જમ્બુદ્વીપની વેદિકાના અન્તથી ચારસે એજનના અંતરમાં ગોકર્ણ મનુષ્યોનો આ ગોકર્ણ નામનો દ્વિીપ કહેલ છે. આ દ્વિીપ પણ ચારસો જનની લમ્બાઈ પહેળાઈ વાળે છે. Page #715 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयचोतिका टीका प्र.३ ७.३ सू.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् धिकानि परिक्षेषेण प्रज्ञता, हयकर्णद्वीपत्रदेव अत्रापि पद्मवस्वेदिकाया विविध द्रुमशतावदनल्य बनपण्डस्य च वर्णनं कर्तव्यमिति । ___ 'सकुलिकण्णा णं पुन्छ।' कुत्र खलु हे भदन्त ! दाक्षिणात्यानाम् शप्कुली कर्णानां मनुष्याणां शगुली कर्ण द्वीपो नागद्वीपः प्रज्ञप्तः-साथित इति पृच्छया संगृह्यते प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'गांगोलियदीवरस' नाङ्गोलिकद्वीपस्य 'उत्तरपच्चत्यिभिल्लाओ चरिमंताओ' उत्तरपाश्चात्यात् चरमाननाद लक्षण समुई' लवणमाद्रम् 'चत्तारि जोयणस याई' चत्वारि योननशतानि 'सेसं जहा हयगाण' शेष स्थापनानास, अयमर्थ:-नाङ्गोलिकद्वीपस्य पश्चिमोत चरमान्तात उतरपशिमायां दिशि चत्वारि योजनशतानि लवणलमुद्रमबाह्य अत्रा. न्तरे क्षुहिमवत्पदेशोपरि जम्बूद्वीपवेदिकान्सात् चतुर्योजनान्तरे दाक्षिणात्यानां शष्कुलकर्ण नुप्याणां शुष्कुलीकर्णद्वीको नामद्वीप प्रज्ञप्तः । स च शकुल्लीकर्ण सौ पैंसठ योजन की इनकी परिधि है। हथकण द्वीप की तरह यहां पर भी पायरवेदिका और विविध वृक्षों से आवृत हुए धन का और वन षण्ड का वर्णन कर लेना चाहिये। 'सबकुलीगण्णाणं पुच्छा 'हे बदन्त ! दक्षिण दिशा के शकुली कर्ण मनुष्योका जुली कर्ण नामका दीप कहां पर पाहा गया हैं ? इसके उत्तर में श्री कहते है 'गोया' णांगोलियदीवस्त उत्तर पच्चत्थि. मिल्लाको चरिताओ लवणसमुदं चत्तारि जोफणसपाई लेसं जहा हथकण्णा' गौतम ? नाङ्गोलिक द्वीप के उत्तर पाश्चात्य घरमान्त से लवण समुद्र में चार सौ योजन भीतर जो पार भागत क्षुद्र हिमवान पर्वत की दाढा पर जम्बूद्वीप को वेदिका के अन्त मे चारली योजन અને કંઈક વધારે બારસે પાંસઠ જનની તેની પરિધિ છે હયક દ્વીપની જેમ અહીંયા પણ પદ્વવર વેદિકા અને જુદા જુદા વૃક્ષેથી ઘેરાયેલ વનનું અને વનખંડનું વર્ણન કરી લેવું _ 'सक्कुलीकण्णाणे पुच्छा' श्री गौतमस्वामी मा सूत्रांशथी प्रमुश्रीने छ છે કે હે ભગવન દક્ષિણ દિશાના શપ્પલીકર્ણ મનુષ્યને શકુલકર્ણ નામનો દ્વીપ કયાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोयमा ! गंगोलियदीवस उत्तरपच्चस्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुह चनारि जोयणस्याई सेसं जहा यकण्णाण' गीतमा नांगालि द्वीपना सत्तर પશ્ચિમના ચરમાન્તથી લવણ સમુદ્રમાં ચાર ચાજન અંદર જવાથી આવેલ ક્ષુદ્રહિમવાનું પર્વતની દાઢા પર જમ્બુદ્વીપની વેદિકાના અન્તથી ચાર એજનન અંતરમાં દક્ષિણ દિશા શક્લીકણું મનુષ્યોનો શખુલીકર્ણ નામને Page #716 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमस्त्रे द्वीप आयामविष्कम्भेण चत्वारि योजनशतानि द्वादशएश्चपष्टानि योजनशतानि किश्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण, पद्मवरवेदिका वनषण्डमनुष्यादि स्वरूपं च सर्वमपि एकोकोपवज्ज्ञातव्यम् । 'आयसमुहाणं पुच्छ।' आदर्श मुखानां पृच्छा' हे भदन्त ! दाक्षिणात्यानामादर्शमुखमनुष्याणां कुत्र आदर्शमुखनामको द्वीपः प्रज्ञप्तः, इति प्रश्नः, भगवामाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'हयकण दीवस्स' हयकर्ण नामकद्वीपस्य 'उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओं' उत्तरपौरस्त्यात् चरमान्तात् 'पंचजोयणसयाई ओगाहित्ता' पञ्चयोजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य 'एस्थ णं दाहि. जिल्लाणं आयंसमुहमणुस्साण' अत्र खलु दाक्षिणात्यानाम् आदर्शमुखमनुष्याणाम् 'आयसमुहदीवे णामं दीवे पन्नत्ते' आदर्शमुखद्वीपो नासद्वीपः प्रज्ञप्तः 'पंचजोयण. सपाई आयामविक्खं भेणं' स चादशेमुखद्वीपः आयाविष्कम्भेग पञ्चयोजनशतानि के अन्तर में दाक्षिणात्य शष्कुली कर्ण मनुष्यों का शष्कुलीकर्ण नामका द्वीप कहा गया है। यह शकुलीकर्ण डीप चार सौ योजन का लम्बा चौड़ा है। इसकी परिधि कुछ अधिक वारह सौ पैसठ योजन की है। शेष वर्णन एकोक दीप के प्रकरण जैसा जानना चाहिये ? __ 'आयंसमुहाणं पुच्छा' हे भदन्त ! आदर्श मुख मनुष्यों का आदर्श मुख नानको बीप कहाँ पर कहा गया है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है। हे गौतम 'हयकपणदीवस्स उत्तरपुरथिमिल्लाओ परिमं. ताओ पंचयोजणसयाई ओगाहित्ता एत्थणं दाहिणिल्लाणं आयंसमुह मणुस्साणं आयंसमुहदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' हयकर्ण द्वीप के ईशान कोने के घरमान्त से लवण समुद्र में पांच सौ योजन प्रविष्ट होने पर वहां ज्यागत स्थान पर दक्षिण दिशा के आदर्श मुख मनुष्यों का भादशे मुख नामका द्वीप कहा गया है। यह द्वीप 'पंचजोयणसयाई દ્વીપ કર્યો છે આ શખુલીકર્ણદ્વીપ ચાર જનની લમ્બાઈ પહોળાઈ વાળે છે. તેની પરિધિ કઈક વવારે બારસો પાંસઠ એજનની છે. બાકીનું વર્ણન એરૂક દ્વીપના પ્રકરણ પ્રમાણે સમજવું. 'आयसमुहाणं पुच्छा' 8 सन् माइश भुम मनुष्यानो माइश भुम નામને દ્વીપ ક્યાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે छे 'गोयमा ! हयकण्णदीवस्व उत्तरपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ पंचजोयणसयाई ओगाहिता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं अयंसमुहमणुस्साणं आयंसमुहदीवे णाम दीवे पण्णत्ते' ६ गीतमा दी५ शान भूएनय२मान्तथी सवसमुद्रमा પાંચસો જન પ્રવેશ કરવાવી ત્યાં આવેલ સ્થાન પર દક્ષિણ દિશાના આદર્શ मनुष्यानो माइश भुम भने। दी५ हो . ! दीपनी 'पंच जोयण सयाई Page #717 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.४४ रुयकर्णद्वीपनिरूपणम् प्राप्तः अयं भावः एतेषां हयकर्णगजकर्णगोकर्णशष्कुलीकर्णानां चतुर्णा द्वीपानां परतो यथाक्रमम् उत्तरपौरस्त्य-दक्षिणपौरस्त्य दक्षिणपाश्चात्य विदिक् चरमान्तात् पञ्चयोजनशतानि लवणसमुद्रमवगाध पश्चयोजनशतायामविष्कम्भा एकाशीत्यधिक पञ्चदशयोजनसतपरिक्षेपाः पद्मवरवेदिका वनषण्डमण्डित बाह्यप्रदेशा जम्बूद्वीप वेदिकान्ताव पञ्चयोजनशनममाणान्तरा आदर्शमुख-मेण्दमुखाऽयोमुखनामान चत्वारो द्वीश वक्तव्याः, तयाहि-हयकर्ण द्वीपस्य परत आदर्शमुखो द्वीपः १, गजकर्णद्वीपस्य परतो मेंण्मुखो नामद्वीपः२, गोकर्णद्वीपस्य परतोऽयोमुखो नाम द्वीपः ३, शष्कुलीकर्ण द्वीपस्य परतो गोमुखनामको द्वीपो दर्तते ४ । अत्रआयाम विवखंभेणं' लम्बाई और चौड़ाई में पांच सौ योजन का है। 'आयंसमुहाइणं छ सया' आदर्श मुख आदि द्वीपों का छ सौ योजन का अवगाहन लवण समुद्र में है। इस कथानका तात्पर्य ऐसा है-हयकर्ण गजकर्ण गोकर्ण और शष्कुलीकणं इन चारों द्वीपों के बाद जो उत्तर पौरत्यादि विदिशाओं के चरमान्त से पांच पांच सौ योजन लक्षण समुद्र के अवगाहन से आदर्श मुख, मेढ़मुख, अयोमुख और गोमुख नाम के द्वीप है वे पांच पांच सौ योजन के लम्बे चौडे हैं । इनकी परिधि का प्रमाण पन्द्रह सौ इक्यासी योजन का है। ये सव द्वीप पावर वेदि. काओं एवं वन खण्डों से मण्डित बाह्य प्रदेशों वाले हैं तथा जम्बद्रीप की वेदिका के अन्त ले पाँचसो योजन के अन्तर में ये व्यवस्थित है इसतरह-हयकर्ण द्वीप से आगे आदर्श मुख द्वीप हैं, गजकण से आगे मेढमुख द्वीप है. गोकर्ण द्वीप से आगे अयोमुख द्वीप है। और शकुलीकर्ण से आगे गोमुख द्वीप है। इसी तरह इन आदर्श मुख आयामविक्खभेग' मा पडणारा पांयसे। योगननी छे. 'आयसमुहाणं छसया' આદર્શમુખ વિગેરે દ્વીપનું અવગાહન લવણ સમુદ્રમાં છે સો યોજનાનું છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે હયકર્ણ, ગજકર્ણ, ગોકર્ણ અને શ. કુલીકણું આ ચારે દ્વીપની પછી જે ઉત્તર પરિરત્યાદિ વિદિશાઓના ચરમાતથી પાંચ પાંચસો જન લવણ સમુદ્રમાં અવગાહન કરવાથી આદર્શમુખ મેઢમખ અમુખ અને મુખ નામના દ્વીપ છે તે બધા પાંચ પાંચસો જનની લંબાઈ પહોળાઈ વાળા છે. તે બધાની પરિધિનું પ્રમાણ પંદરસે એક્યાસી જનનું છે. આ બધા દ્વિીપે પદ્મવર વેદિકાઓ તથા વનખંડથી મંડિત બાહ્ય પ્રદેશ વાળા છે. તથા જબદ્રીપની વેદિકાના અંતથી પાંચસે લેજના અંતરમાં વ્યવસ્થિત છે. આ રીતે હકણું ઢીપની આગળ આદર્શમુખ દ્વીપ છે ગજકર્ણ દ્વીપની આગળ મેઢમુખ દીપ છે. ગોકર્ણદ્વીપની આગળ અસુખ દ્વીપ છે. અને શમ્ફલીકર્ણની આગણ ગોમુખ દ્વિીપ છે. એ જ પ્રમાણે આ આદર્શરુખ Page #718 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमने आदर्शमुखद्वीपस्य अ लापका सूत्रे एर प्रदर्शितः, शेपाणां त्रयाणां मेदा खायोमुख गोमुखानामालापकपकारः स्वयमहनीय इति । ___ 'आसमुहाई णं छ सया' अश्वमुखादीनां चतुर्णानसमुख हस्तिमुखसिंहमुख व्याघ्रमुखद्वीपानां पइयोजनशतानि अवगाहनं लवणसमुद्रमध्ये ज्ञातव्यम् । अय :- एतेपामादर्शमुखमेण्मुखायोमुखा मुखद्वीपानां एरतो भूयोऽपि यथाक्रमम् उत्तरपौरस्त्य-दक्षिगपौरस्त्य-दक्षिगपाश्चात्योत्तरपाश्चात्यविदिक् चरमान्तात् प्रत्येकं षट् षट् योजनशतानि लवणसमुदमरगाह्य पढ्योजनशतायामविष्कम्भाः सप्पननत्यधिशष्टादशयोजनशतपरिक्षेपाः पदमवरवेदिका वनपण्डमण्डितबाह्यपदेशाः जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् पयोजनशतममाणान्तरा अश्यमुखहस्तिमुखसिंहमुख शत्रनुखनामकाश्चत्वारो द्वीपा भवन्तीति वत्तदाः तयाहिआदर्शमुग्वद्वीपरय परत':मु बनामको द्वीशे सवतिया-मेण्टमुखद्वीपस्य परतो. हस्तिमुखनामको द्वीपो भवति, तथा-गयोमुख द्वीपस्य परतः विहमुखनाम को द्वीपो भवति तथा गे मुखदीपस्थ परलो व्याघ्रमुखनामको द्वीपो भवति इति ।। द्वीपादिकों से आगे यथाफल से उत्तरपौरस्त्यादि विदिशाओं के चरमान्त से लथण समुद्र में छ छ सौ योजन पर अश्वमुख हस्तिमुख, सिंह मुख, और व्याघ सुन नान के द्वीप है, ये प्रत्येक छनौ छ सौयोजन के लम्बे चौडे घताये गये है। इन सब की प्रत्येक की परिधि अठारह सौ सतानवे-१८१७-योजन भी है। जम्बूदीप की वेदिका के अन्त से इनका रन्तर का प्रमाण ६ सौ योजन का है. इस तरह आदर्शमुख द्वीप से आगे अश्वमुग्त्र द्वोप है. मेहनुख द्वाप ले भागे हरितमुख द प है। अयोमुख द्वीप से आगे निद मुग्व द्वीप है और गोमुखले आगे व्याघ्रमुख द्वाप इन द्वीपों से भी आगे और भी चार द्वीप है जो વિગેરે દ્વીપની આગણ કમાનુસાર ઉત્તર પૌરાદિ વિદિશાઓના ચરાતથી લવણ સમુદ્રમાં છેસે છસો યે જન પર અશ્વમુખ, હસ્તિમુખ. સિહમુખ અને વ્યાઘમુખ નામના પિ છે તે દરેક છસો સો જનની લબઈ પહોળાઈ વાળા છે તે બધાની એટલેકે દરેકની પરિધિ અઢારસે સત્ત શુ જનની છે જબૂદીપની વેદિકાના અંતથી તેમના અંતરનું પ્રમાણ છસો જનનું બતાવેલ છે. આ રીતે કમથી આદર્શમુખ દ્વીપની આગળ અશ્વમુખ દ્વીપ છે. મેઢમુખ દ્વીપની આગળ હસ્તિમુખદ્વીપ છે, અમુખદ્વીપની આગળ સિંહમુખ દ્વીપ છે. અને ગેમુખદ્વીપની આગળ વાઘસુખદ્વીપ છે. આ ક્રિપોથી પણ આગળ બીજા પણ ચાર દીપે છે. જે ઉત્તર પરિત્યાદિ ચરમાન્સથી લવણ Page #719 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ७.३ ४.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् 'आसकणाई णं सत्त' अश्वकर्मादीनां सप्रयोजनशतानि अवगाहनं लवणस. मुद्रे । अयं भावः अश्वमुखादीनां चतुर्णागश्वमुखहस्तिमुखसिंहमुख व्याप्रमुखानां दीपानां परतो यथाक्रमम् उत्तरपौरस्त्यादि चरमान्ताव प्रत्येकं सप्तसप्तयोजनश. तानि लवणसमुद्र मक्याह्य सप्तयोजनायामरिष्कम्भा. प्रयोदशाधिक द्वाविंशतियो. जनशतपरिरयाः पदमवरवेदिका वनषण्डमण्डितबाह्यप्रदेशाः जम्बूद्वीपवेदिकान्तात् सप्तयोजनशतप्रमाणान्तरा अकर्ण सिंहककर्णकर्णप्रावरण नामकाश्चत्वारो द्वीपा भवन्तीति ज्ञातव्याः, तथाहि-भइमुख नाम द्वीप परतोऽश्वकर्णनामको द्वीपो भवति तथा-हस्तिमुखद्वीपस्य परत: सिंहकर्णनामको द्वीपो भवति, तथा-सिंहमुखद्वीपस्य परतोऽकर्ण नामको द्वीपो भवति, तथा-व्याघ्रमुख नामक द्वीपस्य परतः कर्णधावरण नामको द्वीपः, एते द्वीपाययोक्तायामविष्कम परिरयगुता भवन्तीति ॥ ___ 'उकामुहाई णं अट्ठ' उल्कामुखादीनाम्--उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख विद्यु. दन्तनामकानां चतुर्णा द्वीपानामष्टयोजनशतानि अचमाहनं लरणसमुद्रे, अयं भाव:उत्तर पौररमादि घरमान्त ले लक्षण समुद्र में सात साल सो योजन जाने पर आते है इनकी लम्बाई चौडाइसात सात सौ योजन की है और परिधि का प्रमाण प्रत्येक को वाईस सौ तेरह-२२१३ योजन का है जम्बूद्वीप की बेदिका के अन्त से इनका सात सौ योजन का अन्तर हैं । इस तरह अचानुव दीप से आगे अश्व कर्ण द्वीप है इस्तिमुख से आगे सिंह कर्णद्वीप है, सिंहमुख से आगे अकर्णदीप और घाघ्रमुख से आगे फर्ण प्रापरण द्वीप है यही बात 'आसफणाई सत्त' इस नून पाठ द्वारा स्पष्ट की ये सव अश्वशादिक चारों डीप पावर वेदिकाओं और वनखण्डों से मंडित वाद्य प्रदेशों वाले है। 'वकामुराइणं अg' उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख और उत्तर સમુદ્રમાં સાત સાત જન દૂર જવાથી આવે છે. તેમની લંબાઈ પહોળાઈ સાતસો સાત જન છે અને દરેકની પરિધિનું પ્રમાણ બાવીસસો તેર જનનું છે. જે બૂઢીપી વેદિકાના અંતથી તેમનું સાત જનનું અંતર છે. આ રીતે અશ્વમુખદ્વીપની આગળ અશ્વકર્ણદ્વીપ છે. અતિમુખની આરાળ સિંહકર્ણદ્વીપ છે. સિંહમુખીપની આગળ અકર્ણદ્વીપ છે અને વ્ય શમુખની मा ४ प्रावर दीप छे. ो वात 'आपकण्णाईणं मन' मा सत्रा દ્વારા સ્પષ્ટ કરેલ છે. આ અશ્વકર્ણાદિ ચારે ડીપ પાવર વેદિકાઓ અને વનષથી ભાયમાન બાહ્યપ્રદેશવાળા છે. 'उक्कामुहाईणं अट्ठ' Grभुम, भेषभुम, पिधुन्भुम भने उत्तर पौरस्त्यना सी० ८८ Page #720 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६९८ जीवामिगम एतेषामश्वकर्णसिंहकणाकणकर्णमावरणनामकद्वीपानां चतुर्णा परतो यथाक्रमम् उत्तरपोररत्यादि विदिक्चरमान्वा प्रत्येक मष्टौ अष्टौ योजनशतानि लवणसमुद्रमवगायाष्टयोजनशतायामविष्कम्भा एकोनत्रिंशदधिक पञ्चविंशति योजन शतपरिक्षेपाः पद्मवर वेदिका बनपण्डमण्डित बाह्यप्रदेशाः जम्बूद्वीपवेदिकान्ताद् अष्टयोजनप्रमाणान्तरा उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख विद्युदन्ताभिधानाचत्वारो द्वीपा भवन्तीति ज्ञातव्याः, तयादि-अश्वकर्णद्वीपस्य परत उल्कामुखो द्वीपो भवति, तया-सिंहकर्णद्वीपस्य परतो मेघमुखद्वीपनामको द्वीपो भवति, तथाअकर्णनामक द्वीपस्य परतो विद्युन्मुखनामको द्वीपो भवति, तथा-कर्णमावरण द्विपस्य परतो विद्युदन्तनामको द्वोपो भवतीति ।। 'घणदंताई णं जाव णव जोयण सयाई' घनदन्तादीनां यावनगयो जनशतानि, अयं भाव'उल्कामुखादीनां चतुर्णाय् उल्कामुख मेवमुख विद्युन्मु व विद्युहन्तनामकान द्वीपानां परतो यथाक्रमम् पौरस्त्यादि चरमात से विद्युदन्त नाम के जो चार द्वीप है वे आठ आठ सौ योजल की लम्बाई चौड़ई वाले हैं लवण समुद्र में आठ आठ सौ योजन आगे जाने पर से आते है हनी प्रत्येक की परिधि का प्रमाण २५२९ पचीससी उतील शेजन का है। ये भी बच द्वीप पद्मवर वेदिका और बनखण्ड ले मंडित याद्य प्रदेशों वाले जम्बूदीपकी वेदिका के अन्त से इनका अन्तर आठलो शोजनका है इस प्रकार अवकणे से आगे उत्तर पौररत्यादि घरमान्त ले श्रास ली योजन लवण समुद्र में जाने पर उल्कामुख द्वीप है मिह मण से आगे आठ सौ योजन लवण समुद्र में जाने पर मेघमुख द्वीप कर्ण से भागे आठ सौ योजन लवण समुद्र में जाने पर विद्युन्सुख द्वीप है और कर्णप्रावरण से आगे आठ सौ पोजन लवणसमुद्र में जाने पर विद्यहन्त द्वीप है. 'घणदंताईणं जाव गोषणस्थाह' इसी तरह उल्झामुखादि चार ચરમાન્તથી વુિદ્દત્ત નામના ચાર દ્વિપ છે. તે બધા આઠ જનની લંબાઈ પહેળાઈ વાળા છે. તે દરેકની પરિધિતું પ્રમાણ ૨૫૨૯ બે હજાર પાંચસે. ઓગણત્રીસ જનનું છે. તે બધા દ્વીપ પણ પાવર વેદિકા અને વનખંડથી છે શોભાયમાન બાહોશ વાળા છે જબૂદ્વીપની વેદિકાના અંતથી તેમનું અંતર આઠસો જનનું છે. આ રીતે અશ્વકર્ષથી આગળ ઉત્તર પૌરત્યાદિ ચરમાન્તથી આઠસે જન લવણ સમુદ્રમાં જવાથી મેઘમુખ દ્વીપ આવે છે. અકર્ણ હીપની આગળ આઠસો યેાજન લતણ સમુદ્રમાં જવાથી વિદ્યમુખદ્વીપ આવે છે અને કર્ણપ્રાવરણદ્વીપથી આઠસો ચેન લવણ સમુદ્રમાં જવાથી વિદ્યન્ત નામને દ્વીપ આવે છે. 'घणदताईणं जाव णव जोयण सयाई १ शत भुभ विगेरे Page #721 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ सु. ४४ हथकर्णीपनिरूपणम् ६९९ उत्तरपौरस्त्यादि चिदिक वरसान्ताद प्रत्येकं नव नव योजनाठावि लवणनमुद्रसवगाय नवनवयोजनशतायामविष्कम्भाः पञ्चचत्वारिंशदविकाष्टाविंशवियोजनशतपरिक्षेषाः पदमवर वेदिका चनपण्डसमुल्लसित वाह्यप्रदेशाः जम्बूदी १ वेदिकान्तान् नवयोजनशतममाणान्तरा घनदन्तलष्टदन्तगृह दन्तयुद्धदन्तनासानथत्वारो द्वीपा भवन्तीति । तथाहि - उल्कामुख द्वीपस्थ परतो घनन्तनामको द्वीपो भवति तथामेघमुख नामक द्वीपस्य परतो लष्टदन्तनामको द्वीपो भवति तथा विद्युन्मुखनामक द्वीपस्य परतो गूहन्नामको होपो भवति, तथा विद्युद्दन्तनानक द्वीपस्य परतः शुद्धदन्तनामको द्वीपो भवतीति । अत्रैको रुकादोना सन्तरद्वीपानामवगाहनामा - यामविष्कम्भं च मदव, सम्मति तेषां परिक्षेपपरिमाणं गायया प्रदर्शयति 'एयोcurredat' इत्यादिएकोरुकपरिक्षेप इति एकोरुकादीनाम् - एकोरुका भापिक वैषाणिकनाङ्गोलिकानां चतुर्णा द्वीपानां प्रथपचतुष्कस्येत्यर्थः परिक्षेपः- परिधिः 'नवचेव सयाई अरुण पन्नाई' नवचैव शतानि एकोनपञ्चाशानि, एकोनपञ्चा द्वीपों से आगे यथाक्रम से उतर पौरस्त्यादि विदिशाओं की चरमान्त से नौ नौ सौ योजन लवण समुद्र में आगे जाने पर नौ नौ सौ योजन के लम्बे चौडे एवं आठाईस सौ पैतालीस - २८४५ योजन की परिधि वाले तथा पद्मवर वेदिका और वनखण्ड से मंडित पाह्य प्रदेशों वाले घनदन्त, लष्टदन्त, गूढदन्त और शुद्धदन्त नाम वाले चार द्वीप है इस तरह उल्कामुख से आगे नौ सौ योजन लवण समुद्र में जाने पर घनदन्त द्वीप है. मेवमुख ले आगे लौ योजन लवण समुद्र में जाने पर लष्टदन्त द्वीप है द्युन्मुख से आगे नौ नौ योजन लक्षण समुद्र मैं जाने पर गूढदन्त ही हैं एवं विशुदन्त से आगे नौ सौ योजन लवण समुद्र में जाने पर शुद्धदन्त द्वीप है । यह एकोरुकादि अन्तर द्वीपों की अवगाहना तथा आयाम विष्कम्भ कहकर अब उनका परिक्षेप कहते ચાર દ્વીપાની આગળ કમાનુસાર ઉત્તર પૌરસ્ત્યાદિ વિદિશાઓના ચરમાન્તથી નવસે નવસા યેાજન લવઘુ સમુદ્રમાં આગળ જવાથી નવસેા નવસે ચાજન લખાઈ પહોળાઈ વાળા તેમજ ૨૮૪૫ અઢયાવીસ સે। પિસ્તાળીસ ચેાજનની પરિધિવાળા તથા પાવર વેદિકા તથા વનખંડથી સુશેાભિત ખાદ્ય પ્રદેશવાળા ધન‰ન્ત, લષ્ટન્ત. ગૃદન્ત અને શુદ્ધદન્ત નામના ચાર દ્વીપા છે. એજ પ્રમાણે ઉલ્કામુખની આગળ નવસે ચેાજન લવણુ સમુદ્રમાં જવાથી લષ્યવ્રુન્ત દ્વીપ આવે છે. વિદ્યુત્સુખની આગળ નવસેા ચાજન લવણુ સમુદ્રમાં જવાથી ગૂઢદન્ત દ્વીપ આવે છે. તથા વિદ્યુĚન્તથી આગળ નવસેા ચેાજન લવણુ સમુદ્રમાં જવાથી શુદ્ધ દન્તદ્વીપ આવે છે. આ પ્રમાણે એક વિગેરે અન્તર દ્વીપાની વગાહના તથા તેના Page #722 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Goo जीवामिगमसूत्र शदधिकानि नव योजनशतानि (९४९) एकोनपश्चाशदधिक नव योजनपरिमितः परिधिरेकोरुकादि द्वीपानां चतुर्णा भवतीति। अतोऽग्रे प्रत्येकस्मिन् चतुपके पूर्व-पूर्व चतुष्कपरिधिममाणे पोडशाधिके नियते प्रक्षिप्तेऽग्रेवन परिधिपरिमाणं समायाति तत् आह-'वारसपण्णढाई हपकण्णाईण परिक्खेवो' हयकर्णादीनां-हयकर्ण-गोकर्ण-शकुळीकर्णानां द्वितीय चतुष्कगतानां चतुगी द्वीपानां परिक्षेपः-परिधिः द्वादशयोजनशतानि पञ्चपष्टय. धिका (१२६५) पश्चपष्टयधिक द्वादशशतयोननपरिमितः परिधिः हयकर्णादीनां चतुर्णा द्वीपानां भवतीति ।।१।। 'आयसमुहाईणं पन्नरसेकासीए जोयणसए किंचित्रिसेसाहिए परिषखेवेणं आदर्शमुखादीना मादर्शमुखमेण्द्र ग्वादयोमुख गोमुख द्वीपानाम् एकाशीत्यधिक पश्चदश योजनतानि १५८१ किञ्चिद्विशेषाधिकानि परिक्षेपेण 'एवं एएणं कमेणं उवउंजिऊण णेयमा, चत्तारि चत्तारि एगप्पमाणा' एवमेतेन उपर्युक्तक्रमेण पूर्वोकावगाहना-विष्कम्मपरिधिश्माणरूपेण उपयुज्य प्रत्येक चहष्कगता श्चत्वार चत्वारः परसारमेकप्रमाणा नेहव्या ज्ञापार, यथा एफस्मिन् चतुष्के आधद्वीपस्य यद् अवमाहना-विष्कम्मपरिधिपरिमाणं भवति तदेव परिमाणं शेपाणां त्रयाणां द्वीपानां भवति चतुर्णामेक प्रमाणत्वं बोध्यम् । है 'एगोरुय परिक्खेयो' इत्यादि, 'एगोख्य परिक्खेवो' एकोरुक आदि चार द्वीपों का परिक्षेप नौ सौ गुनचास-९४९ योजन का है हयकणे आदि द्वीपों का परिक्षेप प्रमाण 'धारसपनहाई' बारह सौ पैंसठ १२६५ योजन का है 'आयंसमुहादीणं' आदर्शमुख आदिकों का परिक्षेप प्रमाण 'पन्नरसेकासीए जोयणसए' पन्द्रह सौ इक्यासी १५८१ योजन का है. परिधि के प्रमाण को यहाँ से सर्वत्र वह कुछ विशेषाधिक है ऐसा समझना चाहिये 'एवं एलेणं कमेण उपजिऊण यन्वा चतारि२ गप्पमाणा' इस क्रम से जोड़कर चार चार द्विपों का प्रमाण परस्पर माया qिcxyहीन हवे तना ५६५ ४ामा भाव 2. 'एगोरुय परिक्खेको' |३४ विगेरे यार दीवान। परिक्ष५ नपसे। योगगुपयास ८४८ योनी छे. या विगेरे दीयाना परिक्ष पर्नु प्रभा 'बारसपन्नवाई' पारसे। पास ये ननु छे. 'आयसमुहादीण' भाइश भु५ विगैरे दीवाना परिक्षेनु प्रभार 'पन्नरसेकासीए जोयणसए' १५८१ ५६से सयासी याननु छ. तथा परिधिनु प्रमाण लिथी मधे ते ७ विशेषाधित छ तेम सा. 'एवं एएणं कमेणं उवऊ जिऊग णेयव्वा चत्तारि चत्तारि एगप्पमाणा' २५॥ म प्रमाण મેળવીને ચાર ચાર દ્વીપનું પ્રમાણ પરસ્પર સરખું સમજવું. Page #723 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ सू. ४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् ७०१ 'णाणते' नानात्वं परस्परं भेदस्तु चतुष्कमपेक्ष्य भवति कुत्र कुत्रेत्पाद - 'गाe farjin परिखेये' अवगाहे विष्कम्भे परिक्षेपे, तथाहि एकचतुष्कापेक्षयाऽन्यान्य चतुष्केषु प्रत्येकमेकैकशतयोजनवृद्धवा - अवगाहनाऽऽयामविष्कम् परिमाणं भवति, परिधिपरिमाणं तु पोडशोत्तर त्रिरात (३१६) योजनहृद्धया प्रत्येक चतुष्के भवतीत्येतदेव नानात्वमत्रेति । तदेव दर्शयति- 'पढमवीय' इत्यादि, 'पदवीय तह चक्काणं उग्गहो विक्खनो परिक्खेवो मणिओ' मथम द्वितीय तृतीयचतुष्काणाम् अवग्रहः अत्रणाहना विष्कम्भः परिक्षेत्रः सूत्रे एवं भणित:कथितः, अन्यत् प्रदर्श्यते = 'चउत्थ - चउक्के' इत्यादि, 'चउत्थचउक्के छ जोयणसवाई आपासचिव मेणं' चतुर्थचतुष्के पयोजनशतानि आयामविष्कम्भेणदेयविस्ताराभ्यां पयोजनशतममाणक चतुर्थ चतुष्को भवति । 'अहारसत्ताणउत्ते जोयस' सप्तनवत्यधिकाष्टादशयोजनशतानि । (१८९७) परिक्षेपेण द्वीपा भन्Pata Haran सत्तजोगणसयाई आयाम विक्खभे।' पञ्चमचतुष्के सप्तसमान ही समझना चाहिये 'णाणतं भगाहे, विक्खंभे, परिक्खेवे' इस तरह के कथन से यह भली भांती समझ में आ जाता है, कि अवगाह में विष्कम्भ में और परिक्षेप में प्रत्येक की अपेक्षा से नानात्व भिन्नता है इस में प्रथम द्वितीय तृतीय चतुष्कों का अवगाह-आयाम विष्कम्भ और परिक्षेष को लेकर यहां सूत्र से ही स्पष्ट कर दी है 'यही वान' पदमपीयलक्ष्य चक्काणं उग्गहो विक्खं यो परिक्खेवो भणितो ' इस सृत्रद्वारा सूर कारने समझा है । 'चत्रत्थचउक्थे' चतुर्थ चतुष्क में 'छजोयणमयाह' आयाम विक्खंमेण अहारलालबते जोयणसते परिक्लेवेणं' चौथे चतुष्क के अश्वमुखादि द्वीपों की लम्बाई चौड़ाई छह मौरोजन की है और परिधि अठार सौ सतानवे - १८९७ योजन से 'णाणत्तं ओगाहे, 'विक्खंभे, परिक्खेवे' | अभार्थना स्थनथी से सारी रीते સમજાય જાય છે કે અવગાહનામાંવિક ભ્રમાં, અને પરિક્ષેપમાં દરેકની અપેક્ષાથી જુદાપણું આવે છે. તેમાં પહેલા બીજા, ત્રીજા અને ચેાથાના અવગાહુ આયામ વિષ્ણુભ અને પરિક્ષેપને લઈને અહીયાં સૂત્રમાંજ સ્પષ્ટતા કરી છે. એજ वात 'पढम बीया तइय चउक्काणं उग्गहो, विक्खभो, परिक्खेवो भनियो' मा સૂત્રપઠથી સૂત્રકારે સમજાવેલ છે. 'चरत्थ चक्के' थोथा तुष्टुभा'छ जोयणसयाई आयाम विक्ख भेणभारत जोयसर परिक्खेवेणं याथा तुष्णुना अश्वभु विगेरे द्वीपो ની લખાઇ પહેાળાઇ સે। છસો ચેાજનની છે. અને પરિઘ ૧૮૯૭ અઢારસે सत्ता योनी ४४४ वधारे ले. 'पंचम चउक्के सत्त जोयणसयाई आयाम Page #724 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७.२ जीवामिगमले योजनशतानि आयाविष्कम्भेण द्वीपा भवन्ति, 'बावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं' त्रयोदशोत्तर द्वाविंशतियोजनशतानि परिक्षेषेण द्वीपा भवन्ति । 'छट्ट चउक्के अट्ठजो यणसयाइ आयामविवखंभेग' पाठ चतुष्केऽष्टयोजनशतानि आयामविष्कम्भेण द्वोश भवन्ति, तथा-'पणवीसंगूणतीसजोयणसए परिक्खेवेणं' एकोनत्रिंशदधिक पश्चविंशतियोजनशतानि परिक्षेपण । 'सत्तरचउक्के नवजोयणसयाई आयामरिक्खभेगं' सप्तमवतुके नवयोजनसतानि आयामविष्कम्भेण, तथा-'दो जोरणसहस्साई अट्ठपणवाले जोयणसए परिक्खेवेणं' द्वे योजनसहसे पञ्चचत्वारिंशदधिकानि अष्टयोजनशतानि (२८४५) परिक्षेपेण द्वीपा भवन्ति । अथ सर्वेषां चतुष्काणामगाहनाविष्कम्भ पदिधिपरिमाणज्ञानार्थ गाथामाह'जस्स य जो' इत्यादि, 'जस्स य जो दिक्खंभो' यस्य चतुष्कस्य यो यावत्परिमितो कुछ अधिक है 'पंचम्मच धक्के सत्तजोयणसथाई आयामविक्खंभेणे घाचीसं तेरसोत्तरे जोयणलए परिक्खेवेणं पंचम चतुष्क में अर्श्वकर्ण आदि द्वीपों की लम्बाई चौडाह सात सौ योजन की है । और परिक्षेप कुछ अधिक बाइस सौ तेरह-२२१३ योजन का है 'छह चउक्के अट्ट जोयणसयाई आयामविकावंभेणं पणवीसंगुणतीस जोधणसए परिक्खेवेणं' छठे चतुष्क में उल्कामुख आदि द्वीपों की लम्बाइ चौड़ाई आठ सौ योजन की है और परिक्षेप कुछ अधिक पचीस सौ गुनतीस २५२९ योजन का है 'सत्तमचउके नव जोयणसचाई आयाम विक्ख भेणं दो जोयणसहस्साई अट्ठ पणयाले जोयणलए परिक्खेवेणं' छठे चतुष्क में लम्बाई चौडाई नौ सौ योजन की है और परिक्षेप कुछ अधिक दो हजार आठ सौ पैंतालीस-२८४५ योजन का है। यहां इस विषय में गाथा 'जस्म जो विक्खं गे ओगाहो तल तत्तिओ चेव' विखंभेग बावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिवखेवण' पांयमा यतुभ मश्व કર્ણ વિગેરે દ્વીપની લ બાઈ પહોળાઈ સાતસો જનની છે. અને પરિક્ષેપ Us qधारे २२१३ मावीससे ते२ योनिने छे. 'छ? चउक्के अट्ट जोयणसयाइ आयाम वे खम्भेगं पगवीस गुणतीमजोयणसर परिक्खेवेणे' ७४! यतु मां ઉલકામુખ વિગેરે દ્વીપની લંબાઈ પહોળાઈ આઠ જનની છે. અને પરિ. ३५ ४४ पधारे ५२योससे सगात्रीस २५२८ योगननाछे. 'सत्तम चउक्के नवनोयण सयाई ओयामविक्खंभेणं दो जोयणसहस्साई अटू पणशले जोयणसए परिक्खेवेग' सतमा यतुम मा पहा नपसे। याननी छ भने પરિક્ષેપ કંઈક વધારે ૨૮૪૫ બે હજાર આઠસો પિસ્તાળીસ જનને છે. मा समयमा म प्रमाणनी गाथा ४९ छे. 'जस्स जो बिक्खंभो ओगाहो Page #725 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू.४४ हयकर्णद्वीप निरूपणम् ७०३ विष्कम्भः- आयामविष्कम्भो भवति 'तस्स तत्तियो चेव ओगाहो' तस्य चतुष्क स्याऽवगाहस्तावत्क एव भवति । तत्र 'पढमाईण परिरओ' प्रथमादीनां चतुष्काणां यावरपरिमितः परिरयः - परिधिर्भवति 'सेसा णं जाण अहिओ' शेषाणां प्रथमादि*पोऽग्रेऽयेतनानां परिरयोऽधिको भवति, अयं भावः - पूर्वपूर्वपरिश्यपरिमाणे उत्तरोत्तरपरियपरिमाणं प्रत्येकं षोडशोत्तरत्रिशत प्रक्षेपेणाधिकं भवतीति ' जाण' जानीहि । 'सेसा जहा एगोरुपदीवस्स' शेषः = अवशिष्टा वक्तव्यता यथा - येनप्रकारेण एकोरुद्वीपस्य कथिता तथैव सर्वेषां द्वीपानां ज्ञातव्येति । कियत्पर्यन्तमित्याह - 'जात्र सुद्धदंत दीवे' यावत् द्वितीयचतुष्कगत ह्यकर्ण द्वीपादारभ्य सप्तमचतुष्कगताऽष्टाविंशतितमशुद्ध दन्तद्वीपपर्यन्तम् एकोरुकद्वीपवद् ज्ञातव्यमितिभावः । एतेषामेव द्वीपानामवगाहायामविष्कम्भपरिरय (परिक्षेप) परिमाणसंग्रह गाथा आह अर्थात् जिस चतुष्क का जितना विष्कम्भ है उस चतुष्क की उतनी ही अवगाहना है 'पढमाइयाण परिरओ जान से माणअहिओड' प्रथम आदि चतुष्कों का परिक्षेप जितना कहा गया है उनके परिक्षेत्र प्रमाण में अधिकता होती जाती है इसका तात्पर्य यह है कि पूर्व पूर्व के चतुष्क के परिधि परिमाण में प्रत्येक में तीनसौ सोलह मिलाने से आगे का परिधि परिमाण अधिक अधिक होता जाता है यही भाव 'पढमाइयाणपरिरओ, सेसा णं जाण अहि. ओउ' इस गाथार्द्ध से प्रकट होता है 'ऐसा जहा एगोरूपदीवस्स जाव सुद्धदन्तदीवे' शेष सब द्वीपों की वक्तव्यता एकोरुक द्वीप के जैसी समझ लेनी चाहिये, अठाइसव शुद्धदन्त द्वीप तक इन द्वीपों के अवगाह आयाम विष्कम्भ, और परिश्य परिधि - इनके परिमाण की संग्रह गाथाएं तस्स तत्तिओ चेव' अर्थात् २ यतुष्ना नेटसेो विष्ल हे, ते यदुनी खेटली गाना है. 'पढमाइयाण परिरओ जाण सेसाण अहिओउ' पडेसा विगेरे ચતુષ્કના પરિક્ષેપ જેટલા કહેલ છે, તેના પરિક્ષેપ પ્રમાણમાં અધિકપણું થતું જાય છે. આનુ તાત્પર્ય એ છે કે પહેલાના ચતુષ્કની પરિધિના પરિમાણુમાં દરેકમા ૩૧૬ ત્રણસે સેાળ મેળવવાથી આગળની પરિધિનું પરિમાણુ વધારે વધારે तु लय छे, शेन लाव 'पढमाइयाण परिरओ सेसाणं जाण अहिओउ' भा गाथार्थथी भाय छे. 'सेना जहा एगोरुयदीवस्स जाव सुद्धदत दीने' शेष अधा દ્રીપેાનુ` કથન એકેક દ્વીપના કથન પ્રમાણેનુ સમજી લેવુ' અઠયાવીસમા શુદ્ધદત દ્વીપ યન્ત માદ્વીપની અવગાહના, આયામ, વિષ્ણુભ અને પરિ२५ परिधिना परिभाषनी संग्रह गाथाओ मा प्रभा हे 'पढमम्मि तिन्नि उ Page #726 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे 'पढमंमि तिनि उ या सेसाण स उत्तरा नव उ जाव | ओगाहं विक्कम दीवार्ण परिस्यं तच्छं ॥१॥ पदम चक्क परिया वीय चउक्कस्स परिरओ अहियो' सोटेर्हि तिहि उ जोयणसएहिं एवमेव सेवाणं ॥२॥ एगोरूच परिखेवो णत्र चेत्र सयाई अउण पन्नाई । वारस पत्रद्वाई हयगाणं परिवखेवी ||३|| परस एक्कासीया आयंसमुहान परिरयो होइ । अट्ठारस सत्त नउया आसमुहाणं परिवखेत्री ||४ बावीस ते राह परिवखेत्री छोड आसकण्णाणं । पणवीस अउणतीसा उक्कामुह परिरओ होइ ॥ ५ ॥ दो चैत्र सहसा अवसया वंति पणयाला । घदेव दीपा विसेष महिओ परिकखेवी ||६| व्या- 'पढमंग' प्रथमे द्वीपचतुष्के एकोरुकादि के चिन्त्यमाने त्रीणि योजनशतानि अगा-लग समुद्रामा निष्कम् च विष्कम्मग्रहणात् आयामोपि गृद्यते विम्यायामयोस्तुल्यपरिमाणत्वात् तेन विष्कम्समायामं च जानीहीति क्रियाशेषः, 'सेसाणं' इत्यादि, शेषाणां पण्णां द्वीचतुष्काणां वानि इस प्रकार से हैं- 'पढमम्मि तिनि उसपा' इत्यादि गाथाएं छह हैं जो टीका मेंदी हुई है इन गाधाओं की व्याख्या इस प्रकार से है प्रथम द्वीप चतुष्क के - एकोरुक आदि चार द्वीपों के विचार में इन चारों एकोमक आभाषिक वैषाणिक, गंगोलिक द्वीपों की अवगाहना और लम्बाई चौड़ाई तीन सौ योजन की है ऐसा जानना चाहिये इस तरह यह अवगाहना, लम्बाई चौडाई आगे २ के प्रत्येक चतुष्क में एक एक सौ को अधिकता से बढ़नी गई हैं अन्तिम जो घनदन्त आदि चार द्वीप हैं उनमें यह नौ औयोजन तक हो जाती है इस प्रकार दूसरे चतुक के कर्णद्वीर, गजकर्णीप, ७०४ सया' त्याहि छ गाथाओं में संस्कृत टीकामा आपवामा आवे छे. એ ગાથાઓનેા અર્થ આ પ્રમાણે છે પહેલા દ્વીચતુષ્પના એકેક વિગેરે ચાર દ્વીપે.ના વિચારમાં આ ચારે એકરૂક, આભ ષિષ્ઠ, વૈષાણિક, નાંગેાલિક દ્વીપેાની અવગ હૅના અને લબાઈ પડેાળાઇ ત્રસે ચૈાજનની છે. તેમ સમ જવું. આા રીતે આ અવગાહના અને લખાઇ પહેાળાઇ આગળના દરેકચતુષ્ટમાં એકસેસ એકસેાના અધિક પણાથી વધે છે. છેલ્લા જે ધનદન્ત વિગેરે ચાર દ્વીપા છે, તેમાં તે નવસેા ચેાજન સુધી થઇ ળય છે. મા રીતે બીજા ચતુ ના હ્રયકણું દ્વીપ, ગજકર્ણદ્વીપ, ગાકદ્વીપ, શબ્દુલીક દ્વીપમાં અવગાહના જ Page #727 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०५ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३ २.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् श्रीणि शातनि प्रत्येकं शतोत्तराणि कर्तव्यानि तथाहि-अवगाहनाविष्कम्भं तावद् जानीयात् यावद् नवशतानि, तद्यथा द्वीतीयचतुष्के चत्वारि योजनशतानि तृतीये द्वीपचतुष्के पञ्चयोजनशतानि, चतुर्थे षट्शतानि पञ्चमें सप्तशतानि पष्ठे अष्टौ शतानि, सप्तमे नवशतानीति। अत उध्वम्-'परिरयं वोच्छं' एकोरुकप्रभृति द्वीपानों परिरयं-परिक्षेपपरिमाणं वक्ष्ये-कथयिष्ये इति ॥ गोकर्णद्वीप, शकुलकर्णद्वीप इनमें अवगाहना और लम्बाई चौडाई चार सौ योजन की हो जाती है तृतीयद्वीप चतुष्क में आदर्शमुख, मेण्दमुख, अयोमुख,-गोमुख,-इन चार द्रोपों में पांच सौ योजन की अवगाहना और लम्बाई चौडाई हो जाती है चतुर्थद्वीपचतुष्क में-अश्व. मुख, हस्तिमुख, सिंहमुख व्याघ्रमुख, इन चार द्वीपों में अवगाहना और लम्बाई चौडाई छह सौ योजन की हो जाती है। पंचम द्वीप चतुष्क में अश्व कर्ण सिंहकर्ण, अकर्ण, कर्णप्रावरण इन द्वीपों में अवगाहना एवं लम्बाई चौडाई प्रत्येक की सात सौ सातसो योजन की होती है छठे द्वीप चतुष्क में-उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख, विद्युदन्त,-इन चार द्वीपों में अव. गाहना एवं लम्बाई चौडाई प्रत्येन की आठ सौ योजन की हो जाती है इसके बाद सातवें दीप चतुष्क में-घनदन्त लष्टदन्त गूढदन्त और शुद्ध दन्त, इन चारद्वीपों में अवगाहना एवं लम्बाई चौडाई प्रत्येक की नौ नौ सौ योजन की होती है परिरय-परिधि के परिमाण के सम्बन्ध में ऐसा विचार है-प्रथमद्वीप चतुष्क में परिधि का परिमाण कुछ अधिक અને લંબાઈ પહોળાઈ ચારસો જનની થઈ જાય છે. ત્રીજા દ્વીપ ચતુષ્કમાં આદર્શમુખ, મેદ્રમુખ, અમૂખ, ગોમુખ, આ ચાર દ્વિીપમાં પાંચ યોજના ની અવગાહના અને લંબાઈ પહોળાઈ થઈ જાય છે. ચોથા દ્વિીપ ચતુષ્કમાં અશ્વમુખ, હસ્તિ મુખ, સિંહમુખ, વ્યાઘમુખ આ ચાર દ્વીપમાં અવગાહના અને લંબાઈ પહોળાઈ છો એજનની થઈ જાય છે. પાંચમાં દ્વીપ ચતુષ્કમાં અશ્વકર્ણ, સિંહેકર્ણ, અકર્યું, અને કર્ણપ્રાવરણ આ ચાર દ્વિીપમાં અવગાહના અને લંબાઈ પહોળાઈ દરેકની સાત જનની થઈ જાય છે. છટ્ઠા દ્વિીપ ચતુષ્કમાં ઉલ્કામુખ, મેઘમુખ, વિદ્યુમ્મુખ, વિદ્યદંત આ ચાર દ્વિીપમાં અવગાહના અને લંબાઈ પહોળાઈ દરેકની આઠસો આઠસો જનની થઈ જાય છે. તે પછી સાતમાં દ્વિીપ ચતુષ્કમાં ઘનદંત, લષ્ઠદંત, ગૂઢદંત અને શુદ્ધાંત આ ચાર દ્વીપમાં આવગાહના અને લંબાઈ પહોળાઈ દરેકની નવસો નવસો જનની થઈ જાય છે. પરિચય-પરિધિના પરિમાણના સંબંધમાં આ પ્રમાણેને વિચાર છે. પહેલા દ્વીપ ચતુષ્કમાં પરિધિનું પ્રમાણુ કંઈક વધારે जी. ८९ Page #728 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०६ जोपामिगमले पतिज्ञातमेव दर्शयति-पढम चउक्क' इत्यादि, प्रथमचतुष्कपरिरयानप्रथमद्वीपचतुष्कपरिरयपरिमाणात् द्वितीयचतुष्कस्य-द्वितीयद्वीपचतुष्टयस्य परिरया-परियपरिमाणमधिकः पोडशैः-पोडशोत्तरै त्रिभिर्योजनशतैः एवमेव, अनेनैव प्रकारेण शेषाणां-द्वीपचतुष्काणां परिरयपरिमाणमधिकं पूर्व पूर्व चतुष्क परिरयपरिमाणात पोडशोत्तरत्रिंशतयोजनाधिकं ज्ञातव्यम्, एतदेवानिमगाथया दर्शयति-'एगोरुय' इत्यादि, एकोरुकपरिक्षेपः-एकोरुकद्वीपोपकक्षित प्रथमद्वीप चतुष्कपरिक्षेपो नवशतानि एकोनपञ्चाशानि-एकोन पञ्चाशदधिकानीत्यर्थः । ततस्त्रिषु योजनशसेषु प्रक्षिप्तेषु 'हयकण्णाणं' इति हयकर्ण प्रभृतीनां चतुर्णा द्वीपानां परक्षेपो भवति, स च द्वादशशतानि पञ्चपटानि-पञ्चपष्टथधिकानि । तत्रापि त्रिषु योजनशतेषु पोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु 'आयसगुहागं' इत्यादि, 'भायं समुहाणं' आदर्शमुख प्रभृतीनाम् तृतीय चतुष्कस्थितानां चतुर्णा द्वीपानां परिरय परिमाणं भवति । तच पञ्चदशयोजनशतानि एकाशीत्यधिकानि । ततो भूयोऽपि त्रिषु योजनशतेषु पोडशोत्तरेषु पक्षिप्तेषु 'आसाहाणं' इति अश्यमुख प्रभृतीनां चतुर्थ चतुष्कस्थितानां चतुर्णा द्वीपानां परिक्षेपा, तद्यथा-अष्टादशयो जनशतानि सप्तनवत्यधिकानि । तेष्वपि त्रिपु योजनशतेषु पोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु 'आस. नौ सौ गुनचास-९४९ योजन का कहा गया है, इस परिमाण में तीन सौ सोलह-३१६ योजल पिलाने से आगे के द्वितीय.द्वीप चतुष्क के परिरथ का परिमाण आ जाता है इस तरह द्वितीय द्वीप चतुष्क का परिरय परिमाण बारह लौ पैसठ १२६५ योजन का आ जाता है ततीय द्वीप चतुष्क का परिरछ परिमाण १२६५, ३१६ जोडने से पन्द्रह सौ इक्यासी १५८१ योजन का परिरय परिमाण आ जाता है १५८१ योजनों में ३१६ जोड देने से चतुर्थ द्वीप चतुष्क का परिरय परिमाण निकल जाता है और यह अठारह सौ सतानवे १८९७ योजन्म का होता है। इसमें ३१६ ૯૪૯ નવસો ઓગણ પચાસ યોજનાનું કહેલ છે. આ પરિમાણમાં ૩૧૬ ત્રણ સે સોળ જન મેળવવાથી આગળના બીજા દ્વીપ ચતુષ્કનું પરિરય પરિમાણ આવી જાય છે. આ રીતે બીજા દ્વીપ ચતુષ્કનું પરિરય પરિમાણુ બારસ પાંસઠ ૧૨૬૫ જનનું થઈ જાય છે. ત્રીજા દ્વિીપ ચતુષ્કના પરિરયનુ પરિમાણ ૧૨૬૫ બારસો પાંસઠમાં ૩૧૬ ત્રણસે સોળ ઉમેરવાથી ૧૫૮૧ પંદરસો એકાશી જનનું પરરય પરિમાણ આવી જાય છે. ૧૫૮૧ પંદરસો એકાશી એજનમાં ૩૧૬ ત્રણસો સોળ ઉમેરવાથી ચેથા દ્વીપ ચતુષ્કનું પરિરય પરિમાણ નીકળી આવે છે. અને આ ૧૮૯૭ અઢારસો સત્તાણુ ચોજનનું થાય છે. તેમાં ૩૧૬ Page #729 -------------------------------------------------------------------------- ________________ قاف प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् कन्नाणं' अश्वकर्ण प्रमुखाणां चतुर्णा द्वीपानां परिक्षेपो भवति तद्यथा-द्वाविंशति योजनशतानि त्रयोदशानि त्रयोदशाधिकानि । ततो भूयोऽपि त्रिपु योजनशतेषु पोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्तेषु उल्कामुखपरिरथः, उल्कामुख द्वीपचतुष्कपरिरयपरिमाणं भवति तद्यथा-पञ्चविंशतियोजनशतानि एकोनत्रिंशानि,-एकोनत्रिंशदधिकानि । ततः पुनरपि त्रिषु योजनशतेषु द्वीपोडशोत्तरेषु प्रक्षिप्सेषु घनदन्तद्वीपानां घनदन्त प्रमुखसप्तमद्वीप चतुष्कस्य परिक्षेषः, तघया द्वे सहले अष्टौशतानि पञ्चचत्वारिशानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि, 'विसेसमहिओ' इति पदमन्तेऽभिस्तित्वात् सर्वत्रापि अभिसम्बन्धनीयम् तेन सर्वत्रापि किश्चिद्विशेषाधिकमुक्तरूप परिरयपरिमाणं ज्ञातव्यमिति ॥६॥ तदेवमेते मन्दरपर्वतस्य दक्षिणे हिमवति पर्वते चतमुष्वपि विदिक्षु व्यवस्थिताः सर्वसंख्ययाऽष्टाविंशति द्वीपाः। जोड देने पर पंचम द्वीप चतुष्क का परिरण परिमाण निकलता है और यह बाइस सौ तेरह २२१३ योजन का होता है इस परिस्थपरिमाण में ३१६ जोडने पर छठवें द्वीप चतुष्क का परिश्यपरिमाण पचीस सौ गुनतीस २५२९ योजन का आ जाता है इसी तरह छठवें द्वीप चतुष्क के परिरयपरिमाण में ३१६ जोडने पर सातवें दीप चतुष्का का परिस्थपरिमाण आ जाता है और यह कुछ अधिक २८४५ योजन का होता है परिरय के प्रत्येक चतुष्क परिमाण ले 'कुछ अधिक' ऐसा विशेषण लगाना चाहिये गा० ॥६१॥ ये अन्तर्वीप अट्ठाईस हैं और मन्दर पर्वत के दक्षिण भाग में हिमवत पर्वत की चारों विदिशाओं में अर्थात् उसके चारों कोनों पर है। ત્રણસે સોળ ઉમેરવાથી પાંચમાં દ્વિીપ ચતુષ્કના પરિચયનું પરિમાણ નીકળી આવે છે. અને તે ૨૨૧૩ બાવીસો તેર જન થાય છે. તેમાં ૩૧૬ ઉમેરવાથી છઠા દ્વિીય ચતુષ્કના પરિરયનું પરિમાણ ૨૫૨૯ પશ્ચીસસો ઓગણત્રીસ જનનું થઈ જાય છે. એજ રીતે છઠા દ્વીપ ચતુષ્કો પરિચય પરિમાણુ ૩૧૬ ઉમેરવાથી સાતમા દ્વીપ ચતુષ્કના પરિરયનું પરિણામ આવી જાય છે. અને તે કંઈક વધારે ૨૮૪૫ એજનનુ થાય છે. પરિરયના દરેક ચતુષ્કના પરિમાણથી કંઈક વધારે એમ વિશેષણ લગાવવું જોઈએ કે ગા. ૬ છે આ અંતર દ્વીપે અડયાવીસ છે અને મંદર પર્વતના દક્ષિણભાગમાં હિમવંત પર્વતની ચારે વિદિશાઓમાં અર્થાત્ તેના ચારે ખૂણા પર છે. Page #730 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ७०८ जीवामिगमले । अष्टाविंशत्यन्तरद्वीपकोष्ठकम् । (१) प्रथमचतुष्कम् ॥ मन्दरस्य दक्षिणे | अवगा. आयामवि. क्षुद्रहिमवत्पर्वतस्य विदिशा | यो. यो. परिधियो द्वीपना० | उत्तरपौरस्त्य। ३०० ३०० ९४९ एकोरुक दक्षिणपौरस्त्य ३०० आमाषिक दक्षिणपाश्चात्य ३०० | ९४९ वैषाणिक (वैशालिक) उत्तरपाश्चात्य | ३०० ३०० ९४९ / नाङ्गोलिक इनके नाम क्रमशः इस प्रकार से हैंदक्षिणदिशा के मनुष्यों के अन्तरद्वीपों के नाम-अवगाहनादिका चित्र१ प्रथम २ द्वितीघ ३ तृतीय ४ चतुर्थ ५पंचम ६ षष्ठ ७ सप्तम चतुष्क चतुष्क चतुष्क चतुष्क चतुष्क चतुष्क चतुष्क १-एकोषकद्वीप-हयकर्ण आदर्शमुख अश्वमुख अश्वकर्ण उल्कामुख घनदन्त द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप बीप २-आभाषिक-गजकर्ण मेण्दमुख हस्तिमुख सिंहकर्ण मेघमुख लष्टदन्त द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप द्वीप ३-वैषाणिक-गोकर्ण अयोमुख सिंहमुख अकर्ण विद्युन्मुख गूढदन्त द्वीप द्वीप दीप द्वीप दीप द्वीप द्वीप ४-नांगोलिक-शष्कुली गोमुख व्याघ्र कर्णप्रावरण विद्युदन्त शुद्धदन्त द्वीप कर्ण द्वीप द्वीप मुखद्वीप द्वीप द्वीप द्वीप તેના નામે ક્રમથી આ પ્રમાણે છે. દક્ષિણ દિશાના મનુષ્યના અતરદ્વીપના નામે અને અવગાહનાદિ પ્ર. ચતુષ્ક કિ. ચતુષ્ક તૃ. ચતુષ્ક ચ, ચતુષ્ક પં. ચતુષ્ક ષષ્ટ ચતુષ્ક સ. ચતુષ્ક ૧ એકરૂક હયકર્ણ આદર્શમુખ અશ્વમુખ અશ્વકર્ણ ઉલ્કામુખ ઘનઇન્ત દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ ટીપ દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ ૨ આભાષિક ગજકર્ણ મેમુખ હસ્તિમુખ સિંહકર્ણ મેઘમુખ લષ્ટદન્ત દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ 8 વૈષાણિક ગેકર્ણ અયોમુખ સિંહમુખ અકર્ણ વિદ્યુમ્મુખ ગૂઢદન્ત દ્વિીપ દ્વીપ હિપ દ્વીપ દ્વીપ દ્વિીપ દ્વીપ ૪ નાગલિક શબ્દુલકર્ણ ગોમુખ વ્યાઘમુખ કર્ણપ્રાવરણ વિદ્યુદંન્ત શાહદંત દીપ દીપ દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ દ્વીપ Page #731 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोकर्ण गोकर्ण प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ १.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् ७०९ (२) द्वितीय चतुष्कम् ॥ द्वीपनाम | विदिशा अवगा. यो. आयामवि, यो परिधियो. द्वीपनाम एकोहक उत्तरपौरस्त्य ४०० १२६५ हयकर्ण आभाषिक दक्षिणपौरस्त्य १२६५ गजकर्ण वैषाणिक दक्षिणपाश्चात्य १२६५ (वैशालिक) नाङ्गोलिक उत्तरपाश्चात्य ४०० | १२६५ शकुलीकर्ण ___ (३) तृतीय चतुष्कम् ।। द्वीपनाम | विदिशा अवगा.यो. आयामवि. यो. परिधियो. द्वीपनाम इयकर्ण उत्तरपौरस्त्य । ५०० ५०० १५८१ आदर्शमुख गजकर्ण दक्षिपौरस्त्य । ५०० ५०० । (१५८१ मेण्द्रमुख दक्षिणपाश्चात्य ५०० ५०० १५८१ अयोमुख शकुळीकणे उत्तरपाश्चात्य । ५०० १५८१ गं मुख (४) चतुर्थध्वम् ।। द्वीपनाम विदिशा अवगा.यो. पायामवि.यो. परिधियो | द्वीपनाम आदर्शमुख उत्तरपौरस्त्य। ६०० १८९७ | अश्वमुख मेण्टमुख दक्षिणपौरस्त्य ६०० ६०० | १८९७ हस्तिमुख अयोमुख दक्षिणपाश्चात्य ६०० ६०० १८९७ सिंहमुख गोमुख उत्तरपाश्चात्य | ६०० ६०० १८९७ व्याघ्रमुख १-अवगाहना-३०० ४०० ५०० ६०० ७०० ८०० ९०० योजन योजन योजन योजन योजन योजन योजन २-लंबाई चौडाई-३०० ४०० ५०० ६०० ७०० ८०० ९०० योजन योजन योजन योजन योजन योजन योजन ३-परिधि- ९४९ १२६५ १५८१ १८९७ २२१३ २५२९ २८४५ योजन योजन योजन योजन योजन योजन यो.कुछ अधिक १ भगाना 3०० ४०० ५०० १०० ७०० ८०० ८०० જન જન જન જન જન જન જન ૨ લંબાઈ-પહોળાઇ ૩૦૦ ૪૦૦ ૫૦ ૬૦૦ ૭૦૦ ૮૦૦ ૯૦૦ જન જન જન જન જન જન જન ૩ પરિધિ- ૯૪ ૧૨૬૫ ૧૫૮૧ ૧૮૯૭ ૨૨૧૩ ૨૫૨૯ ૨૮૨૯ જિન જન જન જન જન જન જન (° पधारे) Page #732 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ७०० जीवामिगमस्से (५) पञ्चमचतुष्कम् ॥ द्वीपनाम | विदिशा अवगा यो | आयामचि. यो परिधियो | द्वीपनाम अश्वकर्ण उत्तरपौरस्त्य । ७०० २२१३ अश्वकर्ण हस्तिमुख दक्षिणपौरस्त्य । ७०० २२१३ सिंहकर्ण सिंहमुख दक्षिणपाश्चात्य ७०० । | २२१३ अकर्ण व्यानमुख | उत्तरपाश्चात्य । ७०० ७०० | २२१३ कर्णमावरण (६) पष्ठ चतुष्कम् ।। द्वीपनाम | विदिशा अवगा.यो. आयामवि.यो. | परिधियो | द्वीपनाम अश्वर्ण उत्तरपौरस्त्य । ८०० ८०० | २५२९ उल्कामुख सिंहकर्ण दक्षिणपौरस्त्य ८०० ८०० २५२९ मेघमुख अकर्ण दक्षिणपाश्चात्य ८०० ८०० २५१९ विद्युन्मुख कर्णप्रावरण उत्तरपाश्चात्य । ८०० । | २५२९ विद्युदन्त (७) सप्तम चतुष्कम् ॥ __ द्वोपनाम | विदिशा अवगा. यो. आयामवि.यो, परिधियो, । द्वीपनाम उल्कामुख उत्तरपौरस्त्य २८४५ वि. घनदत्त मेघमुख दक्षिणपौरस्त्य। ९०० ९०० |२८४५, लष्टदत्त विद्युन्मुख दक्षिणपाश्चात्य | ९०० २८४५, गूढदन्त विद्युदन्त उत्तरपाश्चात्य | ९०० २८४५,, शुद्धदन्त 'एतेऽष्टाविंशतिदाक्षिणात्या अन्तरद्वीपाः प्रतिचतुष्क स्वस्वापेक्षया समानप्रमाणाः सन्धि' एवम्-औतराहा अपि अष्टाविंशतिरन्तरद्वीपाः पतिचतुष्कं स्वस्वापेक्षया समानममाणाः सन्ति इत्येवं सर्वे पदपश्चाशद (५६) अन्तरद्वीपा भवन्तीति' अत्र किञ्चिद्विशेषाधिकेति पदं सप्त चतुष्कशते सर्वस्मिन्नपि परिधिपरिमाणेऽव सातव्यमिति। ___ अथै तेषां गतिमाह-'देवलोग' इत्यादि, 'देवले गपरिग्गहिया णं ते मणुया पण्णचा समणाउसो' ते खलु मनुजा देवलोकपरिग्रहावाः देवलोको भवनपत्यादि अव इनकी गति का वर्णन करते हैं शेष इनके आगे के जो अन्तरद्वीप है उनके परिक्षेष प्रमाण में अधिकता होती जाती है "देवलोक परिग्मगहिया णं ते मणुघा पण्णत्ता समणाउसो" હવે તેની ગતિનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. બાકીના તેના પછીના જે અંતર કરે છે. તેના પરિક્ષેપ પ્રમાણમાં અધિક પણ થતું જાય છે. એથીજ ४ छ । 'देवलोकपरिगहियाण' ते मणुया पण्णचा खमणाउसो' ३ श्रम आयुभन् Page #733 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ सू.४४ हयकर्णधीपनिरूपणम् ७११ रूप एव, तथा क्षेत्रस्वाभाष्या तयोग्यायुर्वन्धनेन परिगृहीतः पुनर्जन्मत्वेन स्वीकृतो यैस्ते तथाभूताः देवलोकगामिन एव ते मामाः हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! इति । ____ पूर्व दाक्षिणात्यना मेकोरुकाधष्टाविंशत्यन्तरद्वीपानां वर्णनं कृतम्, साम्प तम्-औचराहाणा मेकोरुकायष्टाविंशत्यन्तरद्वीपानां वर्णनावर, ते च क्षुद्रहिमवत्तुल्यवर्णप्रमाणपद्म हदप्रमाणायामविष्कम्भादगाह पुण्डरीकहूदोपशोभिते शिखरिणि वर्षधरपर्वते लवणसमुद्र जलसंस्पर्शादारभ्य यथोक्तप्रमाणान्तराश्चतसृषु विदिक्षु एकोरुकादि तुल्यनामानोऽक्षुण्णापान्तरालायामविष्फम्मा औतरा 'उत्तरिल्लाणं' इत्यादि कहिणं भंते ! कुन खलु भदन्त ! उत्तरिल्लाणं' अष्टाविंशति संख्यका अन्येऽन्तरद्वीपाः सन्तीति तान् प्रदर्शयितुमाह-'कहिणं भते ! औत्तराहाणाम् उत्तरदिकस्थितानाम् 'एगोरुयषणुरसाणं' एकोरुकमनुष्याणाम् 'एगोरुपदीवे णामं दीवे पण्णत्ते' एक रुकद्वीपो नामद्वीपः प्रज्ञप्ता- कथित ? इति प्रश्नः। भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, ‘गोषमा' हे गौतम !'जंबुद्दीवे __ हे श्रमण आयुष्मन् ! इन सब अन्तरद्वीपों के मनुष्य देवलोक का परिग्रहजिन्हो के ऐसे ही होते हैं । अर्थात् ये अन्तरद्वीपज मनुष्य भवनपत्यादि इशानान्त देवगतिके सिवाय अन्य गतियों में जन्म नहीं लेते हैं। ___ यहां तक दक्षिण दिशा के एकोरुनादि अन्तरद्वीपों का वर्णन करके अब उत्तर दिशा के एकोकादि अन्तरद्वीपों का वर्णन करते हैं, 'कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाण' इत्यादि कहिणं भंते उत्तरिल्लाणं एगोल्य मणुस्ताणं एगुरुयदीवे णामं दीवे पणत्ते' इस सूत्र द्वारा गौतलस्वामीने शभु से ऐसा पूछा है-हे भदन्त' उत्तर दिशा के एकोरुक मनुष्यों का एकोहक नाम का द्वीप कहां पर कहा गया है ? इसके उत्तर में सु श्री कहते हैं ! આ બધા અંતરદ્વીપના મનુષ્ય દેવકને પરિગ્રહ જેઓએ કર્યો છે એવાજ હોય છે. અર્થાત્ આ અન્નદ્વપમાં થનારા મનુષ્યો ભવનપયાદિ ઈશાનાન્ત દેવ ગતિ શિવાય અન્ય ગતિમાં જન્મ લેતા નથી. અહીં સુધી દક્ષિણ દિશાના એકેડરૂક વિગેરે અન્તર દ્વીપનું વર્ણન કરીને હવે ઉત્તર દિશાના એકેરૂક વિગેરે અન્તર દ્વિીપનું વર્ણન કરવામાં આવે છે - 'कहि ण भंते ! उत्तरिल्लाण" त्यात _ 'कहिण भते ! उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साण एगोरुयदीवे णाम दीवे पण्णत्ते' मा बा२१ श्री गौतमस्वामी प्रसुश्रीन मे पूछयु छ :હે ભગવન! ઉત્તર દિશાના એકેક મનુષ્યને એકેડરૂક નામને દીપ કયાં કહેવામાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે Page #734 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवाभिगम ७१२ दीवे' जम्बूद्वीप नामके द्वीपे 'मंदरस्स पव्वयस्स' मन्दरनामकपर्वतस्य 'उत्तरेण' उत्तरेण - उत्तरस्यां दिशि 'सिहरिस्त वासधरपव्वयस्स' शिखरिणःशिखरि नामक वर्षधरपर्वतस्य 'उत्तरपुरस्थि मिल्काओ चरिमंताओ' उत्तरपौरस्त्यात् चरमान्तात् ' लवणसमुद्दं तिनि जोयणसयाई ओगाहित्ता' त्रीणि योजनशतानि लवणसमुद्रं व्यतिक्रम्य ' एवं जहा दाहिणिल्ला णं तहा उत्तरिल्काणं, भाणियन्त्रं ' एवं यथा दाक्षिणात्याना मेकोरुक मनुष्याणां वर्णनं कृतं तथैवोत्तराणामपि वर्णनं भणितव्यम् | 'णवरं' नवरम् - विशेषोऽयम् तत्र दाक्षिणात्यैकोरुकादि प्रकरणे क्षुदविद्वधपर्वतस्य विदिशासु' इति मोक्तम् अत्रीतरेको रुकादि प्रकरणे 'सिहरिस्स वासहरपन्नयस्स विदिसासु' शिखरिणो वर्षधरपर्वतस्य विदिक्षु इति वक्तव्यम् । किं नामक द्वीप पर्यन्तम् ? इत्याह- 'एवं जाव' इत्यादि, एवम् अनेन प्रकारेण 'जाव सुद्धदंतदीवेत्ति' यावत् शुद्धदन्तद्वीप इति सप्तम चतुष्कस्यान्तिम'गोयमा' जम्बूद्दीवे दीवे मंदरस्त पञ्चयस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वासहर पव्वयस्त उत्तरपुर स्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुद्दे तिष्णि जोयणसयाई ओगाहित्ता एवं जहा दाहिजिल्लाण तहा उत्तरिल्लाणभाणियन्वं, णवरं सिहरिस्त वासहरपव्वयस्स विदिसासु एवं जाव सुद्धदंत दीवेत्ति जावसेत्तं अंतरदीवगा' जम्बू द्वीप नाम के इस द्वीप में जो सुमेरु पर्वत है उसकी उत्तर दिशा में जो शिखरी नाम का वर्षधर पर्वत है उसकी ईशान दिशा के चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन चलने पर जैसा कि दक्षिण दिशा के एंकोरुक मनुष्यों का द्वीप कहा गया है उसी तरह से उत्तर दिशा के एकोरुक मनुष्यों का भी एकोरुक नाम का द्वीप कहा गया है ये उत्तर दिशा के अन्तरद्वीप शिखरी पर्वन की दादाओं पर है और ये उसकी विदिशाओं में हैं। शुद्धदन्त 'गोमो | जम्बुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेण सिहरिस्स वासहर पव्वयस्म उत्तर पुरथिमिल्लाओ चरिमताओ लवणसमुद्द तिन्नि जोयणसयाइ ओगाहित्ता एवं जहा दाक्षिणिल्लाणं तहा उत्तरिल्लाणं भाणियव्वं नवर सिहरिरस वामहर पव्वयस्स विदिषासु एवं जाव सुद्धदांत दीवेचि जाव से त्तं अतरदीवगा' 'जूद्वीप નામના માદ્વીપમાં જે સુમેરૂ પર્વત છે તેની ઉત્તર દિશામાં શિખરી નામના જે વધર પવત છે તેની ઈશાન દિશાના ચરમાન્તથી લવણુ સમુદ્રમાં ત્રણસે યેાજન ચાલવાથી જેમ દક્ષિણ દિશાના એકારૂક મનુષ્યોના દ્વીપ કહેલ છે, તેજ રીતથી ઉત્તર દિશાના એકાક મનુષ્યના પણ એકાક નામના દ્વીપ કહેવામાં આવેલ છે. એ ઉત્તર દિશાના અંતરદ્વીપ શિખરી પની દાઢા પર આવેલ છે. અને તે તેની વિદિશામાં છે. શુદ્ધદ તદ્વીપ પર્યન્તના બધા - Page #735 -------------------------------------------------------------------------- ________________ restant टीका प्र. ३ उ. ३ . ४४ हयकर्णडीवनिरूपणम् शुद्धदन्तद्वीपो वर्त्तते तात्पर्यन्तमिति, एकोरुक द्वीपादारभ्याऽष्टाविंशतितमशुद्धदन्त द्वीप पर्यन्ताना मौचराणामष्टाविंशत्यन्तरद्वीपानां सर्व वर्णनं पूर्ववदेव वाच्यमिति, 'जाव' इति यावत्प्रकरण समाप्ति पर्यन्तमिति । उपसंहरन्नाह - 'सेतं अंतरदीवगा ' ते एते अन्तरद्वीपका इति, ते - ये पूर्व प्रदर्शिताः एते - अत्रोपदर्शिता अन्तरद्वीपा यथाक्रमं प्रदर्शिता इति ॥ 'अन्तरद्वीपक मनुष्यान निरूप्याकर्मभूमक मनुष्यान् निरूपयितुमाह-' से कि तं' इत्यादि, 'से किं तं अम्भभूमग मणुस्सा' अथ के ते अभूमक मनुष्याः ? इति प्रश्नः, भगवानाह - 'अक्रम्भभूमग मणुस्ता तीसवीहा पन्नत्ता' अकर्मभूमकमतुष्या त्रिशद्विधाः- त्रिंशत्यकारकाः प्रज्ञप्ताः कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा - 'पंचहि हेमवरर्हि' पञ्चभिर्हेमवतैः, 'एवं' एवम् अनेन प्रकारेण पञ्चभिर्हेम तैः पश्चभिर्हरिवर्षेः, पञ्चभिः रम्यकवर्षैः, पञ्चभिर्देवकुरुभिः पञ्चभिरुत्तरकुरुभिरितित्रिंशत्क्षेत्रभेदै स्वदुत्पन्ना मनुष्या अपि त्रिंशद् भवन्ति इति । एतदेव 'जहा' इति सूत्र पदेन प्रदश्यते - 'जहा' इत्यादि, 'जहा पण्णत्रणापदे जाव पंचहि उत्तरकुरुर्हि' यथा द्वीप तक ये अन्तरद्वीप यहाँ अठाईस है । इन सबका वर्णन दक्षिण दिशा के अन्तरद्वीपों के वर्णन जैसा ही है । इस तरह यहां तक अन्तरद्वीपों का वर्णन किया गया है यहां तक अन्तरद्वीपों के मनुष्यों का निरूपण करके अब अकर्मभूमिक मनुष्यों का निरूपण करते हैं- 'से किं तं' इत्यादि । 'सेकिं ते अकस्मभूमगमणुस्सा' हे भदन्त ! अकर्मभूमिक मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-हे गौतम' अकम्मभूमगमणुस्सा तीसबीहा पण्णत्ता' अकर्मभूमक मनुष्य तीस प्रकार के कहे गये हैं । 'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं- 'पंचहि हेमवएहिं' पांच हैमवत क्षेत्र के मनुष्य 'एवं जहा पण्णत्रणा पदे जाव पंचहि उत्तरकुरुर्हि' મળીને અઠયાવીસ અંતરદ્વીપા અહિઁ કહેલ છે. તે બધાનુ વર્ણન દક્ષિણ દિશાના અતર દ્વીપાના વન પ્રમાણેજ છે. આ રીતે આટલા સુધી અ ંતર દ્વીપાનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. આ રીતે આટલા સુધી અતરદ્વીપાના મનુષ્યાનુ નિરૂપણ કરેલ છે. हवे अर्मभूमिना भनुष्योनु' नि३ ७१३ १२वामां आवे छे. 'से कि' त' इत्यादि 'से किं त अकम्मभूमग मणुस्सा' हे भगवन् भूमिना मनुष्यो કેટલા પ્રકારના છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! 'अम्मभूमग मणुस्खा तीत विहा पण्णत्ता' अमभूमिना मनुष्यो श्रीस प्रारना वामां आवे छे. 'त' जहा' ने भी प्रभाये थे. 'पंचहि हेमवरहि' यां अारना डैभवतक्षेत्रना मनुष्यो 'एवं जहा पण्णवणापदे जाव पचहि उत्तर नी० ९० Page #736 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१४ जीवामिगम प्रज्ञापनायाः प्रथमे पदे कथितं यावत्पश्चमिरुत्तरकुरुभिरिति-अकर्मभूमक मनष्याणां वर्णनं कृतं तदनुसारेणैवान ज्ञातव्यम् । ____ अकर्मभूमकमनुष्यान् निरूप्य कर्मभूमकान्निरूपयितुं प्रश्नयन्नाह-'से किं त' इत्यादि, 'से किं तं कम्मभूमगा' अथ के ते कर्मभूमकाः, कर्मभूमका मणुष्याः कियन्तो भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'कम्मभूमगा सणुस्सा पण्णरसविहा पन्नत्ता' कर्मभूमकाः कर्मभूमिषु समुत्पाना मनुष्याः पञ्चदशविधा:-'पंचदशपका. रकाः यज्ञप्ताः-कथिताः, 'तं जहा' तद्यथा 'पंचहि भरहेहि पञ्चभिर्भरतः 'पंचहि एरवरहिं' पञ्चभिरैरवतैः 'पंचहि महाविदेहेहि' पञ्चभिर्महाविदेहै, तथा च पश्च. पांच हैरण्यवत पाँच हरिवर्प क्षेत्र के मनुष्य पांच रम्यक क्षेत्र के मनुप्य और पांच देवकुरु के मनुष्य और पांच उत्तरकुरु के मनुष्य इस प्रकार से अढाई द्वीप में ये तीस ओगभूमियां-अकर्मभूमियां है। इन अकर्मभूमियों में जो उत्पन्न हुए मनुष्य है वे अकर्मभूमक मनुष्य कह लाते हैं। और इन्हें इली खे तीस प्रकार के कहा गया है 'से तं अक म्मभूमगा' इस प्रकार से अकर्मभूभकों के सम्बन्ध में यह कथन किया गया है इनका विस्तृत क्षथन प्रज्ञापना पद में प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में हुभा है अतः वहीं ले यह विषय जिज्ञाप्तुओं को जान लेनाचाहिये। ___ 'से किं तं कम्मभूमगा' हे भदन्त ! कर्मभूमक मनुष्य कितने प्रकार के है इसके उत्तर में प्रभुश्री गौतमस्वामी को कहते है-हे गौतम! कर्मभू. मक मनुष्य पण्णरतविहा पण्णत्ता' पन्द्रह प्रकार के कहे गये है 'तं जहा' जैसे-'पंचहि भरहेहिं पंचहिं एरवएहिं पंचहि महाविदेहेहि पांच भरत कुरुहि" पांय प्रा२ना २७यक्त क्षेत्रा मनुष्य पांय ना हरिष क्षेत्रना મનુષ્ય પાંચ પ્રકારના રમ્યકક્ષેત્રના મનુષ્ય અને પાંચ પ્રકારના દેવકુરૂના મનુષ્યો અને પાંચ ઉત્તરકુરૂના મનુષ્ય આ રીતે અઢાઈ દ્વીપમાં આ ત્રીસ ભેગભૂમિ અકર્મભૂમિ છે. આ અકર્મભૂમિમાં ઉત્પન્ન થયેલા જે મનુષ્ય છે, તેઓ અકર્મભૂમક મનુષ્યો કહેવાય છે. અને તે બધા મળીને ત્રીસ પ્રકારના ४पामा भावे छे. 'से तं अकम्मभूमगा' ! शत मम भूभियाना समां કથન કરવામાં આવેલ છે આનું સવિસ્તર કથન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પ્રજ્ઞાપના પદમાં કરવામાં આવેલ છે. તેથી જીજ્ઞાસુઓએ તે બધુ ત્યાંથી જાણી લેવું ____ 'से कि त कम्मभूमगा' भगवन् भभूभिना मनुष्या सामाना ह्या છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે હે ગૌતમ! કર્મા भूमिना मनुष्य। 'पन्नरसविहा पण्णवा' ५न्नर ४१२॥ वामां आवेट छ. 'त जहा' 20 प्रभाये गा रेभ'पंचहि भरहेहि, पंचहि एरवएहि, पंचहि Page #737 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४४ हयकर्णद्वीपनिरूपणम् भरत, पञ्चरर्वतः पञ्चमहाविदेहभेदात् पञ्चदशप्रकारकाः कर्मथूमकमनुष्या भवन्तीति । 'ते समासओ दुविहा पन्नत्ता' ते कमेंभूगका मनुष्याः समासतः-संक्षेपेण द्विविधाः-द्वि प्रकारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिता, वैविध्यं दर्शयति-तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'पायरिया मिलेच्छ।' आर्याः स्लेच्छाश्च, तत्र म्ले. च्छानां स्वल्पत्वात्प्रथमं म्लेच्छा दयेन्ते-ठलेच्छाः शकयवनादिभेदैरनेकविधाः । आर्या ऋद्धिमाप्ता अनृद्धिप्राप्ता इति द्विविधाः । एते द्वये भेदानुभेदैवहुविधा भवन्ति, तत्मज्ञापनातिदेशेनाह ‘एवं जहा' इत्यादि, ‘एवं जहा पण्णवणापदे जाव से त्तं आरिया' एवं यथा पज्ञापनाया: प्रथमे पढ़े कथितं तथैवात्रापि ज्ञातव्यम् फियत्पर्यन्तं प्रज्ञापनाप्रकरणं ज्ञातव्यं तमाह-'जाव' इत्यादि, 'जाव से तं आरिया' यावत्ते एते आर्याः, इति पर्यन्तमिति । 'से तं गमवतिया' ते एते गर्भव्युक्रान्तिका जीवा निरुपिताः, 'से तं मणुस्सा' ते एते उपर्युक्तक्रमेण मनुष्या त्रिविधा अपि निरूपिता इति।लू० ४४॥ क्षेत्रों के पांच ऐरवत्त क्षेत्रों के और पांच विदेहों के सब मिलकर पन्द्रह कर्मभूमियों की अपेक्षा मनुष्य पन्द्रह प्रकार के हो जाते है । ते समासओ दुबिहा पन्नत्ता' से कर्मभूमिक मनुष्य संक्षेप से दो प्रकार के होते है 'तं जहा' जैले 'आरिया बिलेच्छा' आये और स्वेच्छ, म्लेच्छ शक सूत आदि है । 'एवं जहा पण्णवणापदे जाब लेतं आरिया' प्रज्ञापना के प्रथम पद में आर्य प्रकरण लक्ष इल सम्बन्ध में कथन किया है अतः वैसा ही यह सब कथन यहां पर भी आर्यों के सम्बन्ध में कर लेना चाहिये 'सेत्तं गमक्क्रतिया' इस प्रकार से गर्भज जीवों का यहां तक निरूपण हो जाता है। 'खेत्तं लण्णुरुला' फन के निरूपण हो जाने पर तीन प्रकार के मनुष्योंका निरूपण भी समाप्त हो जाता है।४४॥ महाविदेहेहि' पांय प्र४२ना मरतक्षेत्रना पाय घाना रक्तक्षेत्रमा भने पाय પ્રકારના મહાવિદેહ ક્ષેત્રના એ પ્રમાણે બધા મળિને પંન્નર પ્રકારની ४मभूमिना मनुष्ये। ५ न२ प्रारना 25 mय छे. 'ते समास मो दुविहा पन्नत्ता' मा भभूमिना मनुष्यो सपथी. मे रना थाय छे. 'त जहा' नभई 'आरिया मिलेच्छा' माय भने २७, २७ श, सूत विगेरे छे. 'एवं जहा पण्णवणापदे जात्र से तं आरिया' प्रज्ञापन सूत्रना पडसा પ્રજ્ઞાપના પદમાં આર્ય પ્રકરણ સુધી આ વિષયનું કથન કરેલ છે. તે જ પ્રમાણે ते सघणु ४थन माडियां यन्मयाना समयमा समस. 'से तं गम्भ वक्कं तिया' मारीत माटमा सुधी गम वातु नि३५ / लय छे. 'सेत्त मणुस्सा' सम व नि३५४ २ वाथी त्रय प्रा२ना मनुष्य। ५ नि३५ थ जय छे. ॥ ४४ ॥ Page #738 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१६ जीवाभिगमसूर्य ते एते मनुष्या निरूपिताः, सम्पति-देवान् निरूपयितुमाइ-से कि तं देवा' इत्यादि, मूलम्-से किं तं देवा ? देवा चउब्धिहा पन्नत्ता तं जहा भवणवासी वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया। से किं तं भवणवासी ? भवणवासी दसविहा पन्नत्ता, तं जहा-असुरकुमारा जहा पण्णवणापदे देवाणं भेओ तहा भाणियवो जाव अणुत्तरोववाइया पंचविहा पन्नत्ता तं जहा-विजयवेजयंत जाव सव्वट्ठसिद्धगा, से तं अणुत्तरोववाइया ॥ कहि णं भंते ! भवणवासि देवाणं भवणा पन्नत्ता, कहि णं भंते ! भवणवासी देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पभा पुढवीए असी उत्तर जोयणसयसहस्स बाहल्लाए एवं जहा पण्णवणाए जाव भवणवासाइया, एत्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ बावत्तरि भवणावाससयसहस्ला भवतीति मक्खायं । तेणं भवणा बाहिं वट्टा, अंतो समचउरंसा, अहे पुक्खरकणिया संठाणसंठिया भवणवण्णओ भाणियवो जहा ठाणपदे जाव पडिरूवा। तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवसंति, असुरा णाग सुवण्णा य जहा पण्णवणाए जाव विहरति । कहिं णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पन्नत्ता? पुच्छा एवं जहा पण्णवणा ठाणपदे जाव विहरति । कहिं णं भंते! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं भवणा पुच्छा एवं जहा ठाणपदे जाव चमरे, तत्थ असुरकुमारिदे असुरकुमारराया परिवसइ जाव विहरइ ॥सू०४५॥ छाया-अथ के ते देवाः ? देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-भवनवासिनो वानव्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिकाः । अथ के ते भवनवासिनः । भवनवासिनो दशविधाः मज्ञप्ता, तद्यथा-असुरकुमाराः यथा प्रज्ञापनापदे देवानां भेदस्तथा भणि Page #739 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ ०.४५ देवस्वरूपवर्णन ७२७ तव्यो यावदनुत्तरोपपातिकाः पञ्चविधाः प्रज्ञप्ताः तद्यथा-विजयवैजयन्त यावत् सर्वार्थसिद्धिकाः ते एते अनुत्तरोपपातिकाः कुत्र खलु भदन्त ! भवनवासदेवानां भवनानि प्रज्ञप्तानि कुत्र खल्लु भदन्त ! भवनवासिदेवा! परिवसन्ति ? गौतम ! एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या अशीत्युत्तरयोजनशतसहस्रवाहल्पायाः, एवं यथा प्रज्ञापनायां यावत् भवनवासादिकाः, अत्र खलु भवनवासिनां देवानां सप्तभवनकोटयः द्विसप्ततिभवनावासशतसहस्राणि भवन्तीत्यारुपातम्, तानि खल्ल भवनानि बहिवत्तानि, अन्तः समचतुरस्राणि, अधस्तलमागेपु पुष्करकर्णिकासंस्थितानि, भवनवर्णको अणितन्यो यथा स्थानपदे यावत्पतिरूपाणि । तत्र खल्ल बहवो भवनवासिनो देवाः परिक्सन्ति असुरा नागसुवर्णाश्च यथा प्रज्ञापनायां यावद्विहरन्ति । कुत्र खलु भदन्त ! असुरकुमाराणां देवानां भवनानि प्रज्ञप्तानि पृच्छा एवं यथा मज्ञापना स्थानपदे यावद् विहरन्ति । कुन खलु भदन्त । दाक्षिणात्याना ममुरकु. मारदेवानां भवनानि पृच्छ।' एवं यथा स्थानपदे यावच्चमरः, तथाऽसुरकुमारेन्द्रोऽसुरकुमारराजाः परिवसति याचद्विहरति ।।०४५।। टीका-से किं तं देवा' अथ के ते देशा, देवानां भवनवासिमभृतीनां कियन्तो भेदा भवन्तीति प्रश्नः, भगवालाह-'गोयमा' इत्यादि, ‘गोयमा' हे गौतम ! 'देवा चउचिहा पन्नत्ता' देवाश्चतुर्विधाः प्रज्ञप्याः 'तं जहा' तद्यथा-'भवणवासी भवनवासिनो देवाः, 'बाणमंतरा' वानव्यन्तरा बने भवा बाना: वानाश्च ...इस तरह संक्षेप और विस्तार से मनुष्यों का निरूपण करके अव देवों का निरूपण रस्म किया जाता है। 'से किं तं देवा !-देवा चयधिहा पचत्ता' इत्यादि सूत्र-४३॥ दीकार्थ-गौतमस्वामीने प्रभु से पूछा है-हे भदन्त ? देव कितने प्रकार के है ? उत्तर में प्रभु ने कहा है । 'गोधमा देचा चउम्विहा पनत्ता' हे गौतम ? देव चार प्रकार के कहे गये है-'तं जहा' जैले 'भवणवासी, वाणमंतरा, जोसिया, वेमाणिया' भवन बाली, वानव्धन्तर, ज्योति આ રીતે સંક્ષેપ અને વિસ્તાર પૂર્વક મનુષ્યનું નિરૂપણ કરીને હવે દેવેનું નિરૂપણ કરવામાં આવે છે. ‘से कि त देवा १ देवा चउठिवहा पण्णत्ता' या ટીકાર્થ–આ વિષયમાં શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને વિનમ્રભાવે પૂછ્યું કે હે ભગવન દેવ કેટલા પ્રકારના કહેવામાં આવેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં प्रभुश्री युं है 'गोयमा ! देवा च उनिहा पण्णता' 3 गौतम | हेवा यार ५२ना मामा माद छ, 'त' जहा' ते 4 प्रमोथे. 'भवणवासी, वाणम तरा जोइसिया, वेमाणिया' सवनवासी, पान यन्त२, न्यति मन वैमानि Page #740 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीवाभिगमध्ये ७६८ ते व्यन्तरा वानव्यन्तरदेवविशेषाः किल्विष देवाः 'जोइसिया' ज्योतिष्काःचन्द्रमूर्यादयः 'वेमाणिया' वैमानिकाः । चतुर्विधदेवेषु मध्ये प्रथमोपाचमवनवा. सिदेवान् निरूपयितुं प्रश्नयन्नाह-'से कि तं' इत्यादि, 'से किं तं भवणवासी' अथ के वे भवनवासिनः ? भवनवासिदेवानां कियन्तो भेदा इति प्रश्नः, भगवा. नाह-'भवनवासी देवा दसविहा पन्नत्ता' भवनवासिनो देवाः दशविधाः-दशम कारकाः प्रज्ञप्ता:-कथिताः, दशविधत्वमेव दर्शयति-तं जहा' तद्यथा-'असुरकुमारा जहा पण्णवणापदे देवाणं भेदो तहा भाणिययो' असुरकुमारा यथा प्रज्ञापना पदे-प्रज्ञापनाया: प्रथमे प्रज्ञापनापदे देवानां सर्वेषां भेद तथा भणितव्या, प्रज्ञा. पनायाः प्रथमपदानुसारेण भानवासिमभृतिनां देवानां भेदोऽत्रापि वक्तव्यः, असुर-नाग- सुवर्ण-विद्यु-दग्नि- द्वीपो-दधि-दिशा-पवन-स्तनितकुमारपर्यन्तं षिक और वैमानिक 'सेकिंतं अवणवाली' हे भदन्त ? भवनवासी देव कितने प्रकार के है। उत्तर में प्रभुश्री कहते है-हे गौतम' भवनवासी देव 'दसचिहा पन्नत्ता' दश प्रकार के कहे गये है 'तं जहा' जैसे 'असुरकुमारा जहा पण्णवणा पदे देवाणं भेओ तहा भाणितव्वो जाव अणुत्तरो. वधाइया पंचविहा पण्णत्ता' असुरकुमार नागकुमार इत्यादि दश भेदों का वर्णन तथा वानव्यन्तरादि समस्त देवों के भेदों का वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के प्रथम पद में पांच प्रकार के अनुत्तरोपपातिक देवों तक किया गया है। अतः वह सब वर्णन वहां से देख लेना चाहिये प्रज्ञापना के प्रथम पद में भवन वाली देवों के दस खेद इस प्रकार से कहे गये है-असुर कुमार, सुपणकुमार, विद्युत्कुमार, दीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, पवनकुमार, स्तनितकुमार, १० ये दस भवन वासी देव है । प्रज्ञापना 'से कि त भवणवासी' हे सगवन् सवनवासी तुवाट प्रा२न। वाम આવ્યા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! ભવનવાસી है। 