Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
-The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
L
EEEEEEEEEEEEEEEEEETTES
M.in.
श्रीवीतरागाय नमः।
मैनपदसंग्रह द्वितीयभार।
अर्थात्
पण्डित भागचन्द्रजीकृत पदोंका संग्रह ।।
D ASUSTAssueStatusnssesurevenugurarupuranranyancer
CLAnr
LATESMAREILINORINDIJRADESeriLJI..
CERESEANSERTILITY
जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय-बम्बई ।
जैनविजय प्रेम-मरत।
ILLMAN
श्रीवीर निम४८
तीसरी बार ]
[मूल्य पार आने ।
L-NEELAM
Suman- we-e-N-
Raymovema-Justiane GHORFutela..
HIROZABALLynamaAcahrkinstaminiminary
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
Printed by Moolchand Kisondas Kapadin et "Jain Bijicon"
P. Presy pear Khapatia Chakla-Serul,
Publisked by Nathuram Premi, Proprietor, Jain Grootb Ratpakar
Karyalaya; Hirabagl, Girgaon---Domby.
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
ऑनमः मिया
जैनपदसंग्रह द्वितीयभाग।
अर्थान् पंडिनवर्य भागचन्द्रजीकृत पदोका मंग्रह ।
राग मरी। सन्त निरन्तर चिन्तत ऐसें, आतमरूप अयाधिन ज्ञानी ॥ टेक ॥ रागादिक नो देहाधित है. इनले हान न मेरी हानी । दहन दहत ज्या दहन न नगन गगन दहन ताकी विधि ठानी।।? || चरणादिक विकार । पुदगलके, इनमें नहिं चैतन्य निशानी । यद्यपि एक
क्षेत्रअवगाही, नापि लक्षण भिन्न पिडानी ॥ २॥ मैं सर्वांगपूर्ण ज्ञायक रस, लवण विलयत लीला ठानी। मिली निराकुल स्वाद नं यावत, तावत परपरनति हित मानी ॥३॥ भागचन्द निरदन्द निरामय, मृरति निश्चय सिडसमानी । नित असलंक अबंक
शंक विन, निर्मल पंक विना जिमि पानी मन्न । निरन्तर चि॥४॥
धन धन जैनी माधु अवाधिन, नत्त्वज्ञानविलानी हो ॥ टेक ॥ दर्शन-पोषमई निजमरति, जिनकों
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनपदसंग्रह
अपनी भासी हो । त्यागी अन्य समस्त वस्तुमें, अहंबुद्धि दुखदा सी हो ॥ १ ॥ जिन अशुभोपयोगकी परनति, सत्तासहित विनाशी हो । होय कदाच शुभोपयोग तो, तह भी रहत उदासी हो ॥ २ ॥ छेदत जे अनादि दुखदायक, दुविधि बंधकी फाँसी हो । मोह क्षोभ रहित जिन परनति, विमल भयंककला सी हो ॥ ३ ॥ विषय चाह-दव दाह खुजावन, साम्य सुधारस रासी हो । भागचन्द ज्ञानानंदी पद, साधत सदा हुलासी हो ॥ धन० ॥ ४ ॥
३
यही इक धर्ममूल है मीता ! निज समकितसारसहीता । यही ० || || समकित सहित नरकपदवासा, खासा बुधजन गीता | तहत निकसि होय तीर्थकर, सुरगन जजत सप्रीता ॥ १ ॥ स्वर्गवास हुनीको नाहीं, for समकित अविनीता । तहत चय एकेंद्री उपजत,. भ्रमत सदा भयभीता ॥ २ ॥ खेत बहुत जोते हु वीज विन, रहित धान्यसों रीता । सिद्धि न लहत कोटि तपहूतें, वृधा कलेश सहीता ॥ ३ ॥ समकित अतुलअखंड सुधारस, जिन पुरुषननें पीता । भागचन्द ते अजर अमर भये, तिनहीनें जग जीता । यही इक. धर्म० ॥ ४ ॥
-
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
हिनीयमा !
मग मरी। जीवनके परिनामनिकी यह, अनि विचित्रता दन्नर जानी ॥ टेक। नित्य निगादमाहित कड़िकर, नर परजाय पाय सुग्नदानी। समकिन नहि अंतर्मुहम केवल पाय वर शिवरानी ॥ १॥ मुनि एकादश गुणधानक चदि. गिरन नहांत चितम्रम ठानी। भ्रमत अधपुरलग्रावर्तन, किंचित् जन कान परमानी ॥२॥ निज परिनामनिकी मॅभाल, तानै गाफिल मन हे माना। बंध माक्ष परिनामनिहीमां, कहत सदा श्रीजिनवरवानी ॥३॥ सकल उपाधिनिमिन भावनिमो. भिन्न म निज परनतिको छानी । नाहि जानि नचि ठानि होह थिर, भागचन्द यह मीग्न सयानी जीवन पर०॥४॥
परननि सब जीवनको, नीन मोनि घरनी। एक पुण्य एक पाप. एक गगहरनी ।। परननि० कि!! तामै शुभ अगम अंध. दांय करें कमबंध, वीतराग परनति ही, भवसमुद्रतरनी ॥१॥ जावत शुद्धोपरांग, पावत नाही मनोग. तावत ही करन जोग, कही पुण्य करनी ॥६॥ त्याग शुभ क्रियाकलाप, करो मन कदाच पाप. शुभमें न मगन होग, शुद्धता विसरनी ।
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनपदसंग्रहऊंच ऊंच दशा धारि, चित्त प्रमादको विडारि, ऊंचली दशात मति, गिरो अघो घरनी ॥४॥ भागचन्द या प्रकार, जीच लहै सुग्न अपार, थाके निरधार स्याद, वादकी उचरनी। परनति ॥॥
जीव ! तृ भ्रमत सदीव अकेला । सँग साथी कोई नाहि तेरा ॥टेका। अपना सुखदुख आप हि भुगते, होत कुटुंब न भेला । स्वार्थ भय सब विछुरि जात हैं: विघट जातज्यों मेला ॥ १॥ रक्षक कोइन पूरन व्है जय, आयु अंतकी बेला । फुटत पारि बँधत नहिं जसे, दुद्धर जलको ठेला ॥२॥ तन धन जीवन विनशि जात ज्यो, इन्द्रजालका बेला । भागचन्द इमि लग्व करि भाई, हो सतगुरुका चेला ॥ जीव तृ भ्रमत० ॥ ३॥
आकुलरहित होय इमि निशदिन, कौजे तत्त्वविचारा हो । को मैं कहा रूप है मेरा, पर हैं कौन प्रकारा हो ॥टेक॥१॥ को भव-कारण बंध कहा को, आस्रवरोकनहारा हो । खिपत कर्मबंधन काहसों, थानक कौन हमारा हो ॥२॥ इमि अभ्यास किये पावत है, परमानंद अपारा हो।भागचंद यह सार जान करि, कीजे वारंवारा हो॥आकुलरहित होय० ॥३॥
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभाग।
राग भैरव । । सुन्दर दशलच्छन वृष, मेय सदा भाई।
जामते ततच्छन जन, होय विश्वराई ॥ टेक ॥ क्रोधको निरोध शांत, सुधाका नितांत शोध, मानको ती भजी स्वभाव कोमलाई ॥१॥ छल बल तजि सदा विमलभाव मरलनाई भात, सर्व जीव चैन दैन, वैन कह सुहाई ॥२॥ ज्ञान तीर्थ स्नान दान, ध्यान भान हृदय आन, दया-चरन धारि करन-विषय मय बिहाई ॥ ॥ आलस हरि द्वादश तप, धारि शुद्ध मानस करि, वहगेह देह जानि, तजी नेहताई ॥४॥ अंतरंग वाद्य संग, त्यागि आत्मरंग पागि, शीलमाल अति विशाल, पहिर शोभनाई ॥५॥ यह नृप-सोपान-राज, मोक्षधाम चढ़न काज, ननसुग्व () निज गुनसमाज, केवलीयताई।मुन्दराद
प्रमाती। पोडशकारन सुहृदय, धारन कर भाई ! जिनते जगतारन जिन, होय विन्धराई ॥ टेक ॥ निर्मल अहान ठान, शंकादिक मल जधान, देवादिक विनय सरल भावते कराई ॥ १ ॥
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
नैनपदसंग्रहशील निरतिचार धार, मारको सदैव मार, अंतरंग पूर्ण ज्ञान, रागको विंधाई ॥२॥ यथाशक्ति द्वादश तप, तपो शुद्ध मानस कर, आर्त रौद्ध ध्यान त्यागि, धर्म शुक्ल ध्याई ॥३॥ जथाशक्ति वैयावृत, धार अष्टमान टार, भक्ति श्रीजिनेन्द्रकी, सदैव चित्त लाई ॥४॥ आरज आचारजके, चंदि पाद-वारिजकों, भक्ति उपाध्यायकी, निधाय सौख्यदाई॥५॥ प्रवचनकी भक्ति जतनसेति बुद्धि धरो नित्य, आवश्यक क्रिया न, हानि कर कदाई ॥६॥ धर्मकी प्रभावना सु, शर्मकर बढावना सु, जिनप्रणीत सूत्रमाहि, प्रीति कर अघाई ॥७॥ ऐसे जो भावत चित, कलुषता बहावत तसु, चरनकमल ध्यावत वुध, भागचंद गाई॥पोड़श०॥८॥
१०.
