Book Title: Jinrajsuri Krut Kusumanjali
Author(s): Agarchand Nahta
Publisher: Sadul Rajasthani Research Institute Bikaner
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान भारती प्रकाशन जिनराजसरि-कृति-कुसुमांजलि सम्पादक अगरचन्द नाहटा aa पर . . सास ETERAYO स्टीट्या KA - .UETTE DRDOO . रिसक बीकानेर प्रकाशक सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीट्यूट बीकानेर प्रथमावृत्ति १००० दि० स०.२०१७ [मूल्य) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: - सादूल राजस्थानी रिसर्च इन्स्टीटयूट बीकानेर प्रथम संस्करण : १००० प्रतियां मूल्य - ४ रु० मुद्रक: महावीर मुद्रणालय, लोगंज (एटा) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविहित चारित्र-चूड़ामणि, प्राचीन ग्रन्थोद्धारक स्वाध्याय रत आत्मार्थी गणिवर्य श्री बुद्धिमुनिजी महाराज के कर कमलों में मक्षा भक्ति पूर्वक सादर समर्पित -अगरचंद माल्टा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री सादूल राजस्थानी रिसर्च-इन्स्टीट्यूट बीकानेर की स्थापना सन् १९४४ मे वोकानेर राज्य के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्री के० एम० पणिक्कर महोदय की प्रेरणा से, साहित्यानुरागी बीकानेर-नरेश स्वर्गीय महाराजा श्री सादूलसिंहजी वहादुर द्वारा सस्कृत, हिन्दी एव विशेषतः राजस्थानी साहित्य की सेवा तथा राजस्थानी भाषा के सर्वाङ्गीण विकास के लिये की गई थी। ___भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध विद्वानो एव भाषाशास्त्रियो का सहयोग प्राप्त करने का सौभाग्य हमे प्रारभ से ही मिलता रहा है । ___ सस्था द्वारा विगत १६ वर्षो से बीकानेर मे विभिन्न साहित्यिक प्रवृत्तिया चलाई जा रही हैं, जिनमे से निम्न प्रमुख हैं१. विशाल राजस्थानी-हिन्दी शब्दकोश इस संबंध मे विभिन्न स्रोतों से सस्था लगभग दो लाख से अधिक शब्दो का सकलन कर चुकी है। इसका सम्पादन आधुनिक कोशो के ढंग पर, लबे समय से प्रारभ कर दिया गया है और अब तक लगभग तीस हजार शब्द सम्पादित हो चुके हैं। कोश मे शन्द, व्याकरण, व्युत्पत्ति, उसके अर्थ, और उदाहरण आदि अनेक महत्वपूर्ण सूचनाए दी गई हैं। यह एक अत्यत विशाल योजना है, जिमकी सतोषजनक क्रियान्विति के लिये प्रचुर द्रव्य और श्रम की आवश्यकता है । आशा है राजस्थान सरकार की ओर से, प्रार्थित द्रव्य-साहाय्य उपलब्ध होते ही निकट भविष्य मे इसका प्रकाशन प्रारभ करना सभव हो सकेगा। २. विशाल राजस्थानी मुहावरा कोश राजस्थानी भाषा अपने विशाल शब्द भडार के साथ मुहावरो से भी समृद्ध है। अनुमानत पचास हजार में भी अधिक मुहावरे दैनिक प्रयोग मे लाये जाते हैं। हमने लगभग दस हजार मुहावरो का, हिन्दी मे अर्थ और राजस्थानी में उदाहरणो सहित प्रयोग देकर सपादन करवा लिया है और शीघ्र ही इसे प्रकाशित करने का वध किया जा रहा है । यह भी प्रचुर द्रव्य और श्रम-साध्य कार्य है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] यदि हम यह विशाल संग्रह साहित्य-जगत को दे सके तो यह संस्था के लिये ही नहीं किन्तु राजस्थानी और हिन्दी जगत के लिए भी एक गौरव की बात होगी। ३. आधुनिकराजस्थानीकाशन रचनओं काम इसके अन्तर्गत निम्नलिखित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं१. कळायण, ऋतु काव्य । ले० श्री नानूराम सस्कर्ता २ आभै पटकी, प्रथम सामाजिक उपन्यास । ले० श्री श्रीलाल जोशी । ३ वरस गांठ, मौलिक कहानी संग्रह । ले० श्री मुरलीधर व्यास । 'राजस्थान-भारती' मे भी आधुनिक राजस्थानी रचनायो का एक अलग स्तम्भ है, जिसमे भी राजस्थानी कवितायें, कहानिया और रेखाचित्र आदि छपत . रहते हैं। ४ 'राजस्थान-भारती' का प्रकाशन इस विख्यात शोधपत्रिका का प्रकाशन संस्था के लिये गौरव की वस्तु है। गत १४ वर्षों से प्रकाशित इस पत्रिका की विद्वानो ने मुक्त कठ से प्रशसा की है । वहुत चाहते हुए भी द्रव्याभाव, प्रेस की एव अन्य कठिनाइयो के कारण, त्रैमासिक रूप से इसका प्रकाशन सम्भव नही हो सका है। इसका भाग ५ अङ्क ३-४ 'डा० लुइजि पिओ तैस्सितोरी विशेपाक' बहुत ही महत्वपूर्ण एव उपयोगी सामग्री से परिपूर्ण है । यह अङ्क एक विदेशी विद्वान की राजस्थानी साहित्य-सेवा का एक बहुमूल्य सचित्र कोश है । पत्रिका का अगला ७वा भाग शीघ्र ही प्रकाशित होने जा रहा है । इसका अङ्क १-२ राजस्थानी के सर्वश्रेष्ठ महाकवि पृथ्वीराज राठोड़ का सचित्र और वृहत् विशेषाक है । अपने ढंग का यह एक ही प्रयल है । पत्रिका की उपयोगिता और महत्व के सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि इसके परिवर्तन मे भारत एव विदेशो से लगभग ८० पत्र-पत्रिकाए हमे प्राप्त होती हैं। भारत के अतिरिक्त पाश्चात्य देशों में भी इसकी माग है व इसके ग्राहक हैं। शोधकर्ताप्रो के लिये 'राजस्थान भारती' अनिवार्यतः सग्रहणीय शोधपत्रिका है । इसमे राजस्थानी भापा, साहित्य, पुरातत्व, इतिहास, कला आदि पर लेखो के अतिरिक्त संस्था के तीन विशिष्ट सदस्य डा० दशरथ शर्मा, श्रीनरोत्तमदास स्वामी और श्री अगरचन्द नाहटा की वृहत् लेख सूची भी प्रकाशित की गई है । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] ५. राजस्थानी साहित्य के प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थों का अनुसंधान, सम्पादन एव प्रकाशन हमारी साहित्य-निधि को प्राचीन, महत्वपूर्ण और श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियो को सुरक्षित रखने एव सर्वसुलभ कराने के लिये सुसम्पादित एवं शुद्ध रूप मे मुद्रित करवा कर उचित मूल्य मे वितरित करने की हमारी एक विशाल योजना है । संस्कृत, हिंदी और राजस्थानी के महत्वपूर्ण ग्रथो का अनुसंधान और प्रकाशन संस्था के सदस्यों को प्रोर से निरंतर होता रहा है जिसका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जा रहा है६. पृथ्वीराज रासो -- पृथ्वीराज रासो के कई संस्करण प्रकाश में लाये गये हैं और उनमे से लघुतम संस्करण का सम्पादन करवा कर उसका कुछ अंश 'राजस्थान भारती' में प्रकाशित किया गया है । रासो के विविध सस्करण और उसके ऐतिहासिक महत्व पर कई लेख राजस्थान-भारती से प्रकाशित हुए हैं । ७. राजस्थान के अज्ञात कवि जान (न्यामतखा ) की ७५ रचनाओ की खोज की गई। जिसकी सर्वप्रथम जानकारी 'राजस्थान -भारती' के प्रथम श्रक मे प्रकाशित हुई है । उसका महत्वपूर्ण ऐतिहासिक काव्य 'क्यामरासा' तो प्रकाशित भी करवाया जा चुका है । ८. राजस्थान के जैन संस्कृत साहित्य का परिचय नामक एक निवध राजस्थान भारती मे प्रकाशित किया जा चुका है । 7 ६. मारवाड क्षेत्र के ५०० लोकगीतों का संग्रह किया जा चुका है । वोकानेर एव जैसलमेर क्षेत्र के सैकडो लोकगीत, घूमर के लोकगीत, वाल लोकगीत, लोरिया • और लगभग ७०० लोक कथाऐं सग्रहीत की गई हैं। राजस्थानी कहावतो के दो * भाग प्रकाशित किये जा चुके हैं । जीरणमाता के गीत, पावूजी के पवाडे और राजा भरथरी आदि लोक काव्य सर्वप्रथम राजस्थान भारती' मे प्रकाशित किए गए हैं । १० बीकानेर राज्य के और जैसलमेर के अप्रकाशित अभिलेखो का विशाल सग्रह 'बीकानेर जैन लेख संग्रह' नामक वृहत् पुस्तक के रूप मे प्रकाशित हो चुका है । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] ११. जसवत उद्योत, मुहता नैणसी री ख्यात और अनोखी मान जैसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रथो का सम्पादन एव प्रकाशन हो चुका है । १२. जोधपुर के महाराजा मानसिंहजी के सचिव कविवर उदयचद भडारी की ४० रचनायो का अनुसधान किया गया है और महाराजा मानसिंहजी को काव्य-साधना के संबंध मे भी सबसे प्रथम 'राजस्थान-भारती' मे लेख प्रकाशित हुआ है। १३ जैसलमेर के अप्रकाशित १०० शिलालेखो और भट्टि वश प्रशस्ति' आदि अनेक अप्राप्य और अप्रकाशित नथ खोज-यात्रा करके प्राप्त किये गये हैं । १४. बीकानेर के मस्तयोगी कवि ज्ञानमारजी के ग्रयो का अनुसंधान किया गया और ज्ञानसार ग्रथावली के नाम से एक ग्रथ भी प्रकाशित हो चुका है । इसी प्रकार राजस्थान के महान विद्वान महोपाध्याय समयसुन्दर की ५६३ लघु रचनामो का सग्रह प्रकाशित किया गया है। १५. इसके अतिरिक्त सस्था द्वारा (१) डा० लुइजि पिनो तैस्सितोरी, समयसुन्दर, पृथ्वीराज, और लोक, मान्य तिलक आदि साहित्य-सेविवो के निर्वाण दिवस और जयन्तिया मनाई जाती हैं। (२) साप्ताहिक साहित्यिक गोष्ठियो का आयोजन बहुत समय से किया जा रहा है, इसमे अनेको महत्वपूर्ण निवघ, लेख, कविताएँ और कहानिया आदि पढी जाती हैं, जिससे अनेक विघ नवीन साहित्य का निर्माण होता रहता है । विचार विमर्श के लिये गोष्ठियो तथा भाषणमालायो आदि का भी समय-समय पर आयोजन किया जाता रहा है। १६. बाहर से ख्यातिप्राप्त विद्वानो को बुलाकर उनके भाषण करवाने का आयोजन भी किया जाता है । डा. वासुदेवशरण अग्रवाल, डा. कैलाशनाथ काटजू, राय श्री कृष्णदास, डा० जी० रामचन्द्रन्, डा० सत्यप्रकाश, डा० डब्ल० एलेन, डा० सुनीतिकुमार चाटुा, डा० तिवेरियो-तिवेरी आदि अनेक अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विद्वानो के इस कार्यक्रम के अन्तर्गत भाषण हो चुके है । गत दो वर्षों से महाकवि पृथ्वीराज राठोड आसन की स्थापना की गई है। दोनो वर्षों के प्रासन-अधिवेशनो के अभिभापक प्रमशः राजस्थानी भाषा के प्रकाण्ड Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान् श्री मनोहर शर्मा एम० ए०, बिसाऊ और प० श्रीलालजी मिश्र एम० ए०, हूंडलोद, थे। . इस प्रकार संस्था अपने १६ वर्षों के जीवन-काल मे, सस्कृत, हिन्दी और राजस्थानी साहित्य की निरतर सेवा करती रही है । आर्थिक संकट से ग्रस्त इस संस्था के लिये यह संभव नहीं हो सका कि यह अपने कार्यक्रम को नियमित रूप से पूरा कर सकती, फिर भी यदा कदा लडखडा कर गिरते पडते इसके कार्यकर्तामो ने 'राजस्थान-भारती' का सम्पादन एव प्रकाशन जारी रखा और यह प्रयास किया कि नाना प्रकार की वाधाओ के वावजूद भी साहित्य सेवा का कार्य निरंतर चलता रहे। यह ठीक है कि सस्था के पास अपना निजी भवन नही है, न अच्छा सदर्भ पुस्तकालय है, और न कार्य को सुचारु रूप से सम्पादित करने के समुचित साधन ही हैं, परन्तु साधनो के अभाव मे भी सस्था के कार्यकर्ताओ ने साहित्य की जो मौन और एकान्त साधना की है वह प्रकाश में आने पर संस्था के गौरव को निश्चय ही बढा सकने वाली होगी। राजस्थानी साहित्य-भडार अत्यन्त विशाल है। अब तक इसका अत्यल्प अश ही प्रकाश में आया है । प्राचीन भारतीय वाड मय के अलभ्य एव अनर्घ रलो को प्रकाशित करके विद्वज्जनो और साहित्यिको के समक्ष प्रस्तुत करना एव उन्हे सुगमता से प्राप्त कराना सस्था का लक्ष्य रहा है। हम अपनी इस लक्ष्य पूर्ति की ओर धीरे-धीरे किन्तु दृढता के साथ अग्रसर हो रहे हैं। यद्यपि अब तक पत्रिका तथा कतिपय पुस्तको के अतिरिक्त अन्वेषण द्वारा प्राप्त अन्य महत्वपूर्ण सामग्री का प्रकाशन करा देना मी अभीष्ट था, परन्तु अर्थाभाव के कारण ऐसा किया जाना सभव नहीं हो सका। हर्ष की बात है कि भारत सरकार के वैज्ञानिक संशोघ एव सास्कृतिक कार्यक्रम मंत्रालय (Ministry of scientific Research and Cultural Affairs) ने अपनी प्राधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास की योजना के अतर्गत हमारे कार्यक्रम को स्वीकृत कर प्रकाशन के लिये रु० १५०००) इस मद मे राजस्थान सरकार को दिये तथा राजस्थान सरकार द्वारा उतनी ही राशि अपनी ओर से मिलाकर कुल 6० ३००००) तीस हजार की सहायता, राजस्थानी साहित्य के सम्पादन-प्रकाशन Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ و رو رو हेतु इस संस्था को इस वित्तीय वर्ष मे प्रदान की गई है, जिससे इस वर्ष निम्नोक्त ३१ पुस्तको का प्रकाशन किया जा रहा है । १. राजस्यानी व्याकरण श्री नरोत्तमदास स्वामी २. राजस्थानी गद्य का विकास (शोध प्रबंध) डा० शिवस्वरूप शर्मा अचल ३. अचलदास खीची री वचनिका श्री नरोत्तमदास स्वामी ४. हमीराय ग-- श्री भवरलाल नाहटा ५. पद्मिनी चरित्र चौपई६. दलपत विलास श्री रावत सारस्वत ७. डिंगल गीत " " " ८. पवार वश दपरण डा० दशरथ शर्मा ६. पृथ्वीराज राठोड़ ग्रंथावली श्री नरोत्तमदास स्वामी और श्री बद्रीप्रसाद साकरिया १०. हरिरस श्री बद्रीप्रसाद साकरिया ११. पीरदान लालस ग्रंथावली श्री अगरचन्द नाहटा १२. महादेव पार्वती वेलि श्री रावत सारस्वत १३. सीताराम चौपई श्री अगरचन्द नाहटा १४. जैन रासादि संग्रह श्री अगरचन्द नाहटा और डा० हरिवल्लभ भायारणी १५. सदयवत्स वीर प्रवन्ध प्रो० मंजुलाल मजूमदार १६. जिनराजसूरि कृतिकुसुमाजलि श्री भंवरलाल नाहटा १७. विनयचन्द कृतिकुसुमाजलि " " " १८. कविवर धर्मवर्द्धन ग्रथावली श्री अगरचन्द नाहटा १६. राजस्थान रा दूहा--- श्री नरोत्तमदास स्वामी २०. वीर रस रा दूहा-- २१. राजस्थान के नीति दोहा श्री मोहनलाल पुरोहित २२. राजस्थान व्रत कथाएं " " - "२३. राजस्थानी प्रेम कथाएं " " २४. चंदायन-- श्रो रावत सारस्वत در و در Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ور در [ ७ ] .. २५ भड्डली-, श्री अगरचन्द नाहटा म:विनय सागर २६. जिनहर्ष प्रथावली श्री अगरचन्द नाहटा २७. राजस्थानी हस्तलिखित ग्रथो का विवरण , , २८. दम्पति विनोद २६. हीयाली-राजस्थान का बुद्धिवर्धक साहित्य ३०. समयसुन्दर रासत्रय श्री भवरलाल नाहटा ३१. दुरसा आढा ग्रंथावली । श्री वदरीप्रसाद साकरिया जैसलमेर ऐतिहासिक साधन संग्रह (संपा० डा० दशरथ शर्मा), ईशरदास ग्रथावली (सपा० बदरीप्रसाद साकरिया), रामरासो (प्रो० गोवर्द्धन शर्मा ), राजस्थानी जैन साहित्य (ले० श्री अगरचन्द नाहटा), नागदमण (सपा० बदरीप्रसाद साकरिया), मुहावरा कोश (मुरलीधर व्यास) आदि ग्रथो का सपादन हो चुका है परन्तु अर्याभाव के कारण इनका प्रकाशन इस वर्ष नही हो रहा है । हम आशा करते हैं कि कार्य की महत्ता एव गुरुता को लक्ष्य मै रखते हुए “अगले वर्ष इससे भी अधिक सहायता हमें अवश्य प्राप्त हो सकेगी जिससे उपरोक्त सपादित तथा अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथो का प्रकाशन सम्भव हो सकेगा। इस सहायता के लिये हम भारत सरकार के शिक्षाविकाम सचिवालय के आभारी हैं, जिन्होने कृपा करके हमारी योजना को स्वीकृत किया और ग्रान्ट-इनएड की रकम मंजूर की। राजस्थान के मुख्य मन्त्री माननीय मोहनलालजी सुखाडिया, जो सौभाग्य से शिक्षा मन्त्री भी हैं और जो साहित्य की प्रगति एवं पुनरुद्धार के लिये पूर्ण सचेष्ट हैं, का भी इस महायता के प्राप्त कराने मे पूरा-पूरा योगदान रहा है। अतः हम उनके प्रति अपनी कृतज्ञता सादर प्रगट करते हैं। राजस्थान के प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षाध्यक्ष महोदय श्री जगन्नाथसिंहजी मेहता का भी हम आभार प्रगट करते हैं, जिन्होने अपनी ओर से पूरी-पूरी दिलचस्पी लेकर हमारा उत्साहवर्धन किया, जिससे हम इस वृहद् कार्य को सम्पन्न करने मे समर्थ हो सके । सस्था उनकी सदैव ऋणी रहेगी। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८ इतने थाड़े समय में इतने महत्वपूर्ण ग्रन्थो का सपादन करके सस्था के प्रकाशन-कार्य मे जो सराहनीय सहयोग दिया है, इसके लिये हम सभी ग्रन्थ सम्पादको व लेखको के अत्यत आभारी हैं। अनूप संस्कृत लाइब्रेरी और अभय जैन ग्रन्यालय बीकानेर, स्व० पूर्णचन्द्र नाहर सग्रहालय कलकत्ता, जैन भवन सग्रह कलकत्ता, महावीर तीर्थक्षेत्र अनुसंधान समिति जयपुर, ओरियटल इन्स्टीट्य ट वडोदा, भाडारकर रिसर्च इन्टीट्य ट पूना, खरतरगच्छ वृहद् ज्ञान-भडार बीकानेर, मोतीचद खजाञ्ची ग्रंथालय बीकानेर, खरतर प्राचार्य ज्ञान भण्डार बीकानेर, एशियाटिक सोसाइटी बंबई, आत्माराम जैन ज्ञानभडार वडोदा, मुनि पुण्यविजयजी, मुनि रमणिक विजयजी, श्री सीताराम लालस, श्री रविशकर देराश्री, प० हरदत्तजी गोविंद व्यास जैसलमेर आदि अनेक सस्यानो और व्यक्तियो से हस्तलिखित प्रतिया प्राप्त होने से ही उपरोक्त ग्रन्थो का सपादन संभव हो सका है । अतएव हम इन सबके प्रति आभार प्रदर्शन करना अपना परम कर्तव्य समझते हैं। ऐसे प्राचीन ग्रन्थो का सम्पादन श्रमसाध्य है एवं पर्याप्त समय की अपेक्षा रखता है। हमने अल्प समय में ही इतने ग्रन्थ प्रकाशित करने का प्रयत्ल किया इसलिये त्रटियो का रह जाना स्वाभाविक है । गच्छतः स्खलनक्वपि भवय्येव प्रमाहतः, हसन्ति दुर्जनास्तत्र समादधति साधवः । प्राशा है विद्वद्वन्द हमारे इन प्रकाशनो का अवलोकन करके साहित्य का रसास्वादन करेंगे और अपने सुझावो द्वारा हमें लाभान्वित करेंगे जिससे हम अपने प्रयास को सफल मानकर कृतार्थ हो सकेंगे और पुन' मा भारती के चरण कमलों में विनम्रतापूर्वक अपनी पुप्पाजलि समर्पित करने के हेतु पुन. उपस्थित होने का साहस बटोर सकेंगे। निवेदक बीकानेर, लालचन्द कोठारी मार्गशीर्ष शुक्ला १५ प्रधानमंत्री स० २०१७ सादुल राजस्थानी-इन्स्टीट्यूट दिसम्बर ३,१६६०. बीकानेर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृति-कुसुमाजिलि अनुक्रमणिका सं० कृतिनाम गाथा आदि पद पृष्ठोक श्री वर्तमान जिन चतुनिंशतिका १. श्री आदिनाथ गीतम् ५ मन मधुकर मोही राउ २. श्री अजितनाथ गीतम् ४ तार करतार संसार सागरथकी २ ३. श्री संभवनाथ गीतम् ५ विणजारा रे नायक स भवनाथ २ ४ श्री अभिनंदन गीतम् ५ वेकर जोड़ी वीनवु रे । ५. श्री सुमतिनाथ गीतम् ४ करता सुतउ प्रीति ६. श्री पद्मप्रभ जिनगीतम् ५ कालियउ करतार भणी ७. श्री सुपान जिन गीतम् ५ अाज हो परमारथ पायर्ड 5. श्री चन्द्रप्रभ गीतम् श्री चंद्रभु पाहुणड रे , ६. श्री सुविधिनाथगीतम् ५ सेवा बाहिरउ कइयइ को सेवक ७ १०. श्री शीतल जिन गीतम् ५ आज लगइ धरि अधिक जगोस ७ ११. श्री श्रेयांस जिनगीतम् ५ एक कनक नइ बीजी कामिनी रे ८ १२. श्री वासुपूज्य जिनगीतम् ५ नायक मोह नजावीयंउ - ८ १३. श्री विमलनाथ जिनगीतम् ५ घर अंगण सुरतर फल्यउ बी ६ .१५. श्री अनंतनाथ गीतम् ५ पूजा नउ तू बे परवाही १० १५. श्री धर्मनाथ जिनगीतम् ५ भवसायर हुँती जउ हेलइ १० १६. श्री शांतिनाथ जिनगीतम् ५ कोल अनंतानंत भव मांहे ११ १७. श्री कुन्यु जिन गीतम् ५ जिम तिम हुं भावी चढ्यउ ११ ७. श्री चन्द्रप्रभ गीतम् . GGhr Koc ww सेवा बाहिर अधिक ज (म) Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. श्री अरनाथ जिनगीतम ५ आराधउ परनाथ अहानिसि १२ १९. श्री मल्लि जिन गीतम् ५ दास अरदास सी परि करइ जी १३. २०. श्रीमुनिसुव्रत जिन गीतम् ५ अधिका ताहरा हुता अपराधी १४ २१, श्री नमिनाथ जिनगीतम् ५ सई मुख हूँ तुम्हनइ न मिली १४ २२. श्री नेमिनाथ जिनगीतम् ५ साँभलि रे सामलीला सामो १५ २३. श्री पार्श्वनाथ जिन गीतम् ५ मन गमतउ साहिब मिल्यउ १६ २४. श्री वीर जिन गीतम् ५ भविक कमल प्रतिबोधतउ ६६ २५. कलश ५ इणपरि भाव भगति मन आरणी १७ श्री बिरहमान विंशति जिन गीतम् २६. श्री सीमंघर जिनगीतम् ५ मुझ हियड़उ हेजालुयउ २७. श्री युगमन्धर जिन गीतम् ५ सइ मुख हुँ न सकू कही १८ २८. श्री बाहु जिन गीतम् ५ बांह समापउ वाह जी १९ २६. श्री सुबाहु जिनगीतम् ६ सामि सुवाहु जिरिंगद नउ १६ ३०. श्री सुजात जिनगीतम् ५ तूंगति तूमति तूसाचउ धरणी २० ११. श्री स्वयप्रभ जिनगीतम् ५ सामि स्वयं प्रभू साँभलउ २१ ३२, श्री ऋषभानन जिन ___ गीतम् ६ मई उ ते जाण्यउ नही साहिव २१ ३३. श्री अनतवीर्य जिन गोतम ५ मनंतवीरिज मइ ताहरउ २२ ३५. श्री विशाल जिन गीतम् ५ श्रापरणपइ हूँ प्रावी न सकू २२ ३५, मी सूरप्रम जिन गीतम, ५ कीजइ छइ जेहना सहू जी २३ (आ) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. श्री व उधर जिन गीतम ५ एक सबल मनउ धोखउ टल्यउ ४१ ३७. श्री चंद्रानन जिनगीतम् ५ समाचारी जूजूई रे २५ ३८. श्री चंद्रवाहु जिनगीतम् ५ जोवउ म्हारी आई इण दिसि चालतउ हे २५ १९. श्री भुजंगम जिन गीतम ५ सामि भुजंगम ताहरउ ४० श्री नेमि जिनगीतम ५ नेमि प्रभु माहरी वीनती जी २६ ४१. श्री ईश्वर जिन गीतम ५ ईसर जिन वइरोगियउ ४२. श्री वीरसेन जिन __ गीतम ५ मुझ नइ हो दरसरण न्यया न तू दीयइ हो २७ ४३. श्री देवजस जिनगीतम् ५ सईमुख साहिब नई मिल्या २८ ४४. श्री महाभद्र जिन गोतम ५ लहि मानव अवतार ४५. श्री पषितवीर्य जिन गीतम ५ मिलि भावउ रे मिलि आवउ रे २६ ४६. श्री वीस विहरमारण जिग गीतमः ५ वीस जिणेसर जगि जयवंता ३० श्री ऋषभादि तीर्थकर गीत ४७. श्री ऋषभदेव बाल सीला स्तवन ११ मन मोहन महिमानिलउ रे ३१ ४८. श्री ऋषभ जिनकर सवाद ८ रिषभ जिन निरसन रान विहारी ३२ ४६. श्री विमलाचल आदीश्वर स्तवन ११ श्री विमलाचल' सिरतलउ (इ) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०. श्री शत्र जय तीर्थ स्तवन ७ साँभलि हे सखि सांभलि मोरी ३४ ५१. श्री शत्र जय तीर्थ स्तवन ५ मन मोह्यउ हे सखी गरुयह ३५. ५२. श्री विमलगिरि वघामाणा गीतम् ३भाव धरि धन्य दिन पाज २६ ५३. श्री विमलाचल यात्रा मनोरथ गीत ६ नरग विछोहउ परिहरी ५४. श्री विमलाचल विधि यात्रा गीत ७ सुग सुरण बीनतडी प्रिउ मोरा ३७ ५५ श्री शत्रुञ्जय यात्रा मनोरथ गीत-अपूर्ण-सखी प्राणु हे नालेर ३८ ५६ श्रीपालोयणा गमित श्री शत्र जय स्तवनम् २७ कर जोड़ी इम वीनवु २७. श्री आबू तीर्थ स्तवनम् ७ सुकलीणी प्रिउ नइ कहई ४१ ५८. श्री गिरनागर तीर्थ यात्रो स्तवन ७ मोरी बहिनी हे वहिनी म्हारी ४२ ५६. श्री बीकानेर मण्डन चौवीसटा आदिनाथ गीतम् ३ चालउ हिव जउवीसटइ ४३ ६०. श्री बीकानेर मडन सुमतिनाथ गीतम, ५ चउमुख तीन त्रिभूमिया ६१. श्री वासुप ज्य स्तवनम् ६ बहिनी एक वयण अवधारउ ४४ ६२ श्री बीकानेर मडन ,, नमिनाथ स्तवनम, ५ श्री नमिनाथ जुहारिया ६३ श्री नेमिनाथ चतुर्मासकम् ४ श्रावण मइ प्रीयउ स भरई , ४५ (ई) ४४ ४५ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४, श्री नेमिनाथ गीतम, ५ तउ तुम्ह तारक यादुराय ६५. श्री नेमि राजीमती । वियोग सूचक गीतमः ३ मेरइ नेमिजी इक सयरण ४७ ६६. श्री लौद्रवपुर पाश्व . नाय स्तवनम् ७ 'लोद्रपुर' पास प्रभु भेटीयइ ४७ ६७. श्री लौद्रवपुर पार्श्वनाथ गीतम, ७ आज नइ वधावउ हे सहीअर ४८ ६८. श्री गोड़ी पार्श्वनाथ स्तवन ७ वालेसर मुझ वीनती 'गउड़े चा' राय ४६ ६६. श्री प्रमोझरा ___ पार्श्वनाथ गीत ६ परतखि पास अमीझरइ ४६ ७०. श्री-सखेश्वर । . पाश्च नाथ गीतम, ५ करिवउ तीरथ तउ मूकी रथ ५० ७१. श्री सखेश्वर . पाश्वनाथ गीत ४ पासजी की मूरति मो मन भाई ५१ ७२. श्री सहसफरणा पार्श्वनाथ गीतम् ६ देखउ माई पूजा मेरे प्रभु को. ५१ ७३. श्री वाड़ी पार्श्वनाथ गीतम् ५ मेलिज़ जमक सब गावा तरसइ ५२ ७४. श्री चिंतामणि - पाश्ननाथ गोतम, ८ नील कमल दल साउली . ५३ ७५ श्री गुणस्थान विचार । गभित पार्श्वनाथ स्तवन १६ नमिय सिरिपांस जिण सुजण ५४ ७६. श्री विक्रमपुर माइन. ___ . वीर जिन गीतम. ५ भाव भगति धरि पावउ सहिअरि ५८ ७७. श्री वीर जिनगीतम, ३ हम तुम्हे 'वीरजी' क्युप्रीति ५८ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८, श्री वीर जिनगीतम, ३ वीरजी' उत्तम जन की रीति न कीनी ५६ ७६. श्री वीर जिनगीतम, ३ साहिब 'वीरजी' हो मेरी तनुकि ५१ ८०. श्र जिन प्रतिमा सिद्धि वीर स्तोत्रम्, १५ भविन जरग नयण वर्गसंड पड़िबोहगं ५६ ८१. श्री जिनदेव गीतम् ३ लीनउरी मो मन जिन सेती ६२ ६२. श्री प्रभु भजन प्रेरणा ३ कवहूँ मइ नीकइ नाथ न घ्यायउ ५२ ८३. श्री नवपद स्तवन १५ दस दृष्टाते दोहिलउ ५४. दादा श्रीजिनकुशल - सूरि स्तवन ६ जी हो घन वेला धन साघड़ी ६५ ८५. श्रीजिनकुशल गुरूणां गीतम, ४ जपउ कुशलगुरु नाम निसि वासरई १६ ८६. , , ३ 'कुशल'गुरु अब मोहे दरसण दीजइ६६ ८७. श्री भणशाली थिरु गीतम, ८ संघवी तू कलियुगि सुरतरु ६७ ८८. श्री शालिभद्र गीतम, १७ मुनिवर विहरण पांगुरथा जी ६८ ८६. श्री अरहन्नक साधु गीतम् १४ नवलउ नवलइ वेस ६०. श्री वइरकुमार गीतम् १० मइ दस मासि उरि धरपउ ७० धोटा ७१ ६१. श्री भइमत्ता ऋषि गीतम, १० दीठा गोयम गोचरी जी ७२ ६२. श्री सनत्कुमार मुनि गीतम, ७ जी हो सोहम इंद प्रससियउ ७३ ६३. श्री वा वली गीतम, ११ पोतइ जइ,प्रतिघूझवउ (क) Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४. श्री नंदिषेण गीत १० साघुजी न जइयइ जी पर घर एकला ७५ १५. श्री गजसुकुमाल मुनि गीतम् । स वेग रस माहि झोलतउ ७६ ६६. श्री स्थूलिभद्र गीतम, ३ थूलिभद्र न्यारी भांति तिहारी ७७ ६७. श्री विजय सेठ विजया सेठानी गीतम ३ पालो धन वो प्रिय धन वा प्यारी७७ १८. श्री दमयन्ती सती गीतम् ११ छोड़ि चल्यउ 'नलराई' ७८ ६६. श्री सती कलावती .. गीतम् ६ बांहे पहिरथा बहरखा ७६ १००. श्री मयरगरेहा सती गीतम् ७ लघु बांधव जुगवाहु नइ रे हां ८० १.१ श्री सीता सती गीतम ५ जब कहइ तुझ पनवास रे ८१ १०२. श्री सती सीता ' गीतम, ६ लखमणजी रावीर जी हो जीवन ८२ ७५ रामायण सम्बन्धो पद १०३. मदोदरी वाक्यम, ३ मंदोदरी बार वार इम भाखइ ८४ १०४. मंदोदरी वाक्यम्, ३ प्राज पीउ सुपनइ खरी डराई ८४ १०५. मंदोदरी वाक्यम ३ सीय की भीर रघुवीर धायउ ८५ १०६. सीता विरह - ३ सीय सीय करत पीय १०७. राम वाक्य । . सुभटानाम् ६ असुरपति आपणि कमाई तई ८६ १०८. हनुमंत वाक्यम् ३ जु कछु रघु राम कहइ सोऊ करिहुं ८६ (ए) Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६. पुनः हनुमत वाक्यं रामचंद्र प्रति ३ जउ पइ होवत राम रजारी ८७ ११०. मदोदरी वाक्यम् ३ ग्राज पिउ सोवत रयरिण गई ८७ १११. रावण प्रति सीता वाक्यम् ३ हरि कउ नाम लइ दसकंध ८८ ११२. श्रहनुम त प्रति . . सीता वाक्यम् ३ आगइ आइ ठाढउ रहयउ वनचर १८ ११३. विभीषण वाक्यम् ३ कहत अइसी' भाति विभीषण भ्रात ८८ ११४. पुनः विभीषण वाक्यम् ३ निपट हठ झालि रहयउ बेकाम CE आत्म-प्रवोधक गौत ११५. मोह बलवंत गीतम् ७ मोह महा बलवंत ८६ ११६. वैराग्य गीत ७ सुख लोभी प्राणी साँभलउ जी ह. ११७. प चेन्द्रिय गीत ७ सुर नर किन्नर राय आज्ञा हो ६१ ११८. निंदावारक गीत ७ सुणहु हमारी सीख सयाणे ६२ ११६. आत्मशिक्षा (विणजारा ) गीत 'विणजारा रे वालंभ सुरिण ६३ १२०. आत्मशिक्षा गीत ५ इक काया अरु कामिनी परदेसी रे ६४ १२१. प्रात्मशिक्षा गीत ३ जीवन मेरे यहु तेरउकउण विसेस ६५ १२२. सीखामण गती ७ घर छोड़ि परदेसि भमइ ६६ १२३. जकड़ी गीत ३ मेरउ नाह निहेरउ १२५. आत्म-प्रबोध जकडी) गीत ३ हमारइ माई कत दिसावर कीनउ ६७ १२५. आत्म प्रीतम गीत ३ यव तुम्ह ल्यावउ माई री १७ (ऐ) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६. आत्मा देह संवध ३ विदेशी मेरे आइ रहे घर माहि ६७ १२७, परमारथ पिछानो ६ तू भ्रम भूलउ रे प्रातम हित न करइ ६८ १२८. 'जागउ' प्ररणा ५ सोवन की वरीयां नाही बे १८ १२६. जीव शिक्षा ३ मेरउ जीव परभव थी न डरइ ६६ १३०. परदेशी गीत ५ परदेशी मीत न करीयइ री १९ १३१. भात्म शिक्षा ५ भ्रम भूलउ ता वहुतेरउ रे १०० १३२. परमार्थ-साधन - जकड़ी गीत ३ रे जीउ प्रापरणपउ अब सोच १०० १३३. किरण हू पीर न जागी ३ पिउ कइ गवरिण खरी अकुलारणी १०१ १३४. पिउ-पाहुणो ३ जब जाण्यउ पीउ पाहुणउ १०१ १३५. आत्म प्रवोष तेरा कोन ? ३ जीउ र चाल्यउ जात जहान १०२ १३६ स्पर्धा ३ कहा कोउ होर करउ काहू को १०२ १३७. जकड़ी गीत देह चेतन-वृत्ति ५ लालण मोरा हो,जोवन'मोरा हो १०२ १३८, पंचरग काचुरी देह ४ पंचरंग कोचुरी रे वदरग तीजइ धोइ १०३ १३६, जाति-स्वभाव अज्ञानो शिक्षा ३ कहा अज्ञानी जीउ कुं रुगु . ज्ञान १०३ १०. परमार्थ अक्षर ३ तुम्ह पइ हइ ज्ञानी कउ दाबउ १०४ १४१. जकडी गीत वहाँ की खबर ३ मेरे मोहन अब कुण पुरी वसाई १०४ १४२. परदेशी प्रीति ३ कवहुँ न करिरी माई मीत विदेसी १०४ (क) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३. पश्चाताप ३ पाली प्रीत की पतयाँ हम न बची १०५ १४४. साई नाम संभारो भव भ्रमण' ३ श्राली मत आपउ परवसि पारइ १०५ १४५. प्रात्म प्रबोध ३ हिलि मिलि साहिब कउ जस वाचउ १०६ १४६. झूठी दिलासा ३ बउरे मास बरस हुँ वउर १०६ १४७. प्रात्म प्रवोध, सुख-दुख ३ र जीउ काहइ कु पचताबइ १०७ १४८, मन शिक्षा, घडी मे घडियाल ३ मन र छोरी माया जाल १०७ १४६. अस्थिर जग, श्वास का विश्वास ? ३ कइसउ सास कउ बेसास १०७ १५०. कोई जामिन नही ३ रे जीब काहइ करत गुमान १०८ १५१. कामिन गीतम् ___ मदन का तौर ३ अव हइ मदन नृपति कउ जोरो १०८ १५२. भ्रम-भ्रमण,भ्रम मे भूला ३ अपनउ रूप न भाप लहइरी १०८ १५३. धर्म मर्म, परम पुरुष कुरण पावत ? ३ कऊरण धरम कउ मरम लहइरी १०९ १५४. काल का हेरा, ___ममतो निवारण ३ रे मन मूढ म कहि गृह मेरउ ११० १५५ परदेशी किसके वश ? जकडी गीत ७ उण मीत परदेसी बिना मोहि ११० १५६ श्रातम काया गीत ७ सुणि बहिनी प्रिउड़उ परदेशी १११ १५७. देह गर्व परिहार, आखिर छार है ३ इया देही कउ गरव न कीजइ ११२ (ख) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८. आम्र प्रबोध, कौन तेरा? ३ तूतउ घरउ आज अयान ११२ १५६. शील बत्तीसी ३२ सोल रतन जतने करि राखउ ११२ १६० कम बत्तीसी ३२ करम तणी गति अलख अगोचर ११६ १४१. शालिभद्र धन्ना चौपाई ढाल २९ सासरण नायक समरीमै १२० १६२. श्री गजसुकमाल , महामुनि चौपई ढोल ३० नेमोसर जिनवर तणा १६३. तीर्थराज गीतम् ६ पगि पगि पान्या समरता २१८ १६४ तीर्थ यात्रा मार्ग निरूपकं गीतम् १४से १६ सखि भोजिग भाट चारण २१८ १६५ सुदर्शन सेठ सज्झाय १६ जी हो कूड कपट तिहाँ केलवी २१६ १६६.श्री जिनसिंहसूरि गीतम् ५ श्री जिनसिंहसूरीश्वर गुरु प्रतपउ २२० १६७. श्री जिनसिंहसूरि ___ द्वादशमास ढोल ४ पुरसादाणी पास जिण २२१ १६८. अमीजरा पार्श्वनाथ स्तवन गा. ७ परतखि पास अमीझरउ परिशिष्ट जिनराजसूरि रास जयकीर्ति रचित २२५ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनाचार्य जिनराजसरि और उनकी साहित्य सेवा: राजस्थान मे काफी प्राचीन समय से जैन-धर्म का प्रचार रहा है । समय समय पर अनेको जैनाचार्यो और विद्वान मुनियों ने यहां के लोगो को अपने उपदेशो द्वारा सद्धर्मानुयायी बनाया । श्रोसवाल, पोरवाल, श्रीमाल, पलील्वाल, खडेलवाल श्रादि अनेक जैन, वंश, जाति व गोत्र, जो आज सारे भारतवर्ष मे फैले हुए हैं, वे अधिकांश राजस्थान के ही हैं । कलापपूर्ण मंदिर, मूर्तियों, चित्रो, हस्तलिखित ग्रंथो आदि का राजस्थान मे जैन मुनियो और आचार्यों द्वारा प्रचुर परिमाण मे - निर्माण हुआ। आज भी सं कड़ो छोटे-बड े ज्ञानभडार, जन-म दिर राजस्थान में पाए जाते हैं । अनेकों विद्वान जैन ग्रंथकार राजस्थान में हुए हैं । जिन्होंने प्राकृत स ंस्कृत, अपभ्र श राजस्थानी, हिंदी, गुजराती, पजाबी, सिंधी भाषा मे रचनाएं की है । यहां के कई विद्वान तो वगाल तक पहुँचे और वहा भी राजस्थानी एव हिंदी मे ग्रन्थ वनाए । उनके द्वारा कुछ फुटकर भजन बंगला भाषा मे भी रचे गये हैं, इस तरह राजस्थान के जैन कवियो का रचा हुआ साहित्य वहुत विशाल और विविध प्रकार का है - साहित्य रचना मे उनका प्रधान उद्देश्य लोक, कल्याण का रहा हैं। विद्वत्ता प्रदर्शन, धन एवं यश की प्राप्ति उनका उद्देश्य नही था । जन साधारण के लिए रचे जाने के कारण उनकी रचनाओ की भाषा भी सरल होती थी । प्राकृत एवं सस्कृत ग्रन्थो की भाषा टीकाएं भी राजस्थानी -गद्यमे काफी (घ ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखी गई हैं । कुछ कथा-ग्रंथ और पट्टावलियाँ भी राजस्थानी-गद्य मे प्राप्त हैं। १७ वी शताब्दी के राजस्थानी जैन कवियो मे मालदेव, पाव चन्द्रसूरि, विनयसमुद्र, समयसुन्दर, साधुकार्ति, कनकसोम, हीरकलश, कुशललाभ, गुणविनय, सूरच'द, सहजकीति, लब्धिकल्लोल, श्रीसार आदि अनेक कवि हो गए हैं । जिनराजसूरि भी १७ वी वे उत्तरार्द्ध के उल्लेखनीय कवि हैं। इनका जन्म बीकानेर मे ही हुआ था। १६ वी शताब्दो के मस्तयोगी एवं प्रखर समालोचक सुकवि ज्ञानसार जो ने इनके लिए लिखा है 'गुजरात माँ ए कहिवंत छ अानदधन टंकसाली, जिनराजसूरि बावा तो अवध्य बचनी' अर्थात् इनके वचनों के प्रति लोगो का बहुत ही आदर भाव था । आपकी चौवीसी, वीसी के गीतों मे भक्तिरस सराबोर है । तो अन्य पदों मे नीति एवं धर्म का प्रेरणाप्रद सदेश है । प्रस्तुत ग्रंथ आपकी रचनात्रा का स ग्रह है अतः आपकी 'जीवनी और रचनाओ के सम्बन्ध मे यहां संक्षेप में प्रकाश डाला जाता है। गुरु-परम्परा १७ वीं शताब्दी के खरतरगच्छ के प्राचार्य जिनचंद्रसूरि जी बड़े ही शासन-प्रभाविक होने से चौथे दादासाहब के नाम से श्वेताम्बर जैन समाज में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं। उन्होने सं० १६१३ में बीकानेर मे प्राकर जैन साधुप्रो के शिथिलांचार के निवारण का महान् प्रयास किया था । सं० १६४८ में सम्राट अकबर ने धर्मोपदेश सुनने के लिए इन्हे आमन्त्रित किया था और आप खंभात से विहार कर लाहोर पधारे थे । सम्राट अकबर ने इनके प्रति बहुत ही श्रद्धा प्रदर्शित की और जीव-हिंसा निवारण संबंधी फरमान जारी किए । असाढ़ सुदी ८ से चतुर्दशी तक ७ दिन Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकवर के विशाल साम्राज्य में जीवहिंसा निषेध कर दी गई। इसी प्रकार 'खभात के समुद्र से १ वर्ष तक कोई भी मछली नहीं पकड सकता' ऐसा फरमान जारी कर दिया गया । इतना ही नहीं सम्राट अकवर ने जैन धर्म मे जो सवसे अधिक महत्त्वशाली पद 'युगप्रधान' है उससे आपको विभूषित किया इस प्रसंग पर बीकानेर के मत्री कम च द वच्छावत ने 8 हाथी, ६ गांव, ५०० घोड़े आदि कुल मिलाकर सवा करोड का दान दिया। १६६८ में जव किसी कारण से सम्राट जहागीर ने समस्त श्वेताम्बर साधुओं को देश से निकालने का हुक्म जारी कर दिया तो सारे जैन-संघ में सववली मच गई । तब जिनच द्रसूरि पाटण से आगरे पहुंचे और जहाँगीर से मिल कर उस घातक आदेश को रद्द करवाया। ऐसे महान् प्राचार्य के शिष्य वाचक मानसिंह हुए जिन्हे सम्राट अकवर और जहाँगीर तथा अनेक राजा महाराजा सम्मान देते थे। सम्राट अकबर के प्राग्रह से वे काश्मीर-विजय के समय सं०१६४८मे उनके साथ गए थे और श्रीपुर काश्मीर तक इनके उपदेश से सम्राट ने अभारि प्रवर्तित की उनके साध्वाचार से प्रभावित होकर सम्राट अकवरने काश्मीर से लौटने पर जिनचंदसूरिजी से इन्हें आचार्य पद दिलवाया था। जिनजदसूरि जी के 'युगप्रधान' पद का महोत्सव और मानसिंह जी का प्राचार्य-पद महोत्सव मंत्रीश्वर कमचंद ने एक साथ ही किया था। आचार्य पद के बाद मानसिह जी का नाम जिनसिंहसूरि रखा गया। अकबर ने जब जिनचंदमूरि जी को बुलाया था तो आप सूरिजीके आदेश से उनसे पहले लाहौर पहुच कर सम्राट से मिले थे। उन दिनों शाहजादा सलेम के मूलनक्षत्र मे कन्या हुई थी। इसके दोष निवारण और शान्ति के लिए अष्टोत्तरी शान्ति-स्नात्र महोत्सव वाचक मानसिंहजीने करवाया था। जिनराजसूरिजी उन्ही जिनसिंहसूरिजी के पट्टवर शिष्य थे। (च) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत ग्रंथ के अंत में जिनराजमूरि की विद्यमानता में ही रचित जयकीर्ति रचित जिनराजसूरिरास प्रकाशित किया गया है उसका स क्षिप्त सार इस प्रकार है-- जिनराजसरि जी का जीवन-परिचय बीकानेर नगर में वोथरा गोत्रीय धर्म सी साह निवास करते । थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम धारलदेवी था, दम्पति सुखपूर्वक सासारिक सुख भोगते हुए रहते थे। सं० १६४७ वैसाख शुक्ला७ को धारलदेवी के शुभ लक्षणवान, सुन्दर पुत्र जन्मा' । पिता द्वारा नाना प्रकार के उत्सव किए जाकर शिशु का नाम 'खेतसी कुमार' रखा गया। वाल्यकाल में ही कुमार समस्त कलाओ का अभ्यास कर निपुरग बन गए। एक बार बीकानेर मे खरतर-च्छाचार्य श्री जिनसिंहसूरि पधारे । उनका धर्मोपदेश सुन वैराग्य-वासित होकर कुमार ने दीक्षा लेने के लिए माता-पिता से आज्ञा मांगी। बड़ी कठिनता से अनुमति प्राप्त कर बड़े समारोह के साथ सं० १६५७ मार्गशीर्ष कृष्णा १०२ के दिन प्रव्रज्या ग्रहण की। उनका नाम राजसिंह रखा गया। तत्पश्चात् मॉडल के तप कराके छेदोपस्थापनीय चारित्र दे कर उनका नाम राजसमुद्र प्रसिद्ध किया गया। राजसमुद्र जी की बुद्धि बडी कुशाग्र थी। अल्पकाल मे न्याय व्याकरण, तर्क, अल कार, कोष, ४५ आगम आदि पढ़कर विद्वान् हुए । तेरह वर्ष की अल्पावस्था मे चिन्तामणि तर्क-शास्त्र आगरे मे पढा! १- रास का प्रथम पत्र न मिलने से यहा तक का उल्लेख श्रीसारकृत 'जिनराजसूरि रास' से लिया गया है। २- श्रीसारकृत रास में स० १६५६ मि० मा० शु० १३ लिखा है। इस रास की प्रति में भी पहले यही मिति लिखकर और फिर काट कर उपयुक्त मिती दी है। अन्य प्रबंध में सं० १६५७ मि० मा० सु० १ लिखा है। (छ) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने स० १६६७१ मे श्रासाउलि मे राजसमुद्रजी को वाचक पद से अलंकृत किया। बाचकजी ने समसद्दी-सिकदार को रजित करके २४ चोरों को वधन-मुक्त कराया। घघारणी ग्राममे प्रतिमानो की प्राचीन लिपि पढी । मेडता मे अम्बिकादेवी सिद्ध हुई । आगे सधपति रतनसी, जूठा और आसकरण के साथ तीनवार शत्र जय की यात्रा की थी, चौथी वार देवकरण के स घ के साथ सिद्धिगिरि स्पर्शना की। वाचकज़ी को बड़े बड़े राजा, महाराजा, राणा मुकरबखान नवाव आदि बहुमान देते थे। मुकरवखान ने सम्राट के समक्ष इनकी वडी प्रसंशा की। सम्राट जहागीर के आमन्त्रण से श्री जिनसिंहसूरिजी वीकानेर से विहार कर मेडता पधारे । वहाँ सरिजी का शरीर अस्वस्थ रहने लगा। अन्त समय मे वाचक जी ने बड़ी भक्ति की और स रिज़ी के श्रेयार्थ गच्छ पहिरावणी करने,ज्ञानभ डारमे ६३६००० (प्रथाग्रन्थ) पुस्तकें लिखाकर रखने और ५०० उपवास करने का वचन दिया। सू रिजी के स्वर्गवासी हो जाने पर सं० १६७४ का० शु०७ शनिवार को राजसमुद्र जी को उनके पट्ट पर स्थापित किया गया । संघपति आसकरण ने उत्सव किया। प्राचार्य हेमसूरि ने२ सूरिमंत्र दिया । भट्टारक श्रीजिनराजसूरि नाम रखा गया दूसरे शिष्य श्रीजिनसागरसूरिजी को भी आचार्य पदवी दी। कवि ने पदस्थापनो महोत्सव करने वाले सुप्रसिद्ध चोपडा शाह प्रासकरण का यह विवरण लिखा है-जिनके घर में परम्परागत बड़ाई थी। शाह माला संग्राम की भार्या दीपकदे के पुत्र कचरे ने १- प्रबंध मे सं० १६६८ का उल्लेख है । इस रास में मल गाथा में सवत् न लिखकर किनारे पर लिखा है। २- प्रवध मे इन्हे पूरिणम गच्छीय लिखा है। • (ज) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बहुत धर्म कार्य किए । आसकरण' के पिता अमरसी और माता प्रमगदेवी और स्त्री का नाम अजाय बदे था । अमीपाल, कपुरचंद भाई, ऋषभदास और स रदास नामक बुद्धिशाली पुत्र थे। संघपति आसकरण चोपडा ने शत्र जय संघ, जिनालय निर्माण, पदस्थापना महोत्सव आदि धर्म कार्य किए। भट्टारक श्री जिनराजसूरिको जेपलमेरके राउल कल्याणदासने विनति करके जेसलमेर बुलाए, स्वागतार्थ कुमार मनोहरदास को भेजा । भणसाली जीवराजने प्रवेशोत्सव किया । सूरिजीने चातुर्मास किया, उनके प्रभाव से वहां सुकाल हुआ। बहुतसे धर्म कार्य हुए पय पण मे अमरसिंह के पुत्र जीदासाह ने पौषध वालों को। सेर खाँड और नकद रुपये की प्रभावना की। राजकुमार मनोहर दास प्रतिदिन वन्दना करने आते, राउलज़ी बहुमान देते थे। संघपति थाहरू शाह जो श्रीमलशाह के सुपुत्र थे,ने लौद्रव १- मेडता में इन्होंने शातिनाथ जिनालय बनवाकर अनेक विम्बो की प्रतिष्ठा जिनराजसूरि से करवाई थी। प्रतिष्ठा लेख नाहर जी के जेन लेख संग्रह मे लेखाक ७७१,७८४,७८७ में प्रकाशित है जिनमें इनके सम्बन्धमें लिखा गया है कि गणधर चोपडा गोत्रीय अमरसी भार्या अमरादे पुत्र रल प्राप्त श्री अर्बुदाचल विमलाचल संघपति तिलक कारित युगप्रधान,श्री जिनसिंहमूरि पट्टनन्दिमहोत्सव विविध धर्म कर्तव्य विधायक सापकरणेन | xx'स्वयं कारित मम्माणीमय विहार-शृंगारक श्री शांतिनाथ विम्बंकारित(स'०१६७७ जेठ बदि ५ गुरुवारका प्रतिष्ठा-लेख) २-इनके सम्बंध में स्वयं जिनराजसूरि जी ने एक गीत बनाया है जो इसी ग्रंथ के पृष्ठ ६७ मे प्रकाशित हैं । इनकी वंश परम्परा और धार्मिक कार्यों के संबंध में महोपाध्याय समयसुदर के शिष्य वादी हर्षनदन ने एक प्रशस्ति बनाई है । सं० १६७५ मिगसर सुदि १२ गुरुवार, को इन्होने लोद्रवे तीर्थ का उद्धार करवाया और मति की प्रतिष्ठा जिनराजसूरि से करवाई। उनके लेख नाहरजी के जैन लेख संग्रह नं० २५४४, (भ) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुर के मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया और सं० १६७५ माग शीर्ष शुक्ला १२ शुभ मुहूर्त मे सूरिमहाराज से प्रतिष्ठा करवाई। कवि ने थाहरू शाह के धर्म कार्यों का वर्णन इस प्रकार किया है-लौद्रवपुर का जीण प्रासादोद्धार, ग्रामदो में खरतर गच्छीय ज्ञानभंडार कराया, दानशाला खोली, चारो अद्वाहियो में ४४०० जिन प्रतिमाओ की पूजा, सातो मन्दिरो मे ध्वजा चढाई,गीतार्थों के पास सिद्धात श्रवण, त्रिकाल देवप जा आदि धम कार्य करता था। लोद्रवप र प्रतिष्ठा-समय देशान्तरो का संघ बुलाया। तीन रुपये भौर अशरफियो की लाहण की, राउल जी को विप ल द्रव्य भेट किया, जाचको को मनोवांछित दिया, हरराज और मेघराज सहित चिरजीवी रहे । उस समय जीदागाह ने २००) रुपये देकर इन्द्रमाल ग्रहण की। जोवराज भी पुत्र सहित शोभायमान था। इसके पश्चात् अहमदावाद के सुप्रसिद्ध संघपति रूपजी को चिट्ठी नफरइ (डाकिया) ने लाकर दी। शत्र जय प्रतिष्ठा के लिए सूरिजी को बुलाया था । तव करमसी शाह और माल्हु अरजुन ने उत्साह पक संघ निकाला। गांव गाँव में लाहण करता हुमा सघ श्री जिनराज मूरिजी के साथ शव जय पहुचा। युगादि जिनेश्वर के दर्शन कर संघ ने अपना मनुष्य जन्म सफल किया। अव कवि रूपजी शाह केविषय में कहता है कि अहमदावाद के खरतर गच्छीय श्रावक सोमजो और शिवा वस्तुपाल तेजपाल की भांति धर्मात्मा हुए, जिन्होने स. १६४४ मे शत्र जय का संघ निकाला । अहमदाबाद में महामहोत्वपर्वक जिनालय की भी प्रतिष्ठा करवाई । खभात, पाटण के संघ को आमंत्रित कर २५६१,२५६८,२५७०,२५७२,में प्रकाशित है । सं०१६८२ और १६६३ में भी थाहरूशाह ने गणघर पादुका व मूर्तियो की प्रतिष्ठा, जिनराजसूरि जी से करवाई थी । इनके स्थापित ज्ञानभंडार जेसलमेर मे है। (ज) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहरावणी की । राणकपुर, गिरनार, सेरिसई गौडीपुर, पाबू आदि तीर्थों की सव सहित यात्रा की, साधर्मी वात्सल्य किया। खरतर गच्छ संघ मे लाहरण की प्रत्येक घर मे अर्द्ध रुपया दिया। स्वर्मियो को बहुत बार सोने के वेढ पहनाए । शत्रु जय पर 'च'त्य वनवाया। सोमजी शाह के रतनजी और रूपजी दो पुत्र थे । रतनजी के पुत्र सुन्दरदास और शिखरा सुप्रसिद्ध थे। रूपजी शाह ने शत्रुञ्जय का आठवां उद्धार कराके खरतर गच्छ की; बडी न्याति फेलाई । सं० १६७६. वैशाख शुक्ला १३ को चौमु-, खजी की प्रतिष्ठा श्रीजिनराजसूरि जी के हाथ से करवाई। मारवाड, गुजरात का संघ आया। याचक, भोजक, भाट, चारणों को बहुतसा दान दिया। श्रीजिनराजसूरिजी ने संघ के साथ विहार कर नवानगर में चातुर्मास किया। भागवड मे शाह चांपसी (बाफरणा) कारिब विम्बो की प्रतिष्ठा की । गुरु श्री के अतिशय से विम्ब से अमृत झरने लगा। जिस से अमोझरा पार्श्व प्रसिद्ध हुए। मेड़ता के संघपति आसकरण ने आम त्रण कर स० १६७७७ मे श्री शांतिनाथजी के मदिर की प्रतिष्ठा कराई। बीकानेर चातुर्मास कर सिंधु पधारे । मुलतान, मेरठ, फतेपुर, देरा के संघ ने सामैया कर प्रवेशोत्सव किया। मुलतानी सांघ ने बहुतसा द्रव्य व्यय किया। गणधर शालिभद्र, पारिख तेजपाल ने सच निकाल कर स रिजी को देरावर श्री जिनकुशलस रिजी की यात्रा करवाई। १- शिलालेखो में गुजराती पद्धति से सं० १६७५ लिखा है। २. शिलालेखो में जेठवदी ५ लिखा है। ३- इसके प्रतिष्ठा-लेख जिनविजय जी सम्पादित 'प्राचीन जैन-लेख . संग्रह' में प्रकाशित हैं। (ट), Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स रिजी ने पंचपीरो को साधन किया, वीकनेर पधारे। करमसी' शाह के आग्रह से केरिणी चौमासा करके जेसलमेर पधारे । सा० अर्जुनमाल्हू ने प्रवेशोत्सव किया। नदी स्थापन कर: कम सी शाह ने चतुर्थ व्रत अंगीकार किया। जेसलमेर चातुर्मास । कर पाली पधारे । सघपति जूठा कारित चैत्य की प्रतिष्ठा को। नगरशेठ नेता ने गुरु श्री को बदन किया। चातुर्मास पाटण कियो । वहा से अहमदाबादी संघ के प्राग्रह से वहां चातुर्मास । किया । अनेको को पाठक, वाचकपद एवं दीक्षा प्रदान की। इससे पूर्व अम्बिकादेवी ने प्रत्यक्ष होकर 'आपको भट्टारक' पद पाँचवे वर्ष प्राप्त होगा।' ऐसा भविष्यवाणी की थी वह एवं अन्य पचास बोल फलीभूत हुए । अम्बिका हाजिर रहकर आपको सानिध्य करती थी। जयतिहुअरग के स्मरण से धरणेन्द्र ने 'प्राज से चौथे वर्ष फागुण सुदि ७ को आप भट्टारक पद पाओगे' ऐसा कहा था । श्री जिनसिंहस रिजी के स्वर्गवास की स चना तीन दिन पूर्व आपको ज्ञात हो गई थी । बाल्यावस्था मे भी अपने कथनानुसार गच्छ पहरावणी, १३६००० ग्रंथ भंडार मे रखना, ५०० उपवास करना आदि कार्य सम्पन्न किए। १- बीकानेर मे आपकी प्रतिष्ठित अनेक मूर्तिया स० १६७५ से १६६६ तक की प्रतिष्ठित की हुई उपलब्ध है, जिनके लेख हमारे 'बीकानेर-जैन लेख संग्रह में प्रकाशित है । बीकानेरके सुप्रसिद्ध आदीश्वरजी के मदिरमें . स०१६८६के चैत्र बदि ४ को आपकी प्रतिष्ठिस जिनसिंहसूरि चरणपादुका भौर जिनचंद्रसूरिजी की मूर्ति है । स. १६८७ ज्येष्ठ सुदि १० की प्रतिष्ठित भरत बाहुबलि प्रतिमा और सं० १६६४ फागुण बदि ७ को प्रतिष्ठित पुरोक स्वामी, एवं सुविषिनाथ की मूर्तिया है । सं०१६६६ की प्रतिष्ठित मरुदेवी मूति आदीश्वरपादुका प्रादि है। (6) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं० १६८१ राखीप नम के जेसलमेर में युगप्रधान श्री जिनचद्रसूरि जी के शिष्य पं. सकलचंद गरिग के शिष्य उपाध्याय समय सुन्दर के शिष्य वादोराज हर्ष नन्दन के शिष्य पं० जयकीर्ति ने प्रस्तुत काव्य रचकर संपूर्ण किया। जिन राजसूरि जो के जीवनचरित्र के संबध मे श्रीसार नामक एक अन्य कवि ने भी रास बनाया जो हमारे ऐतिहासिक जैन संग्रह में प्रकाशित हुआ है । वह रास स० १६८१ असाढ वदि १३ सेत्रावा मे रचा गया था । अर्थात् उपरोक्त जयकीतिके रास के प्रासपास के दिनो में ही रचा गया है । अतः उपरोक्त दोनो रास जिनराजसूरि जी की विद्यमानता मे ही रचे जाने से पर्ण रूप से प्रामाणिक हैं । इसके बाद करीब १८ वर्ष तक और भी आपने शासन-प्रभावना की, जिसका प रा विवरण तो नहीं मिलता पर एक ऐतिहासिक गीत से एक महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है कि सं० १६८६ के मिगसर बदि ४ रविवार को आगरे मे श्राप सम्राट शाहजहां से मिले थे। और वहाँ ब्राह्मणो को वाद-विवाद में परास्त किया था तथा दर्शनी लोगों के विहार का जहां कही प्रतिषेध था, उसे खुला करवा कर शासनोन्नति की थी। शाही दरंवार मे मुकरबखानने आपके साध्वाचार की बड़ी प्रशसा की थी। जसु देखि साधु पणो भलो हरखि दियो बहुमान । साबोसि तुम्ह करणी भली कहइ श्री मुकरब खान ।। ' शाहजहां से मिलने के संबध में दास कवि ने लिखा है"साहिजहाँ पातिसाह प्रबल प्रताप जाकी, अति ही करूर नूर कौन सर दाखी है । १- समयसुदर जी और हर्षन इन जी का परिचय देखें 'युगप्रधान जिनचद्रसूरि' पृ० १६७ से १७१ तक । जयकीति कृत पृथ्वीराज वेलि चालाववोध उपलक्म है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रासीच गछ' सव थहराये जाके भय, ऐसो जोर चकतो हुवौ न कोउ भाखी हो । श्रीय 'जिनस घ' पाट मिल्येउ साहि सनमुख, 'धरमसी' नदन सकल जग साखी हैं। कहे 'कविदास' षट्दरशन कु उवार, शासन की टेक 'जिनराजसूरि' राखी है । 'आग'' तखत आये सबही के मन भाये. विविध वधाये संघ सकल उछाह कु ।' राजा 'गजस घ' 'सूरस ंघ' 'सरप खान', 'आलम' 'दीवान' सदा सुगुरू सराह कुं ॥ कहे 'कविदास' जिरणसिंघ पाट सूर तेज, अगम सुगम कीने शासन सुठाह कु ८ • मिगसर बहु ( ल ) चोथ' 'रबिावाव' शुभ दिन, मिले 'जिनराज' 'शाहिजहाँ' पतिशाह कु इस मिलन के सम्बन्ध मे दानसागर भंडार की एक भाषा पट्टावली मे लिखा है 'सं० १६०६ श्री श्रागरा मोह पहली प्रासखान नई मिल्या | तिहाँ ब्राह्मणां सूं वाद करि, श्राठइ ब्राह्मण हारथा । सिबखान निपट खुसी थया । तिवार पछी को मइ पात साहसु तुमक मिलावू गा । तिवारं मिगसर वदि ४ श्ररित्यवार पातितसाह साहजहाँ नइ मिल्या । त्रिहजारी बी ॐवराबो : सामामूकि तेडाया, घरगउ श्रादर दिउ अनइ केतरेक देसे यति रह न सकता ते पिरण तिवार पछि रहता थया । धरणा अवदात छइ ।' अन्य एक महत्वपूर्ण घटना आपके आचार्य पद प्राप्ति के पहले की पट्टावलियो एवं शिलालेखो मे उल्लिखित है कि मारवाड के घधारणी गांव में सं०, १६६२ मे बहुत सी प्राचीन जैन प्रतिमाएँ प्रगट हुई थी । मुसलमानी साम्राज्य के भय से उन प्राचीन प्रतिमालोको कभी भूमि- गृहमे बंद करके रख दिया गया था । जेठ सुदि. (()) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ को वे ६५ प्रतिमाएं प्रगट हुई जिनका विविरण महोपाध्याय समयसुदर ने अपने घंधोरणी तीथ स्तवन मे दिया है जो कि हमारे समय सुंदर कृति-कुसुमांजलि में प्रकाशित हो चुका है। वे प्रतिमाएं मौर्य काल तक की पुरानी थी इसलिए उनकी लिपि उस समय पढी जाना बहुत ही कठिन था। पट्टावलियों एवं शिलालेखो में लिखा है कि धरणेन्द्र या अम्बिकादेवी के प्रसाद से पाप उस प्राचीन लिपि को पढने में समर्थ हुऐ। ___ 'वरणारस ( वाचक) पद थका घरणेन्द्र प्रभावइ श्री घंधारणी नी लिपि वांची अनइ वर दीघउ जेहनइ माथइ हाथि घाइते पिण चाचइ । वलि लघुवइ थकां तपारउ उपाध्याय सोमविजय नई हराज्यउ ।' 'अम्बिका प्रदत्त वरधारका स्तबल प्रगटित घ घाणीपुरस्थित चिरंतन-प्रतिमा प्रशस्ति वर्णान्तरा। आपके शासन मे ६ उपाध्याय और ४१ वाचक पदधारी विद्वान हुए। एक साध्वी को प्रवर्तनी का पद दिया गया। आपके शिष्य और प्रेशिष्यो की संख्या भाषा पट्टावलीमे ४१ वतलाई गई है। आपने अनेक शिष्यो को आगमादि ग्रथ सिखाए थे। इस तरह धम सेवा और साहित्य सेवा करते हुए पाटण मे सं० १७०० असाढ सुदि ६ गुजराती संवत् के अनुसार सं० १९६६ में आप स्वर्गवासी हुए। आपके साथ ही जिनसागरसूरिजी को आचार्य पद दिया गया। वे १२ वर्ष तक तो आपके साथ रहे, फिर अलग हो गए। उनसे प्राचार्य शाखा प्रकटित हुई। जिनराजसूरिजी के समय राजस्थान और गुजरातमे खरतर गच्छ का बहत प्रभाव था और अनेक विद्वान् इनकी आज्ञा मे गांवो और नगरो मे विचरते हुए धमप्रचार और साहित्य-सृजन कर रहे थे। मापके प्राज्ञानुवर्ती श्रावको मे भी कई बहुत प्रभावशाली और समृद्ध थे, जिन्होने (ग) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वडे २ तीर्थयात्रा के संघ निकाल । वडे भव्य और विशाल जैन मदिरो का निर्माण और जीर्णोद्धार करवाया। हजारो प्रतिमाओं की जिनराजसूरि जी के हाथ से प्रतिष्ठा करवाई। जेसलमेर के थाहरूशाह ने लोद्रवेके चिंतामरिण पारवनाथ जिनालयका जीर्णोद्धार करवाया अहमदाबाद के सघपति सोमजी के पुत्र रूपजी ने शत्र जय पर चतुर्मुख,रिषभ आदि ५०१ प्रतिमाएं और जिनालय की प्रतिष्ठा करवाई। भागवड मे चाँपसी साहने अमीझरा पार्श्व नाथ आदि ८० विम्बो की प्रतिष्ठा करवाई। मेडते के चोपड़े मासकरण ने शातिनाथ मदिर की प्रतिष्ठा करवाई। इस तरह जिनराजसूरि बडे ही प्रभावशाली, विद्वान आचार्य हुए है। जिनकी फुटकर रचनाप्रो और दो रासो को इस ग्रथ मे प्रकाशित किया गया। आपकी रचनामो का सक्षिप्त विवरण आगे दिया जा रहा है। जिनराज सूरि को साहित्य-सेवा प्राचार्य जिनराजसूरि जी अपने समय के विशिष्ट विद्वान और सुकवि थे । रासकार जयकीर्ति और श्रीसार दोनो ने उनकी कुशाग्र बुद्धि अध्ययन के सम्बध मे अच्छा प्रकाश डाला है। उनके वाल्यकाल के अध्ययन के संबध मे श्रीसार ने लिखा है। पुत्र भरणइवा माडियइ, पण्डित गुरुनइ . पाय । .. विद्या प्रावो तेहनइ, सरसति मात पसाय ॥१॥ भली परइ आवी भले, सिद्धो अनइ समान । "चाणाइक" आवइ भला, नीति शास्त्र असमान' ॥२॥ तेह कला कोइ नही, शास्त्र नहीं वलि तेह । विद्या ते दीसइ नही, कुमर नइ नावई । जेह ॥३॥ कला 'बहुत्तरि' पुरषनी, जागइ राग 'छतीस'। कला देखि सहको कहइ, जीवो कीड़ि वरीस ॥॥ (त) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पड भाषा' भाखइ भली, 'चवदइ विद्या' लाघ । , लिखइ 'अठाहर लिपी' सदा, सिगले गुणे अगाध ॥५॥ जयकीति ने तो प्रारम्भिक अध्ययन के मुहूर्त और उत्सव के सम्बंध मे भी सुन्दर प्रकाश डाला है । उनका बनाया हुआ रास इसो ग्रंथ के परिशिष्ट मे दिया गया है इसलिए उसका उद्धरण नही दिया जा रहा है श्रीसार रचित 'जिनराजसूरि रास भी हमारे ऐतिहासिक जैन काव्य-संग्रह मे छप चुका है । जैन-पागमों और व्याकरण कोश, छन्द, अल कार, काव्य-शास्त्र का अध्ययन आपने दीक्षा के अनन्तर गुरुश्री के पास किया था। न्यायशास्त्र के भी आप बड़े विद्वान् थे । प्रोगरे मे भट्टाचार्य के पास 'चिन्तामणि' नामक नन्य-न्याय के महान् ग्रथ का ओपने अध्ययन किया था। जयकीर्ति ने लिखा हैकाव्य, तर्क, ज्योतिप गणित र व्याकरण, छन्द, अलङ्कार । नाटक नाममाला अधिक रे, जारणइ शास्त्र विचार ॥११॥भ०॥ तेर वर्षे आगरइ रे. भण्यउ चितामणि तर्क। सगली विद्या अभ्यसी रे, भट्टाचारज सम्पर्क ॥१२॥