'दसविहा पण्णत्ता' इस प्रा२ना हेवाभा यावेत छे. 'त' जहा' ते मा प्रभारी छ 'असुरकुमारा जहा पण्णवणापदे देवाणं भेओ तहा भणितव्वो जाव अणुत्तरोववाइया पंचविहा पण्णत्ता' मसुरेशुभार नागभार विशे२ मा ४४ाરના ભવનપતિ દેવેનું વર્ણન તથા વાનવ્યન્તર વિગેરે સઘળા દેના ભેદોનું વર્ણન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં પાંચ પ્રકારના અનુત્તરપાતિક દેના કથન સુધી કરવામાં આવે છે. તેથી તે સમસ્ત કથન ત્યાંથી જોઈ લેવું પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં ભવનવાસી દેના દસ ભેદે આ રીતે કહેવામાં આવેલ છે. અસુર કુમાર ૧, નાગકુમાર ૨, સુવર્ણકુમાર ૩, વિદ્યસ્કુમાર ૪, અગ્નિકુમાર પ, દ્વીપકુમાર ૬, ઉદધિકુમાર ૭, દિકુમાર ૮, પવનકુમાર Page #741 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ३.३ ५.४५ देवस्वरूपवर्णनम् ७११ भवनवासिनो दशविधा देवा भवन्तीति । कियत्पर्यप्त प्रज्ञापना प्रथमपदोक्तदेव भेदो वक्तव्यस्तत्राह-'जाच' इत्यादि, 'जाव अणुत्तरोववाइया पचविता पन्नत्ता' यावत्यावस्पदेन- भवनपति- वानव्यन्तर -ज्यौतिष्ककल्पोपपन्नकल्पानीतग्रेवेयकदेवाः संग्रायाः, ततः अनुत्तरोपपातिकदेवप्रश्नश्चग्राह्य', उत्तरमाह-अनुत्तरोपपातिकाः पञ्चविधा:-पश्चपकारकाः प्राप्ताः, 'त जहा' तद्यथा-'विजयधैजयंत जाय सबसिद्धगा' विजयवैजयन्त यावत् सर्वाथसिद्धकाः विजयजयन्त जयन्तापगजितमर्वार्थ सिद्धदेवाः 'से तं अनुत्तरोववाहया' ते एसे अनुत्तरोषपात्तिकाः, इति पर्यन्तं प्रज्ञापनायाः प्रयमपदोक्त प्रकरणं वाच्यम् । अथ प्रज्ञापनायाः द्वितीय स्थानपदोक्तभवनवासिनां देवानां भवनप्रतिपादनार्थमाह-'कहि णं भंते !' इत्यादि. के प्रथम पदोक्त देवों के भेद कहां तक कहना चाहिये उल पर कहते है-'जाव इत्यादि' जाव अणुत्तरोवाड्या पंच बिहा पणता यावत , यहां यावत् पद से यहां भवन पति-बानव्यन्तर-ज्योतिक कल्पोपपन्न,कल्पातीत वेयक देवों का तथा अनुत्तरोषपातिक देवों के विषयक प्रश्न ग्रहण करना चाहिये । उत्तर में भगवान कहते है। हे गौतम अनु. तरोपपातिकटच पांच प्रकार के कहे गये है 'तं जहा' जस्ले विजयवेजयंत जाव सन्धट्ट सिद्धगा' विजय-वैजयन्त-जयन्त-अपराजित और सर्वाथसिद्धदेव ! 'सेत्तं अणुत्तरोवाइया' ये अनुत्तरोपपतिक देव है। यहां तक का वर्णन श्रीप्रज्ञापना के प्रथम पदोक्त प्रकरण से जानना चाहिये इसके आगे प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पदोक्त लबानदानी देवों के भवन आदिका वर्णन करते है 'कहिण भंते' इत्यादि । 'कहिण भंते ! भलणवासि देवाणं भवणा ૯ અને સ્વનિતકુમાર ૧૦ આ રીતે દસ પ્રકારના ભવનવાસી દેવો કહ્યા છે. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં કહેવામાં આવેલ દેવના ભેદે કેટલા સુધી ४। नियत समयमा सूत्रा२ 'जाव' त्यादि सूत्र छ 'जाव अनुत्तरोववइया पंचविहा पण्णता' यावत् मे ५४थी महियां मनपति, वानव्य-तर, જ્યોતિષ્ક, કલ્પપપન્ન, કલ્પાતીઅ, નવેયક દેતું તથા અપપાતિક દેવાના સંબંધમાં પ્રશ્ન કહે જોઈએ એ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે गौतम अनुत्तीपाति पांय ना अपामा मावेस छ. 'तौं जहा' ते भा प्रमाणे 2. 'विजयवेजयंत जाव सव्वद सिद्धगा' विय, वैपन्त, यन्त म५२ मते साथ सिद्धव, ‘से त्तं अणुत्तरोववइया' मा अनुत्त। પપાતિક દે છે. આટલા સુધી પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પહેલા પદમાં કહેલ પ્રકરણથી સમજવું. આના પછીનું શ્રી પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના બીજા સ્થાન પદમાં કહેલ ભવનવાસી हवाना सपन विगेरेनु वयुन ४२वामां आवे छे. 'कहि ण' भते !' इत्यादि Page #742 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ទេមិច जीवाभिगमसूत्र DADA 'कहिणं भंते ! कुत्र खच भदन्त ! 'भवनवासिदेवाणं भवणा पन्नत्ता' भवनवा. सिदेवानां भवनानि निवासस्थानानि प्रज्ञप्तानि कथितानि तथा 'कहिण भंते ! भव. नवासिवा परिवसंति' कुन खलु भदन्त ! भवनवासिदेवाः परिवसन्तीति प्रश्न: भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'इमी से रयणप्पभाए पुढ़वीए' एतस्या रस्लममायाः पृथिव्याः 'असी उत्तरजोयण प्लयसहस्स बाहल्लाए' अशी. त्युसरयोजनशतसहस्रबाहल गया:-अशीत्युत्तरस्-अशीतिसहस्राधिकं योजनशतसहस्त्रं बाहल्यं पिण्ड भावो यस्याः सा तथोक्ता, तस्या उपरि एक योजनसहस्रमव. गाय अधस्तादेकं योजनसहस्रं वर्जयित्वा मध्ये अष्टसप्तते अष्टसप्तति सहस्राधिके योजनशतसहस्र अयमेशशया-'एवं जहा पण्णवणाए जाव भवणवासाइया' इति प्रकरणस्य । 'एत्य णं भवणवासिणं देवाणं सत्तभवणकोडीओ पावत्तरि भवणावाससयसहस्सा भवंतीति मक्खाय' अत्र खल्लु-एतस्मिन् स्थाने भवनवासिनां देवानां पण्णत्ता' हे भदन्त ? भवनवासि देवों के भवन कहां पर कहे गये है ? 'कहिणं भंते' 'भवणवासी देवा परिवसति' तथा-हे भदन्त ! भवनवासी देव कहां पर रहते है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते है ? ... गोथमा हमीसे रयणप्पभाए पुढधीए असी उत्तर जोयण सय. सहस्सपाहल्लाए 'हे गौतम' १ लाख ८० हजार योजन की मोटी इस रत्नप्रभा पृथिबी के उपर नीचे के एक एक हजार योजन को छोडकर वीच के १ एक लाख ७८ असर हजार योजन परिमित भाग में "एवं जहा एण्णक्षणाए जाव भक्षणधासाहया इस प्रकार जैसा प्रज्ञापना. सूत्र के द्वितीय स्थान पद में कहा है वैसाही समझ लेना चाहिये, 'एस्थणं ते भवणवालीण देवाणं लत्तभवणकोडीओ बापत्तरि भवणा वाससय 'कहि णं भवे । भवनवासि देवाणं भवणा पण्णत्ता' है सावन् मनपासी हवाना सपने यां या स्थणे हे छे ? 'कहिणं भते ! भवणवासी देवा परिवतति' तथा समन् सवनवासी हे या २९ छ ? मा प्रश्शना तरम प्रसुश्री गौतभस्वामीन ४४ छ, 'गोंयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असी उत्तर जोयणसयसहस्सबाहल्लाए' गौतम ! १ मे दाम ८० એંસી હજાર યોજનાના વિસ્તારવાળી સ્થૂળ આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીની ઉપર અને નીચેના ભાગમાં એક એક હજાર યોજનને છોડીને વચ્ચેના એક લાખ ૭૮ सहयोते२ १२ योन प्रमाण सागमा ‘एवं जहा पण्णवणाए जाव भवण वासाइया' शत प्रज्ञायना सूत्रना स्थानमा २ प्रमाणे वामां माव. दस छे. ते प्रभानु ४थन सभ से 'एत्थ णं ते भवणवासीण देवाण सत्त भवण कोडोओ बावत्तरि भवणावाससयसवस्सा भवतीति मकखाय" Page #743 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ३.३ सू०४५ देवस्वरूपवर्णनम् ७२१ द्विसप्ततिलक्षाधिक सनुकोटि संख्यकानि (७७२०००००) मरनानि भवन्तीति बाख्यातम् । तत्र तत्प्रमाणमेवं भवति - चतुः षष्ठिः (६४) शतसहस्राणि भवनानि अनुरकुमाराणाम् । चतुरशीतिः (८४) शतसहस्राणि नागकुमाराणाम् । द्विसप्ततिः ( ७२ ) शतसहस्राणि सुवर्णकुमाराणाम् । पण्णवतिः (९६) शतसहस्राणि वायुकुमा राणाम् । शेषाणां षण्णां प्रत्येकं षट्सप्ततिः (७६) शतसहस्राणि भवनानि भवFatति । ततः सङ्कलनया यथोक्ता द्विसप्ततिलक्षाधिकसप्तकोटि (७७२००००० ) भवनसंख्या भवति । एतेषां दशानां भवनवासिनां क्रमशो भवनसंख्यामदर्शकं --- कोष्टकम् नामानि क्रमाङ्काः १ mr 203 v ३ ६ ৬ ८ १० असुरकुमार भवनानि नागकुमार भवनानि सुवर्णकुमार भवनानि विद्युत्कुमार भवनानि afaकुमार भवनानि द्वीपकुमार भवनानि उदधिकुमार भवनानि दिक्कुमार भवनानि पवनकुमार भवनानि स्वमितकुमार भवनानि भवनसंख्या ६४००००० ८४००००० ७२००००० ७६००००० ७६००००० ७६००००० ७६००००० ७६००००० ९६००००० ७६००००० सर्वसंख्या- ७७२००००० सहस्सा भवतिति मक्खायें' वहाँ पर भवनवासी देवों के सात करोड बहत्तर लाख - (७७२०००००) भवन है । ऐसा मैने तथा पूर्व के अन्य तीर्थकरों ने भी कहा है । इनका सात करोड बहत्तर लाखका प्रमाण इस प्रकार से हैं चौसठ लाख ६४ भवनतो असुर कुमारों के है। चौरासी ८४ लाख नागकुमारों के है बहत्तर ७२ लाख सुवर्णकुमारों के है । એ રીતે ભવનવાસી દેવેાના ૭ સાત કરોડ ૭૨ ખેતર લાખ ભવને છે, એ પ્રમાણે મેં તથા મારી પહેલાના અન્ય બધાજ તીય કર દેવેએ પણ કહેલ છે. તેઓના છ સાત કરોડ ૭૨ ખેતર લાખનું પ્રમાણુ આ પ્રમાણે છે. ૬૪ ચેસઢ લાખ ભવનાવાસે તે અસુરકુમારેશના છે ૮૪ ચાર્યાશીલાખ નાગકુમારોના છે. છર ખેતર લાખ સુવર્ણ કુમારના છે. ૯૬ છન્નુ લાખ વાચુકુમારેાના છે. તથા બાકીના છ એટલે કે વિદ્યુત્સુમાર, અગ્નિકુમાર, દ્વીપકુમાર, ઉદધિકુમાર, जो० ९१ Page #744 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२२ लीयामिगमले ___णं भवणा बाहिं वट्टा अंतो समचउरंसा, हेहा पुक्खरकणिया संठाणसंठिया भवणवण भो भाणियव्यो जहा ठाणपढ़े जाव पडिहवा तानि च भानानि वहिर्वृत्ताकाराणि अन्तः समचतुरस्राणि अधस्तलभागेषु पुष्करकर्णिकासंस्थानसंस्थितानि 'भवणवण्णो भाणियन्यो जहा ठाणपदे जाव पडिरूवा' अतः परं भवनवर्णको वर्णयितव्यो यथा प्रज्ञापनायाः स्थानाख्ये द्वितीयपदे कृत स्तेनैव रूपेण स च तावत् यावत् 'पडिरूबा' पदम् 'तत्थ णं वह' इत्यादि, 'तत्थ ण बडवे भवणवासीदेवा परिवसंति' तत्र तेषु अनन्तरोदितस्वरूपेषु भवनेषु खलु वयोऽनेकजातीयका:-अनेकपकारका अवनवासिनो देवाः परिवसन्ति । तानेव भवनवासिनो देवान् जातिभेदत आह–'अमुरा' इत्यादि 'असुरा नागसुदनाय असुरकुछियानवे ९६ लाख वायुकुमारों के है । शेष ६ छहों के विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, दीपकुमार, उदधिकुमार दिक्कुमार और स्तनितकुमार इन प्रत्येक के छिहत्तर छिहत्तर ७६ लाख भवन है। इन सवको जोडने से पूर्वोक्त लात करोड बहत्तर लाख-७७२००००० भवन हो जाते है जिसका क्रम से 'तेणं भक्षणा वालि बट्टा अंतो सखचउरसा अहे पुक्खरकणिया संठाणसंठिया भवणाश्रो भाणियचो जहा ठाणपदे जाव पडिरूवा' ये भषन बाहर में वृत्त आहार वाले होते है। भीतर में समचतुत्र-समचतुष्कोण एवं तले में पुष्कर कार्णिका जैसे होते है। प्रज्ञापनासूत्रके स्थान नाम के द्वितीयपद में इन भवनों का जैला वर्णन है वैसा ही यहां समझ लेना चाहिये यह वर्णन 'पडिरुवा' पद तक कर लेना चाहिये । 'तत्थ णं यह भवणवाली देवा परिवमंति' इन्हीं अननतरोदित स्वरूप बाले भवनों में अनेक प्रकार के अर्थात् दस प्रकार के દિકુમાર અને સ્વનિતકુમાર આ છએ ના ૭૬ છેતેર ૭૬ છેતેર લાખ ભવને છે આ બધાને મેળવવાથી પહેલા કહ્યા પ્રમાણે ૭૭૨૦૦ ૧૦૦ સાત કરોડ તેર લાખ ભવન થઈ જાય છે. તેનું વર્ણન સૂત્રકારે આ પ્રમાણે ४३ छे. 'ते ण भवणा बाहिं वडा अतो समचउरसा आहे पुक्खरकणिया संठाणसठिया भवणाओ भाणियव्यो जहा ठाणपदे जाव पडिरूवा' मा सपना બહારથી વૃત્ત–ોળ આકારના હોય છે. અંદરના ભાગમાં સમચતુસ્ત્ર ખંડા અને નીચેના ભાગમાં પુષ્કરકર્ણિકાના આકાર જેવા હોય છે. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદ નામના બીજા પદમાં તે બધા ભવનેનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે, તે જ પ્રમાણે તે તમામ વર્ણન અહિં પણ સમજી લેવું જોઈએ. આ વર્ણન 'पडिरूवा' से ५४ सुधी मही या 3री से 'तत्थ ण बहवे भवणवासी देवा परिवसति । पूवात सवनामा भने પ્રકારના અર્થાત્ દસ પ્રકારના વનવાસી દે રહે છે. તેઓના નામ આ Page #745 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ ८.४१ देवस्वरूपवर्णनम् ७२३ माराः, नागकुमाराः, सुवर्णकुमाराः, विद्युत्कुमाराः, अग्निकुमारा, द्वीपकुमाराः, उदधिकुमाराः, दिक्कुमाराः पवनकुमाराः, स्वनित कुमाराः १०, 'जहा पण्णचण्णाए जाव विहरंति' यथा ज्ञापनायां यावद्विहरन्ति, अत्रैषां वर्णने यावत्पदेन 'चूडामणि मउडरयणा' इत्यादि परिपूर्णः प्रज्ञापनायाः स्थानपदोक्तपाठो ग्राह्यः । अथ भवनवासिदेवानां मध्ये प्रथम मसूरकुमारदेववक्तव्यतामाह- 'कहिणं भंते ! अरकुमाराणं' इत्यादि, 'कहि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पन्नता पुच्छा !" कुन खलु भइन् ! भवनवासिदेवानां मध्ये असुरकुमाराणां देवानां भवनानि पज्ञप्तानि, तथा कुत्र खलु भदन्त । असुरकुमारा देवाः परिवसन्तीति पृच्छया संगृह्यते प्रश्नः, उत्तरयति - ' एवं जहा पण्णवपाठाणपदे जाव विहरंति' एवम् उक्तप्रकारेण या मज्ञापनाया द्वितीय स्थानपदे वक्तव्यता भणिता सा वक्तभवनवासी देव रहते है इन के नाम कहते हैं 'असुरा नागसुवन्ना जहा पण्णवणाए जाब विहर्शत' जैसे असुर कुम्मार नागकुमार सुवर्णकुमार विद्युत्कुमार अग्निकुमार, दीपकुमार, उदधिकुमार, दिक्कुमार, पवनकुमार और स्तनितकुमार, इनका पूरा वर्णन 'चूडामणिमउडरयणा' इत्यादि । जैसा कि प्रज्ञापना लूनके द्वितीय स्थान पद में याव विहरन्ति तक पाठ कहा गया है यह सब वर्णन यहां कर लेना चाहिये अब यहां भवनवाली देवों से से प्रथम असुर कुमार देवों की वक्तव्यता कहते है- 'कहि णं भंते !" इत्यादि 'कहि णं भते ।' असुरकुमा राणं देवाणं भवणा पुच्छा' हे भदन्त ? भवनवासियों में असुरकुमार देवों के भवन कहाँ पर कहे गये हैं ? तथा ये असुरकुमारदेव कहां पर रहते हैं 'एवं जहा पण्णवणाठाणपदे जाव विहरति ' जिस प्रकार से प्रज्ञापना सूत्र के स्थानपद में असुरकुमारों की वक्तव्यता यावत् विहरन्ति तक प्रभाछे छे. 'असुरा नागसुवण्णा य जहा पण्णवणाए जाव विहरति असुरकुभार नागकुमार, सुवर्ण कुमार, विद्युत्कुमार, अग्निकुमार, द्वीपकुमार, अधिकुमार, हिम्कुमार, पवनकुमार भने स्तनितभार तेषानु स वान 'चूडामणि मउड रयणा' इत्यादि अारथी वामां आवे छे ? होते अज्ञापना सूत्रना श्री स्थान मां 'जाब विहरति मे धन पर्यन्त या वामां आवेस છે. તે બધુ જ વર્ણન અહિયાં કરી લેવુ.. હવે ભવનવાસી દેવેમાં પહેલા જે અસુરકુમાર દેવા છે, તેઓનુ` કથન ४२वामां आवे छे. 'कहि णं भवे !' त्याहि 'कहि णं भ'ते ! असुरकुमाराण देवाणं भवणा पुच्छा' हे लगवन् ! ભવનવાસીચેમાં અસુરકુમાર નામના જે ભવનવાસી દેવા છે, તેએના ભવના કયાં કહેવામાં આવ્યા છે. તથા આ અસુરકુમાર દેવે કયાં પાગળ રહે છે ? Page #746 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CL जीवामिगमसूत्रे व्यता इहापि भणितव्या, 'गोयमा' इमी से रवणप्पभार पुढवीप' इत्यारभ्य 'जाव विहरंति' यावद् दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरन्ति इति पर्यन्तमिति । पूर्व सामान्यतोऽसुकुमाराणां भवनादिप्रदर्शितम्; ते चासुरकुमारा दाक्षिणात्या औत्तराश्रति द्विविधा भवन्ति तत्र प्रयमं दाक्षिणात्यासुरकुमाराणां भवनादि वक्तव्यतामाह - 'कहिणं भंते ! दाहिणिल्लाणं' इत्यादि । 'कहिणं भंते! दाहिणिका णं असुरकुमारदेवाणं भवणा पुच्छा' हे भदन्त ! कुत्र खद्य दाक्षिणात्याना मसुरकुमारदेवानां भवनानि प्रज्ञतानि, तथा कुत्र खलु भद ! दाक्षिणात्य असुरकुमार देवाः परिवसन्तीति पृच्छाया संगृह्यते मनः, उत्तरमाह - ' एवं जवा ठाणपदे जाव चमरे, तत्थ अनुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसर कही गई है वही वक्तव्यता यहां पर भी समझ लेनी चाहिये वह 'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए' यहां से लेकर 'जाव विहरंति' यावत् वे असुरकुमारादि देवों वहां पर दिव्य भोगों को भोगने का अनुभव करते हुए रहते है यहां तक का वर्णन कर लेना चाहिये, पूर्व सूत्र में सामान्यतः असुरकु मारो के भवनों का वर्णन किया, वे असुर दाक्षिणात्य-दक्षिण दिग्वासी - तथा औत्तर- उत्तर दिग्वासी ऐसे दो प्रकार के होते हैं । उनमें पहले दाक्षिणात्य असुरकुमारों के भवन आदिका वर्णन करते है 'कहि णं भंते दाहिणिल्लाणं' इत्यादि । 'कहिणं भंते दाहिणिल्लाणं' असुरकुमार देवाणं भवणा पुच्छा' हे भदन्त ? दाक्षिणात्य असुर कुमार देवों के भवन कहाँ है । तथा कहाँ पर दाक्षिणात्य असुरकुमार देव रहते है ? 'एवं जहा पण्णवणा ठाणपदे जाव विहरति, ? प्रभाषे प्रज्ञापना सूत्रना मील स्थानपदृभां असुरङ्कुभानुं अथन 'जाव विहरति' मे सुत्राश पर्यन्त उडेवाभां આવેલ છે. તે તામ કથન અહીંયાં પણ સમજી લેવું. તે આ પ્રમાણે છે. 'इम से रयणभार पुढवीए' मा सूत्रांशथी बने 'जाव विहरति यावत् a અસુરકુમારાદિ દેવે ત્યાં દિવ્ય ભેગાને ભાગવવાના અનુભવ કરીને સુખપૂવ ક નિવાસ કરે છે. આટલા સુધીનુ' પ્રજ્ઞાપનાસૂત્રનુ વર્ણન અહિયાં કરી લેવુ' જોઇએ. પૂર્વ સૂત્રમાં સામાન્ય રીતે અસુરકુમારાના ભવનાનું વન કરવામાં આવેલ છે. તે અસુરકુમાર દેવે દક્ષિણ દિશામાં તથા ઉત્તર દિશામાં નિવાસ કરનારા એ રીતે દક્ષિણાત્ય અને ઔત્તર એમ બે પ્રકારના હાય છે. તે પૈકી પહેલા દાક્ષિણાત્ય અસુરકુમાર દેવાના ભવના વિગેરેતુ વર્ણન કરવામાં मावे छे. 'कहि णं भते । दाहिणिल्लाणं' इत्यादि 'कहि णं भवे ! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणं भवणा पुष्छा' डे ભગવન્ ! દક્ષિણ દિશામાં નિવાસ કરનાર અસુરકુમાર દેવાના ભવના ક્યાં આવેલા છે? તથા તેઓ કયાં નિવાસ કરે છે? આ પ્રશ્ન પૃચ્છા એ શબ્દ પ્રયાગથી Page #747 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयसिका टीका प्र. ३ उ.३ ६.४५ देवस्वरूपवर्णनम् ૭૨. जाव विहरइ' एवं यथा स्थानपदे ज्ञापनाया द्वितीयपदे कथितं तथाऽपि ज्ञातव्यं यावच्चमरस्तत्र असुरकुमारेन्द्रः अमुरकुमारगजः परिवसति यावद विहरतीति । अत्र - 'गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे' इत्यारभ्य 'दिव्वाई भोगमोगाई भुंनमाणे विहर' इति पर्यन्तं दाक्षिणात्यासुरकुमारवक्तव्यता सर्वाऽपि - प्रज्ञापनायाः स्थानपदोक्ता ग्राह्येति ॥०४५|| पूर्व चमरसूत्रे 'ति परिमाणं' इत्युक्तम्, वतश्च १रस्य परिषद्विशेपपरिज्ञानाय सूत्रमाह-'चमरस्त णं भंवे !' इत्यादि, मूलम् - चमरस्त णं भंते ! असुरिंदस्स असुररन्नो कइ परिसाओ पन्नत्ताओ ? गोयमा ! तओ परिलाओ पन्नताओ तं जहा - समिया चंडा जाया, अभितरिया समिया मज्झिमिया डा बाहिरिया च जाया । चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स यह पृच्छा शब्द से ग्रहण किया जाता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते है ' एवं जहा ठाणपड़े जाव चमरे तत्थ असुर कुमारि देवा असुर कुमारराया परिवार 'जाव विहरह' हे गौतम इस प्रकार जैसा प्रज्ञापना के स्थानपद में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी जान लेना चाहिये यहां तक कि वहां चमर असुरेन्द्र असुरकुमार राजा रहता है। इसका पूरा वर्णन यहाँ समझना चाहिये यहां तक कि 'गोपमा' 'जंबूद्दोवे दीवे' यहां से लेकर वह चमर असुरेन्द्र असुरकुमार राजा 'दिव्वाई भोग भोगाइ भुंजमाणे विहरई' दिव्य भोग भोगों का अनुभव करता हुआ रहता है यहां तक दाक्षिणात्य असुरकुमारों का सब वर्णन प्रज्ञारना के स्थान पदोक्त यहां भी समझ लेना चाहिये | सूत्र - ४५ ॥ ઉપસ્થિત કરવામા આવેલ છે. આ પ્રશ્નના ઉત્તરમા પ્રભુશ્રી કહે છે કે વ ના ठाणपदे जाव चमरे तत्थ असुरकुमारिंदे असुरकुमारराया परिवसइ जाव विहरइ' હે ગૌતમ આ રીતે જે પ્રમાણે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદમાં કહેવામાં આવેલ છે તેજ પ્રમાણેનુ કથન અહીયાં પણ સમજી લેવું તે કથત ચમર અસુરેન્દ્ર મસુરકુમાર રાજા હૈાય છે. આટલા સુધીનુ' પુરે પુરૂં અહિયા સમજી લેવુ अर्थात् प्रलुश्री गौतमस्वामीने उत्तर भापता 'गायमा । ज बुद्दीवे दीवे' मे शब्द प्रयोगधी मारलीने ते समर असुरेन्द्र असुरकुमार राल 'दिव्वाई' भोग भोगाई भुजमाणे विहरइ' द्विव्य लोग लोगोंनो अनुभव उरता था त्यां रहे છે. આટલા સુધી દક્ષિણાત્ય અસુરકુમાર દેવેનું પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદમાં કહેલ તમામ વર્ણન અહીયા પણ સમજી લેવું ૫ ૪ા Page #748 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२६ जीवामिगमा असुररन्नो अभितर परिसाए कइ देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ? सज्झिम परिसाए कइ देवलाहस्सीओ पन्नत्ताओ? वाहिरपरिसाए कह देवलाहस्सीओ पन्नत्ताओ? गोयमा! चमरस्लणं असु. रिंदस्स असुररलो अभितरियाए परिसाए चउवीसं देवसाहस्तीओ पन्नत्ताओ, मज्झिमियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसाहसीओ पन्नत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए वत्तीस देवसाहस्तीओ पन्नत्ताओ! चमरस्त णं भंते ! असुरिंदस्स असुररण्णो अभितरियाए परिसाए कइ देबिलया पन्नत्ता? मज्झिमियाए परिसाए कइ देविसया पण्णता ? बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पन्नत्ता ? गोयमा ! चमरस्ल णं असुरिंदस्त असुररन्नो अभितरियाए परिस्साए अद्धता देविसया पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि देविसया पन्नत्ता, वाहिरियाए अड्डाइजा देविसया पन्नत्ता । चमरस णं भंते! असुरिंदस्स असुरश्न्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता वाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नता, अभितरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयला! चमरस्त णं असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं अड्डाइजाई पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता, अज्झिमियाए परिसाए देवाणं दो पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं दिवड्डे पलिओवनाई ठिई पन्नत्ता, अभितरियाए परिलाए देवीणं दिवट्ठे पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं पलिओनं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता । से केणटेणं भते । एवं Page #749 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४६ देवस्वरूपवर्णनम् ७२७ वुचइ, चमरस्ल असुरिंदस्स तओ परिलाओ एन्नताओ, तं जहा-समिया चंडा जाया अभितरिया लमिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया? गोयमा ! जसरस्ल णं असुरिंदरल असुररन्नो अभितरपरिसा देवा वाहिया हव्यमागच्छंति, नो अव्वाहिया मझिम परिसाए देवा वाहिया हठवमागच्छंति, अब्वाहिया वि। बाहिरपरिला देवा अनाहिया हवसागच्छति अदुत्तरं च णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया अन्नयरेसु उच्चावएसु कज कोडुबिएसु समुप्पन्नेसु अभितरियाए परिसाए सद्धिं संमइ संपुच्छणा बहुले विहरइ, मज्झिमाए परिसाए सद्धिं पयं पञ्चे माणे२ विहरइ, बाहिरियाए परिसाए सद्धिं पयं पवंचेमाणे २ विहरइ से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुचइ चमरस्स णं असुरिंदरत असुरकुमाररण्णो तओ परिलाओ पन्नत्ताओ, समिया चंडा जाया अभितरिया समिया मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया ॥खू०४६॥ ___ छाया-चमरस्य खलु भदन्त ! असुरेन्द्रस्यासुरराजस्य कति पर्पदः प्रज्ञप्ताः गौतम ! तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-समिता चण्डा जाता आभ्यन्तरिका समिता माध्यमिका चण्डा बाह्या च जादा । चमरस्य खलु सदन्न । असुरेन्द्रस्या. सुरराजस्थाऽऽभ्यन्तर पर्षदि कतिदेवसाइस्यः प्रज्ञप्ताः ? मध्यर्षदि कति देवसाहस्यः प्राप्ताः १, बाह्यपर्षदि कतिदेव साहस्यः प्रज्ञप्याः १, गौतम ! चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्यासुरराजस्याभ्यन्तर पपदि चतुर्विंशतिदेवसाहस्त्र्यः प्रज्ञता: मध्यमपर्षदि अष्टाविंशतिर्देवसाहस्यः प्रज्ञप्ताः, बाह्य पर्षदि द्वात्रिंशदेवसाहरूयः प्रज्ञप्ता चपरस्य खल भदन्त ! अप्सुरेन्द्रस्थासुरराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्षदि कतिदेवीशतानि प्रज्ञप्तानि ? माध्यमिकायां पर्षदि कति देवीशतानि घज्ञप्तानि ? बाह्यायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! चमरस्य खल अमरेन्द्र स्यामराजस्य आ-पन्तरिकाशं पर्ष दि भई चतुर्थानि देवीशतानि प्रज्ञ प्तानि, माध्यमिकायां पर्षदि त्रीणि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, बाह्यायां एर्षदि अर्द्ध तृतीयानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि । चभरस्य रहलु भदन्त ! असुरेन्द्रन्या. Page #750 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे सुरराजस्याभ्यन्तरिकायां पदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? माध्यमिका पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? वाह्यायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ताः ? आभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायां पर्षदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः मज्ञप्ताः, बाह्यायां पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रष्ठा, ? गौतम ! चमरस्य खल्ल अनुरेन्द्रस्य अनुरराजस्याभ्यन्तरकार्य पर्पदि देवानामर्द्धद्वतीयानि पत्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायां पर्वदि देवानां द्वे पल्योपमे स्थितिः भज्ञता, बाह्यायां पर्षद देवानां द्वचद्वै पल्योपमं स्थिति' प्रज्ञप्ता, अभ्यन्दरि कायां पदि देवीनां द्वयपल्योपमं स्थितिः ज्ञना, माध्यमिकायां पर्षदि देवीनां परयोपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, वाद्यायां पर्पादि देवीनामर्द्धपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता । तत्केनाधन भदन्त ! एवमुच्यते चमरस्न असुरेन्द्रस्यासुरराजस्य तिखः पर्षदः प्रज्ञप्तः तद्यथा-समिना चण्डा जाठा, आभ्यन्तरिका समिता, माध्यमिका चण्डा, वाह्या जाता ?, गौतम ! चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्यासुरराजस्याभ्यन्तर पर्षदेवा व्याहृता हव्यमा गच्छन्ति, नो अव्याहताः माध्यमिक परिषदेवा व्याहता हव्यमागच्छन्ति अव्याहृता अपि बाह्यपरिषदेवा अव्याहृता हव्यमागच्छन्ति, अयोत्तरं च खल गौतम ! चमरोऽसुरेन्द्रोऽसुरराजोऽन्यतरे च्चावचेषु कार्यकौटुम्बिकेषु समुत्पन्नेषु आभ्यन्तरिकया पर्पदा सार्द्ध संपति संपृच्छनाबहुळो विहरति, माध्यमिकया पर्षदा सार्द्ध पदं प्रपञ्चयन् प्रपञ्चयन् विहरति, तत् तेनार्थेन गौतम । एवमुच्यते चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य खलु तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः तद्यथा - समिता, चण्डा, जाता, आम्बन्तरिका समिता, माध्यमिका चण्डा, वाह्या जाता, सू० ४६ ॥ ७२८ टीका- 'चमरस्त णं भंते ! ' चमरस्य खलु भदन्त ! 'असुरिंदरस असुररनो' असुरेन्द्रस्यासुरकुमारराजस्य ' कइपरिसाओ पन्नत्ताभ' कति-कियत्संख्यकाः चमर सूत्र में कथित तीन परिषदाओं का कथन करते हैं 'चमरस्स णं भंते' इत्यादि । 'चमरस्स णं भंते, असुरिंदस्ल असुररन्नो कइपरिसाओ पन्नसाओ' इत्यादि । टीकार्थ- हे भदन्त ? असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र की कितनी परिषदाएं कही गई है ? उत्तर में प्रभु श्री कहते है- 'गोयना ! नओ परिसाओं હવે ચમર સૂત્રમાં કહેવામાં આવેલ અસુરરાજ ચમરેન્દ્રની ત્રણ षामनुं वन वामां आवे छे. 'चमरस्स णं भते ।" इत्याहि परि टीर्थ' - 'चमरस्त णं भते ! असुरिंदर असुररन्नों कइ परिसाथ पण्णत्ताओ' હે ભગવન્ અસુરેન્દ્ર અસુરરાજ ચમરઇન્દ્રની કેટલી પરિષદા કહેવામાં આવી Page #751 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ २.३ २.४६ देवस्वरूपवर्णन ७२९ पर्पदः प्रज्ञप्ताः-कथिता इखि परिपत्संख्याविषयका प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तो परिसाओ पन्नत्ताओ, तिस्रः-त्रिसंख्यकाः पर्षदः- सभाः प्रज्ञप्ता:-कथिता इति, 'तं जहा' तद्यथा-'समिया चंडा-जाया' समिता नाम्नि प्रथमा, चंडा द्वितीया, जाता तृतीयेति 'अभितरिया समिया' तत्राभ्यन्तरिका पर्प व समिताऽभिधाना प्रज्ञप्ता 'मज्झे चंडा' माध्यमिका चण्डा नाम्नी द्वितीया बाहिं च जाया' बाह्या च पर्षद जातामिधाना तृतीया भवतीति' 'चमरस्सणं भंते !' चमरस्य खलु भदन्त ! 'असुरिंदरस असुररन्नो' असुरेन्द्रस्यासुरराजस्य 'अमितरपरिसाए' आभ्यन्तरिकाभिधानार्थी प्रथमपरिषदि 'कइ देव साइस्सीओ' पन्नत्ताओ कति-किंयत्संख्यका देसाहस्पः-कियत्संख्यकानि देवसहस्राणि प्रज्ञप्ता ?-कथिता 'मल्झिपपरिसाए कइदेवसाहस्सीओ पन्नत्ताओं माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां पदि कति-कियत्संख्यकादेवसाहस्य:-क्रियसंख्यकानि देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि-कथितानि 'बाहिरपरिसाएकइदेवसाहस्सीयो पन्नत्ताओ' बाह्यायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां परिषदि कति-क्रियत्संख्यका पन्नत्ताओ' हे गौतम अस्तुरेन्द्र असुरराज चमर की तीन परिषदाएं कही गई है ? 'तं जहा' जो इस प्रकार से है-समिया, चंडा जाया' पहिली समिता परिषदा दूतकरी चण्डा परिषदा और तीसरी जाता परिषदा इनमें 'अभितरिया समिया, मज्झे चंडा, थाहिंच जाया' इन में जो आभ्यन्तर सभा है उसका नाम सममिता है, मन की जो सभा है उसका नाम चंडा है, और जो बायसभा है उसका नाम जाया सभा है। 'चमरस्लणं भंते' असुरिंदरुल असुररन्नो अभिलर परिसाए कई देव साहसीओ पन्नत्ताओ' हे अदन्त ? असुरेन्द्र असुरराज चम. रेन्द्र की आभ्यन्तर सभा में कितने हजार देव है 'मज्झिमपरिसाए कह देवसाहस्सीओ पन्नासो' मध्यम परिषदा में कितने हजार देव है ? છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં ભગવાન શ્રી મહાવીર પ્રભુ શ્રીગૌતમસ્વામીને કહે છે કે 'गोयमा ! तओ परिसाओ पन्नत्ताओ' 8 गौतम ! असुरेन्द्र असु२२३०१ यमरनी त्रय परिपहास उपामा मावस . 'त जहा' त म प्रभारी छ 'समिया चड़ा जाया' पसी सभिता परिषदा, मील 11 परिष: मने श्रील नाता परिषदा छे. तेमा 'अभितरिया समिया, मज्झे चंडा, वाहिच जाया' तमा આત્યંતર પરિષદા છે, તેનું નામ સમિતા છે. મધ્યની જે પરિષદા છે, તેનું નામ ચંડા છે. અને જે બાહ્ય પરિષદા છે, તેનું નામ જાયા છે. ___'चमरस्त णं भते ! असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरपरिसाए कइदेव साहस्सीओ पन्नत्ताओं' है मगवन् असुरेन्द्र असुररान अमरेन्द्रनी भास्यन्तर समामा ईटा १२ हे! छे ? 'मज्झिमपरिसाए कइ देव साहस्सीओ जी० ९२ Page #752 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३० जीवामिगमसूत्रे देवसाहस्त्रयः कियत्संख्यकानि देवसहस्राणि प्राप्तानि कथितानीतिप्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयवा' हे गौतम! 'चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो' चमररूप खल्ल असुरकुमारेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य 'अभितरपरिसाए' अभ्यन्तरपर्पदि प्रथमसभायां समिवाभिधानायाम् 'चवीस देवसाहसीयो पन्नताओ' चतुर्विंशतिः- चतुर्विंशतिसंख्यका देवताहरूः देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि कथितानि तथा - 'मसिमिया परिसाए' माध्यमिकायां द्वितीयस्यां चण्डाभिधानायां पर्पदि 'अहावीसं देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ' अष्टार्थियति संख्या देवसाहस्त्रयः - देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि - कथितानि ' वाहि रियाए परिसाए बत्तीसं देवसाहस्तीयो पन्नत्ताओ' वाद्यायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां पदि - सभायां द्वात्रिंशत्संख्यका देवसाहस्त्रयः - देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानीति ॥ 'चमरस्य णं भंते । चमरस्य खलु भदन्त | 'असुरिंदस्स असृररण्णो' असुरकुमारेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य 'असितरियाए परिसाए' आभ्यन्तरिकायां प्रथमायां समिताभिधानायां पर्पदि 'कई देविसया षन्नचा' कति - कियत्संख्यकानि 'बाहिरियाए परिसाए कह देवताहरूसीओ पन्नताओ' बाह्य परिषदा में कितने हजार देव है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु श्री कहते है - 'गोमा ! चमरस्त णं असुरिंदरस असुररतो' हे गौतम । असुरेन्द्र असुरराज चमर की 'अभितर परिलाए' आभ्यन्तर परिषदा में 'चवीसं देव साहसीओ पन्नताओ' चोइल २४ हजार देव कहे गये है । 'मज्झमि. या परिसाए अट्ठावीसं देव लाइस्सीओ पनन्ताओ' द्वितीय माध्यमिक सभा में अठाइल २८ हजार देव कहे गये है । 'बाहिरियाए परिलाए बत्तीसं देव साहसीओ' बाह्य परिषदा में बत्तीस ३२ हजार देव कहे गये है । 'चमरणं भंते ! असुरिंदस्ल अनुररन्नो अतिरियाए परिसाए पन्नत्ताओ' मध्यम परिषद्याभां डेंटला तर हेवा रहे छे ? 'बाहिरियाए परिसाए कइ देव साहरवीओ पन्नत्ताओ' બાહ્ય પરિષદમાં કેટલા હજાર દેવા રહે છે. या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री हे 'नोयमा ! चमरस्स णं' असुरिंदर असुररन्नो' हे गौतम! असुरेन्द्र असुररान यभरती 'अभि'तर परिसाए' अभ्यन्तर परिषदाभां 'चउनीस' देव साहस्सीओ पन्नत्ताओ' २४००० शोपीस तर देव ह्या छे 'मज्झमियाए परिसाए अट्ठावीस देवसाहस्सीओ पन्नताओ' भील मध्यम परिषहाभां मायावीस डेन्जर हेवा ह्या 'बाहिरियाए परिसाए बत्तीस' देव साहस्सीओ' माह्य परिषदाभां ३२००० मत्रीस उत्तर देवे। उह्या छे. 'चमरस्य णं असुरिंदर असुररन्नो अम्तिरियाए कति देविसया पण्णत्ता' હે ભગવન અસુરેન્દ્ર અસુરરાજ ચમરની આભ્યન્તર પરિષદામાં કેટલા સા Page #753 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.३ सू.४६ देवस्वरूपवर्णनन् देवीशतानि प्रज्ञतानि-कथितानि, तथा-सज्झिभियाए परिसाए' माध्यमिकायां द्वितीयस्यां चण्डाभिधानायां पदि कर देविसया पन्नत्ता 'कति-कियत्संख्यकानि देवीशतानि प्राप्तानि-कथितालि तथा-'बाहिरियाएपरिसाए कइ देविसया पन्नत्ता' वाह्यायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां पपदि कति-कियत्संख्यकानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानीति चमरस्य देवीसंख्षाविषयकः प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'चपरस्स णं असुरिदस्त असुररनो' चमरस्य खलु असुरेन्द्रस्यामुरराजस्य 'अभितरियाए परिसाए' अवतरिकायां प्रथमाया समिताभिधानायां पर्पदि 'अछुट्टा देविसया पन्नचा' अर्द्धचतुर्थानि देवीशतानि-अर्धाधिकानि त्रीणि देवीशतानि प्रज्ञप्लानि, तथा-'मज्झिमियाए परिसाए' माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां पर्षदि तिनि देबिसया पलत्ता' विसं वानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, तथा'बाहिरियाए अड्डाइज्जा देविसया पन्नत्ता' बाह्यायां जाताविधानायां तृतीयस्यां कति देविसथा पण्णता हे भदन्त असुरेन्द्र असुरराज्य की आभ्यन्तर परिषदा में कितनी लौ देवियों कही गई है ? 'मज्झिभियाए परिसाए कइदेविसया पण्णता' मा परिषद, कितनी सी देवियों कही गई है ? 'वाहिरियाए परिसाए कति देबिसया पणत्ता तथा बाह्य परिषदा में शिलानी सौ ऐचिया कही गई है? उत्तर में प्रसुश्री कहते है 'गोयला अगर स्ल णं अलुरिंदर असुररनो अभितरियाए परिसाए अधुट्टा देविलया पधणसा' हे गौतम! असुरेन्द्र असुरराज चमरेन्द्र झी आभ्यन्तर परिषदा साढे तीनवौ ३॥ देधियां कही गइ है। 'मज्झिमियाए परित्याए तिनि देविया पन्नत्ता' मध्यमिका सभी में तीन ३ सौ देवियों कही गई है 'बाहिरियार अडाइज्जा देविया पनत्ता' और वाद्य स्वभावालोदेवियां कही गई है। 'चर. सण मते ! आरिदस्त अररो' हे बदन्त ! अस्तुरेन्द्र असुरराज क्या हेवामां आवसले १ 'मलिमियाए परिसाए कति देविसया पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता' मध्य पश्षिामा टस से 31 દેવાઓ હેવાનું કહેલ છે? તથા બાહ્ય પરિષદામાં કેટલા સે દેવિયો હોવાનું पामा मावस छ १ मा प्रश्न त्तरमा प्रभुश्री ४४ छ 'गोयमा ! चमरस्त्र ण असुरिंदस्स असुररन्नों अभितरियाए परिसाए अधुढा देविसया पण्णत्ता' હે ગૌતમ! અસુરેન્દ્ર અસુરરાજ ચમરેન્દ્રની આભ્યન્તર પરિષદામાં ૩૫૦ साडी सेवियो डातु हम छे. 'मज्झिमियाए परिमाए तिन्नि देविसया पन्नत्ता' मध्यभि समामा ३०० से पियो वाम मावणे. 'बा. हरियाए परिसाए अढाइज्जा देविसया पन्नत्ता' मन मा परिषदामा २५० lal all ही छ. 'चमररस ण' भने! असुरिंदस्व असुररण्णा' है Page #754 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३হু जीवामिगम पर्षद अर्द्धतृतीयानि देवीशतानि - अर्द्धाधिक द्विशतानि एज्ञप्तानि - 'चमरस्स णं भंते! असुरस असुररन्नो' चमरस्य खलु भदन्त । असुरकुमारेन्द्रस्य अमरकुमारराजस्य 'अभितरियार' अभ्यन्वरिकायां समिताभिधानायां प्रथमायां पर्पदि 'देवाणं hari कालं ठिई पन्नत्ता' देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञष्ठा ? तथा - 'मज्झि मियाए परिसयाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां द्वितीयस्यां पर्षद देवानां कियन्तं कालं स्थितिः - आयुष्यकालः प्रज्ञप्ता ? तथा - 'बाहिरियाए परिसाए देणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' वाद्यायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां पदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, एवम् हे भदन्त ! आभ्यन्तरकायां प्रथम पर्पदि देवीनां स्थितिः कियन्तं कालं प्रज्ञप्ता तथा 'मज्झि मियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नता' माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, वथा - 'बाहिरियाए परिसाए hati hari कालं ठिई पन्नत्ता' वाह्यायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां पर्यदि atri fari काल स्थितिः यज्ञप्तेति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम ! 'चमरस्स णं असुर्रिदस्त असुररन्नो' चमरस्य खलु असुरकुमारेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य 'अभितरियाए परिसाए' आभ्यन्तरिकायां समिताभिधानायां पर्पदि 'देवाणं अड्डाइज्जाई पळिओवसाद' ठिई पन्नत्ता' देवानाचमर की 'अभितरियाए परिमाए देवाणं केवहयं कालं ठिई पन्नत्ता' आभ्यन्तर सभा के देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? 'मनिमिया परिसाए देवाणं केवहयं कालं ठिई पन्नत्ता' मध्यम परि पदा के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? तथा 'बाहिरियाए परिसाए देवाणं वश्यं कालं ठिई पन्नत्ता' बाह्य परिषदा के देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभु श्री कहते है - 'गोयमा ! चमरस्त्र णं अलुरिंदरस असुररनो अभितरियाए परिसाए देवाणं अड्डाहज्जाई पलि ओषमाह ठिई पण्णत्ता' हे गौतम असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर सभा के देवों की स्थिति भगवन्! असुरेन्द्र असुरान भरनी 'अभि' तरियाए परिसाए देवाण केवइय काल ठिई पण्णत्ता' अभ्यन्तर परिषद्वाना हेवोनी डेटला अजनी स्थिति अहेवामां मावेस छे ? 'मझिमियाए परिसाए देवाणं केवइयां काल टिई पण्णत्ता' मध्यभ परिषधाना हेवानी स्थिति डेंटला हाजनी उडेवासा आवे छे ? तथा 'बाहिरियाए परिखाए देवाण केवइय' काल' ठिई पण्णत्ता' माह्य परिषहना हेवानी स्थिति डेंटला अजनी वामां आवे छे ? या प्रश्नना उत्तरमां अनुश्री ४हे छेडे गोयमा ! मरस्य ण असुरिदा असुररन्नो अन्भितरियाए परिसाए देवाणं अड्ढाइज्जाइ पढियोवमाइ ठिई पण्णसा' 'हे गौतम! असुरेन्द्र असुरान यमरनी आल्य Page #755 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ५.४६ देवस्वरूपवर्णनम् मर्द्ध तृतीयानि एल्योषमानि अर्धाधिकानि द्विपल्योपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा 'मज्झिभियाए परिसाए' माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां पर्पदि 'देवाणं दो पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता' देवानां द्वे पल्योपमे-पल्योपमद्वयं यावत् स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा-'बाहिरियाए परिसाए' बाह्यायां जाताभिधानायां पर्पदि देवाणं दीवई पलिभोरम ठिई पन्नत्ता' देवानां द्वचध-साद्धं पल्पोपमं यावत् स्थिति: प्रज्ञप्ता, 'अमितरियाए परिसाए देवीणं दीवडूं पलिओवम' आभ्यन्तरिकायां वर्षदि देवीनां द्वयधै पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ताः तथा-'मज्झिमि. याए परिसाए देवीणं पलियोधर्म ठिई पन्नत्ता' माध्यमिकायां एपदि देवीनां पल्योपमं यावर स्थितिः मज्ञप्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं अद्धपलिओवम ठिई पन्नत्ता' बाह्यायां जामाभिधानायो पर्षदि देशनाद्ध पल्यो. पम याच स्थितिः प्रज्ञा-कथित्तेति भगत उत्तरमिति ॥ सम्पति-आभ्यन्त रिकादि व्यपदेशकारणं पिच्छिषु रिदमाह- से केणद्वेणं मंते ! एवं बुच्चई' अथ केनार्थेन केन कारणेन भदन्त ! एद मुज्यते-'चपररस असुरिंदस्स असुररन्नो अढाइ पल्पोपस की कही गई है 'मज्झिमियाए पहिलाए देवाणं दो पलि. ओवनाई ठिई पगला' मध्यपरिषदा के देशों की स्थिति दो पल्पोपम्म की कही गई है और 'वाहिरियाए परिसाए देवाण दीड पलिओवर्म ठिई पण्णता बाह्य परिषदा के देशों की स्थिति डेढ १॥ पल्योपाल की कही गई है 'अभितरियाए परिसाए देवीण दीडूं पलिओचमं तथा आभ्यन्तर परिपक्षा की देवियों की स्थिलि डेढ १।। पल्योपद की कही गई है 'मज्झिमिथाए परिसाए देवीणं पलिओपलं ठिई पञ्णता' मध्यमा परिषदा की देशियों की स्थिति एक पल्पोपम की कही गई है। जाहिरियाए परिसाए देवीणं अद्धपलि ओवर्म' और बाह्य परिषदा की देखियो पी स्थिति आधे पल्यापम की कही गई है। सेकेण मंते ! एवं वुच्चर' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते है कि 'चमरस असुर्ति तर समान वानी स्थिति मति पयोमनी ४ामा मावस छ. 'मज्झमियाए परिसाए देवाणं दो पलिओवमाईठिई पन्नत्ता' मध्य पश्षिाना हेवानी स्थिति में पयोमनी डेस छ. म 'बाहिरियाए परिसाए देवाण दीरढं पलिओवन ठिई पणत्ता' मा परिषद्याना हेवोनी नियति १॥ होट ५त्योपमनी ४९ छे. 'अभितरियाए परिसाए देवीण दीवड्ढ पलिओवम' तथा मायन्तर परिषहानी हेवियोनी स्थिति ॥ हद ५८यो५मनी उस छे. 'मझिमियाए परिसाए देवीण पलिओवम' मध्यम परिषहनी लियोनी स्थिति से पदया. ५मनी ४७स छे. 'बाहिरियाए परिखाप देवीण अद्ध पलिओवम' मने माघ परिषहानी देवियोनी स्थिति म पक्ष्योपभनी स . 'से केणट्रेणं भवे ! एवं वुच्चइ' । पम् 1 मा५ मे २॥ २थी ४७४'पमररस पशु Page #756 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीयाभिगम ৬ तभी परिलाओ पन्नताओ' चमरस्यामृरकुमारेन्द्रस्य कुमारराजस्य तिस्रः पर्षद ज्ञप्ता - 'तं जहा' तद्यथा-'समिया चंडा जाया' समिता चण्डा जाता 'अतिरिया समिया' आभ्यन्तरिका समिता 'मज्झिमिया चंग' माध्यमिका चण्डा 'बाहिरिया जाया' वाया जाता, इत्येवमन्तर प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा ! इत्यादि, 'गोमा' हे गौतम ! 'चमरस्स णं अरिंदम अगुररन्नो' चमरस्य खलु असुरकुमारेन्द्रस्य असुरकुमारराजस्य 'अविर परिसा देवा' आभ्यन्तर पर्यत्का:प्रथमपत्संबन्धिनो देवाः 'वाहिया हव्वमागच्छेति नो अन्नाहिया' व्याहता आहूताः सन्तः 'हवं' शीघ्रं यथास्यात् तथा आगच्छन्ति नो अन्यहता आगच्छन्ति, 'मज्झिम परिसाए' माध्यमिकायां द्वितीयस्यां चण्डायां पर्पदि स्थिता देवाः 'वाडिया हव्त्र मागच्छेति अन्वाहिया वि' व्याहता आहताः शीघ्रमागच्छन्ति अव्याद्या अपि शीघ्रमागच्छन्ति मध्यममतिपत्तिविषयत्वात् 'बाहिर दस् त परिनाओ पण्णत्ताओ' असुरेन्द्र चमर की तीन परिषदाएं है 'समिया चंडा जागा' पहिली समिता दूसरी चंडा और तीसरी जाया इनमें जो आभ्यन्तर सभा है उसका नाम समिता है मध्यमा जो परिषदा है उसका नाम चंडा है और 'बाहिरिया जाया' वाघ जो परिषदा है उसका नाम जाया है । इसके उत्तर में गौतम से प्रभुश्री कहते है 'गोवा | चमरस्सणं असुरिंदस्त असुग्रनो अभितर परिक्षा देवा चाहिता हन्वप्राधन्छंति, जो अवाहिता' हे गौतम! असुरेन्द्र असुरराज की जो आभ्यन्तर परिपक्ष है, उस परिषदा के देव जब बुलाये जाते है तब ही आते है । वे बिना बुलाये नही आते है ! 'मज्झिमपरिसाए देवा वाहिता हन्त्रमा गच्छेति' अन्वाहिला दि' मध्यम परिषदा के जो देव है वे बुलाये जाने पर भी आते है और नही बुलाये जाने पर भी आते है 'बाहिर परिसा रिंदस् त परिसाओ पण्णत्ताओ' सुरेन्द्र भरनी वा परिषहा है. 'समिया चंडा जाया' पहेली समिता मील थंडा नेत्री लया. तेमां ने माभ्यन्तर परिषहा है. तेनु नाम समिता हे ध्यभा के परिषता छे तेनु लाभ थंडा हे भने 'बाहिरिया जाया' मा ने परिषा हे तेनुं नाभ लया है ? या प्रश्नना उत्तरमां श्रीगीतभस्वामीने प्रभुश्री हे हे ! 'गोयमा ! चरणं असुरिदस्स असुररण्णा अभितर परिक्षा देवा वाहिता इन्त्रमागच्छति जो अव्वाहिता' हे गौमत | सुरेन्द्र असुरराज्नी ने माम्यन्तर परिषदा है, તે પરિષદાના દેશ જો ખેલાવવામાં આવે તેજ આવે છે. તેએ એલાવ્યા नगर भावता नथी. 'मज्झिमपरिसार देवा वाहिता इव्त्रमागच्छति, अव्वाहिता વિ' મધ્યમ પરિષદાના જે દેશ છે તેઓને મેલાવવામાં આવે તે પણ આવે हे भने विना सोसाव्या यावे हे 'बाहिरपरिसा देवा अव्वाहिता छन्ष Page #757 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३५ प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३.४६ देवश्वरूपवर्णनम् परिसा देवा' बाह्यपरिषत्का देवा' 'अन्वारिया मागच्छति' अव्याहृता अनाहुना एव शीघ्र मागच्छंति अति लघु वादिति । 'अदुसरं च णं गोयना !' अथोतरं च खलु गौतम ! अभ्यन्तरिकादि व्यवहारकारणमन्यदुत्तरं कथयामि - 'चमरे असुरिंदे असुरराया' चमरोऽसुरेन्द्रोऽसुरराजः 'अनयरेसु उच्चावचेसु ' अन्यतरेषूच्चावच्चेषु शोभना शोभनेषु 'कज्जक' डुंबेस' कौटुम्बिकेषु कार्येषु कुटुम्बे भवानि कौटुम्बिका नि-स्वकीयराष्ट्र विषयानि यादृश कार्येषु 'समु पन्ने' समुत्पन्नेषु 'अतिरियाए परिसाए सद्धि' अस्वन्तरिकया प्रथमया पर्षदा सार्द्धम्, 'म संपुच्छणा बहुले' सम्प्रति संपृच्छना बहुल: 'बिहार' विहरति, संमत्या - उत्तमषा मच्त्या बुद्धया या संपूच्छना पर्यालोचनं तद्वहुच्चापि विहरति - आस्ते स्वल्पमपि प्रयोजनं प्रथमतस्तया सह पर्यालोच्य विदधातीति भावः । 'ममिमपरिसाए सद्धिं पयं पर्वचेवाणे एवं चेमाणे विहर' माध्यमिकया पर्षदा सार्द्धं यदाभ्यन्तरिकया पर्षदा-सह पर्यालोच्य कर्तव्यतया निश्चितं यत् देवा अन्वाहिता हव्यमाग गच्छति' तथा बाह्य परिषदा के जो देव है वे विना बुलाये ही आते हैं उन्हें बुलाने की आवश्यकता नहीं होती है । 'अदुत्तरं चणं गोयमा' चमरे असुरिंदे असुरराया अन्नघरे उच्चावसु कज्ज कोडुंवे समुत्पन्नेषु अतिरिणए परिवाए मद्धिं संमह संपुच्छणा बहुले बिहार' दूसरी बात यह है कि हे गौतम । जब असुरेंन्द्र असुरराज को कुटुम्ब संबंधी कोई ऊंचानीचा काम आजाता है तब वह आभ्यन्तर परिषद के साथ इस सम्बन्ध में उनकी संपति लेते हैं - उनसे पूछ ताछ करते हैं 'मज्झिमपरिसाए सद्धिं पयं पर्वचे माणे २ विहरह' तथा आभ्यन्तर परिषदा के देवों के साथ जो कार्य करने के लिये निश्चित किया जा चुका है उनकी वह मध्य परिषदा के देवों को सूचना देता है और वह कार्य किस लिये करने को चिचामागच्छति' ते माह्य परिषदना ने देवे। हे. तेथे वगर मोसान्ये भावे छे. तेथोने मोसारवानी ४३२ रडेती नथी. 'अदुत्तर च णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया अन्नयरेसु उच्चावएसु कज्ज कोडु'वेसु समुत्पन्नेसु अभितरि या परिसाए सद्धि समइ संपुच्छणा वहुले विहरइ' मील वात मे छे હે ગૌતમ 1 જ્યારે અસુરેન્દ્ર અસુરરાજ ને કુટુંબ સંધી કોઇ સારૂં નરસુ કામ આવી પડે છે, ત્યારે તે આભ્યન્તર પરિષદાની સાથે તે સ’ખ’ધમાં તેની संभतिले छे. तेथोने पूछ५२४ ९रे छे. 'मज्झिमपरिसाए सद्धि' पर्यं पवचेमाणे पव'चेमाणे विहरइ' तथा आभ्यन्तर परिषहाना हेवानी साथै ? १२વાના નિશ્ચય કરેલ હાય છે તે માખતમાં તેઓ મધ્યમ પરિષદાના દેવાને Page #758 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३६ जीवामिगमत्रे 4 " पदम् तत्प्रपञ्चन् प्रपञ्चयन् विहरति एवमिदमस्माभिः पर्यालोचितमिदं कर्त्तव्यमन्यथा दोष इति विस्तारयनास्ते इति । 'बाहिरियाए परिमाए सद्धिं पर्यमाणे पयडेमाणे विहर' बाह्यया पर्षदा सार्द्ध यदाभ्यन्तरिकया पर्पदा सह पर्याळोचितं माध्यमिकया सह गुणदोपप्रपञ्च कथनतो विस्तारितं पदं वह गपञ्चयन् मपञ्चयन् विहरति आमाधानः सन् अवश्यं कर्त्तव्यर्तव्यतया निरूपयन २ तिष्ठति, यथेदं भवदभिः कर्त्तव्यम् इदं न कत्र्तव्यमिति तदेव या एकान्ते गौरवमेव केवलं पाप्नोति, यया च सहोत्तममतित्वात् स्वल्पमपि कार्य प्रथमत एवं पर्यालोच. नायां चात्यन्तमभ्यन्तरा विद्यते इत्यास्यन्तरिका प्रथमा भवति, या तु गौरवाह रित किया गया है इसे विस्तार के साथ उन्हें समझाता है 'बाहिरियाए परिसाए सद्धि पयं पयंडे माणा २ चिहरह्न' फिर वाह्य परिषदा के देवों को विचारित किये गये कार्य करने के लिये आदेश देता है 'से तेणटुणं गोधना ! एवं बुच्चई चपरस्त णं असुरिंदरस असुरकुमाररणो तभो परिसाओ पण्णत्ताओ समिया चंडा जाता' - इसी कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि असुरेन्द्र असुरकुमार राज की समिता चण्डा, और जाया नाम की तीन पदाएं है । 'अभितरिया समिया, मिया चंडा तिरिया जाता' उनमें एक आभ्यन्तर परिषदा है की जिनका नाम समता है दूसरी परिषदा है जिसका नाम चंडा है. और तीसरी बाह्य परिषदा है जिसका नाम जाता है तात्पर्य इम कथन का यही है कि जो आभ्यन्तर परिषदा है वह केवल एक गौरव की वस्तु है इसके साथ चमर उत्तम यति वाले होने के कारण थोड़ा मा સૂચના આપે છે. અને એ કાર્ય કરવાના વિચાર શા માટે કરવામાં આવેલ छेतेन विस्तार पूर्व तेथेने समन्नवे छे. 'बाहिरियाए परिसाए सद्धि पयं पयडे माणे पय डेमाणे विहरह' भने म परिषहाना हेवा साथै विचारवामां आवे अर्थ श्वानी आज्ञा गाये छे. 'से ठेणटुण गोयमा ! एवं वुच्चइ चमरणं असुरिंदरस असुरकुमाररण्णा तओ परिसाओ पण्णत्ताओ समिया चडा जाया' मा अरथी हे गौतम! में असुरेन्द्र અસુરરાજની સમિતા ચંડા, અને જાયા એ નામની ત્રણ પરિષદ્યાએ છે. 'अभि'नरिया खमिया, मज्झमिया चंडा, बाहिरिया जाया' तेमां से माल्य તર પરિષદા છે કે જેનુ નામ સમિતા છે. બીજી મધ્યમ પરિષદા છે, જેનુ' નામ ચ'ડા છે. અને ત્રીજી માહ્ય પરિષદા છે જેનુ નામ જાયા છે मज्झ આ કથનનુ તાત્પર્ય એજ છે કે જે આભ્યન્તર પરિષદા છે, તે કેવળ એક ગૌરવની વતુ છે, તેની સાથે ચમર ઉત્તમ બુદ્ધિમાન્ હાવાના કારણે Page #759 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३७ - प्रमेयद्योतिकारीका प्र.३ उ.३ २.४६ देवस्वरूपवर्णनम् पर्यालोचितं चाभ्यन्तरिकया पर्षदा सहावश्यकर्तव्यतया निश्चितं न तु प्रथमत:सा शिल गौरवे पोलोचनायां च मध्यमे भागे दर्तते इति माध्यमिका, या तु गौरवं न कदाचिदपि अहमिति न च यया सह कार्य पालोचति केवलमादेश एवं यस्मै दीयवे सा गौरवान पोलोचायाच बहिमांगो तले इति वाह्या ।। भी कार्य क्यो न हो सर्व प्रथम उपमा विचार करता है इसके साथ धिना विचारे चमरइन्द्र अपनी इच्छा से कुछ भी काम नही करता है अत: चमरइन्द्र इस दृष्टि से इस खुला को गौरव भून मानता है और सर्व प्रथय विचार विनिमय में हले ही साधतम मानता है अतः विचार गोष्ठी सर्व प्रथम आदरणीय होने के कारण इस सध्या का माम आभ्यन्तर सभा कहा गया है। आभ्यन्तर सभा के साथ जो कर्तव्य कार्य करने के लिये निश्चित हो चुका है। वह फिर जिलाना में स्नु माया जाना है उस कार्य को लागू करने में और जबरने क्या लाभ और क्या हानि है किस को इस विषय पर विवाद है इन सब बातों को जहाँ शङ्का समाधान पूर्वक स्तुमाया जाता है समझाया जाता है ऐली उल्ल सभा का नाम मध्यम परिषदा है पन्तर एवं मध्य परिषदा द्वारा विचारित किये गये कार्य को चालू करवाने का आदेश जिन्हें दिया जाता है वह वाह्य सभा है इस बाह्य परिषदा का कोई मरेन्द्र की दृष्टि में गौरव नहीं होता है मध्य परिषदा आन्तर परिषदा के जैसा गौरव ડું પણ કાર્ય કેમ ન હોય પણ સર્વ પ્રથમ તેને વિચાર કર્યા વિના ચમરઈન્દ્ર પિતાની સ્વેચ્છાથી કંઈ પણ કાર્ય કરતા નથી તેથી ચમરેન્દ્ર આ સભાને ગૌરવશાલી માને છે. અને સૌથી પહેલાં વિચાર વિનિમય કરવામાં આ પરિ. પદાને જ સાધનભૂત માને છે, તેથી વિચાર વિનિમયમાં સૌથી પહેલા અત્યંત આદરણીય હોવાથી આ સભાનું નામ આભ્ય ૨ સભા આ પ્રમાણે કહેલ છે. આભ્યન્તર સભાની સાથે જે કર્તવ્ય કાર્ય કરવાનો નિશ્ચય થઈ ગયેલ હોય છે, તે નિશ્ચય પાછો જે સભામાં સંભળાવવામાં આવે છે, ને કાર્ય કરવામાં અને ન કરવામાં શું લાભ અને શું ગેરલાભ છે, એ વિષયમાં કેને કોને વધે છે, એ તમામ બાબતોને જ્યાં શંકા સમાધાન પૂર્વક સંભળાવ. વામાં આવે છે, સમજાવવામાં આવે છે, એવી તે સભ’નું નામ મધ્યમ પરિષદા છે. આભ્યન્તર અને મધ્યમ પરિષદા દ્વારા સંપાદિત વિચારિત કરવામાં આવેલ કાર્યને ચાલુ કરવાનો આદેશ જેને આપવામાં આવે છે, તે બાહ્ય સભા છે. રમા બાદ પરિષદાન ચમરેન્દ્રની દૃષ્ટિમાં કંઈજ મહત્વ હોતું નથી, મધ્યમ પરિષદા પર આભ્યન્તર પરિષદનું જેમ ગૌરવ હેતું નથી. તેમ તેના जी०:१३ Page #760 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद यथोक्त क्रमेणाभ्यन्तरिकादि व्यवहारहारणं कविनम्, सम्मति=पकरणमुप हर माह से तेपण" इत्यादि, 'से ते नोमा !' तेनान गौतम | एवमुच्यते = 'चमरसणं अदिस अनुकुमारी' मरम्य सद असुरकुमारेन्द्रस्याम्कुमारराजस्य 'तो परिमाओ पाओ' तिस्रः पर्षः मज्ञताः 'समिया चंडा जाया' समिता चण्डा नाटा' मिया' आम्प after समिता 'मसिमिया चंडा' माध्यमिका नष्ठा 'चाहिरिया जाया' वाता जाता अत्र संग्रहणी गाथाद्वयं भवति- ७३८ K 'चडवीस वीसा. पत्तीदेवर | घुट्टा तिग्नि का अड्डा जाय देनिसा ||2|| अाज्जाय दोनिय दिपदियं प्रमेण देन दिई । पळियं दिण्डूमेश अद्धी देण परिला ॥२॥ चतुर्विंशतिराविंशतिहासहस्राणि देवनमस्य । az aquila (340) sifo (300) तथाऽर्द्ध तृतीयानि (२५०) देवीशतानि ॥१॥ भर्द्ध तृतीयानि (२) च (२) द्वप पल्योपमं (१) कमेण देवस्थितिः । पल्यं द्वयर्थ (१||) मेकमर्द्ध (II) देवीनं पप |२| उतिच्छाया ॥ माया देवाविंशतिः सहस्राणि द्वितीयस्यां सभायां देवा अा सहस्राणि तृतीयस्य सभार्या देवाः हाकित्सामाणि देव्यय प्रयमायां सार्वत्रिसहस्राणि द्वितीयस्यां देव्यखीणि सरस्राणि तृतीयस्यां देवः सार्द्धं द्विसह + नहीं होता है इस पर घमर का मध्यम रूप से ही गौरव रहता है आभ्यन्तर परिषदा पर उत्तम रूप से गौरव रहता है पाय परिषदा के साथ मर कर्तव्य कार्य की पर्यालोचना नहीं करता है केवल उसे आलो. चित कार्य को संपादन करने का ही वह आदेश देता है हम तरह से इन तीन सभाओं के नाम निर्देश होने का कारण है इन तीन सभाओं में देवों की एवं देवीयों की संख्या तथा उनकी स्थितियों की संग्रह करके प्रकट करने वाली दो गाथाएं है 'चवीस' इत्यादि । इन दोनों પર ચમરેન્દ્રનુ મધ્યમ રૂપથી જ ગૌરવ રહે છે, આભ્યન્તર પરિષદા પર ઉત્તમ રીતે ગોરવ ડાય છે. બાહ્ય પરિષદાની સાથે ચમઈન્દ્ર ન-કાયના વિચાર કરતા નથી. કૈવલ વિચાર કરવામાં આવેલ કાર્યને સ'પાતિ કરવાના આદેશ જ તેને આપે છે. આ કારને લઈને આ ત્રણ સભાએાના નામ નિર્દેશ થયેલ છે. આ ત્રણે સભાના દેવા અને દૈવિયાની સંખ્યા તથા તેઓની स्थितिमा भने अगर ४२वावाणी में गाथाओ हे 'चटवीट' त्याहि Page #761 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेयोतिका टीका नं. ३७.३.४७ औत्तरदिग्वर्त्यसुरकुमारनिरूपणम् ७३९ स्त्राणि । तथा प्रथमार्या देवायुः सार्द्ध पल्योपमानि द्वितीयस्यां देवायुः द्वीपस्योपम तृतीयस्यां देवायुः सार्द्धंकपल्योपमम् देवीनां प्रथमायां द्वचर्षं परयोपम द्वीतीयस्यामेकपलपोम' तृतीयस्यां देवी नामायुर पल्योपमं भवतीति गाथार्थः । ॥ चमर समास्थित देवदेवीनां संख्या स्थिति परिज्ञानकोष्ठकम् आन्तरिका समिता माध्यमिका चण्डा २४००० २८००० समानाम बाह्या जाता ३२००० देवसंख्या देवीसंख्या ३५० ३२० २५० देवस्थितिः सादें द्वे (२||) परोषमे द्वे (२) पल्यो मे सार्दैकं ( १ ॥ ) परयोपमम् देवीस्थितिः साद्ध (१||) परयोपमम् एकं ( १ ) परयोपमम् अर्द्ध (11) परयोपमम् ||० ४६ ॥ दाक्षिणात्यान सुरकुमारान्निरूप्यौत्तरान् असुरकुमारान्निरूपयितुं प्रश्नयन्नाह - 'कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं' इत्यादि, मूळम् - कहि णं भंते! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पन्नता जहा ठाणपदे जाव वली, एत्थ णं वइरोयणिंदे वइरोयणराया परिवस जाव विहरइ । वलिस्स णं भंते ! वइरोयणिदस्स वइरोयण रन्नो कइ परिसाओ पन्नताओ ? गोयमा ! तिन्नि परिसा पन्नत्ता तं जहा -समिया चंडा जाया, अभितरिया समिया, मज्झिमिया चंडा, बाहिरिया जाया । बलिस्स णं वइरोयदिस्त वइरोयणरन्नो अभितरियाए परिसाए कइ देव सहस्सा ? मज्झमियाए परिसाए कइ देवसहस्सा, जाव बाहिरियाए परि साए कई देविया पन्नता ? गोयमा ! वलिस्स णं वइरोयणिदस्स वइरोयण रन्नो अभितरियाए परिसाए वीसं देवसहस्ता पन्नत्ता, मज्झिमिया परिसाए चउवीसं देवसहस्सा पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए अट्ठावी देवसहस्सा पन्नत्ता, अभितरियाए परिसाए अपंचमा देविसया मज्झमियाए परिसाए गाथाओं आ अर्थ पूर्वोक्त रूप से स्पष्ट है। इसका कोष्ठक भी टीका में दिया गया है ||४६ ॥ આ બન્ને ગાથાને અર્થે પૂર્વોક્ત રીતે સ્પષ્ટ જ છે, અને તેનુ કોષ્ટક પણ સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ છે. ! સૂ ૪૬ ૫ Page #762 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v४० जीवामिगम चत्तारि देविलया पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए अदृधुट्टा देविसया पन्नता। वलिस्स ठिई पुच्छा जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा! वलिस्त णं बइरोयणिदल दहशेषणरन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं अछुट्ट पलिओवमा ठिई पनत्ता, मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि पलिओक्साइं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिलाए देवाणं अड्डाइन्जाइं पलिओकमाई ठिई पन्नता, अभितरियाए परिसाए देवाणं अड्डाइजाइं पलिओवसाइं लिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए - परिलाए देवाणं दो पलिओश्माई ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए -परिसाए देवाणं दिवढं पलिओक्नं ठिई पन्नत्ता, सेसं जहा चमरस्त असुरिंदल असुरकुमाररपणो ।।सू० ४७॥ - - छाया-कुत्र खलु भदन्छ ! औत्तराणाममुरकुमाराणां भवनानि प्रज्ञप्तानि, यथा-स्थानपदे यावदवलिा, अत्र वैरोचनेन्द्रो वैरोचनराजः परिवसति यावद्विहरति । दछेः खलु भदन्त ! वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य कति पर्पदः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! तिसः पर्षदः प्रज्ञप्ताः बधा-समिता चण्डा जाता, आभ्यन्तरिका 'समिता, माध्यविका चण्डा, वाह्या जाता। बलेः खलु वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्थाम्यन्तरिकायां पर्पदि कवि देवप्तहस्राणि प्रज्ञाप्तानि माध्यमिक्षायां पर्पदि कति देव सहस्राणि यावद् वाह्यायां पदि कति देवीशतानि मज्ञप्तानि ? गौतम ! बले. खल वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनशजस्याऽऽ एन्तरिकायां पूर्वदि विशतिदेवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, माध्यमिझायां पदि चतुर्विंशतिर्देवसहस्त्राणि प्रज्ञप्तानि वायायां - पर्ष दि अष्टाविंशविदेवसहस्राणि प्रज्ञप्वाने, आभ्यन्तरिकायां वर्षदि अपञ्चमानि 'देवीशतानि यज्ञप्तानि माध्यमिकायां पदि चत्वारि देवीशतानि मज्ञप्तानि वाइयायां पर्ष दि अर्द्धचतुर्थानि देवीशतानि प्रज्ञप्तानि । वः स्थितौ पृच्छा यावद् 'बाहयायां पर्पदि देवीनां भियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम ! वले खलु वैशेच मेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य आभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवानाम चतुर्थानि पल्योपगानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायापदि देवानां त्रीणि पल्योपमानि स्थितिः पज्ञप्ता वायायां पर्षदि देवानाम् अद्धतृतीयानि पल्पोपमानि स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमि. का पर्पदि देवीनां द्वे पल्पोएमें स्थितिः प्रज्ञप्ता, वाहूयायां पर्पदि देवीनां द्वध पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, शेप यथा-चमरस्यासुरेन्द्रस्यासुरराजस्य ।।मू० ४७॥ Page #763 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३.४७ औत्तरदिग्वयंसुरकुमारनिरूपणम् ७४१ टोका-'कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पन्नत्ता' कुत्र कस्मिन् स्थाने खल्ल भदन्त ! औत्तराणाममुरकुमारदेवानां भवनानि प्रज्ञप्तानिकथितानीति भवनाधिकरणविषयका प्रश्ना, उत्तरयति प्रज्ञापनातिदेशेन 'जहा' इत्यादि, 'जहा ठाणपदे जादवकी' एस्थ ण वइरोयणिदे वहशेयणराया पडिवसई जाव विहरइ' यथा प्रज्ञापनायां स्थानपद-स्थानाख्ये द्वितीये पदे तथा तावद्वक्तव्यं यावलिः, अत्र खल्ल वैरोचन्द्रो वैरोचनराजः प्रतिवसति यावद्विहरति, तहऊर्ध्व मपि तावद्वक्तव्यं याद दिव्यान् भोगयोगान् भुनानो विहरति. इति पर्यन्तं स्थानपदोक्तपाठः संग्राह्यः । इस तरह से दक्षिण दिशा के अनुरकुमारों का निरूपण करके अब सूत्रकार दक्षिण दिशा के असुर कुमारों का निश्पण करते हैं। कहिणं भंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमारागां असा पण्णता' इत्यादि। टोकार्थ-इसमें गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'कहिणं भंते । उत्सरिल्लाणं असुरकुमाराण भवणा परसा' हे मदत ? उत्तरदिरवर्ती असुरकुमारों के भवन पाहां पर कहे ? उत्तर में प्रभु श्री कहते हैं -'जहा ठाणपदे जाक्ष बली' हे गौतम। प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद में थलि मकरण तक जैसा कथन किया गया है-बैलाही यहां पर भी कह लेना चाहिये । 'एत्य णं वधरोणि बहरोयणराया परिवलह जाच विहरह यहां वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजलि रहना है यावत् दिव्य भोग भोगों को भोगता हुआ रहता है। अब वलि की परिषदा का वर्णन करते हैं 'घलिस्सणं भंते' इत्यादि 'बलिलणं अंत बोणिदस्त वहशेयणरन्नो આ રીતે દક્ષિણ દિશાના અસુરકુમાર દેવોનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર उत्तर दिशा असु२४मा२ हेवार्नु नि३५४ ४रे छे 'कहि ण भते ! उत्तरिल्ला ण असुरकुमाराण भवणा पण्णत्ता' इत्यादि ટીકાર્ય–આ સૂત્ર દ્વારા શ્રી ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એવું પૂછયું छ । 'कहि णं भवे ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पण्णत्ता' हे भगवन् ! ઉત્તર દિશામાં આવેલ અસુરકુમારેતા ભવને કયાં કહેવામાં આવેલ છે ? सा प्रश्नाला उत्तरमा सुश्री ४१ छ 'गोयमा ! जहा ठाणपदे जाव वली' હે ગૌતમ! પ્રજ્ઞાપના સૂત્રને બીજા સ્થાન પદમાં બલિ પ્રકરણ સુધી જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહીંયા પણ સમજી લેવું જોઈએ. 'एत्थ ण वइरोयणि दे वइरोयणराया परिवाइ जाव विहरइ' मही या वैशय. નેન્દ્ર વૈરોચન રાજ બલિ રહે છે. યાવત દિવ્યભેગેને ભગવતે થકા રહે છે. આ કથન સુધિનું પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાનપદનું કથન ગ્રહણ કરવું જોઈએ. Page #764 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હર जीवामिगमेस्त्र ___ सम्मति-वलेः पर्षन्निरूपणार्थमाह-वलिस्स ण भने' इत्यादि, 'वनिस्स ण भंते ! वइरोयर्णिदस्स वइरोयणरन्नो' ले खल भदन्त । वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचन राजस्य 'कइ परिसाओ पन्नत्ताभो' कति-कियत्संख्यकाः पर्षदः-समाः प्रज्ञप्ता:कथिता इति प्रश्नः, भगवानाइ 'गोयमा' इत्यादि, ‘गोयमा' हे गौतम ! 'तिणि परिसा पनत्ता तिस्र:-त्रिपकारकाः पर्षदः-सभाः प्रज्ञप्ताः, पर्षत विध्यं दर्शयति-'तं जहा' इत्यादि, 'तं जहा' तद्यथा-'समिया चंडा जाया' समिता चण्डा जाता 'अमितरिया सहिया' आभ्यन्तरिका समिता 'मज्झिमिया चंडा' माध्यमिका चण्डा 'बाहिरिया जाया' वाया जाता 'दलिरस ण भंते । वइरोयणिदस्स वइरोयणरनो' क्लेः खल भदन्त ! वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचन राजस्थ 'अभितरियाए परिसाए कइ देवसहस्सा पण्णत्ता' आगन्तरिकायां पर्षदि-सभायां कतिकियत्संख्यानि देव सहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तथा-'मझिमियाए परिसाए कर का परिसाभो पन्नत्ताओ' हे भदन्त ! वैरोचनेन्द्र वैरोचराजपलिकी कितनी परिषदाएं कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोयमा! तिन्नि परिसा पन्नत्ता' हे गौतम' वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज पलि की तीन परिषदाएं कही गई है 'तं जहा' जैसे 'समिया चंडा जाया समिता चंडा और जाया इनमें 'अभितरिया समिया' जो आभ्यन्तर सभा है उसका नाम समिता परिषदा है । 'मजिशमिया चंडा' मध्यमा सभा का नाम चंडा है 'बाहिरिया जाया' और जो बाह्या सभा है उसका नाम ज.ता परिषदा है 'बलिस्ल णं भंते बहरोयगिंदस्स वरोषणरतो अभिः तरियाए कह देव सहस्सा पण्णत्ता' हे मरन्त वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज. बलि की आभ्यन्तर परिषदा में कितने हजार देव कहे गये हैं। तथा 'मज्झिभियाए परिसाए करदेव सहसता पण्णत्ता' मध्यमा परिषदा में पतिन्द्रनी परिपहानुन ४२वामां आवे छ 'बलिस ण भते त्या 'वलिस्स ण भंते ! वइरोयणिदस्त वइरोयणरण्णा कइ परिसाओ पण्णत्ताओ' है मगन वैशयनेन्द्र वैशयन मलिनी परिषहाली दुडी छ १ मा प्रश्नाना उत्तरमा प्रमुश्री 8 छ , 'गोयमा! तिन्नि परिसा पन्नत्ता' मातम ! पैशयनेन्द्र वैरायन२।२४ मलिनी १५ परिषदायी वामा भावे . 'त जहा' म 'समिया चडा जाया' समिता, 31 मने या मा 'अभितरिया समिया' २ माय-त२ समा छे तर्नु नाम समिता परिषद से प्रभाय छे. 'मज्झमिया चंडा' मध्यम समानु नाम या से प्रमाणे छ 'वाहिरिया जाया' भने २ मा सा छे, तेनु नाम andu परिष छे, 'बलिस्स ण भवे! वइरोयणिदस्स वइरोयणरण्णा अभितरिया Page #765 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ७.