प्रभाती। श्रीजिनवर दरश आज, करत सौख्य पाया। अष्ट प्रातिहार्यसहित, पाय शांति काया ॥ टेक ॥ वृक्ष है अशोक जहां, भ्रमर गान गाया। सुन्दर मन्दार-पहुप, वृष्टि होत आया ॥१॥ ज्ञानामृत भरी वानि, खिरै भ्रम नसाया। विमल चमर'ढोरत हरि; हृदय भक्ति लाया ॥२॥
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयमाण
सिंहासन प्रमाचमा, बालजग सुहाया। देव दुंदुभी विशाल, जहां सुर बजाया ॥४॥ मुक्ताफल माल साहित. छत्र नीन लाया। भागचन्द अद्भुत छवि कहीं नहीं जाया॥ श्रीजिन|
सगरी। वीनरागजिन महिमा धारी, वरनसकेको जन त्रिभुबनमा वीतराग पटेका। तुमरे अनद चतुष्टय प्रगट्यो, निम्शेपावरनच्छयाटिनम मित्र पटल विघटनप्रगटन जिमि मार्तड प्रकाश गगनमै ॥ चीनगग० ॥१॥ अप्रमेय ज्ञेयनके ज्ञायक, नहिं परिनमन नदपि जेय. नमें । देवन नयन अनेकाप जिमि, मिलन नहीं पुनि निज रिपयनमें वीतरागा निज उपयोग प्रापन स्वामी, गाल दिया निश्चल, आपनमें । है असमर्थ याय निकसनको, लवन घुला जसे जीवन में ॥ चीनराग० ॥३॥ तुमरे भक्त परम मुम्य पावत, परत अभक्त अनंत दुग्वनमें । जैसा मुग्व दंग्यो नैसी है, भासत जिम निर्मल दरपनमें ॥ चीतरागः ॥४॥ तुम कपाय दिन परम शांत हो. तदपि दक्ष कर्मा रिहननमें । जस अतिशीतल तुपार पुनि, जार देन द्रुम भारि गहनमें ।। वीतराग० ॥५॥ अथ तुम रूप १जीवन का रही है।
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनपदसंग्रह -
जथारथ पायो, अब इच्छा नहिं अन कुमतनमें । भागचन्द अम्रतरस पीकर, फिर को चाहे विष निज मनमें ॥ वीतराग० ॥ ६ ॥
१२
राग दुमरी ।
वुधजन पक्षपात तज, देखो, साँचा देव कौन है इनमें || बुधजन० ॥ टेक ॥ ब्रह्मा दंड कमंडलधारि, स्वांत भ्रांत वश सुरनारिनमें। मृगछाला माला मौंजी पुनि, विषयासक्त निवास नलिनमें ॥ बुधजन ० ॥ १ ॥ शंभू खट्टाअंगसहित पुनि, गिरिजा भोगमगन निशदिनमें । हस्त कपाल व्याल भूषन पुनि, रुंडमाल तन भस्म मलिनमें || बुधजन० ॥ २ ॥ विष्णु चक्रधर मदनवानवश, लज्जा ताज रमता गोपिनमें । क्रोधानल ज्वाजल्यमान पुनि, तिनके होत प्रचंड अरिनमें ॥ बुधजन० ॥ ३ ॥ श्रीअरहंत परम वैरागी, दूषन लेश प्रवेश न जिनमें । भागचंद इनको स्वरूप यह, अब कहो पूज्यपनो है किनमें ! ॥ बुधजन० ॥ ४ ॥
१३
अति संक्लेश विशुद्ध शुद्ध पुनि, त्रिविध जीव परिनाम वखाने ॥ अति० ॥ टेक ॥ तीव्र कषाय उदयतै भावित, दर्वित हिंसादिक अघ ठाने । सो संक्लेश भावफल नरकादिक गति दुख भोगत अस
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयमाग। हाने | अनि०॥ १॥ शुब उपयोग कारननमें जो, रागकवाय मंद उदयान । सो विशुद्ध नसु फल इंद्रादिक, विभव समाज मकल परमानं ॥ अनि ॥२॥ परकारन मोहादिकतै च्युन, दरमन ज्ञान नरन रम पाने । सो है शुद्र भाव नमु फलन, पहुँचत परमानंद ठिकान ॥ अति संलं ॥३॥ इनमें जुगलबंधक कारन परद्रव्याश्रित इंचप्रमाने । 'भागनंद' स्वममय निज हिन सन्त्रि, तामै रम रहिय भ्रम हाने ।अति ॥
उग्रसन गृह व्याहन आय, समदविजय लाला यं । उग्रसेन टिका अशरन पशु आवंदन लम्विक कम्ना भाव उपाय । जगन विभूति भृति सम नजिक. अधिक विराग पढ़ाये | उग्रनन ? ॥ ॥ मुद्रा नगन धारि तंद्रा विन, आत्मनमचि लाये । उजयनागिरि शिग्वरीपरि चढ़ि, शुचि धानकर्म धाय ।।उग्रसेनगाना पंचमुष्टि कर लंच मुंच रज, मिदनको शिर नाय। धवल ध्यान पायक ज्वालात. करम कलंक जलाये । उन० ॥ ३ ! वस्तु समस्त हस्तरेमावन. जुगपत ही दरसाये । निरक्शेप विध्यस्त कर्मकर. शिवपुरकाल सिधाये ॥ उग्रसन० ॥ ४ ॥ अन्यायाध अगाध योघमयतत्रानंद मुहाये। जगभूपन दृपनविन सामी, भागचंद गुन गाये । उग्रसेन० ॥५॥
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
१.