भ०।। अर्थात् आपका विशेष अध्ययन आगरे मे किसी भट्टाचार्य विद्वान से करवाया गया था। सं० १६६७ मे आपकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर अकबर-प्रतिवोधक युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने आसावली में इन्हे वाचक पद से अलंकृत किया था। स०१६५७ मे आपकी दीक्षा हुई थी, अत. १० वर्ष तक आपने अनेक विषयों और शास्त्रो का ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उसी समय से प्राप कविता भी करने लगे थे। प्रापकी उपलब्ध रचनाओ मे सवतोल्लेख बाली सर्व प्रथम रचना गुणस्थान विचार गभित पाव नाय स्तवन स० १६६५ का है । जो जैन शास्त्र के कर्म सिद्धान्त और आत्मोत्कर्ष की पद्धति के सम्बन्ध मे है इससे आपका शास्त्रीय ज्ञान उस समय तक कितना बढ़ चुका था, विदित होता है। (य) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवतोल्लेख वाली दूसरी रचना कम बत्तीसी स० १६६६ में रची गई रचना-समय का निर्देश न होने पर भी आपके दीक्षा नाम राजसमुद्र के नाम-निर्देश वालो अनेको रचनाए प्रस्तुत ग्रथ मे हैं इससे आप आचार्य पद से पूर्व भी कवि के रूप मे काफी प्रसिद्ध पा चुके थे, सिद्ध है । राजस्थानी और हिंदी की फुटकर कवितायो के अतिरिक्त आपने स स्कृत में भी उस समय कई टीकादि ग्रथ बनाए थे । कवि श्री सार ने आपके रचित 'ठाणांग' नामक तृतीय अगसूत्र की वृत्ति रचने का उल्लेख किया है। पर वह आज प्राप्त नहीं है। उल्लेख इस प्रकार है"श्री ठाणांग नइ वृत्ति करीनइ, विसमउ अर्थ बतायो।" ___ संभव है यह वृत्ति प्राचार्य पद से पहले ही की हो। सं. १६८१ मे श्रीसार उसका उल्लेख करते है । उससे पहले तो यह प्रसिद्ध हो चुकी थी। पंचमांग भगवती सूत्र के 8 वें शतक के ३२ । उद्देशक का आपने स स्कृत मे विवरण लिखा था जिसकी । पत्रो की एक हस्तलिखित प्रति हमारे संग्रह मे है । पर यह प्रति लिखते हुए छोड दी गई है इसलिए अपर्ण रह गई है। यह विवरण आपने वाचनाचार्य पद प्राप्ति के बाद और प्राचार्य-पद प्राप्तिसे पूर्व लिखा है । उक्त विवरण का प्रारंभिक अंश नीचे दिया जाता है । "श्री पार्श्वनाथ प्रणम्य नवमशतकस्य द्वात्रिंशत्तमोद्देशकस्य टीकानुसारेण वाचनाचार्य श्री राजसमुद्र गरिणभिःक्रियते विवरण" इससे आपने और भी कई भागमादि ग्र यो के विवरण लिखे थे, मालूम होता हैं, पर उनका प्रचार अधिक नही हो पाया। बीकानेर के खरतर गच्छीय वृहद्ज्ञानभंडार के अंतर्गत महिमाभक्ति भंडार में तर्क शास्त्र संवधी किती ग्रंथका विवरण राजसमुद्रजी का लिखित प्राप्त है जिसका मध्यम अंश सं०१६६३ फागण वदि १२ को लिखा हुआ है। इससे उस समय तक आपका न्यायशास्त्र का अच्छा अभ्यास हो चुका था और संभव Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं उसी सिलसिले मे आपने यह महत्वपूर्ण ग्रथ अपने अध्ययनार्थं लिखा हो । १३००० श्लोको का यह महत्वपूर्ण तर्क शास्त्रीय सटीक य थ की प्रति पूर्ण रूप मे मिली हैं। इसलिए मूल ग्रंथ का क्या नाम है श्रोर टीका कव एवं किसने बनाई, निश्चय नहीं किया जा सका । पर इन सब बातो से यह निश्चित है कि जिनराजसूरि जी बहुत बड े विद्वान हुए हैं । छोटी २ राजस्थानी रचनाओं के अतिरिक्त प्रापने राजस्थानी काव्यो का निर्माण भी आचार्य पद प्राप्ति से पहले ही शुरू कर दिया था । जंन रामायण की कथा का आपने राजस्थानी काव्य के रूप मे इसी समय निर्माण किया था। उसकी एक अपूर्ण प्रति कोटा के खरतरगच्छ भ डार मे प्राप्त हुई है । २८ पत्रो की यह प्रति उसी समय की लिखी हुई है, पर अत मे प्रशस्तिकी ढाल नही है, इसलिए इसकी रचना कब एवं कहां की गई, जानने का साधन नही है । आचार्य पद प्राप्ति के अनन्तर आपने चोवीसी, वीसी, घन्ता शालिभद्ररास, गजसुकुमाल रास श्रादि राजस्थानी काव्यों की रचना की, जो प्रस्तुत ग्रन्थ मे प्रकाशित हो रहे हैं । इनके श्रुतिरिक्त कयवन्ना रास, पार्श्वनाथ गुरणवेलि, प्रश्नोत्तर रत्नमालिका वालाववोध, नवतत्वटव्वार्थ, आदि आपकी श्रोर भी रचनाएं हैं। जिन्हे हम प्रयत्न करने पर भी प्रस्तुत ग्रंथ के संपादन के समय प्राप्त नही कर सके। प्रश्नोत्तर रत्नमालिका, बालावबोध और नवतत्वटब्बा संस्कृत पोर प्राकृत रचनाओ के राजस्थानी गद्य में लिखे गए संक्षिप्त विवरण हैं । यह विवरण किसी श्रावक या श्राविका को वोध कराने के लिए रचा गया है क्योकि मूल प्ररंथ संस्कृत-प्राकृत मे होने से उनके लिए सुबोध नही थे । 4 आचार्य श्री की सबसे बड़ी थोर महत्त्वपूर्ण रचना नंबधमहा. काव्य की ३६००० श्लोक परिमित वृहट्टीका है इसकी दो अपूर्ण " ( १ ) " Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतियां हरिसागरसूरि ज्ञानमंडार. लोहावट और भंडारकर पौरियन्टल-इस्टोट्यूट, पूना मे है और एक पूर्ण प्रति जयपुर के एक जेनेतर विद्वान के संग्रह मे महोपाध्याय विनयसागर जी ने देखी थी। पर इन प्रतियो मे भी अतिम प्रशस्ति नही है । इसलिए इस टीका की एक रचना किस संवत् मे कहा हुई,ज्ञात हो नही सका। इस वृहद्वृत्ति से उनका काव्यशास्त्र का निष्णात होना सिद्ध होता हैं । इस तरह जिनराजसूरि एक बहुत बड़े विद्वान और सुकवि सिद्ध होते हैं, जिनकी प्राप्त राजस्थानी कविताओ का स ग्रह इस प्रथ मे प्रकाशित किया जा रहा है। जिनराजसूरि का शालिभाद्र रास तो जैन समाज मे इतना अधिक प्रसिद्ध हुआ कि उसकी से कडो हस्तलिखित प्रतियाँ गाँव २ और नगर २ मे पाई जाती हैं । केवल हमारे संग्रह में ही उसकी २५ प्रतिया हैं । इस रासकी लोकप्रियता उसके रचे जानेके समयसेही पाई जाती है। सं० १६७८ के पाश्विन बदि ६ को २६ ढालो वाला यह रास रचा गया था। सं० १६८८ की लिखी हुई प्रति के अनुसार इसकीरचना प्राचार्य श्री ने अपने भ्राता गेहा का अभ्यर्थना से की थी। प्रशस्ति इस प्रकार है बोहित्थव शीयावतसीयमान तिस्ममात महिमा निधान निविगान, यशोवितान सावधान प्रधान विद्वज्जनदर्शिताष्टावधानाधिगत चतुर्दश विद्यास्थान श्री शत्रञ्जय तीर्थाष्टमोद्धार प्रतिष्ठा विधान लव्धमानवमन वामनधीमान मान नान जगम युगप्रधान श्रोजिनसिंहमूरिभि वि रचर्या चक्रे । साह धर्मसी धारलदेवी पुत्ररत्न शाह गेहाख्या भ्रातुरभ्यर्थनयानन्दतादाच द्राकै श्रोतध्यात्रि सुखप्रदा सं० १६८८ वर्षे पंडित ज्ञानमूर्ति लिखित फागुण सुदि १४ दिने। शुभं भवतु श्री जालोर मध्ये । [पत्र २४ । डाह्याभाई वकील सूरत के संग्रह मे ] प्रस्तुत रास की प्रशरित मे 'श्री जिनसिंहसूरि शीश मति (न) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारै' शब्द आता है उससे अनेक लोगो को यह भ्रम हुआ और होता है कि इस रास के रचयिता का नाम मतिसार है। स्वर्गीय मोहनलाल देसाई ने अपने जैन गुजर कविनो-प्रथम भाग के पृष्ठ ५०१ मे भी इसका रचयिता मतिसार' ही बतलाया था, यद्यपि उन्ही के उद्धत प्रशस्ति मे जिनराजसूरिभिर चयाँचके' स्पष्ट उल्लेख था । हमने इस भूल की ओर उनका ध्यान आकर्षित किया तो उन्होंने जैन गुर्जर कविप्रो के तीसरे भागमे उसका संशोधन करके रचयिता का नाम मतिसार की जगह जिनराज सूरि रख दिया । पर आज भी कई ज्ञानभंडारो की सूचियों मे भ्रमवश मतिसार नाम दिया जाता है। थोड़े समयमे ही यह रास इतना लोकप्रिय हुआ कि स०१६८१ मे रचना के केवल २० वर्ष वाद हो इसकी एक सचित्र प्रति तैयार की गई जिसे वादशाही चित्रकार शालिवाहन ने चित्रित की थी। वह प्रति अभी कलकत्ता के श्री बहादुरसिंह जो सिंघी के संग्रह में है । उसके चित्र बहुत ही सुन्दर हैं और बहुत से पेज तो परे लबे] पेज मे चित्रित हैं जिसमें कथा का भाव चित्रकार ने बड़ी खूबी से अकित किया है। प्रस्तुत प्रति के कुछ पत्रो एवं चित्रो के ब्लाक इस ग्रथ मे प्रकाशित किए जा रहे है इसके लिए हम श्री नरेन्द्रसिंह जी सिंघी के आभारी है , प्रति की लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है____ 'इति श्री सालिभद्र महामुनि चरित्र समाप्त ।। स वच्चान्द्र गजरसरसामिते द्वितीय चैत्र सुदि पंचमी तिथी शुक्रवारे वलूलवल सकल भूपाल भाल विशाल कोटीरहीर श्री मज्जहागीर पातिसाहिपति सलेमसाहि वर्तमान राज्ये श्रीमज्जिनशासन वन प्रमोद १- इसी कारण जिन राजसूरि जा के दूसरे गजसुकुमाल रोस को उन्होने पृष्ट ५५३में उनके नाम से अलग रूप से उल्लिखित किया था । प्रान द काव्य महोदधि मौक्तिक १ मे सन् १९१३ मे शालिभद्ररास प्रकाशित किया गया था। उसका रचयिता पीजिनसिंहसूरि शिष्य मतिसागर बतलाया गया था जो मतिसार शन्द पर ही आधारित था । (प) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधान पुष्करावर्त धना धन समान युगप्रधान श्री श्री श्री ४ श्री जिलरोजसूरि विजयि राज्ये नागडगोत्र शृगारहार सा० जैत्रमलत त्तनय सविनय धर्म-धुरा धारण धीय श्री मज्जिनोक्त सम्यक्त्व मूल स्थूल द्वादन व्रतधारक श्री पंचपरमेष्टि महाम त्र स्मारक श्रीमत् साहिसभा शृगारक सश्रीक स घमुख्य सा० नागडगोत्रीय सा० भारमल्लेन । लघुवांधव नागडगोत्रीय सा० राजपाल । विचक्षणधुरीण सा० उदयकरण जैवातृक महासिंहादि सार परिवारयुतेन लेखित । तच्च वाच्यमान चिर नंदतात् । सदा । लिखित चैतत् पं० लावण्यकीति गणिना चित्रित चित्रकारेण सालिवाहनेन । श्रयः सदा।' हमारे संग्रह में भी मयेन जयकिसन के चित्रित सं० १८२५ की प्रति है जिसमे ४७ चित्र हैं। लेखन प्रशस्ति इस प्रकार है - सं० १८२५ वर्षे मिति प्रथम श्रावण सुदि २ शुक्रवारे पुख निखत्र लिखव्यो मथेन श्री श्री रामकृष्ण जी तत्पुत्र मथेन जय किसय । तत्र सजुगते । श्री बीकानेर मध्ये । शुमभवतु कल्याण मस्तु । बीकानेर-वृहद् ज्ञानभंडार, श्री पूज्यजी स ग्रह, बोरान् सेरी उपासरा आदि अन्य कई ज्ञानभंडारों में भी इस रास की सचित्र प्रतिया मिलती है जिनमे से, वोरान्सेरी उपाश्रय की प्रति जो अभी महोपाध्याय विनयसागर जी संग्रह कोटा में है शालिभद्ररास की सचित्र, सुन्दर प्रति उल्लेखनीय है । सकडो प्रतियों की उपलधि और १०-१२ सचित्र प्रतियो की प्राप्ति इस रास की प्रसिद्ध और लोकप्रियता की परिचायक हैं। शालिभद्र महान् भोगी और महान त्यागी थे । 'अन्तगड दशा' नामक पाठवें अंग-सूत्र में शालिभद्र चरित्र वर्णित है। उसके दाद संस्कृत और राजस्थानी, गुजराती में अनेक काव्य इस कथा प्रसंग को लेकर रचे गए है । स०१२८५ मे खरतरगच्छीय पूर्ण (फ) Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भद्र गणि ने जेसलमेर में 'धन्नो शालिभद्र चरित्र' नामक महाकाव्य बनाया जो प्रकाशित भी हो चुका है। इसीप्रकार धम कुमार रचित शालिभद्र चरित्र काव्य भी टिप्पणी सहित प्रकाशित हो चुका है। बहुत से रास भी उपलब्ध है जिनमे से जिनविजयकृत धन्नाशालिभद्र रास प्रकाशितहो चुका है । अमोलकऋषि और शकर प्रसाद दीक्षित रचित धन्नाशाभिद्र चरित्र और शालिभद्र चरित्र भी प्रकाशित हो चुके हैं। अप्रकाशित रीस भी अनेक हैं पर जितनी अधिक प्रसिद्धि जिनराजसूरिजी के प्रस्तुत रास को मिली वैसी अन्य किसी भी रचना को नहीं मिल सकी। उनके रचित दूसरा राजस्थानी काव्य गजसुकुमाल महामुनि चौपई भी बहुत ही सुन्दर है । इसमे श्री कृष्ण के सगे लघु भ्राता गजसुकुमालका रोमांचकारी पावन चरित्र वर्णित है । गजसुकुमाल का चरित्र अन्तगड दशासूत्रमे पाया जाता है और इस कथा-प्रसंग को लेकर और भी कई कवियोने रास ढाल एव सज्झाए बनाई हैं। प्रस्तुत ग्रंथ मे सबसे पहले चतुर्विशतिका या चौबीसी नामक रचना छपी है जिसमे २४ तीर्थङ्करो के २४ भक्ति गीत और २५ वा कलश है । तदन तर विहरमानविंशति जिन गीतम्' जिसे 'वीसी' कहते हैं, प्रकाशित की गई है। जैन मान्यता के अनुसार . इस अवसर्पिणी काल के प्रस्तुत जम्बूद्वीप और भरतक्षेत्र के चौबीस तीर्थकर मोक्ष पधार चुके हैं, पर महाविदेह क्षेत्र मे बोस तीर्थकर माज भी विचर रहे हैं। उन्ही बीस तीर्थङ्करो के २० भक्ति गीत और २१ वा कलश प्रस्तुत वीसी नामका रचना में है। दोनो मे रचनाकाल का उल्लेख नहीं किया गया पर इनकी रचना प्राचार्य पद-प्रामि के बाद हुई हैं। और इनकी हस्तलिखित प्रतियाँ स ० १६८३ की लिखी हुई हमारे संग्रह मे है इसलिए सं० ६६७४ और १६८३के बीचमेही चोवीसी और बीसी का रचा जाना निश्चित है इन रचनाओ का भी जैन समाज मे काफी प्रचार रहा अत. इनकी अनेको हस्तलिखित प्रतिया हमारे संग्रह में एव भन्यत्र भी प्राप्त है। प्रस्तुत ग्रंथ मे प्रकाशित अन्य फुटकर रचनाए अनेक हस्त Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखित प्रतियो से वर्षों के परिश्रममे मंगृहीत एवं वर्गीकृत करके यहाँ प्रकाशित की गई है। फुटकर रचनायो की दो स ग्रह प्रतियाँ भी हमे बहुत वर्ष पहले प्राप्त हुई थी जिममे से एक ३४ पत्रो की प्रति यति जयचन्दजी के भ डार मे है और दूसरी श्री पज्यजी के स ग्रह मे। हमारे स ग्रह के कई गुटको एवं फुटकर पत्रो में भी आपकी रचनाए मिली हैं जिनमेसे कुछ पत्र तो आपके उस समयके लिखे हुए है, जिस समय आप प्राचार्य पद पर प्रारूढ नही हुए थे और राजसमुद्र के नाम से प्रसिद्ध थे। ऐसे फुटकर पत्रो मे से एक दो पत्रो के ब्लॉक इस ग्रंथ में दिए जा रहे हैं जिनसे आपके अक्षरों का भी हमे दर्शन हो जाता है । आपके कुछ चित्र भी प्राप्त हुए हैं जिनमे से यति मूरजमलजी के संग्रह को शालिभद्र चौपाई की सचित्र प्रति के एक चित्र का ब्लाक हमने अपने 'ऐतिहासिक जैन काव्य स ग्रह' के पृष्ठ १५० में प्रकाशित किया था। सिघोजीके संग्रह की विशिष्ट सचित्र प्रति मे भी आपका चित्र पाया जाता है। यह प्रति आपकी विद्यमानतामे ही चित्रित की गई थी और अवश्य ही इसके चित्रकार शालिवाहन ने आपको देखा होगा इसलिए उसका बनाया हुआ चित्र अधिक प्रामाणिक होने से उसी का ब्लाक इस ग्रंथ मे दिया जा रहा है। शिष्य परम्परा: आपके शिष्य अनेक थे और उनमे कई बडे अच्छे विद्वान् प्रौर कवि थे। आपके पट्टधर जिनरंगसूरि भी अच्छे कवि.थे। उनके स्तवन सज्झाय, गीत पद की एक संग्रह प्रति बीकानेर सेठिया-लायब री मे प्राप्त है बार कुछ रचनाएं प्रकाशित भी हो चुकी है। आपके द्वितीय पट्टधर जिनरत्नसूरिजीके रचित कुछ स्तवन मिलते हैं। जिनरगसूरिजी से लखनऊ गद्दी हुई और उस परंपरा मे अभीश्री जिनविजयसेन सूरि हैं । जिनरत्नसूजिीकी पट परम्परा बीकानेर मे चली। वर्तमान पट्टधर जिनविजयेन्द्रसरि अच्छे विद्वान हैं । आपके इन दोनों पदृवर शिप्यो के अतिरिक्त कई उपाध्याय ऑदि विद्वान शिष्य थे जिनकी परम्परा में (भ) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कई कवि हो गए हैं। आपके शिष्य भाव-विजय के शिष्य भावविनय के शिष्य भावप्रमोद रचित सप्नपदायी वृत्ति, और प्रजापुत्र चोपई प्राप्त है । श्रापके एक अन्य शिष्य मानविजय के शिष्य कमल तो बहुत अच्छे कवि थे और उनको बहुत रचनाएं प्राप्त है। कमलह के शिष्य विद्याविनाम और उदयसमुद्र भो अच्छे विद्वान थे । प्रस्तुत ग्रंथ का मूल संशोधन मेरे सहयोगी भ्रातृपुत्र श्री संवरलाल नाहटाने किया है और साहित्यक अध्ययन प्रो० श्री नरेन्द्र भानावतने लिखा है । म्रतः ये दोनो ही मेरे आशीर्वाद भाजन हैं । ग्रंथ प्रकाशन में प्रत्यत्रिक विल होजाने से कठिन शब्द कोश देने की इच्छा होते हुए भी नही दिया जा सका। - अगरचंद नाहटा (#) Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRASHTHE G4 . লিখলঞ্জুহি জুনি-লিস্ট एक साहित्यिक अध्ययन (प्रो० नरेन्द्र भानावत . गवन मेन्ट कॉलेज, बून्दी) १७ वी शती के उत्तरार्द्ध के कवियो मे जिनराजसूरि का महत्वपूर्ण स्थान है । ये खरतरगच्छीय प्राचार्य जिनसिंहमूरि के शिष्य थे। प्रारंभ से ही इन्होने दर्शन, साहित्य और व्याकरण का अध्ययन किया। काव्य की ओर रुचि थी ही। अध्ययन और अभ्यास का सहारा पाकर इनकी प्रतिभा खिल उठी । सेकड़ों पद, स्तवन और रास मुक्त हंसी हंसने लगे। जन-साधारण को उनमे मिला हृदय को उल्लसित करने वाला प्राध्यात्मिक वातावरण, मस्तिष्क को सजग बनाने वाला प्रोत्म-रस पोर जीवन को मधुर बनाने वाला उद्बोधन । ऐसे आमधर्मी कविकी रचनाओ का समग्र रूपसे एक ही स्थान पर पास्वादन हो सके ऐसे प्रयत्न की महत्ती आवश्यकता थी। 'समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि' के ही अनुक्रम मे 'जिनराजसूरि कृति कुसुमार्जाल' के प्रकाशन द्वारा यह महदनुष्ठान अव पूर्ण हुआ है । यहा संक्षेप मे आलोच्य कृति का साहित्यिक अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है। (क) भाव पक्ष.-- भाव कविता का मूलधर्म है । इसके अभाव मे कविता कविता नहीं रहती । ये भाव कमो सासारिक विषयो से लिपटे रहते तो कभी प्राध्यात्म जगत से बचे रहते हैं। हिन्दी का रीतिकालीन काव्य पहली धारा का प्रतिनिधित्व करता हैं तो भक्तिकालीन काव्य दूसरी घाग का । पालोच्य-कवि दोनो घारापो के बीच में रहा है। पर उसका स्वाद अपना है, उसकी पद्धति अपनी है। (य) Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसीलिए वह विशिष्ट है । स्थूल रूपसे कविका कार्य विषय दो प्रकार का रहा है (१) गुरणगाथात्मक या स्तुतिपरक (२) प्राध्यात्मिक या उपदेशपरक [१] गुणगाथात्मक या स्तुतिपरक: अपने से महान मौर श्रद्धय पुरुषो का गुणगान गाना, उनके लोकोपकारक कार्यों का स्मरण स्तवन करना भारतीय धर्म और काव्य का मुख्य आधार रहा है । इससे मन पवित्र होता है, मानसिक शान्ति मिलती है और नयी सजीवनी शक्ति का अनुभव होने लगता है । जिनराज सूरि ने महान श्रात्माओ के प्रतिरिक्त महान आत्माओ से सम्बन्ध रखने वाले तीर्थादि स्थानो का भी माहात्य प्रतिपादित किया है । V महान श्रात्मा मे यदि कवि का ध्यान तीर्थङ्करों, विरहमानों, सतियो और अन्य तेजोपु ज व्यक्तियो की ओर गया है तो तीर्थादि स्थानो मे उसे शत्रुञ्जय ( विमलाचल), श्रावू तथा अन्य मन्दिरादि विशेष प्रिय रहे हैं। रामायण की कथा भी उससे छूती नही रही । संवादात्मक गेय शैली मे जो पद लिखे गये हैं वडे मार्मिक श्रोर चोट करने वाले हैं । स्वप्न पद्धति के द्वारा कवि ने मदोदरी से जो भावी आशंका का वतावरण प्रस्तुत कराया है वह देखिए श्राज पीउ सुपनइ खरी डराई । जलधि उलंचि कटक लका गढ़, घेरयउ परी लराई ॥ १ श्र० ॥ लुटि त्रिकूट हरम सव लूटी, भूटा गढ़ की खाई । लपक लगूर कंगुर वइठे फेरइ राम दुहाई ||२||०|| जउ दस सीस वीस भुज चाहइ, तर तजि नारि पराई । राज वदल हुणहार न टरिहर, कोरि करउ चतुराई ||३० (पृ. ४) श्री वर्तमान जिन चतुर्विंशतिका मे २४ तीर्थङ्करो का गुणानु (7) Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाद गाया गया है। इनमे उनको चारित्रिक दृढता, अपनी भक्ति भावना, उनकी महानता अपनी लघुता का वर्णन है । कवि उन्हे आँखो मे बसाना चाहता है. अपने हाथो से उनकी पूजा करना चाहता है और चाहता है अपनी जिह्वा से उनका सकीर्तन करना'इण परि भाव भगति मन पारणी, सुध समकित सहिनाणीजी। वर्तमान चउवीसी जारणो, श्री 'जिनराज' वखारणीजी ||१||इ०॥ जउ मूरति नयणे निरखीजई, जउ हाये पू जीजइजी। जउ रसनाइ गुण गोइजई, नर भव लोहउ लीजइ जी । २।। इ०॥ (पृ० १७) आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव का स्तवन करते हुए उनकी बाललीला का जो वर्णन किया गया है उसे पढते समय महाकवि सूर और उसके कृष्ण हठात् स्मरण हो आते है । मरुदेवी के मातृ-हृदय को कविने पहचाना है, बालक ऋषभ की सहजसुलभ क्रीडायो को कविने देखा है, तभी तो जो चित्र बनते हैं वे उभर उभर कर आखो के सामने नाचते रहते हैं रोम रोम तनु हुलसइ रे, सूरति पर बलि जाउ रे । कवही मोपइ आईयउ रे, हूँ भी मात कहाऊ रे ॥३॥ पगि घूधरडी घमघमइरे, ठमकि ठमकि धरइ पोउ रे । वाह पकरि माता कहई रे, गोदी खेलण पाउरे ॥४॥ चिवुकारइ चिपटी दीयइ रे, हुलरावइ उर लाय रे। बोलइ बोल जु मनमनारे, दतिया दोइ दिखाइ रे ॥१॥ तिलक वरणावइ अपछरा रे, नमयणा अंजन जोइ रे। काजल की विदी दियइरे. दु जन चाखन होइरे ॥६॥ (पृ० ३१) कवि भावानुकूल भाषा लिखने मे सिद्धहस्त है। 'श्री गिरनार तीर्थ यात्रा स्तवन' को पढते हुए लगता है जैसे यात्रियो का एक दल उमडता हुआ चला जा रहा है। बहिन द्वारा बहिन को (ल) Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निमन्त्रण-कितना मधुर सरस और भाव भीना हैमोरी वहिनी हे वहिनी म्हारी । मो मन अधिक उछोह है, हां चालउ तीरथ भेटिवा ॥म्हा० ॥ सवेगी गुरु साथ हे, हाँ तेडीजइ दुख मेटिवा ॥१॥म्हा०।। चढिमुंगढ़ गिरनार हे, हाँ साथइ सहियर झूलरइ म्हा०॥ सजि वसन शृगार हे, हाँ गलि झाबउ मकथूल रउ ॥२॥म्हा०॥ राजल रउ भरतार है, हा जादव नंदन निरखिसुम्हा०॥ पूजा सतर प्रकार हे, हाँ करिसुहियडइ हरखिसु ||शाम्हा०॥ अदबुद आदि जिरिंगद हे, हाँ 'खरतरवसही' जोइसुम्हा०॥ ममियझरइ श्री पास हे, हाँ मल कसमल सवि धोइसु थाम्हा. पृ० (४२) कही कहीं विरहादि वर्णन में प्रकृति चित्रण के लिए भी अवसर मिल गया है। यहां जो प्रकृति पाई है वह स्वतंत्र रूप में होकर उद्दोपन रूपमे है । नेमिनाथ के विरहमे राजुल तडफ तड़फ कर चतुर्मास बिताती है श्रावण, भाद्रपद, ओसोज और कार्तिक का वर्णन इसी पृष्ठभूमि मे आया है श्रावण मास का चित्र देखिये'श्रावण मइ प्रीयउ संभरइ, वूद लगइ तनु तीर । खरीन दुहेली घन घटा, कवरण लहइ पर पीर ॥ पर, पीर जोरपत पापी, पपीहउ प्रीउ प्रीउ करइ । ऊमई वाहर घटा चिंहु दिसि, गुहिर अंबर घरहरइ ॥ दामिनी चमकत यामिनी भर, कामिनी प्रीउ विरण टरइ। घन घोर मोर कि सार बोले, स्याम इण रितु संभरइ ।। (पृ०४६) 'शालिभद्र धन्ना चौपई' कवि की महत्वपूर्ण कृति है इसकी कई हस्तलिखित.प्रतियाँ भांडारों में पाई जाती हैं। अकेले अभयजैन ग्रंथालय, बीकानेर मे इसकी २० प्रतियां हैं । सचित्र प्रतियो (4) Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी मिलती हैं । कलकत्त' की सिंधीजी वाली सचित्र प्रति दस हजार रुपये की कीमत से भी अधिक मूल्यवान है। इससे चौपई को लोकप्रियता का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इसकी कथा वडी सरस और मधुर है। वह जीवन के अभेद्य रहस्यो को खोलकर सामने रख देती है । भोग और योग का अद्भुत समन्वय, आत्मा, की स्वायत्तता और परवशता वे चिंतनविन्दु हैं जो जीवन के मोड को सहसा वदल देते हैं। शालिभद्र उन नायको मे से है जो स सार को फूल की तरह सुन्दर और कोमल, काया को मक्खन की तरह मुलायम और स्निग्ध तथा अपने आपको सबका स्वामी और नियन्ता मानता है। पर अचानक माता भद्राके वचनो को सुनकर "कि स्वामी (राजा) श्रोणिक अपने घर आया है" शालिभद्र का अन्तर क्रन्दन कर उठता है___ 'एतला दिन लग जाणतो, हुँ छु सहुनो नाथ । माहरे पिण जो नाथ छे, तो छोड़िए हो तृण जिम ए पाथ ॥४॥ जाणतो जे सुख सासता, लाधा अछ असमान । ते सहु आज असासता, मैं जाण्या हो जिम स ध्या वान ||५|| (पृ. १३२) और वह एक एक कर बत्तीस स्त्रियो का परित्याग कर मुक्ति के उस पथ पर बढ जाता है जहाँ कोई किसी का नाथ नही.. "उठ्यो आमणदूमणो, महल चढयो मनरंग। फिरि पाछो जोवै नही, जिम कंचली भुयग ।।' (पृ० १३३) [२] आध्यात्मिक या उपदेशपरकः-- गुणगाथात्मक या स्तुतिपरक पदो मे भी आध्यात्मिक वातावरण और देशना है । पर वहाँ कथा या चरित्र विशेष को प्रधानता दी गई है। यहा स्फुट पदो मे संसार की असारता, जीवन की नश्वरता धर्म-प्रभावना आदि का जो चित्र प्रस्तुत किया गया है। वह सन्त कवियो की तरह वाह्य क्रिया-काडो का विरोधी (श) Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और भक्त कवियों की तरह 'प्रभु ही सब पतितन को टीको' है। ___कवि पश्चाताप करता है कि वह प्रभु का ध्यान नही कर सका। उसने बचपन इधर-उधर भटकने मे, यौवन भोग-विलास में और बुढ़ापा इन्द्रियों की शिथिलता के कारण यों ही व्यतीत कर दिया फिर भी प्रभुने उसे अपना लिया । यह प्रभु की उदारता, भक्त-वत्सलता और महानता नही तो क्या है ? कबहूँ मइ नीकइ नाथ न घ्यायउ । कलियुग लहि अवतार करम वसि, अघ घन घोर बढायउ ||१|| बालापरण नित इत उत डोलत, घरम कउ मरम न पायउ।। जोवन तरुणो तनु रेवा तट, मन मातंग रमायउ ॥२॥ . बूढ़ापणि सव अंग सिथल भए, लोभइ पिंड भरायउ । तउ भी तुम्ह करिहउ अपणाई, या 'जिनराज' बडाई ॥३॥ (पृ०६२-६३) जीवन की नश्वरता का चित्र देखियेकइसउ सास कइ वेसास। कुस अणी परि प्रोस करणकी, होत कितक रहास ||१|| जाजरी सी घरी वाकइ, वीचि छिद्र पचास । तिहा जीवन राखिवइ की, कउण करिहइ आस ||२|| रयरण दिन ऊसास कइ किसि, करत गवरण अभ्यास । जग अथिर 'जिनराज' तामइ, लेहु थिर जसवास ॥३॥ (पृ० १०७.८) _ 'शील बत्तीसी' व 'कर्मवतीसो' में शीलधर्म तथा कर्म की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है । शील-माहम्य मे कवि कहता है-- सील रतन जतने करि राखउ, वरजउ विषय विकारजी। सीलवंत अविचल पद पामइ, विषई रूलइ ससार जी । सीलवंत गिमइ सलहीजई, सीधइ वंछित कोदिजी।' (ष) Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरनर किन्नर असुर विद्याधर, प्रणमइ बेकर जोड़िजी ॥२॥ (पृ० ११२) 'करम' की गति भी 'अलख' अगोचर है। उसे कोई नहीं जान सकता"पूरव कर्म लिग्वत जो सुख दुख-जीव लहइ निरधार जी। उद्यम कोडि करइ जे तो पिण, न फनइ अधिक लगार जी"||२|| यही कारण है कि 'एक जनम लगि फिरइ कुप्रारा, एके रे दोय नारिजी। एक उदरभर जन्मइ कहीइ, एक सहस प्राधार जी ॥३॥ एक रूप रभा सम दोसड, दीसे एक कुरूप जो। एक सहूना दास कहीये, एक सहना भूप जी ॥४॥ (पृ० ११६) ___ कवि के कृतित्व मे पाथिक देह से ऊपर उठाने की अमोघ शक्ति है । वह हमे अपनी कमजोरियाँ वतलाकर हतोत्साहित नही करता वरन् आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है । वह अज्ञान का पर्दाफाश कर ऐसी झिल मिलाती हुई अमरज्योति को खीच लाना चाहता है जिसके प्रकाश मे समझा जा सके'विणजारा रे वालभ सुणि इक मोरी बात, तूं परदेशी पाहुणउ वि०॥ विरगज़ारो रे मकरि तूं गृहवास, आजकाल भई चालणउ ॥वि०॥॥ (पृ० ६३) कवि का एक एक पद आध्यात्म रस का ऐसा स्निग्ध छीटा है जो प्यासे की प्यास नही जगाता वरन् उसके हृदय को इतना निर्मल और प्रशान्त बना देता है कि वह थोड़ी देर के लिए अपने पापको भूल जाता है, जड-जंगम की सीमाएं टूट जाती हैं। (ख) कला पक्षःजैन कवि सामान्यतः पहले धर्मोपदेशक और बादमें कवि रहे (स) Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। यही बात जिनराजसूरि के बारे भी कही जा सकती है। फिर भी जिनराजसूरि उन सामान्य कवियो मे से नही है जो भाषा के अलकरण से एक दम दूर रहते हों। उनमे सादगी के साथ साथ साहित्यिकता भी है भावावेग के साथ साथ अलकरण भी है, पर सेर्वत्र कृत्रिमता और कारीगरी को बचाकर । ___भाषा सरल राजस्थानी । सरस और सुबोध । इनका विहारक्षेत्र गुज़रोत भी रहा अत. गुजराती का पुट भी यत्र-तत्र देखने को मिलता है । भाषा माधुर्यगुण और नाद-सौन्दर्य से सम्पन्न हो उसमे अनुप्रास की छटा भी देखी जा सकती है यथा (१) मेरइ नेमिजो इक सयरण।। अउर ठउर न दउर करिहैं, कबहुं मो मन भयण शामे० सुण्यउ निसि भरि जवहि चातक, रटत पिउ पिउ वयन । पलक वादल वोचि उमडे, सजल जलधर नयन ॥२॥मे० (पृ० ४७) (२) 'आज घडी सुघडी लेखइ पडी, जीवन जनम प्रमाण । भगति जुगति 'जिनराज' जुहारता, आज भलइ सुविहाण ७। (पृ० ४६) (३) मारगि है सखि मारगि सहियर साथि, 'चालण हे 'सखि चालण पगला चलवलइ। भेटणं हे सखि भेटण आदि जिणंद, मो मनि हे सखि मो मनि निसदिन टलवलइ ॥३॥ (पृ० ३४) अर्थालकारों में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा विशेष प्रयुक्त हुए है। कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं। , उपमा:(१) मेरइ मनि तुंही वसइ रे, ज्यु रयणायर मीन रे (पृ० ३१) (२)नारणपण सरस व समउ, चिहुँ माहे हो कहूं मेरु समान(पृ०४०) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) कूडल को सोभा कह रे लाल, रवि शशि कइ अणुहारि (पृ ५३) (४) जी हो तृण जिमराज रमरिण तजी होजी लीघउ सज़मभार(७३ (५) फल किपाक समान देखता हो, देखतां सहूंजन नइ सुख सपजइ हो (६२) (६) पर कर परसेवो चल्यो, मांखण जेम सरीर । चिहुँ दिसि परसेव चल्यो, जिम नीझरणे नीर ॥३॥ (१३३) रूपक:(१) मन मधुकर मोही रहयउ, रिषभ चरण अरविंद रे । कडायउ ऊडइ नही, लीगउ गुण मकरन्द रे ॥१॥ (पृ. १) (२) सूर ने जिस प्रकार 'अब मैं नाच्यो बहुत गुपाल' सांगरूपक बाँधकर विनय भावना प्रदर्शित की है उसी प्रकार जिनराज सूरि ने सांगरूपक बांधकर अपनी मोह-दशा का मामिक चित्र खीचा है। यथाः 'नायक मोह नचावीयउ, हुनाच्यउ दिन रातो रे । चउरासी लख चोलणा, पहिरया नव नव भात रे॥१॥ काछ कपट मद घू घरा, कठि विषय वर मालो रे । नेह नवल सिरि सेहरउ, लोभ तिलक दे भालो रे ॥२॥ भरम भुउरण मन मादल, कुमति कदाग्रह नालो रे । क्रोध करणउ कटि तटि वण्यउ, भव मडप चउसालो रे ॥३॥ मदन सबद विधि ऊगटी, अोढी माया चीरो रे। नव नव चाल दिखावतइ, का न करी तकसीरो रे ॥४॥ (पृ० ८६) (३) सोभा सायर वीचि मइ रे लाल, झील रहयउ भन मीन । तइ कछु कोनी मोहनी रे लाल, नयन भऐ लयलीन ॥५॥ (पृ० ५३) (४) जोवन तरुणी तनु रेवा तट, मन मातंग रमायउ (६२) (५) पंचरग काचुरी रे बदरग तीजइ घोइ । . . (क्ष) Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत जतन करि राखीयइ, अत पुराणी होइ ॥१॥ सीवराहारउ डोकरउ रे, पहिरण हार युवान रे। . चउथउ घोव खमइ नही हो, मत कोउ करउ रे गुमान ॥२॥ (पृ० १०३) (६) मन रे तू छोरि माया जाल । भमर उडि वग प्राइ बइठे, जरा के रखवाल ।। (पृ० १०७) उत्प्रेक्षा:(१) तिण रंग लागउ माहरइ, जाणे चोल मजीठ (पृ०४४) (२) श्रावण मइ प्रीयउ सभरइ, वूद लगइ तनु तीर (पृ०४५), लोक प्रचलित उपमानो के प्रयोग मे कवि बड़ा कुशल है। जहां उसे अपने मत की पुष्टि करनी होती है वहाँ वह या तो कोई न कोई दृष्टान्त देता है या लोक प्रचलित उपमानों का प्रयोग कर विषय को एकदम स्पष्ट कर देता है । यथाः(१)घर अंगण सुरतर फल्यउ जी, कवरणे कनकफल खाई। गयवर बांधउ बारगइ जी, खर किम पावइ दाइ।(पृ०९) (२) वोवइ पेड़ पाक के प्रांगरण, अव किहाँ थइ चाखइ (७४) (३) पइठउ श्वान काच कइ मदिर, मूरखि भुसिहि भुसि मरइ (९८) (४) कहा अग्यानी जीउकु गुरु ज्ञान वतावइ । कबहु विष विषधर तजइ, कहा दूध पिलावइ ॥१॥ ऊपर ईख न नीपजइ, कोळ बोवन जावइ । रासभ छार न छारि हइ, कहा गंग नवावइ ॥२॥ काली ऊन कुमारणस, रग दूजउ नावइ । श्री 'जिनराज' कोऊ कहा, काकउ सहज मिटावइ ।।३।। भाषा की शक्तिमता के लिए कही कही लाक्षणिक प्रयोग भी किये गये हैं(१) दोउ नयण सावण भादु भये, ऐसी भांति रूनउ (८५) (२) जोवन वसि दिन दसि झूठी सी, हइ छबि छिन छिन छोबइ ११२ (3) Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहावरे भी आये है, यथाः मयणतणे दांते करी, लोह चिण कुरण चावरे (१४२) कवि की छन्द-योजना वैविध्य पूर्ण है। उसमे एक अनन्त संगीत की गूज है जो विभिन्न प्रकार की ढालो और रागिनियो द्वारा हृदय के तार झकृत कर देती है। प्रत्येक पदके साथ रागविशेष का उल्लेख कर दिया गया है । यथा प्रसंग तर्ज भी दे दी गई है। मुझे पूरा विश्वास है कि जिनराजसूरि के ये पद-जो अव तक अधिकांश रूप मे हस्तालखित प्रतियो में वन्दी पडे छटपटा इहे थे अव प्रकाशित होने से कबीर, सूर और मीरा के पर्दो की तरह लोक-कंठो मे रमकर दग्ध हृदय मरुस्थल मे अनन्त प्रानन्द की वर्षा करेंगे। ( ) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সিংভূ২ি নি লাল Ro ' ' ' ; 3 ] ,, * * * ১৮. ' : * ১ * * । L - = . . - ৩ * .tr } - ৫ | ৫ श्री जिनराजसूरि [सं० १६८१ में चित्रित ২য় ২ এT । ক । ন aga Elarলকশন tf.., , * # "Y . L3, ১.৫ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- -*-Arrantiwar. राईसमाधाशासालारामारदाताकताना HitRRAINiननापासादामाराणायाहरएनता तारदानाsanak नगरपानहादlarयविश्यमण्Ynomanasaani THHTERallhutमानाभवादनदाायाममतासामाRUIaaant परमावासमा सवसमाशातार हामिमराPURISATEL Raniलसालानाराजरामरकर हाकिसpa rinaaml {ishnaयतारधागात एककाटा कानारामादसाराaararirmanandH शारदमारारागनकाभकामनला0सावमासाडीsunarnamal Musविचारवानामापत्रमउसी जगदलशापरापजचावयासमा||| दागसजनामगाएगालाकरसवलासाधशातumasपवतावश्कायापराश्रानयाasill वाघामाघरववादिनवादगारकसलासनसतानाताजकिविगागनदापा चमकाजवेतामाaunायणकावणक्याकरतापग्र नचिनारस समदकवादपिलापरपसारधनसामातविश्रागीता लिखितंबासाराममणिना) AAMA-Arun - THAT वा० राजसमुद्रगरिंग ( जिनराजसूरि ) की हस्तलिपि Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | জিলুহুজাতি জুনি-ইদ্ভুিজাজা TA श्री वर्तमान जित चतुविशतिका (१) श्री आदिनाथ गीतम् देश-बांह समापउ वाहुजी मन मधुकर मोही रह्यउ, रिषभ चरण अरविंद रे। ऊडायउ ऊडइ नही, लीणउ गुण मकरंद रे ॥१॥म०॥ रूपइ रूड़े फूलडे, अलविन ऊडी जाइ रे । तीखा ही केतकि तणा, कटक आवइ दाइ रे ।।२।।म०।। जेहनउ रंग न पालटइ, तिणसुमिलियइ धाइ रे । संग न कीजइ तेह नउ, जे काम पडयां कुमिलाइ रे॥३॥म०॥ जे परबस वंधन पडयां, लोकां हाथ विकाइ रे। जे घर घर ना पाहुणा, तिण सुमिलइ बलाइ रे॥शाम०॥ चउविह सुर मधुकर सदा, अणहू तइ इक कोडि रे। चरण कमल 'जिनराज'ना, सेवइ वे कर जोड़ि रे॥शाम०॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि (२) श्री अजितनाथ गीतम् राग-गुड मल्हार जाति कड़खो तार करतार ससार सागर थकी, भगत जन वीनवइ राति दीसइ । अवर द्वारातरइ जाइ ऊभा रहयां, ताहरउ पिण भलउ नही दीसइ ता०॥१॥ आपणइ कोडि कर जोडि जे ओलगड, दास अरदास ते करण पावइ । पिण धणी जो हुवइ जाण सेवा तणउ, तो किसु भगत पासइ कहावइ ।।ता०॥२॥ माहरउ कथन मन मांहि जो आणस्यउ, पूरस्यउ तउ सही एह आसा । केड लागा तिके केड़ किम मूकिस्यइ, नेट का एक करिस्यउ दिलासा ॥ता०॥३॥ स्यू वलि तारवा के नवा आविस्यइ, अजित जिन एतलउ जे विमास्यइ । अकल 'जिनराज' नउ माजनउ कुण लहइ, 'सही ते तरइ जे रहइ पासइ ता०॥४ (३) श्री संभवनाथ गीतम् राग-सोरठ, गौडी । विणजारा रे नायक सभवनाथ, साथ खजीनउ सीतरउ विणजारा रे। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्तमान जिन चतुर्विंशतिका वि०सह को विणजण जाइ, थे घर वइठा स्युकरउ वि०॥१ वि० साटउ जोडइ आप, वीचि दलाल न को फिरइ वि० । वि० लाखोणा लख कोडि, रतन भविक ले ले घिरइ वि०॥२ वि० लाहइ रा दिन च्यार, वालभ वार म लाविस्यउ वि० । वि० थासी लाभ अनत, जउ किम हाथ हलाविस्यउ वि०॥३ वि० वाहि छछोहा हाथ साथ चलाऊ सऊ अछइ वि० । वि० सुण लोकोनी वात, पचतावइ पडिस्यउ पछइ वि० ॥४ वि० पहुची साहिव सोम, विणज करउ मन मोकलइ वि० । वि० पूठ रखइ 'जिनराज' अरिअण मूल न को कलइ वि०॥५ (४) श्री अभिनन्दन गीतम् राग-परजीयउ ढाल चादलियो ऊगो हरणी प्राथमी ए० बे कर जोडी वीनव रे, अभिनदन अवधार रे । दयालराय । अन्तरजामी माहरउ रे, आवागमन निवारि रे।द०॥१॥बे० आगम वचने आकरू रे, साभलि करम विपाक रे ।द०॥ हुसरणागत ताहरइ रे, सरणइ आयउ ताक रे।द०॥२॥बे० मीटि अमीणी जउ करइ रे, तउ भाजइ भव भीड रे।द०॥ परमेसर पीहर पखइ रे, कुण जाणेइ पर पीड रे ।द०॥३॥०॥ उपगारी सिर सेहरउ रे, भयभंजण भगवंत रे ।द। अरिअण तउहिज़ अउहटइ रे, जउ पखउ करइ बलवंत रोद० हु अपराधी सउ परे रे, महिर करउ महाराज रे द० ॥ मेघन जोवइ वरसता रे, सम विषमी 'जिनराज' रे द०॥५॥बे० Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि- कृति कुसुमांजलि (५) श्री सुमतिनाथ गीतम् राग - मल्हार करता सुं तउ प्रीति, सहु हीसी करइ रे सहु हीसी करइ परमेसर सु ं प्रीति, करुं हुं सी परइ रे क० 1 आपणपइ नीराग, न रागी सु अडइ रे न० । ताली एकण हाथ, कहउ किण विध पडड़ रे क० ॥ १॥ कर० ॥ सेवी जोयउ सामि, आगलि ऊभा रही रे आ० । पडि पडि मरइ पतंग, दीवाचइ मन नही रे दी० ॥ भगति करु सउ भांति, न सोम नजरि करइ रे सो० । नांगइ मन असवार, घोडउ दउडी मरइ रे घो० ॥२॥क० ॥ सुमतिनाथ जगनाथ, पखइ मन माहरइ रे प० । देव अवर नी सेव न आवइ काइरइ रे न० ॥ बाबीहर जिम चूंच, न वोडिइ जल नवइ रे न० । जलधर सुरूं इकतार, करी प्रीउ प्रीउ लवइ र क० ||३||क०|| नीरजन चउ नेह, लखी नवि को सकइ रे ल० । कईयर वीजां हि जेम, चिहुं मांहि वकइ रे चि० ॥ आपइ अविचल, राज, लागी जउ को रहइ रे ला० । भगतिवच्छल 'जिनराज', विरुद साचउ वहइ रे वि० ॥ ४ ॥ क ० ४ (६) श्री पद्मप्रभ जिन गीतम् राग - धन्यासी जाति भवन री कागलियउकरतार भणी सी परि लिखूं रे कवि. पूछु कर जोड़ि । जिम तिम' लिखतां हाथ वहइ नही रे, लिखिवा नो पिण कोडि ॥१ ॥ क० ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्तमान जिन चतुर्विंशतिका सइंगू माणस सिवपुर चालतउ, न मिलइ इण कलिकाल। प्रभु लगि सपगउ पहुँच सकइ नही रे, निपगइ नउ जंजाल का० २।। हाथ न झालइ कागल केहनउ रे, तउ वाचइ किम तेह। अलविन पाछउ पिण* ऊत्तर लिखइ रे, साहबीयउ निसनेह ॥का० ॥३॥ नीरंजन तो किमहिन र जीयइ रे,जउ लिखउ वीनतो लाख । दूर थका पिण भगति हुइ रहउ रे, ले सहुकोनी साख ॥का० ॥४॥ एक पखी जउ जाणउ पालस्यां रे, पदमप्रभु सुप्रीत । तउ कागल 'जिनराज' म मूकेज्यो रे, इणि घरि छइ आ रीत ॥का० ॥५॥ (७) श्री सुपार्श्व जिन गीतम् राग-~-मारू आज हो परमारथ पायउ, ज्ञानी गरु अरिहंत वतायउ। राग नइ द्वेष तणइ वसि नायउ, परम पुरुष मइ सोइज ध्यायउ आ०11९।। कर जोडी जउ को गुण गावइ, कडुए वचने कोइ मल्हावइ । तूं अधिकउ ओछउ न जणावइ, , समता सागर नाथ कहावइ ॥आ० ॥२॥ साचउ सेवक जाणि न मिलीयउ,दुरजन देखिन अलगउटलीया इाण चार - * किम Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि अकल पुरुप जिणविध अटकलीयउ, सहज सरूपी तिण विध फलीयउ॥आ० ॥३॥ झाली हाय न को तु तारड, फेरइ न कोइ न तू संसारइ। तू किम भाव कुभाव विचारइ, फलइ मसाकति सारा सारइआ०॥४॥ एक नजरि 'सहु को परि राखड, कुण बीजउ परमेसर पाखइ । श्री 'जिनराज' जिनागम साखड, सुजस सुपास तणउ इम आखइ॥५॥ आ०॥ (८) श्री चंद्रप्रभ गीतम् रमउ रे सुरगी गेहरी-ए जाति श्री चद्रप्रभु पाहुणउ रे, किम आवइ घरवार रे । जेहनइ प्रभु छोपइ नही रे, पाखलि ते परवार रे॥श्री॥१॥ पाणी वल पिण वेगलउ रे, न रहइ काम अछेप रे।। माया माछणि काढिवा रे, मइन कीयउ आखेप रे ॥श्री०॥२ लोभ अनीतउ वागरी रे , नांखइ पगि पगि जाल रे । आठ पहर ऊभउ करइ रे , चउकी क्रोध चडाल रे ॥श्री०॥३ विसन वनेचर बारणइ रे, ऊभा करइ पुकार रे । माछीगर अभिमान चउ रे, न टलइ पग पइसार रे ॥श्री०॥४ समिरण श्री 'जिनराज' नउ रे , आवइ आगेवाण रे। तउ पापी पासउ लीयइ रे, वछित चढइ प्रमाण रे ॥श्री०॥५॥ * सोइज Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्तमान जिन चतुर्विंशतिका (९) श्री सुविधिनाथ गोतम् राग - सोरठ कडखानी जाति सेवा बाहिरउ कइयइ को सेवक, तारपउ हुवइ तउ तवीयइ। . कीधइ काम मसाकति दीधां, ते दातार न चवीयइ ।।१।। से० ॥ वेडी जिम तारइ बडता, ते तारक सरदहीयइ। आपणपइ तरता नइ तारइ, ते सु तारक कहीयइ ॥२॥से। आठ पहर ऊभा ओलगतां, मउज कदे कइ दीजइ। विरुद गरीब निवाज तण उप्रभु,तिण ऊपरित वहीजइ ३॥से०॥ ते किम पात्र कुपात्र विचारइ, जे उपगारी होवइ । सम विसमी धारा वरसतउ, जलधर कदे न जोवइ ॥से० ॥४॥ पडियउ सुजस लिये परमेसर, पूरयउ छतउ पवाडइ । श्री 'जिनराज' सुविधि साहिव सु,किम पहुँचीजइ आडइ।।से.५ (१०) श्री शीतल जिन गीतम् राग- मल्हार सारग आज लगइ धरि अधिक जगीस, सेव्यउ सीतल विसवा वीस। जउका कोधी हुयइ वगसीस, तउ संभारेज्यउ जगदीसा॥१॥ अवसरि करिअ हुस्यइ अरदास, तइ तउ काइ न पूरी आस ।। तउ पिण तुझ परि वेसास, सेवक नई आपउ सावास ॥२॥ जउ को तइ काढयउ हुवइ काम, तउ ते दाखउ लेइ नाम । हुतेसेवक तूते' सामि, कितला इक दिन चलस्यइ आम ॥३॥ जनम लगइ नव नव अवदात, गातां वउलइ मुझ दिन रात तूकिम नेह धरइ तिलमात, तत वेला वातारी वात ॥४॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि बोल भलाई पिण 'जिनराज', तई मोसुन करी महाराज जउ जाणउ पोतानी लाज,राखिसि तड द्यउ अविचल राज।५ (११) श्री श्रेयांस जिन गीतम् राग- मल्हार एक कनक नई वीजी कामिनी रे, दूभर घाटी देखि । मारग मारग चलतां चीत न अउहटइ रे, भेटइ भविक अलेख ॥१॥ ओलगडी ओलगडी सुहेली श्री श्रेयांसनी,जउ करि जाणइ कोइ। ओलगतां ओलगता ओलगाणउ पहुँचइ चाकरी रे, आप समोवडि होइ ।।२।। ओ०॥ आठ पहर हाजर ऊभउ रहइ रे, न गणइ साझ सवार। सइंमुख सइंमुख नइ परपूठड सॉमची रे, कोई न लोपइ कार ॥३॥ ओ०॥ आठ अछइ अरियण अरिहंत नारे, न करइ तास प्रसग । साजणीया साजणीया साहिब नइ वालहा रे, तिणसु राखइर ग ॥४॥ ओ०॥ नाथ अवर मायई करता हुस्यइ र बिहुँमामेमाणेज । श्री जिन श्री 'जिनराज' विहु घोड़े चढइ रे, साचउ प्रभु सुहेज ॥५।। ओ०॥ (१२) श्री वासुपूज्य जिन गीतम् ढाल-१ चरणाली चामड रण चढई २ कडुआरे फल छे क्रोधना नायक मोह नचावीयउ, हु नाच्यउ दिन रातो रे । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M श्री वर्तमान जिन चतुर्विंशतिका चउरासी लख चोलणा, पहिरया नव नव भातो रे ॥१शाना०॥ कोछ कपट मद घूघरा, कठि विषय वर मालो रे। नेह नवल सिरि सेहरउ, लोभ तिलक दे भालो रे ॥२॥ना०॥ भरम भुउण मन मादल, कुमति कदाग्रह तालो रे। क्रोध कणउ+कटि तटिवण्यउ,सव मंडप चउसालोरे॥३॥ना०॥ मदन सवद विधि: ऊगटी, ओढी माया चीरो रे । नव नव चाल दिखावतइ, का न करी तकसीरो रे ॥४॥ना०॥ थाकउ हुहिव नाचतउ, महिर करउ महाराजो रे । बारम जिनवर आगलई,इम जंपइ 'जिनराजो' रे॥शाना०॥ (१३) श्री विमलनाथ जिन गीतम् राग-धन्यासी, ढाल-रहउ चतुर चउमास, घर अगण सुरतर फल्यउ जी, कवण कनकफल खाइ। गयवर बाधउ बारणइ जी, खर किम आवइ दाइ ॥१॥ विमल जिन माहरइ तुम्ह सुप्रेम ।। सुर सकलकित सु मिल्या जी, हीयडउ होसई केमा॥२॥वि०॥ मन गमता मेवा लही जी, कुण खल खावा जाइ। आदर साहिब नउ लही जी, कुण ल्यइ रांक मनाई ॥३॥वि०॥ पाच छतइ कुण काचनइ जी, अलवि पसारइ हाथ । कुण सुरतरु थी ऊठिनइ जी, बावल घालइ बाथ ॥४॥वि०॥ देव अवर जउ हु करुंजी, तउ प्रभु तुमची आण श्री 'जिनराज' भवो भवे जी, तूहिज देव प्रमाण ॥५॥वि०॥ * धुवन मद. ४ टालो. + तरणउ.: विभि Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ जिनराजमूरि-कृति-कुसुमांजलि (१४) श्री अनन्तनाथ गीतम् राग-सिन्यु पूजा नउ तूं वे परवाही, तड समता गाढी कर साही । राही जिम तुझ आण आराही, पूरइ तउ पूरी पतिसाही ॥१॥ मइ साची सेवा विधि जाणी, भूखा भमइ अवर सवि प्राणी। मन सुध आराधई तुझ वाणी, तउ संतोषीजइ आफाणी ॥२॥ हेलइ हेक वचन ऊयापई, ते तउ पंड भरीजईपापई। नाम जपइपरमेसर जापड, तूंकिम तेहनउ पातक काप|३ भगति जुगति नउ पइलउ पार,मईलाधांजिणवर आधार। जिण तूझ काईन लोपीकार, तिण तउ भगति करी सउवार॥४ नाथ अनंत तणउ 'जिनराज' लाधउ माझ सही मइ आज । आगम ने वचने मुनि 'राज' चालइ त उ द्यउसिवपुरुराज ॥५॥ (१५) श्री धर्मनाथ जिन गीतम् राग--गोडी ढाल- १ नमणी खमणी. २ सोई सोई सारी रेन गुमाई. भवसायर हुती जउ हेलइ, तार सह पोता नइ मेलइ । आगलि पाछलि इम जाणउ छउ, तउ इवड़उ स्या नइ तारणउ छउ ॥१॥ करम विवर देस्यइ जिण दीस्य,संजम पलिस्यइ विसवा वीसइ तइयइ फलस्य वछित मोरउ, तउ सउ तुम्हचउ नाह नहोरउ ॥२॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्तमान जिन चतुर्विंशतिका तारउ मुझ सरिखउ मेवासी, तारक विरुद खरउ तउ थासी। जे जाया छई जसनी रातइ, ते तउ जस लइ जिण तिण वातै ॥३॥ पहिली तउ सउ वीनति कीजइ, मोटां सुहठ पिण मांडीजइ । गिरुआ किम ही छेह न दाखई, जिम तिम सह को ना मन राखई॥४॥ भव भव देवल देवल भमीयउ,सिवसुखदायक कोइन मिलीयउ। धर्मनाथ 'जिनराज' सखाई, - करतां चढती दउलति पाई ॥५॥ (१६) श्री शांतिनाथ जिन गीतम् राग-धन्यासी मिश्र-हाजरनी जाति काल अनतानंत भव माहे भमतां हो जे वेदन सही। सुकहीयइ ले नाम बांभणपिण, गत हो तिथि वाचइनही।।१। पारेवइ सु प्रीति तइ जिम कीधी हो तिमतू हिज करइ । सांभलि ए अवदात, सहु को सेवक हो मन आसा धरइ ॥२॥ हुआयउ तुम्ह तीर, हरि करि मुझ पर हो सोम नजर करउ । न लहइ अ तर पीड़, अंतरजामी हो तुकिम माहर्रउ ॥३॥ यानउ दीनदयाल, दुखीया देखी हो जउ नावइ दया । कुण करस्यइ तुझ सेव,वहतइ वारइ हो जउ न करउ मया ॥४ लाधउ त्रिभुवन राज, जउ साची सी हो तुझ सेवा सधड । हुवइ समवड़ि "जिनराज'रूख प्रमाणइ हो जिम वेलउ वधश।५ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि (१७) श्री कुन्थु जिन गीतम् राग--मल्हार, वेलाल, जिम तिम हुआवी चढयउ जिनजी, मीटि तुम्हारी माहि । मत करज्यो वीजा वमु जिनजी, ल्यउ पोतइ निरवाहि ।।१।। हिव रे जगतगुरु सुध समकित नीवी आपीयइ । करुणागर हो करुणा करि कुथु कि, सेवक थिर करि थापीय॥०॥ पडयउ घणउ छइ पांतरउ जिनजी, जउ जोसउ करतूत । पिण प्रभु नइ पूठी हथइ जिन जी, सकल रहइ घर सूत ॥२॥ हि०॥ मइ खातउ मांडयउ नवउ जिन जी, तिण छइ पग पग धीज। दीठउ अणदीठउ करउ जिन जी, लाज रहइ तउ हीज ।।३।। हि० ।। ऊँची नीची वात मइ जिनजी, हु स्यु धालु जीव । मोटा वगस्यइ सउ गुनह जिन जी, साचड कहइ सदीव ॥४॥ हि० ।। चरण न छोडु ताहरा जिनजी, इण भव ए इकतार । 'राज' अछइ विवहारीयउ जिन जी, ____ करि चलतउ ववहार ॥५॥ हि०।। (१८) श्री अरनाथ जिन गीतम् __राग-प्रभावती-वेलाउल माराघउ अरनाय अहोनिसि,मन माहि राखउ लाख उमेद। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री वर्तमान जिन चतुर्विंशतिका मांगी कविजन जीभ म हारउ, ___ जउ लाघउ हुवइ गुरुमुखि भेद ॥१॥१०॥ आणइ नेह न जे गुण गाता, कडुए वचने नाणे रोष । तारउ तारउ कहिआ न तारइ, मांग्यउ दीयइ नही ते मोख ॥२॥आ० किणही विधि करतार न तूसइ, तउ ते केम करइ बगसोस । सेवक ही नइ जो वसि नावइ, साचउ तउ ते हिज जगदीस ॥३॥आ०।। प्रीति न पालइ ते किण ही सू , सउ अपराधे नाणइ द्वष । आप समान करइ ओलगता, पुरुपोत्तम नउ एह विसेप ॥४॥आ०11 कहि कहि नइजे भगति करावइ, ते 'जिनराज' म जाणउ देव । देवां माहि अछइ देवाचउ, __ कोडे गाने करिस्यइ सेव ||५||अ०॥ (१९) श्री मल्लि जिन गीतम् . राग-मोरीयानी देसी दासे अरदास सी परि करइ जी, सूल दीसइ नही कोइ। कान दे वात न सांभलइ जी, तउ निवाजस किसी होइ।।१।।दा० मल्लि मन माहि राखइ नही जी, भगतजन वीनवइ जेह । कोड़ि परि राग जउ को करइ जी, तू किम करइ सनेह।।२।।दा० आदर मानन को दीयइ जी, गनह बगस्यइ नही एक । आपणउ जाणि न करे पखउ जी, देहधर आवड़ी टेक ॥३॥दा०६ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति कुसुमांजलि भोलडो भगति करिवा भणो जी, आविस्यइ एकण वार । वार बीजी सहि नाविस्यड जी, ताहरो भगत तुझ दुवाराशदा० तउ पिण दुवार 'जिनराज' नइ जी, ओलगइ वड वडा भूप । अलख अगोचर तु सदा जी, सकल तू अकल सरूप ॥५॥द० (२०) मुनिसुव्रत जिन गीतम् राग-सोरठ कडखानी अधिका ताहरा हु ता अपराधी, ते पिण तइ हिज तारया। अम्ह सरिखा सेवक अलवेसर, वेगुनही वीसारया ॥१॥अ०।। आय दीयई बाथां भरि एका, अमरा पुर घई एका। मुझ वेला मुहंडउ मचकोड़ी, बइठउ तारक ते का ।।२।अ० सहु कोनई जउ राखइ सरिखा, पडइ न को पचतावइ । जगगुरु ही जोवइ बिहुनजरे, तउ बलियउ दुख आवई ॥३॥अ० तारया किता किता तू तारिस, तारइ छइ पिण तू ही। इण वेला जउतू अलसाणउ, बइसि रहु लउ हूँ ही ॥४॥०॥ भोल भगत दीयइ ओलभा, साहिव सहिता आया। मुनिसुव्रत 'जिनराज' मनाई, राखि लीयई छत्र छाया ।शम० (२१) श्री नमिनाथ जिने गीतम् सई मुख हुँ तुम्हनइ न मिली सक्यउ, तउँ सी सेवा थाइ। दूर थकां कीधी न वरइ पडइ, खबरि नं धइ को जाई ।स: प्रवचन वचन सुधारस वरसतउ, आगलि परषद- बार। समवसरण नयणे निरख्यंउ नही, सजल जलद अरणहार ।रास Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्तमान जिन चतुविशतिका जिम जिम गुरुमुखि प्रभु गुण सांभलु,तिम तिम तनु उलसंति परमेसर पीहर प्रापति पखड, परतिख केम मिलंति ॥३॥स० सुख दुखनी पिण वात न का कही, बि घडी बइसी पास। घाट कमाई पोता तणी, तउ किम पूजइ आस ॥४॥स०॥ समरि समरि रसना रस वस करड, नमि गुण गान रसाल ।। श्री 'जिनराज' जनम सफलउ करइ, इण परि इण कलिकाल ||शास०॥ (२२) श्री नेमिनाथ जिन गीतम् राग-रामगिरी सांभलि रे सांमलीआ सामी, साच कह सिरनामी रे। बात न पूछइ तु अवसर पामी, तउ स्यानउ अ तरजामी रे ॥१॥सा०॥ आगलि ऊभा सेवा कीजइ, पिण तु किमही ईन रीझ रे। निसदिन तुझ गायउ गाइजड, पिण तिलमात्र न भीजइ रे ॥१॥सा०॥ जउ अझनई भवसायर तारउ, तर स्युजाइ तुम्हारउ रे । जउ पोतानउ विरुद संभारउ, तउ कांइ न विचारउ रे ॥३॥सां०॥ हु स्युतारु हु तारक स्यउ, ईम छूटी पडी न सकस्यउ रे । जउ अझनइ सेवक त्रेवडिस्यउ, त वात इयां मांहि पड़स्यउ रे॥४॥सां०॥ ओछी अधिकी वात वणाइ, कहतां खोडि न काइरे। भगतक्छल 'जिनराज' सदाई, किम विरचइ वरदाई रे।।सासां०॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि (२३) श्रीपार्श्वनाथ जिन गीतम् राग - हासलानो जाति, मल्हार धन्याश्री मन गमतउ साहिब मिल्यउ पुरिसादाणी पासन रे । परतिख परता पूरवइ, सफल करइ अरदासन रे || १ || भविअण भावइ भेटीयर, ले साथइ परिवारन रे । आज विपम पंचम अरड, सुरतरु नउ अवतारन रे ॥२॥ भ० जे मुझ सरिखा मानवी, आणइ मन संदेहन रे । तेहनइ सेवक मू किनइ, समझावइ सुसनेहन रे ॥३॥ भ० ॥ जे समरण साचइ मनइ, करिस्यइ वार विचारन रे । तेहनइ प्रभु पुठी रखउ, थास्यइ सानिध कारन रे || ४ || भ० ॥ कीजइ चोल तणी परइ, परमेसर सु प्रीतन रे । श्री ' जिनराज' मिल्या पछी, चढइन वीजउ चीतन रे ||५|| भ० १६ (२४) श्री वीर जिन गीतम् राग - गउड़ी मल्हार भविक कमल प्रतिबोधतउ, साधु तणइ परिवार । गामागर प्रभु विचरतउ, मिलि न सक्यउ तिण वारो रे ॥१॥ चरम जिनेसरु, लीनउ सिवपुर वास । सबल विमासण, केम करु अरदास रे ॥ च० ||२|| हिव अलगउ जाई रहथउ, तिहां किण किम अवराय । चलतउ साथ न' को मिलइ, किम कागल दिवराइ रे ॥३॥ च० ॥ वात करूं ते सांभलइ, दूर थकउ पिण वीर रे । पिण पाछउ उत्तर न दथइ, तिणमो मन दिलगीर ॥४॥ च० ॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विहरमान विशति जिन गीतम् इम 'जिनराज' विचारतां, आव्यउ भाव प्रधान। तिण तू परतिख मेलव्यउ, हिव करि आप समान रे॥५॥च० ( २५ ) कलश राग-धन्याश्री सुभ वहिनी पिउडो परदेशी इण परि भाव भगति मन आणी, सुध समकित सहिनाणी जी। वर्तमान चउवीसी जाणी, श्री 'जिनराज' वखाणी जी॥११॥इ० जउ मूरति नयगे निरखीजई, जउ हाथे पूजीजई जी। जउ रसनाइ गुण गाइजइ, नर भव लाहउ लीजइ जी ॥२॥ई० युगवर 'जिनसिंहसरि' सवाई, 'खरतर' गरु वरदाई जी। पामइ जिनवर ना गुण गाई, अविचल राज सदाई जी ॥३॥इ० पहिली परति लिखाई साची, वारू गुरुमुखि वाची जी। समझी अरथ विशेषइ राची,ढाल कहेज्यो जाची जी।।४॥३०॥ केई गुरु मुख ढाल कहावउ, केई भावना भावउ जी। के 'जिनराज' तणा गुण गावउ, चढती दउलति पावउजी ॥५॥३०॥ ॥ इति श्री चउवीस जिन गीतम् ॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विहरमानविंशति जिन मात (१) श्री सीमधर जिन गीतम् राग-कलहरो देशी-पोपट चाल्यउरे मुझ हियड़उ हेजालुयउ, भाखर गिरणइ न भीति । आवइ जावइ रे एकलउ, करिवा तुम्ह सुप्रीति ।।१।। सीमंधर करिज्यो मया, धरिज्यो अविहड नेह । अम्हचा अवगण जोइ नइ, रखे दिखाडउ छेह ॥२॥सी०॥ तुम्हचइ भगत घणु धरणा, अरणहतइ इक कोडि । अम्हची मीटिन को चढयउ. साहिव तम्हची जोडि ॥३॥सी दक्षिण भरत अम्हे रहूं, पुखलावति जिनराज । कोइक दिन मिलिवा तणउ, दीसइ अछय अन्तराय ॥४॥सी० । दीधी दैव न पखड़ी, आकेम हजूर । पिरण जाररोज्यो रे वंदना, प्रह ऊगमतइ सूर ॥५॥सी०॥ कागलीयइ लिख कारिमी, कीजइसी मनुहारि ।, अम्हची एहीज वीनति, आवागमन निवारि ॥६॥सी०॥ परम दयाल कृपाल छउ, करिज्यो अवसर सार। श्री 'जिनराज' इसु कहइ, मत मूकउ वीसारि ॥७॥सी०।। (२) श्री युगमन्धर जिन गीतम् ढाल-१ सुरण सुरण वाल्हहा. २ अवला केम उवेखीये. नी देसी सई मुख हुन सकू कही, आडी आवइ लाज । रहि पिण न सकु वांपजी, इम किम सीझइ काज रे ॥१॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विहरमान विंशति जिन गीतम् वीरा चांदला | तु जाइस तिरण देस रे । जुगमंधर भरणी, कहिजे मुझ संदेस रे || २ || वी० ॥ तू अंतरजामी अछइ, जारणइ मन नी वात | तउ पिरण आस न पूरवइ, ए सी तुम्हची धात रे || ३ || वी० ॥ मई तउ करिवउ मो दिसा, तुम्ह सु निवड़ सनेह | फल प्रापति सारू हुस्यइ, पिरण मत दाखउ छेह रे ॥४॥ वी० ॥ तेहनइ कहि समझाइयइ, जे हुवइ आप अयारण । पिरण 'जिनराज' समर अछइ, अवर न एवड़ जाग रे | ५|वी० ( ३ ) श्री बाहु जिन गीतम् ढाल - करहइनी मन मधुकर मोही म्हयउ० वाह समापर बाहु जी, जिम मो मन थिर थाइ रे । जिरण तिरण बांह विलंवतां, मान महातम जाइ रे ॥ १ ॥ बां० ॥ सबला नइ सराइ थियइ, गंजी न सकइ कोइ रे । पाधरसी पाछल पडयां, कारिज सिद्धि न होइ रे ||२||बा० ॥ तुम सरिखउ थाय वलू, करइ पखउ जगनाह रे । तउ नार सुपनंतरइ, हु केहनी परवाह रे ॥ ३ ॥ बा० ॥ सरणागत वच्छल तुम्हे, हु सरणागत सामिरे । जे मन मानइ ते करउ, स्युं कहीयइ ले नाम रे ॥३॥ बा० ॥ जउ सेवक करि जारणस्यउ, तउ इतलइ ही मुझ राज रे । मीटइ हो मोटां तरणी, जीवीजइ 'जिनराज' रे ||५|| बा० ॥ (४) श्री सुबाहु जिन गीतम् ढाल - कर जोडो आागल रही ए जाति • सामि सुबाहु जिणिद नउ, जइयइ मुख निरखेसन रे । १६ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि सकल मनोरथ मालिका, तइयइ सफल करेसन रे ॥१॥ धरम जागरीया जागतां, समरंता गुण ग्रामन रे। पाणी बलि एहव रह्य उ, माहरउ मन परिणामन रे ॥२॥ध० अमीय समारणा बोलड़ा, बारह परषद साथन रे। . साभलि भव थी ऊभगी, व्रत लेइम्प्र भु हाथन रे ॥३॥१०॥ जनम लगइ पासइ रही, भगति करिसुनिसदीसन रे । तप जप सजम पालिसु , मन सुध विसवा वीसन रे ॥४॥ध० आपण पइ जइ गोचरी, आणिसु सुट्ट आहारन रे। साधु सहु नइ साचवी, देइसु देह आधारन रे ।।५।।१०।। च्यारि करम चकचूरि नई, पामि केवल नाणन रे। श्री 'जिनराज' पसाउलइ, चढिस्यइ बोल प्रमाणन रे॥६॥