३ सु.५७ औत्तरदिग्वय॑सुरकुमारनिरुपण ५४३ देवसहस्सा पण्णत्ता' माध्यमिकाया द्वितीयस्यां चण्डाभिधानायां पदि कतिकिपसंख्यकानि देव पात्राणि २ कानि 'जाच बाहिरियार परिसाए कह देदिसया पण्णत्ता' यावद् बाह्यायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रजातानि, अत्र यावत्पदेन 'वाहिरियाए परिपाएकाइ देवसहस्सा, अमिरियाए परिसाए का देविसया, मज्झिमियाए परिसार कइ देविषया' इति सग्राहयम् । बाहवारा तृतीयस्यां जाताभिधानायां पषदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तथा-अभ्यन्तरिकायां समितायां पर्ष दि कति देरी शतानि प्रज्ञप्तानि, माध्यमिकायां चण्डायां पदि कति देवीशतानि प्रनप्लानि तथा बाहयायां तृतीयस्यां जाठामिधानार्या पर्षदि कति देवी शतानि प्राप्तानीति प्रश्नः भगवानाह-'योयमा' इत्यादि, 'मोयमा' हे गौतम ! 'वलिस्सण इरोयणिदस्स वइरोयणरन्नो' वले खलु वैरोचनेन्द्रस्य वैरोचनराजस्य 'यभितरियाए परिसाए वीसं देवहस्ता पन्नत्ता' आभ्यन्तरिका कितने हजार देव कहे गये हैं ? 'जाब वाहिरियाए परिसाए कह देवि. सया एन्नता' बाह्यपरिषदा के देवों की संख्या के प्रश्न को लेकर वाह्य परिषदा के देवियों के प्रश्न सक का पाठ यहां लेना चाहिये जैसे'वाहिरियाए परिसाए कहदेव सहस्सा पनत्ता' इत्यादि । बाह्य परिपदा में कितने हजार देव कहे गये हैं ? तथा वैरोचनेन्द्र वैरोचनराजवलि की आभ्यन्तर परिषदा में कितनी सौ देवियां कही गई हैं ? मध्यमा परिषदा में कितनी सौ देवियां कही गई है तथा बाह्य परिषदा में कितनी सौ देविणं कही गई है। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते-गोयमा यलिसणं वइरोणिदस बहरोषणरन्नो अभितरियाए परिसाए वीसं देवसहरला पणत्ता' हे गौतम रोचनेन्द्र वैोवनराजलि की आय. परिसाए कइ देव सहस्प्या एण्णत्ता' ७ भगवन् वैशयनेन्द्र शयन मास छन्द्रनी भायन्त२ परिषहामा nem२ हेवे। हेपामा मावेस छ ? 'जाव बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता' मा ५विषहान वानी सध्याना પ્રશ્નથી લઈને બાહ્ય પરિષદાની દેવિશેની સંખ્યાના પ્રશ્ન સુધનો પાઠ અહિયાં ग्रहय ४२ ४. म 'बाहिरियाए परिसाए वइ देव सहस्सा पण्णत्ता' ઈત્યાદિ બાહ્ય પરિષદામાં કેટલા હજાર દે કહેવામા આવેલ છે ? તથા વૈરેચનેન્દ્ર વૈરાચનારાજ બલીન્દ્રની અ શ્વતર પરિષદામાં કેટલા સો દેવિયે કહેલ છે? મધ્યમ પરિષદામાં કેટલા સે દેવિ કહેવામાં આવેલ છે? તથા બાહ્ય પરિષદામાં કેટલા સો દેવિ કહેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ४ छ । 'गोयमा! व लस्स ण वइरोयणि दस्स दरोयणरण्णा अभितरियाए परिसाए वीसं देव सहस्सा पण्णत्ता' हे गौतम ! वैश्यनेन्द्र वैशेयनराकर Page #766 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमe ७४४ प्रथम पद विगतिर्देः सहस्राणि ज्ञतानि तथा-' -'मझिमियाए परिसाए' माध्य मिकायां द्वितीयस्यां चष्टाभिधानायां पर्षदि 'चउवीसं देवदन्मा पन्नता' चतुविशति देवसहस्राणि महानि, तथा - 'बाहिरिया परिसाए' बायां तृतीयस् जाताना पदवीसं देवसहरूमा पन्नता' अष्टाविंशति देवदत्राणि प्राप्तानि - वथितानि, व्या-ले: वैरोचनेन्द्रस्य 'अतिरिए परिसाए' आभ्यन्तरिकायां मयमा पर्षद समिताभिधानम्, 'हांचा विण' पञ्चमानि - सार्द्धानि चापि देवीशतानि ज्ञानि, 'बिसि परिताप' मध्यमिका पदि 'तारि देविया पत्ता' चन्वारि देवीगतानि ज्ञानि, 'बहरियाए परिसाएका देविराम पण्णत्ता' वाद्यायां पदि अर्द्धचतुर्थानि देवाज्ञप्तःनीति | 'चलिरस 'ठईए पुच्छा' बलेः खच्च मदन्त ! वैराचनेन्द्रश्य वैरोचनराजस्य स्थित पृच्छा मनः कियत्पर्यन्तं प्रश्नस्तत्राह - 'जात्र वाहिरियाए परिसाए देवणं केव्ड कल टिपण्णा' इति पर्यन्तम्, यथा-अभ्य तर परिषदा में बीस हजार देव कहे गये हैं 'मज्झिमनाए परिसाए चउवीसं देवसरारुला पण्णत्ता' मध्यमा परिषदा में चौबीस हजार देव कहे गये हैं 'बाहिरिया परिसाए अठ्ठावीसं देवमहस्सा पण्णत्सा' बाह्यपरिषदा में अठाईस २८००० हजार देव हे गधे हैं तथा-'अभितरियाए परिमाए अद्धपत्रमा देविनिया पण्णत्ता संझिमियाए परिसाए चत्तारि देविनिया पण्णा' हिरेवर परिसाए अद्धा देविसया पण्णत्ता' वैरोचनेन्द्र वैरोचनरावलि की आभार परिषदा में साढ़े चार सौ ४५०) देवियां मा परिपक्ष में चान्स ४०० देवियां और बाह्य परिषदा में साढे तीन देवियां कही गई हैं 'बलिस्ल ठिईए पुच्छा जाय बाहिरियाए परिसाए देवी के काल लिई पत्ता' यहां पलिइन्द्र की तीनों सभा अतीन्द्रनी आभ्यन्तर परिषद्यामां वीस इन्नर हेवा उद्या छे. 'मझिमियाए परिसाए चवीस देवहस्सा पण्णत्ता' मध्यमा परिषद्यामां थेोवीस इतर देवा ह्या छे. 'बाहिरियाए परिमाए अट्ठावीस देवमहस्सा पण्णत्ता' महा परिषदाभां અઠયાવીસ હજાર ૨૮૦૦૦ દેવા કહ્યા છે. તથા 'अभितरियाए परिसाए भद्धपंचमा देविसया पण्णत्ता बाहिरियार परिसाए अद्भुट्टा देविसया पण्णत्ता वैशयनेन्द्र વૈરાચનરાજ મલિની આભ્યન્તર પરિષદામા ૪૫૦ સાડ ચારસે દૈવિયેા કહી છે. મધ્યમ પરિષદામાં ૪૦૦ ચારસા દૈવિયે। કહી છે. અને બાહ્ય પરિષદામાં ૩૫૦ સાડા ત્રણ મે દેવગે કહેવામાં આવેલ છે. 'बलिरस ठिईए पुच्छा नाव वहिरियाए परिसाए देवण केवईय काल ठिई पण्णत्ता, या प्रश्न मसीन्द्रनी ये सलाना द्वेष हेवियानी स्थितिना संभ Page #767 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू ४७ औत्तरदिग्वयंसुरकुमारनिरूपणम् ७४५ तरिकायां समितायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायां चण्डायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, बाह्याशं जाता पदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा-कास्यन्तरिक पर्पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यशिकायां पपदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, बाह्यायां पर्षदि देवीनां कियन्तं कालं स्थिति प्रज्ञा-कथितेति पर्यन्तं प्रश्नः, भगवानाह-'योयमा' इत्यादि, 'गोवमा' हे गौतम ! 'चलिरसणं वारोयणिदस वइरोयणरन्नो' बलेः खलु वैरोचनेन्द्रस्य वैरोच राजम्य 'अभिवरियाए परिवाए! आप तरिकामा पदि देवाणं अधुदुपलिभोगमा ठिई पन्नत्ता' देवानामद्ध चतुर्थानि-अधिकानि त्रीणि एल्योधमानि स्थिति:- अयुष्याला प्रज्ञप्ता, 'मज्झिमियाए परिसाए विनि पलिभोवमाई ठिई पन्नता माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां द्वितीयस्यां पर्षदि त्रीणि पल्योगमानि देवानां स्थितिः पज्ञप्ता, 'बाहिरियाए परिसाए देवाणं अडाइमाई पब्लिोवाठिई पन्दत्ता' बाह्यायां के देव देवियों की स्थिति के विषय का प्रश्न समझ लेना चाहिये जैले हे भदन्त ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज की आभ्यन्तर परिषदा | देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? मा परिषदाई देखो की स्थिति कितने काल की कही गई है ? तथा पात्य परिषदा देवी की स्थिति कितने काल की कही गई है ? इसी तरह आपल्हार परिषदा देधियों की स्थिति किसने काली कही गई है ? मनमा परिषदा में देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? इसके उत्सर में प्रभुश्री कहते हैं ? हे गौतम ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज की धास्वन्तर परिषदा के देवों की स्थिति साढे तीन ३॥ पल्मोपच्छ की कही गई है। मध्यमा परिपदा के देवों की स्थिति तीन पल्यापम की कही गई है ? और बाह्य परिषदा ધમાં કરેલ છે. જેમકે હે ભગવન વૈરાચરેન્દ્ર વૈરેવનરાજ બલીની આભાર પરિષદમાં દેવાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં આવેલ છે ? મધમાં પ.િ. ષદામાં દેવોની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેલ છે? તેમજ બાહ્ય પરિષદામાં દેવોની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેલ છે ? એજ રીતે આભ્યન્તર પરિધદામાં દેવિયોની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેલ છે? મધ્યમાં પરિષદમાં દેવિયેની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેલ છે ? બાહ્ય પરિષદામાં દેવિયાની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેલ છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુત્રી કહે છે કે હું ગોતમ ! વૈરેચનેન્દ્ર વિરેચનરાજની આભ્યન્તર પરિષદાના દેવોની સ્થિતિ : આડાત્રણ પોપમની કહેવામાં આવેલ છેમધ્યમા પરિષદ ના દવેની સ્થિતિ ત્રણ પાન પમની કહી છે. અને બાહ્ય પરિષદાના દેવેની સ્થિતિ શા અઢિ પલ્યોપમની जी० ९५ Page #768 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे पर्षदि देवानामदर्धतृतीयानि-अर्धाधि के दे ल्योपमे देवानां स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'अभितरियाए परिसाए' आध्यतरिकायां पर्पदि देवीणं देवीनाम् 'अड्राइल्जाई पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता' सार्धे द्वे-अर्द्धाधिके द्वे पल्योएमे स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'मज्झिमियाए परिसाए देवीण' माध्यमिकायां पर्षदि देवीनाम्, 'दो पलिओवमाई ठिई पन्नत्ता' द्वे पल्योपमे स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा-'बाहिरियाए परिसाए देवी गं' वाद्यायां तृतीयस्यां जाताभिधानायां पदि देवीनाम्, 'दीव पलिओचमं (ठई पन्नत्ता' द्वथर्धमर्धाधिकमेकं पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्लेति । अत्र वले सभासंबन्धि देवदेवीनां संख्यायाः स्थितेश्च परिमाण मरूपिके द्वे संग्रहगाथे यथा 'वीसउ चउवीस अट्ठावीस सहस्सा य होति देवाणं । अद्धपण-चउ-धुट्टा, देसिसमा चलिस्स परिसास ॥१॥ अधुट्टा तिष्णि अडाइजाइ होति पलिय देव ठिई । अड्डाइज्जा दोणि य, दीड देवीण ठिइ कमसो ॥२॥ छाया-विंशतिस्तु चतुर्विंशतिः, अष्टाविंशतिश्च सहस्राणि च भवन्ति देवानाम् । ___ अर्धपश्चम-चतुरर्ध चतुर्थानि देवीशतानि बलेः पर्पसु ॥१॥ अर्धचतुर्थानि त्रीणि अतृतीयानि भवन्ति पल्यानि देवस्थितिः । अदुर्घ तृतीये (सार्धे द्वे च द्वधर्व (साधैंक पल्योपमं) देवीनां स्थितिः क्रमशः अनयोरथस्तु पाक् मरूपितवदेवेति ॥ 'सेसं जहा चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो' शेष यथा चमरस्यासुरेन्द्रस्य असुरराजस्य, अयं भावा- ‘से केणटेण मंते' इत्यायवान्तरमश्नोत्तरप्रकरणमवगन्तव्यमिति ॥सू० ४७|| के देवों की स्थिति ढाइ २।। पल्योपम की फही गई है-तथा आभ्यन्तर परिषदा की देवियों की मध्यमा परिपदा की देवियों की और वाह्या परिषदा की देवियों की स्थिति क्रमशः ढाइ पल्पोपल की दो पल्पोपम की और डेढ पल्पोपम की कही गई है। इस विषय में दो संग्रह गाथाएं टीका में दी गई है। 'सेसं जहा चमरस असुरिंदस्त असुररन्नो' याकी કહી છે. તથા આભ્યન્તર પરિષદાની દેવિની સ્થિતિ આ અઢિ પલ્યોપમની કહી છે મધ્યમ પરિષદાની દેવિની સ્થિતિ બે પલ્યોપમની કહી છે અને બાવા પરિષદાની દેવિયની સ્થિતિ ના પપમની કહેવામાં આવેલ છે. આ વિષયમાં બે સંગ્રહ ગાથાઓ કહી છે જે સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ છે. ___'सेस जहा चमरस्स असुरिंदरस असुररन्नो' पाश्रीन भी तमाम मा બલિઈ% સંબંધી કથન અસુરેન્દ્ર અસુરરાજ ચમરના પ્રકરણના કથન પ્રમાણે જ Page #769 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ ७.३ १.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरपेणम् ७४७ दक्षिणोचरासुरकुमाराणां भवनादीनि निरूप्य नागकुमाराणां तानि दर्शयितुमाह-'कइ णं भंते ! नागकुमाराणं इत्यादि । मूलम्-कहि णं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पन्नत्ता, जहा ठाणपदे जाव दाहिणिल्ला वि पुच्छियत्वा जाव धरणे, एत्थ नागकुमारिंदे नागकुमार राया परिवसइ जाव विहरइ। धरणसणं भंते! नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो कइ परिसाओ पन्नताओ? गोयला! तिन्नि परिसाओ, ताओ घेव जहा चमरस्ल । धरणसं णं भंते ! नागकुमारिंदस्स नागनागकुमाररन्तो अभितरियाए परिसाए कइ देवसहस्सा पन्नत्ता जाव बाहिरियाए परिसाए कह देवीसया पन्नत्ता ? गोयमा। धरणस्ल णं नागकुमारिदस्त नागकुमाररन्नो अभितरियाए परिसाए सटुिं देवसहस्लाइं, मज्झिसियाए परिसाए सत्तरि देव, सहस्लाइं, बाहिरियाए परिसाए असीइं देवसहस्साइं, अभि तरियाए परिसाए पण्णतरं देविसयं पन्नत्तं, मज्झिमियाए परिसाए पण्णासं देविसयं पन्नत्तं, बाहिरियाए परिसाए पणवीसं देविसयं पन्नत्तं ॥ धरणस्स णं रन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवइथं कालं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए का और लव कथन इस बलि इन्द्र के प्रकरण में असुरेन्द्र असुरराज चमर के प्रकरण में जैसा कहा गया है-वैसाही जानना चाहिये-तथा च 'से कोणणं अंते' इत्यादि प्रश्नोत्ता यथा-हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं इत्यादि प्रश्नोत्तर से जिस प्रकार वहां कहा है वैसा ही कथन समझ लेवें ॥सू०४७॥ समय से ते ६४२५ ‘से केणद्वेण भवे !' या Rथा छ भ3-3 ભગવન! આપ એવું શા કારણથી કહે છે ? ઈત્યાદિ પ્રશ્નોત્તરથી જે રીતે ત્યાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે અહિંયાં પણ સમજી લેવું ૪૭ Page #770 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Get जीवामिगमती देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? अभितरियाए परिसाए देवीणं केवइयं ठिई पन्नत्ता ? मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा ! धरणस्सणं रन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, मज्झिसियाए परिलाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नता, वाहिरियाए परिसाए देवाणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, असितरियाए परिसाए देवीणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नता, मज्झिसियाए परिसाए देवीणं साइरेगं चउभागपलि ओदनं ठिई पन्नत्ता, वाहिरियाए परिसाए देवीणं चउभागपलिओवमं ठिई पन्नता, अटो जहा चमरस्ल । कहि णं भंते! उत्तरिल्लागं नागकुमाराणं जहा ठाणपदे जाव विहरइ ॥ भूशाणं दस्त भंते ! नागकुमारिंदरूस नागकुमाररन्नो अभितरियाए-परिसाए कह देव लाहसलीओ पन्नत्ताओ, मज्झिमियाए परिलाए काइ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए कह देवताहरूसीओ पण्णताओ, अभितरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णता ? मज्झिनियाए परिसाए कह देविसया पन्नत्ता बाहिरियाए परिसाए कह देविलया पन्नत्ता? गोथमा ! भूयाणंदस्त पं. नागकुसारिंदरम नागकुमार रन्नो अभितरियाए परिसाए पन्नासं देवसहरला पन्लता, लज्झिमियाए परिसाए लट्टि देवसाहस्लीओ पन्नत्ताओ बाहिरियाए परिसाए सत्तरि देवसाहस्लाओ पन्नत्ताओ, अभितरियाए परिलाए दो पणवीसं देविसयाणं पन्नत्ता, मन्झिमियाए परिसाए दो देविसया एन्नता, बाहिरियाए परिसाए पण्णत्तरं देविसयं पन्नत्तं ॥ Page #771 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैययोति का टीका म.३ उ.३ रु.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७४५ ____भूयाणंदस्स पं भंते! नागकुलारिंदम नागकुमाररन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नता? गोयमा! मृयागंदस्लणं अतिरियाए परिलाए देवाणं देसूर्ण पलिओवमं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिओवसं ठिई पन्नत्ता बाहिरिवाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमंठिई पन्नत्ता अभितरियाए परिसाए देवीणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता मज्झिमियाए परिसाए देवीणं देसूणं अद्धपलिओमंठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं साइरेग च उभागं पलिओवमं ठिई एन्लत्ता, अरे जहा यमरस्स, अवलेसाणं वेणुदेवादीणं महाघोलपज्जवलाणाणं ठाणपद वत्तवया निरवयवा भाणिया, परिताओ जहा धरणभूयाणं दाणं (सेसाणं सत्रणवई) दाहिणिल्लाणं जहा धरणस्त उत्तरिल्लाणं जहा भूयाणंदस्त परिमाण पि ठिई चि॥सू० ४८॥ छाया-कुत्र खलु भदन्त ! नागकुलाराणां देवानां भवनानि प्राप्तानि ? यथा स्थानपदे यावद् दाक्षिणात्या अपि प्रष्टव्या लावत्, धरणोऽत्र नागकुमारेन्द्रो नागकुमारराजः परिवसति यावद विहरति ।। धरणस्थ खलु भदन्न । नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य कति पर्षदः प्रज्ञप्ता: ? गौतम ! तिनः पपैदः, ता एव यथा चमरस्य । धरणस्य खलु भदन्त । नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य आभ्यन्तरिकायां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि यावद् बाह्यायां पदि कति देवीशतानि मज्ञप्तानि ? गौतम ! धरणस्प खलु नागनारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य आस्यतरिकाशं पर्षे दि षष्टिदेवसहस्राणि, माध्यमिकाशं पदि सप्ततिर्देनसहस्राणि, बाह्यायां पदि अशीतिर्दवसहस्राणि, आरूपन्तरिकायां पर्षदि पञ्च सततं देवीशतं माध्यमिकायां पर्षदि पञ्चाशदेवीशतं यज्ञप्तम् बाह्यायां पर्षदि पञ्चविंशतिर्देवीशतं मज्ञप्तम् । धरणस्य खलु राज्ञ अभ्यन्तरिक्षायां पदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्राप्ता, माध्यमिकायां पर्यदिशानां कियन्तं कालं स्थिति मज्ञप्ता? वाह्या पपैदि देवानां कियन्त कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? आन्तरिकायां पर्पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थिति प्रज्ञप्ता ? मध्यमिकायां पर्पदि देवोनां किप काल स्थितिः प्रज्ञप्ता, Page #772 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमले ७५० व.ह्यायां पर्पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञा ? गौतम ! धरणम्य राज्ञ अभ्य. मारिकायां पर्पदि देवानां सातिरेकमधल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायां पर्पदि देवानामपल्पोपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, वाह्यायां पदि देवानां देशोनमर्द्ध पल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, आभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवीनां देशीनगर्ध पल्योपमं स्थिति प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायां पदि देवीनां सातिरेकं चतुर्भागएल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, वाह्यायां पर्पदि देवीनां चतुर्भागपल्योपम स्थितिः प्रज्ञप्ता, अर्थों यथा चमरस्य । कुन खल्लु भदन्त ! औत्तराणां नागकुमाराणां यथा स्थानपदे यावद्विहरगि। मृतानन्दस्व खलु भदन्त ! नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्याभ्यन्तरिका पदि कति देवसाइसरव्यः प्रज्ञप्ताः साध्यमिकायां पर्षदि कति देवसाहस्यः प्रज्ञप्ता। आभ्यन्तरिकायां पर्पदि कति देवीशतानि, माध्यमिकायां पर्षदि कति देवीशवानि प्रज्ञमानि, बाह्यायां पर्पदि कति देवोशतानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! भृतानन्दस्य खल्ल भदन्त ! नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्याऽऽभ्यन्तरिकायां पदि पश्चाशदेवतहस्राणि प्रज्ञप्तानि माध्यमि कायां पर्षदि पष्टिदेवसाहसस्न्यः प्रज्ञप्ताः बाह्यायां पर्पदि सप्ततिर्देवसाहसस्यः पज्ञप्ताः, आभ्यन्तरिकायां पर्षदि द्वे पञ्चविंशे देवीशते प्रज्ञप्ते, माध्यमिकायां पर्ष दि द्वे देवीशते प्रज्ञप्ते, वह्यायां पर्षदि पश्च सप्तं देवीशतं प्रज्ञप्तम् । भूता नन्दस्य खलु भदन्त ! नागकुपारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य आभ्यन्तरिकायों पर्पदि देवानां भियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, यावद्वाह्यायां पर्षदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? गौतम! भूतानन्दस्य खलु आभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां देशोनं पल्योपमं स्थितिः प्राप्ता, माध्यमिक्षायाँ पर्षदे देवानां सातिरेकमपल्यापम स्थितिः प्रज्ञप्ता, बाह्यायां पर्षदि देवानामर्धपल्योपम स्थितिः प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायां पर्पदि देवीनां देशोनमर्धपल्पोपम स्थिति मज्ञप्ता, बाह्यायां पर्पदि देवीनां सातिरेकं चतुर्भागपल्योपम स्थितिः प्रज्ञप्ता, अर्थों यथा चमरस्य । अवशेषाणां घेणुदेवादीनां महाघोषपर्यवसानानां स्थानपदवक्तव्यता निरव या मणितव्या, पर्षदो यथा धरण-भूतानन्दानाम् (शेषा भवनपतीनाम्) दाक्षिणात्यानां यथा धरणस्थ औसराणा यथा भूतानन्दस्य, परि. माणमपि स्पितिरपि ।मु० ४८॥ दक्षिण तथा उत्तर के असुरकुमारों के भवनादि का वर्णन करके अपनागकुमारों के भवनादिका वर्णन करते हैं। દક્ષિણ અને ઉત્તર દિશાના અસુરકુમારેના ભવનાદિ દ્વારેનું વર્ણન કરીને वे नमाना मनाहि दारानुन ४२पामां आवे छे. 'कहि णं भसे Page #773 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभैयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपण ७५१ टोका- 'कहि णं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पन्नत्ता' कुत्र - कम्मिन् स्थाने खलु भदन्त ! नागकुमाराणं देवानां भवनानि प्रज्ञप्तानि - कथितानीति प्रश्नः, उरयति प्रज्ञापनातिदेशेन - 'जहा' इत्यादि, 'जहा ठाणा दे दाहिल्लाविच्छिन्ना जाव धरणे एत्थ नागकुमारिंदे नागकुमारराया परिवसा जाब विरइ' एव यथा ज्ञापनायां स्थानाख्ये द्वितीयपदे तथा वक्तव्यं यावद्दाक्षिणात्या अपि नागकुमाराः प्रष्टव्या य व धरणनामकोऽच नागकुमारेन्द्रो नागकुमारराजः परिवति यावद्विहरति, इति पर्यन्तं स्थानपदोक्तः पठ ेऽत्र संग्रह्यः । PREDETI CENT सम्प्रति-धरणेन्द्रस्य पर्षन्निरूपणार्थमाह- 'घरणस्स णं भते !' इत्यादि, धरणग्स णं भंगे' धरणस्य- धरणनामकस्य खलु भदन्त | 'नागकुमारिदस्स नागकुमार रनो' नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'कइ परिलाओ पन्नत्ताओ' कति किय 'कहिणं भंते !' नागकुमाराणं देवाणं भणा पण्णत्ता ? इत्यादि । टीकार्थ- श्रीगौतमस्वामीने प्रभुश्री से ऐसा पूछ। है है भदन्त | नागकुमार देवों के भवन कहाँ पर है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं । 'जहा ठाणपदे जाय दाहिणिल्लाबि पुच्छियन्दा जाव धरणे' हे गौतम इस सम्बन्ध में जैसा कथन प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थान पद में किया गया है वैसा ही वह कथन यहां पर भी समज लेना चाहिये यावत् दाक्षिणात्य-दक्षिणदिशावर्ती नागकुमारदेव कहाँ पर रहते हैं ऐसा भी पूछना चाहिये और वहां पर नागकुमारों का इन्द्र एवं नागकुमारों का राजा धरण रहता है इस पाठ तक का प'ठ यहां वहां से लेकर कह लेना चाहिये । 'धरणस्त णं भंते' नागकुमारिदस्य नागकुमाररण्णो कति परिसाओ' हे भदन्त ! नागकुमारों के इन्द्र और नागकुमारों के राजा धरण की कितनी परिनागकुमारदेवाणं भवणा पण्णत्ता' इत्यादि ટીકા –શ્રીગૌતમસ્વામી નાગકુમારેાના સંબધમાં પ્રશ્ન કરતાં પ્રભુશ્રીને 'कहिणं भते ! नागकुमारदेवाणं भवणा पण्णत्ता' हे भगवन् ! नागકુમાર દેવાના લવને કયાં કહ્યા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી શ્રીગૌતમ स्वाभीने हे छे } 'जहा ठाणपदे जाव दाक्षिणिल्ला वि पुच्छियव्वा जाव धरणे' हे ગૌતમ ! આ વિષયમાં પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના બીજા સ્થાનપદમાં જે પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે. એજ પ્રમાણેનું કથન અહીયાં પણ કહી લેવું જોઈએ. યાવત્ દાક્ષિણાત્ય દક્ષિણ દિશામાં રહેવાવાળા નાગકૃમાર દેવ કર્યાં રહે છે ? આ પ્રમાણે પ્રશ્નોત્તર કરીને તે કથન ત્યાં નાગકુમારાના ઈંદ્ર તથા નાગકુમારેને રાજા ધરણ રહે છે? આ પાઠ પન્ત ત્યાંનું કથન અહિંયાં કહેવુ' જોઇએ 'धरण णं भते ! जागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो कति परिखाओ Page #774 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ जीवामिगमस्त्रे संख्यकाः पर्पदः-सभाः पक्षप्ता:-कयिता इति RR, भगवानार-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' हे गौतम ! तिम्नि परिसाओ पण्णत्ताओ' दिसः एपंदा, प्रज्ञप्ताः, 'ताओ चेव जहा चमरम्स' ता एवं परिपदो यथा चमरस्य, यथा चमरेन्द्रस्य, तिस्रः पर्षद: कथिता रस्था-धरेन्द्रस्यापि समिता चण्डा जाता, आभ्यन्तरिका समिता, माध्यमिशा चण्डा, बाया जाता, एवं रूपेण तिम्म पर्प दो धरणेन्द्रस्यापि ज्ञातव्य इति । 'धरणस्ल णं भंते !' धरणस्य खल्ल भदन्त ! 'नाग कुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो' ना कुमारे द्रस्व नागकुमारराजस्य 'अपितरियाए परिमाए कइ देवरहस्सा लत्ता' अतिरिमार्ग प्रथमागं पदि कति देवसहस्राणि पशतानि-कथिनानि जान वाहिरियाए परिसाए २६ देवीच्या पणत्ता' यारद् बाह्यायां पर्पदि कति देवीगतानि प्रज्ञप्तानि, अत्र यात्पदसंग्राह्यपाठ स्याओं यथा धरणेन्द्रस्य माध्यमिकायां द्वितीयस्यां पर्षदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्लानि, वायायां पर्षदि कहि देवमहस्वाणि प्रज्ञप्तानि, आम्पन्तरिकायां पर्ष दि षदाएं कही गई है ? उत्तर में प्रभुश्री करते हैं । 'गोयमा ! 'तिणि परिसाओ पण्णत्ताओ' हे गौतम! नागकुमारों के इन्द्र और नागकुमारों के राजा धरण की तीन परिषदा कभी गई है 'ताओचेव जहा चमरस्स उनके नाम वही है जो चनर इन्द्र की परिपदा के हैं। 'धरणस्म णं भंते । णागकुमाग्दिम्म पागकुमाररो भितरियाए परिसाए यति देवस हस्सा पणत्ता' हे भदल्य | नागकुमारेन्द्र नागक्रमार राज धरण की आभ्यन्तरसमा में दिलने हजार देव ? 'जाय बाहिरियाएपरिसाए कति देवी सया पगला' यात् बाह्या परिषदा में कितनी सौ देवियां हैं ? यहां घासत् शब्द से ऐमा पाठ गृहीत हुआ है कि-धरण के मध्यम पण्णत्ताओ' लगन् नागमारे ना 'द्र भने नागभाशना रात ५२नी કેટલી પરિષદાઓ કહેવામાં આવેલ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે 'गोयमा । तिणि परिसाओ पण्णत्ताओ' हे गौतम | नागमा। .। छन्द्र भने नागभाना २ ५२९ नी त्रय परिषदामा ४३ छे. 'ताओ चेव जहा चमरस्स' तना नाम। यभर छन्द्रनी ५६षहाना नाम प्रभारी सव. धरणस्स गंभ ते । णागकुमादिस्व नागकुमाररणो अभितरियार परिसाए कति देवसहस्सा पणत्ता' ભગવન્ નાગકુમારે નાગકુમાર રાજ ધરણની આ ન્સર સભામાં કેટલા तर १३ छे ? 'जाव बाहिरियाए परिसाए कति देवी सया पण्णत्ता' यावत् બાહ્ય પરિષદામાં કેટલા સે દેવિ કહેલ છે? અહી યાં યાવત્ પદથી એવો પાઠ ગ્રહણ કરાય છે કે દરગની મધ્યમ પરિષદામાં કેટલા હજાર દે છે ? બાહ્ય સભામાં કેટલા હજાર દે છે ? આભ્યન્તર સભામાં કેટલા સે દેવિયે Page #775 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७५३ कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि, माध्यमिकाथा पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञप्तानीति, तथा बाह्यायां पदि कति देवीशतानि प्रजातानि-कयितानीति पश्ना, भगवानाह 'गोयमा !' इत्यादि, 'गोयमा !' हे गौतम ! 'धरणसणं' धरणस्य खल्लु 'नागकुमारिदस्स नागकुमाररन्नो' मागकुपा रेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'अधितरियाए परिसाए सहि देवसहस्साई' अत्यन्तरिकायां पर्पदि चण्डाभिधानायां षष्टिर्देवसहस्त्रानि प्रज्ञप्तालि, 'सज्जियाए परिसाए सत्तरि देवसहरसाई माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां द्वितीयस्यां पर्ष दि सप्तति देवसहस्राणि प्राप्त नि तथा-शाहिरियाए परिसाए अमोइदेव सहस्पाई' व ह्यायां जाताभिध नाणं तृतीयस्यां पर्षदि अशीतिदेवसहस्त्राणि प्तालि, एवम्-'अभिरियाए परिसाए' आभ्यन्तरिकाया समितासिधाना प्रथमाया पदि 'पणसत्तर देवसय पन्न पश्च सप्तत-पञ्चसप्तत्यधिकं देवीशवं प्रज्ञप्तं कथितस्, तथा-'मज्झिभियाए परिसाए एण्णासं देविसयं पन्नत्तं' बाध्यशिका पदि पञ्चाशतं- पञ्चाशदधिकं सभा में कितने हजार देख है ? बाय सभा में कितने छजार देव हैं ? आभ्यन्तर सभा में कितनी लौ देधियां है । मध्यमा सभा में कितनी सौ देवियां है ? इसके उत्तर में प्रसुश्री कहते हैं "धरणसणं णागकुमारिंदरम'नागकुमाररको अभितिरिधाए परिसाए सादेवसहरसाई, मज्झिमियाए परिसाए सत्तरं देवमहालाई, बाहिरिचाए अनीतिदेवसहस्साई' हे गौलम! जागबुमारेन्द्र नागकुमारराज रणनीन्तर परिषदा में ६० हजार देव है। RTR परिषद में ७० हजार देव और बाह्य परिषदा में ८० हजार देव है। तथा-अमिनरपरिहार पण्ण सत्तरं देवीसयं पण्ण मन्झिलियाए परिसाए सणासं देवीलयं पणतं, बाहिरियाए परिसाए पणधीसं देवीन यंप' नामकुम्बारेन्द्र बााकुमारराज धरण की भाभ्यन्तर परिषदा ले १७५ देवियां है। मध्यन परिषदा में છે? મધ્યમ સભામાં કેટલા સ દેવિ છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી 3 छ है 'धरणस्स णं णागकुमारिस नागकुमारणो अभि तरि पाए परिसाए सर्द्धि देवसहस्साई, मज्झिमियाए परिसाए सत्तर देव सहस्साई, वाहिरियाए अमीति देव सहस्साई' गीतमा नागामारेन्द्र नहु५२ २१ घरधनी અભ્યતર પરિષદામાં ૬૦૦૦૦ માઈઠ હજાર દે છે અધ્યમ પરિષદમાં ૭૦૦ ૦૦ સિતેર હજાર દેવે છે, અને બાહ્ય પરિષદમાં ૮૦૦૦૦ એંસી હજાર हे। छे. तथा 'अभितरियाएपरिसाए पप्णसत्तरं देवीसय पण्णत्तं, मझिनियाए परिवार पण्णासं देवीमय पण्णत्त, बाहिरियाए परिसाए पणवीसं देवी सय पण्णत्तं' नागमोरेन्द्र नागभा२ २२४ घनी यन्त२ परिपामा १७५ जी० ९५ Page #776 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्ते देवीशतं प्रज्ञप्तम्, 'बाहिरियाए परिसाए पप्णवीसं देविस्यं पारतं' वाह्यायां जाताभिधानायं पर्षदि पश्चविंशत-पश्चविंशत्यधिक देवी शतं प्रज्ञतम् इति पर्पः । द्विषय मुत्तरमिति । सम्पति-धरण पर्पत् स्थित देव देवीनां स्थिति दर्शयितमाह'धरणस्स णं इत्यादि, 'धरणस्त णं रनो' हे शदन्त ! धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'यभितरियाए परिसाए' आश्यन्तरिकायां समिताभिधानार्या पर्पदि 'देव.णं केवइयं कालं ठिई पामत्ता' देवानां कियातं कालं स्थिति:-आयुष्यकाळा-मज्ञप्ता, तथा-'मज्झिमियाए परिसाए' माध्यमिक्षायां पर्पदि 'देवाणं कियन्तं कालं स्थिति प्रज्ञप्ता तथा वाहिरियाएपरिसाए जाताभिधानायां पर्पदि 'देवाणं केवइयं कालं ठिई पानत्ता' देवानां किया कालं स्थिति प्रज्ञप्ता-कथिता तथा-'अमितरियाए परिसाए' आभ्यन्तरिका सहितायां पर्षदि 'देवीणं केवइयं काल ठिई पन्नत्ता' देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः जिप्ता, तथा 'वाहिरियाए १५० देवियाँ है । बाय परिषदा में १२५ देवियां है । अघ धरणेन्द्रकी परिषत के देव देवियों की स्थिति कहते हैं-'धरणस्स णं रनो' इत्यादि 'धरणसणं रनो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालंठिती पण्णत्ता' नागकुमारेन्द्र नागकुमारराजधरण की आमन्तर परिषदा के देवों की कितने काल की स्थिति कही गई है। 'मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता' मध्यमा सभा के देयों की कितने काल की स्थिति कही गई है। 'वाहिरियाए परिसाए देवाणं केवतियं कालं ठिनी पण्णत्ता' और पाह्या परिषदा के देवों की स्थिति शितने काल की कही गई है। इसी प्रकार से नागकुमारेन्द्र नागकुमारराजघरण की એક પંચોતેર દેવિ છે. મધ્યમ પરિષદામાં ૧૫૦ દોઢસો દેવિયો છે. બાહ્ય પરિષદામાં ૧૨૫ સવાસો દેવિયો છે. હવે ધરણેન્દ્રની પરિષદના દેવ દેવિયની સ્થિતિ કહેવામાં આવે છે. 'धरणस्स गं रन्नो' त्याहि । 'धरणस्स गं रन्नो अभितरियाए परिसाए देवाण' केवतिय कालं ठिई पण्णच सगवन् नागभारेन्द्र नागभार २१०४ धनी मान्यन्त२ ५षिहाना देवानी स्थिति सा नी वामां आवे छ ? 'मन्झिमियाए परिसाए देवाणं केवइय' काल ठिई पण्णता' मध्यमा समानावानी स्थिति सानी Bछे १ 'बाहिरियाए परिसाए देवाण केवइयं काल ठिई पण्णत्ता' भने पाह પરિષદા દેવોની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેવામાં અાવેલ છે ? એજ પ્રમાણે नागभारेन्द्र नामा२ २०८ ५२नी 'अभि तरियाए परिसाए देवीण केवइय काल ठिई पण्णत्ता, मज्झमियाए परिसाए देवीण केवइय काल ठिई पण्णत्ता Page #777 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ . ३ सु. ४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७५५ परिसाए' वाह्यायां जातायां पर्पदि 'देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता' देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः मज्ञप्ता - कथितेति स्थितिविषयकः प्रश्ना, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'धरणस्स रन्नो' धरणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'अतिरिवार परिसाए' आभ्यन्तरिकायां समिताभिधानायां पदि 'देवाणं सारे अपलो ठिई पन्नत्ता' देवानां सातिरेकम दुर्घपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'मज्झिमियाए परिसाए देवाणं' माध्यमिकाया द्वितीयस्यां चण्डाभिधानायां पर्पदि देवानाम् 'अद्धवलिओम' ठिई पन्नता' अर्धपल्योपमप्रमाणा स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा - 'बाहिरियाए परिसार देवाणं' बाह्यायां जाताभिधानायां पर्पादिदेवानाम् 'देव णं अद्धवलिओम' ठिई पन्नता' देशोनं-देशतीन्यूनमर्द्धपल्पोप स्थितिः प्रज्ञच्छा, एबम् - धरणेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'अभि'अभिमतरियाए परिसाए देवीणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता मज्झसियाए परिलाए देवीणं केवइयं कालं किती पण्णत्ता बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता आभ्यन्तर परिषदा की देवीयों की स्थिति कितने काल की है ? मध्यमा परिषदा के देवीयों की स्थिति कितने काल की है ? एवं बाह्य परिषदा के देवीयों की स्थिति कितने काल की है ? इसके उसर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयमा वरणस्रनो अभितरियाए परिसाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिओ टिई पन्नता' हे गौतम ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की आभ्यन्तर परिषदा के देवों की स्थिति कुछ अधिक अर्द्ध पल्योपम की है 'वज्झिमिया परिसाए देषाणं अद्धपलिओदनं ठिई पण्णत्ता' मध्य परिषदा के देवों की स्थिति - आयुष्काल - अर्द्ध पल्योपम की है 'वहिरियार परिसाए देशणं देणं अद्धपलिओवमं ठिई पण्णत्ता' बाह्य बाहिरिया परिसाए देवीण केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता' आभ्यन्तर परिषहानी દૈવિયાની સ્થિતિ કેટલા કાળની છે ? મધ્યમ પરિષદ્યાની દેવિયેાની સ્થિતિ કેટલા કાળની છે ? તેમજ ખાદ્ય પરિષદાની દેવિયાની સ્થિતિ કેટલા કાળની छे ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रलुश्री हे छे! 'गोयमा ! धरणस्स रण्णो अभितरियाए परिखाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिओदम ठिई पण्णत्ता' हे गौतम! નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાજ ધરણની આભ્યન્તર પરિષદાના દેવેની સ્થિતિ ४४ वधारे अर्थ यस्योपमनी है. 'मज्झिमियाद परिसाए देवाणं अप लिओ म ठिई पण्णत्ता' मध्यम परिषहाना हेवानी स्थिति आयुष्य आज अर्ध यस्योपमनी छे. 'बाहिरिया परिसाए देवाणं देसूणं अद्धवलि ओवम ठिई पण्णत्ता' मा પરિષદાના દેવાની સ્થિતિ કંઈક કમ અષ પચ્ચેાપમની છે. એજ પ્રમાણે Page #778 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭ ૬ जीवामिगमसूत्रे वरियार परिसाए देवीणं' आभ्यन्तरिकायां समिताभिधानायां प्रथमायां पर्पदि देवीना 'देसू णं अद्धपति ओबमं ठिई पन्नता' देशोनं देशतो न्यूनमर्द्धपल्योपम स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'मझिमियाए परिसाए देवीणं माध्यमिकायां चण्डाभिधानायां पर्पदि देवीनाम् 'साइरेगं चउमागपलियोनम ठिई एन्नता' सातिरेकं चतुर्भाग परयोपम पल्योपमस्य सातिरेकचतुर्थी मागः स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा - 'बाहिरियाए परिसाए देवी' वाद्यायां जाताभिधानायां चरमायां पर्पदि देवीनाम् 'चउमाग पलिओम ठिई पन्नता' चतुर्भाग पल्योपमस् परयोपमस्य चतुर्भागप्रमाणास्थिति aata | 'अहो जहा चमरस्स' अर्थों यथा चमरस्थ, _ate:- मदन्त ! धारणस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य केन कारणेन तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः, समिता चण्डा जाता आभ्यन्तरिका समिठा, माध्यमिका चण्डा, वाया जातेत्यादिकं सर्वे चमरासुरकुमारेन्द्रासुरराजवदेव ज्ञातव्यमिति ॥ परिषा के देशों की स्थिति कुछ कम अर्द्धपस्योपम की है इसी तरह नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की आभ्यन्तर परिषदा की देवियों की स्थिति 'देवतृणं अपलिओन ठिई पण्णत्ता' कुछ कम अर्द्ध पल्योपस की स्थिति कही गई है 'अनिमियाए परिसाए देवीणं साइरेगं भाग पलिओदमं लिई पण्णत्ता' मध्यमा परिषदा के देवियों की स्थिति कुछ अधिक पल्पोप के चतुर्थ भाग प्रमाण है 'अहो जहा चमरस्स' इस सूत्र पाठ का ऐसा तात्पर्य है - हे भदन्त ! नागकुमारेन्द्र - नागकुमा दराज वरण की ये तीन परिषदाएं किस प्रकार से आपने कहीं है ? तो हे गौतम! तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर असुरकुमारेन्द्र असुरकुमारराज चमर के प्रकरण में जैसा इस सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही है अतः (- समुच्चय) वहीं से यह समझा जा सकता है ? નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાજ ધરણુની આભ્યન્તર પરિષદ્યાની દેવિચેની ટેટૂળ अद्धपलिओम' ठिई पण्णत्ता' भ अर्धपस्यायमनी छे. 'मज्झमियाए परिसाए देवीणं साइरेगं चउभागपलि ओत्रम ठिई पण्णत्ता' मध्यमा परिषहानी हेवियानी स्थिति ४४४ वधारे पयोभना योथा लोग प्रभासुनी छे. 'अट्ठो जहा વમરસ” આ સૂત્રપાઠનું તાત્પર્ય એવુ છેકે હે ભગવત્ નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમાર રાજ ધરણુનીએ ત્રણ પરિષદાઓ શા કારણથી આપે કહી છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ ! આ તમારા પ્રશ્નના ઉત્તર અસુરકુમારેન્દ્ર અસુરરાજ ચમરના પ્રકરણમાં આ વિષયમાં જેવું કથન કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે છે. જેથી ત્યાંથીજ આ પ્રશ્નના ઉત્તર સમજી લેવા. આ રીતે ઔધિક નાગકુમારનુ અને દક્ષિણ દિશાના નાગકુમારનુ નિરૂપણુ કરીને હવે સૂત્રકાર ઉત્તર દિશામાં Page #779 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ इ.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७५७ ___ औधिकनागकुमारान् दाक्षिणात्यांश्च तान् निरूप्योत्तर नागकुमाराग्निरू. पयितुमाह-'कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं' इत्यादि, 'कहिण भंवे ! कुन-कस्मिन् स्थाने खल्लु भदन्त ! 'उत्तरिल्लाण नाग कुनाराणां भवानि प्रज्ञप्लानि इति प्रश्नः, उत्तरति-'जहा ठाणापदे जाव विहरइ' यथा-स्थानपदे प्रज्ञापनायाः स्थानाख्ये द्वितीयपदे यावत्-मोगमोगान भुञ्जानो विहरति, इत्यन्तं कथितं तथैवात्रापि ज्ञातव्यम् । सम्पति-भूतानन्दस्य पर्षन्निरूपणार्थमाह-'भूयाणहस्स ण मंते' इत्यादि, 'भूयाणदस्स ण भंते !' भूतानन्दस्य खलु भदन्त ! 'नागकुमारिदस्स नागकुमाररनो' नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'अतिरिथाए परिसाए' आभ्यन्तरिकायां समिताभिधानायां प्रथमायां पर्षदिकइ देवसाहसीओ पन्नत्ताओ' कति देवसाहच्या-देवपहस्राणि अज्ञप्ताः । 'अज्झिमियाए परिसाए' माध्यमिकायां पर्पदि 'कह देव साहस्ती भो पन्नताओ' कति दे इस इस्त्राणि प्रज्ञप्तानि, वाहिरियाए परि इस तरह औधिक नागकुमारों का एवं दक्षिण दिशा के नाग कुमारों का निरूपण करके अब्ब सूत्र कार उत्तर दिग्ध नागकुमारों का निरूपण करते हैं-'कहिणं भंते ! उन्तरिल्लाणं नागकुमाराणं भवणा पण्णत्ता' हे भदन्तर ! उत्तर दिशा के नागकुमा के भवन कहां पर है ? उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं हे गोनल ! प्रज्ञापनासूत्र के स्थानपद नामक दितीय पद में कहे गये पाट के अनुसार उन नाकुमारों के भवन है और वे वहां दिव्यभोग उपभोग भोगते हुए रहते हैं। अप भूतानन्द के पविषत् का निरूपण करते हैं 'भूयाणंदरुसणं णागकुमारिदस्स नागकुमाररनो अभिपरिचाए परिसाए फति देवसाहस्सीओ पण्णशाओ' हे भदन्त ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भृता. नन्द की आभ्यन्तर परिषदा में कितने हजार देव कहे गये हैं ? नागकु२९वादार नागमशिनु नि३५ ४२ छ. 'कक्षिण भते ! उत्तरिल्लाणं नागकु. माराण भवणा पण्णचा' लगवन् त्तर शिन नागभाना सपना ज्या આવેલા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હે ગૌતમ જ્ઞાપના સૂત્રના સ્થાન નામના બીજા પદમાં કહેવામાં આવેલ પાઠ પ્રમાણે એ નાગકુમારોના ભવને છે. અને તેઓ એ ભવનમાં ભેગોપભેગોને ભેગવતા થકા રહે છે, वे भूताननी परिषानुन ४२१८मा मावे छे. 'भूयाणदस्य णं णागकुमारिदस्स नागकुमाररण्णो अभि तरियाए परिसाए कति देवसाहसीओ पण्णताओं' 3 मान्नागभारेन्द्र नाममा २२००४ भूतानहनी माय त२ परिषतामा કેટલા હજાર દેવે કહેવામાં આવેલ છે? નાગકુમારોને ઈદ્ર ભૂતાનંદ છે. અને Page #780 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमत्रे ७९८ साए कई देवसाहसी भी पन्नत्ताओ' बाह्यायां जावाभिधानायां पर्षदि कति देवसाहस्त्रयः प्रज्ञप्ता', 'अभितरियाए परिसाए कई देविया पन्नत्ता' आभ्यन्तरि काय समिताभिधानायां पर्षदि कति देवीशतानि प्रज्ञवानि 'मझिमियाए परि साए कई देविया पन्नत्ता' माध्यमिकायां पदि कृति देवीशतानि मज्ञप्तानि तथा - 'बाहिरियाए परिसाए कई देविसया पन्नत्ता' कह्यानं जाताभिधानायां पपद कृति देवीशतानि प्रज्ञप्तानीति पश्नः, भगवानाइ - 'गोयमा' हे गौतम! 'भूयाणंदसणं नागकुमारिदस्त नागकुपाररन्नो' भूतानन्दस्य खछ नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य 'अमिरियाए परिसाए' अभ्यन्वरिकायां समिताभिधानायां पर्ष दि 'पन्नासं देवसाइल्सीओ पन्नत्तामो' पञ्चाशदेव सहस्राणि - प्रज्ञप्तानि कथितानि 'मझिमियाए परिसाए' माध्यमिका पर्पदि 'सद्धि देवसाहस्सीओ मारो का इन्द्र भूतानन्द और यह उसर दिशा के नागकुमारों का राजा है 'मज्झिमाए परिलाए कई देवसाहस्त्रीओ पन्नत्ताओं' इसकी मध्यमा परिषदा में कितने हजार देव कहे गये हैं तथा 'बाहिरियाए परिसाए कहदेव वाहस्त्रीओ पण्णत्ता' इसको बाह्या परिषदा में कितने हजार देव कहे गये हैं । इसी तरह 'अतिरिए परिसाए कह देसिया पण्णत्ता ? मज्झमियाए परिवार फइ देविसया पण्णत्ता, 'बाहिरिया परिसाए कह देवीसया पण्णत्ता' भूनानन्द की आभ्यन्तर परिषदा में कितनी नौ देवियां कही गई है । मध्यमा परिषदा में कितनी सौ देवियां कही गई है ? बाह्या परिषदा में कितनी तो देवियां कही गई है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'भूपाणंद - नागकुमारिंदस्स- नागकुमाररनो अतिरियाए परिशए पन्ना देवहला पन्तत्ता' हे गौतम ! नामकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूनानन्द की प्रकार परि पदा में ५० हजार देव कहे गये हैं मध्यम परिषदा में 'सर्हि देवसाहये लुतान उत्तर द्विश ना नागकुमारीनो न छे 'सज्झिमियार परिसाए कई 'देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ' तेनी मध्यमा परिषदामां डेटा भर देवा उद्या हे ? तथा 'बाहिरिया परिसाए कइ देवाहस्सीओ पन्नताओ' तेनी माह्या परिषद्याभां डेटा र हेवा उद्या हे ? तेन प्रमाणे 'अभि'तरियाए परिसाए देवि या पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसार कइ देविसया पण्णत्ता' भूनानांनी मान्यन्नर પિષામાં કેટલા સે' દૈવિયે! કહે છે ? મધ્યમા પરિષામાં કેટલા સે। દેવચા કડે છે? અને ખાદ્ય પરિષદમાં કેટલા મે દેવો કહેલ મા આવેત્ર છે ? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री गौतम भीते आहे छे है 'भूयानंदहस नागकुमारि दसून नागकुमाररन्नो अतिरियार परिखाए पन्नास देव सहस्सा पन्नत्ता' डे ગૌતમ ! નાગકુમારેન્દ્ર નાગકુમારરાજ ભૂતાનની આભ્યન્તર પરિષદામાં Page #781 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ खू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७५९ पन्नताओ' षष्टिर्देवसहस्राणि - पष्टिसहस्रपरिमिता देवा भवन्तीति, वाहिरिए परिसाए' बाह्य यां पर्व'दि 'सत्तरि देव साहस्पीओ पन्नताओ' सुप्ठति देनसरस्राणि प्रज्ञप्तानि तथा अभितरियाए परिसाए' आभ्यन्तरकार समितानिधानायां पदि 'दो पणवीसं देवियाण पन्नता' पञ्चविशे-पञ्चत्रिंशत्यधिके द्वेदेवी प्रज्ञप्ते कथिते 'मज्झनियार परिमार' माध्यमिकायां पर्पदि 'दो देविमया पन्नत्ता' परिपूर्णे हे देवीशने पज्ञप्ने, तथा - 'बाहिरियाए परिसाए' बाह्यागं पर्षद 'पण सत्तरं देविस पात्तं पञ्च सप्तं - पञ्चसप्तत्यधिक देवीशतं पक्षप्तमिति । भूतानन्दीय वर्षात् स्थित देवदेवीनां स्थितिमानं दर्शषि । पनयन्नाह - भूयादसस' इस्थादि, 'भूषादस्य भने भूतानन्दस्य खलु मद्दन्व ! 'नागकुमारि दस्स नागकुपाररन्नो' नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारशनस्य 'अभितरियाए परिसाए' अभ्यन्तरिकायां पर्पदि 'देवाण' केवायं कालं ठिई पन्नत्ता' देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता- कथिता. 'जाव' यावत् माध्यमिकानां पर्पदि देवानां चिन्तं सीओ पन्नताओ' ६० हजार देव कहे गये हैं 'बाहिरियाए परिसाए' बाह्य परिषदा में 'सरिदेवताहरूसीओ पन्नताओ' ७० सत्तर हजार देव कहे गये हैं । तथा-'अग्निमरियाए परिसाए' आभ्यन्तर परिषदा में 'दोपणवीसं देविसघाणं पन्नत्ता' २२५ देषियां कही गई । 'मझिमि या परिसाए दो देसिया पन्नत्ता' परिषदा में दो सौ देवियां कही गई है 'बाहिरिया परिसाए पण्णसन्त्तरं देविलयं पन्नन्ते' बाह्य परिषदा में २२५ देवियां की गई है भूतानन्द की परिषदास्थित देव देवियों की स्थिति काल का कथन करते हैं । 'भूतानंदस्स्स ण भंते' नामकुमारिंदम्स नागकुमाररन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं के वहयं कालंटिई पन्नन्ता' हे भवन्त ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूनानन्द की आभ्यन्तर परि५०००० प्रन्यास हुन्नर हेवेो ह्या मध्यभां परिषधाम 'सट्टि देवसाइ(सीओ पन्नत्ताओं' ६०००० सार देवा उद्या हे 'बाहिरियार परिसाए' मा परिषभां 'सत्तरि देव साहसीओ पन्नत्ताओ' ७०००० सितेर हुन्नरहेवे। उद्या है. तथा 'अभितरियाए परिमाप' आल्यांतर परिषदाभां 'दो पण्णवीस देविसया पन्नत्ता' २२५ असे। पयस देवियो एडेस छे. 'मज्ज्ञिमिया परिसाए दो देविसरा पन्नत्ता' मध्यभा परिषद भ २०० से। देवियो उडेल छे 'बाहिरियाए परिसाए पण्णत्तर देविवयं पण्णत्त' बाह्य परिषदा १२५ शेड से पथीस देवियों महेस छे હવે ભૂતાનંદની પરિષામાં કહેલ દેવ દેવચેની સ્થિતિનું કથન श्वामां आवे छे. 'भूतानंदस्स ण भते ! नागकुमारिंदम्स नागकुमाररण्णो अतिरियार परिसार देवाणं केवइय कालं ठिई पप्णचा' हे भगवन् नागभा Page #782 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे 48984 ७६० काल स्थितिः सा तथा वाह्यायां पदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः मज्ञता, एवम् आन्तरिकायां पर्षदि देवीनां कियन्तं कालं स्थिति: मज्ञता साध्यमिकायां पर्पदि देवीमांकित कालं स्थितिः सा तथा - 'वादिरियाए परिसाए देवीणं केवtयं कालं ठिई पन्नता' वाद्यागं पर्पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिप्रज्ञप्तेति नः, भगवानाह - 'शोषमा' इत्यादि, 'गोरमा' हे गौतम! 'भूयाणंदसणं अभितरियाए परिस' भृतानन्दस्य रुटु अभ्यन्त शिकार समिताभिधाना पर्षद 'देवणं देणं पलिओ में निर्ड पता' देवानां देशीन पल्यो मं स्थिति: मज्ञप्ता, 'मज्झिमाए परिमाए' माध्यमिका चण्डाभिधानायां पर्षद 'देवाणं माइरेगं अलओ टिई पत्ता' देवानं सादिरेकर प्ल्योपमं स्थिति भज्ञता, तथा - ' बाहिरिए परिसाए देवाणं' बाह्यायां जाताभिधानायां पदि देवानाम् ' अपलियोमं टिई पत्ता' दर्भपल्योपमं स्थितिः पदा के देवो की स्थिति - आयुष्ककाल-क्षितनी कही गई है । इसी तरह से मध्यमा परिषदा के देवों की स्थिति कितनी कही गई है ? चाला परिषदा के देवों की स्थिति मिनी कही गई है ? तथा आभ्यन्तर परिपदा देवियों की स्थिति कितनी कही गई है मध्यमा परिषदा की देवियों की स्थिति कितनी कही गई है । वह परिषदा की देवियों की स्थिति कितनी कही गई है ? इसके उत्तर में सुश्री कहते हैं 'गोयमा' भूतानंदस्त अतिरियाए पर देवाणं देणं पविमंठिमी पण्णत्ता' हे गौतम! भूतानन्द की आभ्यन्तर परिषदा के देवों की स्थिति कुछ कम एक पल्वोपम की कही गई है 'मज्झमियाए परिसाए देवाणं सारेगं अलिओ ठिनी पण्णत्ता' मध्यमा परिषदा के देवों की कुछ अधिक लोन की स्थिति कही गई है 'बाहिरियाए परिરેન્દ્ર નાગકુમારાજ ભૂતાનંદની આભ્યંતર પરિષદાના દેવેાનીસ્થિતિ-આયુષ્યકાળ કેટલી કરેલ છે ? આજ પ્રમાણે મધ્યમા પરિષદાના દેવાની સ્થિતિ ફ્રેંટલી કહેલ છે? તથા ખાદ્યા પરિષદાના દેવેની સ્થિતિ કેટલી કહેલ છે ? તથા આભ્ય તર પરિષદાની દેવિચેની સ્થિતિ કેટલી કહેલ છે ? મધ્યમા પરિષદાની દેવિગેાની સ્થિતિ કેટલી કડેલ છે? અને બાહ્ય પરિષદાની દેવિયેાની સ્થિતિ કેટલી કહેલ छे? या प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वामीने अछे 'गोयमा ! भूतान दम्ब अभितरियार परिम्लाए देवाणं देसूगं पलिओम ठिई पण्णत्ता' डे ગૌતમ ! ભૂતાનંદની અભ્યંતર પરિષદાના દેવાની સ્થિતિ કઇક એછી पत्ये यमनी उस 'मज्झमियार परिसाए देवाण सारेग अद्धप लिओम ठिई पण्णत्ता' मध्यमा परिषहाना हेवानी स्थिति ४४४ वधारे Page #783 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिकाम. उ. ३ . ४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७६१ जल का 39 प्रज्ञा, एवम् - भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्राय 'अभितरियार परिसाए' आभ्यन्तरिकायां समिताभिधानायां पर्पदि देवीनाम् ' अद्वपलियोमं ठिई पन्नत्ता' अर्द्धपल्योपमपमाणात्मिका स्थितिः प्रज्ञा, तथा - 'मज्झिमियाए परिसाए देवीणं' माध्यमिकायां पदि देवीनाम् 'देमू णं अद्धपछिओत्रमं टिई पन्नन्ना' देशोनंदेशन्यूनम् अर्द्धवल्योपम स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा - 'बाहिरियाए परिसाए देवीणं' बाह्यां पदम् 'साइरेगं चउभागपलिओवम' पल्योपमस्य चतुर्थभाग परिमितं स्थितिः प्रज्ञप्ता 'अत्थो जहा चमरस्स' अर्थो यथा चमरस्य चमरस्य - असुरकुमारराजस्य पदः समितादिनामव्यपदेश करणं यथायथं तत्केनार्थेन भदन्त । एवमुच्यते, इत्यादि पश्नोत्तरकरणे कथितं तथैव भूतानन्दस्य नागकुमारेन्द्रस्य नागकुमारराजस्य पर्पदः समिता - चण्डाजातानामाभ्यन्तरका माध्यमिका बाह्याभिधानकारणं ज्ञातव्यमिति । 'अवसेसाणं वेणुदेवादीणं महाघोस साए देवाणं अपलिओयम ठिई पण्णत्ता' वाह्य परिषदा के देवों की स्थिति भवस्थिति आधे पत्योपम की कही गई है। इसी तरह से 'अतिरिया परिमाए देवीणं श्रपलि ओवमं ठिई पण्णत्ता' नागकुरेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द की आभ्यकार परिषदा की देवियों की स्थिति आधे पोप की कही गई है । 'मज्झिमियाए परिसाए देवीणं अद्धपलिओचमं डिई पण्णत्ता' मध्यमा परिषदा की देविकों की स्थिति कुछ कम आधे पल्योपम की कही गई है। 'बाहिरियाए परिसाए देवीणं साइरेगं उभागपलिओचमं ठिई पन्नत्ता' बाह्या परिषदा की देवियों की कुछ अधिक पल्प के चतुर्थ भाग प्रमाण स्थिति कही गई है ! 'अस्यो जहा चमरस्न' यहां हे भदन्त ! इनकी समितियों का ऐसा नाम क्यों कहा गया है' इस तरह के प्रश्न का उत्तर जैसा चमर के प्रकरण में अपनी छे 'बाहिरियाए परिसाए देवाण अद्धपलिओत्रम ठिई पण्णत्ता' ह्या परिषहाना देवानी स्थिति लत्रस्थिति अर्धा पहयेोमनी उडेल छेथे ४ प्रभो 'अभितरियार परेसाए देवीणं अद्धपलिश्वम ठिई पण्ण સા' નાગકુમારૅન્દ્ર નાગકુમારરાજ ભૂતાનઢની અભ્યંત પરિષદાની દવાની स्थिति अर्धा यथेोपमनी वामां आवे छे. 'मज्झिमियाप परिमाए देवीणं देणं अद्धप ओवम ठिई पण्णत्ता' मध्यमा परिषद्वानी देवियोनी स्थिति ४६६ ક્રમ અર્ધો પત્યેાપમની કહેલ છે 'बाहिरियाए परिसाए देवीणं साइरेग' चटभागपलिओम ठिई पन्नत्ता' हा परिषदानी हेवियानी स्थिति ४ वधारे पस्यना थोथा लागू प्रभावामां गावी हे 'अत्थो जहा चमर' અહિયાં હે ભગવન્ તેમની સમિતિઓના એ પ્રમાણેના નામે કેમ કહ્યા जी० ९६ Page #784 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६३ जीवामिगमन पज्जवसणाणं ठाणवतन्वया निश्वयवा भाणियच्या अवशेषाणामसुरकुमार नागकुमारराज व्यतिरिक्तानां वेणुदेवादीनां महाघ पपर्यवसानानां-महाघोपान्तानां स्थानाख्य प्रज्ञापनागत द्वितीयपदवक्तव्यता निरक्शेषा भणितव्या ।। पहिपये यन्नानात्वं सदाह-मूत्रकारः-'परिमाओ जहा-धरण भृयाणंदाणं' दाहिणिलाण जहा धरणस्स उत्तरिल्लाणं जहा सृयाणंदरस, परिमाणंपि ठिई घि पर्षदो यथा-धरण-भूतानन्दयोः, दक्षिणात्यानां यथा धरणस्य, औत्तराणां यथा-भूतानन्दस्य, परिमाणमपि स्थितिरपि, उतिच्छाया । वेणुदेवादीनां भवनपतिराजानां पर्षदो यथा-येन प्रकारेण धरणस्य भूतानन्दस्य च कथिता स्तथैव वेणुदेवादि महाघोपपर्यन्तानां सर्वेषां भवनपतिराजानामपि वक्तव्याः। विशेषस्त्वयम्-दाक्षिणात्यानां-दक्षिण दिग्बत्तिनां भवनपतिराज सम्बन्धि नीनां पर्पहां वर्णनं यथा धरणस्प भवन पतिराजस्य तथा ज्ञातव्यम् ! औत्तराणाम्। दिया गया है उसी प्रकार से यही उत्तर जानना चाहिये 'प्रवसेसाणं वेणुदेवादीणं महाघोसपज्जवलाणं ठाण पदयत्तच्या निरषय वा भाणियन्ना' बाकी के वेणुदेव आदि ले लेजर महाघोष तक के भवनपतियों की वक्तब्धता जैसी प्रज्ञापना के द्वितीय पद में कही गई है वैसी ही वह पूरी यहां पर भी कह लेनी चाहिये । परिषदा के विषय में जो भिन्नता है उसे लूत्रकार स्वयं परिसाओ जहा धरण भूखाणं दाणं दाहि. जिल्लाणं जहा धरणस्त उत्तरिल्लाणं जहा भृयाणंदस्त परिमाणपिठिई वि' इस सूत्रशठ से बताया है दक्षिण दिशाके असुरकुमार की पर्षदा धरणेन्द्र की परिर्पदा के समान है एवं उत्तरीदशा के असुरकुमारी की परिषदा भूतानन्द की परिषदा के जैली है वेणुदेव से लेकर महाघोष. पर्यन्त के भवनपतिराजाओं की परिषदा जैसी धरणेन्द्र एवं भूतानन्द की છે ? એ રીતના પ્રશ્નનો ઉત્તર જે રીતે ચમરના પ્રકરણમાં આપવામાં આવે स छ, मेरी प्रभागेन। उत्त२ महियां ५५ सभ७ को. 'अवसेसाणं वेणुदेवा दीण महाघोसपजवसाण ठाण पदवत्तव्वया निरवयवा भाणियव्वा' सीन शुद्धव વિગેરેથી આરંભીને મહાઘોષ સુધીના ભવનપરિચાનું કથન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના બીજા પદમાં કહેલ છે એ જ પ્રમાણે એ પૂરે પૂરું કથન અહિયાં પણ કહી લેવું જોઇએ પરિષદના સંબંધમાં જુદા પણું આવે છે. તેને સૂત્રકાર तर 'परिसाओ जहा धरणभूयाणंदाणं दाहिणिल्लाणं जहा धरणस्स उत्तरिल्लाणं जहा भूयाण दस्स परिमाण पि ठिई वि' मा सूत्र पा४थी ४ छे. दक्षिण દિશાના અસુરકુમારની પરિષદાઓ ધરણેન્દ્રની પરિષદાની સમાન છે. અને ઉત્તર દિશાના અસુરકુમારોની પરિષદ ભૂતાનન્દની પરિષદની સરખી જ છે. વેણ Page #785 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - - -- प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ लू.४८ नांगकुमाराणां भघनादिद्वारनिरूपणम् ७६३ उत्तरदिग्वतिनां च भवन तिराज सम्बन्धिनीनां वर्णनं यथा भूतानन्दस्य भवनपतिराजस्य तथा वक्तव्यम् । तथा तत्तस्पर्षद व देवदेवीनां परिमाणमपि स्थितिरपीति परिमाणस्थिति वर्णनं च दाक्षिणात्यानां धरणसमागत देवदेवीनामिव औत्तराणां च भूतानन्दसलागत देवदेवीनामिव वेणुदेवादि महाघोष पर्यन्तानां भवनपतिराजानामपि विज्ञेयमिति । एषामसुकुमाररादीनां सर्वेषां भवनपती भवनना. नात्वम्, इन्द्रनानात्वं, परिमाणनानात्वं चैताभिः सप्तमिर्गाथाभिर्विज्ञातव्यम्, ताश्चेमाः-'च उसट्टी असुराणं १, चुलसीई चेव होइ नागाणं २। बावत्तरि सुक्न्ने३, वाउकुमाराण छन्मउई ४॥१॥ परिषदा कही गई है थैली ही समज ले, विशेषता यही है की दक्षिणदिग्वति भवलपतिराज की परिषदा का वर्णन जिस प्रकार धरणेन्द्र भवनपतिराज की परिषदा का वर्णन है वैसा समज लेवें, उत्तरदिशा के भवनपतिराज की परिषदा का वर्णन भवनपतिराज भूतानन्द की परिषदा के वर्णन जैसा ही है उस उस परिपदा के देव देवियों के परिमाण एवं स्थिति का वर्णन दक्षिण दिशा के धरणेन्द्र की सभा के देवदेवियों के परिमाण जैसा ही कह लेवें, और उत्तर दिशा के वेणुदेवादि महाघोष पर्यन्त के देवदेवियों का परिमाण भूतानन्द की सभा के देवदेवियों के परिमाण जैसा ही कहा है थे सभी असुरकुमारादि भवनपतियों के केवल सवनों में इन्द्रों में भिन्नताई-वह इन सात गाथाओं द्वारा जान लेना चाहिये, वे गाथाएं संस्कृत टीका दी गई है। इन गाथाओं को व्याख्या इस प्रकार है-यहां दक्षिण और उत्तर इस प्रकार दोनों દેવથી લઈને મહાઘેષ સુધીના ભવનપતિ રાજાઓની પરિષદ ધરણેન્દ્ર અને ભૂતાનન્દની પરિષદ જેવી કહી છે તે જ પ્રકારની છે. વિશેષતા કેવળ એજ છે કે દક્ષિણ દિશાના ભવનપતિરાજની પરિષદનું વર્ણન જે પ્રમાણે ધરણેન્દ્ર ભવન પતિરાજની પરિષદાનું વર્ણન કહેલ છે. તે જ પ્રમાણે સમજવું. અને ઉત્તર દિશાના ભવનપતિરાજની પરિષદાનું વર્ણન ભવનપતિરાજ ભૂતાનન્દની પરિષદા ના વર્ણન પ્રમાણે જ છે. તે તે પરિષદાના દેવ દેવિયેના પરિમાણ અને સ્થિતિનું વર્ણન દક્ષિણ દિશાના ધરણેન્દ્રની સભાના દેવ વિના પરિમાણ પ્રમાણે જ છે. અને ઉત્તર દિશાના વેણુદેવથી લઈ મહાઘેષ સુધીના દેવ દેવિનુ પરિમાણુ ભૂતાનંદની સભાના દેવ દેવિયોના પરિમાણ પ્રમાણે છે અસુરકુમારાદિ બધાજ ભવનપતિના કેવળ ભવનમાં ઈદ્રોમાં અને પરિમાણના કથનમાં જુદા પણ છે. તે આની સંસ્કૃત ટીકામાં આપવામાં આવેલ સાત ગાથાઓથી સમજી લેવું. એ ગાથાઓની વ્યાખ્યા આ પ્રમાણે કરવામાં આવેલ છે. આમાં દક્ષિણ અને Page #786 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम ७६४ दी३५ दिसा६ उदहीणं७ विज्जुकुमारिंद८ यणिय९ मग्गीणं१० । छहंपि जुयलयाणं, छारत्तरिओ सयसहस्सा ॥२॥ चोत्तीसा२ चोयाला२, अत्तीसं च सयसहस्साई । पण्णा४ चत्तालीसा१०, दाहिणओ होलि भवणाई ॥३॥ तीसा१ चत्तालीसा२, चोत्तीसं३ चेव सयसहस्साई । छायाला४ छत्तीसा१०, उत्तरओ होति भवणाई।४। चमरे१ धरणे२ तहवेणुदेव३ हरिवंत४ अग्गिसिहे ५ य । पुण्णे६ जलकंतेय, अमिए८ लंबेय घोसे १८या।५। वलि१ भूयाणंदे२ येणुदालि३ हरिस्तह ४ अग्गिमाण५ वविसिट्रेक्षा जलप्पभ७ अभियवाहण.८ एभंगणे९ चेव महघोसे १० ॥ चउसट्ठी१ सट्ठी२ खल, छच्च सहस्सा असुरवजाणं । सामाणियाउ एए, चउगुणा आयर खाउ, ७॥ (चतुःषष्टिरसुराणां चतुरशीवि भवति नागानाम् । द्वासप्ततिः सुवर्णानां वायुकुमाराणां पण्णवतिः ॥१॥ द्वीपदिशोदधीनां विद्युत्कुमारेन्द्रस्तनिताग्नीनाम् । पण्णामपि युगळकानां पट्सप्ततिः शतसहस्राणि ॥२॥ चतुस्त्रिंशच्चतुश्चत्वारिंश दष्टत्रिशच्च शतसहस्राणि । पञ्चाशच्चत्वारिंशदक्षिणतो भवन्ति भवनानि ॥३॥ त्रिंशच्चत्वारिंशच्चतुर्विंशच्चैव शतसहस्राणि । पट् चत्वारिंशत् पत्रिशदुत्तरतो भवन्ति भवनानि ॥४॥ चमरो धरणस्तथा वेणुदेवो हरिकान्तोऽग्निसिंहश्च । पूर्णो जलकान्तश्चामितो लम्बध घोपश्च । । ५॥ चलिर्भूतानन्दो वेणुदाली हरिस्सह अग्निमाणव विशिष्टः जळपभोऽमितवाहनः ममजनश्चैत्र महाघोपः ॥६॥ चतुषष्टिः खल्ल पट् च सहस्राणित्वसुर वर्जानाम् । सामानिकास्तु एते चतुर्गुणा आत्मरक्षकारतु । ७॥ अथासां गाथानां व्यख्यामाह-तत्र पूर्व दक्षिणोत्तरेति दिनद्वय वर्जित्तानां भवनपतीनां समुच्चयेन समील्य भवनसंख्या प्रदर्शयति-'चउसही' इत्यादि दिशाओं में रहने वाले भवनवासियों के भवनों की समुच्चयरूप से मिलाकर संख्या कहते हैं। ઉત્તર બનને દિશામાં રહેવાવાળા ભવનવાસી દેવોના ભવનોની સંખ્યા સમુચય રૂપે મેળવીને કહેવામાં આવેલ છે વરણી ઇત્યાદિ ૧ અસુરકુમારોના Page #787 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपण- ७६५ गाथा १-२।। असुरकुमाराणां च षष्टि मानलक्षाणि६४। नागकुमाराणां चतुर शीति भवनलक्षाणि ८४।। सुवर्णकुमाराणां द्वासप्तति भवनलक्षाणि ७२ । वायुकुमारणां पण्णवति भवनलक्षाणि ९६। ना.११ द्वीपकुमार-दिवकुमारो-दधिमार-विद्युम्कुमार स्तनितकुमारा-मकुमारेति पण्णां भवनपतीनां प्रत्येकं पटसप्तदि-पट्सप्तति संख्यकानि भवनानि सन्ति ।।गा. २॥ अथ दक्षिणोत्तरदिग्पत्ति भापीतां पृरक् पृथग् विपिच्य भानसंख्या प्रदर्शयितुकामः प्रथमं दक्षिणदिवत्ति भवनपणीनां भवनसंख्यां मदर्शयति'चोत्तीसा' इत्यादि गा. ३ । 'चउसट्ठी' इत्यादि गाथा १-२ । असुरकुमारों के भवन चौसठ ६४ लाख है इसी प्रकार नागकुमारों के चौराली ८४ लाख, सुवर्णकुमारों के पहसा ७२ लाख, वायुकुमारों के छियानवे ९६ लाख, भवन है । गा. १ ॥ 'दीवंदिला' इत्यादि गा. २॥ द्विपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, विद्युम्कुमार, रतनिल कुमार और अग्निकुमार इन छहो भवनपतियों के प्रत्येक (एक एक के) छिहत्तर छिहत्तरे ७६-७६-लाख अधन है इसी को लेकर गायाकार ने कहा है 'दीयदिखाउदहीणं विक्रमादिणियममीणं । छण्हं पि जुषलयाणं छाबत्तरिओ लय सहस्सा ।। मा २॥ अब दक्षिण और उत्तर दिशाओं के भवनवासियों के भवनों की संख्या का अलग अलग विवेचन करने की इच्छा से गायाकार प्रथम दक्षिण दिग्दो भवनवालियो के भवनों की संख्या कहते हैं। 'चोत्तीसा' इत्यादि गाथा ॥३॥ ભવનો ચોસઠ લાખ છે. ૬૪૦૦૦૦૦ એજ પ્રમાણે નાગકુમારના ૮૪૦૦૦૮૦ ચેર્યાશી લાખ છે. સુવર્ણકુમારના ૭૨૦૦૦૦૦ તેર લાખ વાયુકુમારોના ८६००००० छन्तु atm सनी छे. ॥ गा. १ ॥ __'दीवदिसा' या . २ ५भा२, ६३भार, धिमा२, विधु માર, સ્વનિતકુમાર અને અગિકુમાર એ છએને એટલે કે દરેકને છોતેર લાખ ૭૬ છેતેર લાખ ભવને છે. આજ ભાવને લઈને ગ.થાકારે કહ્યું છે 'दीव दीसा उदहीण विज्जुकुमारि दणिवमगीणं । छह पि जुयळयाण छवित्तरिओ सयसहस्सा' ।। . २ હવે દક્ષિણ અને ઉત્તર દિશા બોના ભવન વાસિયોના ભવનોની સંખ્યાનું જુદું જ વિવેચન કરવાની ઇચ્છાથી ગાથાકાર પહેલાં ભવનવાસના सपनानी सध्यानु थन रे छे. 'चोलीसा' या Page #788 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे दक्षिणदिग्वर्त्तिनामसुरकुमाराणां भवनानि चतुशिल्ळक्षाणि ३४, नागकुमाराणां चतुश्चत्वारिंशळक्षाणि ४४, सुवर्णकुमाराणामष्टत्रिशल्लक्षाणि ३८, वायुकुमाराणां पञ्चाशल्कक्षाणि ५०, शेषाणां द्वीप - दिगुदधि-विद्यु स्वनिताग्निकुमाराणां षण्णां प्रत्येकं चत्वारिशल्लक्षाणि (४७ - ४०) भवनानां सन्ठीति | गा-३ || अधोत्तरदिग्वति भवनपतीनां भवनानि प्रदर्शयति- 'तीसा' इत्यादि गा.' उत्तरदिग्वत्तिनाम सुकुमाराणां भवनानि शिक्षाणि३०, नागकुमाराणां चत्वारिंशल्लक्षाणि४०, सुवर्णकुमाराणां चतुस्त्रिशल्लक्षाणि ३४, वायुकुमाराणां पट् चत्वारिंशल्क्षाणि४६, शेषणां द्वीपदिगुदधि विद्युत्स्तनिवाग्नि कुमाराणां षण्णां प्रत्येकं पट्त्रिंशत् पटत्रिशल्लक्षाणि भवनानां सन्तीति । द्वयानां दक्षिणोत्तरभवनानां सख्यायाः संमेलने मत्येकेषां गाथाद्वयोक्ता समुच्चयसंख्या समागच्छतीति बोध्यम् ॥गा४॥ ७६६ दक्षिण दिशा के असुरकुमारों के चोत्तीस ३४ लाख भवन है । इसी प्रकार नागकुमारों के चवालीस ४४ लाख, सुवर्णकुमारों अड़तीस ३८ लाख और वायुकुमारों के पचास ५० लाख भवन है, शेष जो छह द्वीपकुमर, दिशाकुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार, इन छहों के प्रत्येक के चालीस चालीस ४०-४० लाख भवन हैं । गा. ३ ॥ " अब इसी प्रकार उत्तर दिग्वन्त भवनवासियों के भवनों की संख्या कहते हैं- 'तीसा' इत्यादि गा. ४ ॥ उत्तर दिशा के असुरकुमारों के भवन तीख ३० लाख है । इसी प्रकार बागकुमारों के चालीस ४० लाख, सुवर्णकुमारो के चौतीस ३४ लाख, और वायुकुमारों के छियालीस ४६ लाख भवन है। शेष जो દક્ષિણ દિશાના અસુરકુમારીના ૩૪૦૦૦૦ચે ત્રીસ લાખ ભવના છે. એજ પ્રમાણેના નાગકુમારાના ૪૪૦૦૦૦૦ ચુંવાળીસ લાખ, સુવ ણુકુમારના ૩૮૦૦૦૦૦ આડત્રીસ લાખ અને વાયુકુમારોના ૫૦૦૦૦૦ પચાસલાખ ભવને छे. जाडीता द्वीपकुमार, हिशाहुमार, अधिकुमार, विधुतकुर, अग्निशुभार, અને રૂનિતકુમાર એ છએને દરેકને ૪૦૦૦૦૦૦ ચાળીસ ૪૦૦૦૦૦૦ ચાળીસ साम भने छे गाउ હવે ઉત્તર દિશામા આવેલ ભવનવાસીયાના ભવાની સખ્યાનું' કથન ४२वाभावे छे. 'तीखा' इत्याहि . ४ ઉત્તર દિશ:ના અસુરકુમારીના ભવને ૩૦૦૦૦૦ ત્રીસ લાખ છે એજ પ્રમાણે નાગકુમારના ૪૦૦૦૦૦૦ ચાલીસ લાખ, સુત્ર કુમારેના ૩૪૦૦૦૦૦ ચેાત્રીસ લાખ અને યુકુમારના ૪૬૦૦૦૦૦ છેતાલીસ લાખ ભવના છે બાકીના જે દ્વીપકુમાર વિગેરે બીજી ગાથામાં ખતાવવામાં માન્યા છે, છએને Page #789 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ पू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७६७ सम्प्रति दक्षिणोत्तरदिग्वत्तिभवनपतीनामिन्द्रनामानि पृथक पृथग् विविच्य प्रदर्शयितुकामः प्रथम दक्षिणदिवर्तिमानपतीनामिन्द्रनामानि क्रयेण प्रदर्शयति 'चमर' इत्यादि गा. ५। दक्षिणदिग्वत्तिनामसुरकुमारणामिन्द्रश्वमरः१, नागकुमाराणां धरणः२, सुवर्णकुमाराणां वेणुदेवः३, विद्युत्कुमाराणां हरिकान्त:४, अग्निकुमाराणापग्नि शिख.५, द्वीपकुमाराणां पूर्णः ६, उदधिकुमाराणां मलकान्तः ७, दिक्कुमागणा. द्वीपकुमार आदि जो दूसरी गाथा में बताये गये हैं उन छहों के प्रत्येक के छत्तीस छत्तीस-३६-३६ लाख भवन है। इस प्रकार दक्षिण उत्तर दोनों दिशा के भवनपत्तियों के भवनों की संख्या को मिलाने से एक एक भवनपतियों के भवनों की संख्या जो प्रथम द्वितीय माया ये कही गई है वह समुच्चय रूप से आ जायगी ॥ गा. ४॥ ___अब दक्षिण उत्तर दोनों दिशाओं के बचनपतियों के इन्द्रों के नाम बतलाने की इच्छा से प्रथम दक्षिण दिग्धती अवलपतियों के इन्द्रों के नाम क्रम से कहते हैं-'चलरे' इत्यादि । गा. ५॥ दक्षिणदिशा के असुरकुमारों का इन्द्र चमार है इसी प्रकार नागकुमारों का धरण २, सुवर्णकुमारों का वेणुदेव३, विद्युत्कुमारों का हरिकान्त४, अग्निकुमारोंका अग्निशिख५, सीपकुमारों का पूर्ण ६, उद. घिकुमारों का जलकान्त७, दिक्कुमारों का अभिलगति८, वायुकुमारों का દરેકને ૩૬૦૦૦૦૦ છત્રીસ લાખ ૩૬૦૦૦૦૦ છત્રીસ લાખ ભાવનો છે આ રીતે દક્ષિણ દિશા અને ઉત્તર દિશા એમ બન્ને દિશાના ભવનપતિના ભવનેની સંખ્યા મેળવવાથી દરેક ભવનપતિયોના ભવનોની સંખ્યા જે પહેલી અને બીજી ગાથામાં કહેલ છે, તે સમુચ્ચય રૂપે આવી જાય છે. ગા જા હવે દક્ષિણ અને ઉત્તર અને દિશાના ભવનપતિ ના ઈદ્રોના નામ બતાવવાની ઈચ્છાથી પહેલા દક્ષિણ દિશાના ભવનપતિયોના ઈંદ્રોના નામે ક્રમ थीमताव छ. 