जैनपदसंग्रह
राग चर्चरी। सांची तोगंगा यह वीतरागवानी, अविच्छन्न धारा निज धर्मकी कहानी ॥ सांची०॥टेक ॥ जामें अति ही विमल अगाध ज्ञानपानी, जहां नहीं संशयादि पंककी निशानी ॥ सांची ॥ १ ॥ सप्तभंग जहँ तरंग उछलत सुखदानी, संतचित मरालवंद रमैं नित्य ज्ञानी ।। सांची ॥२॥ जाके अवगाहनते शुद्ध होय पानी,भागचंदनिहचैघटमाहियाप्रमानी ॥सांची ॥२॥
राग प्रमाती। प्रभु तुम मूरत हगसों निरखै हरलै मोरो जीयरा ॥ प्रभु तुम ॥ टेक ॥ भुजत कषायानल पुनि उपजै, ज्ञानसुधारस.सीयरा ॥ प्रभु तुम ॥१॥ वीतरागता प्रगट होत है, शिवथल दीसै नीयरा प्रसु तुम० ॥२॥ भागचंद तुम चरन कमलमें, वसत संतजन हीयरा प्रभु०॥३॥
. . राग प्रभाती।
अरे हो जियरा धर्ममें चित्त लगाय रे.॥ अरे हो. टेका विषय विषसम जान भौढूं, वृथा क्यों लुभाय: रे । अरे हो० ॥ १॥ संग भार:विषाद तोकौं, करत .
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभाग।
क्या नहिं भाय रे । रोग-उरग-निवास-वामी. कहा नहिं यह काय रे ॥ अरे हो० ॥२॥ काल हरिकी गर्जना क्या. तोहि सुन न पराय रे । आपदा भर नित्य नोकौं कहा नहिं दुख दायर ॥ अरे हो । यदि तोहि कहा नहीं दुग्य, नरक असहाय रे नदी बनरनी जहां जिय, पर अनि पिललाय रे। अरहोल ॥ ४ ॥ तन धनादिक धनपटल, मम, छिनकमांहीं बिलाय रे भागचंद सुजान दमि जद-कुल-निलक गुन गाय रे॥ अरे हो० ॥६॥
श्रीजिनवरपद ध्यायें जो नर श्रीजिनवर पद ध्या ॥ टेक ॥ निनकी कर्मकालिमा विन: परम ब्राम हो जावें । उपल अग्नि संजोग पाय जिमि कंचन विमन कहाव ।। श्रीजिनवर० ॥१॥ चन्द्राञ्चलजम तिनका जगम, पंडिन जन नित गाई । जमे कमलमुगंध दशादिश, पवन महज फैलावै ॥ श्रीजिनवर ॥२॥ निनहिं मिलनका मुक्ति सुंदरी चित अभिलाया ल्याचे । कृषि तृण जिम महज ऊपज न्यों स्पादिक पावै ॥ श्रीजिनवर० ॥॥जनमजरामन दावानल ये; भाव सलिलत भुजावै । भागचन्द कहाँ ताई परन, तिनहिं इंद्र शिर नार्दै ॥ श्रीजिनपर० ॥ ४ ॥
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
जनपदसंग्रह
· राग विलावल ।। सुमर सदा मन आतमराम, सुमर सदा मन आतमराम ।। टेक ॥ स्वजन कुटुंवी जन तू पोषै, तिनको होय सदैव गुलाम।सोतो हैं स्वारथके साथी, अंतकाल नहिं आवत काम ॥ समर सदा॥१॥जिमि मरी. चिकामें मृग भटके, परत सो जब ग्रीषम अति धाम तैसे तू भवमाही भटकै, धरत न इक छिन विसराम ।। सुमर ॥२॥ करत न ग्लानि अव भोगनमें, धरत नवीतराग परिनाम । फिर किमि नरकमाहि दुख सहसी, जहाँ सुख लेशन आठौँ जाम ॥३॥ तातै 'आकुलता अब तजिकै, थिर व्है बैठो अपने धाम । भागचंद वसि ज्ञान नगरमें, तजि रागादिक उंग सब ग्राम ।। सुमर०॥४॥
राग सारंग। .. श्रीमुनि राजत समता संग। कायोत्सर्ग:समायत 'अंग टेक। करतें नहिं कछु कारज तातें, आलम्बित 'भुज कीन अभंग । गमन काज कछु हू नहिं तातें, गति तजि छाके निज रसरंग ॥, श्रीमुनि ॥१॥ लोचन लखिवौ कछु.नाहीं, तातै नासा हग अचलंग सुनिवे जोग रह्यो कछु नाही; तातै प्राप्त इकंत सुचंग
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयमाग ।
43
|| श्रीमुनि ||२|| तह मध्यान्हमाहिं निज ऊपर आयो उग्र प्रताप पतंग कैमाँ ज्ञान पचनयल प्रज्वलित, घ्यानानलसों उछल फुलिंग || श्री ||३|| चिन्न निराकुन्न अतुल उठत जहूँ, परमानंद पिग्रुपतरंग। भागचंद ऐसे श्रीगुरुपद, बंदन सिलन स्वपद उसंग ॥ श्रीमुनि ||४|| २१ राम गौरी |
1
आतम अनुभव अजय निज, आतम अनुभव आवै। और कछू न सुहावै जय निज० ॥ टेक ॥ रम नीरस हो जात नर्नाच्छिन, अन्य विषय नहिं भावै ॥ आम०॥ ॥ १ ॥ गोष्टी कथा कुतुहल विटे, पुलप्रीनि नसावें ॥ आतम० ||२|| राग दोष जुग चपल पक्षजुन मन पक्षी मर जाये || आतम ||३||ज्ञानानन्द सुधारम s, घट अंतर न समाये ॥आत० ॥ भागनंद एम अनुभवके हाथ जारि मिर नावे ॥ आनम० ॥ ४ ॥
२२ गग ईमन |
महिमा है अगम जिनागमकी || जाहि सुनन जड़ भिन्न पिछानी. हम चिन्मरनि आतमकी महिमा० || || रागादिक दुम्बकारन जाने, त्याग शुद्धि नी भ्रमकी । ज्ञान ज्योति जागी घर अंतर, गनि वादी पुनि शमदमकी || महि० ॥ २ ॥ कर्म की भह निरजरा, कारण परंपरा क्रमकी | भागचन्द शिव
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
'जैनपदसंग्रहलालच लागो, “पहुंच नहीं है जहँ 'जमकी ॥ महि"मा०॥३॥
२३
राग ईमन । धन धन श्रीश्रेयांसकुमारं । तीर्थदान करतार ! टेक ॥ प्रभु लखि जाहि पूर्वश्रुत आई, चित्त हरपाय उदार । नवधा भक्ति समेत इक्षुरस, प्रासुक दियो अहार ।। धन० ॥ १॥ रतनवृष्टि सुरगन तव कीनी, अमित अमोघ सुधार । कलपक्ष पहुपनकी वर्षा, जहँ अलि करत गुजार ॥ धन ॥२॥ सुरदुंदुभि सुन्दर आति बाजी, मन्द सुगंधि वयार। धन धन यह दाता इमि नभमें, चहुँदिशि होत उचार ॥ धन० ॥ ३॥ जस ताको अमरी नित गावत, चन्द्रोज्वल अविकार । भागचन्द लघुमति क्या वरने, सो तो पुन्य अपार ॥ धन० ॥४॥
