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श्रीआनन्द-हेम-जैन-ग्रन्थमाला-ग्रन्थाङ्कः ५
वादिदेवसूरिपट्टालङ्कारश्रीरत्नप्रभसूरिविरचितंउपदेशमाला दोघट्टीवृत्तितः समुध्धृती
श्रीजम्बूस्वामिचरितम् (प्राकृतं) संशोधकः-आगमोद्धारकाचार्यश्रीआनन्दसागरसूरीश्वरशिष्य-आ. श्रीहेमसागरसूति मुद्रयिताः-पादलिप्तपुरे श्रीवहादुइसिंहजी-मुद्रणालये अमरचन्द्र-चेचरदास. प्रकाशकः-देवचन्द्रात्मजधनजीभाई झवेरी, मीरझा स्ट्रीट, मुम्बापुरी. नं. ३
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सं. २०१३
पण्यम् १-८-०
प्रथमावृत्तिः.
प्रतयः २५०
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॥ १ ॥
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अनन्तलब्धिनिधानाय श्रीगौतमगणधराय नमः ।
॥ सिरिजंबूसा मिचरियं ॥
इह भरहे मगद्दाविसय-भूसणो पुट्ठलट्ठगोट्टगणो । अवितद्दनामो गामो, सुगामो आसि सुपसिद्धो ॥ १॥ तत्थासि तत्थवाणी अज्जवं अज्जवंति रटुउडो । रेवइ देवी दिन्नत्ति, रेवई नाम से भज्जा ॥ २ ॥ पढमो पुत्तो तीसे, भवदत्तो भवभयत्तचित्तो सो(जो) । अवरो उण भवदेवो त्ति, भावओ देवपूयरओ ॥ ३ ॥ सुट्ठियसूरिसमीवे, देसणापेऊसवरिससित्ततणू । भवदत्तो पव्वइओ, कयाइ नवजोव्वणत्थो वि ॥ ४॥ तत्थ य गच्छे एगो, साहू सूरीण बंदणं दाउ । विन्नवइ जामि सन्नायगाण वंदावणत्थमहं ॥ ५ ॥
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अत्थि कणिट्ठो बंधू-उद्घुरपडिबंधबंधुरो धणियं । मइ दिट्ठे पव्वज्जं, पडिवज्जिस्सइ स सज्जो वि ॥ ६॥ गीयत्ये निग्गंथे, साहू सूरीहिं अप्पियसहाए | स विसज्जिओ समाणो गंतूण पुणागओ अइरा ॥ ७ ॥ पयपणउ पहुणो, विन्नवेइ वरिओ स तो न पव्यइओ । हसिऊण भवदतेण तो स एवमुवालद्धो ॥ ८ ॥ तुह बंधुस्स सुबद्धो, पडिबंधो साहु साहु निव्वडिओ । बरिओ विवाहिओ
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॥ १ ॥
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जम्बूचरित्रे
॥२॥
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वा थिरनेहो किं न पव्वयइ ॥ ९ ॥ भणियमणेण सिणिद्धो, लहुभाया तुह वि अत्थि भवदेवो । पेक्खिस्सामो पत्ते, तुममि तं पव्वइस्संतं ॥ १० ॥ भणियं भवदत्तेणं, जइ विहरिस्संति तत्थ भयवं तो। किंबहु वज्जरिएणं, तमिक्खसे दिक्खियं चेव ॥१॥
IN भवदेवदीक्षा। अह विहरंतो सूरीहिं, सह गओ सो कयाइ मगहाए। सन्नायगाण वंदावणथमणुजाणिओ गुरुणा ॥ १२॥ पत्तो सुगामगामे, भवदेवो सो तया य परिणीओ। नवपरिणीयाए नागिलाए मुहमंडणं कुणइ ॥१३॥ भवदत्तं दणं, तुट्ठा माया पिया नाईओ। अइभूरिभत्तिभरनिम्भरा य पाए पणिवयंति ॥ १४ ॥ मुणिणा वि धम्मलाभ, दाउं सम्वेसिं तेसिं आपुढे । सीलब्बयाण णावाह साहणं धम्मनिव्वहणं ।। १५ ।। आपुच्छिया य ते तेण, जामि वीवाहवाउला तुब्भे। पडिलाभयंति तो कप्पणिजभोज्जेहिं भवदत्तं ॥ १६ ॥ नववहुमुहमंडणवावडोवि पणमित्तुमेमि एसो त्ति । भणिऊणमेइ पणमेइ, मुणिवरं झत्ति भवदेवो ॥ १७॥ पत्तं पाणिमि समप्पिऊणमेयरस सो मुणी चलिओ। नियए उवस्सए सव्वनाइअणुगम्ममाणपहो ।॥ १८ ॥ चलिओ महिलावग्गो, पढम कइवयपयाइं अणुलग्गो । पुरिससमूहो पच्छा, पणमिय पणमिय पडिनियत्वो ॥ १९ ॥ भवदेवो वि समीहेइ, भाउणा भासिओ नियत्तेउ । असमत्थियमुहमंडणसमत्थण(उ)त्थं नववहूए ।। २०॥ विविहपएसे दंसेइ, रमिय चिरं वयमिओ नियत्तता । जइ कहवि करेइ करे, पत्तं तत्तो नियत्तामि ।। २ ।। सुणमाणो वयणाई, तस्स मुणी गुरुसगासमल्लीणो। भणियं मुणीहि अणुओ, | किमज्ज दिक्खिस्सए एसो ।। २२ ।। मंडिय ढिकिय सिंगारियं गओ जं तए सहाणीओ। भणियं भवदत्तेणं, किमन्नहा होइ मुणिवाणी ।। २३ ।। सूरीहिं पुच्छिओ वच्छ ! अवितहं इय किमाह तुह भाया। उवरोहेणं तेणवि, भणियं जं भणइ भाया मे ॥२४॥ । पडिवज्जिय पव्वजो, सज्जो जाओ जई सलज्जाए । धरइ नवं पवज, तणुणा हियएण पुण भजं ॥ २५ ॥ परियाय पारियायप्पसूणमालाए सह वहतो तं । धरइ वराओ एगत्थ, पंचगव्वं च मरं च ।। २६ ॥ तणए चिरायमाणे, जणयाई जोइऊण जणनिवहो । घरमागओ वियाणइ, भवदेवो दिक्खिओ नूणं ।। २७ ।। चिरपालियपव्वज्जो, काले • काऊणमणसणसमाहिं। भवदत्तो,
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NI सुद्दचित्तो, सोहम्मे सुरवरो जाओ ॥ २८ ॥ अवरो वि महषिया सा, अहंपि तीसे पियो त्ति घोसिंतो। स गओ सुग्गामम'व
IN भवदेवना| सेउबंधणो नीरपूरोव्व ।। २९ । मह विरहदहणदाहेण, दीणदेहा हहा वराई सा । कह नायव्वा उध्वाह-कालमुका नवे पेम्मे
गिलाप्रश्नो॥ ३० ॥ इय चिंतितो चेइयहरस्स चिटुइ दुवारदेसे जा । ता गामाउ एगा, उवागया इत्थिया तत्थ ।। ३१ ।। पूओवगरणपडलगपाणीए बंभणीए अणुसारिया । साहु त्ति बंदिओ पुच्छिओ य दोहि वि सुहविहारं ॥ ३२ ॥ पुच्छियमिमेण मे कहसु,
त्तराणि । साविगे! अज्जवंति रट्टउडो । जीवेइ रेवई तह ताण बहू नागिला सा य ॥ ३३ ॥ चितियमेयाए कयाइ, होज्ज एसो स जेण ऊढाई। पुच्छामि ताव एवं किं तेहिं पओयणं तुज्झ ॥ ३४ ॥ अयमा अहं अज्जव-रेवइ अंगुब्भवो नणु कणिद्रो। भवदेवो 16
नामेणं, परिणीया नागिला य मए ।। ३५ ।। पियनियबंधवभवदत्तसाहुउवरोहओ मए विहिया। एत्तियदिणाणि दिक्खा, तमकयमुGI हमंडणं मोतं ।। ३६ ।। भवदत्तो संपत्तो, संपइ सुरलोयमहमिहं तत्तो। तम्मुहकमलालोयणलालसहियओ समायाओ ।। ३७॥
भणियमिमीए मयाणं, मायापियराण तुह बहुकालो । जीवइ अज्जवि सा नागिला उ सहिया महं चेव ।।३८ ।।
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भव-तो तीए तुमं सव्वं, मुणसि सरूवं ति किंपि पुच्छामि । किरूवरूवलावन्न-वनिया किंवया तह सा ॥ ३९ ॥ श्राविका-जारिसियाऽई दिद्वा, तारिसिया सा न विज्जइ विसेसो । किं तीए कायव्यं, अव्वो तुह चारुचरणस्स ॥ ४०॥ भव-परिणेऊणं तक्त्रणमेव, विमुक्का मए बराई सा। श्राविका-सुकरहिं तीए मुका, भवविसवल्ली तओ सुका ॥ ४१ ।। भव-सुहसीलसमायारा, सा किं पालेइ सावयवयाई। श्राविका–पालइ न केवलं, अप्पणा हु पालावइ परंपि ॥४२॥ भव-अणवरयमेव सुमरामि, तं जहा मं तहा णु किं सा वि । श्राविका-साहु वि तुम भुल्लो, सिवम सा वि किं तुला ॥४३॥ १ अपगतसेतुबंधनो नीरपुर इव ।
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॥ ४ ॥
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चेइयहरसम्मज्जण-धवलीकरणाइवावडा निच्चं । सावयवयाई भावइ, तवइ सुतिव्वं तवोकम्मं ॥ ४४ ॥ सुविहियसाहुसमीवे, उबएस रसायणं सया पियइ । वंदणपडिकमणा पञ्चखाणपमुद्देसु उज्जमइ ॥ ४५ ॥ भव-पेच्छामि ताव अच्छीहिं, श्राविका तीए किं पिच्छियाए असुईए। अहब मए दिट्ठाए, सा दिट्ठा चेव किं बहुणा ॥ ४६ ॥
सास साईं, दोण्हवि न भिन्नओ अप्पा । भवता पभणसु किं तुममेव, साविगे ! नागिला होसि ॥ ४७ ॥ श्राविका — आमं अहं चिय सा नागिल त्ति पारूढपोढबंभवया । वसमंसपुरीसाईणपूरिया उल्लखल्ल व्व ॥ ४८ ॥ नियगुरुणीए कहियं, कहाणयं तुह कद्देमि किंपि अहं । होऊण सावहाणो, अवहारसु साहु साहुखणं ॥ ४९ ॥
किर कोइ जिइंदिओ दिओ सज्जो मयभज्जो डहरगं दारगं गहाय तत्तओ नगरु (ग्राम) ग्गओ निम्गओ घराओ । सो य मोक्खसोक्त्रमार्कखमाणसो साहुसमीवे सम्मं धम्मं निसम्म स (म)म्मविक संजायसम्मइओ पब्बइओ, पालेइ चक्कवालसमायारिं, करेइ किरियाओ कक्खडाजो | सो पुण से दारगो सीयभोयणऽरसविरसपाणगाणुवाहण-कक्खडसेज्जा- सिणाणाईसु सीयमाणो, खंत! न सक्केमि सीयभोयणं भोक्तुं खंत ! न सक्केमि अरसविरसाणि पाणगाणि पाउं, इच्चाई जंपमाणो खंतेण कंचि कालं वट्टाविओ जयणाए । अन्नया भणाइ खंत ! विसमसरपसरजज्जरसरीरोऽहं न सक्केमि अविरइयाए विणा मणापि पाणे धारिडंति । तओ परिचत्तो । अलं मे असंजयजीव पडिजग्गणेण । यत उक्तम् - " न वि किंचि अणुन्नायं, पडिसिद्धं वा वि जिणवरिंदेहिं । मो मेहुणभावं, न तं विणा रागदोसेहिं ॥ ५० ॥ " तओ गओ सो सहवासीणं सुमरिऊणं । एगस्स माद्दणस्स गेहे लग्गो कम्मगरवित्तीए, केणइ काण दिन्ना से दारिगा । विवाहकाले य पडियधाडीए निणियं मिहुणगंपि । सो भोगपिवासिओ अट्टज्झाणमाण कालगओ महिसो जाओ । सो वि से पियासाहू पंडियमरणेण मओ समाणो देवलोगे देवो जाओ । ओहिणा आभोएइ पुत्तं महिसरुवेण संजाये । देवमायाए कालविकरालथूलमहाकाएण सोगरिएणेगेण किणेऊण कओ सो अइभारारोविओ गि
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महिषीभूतपुत्रप्रति
बोधः ।
॥ ४ ॥
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म्हमज्झन्हे अप्पणा चडेऊण निबिडलउडप्पहारेहिं पहणतेण तेण तत्तवालुयापहे वाहेउमारद्धो। जाहे निल्लालियजीहो तत्तवालुया
उच्छृिष्टभोपुलिणे पडइ, ताहे निसटुं सट्टेहिं ताडिऊणमुट्ठवेइ जाव पहाराइपीडाए पलायमाणपाणो वि व जाओ, ताव खंतरूवं काऊण देवो
जिदृष्टान्तेन | दंसेइ से अप्पाणं । भणइ 'खंत ! न सक्केमि तं च तं च काउं' ति। तं च पासमाणस्स तस्स कत्थ मए एरिसं रूवं विट्ठ- IN
नागिलया पुव्वंति चिंत(ति)यंतस्स तयावरणिज्जकम्मक्खओवसमेण जायं जाईसरणं, तओ नियभासाए खंत! परित्तायसु ममं मोयावेसु जमदू
स्थिरीकरणं याओ एयाओ त्ति वासेइ । तेण भणिय रे रे सोगरिगा ! मा मा मे खुट्टगं पीलेहि । तेण वुत्तं-तुज्झ वयणमेसो न सुणेइ । ताव अवसरसु ताव जेण बाहेमो वाहेमो य, जीवंतो कत्तो मे छुट्टिस्सइ । जाहे जाणिओऽणेण पडिवजिस्सइ मगंति ताहे अब्भस्थिएण मुको अणुसासिओ य देवेण ! दिद्रभओ पडिवन्नो देसविरई। कयभत्तपरिचाओ सोहम्मे कप्पे देवो जाओ। पिउणा नित्थारिओ तिरियदुग्गईओ। तुन्माण पुण भाउणा भवदत्तण देवलोगं गएण वि तुब्भे साहुरूवे दळूण न पुणो पडिबोहणाय चित्तं | कयं। अणिच्चे य जीविए तुब्भे पमत्ता कालं काऊणमासंसारं परिब्भमिहह । ता एत्ताहे वि नियत्तेह गच्छह गुरुसगासं । जओ" पच्छावि ते पयाया, खिप्पं गच्छंति अमरभवणाई । जेसि पिओ तवो, संजमो खंती य बंभचेरं च ।। ५१॥" (दशवकालिके
अ० ४ गा०२८) एत्थंतरे तीए माहणीए दारगो पायसं अँजिऊणं तत्थागओ। जायं कुओ वि कारणाओ बमणं । भणियं बंभणीए NT'जाय ! जाइऊण तंडुलाईणि मए कओ पायसो एसो ता भुज्जो वि भुजेसु, अइलटूं मिट्ठमेयंति ॥५२।। भणियं भवदेवेण, धम्म
सीले ! किमेमुल्लवसि । वंतासी अविसिट्ठो उच्चिट्ठो दुगुंछणिज्जो होउत्ति ॥ ५३ ।। अह नागिलाऽवि पभणइ, तुमंपि कि नेव होसि |चंतासी । तंपि मंसवसमेयनिम्मियं मं समीहंतो। ॥ ५४॥ चिरपालियपव्वजो, मुंचतो तं न अज लजेसि । जमवज्जकजसज्ज, अणीहमाणपि मं महसि ॥ ५५॥ जह कोइ भिक्खभुक्खाहिं दुक्खिओ खोणिवित्तपत्तो वि । पुवावत्थं पत्थेइ, तह म(ह)मं तंपि
॥ ५॥ पत्थेसि ॥५६॥ जह खीरिखजखज्जूर-खंडमंडाइ खाइ संतपि । नहु दिव्वहओ छुहिओ वि, तह तुमं चरसि नो चरणं ॥५४॥
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मुणिणा तिक्खाई वितिक्खियाई दुक्खाई गुत्तिगेण तए । जइ भावगुत्तिगो सहसि, ताई ता २जयसि अहुणा वि ॥ ५८ ॥ एत्तियदिणाणि दिक्खा, दब्वेणऽज्जवि कुणेसु भावेण । अणुचलियावि हु अइवेगगामिणो हुंति किं न पुरो ॥ ५५ ॥ ता जाहि IN भवदेवस्य सव्वहा उब्वहाहि भावेण चारुचारित्तं । आलोइय दुश्चरिओ, सिरिसुट्ठियसूरिपासंमि ॥ ६०॥ अहयंपि साहुणीणं, पासे पव्व- सागरदत्तजमणुचरिस्सामि । इय तीए सिक्खिओ सो आउट्टो भणिउमाढतो ॥ ६१ ॥ अइ साविगे! सुमग्गो, उवट्टो सुटु सुठ्ठ तुट्ठो-IN-त्वेनोत्पत्तिः ऽहं । निरु निरयअंधकूवे, निवडतो ताइओ तुमए ।। ६२ ।। तं मह सहोयरी होसि, साविगे! गरुयरागभंगाओ। निम्माए य | माया वा, निरयाइअवायरक्षणओ ।। ६३ ।। अहवा गुरुणी निस्सीमरम्मधम्मुज्जमापयाणाउ। ता ताव जामि एत्तो, तइ कहि| यत्थं समत्थेमि ॥ ६४ ॥ इय भणिय बंदिऊण, निप्पडिमाओ जिणाण पडिमाओ। भवभमणभूरिभीरू, भवदेवो सगुरुमल्लोणो ।। ६५ ।। आलोइय पडिकतो, सुतिब्वतवतावतावियसरीरो। पंडियमरणं आ(रो)राहिऊण सोहम्मसुरलोए ।। ६६ ।। सोहम्मकप्पपहुणो, जाओ सामाणिओ समाणजुई। दिब्वाई कामभोगाई, भुजए जावजीवपि ॥ ६७ ॥ अह स भवदत्तदेवो, चविऊणं पुक्खलावईविजये । पुंडरिगिणिनयरीनाइवइरदत्तस्स चकिस्स ।। ६८ ॥ कुक्खीकुसेसयके, कलहंसो विव जसोहरपियाए। आयाओ जाओ जलहिमजणे डोहलो समये ॥ ६९॥ सागरसरिसाए महानईए सीयाए सा महिड्ढीए । अवणीयडोहला चरिणा, कया सह सयं गंतुं ॥ ७० ॥ पसवइ सुमुहुत्ते भूवलक्खअक्खूण लक्खणं तणयं । विहियं डोहलयाओ, सागरदत्तो त्ति से नाम ॥ ७१ ॥ उवचयमुवजाइ दिणे, विणे य देहेणमविकलकलाहिं । परिणइ पसन्नलावन्नवनपुत्राओ कन्नाओ ॥ ७२ ।। अभिरमइ तारतारुनपु. नदेहाहि ताहि सह निच्चं । पासायगओ पासइ, कयाइ सरयंमि मेहमयं ।।७३।। कामकुसुमाणुगारी, होऊण कमेण पसरमाणो य । सरयघणो संजाओ, कलियखमंडलमहाभोगो ॥ ७४ ।। असरिसपसरियपवमाण-पेल्लणुब्वेल्लमाणसव्वंगो । पसरणकमेण होऊण, खंडखंडाइओ नट्टो ।। ७५ ।। इय जलहरोव्व अव्वो, अथिरो रज्जाइवित्थरो सम्बो । खणदि दृमिटुनटुं, धणजीवियजोव्वणाईयं
ति । २ जब सि , जायसि D। ३ य B| ४ दिहनधिह ।। दिनहमिह DI
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जम्यूचरित्रे
शिवकुमारस्य सागरदत्तमुनिसमागमः।
IN ७६ ॥ ता जावऽजवि जज्जरइ, नो जरा देहपंजरं ताव । अइउज्जमेण जुज्झइ, मह पव्वज्जा पवज्जेउं ॥ ७७ ॥ इय चिंतिऊण
मणगारसामिणो अमयसागरगुरुस्स । पयमूले पवईओ, बहुपस्थिवपुत्तपरिवारो ॥ ७८ ।। सुयसागरपारीणो, पावइ पावक्खएणमोहिवरं । नियचरणं चरमाणो, चरणे परिचरइ सुगुरूण ॥ ७९ ॥ चविय भवदेवदेवोवि, तंमि विजयमि वीयसोगाए । पउमरहरायवणमालदेविअंगुब्भवो जाओ ।। ८०॥ कय सिवकुमारनामो, अभिरामो जोव्वणुव्वणगुणेहिं। समवयरूवाहिं कुलब्भवाहिं सह रमइ रामाहिं ।। ८१ ॥ पुरनगरागरगामाभिराममहिमंडलंमि विहरंतो। सागरदत्तऽणगारो, पसमाऽऽहारो तहिं पत्तो ।। ८२ ।। अणुजाणाविय उम्गहमणुग्गहत्थं जणाणमुज्जाणे । समवसरिओ स वरिसेइ, देसणा अमयधाराहिं ॥ ८३॥ मासक्खवणं काऊण, पारणा. तेण सत्थवाहगिहे । विहिया हियावहेणं, जणाण पडिया य वसुहारा ॥ ८४॥ निसुणिय पारणपश्चप्पवंचपंचप्पयारदिव्वाई। | सागरसुसाहुसेवा-सूहवहिय पणमेइ सिवो ॥ ८५ ।। तिपयाहिणपुव्वं, पायपंकए पणमिऊण पुरओ से। उवविसिउणं सद्धम्मदेसकाणाऽमयरसं रसइ ॥ ८६ ।। चउदसपुवी सो ओहिनाणवं केवलि व्व सबहियं । जिणधम्मरम्ममम्म, गंभीरगिराए वाहरइ ।।८।। |जे निरवाओ काओ, अमिरामाओ सकामरामाओ। अहिलसियकज्जसिद्धी फलमेयं पुव्वधम्मस्स ।। ८८ ॥ फलपज्जते एयरस जइ
जिओ अज्जिणेइ नवनवं । गयपाहेओ पहिओ व्व, तो स सोएइ परलोए ॥ ८९ ॥ विसय-कसाय-पमायप्पिसायमविसायमुNI झिऊण तओ। सयलसमीहियसज्जे, संजमरज्जे समुज्जमह ॥९०॥ सिक्खियसिक्खादिक्खा, खणेण उक्खणियतिक्खदुक्खाई।
रोवेइ जीवथाणेसु, सग्गमोक्खाण सोक्खाई ॥ ९१॥ रिसिमवसरंमि सो विन्नवेइ हरिसूससंतरोमंचो। मह तह दिटे उदेइ, सुठु तुट्ठी य पुट्ठो य ।। ९२ ।। तो कोवि पारभविओ, किमत्थि तइ मज्झ सयणसंबंधो। अह परिभावियसब्भूय, ओहिणा भणइ मुणिसीहो ।। ९३ ।। पत्तो तं तइयभवे, भवदेवो आसि मज्झ लहुभाया । जंबुद्दोवगभरहे, अकवडपडिबंधपडिबद्धो ॥ ९४ ॥ मह | मणअणुवित्तीए, गहियवओ पालिऊण पव्वजं । जाओ सोहम्मसुरो, अहंपि तत्थवि थिरसिणेहो ।। ९५॥ पुन्वभवन्भासाओ, मइ तुह सो संपयपि पक्खुमिओ। मह गयरागस्स पुणोऽणुग्गहबुद्धी न उण नेहो ॥ ९६ ॥ भणइ कुमारो भयवं, अवितहमेयं
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तओ समीहामि । इह वि भवे पव्वइऊण, पज्जुवासामि तुम्ह पए ।। ९७ ।। नवरं अम्मापियरो, पुच्छामि सुसामि ! नियहियट्टाए । भणियं मुणिणा मा धेहि, धीर! पडिबंधमेत्थ तुमं || ९८ || सगिहे स गओ विन्नवेइ, अम्मापिऊ वयट्ठाए । पभणंति ताणि तं चैव, बच्छ ! एगो सुओ म्हं ॥ ९९ ॥ सरणं ताणं दीवो, तं चिय सग्गो व अहव अपवग्गो । तर विरहियाणि अम्हे, पुत्तय ! अंधाणि बहिराणि ॥ १००॥ तुह आयत्ता पाणा, अम्हाणं दिक्खिए तुमंमि तओ । घरघन्ति ( हि ) यससया विव, पुत्त ! पलायंति ते झन्ति ॥ १ ॥ बहु भणियाणि वि जा ताणि, नेव मुंचति संजमाय तओ । सावज्जजोगविरओ, जइ व्व जाओ धिइसहाओ ||२॥ नरम न जिमइ जंपेइ, नेव वेरग्गमग्गलग्गमणो । अंतेउरेगदेसे वसेर सुन्ने जहा रन्ने || ३ || विविधपयारेहिं पर्यपिओ वि पियरेहिं पउरपउरेहिं । जाव न मन्नइ सो किंपि ताव रन्ना विसन्नेण ॥ ४ ॥ सदाविय सिट्टिसुओ, दढधम्मो सावगोविवेगनिही । पयडियतत्तं वुत्तो, कुमरो जह जिमइ तह कुणसु ॥ ५ ॥ इय कुणमाणेण तए, जीवियमम्हाणमप्पियं होइ । जहसत्तीए जइस्सं ति, तस्स पासंमि सो जाइ ॥ ६ ॥ पविसइ निसीहियाए, इरियावहियं पडिक्कमिऊण । वंदइ दुवालसावत्तवंदणेणं जइजणं व ॥ ७ ॥ अणुजाणाविन्तु पमजिऊण पासे सिवस्स उवविसइ । चिंतइ सिवो जइस्स व, मह विणओ णेण किं विडिओ ||८|| पुच्छामि ताव भो इब्भपुत्त ! सो वत्तिओ तए विणओ। जो सागरदत्तगुरुण, किज्जमाणो मए दिट्ठो ॥ ९ ॥ किमहमरिहामि तं ताण, पायपंकयपरागपरमाणू । स भणेइ भग्ग मोणारंभं दट्ठूण तं तुट्ठो ॥ ११० ॥ जइ वि जईण स जुज्जइ, तहावि किज्जइ हावि कज्जेण । विणओ धम्मस्स धुवं भणिओ जिणसासणे मूलं ॥ ११ ॥ यतः - “ मन्त्राः सतन्त्रात्रिजगत्पवित्राः, शुभम (दे) वेशाः स्थविरोपदेशाः । विद्याऽनवद्या त्रिदशौघवन्द्या, श्रयन्ति सन्तं सततं विनीतम् ॥ १२ ॥ " जह जइजणस्स निस्समसंजमसंजायसुद्धलेसस्स | तह उचिओ कायव्वो, विणओ सुसावयस्सावि ॥ १३ ॥ जं पुण दुवालसावत्तवंदणं दिज्जए जइजणस्स । तं तुज्झ मए दिन्नं, भावजई जमसि संजाओ ॥ १४ ॥ न जिमसि न जंपसे, केण हेउणा भणइ सिवकुमारो । तो दढकयवयपरिणामस्सऽवस्कायव्वमेयं मे ।। १५ ।। जावऽज्जवि पवज्जं पवज्जिडं दिति नेव पियराणि । नणु ताव भावसाहू, होऊण गि
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शिवकुमार
प्रव्रज्या
निश्वयः ।
॥ ८ ॥
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जम्बूचरित्रे
॥ ९ ॥
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वि निवसामि ॥ १६ ॥ अन्नं च सव्वसावज्जजोगसंजोगवज्जणुज्जुत्तो। कह सावज्जं भुंजामि, कह व जंपामि तेहिं समं ||१७|| भणियं दढधम्मेणं, सम्मं सद्धम्मनिञ्चलो तं सि । कस्सऽन्नस्स वि एसा, भावारिजए जयपडाया १८ ।। पुण परिहरिया ऽऽहारस्स, निव्वहिस्सइ न भावचरणपि । आहारेणं देहो, धारिज्जइ जेण पडमाणो ॥ १९ ॥ चिरपालियपव्वज्जस्स, जुज्जए जीवियव्वपज्र्ज्जते । आहारपरिच्चाओ, अन्नह स लहिज्जइ न एसो ॥ १२० ॥ जे चिरकालं पालिति, जीवियं संजमेण ते धन्ना । ता निरखजाssहारो, होऊण गमेसु दिवसाई || २१ || अणवज्जवाणिचेट्टाए, चिट्ठ कोणे घरस्स परिक्के । अयमाह इमं मह, निव्बहेइ साहेज्जओ कस्स || २२ || सावज्जणवज्जाई, जाणइ को वयणभत्तपाणाई । ता मे कया निवित्तो, ताण पवित्ती कहं होइ ||२३|| दधम्मो आह अहं, कुमार ! तुब्भाण साहुभूयाण । सीसोव्व सव्वमेत्तो, वेयावच्चं करिस्सामि ॥ २४ ॥ कप्पाकप्पपबंचे, चउ रमई विहरिण समर्थमि। अहमाणिस्सामि विसुद्ध भत्तपाणाणि किं बहुणा ।। २५ ।। कुमरेण होउ एवंति जंपिऊण अभिग्गओ गहिओ । जावज्जीवं छट्टाउ, पारणा अंबिलेणं मे ॥ २६ ॥ एवं सुतिव्वतवकम्मकारिणो पारणंबिलपरस्स । बारसवासाणि अइच्छियाणि गिवासिणो तस्स ॥ २७ ॥ नवजोव्वणावि जं जायजामसीला गिद्दीवि महरिसिणो । ते कम्ममम्म सम्मज्जणुज्जया
ताण नमो ॥ २८ ॥ कयकायपरिचाओ, पंडियमरणेण बंभलोयंमि । दससागरोवमाऊ सामाणियसुरवरो जाओ ॥ २९ ॥ नामेण विज्जुमाली, जुइमाली अमरसुंदरीसाली । जिणसामिसमोसरणे, सुदेसणाओ सया सुणइ ॥ १३० ॥ उवभुंजिऊण भोगे, दिव्वे चवि नियाऽऽउपज्जते । जह रायगिहे जाओ, इब्भसुओ सो तहा कहिमो ॥ ३१ ॥ रायगिहे नयरे उसभदत्त इन्भो अहेसि गुणगरुओ । तस्सासि पिया सुइसीलधारिणी धारिणी नाम ।। ३२ ।। जिणधम्मधुराधारण - धुरीणि चित्ताणि ताणि त(म्मं)पंति । निरवच्चयाणि अइचंगअंगअंगुब्भवस्स कए ।। ३३ ।। भणियं धारिणीए को नाम, रुवगवो सोहग्गमडप्फरो व को तासि । को वा सुहासिया, कामिणीण जासिं सुओ नत्थि ॥ ३४ ॥ वेभारपव्त्रयासन्न -काणणे कामकोहमोहहरो । पंचमगणहारी हारहीरासोवास जसो ॥ ३५ ॥ तरुणतरणि व्त्र तेएण, भव्त्रअंभोरुहाई भासतो । अह अन्नहा कयाई, सुहम्मसामी समोसरिओ
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कुमारस्याहारप्रहणाय
प्रज्ञापनं घो राभिग्रहश्च ।
॥९॥
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चतुर्गतिदुःखानि।
॥ ३६॥ भडचडगरगुरुसामग्गिसंगओ उसभदत्तवरइब्भो । सह धारिणीभजाए, वंदणवडियाए नीहरिओ ॥३७ ॥ अंतरपहमि जम्बूचरित्रे
मिलिओ, से समणोवासगो निमित्तविऊ । भणिओ किंनु चिराओ, दीससि जसमित्त मित्त ! तुमं ॥ ३८ ॥ भणियमणेण सम- | ॥१०॥ णाण, सव्वया पायपज्जुवासाए । अक्खणियमणस्स न कोइ, अवसरो अह कहसु एयं ॥३९॥ उबचियचिंतासंतावतत्तचित्त व्व
भाउजाया मे। किमिमा सामेण मुहेण, दीसए साहसु महेयं ।। १४०॥ भणियमणेणं सयमेव किं न पुच्छेसि जेण वजरइ । तह चेव कए सा आह, साहु देवर ! निमित्तं ते ॥४१॥ जं पुच्छियं वियाणसि, इत्थं को नाम नहि निमित्तन्नू । मह चित्तं चिंतेऊण, ता सयं कहसु निदेसं ॥ ४२ ॥ जसमित्तो मंतेऊण, तो खणं आइसेइ हुँ नायं । उत्तमपुत्तमपुत्ता, विसन्नचित्ता समीहेसि ॥ ४३ ।। सउणो सउणो लद्धो, सिद्धो चिय ते मणोरहो अहुणा । इह भरहे चरमो 'केबली य तुह पुत्तओ होही ॥४४॥
केसरिकिसोरमुच्छंग-संगयं निग्गय व चंदाओ। तं सुमिणमि समिक्खसि, अचिराओ पञ्चओ एसो ॥४५॥ तुह किंतु अंतकराओ, अच्छइ तुच्छो स केणइ सुरेण । आराहिएण संतं, जाही जाणेमि तं न सुरं ॥४६॥ हरिसभरनिब्भरंगी, सह जसVI मित्तण सा पयपंती। सहसत्ति उसभदत्ताणुचारिणी काणगंमि गया ॥४७॥ तिपयाहिणपुव्वं, पणमिऊण पाए सुहम्मकेवलिणो। दोनिवि दूरियदुरियाई, देसणं ताई निसुणंति ।। ४८ ।।
तथाहि-" नृभवादिसर्वसामध्यमभ्यमासाद्य शाश्वतसुखाय । यतनीयमसात शताऽऽश्रिता दि गतयश्चतस्त्रोऽपि ॥४९॥"
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आकृष्टिर्घटिकादतिसङ्कटमुखाच्छित्वा च भित्त्वा च सा, पाकः पावककन्दुकेषु कदनं काकश्च कङ्कादिभिः ।
ज्वालाजालकरालसंज्वलदयापुत्री दृढालिङ्गनं, कामेकां नरकावनीषु विषमामाचक्ष्महे वेदनाम् ॥ १५० ॥" १ केवलीण ते अत्तओ होही B. C. D. I २ शि०, सिता श्रिता DI
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अनाहत| देवोत्पत्तिः।
११॥
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" तृष्णात्युष्णसरित्समीरशिशिरासाराग्निदाहादिभिर्व्याधिव्याधवधव्यथव्यतिकरत्वच्छेदनिर्लान्छनैः ।।
पृष्टे निष्ठुरभूरिभारभरकाऽऽरोपादिभिवादितास्तियश्चो विचरन्ति वश्चिततराः सांसारिक: सौख्यकः ॥५१॥" "दोर्भाग्यव्यतिषङ्गभङ्गुरगिरोः गार्हस्थ्यगह गृहं, ये दारिद्रयमहाद्रिमुद्रितमुदो दास्यादिदीनाननाः।
संग्रामाग्रसमप्रविग्रहभिदा दोदूयमानात्मनां, मर्त्यानामपि चिन्त्यमानमुचितं किंचिन्न तेषां सुखम् ।। ५२॥" " हा कल्पद्रुमकेलिवापि-दयिताः किं नाम मां मोक्ष्यथ, स्थातव्यं हहहाऽत्र गर्भनरकेऽपीत्यादिमृत्यूदयात् ।
देवानामपि पक्वदाडिमफलस्फोट स्फुटत्यत्र यन्न स्वान्तं शतकोटिकोटिघटनानिष्टङ्कितं तत्त्वतः ॥ ५३॥ " आख्यातं दुःखमेतन्निखिलभवभृतां भूरि तत्त्यक्तुकामैः, कामं कल्प्या(ल्पो)ऽभ्युपायोऽनुपधिनिरवधौ सिद्धिसौख्येऽनुपाख्ये।। सोऽवश्यं शस्यतेऽत्र प्रगुणपरिणतिः शुद्धसद्धर्मसिद्धौ, दीक्षा शिक्षा च साक्षाजिनपतिगदिता चर्यतामार्यवथः ॥ ५४॥
चिंतेइ धारिणी सब्वमेव जाणेइ भावं केवली भयवं । ता छिंदउ संदेह, अह्मणुकूलेमि के देवं ॥ ५५ ॥ एत्थंतरंमि सामी, जंबुद्दीवस्स जंबुरुक्खंमि । विहियनिवासस्स अणाढियस्स वत्तव्वयं कहइ ।। ५६ ॥ इह उसभदत्तइन्भस्स, आसि भाया भवाभिणदिमणो । जिणदासो नामेणं, निरंतरं रमइ जूएणं ॥ ५७॥ किश्च-“कौपीनं वसनं कदनमशनं शय्याधरा पांसुरा, जल्पो
ऽश्लीलगिरः कुटुम्बकजनो वेश्या सहाया विटाः । व्यापागः परवञ्चनानि सुहृदश्चौरा महान्तो द्विषः, प्रायः सैष दुरोदरव्यसनिनः NI संसारवासक्रमः ॥ ५८ ॥" 'भूरिमज-मंस-हिंसा-वेसा-दुस्सीलया २वि न न बसणं । मन्ने जूयं एगं तु, बसणमेसिपि जं VI मूलं ।। ५९ ।। सहिए(य)ण सह विवाए, जाए तेणाऽऽहओ ससत्थेण । मरमाणो अणुतावेणं, तावए तिब्बमापाणं ।। १६० ॥ वस| णासत्तो संतो, चत्तो दत्तेण जइवि सो आसि । पावा य पावपाणीहिं, जेण जायह पसंगो वि ॥ ६१ ॥ तहवि जिणदासपासे.