'चमरे' इत्यादि દક્ષિણ દિશાના અસુરકુમારે ઈન્દ્ર અમર છે ૧, એજ પ્રમાણે નાગકુમારને ઈન્દ્ર ધરણ છે ૨, સુવર્ણકુમારોને ઈન્દ્ર વેણુદેવ છે, ૩, વિદ્યકુમારને ઈન્દ્ર હરિકાન્ત છે. ૪ અગ્નિકુમારોને ઇદ્ર અગ્નિ શિખ છે. ૫ દ્વિીપકુમારને ઈદ્ર પૂર્ણ છે. ૬ ઉદધિકુમારનો ઈદ્ર જલકોન છે ૭, દિકુમારે ઈદ્ર અમિતગતિ છે. ૮, વાયુ કુમારને ઈદ્ર વેલમ્મ છે. હું અને Page #790 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६८ जीवाभिगमम् ममित' ८, वायुकुमाराणा वेलम्बः ९, ललितकुमाराणां घोप: १० एते दशे द्राः क्रमेण दक्षिणदिनातिनां दशानां भवनपतीनां सन्तीति ॥मा ५॥ अथोत्तरदिग्वतिभवनपतीनां क्रमेणेन्द्रनामान्याह-'बलि' इत्यादि उत्तरदिबत्तिनगममुरकुमाराणामिन्द्रो वलिः१, नागकुमाराणां भूतानन्दः२, सुवर्गकुमाराणां वेणुदालिः ३, विद्युम्कुमाराणां हरिवहः ४, अग्निकुमाराणांमग्निमाणवः५, द्वीपकुमाराणां विशिष्टः६, उदधिकुमाराणां जल रमा७, दिक्कुमाराणाममितवाहना८, वायुकुमाराणां पाञ्जन:९, स्तनिलकुमाराणां घोषः १ । एते दशेन्द्राः क्रमेणोत्तरदिवर्तिमानपतीनां सन्तीति । गा.६॥ अथैषां प्रत्येकेषां सामानिकात्मरक्षकदेवानां संख्यामाह-'चउसट्टी' इत्यादि दक्षिणदिग्पत्तिभवनपतीनामसुरकुमाराणां चमरेन्द्रस्य सामानिकदेवाश्चतुष्पष्टिवेलम्ब९, और स्तनितकुमारोंका घोषलामा इन्द्र है१०, ये क्रम से दक्षिण दिशा के दशभवनपतियो के दश इन्द्र है ॥गा. ५॥ ... अब उत्तर दिशाके भवनपनियों के इन्द्रों का नाम कम से कहते है-'बलि' इत्यादि गा. ६॥ ____ उत्तरदिशा के असुरकुमारों का इन्द्र पलि है १, इसी प्रकार नाग कुमारों का इन्द्रभूनानन्द२, सुवर्णकुमारों का इन्द्र येणुदाली-३, विधुकुमारों का इन्द्र हरिस्तह४, अग्निकुमारों का इन्द्र अग्निमाणव५, द्वीपकुमारोंका इन्द्र विशिष्ट ६, दधिकुमारोंका इन्द्र जलन भ७, दिक्कुमारों का इन्द्र अमितवाहन ८, वायुकुमारों का इन्द्र प्रभंजन ९, और स्तनितकुमारों का इन्द्र महाघोष है १०। ये दस क्रम से उत्तर दिशाके दश भवनपतियों के दश इन्द्र हैं । मा. ६॥ સ્વનિતકશાને ઈન્દ્ર શેષ નામને ઈદ્ર છે. ૧૦, આ રીતે દક્ષિણદિશાના દશ ભવનપતિયોના દસ ઈન્દ્રો છે. | ગ ૫ | હવે ઉત્તર દિશાના ભવનપતિયોના ઈદ્રોના નામો ક થી કહેવામાં આવે छ 'बलि' त्याहा . ઉત્તર દિશાના અસુરકુમારને ઈદ્ર બલિ છે, ૧ એજ પ્રમાણે નાગકુમારે ઈન્દ્ર ભૂતાનંદ છે. ૨, સુવર્ણકુમારને ઈદ્ર વેણુદાલિ છે. ૩, વિઘુકુમારને ઈદ્ર હરિસહ છે , અગ્નિકુમારને ઈન્દ્ર અગ્નિમાર્ણવ છે. પ, દ્વીપકુમારને ઈદ્ર વિશિષ્ટ છે , ઉદદિકુમારનો ઈદ્ર જલપ્રભ છે ૭, દિકુમારને ઈદ્ર અમિતવાહન છે. ૮, વાયુકુમાને ઈદ્ર પ્રભંજન છે. ૯, અને સ્વનિતકુમારે મહાઘે ષ છે ૧૦, આ રીતે આ દસ ઉત્તર દિશાના દસ ભવનપતિયોના ૧૦ દસ ઈ દ્રો છે. ગા. ૬ | Page #791 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.४८ नागकुमाराणां भवनादिद्वारनिरूपणम् ७६९ सहस्रसंख्यकाः (६४०००) सन्ति । उत्तरदिग्वत्तिभवनपतीनामसुरकुमाराणां बळीन्द्रस्य सामानिकादेवाः षष्टिसहस्रसंख्यकाः ६०००० सन्ति । शेषाणां सर्वेषां भत्येकं सामानिकदेवाः षट्सहस्राणि षट्स हस्राणि सन्ति । आत्मरक्षकदेवाश्च सामानिकदेवेभ्यश्चतुर्गुणाः सर्वेषां स्वस्वापेक्षया भवन्तीति ॥गा.७।। ॥ भवनपतीनां भवनादि प्रदर्शक कोष्ठकम् ॥ भवन. दा. भ. औ. भ.सर्व दाक्षि द्वयाना. पति संख्या संख्या संख्या णात्येन्द्र औतरेन्द्र दा. सा. औत्तर मात्मनामानि लक्षाणि लक्षाणि लक्षाणि नामानि नामानि च.सामा. सामा. रक्षकाः च. सा. व. सा. असुर ३४ ,, ३० ,, ६४, चमरावलिः ६४०००६०००० आ. च, कुमारा घ. सा. भू. सा. नाग- ४४, ४०,८४, धरणः भूतानन्दः ६००० ६००० २४००० कुमारा वे सा. वेणुदालि सुवर्ण ३८ ,, ३४ ,, ७२ ., वेणु देवः वेणुदालिः ६००० ६००० २४००० कुमारा: हरि. हरिकान्त विद्यु'कु-४० , ३६ ,, ७६ ,, इरिकान्तः हरिस्सहः ६००० ६००० २४००० माराः अ. अ. मा. अग्नि ४०, ३६ ,, ७६,, अग्निशिखः अग्निः । ६०००६०.०२४००० कुमारा माण: पू. सा. वि. सा. द्वीप- ४०,, ३६,, ७६,, पूर्णः विशिष्टः ६००० ६००० २४००० कुमारा जळ. ज प्र. उदधि ४०,, ३६,,७६., नलकान्तः जलप्रभः ६००० ६००० २४००० कुमाराः अमि. अमि. ,, ७६ ,, अमित- अमित- ६००० ६००० २४००० मारा: गतिः वाहगः वेल. वे. सा. वायु ५०,४६,, ९६ ,, वेलम्बः पमञ्जनः ६००० ६००० २४००० कुमारा । घ.मा. म. घो. स्तमित ४०, ३६ ., ७६ ,, घोषः महाघोषः ६००० ६००० २४००० कुमार अय इन दश भवनपतियों के एकएक के सामानिक और आत्मरक्षकदेवों की संख्या कहते है-'च उसट्ठी' इत्यादि गा.७।। હવે દસ ભવનપતિયોના દરેકના સામાનિક અને આત્મરક્ષક દેવેની संध्या ४९ छे छउमट्टी' या . ७ दिक्कु ४०, ३६५७६" जी०१७ Page #792 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामि गमने दक्षिणदिशा के असुरकुमारों के इन्द्र यमरके चौसठ - ६४ हजार सामानिक देव है, उत्तर दिशा के असुरकुमारों के इन्द्र वरणके साठ ६० हजार लामानिकदेव है | व्याकी के दक्षिण तथा उत्तर दोनों दिशा के भनपतियो के इन्द्र जो धरण और भूतानन्द आदि हैं, उन सब इन्द्रों के प्रत्येक के सामाजिक देव छह छह ६-६ हजार है । और आत्मरक्षकदेव सव इन्द्रों के अपने अपने सामानिक देवों की अपेक्षा से चौगुने होते है जैसे चमरेन्द्र के सामानिकदेव चौसठ ६४ हजार हैं तो इन से चौगुन दो सौ छप्पन हजार अर्थात् दोलाख छप्पनहजार २५६०००) आश्मरक्षक देव होते है । इसी प्रकार बलोन्द्र के सामानिक देव साठ ६० हजार है तो इन से चौगुना दो सौ चालीस हजार अर्थात् दो लाख चालीस हजार (२४००००) आत्मरक्षकदेव होते है, शेष दक्षिण उत्तर दोनों दिशाओं के समस्त इन्द्रों के प्रत्येक के छ छ हजार सामानिकदेव है तो इनसे चौगुना चोहल चोइस हजार २४०००) २४०००) आत्मरक्षकदेव न्स भी इनके प्रत्येकके होते है ॥ गा, ७॥ यह सात गाथाओका अर्थ है । इनका कोष्ठक सं. टीका में देखलेना चाहिये दाक्षिणात् सुवर्णकुमारों की परिषदा की वक्तव्यता नागकुमारराज धरण ७१० દક્ષિણ દિશાના અસુરકુમારેશના ઇંદ્ર ચમરેન્દ્રના ૬૪૦૦૦ ચેાસઠ હજાર સામાનિક દેવે છે. અને ઉત્તર દિશાના અસુરકુમારેાના ઈંદ્ર ધરણેન્દ્રના ૬૦૦૦૦૦ સાઇઠ હજાર સામાનિક દેવે! છે. માકીના દક્ષિણ અને ઉત્તર અને દિશાના ભવનપતિયોના ઇન્દ્ર જે ધરણેન્દ્ર અને ભૂતાન દૈન્દ્ર આદિ છે, તે બધા ઈન્દ્રોના દરેકના છ છ હજાર સામનિક દેવે છે. અને બધા ઈંદ્રોના આત્મરક્ષક દેવે પેાત પેતાના સામાનિક દેવાની અપેક્ષાથી ચાર ગણા થાય છે. જેમકે ચમરેન્દ્રના સામાનિક દેવ ૧૪૦૦૦ ચેાસઠ હજાર હૈાય છે. તેનાથી ચાર ગણા એટલે કે સેા છપ્પન તુજાર અર્થાત્ એ લાખ છપ્પન હેાર ૫૬૦૦૦ આત્મરક્ષક દેવા તેના હાય છે એજ રીતે ખલીન્દ્રના સામાનિક દેવ ૬૦૦૦૦ સાઇઠ હજાર છે. એનાથી ચાર ગણા ખસેચાલીસ હૅજાર ૨૪૦૦૦૦ એ લાખચાલીસ હજાર આત્મરક્ષક દેવ મ'િદ્રના હૈાય છે. માકીના દક્ષિણઅને ઉત્તર અને દિશાઓના ખધા ઈંદ્રોના દરેકને છ છ હજાર સામાનિક દેવ છે. તે તેનાથી ચાર ગણા ૨૪૦૦૦ ચોવીસ હજાર ૨૪૦૦૦ ચાવીસ હજારઆત્મરક્ષક દેવા તે દરેક ઇન્દ્રોના ડાય છે. ! ગા, ૭ ૫ આ રીતે સાત ગાથાના અધ અહિયાં ખતાવેલ છે તેનું કાષ્ટક સકૃત ટીકામાં જોઇ લેવું. દક્ષિણુ દિશાના સુવર્ણ - કુમારની પરિષદાનુ થુન નાગકુમારરાજ ધરણની પરિષદાના કથન પ્રમાણે Page #793 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र.३ ३.३ सू.४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकम् पर्षद्वक्तव्यतापि दक्षिणात्यानां सुवर्णकुमाराणां नागकुमारराजधरणवत् औत्तराणां सुवर्णकुमाराणां पर्षद्वक्तव्यता औतरनागकुमारराज भूतानन्दवत् ज्ञातव्या, एतदभिप्रायेणैवोक्त' मूळे 'परिसाओ सेसाणं भरणवईणं दाहिणिकाण जहा धरणस्त्र उत्तरिल्लाणं जहा भूयाण' दस्स' इति ॥ ४८ ॥ तदेवं भवनतीर्ना वक्तव्यता कथिता, सम्पति-क्रम प्राप्तवानव्यन्तर वक्तव्यता दर्शयितुमाह- 'कहिणं ते! वाणमंतराणं' इत्यादि, ७७१ मूलम् - कहि of भंते ! वाणमंतराणं देवाणं भवणा (भोमेज्जा नगरा) पन्नता, जहा ठाणपदे जाव विहरति । कहि णं भंते! पिसायाणं देवाणं भवणा पन्नत्ता, जहा ठाणपदे जाव विहरंति काल - महाकाला य, तत्थ दुवे पिसायकुमाररायाणो पिसाय इंदा परिवसंत जाव विहरति । कहि णं भंते ! दाहिजिल्लाणं पिलाय कुमाराणं जाव विहरंति, काले य एत्थ पिसायकुमारिंदे पिसायकुमारराया परिवसइ महड्डिए जाव विहरह । कालस्स णं भंते! पिसाय कुमारिंदरुल पिलायकुमाररन्नो कइ परिसाओ पन्नताओ ? गोयमा ! तिन्नि परिसाओ पन्नताओ, तं जहा - ईसा तुडिया दढरहा, अतिरिया ईसा, मज्झिमया तुडिया, बाहिरिया दढरहा । कालस्स णं अंत ! पिसायकुमारिंस्त पिसायकुमाररन्नो अभितर परिसाए कह देवसाह - सीओ पन्नताओ जाव बाहिरियाए परिलाए कइ देविसया पन्नत्ता ? गोयमा ! कालस्स णं पिसायकुमारिदस्त पिसायकी परिषदा जैसी है तथा उत्तर के सुवर्णकुमारों की परिषदाकी वक्तव्यता उत्तर के नागकुमारराज भूतानन्द की परिषदा के जैसी हैं इसी अभि प्राय से सूत्रकारने तूल में 'परिसानी सेसा णं भवणवणं-दाहिणिल्लाणं जहा धरणस्त्र, उत्तरिल्लाणं जहा भूषाणंदस्स' ऐसा कहा है ।। सू० ४८ ॥ છે, તથા ઉત્તર દિશાના સુવર્ણ કુમારાની પરષદાનું કથન ઉત્તર દિશાના નાગ કુમારરાજ ભૂતાનંદની પરિષદાના કથન પ્રમાણે છે. આ અભિપ્રાયથી સૂત્રકારે भूani 'परिखाओ सेखाणं भवणवणं दाहिणिल्लाणं जहा धरणम्स, उत्तरिल्लाणं जहाँ भूयावर' येथे प्रमाणे देत हे ॥ सू. ४८ ॥ - Page #794 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MALA ७२ जीवामिगमसूत्र कुमाररायस्त अभितरपरिसाए अट्ट देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ पन्नत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्तीओ पन्नत्ताओ, अभितरियाए परिसाए एगं देवीसयं पन्नत्तं मज्झिमियाए परिसाए एगं देवीसयं पन्नत्तं बाहिरियाए परिसाए एगं देविसयं पन्नत्तं। कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता, मज्झि. मियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ? गोयमा! कालस्स णं पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं धउभागपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, अभितरियाए परिसाए देवीणं सातिरेगं चउभागपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, मन्झिमियाए परिसाए देवीणं चउभागपलिओवमं ठिई पन्नत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं देसूणं चउभागपलिओवमं ठिई पन्नत्ता अटो जो चेव घमरस्त एवं उत्तरस्त वि एवं णिरंतरं जाव गीयजसस्त।सू०४९। छाया-कुत्र खलु भदन्त ! वानव्यन्तराणां देवानां भवनानि (मोमेयानि नगगणि) प्रज्ञप्तानि, यया स्थानपदे यावद्विहरन्ति । कुत्र खलु भदन्त ! पिशाचानां देवानां भवनानि मज्ञप्तानि यथा स्थानपदे यावद्विहरन्ति, काल-महाकाली च तत्र द्वौ पिशाचकुमारराजो पिशाचेन्द्रौ परिचसतो यावद्विहरतः । कुत्र खलु भदन्त ! दाक्षिणात्यानां पिशाचकुमाराणां यावद्विहरन्ति, कालश्चात्र पिशाचकुमारेन्द्रः पिशाचकुमारराजः परिचसति महद्धिको यावद्विहरति । कालस्य खलु भदन्त ! पिशाचकुमारराजस्य कति पर्षदः प्रज्ञप्ता ? गौसम ! विस्तः पर्षदः मनप्ता, Page #795 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ खू.४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकम् ७७३ तद्यथा-ईशा त्रुटिता हूंढरथा, आभ्यन्तरिका ईशा, माध्यमिका त्रुटिला, वाह्या दृढरथा । कालस्य खलु भदन्त । पिशाचकुमारेन्द्रस्य पिशाचकुमारराजस्याभ्यन्तरिकायां पर्पदि कति देवसहस्राणि प्राप्तानि यावद्वाह्यायां पपदि फति देवीशतानि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! कालस्य खलु पिशाचकुमा रेन्द्रस्य पिशाचकुमारराजस्याऽऽपन्तरिकायां पर्पदि उष्टदेवसहस्राणि प्रज्ञतानि माध्यमिकायां पर्षदि दशदेवसस्राणि प्रज्ञप्तानि बाह्यायां पर्षदि द्वादश देवसहस्राणि यज्ञप्तानि, आय. न्तरिकायां पर्षदि एकं देवीशतं प्राप्त माध्यमिकायां पर्पदि एकं देवीशतं प्रज्ञप्तम् वाहूयायां पर्षदि एकं देवीशत प्रज्ञप्तम् । कालस्य खलु भदन्त ! पिशाचकुमारेन्द्रस्य पिशाचकुमारराजस्याऽऽभ्यन्तरिकायां पर्षदि देवानां कियातं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता ? माध्यमिकायां पर्षदि देवानां कियन्तं कालं स्थिति प्रज्ञप्ता, बाहयायां पर्षदि देवानां कियन्त कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, यावद्धाह्यायां पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः प्राप्ता ? गौतम ! कालरूप खलु पिशाचकुपारे द्रस्य पिशाचकुमारराजस्याभ्यन्तरिका पदि देशन मधेल्योपमं स्थिति सप्ता, माध्य. मिकायां पर्षदि देवानां देशोनमर्धरल्योपम स्थितिमा , बाह्यायां पर्पदि देवानां सातिरेकं चतुर्भागपन्योपमं स्थिति: प्रज्ञप्ता, आभ्यन्तरिकायां पदि देवीनां सातिरेक चतुर्भागपल्योपम स्थिति प्रज्ञप्ता, माध्यमिकायाँ पर्पदि देवीनां चतुर्भागपत्योपम स्थितिः प्रज्ञप्ता, बाहू पायां पर्षदि देवीगं देशोनं चतुर्भागपल्योपम स्थितिः प्राप्ता, अर्थायश्चैव चमरस्य, एक सुत्तरस्यापि, एवं निरन्तरं यावद्गीतयशसः सू. ४९॥ टीका-'कहिणं भते' कुत्र-कास्मिन स्थ ने खल्लु भदन्त ! 'वाणयंतराणं देवाणं' वानव्यन्तराणाम्, बने भवा बानाः, वानाथ ते व्यन्तरा इति वानरन्तरा स्तेपाम 'भवणा (मोमेज्जा णगरा) पन्नता, भवनानि-'मौमेयानि नगराणि मज्ञप्तानीति इस प्रकार से भवनपति देवों को वक्तव्यता बहकर अप सूत्रधार क्रम प्राप्त वानव्यन्तर देवो की वक्तव्यता कहते है 'कहि णं भंते। वाणमंराणं भवणा (भोमेज्जा गरा) इत्यादि । हे भदन्त किस स्थान पर वानव्यन्तर देवों के भवन कहे गये है ? इसके उत्तर में प्रभुत्री कहते है-'जहा ठाणपदे जाव विहरति આ રીતે ભવનપતિ દેવેનું કથન કરીને હવે સૂત્રકાર ક્રમાગત વાનગ્યतर हेवानु थन ४२ छे. 'कहिणं भ ते ! वाणमतरा णं भवण' त्यात ટીકાથ–હે ભગવદ્ વાનયંતર દેવોના ભવનો કયા સ્થાન પર કહેવામાં આવેલા छे १ मा प्रश्न 6त्तरमा प्रभु श्री गीतभराभान ४ छ है है 'जहा ठाणदे जाव विहरति' हे गौतम ! माविषयमा ज्ञापन सूत्रना भी स्थानमहमारे Page #796 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७४ - जीवाभिगमसूत्र प्रश्नः, भगवानाह-'जहा' इत्यादि, 'जहा ठाणपदे जाव विहरति' यथा स्थानपदेस्थानाख्ये प्रज्ञापनामूत्रस्य द्वितीयपदे कथितं तथेहापि वक्तव्यम् यावद्विहरन्तीति । ____ अयं साव:-अस्या रत्नप्रभापृथिव्या रत्नकाण्डस्य सहस्रयोजनवाहल्यस्योपरि एक योजनशतमय माहय अधोऽपि एकं योजनशतं वर्जयित्वा मध्येऽटन योजनशतेषु चानव्यन्तराणं तिर्यग्र असंख्येयानि नगरावासशतसहस्राणि सन्ति । एपां भौमेयनगराणां 'बहिर्वृत्ता' इत्यादि वर्णनं प्रज्ञापनास्थानपदतोऽत्रसेयम् । तत्र पिशाचादयो बहवो वानव्यन्तरा देवा परिवसन्ति । ते तत्र स्वेषां भवनसामा. निकदेवाग्रमहिषी पर्षदनीकानीकाधिपत्यात्मरक्षक देवानामन्येषां च वहूनां वान. अन्तरदेवदेवी नामाधिपत्यं कुर्वन्तो यावद् भोगभोगान् भुजाना विहरन्तीति सर्व गौतम ! इस सम्बन्ध में जैसा कथन प्रज्ञापना सूत्र के द्वितीय स्थानपद में किया गया है वैसा ही वह यहां पर कर लेना चाहिये अर्थात् इन वानव्यन्तरों के भवन-ौमेघनगर इस रत्नप्रभापृथिवी में रहे हुए रत्नकांड जो एक हजार योजन का पृथुल-जाडा है उसके उपर एक सौ योजन अवगाहन करके इसी प्रकार नीचे भी एक सौ योजन छोड़ार मध्य के आठ सौ योजन में वानव्यन्तरों के तिर्यक असंख्यातलाख नगराया है। वे औमेयनगर 'बहिवृत्ताः' वाहर से गोल है इत्यादि समरत वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थानपद से समझ लेना चाहिये। वहां उन नगरावासों में पिशाच आदि अशुतो बानन्तरदेव रहते है वे अपने अपने भवन, सामानिफदेय, अग्रमहिषी, पर्षदा, अनीक-लेना अनीकाधिपति, आत्मरक्षक देदों पर तथा और भी दूसरे बहुत धानव्यन्तर देवदेवियों पर आधिपत्य करते हुए यावत् भोग मोगों को भोगते પ્રમાણેનું કથન કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં કરી લેવું જોઈએ. અર્થાત્ આ વાનરન્તરેના ભવને ભૌમેય નગરો આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીમાં રહેલ રત્નકાંડ કે જે એક હજાર એજનથી પૃથુલ જાડું હોય છે, તેની ઉપર એક સે જન અવગાહન કરીને અને એ જ પ્રમાણે નીચે પણ એક સે. યે જન છેડીને વચ્ચેના આઠ સો એજનમાં વાગ્યાના તિર્થંફ અસંખ્યાત av न से. मावता छ त मोभय नगरी 'बहिर्वृत्ताः' महारथी गोण હોય છે. વિગેરે પ્રકારથી સઘળું તેનું વર્ણન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના બીજા સ્થાન પદમાં કહ્યા પ્રમાણેનું સમજી લેવું. ત્યાં એ નગરાવાસમાં વિશાચ વિગેરે ઘણ વાતવ્યન્તર દે રહે છે. તેઓ પોત પોતાના ભવ, સામાનિક દે, અગ્નમહિષિ, પર્ષદાઓ, અનીકે સેનાઓ, અને કાધિપતિ અને આત્મરક્ષક દેવે પર તથા બીજા પણ ઘણા વનવ્યન્તર દેવ દેવિ પર અધિપતિ પણું Page #797 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ ब०३ . ४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकस् ७३५ भगवदुत्तरं प्रज्ञापनातो बोध्यम् । पुनगौतमः पिशाचादीनां वानराणां मध्यतः प्रथम विशाचविषये पृच्छति - 'कहि णं भंते ! पिसाण णं' इत्यादि, 'कहि णं भंते ! पिलाया णं देवाणं भवणा पम्नत्ता' कुत्र खलु भदन्त | पिशाचानां भवनानि 'मौसेयनगराणि मज्ञाप्यानि - कथिदानीति प्रश्नः उत्तरयति 'जहा' इत्यादि, 'जहा ठाणपदे जाव विहरंति' यथा प्रज्ञापनामुत्रे स्थानाख्ये पदे तथा वक्तव्यं यावद्विहरन्तीति पदम् । अत्र पिशाचानां भीमनगरवर्णनं सर्व वाच्यम् । तत्र पिशाचा देवा: स्वस्वपरिवारभूतानां देवदेवीनामाधिपत्यं कुर्वन्तो भोगान् भुञ्जाना विहरन्तीति पर्यन्तं सर्वं प्रज्ञापनायां द्रष्टव्यमिति । पिशाच कुमारराजविषये प्राह - 'काल' इत्यादि, 'कालमहाकालेय तत्थ दुबे पिसायकुमाररायाणो पितायइंदा परिवसंति जान विहरंति' कालो महाकाव्थ तत्र दक्षिणोत्तरदिग्वर्त्तिपिशाचानां द्वौ पिशाचकुमारराजानौ पिशाचेन्द्रौ परिवसतौ यावत्पदेन महर्द्धिको महासौख्यौ इत्यादि सर्व कालमहाकालपिचाचेन्द्रयोर्वर्णनं प्रज्ञापनास्थानपदे विलोकनीयस् । हुए रहते है यह सब भगवान के उत्तर रूप में प्रज्ञापना खून देख लेना चाहिये फिर गौतमस्वामी पिशाचादि वानव्यरों में से पिशाच के विषय में पूछते है- 'कक्षिणं भंते पिलाया णं' हत्यादि 'कहि णं भंते ! पिसाया णं देवाणं भवणा पण्णत्ता' हे भदन्त ! पिशाचदेवों के भवन कहाँ पर कहे गये है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'जहा ठाणपदे जाव विहरति ' हे गौतम! प्रज्ञापनासूत्र के स्थाननामक दूसरे पद में जैसा इनके सम्बन्ध में कहा गया है वैसा ही वह सप कथन यहां पर भी कह लेना चाहिये यहां पर पिशाच देवों के भौमेघनगरों का सब वर्णन कर लेना चाहिये इन नगरों में पिशाच देव अपने अपने भवन मानानिक કરતા થકા યાવત્ ભેગઉપભાગેને ભેગવતા થકા રહે છે. આ તમામ કથન ભગવાનના ઉત્તર વાકય રૂપે પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાંથી જોઈ લેવુ.. ફરીથી શ્રીગૌતમસ્વામી પિશાચ વગેરે વાનન્યન્તર પૈકી પિશાચના સંબધમાં छे छे 'कहि णं भते । विखायाणं' इत्यादि 'कहि णं भते ! पिखायाणं देवाणं भवणा पण्णत्ता' ભગવત્ પિશાચ દેવાના ભવને! કયાં આગળ આવેલા છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમ स्वामीने हे छे ! 'जाव ठाणपदे जाव विहरति ' हे गौतम! अज्ञाना સૂત્રના સ્થાનપદ નામના ખીજા પદમાં આ વિષમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનુ' કથત અહીંયાં પણ કહેવું જોઇએ અહીયાં પિશાચ દેવાના ભૌમેય નગરનું તમામ વર્ણન કરી લેવુ ોઇએ એ નગરમાં પિશાય Page #798 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ जीवामिगमसूत्रे अथ - औधिकान् सेन्द्र पिशाच कुमारानिरूप्य दाक्षिणात्यान् पिशाचकुमारान् निरूपयितुं प्रश्नयन्नाह - 'कहि ण अंते । दाहिणिल्लाणं' इत्यादि, 'कहि ण भंते ।' कुन कस्मिन् स्थाने खल भदन्त ! ' दाहिणिल्लाण' पिसायकुमाराण" दाक्षिणात्यानां पिशाचकुमाराणाम् 'जाब विहरंति' यावद्विहरन्ति । अत्र याव स्पदेन -'भोमेज्जा नगरा पण्णत्ता' इत्यादि प्रश्नोत्तररूपेण पिशाचकुमाराणां मवनादि वर्णन वाच्यम् । तत्र ते स्वस्वपरिवारस्याधिपत्यं कुर्वन्तो भोगभोगान् भुञ्जाना विहरन्ति - तिष्ठतीति पर्यन्तं सर्वं वर्णनं तत्रैत्र प्रज्ञापनास्थानपदे द्रष्टव्यम् । सम्प्रति दाक्षिणात्यपिशाचेन्द्र कालवर्णनं क्रियते - 'काळे' इत्यादि । 'काळेय एत्य पितायकुनारिंदे पिसायकुमारराया परिवसह महड्डिए जाव विहर' कालच - कालनामा चात्र पिशाचकुमारेन्द्रः पिशाचकुमारराजः परिवसति महर्द्धिको या परवारभूत देवदेवीनामाधिपत्यं कुर्वन् भोगभोगान भुञ्जानो विहरति तिष्ठतीत्यपि सर्व वर्णनं प्रज्ञापनापदादव सेयम् । देव आदि परिवार रूप देव देवियां पर आधिपत्य करते हुए यावत् भोगोपभोगों को भोगते हुए विचरते रहते है । 'दाहिणिल्ला णं पिसाय कुमाराणं जाव चिहरंति' अब दाक्षिणात्य पिशाचों का इन्द्र जो काल है उसका वर्णन करते है 'कालेय' इत्यादि 'काळेय तस्थ पिसायकुमारिदे पिसारामा परिवसह महिडिए जाव चिहर' वहां पिशाचों के भौमेघनगरों में जहां पिशाच देत्र रहते हैं वहां पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल इन्द्र वसता है । वह महर्द्धिक आदि विशेषणों वाला है वह वहां पर अपने परिवारभूत सामानिक देव आदि देवदेवियों पर आधिपत्य करता हुआ भोगोपभोगों को भोगता हुआ रहता है यह सब वर्णन प्रज्ञापना सूत्र से समझ लेना चाहिये । દેવ પાન પેાતાના ભવન સામાનિક દેવ વિગેરે પરિવાર રૂપ દેવ દેવચેટ પર અધિપતિપણુ કરતા થકા ચાવત્ ભેગઉપભેગાને ભેગવતા થકા રહે છે. હવે દક્ષિણુ દિશાના પિશાચાના કેંદ્ર જે કાળ છે, તેનું વણુન કરતાં सूत्रार 'दाहिणिल्लाणं विधाय कुमाराणं जात्र विहर'ति' दृक्षिषु विशाना પિશાચકુમારાનુ કથન યાવત્ વિહાર કરે છે ત્યાં સુધીનું કરી લેવું, તે આ प्रमाणे छे. 'कालेय' इत्याहि 'काले तत्थ पिसायकुमारि दे पिसायराया परिवसइ महिडिए जाव विहरइ' त्यां पिशायाना लभेय नगरोमां नयां पिशाय देवा रहे छे, त्यां પિશાચેન્દ્ર પિશાચરાજ કાલ ઈન્દ્ર' નિવાસ કરે છે. તે મહદ્ધિક વિગેરે વિશેષણે વાળા છે, તે ત્યાં પેાતાના પિરવાર રૂપ સામાનિક દેવ વિગેરે દેવ ધ્રુવિચે ૫૨ Page #799 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aruोतिका ठीका प्र.३ ७.३ सू.४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकम् ७७७ सम्प्रति-पिशाचकुमारेन्द्रस्य काळस्य पर्प निरूपणार्थमाह- 'काळस्स णं भंते ! पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमाररण्णो' कालस्य खलु भदन्त ! पिशाचकुमारेन्द्रस्य पिशाचकुमारराजम्य ' कइ परिसाओ पन्नताओ' कति पर्पदः प्रज्ञप्ताःकथिता इति प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिमि परिसाओ पन्नत्ताओ' तिस्र त्रिसंख्यकाः पर्षदः - समाः प्रज्ञष्ठाःकथिता इति । पर्षद स्त्रैविध्यं दर्शयति- 'त' जहा' इत्यादि, 'त' जहाँ ' तद्यथा - 'ईसातुडिया दढरहा' ईशात्रुटिता दृढरथा 'अमिरिया ईसा ' आभ्यन्त रिका ईशा 'मझिमिया तुडिया' माध्यमिका त्रुटिता 'बाहिरिया दढरहा' वाहया दृढरथा | सम्प्रति-तत्सरिषद्गत देवदेवी संख्यां पृच्छति - 'कालम्स णं भंते' कालस्य खल भदन्त | 'विसायकु नारिदस्म दिसायकु पाररन्नो' पिशाचकुवारेन्द्रस्य पिशाच अब पिशाचकुमारेन्द्र कालकी परिषदाका निरूपण करते है 'कालस्स णं भंते' इत्यादि । 'कालस्स णं भंते' पिसायदस्स पिसायरत्नो कति परिसाओ पणताओ' हे भदन्त । पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल की कितनी परिपदाएं कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है । 'गोयमा तिन्नि परिसाओ पण्णत्ताओं' हे गौतम ! पिशाचेन्द्र पिशाचराजकालकी तीन परिषदाएं कही गई । 'तं जहा' जो इस प्रकार से आगे बताई जा रही है 'ईसा तुडियाद रहा' इशा, त्रुटिता और दृढरथा इन में इशा परिषदा अभ्यन्तरका परिषदा के नाम से 'मज्झमिया' तुडिया' त्रुटिता परिषदा मध्यमिका परिषदा के नाम से और 'बाहिरिया दढरा' दृढरथा परिषदा परिया के नाम से प्रसिद्ध है 'कालरस णं भंते । पिसायकुमारिंदरस અધિપતિ પણ કરતા થકા ભાગ ઉપભેગાને ભાગવતા થકા રહે છે. આ તમામ વર્ગુન પ્રજ્ઞાપના સૂત્રમાંથી સમજી લેવું. T હવે પિશાચકુમારેન્દ્ર કાલની પરિષદાનું વર્ણન કરવામાં આવે છે 'कालरस ण भरते !' इत्याहि 'कालस्स णं भवे । पिसाय इंदर पिसाय रन्नो कइ परिसाओ पन्नत्ताओ' હે ભગવન્ પિશાચેન્દ્ર પિશાચ રાજ કાલની કેટલી પરિષદાએ કહેવામાં આવી ४. १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री डे डे 'गोयमा ! तिन्नि परिसाओ पण्णत्ताओ' हे गौतम! पिशायेन्द्र पिशायरानासनी त्र परिषदा । वामां भावी छे' तं जहा' ने मामा छे. 'ईसा तुडिया दढरहा' शा त्रुटितां, अने दृढरथा तेमां ईशा परिषदा यस्यन्तरिम परिषहाना नामथी 'मज्झमिया तुडिया' त्रुटिता परिषदा मध्यमि परिषद् ना नाभथी अने 'बाहिरिया चढरहा ' દેઢરથા પરિષદા ખાદ્યપરિષદાના નામથી પ્રસિદ્ધ 'कालस्स णं भवे । पिसाय Page #800 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ जीवामिगम कुमारराजस्य 'अभितरपरिप्ताए कह देव साइरसीओ पन्नत्तामो' आम्यन्तरिकाया मीशाभिधानायां पर्पदि सभायां कति कियत्संख्यकानि देवसहस्राणि प्रज्ञप्यानि कथितानि, 'जाय वाहिरियाए परिसाए कइ देविसरा एण्णता' यावद् बाह्यायां पर्पदि कति देवीशतानि मज्ञप्तानि, अत्र यावत्पदसंग्राहूयः पाटो यथा-माध्यमिकायां त्रुटिताभिशनायां द्वितीयस्यां पदि कति देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि तथा बाह्यायां दृढरयाभिधानायां तृतीयस्यां पर्पदि कनि देवसहस्राणि प्रप्तानि, एवमाभ्यन्तरिकायामीशाभिधानायां पर्पदि कति देवीशलानि यज्ञप्तानि-कथितानि तथा-माध्यमिकायां त्रुटिलाभिधानायां द्वितीय पर्पद कति देवीशतानि मज्ञप्तानि, तथा-बाहुयायां दृढरथामिधानायां तृतीयस्यां पर्पदि कवि देवीशतानि मज्ञप्तानि-कथितानीति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम । 'कालस्स णं पिसायकुमारिदस्त पिपाय कुमारायल्स' कालस्य खल्ल पिशाचकुमारेन्द्रस्य पिशाचकुमारराजस्य 'अतिरियाए परिसाए' आश्चन्तरिकायामीशामिपिसायकुमाररन्नो अधितरपरिसाए कह देवसाहतीको पनत्ताओ' हे भदन्त ! पिशाचेन्द्र पिशाचझुमारराज काल की आभ्यन्तर परिषदा में कितने हजार देव कहे गये है 'जाव बाहिरियाए परिसाए कह देवी सया पणत्ता' यावत् वाह्य परिषदा में कितनी सौ देवियों कही गई है। यहा यावत्पद से-मध्यमापरिषदा सिमने हजार देव कहे गये है। और पायपरिषदा में कितने छजार देक्ष कहे गये है। तथा आभ्यन्तर परि. पदा में कितनी सौ देवियां कही गई है। माध्यमिका परिषदा में कितनी सौ देवियां कही गई है ? और बाहय परिषदा में कितनी सौ देवियां कही गई है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है। 'गोषमा' 'कालस्सणं पिसायकुमारिंदस्त पिल्लायकुमाररायस्म अप्रितरियाए परिसाए अट्ठ देव साहसीओ पनत्ताओ' हे गौतम ! पिशाचकुलारेन्द्र पिशाचकुमारकुमारि दस्स पिसायकुमाररन्नो अभितरपरिसाए कइ देव साहस्सीमों पण्णत्ता ” હે ભગવન્ પિશાચેન્દ્ર પિશાચકુમારરાજ કાલની આભનેતર પરિષદામાં डेटता वे ह्या छ ? 'जाव बाहिरियाए परिसाए कइ देवीसया पण्णत्ता' ચાવત બાહ્ય પરિષદામા કેટલા સે દેવિ કહી છે અહિં યાવત્ પદથી મધ્યમાં પરિષદામાં કેટલા હજાર દે છે? અને બાહ્ય પરિષદામાં કેટલા હજાર દેવે કહ્યા છે ? તથા આભ્યત્તર પરિષદામાં કેટલા સે દેવિ કહી છે? મધ્યમાં પરિષદમાં કેટલા સો દેવિ કહી છે? અને બાહ્ય પરિષદામાં કેટલાસો દેવિયે ४७छ ? 24 न उत्तरमा प्रमुश्री छ है 'गोयमा ! कालस्स ण पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमारराजस्म अभितरियाए परिसाए अट्ठ देवसाह Page #801 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योति का.टीका प्र.३ उ.३ जू.४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकम् ७७९ धानायां पर्षदि 'अट्ठ देवसाहसीओ पन्नत्ताओ' अष्ट देवसहस्राणि, पज्ञप्तानि, तथा-'मज्झिमपरिसाए दसदेवसाइस्सीभो पन्नत्ताओ' माध्यमिकायां पर्पदि दशसंख्यानि देवसहस्राणि प्रज्ञप्तानि, तथा-'वाहिरियाए परिसाए वारसदेवसाहस्सीयो पनत्ताओ' बाह्यपदि द्वादशदेवसहस्राणि प्रज्ञतानि एवम्-‘अतिरियाए परिसाए एगं देविसयं पन्नत्तं' अभ्यन्तरिकायां पर्षदि एक देवीशतं प्रसप्तम्, तथा-'मज्झिमियाए परिसाए एगं देविसयं पन्नत्त' माध्यमिकाया पपंदि एकं देवीशतं यज्ञप्तम्, 'वाहिरियाए परिसाए एगं देविसयं पन्नत्तं' बाह्यायां पर्ष दि एकं देवीशतं पज्ञप्तम् इति ।। ____अथ पर्षद्गतदेवदेवीनां स्थितिविषये प्रश्नयनाद-'कालस्स णं' इत्यादि, 'कालस्स णं भंते !' कालस्य खलु भदन्त ! 'पिप्लायकुमारिदस्त पिसायकुमाररायस्स' पिशाचकुमारेन्द्रस्य पिशाचकुमारराजस्य, 'अमितरियाए परिसाए' आभ्यराजकाल इन्द्र की ओभ्यन्तर परिषदा में आठ हजार देव कहे गये है । 'मज्झिमियाए दस देव साहरूप्तीभो पन्नत्ताभो' मध्यमिका सभो में दसहजार देव कहे गये है। 'ध्याहिरियाए परिवाए बारलदेव लाहस्सीओ पन्न त्ताभो' वायपरिषदा में १२ हजार देव कहे गये है। तथा-'अभितरियाए परिसाए एगं देविनयं पण्णत्तं 'आभ्यन्तर परिषदा में एकसौ देवियां कही गई है 'मज्झभियाए परिसाए एणं देविष्यं पण्णत्तं' मध्य मिका सभा में भी एक लौ देवियां कही गई है। 'वासिरियाए परिसाए एग देविसयं पन्नत तथा वाहूयपरिषदा में भी एकसौ देवियां कही गई है। अब उन सब की स्थिति का कथन करते है। हालस्स ' इत्यादि, 'कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिदस्त पिसायकुमारावस्ल अभितरिस्सीओ पन्नत्ताओ' है गीतम! पिशायभारेन्द्र पिशायभा२२००४ सनी मास्यन्त२ परिषदाम मा १२ ८००० । ४ा छे. 'मज्झिमियाए दम देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ' मध्यमि। सभामा १०००० स १२ हे ह्या छ. 'बाहिरियाप परिसाए बारसदेव साहसीओ पण्णत्ताओ' है गौतम! माह परिषहामा १२००० मा२ १२ । ह्या छे. 'अभितरियाए परिसाए एगं देविसय पण्णत्त' तथा म.क्य-त२ परिषदामा मे से क्यिो डी छे. मज्झि. मियाए परिसाए एगं देविसय पण्णत्त' मध्यभि स.५ : सा १०० विय! ही छे. 'बाहिरियाए परिसाए एग देविसय पन्नत्त' मा परिक्षामा પણ એક સો દેવિ કહી છે. - હવે આ ઉપરોક્ત સઘળા દેવ દેવિયની સ્થિતિનું કથન કરવામાં આવે છે. 'कालस ण" इत्यादि 'कालरस णं भंते ! पिसायकुमारि दस्म पिसायकुमाररायस्स अभितरियाए Page #802 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम न्तरिकायाम् ईशाभिधानायां पर्पदि 'देवाणं के नइयं कालं टिई पण्णत्ता' देवानां कियन्तं कालं स्थिति:-आयुष्यकाळः प्रज्ञप्ता-कथिता, 'मज्झिमियाए परिसाए' माध्यमिकायां त्रुटिताभिधानायां पर्पदि 'देवाणं केवयं कालं ठिई पनत्ता' देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा-'वाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पनत्ता' बाह्यायां दृढरयाभिधानायां पदि देवानां कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता एवम्-'जाव वाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णता' यावद् वाह्यायां पर्पदि देवीनां कियन्तं काल स्थितिः प्रज्ञप्ता। पत्र यावत्पदसंग्राहयः पाठो यथा-आभ्यन्तरिकायां पर्पदि देवीनां कियन्तं कालं स्थितिः पज्ञप्ता, माध्यमिकायां पदि देवीनां कियन्तं काल स्थितिः प्रज्ञप्ता, वाहयायां पदि देवीनां कियन्तं काळ स्थिति: प्रज्ञप्ोति प्रश्न:, भगवानाह-'गोयमा ।' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'कालस्सणं पिसायकु पारिंदस्स पिसायकुमाररणों' याए परिसाए देवाणं केवयं कालं ठिई पन्नत्ता' हे भदन्त पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचकुलारराज कालकी आन्तर परिषदा के देयों की स्थिति कितने कालकी कही गई है । 'मज्झमियाए परिसाए देवाणं केवायं कालं ठिई पन्नत्ता' मध्यमिका परिषदा के देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है। 'बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पनत्ता' पाहूयापरिषदा के देवों की स्थिति कितने कालकी कही गई है ? इसी प्रकार से 'जाव पहिरियार परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता' यावत् घायपरिषदा की देवियों की कितने कालकी स्थिति कही गई है ? यहां यावत्पद से आभ्यन्तर और मध्यमपरिषदा का प्रश्न अन्तर्गत है । अर्थात् आभ्यन्तरपरिषदा मध्यमिकापरिषदा और वाहूया परिषदा की देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है। इसके परिसाए देवाणं केवइयं काल ठिई पण्णत्ता' लवन पिशायभारेन्द्र पिशायકુમારરાજ કાલની આભૂત્તર પરિષદાના દેવોની સ્થિતિ કેટલા કાળની કહેલ छ १ मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवइय काल ठिई पण्णत्ता' भध्यमि परिषद ना हेवानी स्थिति सा नी ४९३ छे १ 'बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइय' काल' ठिई पण्णत्ता' मा परिषहाना हेवानी स्थिति Bal wil ४ामा आवी छ ? २० शत 'जाव बाहरियाए परिसाए देवागं केवइय कालं ठिई पण्णत्ता' यावत् माह्य परिषदानी वियानी स्थिति eat नी ४ છે? અહિયાં યાવત્પદથી આભ્યન્તર અને મધ્યમ પરિષદા સંબંધી પ્રશ્ન સમજી લે અર્થાત આભ્યન્તર પરિષદા મધ્યમિકા પરિષદ અને બાહ્યા પરિષદાની દેવિયેની રિયતિ કેટલા કાળની કહી છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં Page #803 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ १.४९ वानव्यस्तरदेवानां भवनादिकम् ७८९ कालस्य खलु पिशाचकु पारेन्द्रप पिशाचकुमारराजस्य 'अमितरियाए परिसाए' आम्पन्तरिकायाम् ईशाभिधानायां पदि-मायाम् ‘देवाणं अद्धपलिओभ ठिई पन्नता' देवानामर्द्धपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, तथा-'मज्झिसियाए परिसाए देवाणं' माध्यमिकायां पर्षदि देवानाम् 'देमूणं अद्धपलिओवर्स ठिई पन्नत्ता' देशोन-देश परिहीणम् अर्द्धपल्योपमं स्थिति: प्रज्ञप्ता, तथा-'बाहिरियाए परिसाए देवाणं' बाहूयायां पर्षदि देवानाम् 'साइरेगं चउ मागपलिओवमं ठिई पन्नत्ता' सातिरेक चतुर्भागपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, एवम्मू-'अमितरियाए परिसाए देवी' आभ्यन्तरिकायां पदि देवीनाम् 'साइरेगं चउभागपलिओवमं ठिई पणत्ता' सातिरेकं चतुर्भागपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञा, तथा 'मज्झिमियाए परिसाए देवीणं' माध्यमिकायां पर्षदि देवीनाम् 'चउभागपलिमोबम ठिई पन्नत्ता' चतुर्भागपल्योगमं स्थितिः प्रज्ञप्ता, 'बाहिरियाए परिसाए देवीण' बाहू यायां पर्षदि देवीन'म् 'देखणं उत्सर में प्रभुश्री कहते है 'गोयमा !' फाल हल णं पिसाय कुमारिदास पिसायकुमारणो अभितरियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओम ठिई पन्नत्ता' हे गौतम! पिशाच कुमारेन्द्र पिशाबराजकालकी आभ्यन्तरपरि पदा के देवों की स्थिति बध्यमान आयु आधेपल्पोपमशी कही गई है। 'मज्झिमियाए परिसाए देसूर्ण अद्धपलि मोमं ठिई एनत्ता' सध्यमिका परिषदा के देवों की स्थिति कुछ कम आधे पल्पोपमकी कही गई है और 'याहिरियाए परिसाए देवाणं सारेग बउ मागपलिओ ठिई पन्नत्ता' वाद्यपरिषदा के देवों की स्थिति कुछ अधिक लपके चतुर्थ भागप्रमाण कही गई है। इसी प्रकार 'अभितरियाए परिसाए देवी णं इत्यादि आभ्यन्तर परिषदो की देवियों की स्थिति सातिरेक चतुर्भागल्योपम की है मध्यपरिषदा की देवियों की स्थिति चतुर्भाग पल्योरमकी कही प्रभुश्री गौतमत्वामान छ है 'गोयमा ! फालरस ण पिघायकुमारिदस्स पिसायकुमाररण्णो अभंतरियाए परिसाए देवाण अद्धपलि भोत्रम ठिई पण्णत्ता' હે ગૌતમ પિશાચ કુમારેદ્ર પિશાચ કુમારરાજ કાલ ઈન્દ્રની આભ્ય તર પરિ. દાન દેવેની સ્થિતિ બધ્યમાન અયુ અર્ધાપલ્યોપમની કહેવામાં આવી છે. 'मज्झमियाए परिसाए देसूणं अद्धपलि ओवम ठिई पगत्ता' भक्ष्यमा परिवाना हेवानी स्थिति ४४ माछी अर्धा ५८या५मती मने 'बाहिरियाए परिसाए देवाण साइरेग चउभोगपलिओवम ठिई पण्णत्ता मा पहिषाना हेवानी स्थिति ४ पधारे पक्ष्यना व्याया मा प्रभाए 3a छे ४ प्रमाणे 'अन्मि' तरियाए परिसाए देवीण' त्या माय-त२ परिषहानी लियोनी स्थिति सात રેક કંઈક વધારે ચતુગ પોપમની છે. મદરામાં પરિષદાની દેવિયની સ્થિતિ Page #804 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्रे चमागपलिमोषमं ठिई पन्नत्ता' देशोनं-देशपरिक्षीणं चतुर्भागपल्योपमं स्थितिः प्रज्ञप्ता | 'अहो जो चेव चमरस्ल' अर्थो य एव चमरस्य । अयं भावः - ' से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ, काळस्स णं भंते ! पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमाररण्णो तयो परिसाओ पण्णखाओ व जहा- -ईपातुडिया दढरहा, अतरिया ईसा मज्झिमिया तुडिया बाहिरिया दढरहा' इत्यादिकं प्रश्नोत्तरादिकं सर्वं चमरमकरणवदेवात्र ज्ञातव्यम् । विशेषस्त्वयं यदत्र चमरस्थाने काळनामोच्चारणीयम् । 'एवं उत्तरस्स वि' एवं दाक्षिणात्य पिशाच देववदेव उत्तर पिशाचदेवस्यापि वक्तव्यता भणितच्या तथाहि - 'कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं पिसायाणं भोमेज्जा णगरा पन्नत्ता, कहि, है और वायरिषदा की देवियों की स्थिति देश ऊन- एकदेशक्रम चतुभगवल्योपम की कही गई है 'अट्टो जो चेद चमरस्त' अर्थ चमरेन्द्र का है वही समझ लेना चाहिए जैसे 'हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते है कि काल की ये तीन इशा त्रुटिता और दृढरथा नामकी सभाएं है ? इन में ईशा का नाम आन्तरिका श्रु देता का नाम मध्यमिका और दृढरथा का नाम बाह्या सभा है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं । हे गौतम! इस सम्बन्ध में समस्त कथन तथा और भी प्रश्नों का उत्तर चमरेन्द्र के प्रकरण में जैसा कहा जा चुका है वैसा ही जान लेना चाहिये | अन्तर इतना ही है कि चमर के स्थान पर कालका नाम उच्चारण कर लेना चाहिये 'एवं उत्तरस्स वि' जैसी यह पूर्वोक्तरूप से वक्तव्यता दाक्षिणात्यपिशाचकुमार देवों की कही गई है-ठीक वैसी ही वक्तव्यता उत्तरदिग्वर्ती पिशाचकुमार देवों की भी है ऐसा जानना चाहिये जैसे- 'कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं पितायाणं भोमेज्जा ચતુર્થાંગ લ્યેાપમની છે. અને બાહ્ય પરિષદાની દેવિયાની સ્થિતિ દેશઉન એક हेश उभ अतुर्भाग पहामनी उडेल हे 'अट्ठो जो चैत्र चमरस्त' विशेष धन ચમરના કથન પ્રમાણે સમજી લેવું જેમકે હે ભગવન્ આપ એવું શા કારણુથી કહેા છે કે કાલની ઈશા, ત્રુટિતા અને દૃઢરથા નામની ત્રણ સભાએ છે ? અને તેમાં ઇશાનુ નામ આભ્યન્તરિકા, ત્રુટિતાનુ' નામ મધ્યમિકા, અને દંઢરથાનુ નામ મા સભા છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે હું ચૌતમ ! આ વિષયમાં તમામ કથન તથા તેથી પણ વધારેના પ્રશ્નોના ઉત્તર ચમરેન્દ્રના પ્રકરણમાં જે પ્રમાણે કહેવામાં આવેલ છે . એજ પ્રમાણે અહિ' પણ સમજવા અન્તર એટલું ४ मडियां यभरेन्द्रना स्थानेन्द्रनु नाम देवु ले एवं उत्तरરણ વિ’ જે પ્રમાણેનું આ ઉપરેકત રીતનું કથન દક્ષિણ દિશાના પિશાચકુમાર દેવાના સ બંધમાં કહેવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણે કથન ઉત્તર દિશાના ७८२ Page #805 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३.४९ वानव्यन्तरदेवानां भवनादिकम् ७८३ गं भंते । उत्तरिल्ला पिसाया देना परिवसति?' इत्यादि सर्व प्रश्नोत्तरं दक्षिणात्य पिशाचदेववदेव वक्तव्यम्, विशेपत्स्वयं यत्ते मन्दरस्य दक्षिणे परिवसन्ति, एते मन्दरस्य उत्तरे परिवसन्ति, पुनश्च तत्र कालनामा पिचाचेंन्द्रः पिशाचराजः, अत्र तत्स्थाने महाकालः पिशाचेन्द्रः पिशाचराजः, इति वक्तव्यम्. पर्षद्वक्तव्यताऽपि काळवदेव वाच्येति । ___ एवं णिरंतरं जाव गीयजसस्स' एवमनेनैव प्रकारेण निरन्तरम्-अन्तरवर्जितं क्रमेण यावद् गीतयशसः काळमहाकालवत् सर्वा वक्तव्यता पठनीया यावत्पदेन भूतेन्द्रमुरूपमतिरूपतीन्द्र द्वयादारभ्य गीतयशोगन्धर्वेन्द्र गन्धर्वराजपर्यन्तं सर्व वर्णनं दाक्षिणात्य पिशाचेन्द्र कालमहाकाळवदेव वाच्यम् । पर्षद्वक्तव्यतापि तत्सदृशेव वाच्या नवरम्-इन्द्रेषु नानात्वं बक्तव्यम् तदाह-गाशद्वयेन गरा पन्नत्ता' कहि णं भंते ! उत्तरिल्ला पिलाया देश परिवति' इत्यादि प्रश्नोत्तर-दक्षिणात्यपिशाचों के जैसा ही है अन्तर इतना ही है कि दाक्षिणात्यपिशाचदेव मेरु के दक्षिण में रहते है और उत्तरदिशा के पिशाचदेवमेरुके उत्तर में रहते है। तथा इनका इन्द्र पाहाकाल है इस महाकाल की परिषदा की वक्तव्यता भी दक्षिण दिग्वती काल की परिषदा के ही जैसी है 'एवं पिरंतरं जाव गीयजल रू' जिस प्रकार से यह दक्षिण दिग्वती और उत्तरदिग्दत्ती पिशाचों की वक्तव्यता प्रकट की कही गई है, इसी प्रकार की वक्तव्यता भूतों से लेकर गंधर्व देवों के इन्द्र गीतयश तक की है ऐसा जानना चाहिये इस वक्तव्यता में अपने २ इन्द्रों को लेकर ही भिन्नता है। इन्द्रों की भिन्नता दो गायाओं से इस प्रकार से कही है पिशाचों के इन्द्र काल महाकाल है और भूतों के इन्द्र का नाम सुरूप और प्रतिरूप है अर्थात् पिशायमा२ हेवानु प समय वे नये २ 'कहिण भंते ! उत्तरि ल्लाण पिसायागं भोमेज्झा णगरा पण्णता, कहिण भंते उत्तरिल्ला पिसाया देवा परिवति' विगैरे प्रश्नोत्तरे दक्षिण शिना पिशायरानी भर છે. ફકત ફેરફાર એટલેજ છે કે દક્ષિણ દિશાના પિશાચ દેવ મેરૂની દક્ષિણમાં રહે છે, અને ઉત્તર દિશાના પિશાચદેવ મેરૂની ઉત્તર દિશા માં રહે છે. તથા તેમને ઈદ્ર મહાકાળ છે. આ મહાકાળની પરિષાનું કથન પણ દક્ષિણ દિશાના सनी परिषहाना थन प्रभारी छ. 'एव गिरतरं जाव गीयजस्स' પ્રમાણે આ દક્ષિણ દિશાના તથા ઉત્તર દિશાના પિશાચેનું કથન કહેવ માં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન ભૂતોથી લઈને ગંધર્વ દેવોના ઈન્દ્રગીત યશ સુધીનું છે તેમ સમજવું. આ સઘળા કથનમાં પિત પિતના ઇન્દ્રો Page #806 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८४ जीवामिगमय 'काळेय महाकाले, सुख्ख पडिरूप पुण्णय य । अमरबइ माणिभद्दे, भीमे य तहा महाभीमे ॥१॥ किन्नर किंपुरिसे खल, सप्पुरिसे खलु उहा महापुरिसे । अइकाय महाकाए, गीयरई चेत्र गीययससे ॥२॥ छाया-कालश्च महाकालः सुरूपः मतिरूप: पूर्णभद्रश्च । अमरपति पणिभद्रः, भीमश्च तथा महामीमः ॥१॥ किन्नरकिंपुरुषो खलु, सत्पुरुषः खल्लु तथा महापुरुषः। अतिकाय महाकायौं, गीतरतिश्चैर गीतयशाः ॥२॥ अयं भावः-पिशाचानां दाक्षिणात्यौचराणामिन्द्रो कालमहाकको स्त इति सत्रे प्रतिपादितमेव । एवमेव क्रमेण दक्षिणोत्तरदिग्वतिनां भूतादीनाम् इन्द्रयुगमनामानि यथा-भूतानां सुरूप-पतिरूपी द्वाविन्द्रौ स्तः । एवं यक्षाणां पूर्णभद्र-माणिमाद्रो३, राक्षसानां भीममहाभीमौ४, किन्नराणां किन्नरकिंपुरुषा५, किंपुरुषाणां सत्पुरुषः महापुरुषों६, महोरगाणाम् अतिकायमहानायौ७, गन्धर्वाणां गीतरति-गीत. यशसौ८ । एते वानव्यन्तराणामष्टौ मुख्यभेदा भवन्ति इति ॥० ४९।। दक्षिण के भूतों के सुरूप और उत्तर के भूतों के प्रतिरूप ये दो इन्द्र है यक्षों के पूर्णभद्र और मणिभद्र ये दो इन्द्र है, राक्षसों के भीम. और महाभीम ये दो इन्द्र है, किन्नरों के शिनर और किंपुरुष ये दो इन्द्र है कि पुरुषों के सत्पुरुष और महापुरुष ये दो इन्द्र है महोरगों के अतिकाय और महाकाय में दो इ-द्र है गंधवों के गीतरति और गीत. यश ये वो इन्द्र है। ये वानव्यन्तरों के मुख्य आठ भेद हे गये है। काल की व्यक्तव्यता के जैसी ही वक्तव्यता गीतपशनाम के इन्द्र तक के समस्त इन्द्रों की है ॥सू० ४९।। બાબતમાંજ જુદાપણું છે. ઈદ્રોનું જુદા પણું બે ગાથાઓ દ્વારા આ રીતે બતાવેલ છે. પિશાચના ઈન્દ્ર કોલ અને મહાકાળ છે. અને ભૂતના ઈન્દ્ર સુરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. અર્થાત્ દક્ષિણ દિશાના ભૂતને ઈદ્ર સુરૂપ અને ઉત્તર દિશાના ભતેને ઈદ્ર પ્રતિરૂપ એ બે ઈન્દ્ર છે. યક્ષના પૂર્ણભદ્ર અને મણિભદ્ર એ બે ઈંદ્રો છે. રાક્ષસેના ભીમ અને મહાભીમ એ બે ઈદ્રો છે. કિન્નરોના કિંમર અને કિપરૂષ એ બે ઈન્દ્રો છે. પિંપુરૂષના સપુરૂષ અને . મહાપુરૂષ એ બે ઈદ્રો છે. મહારગોના અતિકાય અને મહાકાય એ બે ઈદ્રો છે. ગંધર્વોના ગીતરતિ અને ગીતયશ એ બે ઇદ્રો છે. આ પ્રમાણેના આ વાનચંતના મુખ્ય આઠ ભેદ કહેવામાં આવેલ છે. કાલના કથન પ્રમાણેનું કથન ગીતયશ નામના ઈન્દ્ર સુધી સઘળા ઈદ્રોનું સમજવું. સૂ ૪૯ ૫ Page #807 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ .५० ज्योतिष्कदेवानां विमानादिकम् ७४५ तदेवमुक्ता बानपन्तवक्तव्या सम्पति ज्योतिष्काणां वक्तव्यतामाह-'कहि भंते ! जोइसियाणं देवाणं' इत्यादि । ___मूलम्-कहिणं भंते ! जोइसियाणं देवाणं विमाणा पन्नत्ता, कहि णं भंते ! जोइसिया देवा परिवसंति ? गोयमा ! उम्पि दीवसमुदाणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरणिजाओ भूमीभागाओ सत्ताणउए जोराणसए उड्डूं उप्पइसा दसुत्तरसया जोयणबाहल्लेणं, तत्थ णं जोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा जोइसियविमाणवासलयसहस्सा भवंतीति मक्खायं तेणं विमाणा अद्धकविटकसंठाणसंठिया एवं जहा ठाणपदे चंदमसूरिया य, तत्थ णं जोइसिंदा जोइसियरायाणो परिवति, महड्डिया जाव विहरति । सूरस्स णं भंते ! जोइलिंदस्स जोइसरण्णो कइ परिसाओ पन्नत्ताओ गोयमा ! तिन्नि परिसाओ पण्णत्ताओ तं जहा-तुंबा तुडिया पेच्चा, अभितरिया तुंबा, मज्झिमिया तुडिया, बाहिरिया पेच्चा, सेसं जहा कालस्ल, परिमाणं ठिई वि। अटो जहा चमरस्स । चंदस्त वि एवं चेव ॥सू० ५०॥ ___छाया-कुत्र खलु भदन्त ! ज्योतिष् काणां देवानां विमानानि प्रज्ञप्तानि, कुत्र खलु भदन्त ! ज्योतिष्का देवाः परिचसन्ति ? गौतम ! ऊर्य द्वीप समुद्राणाम् ‘एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्याः बहुसमरमणीयाद् भूमिभागात् सप्तनवतानि योज नशतानि ऊध्र्वमुत्प्लुत्य दशोत्तरशत्योजनबाहल्ये, तत्र खल ज्योतिष्काणां देवानां तियंगसंख्येयानि ज्योतिविमानावासातसहस्राणि भवन्तीत्याख्यातम । तानि खलु विमानानि अर्द्धकपित्थक संस्थान संस्थितानि, एवं यथा स्थान पदे यावच्चन्द्रसूयौं च तत्र खलु ज्योतिषकेन्द्रौ ज्योतिष्करानो परिवसतः महद्धिौ कहि णं भंते ? जोइलियाणं देवाणं विमाणापन्नत्ता' इत्यादि। ___टीकार्थ-हे भदनन्त ! किस स्थान पर ज्योतिषक चन्द्र सूयें ग्रह तारा एवं नक्षत्र देवों के विमान है ? और 'कहि णं भंते' जोतिप्रिया देवा परि 'कहि ण भंते ! जोइसियाणं देवाण विमाणा पण्णत्ता' या ટીકાથ–હે ભગવન તિષ્ક દેવ ચંદ્ર, સૂય. થહ તારા અને નક્ષત્ર रवाना विभा। ४स्थान५२ मा छ ? भने 'कहि ण भंते ! जोइसिया मी० १९ Page #808 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८६ जीवामिगम यावद् विहरतः । सूर्यम्य खलु भदन्त ! ज्योतिप्केन्द्रस्य ज्योतिएकराजस्य कति पर्षदः प्रज्ञप्ताः ? गौतम ! तिस. पर्षदः सप्ताः, तद्यथा तुंबा, त्रुटिता प्रेत्या, आभ्यन्तरिका तुरवर, माध्यमिका टिता वाहत्या प्रेक्ष्या, शेष' यथा कालस्य परिमाणं स्थितिरपि, अर्थों यथा चमस्य । चन्द्रस्याप्येवमेव ॥०५०॥ ___टीका-'कहिणं भंते ! कुत्र-पस्मिन् रथाने खल्ल मदन्त ! 'जोइसियाणं देवाण' ज्योतिष्काणां'-चन्द्र सूर्यग्रहतारानक्षत्राणां देवानाम् 'विमाणा पन्नता' विमानानि पज्ञप्तानि-कथितानि, 'कहिणं भंते' कुत्र खलु सरन्त ! 'जोइसिया देवा परिचसंति' ज्योतिका देवाः परिवसन्ति ? इति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'उपि दीवसमुदाणं' उपरि द्वीप समुदाणाम् 'इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए' एतस्या रत्नप्रभायाः पृथिव्या 'बहुसम रमणिज्जाशी भूमिभागाओ' बहसमरमणीयात् भूमिभागाद रुचकोपलक्षिता 'सत्ताणउए जोयणसए उडू उप्पइत्ता' नात्यधिकानि सप्ठयोजनशतानि (७९०) ऊर्ध्वमुत्प्लुन्य-बुद्धयाऽतिक्रम्य 'दसुत्तरमया जोयणवाइल्लेणं' दशोत्तरयोजनशत वाइल्ये (११०) 'तत्य णं जो सिययाणं देवाण' तत्र-तादृशस्थाने खलु ज्योतिवसंति' कहां पर ज्योतिषक देव रहते है। इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'उपि दीर.समुदाणं कमीले रयणप्पभाए पुढबीए बहुममरमणि. ज्जाओ भूमिभागाओ खत्ताउए जोयणलते उर्छ उप्पिहत्ता दसुत्तरसया जोयणबाहरछेणं, तत्क्षणं जोइलियाण देशा गं निरिथमसंखेवाओ जोहसियविमाणावानुवयसहस्सा भवतीतिमक्खाय' हे गौतम द्वीप एवं समुद्रों से ऊपर तथा इस रत्नप्रभा पृथिवी से समभूमिभाग से जो रुचकप्रदेश से उपलक्षित है उसले ७९० योजन ऊपर जाने पर ११० योजनप्रमाण ऊचाईरूप क्षेत्र में तिरछे ज्यातिष्क देवों के असंख्यात. लाख विमानाजान कहे गये है ऐसा मेरा तथा अन्य भूनकाल के सर्व देवा परिवसंति' ल्याति वा ४यां रहे हैं ? | प्रशन उत्तरमा सुश्री ४ छ , 'उप्पि दीपसमुदाणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीर बहुसमरम णिज्जाओ भूमिभागाओ सत्ताणउए जोयणसए उड्ढ उत्पतित्ता दसुत्तरसया जोयगब हलणं, तत्थ ण' जोइसियाणं देवाण तिरियमसंखेजा जोइसिय विमाणावाससयसहस्सा भवतीतिमक्खायं 3 गौतम ! द्वीप भने समुद्रानी 6५२ तथा આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના સમભૂમિભાગથી કે જે રૂચક પ્રદેશથી જણાય છે. તેનાથી ૭૦ સાતસો નેવું જન જાય ત્યારે ૧૧૦ એકસો દસ જન પ્રમા ણુના ઉંચાઈવાળા ક્ષેત્રમાં તી જ્યોતિષ્ક દેના અસંખ્યાત લાખ વિમાનાવાસો કહેવામાં આવેલા છે. એ પ્રમાણે મારૂં તથા અન્ય ભૂતકાળના સર્વ Page #809 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ खू.५० ज्योतिप्कदेवानां विमानादिकम् ७८७ काणां चन्द्रादीनां देवानाम् 'तिरियमसंखेज्जा' तिर्यगसंख्येयानि 'जोइसिय बिमाणावाससयसहस्सा' ज्योतिष्कविमानावालशल सहस्राणि 'मयंतीति सक्खायं' भवन्तीत्याख्यातं मया (बद्ध मानेन) तथाऽन्यैरपितीर्थकरैरिति । 'ते णं विमाणा' तानि खलु विमानानि 'अद्ध कविसंठाणसंठिया' अर्द्धकपित्थ संस्थानसंस्यितानि 'एवं जहा ठाणपदे' एवं यथा स्थानपदे स्थानाख्ये मज्ञापनाया द्वितीयपदे तथा वक्तव्यम् । कियत्पर्यन्तमित्याह- 'जा' इत्याह-यावत्-यावत्पदेन 'अब्भुग्गय मूसिय पहसिया इब' इत्यादि विमानालवर्णनमत्र वाच्यम् । तेषु तीर्थंकरों का कहना है 'ले णं बिमाणा अद्ध ऋषि संठाणठिया एवं जहा ठाणपदे जाव चंदिमसूरिया य तत्थ णं जोतिसिंदा जोतिसरायाणो परिवसंति महिड्डिया जाव विहरंति' वे विमान अर्धक्षपित्य-कैथ-के जैसे आकार वाले हैं । 'एवं जहा ठाणपदे' इस सम्बन्ध में प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद में जला क्षयन किया गया है, वैसा ही कथल यहां पर भी कर लेना चाहिये वह वर्णन कहां तक कहना चाहिये ? इस पर कहते है-'जाव इत्यादि। यावत्पद ले-'अमुग्णय सुसियपहलिया इव' इत्यादि विमानावालों का वर्णन यहां कर लेना चाहिये। उन विमाना. वासों में वृहस्पति से लेकर अंगारक पर्यन्त के ग्रह, अठाईस नक्षत्र और तारे रहते है। इनका वर्णन यहां कर लेना चाहिये । वे ग्रह नक्षत्र तारागण अपने अपने विमानाबालों का तथा सामानिक देवों से लेकर आत्मरक्षकदेव पर्यन्तों का तथा अपनी अपनी अग्रमझिषियों का एवं ऐसे और भी बहुत से देव और देधियों पर आधिपत्य करते हुए तीय रानु छ. 'वे ण विसाणा अद्ध कविठ्ठसठाणसंठिया एवं जहा ठाण पदे जाव चदिमसूरियाय तत्थ ण जोइसिदा जोइसियरायाणा परिवसंति महिइढिया जाव विहरति' त विमान। अर्धा ४२ हाना माना. 'एवं जहा ठाण पद्दे' मा समयमा प्रज्ञायना सूत्रना भी स्थान५४मा २ प्रभायेनु ४थन કરવામાં આવેલ છે, એજ પ્રમાણેનું કથન અહીંયા પણ સમજી લેવું તે વર્ણન ४यां सुधानु मडिया डेवुन से भाट 'जाव' त्या सूत्राथा हेस छे. यावत्यथा 'अभुग्गय मुसिय पहसिया इत्र' त्या विमानावासानु पाएन અહીયાં કરી લેવું જોઈએ. એ વિમાનાવાસોમાં બૃહસ્પતિથી લઈને અંગારક પર્યન્તના ગ્રહે, અઠયાવીસ નક્ષત્રો અને તારાઓ નિવાસ કરે છે. તે બધાનું વર્ણન અહિંયાં કરી લેવું જોઈએ. તે ગ્રહ, નક્ષત્ર, તારા ગણ પિત પિતાના વિમાનાવાસ તથા સામાનિક દેથી લઈને આત્મરક્ષક દેવ સુધીના તથા પિત પિતાની અઝમહિષિનું એવં એવા ઘણુ દેવ અને દેવિ પર અધિ. Page #810 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હદ્ जीवामिगमसूत्रे यावद् विहरतः | सूर्यम्य खलु भदन्त | ज्योति केन्द्रस्य ज्योदिष्कराजस्य कवि पर्पदः प्रज्ञप्तः ? गौतम ! तिस्रः पर्षदः प्रज्ञप्ताः, वन्यथा तुंबा, त्रुटिता प्रेत्या, आभ्यन्तरका तुम्वा, माध्यमिका त्रुटिता वाहचा प्रेश्या, शेष यथा कालस्य परिमाणं स्थितिरपि, अर्थों यथा चमस्य । चन्द्रस्याप्येवमेव ॥०२०|| टीका- 'कहि णं भंगे !' कुत्र - कस्मिन् रथाने खल भदन्त ! 'जोइसियाणं 'देवाणं' ज्योतिष्काणां' - चन्द्रसूर्यग्रहतागनक्षत्राणां देवानाम् 'विमाणा पन्नता' विमानानि ज्ञतानि - कथितानि, 'कहि णं भंते' कुत्र खल भदन्त ! 'जोइसिया देवा परिवति' ज्योतिष्का देवाः परिवसन्ति ? इति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम | 'अपि दीन्समुदाणं उपरि द्वीप समुद्राणाम् 'हमसे रयणप्पभाप पुढवीए' एतस्या रत्नमभायाः पृथिव्या 'बहुसमरमणिज्जाथ भूमिभागाओ' बहुसमरमणीयात् भूमिभागाद् रुचकोपलक्षितात् 'सत्ता उर जोयणसए उड्डु उपत्ता' नवत्यधिकानि सष्ठयोजनशतानि (७९०) ऊर्ध्वमुत्प्लुग्य-बुद्ध्याऽतिक्रम्य 'दसुत्तरमया जोवणवा इल्लेगे' दशोत्तरयोजनशत बाल्ये (११०) तत्थ णं जोइसिबयाणं देवाणं' तत्र तादृशस्थाने खलु ज्योतिवसंत' कहां पर ज्योतिष्क देव रहते है । इस प्रश्न के उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'उप दीवसमुद्दाणं एमी से व्यणप्पभाए पुढनीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ खत्तानउए जोयणरते उड्डुं उप्पिइत्ता दसुत्तरस्या जोयणचारल्लेणं, तत्थ णं जोइसियाणं देवा णं निरियमसंखेवाभो जोहसिधविमागावालष्टय सहरसा भवतीतिमत्खाये' हे गौतम द्वीप एवं समुद्रों से ऊपर तथा इस रत्नप्रभा पृथिवी से समभूमिभाग से जो रुचकप्रदेश से उपलक्षत है उसे ७९० योजन ऊपर जाने पर ११० योजनप्रमाण ऊचाईरूप क्षेत्र में तिरछे ज्यातिष्क देवों के असंख्यातara far कहे गये है ऐमा मेरा तथा अन्य भूतकाल के सर्व परित्रसंति' ज्योतिष्ठ ધ્રુવે કયાં રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં अनुश्री छे' उप्पि' दी समुदाणं इमीसे रयणप्पभार पुढवीर बहुसमरम णिन्जाओ भूमिभागाओ सत्ताणउए जोयणसए उड्ढ उत्पतित्ता दसुत्तरसया जोगच हलणं, तत्थ ण' जोइसियाग देवाण' तिरियमसंखे-जा जोइसिय विमाणावाससयसहस्सा भवतीतिमवखायं' हे गौतम । द्वीप भने समुद्रोनी पर तथा આ રત્નપ્રભા પૃથ્વીના સમભૂમિભાગથી કે જે રૂચક પ્રદેશથી જણાય છે. તેનાથી ૭૬૦ સાતસેા નેવુ... ચાજન જાય ત્યારે ૧૧૦ એકસે દસ ચેાજન પ્રમા જીના ઉંચાઈવાળા ક્ષેત્રમાં તીક્ષ્ણ જાતિષ્ઠ દેવેાના અસખ્યાત લાખ વિમાનાવાસેા કહેવામાં આવેલા છે. એ પ્રમાણે મારૂ તથા અન્ય ભૂતકાળના સર देवा Page #811 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिकाजीका प्र. उ.३ ७.५० ज्योतिष्कदेवानां विमानादिकम् ७८७ काणां चन्द्रादीनां देवानाम् 'तिरियमसंखेज्जा' तिर्यगसंख्येयानि 'जोइसिय विमाणावाससयसहस्सा' ज्योतिष्कविमानावासशत सहस्राणि 'मवंतीति मक्खाय' भवन्तीत्याख्यातं मया (बर्द्ध मानेन) तथाऽन्यैरपि तीर्थकरैरिति । 'ते णं विमाणा' तानि खलु विमानानि 'अद्ध कविसंठाणसंठिया' अकपित्थ संस्थानसंहिय. तानि 'एवं जहा ठाणपदे' एवं यथा स्थानपदे स्थानाख्ये भज्ञापनाया द्वितीय पदे तथा वक्तव्यम् । कियत्पर्यन्तमित्याह- 'जा' इत्याद--यावत्-यावत्पदेन 'अब्भुग्गय मूसिय पहसिया इव' इत्यादि विमानावासवर्णनमत्र वाच्यम् । सेषु तीर्थंकरों का कहना है 'ते णं विमाणा अद्धविट संठाणठिया एवं जहा ठाणपदे जाव चंदिमसरिया य तत्थ णं जोतिलिंदा जोतिसरायाणो परिवसंति महिड्डिया जाब विहरंति' वे विमान अर्धपित्य-कैथ-के जैसे आकार वाले हैं। 'एवं जहा ठाणपदे इस सम्बन्ध में प्रज्ञापना के द्वितीय स्थान पद में जैसा कथन किया गया है, वैसा ही थल यहां पर भी कर लेना चाहिये वह वर्णन कहां तक कहना चाहिये ?इल पर कहते है-'जाव इत्यादि । थावत्पद् खे-'अब्भुग्गय मुखियपहलिया इच' इत्यादि विमानावालों का वर्णन यहां कर लेना चाहिये। उन जिमाना. वासों में वृहस्पति ले लेकर अंगारक पर्यन्त के ग्रह, अठाईस नक्षत्र और तारे रहते है। इनका वर्णन यहां कर लेना चाहिये । वे ग्रह नक्षत्र तारागण अपने अपने विमानाचासों का लथा सामानिक देशों से लेकर आत्मरक्षकदेव पर्यन्तों का तथा अपनी अपनी अग्रमझिषियों का एवं ऐसे और भी बहुत से देव और देवियों पर आधिपत्य करते हुए ती रोनु छ 'वे ण विमाणा अद्ध कविट्ठसठाणसंठिया एवं जहा ठाणपदे जाव चदिमसूरियाय तत्थ ण जोइसिदा जोइसियरायाणा परिवसंति महिइढिया जाव विहरति त विमान। म ४२ अहान ४२॥ थे. 'एवं जहा ठाण पद्दे' समयमा प्रज्ञायना सूत्रना भी॥ २थान५६मा रे प्रभाये ४थन કરવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન અહીંયા પણ સમજી લેવું તે વર્ણન ४यां सुधानुमडियां उनमे से भाट 'जाव' या सूत्र५४था डेस छे. यावात्यया 'अभुग्गय मुसिय पहसिया इव' या विमानापासानु पन અહીયાં કરી લેવું જોઈએ. એ વિમાનાવાસમાં બૃહસ્પતિથી લઈને અંગારક પર્યનતના ગ્રહે, અઠયાવીસ નક્ષત્રો અને તારાઓ નિવાસ કરે છે. તે બધાનું વર્ણન અહિંયાં કરી લેવું જોઈએ. તે ગ્રહ, નક્ષત્ર, તારા ગણ પોત પોતાના વિમાનાવાસ તથા સામાનિક દેવાથી લઈને આત્મરક્ષક દેવ સુધીના તથા પિત પિતાની અપ્રમાહિષિયાનું એવં એવા ઘણા દેવ અને દેવિયો પર અધિ. Page #812 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयाभिगम विमानावासेषु वृहस्पत्यादयोऽङ्गारकान्ता ग्रहाः, अष्टाविंशति नक्षत्राणि तारकाव परिवसन्ति । एषां वर्णनमत्र वाच्यम् । ते तत्र स्वस्वविमानाचासपरिवारभूत सामानिकदेवाद्यात्मरक्षादेव पर्यन्तानां स्वस्थानमहिपीणां वहनामन्येषां च ज्योतिष्यदेव देवीनामाधिरत्यं कुर्वन्तो भोग भोगान् भुञ्जाना विचरन्तीति वर्णनं वाच्यम् 'चंदिममरिया य तत्थण' चन्द्रसूर्यों च तत्र खलु 'जोइसिदा जोइसरायाणो' ज्योतिप्केन्द्रौ ज्योतिष्कराजौ 'परिवसंति' परिक्सतः, की शास्ते ? इत्याह-'महिडिया' महर्दिकाः, इत्यादि वर्णनमत्र वार म् । कियत्पर्यन्तमित्याह-'जाव विहरंति' यावद्विहरतः, यावर देनान चन्द्रसूर्यवर्णनं वाच्यम् । तौ तत्र स्वेषां स्पां परिवारभूत सामानिकादि देवानां देवीनां चाधिपत्यं कुर्वन्तौ भोगभोगान् भुनानौ विहरत इति । सम्पति-ज्योतिप्केन्द्रमूर्यस्य पर्पन्निरूपणार्थमाइ-'मूरस्सणं भंते !' इत्यादि 'सूरस्स णं भंते !' सूर्यस्य खलु भदन्त ! 'जोइसिंहस्स जोइसरन्नो' ज्योति के. न्द्रस्य ज्योतिष्कराजस्य 'कइ परिसामो पन्नताओ' कति पर्पदः कियत्संख्यकाः और भोगउपभोगों को भोगते हुए रहते है। यह सब वर्णन भी यहां जान लेना चाहिये । 'चंदिममूरिया य तत्थ of' इत्यादि, वहां पर चन्द्र और सूर्य ये दो अपने अपने क्षेत्र के ज्योतिषियों के इन्द्र ज्योतिष्कराज रहते है वहां से लेकर 'जाव विहरंति' वहां तक । अर्थात् वे कैसे है ? इनका वर्णन 'महिडिया' महर्द्धिक-मोटो ऋद्धिवाले है इत्यादि वर्णन यहां समझ लेना चाहिए अपने पिमानावास और परिवारभूत देवदेवियों पर आधिपत्य करते हुए भोगउपभोगों को भोगते हुए ज्योतिष्कदेवेन्द्र सूर्यकी परिषदाका निरूपण करते है-'स्वरस्स णं भंते' इत्यादि । 'सूरस्तण भंते! जोतिसिंदस्म जोतिसरपणो कति परिसाओपण्णत्ताओ' हे भदन्त! ज्योतिषेन्द्र ज्योतिषराज सूर्य की कितनी परिषदाएं कही गई है। इस પતિપણે કરતા થકા અને ભોગ ઉપભેગોને ભેગવતા થકા રહે છે. અહીંયાં मा तमाम वन सम , 'च दिमसूरियाय तत्थ गं' त्याहि त्यां यद्र અને સૂર્ય એ બે પિત પિતાના ક્ષેત્રના જ્યોતિષ્કના ઈદ્ર તિષ્કરાજ रहे छे. महीया 'जाव विहरांति' मा ५४ पर्यन्त मा ४थन पर्यन्त ही A. मात् तसा या २४ छ १ तेनु पनि 'महिइढिया' भबि मोटी ઋદ્ધિવાળા છે, ઈત્યાદિ વર્ણન અહીયાં સમજી લેવું. હવે પિતાના વિમાનાવાસ અને પરિવારભૂત દેવ દેવિ પર અધિપતિ પણું કરતા થકા અને ભોગ ઉપભેગોને ભેગવતા થકા સૂર્યની પરિષદાનું વર્ણન ४२वामा साव छ. 'सूरस्स णं भंते !' त्याहि 'सूरस्स णं भते ! जोइसिदस्स जोइसरणो कति परिसाओ पण्णत्ताओ' सन् ज्योतिषन्द्र न्ये तिष२४ सूर्यनी કેટલી પરિષદાઓ કહેવામાં આવી છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે Page #813 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टोका प्र.३ उ.३ सू.५० ज्योतिष्कदेवानां विमानादिकर ७८६ पक्षप्ता:-कथिता इति पर्षत्संरुण विषयकः प्रश्नः, भगवालाह-'शोयमा' इत्यादि, 'गोयमा !' हे गौतम ! 'तिन्नि परिसाओ पन्नत्ताओ' तिस्रः त्रिसंख्यकाः पर्षदः पज्ञप्ता-कथिता इति । 'तं जहा' तद्यथा-'तुंबा हडिया पेच्चा' तुम्बा त्रुटिता प्रेत्या, तत्र-'अभितरिया तुंबा' आभ्यन्तरिका तुम्बा, 'मज्झिमया तुडिया' माध्यमिका त्रुटिता, 'बाहिरिया पेच्चा' वाद्या प्रेत्या 'सेसं जहापास्त परिमाण ठिई वि' शेष यथा कालल्य परिमाणं परिषत्रयस्थि तदेवदेवीनां सख्यापरिमाणं तथा तत्रस्थदेवदेवीनां स्थितिरपि तथैव वाच्या, 'अट्टो जहा चपरस्स' अर्थों यथा चमरस्य-अर्थ: 'से केण टेणं' इत्यादि रूपोऽर्थश्चमरवदनापि वाच्या, पर्षदःअभ्यन्तरिकादि नामकरणे यो हेतुः प्रदर्शितश्चमरेन्द्र प्रकरणे त हापि ज्ञातव्यः । 'चंदस्स वि एवं चेव चन्द्रस्यापि एवमेव, सूर्यस्य पर्षदादिकं यथा कथितं तथा चन्द्रस्यापि तयैव ज्ञातव्यमिति ।।०५०॥ के उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं-'गोधमा ! लिणि परिखाओ पण्णत्ताओ' हे गौतम ज्योतिषेन्द्र ज्योतिपराज सूर्यकी तीन परिषदाएं कही गई है। 'तं जहा' जो इस प्रकार से है-'तुवा, तुडिया, पेच्चा' तुम्घा, बांटता, और प्रेत्या, इन में 'अभितरिया तुषा, मज्झमिया तुडिया वाहिरिया पेच्चा' तुम्बा नामकी परिषदा आभ्यन्तर परिषदा कही गई है त्रटिता नामकी परिषदा मध्यमिका परिषदा कही गई है । और प्रेत्यालाम की परिषदा वाह्यापरिषदा कही गई । 'सेसं जहा कालस्त परिमाणं ठिई वि' जिस प्रकार से काल की सभा के देवों का एवं देवियों का परि माण-संख्या और उनको स्थितिका कथन किया गया है। वैसा ही यहां समझ लेना चाहिए 'अट्ठो जहा चमरस्ल' चमर के प्रकरण में इन सभाओं के नाम होने में हेतु प्रदर्शित किया गया है-वही सब कथन 'गोयमा ! तिण्णि परिसाओ पण्णत्ताओ' 3 गौतम ! riतिषन्द्र ज्योतिष २००४ सूर्यनी त्रय परिषामा ४९ छे. 'त जहा' त मा प्रमाणे. 'तुवा, तुडिया, पेच्चा' तुम्या, त्रुटिता भने प्रेत्या तमा 'अभितरिया तु बा, मज्झमिया तुडिया बाहिरिया पेच्चा' तमां तुमा परिषहाने मान्यत२ परिहा ४ छे. ટિતા નામની પરિષદાને મધ્યમિકા પરિષદા કહી છે. અને પ્રત્યા નામની परिषहाने माद्या परिषद डे . 'सेन जहा कालस्म परिमाणं टिई विपर પ્રમાણે કાળની સભાના દેવ અને દેવિયનું પરિમાણ, સંખ્યા અને તેઓની સ્થિતિનું કથન કરવામાં આવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું કથન અહીયાં પણ સમજી खे. 'अट्रो जहा चमरस्स' यभरना प्ररमा | समासाना नाम जापाना સંબંધમાં કારણે બતાવેલ છે, એ જ પ્રમાણેનું તમામ કથન અહીયાં પદ્ય Page #814 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७९० - - जीवाभिगमस्त्र ज्योतिष्कदेवास्तिर्यग्लोगे इति तिर्या कोकमस्तावाद् द्वीपसमुद्रवक्तव्यतामाह-'कहिणं भंते ! दीव समुदा' इत्यादि । मूलम्-कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा पन्नत्ता, केवइया णं भंते ! दीवससुद्दा पन्नत्ता, के महालयाणं भंते! दीवसमुद्दा एण्णत्ता, किं संठिया णं भंते ! दीवसमुद्दा पन्नत्ता, किमागार भावपडोयाराणं भंते ! दीवसमुद्दा पन्नत्ता? गोयमा! जंबुद्दीवाइया दीवा लवणादिया समुद्दा संठाणतो एकविहविहाणा वित्थारओ अणेगविहविहाणा दुगुणा दुगुणपडुप्पाएमाण२ पवित्थरमाणा२ ओभालमाणवीचिया बहुउप्पलपउम कुसुदलिण सुभगसोगंधिक पोंडरीय महापोंडरीय सत्तपत्त पफुल्लकेसरोबचिया पत्तेयं पत्तेयं पउसवरवेइया परिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंढपरिक्खित्ता, अस्ति तिरियलोए असंखेना दीवलमुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो ?। तत्थ णं अयं जंबुद्दीने णाम दीवे दीवसमुदाणं अभितरिए सवखुड्डाए वह, तेल्लापूयसंठाणसंठिए बट्टे, रहचकवालसंठाणसंठिए बढे, घुक्खरकणियासंठाणसंठिए बट्टे, पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए, एकंजोयणसयसहस्सं आयामविश्वंभेणं तिषिणजोयणसयसहस्साइं सोलससयसहस्साई दोणिय सत्तावीसे जोयणलए तिष्णिरकोसे अट्ठावीसं च धणुमयं तेरस अंगुलाई अद्धंगुलकं च किंचि विलेलाहियं परिविखेवेणं पण्णत्ते । सेणं एक्काए जगतीए लव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । साणं जगती यहां पर भी कह लेना चाहिये 'चंदस्त वि एवं चेव' सूर्य के सम्बन्ध में जैसा यह परिषदा आदिका कथन किया गया है ऐसा ही परीषदा आदि का कथन चन्द्र के सम्पन्व में भी कर लेना चाहिये ॥५०॥ ही . 'चंदस्स वि एव चेव' सूर्यना समयमा परिषहा विरेनु२ પ્રમાણેનું કથન ત્યાં કરવામાં આવેલ છે. એ જ પ્રમાણેનું કથન અહીંયાં ચંદ્રના સંબંધમાં પણ કરી લેવું જોઈએ. એ સૂ. ૫૦ છે Page #815 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२१ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ २.३ नु.५१ द्वीपसमुद्रनिरूपण अट्रजोयणाई उद्धं उच्चत्तेणं, मूले बारसजायणाई विखंभणं, मज्झे अटुजोयगाइं विक्खंभेणं, उप्पिं बत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, मूले विस्थिपणा, मज्झ संखित्ता, उप्पिं तणुया, गोपुच्छ संठाणसंठिया सब्यवइरामई अच्छा सहा लण्हा घडा स्ट्रा णीरया णिम्मला णिप्पंका निकंकडछाया सप्पमा लस्लिरीया समरीइया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पाडरूवा॥साणं जगती एक्केणं जालकडएणं सव्वओ समता संपरिक्खित्ता । से णं जालकडएणं अद्धजोयणं उडू उच्चत्तेणं, पंचधणुसयाइं विक्खंभेणं, सव्वरयणामए अच्छे सण्हे लण्हे घट्टे णीरए णिम्मले णिप्पंके णिकंकडच्छाए सप्पभे सस्सिरीए समरोइए सउज्जोए पासादीए दरिलणिजे अभिरुवे पडिरूवे ।सू०५१। छाया-कुत्र खलु भदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञानाः ? कियन्तः खलु भदन्त ! द्वीपसमुद्राः मज्ञप्ताः ? कियन्महालयाः खलु भदन्त । द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः? कि संस्थिताः खलु भदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः १ किमाकारभावपत्यवताराः खल भदन्त । द्वीपसमुद्राः पज्ञप्ताः? जम्बूद्वीपादिका द्वीपा लवणादिकाः समुद्राः संस्थानत एकविधविधाना विस्तरतोऽनेकविधविधाना द्विगुणं द्विगुणं प्रत्युत्पद्यमानाः प्र. युत्य मानाः प्रविस्तरन्तः२ अवमासमानवीचयो बहूत्पल र कुमुदनलिनसुभगमोगन्धिकपुण्डरीक शतपत्रसहस्रपत्र प्रफुल्ल केसरोपचिताः पत्येक प्रत्येक पावरवेदिका परिक्षिप्ताः प्रत्येकं प्रत्येकं वनषण्डपरिक्षिप्ता अस्मिन् तियग्लो केऽसंख्येयाः द्वीपसमुद्राः स्वयंभूरमणपर्यवसानाः प्रज्ञप्ताः श्रमणायुष्मन् ! तन्त्र बलु जम्बूद्वीशे नामद्वीपो द्वीपसमुद्राणामाभ्यन्तरिकः सर्वक्षुद्रको वृत्तः तेलापूप संस्थानसंस्थितो वृत्तो रथचक्रवालसंस्थानसंस्थितो वृत्तः पुष्करकणिकासंस्थानसंस्थितो वृत्तः परिपूर्ण चन्द्रसंस्थानसंस्थितः, एकं योजनशतसहस्रमायामविष्यम्भेण त्रीणि योजनशत सहस्राणि षोडशशतसहस्राणि द्वे च सप्तविंशतियोंजनश ते त्रयः क्रोशाः, अष्टाशिं च धनुः शत त्रयोदशाशहानि अगु उ च मिश्चिद्वि शेपाधि परिक्षेपेग प्रज्ञप्तः । स खलु एकया जगत्या सर्वतः समन्तात् संपरिक्षिप्तः । सा बल जगती अष्टयोजनानि ऊर्ध्वमुच्चत्वेन, मूले द्वादशयोजनानि किन्भेग, मध्येऽष्ट योजनानि विष्कम्भेण, उपरि चत्वारि योजनानि विजम्भेण, सूळे विस्तीर्णा मध्ये संक्षिप्ता उपरि तनुका गोपुच्छमस्थानसंस्थिता सर्व वज्रमयी अच्छाउचक्षणा. Page #816 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमन ७१२ लष्टाघृष्टामृष्टानीरजानिर्मला निष्पङ्का निष्पवटच्छाया सप्रमा सश्रीका समरीचा सोद्योता प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा । सा खलु जगती एकेन जालकटकेन सर्वतः समंतात संपरिक्षिप्ता ॥ स खल्ल जालकटकः खलु अर्द्धयोजन घुर्वमुच्चत्वेन, पञ्चधनुः शतानि विष्कम्भेण, सर्वरत्नमयोऽन्छः श्लक्षणः लटो. घृष्ठोमष्टो नीरजाः निर्मलो निकटच्छायः सप्रमः सश्रीकः समरीच: सोधोतः मासादीयो दर्शनीयोऽभिरूपः पतिरूपः ॥मु० ५१॥ टीका-'कहिणं भवे ! दीरसमुदा' कुत्र- कस्मिन् स्थाने खल भदन्त ! द्वीपसमुद्राः, द्वीपाः समुद्राश्च सन्तीति द्वीपसमुद्राणामवस्थानविषयकः प्रथमः पश्नः, 'केवइयाणं भंते । दीवसमुद्दा' कियन्तः कियसंग्यकाः खल मदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ता इति द्वीपसमुद्राणां संख्याविषयको द्वितीयः प्रश्नः, के 'महालयाणं भंते ! दीवसमुदा' कियन्महालया द्वीपसमुद्राः कियान् महानालयं आश्रयो व्याप्यक्षेत्ररूपो येषां ते कियन्महाळयाः किं प्रमाणमहालयाः द्वीपसमुद्रा इति ज्योतिषकदेव तिर्यग्लोक में है अतः तिर्यग्लोक के प्रस्ताव से अथ सूत्रकार द्वीप एवं समुद्र के सम्बन्ध में वक्तव्यता का कथन करते है। 'कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा पन्नत्ता' इत्यादि । टीकार्थ-गौतम ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-'कहिणं भंते दीवसमुद्दा पण्णत्ता' हे भदन्त ! द्वीप और समुद्र किस स्थान पर कहे गये है ? अर्थात् द्वीप समुद्रों का अवस्थान कहाँ पर है । इस प्रकार से यह प्रश्न गौतमका द्वीप और समुद्रों के अस्थान के विषय में है। 'केवड्या णं भंते ! दीवलमुद्द। वे द्वीप समुद्र हे भदन्त ! कितने है ? यह प्रश्न उनकी संख्या के विषय में है। 'के महालया ण भंते ! दीव समुदाहे भदन्त ? वे द्वीपसमुद्र कितने-घडे-विशाल है ऐसा यह प्रश्न उनकी आयामादि તિષ્કદેવ તિર્યકમાં છે, તેથી તિર્યશ્લેકના પ્રસ્તાવથી હવે સૂત્રક ૨ द्वीप भने समुद्रना सम्पन्धमा ४थन ४२ता छ 'कहि ण' भ ते! त्यादि 'कहि णं भंते ! दीवेसमुद्दा पण्णचा' त्याह दार्थ-श्रीगीतमस्वामी प्रभुश्री२ मे ५ यु छ है 'कहिणं भंते ! दीवसमुदा पण्णत्ता' सावन्द्वी५ भने समुद्री या स्थान ५२ ।।१ अर्थात દ્વીપસમુદ્રોની સ્થિતિ કયાં આવેલ છે? આ રીતને આ પ્રશ્ન શ્રીગૌતમસ્વામીએ द्वा५ भने समुद्रीन। भवस्थान संभ मां पूछे छे. 'केवइया णं भते। दीव समुद्दा' हे सगवन से द्वीप समुद्री हेटसा छ ? या प्रश्न द्वीप समुद्रानी सध्यान समयमा हेर छे. 'के महालया णं मंते ! दीवसमुदा' हे भगवन् તે દીપ સમુદ્રી કેટલા મેટા વિશાળ પ્રમાણુના છે ? એ પ્રમાણેને આ પ્રશ્ન તેના Page #817 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.५१ द्वीपसमुद्रनिरूपणम् दीपसमुद्राणा मायादि परिमाण विषयस्तृतीयः प्रश्नः, 'कि संठियाणं भंते ! दीवसमुदा' कि संस्थिताः खल भदन्त ! द्वीपसमुद्राः, किं कीदृश संस्थितंसंस्थानं येषां ते कि संस्थिता इति संस्थानविषयकः चतुर्थः प्रश्नः, 'किमागार भावपयोडाराणं भंते ! दीवस मुद्दा पन्नत्ता' किमाकारभारप्रत्यवताराः खलु भदन्त ! द्वीपसमुद्राः प्रज्ञप्ताः, आकारभाव स्वरूपविशेषः कस्याकारभावस्य मत्य. वतारो येषु ते किसाकारभावमत्यवतारा इति द्वीपसमुद्राणां स्वरूविषयका पञ्चमप्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा इत्यादि, 'गोयसा' हे गौर म ! 'जंबुद्दीवाइया दीवा ळवणादिया समुदा' जम्बूद्वीपादिका द्वीपाः, जम्बूद्वीप आदि र्येषां ते जम्बूद्वीपादिकाः जम्वृषभृतयो द्वीपा इत्यर्थः, लवणादिकाः समुद्राः लवणसमुद्र आदि येषां ते लवणसमुद्रादिका:-लमणसमुद्रपभृतयः समुद्रा इत्यर्थः एतारता प्रमाणके सम्बन्ध में है। 'कि मठियाणं भंते' दीवसमुद्दा' उन द्वीप समुद्रों का हे भदन्त ! संस्थान आकार कैसा है ? यह उनके संस्थान के विषय में प्रश्न है। तथा-'किमाकारभाव पडोधारा णं भंते दीव समुद्दा पन्नत्ता' उन द्वीपसमुद्रों का हे भदन्त | स्वरूप क्या है ? ऐसा यह पांचा प्रश्न उनके स्वरूप विशेष के विषय में है इन प्रश्नों के उत्तर में प्रभुश्री गौतम से कहते हैं-'गोयमा जंबूद्दीवाइया दीवा लवणाझ्या ममुहा' हे गौतम ! जम्बूद्वीप हैं आदि में जिन्हो के ऐसे तो द्वीप है और लवणसमुद्र हैं आदि में जिन्हों के ऐसे समुद्र है। यहां पर श्रीगौनमस्वामीने प्रभुश्री से सर्वप्रथम द्वीपसमुद्र किस स्थान पर है ? यह प्रश्न किया है। पर प्रभुश्रीने ऐसा उत्तर क्यों दिया कि जम्बूद्वीप आदि द्वीप है । और लवण समुद्र आदि समुद्र हैं। बाततो ठीक है पर इस तरह का जो नहीं मायाम करना सभा ४२ छे. 'कि संठिया णं भते ! दीवसमुद्दा' હે ભગવન્ એ દ્વીપ સમુદ્રોને આકાર કેવો છે ? આ પ્રશ્ન તેના સંસ્થાનના समयमा ४२८ छे. तया 'किमाकारभावपडोयाराणं भंते ! दीवस मुद्दाणं पण्णत्ता' मावन सेवीप समुद्रोनु स्प३५ यु छ ? 2 शतनामा પાંચમે પ્રશ્ન તેના સ્વરૂપ વિશેના સંબંધમાં પૂરેલ છે. આ પ્રશ્નોના ઉત્તરમાં प्रभुश्री गीतमस्वामीन में 'गोयमा ! जद्दीवाइया दीवा लवणाइया समुद्दा' गौतम ! पूदी५ मां माता भुस्य छे सेवा भने દ્વીપ છે. લવણ સમદ્ર જેની આદિમાં છે એવા સમુદ્ર છે. અહીયાં શ્રીગૌતમ સ્વામીએ પ્રભુશ્રીને સૌથી પહેલાં દ્વીપ સમુદ્રો ક્યા રથાન પર આવેલ છે ? એ પ્રમાણેને પ્રશ્ન પૂછેલ છે. પરંતુ પ્રભુશ્રીએ છે. ઉત્તર કેમ આપે કે જંબુદ્વીપ વિગેરે દ્વીપ છે અને લવણ સમુદ્ર વિગેરે સમુદ્રો છે. તમારૂં जी० १०० Page #818 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीवामिगमी द्वीपानां समुद्राणां चादिः कथितः, एतच्चापृष्टमपि भगक्ता कथितमुत्तरत्रोपयोगित्वात, गुणवते शिध्यायापृष्टमपि वक्तव्यमिटिख्यापनाय चेति । 'संठाणओं' संस्थानतः संस्थानमाश्रित्येत्यर्थः 'एग विहविहाणा' एकविधविधानाः एकविधम् - एकपकारं विधानं येपा ते एकनिधविधानाः, एकस्वरूपा इत्यर्थः एकस्वरूपता च सर्वेषां द्वीपसमुद्राणां वृत्तसंस्थानसं स्थितत्वादिति । 'वित्थारओ अणेगविह विहाणा' विस्तारतो विस्तारमधिकृत्य पुनरनेकविधविधानाः, अनेकविधानानि-अनेकमकारकाणि विधानानि येषां ते तथा, विस्तारमधिकृत्य नानाविधविस्तारवन्त इत्यर्थः, एतदेव नानास्वरूपत्वमुपदर्शयति-'दुगुणा दुगुणं पटुप्पा. एमाणा२ पवित्थरमाणार' द्विगुणं द्वगुणं यथा भवति एवं प्रत्युत्पद्यमानाः मन्यु स्पद्यपानाः, गुग्यमानाः२ इत्यर्थः प्रविस्तान्तः प्रविस्तरन्तः प्राण विस्तार पूछा गया भी उनकी आदिका प्रदर्शक उत्तर दिया है वह इन पूछे गये प्रश्नों के उत्तर देने में उपयोगी है। तथा आगे भी यह काम में आनेवाला है। अथवा 'मुगवले शिष्याय अपृष्टमपि कथनीयम्' गुणशाली शिष्य के लिये नहीं पूछा गया श्री विषयाह देना चाहिये ऐसी नीति है सो इस नीति को यापन करने के लिये भी प्रभुश्रीने नहीं भी पूछे गये प्रश्न का स्वयं भी उदभावित करके उत्तर दिया है ये जम्बूद्वीपादिक द्वीप और लवणसमुद्र आदि समुद्र ठाणो एकधि बिटाणा, विधारओ अणेशविहविहाणा' संस्थान की अपेक्षा एक ही प्रकार के आकार वाले है। क्योंकि इनका आकार वृत्त गोल कहा गया है। तथा विस्तार की अपेक्षा इनका विस्तार नानाप्रकार का कहा गया है । यही वान 'दुगुणादुगुणं पडुप्पाएमाणा२ पवित्थरકથન તે બરાબર છે પરંતુ આ રીતને નહી પૂછવામાં આવેલ તેની આદિ બતાવનાર ઉત્તર આપેલ છે. તે આ પૂછવામાં આવેલ પ્રશ્નોના ઉત્તર આપવામાં ઉપયોગી છે. અને આગળ પણ આ ઉત્તર ઉપયોગી થનાર છે એટલા માટે माशतना उत्तर ४ छे. अथवा 'गुणवते शिष्याय अपृष्ठमपि कथनीयम्' ગુણવાન શિષ્ય ન પૂછેલ વિષયના સંબંધમાં પણ કહેવું જોઈએ આ પ્રમાણેનું નીતિ વચન છે. તેથી આ નીતિને ધ્યાનમાં રાખીને પ્રભુશ્રીએ પૂછવામાં ન આવેલ વિ ષના સંબંધમાં પિતે એ વિષયને ઉભાવિત કરીને ઉત્તર આપેલ છે આ જંબૂद्वी५ विगेरे दी। सन समुद्र विगेरे समुद्री 'सठाणओ एकविहविक्षाणा वित्थारो अणेगविहविहाणा' सस्थाननी अपेक्षाधी से ०१ प्रा२ना मार વાળા છે. કેમકે તેમને આકાર વૃત્ત ગોળ કહેલ છે. તથા વિસ્તારની અપેક્ષાથી તેમને વિસ્તાર અનેક પ્રકારને કહેવામાં આવેલ છે. એજ વાત 'दुगुणा दुगुणे पडुप्पाएमाणा पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा पवित्थरमाणा ओभा Page #819 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका न.३ उ.३ रु.५१ द्वीपसमुनिकपणम् गच्छन्तः२ तथाहि-जम्बूद्वीप एकयोजनलक्षः लव गसमुद्रो द्वे योजनलक्षे धातकी. खण्डश्च त्रीणि योजनलक्षाणि, इत्यादि, 'ओमासमाणवीचिया' यवभासमाना वीचयः वल्लोला येषां ते अवभासमानबीचयः, इदञ्च विशेपणं समुद्राणां स्वामा. विकमेव, द्वीपानामपि इदं विशेषणं यथाकथञ्चित् संभवति, द्वीपेष्वपि हुदनदनदी तडागादिषु कल्लोलसंमवादिति । तथा- ते द्वीपसा द्राः कीदृशाः सन्तीति तान् वर्णयति-'बहु' इत्यादि, 'बहुउप्पलपउम-कुमुदनलिणसुभगसोगंधियपोंडरीय महापोंडरीय सयपत्तसहस्सपत्तपप्फुलकेसरोवचिया' बहूत्पलपद्मकुमुदनलिननुभगसौगन्धिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्र सहस्रपत्र प्रफुल्लकेपरोपचिताः, तत्रोत्पलं माणा२ ओभालमाणबीचोया' हल सूत्रपाठ द्वारा समझाई गई है। अर्थात् जम्बूद्वीपका जितना विस्तार है उसकी अपेक्षा लवणसमुद्रका दूना विस्तार है। लक्षणसमुद्र के विस्तार की अपेक्षा धालकी खण्डका दूना विस्तार है । इत्यादि 'ओमासमाणवीचिया' दृश्यमान कल्लोलो. तरंगो वाले यह विशेषण समुद्रों का तो है ही परन्तु द्वीपों का भी विशेषण हो सकता है क्योंकि उनमें भो हद, नदी तडाग आदि है। और उन में कल्लोलो का होना स्वाभाविक है इश्री कारण ये छीप और समुद्र अवभालझान वीची-तार गो बाले काहे गये है अब उन द्वीप समुद्रों का वर्णन करते है-'बहुउप्पलपउन्मकुमुदलिणसुभगसोगं. धियपोंडरीयमहापोडरीयलयपत्तसहस्तपत्तपप्फुल्लदेसरोवचिया' प्रफु. ल्लित, एवं केशर खे युक्त ऐले अनेको उत्सलो से कमलों से, पत्रों से सूर्यविकाशी कमलों से चन्द्रविक्षाशी कुसुदों से कुछ२ लालबर्णवाले समाणवीचिया' ।। सूत्र५४ वा समतामi मा छे. अर्थात् '. દ્વિીપને જેટલે વિસ્તાર છે તેની અપેક્ષાએ લવણ સમુદ્રને બમણે વિસ્તાર છે લવણ સમુદ્રના વિસ્તારની અપેક્ષાએ ધાતકી ખંડનો બમણ વિસ્તાર છે. छत्याहि 'ओभासमाणवीचिया' मामा माता तर गावात मा विशेष સમુદ્રોનું તો છે જ પરંતુ દ્વીપોનું પણ આ વિશેષણ થઈ શકે છે. કેમકે તેમાં પશુ હદ, નદી, તડાગ, (તળાવ) વિગેરે છે જે તથા તેમાં તર ગેનું હોવું સ્વાભાવિક છે. એ જ કારણથી આ દ્વીપ અને સમુદ્ર અવભાસમાન વિચિ તરંગવાળા કહેવામાં આવેલ છે. हवे मे द्वीप समुद्रातुं न ४२माया मावे छे. 'बहुउप्पल पउमकुमुद णलिण सुभग सोगाधिय पोंडरीय महापाडरीय संयतपत्तसहस्सपचपप्फुल्लकेसरो वचिया' मीसा भने सरथी युत सेवा भने त्यसोथी भगायी, पत्राथा સૂર્ય વિકાશી કમળાથી, રાવિકાશી કુમુદોથી કંઈક કંઈક લાલ વર્ણવાળા Page #820 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६६ जीवामिगमस्त्र कमलविशेषः, पद्मं सूर्यविकासि, कुमुदं चन्द्रविकासि, नलिनम्-ईपद्रक्त पद्म सुभगं पद्मविशेषः सौगन्धिक कल्हारम्, पौण्डरीकं सिताम्बुजम् तदेव वृहन्महापौण्डरीकम्, शत पत्रप्तरसाने पद्मविशेषौ पत्रसंख्याकृतभेदो, एभिः प्रफुल्लैः-विकसितैः केसरेति केसरोपलक्षित रुपचिता उपचितशोमाका द्वीपसमुद्राः । 'पत्तेयं पत्तेय' प्रत्येकं प्रत्येकम् एकैको द्वीपः समुद्रश्चेत्यर्थः 'पउमवरवेइयापरिक्खित्ता' पदमवरवेदिकापरिक्षिप्ताः 'पत्तेयं पत्तेयं दणसंडपरिक्खित्ता' प्रत्येकं प्रत्येकं वनषण्डपरिक्षिप्ताः सन्ति, एतादृशाः 'अरिस तिरिर लोए' अस्मिन् तिर्यग्लोके 'असंखेज्जा दीव समुदा सयंभूरमणपज्जवसाणा' असंख्येया द्वीपसमुद्राः स्वयंभूरमणपर्यवसाना जम्बूद्वीपादयो द्वीपा. स्वयंभूरमणद्वीपपर्यवसाना', लवणसमुद्रादयः समद्राः स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यवसानाः, ‘पण्णता समणाउसो !' प्रज्ञप्ता:-कथिताः हे श्रमण ! नलिनों से पत्रों से सुभगों से पद्मविशेषों से सौगन्धिकों से विशेष प्रकार के कमलों से पौण्डरीकों से सफेद कमलों से वडे २ पुण्ड. रीकों से शतपत्र थाले कमलों से और सहस्रपत्रों वाले कमलों से ये हीप. और समुद्र सदा उपचित शोभावाले बने रहते है । 'पत्तेयं पत्तेय पउमवर वेहया परिक्खित्ता' ये प्रत्येक द्वीप और समुद्र पद्मवरवेदिका से घिरे हुए है 'पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता' ये प्रत्येक वनखण्ड से विढे हुए है-'अस्सि तिरियलोए असंखिज्जा दीवसमुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो' हे श्रमण आयुष्मन् इस तिर्यग्लोक में ऐसे ये द्वीप एवं अन्तिम समुद्र स्वयंभूरम गद्वोपतक और अन्तिम स्वयंभूरमणसमुद्र तक असंख्यात है। 'अस्सि तिरियलोए' इस सूत्रपाठ द्वारा द्वीपसमुद्रों का स्थान सूत्रकारने प्रकट किया है 'असंखेज्जा' નલિનોથી પત્રથી, સુભગોથી પદ્મવિશેષથી સૌગન્ધિકોથી વિશેષ પ્રકારના કમળોથી ઊંડરીક સફેદ કમળથી મેટા મેટા પૌંડરિકેથી શતવ્ર સોપાંખડીવાળા કમળથી અને હજાર પાખડીવાળા કમળોથી એ દ્વીપ અને સમુદ્ર સદા શોભાય भान यता २९ छे. 'पत्तेय' पत्तेय पउमवरवेइया परिक्खित्ता' मा ६२४ द्वीय भने समुद्र, ५१२ हाथी राय छे. 'पत्तेयं पत्तेयवणस डपरिक्खित्ता' मा ४२६ दी५ समुद्र पनमथा घरायेदा छे. 'अस्सि तिरियलोए अस खिन्जा दीवसमुद्दा सय भूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसों' हे श्रभर मायुभन् આ તિર્યકમાં એવા આ દ્વીપ અને અતિમ સમુદ્રો સ્વયંભૂરમણ દ્વીપ पर्यन्त मन मतिम स्वयमूरमय समुद्र पर्यन्त मसभ्यात छे. 'अस्मि तिरियलोए' मा सूत्रपा द्वारा द्वीप समुद्रोनु स्थान सूत्ररे प्रगट ३८ . 'अस खेज्जा' मा सूत्रा द्वारा दी५ समुद्रोनी सध्या प्रगट ४२ छे. 'दुगुणा Page #821 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ २०५१ द्वीपसमुद्र निरूपणम् 55 a हे आयुष्मन् ! ' अस्सि चिरियलोए' इत्यनेन स्थानं कथितम् ' संखेज्जा' इत्यनेन संख्या कथिता, 'दुगुणा दुगुणं' इत्यादिना प्रमाणं कथितम् 'सठाणओ' इत्यादिना संस्थानं कथितमिति । सम्पति - आकार भाव प्रत्यवारं विवक्षुरिमाह-'दत्य' इत्यादि, ७२७ 'तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे णामं दीवे' तत्र तेषु द्वीपसमुद्रेषु मध्ये खलु अयं यत्र वसामो वयं स जम्बूद्वीषो नाम द्वीपोऽस्ति । स कथं भूत: ? तत्राह - 'दीवसमुद्दाणं' इत्यादि, 'दीव मुद्दाणं अतिरिए' सर्व द्वीपसमुद्राणां सर्वाभ्यन्तरक; सर्वा मना सामस्त्येन अभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तरः सर्वाभ्यन्तर एवं सभ्यन्तरकः, तथाहिसर्वेऽपि शेषा द्वीपसमुद्राः जम्बुद्वीपादारभ्यागनकथितप्रकारेण द्विगुणद्विगुण विस्तरास्ततो भवति जम्बूद्वीपो द्वीपः सर्वाभ्यन्तरकः, अनेन जम्बुद्वीपस्यावस्थानं कथितमिति । इममेव वर्णयति- 'सच्चखुड्डा ए' इत्यादि, अयं जम्बूद्वीपो द्वीपः 'सन्धखुड्डाए' सर्वक्षुल्ककः सर्वेभ्योऽपि द्वीपसमुद्रेभ्यः क्षुल्लको घुरिति सर्व इस सूत्रपाठ द्वारा द्वीपसमुद्रो की संख्या प्रकट की है । 'दुगुणा दुगुणं' इस सूत्रपाठ द्वारा उनका प्रमाण बतलाया गया है 'संठाणओ' इस पद द्वारा उनका संस्थान कहा गया है 'तत्यर्ण अयं जंबुद्दीवे णासं दीवे दीवसमुद्दाणं अतिरिए सव्वखुड्डाए बट्टे तेल पठाण संठिते बट्टे रहचक्कवाल संठाण संटिते बटूटे' उन द्वीप समुद्रो के वीच में सबसे पहिला जम्बूदी नामका द्वीप की जिसमें हमलोग रहते हैं इसीलिये इसे 'दीयसमुद्द णं अमिरिए' इस पद से विशेपत किया गया है क्योंकि समस्त द्रोपन्मुः जम्बूद्वीप से लगाकर ही आगमोक्त प्रकार के अनुसार दुने र विस्तारवाले प्रकट किया है । अब जम्बूदीप का वर्णन करते है । 'सव्वखुड्डाए' यह जम्बूद्वीप सबसे छोटा है । 'सबखुड्डाए' इस पद के द्वारा यह समझाया गया है। कि यह जम्बूदीप दुगुण' मा सूत्रपाठ द्वारा तेभनु अभय तावत्रा भावे छे. सटाणओ' थे पाठ द्वारा तेनु ं संस्थान उडेल हे 'तत्थ णं जय जवुहोवे णाम दीवे दीवाण अतिरिए सव्व बुड्डाए वट्टे वेल्लापूयस ठाणच ठिते वट्टे रद्दचक्क - व लस ठाणस ठिवे वट्टे' यो द्वीप समुद्रोमा सौधी पडे ४ द्वीप नाभा द्वीप ठे नेमा आयो २४ मे छी तेया तेने 'दीव समुदाणं' अभितरिए' मे पहथी વિશેષિત કરેલ છે. કેમકે સઘળા દ્વીપ અને સમુદ્રો જ બુદ્વીપથી આગમાક્ત પ્રકાર પ્રમાણે ઋષણા ખમજીા વિસ્તારવાળા બનાવેલ છે. . ભીને જ हवे ही वन वामां आवे छे. 'सव्वखुट्टाए' मा मूद्रीय सौदी नाना है. 'सखुट्टाए' मा यह द्वारा से समन्ववामां आयु है Page #822 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगम ७९८ क्षुल्लकः, तथाहि - सर्वे लवणादयः समुद्राः सर्वे च धातकीखण्डादयो द्वीपाः जम्बू दीपादारभ्य द्विगुणद्विगुणायाम विष्कम्भपरिधयस्ततः शेषद्वीपसमुद्रापेक्षया जम्बूद्वीप बुरिति । एतेन सामान्यतः परिमाणं कथितम् । विशेषतस्तु आयामादिगतं परिमाणमग्रे वक्ष्यति । तथा-'बहे' वृत्तः, वृत्तोऽयं जम्बूद्वीपः वृत्तत्वं तु चलयवदन्तः शुषिरयुक्तमपि भवतीत्यतोऽस्य वृत्तत्वं संस्थानमाश्रित्य प्रदर्शयति'तेल्ला पू५०' इत्यादि 'तेलापूपसंठाणसंठिए' तैलापूपसंस्थानसंस्थितः तैलेन पक्चोऽपूपस्तैलापूरः तैलेन हि पक्त्रोऽपूपः प्रायः परिपूर्णवृत्तो भवति न घृतपत्र समस्त द्वीप और समुद्रों की अपेक्षा लघु है । क्योंकि शेष द्वीपों और समुद्रो का लवणोदक आदि समुद्रों का एवं धातकी खण्ड आदि द्विपों का जो आयामविष्कम्भ एवं परिधि का प्रमाण है वह जम्बूदीप के आयाम और विष्कम्भ से तथा उसकी परिधि से दुसर होता गया है। इससे सूत्र कारने जम्बूद्वीपका प्रमाण कहा है। यह सब आघाम आदिका परिमाण वे स्वयं आगे प्रकट करनेवाले हैं तथा 'वट्टे' यह जम्बूद्रीप आकार में गोल है । गोल तो वलय की तरह धीच में खाली भागवाला हो सकता है | अतः इसकी गोलाई संस्थान को लेकर कहते है । यह 'यट्टे तेखापुराणसंठिए' तेल में पकाये गये मालपुआ के जैसा वृत्त है तेल में पकाया हुआ पूजा अपने आकार प्रकार में ठीक रूप से परिपूर्ण रहता है घृत में पक्व पुमा ऐसा नहीं होता है यह कही कमती और कही बढती हो जाता है इसके वृत्त को पुनः प्रकट करने के लिये આ જ મૂદ્દીપ સઘળા દ્વીપ સમુદ્રોની અપેક્ષાથી નાના છે. કેમકે બીજા દ્વીપે! અને સમુદ્રોલવણેદક વિગેરે સમુદ્રોનુ તથા ધાતકીખડ વગેરે દ્વીપાના આયામ વિક ́ભ અને પરિધિતું પ્રમાણુ છે, તે જ દ્બીપના આયામ અને વિષ્ણુસથી તથા તેની પરિધિથી ખમણુ ખમણું થતુ જાય છે. તેથી સૂત્રકારે જ ખૂદ્રીપનું પ્રમાણુ નાનુ કહેલ છે. અને આયામ વિગેરેનું પરિમાણુ તે पोतेन भागण प्रगट २शे तथा 'वट्टे' मा ४ मूद्रीय भागरथी गोज छे. વલય ખàાયાની માફક વચમા ખાલીલ ગવાળા પણુ ગેાળાકાર થઈ શકે છે. તેથી तेनी गोणाई संस्थानने सहने हे छे. या गो भर 'वट्टे वेल्लापुयस ठाण संठिए' तेसभां मनाववामां आवेद पुखा भासमाना वो गोज छे तेसमां પકવવામાં આવેલ પુમા પેાતાના આકાર પ્રકારથી ખરાખર રૂપે પરિપૂર્ણ રહે છે. ઘીમાં બનાવવામાં આવેલ પૂઆ એવા ગળાકારવાળા હાતા નથી. તે કયાંક આછા વત્તા ગેળા હાય છે તેનેા ગેાળાકાર બતાવવા ફરીથી આ માણેના ખીજે પદ્મ સૂત્રપાઠ इस छे. 'वटूदे रद्दचक्कवालस ठाण Page #823 -------------------------------------------------------------------------- ________________ haufont टीका प्र.३ ७.३ सू०५१ द्वीपसमुद्रनिरूपणम् इति तेल विशेषणम्, तैलापूपस्येव यत्संस्थानं तेन संस्थित इति तेलापूपसंस्थान संस्थितः । पुनश्च 'वट्टे' वृत्तः कीदृशो वृतस्तत्राह - 'रह चक्कवालसंठाण संfoe' रथचक्रचाळसंस्थानसंस्थितः, स्थस्य रथाङ्गस्य चक्रस्य अवयवे समुदायो पचारात् चक्रवालं मण्डलं तस्येत्र यद् संस्थानं तेन संस्थित इति रथचक्रवाल संस्थानसंस्थितः । पुनरपि 'बट्टे' वृचः कीदृशः ? तत्राह - 'क्खरकण्णियासंठण संठिए' पुष्करकर्णिका संस्थानसंस्थितः, तत्र पुष्करकर्णिका पद्मवीजकोशस्तमदृशो वृत्तः । पुनश्च 'वटूट्टे' वृत्तः कीदृश इत्याह- ' षडि पुन्नचंद सेठाणसंठिए' परिपूर्णचन्द्रसंस्थानसंस्थितः परिपूर्णचन्द्र:- पूर्णिमाचन्द्रस्तद्वद्वृत्तः । एतेन जम्मूद्वीपस्य संस्थानं कथितमिति । सम्पति जम्बूद्वीपस्याऽऽपशमादिपरिमाणमाह'एक्i' इत्यादि, 'एक्कं जोयणसय सहस्सं आयामविवखंभेणं' एकं योजनशत'वटूटे रहचक्कवालसंठाणसंठिए' मुत्रकार ने यह दूसरा भी सूत्रपाट कहा है अर्थात वह जम्बूद्वीप ऐसा गोल है, जैसी कि रथ के पहिये की गोलाई होती है रथ से वहाँ अवयव में समुदाय के उपचार से रथकाअङ्ग - चक्र-पहिया लिया गया है 'बटूटे पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए' यह जम्बूद्रीप ऐसा गोल है की जैसी पुष्कर कमल की कलिंका होती है । गोलाई प्रकट करने के लिये यह तृतीय उपमान पद है अथवा 'टूटे पडिपुण्ण चंद संठाणसंठिए' चतुर्थ उपमान परिपूर्ण चंदमंडल है । जैसा परिपूर्ण पूर्णिमा का चंद्रमंडल अपनी गोलाई में व्यवस्थित रहता है, उमी प्रकार की गोलाई वाला यह जम्बूद्वीप है इस कथन से जम्बूद्वीप का संस्थान प्रकट किया गया है । अथ इसका आयामादि प्रना प्रकट करते है 'एक्कं जोयणसयसहस्रूं आयामविकखमेणं तिष्णि जीयणसय सहस्साई सोलस य सहस्ताई दोणि य सत्तावीसे जोरण - ७९९ સ”િ અર્થાત્ આ જ બુદ્વીપ એવા ગાળ છે કે જેવી ગાળાઇ રથના ચક્ર પેંડાની હાય છે. રથથી સમુદાયના ઉપચારથી રથનુ' અંગ ચક્ર પેડુ ગ્રહણ કરેલ છે 'वट्टे पुक्खरकणिया सठाणस ठिए' मा यूद्रीय गोवा गोज छे ! केवी ગાળાઈ પુષ્કર કમળની કળિની હાય છે ગળાઈ બતાવવા માટે આ ત્રીજુ उपभानयः उडेस छे अथवा 'वट्टे पुण्णचंद 'ठाण सठि' हे परिपूर्ण પૂર્ણિમાનુ' ચંદ્ર મડળ ગાળાકારમાં વ્યવસ્થિત હાય છે એજ પ્રમાણેના ગોળ આકાર વાળા આ જખૂદ્વીપ છે. આ રીતે પરિપૂર્ણ ચંદ્રનું આ ચે શુ' ઉપમ’ન પદ કહેલ છે. આ કથનથી જ ભૂદ્રોપત્તુ' સરથાન બતાવેલ છે. હવે તેના भायाम विगेरेनु प्रमाणु बताये थे. 'एक्क जोयणमयमहस्स आय मक्सिंभेण तिष्णि जोयणसयसहस्स्राई सोलस य सहस्साई दोण्णिय सतावीसे जोयणसए Page #824 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०० जीवामिगम सहस्रमायामविष्कम्भेण, दैयविस्ताराभ्यामेकं योजनशतसहस्रं लक्षयोजनमित्यर्थः 'तिनि जोयणसयराहरूलाई त्रीणि योजनशतसहस्राणि त्रीणि लक्षाणि 'सोलसयसहस्साई" षोडश च सहस्राणि 'दोणि य सत्तावीसे जोयणसए' द्वे योजनशते सप्तविंशत्यधिके (३१६२२७) 'तिणि य को से' त्रयः क्रोशाः 'अट्ठावीसं च धणुसये' अष्टाविंशतिधन शतानि, 'तेरसंगुलाई त्रयोदशाङ्गुलानि 'अद्धंगुलकं च किंचिविसेसाहिय' अर्कीगुळकं च किञ्चिद्विशेपाधिकम् 'परिक्खेवेण पन्नत्ते' परिक्षेपेण परिधिना प्रज्ञप्तो जम्बूद्वीपो द्वीप इति । सम्प्रति-आकारभावमत्यवतारपतिपादनार्थमाह-'से गं' इत्यादि, 'से णं एक्काए जगतीए सवओ समता संपरिविखत्ते' स पुगेक्तायामविष्कम्मपरिक्षे रपरिमाणो जम्बूद्वीपः खलु एकया जगत्या सुनगरपकारसदृश्या सर्वतः-सर्वासु दिक्षु समन्तात-सासरत्येन संपरिक्षिप्तः सम्यग्वेष्टितोऽस्ति, अथ जगतीं वर्णयति-'साणं' इत्यादि. 'सा ण जगती' सा खल्ल जगती 'अट्ट जोयणाई उड्डू उच्चत्तेणं' अर्धमुपरि उच्चस्त्वेन अष्टोसते तिणि य कोले अट्ठावीस च धनुमयं तेरस अंगुलाई अद्ध गुलकं च किंचिविसेसाख्यिं परिक्खेवेणं पण्णत्ते ऐसे इस जम्बूदीप की लंबाई और चौडाई एक लाख योजन की है। और हमकी परिधि ३ लाख १६ हजार दो सौ सताइस योजन-३१६२२७ एवं तीनकोश २८ धनुष और १३॥ अंगुल से कुछ अधिक है। अब हमका आकार भाव प्रत्यवतार कहते है । 'से णं एकाए जातीए सवतो ममता सपरिक्खेत्ते' पूर्वोक्त आयामविष्कम्भ परिक्षेप परिमाणवाला यह जम्बूदीप एक जगती से सुनगर के प्राकार जैसे कोट से चारों ओर से परि. वेष्टित है घिरा हुआ है 'सा णं जगती अg जोयणाई उडूं उच्चत्तण मूठे पारस जोषणाई विक्खभेण, मज्झे अट्ठ जोयणाई विक्खेभेणं उड़े तिण्णिय कोसे अट्ठावीस च धणुसय' तेरन अंगुलाइ अद्ध'गुलकच कि चिविसे प्राहिय परिक्कखेवेणं पण्णत्ते' सेवा मा दीपनी मा मने पा એક લાખ જનની છે. અને તેની પરિધિ ૩ ત્રણ લાખ ૧૬ સોળ હાર ૨ બસો સત્યાવીસ અને ત્રણ કેસ ૨૮ અઠયાવીસ ધનુષ અને ૧૩ સાડાતેર આગળથી કંઈક વધારે છે. वे तेनी मा२ मा प्रत्यक्ता२ उवामां आवे छे 'से णं एक्काए जगतीए सव्वओ समता सपरिक्खित्ते' पूर्वरित २५ याम (4bxn पक्षिय પ્રમાણુવાળા આ જંબુદ્વીપ એક જગતીથી સુનગરના પ્રાકાર જેવા કેટથી ચારે त२६ घराये। छे. 'सा णं जगती अट्ठ जोयणाई उड्ढ उच्चत्तेणं मूले बारस जोयणाई विश्खभेण मज्झे अजोयणाई विक्खंभेण उप्पि चत्तारि जोयणाई Page #825 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेrद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ . ५१ होपसमुद्र निरूपणम् ८०१ योजनानि सा च - उपर्युपरि तनुवन् सवन्ति वर्त्तते तथाहि - 'मूले वारस जोयणाई विक्खंभेणं' मूले द्वादशयोजनानि विष्कम्भेग 'मज्झे अट्ठ जोयणाई विक्खंभेणं' मध्येऽष्टौ योजनानि विष्कम्भेग ' उपि चत्तारि जोयणाई विवखंभेणं' उपरिचत्वारि योजनानि विषभेण अतएव विष्कम्ममधिकृत्य 'सूले वित्थिन्ना' मुले विस्तीर्णा 'मज्झे संखित्ता' मध्ये संक्षिप्ता त्रिभागोनखात् 'उपि तणुया' उपरितनुका, मूलापेक्षया त्रिभागमात्र विस्तारभावात् । यद्येवं तहिं संस्थानेन कोदृशीति सादृश्येन संस्थानं दर्शयति- 'गोपुच्छसंठाण संठिया' गोपुच्छसंस्थानसंस्थिताः, गोपुच्छस्येव संस्थानं गोपुच्छसंस्थानम् तेन संस्थितेति गोपुच्छसंस्थानसंस्थिता ऊर्धीतगोपुच्छाकारेति भावः । अथ तस्याः स्वरूपमा - '६० वराई' इत्यादि, 'सच्च वइरामई' सर्व वज्रमयी, सर्वात्मना - सामस्त्येन वज्रमयी वज्ररत्नात्मिकेत्यर्थः 'अच्छा' अच्छा-आकाशस्फटिकवदति स्वच्छा 'सुण्डा' श्लक्ष्णालक्ष्णपुद्रळस्कन्धनिष्पना, श्लक्ष्णतन्तु निष्पण पटवत् 'लण्ड' मसृणा घृष्टित चत्तारि जोयणाई चिक्खंभेण मृले वित्थिष्णा मज्झे संखित्ता उपि agat' यह जगती आठ शेजनकी उंची है वह उपर उपर से तनु तनु पतली होती गई है जैसे मूल में इसका विस्तार १२ योजन का है । मध्य में इसका विस्तार आठ योजन का है । और उपर२ में इसका विस्तार चार योजन का है ! इस तरह मूल में विस्तीर्ण हो गई है मध्य में संकीर्ण - संकुचित हो गई है और उपर में पतली हो गई है अत एव यह 'गोपुच्छसंठाणसंहिता' बची हुई गाय की पूंछ का जैसा संस्थान - आकार होता हैं । वैसे आकार वाली हो गई है अब जगती का स्वरूप कहते हैं । यह जगती 'सन्वराई' सर्वात्मना वज्ररत्नमय है, 'अच्छा, मण्डा' लपडा, घट्टा मट्ठा. णीरया, निम्मला, विकखंभेण मूले विच्छिन्ना मज्ज्ञे संखित्ता उपि तणुया' मा भगती आह ચૈાજનની ઉંચાઇ વાળી છે. ઉપર ઉપરથી તનુ તનુ પાતળી થતી ગઇ છે જેમકે મૂળમાં તેને વિસ્તાર ૧૨ ચેાજનના છે. મધ્યમાં તેને વિસ્તાર આઠે ચેાજનનેા છે અને ઉપરમાં તેને વિસ્તાર ચાર ચેાજનના છે. એ રીતે આ જગતી મૂળમાં વિસ્તારાળી ફેલાયેલી છે મધ્યમાં સંકી સંકુચિત थई गई है. शाले ५२ पातजी थयेस हे तेथील या 'गोपुच्छस ठाण 'ठिता' वामां मावेस गायना छडा नेवु संस्थान- आर होय છે તેવા આકાર વાળી કહેવામાં આવેલ છે. હવે જગતીના સ્વરૂપનું વર્ણન કરવામાં આવે છે. આ જગતી રક્ रामया' सर्व प्रावन्न रत्नभय हे. 'अच्छा, सण्हा, लण्हा, घट्टा, मट्टा; नी० १०१ Page #826 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAJEND लीपामिगम पटवत् । 'घट्टा' घृष्ट इव घृष्टा खरशानया पापाणपुत्तलिकावत्, 'महा' मृष्टा इव मृष्टा सुकुमारशानचा चिक्कणपाषाण पुतलिकावत् 'गोरया' नीरजा स्वाभाविक रजोरहितत्वात् "जिम्मला' निर्मला आगन्तुकमलरहितत्वात् ‘णिप्पंका निपकाकाळिमादिरूपकलङ्करहिता 'निवकंडच्छाया' निष्वङ्कटच्छाया, निपटा निरूपघाता छाया दीप्तिर्यस्याः सा तथा, 'सप्पमा' समभा-द्रवरूपतः प्रभावती 'सस्सिरीया' सश्रीका-शोमाना 'समरीया' सबरीचा-बहिनिगम्यमान किरणजाला, अतएव 'सउज्जोया' सोयोता वहिव्यवस्थित वस्तुजातप्रकाश करी, 'पासादीया' मासादीया मनः प्रसादाय हिता तत्कारित्वात् प्रासादीया मनः महादकारिणी 'दरिसणिज्जा' दर्शनीया-दर्शनयोग्या यां पश्यतो जनस्य नेत्रे वृतिं न प्राप्नुतः 'अभिरूवा' अभिरूपा' अभि-सर्वेषां द्रष्ट्रणा मनामसादानुकूल. निप्पंका, जिकंझरच्छाया सप्पभानस्तिरीया समरीया, ल उज्जोया पासादीया, दारिणिना अभिरूमा पडिख्वा' आकाश और स्फटिकमणि के जैसी स्वच्छ है चिकने स्पर्शवाले पुद्गलों से पनी हुई होने के कारण यह चिकने तन्तुओं के बने वन्न की तरह इलक्षण चिकनी है घुटे हुए वस्त्रकी तरह मसूण खरशाण से रगडी गई पापाण पुत्त लिका की तरह घृष्ट हैं सुकुमारशाण ले रगडी पापाण पुत्तलिफा की तरह मृष्ट है स्वाभाविक रज से रहित होने के कारण नीरज हैआगन्तुकमेल के अभाव से निर्मल है कालिमादि कलङ्क विकल होने के कारण निष्पत है निरूरघात दीप्तिकाली होने के कारण निष्कंकट छायावाली है । स्वरूप की अपेक्षा प्रभावती है। यह विशिष्ट शोभासंपन्न होने से सश्रीक है इम में से फिरणों का जाल पाहर निकलना णीरया, णिम्मला, णिप्पका, णिक्ककडच्छाया सप्पभा सस्सिरीया समरीया, सउज्जोया, पासादीया, दरिसणिज्जा अभिरुवा, पडिहवा' मा भने २३टि મણિના જેવી સ્વચ્છ છે. ચિકણું પુદ્ગલથી બનેલ હોવાથી આ ચિકણું તખ્તઓથી બનેલ વસ્ત્ર જેવી કલહ ચીણી છે. ઘુટેલા સ્ત્રની જેમ મસૂણ છે ખરસ લુથી રગડેલ પાષાણની પુતળીની જેમ ધૃષ્ટ લીસી છે. સુકુમાર શાળથી ઘણુ પાષાણની પુતળીની જેમ મૃષ્ટ મસૂથ સુંવાળી છે સ્વભાવિક રજ વિનાની હોવાથી નીરજ છે આગંતુક મેલના અભાવથી નિર્મલ છે. કાલિમાં વિગેરે કલંકથી રહિત હોવાથી નિષ્કલંક છે નિરૂપઘાત દીવાની પંક્તિના જેવી હોવાથી નિકંકટ છાયાવાળી છે. સ્વરૂપની અપેક્ષાથી પ્રભાવતી છે. એ વધારે શિોભાવાળી હોવાથી સગ્રીક છે. તેમાંથી કિરણની જાળ બહાર નીકળતી રહે છે, તેથી તે સમરીચ છે. બહાર રહેલ વસ્તુઓને પ્રકાશ કરવાવાળી હોવાથી Page #827 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतका टीका प्र.३ उ.३ १.५१ टोपसमुद्रनिरूपणम् ८०३ तयाऽभिमुखं रूपं यस्याः सा अतिरूपा अत्यन्त कमनीयेत्यर्थः । अतएव 'पडिरूवा' प्रतिरूपा, मति विशिष्टमसाधारणं रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा अथवा प्रतिक्षणं नवं नवमिव रूपं यस्याः सा प्रतिरूपा, ।। ___साणं जगती' सा अनन्तरोक्ता खल्लु जगती 'एक्केणं जालकडएणं' एकेन जालकटकेन, जालानि-जालकानि यानि भवनभित्तिषु लोकेऽपि मसिद्धानि तेषां कटकः समूहो जाळकटको जालाकीर्णरम्यसंस्थान-घदेशविशेष पंक्तिरित्यर्थः तेन जाळकटकेन 'सव्वओं सर्वत: सर्वासु दिक्षु 'समंता' समन्ताद-सामस्त्येन 'संपरिक्खित्ता' संपरिक्षिप्ता- सम्यगूदेष्टितेति । सम्मति जाल कटकस्य प्रमाणमाह-'से ' इत्यादि से णं जाल कडए स खलु जालकटकः 'अद्ध जोयरहता है अतः समीचा है दाहिःस्थित वस्तुओं की प्रकाशिका होने से यह सोचोता है मनकी प्रसन्नता करानेवाली होने के कारण प्रासादीया है। इसे देखते २ नमन थकता है। और न नेत्रही थकले है-अत: यह दर्शनीया है। देखनेवालों को इसका रूप बहनही अधिक कमनीय लगता है इसलिये यह अभिरूपा है। तथा इसका रूप जैसा रूप और कहीं नहीं है इसलिये अथवा क्षण२ में इलका रूप नया जैसा ही देखने वालों को प्रतीत होता है इसलिये यह प्रतिरूपा है स्लाणं जमली एक्केण जालकडएणं सब्बती ससंता संपरिक्खित्ता' यह जगती एक जाल कटक से भवन को भित्तियों में बनाये गये रोशन्दानों (झरोंखा) के जैसे रम्य संस्थान वाले प्रदेश विशेषों की पंक्तियों से समस्त दिशाओं की ओर अच्छी तरह से घिरी हुई है। अब जाल कटक का प्रमाण कहते है। 'से ण जालफडएणं अद्वजोफणं उड़ उच्चत्तेण पंचवणुसथाई विक्खं એ સેદ્યતા છે મનની પ્રસન્નતા કરવવાવાળી હોવાથી પ્રાસાદીયા છે, તેને જોતા જોતા મન કયારેય થાકતું નથી તેમજ આખો પણ થાતી નથી તેથી તે દર્શનીયા છે. જેવાવાળાને તેનું રૂપ ઘણું જ સુંદર લાગે છે. તેથી તે અભિરૂપા છે. તથા તેના રૂપ જેવું રૂપ બીજે કયાંય નથી, તેથી અથવા ક્ષણ ક્ષણમાં तेनु ३५ ना रे नारायाने गाय छे. तथा प्रती३५। छे. 'सा णं जगती एक्केणं जालकड़एण सवओ समता सपरिक्खित्ता' मा गती मे જાલ કટકથી ભવનની ભીતોમાં બનાવવામાં આવેલ રોશન્દાનના જેવી રમણીય સંસ્થાન વાળા પ્રદેશ વિશેની પતિથી બધી દિશાથી સારી રીતે ઘેરાયેલી છે. सटर्नु प्रभार मतावतां सूत्रा२३ 'से णं जालकडएणं अद्धजोयणं उड़ढ' उच्चत्तणं पंच धणुसयाई विक्खभेणं सव्व रयणामए अच्छे सण्हे लण्हे, जाव पडिलवे' ALone समूह मे सनी या पाण છે, અને ૫૦૦ પાંચસો ધનુષના વિસ્તાર વાળે છે–પહોળાઈ વાળા છે, આ Page #828 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 जीवा मिगमसूत्रे णं उडूं उच्चत्तेणं' अर्द्धयोजनं द्वे गव्यूते - ऊर्ध्वमुञ्चस्बेन 'पंचधणुसयाई' चिक्खं भेग पश्च मनुःशतानि विष्कम्भेण इदं परिमाणमेकस्प जाककटकस्य मोक्तम् । जगत्याः प्रायो वहुमध्यदेशमागे सर्वत्र जालकानि सन्ति ठानि च प्रत्येक मूर्ध्व मुच्चैस्त्वेन द्वेग, विष्कम्भेण पञ्चधनुःशतानीति । स कीदृश: ? इत्याह'सन्नरयणामए' सर्वरत्नमयः सर्वात्मना - सामस्त्येन रत्नमयो वज्ररत्नात्मकः 'अच्छे सहे कण्हे जान पडिरूवे' 'अच्छे' अच्छ:- स्वच्छ आकाशवत् 'सण्हे' श्लक्ष्णः 'ल'हे' लव्हः अत्र यावत्पदसंग्राह्याणि पदानि यथा - 'घट्टे महे' घृष्टो मृष्टः 'नीरए' नीरज: 'निम्मले ' निर्मलः 'णिष्पके' निपङ्कः 'णिक्कंकडच्छाए' निष्कङ्कटच्छायः' 'सप्पभे' समभः 'सस्सिरीए' सश्रीकः 'समरीए' समरीचः 'स उज्जोए' सोद्योतः 'पासादीए : ' प्रासादीयः 'दरिसणिज्जे' दर्शनीयः 'अभिरुवे' अभिरूपः 'पडीरूवे' पतिरूपः जाल कटकविशेषणपदानां पूर्ववदेवार्थः स्वयमेवोद्दनीयः । ५१ मूळम् - तीसे पणं जगईए उपि बहुमज्झदेसभाए, एत्थ एगा महई पमवरवेड्या पन्नत्ता, सा प पउमचरवेइया अद्धजोयणं उ उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं सव्वरयणा मेणं सव्वरयणामए अच्छे सण्हे लहे जाव पडिरूवे' यह जालकटकजालसमूहजालपडि दो कोश ऊंचा है और पांच सौ धनुष का विस्तार वाला है | चौडा है यह जाल समूह जगती के प्रायः मध्यभाग में हैं और एक जालका छह प्रमाण कहा गया है । यह जालकटक किस प्रकारका है को कहते है । 1 'सव्त्ररणामए' यह जालकट सर्वात्मना रत्नमय है । अच्छे है । आकाश एवं स्फटिक रत्न के जैसा परम निर्मल है । इलग है लष्ट है चावत प्रतिरूप है यहां यावत्पद से 'घट्टे मट्ठे णीरए, णिम्मले, जिपं के णिक्कंकडच्छाए, सप्पभे, सस्सिरीए, सउज्जोए पासादीए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे' इन पदों का संग्रह हुआ है इनकी व्याख्या उपर में की जा चूकी है वहां से समझ लेना चाहिये ॥५१॥ જાલ સમૂહ જગતીના મધ્યભાગમાં છે. આ પ્રમાણુ એક જાળતું કહેલ છે. मालवा अारनु छे, ते हे छे. 'सव्व रयणामए' मा लस ट સર્વ પ્રકારે રત્નમય છે. સ્વચ્છ છે. આકાશ અને સ્ફટિકની જેમ નિર્દેલ છે, वक्ष् छे, सष्ट छे, यावत् प्रति३ छे. अहीयां यावत्पथी 'घट्टे मट्टे जीए णिम्मले णिव के शिक्कांकड च्छाए, सापभे, सस्सिरीए समरीए, सउज्जोए, पासादीए, रिणिजे अभिवे' या होना सथ थयेस है, या यहानी व्याभ्या ५२ वामां भावी है तो ते त्यांथी समल क्षेत्री ॥ ४७ ॥ Page #829 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका x.३ उ.३ १.५२ जगत्या: पद्मयरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८०५ मया जगई समिया परिक्खेवेणं सव्वरयणामई। तीसे गं पउमवरवेइयाए अयमेयारूने, वण्णाबाले पन्नते, तं जहावइरामया नेमा रिहालया पइटाणा वेरुलिया मया खंभा सुवपणरुप्पमया फलगा बहरामया संधी लोहितकखन्नईओ सूहओ णाणामणिमया कलेवरा णाणामणिमया कलेवरसंघाडा णाणामणिमया रूबा णाणामणिमया रूबसंघाडा, अंकमया पक्खा पक्ख. वाहाओ य जोइरलासया बंसा वंसकवेल्लुया य रथयामईओ पट्टियाओ जायरूपमईओ ओहाडणीओ चईरालईओ उवरिपुंछणीओ सबसेए रथयामए छादणे। साणं पउमवरवेइया एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगेणं गवख जालेणं एयोगेणं खिखि. णिजालेणं एगमेगणं मुसाजालेणं एगमेगेणं मणिजाले एगमेगेणं कणयजालेणं एगमेगेणं रयणजालेणं एगमेगेण पउमजालेणं सब्बरयणासएणं सधओ समंता संपरिक्खित्ता। ते णं तवणिज्जलंबूलगा सुवण्ण पसरगमंडिया नालामणि रयणबिबिहहारद्वहारउवलोभियलमुदया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुवावरदाहिणउत्तरागरहिं वाएहि मदागं२ एजमाणार कंपिजमाणा २ लंबमाणा२ पझंझमाणा२ लदायमाणा२ ते णं ओरालेणं मणुण्णेणं मोहरेणं क. गमणिदुइकरणं सद्देणं सवओ लमंत्ता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उबलोभेमाणा उसोभेमाणा चिटुंति ॥ तीले णं परमवरइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहने हयसंघाडा गय संघाडा नरसंघाडा किपणर संघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधजलंघाडा वसहसंघाडा सव्वरयणामया अच्छा जाब पडिरूका ॥ तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देशे तहिं तहिं बहवे हयपंतीमो तहेव Page #830 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०६ 4 वाभिगमसूत्रे जान पडिवाओं ॥ एवं हवीहीओ जाव पडिरुवाओ ॥ एवं हयमिहुणाई गयमिहुणाई जाव पडिरुवाई | तीसे णं पउमवखेड्याए तत्थ तत्थ देते तर्हि तहिं वहवे पउमलयाओ नागलयाओ, एवं अलोगलयाओ चंपगलयाओ चूयलयाओ वणलयाओ वासंतियलयाओ अइमुत्सगलयाओ कुंदलयाओ सामलयाओ णिचं कुसुमियाओ जाव सुविभन्तपडिमंजरिवर्डिसगधराओ सव्वरयणामईओ सण्हाओ लव्हाओ घट्टाओ मट्टाओ णीरयाओ णिम्मलाओ पिंकाओ णिक्कंकड च्छायाओ सप्पभाओ लमरीयाओ सउज्जोयाओ पासाईयाओ दरिसणिजाओ अभिरूवाओ पडिओ | से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ पउमबरवेइया पउसवरवेइया ? गोयमा ! पउसवरवेड्याए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं वेड्यासु वेइया बाहासु वेइयासीसफल एसु वेड्या पुढंतरेसु खंभे खंभवाहासु खंभससिसु खंभपुडंतरेसु सृईसु सूईमुहेसु सुईफलए सूईपुढंतरेसु पक्खेसु पक्खबाहासु पत्रखपुतरेसु बहूई उप्पलाई पउमाई जाव सय सहरसपत्ताई सव्वरयणामाई अच्छाई सम्हाई लव्हाई घटाई मट्ठाई पीरयाई जिम्मलाई पिंकाई णिक्कंकडच्छायाई सप्पभाई समरी - याइं सउज्जयाई पासादीयाई दरिलणिजाई अभिरुवाई पडि - वाई महार वासिक्कछत्तसमयाई पण्णत्ताई समणाउसो ? ले तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ पउमवरवेड्या पउमवरवेइया ? | पवरइयाणं भंते! किं सासया असासया ? गोयमा ! सिय सासया लिय असालया । से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ सिय सामया लिय असासया ? गोयमा ! दव्वट्टयाए सासया, जहि गंधपज्जदेहिं रसपज्जवोहं फासपजवेहिं असासया । Page #831 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३९.५२ जगत्याः पद्मवरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८०५ से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ लिय सासया, सिय अलासया॥पउमवरवेइयाणं भंते ! कालओ केवञ्चिर होइ ? गोयमा ! ण कयावि णासी, ण कया वि णत्थि ण कया वि ण भबिस्सइ भुविय भबइ य भविस्सइ य धुवा णियया अक्खया अव्यया अवटिया णिच्चा पउमवरवेइया ॥सू० ५२॥ __छाया-तस्याः खलु जगत्या उपरि बहुमध्यदेशभागे अत्र खल्ल एका महती पद्मवरवेदिका प्रज्ञप्ता, सा खल्लु पदम बरवेदिका अयोजनमूर्ध्वमुच्चत्वेन पञ्च. धनुःशतानि विष्कम्भेण, सर्वरत्वमयी जगती समिता परिक्षेपेण सर्वरत्नमयी। तस्याः खलु पद्मवरवेदिकायाः अयमेतावद्रूपो वर्णावासः यज्ञप्तः, उद्यथा-वज्रमया नेमाः रिष्टमयानि प्रतिष्ठानानि वैडूर्यमयाः स्तम्माः सुवर्णरूप्यमयाः फलकाः वनमयाः संघयः, लोहिताक्षमय्यः सूच्या, नानामणिमयाणि कलेवराणि नाना. मणिमया: कलेवरसंघाटाः, नानामणिमयानि रूपाणि, नानामणिमयाः रूपसंघाटा: अङ्कमयाः पक्षाः, पक्षवाहवश्च ज्योतिरसमया वशाः, वंशकवेल्लु कानि च रजत. मययः पट्टिकाः जातरूपमय्योऽवघाटिन्यः वज्रययः पुच्छन्यः सर्वश्वेतं रजतमयं छादनम् सा खलु पदमवरवेदिका एकैकेन हेमजालेन एककेन गवाक्षजालेन एकैकेन किंकिणीजालेन एकैकेन पद्मजालेन सर्वरत्नर येन सर्वतः समन्तात संपरिक्षिप्ता। तानि खल्ल जालानि तपनीयलम्बुमणानि सुवर्णमतरकण्डि तानि नानामणिरत्नविविधहागर्द्धहारोपशोभिासमुदयानि ईपदन्योन्यमसंपातानि पूर्वापरदक्षिणोत्तराऽऽगतैतिर्मन्द मन्दमेजमानानि एजमानानि कम्पमानानि कम्पमानानि लम्बमानानि लम्बमानानि शब्दायमानानि शवायमानानि तेनो वारेण मनोज्ञेन मनोहरेण कर्णमनोनिवृत्तिकरणेन शन्देन सर्वतः समन्तात् अ पू. यमाणानि श्रियाऽजीव उपशोभमानानि उपशोभमानानि तिष्ठन्ति । तस्याः खन पद्मवरवेदिकायाः तत्र तत्र देशे तत्र तत्र वह हयसंघाटा गजसंघाटाः, नरसंघाटाः, किनरसंघाटाः, किं पुरुषसंघाटाः, मनोरमसंघाटा, गन्धर्वमंघाटाः वृपभसंघाटाः, सरस्नमयाः, अच्छाः, यावत प्रतिरूपाः। तस्याः खलु पदमबरवेदिकायास्तत्र तत्र देशे तत्र तत्र बहवो हयपंक्तयस्तथैन यारस्पतिरूपाः । एवं हयवीथयो यावस्प्रतिरूपाः, एवं हयमिथुनानि गजमिथुनानि यानव प्रतिरूपणि । तस्याः खलु पद्मवरवेदिकायास्तत्र तत्र देशे तत्र तत्र बहव्यः पमलता नागलनाः एवम शाकलताः चम्पकलनाः, चूनलता वनलता वासन्तिकला अतिमुनकलताः कुन्दलताः श्यामळताः नित्यं कुसमिताः यात-मुविभक्तपतिमञ्जयवतमधर्यः सर्व. रत्नमयः श्लक्ष्णाः कण्हा घृष्टा मृष्टा नीरजस्का निर्मला निप्पड्का निष्कङ्कटच्छाया: Page #832 --------------------------------------------------------------------------  Page #833 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका ठीका प्र.३ उ. ३ . ५२ जगत्याः पद्मवर वेदिकायाश्चवर्णनम् ८०९ तीर्थङ्करेरिति । 'साणं पउमचरवेश्या' सा खलु पद्मवर वेदिका 'अद्धजोयणं | उ उच्चते' अर्द्ध योजनं' द्वे गव्यते इत्यर्थः ऊर्ध्वमुचत्वेन 'पंचधणुसयाई विक्खंमेण पञ्चचतुःशतानि विष्कम्भेण विष्कम्भः परिरयस्तेन 'जगई समिया परिक्खेवेणं' जगती समिका परिक्षेपेण यावत्ममाणो जगत्या मध्यभागे परिरयः प्रमाण एव तस्यापद्मवेदिकाया अपि परिक्षेप इति भावः । 'सव्वरयणमई०' सर्वरत्नमयी सामस्त्येन रत्नात्मिका अच्छा श्लक्ष्णाला घृष्टामृष्टा नीरजस्का निर्मला निष्पङ्का निष्कङ्कटच्छाया समया समरीचिका सोधोता प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपा प्रतिरूपा पद्मवरवेदिका । एषां व्याख्या पूर्वगतेति । 'ती से णं परमवरवेइयाए' तस्या:- पूर्वदर्शित विशेषणविशिष्टायाः खलु पद्मवर 'वेदिकायाः' अयमेयारूवे वण्णावासे पन्नत्ते' अयम्-वक्ष्यमाणप्रकारः एताद्रूपः- एवं स्वरूपो वर्णवासः - वर्णः - इलाघा यथाऽवस्थितस्वरूपकीर्त्तनं तस्या वालो निवासो परमवरवेदिया' यह पद्मवरवेदिका अद्ध जोगणं उडूं उच्चत्तेणं' आघे योजन की ऊंची है अर्थात् दो कोश जिननी ऊंची है 'पंचधणुसयाई farar' और विस्तार में यह ५०० पाँच सौ धनुष की है 'सव्वरयणामए' तथा यह सर्वात्मना रत्नमय है 'जगई समिया' जितनी जगती का मध्यभाग का परिरय- परिक्षेप है उतना ही परिक्षेप इसका भी है यह वेदिका 'अच्छा लक्षणा, लष्टा, सृष्टा, नीरजस्का, निर्मलानिष्पंङ्का, निष्कंटच्छापा सभा समरीचिता सोद्योता दर्शनीया अभि· रूपा प्रतिरूपा' इन अच्छादित विशेषणों वाली है, इन विशेषणों का अर्थ जैसा ऊपर में लिखा गया है-वैमा ही यहां समझ लेना 'तीसेय परवेयाए अयमेयारुवे वण्णायाले पण्णत्ते' उच्च पद्मवर वेदिका का सवर वेहि 'अद्धजोयण' उडूढं उच्चतेणं' अधयटन भेटली यी है. अर्थात् मे स-शानी या वाणी छे. 'पंच धणुसयाई विक्खમેન અને ૫૦૦ પાંચસે ધનુષના વિસ્તાર વાળી છે सर्व अरे ते रत्नभय छे. 'जगई समिया' भेटसेो भगतीना मध्य भागना परिश्य - परिक्षेष छे, भेटन आनो पशु परिक्षेप (घेरावे छे. आ पद्मव२वेहि 'अच्छा शलक्ष्णा, लष्टा, घृष्टा, सृष्टा, नीरजरका' निर्मला, निष्प का, ( हव विनानी) निष्कं कट छाया (अंश विनानी ) सप्रभा, समरीचिका सोद्योता, दर्शनीया, अभिरूपा, प्रतिरूपा, विगेरे विशेष राजी हे या विशेषज्ञान अर्थ प्रमाणे ५२ वामां आवे छे, शेन प्रभानो छे, 'तीय परमवर वेइया अयमेयारूवे वष्णावासे पण्णत्ते' से पद्मवर वेमिना वर्षावास वर्णन या प्रमाणे छे. 'त' जहा' ने 'वइरामया नेमा' मा पद्मवर वेहिनी नेमा बेदिया' या 'सव्वरयणामए' जी० १०२ Page #834 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीताभिगमत ८१० ग्रन्थपद्धतिरूपो वर्णावास:-वर्णकनिवेश इत्यर्थः, प्रज्ञप्त:-कथित इति । 'तं जहा' तद्यथा-'वारामया नेमा' बज्रमथा नेमा नेमा नाम पदमबरवेदिकाया भूमिभागा वं निष्क्रामन्तः प्रदेशाः ते सर्वेऽपि बनमया:-बजरत्नभवाः 'रिट्टामया पहहाणा' रिष्टमयानि प्रतिष्ठानानि रिष्टो रत्नविशेपस्तद्रूपाणि मतिष्ठानानि मृल. पादाः 'वेरुलियमया खंभा वयरत्नमयाः स्तम्माः, 'यणरूपमया फलगा' मुवर्णरूप्यमयानि फलकानि 'लोहितक्खमई यो मृईओ' लोहिताक्षरन्नमयः सूचया फलकद्वयसम्बन्धविघटनामावहेतु पादुकास्थानीयाः। 'वडरामया मंधी' वन्नमयाः सन्धयः सन्धिमेलाः फलकानाम् अयपर्थ:-वन्त्ररत्नपूरिताः फलकानां सन्धय इति । 'णाणामणिमया कलेवरा' नानामणिमायनि-अनेकविधरत्नघटितानि फलेवराणि-मनुष्यादि शरीगणि 'णाणामणिमया कलेवरसघाडा' नानामणिमया: वर्णावाल-वर्णन इस प्रकार से कहा गया है त जहा' जैसे-'वरामया नेमा' इस पद्मवरवेदिका के जो नेम है-भूमिमान से ऊपर की ओर निकलते हए जो प्रदेश है। वेलवस्त्रमय है अर्थात पदमबरवेदिका के अधोभाग में जो प्रदेशचे मय वजाल के पले हए है 'रिद्वामया पइट्टाणा' रिष्टरत्न के इसके प्रतिष्ठान है-मृलपाद है 'वेलियमयाखभा' वरत्न के हमके स्तम्भ है 'सुवण्णहप्पमया फलगा' सुवर्ण और रुप्य, चांदी की मिलावट से बने हुए इसके फलक है । पाटिये है 'लोहिलखमहको सईओ' लोशितोक्ष रत्न की बनी हुई इसकी सचियां है । ये सूचीयां पादुका के स्थानापन्न होती है जो दोनों पार्टियों को आपस में संबंधित किए हुए रखती है उन्हें विघटित नहीं होने देती है। 'बहरामया संधी' इसके फलों की जो संधिया है वे वज्ररत्न से भरी हुई है । 'ण.णामणिमया कलेवरा यहां जो मनुष्यादि शरीर के चित्र बने हुए है। वे अनेक प्रकार के यणियों के बने हुए है। 'णागा. ભૂમિભાગથી ઉપરની તરફ નીકળતા જે પ્રદેશ છે, તે બધા જ રત્નના બનેલા डाय थे, 'रिदमया पहटाणा' (२०ट २८नना तना प्रतिष्ठान छे. भूसपाई छ. 'वेल लियामया खंमा' वय २नना तना स्तम्ला छे. 'सुवण्णरुप्पपया फलगा' सुपर भने शाहीनी भणी यी मनेसा नासी छे, पाटिया 2. लोहितक्खमइयो મૃગોલેહિતાક્ષ રતનની બનેલી તેની સૂચિયા છે. એ સૂચિ પરસ્પર સંબંधित २९ छ. तेने 1 ५४१८ ती नथी. 'वइरामग संधी' तेना ३०ीनी २ सधिये। छे, ते १०० २त्नथा मरेकी छे. 'णाणा मणिमया कलेवरो' मडीया रे મનુષ્યાદિના ચિત્રો બનાવવામાં આવેલ છે, તે અનેક પ્રકારના મણિના બનાबवामा भात छे. 'णाणा मणिमया कलेवरसंघाहा' तथा मनुष्यना स्त्री पु३वाना Page #835 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका ठीका प्र.३ उ.३ सू.५२ जगत्या पनवरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८११ कलेवरसंघाटाः मनुष्यशरीरयुग्मानि नानामणिमयानीत्यर्थः 'जाणामयारूवा' नानामणिमयानि रूपाणि रूपकाणि 'णाणामणिखया रूचसंघोडा' नानामणिमया रूपसंघाटाः रूपयुग्मानि नानामणि मयानीति । 'कामया एक्खा पक्खबाहा ओय' अङ्कमयाः पक्षाः अङ्को रत्नविशेष स्तन्मया पक्षास्तदेकदेशाः, पक्षवाहनश्च 'जोतिरसामया वंसा वंसक वेल्लुया य' ज्योतीरसमया वंशाः ज्योतीरसं नाम रत्नं. तन्मया वंशाः, महान्तः पृष्ठवशाः, ज्योतीरसमयानि वंशकवेल्लुकानि च वंशाश्व कवेल्लुकानि, तत्र महता पृष्ठवंशानामुमयत स्तियक स्थाप्यमानाः वंशाः कवेल्लुकानि लोकप्रसिद्धानि 'रयया मईओ पट्टियाओ' रजतमय्यः पट्टिकाः वंशानामुपरि मणिमयकलेवरसंघाडा' तथा मनुष्य शरीर सुम्स-स्त्री पुरुष की जोडी के जो चित्र बने हुए है वे भी अनेकविध मणियों से बने हुए है 'नाणामणिमया रूवा' रूप-मनुष्य चित्रों के अतिरिक्त जो और भी चित्र हैवे सब भी अनेक प्रकार के मणियों के बने हुए है इसी तरह 'णाणा. मणिमयारूव संघाडा' रूपसंघाट-अनेक जीवों की जोडी के चित्र भी अनेक प्रकार की मणियों के बने हुए है । 'अंकलया पक्खा पक्खबाहा ओय' इसके पक्ष आजू बाजू के भाग-अङ्करत्नों के ही बने हुए है। 'जोतिरसामयावंसा' वंशा बडे २ पृष्ठवंश इसके ज्योतिरस नामक रत्न के बने हुए है। 'वसकवेल्लुयाय' वंशकवेल्लम-बडे पृष्ठवंशों को स्थिर रखने के लिये उनकी दोनों ओर तिरछे रूपले लाये गये बांसभी ज्योतीरत्न के ही बने हुए है । 'रयघामईनो पहियानो' बांसों के ऊपर के छपरे पर दी जाने वाली लंबी लकडी के स्थानापन्न रखी हुई जो पट्टिकाएं है वे चांदी की बनी हुई है। 'जातरूममधीभो ओहाउणीओ' कंधाओं को बांकने के लिये जो उनके ऊपर अवघटिनिया જેડકાના જે ચિત્રો બનેલા છે, તે પણ અનેક પ્રકારના મણિયોના બનેલા છે. 'णाणा मणिमया रूवा' ३५-मनुष्य मित्रान। ३५ शिवाय भाग २ यित्री छ, ते मध! मने प्रारना भयोन मा छे. 'णाणामणिमयारूव संघाडा' ३५ સંઘાટક અનેક જીવોની જેડીના ચિત્ર પણ અનેક પ્રકારના મણીથી भने छे. 'अंकमया पक्खा पक्रवाहाओय' ना ५७सानुमानाला से म' २त्नाना मना छे. 'जोतिरसामया वसा' 'शा मोटा मोटा वशी ज्योतिरस नाभना नाना मनेा छे. 'वस कवेल्लुयाय' शકહુક-મોટા વંશને સ્થિર રાખવા માટે તેની બને બાજુમાં તીછપણુથી રાખવામાં આવેલ વાંસ પણ ચેતી રત્નના જ બનેલા છે. 'रययामईओ पट्टियाओं' पांसानी 6५२ छ।५२। ५२ रामपामा भावना दणी વળીયેની જગ્યાએ રાખવામાં આવનારી જે પટી છે, તે ચાંદીની બનેલી છે. Page #836 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमसूत्रे વાર कंत्रास्थानीयाः, 'जायरूपमईओ ओहाढणीओ' जातरूपं सूदर्णविशेषः तन्मय्यः अवघाटिन्यः आच्छादन हेतु कंचोपरि स्थाप्यमान महायमाण किळिंच स्थानीयाः 'वरामईओ उafi yaणीओ' वज्रमय्यो बजानात्मिका अदघाटनीनामुपरि पुंछम्यः निविडतरच्छादन हेतुश्लक्ष्णतरण विशेषस्थानीयाः, तत्र अवघाटनी महती, क्षुल्लिकातु पुच्छनी, इत्येव उभयोर्भेदः 'सव्वसेए स्वयामर छायणे' सर्वश्वेतं रजतमयं छादनम् सर्वश्वेतं रजतमय पुंछनीनामुपरि कवेल्लुकानामध आच्छादनमिति || ' साणं परमवरवेश्या' सा खलु उपर्युक्ता पद्मवरवेदिका 'एगमेगेण हेमजालेणं' एकैकेन हेमजालेन सर्वात्मना हेममयेन लम्बमानेन लम्बमानेन दामसमूहेनेत्यर्थः ' एगमेगेणं गवक्ख नालेण' एकैकेन गवाक्षजालेन गवाक्षाकृति रत्नविशेषदायसमूहेन 'एगमेगेणं खिखिणी जाले गं' एकैकेन किंकिणी जालेत, किंकिण्यः- क्षुद्रघण्टिकाः, तथा चैकैकेन सुघण्टिका जालेनेत्यर्थः ' एगयेगेणं मुत्ताजालेणं' एकैकेन मुक्ताजालेन मुक्ताफलमयेन दामसमूहेन ' एगमेगेगं मणिजालेगं' एकैकेन मणिजालेन मणिमयेन दामसमूहेन है । ढक्कन है वे जातरूप की बनी हुई है 'वहरामइओ उवरि पुंछणीओ' इन ढक्कनों के ऊपर जो पुञ्छनी है - ढक्कनों के छेदों को चंद करने के लिये जो उनके ऊपर इलक्ष्णतर तृणविशेष के स्थानापन्न और ढक्कन है । जैसा कि घास के छापराओं के उपर बने रहते है-वे वज्ररत्न की है अघाटी वडी होती है और पुंछनी इसी प्रकार की छोटी होती है यही इन दोनों में अन्तर है। 'सव्वसेए रघघामए छापणे' पुंछनोयों के उपर और कवेल्लुओं के नीचे जो आच्छादन है वह रजत मय-चांदी का बना हुआ है। ऐसी यह वेदिका है 'सा णं परमवरवेश्या एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगे णं गवखजाले एगमेगेणं खिखिणिजा लेणं एगमेगेर्ण मुत्ताजालेणं, एगमेगेणं मणिजालेणं एगमेगेणं कणघजा 'जातरुवमयी ओ ओहा उणीओ' मामाने ढांडवा भाटे तेना उपर के अवधटिनि ढांड हे ते ३५ रत्नानी भनेसी छे. 'वइरामइओ उवरि पुळणीओ' એ ઢાંકણુની ઉપર જે પુચ્છની ઢાંકણુના છિદ્રોને ખધ કરવા માટે તેના ઉપર જે શ્રૃગુતર તૃણુ વિશેષના સ્થાને ખીજા ઢાંકણુ છે જેમ ઘાસના છાપરાએ ઉપર બનાવેલા હાય છે તે વા રત્નેાના છે. અવઘાટણી મેાટી હાય છે, અને પુછી તેનાજ જેવી નાની હાય છે. એટલુ એ મન્નેમાં અંતર-જુદાઇ है. 'वन्यसे रययामए छायणे' पुंछ योनी उपर मने सुनी नीचे આચ્છાદન ઢાંકણુ છે તે રજતમય ચાંદીના બનેલા છે. એવી તે વેદિકા છે. 'माणं परमवरवेडया एगमेगेणं हेमजालेगं एगमेगेणं गवक्खजालेणं एगमेगेणं खिखिणिजालेन एगमेगेण मुचानालेणं एगमेगेणं मणिजालेणं एगमेगेणं कणय Page #837 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ रघु.५२ जंगत्याः पपवरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८१३ 'पगमेगेणं कणयजालेण' एकैकेन कनकजालेन कनकं पीत सुवर्णविशेषः तन्मयेन दामसमूहेन 'एगमेगेणं रयणजालेप' एकैकेन रत्नजाटेन 'एममंगेणं पउमजालेणं सचरयणामएणं' एकैकेन पद्मजालेन सर्वरत्नम्येन सर्वरत्नमय पदमात्मवादाम समूहेन 'सबओ समंता संपरिक्खित्ता' सर्वतः-सर्वांसु दिक्षु समन्तात् - सर्वासुविदिप्लु परिक्षिप्ता-सम्यक्परिवेष्टिता । 'ते णं जाला तवणिज्जलंबू पगा' तानि खलु जालानि दामसमहरूपाणि हेमजालादीनि तपनीयलंबूसकानि, तपनीयमारक्तं सुवर्ण तन्मयो लंबूपको दाम्नामग्रिममागे मण्डनविपो ये तानि तपनीयलम्बूसकानि 'मुबण्णपयरगमंडिया' मुवर्णमतरवमण्डितानि, पार्वतः सामस्त्येन लेणं एगमेगेणं रथयजालेणं एगोगेणं पउमरजालेणं लयरथणामएणं सव्वतो समंता संपरिक्खित्ता' वह पद्मवरवेदिका भिन्न भिन्न स्थानों में एक एक हेमजाल से लटकते हुए सुवर्णमय मालासमूहले एक एक गवाक्ष जाल से लटकते हुए गवाक्ष की आकृति वाले रत्नविशेष की मालासमूह से एक एक लटकते हुए क्षुद्रघंटिका जाल ले एक एक लट. कते हुए बडे २ घंटिका जाल से लटकते हुए मुक्ताफलमय दामसमूह से, एकएक लटकते हुए कनकजाल से पीत सुवर्णमय दानसमूह के एकएक लटकते हुए रत्नजाल से-रत्नमयदामसमूह ले एक एक सर्वरत्नमय कमलों की माला के समूह से सर्वदिशाओं में और विदिशामो में व्याप्त हो रही है। परिवेष्टित बनी हुई है। 'तेणं जाला नवणिज्जलं बूमगा' ये सब दामसमूहरूप जाल तपनीय स्तुचणे के लंसक वाले है। अर्थात ये हिमादि के जाल अग्रभाग में तपनीय आरक्त-सुवर्ण के जालेग एगमेगेगं रययजालेण एगमेगेण पउमवरजालेण सव्वरयणासएणं सनी समना सपरिक्खित्ता' से ५२१२ वह तु । स्थानमा मेरो એક બાજુ હેમ જાલથી લટકતા સુર્વણમય માળા સમૂહથી કઈ બાજુ ગવાક્ષ જાલથી લટકતા ગવાક્ષના આકારવાળા રત્ન વિશેષની માલા સમૂહથી કઈબ જ એક એક લટકતી મુદ્ર નાની નાની ઘટિકાજાલથી ઘટડિસે.ના સમૂહથી કે બા એક એક લટકતા મોટી મોટી ઘટિકાજાળથી, લટકતા મુકતાફળમય મતીયે વાળા દામ સમૂહોની માળાથી એક એક લટકતા કમળજાલથી કમળોના સમૂહથી પીત સુવર્ણમય માળાઓના સમૂઠથી એક એક લટકતા રત્નજળથી રનમય માળાઓના સમૂહથી એક એક સર્વ રત્નમય કમળોની માળાના સમડેથી સર્વ દિશાઓથી અને વિદિશાઓથી વ્યાપ્ત થઈ રહી છે. પરિવેષ્ટિત વટળાયેલી રહે છે. ' ण' जाला नवणिजल सगा' मा मया दाम समूड ३५ लस तपा Page #838 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१४ जीवामिगमई सुवर्णपतरकेण-सुवर्णपत्रकेण मण्डितानि-सुम्रोभितानि ‘णाणामणिरयणविविह हारद्धहारउवप्लोभियसमुदाया' नानामणिरत्न विविधहाराहारोपशोभित समदायानि नानारूपाणां मणीनां रत्नानां च ये विविधविचित्रवी द्वारा अष्टादश सरिका अर्द्धहारानवसरिकास्तरुपशोभितः समुदायो येषां तानि तथा, 'ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता' ईपदन्योन्यमसंप्राप्तानि ईपत्-मनाक् अन्योन्यं परस्परमसंमातानिअसंलग्नानि, 'पुब्दावरदाहिण उत्तरागएहिं बाएहि' पूर्वारदक्षिणोत्तरागतेतिः आभ्यो दिग्भ्यः समागतवायुमिः 'मंदागं मदागं एज्जमाणा कंपिज्जमाणा' मन्दं मन्दं यथास्यात् तथा-एज्यमानानि कम्प्यमानानि एज्यमानकम्प्यमानेत्यत्र द्विवचनं जालानां वायुकम्पनाच्छेदं दर्शयति-'लंघमाणा लंबमाणा' लम्बमानानि लम्बमानानि ईपकम्पनवशादेव च भार्पत-इतस्ततो मनाक् चळनेन प्रकम्ब मण्डनविशेषवाले हैं । 'सुधण्णपयरगमंडिया' चारों तरफ से इन पर सुवर्ण पत्र जड़ा हुआ है। 'नाणामणिश्यविविहहारद्ध हारउयसोभिय समुद्घा' ये सब जाल- दामलमूह नानारूपघाले मणियों के एवं रत्नों के बने हुए हारों से १८ लडबाले हारों से एवं अर्द्धहारों से-९ लडके हारों से उपशोभित है 'ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता' ये एक दूसरे से अधिक दूर नहीं है-किन्तु पालर में है और आपल में एक दूसरे से संलग्न नहीं है 'पुयाघरदाहिण उत्तरागतेहिं वापहि' ये सब जाल पूर्व पश्चिम-दक्षिण एवं उत्तर से आपतवायु से 'मंदार्ग मंदागं एज्जमाणा कपिज्जनाणा' मन्द मन्द रूप ले कंपते रहते हैं और जप ये विशेषरूप से कंपित्त होने लगते है। तब ये 'लंबमाणार' लम्बेर हो जाते है-इधा વેલા સુવર્ણના લ બ્રમક વાળા છે. અર્થાત્ આ હિમાદિ જાલ અગ્રભાગમાં તપાવેલા સેનાને મ ડન વિશેષ વાળા છે. એટલેકે કઈક લાલાશવાળા અગ્રભાગ पण छ. 'सुबण्णपयरगम डिया' तनी थारे मा सेनाना पत्रा उस छे. 'णाण मगि रय गविविहारहार असोभियसमुल्या' मा मधी na - हमसभू અનેક પ્રકારના મણિયાના અને રતનેના બતાવેલા હારથી ૧૮ અઢાર લડી વળા હાથી એ અર્થહાર ૯ નવ લડી વાળા હારોથી શોભાયમાન છે. ईनिं अगमण्यम पत्ता' मा १५ मे मीजयी गई २ नथी ५२ तुन न छे. ५४ ५२०५२ मे bilan साथ यटिसा नथी. 'पुवावरदाहिण उत्तरा गतेहिं वोएहि' मा मया समूह पूर्व, पश्चिम, उत्तर भने दक्षिणी मावा पवनथी म दाग मदाग एज्जामाणा कपिज्जमाणा' भ म शते ४५। २ छे. म. क्यारे ते विशेष शते पित थाय छे. त्यारे ते 'लबमाणा प्रमाणा' Gin cini तय छे. मात, गम तमसा जय Page #839 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ ७.५२ जगत्या पनवरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८१५ भानानि प्रलम्बमानानीति । 'पझंझमाणा पझंझमाणा' परस्परसंपर्कतः शब्दायमानानि शब्दायमानानि तानि जालानि सन्तीति, ते णं ओरालेणं मणुण्णेण' तेन-हेमजालादि जनितेन खलु उदारेण स्फारेण शब्देन, स च स्फारशब्दो मनः प्रतिकूलोऽपि कदाचिद्भवेत् तव आइ-'मणुण्णेण' मनोऽनुकूलेन तच्च मनोऽनुकूलत्वं लेशतोऽपि भवतीत्यत आह-'मणोहरेणं' मनोहरेणं मनोहरेण मनांसि-श्रोतृणां चेतांसि हरति-स्वायत्ती करोतीति मनोहरस्तेने अतएव 'कृण्ण मणिन्धुडकरण' कर्णमनोनिवृत्तिकरण, श्रोतृकर्णयोर्मनसश्च निर्वृत्तिकरः सुखविशेपोत्पादक तस्मादेव कारणान्मनोझो मनोहरश्चेति तेन तादृशेन 'सद्देण' शब्देन 'सवओ' समंता आपूरैमाणा' सर्वतः सर्वासु दिक्षु, समन्तात् सर्वासु विदिक्षु अपूरयन्ति, अतएव 'सिरीए अतीव उवसोभेमाणा चिति' श्रिया-शोभया अतीव-अतिशयेनोपशोभमानानि तानि जालानि तिष्ठन्तीति । 'तीसे णं पउपवरवेइयाए' तस्याः उधर पसर जाते है और आपल में 'पझंझमाणा' एक दूसरे से टकरा २ कर शब्दायमान ध्वनिवाले होने लगते हैं 'ते णं आरालेणं मणुण्णे णं कण्णमणणिन्वुहकरेणं सद्देणं सन्चो समंता आपूरेसाणा लिए अतीव उवसोभेमाणा चिट्ठति' इस अवस्था में उनसे निकला हुआ वह शब्द कर्ण और मनको बहुत सुख विशेष का उत्पादक होता है क्योंकि वह शब्द बड़ा ही मनोज्ञ होता है-समस्त दिशाओं और विदिशाओं में वह भर जाता है अतएव उस शब्द की सुन्दरता से वे जाल अत्यन्त शोभित होते रहते हैं। 'तीसे ण प उभवरवेश्याए तत्थर देसे तहि तहिं वहवे हयसंघाडा, गयसंघाडा नरसंघाडा किगरसंघाडा, किं पुरिससंघाडा' उस पदमवरवेदिका के भिन्न भिन्न स्थानों पर कहीं पर अनेक हयसंघाट उत्कीर्ण है यहां संघाट शब्द लाधु संघाडे की तरह छ. म ५२२५२ 'पझझमाणा पझझमाणा' से भीतनी साथे 2४२।४ 23२।४२ शायमान २६४१२ पापा थ७ तय छे. 'ते ण ओरालेणं मणुण्णेणे कण्णमण निव्वुइकरेणं सदेणं सव्वओ समता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उवसोभेमाणा चिट्ठति' मा शत माथी नाणे ये श६ अन मन भनने पर सुम વિશેષના અનુભવ કરાવનાર નિવડે છે. કેમકે એ શબ્દ ઘોજ મનોજ્ઞ હોય છે. સઘળી દિશાઓમાં અને વિદિશાઓમાં તે ભરાઈ જાય છે. તેથી જ એ शहना २पाथी से समूड सत्यत शालायमान थत। २९ छे. 'तिसेणं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे हयस घाडा, गयसंघाड़ा नरसंघाडा, किण्णरसंघाडा कि पुरिससघाडा' थे ५१५२ वहाना तु पु स्थान પર કયાંક કયાંક અનેક પ્રકારના હયસંઘાટ ઘોડાના યુગ્મ ચિન્નેલા છે. Page #840 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१६ जीवाभिगमन खलु पद्मवरवेदिकायाः 'तत्थ तत्थ देसे तर्हि तहिं तत्र तत्र देशे तत्र तत्र तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे 'वहवे हयसंघाडा' बहवो हयसंघाटा: संघाटशब्दो युग्मयाची यथा, साधुपंघाट इत्यत्र तथा च बहूनि ययुग्मानि एवमग्रेऽपि संघाटशब्दो युग्मवाची द्रष्टव्यः, 'गयसंघाडा' गजसंघाटा: 'नरसंघाडा' नरसंघाटाः 'किण्णरसंघाडा' फिन्नरसंघाटाः 'किंपुरिससंघाडा' 'किंपुरुपसंघाटाः 'महोरगसंघाडा' महोरगसंघाटा: 'गंधक सघाडा' साधसंघाटा: 'वसहसंघाडा' वृपभसंघाटा: पमयुग्मानि, कीरशानि तानि ? तत्राह-'सवरयणामया' सर्वरत्नमया:-मत्मिना गन्नमयाः पिच्छा' इत्यारस्य 'पडिरूया' इत्यन्तपादानां यावत्पदसंग्राह्याणां व्याख्या पूर्व गता। एते च सर्वेऽपि हयादि संघाटाः पूष्पाकीणकाः कथिताः, सम्पति-पतेषामेव हयादीनामष्टानां पंक्तयादि मतिपादनार्थमाह-'तीसे णं' इत्यादि, 'तीसे णं पउमयुग्मवाची है। कहीं २ पर गजसंघाट उत्कीर्ण है, कहीं२ पर नरसंघाट उत्कीर्ण है। कहीं पर किन्नरसंघाट उत्कीर्ण है। कहीं पर किंपुमप संघाट उत्कीर्ण है। कहीं पर मोरगसंघाट उत्कीर्ण है। कहीं पर गन्धसंघाट उत्कीर्ण है कहीं२ पर वृषभसंघाट उत्कीर्ण है। ये सब संघाट 'सम्वरयणामया' सर्वात्मना रत्नमय है 'अच्छा' इत्यादि पडिरूव तक के शब्दों का अर्थ पहिले लिख पाये है ये सच हयादिमबाट पुष्पावकीर्णक फलों को बरसाने वाले कहे गये है । अत्र उन स्यादि आठों संघाटे का पंक्ति आदि का निरूपण करते है । 'तीखेण पउमवरवेदियाए' उस पद्मवर वेदिका के 'तत्ध देसे तहि २' स्थानों में, हयपंतीओ तहेव जाव पडिरूवा' उपपंक्तियां है । यावत् ये सय ह्यपंक्तियां प्रतिरूप है यहां यावत् शब्द से 'सर्वा रत्नमयाः, अच्छाः इत्यादि विशेषणों का संग्रह हुआ है एफदिशा में जो श्रेणि होती है उसका नाम पंक्ति है। અહિયાં સંઘાટ શબ્દ સાધુ સંઘાડાની જેમ યુગ્મ વાચી છે. ક્યાંક ક્યાંક ગજ સંઘાટ હાથીના યુગ્મ ચિત્રેલા છે. કયાંક કયાંક નરસંઘાટ મનુષ્ય યુમે ચિત્રલા છે કયાંક કયાંક નિર સંઘાટ ચિત્રેલા છે. કયાંક કયાંક કિં પુરૂષ સંઘાટ ચિત્રેલા છે કયાંક કયાંક મારગ સંઘાટ ચિત્રેલા છે કયાંક કયાંક ગંધર્વ સંઘાટ ચિત્રેલા છે કયાંક કયાંક વૃષભ સંઘાટ ચિન્નેલા છે. આ भधान सघाटो 'सवरयणामया' स ४२ २त्नभय छ 'अच्छा' त्यादि 'पडिरूवा' सुधीना ने। म ५ वामां मानी गये थे. साधा હયાદિ સંઘાટ કૅલેને વરસાવનારા છે, હવે એ હયાદિ સંઘાટેની પંક્તિ विगेरेनु नि३५४५ ४२वामा भाव 2. 'तीसे णं पउमवरवेइयाए' से पहभव२ Page #841 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका प्र. ३ उ. ३ . ५२ जगत्याः पद्मपर वेदिकायाश्ववर्णनम् ८१७ चरवेश्याए' तस्याः खल पद्मवरवेदिकाया। 'तत्थ तस्थ देसे तर्हि तर्हि ' तत्र तत्र देशे - तत्र तत्र देशावयवे 'हय पंतीओ' बन्यो हयपङ्क्तयः 'तदेव जाव पडिरुवा' तथैव-सङ्घाटनदेव यावत्प्रतिरूपा, यावत्पदेन- 'सव्वरयणामया अच्छा' सर्वरत्नमया अच्छा', इत्यादितोऽभिरूपपर्यन्तानां विशेषणानां ग्रहणं भवति, एकस्यां दिशि या श्रेणिः सा पङ्क्तिः कथ्यते । 