ध० (५) श्री सुजात जिन गीतम् ढाल-महिमागर नीजाति, आज निहेजो रे दोसइ नाहलो तू गति तू मति तू साच उ धणी, तू बधव तू तात । तुझ सम अवर न को मुझ वालहउ, समरू सामि सुजात । १ तू ० हरि हर ब्रह्मादिक आराधता, न टलइ गरभावास । तिण इण भव कीधी मइ आखडी, सीस नमावण तास॥२॥तू ० जे पोते परनी आसा करइ, ते स्यू पूरइ आस । संतोष्यउ पिण रांक न दे सकइ, अवचल लील विलास।३।तू ० अतरगत मन सुआलोचता, ए कीघउ निरधार। , तुझ विण देव न को बीजउ अछइ, शिवसुखनउ दातार ४ातू . करउ महिर भव जलधि लहिर थकी, प्रवहण सम 'जिनराज'। जउ कर ग्रहि सेवक नइ तारिस्यउ,तउ हिज रहिस्यइ लाजश्तू Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विहरमान विशति जिन गीतम् (६) श्री स्वयंभ जिन गीतम् देशी-नणदलनी जात सामि स्वयप्रभू सांभलउ, करिह निवाज सकाइ । जगजीवन । विरुद गरीब निवाजनउ, जिम जग जस थिर थाइ ज०१सा० पोताना अरिअण हण्या, तिण अरिहंत कहंत ।ज०॥ जउ मुझ अरिदल निरदलउ, तउसाचउ अरिहत ।।ज०॥रसा० तू स्यु तारइ तेह नइ, जे सूधा अणगार ज०। तारक विरुद खरउक रउ, तउ मुउ सरिखउ तार ||ज०१३सा० अतरजामी माहरउ, तू किण कारण होइ ।ज० अतरगति लेवा भणी, न दियइ कागल कोइ ज०॥४॥सा०॥ नेह गहेला मानवी, भावइ तिम भासंति ज०॥ भारी खम 'जिनराज' जी, केहनइ छेह न दिति ।ज०५सा० (७) श्री ऋष मानन जिन गीतम् देगी-पाज धुरा हुँ धुंधलउ, ए जाति मई तउ ते जाण्यउ नही साहिव, जेसु तुम्हचइ रंग । तउ हो छाडी न को सकइ, साहिब पाणीवल तुझ सग ॥१॥ कोडि गाने हेजालूये, हेले मुझ गुण गेह । फेरि हेलउ न को तईदीयउ, साहिब तू साचउ निसनेह॥२॥को० आदर मान न.को दीयइ, साहिब करइ न का बगसोस । तउ पिण ऊभा ओलगइ साहिब, इन्द्रादिक निसदोस ॥ ३ ॥ को० ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जिनराजसूरि कृति-कुसुमांजलि ए माहरउ ए पारकउ, साहिव न करइ कोइ विचार । तउ पिण आवी नइ जुडड, साहिब आगलि परषद वार ।४।को० सुख दुख पिण पूछइ नही, साहिव तउ पिण तुम्ह सुप्रीति । ऋषभानन सहु को करड, साहिब ए तुझ नवली रीति ।५।को० नयणे नयण निहालता, साहिव मोहइ सहुअ समाज । आपणपइ अलगउ रहइ, साहिब मोह थको 'जिनराज' ।।को०, (८) श्री अनन्तवीर्य जिन गीतम देशी- सदगुरु माहरइ नादइ भेहीयो. २ नारी अब हमकु मोकलो. अनंतवीरिज मइ ताहरट, नाम सुण्यउ जिनराज । हिव जिम तिम वल फोरवी, आपउसिवपुर राज ॥ १०॥ जउ हू जोऊ मो दिसा, तउ न मिलइ तिल मात । पिण तो चीतवतां सहू, वरइ पडे सी वात ||२||अ०।। जे मइ कोधी नव नवी, करणो कोडि प्रकार । तिण हु तो प्रभु छोडवइ, तउ हुवइ छूटकवार ॥२॥१०॥ भवसायर बीहामणउ, जिहा किण वाट न घाट। तूं तारइ तउ हिज तरू, सवला ऊझड़ वाट ॥४॥०॥ छोरू सहिज उछाछला, कोडि विणासइ काम । पिण मावीत न मिट सकइ, जिम तिम परइ हाम ॥५॥१०॥ (९) श्री विशाल जिन गीतम् देशी-प्रादरि जीव क्षमा गुण आदरि आपणपइ हूँ आवी न सकू, मूक्यउ छइ परधान जी। जउ साची सेवा सारइ, तउ राखेज्यो वान जी ॥१॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विहरमान विशति जिन गीतम् मुझ मन तुझ चरणे लयलीनउ, जिम मधुकर अरविंद जी। पाणी वल पिण पास न छंडइ,लीणउ गण मकरंद जी ।।२।।मु०॥ चपल पणइ चूकस्यइ तउ पिण, मत छोडावउ तीर जी। तू तर ऊतर आपइ त्रटकी, गरुआ हुवइ गभीर जी॥३॥मु०॥ बोजा नइ बगसीस करंता, मत मूकउ वीसारिजी। पति वंचउ परहरउ पातक, अवर न छइ ससारि जी॥४॥मु०॥ वात सह नउ ए परमारथ, सांभलि सामि विशाल जी। श्री 'जिनराज' निरास म करिज्यो, करिजो का संभाल जी।।५।।मु०॥ (१०) श्री सूरप्रभ जिन गीतम् देशी-मेघमुनि काइ डम डोलइ रे कीजइ छइ जेहना सह जी, वचने वचन प्रमाण । ते जो आपणपइ मिलइ जी, तउ हुवइ कोडि कल्याण ॥१॥' सूरप्रभु अवधारउ अरदास, जिम तिम पूरउ मुझ आस ॥सू०॥ देई तीन प्रदक्षिणा जी, आणी अधिक जगोस । प्रभु आगलि ऊभउ रही, प्रश्न करू दस वीस ।।२।।सू०॥ वलि पूछू हिव केतलउ जी, भमिवउ छइ ससार । आंधी ना सटइ पडथा जी, भमतां नावइ पार ॥३॥सू०॥ पोतानी करणी पखइ जी, तारी न सकइ सामि । पिण वाटइ वहता सहू जी, पूछ कितले गांम ॥४॥सू०।। जिण दिन प्रभुदरसण हुस्यइ जी, लेखइ पड़स्यइ तेह। ते धन दिन 'जिनराज' ना जी, इण परिवउलइ जेह ।।५।।सू०॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जिन राजसरि रति-धुनुमा लि (११) श्री वज्रधर जिन गीतम टाल-पीडानी एक सवल मन नर धोखउ टल्या , ___ लाधड साहिब चतुर सुजाण रे। जेहु भगति करिसु ते जाणिस्यइ, वज्रधर केवलनाण प्रमाण रे ॥ए०॥१॥ दूर थकउ पिण जउ साच मनइ रे, सुमरण करिस्यु वार विचार रे । तउ पिण ते अहल्यउ जास्यइ नही रे, ____ फलस्य भव भव कोड़ि प्रकार रे ।।ए०॥२॥ भतरगति अंतरजामी लहै रे, ते प्रभु साचउ सुख नउ बोज रे । जे गुण नइ अवगुण जाणइ नही रे, तेसु निसदिन करिवउ धीज रे।।ए०॥३॥ चूक पड़इ जउ किण ही वात नउ रे, ___ तउ पिण न धरइ तिलभर रीस रे । तूसइ पिण कईयइ रूसइ नही रे, ए मुझ प्रभुनी अधिक जगीस रे ।। ए०॥४॥ ते तउ कहीयइ नाह न कीजीयइ रे, जेहनइ आठे पहर अंधेर रे। श्री जिनराज' अवर सुं मीढता रे, मेरु अनइ सरसव नउ फेर रे ॥ए॥५॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विहरमान विशति जिन गीतम् (१२) श्री चन्द्रानन जिन गीतम् ढाल-धरम होयइ घरो. समाचारी जूजूई रे, आवइ मन सदेह । सी साची करि सरदहु रे, सबल विमासण एहो रे ॥ १ ॥ चंद्रानन जिन, कीजइ कवण प्रकार रे । २५ इग दूसम अरइ, मइ लाधउ अवतार रे ॥ २॥ च०॥ आगम बल तेहव नही रे, ससय पड़े सदीव | सूधी समझ न का पड़े रे, भारी करमा जीव रे ॥ ३ ॥ च० || दृष्टिराग रातो अछइ रे, केहनs पूछें जाइ रे । आंपणपउ थापइ सहु रे, तिण मो मन डोलाई रे ||४|| चं० ॥ विहरमान जिन संभली रे खरिय मिलण मन खंत | हुवइ दरसण 'जिनराज' नउ रे, तउ भांजइ मन भ्रांत रे |५|चं० (१३) श्री चंद्रबाहु जिन गीतम् देशी - श्रावउ म्हारी सहिया गच्छपति वादिवा. जोवर म्हारी आई इण दिसि चालतउ है, कागलीयउ लिख दीजइ हे । अ ंतरजामी थी अलगा रहता है, कागल वाही कीजइ हे । १ जो० | साहिबीयउ तउ छइ वइरागीयउ हे, फेर जबाब देस्य हे । पिण प्रभुनी सेवा मांहे रहया है, सहजइ काज सरेस्यइ हे ||२||जो० ॥ साहिव नइ अम्हची खप का नथी हे, पिण गरज अम्हारइ हे । जउ साचा सा भगति कहावीयइ हे, तउ भव जलनिधि तारइ हे || ३ ||जो० ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ hc २६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि साजणिया पिण दुरगति जे दीयइ हे, तिण थी दूर रहीजइ हे । छोडावइ जे गरभावास थी हे, तिण सु सकति मलीजा हे ॥४ाजो०॥ नामजपीजइ श्री चंद्रवाह नउ हे, निसिदिन ध्यान धरीजइहे। ते सलहीयइ जइ कर 'जिनराज' नउ हे, जिण करि लेख लिखीजइ हे ॥शाजो०॥ (१४) श्री भुजंगम जिन गीतम ढाल-१ श्री विमलाचल सिर तिलउ, २ दीवाली दिन प्रावियउ सामि भुजंगम ताहरउ, नाम जपइ सहु कोइ । पिण तेहनी परि तइंतजी, तिण मुझ अचरिज होइ ।सा। तूं सपगउ पग रोपिनइ, चाढइ बोलि प्रमाण । आगम वचनइ तूंचलइ, न चलइ हीया त्राण ॥२॥सा०॥ गयवर गति चालतउ, न धरई तिल भर बांक । मोर गरुड़ सेवा करइ, नाणइ केहनो सांक ॥३॥सा०॥ दो जीहउ पिणतूनही, न धरई विष लवलेस । अमीय समारणे बोलड़े, दयइ सहु नइ उपदेस ॥४ासा०।। अथवा नाम भुजंगम मइ, साच कहइ कविराज । अवर सहू सपलोटीया, तू मणिधर 'जिनराज' ॥शासा०॥ (१५) श्री नेमि जिन गीतम् हाल-१पास जिरगद जुहारीयइ जी,२ वीर वखाणो राणी चेलणा जी नेमि प्रभ माहरी वीनती जी, सांभलउ धरम धुरीण । फेरव तुझ विचइ तेहवउ जी, को नही जाण प्रवीण ॥१॥ हुँ तुझ दास तूं मुझ धणी जी, आपणई सगपण एह । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्री विहरमान विशति जिन गीतम् २७ ते भणी स्यु कही दाखवजी, जुगत जाणउ करउ तेह ॥२॥ भगत तुझ अवर द्वारांतरइजी, आस पिण पूजतां जाइ । आप विमासी नइ जोइज्यो जी, लाज ए केहनइ थाइ ।।ने० पारथिया पहड़ई नही जी, उत्तम एह आचार । निपट उवेख मूकइ नही जी, नेट कांइ करइ सार ॥४॥ने। आपण ऊपरि जे रहइ जी, अवर करइ नही सामि । ते 'जिनराज' निवाजीयइ जी, आपणउ अवसर पामि ॥शाने० (१६) श्री ईश्वर जिन गीतम ढाल-पास जिरणद जुहारिइय ईसर जिन वइरागियउ, रागी थी अधिक दिवाजइ रे। जिण परि प्रभु वखाणियइ, ते परि सगली तुझ छाजइ रे ।१।ई० तू क्रोधी क्रोधइ चढयउ, अरियणना कंद नकंदइ रे। अभिमानी सिर सेहरउ, चालइ आपणइ छदइ रे ॥२॥ई० मायावी माया रची, सहु को ना तू मन वंचइ रे । तू लोभी गुण मेलवी, लाख गाने ले संचई रे ।।३।।ई०।। सेवक पिण पोतइ तणा, तु जोवइ नजरि न देई रे। देई कान न साभलइ, किणहीनइ वात कदेई रे ॥४॥ई०॥ अलख अगोचर तू जयउ, किणही तुझ अत न पायउ रे । भगतवछल जगराजीयउ, जीतउ पिण 'जिनराज' कहायउ रे ॥शाई०॥ (१७) श्री वीरसेन जिन गीतम् ढाल-वहिली हो वलण करेज्यो इण दिसइ. मुझनइ हो दरसण न्याय नतू दीयइ हो, नवलो छइ मुझरीति । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ जिनराजसूरि- कृति - कुसुमांजलि नेसु हो तुम्हचइ निसदिन रूसणर हो, माहरइ तिण सु ́ प्रीति ॥ १ ॥ नेहनइ हो तर वनवास दोयउ हुतउ हो, घरतउ नवि बेसास सेहन हो आदर सुतेडाविनइ हो, मइ राख्यउ छइ पास ||२|| जिण सु हो कईयs मीटिन मेलणउ हो, करतउ कुरुख सदीव । मइ तिण भुं हो एकारउ माडियउ, लागउ माहरउ जीव |३| वयण न लोपइ तू पिण जेहनउ हो, काम काढू पिण जेह । नाक नमिण पिणन करू तेहनइ हो, परठि अछइ मुझ एह ॥४ मुझकरणी साम्हउ न जोइयइ हो, वीरसेन 'जिनराज' । पर दुख कातर विरुद विचारनइ हो, दरसण दे महाराज १५ । (१८) श्री देवजस जिन गीतम् देशी - वेग पधारउ महलां थी सरंमुख साहिबनाई मिल्या, फेर पडइ कुजकोइ ओलगडी अलग रहयां, सदेसड न होइ ॥ १ ॥ देवजसा दरसण दीयउ, ए मुख खरी रुहाड़ि । अतुली बल जिम तिम करो, एह प्रमाणइ चाडि ||२||दे० || जउ छोरु करि जागस्यउ, तउ पूरवस्यइ लाडि । मलवेसर इण वातनउ, मत को जाणउ पाड ||३||दे० ॥ - मन नी वात सहु कहुं, जउ भेटु जगनाथ । कहिवउ तउ छइ मुझ वसू, करिव छइ तुम्ह हाथ || ४ || दे० बहती वात सहू करs, पर पूठइ 'जिनराज' । पिण मुरइ न मिटी सकइ, दीवानी हुवइ लाज ॥५॥ दे० ॥ - Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विहरमान विशति जिन गीतम् २६ (१९) श्री महाभद्र जिन गीतम् ढाल-मन मोहनीयइ नी देसी लहि मानव अवतार, गुरु मुख त्रिविध त्रिविध व्रत ऊचरु । न पलइ निरतिचारि, परभव नउ डर तिल भर नवि धरू ॥१॥ ए प्रभ आगलि जे वीतग ते भाखोइ, मनका सल्ल कूड कपट स्य राखियइ। पर अवगुण चिहुंमांहि, आणी सांक न कामइ भाषतइ । दीधा कूड़ कलंक, पोतानइ स्वारथ अण पूजतइ ।।प्र०॥ दय पर नई उपदेस, आगमने वचने अति आकरू । जाणइ लोक महंत, पिण पोतइ ते मूल न आचरूं ॥३॥प्र०॥ विनडइ च्यार कषाय, ते परि हु कहि न सकू लाजतउ । सदगति करणी सार, दीसइ छइ अलगी प्रभु आजतउ॥४॥प्र० एक अछइ आधार, सरदहणा साची प्रभु ऊपरई। महाभद्र 'जिनराज' ते प्रभु जे सेवक नइ ऊधरई ॥५॥०॥ (२०) श्री अजितवीर्य जिन गीतम् दाल -सुखदाई रे सुखदाइ रे-ए देशी मिलि आवउ रेमिलि आवउ रे, श्रीअजितवीरज गण गावउ रे ॥मि. अति सुस्वर सधव सहेली रे, मन मेलू भगति गहेली रे। मिथ्यामत दूर रहेली रे, बइसउ दस पांच महेली रे ॥१॥मि० परतिख प्रभु नयण नदीसइरे, मेलउ न दीयउ जगदीसइ रे। परपूठइ ध्यान धरीसइ रे,तउपिणभव जलधितिरीसइरे।रमि, रावण वीणा धरि खंधइ रे, गण गातउ विविध प्रबंधई रे। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति- कुसुमांजति टूटी तातइ नस सधइ रे, तिण गोत्र तीर्थकर वधइ रे || ३मि० चित्त भगति वसई पूरीजइ रे, तर असुभ करम चूरीजइ रे ! शिवपुर नइ हाथउ दीजड रे, मानव भव लाहउ लीजइ रे ॥ ४मि. ते हिज जीहा सलहीजइ रे, जिण प्रभु नउ सुजस कहीजइ रे । 'जिनराज ' सखाई कीजइ रे, मनवंधित सुखपामीजइरे ॥ ५मि (२१) श्री बीस विहरमाण जिन गीतम् ढाल - लोक सरूप विचारो ए देशी ३० वोस जिगोसर जगि जयवता जाणियइ रे, अढीदीप मझार । धन ते गामागर पुर प्रभु विचरs जिहां रे, साधु तणइ परिवार ॥१॥ वी० ॥ वासुदेव झलदेव भगति नित साचवइ रे, लहिवा भवजल तीर । चउरासी लख पूरब सहुनउ आउखउ रे, गुण गरुआ गंभीर ॥२॥वी० ॥ वृप लाछन सोभित तनुनी अवगाहना रे, पणसय धनुष प्रमाणि । समवसरण वारह परपद प्रतिबोधता रे, जगगुरु अमृत वाणि ॥३॥ वी० || धन धन ते जोहा जिण प्रभु गुण गाइयइ रे, आणी मन आनंद । धन धन ते दिन जिण दिन भेटीयइ रे, विहरमाण जिणचंद ||४|| वी० ॥ 'खरतर' गच्छ युगवर 'जिनसिंह सूरिद' नउ रे, सोसइ धरीयइ जगोस । श्री ' जिनराज वचन अनुम रइ सथुण्यारे, ܝܕ विहरमारण जिन वीस ॥५॥वी० ॥ इति श्रीजित राजसूरि कृत वीस विमान जिन गीतम् Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अषमादि तीर्थकर मात श्री ऋषभदेव बाललीला स्तवन मन मोहन महिमानिलउ रे, जीवन प्राण आधार रे नान्हडीया। जोवत नयन थकित भए रे, सुंदर रिपभकुमार' रे ना०॥१॥ तेरी पूतम लेउ वलईया, जीवउ तेरे बहिनरु भईआ । जंपइ मरुदेवा मईआ, मेरे अंगणि रे खेलण आवि रे ना०॥ मेरउ दूध न तूं पीय रे, अमृत रस लयलीन रे ना० मेरइ मनि तू ही वसइ रे, ज्युरयणायर मीन रे ना०॥॥२॥ रोम रोम तनु हुलसइ रे, सूरति पर वलि जाउ रे ना० कबही मोपइ आईयइ रे, ह भी मात कहाऊ रे ना०॥३॥ पगि घूघरडी घमघमइ रे, ठमकि ठमकि धरइ पाउ रे ना बाँह पकरि माता कहइ रे, गोदी खेलण आउ रे ना०॥४॥ चिवकारइ चिपटी दीयइ रे, हुलरावइ उर लाय रे ना० बोलइ.बोल जु मनमनारे, द तिआ दोइ दिखाइ रे ना०॥५॥ तिलक वणावइ अपछरा रे, नयणा अजन जोइ रे ना० काजल को विदो दियइ रे, दुरजन चाख न होइ रे ना०॥६॥ सोहई चउ सिर सेहरउ रे, चंपक लाल गुलाल रे ना० सीस मुगट रतने जड़यउ रे, भाल 'तिलक सुविसाल रे ना०॥७ १ कुडल झाक झमाल Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसराजरि-कृति-कुसुमांजलि घाट घड़ी रतने जड़ी रे, कनक दडी ले उट रे ना० चोट करइ नीकइ तकी रे घोटांकइ सिर दोट रे ना०॥८॥ चटकइ चटपट चालवइ रे, बगू लटू फेरि रे ना० रंग रगोली चक्रडी रे, फेरइ नीकइ घेर रे ना०111 बहिनी लूण उतारती रे,अइसइ द्यइ आसीस रे ना० चिरजीवे तूनानडा रे, कोडाकोड़ि वरीस रे ना०॥१०॥ बाललीला जिनवर तणी रे, सवही कइ मन भाई रे ना० 'राजसमुद्र' गुण गावतां रे, आणंद अंग न माइ रे ना०॥११॥ श्री ऋषभ जिन कर संवाद राग-सामेरी रिषभ जिन निरसन रान विहारो पाणि परस्पर वाद मंडाणउ, तिण भोजन विधि वारीरि० कनक दान मई वंछित दीनउ, जगमई सोह वधारी। अंत पंत ऊन मागत लज्जा, क्यु करि रहई हमारी ॥२॥रि० जिनवर पूजा लगन थापना, भोजन परणण नारी। तिलक करण भूपति अभिषेकड, इहां तउ हूं अधिकारी ॥३रि० इम उत्तम कारिज बहु कीने, तिण ए विधि न पियारी। दक्षिण कर वामइ प्रतइ यु कहइ, तु होइ भिक्षाचारी ॥४॥रि. वाम कर तव अइसइ बोलत, तु झूठउ अहकारी। जोतिप मूल गणत अभ्यासइ, मुझ अधिकाई सारी ॥५॥रि० जग जीवन कारण कण वावरण, लणिवा हु उपगारी । जब संग्राम मुखइ भागइ तु, तब हु रक्षाकारी ॥६॥रि०॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विमलाचल आदीश्वर स्तवनम् वच्छर लगि वादइ जिन जंपइ, तुम्ह झगरउ मुझभारी । आदिदेव कीने दोऊ राजी, बहु विधि जुगति दिखारी | ७० गिरवर धीर समीर ज्यु विहरत, प्रभु आए पदचारी 1 श्री श्रीयांसकुमर पडिलाभे, पूरब जा ( ति संभारी) ॥८॥रि श्री बिमला चल आदीश्वर स्तवन ३८ श्री 'विमलाचज' सिर तिलउ, आदोसर अरिहंत । युगला घरम निवारण, भय भंजण भगवंत ॥ १ ॥ श्री० ॥ मुझ मन उलट अति घणउ, सो दिन सफलगिगेस । सामी श्री रिसहेसरू, जब नयणे निरखेस ॥ श्री० ॥२॥ जंगम तीरथ विहरता, साधु तणइ परिवार । आदि जिणंद समोसरया, पूरब निवारणु वार ॥ श्री० ॥३॥ अचिरा विजयानंदन, जग वंधव जग तात । इण गिरि चउमास रह्या, थिवर कहई ए बात । श्री० ॥४॥ पामइ शिवसुख सासता, गणधर श्री पुंडरीक | पुंडरगिरि तिण कारणइ, भगति करउ निरभीक || श्री० ॥५॥ नमिनइ विनमि सहोदरू, विद्याधर बलवंत । शत्रु जय शिखर समोसरथा, जे गिरुआ गुणवंत ॥श्री०||६|| थावच्चो मुनिवर शुक, सहस सहस परिवार । 'पंथक' वचने जाजियउ, सो सेलग अणगार || श्री० ||७|| 'पांडव' पांच महाबली, सुणि यादव निरवाण । से सोघा सिद्धाचलइ, सुरवर करइ वाखण ॥ श्री० ॥८॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-छति-कुसुमांजलि इम सीधा इण डूंगरइ, मुनिवर कोडाकोडि । पाजइ चढतां सांभरइ, ते प्रणमू कर जोडि ॥श्री०॥६॥ जे बाघणि प्रतिवूझवी, ते दरवाजइ जोड। गोमुख यक्ष कवड़ मिली सानिधकारी होइ॥श्री०॥१०॥ विधि स्युजे यात्रा करइ, सुरनर सेवक तास । 'राजसमुद्र' गुण गावतां, अविचल लील विलास ॥श्री०॥११॥ शत्रुजय (विमलगिरि ) तीर्थ स्तवन सांभलि हे सखि सांभलि मोरी बात चालउ हे, सखि चालउ तीरथ परसरई। साचा हे सखि साचा साजण तेह साथइ हे, सखि साथइ जे इण अवसरइ ॥१॥ तीरथ हे सखि तीरथ 'विमलगिरिद', देखण हे सखि देखण तरसइ आखड़ी। किम करि हे सखि किम करि आयउ जाय, दीधी हे सखि दीधी देव न पांखडी ॥२॥ मारगि हे सखि मारगि सहियर साथि, चालण हे सखि चालण पगला चलवलइ।। भेटण हे सखि भेटण आदि जिणंद, मो मनि हे सखि मो मनि निसदिन टलवलइ ॥३॥ सूती हे सखि सूती पडू जंजाल, ___जाणु हे सखि जाणु भेट हुई सही । हेजइ हे सखि हेजइ नयण भरॉइ, ... : जागु हे सखि जागु तब दीसइ नही ॥४॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शबुजय (विमलगिरि) तीर्थ स्तवन झीणो है सखि झीणी ऊडई खेह, मइला हे सखि मइला कापड थाइस्य। निरमल हे सखि निरमल थास्यइ देह, पातक हे सखि पातक मल सवि जाइस्यइ ॥५॥ सो हिज हे सखि सो हिज सफल विहाण, - जिण दिण हे सखि जिणदिन डुगर फरसौया । लीजइ हे सखि लीजइ लखमी लाह, सोवन हे सखि सोवन दाने वरसियइ ॥६॥ दोसइ हे सखि दोसइ आहोठाण, तिम तिम हे सखि तिम तिम आदिल संभरइ। प्रभणइ हे सखि प्रभणइ 'राजसमुद्र', अनुपम हे सखि अनुपम ते सिव सुख वरइ ॥७॥ शत्रुजय (विमलगिरि) तीर्थ स्तवन मन मोहयउ हे सखी गरुयइ 'विमल' गिरिद, खांति करी धन खरचीयइ। म०। आदिल आदि जिणिद, चंदन केशर चरचीयइ म०1१।म 'पालीताई' पाजि, ललितासर लहिरा लियइ म०) माता श्री मरुदेवि, दरिसरण सुख संपति दीयइ म०।२। चौमुख चंवरीः च्यार, 'खरतर वसही' देखियइ मि०॥ पगला राइण पास, भाव भगति धर भेटियइ ।म०।३। जिहां सीधा मुनि कोड़ि, चंगी चेलन तलावड़ी म . अनुपम उलखाडु झोल, सिधवड़ नी साखा बड़ी मि०॥॥ जूना अइठांगइ, जुगतइ फिर फिर जोइयइ ।मा पभणइ 'राजसमुद्र', मल कसमल सब धोइयइ म०॥५॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृति - कुसुमांजलि बिमल गिरि ( श्री ऋषभदेव) वधामणा गीतम् राग - गुंड मल्हार भाव धरि धन्य दिन आज सफलउ गिरणु, ३६ आज भई सजनी आणद पायो । हरख धरि नजरि भरि 'विमलगिरि' निरख करि, कनक मणि रजत मोतिने वधाय ॥ १॥ ኢ पग पनि उमंग धरि पंथ नितु पूछतां, धन्न दोउ चलण जिण चलत आयउ । आज धन दोह जागी सुकृत की दशा, आज धन जोह जिण सुजस गायउ || २ || दूर दूरगति टरी यात्र विधि सुकरी, i पुण्य भंडार पोतड़ भरायउ । वदत मूनि 'राज' मनरंग सुरगिरि शिखरि ऋषभ जिरणचंद मुरतरु कहायउ || ३ || श्री विमलाचल यात्रा मनोरथ गीत राग - धन्यासी बरग बिछोहउ परिहरो, ध्यान धरइ निस दीस रे । पिण 'विमलाचल' वेगलउ, किम पूरवु जगदीश रे ॥१॥ सुरगु सुर मो मन करहला, काई सचीतउ आज़ रे । जउ मुझवंखत लिखित अछ, तर भेटिमु जिनराज रे ॥२॥ माम जपे जगगुरु तणर, होया म छंडे आस रे । 1 अवसरि वंछित परिसु, करिजे लोल विलास रे ॥३॥ साथ संवल दे करी, सइगू मेलि सुसाथ रे ) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री विमलाचल विधि यात्रा गीत जउ चालिस तू मारगइ, तउ भेटिसु जगनाथ रे ॥४॥०॥ सोरठ देश सरस अछइ, चरिजे नागरवेलि रे। रिषभ चरण लय लाइनइ, करिजे नव नव केलि रे ॥५॥सु०॥ कडुआ जंगल रूखड़ा, जे फल मेल्हया चाखि रे। ते तुमत संभारिज्ये, सुरतरु सुचित राखि रे ॥६॥ सु०॥ रयणि सचेतन तु रहे, दिन म करे वेसास रे। ऊभा दुरजन मूकिनइ, जास्यइ सही निरास रे ॥७॥सु०॥ देखी नइ पग माडिजे, मूकि मूल सभाव रे। अतर जामी सु सदा, राखे अविहड़ भाव रे ॥८॥सु०॥ पाच महाजन वसि करी, लाख वधारे लाज रे।। वइगउ फिरि घरि आविजे, इम जंपइ 'जिनराज' रे॥॥०॥ श्री विमलाचल विधि यात्रा गीत राग-प्राशा सुण सुण वीनतड़ी प्रिउ मोरा रे ललना तीरथ भेटण विलंब न कीजइ, इतना करू निहोरा हो ललना ॥१॥ 'विमलाचल' निज नयण निहारउ, यात्रा करण पाउधारउ हो ल०। आदिल आदि जिणंद जुहारउ, दुरगति दूर निवारउ हो ल०॥२॥ . प्राशुक एक भगत आहारी, सकल सचित परिहारो हो ल० । मूको निज मन हूंती नारी, पंथ चलउ पदचारी हो ल० ॥३॥ पूजा करहु त्रिकाल संभारी, सूधा समकित धारी हो ल० । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ जिनराजरि-कृति-कुसुमांजलि काल उभय पडिकमणउ सारी, रातइ भूमि संथारी हो ल०॥४॥ साथइ सद्गुरु पंचाचारी, श्रावक पर उपगारी हो ल० । गायन जिनवर ना सुविचारो, गुण गावै विसतारी हो ल०॥५॥ गाम जीयइ जिणहर जाणीजइ, भावइ ते प्रणमीजइ हो ल । प्राशक दान सुपात्रइंदीजइ, नर भव लाहउ लीजइ हो ल०१६॥ यात्र करउ इम अवसर पामी, तउ साचा शिवगामी हो ल०। 'राजसमुद्र' प्रभु अंतरजामी, श्री रिसहेसर सामी हो ल०॥७॥ श्री शत्रुजय यात्रा मनोरथ गीत सखी आणु हे नालेर रारूंख के, आणु सदाफ्ल ऊजलो। हूंपूछ हो सखिजोइस सुजाण के, आपइ मुहूरत अति भलो।१ सखि मो मन हे ऊमाहो एह के, जाणू विमलगिरि जाइयइ भेटीजइ हो सखि नाभि मल्हार के,......... (अपूर्ण) __ आलोयणा गर्भित । श्री शत्रु जय स्तवनम् कर जोड़ी इम वीनव, मोरा सामी हो साँभलि अरदास । बात कहीजइ तेहनइ, जे पूरइ हो प्रभु मन नी आस ।क०॥१॥ 'विमलाचल' सिर सेहरउ, मरुदेवा हो नंदन अवधारि । मुकी मननो आमलउ, आलोहो पातक संभारि ॥क०॥२॥ जनम मरण कीधा घणा, ते कहताँ हो किम आवइ पार। जे वेदन पामी तिहाँ, ते जाणइ हो तू हिज करतार ॥०॥३॥ आरिज देसइ अवतरी, मइ लाघउ हो सद्गुरु मंजोग । छांडया मइ अछता छता, कायायइ हो पिणविहि संजोग।का। जाण अजाण पणइ करो, मई लोधउ हो संयम नो भार। .. Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीशत्रुजय (मालोयणा) स्तवन तेहिव सूधउनविपलइ, किम कोजइहो ए सबल विचार।क०।५। लोक अवर जाणइ नही, तू जाणइ हो सहु कोनो धात । तुझ अर्गाल स्यु राखीयइ, कर जोड़ी हो कहु वीतक वात ॥०॥६॥ त्रिविध त्रिविधि व्रत ऊचरी, गरु साखइहो दिन मांहि छबार। हेलायइं भाज्या वली मझलागा हो केता अतिचार ॥०॥७॥ आप सवारथ राचतइ, मन माहे हो नाणी पर पीड़। जीव विचारउ जाणिस्यइ, जव थास्यइ हो भमतां भव भीड़।।क०॥८॥ पर अवगुण अछता कह्या, गुण लेवा हो ते तउ रहउ दूर । अछता गुण पोता तणा, विस्तारी हो कहुं लोक हजूर।का। परधन लीधउ अपहरी, मइ राखी हो थांपणि करि कूड़। दुरजन वचन सहया नही, ___ किम थास्यइ हो निज करम नउ सूड ।।क०॥१०॥ जउ हूं काया वसि करू', चित चूकइ हो तउ पणि ततकाल । पाचे इंद्रिय मोकला, मोरा सामीहोए दूसम काल ।।क०॥११॥ विषयामिष रस नइ वसइ, लपटाणइ हो मन मीन दयाल । विविध, नरक तिरजंचनी, .." न विमासी हो वेदन विकराल ॥१२॥क०॥ चंचल नयण करइ घणी, चपलाइ हो पर नारि निहालि। व्यापक दोष वचन तणा, . जे लागइ हो ते न सकटालि ॥क०॥१३॥ .दोन Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिमराजसरि-कृति-कुसुमागति कोधी काम विटंबना, मद मातइ हो जे मइ जिनराज। हिवणां साहिब आगलइ, ते कहितां हो मुझ आवइ लाज ॥क०॥१४॥ वात कहइ जे पाप नी, तिण साथइ हो करू निवड सनेह । जउ को सीखामणि दीयइ, तउ जाणु हो वाल्हउ वइरी एह ॥क०॥१५॥ माया मंडी कारिमी, पर वंच्या हो मइ अरि अनुकूल । परगह मेल्यउ कारिमउ, न विचारयउ हो ए अनरथ मूल क०॥१६॥ छती सति मई गोपवी, तप वेला हो अंगियालस आण। बालक जिम रस लोभीयइ, पचखी नइ हो भागा पचखाण क०॥१७॥ चटकइ रीस चड़इ घणी, गण पाखइ हो कीघउ अभिमान । जारणपणउ सरसव समउ, चिहुं माहे हो कहुँ मेरु समान ।।क०॥१८॥ आगम विरुध वचने करो, हठ मांडी हो मइ थाप्या तेह। बगसि गुनह ए बापजी, हिव मोसु हो धरि निवड़ सनेह ।।१६।। धर्माचारिज हित भणी, जे आपइ हो सीखामणि सार। ए मुझ पापो प्राणियउ, मन माहे हो करइ अवर विचार क०॥२०॥ बोल्या विद्यागुरु तणा, अभिमानइ हो जे अवरणवाद । * मई - Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आवू तीर्थ स्तवन सालइ साल तणी परइ, पनिंदा हो तिम जीभ सवाद ।।क०॥२२॥ पाप करम किम कीजीयइ, इम दोधा हो पर नइ उपदेस । आपणपइ ते आचरथा,ते जाणइ होतू हिज रिसहेस ।क०२३। तीने रतन अमूलक मइ, पाम्या हो वछित दातार ।। ते जिम जिम मुझ साभरइ, किम थास्यइ हो सामीछूटकवार ॥क०॥२४॥ लोकालोक प्रकाशक, प्रभु पासइ हो वर केवलनाण । तिण कारणि जगजीवन, कहु केतउ हो तू आरपइ जाण ॥क०॥२५॥ , हिव सरणागत ताहरइ, हूं आयउ हो निज नयण निहारि। भवसागर बीहामण उ, तिरण हूंती हो मुझ पार उतारि ।क.२६ इम 'विमल' भूधर करणयगिरि सिरि, सामि सुरतरु सारिखउ । प्रगटियउ परमाणद पेखी, पुहवि पूगउ पारिखउ ।। युगपवर श्री 'जिनसिंहसूरि' सीसइ, राजसमुद्रइ' सुभ मनइ । अरदास आदि जिद आगलि, कही मगसिर शुभ दिनइ।२७। * ॥ इति श्री आलोयग गभित आदिनाथ स्तवनम् ।। श्री आनू तीर्थ स्तवनम् सुकलोणी प्रिउ नइ कहइ, एक सुगउ अरदास लाल रे। 'चालउ तीरथ भेटिवा, पूरउ मुझ मन आस लाल रे ॥१॥ आबू शिखर सुहामणउ, ऊंचउ गाउ सात लाल रे। बारह पाजरची तिहा, रिसियइ एकरण राति लाल रे ॥२॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि 'विमलविहार' जुहारियइ, सामी श्री 'रिसहेस' लाल रे। 'भीमगवसही' भाव सु, कब नयणे निरखेस लाल रे ॥३॥ चउमुख तीन त्रिभूमिया, 'लूणगवसही' जौइ लाल रे । कोरणियइ मन मोहीयउ, नवलख आला दोइ लाल रे ॥४॥ तीन महिश सर संधियइ, नरवर धार पमार लाल रे । मंदाकिनी पासइ अछइ, अनुपम राय विहार लाल रे ॥५॥ 'अचलेसर गढ ऊपरइ, चउमुख प्रतिमा बार लाल रे। बीजा बिंब जुहारिवा, हीयडइ हरख अपार लाल रे ॥६॥ पगलो डुगर फरसीयइ, पातक दूर पुलाइ लाल रे। 'राजसमुद्र' भगतइ भणइ,समकित निरमलथाइ लाल रे ॥७।। श्री गिरनार तीर्थ यात्रा स्तवन • मोरी बहिनी हे बहिनी म्हारी। मो मन अधिक उछाह हे, हां चालउ तीरथ भेटिवा म्हा०॥ संवेगी गुरु साथ हे, हां तेडीजइ दुख मेटिवा ॥१म्हा०॥ चढिसुगढ गिरनार है, हां साथइ सहियर झूलरइ ।।म्हा०।। सजि वसन शृंगार हे, हां गलि झाबउ मकथूल रउ ॥राम्हा० राजल रउ भरतार है, हां जादव नंदन निरखिसुम्हा । पूजा सतर प्रकार है, हां करिसुहियडइ हरखिसु॥३॥म्हा० अदबुद आदि जिणिद हे, हां "खरतरवसही" जोइसु॥म्हा० अमियझरइ श्री पास हे, हां मल कसमल सवि धोइसू ४ाम्हा० तीन प्रदक्षिण देह हे, हां बीजा बिव जुहारिसु॥म्हा०॥ गरुयउ गजपद कुण्ड हे, हां इद्रागम संभारिसु॥५॥म्हा०॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बीकानेर मण्डन चौवीसटा आदिनाथ गीतम् ४३ चढिसुसाते टुक हे हां, लाखावन सहसावनइ ।म्हा। मेघ मंडप जल ठाम हे हां, देखोसु व शुभ भावनइ ।६म्हा० बूझवियउ रहनेमि हे हा, तेह गफा राजुल तणी म्हा।। करिस सफल जमार हे हां, बोलइ 'राजसमुद्र' गणी।७।म्हा० श्री बीकानेर मण्डन चौवीसटा आदिनाथ गीतम् चालउ हिव चउवीसटइ, मुझ मन एह रुहाड़ि। पोसह व्रत उजवालियइ, करि जिणहर परवाडि ॥ परवाडि करिसु चतुर चउविह, संघ साथइ माल्हतो। मन मेलि भेली नव सहेली, गीत अभिनव गावती।। जिण भवण सरगिरि सामि सरतरु सेवतां कसमल कटई। युगवर जिसिंघसूरि साथइ चालउ हिव चउवीसटइ ॥१॥ तीन निसीही साचवी जिणवर भुवण दुवारि । देई तीन प्रदक्षिणा आगम वयण विचारि ॥ सुविचारि तीन प्रणाम त्रिकरण सुद्ध भूमि पमज्जणा । तिम त्रिदिश निरखण विरति परिहरि चउरासी आसातना निज नयण निरखउ नाभि नंदण अवर पडिमा नव नवी। संभारि दश त्रिक पांच अभिगम यथा जोग साचवी ॥२॥ दक्षिण कर जिनवर तराइ नर वाम करि नारि । देव जुहारण अवसरइ एह अछइ अधिकार ॥ भधिकार बारह सुपरि पण प्रणिपात दंडक पिण कही। श्री संघ सुविहित सुगुरु साथइ देव वंद्या गहगही। मन रली हुति फली ते मुझ सहू 'राजसमुद्र' भणइ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ जिनराजमरि-शनि-सगांजलि पामियइ अविचल परमपद मुग्व दरमणः जिणवर तणाः ॥३॥ इति श्री चवीनटा गीतम् श्री बीकानेर मंडन सुमतिनाथ (भांडासर ) गीतम् चउमुख तीन विभूमिआ, नलिनी गुत्म समान । ऊ चउ शिखर मुहामणड, मेनु शिखर समान ||६||मol मरुमण्डल सिर सेहरउ, "वोकमपुर" सिणगार । 'भांडइसाह' करावियउ, सुमति जिणद विहार ||शाम०॥ भुवण सरिस भुवणतरड, भवणतर नवि दीठ। तिण रग लागउ माहरड, जाणे चोल मजीठ ॥शाम० भावइ भोली भामिनी, गडस गावद गीत ।। वचन विलास सफल करइ, चउमुख लाड चीत।।शाम०॥ जिनवर नयण निहारतां, प्रगटयउ परमाणंद । 'राजसमुद्र' मुनिवर भणइ,जिणवर सुरतरु कद ||शाम०॥ श्री वासुपूज्य स्तवनम् वहिनी एक दयण अवधारउ, जिणवर भुवण पधारउ रे। श्री वासुपूज्य जिणद जुहारउ, विव अवर संभारउ रे ।शवा० जयणा सु मारग चालीजई, विकथा मल न कीजइ रे । दुरमति तिमिर जलजलि दीजइ,नरभव लाहउ लीजइरे ब०१२ जिम जिम मोहन मूरति दीसइ, होयडउ हेजइ हीसइ रे। हिव चउगइ जलरासि तरीजइ, ध्यान धरउ निसि दीमइ रे॥व०॥३॥ अनुपम समता साकर कूजउ, इण सम कोइ न दूजउ रे । चाहउ भविअण मुगति वधू जउ,तउ प्रहसम प्रभुपूजउ रे ।४।ब० Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धी नेमिनाथ चतुर्मासिकम् आइ मिलइ जउ होरउ जाचउ, काच सकल मत राचउ रे। 'राजसमुद्र' साहिब ए साचउ, नयणे निरखी नाचउ रे ।शब० श्री बीकानेर मण्डन नमिनाथ स्तवनम् श्री 'नमिनाथ' जुहारियइ, मुगति रमणि उर हार लाल रे । साचउ साहिब सेवीयइ, वंछित फल दातार लाल रे ॥श्री।।१।। देव अवर सकलंक जे, ते मुझ मन न सुहाइ लाल रे। 'सुरतरु अंगणि जउ फलइ, ___ कवण कनकफल खाय लाल रे ॥श्री।।२।। धन मंत्रीसर 'करमसी' अविचल राख्यउ नाम लाल रे । अवसर लाधइ आपणइ, कीघउ उत्तम काम लाल रे ॥श्री।।३।। 'वोकमपुर' सिर सेहरउ, निरुपम नवल विहार लाल रे । भवियण नयणे निरखियइ, ऊजलगिरि अरगुहार लाल रे ।।श्री०॥४॥ जिणवर ना गुण गावता, मन धरि भाव विसेस लाल रे गोत्र तीर्थंकर बाधीयइ, 'राजसमुद्र' उपदेस लाल रे ॥श्री०॥५॥ ___ श्री नेमिनाथ चतुर्मासकम् रोग - मल्हार श्रावण मइ प्रीयउ सभरइ, बू द लगइ तनु तीर । खरीअ दुहेलोपन घटा, कवण लहइ पर पोर ।। पर पीर जाणत.पापी, पपीहउ प्रीउ प्रोउ करइ । ऊमई बाहर घटा चिहु दिसि, गहिर अंबर घर हरइ।। दामिनी चमकत यामिनी भर, कामिनी प्रीउ विण डरइ । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजत्ति धन घोर मोर कि सोर वोले, श्याम इण रितु सभरइ ||१|| दूभर निशि भादू तणी, यादू विण क्युं जाइ । प्रेम पियालउ पीजीयड, घन वरसइ झरु लाइ । झरु लाइ वरषइ सर्वाहि हरषइ, अवहि राजुल पर वसई || -तरफरइ नीद न परइ इक छिनु, नाह नयतन तुमइ वसइ । लोचन उनीदे मिलइ कवही सुपनि प्रीउ संगति वणी । जन झवकि जागू ं तब न दीसइ दूभर निसि भादू तरणी || २ || संदेसउ सखि पाठवउ, आयउ मास कुमार ४६ राति दिवस कइ कूकरगई, कबहु लगई पुकार पोकार प्रीउ दरबार करिओ, झूठ दोस पसू दियउ दिल मांझ सुगति वधू वसी, तिरण मोहनी मोहन कियउ निसि कुसुम सेज निहेज सूती, दहइ ससि पावक नवउ संदेस साचइ नेमि राचइ, सो सखी मिलि पाठवउ ||३|| कातिक रीति भई नई, उलटयउ विरह अगाघ राजुल वलि वलि वनवइ, कउरण कीयउ अपराध । अपराध विण परिहरइ यादव, कउरण वात कहीजियइ इक पाल मइ सउ वार सालइ, कंत विण क्युं जी जीयइ इक पखउ क्यु ं करि नेह निवहइ, वइरागिणी राजुल भई सिवमहल 'राजसमुद्र' प्रभु सु, प्रीति तहांजोरी नई ॥४॥ श्री नेमिनाथ गीतम् राग - सोरठी तउ तुम्ह तारक यादुराय जहु मोहि तारउ, धरिहु निसि दिन ध्यान तिहारउ || या० ॥ १ ॥ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ने मिराजीमती वियोग सूचक गीतम् - ४७ तबर्बाह गरीब निवाज विराजउ, हम से निज भगत निवाजउ ॥या०॥२॥ तउ रिंगजरण मो मन रंजउ, जउ सेवक से अरिअण गजउ या०॥३॥ जउ अंतरगति न लहउ सामी, तउ तुम्ह कइसे अंतरजामी या०11०॥ जउ जाणउ 'जिनराज' हमारउ, तउ मोहि कूरम निजरि निहारउ या०॥५॥ श्री नेमिराजीमती वियोग सूचक गीतम् राग-वेदारउ मेरइ नेमिजी इक सयण । अउर ठउर न दउर करिहुँ, कबहुमो मन भयरण ॥१॥मे०॥ सुण्यउ निसि भरि जबहि चातक, रटत पिउ पिउ वयन । पलक बादल वौचि उमड़े, सजल जलधर नयन मे०॥ विगु पीऊ कइसइ प्राण राखु, पलक भर नही चयन । 'जिनराज' राजुल कनक कुंदन, जोरि यादु रयन ॥३॥मे०॥ श्री लौद्रवपुर पार्षनाथ स्तवनम् जाति-मोरयानी 'लोद्रपुर' पास प्रभु भेटीयइ जी, मेटीय मन तणी भ्रांति । परतखि सुरतरु सारिखउ जी,खलक नी पूरवइ खंति शलो० निरुपम रूप निहालतां जी, कविजन करइ रे विचार । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि नख सिख ऊपरि वारियइजी,अवर सुर असुर सउवार॥रलो० देव दीठा घणा देवले जी, सीस न नामणउ जाइ। मधुकर मालती रइ करइजो अलवि अरणी न सुहाई ॥३लो० एक पग त्राण ऊभा रही जी, सेवियइ जउ जगदील। लोचन तपति पामइ नही जी,ए प्रभु अधिक जगीस ॥४ालो० पेखीयइ तोरण पइसतां जी, जे करइ स्वर्ग सुवाद । च्यार गति ना दुख छोदिवा जी, चिहु दिसइ च्यारि प्रसाद ॥५शालो। 'याहरू' सुकृत नउ वाहरू जी, सलहीयइ मात तसु तात । संघवी सघनायक पखइ जी, अगमइ कवण ए वात ॥६लो. कीजीयइ चोल तणी परइ जी, प्रीति परमेसर साण। श्री 'जिनराज' भवो भवे जी,तू हिज देव प्रमाण ॥७॥लो०।। श्री लौद्रवपुर पार्श्वनाथ गोतम् जाति · मोमनडउ हेडाउ हे मिश्री ठाकुर वइदरउ एहनी आज नइ वधावउ हे सहीअर माहरड, आणंद अंगन माइ। लोहग निधि साहिब त्रेवीसमउ,नयरणे निरख्यउ आइ ॥१० प्रभु परतख न मिलइ पंचम अरइ वीस करूं वेषास। पिण मोहन मूरति जड़ पेखीयइ, आवइ मनि वेसास ।राआ० दूर थको तीरय महिमा सुनी, खरी हुती मन खंति । लाख कहउ लोचन दीठां पखइ,नेट न हुवइ निरंति ॥३॥आ० मनहरणी तोरण ची कोरणो चिहु दिसि जिणहरि च्यारि। तिम पगला नवला थिवरांतणा, ऊजलगिरि अवतार ४० Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी गौड़ी पार्श्वनाथ स्त० ४६ कमल कमल बिहसइ मन हुलसइ, रोमांचित हुवइ देह। मन नी होवीतग वात न कहि सकु ,नवलउ निवड सनेह ॥५॥अ० मइ भूलइ भमतइ कीधी हुस्यइ, देव अवरनी सेव । ते अपराध खमा आपणउ, चरण कमल परगमेव ॥६॥आ०॥ आज घडी सुघडी लेखइ पडी, जीवत जनम प्रमाण । भगति जुगति 'जिनराज' जुहारतां,आज भलइ सुविहाण।७।आ० श्री गौड़ी पाश्वनाथ स्तवन बालेसर मुझ वीनती 'गउड़े चा' राय, अलवेसर अवधार रे ग० प्रगट थई पाताल थी ग० सेवक जन साधार रेग० ॥१॥ आंखि थइ उताबली ग० दरसण देखण काज रेग०॥ पाणी न खमइ पातली ग० दे दरसण महाराज रे ग०॥२॥ तुसाहिब सुपनंतरइ ग० मिलइ अछइ नितमेव रे ग०। तउ पणि आयउ ऊमही ग० सइ प्रति करिवा सेव रेग० ॥३॥ जउ पोतानउ त्रेवडउ ग० सगली भांति सदीव रे ग । नीची ऊची वात मइ ग० तउ मत घालउ जीव रेग०॥४॥ देव घणाइ देवले ग० दीठा ते न सुहाइ रेग० । इक दोठा मन हुलसइ ग० इक दीठा अउल्हाई रे ग०॥५॥ काल्हे वाल्हे माहरइ ग० कोधी खरीय सवील रेग० । * दरसण देवा तइ नकी म० पाणी वलि पणि ढील रे ग०॥६॥ तइ कोधउ तिम तुकरइ ग० राखी चिह मइ लाज रे ग० । वलि अवसरि संभारज्यो ग० इम जंपइ 'जिनराज' रेग०॥७॥ श्री अमीझरा पाश्वनाथ गीत परखि पास अमोझरइ, भेटीजइ भविअण भावइ रे। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि रातिदिवस अमत झरइ, तिण साचउ नाम कहावइ रे॥॥प०। सुर सानिधि अजन समइ, जग जीवन ज्योति जगावइ रे। श्रावक नइ सुपनतरइ, दाखी दरसण परचावइ रे ॥२॥१०॥ भगत वछल निज भगत नइ, अरिगंजण अगम जणावइ रे। तो ते सेवइ स्या भणी, जउ परतउ मूल न पावइ रे ॥३॥१०॥ आपण पइ परगट थई, सेवक नउ वान वधावइ रे। जे कारिज करिवा करइ, ते पर नइ केम भलावइ रे ॥४ाप०॥ पुरिसादाणी पास जी, जउ इम अतिसय न दिखावइ रे। इण कलियुगना मानवी, तउ यात्र करण किम आवइरे।।शाप० एकरिण रहणि जे रहइ,नितु चरण कमल चित लावइ रे । सकल मनोरथ तेहना, प्रभु अलवि प्रमाण चढावइ रे॥६॥१०॥ प्रभु विण देव अनरेडा, ते माहरइ मनि न सुहावइ रे। सुरतरु अंगणि जउ फलइ, तउ कबण कनकफल खावइ रे७५० 'भाणवड़ई' थिर थानकइ, अतुली बल अधिक प्रभावइ रे । मकी मन नउ आमलउ, तिण कारणि सहुको ध्यावइ रे बाप अलिय विधन दूरइ हरइ, अरिअण नइ आण मनावइ रे । श्री 'जिनराज' सदा जयउ, दिन दिन चढतइ दावई रे॥१५० श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ गीतम् करिवउ तीरथ तउ मूकी रथ, धीर थई पगले चलउ । तिल पाप नथी आगमन थी, मन थी हो मूकी आमलउ ॥१॥ वहता मारगम करउ कारग, तारग गुरु आगलि कीयइ । सवि एक मता वलि मन गमता, समताधर साथइ लीयइ॥२॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री संखेश्वर पार्श्वनाथ गीत श्री 'संखेसर' पास जिरणेसर, जे सरभर सुर को न छइ । नयणे निरखउपरतिख परखउ, परखउ लीकहि सउपछइ ॥३॥ आप वसू रति थयइ सूरति, सूर तिसी परि पूजीयइ । तिम गुण गावउ भावन भावउ, पावउ मुमति वधू जीयइ ॥४॥ आणइ वेधन खरचइ जे धन, ते धन धन जगि जाणीयई। कुमति खोजि न आण इसी जिन, श्री 'जिनराज'वखाणीय॥५॥ श्री संखेश्वर पाश्र्वनाथ गीत राग-सामेरी पासजी की मूरति मो मन भाई। पग पग मग पंथियन कुपूछत आए तोकु ध्याई ॥१॥१०॥ आसापरण निज भगतन की तवही दइति दिखाई। कउण विचार परे हम बरिया, इतनी वेर लगाई ॥२॥प०॥ मोकु कहा विरुद अपणइ की, आपहि लाज बड़ाई। 'सखेसर' मंडण दुख खंडण, देह दरस सुखदाई ॥शाप०॥ मानव दानव कोइ' न मेटत, दुनिया मांहि दुहाई। "राजसमुद्र' प्रभु श्री जिनसिंहसूरि' सेवत संपति पाई॥४०॥ श्री सहसफणा पार्श्वनाथ गीतम् राग-केदारउ देखउ माई पूजा मेरे प्रभु की अजब बणी रे, या छबि वरणी न जाइ। जोवत जोति नई नई अलख सरूप रे, मो मन अधिक सुहाइ ॥१॥०॥ कुंकुम को अंगी रची, विचि विचि कुसुम भराउ। Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जिनराजसूरि-कृति कुसुमांजलि भाल तिलक सिर सेहरउ, कुडल जरित जराउ ॥२॥दे०॥ मोहन मूरति साउरी, कठ कुसुम की माल । हार रच्यउ सिव नारि कु, पाच रतन कइ थाल ॥३॥दे०॥ अनिमिष नयन थकित भए, देखि सलूणी देह ।। चचल चित अटको रहयउ, इहु किछु नवल सनेह ।।४।०।। कलिजुग सुरतरु अवतरयउ, 'सहसफणउ श्री पास'। सो साहिब नितु सेवीयइं, अविचल लील विलास ॥शादे०।। दाइम भगति निवाजिकइ, दोनउ काइम राज। विरुद गरीबनिवाज कउ, साच भयउ 'जिनराज' ॥६॥०॥ श्री वाड़ी पार्षनाथ गीतम् मेलिज जमक सव गावा तरसइ, सुझ रसना गुण गावा तरसइ। नव नवलीला सरस लहीजइ,तिण प्रभु'वाड़ीपुर' सलहोज।१। अंग नवे प्रभुना चरचीजइ, आलि नव नव नाच रचीजइ । विधि खप करतां वासव रीजइ, नितु नवलउ जस वास वरीजइ ॥२॥ जिम जोई मूरति मन भावइ, देव अवर न को मनि भावइ । सुरतरु अंगणि भविक फलीजइ, तउ स्युसंवल नउक फलीजई ॥३॥ जीव तुरंग सिव पुरि वाहीस्यइ,सेव अवर नी करिवा हीसइ। आपणपइ जउ विस वावीसइ,लुणियइ ईष न विसवा वीसइ।४। सोझइ कारिज अवगाहीजइ, हेलइ अरिदल अगाहीजइ । मनछा अविचल राज भणीजइ, तउ मुखि इक 'जिनराज' भणीजइ ॥५॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चितामणि पार्श्वनाथ गीतम् श्री चिन्तामणि पाश्वनाथ गीतम् नील कमल दल सांउली रे लाल, मूरति सबही सुहाइ मन मान्या रे । कंचन की अंगी वणी रे लाल, या छबिवरणी न जाइ मन ।। मेरइ मन तही वसइ रेलाल श्री चितामणि पास ॥म०॥ साचउ विरुद अपनउ करउ रे लाल, पूरि हमारी आस मन० ॥२॥मेol सीस मुगट रतने जड्यो रे लाल उर मोतिन कउ हार भन० कुडल की सोभा कहुरे लाल, रवि शशि कई अणुहारि मन० ॥३॥मे०॥ दसन ज्योति हीरा जडया रे लाल, अधर कि लाल प्रवाल मन० । चंपकली सी नासिका रे लाल, भाल तिलक सुविसाल भन० ॥४ामे०।। सोभा सायर वोचि मइरेलाल, झोल रहयउ मन मोन मन० । तइ कछु कीनी मोहनी रे लाल, नयन भए लयलीन मन• ॥५॥मे०॥ दो कर जोड़ि वीनवुरे लाल, देहु दरसन इक वार मन० । जउ अपणउ करि जाणिहउ रे लाल, - तउ करउ कउण विचार मन० ॥६॥मे०॥ मन सुधि सेवा साचवुरे लाल, भाव भगति भरपूर मन० । परतखि परता पूरवइ रे लाल, आपण होइ हजूर मन० ॥७ामे०॥ साचउ साहिब सेवतां रे लाल सीझइ वंछित काज मन० । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि 'राजसमुद्र' गुण गावतां रे लाल पायउ अविचल राज मन० ॥८॥मे०॥ गुणस्थान विचार गर्भित पार्षनाथ स्तवन नमिय सिरिपास जिण सुजण पडिबोहगं । कणयगिरि अचल जेसलनयर सोहर्ग ॥ चवद गणठाण उत्तर पयडि बध ए। हेतु करि सहित हू कहिसु सह संध ए॥१॥ पढम मिच्छत्त सासाण मीसाजयं । देस पमत्त अपमत्त सुह नामय ।। नियट अनियट तिम सुहम उवसतयं । खीण सहजोगि अजोगि ग ण ठाणय ।।२।। पच विह नाण आवरण दुग वेयरगी। दसनावरण नव वीस अड मोहणी॥ आउ चउ भेय तिम गेय दुग मनि वसइ । अंतरायस्स परण भेय जिण उवइसई॥३॥ च्यार गय जाइ पणु वंग तिग परण तरा। तेम संघयण सठाण छग छग भणु।। च्यारि अरगुपुचि चउवण ग रु लहु पणउ। त सग दस दुग गई दसग थावर तणउ ॥४॥ जिण पण घाइ उवधाइ निम्माण ए। आउ वुज्जोय उसास विजांण ए॥ . , नाम कमस्स सतसठ्ठि पयडी इहा। एग सय अनइ बावीस सवि मिलि तिहां ॥५॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान गर्भित पार्श्वनाथ स्तवन ढाल २ भव्य तराइ परिपाक एहनी. ओर इस वीस बध पयडी तणउ सम्म मीस मोहनि विनाए । जिण परिणाम विशेष पुज रचइ तिग ते पुग्गल मिच्छातना ए | ६ | गुणठाणइ मिच्छत्ति सतर अधिक सत जिण आहारग दुग पखइ ए । जे भी अनुक्रम एह सुध समकित, ५५ धर अप्रमत्त संजति कषइ ए ॥ ७॥ सासण इग सय एग अणुपुव्वी गइ आउ नरग तिग ए भण्यउ ए तिम इग बिति चउरिदि थावर, अपजत साधारण सुखम गण्यउ ए ॥ ८॥ हुडा तव छेवट्टि मिछ न पुरक ए सोल बंधइ नही ए । एह पर्याड नउ हेतु मिछ नही इहा तिण नवि बंधइ ए सही ए ॥ 8 मोसि चहुर्त्तार बंध तिग तिरिया तणउ थीणघी तिग कुख गई ए । दुभग दुसर ना देय पढमंतिम हुण चउ चउ संघणा गई ए । १० नीय गोय उज्जोय इछे वेय तिम च्यार कषाय पढम जुया ए । एपणवीस ना हेतु अण कोहाईय तेषा उर्वास मिग हुया ए । ११ न मरइ इछ कयावि तिणि सुरनर आऊरि, इम सगवीस पर्याड़ टलइ ए ।। हिम चथइ गुण ठाणि सतहत्तर, भणी सुरनर आऊ जिण मिलइ ए ॥ १२ ॥ ढाल सतसठ्ठि पड़ि नंउ देसइ बंध वखाण नर तिग आइम संघयण उरल दुग जाण जिण इण गुणठाणइ सुर गइ बंधइ एह Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि सा तिण नर तिरि वेयण जोग पयडि छग छेह । छह हवइ वलि बीय कसाया जिण ए उदय न जावइ ।। इम पचमि थानकइ सवे मिलि दस ए वधन आवइ । हिव छठुइ थानकइ पमत्तइ तेसठि पयडी वध ||१३|| अपमत्त गणसठि अहवा अडवन थाइ। टलइ सोक अकित्ती अथिर असुभ असाय।। तिम अरइ सुराउ तणी भयणा सुविचार। भाराहर अ गोवंग मिलइ इहां सार । सारठु मगा नियट्ट तणा हिव भाग रचीजे सात । तिहा पहिलइ भागइ सवि बधइ अडवन पुव्व विख्यात ॥ बीयादिक पण छपन्न निद्दा पयला दोइ । पडि न बंधइ जिणइ तहाविह अज्जवसाण न होइ ॥१४॥ हिव सत्तम भागइ वधइ पयडि छवीस । सुर गइ अणुपुव्वी इम पभणइ जगदीस ।। तस नव नेउव्विय अंगों अंग निमाण । जिण नाम पणिदिय जाइ पढम सठाण ॥ गुणठाण भणीजइ तेय कम्म तणु वण गंध रस फास। अगरुलहू उवथाय वली तिम परा थाय उसास ॥ आहारग दुख सुख गइ मिलीयां सव्व पयडि ए तीस । इह वट्टतउ जोव न बंधइ तिम बंधइ छगवीस ॥१५॥ कीजइ अभियटना पंच विभाग उदार । । बावीस पयडि तिहां भागइ पहिलइ धार ।। रति हास दुगंछा भय ए न रचइ च्यार। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान गभित पाश्र्वनाथ स्तवन ५७ बीय तीय चउथइ तिम पचमि एह विचार ॥ एह विचार करीजइ अनुक्रमि ए चउपयडि विनास । पुरुष वेय तिम तिग सजलनउ वधतइ झाण विलास ।। हिव दसमइ थानकइ भणइ सविस्तर पयडि जिनराज । नवि बबइ सजलनउ लोह जे कम्म माहि सिरताज ॥१६॥ एगारमि बारमि तेरमि साय संयोग ।। थायइ इहा निसचय सोलस पयडि वियोग ।। जस नाम वली पण अंतराय शुभ गोय। चउ सण ना करणी पण संजोय ।। जोग रहित तिम कम्म अबधक ए चवदम गुणठाण । भासइ इम भगवंत भविक नइ केवलनाण प्रमाण ॥ बध विहाण रहित हुइ जिणवर पाम्यउ शिवपुर वास । आप सरीखउ करिज्यो जिणवर ए सेवक अरदास ॥१७॥ तुह सण विगु जिण निगम्यउ काल अनंत । पहिलइ गण ठाणइ वट्ट तइ भगवत ।। हिव सुकृत सयोगइ लद्धउ मइ जग भाण । हरे हर सेवा करिवा इण भवि पच्चखाण । • पचखाण सहित तुह दसण लद्धउ सुरतरु कंद। निरतिचार पलइ तिम करिज्यो नत नर सुरपति वृद ॥ तू तिहुयण नायक तारक तूसयल जंतु आधार। आससेन कुल कमल दिवाकर मुगति रमणि भरतार ।।१८।। । कलश इय बाण रस ससिकला (१६६५) वछर,सह किसण नवमी दिने Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि गणठाण चवदे कम्मपयडी,वध विवरयउ सुभ मनइ । 'जिणचंदसूरि' जिसिंह' सीसइ, 'राजसमुद्र' इ सथुउ । सिरि पास जिणवर भवण दिणयर, सयल अतिसय सजुउ ।१६ इति श्री विचार गभित श्री पार्श्वनाथ स्तवनम श्री विक्रमपुर मंडन वीर जिन गीतम् भाव भगति धरि आवउ सहिअरि, जिणहर बिब जुहारोयड त्रिशलानंदन जगदानदन, चदण नयण निहारियइ ॥१॥ वीर जिणेसर भुवरण दिरणेसर सरणागत, साहरइ । जे सिवगामी अंतरजामी, सामी जे इण भय माहरइ ॥२॥ वंछितदायक शासन नायक, पाय कमल तस भेटियइ। देखी दरसण दे परदक्षिण, आपण भव भय मेटियइ ॥३॥ मोहन मूरति अनुपम सूरति, दूर तिमिर भर अपहरइ । 'वीकमपुर' वर मेरु सिहवरि, सुरतरु सोभा अणुसरइ॥४॥ साथ सहेली गरव गहेली, भेली भवजल निधितरह। 'राजसमुद्र' गरिग सक्रस्तव भरिण, ' इणि परि जन्म सफल करई ॥५॥ श्री वीर जिन गीतम् हम तुम्ह 'वीरजी' क्युप्रीति चलइगो,सुगु साहिब वरदाई। जिण कुतुम्ह मुह भी न लगाए, जिण सुहम लय लाई।ह०११ जाकउ तुम्ह सव वंश प्रजारयउ, उवे हम कोये सखाई। जिरण कुतुम्ह वनवास दियउ थउ, उहा हम आणि वसाई ।।ह०॥२॥ प्रेम मगन थे तुम्ह जिन सेती, उवा भी हम न मनाई । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर जिन गीतम् । तउ भी तुम्ह करिहउ अपणाई, या 'जिनराज' बडाई ह०।३। श्री वीर जिन गीतम् राग-सारंग 'वीरजी' उत्तम जन की रीति न कीनी,प्रीति तत ज्युतोरी। बेग नही गोतम कहइ,किउ मोहि दूर कीयउ चित चोरी ॥१वी वीरजी जान्यउ अ चर गहिस्यइ,यातइ शिव पहुते मुझ छोरी । अ तर बहुत परथउ जिन सेती, कहा करू अब दउरी।।वी० वीरजी एक पखउ प्रेम रता नत, क्यु करि निवहइ जोरी । 'राजसमुद्र' प्रभु केवल पायउ, मोह महीपति मोरी ॥३॥वी० श्री वीर जिन गीतम् राग-वेलाउल. साहिब 'वीरजी' हो मेरी तनुकि अरज अवधारउ । दीनदयाल अदीन दयानिधि, कूरम नजरि निहारउ ।१।सा। करहू महर भव जलधि जहर तई,करि ग्रह पारि उतारउ । तइ ग नहीं भी तुरत निवाजे,तउ अब कहा विचारउ ।२।सा० विरुद गरीबनिबाज सुण्यउ मै, वीर जिणंद तिहारउ । 'राज' वदति निज भगत निवाजउ,परतिख होइ पत्यारउ।३सा० श्री जिन प्रतिमा सिद्धि पीर स्तोत्रम् भविअ जण नयण वरणसंड पडिबोहग। राय सिद्धत्थ कुल तरणि सम-सोहग । थुणिसु जिण नायगौं भत्ति भर पूरिउ । पुवकय सुकय घरण रासि अकूरिउ ॥१॥ सामि सग रयणि परिमारण परिमडिअ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि तहयपलि अंक सठाण करि संठिअ । जिण भवण मज्झि जिण विव जह दीसए। हेल दे हियय मह हेज करि हीस ए ।।२।। आज मह देवमणि कामघट तुटुउ । अमिय मय मह मह उवरि किर बुढउ ।। आज घर अगणइ कप्पदुम फलियउ । कणय तणु वोर जिरणराय जउ मिलिअउ ॥३॥ जिण चवण जम्म वय नाण निव्वाण ए। गभ संकमणइ अनुज्झ कल्लाण ए॥ जम्मि पुरि जाय ते नयण भर जोइयइ । सरिअ तुइह चरिअ निय कम्म मल धोइयइ ॥४॥ थापना रूप अरिहत जे ऊथपइ । मुगध मन हरिण वसि करण ते इम जपइ ।। कज्ज सावज्ज नाऊण किम कीजीयइ। तेहनइ मधुर वचने करी पूछीयइ ॥५॥ थापना रूप पिण साच जिणवर कहइ । एहनी साख ठाणांग माहे लहई ।। चित्त कय कामिणी मोह भर कारगा। तेम जिण ठवण पावाण उवसामगा ॥६॥ नार व्रत धार पिरण सुद्ध श्रावक करइ । दव्व थय कूव दिळूत सो अणुसरइ ।। साधु भगवत मन सुद्धि पणवय धरइ । सो नदी पाय नावाइ जिम ऊधरइ ॥७॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वीर जिन गीतम् सुग रु ना पयकमल मल थापि मुहणत ए। अहवरय हरणि किय कम्म किर दित ए॥ पडिक मण मज्झि विउसग्ग करतउ छतउ । दव्व पूआ तणउ साधु फल वंछतउ ॥८॥ लद्धि विज्जा जुओ साहु नदीसरे। चेइ वदण भणी जाइ जिण मदिरे ।। जाइवा सुर भवण राय असुरा तण। पचमगे सरण किद्ध पडिमा तणउ ॥६॥ जिण वयणि सुरभवण मज्झि जिरणहर अछइ । धूव जिणवर भणी एह अक्खर पछइ । सतर विधि पूज जीवाभिगमाइ कही । वाणमतर विजय किद्ध ते सहही ॥१०॥ सुहम गणहर नमइ वीर सासन धणी। बभ लिवि पंच परमिटि समवडि गिणी।। बंभ लिवि वयण नउ अरथ अक्खर सुण्यउ । नाम समवाय इम अंग चउथइ भण्यउ ॥११॥ दव्व पिण भावनी बुद्धि सुविशेषता । कम्म रय हरण सुसमीर सम देखतां॥ देखि जिण ठवण तिहा भाव आरोवई। भाव जिणवर तणा गुण कहइ दोवई ॥१२॥ चार वर परषदा माहि गोयम दिसइ । आपणई श्री मुखइ वीर जिण उवइसइ ।। धन्न सुरियाभ सुर दव्व पूआ करई। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति कुमुमांजलि तासु फल कम्म खय अनुक्रमइ सिव वरइ ॥१३॥ तेण जिण भवण जिणराय अतर नही। भविअ समभाव करि जोडयइ ए सही ।। भव जलहि मज्झि निवडत तारण तरी। भाव वसि दव्व पूयावि सिव सुइ करी ।।१४।। इणि परि जगगुरु 'वीर' जिणिद,सयुणियउ मइ श्री जिणचद । युगवर श्री जिनसिंहसूरि'सीस,पभणइ'राजसमुद्र'सुजगीस।१५ इति श्री वीर स्तोत्रम् श्रो जिन देव गीतम् राग-धन्यासी लोनउरी मो मन जिन सेती लोनउ । भव मइ डोलत कवहून पायउ, करम विवर अब दीनउरी मो०॥ अवर किछु न पिआरउ लागत, मानु मोहन कोनउ । अनिमिषि जोवत तृपति नहोवत,रोम रोम तनु भीनउरी।२मो० दरसण देखत छतिआ उलसत, रेवा ज्यु गज पोनउ । 'राजसमुद्र' साहिब सिव गामी,मो मन कनक नगीनउ रे ।३मो० ) प्रभु भजन प्रेरणा राग -घन्यासी कवहूँ मइ नीकइ नाथ न ध्यायउ । कलियुग लहि अवतार करम वसि,अध घन घोर बढायउ।१०। बालापण नित इत उत डोलत, धरम कउ मरम न पायउ नोवन तरुणी तनु रेवा तट, मन मातंग रमायउ ॥२॥क०॥ बूढापरिण सब अग सिथल भए, लोभइ पिंड भरायउ। - Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव पद स्तवन 'राजसमुद्र' प्रयु तिहारइ भजन विणु, यू ही जनम गमायउ॥३॥क०॥ नवपद स्तवन ॥ दूहा ।। दस दृष्टांते दोहिलउ, लहि मानव अवतार। 'सिद्धचक्र' आराहियइ, लह रियइ ससार ॥१॥ जिणिपरि जिणवर उइसई, आर्गाल परषद बार। तवन बध तिण परि कह, भवियण जन हितकार ॥२॥ ॥ ढाल १ ॥ चवदह पूरब सार, मत्र भण्यउ नवकार । पहिलइ पद अरिहत, समरीजइ मन खति ॥१॥ वीजइ पद मन दीइ, सिव गय सिद्ध लहीजइ । आचारिज पद त्रीजइ, आदर सु आराहीजइ ।।२।। चउथइ पदि चरचीजइ, सिरि उवझाय जपीजइ । सुधा साधु महत, पचम पद विलसत ॥३॥ दसण नाण चरित्त, चउथउ तप सुपवित्त । नवपद जगि जयवंता, भासइ इम भगवंता ॥४॥ ॥ ढाल २॥ आसोज धवल सत्तमि दिवसइ,जिणवर पडिमा थापी हरसइ । आगलि सिधचउक सुथिर माडी, . मन हुती मद मछर छांडी ॥१॥ गरु मुख आबिलं तप पचखोजइ,दिन प्रति इक पद आराहीजइ। पणवक्खर मायो बीज धारइ, नवपद समरीजइ मधुर सुरइ ॥२॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जिनराजसूरि-कृति - कुसुमांजत्ति जिनराज सहित सिद्धचक्र तणी, पूजा उत्तम श्रावक करणी | तिम वांदउ देव त्रिकाल सही, आगलि शक्रस्तव पाठ कही ||३|| करतां अट्ठोत्तर सय जेती, वेला लेखइ पड़ियइ तेती | काउसग सकति सारइ कीजइ, पूरबला अमुभ करम छीजइ | ४ | आराधइ नवपद जे प्राणी, तिरण कीधी साची जिन वारणी । निद्रा विकथादिक परिहरियइ, हेलइ सिवमुख सपद वरियइ | ५ | पंचे इन्द्रिय वसि करियड, परिहरिय पच प्रमाद । समरंता परमिट्टि पय, सयल टलइ विषवाद ॥ १ ॥ क्रोधादिक चउ चउगुणिय, सोल कपाय निवारि । चउगइ दुख छेयण निउरण, नाणादिक अगि सार ॥२॥ आज काज सोधा सयल, आज भलइ सुविहाण | आज पचेलिम पुण्य भर, जीवित जनम प्रमाण ॥ ३ ॥ ॥ कलश ॥ जिण सयल जिनवर सिद्धि सुखकर वाणि अमृत उवइसइ । नवपद नवे दिन चैत्र ने पिण आराहउ मन नइ रसइ ॥ तिमग् पति निधि ससिकला (१६९३) वरसइ, आसू सुदिसत्तमी दिनइ । जिनराज' सिव सुख काज 'जिनसिंह', सीस पभणइ सुभ मनइ ||४|| इति श्री सिद्धचक्र स्तोत्र सं १६६५ वर्षे जेसलमेरी ate दयाकीति गरिण शिष्य पण्डित गौडीदासं लिखितं सा । गुणविजया शिष्यरणी साध्वी शाहजादी पठनार्थम् ( कान्तिसागर जी संग्रह पत्र १ से ) Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा श्री जिनकुशलसूरि स्तवन दादा श्रीजिनकुशलसूरि स्तवन जोहो धन वेला धन सा घडो, दादा जब भेटू तुम्ह पाय । जी हो इम मन मइ धरतउ थकउ, दादा हूं आयउ मुनिराय ॥१॥ 'कुशलसूरि' पूरउ वछित काज । जी हो हूँ सेवक छू ताहरउ, ___ दादा मुझ दुखियइ तुझ लाज।कु०॥२॥ जी हो जागइ जग माहे तु परगडउ,दादा जाणइ इद नरिंद। जी हो कस्तूरी केसर करी, दादा नित पूजइ नर वृद ।कु०३। जी हो दुख दोहग दूरइ टलइ, दादा जपतां अहनिश नाम । जी हो पुत्रअ दियइ पुत्रिया,दादा निरगुण करइगुण धाम ।कु०४। जी हो 'अहिपुर' माहइ दीपतउ, दादा देराउर सुविशेष । जी हो जैसलगिरि'वरपूजियइ,दादा भाजइ दुख अशेष ।कु०५। जी हो 'वीरमपुर' 'सोवनगिरई', दादा जोधपुरइ' विलसत । जी हो 'जइतारणि' वलि 'मेडतइ', दादा लाछ दियई बहु भति ।।क०॥६॥ जी हो 'अहमदाबाद' 'खभाइतइ', दादा पाटणि पूरइ आस । जी हो श्री ‘सूरत' 'विकमपुरइ', दादा तोडइ आपद पास।कु०७ जी हो लाभपुरइ'तिम 'आगरई',दादा महिमा महिम' मझार । जी हो 'सांगानयरि' 'अमरसरइ', __ . दादा सेवक जन सुखकारि ।।कु०॥८॥ जी हो इम पुर पुर थुभ प्रणमीयइ,दादा नासइ सहु विषवाद । जो हो 'राजसमुद्र' इम वीनवई,दादा समरयां देजो साद कु०६। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज सूरि-कृति कुसुमांजलि श्री जिनकुशल गुरुणां गीतम् ___ राग - प्रभाती जपउ कुशलगुरु' (२) नाम निसि वासरड, रिद्धि नइ सिद्धि आपइ सवाई। आपदा माहि तइ हाथ दे ऊधरइ, ___ तुरत दरसण दियइ आप आई ॥१॥ अवर सुर ध्यान धरियइ नही, ध्याइयइ 'जिनकुशल' सूरि साचउ । आप वसि कनक नी कोडि छोडी करी, कवण मूरख महइ लोह काचउ ।।२।। वाट घाटइ अइजाइ अलगाटली,समरता निरमलउनीर पावई। देस परदेस धन राज कुशलइ मिलइ, पूजता मूल योखम न आवइ ॥