१५ D। २ वि न बसणे । ३ पावमाणाहि 0DI
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॥११॥
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॥ १२ ॥
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तया दयाए समागओ उसभो । जह वच्छरेहिं जेट्टो, स तओ तह जं गुणेहिं पि ॥ ६२ ॥ उक्तं च- “ उपकारिणि वीतमच्छरे वा, सदयत्वं यदि तत्र कोऽतिरेकः। अहिते सहसापराधलब्धे, सदयं यस्य मनः सतां स धुर्यः ॥ ६३ ॥ " चरणग्गमग्गसंलग्गउत्तमंगो समग्गअंगेहि । विवसो वारंवारं खामइ दुब्विणयमुसभं सो ॥ ६४ ॥ जं तुज्झ 'भाय ! न सुहाई, तिव्वसंतावमुव्वहसि जेण । जं वारसि आजम्मं, मए कयं तं चिय खमेसु ।। ६५ ।। धीरविओ तेण तहा, कपि जह तम्मओ इमो जाओ । पंचनमोक्कारपभावओ य भवणाहिवो मरिचं ॥ ६६ ॥ जाओऽणाढियनामो, महिढिओ तारतेयवं तियसो । उव्वहइ पक्खवायं सा वि दत्ते सरलचित्ते ॥ ६७ ॥ इय देसणाऽवसाणे, पणमिथ दत्तो नियं गिहूं पत्तो । देवगुरुसंघपूयापरायणो गमइ दियहाई ॥ ६८ ॥ सयमट्टोत्तरमायंबिलाण मन्ने धारिणी धीरा । सिरिजंबुदेवयाए, तह तन्नामेण सुयनामं ॥ ६९ ॥ अह चवि (य)उं बंभलो गाउ, भुत्तभोगो से विज्जुमाली सुरो । समए धारिणीगब्र्भमि, आगओ जह गुहाए हरी ॥ १७० ॥ अह मयरायकिसोरं, सेयं सुमिणंमि पासिऊणेसा । पडिबुद्धा गंतूणं, तं साहइ उसभदन्तस्स ॥ ७१ ॥ पञ्चार पश्चयमेस, तीए जसमित्तमित्तवृत्तंतं । परमपमोयपसन्ना, धन्ना सा बहइ अह गर्भं ॥ ७२ ॥ जिणपडिमापूयासुं, जइजणपडिलाहणाविहाणेसु । दुत्थियदीणुद्धारेसु, तीए तो डोहो जाओ ।। ७३ ।। अगणियदव्वं दिती, तह वरवत्थाइवत्थुवित्थारं । माणियडोइलया सा, जाया जाया ससिच्छाया ॥ ७४ ॥ पडिपुन्नेसु दिणेसुं लगे लग्गे य सग्गुणसमग्गे । पसवइ पुतं सा कप्पपायवं पिव सुमेरुमही ।। ७५ ।। चेइहरचारुपूयापयार* पारंत निब्भरजणोहं । तूररवाडंबरमत्तचित्तनच्चंतनारिंगणं ।। ७६ ।। कारागारविसोहणसोहणदीणाइदाणरमणीयं । रिद्धं वज्रावणयं, कारावियमुसभदत्तेण ॥ ७७ ॥ पत्ते दुबालसाहे, साहू पडिलाहिऊण सुहविहिणा । नीसेसनाइनायरसायरदिज्जंतबरभोज्जं ॥ ७८ ॥ महया महूसवेणं, से नामं निम्मियं सुमुहुत्ते । दिन्नो जंबूदेवेण, जंबुणामो त्ति तो होउ ।। ७९ ।। नवकप्पपायवो पाउणेइ पइवासरंपि जह बुद्धिं । तह पंचधाइपरिवारपरिगओ जंबुणामो वि ॥ १८० ॥ अयमविकलमकलंक, कलाकालवं कलेइ
१ ताय B २ निवारयसि । ३ मोयगं द्रोणं । जंबूसुररस जायें तह D। ४ किनंत
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धारिणीदोहदपूरणम् ।
॥ १२ ॥
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सयलंपि । सह मित्तमंडलीए, सइ कीलइ काणणाईसु ॥ ८१॥ पुणरवि सुहम्मसामी, समागओ रायगिहपुरदुवारे । जंबुकुमारो
जम्बुकुमारजाणिय तदागमो निग्गओ नमिउं ।। ८२ ।। आरामसमोसरियं, पणमित्तुं पहुं पुरो निसनो य। हरिसियहियओ निसुणेइ, देसणं मउलियमाकरो ।। ८३ ।। लद्धृण माणुसत्तं चोल्लगदिटुंतदुल्लहं लोए । मा मा पमायमइरामत्ता विहलेह लेह फलं ।। ८४ ॥ जेण
ब्रह्मनियमः। १३॥IN
मरुलहरिपिल्लियतरुपल्लवलोलमाउ जीवाणं । जोव्वणमुव्वणं मयणाभिरामरामा कडक्खचलं ।। ८५ ।। जरजज्जररुक्खो विव, काओ रोगाइपन्नगनिकाओ। रमणीओ विमणीओ, उरगाण व अइदुगेज्झाओ ॥८६॥ अइसयतरला लच्छी, बच्छच्छाया जहा IN अणस्थावि । पियजणसंजोगो जोवि, सो वि संपावियविओगो ॥ ८७ ॥ इय भवभावे परिभाविऊण सव्वेवि भंगुरसहावे । सासयसोक्खे मोक्खे, जुत्तो जत्तो सया काउं ॥८८ ।। स पुणो पव्वजाए, अणवज्जाए पवजियाए भवे। बीएण विणा किं सा, | लगेइ साली सुखेत्तेवि ॥ ८९॥ सा होइ कायराणं, सुदुक्करा तदियराण पुण सुकरा । सिवसुहमिहेव दंसइ, संतोससमाहिमंताण IN
॥१९०।। पयपउमे पणमिय, विन्नवेइ गणहारिणं 'गुणी स तओ। इच्छामि सामि! पासे, तुह पवजं पवजेउं ॥९१।। आह पहू | पडिबंध, मा धीर | धरेहि पुण क्षणो दुलहो । भगइ स अम्मापियरो, अणुजाणावेमि ताव लहुं ॥ ९२ ।। जावजीवाए ताव, IN | बंभचेरे अभिग्गहं देह । पव्वजापारंभे, पणवोऽयं होउ आह पहु ॥ ९३ ॥ इय नियमिय स नियत्तो अदंभवभव्वए कयपयत्तो।। स घरं सिग्धं पत्तो, पियरे विन्नविउमाढत्तो ॥ ९४ ।। निसुया सुहम्मसामिस्स, देसणा अज तायमाय! मए । रहिया मणमि सावज्जलेवलेवेण लीणव्व ॥९५।। अइस जाय ! जार्य, जं कयमेवंति तेहिं संलत्ते । स भणइ पब्बजाए, अणुजाणह वा मममियाणि ।। ९६ ॥ इय निसुणिऊण मुच्छानिमीलियच्छाई ताई पिच्छीए। निवडियपावियपुणचेयणाई जंपति दीणसरं ॥ ९७॥ तं कप्पपायवो पुत्त !, अम्ह गेहंमि तं विणा हिययं । अइसयसुपकदाडिमफलं व ओफुट्टइ तडत्ति ॥ ९८ ॥ अणुलोमियाहिं
॥१३॥ पडिलोमियाहिं, पियरेहिं बहुपयारेहिं । पन्नविओ पन्नवणाहिं, जाव मन्नइ न तव्वयणं ।। ९९ ॥ पभणति ताव अव्वो, कयपरिण
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जम्बूचरित्रे
॥१४॥
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यमंगलस्स मुहकमलं । तुह पिच्छिऊण होमो वच्छ ! कयत्थाई सत्थाई ॥२०० ॥ जंपेइ जंबुनामो, माए ! मन्नामि सम्मयमिमं ते। कयपरिणयस्स जइ नाम, सम्मयं मज्झवि कुणेह ॥१॥ तो धारिणीसमुद्दप्पियपमुहाणटुसत्यवाहाणं । पउमावइपमुहाणं, अट्ठण्हं |
जम्बुप्रभवसत्थवाहीणं ॥ २॥ वरइ अरं कन्नाओ, सुवन्नवनाउ अट्ट धन्नाउ । समरूवजोव्वणाओ, उवणकंदप्पदप्पाओ ॥३॥ सिंधुमई |
चोरसंवादः । पउमसिरी य, पउमसेणाय कणयसेणा य । देवभवभारियाओ, इमाओ ता चेव चत्वारि ॥ ४ ॥ अन्नाउ नागसेणा, कणगसिरी |Y कमलवइ जयसिरी य । तेहिं विवाहो तासि, महरिहरिद्धीए पारद्धो ॥ ५॥ गुम(रु)गुमिरमद्दलुद्दामसदकुइँतकामिणीसमूहं । वित्तं पाणिग्गणं, जंबूपहुणो कया पूया ॥ ६॥ कयकोउगर्मगल्लो, सव्वालंकारभूसियसरीरो। सह ताहि वासगेहे, गओ निसाए नववहूहिं ।। ७ ।। सिंहासणे निसण्णे, अट्टहिं वरविट्ठरोवविट्ठाहिं । सहइ सह तत्थ ताहिं, पबयणमायाहिं धम्मो व्व ॥८॥
इओ य-जयपुरनरिंदविझस्स, आसि अंगुब्भवो पभवनामो। पिउणा पहुस्स लहुणो, सुयस्स नियमप्पियं रज्जं ॥९॥ जयपुरपुरसेहरए, संजाए पत्थिवंमि पहुनामे । पभवो समाणमाणाओ, निग्गओ जयपुराहिंतो ।। २१० ॥ विंझगिरिपायमूले, कडगनिवेसं कराविऊण ठिओ। सन्निहियसत्थगामाइलूडणाईहिं जीवेइ ॥ ११॥ जाणित्तु जंबुनामस्स, परिणयेणऽत्थलच्छिविच्छई। रायगिहे रयणीए, उब्भडभडचडगरेण गओ ॥ १२॥ ओसोयणिविज्जाए, सोयाविऊण जणमसेसंपि । सो जाइ जंबुनामस्स, मंदिरे मेरुसिहरेव्व ।। १३ ।। तालुग्घाडिणिविज्जाए, तालयाई विहाडिऊण लहुं । विवरियसव्वदुवारे, पविसइ नियमंदिर व्व तहिं ॥ १४ ॥ घरहरघोरंतजणाहि, जाव तेणा विभूसणाईयं । उल्लुंटणाय लग्गा, समग्गभंडारगाणं पि ॥ १५॥ नीसंकमाणसो तो, भणेइ सिंहासणे समासीणो । जंबूनामो भो मा, छिवेह पाहुणयजणमेयं ॥ १६ ॥ वयणेण तेण तेणा ते, सव्वे थंमिया तओ भवणे । चित्तलिहियव्य जाया, अहह्वा पाहाणघडिय व्व ॥ १७ ॥ पभवेण तओ दिट्ठो, उवविट्ठो ताहिं तारतरुणीहिं । सा(रय)यरनिसायरो इव, गयणे ताराहिं परियरिओ ॥ १८ ॥ ते नियसुहडे अयमुन्भडे वि थंभेव्व थंभिए टुं। बवइ चमक्कियचित्तो, सुपुरुस ! तं कोवि सुमहप्पा ॥ १९॥ जं अवसोयणिविज्जावज्जस्स व ते न किंपि पहवेइ । ठूण लुटमाणे, न हु वहणटाए
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॥१५॥
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मधुबिन्दु
जम्वूचरित्रे ॥१५॥
दृष्टान्तः।
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उद्धेसि ॥२२०।। अहमवि भवामि पभवो, तणुभवो जयपुरेसविझस्स । दिव्ववसाओ जाओ, चोराहिवई इहाऽऽयाओ ॥२१॥ पहवइ पहवस्सव मे, न किंपि तुह तेण मित्तमसि । एत्तो ओसोयणितालुग्घाडिणीउ मे लेहि विज्जाओ ॥ २२ ॥ अप्पसु अप्पणियं थंभणिं च ज भणसितंच काहामि । पभणेइ जंबुनामो, सुण सुंदर ! एत्थ परमत्थं ॥ २३॥ किमहं करेमि विज्जाहि, अहव जायाहिं अज जायाहिं । मणिरयणकणयकुंडल-किरीडपमुईपि मे मुकं ॥ २४ ॥ अज्ज पभाए जाए, धणसयणाइ सव्व चाएणः। धुवमेव सव्वसावज्जजोगविरई करिस्सामि ।। २५ ॥ अह पभवो विम्हयमाणमाणसो माण-सोय-परिमुक्को। उवसप्पिऊण पभणेइ, जंबुनामं परममित्तं ॥ २६ ॥ उव जिऊण भोए, इमाहिं रामाहिं सह सकामादि । कयकज्जो सज्जो, उज्जमेसु पच्छा पवज्जेउं ॥२७|| वज्जरइ जंबुनामो, विसयसुहं को पसंसए विउसो। इह मह सुण दिद्वंतं, दिटुं तं दिव्वनाणीहिं ॥२८॥ अथ मधुबिन्दुदृष्टान्तः___अटव्यां पर्यटन् कश्चित् , कदाचिन्मत्तदन्तिना । हन्तुं प्रधाव्य प्रारब्धो, दुर्धरेण नरो युवा ।। २९ ॥ तस्मात्पलायमानेन, तेनान्धुर्ददृशे क्वचित् । पादौ वटस्य तस्यान्तर्लम्बमानश्च लक्षितः ॥ २३०॥ दक्षत्वात्तत्र लग्नोऽसौ, कूपस्यान्तर्विलम्बते । पश्चादि
भोऽपि प्राप्तोऽस्ति, शुण्डाप्रेण शिरः स्पृशन् ॥ ३१ ॥ प्रसारितमुखोऽधस्ताद्, ददृशेऽजगरो महान् । कदा मदाऽऽस्यपाती स्या| देषोऽत्रेत्यशनायितः ॥ ३२ ॥ विद्यल्लोलललजिह्वाः, कालभूचापसन्निभाः । सर्पाः सर्पन्ति तं दंष्टुं, चत्वारब्ध चतुर्दिशम् ।। ३३ ।। खादतः पादमाखू तं, मूले नित्यं सिताऽसितौ । क्रमागृहेऽस्य शैथिल्यमधःपाताय जायते ॥ ३४ ॥ दन्ती दन्तार्गलद्वन्द्वेनाऽऽहन्ति कुपितो वटं । तेनोड्डीनास्तनूं तस्य, तुदन्ति मधुमक्षिकाः ।। ३५ ।। मन्द मन्दं मधुच्छत्रात् , स्यन्दन्तो मधुबिन्दवः। तैर्दिग्धां वीरुधं देहे, लग्नां लेढि लबुं मुहुः ॥ ३६॥ तथाऽवस्थोऽपि मूढात्मा, मन्यते सुखमात्मनः । गजाउजगरसादीन् , तृणायापि न मन्यते ।। ३७ ।। कोऽपि स्वर्गी तमाह त्वामुत्तार्य व्यसनादितः । नन्दनादौ नयामि द्राक्, कुर्वे सद्भोगभाजनम् ।। ३८ ॥ किं स याति मधुस्यन्दबिन्दुस्खादेकलम्पटः। दृष्टान्तोऽयमथैतस्मिन् , शृणु दान्तिकं ब्रुवे ॥ ३९ ॥ यः पुमानुदितस्तत्र, स जीवोऽत्र भवे भ्रमन् । याऽटवी स भवावासो, यः करी स परेतराट् ॥ २४० ॥ यः कूपः स नृणां जन्म, यः प्ररोहः स जीवितं ।
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॥१५॥
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कुबेरदत्तकुबेरदत्ताज्ञातम्।
अधस्तादजगरो यः, सेयं नरकदुर्गतिः ।। ४१॥ ये चत्वारः पुनः सर्पास्ते कषायाः क्रुदादयः। श्वेताऽश्वेतौ च यावाखू, तौ पक्षौ | जम्बूचरित्रे
मासि तादृशौ ।। ४२ ॥ तद्प्रहे बन्धशैथिल्य, तदने जरसा स्फुटं। ये सङ्घनः सरधानां तु, व्याधयश्वाधयश्च ते ॥४३॥ ॥१६॥
याङ्गलग्ना लता लघ्वी, सा प्रिया प्रणयकभूः। मार्तीकं यल्लतासक्तं, सुखं वैषयिकं हि तत् ॥ ४४ ॥ यः स्वर्गी व्यसनत्यागान्मुदे नयति नन्दनं । धर्माचार्यः स संसारत्यागान्नयति निर्वृतिम् ॥ ४५ ॥ इति मधुबिन्दुदृष्टान्तः ।। नैवेच्छेद्वथसनविनाशतः स सौख्यं मूर्खश्वेदमृतभुजा वितीर्यमाणं । तद्ब्रूहि प्रभव ! भवक्षयेण मोक्षमाकाक्ष्याम्यहमपि दर्शितं मुनीन्द्रः ॥ ४६ ।। सुसखे ! वद जीव एष नृणां पशुरथवा पृथुसाहसेऽप्यशङ्कः। विषयसुखलवैकलम्पटात्मा, गुरुमपि गणयति यन्न दुःखशैलम् ।। ४७ ।। प्रभवः प्राह भो भ्रातः !, प्रत्यक्षं पितरौ तव । प्रेक्ष्यते त्वन्मयप्राणी, प्राणितस्त्वां विना कथम् ॥४८॥ तवशापल्लवोल्लासाः, कान्ता
एता यथा लताः । नैव स्युः कस्य हास्याय, त्वां विना निष्फलोदया ॥४९॥ जल्पितं जंबुनाम्नाऽथ, माता तातः सुतः सुता । 6 कान्ता नेकान्तिकं किंचिद्भवेऽस्मिन् परिवर्तिनि ।। २५० ।। यथोक्तम्-अनायनन्ते संसारे, केन केन न कस्य न । सम्बन्धो
जन्तुना जन्तोः, केयं स्वपरकल्पना ॥५१॥ माता भूत्वा दुहिता, भगिनी भार्या च भवति संसारे। ब्रजति सुतः पितृतां, 01 भातृतां पुनः शत्रुतां चैव ॥५२॥ परलोककथा यद्वा, दूरेस्त्वत्रैव वीक्ष्यते । मात्रादीनां परावतः, प्राणिनां क्लिष्टकर्मणाम् ।। ५३॥
मित्र! अवधानमाधाय, क्षणमात्रमिदं शृणु। ज्ञातमेकं तनूभाजां, महावैराग्यभागभाक् ॥२५४॥ अथ एकस्मिन् भवे सम्बन्धविचित्रेण कुबेरदत्त-कुबेरदत्तायुगलकथानकम्
यथा-मथुरानगयाँ कुबेरसेना नाम्नी सुतनुलेश्या वेश्याऽभूत् । तस्याश्च प्रथमगर्भण निर्भरायामगाधायां बाधायां जातायां NI जल्पितमम्बया, वत्से ! किममुना गर्भभारेण । केनापि प्रकारेण पातयाम्येनं किमस्माकमनेन व्यसनेन । असम्मते जाते तस्यास्त
स्मिन्नर्थे प्रस्तावे जातं युगलक-पुत्र पुत्रिका च । भणितमम्बया त्यज्यतामेतत् कृतमनेन वेश्याधर्ममर्मच्छिदा। प्रोकं कुबेरसेनया IN मातः ! उत्तालचित्ताऽसि यदि तवात्यन्तमेतत्कर्त्तव्यं तदा दिनदशकादूचं कुर्वीथा यथारचितम् । ततः कुबेरसेनया कुबेरदत्तः कुबेरद
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जम्बूचरित्रे
कुबेरदत्तकुबेरदत्ताज्ञातम् ।
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तेति दत्तनामाके द्व मुद्रिके निर्माप्य दशरात्रे जाते जातरूपरूप्यरत्नचीनांशुकादिपूरितायां मंजूषायां निक्षिप्तं मुद्रिकायुग्मयुक्तं युगलकम् । प्रवाहिता सा जातायां यामिन्यां यमुनानिम्नगायां । भवितव्यतावशाच प्रवहन्ती प्रत्यूषे मञ्जूषा शौरिकपुरवास्तव्यश्रेष्टिद्वयेन शौचाऽऽचमनकृते प्राप्तेन प्रेक्षिता स्वीकृता च । उद्घाट्य दृष्टमेतद्वितयं द्वितयेन । कालिन्दीदेवतया दत्तमेतदस्माकमिति गृहीतः कुबेरदत्त एकेनान्या चान्येन । जातौ च तो क्रमेण वर्धिष्णू । ततो नवीनयौवनिकानिकामरामणीयकरञ्जितहृदयाभ्यां ताभ्यामिभ्याभ्यां सुसदृशरूपरेखाविशेषो विशेषफलवानस्त्विति कृतस्तयोरेव परिणयः । द्वितीयदिने दम्पतिभ्यां ताभ्यामारब्धायां सारिक्रोडायां सारिता कुबेरदत्तेन ग्रहणके नामाङ्का मुद्रिका । कुबेरदत्तायास्तामालोकयन्त्याः स्वमुद्रिकानिर्माणनाम्नोः संवादमुभयाकारसौसदृश्यं च विमृशन्त्याः संजज्ञे विकल्पः कदाचिन्मम सहोदरोऽयं स्यात् । न चैनं प्रति परिरम्भारम्भसंरम्भो मे मानसस्य न चास्यापि मा प्रति । तद्भवितव्यं विधिसंविधानेन केनाऽप्यन्त्र ॥ “पारयति यन्न कश्चित् , कत्तुं न मनोऽपिऽत्र जंघालम् । उपनयति तदपि देवं, शुभमशुभं वा किमाश्चर्यम् ।। २५५ ॥" ततो विच्छिद्य सद्यो द्यूतक्रीडां मुद्रिकाद्वैतं कुबेरदत्तहस्ते वितीर्य गता सा मातुरन्तिके। शपथशतदाननियन्त्रितकृत्वा पृष्टा सा तया तवोदरजाता देवतादत्ता वा दुहिताऽहं स्यामिति । निवेदितो मात्रा यथावृत्तो वृत्तान्तस्तस्यै । तयापि प्रवेदितो विषण्णमनस्कया सर्वः कुबेरदत्ताय। (३००० ०.३६४८ B. D. पं०) तेनापि मुद्रिकाद्वयदर्शनोत्पन्नतथावितर्केण तथैवानुयुक्ता खमाता तमेवोदन्तमवादीत् । अनुचिताचारामिशोचिःसंचया(वा)चान्तचेताश्च स्वमातरपितरयोः संमुखमाख्यत्अनुचितमाचरितं युवाभ्यां यदविदितसन्तानतत्त्वयोरावयोर्विवाहो विहितः, परं नाद्यापि परस्परपाणिस्पर्शातिरेकेण कोऽपि दोषः | प्रादुरासीदिति विसृज्यतामेषा स्वपितृगृहे । गृहीताऽऽत्ममुद्रा, गता तत्र तेनैव निदेन रुदतोः पित्रोः प्राबाजीत् । मुद्रिकां च तां गोपायितां स्वपार्थ एव व्यधाषीत् । निशितासि तीत्राणि तपांसि तप्पमानायाश्च तस्या अवधिज्ञानमुदपादि । तदाऽऽभोगेन भावयन्ती पश्यति कुवेरदत्तं व्यवहारगत्या मथुरापुरीप्राप्तं कुबेरसेनानाम्न्या स्वमात्रा सह संवसन्तं । तदुदरोपजातं चाङ्गज तेनोत्संगीकृतम् । ततश्चिन्तितमनया-अहो अज्ञानविजृम्भितम् । अहो अविरतिविडम्बना । अहो अविवेकातिरेकः। अहो विषयकिम्पाकपा
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॥ १८ ॥
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कस्य विपाकः । तत्तावदुत्तारयामि पापान्धकूपकोटरात् कथंचिदेतमिति विचिन्त्य प्रवर्त्तिनीमनुज्ञाप्य प्राप्ता सा मथुरायाम् । तस्थावज्ञातचर्या याचितकुबेर सेनापितस्त्रसद्मैकदेशे । कुबेरसेनाऽपि स्वबालकमार्थिकान्तिके निक्षिप्य स्वव्यापारपरायणा यावदास्ते तावत्तस्यास्तत्पार्श्वे विशिष्टविष्ठरोपविष्टकुबेरदत्तस्य च प्रतिबोधाऽऽधानधिया बालकमुपलालयन्ती जजल्पेषा । त्वं बालक ! 'भ्राता भ्रातृव्यो देवरः पुत्रः पितृव्यः 'पौत्रम्वासि मे । यस्य च पुत्रस्त्वमसि सोऽपि भ्राता पिता पुत्रो भर्त्ता श्वशुरः 'पितामहध मे । यस्याश्च गर्भात्प्रादुरभूद्भवान् साऽपि "माता श्वश्रूः सपत्नी ४ भ्रातृजाया "पितामही वधूश्व मे । कुबेरदत्तेनेदमाकर्ण्य साक्षेपमाचचक्षे, आयें ! किमसमञ्जसमुपसि परस्परव्याहतव्याहारो हि नाईतदर्शने कस्यापि दृश्यते । आर्या व्याजहार-भावक ! मा मामेवमाक्षिपः । सर्वं तथ्यं पथ्यं सूपपादं चास्मि वच्मि । नहि दृष्टेऽनुपपन्नं नाम । अवधिज्ञानेन हि ज्ञातोऽयमर्थो मया तथाहि - १ भ्राताऽयं मे बालक - एकमातृकत्वात् । २ भ्रातृव्यो भ्रातृपुत्रकत्वात् । ३ देवरो-भर्तुरेकमातृजात लघुभ्रातृत्वात् । ४ पुत्रोभर्त्तुः पुत्रत्वात् । ५ पितृव्यो- मातृभर्तुर्भ्रातृत्वात् । ६ पौत्रश्च - सापत्नपुत्रस्य पुत्रत्वात् । १ बालकपिताऽपि मे भ्राता - एकमातृजातत्वात् । २ पिता भ्रातुः पितृत्वात् मातुर्भर्तृत्वात् । ३ पुत्रः सपत्न्या संजातत्वात् । ४ भर्ता तेन परिणीतत्वात् । ५ श्वशुरःश्वश्रूभर्त्तृत्वात् । ६ पितामहश्च पितामह्याः पतित्वात् । यस्याश्च गर्भादभूदयं बालकः सा मे - १ माता - जन्मनिमित्तत्वात्। २ श्वश्रूः– भर्त्तुर्मातृत्वात् । ३ सपत्नी-भर्तुः कलत्रत्वात् । ४ भ्रातृजाया- भ्रातुर्भार्यात्वात् । ५ पितामही - जनकमातृत्वात् । ६ वधूव-सापत्नपुत्रस्य भार्यात्वात् । सम्बन्धाष्टादशकसूचिके गाये यथा - भाय भत्तिज उपित्तिव्वो, 'महपोत्तो देवरो 'सुओ सि तुमं । तुझ पिया पियामह, पर भाय सुओ "ससुर 'जणओ ॥ २५६ ॥ माया य तुज्झ बालय ! मह 'जणणी 'सासुया सवकी | बहु भाउजा पियामही य एत्थेव जम्मम्मि || ५७ || कुबेरदत्तेन संजातसंसारवैराग्येण कुबेरसेना प्रतिबोधविधानाय प्रोक्तमायें ! विशेषतो ज्ञीप्साम्येनमर्थं ततो निबिडत्रीडाजाड्यवान् शुश्रूषते । आर्यिकाऽपि मुद्राद्वयं संवादयन्ती कुबेरसेनाजठरयुगलजन्मतः प्रभृति प्रत्यपीपदत् । कुबेरदत्तस्तदाकर्ण्य संजातसंवेगवेराग्यवेगश्विन्तयामास । धिगज्ञानं मे येनेदृशमकार्य कार्ये स्म । 'अज्ञानं
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कुबेरदत्त
कुबेरदत्ताज्ञातम् ।
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जम्बूचरित्रे
| महेश्वरदत्त
ज्ञातम् ।