'एवं हयवीहिओ जाव पडिवाओ' एवं हयादि पङ्क्तिरिव हयादि वीथयोऽपि वक्तव्या यावत्प्रतिरूपाः, अत्रापि यावत्पदेन 'सबरामया' सर्वनामिका इत्यारभ्य प्रतिरूपा एतदन्त विशेषणानि संग्राह्याणि । उभयोरपि पार्श्वयोरेकैक श्रेणिभावेन यत् श्रेणिद्वयं सा वीथी । अत्र ये पूर्व यादीनां संघाटादयः वीथी पर्यन्ता उक्तास्ते पुरुषहयादीनधिकृत्योक्ताः साम्मततेषामेव हयादीनां त्रीपुरुषयुग्मप्रतिपादनार्थमाह-' एवं इयमिहुणाई जान पडिरू वाई' एवं हयपंक्तचादिवदेव हयादि मिथुनान्यपि वक्तव्यानि सर्व रत्नात्मकानीश्यारभ्य प्रतिरूपाणीत्यन्त विशेषणयुतानि इयादीनां मिथुनकानि त्रीपुरुषयुग्मरूपाणि 'एवं वीहिओ जाव पडिरुवाओं' हयादि पंक्तियों की तरह 'सन्धरयणामया' सब रत्नात्मक आदि विशेषणों वाली हयादिवीथियाँ है दोनों तरफ - आजू बाजू में एक एक श्रेणि भाव से जो दो श्रेणी होती है उसका नाम वीथि है पहले जो हयादिकों के संघाट आदि कहे गये है वे पुरुष हयादिकों को लेकर कहे गये है, अब उन्हीं हयादि आठों संघाटे का स्त्री पुरुषरूपयुग्म जोडों को कहते है । ' एवं हयमिहुणाई जाय पडिब्वाइ' हयादि पंक्ति की तरह वहां हयादिकों के स्त्रीपुरुषरूप जोडा भी है ये सब हचादि मिथुन भी सर्वरत्नात्मक आदि पूर्वोक्त विशेषणों वाले है । 'तीसे परमवर - ना 'तत्थ तत्थ से तहिं तहि" हा हा स्थानामा 'हयपतीओ त जाव परिवा' यस्तियो छे. यावत् ते अधी पंक्तियो अतिश्य छे. अही यावत् शब्दथी 'सव्वरयणा मया अच्छा' विगेरे विशेष! सग्रह थये। शे४ हिशामां ? श्रेणी होय छे, तेनु' नाम पंडित छे. 'एवं' हयवीहिओ जाव पडित्राओ' याहि पंक्तियोनी भा३४ 'सव्वरयणा मया' सर्व રત્નમય વિગેરે વિશેષણે વાળી યાદિ પક્તિા છે. બન્ને તરફ આજી ખાજુમાં એક એક શ્રેણિ ભાવથી જે એ શ્રેણી થાય છે. તેનું નામ વીથિ છે. પહેલાં જે હયાદિના સ‘ઘાટ વગેરે કહ્યા છે તે પુરૂષ હયાદિને ઉદ્દેશી કહેલાં છે હવે એ હૈયાદિ આઠે સંઘાટાના સ્ત્રી પુરૂષ રૂપ યુગ્મ જોડલાએનુ કથન કરવામાં भावे छे. 'एवं यमिहुणाई, जाव परिरूवाई' स्याहि यस्तिनी प्रेम त्यां હ્રયાદિકાના સ્ત્રી પુરૂષ રૂપ જોડલા પણ છે, આ હયાદિ મિથુને પણ સ जी० १०३ Page #842 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम वक्तव्यानीति ॥ 'ती से ण पउमवरइयाए' तस्याः खल पद्मवरवेदिकाया: 'तत्थ तत्थ देसे तहिं तहि तत्र तत्र देशे 'हि' इति तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे अत्राऽपि 'तत्थर देसे तहि२' इतिवदता यत्रैका लता तत्रान्या अपि वह यो लताः सन्तीति प्रतिपादितं भवतीति । 'बहवे एउमलयाओ' वहयः पद्मलता अमिः भ्यः 'नागल्यायो नागलकाः, नागा द्वमविशेपास्चे एव लता:-तिर्यक्शाखापसराभावात् नागलताः। एवं असोगळ्याओ' एवम् अशोकलताः 'चंगलपाओ' चम्पकळता: 'चूयलयाओं' चूतलता:-आम्रलताः, 'वणलयाओ' वणलता वणा:तरुविशेषाः 'वासंतिय लपायो' वासन्तिकलता 'अतिमुत्तमलयाओ' अतिमुक्तकलताः 'कुदलयाओ' कुन्दलताः 'सामकयाओ' श्यामलताः ताः कीदृश्या ? इत्याहणिच्चं कुमुसियायो' नित्यं कुसुमिताः, नित्यं-सर्व कालं पट्स्वपि ऋतषु कुम्मानि संजातानि आसामिति कुसुमिताः 'जाव' इति यावत्पदसंग्राह्याणि लताविशेष. णानीमानि-णिच्चं सउलियाओ' नित्यं मुकुलिताः मुकुलानि नाम कुमलानि कलिका इत्यर्थः णिच्चं लवइयाओ' नित्यं लवयिता:-पल्लविता, णिच्चं यवइया' नित्यं स्तवकिताः "णिचं गुम्मिया' नित्यं गुल्मिताः ' मिचं गुच्छिया नित्यं गुच्छिाः स्तव गुल्यो गुच्छविकोपी, "णिच्चं जमलियाओ' वेदियाए नत्थर देले तहिर बहवे पउमलयाभो नागलयानो एवं असोग लयाओ' इत्यादि उन्म पद्मवर वेदिशा के भिन्न स्थानों पर अनेक पद्मलताएं है अनेक नाग लताएं है अशोकलताएं है चंपकलताएं है। चून. लताएं है, बनलताएं है, वासन्तिकलनाएं है, अतिमुक्तकलताएं है, कुन्दलताएं है, एवं श्यामलताएं है, ये सब लताएं छहों ऋतुओं में कुसुमित रहती है गावस्पद से संग्रहीत विशेषण कहते है नित्य कुड्म. लयुक्त बनी रहती है नित्य पल्लवित रहती है नित्यस्तवकित रहती है नित्य कलियाँ गुलिप्त रहती है, नित्य यमलित समान जानीयलना २नमय विगेरे पूरित विशेष वाणा छ 'तीसे गं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहिं बहवे परमलयाओ नागलयाथो एवं अमोगलयाओ' त्याह એ પદ્મવર વેદિકાના જુદા જુદા સ્થને પર અનેક યમલતા છે, અનેક નાગલતાઓ છે અનેક અશકતતાઓ છે ચંપકલતાઓ છે. આમલતાઓ છે. બાલતાઓ છે. વાસતિલતાએ છે. અતિસૂકતલતાઓ છે. કુંદલતાઓ છે અને શ્યામલતાઓ છે. આ બધી લતાઓ છએ વસ્તુઓમાં પુષ્પાન્વિત રહે છે. હવે યાવત્ પદથી ગ્રહણ થયેલ વિશેષણે બતાવે છે. નિત્ય કુમલ-કળિો વાળી બની રહે છે.નિત્ય પલ્લવિત રહે છે. નિત્ય સ્તબકિત રહે છે. નિત્ય કલિયે ગુકિંમત રહે છે નિત્ય યમલિત સમાન જાતની લતા યુવાળી Page #843 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.ई उ.३ २.५२ जगत्याः पावरबेदिकायाश्चवर्णनम् ८१९ नित्यं यमलिताः, यमलं नाम समानजातीयलयोयुग्मं तत्संभातम् आस्विति यमलिताः 'पिच्चं जुलिया नित्य युगलिताः युगलं सजातीय विजातीययो तयोर्द्वन्द्वम्, 'पिच्चं विणमिया' नित्यं विनता:-सर्वकालं फलभारेण ईपन्नताः ___ णिच्चं पणमिया नित्यं पणता:-सर्वकालं महता फलभारेण दुरं नताः, तथा'सुविभत्त पडिमंजरिवर्डिसगधरीओ' मुविभक्त मतिमचर्यवतंसकधर्यः, तत्र विभक्तिका-सुविच्छित्तिका प्रतिविशिष्टो अञ्जरीरूपो योऽवतंसक, तद्धरास्तद्धारिण्यः एषः सर्वोऽपि कुसुमितत्त्वादिको धर्म एकस्या एकैकस्या लताया उक्तः सम्प्रति-कासाश्चिल्लतानां सकलकुसुमितत्वादि धर्मपतिपादनार्थ पूर्वोक्त सकलविशेषणसंग्रहमाह='णिच्चं कुसुमिय-मउलिए लवइय-थवइय-गुम्मिय विमिय पणमिय-सुविभत्त परिमंजरिवडिसगधरीओ नित्यं कुसुमित-मुकुलित पल्लवित स्तचकित-गुल्मित-गुच्छित-विनमित-मणमित सुविभक्त मतिमञ्जर्यवतंसकधर्यः एतत्पदगतानां विशेषणानामर्थः पूर्व व्याख्यात एवेति । पुनः किं रूपास्ता: १ इत्याह-'सरवणा मइओ' सर्वात्मना रम्नमय्यः, 'सण्हाओ' इत्यारभ्य 'पडिरूपाओ' इति पर्यन्तानां विशेषणपदानामर्थाः पूर्ववदेव ज्ञातव्याः। अतः परं पद्मवरवेदिका शब्द पत्तिनिमित्तं जिज्ञासुः प्रश्नयन्नाह-'से केण टेणं भंते !' इत्यादि, ‘से के?णं भंते ! एवं वुच्चइ पउमवरवेक्ष्या परमवरवेश्या' युग्मों से युक्त रहती है तथा 'स्तुविभत्त पडिमंजरिवडिलमधीओ' सुविभक्त प्रतिविशिष्ट मंजरी वही है एक डिंसक-अवतंसक-मुकुट उसको धोरण किये रहती है। 'सबरयणामई मो, लहाओ' ये सब लताएं भी सर्वात्मना रत्नमय है लक्ष्ण आदिविशेषणों वाली हैं इन श्लक्षण आदि प्रतिरूप पर्यन्त पदों का अर्थ पहिले ही लिखा जा चुका है अतः उसी तरह से उसे जान लेना चाहिये अध्य परवरवेदिका के शब्द प्रवृत्ति निमित्त को जानने के लिये पूछते है। 'ले केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ पउमदरदिया२' हे भदना ? इस पभवरवेदिका का ऐसा २ छ. तथा 'सुवित्थ पडिम जरिवळिसगधरीओ' सुमित अतिविशिष्ट मश એજ કહેવાય છે કે જે એક વડિ સગ અવતંસક મુકુટને ધારણ કરેલ રહે છે. 'सव्वरयणा मईओ सहाओ' मा धौ सता! ५५ समिना सप मारे રત્નમય છે. અને ક્ષણ વિગેરે વિશેષણો વાળી છે. આ શ્લફણ વિગેરે પ્રતિરૂપ સુધીના પદેને અર્થ પહેલાં જ લખવામાં આવી ગયેલ છે. તેથી એ રીતે અર્થ અહિયાં સમજી લેવું. હવે પદ્મવર વેદિકાના શબ્દ પ્રવૃત્તિ નિમિત્તને જાણવા માટે શ્રીગૌતમस्वामी प्रभुश्रीन पूछे छे 'से केणटेणं भते । एवं बुच्चइ पउमवरवेइया पावर Page #844 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० जीवामिगमको तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते- पवेदिका पद्मवरवेदिका, अयमर्थ:-पदमवरपेदिका इत्येवं रूपस्य शब्दस्य तत्र प्रत्तो कि निमित्तं पदमवर वेदिकायाः पदमवर थेदिकेवि नामकरणे को हेरिति प्रश्नः, भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'पउमवरवेइया' पद्वरवेदिकायाम् 'तत्य तत्य देसे नहि तहि तत्र तत्र देशे तस्यैव देशस्य तत्र तत्रैकदेशे 'वेइयामु' वेदिकामु उपवेशनयोग्यमत्तवारणरूपासु 'वेड्यावाहासु' वेदिका पार्वेषु 'वेइयासीसफळएमृ' वेदिकाशीर्षफल केषु वेदिकायाः शीर्पमुपरिभागस्तदेव फलकं तेषु, 'वेड्यापुडं. रेसु' वेदिकापुटान्तरेपु द्वे वेदिके वेदिकापुटम् तानि वेदिकापुटानि तेषामन्तराणि अपान्तरालानि वेदिकापुटान्तराणि तेपु, तथा 'खंभेम' सामान्यतः स्तम्भेषु तथा -'खंभवाहामु स्तम्भपार्चेषु 'खंभप्सीसे सु' स्तम्भशीर्षेषु 'खमपुडंतरेसु' स्तम्मपुटान्तरेषु द्वौ स्तम्मो स्तम्भपुटम् तेषामन्तराणि-अपान्तरालानि तेपु 'मूइस' सूत्रीषु फलक सम्बन्धविघटनाभावहेतु पादुका स्थानीयास तासामुपरीति तात्पर्यायः नाम आपने किस कारण से हुआ धनलाया है । अर्थात् इसके नामकी शब्द प्रवृत्ति में क्या कारण है ? जिससे यह पद्मवरवेदिका कहलाती है। इस के उत्तर में प्रभुश्री करते है । 'गोथमा' पडमवरवेदियाए तत्थर देसे तहिं२ वेदियासु वेदियावाहासु वेदियासीसफलएसु, वेदियापुररेसु' खंभे खंभवाहासु, ख मसीसेसु, खंभपुडतरेसु' हे गौतम ? पद्मवरवेदिका के उन उन स्थानों में-जैसे वेदिका के उपवेशनयोग्य छज्जों के ऊपर वेदिका के दोनों पार्श्वभागों पर वेदिका के शीर्ष उपरिभागरूप फलकों के ऊपर वेदिका के पुटान्तरो में-दो वेदिकाओं के अपान्तराल में स्तम्भों के ऊपर स्तम्भों की भाजू घाज में स्तम्भों के शीर्ष स्थान पर स्तम्भपुटान्तरों में-दो स्तम्भों के बीच में 'सईसु वेइया' सपन में यम१२ वहानु मे नाम माये ॥ २५यी કહેલ છે? અર્થાત્ તેના નામની શબ્દ પ્રવૃત્તિમાં શું કારણ છે કે જેથી એ यम१२ व ४ाय छ १ २५ प्रश्न उत्तरमा असुश्री ४ छ । 'गोयमा ! पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहि तहि वेदियासु वेदियावाहासु वेदिया सीसफलएसु, वेदिशपुडतरेसु, खंभेसु खंभवाहासु खंभसीसेसु, खंभपुडंतरेसु' હે ગૌતમ! પદ્મવર વેદિકાના એ એ સ્થાનમાં જેમ વેદિકાના ઉપવેશ યોગ્ય છજ જેની ઉપર વેદિકાના અને પાર્થ ભાગો પર વેદિકાના શિરોભાગ રૂપે ફલકેની ઉપર વેદિકાના પુરાન્તમાં બે વેદિકાના અન્તરાલમાં સ્તની ઉ૫ર સતની આજુ બાજુમાં સ્તના ઉપરના ભાગમાં સ્તન્મ પુરાતમાં Page #845 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ? प्रमेयोतिका ठीका प्र. ३ उं. ३ सु. ५२ जगत्या पद्मत्ररवेदिकायाश्चवर्णनम् ८२१ 'सूईमुसु' सूचीमुखेषु यत्र प्रदेशे सूचिफलकं भिन्या मध्ये प्रविशति तत्प्रत्यासन्नदेशाः सूचिमुखानि तेषु सूचीमुखेषु 'सूई फलएस' सूचीफलकेपु. सूचीभिः सव न्विताः फलकमदेशाः तेऽपि उपचारात् सूत्रीफलकानि तेषु सूचीनमध उपरिच वर्तमानेषु 'सूईपुरे' सूचीपुट: ३रेषु द्वे मृच्यौ सूचीपुट' तेपामन्तरेषु 'पक्खे' पक्षेषु 'पक्खवाहासु' पक्षवाहासु- पक्षपात्रेषु पक्षाः पक्षवाहाः वेदिकैकदेशास्तेषु 'पक्खपुडंत रेसु' पक्षान्तरेषु द्वौ पक्षौ पक्षपुढं तेषामन्तरेषु 'बहू' उप्पलाई ' बहूनि उत्पलानि - कमलानि 'पउमाई' पद्मानि सूर्यविकासीनि 'जाब सयसहस्स पत्ता यावत् - यावत्पदेन - 'कुमुपनलिणसु पगसोगंधियपुंडरीमहापुंडरी' इति पदानां संग्रहः । कुमुदन लिनसुमगसौगन्धिकपुण्डरीक महापुण्डरीशतपत्रसहस्र पत्राणि, तत्र कुमुदानि चन्द्रविकासीनि पद्मादारभ्य सहस्रपत्रान्तानां च विशेषः प्रागेवोपदर्शितः । कीदृशानि तानि ? तत्राह - 'सव्वरयणामयाई' इत्यादि, 'सव्वरयणामयाह" सर्वात्मना रत्नमयानि, 'अच्छाई ' अच्छ इत्यादि 'पडिलन' इत्यसईमुहेस सूईफल एस - सृईपुडन रेसु पक्खेसु पक्खवाहासु, पक्खपुडंतरेसु' इसी तरह फलक के सम्बन्ध को विघटन नही होने देने में कारणभूत ऐसी पादुका के स्थानापन्न सूचियों के अग्रभाग के ऊपरजहां कि सूचीफलक को भेदकर बीच में प्रविष्ट होती है वहां के प्रदेश सूचीमुख कहलाते हैं । चियो से संबंधित फलकों के उपर दो सूचियों के अन्तराल प्रदेश में इसी तरह से पक्षों के ऊपर पक्षों की आजू बाजू में और पक्षान्तरों के ऊपर 'बहुई' उपलाई पत्रमा जान सगसहस्स पत्ता सव्त्ररयणाजपाई, अच्छाई' इत्यादि अनेक उत्पल अनेक सूर्यविकाशी कमल, यावत् नलिन सुध्दा सौगन्धिक पुण्डरीक महापुण्डरीक शतपत्र और सहस्रपत्र खिले रहते है ये सब उत्सल से 9 थे स्तम्भोनी वयमा 'सूईसु सुईमुहेसु सुईफलएसु सूईपुडतरेसु पक्खेसु पक्ख वाहासु पक्खपुडतरेसु' ४ रीते इलम्ना संभवने बुढा न पडवा देवाना કારણભૂત એવી પ દુકાના સ્થાનાપન્ન સૂચિયાની ઉપર સૂચિયાના અગ્રભાગની ઉપર કે જ્યાં સુચી ફલકને ભેટ્ટીને વચમાં પ્રવેશે છે, ત્યાના પ્રદેશ સૂચીમુખ કહેવાય છે. સૂચિયેાના સંબ ધવાળા ફૂલકેની ઉપર એ સૂચિર્ચાના અન્તરાલ મધ્ય પ્રદેશમાં એજ રીતે પક્ષાની ઉપર પક્ષે ની આજુ ખાજુમાં અને પક્ષ પુરાંતરાની ७५२ 'बहुइ' उप्पलाई पउमाई जाव ससहस्वत्ताइ सव्वरयणामयाई, अच्छाई ' ઇત્યાદિ અનેક ઉત્પલ અનેક સૂર્ય કાશી કમલ યાવત્ નલિન, સુભગ, સૌગન્ધિક, પુંડરીક, મહાપુ ડરીક, શતપત્ર અને સહસ્રપત્રો ખીલેલા રહે છે. ઉત્પલથી લઈને સહસ્રપત્ર સુધીના જેટલા પ્રકારના કસળેા ઠહ્યા છે તે ખપા Page #846 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस्त्र न्तानां विशेषणपदानामर्थाः पूर्वोक्तरीत्यैव द्रष्टव्या इति। पुनः कथंभूतानि पद्मादीनि तत्राह-'मइया' इत्यादि, 'महया महया चासिक्कच्छत्त समयाई" महन्महद्वापिकच्छ व समानानि, महान्ति महान्ति-महत्प्रमाणकानि वापिकाणि वर्षाकाले यानि पानीयरक्षणार्थ कृतानि वापिकाणि तानि च उत्राणि च तत्समानानि-तत् तुल्यानि 'पण्णत्ताइ समणाउसो !' प्रज्ञप्तानि कथितानि, हे श्रमण ! हे आयुष्मन् ! 'से तेणटेणं गोयमा! एवं चुच्चद पउसवर वेश्या, पउमवरवेझ्या' तव सेनार्थेन, यस्मात् पदमबाहुल्यं विद्यते तस्यां वेदिकागं तस्मादेव कारणात हे गौतम । एवमुच्यते यदियं पद्मवस्वेदिका पदमवरवेदिकेति । अथास्याः शाश्वताशाश्व दविषये पृच्छति भगवान् गौतमः-'पउमवरवेल्या णं भंते ! पदमवरवेदिका खल भदन्त 1 'कि सासया असासया कि शाश्वती-सर्व कालभाविनी, अथवा अशाश्वती न सर्वकालस्थायिनीति पदमवरवेदिकायाः शाश्वताशाश्वतत्व विषयक प्रश्नः, मगवानाह-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'सिय लेकर सहस्रपत्र तक के जितने भी कमल है, वे सब सर्यात्मना रस्नमय है अच्छे हैं। इन अच्छादिपदों का अर्थ पूर्वोक्त जैसा हो है 'महया२ बासिक्वच्छत्त समयाई' ये सब उत्पलादि वर्षाकाल में उत्पन्न हुए छन्नक-छप्ता के आकार जैसी वनस्पति विशेष के आकार जैसे ही 'समणालो पण्णताई' हे श्रमण-आयुप्मन् ! कहे गये है। 'से तेण. देणं गोचमा ! 'एवं चुच्च पउमवरवेदिया' इसी कारण हे गौतम ! इसे पद्मवर वे दिला हम नाम से कहा गया है । अर्थात् इस पद्मवरवेदिका पदमला वाहल्य है, अतः इसका नाम पद्मवरवेदिका हुआ है 'पउनबर वेदिया णं संत' !किंवासया असासया' हे भदन्त ? यह पद्मवरवेदिशा क्या शाश्वत है या अशाश्वत है ? ऐमा यह प्रश्न સર્વાત્મના રત્નમય છે, અને અરજી કહેતાં સુંદર છે, આ અાદિ પદનો અર્થ पूरतरीते समय 'महया मइया वासिकच्छत्त समयाइ' मा Ghara બધા પ્રકારના કમળ, વર્ષાકાળમાં ઉન્ન થયેલા છત્રક છત્રીને આકાર જેવી वनस्पति विशेषता मा४२ २१.१ 'समणाउओ पण्णचाइ' श्रमायु मायुभन् કહેવામાં આવેલ છે. से तेणटणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पउमबरवेडया' मा १२थी 3 गीतम! તેને પદ્મવર વિદિકા એ નામથી કહેવામાં આવેલ છે. અર્થાત્ આ પદ્મવર વેદિકામાં પનું અતિશય પણું છે, તેથી તેનું નામ પદ્મવર વેદિકા એ शतर्नु येत छे 'पउमवरवेइयाणं भंते ! कि सासया असाव्या' ७ सपन् આ પમવર વેદિક શાશ્વત છે કે અશાશ્વત છે? આ પ્રમાણેનો આ પ્રશ્ન પદ્મવર વેદિકાના નિત્યપણું અને અનિત્યપણાના સંબંધમાં કરવામાં આવેલા Page #847 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.५१ जगत्याः पावरवेदिकायाश्चवर्णनम् ८२३ सासया सिय असाप्सया' स्याव-कथञ्चित् शाश्पती-सर्वकालभाविनी, स्यावकयश्चित् अशाश्वती-अनित्येति । एकस्मिन् धर्मिणि परस्परविरुद्धधर्मद्वयसमा. वेशश्रवणात् पुनौतमः प्रश्नयनाह-से केणटेण' भंते ! एवं बुच्चइ सिय सासया सिय असासा' हे भदन्त ! तत् केन कारणेन एचमुच्यते यत् पद्मवरवेदिका स्यात् शाश्वती स्यादशाश्वती च, नहि एकस्मिन् स्थाणौ स्थाणुत्वपुरुषत्वधौं संभवतः विरुद्धत्वात्, तदेव हि विरुद्धयो विरुद्धत्वं यदेकस्मिन् धर्मिणि असहभाव इति अन्यथा सर्वधर्माणां सर्वत्र समावेशसंभवेन विरोधकथैवास्तमियादिति गौतमस्यावान्तर प्रश्ना, यद्यपि प्रकान्तमतेन विरुद्धयोधर्मद्वयोरेकत्र समावेशो विरुद्धः किन्तु अनेकान्तवादमाश्रित्य समर्थयितु भगनाह-'गोयमा' पद्मवरवेदिका के नित्यस्थ एवं अनित्यत्व के लम्बन्ध में है। इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है-'गोयमा सिय सालथा-लिय अलासया' हे गौतम ! यह पद्मवरवेदिका कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है 'से केणटेणं भंते' एवं वुच्चा लिय लासया सिय, अलासया' हे भदन्त ! ऐला आप किस कारण से करते है कि कथंचित् शाश्वत है, और कथंचित् अशाश्वत है ? ऐसा यह प्रश्न श्रीगौतमस्वामीले प्रभुश्री से इसलिए पूछा है कि एक धर्मि में परस्पर विरुद्ध दो धर्मों का समावेश होता नहीं है-नित्यकी अपेक्षा अनित्य और अनित्य की अपेक्षा नित्य विरुद्ध है दो विरोधी धर्मों में यही तो विरुद्वता है कि वे एक जगह साथ नहीं रहते है। यदि विरोधी धर्म भी एक जगह साथ २ रहने लगे तो फिर सब धर्म सब में रहने लग जायेंगे इस तरह विरोध छे. भा प्रश्न उत्तरमा प्रमुश्री ४७ छ, 'गोयमा ! सिय सासया सिय असासया' ७ गौतम ! ॥ ५ १२ वह थयित् शाश्वत छ, भने ४थायित् अशाश्वत छ. 'से केणट्रेणं भते । एवं बुच्चइ सिय सासया सिय असामया' હે ભગવન આપ એવું શા કારણથી કહે છે કે પદ્મવર વેદિકા કથંચિત્ શાશ્વત છે અને કચિત અશાશ્વત છે? આ રીતને પ્રશ્ન શ્રીગૌતમસ્વામીએ પ્રભુશ્રીને એટલા માટે પૂછેલ છે કે એક ધર્મિમાં પરસ્પર વિરૂદ્ધ એવાં બે ધર્મોને સમાવેશ થતો નથી, નિત્યની અપેક્ષાએ અનિત્ય અને અનિત્યની અપેક્ષાએ નિત્ય વિરૂદ્ધ છે. બે વિરોધી ધર્મોમાં એ જ વિરૂદ્ધ પણું છે કે એક સ્થળે એ બને એકી સાથે રહેતા નથી. જે બે વિધિ ધર્મો પણ એક સ્થળે એકી સાથે રહેવા લાગે તે પછી બધાજ ધર્મો બધામાં રહેવા લાગી જાય આ રીતે તે વિરોધપણુ જ નાશ પામી જશે. શ્રીગૌતમસ્વામીની આ વાત સાંભળીને શ્રી મહાવીર પ્રભુ બે વિરોધી ધર્મોને એક જ સ્થળે સમાવેશ અનેકાન્ત માન્યતામાં Page #848 --------------------------------------------------------------------------  Page #849 -------------------------------------------------------------------------- ________________ namasomethinde प्रमेयधोतिका टीका प्र.३.२ .५२ जगत्या पशायरवेदिकायाश्चवर्णनए ८२५ थिकनयमतेन पर्यायपाधान्य विवक्षायामशाश्वती पर्यायाणां प्रतिक्षणमाविसया कियस्कालभावितया वा विनाशित्वदिति । 'से सेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ सिय सासया सिय असासया' तत्तेनार्थेन तेन कारणेन हे गौतम । एवमुच्यते-पद्मवरवेदिका स्यात् शाश्वती स्यादशाश्वती। तदयमर्थ:-इह द्रध्याथिकनयवादी स्वमतपतिष्ठापनार्थमेवं वदति-यत् न भवति अत्यन्तासत उत्पादो गगनकुसुमोत्पत्तिवत्, न वा भवति सतो विनाशो यथा जीवस्य, अत एबोक्तम्-'नासतो विद्यते भावो नामावो विद्यते सता' इति । यौ तु दृश्येते पतिवस्तु उत्पाद मिलाशौ तदादिपर्यायों की अपेक्षा तथा अन्य और पुद्गलों के विघटन एवं आगमन की अपेक्षा वह अशाश्वती है । इष्य का तात्पर्य ऐखा है कि-पर्यायास्ति. कनय के मतानुसार द्रव्य गौण हो जाता है, और पर्याय प्रधान हो जाती है पर्याय प्रतिक्षण परिवर्तनलप अर्थात् बदलने वाली होने से अथवा कियत्कालभावी होने से विनाश धर्मवाली होती है इसलिये उस अपेक्षा वह अशाश्वती कही गई है। 'से तेणढेणं गोयमा' एवं बुच्चह सिय सासया सिय अलासया' इसी कारण हे गौतम ! मैंने ऐसा कहा है कि पद्मवरवेदिका कंचित् निस्य है और कथंचित् अनित्य है जो द्रव्यापिकनयवादी हैं वह अपने मन की प्रतिष्ठा करने के लिये ऐला कहता है कि जो अत्यन्त असतस्वरूप होता है आकाशपुष्प की तरह कभी भी उत्पाद नहीं हुआ करता है और जो सत् स्वरूप होता है उसका कभी आकाश की तरह विनाश नहीं होता है 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः' ऐसा सिद्धान्त है। फिर भी प्रति वस्तु તથા બીજા પુદ્ગલેના વિઘટન અને આગમનની અપેક્ષાથી તે આશાશ્વતી છે એનું તાત્પર્ય એવું છે કે પર્યાયાર્થિક નયના મત પ્રમાણે દ્રવ્ય ગૌણ થઈ જાય છે. અને પર્યાય મુખ્ય થઈ જાય છે. અને પર્યાયે પ્રતિક્ષણે પરિવર્તન રૂપ અર્થાત બદલાઈ જવાવાળા હોવાથી અથવા કિયકાલ ભાવી હોવાથી વિનાશ यमपणा हाय छे. तेथी ते अपेक्षाथी ते शाश्वती हेर छ 'से तेणट्रेण गोयमा! एब वुन्चइ सिय सासया प्रिय अमासया' ते २५था गौतम! મેં એવું કહ્યું છે કે પદ્મવર વેદિકા કથંચિત્ નિત્ય છે અને કથંચિત અનિત્ય છે. જે દ્રવ્યાર્થિક નયવ દી છે તે પોતાનામતનું રામર્થન કરવા માટે એવું કહે છે કે જે અત્યંત અસત સ્વરૂપ હોય છે, તેને આકાશ કુસુમની માફક કયારેય ઉત્પાદ થતો નથી અને જે સત્ સ્વરૂપ હોય છે તેને આકાશની માફક ४यारेय विनाश थ। नथी. 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः' से પ્રમાણે સિદ્ધાંત વચન છે. તે પણ દરેક વસ્તુમાં જે ઉત્પાદ અને વિનાશ जी० १८४ Page #850 -------------------------------------------------------------------------- ________________ me जीवामिगमवं भावतिरोभावमात्रम्, यथा फणिन उत्फणत्वविफणत्वे तस्मात्सर्व वस्तु नित्यमिति । एवं च द्रव्याथिकमतचिन्तायां भवति संशयः किं घटादिनन्यार्थतया शाश्वती अधवा सकळकाल मेवं रूपा ? इति, ततस्ताशसंशयनिराकरणाय तस्याः स्थितिविपये भगवन्तं भूयः पृच्छति गौतमः, 'पउमवर वे इयाण मंते' पद्मवरवेदिका खलु भदन्त ! 'काल को केच्चिरं होई' कालतः कियन्तं कालं यावदेवं रूपा भवति-अवतिष्ठते ? इति पश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा रे गौतम ! 'ण कया वि णासी' न पादापि नासीद्-भूतकाले सर्वदेव आसीद अनादित्वात् ‘ण कया वि णस्थि' न कदापि न भवति सर्वदेव वर्तमानकाले भवति सर्वदेव भावात् 'ण कया विण मविस्सई' न कदापि न भविष्यति किन्तु भविष्यत्कालेऽपि सर्वदेव भविष्यति अपयेबसितत्वात् तदेव कालत्रयचिन्ताया में जो उत्पाद विनाश प्रतीत होते है। वे आविर्भावतिरोभावरूप ही है। जहाँ उत्पाद चिनाशास्तप आविर्भावमिरोमानसपका उत्फण और विफण अवस्था में प्रतीत होता है अतः यक्षी सिद्धान्त ठीक है। कि समस्त वस्तुएं नित्य है । इस ताह से द्रव्यार्थिक नय की इस मान्यता में ऐसा संशय होता है कि घटादिकी तरह यह पद्मवरवेदिका शाश्वती है ? अथवा सालकाल में यह सीपले रहने के कारण शाश्वनी है ? इम प्रकार के संशय होने पर श्रीगाँत स्वाप्नीने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है 'पउमवरवेहमाणं भंते ! कालो देवविरं होई' हे भदन्त ! पदमवरवेदिका कालकी अपेक्षा कबतक इस रूप में रहती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं। 'गोया ! ण या चिणालीण कथावि णस्थि णफयाविण भविस्सह' हे गौतम ! यह पद्मबर वेदिका पूर्व में नहीं थी દેખાય છે તે આવિર્ભાવ તિભાવ રૂપજ છે. જેમ ઉત્પાદ અને વિનાશ રૂપ અવિવ તિભાવ સર્પને ઉત્કૃણ-ફળા ફેલ વે ત્યારે અને વિફા ફણ સંકેચીલે ત્યારે પ્રતીત થાય છે. જેથી એજ સિદ્ધાંત બરાબર છે કે સઘળી વસ્તુઓ નિત્ય છે. આ પ્રમાણે દ્રવ્યાર્થિક નયની આ માન્યતામાં એ સંદેહ થાય છે કે ઘટાદિની જેમ આ પમર વેદિકા શાશ્વતી છે? અથવા સર્વદા સકળ કાળમાં એ એજ રૂપે રહેવાના કારણ શાશ્વવત છે? આ રીતને સંદે यपाथी श्रीगौतमयामी प्रभुश्री प्रभायेने ५ पूछेद छ । 'पउपवर वेडया णं भते ! काल ओ केवचिचर' होई' हे सगवन् पद्म१२ वह ती અપેક્ષાએ ક્યાં સુધી આ પ્રમાણેની રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી श्रीगीतभकामी ४३ 'गोयमा ! ण कयावि णासी ण कयावि णस्थि ण कयावि ण भविस्सई' हे गीतम 1 मा ५४ भ२ वह परेसान ती तेभ नथी. Page #851 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका टीका न.३ ३.३ सू.५२ जगत्या पद्मवरवैदिकायाश्चवर्णनम् ८२७ नास्तित्वप्रतिषेधं विधाय सम्प्रति-विधिमुखेनास्तित्वं प्रतिपादयति-'भुवि च' इत्यादि, 'भुपिं च भवइ य भविस्तइ य' अयूच्च भवति च भविष्यति च, त्रिका. लावस्थायित्वात् 'धुवा' ध्रुवा-मे दिवत् सदा स्थायित्वाद ध्रुवत्वादेव 'णियया' नियता सर्वदेव स्वस्वरूपेऽस्थितत्वात, नियतत्वादेव च 'सासया' शाश्वतीशश्वद्भवन स्वभावत्वात, शाश्वतत्वादेव च 'जक्खया' न विद्यते क्षयो यथोक्त स्वरूपाकारपरिभ्रं शो यस्याः साऽक्षया, सस्त गङ्गासिन्धु प्रवाह प्रवृत्तावपि पौण्डरीकदाचानेजपुद्गलविचटनेऽपि तावत्ममाणकान्यपुद्गलोच्चटनसंभवाद, अक्षयत्वादेव 'अव्वया' अव्यया अव्ययशव्दवाच्या, ईपदपि स्वरूप चलनस्य कदाचिदपि असंभवात्, अव्ययत्वादेव 'अवष्टिया' अवस्थिता मानुपोत्तरऐसा नहीं है वर्तमान में यह नहीं है ऐला भी नहीं है और भविष्य काल में यह नहीं रहेगी ऐसा भी नहीं है। शिन्तु 'भुवि च भवइ य भविस्सइ य' पहिले भी यह पद्मवश्वेदिकाथी, अब भी है और आगे भी यह सदा रहेगी। इस प्रकार से इलका त्रिकालची अस्तित्था है अतः यह 'धुवा' मेरु आदि की तरह ध्रुव है और ध्रुप होने से ही यह 'णियया' अपने स्वरूप में नियत है । नियत होने से ही यह 'सासया' शाश्वन है शाश्वत होने से ही यह 'अक्खया' गंगासिन्धु के प्रवाह में प्रवृत्त पौण्डरीक हहकी तरह अनेक पुमलों का विघटन होने पर भी उतने प्रमाण के अन्ध पुशलों के मिल जाने से अक्षर है इसके स्वरूप का कभी विनाश नहीं होता है अक्षय होने से ही यह 'अव्वधा' अध्यय है-अव्यय शब्द वाच्य है क्योंकि थोडे से भी रूप में यह अपने स्वरूप से कभी भी चलिन नही होनी है अव्यय होने से ही એ વર્તમાનમાં નથી એમ પણ નથી અને ભવિષ્યમાં એ નહીં હોય એમ ५ नथी. परंतु 'भुविच भवइ य भविस्सइय' ॥ ५६१२ ३ पडला પણ હતી વર્તમાનમાં પણ છે, અને ભવિષ્યમાં પણ એ સદા રહેશે. આ રીતે તેનું અસ્તિત્વ ત્રણે કાળમાં છે. તેથી “gવા મેરૂ વિગેરેની જેમ ધ્રુવ છે. અને ध्रुव वाथी को 'णियया' पाताना स्व३२ नियत छे. नियत जापाथी मे 'अक्खया' 111 सिधुना प्रवाहमा प्रवृत्त यी ४२४ नी म मन पुगલોનું વિઘટન થવા છતાં, પણ એટલા પ્રમાણના બીજા પુદ્ગલે મળી જવાથી અક્ષય છે. તેના સ્વરૂપનો વિનાશ કયારેય પણ થ નથી. અક્ષય હોવાથી ते 'अव्वया' भव्यय छे. अव्यय श४ पाय छ, भ 21 मेवा २१३५मा પણ તે પિતાના સ્વરૂપથી કયારેય પણ ચલિત થતી નથી. અવ્યય હોવાથીજ मे पाताना प्रभामा 'अवद्विया' मानुषत्तर पतिथी मार २२८ समुद्र Page #852 --------------------------------------------------------------------------  Page #853 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ इ.३ सू.१३ व नषण्डादिकवर्णनन् ८२९ अंजणेइ वा खंजणेइ वा कजलेइ वा मलीइ वा गुलियाइ वा गवलेइ वा गवलगुलियाइ वा अमरेइ वा भमरावलियाइ वा भमरपत्तगयसारेइ वा जंबूफलेइ वा अदारिद्वेइ वा परपुढेइ वा गएइ वा गयकलभेइ वा कणहसप्पेइ वा कण्हकेसरेइ वा आगासथिग्गलेइ वा कण्हासोएइ वा किण्हसपेइ वा किण्हकणवीरेइ वा कण्हबंधुजीवएइ वा, भचे एयारूने लिया, गोयमा ! जो इणद्वे समटे, तेसिं णं कण्हाणं तणाणं मणीण य इत्तो इहपराए चेव कंतयराए चेव पियतराए थेव मण्णुण्णतराए चेव सणासतराए चेव वण्णेणं पन्नत्ते । तत्थ गंजे ते णीलगा तणाय मणीय तेसिं णं इमेशशरूवे वपणावाले पन्नते, से जहाणामए सिंगेइ वा भिंगपत्तेइ वा चासेइ वा चालपिच्छेइ वा सुएइ वा सुयपिच्छेइ वा णीलीइ वा पीलीभेएइ वा जीलीगुलियाइ वा लामाएइ वा उच्चंतएइ वा वणराईइ वा हलहरवलणेइ वा मोरग्गीवाइ वा पारवयरगीवाइ वा अयलीकुसुमेइ वा अंजणसिगाकुसुमेइ वा जीलुप्पलेइ वा णीलासोएइ वा गीलकणवीरेइ वा, णीलबंधुजीवएइ वा, सवेएमारूने लिया ? णो इणढे सगटे, तेसि णं णीलगाणं तणाणं मणीण व एतो इठ्ठलराए चेन कंततराए चेव जाव वपणेणं पन्नते, तत्थ जे ते लोहियमा तणाय मणी य, तेलि णं अयमेयारूचे व गावाले एनसे, से जहा णामए ससगहिरेइ बा उरभरुहिरेइ वा णररुहिरेइ वा वाहरुहिरेइ वा महिसरुहिरेइ वा बालिंदगोवएइ वा बालदिवागरेइ वा संझन्भरागेइ वा, गुंजद्धराएइ वा, जञ्चहिंगुलएइ वा सिलप्पवालेइ वा पवालंकुरेइ वा लोहितक्खमपीइ वा लक्खारसेइ वा किमिरामेइ वा रत्तकंबलेइ वा चीणपिटुरासीइ वा जायसुय Page #854 --------------------------------------------------------------------------  Page #855 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका का.म.उ. ३ तु.५३ वनपण्डादिकवर्णन ___ ८३१ सोएइ वा सेयकणवीरेइ वा सेयबंधुजीवेइ वा, भवेएयारूवे लिया ? णो इणटे समटे, तेसिणं सुकिल्लाणं तणाणं मणीणय एत्तो इहतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णते ॥ तेसिणं अंते ! तणाण य मणीण य केरिसए गंधे पन्नत्ते ? से जहा णामए कोटपुडाण वा पत्तपुडाण वा चोयपुडाण वा तगरपुडाण का एलापुडाण वा चंदणपुडाण वा कुंकुमपुडाण बा उसीरपुडाण वा चंपगपुडाण मरुयगपुडाण वा दमणगपुडाण वा जाइपुडाण वा जुहियापुडाण वा मल्लियपुडाण वा पहाणमल्लियपुडाण वा वासंतियपुडाण वा केयईपुडाण वा कप्पूरपुडाण वा अणुवालि उभिज्जमाणाण य णिभिजमाणाण य कोट्टेजमाणाण य रुविजमाणाण य उकिरिजमाणाण य विकिरिजमाणाण य परिभुजमाणाण य भंडाओ वाभंडं साहरिज्जमाणाणं ओराला मणुण्णा घाणमणणिव्वुइकरा सवओ समंता गंधा अभिणिस्सबंति, भवेश्यारूचे सिया ? णो इणटे समढे, तेसि णं तणाणं मणीण य एत्तो इतराए थेव जाव मणामतराए चेव गंधे पण्णत्ते। तेलि णं भंते तणाण य मणीण य केरिसए फाले पन्नते, से जहाणाभए आईइ वा रूएइ वा बूरेइ वा णवणीएइ वा हंसगब्भतूलीइ वा सीरीसकुसुमणिचएइ वा वालकुमथपत्तरासीइ वा भवेयारूने लिया? जो इगट्रे समठे, तेसि णं तणाणं य म्हणीण य एत्तो इतराए चेव जाब फासे पन्नत्त॥ तेलिणं भंते ! तणाण पुवावरदाहिण उत्तरागतेहिं वाएहिं मंदायं मंदायं एइयाणं वेइयाणं कंपियाणं खोभियाणं चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे पन्नते? से जहाणामए सिबियाए संदमाणियाए वारहवरस्स वा सछत्तस्स सज्झयस्स सघंटयस्स सतोरणवरस्स सगंदिघोसस्स सखिखि. Page #856 -------------------------------------------------------------------------- ________________ JAPAHA RM ६३५ जीवानिगमसूत्र णिहेमजालपरंतपरिक्खित्तल्ल हेमवयखेतचित्तविचित्ततिणिसकणगनिज्जुत्तदारुयागस्स सुपिणिद्वारकमंडलधुरागरस कालायससुझयणेमिजतकस्सस्स आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलणर छेयसारहि सुसंपरिगहियस्त सरसत बत्तीसतोरणपरिमंडियस्त सकंकडवडिलगस्ल लवावसरपहरणावरणभरियस्ल जोहजुद्धसजस्ल रायंगणंसिवा अंतेपुरसि वा रस्संलि वा मणिकोट्टिमतलंसि वा अभिक्खणं अभिक्खणं अभिघटिजमाणस्ल वा णियट्टि माणस वा जे ओराला मणुष्णा कण्णमणणिव्वुइकरा सव्वओ समंता सदा अभिणिस्तवंति, अवेएयारूवे सिया? जो इणट्रे समटे । से जहाणामए वेयालियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छियाए अंके सुपइट्रियाए बंदणसारकोणपरिघट्टियाए कुसलणरणारिसुसंपरिग्गहियाए पदोसपच्चूमकाललमयंसि मंद मंद एइयाए वेइयाए कम्मियाए खोभियाए चालियाए फंदियाए घट्टियाए उदीरियाए ओराला मणुपणा कण्णमणणिव्वुइकरा सबओ समंता सदा अभिणिस्लवंति, भवेएया. रूचे सिया? णो इणटे लमटे। से जहा णामए किण्णराण वा किंपुरिमाण वा महोरगाण वा गंधवाण वा अदलालवणगयाण वा गंदणवणगयाण वा, सोमणलवणगयाण वा पंडगवणगयाण वा हिमवंतसलयमंदरगिरिगुहलमण्णागयाण वा एगओ संहि. याणं समुहागयाणं समुत्रविटाणं संनिविटाणं एसुइयपक्कीलियाणं गीयरइगंधवहरिसियमणाणं गज्ज एजं कत्थं पयवद्धं पायवद्धं उक्खित्तयं एवत्तयं मंदायं गंचियावलाणं सत्तलरसमण्णागयं अरससुसंपउत्तं छदोसविप्पमुकं एगोरसगुणालंकारं अटुगुणोक्वेयं गुंजंतवंसकहरोवगूढं रत्तं तिठाणकरणसुद्धं महु समं सुल Page #857 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३३ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ ७.३ सू.५३ वमपण्डादिकत्र निम् लियं सकुहरगुंजंतरलतंती सुमंउत्तं तालसुसंपउत्तं तालसमं लयसुसंपउत्तं गहसुसंपउत्तं मणोहरं माउरिभियपयसंचार सुरई सुणइं वरचारुरूवं दिव्यं गेयं पणीयाणं भवेश्यावे सिया, हंता गोयमा ! एवंभूए लिया ॥सू०५३॥ छाया-तस्याः खलु जगत्या उपरि बहिः पद्मवरवेदिकाया अत्र खलु एको महान वनपण्डः प्रज्ञप्तः देशोने द्वे योजने चक्रवालविष्कम्भेण जगती समकः परिक्षेपेण कृष्णः कृष्णावभासो यावत् अनेकशस्टरथयानयुग्यशिबिकास्यन्दमानिकाप्रतिमोचनाः सुरम्याः प्रासादीयाः ४, तस्य खलु वनपण्डस्यान्तबहुसामरमणीयो भूमिभागः प्राप्तः स यथानामकः आलिङ्ग पुष्करमिति वा मृदङ्ग पुष्करमिति वा सरस्वलमिति वा करतल. मिति वा आदर्शमण्डलमिति वा चन्द्रमण्डलमिति वा सूर्यमण्डलमिति वा उरभ्रचर्म इति वा वृषाचर्म इति वा वराहचर्म इति वा सिंहचर्म इति वा व्याघ्रचर्म इति वा वृकचर्म इति वा द्वीपिचर्म इति वा, अनेकशङ्कुकीलकसहस्रविततः, आवर्त भत्यावर्त्तश्रेणि प्रश्रेणि स्वस्तिक सौवस्तिक पुष्यमाणवर्द्धमानक मत्स्याण्डकमकराण्डक जारमारपुष्पावलि पद्मरत्रसासरतरङ्ग बासन्तीपद्मल लाभक्तिचित्रैः सच्छायैः समरीचिकैः सोधोते नाविधएचवणे, स्तृणैध मणिसिन्धोपशोभितः तद्यथा-कृष्णैरिच्छु क्लः। तत्र खलु यानि लानि कृष्णानि तृणानि च मणयश्व, तेपां खल्ल अयमेतावद्रूपो वर्णावाप्तः प्रज्ञप्त सुधथा नामका-जीमृत इति दा, अञ्जनमिति वा अनमिति वा गुलिका इति दा नवमिति वा धवलगुटिका इति भ्रमर इति वा भ्रमराकविकेति वा भ्रमरपत्रगतसार इति वा जम्बूफलामिति वा आर्द्रारिष्ट इति वा परपुष्ट इति वा गज इति वा गजकलम इति वा कृष्णसर्प इति वा कृष्णकेसर इति वा आकाशथिग्गळमिति का कृष्णाशोफ इति वा कृष्णकणवीर इति वा, कृष्णबन्धु जीव इति वा, भवेदेवावगुएः स्याद ? गौतम ! नायसर्थः समर्थः, तेषां खल कृष्णानां तृणानां मणीनां चेत, इष्टनरक एवं कान्ततरक एव मियतरक एव मनोज्ञ. तरक एल मन आमनरक एव वर्णेन प्रजप्तः। तत्र खल्ल यानि जानि नीलानि तृणानि च मणयश्च, तेषां खल्ल अयमेतावदूपो वर्णावामः प्रजाः तथानामको-भृग इति वा भृङ्गपत्रमिति वा चाप इति चाषपिल मिति वा शुरु इति वा शुक्रपिच्छ मिति वा नीली इति वा नाली भेद इति वा, नीलीगुटका इति दा श्यामक इति वा उच्चंतग इति वा बलराजी इति वा हलधरवसनमिति ना मयूरग्रीवेति वा पारावतमीवेति वा अतमीकुसुममिति वा अञ्जनकेशिका कुसुममिति वा नीलो जी९१०५ Page #858 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिग स्पलमिति वा नीलाशोक इति वा नीलझणवीरहति वा नीलबन्धुजीवक इति वा भवेदेवावपाः स्यात् ? नायमर्थः समः, नेपा खल्लु नीलानां तृणाना मणीनां च इत इष्टतरक एन कान्ततर एवं यात्रणेन प्रज्ञप्ता, तत्र यानि तानि लोशितकानि तृणानि च मणयश्च तेषां खलु अयमेतावदूषो वर्णावाप्सः प्रशतः तद्यथा नामकः शशकरुधिरमिति चा, उरभ्ररुधिरमिति नररुधिरमिति वा बाराहरुधिरमिति वा, महिपरुधिरमिति वा चालेन्द्रगोपक इति वा बालदिवाकर इति वा रान्ध्याभ्रराग इति बा, गुञ्जाराग इति वा जात्यहिङ्गुलुरु इलिया, शिलापकालमिति वा पनालाङ्कुर इति वा लोहिताक्षमनिरिति वा लाक्षार इति वा इमिराम इति वा रक्तकम्बल इति वा चीनपिटराशिरिति वा जपाकुसुगमिति का, पारिजातकुसुममिति वा रक्तोपकमिति वा, रक्ताशोक तिवा, रक्तकणवीर इति वा, रक्तवन्धुजीवक इतिवा, भवेदेता. वद्रूपः स्यात् ? नायसर्थः समर्थः, तेषां खल्तु लोहितकानां कृणानां मणीनां च इतइष्टतरक एक यावर्णन मनः। सत्र खलु यानि तानि हारिद्रकाणि वृणानि च मणयश्च तेषां खलु अयमेतावद्रपो वीरासः प्रज्ञता, तद्यथानापका चम्पक इति वा चम्पकत्वगिति चा, चम्पक मेव इति वा हन्द्रिवि वा हरिद्राभेद इति बा, हरिद्रा. गुटिका इति वा हरितालिशेति वा हरितालिशाभेद इति वा हरिमालिकागुटिकति वा, चिकुर इतिवा, विकुरागराश इति त्रा, वरकनक इनिबा, बरकनसनिघर्ष इति वा, सुवर्णशिल्पिज इनि वा, दरपुरुपवलनमिति वा गल्लनीकुमममिति वा, पाकुसुममिति वा, कूष्माण्डिका कुसुममिति दा. कोरण्टसदाम का इति उडवडामुममिति वा, घोपातकी कुसुममिति वा, सुवर्णधिकासुममिति बा, मुइरिण्यकाकुनुममिति वा कोरण्टकवरमाल्यदाम इति वा बीयाकुसु ममिति वा पीताशोक इति वा, पीतकणवीर इति वा पीतबन्धुनीक इति बा, मवेदेतावद् २ः स्यात् ? नायमर्थः समर्थः, तेषां खल हारिद्राणां तृणानां मणीनां च इत इष्टतरक एव याचवर्णन प्रक्षप्तः । तत्र खल्ल यानि तानि शुक्लानि तणानि च मणयक्ष रोपां खलु अगमेतावद्रपो वर्णावासः प्रज्ञप्तः, तथानामकः अङ्ग इति वा जड इति वा चन्द्र तिवा कुन्द इति वा कुमुद इति वा उदकरज इति वा दधिघनमिति बा, क्षीरमिति दा, क्षीरपूरमिदिवा, मावलीलिबा, शारदिक बालारक इति वा ध्मातधौतरूप्यपट्ट इति वा शालिपिष्टगशिरिति या कुमुदराशिरिलि वा भूपाछेवाडीति का पेहुणभिजे इति वा विसमिति वा मृमालिका इति वा गजदन्त इति वा लवंगदलमिति वा पौण्डरीक दलमिति वा सिन्दुवारमा पन्द्राय इति ना श्वेतागोस इति श. वेतबाणवीर इति वा श्वेत बन्धुजीच इति वा, भवेदेताद्रपः स्यात् ? मायमर्थः समर्थः तेषां खलु शुक्लानां तृणानां मणीनां चेत इष्टनरक एन यावद्वर्णेन प्रज्ञप्तः । तेषां खलु भदन्त ! तृणानां मणीनां च कीदशो गन्धः प्रज्ञाप्तः ? तद्यथा नामका कोटपुटानां वा पत्रपुटानां वा, Page #859 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिका का प्र.३ उ.३ तू.५६ वनपण्डादिकवर्णन ८५ चोयकपुटानां वा, तगरपुटानां वा एलापुटानां वा चन्दनपुटानां वा कुंकुमपुटाना वा, उशीरपुरानो वा, चम्पकपुटानां वा चरुवर पुटानां वा दमनरपुटानां वा जाती पुटानां वा, यूथिकापुटानां वा, मल्लिकापुटानां का, नवमल्लिकापुटानां वा, केतकीपुटानां वा, कपूरपुटानां वा, अनुबाते उभिद्यमानानां दा, निर्मिद्य. मानानां बा, कुटयमानानां वा, रुदिज्जमावानां वा, उन्शीयमाणानां वा, विकीर्यमाणानां वा, परिभुज्यमानानां दा, माण्डाद् भाण्डं संहियमाणानाम् उदारा मनोज्ञा घ्राणमनोनिवृत्तिकराः सर्वतः समन्तात् गन्धा अभिनिसवन्ति, भदेदेतावद्रूपः स्यात् ? नायमर्थः समर्थः, तेषां खलु तृणानां मणीनां चेतः इष्टतरक एवं यावद मन आमतरक एव गन्धः मशः । तेषां सच भदन्त | तृणानी मणीनां च कीदृशः स्पर्शः प्रज्ञप्तः ? सवधानामक-आजिनकनिति बा, रुतमिति वा, बूर इति वा, नवनीतमिति वा, हंसमतुलीति वा, शिरीपञ्चसुनिचितमिति था, बालमुकुद पत्रराशिरिति बा, भवेदेतानद्भूयः स्यात् ? नायमर्थः समर्थी, तेषां तृणानां मणीनां चेत इष्टतरक एव यावत् रूपर्शः प्रज्ञशः । तेषां खल्लु भदन्त ! कृणानां पूर्वापरदक्षिणोत्तरागतैतिर्मन्द मन्दमे जिलानां व्येजितानां कम्पिवानां क्षोमितानां चालितानां स्पन्दितानां घहितानामुदीरितानां कीदृशः शब्दः प्रज्ञप्तः, तद्यथानामः शिविकाया वा, स्यन्दमानिकाया घा, स्थवरस्य बासनस्य सघण्टाकस्य सतोरणवरस्य सनन्दिघोषस्य सझिकिणीहेमजालपर्यन्तपरिक्षिप्तस्य हैमवतक्षेत्र चित्रविचित्र तैनिशानक नियुक्तदारुकत्व सुपिनद्धारकमण्डलधुगकस्य कालायससुकृत. नेमियन्त्रकर्मण आकीर्णवर-तुर सुसंप्रयुक्तस्थ कुशलनरछेकलारथि संपरिगृहीतस्य शरशतद्वात्रिंशत्तोरणपरिमण्डितस्य सकंकटातलकस्य सचापशरमहरणावरण भृतस्य बोधयुद्धसज्जस्य राजाहणे बा, अन्तःपुरे वा, रस्ते वा मणिकुट्टिमतले अमीक्षणमभीक्ष्णमभिघटयमानस्य अभिनिव_मावस्य वा ये उदरा मनोज्ञाः कर्णमनोनिखिकराः सर्वतः समन्ताव रामा अभिनिःस्त्र बन्ति, भवेदेवावद्रपः स्याद ? नायमर्थः समर्थ:--पथानामकः वैताहिक्या थीणाया उसरमन्दामूर्छिताया अङ्के सुमतिष्ठाया श्चन्दनसारजोणपरिवट्टितायाः कुचलनरनारीसुपरिगृहीतायाः प्रदोष प्रत्युपकालसमये मन्दं मन्दमेजिताया व्यजितायाः कर्मितायाः क्षोभितायाः चालितायाः स्पन्दिताया हितायाः उदीरिताया उदारा मनोज्ञाः कर्णमनोनि तिकराः सर्वतः समन्तात् शब्हा अभिनि सनन्ति, मवेदेतान्द्रपः स्यात, नायमर्यः समर्थः, तथानामकः निराणांचा किंपुरुषाणांबा, महोरशाणां बा, गन्धर्वाणां वा, भद्रशालवनगतानां दा नन्दनवनगतान का, सोमनसवनमतानां पण्डकवनगतानां वा, हिमवतमळ्यमन्दरगिरिगुहासमागतानां वा, एमतः संहितानां संमुखागतानां समुपविष्टानां यमुदितमक्रीडितानां गीतरविगन्धर्वपितमनसा Page #860 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૩૬ जीवामिगमसूत्रे गद्यं पद्यं कथ्ये पदवद्धं पादवद्धसुक्षिकं प्रवृत्तकं मन्दं रोचितावसानं सप्तस्वर समन्वागतमष्टरससुपयुक्त पदोपवनमुक्तमेकादशगुणालङ्कारमष्टगुणोपेतम्, गुजद् वंशकुइरोपगूढम् रक्तं त्रिस्थान करणशुद्धं मधुरं समं सुललितं सकुदरगुज द्वंशतन्त्रसंप्रयुक्तं तालसुसंयुक्तम्. वालययम्, लयसुसंयुक्त ग्रहसंयुक्त' मनोहरं मृदुकरिभितपदसञ्चारं सुरति सुनति वरचारुरूपं दिव्यं गेयं प्रगीतानाम्, भावः स्यात् ? इन्द्र गौतम । एवं भूतः स्यात् ० ५३॥ टीका- 'ती से णं जनईए उपिं तस्याः खल्ल जगत्या' माकार कल्पाया उपरि 'बाहिं परमवरवेडयाए' यहि पद्मदरवेदिकायाः- वहिदेव प्रदेश: 'एत्थ णं एगे महं चणसंडे पन्नत्ते' अत्र अस्मिन् खलु यहानेको वनपण्डः मज्ञप्तः कथितः उत्तमोत्तमानामनेकजातीयानां वृक्षाणां समुदायो वनपण्डः, तदुक्तम्'गजाइ रक्खेटिं वर्ण अणेगजाहहिं उसमे रुक्खेहिं णसंदे' 'एक जातीयैर्वृक्षैवनम्, अनेकजातीयैरुत्तमे वृक्षेर्वनपण्ड इतिच्छाया || इस तरह से पद्मचर वेदिका शब्द की प्रवृति का निमित्त प्रकट करके अब सूत्रकार उस में जो बनखण्ड आदिक है उन्हें दिखलाने के लिये सूत्र कहते है । 'तीसे णं जगईए उप्पि बाहिं परमवरवे दिure एत्थ णं' इत्यादि । टीकार्थ - उस मकार कल्प जगती के ऊपर वर्तमान पद्मवर वेदिका के बाहर जो प्रदेश है उस प्रदेश में 'एगे महं वणसंडे पण्णत्ते' एक विशाल बनखण्ड है जहां पर अनेक प्रकार के उत्तमोत्तम वृक्षों का समुदाय होता है उल स्थान का नाम वनखण्ड है तदुक्तम्- 'एकजाइए हि रूक्खेहिं वणं अणेगजाइएहिं उत्तमेहिं खेहिं वणसंडे' एक जाति के के वृक्ष जिस स्थान पर होते हैं उसका नाम वन है। और अनेक जाति के वृक्ष जिस स्थान पर होते है । उसका नाम वनखण्ड है 'देखूणाई આ રીતે પદ્મવર વેદિકા શબ્દની પ્રવૃત્તિનુ' નિમિત્ત પ્રગટ કરીને હવે સૂત્રકાર તેમાં જે વનખંડ વિગેરે છે તે બતાવવા નીચે પ્રમાણે સૂત્રકહે છે. 'तीसे णं जगतीए उपि वाहि परमवरवेश्याए एत्थ णं' इत्यादि ટીકા-એ પ્રકારના જગતીની ઉપર વમાન પદ્મવરવેદિકાની બહારના ने प्रदेश छे मे प्रदेशमा 'एंगे मह' वणस डे पण्णत्ते' मे४ विशाल वनखंडछे. જ્યાં અનેક પ્રકારના ઉત્તમેાત્તમ વૃક્ષેાના સમુદાય હાય છે. એ સ્થાનનુ' નામ वन' हे 'तदुक्तम् - एकजाइएहि रुक् खेहिं वणं अणेगजाइएहि उत्तमेहि' रुक्खेहिं' व्रणस'डे' भेठ लतना वृक्षों के स्थानपर हाय थे, तेतुं नाम वन छे. અને અનેક જાતના વ્રુક્ષા જે સ્થાન પર હાય છે તેનું નામ વનખંડ છે. Page #861 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका टीका . है . . ५३ वनपण्डादिकवर्णनम् ८३७ 'देणाई दो जोयणाई चक्रवाल विक्खभेणं' सचैकैको वनपण्डो देशोने द्वेोजने चक्रवालविष्कम्भेण 'जगती समए परिवखेत्रेण' जगती समको जगत्याः समानः परिक्षेपेण, स च चनपण्ड: परिक्षेपेण जगती परिमाण इत्यर्थः । स च वनपण्डः कथं भूतस्तत्राह - 'किण्हे' इत्यादि, 'किण्हे' कृष्णः छाया प्रधानत्वात्, इह खलु वृक्षाणां प्रायो मध्यमे वयसि वर्त्तमानानि पत्राणि नीलत्वाहुल्येन कृष्णानि भवन्ति तादृशपत्र संलब्धत्वात् वनपण्डोऽपि कृष्णः । न चोपचारमात्रस्वाद् वनषण्डः कृष्ण इति व्यवह्रियते किन्तु कृष्णरूपेणावभासमानत्वात्कृष्ण स्तत्राह - 'किण्दोभासे' कृष्णावभासः, यावत्के भागे कृष्णानि पत्राणि सन्ति arach भागे स बनवण्डः कृष्णोऽनभासते, अतः कृष्णोऽवभासो यस्य स कृष्णाव भासो वषण्ड: 'जाव अणेग सगडरह०' इत्यादि, अत्र यावत्पदनाद्याणि पदानि यथा - 'नीले नीलोमासे इरिए हरिओमा से सीए सीमोमासे जिद्धे णिदोभासे दो जोयणाई चक्कवालचिक्ख मेणं जगती समर परिक्खेवेण' यह वन खण्ड कुछ कम दो योजन का है और इसका चक्रवाल विष्कम्भ जगती के चक्रवाल विष्कम्भ के जैसा है वह वनखण्ड किस प्रकार का है उसका वर्णन करते है० 'किन्हे किन्होमासे जाब अोग लगडरह० ' इत्यादि । छाया प्रधान होने से यह वनखण्ड कृष्ण है वृक्षों के प्रायः - मध्यमवत्र में वर्तमान पत्र नील रोने है इस कारण ले उस वनखण्ड को कृष्ण कहा गया है क्यों कि इस अवस्था में वह कृष्ण रूप से अवभाति होता है वही मान 'किन्होभासे' इस पद द्वारा सूचित हुई है। जितने भाग में उल बनवण्ड में कृष्ण पत्र है उतने भाग में वह बनखण्ड कृष्णरूप से प्रतिभासित होता है । यहां यावत्पद से जिन विशेषणों का ग्रहण हुआ है उन विशेषणों की व्याख्या इस 'देसूणाई दोजोयणाई' चक्कालवित्रख भेणं जगती समए परिवखेवेणं' भावन ખડ કઈક કમ ચેાજનના હૈાય છે. અને તેનુ ચક્રવાલ ત્રિષ્કલ જગતીના ચક્રવાલ વિષ્ણુભની જેવા છે. તે વનખ'ડ દેવા પ્રકારના છે? તેનુ હવે સૂત્રકાર वन रे छे. 'किन्हे किन्होभासे जाव अणेग सगड़ २६०' इत्यादि छाया प्रधान હાવાથી આ વનખંડ કૃષ્ણ વ તુ છે. વૃક્ષાના પત્રા પ્રાયઃમધ્યમ અવસ્થામાં વત માન હૈાય ત્યારે નીલવણુ તુ' હાય છે. આ કારણથી એ વનખડને કૃષ્ણ કહ્યુ છે. કારણકે એ અવસ્થામાં તે કાળા વણુ થી શેાભાયમાન હાય છે, એજ વાત 'किण्होभासे' से पढ़ द्वारा सूयवेस छे भेटला लागभां से वनभां પત્રા હાય છે એટલા ભાગમાં એ વનખંડ કૃષ્ણવ થી પ્રતિભાસિત થાય છે. અહિયાં ચાપદથી જે વિશેષશેાના સથઢ થયા છે, એ વિશેષશેાની વ્યાખ્યા Page #862 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३८ जीवामिगमस्न तिव्वे तियोभासे किण्हे किण्हच्छाए, नीले नीलच्छाए हरिए दरियच्छाए सीए सीयच्छाए घगकड्रिडच्छाए रम् सहामेहनिरंवभूए । ते णं पायचा मूलमंता खधमंता तयामंता सालमंता पवालमता पत्तमता पता फलमता वीयमता अणुपुत्रसुजापरुल पट्ट भाव परिणया एाखंधी अणेगसाहप्पसाइविडिमा अणेग परव्यामसुपलारिया गेज्झघणविउलपट्टखंधा अच्छिहपत्ता अदिरकपत्ता अवाईणपता निर्धयजरढपंडुरपत्ता णवहरिवधिसंतपत्तंधयारगंभीरदरिसणिज्जा उवविणिगायणवतरुणपत्ताल्लवकोमलुज्जल चलंन किसलय सुकुमालपदालसोहियवरंकुरग्गसिहरा णिच्चं कुमुथिया णिच्चं मउलिया णिच्चे थवड्या णिचं गुम्मिया पिच्चं गोच्छिया णिच्छ जमलिपाणिञ्च जुयलिया णिच्चविणमिया णिच्च पणमिया णिच्चकुमुखिय मउलिय ळवइय थवइय गुम्मिय गोच्छिय जमलिय विणमिय पणमिय सुविभत्तपडिमंजस्विडिसमधरा मुयवरहिणमयणसलामा कोइलकोरग सिंधारणकोडल जीवजीवाणं दिसुष्टकविलपिंगळवलकारंडवचकायागकलहंससारसाणेगसउणगानहुणविरचिय सद्दुन्नइय महुरसरनाइगमरम्मा संपिडियदप्पियमपरमपरीपत्करा परिलीयमाणमत्त छप्पयकुसुमासबलोलसहरगुमण्डनायंतगुजंत देसमागा अमितरपुरकफला वाहिरपत्तछन्ना ओछन्न परिग्छन्ना णीरोगा अकं. या साउफला गिद्ध फला नाणाविहगुच्छगुम्ममंडयनसोध्यिा विचित्तमुहकेउवहळा वावीपुक्खरिणीदोहियासु य निवासिय रम्मजालघरमा पिडियनीहारिमं सुगंधि सुहसुरभि मगोहरं महया गंधद्धणि निच्च मुंचमाणा सुटसेउ केउबहुला' इति । एतानि यावत्पदसंगृहीतानि पदानि व्याख्यायन्ते । 'नीले नीलोमासे' नीलो नीलावभातः-चरितत्वमतिकान्तानि कृष्णत्वसंपा सानि पणी ने नीलानि भान्ति सद्योगाद् दनपण्डोऽपि नीला, न चैतदुएच.रमात्रेण प्रकार ले हैं। 'हरिए हरिओभाले हरितो हरितावभास: कहीं २ यह बनखण्ड इक्षित है, क्योंकि हरित रूप से ही इसका प्रतिभाल होता है। नीले नीलोभासे' इत्यादि 'णीलो नीलाममा सः' कहीं २ किसी किमी २ प्रदेश विशेष में-यह कनीय है क्योंकि अत्यंत नीले पत्ते होने से नीलवर्ण रूम से ही इलका प्रतिभास होता है, हरित अवस्था को पार मारीत छ. 'हरिए हरिओभासे-हरितो हरितावभासः' च्या या यो वनम હરિત છે કેમકે એકદમ લીલા પાંદડાને લઈને હરિતપણથી તેનો પ્રતિભાસ થાય - छ 'नीले नीलोमासे' त्या: 'नीलो नीलावभासः' यां यां प्रदेश વિશેષમાં આ વન નીલ છે, કેમકે નીલ વર્ણરૂપે તેને પ્રતિભાસ થાય છે. હરિત અવસ્થાને પુરી કરીને કૃષ્ણ અવસ્થાને પ્રાપ્ત ન થયેલ પત્રે નીલ કહેવાય છે. આ મત્રના સંબંધી નીતિમાન વેગથી એ વનને પણ નીલ કહે છે. પો પોતાની Page #863 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिकारीका प्र. उ. सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् कथ्यते किन्तु तथा प्रतिभासनात् तथोक्तं नीलान मासा नीलोऽवभासो यस्य स तथा, वदा-'हरिए हरिओमासे यौवने तान्येव पत्राणि किशलयत्वं रक्तत्वञ्चाति क्रान्तानि ईबद्धरितानि पाण्डुनि सन्ति हरितानि इत्युपदिश्यन्ते ततखद्योगाद् वनपण्डोऽपि हरितः, न चैतदुपचारमा किन्तु तथा प्रतिभासोऽप्यस्ति, अलएनाह-हरितावभास:-हरितोऽवभासो यस्य स तथा, तथा-'सीए सीओमासे' वालणदतिका. तानि वृक्षाणां पत्राणि शीतानि भवन्ति ततस्त योगाद् वनपण्डोऽपि शीलः, न चासो उपचारमात्रात् किन्तु गुणत एक, तथा चाह-शीतावमासः, अधोभागवत्तिनांव्यन्तरदेवानां च तद्योगे शीत्वातस्पर्शः ततः स शीतो बनपण्डोऽवभासते इति । तथाकरके कृष्ण अवस्था को नहीं प्राप्त हुए पानीले कहे जाते है इस पत्र संबंधी नीलिमा के योग ले धन को भी नील कहा गया है। पत्ते अपने युवावस्था में किसलय अवस्था को और अपनी लालिमा को छोड देते है- तब वे हरित अवस्था में आजाते है-अतः इसके लिये कहा गया है कि यह वनखण्ड फिली २ आग में हरा है, और हरे रूप से ही इसका प्रतिभा होता है। यह धनखण्ड सहीं कृष्ण है कहीं नील है कहीं हरित है इत्यादि रूप ले जो कहा गया है उसका कारण उस २ रूप से वहीं २ वह प्रतिमालित होता है यही बात किण्हो किण्हो भासे' आदि पदों द्वारा पुष्ट की गई है जय पत्र अपनी प्रौढावस्था में आते है तब उन से हरीतिभाग का धीरे २ अभाव छोकर शुभ्रता आने लगती है शुभ्रता में शीतलता का अर्थात् शीत बातावान हो जाता है अतः यह वनषण्ड भी उसके योग से कहीं २ 'शीतः शीता वभास' शीतवात स्पर्शवालि है और शीतवात रूपर्शरूप से यह प्रन्यिયુવા અવસ્થામાં કિસલય કુંપળ અવસ્થાને અને પિતાની લાલિમાને છોડી દે છે. ત્યારે તે હરિત અવસ્થામાં આવી જાય છે. તેથી જ એ પ્રમાણે કહેલ છે કે આ વનખંડ કઈ કઈ ભાગમાં લીલાશ વાળા છે. અને લીલાપણાથીજ તેને પ્રતિભાસ થાય છે. આ વનખંડ કયાંક કયાંક કુeણવ વાળા છે કયાંક કયાંક નીલવર્ણ વાળા છે. કયાંક કયાંક હરિત હોય છે ઈત્યાદિ રૂપે જે કથન કરવામાં આવેલ છે. તેનું કારણ એ એ રૂપે ત્યાં ત્યાં તે પ્રતિભાસિત થાય છે. ० पात 'किण्हो किण्होभासे विगेरेयी पुष्ट ४२५ मावस छे न्यारे पान પિતાની પ્રૌઢાવસ્થામાં આવે છે, ત્યારે હરિતપણાનો ધીરે ધીરે અભાવ થઈને તપણું આવવા લાગે છે. શ્વેતપણમાં શીતળતાને અર્થાત્ શીત વાયુનો વાસ થઈ જાય છે. તેથી એ વનખંડ પણ તેના પેગથી કયાંક કયાંક “શીતઃ शीतावभासः' तवायुना २५शवाणी छे भने शीतवायुना २५३३ तेना Page #864 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवागिगमस्ये 'णि णिशोभासे तिव्वे तिव्योभासे' एते कृष्णनीलहरितवर्णाः यथा-स्वस्मिन् रूपेऽत्यर्थमुस्कटाः स्निग्धः कथयन्ते, सतश्च तीवाश्च कथ्यन्ते ततव तद्योगाद् वनपण्डोऽपि स्निग्धतीव्रश्चेति कथ्यते, न चैतदुपचारमा किन्तु तथा प्रतिमासोऽपि, अव एरोक्तम्-स्निग्धावमासस्तीवाऽवभास इति इह यद्यपि अवभासो ज्ञानम् स च भ्रान्तोऽपि भवति यथा-मरुमरीचिकासु जलावभासः, ततो नावभास. माप्रोपदर्शनेन यथाव स्थितं वस्तु स्वरूप मुक्तं भवति किन्तु यथास्वरूपमतिपादनेन सतः कृष्णत्वादीनां तथा स्वरूप प्रतिपादनार्थमनुवादपूर्वकं विशेषणान्तरमाहआलित होता है। ये कृष्ण, नील, हरित, वर्ण जिलकारण अपने रूप में अपने आप में-उत्कट स्निग्ध और तीव्र कहे जाते है । इसी कारण उनके योग से वह वन खण्ड भी स्निग्ध और तीन कहा गया है यह कथन उपचारमात्र है अवास्तविक इसलिये नहीं है कि उस रूप से उसका प्रतिभाल जो होता है। इसी कारण इस धनषण्ड के वर्णन में स्निग्धाप मारव और तवावास इन दो विशेषणों का समावेश किया गया है। यदि लोह ऐली आशंकाबारे कि अबभास ज्ञान तो मिथ्या भी होता है जैसा कि सरुमरीचित्रा में जलका अवधास मिथ्या होता है। इसलिये यहां पर भी ऐला अवमासमिथ्या शेलपाता है। फिर इस अवयास से आप वहां का अधार्थ वर्णन कैसे कर सकते हैं और कैसे वहाँ के यथार्थ स्वरुपयो कह सकते हैं। तो इस आशंका की निवृति के लिए कृष्णव आदि के तथा स्वरूप प्रतिपादन निमित्त सूत्रकारने इन वक्ष्यमाण विशेषणान्तरों का कथन किया है हन से यहां उनका પ્રતિભાસ થાય છે. આ કૃણ, નીલ, હરિત, વર્ણ જે કારણથી પિોતે પોતાનામાં ઉત્કટ, સ્નિગ્ધ, અને તીવ્ર કહેવાય છે, એ જ કારણે તેના ગથી એ વનખઠ પણ સ્તિષ, અને તીવ્ર કહેવાય છે આ કઘન માત્ર ઉપચાર રૂપે કહેલ છે. તેથી તે અવાસ્તવિક નથી કરકે એ રૂપે તેને પ્રતિભાસ થાય છે. એથી જ એ વનખંડના વર્ણનમાં સ્નિગ્ધાવભાસ અને તીત્રા વાસ એ બે વિશેષાને સમાવેશ કરવામાં આવેલ છે. જે કોઈ એવી શકે કરે કે અવભાસ' જ્ઞાન તે મિથ્યાપણું હોય છે, જેમકે મૃગતૃણા કરૂ મરીચિકામાં ઝાંઝવામાં જલને મિથ્યા અવિભાસ થાય છે તેથી તેવી રીતે અહીંયાં પણ એ મિથ્યાભાસ થઈ શકે છે તો પછી આ અવભાસથી ત્યાંનું યથાર્થ વર્ણન કેવી રીતે કરી શકાય? અને ત્યાંના સુથાર્થ સ્વરૂપનું વર્ણન કેવી રીતે થાય? આ શંકાના સમાધાન માટે કૃષ્ણ વિગેરેને તે રીતના સ્વરૂપનું પ્રતિપાદન કરવા માટે સવારે આ વફ્ટમાણ બીજા વિશેષણનું કથન કર્યું Page #865 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयघोतका टीका प्र.३ उ.३७.५३ वनपण्डादिकवर्णनम् 'किण्हे किण्हच्छाए' इत्यादि, कृष्णवनषण्डः कस्मादित्यत आह-कृष्णच्छायः निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां पायोदर्शन मिति वचनाद् हेत्वथें प्रथमा, तदयमर्थः, यस्मात् कृष्णा छाया-आकारः सविसंवादिवया तस्य वनषण्डस्य, तस्मात् कृष्णो वनषण्डः, अयं भावा-सविसंवादितया तत्र बनषण्ढे कृष्ण आकार उपलभ्यते, न च भ्रान्तावमास संपादितसत्ताका सर्वाधिसंवादी भवति तस्मात् तत्ववृत्या स वनषण्डः कृष्णो न तु भ्रान्तावमासमात्र व्यवस्थापित प्रति। एवम् 'नीले नीलच्छाए, हरिए हरियच्छाए, सीए सीयच्छार' नीलो नीलतथा स्वरूपप्रतिपादित हो जाता है 'किण्हे किण्हच्छाए' वह वनषण्ड कृष्ण इसलिये है कि उसकी छाया-आकार कृष्ण है, यहां 'कृष्ण च्छाय' पद में यह प्रथमा विभक्ति पर्थमें हुई है निभिसकारण हेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनात्' इस वचन के अनुसार पञ्चम्यन्त हेतु के अर्थ में प्रथमा विभकिन भी हो जाती है । अतः इस से सत्रकार ने यह पुष्ट किया है कि जिसकारण सर्वाविसंवादी रूप से उसकी छाया आकार-कृष्ण है, इसी कारण वह घनखण्ड कृष्ण है जब सर्वाविसंवादिरूप से वहां कृष्ण आकार उपलब्ध हो रहा है तो नियम से वहाँ कृष्णता है जिसकी सत्ता भ्रान्त अबभास से स्थापित होती है-वह सर्वा विसंवादी नहीं हुआ करता है-यहां कृष्णाकार की सत्ता सर्वाविसवादी रूप से स्थापित है अतः वह अपने साध्य कृष्णता का अवश्य अवश्य ही साधक होता है इसी प्रकार से वह वनखण्ड किसी २ भाग में नील इसलिये है कि उसकी छाया-आफार-नील 'छ. तेनायी त्यां तनु तथा प्रसार प्रतियान 25 1य छ 'किण्हे किण्हच्छाए' એ વનખંડ કૃષ્ણ એ માટે કહેવાય છે કે તેની છાયા આકાર કૃષ્ણ છે. અહીંયા 'कृष्णच्छायः' से पहमा मा प्रथम वित व मां ये छे. 'निमित्त कारणहेतुषु सर्वाता विभक्तीना प्रायो दर्शनात' । पयल प्रमाणे ययभ्यन्त હતના અર્થમાં પ્રથમ વિભકિત થઈ જાય છે. તેથી સૂત્રકારે આ વચનથી એ સમર્થિત કર્યું છે કે જે કારણુથી સર્વ અવિસંવાદી૫ણાથી તેની છાયા આકાર કૃણ છે. એજ કારણથી એ વનખંડ પણ કૃષ્ણ છે, જ્યારે સર્વ પ્રકારે અવિસંવાદિપણથી ત્યાં કૃષ્ણ આકાર પ્રાપ્ત થાય છે, તે ત્યાં નિશ્ચયરીતે કૃષ્ણપણુ કાળાશ છે જ કે જેની સત્તા ભ્રાન્ત અવભાસથી સ્થાપિત થાય છે તે સર્વ પ્રકારે અવિસંવાદિ હોઈ શકતી નથી અહીંયાં કૃષ્યપણાની સત્તા સવિસંવાદિ પણાથી સ્થાપિત થયેલ છે. તેથી તે પોતાના સાથે કૃણુપણાને જરૂર જરૂર સાધક થઈ જાય છે. તેથીજ એ વનખંડ કઈ કઈ ભાગમાં નીલ बी० १०६ Page #866 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमस ८४२ छाया, हरितो हरितच्छायः, शीत शीलच्छाय:, एनान्यपि विशेषणानि ज्ञातव्यानिः केवलं शीतः शीतच्छाय इत्यत्र छाया शब्दः आवपपतिपक्षवस्तुवाची द्रष्टव्यः । 'घणकडियडच्छाए' धनकटिवटच्छायः, यह शरीरस्य मध्यमागे कटिः ततोऽन्यस्यापि म भाग. कटिरिच पाटिरित्युच्यते, कटिस्तटमिव कटितटम्, घना-अन्यान्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशतो निविडा कटितटे-मध्यभागे छाया यस्य स घनकटितटच्छाय:-मध्यभागे निविडतरच्छाय इत्यर्थः अतएव 'रम्म' रम्यो रमणीयः, 'महामेहनिकुरंयए' महान्-जलभाराश्नतः प्रकृट्कालभावी मेघनिकु. रम्बो-मेघसमूहस्तं भूतो गुणैः प्राप्त इति सहामेघनिकुरम्बभूता, महामेघन्दोपम है । इल प्रतिपादन में भी समझ लेना चाहिये 'शीतः शीतच्छायः' यहां पर छाया शब्द आकार का कथक नही है । किन्तु आतप की प्रतिपक्षी भूत वस्तु का वाचक है । अल यह वनषण्ड शीत इसलिये है कि वहां पर की छाया शीत है। 'घणडियच्छाए कटि शब्द का प्रयोग शरीर के मध्यभान में होता है फिर भी अन्य का भी मध्यभाग कटी शब्द से गृहीत हो जाता है प्लटिको यहां तर जैसा कहा है। तात्पर्य यह है कि इस बनषण्ड के मध्यभाग, जो वृक्षराजि है, उसकी शाखाएँ और प्रशाखाएँ आपस में एक दूसरे वृक्षों की शाखाओं और प्रशाखाओं के मध्य में प्रविष्ट हो गई है अत: यहां मध्यभाग में धनी छाया रहती है हली कारण यह बनखण्ड में पहुन अधिक रमणीय है 'महामे हनिअरषभूए' महमेहनिकुरंपभूतः' देखने वालों को यह बनषण्ड ऐसा प्रतीत होता है कि मानो यह पानी के भार से अवनत हुभा महामेघों का समूह ही अब इस वनखण्ड के पादपो વર્ણવાળું થાય છે અને એથી જ તેની છાયા આકાર નીલ હોય છે. એ પ્રમાણે આ प्रतिपानमा ५१ समस'शीतः शीतच्छा' महीयां छाया श६ मारना અર્થમાં નથી પણ તડકાના પ્રતિપક્ષ રૂપ જે છાયા છે, તે અર્થ વાચક છે. તેથી એ વનખંડ શીત એ માટે છે કે ત્યાની છાયા શત હોય છે. 'घणकडियच्छाए' टि शनी मर्थ शरीरना मध्यमा माटे ग्रह ४२शय છે. તે પણ અન્યને મધ્ય ભાગ પણ કટિ શબ્દથી ગ્રહણ થઈ જાય છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે આ વનખંડના મધ્યભાગમાં જે વૃક્ષની પંકિત છે, તેની શાખાઓ અને પ્રશાખાઓ એક બીજા વૃક્ષની શાખાઓ અને પ્રશાખાઓના મધ્યભાગમાં પ્રવેશેલી રહે છે, તેથી આ વનખંડ ઘણું જ સુંદર લાગે छ. 'महामेइनिकुरवभूए-महामेघनिकुबभून' तथा नासान मा पन मेनु જણાય છે કે જાણે પાણીનાભારથી નમી ગયેલા મહા મેઘને સમૂહ જ છે. Page #867 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्योतिकाटीका प्र.३ उ.३ १.५३ वनपण्डादिकवर्णनम् इत्यर्थः, अथ वनषण्ड गतपादपान् वर्णयति-ते णं पायवा' इत्यादि ते-बनपण्डान्तर्गताः खलु पादपाः वृक्षा:-मूलवन्तः, मूलानि प्रभूतानि दूरावगाढानि च सन्ति येषां ते मूलवन्तः, कन्द एषां विधसे इति कन्दवन्ता, एवं स्कन्धयन्तःस्वग्वन्तः शालावन्तः प्रवालबन्तः पत्रवन्तः पुष्पवन्तः फलवन्तो बीजवन्तः, इत्यपि ज्ञातव्यम्, तत्र मूलानि लोकमसिद्धानि यानि कन्दस्याधः पसरन्ति, कन्दास्तेषां मूलानामुपरिवर्तिनस्तेऽपि प्रसिद्धा एव, स्कन्धः स्थूडं यतो मूलशाखाः प्रभवन्ति, त्वक्-छल्ली, शाला-शाखा, प्रशला-पल्लवाकरः, पत्रपुष्पफळबीजानि प्रसिद्धानि, 'अणुपुत्र सुजाय रुइलघट्टमाबपरिणया' आनुपूर्वी. मुमातरुचिरवृत्तभावपरिणताः, आनुपूव्यो-मूलादिपरिपाटया सुजात इत्यानुपूर्वीसुजाताः रुचिरा-स्निग्धतया देदीप्यमानच्छविमन्तः, तथा वृत्तभावेन -वृक्षों का वर्णन करते है 'ते णं पायथा' उसपनखंड के पादप-वृक्ष ऐसे है कि जिनके प्रभूत मूल बहुत दूर २ तक जमीन के भीतर गहरे गये हुए है ये पादप प्रशस्तभन्दघाले है प्रशस्त स्कन्धवाले हैं प्रशस्त छालवाले हैं प्रशस्त पत्रों वाले है, प्रशस्त पुष्पों वाले है, प्रशस्तफलों वाले है और प्रशस्त बीजवाले है । जडका नाम मूल है जड के ऊपर और स्कन्ध के पहिले तक के भाग का नाम कन्द है जहां से मूल शाखाएँ फूटती है उस स्थान का नाम हशन्ध है प्रचालनाम को पलों फा है बाकी के और पनादिशब्दों का अर्थ प्रतीत ही है। 'आणुपुव्य 'सुजायरुइलवभावपरिणया' ये सच पादप समस्त दिशाओं में एवं समस्त विदिशाओं में अपनी २ शाखाओं द्वारा और प्रशाखाओं द्वारा इस दंग से फैले हुए है कि जिलले ये गोल गोल प्रतीत होते है, वे म नमन वृशानु वन 3Rqामा आवे छे. 'ते णं पायवा' એ વનખંડના વૃક્ષો એવા છે કે જેના મોટા મેટા મૂળિયા ઘણે દૂર સુધી જમીનની અંદરના ભાગમાં ઊંડે સુધી ઉતરી ગયેલા છે. આ વૃક્ષે પ્રશસ્ત પત્રોવાળા છે. પ્રશસ્ત પુપિવાળા છે. પ્રશસ્ત ફળે વાળા છે. અને પ્રશસ્ત બીયાઓ વાળા છે. જડનું નામ મૂળ છે. મૂળની ઉપર અને સ્કંધ-ઘડની પહેલાના ભાગનું નામ કંદ છે. જ્યાંથી ડાળે કુટે છે તેનું નામ સ્કંધ થડ છે. પ્રવાલ કૂંપળને કહે છે. બાકીના બીજા પુત્ર વિગેરે શબ્દોને અર્થ સ્પષ્ટ જ છે. 'आणुपुब सजायाइल बदभावपरिणया' मा मधा वृक्ष सघजी हिशायामा અને સઘળી વિદિશાઓમાં પોત પોતાની શાખાઓ દ્વારા અને પ્રશાખાઓ દ્વારા એવી રીતે ફેલાયેલા છે, કે જેનાથી એ ગોળ મેળ પ્રતીત થાય છે. મૂલ વિગેરે પરિપાટ પ્રમાણે જ એ બધા વૃક્ષે સુંદર રીતે ઉત્પન્ન થયેલા છે. તેથી Page #868 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tanane ૮૪૪ परिणताः किमुक्त भवति ? एवं नाम सर्वासु दिक्षु विदिक्षु च भाखाभिः प्रशाखाभिश्च प्रसृता यथा वर्तुलाः संजाता इति, आनुपूर्वी सुजाताच ते रुचिराथ ते च वृत्तभावपरिणतामेति बन्नुपूर्वी सुजातरुचिरवृत्तभावपरिणताः, तथा 'एगखंधी' ते पादपाः प्रत्येकमेकस्कन्धाः सूत्रे स्त्रीत्वं प्राकृतत्वाद, तथा'अग साहप्पसाइचिडिमा' अनेकाभिः शाखाभिः प्रशाखाभिश्व मध्यभागे विटपो विस्तरो येषां तेऽनेकशाखामशाखाविटपाः तथा - 'अणेगणरव्याम सुपसारियागेष्य घणविलवखंधा' विर्यवाहु द्वयमसारणो व्यामः अनेकैर्नरव्यामै:- पुरुषव्यामैः सुप्रसारितैराद्यः - अप्रमेयः घनो - निविडो विपुलो विस्तीर्णः स्कन्धो येषां ते अनेकनरव्यामसुमसारिवाग्राह्य घनविपुलवृत्तस्कन्धाः तथा - 'अच्छिदपत्ता ' अच्छि द्राणि पत्राणि येषां ते अच्छिद्रपत्राः, अयं भावः वृक्षाणां पत्रेषु वातदोषतः कालदोषतो वा गहरिकादिरीति रुपजायते किन्तु तेषां पत्रेषु न तथा तेन तेषु पत्रेषु छिद्राणि न भवन्तीत्यच्छिद्रपत्राः अथवा एवं नामान्योऽन्यं शाखा प्रशाखानुमवेशात् पत्राणि पत्राणामुपरि जातानि येन मनागपि अन्तरालरूपं छिद्रं नोपलमूलादि परिपाटी के अनुरूपही ये सब सुन्दर ढंग से वृक्ष उत्पन्न हुए है। अतः वडे सुहावने लगते है ये सब वृक्ष एक २ स्कन्धवाले है और अनेक शाखाओं एवं प्रशाखाओं से मध्यभाग में इनका विस्तार अधिक है टेढी फैलाई हुई दो भुजाओं के प्रमाण रूप एक व्याम होता है अनेक पुरुष मिलकर भी ऐसे अपने फैलाए गए व्याम द्वारा जिसे ग्रहण नहीं कर सकते ऐसा निविड विस्तीर्ण इनका गोल स्कन्ध है । इनके पत्र छिद्र रहित है अर्थात् वात दोष से या काल दोष से इन वृक्षों के पत्रों में किसी भी प्रकार से छिद्र आदि नहीं होते है अथवा इन वृक्षों के पत्र आपस में शाखा प्रशाखाओं में इस तरह से सटे हुए मिले रहते है कि जिससे उनके अन्तराल में थोडासा भी छिद्र ઘણાજ સાહામણા લાગે છે. એ બધા વ્રુક્ષા એક એક સ્કધવાળા છે અને અનેક શાખાએ! અને પ્રશાખાએથી મધ્યભાગમાં એને વિસ્તાર વધારે છે, વાંકી ફેલાવવામાં આવેલ છે ભુજાઓના પ્રમાણુ રૂપ એક બ્યામ-વામ થાય છે. અનેક પુરૂષ મળીને પણુ એવી ફેલાવવામાં આવેલ નામેા દ્વારા જેને ગ્રહણ કરી શકતા નથી. એવું નિબીડ વિસ્તાર વાળુ તેનું કધ-થડ હાય છે, તેના પાનડાએ છિદ્રો વિનાના હૈાય છે. અર્થાત્ વાયુના દોષથી કે કાળ દોષથી એ વૃક્ષેાના પાનડાઓમાં કઈ પણ પ્રકારના છિદ્રો વિગેરે હાતા નથી. અથવા એ વૃક્ષાના પાનાએ પરસ્પરમાં શાખા પ્રશાખામાં એવી રીતે ગ્રાંટીને લાગેલા રહે છે કે જેનાથી તેની અંદરના ભાગમાં ઘેાડા સરીખા પશુ Page #869 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४१ प्रमैयद्योतिका टीका प्रे.३ उ.३ सू५३ वनपंण्डादिकवर्णनम् क्ष्यते इति अतएव-'अविरलपत्ता' अविरलपत्राः, अत्रापि हेत्वर्थे प्रथमा, ततश्चायमयः-यतोऽविरलपत्राः, अतोऽच्छिद्रपत्राः, अविरलपत्रत्वमेव कुतस्तवाह-'अवाईणपत्ता' भवातीनपत्राः, वातीनानि वातोपहतानि वातेन पावितानीत्यर्थः न वाती. नानि इत्यवातीनानि पत्राणि येषां ते तथा अयं भावः-न तत्र प्रवलो वातः खरपरुषो वाति येन पत्राणि त्रुटिस्वा भूमौ निपतन्ति, ततोऽवातीनपत्रत्वादविरकपत्रा इति, अच्छिद्रपत्रत्वे प्रथमव्याख्यानपक्षमधिकृत्य कारणमाह-'अणाईइपत्ता' भनीतिपत्राः न विद्यते इति गडरिकादिरूपा येषां तानि अनीतीनि, अनीतीनि पत्राणि येषां ते अनीतिपत्राः, अनीतिपत्रत्वादेव अच्छिद्रपत्रा इति, “णिद्धृय जरढपंडुरपत्ता' निर्धूवजरठपाण्डुरपत्राः, निर्वृत्तानि-अपनीवानि जरठानि पाण्डुनि पत्राणि येभ्यस्ते निभुत जरठपाण्डुपत्राः, यानि वृक्षस्थानि जस्ठानि पाण्डूनि पत्राणि तानि वातेन निर्धूय निर्धूय भूमौ पात्यन्ते, भूमेरपि च नहीं दिखलाई देता है यही वात, 'अधिरलपत्ता' इस पद द्वारा पुष्ट की गई है यहां पर भी यह हेत्वर्थ में प्रथमा विभक्ति हुई है। इससे यह ध्वनित होता है कि जिस कारण ये अविरल पत्रों वाले हैं, इसी कारण ये अच्छिद्र पत्रों वाले हैं 'अवाइणपता-अवातीन पत्रा' ये अविरल पत्रों वाले इस कारण से है कि यहां पर ऐसी जोर की छचा नहीं चलती है, कि जिसकी वजह से इनके पत्र डाल से टूटकार जमीन पर तोर जावे, 'अणईहपत्ता' गइडरिकादि रूप ईति यहां पत्रों में होने नहीं पाती है इसलिये भी ये अच्छिद्र पत्रो वाले हैं, ' निर्धयजरढपंडुरपत्ता' इन वृक्षों पर जो पत्ते पुराने पड जाते है और सफेद हो जाते है वे पत्र वायुद्रारा वहां ले जमीन पर गिरादिरे जाते है तथा जमीन ऊपर पडे हुए वे पत्र भी वहां से उड। उडाकर अन्यत्र कर छिद्रो माता नथी. मे पात 'अविरलपत्ता' ये ५४थी पुष्ट ४२५ मा આવેલ છે. અહીંયાં પણ આ હેત્વર્થમાં પ્રથમ વિભક્તિ થયેલ છે. એનાથી એ વનિત થાય છે કે જે કારણે એ અવિરલ પત્રોવાળા છે, એજ કારણથી त २५२ पत्रावामा छे. 