३॥ एफ मन एक रहणी सुगुरुजे रहइ,ता मन वंछित काज साघड। एक मुनि'राज' प्रभु चरण युग सेवतां, दिन दिन अधिक प्रताप वाधइ॥४॥ राग धन्यासी. 'कुशल' गुरु अब मोहे दरसण दीजइ। अइसी भांति करउ मेरे साहिब, इहु मन मूढ पतीजइ ।१०।' जल दातार विरुद अमृत रस, श्रवण अजुलि भर पीजइ । सुरतरु सम दरसण विण देख्या,कहउ नयण किम रीझइ ।३कु० परम दयाल कृपाल कृपा करि, इतनी अरज सुणीजइ । परम भगति 'जिनराज' तिहारउ,अपणउ करि जाणीजइ ।३कु० Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणशाली थिरु गीतम ६७ भणशाली थिरु गीतम् मंघवो तू कलियुगि सुरतरु अवतरय उ रे, आठ पहर घरि दइ दइ कार रे । तू तउ राका केरउ मालवउ रे, दुनिया रउ दुख भंजण हार रे ॥१॥सं०॥ खाटो तउ सलहीजइ ताहरी रे,वाटी जिण सारइससारि रे। कृपणा जिम माटी देई करी रे, तउ तउ दाटी नही लिगारि रे ॥२।।स०॥ लोद्रपुरइ, प्रासाद करावता रे, विधि सुपारसनाथ प्रतीठ रे । करण कनक दातार सूणीजतउ रे, ते तउ परतिख नयणे दीठ रे ॥३॥सं०॥ जिणवर नइ कुडल सिरि सेहरउ रे, भाल तिलक वलि नवसर हार रे । श्रीवछ नइ श्रीफल गल वाललउ रे, रतना जडित सोवन मइ सार रे ॥४॥सं०॥ आभरण चढावइ सामठा रे,तो विणु कुण खोटइ ससार रे। तइ चाढी नवली नव देहरइ रे, मुखमल नी धज एकणि वार रे ॥५॥सं०।। 'सघ चलावउ 'जेसलमेर' थी रे,भेटी नाभि नरिद मल्हार रे। 'पु डरगिरि' निज पगले फरसतइ रे, तइ तउ परत कीयउ ससार रे॥६॥स०॥ नगर नगर वरसतइ लाइणे रे, देतइ नव नवारू चीर रे । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज सूरि-कृति-कुसुमांजलि जोता आज विपम पचम अरइ रे, धन नउ तड हिज मान्यउ हीर रे ॥७स०॥ मन सुध भगति करइ 'जिनराजनी' रे, हरि घरिणी धरि थिर थिरपाल रे । संघ धुरा निरवाहण सलहीयइ रे, तू तउ धोरी धवल कधाल रे ॥८॥स०॥ इति भगशाली थिरु गीतम् साधु व्रती गीत श्री शालिभद्र गीतम् मुनिवर विहरण पांगुरथा जी, तव बोलइ जगनाथ । मासखमण नउ पारणउ जी, थास्यै माइडो हाथ ।।१।। महामुनि धन धन तुझ अवतार । रमरिण बत्रोसे परिहरी जी, लीधउ संयम भार ॥२॥म०।। तप रि काया सोखवी जी, अरस विरस आहार । घरि आव्या नवि ओलख्याजी, ए कुण छइ अणगार ||म० महियारी वलता छता जी, दीठा मुणिवर तेह । रोम रोम तनु उलस्यउ जी, जाग्यउ नवल' सनेह ॥४॥म०॥ विहरो गोरस चीतवइ जी, जिणवर भापित तेह । जगगरु पूरव भव कही जी, टाल्यउ मन सदेह ॥शाम०॥ कर जोडी जननी कहइ जी, वादी वीर जिणद। - १. नवलउ नेह २- भद्रा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शालिभद्र गीतम् नयण न देख नान्हडउ' जी, नंदण नयणाण द ।।६।।म०॥ . वीर कहइ भद्रा भणी जी, बइठी परखद बार। रिष जी अणसण आदरयो जी, 'सालिभद्र' सुकुमार ॥७॥म० शोकातुर धरणी ढलइ जी, कठिन विरह न खमाइ । जाणइ पुत्र विजोगणी जी, जे" दुख कवि न कहाइ॥८॥म०॥ छाती लागी फाटिवा जी, नयणे नीर प्रवाह । विरण जीवन जे जीवियइ जी,ते जीव्यउ स्या माहि ।।हाम०।। पेखि सिलापट ऊपरइ जी, पउढयउ पुत्र रतन्न । अविचल जोडि न वीछडइ जी, पास धनउ धन धन्न ।१०म० इतला दिन हजाणती जी, मिलिस्यइ वार विच्यार। हिव मुझ मेलउ दोहिलउ जी, जीवन प्राण आधार ॥११॥ धरि आवी पाछा वल्या जी, जगम सुरतरु जेम । ए दुख वीसरस्यइ नही जी, हिव कह कीजइ केम ॥१२॥म० हरख न दीघउ हालिरउ जी, वहूअन पाडी पाइ। ते वांझ णि होइ छुटिस्यइ जी, हु किम गान गिणाइ ।१३म० तुझ सम अवर न वालहउ जी, भावइ जाण म जाणि । साल तणी परि सालस्यइ जी, ए मुझ आहीठाण ॥१४॥म०॥ वछ ए मेलउ छेहलउ* जी, हिव मुझ केही सीख । नयण निहालउ नान्हडा जी, जिम पाछी दय वीख ।।१५म०। देखी आमणदूमणी जी मोह वसइ मुनिराज । नयणि न निरखी माइडी जी, सारथा आतम काज ॥१६म०।। ३. पात्र लूहरण दीसइ नही जी ४. सुभद्रा नइ कहइ ५- ते ६- धीरज जीव खमइ नही जी. ७- दोहिलउ जी - निहाली, दीठी Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___७० ७० जिनराजसूरि-कृति कुसुमांजलि अनुत्तर सुर सुख भोगवी जी, लहि मानव अवतार । महाविदेहइ सोझस्यइ जो, 'राजसमुद्र' सुखकार ||१७||म० श्री अरहन्नक साधु गीतम् नवलउ नवलइ वेस, विहरण वेलायड रिष पागुरपउ। नव वारी नगरीह, सेरी माहे भमतउ पातरयउ ||१|| ए माहरउ नान्हडीयउ, कहु किम नयणे निरखोयइ । ए माहरउ वालूयडउ, विग दीठा किम परखीयइ ।। ए माहरउ 'अरहन्नउ', आवि मिलइ तउ हरखीयइआं०॥ आव्या सगला साध, दूर गया हु ता जे गोचरी। नायउ इक अरहन्न, तब जणणी जोइवा सचरी ।।शाए०| कंचण कोमल काय, तडतडइ तावड़ि ऊभउ रहइ। देखी रूप अनूप, इक नारी तेडावो नइ कहइ ॥३।।ए०॥ भोगवि वंछति भोग, नीच करम भिक्ष्या कुण आचरइ। भागा एकवटाह, प्रेम विलूधउ मुनिवर आदरई ॥४॥ए०॥ माता करइ विलाप, सास तणी परि खिण खिण संभरइ । साचउ साजण सोइ, आण मिलावइ जो इग अवसरइ १५ग० उयर धरयउ दस मास, जे सुत वीसारयउ नवि वीसरइ। ते मुझ झड़फी लोध, जोवउ न्याय नही जगदीस रइ।।६॥ए०॥ किहा मारउ अरहन्न दीठ, सहु कोनइ धरि धरि पूछइ जइ । ए ए मोह विकार, गलीय गली भमती गहिली थई ॥७॥ए०॥ आपण पइ सुरराय, कहिन सकइ भद्रा नउ,दुख गिरणी। सो मह किम कहिवाइ,जाण्इ माता पुत्र वियोगिणी॥८॥ए०॥ सालइ अधिक सनेह, खिरा चालइ खिरण वइसी नई रडइ। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - श्री शालिभद्र गीतम् भोगी भमर निहालि, महल थकी ऊतर पाए पड़इ ॥६॥ए०॥ खमिज्यो मुझ अपराध, हूँ पापी अपराधी ताहरउ । थोडी वेला माहि, माइडी काज समारउ माहरउ ॥१०॥ए०॥ पउढउ पूत्र रतन्न, ताती लोहसिला इण ऊपरइ । तहत करइ सुवचन्न,रिषि अणसरण माइड़ी मुख ऊचरइ । ११ए. पधलइ माखण जेम, नान्हडीयइ अधिकी वेदन सही। ऊभी माता पास, हुलरावइ च्यारे सरणा कही ॥१२॥ए०।। चउरासी लख जीव, योनि खमावी कसमल ऊतरइ । साची माता ऐह, दुर्गति जातउ नंदन ऊधरइ ।।१३॥०॥ अरणसण निरतीचार, आराधी अरहन्न सुर सुख लहइ । धन धन साधु महन्त, इण परि 'राजसमुद्र' मुनिवर कहइ ॥१४॥ए।। _श्री वहर कुमार गीतम् मइ दस मासि उरि धरयउ धोटा,ह तेरी मात कहाधोटा। नइकु नर्जार भरि निरखियइ धोटा, मइ तुझ परि वलि जाउं धोटा ॥१॥ घरि आवउ रे मनमोहन धोटा, मेरइ मनि तू ही वसइ धोटा। अउर किछू न सोहाइ धोटा, दिन इत उत ढांढी रह धोटा, रयरिणदुहेलो जाइ धोटा ।२१०. तू जीवन तू आतमा धोटा, तू मुझ प्राण आधार धोटा। तुझ विरण पलक न हु रहुधोटा, तउ क्यु जाइ जमार धोटा ॥३॥ जउ तइ कबही अवगरणी धोटा, करि लोगरण की कारण धोटा। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि तउ परदेसी मीत ज्यु धोटा, ऊठि चलेसी प्रारण घोटा ॥४॥ अउर नेह सो कारिमउ धोटा, जे छिरणमइ पलटाइ धोटा। नाडिन चोरइ नातरउ घोटा,जउ वरिसा सउ जाइ धोटा ॥५॥ अजहु भलहु न रूसगउ धोटा, आप विमासी जोइ धोटा। पहडइ पेट जउ आपणउ धोटा, तउ कलिहु थल होइ धोटा ॥६॥ छगन मगन कइसे भए धोटा, अइसे निपट निठोर धोटा । मुनिजन कीनी मोहनी धोटा, तकत न मेरी ओर धोटा ॥७॥ मन की बात कहा कहु धोटा, जाणत सिरजणहार धोटा । करि मीनति इतनउ कहु धोटा, आइ मिलउ इक वार धोटा ||८|| देखि 'सुनदा' उनमनी धोटा, चितवत 'वइरकमार' धोटा । अव जउ मईया सु मिलु घोटा, बहुत वधइ संसार धोटा ॥६॥ कव लगि कठिन विरह सहुधोट, तजि अगज सी आय घोटा। पंच महाव्रत आदरे धोटा, 'राजसमुद्र' प्रभु साथ धोटा ॥१॥ ___ इति श्री वइर कुमार गीतम् __ श्री अमत्ता ऋषि गीतम् दीठा गोयम गोचरी जी, जाग्यउ नवलउ मोह। पडिलाभी साथइ थयउ जी, जिण वयणे पडिबोह रे ॥१॥ मुनिवर वंदियइ, 'अइमत्तउ गणवंतो रे । वीर प्रशंसियउ, धन धन साधु महतो रे ॥२॥मु०॥ नवि जाणु जाणु सही रे, माताम करि सनेह । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' . श्री सनत्कुमार मुनि गीतम् ७३ व्रत छ?इ वरसइ लियइ रे, मुझ मन अचरिज एह रे ।३।मु०। ग्रहणा नइ आसेवना रे, सीखइ सिख्या दोइ । एक दिवस बाहिर गयउ रे, हरियाली भुइं जोइ रे ॥४॥मु०॥ साधु नजरि टाली करी रे, पूरब रीति संभालि । वहतर पाणी थभियउ रे, बाधी माटी पालो रे ॥शामु० तरती म की काचली रे, बालक रामति काज। जोवउ माहरी बेडली रे, पार उतारइ आज रे ॥६॥मु०॥ आव्या थिवर इसुकहइ रे, ए कुण तुझ आचार। . पच महाव्रत आदरथा रे, उत्तम कुल अरणगार रे ॥७॥मु०॥ मुनिवर पचतावउ करइ रे, मइ कण कीधउ काम । वात थिवर जेहवइ कहइ रे, भगवन भाखइ तामो रे ॥८॥मु० मा होलह मा खिसहइ रे, मा निदह करि रीस। चरम देहवर एह अछइ रे, अईमत्तउ मुझ सीसो रे ।।६।।मु० आठे अरिअण निरदली रे, पाम्यउ शिवपुर वास। 'राजसमुद्र' गुण गावतां रे,अविचल लील विलासो रे । १०म०। श्री सनत्कुमार मुनि गीतम् । जी हो सोहम इद प्रससियउ जी हो रूपवंत धरि रेख । जी हो जोवा आव्या देवता हो जी दोठउ अति सुविशेष ॥१॥ महामुनि धन धन 'सनतकुमार'। जी होतण जिम राज रमणि तजी हो जी लीवउ संजम भार ।२। जी हो राजसभा लगि आवतां हो जी प्रगटयउ रुहिर विकार। जी हो पाणी वल माहे थइ होजी देही अवर प्रकार ॥३॥ जी हो चउसठिउ सहस अ तेउरी हो जी करती कोड़ि विलाप। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि जी हो ऋद्धि अवर पाछलि थई, हो जी अलवि न निरखी आप ॥४॥ जी हो छ? छट्ठ नइ पारणइ हो जी आछणची नउ भात । जो हो लबधि छता साते सहइ हो जी रोग वरस सय सात ॥५॥ जी हो न करइ सार सरीरनी, हो जो सूधउ साधु महत । जी हो सुर वचने चूकउ नही, होजी धरि धीरज एकत ।।६।। ___जी हो लाख वरस संजम धरू, हो जी सारी आतम काज । __ जी हो मानव भव सफलउ कीयउ, हो जी इम जंपइ 'पिनराज' ॥७॥ श्री बाहुबली गीतम् । पोतइ जइ प्रति बूझवउ, वधव अमली माण वनि आवइ वे बहिनडी, करि प्रभुवचन प्रमाण ॥१॥ वीरा 'बाहुबलि'बाहूबलि', वीरा तुम्हो गज थकी ऊतरउ, मज चढयां केवल न होइ वी० ।। आकणी।। मूठि भरत मारण भणी, ऊगामी धरि रोस । आव्यउ उपशम रस तिसइ, सहिस्यइ ए मुझ सीस ॥२॥वी०।। मद मछर माया तजी, पंच मुष्टि करि लोच । धीर वीर काउसगि रहयाउ, इम मन सु आलोच ॥शवी०॥ आगलि लघु बधव अछइ, किम वदिसु तजि माण। ऊपाडिस पग ऊपनइ, इहां थी केवल नाण ॥४॥वी०॥ वेलडीए तनु वीटियउ, डाभ अणी पग पीड। ' मुनिवर नइ काने बिहुँ, चिडीए धाल्या नोड़ ॥५॥वी०॥ सहतां एक वरस थयउ जी, तिस तावड़ सो भूख । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री नंदिषेण गीत ७५ मउड़उ सउ काने पडयउ, बहिन वचन पीयूष ॥६॥वी०॥ राज रमरिण रिद्धि मइ तजी, हय गय नेक अनीक । ब्राह्मी सु दरि साधवी, न कहइ वचन अलीक ||७|वी०॥ प्रतिबूधउ आलोचतउ, अवर न एवड़ मूढ । हु द्रव्यत गज परहरी जी, भावत गज आरूढ ॥८॥वी०॥ लघु बधव पिण केवलो, वदिसु तजि अभिमान । पाम्यउ पग ऊपाडतइ, अनुपम केवल नाणवी०॥ केवल न्यान न ऊपनउ, इतला दिन नी वेठि । चाप्यउ किम ऊकमि सकइ, बाहर्बाल पग हेठि ॥१०॥वी०।। झूश्यउ बूझयउ ऊवरयउ, आज लगइ सोभाग । साधु तणा गण गावतां, 'राज'तणउ बड भाग ।।११।।वी०॥ श्री नंदिषेण गीत साधु जी न जइयइ जी पर घर एकला,नारी नउ कवण वेसास। 'नदिषेरण'गणिका वचने रहथउ,बार वरस गृह वास ||१||सा० सुकुलीणी वर कामिणी पंचसइ, समरथ श्रेणिक तात। प्रतिबूधउ बचने जिनराज नई,व्रत नी काढइ वात ।।२।।सा०॥ भोग करम पोतइ अण भोमव्यां, न हुस्यइ छूटक वार । बात करइ छइ सासण देवता, लीधउ संजम भार ||३|सा०॥ कचन कोमल काया सोखवी, अरस विरस आहार । सवेगी मुनिवर सिर सेहरउ, बहु विधि लबधि भंडार १४सा० वेश्या घरि पहुतउ अणजाणतउ, धरमलाभ घई जाम । धरमलाभ नउ काम इहा नही,अरथलाभ नउ काम ||५|सा० बोल खमी न सक्थउ गरबइ चडयउ, खांचइ घर नउ नेव। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि दीठउ घर सारउ अरथइ भरयउ, जाणउ परतखि देव ।६स० हाव भाव विभ्रम वसि आदरइ, वेश्या सुघर वास । पिण दिन प्रति दस दस प्रतिवूझवी मूकइ प्रभु नइ पास ॥७सा० इक दिवस नव आवी नइ जुडया, न जुडइ दसमउ कोइ। आसगाइत हासइ मसि कहा, पोतइ दसमउ होइ ॥८॥सा०॥ नदिषेण फेरि सजम लीयउ, विषय थकी मनवालि। चूकी नइ पिण जे पाछा वलइ, ते विरला इणि कालि ॥९सा० व्रत अकलकित जउ राखण करइ, इणि खोटइ ससारि । श्री 'जिनराज' कहइ तउ एकलउ, पर घरि गमण निवार ॥१०॥सा०॥ श्री गजसुकुमाल मुनि गीतम् सवेग रस माहि झीलतउ, मन सु करइ आलोच । दोषी नउ जउ दहवट गमु, तउ मइ साधु रे स्यु करि लोच ॥१॥ यादवराय धन धन 'गजकुसुमाल,' तेहनइ करू रे प्रमाण त्रिकाल प्रभुपासि सजम आदरयउ, तेहनउ ए प्रमाण। , मन वच काया वसि करी, जउ हूँ पामू रे केवलज्ञान ॥२॥ मुनि मुगति जाववा अलजयउ, पडखइ न दिन दस वीस । जास्यइ तिका जावउ घड़ी जउ दिन जायइ रे तउ छह दीस ।३। समसाण जइ काउसग्ग रहयउ, तिण सांझि प्रभु.नइ पूछि । मुनिवर अवर मन चितवइ,एहनइ साची रे छइ मुंह मूछि।४। मझ सुतां विण अवगुण तजो, सोमल अर्गान परजालि । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री स्थूलिभद्र गीतम् CO ७७ सिगड़ी रची सिर ऊपरइ, चिहु दिसि बांधी रे माटी नी पालि ॥५॥ वेदना जिम अधिकी वधइ, तिम वधइ मन परिणाम । चवदमइ गुणठाणइ चड़ी, मुनि पामइ रे अवचल ठाम ॥६॥ देवकी जामणि नइ थई, ते रयणी वरस हजार । दिवा भावी प्रहसमइ, पणि नवि दीठउ रे प्राण आधार ७ पूछता प्रभु माडो कहइ, राति नी वीतग वात । हरि देखी हियडउ फूटिस्यइ, तिण कीघउ रे रिषीजी नउ घात ||८या०॥ उपसम सुधारस सेवीयइ, पामीयइ अविचल राज । * मन रगे साधु महतना,इम गुण गावइ श्री 'जिनराज' या० श्री स्थूलिभद्र गीतम् राग-कानडौ धूलिभद्र न्यारी भाति तिहारी, हु तेरी बलिहारी ॥थू०॥ भोजन सरस युवति सगति तजि, होत अवर ब्रह्मचारी ।१थू० या चित्रसाली वा सुख सैय्या, पूरव परिचित नारी ॥५०॥ भर यौवन अरु भर पावस रितु, षट रस कउ आहारी ।२थू० राखी अपणी टेक अखडित, गणिका भी निस्तारी ॥५०॥ श्री 'जिनराम' कहालू वरणइ, तेरउ तू अनुहारी ॥३॥थू०॥ श्री विजयसेठ विजया सेठानी गीतम् राग नट आली भन वो प्रिय धान वा प्यारी। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि भरि योवन इक सेज कउ सोवन, किसन सुकल पखि ब्रह्मचारी ।।१धि०॥ आर्छ जाम रमे मन माने, दाव परइ न मरइ सारी। काजल वीचि रहास' रयण दिन, लागइ रेख न का कारी ॥२साध०॥ प्रिया तरती अपणउ प्रीउ तारयो, तरतइ पीउ प्यारी तारी। 'राज' वदति कलिके जोगीसर, तापरि सिरि वारु डारी ॥३॥ध०॥ श्री दमयन्ती सती गीतम् । __ छोडि चल्यउ 'नलराइ', निसि भरि सूती 'दमयन्ती' सती । नवल सनेही नाह, नयण न देखइ ते जागो छती ।।१।। ए मन मोहन नाह, नगीनउ किहां गयउ । ए मन मोहन माहरउ, प्रोतम मिलिवा अलिजयउ ॥०॥ साद कीयां दस वीस, पाछउ दीधउ साद न को कीयई । प्रीउ प्रोउ करइ पुकार, प्रेम विलूधी उलंभा दीयइ ।।२।।ए०॥ कामिणगारइ कंत, मुझनई सीख न का चालतइ कही। दरसण आइ दिखाइ, हासइ री वेला हिवणा नही ॥३॥ए। मइ विरहउ न खमाइ, सास तणी परि खिण खिण संभरइ । जेहसु निवड़ सनेह, ते तउ वीसारथा नवि वीसरइ ॥४ाए। नेहा नह अपार, जे जडि धालि चल्यउ उर अतरइ। लाख मिलइलोहार,तउ पिण ते जड़ किम ही न वीसरइ॥५ए० अवसर वोल्या बोल, सालइ साल तणी परि माहरइ । १ रहत, २ (वाके) नख शिख परि डारुवारी Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सती कलावती गीतम् ७६ हिव मुझ करिज्यो सार,वइगी जउ मन मानइ ताहरइ ॥६ए० कवण कीयउ अपराध, प्रगट थइ मझ नइ समझावियइ।। अबला करइ विलाप, नाह निहेजउ किम परिचावियइ॥७ए० कठिन विरह निसि दोस, प्राणी तुझ नइ सहिवउ छइ । सइगू साथ म मूकि, एहवउ साथ न को मिलस्यइ पछइ ॥८॥ए०॥ आलि मारगि दोइ, इक जास्यइ पीहर इक सासरइ । चोर लिखित सपेखि, पहु चइ भीम सुता निज पीहरइ ॥९ए० कीधा कोडि जतन, अनुपम शोल रतन राखण भणी । आइ मिलै नल रोय, आस फली सफली हिवं आपणी ॥१०॥ए०॥ आज भलइ सुविहाण आज घड़ी सुघडी लेखइ पड़ी। इम बोलइ मुनि'राज' सोहइ शील सुरगी चूनड़ी ॥११॥ए०॥ - सती कलावती गीतम् बाहे पहिरथा बहरखा बांधव मूक्या जेह मन मोहन। राणी सहियर आगलइ, एम कहै सुसनेह ।।मन०॥१॥ धन धन सती 'कलावतो,' समरोजइतसू नाम ॥म०॥ जग मई साकउ राखियउ, सुर नर करइ प्रणाम ।।मन०॥२॥१०॥ मुझ मन मिलिवा अलजयउ, साचउ साजण सोइ ।।म०॥ जिण ए मुक्या बहिरखा, तिण सम अवर न कोई ॥मन०॥३॥१०॥ धनवेला धन सा घड़ी, धन दिवस धन मास म०॥' Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि- कृति कुसुमांजत्ति उडी नइ जाई मिलु, पूरु मन नी आस || ४ ||मन० ||ध ०|| एम वचन राजा सुणी, मन मांहि पडयउ संदेह ||म० || कुसती रइ मन कुण वसइ, जे सु निवड़ सनेह ||मन॥५॥ ० गरभवती एकाकिनी, मूकी अटवी मांहि ||म० ॥ कापी आण्या वहरखा, साथइ लागी वांहि ॥ मन० || ६ ||०|| सील प्रभावि सती तणा, नव पल्लव कर होइ ॥ म०॥ सील वड़उ भूषण कहयउ, सील समउ नहि कोइ ||मन०||७||०|| ८० ते नामांकित वहरखा देखी सख नरिद | म० । पुत्र सहित निज कामिनी, आणी परमाणंद || मन० ॥८॥०॥ सुजस थयउ महि मंडलइ, साचउ सील रतन्न || मन० ॥ 'राजसमुद्र' गुण 'गावतां', लोक कहइ धन धन्न ॥ मन० ॥६॥० ॥ श्री मयणरेहा सत्ती गीतम् लघु वांधव जुगवाहु नड रे हा, जीवनप्रारण आधार ॥ मयणरेहा सती ॥ मणिरथ रूपइ रजियइ रे हा, विरूआ विषय विकार ॥०॥१॥ मयणरेहा राख्यउ सील रतन्न, कीधा कौड़ि जतन्न, तिण कारण धन धन्न ॥ प्रा० ॥ पापी मणिरथ निसि भरइ रे हां, मूक्यउ खडग प्रहार ||म० ॥ पिउ पासइ ऊभी रही रे हा, 'देही शरण' च्यारि रे ॥ म०॥२॥ सील रतन राखण भणी रे हा, ते पहुंती वन मांहि ॥ ० ॥ पुत्र रतन जायउ तिहां रे हां, जल गज नाखी साहि ||म० ||३|| Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सीता सती गीतम् । विद्याधर पडती ग्रही रे हा, चूकउ देखि सरूप म०॥ ते मुनिवर प्रतिबूझव्यउ रे हा, दाखी विषम विरूप ।।म०४।। प्रीतम सुर आवइ तिहां रे हां,पाय प्रणमइ कर जोडि ।म०। - सुर सानिधि व्रत आदरइरेहा, माया ममता छोडि ।म०॥५॥ नंदन नमिराजा थयउ रे हां, पूरब करम विसेष म०॥ शिव सुख पामइ सासता रे हां, जग माहि राखी रेख ।म०६ जे अवसर चूकइ नही रे हा, पालइ सील रसाल म०॥ 'राजसमुद्र' कहइ तेहनइ रेहा, करूं प्रणाम त्रिकाल ।।म०७।। श्री सीता सती गीतम् राग-सोरठी. जब कहइ तुझ वनवास रे, सारथी भरि नीसास रे। सासन रे तास न को लोपी सकइ रे।। ऊलटथउ विरह अगाह रे, तब नयण नीर प्रवाह रे । वाहन रे नाह नगरि पाछउ तकई रे ।।१।। प्रीतम कीयउ कुण काम रे, अबला तजी वनि आम रे । आमन रे राम निठुर कीजीयइ रे । परिहरिनइ करि द्रोह रे, राखीवा निज कुल सोह रे । सोहन रे मोहन विगु क्यु जीजयइ रे ॥२॥ कीधी न का खल खच रे, साभली पिशुन प्रपंच रे पचन रे रचन न प्रीउ पूछया वली।। पूरवी सउकि उमेद रे, हराविस्यइ ते द्र वेद रे । वेदन रे खेद न वचन साभली रे ॥३॥ आवियउ लंक सहेज रे, सतउ न मुख भरि सेज रे। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि सेजन रे ए जनकेश सुता अछइ ॥ पुगउ न आलोच रे तइ कीयउ करम आसोच रे। सोचन रे लोचन भरि करिस्यइ पछइ रे ॥४॥ तिरण कीया कोडि जतन्न रे, राखिवा सील रतन्न रे। रतन्न रे मन्न-न चूकउ जेहनउ रे ॥ आदरथउ श्री 'जिनराज' रे, धोजनउ सीता साज रे। साजन रे आज नवल जस तेहनउ रे ॥५॥ ___ श्री सती सीता गीतम् लखमणजी रा वीर जोहो जीवन जो हो जी, दशरथजी रा नदन कांइ मुझ परिहरो जी। सास तणो परि खिण खिण पीउ पीउ सभरइ रे, तुझ विरहो न खमाई जी ॥१॥ तू मुझ प्राणाधार जी०, चतुर सनेही लाल राचि न विरचियइ रे । झटक न दीजइ छेह जी, आगलि पाछलि वात विमासियइ रे ॥२॥ बहिनी घालइ घात जी, लहि अवसर अणहूँता अवगुण पिण कहइ रे । पर घर भंजा लोक जी०, नित नित नवलउ नेह तिके किम सांसहइ रे ॥३॥ वीसरिया दिनतेह जी०, हु वनवासइ आवी हुतो एकली। अवरि सहू ए नारि जी०, प्रीतम दउलति री माखी आवी मिलि रे ॥४॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सती सीता गीतम् ८३ हु अबला निरधार जी०, ___ कीडी ऊपरि कता कटक न कीजीयइ रे। जउ तइं जाण्यउ दोष जी०, लोक हजूरइ धीजइ साच करीजीयइ रे ॥५॥ एकलडी वन माहि जी०, इण वेला मुझनइ तुझ विण कुण साहरइ रे । कहीयइ केहनइ साथ जी०, __ मन की बात रही मन माहि माहरइ रे ॥६॥ आपण आदरीयाह जी०, नवि ऊभगियइ तउ ते नेह सराहियइ रे। उत्तम एह आचार जी०, जिण मीटइ मिलियइ तिण अंत नीवाहीयइ रे॥७॥ बार वरस नइ अत जी०, धीज करण 'सीता' वहि आवी मनरली रे । राखी जगमइ रेख जी०, ___ नारि जाति सुविशेषइ कीधी ऊजली रे ॥८॥ सोनइ सामन होइ जी०, सील प्रभावइ ते साची सोभा लहइ रे । धन धन सीता नारि जी०, इण परि मन रगइ मुनि 'राजसमुद्र' कहइ रे ।।६।। - इति सती सीता गीतम् Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामायण सम्बधी पद (१) मदोदरी वाक्यम् राग-सामेरी मंदोदरी बार बार इम भाखइ। दस' सिरि अरु गढ लका चाहइ, तउ परस्त्री जन राखई ॥१॥मं०॥ पलटयउ दिवस विभीषण पलटयउ, पाज जलधि परि झाखड । बोवइ पेड़ आक के आगण, अब किहा थइ चाखइ ॥२०॥ जीती जाइ सकइ नही कोउ, वाणि एहि जगि आखइ। 'राज' वदत रावण वयु समझइ, होणहार लकाखई ॥३०॥ (२) मदोदरी वाक्यम् राग - सामेरी आज पीउ सुपनइ खरी डराई।। जलधि उलंधि कटक लंका गढ, घेरयउ परी लराई ॥१आ०॥ लूटि त्रिकूट हरम सब लूटी, त्रूटी गढ की खाई । लपक लंगूर कगुर बइठे, फेरइ राम दुहाई ॥२॥आ०|| जउ दस सीस बीस भुज चाहइ, तउ तजि नारि पराई । 'राज' वदत हुणहार न टरिहइ, कोरि करउ चतुराई ॥३॥आ०॥ १- जो दस सीस वीस भुज चाहइ. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीता विरह (३) मदोदरी वाक्यम् राग-गुण्ड मल्हार सीय की भीर रघुवीर धायउ । बधी जब पाज तब नाव हाजति टरी, गि अति अधिक उच्छाह आयउ॥१॥ नीर निधि तीर गजराज सिरि गिरि शिखर, झलहलइ सूर जिम देवरायउ। घूक दसकध तब अध सउ होइ रहयउ, , किरण लंगूर गढ लंक छायउ॥२॥सी०॥ हाक हनुमान की जानकी पदमिनी, . प्रेमरस परम आनंद पायउ । वदत 'जिनराज' मदोदरी कुमुदिनी, सोच वसि बहुत सकोच खायउ' ॥३॥सी०॥ (४) सीता विरह राग-मागणी. सीय सीय करत पीय सीय विण सब सूनउ । दोउ नयण सावण भादु भये, ऐसी भांति रूनड़ ॥११॥सी०॥ समरि समरि सोय के गण, ऊमड़त दुख दूनउ । रयणि नीद न दिउस भूख, रहत ऊणउ झूणउ ॥२॥सी०।। आयाम रटत जात, विगरि सीय अलूणउ। 'राज' धार होत मन मिलइ... " अमूणउ ॥३॥सी०॥ २- पायउ - Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज सूरि कृति - कुसुमांजलि (५) राम वाक्यम् सुभटानाम् असुरपति आपणि कमाई तई न डरहे । कोण जलनिधि जल तरिहै ॥ अ०॥१॥ वाकड गढ वांकी खाई, वांके हइ जाके सहाई । काहू कु नजर मांहि न धरहइ || अ० || २ || जीते च्यारे हग्गपाल, इन्द्र हु कइ उरिसाल 1 माता भी विधाता पाउ परिहई || अ० ॥ ३ ॥ लंका कउ कमार ठउर ठउर हूं को जयत वार । गह भी भराए पाउ भरिहर ||आ० ||४|| सोस दस वीस भुजईश की कृपा यँ पाए । मारयो भी काहू को न न मरिहइ || अनाशा as as वीरन कइ आगइ कहइ रघुवीर । सीय की खवर कउन करिहई ||अ० || ६ || L ८६ ( ६ ) हनुम ंत वाक्यम् करिहु, दशमुख थई न न डरिहु । क्षु कछु रघु राम कहइ सोऊ' सोय की खबर सुतो वातन की वातहर, सीय भी कहउ तउ आण घरिहु ॥१॥ ज० ॥ जलधि उलंघ गढ लक भी उलधि कइ, १- सोइ कहउ तउ पलक मइ पकरि । पावक की पोट दे दे कंचन कउ कोट गारू, कहउ तउ निशाचर सुलरिहं ॥२॥ ज० ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुनः हनुमंत वाक्यं रामचन्द्र प्रति पाप कउ पहार परतीय कउ हरणहार, ___ कहउ तउ पलक मइ पकरिहु । . पवन कउ पूत कहउतउतउ हूँ तिहारो दूत, _ 'राज' को भराए पाउं भरिहु॥३॥ज०। (७) पुनः हनुमत वाक्य रामचंद्र प्रति जउ पइ होवत राम रजारी। तउ तू भी देखत मेरी मइया, दयत दयत कू सजारी १ज०। दसउ सीस बल दयत दिसो दिसि,छीन लियत पचरंग धजारी। कन कन करूं कंगुरे गढ के, करज बुरज पुरजा पुरु जारी ॥२॥ज०॥ फेरत आन दान मेरे प्रभु को,आपण वस कर सकल प्रजारी। 'राज' रजा विरणु इया हुइ आई, लका लाइ हुडाग प्रजारी ॥३॥ज०॥ (८) मदोदरी वाक्यम् राग-धन्यासी ( जयतश्री) आज पिउ सोवत रयण गई नायक निपुण दूध मई काहे, कांजो आरण ठई ॥१॥आ०॥ मेरउ कहयउ विलग जिन मानउ, हइ विषुवेल वई। विगरे काम कहउगे मोकु, किण ही न खबर दई॥२आ० सुणियत हइ गढ लक लयण कु, होवत राम तई। डरत न कहत 'राज' सुकोऊ, कन कन बात भई ॥३॥आ० Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ དད་ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि (९) रावण प्रति सीता वाक्यम् राग-सोरठ हरि कउ नाम लइ दसकध, काहे तजइ कुल कउ माग । राम विणु परपुरुष मेरे, भाय कारउ नाग ।ह०॥१॥ अति चतुर तू मति होइ आतुर, इहां न तेरउ लाग । पतिव्रता कइ प्रेम पति सु, अउर सुवइराग ॥०॥२॥ तजिनीच गति भजि ऊंच संगति', वढइ दिन दिन आग। रघुवीर रूडइ 'राज' रावण, किम रहइ सिर पाग ।।ह०॥३॥ (१०) हनुमत प्रति सीता वाक्यम् राग - सोरठ आगइ आइ ठाढउ रहयउ वनचर, कर चरग प्रणिपात । आन तजि जानकी पूछी, राम की कुसराति ॥१॥आ०॥ सहल सी हु टहल करती, साग मूरी पात । चरण चेरी आण धेरी, मोहि कछु न वसात' आ०॥ रहत हइ किस भांति पीउ कइ, कउण हइ संघात । कहि देव दारणव 'राज' आगइ, कही मेरी वात ॥३।आ०॥ (११) विभीषण वाक्यम् राग-सारग कहत अइसी भाति विभीपण भ्रात। तू दसकंध अंध भयो जा परि, उवा दुहिता तू तात ॥१क० कहा गई तेरो चतुराई, जारण वूझ विप खात । नई हइ राज लाज भी जई हइ, परमव दुरगत पात ।।०२।। १. पदवी. ६- चढइ १- सुहात. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह बलवंत गीतम् अयसउ हुयो न हुइ कुबुधी, थिर रहइगो इया बात । 'राज' न जोर चलइ भावी सु, काहू कउ तिलमात ॥क० ३॥ (१२) पुनः विभीषण वाक्यम् राग-सारंग निपट हठ झालि रहयउ बेकाम । जानत हूँ मेरइ भायइ तू, खोयइ गउ सब माम ॥नि०॥१॥ कोनउ पात पात सब उपवन, रहयउ राम कउ नाम । अइसी आग व्रजागि लगाई, जरे कनक के धाम ||नि॥२॥ जा कइ दूत करी या करणी, सो कहा करहइ राम । समझउ 'राज' भेज दयउ सीता, जनि कोउ करहु सग्राम ॥नि०॥३॥ - मोह बलवंत गीतम् राग-मल्हार मोह महा बलवत, कवण जीपी सकइ रे क० । इण आगलि पग मांहि, रहइ दस वीस कई रे ०६०।। सहुनइ आण मनावइ, चउपट चउहटइ रे च०। किण ही आगलि एह न, तिल भरि अउहटइ रे ति०॥१॥ 'रिषभदेव'नी पूत;खबरि नवि को लीयइ रे व०॥ 'भरत' भणी 'मरुदेवा', उलभा दियइ रे उ०॥ भूख तृपा तप सीत, सहतउ साभली रे सा०। झूरता निसि दोस, नयन छाया वली रे॥न० ॥२॥ जामिणि नी अनुकपा, मन माहे वसी रे म०। लीन रहयउ पाणी वलि, प्रभु एकरिण दीसो रे प्र०॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजत्ति 'महावीर' ल्यइ आम, अभिग्रह आरू रे । माता पिता जीवता, हु व्रत नादरु रे ॥कि० || ३ || चउनाणी 'गोयम', गणधर धरणी ढलइ रे कि धर०। बालकनी पर वीर विओगइ विल विलइ रे वी० ॥ 'सज्जभव सरिखा पिण, इण मोहइ नड्या रे इ० | 'मनक' तणइ विउग, नयन आंसू पडया रे ॥०॥४॥ शिवगामी पिण 'राम', छमास विकल रहाउ रे छ० । 'लखमरण' तर उ करक, लेई खाधर वहयउ रे ले ० || मात वचन जजोरे, सुत सूतउ कस्यउ रे मु० । बार वरस गृहवास, फिरी 'आद्रन वस्यउ रे || फि०||५|| 'अरहन्नक' नइ नेह, जरगणि परवसि पडी रे ज०। घरि घरि पूछइ जाइ, घरणु ं इक आरडी रे घ० ॥ किहां माहरउ अरहन्नउ, दीठ कहउ ल्याउं जई रे क०१ भमती गलिया माहि, खरी गहिली थई रे ॥ ६ ॥ इद नारद फरिंगद, विद्याधर मानवी रे वि० । विनss सहु नइ मोह, करी परि नव नवी रे क० । पोतइ वीतग वात कि, मन माहे धरी रे कि म० । इम जंपइ 'जिनराज' प्रगट वचने करी रे ॥ प्र० ||७|| १० वैराग्य गीत राग- गउडी 1 सुख लोभी प्राणी साभलउ जी, सीख सगुरु की सार । वरजउ विषय विकार, लेजो संजम सार ॥ १ ॥सु०॥ लाधउ आरिजस मरणूअ भव, लाधउ गुरु संजोग । छारित नाही काहइ मूरिख, मधुबिन्दु सम ए भोग ||२||सु० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचेन्द्रिय गीत ६१ चउरासी लख भेष बणाए, जीव अणंती वार । करम वसइ भव माहे भमता, लाजत नही गुमार ॥३॥सु०॥ तन धन योवन हइ सब चंचल, जइसइ पीपल पान । विरणसत वार न लागत इण कु,ज्यु सध्या कउ वान ॥४ासु० जे सिर ऊपरि छत्र धराते, त्रिभुवन माहि प्रधान । ते भी काल कवल से कीने, तु क्या करइ गमान ॥५॥सु०॥ अवरहि द्यइ उपदेश विविध पर, आप न तजत लिगार। मासाहस पंखी परि करतउ, किम पामिस भव पार ।।७।।सु०।। ग्यान समुद्र मई मगन होइ करि, लेजे अरथ विचार । 'जिनसिंहसूरि' सीस इम बोलइ, 'राजसमुद्र' सुखकार ॥७० पंचेन्द्रिय गीत सुर नर किन्नर राय आज्ञा हो, आज्ञा हो जैहनी मन रगइ वहइ हो । बारह परषद माहि सामी हो, सामी हो वीर जिणेसर इम कहइ हो ॥१॥ फरस तणइ विकार रावण हो, रावण हो राजा दुखियउ रड़वडइ हो । रसनायइ कंडरीक सातमी हो, सामी नरकइ ततखिरण जे पडइ हो ।।२।। मंत्री जेम सुबंधत घ्राणई हो, • घ्राणइ इण भव ना सुख सउ गमइ हो । दृष्टि तणइ विकार रूपी हो, रूपि तिम वली लखमण भव भमइ हो ॥३॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जिनराज सूरि- कृति कुसुमांजलि सज्यापालक जेम तरुयउ हो, तरुयउ अति तातउ श्रवणे सहइ हो इरि परि इण जगि मांहि प्राणी हो, प्रारणी बहुला इशा बसि दुख लहइ हो || ४ || रमणी रग पतग तिण सु, हो तिणसुं राग रिती कवइ मत धरइ हो । इरिग रग राता जेह मुगधा हो, मुगधा पाप तणउ अपणउ भरइ हो ||५|| फल किपाक समान देखतां हो, देखता सहु जन नइ सुख संपजइ हो । कडूआ एह विपाक जाणइ हो, जाणइ जव नाना विघ दुख भजइ हो ||६|| ताथइ विषय विकार मूकउ हो, मूकउ जेम मुगति रमणी वरइ हो । इम मुनि 'राजसमुद्र' मन मइ हो, मन मइ एह भाव नित नित करइ हो ॥ ७ ॥ निन्दा वारक गीत राग - धन्यासी सुणहु हमारी सीख सयारणे, जणि कहु दोष विराणे रे । निंदक नर चण्डाल समाणे, आगम माझि कहाणे रे ॥ सु०॥ १ ॥ निंदक सोह न पावइ जगमे, काच सकल ज्यु नगमई रे । निदक ठावउ गिणीयइ ठगमइ, जइसइ काग विहग मई रे ॥ मु० || २ || Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यात्म शिक्षा (विणजारा) गीत तात विराणी करइ गहेलउ, जाणइ नांहि महेलउ रे । सालइ कुवचन खरउ दुहेलउ, ज्यु आगुरी इत हेलउ रे ॥सु०॥३॥ रजक विचारउ पर मल धोवइ, सो भी लाहउ जोवइ रे। विण स्वारथ निंदक मल धोवइ, आपहि आप विगोवइ रे ॥२०॥४॥ जिण विण निरदूषण नहिं कोइ, तउ भी कहणा जोई रे। झूठ गुमान कीयइ क्या होई, पछतावइगा सोई रे ॥सु०॥५॥ पर के वयण सुरणी न पतीजइ, सो नर चतुर कहोजइ रे। जउ अपणे नयणे देखीजइ, तउह विचार करीजइ रे ॥सु०॥६॥ अपणी करणी पार उतरणी, पर की तात न करणी रे। 'राजसमुद्र' पभणइ मन हरणी, ज्यु पावउ शिव घरगी रे ॥सु०॥७॥ आत्म शिक्षा (विणजारा) गीत . विणजारा रे वालभ सुणि इक मोरी बात, तू परदेशी पाहुणउ वि० । विणजारा रे मकरि तू गृहवास, आज काल मई चालणउ वि० ॥१॥ वि० रसिक न कीजइ मीत, वात न पूछइ विरह री वि० । वि० चउरासी लख नारि, तइ परणी तइ परिहरी वि०॥२॥ वि० जण जण सेती प्रीति, करि पीछइ पचताईयइवि० । वि० जाकउ अविहड़ नेह, ताहीस्यु चित लाईयइ वि० ॥३॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि वि० आइ जुडइ जब साय, तब तउ तू न सकइ रही वि० । वि० अइसउ मत न तंत, राखु हू अछर गही वि० ॥४॥ वि० भरि भरि नयण म रोय,करि कायर काठउ होयउ वि० । वि० मोगल नवसर हार.सो साथइ संवल लीयउ वि० ॥५॥ वि० जे वउलाऊ साथि, तासूम करे रूसणउ वि०।। वि० दूजण न हसइ कोइ, काज न विशासइ आपणउ वि०॥६॥ वि० लाखीणउ दिन जाइ, चेतन तूं चेतइ नही वि० । वि० 'राजसमुद्र' इम सीख, अपणइ आतम कुंकही वि०१८) आत्म शिक्षा गीत राग-गउड़ी इक काया अरु कामिनी परदेसी रे, ___ अंत न अपणी होइ मीत परदेती रे । संग न काहू कइ चलइ परदेसी रे,आप विमासी जोइ मी० ॥१ तास भरोसउ क्या करइ प० ने विछुरइ उखार' मी० । ' मइसउ साजण ढुंढिलइ प० जे पहुंचावइ पार मी० ॥२॥ आगइ सेज न पाथरी प० ले किछु सबल साथि मी० । पीछइ पछतावइ कीयइ प० आथि न आवइ हाथि मी० ॥३॥ घर बइठां दिन वहि गए प० केस भए सब सेत मी० । अजहु कछु विगरयउ नहीं प० चेत सकइ तउ चेत मी० ॥४॥ अपणउ अपणउ क्या करइ प० अंतर करहु विचार मी० । 'राजसमुद्र' कहइ देखि लइ प० स्वारथ कउ संसार मी०१५। १- जे हुवइ जावरणहार - - Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म शिक्षा गीत आत्म शिक्षा गीत राग-सारग जीवन मेरे यह तेरउ कउण विसेस । साधु कहात करत धन आशा, ता तइ हो फिरत विदेस ॥१॥ज०॥ पेम कइ फंद परत जण जण सु , ता विण धरत अदेस । देखि पर रमणि नयनो नचावत, अरु पठवत सदेस ॥२जी० __ कूप परत कर दीप लई जो, तिण सुका उपदेस । _ 'राजसमुद्र' भणि लहि परमारथ,सफल करउ इहु भेस ।।३जी० सीखामण गीत राग-केदारा गउडी. घर छोडि परदेस भमइ, मेलिवा बहु परि आथ । परलोक जातां जीवनइ काई, नावइ रे ते पिण साथ ॥१॥ जीवन लाल सुरण इक मेरे सीख । । जेहवी मीठी रे सरस रस ईख ॥जी॥आंकणी।। करि कूड परिजन पोषीयइ, ते सहु रंग पतंग । वोलाइ मरहट थी वलइ, कोइ नावइ रे ताहरइ संग ॥२जी० गोरडी प्रमुख मिली रडई, स्वारथ पुकारइ ताम । पुण एम मनहि न चीतवइ, पिसुडइ पामइ रे किण गति ठाम ॥३॥जी॥ वड बड़ा नरवर इम चाल्या, तू करइ कवण आलोच । जिण वाय ऊडइ हाथिया, तिहा केही रे पूणी नी सोच ॥४जी० Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर्दन जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि इक चलs आवइ एकलउ, भव रुलइ एक अनेक । आपणे कीधे करमडे, जीव पावइ रे सुख दुख एक || ५जी० || ससार सहु ए कारिमउ, कारिमउ ए परिवार । राय कुमर कोरव सउ पडया, ते गिणिया रे गान गधार || ६ || जी० ॥ इम जाणि जिन धम कीजियइ, जिम पामियइ भव पार । 'राजसमुद्र' सीखामण दीयइ, जीव चेतउ होयड़ा मझारि ||७|| जी० ॥ जकड़ी गीत राग - वेलाउल. w मेरउ नाह निहेजउ, अब मइ जाण्यउ री सहेली । अतरगति न कही काहू सु ं, आप विदेस चले जउ ॥ १ ॥ मे० ॥ विछुरत पीर न होत विरह की, निस दिन रहत सतेजउ । मग जोवत कबहु न पठायउ, काम दहू कउरेजउ ॥ २० ॥ अलख सरूपी कु सदेसउ, तुम भी हिलि मिलि भेजउ । 'राज' वदति फिरि जाब न पाउ, करिहु कठिन करेजउ || ३ || मे० ॥ आत्म-प्रबोध जकड़ी गीत राग - सारंग मल्हार हमार माई कत दिसावर कीनर । बायइ जोर हुकम साई कइ, पल भरि रहण न दीनर || हम० ||१|| जाव कहा दरगाह करइगउ, चलिहइ खाइ खजीनउ । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म प्रीतम गीत छिणु छिणु घटत अवधि बूझी नही, प्रेम सुधारस भीनउ ।हमा०॥२॥ दुनिया देखि चिहरवाजी सी, तउ भी प्रिउ न पतीनउ । श्री 'जिनराज' वदन अउचित मइ, संबल साथ न लीनउ ॥हमा०॥३॥ आत्म प्रीतम गीत यब तुम्ह ल्यावउ माई री तुम्ह ल्याउ, मेरो नाह मनाइ कइ ल्याउ । दरि दउरि तुम्ह पाइ परत हुँ, । मइं हठ छारथउ री प्रेम बणाइ ॥१॥ देखउ तड उण की चतुराई, छार चलत हइ नेह लगाई । कहा करू पीहर मइ बइठी, अइसइ री मो दिन जाइ ।।२।। जउ नायउ तउ मौन पकरि करि, सगि चलू गी गीत गवाई। 'राजसूरि' भणि अलख सरूपी, आवइ जावइ री आप सभाई ॥३॥ आत्मा-देह सम्बन्ध राग-गउडी-केदारउ, विहागडी विदेशी मेरे आइ रहे घर' माहि । - ना जाणु कब गवण करइंगे २, मोहि भरोसउ नांहि ॥वि०॥१॥ मोपइ मोहन मंत्र नही किछु, राखु पकरि करि बाहि । १. गृह २- करेसी ३- गहि Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि दिन दोउ रहत वचन के अटके, अंत विराणे जाहि ॥वि०१।। विणुजारइ ज्यु छोरि चलइगे, जरती छारि' क भाहि । 'राजसमुद्र' भरिण रसिक शिरोमणि, इक थानक ' न खटाहि ॥वि०॥३॥ परमारथ पिछानो राग-जइतसिरी तू भ्रम भूलउ रे आतम हित न करइ, __ आपणपउ नायउ नजरइ ।।१।। पइठउ श्वान काच कइ मदिर, मूरखि भुसिहि भुसि मरइ ॥२॥तू०।। अतुलो बल केहरि जल पूरित, कूया भीतरि कूद परइ ॥३॥तू०॥ दर्पण कइ परसरि आयइ थइ, __ तुमचर कइसी भांति लरइ ॥४॥तू०॥ भोति फटिक की देखि दूरि थइ, परिणत मइगल आइ अरइ ॥५॥तू०।। परमारथ तउलु न पछानइ तउलु'राज' न काज सरइ ॥६ 'जागर' प्रेरणा राग-धन्याश्री सोवन को वरीया नाही बे,जागउ आपणइ घर मांहि बे ॥१॥ हेरून विछाणा साहो बे, आयउ अब धवलउधाही बे ।।२।। १- माहि जगाहि, पिछाहि २- ठौर - धुरी Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव शिक्षा छोरउ वणकर गल बांही बे, योवन धन घन लूटयउ काही बे || ३ || वाहर चाढउ शुभ लाही, बे, न घिरइ धन जाही ताही बे |४| जागउ' जिनराज' मसांहो बे, आयउ सिरि सूर सव्वांही बे ॥ ५ ॥ जीव शिक्षा राग - गूजरी मैरउ जीव परभव थइ न डरइ । विथा करम बांधति बडूआ' जिम, मुह मइ किछु न परइ ॥ १ ॥ मे० ॥ दउरी दउरो अउरन की अउरति, देखण चाह धरइ । नवला नेह करि फिरि पचतावत, 011 जब लालन विछुरई || २ || मे० ॥ मइ क्या सीख दिउ नयनन कु, जउ मन मउज करइ । वखत लिखि 'जिनराज' - तखत तई, 2 टारत ही न टरइ || ३ || मे० ॥ · परदेसी गीत राग - धन्यासी परदेसी मोत न करीयइ री, करोयइ तउ विरह न डरीया री ॥ १ ॥ प० ॥ १- बटुआ २- मुनिराज Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि उवे उठि चलइ भर दरीयइ री, कइसइ करि वांह पकरीयइ री॥प०॥ जउ पइ अ चुर गहि लरीयइ री, तउ चिह मइ लाजुमरीयइ री ॥३॥१०॥ काहू कउ चीत न हरीयइ री, तउ काहइ परवसि परीयड रो॥धाप०॥ 'जिनराज' वचन चित धरीयइ री, तउ प्रेम कइ पथ न खरीयइ रो ॥५॥१०॥ ___ आत्म शिक्षा भ्रम भूलउ ता बहुतेरउ रे, न कीयउ जां मेरउ मेरउ रे ॥भ्र०॥१॥ ज्ञानी गरु जान बतावइ रे,मेरउ मेरउ मोहि भावइ रे ॥२भ्र० करि प्राणी दूध नवरेउ रे, मेरउहोइ हइ क्यु तेरउ रे ॥ध्र०३ मेरउ मेरउ जउ कहिह रे,हेलइ भवसायर तरिह रे।।भ्र०४ मेरउ छइ धरम सखाई रे,सो करि 'जिनराज' सदाई रे ॥भ्र०५ परमार्थ-साधन जकड़ी गीत राग-गोड़ी - रे जीउ आपणपउ अब सोच । क्या खायउ अरु क्या जु कमायउ, करि किछु इहु आलोच ।।१।१०।। योवन मद मातइ तइ कीने, कुण कुण करम असोच । कपटी सुकृत करण की वरीया, आण्यउ मन संकोच ॥मे०२।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किणहू पीर न जाणी वारउ विषय वरग परि दउरत, मन बलवत बलोच।। परमारथ 'जिनराज' पिछाण्यउ', क्या साध्यउ करि लोच ॥मे०॥३॥ किणह पीर न जाणी पिउ कइ गवरिण खरी अकुलारणी। मिलण सहल पुनि मिलि करि विछुरण, अयन जहर नीसाणो ॥१॥ सुधि बुधि सकल गई प्यारी की, धरणि ढरत मुरझाणी । सबही सइ चउ लइत हटाइ थइ, अइसी भईय विराणो ॥२॥ अउरहि सांग वणाइ विदा दो, जल बल चारि कहाणी। श्री 'जिनराज' वदत विरहात की, किणह पीर न जाणो ॥३॥पि०॥ पिउ-पाहुणो राग-धन्यासी ( वेलाउल) जब जाण्यउ पोउ पाहुणउ, तब तइसइ रहोयई। विण चित सु चित लायकइ, कब लग दुख सहीयइ ॥१॥ समझायउ समझइ नही, कहा फइटउ गहीयउ । आपणउ राख्यउ ना रहइ, हल देवल, कहीयइ ।।२।।ज०॥ प्रेम वणाइ पतग सउ, उवा कइ संग न वहीयइ। नयन नीर डारउ कहा, रोया 'राज' ना लहीयइ ॥३॥ज०॥ । १- न जाण्यउ २- दे चल ३- चाहियइ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ _१०२ जिनराजसूरि कृति-कुसुमांजलि आत्म बोध तेरा कौन ? राग - केदारउ जीउ रे चाल्यउ जात जहान । घोख मारग परयो निवहइ, बाल विरध युवान ॥१॥ कउण परि भडार भरि हइ,अंत वासउ रान । छूटि इक अपणी कमाई, सग न आवइ आन ॥२॥ ग्रन्थ पढि पढि जनम वउरयउ, मिटयउ तउ न अज्ञान । तू न का कउ न 'कउन तेरउ', समझि 'जिनराजान' ॥३॥ स्पर्धा कहा कोउ होर करउ काहू की। पीतर कनक होवत कबहू, देख्यउ निसि दिन फूकी ॥१॥ केकेड दसरथ कइ आगइ. वहत भाति करि ककी। राजा 'राम' भयउ उन आपणइ, कुल की कार न मूकी ॥२॥क०॥ नटरत वखत लिखत जु छठीकउ, याही मइ सब छूकी। इण वचने 'जिनराज' पलक मइ, सारी खलक रजू की ॥३क जकड़ी गीत देह चेतन-वृत्ति राग-जइतसिरी, धन्याश्री मिश्र लालण मोरा हो, जीवन मोरा हो अब कित मौन गही, मइ तेरइ पग की पनही ॥१॥ कोडि विलास किए तइ हिल मिलि, क्या चित तइ उतरी अबही ॥२शाला०॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचरंग कांचुरी देह आत्मा संयोग पंच तत्व की देह १.३ जउ तुम्ह अउर ठउर चित दीनउ, तउ मोकुतजि करि गुनही ।।३।।ला०॥ छारि चलत हमरे विललाते, किणहू अतरि गति न लही ॥४॥ला०॥ श्री 'जिनराज' वदत मुकुलीणी, सग चली पीहर न रही ॥शाला।। पंचरंग कांचुरी देह, आत्मा संयोग, पंच तत्व की देह राग-सारग पंचरंग काचुरी रे बदरग तीजइ धोइ। बहुत जतन करि राखीयइ, अंत पुराणी होइ ॥५०॥१॥ - सीवणहारउ डोकरउ रे, पहिरण हार युवान । चउथउ धोब खमइ नही हो, मत कोउ करउ रे गमान ॥५०॥२॥ कारी का लागइ नही रे, खांचि न पहिरो जाइ। बुगचइ बाधी ना रहइ रे इण कउ एह सभाइ ॥१०॥४॥ जब लगि इहु सयोग हइ हो, तब लगि हरि गुण गाइ। लघु दामी सद्गुरु कहइ हो, वेर वेर समझाइ ॥१०॥४॥ जाति-स्वभाव अज्ञानी शिक्षा कहा अग्यानी जीउ कु गुरु ज्ञान वतावइ । कबहु विष विषधर तजइ, कहा दूध पिलावइ॥०॥१॥ ऊपर ईख न नीपजई, कोऊ बोवन जावइ । रासभ छार न छारि हइ, कहा गग न्हवावइ ॥२॥क०॥ कालो ऊन कुमाणसा, रंग दूजउ नावइ । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जिनराजपूरि कृति-कुसुमांजलि श्री 'जिनराज' कोऊ कहा, काकउ सहज मिटावइ ।।३।।क०।। __ परमार्थ अक्षर राग - धन्यासी तुम्ह पइ हइ ग्यानी कउ दावउ। पढि पढि ग्रन्थ कहा तत पायउ, सो मोकु समझावउ॥तु०२॥ अच्छर बहुत सुण्या होइ झगरउ, सो जन मोइ सुणावउ । एक अच्छर मइ हइ परमारथ, अपढयउ सोइ पढावउ ॥तु०२ साथ रहत हइ नाथ निरजण, रि अंजण दिखलावउ । श्री जिनराज' तिहारउ चेरउ, आपो आप मिलावउ ।।तु०३ जकड़ी गीत, वहां की खवर राग- सामेरी मेरे मोहन अव कुण पुरी वसाई। निसि दिन मग जोवत सु सनेही, पतिआं क्यु न पठाई ॥१॥म०॥ विछुरण की वरीया चितवत हो, आवत नयण भराई । हइ कोऊ अइसइ हितू हमारउ, जो ल्यावइ बहराई ॥२॥मे० किण ही खबर न दइ उहा की, अब हइ कउण सखाई। श्री 'जिनराज' वदत इक अपणी, आवत साथ कमाई ॥३मे० __ परदेशी प्रीति राग-पासा कबहन करि री माई मीत विदेसी। जउ पइ कोरि जतन करि राखु, तउ भी अंत चलेसी ॥१॥ भमत भमत आयउ अव या धरि, दिन दस वीस रहेसी। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चाताप १०५ या मइ हुकम भयउ साहिब कउ,तउ पलभर रहण न देसी ।२। प्राणनाथ विछुरण की वेदन, निसि दिन कउण सहेसी। श्री 'जिनराज' नवल नवरगी, बहरि न खबरि गहेसी ११३॥ पश्चाताप राग नटनारायण आली प्रीत की पतया हम न वची। कागद पर आखर हइ मसि के, नीर झरत दोउ दृग हमची|आ०१॥१॥ फेरि जबाब न कोऊ लिखाउ, पाछी दे घालउ खरची। ऊपरि अउधि जाण लागे दिन, मग जोवत जोवत विरची आ॥२१॥ होवत प्राण तई निकसन कु, अब लगि क्यु ही क्यु हि वची। 'राज' वदत विरहरिण विरहातुर, प्रीतम मिलिवाकु ललची। आ०॥१॥ सांह नाम संभारो 'भव-भ्रमण' राग-नट आली मत आपउ परवसि पारइ । का कउ प्रिउ अर का की कामिणि, हइ सब स्वारथ कई सारई ॥१॥आ०।। । पीउ पीउ करत कहा पीउ पईयइ, काहइ कधीरज हारइ । टरत न वखत लिखत इक रचक, झुरि झुरि हग जल जण डारइ ।।२आ०॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि __ भव मइ भमत किते पोउ कोने,सो पीउ जो दुरगति टारइ । 'राज' चतुर वनिता सांइ कउ, ___ नाम अहोनिसि संभारइ ॥|आ०॥ आत्म प्रवोध हिलि मिलि साहिब कउ जस वाचउ । हइ कछु पइ मज हथ इजाजित, जाणि बूझि जिन राचउ ॥हि०॥१॥ देखउ आइ बूढापइ दोनउ, सिरि परि सेत सराचउ । अब इत उत भटकत मन मरकट , बहुत करत हइ काचउ ॥हि०॥२॥ आखरि आइ लगइ गउ इक दिन, जम कउ जोर तमाचउ । उण वरीयां तुम्ह याद करउ के, 'राज' रहत सोउ साचउ ॥हि०॥३॥ झूठी दिलासा वउरे मास वरस हुवउरे, मग जोवत दिन रइणि विहाई । विरहरिण कब लगि धीरज रिहइ, पीउ की खबर न कोइ द्यइ आई ॥शाव०॥ खरची की तउ बात सहल हइ,कागद तभी लिखि कइन पठाई। झूठइ ही मन नइकु दिलासा, कबहू काहू सुन कहाई ॥२व० ठउरि ठरि अइसी ही करिहइ,दिन दस वीस रही उठि जाइ। श्री 'जिनराज' नवल नागर सु, आली मेरउ किछु न वसाइ॥३॥व०॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म प्रवोध सुख दुख १०७ आत्म प्रबोध, सुख-दुख राग-कान्हरउ रे जीउ काहइ कु पचतावई। हइ किछु घाट कमाई तेरी, तउ अइसे फल पावइ ॥रे०॥१॥ छारि गमान कही काहू कइ, आगइ दांत दिखावई ।। वखत लिखित आवत हइ सुख दुख,रहि नइ अपणइ दावइ।२२० बोवइ पेड आक कइ आगणि, आंब कहां सुखावइ। परम पुरुष संपद अरु आपद, 'राज' रहत सम भावइ ॥रे०३ ___ मन शिक्षा,माया जाल, घड़ी में घड़ियाल राग-केदारउ मन रे तूंछारि माया जाल । भमर उडि बग आइ बइठे, जरा के रखवाल ॥१॥१०॥ बाल बांधि सिला सिर परि वचइ कित इकु काल । चेत चेतन वाजि जइहइ, घरी मइ घरिआल ॥२॥म०॥ मात तातरु भ्रात भामणि, लाख के लेवाल । 'राज' संग न चलइ वह भी, सामि नाम संभाल ॥३॥म०॥ अस्थिर जग, श्वास का विश्वास ? · राग-केदारउ कइसउ सास कउ वेसास।। कस अणी परि ओस कण की, होत कितक रहास ॥क०॥१॥ जाजरी सी घरी वाकइ, वीचि छिद्र पंचास। तिहा जीवन राखिवइ की, कउण करिहइ आस ।।क०॥२॥ रयण दिन ऊसास कइ मिसि, करत गवरण अभ्यास । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जिनराज भूरि-कृति-कुसुमांजलि जग अथिर 'जिनराज' तामइ, लेहु थिर जस वास ।।क०॥३॥ कोई जामिन नहीं, दस दिन पहिले पोछे राग-गोडी रे जीव काहइ करत गुमान । कुण कण काल कवल से करिहइ,तू मूरिख किसि गान रे०१ इकु पल भर राखण कु विचमइ, होत न कोउ जमान। को दिन दस आगइ कोउ पीछइ.अ त सबइ समसान रे०२।। देखत पलक' नीर नव नेजा, जाइ चढत असमान । श्री 'जिनराज' सखाइ मिलिहा,होत सवइ आसान ॥रे०॥३॥ कामिन गीतम् मदन का तौर राग-धन्यासी अब हइ मदन नृपति कउ जोरो। आपणे आयुध सजि करि रहीयउ, . ___ जणि कोउ करउ नीहोरउ ॥१॥ जाइ मिले सो भी पचतारणे, तउ काहे पग छोरउ। जो पग मडि रहित तिण आगइ,भागउ जाइ भगोरउ ।।२अ० झूठउ साचउ देखि दिवाजउ, भूल रहत मन भोरउ । इण आगइ 'जिनराज' अखडित,राख्यउ अपणउ तोरउ ॥२१० भ्रम-भ्रमण, भ्रम में भूला राग-तोडी अपनउ रूप न आप लहइ री। मोहि मिलिन कलि न सकइ केवल, एक अनेक सभाउ वहइ री ॥१॥ १. खनक Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म मर्म परम पुरुष कुण पावत' १०६ फइल रहयउ घट मइ न छुहइ घट, को काहू कउ गुन न गहइ री हु अब भारो हु अब दुबलउ,भ्रम भूलउ सब कोइ कहइ री॥२ ज्ञानी ज्ञान दोइ करि जानइ, क्यू चेतन लक्षन निवहइ री। परम भाव 'जिनराज' पिछानइ, तउ काहू की हाजति न रहइ री ॥३॥ ___ धर्म मर्म परम पुरुष कुण पावत ? राग तोडी. कउण धरम कउ मरम लहइ री। मीन कमठ गगाजल झीलत, खर नितु अग बभूति वहइ री ॥१॥कउ०।। मृग बनवास वसत निसि वासर,भूख तृषा तप सीत सहइ री। मौन लीयइ बग इत उत डोलत, राम नाम मुख कीर कहइ री ॥२॥कउ०।। मुड मुडावत सबही गडरिया,पवन अभ्यासी भुयग रहइ री। 'राजसमुद्र' भणि भाव भगति विगु, परम पुरुष कुण पावत हइ री ।।३।।कउ०॥ काल का हेरा तेरा क्यों कर होगा ? कितने ही आगये? ममता निवारण राग-कनडउ रे मन मूढ म कहि गृह मेरउ । आए किते किते आवइगे, क्यु करि हवइ गउ तेरउ॥रे०॥१ हइ तेरइ पीछइ छाया छल, काल पिशुन कउ हेरउ । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज सूरि-कृति-कुसुमांजलि आगेवारण जरा आए थड,चिहु दिसि होइ गउ घेरउरे०॥२॥ उण वरीयां निकस चेतन तू सोचइ गउ वहु तेरउ । साचर इक 'जिनराज' पिछान्यउ, काल' पिशुन कउ हेरउ रे ॥३॥ संवल साथ में ले नहीं सका, परदेसी किसके वश ? जकड़ी गीत . उरण मीत परदेसी विना मोहि, अउर किछु न सुहाइ । विरहन की वेदना भई, सा मइ कहीय न जाउ ||१|| मेरी बहिनी प्रीतम लेहु मनाइ, प्रीति की रीति बणाइ। वांह पकरि समझाइ ॥आंकणी।। चिहु साखि मात पिता दई, ऊण की न पूछी जाति । दिन आठ दस घर मइ रह्यउ,चलत न वूझी वात ॥२॥मे०॥ 'प्रेम विलूधउ प्राणियउ, कोऊ नेह न धरइ जोइ । पीछइ पछतावइ परइ, विछुरण अइसउ होइ ॥३॥मे०।। मोहनी मोपइ किछु नही, लालन रहइ लपटाइ । अइसउ सुगरु को नां मिल्यउ, जो ल्यावई वहुराइ ॥४॥मे०॥ वे गुनही अवला तजी, प्रोउ चले काहि रिसाइ । अपराध जउ को मइ कीयउ, दीजइ सोउ वताइ ॥५॥मे०॥ इक पल संगन छोरतउ, अव बीचि दीए पहार । जा विणु घड़ी न जावती, ता विरणु जाइ जमार ॥६॥मे०॥ वेखता मुझ इतनी परी, संबल न लीघउ साथ । मनरंग 'राजसमुद्र' कहइ,परदेसी किण हाथ ॥७॥मे०॥ १ वाट वीचिंकउ डेरउ - Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रातम काया गीत आतम काया गीत राग-धन्यासिरी. सुणि बहिनी प्रिउडउ परदेसी, आज कि कालि चलेसी रे। काहि कुण माहरी सार करेसी, छिन छिन विरह दहेसो रे ।।सु०॥१॥ प्रेम विलूधउ अरु मद मातउ, काल न जाण्यउ जातउ रे । अच चित आणउ आय उतालउ, रहि न सकइ रस रातउ रे ॥२॥सु०॥ वाट विषम कोउ सगि न आवइ, प्रोउ एकेलउ जावइ रे। विणु स्वारथ कहि कुण पहुचावइ, आप कोए फल पावइ रे ॥३॥सु०॥ भमिसइ पुरि पुरि मांहि एकेलउ,जिम गलीयां मइ गहलउ रे ना जाणु कित जाइ रहेलउ, बिछुरयां मिलण दुहेलउ रे ॥४॥सु।। पोतइ सबल साथि न लीघउ, बीजइ किणही न दीघउ रे । मूल गमाइ चल्यउ अब सीधउ, एको काम न कीघउ रे ॥सु०॥५॥ प्रीतम विण ह भइ रे विराणी,किण ही मनि न सुहाणी रे । पीहर को मई प्रीति पिछाणी, • जल बल छारि कहाणी रे॥सु०॥६॥ बहिरागी अतर वइरागी, प्रीति सुणति नवि जागो रे । 'राजसमुद्र' भणि सो बड़भागी,नारी विणु सोभागी रे ॥सु०७॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जिनराज सूरि-कृति कुसुमांजलि देह गर्न परिहार, आखिर छार है राग - धन्यासी. इया देही कउ गरव न कीजइ । देखत खलक पलक मइ पलटे, इया परि चतुर न धीजइ ॥ १ ॥ जोवन वसि दिन दसि झूठी सी, हड छवि छिन छिन छीजइ । इया मइ शुचि लव लेश न पइयइ, ज्ञान दृष्टि जव दीजइ । २ | दाही किरण हुं जलाई किण हु, आखर छारि चलीजइ । हुइ आवइ 'जिनराज' भलाई, तर करि जलू जीजइ || ३ || आत्म प्रबोध, कौन तेरा ? राग - केदारा तू तउ घरउ आज अयान । ग्रन्थ पढि पढि जनम वउरयउ, मिटयउ तउ न अज्ञान || १ || छूटि इक अपणी कमाई, सग न चलइ आन । तउ कहा भंडार भरह, अयन कुगति निदान ॥२॥ वांट लइत न कोउ वेदन, मिल्यो कूं यन जहान । कउन काकउ कउन तेरउ, समझि 'जिनराजान' ॥३॥ शील बत्तीसी सोल रतन जतने करि राखउ, वरजउ विषय विकार जी || सीलवत अविचल पद पामइ, विषई रुलइ संसार जी ॥१॥ सोलवंत जगि मइ सलहीजड, सीधइ वंछित कोडि जी । सुर नर किन्नर असुर विद्याघर, प्रणम वेकर जोड़ि जी ||२|| सी० ॥ कडुवा विषय विषम विष सरिखा, जे सेवइ नर नारि जी । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील बत्तीसी ते भव भव दुरगति दुख पामइ, ११३ न लहइ सोभ लिगार जी || ३ || सी० || एक वार नर नारी सगइ, जीव मरइ नव लाख जी । एकइ भागइ पांचइ भागा, द्यइ सज्जंभव साख जी ||४सी० ॥ करम वसइ रमणी देखी नइ, जे चूकइ गुणवंत जी । तनु मन वचन वली वसि आणइ, ते पिण साधु महंत जी ||५|| सी० ॥ आठ रमणि रूपइ रभा सम, कनक निनारगु कोड़ि जी । छोडी जंबू चरण करण धर, સ कवण करइ तसु होडि जी || ६ || सी० ॥ कुलवालूयर तप जप करतउ, रहतउ ते वनवास जी । कोणिक गणिका संग विलुवउ, पामइ नरकावास जी ॥ ७सी० ॥ चेलणा वचन सभाली निसभर श्रेणिक षड़यउ संदेह जी । सतिय सिरोमणि वीर वखाणी, सिव सुख पामइ तेह जी ||८|| सी० ॥ सुकमालिका नदी माहि नांख्यउ, भूपति निज भरतार जी । कुबज पुरष साथइ हतीयारी, दुखरणी रुलइ संसार जी || सी० श्री रहिनेमि नेमि जिन बंधव, राजमती तसु देखि नी । चूकउ पिशा व्रत भग न कीधर, राखी राजुल रेख जी || १० सी० अभया राणी दूपरण दाख्यउ, क्षेत्रइ न खल्यउ जेह जी । सूली फीटी थयउ सिंहासरण सेठ सुदरसरण तेह जी ॥११ सी ० ॥ लकार्पाति विद्या अतुली वल सुरपति पदवी सार जी ! तसु मस्तक रडवड़िया धरती, विरुया विषय विकार जो ||१२|| सो ० ॥f ' Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-फुसुमांजलि चालणीइ जल काढि सुभद्रा चंपा बार उघाडि जी। सील प्रभावे महिमा वावी, नाख्यउ आल उपाडि जी ॥१३॥सी०॥ हसी वायस जोडि दिखावइ, जाणी इण मुझ वात जी। मयण वसइ चुलणी मातायइ, चितीयओ सुत घात जी ॥१४॥सी०॥ भरतहरी काउसग्ग वन माहे, जपइ पिगला नाम जी। डीवी मिसि गोरख समझावइ, जोवउ विषय विराम जो ॥१॥सी०॥ कलि कारग सहु कोई जाणइ, विरति नही पचखाण जी। तिण भवि शिव गामी ते नारद, __ जोवउ सील प्रमाण जी ॥सी०॥१६॥ जिनरक्षित सायर विचि वहतउ, रयणा रूपइ भूल जी। खंडो खड करी वलि दीधु', पडतां माडि त्रिशूल जी ॥१७सी० जनक मुता वन मांहि इकेली, मूकावइ श्री राम जी। पावक गंगाजल सम कोधउ, राख्यउ अविचल नाम जी ॥सी०॥१८॥ सोल सनाह मंत्रीसर रूपइ, भूली रूपणि नारि जी। चक्ष कुसील पणइ दुख लाधा,नरय निगोद मझारि जी ॥१६सी नल राजा देखी दमयंती पूरन भोग संभारि जी। जिम मन डोल्यउ तिम वलि वाली, पामइ सुख अपार जो सी०॥२०॥ पूरव परिचित वेश्या नइ घरि, थूलभद्र रहा चउमासि जी। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील बत्तीसी ११५ ब्रह्मचारि चूडामणि मुनिवर, न पडथउ नारि पासि जी ॥सी०॥२१॥ वलकलचोरि वसइ वन माहे, फल फूले आहार जी। ते पिण गणिका केडइ धावइ, आवइ नयरि मझारि जी ।।२२।।सी०॥ सीलवती भूपति मंत्रीसर, नगर सेठ कोटवाल जी। च्यारे पेटो माहे राख्या, पाल्य सील रसाल जी ॥२३सी०॥ बार हजार वरस छट्ट कीधा, वेयावच्च प्रधान जी। नदिषेण संजम फल हारथउ,कीधउ नारि निदान जी॥२४सी भिडतउ भीम असुर सु भूखउ, आवइ माता पास जी। सील प्रभावइ कता वचने, कादम अमृत ग्रास जी॥२५सी० केस फरसि नीयारणउ कीघउ, पाली व्रत चिर काल जी। ते सभूति बारमउ चक्रवर्ति,जाइ सत्तम पाताल जी ॥२६सी० वेश्या संग तजी व्रत आदरि, नाचत चतुर सुजाण जी। ते आषाढभूति सवेगी, पामइ केवल ज्ञान जी ॥२७॥सी०॥ अरध मडित निज नारी छडी, साधु भगति परिणाम जो। ते भवदेव नागिला वचने,आवइ ठामो ठाम जी ॥२८सी०॥ पटराणी वचने नवि खलियउ, राजा नयन निहाल जी। ततखिरण वकचूल नइ आपइ, राज काज सभालि जी ॥२६॥सी०॥ आद्कुमार रहयड़ गृहवासइ, छंडी व्रत नउ भार जी। जीरण तृण जिम तेहिज परिहरि, लाधउ भवनउ पार जी ॥३०॥सी०॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि इम जाणी नइ साधु साधवी, श्रावक श्राविका जेह जी । निर्मल व्रत पालइ मन सूधइ, सिव सुख पामइ तेह जी ||३१|| सी० || युगप्रधान जिनचंद्र यतीसर, तासु पाट गरणधार जी । 'जिर्नास हसूरि' सीस इम पभरगइ, 'राजसमुद्र' सुविचार जी ||३२|| सी० बत्तीसी करम तरणी गति अलख अगोचर, कहइ कुण जागे सार जी । नारण वशे योगीसर जाणे, के जाणइ करतार जी ॥ क० ॥१॥ पूरव कर्म लिखत जे सुख दुख, जीव लहइ निरधार जी । उद्यम कोडि करइजे तो पिण, ९ न फलइ अधिक लगार जी ॥ क० ॥२॥ एक जनम लगि फिरइ कुआरा, एके रे दोय नारि जो । एक उदरभर जन्मइ होइ, एक सहस आधार जी ||क० ||३|| एक रूप रंभा सम दीसइ, दोसे एक कुरूप जी । एक सहू ना दास कहीये, एक सहू ना भूप जी ॥ क ० ॥४॥ सायर लघवि गयो लंकाये, पवनपूत हनुमान जी । सीता खबर करी ने आव्यो, राम कछोटी दान जी ॥ क० ॥ ५॥ वेश्या घर अवतारे आवी, तनु दुर्गध अपार जी । दुर्गंधा श्रेणिक पटराणी, थाइ करम प्रकार जी ॥ क० ॥६॥ चौसठ सुरपति सेवा सारइ, महावीर भगवंत जी । नीच कुले आवी अवतरीओ, करम सबल बलवंत जी ॥ क०७ रसकुपी भरवा नइ काजे, पइठउ जोगी ताम जी । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बत्तीसी ११७ करम वसि आकाशे वाणी, भरि राका नइ नामि जी ॥क०॥८॥ कीधो द्वारिका दाह दीपायन, बइठउ कृष्ण नरेश जी । अर्ध भरत सामी विचितई, आई पांडव परदेश जो ॥क०९।। सीता सती शिरोमणि कहीइ, जाणइ सहु संसार जी। तेहनइ राम तजी वनवासि,मूकि वचन सभारि जी ॥क १० नीर वहइ चडाल तणइ धरि, रही मसाणि नरिंद जी। जिझ सुत खापण निजगडी लीधउ, ते राजा हरिचद जो ॥क०॥११॥ जात मात्र आकाश उपाडी, सुर नाखे वन माहि जी। कुमर प्रजुन्न पानडा माहि,राखिउ करमइ साहि जी।।क० १२ साधु वचन साभलि सागरदत्त, दामन्नइ इकवार जी। मारण माडिउ पणि नवि मुउ, हुयउ ग्रहपति सार जी ॥क०॥१३।। विविध रतन मरिण माणिक देवी, बांभण एक अनाथ जी। रतनागर नी सेवा कोधी, दादुर लागु हाथि जी ॥क०॥१४॥ सोमदेव निज भगिनी परणी, पिण छडी ततकाल जी। निज माता गणिका सु लुबधउ, करम तणउ जजालि जी ।।क०।१५।। यात्रा करण बारह व्रत धारक, श्रावक वीरउ नामजी। मारग वाघणि सीगै वीध्यौ,करम तणे परिणाम जी ॥क०१६ अल्प काल ब्रत पाली पामइ, पुंडरीक भव पार जी। ब्रत पाली चिरकाले जाइ, कंडरीक नगर मझारि जी ।।क०१७ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि एकणि वार गमाया गयवर, चउद सs चिउं आल जी । कर्म वसे ते भिक्षा मागर, जूओ मुज भूपाल जी ॥ क० ॥ १८ ॥ मागइ,जूओ मुनि वचने वभिण रधावी, माजरि मिश्रित खीर जी । सेठि तनय तेहिज जोमीनइ, राजा थायै सुधीर जी ॥ क०१६ नापित घरि दासी नो बेटउ, जाति हीन कुल मंद जी । ते पालि नयर नो सामी, नवमु नंद नारद जी ||२०||क० ॥ सुर पचवीस सहस निसि वासर, रहिता जेहने पास जी । ते सभूम लवरण सायर विचि, ११८ वहतौ गयो निरास जी ॥ क० ॥ २१ ॥ दोभागी पूरब भव हुतौ, नदिषेण इणे नाम जी । स्त्री वल्लभ वसुदेव कहांणउ, करम तणा ए काम जी ||२२क रिषभदेव, त्रिभुवन तो नायक, लीधो निरुपम दोख जो । वरस लगइ आहार न पाम्या, करम दीयइ इम सीख जी || क० || २३ ॥ प्रसन्नचंद रिषि काउसग मांहि, नरक तरणा दल मेलि जी । ततखिण निर्मल केवल पामी, करम करइ इम केलि जी ॥ २४क मृगापुत्र पल पिंड उपल सम पूरब करम विशेष जी । कडुआ कर्म विपाक कहीजइ, चिते गौतम देख जी ॥क०२५ ॥ चारुदत्त योगी उपदेसै, पइठउ विवर मझारि जी । तउ पिण धन लवलेस न लीघउ, कीधा कोडि प्रकार जी ॥ २६क हरिहर ब्रह्मादिक योगीसर राजा ने वलि रांक जी । विविध प्रकारे कर्म विटबी, न करइ केहनी सांक जी ॥२७क करम लिखत सुख सपति लहीइ, अधिक न कीजइ सोस जी । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म बत्तीसी ११६ आप कमाया फल पामीजइ,अवर न दीजइ दोस जी ॥२८क इणि परि करम विपाक विचारी, छेदउ करम कलेस जी। जिम अविचल सुख संपद पामइ, प्रणमइपाय नरेश जी ॥२९क नव षट सोल (१६६९) प्रमाणे बरसे,भादव वदि गुरुवार जो। 'करम बत्तीसी' निसि भरि कीधी,धरि सवेग अपार जी ॥३०क 'खरतर' गच्छ नायक जयवंता, युगप्रधान जिनचद जी। तसु पाटे दिन दिन दोपता,श्री 'जिनसिंहसूरिंद' जी ॥३१क तास सोस पभणइ मनरगे, 'राजसमुद्र' सुविचार जी। भणतां गुणतां वलि साभलतां,थाये हर्ष अपार जी ॥३२क०।। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र चन्ना चौपाई सासरण नायक समरीयं वर्द्धमान जिरणचंद । लिय विघन दूरे हरे, आप परमानंद ||१|| सहु को जिनवर सारिखा, परिण तीरथ धरणीय विशेषि । परणीने ते गोइये, लोकनीत संपेखि ||२|| 1 दान शील तप भावना, शिवपुर मारग च्यार । सरिखा छै तो पण इहाँ, दान तणो अधिकार ||३|| 'सालिभद्र' सुख सपदा, पामे दान पसाइ । तास चरित वखारणतां, पातिग दूर पुलाइ ॥४॥ तास प्रसंगे जे थई, 'धन्ना' नी परिण वात । सावधान थई सांभलो, मत करज्यो व्याघात ॥५॥ ढाल १ चौपाई नी. मगध देश श्ररिणक भूपाल, पते न्योय करे चोसाल । भाव भेद सुधा सरदहै, जिरणवर प्रारण अखंडित वहै ॥१॥ नित नवला करती खेलरणा, मानीती राणी चेला | कोइ न लोप तेही कार, मंत्रीसर छइ ग्रभयकुमार ॥२॥ वारे पाड़ नगरी वसे, राजगृही अलका ने हसे । सुखिया लोक वर्षं सहुकोइ, तो पग पग माँर्ड छे जोइ ॥ ३॥ रसना गुण लेवा चलवल े, श्रवगुरण वेला मूल न वलें । परगुरण देखरण नयरण हजार, सयम दूषरण देखरण वार ||४|| परघन लेवा जे पांगला, पर उपकारी जे आगला । कर उपर करवा ने हठी, न्याय लाछ करें एकठी ||५|| सालानी जे दध े को गालि, तो हरखित हुवे रथ निहालि । विढतां कहै करमी कोई, कहियै विर होस्यइ दिन सोइ ॥ ६ ॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज सूरि-कृति-कुसुभाजलि ker शालिभद्र चौपई का एक सचित्र पृष्ठ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ লিপবাহি-কুনি-ধূলি f Lন। : " ২০০৮* ব T p ৮ - * * * "L * ১ "ret } ধ ? arius: | 4 ) 38. 'शालिभद्र का पूर्वभव में मुनिदान Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र बन्ना चौपाई परधन लेवा जे पागला, पर उपगारी जे आगला । कर उपर करवा ने हठी, न्यायें लाछि करें एकठी ||५|| सालानी जे द्य को गालि, तो हरखित हुवे अरथ निहालि । विढता कहे अकरमी कोई, कहियं विर होस्यइ दिन सोह || ६ || माता खोज गयो जो कहै, तो आसीस रुखो सरद है । रमता पिग जे पासा सार, अलिवि न आखे सारी मार || सूधी विराज तिसी परि करें, परदेसी धन धन उचरं । सकज पूत पीता अनुसार, हिवदुरण सीसे गोडा भरे ||८|| परव दिवस पोषध अनुसरे, अवसर बारह व्रत परिण धरे । परभव हुती जे थरहरे, वारू लाक से इस परं ॥६॥ धना नाम नारि अनाथ, सगम बेटो लेई साथ । घर नी आथि गाउ चली, सालि गाम थी ते ऊचली ॥ १०॥ जाजगृह श्रावी न रहे, पर घर काम करी निरवहै । सुख दुख वात न पूछे कोड, प्राथि पर्खे किम आदर होई ॥। ११ ॥ सगम बाहिर सारो दोस, वाछरुया चार निसदीस । चाराही श्रावं घर दीठ, पेट भराई थायै नीठ ॥ १२ ॥ सगम किरण ही परब विशेषि, खीर जीमता बालक देखि । पायस भोजन मनसा थई, मार्गे माता पास जई || १३ | घरनी परठ न छोरू लहै, दुख भर सजल नयन इम कहै । 1 पूत न पहुचे कूकस भात, तो सी खीर खाडनी वात || १४ || च्यार चतुर पाडोसा नार, श्रावी ने पूछे इण वार । स्यूं दीसै भ्रामरण दूमणी, माडी बात कही सुत तरणी ॥ १५ ॥ एकरण दूध श्रमामो दीयो, घृत नो वीडो बीजी लीयो । तीजी आप बूरा खाड, चोथी आप सालि खड || १६ || ॥ दूहा || हिव नीपजता खीर ने, वारन लागी काय कारण सकल मिल्या पछै कारिज सिद्ध ज थाय ॥ १ ॥ । 2 १२१ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जिनराजसृरि कृति कुसुमाञ्जलि भरणी, वैसारणी ससनेह | परीसें तेह ||२|| बोलावी वालक माना अति हरखित थई, खोर प्रति ऊन्ही जारगी करी, ठाउँ देई फुंक 1 थयो एक श्रचरिज तिसे, सुराज्यी प्रालस मूंक ||३|| ढाल - २ श्रइया, मेघ मुनि कांइ डमडोलैरे, ए जाति जामरण कारिज ऊपने जी, जाइ जिसे घर माहि । अतिथि एक आयो तिसै जी, ग्राण्यो करमें साहि ||१|| साधु जी भलै पधारथा श्राज, मुझ सारी वछित काज ॥ सा० मास खमरण नै पारण जी, जगम सुरतरु जेह । शिव मारग अवगाहतीजी, खीरण देह गुरण गेह ॥ - ॥ सा० ॥ बालक मन हरिखित थयौ जी, दीठो मुनिवर तेह | रोम रोम तनु ऊलस्यो जी, जाग्यो धरम सनेह ||३|| सा०|| घर आगण सुरतरु फल्यो जी, ग्राज भले सुविहारण । आज भली जागी दसा जी, प्रगटयो प्राज निहारा ॥ ४॥ सा० ॥ जे भव भमता दोहिला जी, चित्त वित्त ने पात्र | कुरण तीने लही एकठा जी, ढील करें खिरण मात्र ॥ ५ ॥ सा० ॥ जे सामग्री दोहिली जी ते मैं लाधी श्राज । जो हु हित्र सफली करुजी, तो पांमु सिवराज ॥ ६ ॥ सा० ॥ कीधी का न विचारणा जी, भाव भगति भरपूर । पायस थाल उपाडि नइ जो प्रायो साव हजूर || || सा०|| मांडे पडघो जागि नै जी, निरदूषण आहार । पडला भावे चढयो जी, खीर प्रखडित धार ॥ ८ ॥ सा० ॥ पात्र दान फल ए लहो जी, अतराय मत होय । नाकारो न कहो तिरण जी, पुण्य जोग आवी मिल्यो जी, दीघो दान तिसी पर जी, लालच न तो कोय ॥१॥ सा०|| उत्तम पात्र विशेषि । थाल रहधो अवशेष ॥१०॥ सा० ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई १२३ सात आठ पग साधु नै जो. पहचावी सिरनामि । करी प्रणाम पाछो वल्यो जी, बैठो ठामो ठाम ||११||सा०।। बोध सुलभ जनमतरै जी, लहिस्यै भोग प्रधान । इम सुपात्र आवी मिल्यो जी, दीजे अढलक दान ||१२||सा०॥ माता पिण आवी तिस जी, खाली दीठौ थाल । खीर परीसै थाकती जी, त्रिपतो थयो न बाल ॥१३॥सा०॥ ॥ दूहा ॥ सगम वात न का कही, पाछलि बीती जेह । देई दान प्रकासस्य, फल निगमस्यै तेह ॥१॥ देइ दान पमावस्य, वरय न पडस्यै ताह । फल तो तेहिज ले रहया, जीभ न ही जाह ।।२।। वछ नै देखी जीमतो, जामण करै विचार । इतली भूख सदा खमै, धिग माहरो जमवार |॥३॥ निस भर थई विसूचिका, काल मास करी काल । साधु ध्यान धरतो थको, पाम भोग रसाल ॥४॥ ढाल-३ राग गुंड, इक दिन दासी दोड़ती, ए जति लाखे गाने लाखेसरी, सह जेहने हेठ रे । लाछिनो जे अछे धरणी, तिहाँ गोभद्र सेठरे ।१।। दान उलट धरै दीजीये, फलयतो सुविशेष रे । संगमै भव तणे अतर, लोधा भोग सपेख रे ॥२॥दा०॥ नारि भद्रा उरु कदरा, मृगराज अणुहार रे । काल करी बाल ते अवतरयो, फल्यो दान सहकार रे ॥३॥दा०॥ रयरिण सुपनन्तर सालिनउ, दीठउ खेत्र निप्पन्न रे । फल कहइ सेठ, हरखित हुयउ. हुस्यइ पुत्र रतन्न रे ॥४॥दा०॥ गर्भ नी करै प्रतिपालणा, लेई न थ नी साख रे। धनड नो मुख जोइवा, धरै मन अभिलाष रे ॥शादा०॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ जिनराजमरि-कृति-कुसुमांजलि जीवदया प्रतिपालिय कीजीये पर उपगार रे । साहमी सुगुरु मतोपीये, दीजीये दान अपार रे ॥॥दा०॥ इम मन राज मोजा दिये, ते तो गर्भ प्रभाव रे। तिल तणो तेल जे मह महै, तेतो कुसम सभाव रे ||७|दा०॥ सेठ गोभद्र भद्रा तणी, विलखो मुख देख रे । जे मन दोहला ऊपज, पूरवे ते सुविशेष रे ||बाद०॥ इक दिन प्रावि दासी कहै, फल्या वछित काज रे। दाजीये सेठ वधामरणी, जायो पुत्र सिरताज रे ॥६॥दा०॥ दूरी कीवो दासी-परणो, जलस्यु सिर धोय रे । अगना अाभरण आपी नै, राखी चौगुणी सोय रे ॥१० दा०॥ घरि घरि रग वधामणा, थयो जय जय कार रे । सालिभद्र नाम दीधो इसो, करिय सुपन विचार रे ॥११॥दा०॥ मात भद्रा हुलरावती, दीये एम पासीस रे । चिरजीवे तु नान्हडा, कोडाकोड वरीस रे ॥१२॥दा०। तृझ इडा पीडा पडो, खारे समुद्र जाय । तुझ हुँती अलगी रहो, पूत अलाय वलाय ॥१३॥ हु वड जेम साखे- करी, वाल्हा वीस्तरी जेह रे। पूत सकल परिवार नै, लीधा निरवह जेह रे ॥१४॥दा०॥ हु तुझ ऊपर वारणे, कीधी वार हजार रे । साहिव जेम दिखावज्यो, एहनी दूरी वार रे ॥१५।।दा०॥ ॥हा॥ हिव सुकलीणी सामठी, नारी बतीस नीहारि । परगावी एकरण समै, भोग समत्य विचारि ॥१॥ हिव हु सयम आदरं, भव जल निधि वोहित्थ । सकज सुत जे घर रहै, तासु जनम अकथ ॥२॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई . १२५ वीर पास ब्रत आदरी, उद्यत कर विहार । व्रत लीधो तेहनो खरो, जे पाले निरतीचार ॥२॥ करि अरणसरण आराधना, त्रिविध खमावै पाप । । वैमानिक सुर सुख लहै, सालिभद्र नो बाप ॥४॥ ढाल ४ राग-मल्हार, कुशल गुरू पूरो वंछित आज, ए जाति जीहो जाण्यो अवधि प्रजूंजने जीहो पूरव भव विरतत । जीहो सुत सनेह परवसि थयो जीहो सेठ जीव एकत ॥१॥ चतुर नर पोखो पात्र विशेषि। . जीहो सुर सानिधिते फुलडा, जीहो सिव सुख फलै सपेखि ॥२॥च ।। जी हो निसिदिन सुरपासे रहै, जीहो पूरै मन नी आस । जीहो कर कपूरे कउगला, जीहो विलसै लील विलास ॥३॥०॥ जीहो परियागति पहिली ती, आथि अनेक प्रकार । जीहो सुर सानिधि तेहनो थयो, लाख गुणो विस्तार ॥४॥०॥ जोहो स्नान करी उठ जिस, जीहो नाह रमणी बत्रीस । जोहो गयण थकी पेटी तिसै, हाजरि होई तेत्रीस ॥शाच०॥ जीहो नव नव भूषण नीसरै, भामणी नै परि भोग । जीहो रतन जडित सिर सेहरो, सालि कुमर ने जोग ॥६॥च०॥ जीहो जे को न लहै खरचतो, जीहो धननी कोडा कोडि । जोहो ते माणिक ऊपरि जडथा, झलक होड़ा होड़ि ॥७॥च०॥ जोहो पहिरीजे पहिलै दिन, जीहो आभरण अमूल । जीहो बीजै दिन ते ऊतरै, जिम कुमिलाणी फूल च०॥ जोहो ले कूत्रा मैं नाखीये, जीहो ते पाभरण असेस । जीहो वलती गध न को लिये, जोहो ऐ ऐ पुण्य विसेस ।।६।।च०॥ जीहो न हुउ न हुस्यै जेहने, जी हो चक्रवति आवास । जीहो ते निरमाइल सालि नै,जीहो होवै सोवन नी रासि ॥१०॥च० Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि जीहो अउले खाले वहै, जीहो कस्तुरी घनसार । जीहो आठ पहर लगि सामठा, जोहो नाटिक ना दीकार ||शाच. जीहो सालिकुमर सुख भोगवे, दोगदुक सुर जेम। जीहो भामणि स्यु भी भीनो रहै,जीहो दिन दिन दिन वध प्रेम।१२ ॥ दूहा ॥ इण अवसर केइक भला, परदेसी मिल चार । रतन कंबल वेचण भगी, फिरय नगर मझार |शा ताप सीत भेदै नही, अति सु दर सुकुमाल । अग्नि झाल मे धोवता, मल छाडे ततकाल ॥२॥ जे पहिरस्य सो जागस्यै, अवर न जाणं भेव । परदेसी ऊभा कहै, रतन कवल को लेव ॥३|| छयल पूरष लेवा भरणी, फिरै वीच दलाल । पिरण साटी बाजे नहीं, कहै अमामों मोल ॥४॥ राजगृही नगरी भम्या, ऊंच नीच श्रावास। कवल कोई न सग्रहै, ते सहु थया उदास | ढाल-५ सिन्धुनी जाति इण पुर कंवल कोइ न लेसी, फिर चाल्या पाछा परदेसी । साल महल पास ते पावै, दासी मुखि भद्रा तेडावै ॥१॥ व्यापारी दीसौ छौ वीरा, तो किरण कारण थया अधीरा।। परदेसी श्रावै व्यापार, लाभ पखै अण वेच्या सारै ॥२॥ वस्तु अम्हारी लेवा सारू, मिल्यो महाजन वारू वारू । मोल सुगीने मुह मचकोड़े, वलतो साटो कोइ न जोडे ॥३॥ फिर पाछा वीरा मत जावी, मोल कही ने वस्तु दिखावो। सवा लाख धन खोले घाले, एह सोल कंवल सो झालं ॥४॥ वहवर एक निजर में दीठी, सी दिस खारी सी दिस मीठी। कंवल सोल किम परचावु, तिरण ए अरघो अरघ करावु ॥शा Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई १२७ जिम जाणो तिम एह अवधारो, खड करो बत्तीस विचारी पहिली अम्ह नै दाम दिरावी, पाछल मन मान सो करावो ॥६।। तेडि कहै साभलि भडारी, ए परदेशी छइ व्यापारी। वीस लाख सोनइया लेखै, कनक रजत आपो सुविशेष ॥७॥ कथन अपर तो मूल न प्राणो, नागो गाठइ बाँध्यो जाणौ। मुझ साथै मू को एकण ने, तिण नै दाम समापु गिरगनै ।।८।। कोठारी कोठार खुलावै, गिणवा बीजो जण बोलावै । जातो कुरा जोवे रुपईया, पगसू ठेलीजे सोनईया ||९|| हीरा ऊपर पग दे चले, माणिक कवण मजूसे घालै । पार न को दीस परवाले, काच तणी परि पाच निहाले ॥१०॥ लाखे गाने अछे लसणीया, मोती मूल न जाइ गिरणोया । इण परि रिद्धि देखी थभारणो, पाछो फिर न सके ले नारणों॥११॥ अबर दूझ भूत कमावै, आकासे हल वहै सभावै । तिण घरि ए पिरण रिद्ध न दीस, स्यु सपनौ देखु छु दोसै ॥१२॥ ॥ दहा ।। माल हमाले वसि करी, डेरइ अाव्या जाम । व्यापारी बोलावि ने, रिणक भासै प्राम ॥१॥ राणी हठ मूक नही, मैं पूरेबी हाम । कबल द्यो इक मोलवी, जिम तिम देइसु दाम ॥२॥ रोक दिराव्या दोकडा, कोधी न का उधार । सोलह कबल सामठा, तिण ते लीधा सार ॥३॥ किरण सोनईया सामठा वीस लाख गिरण दीघ । कुण धनवत इसी अछ, जिरण ते कबल लीव ॥४॥ सालिभद्र भोगी भमर नवि जाणे गृह काज । लेवो देवो मा वसु, तीण लोधा महाराज ॥५॥ ढाल-६ राग-परजीयो, पूरव भव तुम्ह सांभलो. ए जाति श्रेणिक मन अचरिज थयो, हु बड भागो राजा रे । माहरी छत्र छाया वसे, सहुँ को दामे ताजा रे ||१| | Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज सूरि कृति कुसुमांजलि । ||२|| भेना राज हुकम मगावता, मत भद्रा दुख पावै रे रोके दामी राजवी, कंवल एक मंगावै रे अतरजामी ऊपरा, जो तन धन वारीजे रे । तौ कवल नौ स्यु प्रछे, पिरण मुझ वात सुरणीजे रे || ३ || || नारी कु जर नो घसु, पहिरयाँ साथल घासे रे । तमासे रे || ४ || श्र े० तेई रे । ॥६॥ श्र० ॥ ते तो मारू धावला, पहिरे केम देव वसत पहिरे बहु, नजर न श्रावे में दे मुधा मो दिसा पासे मूक्या लेई रे ||५|| || स्नान करी ऊठी जिसे, ते नांख्या पग लूही रे | आपण जोवो जई, निरमाइल खूही रे निरमाइल किम दीजीये, कूवा माथी काढी रे । प्रवर हुकम फुरमावस्ये, ते लेस्युं माथे चाढी रे ॥ ७ ॥ ० ॥ सेवक जे मूं क्यो हतो, ते फिर पाछो श्राव रे । राजा ने राणी मिली, सगली राजा ने राणी मिली, पूरव परीठ सुरगावे रे || | सुक्त सली से रे । रण ऋद्धि उरण ऋद्धि आतरो, सर सायर सो दीसरे ||९||श्र े० ॥ जे को पहिर सकें नही, ते पग लूही नाखीजै रे । परतख देखि पटतरो, गरथ गरव किम कीजे रे ॥१०॥ ०॥ राजा अभयकुमार नै, मू के भद्रा पासि रे । करि प्रणाम ग्रावी तिसै, विनयवत इम भास रे ॥११॥ श्र० भोग पुरदर सालि नै, ए करसो नृप दरसरण देखरण अलजयो, मूंको माह ॥ दूहा ॥ भद्रा अभयकुमार स्यु, भावे श्ररिणक पास । वस्तु अमोलिक भेट, देई करें अरदास ॥१ रवि ससि देन किरणघर, लागो न धरणी पाउ । दरसरण को पावै नही, लख श्रावो लख जाइ ||२|| १२८ तेड रे । केड रे ||१२|| || Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई १२६ किण दिस ऊगे प्राथमे, जाग राति न दीह । जउ तिल कूड इहाँ अछ, तो हु काढू लीह ॥३॥ किम तेड़ावो नान्हडो, लाछि लील भरतार । - राज भवरण लग आवता, थास्य कोस हजार ॥४॥ राज पधारो आगणे, मत को जाणो पाड । जो छोरू करि जारणस्यो, तो पूरवस्यो लाड ॥॥ ढाल राग-सिंधुडों, चीतोडी राजारे मेवाडी राजा रे,एजाति मुझ लाज वधारो रे, तो राज पधारो रे, मत वात विचारो डावी जीमणी रे । आसगा पाखे रे, सह कोनी साखै रे, इम कोइ न भाख राख कडि घणी रे ॥१॥ मगधेश विमासै रे, मत्रोसर भास रे, तुझ पास अवास, तू चली आगले रे। साहिव मतवाला रे, हुइ तो रढाला रे, प्रधान वडाला, वालइ तिम वसं रे ॥२॥ हता जे नेर्ड रे, ते साथै तेर्ट रे, - वीजा ने कड' केहै वेगा आ पडो रे । देस्यै 'अोलभो रे, परिण वलि थभो रे, सह को नै अचभो, देखण नो बडौ रे ॥३॥ मानी मछराला रे, वारू वीगताला रे, ठकुराला छउगाला सहु आवें वहया रे। वागे तन लागे रे, केसरीये पागे रे, वलि लीधे वागे प्रावि ऊभा रहथा रे ||४|| वधि चल्यो वधाऊ रे, उलगायो साउ रे, । द्यइ खबरि अगाउ, आव्यो अम्ह धरणीरे । पोषी पकवाने रे, दीजे अनुमाने रे, कोई गिरण न ग्यानै रे, तास वधामणी रे ॥५॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० जिनराज सूरि-कृति-कुसुमांजलि राजा धरि आयो रे, मन थयो सवायो रे, भरी थाल बघायो मोती माणके रे, सोवन वारीजे रे, पाटवर दीजै रे, तिम अघा तेडीजे, साथि हुता जिके रे ॥६॥ पहिली भूमि जोइ रे, हरख्या सहु कोइ रे, नर भवरण न होइ स्यु सुहिणो अछे रे। वीजी भूमि आवे रे, अचरिज संव पाव रे, ___ मनभावै, सुर लोक थयो इण थी पछे रे ॥७॥ धन माल झालेखै रे, चिङ पास पेखें रे, सुर भवन विशेष हु स्यो अवतरयो रे। किरणही भोलायो रे, मैं भेद न पायो रे, अलिकापुरी प्रायो, इम संसय घरथो रे | हु श्रेणिक नामइ रे, प्रायो कणि ठामइ रे, ___ इम अचरिज पामै समझि न को पडे रे। सिर धूणी सोचइ रे, मनस्यु आलोचे रे, पगभरी सकोचे, चलतो लड़थड़े रे ॥ भद्रा प्रावी ने कहइ, स्यु जौवो छो एह । दासी दास इहां रहै, उपर जोवी गेह ॥१॥ तीजी भोमी चढया जिस, नयरा न सके जोड़ि। घर अंगण जिम झलहले, जाणे उगा सूर्य कोडि ॥२॥ चढता चउथी भूमिका, थभारा सवि तेह । मानवगति दीस नही, छै देवगति एह ॥३॥ सिंहासन प्रासन ठवी, भद्रा भासै अाम । तेड़ी ल्यावु नान्हडौ, राज करो विश्राम ||४|| ढाल ८ मीजवासै उपवासै गले एहनी जाति वेग पधारो हो महल थी, वार म लावो आज । घर आगण आव्यो अछ, श्री श्रोणिक महाराज ॥१॥वे० Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई १३१ रमरिण बत्रीसे परिहरो, सेझ तजो इणि वारि । श्रेणिक घर आव्यो अछ, करिवो कवरण विचारि ॥शव०॥ पहला कदेय न पूछता, स्यो पूछो इण वार । जिम जारयो तिम मोलवी, ले नाखो भडार ॥३॥०॥ नाखरण जोगो ए नही, त्रिभुवन माहि अमोल । तो हिव जिम तिम सग्रहो, मुह माग्यो दयो मोल ॥४॥०॥ किरियारणो श्रेणिक नही, बोलो बोल विचार । देस मगध नो छै धणी, इद्र तरणे अणुहार ||शावे॥ जेहनी छत्र छाया वसां, जासु अखंडित पारण। ते घरि आयो प्रापणे, जीवत जन्म प्रमाण ॥६॥०॥ प्रेम मगन रमणी रस, रमतो नव नव रग । सेझ थकी तिण ऊठतो, पालस आणे अग ॥७॥०॥ प्रापण सरिखा जेहनै, लखमीधर लख कोडि । प्रागलि ऊभा अोलगै, रातिदिवस कर जोडि ॥८॥०॥ ए मदिर ए मालिया, ए सुख सेज विलास । ता लगि प्रोपरिण वसि अछ, जो लगि सुनिजर तास ॥०॥ जो आपण पर तेहनी, कहिये कुनिजर होइ । तो खिरण माहे आथ नो, न थ हुये कुज कोइ ॥१०॥०॥ तुरत करै अपराजियो, तुरत लगावै लीक । हियडो कोइ न लखि सके, पाणी मांहि मधीक ॥११शवि०॥ आस ईयारी की जीयइ, पिण केहवो अाँसंग । दुबल काना राजवी, ते हवे किम इकरंग ॥ १२॥ वे०। हास विनोद विलास जे, संपजस्ये सो वार । पिण रीझवता राजवी, खरे कठिन विवहार ॥१३॥वे० दूहा ।। पहला कदे न सांभल्यो, सुपनातरि परिण जेह । बयरण विषम विष सारिखो, मात सुरणान्या तेह ॥१॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि कली कचरता नीगमी, मैं माहरी जमवार । आज लग जाण्यो नही, सेवक नो विवहार ॥२॥ परम पुरुष विरण अवरनी, सीस न धारू पारण । केहर कदेन सांसहैं, तुरीया जेम पलारण ॥३ जे परवस वधरण पडया, ते सुख मारणे केम । गहनो गाडो लील नो, लाडो चित एम ॥॥ ढाल है आप सवारथ जग सहु रे पहनी जाति पूरव सुकृत न मैं कीयो, पालि न जिनवर प्रारण । तिण प्राण अवर नरिंदनी, पालेवी हो मुझ ने सुप्रमाण ॥१॥ कुमर इसौ मन चीतवै, भरम भूलो रे इतला दिन सीम । परमारथ प्रीछया पछै रे, गृहवास हो रहिवा हिव नीम ।।२।कु० मन वचन काया वसि करी. सेव्या नहीं गुरु देव । तिण हेत अवर नरिंदनी, करजोडी हो करवी हुइ सेव ॥ ३० एतला दिन लग जाणतो, हु छु सहुनो नाथ । माहरै पिण जोनाथ छै, तोछोडिस हो तृण जिम ए अाथ | ४|कु० जाणतो जे सुख सासता, लाधा अछै असमान । ते सह प्राज प्रसासता, मैं जाण्या हो जिम सध्या वान ॥५॥कु० ससार सहु ए कारिमो, कारिमो एह परिवार । कारमी इण रिद्धि कारण, कुण हार हो मानव अवतार ॥६॥कु. वेसास सास तणो किसो, जे घडि मे घटि जाय । करणी तिका हिव आदरूं, जिम जामण हो तिम मरण न थाय १७) ए विषय विष फल सारिखा. जाण नही जाचद । वर्ड अमृत फल जिस, तिण साथै हो माँई प्रतिबंध ||कु० जे करै वे आगुल खरी, रोपी रहै 'दृढ पाउ । जे आँप आपो अगम, तिणआगे हो करण राणे राउ || |कु० वावू तणो भय रालि ने, बैठो करी इकतार । जे आप निरलोभी हुवे, तिरण आगे हो तृण जिम स सार ।।१०कु० Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलिभद्र धन्ना चौपाई ३ घर प्राथि आप वसु करी, रूठो थको नर नाह । ते सहु मै पहिली तजी, हिव मुझ नै हो स्यानी परवाह ॥१शाकु० पण वचन हु माता तणो, लोपू नही निरधार । तिण सेझ हुती उठि ने, पाउचारइ हो साथे ले नारि ॥१२॥कु०॥ ॥ दूहा ।। श्रोणिक मन हरखित थयो, सूरति नयरण निहार । देव कुमर स्यु अवतरयो, मानव लोक मझार ॥१॥ करि प्रणाम प्रागलि जिस, ऊभो सालिकुमार । वैसारयो उछरग ले, राजाय तिण वार ॥२॥ पर कर परसे वो चल्यो, माखण जेम सरीर । चिहु दिसि परसेव चल्यो, जिम नीझरणे नीर ॥३॥ इण इण भवि कीधी नही, सुपनातरि परिण सेव । पर कर फरस न खमि सके, ए पातलीयो देव ॥४॥ स्वेच्छाचारी पर वस, रहि न सके तिल मात । सीख समपौ करि मया, मात कहै ए वात । उठ्यो प्रामगदूमरणो, महल चढयो मन रग । फिरि पाछो जोवे नही, जिम कचली भुयग ॥६।। ढाल-१० राग गोडी, भव तणों परिपाक पहनी जाति वे कर जोडी ताम भद्रा वीनवै, भोजन माज इहाँ करो ए। भगति जुगति सी थायतोपरिणसाचवउ दास भाव हु आपणो ए।।१ सहस पाक सतपाक तैलादिक करी मरदनीया मरदन दीये । जव चूरण घनसार मृगमद वासित ऊपरि उगटरगो कीयो ए ॥२॥ अछ गृह नइ पासे जल खडोखलि सनान करण आवै तिहा ए। करता जलनी केलि, पडती मुद्रडी जाणी पण न लंहै किहाँ ए ॥३॥ ते मुझ माणिक आज दीसै छै गयो, सारभूत घर मे हतो ए। ऊ चउ लेई हाथ जोवै श्रोणिक परिण न कहै मुख लाजतो ए ॥४॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ जिनराज सूरि कृति कुसुमांत्रि देखी डोली तांम रिणक प्रागुली जाण्यो गाडी मुद्रडी ए । दासी ने कर सैन जल कल चालवी कढावे भद्रा खडी ए आशा अवारे उद्योत करता नव नव भूपण मणि रयणे जडया ए । देई कि यदि ज्योति भिगामिग देखि सवि चरिज पडना ए|६ चितामणि ने पासि जिम सेवतरो मूक्यो सोभ जिसी लहे ए । तिम ते भूषण पास श्ररिगक मुद्रडी ततत्रिरण श्रोलखी ने ग्रहे ए ॥७ चीते मगधाधीश पुण्य पटंतर स्यो सेवक ने स्यो धरणी ए । स्यो करिवो विषवाद देखी परधन घाटि कमाई प्रापणी ए ||८|| पप हिरैहिलं दीस भूषरण भामिरण वीजइ दिनते ऊतर ए । जिम निरमाइल फुल तिम ए नाखीए वलती सारन को करें ए ॥ ६ ॥ मेवा ने पकवान प्रीसे व्यजन जाति भाति कर जूजुश्रा ए । ताजा तवोल ऊपर नव नव सहु को मन हरपित थया ए ॥१०॥ af मारगकनी कोडि लेई भेटरगो राजा फिरि पाछउ गयो ए । हिव पाछलि जिनराज धरम कररण भरणी सालिकुमर उच्छक थयोए ।। ११ ॥ दहा ॥ तेजी सहे न ताजरगो खेत सहै खग धार । सूर मररण ही साँस हैं, परिण न सहै तू कार ॥१॥ से वसि राकपरणउ भलो, स्यो परवसि रग रोल । वर पोता नी पातली, नाउ परायो घोल ॥२॥ बीजो नाथ न साँसहु, तो मानी सरभ न साँस है, घन गर्जारव जेम | ३ || सजम लेता दोइ गुरण, पर भव अविचल राज । इग भवि नाथ न को हुवै, एक पथ दोइ काज ||४|| करता एम विचारण, वोली घडी विच्यार | मिलि बत्रोसे भामिनी, इरिण परि करें विचार ||५|| ढाल ११ नीवयारी जाति ' प्रारण धरू सिर केम । आज नहेजो रे दीसे नाहलो, कीजे कवरण प्रकार । प्रेम विलुत्री सुकुलिरगो मिली, इरिण परि करें विचार || १ |श्रा० Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'शालिभद्र धन्ना चौपाई १३५ 1 । श्राऊ कार न मंदिर श्रावतां जाता न कहे जाउ । जोगीसर जिम लय लायि रहयो, मूकी मूल सुभाउ ॥ २० ॥ कर जोडि श्रागलि ऊभा छता च्यार पहुर वहि जाइ । तो पिर किम ऊभा जास्यो किहाँ, वात न पूछै काइ || ३ | | ० || arरण नयण पोता ना वसि कीया, कीधो मन सकोच । रंग तरणा रटका मत जाणेज्यो, आछे अवर आलोच ||४|| प्र० श्रापण भोगी भमर न दूहव्यो, केम पडी मन राई । बोलायो प्रीतम बोले नहीं, अंतरगति न लखाई ||५|| प्रा० ॥ देखी ने मुंह मचकोडे नही, रीस नही तिल श्रापण पिरग बोले नही, एह अनेरी धात श्राज सही भंभेरथो वालहो, न कहै मन नी वात । जे नितु नवलो नेह न साँसहे ते तो घाले घात ||७|| प्रा० ॥ कहिये नाह न दीठो रूस, दिन दिन वधते प्रेम । पांरणी वलि माँहे मन खाँचीयो, हिव कहो कीजे केम ॥८॥ ० ॥ अतरजामी आज अवारणगू, दीसे कवरण विशेष । श्रलवि मोह मीट न मेलतो, जे जोतो अनिमेष | | | | | ०।। मीठा बोल म बोलो वालहा, मूल म पूरो खत 1. जोवो सहज सलुणे लोयणे, तो भाजै मन भ्रत ॥ १० ॥ ० ॥ मात । ॥६॥०॥ ॥ दूहा ॥ प्रसरण पूरी साधु जिम, बैठो ताली लाइ । आज जब गति वालहो, किराहिं न लख्यो जाइ ॥१॥ जो मन का सल राखिये, तो वाघ विखवाद | छतै साल किम नीपजे, प्रेम रूप प्रासाद ||२|| अबोल्यां सरिस्यै नही, वाधो विरह अगाध | कीजें पूछ 'खरी खबर, कवरण कीयो अपराध ॥३॥ वेकर जोडी पूछिये, कामरण गारो कत । किरण कारण ए रूसरणी, ते दाखो विरतत ||४|| Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन राजसूरि-कृति - कुसुमांजलि ढोल १२ राग- गोडी मल्हार मिश्र श्रबला केम उवेखीयै, विरण अवगुण गुरगवत । कहीये कीडी उपरा रे, कटक न कीजें कतो रे || १ || इम जोवो ससनेहो रे, कामरण वीनवें । भटक न दीजै छेहो रे, सुरिंग सुरिण वालहा ||२|| तू तेहिज तेहिज श्रम्हेरे, ते मंदिर ते सेज । इरिण अरियाले लोयर रे, तेह न दीसे हेजोरे ॥ आसु || जो ते म्हनं अवगरणी रे, करिय कठित निज चित्त । प्रारण हुस्यै तो प्राहुणा रे, जिम परदेसी मीतो रे ||४|| सु०॥ नाह न कीजै रूसणो रे, जोवो हिये विमासि । इक पखो इम तागता रे, किम चलस्यै घर वासो रे ॥५॥ ॥ हॉसे री वेला नही रे, इरण हासे घर जाय । पारणी न खमइ पातली रे, हिव ए दुख न सुहायो रे || ६० जिरग तुम्ह नै प्रीयु दूहव्यो रे, जिरण तुझ लोपी कार । सीखामरिण द्यो तेहने रे, एकरिण घाउ म मारो रे ॥७॥सु०॥ सुगुण सनेही वालहा रे, करता कोडि विलास । ते दिन आज न सभरे रे, तिरण तुम्ह नं स्यावासी रे ||८||सु०॥ दिवस दिवस वघतो हतो रे, इतला दिन इकलास । सुख दुख बात न का कहो रे, प्राज टल्यो वेसास रे ॥६॥ सु.॥ चिंतन का व्यापार नी रे, कोइ न विरणठो काज । केवल कामरिण ऊपरा रे, सही खीवै छै श्राजो रे ॥१ ॥ सु०॥ जो को अवगुण दाखवो रे, तो आधो दुक्ख थाय । कुरुख करो ठाकुर छता रे, किम कह्यो न जायो रे । ११॥ सु० गुनही पाँचे हि दिने रे, जो को जाणो नाह । मूल थकी तो छाँडिज्यो रे. तुम्ह नै सी परवाहो रे ॥ १२॥ सु० । एह उदास परगो तजो रे तू भ्रम्ह प्रारण अधार | हिलि मिलि बोलावी मिलों रे, पूरव प्रीत सभारो रे ।। १३सु० " • १३६ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निराजसूरि कृति कुसुमाजसि 4. वैभारगिरि पर धन्ना शालिभद्र का सथारा Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | পিৎসাহ-জুনি-গাপলি । W ' ... ' - (16 न Ark . । " HW.Shyal MAAD ANI म Hain HT KE F . .BLISH शालिभद्र अपनी ३२ स्त्रियों के साथ , Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई १३७ || दूहा ॥ इम सहजइ घर विध कही, दीन हीन वयरणेह। पिण तन मन डोल्यो नही, रखे दिखावै छेह ॥१॥ जो निरदपण परिहरे, तो हिव केही लाज । गाडो उललिये पर्छ किसी विनायक काज ॥२॥ हिव वहिली वाहर करो, वहिनी म लावो वार । भद्रा सासु नै कहो, प्रीतम तणौ प्रकार ॥३॥ बात भेद लाधां पछे, देखी कुमर उदास । भाखै सीख रुखा वचन, ऊंची चढि आवास ॥४॥ __ ढाल-१३ राग जैतसिरी सुगणसने ही मेरे लाला,चीनती सुणी मेरे कंतरसाला, एहनीजाति नमणी खमणी नइ मन गमणी, रमरिण बत्तीसे सोवन वरणी। सुकुलोणी नइ सहज सलूणी, किरण कारण ए ऊरणी झूणी ॥१॥ ए सवि नारि चले तुझ केडी, थूक पड तिहाँ लोही रेड । कथन तुहारी काय न खडे, उडै सिस जिहा पग मंडै ॥२॥ जी जी करता जोहा सूके, मुह थी नाम न काई मूकै । तुझ सासेही काई न ध्राप, तो इवडो दुख स्यानै प्रापै ॥३॥ तुझ गायी गावे सह कोई, हुवै सुप्रसत्र सनमुख जोई। इम वैठो तन मन सकोची, तूं तो मूल नही पालोची ॥४॥ जो परतखि अवगुण देखीजै, तो परिण मन मे जाणि रहीजै ।। दीठउ परिण अगदीठउ कीजै, नारि जाति नो अत न लीजै ॥५॥ अटक झटकि किम छेह नदीजै, जोको दिन घरि रहिवा कीजै। नीत वचन चौथो संभारो, कामरिण ऊपरि कोप निवारो ॥६॥ जाण्यो हुवै तो दोष दिखाडो, परिण घर बाहिर बात म पाडो। माहे तेडी ने समझावी, दोखी जन ने काइ हसावो ॥७॥ तू तो आज अजब गति दीस, हियड़ी हेजे मूल न हीसइ । एहवी पूत पराई जाई, इम किम नांखउ छउ ध्रसकाई ॥६॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि तू देवर तू जेठ सगीनो, तूं मन मोहन नाह नगीनो । तू पीहर तू सासर वासो, तुझ विरण सूनो ग्रासो पासो ॥६॥ इस परि विविध वचन कही थाकी, न रहयो कहिवा जोगो वाकी । सालिकुमर मन माहि विचार, सहु को मोह महीपति सारै ॥१०॥ जे भामरण सु सग करावे, ते लेई दुरगति पहुचायें | हित वंछक मावीत कहावे, पिरण प्रतर गति कोइ न पावे ||११|| ॥ दूहा ॥ श्रावी दीघ वधामरगी, वनपालक तिरगवार । धर्मघोप श्राव्या इहा चोनारणी श्ररणगार ॥१॥ सालिकुमर मन चितवे भले पधारथा तेह | मुह माग्या पासा ढल्या, दूधे वूठा मेह ॥२॥ पहली पिरण व्रत आदररण, मो मन हुतो हेज । हिव जाणे निदालुये, लही विछाई सेज ॥३॥ कुमर साध वदरण चल्यो, रिद्धि तरगो विस्तार | पाचे अभिगम साचवी, बैठो सभा मझार ||४|| सवेगी सिर सेहरो, सूरि सकल गुण खारिण । भव सरूप इम उपदिसे, मुनिवर अमृत वारिण ||५|| १३८ हाल- १४ राग गोड़ी विणजारा नी जाति प्रतिबूझोरे लहि मानव अवतार, तप जप संजम खप करो प्रतिबुझो रे । प्रति० जिम हुवै छूटक वार, गर्भावास न अवतरो प्रति० ॥ १ ॥ प्र० स्वारथीयो जग माहि, मत को जागो आपरो प्रति । प्र० हाथ छछोहा वाहि, आज काल्हि मै चालगो प्रति० ॥२॥ प्र० रहिता जिम तिम प्रारण, जिरण गामातरि चालियै प्र० । प्र० ओलीजें समसारण, घर ग्राभोषो घालियै प्र० 11311 प्र० काल न देखे कोई, ऊपरवाड़े रांचतो प्र० प्र० जे सर अवसर होइ, वार न लावे खाचतौ प्र० ||४|| Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई १३६ प्रतिबूझोरे संग न आवै आथि, नावै परणी हाथरी प्रतिबूझोरे । प्र० सबल घालो साथि, आगलि सेझ न पाथरी प्र० ||शा प्र० अटवी विषम अपार, साथे मन मेलू न छै प्र० ।। प्र० करज्यो एह विचार, पछताचे पडस्यौ पछै प्र० ॥६॥ प्र० रमणी रंग पतग, फल किपाक विष सारिखो प्र० । प्र० म करो तास प्रसग, जो मन पूजे पारखो प्र० ॥७॥ प्र० सध्या राग समान. आठे मद छै कारिमा प्र० । प्र० दिन दस देही वान, आभरणे बहु भारिमा प्र० ॥८॥ प्र० म करो गरब गुमान, आथि अथिर जिनवर कही प्र० । प्र० जात न लागै वार, राखी पिण रहिस्यै नही प्र० ॥६॥ प्र० गिणता त्रिग ससार, जे सिर छत्र धरावता प्र० । प्र० ते अरियरण घर वार, दीसै दास कहावता प्र० ॥१०॥ प्र० दे न सके जगदीश, अधिकी एक घडी सही प्र० । प्र० ते दिन माहि बत्रीस, जाती परिण जागी नही प्र० ॥११॥ प्र० परहरि निदानी वात, म करेज्यो दुरगति दीयइ प्र० । प्र० जोए न मिटै धात, तो आपणपो निदीय प्र० ॥१२॥ प्र० परतखि आप निहालि, मन आवै ए वात जो प्र० । प्र० लोभ थकी मन वालि, क्रोध मान माया तजो प्र० ॥१३॥ प्र० तो ल्यो सजम भार, जो भव भमता अोलजो प्र० । प्र० मूको विषय विकार, वाछो छाका छोल ज्यो प्र० ॥१०॥ ॥ दूहा ॥ धरम देसना साभलो, हरख्यो सालिकुमार । कर जोडी प्रागलि रही, पूछ एक विचार ॥१॥ माथै नाथ न सपजै, किरण करमै मुनिराय । परम कृपाले कृपाकरी, ते मुझ कहो उपाय ॥२॥ कहै साधु व्रत जे ग्रहै, तृण जिम छोडै आथि । नाथ न माथे तेहने, होवे ते सहुनो नाथ ॥३॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि साघु वचन सवि सरदही, इहा किरण मीन न मेप । आवी माता ने कहै, इण परि वचन विशेष ||४|| ढाल-१५ राग-खाभइची मानव भव लहि दोहिलो रे, तो पाछलि अलवि गमायो रे । सफल करू हिव मात जी रे, तो हताहरो जायो रे॥ मोरी मात जी अनुमति दयो सजम अादरूँ रे । व्रत पालि ने भव जलनिधि हु तरूं रे ॥२॥ मो०॥ जे मारग जाणे नही रे, ते तो भूलै न्यायइ रे । मारग जाण्या ही पर्छ रे, कहि कुरण उवटि जायइ रे ॥३॥मो० जग मे को केहनउ नही रे, जोवो हिये विमासी रे । परभव जाता जीव ने रे, साथ न कोई आसी रे ॥४॥मो० मुह मीठा प्रावी मिल्या रे, मुझ नै पाच सखाई रे। ते धन लूट माहरो रे, आज खबरि मैं पाई रे ॥शामो० जेहनो गायो गावतो रे, जेह सुं रहतो भीनो रे । ते प्रधान माहे थई रे, करै खराव खजीनो रे ॥६॥मो. पग भरि साथ खिसे नही रे, फोकट मिलि मिलि पोसे रे। बाल सखाई नो टल्यो रे, मुभनइ आज भरोसो रे ॥७ामो० हिव हु देखो तेहने रे, कवरण कुलीक लगावू रे । खरच न देउ गाठ को रे, विमरणो काम करावु रे ||मो० मिलण न देस्यु मत्रवी रे, सो घर भेद प्रकाशै रे । सयण अछ वीस जे रे, ते नावण द्यपास रे मो० पूरो लेखो मागिस्यु रे, पहिले दिन थी लेई रे । खाधो विमणो काढिस्यु रे, मुहडे माटी देई रे॥१॥मो० च्यार अछ जे चोगुणा रे, इण घरना रखवाला रे। साधो माल नही दीयै रे, होइ रहया मतवाला रे ॥१शामो ए सीखामरिण तेहन रे, नाणु इण घर माहे रे । जोतई पैसै छेवकै रे, तो काढु गल साहे रे ||१२सामो० । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई १४१ जाण तिके नर जाणिये रे, जे आपो न ठगावै रे । जीवतडा न कलकीय रे, मूयां कुगति न जावै रे ॥१३॥मो० ॥ दूहा || सालि वचन श्रवणे सुरणी, भद्रा करे विचार । वचन जिसा उडया कहथा, तजै सही संसार ॥१॥ परिण अनुमति देस्यु नही, हु राखिसु समझाय । जो मुझ नै उवेखस, तो क्यु कहयो न जाय ॥२॥ धरम भणी जे गोठिसे, ते गिणस्यै मावीत । मुझने कदे न लोपस, ए नान्हडीयो सुविनीत ॥३॥ ढाल-१६ राण-मल्हार बाता म काढो व्रत तणी, अनुमति कोइ न देसी रे। सुख भोगवि ससार ना, पाडोसी व्रत लेसी रे ॥१॥बा० तू तो इण परि बोलतो, लोका माहि लजावै रे । मुह बाहिर ते काढीय, ते फिर पाछो नावे रे ॥२॥बा० जे जगदीस बडा किया, ते ऊडी आलोचे रे । न्याय जिम तिम बोलता, छोकरवाद न सोचे रे ॥३॥बा० जे साभलस्यै सासरा, तो करस्यै दुख गाढो रे । हास कारण नान्हडा, एवडी वात म काढो रे ॥४॥बा० तू जाणे ब्रत आदरू, सूल किसौ छै पाछ रे । जो अम्हनै निरवाहस्यै, वीर अवर को पाछै रे ॥५॥बा० जे मैं तू जायो हुतो, कहिने कुरण दिन काजै रे । वडपरिण जामण छोडतो, स्युमन माहे न लाजे रे ॥६॥बा० हु जाणु मावीत नी, छोरू पीड न पारणे रे । पण सजम छै दोहिलो, ते तु भेद न जाणे रे ॥७॥बा० विषम परीसा जे सहै, ते तो काय अनेरी रे । हु परि जाणु ताहरी, तिण राखु छु घेरी रे बा० Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जिनराजसूरि-कृति-कुसमांजलि माखण जिम तनू ताहरो, परसेवै परघलियो रे । ते वेला स्यु बीसों, व्रत लेवा हलफलीयो रे । वा० कुरण अतुली बल सचरै, सनमुग्व गग प्रवाह रे । तिम सुरगिरि नै तोलिवा, कवरण पुरुप उमाहै रे । १०वा० मयण तणे दाते करी, लोह चिरगा कुरण चावे रे । सिला अलूणी चाटता, स्वाद कहो कुण पावै रै ॥११शावा. मन वछित सुर पूरवे, तिण देणो छ पूरो रे। स्यु” सजम ले साधिस्यो, स्यु छ इहा अधूरो रे ॥१॥वा० दुखिया तो दुख भाजिवा, सजम सु मन लावा रे। पिण सुखिया सुख छोडिस्यइ, ते पडिम्यइ पछतावइ र ॥१३वा० परभवनी आस्या धरी, जे आया सुख छोडे रे । ते तो कडनी मूकि नै, पास्या ऊपरि दौर्ड र ॥१४॥बा० ते रामति किम कीजीयै जिय रामति घर जावे रे। महल पधारो नान्हडा, उठि वझर दुख पावै रे || शाबा० दुख ल्यै कवरण उदीरने, कुण घर माडी ढावै र। स्यो पोतांना पग भरणी, कोई कुहाडी बावै रे ॥१६||बा० मोह विलूचा मानवी, ओछो अधिको भासै रे । ए ए दुरजय मोहनी, श्री जिनराज प्रकासै रे ॥१७॥बा० ॥ दूहा ॥ कहयो कुमर माने नही, कही विविध परि वात । मीठे वचने तेडि नै, मात कहै ए वात ॥१॥ साताँ ही जो नवि रहै, तो पहिली करि अभ्यास । पावडीए चढता थका, पहुचीज आवास ॥२॥ काज विचारी जे करे, रहैं तियारी लाज ।। अति उच्छक उतावला, ते विरणसाड काज ॥३॥ इम अनुमति उतावली, देता न वहै जीह । जो माता करि लेखवो, तो पडखो दस दीह || Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई ढाल - १७ राग सोरठ, व्रत नी मनसा जे आरणी, तिरण माहि न पैसे पारणी । तिरण दिन दस ग्रागे पाछे, मैं सजम लेवो आछे ॥१॥ रहता वैराग न छोजे, माता पिरण सतोषीजे । हठ झालिने वैसि रहीजें, जिम तिम निज कारिज कीजै ॥२॥ श्रवसर लहि चतुर न चूके, लीधो पिग बोल न मू के । हठ छोडि चढयौ चोवार, माता हरखी तिरण वारे ||३|| ॥ दूहा ॥ १४३ भलो थयो दिन दस गूगो बेटो बाप ने, रहयो लाज रखी चिहु साखि । बाप कहें ते लाख ||४|| यति - ॥४॥ - जेहनी मीजी भेदारणी, पलटे किस तेहनी वारणी । लागो जी रग मजीठो, दीठो ते किरणही न फीटो ||५|| ॥ दूहा जिम जिम में परणी हती, तिम तिम छोडु एह । परठि तिका माडी तिरण, पहली लाधौ छेह ॥ ६ ॥ गुनहो जिको सो में कियो, फल पिरण लाधो तास । सइये पान जिम हु तजी, अवर रही प्रीउ पास ||७|| स्यौ पहिली परणी हुती, पहली छोडरण काज 1 ऐ ऐ मो मोभरण तरणी, वारु राखी लाज 11511 ढाल यतनी बीजे दिन बीजी छोडी, पहली चिते थई जोडी । मुझने आधो दुख थास्यै, बिहु ने तो वाटो, श्रास्ये ॥६॥ रहिवो चित्रसाली माहे, भामरिण बैसं बिहू वाहे । किरणही सु नेह न लावै, बाते सहुने परचावै ॥१०॥ मुनिवर ना पिरण मन चूके, कामरण जो पादूकें । पर सालिकुमर ए जागी माची दुरगति सहिनारी ॥ ११ ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज सूरि-कृति - कुसुमांजलि तीजं दिन तीजी आई, ताली देई तास बोलाई । छोडी दीसं छे कतं, श्रावी वेसो इरण पते ||१२|| वोल कहती ग्रह माहे, तुझ नै पिरण काढी साहे । स्यो फेर जवाब न कीधो, त्रिहु पाने वीड़ो दीधो || ३ || परठ दीठी प्राजूअउ नी, गति थास्यै एक सहूनी । जे पाचे साही आवे, प्राधो दुख तास जरगावै ॥ १४ ॥ ॥ दूहा ॥ स्याने को केहने हसो, मत को करो गुमान । वारु वासो जिम हुतो, तिम थास्यै प्रपमान ||१५|| ढाल यतनी १४४ तो आसगा मार्च, झगडो करती प्रियु साथै । पिरण मुझ नै छेह न देतो, अवगुरण पिरण गुरणकरि लेतो ||१६|| तेही जो हुवइ निसनेही, तो वात कहीजै केही । त्रीजी बैठी बिहु पार्स, इरण परि सिर घूरणी विमासे ||१७|| देखो छो वात जि काई, मन माहे ईयार आई । निरदोष पराई जाई, ले नाखउ छउ धसकाई ||१८|| प्रहसम थास्यै मुझ वारी, इम चितवे चउथी नारी । श्राडो तब कोई न आसे, मन जाइ लागो श्राकासे ||१६|| ॥ दूहा || हूं जोई परणी हती, स्युं मुझ ने वैसारिणस्ये, प्रीतम तेहनी खरी आणि मन घडीयाले बाजे घड़ी, धूजरण मुझ नै पिरण प्रीयु छोडसी, पहुरै वात न का पूछी सकी, आडी खति । पति ॥२०॥ लागी देह । चिहुर छेह ॥ २१ ॥ भाई लाज । पहर चिह्न रे आतरे, वीछडिवो छे श्राज ॥२२॥ ॥ यति ॥ ( अति आतुर नेह गहली, घर ऊपर चढी इकेली । हरिणांकी वहि ए जारी, मृगराज लिख्यो चिहुं पासे ||२३|| Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चोपाई दिन प्रति कामरण छोडंतां, दल मयरण तरणा मोडता । हिव जिरण परि धन्नो श्रावे, ते पिरण जिनराज सुरगावै ॥२४॥ ॥ दूहा ॥ बहिन सुभद्रा तिग नगर, धन्ने घरि सुविदीत । सनान करावरण मवसरे, बधव आव्यो चित ॥१॥ रोम रोम सालै अधिक, विरह विथा तिरा वार । होयडो लागो फाटिवा, नयरण न खडे धार ॥२॥ दीस घणु दयामरणी, आज खरी दिलगीर । कहि केइ दूज दूहुवी, नयरण भरें तिरण नीर ||३|| सालिभद्र सरिखो अछे, बधव श्रमलीमारण । पाठ रमरिण मे माहरे, तू हिज जीवन प्रारण ॥४॥ १४५ 'दाल -१० राग गोडी. चेतन चेत करी, पहनी जाति श्रेणिक घर आया पछे रे, काय पडी मन भ्रति । दिन दिन एक कामरिण तजे रे, व्रत लेवानी खतोरे रे ॥१॥ वयरागी थयो, जामरण जायो वीरो रे । भरें तिरण नीरो रे ॥२॥ ० ॥ उदास । || ४ || वे० ते मुझ सांभरथो, नयण सांत भलो जो सासरो रे, तो पीहर आवे विरण बघव पीहर किसो रे, नेह रहित जिम वीर विहरणी बहिनडी रे, निस दिन रहे प्रीउ हटकी किरण आगले रे, काढे मन नीसासो रे उभारे पीहर तरणं रे, गज न सकै कोय । सकज वीर नी बहिनडो रे, दिन दिन नवली होयो रे ||५|| वे कुरण कहिस्ये मुझ बहिनडी रे, केहने वार पर्व कुरण भूकस्यै रे, मुझ ने नव नव चीरो रे || ६ ||० कलि अजरामर तू हुजेरे, मुझ पूर्वे जगी सं 1 किरण आगलि कभी रही रे, देइसु इम प्रासीसो रे ||७|| कहस्यु वीर । चीति । भीतो रे || ३ || वे० Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि हिव किण ने जीमाडि नै रे, सफल करिस भाई बीज । कास पयोहर वीछीली रे, हु देखसु भात्रीजो रे .वै. केहने बाँधिस राखडी रे, गाइस कहने गीत । कुरण मोसालो मूकसी रे, तिण विशेष सचितो रै भाव एक घडी पिण जेहनो रे, कठिन विरह खग धार । तो जामण जाया पखे रे, किम जास्यै जमवारो रे ।।१०व० ॥ दूहा ॥ मुह मचकोडी तिरण समै, बोले वोल रसाल । साहसीक सिर मुगट मणी, धन्नो धिंगडमाल ॥१॥ वलि वलि वीरो दोहिलो, न्याय तिणे दिलगीर। पिरण कायर सिर सेहरो, सालिभद्र तूझ वीर ||२|| प्रारभ्यो तेहनो सफल, जे कर घाले पार । पारिग वलि माहे पेखता, थार्य अवर प्रकार ॥॥ प्रेम मगन ते किम रहै, मन उपाडया जाह । . प्रागलि पाछलि छोडवो, तो किसी विमासरण ताह ॥४॥ ढाल-१६ फूलडा गुजराति वहिनि रहि न सकी तिस जी,साभलि प्रीतम बोल । - स्यु अवहेलो माहरोजी, इणि परि वीर निटोल ॥१॥ मोरा प्रीतम ते किम कायर होई । , कथन न माने माहरो जी, तो आप विमासी जोइ ॥रामो० काची कोडी छोडता जी, वीस करै बेखास । प्राथि छती जे अवगिण जी, तेह नै यो सावास ॥शामो० रतन जडित घर आगरणा जी, सोवन मय घर बार । . इण अनुसार जाणज्यो जी, रिद्ध तणो विस्तार ॥४॥मो. वयातीत पोते थयो जी, गलित पलित घर नार । . ते परिण व्रत लेतो छतो जी, पडखे वरस बि चार ॥५१ मो० Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई श्राप तरुण तरुणी घरे जी, कचन कोमल गात । भोग थकी जे - ऊभगे जी, ते राखै अखियात ॥६॥मो. घर वरताऊ छोडता जी, करै विमासरण वीस । रूपे रभा सारिखी जी, धन्न जे तजे बत्रीस ॥७॥मो० साहसीक पाखै कहो जी, नारि तजै कुरण प्राम । लोही तो हिज नीसर जी, तोरी चीरीजै चाम मो० जे करिस्य ते जाणिस्य जी, त्याग दुहेलो काम । मूल न जाणे बाझडी जी, व्यावर तणो वरियाँम |मो० कथनी करणी सारिखी जी, जो इण कलियुग होय । तो सिव सुख हुती सही जी, उरै न रहतो कोय ॥१०॥मो० बाते बडा न नीपजे जी, मोठे लागे दाम । कहै तिसो पोते कर जी, ते विरला वरियाम ॥११॥मो. साधु पथ पोते कहै जी, तिण दिस न भरै वीख।। ..आप न जावै सासर जी, लोगों ने दे सीख ॥१॥मो. दिवस वतीसे छोडसी जी, वीर बत्तीसे नारि । . पोते पाठ अछे तिके जी, छोडो एकरण वार ॥१३॥मो. ॥ दूहा ॥ कुलवती पाखे कवरण. दर्य इण परि उपदेश । अतर गति पालोचतां, कूड नही लवलेश ॥१॥ मन राजा तनु. मत्रवी, उपसम आगेवाण । तीने एक मतं थयां, चढस्यै काज प्रमाण ॥२॥ काम चुगल पास कीयो, चितवि विषय विपाक । अतर जोति प्रगट थई, घटो आठ मद छाक ॥३॥ पांचे मिली जोड्यो हतो, तूटो सगपण तेह । हिव हु भाई तू बहिनडी, अविचल सगपरण एह ॥४॥ अलगी रह तु मुझ थकी, म करिस तारगो तारण । ' मैं मन सूघे ताहरो, कीधो वचन- प्रमाण जा॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जिनराजसूरि-कृति-फुसुमांजलि धन्नो एक मन्नो थई, ऊठण लागी जाम । पालव झालि इसौ कहै, नारि सुभद्रा नाम ॥६॥ ढाल-२. राग सोरठ जो माणस करि लेखवी, तो मति जावो ठाडि लाल रे । जास्यो तो ही राखस्यु वालक जिम रढ माडि लाल रे ||१|| रह रह रह रह वालहा, बटकि म तोडो नेह लाल रे । सहज सलूरगां माणसा, इम किम दीजै छेह लाल रे ॥शारह। आसगाइत जे हुसी, ते कहिस्यै सो वार लाल रे । पिण विरचरण देस्यै नही, करस्यै कोटि प्रकार लाल रे ॥शारह. पोछी अधिको सांभली, हसीय गुदार तेह लाल रे । प्रवगुरण गुण करि लेखवै, साचा साजन तेह लाल रे ॥४ारह. दांता विच दे प्रांगुली, लुलि लुलि लागे पाय लाल रे। हांच विछाई ने कहु, हिवरणां तजि मत जाय लाल रे ॥शारह. घरगी वचने घर तज, सोम न लहीये एम लाल रे । माखी तो मारै नहो, मुलको मारे तेम लाल रे ॥६॥ारहु० एवड़ो गुनहो न को कीयो, कार न लोपी काय लाल रे । 'जो छीकता दंडिस्यो, तो क्यु कहयो न जाय लाल रे ॥७ारह. विरचण हारा विरचस्य, कूडो ही देह दोस लाल रे । पिण पापी मन नवि रहै, सास हुवै ता सोस लाल रे ॥धारहु. पोगो सासरीयाँ तरणी, पीहरड़े न खमाय लाल रे । पीहरीयां रो सासरे, मूलि न खमाणो जाय लाल रे ॥रह. बधव दुख दाधी हुती, ऊपरि प्रीतम गउरण लाल रे । जारणे दाधा ऊपरै , देवा मॉडयो लवण लालरे ॥१०॥रह०॥ देखो दुख वाटण समै, अलिवी पडी मन राय लाल रे। लेणे थी देणे पड़ी, इम ऊभी पछिताय लाल रे ।।१शारह ॥सोरठा ।। . प्रीतम नो लवलेश, मन पिरण डलारणो नही। फेरि दिये उपदेश, भामरिण नै प्रतिबोधवा ॥१॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालि भद्र धन्ना चौपाई १४६ जिम कीघो उपगार, त तिम अवर न को करें । ते विरला ससार, जे जिम तिम प्रतिबूझबै ॥२॥ छोडि मधूरा काम, उठि चलेसी प्राहुरगो । कोई न लेसी नाम, जगल जाइ वसाइसी ॥३॥ किरणस्यु करै सनेह, परदेसी परदेस मे । प्राधी गिरणे न मेह, पाए कागद उठि चले ॥४॥ दाल-२१ राग-धन्यासी, मुणि वहिनी प्रीउडो परदेसी पहनी इम धन्नो धरण नै परचावे, नर भव अथिर दिखावे रे। ते हिज साचा सयप कहावे, जे जिन धरम सुरगाव रे ॥१४ाइ० मेरो मेरो करें गहेलो, सब स्वारथ को मेलो रे । ऊठि चलेगो हंस इकेलो, विठडीया मिलरण दुहेलो रे ॥२॥इ. है दिन दस गोवल मै चरणा, पाखर इक दिन मरणा रे । राखरणहार न कोई शरणा, तो एता क्या करणा रे ॥३॥इ० को काहू के संग न जावै, फेर पाछे घर आवे रे । तिण सेती जे नेह लगावै, सो ऊखर मे चावै रे ॥४॥इ० छोरि चलसी माथी पोथी, करि काया सब थोथी रे। प्रागलि जाणं ल्युयर पोथी, है माया सवि थोथी रे ॥शाइ. इत उत डोलत दिवस गमावै, सूता रयरिण विहावं रे। दिन दिन चलगो नेडो प्रावै, मूरख भेद न पावै रे ॥६॥इ० को दुख वांटि न ल्यै इक राइ, परपे पिंड भराई रे । निसदिन चिंता करै पराई, या देखो चतुराई रे ॥७॥६० चालण वरियां होत सखाई, पापणी साथ कमाई रे। फिर आवै पाछि लुगाइ, बेटि जारण सगाई रे ॥८||इ० सब मिली प्रापरणो स्वारथ रोवै, प्रीय की गति कुरण जोवे रे। स्वारथ जास न पूगरे होवे, सो परि पूठ बिगोवे रे इo जब लगि सब हो के मन भावै, जब लग गायो गावे रे । काज सारया मुह भी न लगावै, छिन में छह दिखावे रे ॥१०॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जिनराज सूरि-कृति-कुसुमांजलि हुती भामरिण प्रेम विलूघी, ते पिण सुरिग प्रतिबोधी रे । वाली वले सदा पडसूधी, पिण नवल सिल सूची रे ॥११.३० पूरबली परिण प्रीति न तोडु, नेह नवल हिव जोडुरे । हूँ साहिब को सग न छोड़, तिम आपो नवि छोडु रे॥१२॥इ० एक मतो कीधो मन रग, व्रत लीयो प्रभु सगे रे । श्री जिनराज वचन आसगे, पाले प्रीति अभगे रे ॥१३४० ॥हा॥ घण थिर करी श्राव्यो वही, सालिकुमर ने पासि। हर जिम बाडूकी कहै, इण परि वचन विलास ॥१॥ हिव लालच करता थका, सवल पर्ड छै चूक । करै सूर पोरस चढयं', इकरिग धाव वि टूक ॥रा प्रेम मीत दल , मोडिवा, कायर म करि संकाण । हुँ पालि पूठी रुखो, तू हुइ आगेवाण ॥३३ बोलाव्यो न रहै कदे. केहर नावे घाय । वापूकारया जे रहै, किम सूर कहाय ॥४॥ वयणे मन विमगो थयो, बाध्यो मन उछरंग ! वार न लागे वेसता, पासे ऊपरि रंग ॥५॥ पहिली पण अधिको हुतो, संजम ऊपरि प्रेम । वहनेवी वचने थयो, हरि पारियो म ॥६॥ खरी खबरि प्रावी तिस, समवसरथा जिनराज । सालि कहै हिव प्रापरणी, पास फलेसी आज ॥६॥ ', ढाल-२२ नथ गई मेरी नथ गई ए जाति प्रास फली मेरी पास फली पास फली पाउधारया वीर । । प्रागलि गौतम स्वाम बजोर ॥ १०॥ सजम लेतां बांधी भीर, हिव पामिस भव जल निधि तीर मे० , व्रत लेवा नै जिनवर हाथ, इक घेवर ने बूरा साथि ॥३॥मे० Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धना चौपाई मन मेल करि ने जगनाथ, घातिसु मुगति रमणि ने बाथि।४मे० प्रभु महथि लें संजम भार, खंप करि पालिस निरतीचार शामे० करिसु अप्रतिवद्ध विहार, लेइसुनिरदूषण याहार ॥६॥मे० पहिरसु सील सुदृढ सन्नाह, भाजिसु मयण तणो भडवाह ||७||मे. तो सरिखो साथी गज गाह, तो मुझ नै स्यानी परवाह ॥मे० बहिला हो मत लावो वार, आपण बे थास्या अरणगार मे० अनुमति लेवा नो प्राचार, तिरण ए पूछेवो परिवार ||१०||मे० धन्नो प्रावी निज प्रावास, सामहरिण सजम नउ उल्लारा ॥१शामे० सूल थकी मोडण भव पास, पहुतो वीर जिरणेसर पास ॥११॥मे. ॥दूहा ।। वचन न लोप्यो ताहरो, मै कीधो अभ्यास । हिव अनुमति द्यो मात जो सही तजिस घर वास ॥१॥ जे दिन जावं व्रत पक्ष, पडै न लेख तेह । हुं परदेसी हुइ रहयो, हिव स्यो करो सनेह ॥२॥ अाजूणो दीस तिको, कहै तिसी परि वात । तृण, जिम माया परिहरी, छोडि चलेसी मात ॥शा - मरता नइ जाता थका, राखि न सके कोय । पिण जो भास न. काढिये, तो मन डी भोहोय ॥४॥ , ढाल-२३ समय गोयम में करिस प्रमाद, ए जाति • धीरज जीव धरै नही जी, उलटयो विरह अथाह । छाती लागो फाटिवाजी, नय गे वीर प्रवाह रे जाया ॥११॥ . " तो विण घडी रे छमास, , , सास वरस किम बोलस्यइ जी, जोवो हीयइ विमासि रे जाया ॥२॥ कुरण कहस्यै मुझे माइडो जी, घडी घडी नै छेह । कहने कहस्यु नान्हडों जो, सबल विमासण एह रे जाया शातो. हरखि न दीयो 'हालरो जी, बहू न पाडी पाइ... " ते दाँझरिण हुइ छुटिस्यइ जी, हूँ किए ग्यान गिरणाय । ४ाजा, Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जिनराज सूरि कृति कुसुमांजलि यह पूरीत गिरती नही जी, हूँ किरण हो नं ग्यान । सिंहरिण लाखीणो जरणे जी, एको लोख समान रे शाजा धीरप देती जीव ने जी, तुझ नै देखि सधीर । जिम तिम में वीसारयो हतो जी, मैं नरगदन रो वीर रे ||६||जा० प्रात लहरण तू माहरो जी, कालेजा नी कोर । तू वछ आधा लाकडी जी, किम हुवै कठन कठोर रे ॥७] जा० चढती तुझ मुख जोइवा जी, दिहाडा में सोवार । ते पिर भूय भार हुस्यै जो, कुरण चढम्यै चोबार रे ||८|| जा जो बालापरण संभर जी, सोयाला नी रात तो जामरिण नै छोडिवा जो, सही न काढै वात रे |||जा बूढापरिण सुखिरणी हुस्युं जी, मोटि हुती प्रास | घर सूनो करि जाइ छे जी, माता मुकि निराश रे ॥१०॥ जा० दीसं प्राज दयामरणो जी, ए ताहरो परिवार । सेवक ने सामी पख जी, अवर कवण आधार रे || ११||जा० महल कवरण रखवालस्ये जी, कवरण करेंसी सार । एकरिण जाया बाहिरो जी, सहु सूनौ ससार रे ॥१२॥जा वछ तू भोजन ने समें जी, बेंसिस आय । माता करि लेखवो जी, तो तु छोड़ि मत जाय रे || १३ || जा० साल तरणी परि सालस्यं जी, ए तुझ नाहीठारण । प्रारण हुस्ये ते प्राहुरगा जी, भाव जारिणम जारिण रे ॥ १४जा० सुत विरह दुख मात नो जी, कहि न सके कविराज । नाणे पुत्र वियोगिरणी जी, इम जपे जिनराज रे || १५|| १५जा० हियड ॥ दूहा ॥ सासू जी थाकी कही. हिव आपण नी वास । कहिवो छे प्रापण वसु, करिवो छे पिउ हाथ ||१|| कहिवो ऊवरस्ये जिक्यु, जारणा छा निरधार । पिरग इरण अवसर नारि नो कहवानो विवहार ॥२॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाळिभद्र धन्ना चौपाई १५३ नेह गहेला मानवी, मूकी कुल आचार । ते स्यु छ जे नवि कहै, वोछडवा नी वार ॥३॥ कवि जन जन मुख सांभली, जोड वयण विचार । परिण ए जो माहे वहै, जाग तेहिज सार ॥४॥ ढाल- २४ राग- आस्या धाहडी गोडो वाघारी भाधन री जाति पालव झालि इसु कहै रे, लोक चिहु री साखि । ए पिरण छोरू छैमा बापना रे,छोडो अवगुण दाखि ||१|| नाहलीय विलूधी अोलमा दियरे, भामणि भरि भरि आखि । नेहलीय गहेली संकन का करै रे, कहै माथा वडि नाखि ॥रना दूर न करतो निजर थी रे, तू ब्रह्म ने खिरण मात। आज चलै छ ऊभी मूकि ने रे, चूकै छै इण वात ॥शाना सीख कर वाट मिल्या रे, वीउडवानी वार । ते तो अह्म सुसीख न का करी रे, अनवड जेम विचार नां ते छान्या राख्या हुता रे, पिण जाण्या लक्षण तेह । मुह ऊपरली करतो तू सहु रे, पिण नवि धरतो नेह ॥शानां1० भाप सवारथ चीतवी रे, छोड चल्यो निरधार । देव न दीधो एक कूणु कडो रे, जे हुवे अह्म आधार ॥६॥ना० आसा लूधां माणसां रे, वाधा वरस विहाइ । पास किसी जमवारो गालस्याँ रे ते द्यो कत बताइ ।। नां०॥ पहली संग न छोडतो रे, हिव दीठी न सुहाय । तै दोषी जिम मेर चढाविन रे,धर नांखी ध्रसकाय ||ना०॥ जीवदया मन मे बसी रे, तिण ल्यो सजम भार । आरड़ती छोडो छो गोरडीरे, ए तुझ कवरण प्राचार ना०॥ पुरुष कठोर हृदय हुवै रे, लोक कहै ते न्याय । तिल भरि भीजे पिरण छीजे नही रे, लाख लोक कहजाइ ॥१०ना घड़े नवा भाजइ घडया रे, रतने लावे खोड़ि। सा जमवारो गर, हिव दीवाली ध्रसकाय पास किसी छोडतो रे, हर नांखी प्रसका Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जिनराज सूरि-कृति कुसमांजलि दोषी देव न देखि सके रे, ए आपण नी जोड़ि ॥१शानां०॥ वीज पडौ जोसी तणी रे, पतड़े उपरी काय । जोडा वेडो करतो पातरयो रे, लोभे चित्त लगाय ||१२||ना०॥ घाट कमाई पापणी रे, अवर न दीजइ दोस । परिण पडतो आलवन ले सहु रे, करै अवर सुरोस ॥१३ना०।। वारणी श्री जिनगजनी रे, वसी जिहा रे चीत । ते तो भोलान्यो भूले नही रे, राखे अविहड़ प्रीति ॥१४॥ना०॥ ॥हा॥ भामण विविध वचन सुरणी, डोल्यो नहीं लगार। कानकाचल डोले नही, जो बाजे पवन हजार ॥१॥ एक मनो सपेखि नै, दीनी अनुमति मात । सदा नीहोरो निवल नो, नै सवला नी लात ॥ जेम जमाली सचर, व्रत लेवानी खत । तिण परि रिद्धि विस्तारि नै, सालिकुमर पिरण जत ॥३॥ सालिभद्र धन भरणी, आपण पं जिनराज । से हथि व्रत देइ कहै, सारो आतम काज ॥४॥ ताम सुभद्रा परिण गहैं, पच महाव्रत भार । धरम करम हिलि मिलि करै, ते विरला ससार ||५|| ढाल-२५ राग सोरठा. हंसली री जाति . कर जोडी प्रागलि रही, लेइ परजन पासै रे। दुख भरि छाती फाटती, भद्रा इण परि भासै रे ॥शाक०॥ मै वछ थापरण नी पर, प्राप्यो छै तुम्ह सारू रे। कोडि जतन करि राखज्यो, मत घालो वीसारूं रे ॥२॥क०।। तू कारो दीघो नथी, सहु को करतो जी जी रे । तिरण कारण जगजीवन, हटक म देज्यो खीजी रे ॥३०॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई १५५ तप करतो ए नान्हडो, मुझ पीहर वारेज्यो रे। उन्हाल आतापना, नीरती करिवा देज्यो रे ॥४॥क०॥ मै कालेजो माहरो, दीधो छ तुम्ह सारू रे । जिम जाणो तिम राखिज्यो, कहिवानो आचारू रे ॥शाक०॥ सीख किसी सपरीछता, कहता हुवै अवहेला रे। परिण मावीत सदा कहै, ब्रत लेवानी वेला रे ||६||क०॥ तु व्रत ले छ पालता, पणि साचे मन पाली रे। नान्हा मोटा व्रत तणा, दूषण सगला टाली रे ॥७॥क०॥ पूत पनोता सु थया, सजम लीधा माटे रे। जे तप करि काया कस, फलतो ते हिज खाट रे ||क०॥ निस भरि त्रीजी पोरसी, सूतो तृण संथारे रे। सेज सकोमल ते तजी, ते तू मत संभारे रे ॥६॥क०॥ चोथो व्रत रखवालिजे, वाडि म भंजण देज्यो रे। . चवद सहस प्रणगार मे अधिकी सोभा लेज्यो रे ॥१०॥क०॥ पर घर जाता गोचरी, मत अभिमान धरेज्यो रे । पाप मुरादौ मत रहै, गुरु नी सीख चलेज्यो रे ॥११॥क०॥ वच्छ काछलीय जीमता, मन मै सूग न पारणे रे। मत तू अोछो ऊतर, साधु तणे सहिनाणे रे ।।१२।।क०।। सीह पणे व्रत पादरी, सीहपणे आगधे रे। सो बोल इक बोल छै, आप सवारथ साधे रे ।।१३।।क०।। इम सीखामण देकरी, भद्रा फिरि घरि प्राव रे। एक घडी पिरण मात ने, वरसा सो सम जावै रे ॥१४॥क०॥ ॥हा॥ पर उपगारी परमगुरु, साधु तणे परिवार । स जम समपी सालिने, करै अनेथि विहार ॥१॥ सालि साधु चित चितवै, धन्य दीह मुझ आज । निरदूषण व्रत पालि नै, सारू प्रतिम काज ॥२॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि श्रीजिनवर साथै कर, अप्रतिबंध विहार । ग्रहणा ने प्रासेवना, सीख शिक्षा च्यार ||३|| तप जप करि काया कस, अरस विरस आहार। सुमति गुप्ती नित साचवे,चरण करण आधार ॥४॥ गाम नगर पुर विहरता, राजगृही उद्यान । भवसायर तारण तरण, समवसरथा वर्धमान || पुत्र रतन आगम सुणी, हरखी भद्रा मात । दीधी लाख वधामणी, कहि जिणे ए बात ।।६।। ढाल- २६ राग-मल्हार प्रोहितीयानी जाति. वे वे मुनिवर विहरण पांगुरथा रे,लई श्री वीर कन्हा आदेश रे। ए तन दुरजन विरण भाडो दियइ रे, न खिसे पग भरि सदेस रे ।१वे. मासखमण नो तुम्ह नै पारणो रे, वच्छ थासै माइडी केरै हाथि रे इण परि चवद सहस अणगार मे,सै मुख भाख श्री जिनराज रे ॥२ नप जप खप करि काया सोखवी रे,तिम वलि अरस विरस आहार रे। घर पाव्या पिण किरणही नवि पोलख्या रे, ए कुरण छै वे अरणगार रे ॥३॥०॥ जिणवर आगम सामहणी सजे रे, भद्रा नंदन वंदन काज रे। किरण कारण भिक्षु क ऊभा तुम्हे रे, भिक्षा नो अवसर नही आज रे ॥४॥०॥ माच वचन करिवा जिनराज नो रे,फिरि आव्या वलि बीजी वार रे। तो पिण पैसग न दिया पोलिय रे,रोकी राख्या घर नै वार रे ।५वे० इण घरि पैसरण नवि को दियै रे, तो स्यो विहरण नो वेसास रे। जिण घरि आउकार न आवता रे, तिण घरि सी भोजन नी पास रे ॥६॥०॥ वचन अलीक न थाइ वीर नो रे,पेसरिण परिण न लहाँ घर मॉझिरे । ए स्युउखाणी साचउ थयो रे, इक माँहरी मनि बाँझ रे ॥७॥०॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शलिभद्र धन्ना चौपाई तिण कुल साधु न पैसे पातरे रे. जिण घरि जातां हवे अप्रीत रे । एम विमासी नै पाछा वल्या रे, एहिज सुविहित मुनिनी रीत रे ॥८बे. हुँतो मासखमण नो पारणो रे, पिण मन डोलाव्यो न लिगार रे। अधिकेरो तप अगलाघां हुवै रे लाथै देही ने आधार रे॥९०॥ वलतां मारग महीयारी मिली रे, माथा ऊपरि गोरस माट रे। थभारणी पग भ र न सके खिसी रे, देखि सालिकमर नो घाट रे ॥१०॥०॥ लोचन विकस्या तन मन उलस्यारे, रोमांचित थई देह रे । झरवा लागो खीर पयोहरे, रे, जाग्यो पूरब भवनो नेह रे ॥११बे०॥ बहिरावै गोरस भावे चढी रे, वहिरी ने चिते सुविनीत र । कनकाचल चाले चालव्यो र, न चले वीर वचन सुविदीत रे ॥१२बे जगगुरु भासै स सो टालिवा रे, ए पिण पूरव भवनी मात रे। विरहण जातॉ श्राज कही हुँती रे, मै पिण तुम्ह ने नीरती बात रे ॥१३॥०॥ स गम ने भव हँती मांडि नै रे, सगली बात कही जिनराज रे । सहु को मन अचरिज ऊपनो रे, करम तरणा ए काज रे ॥१४॥वे०॥ ॥ दूहा ॥ श्री जिनवर मुख साँभली. पूरब भव विरतत । सालि विचारै करम गति, इरण परि साधु महत ॥१॥ नाछरुवा चारावतो, हु पाछलि दस वीस । इणि भवि किरीयायो कीयो, श्रोणिक मगधाधीश ॥२॥ * पाछलि मनसा खीर नी, पूरी, हुती नीठ। निरमाइल घाल्यो कनक, इणि भवि सगले दीठ ॥३॥ भव पहिलकै पहिरतो, माँगी पर नी खोल । इण भव बहू ए पग लूही, नाख्या कबल सोल ।।४।। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि ढाल-२७ राग-चौपाई नी. कीधो मासखमण पारणो, तनु प्राथाम जारिग श्रापरणों । आगलि करी श्री गौतम साम, ते पूछइ प्रभु अवसर पाम ॥१॥ जिरण कारण भाडो दीजतो, हिव ते लाभ नथी दीसतो। असनादिक चौविह आहार, तेह तणो करिवो परिहार ॥२॥ प्रभु भास' सुख थाय जेम, देवाणुपिय करिवो तेम। . तहत वचन करि वेऊ चल्या, गौतम सामि सखाइ मिल्या ।।३।। मन वच काथाई वसी करी, जे दूषण संजम प्रासरी। लागा हुता ते स भार, पालोवै निदे तिणवार ॥४॥ चौरासी लख जोनि खमावि, सबहू स्यु करि मैत्री भाव । मन सुधि प्रणमी सयल जिनेश, धर्माचारिज वीर विशेष ॥१॥ अरणसण ले पादपनी पर', इण्ट कत काया परिहरै। च्यार चतुर शरणा उचर', आपणपै पापो ऊधर ॥६॥ हिव धरती मन अधिकी जगीस, आगलि करि बहुयर वत्रीस । भद्रा रिद्धि तणे विस्तार. समवशरण पहुती जिणवार ॥७॥ दे परदक्षण वीर जिणंद, वादया अवर मुनीसर वृद । नयण न देखै साल महत, कर जोडी पूछे भगवत ।।८।। चढि वैभार शिखर मुनिराय, प्रादरि अगसरण छोडी काय । प्रभु मुख एह वचन साभली, भद्रा माता धरणी ढली ॥६॥ विविध विलाप तिसी परि कीया, जिरण फाटे विरहातुर हीया। साथे वहुले गिरिवर चढी, पोढयो, सुत देखी आरडी ॥१०॥ साथि श्रेणिक अभयकुमार, ते समझावै वारोवार । गरिणये तासु जन्म सुकयत्थ, जे व्रत धर साधे परमत्थ ॥११॥ ॥हा॥ पेखि सिलापट ऊपर, पोढयौ पुत्र रतन्न । हीयड़ा जो तू फाटतो, तो जाणति धन धन्न ॥१॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई १५६ रे हीयडा तु अति निठुर, अवर न ताहरी जोड । इव. विरह न विहसतो, जतन कर लख कोड ।।२।। हीयडा तू इण अवसरै जो होवत सत खंड । तो जाणत हेजालूयो, बीजउ सह पाखड ।।३।। मुझ हीयडो गिरि सिल थकी, कठन कीयो करतार । घण घाए विरहा तण, भेदयो नही लिगार ॥४॥ ढाल २८- राग केदारो काची कली अनार की रे हां ए जाति इतला दिन हु जागती रे हाँ, मिलस्यै बार बे च्यार मेरे नदन । हिव वच्छ मेलो दोहिलो रे हा, जीवन प्राण आधार मेरे० ।।१।। माइडी नयण निहारिने रे हाँ, बोलो बोल बि च्यार मेरे । अबोल्या इणवार मे रे हाँ, थाये केम करार मेरे० ।।२।। इण अवसर ना बोलडा रे हाँ, जे बोलिस दस वीस मेरे । ते मुझ प्रालबन हुस्यै र हा, स भारिस निस दीस मेरे० ॥३॥ तप करतो गिणतो नही रे हाँ, क'या नो लबलेश मेरे । सैगू माणस आविने रे हा, इम कहिताँ स देश मेरे० ॥४॥ पण हू साच न मानती रे हाँ, बैठोते हिज देह मेरे० । पजररूप निहारिनै रे हॉ, साच मानु हिव तेह मेरे नं० ॥५॥ भूख खमी सकतो नही रे हाँ, तिरस न सहतो तेम मेरे न० । मासखमण पाणी पख र हाँ, तें कीधा छे केम मेरे न० ॥६॥ सुरतरु फल आस्वादतो र हाँ, अन्ना तणउ आचार मेरे । तेइ किम कीधा पारणइ र हाँ, अरस विरस आहार मेर० ॥७|| हाथे उछरयो हतो रे हाँ, लहती ताहरी ढाल मेर० । कहिने स्यु छानो हतो रे हा, मा हु तो मोसाल मेरे० ॥८॥ व्रत लेतै छाडी हुती, रे हा, ते जामण निरधार मेरे० । हिवरणाँ वलि अरणवोलवै रे हाँ, खत ऊपर द्य खार मेरे ||६|| चलतो इण गामतरै रे हा, लाबो द्य' छै छेह मेरे० । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि थास्या जन्मान्तर हिवै रे हां, हम तुम नवल सनेह मेरे० ॥१०॥ पाछलि वीतिक वीचस्यै रे हाँ, जॉरगइलो करतार मेरे० जिम तिम रोवता वउलस्यै रे हा, ए सारी जमवार मेरे० ॥११॥ इण डुगर चढवा तणी रे हॉ, आज पर्ड छै सीम मेरे । हाड़ी ल्यावै पखीया रे हाँ, तो मत भाजो नीम मेरे० ॥१२॥ घर आवी पाछा वाल्या रे हाँ, जगम सुरतरु जेम मेरे० ए दुख विसरस्यइ नही रे हाँ, हिव कहो कीजे केम मेरे ॥१३॥ एकरस्यो घर आँगण र हाँ, सैहथ प्रतिलाभत मेरे । लाधो नरभव आपणो र हाँ, तो हु सफल गिणत मेरे ॥१४॥ प्राजूरण अरणवोलणे रे हाँ, भलो न कहस्य कोइ मेरे। पहिड़े पेट जो आपणो र हाँ, नो कलि उथलो होय मेरे ० ॥१५॥ ए साजण मेलावडो रे हाँ, ते जाण्यु सहु कूड मेरे । हिव लालच कीजइ किसो र हाँ, आप मूॉ जग बूड मेर० ।।१६।। ते विरहीजन जाणस्यै र हाँ, वीतक दुखनी वात मेर। नेहे भेदाणो हुस्य र हाँ, जेहनी साते धात मेरे ० ॥१७॥ आसा लूघाँ माणसा र हाँ, जमवारो क्रिम जाय मेरे । देव निरास कियाँ पर्छ रे हां, पापी मरण न थाय मेरे ० ॥१८॥ हुँ पापरण सिरजी अछु र हाँ, दुख सहिवा ने काज मेरे। दुखिया ने ऊतावलो र हा, मरण न घे महाराज मेरे० ॥१६॥ मीठा बोल म बोलज्यो रे हाँ, मत करज्यो का सीख मेरे। नयण नीहालो नान्हडा र हाँ, जिम पाछी छ वीख मेरे ० ॥२०॥ - ॥हा॥ माता विविध वचन कहया, धरती निवड़ सनेह। । पिरण समतारस झीलते, नाणी मन मे तेह ॥१॥ भामिणी वत्तीसे मिली, कीधा कोडि विलाप । पण नायो मन ढूकडो, तसु विरहानल ताप ॥२॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि क्षति-कसुभाअलि समा TAMATA .', .... MGNREarlarakinelairसनी घ ईमान JEEनालियविधक्षरशंध्या परमागिदार | पाणितारवाarसपपरागाईयशालाकनातिसोnिal तनावमवपरमारगच्याशिसरिधाasतादिनलालपशिकभराती। सालिसक्षसुखसपदमदानपसारतापातातलाम मातासुपसगज्ञानाक्षिनानाविta सावक्षनधईसीसलगामसिकार पावसायातlarEIRS- 0 8 -गावसामाणिकरणालापीaal न्यायकरश्वासालानावानटमधाम रोडिावस्याण अमितका Heranaनतलाक्ररास्वलयामा नीताराणावलापकानाला हिनाकार मनासरवनयकुमार immaranामगारावसाय प्रलकानदमासुरवामाना वसइसकाsiaslume आमालाasaपENTEMPयांगलाकारकपरिका वाह सामान्यायालतिकारशकतारसनायुपालवावलमवगुणालमा लघलानरयणादयणनयानमारासमणादणेवारी सोलामांडायद्याज्ञा कांगालितिवदतियारधनिदालाविदयारकिाशकईचा जसविनाSHमातगयनजकादशंतम्रासामसपवसरददाशेरमा तमिडियासासाशिअलविनापसाशमानियाsarवियरिकन परदमानधनवज्ञसक मतिर्पिताअनन्यज्ञशाहिजपासासगामास 2: एरबोदवसाशाप्रधनुसरशवसरिबारदेवताविषधरशायरसवांतीडिया सरिवरवालाकवसंरक्षणापराधाश्रीसालिनचरिनगदनगरवासन Rare.56 GETS Kir:: सामुUNT PADA 21 .. 1: + L RE ३ NA मान्त अटक Et. : 14 By Enrn AAP-1 10-2 पा A SH ... HTM RRARAM ISROVIES S ' HAYARI ATEMAak . RG Netan SAKS S सं. १६८१ में शालिवाहन चित्रित शालिभद्र चौपई के आदिपत्र में श्री जिनराजसूरि जी Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृति-कुसुमांजलि REY इना माताविविश्ववनकक्ष्याधिरताaraसतवादिगममतारमका लितानमदिनाएगातवा 18सामिणवायमिली कीक्षकामिविलापाविण सायासमतदकमासुविरदानलताय॥रागधनासीमाढालाइणिया । सारस्पर्णिकारवावशसदासाधईयावकिलातीतसकीसावा, तगादाण्वतावडीपासालिसधनवशिधिगयातासुननिवाया माडापतपघएकरिकासिकायामासाककेकाहाराजानाटामा याटाली कालिमलएकएमालीजाघरमसमयडिगावमलालामुधमा - मायणपाली आधारवरणसामधाराशायाएसदारक्षमाधाडी मुरगतिकारमतिकाधिवाधासस्वारघसिधिलाधापुरसारऽसुरतवं विशलपिनदिनानिदालला । तातावालावन्ससानावरवि । तिणिकालसरदारसिधिज्ञताविस्थामा वरनरसलदिसाइजमदादि - इतवादरियाशयदि, वनसिवसुस्वदस्सिाशावापरता दानतणाफलकापसावमा किमनिमाणाडसीदताकदातलमायनशाणामाझिनवरवापाझी, -माक्षरिककलिवामाता पितागाउंदरसाडी सालदसतनश्दिरसामुददिवविदिवमझे झिनमिंदररिसासमतिसारस्जिदानातिसारडाप्रीजिन', रायगडसाशदरितका सुविचार लपरिमाकेतापाय,-' मावशाहलदियएएसजसायजीअनियविधातडशरिसलाहमा । दिसुस्वधावडशसमविकागिसशासनासोसलिम 'दागारागप्तिस्यज्ञमतिकावलनिस्सीsex लिनादानिमानसम्ममामा सवसकरलरसमितहिताधादिपक्षमीतियोधकवावलूलवलमालालपालदिनालवाटारमा । सामझदागमाविमादिगतिशतसमाविमानान्ता शालिन सनवतशतवादविहानाहानाहान्यायी डिजराजरिदिडविरा टेगारदाराचा I "यसविनयाधीशुगक्षरणारश्रीमजिनामामाधामलकाका वितरकधीएचपरमशिदानमाारसयामागदिमशालारना , विसंघमुरव्यासापतागागाशीयमान्दारमल्लवालधुबोधसामनाया मापरायालाविवदाराचसादयाकारणानपाराक्षासदादि सारपरिवारयुगालस्थितीतधोमानविनावमा लिरिका । तलावएएकालिगलिनाविंत्रितधिकालिदादया । 11111nd .. क्षमा 4U -A /IC : i पं० लावण्यकोति गणि व सा० भारमल्ल राजपाल Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालिभद्र धन्ना चौपाई ढाट-२६. राग-धन्यासी इण अवसर श्रेणिक परचावै, भद्रा फिरि घर पावै जी।। पडलाभी न सकी प्रस्तावै, तिण गाढी पछतावे जी ॥१॥ सालिभद्र धन्नउ रिषिरोया, तासु नमु नित पाया जी। जे तप जप खप कसि करि काया, सूवा साधु कहाया जी ॥२॥सा०॥ नान्हा मोटा दूषण टाली, कलमल पक पखाली जी। चरम समय जिरावर सभाली,सूधो अगसण पाली जी ॥शासा०॥ बार वरस सजम पाराधी, आप सवारथ साधी जी। सुरगति करम निकाचित बाधी,सरवारथ सिद्धि लाधीजी ॥४॥सा० सुर सारै सुर भवन विचाल, पिरण नवि नाथ निहाले जी। पोता नो वोल्यो संभाले, हरखित हुवै तिरण काले जी ॥शासा०॥ सरवारथ सिद्ध हुती चविस्यै, मुनिवर नर भव लहिस्य जी। महाविदेहे व्रत आदरिस्यै, अविचल शिवसुख लहिस्य जी।६सा०॥ परतखि दान-तणा फल जारणी, भाव अधिक मन प्राणी जी। भढलक दान समापो प्राणी, ए श्री जिनवर वाणी जी ॥७॥सा०॥ साधु चरित कहिवा मन तरसे, तिण ए भास्यौ हरस जी। सोलह सइ अठहत्तरि (१६७८) वरसै,आसू बदि छठि दिवसे जी। सा० श्री 'जिनसिंहसूरि' सीस मतिसार, भवियण नै उपगारे जी। श्री 'जिनराज' बचन अनुसार, चरित कयौ सुविचार जी । सा०॥ इणि परि साधु तरणा गुण गावै, जे भवियरण मन भावै जी। अलिय विधन सवि दूर पुलावे, मन वछित फल पावै जी ।१०सा. एह सबध भविक जे भरणस्यै, एक मना सांभलिस्य जी। दुख दोहग ते दूरइ गमस्यै,मन वंछित फल लहिस्य जी ॥११॥सां०॥ इति श्री दान विषये शालिभद्र धन्ना चौपई मंपूर्णम् Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # श्री गजसुकमाल महामुनि चौपाई | ॥ ॥ EET II L नेमीसर जिनवर तरंगा, चरण कमल परणमेव । साघु साधु गुण गावत, सानिधि करि श्रुतदेवि ॥१॥ सूघउ मारग उपदिसुइ, पालई विसवा- वीस । दूसम कालइ तर मिर्लई, जड़ मेलइ जगदीश ॥२॥ हुआ अपूरव पूरवइ, चारितधर- चउसाल | गातां जिम तिम गुण हुवड़, जातां जिम, मउ साल ||३| कहइ केवली केवली, स्युन, लहइ - ए सार । साधु धरम दस विधि तहा, क्षम तराइ अधिकार ॥४॥ सोहम वचन हियइ घरी, गंजसुकमाल चरित्र । कहिवा मुझ मन अलजयउ, करिव जनम, पवित्र ॥५॥ तास प्रसंग अनीक जैस, प्रमुख चरित हितकार । चतुर चतुर xस गइ मिल, सुराउ + भरणउ मतिसार ॥६॥ . सरस बचन तेहवान छई, पिर सरस चरित्र छइ तीस. । साकर मेलवणी- पंखेड, स्यु त घरइ, मिठास ॥७ S J 1 क दाल १ राग-रामगिरी चौपई, मगध देश, न कि भूपाल एहनी भरतक्षेत्र नयरी द्वारिका । धनद आप थापी छई जिका । गढ मढ मंदिर पोल प्राकार । जोतां अलकापुरि अवतार ॥ १ ॥ नवमउ वासुदेव वसुदेव । नदन कृष्ण, करइ जग- सेव सलहीजइ जामणि देवकी । जासु भली जग माहेवकी ॥ २ ॥ कोट माहे छप्पन कुल कोडिं' । यादव बाहिर बहुत्तर कोडिं । । के * मुहसाल X विधि राग + भरणउ गुणउ : केलवणी परे पत्रे ÷जोडि Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई १६३ राजनीति पालइ राजवी। कुविसन पिण टालइ लाजवी ॥३॥ एक एक हुँती आगला । साहसीक नर रण वावला। यादव कुमर खरा मछराल । तृणइपड्यइ पिरण ऊठइ झाल ||४|| जासु, चिहुँ मइ सोभा घणी । साडी, सुहड़ विरुदना धरणी। परत वह इग* मुख भाजगी । अवर-नारि जारगइ माजणी ॥५॥ रहइ राति दिन मद भीमला जारपइ,कोक भरतनी कला। पिरणपरनारि सहोदर जेह । काछ वाच निकलंक निरेह ॥॥ भोग पुरदर लील विलास । घरपो, सू, राखइ इकलास । विषय जलधि हेलइ जे.तरइ । छयल, पुरुष को नवि छेतरइ ।।७।। भोगी भमर कुमर, दुरदृत । ते सोचइ -मन सू एकत। हरि हुरमती राखइ विघटती । कोजाइ छइ गाढी *अघटती ॥८॥ वात सहु पोतानी करई। न करई पर, निंदा पातरइ । सीखामगि धइ एकरण वार । वलती को न करई नाकार ॥६॥ लाजवंत अलविनं.को लड़ई । कुर्वण चढइ चावइ +चउतरइ। न हुवइ केहनई माथइ दंड। प्रसादा सिर दीसइ दंड ॥१०॥ करइ अनीति न बध न पडइ । बंधन केस पास नइ जुडइ । 'दोसइ बाजीगर माडीयउ । राजभवन नवि को चाडीयउ ।।११।। वधतउ माहोमाहि सनेह । दीवइ दीसइ घटतउ नेह । "गुरगना चोर न धनना चोर । मन ना चार वसईईइ'जीर ॥१२॥ थोडइथोडइ धन एकठउदा. मेली नइखरचइ सामठउ । 'पाठ पहुर घरि दय-दय कार: अलवइ कौन करइ नाकार ॥ ३|| । सतवादी नर सारइ.दीस । गिण्या-बोल बोलइ दसवीस । ऽपडथइ कसइन बोलह झूठ। पडइ साखाजेहनी पर पूठ:॥१४॥ पर दूषण,न कहइ-गुण-ग्रहइ॥ तीन तत्व सूधा सरदहंइ। } कोइ न लोपडू हरिनी कार । उत्तम यादव नउ परिवार-॥१५। [सर्व गाथा २२]] *रण *विघघति x कणवार + चउतड़इ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि गामागर पुर विचरता, निरमम निरहंकार । नेमि जिणद समोसरया, साधु तराइ परिवार ||१|| साथे गणधर केवलि, चौदह पूर्व धार। चौनाणी तप आगला, लधि तणा भण्डार ॥२॥ छटु छट्ठनइ पारगड, विल उमित आहार । रसना वसि करि जनम लगि, विगइ ताउ परिहार ॥३॥ ऊ च नीच कुल गोचरी, केवल सीतल अन्न । मौन व्रत कारणई पखइ, के प्रतिमा प्रतिपन्न ॥४॥ पहर सात लगि कावसगि, चारित निरतीचार । पहर एक मइ साचवइ, नीमावि श्राहारx ॥५ नव दीक्षित साथइ हुता, कचरण कोमल गात्र । छए अनीक जसा प्रमुख, मुनिवर चारित पात्र ॥६॥ विविध+ अभिग्रहना धरणी, सूवा साधु महत । एक एक हुती अधिक, जे गरुपा गुणवत ॥७॥ सर्व गाथा २६ ढाल २ राग-केदारा गउडी,नमणी खमणी नइ मन गमणी पहनी पहिली पोरसि सूत्र सभारी। बीजी पोरसि अरथ विचारी। जाणी त्रीजी पोरसि लागी। वसि वेदनी क्षधा पिण जागी ॥१॥ सलहीजइ सजम जग सारइ। तेतउ देह तराइ अाधारइ । ते पिण न चलइ विण आहारइ । भाडउ देवउ ते आचारइ ।।२।। इण परि सुध भावन भावी। साधु छए प्रभु पासइ प्रावी । करि आवसही त्रिहु सघाडे । विरहण पहुचइ ते त्रिह पाड़े ॥३॥ * अनइ xना पागम व्यवहार +विविध Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई १६५ दूषण भूषण* वइतालीसे । जे xसवि जाणइ विसवावीसे । ते पाहार भमर जिम ग्रहता। श्री वासुदेव तणइ घरि पहुता ॥४॥ देखि सरूप कीया देवकीयइ। दीठा बे मुनिवर देवकीयइ । सात आठ पग साम्ही जाई। करि प्रणाम देवकनी जाई ॥५॥ मुझ घर आगरण पावन कीघउ । जगम + सुरतरु जो पग दीघउ । पेखी पात्र चढी सुभ भावइ । थाल भरी मादक विहरावइ ।।६।। पडिलाभो मुख साम्हउ जोवइ । सारउ तनु रोम चित होवइ। जोता तिम लोचन थभारणा। पाछा ले न सकइ लोभारणा ॥७॥ चचल चित ते पिरण अटकारगउ । नेह-नवल तिरण क्यु न कहाणउ लाग गई इणि परिका ताली। जॉरो चित्र लिखित पचाली ॥८॥ वलि बीजउ सघाड उ आवइ । पिण अतर तिल तुस न जणावइ । प्रागलि भोजन परि पाउधारउ । महिर करी मुझनइ निस्तारउ ।। इण घरि देवानी मति जागइ। तउ किरणही बातइ दोष न लगाइ। धरि विमरणो उलट निज अंगइ । पडिलाभइ मोदक मन रगइ ॥१०॥ पाणी खलि पिणन पडयउ पाडउ । आव्य त्रीजउ पिण सघाडउ। दीठा तिणी एकणि अनुहारइ । स्यु फिरि आव्या त्रीजी वारइ ॥११॥ पाजूणउ दिन पडिस्यइ लेखइ। पडिलाभइ मोदक सुविसेषइ । परभव नइ जे स वल संचइ । तेत उ देतउ हाथ न खंचइ ॥१२॥ सर्व गाथा ४१ ॥ दहा ।। करइ तिसो खप विहरता, गिण गिरण टालइ दोष । पडइ न चलता पांतरउ, लाघउ मारग धोख ॥१॥ *दूषित x नवि +तीरथ बलि न चलि परि देवीनी Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि . . । " + सावधान दीसइ तिमा, पगनउ तिस3 उपाड़। सिवपुर ए पहुँचइ सुखई, पडई नवा विचि धाड ॥२॥ 'त्रिकरण सुद्धइ तेहवा, 'दीसइ उपसमवंत । गिण्यां दिनां माहे करइ, पाठ करम नउ अत ॥३॥ लालच किणही वांतनउ, घरइ नहीं तिलभार । बार-वार नावइ फिरी, विणकारणि अरणगार ॥४॥ सर्व गाथा ४५] ढाल-३ राग सोरठी जातिमोरित्यांनी चीर' वखाणि ऐ देशी । देवकी मधुर वचने 'करीजी, वीनवई दे कर जोडि । 'उत्तम पात्र पडिलामीवाजी, कृपण पिण मन घरइ कोड़ि॥॥ - साधु जी भलइ पधारियाजी, जीवित जनम प्रमाण । सुंकृतनी आज जागी दसाजी, प्राज ऊंगउ भलइ भाण ॥रा स० "यन अलिकापुरी द्वारिकाजी, कनकमइ नवल प्राकार | “पार दीसइ न को रिद्धि नउजी, लोक मुदि मुदित दातार ॥३॥स० 'अतिथि प्रावी चढइ बारगइजी, जेतला राति दिन सीम । । पोषीयई नव नवे भोजने जी. कर्वहई एहवउ, नीम स० पारकउ दुक्ख देखि केतला जी, आप न खमी सकइ जेह । ' वातनी वात माहे सहुजी, आथि ऊपाडि द्यइ तेह ॥५॥सा हति अणहुति न मिटइ लिखीजी, पिरण न कोकरह नाकार। केइ धरणी भरणी घर विवइ जी,एहवी सीख द्यइ सार॥६॥स०।। पात्र घरि प्रावि पाछउ'वर्लइजी, के कहइ ए बड़ी खोड़ि। दान देन को त्रौटइ पड़यउजी,कृपरा जोडेइ न को कोड़ि पास०॥ विरूद केह वहइ एहवउ जी, दीजियइ जा लगइ होइ। आथि साथइ न को ले गयउजी, ले न जासी.वली कोइ॥८॥ *पन्याश्री x वीर बांदि वल वां थका बी Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई १६७" आज चउथउ अरउँ द्वारिका जी, माहि सत पीढिया साह।। साहरइ जे दुनी डोलती जी, सहस लगि पउलि प्रवाह ॥६॥०॥ परवदिन पौषध अनुसरइजी, साधुनउ. जउ जुडइ योग। बारमउ व्रत पिण पारणइजी, साचवइ श्रावक लोक ॥१०॥स०॥ वात छइ अचरिज सारिखीजी, माहरइ.मन न समाइ। . स्वाद कहतां न को ऊपजइजी,विरण कहया पिणन रहाइ ॥११स० ऊंच कुल नीच कुलं गोचरी जी, अरसनइ ,विरस माहार। स्युन मिलइ आया* फिरीजी,एकरिण घरि त्रिह, वार ॥१२॥स०॥ '.. ' ', '5 " सर्व गाथा ५७ ] 1 . छए, जिनन । परिवार ," छठx छ माया . काया कारिमी स्वारथ निउ । परिवार ।, प्रतिबूधा बंधव छए, जिनवर बचन विचार ॥१॥ छठx छठनइ पारगइ, लेई / प्रभु आदेस । जावा पाडे जू जूए, कीधर नंगर * प्रवेस ॥२॥. जाणां छां आव्या हुस्य पहिली मुनिवर च्यार। थोडइ थोडइ आंतरई, तो, पिराइण अणुहारला। जिण अम्ह न दीठा हुस्यइ, हरि करि बार हजार। प्रायइ ते पिण पांतरइ, बोलाचरणारी वार |४ प्राज इहाँ भिक्षा सुलभ, सहारको लोक समृद्ध । मरस विरस आहार, ल्यइ, साधुन को रसगृद्ध ॥५॥ [सर्व गाथा ६२] *पधारथा वलीजी xछए Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि ___ ढाल-४ मोमल* 'रउ' हेड़ाऊहो मिश्री ठाकुर महिंदरी, पहनी जाति . नयण निहालइ हो हरि करि, देवकी ते वेवे अपगार । रूप रूप ४ महो हो पानोपम संपदा,कहतां नावइ पार ॥श्त० प्रा० . निरख खमइ जे हो अनमिख जोवतां, लोचन तृपति न थाइ। कमल कमल विकसइ होतन-मन उलसइ, तरगति न+लखाइ।२ खोडि न का जोता हो मीटइ (नवि) चढइ,नख सिख सीम सरीर । आपण पइ करतइ हो करणीगरइ, कान करो तकसीर ||३|| तप तपिवउ हो विच-विच आतापना, ल्यइ नीरस आहार । पिण तिल भरि न घटइ हो तनु लवरिणमा,देव कुमर अवतार ॥४न. इण अनहारइ हो सारइ जगत्र मइ, नयण न दीठउ कोइ। भाति पडी न वली हो वीवइ. पखइ, तिरण मुझ अचरिज होइ॥५ सोभागी पिरण यादव हो भलभला, कंचरण वरणी देह । प्राख तलइ ते पिण आवइ नहीं, जउ दीठा हुवइ खेह ॥धान०॥ रूप अवर अवसर मिट्यौ पडयो, जोवो पडिस्यै माड। प्राविलाए पूरी न हुवै किमइ, अविा तरणी रुहाड़ि ॥७॥न०॥ सयपण कोई हो नही पिण उल्लसइ, हियड़उ सगपरण जेम । मुझ नइ सूधी हो समझि न कां पडइ, इम किम प्रगटइ प्रेम पन० श्रावक नउ हो चारित्रिया ऊपरइ, हुवइ छइ घरमसनेह । श्राम न कईयइ को परवस पड़इ, आवइ मन सदेह न०॥ मोहन मूरति हो जाइन मेल्हणी, नयण थया लयलीन । चोल तणी परिजे हो रातउ अछइ,किम करिस्यइ मन मीन ।।१०न. प्रापरणपइ मन सू आलोचतां, लागी खिरण इकवार। काम सरथइ स्यानइ हो ऊभा रहइ, नारि पास अरणगार ॥११शान० • सर्व गाया ७२ मोसन हेडाक, आष न वभायो-ऐ जाति xतपो हो निरुपम +कहाइ बीव, वीजा, तिह, ऐह सवर कहिया Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई १६६ ॥ दूहा ।। करइ विमारणसण देवकी, हैं बलिहारी ताह । भर जोवन माया तजी, सयम लीघउ जाह ॥१॥ एकणि नालइ जनमिया, जिण ए पुत्र रतन्न । रतन जनेता सलहीयड, ते जामिण धन धन ॥२॥ अनुमति देता व्रत समय, किम वही छइ जीह । जामिणी ए जायाँ पखइ, किम नीगमस्यइ दोह ।।३।। इण गति इण मति इण उगति,इरण छवि इण अणुहार । जउ क्यु छइ तउ हरि अछइ, बलि जागइ करतार ॥४॥ सर्व गाथा ७६ ढाल-५ ईसलानी* साधु बचन विघटइ नही, वेसास सहूनइ पूगइ रे । पूरव सूरज ऊगतउ, ते पिण पछिम ऊगइ रे||१||सा०॥ अमृत हालाहल हुवइ, ससिधर वरसइ अगारो रे । सुरतरु वछित आपतउ, विरचइ केहनइ वारो रे ॥२॥सा०॥ कवरण गुहिर सायर समउ, तोx पिण मरयादा मूकइ रे । कामगवी घरि दूझती, ते करम विसेषइ सूकइ रे ॥शासा०॥ सुरगिरी थिरि सिर सेहरउ, ते पिण डोलायउ डोलइ रे। पिण धरतो न 'पडिइ' किमइ,अलवइ जे मुनिवर बोलइ रे ॥४सा' अइमत्तउ अतिसय निलउ, सहुना सदेह हरतउ रे। पुर पोलास समोसरथउ, जगम तीरथ जयवंतउ रे ॥शासा०॥ मुनिवर नइ मीटइ पडी, बालापरिण वाली भोली रे। घरि आगणि,रमती छती, साथइ ले सहोयर टोली रे ॥६॥सा०॥ नील कमल दल सामला, पाठे एकणि अकारइ रे । कुलदीपक सुत थाइसी, नल कूबर अणुहारी रे ॥७/सा० क्षेत्र भरत मइ तेहवा, जणस्यइ का भवर न नारी रे । *हासला री, कर जोडि भागलि रही-ऐ देशी x ते Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जिनराजरि-गति-कुसुमांजलि विरा पूछयां मुनिवर कापड, पोनड गन सु निरधारी रे ||८ स० एक कान्ह मइ जनमीयउ रिपिजी भाषा. हिनागो रे। जोता तास पटतरउ, को नवि दीमा गाउ रागो रे मा०।। पुत्र छए जिण जननिया, तेनर छड नारि अनेरी है। साधु वचन हुवइ वृया, मुभान परतोति घग्गेरी रे ॥१॥सा०॥ नेह नवल तिम ऊलमड, तिण परि दागा मोजो रे । ए हरि ववव हू कहुँ,न हुवरइ जउ जामिरिग बाजी रे ||११||सा०॥ सर्व गाया ८७ ॥ दूना ॥ करता एम विचारणा, वडली घडी वि च्यारि । समवसरयउ प्रभु सभरवड, संसय भजगहार ।।१।। ससय तिमिर +करणहर, केवल किरण पहागु । भविक कमल प्रतिबोधिवा, ऊगउ अभिनन भागु ॥२॥ चाली सइ मुखि पूछित्रा, खरी आणि मन खति । श्री जिनराज मिल्या पखइ, किम भाजइ मन भ्र ति ||३|| च्यारे अभिगम साचवी, वधतड मन परिणाम । परदक्षिण देती करइ, इण परि प्रभु गुण ग्राम ॥४॥ सर्व गाथा ६१ ढाल ६ जीगनी जाति वाल्हेसर सिवादेवी केरउ नद, _____टोठउ हे दोठउ सजल जलद समउ-- सामलियो नेमि --पॉ० सोभागी राजुल भरतार, मोहन हे मोहन मूरति नितु. नमउ सा॥ तुम्हे गावउ हे गाव उ मन धरि प्रेम, जेम न हे जेम न भव सायर भमउ ॥शासा० *भापिस xन हुवै मृपा +निकर हरण -भरयो Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसूकुमाल महामुनि चौपई १७१ चिरजीवउ गिरधरजी नउ वीर भेटया हे भेटयो पास सह फली। अतुली बल साचउ अरिहत,जीत उ हे जोतउ मोह महाबली ॥२ सा० वूठउ आज अनोमय मेह,अम्ह घरि रे अम्ह घरि अाज वधामणा । भावइ भोली नयग निहालि, भामिरिण लेती भामणा ||३|सा०॥ जय जय जग जीवन जिनच द, जादव हे जादव कुल सिर सेहरउ । मुगति रमणि उर नबसरहार जगम हे जगम सोहग देहरउ ॥४ सा० बलिहारी वार हजार, अनूपम है अनुपम नख सिख ऊपरइ ॥सा० जिनवर चरण कमल लयलीण, मोमन हे मोमन मधुकरनी परइ । ५/सा०॥ मन धरि भाव भगति भरपूर, गावड हे गावइ तुम गुरण अपछरा। प्रापइ वलि विचि विचि पासीस, जीवउ हे जीवउ कोडि संवच्छरा ||सा०॥ लागउ चोल तणी परि रग,बीजउ हे वीजउ चित न को चडइ ।।सा. करि सुरतरु संगति पारहार, कालि हे कावलि बाँवलि सू अडइ 19||सा०॥ कावलि सू खनि खावा जाड, मेदा हे मेवा मन गमता लही । सा०॥ मद वहतउ गइ घर वार, वेसर हे वेसर मन मानइ नही ।।८सा० सिर धरि परम पुरुषनी प्राण, जमची हेजमची प्रारण न को वहइ सा० करगत कौडि कनकची छोडि, काचउ हे काचउ लोह न को ग्रहइ |सा०॥ हे लवीयउ होयडउ ही रेह तेतउ हे तेतउ फिटक नरइ करइ ।।सा। काच सकल किम प्रावइ दाइ, ____जोता हे जोता पाच पटतरइ ॥१०॥सा०॥ देव कुमर घरती नंसकाइ *सूकड हे सूकड xहेक चढावीयइ ।।सा. *स्प कडि Xरांक Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जिनराज सूरि कृति कुसुमांजलि सफलकरण मानव अवतार, इरणपरि हे इरपरि भावन भावीयइ ॥ ११ ॥ सा० ॥ सर्व गाथा १०२ ॥ दूहा || आगलि प्रावी साचवी त्रिकरण मुद्र प्रणाम । वे कर जोडि पूछिवा, जगगुरु भासइ ताम ॥१॥ श्राव्या ना विहरवा, मुनिवर निरखी तेह | रोम रोम तुनु उलसर, जाग्यउ नवल सनेह ||२|| नारि अवर साबति थई, जिरग जाया सुत एह । साधु वचन पिरग (न) हुवइ मृषा, मन मइ * थयउ मदेह || ३ || ते तू आवी पूछिवा, एसx अत्य समरत्थ । हंता भामइ देवकी, कहउ हिरइ वइठी बारह परखदा, भासइ अलवि अलीक न उचरइ, प्रतिसय परमत्थ ||४|| भगवंत । महंत ||५|| सर्व गाथा १०७ इम वत ढाल-७ यतिनी भद्दिलपुर रिद्धि समृद्ध | तिहा नाग घरणि सुप्रसिद्ध । कोसीसा कलस विचालइ । सुलसा निरदूषण पालइ ॥ १ ॥ भावी सुभ असुभ विचारइ । जे देखी तनु लक्षण वीथी । वहतइ इम संतान सही सू थासी । पिग माछि+ भावी सूं जोर न चालइ । ते बोल सतान पखइ ससारी | दिलगीर सामुद्रकऋणु सारइ । वात कही थी ||२|| छता मरि जासी । होनिसि सालइ ॥३॥ हुवइ नर नारी । *इम X एम, ए सह + माहि Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई सुलसा सिर घूरणी सोचइ । इरण परि मन सू आलोचइ ॥ ४॥ बालक घरि माहि* न दीसइ । रिद्धि देखी न हयउ' हीसइ । नाची पग साम्हउ जोवइ । जिम मोर नयरण भरि रोवइ ॥ ५॥ पाछलि जउ एक नमूनउ । न हुवइ तउ सहु जग सूनउ । जायइ पाखइ कुण राखइ । मुलकति सहुकोनी साखइ ||६|| श्रागलि गज जउ हालइ । सहु दुख विसारी घालइ । वसती जिरण जायइ थायइ । जामिरणो वसती कहइ न्यायइ ||७|| ॥ दूहा ॥ 1 जिनवर वचन विचारता, निश्चय नइ व्यवहार । छउ (इ) अधिक नही, नय बिहुँ माहि लिगरि ||८|| भावी मेटिन को सकइ ए निश्चय नय सार । जे उद्यम मूकइ नही, ते राखइ व्यवहार |||| एकरण भावी ऊपरइ, बइसी न रहइ कोइ । पहिली उद्यम प्रादरइ, तउ भावी फल होइ ॥ १॥ पडयउ अछइ निश्चय धरणी, वाते विसवावीस | तउ पिरण उद्यम पडिवजइ, आपण पइ जगदीस ॥११॥ ॥ यति ॥ १७३ सोहमपति सेवक धूनउ । पायक दल माहि न मूनउ । गुरण ग्राहक परउपगारी | सुरवर सुध समकित धारी ॥ १२ ॥ ॥ मद मच्छर माया छाडी । पहिरी जल भीनी साडी । मन सुध तसु सेवा सारइ । सुलसा निज कुल प्रसारइ ॥ १३१ ॥ ऊभा सहु कारिज मू कइ । ते वेला किमही न चूकइ । दिन प्रति नव नेवज चाढइ । तउ घर बाहिर पग काढइ || १४ || सेवा करतां अटकारणी । मुह माहि न घालइ पारणी । साची सेवा विधि जाणी । कारिज सिद्धनी सहिनारणी ॥ १५ ॥ * माझि Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ जिनराजमूरि-कृति-कुसुमांजलि तिल भरि नवि माहे वाक, दूपग न लगावड टाक । इण परि सुर सतोपारणउ, पिण एकरण बोल लजागाउ ॥१६॥ फलती दीसइ नही पासा। भूठी किम थाड दिलासा। फेडइ लागो ते केडउ। किम मूक एह कुहे. 1१७॥ छूटई कुरण भावी प्रागइ। उद्यम पिण करिवउ लागइ। सोहम सुरलोक निवासी । आपरणपइ आप विमासी ॥१८॥ सर्व गाथा १२५ ॥ दहा ॥ तूं नइ सुलसा करमगति, सुर सानिधि प्राधान। पावसर एकरिग जिम धरउ, तिम प्रसवउ सतान ॥१॥ करइ कस जे कल-विकल, फलइ न तिल भर तेह । मारथा ते न भरइ किमइ चरम देहधर जेह ।।। जउ साहिब राखण करइ, तउ मारी न सका कोई। वाल न वाकउ करि सकइ, जउ जग वयरी होइ ।।३।। नल कूवर सम सलहीयइ, रूपन्त धरि लीह । जात मात्र सुर स ग्रही, अनुक्रमो छए अबीह ||४|| अगज तुझ आगलि घरी, पूरइ जासु उमेद । तास धरइ तुझ आगलइ, पिण को न लहइ भेद ॥५॥ सर्व गाया १३० ढान ८ बेवे मुनिवर विहरण पांगुरया रे एहनी स तोषी इण परि सुलसा भणोरे । निज थानक सुरवर ते जाय रे। करम निकाचित को टालइ नही रे। तउ पिरण सीझइ दाय उपाय रे ॥१॥स ०|| गरम समइ छतइ पूरइ हुयइ रे । सुलसा जनमइ मूया बाल रे। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गज सुकमाल महानुनि चौपई १७५ सुर निज वाणी साच करण भरगी रे । तिण ठाँमइ श्रावइ ततकाल रे । २॥सा० इम अनुकम वालक निरजीवते रे । प्राणी आणी मूकइ पास रे। पिण तू भेद न जाणड देवकी रे। देव सगति तिहां किसी विमासि रे ||शास० तुझ अगज रस मित हरि सारिखा रे । सुनसा पासइ मू कइ तेह रे। निज सुर* तरूनी परि पालइ सदा रे । तिल भरि ओछउ नही सनेह ।। |सं० तिण ए सवि x अ गज सुलसा तणारे । नदन तुझ जाणे निरधार रे । नयण जगावड नेह तिरगइ घणउ रे । अधिकउ मोह करम अधिकार रे॥॥स० श्री नेमीसर वचन इसा सुरगी रे। उलसइ (तिरण) निज अग अपार रे । पान्हा हु ती प्रगटइ परतणी रे । तिण अवसरि बत्रीसे धार रे ॥६॥स० लोचन विकसक कचुक उकसइ रे । वलियाँ माहि न मावइ बांह रे। हरखइ रोमचित काया थई रे। दूरि टल्यउ सगलउ दुख दाह रे ॥७॥स० जाण्यां पाखइ पिणजउ प्रति घणउ रे । तिण अवसरि तसु हु तउ नेह रे । प्रचरिज स्यउ थायइ जाण्या पछइ+ रे । अधिकउ दूर टल्यउ सदेह रे ॥८॥स० अनमिष लोचन ते सुत-- देखि- इ रे । जाण्यउ सफल जनम मुझ माज रे । *सुतनी xनवि प्र गज +पाखइ ~तसु Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि सांमल वरण छए हरि सारिखा रे । धन-धन सारया मातम काज रे ॥ ९० श्रीनेमीसर चरण कमल नमी रे | भाव सहित वलि वदी तेह रे । मन न वलइ पाछउ वलतां छता* रे । सुत दीठां तिण अधिक सनेह रे ॥१०॥स० चित चितइ मारग धिरती थकी रे। प्रभु जपी अचरिजनी वात रे। लोकालोक प्रकासन नउ कहयउ रे । नवि विघटड किरण (विधि) तिल मातरे ॥१शास० हरि श्रावइ भावइ मन भावना रे गुण गावई प्रभुना सभारि रे । मन अ दोह घरगउ सुत विरह्नउ रे। अतर लागइ जिम असि धारि रे॥१२॥स० सर्व गाथा १४२ ॥ दूहा ॥ इतला दिन जाण्या नही, तिरण न हुतउ मुझ राग। प्रेम जलधि दुत्तर हि वइ अधिकउ एह अथाग ॥१॥ हिव ए दुख किरण नइ कहुँ, लोक माहि मुझ लाज । कहतां वात वरणइ नही, मुष्टि भली बछराज ॥२॥ राखी न सकी प्रापरणीx अगज सरिखी थ । मइ हिव माखो नी परइ, घस्याँ सू होवई हाथ ||३|| — सर्व गाथा १४५ - - *थका xपापिणी Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई १७७ ढाल- आप सवारथ जग सहु रे-पहनी चितवइ गल हत्थइ दियइ, धूणिति विचि विचि सीस । अवतार ए पिण माहरउ, मत पाडइ हो लेखइ जगदीस ॥१॥ ते जामरिण जग सलहियइ रे, निज अगज पोतानइ हाथि । उछेरइ छोती कनई रे, राखइ जिम हो दुरवल नी माथि ॥२॥ते. खेलतउ खिरणमइ विलकतउ*, मुरकतउx मुक्ख लडेह । जामरिण अमीणे लोयणे, जोति होवइ हो रोमाचित देह ॥३॥ते. हुलरावती द्यइ हालरो, नव नवइ सरलइ साद । माथइ गिरी तेहनइ दल,जे देखी हो पाणइ विषवाद । ४॥ते. रोतउ किमइ न रहइ तिसइ, कारिमी सी करि रीम । हेल दे उलसतइ हियइ, धवरावइ हो जे धाइ बत्रीस ॥५॥ते. दक्षिण पयोधर धावतउ, वामइ ठवइ निज पाणि । अति हेजे खीर झरइ तरई, अगरखी हो बांधइ कस तारिण ||६|| सीखवउ बचने बोलवउ, लेले सहुना नाम । दिन राति लाड करावति,हटकइ पिण हो हटकरण री ठाम ।।७।ते मामणे बचने बोलतउ, हठ माडि साडी साहि। हर काइ मागइ सूखडी, ते आपई हो प्राणी धर माहि ।।८। ते० पदमिनी ले पासइ सूयइ, भीनी दीसइ निज पूठि। कोमल करि कमले करी, न्हवरावइ होजे प्रहसमऊठि ॥ते. न रहइ नजरि लागि पखइ, केहनी माहे छेह । काठलि काली राखडि, जे बांधइ हो निगरण सु सनेह ।।१०॥ते. उछाँछलउ ऊछहामणउ, वय देह करमी एह । नाकनी टीसी ऊपरइ, काजलनी हो टीबी द्यइ जेह ॥११॥ते० [सर्व गाथा १५६] *खिलक 3 xमुलकवउ + सीखवा नामिण Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जिनराजनूरि-कृति-कुसुमांजलि वइठी प्रांमण दूमणी, नयगे नीर झति । दुखणी देखो देवकी, हरि पूछइ एकति || मई माहरउ जाण्यउ न छइ, अाज लग को चूक । लोही रेडं हूं जिहा, पडइ तुहारउ थूक ॥२॥ जउ जाण्यउ हुवइ माहरउ, किराही वातइ वांक । सीख समापउ दाखवी, सी छोरू नी सांका अलवि वचन लोपइ जिको, ते हू काढू साहि। तुम्ह उपरांति* कह उस्यु अछइ, इण खोटइ जग माहि ॥1॥ दरसरण करिवा प्रावतउ, हेर हे जइयइ इयइ तुझ तीर। हियडउ हेजइ विह सतउ,+ मो: हिवरगइ दिलगीर ॥ हूँ इण भव इण देह घर, काइन लोपू कार। तुम्हची झारण वहू सदा, ए मुझ अंगीकार क्षा [सर्व गाथा १२.] ढाल-१० घाल्हेसर मुझ वीनती गीड़ीचा एहनी हूँ तुझ प्रागलि सी कडे कान्हइया, वीतग दुखनी वात रे कान्हइया लाल ! दुखणी तउ काका अछइ कान्हईया, ते ऊमति हूँ भाति रे कान्हईया लाल ||१३० कीघउ फोइ न संभरइ कान्हईया. 'इण भवि करम कठोर रे कान्हईया लाल। जनमतर कीधा हुस्यइ कान्हइया, मइ के पाप अघोर रे कान्हइया लाल ॥२॥हुँ. - आज लगइ हूं जागती, कान्हइया, पूरब करम विसेष रे कान्हइया- लाल *ऊपर होउस्युहू +हींसतत : स्यइ कोह Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई १७६ प्रासुक जाया मइ छए कान्हइया, इहा *करण मीन न मेख रे कान्हइया लाल ॥३॥है। ते वाध्या सुलसा घरइ कान्हइया, . परतखि दीठा अाज रे कान्हइया लाल । वात सह माडी कही कान्हइया, आपण पइ जिनराज रे कान्हइया लाल हुँ० सोल वरस छानउ वध्यउ कान्हइया, तू पिण यमुना तीर रे कान्हइया लाल । नद यसोदा नइ घरि कान्हइया, कहवागउ आहीर रे कान्हइया ।।शाहुँ । वाल्हेसर वारीजी ती कान्हइया, तउ पिण माहे छह रे कान्हइया लाल । परव दिवस हूं प्रावति कान्हइया, - मुख जोवा सुसनेह रे कान्हइया लाल ॥६॥हुँ० जाया मइ तुझ सारिखा कान्हइया, एकरिण नालड सात रे कान्हइया लाल ! एको धवराव्यउ नही कान्हइया, गोदी ले खिरण मात रे कान्हइया लाल ॥६॥है. हाथे उछेरघउ नही कान्हइया, एको पुत्र रतन्न रे कान्हइया ला । नारि जाति माहे जोवता कान्हइया, इवडी काइ अधन्न रे कान्हइया लाल हुँ. रे बोलडे कान्हइया, पूरी कउनी असिरे कान्हइया लाल । पासा जूधी हू जिक्यु कान्हइया, "दण किरण Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जिनराजरि-कृति-कुसुमांजलि भार मूई दसमास रे कान्हइया लाल || रोतउ मइ राख्यउ नही कान्हइया, पालगडइ पोढाडि रे कान्हइयालाल । हालरीयइ देवा तरणी कान्हइया, ___ मो मन रहिय रूहाडि रे कान्हइया लाल ॥१०॥है. देखी आमण दू मणा कान्हइया, हियड़ा प्रागलि चाँपिरे कान्हइया लाल । फाल्हे वाल्हे नान्हडउ. कान्हइया, मइ न मनायउ प्रांप रे कान्हइया लाल ||११||हुँ। प्राइउ माडि न दुहवी कान्हइया, मुझ नइ माहरइ पेट रे कान्हइया लोल । गांमो हासइ मिसइ कान्हइया, मइ कईयइ न पपेट रे कान्हइया लाल ॥१२॥हुँ० प्रागण न करावी थड़ी कान्हइया, . ___ आँगुलियइ वलगाइ रे कान्हइया लाल । पंग मांड्या लाया नहीं कान्हइया, __ ते जामिणं न कहाइ रे कान्हइया लाल ||१३||हुँ। साही साही सांभली कान्हइया, वेऊ बांह पसारि रे कान्हइयालाल । जायउ दोडि मिल्यउ नही कान्हइया, ते दोभागिणि नारि रे कान्हइया लाल ॥१४॥हुँ. हाऊ वइठउ बारगइ* कान्हइया, मागलि मा मत जाइ रे कान्हइया लाल । कहथउ कोनइx कीकीयउ, हूंस रही मन मॉहि रे कान्हइया लोल ॥१५॥हुँ० रोवाडयउ किणहो किमइ कान्हइया, मइ सतोषण काज रे कान्हइया लाल । *विहा xफो नहीं किये, के नही को कियो Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई १५१ न कयउ एह नउ सासरउ कान्हइया, करिसाँ तावड आज रे कान्हइया लाल ॥१६॥९० मोटी जगि । मइ मोहनी कान्हइया, उदय थई मुझ आज रे कान्हइया लाल । बीजउ कोइ नवि लखइ कान्हइया, जागइ ते जिनराज रे कान्हइया लाल ॥१७॥हुँ। [सर्व गाथा १८० ] ॥ दूहा ॥ एम सुरिण मन चितवइ, हरि इवडो अदोह । मातानउ मोटु नही, तउ न रहइ मुझ सोह ॥१॥ स्यउ मुझ नउ* समरथ परणउ, नवि फेडु दुख एह । माता तणउ जउx माहरइ, मुखि जन देस्थइ खेह ॥२॥ करि न दिखावु. जा लगइ, तां न मिटइ ए सोक । भूख न जायइ भामणइ, जागइ सिगला लोक ॥३॥ [सर्व गाथा १८३] दाख-११ कोइलउ परबत धूधलउलो रे+- एहनी माता ना- आस्वासना रे लाल, आपी चितवइ एम रे वाल्हेसर। मात मनोरथ विरण फल्यां रे लाल, सोभ रहइ मुझ केमरे वाल्हेसर ।।।। विनयवत नर सलहियइ रे लाल, साचा ते ससारि रेवा० । मात पिता गुरु ऊपरइ रे लाल, . भगति धरइ निरघारि रे वा०॥३॥वि०॥ सकज (इ) पुत मावीतना रे लाल, पूरइ वछित कोहि रे वा० । "म्हारो xतो +कहिन किहां थी मावियो रे लान-एहनी -नद Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि सगपण बीजा पिण अछइ रे लाल, मात तणी कुण होडि रे वा०॥शावि०॥ दुखनो वेला सभरइ रे लाल, माता अधिकी तेण रे वा० । मात तणा गुण तेहवा रे लाल, खीर जलधि जिम फेरण रे वागागावि०॥ मुझ लघु बधव जाँ लगइ रे लाल, न हुवइ तां लगि मात रे वा० । काल एह किम नीगमइ रे लाल, दुख सहती दिन राति रे वा०॥शावि०॥ चिंतातुर मत चितवइ रे लाल, हरि हर करि मन माहि रे पा० । सुर सा निधि कारी छतां रे लाल, मुझ नइ सी परवाह रे वा०॥६॥वि०॥ पोसहसाला प्राविनइ रे लाल, निश्चल मन धरि आपरे वा 01 अट्टम भत्त नियम धरइ रे लाल, करतउ सुरनउ जाप रै वा वि. दूर दोहिलउ साधतांरे लाला, कारिज जे छइ कर रे वा० । तप करतां सुर सानिधइ रे लाल,पूजइ वछित पूर रे ॥८॥वि०॥ सुर परतिखि हुई इम कहइ रे लाल, लघु बंधवनी प्रासरे वा० । तुझ सफली थास्यइ सही रे लाल, पारण मुझ वेसास रे वा०वि०॥ हरिरणे गमेषी इम कहइ रे लाल,साँलि वलि मुझ वात रे वा० । देवलोक थी चवि करी रे लाल, कोइक सुर विख्यात रे वा०॥१०॥वि०॥ तुझ जननो कुखि अवतरी रे लान, सकल मनोरथ पूरि रै वा० । तरुण पराइ व्रत प्रादरी रे लाल, __ तरिस्यइ नेमि हरि ₹ वा०॥१२॥वि०॥ देव तणी वाणी सुगी रे लाल, हरि मन हरखित थाय रे वा० । + वरिया। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t श्री गजसुकमाल महामुनि चोपई वचन कही सुर एहवउ रे लाल, निज सुर भवरणइ जाय रे वाँ०॥१२॥वि० ॥ देव वचन सुरिण देवकी रे लाल, हरि मुख थकी सहेज रे वा० । सीह सुपन एकरिण निसइ रे लाल, देखह पउढी सेज रे वा०|| १३ वि० हरखी मन सतोष सू रे लाल, स्वपन तराइ अनुसार रे वा० । पुत्र रतन मुझ थाइस्यइ रे लाल, ↓ १८३ देव कुमर अनुहार रे वा० ॥ १४१ वि० ॥ सुखइ गरभ वहती थकी रे लाल धरती चित्त उमेद रे वा० । पूराईजइ डोहला रे लाल, तिरण नवि मन को खेद रे वा०||१५|| वि० ॥ सर्व गोथी १६८ ॥ दूहा ॥ समान । नवे मासे परे थए, कोमल कमल पुत्र रतन तिरिंग जनमियउ, गुरण गरण करि श्रसमान ॥ १ ॥ जासू बंधक लाख रस, पारिजात नव जेम । तरुण दिवाकर सारिखउ, श्रोपम* वररणइ एम ||२|| नयन कत गज तालुप्रा, सरिखउ कोमल गात । रूपइ तृपति न पामीयइ, जोवंता दिन राति ॥३॥ [ सर्व गाथा २०१] ढाल १२ वालुरे सवायु वयर हैं माहरउ रे - " पहनी लगन महूरत वेला सुदरू रे उच्च ग्रह अधिकार | बारवली तिथि योग विचारतां रे, उत्तम रयरिग उदार ॥ १ ॥ शुभ लक्षण सुत जनमइ देवकी रे, पामई हरख पडूर || २ || शु० ॥ सुप्रसन सगला दिसी तिर समइ रे, वायु वायइ अनुकूल । कोईन हुवइ इरण परि सूचवइ रे, पुण्य उदय प्रतिकूल ॥ ३ ॥ ० ॥ "उपसम F Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज सूरि - कृति कुसुमांजलि घरि घरि उछव रंग वधामरणा रे, बांध्या तोरण वारि । राजभुवन मंगलघट माडिया रे, अधिक अधिक अधिकार ||४ |शु ॥ केसर कु कम मृग मद छाँटरणा रे, करता यादव लोक । माहो माहि वधाई प्रापता रे, वछित सगला थोक ||५||शु०|| चोर चरड जे हरि रोक्या हुता रे, अपराधी प्रति घोर । कारागार थकी ते काढिया रे धन आपी हरि शेर ||६|| शु० || किरण पासइ को रण मागइ नही रे, नवि को राखइ तेम | हाम पूर्वे हरि सिगला भरगी रे, तुरत देवतरू जेम ॥७॥० ॥ गाव गीत गुरगीजन प्रति घरणा रे, नाटक ना वहु भेद । करता केलि कतूहल बहु परइ रे, धरता चित्त उमेद || || शु० ॥ हरख भरड सहुजन विमरणा थका रे, लोक कहइ ते न्याय । पहिली * लांबी नगरि द्वारिका रे, पिरण नर-नारि न माय ॥०॥ कवि जन मन कलिपित कलपना रे, मत को जागउ एम । पाधरसी पिए राजा ग्राचरइ रे. यथा सगति विधि जेम ||१० शु० माता सुख पामइ सुन दरमरणइ रे, अचरिज स्यउ इरण वात । नगर लोक नी साँभलतां सुखइ रे भेदी साते धात ||११|| शु०॥ दस दिन माहे जे करणी हुवइ रे ते ते सगली कीध । दय दर कार थयउ याचक भरणी रे, मन वछिन धन दीव ॥ १२० दिवस वारमइ सुभपकवान मू रे, पोषी परजन न्यात । मात पिता कर जोडी इम कहइ रे ग्रागलि मन नी वात ॥ १३शु० हाथी नउ जिम होवइ तालुनउ रे तिमए सुत सुकमाल । नाम एह निरण तुम्ह साखर करों रे, गाउ गज सुकमाल ॥ १४० [ सर्व गाथा २१५ ] १८४ ॥ दूहा ॥ वाघs कनकाचल विषइ, जिम धवल बीज नउ चाँदलउ, दिन दिन * पिहुली Xयक | सुरतरु अकूर । तेज पडूर ॥ १ ॥ " Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चोपई तिरग• गुरण लक्षण सोहतउ, जिम जिम वाघइ तेह | मात पिता परिजन तरणउ, दिन दिन अधिक सनेह ||२|| गुरण अवगुण ससार मइ, सहु माँहि सजोडि । पिरण तिर मौहि विचारता, नवि का दीसइ खोड़ि || ३ || सोम परणइ ससि सारिखउ, तेज करी जिम सूर । दस दिसि माह महमहइ, सुजस जेम कपूर ॥४॥ [ सर्व गाथा २१६] १८५ ढाल १३ चूनडीनी प्रति तेजइ सूरिजनी परइ, सोहइ जसु भाल विसाल हो । सारीखउ राति दिबस सदा, करतउ जे झाक झमाल हो ॥ १ ॥ सोभागी सुदर कुमरजी, देखी हरखइ नर नारि हो । जसु रूप सरूप विचारता, नल कूबर नइ श्रणुहार हो ||२|| सो०|| पूरित सोहग मकरद सू, जसु नयरण कमल सम जारिण हो । भुहारे दोऊ भमर से, कविजन नित करत वखारण हो || ३ || सो० ॥ जसु दीपसिखा सम नासिका, सरली सोहइ गुरण गेह हो । प्रचरिज प्रति तेजइ दीपती, वधारइ तरतर नेह हो ||४|| सो० ॥ मुख पूनमचद तणी परइ, दसनावलि किरण समान हो । प्रकलकित ग्रह दूषित नही, दिन रयण वधइ सुभ वान हो || ५० रसना अमृत रस वेलडी, सुभ वयरण अमृत रस पूर हो । जिण ती प्रगट होवइ सदा, सुरगतां दुख जावइ दूरि हो ||६सो ० काँने कुंडल सोहइ सदा, जाणे ऊगा दोई सूर हो । श्रानन सुर गिरि पाखती", दीपइ अति तेज पडूर हो ||७|| सो० || दोइ काँधा सुर घट सारिखा, गल सोहइ सख समान हो । वक्षस्थल थाल तरणी परइ, नाभी पकज उपमान हो || ८ | सो० ॥ *तिम xदुइपांणी Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जिनराज सूरि-कृति - कुसुमांजलि भुज लांबी यूप तरणी परइ, साथल कदली सम सोह हो । जंघा गज सूडि तरणी परइ, जोवता वाघइ मोह हो ||६||सो० ॥ जसु चरण कमल कछप समा, नख सोहइ जिरग विध सीप हो । उद्योत करइ दिन राति जे, दीपइ जागे बहु दीप हो ||१०|| सो० ॥ नख सिख इम रूप विचारताँ, कहताँ न जुडइ उपमान हो । तउ पिण कविजन मन कलपना, आरणइ निज मति अनुमान हो ||११|| सो० ॥ [ सर्व गाथा २३० ॥ दूहा ॥ चउदह विद्या च पसू, सीखइ श्रोभा पासि । सगली श्राई सामठी, थोड़ड़ ही अभ्यास ||१|| कला बहुत्तरि पुरुषनी, जारणइ चतुर सुजाण । तउ पिरण तिल भर मद नही, ए उत्तम श्रहिनार |२ || विद्या गुरु हैती वध्यउ विनय तरगड सुर गुरु पिरण जीपइ नही, करतउ जिरग सू भाव भेद जागइ भला, अलकार वडा कवीसर वरणवइ, जिगनइ मूकी मान ॥ ४ ॥ [ सर्व गाथा २३४ ] परसाद । वाद ||३|| उपमान । ढाल - १४ मुझनइ हो दरसण न्यायन तू दीयइ* ए जाति रिद्धिमत मतिमंत । मोमिल माहरण तिरण नगरी वसइ हो, च्यार वेद जारणइ कुल थिति x रहइ हो, सुचि थापइ एकत ॥ १ ॥ सो० ॥ मोमसिरी जसु नामइ सुदरी सोभा गिरिंग सुकमाल । जागड रमणी नी चउसठि कला, नवि को मर्न जजाल ||२|| सो० ॥ * कागलिउ करतार भरिण सी परि लिखूं - एहनी Xतिथि बरे हो Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकुमान महामुनि चौपई १८७ तेह तणी सोमा नामइ सुता हो, रूपइ साची रभ । मनमिष नयण नही त्रिण लोक मइ हो, अधिकउ करइ अचभ ||शासोगा जिण मुख कतई जीतउ चद्रमा हो, विलखउ थयउ विच्छाय । अधिकउ ओछउ एक रूखउ नही हो, माहि कलक कहाय ॥४॥सो० हरिणी जीती नयण गुणे करी हो, ते सेवइ वनवास । प्रापणनी अधिकाइ वाछती हो, सहइ भूख सी ष्यास |शासो०॥ वाणी आगइ साकर हारि नइ हो, तृण सग्रहइ सदीव । कंठ सोभ करि संख पराभव्यउ हो, अह निसि पाडइ रीव ॥६॥सो० अग उपग तरणी सोभा धरणी हो, कहताँ नावइ पार । सुभ निरमाण करम स्यु नवि करइ हो, पुण्य तणइ विसतार ॥७॥सो०॥ ते कन्या किराहीक अवसर करइ हो, मज्जन सुचि जल सग। पहिरि वस्त्र अमोलिक अतिभला हो, ओपइ जे निज अंग घासो तिलक हार कु डल वलि बहिरखा हो, ककरण बाजूबंध ।। प्रति सोहइ-अंगुलियइ मुद्रिका हो सोवन मरिण सबध सो॥ कटि तट लटकती कटि मेखला हो, चरणे नेउर नाद । मंग भनइ आभरण विचरता हो, सोभा वादोवाद ॥१०॥सो०॥ इम सिणगार करी दासी तरणइ हो, परवारइ मन मेलि। राज मागि आवइ गति माल्हती हो,करिवा उत्तम केलि ||११||सो०॥ विच मइ मू को सोवन नउ दडउ हो, रमति निज मन रंगि। जन जारगई रूपइ रति ए सही हो, सुकृतइ लहीयइ सग ॥१२॥सो० सर्व गाथा २४६ ॥दूहा ॥ इण विधि कन्या क्रीडती, जे जे देखई तेह । जागइ रूप नवउ नवउ, खिरण खिरण वधतइ नेह ॥१॥ हिव सुणिज्यो मन भाव सू, हरि बधव संबध । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि मति करिज्यो परमाद नी, वात तणउ प्रतिबंध ॥२॥ [सर्व गाथा २४६] ढाल-१५ मृगावती राजा मनि मानी * ~ पहनी राग-केदारा गोडी तीन वरण- साधतउ भली परि,सुखम+ गमावइ कालो रे । मात पिता भाई ने वल्लभ, गुगवत गजसुकमालो रे ११॥ इण अवसरि श्री नेमी जिरोसर, समवसरया सुखकारो रे। चउनाणी पणनाणी श्र तघर, साथइ बहु परिवारो रे ॥२॥इ. चउविह मुर मिलि समवसरण थिति विरचइ विविह प्रकारो रे। रजत हेम वर रयरण तणा वलि मडै तीन प्रकार रे ॥३॥इ०॥ जानु प्रमारण कुसुम ऊधइ- मुख, वरषइ सुर घरि भावो रे । ऊपरि फिरतां घिरता नवि दुख, पामइ जिनवर परभावो रे ॥४३० गगा नीर तरणी परि निरमल, चामर वीजइ देवो रे। तीन छत्र सिर ऊपरि सोहइ, सुरवर सारइ सेवो रे ॥शाइ०॥ भामलड प्रभु पूठइ सोहइ, वूठइ घन जिम सूरो रे। प्रमुनी कति ठवइ तिण माहे, अधिकउ तेज पडूरो रे ॥६||इ०॥ हेम तणउ सिंहासन सोहइ, पादपीठ सजोडी रे। प्रण हतइ पिरण पासइ भासई, बइठी सुरनी कोडि रे ॥७॥इ०॥ मधुर ध्वनि (सुर) दु दुभि तिहा वाजइ,लहकइ वृक्ष अंसोको रे। अतिसय अधिका देखी प्रभुना, अचरिज पामइ लोको रे॥॥॥ वनपाल दीधी आइ वधाई, समवसरथा जिनराजो रे। कृष्ण विचारइ निज मन माहे, सफल दीह मुझ पाजो रे ||इ० प्रीतिदान प्रापी तिरगनइ वह. सुभ वचने संतोषी रे। नगर लोक नइ भेला करिवा, इसी करइ उदघोषी रे ॥१०॥इ० पातकहर आया नेमीसर, तिण हरि वदरण जायो रे। "हम धन्नो घण ने परचा -एहनी x वरग + सुखै ऊचे मधुकर Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई १८६ इण अवसरि को ढोल म करिस्यउ, कुण निबलउ कुरण रायो रे ॥११।।इ०॥ हरि आदेस अनइ सुकृत हरि, तिण सहु हरखित थायो रे। मेह तणइ आगम जिम मोरा, आरणद अगि न मायो रे ॥१२३०॥ जग उद्योत करण जगदीसर, भेटयाँ जागइ भागो रे । सह कोनइ मन माहे वधतउ, अधिक धरम नउ रागो रे ॥१३॥इ० एक एकथी चलता आगइ, भाव अधिक मन* मानो रे । देव तरणी परि नरवर सोहइ, चढिया यान विमानो रे ॥१४॥इ०॥ वरस सरस ए मास आस सुख, पूरण वासर खासो रे। पहर घडी पल अमृत सरिखउ, क्षण + ए क्षरण सु प्रकासो रे ॥१५॥इ०॥ इम विचार करता मन माहे, लाखे गाने लोको रे। मारग माहे याचक जन नइ, देता वछित थोको रे ॥१६॥इ०॥ कृष्ण नरेसर वदन चालइ, चउविह सेना साथो रे। मेघाड वर छत्र विराजइ, चामर युगल सनाथो रे ॥