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खलु कष्ट, क्रोधादिभ्योऽपि सर्वपापेभ्यः । अर्थ हितमहितं वा, न वेत्ति येनाऽऽवृत्तो लोकः ॥ ५८॥ ईश नव्यविगोपककज्जलपङ्कप्रलेपसंपर्कात् । मुखमपि दर्शयितुमहं शक्नोमि न हन्मि तत्किं स्वम् ॥ ५९॥ आयें ! यामि प्रविशामि, साम्प्रतं प्रज्वलज्वलनराशौ । कथमन्यथा मम स्यात् , पातकतो मोक्ष ईदृक्षात् ॥ २६० ।। आर्या वक्ति श्रावक !, धर्मश्रद्धाप्रधान ! तेऽनुचितः । स्ववधः पापकृते यजिनेन्द्रदीक्षां जिघृक्षस्व ।। ६१॥ ततस्तद्वचनात्स प्रत्रज्य तीव्रतपश्चर्याचारुचरित्रचातुरीमाचर्य स्वर्गमगमत् । कुबेरसेनाऽपि प्रतिपन्नोपासकव्रतत्राता श्राविका जाता । कुबेरदत्तार्यिकाऽपि प्रवर्तिनीपार्श्वमासाद्य संयमसाम्राज्यमाराधयामास । 'एतामहो भुवि भवस्य वयस्य शोच्या, सम्यगू विचारय चिरं कुचरित्रचेष्टाम् । चित्तं द्विधा भवति चिन्तयतोऽपि यां मे, तज्जातिभिः किमिह कार्यमनार्यचयः ।। ६२ ।। प्रभवेण ततो जल्पितमुत्पादय तावदत्र पुत्रमहो तद्रहितस्य पितृणां प्रेत्य गतिर्नास्ति तृप्तिर्वा । | 'गदति स जंबुनामा, न नाम सत्यं त्वयेदमप्युदितं । निजनिजकर्मायचा, भवति गतिः (का) क्वापि कस्यापि ॥ ६३ ॥ मिथ्या| मिनिवेशोऽयं मिथ्याशास्रोपदेशजः पुंसां । द्विजभोजनात् पितृणां, तृप्तिः सम्पद्यते सद्यः ।। ६४ ॥ हविरग्निमुखे क्षिप्तं, पिशितं विप्रानने तु तृप्त्यै स्यात् । क्रमशो देवपितृणां, व्यधिकरणमिदं कथं घटते ॥ ६५ ।। अथ महेश्वरदत्तकथानकम्
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शृणु पुत्रेण पितृणां परित्रया तत्र मत्कथामेकां । निगमोऽत्र ताम्रलिप्त्यां, स महेश्वरदत्त इत्यासीत् ।। ६६ ।। तस्य समुद्रस्तातो, माता बहुलेति वित्तरक्षादौ । तत्परचित्तौ द्वावपि न धर्मवार्तामपि विधत्तः॥६७।। सततार्त्तवर्त्तिचित्तो मृत्वा महिषस्तयोः समुद्रोऽभूत् । मायाबहुला बहुलाऽपि, मृत्युमाप्ता शुनी सदने ॥ ६८ ॥ तदनु निरङ्कुशवृत्तिः, संजाता स्वैरिणी वधूरनयोः। परपुरुषपरीरंमैका, | लोलुभा गङ्गिला नाम्नी ॥ ६९ ॥ निशि रमयन्ती ज्ञाता, छन्ने प्रच्छन्नकामुकं पत्या । उपपतिरसिना तेनाऽर्द्धमारितो निस्सरन्विहितः ।। २७० ।। कतिपयपदानि गत्वा, प्रहारपीडापराहतोऽपतत् । अनुतापतप्तचेताः, परासुरासीन्मनाक्सुमनाः ।। ७१ ।। तत्कालमुक्तकुलटागर्भेऽभवदात्मवीर्यसंयोगे( गात्)। अङ्गोद्भवो महेश्वरदत्तस्यातिप्रियोऽजनि सः ॥ ७२ ।। क्रियमाणेऽथ कदाचन सांवत्स
॥१९॥
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रिके पितुः समुद्रस्य । क्रोत्वा हत्वा महिषः स संस्कृतः स्वजनमुक्तिकृते ॥ ७३ ॥ उत्संगीकृतपुत्रो, महेश्वरो यावदत्ति तन्मांसं ।
महेश्वरदत्तजम्बूचरित्रे|| क्षिपति पुरस्ताद्बहुलाशुनिकाय तस्य चास्थीनि ।। ७४ ॥ तावन्मासक्षपणस्य पारणे साधुरागतस्तत्र । पश्यति तं वृत्तान्तं, ज्ञानवि- IN शेषेण लीनमनाः ।। ७५ ।। धूत्वा शिरो नखच्छोटिकां च दत्त्वा महामुनिर्यवृतत् । अगृहीतमिक्ष एव, क्षणेन येनाऽऽजगाम पथा
ज्ञातम् । ॥२०॥
॥ ७६ ॥ चिन्तयति स्म महेश्वरदत्तो ज्ञातेङ्गितो यतेस्तस्य । अनुपदलग्नोऽपृच्छन् , प्रणम्य पादौ स्वगृहकुशलम् ।। ७७ ॥ किं न गृहीता मिक्षा, भगवन् ? मुनिराह कल्पतेऽस्माकं । न खलु पिशिताशिवेश्मनि, महेश्वरः प्राह को हेतुः ॥ ७८ ॥ मुनिराह महादोषं, मांसास्वादनमधर्मतरुमूलं । स्थलचरखचरादीनां, जीवानां येन वधहेतुः ।। ७९ ।। विक्रीणीते क्रीणाति, पोषयेन्मारणाय | यो जीवान् । तत्पिशितं संस्कुरुते, भक्षयति स घातकः सर्वः ॥ २८० ।। भवति यथा शाकिन्याश्चिखादिषा मानुषाङ्गमालोक्य । | पिशिताशिनां तथा विश्वदेविदेहान् विलोकयताम् ॥ ८१॥ यः परलोकं कर्माणि, मन्यते कोऽपि तेन मननीया । हिंसाऽहिंसा विरतिश्च, पाप्मने श्रेयसे क्रमशः ।। ८२ ।। तेन न मिक्षे भिक्षा, मांसाशिकुलेष्वहं जुगुप्सावान् । भवतो गृहे विशेषादित्युक्त्वा स स्थितस्तूष्णीम् ॥ ८३ ॥ मुहुरनुयुक्तः पदपद्मयुग्मपरिपर्युपास्तितात्पर्यात् । कथयितुमारेभे, तस्य मातृपित्रादिवृत्तान्तम् ॥ ८४ ॥ पितृमहिषमांसमशित्वमस्य वत्सरदिने प्रसूः शुनिका । पत्युरस्थीनि भक्षयति, पुत्रमङ्के वहसि शत्रुम् ।। ८५ ॥ इत्याकण्य महेश्वरदत्तः | संवेगमागतः परमं । तस्य मुनेः पादान्ते, दीक्षा शिक्षां च जग्राह ॥ ८६ ॥ ज्ञाता तदेवं प्रभव !, त्वयासौ पुत्रात्परित्रास्ति परत्र यादृक् । तत्किं सखे ! पुत्रविधित्सयैतां, त्यजामि दीक्षामृतपानलीलाम् ।। ८७ ।। एत्थंतरे पियषियोगदुक्खंतरियलजाए कडक्खसजाए जंपियं जेट्ठभजाए सिंधुमईए । सामि ! को नाम तुम्हाणमेत्तिओ परलोयसोक्खाय दिक्खाअक्खेवो, उव जेसु तावेयं महाभोग भोगसुई, मा ते मयरदाढाए व्व उभयाऽभावाओ पच्छुत्तावो भविस्सइ । भणियं जंबुणामेण–“बाले ! लीलामुकुलितममी IN मन्थरा दृष्टिपाताः, किं क्षिप्यन्ते विरम विरम व्यर्थ एष श्रमस्ते । सम्प्रत्यन्ये वयमुपरतं बाल्यमास्था भवान्ते, क्षीणो मोहस्तृण
॥२०॥ मिव जगज्जनमालोचयामः ॥ ८८॥" यद्वा कथय कहानकं तावत् । तओ अहोमुही कहिउमारद्धा, अह मयरदाढाकहाणयं
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जम्बूचरित्रे
मकरदाढावेश्याकथा ।
॥२१॥
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जयंतीए घणावहो सत्यवाहो तस्स सुधणो नाम विहियविणओ तणओ। सो य सयलकलावपारावारपारीणो जाणिऊण पिउणा पेसिओ पराए रिद्धीए ववहारत्थमुज्जेणीए । तत्थ विविहं ववहरमाणो कयाइ कामपडायाए नाम निग्गयाए बेसाए पत्तो पासाए । तीए य तेहिं तेहिं पयारेहिं तहा विहिओ जहा थेवदिवसेहिं जाओ तम्मओ। जन्नुज्जाणियाइ कज्जसज्जाए य महामायाए मयरदाढाए अकाए कमेणमाणाविओ सव्वंपि दव्वं सपासाए । अवहरियसव्वसारो जाओ त्ति जाणिकण दिवो अकाए अवन्नाए । कामपडायाए पासाए पवेसंपि अपावमाणो गलियाभिमाणो निग्गओ गेहाओ। चितेइ य । नेहनिहाणं तीए लक्खा मुद्दाहिं मुद्दियंपि मए भरियंपी तहा जायं, (हा) ही रित्तं झत्ति कत्तो.वि ॥८९।। नेहेण व देहेण व, दम्वेण व अप्पिएण सव्वेण । कस्सवि न होइ एसा, | वेसा वेसत्ति जुत्तमिण ॥ २९० ।। जुत्तं च वुत्तं केणवि-“अन्नु खाइ अन्नु गलि लग्गइ, अन्नु जंतु वेपन्नई मगइ। कुडि
लकालकोमलघणकेसहि, नालियमनपत्तिज्ज(सि)हि बेसहि ॥ ९१ ॥” अंखिहि रोयइ मणि हसइ, जणु जाणइ सउ सच्चु । बेस विसिदह तं करह, जं कद्वाह करवत्तु ।। ९२ ॥ ज कह करवत्तु करइ, खरदंतखिवंतउ । तं जि विसिगृह सलोउ, कवडिण जंपतउ ॥ ९३ ॥ जणु जाणइ सउ सच्चु मूदु परमत्थु न जोयइ । हियइ मुलुकहि हसइ, वेसओ अंखिहि रोयइ ॥ ९४ ।। परिवारेण हकारिजतो वि लजाए जयंतीए जाइउं न पारेइत्ति । गासवासाइ मेपि अपावितो परिवारो धणावहस्स पासे ॥१५॥ असेसो वि वुत्तो, वुत्ततो पुत्तस्स अइदुहिओ धणावहो आहेसु । अच्छउ दूरे दुरप्पा किं तेण, बेसावसणिणा परिभणियं परिबारेण ॥ ९६ ।। अविनीतेष्वपि विमुखाः, सन्तो नो स्वोपजीवकेषु स्युः । वत्सव्यथितेऽप्यूपसि, सरभिनोंक्रमयति भीरम् ।।२९७॥ तओ चितियं तेण-अवसोत्तपत्तं सित्थंपि व दव्वमेयं मयरदाढाए गिलियं कह वालेयध्वंति, लद्धोवारण अंतरंगपुरिसे पेसिऊण कयसम्माणो मन्नावेऊणमाणीओ अप्पणो पासे पुत्तो । पञ्चइयपुरिसे सहाए दाऊणमइघणधणरिद्धिसमिद्धो काऊण, कन्ने किंपि कहेऊण पुणोवि पेसिओ अवंतीए । अप्पिओ सुसिक्खिओ मक्कडो एगो । सो य जावइयं दव्वं गिलावेऊण मुच्चइ मगिओ तावइयमप्पेइ । तत्थ पत्तो ववहरमाणो अइधणइढो सुधणो नाऊण निवेइओ मयरदाढाए दासीहि विविहउत्तिजुत्तिभत्तिहिं मन्ना
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॥ २१॥
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॥ २२ ॥
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माणाविओ मंदिरे। जओ चेव वासराओ वत्तमकता पत्ता तुभे तओ चेव वेणिबंधाइ काऊण दुम्मणायमाणा पलायमाणे पाणे तुह पावणाssसाए धारेमाणी, जावि यावत्था एत्तियं कालंति पत्तियावेऊण तीए भणिया कामपडाया। वच्छे ! इयाणि युज्जंतु ते मणोरहा । तओ पवत्ता पुव्वं व विविहोपयार पयारेहिं रंजिउमेसा । दविणं मग्गिय अक्काए मक्कडं थडए पूईऊण मग्गिऊण य अप्पेइ एसो । तओ चमक्कियचित्ताए ताए कयाइ कामपडाया पुच्छाविया विन्नवेइ । अब्बो अउव्वो दब्बोवाओ कोवि एसो, ता पाणेस ! पसायं काऊण कहेह एत्थ परमत्थं । भणियमणेण न पिए ! पयासियध्वं कस्सइ, एवं मकडकामदुहा एसा सयसहस्सलक्खकोडिकोडाकोडीर्णपि पत्थिया न थक्केइ । तओ कयाइ अकावयणओ विविधोवयारपयारेहिं पल्हायमाणमाणसं सुधणं काऊण कामपडायाए जंपियं । 'मह नेहो जाणिज्जह, तुह कज्जे जीवियंपि उज्झामि । तुह पिय! कहेसु को पुण, सिणेहहाए कसव ॥ ९८ ॥ सुधणो भणइ महच्चिय, पाणपिए! पेम्ममम्ममत्थि धुवं । सिय- किण्हकारगो जेण, तुज्झ निच्चपि चिट्ठामि ।। ९९ ।। भणियमिमीए न अस्थि एत्थ मज्झ संदेहो आउयाएवि एसो चेव पचओ । जेणेयाए जंपिअं बच्छे ! एत्तियो तुहोवरि जामाउयस्स सिणेहो, जइ तुमं मकडकामधेपुंपि पत्येसि ता तंपि ते न धरेइ । तओ" येन प्राप्तेऽवसरे शत्रुषु मित्रेषु बन्धुवर्गेषु । नापकृतं नोपकृतं न सत्कृतं किं कृतं तेन ॥ ३०० ॥ " इय चिंविऊण भणियं सुधणेण कंते । किमेतियमेत्तगेण वि घोज्जमज्जुयाए हकारेहि, इह चैव जेण इयाणिमेव पूरेमि कोडगं । तओ तक्खणमेव हरिसविसंखलचलणगई वियडकडिassोवा पत्ता मयरदाढा उच्चासणासीणा जोहारिया जामाउएण पभणिया य वच्छे ! किमच्छेरं एवं निच्छिऊण मए तथा मंतियं तुह पुरओ किं दुकरं पेम्मपोढिमाए । किं तए पुच्छि ( सुत्ति) ओ पाणेसो, को पत्थणाविहाणमग्गो एयाए । भणियं तेण अम्मो अइदुक्करो पत्थणापयारो, जइ अंगीकरेसि ता कहेमो, भणियं च एयाए कामदुहालाहे वि किं नाम किं पि दुकरमत्थि । जइ एवं ता चिरसंचियसव्वदव्वसारं नीसारेसु सगिहाओ । देसु जस्स कस्सइ पडिहासइ, पुव्विलधणस्स कणेवि विज्जमाणे न एसा फलदारिणित्ति तेण भणिए, भणियमेयाए कस्स अन्नस्स घरसारमप्पिस्सं । किमन्नोवि कोवि गोरव्वो ? अंगीकरेसु सव्वमेयंति अप्पिय
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मरकदाढाबेश्याकथा ।
॥ २२ ॥
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मसेसं मणि-रयण-कणय-धण-वसणाइ कीलियापजतं । अणेणवि पुव्वपउणीकयाणि वाहणाणि भरावेऊण कयाणि जयंतीए वहंतजम्यूचरित्रे
मरकदाढायाणि । तओ पूइऊण पणमिऊण खमाविऊण अ(प्पणा)प्पिया सपाणिणा मयरदाढा पाणिमि गालियप्पदीणारा मकडकामधेणूं।"
| वेश्याकथा । ॥ २३॥IN
भणिया य अका, इओ सत्तमदिणे दिणेसवासरे पढमपत्थणा कायव्वत्ति, भणिऊण य निग्गओ गेहाओ। वाहणाणुमग्गलम्गो पत्तो जयंतीए। मयरदाढावि रविवारे ण्हायाऽणुलित्तगत्ता होऊण थडए चडाविऊण मकडकामधेणुं पूइऊण पणमिऊण य पंचंगपणिवाएण मग्गेइ एगसयं, इमा वि मुहाओ उम्गीरिऊणमप्पेइ । वाराहिं दोहिं तीहिं अप्पिए पुवगिलिए सव्यसारे घरकुक्खी व । तकु
क्खी जाया सव्वरित्ता । तओ ममिगजंती वि न किंपि अप्पेइ। च(डि)ड्ढिज्जती चिकारे चेव मुंचेइ । तओ सा खोट्टिया पोर्ट्स | कुट्टेमाणी पोकारेइ । हा हा हया अवयं, वंचिया तेण धुत्तेण । पारउव्वपविट्ठ तदव्वं सव्वं पुव्वसंचियपि गहाय गयं । कामदुहाए | लोहेण, लंघियाई विडंपिया एवंपि जणलग्गपि गये, संजाया रोरनारित्ति । “ पक्खी पासेसु जहा, जलंमि जालेसु जलयरा वा| वि । तह किं न लोहजतंमि, निवडिया विणडिया एवं ॥३०१॥” इति मयरदाढाकहाणयं ।। कहियं कहिऊण भणियं सिंधुमईए-भत्ताणुरत्ताओ विमोत्तमम्हे, दिक्खाए सोक्खं परमीहमाणो। तं नाह ! किं मक्कडकामघेणु-लुद्धाए अकाए समो न होसि ? ॥ २॥ भणियं च-इहलोकसुखं हित्वा, ये तपस्यन्ति दुर्धियः । त्यक्त्वा हस्तगतं प्रासं, ते लिहन्ति पदाङ्गुली ।। ३ ।।
जंबूनामा ततोऽवोचत् , ज्ञाता ज्ञातासि सुन्दरि !। भोः सिन्धुमत्यवश्यं त्वं भौताचार्यसहोदरी ॥४॥ पुराऽभूत्परमाचार्यों, मूर्खचक्रकशेखरः। सन्निवेशे क्वचित्प्राप्तो, जडिमा पिण्डितामिव ॥५॥ मुक्त्वा स्वस्य प्रतिच्छन्द, मठिकारक्षपालकं । शिष्य जगाम स प्रामे, कदाप्यासन्नवर्तिनि ॥ ६॥ माहिषैर्दधिभिः सार्द्धमशित्वा कोद्रवौदनं । तुन्दं परिमृजन् सुप्तः, स्वप्नं साक्षादिवेक्षत ॥७॥ मठिका मोदकैः सा मे, सम्पूर्णा सिंहकेसरैः । क्षणात्प्रबुद्ध उत्तस्थौ, प्रीतिकण्टकितत्वचा ।। ८॥ धावितस्तूर्णमभ्यण, स्वग्राममठिकामभि । शिष्यः कदाचिदद्याद्वा, दद्याद्वाऽन्यस्य कस्यचित् ॥ ९॥ तत्रत्य तालकं द्वारे, मठिकायामदाद्रुतं । शिष्यमाह मठी सेय, दिष्टया मे मौदर्भता ॥ ३१०॥ शिष्यो नृत्यति तोषेण, द्विगुणं तद्गुरुस्ततः। शिष्यमाविष्यदद्य त्वं, समनं ग्राममाय
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भौताचार्यकथा।
॥२४॥
(सत्वरम् ) ॥ ११ ॥ मया देयाऽचिरादद्य, सद्यो मोदकभक्षिका । ग्रामो निमन्त्रयामासे, ततः शिष्येण सर्वतः ॥ १२ ॥ मद्गु. जम्बूचरित्रे
| रुमोदकैरद्य, भोजयिष्यति सज्जनान् । सुप्रसन्नेन रुद्रेण, तैर्मठी निर्भर भृता ।। १३ ।। समस्तेऽपि जने प्राप्ते, प्रीत्यां पक्त्यां निवेशिते । मार्गमालोकमाने च, मोदकानामुपायताम् ॥ १४ ॥ तालमुद्घाटयामास, गुावत्प्रमोदवान् । रिक्तां फुत्कुर्वन्तीं तावत्, मठीमालोकते कुधीः ।। १५ ।। ग्रामो हसन्नथोत्तस्थौ, दत्ततालः परस्परं । आह स्म भस्मभृलोकः, क्षणमेकं प्रतीक्षताम् ।। १६ ।। | युष्मदागमहर्षेण, विस्मृतं स्थानमस्ति मे। सुप्त्वा प्रागिव यावत्तजानीयां भोजयाम्यथ ।।१७।। पादौ प्रसार्य सुप्तोऽसो, तथा
स्वस्नोपलब्धये । शिष्योऽपि वारयामास, लोककोलाहलं मुहुः ॥ १८ ॥ मूर्खः शिष्यो महामूखों, गुरुश्वाश्चर्यमेतयोः। संयोगः सदृशः K| सोऽयमन्धस्य बधिरः सुतः ॥ १९॥ युक्तं चोद्यते-श्वेताम्बरेषु सज्ज्ञानमज्ञानं भस्मवेश्मसु । ब्राह्मणेष्वक्षमा कुक्षि-पर्याप्तिर्दिक्पट
व्रते ॥ ३२० ॥ न लक्षयेते (तौ द्वौ च ) लोकेन, हस्यमानावपि स्फुटं । कृत्वाऽट्टहासः स्वस्थानं, जगामाथ जनोऽखिलः ॥२१॥ | ततः शुभे! परिभावय-भौताचार्यशिरोमणिर्जगदिदं जाडचेन जिष्णुर्यथा, स्वप्नाऽऽसादितमोदकः पुरजनानामन्त्र्य हास्योऽभवत् । भोगैः स्वप्नसमैस्तथा कतिपयैरेतैः क्षणध्वंसिभिभूयो लोभयमानिका मम मनः किं हस्यसे त्वं नहि ॥२२।। इति भौताचार्यकथा । अह पउमसिरी पभणइ, मोत्तूणाऽम्हे वयं पवनस्स । पिय ! ते पच्छुत्तावो, होही वाणरवरस्सेव ॥२३॥ अथ वाणरमिहुणकहाणकं
एगाए अडवीए, वाणरमिहुणं अहेसि सुसिणेहं । परिअडमाणं पइतरु, तं सुरसरितीरमणुपत्तं ॥ २४ ।। वंजुलसाले कीलेइ, तत्थ मंथरविसालसाहाले । कयफालो पालंबाउ, चुकओ मकडो पडिओ ॥ २५ ।। खरधरणिवदुनिठुर पहारपीडाए पाविओ संतो। || देवकुमारायारो, सो जाओ माणुसजुवाणो ।॥ २६ ॥ तो वाणरी विचिंतेइ, तित्थमाहप्पसंपयाणप्पा । अहह इमा ता अयमिव, IN अहंपि पाडेमि अप्पाणं ।। २७ ॥ विच्छोइछोहियाहं, करेमि एगागिणी किमिह रत्ने । होऊण माणुसी नणु, इमस्स अंकंमि की
लामि ।। २८ ॥ तह पडिया सा जुवई, जाया जाया जहा अणंगस्स । हरिसभरनिब्भराई, कीलेउं दोवि लम्गाई ॥ २९ ॥ जुवई जंपइ पुरिसो, जाओ इं वाणरो वि ताव नरो। जइ पुण पडेमि ता होमि, सुयणु नूणं सुरकुमारो ॥ ३३० ॥ भणियमिमीए मा
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जम्बूचरित्रे
॥२५॥
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नाम, सामि ! अइलोहलालसो होसु । अमरमिहुणाणुगाराणमम्ह किं नृणमूणमहो ॥३१॥ पुण पडियाणं जाणेइ, को णु मा होज मूलनासोवि । कुण भणियं मा लंघसु, महवाणिं दिव्ववाणिं व ॥ ३२॥ वारंवारं वारिज्जमाणमाणसवियप्पदप्पो वि । पडिओ पुणो
अतिलोभे वि जाओ, वाणरभावेण तेणेव ॥३३।। अइदीणमणो अणुतावतावियंगो कुरंगनयणाए । पुरओ पत्तो झूरेइ, वारियं ते मए न कयं
वानरमिथु | ॥३४॥ सा आगएण केणावि, रायकुमरेण नियपुरं नीया । विहिया जाया जाया य, भायणं भूरिभोगाण ॥३५।। स पवंगो गंगाए,
नकथा कयतुंगतरंगभंगिसंगाए । गोरंगिझाणझिझंतपत्तलंगो गओ निणं ॥३६॥ इय नाह! कहिउ मई अप्पभास, परिभाविउ जं वाणरह IN जाओ। अइयारु न किज्जइ कहिवि अत्थि, जिंव पडियइ नेयारिसि अणत्थि ॥३७॥ इति वाणरमिहुणकहा ।। अथ जम्बूर्वभाषेसुन्दरि ! शृणु ममापि भावं । " औचित्यचारि म(चित्तं)थितं चतुरोऽपि लोभ, कान्ते ! करोति तदहं किमु मास्म कार्ष । लोभं विना न खलु कोऽपि कुतोऽपि कस्याप्यभ्यासमाश्रयति जातु तनूद्भवोऽपि ॥ ३३८ ।।" न चैष दीक्षालोभो ममौचित्यातिक्रमकारी, तस्याः श्रेयःसिद्धिनिबन्धनत्वात् । यद्वा न करोम्येव लोभलाम्पट्यम् । न च न भाविदीक्षाशिक्षासाम्राज्यमस्य प्राक्पुण्यप्रभावादवश्यंभावित्वात् । भाग्यसोभाग्यभाजो हि भूयान् कोऽप्यर्थोऽप्राप्यमानोऽपि सिद्धदत्तस्येव सद्यः संपद्यते । तदभावे त्वतिलोभसंभवेऽपि वीरसेनस्येव विलीयते, तथाहि-चन्द्राभायां नगर्यामाशापुरी नामतोऽर्थतश्च क्षेत्रदेवताऽऽसीत्तस्याश्च मन्दिरोदरे द्यूतकारः कोऽपि क्षपायामुपेत्य तत्कालपकपूपांस्तद्दीपतैलेन खादति । ततस्तया स्वदीपच्छेदमुच्छिष्ठता स्पृष्टतां चामृश्यमाणया तापनाय प्रसारितं ललल्लोललम्ब जिह्वालं वक्त्रान्तरालं, तेन च निर्भयेन निःशूकेन चार्द्धजग्वपूपेन निष्ठ्यूतं जिलायाम् । ततः कथमुच्छिष्टनिष्टयूताऽपूतामेतामन्तःक्षिपामीति तथास्थितजिलैव देवी प्रातर्ददृशे पौरलोकैः । अहो किमिदमाकूतमुप्तातः कोऽप्येष पौराणामित्याकुलस्तैः क्रियमाणेष्वपि शान्तिकपूजाप्रकारेषु यावन्न संवृणोति वक्त्रान्तरालपातालं तावजल्पितं जनीतचेतोभिः । पुर्या पर्याप्नुयाकश्चिदेतदुत्पातप्रशान्तये, उदितं तेनेव-अहमत्रार्थे समर्थः, परं प्रथमं तावदीनारशतं पूजाप्रकारोपचाराय मत्करे कुर्वीध्वं, प्रयोजनसिद्धौ वस्त्रादिसन्मानः समुदायोचितः कोऽपि कार्यः, जनो मण्डलमण्डलैमन्त्रयामास । गतकारमान्त्रिकोऽयं व्यसनविषन्नानस्मा
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जम्बूचरित्रे
कृतपूतनासूतकारप्रसङ्गः।
॥ २६ ॥
नालोक्य बुभुक्षुभिक्षयिषति पूजाव्याजेन परं किं क्रियते व्यसनार्तचेतोभिः । “नैमित्तिकानां भिषजां द्विजाना, ज्योतिर्विदा मन्त्रकृतां च पुण्यैः । लक्ष्मीवतां वेश्मसु देहपीडाभूतग्रहादिव्यसनं समेति ।। ३३९ ।।" इत्यर्पितं दीनारशतं तस्य हस्ते । रात्रौ भट्टारिकामन्दिरान्तः प्रविश्य प्रदत्तद्वारकपाटसंपुटः प्राह स्म । किमिति कृत्ये प्रकृत्या न भवसि ? । कृतपूतने ! मण्डितं विज्ञानं किंचिन्न करोषि मदुक्तं युक्तम् । तदस्तु वक्रवेधस्य वक्रा कीलिकेति यावज्जिह्वायां विष्टाय संरंभते तावन्न किंचिदेतस्य पापीयसोऽकर्तव्यमस्तीति, जाता यथावस्थितमूर्तिरेषा । जातमुपप्लवप्रशमात् पत्तने सौख्यम् । अन्यदा द्यूतहारितमस्तकपणः प्राप्तोऽसौ भट्टारिकायाः पुरः प्रोवाच ।
देवि ! देहि पणितहारितमस्तकस्य मे तन्मोचनमूल्यं दीनारपंचशतीम् । भट्टा-कि त्वया त्वत्पित्रा वा मत्पार्धं निक्षिप्तमासीत् । तात०-मातर्न निक्षेपकः कोऽपि, किन्तु मस्तकच्छेदान्ते व्यसने स्मृता त्रायस्व माम् । भट्टा०-किं न त्रायिष्ये त्वद्भक्तेस्ता| दृशा यत्क्रियते तदत्यल्पम् । दुरात्मन्निदानीमेवं नाम दीनता दर्शयसि तदानीं तदकार्षी ॥ ३४० ।। न चैतचिन्तितमेतया नैव मृत्युदशादीनां याचमानं विमानयेत् । स (न) खल्वाकुलितैः प्राणः परप्राणान् क्षणात् क्षिपेत् ।