'अवाइणपचा-अवातोनपत्रा' मे मरिस पत्रवाणा એ કારણથી છે કે ત્યાં એવા જોરથી હવા નથી ચાલતી કે જેના કારણે એના पानामा थी तूट भीन ५२ ५डी तय 'अणइइ पत्ता' ग.२ि४६३५ ઈતિ આ પાનાઓને થતી નથી. તેથી પણ એ અછિદ્ર પડ્યવાળા હોય છે. "णिद्धय जरढ पत्ता' 24 वृक्ष ५२२ ५न ! कुना य नय छे. मत સફેદ થઈ જાય છે, તે પત્રો પવન દ્વારા જમીન પર પાડી નાખવામાં આવે છે. તથા જમીન પર પડેલા તે પાનડાઓને પણ ત્યાંથી ઉડાડીને બીજે લઈ Page #870 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४६ जीवामिगमत्र मायो निर्द्धय नि यान्यत्रापसार्यन्ते इत्यर्थः । 'नवहरियमिसंतपत्तंधयार गंभीरदरिसणिज्जा' नवहरितभासमानपत्राधिकारगम्भीरदर्शनीयाः, नवेन-प्रत्यग्रेण हरितेन-नीलेन भासमानेन-स्निग्धत्व त्वचादीप्यमानन पत्रपारण-दरसंचयेन यो जातोऽन्धकारस्तेन गम्भीरा:-अदब्धमध्यभागाः सन्तो दर्शनीया ये ते तथा, तथा-'उवविणिग्गयणवतरुणपत्त पल्लवकोमलजलचलंत किसलय मुकमालसोध्यिवरंकुरमसिहरा' उपविनिर्गतः-निरन्तरविनिर्गतनवतरणपल्लव तथा कोममनोरुज्ज्वल, शुद्धवलद्भिः ईपत्करमानैः किजळयैरवस्थाविशेषोपेतेः पल्लवविशेपैः, तथा मुकुमारः प्रचालि: पल्लवाकरैः बोमितानि बराकुराणि वराङ्कुरोपेतानि अपशिखराणि येषां ते उपविनिर्गतनवतरुणपत्रपल्लवकोमलो. ज्वलचलरिकशलय सुकुमारप्रचालशोमितवराङ्कुरायशिखराः । यत्राइकुरमवाळयोः कालकृतावस्थाविशेपा द्विशेपो वोध्यः । 'मिच्चं कुमृमिया णिच्चं मउलिया णिच्चं लवइया णिच्च यवइया णिचं गुस्मिया णिचं गोच्छिया णिच्च जमलिया गिरचं दिये जाते है, 'नवहरियनिसंतपत्तंधयारगंभीरदरिमणिजा' ये वृक्ष अलब्ध भागधाले होते हुए भी दर्शनीय हैं अल०५ मध्यभागवाले ये इसलिये है कि नवीन हरे २ पन उस्मृद से जो कि दीप्यमान एवं स्निग्धछालबाला है इन पर लदा घोर अन्धकार जमा छाया रहता है इन घृक्षों के बराङ्कुरोपेत अग्रशिखर निरन्तर विनिर्गन नवतरुण पल्लवों से तथा कोमल मनोज्ञ उज्ज्वल पम्पमान धीरे धीरे हिलते हए किसलयों ले एवं मुकुमार प्रशलों से पल्लवाकुरों से शोभित बने रहते हैं अडा और प्रयाल में कालकुन अवस्था विशेष से भेद हो जाता है। 'जिचं कुसुमिया, निच्च प्रारलिया, निच्चं लवहया, निच्चं वया, निच्चं गुम्निया निच्च गोच्छिया, निच्चं जलिया, निच्च जुलिया, सवाय छे. 'नवह रय भिस तपत्तंधयारगंभीरदरिसणिज्जा' मा वृक्षा सस ભાગવાળા હોવા છતાં પણ દર્શનીય હોય છે, અલબ્ધ મધ્ય ભાગવાળા એ કારણથી છે કે નવા નવા લીલા લીલા પાનાઓના સમૂહથી કે જે દેદીપ્યમાન અને ગાઢ છાયાવાળા છે. તેના પર કાયમ અંધારા જેવી છાયા રહે છે. એ વૃના વરાંકુવાળા અગ્ર શિખરો નિરંતર નીકળેલા નવતરણ પલવોથી તથા કમળ મનોજ્ઞ ઉજજવલ કમ્પાયમાન ધીરે ધીરે હલતા દિલથી અને કમળ પ્રવાળેથી પલવાંકુરોથી શોભાયમાન બનેલા રહે છે. અંકુર અને प्रवासमा ४सत अवश्या विषयी मे यई लय छे. 'णिच्च कुसुमिया, णिच्च मउलिया, णिच्च लवइया, जिच्च थवइया, णिच्च गम्मिया, णिच्च गोष्ठिया, णिच्च' जमलिया, णिच्च जुयलिया, णिच्चविणमिया, णिच्च पण Page #871 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सु. ५३ पनपण्डादिकवर्णनस् जुगलिया णिच्च विणमिया णिच्च पणमिया णिच्च कुसुप्रिय सउलिय लवइय थवtय गुम्मिय गोच्छिय जमलिय जुगलिय विणसिय पणमिय सुविभत्त पंडिमंजरिवर्डिसगधरा' नित्यं कुसुमिता नित्यं मुकुलिता नित्यं पल्लविताः नित्यं स्तकिता नित्यं गुल्मिता नित्यं गुच्छिता नित्यं यमकिता नित्यं युगलिता नित्यं विनमिता नित्यं प्रणमिता नित्यं कुसुमित सुकुलित पल्लवित स्वति गुल्मित गुच्छित यमलितयुगलितविनय पण तमु विभक्त पिण्डमजतं कधरा, इतिच्छाया । ८४७ व्याख्यातपूर्वमिदं प्रकरणम् एतस्य व्याख्यानं पूदनदेव ज्ञातव्यम् । तथा'सुवरहिणमयणस लागा कोइलको रंग सिंगारगौडलग जीवजीवगणं दिमुहकविलपिंगलक खकारंडवचक्कवागकल हंगसारसाणेगस उणगणमिण विचारियस दुन्नइयनिच्चं विणमिया, निच्चं पणमिया' ये वृक्ष लदा कुसुमित रहते है निस्य मुकुलित रहते है, निश्यपल्लवित रहते है नित्य स्तपति रहते है नित्य गुल्मित रहते है नित्य गुच्छित रहते है नित्य मलिन रहते है । नित्य युगलित रहते है नित्य विनमित रहते है एवं निश्व प्रणमित रहते है इस तरह से नित्यकुसुमित, मुकुलित पल्लवित, स्तवकिंत गुल्मित गुच्छित यमलित युगलित चिनमित एवं प्रणमित पने हुए ये वृक्ष सुविभक्त पिण्डवाली मंजरीरूप अवतंक को धारण किये रहते है इन पदों का अर्थ पूर्व प्रकरण में व्याख्यात हो चूका है । 'सुपरहिण नयण सलाना कोहलकोरण- शुक्रबर्हिण मदन] शलाका कोकिलhtra' इत्यादि, इन वृक्षों के उपर शुरू के जोड़े मयूरों के जोडे, मदनशलाका - मेना के जोडे, फोकिल के जोड़े, के जोडे, कलहंस के जोडे, सारह के जोडे, इत्यादि अनेक पक्षियों मिया' या वृक्षे। अयम असुमित रहे छे. नित्य भुमुसित रहे छे, नित्य પલ્લવિત રહે છે, નિત્ય સ્તભકિત રહે છે. નિત્ય ગુસ્મિત રહે છે, નિત્ય શુચ્છિત રહે છે. નિત્ય યમલિત રહે છે. નિત્ય યુગલિત રહે છે. નિત્ય વિનમિત રહે છે- અને નિત્ય પ્રણમિત રહે છે. આ રીતે નિત્ય सुसुमित, भुदुसित, यहसवित, स्तभक्ति, गुमित गुम्छित, यमलित, યુગલિત; વિનમિત, તેમજ પ્રણમિત બનેલા આ વૃક્ષા સુવિભકત પડવાળી મંજરી રૂપ અવત સક-વસ્ત્રને ધારણ કરીને રહે છે. આ શબ્દોને અ पतां सूत्रमां मताववामां आवी गयेस छे. 'सुयवरहिण मरणरुलागा फोडल कोरग सुकवरहिण मदन लाका कोकिल कोरक' इत्याहि मे वृक्षोनी उपर શુકના જોડલા, મયૂરાના જોડલા, મદનશલાકા-સેનાના જોડલા કાયલના જોડલા, ચક્રવાકના જોડલા, કલહુંસના જોડલા સારસના જોડલા વિગેરે અનેક પ્રકારના चक्रवाक Page #872 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीयामिगमले मारसनाइयमुरम्मा' शुकवहिंमदनशलाकाफोकिलकोरफभृङ्गारककोंडलक जी जीवकनन्दीप्लुस्वकपिलपिङ्गलाक्षकारण्डवचक्रवाककलहंससारसारुपानामने केपो शकु. नगणानां मिथुनै। स्त्रीपुरुपयुग्मै विरचितम् इतस्ततो गतं यच्च शब्दन्नतिकम् उन्नतशब्दकं मधुरस्वरं च नादितं नापितयेषु ते तया, अतएव मुरम्या:-मुष्टुरमणीयाः, अत्र शुक्रा:-कीरा, चर्पिणो मयूराः मदनशलाका सारिका, चक्रवाक इंससारसा लोकमसिद्धा एव, एतदन्ये पक्षिविशेपास्तु लोकत एव ज्ञातव्याः । तथा-'संविडिएप्पियमसरमहुयरीपहरा' संपिण्डिता:, एकत्र पिण्डिभूता. हप्ता मदोन्मत्ततया दध्मिाता भ्रमरमधुकरीणाम् पहारा:-साता यत्र ते संपिण्डित सभ्रमरमधुकरीपहकराः, तथा-'पनिलीयमाणमत्तछप्पयकुममासळोलमहुरगुमगुयायंत गुंजतदेसमागा' परिलीयमानाः-अन्यत आगत्यागत्य श्रयन्तो मत्ताः के जोडे बैठे बैठे बहुत दूरू तक सुने जाने वाले उन्नत शब्दवाले ऐसे मधुर स्वरोपेन शब्दों को करते रहते है चहचहाते रहते हैं इससे इन वृक्षों की सुन्दरता में विशेषता आजाती है इन वृक्षों के ऊपर 'संपिडियदप्पियभमरमहयरी पहकरा-संपिण्डिनद्रप्तभ्रमरमधुकरी पहा कराः' मधुका संचयकरनेवाले उन्मत्त पिन्डीभूतभ्रमरों का और भ्रमरियों का समूह भी बैठा रहता है। परिलीयमाणमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुग्गुमगुमाघमानगुनद्देसागा-परिलीयमानमत्त ष्ट पद् कुसुमामवलोलमधुर गुमगुमायमान गुलदेशभागा:' इन वृक्षों के इधर उधर के पास के स्थानों में बाहर से आए हुए अनेक भ्रमर बैठे रहते हैं ये मधुपान से मदोन्मत्त होते है। तथा किक-पुष्पपराग के पानकरने में इनकी लंपटता यनी रहती है मधुर मधुर रूप से ये गुम પક્ષિયેના જોડલાઓ બેઠા બેઠા ઘણે દૂર સુધી સંભળાતા અને ઉચ્ચ સ્વર યુકત એવા મધુર સ્વરવાળા રમણીય શ કરતા રહે છે. ચહચહાતા રહે છે. એથી એ વૃક્ષોની સુંદરતામાં વિશેષ શોભા જણાઈ આવે છે એ वृक्षानी 6५२ 'सपिडियदप्पियभमर महुयरीपहकरा-सपिडितद्रप्तभ्रमरमधुकरी प्रहकरा; मधनी संग्रह ४२वावा भत्त अभूत सभामान भने सभीयाना समूह पर हमेशा मेसी २९ छे. 'परिलीयमाणमत्त छप्पय कुसुमासवलोलभ गुर गुमगुमायमानगुजद्देमभागा-परिलीयमानमत्तपट्पद कुसुमासवलो लमधुरगुमगुमायमानगुरुजवेशभागा' से वृक्षानी यासपासना मागमा मडावी આવેલા અનેક ભમરાઓ બેસી રહે છે, અને મધુપાન કરીને મદેન્મત્ત બને છે. તથા કિંજક–પુષ્પપરાગનું પાન કરવામાં તેનું લંપટ પણું જણાઈ આવે છે. તેઓ મધુર મધુર શબ્દોથી ગુમ રુમાયમાન રહે છે. અર્થાત્ ગણુ Page #873 -------------------------------------------------------------------------- ________________ theater टीका प्र. ३ उ. ३.५३ घनपण्डादिकवर्णनम् ८४९ षट्पदाः कुसुमासदोलाः किंजल्कपानलम्पटाः मधुरं गुमगुमायमानाः- परिभ्रम न्तस्तै:- गुञ्जन्तः- गुञ्जाश्वयुक्ता देशभागाः प्रदेशा येषां ते परिलीयमानमत्त षट् पदकुसुमासवलोलमधुरगुमगुमायमानगुञ्जदेशभागाः, तथा - 'अभवरपूरकफला' अभ्यन्तराणि - अभ्यन्तरवर्तीनि पुष्पाणि फलानि च येष तेऽभ्यन्तरपुष्प फला', तथा 'बाहिर सछमी' बहिः पच्छन्नाः - व्याप्ता इति - वहिः पत्रच्छन्ना', तथा - पत्रैश्च पुष्पैश्च अवच्छन्न परिच्छन्नाः - अत्यन्तमाच्छादिताः, तथा - 'नीरोगा' नीरोगा :- रोगरहिताः शटनवर्जिताः, 'अकंटगा' अवष्टकाः- कण्टकवर्जिताः, नैतेषु मध्ये बच्चलादि कण्टकिवृक्षाः सन्तीति भावः । तथा - 'साउफला' स्वादुफलाः, स्वानि फलानि येषां ते तथा णिद्धफला' स्निग्धफला: स्निग्धानिस्नग्धकान्तियुक्तानि फलानि येषां ते तथा-णाणाविह गुगुम् मंडवगसीहिया' प्रत्यासन्नैननाविधैरनेकप्रकारकैर्गु छ। वृन्ताकी प्रभृतिभिः गुल्मैर्नवमालिकादिभिः गुमायमान- गुनगुनाते रहते हैं झंकार किया करते है अतः वृक्षों के देशभाग उनकी गुंजार से बडे अच्छे सुहावने लगते हैं 'अभितर पुप्फफला' इनवृक्षों के पुष्प और फल उन्हीं के भीतर छुपे रहते हैं, 'पाहिरपत्तच्छन्ना' बाहर में ये वृक्ष पत्रों से आच्छादित रहते है। इस तरह ये वृक्ष पत्र और पुष्पो से 'अवच्छन्न परिच्छन्ना' सदा उत्पन्न रूप से बहुत अधिक रूप से आच्छादित बने रहते हैं 'नीरोगा' इन वृक्षों में वनस्पतिकायिक संबंधी कोई भी रोग नही होता है 'अकंटा' इन वृक्षों के बीच बबूल आदि कांटों वाले वृक्ष नही होते । इनके फल वहुत ही अधिक मिष्ट स्वादवाडे होते है स्निग्धस्पर्शवाले होते है । प्रत्यासन्न नाना प्रकार के गुच्छों से, गुल्मों से नवमालिकादि के मण्डपों से और द्राक्षा आदिक मंडपों से ये सदा सुशोभित बने ગણાટ કરતા રહે છે. અકાર કર્યાં કરે છે તેથી એ વૃક્ષેાના પ્રદેશ ભાગા એ પક્ષિએના ગુંજારવથી ખૂબજ સુદર અને અત્ય’ત સેાહામણા લગે છે. ‘ત્રિમંતર पुप्फफला' थे वृक्षाना पुग्यो भने जो ते वृक्षोनी घटायां छुपा हे छे. 'बाहिर पत्तच्छन्ना' महारथी मे वृक्षो पानामाथी असा रहे छे. या रीते से वृक्षो यत्र स पुष्पथी 'अवच्छन्नपरिच्छन्ना' सहा उत्तम रीते माछाहित ઢંકાયેલા અન્યા રહે છે. ‘નીરો' આ વૃક્ષેમાં વનસ્પતિકાયિક સ`બધી કઈ पशु रोग होता नथी. 'अक'टगा' से वृक्षोभां भावण विगेरे टाका वृक्षा હેતા ની તેના ફળેા ઘણાજ વધારે મીઠાશવાળા ઢાય છે. સ્નિગ્ધ સ્પર્શીવાળા હાય છે. સમીપવતી અનેક પ્રકારના ગુથી, ગુલમેથી, નવમાલિકા વિગેરેના મ'ડપેાથી અને દરાખ વિગેરેના મંડપેાથી એ વૃક્ષે। સદાકાળ સુશેભિત્ नी० १०७ Page #874 --------------------------------------------------------------------------  Page #875 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रौधोतिका हा प्र.३ उ.३ सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् ४५१ से उकेउबहुला' शुभ सेतु केतुबहुलाः शुमा-अधानाः सेतो मार्गाः आलवाळपाल्योवा केतवो भना, बहुला अनेकरूपा येषां ते तथा, एतानि यात्पद. संगृहीतानि पदानि व्याख्यातानि । अथ सजगतपदानि व्याख्यायन्ते-'अणेग सगडरहजाणजुग्गसित्रिय संदमाणिय पडिनो यणा' अनेकशकटरथमायुग्यशिविकस्पन्दमानिकाप्रतिमोचनाः, तत्र शकटाः पसिद्धाः रथा द्विविधाः क्रीडारथाः संग्रामस्थाश्च, यानानि सामान्यतः शेषाणि वाहनानि युग्यानि गोल्लदेशप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदिकोपशोमि पानि जम्नानि, शिक्षिका कूटाकारेणाच्छादिता जम्पानविशेषाः स्यन्दमानिका:-पुरुषपमाणा जम्पानविशेषाः, अनेकेषां शकटस्थादीनां प्रतिमोचनं तेषामधः छायावाहुल्याद् विस्तीर्णत्वाच्च विश्रान्त्यर्थं शकटादीनां स्थापनं भवति येपु ते तथा, अतः 'सुरम्मा' सुरम्या:-विशेषतोऽतिरमणीयाः, तथा-'पासादीया' पासादीयाः, दर्शनीयाः, अभिरूपाः, प्रतिरूपाः इति पदचतुष्टयं व्याख्यातपूर्वम् । क्यारियां है वे शुभ है तथा उनसे उपर जो ध्वजाएं लगी है वे भी अनेकरूप वाली है यहां तक यायत्यय ले संगृहीत पदों का अर्थ हुआ अव सूत्र गत पदों की व्याख्या की जाती है 'अणेग दगड रहजाण जुगल यहां रथ दो प्रकार के होते हैं, एक क्रीडारथ और दूसरे संग्राम रथ अनेक शकट गाडे अनेक रथ यान-वाहन-युग्य-तोल्लदेश प्रसिद्ध दिहस्त प्रमाण वेदिकोपशोभित जम्पानशिथिका और स्पन्दमानिका -ये सय वाहन छाया अधिक होने का कारण इनके तल भाग में ठहरते रहते है ऐसा विस्तीर्ण तलमाग इसकता है इस कारण से ये 'सुरम्मा' अस्यन्तरमणीय है तथा प्रासादीयदर्शनीय अभिरूप और 28 onय मेटमा गध संघातनु नाम पाए छ. 'सुहसेठ केउबहुला' તેના જે આલવાલ કયારાઓ છે તે સુંદર છે તથા તેના પર જે ધજાઓ લાગેલી છે તે પણ અનેક પ્રકારના રૂપવાળી છે. આટલા સુધી યાવત્પદથી સંગ્રહાયેલ પદની વ્યાખ્યા કરવામાં આવેલ છે. वे सूत्रमा मावस पहानी याच्या ४२वामा मा छे. 'अणेगसगइरहजाण जुग' माडीयां २थ मे ना उडवामा माया छे. मे डारथ અને બીજો સંગ્રામરથ. અનેક શકટ ગાડા અનેક રથયાન વાહન યુગ્ય તેલ દેશ પ્રસિદ્ધ બે હાથ પ્રમાણની દિકાથી શોભાયમાન જંપાન શિબિકા અને દેમાનિકા આ બધા વાહને એ વૃક્ષોની છાયા સુંદર હોવાથી તેની તળે આરામ કરવા ઉભા રાખવામાં આવે છે, એ વિસ્તાર વાળા તળભાગ આ पृक्षाना छे. मे ४थी से 'सरम्मा' सत्यत २भीय छे. तथा प्रासाहीय Page #876 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम अथास्य चनपण्डस्य भूमिभागो वर्ण्यते - ' तस्स णं' इत्यादि, 'तस्स णं वणसंडग्स' तस्य खलु वनपण्डस्य 'अंतो बडुममरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' अन्तर्मध्ये बहुसमःसन रमणीयो मनोज्ञ इति बहुसमरमणीयो भूमिभागः मज्ञप्तः कथितः कि विशिष्ट. सः १ इत्याह- 'से जहाण (मए' इत्यादि, 'से जहाणायए' तद्यथा नामकः 'आलिंगनुखरे या' आलिङ्ग पुष्करमिति वा, आलिङ्गो गुरजो बायविशेषस्तस्य पुष्करचर्मपुर के तत्कलात्यन्तसमं भवतीति वेनोपमा क्रियते - सर्वत्रसर्वेऽपि इति शब्दाः समुच्चये 'मुइंगपुक्खरे वा' मृदङ्गपुष्करमिति वा, मृदङ्गो लोकप्रसिद्धो वाद्यविशेषस्तस्य पुष्कर मृदङ्गपुष्करमिति । 'सरतले प्रतिरूप है हन पदों का अर्थ पहले आचुका है । अब इस बनखण्डकेभूमिभागका वर्णन करते है 'तरुणं वणसंडस्स अंतो बहुसमरमनिज्जे भूमि पण्णत्ते' इस वनखण्डका जो भीतरका भूमिभाग है यह बहु सम है बिलकुल बराबर एकता है ऊंचा नोचा नहीं है किस प्रकार का यह सम भूमिभाग है इसको अलिङ्ग पुष्कर आदि उपमाओं से बनाते है 'से जघानामए अलिंगपुक्खरेति वा' इत्यादि । वह भूमिभाग ऐसा प्रतीत होता है कि जैसा, आलिङ्ग पुष्कर होना है आलिङ्ग नाम मुरज वाद्यविशेषका हैं तथा इसके उपर जो चमडा मडा रहता है उसका नाम पुष्कर है । यह आलिङ्ग पुष्कर अत्यन्त मम होता है इसी तरह वहां का वह भूमिभाग मृदङ्ग के पुष्कर जैसा अत्यन्तलम है मृदङ्ग लोकप्रसिद्ध एक प्रकार का वाद्यविशेष है, इसका भी पुष्कर बिलकुल मन होता है ऊंचा नीचा नहीं होता है इसी प्रकार परिपूर्ण દનીય, અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. આ પદેના અથ પહેલા આવી ગયેલ છે. हवे आ वनमंडना भूमिभागनुं वन वामां आवे छे 'तस्स णं वनखंड अतो बहु समरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते' या वनखंडनी अहरना જે ભૂમિભાગ છે, તે છેૢા સમ છે, બિલ્કુલ ખરેખર એક સરખે છે, 'ચા નીચા નથી કેવા પ્રકારના એ સમભાગ છે તે આલિ’ગ પુષ્કર વિગેરેની ઉપમાએ द्वारा जतावे छे. 'से जहा नामए आलिंगपुक्खरेति वा' त्यिाहि मे भूमिभाग એવા જણાય છે કે જેવું લિંગ પુષ્કર હાય છે, આ આલિંગ નામ મુરજ વ દ્યવિશેષનુ છે, તથા તેના ઉપર જે ચામડું મઢેલુ હાય છે, તેનું નામ પુષ્કર છે. આ આલિ’ગપુષ્કર ઘણેાજ સમ–સરખા હાય છે એજ રીતના ત્યાંના તે ભૂમિભાગ મૃદંગના પુષ્કર જેવા સમ-સરખા છે. મૃગએ લેક પ્રસિદ્ધ એક પ્રકારનું વાઘ વિશેષ છે, તેનુ પુષ્કર પણુ બિલ્કુલ સરખુ હાય છે, ઉંચુ’ નીચુ હેતુ નથી. એજ રીતે પરિપૂર્ણ પાણીથી ભરેલ તળાવની ઉપરના ભાગ ८५३ Page #877 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोंतिकाटीका प्र.३ उ.३.५३ वनर्षण्डादिकवर्णन ४५३ वा' सस्तलमिति श पानीयेन भृत तडागं सरस्तस्य तलम्-उपरितनो भागः 'करतछेइ वा' करदलमिलिया करतलं प्रतीतम् 'चंदमंडलेइ वा' चन्द्रमण्डल मिति वा, चन्द्रमण्डलं च यद्यषि तत्ववृत्त्या उत्तानीकृत कपित्थाकार पीठमासादापेक्षया वृत्तालेखमिति हद्तो दृश्यमानो भागो न समतलस्तथापि प्रतिभासते समतल इति तदुपादानम् ॥ 'आयंस मंडलेइ वा आदर्शमण्डल मिति चा-दर्पणमण्डलमिति वा, 'मुरमंडलेइ वा सूर्यरण्डलमिति वा, 'उरूमचम्मेइ बा' उभ्रः करणः 'बेटा' इति लोकमसिद्ध 'उस मचम्सेइ वा वृषभचम, इति वा, वराह-पानी से भरे हुए तालारका ऊपर का भाग जैसा समतलबाला होता है उसी प्रकार से यहां का भूमिभाग भी समतल वाला है ऊंचा नीचा नहीं इसी प्रकार जैसा करमल के समान समभागवाला है जिस प्रकार चन्द्रमण्डल लमत्तलप्रतीत होता है हली प्रकार से वहाँ का भूमिभाग भी समतलवाला यद्यपि चन्द्रमण्डल लमतलवाला नहीं होता है क्यों कि चन्द्रमंडल में उत्सानीकृत कपित्यके आज्ञार के जैसे पीठ प्रासादही अपेक्षा ऊंचा नीचाएज्य है परन्तु यहां जो लमतलता के विषय में इन्हें दृष्टान्त क्षोटी से रखापया है, वह उनका दृश्यमानभाग समतल रूप से प्रतीमालित होता है इस अपेक्षा से रखागया है, इसी प्रकार से यहां का भूमिमा 'आयंमंडलेह वा सूर मंडलावा' आदर्शतल के सम्मान समतलवाला है और सूर्य मंडल जैसा समालोमा है वैसा समतल है 'उरभ०' उरभ्र नाम ऊ का है जिले भाषा मे घेटा कहा जाता है इसका चमडा बिलकुल स्वमाल होता है इसी प्रकार-'उसभचम्मेह જેમ એક સરખે સમતલ હોય છે ઉચ નીચે હોતા નથી, એજ રીત ' એ ભૂમિભાગ સમતલ હોય છે. જેમ કરતલ એક સરખો સમ હોય છે તેમ એ ભૂમિભાગ પણ કરતલ જે સમતલ હોય છે. જે પ્રમાણે ચંદ્ર મંડલ એક સરખું સમ હોય છે એ જ રીતે ત્યાને ભૂમિભાગ પણ સમતલ હોય છે. યદ્યપિ ચંદ્ર મંડલ સમતલ હોતું નથી કેમકે ચદ્રમંડલમાં ઉંચા કરેલ કાંઠાના આકાર જે પીઠ-પ્રાકારના જેવું ઉંચાનીચાપાયું છે. પરંતુ અહીયાં જે તેને સાતલ પણાના દષ્ટાંતમાં રાખવામાં આવેલ છે, તે તેને દૃશ્યમાન દેખાતે ભાગ સમતલ દેખાય છે એ અપેક્ષાથી અહીં રાખેલ છે એજ રીતે त्याना भूमिमा 'आवंसमडलेइ वा सूरमडलेइ वा' मास तसना सरा સમતલ વાળો છે. અને સૂર્ય મંડલ જેમ સમતલ હોય છે તે એ ભૂમિભાગ સમતલ વાળે છે “દમ” ઉરભ્ર ઉરણને કહે છે, જેને ભાષામાં ઘટા કહેવામાં આવે છે. તેનું ચામડુ એકદમ સમતલ હોય છે, તેના જે Page #878 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औवामिगम चम्मेइ वा वराहचर्म इति वा, 'सीहचम्मेइ वा सिंहचर्म इति वा, 'दग्घचम्मेइ वा' व्याघ्रचर्मेति वा, 'विगचम्मेइ. वा' वृकचर्मेति वा, 'दीवीचम्मेइ वा द्वीपि-चित्रकस्तस्य चर्मेति वा, 'अणेग संकु कोलगसहस्सवितते' अनेकशङकुकीलकसहस्रक्तिता एतेपामुरभ्रादीनां प्रत्येकं चर्म अनेकैः शङ्खपमाणैः कीलकसहसः महद्भिः कीळकरताडित पायो मध्य क्षामं भवति न समतलं भवति, अतः शङ्खग्रहणम्, विततं-विततीकृतम् ताडितं सद् यथाऽत्यन्त बहुसमं भवति तथा तस्यापि वनपण्डस्पान्तवहसमो भूमिभागः । पुनः कथंभूतो भूमिमागस्तत्राह-णाणाविह पंचवन्नेहि' इत्यादि, 'गागाविह पंचवण्णेहि तणेहि य मणोहि य उवलोभिए' नानाविध पञ्चवर्णैस्तृणैश्च मणिमिवोपशोमितः कथंभूत रतैः ? तत्राह-'अक्ड' वा' उसनवाषा में बैलका नाम है 'वराह चम्मेइ वा वराह नाम सुअर का है 'सीह चम्मेह वा सिंहा नाम शेर का है। 'बग्घ चम्मेवा व्याघ्र नाम सिंह की ही एक जाति के जानवर का नाम है, 'विगचम्मेह वा' वृकनाम भेडिया का है 'दीवि चम्मेह वा द्वीपीनाम चीत्ता का है 'अणेग संकुशीलग सहस्सावितते' इन सब जोनवरों का चमडा शङ्कुप्रमाण बडी २ हजारों कीलों से जव तक ताडित नहीं होता है तव तक वह समतल वाला नहीं होता है, किन्तु वह मध्य में क्षाम-पतला-रहता है और जब वह-ताडित होता है तब वह वहुसम हो जाता है, अतः जिस प्रकार इन लवका चमडा इस प्रकार से ताडित हो जाने पर समतल वाला हो जाता है, उसी प्रकार से इस वनखंड का भी भीतरी भूमि भाग समतल वाला है 'नाणाविद पंचमण्णे ितणेहिं य मणीहिय उव. सोभिए' यह भूमिभाग नाना प्रकार के पंचवर्णों वाले तृणों से एवं से भूमि समतल छ ०४ Na 'उसभचम्मेइ वा' वृषम अर्थात् मण 'वराहचम्मे इशा' १२॥ (सु) सुवरने ४ छे. 'सीइचम्मेइ वा' सिह 'वग्धचम्मे इवा' पा से मिनी जतनाम छ. 'विगचम्मेइ वा' १४ अर्थात् ५४ 'दीविचम्मेइ वा' दीपि से वित्तानु नाम छ 'अणेग संकुकीला सहस्ववितते' मा मा नवरानु याम शा भाटा मोटर &रे। ખીલાથી જ્યાં સુધી ટીપવામાં આવતા નથી ત્યાં સુધી તે સમતલ બનતા નથી. પરંતુ તે મધ્યમાં પાતળા રહે છે. અને જ્યારે તે ટીપાય છે, ત્યારે તે એક દમ સમ સરખા બની જાય છે. તેથી જે રીતે આ બધાનું ચામડું એ રીતે ટીપાયા પછી સમતલ બને છે, એ જ પ્રમાણે એ વનખ ડની અંદરને ભૂમિ मास समनपाणे .य छे 'नाणाविह पंचवण्णेहि तणेहि य गणीहिय उव सोभिए' मा भूमि अने: ५५९ना पय पवाणा तयाथी भने भणिय। Page #879 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पप्रमोतिका का प्र.३ उ.३ सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् इत्यादि, 'आवड पच्चाउडसेढी पसेढी सोस्यिय सोवस्थिय पूसमाण वद्धमाणमच्छंड कजारमारफुल्लावलि पउमपत्तसागरतरंगवासंतिलय पउमलयमत्तिचित्तेहि' आवर्तपत्यावर्त श्रेणिमश्रेणि स्वस्तिक सौतिक पुष्पमाणवर्द्धमानकमत्स्याण्डकमकराण्डकजारमारपुष्पावलिपद्मपत्रसागरतरङ्गवासन्तीलता दालतामक्तिचित्र रुपशोभितः अत्र आवादीनि मणीनां लक्षणानि, तत्र आवत्तौ लोकप्रसिद्धएव, एकम्यावर्तस्य प्रत्यभिमुख आवतः प्रत्यातः, श्रेणिस्तथा विधविन्दजलादेः पा, तस्याश्च श्रेणेः विनिर्गता या अन्या श्रेणिः सा प्रश्रेणिः, स्वस्तिको लोकमणियों से उपशोभित है यहां आगे के पदों से सबध बताया गया हैवे तृण और मणि किस प्रकार के है सो दिखलाते है 'आपडपच्चावड सेढीपसेढी सोस्थिय सोवस्थिय पूलमाणबद्धयाण अच्छंडकमकरङजार मारफुल्लालि पउमपत्त सागरतरंगशामंनिल पप उसलय भत्तिचित्तेहि ये तृण और मणियां आवर्त प्रत्यावर्त्त, श्रेणी प्रश्रेणि स्वस्तिक सौवस्तिक, पुष्पमाणव वर्द्धमानक-शराव संपुट मस्त्यांडक, मझरा ण्डक एवं जारमार इन सब रचनाओं से अर्थात् आवादिलक्षणों से युक्त है एवं पुष्पवलि पद्म पत्र सागरतरङ्ग वासन्तीलता और पद्मलता इनकी रचनाओं से जिनमें चित्र बने हुए हैं. मणिका लक्षण जो आयत है वह तो लोकप्रसिद्ध ही है एक आवर्त के सामने जो दसरा आवर्त होता है वह प्रत्यावर्त है इस प्रकार की जो विन्दु जैसा विन्दुसमूहों की पंक्ति है वह श्रेणि है, इस श्रेणि से जो दुसरी થી શોભાયમાન રહે છે. અહીં આગળના પદને સંબંધ બતાવેલ છે. मे तुमने भयो । ४।२। छे ये सूत्रधार मतावे छे. 'आवद्धढ पच्चावड्ढी सेढीपसेदी सोत्यिय सेवत्थिय पूममाणवद्धमाणमच्छडकमकरंडकजारमारफुल्लावलि पउमपत्तसागरतरंगवास तिलयपउमलय भत्तिचित्तेहि' मा तर અને મણિયે આવર્ત પ્રત્યાવર્ત શ્રેણી પ્રશ્રેણી સ્વસ્તિક પૌતિક પુષ્યમાણવ વદ્ધમાનક શરાવસંપુટ માંડક. મકરાડક એવં જારમાર આ બધી રચનાઓથી અર્થાત આવર્ત વિગેરેના લક્ષણો વાળ એ ભૂમિભાગ છે. તથા પુષ્પાવલી, પપત્ર, સાગરતરંગ, વાસંતીલતા અને પદમલતા એ બધાઓની રચનાથી જેમાં ચિત્રો બનેલા છે. એવે એ ભૂમિભાગ છે. હવે આવર્ત વિગેરે શબ્દોને અર્થ બતાવવામાં આવે છે. મણિનું એક લક્ષણ આવર્ત છે તે તે લેકમાં પ્રસિદ્ધજ છે, તથા જલતરંગને પણ આવર્તા કહેવામાં આવે છે. એક આવર્તની સામે જે બીજુ આવર્ત થાય છે તેને પ્રત્યાવર્ત કહે છે. બી ટુ સમૂહોની જે પંક્તિ હોય તેને શ્રેણી કહે છે. એક શ્રેણથી જે બીજી શ્રેણી નીકળેલી હોય છે, તેને પ્રશ્રેણી કહે છે. સાથિ Page #880 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवामिगमसूत्रे ८५६ प्रसिद्धः, सौवस्तिक पुण्यमाणवी लक्षण विशेषौ लोकादेवाव गन्तव्यों, बर्द्धमानकं शराव संपुढं, मत्स्याण्डकमकराण्ड के कोरूपसिद्धे एव, जारमारेति मणेर्लक्षणविशेष लोकज्ञाप्यौ, पुष्पावलि पद्मवत्रसागरतरङ्गचासन्तीलता पद्मलठाः प्रसिद्धा एव वास पावल्यादि पद्मलतान्तानां भक्तचा विच्छिया चित्रैः आवर्त्तादि लक्षणो पेतेः, तथा - 'मच्छ, एहिं' सच्छाये:- विलक्षणच्छायायुक्तैः 'समरी पूर्हि' समरीचिकेः वर्गित किरण जालस हते, 'स उज्जो' सोधोत्तेः वह्निर्व्यवस्थित समीपवर्त्ति वस्तुस्त ममकाशकःरोधोतसहितैः एवम्भूतः 'नाणाविव नानाविधपश्च वर्णैर्विभिन्नजातीयपञ्चवर्णोपते:- तृणैर्मणिभियोपशोभितो पण्डर, तानेव पञ्चवर्णान् दर्शयतुमाह-जहा' इत्यादि, 'तं जहा' उद्यथा 'विण्हेहिं जान सुकिलेहिं कृष्णवर्णः यावत्पदेन नीललोहितपत संग्रह | एतान् पञ्चवर्णान् पृथक् पृथक् वर्णयति तत्र प्रथमं गौतमः कृष्णवर्णपिये पृच्छति श्रेणि निकली हुई होती है यह प्रश्रेणि है माथिये का नाम स्वस्तिक है, सौवनिक और पुष्यमाण ये दो लक्षणविशेष लोक से जानने योग्य है शराब का नाम वर्द्धमानक है स्याण्ड और मक कभी मविलक्षण विशेष है । और ये भी रत्न परिक्षकों से जानने योग्य है । जार मार भी हमी प्रकार के घषिलक्षणविशेष है और ये भी जोरो से जानने योग्य है । 'मच्छाहिं वतिरीहि म एहि नागाविणे' तथा ये तृग सगियां सुन्दर प्रति से युक्त 숨 | बाहर निकलती हुई कि जाल से है तथा बाहर यही हुई निकट की वस्तुनो के व के प्रकाश करने वाले उद्योन से युक्त है जिन पांच वाले तुम और नानाविधभूमि भागयुकमणियां कृष्णवर्ण, याद शुल्कवर्ण वर्णो से सुशोभित है यहां यावत्पद से नीललोहित और पीलवर्गो का ग्रहण ચાને સ્વસ્તિક કહે છે. નૌવસ્તિક ને પુ'યમ'વ એ બે શબ્દને અ લેક સમૂહથી જાણી લેવા. શરાન્સ પુટને વમાન્ક કહે છે મ રડે છે મકરાંડ એ ચિાના લક્ષણ વિષ છે અને એ તાની પક્ષ કરવાવાળા पांसेधी समल सेना, 'सच्चाएहिं समरीएहि सउज्जोएहि णानाविह पंच વળે'િ તથા આ તૃત્રુ અને માિ સુંદર કાતિથી યુક્ત છે બડા નીકળતી કિરણાળે થી યુક્ત છે તથા મહાર રહેલ સમીપની વસ્તુએના સમૂહને પ્રકાશિત કરવાવાળા ઉદ્યોત તેજથી યુકત છે. જે પચ વર્ણના ભૃગુ અને નાના પ્રકારના મણિથી એ ભૂમિભાગ ચુત છે, તે વણથી સુશેાભિત છે અહીંયાં યાવત્પદથી નીલ, ને મણુિ ખ્રુવ ય વત્ શુકલ લેાહિત, અને પીતવર્ણ , - Page #881 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् 'तस्य णं जे ते किण्हा तणाय मणीय' तत्र-तेषां पञ्चवर्णा तृणानां मणीनां च मध्ये खलु यानि तानि कृष्णानि तृणानि ये ते कृष्णा मणयश्च 'तेसि णं अयं एयारूवे वण्णावासे पन्नत्ते' तेषां कृष्णवर्णोपेताना तृणानां मणीनां च खल किम् अयम्-अनन्तरमुद्दिश्यमान एतावद्रपोऽनन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावासो-वर्णनिवेशः प्रज्ञप्त:-कथितः ? तदेव दर्शयति-'से जहा णामए' तधयानामकम्-'जीमूतेइ वा जीमूत इति वा, जीमूतो मेघः स वी प्रारम्भसमये जलभृतो ज्ञातव्य स्तत्सदृशस्तृणानां मणीनां च कृष्णवर्णः, तादृशमेघस्यैवातिकालिमसंभवात्, इति शब्द उपमाभूतवस्तूनामपरिसमाप्तियोतका वा शब्द उपमानान्तरापेक्षया समुच्चये, एबमेव सर्वत्रैव इति शब्द वा शब्दो द्रष्टव्याविति । ___ 'अंजणेह वा' अञ्जनमिति बा, तत्र अञ्जनं सौवीराञ्जनं रत्नविशेषो वा 'खंजणेइ वा खञ्जनमिति का खञ्जनं दीपमल्लिकामलः, 'कज्जलेइ वा कजलमिति वा कज्जलं दीपशिखा पतितम् 'मसीति वा' मपीति वा, तदेव कज्जलं हुआ है इन पांचों वर्गों का पृथक पृथक वर्णन करते हैं उनमें गौतम स्वामी प्रथम कालवर्ण के विषय में पूछते है हे भगवन् 'तत्थ णं जे ते कण्हा तणा मणीय' इन पांचवर्णशाले तृणों और मणियों के बीच में जो कृष्णवर्णवाले तृण और मणियां है 'तेसिणं अयं एयारूवे लण्णा. वासे पण्णत्ते' उनका वर्णावास वर्णन्यास इस प्रकार का होता है क्या ? 'से जहानामए जीमूह वा' जैसा काला वर्षा के प्रारम्म समय में जल से भरा हुआ बादल होता है 'अंजणेतिवा' जैसा काला सौवीराञ्जन या इस नामका रत्न विशेष होता है 'खंजणेहवा' जैमा काला-खंजनदीपमल्लिका मैल होता है 'कज लेहवा' जैसा फाला काजल होता हैदीप शिखा से गिरी हुई मषी होती है अर्थात् काजल को किसी ગ્રહણ કરાયેલ છે હવે એ પાંચ વર્ગોનું અલગ અલગ વર્ણન કરે છે તેમાં શ્રી ગૌતમસ્વામી પહેલાં કાળાં વર્ણના સંબંધમાં શ્રીમહાવીર પ્રભુને પૂછે છે કે भगवन् 'तत्य गं जे ते कण्हा तणा मणीया मे पाय पक्ष वा तशी अने मायामा २० वा तुमने मणिय छ, 'तेसि णं अय एयासवे घण्णावासे पण्णत्ते तो वास-पन्यास मानी शते हाय छ ? 'से जहा नामए जोमूतेइवा' व जना पार समयमा यी मरेसा पाणावा ७॥ हाय छे, 'अंजणेतिवा' २jण सीवान अथ से नानुन विशेष डाय छ, 'खजणेवा नहीवाना मेव-मश २ ॥णी हाय छे. 'कज्ज. રૂવા” કાજળ અર્થાત દીવામાંથી ખરેલી મશ જેવું કાળું હોય છે, અથવા કાજળને તાંબાના વાસણમાં એકઠું કરી જ્યારે તેને કેઈ નિગ્ધ પદાર્થની मी० १०८ Page #882 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीचाभिगमसो ताम्रपत्रादिषु सामग्रीविशेषेण घोलितं मपी भवति, 'मसीगुलियाइ वा मपी. गुटि केति न घोलितकाजलगुटिका 'सबलेइया' गवलकमिति बा गवलं महिपम्य शृङ्गम् तदपि चोपरितनावग्भागापसारणेन द्रष्टव्यं, तत्रैव विशिष्टस्य कालिम्नः संभवादिति, 'गवलगुलियाइ वा गवलगुटिकेति वा तस्यैव महिपशृगस्य निविदा तरसारनिवतिता गुटिका गवलगुटिका 'ममरेइ वा भ्रमर इति वा, 'भमरावलि. याइ वा' भ्रमरावलिकेति वा, भ्रमरावलिका भ्रमरपङ्क्तिः : 'भमरपतंगसारेइ वा' भ्रमरपतनसार इति वा, भ्रमरपक्षान्तर्गतो विशिष्टकालिमोपचितः प्रदेशः 'जंबू फळे वा' जम्बृफलमिति वा तत्र जम्बूफलं 'जामुन' इति प्रसिद्धम, 'अदारिठेइ वा' आरिष्टः कोमलकाकः, 'परपुढेइ वा' परपुष्ट इति वा पर पुष्टः ताम्रपाशदि में एकट्ठा करके जब उसे किमी सामग्री के साथ घोल दिया जाता है-तम यह विशेष रूप से काला होकर मपी काली स्याही के रूप में आजाता है इसे ही मपी कही गई हनी लिये यहां काजल को दृष्टान्त कोटि में रग्वागया है 'मसी गुलियाइ वा जैमी काली मपी की गुटिका होती है 'गदल' जैमा छाला भलका होता है-भैस के मींग की उपर की खाल निकाल देने पर वह विशेप कृष्णवर्ण का होता है--इसीलिए इहरे यहां दृष्टान्तकोटि में रखा गया है 'गवलगुलियाइ वा' जैसी काली गवलगुटिक्षा होती है यह गलगुटिका महिष के शृङ्ग के निविडतर रार भाग से निर्तित होने से विशेष कालिमा बाली होती है 'भमरेहवा' जैला काला भ्रामर होना है। 'भमरावलियाइ वा' जैली काली भ्रमर पंक्ति होती है 'अमरपतगयनारे वा' जैसा भ्रमर के पक्ष के अन्तर्गतप्रदेश विशिष्टकालियाचाला होता है जंफलेद वा' जैमा काला जामृन का फल होता है 'अदारिद्विति वा' जैसा काला સાથે મેળવી દેવામાં આવે છે, ત્યારે તે વિશેષ પ્રકારે કાળુ બનીને ચમકે છે. અને તેને પી કહે છે. તે બતાવવા અહી કાજળને દૃષ્ટાંત કટિમાં લીધેલ 2 'मसीगु लयांडवा' भसीनी गुटि-गाणी २वी आणी हाय छे. 'गवल' ભેંસ સ ગ જેવું કાળું હોય છે જે સના સી ગડા ઉપરની ખાલ કાઢી લેવાથી એ વિશેષ પ્રકારથી કાળા દેખાય છે તેથી જ તેને અહીં દષ્ટાંત તરીકે ગ્રહણ २ 'गवलगुलियाइवा' रेवी जी गरिय छे. मागसटि ભેંસના મી ગડાના એક્રમ સારભાગ રૂપ હેવાથી વિશેષ કાળાશ વાળી હોય ॐ भमरे युवा' २वा आणे। सभ। लेय छ, 'भमरावलियाइवा' सभमानी ५ठिती आणी डाय छ ‘भमरपत्तगयसारेइ वा' सभामेनी पांमनी - २२ मा म विशेष प्रा२नी ४ाश वाणासाय छे, 'जबूफळेइवा' 'मुस २१॥ tणा हाय छे. 'अदारिद्वेवा गानु परयुगपुराणु सत्य छ, परपुढेइवा' Page #883 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३.३ सू.५३ वनपण्डादिकवर्णन कोकिलः स च कापालितो अवतीति लोकमसिद्धः ‘गएइ वा' गज इति वा, गजो हस्ती 'गय कलभेइ वा' गजकलमा-गजशिशुरिति चा 'कण्हसप्पेइ वा' कृष्णसर्प इति वा 'कण्ह केसरेइ बा' कृष्ण केसर इति वा, कृष्णकेसरो बफुलः, 'आगासधिग्गलेइ वा आकाशथिग्गलमिति या आकाशविगालं शरदि मेघविनिमुंक्तमाकाशखण्डं तद्वदति कृष्णम् ‘कण्हासोयेति बा' कृष्णाशोक इति वा 'किण्डकणवीरेइ वा कृष्णकणवीर इतिचा, 'कण्हवंधुजीवेइबा' कृष्णवन्धुजीव इति वा, एते अशोकादयो वृक्षभेदाः । भवे एयारूवे सिया' भवेत्तृगानां मणीनां कृष्णो वर्णः एतावद्रूपो जीमूवादिस्वरूपः किं स्यात् ? इत्येवमुक्ते श्रीगीतसे भगवानाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'गो इणढे सपढे लायमर्थः समर्थः यदुक्ता कोमल काफ होता है 'परपुढेह था' जैसी काली कोयल होती है गए वा' जैसा काला हाथी होता है 'गय कल भेति वा जैला काला हाथी का बच्चा होता है कण्हसप्पेह वा' जैसा काला कृष्ण लपं होता है कण्ड केसरेइ वा जैसा काला कृष्ण केशर-बकुल होता है 'आमासधिग्गलेह वा जैसा काला आफ्नाशधिग्गल होता है शरदकाल में अघविनिर्मुक्त आकाश खण्ड होता है कहानीएति वा' जैसा काला कृष्ण अशोक होता है 'कह क्षणवीरेह वा' जैसी काली करुणकनेर होती है का बंधु जीवेइ वा जैसा काला बंधुजीया होता है 'एशास्वेनिया' तो क्या हे भदन्त ! वहाँ के तृणों का और मणियों का कृष्णवर्ण इन पूर्वोक्तजी मूतादि के जैसा ही होता है ? इस प्रकार से श्रीगौतमस्वामी के बीच में ही पूछने पर प्रभुश्री ने उनसे कहा 'गोयला' ! 'णो इणढे समडे' જેવા કાળા રંગવાળી કોયલ હોય છે. બાફવા હાથી જેવો વર્ણમ મહાન કાળો डाय छे. 'गयकलभेइवा' हाथीनु सरयु अणु हाय छ, 'कण्हसप्पेइवा' वो लय ४२ वि४२॥ त्यस५ डाय छे. 'कण्हकेसरेइवा' २ आयुष्य BAR डाय छे. 'आगासथिग्गलेइवा' २४ाणु आश थि हाय छे. अर्थात् श२६ मा मेथी भुत येत आRA डाय छ, 'कण्ह सोएइवा' 2 gory मा डाय छे. 'कण्डकणवीरेइवा' हेवी जी ४०५ ४२ डाय छे. 'कण्ह बधुजीवेइवा' रे आयु ५०१ डाय छे. 'एयारूवे सिया' है सावन् । त्यांना तुणे। मन मायानी लिमा भा પહેલાં કહેલ મેઘ વિગેરેના જેવી હોય છે ? આ રીતે શ્રીગૌતમસ્વામીએ पयमा प्रश्न ४२वाथ तना उत्तर भापतi प्रभुश्री ४ छ 'गोयमा ! णे। इणढे समढे' 4 अ पराम२ नथा. अर्थात् २वी शते मे विगैरेने | Page #884 -------------------------------------------------------------------------- ________________ to जीवामिगमस्त्रे एवं भूतः कृष्णो वर्णों,वा सतृणानां मणीनां च किन्तु 'तेसि णं कण्हाणं तणार्ण मणीण य' तेपो खल कृष्णानां तृणानां मणीनां च 'इत्तोइराए चेव कंततराए' इतो जीमूतादेः इष्टतरक एव कृष्णवर्णेनामीप्सिततरक एय, तत्र किश्चिदकान्तताऽपि केपाश्चिदिष्टतरा भवति ननोऽकान्तताव्यवच्छेदार्थमाह- कान्ततरफ एवं अतिस्निग्धमनोहारि कालिमोपचिततया जीमूतादेः कमनीयतरक एव 'पियतराए चे। प्रियतरक एव, अतएव 'मणुयराए चेव' मनोज्ञतरक एव, मनसा ज्ञायन्तेअनुकूलतया च प्रवृत्तिविषयोक्रि पन्ते इति मनोशा-मनोऽनुकूलाः ततः प्रकर्ष. विविक्षायां तरप्प्रत्ययः, तत्र मनोहतरमपि किश्चन्मध्यमे भवति ततः सर्वोत्कर्षः हे गौतम यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् जैसे जीमून आदि कालेवर्णवाले अभी २ कहे गये है वैले झाले वर्णवाले ये तृण और मणि नहीं है किन्तु 'तेसि कहाणं तणाणं मणीण य इत्तोष्ट्रमराए चेव कंनत राए' इन तृण मणियों का जो कृष्णवर्ण है वह इन जीमूतादिक पदार्थों से भी वहुन अधिक कृष्ण-काला है और यह उनकी कृष्णता देखनेबालों को अमचिका विषय नहीं होती है किन्तु अत्यन्न सुहावनी ही लगती है अतः अतिस्निग्धमनोहारिकालिमा से उपचित होने पर भी ये जीमूत-मेघआदि की अपेक्षा अत्यन्त कमनीय ही है 'पियतराए चेव' वियतर ही है 'मणुगणयरोए चेव' मने ज्ञनर ही हैं जिसे मन अनुकूल मानकर अपनी प्रवृत्ति का विषय बनाता है ऐसा पदार्थ ही मनोज्ञ कहा गया है । इम मनोज्ञ के साथ प्रकर्पविवक्षा में 'तर' प्रत्यय होने વર્ણવાળા તમને બતાવ્યા છે તેવા પ્રકારની કાળાશવાળા એ તૃષ અને भणिया नथी. परंतु तेखि कण्हाणं तणाणं मणीणय इत्तो इटुतगए चेव कंततराए' એ તૃણ મણિયેની જે કાલિમા છે તે આ જીમૂત-મેઘ વિગેરે પદાર્થોથી પણ ઘણી જ વધારે કાળાશ છે. અને એ કાળાશવાળી જેવાવાળાને અરૂચિકર હતી નથી પરંતુ અત્યંત સહામણીજ લાગે છે તેથી અત્યંત નિગ્ધ અને મનોહર કાળીમાંથી યુકત હોવા છતા પણ એ આ મેઘ વિગેરેની અપેક્ષાએ અત્યંત मनीय छे. 'पियतराए चेव' प्रियत२१ छे. 'मणुण्णतराप चेव' मनोज्ञत२४ છે જેને મન અનુકૂળ માનીને પિતાની પ્રવૃત્તિનો વિષય બનાવે છે, એવા પદાર્થ જ મનેજ્ઞ કહેવાય છે. આ મનની સાથે પ્રકર્ષની વિવક્ષામાં તરખું પ્રત્યય થવાથી “મનેzતર પદ બની જાય છે. આ રીતે જે અતિશય પણાથી મનને અનુકૂળ હોય છે, તે મનેzતર કહેવાય છે કઈ કંઈ મનેતર પદાર્થ पक्ष मध्यम डाय छे तथा मानी पाशमा सातापामा 'मणाम तराए चेव' मे ५६ हेवामा मावस . भनने पाताने १२ शो छ त Page #885 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयद्यौतिका टीक्षा ... यू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् पतिपादनार्थमाह-'मणापतराए चेव' मन आमतरक एव, मनांसि आम्यन्तेआत्मवशतां नयन्ति-इति मन आमतरक एव तेषां तृणानां मणीनां च कृष्णो. वर्णावासः 'वण्णेणं पन्नत्ते' वर्गेन मज्ञप्त कथित इति । अथ गौतमो नीलवर्ण विषये पृच्छति-'तत्थ णं जे ते णीलगा तणा य मणीण य'तत्र-तेषां तृणानां मणीनां च मध्ये खलु यानि तानि नीलानि तृणानि ये ते नीला मणयश्च 'तेसि ण' तेषां खलु तृगानां मणीनां च 'इमेयाख्वे वण्णावासे पन्नत्ते किम् अयम्-अनन्तोदिश्यमान, एतावद्रूपः-वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावास - वर्णनिवेशः पज्ञप्त:-कथितः ? तदेव दर्शयति-'से जहा णामए' त धथा नामकम् 'भिंगेइ वा भृङ्ग इति वा, भृङ्गः-(भिगोडी' इति प्रसिद्धः पक्षवान् लघुजन्तु विशेषः, "शियपत्तेइ वा' भृङ्गएत्रमिति बा, तस्यैव भृङ्गाभिधानस्य जन्तुविशेषस्य पक्षम 'चासेइ वा' चाप इति वा, चापः पक्षिविशेषः 'चासपिच्छे वा' चापपिच्छमिति वा, चापपिच्छं चापस्य पक्ष: 'सुपति वा' शुक इति वा. नीलवर्णः शुकः पक्षी 'सुपिच्छेइ वा शुशपिच्छमिति बा, 'णीलीति वा' नीली इति वा नीली 'नीळ' से 'रनोज्ञतार' पद निष्पन्न हो जाता है। इस तरह जो अतिशयरूप से मन के अनुकूल होता है वह मनोज्ञतर है। कोई २ मनोज्ञनर पदार्थ भी मध्यम होता है-अतः इन की कृष्णता से सवा कपंता प्रतिपादन करने के लिपित्त 'मणामनराएचेब' यह पद कहा गया है जो मन को अपने वश में कर लेता है, यह मनोऽम है यहां पर भी प्रकर्ष की विवक्षा तर प्रत्यय टुमा है । इस प्रकार के कृष्णवर्ण से युक्त यहां के मणि और तृण काहे गये है । अब श्रीगौतमस्वामी नीलवर्ण के विषय में पूजते है-'तस्थ णं भंते जीलगा तणा य सणीय' वहां पर जो नीलेवर्ण के तृण और मणि कहे गये तेलिणं हमेयारवे वण्णावासे पत्ते' उनका वर्णवास इस प्रकार कहे है क्या ? 'से जहानामए भिगेइ वा भिापता वा चासेड़वा, चासपिच्छेह का, सुएति वा स्तुयपिच्छेद वा, पीलीलिया, नीलीभेएह वा' जैसा नीला श्रृंग होता है जिसको મનેમ કહેવાય છે. અહીયાં પણ પ્રાર્ષની વિરક્ષામાં તર પ્રત્યય થયેલ છે. એવી રાતના કૃષ્ણ વર્ણ વાળા ત્યાંના મણિયે અને તૃણે હોય છે તેમ કહેલ છે. वे श्रीमतभस्वामी नीलवना समयमा प्रभुश्री२ पूछे थे 'तत्य गं भते णीलगा तणा य मणी य' त्यांनी १७ तृऐ। भने मरिया sal छ 'सि णं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' तेनु पन मा रीते तापामा मावतले से जहानामए भिगेइका भिगपत्तेइवा, चासेइबा चासपिच्छेइवा सुएइ वा सुयापच्छेइवा णीलीतिवा णीलीभेएइवा' । नील पनी हाय , Page #886 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्र इति लोकप्रसिद्धः 'णीली भेएइ वा नीली भेद इति वा, नीलीभेदो नीलीच्छेदः नीलखण्ड मित्यर्थः 'गोलीगुलिपाइ वा नीलोगुटिका इति वा 'सामाएति वा' श्यामाक इति वा श्यामको नीलवर्णों धान्यविशेषः 'उच्चंतएड वा' उच्चंतग इति वा, उच्चंतगो दन्तरागः 'वणराईइ वा बनराजी इति वा वनराजी लोकप्रसिद्धैव, 'हलहरबसणेइ वा हलधरवसनमिति वा, हलधरो वलदेव स्तस्य वसनंवस्त्रं हलघरवप्त नम्, तत् खल नीलं भवति सर्वदैव तथा स्वामाव्यात् हलधरस्य नीलवस्त्र परिधानात्, 'मोग्गीवाइ वा' मयूरग्रीवा इति चा 'पारेवयगीवाइ वा' पारावत:-कपोत स्तस्य ग्रीवा इति वा, 'अयसिकुसुमेह वा' अतसीकुसुममिति वा, 'अंजणकेसिगाकुसुमेह वा' अञ्जनकेशिकाकुमुममिति वा, अञ्जनके शिका वन भीगोडी कहते है जैसा नीला भृङ्ग पत्र होता है जैसा नीला चाप पक्षी होता है जैसा नीला उसका पंख होता है। जैमा नीला रंगका शुक-तोता होता है जैसा नीली शुक्रकी पंख होती है जैसी नीली नीली होती है, जैसा नीला नीलीभेद होता है 'णीलीगुलियाई वा' जैसी नीली नीली गुटिका होती है 'सालाएति' जैसा नीला श्यामाकधान्य होता है, 'उच्चतएतिवा' जैसा नीला उच्चतग-दन्तराग होता है । 'वणराई इवा' जैसी नीली वनराजि होती है 'हलहरक्सणेइ वा जैमा नीला हल. घर-बलभद्रका वसन-वस्त्र होता है 'मोरगीवाति वा' जैसी नीली मयूर ग्रीवा होती है 'पारेवयगीवातिवा' जैसी नीली पारावत परेवा कबूतर की ग्रीवा होती है 'अयसि कुप्लुमेह वा' जैसा नीला अलसीका फल होता है 'अंजणकेलिगा कुसुमेति वा' जस्ता लीला अंजन केशिकाकुसुम होता है 'अंजन केशिका' बनस्पति विशेषका नाम है જેને ભીગડી કહે છે, મૂંગપત્ર જેવુનીલ હોય છે. ચાલપક્ષી જેવું નીલ હોય છે. જેવી નિલી તેની પાંખ હોય છે. શુક પિપા જેવા નીલા રંગનો હોય છે. અને જેવી નીલરંગની તેની પાંખ હોય છે જેવી નીલી લીલ હેય છે. અને पनीसवीसन हाय छ, 'णीलीगुलिया इना' सीखनी शुटि गाणी २वी बाली उय छे. 'सामाएति वा' श्यामा नामनु धान्य सादु जाय छ, 'उच्छतएतिया' बुलायत (in गावान। २ शेष) डेय छे. 'वणराईइवा' पनराल वा डाय छ, 'हलहरवसणेइवा' ७३५२ समर्नु परे सोडाय 'मोरग्गीवाइवा' भारनी श्रीवा २वी alal हाय छ, 'पारेवय गीवा इवा' पारेवा-पूरानी श्रीपावी aleी डाय छे. 'अयसी कुसुमेइवा' भसीन सुख का सील हाय छ, 'अंजण केसिगा कुसुमेइवा' - शिना gaalan ना हाय छे 'मनशि:।' Page #887 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका का प्र.३ उ.३ १.५३ वनपण्डादिकवर्णनम् स्पतिविशेष स्तस्याः कुसुमम् अञ्जनकेशिकाकुसुमम् ‘णीलुप्पलेइ वा' नीलोत्पलमिति वा, 'णीलासोएइ वा नीलाशोक इति वा, ‘णीलकणवीरेइ चा' नीलकणबीर इति वा, ‘णीलबंधुनीवेएइ वा' नीलबाधुजीवक इति व', 'भवेएयारवे सिया' भवेत् तृणानां मणीनां च एतावदपो नीलो वर्णावासः किं स्यादिति गौतम वाक्यम् भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'णो इणटे साडे' नायमर्थः, समर्थः, 'तेसि णं नीळगाणं तणाणं मणीण य' तेषां खलु नीलानां तृणानां मणीना च 'एत्तो स्टतराए चेव' इत:-भृङ्गादेः इष्टतरक एच 'कंततराए चेव' कान्ततरक एव 'मणुमतराए चेव' मनोज्ञतरक एव 'मणामयराए चेव' मन आन्तरक एव, 'वण्णेणं पन्नत्तो' वर्णेन नीलो वर्णावासः प्रज्ञप्तः-कथित इति ।। इसका कुसुमनीलवर्ण का होना है ‘णीलुप्पलेह वा' जैसा नीला नीलो. स्पल नील कमल होता है। 'णीलामोएवा' जैसा न ला नील अशोक वृक्ष है ता है 'णीलकणवीरेइ वा जैसी नीली नीलकनेर होती है 'णील. बंधुजीवे वा' जैसा नीला नील ब.धुजीवक होता है तो क्या, हे भदन्त ! वहां के तृण और मणियों का ऐसा ही नीलवर्ण होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है । गोयमा ! णो हणढे सन?' हे 'गौतम | ऐसा अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'तेलिणं णीलगाणं तणाणं मणीण य' उन नीले तृणों को और मणियों का 'एत्तो इतराए चेव कंततराए चेव चण्णेणं पन्नतो' जो नीलाचर्ण है वह इन भृङ्गादिकों की अपेक्षा से बहुत अधिक इष्टतरक शान्ततरक और मनोज्ञनरक तथा मन आमतरक होता है अतः ये नीले तृण और मणि इल रंग से उन भङ्गादिको की अपेक्षा बहुत अधिक इष्ट तरफ आदि विशेषणों वाले होते है। से वनस्पति विशेषतुं नाम छे. मेनु ०५ नवन डाय छ 'नीलुप्पले इवा' नावोत्पल नाभलीय छ, णीलासोएइवा' नी म वृक्ष बाय छ, 'णील कणवीरे इबा' रवीनीस, नास ४२] हाय छे. 'जीलबंधुजीवेइवा' नीस मधु रे नी गर्नु साय छ तो है ભગવદ્ શું તે તૃણ અને મણિયે એવા નીલ વર્ણના દેય છે ? આ પ્રશ્નના उत्तरमा प्रभुश्री. गौतमत्वामीन से 3 'गोयमा ! इणट्रे सम' है गौतम । सा मथ थन सशसर नथी म तेसि णं णीळगाणं तणाणं मणीण य' से दीवात। मने भशियाना 'एत्तोइतराएचेव वण्णेणं पण्णत्ता'२ લીલે વર્ણ છે તે આ ભૂંગ-ભમરા વિગેરેના કરતાં ઘણો વધારે ઈષ્ટતર, કાંતતરક, અને મનેzતરક તથા મન આમતરક હોય છે, તેથી આ નીલ વર્ણના તૃણ અને મ િઆ ભૂંગ-ભમરા વિગેરેના રંગ કરતાં પણ ઘણાજ વધારે ઈષ્ટતર કાંતતરક, વિગેરે વિશેષાવાળા હોય છે. • Page #888 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६४ जीयामिगमसूत्र अथ रक्तवर्णविपये श्रीगौतमः पृच्छति- 'तत्थ जे ते लोहियमा तणाय मणीय तत्र तेषां तृणानां मणीनां च मध्ये यानि तानि लोहिनानी लगाने ये ते लोहिता मणयश्च सेसि णं अश्मेयारवे वण्णायासे पन्नत्ते तेषां लोहितवणमणीनां किम् अयम्-अनन्नरमुद्दिश्यमान एतावद्र्पो वक्षामाणस्वरूपो वर्णावासा प्राप्त:-कथितः, तदेव दर्शाति-'से जहा णामए' तद्यथा नामकम् 'ससगरुहिरेइ का' शशकरुधिरमिति चा, शशकः 'सस' खरगोश इति प्रसिद्धस्तस्य मधिरम् 'उभरुहिरेइ वा' उरभ्ररुधिरमिति वा, उरभ्र अणः 'बेटा' इति लोकमसिद्ध स्तस्य रुधिरम्, 'णरमहिरेइ वा नररुधिरमित वा 'वराहरु हरेइ वा' चराहरुविरमिति वा वराहो ग्रामशूकर स्तस्य रुधिरम् 'महिसरुहिरेइ वा महिपरुचिरमिति वा, शशकादि महिपानानां रुधिराणि शेषजीवरुधिरापेक्षा उत्कटलोहितवर्णानि भवन्ति, तत एतेषामुपादानम् । 'बालिंदगोपएड वा' बालेन्द्रमापक इति वा वाले दगीपकः सयो जात इन्द्रगोपकः, स हि प्रवृद्धः सन् ईपढ़क्तो भवति ततो वालग्रहणम् इन्द्र गोपकः प्रथमपावृहमाची कीटविशेषः। 'बालदिवागरे वा बालदिवाकर इति चा, बालदिवाकरा प्रथम मुद्गच्छन् मूर्य सपातीय रक्तवो भवति-तथोक्तम्- अब श्रीगौतमाचामीलोशित वर्ण के विषय में पूछते है 'तत्त्रणं जे ते लोहियगाणाध मणीय लेमिणं अयमेघावे वाचासे पत्ते नहीं जो लालवर्ण वाले तृण और मणि कहे गये हैं उनका वर्णवाम इम प्रकार होता है क्या ? 'से जहाणामए समशहिरेश्या' जना शमा-खरगोश का रूधिर लाल होता है। 'उरुभमहिरेवा' जैसा वेंटी का मधिर ल ल होना है। 'परमहिरेहबा' जैसा मनुष्य का मधिर लाल होता है। 'वराहहिरेह वा' जै पा सुकर का रूधिरलाल होता है । 'महिलाहिरेह वा जमा ममा का मधिर लाल होता। पालिंदगोवएति वा' जैमा लाल बाल प्रथमवर्षाकालभावो इन्द्रगोपककीट विशेष होता है 'बालदिवाग- હવે શ્રગીતમસ્વામી લેહિત લાલ વર્ણના સ બ ધના પ્રભુશ્રીને પ્રશ્ન કરતાં मारन तत्थ णं जे ते लो हेयगा तगा य मणी य रेमिण अयमेया. वे वण्णावासे पण्णत्ते त्याने ale 4gणा तृपः मने भयो ४ा छे. तमो वयास-१ मा प्रभारी डाय ? 'से जहानामए ससहिरेवा' ससा तुं ही पुसाय छे, 'णग्रुहिरेइव।' मनुनु साडी बु. सास साय छे. 'उमाहिरेदवा' घटानु सही समय 'वराह रुहिरे इवा' १२ सुनुवाडी बादाय छ, 'महिसरहिरेइवा' मे सर्नु बहीबास डाय छे. 'वालि दगोवएइवा' पहे। वर्षाहना समयमा पन्न थये। मादा ५ ही विशेष सास डायो, 'बालदिवाक Page #889 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ २.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् ____ उदये सविता रक्तो, रक्तश्चास्तमयेऽपि चेति । 'संझन्भरागेइ वा' सन्ध्या . भ्रराग इति वा वर्षाकाले सन्ध्यासमयभावी अभ्ररागः 'गुंजद्धराएइ वा' गुञ्जा. राग इति वा, तत्र गुञ्जा लोकपसिद्धा तस्या अर्द्धरागो यो रक्तो भागः गुञ्जा. दंरागा, गुञ्जाया उपरितनाई मागः कृष्णो भवति, निम्नभागस्तु अतिरक्तो भवति, ततो गुजार्द्धग्रहणम् 'जाति हिंगुलएइ वा जात्यहिंगुलुक इति वा 'सिल. पवालेइ वा' शिलापवालमिति वा, शिलामबालनामा रक्तरत्नविशेषः, 'पघालं कुरेइ वा प्रवालाकुर इति वा तस्यैव प्रवालनामक रत्नविशेषस्याङ्कुरः भवालाकुरा, स खलु प्रथमोद्गतत्वेनात्यन्तरक्तो भवति तत स्तदुगदानमिति । 'लोहितक्ख मणीति वा' लोहिताक्ष मणि रिति वा, रक्तवर्णो मणिविशेषो लोहिताक्षमणिगिति। 'लाक्खारसएइ वा' लाक्षारस इति घा, लाक्षा खलु लोकपसिद्धा, तस्या रसः, 'किमिरागेइ वा कृमिराग इति वा 'रत्तकंबलेह वा' रक्तकम्बल इति बा, 'चीनरेवा' जैसा लाल बाल दिवाकर होता है जैसे कहा है 'उदये महिना रक्तो रक्तश्चास्तमयेऽपिच' सूर्य उदय समय में तथा अस्त के समय में भी लाल ही होता है 'सजभरागेइ था' जैसा लाल वर्षाकाल में संध्यासमय का अनुराग होना है 'गुंजद्धराएइ वा' जैसा लाल गुंजा का-रत्तीका-अर्द्ध भाग का रंग होता है। 'जातिहिंगुलेह वा' जेसा लाल शिलापवाल-चाल नामका रत्न विशेष होता है-'पवालं कुरेइवा' जैसा लाल प्रवालाङ्कर होता है प्रवाल को पलका अङ्कर प्रथमो द्गत होने से अत्यन्त लाल होता है इसीलिये यहां उसे दृष्टान्त. कोटि में रखा गया है 'लोहितक्खमणी वा' जैला लाल लोहिताक्ष. माण होता है 'लक्खारसेहवा' जैसा लोल लाक्षारत होता है । 'किमिरागेह वा' जैसा लाल कृमिराग होता है 'रत्तकंबलेह वा' जैला लाल रक्त रेइवा' २१ साल माहवार-सूर्य हाय छे. मधु छ ? 'उदये सविता रको रक्त श्वास्तमयेऽपिच' सूर्य ना हयना समये सने २१२1ना समये ५९ २ तास राय छे. संजभरागेहवा' सिनी सध्या समयन। २ । साराय छे. 'गुजद्धरागेइवा' -२तिना स सागने। २ । तालय छ, 'जाति हिंगलेश्वा' सत्य हगणना २० रवा खास डाय छे. 'सिलप्पवालेइवा' शिक्षाप्रवास प्रस नामना नविशेष २ ana ाय , पवालकुरेइवा' प्रवासना म १२२। वय साद હોય છે, પ્રવાલની કુંપળનો અંકુર પહેલાજ નીકળેલ હોવાથી ઘણેજ લાલ डाय छे. तेथी गडियां ते दृष्टांत तरी हा ४२० छ. 'लोहितक्खमणी इवा' alsक्षमा २७ साल 8य छ, 'लक्खारसेइवा' साक्षा२स को सास जी० १०९ Page #890 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६६ जीवामिगमसूत्रे परासी बा' चीनपिष्टराशिरिति वा चीनमिति रक्तवर्णी धान्यविशेषः तस्या पिष्टं चूर्ण तस्य राशि:- पुञ्ज इति वा 'जायसुवणकुसुमेह वा' जपाकुसुममिति वा 'कि सुकुसुमेवा' किंशुककुसुममिति वा, कि शुकः - पकाशवृक्ष स्तस्य पुष्पम् 'पारिजायकुसुमेह वा' पारिजातकुसुममिति वा, 'रत्तुप्पले वा' रक्तोत्पलमिति वा 'रचासोएइ वा' रक्ताशोक इषि वा 'रत्तकणवीरेइ वा' रक्तकणवीर इति वा 'रक्तबंधुजीवेइ बा' रक्तबन्धुजीवक इति वा, 'भवेयारूवे सिया' भवेत्तृणानां मणीनां च एतावद्रूपः किं रक्तो वर्णावास इति गौतमस्य वाक्यम् । भगवानाह - हे गौतम! 'नो इण्डे समड़े' नायमर्थः समर्थः ' तेसि णं लोहियगाणं तणाण य कम्बल होता है 'चीनपट्टगसीह वा' जैसी लाल चीन पिष्ट राशि होती है अर्थात् कीन नामका लालरंगका धान्यविशेष को कहते हैं उसका पीष्ठ आटा जैसा होता है 'जायसुधणकुसुमेह वा' जैसा लाल जासुसका फूल होता है । 'किंकुसुमेह वा' जैसा लाल 'किंशुक - पलाश का पुष्प होता है 'पारिजाय कुसुमेह वा' जेला लाल पारिजातक का कुसुम होता है 'रत्तुप्पले वा' जैसा लाल रक्तोत्पल होता है । 'रत्तासोएड वा' जैसा लाल रक्ताशोक होता है 'रत्तणवीरेइ वा' जैसी लाल रक्त कनेर होती है 'रक्तबंधुजीवेइ वा' और जैमा लाल रक्त बंधुजीवक होता है तो 'भवेएयाहवेलिया' क्या ! हे मदन्त | उन तृण और मणिओं का ऐसा ही लाल वर्णन होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है- 'गोधमा ! जो हण्डे समट्टे हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योकि 'लेसि णं लोलियगाणं तणाणय मणीणय' उन रक्त तृण एवं हाय छे. 'किमिर्गेइवा' भिर ने सास होय हे 'रत्त कंबलेइवा' सास श्रमण रंग व सास सोय छे 'चीन विट्ठरासीइवा' थीन नामना धान्य विशेषनो पिष्ट बोट व सास सोय छे, 'जायसूयण कुसुमेश्वा' नेवासास रंग असुसना पुष्पन होय हे 'किं सुयकुसुमेइवा' छिंशु पसारा भाभरानु युष्य सुनो रंग व सास यछे 'पारिजाय कुसुमेइवा' पारितउनु युष्य ने सस होय, 'तुम्पले ईवा' तोत्यस साल भजनो रंग वे होय है, 'रत्तासोलवा सास २ताश होय छे, 'रत्तकणवीरेश्वा' लेवे सस रंग सास भरे होय छे, 'रत्तत्र धुजीवेइवा भने नेवासा २ सास धुलवाना होय छे 'भवेयारूवेसिया' से लगवन् शु थे थे। भने ચિાના રંગ એવેાજ લાલ હાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે 'गोयमा ! णो णट्टे समट्टे' हे गौतम! अर्थ समर्थ नथी. उस 'तेसिणं लोहियाण तणाणय मणीणय' से खास तृशे अने भयोनो सास २' 'एत्तो ઞ Page #891 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमैयोतकार्टीका प्र.३ उ.३ शू.५३ वनषण्डा दिकवर्णनम् ८६७ मणीण य तेषां खलु लोहिताना तृणानां च मणीनां च 'एचो इतराए चेत्र जाव वण्णेणं पन्नत्ते' इत इष्टतरक एव प्रिपतरक एत्र कान्ततरक एव मनोज्ञतरक एव मन आमतरक एव लोहितो वर्णावासः 'वण्णेणं पन्नत्ते' वर्णेन मजा इति ॥ ___ अथ श्रीगौतनो हारिद्रवर्णविषये पृच्छति-'तत्य ण जे ते हालिगा तणाय मणीय' तत्र-तेषां तगानां च मणीनां च मध्ये यानि तानि हारिद्राणि पीतानि तृणानि ये ते हारिद्राः पीता मण पश्च 'तेसि णं अयमेयारूवे वाणापासे पन्नत्ते' तेषां पोतानां तुणानां च मणीनां किम् अयम् अनन्तरमुद्दिश्यमानः, एतावद्रूपावक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावालो वर्णकनिवेश: पज्ञप्त-कथितः ? तदेव दर्शयति-'से जहा णामए' तद्यथानामकम् 'चपएइ वा' चम्पक इति वा 'चंपगच्छल्लीइ वा' चम्पकच्छल्लीति वा, चम्पकच्छल्ली-सुवर्णचम्पकत्वक् 'चपयभेएइ वा' चम्पक भेद इति वा, चम्पकभेदः-सुनर्णचम्पकच्छेदः, 'हालिद्दाई वा' हारिद्रा इति वा मणियों का लालवर्ण 'एत्तो हहनराएचेक जाव बन्नेणं पण्णत्ते' इन शशकरुधिरादिकों से भी अधिक इष्टतर और कान्तर है। यहां यावत्पद से मनोज्ञतर और मनोऽमलर' इन विशेषणों का ग्रहण हुआ है इन पदों का अर्थ पीछे लिखा जा चूका है। अक्ष श्रीगौतमस्वामी हारिद्र पीले वर्ण के विषय में पूछते हैं। हे भगवन् 'तत्य ण जे से हालिदगा तणा य मणी य' उन तृण और मणियों के बीच में जो वहां पर हरिद्रवर्ण के पीलेवर्ण के तृण और मणि है 'तेसिणं अधमेघारू वण्णावाले पन्नन्ते' उनका वर्णवास वर्णविन्यास वक्ष्यमाणप्रकार से है से जहा नामए चंपएइ या चंपगच्छल्लोइ वा चंपय भेएइ बा झालिदाह या' जैसा सुवर्ण चम्पक वृक्ष पीला होता है, 'सवर्णचम्पवृक्ष की छाल पीली होती है, सुवर्णचम्पकको खण्डपीला होता है जैसी हल्दी पीली होती है, 'हालिदभेएइ इद्रुतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ते' मा सससाना सही विगेरेना२'गयी ५ पधारे ઈષ્ટતર અને કાંતતર છે. અહીંયાં યાવત્પદથી મનેzતર અને મમતર આ વિશેષોનો સંગ્રહ થયો છે આ પદને અર્થ પહેલાં કહેવામાં આવી ગયેલ છે. હવે શ્રીગૌતમસ્વામી હરિદ્ર પીળા વર્ણના સંબંધમાં પ્રભુશ્રીને પૂછે છે કે भगवन् 'तत्थ णं जे ते डालिगा तणाय मणीय' से तृऐ। भने मरा. यामा त्यांचे पाय ना तो मन मणुिये। छे, तन वर्षापास! 'तेखि' णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते' विन्यास न १६यमा प्राथी छे ? 'से जहानामए चपएइवा, चपगच्छल्लीइवा चपगभेएइवा हालिहाइवा' સુવર્ણ ચંપક વૃક્ષ જેવું પીળું હોય છે. સુવર્ણ ચંપક વૃક્ષની છાલ જેવી પીળી હોય છે, સુવર્ણચંપકને ખડ જે પીળો હોય છે, હલદર જેવી Page #892 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमक्ष 'हालिदभे रह वा हारिदा भेद इति वा, हरिद्राभेदो हरिद्राछेदः, 'हालिगुलियाइ वा' हारिद्रागुटिका इति दा, हारिद्रासार निर्वतिता गुटिका 'हरियालियाइ वा' हरितालिका इति वा, पृथ्वीविकाररूपा लोकमसिद्धा हरितालिका, 'हरितालियाभेएड वा' हरितालिका भेद इति वा, हरितालिकाभेदो हरितालिकाछेदः, 'हरितालियागुलियाइ वा' हरितालिकागुटि केति वा, हरितालिकासारनिर्वतितागुटिका हरितालिकागुटका, 'चि उरेइ वा' चिकुर इति बा, चिकोरो रागद्रव्यविशेषः, 'चिउरंगरागेइ वा चिकुराङ्गगग इति वा, चिकुरसंयोगनिमित्तो वस्त्रादौ. रागश्चिकुरागराग इति । 'वरफणगेइ वा वरकनकमिति वा, वरकनकं जात्यमुवर्णम् 'वरकणगणिघसेइ वा' वरकनकनिघर्प इति वा, दरकनकस्य जात्यसुवर्णस्य यः कपपटके निधर्षः स वरकनकनिघः 'सुवण्णानिप्पिएइ वा' सुवर्णशिल्पिकमिति वा अस्पार्थों लोकतोऽवसेयः 'वरपुरिसवसणेइ वा' वरपुरुपवसनमिति वा, वरवा' जैला हल्दी का टुकडा पीला होता है हालिद गुलिपाइ वा हरिद्राकी गोली पीली होती है हरियालियाइ वा जला हरितालीला होता है 'हरितालियाभेएइ वा हरिताल का खण्डपीला होता है 'हरितालिया गुलियाइ हा' हरितालकी गोली पीली होती है 'चिउरे वा' चिकुर रागद्रव्यविशेष जैसा पीला होता है 'चिकुरंगरागेइ वा' चिकुराङ्गरोग जैसा पीला होता है 'चिकुर के संयोग से जो वस्त्रादि में राग होता है उसका नाम चिकुरागराग है 'वरकणगेह वा जैसा श्रेष्ठ सुवर्ण पीला होता 'वरकणगणिघ लेइ वा श्रेष्ठ सुवर्ण की कसौटी पर की गइ घर्पणरेखा जैसी पीली होती है 'सुवणसिप्पिएइ वा' सुवर्ण शिल्पिक जैमा पीला होता है इसका अर्थ लोक से जानने योग्य है 'बर पुरिसवसणेइ वा वर पुरुष-वासुदेव-कृष्ण का वस्त्र जैसा पीला होता पानी डाय छे. 'हालिदभेपइवा' १२ १ २वो पीणा डाय छे. 'हालिद्दगुटियाइवा' हनी गाणी नवी पीजी साय छे. 'हरियालियाइवा' हरिता २वा पीमा डाय छे 'हरितालियाभेएइवा' हस्तासन २३॥ भीगा डाय छे. 'हरितालिया गुलियाइवा' रितालिनी जी पी पीजी २य छे 'चिठरेडवा' थि६२ मे तन पाणु द्रव्य विशेष रे पीगुडाय छ, 'चिकुरंगरागेइवा' यिरामनार । पीणा डाय छे थिरना भगवाथा वन विगेरेभा ने 1 थाय छ तेतुं नाम सिंग छे. 'वरकणगेइवा' श्रे०४ से नुरे पाणु य छ, 'वरकणणिघसेइवा' उत्तम सोना सेटि ५२ ४२१.भा मावासाटोको पीमा डाय छे. 'सवण्णसिप्पिएइवा' सानानु शिलि५४ पीय छे. 'वर पुरिसवसणेइवा' १२४३५-पासुद्देव यनु ५७ रे Page #893 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राषOTOS प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ ७.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् पुरुषेषु वरः श्रेष्ठो वरपुरुषः-वासुदेवस् तम्य वसनमिति परपुरुषवसनम्-वासुदेवस्य वसनं पीतमेव भवतीति तदुपादानमिति । 'सल्लई कुसुमेह वा शल्यको कुसुममिति वा, शल्यकीकुसुमं लोकत ए पारगन्तव्यमिति । 'चं पण कुसुमेइवा चम्पककुसुममिति वा, चम्पककुसुमं सुवर्णचपक कुसुममिति । 'कुहुंडिया कुसुमेह वा' कुष्माण्डी-कुसुममिति वा, कूष्माण्डोकुसुमं पुरुषफलीकुसुमम् इति 'कोरंटगदामेइ बा' कोरण्टकदाम इति वा, कोरण्टकः-पुष्पनातिविशेषस्तस्य दाममालेति कोरण्टकदाम । 'तडवडा कुमुमेह वा' - डबडा कुसुममिति वा, तडवडा आउली तस्याः कुसुम तडबडा कुसुममिति 'घोसाडिया कुसु मेइ वा' घोषातकीकुसुममिति वा । 'सुवण्ण जूहिया कुसुमे वा' सुवर्ण यूथिकाकुलुममिति वा, घोषातकी सुवर्णयूथिकाकुसुमे लोकादेव ज्ञातव्ये । 'सुहरिन्नया कुसुभेइ वा' सुहरिण्यका कुसुममिति वा, मुहरिण्यका वन स्पति विशेषस्तस्याः कुसुम सुहरिण्यका कुसुममिति । 'वियगकुसुमेह वा बीयककुसुममिति वा, बीयको वृक्षविशेषो कोक प्रसिद्धस्तस्य कुसुममिति 'पीयासोएइ है 'सल्लह कुसुमेह वा शल्यकीया कुसुम जैला पीला होता है चंपक कुसुमेह वा सुवर्ण चम्पा का पुष्प जैसा पीला होता है 'कुहुंडियाकुसुमेह या' जैसा कुष्माण्ड -पुष्प फली-कोला का पुष्प पीला होता है। 'कोरंटगदामेइ वा' जैसी कोरण्डक पुष्पों की माला पीली होती है 'सडबडाकुसुमेह वा जैसा तडपड का फूल पीला होता है आवली का नाम तडबडा है 'घोसाडियाकुसुमेह वा जैसा घोषातकी-तोरह का पुष्प पीला होना है 'सुवण जूझ्यिा कुस्सुमेह वा' जैसा पीला पुष्प सुवर्ण यूधिका सोना जुही-फा होता है 'सुहरिन्नयाकुसुमेह वा सुष्ठरिण्यका का पुष्प-वनस्पति विशेषका पुष्प जैसा पीला होता है। 'घीयग कुस्तुमेह वा दीपक वृक्ष का फल जैसा पीला होता है पीयासोएडवा' जसा पीत अशोक वृक्ष पुष्प पीला होता है। 'पीयक्षणवीरेइ वा जैसा पाणु य छ, 'सल्लइकुसुमेइवा' शल्यहीन ०५२. पाय छे. 'चपक कुसुमेइवा' सुवण य पातु पु०५ यु पी जाय छे. 'कुहुडिया कुसुमेइवा' भांडणानुस यु पी पाणु डाय छ, 'कोर गदामेइवा' १२४ Y०पनी भाणारी पाणी हाय छ, 'तडवड़ाकुसुमेइवा' तपास वा पीस होय छे. म.पणतु नाम त341 छ. 'घोसाडिया कुसुमेइवा' ५।18 तुरियाना ०५ २॥ पीकर हाय छ, 'सुवण्णहिया कुसुमेइवा' सुपथ यूथि। साना हान ०५ २41 पी डाय है, 'बीयगकुसुमेदवा' मी४ वृक्षना ३३ पीना हाय, पायासोएइवा' पीणा मीना ५ २१ पाहाय छ, 'पीयकणवीरेइवा' पीजी ४२ना पु५ २१। यी यि छ, Page #894 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ जीवामिगमन वा' पीताशोफ इति वा 'पीयकणवीरेइ वा पीतकणवीर इति वा 'पीयबंधुनीवएइ वा पीतवन्धुजीवक इति वा । गौतमः प्राह-हे भदन्त ! 'भवे एयारुवे मिया' भवेत् किं पीतानां तृणानां मणीनामेतावटूपोऽनन्तरोदीरितस्वरूपो वर्णावस: ? इति भगवानाह-हे गौतम ! 'जो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थ: किन्तु 'तेसिणं हरिदाणं तणाणय मणीणय' तेपां खल्ल हरिद्राणां तृणानां मणीनां च 'पत्तो इहत. राए चेव जाव वण्णेणं पन्नत्ते' इतः चम्पकादिवर्णापेक्षयाऽपि इष्टतरक एक, कान्त तरक एव मियतरक एव मनोझतरक एव, मन आमतरक एव प्रश:-कथित इति । अथ श्रीगौतमः शुक्लवर्णविषये पृच्छति-'तत्थ ण जे ते सुविकलगा तणा य मणीय' तत्र खलु यानि तानि शुक्लानि तृणानि ये ते शुक्ला मणयश्च 'तेसिणं अयमेयारूवे वण्णावासे पन्नत्ते' तेषां खलु तृणानां मणीनां च शुक्लानामयमनन्तरो. दिश्यमान एतावद्रुपो वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावासो वर्णकनिवेश:-मज्ञप्त:-कथित ? पीली कनेर का पुष्प पीला होता है। अथवा 'पीयबंधु जीवएइ वा' एवं जैसा पीला पुष्प पीत बंधुजीवक वृक्ष का होता है 'भवेएयारूवे सिया' तो क्या हे भदन्त ! ऐसा ही पीला वर्ण वहां के पीले तृण और मणियों का होता है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री ने कहा है 'गोयमा ! णो इणद्वे सम?' हे गौतम । यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'तेसि हालिदाणं तणाणय मणीणय' ये हरिद्र पीले वर्णवाले तृण और मणि 'एतो इतराए चेच जाव वणेणं पण्णत्ते' चम्पकादिवर्ण की अपेक्षा भी इष्टतर है और कान्तन्तर है प्रियतर मनोज्ञतर और मनोऽमतर है अप श्रीगौतमस्वामी शुक्लवर्ण के विषय में पूछते है 'तस्थ णं जे ते सुक्किकगा तणाय मणीय तेसिणं अयमेयारूवे वण्णावासे पन्नत्ते' वहां उन तृणों और मणियों के गया पीयबधुजीवेइवा' या प धुल वृक्षना दूत डाय छे. 'भवेएयोरूवे खिया' ७ लावन् सा त्यांना त भने भथियाना व मेवी રીતની પીળાશ વાળો હોય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને ४४ छे , 'गोयमा ! णो इणद्वे समढे' 8 गौतम मा अर्थ समर्थित नयी म 'तेसि ण हालिदाणं तणाणय मणीणय' 0 पीपण पण भने भीये. 'एत्तो इट्टतराएचेव जाव वण्णेण पण्णत्ते' यहिना पीणा व ४२तां એ તણે અને મણિયેનો પીળે વર્ણ ઈષ્ટતર છે. કાન્તતર છે પ્રિયતર છે. મજ્ઞતર છે. અને મને ગમતર છે, वे श्रीगीतभस्वामी शुसपना समयमा प्रभुश्रीन पूछे छे 'तत्थ णं जे ते सुकिल्लगा तणाय मणीय तेसि गं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते त्यांना એ તૃછે અને મણિયમાં જે શ્વેત વર્ણના તૃછે ને મણિ છે, એની ધોળાશ Page #895 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ सु. ५३ वनपण्डादिकवर्णनम् ८७१ तदेव दर्शयति - ' से जहाणामए' तद्यथानामकम् 'अंकेइ वा' अङ्क इति वा अङ्कोरत्नविशेषः 'संखेइवा' शङ्खः इति वा, शङ्खः प्रसिद्धः 'च' देइ वा' चन्द्र इति वा, 'कुंदे वा' कुन्द इति वा कुन्दः पुष्पविशेषः, 'कुमुएइ वा' कुमुदमिति वा, 'दयइवा' उदकरज इति वा, 'दहिघणे वा' दधिधन इति वा, 'खीरेइ वा' क्षीरमिति वा, 'खोरपूरेइ वा' क्षीरपूर इति वा 'हंसावळीति वा' हंसावलिरिति वा, हंसस्यावलिः पंक्तिरिति हंसावलिः | 'कोंचावलीति वा' क्रौञ्चावनिरिति वा, क्रौञ्चस्य पक्षिविशेषस्यावलिः - पंक्तिः क्रौञ्चावलिरिति, 'हारावलीत वा' हारावलिरिति वा हारस्य मौक्तिकहारस्यावलि:- पंक्तिरिति हारावलिः | 'वलयाaatति वा' वळयावलिरिति वा, बलयस्य- रजतनिर्मित कङ्कणम्यावलिः - पंक्तिरिति - वलगावळिः 'चंदावलीति वा' चन्द्रावलिरिति वा, चन्द्राणां तडागादिपु वी में जो शुल्कवर्ण के तृण और मणि है उनका वर्णन इस प्रकार कहा है क्या -' से जहाणामए अंकेह वा संखेइ वा चंदेह वा कुंदेड़ वा कुसुमेह वा 'जैसा प्रङ्करत्न शुभ्र होता है जैसा शङ्ख शुभ्र होता है जैसा चन्द्र शुभ्र होता हैं जैसा कुन्द पुष्प शुभ्र होता है जैसा कुसुम पुष्प शुभ्र होता है 'दर एति वा' जैसा - उदकरज- उदक बिन्दु सफेद होता है 'दहिघणे वा' जेमा दविघन - जमा हुआ दही रूफेद होता है 'खोरेइ वा' जैसी ख'र सफेद होती है 'हंसावलीति वा' जैसी हंसों की पंक्ति सफेद होती है 'कोंचावलीति वा' जैसी क्रौंच पक्षीयों की पङ्क्ती सफेद होती है 'हारावलीति वा' जैसी हार की पंक्ती सफेद होती है । 'वलपावलीत वा' रजतनिर्मित कङ्कणों की पंक्ति जैसी सफेद होती है 'चंदावलीति वा' तडाग आदि में, जल के भीतर प्रतिविम्बित चन्द्र या नीथे अभाोनी होय छे ? 