१७॥३०॥ हरि नगरी माहे निकलता, सोमा रूप निहालि रे। चिंतव्यउ इण सारिखी कन्या, अवर न इण ससारी रे ॥१८||इ०॥ रूप अनइ जोवन लावन गुण, तीने अचरिज हेतो रे । जउ सारीखउ वर न मिलइ तउ, विधि नउ खोटउ वेतो रे ॥१९६० [सर्व गाथा २६७] ॥ दूहा ।। कोटबिक पुरुषा भणी, तेडावी हरि एम । भाखइ देवानुप्रिया, वचन सुरगउ धरि प्रम॥१॥ जावउ सोमिल नइ घरे, कन्या मांगी एह । मुझ प्रतेउर मइ ठवउ, तुरत आपिसी तेह ॥२॥ बधव गजेसुकमाल नइ, रमणी जीव समान । - 'नवि xदुख जहर + लक्षप क्षण, क्षण ए पिण Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जिनराजसृरि कृति कुसुमांजलि वास्यइ ए तिरण मुझ भरणी, हरख एह श्रममान || ३ || सेवक मुख हुती सुरगी, सोमिल ए हरिण । हाथ जोडि मन कोड सू तुरत करड परमाण ||४|| कन्या अ तेउर ठवी, सामी तुझ प्रदेस | सेवक वोलइ सामिनी, आरण सदा जिम सेस ||५|| सहस्राववन श्रविनइ साचवि साचवि अभिगम पच । हरि सेवइ श्री नेमिनइ, छोडी मन तिहा वारह परषद मिली, सामी सुरणता वचन सुहामरणा, न हुवइ कोइ कलेस ॥७॥ परिपंच ॥६॥ द्य उपदेस । [ सर्व गाथा २६४ ] ढाल - १६ राग गोडी विणजारानी जी जागउ रे माथा ढलीयउ * सूरि । ऊडी ऊ घ न प्राखथी जी० । वाजरग लागा तूर । कटक पडचउ चिहुँ पाखती । जोवउ हियइ विमासि । सूता कुरण वेला थई जी० जुडिस्यइ किम धन रासि । सारी मुहसम वह गई ||२||जी० ॥ नारणउ नीद्र नजीक । श्राया अवगुण हुइ जिरगइ जी० वचन छइ लोकीक । सूता री पाडा जिरगइ ||३||जी० || द्यइ जिरणवर प्रतिवोध । वात नही विगडी प्रजी जी० । परिहर विषय - विरोध | मोह मिथ्यात निद्रा तजी ||४||जी०|| अलग रियण साथ । काया गढ भेल्यउ न छइ जी । जी० हाथ वसु करि प्राथ। न कहउ जे कहिस्थउ पछइ ||५||जी० || - वारू तउ जउ पालि । पारणी पहिली बाधीयई । जी० सूटउ धनुष निहालि । स्युं थायइ सर सांघीयइ ||६|| जी० ॥ लाखीणउ दिन जाइ । चेतन को चेतउ नही । जी० 1 * वडियो Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई १६१ बगला बइठा आइ । भमरउ को न सक्यउ रही ॥७॥जी॥ घडीय घडो नई छेह । दड पडयऊ धन किम रहइ । जी० सोरठ ऊपरि जेह । पड़तउ इम सहु नइ कहइ ॥८॥जी० निसि दिन गमन अभ्यास । पास उसासइ मिस धरइ। जी० तेहनउ स्यउ वेसास । जो जाऊं जाऊ करइ ॥६॥जी॥ पगि पगि दोसो जाल। किमही न रहइ नाखतउ । जी. तरुणउ गिरणइ न बाल । काल रहइ नितु झाखतउ ॥१०॥जी॥ ते को मत नइ तत । यत्र न को वलि ते जड़ी। जी० मतुली बल अरिहत । टाली न सकइ ते घड़ी ॥१शाजी०॥ करबी ते करतूत । धाडिन का विचि मई पडइ। जी० पाड़ोसणि रा पूत । ताती किम वाहर चडइ ॥१२॥जी॥ परजन लोका लाज । दसड गला पहुचावासी । जी० जपइ इम जिनराज । साथि कमाई पावसी ॥१३॥जी०॥ [सर्व गाथा २८७] ॥ दूहा ।। वारिण सुणी जिनराज नी, श्रावइ अवर न दाइ। मोहयउ मधुकर मालती, अलबि अरणि न सुहाइ ॥१२॥ कलिमल पक पखोलिवा, निरमल गग तरग । चोल तरणी परि माहरउ, लागउ अविहड रग ।।२।। लागइ भूख न का त्रिखा, ऊभा रहइ छम्मास । कईयइ कोनइ उभगइ, सुरगतां वचन विलास ॥३॥ सांभलता सुख सपजइ, ते किरणही न कहाइ। गू गउ गुल खाघउ कहइ, काख बजाइ बजाइ ॥४॥ सूधि वाणी न सरदही, लहि मानव अवतार । मा धुरिति* मारी पछइ, धरती मारइ भार ॥शा टालइ जनम मरण जरा, वाणि सुधारस रेलि । मोहइ बारह परषदा, साची मोहणवेलि ॥६॥ *देसी xधति, धुरिथि Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जिनराजस्यूरि-कृति-कुसुमांजलि इम मन माहे चितवी, पभरगइ गजसुकमाल । मात पिता पूछि करी, व्रत लेग्यु ततकाल ||७|| प्रभु चाँदी पाछउ चली, भावी माता पास । वइरागी इण विधि करइ, वचन लगउ परकास ||८|| {सर्व गाया १८३ } दल-१७ करतां सूतउ प्रीति सहु हीसी करइ रे एहनी ज्ञात्ति हास विलास विनोद, विविध सुखमारगतउ रे । वि० दुरगति भय लवलेस अलवि नवि आणतउ रे । प्र० खाता पीता सरग हुस्यइ इम जाणतउ रे । हु० पोतानी मति सीख, समापी ताणतउ रे ॥शास०॥ वारणी श्री जिनराज, तगी काने पड़ी रे। त० जॉमिरिण वे प्रांखि, आज मुझ ऊघडी रे ।। मा० फल किपाक समान, विषय सुख रेवडो रे। वि. वाल्यउ मन वइराग, सफल* मुझ ए घड़ी रे ॥२शाए. पाडोसरिण रा पूत, मरइ छइ तउ मरउ रे । म. मुझ हुती ए काल, सही रहिस्यइ परउ रे ।। स०॥ यादव चउ परिवार, अछइ मुझस्यु खरउ रे । अ० आज लगइ इण भाति, हतउ मन माहरउ रे ॥३०॥ जमचीx प्राण प्रखड, जगत ऊपरि जकई रे। ज० आगलि पाछलि प्रावि, चढइ सहु को धकइ रे॥ च. इद नरिंद जिरणद, न को छूटि सकइ रे। सार मरइ निरधार, पडी प्रावी क'छइ रे ॥४॥१०॥ तीन लाख छत्रीस, सहस सुरपति तणी रे। स० पातम रक्षक देव, रहइ रक्षा भणी रे। २० *सफल सफल xजामनी नाण Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई १६३ अतुलो बल अरिहंत, अकल त्रिभुवन घरणी रे ।। १० सेवइ चउसठि इद, जास महिमा घणी रे ॥१॥जा०॥ चक्रवत्ति सुर सोले, सहस सेवा करइ रे । स० जासु आरण षटखड, वहइ सिर ऊपरइ रे ।। व० वासुदेव बलदेव, भुजाबल प्रापरइ रे । भु० युद्ध तीनसइ साठि करइ जयश्री वरइ रे ॥६॥क०॥ ते पिण पुरुष प्रधान, विधाता स हरथा रे। वि० परभव दोन अनाथ, तरणी परि सचरथा रे ।। त० सूधा साधू महत, सु सिद्धि वधू बरथा रे। काल करम चडाल, थकी ते ऊवरीय रे ||७१०|| मिलइ न्याति दिन राति, मुखइ हाहा कहइ रे । मु० पाणी बल पिण काल, न को थोभी रहइ रे ॥ न० जिम मृगलउ मृगराज, उपाडी नइ वहइ रे । ऊ खाँडी हाडी साथि, आथि के संग्रहइ रे ।।८।। लहि मानव अवतार, सुकृत करिस्यइ नही रे । सु० पछतावइ परलोक, जई पडिस्यइ सही रे । ५० कही बात भगवत, सहु मइ सरदही रे। लागी मीठी जेम दूध साकर दही रे ||६|दू०॥ [सर्व गाथा ३०४] ॥ दूहा सोरठी। काल्हा काल्ही वात, करतउ स्यु लाजइ न छइ। जउ सांभलिसी तात, चलता* भुइ भाररिण हुस्यइ ॥१॥ काने पडिसी ज्यार, हरि रूडा समझाविस्यइ । तू तउ जाणिसि त्यार, इतली वोसी सउ हुवइ ॥२॥ ते हासउ ही बालि, जिरण हासइ घर ऊपड़इ । ते किम कीजइ आलि,प्रागलि जिण अनरथ हुवइx ॥३॥ सिर्व गाथा ३०७] * वलता x वर्ष Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि ढाल १८-प्रियु चले परदेस, सवे गुण ले चले-पहनी राग-केदारा गउडी त्रिविधि विविधि करि च्यार महाव्रत पालिवा, नान्हा मोटा दोप ग्रहोनिमि टालिवा । नीर मात्र पिए राति पडी किम चाग्विवड, ___कठ प्राण गत सीम नीम ए राखिवउ ॥१॥ नेमिनाथ प्रभु हाथ महाव्रत आदरो, ग्रागिमु मातx न वात कदी+ परमादरी। पालिसु निरा तिचार करीम खप आकरी, मूल थको जड काढिमु करम विपाकरी । धीर वीर बावीस परीसह घाडिसी, चलता सिवपुर वाट विचालड पाडिसी । मेल्यउ माल कमाइ, गमाइ किता वह्या, वू वन वाहिर काइ, अाखि मसली (वेसि) रहया ॥३॥ करिवी पडिस्यइ राडि, धाडि आवी पडयां, रहिसु सेस सिरि रोप, भरिस पगनीवडथा। जिहाँ साहस तिहा सिद्धि, करिसुवलि जावतउ, देखे राखु जेम, तयोधन सापोतउ ॥४॥ सयम लीधा पूत, पनउता स्यु थया, __ मन सुध विसवावीस, न पालइ जउ दया । रहिवउ गुरु-कुल वास, प्रमाद न सेवराउ, करिवउ पग-२ धीज, कठिन पाछइ चाउ १५}} पीहर जे पट जीव, निकाय तरणा हसी, दूहविस्यइ किम जतु,- मात ते साहसी। अप्रमत्त गुरु तत्व, वचन आराधसी, *नदी जमुना की तीर उड़े दो पखियाँ-एहनी xतात +कही जीव Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई गिरणसी दुख सुख रासि, मुगति तउ साधिसी ||६|| भट निपट, छछोहा छूटिसी, मोह कटक चरण करण धन माल, प्रमामउ लुटिसी । पीज्यउ सूत, कपासज सूत, कपासज थाइसी, नरवर रा नोसाण, घडाया वाजसी ॥७॥ माल क्षमा गढ माहि, द्वारि रहसो *चढी, बार भेद तप योध, तणी चउकी खडी । भावना नालि, चढाई कागुरे, मोह कटक बल छोडि, पइसिसी भागुरे ||८|| दूषण वड़तालीस, रहित नित गोचरी, करवी मधुकर जेम, सोच तिम लोचरी । कनक कचोला छोडि, लीयइ वछ काछलि, सभारइ मनि वीतग वात न पाछली ॥६॥ देसइ जे आधार, महामुनि देहनइ, , खप करता किम दोष लागिस्यइ तेहनइ । आजूरणउ धन दोह, गिरणता जीइस्यइx, काछलीए चिरकाल, लेई ब्रत जीविस्यइ ॥ १० ॥ सहस बहुतरि मात, तात वसुदेव नइ, कान्ह बलदेव नइ । रामेकड जोवन प्राण समान, सहस बत्रीस, तर उ तुझ अनुमति देवा कुरण, सवि स्वारथ परिवार, मिलइ आवी करिस्थइ एकडउ || ११|| कात्यउ वार भावज परभव जातां जीव, न पलटइ + जेहराउ रंग, पतग तर उ * सुजडी, वडी X जास्यइ + एटलइ १६५ भइ, को साथे चलइ । जिसउ, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजाल तिण* ऊपरि वेसास,xकरू जामिरिण किसउ ॥१२॥ कंचरण कोडि म छोडि, पुत्र गज-गामिनी, परणावि सु दस वीस, सकोमल कामिनी। स यमनउ ए काल, न वालक वय अछइ, सुख भोगवि स जम्म, बेवइ लेस्याँ पछइ ॥१३॥ जाण्यउ अनरथ मूल, अरथ तिण परिहरू, चलती हुइ जो साथ, आथि तउ आथरू+। अनिवड़ थाता वार, न लागइ. जे सगा, नोडइ जूनी प्रीति, पलक मइ ए पगा॥१४॥ महिला दुरगति खारिण, तिके किम आदरइ, भव सागर तरिवा, नो जे मनसा घरइ। काम भोग मधु विदु, जिसा मन माहरइ, विद्याधर जिनराज, मिलइ तउ साहरइ ॥१५॥ पोतानइ मन माहि, मनोरथ उपजइ, कीजइ ते जाण्यउ, हुवइ काल सरूप जइ। जे पडख्या ते हाथ, बिन्हे घसता गया, ___ माखी नी परि पछतावइ, सोथा थया ॥१६॥ ए संसार असोर, रयण सुपनउ तिसउ, लाघउ घरम प्रमूलिक, चिंतामणि जिसउ। जाणु छु दूखरण, न लाविस काहरी, धावी धार वत्रीस, छइ जउ ताहरी ॥१७॥ ॥ दूहा ॥ [सर्व गाथा ३२४] वयण सुरणी इम मात नां, उत्तर प्राण्या जेह । तउ पिण मन आण्या नहीं, इण नउ अधिक सनेह ॥१॥ • जिण x जंजाल + प्रादरूं : लावे * सगा $ लगाविसु Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चोपई ताणी तोडीजइ नही, अरज तरगउ हिव काम | माता नइ ऊबेखता, न रहइ जगमइ नाम * ॥२॥ व्रतनी जे मनसा धरी, ते न किरणइ मेटाइ । तउ पिरणाम सतोषिवा, कीजइ दाय १९७ उपाय || ३ || [सर्व गाथा ३२७] ढाल - १६राग गउडी - मोरो मन मोहयो इण डूंगरे- पहनी वीनति एक अवधारीयइ, वीनवु बी कर जोडि रे । पूरवइ कवरण जामरिण पखइ, पुत्र ना लाड नइ कोडि रे ॥१॥ मात मुझ अनुमति दीजियइ, जिम लीयुं सयम भार रे । पार संसार सागर तरणउ, पामिवा इरण अवतार रे ||२|| मा०|| भव थकी मुझ मन ऊभग्यउ, खिरण इक ढील न खमाइ रे । सारथवाह सिवपुरि तरणउ, नेमि जिरणवर मिल्यउ आइ रे ॥३म० रडवडयउ एकलउ जीवडउ, आज लगि काल अनंत रे । पुण्य सयोग श्रावी जुडयउ, भव भय हरण भगवत रे ||४|| मा० || नरक तिरयच भव नव नवी, जेह वेदन विकराल रे । ते की आज मुझे छोडिवइ, यादव परम दयाल रे ||५|| मा० ॥ सरस मदिरा जीसी मोहनी, एहनी प्रति घरणी छाक रे । परवसि पडियउ जीवडउ, प्रति कटुक करम विपाक रे || ६ || मorl विषय रस विरस मई जारिया, सरस संयम तर उ सगरे । प्रभु वचन भव तप X मेटिवा, सीतल जेहवउ गंग रे ||७||मा० ॥ अरथ नइ काम पिरण धरम थी, धरम विना सहु धध रे । • आज मइ कारिमउ जाणियउ, सकल संसार संबंध रे ॥८॥ मा० ॥ करम मल हिव पडघउ पातलउ, प्रभु वचन श्रोषध जेमरे । परम आरोग्य कारण हुस्यइ, तिरण घरणउ भ्रमस्यु प्रेम रे || मा० मुगति मारग भरणी जाइवा, सुद्ध ए साघु नउ वेष रे । * जनम मे माम x सपति Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति - कुसुमांजलि 4 मात तिरण हेतु पडखु नही, धरम बिरण एक निमेष रे || १०|| मा० ॥ कुल तरउ तिलक श्रीनेमिजी, हित भरणी जे कही बात रे तुरत भेदी सुरणी माहरी, सात ए धरम सूं बात रे ॥११॥ मा० ॥ नेह मुझस्यु अछइ तांहरउ, मात निज चित्त विचार रे । १६८ व्रत परखड माहरउ भव थकी, किम हुवइ छूटकवार रे || १२||मा० ॥ मानवी बीनती माहरी, मानवी जेम* नवि थाय रे । मानवी गति वली दोहिली, मानवी गत कहिवाइ रे || १३ ||मा०|| खिराइ पुराइ खिण मइ गलइ, पुदगल तिग रची काय रे । । थिर एह तिर कारणइ, धरम प्रावइ चित दाय रे || १४ || मा० ॥ काम किपाक तरणी परइ, भोग ए जारिण भुय ग रे । कामिनी कटनी दामिनी, सारिखी किम करू सांग रे || १४ || मा० नेमि पामउ हिव आदरू, सुमति गुपति धरू सार रे दाव पूरइ करम जीपिनइ, हेलिस् वरूं सिवनारि रे ॥ १६ ॥ मा • सीख री बात कहसी खरी, सिव भलउ किन स सार रे । हित हुवइ ते मुझ नइ कहउ, अवर मत करउ विचार रे ||१७म० || सकज कुल मांहि होवइ तिको, आपणउ भरणी ओठभरे । आपि नइ ऊ च पदवी दियइ, सुकृत थी सहुय सुलभ रे ॥ १ ॥ म० नेमि जिरणवर तरणी मुझ भरणी, आपरणउ जागि ए माग रे । सुद्ध कहउ सिवपुर तउ, अधिक तिग्गा एहवइ राग रे || १εम० ताहरइ मात ऊपर हथइx, सीझस्यइ सकल मुझ काज रे । नेमि परसादि वद्यारिस्यु लोक माहे अधिक लाज रे ||२०|| मा०|| 1 [सर्व गाथा ३४७] ॥ दूहा ॥ वचन तिसी परि ए तजई घरबार । इण सम बीज को नहो, जीवन प्रारण आधार ||१|| कहइ, सही . जे X ह Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .3 श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई माता इम मनि चितवइ, वलि काढू मन भास । मानउ भावइ नवि मनउ, जिम सउ तिम पचास ||२|| [सर्व गाथा ३४६ ] ढाल - २० आज लगइ धरि अधिक जगीसे-एहनी ताहरउ भार वुही * दस मास । मन माहे छइ मोटी आस । जउ तूं वीस करइ वेषास । अलगउ न कुरू जा घटि सास || १ || नीठि जुडइ दुरबल घरि प्राथि । तिम तू लागउ छइ मुझ हाथि । जे मइ दुख दीठा तुझ साथ । तेतउ जारगइ छइ जगनाथ ||२|| खमि न सकू विरहउ खिरण मात । तउ किम बउलइ मुझ दिन राति । सजम ल्यइ न कहु इरण जाति । १६६ लौहडइ लीकx पटोलइ भाति ||३|| मुगाँ सवल चढइ छइ टाढि । मुझ ग्रागलि ए वात म काढि | एक पखउ इम करतउ गाढि । तू चाढइ छइ विमरणउ वाढि ||४|| किम छोडिसि बाध्यउ जेवडइ । गलि वधन मुझ सू बेवडइ | जउ मुझ नइ जामिरिण त्र े वडइ । तउ मत घालइ दुख एवडइ ||५|| डलकइ + कुभ पलक वेगलइ । जलधर जेम नयन वे गलइ । किम नीकलइ बचन ए गलइ । मुझ नइ तजि मयम वेग लइ ||६|| तू तउ छइ माहउ केलव्यउ । पिरण किरणही दीसइ छइ भोलव्यउ | आज मनोरथ तरू पालव्यउ | ऊपाडि नाखइ तिम- लव्यउ ॥७॥ जे जामरिण नइ दुव द्यइ जारिए । कोधउ तापु धरम श्रप्रमाण । निपट करिसे जउ खाँचो तारा | ? प्रारण हुस्य तउ आगेवारण ||८|| हर *मुई X लीह + ढलकं तेन वाणी Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.. जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि दिन माहे देखुसउवार । तउ हू सफल गिणु अवतार । तू मुझ जीवन प्राण प्राधार | तुझ पाखइ सूनउ स सार ||६| सीयाला नी निसि स भरइ । तउ इवडी कचमूल न विकरइ। वारथउ न रहइ किरणही परइ । हरि नइ कहिस रहिस तू तरइ ।।१०।। कीधी तुझ ऊपरि वारणइ । मुह बाहिर हासइ कारणइ । वात म काढिस घर वारणइ । सुणता चित्त न रहइ धारणा ॥११ न कहइ फेरि वचन जउ किसा। तइ अनिवड जाणी तो दिसा । दीसउ वड वइरागी जिसा । ए वइराग कहउ किरण मिसा ।।१२।। [सर्व गाथा ३६१] ॥ दूहा ॥ हरि जाण्यउ बंधव ग्रहइ, व्रत तिरण प्रावी पास । ऊभउ तिरण अवसर कुमर, इसी करइ अरदास ॥१॥ भाई आगलि भाखता, हीण परिणइ सी लाज । हरि सुप्रसन हूयइ सहू, सीझइ वछित काज ॥२॥ [सर्व गाथा ३६३ ] ढाल-२१ सुणि मिरणावती-पहनी सुरिण मुझ बंधव ए अरदासा रे, व्रतनी मनसा पूरवि* आसा रे ॥१॥सु०॥ हरखित होई मुझ अनुमति प्रापउ रे, थिर मन करि नइ पूठी थापउ रे ॥२०॥ तुझ परसादइ बहु सुख मई माण्या रे, इतला काल न जाता जाण्या रे ॥३॥सु०॥ अनमी कांधा शत्र नमाया रे, पांचे इ द्रिय विषय रमाया रे ॥४॥सु०।। *पूरण Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजलुकमाल महामुनि चौपई २०१ दय-दय कार दान पिण दीवा रे, समुद्र लगइ कीरति फल लीधा रे ॥शासु०॥ प्रागलि ऊभी सेवक कोडि रे, ___ जय-जय कार करइ कर जोडि रे ॥६||मु०॥ देव विमान सरिस आवासा रे, हरषित हास विनोद विलासा रे ॥७।मु०॥ सुहणा माहे पिण दुख नाया रे, पूरव सुकृत तणा फल पाया रे ॥८॥०॥ तुझ परसाद न को मुझ साकउ रे, वाल करी न सकइ कोई वाकउ रे ।मु०॥ यादव नउ परिवार जु* जोरइ रे, तीन खड सामी तुझर तोरइ रे ॥१०॥सु०॥ तिरिण कुन माहे लहि अवतारा रे, पूर मनोरथ मनना सारा रे ||११||सु०॥ हिव जाणु प्रापरणपउ तारू रे, - विषय विलास थकी मन वारू रे ॥१२||सु०॥ कृष्ण कहइ साँभलि लघु भाई रे, व्रतनी मनसा किम तुझ आई रे ॥१शासु०॥ सोल सहस नरपति मुझ+ केडइ रे, थूक पडइ तिहा लोई रेडइ रे ॥१४॥सु०॥ पारण जिको तुम्हची नवि मानइ रे, तुरत करू हू तिण नइ कानइ रे ॥१५॥सु०॥ तुझ भत्रीजा अछइ अनाडी रे, किरणहीक ठाम मिल्या वन वाडी रे ॥१६||सु०॥ *मझ जोरै रे तू सवल तोरै रे + तुझ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ जिनराजरसूरि हति-फुसुमांजलि जउ तुझ नइ किरणही सतायउ रे, तउ ते फल लहिम्यइ घर पायउ रे ॥ १ ० ॥ नगर लोक पिण तोमू गजी रे, मोह घरगाउ परिण राग्वइ माजो रे ॥१८॥सु०॥ भावज मन उल्लासइ मुख जोई रे, सहु को पीरजन हरखित होई रे ||१६|सु०॥ व्रत नउ काल नही छइ गरा रे, जोवन एह अमोलक हीरा रे ॥२०॥"मु०॥ भोगवि भोग पछइ ग्रहि दिल्यारे, श्री जिनवर नो पाले सिख्या रे ||२१||सु०॥ समय कियउ सगलउ ही सोहइ रे, पावडिए मदिर आरोहइ रे ।।२२।मु० । ऊतावलि नउ काम न आछइ रे, पछतावइ पडिथइ जिण पाछह रे ॥२३॥मु०॥ मात पिता वलि मोटा भाई रे, ___ सवधी पुर लोक सखाई रे ॥२४॥सु०॥ सह नइ पूछी कारिज कीजइ रे, मापण नउ हठ न वि तारणीजइ रे ॥२४॥मुगा सर्व गाया ३८८] ॥ दूहा :-सोरठा।। हरि ना वचन सराग, ते पिण उर लागा नहीं। साच उ ए वइराग, गिरिगयइ गजसुकमाल नउ ॥२॥ मात पिता वलि भाय, विषय तरणी विध मुझ भरणी। कहइ घणु दीपाय, तिल भर मन मानइ, नही ।२।। अबला केरइ अंग, श्रोत अपावन नितु वहइ । गुरण तिरण सु करि सग, केहउ भाई जी कहउ ||३|| हरिनी लोपी कार, मात पिता मन चितवइ । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L श्री गजसुकमाल महामुनि चोपई इरिण जाण्यउ संसार, बाजीगर बाजी जिसउ ||४|| एक पखउ हिव नेह, कितलइ काल लगइ करां । तइ तउ दाख्यउ छेड, जारगइ तिम करि नान्हडा ||५|| [ सर्व गाथा ३६३ ] २०३ ढाल - २२ श्री चंद्रप्रभु प्राहुणउ रें- एहनी हरि जंगइ बांधव सुरगड रे, तुझ विरहउ न खमाइ रे । एक घडी पिए दोहिली रे, किम जमवारउ जाइ रे || १ || ह० || वार वार कहता हिवड रे, न रहइ काई सोभ रे । काने झाल्या हाथिया रे, केम रहइ थिर थोभ रे ||२||०|| बलिहारी तुझ बाँधवा रे, दुक्कर करणी कार रे । च्यार महाव्रत पालिवा रे, कठिन श्रछइ निरधार रे ||३||०|| तर म्हमु मन चोरियउ रे, हूउ जावरण हार । जाता नइ मरता थका रे, कहि कुरण राखरण हार रे ||४|| ० || लूखउ छइ मन ताहरउ रे, तिरण नवि लागइ नेह रे । पिरणx म्ह माहे वीचिस्यइ रे, जारगइ करता तेह रे ॥ ५ ॥ ० ॥ पलक माँहि अनिवड हुग्रउ रे, तिरण तुझ नइ साबासि रे । जनम लगइ जाण्यउ हुतउ रे, नवि छोडिसि श्रम्ह पासि रे || ६ || ३० मात पिता बाधव तरणा रे, रह्या मनोरथ माँहि रे । एक सहोदर माहरउ रे, तू हिज साची बाह रे || ७ ||ह० || डोकर परण माता भरणी रे, छडइ छइ तू धीठ रे । सुर सानिवि मुख 'ताहरउ रे, दीठउ थउ तिरिण नीठ रे ||८|| || एक वचन मुझ मानिवउ रे, इण नगरी नउ राज रे । एक दिवस लगि, आदरी रे, पूरवि बंछित काज रे || ६ ||ह० सांभलि अरणबोध्यउ रहयउ रे, कीधउ अ गीकार रे । • दिखाडयो X जे Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि हरि कोटंबिक तेडिनइ रे, भाखड एम विचार रे ॥१०॥०॥ गजसुकमाल तणउ कराँ रे, राज तरणउ अभिषेक रे। सुचि तीरथ जल पाणिवउ* रे, वलि प्रोषधी अनेक रे||११|ह० स्नान करावो शुचि जलइ रै, सुभ प्रोपघि सयोग रे। नगर माँहि उच्छत्र धरणा रे, मुदित हुआ सब लोग रे ॥१२॥ह०॥ सधव वधु गुण गावती रे, विचि विचि द्यइ पासीस रे। जइतवार तू जगत मइ रे, हुइजे विसवावीस रे ॥१३॥हा॥ हार आवी लटकउ करइ रे, सोल सहस राजान रे। मुखि जपइ प्रभु ताहरी रे, ऑरण धरा असमान रे ॥१४॥हा॥ छत्र अनइ चामर भला रे, नरवर ना सहिनारण रे। गज सुकमाल तराइ सिरइ रे, सोहइ जगि सिर आरग रे ।।१५। ह. राज ग्रह्यउ पिण अति घरगउ रे, चारित ऊपरि चाह रे। लोक विचारे एहने रे, या मति आई काह रे ॥१६॥ह. एक दिवस लगि आदरयउ रे, तुझ प्रादेमइ राज रे । हिव मुझ अनुमति दीजियइ रे मररू प्रातम काज रे ॥१७॥०॥ वधव वचन इसा सुगी रे भजइ हरि मुरिण भाइ रे।। कहता जीभ वहइ नही रे, करि ज्यु अावइ दाइ रे ॥१८॥ह०|| नयण थकी आसू झरइ रे, धीरिज न धरयउ जाय रे। सुहुको मोह तणइ वमड रे, प्राणी परवसि थाय रे ॥ १०॥ राज तणउ उच्छव कीयउ रे, व्रत उच्छव नीवार रे। अवसर चूकिजइ नही रे, हरि इम करइ विचार रे ॥२०॥०॥ नगर सह सिणगारियउ रे, घरि घरि मगलचार रे । गीत विनोद विलास सू रे, नाटक ना दोकार रे!।२शाहा! [सर्व गाथा ४१४ ] ॥ दूहा ॥ सिविका प्रारणावी कहइ, हरि सुरिणX गज सुकमाल । इरिण चढि भाई ताहरी रे, फलि मनोरथ मालि ॥१॥ प्रणिन साभलि Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई एह वचन सुरिण सुख थयउ, ते किरण ही न कहाय । भव हुँती जे ऊभगइ. थिर वीटयउ यादव कोडि सू, ग्रह तारा गरण परिवरथउ, जिम जिम सुरतरु फल फूल सू, लब हरि वधव नउ भूषणे, तिम सोभा कहिवाय || ४ || मन ते सोहड प्रति पूत्रिम नउ [ सर्व गाथा ४१८ ] J २०५ इम थाइ ||२|| ढाल -- २३ काम केलि रति हास-एहनी यादव ना कुल कोडि, मन मइ कोड धरइ रे । घन घन गज सुकमाल, यहु ससार तरइ री ॥१॥ • भारी करमा जीव, धरम न चित्त धरइ री ! उत्तम केई एक, करणी एह करइ री || २ || मंदिर चढि २ नारि, गावइ मधुर सरइ री। जय जय तू चिर नदि, वयरण इसा उचरई री || ३ || श्रनमिष नयरण निहारि, अफ्छर सोह लहड री । पचाली जिम तेह, निश्चल काय रहइ री ॥४॥ काई जपइ नारि, सोमाप एरणx तजी री । सोभागिरिस सारि, काई होइ जीरो ॥५॥ वचन अनेक प्रकार, सुगतर एरिण परइ री । नवि डोलावइ चित्त, सुभ पररणाम खरइ री ॥६॥ पच सुभट वसि आणि, सिवपुर वेग लहउ री । मागध द्यइ सीस, अपनी टेक रहउ री ॥७॥ तू कुल केतु समान, दरसण पाप हरइ री। कृष्ण प्रमुख सवि लीक, कहि कहि पाय परइ रो ||८|| 3 * सोम Xऐणि प्राणद । चद ॥३॥ झत्र सोभाय । 7 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जिनराजमूरि-कृति-कुसुमांजलि च्यार महावत घार, सूबउ तू निवहारी। तिरण तुझ वचन प्रमाण, सह को लोक कहइ रो ॥६॥ सोनइ न लागइ स्यांम, जाणइ लोक महीरी। तिम इणना परिणाम, न डिगई दीख ग्रही री ॥१०॥ सहस्रांववन माहि, सिविका थी उतरइ री। इम चढतइ परिणाम, जेह हुवइ सुतरइ री ॥११॥ नेम जिरोसर पासि, यावी वचन कहइ री। अगनि तरणो परि कम, इणि संसार दहइ री ॥१२॥ तुझ देसन जल धार, संगम सीत थयउ रो। ए प्राणी मइ प्राज, सुकत वीज बयउ री॥१३॥ लेस्युसजम आज +, एह कुटव तजी री । पामिसु सिव मकरद, तुझ पय कमल भजी री ॥१४॥ जिम सुख थायइ तेम, मा प्रतिबंध करउ री। देवानुप्रिय एम, भगवत वचन खरउ री ॥१५॥ सचित्त भिक्षा प्रभु एह, हम आदेश ग्रहउ रो। मात-पिता कहइ एम, इनकी लाज वहउ री ||१६|| पचमुष्टि करी लोच, गजसुकमाल ग्रहइ री। सूधउ स यम भार, प्रभुनी आण वहइ री ॥१७॥ सामाइक उच्चार, करि सावध तजइ री। क्रोवादिक परिहार, करि सम भाव भजइ ग॥१८॥ सुत सुरिण जपइ मात, तुझ नइ सीख किसी री। तउ परिण मुझ सुरिग वात, मीठी ईख जिसी री ॥१६॥ राखे त्रिकरण सुद्ध, जोव निकाय सही री। देजे तनु आधार, शुद्ध आहार लही री ॥२०॥ न कहे वचन अलीक, जिण थी सोम घटइ री। मुख थी जपे साच, जिय थी पाप कटइ री ॥२१॥ *भार, पालि x इम हुवइ सु तरैरी, जे हो वस तरई रे+भार Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकुमाल महामुनि चौपई २०७ न ग्रहे वस्तु प्रदत्त, इण भाव लोक हणइ री। परभव दारूण दुक्ख, जिरणवर एम भरणइ री ।।२२॥ व्रत ए भाव विसुद्ध, श्रीजउ पालि खरउ री। सोहागिरिण सिव नारि, करणी एणि वरउ री ॥२३॥ परिग्रह अनरथ मूल, तेम कषाय तजउ री। स यम सतर प्रकार, साचइ भाव भजउ री ॥२४॥ [सर्व गाथा ४४३] ॥ दूहा ।। सोखोमणि इम सुत भरणी, देई विविध प्रकार । दुख करती पाछी वलइ, माता ले परिवार ॥१॥ जल धरनी परि हरि नयण, वरसइ आँसू धार । पीत वसन जे पहिरिया. ते दामिनि अनुहार । २॥ वाटइ पाटइ तिम हियउ, बलता न वहइ पाय । हरि जारगइ सूनउ हियउ, जग रिछडतइ भाय ॥३॥ प्रभु पासइ व्रतादरो, हिब श्री गजसुकमाल । ग्रहणा नइ प्रासेवना, सीख ग्रहइ ततकाल ||४|| [सर्व गाथा ४४७ दाल-२४ सामाचारी जूजूई-पहनी पासइ जिनवर नेमि नइ रे, मुखि* भासइ एम । तिण हिज दिवसइ मन रसइ रे, धरि उपसम रस प्रेमोरे ॥१॥ मुनिवर वदीयइ, गुण निधि गजसुकमालो रे। चरण करण धरू, जीव दया प्रतिपालो रे ॥२।।मु०॥ मुझ ऊपरि करूणाकरी रे, सामी द्यउ आदेस । प्रतिमा एक रयण तणी रे, विधि खप करीय बिसेसोरे ॥३।मु० "मावी xवहेसो Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि धीर वीर जारणी करी रे, जपइ इम जग नाहो रे । जिम सुख देवानुप्रिया रे, पूरवि मन उच्छाहो रे ॥४॥मु०॥ सांलि मन रखित थयउ रै, वद जिनवर पाय । सीह अनइ बलि* पावरयउ रे, साहस विमरण उ थायो रे ॥५मु० सहस्रांव वन उद्यान थी रे, नीकलि साहस वत । महाकाल समसान मइ रे, सावइ ते एकतो रे ।मु०॥ साहस न रहइ देखता रे, भून झल झलकइ झाल। मार मार मुख थी कह रे, व्यतर अति विकरालो ॥७॥मु०॥ भीपण वचन सिवा तणा रे, श्रवण कटक न खमाइ । मुख पिसाच फाडइ इमा रे, गिरि पिण माँहि समायो रे ||८|मु०॥ डोलइ डाइण साइणी रे, मुख धरती पल खड। तीखी हाथइ कातरी रे, तुरत करइ सत-खडो रे ॥३॥मु०॥ लांवा ताल तणी परइ रे, दीसइ ताल पिसाच । अ तर भेद न को लखई रे ए छड झूठ कि साचो रे ॥१०॥मु०॥ धीरज क्णि नउ नवि रहइ रे, राति समइ तिरण ठाम। ऐ ऐ साहस साधु नउ रे, वलिहारी जसु नामो रे ॥११:।मु०॥ वडी नीति लघु नीति ना रे, रिषिवर डिल ठाम । पडिलेही काउसग करइ रे, धरतउ प्रभु गुण ग्रामो रे ॥१२।।मु०॥ प्रतिमा एक रयण तणी रे, प्रादरि त्रिकरण सुद्ध । कर्म शत्र जीपरण भरणी रे. जाणे मांडयउ जुद्धो रे ॥१३॥मु०॥ [सर्व गाथा ४६०] ॥ दूहा ॥ द्वारवती नगरि थको, सोमिल नामइ विप्र । इण अवसरि ते नीक नइ, खति धरी मनि खिप ॥१॥ - *मने जिम Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई २०६ साम घेयनइ कारणइ, काप्ट डाम कुश बधि । तुरत तेह पाछउ वल्यउ, साझ तणी तिण* संधि ॥२॥ होणहार, सुख दुख तराउ, कारण किम मेटाय । चोट जुडइ जिम दूखतइ, काँगउड़इ भेटाय ||३|| [सर्व गाथा ४६३] . ढाल-२५ नायक मोहि नचावीयउ-पहनी-देशी सोमिल देखी मुनि भणी, कोप करी विकरालो रे। चितइ इण पापी तगउ विरूअउ एह हवालो रे ||१||सो॥ इण छंडी मुझ कन्यका, तिणनी गति सी थासी रे। निरधारइ ते एकली, पाप थयो वनवासी रे ||२|सो।। तिल भर इण नीठुर तणउ, तिगि ऊपरि नवि रागो रे। माथइ लगि कब आवसी, अगूठारी आगो रे ॥३॥सो०॥ जमवारइ लगि जाणतो, ए नवि देसी छेहो रे । नेह एहनउ कारिमउ ठार तग जिम त्रहो रे||४||सो०|| पारि ऊभगियइ नही, उत्तम ए याचारो रे। मुझ कन्या इण परिहरी, अधम एह निरधारो रे ||शासो०।। मई दीठउ हरि सामहउ, छोकरवाद न सोच्यउ रे। हिव पछतावउ अति घराउ, नवि पहिली आलोच्यउ रे ॥६॥सो०॥ प्रांत्रलूहण माहरइ हुती, जे कन्या परधानो रे । किम सहसी ते एहवउ, कठिन विरह असमानो रे ॥७॥सो०॥ इण नइ मति सी ऊपनी, अनरथ एह स्यउ कोघउ रे। इमही जनम अफल कियउ, नवि खाधउ नवि पीघउ रे सो०॥ विरण दूषण इण पापीयइ, तुरत तेह किम छडी रे। अतरं खबर नाका पडइ, मुड थयउ पाखड़ी रे सो०॥ *ण xकदि Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० जिनराजप्रि-कृत्ति-कुसुमांजलि लोक लगावू एहनड, जारणइ इम नवि कोजइ रे। खूह पड़ी भारी हवड, जिम-जिम कंवन भीजड रे ॥१०सी०॥ इण नीलज सेती हिवइ, राग नही मुझ कोई रे। सोढइ मूकी गटसू, जिम भावइ तिम होई रे ॥११शासो०॥ करता स्यु कीजइ नही, एह महिणउ लागइ रे । निरगुण भेदोजइ नहो, मुझ ए वोजइ तागइ रे ॥१२॥सो० [सर्व गाथा ४७५] ॥ दूहा ॥ सालइ साल तणी परइ, जउ चूकू अवसाग । पिंड माहि राखं नहीं, पापो इण ना प्रारण ॥॥ वाल्हउ वइरी इम मिलइ, कीजइ किसउ विलंव । ए पिरण जारगइ किम कदे, प्राक न लागइ अव ॥२॥ ध्यान धरी ऊभउ अछइ, थिर मन करि जिम थंभ ॥ पिरिण इणि विधि वेदन करू, दुरि टलइ जिम दभ ॥३॥ सर्व गाथा ४७८ ढाल-२६ कागलीयर करतार भणी सी पर लिखू-पहनी कुमति घरी तिणि पापी पापनी रे, दस दिसि सनमुख देखि । रिषि मारण साहस सवलउ कीयउ रे, हरिनउ भय ऊवेखि ॥१॥कु०॥ सरस सरोवरनी माटी ग्रही रे, जिहा किरण गजसुकमाल । तिरण थानिक ते निरदय आविनइ रे,माथइ बांधइ पालि कू० फल्या केसू जिम राता हुवइ रे, तिसा अरुण अंगार। जलती चहि* हुती पाणी करी रे, रिषि सिर ठवइ गमार ॥शाकु०॥ *पिह, पह Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई मन माहे भय सबलउ ऊपनउ रे, पापी नई तिण वार। पायउ तिम पाछउ वल्यउ र, आवइ निज प्रागार ॥४॥कु०॥ वेदन अधिको रिपि नइ ऊपनी रे, सहता दुक्कर जेह । मन चितइ नरकादिक वेदना र, आगलि केही एह ।।५।।कु०॥ परवसि पडीयउ प्राणी सहु खमइ र, गुण थोडउ तिरण बात । सइवसि एक घड़ी पिरण जउ खमइ रे, करइ करम नउ घात ॥६||कु०॥ सोमिल नउ दूषण तिल भर नही र, पूरव करम विसेष । मन माहे इम मुनिवर चितवइ र, धरइ न तिल भर द्वष ॥७॥कु० हाड़ परजलइ काठ तणी परइ र, चट-चट वाजइचाम । साते धात दहीजइ सामठी र, तउ परिण मुनि मन ठाम ||८||कु०॥ काया सेती नेह किसउ करू र, पाखर विरणसी जाय। सडग पडण छइ धरम सरीर नउरे, जिनवर जपइ न्याय कु० तिम छंडजिम वलि म डुनही रे, काया सू सवास । प्रत जेह छोडइ तिणनी कहउ र, केही कीजइ अास ||१०||कु०॥ इणि परि ते वेदन खमितां थका रे, उलसतइ सुम ध्यान । अधिके गुण्ठाणे चढतां थका रे, पाम्यउ केवल न्यान ॥११॥कु. करम च्यार वलि हरिणय अघातिया रे, तुरत लहइ सिव ठाम । अजर अमर अक्षय सुख प्रति घणारे, अनत पंच अभिराम ||१२||कु०॥ दस विध साध धरम माहे बडा रे, क्षमा धरम ते न्याय । गज सुकमाल तरणी परिजे घरइ र, तिणि नां वर्दू पाय ॥१३॥कु० सर्व गाथा ४६१] ॥ दूहा ॥ रिषि महिमा करिवा भणी, आवइ सुर तिण ठाम । दिव्य सुरभि गधोदके, वृष्टि करइ अभिराम ॥१॥ उलस ते, उलस इ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि पंच वरण फलाँ तणउ, वरषरण करि सुभ भाव। बिमल वस्त्र ऊ चउ करइ, दिसि दिसि वधतइ दाव ॥२॥ सुर सुभ वाजे वाजते, गावइ मधुरा गीत । सुणतां तिल डोलइ नही, चंचल पिरण ए चीत ।।३।। सर्व गाथा ४६४] ढाल-२७ ख भाइती राग, मोरी मातजी अनुमति द्यो-एहनी कृष्ण नरेसर प्रहसमइ र, बाहिर साला आइ र। अम्यगन मज्जन करी रे भूषण अग वरणावई र ॥१०॥ मन माहे उतकठा वादरण तणी रे नेमीसर हो सुरतरू मम त्रिभुवन धरणी हो आँकरणी। कोरट माल सहित भलउ र, माथइ छत्र विराजइ रे। धवल चामर बिहु गमइ र, पेखि गगजल लाजइ रे ॥२म०॥ टोले टोले नर घणा र, लाखे गाने केडड र। भाव भगति धरि अति धणी रे, एक-एक नइ तेडड रे ॥३॥म०॥ द्वारवती नगरी तराइ र, विचि मइ चलतउ आवइर। प्रभु वदी देसण सुगुरे, एह भावना भावइ रे ॥४॥म०॥ जरा करी जीरण धणु रे, देह किलामण पामइ र । ईटि रास हुतो ग्रही रे, एक एक निज धामइ रे ॥शाम ॥ ई टि सचारइ डोकरउ र, परसेवइ परघल नउ र। हरि सेना देखी करी. एफरिण पासइ टलतउ रे ।।६।।म०॥ देखी हरि निज चित्तमह रे, दीनदयाल विचारइर। खिन्न खेद ए नर हूड रे, वार वार इणि भारइ रे ॥७॥म०॥ एक ई टि प्रापण ग्रही रे, तसु मदिर पहुचाइ रे। तिमहीज लोक सहू करइ रे, सेवक पति अनुयाई रे म०॥ ई टवाह हरि साँनिधड रे, मुदित हुअउ इम बोलइ रे । पर उपगारी तू जयउ रे, तुझ गुण कोइ न तोलइ रे ||म०॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई २१३ इम हरि अनुक्रम चालतउ रे, नेमि जिणेसर पासइ रे । आवी परदक्षिरण करी र, वदइ मन उल्लासइ रे॥१०॥म०॥ बधव किम दीसइ नही रे, हरि मना माहि विमासइ रे । नजरि न आवइ माहरइ रे, दीठउ पासइ पासइ र ॥१शाम०॥ प्रभु नइ पूछइ माहरउ र, बधव किम तुम्ह पासइ रे। नवि दीसइ जिन इम सुरगी रे, साची वाणी भासइ र ॥१शाम०॥ [सव गाथा ५०६] ॥ दूहा ॥ कृष्ण सुगउ तुम्ह बांधवइ, भली बधारी लाज । विषम परीसह तिम सहथउ, सारथा आतम काज ॥१॥ काल्हे अम्हनइ पूछिनइ, महाकाल समसान । काउसग्ग जाई करइ, घरतउ धरमनो ध्यान ||२|| एक पुरुष तिहा प्रावियउ, तिणनई अधिकी रीस । मुनि नइ देखी ऊपनी, जाण्यउ बालु सीस ॥३॥ पालि करी माटी तरणी, ऊपरि ठवि अगार । अधिकी वेदन तिणि करी, रिषि पाम्यउ भव पार ॥४॥ कारिज साध्यउ मापरणउ, मन मत करिज्यो* खेद । कीघउ थोडइ काल मई, आ5 करम नउ छेद ॥१॥ [सर्व गाथा ५११] ढाल-२८ काल अन तानंत-पहनी प्रभु जपी ए वात, सांभलि नइ हरि हो सोक करइ घणउ । पाणी बलि न खमाइ, कठिन विरह दुख हो भाई तुझ तणउ ॥१॥ मिलिस्यइ वार बिच्यारि, बंधव मुझ नइ हो व्रत माहे छतउ । एह मनोरथ साच, प्राज घड़ी लगि मन माहे हुतउ ॥२॥ परिज्यो Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जिनराजसूरि-कृति फुसुमांजलि सास सीम वेसास, धाम जी हिव हो मइ मिलवा तगी। मनि वीचइ छइ जेह, ते परि सगनी हो जाएइ जगि घणी ॥३॥ हियडउ वज्र समान, तुझ वेदन र ण हो जिए" पाटउ नहीं। किसउ जणानेह,x लोका यागलि होवि वचने यही ॥४|| यादव बहु+ परिवार, काम न पाव्यउ हो तुझ नइ तिगि समइ । अधिकउ सालइ दुक्ख, तिणि मन माहे हो कोई नवि गमइ ||५|| वीरा तुझ दीदार, विण दीठा किम हो मन घीरिज रहा। तुझ विरहउ असमान आगि तरणी परि हो मुझ अतरि दहइ ॥६॥ प्रभुनइ पूछइ एम, हरि कुण निदत हो नीच इसउ अछ।। मुझ बंधव नइ मारि,जीवित वछड हो पापी कुण: पछः ॥७॥ प्रभु जपइ स्यउ कोप, तिण सु जिरा नर हो ओठभउ दीयउ । ईटि वाहक नइ जेम, मारग माहे हो तई वहु गुरण कीयउ॥ इम निसुरगी सह वात, हरि हर भातई हो जारगड जिग हण्यउ। हकिम लखिस्यु तेह, नेमि जिरणेसर हो नाम नथी भण्यउ || वलि पूछइ कर जोड़ि, वधन घातक हो प्रभु किम जारणीयइ। उत्तर भासइ सामि, ससय भजक हो अतर वागीयइ ॥१०॥ तुझ नइ देखी जास, काया थावइ हो प्राण रहित खिरगइ। तेतू जाणे साच, रिषि संहारयउ हो पापीयइ तिरणइ ॥११॥ सर्व गाथा ५२२] ॥हा॥ कृष्ण नरेसर इम सुणी, वदी जिणवर पाय । वर कुजर चढि नगर मइ, जावा उद्यत थाय ||१|| सोमिल मन मइ चितवइ अधिक न्यान विन्यान । प्रभुभासइ तिरिण हरि भणी,सहु कहिस्यइसहिनाण ॥२॥ मुझ नइ कुमरण मारिस्यइ, वासुदेव ए जोर। किरण भांतइ सजिस्यइ नहीं, लाख£ करू जउ निहोर ॥३॥ बजे रहेज + सहजेथाय इणे पासइ £करसा लाख निहोर - - Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकमाल महामुनि चौपई २१५ घर हती ते निकलइ, धरतउ मन मइ बीह । मृगलउ वन मइ नवि रहइ, देखी सवलउ सीह ॥४॥ [सर्व गाथा ५२६] ढाल २६-अन तवीरज मइ ताहरउ ए जाति कृष्ण नर सर प्रहसमइx पहमण लागउ जाम । हूंगहार न टल इ किमइ, सोमिल मिलियउ ताम ॥१॥ हरि देखी भय ऊपनउ, प्रारण रहित ते थाय। आउखो तूटण तरणउ, भय पिण कारण न्याय ॥२॥ ध्रसकइ ते घरणी ढल्यउ, देखी कृष्ण नरस । भाषइ करम चडालइ, पापी बांभरण वेस ||३||कृ० सहु को लोको साभलउ, सोमिल बांभरण एह । एणइ मुझ बंधव भरणी, दहि कीघउ निरदेह ॥४॥कृ०॥ ए अपत्थिय पत्थियउ, इण नइ हिव सी मारि । इणि भवि ना इणि भविए+, विरुपा करम विकार ||शा रांडूं सेती बांधिनइ, पापी ना पग हाथ । नगरि परि सरि फेरवउ, जपइ इम यदुनाथ १६||कृ०॥ छेदी दस दिसि वलि करउ, ए, छ: प्रम्हची प्राण । सेवक ते तिमही: करइ, प्रभु नउ वचन प्रमाण ॥७॥० जल सेती छाटी करी, पवित्र करइ ते ताम । विलखउ विरहइ वधु नइ, हरि भावइ निज धाम कृ०॥ सोकातुर धरणी ढली, मात सुरणी ए वति । वात तणइ योगइ पड़इ, जिम तरुवर नो पात ॥६॥ श्री जिनशासन अगि जयो-ऐ देशी xनगर में +पच्या वायु हि तिमहिन Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि सीतल जल चंदन करी, तेह सचेतन थाय । तिम २ नेह घरगउ दहइ, सोक जलग वहु xकाय ॥१०॥०॥ विरह विलाप घणा किया, सुत विरहइ जे मात । जाणइ ते सुत विरहगी, जिण नइ वीतक वात ॥११||कृ०॥ सोक जलंजलि आपिनइ, मात पिता घरि प्रेम। अधिकउ कृष्ण नरेस स्यु ,नित वरतइ मुख खेम ||१२||कृ०|| जवहर नी परि जोवता, यादव वंस स नीर । वलि विसेष सुरमरिण समउ, हूप्रउ हरि लघुवीर ॥ १ ० ॥ [सर्व गाथा ५३६] गुरण बहु गजसुकमाल ना, जटमति हू इक जीह । पूरा ते न हुवइ किमइ, जउ कहियइ लख+ दाह ॥१॥ क्षमावत संसार मइ, हुइसी ना अनेक । वरतइ छइ पिण एहनी, जग मइ अधिको टेक ॥२॥ विषम परोसह ए सहयउ, नामइ गजमुरुमाल । धन घन करणी एहवी, नमियइ चरण त्रिकाल | सर्व गाथा ५४२ हाल-३० राग धन्यासिरी,शांति जिन भांमणडइ जांएह जाति साधुजीनी भावना भावु, मनवंछित फल पावु व ॥१॥सा०॥ गजसुकमाल सदा सलहीजइ, जिम सिव वास लहीजइ वे समा०॥ हेम जेम कसबटि कसीयर, अधिक जान+ जिम लहीय उ वे ॥शासा।। समता घर अधिकउ सोमागी, वय चढ़ती वयरागी वे ॥४॥सा०॥ चदननी परि जसु मन ताढउ, सोमिल ऊपरि गांढउ वे ॥शासा०॥ *वण उद xवहकाय +नित - भावन Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गजसुकुमाल महामुनि चौपई २१७ सत्र मित्र ऊपरि सम भावइ, इम हुइ ते सिव पावइ बे सा ॥ त्रिकरण सुद्ध क्षमा गुण धारी, तेह तणो बलिहारी वे ||७||सा०॥ क्रोध थकी दुरगति पामोजइ, क्रोध तिणइ नवि कीजइ बे ||८||सा. क्रोध करम च डाल कहोजइ, चारित तुरत दहीजइ वे ||६||साo|| जागी एम क्षमा नितु धरीयइ, मुगति वधू जिम वरीयइ बे॥१०सा सवत सोलह १६ निन्नाणू १६ वरसइ, वइसाखइ सुभ हरखइ बे||११||सा०॥ सुदि पंचमी ५ सुभ दिन सुभ वारइ, एह रच्यउ सुविचारइ बे ।।१२।सा०।। • श्रीजिरसिंघसूरि गुणवारा, खरतरगच्च उदारा बे॥१३।।सा. श्री जिनराज तासु परभावइ, इरिण विधि मुनि गुण गावइ बे ॥१४॥सा०॥ ए सबध सदा सांभलिस्यइ, तासु मनोरथ फलिस्यइ बे ॥१५||सा०॥ माठमइ अग तणइ अणुसारइ,जोडि रची मति सारइ बे॥१६||सा० कवि कलपना अधिक रची जइ,मिच्छादुक्कड़ दीजइ बे ॥१७॥सा० श्री जिन धरम तणइ परसादइ, अधिक सदा जस धाधइx बे॥१८॥सा०॥ मगल सुख सोहग+ पामीजइ,जिनवर चरण नमीजइ वे ॥१६सा. [सर्व गाथा ५६ ] इति श्री गजसुकमाल महामुनि चितुष्पदिका समाप्ता। सर्व ढाल ३०, सर्वइलोक संख्या ८००। श्री रस्तुलेखक वाचकयो। सवत १७४३ वर्षे, फाल्गुन मासे ६ तिथौ गुरुवासरे। श्री जेसलमेरू वास्तव्य सुश्रावक, पुन्य प्रभावक कोठारी। विद्याधर तत्पुत्र कोठारी अमीच द तत्पुत्र कोठारी पविभूषण अभयचदजो पुत्र निर जोवी केसरीचद पठन हेतवे लिखितेय पुस्तिका *कल्पने, कलिपित x वाध + साता । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज सूरि कृति कुसुमांजलि तीर्थ राज गीतम् परि परि आव्या समरता, ललगा अहो प्यारे आज भलइ सुविहारण कि शेत्र ज भेटीयइ ललगा । श्राज मनोरथ मा फल्या ललरगा ग्रहो प्यारे, २१५ जीवित जनम प्रमाण कि ||१|| पालीतारणइ देहरा ल• ललितसरोवर पालि कि ॥०॥ पाजइ चढता पादुका ल० प्ररणमु नयरण निहालि कि ||२|| पगि पनि पाप पखालताँ ल० साथइ स घ झकुड कि ॥०॥ भाव भगति धरि भेटीयइ ल० पासनाह कलिकुड कि ||०|०||३|| केसर भरी कचोलड़ी ल० पूजू रिषभ जिरगद कि । गे० रइतिलि पगला भला ल० पेख्या परमारग द कि | | ० || || चउमुख देहरा देहरी ल० पुंडरीक गणधार कि । शे० खरतर वसहो देखताँ ल० सफल करू अवतार कि || - ||५|| मरुदेवा गयवर चढी ल० प्रदबुद त्रिव सरूप कि शे० मन माहरउ मोहीर हथउ ल० देखी रूप अनूप कि ||०|| ६ || मूल टूक ऊपरि छह ल० चउमुख नवल प्रसाद कि || शे० उ चउ शिखर सुहामरणउ ल कइइ सरग सुवाद कि । शे० ॥ ७ ॥ साची शेत्र ज (य) नदी ल०, सिधवड उलखाझोल कि ॥ ० दीठी चेल तेला वडी ल०, प्राजु थयउ रग रोलि कि । शे० |८|| तीरथ जिण भेटघउ नही ल०, ते नर गरभावास कि || शे० 'राजसमुद्र' मुनिवर भरणइ ल०, सफल फली मन ग्रास कि || शे० ॥ ॥ इति तीर्थराज गीतम् 1 ( पत्र १ तत्कालीन हमारे संग्रह मे ) तीर्थ यात्रा मार्ग निरुपक गीतम खि भोजिग भाट चारण, गुरिगजरण वीजा वली ! मरुदेवि कुट प्रसाद अनुपम मंडाव्यउ मन नी रली ||१४|| Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदर्शन सेठ सज्झाय २१६ करइ सजाइ सघवी, भेटण गढ गिरनार । स घ प्रवर 'तब' वीनवइ, मारग विषम अपार ।। अति विषम मारग आकरी रितु, नीर लागइ तिहा तरणउ । समझावि इण परि संघ आवी, पास भेटण थभराउ ।। निज न्याति साहमी घरे लाहिण दियइ पुर पुर नवी । मारगइ तीरथ अवर भेटी, घरे आवी स धवी ॥१५॥ श्री खरतर गच्छ चिर जयउ, परगल पुण्य पडूरि । गरुयउ गछनायक जयउ, जुगवर जिणसिंघसूरि ॥ युपवर जिणच दसूरि पाटइ, दिवसपति प्रोपम धरइ । धनवत श्रावक पुण्य करणी, मोकलइ मन इम करइ ।। धन गछ खरतर सुगुरु श्रावक मुजस महिम डलि थयउ । गिरि राजसमुद्र दिरिंगद ता लगि,श्री खरतर गछ चिरजयउ ॥१६॥ __ इति श्री तीर्थ यात्रा मार्ग निरूपक गीत । ( पत्राक तीसरा हमारे संग्रह मे) सुदर्शन सेठ सज्झाय जी हो कूड कपट तिहाँ केलवो, जी हो तेडावी घर माहि । कामातुर वचने थई, जोहो कपिला बिलगी वाहि ।।१।। सुदरसरण धन धन तुम अवतार । जो हो सील रतन जतने करी, जी हो राख्यउ च्यारे बार रसु०॥ जी हो सेठि कहइ मुझनइ हतो, जी हो कहि कदि पुरुषाकार । जी हो रूप रूडे फू लडे, जी हो राचं कवरण गिवार ||सु०॥ जी हो हाथ विन्हे धरती पड्या, जी हो सबल लजागी तेह । जी हो ते तो पछतावइ पड़े, जी हो करइ विचार न जेह ।।४ासु०॥ जो हो गहि पूरित अभया कहे, जी हो कपिला नी बात । जी हो भोली तूतिणभोलवी,जी हो पुरुष रम्यो लहिघात ॥५सु०॥ जी हो तो हू जउ तेहने, जी हो हेलि मनावुहार। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जिनराजसूरि-कृति कुलुमांजलि जी हो छैल पुरप जे छेतर३. जी हो साची हिज नारि ॥धासु०॥ जी हो परव दिवस तेडाविनड, जी हो कीया कोडि प्रकार। जी हो पाप रूप अभया थई जी हो मू की अभया नारि जानु०॥ जी हो अरगीयाले अगोए मिले, जी हो धार रहा पय योभ । जी हो अगीय जुडे ताकड गली जी हो ते किम पामइ सोम ॥८नु० जी हो पापो ग्राप बिलूरनइ, जी हो लागी करण पुकार । जी हो चतुर न को पामीसके, जी हो नारि चरत नो पार सु०॥ जी हो कुमरण मारण मांडीयो, जी हो कोप चढ़ये भूपाल । जी हो सूली फीटी नै थयो, जो हो सिंहासन सुविसाल ||१०||मु०॥ हो थाइ छडी ता ऊजला, जो हो सोनइ गामि न होइ।. जी हो सेठ महाव्रत आदरै, जी हो चूक पडे मत काइ ॥१शामु०॥ जी हो घाय अवर नगरी गई, जी हो करि गरिएका सु सच । जी हो धरि तेडावो साधुते, जी हो करि करि नवल प्रपच ॥१२सु० जी हो ते विरती सर वाहती, जी हो पिण न पडयो नीसारण । जी हो सांझ समै ऊपाडि नइ जी हो ले मूक्यो समसारण ॥१शासु॥ जी हो पात्रो अभया व्यतरी, जा हो रचि माया गभीर । जी हो मुनिवर नइ डोल इवा जी हो कीध न क तकसीर ||१४||सु०॥ जी हो पावडीए चढि साधुजी, जी हो लहि केवल प्रासाद । जी हो जैतह थइ जिगनारि नो,जी हो एम उतार्यउ नाद ॥१शासू० जी हो सील सुरगा मानवी, जी हो पाँमइ शिवपुर राज । जी हो सील अखडित राखीगै जी हो इम जपइ जिनराज ॥१६सु०॥ इति सुदर्शन सेठ सज्झाय । वा० भुवनविशाल लिखित श्री जिनसिंहसूरि गीतम् श्री जिनसिंहसूरीश्वर गुरु प्रतपउ जी निलबट अधिकउ नूर ।।एह गुरु० दरसण आणद सपजइ गुरु० दुख जाइयइ सवि दूंरि ॥एह॥१॥ बुद्धइ सुरगुरु अदगण्यउ गुरु० सायर जेम गंभीर एह०॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सिंह सूरि द्वादशमास २२१ तेजइ सूरिज ज्यु सदा गुरु०, गिरवर जेम सुधीर ।।एहगा२॥ कोकिल कलरव अभिनवउ गुरु०, सब जननइ सुखकार |एह०॥ निरमल मोति तणी पक्ति गुरु०, दंत पक्ति अतिसार एह०॥३॥ केलि थुभ ज्युनासिका गुरु०, भापरिण पत्र सभार ॥एह० ॥ नयरण कमल विकस्या जिसा गुरु०,खरतर गच्छ शृंगार |एहnि सोभागी महिमानिलउ गुरु०, चाँपसी शाह मल्हार ॥एह०॥ . राजसमुद्र मुनि इम कहइ गुरु०,गच्छपतिम इ सिरदार ।।एह०॥५॥ श्री जिनसिंहसूरि पाणी महिमा गीतम् गुरु वाणी जग सगलउ मोहीयउ, साचा मोहणवेलो जी। साँभलतां सहुनइ सुख स पजइ,जारिग अमीरस रेलो जी ॥१शागुरु०॥ बावन चंदन तई अति सीतली, निरमल गग तर गो जी। पाप पखालइम विमल जल तणा, लागो मुझ मन रंगो जी ॥२॥गुरु०॥ वचन चातुरी गुरु प्रतिबूझत्री, साहि सलेम नरिंदो जी। प्रमयदान नउ पड़हो वजावियउ, श्रीजिनसिंहसूरिंदो जी ||शागुरु०॥ चोपडा वंशइ सोमे चढावतउ, चापसी शाह मल्हारो जी। परवादी गज भजण केसरी, आगम अर्थ भंडारो जी ॥४॥गुरु०॥ युगप्रधान सइ हाथई थापिया, अकबरशाहि हजूरो जी। 'राजसमुद्र' मन र गइ उचरइ, प्रतपउ जो ससि सूरो जी ॥शागुरु. चन चातुरी गुरु हो वजावियतनसिंहमूरिद श्री जिनसिंहसूरि द्वादशमास ॥हा॥ पुरसादारणी पास जिण, निमल प्रापउ . नारण । गुरु जिसिंहसूरि गाइसु , भविक कमल वन भाण ॥१॥ जग जारणीता जुगपवर, सिरि जिणच दसूरिद । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि भवसायर तरवा भरणी, नित नित नमइ नरिंद ॥२॥ सुरगो वारणी सहगुरु तणी, ए संसार असार । इम जारणी मन आपराइ, आणि वइराग अपार ॥ ॥ विनयवत इम वीनवइ, सजम लेपु सार । मुझ अनुमति द्यउ मातजी. पामु जिम भव पार ॥शा मात कहइ सुरिण मानसिंघ, बारह मास उदार । सुख भोगवि ससार ना, विपम सावु व्यापार ॥५॥ ढाल-सिंधू १ मल्हार २ चांपलदे चित चोखइ इम कहइ रे, श्रावण मइ सुख स्वाद । बीजलड़ी चमका चिहुँ दिति करइ रे केकि करइ कल नाद ||चां०॥६॥ दादुर वादुर गहकइ गड़गडइ रे. मानु मदन नीसारण । पहिर्या पच प्रकार वसन धरा रे, खेलइ चतुर सुजाण ॥चां॥७ भला भला भाँदु मइ भोगवइ रे, भोगी भामिन स ग । कीन ना मइ कामी क्रीडा करइ रे, रस लुवधा अर र ग ।। चांसे सहिवा सही वावीस परीसहा रे, धरम घ्यान चित चंग । गिरिवर गहिर गुफा मइ गुण निला रे, गोपवि अंग उपंग ॥चांपा भधिक पाणंद पासोज मइ स पजइ वाजइ सोतल वाय । दीपतउ गयणगरा च द्रमा रे. भोगीजन मन भाय |चांग॥१०॥ पकज परिमल पसरइ चिहुँ पखे रे, नवलउ जागइ नेह । विरहरिण वनिता नर विरहाकुलो रे दाझइ अहनिसि.देह।।चां०११॥ धान नवा कातिक मइ नीपजइ रे, निरमल तिम वलि नीर । दीवाली परवइ दिन रली रे, चतुर वरणावइ चीर ॥चां०॥१२॥ पाहार निरंतर नीरस आविसई रे, उन्हउ उदक असार । दृषिण दूषित ते पिण ल्यइ नही रे, किम करिस सुकुमार ॥चां०१३ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सिंह सूरि द्वादश मास ____२२३ ढल-मेरउ मन मोहयउ, एहनी वच्छ ए वात तइ वली विमासवी मोटउ म करि प्रयासो जी। कठन कहथउ मुनि मारग जिरगवरइ, ताथइ करि गृहवासो जीवछ०॥१४॥ । सरवर निरमल त लहियां लियइ, मगसिरि रणि महतो जी।। राजहस महिमडल स चरइ ठामि ठामि विलस तो जी ॥वछ०१५।। पोषइ नवे नवे पकवानडे, सिगला लोक सरीरो जी। साकर दूध तणा गटका भला, पोष मास सुधीरो जी ॥वछ०॥१६॥ गरम खाना माह मासइ गुण करइ, तैलादिक परिभोगो जी। परम नरम पटकूल नउ पहिरवउ,सुकृत तणइ सयोगो जी ॥वछ०१७ सीत सबल निसिवासर स भरइ किरिण किय सीतल वायो जी। निस नर सबल वसन विणु वालहा, किम करि रयरिण विहायो जी ॥वछ०॥१८॥ फाग रमइ फागुण मइ सहु मिली, लाल गुलाब अबीरो जी। माहो माहि पिचरकी वाहता, भरि भरि केसूनीरो जी ॥वछ०१६ पंच महाव्रत मनसु पालिवा, नित नित निरतीचारो जो । कठिन ब्रह्मव्रत तिरणमइ परिण बहुतु, चतुर तुएह विचारो जी ॥बछ ।२०॥ ढाल मल्हारनी रायबेल रलियावरणी वछजी, मरुयइ नउ महकार । परिमल पसरइ केतकी बछ जी मास वस त उदार ॥२०॥ 'सुगरे' नान्हडीया सुख भोगवि तु स सार ना रे ॥आकरणी।। बैसाखइ वन 'फूलिया वछजी, सहु जननइ सुखकार । कूजइ कोकिल मन रली, वछजी, साख चढी सहकार ॥२२॥सु०॥ दमतां इक इक दोहोलउ, वछ, इद्री रूप गयंद। तो पाचे वसि राखिवा,वछ, जिया जीता नर वृद ॥२३॥सुा।० Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि श्रावासे सात भूमीए, वछ, गळ्या गउव म डारण | सयन करइ तिहा सुख भरणी, वछ, जेठ माम जगि जारण ॥ २ / सु०॥ रवि साम्ही आतापना, बछ, करता दिवम विहाय । रातइ भूमि स थारडइ वछ, केलि गरभ सम काय ||२५|| सु०॥ वाला खाने वइसब, व, वीजण वीजइ वाय । फूल्या फूल गुलाब ना, वछ, मोटी दाम सुहाय ॥ २६ ॥ सु०॥ ईरेज्या समता चालतां वछ, जाइवउ गोचर काज । कच नीच घरि वहिरवउ, बछ, जेम कहउ जिनराज ||२७|| मु०|| ढाल - धरम हीयइ धरउ, पहनी मानक सुरण मातजी रे, नहीय करू गृहवास | माया दीस कारिमी रे, तिरण सुरौं केही आमो रे ॥ २८स जम प्रद तणु धन योवन कारिमउ रे. स्वारथ सहु परिवार । खिरण खिरण छोजइ आउखउ रे दीसइ सहु प्रमारो रे | २६सं० ॥ इम जारणी माता पिता रे, दीघउ व्रत आदेस । श्रादरसु श्री गुरु कन्हइ रे, ल्यइ मुनिवर नउ वेसो रे ||३०||स०॥ ग्रहरणा नइ आसेवना रे, सीखाइ सिख्या सार । अनुक्रम चवद विद्या तरणउ रे, मुनिवर थयउ भडारो रे || ३१ ० युगप्रधान गुरु थापिया रे, अकवर साहि हजूर । 'करमच द' कुलच दलउ रे, उच्छव करइ पडूरो रे ||३२||स० ॥ श्री जिनसिंहसूरीसरू रे, दिन दिन अधिकइ नूर । त्रिकरण सुद्ध वादता रे, दुख जायइ सहु दूरो रे ॥ ३३ ॥ स ० ॥ साहि सलेम प्रतिबोधनइ रे, वरतावी रे श्रमारि । छम्मासालगि त्रिहु खडे रे, जागइ सहु स सारो रे ||३४|| स ० ॥ 'जेसलमेरू' जगि परगड़उ रे, राउल भीम सुजाण । स वत सोलई चउसठइ (१६६४) रे, नमि कातिक र्वाद जारगो रे || ३५स० मनसु भगत गावतां रे, अधिक हुइ आरणद । 'राजसमुद्र' मुनि इम कहइ रे. प्रतपउ जाम गिरिदो रे || ३६ || स ० ॥ इति श्री गच्छाधीश्वर श्री जिनसिंहसूरि राजानां द्वादसमास वर्णनम् समाप्तं पंडित लब्धिकुर मुनिना लेखि । पत्र २ सग्रहमे नं०७६१२ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पं० जयकीर्ति गणि कृत श्री जिनराजसूरि राख SAGL धरम जागरीया छट्ठी राति, क्रीजइ दीजइ धन बहु भाति । इम करतों दिन श्रायउ दसमउ, थय उदसूठण करिवा नउ समउ ॥४॥ स्नान मज्जन करि अमुचि उतारी, न्याति तेडावर हिव अवतारी । श्रति सखरी करि लापसो आही, मेलि जीमाडइ लोक वेवाही ||५|| ऊपर दीजइ फोफलपान, केसरि छाटणा बहु सनमान । इजीमाडी लोक समक्षइ, नाम दीयउ खेतसी बहु हरषइ ||६|| लोक सहू मन मइ गगइता, आँप आपणे मंदिर ते पहुता । - हिव धमसी साह नइ बहुमान, पुण्यइ बाधइ वसुवा वान ||७|| भात पिता ना मनोरथ फलीया, घरम प्रसादि थया रंग रलीया । दिन दिन कुमर बधइ सुखकद, कलायइ वधइ जिम वीजिनउ चद ॥८ हरख घरी माता घवरावइ दिन प्रति कुमर नइ वलि न्हवरावइ । श्राखे काजल कानि अवगनिया, माथइ तिलक पाए पानहियाँ ॥ ॥ बाँहे बहिरखा कठइ हार, कुमर नइ सोहइ सोल श्रृगार । चादलउ करि पहिरावर वागउ, बालूडा नइ दृष्टि म लागउ || १०|| प्र ेम नजरि भरि माता निरखइ, खिरग खिरण देखी हीयडर हरखइ । कई कई कई छाती, कुमर लगावइ माता राती ॥ ११ ॥ कईयइ बयसार आपणइ खोलइ, कईयइ पालाइ राखि हीडोलइ । ! कईयइ माता, कुमर रमाडइ, कईयइ झालि ऊंच ऊपाडइ ||१२|| कईयड़ बोलावइ बाह पसारी, श्रावउ बेटा हैं तुझ वारी । कईयइ कुमर नइ माता तेइ, कईयइ कुमर नइ जाइ केड़इ ||१३|| कईइ चुबि माता पुत्रकारइ, ऊतारणउ कईयह ऊतारइ । इरि परि माता कुमर खिलावइ, अधिक प्राणद मन माहे पावइ ॥ १४ 1 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि ठम ठम चालतउ कुर्मर विराजइ, घूधरडी पाए वलि छाजइ। फेरइ लट्र चकरडी फेरिइ, फिरकडी फेरि नजरि भरि हेरइ ॥१५॥ पचेटे खेलइ सारी पासा, सोलही जाणइ खेल तमासा। पंचरंगी वजाडइ गोटा, इरिग परि रमइ धारलदे घोटा ॥१६॥ मामरणा वचत वदन सुखकारी, मात मनोरथ पूरइ अवतारी। सात वरस नउथयउ सोभागी,कुमर नइ भरिणवा नी मति जागी ॥१७ [सर्व गाथा ४६] मात पिता सुत देखिनइ, करइ विमासरण एह । कोइंक. जोवउ पंडियउ, पुत्र भणावइ जेह ॥१॥ माता वेरिण तेहनइ, पिता सत्र, कहिवाय । छतइ 'स योगइ पुत्र नइ, न भरणावइ मनलाय ॥२॥ विधवा कन्या ठोठ सुत २, भोग काजि धन जाय ३ । वृद्धपणइ मरइ भारिजा ४, ए चारे दुखदाय ॥४॥ सभा माहि वयठउ निगुण, सगुण नयन की चोम । हंस पति जिम बक रहाउ, कबहु न पामइ सोभ ||५|| तिणि कारणि ए पुत्र नइ, जिम तिम करी उपाय। तुरत भरणाव्यउ जोईजइ, पंडित सुत सुखदाय ॥६॥ __ ढाल श्रीजी, जाति चउपई नी, राग-रामगिरी । जोसी तेडि मुहूरत जोवइ, मात पिता बहु हरषित होवइ ।। माह तणी सुदी पाँचमि सार, भणिवा मुहूरत अति श्रीकार || मेलि महाजन वाटणा कीध, ऊपरि परिघल बोल दीध। हाथ माहे मुक्थउ नालेर, अश्व ऊपरि चढयउ जिउ कुवेर रा॥ सनान मजन करि सोल शृगार, कुमर दीसइ जारणे देवकुमार। बाजइ ढोल दमामे घाई, पच सबद बाजइ सरणाई ॥३॥ . अक्षत द्रोव सोहइ मंगलीक, ब्रह्मा रहयउ जाणे नालीक । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनराजसूरि रास प्रति सखरी सुखडी अरणावर मात पिता खोलउ भरावइ ॥४॥ घरमसी साह करइ गहगट्ट, दान मान लहइ चारण भट्ट । इरि परि कुमर लेसालइ आवइ, गुरुजी कुमर नइ पाए लगावइ ॥ ५ वेकर जोडों बयसइ आगइ गुरुजी पासि विद्या हिव मागइ | भले भरगाव कहइ गुरु एम, भिलिजे सहु सु करे वेढि नउ नेम ॥६ भरण' गुरिण गुरु पूजा करि ऊठइ, तेहवइ सरसति माता तूठइ । चटड़ा नइ सु खडी खवरावइ, खड़िया लेखरिण वलि दिवरावइ ॥७ इरिणपरि भरिणवा मुहरत साध्यउ, कुमर तरगउ जस सगलइ वाध्यउ ! भरें भरगइ भइ अक विचार, सिद्धो समान भरणइ मति सार || चारणायिक नीति शास्त्र उदार. कुमरइ भण्या ग्रंथ विविध प्रकार । षड भाषा चउद विद्या निधान, चतुर विश्वक्षरण कुमर प्रधान ॥ ॥ पुरुष नी बहुत्तर कला जारइ, कुमर सौंसार तरणा सुख मारणइ । भरि गुरिंग गुरुनाप जइ पाय. तिरिग समय आठ वरस नउ थाय ॥ १० [ सर्व गाथा ६४ ] ॥ दूहा ॥ कुमर वध तइ ए वघ्या, अंगि लाज मुखि रूप । सिद्धि हाथे मन बुद्धि इम, विद्या हृदय अनूप ॥ १ ॥ नयन कमल दल नासिका चचु कीर मुख चद । 1 दसन जोति हीरा जिसी, वचन सुधारस कद ||२|| २२७ t कबु कंठ पल्लव करण, केलि जघ हियउ थाल । पद कच्छप नख तब मई, राता अधर प्रवाल || ३ || सीतल ससि रवि तेज गुरण, सायर गुरण गभीर । करण दाता हरिच द सत, सोबनगिरि गुरण धीर ॥४॥ गुरण सगला निज थानक, अवगुण देखि अनेक | `श्रवगुण रहित कुमर तराइ, अगि वसय सुविवेक ॥५॥ - नव नवा वागा पहिरि नइ, सुगुरण सुलक्षण जाण । गज गति चालइ मल्हपतउ, मान दीयइ राय राख ॥ ६३॥ C Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि धर्म गोष्टि ध्रम थानकि, करइ दिवम नइ राति । धर्म बुद्धि मन मई धरइ, करइ नही परताति ||७|| तिणि अवसर पाव्या तिहाँ, खरतर गछि सिरणगार । श्रावक लोक वांदइ सहु, जिनसिंहसूरि गणधार ।।