त०-यदि न भक्त्या प्रसीदसि तदा यथा प्रसीदसि तथा करोमीति तद्भङ्गकारिपाषाणाय बहिनिस्ससार । भट्टारिका क्षिप्र| मेव द्वारं पिदधे । द्यूतकारो महतीं शिलामुत्पाद्य प्राप्तः पिहितकपाटं द्वारं प्रेक्ष्य, विलक्षः शिलया कपाटे आस्फोटयामास । तथापि तयोरनुघटितयोर्मन्दिरप्रदीपनाय प्रावृतत् । सर्व सम्भाव्यते स्वर्भाणुस्वभावेऽस्मिन्निति भीतया तया सत्वरं द्वारमुद्घाट्य पूत्कृतम्रे रे नष्टदुष्टचेष्ट ! मा मन्मन्दिरं दिदीपः । निष्कृपतया कृताऽहं त्वया किंकरीव किं करोमीदानी, याहि पुस्तिकामेतामादाय दीनारपश्वशत्या ददीथाः (याः)। द्यूतक-यदि नैतावन्मूल्यं लप्स्ये तदा ते(न)दरास्ते च मेढकाः, क्व यास्यसि, मयाऽऽरब्वेत्युक्त्वा पुस्तिकां च गृहीत्वा प्राप्तोऽयं विपणिपक्तौ । पुस्तिकां च प्रदर्य मूल्यमतुल्यं जल्पन्नुपहस्यमानः प्राप्तः पुरन्दरपुत्रस्य सिद्धदत्तस्य हट्टे । तेनापि पुस्तिका
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जम्बूचरित्र
॥२७॥
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प्रेक्ष्य मूल्यमुक्तस्वदेवावादीत । सिद्धदत्तेन चिन्तयांचक्रे-किमिदं मर्कटस्य जयकुञ्जरमूल्यम् । तद्भवितव्यं हेतुना केनापि । तदन्तस्तावदालोकयामीति विसृत्य वीक्षते प्रथम पत्रम्-" प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः" इति । अये ! उपजातेरेक एवायं पादः ।
सिद्धदत्तेन कटरे मम हृदयसंवादः । इयमेव परमार्थव्यवस्था । इति दीनारपञ्चशती प्रदायाऽऽदायि पुस्तिका । यावत्तमेव पादं परामृशन् कथ
पुस्तिकामयं श्लोकः शेषपादत्रयीप्रवित्रः स्यादिति ध्यायश्चिन्तारत्नप्राप्ते चात्मानं कृतार्य मन्यमान आस्ते तावत्प्रातिवेश्मिकवणिक्पुत्रस्तालोत्ता- क्रयणम् । लवाचालरहो सदायप्रायापूर्वक्रयाणक्रयेण वर्द्धिता गृहवात्तैत्युपहसद्भिः प्रकाशितोऽयमर्थः पुरन्दरस्य, सकोपोऽयमुपागतस्तत्र दिनाय व्ययविलोकनाय । पुस्तिकाक्रये दीनारपश्चशतीव्ययं विलोक्य प्रोक्तं पित्रा कुत्रार्थे व्ययोऽयमियान् । के वयं विद्वांसः पुस्तकसंग्रहाप्रहपहिलो यदि परं भवानेव विद्वान् । विक्रीयमाणयाऽप्यनया न कोऽपि पानीयमपि पाययति । तद्रूज त्यज मद्गृहामेतावता वित्तनोपात्तेनात्र प्रवेष्टव्यम् । तत एतावद्भिः सहस्ररर्जितर्मयाऽऽगन्तव्यमिति निश्चित्य निःसृतोऽयं प्रदोषे । स्थितः पत्तनान्तर्वर्तिनि देवकुले क्यापि क्षपाक्षेपणाय । तत्पादतात्पर्य पर्यालोचयनिश्चिन्तः सुखं सुष्वाप । ___इतश्च तस्यामेव पुयाँ राजामात्यपुरोधःपुत्रिकाणां रतिमञ्जरी-रत्नमञ्जरी-गुणमञ्जरीणां सहसंवाससंजातनिस्सीमसख्यानां विप्रयोगभीरूणामेकदा संलापः समजनि। किल बालकालभावादेतावन्तं कालं सहपांसुक्रीडासुखमन्वभूम, संप्रति पुनरलंक्रियामहे वैरिणा यौवनेन । न जानीमो विधिवात्ययोत्पाद्य क्वापि प्रक्षेष्यामहे, ततो राजाङ्गजया जजल्पे-यद्येवं नाम युष्माकमन्योन्यं स्नेहानुबन्धस्तदा यावदद्यापि जनकैः क्वापि कस्यापि न वितीर्यामहे तावद् भवामः कस्याप्येकस्य स्वयमेव स्वयंवरा येन यावदायुरवियुक्ता वर्तामहे। प्रतिपन्नमेतदशेषाभिः । ततो राजाबजया दूरदेशायातो महाकुलीनः कोऽपि पृथ्वीपतिपुत्रः पितृसेवको वीरसेननामा समाकार्य प्रच्छन्नं प्रोक्तः प्रस्तुतार्थे । तेनापि तत्तरुणिमोझेदभिदुरहृदयेन प्रतिपन्नमेतत् । पुरीपरिसरसुरागारमण्डपमध्ये तरलतरतुरङ्ग
| ॥२७॥ साधनसध्रीचा त्वया तृतीयदिने निशीथिन्यां स्थातव्यं येन परिणीय पलायामहे इति कृतसङ्केतस्य तस्यागतं तदिनं । तत्र च त|त्कालप्राप्तेन तत्तातरिवारेणाऽऽरब्धोऽयं योबूम् । स्वल्पबलोऽनल्पबलेन परिभूतो गतः स्वदेशम् । राजाङ्गजाऽपि जातायां याममा-10
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जम्बूचरित्र
॥२८॥
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त्रायां त्रियामायां परिणयोपकरणवस्तुविहस्तहस्तदासीसहिता प्राप्ता संकेतमण्डपान्तः, ददृशे सुखप्रसुप्तस्तत्र सिद्धदत्तः। पूर्वपरिचयोप
प्राप्तव्यमर्थ जाता संधया चोक्तमेतया । अहो ईदृशप्रयोजनारम्भसंरम्भेऽपि निश्चिन्तः प्रसुप्यते, ततः प्र(बोध्य)चोद्य स प्राहितः स्वपाणि IN पाणिना। निर्वर्तितगन्धर्वविवाहया कृतः कङ्कणबन्धः। स त्वं गृहीतसंकेतः किमप्यनुल्लपन् किमिदमिन्द्रजालं जायत इति विस्मयमा
लभते मनुष्यः नमानसः “प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः" इति परामृशन्नुक्तस्तया कृता कृतार्थाहमन्ये अपि मद्यस्ये विधीथाः। कुत्र पुनः IN पलायनवाहनानि सन्निहितानि विहितानि । तेनोक्तम्-किमेवमाकुलाऽसि निद्रालवो वयं शयिष्यामहे तावदिति स्थितः सप्ताऽपदे
शेन, तया तु तं तथा निराधि-निराकुलमालोक्य, मा नाम न भवेद्वीरसेनोऽयमिति पूर्वानीतज्योतिः सरावसंपुटमुद्घाट्य यावद्वध|लोकि तावज्ज्ञातमज्ञातः कोऽप्येष धूर्तः प्राप्तः स्यात् । अस्तु यः कश्चित् सुकुमाराकारेणानेन कन्दर्परूपदोपहारी पुण्योपनीतः |
परिणीत एव किंचिदनुचितं ततो वीक्षिता मस्तकान्तन्यस्ता पुस्तिका । गृहीत्वा विवृत्यादितो वाचयति । “प्राप्तव्यमयं लभते | मनुष्यः" इति । पादमात्रमप्येतत्कर्पूरपूरपरिमलवद् व्यापकं लोकानाम् । अहो समयाक्षराणीव एतदक्षराणि परमार्थप्रथाप्रथीयांसि ।। कथमन्यथेत्थमर्थोऽयमभूत् । आगमिष्यन्त्योरपि सख्योः प्रत्ययाय करतलघोलितकज्जलेन " किं कारणं देवमलङ्घनीयमिति " द्वितियपादं लिखित्वा द्वितीययामान्ते जगाम रतिमञ्जरी स्वगृहान् । तृतीयप्रहरे प्राप्ता रत्नमञ्जरी। सापि कङ्कणबन्धलिपिसंवादो रतिम-16 अर्याः पर्यालोच्य तेनात्मानं पर्यणाययत् । पादद्वयान्ते तथैव-" तस्मान्न शोको न च विस्मयो मे” इति तृतीयपादमालिख्य स्वस्थानमासीसदत् । एवं गुणमञ्जर्याऽपि तुरीययामे समागत्याऽऽत्मानं तेन परिणाय्य-"यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम्" इति तुरीयपादं तत्पुरो निवेश्य स्वगृहमगात् । ततो मा वयमीहगपराधाऽऽधानधामानि भूमेति न्यवेदितं सुताचेष्टितं चेटिकामिस्तन्मातणां, ताभिरपि स्वस्वभर्तृणाम् । ततोऽभाणि भूभुजा-देवि! दुहिता दुश्चापलतू (चू)ला शीलिता येन शून्याऽमर्त्यसद्मसुप्तः कोऽपि कार्पटिकः पादचारी परिणीतः स्यात् , किं क्रियते । देवी-देव! नापरः प्रकारः कोऽपि सम्प्रति "सकृत्कन्याः प्रदीयन्ते ।” एतदेव तया प्राप्त-'प्राप्तव्यमर्थ लभते मनुष्यः' । किंच त्वत्पुत्रिकया स्वीकृतः कार्पटिकोऽपि पृथ्वीपतिरेव । यतः-“ क्षाराम्भोधिभुवः कलङ्कि
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जम्बूचरित्रे
सिद्धदत्तस्य राजकन्यादि प्राप्तिः।
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ततनोरिन्दोर्जडज्योतिषो, मुक्त्वा शम्भुशिरोनिवासमपरा का भूमिका के गुणाः। अभ्राकिं नु पतन्ति कोऽपि गुणिनो राजप्रसादोचिता, यत्र स्वामिदृशो व(च)लन्ति धवलास्तत्रैव सर्वे गुणाः ।। ३४१ ।।" तद्यावन्नाद्यापि क्वापि प्रयाति तावत्प्रधानपुरुषान् प्रेष्य प्रवेश्यतां स्तम्बरमारूढः पत्तनान्तः। ततः पार्थिवेन प्रेषितैः प्रधानपुरुषैरवार्यतूर्याडम्बरेण प्रबोधितः सिद्धदत्तः कङ्कणत्रयालङ्कृतेन दक्षिणपाणिना पुस्तिकामादय वाचयति-प्राप्तव्यमित्यादि । अये ! जातोऽयं श्लोकश्चतुपादः । अहमप्यष्टपादोऽभूवम् । इयन्मात्रेऽपि प्रयाणे निर्व्यवसायस्याप्यनुकुलविधेमें जातश्चतुर्गुणो लाभः । यद्वा-" व्यवसायं दधात्यन्यः, फलमन्येन भुज्यते । पर्याप्त व्यवसायेन, प्रमाणं विधिरेव नः ॥ ३४२" ततो राजकुञ्जरमारोप्य प्रापितः प्रधानैः पृथ्वीपतिप्रासादमेषः। कृतपादप्रणामो मम प्रसादपात्रस्य पुरन्दश्रेष्टिप्रेष्टिनः पुत्रोऽयमिति प्रत्यभिज्ञातः पृथ्वीभुजा । अमात्यपुरोहितावपि विदितवृत्तान्तौ प्राप्तौ स्वस्वपुत्रिका| त्तान्तं राज्ञे व्यजिशपताम् । सर्वेऽपि पुरन्दरपुत्रजामातृप्राप्त्या पुत्रिकाचापलचेष्टितेन तुष्टाः परिणयोत्सवाय प्रोत्सहन्ते स्म । पृथ्वी| पतिना रतिमञ्जरी-रत्नमञ्जरी-गुणमञ्जरीणां तिसृणामपि प्रारेमे पाणिपीडनं प्रतिपादितवांश्चष सहर्षम् ।-"तत्तिल्लो विहिराया, जाणेइ दूरेण जो जहिं वसइ । जं जस्स होइ जोगं, तं तस्स बिइजयं देइ ।। ३४३ ॥” प्रदत्ता पार्थिवेन जामात्रे ग्रामपञ्चशती, जातो महान् सामन्तः। पुरन्दरपादपर्युपास्तिपरायणः पालयामास समृद्धिः। “पुण्यप्रकर्षनिकर्षः खलु सिद्धदत्तः, सुप्तोऽप्यसुप्तमहिमप्रथिमानमापत् । त्रस्तकहायनकुरङ्गविलोलनेत्रे, तद्वत् भविष्यति ममापि मतार्थसिद्धिः ॥४४॥ तओ पउमसेणाए, जंपियं पिय ! किजए। पब्बजाउजमो किंतु, सुगत्तं न जुज्जए ॥ ४५ ॥ थिराण होइ जं लच्छी, जहा सुंदरसेद्रिणो। ऊसुगाण पुणो जाइ, हुंतीवि जह विठुणो ॥ ४६ ।। गामे गुणत्थले आसि, सिट्टी नामेण सुंदरो। सुंदरी दइया तीए, जाओ पुत्तो पुरंदरो ॥४७॥
समाणकुलसीलाण, गेहे सो परिणाविओ। गामवासंमि सव्वाणि, सुहेणच्छति ताणि य ।। ४८ ॥ दुद्धं दहि घयं (निद्धं) नव्वं, सव्वं N/ घनं घरोदरे । (पाणि) घासिंधणाइ निम्मोल्लं, गामवासो अहो सुहो । ४९ ॥ भत्ता जुत्ताणुरत्ता य, एगा सिलप्पिया पिया । | पुत्तो वुत्तकरो जमि, सग्गो गामो वि सो धुवं ।।५०। उक्तं चान्यत्र-"एकु वल्लही अउरू अणुकूली एहज सग्गह मत्थइ तू(मूली।
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॥२९॥
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॥ ३० ॥
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लहू माणुसु बिrs पयट्टइ सक्करसत्थरि घेवरु लोट्ठइ ।। ५१ ।। " कयाइ तस्स गेहस्स, अंगणाखढकिया । वासासु पडिया जायं फोक्कवारमहो (ओ)गिहं ॥ ५२ ॥ सुंदरीए तओ सेट्टी, वुत्तो किं न खडकिया । काराविज्जइ अज्जेव, नाहं सक्केमि रक्खिउं ॥ ५३ ॥ वित्तं न देसि कसाव धारपाहरियस्स वि । पसारिय (मु) सुहं दारं, वंचिओ जो न चोरए ॥ ५४ ॥ तेणुत्तं अस्थि वग्धि व्व, दुवारे कुक्कुरी कया । भसंती वारए सव्वमपुब्वं पविसंतयं ॥ ५५ ॥ कालेण कित्तिएणावि, सावि केणावि मारिया । उग्घाई सव्वा सुन्नं, दुवारमभविंसु तो ॥ ५६ ॥ सुंदरीए तओ वुत्तं, कावि किज्जउ कुक्कुरी । दुबारे सुन्नए कोवि, जाही मुसियमंदिरं ॥ ५७॥ सेट्टिणा भणियं लच्छी, थिराणं होइ सुंदरि ! । होइ वा जाइ वा एवं, आह सा को णु जाणए ॥ ५८ ॥ अन्नया पुत्तपत्तीवि, मया तो तीए भासियं । जुवाणं परिणाबेसि किं न पुत्तं पुणो वि तं ।। ५९ ।। एक्काऽहं केत्तियं काउं, कम्मं सकेमि ते गिहे । पुत्तो वि तरुणो दव्वं, बाहिं फेडिस्सए फुडं || ३६० ॥ सुंदरेण पुणो तीए, दिन्नं तं चैव उत्तरं । तीए वुत्तं नवो कोइ, लग्गो तुज्झ असग्गहो ॥ ६१ ॥ लच्छी गच्छिस्सए वस्समेबमेगग्गहस्स ते । मज्झं बुज्झेसु कज्जरस, कस्सावि कुरु जंपियं ॥ ६२ ॥ गामस्स तस्स मग्गेणमेगया भामहो गओ । जंतस्स तस्स रत्तीए, तट्ठा वेगसरी वरा ॥ ६३ ॥ सेट्ठिगेहंगणे पत्ता, वीसं दीणारवासणे । पाडित्तु पुट्ठिदेसाओ, सत्थमज्झे पुणो गया ॥ ६४ ॥ दद सेट्टी तमंधारे, हकारेऊण सुंदरिं । तुट्ठो भीओ य कट्टे, निक्खिवेइ घरोदरे ।। ६५ ।। दीणाण कित्तियाणंते, नाउं जीरवियं धणं एगंते मंतर तो सो, तोसोऽऽवेसेण सुंदरि ! ॥ ६६ ॥ लच्छी थिराण जा आसि, वुत्ता तुज्झ पुरो मए । सा एसा आगया कज्जे, तम्हा कुरु थिरत्तणं ॥ ६७ ॥ खडकियाए दिन्नाए, विसे वेगसिरी कहं । भसमाणी सुणी लच्छि तं वासेज सयंवरं ।। ६८ ।। पेईहराण गंतूण, कहेज बहुया धुवं । सव्वं निविग्धमो जायं, कज्जथेजे कए मए ॥ ६९ ॥ तुंगा खडकिया एत्थ, दारे दोवारिओ वरो। कायश्वो पुत्तववाहो, दव्वेण बहुहुणा || ३७० ॥ सुंदरो णूसुगो एवं संजाओ कज्जसाहगो । ता पाणनाह ! तं देसु, थिरत्ते चित्तमुत्तमं ॥ ७१ ॥ सिद्ध कज्जं विणासित्ता, उत्तालो अणुतप्पई । जहा विट्ठ सुणेयं पि, पाणनाहकाणयं ।। ७२ ।। कोडबिएण केणावि, बिट्टुणाऽऽरा
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सुंदरश्रेष्ठि
कथा ।
॥ ३० ॥
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॥ ३१ ॥
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हिओ सुरो । दव्वत्थिणा पसन्नो सो, विट्टुमेवं परंपए ॥ ७३ ॥ होडं हेममओ मोरो, नञ्चिरो पइवासरं । दाहामि पिच्छमेगंते, तेण तं होसि ईसरो ॥ ७४ ॥ तत्ति तेण संलत्तो, लब्धंतो हेमपिच्छए । रिद्धिसमुद्धरो जाओ, सव्वद्दा विलसेइ सो ॥ ७५ ॥ अन्नया चिंतियं तेण, को गंतूण दिणे दिणे । पिच्छं मग्गेइ सव्वंगं, मोरं तं चेव गिण्हिमो ॥ ७६ ॥ दिणे अन्नंमि नच्चतं, पिक्खि तं स धाविओ । घेत्तुं पाणिहिं होऊण, वायसो स पलाईओ ॥ ७७ ॥ ततो दिणाउ नो देइ, दंसणंपि स विंतरो । तो जाओ बिदकोडंबी, दरिहो दीणदुम्मणो ॥ ७८ ॥ उच्यते च – “ अत्वरः कुरु कार्याणि त्वरा कार्यविनाशिनी । त्वरमाणेन मूर्खेण, मयूरो वायसीकृतः ॥ ७९ ॥ " एवं च- 'पियसलिलालिभोगेहिं ताव, नणु अम्हि जाइ तारुण्णु जाव । अणुमग्गलग्गा अम्हेवि दिक्ख, जरजुन्न करेसहुं सव्बसिक्ख ॥ ३८० ॥
तस्य
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अथ जम्बूस्वाम्यवादीत् — भवदुदितमखिलमेतद्दयितेऽश्रूयत, तथापि न स्थैर्यमार्यैः कार्यम् धर्म्यकर्मणि, पापे तु युक्तमिदम् । खरतरसमीरलद्दरीलोलत्पलवलवाग्रतरलेऽस्मिन् । जनजीविते विभास्यति, निशां नवा वेत्ति को भुवने ॥ ८१ ॥ किंच - “ सम्पञ्चम्पकपुष्परागत रतिर्मत्ताङ्गनापाङ्गति, स्वाम्यं पद्मदलाप्रवारिकणति प्रेमातडिद्दण्डति । लावण्यं करिकर्ष्णतालति वपुः कल्पान्तवातभ्रमदीपच्छायति यौवनं गिरिणदी वेगत्यहो देहिनाम् ॥ ८२ ॥ ” स्थिरतायां हि कृतायामविहितसद्धर्मकर्मणोऽपि भवेत् । यदि पचता तदा स्यात् कुगतिः सुकृते ! त्वरध्वं तत् ॥ ८३ ॥ चरणं चिकीर्षितं चेद्भू (दु )तं, तदाऽऽचर्यतां चतुरमतिमिः । कालविलबेन तु विजयजयवद्विघ्न एव स्यात् ॥ ८४ ॥ विजयसुजयदृष्टन्तः
लीलाललाटिकाबद्वसुमत्यां वसुवतीति पूरासीत् । जयमित्रस्तत्राभूद् भूपतिरद्भुत गुणग्रामः ॥ ८५ ॥ अस्ति स्म सोमधर्मा, श्रेष्टी वणिग्जनश्रेष्ठः । प्रादुरभुवंस्तनयाश्चत्वारस्तस्य सद्विनयाः विजय- सुजयौ सुजातो, जयन्त ॥ ८६ ॥ १ पियालापी भोगेहिं B पियपालि लालि० C D २ धम्र्मे B. DI
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इति
DAYAY
हेममथमयूरो वायसीकृतः ।
॥ ३१ ॥
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विजयसुजयदृष्टान्तः ।
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नामधेयविख्याताः। सुकुलोत्पन्नाः कन्यास्ते चोपायंसत चतस्रः ॥ ८७ ॥ द्वित्रिचतुरादिपुत्रैस्ते फलिताः प्रौढपनसपादपवत् । गृहमारधुराधारणधौरेयत्वं दधुः सुधियः ॥ ८८ ॥ अथ सोमधर्मणा धर्मराजराज्ये यियासुना सर्वः । आकार्य गोत्रिकादिस्वजनजनो भोजयांचके ॥ ८९ ॥ स जगौ-तस्य समक्षं चतुरश्चतुरसुन्दुभवांस्तान् स्वान् । मा वत्साः! कार्युः सर्वथा, मिथः कलहकालुष्यम् ॥ ३९०॥ कीर्तिलता कूल्याम्भो, धर्माकुरप्ररोहणेकमही । सौख्यसुधांशुशुधांशुः, संवित्तियत्कुटुम्बस्य ।। ९१॥ अथ कथमपि संवित्तिस्तुद्यत्यन्योन्थमङ्गना वचनात् । सुनयास्तथापि तनया, न विरोद्धव्यं न योद्धव्यम् ।। ९२ ॥ यतः-"अपकीर्तिः सुरावासः, सुखप्रवासः कुवासनाभ्यासः । पापस्यैकनिवासः, परस्परं यः कुले कलहः ।। ९३ ॥" अपि बन्धूनां द्वैध, विदधानानां कुकर्णजापेन । मा कर्णे काष्टं वचः सदाऽबलानां खलानां च ॥ ९४ ॥ यदि तु कुतोऽपि भवन्तो, विभेजिवांसो भवेयुरुपरोधात् । क्रमशः कोणचतुष्कात् , तदा निधानानि गृह्णीयुः ।। ९५ ।। कतिपयदिवसैोते, ताते प्रेतेशवेश्मवास्तव्ये । प्राग्वत्प्रीत्या वतियत ते प्रभूतानि वर्षाणि ॥ ९६ ॥ सुमति कुटुम्बमारे, जाते यावन्न शक्नुवन्त्येव । वर्तितुमेकत्र ततो, विभक्तभावं विनिश्चिक्युः ॥ ९७ ।। द्रव्यं | दृश्य विज्ञातमस्ति, यावद्विभाजयन्ति निधीन् । तावद्गवाश्वकेशाः प्रादुरभूवन्विजयकलशे ।। ९८ ।। क्षेत्रस्य मृदन्यस्मिन् , तदुत्तर| स्मिन्पुराणवहिकास्ताः । मणिरत्नहेमदीनारसंचयस्त्वन्तिमनिधाने ॥ ९९ ॥ कलशं स्वकीयमालोक्य, मांसलामोदकंदलितहदयः । नरिनर्ति स्म जयन्तः, शेषास्तु तपस्विनः शुशुभुः ॥ ४००॥ हहहा तातेनोच्च किमवश्चिष्महि तदा हि नाविद्म । प्रक्षिप्य कूपकुहरे, जीनत्रोट्यत वरत्रा द्राक् ॥१॥ सर्वकनिष्ठः प्रागपि, पितुः प्रविष्टो मनस्यभूभूयः । कोऽपि विकारः केनापि, किन्तु नालक्ष्यतास्माकम् ॥ २ ॥ तदिदानी किं कुर्मः, पूत्कुर्मः कस्य तातदेवहताः। यदि वा सर्वेषां सर्वमेव कुर्मश्चतुर्भागम् ।। ३।। वदति
स्म जयन्तस्तानेतन्न कदापि लभ्यते कर्तुम् । स्वमुखविभक्ते तातेन, विभवजाते पुनः किमिदम् ।। ४ ।। कनकादितुल्यमासीद्भव| दप्राप्त्या मृदादितामगमत् । तत्कुप्यत पापेभ्यः, स्वेभ्यस्ताताय मैव पुनः ।।५।। अथ बहलकलहकोलाहलाः स्वकं स्वजनवर्गमुलध्य । अहमहमिकया जयमित्रपार्थिवं द्रागुपास्थिषत ॥ ६॥ सम्प्रतिपत्तिस्तेषां, तेनापि न पार्यते स्म कारयितुम् । अपरापरपुरपरिषत्पर्य
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॥३२॥
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De20
विजयसुजय दृष्टान्तः।
टनश्चिक्लिशुस्ते तत् ॥७॥ संवत्सरावसाने, जयमित्रनृपान्तिकं पुनः प्रापुः । पटहप्रदानपूर्व, तेनाप्युद्घोषणाऽकारि ॥८॥ दास्यति जम्बूचरित्रे N
विवादमेतं, यो दास्यति चित्तकलुषता चेषाम् । दास्यति तस्य नरेन्द्रो, 'मन्त्रित्वं दास्यते तं च ॥ ९॥ कस्यापि वाणिजस्यांगजेन पटहः समुच्छुपे सपदि । नृपतिसमीपं नीतेन, तान् प्रति श्रीनृपादेशात् ॥४१०॥ भणितममुना न नामास्ति, कापि वः सर्वथा विवादाप्तः । तातेन विवादः छिन्न एव यत्केशमृन्मुख्यः ॥ ११ ॥ जन्मनि जातकशुद्धिः, सर्वेषां वो व्यधायि जनकेन । गणकेनाकथि यद्यस्य, कर्म निस्समसमृदय स्यात् ।। १२ ।। वृष-करभ-सुरभि-सेरिभ-रासभ-तुरगादिविक्रया करणे । विजयस्य करिष्येते, | निरवधि वृद्धि न सन्देहः ॥ १३ ॥ सुजयस्य फलस्फात्य, केदाराचं संदेव कृषिकर्म । धनतः कलान्तरादेराप्स्यति लक्ष्मीमिह सुजातः
।। १४ ।। मरकतदीनाराचैरनवयं व्यवहरम् विपणिवीथ्याम् । जगति जयन्तस्तु वणिग्मामैकग्रामणीभविता ।। १५ । अत एव व्यव0 हारे पित्रा, परिभाव्य तत्र तत्रैव । प्रागेव च नियुक्ताः, स्व स्वं वः शङ्के समं चतत् ॥ १६ ।। आनाय्य ततो राजा, जयन्तक
लशस्य कारिता संख्या । तिर्यग्धान्यकलान्तर-धनेष्वपि प्रायशः साऽभूत् ॥ १७ ॥ क्षितिपेन ततः कथयांचके भो युक्तियुक्तमस्ती| दम् । मन्यन्तां न 'स्वेस्मिश्च, बान्धवाः क्यापि लभ्यन्ते ॥ १८ ॥ यत उक्तम्-"लहइ लीह सव्यो वि सहोयर परियरिउ, धरि
बाहिरि बसणूसवि संगरि अवयरिउ । सेसु विडा विडु सत्थु अत्थखायणमणउ, विहडइ वसणि कुमित्तु जेव निग्घिणमणउ | ॥ १९ ।। सो जि दिवसु सुपसत्थु पसत्था सा रयणि, जहिं नियनयणिहिं दिसहि भाउय अरु भयणि । जहिं घरि पुत्त-पउत्त
बंधु नवि संचरहिं, तहिं निरु पडणभयाउलथंभवि थरहरहिं ॥ २०॥" वत्सरमेकं तावन्न्यायमिमं धीधनास्तत्कुरुध्वम् । यदि भवति | वितथमेतन्मम दातव्यस्तदा दोषः ॥ २१॥ नृपवचसा संवित्ति, विधाय ते गेहमागताः सर्वे । तदभिहितव्यवहारैरवाप्नुवन्नुद्धरा वृद्धिम् ।। २२ ।। धनमनिधनमर्जयतामन्योन्यगृहेषु जग्धिमाचरताम् । दिवसाः प्रयान्ति तेषां, परस्परप्रीतियुक्तानाम् ॥ २३ ॥