ऐसे जैनी मुनिमहाराज, सदा उर मो यसो ॥टेका तिन समस्त परद्रव्यनिमाही, अहंबुद्धि ताज दीनी ॥ गुन अनंत ज्ञानादिक मम पुनि, स्वानुभूति लखि . लीनी ॥ ऐसे० ॥१॥ जे निजबुद्धिपूर्व रागादिक, सकल विभाव निवारै । पुनि अबुद्धिपूर्वकनाशनको, .' अपनें शक्ति सम्हारै ॥ ऐसे० ॥२॥ कर्म शुभाशुभ
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिनीभाग
यंत्र उदयमें हर्ष विपादन राम्रै सम्यगदर्शनज्ञान चरननप, भावसुबारस चा ॥ ऐसे० ॥ ३ ॥ परकी इच्छा नजि निज मजि. पूर्व कर्म खिरा । स क कर्म भिन्न अवस्था सुमन चिन चाव ॥ ऐसे० ॥ ४ ॥ उदासीन शुद्धोपयोगरत सबके दृष्टा ज्ञाता | बाहिरूप नगन समनाकर, भागचन्द सुख दाता ॥ ऐसे० ॥ ५ ॥
२५
राग जंगला |
तुम गुनमनिनिधि हो अरहेन ॥ टेक ॥ पारन पावन तुमरो गनपनि, चार ज्ञान घरि संन ॥ नुम गुन० ॥ १ ॥ ज्ञानकोप सब दोष रहित तुम अलग्य अमूर्ति अचिंत ॥ तुम गुन० || २ || हरिगन अग्मन तुम पवारिज, परमंटी भगवन || तुम गुनः ॥ ३ भागचन्दके घटमंदिर में वह सदा जयवंत ॥ तुम TFO || 2 ||
२६
राग जंगलया |
शाfa axe सुनिराई र ला उत्तर गुनगन महित (मृल गुन सुभग) यरान सुहाई ॥ टेक ॥ त रथ आरूढ अनुपम, धरम सुमंगलदाई || शांति व रन० ॥ १ ॥ शिवरसनीको पानिग्रहण करि जाना नन्द पाई || शांति वरन० ॥ २ ॥ भागचन्द्र ऐसे
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनपदसंग्रहवनसको, हाथ जोर सिरनाई ॥ शांति घरन० ॥ ३ ॥
३७ ।
राग जंगला। । म्हाकैं जिनमूरति हृदय बसी बसी ॥ टेक ॥ यद्यपि करनारसमय तद्यपि, मोह शत्रु हनि असी असी “॥ म्हा० ॥ १॥ भामंडल ताको अति निर्मल, निकलंक जिमि ससी ससी ॥ म्हा० ॥ २॥ लखत होत अति शीतल मति जिमि, सुधा जलधिमें धसी धसी ॥ म्हा० ॥३॥ भागचन्द जिस ध्यानमंत्रसों, ममता नागिन नसी नसी ॥ म्हा॥४॥
. २०
राग खमाच। ज्ञानी मुनि छै ऐसे स्वामी गुनरास ॥ टेक ॥ जिनके शैलनगर मंदिर पुनि, गिरिकंदर सुखवास ॥ ॥ ज्ञानी० ॥ १॥ निष्कलंक परंजक शिला पुनि, दीप मृगांक उजास ॥ ज्ञा० ॥२॥ मृग किंकर करना वनिता पुनि, शील सलिल तपग्रास ॥ ज्ञानी ॥३॥ भागचन्द ते हैं गुरु हमरे, तिनहीके हम दास ॥ ज्ञानी०॥४॥
___ . . . . राग खमाच । , .. श्रीगुरू है उपगारी ऐसे वीतराग गुनधारी चे ॥
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभान टेक ॥ स्वानुभूति रमनी मेंग काई, ज्ञानसंपदा मार्ग
॥ श्रीगुमः ॥ १॥ ध्यान पांजरामं जिन गेली. चिन ग्वग चंचळचारी थे। श्रीगुरु है० ॥२॥ निनक चरनमरांम्ह ध्यांव, भागचन्द अवटारी । श्रीगुरु० ॥ ॥
गगनमान। सारी दिन निरफल ग्यायया कर है। नरभव -- हिकर पानी बिनज्ञान. मार्ग दिन नि० ॥ टेक॥ परसंपति लम्बि निचिनमाही. बिग्धा मग्ग्य गरमी कर है | मारी ॥ १ ॥ कामानलनै जरत मदा ही, मन्दर कामिनी जाया करे ॥ मार्गः ॥२॥ जिनमत तीर्थस्थान नठान, जलमा पहान्न धारयों कर है। सारा०॥3॥ भागचन्द टमि धमरिना गाठ. मोहनीदमें सांपयो और है ॥ सारी० ॥ ४॥
मम आराम विहारी. माधुजन सम भाराम दि. हारी ॥ टेक ॥ एक कल्पनर पुष्पन मनी. जजनभाग विस्तारी ॥ एक कंटविन म नाग्विा , मांच जुन भारी । राम्पत एक शनि दोस्नमैं, मयही उपगारी । मम आरा ॥१॥ सारंगी हरियान सुखाय पनि
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनपदसंग्रहभराल मंजारी । व्याघ्रबालकरि सहित नन्दिनी, व्याल नकुलकी नारी। तिनके चरनकमल आश्रयतें, अरिता सकल निवारी ॥सम आ० ॥२॥ अक्षय अतुल प्रमोद विधायक, ताकौ धाम अपारी । काम धरा विव गढी सोचिरते, आतमनिधि अविकारी॥ खसत ताहि लै कर करमें जे, तीक्षण धुद्धि कुदारी लम आराम०३॥ निज शुद्धोपयोगरस चाखत, परममता न लगारी । निज सरधान ज्ञान चरनात्मक, निश्चय शिवमगचारी॥ भागचंद ऐसे श्रीपति प्रति, .फिर फिर ढोक हमारी ॥ समआरामवि० ॥४॥
राग सोरठ। इजिन केवली म्हाकै इष्टजिन केवली, जिनसकल कलिमल दली ॥टेक। शान्ति छवि जिनकी विमल जिमि, चन्द्रदुति मंडली। सत-जन-मनके कि-तर्पन सघन घनपटली । इष्टजिन के० ॥१॥ स्यात्पदांकित धुनि सुजिनकी, वदनतें निकली वस्तुतत्त्वप्रकाशिनी जिमि, भानु किरनावली ॥ इष्टजिन०॥२॥जासुपद अरविंदकी, मकरंद अति निरमली। ताहि धान करै अमित हर, मुकुर-बुति-मनि अली इष्टजिन ॥३॥ जाहि जजत विराग उपजत, मोहनिद्रा टली । ज्ञानलोचन प्रगट लखि, धरत शिवपटगली ।इष्टजिनः
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभाग |
१९.