'से जहानामए अकेश्वा संखेइवा च देवा कु देवा कुसुमेइवा' २ रत्ननेवु सह होय छे, शाम वो धोणी होय છે, ચંદ્રમાના વણુ જેવા સફેદ હાય છે, કુદ પુષ્પના રંગ જેવા સફેદ હૈય छे, मुसुभ पुण्य नेवु सह रंग होय छे, 'दयरतिवा' ४x२०४७ जिहु वु सह होय छे, दहिघणेवा' भावेषु हाडी भेवु सदेह होय थे, 'खीरे इवा' 'जीरो ववस होय छे, 'खीरपुरेइवा' क्षीरपुर इना समूह वा रुद्र होय छे, 'ह'सावलीतिवा' सोनी यति लेवी सह होय छे, 'कोंचावली तिवा' अथ पक्षीयोनी पंडती नेवी सहाय छे, ' हारावलीतिवा' हारनी पति ने सई होय छे. 'वलयावलीति वा ' यांहीना मनावेव ४*४- महायानी पंडित देवी सह होय है, 'चंदावली તિવા’તલાવ વિગેરેમાં જલની સદર પ્રતિષ્મિ વાળા ચંદ્રની પંકિત જેવી Page #896 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोवाभिगमस्त्रे जलान्तः पतिविम्बितानामावलिः-पंक्तिरिति चन्द्रावलिः । 'सारदीय बलाहएइ पा' शारदीय बलाहक इति वा, शारदीयः-शरत्कालसम्बन्धी वलाहको मेघ इति शारदीय बलाहक इति, धंधोयरुप्प पट्टेइ या' मावधीतरूप्यपट्ट इति वा, मात: -अग्निसार्केण निर्मलीकृतो धौतो भूमिवरण्डित हरुसंमार्जनेन निशितीकतो यो रुप्याट्टो रजतपत्रम् स मातधौतरूप्यपट्टः । अथवा ध्मातेन- अग्निसंयोगेन यो धौता-शोधितो रूप्यपट्टः । 'सालिपिट्ठरासीति वा शालिपिष्टराशिरिति वा, शालीनां तण्डुलानां पिष्ट क्षोदर वस्य राशिः पुञ्ज इति वा, शालिपिष्टराशिरिति । 'कुंदपुप्फगसीति का, कुन्दपुष्पराशिरिति चा, कुन्दपुरपं लोकप्रसिद्धं तस्य राशि:समुदाय इति कुन्दप्रप्पराशिरिति 'कुमुपरासीति वा कुमुदराशिरितिवा, कुशुदान -चन्द्रविकाशि कमलानो राशिरिति कुमृदराशिगिति 'सुछि गाडीति का' शुष्कछिवाडी इति वा, छेवाडी नाम वल्लादि फलिका या च क्वचिदेशविशेपे शुष्का सती शुक्ला भवति इति तदुपादानम् । पेहुणमिजाति वा' पेहमिंजेति वा की पंक्ति जसो सफेद होती है। 'सारदीययलाहएइ वा' शारदीय शरस्काल सम्वन्धी-बलाहका-मेघ जैमा घवल होता है 'धंतधोयझर पटे वाहमात अग्नि के संपर्क से निर्मल किया गया पश्चात-धौत राख आदि से भांजकर और हाथ आदि से साफ कर निर्मल किया गण रजत पट्ट जैमा मफेद होता है 'मालिपिहाणीति वा' चावल की चूर्ण शिजी मफेद होती है 'कुंद पुकामीति दा' कुंद पुष्पगशि जैमी सफेद होती है 'कुमुपरामीति का कुमुद श्वेत कमल की राशि जैमी मफे होनी है 'सुश्कछिबाडीति वा' सेमकी फली का नाम छिवाडी है गए सुग्व जाने पर सफेद रो जाती है अतः शुष्कछियाडी के जैसी सफेद हती है पेहुणमिजाति वा पेहण-मयूर पीच्छ के मध्यवर्ती मिञ्जा जैलो अतीयधवल होती है 'यिसेति वा' पिम मृगाल जैमा स३४ सय छ, 'सारदीय पलाहप तिवा' २२३ जना पक्ष मेघा पा ३६ ), 'धत धोयरुपाडा' भात अभिनना योगयी नि ४२१i na ने તે પછી રાખ વિગેરેથી મ ને હાથ વિગેરેથી સાફ કરી નિર્મળ બનાવેલ याही वा स३४ हाय छ, 'सालिपिगसीतिबा' यापान सोटको सह होय छ, 'कुदपु'फास तिवा' १६८५ने। सभू । स३६ हाय छे. 'सक्कछिवाडी तिया' सेमनी सीन पिछे ते सतय त्यारे से 25 तय छे ती सु12a छिी २वी २३६ सय छ पेहुण मिजा इवा' । भरना पीछानी मामा भावी स३६ हाय है, 'बोसेइवा' जिस भृयाल र स३ सय छ, 'मिणालिएतिवा' भृणालिन Page #897 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमौतिका ठीका प्र. ३ उ. ३.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् ८७३ पेहुणं मयूरपिच्छं तन्मध्यवर्त्तिनीमिया पेडुणमिखा सा चातीव शुक्ला भवतीति । 'विसेति वा' दिसमिति वा विमं पडिली कन्दः । 'मिणालिएति वा' मृणालिकेति वा, मृणालं पद्मतन्तुः । ' गयदंतेति वा' गजदन्त इति वा, गजो हस्ती तस्य दन्तोगजदन्तः स चाखीव शुक्लस्ततस्तदुपादानम् । 'लवादलेति वा' लवङ्गदलमिति वा, लवङ्गपत्रमतीव शुक्लं भवति तदुपादानम्, 'पौडरीयदलेति वा' पौण्डरीक दलमिति चा, पौण्डरीकं श्वेतदलम् 'सिंदुवारमल्लदा मेदिवा' सिन्दुवारमाल्यदाम इति वा, सिन्दुवारः श्वेतपुष्प वृक्षविशेषः 'सेवासोति वा वहाशोक इवि वा, 'सेयकणवीरेह चा' श्वेत मदर इति वा 'सेबंधुजीव वा' श्वेत बन्धु जीवक इति वा, गौखयः प्राह - 'सवेपयारूवे सिया' सवेद किं श्वेतानां तृणानां मणीनां चैतान्द्रपः - अनन्तरोदीरितस्त्ररूपो वर्गावास इति भगरान् प्राह- हे गौतम ! 'णो इण सट्टे' नायमर्थः समर्थः किन्तु 'तेसि णं सुक्किल्लाणं दणाणं शुक्ल होता है 'मिणालिरति या' प्रिणालिका - बिसतन्तु जैसी शुक्ल होती है 'गयतेति बा' गजदन्स जैसा घथल होता है | 'लवंगदलेति वा ' लौंग के वृक्ष का पता जैला धवल होता है 'पोडरीयदलेति वा' पुण्डरीक मलकी पांखडी जैसी सफेद होती है 'सिंदुवार मल्लदामेति वा' सिन्दुवार पुष्पों की माला जैसी सफेद होती है 'सेता सोएति वा' श्वेत अशोक जैला शुभ्र होता है 'सेचफणवीरेह वा' क्षेत्र कनेर जैसी सफेद होती है 'सेय बंधुजीवेह या' श्वेत बन्धुजीव-पकुलजैसा सफेद होता है 'भवेएयासवे सिया' तो क्या ! हे भदल ! ऐसा शुक्ल रूप उन तृणों का और मणियों का होता है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते हैं 'गोयला ! जो हणट्टे सबड़े' हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं है क्योंकि 'तेलिणं सुविकल्लाणं तणाणं मणीण य' उन मिसतन्तु नेवा सह होय छे, 'गयद'ते इवा' हाथी हांत लेवे। सदेह डाय यान नेवा सह डाय छे, 'पोंडरीय छे. 'लव' गदलेइवा' सविंगना वृक्षना दलेत्तिवा' युउरी घोणा भजनी पांगडी देवी सह होय छे, 'सिंदुवार मल्लदामेतिवा' सिहुवार पुष्पानी भाषा देवी सह हाय हे 'सेतासोर तिवा' श्वेत अशी पुष्प भेषु सरे हाय छे, 'सेय कणदीरेइव।' घे'णी रेष्टनु पुण्य नेवु सह होय छे, 'सेय बंधुजीवेइवा' श्वेत बंधुलव- युष्य सहाय छे. 'भवेएयारूवे सिया' हे भगवन् तो शुद्ध से तो अने મણિયાની શ્વેતતા એવા પ્રકારની હાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી गौतमस्वामीने हे छे 'गोयमा ! णा इणट्टे समट्टे' हे गौतम! आ अधु समर्थ नथी. भट्ठे 'वेसि णं सुकिल्लाणं तणाणं मणीणय' थे तथेो भ्यने नी० : ११० Page #898 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमसूत्र ८७४ मणीय' तेषां खलु शुक्लानां तृणाना मणीनां च एत्तो इतगए चेव जाव वष्णेणं पन्नत्ते' इत:-अङ्कादिभ्य इष्टतरक एव मियतरक गव कान्ततरक एवं मनोज्ञतरक एव मन आमसरफ एव, शुक्लो वर्णावासः वर्णन म जप्त इति। तदेवं क्रमेण वनपण्डान्तर्गतानां तृणानां मणीनां च वर्णदरूपं कथितं सम्मति तेषां गन्धस्वरूपमतिपादनार्थमार-अत्र गौतमः पृच्छति 'तेसि णं भंते ! तणाण य' इत्यादि, 'तेसि णं भंते ! तणाण य पणीण य' तेषां खल भदन्त ! तृणानो मणीनां च 'केरिसए गंधे पन्नत्ते' कीदृशः किपाकारको गन्धः मसात कथितः कि वक्ष्यमाण-वस्तूनां याशो गन्धो मति ताश रोपां गन्धः समाप्त ? तदेव दर्शयति-'से जहाणामए' इत्यादि से जहाणायप' तद्यथा नामम् 'कोद्रपुडाण वा' कोष्ठ पुटानामिति वा, सोप्ट गन्धद्रव्यं तस्य पटा कोष्टपुटा स्तेपाम् वा शब्दाः सर्वत्रापि समुच्चये, जन एकस्य पुटस्य न नाही गन्धविशेपो शुक्ल तृणों और मणियों का वह शुक्ल रूप 'एत्तो इतराए चेष जाव घण्णेणं पन्नत्ते' इन प्रदर्शित अङ्क आदिकों से भी अधिक इष्ट अधिक प्रिय, अधिक कान्त, अधिक मनोज्ञ और अधिक मनोऽम कहा गया है इस प्रकार से वनखण्ड के अन्तर्गत तणों का और मणियों के वर्ण का स्वरूप कहकर अय सुत्रकार गन्धके स्वरूप का प्रतिपादन करते है 'तेसि णं भंते' इत्यादि इस विषय में श्रीगौतमस्वामी पूछते है 'तेसि ण भंते! तणाण य मणीण य के रिलए गंधे पण्णत्ते' इसमें श्रीगौतमस्वामी ने प्रभुश्री से ऐसा पूछा है-हे भदन्त ! वाह के तृणों का और मणियों का कैसा गन्ध कहा गया है ? क्या आगे कहे जाने वाले कोष्ठ फूट आदि वस्तुओं का जैसा गंध होता है वैसा कहा गया है क्या? उन्हीं को कहते है ‘से जहाणामए कोहपुडाण वा' जैसी गन्ध-दास-कोष्ठ गन्ध भणियानो मे सह व एत्तो इट्टतराए चेव जाव पण्णेणं पण्णत्ते' मा ५२ કહેવામાં આવેલ અંક વિગેરેની સ્વૈતતાથી પણ વધારે ઈટ વધારે પ્રિય વધારે કાંત વધારે મજ્ઞ અને વધારે માડમ કહેવામાં આવેલ છે. આ રીતે વનખંડની અંદર આવેલ છે અને મણિના વર્ણનું સ્વરૂપ બતાવીને હવે સૂત્રકાર ગંધના સ્વરૂપનું વર્ણન કરે છે. આ વિષયમાં શ્રી ગૌતમસ્વામી श्रीमहावीर प्रसुन पूछे छ, 'तेसि णं भंते! तणाणय प्रणीणय केरिसए ग'घे पणत्ते है भगवन् त्यांना तु! म भथियाना । हाय छ १ . નીચે કહેવામાં આવેલ કેન્ટપુટ વિગેરે વસ્તુઓને ગધ જેવો હોય છે, તે सनी गाय छ १ 'से जहा नामए कोटपुडाणवा' २वी गध-पास अष्टपुट नामना आय दयनी हाय छे. 'पत्तपुडाणवा' २वी ५ पत्रपुटोना मन ४२पाथी Page #899 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ . ३ . ५३ वनपण्डादिकवर्णनम् ८७५ 4 निर्गच्छति द्रव्यस्याल्पत्वात् ततो बहुवचनमिति । 'पचपुडाण वा' पत्रपुटाना• मिति वा, पत्र विमर्दोत्थ परिमलकम् तस्य पुटानाम् । 'चोयपुडाण वा' चोयगपुटानां वा चोयगं गन्धद्रव्यम् ' तगरपुडाण वा' तगरपुटानां वा, तगर:- सुगन्ध विशेषः । 'एलापुडाण वा' एलापुटानां वा, एला इलायचीति कोकमसिद्धा 'चंदणडा बा' चन्दनपुटानां वा चन्दनं चन्दनाख्य सुगन्धद्रव्यविशेषः 'कुंकुमपुडाण वा' कुलपुटानां वा कुङ्कुमं 'केसर' इति प्रसिद्धम् 'उसीरपुडाण वा' उशीरपुटानां वा उशीर 'खस' इति प्रसिद्धं सुगन्धिततृणविशेषः 'चंपगपुडाण वा' चम्पकपुटानां वा, 'मरुवगपुडाण वा' मरुत्रकपुटानां वा मरुत्रकं 'मरुआ ' इति प्रसिद्धम् । 'दमणगपुडाण वा' दमनकपुटानां वा, दमनकं सुगन्धितपत्रयुक्ता वनस्पतिविशेष: ' जाइपुडाण वा' जातीपुटानां वा, जाती- चमेली' इति नाम्ना पुष्पविशेषः 'जूहियापुडाण ना' यूथिकापुटानां वा, यूथिका 'जूही ' प्रसिद्धा द्रव्य के पुटों की होती है 'पसपुडाण वा' जैसी गन्ध पत्रपुटों के विमर्द से उत्पन्न परिमल के पुटों की होती है 'चोपग पुडाण वा' जैसी चोयग- - गन्ध द्रन्ध पुटों की होती है 'समर पुडाण वा' जैसी गन्ध तगर पुटों की होती है । 'एलापुडाण वा' जैसी गंध इलायची के पुटों की होती है 'चंदण पुडाण या' जैसी गन्ध चन्दन के पुटों की होती है 'कुंकुमपुडाण वा' जैसी गन्ध कुंकुम के पुटों की होती है 'उसीर पुराण वा' जैसी गन्ध खल के पुटों की होती है 'चंपक पुडाण वा' जैसी पुटों की होती है 'मरुयगपुडाण वा' जैसी गन्ध hear a पुढों की होती है 'दमनगपुडाण वा' जैसी गन्ध दमनक के पुटो की होती है 'जाति पुडाण वा' जैसी गन्ध चमेली के पुष्पपुटों की होती हैं 'जूड़ियापुडाण वा' जैसी गन्ध जुही के पुष्पपुटों की होती उत्पन्न थयेस परिसाना चुटोनी होय छे, 'चोयगपुड़ाणवा' लेवी गंध याया नामना गंध द्रव्यनी होय छे, 'तगरपुडाणवा' तगर चुटोनी देवी गंध होय थे, 'एलापुडाणवा' साथीना पुटोनी नेवी रमाशीय गंध होय छे. 'च'दणपुडाणवा' यहनना युटोनी लेवी गंध होय छे, 'कुंकुमपुडाणवा' डुमना चुटोनी लेवी गंध होय. 'उखीर पुडावा' असना चुटोनी देवी गंध होय छे. 'च'पकपुड़ाणवा यंचाना युटोनी लेवी गंध होय छे. 'मरुयपुड़ाणवा' भरवाना युटोना देवी गंध होय. 'दमनकपुडाणत्रा' लेवी गंध हसनम्ना चुटोनी होय हे 'जाति पुङाणवा' यभेलीना पुण्य युटोनी नेवी गंध होय छे 'जूहियापुड़ाणवा' बुधना पुण्योनी नेवी गंध होय छे, 'मल्लिय पुडाणवा' भस्सिा-भोगराना पुष्प पुटोनी लेवी गंध होय छे, 'णवमल्लिय पुडाणवा' नव भल्सिना पुण्य Page #900 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जीवामिगमसूत्र 'मल्लियपुडाण वा' मल्लिकापुटानां वा, मल्लिका 'मोधरा' इति लोकमसिद्धा 'णो पल्लियपुडाण वा' नवमल्लिका पुटानां वा 'वासंतियपुडाण वा' वासन्तिकपुटानां वा सुगन्धयुक्ता लताविशेष: 'केयई पुडाण वा' केतकीपुटानां वा, केतकी 'केवडा' लोकापसिद्धा, 'कप्पूरपुडाण वा' कर्पूरपुटानां वा, 'अणुवायंसि' एतेषां कोष्ठपुटादीनामनुदाते आघ्रायकविरक्षितपुरुषाणामनुकूले वाते वाति सति 'उभिज्जमाणाण य' उद्भिद्यमानानां-समुद्घाटयमानानाम् च शब्दः सर्वत्रापि समुच्चये, 'णिभिज्जमाणाण य' निभिधमानानाम् अतिशयेन भिद्यमानानां त्रोटयमानानाम् 'कोटेजमाणाण वा' कुटयमानानां वा, अत्र पुटे परिमितानि यानि कोष्ठादि गन्धद्रव्याणि तानि अपरिमेये परिमाणोपचारात् कोष्ठपुटानीत्युच्यन्ते तेषां कुटयमानानाम् उदूखलादी कुटयमानानामिति । 'रुविज्जमाणाण वा' इति इनखंडी क्रियमाणानाम् 'उकिरिज्जमाणाण या' उत्कीयमाणानाम्-कोप्ठादिकपुटानां कोष्ठादिद्रव्याणां वा उत्कीर्यमाणाहै बल्लियपुडाण वा' जैसी गन्ध मल्लिका-मोधरा के-पुष्प पुरों की होती है 'जोमल्लियपुडाण वा' जैसी अन्ध नयमल्लिकाके पुष्पपुटों की होती है 'वासंतिय पुडाण वा' जैली मन्त्रवासन्तिलता के पुष्पपुटों की होती है 'देवईपुडाण वा' जैसी गन्ध केबडे के पुटों की होती है 'कप्पूरपुडाण वा' जैसी गन्ध कपूर के पुटों की होती है इन समस्त · पुटों की गन्ध 'अणुबायंलि' जय कि अनुकूलवायुचल रही हो-अर्थात् आघायक पुरुष जिस तरफ बैठे हो उसी तरफ इनकी गन्ध को लेकर हथा यह रही हो और ये समस्त गन्ध पुट 'उभिजमाणोण य णि. भिज्जमाणाण य छोटेजमाणाण' उस समय जहादित उघाडे जा रहे हो, अतिशय रूप से लोडे जारहे हो ऊखल आदि मे कूटे जा रहे हो 'संबिज्जमाणाण वा' छोटे २ इनके इकडे शिये जा रहे हो, किरिज्ज. पुडानी की 4 81य छे. 'वासतिय पुडाणवा' सति ताना पु०५ युटे। नी की चाय छे. 'केयइपुडाणवा' ४ाना भुटानी पी गय हाय छ 'कप्पूरपुडाणवा' ४५२ना भुटानी वी 4 डीय छ, सधा युटोनी ॥ 'अणुवायखि' यारे मनु वायु वाती डाय अर्थात् पास सोनार ५३५ रे તરફ બેઠે હેય એ તરફની હવા ચાલી રહી હોય અને આ સઘળા ગવ પુરો 'उभिन्जमाणाणय णिभिज्जमाणाणय कोटेजमाणाणय' में समये 6धापामा આવેલ હોય તેલંઘપુને અતિશય પણુથી તેડવામાં આવતા હોય ખાડણિયા विगेरमा मापामा सावता हाय 'नविजमाणाणवा' नाना नाना तना ६४७ ४२।ता डाय 'उक्किरिज्जमाणाणवा' तन 6५२ उपामा मावता साय Page #901 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ सु. ५३ वनवण्डादिकवर्णनम् ૮૭ नाम् उपरि क्षिप्यमाणानाम् 'विकिरिज्जमाणाण वा इतस्ततो विप्रकीर्यमाणानाम् 'परिभुज्जमानानाम् - परिभोगायोपभुज्यमानानाम्, 'भंडाओ वा भंड साहरिज्जमाणाणं' भाण्डात् एकस्माद् भाण्डात् पात्राद भाण्डं - माजनान्तरं संहियमाणानाम् कोष्ठादि लुटानाम् 'ओराला' उदाराः स्फाराः, से चामनोज्ञा अपिस्युरित्यत आह- 'मणुष्णा' मनोज्ञाः- मनोऽनुकूलाः, दच्च मनोज्ञत्वं कुतस्तत्राह'घाण' इत्यादि, 'घाणमणोणिम्बुसिकरा' घ्राणमनो निर्वृतिकराः एवं भूवास्ते 'सन्त्रओ समता' सर्वतः सर्वासु दिक्षु सामस्त्येन 'गंधा अमिणिस्सर्वति' गन्धा अभिनिःस्रन्थि - जिघतामभिमुखं निःसरन्ति । श्रीगौतमः पृच्छति भवे एयारूवे सिया' भवेद् मणीनां वृणानां च कोष्ठपुटादि सदृशो गन्ध इति; भगवानाह - मराणाणवा' ये उपर उडाये जारहे हो, 'वकिरिज्जमाणाणवा' - इधर उधर ये बिखेरे जा रहे हो 'परिभुजाणावा' अपने अपने काम में इनका उपभोक्ता पुरुषों द्वारा उपयोग किया जा रहा है । 'भंडाओ वा भंड साहरिजप्रमाणान' वा' एकवर्तन से दूसरे बर्तन में लिये जा रहे हों उस समय इनकी 'गंधा' वास सुगन्ध 'ओराला' बहुत अधिक विस्तृत अवस्था में निकलती है एवं यह 'षणा' मनोनुकूल होती है क्यों कि यह गन्ज 'घाणमणणिव्बुसिक' प्राण इन्द्रिय एवं मनको एक प्रकार को शान्ति देनेवाली होती हैं हल प्रणयार का यह सुगन्ध 'सच्चओ समता अभिस्तिर्वति' अनुकूल वायु के चलने पर इनकी वाल सब ओर से चारों दिशाओं में अच्छी तरह से फैल जाती है 'अवे. एयारूवे सिया' तो क्या हे भदन्त ! इन तृणों की ओर लणियों की सुगन्ध इन कोष्ठपुटादिकों की सुगन्ध जैसी ही होती है ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है - 'नोपसा ! जो इणडे मट्टे' हे गौतम! यह अर्थ 'विकिरिज्जमाणाणवा' आमतेम मे विभरवासां भावी होय 'परिभुज्जमाणाणवा' પાતપેાતાના કામમાં ઉપલેાકતા પુરૂષા દ્વારા ઉપયાગ કરતા હોય ‘મહામો षा भांडं साइरिज्जमानाणवा' ये वास भांधी मील वासभां सेवाभां भावता હાય તે વખતે તેને ગધ-વાસ સુગધ ોરા' ઘણી વધારે વિપુલ પ્રમાણમાં नीडजे छे तथा मे 'मगुण्णा' भोग होय छे, भरे से गंध 'घाणमण णिव्वुइकरा' प्रायेन्द्रिय सने भनने शांति साधव, वाणी होय छे, मा प्रहारनी मा सुगंध 'खव्वओ समंता अभिणिस्सव गति' अनुज एवनना वावाथी मधी तरधी यारे हिशाओम सारी रीते ईसाई लय छे. 'भवेश्यारूवे सिया' डे હે ભગવન્ તેશુ આ તૃણ્ણાને મણિચેની સુગંધ આ કષ્ટપુટ વિગેરેની સુગંધ જેવી હેાય છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી ગૌતમસ્વામીને કહે છે કે Page #902 -------------------------------------------------------------------------- ________________ غية जीवामिगमस्त्रे 'णो इणढे समढे' नायमर्थः समर्थः, कि 'तेसिणं तणणं मणीणय' रोपां खल राणानां मणीनां च, 'एत्तो हट्टतराए चेव जाव मणामतराए चेव गंधे पन्नते' इतः कोठपुढादिद्रव्येश्य इष्टतरक एक, कान्ततरक एव, मनोज्ञतरक एव, मन आम. तरक एन गन्धः पशश:-कथित इति ।। ___ वनपण्डान्तर्गत तगमणीनां गन्धान निरूप्य सेपा स्पर्शाद निरूपयितुमाह-अत्र श्रीगौतमः पृच्छति-'तेलिणं भने' इत्यादि, 'तेसि ण भंते ! तणाण य मणीण य' तेषां खलु भदन्त ! तृणानां च मणीनां च 'केरिसए फासे पन्ना कीदृशः-किमाकारका स्पर्शः प्रसार:-कथितः कि रक्ष्यमाणवस्तु स्पर्शसशस्तेषां स्पर्शो भवति ?' तदेव दर्शयति-से जहाणामए' तद्यथालामकम् 'आणेइ था' आजिनकमिति वा, आजिनकं लक्ष्मचर्ममयं वस्त्रम् 'स्वएति वा' रूतमिति वा, स्तं श्लक्षाकर्षासः विशेषा 'यूरेति वा बूर इति वा, बू: इलक्ष्णवनस्पतिविशेषः 'गवणीतेति वा' समर्थ नहीं है। क्योंकि सिलिणं तणाम य नगीण च एत्तो प्रमराए चेवं जाब प्रणामतराए चेय गंधे पत्ते' इन मणियों का गध कोष्ठ पुटादि द्रव्यो के गन्ध की अपेक्षा इष्टतर कान्ततर मनोज्ञातर और मन आम. तर ही माना गया है अब श्रीगोतमस्मात्री तृण और मणियों के स्पर्श के विषय में प्रभुश्री से पूछते है, 'लेसिश भंते ! तणाणघमणीयरिसए फाये पत्ते' हे मदन्त | उन तमों और मणियों का स्पशे कैसा कहा गया है क्या ६षमाण आजिक आदि वस्तुओं के स्पर्श जैसा होता है ? सही दिखलाते है-'से जहा णामए आईणे वा रूप घाला स्पर्श आजिनक चर्ममयन्त्रका होता है जैसा समर्श रुईका होता है। 'रेलि बा' जैसा स्पर्श-बूरनामकी वनस्पति का होता है। 'णवणीएति 'गोयमा ! जो इणद्वे समटे है जीतम ! म मय समय नथी. भासि णं तणाणय मणीय एत्तो इट्टतरोए चेत्र जाव मणामतराए चेव पण्णत्ते' या મણિને ગંધ કેષ્ટિપુટ વિગેરે દ્રવ્યોના કરતા ઈષ્ટતર, કાંતત, માતર, મન આમતર, માનવામાં આવે છે. હવે શ્રીગૌતમસ્વામી તૃણ અને મણિના સબ ધમાં પ્રભુત્રીને પૂછે છે. 'सिणं भते ! तगाणय मणीणय केरिसए फासे पन्न' से भगवान् न् तृथे। અને મણિને સ્પશે કે કહેલ છે ? શું આ કહેવામાં આવનાર અજીનક વિગેરે વસ્તુઓના સ્પર્શ જે હોય છે, એને સ્પર્શ હાય છે ? એજ सतावे छे. 'से जहानामए आईणे इवा एदवा' २३ २५२ माछन यमभय पना हाय छे. २३ २५श ३ को हाय छे. 'वृरे इवा' वा २५श सूर नामनी वन:५तिने हाय छे. 'णवणीएइवा' २१ २५ मामाने डाय छे. Page #903 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिकाटीका प्र.३ उ.३ शु.५३ वनषण्डादिकवर्णन नवनीत मिति का, नवनीत ' वखन' इति लोकशिल से च, 'हंस ग तूझीति का' हंसगर्भ तुलीति वा, सिरीसकुसुमाणिचएति का' शिरी पदु सुरु निचय इति वा, 'बालकुमुदपत्तरासीति वा वाळकुमुद पनगशिरिति बा. बालानि-अचिरकाल जातानि यानि मुदपत्राणि तेषां राशिः- समुदाय इति बालकुमुदपनगशिरिति । गौतमः प्राह-वे एयारू वे सिया' भवेल किं तेषां तृणानां पणीनां चैदानद्रूप आजिकादिर पहिल्य: सरि तृणानां मणीनां चेति अगदानाह-हे गौतम ! 'जो रणद्वे समटे नायम: समर्थः-नाहि तेषां तृणानां मणीनां च आजिनकादि स्पर्शतुल्यः स्पर्शः किन्तु 'तेसि ण तणाणय मणीय पत्तोहतशए चेव जाब फालेण पत्ते' तेषां तृणानां च मणीनां च इत:-आजिन् कादि इर्शापेक्षया एतरक-एच, भियतरक एव, कान्तरक एव, मनोज्ञतरक एव, मन आमतरक एव स्पर्शः प्रज्ञस इति । तृणमणीनां पनि निरूप्य शब्दान् निरूपयितुं प्रश्नयामाह-'तेहि णं भंते !' इत्यादि, 'तेसि णं भंते ! तणाणं' तेषां खल भदन्त ! तृणानाम्, 'पुवावरवा' जैसा स्पर्श नवनीत-मक्खन-सा होला हलव्यतृलीति का' जैसा स्पर्श हंसगर्भतूलिका होता है हिरो म कुसमणिचएति वा जैसा स्पर्श शिरीशपुष्पसमूह का होता है 'बालकुमुदपतरालीहा' जैसा स्पर्श नवजात कुसुद पत्रों की राशिका होता है तो क्या 'भनेएचारवे सिया' इसी प्रकार का स्पर्शा उन तृणों और मणियों का होता है क्या? इसके उत्तर प्रसुश्री कहते हैं-'जो इण सम?' हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नही है क्यों कि तेलि ण ण ण शमणीण य एत्तो घट्टतराए चेव जाव फालेणं पत्ते' उन तृणों का और मणियों का स्पर्श इन आजिनक आदि पदार्थों के स्पर्श से भी अधिक इष्टतर भारत अधिक मनोऽन्न कहा गया है छन तृण और मणियों के स्पर्श या वर्णन 'सगम्भतलीतिवा' स ग तुलाना २३॥ २५० डाय छे. 'सिरीस कुसुम णिचएतिवा' शिरीष १०५ समूडना । २५श हाय छे. 'बालकुमुद पत्तगसी इवा' २३ २५श नवा पत थयेस भु। पत्रोना समूडमा डोय छ । 'भवेएयारूवे सिया' से शतनी २५ मे त ने लियोन डाय छे ? भा प्रश्नना उत्तरमा प्रसुश्री छ, 'णा इणदु समटे गतम | मा मथ समर्थ नधी. 'सि ण तणाणय मणीणय एत्तो इतराए चेब जाव फासेणं पण्णत्ते से ती अने मशियाना २५श । म विगैरे पहा ના સ્પર્શ કરતાં પણ વધારે ઇતર યાવત્ વધારે મનેમ કહેવામાં આવેલ છે. - આ તો અને મણિના સ્પર્શનું વર્ણન કરીને હવે તેના શબ્દોના વરૂપનું વર્ણન કરવામાં આવેલ છે. આ વિષયમાં શ્રી ગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને Page #904 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८० जीवामिगमस्से दाहिण उत्तरागतेहिं वातेहि' पू परदक्षिणोत्तरागतैर्वातैः कदाचित्पूर्शदागतः कदाचित्पश्चिमादागते कदाचिदक्षिणादागतः नाचिदुत्तरादागी युमिरित्यर्थः, 'मंदायं मंदाचं एयाणं वे इया गं' या मन्दं मन्दं स्यात् तया-पजि. तानां कस्पितानाम् व्यजितानाम्, विकोपेण पितानाम् खोभिया ' क्षोभितानाम् स्वस्थानाच्च लतानाम् । एतदेव वस्तु पर्यायशब्देनापि पुनः कथयति-'चालिशाणं' चालिानाम् इतस्तो विक्षिशानाम् एतदेव पर्यायेण व्याचष्टे-'फंदयाणं' पन्दितानाम् ईपच्चलितानाम्, स्वस्थानात् चालनं कुतस्तत्राह-'घटियाण' घटिकानाम् परस्परसंघहितानाम् 'उदी रियाण' उदी. रिवानाम्, उन्-प्राबल्येन ईरितानाम्-प्रेरितानाम्, एतादृशानां तृगालाम् 'केरिसए सद्दे एकत्ते' शीश:-HTER: शब्दः प्रज्ञा कीशो ध्वनि भवति, किमाणावरतूनां यादृशः दो यति सादृशः शन्दरतेषां तृणानां भवति तदेव दर्शयति-'से जहा णागए' तयथा नामकम् 'सिवियाए वा शिविकरके अघ भनके शब्द रशरूपका वर्णन कर ले गहां श्रीगौतमस्वामी पूछते हैं-'तेलिणं ते तणाणं मणीण य पुव्यावर दाक्षिण उत्तरागतेहिं वातेहिं 'हे बदन्त ! हम तृणों और मणियों का जन्य पूर्व पश्चिम दक्षिण और उत्तर से आनेवाले वायु प्रों से थे 'मंदायं मदाय एव्याण वेइयार्ण कंपियाण' मंदवंद व से रिपत किये जाते है विशेषतः कम्पित किये जाते हैं कार चार सम्पिन किये जाते है खोभिधाण चालियाण फंदियाणं घट्टियाणं' क्षोभिन किये जाते है चलाए जाते है स्पंदित किये जाते है परस्पर संवपित किये जाते 'उदीरियाणं' उदीरितकिये जाते है जबर्दस्ती से प्रेरित किये जाते है उनका करिसए सद्दे पण्णत्ते-क्या आगे कहे जाने वालो शिविका आदि वस्तुओं के शब्द जैमा शब्द होता है, क्या यही दलाते है 'से जहा जामए सिवियाएवा' पूछे छे , तेलि ण ते ! तणाणं मणीणय पुवावरदाहिणउत्तरागतेहि पातेहि है मगन से तुमने भणियोनी २५० पूर्व, पश्चिम क्षिय भन. उत्त२ हिशाणेथा मावावाणा पवनथी 'मदाय मदाय एइयाणं वेइयाणं कपियाणं' भ भ पy थी ४५.वामां आवे छे, विश५३५थी पित ४२ वामां भाव छ, पार२४पित ४२वामा भाव छे. 'खोभियाणं चालियाणं फदियाणं પરિશri ભિત કરવામાં આવે છે હલાવવામાં આવે છે, સ્પંદિત કરવામાં मावळे ५२६५२ सघर्ष या ४२वामां आवे छे 'उदीरियाणं मीत ४२वामा भाव, मसात् प्रेरित ४२वाभा मावेत मते तना शो 'केरिसए सद्दे पण्णत्ते' मा वाम भावना शिमि वि२ १२तुमाना राम । Page #905 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ ३.३६.५३ वनपण्डादिकवर्णनस् काया वा 'संदमाणीयाए बा' स्यन्दमानिकाया वा 'रहवरस्स वा' रथवरस्य वा तत्र शिविका जम्पानविशेषरूपा उपरिछादिता कोष्ठाकारा, तथा दीर्घा जम्पानविशेषः पुरुषस्य स्वप्रमाणावकाशदानी स्यन्दमानिका, अनयोश्च शब्दः पुरुषोत्पाटितयोः क्षुद्रहेमघण्टिकादि चलनक्शतो वेदितव्या स्थश्च द्विविधो भवति संग्रामरथः क्रीडारयश्च, अत्र संग्रामस्थो ज्ञातव्यो नतु क्रीडारथः क्रीडारथस्याग्रिमविशेषणानामसं मनात, तस्य स्थस्य फळ वेदिका यस्मिन् काले या पुरुषस्तदपेक्षया कटिपमाणाऽक्सेया, तस्यैव रथस्य विशेषणानि दर्शयति-'सच्छत्तस्स' इत्यादि, 'सच्छ सस्स' सच्छत्रस्य, छत्रेण सहितः सच्छत्रस्तस्य सच्छत्रस्य 'मज्अपस्स' सधजस्य-ध्वजाविशिष्टस्य 'सघंटयस सघण्टाकस्य उभयपाविलम्बि महा प्रमाणघण्टोपेनस्य 'सतोरणवरम' सहसोरणवरं प्रधान तोरण यस्य स सतोरण वरस्तस्य 'सणंदिघोसम्स' सनन्दिघोषस्य सहनन्दियोपो द्वादशतर्यनिनादो यस्थ स सनन्दिघ पस्य 'सखिखिणि हेमजालपेरंत परिक्खित्तस्स स किक्षिणीहेमजाल आदि के उस पुरुषों द्वारा अपने अपने रुकन्धों पर उठाये जाने पर जैसे शब्द शिविकाझी-उपर के वस्त्रादिले ढकी हुइ कोष्ठ के आकार वालो जम्पान विशेषरूपालखी की छोटी छोटी हेमनिर्मित घंटिकाओं के हिलते ममय जैसे निकलते है। तथा इसी प्रकार से पालखी के आकार में कुछ वडी तथा बैठे हए पुरुषों में अपने अपने प्रमाणानु. रूप अवकाश स्थान देनेवाली ऐली स्यन्दमानिका की छोटी २ हेयनिर्मिन घण्टिकाओं की हिलते समय जैमी शराज निकलती है, उसी प्रकार की आवाज इन तृणों और मणियों से वायु द्वारा हिलाये जाने पर निकलती है इमी प्रकार मच्छत्तम सज्जयस्म, संघटयरल सतोरणवरस्स' जो छत्र से यक्त हो वजा से युक्त हो दोनों ओर लटकती हुइ महाप्रमाणोपेन्द्र घंटाओं से युक्त हो उत्तमतोरण से युक्त हो श४ तेना होय छे ? रम से जहाणामए सिवियाएवा' याना से પૂરૂષ દ્વારા પોતપોતાના ખંભાઓ ઉપર ઉઠાવવામાં આવે ત્યારે જે શબ્દ શિબિકા અર્થાત પાલખીની નાની નાની સુવર્ણ નિર્મિત ઘંટઠિના હાલવાથી થાય છે, અને એજ રીતે પાલખીના આકારથી કંઇક મોટિ તથા અંદર બેઠેલા પુરૂષને પોતપોતાના પ્રમાણાનરૂપ અવકાશ-જગ્યા આપવાવાળી સ્પંદમાનિકાની નાની નાની સફર્ગની બનાવેલી ઘંટડિયેના હલવાથી જે શબ્દ "કિળ છે, એજ રીતનો શબ્દ એ છે અને મણિયાને પવનથી હલાવવામાં भाव त्यारे नाणेशा प्रमाणे 'सत्तस्स सज्जयस्स सघंटस्स सतोरण‘’ જે છત્ર ચક્ત હોય. ધજાથી યુક્ત હોય, અને બાજુએ લટકાવવામાં जी० १११ Page #906 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगम पर्यन्त परिक्षिप्तस्य सह किंकिणीभिः क्षुद्रघण्टिकामिः वर्तन्ते इति स कि किणीकानि यानि हेमजालानि इसमयदामसमूहास्तैः सर्वासु दिक्षु पर्यन्तेपु बहिः प्रदेशेषु परिक्षिप्तो व्याप्त इति सकिंकिणीहेमजालपर्यन्त परिक्षिप्तस्तस्य तथा'हेमवयखेत्तचित्तविचित्ततिणिस कणशनिज्जुत्तदारुयागस्स' हैमवतक्षेत्रचित्रविचित्र तैनिशककनकनियुक्तदारुकस्य, हैमवतं क्षेत्र हिमवत्पर्वतमावि चित्रविचित्रं मनोहारिचित्रोपेत तैनिशं तिनिशदारुसंबन्धी कनकनियुक्तं कनकविच्छुरित दारुकाष्ठं यस्य स हैमवत् क्षेत्रचित्रविचित्र तैनिशकनकनियुक्त दारुकाष्ठम्तस्य, तथा-'मुषिणद्धारक मंडळ धुरागस्स' सुपिनद्धारकाण्डलधुराकस्य, मुष्ठ-अतिशयेन सम्यक् पिनदमरकमण्डलं धुरा च यस्य स सुपिनद्धारकमण्डलधुराकरतस्य, तथा-'कालायसमुकयणेमिजंतकम्मरस' काळायस सुकतनेमियन्त्रकर्मणः, कालायसेन जात्यछोहित सुष्टु-अतिशयेन कृतं नेमे वाहपरिधेर्यन्त्रस्य च-अरकोपरि फलकचक्र. वालस्य कर्म यस्मिन् स कालायस सुकृतनेमियन्त्रकर्मा तस्य, आइण्णवरतुरग'सणंदिघोसस्स' नन्दिघोष द्वादश तृयों के निनादों से युक्त हो 'सखिखिणि हेमजालपेरंतपरि खित्तरस' क्षुद्रघंटिकाओं से युक्त हैमीमालाओं द्वारा जो सघ ओर व्याप्त हो-'हेमवयरखेत्तचित्तविचिस. तिणिसकणगनिज्जुत्तदाख्यागस्स' तथा हिमवत पर्वत के तिनिश वृक्ष के काष्ठ से जो कि चित्रविचित्र-मनोहारि चित्रों से युक्त और सुवर्ण खचित पना हुआ है 'सुपिणिद्धारक मंडलधुरागस्त' जिसके पहियों में भारे यहुत ही अच्छी तरह से लगे हों तथा जिमकी धुरा बहुत मजबूत हो । 'कालायससुस्यणेलिजंत कम्मरम' चक्रकी धार जमीन की रगड से घिस न जावे तथा चक्र के पटिया आपस में अलग अलग न हो जावें इस अभिप्राय से जिसके पहियों पर लोहे की दन्तं मा प्रभावात सुं२-'थी युताय 'सणंदी घोसस्म' नाष भार तुश्याना अपान वाणी डाय 'सखिं खणिहेमजालपेरतपरिविखत्तस्स' नानी નાની ઘંટડિચેથી યુક્ત સુવર્ણની માળાઓ દ્વારા જે બધી તરફથી વ્યાપ્ત डाय छे. 'हेमवयरवेत्तचित्तविचित्ततिणिसकणागनिज्जुत्तदारुयागस्स' तथा हिमत પર્વતના તિનિશ વૃક્ષના લાકડાથી કે જે ચિત્રવિચિત્ર મને હારિ એવા सुंदर चित्रोथी युत मन सोनाना तारोथी भसा डाय 'सुपिणिद्धारकमडल धुरागस्स' रेना मां मारामा धola भताथी सारी amal जाय तथा नी धुरा-धरी ए भक्त हाय 'कालायमसुकयणमिजत कम्मरस' पानी धार ४भीनमा घसावाथी घसा न लय तथा पेडना assa એક બીજાથી જુદા ન પડી જાય એ હેતુથી જેના પર લોખંડની પાટી ચડાવ Page #907 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.५३ वनपण्डादिकवर्णनम् । सुसंपउत्तस्स' आकीर्णवरतुरगसुसंधयुक्तस्य, आकीर्णा गुणैाप्ता आकीर्णभातीया वा ये वरा:-प्रधानास्तुरगा घटकास्ते मुष्ठु-अतिशयेन सम्यमयुक्ताः योत्रिता यस्मिन् स आकीर्णवरतुरगसंमयुक्तस्तस्य, तथा-'कुमलनरछेयसारहिसु. संपरिगहियस्स' कुशलनरच्छेकसारथिमुसंपरिगृहीतस्य, सारथि कर्मणि-अश्वचालन कार्ये ये कुशला निपुगास्तेषां मध्ये अतिश्येन छेको दक्षस्तेन सारथिना मुष्ठुसम्यक् परिगृहीतस्य 'सरसय वत्तीप्तत्तूणपरिमंडियस्स' शरशतद्वात्रिंशत्तोणपरिमण्डितस्य, शराणां शतं प्रत्येकं येषु तानि शरशतानि, तानि च तानि द्वात्रिंशत्तूणानि च बाणाश्रयाः, इति शरशतद्वात्रिंशत्तूगानि तैर्मण्डितस्य, अयमर्थः-एवं खल तानि द्वात्रिंशच्छरशतभूतानि तूणानि रथस्य सर्वतः पर्यन्तेषु अवलम्बितानि संप्रामाय उपकल्पितस्थातीव मण्डनानीव भवन्ति, 'सकंकड़बडिसगस्स' सकङ्कटा वतंसकस्य, कङ्कटं करचं सहकङ्कटं यस्य स सकङ्कट' साङ्कटः अवतंस:-शेखरो यस्य स सकङ्कटावतंसः तस्य, तथा-'स चायसरपहरणभरियस्ल' स चापशरमहरणावरणभृतस्य, सह चापं येषां ते स चापाः ये शरवाणा: यानि च कुन्तमल्लिचढाई गइ हो 'आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तरम' अकीर्ण-गुणों से व्याप्त ऐसे श्रेष्ठ घोडे जिसमें अच्छी तरह से जूने हुए हों 'कुसलणरछेय. सारहि सुसंपरिगहियरल' अश्वसंचालन रूप कार्य में कुशल ऐसे पुरुषों के बीच में जो दक्ष हैं ऐसे सारथि ले जो युक्त हो 'सरसपत्तीस तोरणपरिमंडितस्स' जिन में प्रत्येक में सौ सौ बाण हों ऐसे ३२ बत्तीस भाथों से जो युक्त हो सकंकडवडिलगल' बकतर सहित सुकुट जिसका हो 'सचावसरपहरणभरियरस' धनुषसहित वाण जिस में भरे हुए हो. तथा-कुंत-भाले-आदि प्रहरण, एवं कवच खेटक आदि आयुधों से जो परिपूर्ण हो। 'जोहद्धा सज्जल्स' तथा योद्धाओं के युद्ध के निमित्त जो सजाया गया हो ऐसे रहवरस्ल' संग्रामस्थ के जप कि वह 'रायं. पामा भावी साय 'आइण्णवरतुरगसुसंपयुत्तस्स' माडी गुथी व्यास मेवा उत्तम तीन घायामासाशशत तरवामां मावाय, 'कुसलणर छेयसारहि सुसंपरिणहियस्स गश्व सयासनना आय भो यतुर ५३षामा ? भात तर डाय वा सारथिथी२ त हाय, 'सरसवत्तीसतोण परिमांडित स्स'मा हरेमा सो सोमाय हाय सेवा मत्रीस माथामाथी युति हाय 'सकंकडवडिसग मात२ सहित भुशुटी रेन डाय 'सचापसरपहरभारयस्म' धनुष सहित माये। मां सरेस हाय, तथा त-माता विगैरे प्रहयो भने ४क्य ४ विगैरे मायुधाथी २ परि डाय, 'जोहजुद्ध सम्जस्स'' तथा योद्धमान युद्ध भाटे २२ सयामा माव्या हाय, या Page #908 --------------------------------------------------------------------------  Page #909 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयद्योतिका का .ई उई दू.५३ वनषण्डादिकवर्णनर हे गौतम ! 'णो इणद्वे सभडे' नायमर्थः समर्थः, नहि वेषां तृणानां मणीनां च शिविकादि शब्द सदृशः शब्दः किन्तु ततोऽपि विलक्षण एव । पुनश्च गौतमो वीणामधिकृत्य पृच्छति-'से जहा णामए' इत्यादि तद्यथानामकम् 'वेया. लियाए वीणाए' वैतालिक्या वीणायाः मातः सन्ध्यायां वा लोकानां श्रोतृणां पुरतो या वादनायोपस्थाप्यते सा किल मङ्गलपाठिका तालाभावेऽपि च वाद्यते, विताले-बालासावे सति भवति या सा वैतालिकी तस्या वैतालिक्या वीणायाः 'उत्तर मंदामुच्छियाए' उत्तरमन्दामूर्छितायाः, मूर्छनं मूर्छा सा सञ्जाता अस्या इति मूर्छिता, उत्तरमन्दाया-उत्तरमन्दाभिधानया मूर्छनया गन्धार-स्वरान्तर्गतया सप्तम्या मूर्छिता, उत्तरमन्दामूर्छिता, अयमर्थ:-गान्धार स्वरस्य सप्तमूछना भवन्ति, तथाहिहे भदन्त ! यदि पूर्वोक्त रथ के शब्द जैसा शब्द नहीं होता है तो क्या अब आगे कहे जाने वाली बीणा के जसा शब्द होता है क्या? वही दिखलाते है 'से जहाणामए वेथालियाए वीणाए उन्सरमंदा मुच्छियाए अंके सुपटियाए' हे भदन्त जैली वैतालिको प्रातः अथवा सन्ध्या के समय जा वीणा सुननेवाले लाशो के खमक्ष बजाने के लिये उप. स्थित की जाती है। वह मङ्गलपाठिकाबोणा ताल के अभाव में भी वजायी जाती है अतः पिताल में बजायी जाने के कारण उस वीणा का नाम वैतालिकीवीणा कहा गया है वह पैतालिकी वीणा जत्र उत्तर मन्दा नामकी मूछना ले-गान्धार र के अन्तर्गा सप्तमी खूछना से युक्त होती है तब वह उत्तर मन्दार मूञ्छिता कही गई है, इसका सम?' गीतम ! मा मथ समय नथी. प्रभुश्रीन माप्रमाणेन। उत्तर सामान વિનયપૂર્વક ફરીથી શ્રીગૌતમસ્વામી પ્રભુશ્રીને પૂછે છે કે હે ભગવદ્ જે ઉપર જણાવ્યા પ્રમાણેના રથના શબ્દ જે તેને શબ્દ નથી તે શુ આગળ કડેવામાં આવનારી વીણાને જે શબ્દ હોય છે. તે શબ્દ એ તૃગુ મણિને हाय छ १ से प्रश्न उपस्थित ४२di श्रीगीतमस्वामी ४९ छे से जहाणामर क्यालियाए वीणाए उसरम दामुच्छियाए अ के सुपइद्वियाए' 8 सान् वैत.. લિકી અર્થાત તાલવગરની અર્થાત સવારે અથવા સાંજના સમયે સાંભળનારા લકાની સન્મુખ જે વીણા વગાડવા માટે ઉપસ્થિત કરવામાં આવે છે. તે મંગલા પાઠિકાવીણા તાલના અભાવમાં પણ વગાડય છે. તેથી વિતાલમાં વગાડવાના કારણે એ વીણાનું નામ વિતાલિકી વિણ કહેવામાં આવે છે એ વૈતાલિકી વીણ જ્યારે ઉત્તર મંદા નામની મૂચ્છનાથી ગાંધાર સ્વરની અંતર્ગત સાતમી મૂર્છાનાથી યુકત હોય છે, ત્યારે તેને ઉત્તર મંદાર મૂચ્છિતા કહેવામાં આવે છે. આ Page #910 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८६ जीवामिगम 'नंदीय बुटिमा परिमाय चोत्थीउ सुद्ध गंधारा । उत्तर गंधारा वि य हवई सा पंचमी मुच्छा' ॥१॥ सुहुमुत्तर आयामा छट्टी सा नियमसो उ बोद्धन्वा । उत्तरमंदा य तहा हवई सा सत्तमी मुच्छा' ॥२॥ छाया-'नन्दी च क्षुद्रा पूरिमा च चतुर्थी तु शुद्ध गान्धाराः । उत्तरगान्धारा अपि च भवति सा पश्चमीमूछना ॥१॥ सूक्ष्मोत्तराऽऽयामा पप्ठी सा नियमतस्तु वोद्धव्या । उत्तरमन्दा च तथा भवति सा सप्तमी मूछना' ॥२॥ इत्येवं सप्तविधा मूर्छना, तत्रोच्यते-गान्धारादि स्वरूपा-मोचनेन गीयमाना अतिमधुरा अन्यान्यस्वरविशेषा', यान् स्वरविशेषान् कुर्वन् आस्तां श्रोतृन् मछितमायान् करोति, किन्तु स्वयमपि मूछित इव तान् करोति, यदि वा स्वयमपि साक्षात् मीं करोति, तदुक्तम्-- तात्पर्य ऐसा है कि गान्धार स्वर की सान मूर्च्छनाएं होती है जैसे 'नंदीय खुट्टिमा पूरिमाय, चोत्थिय सुद्धगंधारा। उत्तरगान्धारावि य हवई सा पंचमी मुच्छा ॥१॥ सुहमुत्तरआयामा छट्ठी सा नियमसो उ योद्धव्या। उत्तरमंदाय तहा हवई सो सत्तनी मुच्छा ॥१॥ नन्दी क्षुद्रा, पूर्णा शुद्धगान्धारा उत्तरगान्धरा मूक्ष्मोत्तर आयामा और उत्तर मन्दा ये सात मूर्च्छनाएँ है ये मूर्च्छनाएँ इसलिये सार्थक है कि ये गानेवाले को और सुननेवालों को अन्य अन्य स्वरों से विशिष्ट होकर मूच्छित के जैसा कर देती है तदुक्तम् । 'अन्नन्नसरविसेसं उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया, कत्तावि मुच्छिमोदव कुणए मूच्छेव सोवेति ॥१॥ નન તાત્પર્ય એવું છે કે ગાંધાર સ્વરની સાત મૂછનાઓ હોય છે. જેમકે 'नदीय खुट्टिमा पूरिमाय, चोत्थिय सुद्धगधारा । उत्तरगान्धारावि य हवई सा प चमीमुच्छा' ॥ १ ॥ નદી, સુદા, પૂર્ણ શુદ્ધ ગાંધારા ઉત્તર ગાંધ:રા સૂમોત્તર આથામા અને મંદા આ સાત મૂચ્છનાઓ છે. આ મૂરઠનાઓ એ કારણથી સાર્થક છે કે એ ગાનારાઓને અને સાંભળવાવાળાને બીજા બીજા સ્વરેથી વિશિષ્ટ થઈને મૂર્ણિતના જેવા બનાવી દે છે. તેજ કહ્યું છે કે अन्नन्नसरविसेस उपाय तस्स मुच्छणा भणिया । • कत्तावि गुच्छि ओ इव कुगए मुच्छेव सेवेति ।। १ ।। Page #911 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेययोतिका टीका प्र.३ उ.३७.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् 'अनन्नसरविसेसे उपाय तस्स मच्छणा भणिया । कत्ता वि मुच्छिओ इव कुणए मुच्छेच सो वेति' ॥१॥ छाया-अन्यान्यस्वरविशेषान् उत्पादयतो मूर्छ ना भणिता । कोऽपि मूर्छित इव करोति मूर्जा श्रोतनिति ॥१॥ गान्धारस्वरान्तर्गतानां च मूर्छ नानां मध्ये सप्तमी उत्तरमन्दाभिधाना मर्छना किलाति प्रकर्षमाप्ता ततस्तदुत्पादनतया च मुख्यवृत्त्या वादयिता मछितो भवति । अत्र वीणा वीणावतोरभेदोपचारात होणाऽपि मूर्छिता, इत्युच्यते ॥ साऽपि वीणा यदि अङ्क सुमतिष्ठिता भवति तदैव मर्छना-प्रकर्ष निदधाति नान्यथा अत आह='अङ्के' इत्यादि, 'अङ्के सुपइटियाए' अङ्के स्त्रीणां पुरुषस्य वा उत्सङ्ग सुमतिष्ठितायाः 'चंदणसारकोण परिघटिया' चन्दनसारकोण परिघट्टि सायाः, चन्दनस्य सारश्चन्दनसारः जात्यचन्दनम्, तेन निर्मापितो यः कोणो वादनदण्डस्तेन परिघहितायाः संस्पृष्टाया: 'कुसलनरनारिस संपरिग्गडियाए' 'गान्धार स्वर के अन्तर्गत मृच्छनाओं के बीच में उत्तरमन्दा. नामकी मृच्छना जब अति प्रकर्ष को प्राप्त हो जाती है तब वह-श्रोता जनों को मूच्छितसा बना देती है इतना ही नहीं किन्तु स्वर विशेषों को करता हुआ गायक भी मूच्छित के जमा हो जाता है यहां वीणा और वीणायजानेवाले में अभेदोपचार को लेकर वीणा भी मूञ्छिता कही जाती है, वह वीणा यदि अङ्क गोद में अच्छी तरह से नहीं रखी जावे तो वह प्रकर्ष रूप से मच्छना को नहीं करती हैं इसलिये वीणा को अवश्य ही बजानेवाले या वजानेवाली स्त्री के उसे अपने अङ्क में अच्छे ढंग से स्थापित करनी चाहिये तभी जाकर उससे अच्छे रूप में मूच्छना प्रकर्ष को प्राप्त हो सकती है वीणा बजानेवाला वीणा को चन्दनके सार से निर्मित वादन दण्ड से बजाता है तार पर उसे बजाने ગાંધાર સ્વરની અંતર્ગત મૂચ્છનાઓમાં ઉત્તરમંદા નામની મૂચ્છના જ્યારે અત્યંત પ્રકર્ષને પ્રાપ્ત થઈ જાય છે ત્યારે તે સાંભળનારાઓને મૂચિત જેવા બનાવી છે. એટલું જ નહીં પણ સ્વર વિશેષને પ્રગટ કરતા ગાયકપણ મછિત જેવું બની જાય છે. અહિં વીણા અને વીણા વગાડનારાઓમાં શદીપચાર ને લઈને વીણાને પણ મૂછિના કહેવામાં આવે છે. તે વીણું જો અંકે કહેતાં ખોળામાં સારી રીતે રાખવામાં ન આવે તે તે ઉત્કટ પણ થી મૂછના કરતી નથી. તેથી વીણાને વગાડનાર પુરૂષ કે સ્ત્રીએ તેને ખેાળામાં સુચારૂ ઢંગથી અવશ્ય રાખવી જોઈએ. ત્યારે જ તેમાંથી સુંદર રીતે મૂરના મને પ્રાપ્ત થઈ શકે છે. વીણાને વગાડનાર વીણાને ચંદનના સારથી બનાવેલા Page #912 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मीषाभिगमसूत्र ८44 कुशलनरनारीसुसंपरिगृहीताया, कुशलेन-वीणावादननिपुणेन नरेण-पुरुषेण. नार्या-स्त्रिया वा सु-सुष्टु सम्यक् परिगृहीतायाः 'पदोसपञ्चमकालसमयसि' पदोपप्रत्युपकालसरये, प्रदोषे-सायङ्काले प्रत्यूपे-प्रभातवेलायाम्, 'मंद मंद पडयाए' मन्दं मन्द-शनैः शन: एजितायाः चन्दनसारकोणेन ईपत कम्पितायाः 'वेश्याए' ज्येजितायाः-विशेषतः कम्पनयुक्तायाः कम्पिलाया:-वारं नगरं यम्पन. युक्तायाः एतावदेव पर्यायेण व्याचष्टे-'खोभियाए चाकियाए फदियाए घटिपाए उदीरियाए' क्षोभितायाः चालितायाः स्पन्दितायः घट्टिताया उदीरिताया पत्र क्षोभिताया:- सूर्थी प्राप्तायाः, चालिगाया:-प्रेरितायाः, स्पन्दिताया:नखाग्रेण स्वरविशेषोत्पादनाथमीपच्चालितायाः घटिताया:. अधिोगच्छता के ढंग से रगड रगड कर चलाता है बजाने वाले पुरुषको या स्त्री को पजाने की क्रिया में विशेष निपुण होना चाहिये ऐसा चैमा व्यक्ति वीणा को ढंग से नहीं बजा सकता है और न वह उसे अपने अवगोद में सुव्यवस्थितरूप से रख ही सकता है इन्ही सब बातों को समझाने के लिये 'अंके सुपट्टियाए चंदणसारकोण पविघट्टियाए कुसलनर नारि सुसंपगाझ्यिाए पदोसपच्चरकालसमयमि मंदं २ एइयाए वेड्याए खोभियाए चालियाए फंदियाए घट्टियाए उदीरियाए ओराला मणुण्णा कण्णमणणिवुटकरा सन्यो ससंता सद्दी अभिणिस्मनि' ऐसा पाठ यहां लिखा गया है चीणाका वादन या तो प्रातः काल होता है या सायंकाल के समय में होता है जब वह वीणा चन्दन सार निर्मित दण्डकोण से धीरे धीरे वजायी जाती है या विशेषरूप से जोर २ से पजायी जाती है तब उससे जैसा फर्ण और मनमोहित करने वाला વાદન દંડથી વગાડે છે, તાર પર તેને બનાવવા માટે ઢંગથી ઘસી ઘસીને ચલાવે છે. વગાડનાર પુરૂષ અથવા સ્ત્રી વગાડવાની ક્રિયામાં વિશેષ પ્રવીણ હોવી જોઈએ જેવી તેવી વ્યકિત વણને દંગપૂર્વક વગાડી શકતી નથી તેમ તે વહુને પિતાના ખેાળામાં સુવ્યવસ્થિત રીતે રાખી પણ શકતા નથી. આ બાબત समता भाटे के सुपइट्ठियाए चंदणसारकोणपरिघट्टियाए कुसलनरनारि सुसंप गहियाए पदोसपच्चूसकालसमय सि मदं २ २इयाए वेइयाए बोभिगए चलियाए फंदियाए घट्टियाए उदीरियाए ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्वुतिकरा सव्व ओ समता सदा अभिणिस्सति' मा प्रमाणेना या ४३वामां मात छ. વીણનું વાદન કાંતે પ્રાતઃકાળ સવારના સમયમાં અથવાતે સાયંકાળ સાંજના સમયમાં થાય છે તે વીણાને જ્યારે ચંદનસારથી બનાવેલા દંડના ખૂણાથી ધીરે ધીરે વગાડવામાં આવે અથવા વિશેષ પ્રકારથી જોર જોરથી વગાડવામાં Page #913 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयोतिका ठीका प्र.३ उ. ३ . ५३ वनपण्डादिकवर्णनम् ८८९ चन्दनसारकोणेन गाढतरं वीणादण्डेन सहखन्ध्याः स्पृष्टाया इत्यर्थः 'ओराला मणुष्णा कण्णमणणिच्वतिकरा' उदारा मनोज्ञाः - कर्णमनो निर्वृत्तिकराः अतिशयेन विलक्षण सुखजनकाः 'सवओो' सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'समता' सर्वाच विदिक्षु 'सद्दा अभिणिस्सर्वति' शब्दा अभिनिःसरन्ति-प्रादुर्भवन्ति । श्रीगौतमः प्राह - 'भवेपारूवे सिया' स्यात् कदाचित् भवेदेतान्द्रः वीणाशन्द सदृश: तृणानां मणीना च किमिति प्रश्नः, भगवानाह - णो णट्ठे समट्ठे' नायमर्थः समर्थः, नैतादृशः शब्द स्तृणानाम् । भगवता एतादृशे शब्देऽस्वीकृते पुनरपि गौतम उपमया पृच्छति - ' से जहा णामए' इत्यादि, 'से जहा णामए' तप्रथानामकम् 'विनाराण वा किंपुरिसाण या' किनराणां वा, किंपुरुषाणां वा 'महोरगाण वा गंधव्वाण वा' होरमाणां वा गन्धर्वाणां वा व्यन्तरविशेषाणां कथं भूतानां तेषां तत्राह - 'भद्दमाल० ' इत्यादि, 'भद्दसालवणगयाण वा' भद्रशाळवनगतानां वा 'णंदणवणगयाण वा ' शब्द निकलता है उससे वह शब्द अन्तरात्मा को अतिशयरूप से विलक्षण सुखका जनक होता है ऐसा कह कर श्रीगौतमस्वामी प्रभुश्री से पूछा है 'भएयावे सिया' हे भदन्त ! तो क्या ऐसा शब्द उन तृणों और मणियों से भी निकलता है क्या ? इसके उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'जो इन समड़े' हे 'गोतम' यह अर्थ - समर्थ नहीं है क्यों कि इस शब्द से भी अधिक इष्ट, प्रिय, कान्न और मनोज्ञतर तथा मनोsuतर शब्द वायु के संपर्क से उन तृणों और मणियों से निकलता है । इस वीणा के शब्द को भगवान जब अस्वीकृत कर दिया तब titararat फिर किन्नर आदि के शब्दों की उपमा को लेकर पूछते है ' से जहा नामए किण्णराणचा किं पुरिसाण वा महोरगाणवा गधन्वा આવે ત્યારે તેમાંથી કાન અને મનને માહિત કરવાવાળા શબ્દ નીકળે છે. તેથી એ શબ્દથી અન્તરાત્માને અતિશય વિલક્ષણ પ્રકારનુ સુખ ઉપજે છે. આ प्रभाषे उडीने श्री गौतमस्वामी प्रभुश्रीने पूछे छे ભગવત્ તેા શુ' એવા મધુર શબ્દ એ તૃણા અને छे? या प्रश्नना उत्तरमा प्रभुश्री गौतमस्वाभीने हे हे हे 'ण इट्टे समट्टे હે ગૌતમ! આ અર્થ સમથ નથી, કેમકે એ શબ્દથી પગ વધારે કષ્ટ, પ્રિય, ક્રાંત, મનેાજ્ઞતર, તથા મનેઽમતર શબ્દ પવનના સપથી એ તૃણે! અને મણિયામાંથી નીકળે છે. આ રીતે પૂવેકિત વિશેષશેાવાળી વીણાના શબ્દને ભગવાને અસ્વીકૃત કરવાથી શ્રી ગૌતમસ્વામી કિન્નર વિગેરાના શબ્દના સબધમાં अनुश्रीने पृछे छे. 'से जहानामए किष्णराणवा किंपुरिसाण वा महोरगाणवा जी० ११२ 'भवेएयारूवे सिया' हे મણિચામાંથી પણ નીકળે Page #914 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवामिगमले नन्दनवनगतानां चा 'सोसणसवणगयाण वा' सौमनसवनगतानां वा, 'पंडगवण गयाण वा' पण्डकवनगतानां वा, तत्र मेरोः समन्ततः समभमा भद्रगालवनं, प्रथममेखलायां नन्दनवनम्, द्वितीयमेखलायां सौमनसवनम्, शिरसि चूलिकायाः पार्वेषु सर्वतः पण्डकवनम् तत्र स्थितानामित्यर्थः पुनश्च-'हिमवंतमलयमंदरगिरिगुहा समण्णागयाण वा हिमवन्मलयगन्दरगिरिगुहा समन्वागतानां वा, हिमवान् हिमवरक्षेत्रस्योत्तरतः सीमाकारी वर्षधरपर्यतः, उपळक्षणम्, शेषवर्षधरपर्वतानां मलयपर्वतस्य मन्दरगिरेश्च मेरुपर्वतस्य च गुहा-गुफा तत्र समन्वागतानाम्आगत्य स्थितानाम्, किन्नरादयः प्राय एतेषु मुदिततरा भवन्तीत्यत एव तेषां ग्रहणम् ‘एगओ संहियाणं' एकतः संहितानाम्-संमिलितानाम्, 'समुहागयाण' जवा 'मसालणगयाण वा सोरणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण घा हिमवंतमलयमंदगिरि गुहसमण्णागाणवा' यहां से लेकर मूत्र समाप्ति पर्यन्त के शब्दों का पिस्तन अर्थ सूत्र के अन्त में कहा जायगा यह सामान्य रूप से अर्थ किया जाता है, हे भदन्त ! जैमा किन्नरों का अधक्षा किंपुरुषों का महोरगों का या गंधर्षो का जो कि भद्रसाल वन में था सोमनसवन में धा पण्ड कवन में चैटे हों या हिमवान पर्वत की या पलय पर्वत की या मन्दर पर्वत की गुफा में बैठे हो 'एगओ सहियाणं' एसस्थान पर एकत्रित हुए हों 'संमुहागयाणं' या एक दसरे के आमने सामने आए हुए हो, या एक दूसरे के समक्ष बैठे हुए हों । कोई किली को पीट देकर न बैठा हो 'समुविठ्ठाणं' बैठी हुई अवस्था में भी इस ढंग से वैटे हो कि जिससे किसी को आपल की रगड से या संघर्ष से बाधा न हो रही हो 'संनिविठ्ठाणं' गव्वाणवा भदसालणगयाणा सोमणवणगयाणवा पंडगवणगयाणवा हिमवतवलयम दरगिरिगुहसमण्णागयाण वा' मा सूत्रपा४थी मार न शन सूत्र. સમાપ્તિ સુધિના શબ્દોને અર્થ સૂત્રના અંતમાં કહેવામાં આવશે. આ અધ સામાન્ય રીતે કરવામાં આવે છે. તે આ પ્રમાણે છે. હે ભગવન કિન્નરોના કિ પુરૂષોના મારગોના, અથવા ગંધર્વોના સમૂહ કે જે ભદ્રમાલ વનમાં અથવા સોમનવસનામાં અથવા પંડકવનમાં બેઠેલા હાથ જો હિમવાન પર્વતની અથવા मलयपतनी या मं२ पतनी शुभां गेठेसा खाय एगों संहियाण' से २थन ५२ मे थयेा हाय 'समूहागया गं' मन मे मीन्तनी સામે આવેલા હોય અથવા એક બીજાની સન્મુખ બેઠેલા હેય કોઇની પીઠ કેઈની સામે પડતી ન હોય અર્થાત્ કંઈ પીડ દઈને બેસેલ ન डाय 'समुवट्ठियाणं' मेवी अवश्थामा ५४ मेवी शत मे डाय रथा Page #915 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टका प्र.३ उ.३ सू.५३ वनपण्डादिकवर्णन ८९२ संमुखागतानाम् पृष्ठदाने हपनिघावोत्पत्तेः 'समुवधिहाणं संनिविट्ठाणं' सयुपवि. टानां सन्निविष्टानाम्, सम्यक् परस्परानाबाधया उपविष्टाः समुपविष्टा स्तेषां समुपविष्टानाम्, सम्यक स्वशरीरानाबाधया न तु विषमस्थानेन निविष्टा स्तेषां सन्निविष्टानाम् ‘पमुदिय एक्कीलियाणं' प्रमुदित प्रक्रीडितानाम्, प्रमुदिताःप्रमोदप्रकर्ष गताः क्रीडिताः-क्रीडितुमारब्धवन्तः। 'गीयति गंधबहरिसियमणाणं' गीतरतिगन्धर्वहर्पितमनपाम्, गीते रतिर्येषां ते गीतरतयः गन्धर्व नाटयादि, तत्र हर्षितमनसस्तेषाम्, 'गेयं पगीयाणं' गेयं घगीतानाम्, इत्यग्रेण सम्बन्धः, तच्च गेयं गयादिभेदादष्टविधर, तदेव प्रदर्शयति-'गज्ज' इत्यादि । 'गज्ज' गद्यम्, यत्स्वरसंचारेण गीयते तद्गद्यम् १, 'पज्ज' पद्यम् यत्र तु वृत्तादि गीयते तत्पद्यम् २, 'कत्थ' कथ्यं कथिकादि गीयते तत्कथ्यम्३, ‘पयबद्धं' पदबद्धम् यदेकाक्षरादि यथा ते ते इत्यादि४, 'पायबद्धं' पादवद्धम्, यद् वृत्तादि चतुर्भागमात्रे पदे बद्धम् ५ 'लक्खित्तयं' उत्क्षिप्लकम् प्रथमतः समारभ्यतथा जिस बैठने में अपने शरीर को भी अपने ही शरीर के किसी भी अवयवद्वारा बाधा न पहंच रही हो ऐसे लमसंस्थान से बैठे हों। 'पमु. इयपक्कीलियाणं' हर्ष जिनके शरीर पर खेल रहा हो और जो आनन्द के साथ क्रीडा करने में मन हो रहे हों गीयरतिगंधवारिसियमणाणं' गीत में जिनकी रति हो गन्धर्व नाटयादि करने जिनका मनहर्षित हो रहा हो 'गेयं पगीयाणं, इस आगे कहे जाने वाले वाक्यों से यहां संवन्ध है गेय को गाते हुओं का वह गेय गद्यादिके भेद से आठ प्रकारक होता है जैसे 'गज्ज'-गद्यम्-जो स्वर संचार से 'पज्ज' पद्यवृतरूप 'कर-कथाश्मक-पयषद-पदबद्धं-एकाक्षरादिरूपपविद्धं' पादविद्ध, वृत्तादिले चतुर्भाग मात्र पद में बद्ध हुआ 'उक्खिमे मीलनी मथाभाथी नय माथा पांयती न डाय 'संनिविद्वाण' અને જે બેઠકમાં પિતાના શરીરને પણ પિતાનાજ શરીરના કોઈ પણ અવયવ ६२१ २४ ५७ती न होय ना सम संस्थानथी मेसेल होय ‘पमुइयपक्कीलि. याण' ना शरी२ ५२ षनाथीरह्यो डाय भने २ मा पूर्व नाय ४२. पामा तीन जना हाय गीयरतिगंधवहरिसियमणाणं' गीतमांनी प्रीति त्य, नाटय विगैरे वामानुभन त थ २घुडाय 'गेय पगीयाणं' આ આગળ કહેવામાં આવનારા વાકાનો અહિંયાં સંબંધ છે. ગેયને ગાનારા આના જેમકે તે ગેય ગદ્ય વિગેરેના ભેદથી આઠ પ્રકારના હોય છે. જેમકે 'गज्ज ! गद्य' ध १२ सयारथी 'पज्ज" ५५ वृत्त३५ 'कत्थ' ४थात्म ‘पयबद्ध' ५६ सद्ध साक्षर वि३ ३ 'पयविद्ध' पाविध वृत्त विगैरेन। Page #916 --------------------------------------------------------------------------  Page #917 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् षडदोपविपयुक्तम्, पमिदोष दिपमुक्त रहितमिति पदोषविषमुक्तम्, ते च षड् दोपा अमी-- 'भीयं दुयमुप्पित्थमुत्तालं च कमसो मुणेयध्वं । कागस्तर मणुनासं छद्रोसा होति गेयस्स' ॥ छाया-'भीतं द्रूतमुप्पिच्छत्थ मुत्तालं च क्रमशो ज्ञातव्यम् । काकस्वरमनुनासं षड्दोपा भवन्ति गेयस्य ।। तत्र-भीतम्-उत्त्रस्तम् यदुरास्तेन मनसा गीयते तद्भोतपुरुषनिबन्धनधर्मानुवृतत्वाद् भीतमुच्यते ?, द्रुतं यद त्वरित गीयते२, उपिपच्छं नाम आकुळम् तदुक्तम्-'आहित्यं उपिच्छं च आउलं रोसमरियं च' अयमर्थः-आहित्यमु. छिं च प्रत्येकमाकुलं रोपभृतं वोच्यते इति, आकुलताच श्वासेन द्रष्टव्या, उक्तंच 'उपिच्छ शाप्तयुक्त' मिति३, तथा-उत् मावल्येन अतितालमस्थानतालं वा उतालम् ४, अश्लक्ष्ण स्वरेण काफस्वरम् ५. सानुनासिकमनुनासम्-नासिकाविनिगावरानुमत मित्यर्थ.६, एते पदोपा गेयस्येति । तथा-'एगारसगुणालंकार' नैषाद इन सात स्वरों वाले गेषको जैसे 'गज्ज' गद्यम् जो स्वर संचार से गाया जाय ये सात स्थर पुरुष एवं स्त्री के नाभिदेश से निकलते हे जसे कहा है 'सत्तबरो नाभिओ' अससुसंपउत्तं' शङ्गारादि आठरसोवाले गेयको 'छद्दोलधिप्पमुक्क' छह दोषों से की जो छह दोष इस प्रकार है 'भीयं दुधमुविधमुसालं च मला भुणेयव्वं । कागस्तर मणुणासं छद्दोमा होति गेयस्स' ॥ इसके अनुसार-भीन दूत उपिच्छ उत्ताल ४ काकस्वर."और अनुनास इन छह दोषों से रहित गेश को 'एगारसगुणालंकारं' एकादश गुणों से अलकत गेय को 'अद्वगुणोववेयं आठगुणों से युक्त गेय को गेश के आठ गुण ये हैपण गेयने भो 'जज', गद्यम्' गद्य २ स्वरसय २थी वामां माव से सात २१२ १३५ मने स्त्रीना नामिशथी नाणे छ. रेभ यु 'सत्तसरा नाभिभो अद्वरस संप उत्त' श्र॥२ विगैरे भाई सावाणा गयने 'दोस विप्प मुक्क' छ द्वषोया २ .५ मा प्रमाणे छे. 'भीय दुयमुस्पित्थमुत्ताल' च कमसो मुणेयव्व । कागस्सरमणुणास छदसा होति गेयस्व' । ભીત, કુત, ઉપિચ્છ ઉત્તાલ, કાકવર અને અનુનાસ આ છ દેષ વિનાના पान “एगारस गुणाल'कार' ५२५॥२ गुऐथी मसत गेयने 'अद्वगुणोववेय" ભાઠ શણથી ચુકત ગેયને, તે આઠ ગુણે આ પ્રમાણે છે. Page #918 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीधामगमसूत्रे ८९६ लिये रक्तं श्रीस्थानकरणशुद्रम्, रक्तं गेवरागानुरक्तेन ग्रहीयते तद्रक्तम्, तथा -स्थापकरणशुद्रम् त्रीणि ग्यानानि उन: मभृतीनि तेषु करणेन क्रियया शुद्रमिति त्रिस्थानकरण - शुद्धम्, तथाहि - उरः शुद्ध कण्ठशुद्ध शिरोशुद्ध च तंत्र यदि उति स्वरः स्वर - भूमिकानुसारेण विशालो भवति तत उसे विशुद्धम्, स एन स्वरो कण्ठे वर्तियो भवति अम्फुटितयः कण्टविशुद्धम्, यदि पुनः शिरः म.स सन मानुनासिको भवति ततः शिरो विशुद्धम्, aaa यद् अण्डरोमि उलेमा अन्याकुलितैर्विशुद्धेर्गीयते तद् उरः पण्ठशिरो विशुद्धत्वात् त्रिस्थान करणविशुद्ध भवतीति । मधुरं समं सुललितम् एतानि पदानि व्याख्यातपूर्वाणि । तथा - 'सकुहरगुजत सततीसुमं उत्तं' सकुहरगुञ्जद् वंयन्त्रसंयुक्तम् सगेगुञ्जन्यो वंशः 'वांसुरी उति प्रसिद्धा यत्र तन्त्रीता भवति, सकुहरे वंशे गुञ्जति रात्र्या च वाद्यमानायां यत् तन्त्रीस्तरेण विशुद्ध तत् कुहरगुञ्जन्त्रमुपयुक्तम्-तथा 'तामुपउने' तालसंयुक्तं परस्परातहस्ततालस्वरानुवतियद्गीतं वत् बालमंप्रयुक्तम्, मुग्जकंसिकादीनामाधाना माहतानां यो ध्वनिः यथ नृत्यन्त्या नर्त्तक्वाः पादो क्षेतेन समं तत्तालसंयुक्तम् 'तालसमं' तालसमम् 'लयमुप उत्ते' लयसुसंप्रयुक्तम् शुद्धमयी दारुमयो वंशमयो ना गेय को 'उरिभिपपयसंचारं' मृदुरिभिस्त्रानुसार तंत्री आदि से ग्रहण किये गये स्वर से युक्त पदसंचारबागेषको सुरहं श्रोताओं को आनन्द जिससे आवे ऐसे सुरतिवालेगेय को 'सुणति' सुमतिवाले अंगो के सुन्दर झुकाववाले गेय को 'वरचा' विशिष्ट सुन्दर स्वप चाले 'गेको दिव्वं गेयं पगीयाणं' दिव्य ऐसे गाने को गाने वाले उन पूक्त विन्नगदिदेवों के मुख से जो शब्द निकलने है और वे जैसे मनोहर होते है तो क्या है भदन्त ! 'भवेएयावे लि' इसी तरह के शब्द उन तृण और मणि से निकलते हुए होते है ? इस के उत्तर में प्रभुश्री कहते है 'नामा । एवंभूए मिया' गौतम ! उनके निकले ए ગ્રણ કરવામાં આવનારા સ્વરથી યુકત પદસ ચાર વાળા ગેયને મુઃ ' શ્રોતા એને જેનથી આનંદ ઉપજે એવા સુરતિવાળા ગેયને મુનિ' સુ તિવાળા मंगोन। सुदर भुतवत्राला गेयने 'वरचारुरूत्र' विशिष्ट मुहर ३५वा गेयने 'दिव्वं गेय पगीयाणं' दिव्य सेवा जानने आवाराजा मे पूवेति निर शेरे ઢયાતા મુખથી જે શબ્દ નીકળે છે, અને એ જેવ મને!હુર હોય છે તે शु ? 'भवेयारुवे जिया' हे भगवन से चैतनी मधुरत मे वृथा मने भयो માંથી નીકળનાર શબ્દોના હ્રાય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી કહે છે કે गोयमा ! एवं भूएसिया' डा गौतम से पूर्वेति प्रटारना गेय विगेरेभाथी Page #919 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९७ प्रमेयद्योतिका टीका ६ उ.३ ए.५३ वनषण्डादिकवर्णनम् अंगुलिकोशस्तेनाहतायास्तव्याः हरणकारो लयस्तमनुसरद् गेय लयसुसंप्रयुक्तमिति कथ्यते । 'महसुसंपउत्तं नहसुसंप्रयुक्तम्, यः मघम वंशरल्यादिभिः करोगृहीतस्तन्मालुसारि गेयं महसुसंयुक्तम्, 'मनोहर' मनोहर-मनोऽपिलपणीयम् । कथं श्रुतं गेयम् ? तबाइ-बस इत्यादि, 'मउपरिभियपरसंचार' मृदुकरिमितपदसंचारम्, मृदु-मृदुना स्वरेण युक्तं न तु कठोरेण तथा यन इवशेऽक्षरेषु-घोलनावर विशेषेषु संचलन शगेडी प्रतिमासने लाद संचारो रिस्तिमित्युच्यते, मृदुरिभिता देघु गैनिमद्धेषु संचारो यत्र गेरो तद मृदुरिमितपदसंचारम् । 'सुरई सुरति, शोभना रतिः-आनन्दो यदि श्रोतमा तर मुरति । तथा-'साई' मुनति, शोभना नतिः-अङ्गाला नमनं रचनातोऽवसाने यतिन् तह सुनति शेयम्, शब्द जैसे शब्द उल तण और अधिक्षकों के होते है जहां पर जो गेय को अनेक विशेषणों से युक्त किया गया है उन विशेषणों का नया सूत्र में आल और भी पदों की व्याख्या इस प्रकार से है-जिन किन रादिकों का यह कथन किया गया है वे सब व्यन्सर देशों के ही भेद है भद्रशाल आदि चार धन लुमेरुतवत पर ही है इनमें भद्रशालचन मेरू की समन्ततः भूलि प्यालरफ लम अर्थात् नीचे की भूमि है, मेरु की प्रथम मेखला में लन्दनल है इसके उपर दूरी सेखला में सौमनस वन है इल से उपर में चूलिका के पार्श्व आगो में चारों तरफ पण्डवन है महाहिलवान हेलचन्ता क्षेत्र की उत्तर दिशा, और यह उसकी स्लीमा का की होने से वर्षभर पर्वच माहलाता है शेष गद्य आदि के भेद के गेय आठ प्रकार का होता है जैसे वर्षधर पर्वतों का यह उपलक्षक है, इलले अन्य दर्पधर पर्वत भी जान लेना चाहिये નીકળતા શબ્દ જેવા શબ્દો એ તૃણ અને મણિના હોય છે. અહીયાં જે ગેયને અનેક વિશેષણોથી યુક્ત કરવામાં આવેલ હોય એ વિશેષણનો તથા સૂત્રમાં આવેલ બીજા પદેનું વર્ણન આ પ્રમાણે છે. જે કિન્નર વિગેરેનું અહીંયાં કથન કરવામાં આવ્યું છે, તે બધા વ્યન્તર દેનાજ ભેદ છે ભદ્રશાલ વિગેરે ચાર વને સુમેરૂ પર્વત પર જ છે તેમાં ભદ્રશાલવન મેરૂની ચારે બાજની ભૂમી સમ અર્થાત્ નીચેની ભૂમિ છે. મેરૂની પ્રથમ મેખલામાં નન્દનવન છે. તેના ઉપર બીજી મેખલામાં સૌમનમ્ર વન છે. તેની ઉપર ચૂલિકાના પાર્શ્વભાગમાં ચારે તરફ પંડકવન છે મહા હિમરાન હૈમવત ક્ષેત્રની ઉત્તર દિશામાં છે. એ એની સીમાને બતાવનાર હોવાથી વર્ષધર પર્વત કહેવાય છે. બાકિ ગદ્ય વિગેરેના ભેદથી ગેય આઠ પ્રકારનું હોય છે જેમકે વર્ષધર પર્વત એ અહિં ઉપલક્ષક છે, તેથી બીજા વર્ષધર પર્વત પણ સમજી લેવા જે ગેય સ્વર जी० ११३ Page #920 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमने 'परचारुरूवं' वरचाररूपम्, वरम्-प्रधानं चारुविशिष्टं च रूपं-स्वरूपं यस्य तद् वरचाररूपम् 'दिव्य' दिव्यं प्रधानम्, 'गे' गेयम् 'पनीयाण' गीतानां गायागेयस्य गानं कुर्वतां किन्नरादीनां यादृशः मान्दोऽतिमनोहरो भवति, 'भवेएयारूवे सिया' स्यात्-कथञ्चित् भवेद किम् एतावद्रूपस्तेषां तृणानां मणीनां च शब्दः १ एवमुक्ते गौतमे भगवानाह-'हंता गोयमा' इत्यादि, 'हंता गोयमा !' हन्तगौतम ! एवंभूप सिया' एवम्भूतः शब्दः स्यात्तेषां तृणानां मणीनां चेति भगवता स्वीकृतम् ॥० ५३॥ इति श्री विश्वविख्यात-जगद्दरकम-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभाषा फलितललितकलापालापकमविशुद्धगद्यपद्यानैकग्रन्थनिर्मापक, वादिमानमर्दक-श्रीशाहच्छत्रपति कोल्हापुरराजमदत्त'जैनाचार्य पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरुबालब्रह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिनाकर पूज्य श्री घासीलालचतिविरचितस्य श्री जीवाभिगमसूत्रस्य ममेयद्योतिका ख्यायां व्याख्यायां तृतीयमतिपत्तों वनपण्डादि वर्णनान्तो द्वितीयो भागः समाप्तः॥ जो गेय स्वर संचार से गाया जाता है वह गद्य है जो गान छन्दों के रूप में गाया जाता है वह पद्य रूप गेय है २ जो कधिकादिरूपसे गाया जाता है वह कथ्य है ३ जिस गेय में केवल एक एक अक्षर गाया जाता है वह पदयद्ध है ४ जो वृत्तादि के चतुर्भाग एकचरण में युद्ध हो वह पादवद्ध है ५ जो आरंभ से ही समारभ्यमाण होता है वह उत्क्षिप्त है प्रथम समारम्भ के बाद जो नाना आक्षेपपूर्वक प्रवर्तमान સંચારથી ગાવામાં આવે છે. તે ગદ્ય કહેવાય છે. ૧ જે ગાન છના રૂપે ગાવામાં આવે છે, તે પદ્યરૂપ ગેય છે. ૨ જે કથિકાદિ પ્રકારથી ગાવામાં આવે છે. તે કય ગેય છે. ૩ જે ગાનમાં કેવળ એક એક અક્ષર ગાવામાં આવે છે. તે પદ બદ્ધ ગેય છે. ૪ જે વૃત્તાદિના ચતુર્ભાગ એક ચરણમાં બદ્ધ હોય તે પાદ બદ્ધ છે પ જે ગેય આરંભથીજ સામાવલ્ય મારા હોય છે, જે ઉક્ષિપ્ત ય છે. ૬ પહેલા સમારંભની પછી જે નાના પ્રકારના આક્ષેપ પૂર્વક પ્રવર્તમાન Page #921 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रद्योतिका टीका प्र.३ उ. ३ . ५३ वनपण्डादिकवर्णनम् ८९९ होता है वह प्रवृत्तक है ७ मध्यमा में जो सकल मूच्र्छनादि गुणों से युक्त होता हुआ धीरे धीरे संचार करता है, वह गेय के भाटवां भेद है फिर गेय का विशेषण कहते है जिल गेय का अवसान सम्यकूरूप से भावित होता है वह रोचितावसान गेध है जो गेय छह दोषों से रहित हो उन छह दोषों का स्पष्टीकरण जो गीत गबराए हुए मन से गाया जाता है वह गीत भीत दोष से दूषित कहा गया है जो गाना जल्दी गाया जाता है वह गान का द्रुत नाबक दोष है जिस गान को गाते समय श्वास उठ आवे और इससे गानेवाले को आकुलता हो जावे चह गेव उप्पिच्छ दोषवाला कहा गया है - तदुक्तम्- ' उपिच्छं श्वासयुक्तम् ' जो गाना अतितालवाला हो अथवा अस्थान हालचाला हो वह उत्ताल दोषवाला कहा गया है । जो गाना शिथिल कठोर स्वर से गाया जाता है वह गाना काल स्वर दोष से दूषित कहा गया है। जो गाना नाक के स्वर से गुनगुनाते हुए गाया जाता है वह अनुनासिक दोषवाला गाना कहा गया है ६ । ११ गुणों का स्वरूप पूर्वी में स्वर प्राभृत में विशेषरूप से है उनसे उद्धृत किया हुआ 'कुई वेस्मि भरतविंशाखिल' आदिद्वारा विरचित ग्रन्थों में मिलता है वहां से जान लेना चाहिये, गाने के आठ गुण इस प्रकार से हैं जो गीत स्वर एवं कलाओं से पूर्ण करके થાય તે પ્રવૃત્તક છે. છ મધ્યમામાં જે સકલ મૂર્ચ્છના વિગેરે ગુણ્ણાથી યુકત થતા થતા ધીરે ધીરે સંચાર કરે છે. તે ગેય મંદ કહેવાય છે. ૮ આ આઠે ભેદ ગેયના છે. હવે ગેયના વિશેષણેા બતાવવામાં આવે છે, જે ગેયનુ' અવસાન રમ્યક પ્રકારથી ભાવિત થાય છે તે રાચિતાવસાન ગેય છે, જેોય છ દોષોથી રહિત હાય એ છ દોષો આ પ્રમાણે છે. જે ગીત ગભરાયેલા મનથી ગાવામાં આવે છે, તે ગીત ભીત ઢાષથી દૂષિત કહેવામાં આવે છે, જે ગાન જદિ જલ્દિ ગાવામાં આવે છે. તે ગાનના દ્રુત નામના દોષ છે. જે ગાનને ગાતી વખતે શ્વાસ ચડી જાય અને તેનાથી ગાવાવાળાને આકુળતા થઈ જાય તે ગીત उच्चिन्छ घोषवाणु देवाय छे. ते हवामां आवे छे. 'उत्पिच्छ श्वासयुक्तम्' ? गान अत्यंत तास वाजु होय अथवा अस्थाने तासवाणु होय ते ગાનને ઉત્તાલ દોષવાળુ' કહેવામાં આવે છે. જે ગાન શિથિલ કઠોર સ્વરથી ગાવામાં આવે તે ગાન કાકવર દોષથી દૂષિત કહેવાય છે. જે ગાન નાકના સ્વરથી ગણગણુતા ગાવામાં આવે તે ગાન અનુનાસિક દેખવાળું કહેવાય છે. 遵 4 Page #922 --------------------------------------------------------------------------  Page #923 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०१ 'प्रद्योतिका ठीका प्र. ३ उ. ३ सू. ५३ वनषण्डादिकवर्णनम् होता है, वही स्वर जब कंठ में वर्तित होता हुआ अस्फुटित होता है तब वह कण्ठ विशुद्ध होता है वही स्थर जब शिर में प्राप्त होकर सानुनासिक होता है तब यह शिरो विशुद्ध होता है अथवा श्लेष्मा से अव्याकुल हुए उर कंठ, और शिर इन तीन स्थानों से जो गाया जाता है वह उर कंठ और शिर इन तीन स्थानों से विशुद्ध कहा गया है । अंगुलिकोश शृङ्गका दारु, लकडी का या वंश का बना हुआ होता है इसे अंगुली में पहिन कर जब सन्त्री बजायी जाती है, तब उससे जो स्वर निकलता है उस स्वर का नाम लय है, इस लय के अनुसार जो गीत गाया जाता है वह लय सुसंप्रयुक्त गीत है, जो गीत प्रथमवंश तन्त्र आदि से गृहीत होता हुआ उसी के अनुसार गाया जाता है वह ग्रह सुसंप्रयुक्त गीत है, जिस गीत में तालवंश तन्त्री आदि के स्वर गीत के साथ साथ चल रहे हों वह गीत सुललित है मृदु स्वर से गाया जाय उस गीत का नाम मृदु है । घोलना स्वर विशेषों से संचार करता हुआ जब राग में आ जाता है तब वह पदसंचाररिभित જેવા મીઠા અવાજથી જે ગીત ગાવામાં આવે તે ગીત મધુર નામના ગુણુ વાળુ' કહેવાય છે. ૬ જેમાં તાલ વશ અને સ્વર એક શિલ્પમાં જઈ રહ્યા હેય એવુ' જે ગીત છે તે ગીત સમગુણુ નામના ગુવાળું કહેવાય છે. જે ગાન સ્વરાને ધેાળવાના પ્રકારથી કઠમા તરતું રહે છે, તે ગાન સુલલિત ગુણુ वाणु उडेवाय छे. सूत्रारे आ शुभांथी डेंटला गुणाने 'रच' तित्थाण કરેલ છે. ઉર, કંઠ અને શિર करणसुद्धं' विगेरे अारना चाहे द्वारा प्रगट એ ત્રણ સ્થાન છે. જે ગાન ઉર શુદ્ધ, કશુદ્ધ અને શિરઃશુદ્ધ હાય છે તે ગીત ત્રિસ્થાન કરશુ શુદ્ધ કહેવાય છે. છાતીથો ઉપડેલ સ્વર પેાતાની ભૂમિકા પ્રમાણે જયારે વિશાળ ખની જાય ત્યારે તે ઉરાવિશુદ્ધ થાય છે. એજ વર્ વગાડવામાં આવે ત્યારે તેમાંથો જે સ્વર નીકળે છે, એ સ્વરનુ નામ લય છે, આ લય પ્રમાણે જે ગીત ગાવામાં આવે છે, તે લય સુસ પ્રયુકત ગીત છે. જે ગીત પહેલાં વશ તંત્રી વિગેરેથી ગ્રહણુ થઈને તે અનુસાર ગાવામાં આવે તે ગેય સુસંપ્રયુકત ગીત છે. જે ગીતમાં તાલ વશ તત્રી વગેરેના સ્વર ગીતની સાથે સાથે ચાલતા હાય એ ગીત સુલલિત કહેવાય છે. જે ગીત મૃદુસ્વરથી ગાવામાં આવે એ ગીતનુ નામ મૃદુ કહેવાય છે. ધેાલના સ્વર વિશેષોથી સ’ચાર કરતા થકા જ્યારે ખરાખર રાગમાં આવે ત્યારે તે ગીતનું Page #924 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगमस्त्र सहलाना है रचना की अपेक्षा जिप्स गीत के अन्त में ननति होती है उस का नाम सुननि है, यह पूर्व के अनुवाद में सामान्य रूप से कहे गरे पदों का स्पष्टीकरण है / / 50 53 // जैनाचार्य जनधर्मदिवाकर पूज्यश्री घासीलालजीमहाराजकृत 'जीयामिगमत्र' की प्रमेघद्योतिका नामक व्याख्या में तृतीय प्रनिपत्ति में इनपण्डादि वर्णनपर्यन्त का दूसरा भाग समाप्त // નામ પદ સંચારરિલિન કહેવાય છે. રચનાની અપેક્ષાથી જે ગીતની અંતમાં નતિ થાય છે તેનું નામ સુનતિ છે. આ પહેલાના કથનમાં સામાન્ય રીતે દરેદમાં કાલ પદના અર્ધનું સ્પષ્ટીકરણ છે કે 53 છે નાચા નધમદિવાકર પૂજ્યશ્રીધાસાંલાલજી મહારાજકૃત “છવાભિગમસૂત્રની પ્રતિમા નામની વ્યાખ્યામાં ત્રીજી પ્રતિપત્તિમાં વનપંડાદિ વર્ણન સુધીને ભાગ સમાપ્ત