१ मित्रत्वं । २ 'श्री' नास्ति । प्रतो । ३ क्रयणे B. क्रयेण D. C I ४ मृ। ५ स्वेस्निग्ध 1. DI ६ अरथु । ७ जेमुव B ।
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॥३४॥
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अथ वसुमतीनगर्यामाचार्योऽनार्यकार्यवर्जयिता । विजहार श्रीवसुदत्तनामधेयो सतां ध्येयः ।। २४ ।। परिसरवसुन्धरायां तेषां सद्धर्मदेशनासुधया। निर्वापयतां भवतापतप्तचित्ताननेकजनान् ॥ २५ ॥ शुभचर्याः सोदर्याश्चत्वारस्तेऽप्युपेत्य सत्यगिरः । प्रणिपत्य धर्म- IN विजयसुजयमर्माणि, कर्मनाशाय शृण्वन्ति ।। २६ ॥ वचनसुधाधाराम्भः, पायं पायं श्रवाञ्जलिपुटेन । चत्वारोऽपि बभूवुर्भावितमनसो विशे- योनिष्फलाषेण ॥ २७ ॥ प्रणिपत्य गृहानीयुर्विजयोऽजल्पद्रुतं प्रहीष्यामि । वदति स्म जयन्तोऽहमपि बान्धव ! प्रव्रजिष्यामि ॥ २८ ॥ किं IN दीक्षाभित्वद्यापि न पुत्रः, पर्याप्तो वेश्मभारमुद्वोढुम् । कतिपयमासानन्तरमुभावपि प्रत्रजिष्यावः ॥ २९ ॥ क्वचिवसरे व्यलोकयदागच्छन्ती लाषा। पितुगृहात्सायम् । स्मरमिव भुजङ्गमेकं, युवतिर्जाया जयन्तस्य ।। ४३०॥ संजिगमिषा प्रकर्षात्तस्य तया मनसिजज्वरार्दितया। अतितनुपीडाव्याजोऽज्ञाप्यत भत्रै जयन्ताय ॥ ३१ ॥ आगच्छत्सु चिकित्सावित्सु चिकित्सासु कार्यमाणासु । न खलु मनागपि तस्याः, सा व्याजरुजा शममयासीत् ॥ ३२ ॥ व्याजप्राणाचार्यः स भुजङ्गः प्रापितो जयन्तेन । निजजायायाः पाश्व, चिकित्सुितुं तनुरुजामुग्रम् ॥ ३३॥ उपपतिरिति विज्ञातः, कालात्कियतोऽपि तेन स स्वदृशा । परजनमुखेन तत्रागच्छंश्च निवारयांचवे ॥ ३४ ॥ यावत्तथापि न त्यजति, तां ततो मारणार्थमादिष्टाः। निजपत्तयश्छलते, मृगयन्ते तस्य तात्पर्यात् ॥ ३५ ॥ बहुलनिशीथे तैः, कापि IN तस्य सदनाद्विनिस्सरनिहतः। अहह भुजङ्गभ्रान्त्या, बन्धुर्विजयो जयन्तस्य ।। ३६ ।। असममसमंजसं जातमेतदाकर्ण्यकर्णकाकोलम् । बन्धुवियोगव्यथयाऽतिदुस्थितोऽजायत जयन्तः ॥ ३७॥ पूर्वविरक्तस्तस्मादतिवैराग्याहिदीक्षिषुः सुजयः । विजयो यथा द्विमासी तेनैव 10 विलम्धयामास ॥ ३८ ॥ कतिपयदिनावसाने, विविक्षवः केचनापि लुण्टाकाः । अदिदिषत सुजातेन, स्वपिति न भीतस्ततो रात्रौ ॥ ३९ ॥ सुजयोऽपि तत्र रात्रावेति स्वापाय नित्यमप्यभयः । लुण्टाकलोकरक्षानिबद्धकक्षः प्रदोषेऽपि ॥४४०।। व्यग्रतयाऽथ कदाचिनिशीथसमये स आपतन् ददृशे । सदनोपरि संचारेण, सत्वरं स्वानुजभ्राता ॥४१॥ उपसृत्य मण्डलामप्रहारतः पञ्चतां ततो गमितः। प्रविशञ्चौरभ्रान्त्या, ज्ञात्वा च शुशोच सुचिरमसौ ॥ ४२ ॥ व्यतिकरमेवं ज्ञात्वाऽनुतापपावकनिकामतप्ततनुः ।
॥ ३४॥ सुबहुसुजातोऽशौचीद्विदितोदन्तो जयन्तोऽपि ।। ४३ ।। भयचकितकुरङ्गीलोचने पद्मसेने!, विदितमिदमशेष मत्कथाया रहस्यम् ।
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॥ ३५ ॥
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अजनि यदपमृत्यो निष्फला स्थैर्यभाजो विजयसुजयबन्ध्वोजैन दीक्षाऽभिकाङ्क्षा ॥ ४४ ॥
अह भइ कणयसेणा, तुमं समो होसि सामि ! थेरीए । इय विसयगामलाभे वि, जो न संतोसमुव्वहसि ॥ ४५ ॥ एगम्म सन्निवेसे, वसंति दो सेज्झियाउ थेरीउ । ताणेगा आराहेइ, खित्तरक्खाकरं जक्खं ॥ ४६ ॥ अणुदिणं मंदिरं संमज्जिऊण लिंपेइ सत्थिए देइ | भत्तीए धुवमुग्गाहिऊण पूएइ जसत्ति ||४७॥ भणइ सुरो स पसन्नो, वरसु बरं साऽऽह देसु दीणारं । पइदिवसमेत्तिएणं, पुज्जति मणोरहा मज्झ ॥। ४८ ।। लद्वेण तेण सारखाण- पाणनेवच्छलच्छिसच्छाया । कुणइ अतिहीण पूयं सम्मा
|
सणसहिया ॥ ४९ ॥ अह मच्छरछारच्छुरियमाणसा पुच्छए परा थेरी । द्दे थेरि ! कहसु सव्वं, तुह कत्तो एत्तिया रिद्धी ॥ ४५० ॥ भणियं ए (चे) ईए अहं, कह न कहिस्सं नियाए भइणीए । संकरियाए पुव्वं, जह कहियं जोगराएणं ।। ५१ ।। ओ भणियं तीए कहेहि, ताव काणयं एयं । पच्छा पुच्छिय कहिजासु, तओ सा कहिउमारद्धा ॥ ५२ ॥
जोगरायनामाओ ठक्कुरो एगो कइवयपत्तिपरिवारिओ पत्तो पट्टणमेकं, परिसराऽऽरामवसुंधराए साहारतरुच्छायाए उबविट्ठो विसमि । पुरमज्झाओ निम्गओ तत्थागओ एगो पुरिसो । उववेसिऊण तंबोलदाणपुव्वं पुट्टो य ठक्कुरेण । किंनामधेयमेयं नयरं ? | पुरुषः---कलिमहाराएणमप्पणी पाणवलहस्स पसायदाणेण दिज्जमाणमणायारं नामेयं पट्टणं । योग० – कीदृशोऽत्राऽऽचारप्रचारः ? । पुरुषः- अणायारे केरिसो आयारो होइ । तहवि सुणेहि
जूयारपारदारिय-विडगठिच्छोडखत्त हडपाया । पाएण एया निवसइ, एत्थ पुरे तुंगधवलहरे ॥ ५३ ॥
योग०-- अहो आचारचातुरीचतुरखप्रजारामणीयकं नगरं धवलगृहाणाम् । कः पुनरत्र कलिमहाराजस्य प्रसादपात्रं पार्थिवः ? | पुरुषः- अविचारो नाम ।
योग० – युज्यते अनाचारस्याविचाराधिपत्यम् । अयोमुद्रिकायां हि काचमणिरेव योग्यो भवति ॥ ५४ ॥ के पुनस्तस्य गुणाः ।
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इर्ष्यालुस्थविरयोः कथा ।
।। ३५ ।।
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जम्बूचरित्रे
| योगराज्ञा
॥३६॥
Recene
Doormomeocomope
पुरुष०-नहु रक्खेइ देसु पुरु पट्टणु, कर करेइ नवनवा अभिक्खणु । मंडइ कूडुपजाई जउप्परि, कोसु तहावि होइ रित्त उपरि ॥५५॥ कुसलि खेमि संजाइ विहाणइ, अज्जु जाउ नायरजणु जाणइ । दिवसु जाइ वरिसेण समाणउ, सो करेइ इयराणि वराणउ ।।५६।। योग-साध्वी राजलीला । काकोऽपि पार्थिवो राजहंसपरिवारः श्नाध्यते तत्कथय कः पुनरमात्यः ।
विसंवादि| पुरु०-अन्नाओ अमचो। जस्स पुरे पत्ताणं, रावा हत्थाण होइ परिताणं । उप्पिट्टणय पहारो, जारिसउ मालपडियाणं ॥ ५७ || IN
राज्यस्थिति | योग०-उचितमुचितेन योजयति विधिः । अविचारस्य खल्वन्याय एव संगच्छते । युक्तं चोद्यते-जूयारियस्य धूया, परिणीया |
प्रेक्षणम् । NIगंठिछोडपुत्तेण । जुडियं वेवाहित्तं, मिलिय रयणस्स उ रयणं ।। ५८ ॥ योग-का प्रतीहारः । पुरु०-पिसुणपयारो पडिहारो। IN
पडिओ सुकालह पासि, एत्थु अस्थि मनभंतिकरि । जो पडिहारह पासि, धणकणलुद्धउ जाइ जणु ।।५९।। योग०-कः पुनर्नगरारक्षः । पुरुषः-सव्वडि'नामो। चोरचरडबंदियहं न भुक्काइ, भासिउ भागु लेइ नहु संकइ । रक्खवालु खयकालु सुरज्जह, सव्वलडि भुलइ न सकज्जह ।। ४६० ॥ योग०-अहो माणिक्यानामेकावली । श्रेष्टी कतमा १ । पुरुषः-लइवुडित्ति सेट्टी। विहिमाणिहिं ववहरइ निच्चुसेई तुलकरिसिहिं । घयमहुगुग्गुलगुलीगुलिहिं, इयरेहिं विमिस्सिहिं ॥६१।। पंचवीस बोल्लेइ बोल्लि पावियइ न एक्कहिं । तहवि धम्मतुल्ल एत्थु नयरि मन्नियइ सुलोक्केहिं ॥ ६२ ॥ परं पुत्तेण "गुणमालेण, | मूलनासेण लहुणावि । विभिन्नी भूएण संपइ, पच्छे पाडिउव्व सो जाओ ॥६३॥ जओ-उग्घाडइ फुक्काए तालय मच्छीणमजणं हरइ । खणइ कुणीहिं खत्तं, गंठिं छोडेइ पाएहिं ।। ६४ ॥ योग०-अहो एकैकमेकागलम् । अस्ति मुनिरत्र कश्चिद्विपश्चित् । पुरुषः-अत्थि डलकावणसीसमितपरिवारो महातवस्सी सावगिली। छारभरूकुंडियंगो वियडजडाजूडमंडियसिरगो । बगझाणं झायंतो, गसिउमणो सव्वपुरदव्वं ॥ ६५ ॥
6/॥ ३६॥
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जम्बूचरित्रे
॥ ३७॥
योगराज्ञा विसंवादि राज्यस्थिति प्रेक्षणम् ।
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योग०-यदि बकध्यानद्रव्यगाद्धर्थे तदा किमस्य भस्मजटाकू(जू)टाभ्याम् । का पुनर्बेश्या गणप्रामणीगणिका । पुरुषः-मयरदाढाए दुहिया बहुमाया।
अंखिहिं एगि निरिक्खइ एगई देइ मणु, अनि इब्भ बोलावइ अन्नहं देइ खणु ।
सिरि सिक्किरिउ लग्गहि केवि दुवारि तसु, रूलहिं अलत्तउ जेव मुक किवि लेवि रसु ।। ६६ ।। 6! योग-अहो एतस्य वैशिके प्रागल्भी। अमूदृशि सर्वसमवाये कीदृशी राज्यव्यवस्था । पुरुषः-कहं न कहिस्सं ।
एत्थु पट्टणि लोगु लुटुंतु चाहट्टइ हट्टि पुण जेण तेण जं, तंजि पलिजइ धरि बीहाइ बंदियह धीर कावि कासु वि न किज्जइ ।
नियचकहं परचकहं तणउ न भउ फिट्टेइ, आयउ देवह पइजणु कहिहि केव छुट्टेइ ।। ६७ ॥ अविय-जो जेण भिट्टिओ सो तेण पिट्टिओ, जो जेण दिदुओ सो तेण मुटुओ । जो जेण पाविओ सो तेण चाविओ, जो जेण वासिओ सो तेण नासिओ ॥१८॥
किंच-कोई विषयकजि जइ एइ, इह लेविण किंपि किर तासु तिग्जु निवदाणि दिजइ, तं डाहिवुडं गहणि जं सुहाइ तं लेइ निच्छइ । सेट्ठि बलाहिउ मंतिभडु बभणु सेसहं धाइ, खेमिकुसलि सो जइ कहवि वाह बिइज्जउ जाइ ।। ४६९ ॥
योग०–अहो राज्यस्थितिसौख्यं तन्मध्ये प्रविश्य प्रेक्षामहे तावत् । इत्युत्थाय पुरुषं विसृज्य प्राप्तः श्रेष्टिहट्टे, लयुबुडि श्रेष्टी दृष्ट्वा-कई जगए व पिया जोगराओ इति उट्ठेऊण जोहारेइ । आलिंगिऊण य उबवेसेइ उचासणे । कणभत्तण्सु पत्तीणमविजमाणेसु पत्तो हलकावण चेल्लउ उल्लवेइ । मज्झ एत्तो जंतयस्स तुम्ह पडलम्गाओ लग जडाजूडे तणखंडमेगमासि । तं सावगिलिगुरुहि गहेऊण पेसिओ ई अप्पणाय । जओ तिणकणोवि अकप्पणिजो णे अदिन्नो । करे करेह एयंति अप्पिऊण गओ सो नियढाणे ।
लिप्पद । १ तवि । ३ कलि B. DI४ दामिओ DI
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॥३७॥
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॥ ३८ ॥
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योग०- (स्वगतं -) कथमतृणहिंसकः कोपि महातपस्वी स भविष्यति, भविष्यति च मचिन्तितोऽर्थप्रथासामर्थ्यमस्येत्युत्थाच गृहे गत्वा भुक्त्वा च जगाम तत्पार्श्वे । नासिकाग्रलग्नलोचनमक्षमालाव्याकुलाप्रपाणि सावगिलिगुरुमभिवाद्यावादीत् । भगवन्नस्ति मे दीनारसहस्रमेतत् । क्वापि स्थाने कारयध्वम् । सोमेश्वरयात्राप्रत्यावृत्तः प्रत्यादास्ये । भणितमनेन - न वयं द्रव्यमग्रपाणिनापि स्पृशामस्तद्यद्यवश्यकार्योऽयमर्थस्तदा मठिकान्तः क्वापि कोणे स्वहस्तेन मुचस्व स्वहस्तेन च गृहोथाः, इत्ययं तथा कृत्वा नत्वा च निष्क्रान्तः । तिचउरमासेहि तित्थजत्तं काऊण दिसोदिसं गएसु सव्वेसु पन्तिसु, कलहपिंगेगेगेण छत्तधरेणाणुगमिज्यमाणो पत्तो सो रतीए अणायारपट्टणदुवारदेसे । घोढयं झाढजडाए बंधिऊण कलहपिंग पहरए मोत्तण जामदुगं जग्गिऊण पसुतो । तइज्जजामंते जग्गऊण वाहरिओ पाहरिको । जागर्षि रे कलहपिंग ! त्रिचतुरवेलायामजल्पीत् । जम्गेमि जोमि किं तु चिन्तं चिन्तेमिचोरेहिं चोरिए चोरिए ए ( प ) यम्मि पहाणं तए वा मए वा पुट्टेण वहियव्वं । योग० -- मूर्खशेखर! मल्हणिकायां गतायां किं घण्टकेन कार्यम् ।
प्राहरिकः — तुरीयप्रहरेऽप्यसौ तथा वादितः प्रोक्तवान्- चिंतं चिंतेमि-मह देहगामे प्राहज कोडुंबिओ उंघकंताए बलहो बसइ । तरस जाया निद्रा नाम नंदणी । दु (दु) णुक्करण परिणीया तीए जाया ठिप्पा नाम बेट्टिया । तव्बरचिताए वाउलोन्हि ।
योग० – धिग्मूर्ख ! ठिप्पायाचंदको वरः सुलभ एव, किमत्र चिन्तया । एवं च जाए पभाए पत्ता ते दोवि हिडियपुरिसेहिं उद्दालिओ वाहणतुरंगो सुंकमदाऊण किणिओ तए एसोत्ति । कयमत्थयपल्लाणो कलहपिंगेण धारिजमाणछत्तो जोगराओ जाव पुरंतो पविसेइ, ताव बोल्लाविओ लइलइ तंडाहिवइणा मत्थए पल्लाणं पल्लाणोवरि छत्तंति, को एस विसरिसो संजोगो । ता देह मे ठाणं अहवा पल्लाणंति । न तस्स तत्थ कोइ ठाणंति अप्पियं पल्लाणं, जइ तं तुरंगं पावीहामो पहाणंपि पाविरसामोति । तओ अज्जु रत्तीए तुरंगो पहाणं च लूडियंति, रावाहत्थो पत्तो स सव्बलूडितलारपुरओ । विन्नत्तो वृत्तंतो तस्स सव्वो । जहा
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योगराजेन विसंवादि
राज्यस्थिति प्रेक्षणम् ।
॥ ३८ ॥
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जम्बूचरित्रे
INयोगराजेन
॥३९॥
विसंवादि राज्यस्थिति प्रेक्षणम् ।
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अज्ज पुरवारे मज्झ केणइ गहिओ पाणहियाओ पाणहियाओ गलगट्रिया तलगट्रिया। चोरिओ चोरिओ। गसियं साइल्लाणं पल्लाणंति । भणियमणेण-महात्मन् ! निगृह्य दुर्वृत्तांस्तान् प्रयोजनं साधयिष्याम्यवश्यमेतत् । किन्तु रिक्तहस्तानां रिक्तव प्रयोजनसिद्धिः ।
योग-अहो नगरारक्ष ! सत्यमस्त्येतदस्ति । किं पुनर्न साम्प्रतं किमपि मे पार्श्ववर्ति, सिद्धप्रयोजनः प्रयोजनौचित्येन पूजां करिष्ये ।
सर्वलूडि:-कथय तावत् कौतस्कुतीयं तेन वाद्भुत(वस्तु)भूतभक्तिवासो वेषविशेषलक्ष्मीः। योगराजेनकान्ते क्वाप्यन्यवासांसि निवस्य समर्पितानि संवर्त्य तस्मै प्रोक्तं तेन-अपराहे सिद्धप्रयोजनं त्वं करिष्यामीति ।
योग-आस्तदेतदस्यापहारस्यापि कलान्तरप्रदानं यदनेन मच्चित्रवस्त्रस्वीकरणं । भवतु किं क्रियते । आशापिशाचिक वञ्चति । | अपराहेऽपि प्राप्ते परेारागन्तव्यम् । पुनः परेयुः पुनः परेारित्याचक्षाणोऽयं गणरात्रमेवातिकामयति न पुनः किंचित्कर्तुकामः, | केवलं प्रियालापमधुरकेण मां मिमारयिषति । गच्छामि श्रीकरणमिति गत्वा अन्यायमित्यस्य पूरस्तावशेष यथावद्वयजिज्ञपत् ।।
सचिव ऊचिवान-कर्त्तास्मि ते महतीं साराम् । प्रातःकरणवेलायां सर्वमत्रैव समर्पयिष्यामीति स प्रत्याशान्तःकरणः करणोदराद्वार| प्राप्तः प्रोक्तोऽमात्यप्रधानपुरुषेण प्रातरमात्याय दातुं दीनारशतं सहैवानीय ममेकान्तेऽर्पणीयं येन प्रयोजनसिद्धिर्भवति ।
योग०–करिष्याम्यौचित्यं सचिवाय प्रयोजनसिद्धौ पदान्तरे मिलितौ पारिप्रहिकपुरुषो। ताभ्यामपि तदेवादिश्यते ततस्तो | प्रतीहारकटुकादीनपि द्वात्रिंशत्पोडशादीनपि याचमानास्तेनैवोत्तरेण प्रेरयन् प्राप्तो दारभूमिकाम् । वणिग्लोकपेटकं शृङ्खलायन्त्रितमालोक्य प्रारिकममाक्षीदपराधमेषाम् । हस्तेन तेन निर्दिशता दिश्यते स्म । रायगोउलाओ अपुच्छियाऽऽणीय गोमयईंधणेण एयस्स गेहे रद्धं खद्धं च । तिचउरपाडिवेसियाणेयाण गेहेसु वीसमिओ तस्स धूमो। एयस्स कुक्कुरीए रायकुंजरस्स सम्मुहं भुक्करियं । एयस्स गिदुवारे गच्छंतस्स राइणो अगाहा अंगबाहा जायत्ति रायाऽवराहिणो सव्वस्सावहारेण दंडेयव्वा एएत्ति ।
योग०-अहो अन्यायनिष्ठा । अहो अयुक्तिप्रतिष्ठा । कालरात्रिरुपस्थितेदानी धनिनां धर्मिणां साधूनां वा, दीनारशतममात्यो
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॥ ४० ॥
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मार्गति । पारिप्रहिकादयोऽपि यथारुचितं याचन्ते । तुरङ्गस्तु मे पञ्चाशतमेव लभते, प्रहारपार्श्वादवलम्ब को भारिकः । ततो यदि जीवन्नितो निःसरामि तदा लब्धमेव मया सर्वमिति ।
" काले कलौ राजनि चार्थलुब्धे, धनानि किं रक्षत जिवितानि । स एव लाभो ननु शौनिकेन, मुच्येत मेषो गतकर्णको यत् ॥ ४७० ||" इति निराशीभूय निर्गतोऽसौ कृताऽन्यतो मुखद्वारां शावगिलिगुरोर्मठिकां गवेषयमाणोऽपि यावन्न प्राप्नोति तावनिराशोऽध्यासीत् । सोऽयं क्षते क्षारावसेकः । मन्ये दीनारसहस्त्रस्याप्यश्वगतिरेवाभूत् । कदाचिद्विचरता चतुरेणोपलक्षितो भिक्षुवेषेण क्षुल्लकः सः । तत्पृष्ठलग्नो जगाम सावगिलिगुरुमठिकाम् । प्रणम्योपविष्टस्तत्पुरस्तात्प्रोवाच भगवन्नर्व्यतां तद्दीनारसहस्रं न्यासीकृतम् ।
सावगिलि – कस्त्वम् ? क्व कदा दीनारसहस्त्रमाप्पतं, धूर्त्तः कश्चिदस्मद्वधंसनाय प्राप्नोति ।
योग० – स्वामिन् ? किमेवमुच्यते । तदा त्वद्वचनान्मठिकान्तर्मुक्तं मया तत् ।
साव० - तत्किं परस्वमङ्गुल्यप्रमात्रेणाप्यस्पृशन्तो वयं लुण्टाकाः कल्पितास्त्वया पर्याप्तं त्वदुपास्त्या । याहि यथागतमित्युत्थाय चिन्ताचक्रचटितो भ्रमन् गृहीतपुष्पचतुस्सरः प्राप्तो मकरदंष्ट्रायाः पार्श्वे, पृष्टस्तया प्रयोजनमवोचत् । तयापि जल्पितम् अहं ते पओयणं पसाहेमि जइ लद्धस्स अद्धं देसि ।
योग० –— सर्वनाशे समुत्पन्ने, अर्द्ध त्यजति पण्डितः ' इति मनस्याधाय प्रतिपन्नवानेतत् कथितं च तस्य तया । मइ तत्थ गया तए एवमेवं च कायव्वंति । तओ पत्थरभरियपेडाभारियमत्थयाहिं दसहिं दासीहिं अवरेण वि पउरेण पाइकचकाइ परिवारेण सद्धिं सुहासणासीणा धारिज्जमाणमाऊरायवत्ता पत्ता सा सावगिलिगुरुसमीवे पणमिऊण भणिउमादत्ता
कलिराज्यकथा-मह धूयाए बहुमायाए चंपाए गयाए बहूणि दिणाणि जायाणि, ता मए तदाणयणाय तत्थ गंतव्वं । तओ
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योगराजेन विसंवादि राज्यस्थिति
प्रेक्षणम् ।
॥ ४० ॥
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॥ ४१ ॥
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एयाओ मणिमरगयमोत्तियमाणिक कंचणभूसणाइभरियाओ दसपेडाओ ठाणे ठाविज्जंतु, जावाऽहमागच्छामि । अत्रान्तरे प्राप्तो योगराजोऽजल्पत्-स्वामिन्नर्प्यतां मे न्यासीकृतं दीनारसहस्रम् ।
साव० – त्वमेव जानासि । यत्र स्वहस्तेन न्यस्तमस्ति तत एवाददीथाः । आदेश इति मठिकान्तः कोणान् गृहीत्वा निष्कान्तो योगराजः । दासीओ जाव ताओ पेडाओ मज्झे मोत्तुमुज्झयाओ तावागंतूण वद्धाविया मयरदाढा एगाए दासीए । सामिणि समागया गणिया सिग्घमागच्छिज्जउ । तओ जद्देवागया गया सा गहियपेडा । वा (घा) लियगिलियदव्वो सावगिली ठिओ पसारियमुहो । समप्पियाणि पंच दीणारसयाणि मयरदाढाए जोगराएण, सेसदव्वस्स सयं धारिऊण अप्पियाणि चत्तारिसयाणि मूलनाससेट्टिणो रक्खणाय निक्खेवगो, सयं च व्हाणभोयणाईणि कारविंतीए संकरियाए दासीए अप्पियं । उवमुत्ते तंमि जाव वसणभोयणाइकारणेण दीणारसयमेसो मूलनाससेट्ठि मग्गेइ । ताव सो साहिखेवमक्खिसु । को तंसि किं तं दीणारसयं ?, एवं वुत्तो सो आसीणो तस्स धरणगे लंघणते समागओ तस्स ताओ लयवुडिसेट्टी, भणिओ य तेणेसो वच्छ ! जं अत्थए एयस्स समप्पेसु । अन्नहा न छुट्टसि । अहवा गलित्तणं काऊण गमेसु दिवसाई । अमेयं निवारइस्सं । जीरवियाणि चत्तारि वि सयाणि अद्धद्वेण विभजिस्सामो । बीयदि वि जोगराएण मग्गिजंतो मूलनासो गहिलत्तणेण 'आवाबाव' त्ति करेइ । सयणो परजणो य जो कोवि किंपि भणेइ तस्सवि सब्बस्स सम्मुहं आवावावत्ति करेइ । तओ भणिओ जोगराओ लयवुडिसेट्टिणा सव्वेण असब्वेण वा तए पारढो पुत्तो गलित्तं पत्तो, तओ परव्वसाओ एयाओ कहं किं पिलेसि । ता तुन्हिको चिट्ठसु, उट्टिऊण ठाणाउ एयाओ गच्छेसु । तओ तेण कहियइ राउलु खाइ, मई रक्खसु जिव भुक्खियउं । जइ पुणु लियणह जाइ सेट्टिज काल विलंबियइ । इय चिंतिऊण कालविलंबे आरद्धे कइवयदिणाऽवसाणे भणिओ मूलनासो जणएण, अप्पेसु दोन्नि दोणारसयाई पुव्वपडिवन्नाणि । तओ तस्सावि संमुद्द भणियम - 'आबावाव' त्ति । पुणोवि भणिए वृत्तं तं चैव तओ कुविएण तारण भणिओ मूलनासो । अरे मए वि सद्धि 'आवा
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कलिराज्य
कथा ।
॥ ४१ ॥
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॥ ४२ ॥