॥ ४ ॥ जासु गुन नहिं पार पावत, दिदि बी । भागनंद सु अलपमनि जन की नहीं क्या पी ॥ इष्टजिन० ॥ ५ ॥
३३ राग सोरट ।
स्वामी मोह अपनी जानि नारी. या विनती अप चिन धारी ॥ जगन उजागर करनासागर, नागर नाम निहारी ॥ स्वामी मोह० ॥ १ ॥ भव अव भटक भटकन, अब मैं अभी हारी ॥वामी मह० || २ || भागचन्द्र स्वच्छन्द ज्ञानमय, व अनंन विस्तारी || स्वामी मोह० ॥ ३ ॥
राग मोठ देशी ।
थाकी तो वानीमें हो, निज स्वपस्प्रकाशक ज्ञान ॥क। एकीभाव भये जड़ चेनन, तिनकी कर पान ॥ बाकी तो० ॥ १ ॥ सकल पदार्थ प्रकाशन जामें, मुकुर तुल्य अमला ॥धांकी नो० ॥२॥ जग चूडामनि शिव भयं ने ही, तिन कीनों सरघान ॥ थांकी तां० || ३ || भागचंद युवजन ताहीको निशदिन करन यग्वान || धांकी तां ॥ ४ ॥
३५
राम मोरटा |
गिरिवनवासी मुनिराज मन बसिया प्रारं हो
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनपदसंग्रहपटेका कारनविन उपगारी जगके, तारन-तरन-जिहाज ॥गिरिवन०॥॥ जनम-जरामृत-गद-गंजनको, करत विवेक इलाज | गिरिवन० ॥२॥ एकाकी जिमिरहितः केसरी, निरभय स्वगुन समाज ॥ गिरिदन ॥३॥ निर्भूषन निर्वसन निराकुल, सजि रत्नत्रय साज ।। गिरिवन० ॥४॥ ध्यानाध्ययनमाहिं तत्पर नित, भागचन्द शिवकाज॥ गिरिवन० ॥५॥
राग सारठ । म्हांकै घट जिनधुनि अब प्रगटी। जागृत दशा भई अब मेरी, सुप्त दशा विघटी | जगरचना दीसत अब लोकों, जैसी रॅहटघटी।। म्हांक घट० ॥१॥ - विभ्रम तिमिर-हरन निज दृगकी, जैसी अंजनवटी। तातें स्वानुभूति प्रापतित परपरनति सय हटी | म्हांक चट० ॥२॥ ताके विन जो अवगम चाह, सो तो शट कपटी । तातै भागचन्द निशिवासर, इक ताहीको रटी ॥ म्हांकै घट ॥३॥ . ३७
राग सोरठ। ओवै न भोगनमें तोहि गिलान ॥ टेक ॥ तीरथनाथ भोग तजि दीने, तिनतें मन भय आन । तु तिनतें कहुँ डरपत नाहीं, दीसत अति बलवान ॥ आवै. न० ॥१॥ इन्द्रियतृप्ति काज तू भोगै, विषय
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
শিন। महा अघग्वान । मा जसे पृतधारा टांग. पाचकन्याल युझान || आर्य न० ॥२॥ ज सुन्न नी नी. छन कुन्वदाई, ज्यों मयुलिप्र-कृपान । नाने भागवत उनको नजि. आत्मस्वरूप पिहान || आर्यन ||
गा । स्वामीजी तुम गुद अपरंपार. चन्द्रावन, अधिकार ॥ टंक । जब नुम गर्भमाहिं आंग. नर नय सनगन मिलि आय । रतन नगरी यम्याग. अमिन अमोघ मुहार ।। स्वामीजी ॥ ॥ जन्म प्रमु तुमने जय नीना. न्हवन मंदिर हरि कीना । भान, कारि मना मदिन भीना. याला जयजयकार स्वामीजी ॥२॥ जगत नभंगुर जब जाना. भय नय नगनबनी चाना। स्तवन लोकांनिकसुर बाना. न्याग गजका भार स्वामीजी घानिया प्रक्रानि
व नामी चराचर वन्तु सर्व भाला । धर्मकी ऋष्टि करी ग्वामी, केवलज्ञान भंडार ॥ स्वामीजी० ॥ ४ ॥ अघाती प्रकृति मुविवटाई. मुनिकान्ना नए ही पाई। निराकुल आनंद असहाई. नीनलोकमरदार ॥ या. माजी० ॥५॥ पार गनघर नहिं शव. सहा लाग भागचन्द गावं । तुम्हारे नरनांबुज ध्या. भवमागर सोनार | स्वामीजी ॥६॥
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनपदसंग्रह
राग मल्हार । मान न कीजिये हो परवीन ॥ टेक ॥ जाय पलाय चंचला कमला, तिष्टै दो दिन तीन । धनजोवन छनभंगुर सब ही, होत सुछिन छिन छीन ॥ मान न० ॥१॥ भरत नरेन्द्र खंड-खट-नायक, तेहु भये मद हीन । तेरी बात कहा है भाई, तू तो सहज हि दीन ॥ मान न ॥ भागचन्द मार्दव-रससागर,-माहिं होहु लवलीन । तातै जगतजालमें फिर कहं, जनम न होय नवीन । मान न० ॥३॥
राग मल्हार। अरे हो अज्ञानी तूने कठिन मनुषभव पायो॥टेक।। लोचनरहित मनुषके करमें, ज्यों बटेर खग आयो ॥ अरे हो ॥१॥ सो तू खोवत विषयनमाही, धरम नहीं चित लायो । अरे हो ॥२॥ भागचन्द्र उपदेश मान अब, जो श्रीगुरु फरमायो॥ अरे हो० ॥३॥
राग मल्हार। वरसत ज्ञान सुनीर हो, श्रीजिनमुखघनसों ॥ टेक ॥ शीतल होत सुबुद्धिमेदिनी, मिटत भवातपपीर ॥ वरसत ॥१॥ स्थावाद नयदामिनि दमकै, होत निनाद गंभीर ॥ वरसत० ॥२॥ करुनानदी
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
दिनीयमाग। बसै चर, दिशिन,भरी मो दाई तीन चरमन
भागचन्द अनुभवमंदिरको नमन न मंत मीर॥ । बरसत०॥४॥
૨૨
नामदार। मंघघटामम श्रीजिनवानी ॥ टेक ॥ स्यान्पद वपन्ला चमकत जाम, परसतज्ञान मुपानी मेघवटा ॥१॥धरममत्य जाने पर याद.शिवानंदफलदानी ।। मेघघटा० ॥॥ मोहन वृत्त दया सब यान. मांशानल सुबुझानी ॥ मंवघटा० ॥ ॥ भागचन्द युवजन कंकीकुल, लग्नि हरच चिनजानी । मघवटा ॥४॥
मग मात्र प्रभू यांका लम्वि मनचिन हरपायीक । सुंदर चिनारतन अमोन्टक, रंकारुप जिनि पायो।। प्रभृ०॥१॥निमलरूप भयो अब मंग. भनिनदीजल, न्हायो । प्रभृ ॥२॥ भागचन्द अप मम करनलम अविचल शिवधन आयो । भृ०॥॥
नामदार। प्रभू म्हाकी सुधि, कम्ना करिनाल | टंक 1 मेरे इक अवलम्यन तुम ही. अयन विलम्य कर्गज ॥ प्रभू : अन्य कुदव नजे सब मैने, तिनं
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
२४
जैनपदसंग्रह
निजगुन छीजे ॥ प्रभू० ॥२॥ भागचन्द तुम शरन लियो है, अव निश्चलपद दीजे ॥ प्रभू० ॥३॥
४५
राग कलिंगड़ा। ऐसे साधु सुगुरु कब मिल हैं । टंक ॥ आप तरै अरु परको तारें, निष्प्रेही निरमल हैं। ऐसे० ॥ १॥ तिलतुषमात्र संग नहिं जाकै, ज्ञान-ध्यानगुण वल हैं ।। ऐसे साधू० ॥ २॥ शान्तदिगम्बर मुद्रा जिनकी मन्दिरतुल्य अचल हैं ॥ ऐसे० ॥॥ भागचन्द तिनको नित चाहै, ज्यों कमलनिको अल है ॥ ऐसे० ॥४॥
राग कहरवा कलिंगड़ा। केवल जोतिसुजागी जी, जब श्रीजिनवरके टेका। लोकालोक विलोकत जैसे, हस्तासल वड़भागी जी ॥ के० ॥१॥ हार-चूड़ामनिशिखा सहज ही, मन भूमिने लागी जी । केवल० ॥२॥ समवसरन रचना सुर कीन्हीं, देखत भ्रम जन त्यागी जी॥ केवल०॥॥ भक्तिसहित अरचा तय कीन्हीं, परम धरम अनुरागी जी केवल० ॥४॥ दिव्यध्वनि सुनि सभा दुवादश, आनदरसमें पागी जी॥ केवल० ॥५॥ भागचंद प्रभुभक्ति चहत है, और कछु नहिं मांगी जी॥ केवल ॥६॥
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभाग
४७
स्याल |
for काम ध्यानमुद्राभिगम, तुम ही जगनारावाजी ॥ टेक ॥ यद्यपि धीनरामय नयपि, ही शिवा वक जी ॥ विन काम॥ १ ॥ शमी देवी आप ही दुनिया, सो क्या लायक जी || चिन काम ॥२॥ दुर्जय मोह शत्रु नको. तुम बच शायकजी ॥ विन काम | ३ || तुम भवमोचन ज्ञानसुलोचन. केवलआयकजी ॥ विन कान० || ४ || भागचन्द भाग प्रापनि, तुम मन ज्ञायकजी ॥ विन कीम० ॥ ५ ॥
2.