८।। आवइ कुमर तिहां करिंग, वादी सदगुरु पाय । वेकर जोड़ी सांभलइ, गुरु वखारण सुखदाय ||६|| ढाल चउथी राग-गउडी जाति प्रीतम रह रहउ सनतकुमार नर अवतार ससार मई लहतां, दसे दृष्टांते दोहिलउ । जीवा जोनि चउरासी लख मइ, भवमता भवि भवि सोहिलउ ||१|| भविक जन सुणउ सुगउ धरम विचार, तुम्हनइ थायइ भव निस्तार ॥ भ०॥माकरणी नरभेव सार भलउ कुल लहियइ, कुल थी धरम प्रकार। घरम सार सरदहणा कहियइ, तेहथी बीरिज सार ॥२॥भ०॥ श्रावक नउ कुल लहि भ्रम कीजइ,धरम सामग्री जा छ। बत्रीस लाख विमान नउ स्वामी, इंद्र श्रावक कुल वाँछइ ॥३॥०॥ विषया सुख मई सुर लपटारणी, नारकि नइ दुख भोग । नही विवेक तिरजचा माहे, तिणि मानव ध्रम जोग ॥४॥०॥ मन तकाय बत्तीस बिवज इ, बलि बावीस अभक्ष । मदनई मांस मांखण लघु एहना, दोष कहया बहु लक्ष ॥५॥०॥ श्रावक नउ कुल पामी न करइ,वच अनइ अपमान । कूड कपट पर निंदा न करई, करइ ध्रम नइ ध्यान ॥६॥०॥ काल अनंतइ श्रावक कुल लहि, मिथ्यामति प्रलिबुद्ध । व्रत वारह इकबीस गुणे करि, जे श्रावक ते सुद्ध ||७||भ०॥ दस विध साघु धरम कहिवायइ, घरमा मांहि प्रधान । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ श्री जिमराजसूरि रास पंच महाव्रत भार दुहेलउ, पाचा मेरु समान ॥८॥ भ० ॥ अढार सहस सीलांगरथ जारइ, गुरण मांहे सातवीस । अमम श्रमाय अकिंचरण निरमंद न करइ लोभ न रीस ॥६॥भ० ॥ एक दिवस नी दीक्षा लहियइ, निश्चय देव विमान । जावजीव पालइ जउ चारित, तउ सुख केहइ गान ||१०||४०|| प्रसार ससार जागी जे विरमइ, ते नर कहियइ जारण । कटुक विपाक तुच्छ सुख मांहे, मुझि रहइ ते प्रयाण || ११||०|| सध्या समय मिलइ जु रूखे, पंखो सगला आय | राति रही एकठा परभाते, उडि उडि दइ दिसि जाय ॥ १२ ॥ ० ॥ इम करम तराइ वसि जीव भमीनइ, पामइ कुटंब नउ मेलउ | पांच राति रही कुटव संयोगड,चालइ प्रति इकेलउ || १३|| भ० || घन घन जोवन आउखउ, जाणे नय नउ वेग । डाभ अग्रजल चचल जीवित, जारिए धरउ सवेग || १४ || भ० || स्वारथ नउ सहुयइ छइ जगि मइ, स्वारथ विग नहि कोई । इम जारणी नइ करिज्यो संबल, धरम नउ जोई सोई ||१५|| भ० ॥ चिलातीपुत्र अनइ परदेसी, हृढप्रहारी व कचूल । इत्यादिक नर तारथा घरमइ, कीधा सुख अनुकूल ||१७|| भ० ॥ कामकुभ चिंतामणि सरिखउ, धरम मुगति दातार । इम जागी नइ धरम करउ जिम, सफल थायई श्रवतार ॥ १७॥ भ० [ सर्व गाथा 80 ] ॥ दूहा ॥ सहगुरु नी वाणी सुरणी, ऊठयउ दघउ दीक्षा मुझ नइ तुम्हे, कुमर वदइ चलता सहगुरु इम भरणइ, मात पिता श्रादेस । लेइ श्रायउ दीजियइ, दीक्षा बिलब' न लेस ॥२॥ - कुमर वदंइ कर जोडिनइ, श्रावी माता पासि । सद्गुरु वदिया धमं सुण्यंउ, माता दयइ साबासि ॥ ३ ॥ 1 जाणे सीह । रणबीह ॥१॥ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० जिनराजसूरि-ऋति कुसुमांजलि दीक्षा नउ भाव ऊपनउ, मुझ नइ तिणि प्रस्ताव । दयउ आदेश तुम्हे मुनइ, ल्यु दीक्षा सम भाव ||४|| चलती माता इम कहइ, वच्छ सुगउ वड भाग । जोवन वय सुख भोगवउ, नही दोक्षा नउ लाग ||५|| दीक्षा नी वात दोहिली, सांभलता परिण कांनि । भोगवि भोग पछइ दीक्षा, लेज्यो वचन ए मानि || दुकर दक्षा पालता, लेता सोहिली होइ। लेई नइ रूड़ी परि, पावइ विरला कोइ ।।७॥ वच्छ कहइ सुरणउ मात जी, जे तुहे कहउ ते साच । कायर कापुरसाँ नरां, दोहिली दीक्षा वाच ॥८॥ सूर वीर जे साहसी, अतुली बल महाधीर । व्रत दुक्कर नहीं तेहनइ, जां लगि धरइ सरीर ॥ वाला जायइ वात मइ, वलती नावइ तेह । धरम बिलंब करइ नही, पुण्यवंत नर जेह ॥१०॥ मात पिता देखाडीयउ, घराउ संसार नउ लोभ । तउ पिण कुमर रहइ नही, हिव दिक्षा लेतां सोभ ॥११॥ सहगुरु परिण समझाविनइ, चीतराव्यउ निज बोल। व्रत आदेस दीयउ हिवइ, दीक्षा ल्यइ र ग रोल ॥२२॥ [सर्व गाथा १०२] साल-पांचमी. राग-मारूणी जाति-जीतउ जीत हो यदुपति राय पसुदेव करउवधामणारे पहनी कीजउ कीजउ हो उच्छव माज दीक्षा नउ रूडी परि हो। परमसी साह नइ वारि गह मह सबल थइ घरि हो ॥१॥की०॥ पंडित जोसी पूछि कीधी मुहूरत थापना हो। . तपतोदक न्हवराय कुमर नी सहु फली कामना हो ॥२॥की०॥ पापड नठ वरणाव करि पहिरइ पाभ्रण भला हो। . Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनराजसूरि रास माथइ मउड़ सुचौंग, कांनि गंठोड़ा जोडला हो ॥शाकी॥ उरि मोतिन कउ हार, बांहि मनोहर बहिरखा। बाजूबंद सोवन्न दसे, आगुली वेढ सारिखा हो।।४।।की०॥ कडिए कंचण दोर, पाए वाजइ घूघरी हो। विनायक वयसारि, लाहइ लापसी घूधरी हो ॥शाकी०॥ भाल तिलक सुविशाल, अंजन आखे सोहियउ हो। कुमरइ सोल शृंगार, कीधा जन मन मोहियउ हो ॥६॥की। तिलका तोरण बारि, घरि घरि मांड्या मांडणा हो । सहु महाजन मेलि, कीधा केसरि छांटरणा हो ॥७॥की०॥ तरल तुरंगम आरिण, ऊपरि कुमर बइसारीयउ हो। फिरइ वरनोला एम, सकल कुटंब परिवारियउ हो ॥की०॥ सूहव गायइ गीत, ताजा नेजा फरहरइ हो। ढोल सबल नीसाण, नादइ अबर घरहरइ हो पाकी०॥ बाजइ ताल कंसाल, भेरि नफेरी हूकलइ हो।। सखि झालरि झरणकारि, ऊची गूडी ऊछलइ हो ।।१०।की। भोजिग चारण भाट, कुमर तरणउ जस ऊचरइ हो । वरनोलइ फिरि गाम, पोसालइ भावी ऊतरइ हो ॥१॥की०॥ वांदइ गुरु ना पाय सघव वधू करि गूहली हो वास लेई सुणि श्लोक, कुमर भावइ धरि मनरली हो ॥१२॥को इणि परि सगलउ संघ, दयइ वरनोला निज घरा हो। प्राड बर मास सीम, कीधउ अति हरखी धरा हो ॥१३॥की। स वत सोल सतावनइ, मगसिरि वदि दसमी दिनइ हो। सबली नांदि म डावि, लोधी दीक्षा शुभ मनइ हो ॥१॥की० [सर्व गापा ११६ ॥ हो । तिहां दीक्षा लेई नइ, मुनिवर करइ विहार । सीखावई सिक्षा दुविध, जिनसिंहसूरि गराधार ।। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि पाच समिति निरिण गुपित मई, पालइ प्रवचन मात। - छज्जीव नी रक्षा करइ, करइ नही परताति ॥२॥ . सामाचारी साधुनी, जारगइ दसे प्रकार । सत्तावीस गुरणे सहित, राजसीह अरणगार ||३|| मुनिवर मोटउ महीयलइ, निरमल चारित्र पात्र । विषय कषाय रहित सदा, सुप्रसन वदन सुगात्र ||४||- -. तप दहाडि मांडल तणा, दीधी वडी सु दीख । राजसमुद्र दीयउ नाम ए, सूधी पालइ सीख |शा उपधान हा भाव सुं, आगम ना जे जोग। तप सगला कीवा तुरत, सहू वखारगइ लोग |६|| गच्छनायक गुरु जे कहइ. मानइ वचन तहत्ति । 'सीस सिरोमणि चुंप सु, गुरु पासइ भगइ झत्ति ॥७॥ . सर्व गाथा १२३] दाल-छही रोग--मारुणी जाति-जोल्हग वहिला आविज्यो रे पहनीगुरु पासइ प्रावो करइ रे, सास्त्र तरणउ अभ्यास । विनय करी विद्या भरणइ रे, वारू बचन विलास ॥१॥ भगिवा मांडियट रे, आँपगडइ मन रंग भ०॥याँकरणी।। श्री गुरु आगइ हरख सु रे, वयसइ वे कर जोडि । मुहड़इ देई मुहपती रे, भगइ नित आलम छोडि भ०॥ पाचाराँग १ सूत्र सूगडाँगर रे, ठारगाँग ३ समवायाँग ४। भगवती ५ न्याता घरमकथा ६ रे, उपासकदसा ७ मतगड ८ चंग ॥२॥भ०॥ अंगुत्तरोषवाई ६ प्रसन नउ रे, व्याकरण १० विपाक ११ सिद्धांत । अंग इग्यार भण्या वली रे, प्ररथ लीयउ अभ्रांत म०॥.. उववाई १ रायपसेरिएका २ रे, जीवाभिगम ३ विचार। . Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रोजिनराजसूरि रास २३३ पन्नवरणा ४ सूरज बू६ चदपन्नती ७, निरियावलीय ८ उदार ॥५॥भ०॥ कपिप्या ६ कप्पवडसिया १० रे, पुल्फिया ११ वन्हि १२ उप ग । सुबुद्धियइ बारह भण्या रे, श्री सदगुरु नइ सग ||६||भ०।। पिंड १ अोधनिज्जुत्ति २ ने रे, दसवीकालिक ३ सार । उत्तराध्ययन ४ प्रधान ए रे. मूल सूत्र भण्याचार ॥७॥भ०॥ चउसरणउ १ विज्जाचद थी रे २, आउर ३ महा पचखाण ४ । भत्तपरिन्ना ५ तदुलवेयाली ६ गणिविज्जा ७ नउ जाण ।।भ० मरणसमाही ८ देविदत्थउ रे ६ संथारा १० दस एह । पइन्ना जाण निसीथ १ वलि रे, महानिमीथ २ भरणइ तेह ।।भ. पच ३ दस त खध ४ सहु रे, जीतकल्प ५ विवहार ६ । छ छेद ग्रंथ छाना भण्या रे, पई तालीस पागम सार ॥१०॥म०।। काव्यतर्क ज्योतिष गणित रे, जागइ व्याकरण छद अल कार। नाटक नाम माला अधिक रे, जागइ शास्त्र विचार ॥१॥भ०॥ तेरे बरसे आगरइ रे, भण्यउ चितामरिण तर्क । सगली विद्या अभ्यसी रे, भटाचारिज सपर्क ॥१२॥भ०॥ चउदह विद्या चालवइ रे, ससमय परसमय जाण । वादइ को जीपइ नही रे, पंडित राय प्रमाण ॥१३॥०॥ बादि मत गज केसरी रेवादि कंद कुदाल । राजसमुद्र विद्यानिलउ रे, सकल छात्र प्रतिपाल ॥१४॥भ०॥ श्री जिनचदसूरि सतसई रे, वाचक . पदवी. दीध । अहमदावादि आसाउलइ रे, जिहाँ सबल प्रतिष्ठाकोध ।।१५शाभ०॥ वाचक राजसमुद्र तिहा रे, समसद्दी सिकदार। रंजी चोर चउवीस नइ रे, छोडावइ उपगार ||१६||भ०॥ घ घाणी प्रतिमा तणी रे, वाँची लिपि महाजाण । प्रबिका साधी मेड़तइ रे, केता करय वखारण ॥१७॥भ०॥ श्री सिद्धाचल फरसीयउ रे तेरिण समय त्रिणि वार । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि-कृति कुसुमांजलि रतनसी जूठा श्रासकरण, संघ साथि सुखकार ॥ १८॥ भ० ॥ जात्र करी चउथी वली रे, देवकरण संधि उदार । उतकृष्टी करणी करी रे, उफल कीयड अवतार ||१६||०|| मानइ मोटा महिपती रे, मानइ मुकरवखान | राउल रागा प्रति घणुं रे, दे सद्गुरु नइ मान ||२०||०|| मुकरवखान वखाणियउ रे, नागइ श्री पतिमाह । २३४ पाट जोग लायक श्रइ रे, राजसमुद्र गज गाह ||२१|| || ठाम ठाम श्रावक वडा रे, वसि कीचा वड़भाग | वचन कला र ज्या घरा रे, गुरु ऊपरि बहु राग ॥२२॥भन देस प्रदेसे विचरता रे, जिनसिंहमूरि गरणवार । चउमासउ चावउ करइ रे, बीकानेर मझार ॥२३॥भ०|| तिरिण श्रवसरि जिगसिंह नइ रे, तेड़ावइ जहागीर । चाली श्राव्या मेटतइ रे, लह वह्यउ तेथि सरीर || २४|०|| श्रवसर जारण तिसइ समइ रे, वोलइ राजसमुद्र । सरदहिज्यो तुहे पूजजी रे, आणी भाव प्रक्षुद्र ||२शाभ ० ॥ गछ पहिरावीसि मु किसु रे, भडारइ सुजगीस । पुस्तक सखर लिखावि नइ रे, छलाख सहस छत्रीस ||२६||भ० || उपवास करिसु पाचसय रे, नाम तुहारइ जेह । ते पुण्य थाज्यो तुम्ह नइ रे, सुसीस नी करणी एह ॥ २६ ॥ भ० ॥ अरणसरण करि आरावना रे, श्री जिनसिहसूरिद देवलोकि थया देवता रे, सेव करइ सुर वृन्द ||२८|भ० ॥ [ सर्व गाथा १५१] ॥ दूहा || पाटि प्रभाकर ऊठीय, अतुली वल जाणे सीह । बखत बलइ पायउ तखत, राजसमुद्र श्ररणवीहु ॥ १॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनराज सूरिरास शनिवार ॥ वत सोल चित्तर, फागुरण सुदि शुभ वेला शुभ लगन मइ, सातमि दिवस अपार ||२|| आसक सघवी करइ, उच्छव प्रति विस्तार | पद ठवरणइ रउ भाव सु, द्रव्य तराइ अणुसार ॥ ३ ॥ [ सर्व गाथा १५४ ] ढाल - सातमी, जत्तिरी राग - सोरठि पद ठवरणइ उच्छव कीजइ, स धवीयइ सोभाग लीजइ । जस श्रवरण अंजलि भरि पीजइ, २३५ सहून दान तिहां करिण दीजइ ॥ १ ॥ सखरी धरती समरावइ, तिहां चउकी सखर वरणावइ । ति सबली नांदि मडावइ, सहु संघ भरणी ते डावइ ॥२॥ दल वादल सरिखा देरा, मुखमल दरियाइ केरा । नीलक प च वरण नवेरा, ऊ चा ताण्या वहुतेरा ॥३॥ चद्रोदय माँहि विराज, जरबाफ मसजर साजइ । विधि विधिना वाजा वाजइ, नादइ करि अ बर गाजइ ॥४॥ मिलिया मारणस ना थट्ट, करइ गीत गान गहगट्ट | जय जय भरणइ चारण भट्ट, संघवी राखइ कुलवट्ट ||५|| पाटोवर तेथि पधारइ, लोकां माँहि माम बचारइ । तिहाँ हेमसूरि गणधारइ दियउ सूरिमत्र अधवारइ ||६|| भट्टारक पाद पयउ, मिलि सुहव नारि बघायउ । श्री श्रीजिनराज सबायउ, खरतर गच्छ अधिक दीपाय ||७|| सोल कला मुखि सोहइ, नर नारी ना मन मोहइ । जिनराजसूरि सम को हइ, जगि भबिक लोक पड़िबोहइ ॥८॥ जिनसागरसूरि सबाई, प्राचारिज पदवी पाई । तेहिज नादइ श्रधिकाई, सयौं हथि थाप्या सुखदाई ॥६॥ L Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ जिनराजसूरि-कृति - कुसुमांजलि खरचइ धन ग्रासकरण्ण, जागे दूसरउ राजा करण्ण । पोषइ वलि चार वरण्ण, महिमागर मोटइ मण्ण ||१०|| जिगरइ घरि आदि बडाइ, माला से ग्राम सवाई | दीपकदे कउ सुखदाई, कचरइ सहु करणी दीपाई ॥ ११ ॥ उदयव त, अमरसी तात, स घवरिण अमरादे मात । अजाइवदे नारि कहात, इम आसकरण विख्यात ॥१२॥ अमील कपूरहचदह, भाई जेहनइ निरद द | कंधोधर सुवखना कद, सेव करइ नर वृंद ॥१३॥ ऋषभदास सूरदास, पुत्र वेई बुद्धि निवास | सुख भोगवइ लील विलास, ईहरगाँ नर पूरइ ग्रास ॥ १४ ॥ प्रसिकररण इंद्र अवतार, चोपडा व सइ दिनकार | बड वखती वड़ दातार, जाणइ सगलउ संसार ||१५|| सेत्र ं जइ संघ चलायउ, घरे सत्र कार में डायउ । देहरउ सखरउ कारायउ, धमकरणी कुल दीपायउ ॥ १६ ॥ पद ठवरणइ दीजइ दान, साहमी पामइ सनमान | संघवी प्रसरण प्रधान, बसुधा मांहि वाध्यउ वान ॥ १७ ॥ ॥ दूहा ॥ [ सर्व गाथा १७१ ] देस प्रदेशे सांभली, पदठवरणउ विख्यात । संघ सहू हरपित थयउ ए थई जुगती वात ॥ १ ॥ भट्टारक पद पामिनइ, सूरीसर जिनराज । सुख समाधि मइ भोगवइ, खरतर गच्छ नइ राज || २|| तेड़ाव्या तिरिण अवसरइ, राउल कल्याणदास । जेसलमेर पधारि नइ, श्रीसंघ पुरउ श्रास ॥३॥ लाभ जाणि आग्रह थकी, तिहाँ थी करी विहार । देस व दावी आविया, जेसलमेरि मार ||४|| [- सर्व गाथा १७५ ] ? Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनराजसूरि रास २३० ढाल-आठमी, जाति वेलिनी, रोग-आसाउरी श्री जिनराजसूरीसर आवइ, परिवरया मुनिवर थाट । प्राया एम वधाऊ बोल्यउ, जोता जेहनी बाट ॥१॥ मागम सालि स घ सहू को, हरषित थयउ अपार । वधाऊ नइ वधाई देई, स घ वांदइ गणधार ।।२।। एह वात सुरिग राउलजी परिण, संतोपारणा मूकइ । कुमर मनोहरदास नइ मोटा, अवसर थी नवि चूकइ ॥३॥ जीवराज भरणसाली भावइ, पइसारउ करि आण्या। प्राग्रह मानि चउमासउ रहिया, सगले लोके जाण्या ॥४॥ श्री गुरुराज प्रभावि घरणा मेह, वूठा थयउ सुगाल।। देस मांहि जस सबलङ गुरु नउ, बोलइ बाल गोपाल || घरम तरणी महिमा थई सबली, देहरइ पूजी स्नात्र । सामायक पोषउ पडिकमरणउ, पोषीजइ सद पात्र ||६|| सूत्र सिद्धांत व चावइ श्री सघ, स भलइ अधिकइ भाव । परजुषणा परबइ संघ परघल, धन खरचइ लहि दाव ॥७॥ अमरसिंह सुत साह सवाई, धोरी जीदउ साह । पोसीता नइ दीयइ रूपईयउ,सेर खाड उच्छाह ॥८॥ वाँदिवा कुमर पधारइ दिन प्रति, राउल-दे बहुमान । भोजिग भाट गध्रप जे आवइ, पामइ वंछित दान ॥६॥ कुसल खेम चउमास करीनइ, जेहवइ करइ विहार । तेहवइ परतीठ करावइ बिबनी, श्रीमल साह मल्हार ॥१०॥ घरम, धुरंधर धरम तणी करइ, करणी विविध प्रकार । सात खेत्र वितवावरइ मापरणउ, सफ़ल करइ अवतार ॥११॥ लोद्रपुरइ जीरण प्रासाद नउ, जिरिण कीघउ उद्धार । गामि गामि खरतर गच्छ माहे, भरावइ ज्ञानभडार ॥१२॥ दीन हीन दुखियांनई भरथइ, मडावइ सत्र कार। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि चिहु ए मठाई प्रतिमा पूजइ, चारिसय चारिहजार ||१३|| नीलक मुखमल दरियाई, जवाफ मन उल्लास । तेह तरणी धजा चाढी साते, देहरइ दीसइ खास ||१४|| गीतारथ गुरु पासि सिद्धान्तना, सांभलइ अरथ विचार । त्रिरि कालि कर पूजा देहरासरि, समरइ नित नवकार ||१५|| इत्यादिक सवली घ्रम करणी, करतउ थाहरुसाह । पुण्यवत परतीठ करावइ, चोखइ चित घरी चाह ॥ १६ ॥ सवत सोल पंचोत्तर वरसइ, मगसिर सुदि सुभवार । सिद्धियोग बसि सुभ दिवस, मुहुरत प्रति श्रीकार ॥१७॥ तिहाँ कारण श्री जिनराजसूरीसर, करइ प्रतिष्ठा सोर | सहसफरणा चितार्मारग वेई, पारसनाथ सुखकार ॥ १८ ॥ बीजा परिण विव प्रतिष्ठा माड्या, लोद्रपुर देहरा माहि । मूलनायक चितामरिण स्वामी, सघनइ करइ उछाह ॥ १६ ॥ तेरिण समय इद्रमाल अनोपम, बि सय रूपईया देई । लोधी जीदइ साह उच्छाह सुं, मन मइ भाव घरेई ||२०|| श्री जिनराजसूरि पहिरावइ, साहनइ आपरगड हाथि । सकल महाजन माँहे सोहइ, जीवराज सुत साथ ॥२१॥ देस प्रदेस नउ सघ घरगउ मिल्यउ, राउल श्री कलियाग | राज लोक कुमार सु श्रवइ, संतोषरण श्रव जाण ||२२|| अवसर जारिण थिरु भरणसाली, वरसइ सोवन धार । तिहु रूपईए असरफी नारगउ, लाहइ वड दातार ॥२३॥ सतोप्य द्रव्य देई भाउ, राउल कल्याणदास । भोजिग भाट चारण जे मिलिगया, तेहिनी पूरइ आस ||२४|| जाचक दे आसीस प्रतीठइ, लीघउ सबल सोभाग । हरराज मेघराज स घाति, चिरजीवे बडभाग ॥|२५|| भट्टारक 'जिनराजसूरीसर, एह प्रतीष्टा कीधी । तेहवइ स घपति रूपजीनी चीठीं, नफरइ श्रारणी दीधी ||२६|| २३८ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनराजसूरि रास २३६ लाभ जारणी नइ चालइ जेहवइ, तेहवइ करमसी साह । महियलि मोटिम माल्हू अरजुन, स घ करइ उच्छाह ॥२७॥ बेई सघ करीनइ चाल्या, गहमह सबल दिवाजइ । भट्टारक जिनराजसूरीसर, साथि सोभा काजइ ॥२८॥ गामि गामि लाहरिण परभावना, देता वछित दान । माया एम सेत्र जइ तीरथ, देखी धइ बहुमान ।।२६।। स घ चढी पुडर गिरि ऊपरि, भेट्या मोदि जिणद । रायण तलि पगला पूजीनइ, पाम्यउ परमारणंद ॥३०॥ मु छाल भुजाल हाथाल देईधन, फरसी तीरथ सार । संघवी करमसी अरजुन प्रापरणउ, सफल कीयउ अवतार ||३|| हिव एक बात सुरगउ सह कोई, रूप जी साह अधिकार। सोमजी साह सिवा वे बांधव, खरतर श्रावक सार ॥३२॥ व तुपाल तेजपाल तणा पाज, परतखि ए अवतार। एह तरणी उत्तम छइ करणी, कहता नावइ पार ।।३३।। स बत सोल चिमाला वरसइ, शत्र जय स ध कराया। अवह मारग जेणइ वहराया, पुण्य भडार भराया ॥३४॥ वले प्रतिष्टा सवल करावी, अहमदाबाद मझारा। खभायत पाटण सघ तेडया. पहिराया सुप्रकारा ॥३॥ राणपुरि गिरनारि सेरीसउ, गउड़ी पाबू जात्र । सहु तीरथ ना संघ कराया, पोष्या साहमी पात्र ॥३६॥ खरतर गच्छ मई सगले देसे, लाहिरिण कीधी एह । घरि घरि दीपउ आघउ रूपईयउ, बूठउ जाणे मेह ।।३७॥ साहमी नइ वलि वेढ सोना ना, पहिराव्या बहुधार। सेत्र ज ऊपरि चैत्य करायउ, सातिनाथ सुखकार ॥३८॥ सोमजी साह तरणा सुत उत्तम, रतनजी रूपजी जाण । रतनजी पुत्र सुदरदास सिखरा, दीपता दड दीवारण ||३|| रूपजी साह करायउ भाठमउ, सेत्रज नउ उद्धार । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि बोल फव्यउ मोटउ खरतर गछि, सह जागइ संसार ||४०॥ संवत सोल छिहत्तरा वरसइ, वैसाख सुदि शुभवार । सरव सिद्धा त्रयोदशी दिवसइ, प्रतिष्ठा चउमुख सार ।।४१|| पुण्यवत रूपजी संघवीयइ, प्राणीमन माहि भाव । परतिष्ठा आठमइ उद्धारनी, करावइ तिरा प्रस्ताव ॥४२॥ सिद्धाचल ऊपरि आगे हूबा, सात उद्धार उदार। बड़वखती जिनराज प्रतिष्टइ, पाठमउ ए उद्धार ||४३|| उद्धार तणी प्रतिष्ठा करताँ, अस्वी थयउ गुरु नाम । रूपजीयइ परिग राख्यउ नामउ, करतइ मोटउ काम ॥४४॥ परिघल द्रव्य देइ स तोषो, भोजिग चारण भाट । मारू स घ अनइ गुजराती, आयउ घरि बहि बाट ॥४५॥ तिहाँ थी श्री जिनराजसूरीसर, सघ सुकरी विहार । नवइ नगरी प्रावीनइ सदगुरु, चउमासउ करइ सार ||४६॥ करावी भागवडइ साह चापसी, विब प्रतिष्ठा जेह । अमीझरयउ विव देह तिहा करिण, श्री गुरु महिमा तेह ॥४७॥ मेडतइ आसकर्ण तेडावी, भट्टारक जिनराज । शांतिनाथ परतीठ करावइ, सोल सतहोत्तरइ आज ॥४८॥ बीकानेर चउमास करीनइ, सिधु देस वदावइ । मुलतारण मरोठ फतेपुर देरा, श्री संघ साम्हउ आवइ ।।४६।। मुलताणी स घ घराउ धन खरचे, लीघउ सबल सोभाग। गरणधर सालिभद्र नइ पारिख, तेजपाल वडभाग ।।५०॥ संघ करी जिनराजसूरीस नइ, करावइ दादा जात्र। देराउरि जिनकुशल सूरीसनी, पोषइ उत्तम पात्र ॥५॥ सिधु देसि जस सवलउ लेई, मानवी पांचे पीर। बीकानेर नगर पधारया, श्री गुरु साहस धीर।।५२ ।। करमसी साह तेड़ाया आया, रिणी करी चउमास । जेसलमेरे पंधारथा श्री गुरु, बीजी चार उल्लास ||३|| Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनराजसूरि रास २४३ सबल विछित्ति करो पयसारउ, अरजुन माल्हू राय । दसारणभद्र राजानी परि, बाँदइ सदगुरु पाय ।।४५।। नांदि मडावि चउथ उ व्रत लेई, गुरु मुखि करमसी साह । गाम माहे हवासी लाहे, लीघउ लखमी लाह ।।५।। जेसलमेर चउमास करीनइ, पाली पाटण पावइ । चैत्य प्रतीठ करी रह्या तेहबइ, सघवी भूठइ तेडावइ ।।५६।। नगर सेठ नेतउ साह वांदइ, श्री सघ सुगुरु पाय । पाटरिण नगरि रहया चउमासउ, राजसूरि निर पाय ॥५७॥ अहमदाबाद नउ श्री सघ प्रावी, अाग्रह करी अपार । श्री जिनराज सुगुरु नइ राख्या, चउमासुसुविचार ॥५८॥ पाठक वाचक दीक्षा देई, सगलउ गच्छ सन्तोष।। वस्त्र पात्र अन पान स घाति, साधु पात्र नइ पोषई ।।५९।। चउरासी गछ माहि भट्टारक, को नहीं ताहरइ तोलइ । श्रीजिनराजसूरि चिरजीवे, जयकीरति इम बोलइ ॥६०।। [सर्व गाथा २३५ ] ॥हा॥ बड वखती बड साख जु, बाध्यउ तुझ परिवार, सीस सवाई ताहरइ, घरणा थया सुखेकार ॥१॥ पाश्वनाथ नी सानिधि, कीधी ए अखियात । घांधणी प्रतिमा तगी वांची लिपि विख्यात ॥२॥ सहगुरु - साधी अबिका, थई कहइ परतक्ष । भट्टारक पद पाँचमइ, वरसइ पामिसि दक्ष ॥३॥ मिल्या जिके कहया अबिका, बीजा बोल पचास । करइ सानिधि गुरु राज नइ, हाजरि रही उल्लास ॥४॥ जयतिहमरण समरपा थकी, महिरूपइ धरमिंद । वोल्यउ थाइसि वच्छ तु खरतर गच्छ मुरिंगद ॥५॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि प्राज थकी चउथइ वरमि, फागुण सुदि सुमवार । सातमि दिवसइ नलहिसि, भट्टारक पद सार ॥६॥ तिहुँ दिहाड़े थाकते, तई जाण्यउ मिनराज । मरण उ जिनहिससूरि नउ, ए सबल करामति आज || वालपरगइ परिण ताहरउ, पूरयउ परत एमा। थिराद साचोर विषद नुरत, प्रविका रानी टेक 111 राउल भीम समा चढी, जेसलमेरि कहाय । वाद करी हारावियउ, सोमविजय उवज्झाय III गच्छ पहिरायउ, लास छह, पुस्तक सहस छनोस । भडारइ उपवास सय, पांच किया सरीस ॥१८॥ विद्याबलि कीयउ भलउ, सारी सिन्धु विकार । पांच पीर सानिधि करी वरत्यऐ जय जय कार ||११|| श्री सिद्धार्चाल पाठमउ; परतिष्ठयउ उद्धार । अविचल कीघउ प्रापरणउ; नाम सुजस संसार |१२|! जेता ही दिन ताहरा, तेता ही प्रदात । एक जीव हु किम कहु, कहिया जे विख्यात ॥१३॥ वड़भागी महिमानिलउ, सोभागी स्रव जाण । चिरजीवे जिनराज गुरु, उनय करइ जां भाग ॥१४॥ [सर्व गाथा ३४९] ढाल-नवमी राग धन्यासिरी जाति-तीर्थ कर रे चउवीसे मइ संस्तश्यारे एहनी चिर जीवउ रे श्री जिनराजसूरोसरू रे, ____ खरतर गच्छ सिणगार, संघ एदय करू रे ॥१चि०॥ पाटइ रे श्री जिनसिहसूरीस नइ रे, ध्रमती साह मल्हार । कुल वोहिथ भलउ रे सोभागी रे रूपकला गणागलउ रे ॥२चि इहां सवत रे सोलड़ सय इक्यासीयउ रे, जेसलमेर मझार । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनराजसूरि रास. रापड़ी पूनम दिनइ रे, श्री पूज्य नउ रे, रास भण्यउ मई शुभ मनइ रे || ३ || चि० खरतर गछि रे जुगप्रधान जिनच दजी रे 'सकल व 'द' तसु सोस | 'समयसुन्दर' पाठक वरू रे, वादी राय रे 'हर्षनन्दन' आण दकरू रे ||४॥ चि ॥ तसु सीसइ रे 'जयकीरति' रलियामरणउ रे. रास कीयउ सुजगीस । जिनराजसूरि नउ रे मनि प्राणी रे । 1. २४३ भाव अधिक गुरु राज नउ रे ||५|| चि० गुरुनउरे रास भरणइ सोहामरणउ रे, साभलइ जे नरनारि । नव निधितसु तणी रे, जयकीरति रे, श्री दिन दिन महिमा प्रति घणी रे ||६|| चि० ॥ - इति श्री श्री श्री श्री श्री जिनरालसूरीश्वराणा रासः it ग्रंथा० २५५ ( साधा ) कृतश्च पंडित जयकीर्ति गरिणा । श्री जेसलमेर नगरे || शुभभवतु । लेखक पाठकयोः ।। लिखितोय श्री जेसार नगरे || श्री स्तात् ॥ [पत्र २ से ८, श्री अभय जैन ग्रंथालय प्रति न० ७६१३ ] 1 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराज सूरि कृति कुसुमांजलि श्रमित्ररा पोश्व जिन स्तवन परतिख पास अमीरउ, भेटीजइ अभिप्ररण भावइ रे । राति दिवस अमृत भरइ, तिरण साचड नाम कहावइ र ||१||१०|| भगतवछल निज भगतनइ, दाखी दरसरण परिचावइ रो | तउ थे सेवइ स्या भरणी जउ, परतउ भूल न पावइ रो || सपना पण परगट थई, सेबक नउ वान वधावइ रे । कारिज करवा करइ, ते परनइ केम भलावड़ रे || ३|०|| पुरिसादारणी पास जी, जऊ इम प्रतिसय न दिखाव रे । इरिण कलजुग रा मानवी, तउ जात्र करण किम द्यावइ रे || ४ ||प० एकरिण रहणी जे रहइ, नित चरण कमल चितलाव र े । सकल मनोरथ तेहना, प्रभु अलवि प्रमाण चढावइ से || ||०|| प्रभु विण देव अनेरडउ ते माहरइ मनि न सुहावइ । सुरतरु गरिए जउ फलइ, तर कवरण कनकन खावइ र े || ६ ||५० प्रलिम विघन दूरइ हरइ, परिश्रण नइ आरण मनावइ श्री 'जिनराज' सदा जयउ, इम दिन दिन चढ़नइ दाबइ र ॥ ७॥ प० । २४४ इति श्रीभारगवड नगर मंडन भट्टारक युगप्रवान श्री जिनराज सूरि प्रतिष्टित श्री श्रमिश्रझरा पार्श्व जिन स्तवनं ( पत्र १ वृहत् ज्ञान भंडार वीरजी सं० ब० १६ ) c 1 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अउल्हाइ अउले अंगोवग अदोह १८१ खेद अ ५६ अगोपाग अच्छक अछता अछेप राजस्थानी शब्द कोश भावार्थ अउहटइ ३८८९ दूर हटना अकीर्ति अकिती ५६ अखियात १४७ आख्यात यश अखी २४० अक्षय अगुरु लहु ५६ अजोगी अटकाणउ अमटठ् तप अड अडवन अडोली १३४ उत्सुक ३८,३९ अनहोने ६ अस्पृष्ट अज्जवसाण ५६ अध्यवसाय, ४९ सकुचित होना १२६ तरल, अवलेह अढलक अण भरण पुव्वि अगुरु लघु पर्याय परिणाम विशेष ५४ अयोगी १६५ अटक गया १५२ तेला, तीन ५४ ५६ उपवास आठ अठावन १३४ आभरण हीन १२३ ५५ अखूट बिना ५४,५५ अनुपूर्वसे अणुहार अत्थ अथिर अपमत्त अनइ अनियट अनिवड अनेथि अनेरडउ अपजत अपत्थिय अणवीह अवीह अमलीमाण अमामो अयाण अरइ अरणि १८५ अनुकार १७२ अर्थ ५६ अस्थिर ५४ अप्रमत्त ५५ और ५४ अनिवृत्ति १९६, २००, २०३ १५५ अन्यत्र २४४ दूसरा १२१ अमूल्य २२९ अज्ञान ५६ अरति १९१ जगली अरियण १९० अरिजन, शत्रु अलजयउ अलवेसर ५५ अपर्याप्त २१५ अप्रार्थित २२९ निर्भय १७४ निर्भय ७४, १४५ अगजित ७६,७८,७९, १२८, १६२, लअवइ १६१ १६३ क्रीडा मात्रसे सहज विनोद लीला लहरसे अलवि १, ५, ९, ४५, ५०, ७४, १३५,१४०, १४८, १६३ १७२, १९१, १९२ २८ प्रभु, प्रियतम ऐश्वर्यशाली Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ अलसाणउ अलीक २२० अवगणना की अवगण्यउ अवगणिया- २२५ कर्णाभरण अवदात २४२ विरुद २१० मोका अवसाण १३५ गुमसुम १९१ अविघटित ५६ ३२४ ५५ • अवाणगू विहड़ असाय अहल्यउ अहारग महिनाणे आत्र लूहण आविली आतलहूण आइम आउ आउकार जिनराजसूरि कृति - कुसुमांजलि ऐश्वर्यं शालो - ऑडइ आछइ आछे नर्जूर १४ आलसी हुआ १५६ मिथ्या अशाता व्यथं आहारक शरीर १७० अविज्ञानसे आ २०९ आत्मज १६८ इमली १५२ आत्मज ५.५ आदिम ५४ आयु १३५ आवकार, स्वागत आउखउ २२९ आयुष्य आखडी २० नियम आप ६ आक्षेप आछणची ७४ निरस १९४, २२० १४१,१४२ है १६५ आज का आडर भाडी आडी नाव आडो आणतउ आणि आय आयम आदरण आपणडइ आपतउ आफाणी आमलउ आरडी आल भालोदु नावसही ७ १५० वावसी १४४ ५ १४४ हठ करके हठ रुकावट मे २६२ १६९ १० रुकावट डालती है ' काम आना १९२ २३१ ला कर ७२,१३२,१७६, १७७ घन, अर्थ आभोपो १६८ आमणदूमणी १७७१८० उदास १२९ अस्त होता है १३८ लेने का अपने लाता हुआ ११४ देता हुआ स्वयमेव, अपने आप ३८, ५० ५०, १५८ रोने लगी, चिल्लाकर ३८ कलक मिथ्यारोप आलोचना करू १६४ धर्मस्थान से निकलते बोलने का शब्द (निवृत्ति से प्रवृत्ति में आना) १९१ आवेगी Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ - - . शब्द कोग आससेन . ५७. अश्वसेन.. उतावला १४२ जल्दबाज (भ० पाश्वनाथ उदीरने १४२ उदयमे (कर्मों के पिता) को) प्रयत्नसे लाना आसगा १२९,१४४ आशका उन्हाल १५५ उष्णकाल आसग १३१ माश्रय उपरवार्ड १३८ ऊपरी मार्ग आसगायत ७६, १४८ आश्रित उपाड १६६ उठाव आहीठाण ३५, ६९, १५२ उपाडिस ७४ उठाऊ गा अधिस्थान उभग्यउ १९७ उद्भग्न हुआ उभगइ १९१ उथप जाना इकलास १३६, १६३ प्रीति अधा जाना इगसय ५५ एक सौ उरै १४७ इधर - इच्छे वेय ५५ स्त्री वेद उलगाण १२९ सेवक इवर्ड १५९ ऐसे उलट . १६५ उल्लास . उलभा ७८ उपालभ . ईहणा २३६ इच्छुक उललिये १३७ उलट जाने। उवइसइ ५४ उपदेश देते हैं उकसइ . १७५ उत्कर्षित उलसतइ २११ उल्लासमान हो उखाणो १५६ कहावत, उवघाइ ५४ उपघात उगतउ १६९ उदय होता उवटि , १४० उन्मार्ग उच्छक १४२ उत्सुक उवसत ५४ उपसात उछलइ २३१ फहराती है उवसिमिग ५५ औपशमिक उछाछलउ १७७ चचल उवेख , २७ उपेक्षा उछहामणउ १७७ उवेखसे १४१ उपेक्षा करेगा उछेरइ १७७ (वच्चे को) . उसास ५४ उश्वास खेलाना उछेरघउ १५९, १७८ खेलाया ऊ पाला पोषा ऊघ १९० निद्रा उज्जोय ५५ उद्योत ककसि ७५ उत्कर्षित उझित . १६४ ऊगटी . ..२ __EEEEEEEEEEEEEXXX REFs. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जिनराजसूरि कृति-कुसुमांजलि १३८ क ऊगामी ७४, १८० ओलगइ २, ७, ८, १४, २१,२८ कंग १२९ उदय होताहै १३१ सेवा ऊघड़ी १९२ खुल गई करते है, उद्घटित मोलजो ऊणी झणी १३७ उदास, न्यून, ओलीजे मदध्वनि ऊन्ही १२२ उष्ण कइयई १८० कभी ऊभगियइ ८३, २०९ उकताना कउगला १२५ कुल्ला तग आना,विपरीत कचरता १३ रोदता है ऊभगी २० तग आना, कचोलडी २१८ कटोरी उव जाना कडनी १४२ गोद का ऊभग १४७ उव जाय कडि १२९ कटि ऊपाडइ २२५ उठाना कडे १२९, १७४ पीछ ऊपाडि दे १६६ उठादिया कन्हा १५६ पास ऊबरयर ७५ वचगया कनकची १७१ सोने की ऊवेखि २१० उपेक्षा कर कनकफल २४४ धतूरा कमाई १९ उपाजित कम्म ५६ कम एकणवार १६३ ऐक ही वार कयावि एकणि १६९ एक ही ५५ कदापि एकरस्यो कहाणउ ६० एक वार १६५ कहा जाना कसै एग १५५ कष्ट दे एगारमि काठलि ५७ ग्यारहवा १७७ कठ मे काख बजाइ १९९ उल्लास ७५ ऐसा व्यक्त करना काच सकल ४५ काचका टुकड़ा ओझा १८६ उपाध्याय, काचली ७३. लघु काष्ट पात्र शिक्षक काछ वाचनिकलक१६३ लगोट और ओठभ १९८, २१४ जवान का सच्चा एवड़ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द कोश २४९ ख काठउ काढिसु काछली १५५, १९५ लघु ___ काष्ट पात्र खडिया २२७ दवात ९४ कठोर खडोखलि १३३ पानीका हौद काढइ १७३ निकालती खप २५ आवश्यकता खमइ २११ क्षमा करे, सहै १९४ निकलू गा खमी ७५ क्षमाकर,सहन उखाडु गा खाडी १६३ खडित काण ७१ लिहाज खाट १५५ भोगे, प्राप्तकरे कामगवी १६९ कामधेनु खाघउ १९१ खाया कामण १४३ कामिनी खिस १४० सरक जाय कारग ५० हल्ला १५४ खीज कर कारिमउ ७२ व्यर्थ खीण १२२ दुर्बल । कारिमा १३२ व्यर्थ खीणा ५४ क्षीण काल्हा १९३ भौदू, अज्ञानी खीवें काल्हे वाल्हे ९४ १३८ कडक, चमक का वलि ७१ कौन फिर खह २१० स्कन्धा किलामण २.२ कष्ट खेलणा १२० क्रीडा किसण ५७ कृष्ण पक्ष खोडि १५, १६६, १८५ दोप, कीकीयउ १८० गीगा, बच्चा श्रुटि कुजकोइ २०१७ रेक २९, १३१ हरेक खोलउ २२७ गोद, वस्त्रमे मेवा कुलीक १४० मिष्टान्न का खोला १४७ कूट, मिथ्या भराना २ पीछा केडइ १३७,२०१,२२५ पीछे गठोडा २३१ कान का कितला १६६ कितने ही आभरण केरउ १७० का गध्रप २३७ गन्धर्व गवैये केहर ,१३२' कशरीसिंह गउरण १४८ गमन २१३ कैसी ५५ गति कोहाईय ५५ क्रोधादि गण्य ५५ गिना जाना कूड केड केही गई Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जिनराजसूरि कृत कुमांजलि १६२ गय ६४ गति चउरिदि. ५५ चौरिन्द्रिय गलिसाहै १४० गला पकड़कर चार इन्द्रिय गाने १८९ ज्ञाने वाले जीव गुणठाणे २११ गुणस्थानक चउसाल गुहिर १६९ गभीर चकरडी २२६ काठ की गूडी , २३१ पतग . चकरी गुरुलह परगज ५४ (खिलौना) गोठिसे . १४१ संलग्न करेगा चटडा २२७ छात्र - गोरस १५६ दूध . चन्द्रोदय २३५ चन्द्रोवां, ___ चांदनी चरड १८४ चोर डाक घरणी १६३ गृहिणी चहि २१० चिता घाइ ५४ घात चाख ३१ दष्टिदोष, घाट १०७, १७७ न्यून नजर घातिसु १५१ डालू गा चाखिवउ १९४ चखना घालइ .. १७३ डालती है चाम २११ चमडी घास १२८ घिसती है चीतराव्यउ २३० याद दिलाया घिरइ ३ लौटते हैं चादलउ १८४ चन्द्र . घोल . १३४ दही का गाढा चादलस २२५ तिलक चाप्यउ घोल ७५ दबाया । ___ .. चावइ १६३ चाहता है चितवी १६२ सोचकर घउ - ५४,५६ चार चीर १४५ वस्त्र ओढणा चउतरइ. १६३ चौतरा १७६ भूल चनाणी १८८ चार ज्ञान चौनाणी १३८, १६४ देखो(मन पर्यवज्ञान) चउनाणी धारी चौवारे १४३, १५३ चतप - १८६ चतुराई चोलणा- ८. वेश Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाला जमार ཋ༔ བཙ ཚོགི . . शब्द कोश । ___ . . . जगीस छ जगीस १४५ आशा, इच्छा १४५ आशा जणस्य १६९ जन्मेगी .. छछोहा . ३, १३८, १९५ : जनेता १६९ माता .. छउगाला १२९ तुरी कलगी जमची' १७१, १९२ यमको ७१ जन्म, भव. छडी 6९ छोड कर जरवाफ २३५, २३८ वस्त्र छगवीस ५६. छब्बीस ___ विशेष छडी , २२० एकेली हाथ जाबतउ १९४ यत्न मे लेकर जामण. १३२ जन्म चलने की पतली लकड़ी जामण जाया १४६ भाई - २११ छोडु जामणि '। ७७,१६२,१६९,१७७ छाक १९७ नशा • माता छाका । १३९ जायउ १८० पुत्र (जन्म) छाटणा २३१ छोटे दिया । छानउ - ( १७९ गुप्त । 'जीमणी छाना . २३३ गुप्त . १२९ दाहिनी जीह र १४२ जिह्वा छीपइ ६ स्पर्श करे छेतरइ १६३ जुया ५५ जुदा . छेतरइ ।। २२० छलती है जुहार ४२, ४३ नमस्कार छेवका १४० छिपकर जूजूआ . . भिन्न भिन्न छेवट्टि ' ५५ छेवट्टा सस्थान जूजूई । २५ ' भिन्न भिन्न छेहलउ ६९ अतिम जूनी - १९६ पुरानी छोकरवाद १४१, २०९ लडकपन जेवडइ ११४ रस्सी छोरूनी- १२९, १७८ टावर जेतला. १६६ जितना : की, पुत्र की। छोलज्यो छिलना जोडला २३१ जोडी - जोवा । १७९ देखने के लिए जंपइ १९१, २११ जल्पति जोसी १५४ ज्योतिषी . कहता है जोगे .... १३८ योग्य .. ३ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जिनराजसूरि कृति-कुसुमांजलि १६७ कापती १६९ कम्पाने ने १५६ विचलित १८२ दोहद डोलतो डोलायउ झाक झमाल १८५ जगमगाहट दोलाव्यो झाझउ २३८ बहुत सा डोहला झाण ५७ ध्यान झावउ ४२ झोला झाल १२६, १६३, ज्वाला ढाढी झालि १४८, १५३, २२५ पकड कर टूकडो झीणी ३५ -वारीक झूलरह ४२ झुड NEE ALL # ७१ डोलती, घूमती फिरती १६० निकट १४३ पहुचे टीवी १७७ टाका ཟླ་ ལྷོ ཙྪཱ བྷྱཱ སྒྱུ ༔ ༔ , ༈ ༔ རྨི ཚི༔ བྷཱུ བྷྱཱ ཟླ ཟླ ཟླ ཟླ༔ ठवी टाढि तत १७७ टीकी तणउ टीसी १७७ नाक की डाडी तहत्ति तहाविह ठकुराला १२९ ठकुराई वाला तात १९० रखी तावड ठार २०९ ठड तावडि "१२२ ठडी करना ताहरी ठावउ ९२ ठिकाने सर तिग तिहुयण १९१ कदम तुम्हची डगला डावी १२९ वायी तुहार डिगल २०६ विचलित हो होकरउ १०३, २१२ वृद्ध तूठइ होकर पण २०३ वृद्धावस्था तुरिया डोलइ १६९ कम्पित हो तुस धन व व व व व व व अनु ठार ९४ तत्र २११ का २३२ प्रमाण, तथास्तु ५६ तथाविध ९३ निन्दा १८१ घूप ७० घूप में १९६ तुम्हारी ५५ तीन ५७ त्रिभुवन १७८ तुम्हारीच २३४ तुम्हारे ८ आपके २२७ तुष्ट होती है १३२ घोडे १६५ लेश मात्र Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेाविनइ तेडीजय तेय तेरमि त्रिखा त्रिह वडी astra ह त्रोटइ थडिल ठाम श्रभाणा घट्ट थकी थडी थाइसि थाकते थाकी थापण थापणि पास्यइ शिवरा २२० बुलाकर ४२ बुलाना ५६ तेज ५७ तेरहवा १९१ प्यास १६७ तीन १९२ मान लिया मानोगे वर्षाके पानी १५ २०९ शब्द कोश से पड़ी दरार १६६ टोटा २३५ ठाठ २३६ से १८० बच्चे को खडा होने का अभ्यास कराना होऊ गा २४२ २४२ रहते थ २०८ स्थडिल भूमि दहीजइ १३० १६५ स्तभित हो गये थक गई १३८ १५४ धरोहर थीणधी थोक ३९ धरोहर १८२ होगी ४८ स्थविरो, वृद्ध साधु दय दयकार द दसण आवरणी ५७ दर्शनावरणीय कर्म १६३, २०१ दान दिया जाता है दरियाई दसग दसूठण दाखउ दाघी दिखाडो दिणयर fars दीठ दीठउ दीसs दीह दुक्कर दुग ५५ निद्रा १८९ बहुतायत दुगधा दुनी २५३ २३५, २३८ वस्त्र विशेष ५४ २२५ दस जन्मसे दसवें दिन का उत्सव २११ जलती, दग्व होती है ७, १९ दिखाओ १४८ दग्ध १३७ दिखाओ ५८ दिनकर १७७ देकर १२१ प्रति ७६ देखा १६६ दीखता १२९, १४२ दिन दिवस २११, २३० दुष्कर ५४, ५५ दो ५६ घृणा दुर्गंछा १६६ ससार Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ जिनराजसूरि कृति-कुसुमांजलि दूझती दहवी दुभग ५५ दुभाग्य धावत १७७ स्तन पान दुसर ५५ दुस्वर करते दूजण १४५ दुर्जन घावी १९६ घाय २६१ दूध देती हुई धिंगडमाल १४६ जवरदस्त १४५, १८० दुख दिया धीज ७२, ८३ परीक्षा दूहन्यो १३६ कष्ट दिया धुरीन २६ धुरघर देखाडीयउ २३० दिखाया धूजण (लागी १४४ कापने लगी देस २० ५४ दशविरति देशविरति धनड १२३ पुत्र देइसवंघ ५५ देश बघ धोख १६५ स्तोक ढगला दोभागिणि १८० दुर्भागिनी नमस्कार दोहिली १२२ दुर्लभ घोटा ७१, २२६ पुत्र घण धणी घरती घवरावइ नय ववराव्यउ १५० धनस्त्रीय नजीक १९० निकट ६६३ स्वामी नफर २३८ डाकिया १९१ पृथ्वी २२९ नदी १७७ दुग्धपान नरग ५५ नरक कराती है, नाक नमणि २९ सिर नवाना पालन नाखतउ १९१ गिराता हुना पोषण करती है नाखो १३१ डालो १७८ पालन पोषण नातरज ७२ सम्बन्ध किया नाणउ १९० मत लाओ (न। २१५ भय से आणउ) १३७, १४४ नादेय ५५ अनादरणीय छिटकाना नान्हडा १४१,२०३ दच्चा,पुत्र १६६ डाका नाम कम्मसस ५४ नाम कर्म का १९४ डाकुओ का नामणउ ४८ नमन करना दल आवेगा नालइ १६९ नाल द्वारा १९१ डाका नावई १६८ न यावे प्रसका भ्रसकाई धाड घाडिसी घाडि Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द कोश २५५ पत पखै नाह ७८ नाथ पडियउ २२६ पण्डित नाहलीय १५३ नाथ १४४ पक्ति मे निगमस्य १२३ गवावेगा पडसण २१५ प्रवेश करना निद्दा ५६ निद्रा पखइ २३, १६२ बिना निम्माण ५४ निर्माण पखालिवा १९१ धोनेके लिए नियट ५४ निवृति १२६, १२९ बिना निरनिचार ५७ अतिचाररहित पग ५४ पाव निलउ १६९ निलय, घर पगले ५० पैदल निगरण १७७ गालना पच्चक्खाण ५७ प्रत्याख्यान, निहाण १२२ निधान नीड ७४ माला, घोसला त्याग नीम १३२, १९४ नियम,त्याग पटोलइ १९९ वस्त्र नीय गोय ५५ नीच गोत्र पणनाणी १८८ केवली नीलक २३५, २३८ वस्त्र विशेष । पडखइ ७६ प्रतीक्षा कर नीलज २१० निर्लज्ज १९६ प्रतीक्षा की नीवड्या १९४ समाप्त होने पर पडखु १९८ प्रतीक्षा कर नीआवि १६४ पडखो १४२,१४६ प्रतीक्षा करो नीगमस्यइ १६९ निर्गमन करेगी ५४ प्रतिवोधक नीगमी १३२ विताई पडिलाभी ७२ प्रतिलाम नीठ १२१ कठिनतासे देकर नीरती- १५७ पहिलेही २०८ प्रतिलेखना २७ अन्त मे कर नेड १२९ निकट पडिस्यह १६५ पड़ेगा नेव ७५ नल १७२ नैवेद्य • १८३ प्रचुर पढम ५४, ५५ प्रथम पचाली १६५, २०५ पूतली पण ५४ पाच पचेटे २२६ वालको का पणवीस ५५ पचीस अक खेल पणिदिम ५६ परेन्द्रिय पडख्या नेट नेवज Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृत फुसुमांजलि २५६ पतर्ड १२२ परोसती है दिलाता है? १२० प्रसाद से ७२ २७, ७२ १७० प्रधान पहडे पदठवणे पनोता पमज्जणा पभण पमावस्यै पयडि पयला पयसरउ परघलतउ १६० १५४ पचाग परीस २३६ पदस्थापना पवाडइ पसाइ ११५ ४३ प्रमार्जन पहडइ १९२ कहता है पहाण १२३ गर्व करेगा पहिडे ५४, ५६ प्रकृति पहिराविसि ५६ प्रचला पाखती २४१ प्रवेशोत्सव २१२ पिघलता पाखलि हुआ पागे ५० घर्य देना पाजइ १२६ राजी करू पाड २११ प्रज्वलित होता है पाडइ ७६ जला कर पाडी पाइ २८, १४३ १४४ परचावई परचावू परजलइ २३४ पहनाऊ गी १८५ पास, तरफ, निकट ६ पीछे १२९ पगडी ३४ पद्या सीढी २८, १२९ आभार उपकार १७७ हिसाबमें डालना ६९ पैरोमे लगाना १६४ मुहल्ले १३७ नकालो ६, २०, २१, २३ ४९, ७३, ८९,१३५ परजालि परठि परतउ पाडे ५०, २४२ परिचय पांडो चमत्कार पाणीवल १८२ प्रत्यक्ष १४६ परतिखि परतीठ परतीति पर पूठ पर समय परसर परमेवड पराभव्यउ परियागति परीठ २३८, २४० प्रतिष्ठा २३२ परनिंदा,ईष्या १६३ पीठ पीछे पातरइ २३३ पराये शास्त्र पातरउ २१२ पसीयना प्रस्वेद पातर १८७ हार कर पातरयो १२५ परपरागति १२८ वनात पातत १६३, १६७ धोखा खाना, धोखा देना १६५ प्रमाद, भूल १५६ प्रमाद करता है १५४ ठगा, प्रतो रित किया १३४ पतली Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोश पाथरी १८४ पांघरसी पनिहिया पारथिया थ पोलणडइ वडा पालव पावडिए पिंड पुग्गल पुरिमादानी ९४, १३८ विछाइ २२० नष्ट हुई फीटो १४३ नष्ट होना उड जाना २२५ पगरखियो फेडे १८१ दूर करू २७ प्रार्थना फोफलपान २२५ पान सुपारी करने वाले १८० पालने मे १४८, १५३ पल्ला १४७ पकोडी छोर वडाला १२६ महान १४२, २०२ पगथिए बलगाइ (अ गु १८० अगुली २१० शरीर लिए) पकड कर ५५ पुद्गल चलाना २४४ पुरुपो मे बलिया १७५ वलय,चूडिया प्रधान वहुअर १३२ वहू २९ पति होते वाझडी १४७, १५१ वन्ध्या १३५ (आसन) बाझणि ६९ बन्ध्या जमाकर बाथि १५१ वाह २११ प्रेक्ष्य बापूकारया १५० ललकारने १५६ प्रवेश करने १८० सुला कर बार १५६ वार १६४ प्रहर वारणइ १६६, १८१ द्वार १५६ द्वारपल २३१ पौषधशाला बारमि ५७ बारहवा १२५ प्रयुक्त कर बारि १८४ द्वार पर बालूडा २२५ वालक १३४ परोसे बावलि १७१ एक काटे दार वृक्ष २२६ कोठकी चकरी, बावीस ५५ बाईस खिलौनो बाहर १३७ सहाय पूजतइ पूरी (आसन) पेखि पर पैमण पोढ डि पोरमि पोलिये पोसालइ प्रजूजने प्रोशुक प्रीस १७८ पुत्र फिरकडी Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीडो भ५८ जिनराजसरि छत कुसुमांजलि वि ति ५५ दो तीन भले २२७ अक्षर विमणा १६५, १८४ दुगुणित (स्वर व्यजन) विमणो १४० दुगुना माख्यउ १७० कहा वीज १५४ विजली भागइ ५६ भाग मे वीजा वसु १२ परवश - भाडउ १६४ शुल्क,किराया १२१ जिम्मा भामणड १८१ बलयओं से लेना नामणि १४३ भामिनी बीहामणउ २२ भयानक मामड ५७ कहते है दुगचइ १०३ वस्त्र रखने मिलिजे २.७ मिलना जुलना __ का अलकृत भुई ७३ भूमि वेष्टन भूय १५२ भूमि बून १ ३८, २३७ भूजाल २३८ वडी भुजालो वरसा वाला वीर वृष्टि हुई भेदाणी १७० व वन वाहिर १९४ न चिल्लाह भय ५४ भेद न सहायता भेव १२६ भेद १२३, १६९ चली भोलवी २१९ भुलाई ४८, १४५ विकल्प वेडली ७३ नोका मत ९४ मत्र १९२१ १९६ दाना मइ ५७ मैं देसाणी १२२ वैगकर मउह २३१ मुकुट मउडर ७४ विलम्ब से भभेरयो १३५ झकझोरना मउमाल १६२ ननिहाल भणी १२२, २११ लिए मग . ५१ मणि प्रति मछराल १६३ गुमानी,जोरावर भनीनइ २२९ भ्रमण कर मछराला १२९ गुमानी भयणा मजीठो १४३ मजीठ का रंग मलावद २४४ सौंपते हैं मल्हपतउ २२७ मस्ती से चलना नवण १८ भवन गजगति चाल व्ही देखास देवे Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दकोश २५९ मल्हावइ ५ दुलार करता है मीजी १४३, १७० मज्जा मसजर २३५ वस्त्र विशेष मीटइ १६९ दृष्टि मे मसाकति ६, ७ परिश्रम,पारिश्रमिक मीटि १२, १८, १९, १३३ महिणउ २१० आक्षेप नजर दृष्टि महीयारी ६८ १५६ ग्वालिन मीढता २४ तुलना करते मा जणी १६३ मा जायी मीत १३६ मित्र बहिन मीनति ७२ वीनति माडणा २३१ चियाकन मीस मोहनि ५५ मिश्र मोहनीय माडियउ २३२ प्रारभ किया मीसा ५४ मिश्र माणतउ १९२ भोगता मुक्खलडेह १७७ मुह से मारणे १३२ भोगे सुखमल ३६, २३५ मखमल माथे १४४ ऊपर मुछाल २३८ मूछों वाला मामणा २२६ मनमने वचन मु झि २२९ मुग्ध होकर मामणे वचने १७७ बच्चो की मुरकतउ १७७ मुस्कराता मनमनाती मुरडइ २८ मुडता है वोली तुतलाती मूआ १७४ मृतक मार घाला १२८ मारवाडी मूका १६९ छोडे घाघरा मूकस्यै १४५ भेजगा माल्हती ४३ घूमती हुई २३४ रखू गा मायीत १८१ माता पिता मेलउ २२९ मिलाप मावीत १३८ माता पिता मेलवणी १६२ मिलान माहण १८६ ब्राह्मण मेलावडो १६० मिलाप माहोमाहि १८४ परस्पर मेल्हाणी १६८ छोडनी मिच्छात ५४, ५५ मिथ्यात्व मेवासी ११ चरवाहा, डाकू मिच्छत्ति ५५ मिथ्यात्व मोकला ३१ खुला पर्याप्त (गुणस्थान) मिरी १७७ मिर्च मोभय १४३ वड़ी, जयेष्टा मूकिमू Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृति-कुसुमांजलि २६० रश __ मोसाल १५९ ननिहाल रूहाडि ४३, १६८, १८०, अभिलाषा मोसालो १४६ विवाहके समय ननिहाल से आने वाली १७८, २०१ गिराऊ। ___ सौगात रस्म १३७ गिराती हैं रोतउ १७७; १८० रोता हुआ रोवाड्यउ १८० रुलाया रढ माडि १४८ जिद्द पकड़ कर लगइ २०१ पर्यन्त रढाला ११९ रणवीर लजाणउ १७४ लज्जित हुआ रखे १८ मत, निपे- लडथडे १३० लड़खडाता है धात्मक अव्यय लहउ ५७ प्राप्त किया रचीजइ ५६ करना लवणिमा १६८ लावण्य ७० रोता है लहवह घउ २३४ अस्वस्थ हुना रणवावला १६३ युद्धातुर लाखीणउ ९४, १९० लाखो के रमाडइ २२५ खिलातीहै मूल्य वाला १८२ रात्रि अमूल्य राई १३५ दरार लाजवी १६३ लजाकर १७७ राखी बांधना लाड १२९, १७७ प्यार राचतो १३८ रचता हुआ लीघउ १६१ लिया राजवी १६३ राजा लाधी १२२ पाई राडि १९४ झगड़ा लावन १८९ लावण्य যরা। २१० लाल लाहइ २३८ (लाहण) रामति १४२ खेल बांटना समेकड़ड १९५ खिलौना लुणियइ ५२ फसल पाना रीव १८७ चिल्लाहर लुणिवा ३२ फसल पानेके लिये २२९ वृक्ष पर लूघी १७९ लुब्धी २३० अच्छी लही १२८ पौछकर रुसण ९४ रुष्ट होना तेसइ १७७ गणना रयणि रासहि Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द कोश २६१ लेखणि लेखवो लेसालइ वरसइ वरियाम वरियाम वनती २२७ लेखनी १४३ मानो २२७ लेखशाला पाठशाला २०१ खून १६५ लुब्ध १३५ नेत्रो से ५७ लोभ १४७ रक्त १९९ लोह पर वसु लोइ लोभाण लोयणे लोह लोही लोहडइ वहाडि वाँक वागे १६९ वर्षा करता है १४७ बलवान १४७ प्रसव की वेदना १६३ वापिस १२७ वशवत्ती २३२ वहन कराके १७८ टेढ, भूल १२९ चोगे की तरह का पुराना पहनाव २३० वागे का २२४ वागा पोशाक शिकारी ५० मान इज्जत १३२ वर्ण १७९ मना करते ध व्यावर १४७ प्रसूति वागइ । वउलइ ७, २३ बीतते हैं वागउ वउलाऊ ६४ पहुचाने वाला वागरी वच्छ २३० पुत्र, वत्स वान वान वछर ५७ वत्सर वट्ट तउ ५६ वर्तमान वारीजिती रहता हुआ वारू वजाडइ २२६ वजाता है वटाह ७ वालभ मार्ग वावण घण ५६ वर्ण वध्यउ १७९ वढा वावरइ २०५ वचन वास वयरण वयसारि २३१ बैठाकर वाहर घरइ पडइ १४, २२, १२३ विगइ सफल हो विघटइ वरनोली २३१ वर या विछिति , दीक्षार्थी का भोज विणजारा निमत्रण वरय न पड़स्ये १२५ सफल नही विणठो __ होगा विणसाडे १९० उत्तम ९३ वल्लभ ३२ बोने मे २३७ खरचता है २६९ वासक्षेप १९१ सहायतार्थ १६४ विकृति, १६९ विघटितहोना २४१ शोभा ९३ वाणिज्य करने वाला १३६ विनष्ट १४२ नष्ट करते है Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ विरचइ विरूपउ जिनराजसूरि कृत कुसुमांजलि विणसी जाय २११ विनष्ट हो वेसास २७, ७५, १६९ जाती है विश्वास विनडइ २२, ९० नमा लेता हैं, पराभव विमासी २६,१५६ विमर्शकर श्रव २३८ सर्व १६९ विरत होना सइमुख १७० स्वयमुख से, २०९ विरूप रूबरू शरीर विलकतउ १७७ विलक्ष होता स धयण का सगटन विलूधउ ७० विलुब्ध विलूघी . ७८ विलुब्ध हुई सवाडउ पे घाटक, विल रनइ २२० विदीर्ण करके समुदाय साति विवरचउ विवेचन किया ५८ २३८ साथ सजलनउ ५७ सज्वलन विहाण ५७ विधान कषाय वीगताला १२९ व्यक्तिलशाली वीटियर ५८ ७४ सजुउ वेष्टित, घेरा सयुक्त सजोडि जोडी हुमा १८८ दुलाते है, सथुउ सस्तुत, व्यजन करतेहै सस्तवना की वीर १४१ भाई सपजइ १९१ समाप्त हो वीटयर २०५ घिरा हुआ सपेखि १२० देखकर वीरा १२६ भ्राता ससो १५७ सशय वुज्जोय ५४ उद्योत ३६ सावी सइवसि दूहा २३२ वहन किया २११ स्ववश मकज देगलत ६, ३६ शीघ्र १४५ समर्थ देठि ७५ प्रतीक्षा सकजउ १८१ समर्थ २३१ वेल, अगूठी सखरउ २३६ सुन्दर,अच्छा वैदि २२७ लडाई सघाडै १५४ देखो मघाडउ १८९ विधान माप सनपीढिया १६७ परम्परागत देय १५ वेद सतसट्टि बेयण ५८, ५५ वेदन, वेद ममउ २२५ समय नीय कर्म ५५ सम्यक्तव वाही २२५ वैवाहिक १२७ दूसमर्पितकरू सम्बन्धी सगे समापउ १७८ दो धीजइ सङगू देत सडसठ समापू Page #326 --------------------------------------------------------------------------  Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ जिनराजसूरि कृति-कुसुमांजलि सु खडी सुखम सुगाल सूल ATRI व व व व व सीझस्यइ ७० सिद्ध होगा हाउ १८० हौआ सुकयत्य १५८ सुकृतार्य हाच विछाई. १४८ अचल १७७, २२७ मेवा पसारकर मिष्ठान्न हत्यइ १७७ हाय को ५५ सूक्ष्म हाथाल २३८ शक्तिशाली २३७ सुकाल लवे हाथ वाला सुरगइ ५५ देव गति हाम २२, १२७ १८४ सुहम ५४ सूक्ष्म इच्छा स्वीकृति सुहणा २०१ स्वप्न १७३ चलता है सुहिणो १३० स्वप्न हालरियइ १८० लोरी सूग १५५ घृणा हालाहल १६९ जहर सूड ३९ सूदन हालरो १५१, १७७ लोरी सूयइ १७७ सोती है हालिरउ ६९ पुत्र १४१ समाधान ५५ अव सूहव २३५ सुहागिनी हिव २३० अव सेहो १३८ मुकुट हिवइ २१० अब मैवसि १३४ अपने वश सोवन २३८ स्वर्ण हिवणा ७८ अब सोस १.८ चिन्ता सोह १८१ नोभा सस्थान हुकलइ सोहग २३१ वाजा ५४ सौभाग्य ५५ ढग हुलरावती १७७ बच्चे को हटकई १७७ डाटती है लोरी देकर हटकण री १७७ डाटने की खेलाती १४५, १५४ डाटी ८,१६,३४, १३६ फटकारी स्नेह, प्रेम हमाल १२७ मजदूर ७५ नीचे हवासी २४१ ढग, अच्छा ५२, १६३ सहज हसीय गुदारै १४८ हसकर १९८,२१९ सहज मे टाल देना होडि १८२ तुलना हु डिक हटको हेलइ हेलि Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनराज सूरि प्रयुक्त देशी सूची १ १ बांह समापउ वाहु जी २ चादलियो ऊग्रो हरणों प्राथमी ३ रमउ रे सुरंगी गेहरी ४ चरणाली चामंड रण चढ़इ ५ कडुआ रे फल छे क्रोधना ६ रहउ चतुर चउमास ७ नमरणी खमरणी नइ मनगमणी ८ सोई सोई सारी रैन गुमाई ६ हाँजर नी जाति १० मोरिया नी देसी ११ सुरण वहिनी पिउडो परदेसी १२ पोपट चाल्यउ रे पररणवा १३ सुरण सुरण वाल्हहा १४ श्रबला केम उवेखिय १५ करहती १६ मन मधुकर मोही रहघउ १७ करजोडी आागल रही १८ आज निहेजो दीसइ नहिलो १६ नरगदल नी जाति २० प्राज धुरा हुं घु घलउ २१ सदगुरु माहरइ नादइ भेहीयो २२ नारी अब हमकु मोकलो २३ श्रादरि जीव्र क्षमा गुण आदरि २४ मेघमुनि कोइ डमडोलइ रे २५ पंथीड़ानी ५ w १०, १६४ १० ११ १२, ४७ १७, १४६ १८ १५ १५ १६ १६ १९ २०, २०० २१ २१ २२ २२ २२ २२,१२२ २४ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ १६८ २६ धरम हीयइ घरउ २५,२२४ २७ आवउ म्हारी सहिया गच्छपति वांदवा २८ श्री विमलाचल सिर तिलउ २६ दीवाली दिन मावीयउ ३० पास जिणद जुहारीयइ जी ३१ वीर बखाणी राणी चेलणाजी ३२ वहिली हो वलण करेज्यो इण दिसइ ३३ वेग पधारउ महला थी ३४ मन मोहनीयइ नी देसी ३५ सुखदाई रे सुखदाइ रे ३६ लोक सरूप विचारो ३७ मो मनड़उ हेडाउ हे मिश्री ठाकुर वइद रउ मोमलरउ हेडाउ हो मिश्री ठाकुर महिंदरउ ३८ इक दिन दासी दोड़ती १२३ ३६ कुशलगुरु पूरो वछित प्राज १२५ ४० पूरव भव तुम्ह सांभलो ४१ चीत्रोड़ी राजा रे मेवाडी राजा रे १२६ ४२ मीजवास उपवास गल ४३ श्राप सवारय जगसहु रे १३२,१७७ ४४ भव तणो परिपाक ४५ नीबयो री जाति ४६ सुगुण सनेही मेरे लाला, वीनती सुणो मेरे कंत. ३७ ४७ विणजारा नी जाति १३८,१६० ४८ यत्तनी १४४,१७२ ४६ चेतन चेत करी १४५ ५० फूलडा गुजराति ५१ नथ गई मेरी नथ ग १५० १२ समय गोयम म करिस प्रमाद ५३ पाहती गोडो वाघारी-भावन री जाति १२७ १५१ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ हमला री जाति ५५ प्रोहितोया नी जाति ५६ काची कली अनार की रे हां ५७ जीरा नी जाति ५८ वे वे मुनिवर विहरण पांगुरथा रे ५६ वाल्हेसर मुझ वीनती गोडीचा ६० कोइलउ परबत घू घलउ रे ६१ यालु रे सवायु वयर हु माहरउ रे ६२ चूनडी नी ६३ मुझनइ हो दरसण न्याय न तूं दीयइ ६४ का लिउ करतार भरणी सी परि लिखू ६५ मृगावती राजा मनि मानी ६६ करता सुतउ प्रीति सह होसी करइ रे ६७ प्रियु चल े परदेस, सबे गुण ल े चल े ६८ मोरो मन मोहधो इस डर ६६ आज लगइ धरि अधिक जगीस ७० श्री चन्द्रप्रभु पाहूं गोर ७१ काम केलि रति हास ७२ समाचारी जूजूई ७३ नायक मोहि नचाबीयउ ७४ मोरी मात जी अनुमति द्यो ७५ काल मन तान त ७६ अनंतवीरज मई ताहरउ ७७ शांति जिन भामरगडइ जाऊ' १५४, १६६ १५६ १५६ १७० १७४ १७८ १-१ १८३ १८५ १८६ १८६,२१० १५० १६२ १६४ ६७,२२३ TEE २०३ २०५ २०७ २०६ २१२ २१३ २१५ २१६ ७८ प्रीतम, रहउ रहउ सनतकुमार २२८ ७६ जीतउ० हो यदुपति राय, वसुदेव करउ बधामणारे २३० ८० जोल्हण वहिला श्राविज्यो र ८१ तीर्थकर र चउवीसे मई संस्तव्या र २३२ २४२ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनराजसूरि कृति कुसुमांजलि का शुद्धि-पत्रक पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध ११ १० या नउ स्यानउ ईनरीझ न रीझ झलदेव बलदेव अनुस र अनुसारइ विमलाचज विमलाचल जाजियउ जागियउ ३३ २१ घाखरण वखाण पाखड़ी पाखड़ी Aur MMM... 2 बौचि जगदील छोदिवा अनरेड़ा ५० १२ सुझ ६२ २१ भय अध उइस वीचि जगदीस छेदिवा अनेरड़ा मुझ भव भघ उवइसइ एक तइतउ घरि पघलइ घोटा । घाल्या ६२ ७१ ७२ ७४ १२ ६ १४ २२ तउतउ धरि पघलइ घोट घाल्या Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यु –– ༢༢ ། पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध २२ साभली साभली ___ ९४ १० वयु राज धार होत मन मिलइ... प्रमूरगउ राज जीव होत अधीर मिलइ सीयण मुरण उ ८६ १८ प्रारण प्रागइ पारण ८८६ पति पति ६१ विशेष.-कूड कपट करत जिन कारण, सो परिवार विर ग । स्वारण विणु सब छेह दिखावत, तरुवर जेम विहग ।।४।। ___६४ १४ ने उखार उरबार १०२ कउन कोउ १०४ २१ करि करिहु पइमज हथ इजाजित प्रेम जहर तइ जाजत करउ के करउगे रहत कहत निकस निकसत १११ ७ अच ११७८ जिझ ११७ २३ नगर नरक १२० १३ पते न्याय पोते न्याय कहिय विर कइयइ वीर ५-६ ठो गाथाएं डवल आ गई हैं अलिवि अलवि १२१ १३ जाजगृह राजगृह , दाजीय दीजिये १२६ ४ भी भीनो १०६ १०६ ११० निज भीनो Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १२६ १३१ १३२ ६३२ १३४ १३५ १३६ १४० पंक्ति ४ १७३ १७६ १७८ १३ २२ २३ १८१ १-१ EX १८७ ६ ५ ६ २७ १६८ ३ १६० १६ १६६ २ १७० 19 १७२ १२ १४८ डलाणो १५२ लोख १५ Η नदन १६५ ६ मादक १६६ २० धरणी थानोपम प्राबिला विमारणसरण १० D अशुद्ध दिन दिन दिन नथ जाचं द जिस पप हिरे हिलले रग १८८ १८५ १८५ १६ १८८ १६ १५ पतग सजम हूवरह हिरइ हयउ धिरतो कह उस् मोट धू घलउलो रण ष्यास प्रकार भाम लख प्रभु सोको शुद्ध दिन दिन नाथ जाध जिसा पहिरै पहिले रंग पतंग संजम डोलाणो लाख नंदन मोदक घरणी अनोपम नांविली निमासरण हुवइ हिवर हियउ घिरती कहउ स्यु मेट धू घलउ रिण प्यास प्राकारो भाम डल प्रभु प्रसोको Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंक्ति वह पृष्ठ १८९ १६० १६१ १६१ १६३ १६४ १६४ १६७ १६७ १६६ २०२ 20५.yur थास्य दस उगला पहँचावसी ऊबरया निरतिचार सापत उ पिण मां अशुद्ध बह वास्य दसड गला पहचावासी ऊबरीय निरा तिचारी सापोतउ पिरणाम वो सयम पोरजन पडिथइ धरणा सररू सोमाप रिछडतइ संयम परिजन पड़ियह घणा ૨૦૨ सारू २०४ २०४ २०५ २०७ २०८ सोमा विछड़तइ 22299 Va २१२ २१२ अभ्य गन उत्कंठा घरणो घणु घराउ २१ ७ सव' २१३ २१३ २१५ । २१७ प्रम्यगन उतकठा धरणी घणु घराउ सय पहसरण गच्च चितुष्पदिका , इलोक मझ सघ भकुड १. २१७ २१ १९८५ २१८८ पइसण गच्छ चतुष्पदिका श्लोक मुझ संघ कमुक Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2 पृष्ठ पक्ति 218 218 218 16 22017 220 17 221 6 2256 225 225, 1 226 5 229 226 233 अशुद्ध रइणि कइइ तेला वडी डोलावा क घारगी शुद्ध राइणि करइ तलावड़ी डोलाइवा मेलि वाणी मेलि गहगहता कठइ वचन वदत भमता . दह ar - गहगइता कठ वचत वदन भवमतां दइ कपिप्या दस थ तखध वादि वत अधवार भ्रम सघाति व तुपाल घराउ 233 235 19 235 कप्पिया दसाश्र तखंघ वादी सवत अवधार ध्रम स घाति वस्तुपाल घराउ 238 6 238 236 240 240 24 सिंधु सिंधु 241 घाँधणी 241 244 244 52 2 7 समरपा अभिप्रण कारिज घंघारणी समरथा भविमरण जे कारिज