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वाव'त्ति करेसि । तओ भणियं तेण, तएवि तुह पिउणावि पियामहेणावि सद्धिं 'आवावावत्ति' । तओ उट्ठिऊण गओ सो नियगेहे, हकारिऊण भणिओ जोगराओ । वालेमि ते चत्तारि दीनारसयाणि जइ मे दोन्नि देसि, पडिवन्नं तेण, कहिओ कन्ने कज्जवि - सेसो । तओ गओ जोगराओ मूलनासस्स पासे जोहारिऊण भणिओ तेणेसो, नाहं किंपि मोमि जए अणुजाणसि ता तुह पत्तित्तणेण जीवामिति । अणुन्नाओ सो तहा आराहिउं लग्गो, जाओ वीसासठाणं । कयाइ पओयणेण पट्टावियाए सेट्टिणीए दिन्नो सो चैव सहाओ । मुक्का य तेण नेऊण सेट्टिणी कत्थइ पच्छन्नघरे । दिन्नं दुवारे तालयं । आगओ मूलनासस्स पासे, कहिं सिट्टिणित्ति पुच्छिओ । न जच्छइ ( जंपिज्जइ ) उत्तरं । निबंवेण य पुच्छितो जंपेइ, का सेट्टिणी, को तंसि १, भुज्जो भुजो चडिज्जतो भणिइ ' आवावावत्ति, ' सामभेयाइणा भणिजमाणो वि लोएण तं चैव वागरेइ । तओ भणिओ सो लयवुडिसेट्टिणा । जइ एयरस संतियं सव्वस्समप्पेसि ता लहेसि सेट्ठिणि, अन्नहा गया चेव म (तु) हवाहुया । तहा कए तेणऽप्पिया तस्स पिया । दिन्नाणि दोन्नि दीनारसयाणि लयवुडिसेट्टिणो किंपि वसणभोयणकज्जेण धारिऊण सेसं निक्खयं खड्डाए जहा संकरिया न याणेइ । वसणभोयणाइदव्वव्वए विसेसं पिच्छंतीए तीए पुच्छिओ एसो, कओ ते एत्तिया वित्तसंपत्ती । कहिओ तेण सब्भावो, न उण दव्वगोवणट्ठाणं । तओ घरव्वयजोग्गं मग्गियं किंपि दव्वं । अह रत्तीए तीए सुत्तबिड (द्ध) एण ठियाए उट्ठिऊण ते ओठाणाओ कड्ढियं किंपि । अणुमग्गलग्गाए जाणियं संकरियाए ठाणं । बीयदिणे बाहिरगयस्स तस्स उक्खणिऊण गया सा । आगओ जोगराओ जाव न संकरियं पेच्छइ ताव संकिओ गओ निहाणठाणे, तयंपि सुन्नं पिच्छंतो जाओ सव्वसुन्नो । भोयणमेत्तंपि अपावमाणो नितूण नयराओ गओ सट्ठाणं । चिन्तयति च-
रौदार्यमहोदयान्न विहिता वन्द्यार्थिनां प्रार्थना, यैः कारुण्यपरिग्रहान्न गणितः स्वार्थः परार्थं प्रति ।
ये नित्यं परदुःखदुखितधियस्ते साधवोऽस्तंगताश्चक्षुः संवृणु बाष्पवेगमधुना कस्याग्रतो रुद्यते ॥ ४७१ ॥
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कलिराज्य कथा ।
॥ ४२ ॥
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इालुस्थविरयोः कथानकम् ।
तथा-अस्माभिश्चतुरम्बुराशिरसनाविच्छेदिनी मेदिनी, भ्राम्यद्भिः स न कोऽपि निस्तुषगुणो दृष्टः श्रुतो वा क्वचित् ।
यस्याने चिरसंभृतानि हृदये दुःखानि सौख्यानि च (वा), व्याख्याय क्षणमेकमर्द्धमथवा संप्राप्यते निर्वृतिः ।।७२।। ईर्ष्यालुस्थविरयोः कथानकम्-तओ य–कलिरज्जकहा कहिया इय थेरि ! तए कहाविया जाऽसि । अहुणा कहेमि जह मज्झ, संपया पुच्छियाऽसि तए ॥ ७३ ॥ किंतु जह जोगराएण, संकरीए पयासिए तत्ते। विहिओ वंचपयारो, रक्खेयव्वो तहा तुमए DI|| ७४ ॥ जक्खेण पसनेणं, मह दिन्ना मग्गिया इमा लच्छी। तो सावि सुरं तं चेव, निश्चमाराहि लग्गा ।। ७५ ।। दुगुणं
थेरीदिनाउ, मगाए सा सुरो वि सो देइ । तीए सोहंती सावि, पुच्छिया मूलथेरीए ॥७६ ।। कहिए जहदिए सा, पुणोवि ममोइ VI मच्छरेण सुरं । फुट्ट महेगनयणं, तडत्ति तुह पहु! पसाएण ||७|| चितइ किं काहमहं, थेरी एएण चारुरूवेण । तह मह अस
हंतीए, तीए सिरे पडउ पुण वजं ॥ ७८ ।। लद्धे वरंमि संकेइ, सा पुणो किंपि लद्धमेईए । अइलोभेणऽभिभूया, जक्खमखत्तेण | पूएइ ॥७९॥ मग्गेइ पुव्वथेरी, दिन्नाओ दुगुणमेव दव्वया । पंपोट्टाणि व फुट्टाणि, दोवि तो तीए अच्छीणि ॥ ४८०॥ हा INI हा हयास हे जक्ख !, तिक्खदुक्खमि किं तए खित्ता। कह मे जम्मो जाही, जा उक्खये इय पसाउ ते ॥ ८१॥ इय अकोसे
माणी, भणिया जक्खेण सा विलक्खेण । हे चंडि मुंडि रंडे !, किं कुप्पसि मग्गिए दिने ।। ८२ ।। पावे! कुप्पसु नियमच्छरस्स, अहवा अईवलोभस्स । किं तुझ न पुजंतं, दीणारदुगेण पइदियह ॥ ८३ ।। कस्सइ पुविवि लग्गा, आगच्छेती गिहंमि दळूण ।
भणिया सा थेरीए, हाहा जायं किमेयं ति ।। ८४ ॥ भणियमिमीए मह तिव्वदिव्वदोसढुयाए सो जक्खो। स हि रक्खसो व्व IN जाओ, निरंधणा(ला) निग्घिणेण कया ।। ८५॥ पभणइ सा दिव्वस्स व, जक्खस्स व कीस देसि तं दोसं। अप्पाणमुवालंभेसु,
भूरिलोभेण अभिभूयं ।। ८६ ॥ इय कहियं कहिऊण भणियमेईए लडह(ल)उचक्करसकरसुंदरसुक्खकर, पत्तिपत्तपई अट्ठ(द्ध) अम्हिअइपिम्मपर । अवरि पवरि ता सामि ! सोक्खि मा लोभु(ह)करि, जिव न होइ लोभंधल अंधळ थेरी परि ।। ८७ ।।
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॥४३॥
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जम्यूचरित्रे|
॥४४॥
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जम्बूस्वाम्यवादीत्-शृणु सुन्दरि ! कनकसेने! भवतीभिः पर्वमैत्र्यभाग्भिरलम् । जोत्कारमित्रमात्रकसौहृदो येन वर्तेऽई ॥ ८८ ॥ क्षितितिलकपुरे जितशत्रुभूपतिस्तस्य सोमदत्तोऽभूत् । कुशलः स्वकाधिकारे सुधीः सुधीरश्च सचिववरः ॥ ८९॥ IN मित्रत्रितयी| मित्रत्रितयी तेनार्जि, तत्र सहपानभोजनः प्रथमः। अपरः पर्वणि दृष्टापृष्ठो जोत्कार्यमाणोऽन्यः ॥५९० ॥ प्रथमस्य सदा | कथा।
भक्ति करोति पर्वसु पुनर्द्वितीयस्य । तार्तीयीकस्य कदापि मार्गदृष्टस्य नतिमात्रम् ॥ ९१ ॥ प्राणान्तिके कदाचित्प्राप्ते व्यसने ततोऽपि भूभर्तुः। प्रथमसुहृदः स मन्दिरमन्वसरचकितचकितमना ॥ ९२ ॥ विनिवेदितवृत्तान्तो, नितान्तभीतेन तेन सोऽभिदधे । तरसा निस्सर गेहात्, कुलक्षयो मेऽन्यथा भविता ।। ९३ ।। अधिगततत्त्वस्तस्मात्तरसा निरगात् प्रागृहोदरात्सचिवः । निजसद्मद्वारं यावदनुययौ स तमतिकृतघ्नः ।। ९४ ॥ प्राप्तोऽथ पर्वमित्रस्य, सद्म सप्रश्रयं परमकार्षीत् । कार्यमवधार्य वक्ति स्म, यत्र यातासि तब्रूहि ॥ ९५ ॥ अविचिन्तदथामात्यो, भृशमेषोऽप्याकुलः स्थितेऽत्र मयि । निर्यामि ततस्तं सोऽप्यन्वपतञ्चत्वरं यावत् ॥ ९६ ॥ तत्राऽमात्यो दध्यो, धिग्धिम्मित्रत्वमेतयोरुभयोः। खादाऽऽचामायामेव, मित्रतां यद्गतावेतौ ॥ ९७ ॥ " मित्राणि व्यसनाप्तौ दारिद्रयोपद्रवागतौ दाराः । सुधिया परीक्षणीया, भृत्याः कृतार्थविनियोगे ।। ९८॥” गच्छाम्यूर्ध्वमुखस्तद्यद्वा जोत्कारमित्रमपि वच्मि । मा नाम कदापि भवेदस्मादपि कार्यपर्याप्तिः ॥ ९९ ॥ चरणेषु नखाः शीर्षे, केसरिणा केसराणि धार्यन्ते । करिकुम्भदलनकेलावस्य नखा एव सध्यश्चः ।। ५००॥ इति सुचिरं सञ्चित्य, प्राप्तो जोत्कारमित्रवेश्मान्तः । तेन सदतिथिप्रतिपत्तिगौरवेणादराद्ददृशे ॥१॥ सविदिततत्त्वोऽवादीन्मा भैषीनिर्भयो निषीद त्वम् । स्वीकर्तुंमलंकीणविक्रमः कोऽप्यतो न त्वाम् ।। २॥ विषयमिमं तित्यक्षुर्यियासुरङ्गान् प्रजल्पितो तेन । उत्पीडिततूणीरः स पुरोऽभूत्तस्य निस्सरतः ॥३॥ निर्भयपुरी परापत्, गृहीन् गृहीत्वा नवग्रहमवात्सीत् । सम्पाद्यमाननिःशेषवस्तुरमुनान्तिकस्थेन ॥४॥ अत्रार्थोपनयः सोऽयं, यथा मित्रत्रयी तथा । क्रमेण काय-ज्ञातेय-धर्मास्तद्गुणयोगिनः ॥ ५॥ खजूरखीरखण्डाद्यैः, कस्तूरीकुलकुमादिभिः । माणिक्यभूषणैर्नित्यं, कायोऽयमुपचर्यते ।। ६ ॥ प्रेताधिराजवैधुर्ये,
॥४४॥ सम्प्राप्ते जीवमन्त्रिणः। दूरेऽतपक्रिया कापि, पदमप्यनुयाति नो ॥ ७॥ पुत्रमित्रकलत्राणि, मातापितृसहोदराः । स्वाः शेषा अपि
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जम्बूचरित्रे
नागसेनावक्तव्यम् ।
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निःशेषाः, प्रयुक्तसदुपक्रिया ॥ ८ ॥ जन्तौ प्रेत्यपथं प्राप्ते, क्रन्दित्वा कंचन क्षणम् । श्मशानकाश्यपी यावत् , गत्वा याति पुन
हम् ॥९॥ धर्मोऽयं क्रियते लोके, गौणवृत्त्या कदाचन । मुख्यवृत्त्या निजागारप्रयोजनपरायणः ।। ५१० ॥ प्रेत्यमार्गे स एवैकः, सध्रीचीनत्वमश्नुते । पार्श्ववर्ती सदाऽऽपि, पूरयत्यमिवाञ्छितम् ॥ ११ ॥ इति मित्रत्रयी कथा ।। तन्न स्वकीयवपुषो न च वः सुखाप्त्य, वत्तेऽहमादिमसुहृद्वितयी सहक्त्वात् । जोत्कारमित्रसदृशी तु सदा प्रमोदादाराधयामि जिनधर्मधुरां स्वधैर्यात् ॥ १२ ॥ युक्त्या मृगाक्षि ! कलिराज्यकथापि सैषा, भोगस्पृहां प्रतिरुणद्धि मम प्रयत्नात् । नृणामसंयमपुरे परिसृत्वराणां, यद्योगराजगतिरेव भवेदवश्यम् ॥ १३ ॥ अथ प्रभवः सबहुमानमाह
"धन्यास्त एव तरलायतलोचनानां, कन्दर्पदर्पधनपीनपयोधराणाम् ।
क्षामोदरस्फुरितनाभिवलीत्रयाणां, दृष्ट्वाऽऽकृति विकृतिमेति मनो न येषाम् ॥१४॥" कान्ताकटाक्षविशिखा न खनन्ति यस्य, चित्तं न निर्दहति कामकृतोऽनुरागः ।
कर्षन्ति भूरिविषयाच न भोरु(लोभ)पाशा, लोकत्रयं जयति कृत्स्नमिदं स धीरः ॥ १५॥ पुव्वभवभारियाहिं, कहियाई कहाणयाई एयाई । चत्तारि चाहिं इन्हि, इयरा एग चिय कहिंति ॥ १६॥ पभणेइ नागसेणा, जंबूसामि सदुत्तिजुत्तीहिं । कणगसिरी कमलवई जयस्सिरीहिं पुरवरिया ॥१७॥ पियपच्छे पाडिज्जइ, वुत्तं जुत्तपि कणगसेणाए। किं तुमए नियनीसंकवंकउत्तीहिं जुत्तीहिं ॥ १८ ॥ अणुसरसु धम्ममगं, सम्म सम्माणमायरेसु जिणे । गिहवासे वि ठिओ तं, दव्वं विलसेसु वियरेसु ॥ १९॥ अइदुहियदुत्थियाण, दिता पालिंति केवि गिहवासं । जे सूरा इयरा पुण, किविणा पासंडिणो
हंति ॥ ५२० ।। भणियं च-गृहाश्रमसमो धमों, न भूतो न भविष्यति । पालयन्ति नराः शूराः, क्लीवाः पाखण्डमाश्रिताः । K॥ २१ ॥” दव्वजणे व्व सव्वायरे ण धम्मजणे वि पाणेस !। न सुहाय होइ अमिगलग्गो लोहो लोहम्गलाइव्व ॥२२॥
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जम्बूचरित्रे
॥ ४६॥
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अमरसेण-प्रवरसेन-भ्रात्रोः कथा-कंचणपुरंमि कंचणसेहररायस्स आसि दोनि सुया । नामेण अमरसेणो, पढमो वीओ पवरसेणो |॥ २३ ॥ ताण पसायपरेणं, पिउणा जयकुंजरो कयाइ पुरा । दिन्नो आसि सया वि य, चडिया ते तत्थ कीलंति ॥ २४ ।। जह
6/ अमरसेनउदयं तस्स नराहिवस्स कस्सइ जसो पयावो य । दोय सुकुलुग्गयस्स अहवा, ववसाओ सुकयजोगो य ॥ २५॥ तह कुसुमसरस
प्रवरसेनमाणे, ते रममाणे सुदंतिणा तेण । पेच्छंती मच्छरमुब्वहेइ सावकिया माया ।। २६ ।। वारं वारं रत्ति, दिवा य कन्ने खणेइ
भ्रात्रोःकथा नरवइणो । सामिय! सुयस्स मझ, दिजउ जयकुंजरो एसो ॥ २७॥ कि किज(इ)उ तुह वल्लह, देह पसाएण अहव चाएण। एत्तियमेवंपि न होइ अम्ह ता कूडनेहोऽसि ।। २८ ॥ वियसंतरोसधूमंधयारधूसरमिमं मिसिमिसंतं । दळूण भणइ राया, एवं कह होइ कयाइ ॥ २९ ॥ भत्ता सत्ता जुत्ता, पुत्ता ते किं न अप्पणा दिन्नो। कह मग्गिज्जइ स गओ, तं देमि जमन्नमाएससि ।। ५३० ।। कुग्गहराहिलं महिलं, नाऊण नाराहिवो मयणमूढो । भणइ कुमरे करिंद, अप्पह मह देमि दस करिणो ॥३१॥ नाऊण चुल्लमायाए, चेट्टियं सुछ निठुरं एयं । चितंति ते वि एवं, धीदुश्चरिय महेलाणं ।। ३२ ॥ नियमाइनिविसेसेण, गउर| वेणं वयं निएमो तं । नियसुयवच्छळयाए, साणे जाणेइ रिउणो व्व ॥ ३३॥ करिणो सिणीहिं बग्गाहिं, वाइणो गोणया वि नत्थाहिं । कीरति वसे पुरिसा, मराललीलाहिं महिलाहिं ॥ ३४ ॥ ता माणी ता जाणी, वियक्खणो ताव सज्जणो ताव । जाव घरट्टोव्व नरो, न भामिओ दुटुमहिलाहिं ॥ ३५ ॥ “ तिहुयणु सयलु जि पेक्खहिं अंखिहि, लक्खहिं गयणि मग्गु जे पंखिहिं। जलपरिमाणु जि सायरि बुज्झहिं, तरुणिचरित्ति ते वि निरु मुज्झहिं ॥ ३६॥” अहवा सव्वं सोहेइ, सुंदरीणं असुंदरीहाणं । ताओ वि नाम एवं, करेइ अव्वो महच्छरियं ।। ३७ ॥ दस देइ मत्तदंती, जइ नाम तहावि तेहिं किं कजं । माणपणासे पुरिसाण, होइ कोडी वि तिणतुल्ला ॥ ३८॥ माणि पणइ जइ न तणु, तो देसडा चएज्ज । मा दुजणकरपल्लविहि, दंसिजंतु भमेज ।। ३९ ॥ तथा-"पुण्येऽरण्ये पुरे वा सितघ'नच्छन्नपाली कपालीमादाय 'व्यायसज्जद्विजहुतहुतभुग्धूमधुम्रोपकण्ठम् ।।
॥४६॥ १ वनवसनच्छन्न B. C. घनवसच्छन्न । २ न्या DI
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॥ ४७ ॥
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द्वारं द्वारं दरिद्रो वरमुदरदरीपूरणाय प्रवृत्तो, मानी धीमान् सनाथो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्येषु दीनः || ५४० ॥" एएणेव छलेणं, गच्छामो हच्छमेव ता एत्तो न फलाण बणे वुड्ढी, खलंगुली दंसीया णसिया ॥ ४१ ॥ “ नियपुन्नाण परिक्खा वियक्खणत्तं जणाण ववहारे । भासावेसविसेसाऽवगमो य न होइ नियदेसे ॥ ४२ ॥ " इय चिंतिऊण रत्तीए, दो वि ते निग्गया निरुव्विग्गा । इय वृत्तंतं कस्सवि, अकहंता नियजणस्सावि ।। ४३ ।। अइतुरियतरपयारा, अखंडपयाणएहिं ते पत्ता । अइगरुयाए एगाए, भीमरूवाए अडवीए ॥ ४४ ॥ दावेइ न बहुया, सुहासं जा सासुयव्व दुद्रुमणा । वरवणमालासोहाए, सूहवा विण्डुमि (मु) त्तिव्व ॥४५॥ दीसंति चित्तसीहा, मयमिगुणालंकिया नहसिरिव्व । सारंगमारणुज्जयपुंडरियक्खा हरिकहव्व ॥ ४६ ॥ तत्येगस्स महावडतरुणो छाया वीसमंतस्स । कुमरस्स अमरसेणस्स, आगया झत्ति सुहनिया ॥ ४७ ॥ बरसेणो पायंते, पाए संवाहए सुदनिसण्णो । जागरमाणस्स भयं च भीमसत्ताहिं नहु होइ ।। ४८ ।। अह वडवासीजक्खो, निरिक्खए लक्खणाई सुत्तस्स । चिंतइ किजंतो होइ बहुगुणो एत्थ उवयारो ।। ४९ ।। उवयारो किज्जइ सज्जणेण सव्वत्थ नत्थि संदेहो । चिंतेयव्यं एयं तु, किंतु कत्थेस वित्थरइ || ५५० || “ अहिमुहसिप्पिमुद्देसुं, अप्पेइ पयोहरो पर्यं जुगवं । एत्थ विसं अन्नत्थ, मोत्तियं तं पुणो होइ ॥ ५१ ॥ " वर - सेणो वि हु मा पंतिबंचिओ होउ पुन्नपुरिसोत्ति । परिभाविऊण जक्खो, पच्चक्खो भणइ वरसेणं ॥ ५२ ॥ अतिहीण दूरदेसा गयाण तुम्भाण किंचि उचियमहं । इच्छामि काउमिय तस्स अप्पए दोन्नि रयणाणि ॥ ५३ ॥ एगेग ताण रजं, सिज्झइ अनेण इच्छिया लच्छी । पढमं अप्पेयव्वं, सबंधुणो तुज्झ चेवन्नं ॥ ५४ ॥ पूइत्तु पणवमायासाहाहिं सत्तवार जवियाहिं । पणमित्त पत्थियत्थरस, होइ सिद्धी न संदेहो ।। ५५ ।। रयणा पडिच्छिया ते, दूरावज्जियसिरेण पंजलिणा । वरसेणेणं चेलंचलस्स गंठीए बद्धाय ॥ ५६ ॥ अंतरहिओ सुरो तो, खणंतरे उडिओ अमरसेणो । तिहिं वासरेहिं तो सा, महाडई लंघिया तेहिं ॥ ५७ पाडलिपुत्ते पत्ता, तप्परिसरसरवरस्स पालीए । विहियंगपायसोया, चूयतले वीसमंति सुहं ॥ ५८ ॥ तब्वेलं चैव कणीयसेण
१ धृत्या ।
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अमरसेनप्रवरसेनभ्रात्रोः कथा ।
॥ ४७ ॥
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जम्बूचरित्र ॥४८॥
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विनत्तममरसेणस्स । पियबंधव ! लिज्जउ रज-लाभसज्ज रयणमेयं ।। ५९ ।। कहिओ विहि जहत्थो, सवित्थरो थिरमणेण कायव्वो। फलसिद्धीए एयस्स, लाभवुत्तमक्खिस्सं ॥५६० ।। अह एगते साहारवीहियाए गओ स हरिसेण । पुजिय पणमिय: पत्थेइ,
16| अतिलोभे पस्थिवत्तं सुथिरचित्तो ॥६१ ॥ विहियपहाणविहाणो, कयाऽवहाणो सयंपि वरसेणो । नियरयणाओ मग्गइ, सामगि भोयणाईणं
लोहर्गला
गणिका। ६२ ।। पयडीहूया तो अच्छराओ तत्थटू लदुरूवाओ, निम्मियनिम्मलसुविसालचउसालसोहाओ। अभंगअंगमद्दणउव्वट्टणण्हा
कथा । णभूसणाईहिं, सम्माणिऊण निवं सावयंति देवंगवत्थाई ।। ६३ ।। अइसरसपाणभोयणतंबोलपसूणपमिइ दाऊण । कत्थइ सव्वंपि खणेण, त गयं इंदयालं व ।। ६४॥ भुत्तुत्तरं पसुत्तो, जावच्छइ ताव वच्छछायाए । जेद्रकुमारो ता तत्थ, पंच पत्ताई दिव्वाई
॥६५॥ पाडलिपुत्ते पत्ते, पंचत्तं पत्थिवे अपुत्तमि । गयय-चामर-दुंदुहि-छत्ताई पउरजुत्ताई ।। ६६ ।। अहिसिंचिऊण कल- । | सेण, गुलगुलेउण मयगलो खंधे। आरोवेइ कुमार, हओ विहि णिहिणइ हरिसेण ।। ६७ ।। विमलाओ चामराओ, ढलंति बजेइ दुंदुही पुरओ। वित्थरियमत्थयत्थं, संजाय सेयछत्तंपि ।। ६८ ।। भडचडगरेण महया, पविसेइ पुरस्स मज्झयारंमि । पणमिजतो
सामंतमंतिमंडलियलोएण ॥ ६९॥ नीहरिओ वरसेणो, तत्थावसरे गओ पुरस्संतो। निवकज्जेसु पज्जाउलस्स किं मज्झ सोक्खंति N॥ ५७० ॥ अइचिरमेस गवेसाविओ वि सव्वत्थ जाव नो दिवो। ता पत्तो पासाए, सो सज्जइ रज्जकज्जाइ ।। ७१ ।। अति| लोभे लोहर्गलागणिकाकथा-इयरो मागहियाए गणियाए गओ गिड़मि सयणोव्व । सयमेव ताव तीए, गंतूणब्भुवगओऽभिमुहं ॥७२॥ बिहियविविहोवयारा, मागहिया अवहरिंसु से हियय । लोहग्गलाए अक्काए, मग्गिय पूरइ इमो वि ॥ ७३ ।। भणिया धूया लोहम्गलाए धणमस्स एत्तियं कत्तो । न हु देइ कोइ न कयाइ, कुणइ सेवाइववसायं ।। ७४ ॥ ता जामाइयमापुच्छिऊण वच्छे ! सुनिच्छिय कुणसु । भणइ इमा.ते कज्ज, दव्वेण किमेय चिंताए । ७५ ।। लोहग्गलाए अइअगालाऽऽगहाउ इमाए सो पुरो। पभणइ रयणाउ पिये ! मे चिंतियरिद्धिसंसिद्धो ॥ ७६ ॥ लोहग्गलाए कहिए, तीए जोएइ जु(त)नमंजारी । ते रयणं सा घेत्तुं, सुत्तपमत्ताइ तस्स छलं ।। ७७ ।। अह मजणोवविद्वस्स, तस्स चेलंचलस्स गंठीओ । छन्नं छोडिय घेतूण, तीए तं गोवियं रयणं IN
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॥
८
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जम्बूचरित्रे ॥ ४९ ॥
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॥ ७८ ॥ तं गठिमुट्ठिओ जाव, पेक्खए ताव पावए न तयं । सुन्नो निरिक्खमाणो, कोणविकोणे इमो भणिओ ।। ७९ ।। अक्काए किं निरिक्खसि, किं पडियं किंपि जंपसु पयासं । सयमेव सव्वओ जोइऊण जेणं तमध्पेमि ॥ ५८० ॥ एसो भए पत्थरखंडं विक्कयकए धरियमासि । कवडेण कोणसोहण पुव्वं सा आह नत्थिन्ति ॥ ८१ ॥ दासीओ पुच्छंतो, भणिओ सो कुट्टणीए हो होउ । मा मज्झ परीवारं, कलंकदाणेण दूसेसु ॥ ८२ ॥ सव्वो वि पंचदिवसो, दासीओ जाव जीवियाङ पुणो । उबलकणकारणे किं तदेवमवजाणसि जणं मे ॥ ८३ ॥ इय सोऊण कुमारो, चिंतइ अइकुडिलकालभुयगीए एयमकज्जं एयाए, एवम (ण) वि. क्खमाणीए ॥ ८४ ॥ सुबहु घणं तोलिंति, किमियं लोहम्गला न भारतुला । दित्रेण जा घणेणावि, धारणाए न ठाइ धुवं ॥८५॥ किं किं न सुवन्नं वा अन्नं वा सव्वमेव दव्वाइ। दिन्नं हि मए एयाए, तहवि किर किंपि नो दिन्नं ॥ ८६ ॥ अथवा अइसयकुसीलयाओ, लोहमयाओ हवंति एयाओ । अहमेव अहो अबुहो, जं बुज्झतो न बुज्झामि ॥ ८७ ॥ उच्यते च – “ अपि प्रदत्तसर्वस्वात्, कामुकात् क्षीणसम्पदः । वासोऽप्याच्छेत्तुमिच्छन्ति, गच्छतः पण्ययोषितः ॥ ८८ ॥ " " मनस्यन्यद्वचस्यन्यत्, क्रियायामन्यदेव हि । यासां साधारणस्त्रीणां ताः कथं सुखहेतवः ॥ ८९ ॥ ” “ कुष्टिनोऽपि स्मरसमान् पश्यन्तीं धनकाङ्क्षया । तन्वत कृत्रिमस्नेहूं, निस्नेहां गणिकां त्यजेत् ।। ५९० ।। " ता जावऽज्जवि गरुयावमाणदंभोलिणा न भिंदेइ । ता नीहरिउ जुत्तं, नियपरिहंसं च साहेउ ।। ९९ ।। इय स पउसे कस्सइ, अकहंतो दूरदेसमल्लीणो । तिलयंऽजणाइ जोयइ, कुट्टणि मय (इ) कुट्टणनिमित्तं ॥ ९२ ॥ मागहियाए वासगसज्जाए जाव जामिणी वि गया । ता नायं तीए गओ, चोरियरयणो समाणघणो ॥ ९३ ॥ रोयंतीए गग्गिर गिराए कहियं इमाण अक्काए । सा आह गहियसारो, विणोसहं जाओ वाहिव्व ॥ ९४ ॥ हो रहम्मि माइ, रयणा तओ सहस्सल+खाई । रयलवमवि अलहंती, पच्छुत्तावेण पोक्करइ ॥ ९५ ॥ मागधिका प्राह – अंब ! न पत्तो कंतो, फलिही पिनोविणं । अइलोहनइपइट्टा, न आरपाराय जायासि ।। ९६ ।। वरसेणो संपत्तो, मसाणमेगं निसीहसमयंमि । भूयतिहीए उल्लवइ, लेउ कोई महामंसं ॥ ९७ ॥ गयणे वाणी जाया, दुग्गादेवीए देउले एत्थ । गिरिकडणि संठिए, वीर !