Ve
माम कामी ।
अहो यह उपदेशमाही. खूप चिन लगावना होगा कल्यानतंरा. सुख अनंत बावना ॥ टेक ॥ रहिन que fear देव जिनपनि ध्यावना | inter निर्मल अन मुनि निनहि शीस नायना || अहो || १ || धर्म अनुकंपा प्रधान नव को सनावना। समनत्वपरीक्षा करि ॥ अहो ॥ २ ॥ हार्दिकने एक याचना | वा विधि विमल अन्य
श्रद्धा लावना
चैतन्य र परिकादिः भव्यनको वचन
ॐ
पंक बहाना || अहो | जे. शठनको नसुहावना । चन्द्र लमि जिमि कुमुद
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
जैनपदसंग्रह
विकसै, उपल नहिं विकसावना ॥ अहो ० ॥ ४ ॥ भागचंद विभाव ताजे, अनुभव स्वभावित भावना । या विन शरण न अन्य जगता- रन्यमें कहुँ पावना | अहो० ॥ ५ ॥
४९
राग काफी ।
ऐसे विमल भाव जब पावै, तब हम नरभव सुफल कहावै ॥ क ॥ दरशबोधमय निज आतम लखि, परद्रव्यनिको नहिं अपनावै । मोह-राग-रुप अहित जान ताज, झटित दूर तिनको छुटकावै ॥ 'ऐसे० ॥ १ ॥ कर्म शुभाशुभबंध उदयमं, हर्ष विषाद चित्त नहिं ल्यावै । निज-हित-हेत विराग ज्ञान लखि तिनसों अधिक प्रीति उपजावै ॥ ऐसे० ॥ २ ॥ विषय चाह तजि आत्मवीर्य सजि, दुखदायक विधिबंध खिरावै । भागचन्द शिवसुख सब सुखमय, आकुलता • विन लखि चित चावै ॥ ऐसे० ॥ ३ ॥
५०
राग काफी ।
प्रभूपै यह वरदान सुपाऊँ, फिर जगकीचवीच नहिं आऊं ॥ टेक ॥ जल गंधाक्षत पुष्प सुमोदक, दीप धूप फल सुन्दर ल्याऊँ । आनंदजनक कनकभाजन धरि, अर्ध अनर्घ बनाय चढ़ाऊँ ॥ प्रभू पै० ॥ १ ॥
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभाग |
२७
आगमके अभ्यासमाहिं पुनि चित एकाग्र सदैव लगाऊं । संतनकी संगति तजिकै मैं, अंत कहूं इक छिन नहिं जाऊं ॥ प्रभूपै० ॥ २ ॥ दोषवादमें मौन रहू फिर, पुण्यपुरुषगुन निशिदिन गाऊं । मिष्ट स्पष्ट सबहिसों भाष, वीतराग निज भाव बढ़ाऊं ॥ प्रभूपै० ॥ ३ ॥ वाहिदृष्टि ऐंचके अन्तर, परमानन्दस्वरूप लखाऊं । भागचन्द शिवप्राप्त न जौलौं तों लौं तुम चरनांबुज ध्याऊं ॥ प्रभूपै० ॥ ४ ॥
५१
लावनी ।
धन्य धन्य है घड़ी आजकी, जिनधुनि श्रवन परी । तत्त्वप्रतीत भई अब मेरे, मिथ्यादृष्टि दरी ॥ टेक ॥ जड़तें भिन्न लखी चिन्मूरति चेतन स्वरस भरी । अहंकार ममकार बुद्धि पुनि, परमें सब परिहरी ॥ धन्य० ॥ १ ॥ पापपुन्य विधिबंध अवस्था, भासी अतिदुखभरी । वीतराग विज्ञानभावमय, परिनत अति विस्तरी ॥ धन्य० ॥ २ ॥ चाह-दाह विनसी चरसी पुनि, समतामेघझरी | बाढ़ी प्रीति निराकुल' पदसों, भागचन्द हमरी ॥ धन्य० ॥ ३ ॥
*
५२.
लावनी ।'
सफल है धन्य धन्य वा घरी, जब ऐसी अति निर्मल
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
जैन पद संग्रह
होसी, परमदशा हमरी ॥ टेक ॥ धारि दिगंबर दीक्षा सुंदर त्याग परिग्रह अरी । वनवासी कर पात्र परीषह, सहि हों धीर धरी ॥ सफल० ॥ १ ॥ दुर्धर तप निर्भर नित तप हौं, मोह कुवृक्ष करी । पंचा'चारक्रिया आचर ही, सकल सार सुथरी ॥ सफल० ॥ २ ॥ विभ्रमतापहरन झरसी निज, अनुभव-मंत्रझरी । परम शान्त भावनकी तातें, होसी वृद्धि खरी || सफल० ॥ ३ ॥ सठिप्रकृति भंग जय होसी जुत त्रिभंग सगरी । तव केवलदर्शनविबोध सुग्व, वीर्यकला पसरी ॥ सफल ३ ॥ ४ ॥ लखि हो सकल द्रव्य गुनपर्जय, परनति अति गहरी । भागचन्द्र जब सहजहि मिल है, अचल मुकति नगरी ॥ सफल ० · 11 G 11
५३
राग सोरठ |
जे दिन तुम विवेक विन खोये ॥ टेक ॥ मोह वारुणी पी अनादितैं, परपदमें चिर सोये । सुखकरंड चितपिंड आपपद, गुन अनंत नहिं जोये । जे दिन० ॥ १ ॥ होय बहिर्मुख ठानि राग रुख, कर्म वीज बहु बोये । तसु फल सुख दुख सामिग्री लखि, चितमें हरषे रोये || जे दिन० ॥ २ ॥ धवल ध्यान शुचि सलिलपूरतें, आस्रव मल- नहिं धोये । परद्रव्यनिकी 'चाह न रोकी, विविध परिग्रह ढोये ॥ जे दिन० ॥
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभाग।
॥३॥ अब निजमें निज जान नियत तहां, निज परिनाम समोये । यह शिवमारग समरससागर, भागचन्द हित तो ये । जे दिन० ॥४॥
राग दादग। धनि ते प्रानि, जिनके तत्वारथ अन्द्वान | टेक ।। रहित सप्त भय तत्वारथम, चित्त न संशय आन । कर्म कर्ममलकी नहिं इच्छा, परमें धरत न ग्लानि ।। धनि०॥ ? || सकल भाव में मुष्टितजि, करत सास्यरसपान | आतम धर्म बहाचा, परदोष न उचरै बान ॥ धनि० ॥२॥ निज स्वभाव वा जैनधर्ममें. निजपरथिरता दान, रत्नत्रय महिमा प्रगटावै, प्रीति स्वरूप महान ॥ धनि० ॥३॥ ये वसु अंगसहित निर्मल यह, समकित निज गुन जान । भागचन्द शिवमहल चढ़नको, अचल प्रथम सोपान । धनि० ॥४॥
राग नोड़।। . ज्ञानी जीवनके भय होय, नया परकार ॥ टेक ॥ इह भव परभव अन्य न मेरो, ज्ञानलोक मम सार । में वेदक इक ज्ञानभावको, नहिं परवेदनहार ज्ञानी ॥१॥ निज सुभाषको नाश न तातै चहिये नाहिं
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
३०
जैनपढ़ संग्रह
रखवार | परमगुप्त निजरूप सहज ही, परका तहँ न मँचार ॥ ज्ञानी० ॥ २ ॥ चितस्वभाव निज प्रान तासको, कोई नहीं हरतार | मैं चितपिंड अखंड न तातें, अकस्मात भयभार ॥ ज्ञानी० ॥ ३ ॥ होय निशंक स्वरूप अनुभव, जिनके यह निरधार । मैं सो मैं पर सो मैं नाहीं, भागचन्द भ्रम डार ॥ ज्ञानी ०
॥ ४ ॥
५६ राग जोडा ।
मैं तुम शरन लियो, तुम सांचे प्रभु अरहंत ॥टेक॥ तुमरे दर्शन ज्ञान भुकर में, दशज्ञान झलकंत । अतुल निराकुल सुख आस्वादन, वीरज अरज (?) अनंत ॥ मैं तुम० ॥ १ ॥ रागद्वेष विभाव नाश भये परम समरसी संत | पढ़ देवाधिदेव पायो किय, दोष क्षुधादिक अंत ॥ मैं तुम० ॥ २ ॥ भूषन वसन शस्त्र कामादिक, करन विकार अनंत । तिन तुम परमोदारिक तन, मुद्रा सम शोभंत ॥ मैं तुम ० ॥ ३ ॥ तुम दानीतें धर्मतीर्थ जग, माहिं त्रिकाल चलंत | निजकल्याणहेतु इन्द्रादिक, तुम पदसेव करत || मैं तुम० ॥ ४ ॥ तुम गुन अनुभव निज पर गुन, दरसत अगम अचिंत | भागचन्द निजरुपप्राप्ति 'अब, पावै हम भगवंत ॥ मैं तुम० ॥ ५ ॥
.
6
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयंभाग |
५७
राग गौरी
1
३१
. आनम अनुभव आवै जब निज, आतम अनुभव आवै । और कछू न सुहावै जब निज, आतम अनुभव आवै ॥ टेक ॥ जिनआज्ञाअनुसार प्रथम ही, तत्त्व प्रनीति अनावै । वरनादिक- रागादिकर्ते निज, चिन्न भिन्न फिर ध्यावै ॥ आनम० ॥ १ ॥ मतिज्ञान फरसादि विषय तजि आतम सम्मुख धावै । नय प्रमान निक्षेप सकल श्रुत, ज्ञानविकल्प नसावै |आतम० ॥ २॥ चिदहं शुद्धोऽहं इत्यादिक, आपमाहिं बुध आवै । तन
वज्रपात गिरतें हू, नेकु न चित्त बुलावै ॥ आतम०॥ ॥ ३ ॥ स्वसंवेद आनंद व अति, वचन को नहिं जावें । देखन जानन चरन तीन वित्र, इक स्वरूप बहरावै ॥ आतम० ॥ ४ ॥ चिनकर्ता चित कर्मभाव चित, परनति क्रिया कहावै । साधक साध्य ध्यान ध्येयादिक, भेद कछू न दिखावै ॥ आतम० ॥ ५ ॥ आत्मप्रदेश अदृष्ट तदपि, रसस्वाद प्रगट दरसावै । ज्यों मिश्री दीसत न अंधको, सपरस मिष्ट चखावै ॥ आतम० ॥ ६ ॥ जिन जीवनके, संसृत पारावार पार निकटावे । भागचंद ते सार अमोलक, परम रतन वर पावै ॥ आतम० ॥ ७ ॥
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनपदसंग्रह -
५८
राग दादरा । चेतन निज भ्रम भ्रमत रहै || टेक || आप अभंग तथापि अंगके संग महा दुख (पुंज) वहै । लोहपिंड संगति पावक ज्यों, दुर्धर घनकी चोट सहै | चेतन० ॥ १ ॥ नामकर्मके उदयं प्राप्त नर, नरकादिक, परजाय धेरै । तामें मान अपनपौ विरथा, जन्म जरा मृतु पाय डरे ॥ चेतन ० ' ॥ २ ॥ कर्ता होय रागरुप ढार्ने, परको साक्षी रहत न यहै। व्याप्य सुव्यापक भाव विना किमि, परको करता होत न यहै | चे० ॥ ३ ॥ जब भ्रमनीं त्याग निजमें निज, हित हेत सम्हारत है । वीतराग सर्वज्ञ होत तब, भागचन्द हितसीख कहै ॥ चेतन० ॥ ४ ॥
३२
५९
दोहा |
विश्वभावव्यापी तदपि, एक विमल चिद्रूप । 'ज्ञानानंदमयी सदा, जयवंतौ जिनभूप ॥ १ ॥
छन्द चाल |
'सफली मम लोचनद्वंद्व । देखत तुमको जिनचंद | मम तनमन शीतल एम । अम्रतरस सींचत जेम ॥२॥ तुम बोध अमोघ अपारा। दर्शन पुनि सर्व निहारा । आनंद अतिन्द्रिय राजै । बल अतुल स्वरूप न त्याजै
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभाग ।
३३
॥३॥ इत्यादिक स्वगुन अनन्ता । अन्तर्लक्ष्मी भगवंता । बाहिज विभूति बहु सोहै । वरनन समर्थ कवि को है ॥४॥ तुमवृच्छ अशोक सुस्वच्छ । सब शोकहरनको दच्छ। तहां चंचरीक गुंजारें। मानों तुम स्तोत्र उचारें
शुभ रत्नमयूख विचित्र । सिंहासन शोभ पवित्र । तह वीतराग छबि सोहै । तुम अंतरीछ मनमोहै ॥ ॥ वर कुन्दकुन्द अवदात। चामरव्रज सर्व सुहात तुम । ऊपर मघवा हारे । घर भक्ति भाव अघ टारे ||७|| मुक्ताफल माल समेत । तुम ऊर्जा छत्रत्रय से । मानों तारान्वित चन्द । त्रय मूर्ति घरी दुति वृन्द ||८|| शुभ दिव्य पह बहु बाजे | अतिशय जुत अधिक विराजै । तुमरो जस घोकै मानौं । त्रैलोक्यनाथ यह जानीं ॥१॥ हरिचन्दन सुमन सुहाये । दशदिशि सुगंधि महकाये ॥ अलिपुंज विगुंजत जामैं | शुभ दृष्टि होत तुम साम ॥१०॥भामंडल दीप्ति अखंड । छिप जात कोट मार्तंड | जग लोचनको सुखकारी । मिथ्यातमपटल निवारी ॥११॥ तुमरी दिव्यध्वनि गाजै । विनं इच्छा भविहित काजै । जीवादिक तत्त्वप्रकाशी। भ्रमतमहर सूर्यकलासी ॥ १२ ॥ इत्यादि विभूति अनंत । वाहिज अतिशय अरहंत | देखत मन भ्रमतम भागा। हित अहित ज्ञान उर जागा ||१३||तुम सब लायक उपगारी । मैं दीन दुखी संसारी । तातै सुनिये यह अरजी। तुम शरन लियो जि
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
३४
जैनपदसंग्रह
नवरजी॥१४॥ मैं जीवद्रव्य विन अंग। लागो अनादि विधि संग। तानिमित पाय दुख पाये।हम मिथ्यातादि महा ये॥१९॥निज गुण कवहूं नहिं भाये । सब परंपदार्थ अपनाये।रति अरति करी सुखदुख में। व्है करि निजधर्म विमुख में ॥१६॥ पर चाह-दाह नित दाहौ। नहिं शांत सुधा अवगाहौ॥पशुनारक नर सुरगतमें। चिर.भ्रमत भयो भ्रममतमें ॥१७॥ कीने बहु जामन मरना । नहिं पायो सांचो शरना । अब भाग उदय मो आयो। तुम दशेन निमेलं पायो॥ १८॥ मन शांत भयो उर मेरो। बाढ़ो उछाह शिवकेरो। परविषयरहित आनन्द । निज रस चाखों निरंबन्द' . ॥१९॥ मुझ काजतने कारज हो। तुम देव तरन तारन हो । तातें ऐसी अव कीजे । तुम चरन भक्ति मोह दीजे ॥ २० ॥ दृग-ज्ञान-चरन परिपूर । पाऊं निश्चय भवचूर । दुखदायक विषय कषाय । इनमें परनति नहिं जाय ॥ २१॥ सुरराज समाज न चाहों। आतम-समाधि अवगाहों । पर इच्छा मो मनमानी। पूरो सब केवलज्ञानी ॥ २२॥
• दोहा। गनपति पार न पावहीं, तुम गुनजलधि विशाल । भागचन्द तुव भक्ति ही, करै हमैं वाचाल ॥ २३ ॥
. गीतिका। तुम परम पावन देख जिन, अरि-रज-नहस्य
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीय भाग ।