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अतिलोभे लोहर्गला
गणिकाकथा ।
।। ४९ ।।
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जम्बूचरित्रे
॥ ५० ॥
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जाहि तो होउ फलसिद्धी ॥ ९८ ॥ पेक्खइ अक्खलियअखुद्धलद्धलक्खो खणेण तत्थ गओ । दुग्गादेवीए पुरो, निविदुमेगं महाजोगिं ॥ ९९ ॥ रत्तंदणमंडलपासदिन्नमाणुसबसा पईवोहं । मंडलपुरओ पुरिसं च रत्तकणवीरमालाए । ६०० ॥ पच्छाहूत्ते बाहू, सुबंधवद्धे करितु पक्खित्तं । उम्गीरिऊण खग्गं, जावंते जंगए जोगी ॥ १ ॥ तुह देवि ! मए दिन्नो, अन्नबली एस होउ मंसबली । कुमरेणुत्तो तो सो, रे रे काउरिस ! किं कुर्णासि ॥ २ ॥ किं निरवराह संजमिय, अंगुवंगं निहीण ! हणसि धुवं । बंधनरज्जुं छिंदेसु, अन्नहा नत्थि ते जीयं ॥ ३ ॥ इय भणिओ सो वरसेणसम्मुद्दो वलइ खम्गवम्गकरो । सोवि उवेइ विकोसी, काऊ करालकरवाल || ४ || अइगरुयलग्गसंजुगरंगेणं तेण पिल्लिऊण लहुं । जमपासे पट्टविओ, सो जोगी पावपडिइच्छो ॥ ५ ॥ खग्गेण खंडिऊणं, कुमरो संजमणरज्जुमुवविसियं । पुरिसस्स पुरो पुच्छर, को एसो कम्मचंडालो ॥ ६ ॥ भणियमणेण एसो, नामेण मघोरघंटजोगिंदो । दाडं दुग्गाए बलिं सिद्धिकर अहमिहाणीओ ||७|| एयाहिं पाउयाहिं, चडिओ हिंडेइ तिहुयणं सयलं । पुरिसं विसज्जियं कुणइ, पाउया सो सपाएसु ॥ ८ ।। हुंकारिकण पाडलिपुत्ते पत्तो तओ खणेणं सो देसंतराओ दव्वं, आइरईपायाढो || ९ || चिंतेइ कहवि केणइ, मिसेण जइ नाम कुट्टणि दूरे ने मिल्लेमि महुं, पियामि निम्मच्छियं ताई || ६१० || स कयाइ चंगसवंगसंगि सिंगारसुंदरी होउं । तेण पहेणं चकममाणो तीए सयं दिट्ठो ॥ ११ ॥ चिंतियमेयाए पुणो वि, दव्वमेवज्जियमतं । ता कवडेणाणेडं मागहियाए समप्पेमि ॥ १२ ॥ दासीहिं जाव हकारिओषि नोबेइ कुट्टिणी ताव । तं गंतूणं आणइ कवि बाहार घेतूण ॥ १३ ॥ इय तुज्झ पुत्त ! जुत्तं वृत्तं अकहंतओ गओ जमिओ । तदिवसाओ जाया, गहगहिया अहह मागहिया ॥ १४ ॥ भणियमणेणं माए ! मा कुप्पसु कज्जगरुययाए गओ । अहुणा पुणो वि पत्तो, आएसं देसु किं कुणिमो || १५ || देह पुणो सो दव्वं, समग्गलं मग्गियाओ निच्चपि । तो सा चमकिया चिंतवेइ कत्तो धणमण ।। १६ ।। तो भणिया मागहिया, वच्छे ! पुच्छेसु अज्जणोवायं । भणइ मा माए ! तुज्झ, लगिया किं पुण अच्छी ॥ १७ ॥ जइ वारिया न अच्छसि पुच्छ्सु सयमेव ता तुमं अम्मो । नियमेवेदं तं सञ्चवेसि लोहाला नामं ॥ १८ ॥ जइवि रइरमणजन्त्ता, पत्ता
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अतिलोभे लोहर्गलागणिका
कथा |
॥ ५० ॥
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अतिलोभे लोहर्गलागणिकाकथा।
पुत्तय ! पुरंमि तहवि अहं । न भणिस्स किंपि जओ, जाणेसि तुम सयं उचियं ।। १९ ॥ तह कह कत्थ व तं जासि, मग्गिउ जम्बूचरित्रे|
दव्वमाणिउं कहसु । गंतूण जेण सह चेव, तमहमाणेमि सह चेव ॥ ६२० ।। तुह विरहे मागहिया, खणेण जंतूण जाइ दसमदसं । अह भणइ तं कुमरो, दूरे छद्देउमिच्छतो ॥ २१ ॥ रयणकणयाइदीबे, गंतुं नियदिव्यपाउयारूढो। आणेऊणं तो एत्थ, |
देमि जं किंपि इच्छेसि ॥ २२ ॥ चिंतइ अत्ता केणइ, मिसेण नेऊण जलहिं दीवंतो । मेलिन्तुमेयमाणेमि, पाउयाओ स (उभ)यं NI चडिउं ॥ २३ ॥ भणिओ कयाइ एसो, जयागओ आसिणे विमोत्तण । तं बच्छतया इच्छियमोवाइयमेरिसं हि मए ॥ २४॥ | नइनाहमज्झदीवे, देवमणंग समालभिस्सामि । घुसिणेणमहं गंतूणं, एउ जामाउओ मज्झ ।। २५ । निययाभिप्पायपसाहणेसिणो
तेण भणियमंब! लहुं । चलिज्जउ नेमि तहिं, किं अजवि किजइ विलंबो ॥ २६ ॥ हुंकारिऊण तो पाउयाओ तं पाणिणा गहे. 6 ऊण । मयणाययणस्संतो संपत्तो झत्ति वरसेणो ॥ २७ ॥ मंदिरदुवारदेसे, अक्का मुकासु-तासु चडिऊग । पत्ता पाढलिपुत्ते, निय
वंचपवंचपरितुट्ठा ॥ २८ ॥ कुमरो पच्छाहुत्तं, जा जोयइ ता न पेक्खए खोट्टि । नीहरिय पलोयइ, पाउयाओ ताओवि नो नियइ ॥ २९ ॥ परिदेवइ पावे! पावमेरिसं आयरेसि पुणरुतं । जं चिंतियमासि मए, तं खलु पडियं महच्चेव ।। ६३०॥ जाओ लोयपवाओ, एसो स(व्वो)त्तु अवस्समेत्ताहे। जो जं चितेइ परस्स, तस्स तं आवइ घरस्स ॥ ३१ ॥ चिंताचुंबियचित्तस्स, तस्स तत्थागओ खगेणेगो। खयरो पुच्छइ कह तं, इहागओ किं सचिंतो वा ॥ ३२ ॥ वुत्ते वुत्तंते तेण, तो स संपूइऊण कंदप्पं । साहइ सुहपम्हललोललोयणाखोहणि विजं ॥ ३३ ॥ वरसेणेगुत्तरसाहगेण साहसधणेण सिद्धाए । विज्जाए विज्जाहर-जुवाणओ तस्स अप्पिंसु ॥ ३४ ॥ गुडियाउ दुन्नि एगा, रासहरूवं करेइ 'विलयाउ । अन्नाउ सहावं माणुसस्स अप्पेइ तह चेव ॥ ३५ ॥ एयवसाउ परिहंस, साहओ होसि तं महाधीर !। कंचणरयणाणि इमाणि, होउ अतिहिस्स ते पूया ।। ३६ ॥ उप्पाडिऊण मुको, पाडलिपुत्ते स तेण खयरेण । हिंडह पुणो वि स विलासमंथराए गईए तहिं ।। ३७ ।। लोहमालाए दासीए, साहियं आउए मए
तिलएण c. D तिसलाओ B. I
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॥ ५२ ॥
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दिट्ठो । जामाउओ इयाणि, तुह सो सब्बंगसिंगारो ॥ ३८ ॥ तो सा हिययं कुट्टेइ, कुट्टिणी हा इहागओ कह णु । गोवि मं पाउयाओ लेही नियाओ सो ॥ ३९ ॥ काऊण किंपि कूड, अंगे पविसामि ताव जइ कहवि । छुट्टेऊणं वंचित्तु नव्व दव्वंपि गिहामि || ६४० ॥ सव्वंगबद्धनिप्पट्टपट्टिया लोट्टिऊण खट्टाए । मागहियं पेसइ तस्स, आणणत्थं सुसिक्खिविडं ॥ ४१ ॥ गंतूणमाह एसा किं, जुत्तं तुम्ह नियगिहं मोतुं । मं च नियदंसणायत्तपाणमन्नत्थ उत्तरि ।। ४२ ।। अवधारिज्जउ पाओ, होउ पसाओ उवेह नियगेहे । मरमाणीए मायाए, देहि संभासमतिमगं ॥ ४३ ॥ सयमेवागच्छंति, मचच्छिय ! अमाउयाए भेट्टाए । हक्कारणाय पत्तासिऽज्जं सयं सो महासउणो ॥ ४४ ॥ इय भणिय तीए सद्धिं पत्तो लोहगलासमीवं सो। पुच्छइ तरवारि महापहारपीडाइमावत्तो ।। ४५ ।। नीससिऊण सुदीहं, सा आह अगाहवाहिविहुरि व्व । 'पाणंति पणवियवसण - वेससा किं भणामि लहुं ॥ ४६ ॥ जाणेसि ताव दोन्नि वि पत्ताई अणंगदेउलदुवारे । मोत्तूण पाउआओ, तत्थ गओ तंसि गम्भहरे ||४७॥ ताम्हि रक्खवाली, जाव ठिया ताव खेयरो एगो । आगम्म पाउयाओ, लेडं लग्गो महपुरो वि ।। ४८ ।। पाएस पाउयाओ, काऊणमहं तओ पलायंती | पत्ता एत्तियभूमि, अणुमग्गेणं स खयरोवि ॥ ४९ ॥ संगामो संलग्गो, तेण समं तो महापहारेहिं । मं पाडिऊण पावेण, पाउया ताओ नीयाओ ।। ६५० ॥ चिंतइ सो पावा, पाउयासु पासठियासु कवडवसा । पलवेइ आलजालं, समए सव्वंपि जाणिस्सं ॥ ५१ ॥ पभणइ माए ! जइ नाम, पाउयाउ गयाउ गच्छंतु । आदाय दुक्खमग्गस्स तुज्झ जीवेसु तं सुचिरं ॥ ५२ ॥ सोऊणमेयमेयाए, जीवियं तणुकुडिं अणुपविट्टा । तुट्टा पभणइ पुत्तय !, तत्तो पत्तोसि कहमेत्थ ॥ ५३ ॥ भणियमणेण मयंगो, पञ्चक्खो मग्गिओ मए माए । तं देसु जेण थेरत्तणे वि तारुन्नमुन्नमइ ॥ ५४ ॥ गुडियं दाउ दव्वं च, तेणमिहमाणिऊण मुक्कोहं । छोडेसु पट्टए ताव, जेण जोएमि असिघाए ॥ ५५ ॥ संरोहणीए रोहेमि, तक्खणा तीए वुत्तमलमत्थु । छुट्टंतएसु जा पट्टएसु पीडा तयं न सहे ॥ ५६ ॥ जइ पुण पट्टेसु तह ठिएसु, तुह हवइ कावि सुचिकिच्छा । ता
"
१ पाणंति य पावियवसणवेससा किं भणामि अहं ॥ BOD २ मणंगो B. D ३ सुचिगि० ।
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अतिलोभे सोह
गणिकाकथा ।
॥ ५२ ॥
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वच्छ ! एत्तो, बहुबुल्लेउं न सकेमि ।। ५७ ॥ भणइ 'स उव्वणजोव्वणकरीए गुडियाए रयणतिलएण । सइ जाइ जराए महा
अतिलोभे पहारलेसो वि तरुणीए ॥ ५८॥ भणियमिमीए तह तं, करेसु जह तरुणि मज्झयारंमि । मह चेव रूवरेहा, जोइजइ नायर-18
लोहर्गलाजणेण ।। ५९ ॥ गडियाए तीए तिलओ, तओ कओ कुट्टिणीनिडालंमि । कुमरेण तक्खणेणं, थूला सा रासही जाया IN
गणिका॥ ६६० ॥ कडियालि दाऊणं, मुहंमि चडिऊण तीए पुट्ठीए। पहणतो सट्टेणं, स आगओ रायमगंमि ॥ ६१॥ मिलिऊण
कथा। राउले पा(यउ)उ-लाई सयलाई झत्ति पत्ताई। संभालयंति जा उडिएण केणइ भुयंगेण ॥ ६२ ॥ अक्का खरिया विहिया, सट्टेहिं 6निसटुमाहणइ चडिओ। अणुजुंजेइ नरिंदो, कित्तियदिवसो भुयंगो सो ॥ ६३ ॥ केरिसरूवो केत्तियवरिसो य वएण कहइ
मागहिया । पहु! तुम्ह रजलाभो, ममेयलाभो य समकालं ॥ ६४ ॥ अइसयससरिसरुवो, तुम्भाणं केत्तिएण वि कणिट्रो। | तो रन्ना विन्नाओ, महाणुओ सो महाधुत्तो ।। ६५ । निवई भणेइ सयमेव, सिक्खविरसं असिक्खियं तमहं । जयकुंजराधिरूढो, तओ गओ तत्थ नरनाहो ।। ६६ ॥ दिट्ठो स लोयलक्खेहि, लोलअक्खेहिं सव्वविजंतो। अइथूलतुंदतुंगाए, रासहीए समारूढो ।। ६७ ।। गंतु पासे पुच्छइ, पिच्छीसो तं तओ कयपणामो। अविनाम महाधुत्तस्स, सागयं गयसिणेहस्स ॥ ६८॥ तुह IN | वाहणं न सोहइ, रासही कलहकेलिलोलस्स । ता एहि कुंजरे एत्थ, अंगमालिंग अंगेण ।। ६९ ॥ संजमिय रायमग्गे, तं कुट्टिणि रासहिं महापावं । पहसंतेणं पहणिजमाणियं पउरलोएण ॥ ६७०।। धवलहरे संपत्तो, सह नरनाहेण कुंजरारुढो। अकहिंसु । पुच्छिओ सव्वमेव रयणाइवुत्ततं ।। ७१ ॥ आगंतूणं पुण पाउलेहिं पुहईसरो स विन्नत्तो। आइक्खइ पञ्चक्खा चोरी सा रासही एत्थ ॥ ७२ ।। वररयणपाउयासु, हरियासु तीए सह कणिस्स । मुहिया छहा सा अंगनिग्गहो को षि जं न कओ ॥ ७३ ।। ता संपर्यपि मोसस्स, अप्पणा तारिसस्स सव्वस्स । जइ कोइ देइ सई, ता पावइ पुव्वरूवं सा ॥ ७४ ॥ तह विहिए तिलयं बीयगोलियाए करेइ बरसेणो। साहावियरूवधरा, जाया लोहगला तत्तो ।। ७५ ।। ततश्च जातोऽयं प्रवादः-" अतिलोभो न
१य अउव्व c. D। २ रइय । ३ सहे ।।
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जम्बूचरित्रे
॥ ५४ ॥
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कर्त्तव्यो, लोभं नैव परित्यजेत् । अतिलोभाभिभूता सा कुट्टन्यजनि रासभी ।। ७६ ।। " वररयणपाडयाहिं, रयणालंकारचीणवसहिं । भूसियसरीरमप्पइ, मागहियं सा कुमारस्स ॥ ७७ ॥ सो जाओ जुवराओ, सह मागहियाए विसयसोक्खाई । उवर्भुजइ अन्नाहिं वि, निवs सुयाहिं नवोढाहिं ॥ ७८ ॥ इय पियकहिउ कहाणउं लोहालतणडं, तुहवि पुरउ अइधिट्टिमअवलंबिवि धणडं । ता जगि लोभु सुकिजाइ जुज्जइ जो अवसु, लोहग्गल जिंव लोभु करतह जाइ जसु ॥ ७९ ॥
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अथ जम्बूस्वाम्यब्रवीत् नागसेने ! कनकश्रीः, प्रिये कमलवत्यपि । आकर्ण्यतां जयश्रीच, सर्वसारमिदं ब्रुवे ||६८०|| दोषाणां च गुणानां च निधनानि यथाक्रमम् । यूयं च गुरवश्चोक्ता, धर्मशास्त्रेषु तद्यथा ॥८१॥ वञ्चकत्वं नृशंसत्वं, चञ्चलत्वं कुशीलता । इति नैसर्गिका दोषाः, यासां तासु रमेत कः ॥ ८२ ॥ प्राप्तुं पारमपारस्य, पारावारस्य पार्यते । स्त्रीणां प्रकृतिवक्राणां, दुधरित्रस्य नो पुनः ||८३ || नितम्बिन्यः पतिं पुत्रं पितरं भ्रातरं क्षणात् । आरोपयन्त्यकार्येऽपि, दुर्वृत्ताः प्राणसंशये ॥ ८४ ॥ भवस्य बीजं नरकद्वारमार्गस्य दीपिका । शुचां कन्दः कलेर्मूलं, दुःखानां खानिरङ्गना ॥ ८५ ॥ स्त्रीसंभोगेन यः कामज्वरं प्रतिचिकीर्षति । स हुताशं घृताहुत्या, विध्यापयितुमिच्छति ॥ ८६ ॥ वरं ज्वलदयस्तम्भपरिरम्भो विधीयते । न पुनर्नरकद्वार - रामाजघनसेवनम् ॥ ८७ ॥ सतामपि हि वाम दाना हृदये पदम् । अभिरामगुणग्रामं, निर्वासयति निश्वितम् ॥ ८८ ॥ यूयं तदेवं दोषाढ्या धर्मशास्त्रेषु दर्शिताः । धर्माचार्याः पुन प्रौढगुणग्रामभृतो यथा ॥ ८९॥ गुरुर्गृहीतशास्त्रार्थः, परां निस्संगतां गतः । मार्त्तण्डमण्डलसमो भव्याम्भोजविकाशने ॥ ६९० ॥
पवित्रश्चारित्रात्प्रवचनरहः पारपदुधीः, सुधीरः शान्तात्मा मधुरिमधुराधारवचनः । कृपावान्निर्लोभो भवजलधिपोतप्रतिकृतिस्तनूभाजामीदृक् भवति गुरुराप्तः शुभशतैः ॥ ९१ ॥ गुरुमहान्धानां भवति हि नृणां चक्षुरमलं, गुरुदुःखार्त्तानामपहरति दुःखान्यवहितः । सुखानां सन्धाता गुरुरमरमोक्षक्षितिभुवां, शुभं तत्किं लोके यदिह गुणिनां स्यान्न गुरुतः ॥ ९२ ॥
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धर्मशास्त्रे स्त्रीणां स्वभा वजा दोषाः ।
॥ ५४ ॥
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कथा।
तद्वो दोषवतीस्त्यक्त्वा, श्रये गुणगुरून् गुरुन् । त्यक्त्वाऽसतः सतः श्रित्वा-ऽभून्सुखी हि प्रभाकरः ॥ ९३ ॥ जम्बूचरित्रे|
साधुसमामेदिनीतिलके विप्रो, दिवाकरतनूद्भवः। अभूत्प्रभाकरो इतकारो मूर्खेकशेखरः ॥ ९४ ॥ गायत्रीमात्रकेऽप्यज्ञं, तं मुमूर्षुः
गमलामे कदाचन । अध्यापिपत् पिता श्लोकमेकमत्यादरादिमम् ॥ ९५ ॥ मुद्रितोपद्रवातङ्कः, पुरुषेण हितैषिणा । निधिर्नवाधिको मूर्त्तः, IN
प्रभाकरकर्तव्यः साधुसंगमः ॥ ९६ ॥ ताते परासुतां प्राप्ते, निःश्रीधूतादभूदयम् । अक्षमः कुक्षिपूरेऽपि, नगरान्निरगात्ततः ॥ ९७ ॥ ध्यौ पित्रा कुतः कार्ये, संगम सममुत्तमैः । तावन्नीचं परीक्षिष्ये, करिष्ये चरमं च तम् ।। ९८ ।। अश्रद्धालुरिति ध्यात्वा, प्राप्तः कीर्तिपुरं पुरम् । दुष्टाशयाभिधानं च, नीचं ठक्कुरमाश्रितः ।। ९९ ॥ दौर्जन्यैकनटी तस्य, चेटी गोमटिकाभिधा । चक्रे कलत्रं मित्रं च, मातङ्गस्तेन सूत्रितः ॥७०० ॥ दानशौण्डं स्फुरन्नीतिताण्डवोल्लासलासकम् । द्रापिष्टविदुषपृष्टगोष्ठीनिष्ठुरकौतुकम् ॥ १॥ ठक्कुरेणान्वितस्तेन, क्षमापति कीर्तिशेखरम् । अनध्ययन खिन्नोऽन्तः, प्रत्यहं भजति स्म सः ॥ २॥ अथ मध्ये सुधीवृन्दमासीने क्ष्मापुरन्दरे । सख्यं समानशीलेषु, स्यादिति प्रस्तुता कथा ॥ ३॥ कथंचिदभ्यस्तचरस्तेनापि द्विजसूनुना । श्लोकोऽयं पठितः स्पष्टवर्णकर्णामृतं तदा ।। ४ ।। " मृगा मृगैः संगमनुब्रजन्ति, गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरंगैः : मूर्खाश्च मूर्खः सुधियः सुधीभिः, समानशीलव्यसनेषु सख्यम् ॥५॥"
इत्याकर्ण्य महीशक्रस्तञ्चक्रं च विपश्चिताम् । जज्ञे स्फारचमत्कारा नद(ट)न्मौलीमनोहरम् ॥ ६॥ स्फुरन्निजद्विजश्रेष्ठी विलासेन 6/वितन्वता । 'द्विजो सत्त्वमिव स्वस्याऽप्युशेनेष जल्पितः ।। ७ ।। सिक्तः प्रोतिरसेनाई, भवता भोः प्रभाकर ! । तस्मात्प्रसाददा
नेन, गृहाण ग्राममण्डलम् ॥ ८॥ प्रभोरौचित्यमारोग्य, श्रीमतो भूभृतः क्षमा। उपकर्तुः प्रभुत्वं च, पीयूषाणां चतुष्टयम् ॥ ९॥ । प्रसन्नं मयि देवस्य, चेतश्चेत्तन्मम प्रभोः । इदमस्य प्रसादेन, देहीत्युचे प्रभाकरः ।। ७१० ॥ पृथ्वीभृति तथेत्युक्तवति दुष्टाशयः
१ खिन्नोऽभूत् ।। २ द्विजेश त्वमिव स्वस्याप्युवींशेनैव B. c. DI ३ प्रसन्नमपि ।
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॥५५॥
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| श्रियः। प्रभाकरप्रभावेण, समतां पद्मवद्गतः ॥११ ।। महीमहेन्द्रानुमतौ, परिवारपुरस्कृतौ। प्रसादमण्डलमलंचकाते ताबुभावपि जम्बूचरित्रे|0|॥ १२ ॥ अथान्यदा मदास्वादविह्वलः संस्पृशन् प्रियाम् । वध्यः कुद्धेन मातंगष्ठक्कुरेण निरोपितः ॥१३॥ वारुणीरसनिर्वाणचेतन्यो IN| साधुसमा
नैष दोषवान् । त्वय्याशा निःप्रकाशैव, किं चैवं मादृशामपि ॥ १४ ॥ क्षमस्व मुश्च मन्मित्रमित्युदाहृत्य ठक्कुरम् । निषाद सबिषा- गमलामे RI दस्तं, मोचयामास स द्विजः ।। १५॥ इतक-ठक्कुरस्य शिखी प्रेयानस्ति तन्मांसमत्ति यः। स भियः स्यात्पदं भिक्षुरित्यूचे
प्रभाकरकोऽपि चेटिकाम् ॥ १६ ॥ प्रभाकरः प्रत्यपादि, तन्मांसस्या तया । दुनिग्रहस्त्रीग्रहतस्तेनापि प्रत्यपद्यत ॥ १७ ॥ दत्तमन्यामिर्ष
कथा। तस्यै, रक्षित्वा तं शिखाचलम् । नीताम्येतान्यनेनेत्थमुपकारसुखासिकाम् ।। १८ ।। भोजनावसरे सूनुनिर्विशेष शिखण्डिनम् । अपश्यन् ठक्कुरस्तत्र, सर्वत्रापि व्यशोधयत् ॥ १९ ॥ अदृष्टे चात्र दीनारसहस्रार्पणपूर्वकम् । एवमुद्घोषयामास, पटई ठक्कुरः पुरे | ॥ ७२० ॥ दीनारामयलोभेन, भो कलापी स कथ्यताम् । पश्चाजाते पुनर्देहदण्डश्चण्डो भविष्यति ॥ २१ ॥ श्रुत्वेति चिन्तित
चेट्या, भावी भर्ता ममाऽपरः । उपस्थितं धनं तावत् , करोमि स्वकरे द्रुतम् ।। २२ ॥ नीचैर्वृत्तिमतां नित्यं, कुरङ्गविषयैषिणाम् । | बुद्धि इतकलुब्धाना, धिक्पापप्रतिवेशिनीम् ।। २३ ।। स्पृष्ट्वाऽथ पटई चेटी, गत्वा दुष्टाशयान्तिकम् । प्रकटीकतभिक्षक्तिः, पाप्मि-10 नीति व्यजिज्ञपत् ।। २४ ।। मया निवारितेनापि, वारं वारं द्विजन्मना । धनायता परं तेन, स्वामिन् बहीं निबर्हितः ।। २५ ॥ अकृतज्ञेन तेनैवं, तद्गिरा ज्वलितकुधा । बध्यस्तन्मित्रमातंगस्योपनिन्ये प्रभाकरः ॥ २६ ॥ अगृह्यमाणाः सत्कृत्यैर्भषन्तः संस्तुतेष्वपि । खादन्तो निजवम्याच, ते खला मण्डलाधिकाः ।। २७ ।। तेनोक्तं भद्र ! मां मुञ्च, दूरं देशान्तरं आये। पुराकृतोपकारस्य, त्वमानृण्यमुपेहि मे ॥ २८ ।। अथाभ्यधत्त चण्डालः, पापभृन्मण्डलामणीः । युक्तमुक्तं त्वया बन्धो ! ऽपराद्धं परमं पर(द)म् ॥२९॥ द्विधा दुष्टाशयः स्वामी, मुखामि त्वां कथं यतः। रजकस्येव मे मृत्युः, खरमृत्यौ भवेद् ध्रुवम् ।। ७३०॥ ततः स चिन्तयामास, सानुतापः प्रभाकरः । एष्ठं माहत्म्यमेतेषां, हा नीचप्रकृति जनम् ॥ ३१॥ "नीचः कृतोपकारोऽपि, विमानयति निधितम । जातवेदा
॥५६॥ १ व्यवाययत् ।।
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जम्बूचरित्रे
॥ ५७॥
साधुसमागमलामे प्रभाकरकथा।
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दहत्येव, तर्पितोऽपि हि सर्पिषा ॥ ३२॥" तथाहि-ममैतैर्दोषसंकल्पवारुणीविपुषा क्षणात् । उपकारपयःकुम्भः, सकलः कलुपीकृतः ॥ ३३ ॥ किंपाके सस्फुरत्पाके, पाटलाम्रफलभ्रमः। लक्ष्मीलवसुखाकांक्षा, या नीचप्रकृतौ जने ॥३४॥ नीचाश्रितस्य
सुचिरं, नीरं संत्यज्य जायते । कस्यान्यस्य गुणोद्दण्डपुण्डरीकसमागमः ॥ ३५॥ अवज्ञातपितृश्लोकदीर्घशोकहतस्ततः । वरिवस्यां KI विधास्यामि, सांप्रतं महतामहम् ।। ३६ ॥ इति ध्यात्वा सखाऽसि त्वमुपस्वामि नयस्व माम् । मयूरमर्पयिष्यामीत्यूचे चाण्डालकं । NI पुनः ।। ३७ ॥ तेन किंचित् त्रपान, तद्वचः प्रतिपद्य तत् । सनाथः शिखिना निन्ये, सनाथस्य पुरस्थितिम् ॥ ३८॥ ऊचे च | 6. तत्प्रकोपाग्नेरिव शान्त्यै समुत्सृजन् । दशनांशुजलं शुद्य, स्वस्येवान्त्यजसंगिनः ॥ ३९ ॥ गृहाण बहिणं स्वामिन्नस्तु स्वस्ति चिराय
ते । सन्न्याय सद्विचाराय, भवत्परिकराय च ।। ७४० ॥ वाचाटा चातिदुष्टा च, चेटिकेयमतथ्यवाक् । अनाचारः पराचीनो, विग्रस्त्वेष प्रभाकरः ॥४१।। नैतस्मिन्संभवत्येतदिति नैव विमर्षितम् । पृष्टो नाहं नवा भक्तिविभक्तिमें विभाविता ॥४२॥ दण्डः सर्वकपश्चिवमहो ते सुकृतज्ञता | पृष्ठो दुष्टाशयेनेष तत्त्वामाख्यद् यथास्थितम् ।। ४३ ।। तेनेष क्षम्यमाणोऽपि, धार्यमाणोऽपि चान्तिके। भृशं सक्रियमाणोऽपि, निर्ययौ नगराद् बहिः ॥ ४४ ॥ क्रमाच्चंक्रम्यमाणश्च, प्राप्तो रत्नपुरं पुरम् । अभ्यस्तस्वःपुरी सृष्टेः, स्वष्टुः शिल्पकषोपलम् ॥४५॥ पराक्रमसमाक्रान्त-विक्रान्तप्रतिपार्थिवः । तत्पालयति भूपालः, पुरं रत्नरथाभिधः ॥४६॥ तस्यास्ति सूनुः कनकरथः सत्पथपान्थधीः। यदूपन्यत्कृतेः कामो, मन्यते बहनंगताम् ॥ ४७ ।। गुणा समाश्रिता येन, गुणर्यश्च समाश्रितः ।
मिथः कीर्ति परां लब्धं, बद्धोत्कंठा वशादिवः ॥४८॥ तमास्थानभुवि स्थास्नु, द्वास्थेनाथ निवेदितः। विप्रं प्रविश्य सोऽवादीNदित्याशीर्वादपूर्वकम् ॥ ४९॥ अहं द्विजात्मस्त्वं च, राजसूनुर्गुणावधिः। स्पृहयामि तदात्मानं, कर्तुं त्वत्पारिपार्श्विकम् ॥ ७५०॥
पुरोहितपदेऽनेन, पुरः स्यान्मे प्रयोजनम् । तेनेममात्मसात्कृत्वा, दानसंमानसम्पदा ।। ५१ ॥ व्याजहार विचिन्त्येवं, कुमारस्तमुदा| रधीः। प्रथयन्निव मित्रत्वं, तस्य स्मेरमुखाम्बुजः ।। ५२ ॥ सूत्रितस्त्वं मया मित्रमितोऽवश्य प्रभाकर !। क्वापि चिन्तातपक्लान्त, । | स्वान्तं मा स्म वृथा कृथाः ॥ ५३॥ ततः समुदितस्तिष्ठस्तत्र पश्यनिरन्तरम् । बरिष्ठश्रेष्ठिनः पुत्रं, मित्रं चक्रे मनोरथम् ॥५४॥
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॥
७
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जम्बूचरित्रे
कथा।
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कलत्रं सूत्रिता तेन, पिण्डवासविलासिनी । ख्याता रतिविलासेति, सद्गुणैकविलासभूः ।। ५५ ।। इत्थमेभित्रिभिः साई, वर्धिष्णु
साधुसमाप्रणयोज्वलः । प्रभाकरः स्मरनस्ति, मन्त्रवत्पैतृकं वचः ।। ५६ ।। हेडावित्तकचोडेन, विदेशागन्तुनाऽन्यदा । तुरंगयुग्मं सर्वाङ्ग-रम्य
गमलामे राज्ञेऽवतीर्यत ।। ५७॥ कुमारविप्रावारुह्य, वाह्यालीभूमिमण्डले। प्रारेभाते स संरम्भ, वाहवाहनकौतुकम् ॥५८॥
प्रभाकरब(वल्गा)लात्तुरङ्गन्युग्मेन, जन्मे वाह्यतोस्तयोः। कर्पतोरपि सोत्कर्षमरण्यानी मरुस्थली ॥ ५९॥ कुमारे च द्विजातौ च, श्लथवल्गाग्रहे श्रमात् । तस्थतुस्तत्क्षणादश्वौ, बेपरीत्येन शिक्षितौ ।। ७६० ।। कुमारः सुकुमारत्वात्ततः क्लान्तस्तृषा भृशम् । वाजिवर्यात्समुत्तीर्य, निषसाद स्थलीभुषि ॥ ६१॥ लोलाः प्राणाः प्रयाणाय, पानीयमुपनीयताम् । त्वं वयस्य ! त्वरस्वेति, त्यक्त्वाऽश्वं सोऽवदद् द्विजं ॥ ६२ ॥ अथ धीरो भवेत्युक्त्वा, दिवाकरतनूद्भवः । अर्णस्तूर्ण महारण्ये, तत्रान्वेष्टुं प्रचक्रमे ॥६३।। स्वीचक्रे नीरमप्राप्य, तृष्णाहारि गुरोस्तरोः । ज्ञानदर्शनचारित्रतुल्यमामलकत्रयम् ॥ ६४ ॥ विप्रः क्षिप्रं समागत्य, चिन्ता चान्तेन चेतसा । मूर्छाविकाराकुलितं, कुमारं समुदक्षत ॥ ६५॥ पयः स्वयमनासाद्य, लक्ष्यकृ(क्ष)तमानसः । चक्षुषी बहु मन्वानः, व्योतद्वाष्पजलोमिणी ।। ६६ ।। मूर्छान्धकारसंहारकारणं मधुरारुणम् । आस्ये तस्यैष बालार्क-मुग्धमामलकं न्यधात् ।। ६७ ।। उन्मीलिताs-IN मृतकला, स्फारिते चक्षुषी मनाक् । विप्रः पुनः कुमाराय, ददावामलकद्वयम् ॥ ६८ ।। लब्धसंज्ञः कुमारोऽथ, धूलिधूसरितं नमः । वीक्षते तत्क्षणत्रस्यन्मूर्छयेवोन्नताननः ।। ६९ ॥ अन्तरिक्षदरीकुक्षौ, रजःसारमिवात्मनः । कस्मादकस्माद्(भी)ह्रीतेव, सादरं क्षिपति क्षितिः ॥ ७७० ।। कुमारविप्रावाऽऽसाते, यावदुन्मानसाविति । तावद्भोज्यपयःपूर्ण, तूर्णं तत्सैन्यमागमत् ॥७१।। ततः कृताह्निकाचारः, कुमारः स प्रभाकरः । क्रमेण स्वामलंचके, परिवारान्वितः पुरीम् ।। ७२ ॥ प्राज्ये राज्ये निजं कृत्वा, तं राजाऽाजमन्यदा । तापसो बनवासेऽभूदु, भूपो रत्नरथाभिधः ॥ ७३ ॥ सौवस्तिकपदे दधे, नव्यभूपः प्रभाकरम् । मनोरथमपि श्रीमान् , श्रेष्ठ| प्रेष्ठिपदे न्यधात् ॥ ७४ ॥ ते राज्यं बिभ्रते प्राज्य, न्यायन्यासनिरङ्कुशाः। पवित्रमैत्र्यपात्राणां, तेषां यान्ति च वासराः ॥७५।।
॥५८॥ NI" यथा माधुर्यमिक्षणां, शयानां श्वेतिमा यथा । सज्जनानां तथा मैत्रीहेवाको जीवितावधिः ॥ ७६ ॥ तस्या रतिषिलासायाः, स्फु
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जम्बूचरित्रे ॥ ५९ ॥
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रद्गर्भानुभावतः । एतादृशः समुत्पेदे, कदाचिदथ दोहदः ॥ ७७ ॥ नित्रर्ड क्रीडतो राजकुमारस्य गृहाङ्गणे । चेत्कालखण्डमनामि, तदा जीवामि नान्यथा ॥ ७८ ॥ अनार्जवमनार्यत्वं, धा (वा) र्यमाणैकतानता । दौर्जन्यं निष्कृपत्वं च योषितां मूलमातृका ॥ ७९ ॥ दुर्बारे दोहदे मुस्मिन्नशक्ये वक्तुमप्यसौ । खिद्यमानमनाः शाश्वत्, कृशाङ्गी सुतरामभूत् ॥ ७८० ॥ एतामेतादृशीं दृष्ट्वा, सत्प्रभः स प्रभाकरः । महाग्रहेण पप्रच्छ, कायकार्श्यस्य कारणम् ॥८१॥ मन्दाक्षेण क्षतस्वान्ता, साऽऽचचक्षे स्वदोहदम् । सोऽपि प्राह प्रिये ! दुःखदुर्दिनं मा वृथा कृथाः ॥ ८२ ॥ पूरयिष्यामि तेऽवश्यमिमं दोहदमादरात् । कियन्मात्रमिदं कार्यमायें ! मम चिकीर्षतः ॥ ८३ ॥ धृत्यैकान्ते कुमारं तं ददौ स परमादरात् । कृत्वाऽन्यन्मांसमेतस्यै, सारसंस्कार संस्कृतम् ॥ ८४ ॥ क्षणान्निर्वृतिकल्याणमापातेनापि साद्भुतम् । तं गर्भ बिभरामास, भृशं संभृतसंमदा ॥ ८५ ॥ चक्रे सारा कुमारस्य, भूभुजा भोजनक्षणे । सर्वत्र वीक्षितः क्षिप्रं | नेक्षितो न श्रुतः क्वचित् ॥ ८६ ॥ न भुङ्क्ते वक्ति चोर्वीशः, कः कालेन कटाक्षितः । फणीन्द्रस्य फणारत्नमात्तवान् मे तनूद्भवम् ॥ ८७ ॥ प्राप्तमेतञ्च विस्तारं श्रुतं रतिविलासया । चिराय चिन्तयामास, मांसलोच्छलिता रतिः ॥ ८८ ॥ हा हतास्मि दहा धिग्मां, किमेतन्मया कृतम् । ममाजीव' निरेवास्तु, जीवितेशस्तु जीवतात् ॥ ८९ ॥ यथा मे वल्लभो गर्भः, स्वार्भको भूपतेस्तथा । मन्मनोल्लापपीयुषवर्षी यद्वा विशेषतः ७९० ।। शाकिनीव कुमारं तं भक्षयित्वा सलक्षणम् । किं नैवास्मि मरिष्यामि, भावी गर्भोऽथ शाश्वतः ।। ९९ ।। यदीदं च नृपो विन्द्यात्, कदाचन कथंचन । अत्याहितं तदा भर्तुः, को नाम विनिवारयेत् ।। ९२ ।। यावन्न ज्ञायतेऽद्यापि प्रियस्तावन्मनोरथं । मन्त्रयित्वा सूत्रयामि, किंचिदौपयिकं शिवे ॥ ९३ ॥ ततोऽसौ सत्त्वरं गत्वा, मनोरथनिकेतने । तं यथावृत्तवृत्तान्तमेकान्ते तत्पुरोऽवदत् ॥ ९४ ॥ स ब्रूते स्म हहा भद्रे ! त्वया चक्रे किमीदृशम् । प्राणाः प्रभाकरस्यैते, सत्यं तृणपणीकृताः ॥ ९५ ॥ तथापि धैर्यमाधाय, स्वैरं गच्छ गृहान्निजात् । अस्मि प्रतिकरिष्यामि सर्वमेतद्यथा तथा ॥ ९६ ॥ गत्वा रतिविलासाथ, स्वमन्दिरमचिन्तयत् । आगस्कारिणमात्मानमाख्याय नृपतेः पुरः ||९७|| यद्ययं मत्प्रियं रक्षेत्, तदा स्यादस्य१ निरे वा D. निरि वा B
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साधुसमागमलाभे
प्रभाकरकथा ।
॥ ५९ ॥
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जम्बूचरित्रे ॥६ ॥
साधुसमा गमलामे प्रभाकरकथा।
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पश्चता। एतच्चातिविरूपं स्यादमन्तोम॑त्युरस्ति यत् ॥९८।। ध्यात्वैवं यावदद्यापि, यात्ययं नोपपार्थिवम् । तावद्वारवधूभूपं, सा प्रविश्य | व्यजिशपत् ॥९९।। अपहारः कुमारस्य, कृतः केन कथं छलात् । इति चिन्ताचिताचान्तं, चित्तं मा त्वं प्रभो ! कृथाः ॥८००। पापीयस्या मयाऽवश्य, कुमारवधपातकम् । चक्रे केनापि कामेन, तत्प्राणान्निगृहाण मे ॥ १॥ कदा कुत्र कथं चेति, यावज्जल्पति भूपतिः। तावन्मनोरथोऽप्येत्य, विज्ञप्तिं भूभृतेऽकरोत् ॥२॥ देव मन्मन्दिरे क्रीडन् , कुमारः सदनोपरि । प्रेर्य पुत्रेण मे भूमौ, पातितश्च मृतश्च सः ॥३॥ मीत्या तदेव नाख्यायि, त्वदुःखाच्मि साम्प्रतम् । प्राणप्रहाणदण्डं मे, मा शविष्ठाः कुरुष्व तत् ॥४॥ प्राप्तः प्रभाकरोऽप्याशु, स्वागः संगृणतोस्तयोः । नृपं विज्ञपयामास, मारितस्ते मया सुतः ।। ५ ॥ अभूदर्भानुभावेन, कुमारपिशि| ताशने । प्रियाया दोहदः सोऽपि, मया पापेन पूरितः ॥६॥ अनेन कर्मणा किं स्यां, वयस्यस्ते द्विजोऽथवा । निष्ठा मे भूदियं विष्ठा, रे किष्ठा मा क्षणु क्षणात(न्) ॥ ७॥ श्रेष्ठी श्रेष्ठः किमेषः स्यादालजालं जजल्प यः । आत्मन्यारोपयत्सत्य, भ्रौणहत्यं मया कृतम् ॥ ८॥ पश्यन्नस्ति नृपो यावत् वयं चित्रीयितात्मना। तावत् , प्रभाकरेणोक्तमलं सन्देहदोलया ॥ ९॥ भ्रौणहत्यस्य मे हत्या, प्रायश्चित्तं न शुद्धिकृत । राजन् यद्यप्यदो भाति(वि), तथाप्यन्यत्किमाद्रिये ।। ८१० ॥ आगस्वानहमेवात्र, पुत्रः स्वस्थो मया कृतः ।
अत्रार्थे पार्थिवस्तेन, शपथैः सुस्थिरीकृतः ॥ ११॥ अथोवाच महीचन्द्रो, यद्यप्येवं तथापि ते । नापराधः सखे ! यस्मान्मया क्षान्त| मिदं ध्रुवम् ॥ १२॥ "स्वामिमित्रकलत्राणां, बुद्धिबन्धुधनात्मनाम् । आपनिकषपाषाणे, नरो जानाति सारताम् ॥१३॥" राजशब्द
स एवंकः, काममिन्दुनिषेवताम् । कलङ्ककल्पमप्येणमाश्रितं न जहाति यः ॥ १३ ।। पुनर्भूपः प्राह-यत्तदामलकं दत्तं, त्वया में निर्जने बने । मृतस्येव तृपा मित्र !, तन्मे न खलु विस्मृतम् ॥ १५ ॥ स्यां तदा चेन्मतस्तूण, छत्रातिच्छत्रमैत्र्यभाक् । तदा | NI भुञ्जीत राज्यं कस्तत्तवेदं ममाखिलम् ॥ १६ ॥ प्रोक्तं प्रभाकरेणाथ, यद्येवं देव ! तत्वतः । तदा मदवने भोक्तुं, प्रसादः क्रियतामिति
॥ १७ ॥ पार्थिवेन तथेत्युक्ते, प्रातस्तेन पुरोधसा। आहायि भवने भूपः, सपौरः सपरिच्छदः ॥ १८ ॥ भोजितो भोज्यलेNI ह्यान्नैः, सस्वादस्वादसन्दरैः । रत्नसिंहासनासीनः, सत्कृतश्चन्दनादिभिः ॥ १९॥ सारालंकारवस्त्राद्यैः, परिस्कृत्य प्रभाकरः । साक्षा- IN
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जम्यूचरित्रे
॥६ ॥
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दशेषपौराणां, तं कुमारकमापिपत् ।।८२०।। स्वयं चकार हर्षेण, नृपस्योत्संगसंगतम् । माणिक्यमौक्तिकायं च, ढौकनीयमढौकयत् ॥२१॥ श्यामाधःकृतवक्त्रस्तु, क्षणेऽत्र क्षितिपोऽभवत् । पौरैरभाणि किं दुःखं, हर्षस्थानेऽपि ते प्रभो ! ॥ २२ ।। अथ प्रोवाच भूपालः,
10 मातापितादिकाम लज्जा दुनोति माम् । वेलक्ष्यादतिरुक्षात्मा, नास्मि शक्नोमि भाषितुम् ॥ २३ ॥ मूल्य तुल्यं न यस्यैषाऽवश्यं कृत्स्नाऽपि
Nसह दिक्षा। काश्यपी । तन्मयामलकं प्राणनिर्याणकनिवारकम् ॥ २४ ॥ कुमारमूल्यता नीतं, कृतघ्नाध्वनि तस्थुषा । पीयूषवत्परार्थाय, सृष्टः एकः प्रभाकरः ॥ २५ ॥ “ अपेक्षन्ते न च स्नेहं, न पात्रं न दशान्तरम् । सदा लोकहिते सक्ता, रत्नदीपा इवोत्तमाः ॥ २६ ।।" ते बभूवुर्न मिथ्या च, सर्वथा शपथास्तव । इत्थं स्वस्थत्वनिर्वाहात्, साधु साधु प्रभाकर ! ।। २७ । चके त्वया किमेवं चेत्युक्तोऽसौ भूभृदादिमिः । पितृशिक्षादिवृत्तान्त, समस्तं स्वमवोचत ॥ २८ ॥ यथा दुष्टाशयाद्यैः प्राक्, प्रकामोपकृतहतः। यथा चोत्तम-10 सांगत्य-परीक्षार्थमिहागतः ।। २९ ॥ एवं चेषां परप्रीत्या, याति कालो मनस्विनाम् । उत्तमैः सह सांगत्यमित्यर्थे सुस्थिरात्मनाम् 16 ॥ ८३०॥ इत्यं दोषगुणप्रधानपरिषत्संपर्किणां प्राणिनां, स्युदोषाश्च गुणाश्च यद्धृवमहोऽत्रस्यन्कुरङ्गीदृशः। तदोषकसदो व्युदस्य भवती दीक्षां जिघृक्षुः क्षणात् , श्रेयः श्रीप्रणयार्पणप्रतिभुवस्तानाश्रये सद्गुरून् ॥ ३१॥ हे मातापितरौ कान्ताः, प्रोच्यतां प्रभवापि भोः। IN दीक्षमाणे मयि प्रातः, किं करिष्यथ कथ्यताम् ॥ ३२ ।। 'अङ्गारदाहकस्पष्टदृष्टान्तेनाऽजनिष्टवः । सौहित्यं सत्यमद्यापि, किं न वैषयिके सुखे ॥ ३३ ॥ तथा-यथेह लवणाम्भोभिः, पूरितो लवणोदधिः । शारीरमानसैर्दुःखरसंख्येयेस्तथा भवः ॥३४॥ यश्च कञ्च न कस्यापि, जायते सुखविभ्रमः । मधुदिग्धासिधाराप्रपासवन्नैष सुन्दरः ।। ३५ ।। अपि च-सा बुद्धिः प्रलयं प्रयातु कुलिशं तस्मिन् श्रते पात्यता, वल्गन्तः प्रविशन्तु ते हुतभुजि ज्वालाकराले गुणाः। यः सर्वैः शरदिन्दुकुन्दधवलेः प्राप्तैरपि प्राप्यते, भूयोऽप्यत्र पुरन्ध्रिगर्भनरककोडाधिवासव्यथा ।। ३६ ।। इति निरवधिदुःखदुःसहे तदिह सुखं न भवेऽस्ति वास्तवम् । यदि सुखमभिलापुकाः स्थ भो विरतिरमाऽद्य मया सहेष्यताम् ।। ३७ ॥ तओ-अंसुपवायझलज्झल-विलोयणा मायतायकताओ। पभणति जुत्तं
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जम्बूचरित्रे
।।.६२॥
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NI मुत्तं, वयंपि सह पव्वइस्सामो ॥ ३८ ॥ उवसंताओ कंताओ, ताउ जंपति जंपियं जमिह । विरहदुहाओ पेम्माउ, अणुचियं IN सपरिवारेण | अम्ह तं खमह ॥३९॥ पभवो अणुनवित्ता, पत्तो पल्लीए इय भणेऊण । लहु संवहिउं अहमेमि, लेमि सह अज्ज पब्वजं ॥८४०॥
जम्बू-प्रभव सुमुहुत्ते संपत्ते, उदग्गसव्वंगचंगसिंगारो। सिवियारूढो अम्मा-पिऊहिं सह पट्टिओ जंबू ।। ४१ ।। कताउ अट्ठ ताउ, नियनिय
स्वामिदीक्षा पेईहराउ नीहरिउ । परमाए रिद्धीए, सिवियारूढाउ पत्ताउ ।। ४२॥ पभवो पभूयपहाण-पुरिसपरिवारपरिखुडो पत्तो। नरनाहागुनाओ, सिबियाए सहेव संचलिओ ॥ ४३ ॥ जंबूसामी सव्वाहिं, ताहिं सव्वाहिं अणुगमिजतो। सयमागंतूणमणाढिएणमाढत्तसव्विड्ढी ॥४४॥ धरियधवलायपत्तो, ढलंतसियचारुचामरुप्पीलो । नमिरनिरंतरनचिर-नारीगिजंतजसपसरो ॥ ४५ ॥ सलहि|जंतो मागहजणेण खयरेहिं कयकुसुमबुद्वी। तूररवाडंबरभरियनहयलो काणणमि गओ ॥ ४६॥ पंचमगणहारिसहम्मसामिणा दिन्नपुन्नपव्वजो। जाओ सपरीवारो, महाजई उज्जयबिहारो ॥ ४७ ।। अहिगयसमत्थसुत्तत्थवित्थरो वित्थरंतवरकित्ती। छत्तीसगुणागारं, गुरुणा ठविओ नियपयंमि ॥४८॥ पसरियलोयालोयाऽऽगासपयासासमाणनाणधरो । निव्वाणगए सोहम्मसामिए संघधुरधवलो ॥ ४९ ॥ पभवं नियपट्टे ठाविऊणमुकंठिओ व्व मुत्तीए । पत्तो ओसप्पिणीचरमकेवली जंबूसामी गुरू ।। ८५० ।। चरमकेवलिता वाऽस्या गाथातोऽवसेया ।। मण-परमोहि-पूलाए, आहारगखवगउवसमे कप्पे । संजमतिय केवलि-सिज्झणा य जंबुमि वोच्छिन्ना ।। ५१ ॥ संते वि संतविसए अवहाय सब्वे, जायं महाजइमहं पणमामि जंबु । दळूण तं विरइरज्जमुवागओ जो, लुटतओ वि तमहं पभवंपि वंदे ।। ८५२ ॥
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॥६२॥
॥ इइ सिरिजंबूसामिचरियम् ॥
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyan mandir occeroezaezcaeroecoercomccc श्रीजम्बूस्वामिचरित्रे अनुक्रमणिका / पत्रमू विषयः पत्रम् विषयः पत्रम् विषयः 2 भवदेवदीक्षा। 19 महेश्वरदत्तज्ञातम् / 48 अतिलोभे लोहर्गलागणिका 3 भवदेव-नागिलाप्रश्नोत्तराणि / 21 मकरदाढावेश्याकथा / 54 धर्मशाने स्त्रीणां स्वभावजा वैदू 4 महिषीभूतपुत्रप्रतिबोधः। 24 भौताचार्यकथा। 55 साधुसमागमे प्रभाकरकथा / 5 उच्छिष्टभोजिदृष्टान्तेन नागिलया 25 अतिलोभे वानरमिथुनकथा / 61 सपरिवारेण जम्बू-प्रभवयोः दीक्षा स्थिरीकरण / 26 कृतपूतना-द्यूतकारप्रसङ्गः। // इति अनुक्रर्माणका // 6 भवदत्तस्य सागरदत्तत्वेनोत्पत्तिः / 27 सिद्धदत्तेन पुस्तिकाक्रयणम् / 7 शिवकुमारस्य सागरदत्तमुनिसमा- 30 सुंदरवेष्ठिकथा / छपाय छे! गमः घोराभिग्रहश्च / 31 हेममयूरो वायसीकृतः / उपदेशमाळानी अप्रसिद्ध दोघट्टी NI 10 चतुर्गतिदुःखानि / 32 विजयसुजयोर्निष्फला दीक्षाभिलाषा। नामनी टीका के जे वादिदेवसूरिना 11 अनादृतदेवोत्पत्तिः / 35 ईष्यालुस्थविरयोः कथा / शिष्य श्रीरत्नप्रभसूरिजीए रचेली छे. 12 धारिणीदोहदपूरणम् / 36 योगराजेन विसंवादिराज्यस्थिति- रचना काळ लगभग बारमा सकानो 13 जम्बूकुमारब्रह्मनियमः / प्रेक्षणम् / छे. बारहजार श्लोक प्रमाण 45 थी 50 14 जंबू-प्रभवचोरसंवादः। 41 कलिराज्यकथा। फर्मानो आ ज प्रमाणे कागल तथा 15 मधुबिन्दुदृष्टान्तः / 44 मित्रत्रितयीकथा / छपाइमां ग्रंथ प्रसिद्ध थशे. 16 कुबेरदत्त-कुबेरदत्ताज्ञातम् / 46 अमरसेनप्रवरसेनभात्रोः कथा / ली. प्रकाशक. Peerenconecroofane // 63 // For Private And Personal Use Only