विनाशनं । तुम ज्ञान-वर्ग-जलवीच त्रिभुवन, कमलवत प्रतिभासनं || आनंद निजज अनंत अन्य, अर्चित संतत परनंये । बल अतुल कलिन स्वभावतें नहिं, खलित गुन अमिलित थये ॥ १ ॥ सब राग रुष इनि परम श्रवन स्वभाव धन निर्मल दशा । इच्छारहित भवहित खिरत, वच सुनत ही भ्रमतम नशा । एकान्त - गहन - सुदहन स्यात्पद, बहन मय निजपर दया । जाके प्रसाद विषाद विन, मुनिजन सपदि शिवपद लहा || २ || भूषन वसन सुमनादिविन तन, ध्वानमय मुद्रा दिपै । नासाग्र नयन सुपलक हलय न, तेज लखि खगगन छिपै | पुनि वढ्न निरखत प्रशम जल, वरखत सुहरखत उर धरा । बुधि स्वपर परखत पुन्यआकर, कलिकलिल दुरखत जरा || ३ || इत्यादि बहिरंतर असाधारन, सुविभवनिधान जी । इन्द्रादिवंद पदारविंद, अनिंद तुम भगवान जी ॥ मैं चिर दुखी. परचाहतें, तुम धर्म नियत न उर धरो ॥ परदेव सेव करी बहुत, नहिं काज एक तहां सरो ॥ ४ ॥ अव भागचन्दउदय भयो, मैं शरन आयो तुम तने । इक दीजिये वरदान तुम जस, स्वपद दायक बुध भने || परमाहिं इष्ट-अनिष्ट मति तजि, मगन निज गुनमें रहीं। हग-ज्ञान-वर संपूर्ण पाऊँ, भागचंदन पर वहीं ॥ ५ ॥
·
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनपदसंग्रह
राग दीपचन्दी। कीजिये कृपा मोह दीजिये स्वपद, मैं तो तेरो ही शरन लीनों हे नाथ जी ॥ टेक ॥ दूर करो यह मोह शत्रुको, फिरत सदा जी मेरे साथ जी ॥ कीजिये ॥ १॥ तुमरे वचन कर्मगद-मोचन, संजीवन औषधी क्वाथजी कीजि ॥२॥तुमरे चरन कमल बुधध्यावत. नावत हैं पुनि निजमाथजी।कीजि० ॥३॥ भागचंद मैं दास तिहारो, ठाडो जो जुगल हाथ जी॥ कीजिए
राग दीपचन्दी। · निज कारज काहे न सारै रे, भूले प्रानी ॥ टेक ॥ परिग्रह भारथकी कहा नाहीं, आरत होत तिहारे रे ॥ निज० ॥१॥ रोगी नर तेरी वपुको कहा, तिस दिन नाहीं जारै रे ॥ निज का० ॥२॥ कूरकृतांत सिंह कहा जगमें,जीवनकोन पछारे रे । निज का ॥३॥ करनविषय विषभोजनवत कहा, अंत विसरता न धारे रे ॥ निज०॥४॥ भागचन्द भवअंधकूपमें. धर्म रतन काहे डारै रे॥ निज का० ॥५॥ .
हरी तेरी मति नर कौनें हरी । तजि चिन्तामन
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभाग ।
३७
कांच गहत शठ ॥ टेक ॥ विषय कषाय रुचत तोकौं नित, जे दुखकरन अरी । हरी तेरी ० ॥ १॥ सांचे मित्र सुहितकर श्रीगुरु, तिनकी सुधि विसरी । हरी तेरी ० ॥ २ ॥ परपरनतिमें आपो मानत, जो अति विपति भरी । हरी तेरी० ॥ ३ ॥ भागचन्द जिनराज भजन कहुँ, करत न एक घरी । हरी तेरी० ॥ ४ ॥
६४
सुमर मन समवसरण सुखदाई । अशरन शरन धनदकृत प्रभुको ॥ टेक ॥ मानस्तंभ सरोवर सुंदर, विमल सलिलजुत खाई । पुष्पवाटिका तुंगकोट पुनि, नाट्यशाल मनभाई ॥ सुमर मन० ॥ १ ॥ उपवन जुगल विशाल वेदिका, धुजपंकति हलकाई । हाटक कोट कल्पतरुवन पुनि, द्वादश सभा वरनि नहिं जाई || सुमर० ॥ २ ॥ तह त्रिपीठपर देव स्वयंभू, राजत श्रीजिनराई | जाहि पुरंदरजुत वृन्दारक वृन्द सुवेदत आई | भागचन्द हमि ध्यावत ते जन, पावस जगठकुराई ॥ सुमर मन० ॥ ३ ॥
"
६५
सोई है सांचा महादेव हमारा । जाके नाहीं रागरोष गद, मोहादिक विस्तारा ॥ टेक ॥ जाके अंगन भस्म, लिप्त है, नहिं रुंडनकृत हारा। भूषण व्याल न माल चन्द्र नहिं, शीस जटा, नहिं धारा ॥ सोई है ० ॥ १ ॥
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
૩૮
'जनपदसंग्रह
जाके गीत न नृत्य न मृत्यु न, बैलतनो नं सवारा । नहि कोपीन ने काम कामिनी, नहिं धन धान्य पसारा ॥सोई है || २|| सो तो प्रगट समस्त वस्तुको देखन जाननहारा । भागचन्द ताहीको ध्यावत, पूजत बारंबारा ॥ सोई है ० ॥ ३ ॥
६६
समझाओ जी आज कोई करुनाधरन, आये थे व्याहिन काज वे तो भये हैं विरागी पशूया लख लम् ||टेक || विमल चरन पागी. करन विषय त्यागी, उनने परम ज्ञानानंद चख चग्व ॥ समझायो० ॥ १ ॥ सुभग मुकति नारी, उनहिं लगी प्यारी, हमसों नेह कछू नहीं रख रख ।। समझायो ० ॥२॥ वे त्रिभुवनस्वामी, मदनरहित नामी, उनके अमर पूजे पढ़ नख नख ॥ समझायो० ॥३॥ भागचन्द मैं तो तलफत अति-जैसे, जलसों तुरत न्यारी जक झख झख ॥ समझायो० ॥४॥
६७
गिरनारीपै ध्यान लगाया, चल सखि नेमिचन्द मुनिराया ॥ टेक ॥ सँग भुजंग रंग उन लखि तजि, शत्रु अनंग भगाया | बाल ब्रह्मचारी, व्रतधारी, शिवनारी चित लाया || गिरनारी० || १ || मुद्रा नगन मोहनिद्रा विन, नासाहग मन भाया । आसन धन्य अनन्य वन्य चित, पुष्ट (?) धूल सम थाया || गिरनारी ०||२|| जाहि
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
-द्वितीयभाग |
३९
पुरन्दर पूजन आये, सुन्दर ' पुन्य उपाया । भागचन्द मम प्राननाथ सो, और न मोह सुहाया || गि० ॥३॥
હ્રદ
राग दीपचन्दी परज |
are भये ब्रह्मचारी, सखी घर मैं न रहोंगी ॥ टेक ॥ पाणिग्रहण काज प्रभु आये, सहित समाज अपारी । ततछिन ही वैराग भये है, पशुकरुना डर धारी ॥ नाथ० ॥ एक सहस्र अष्टलच्छनजुत, वा छविक बलिहारी । ज्ञानानंद मगन निशिवासर, हमरी सुरत विसारी ||नाथ ||२|| मैं भी जिनदीक्षा परि हाँ अबजाकर श्रीगिरनारी । भागचन्द हमि भनत सग्विनसों, उग्रसेनकी कुमारी ॥ नाथ ०॥ ३ ॥
६९
राग दीपचन्दी कानेर | -
जानके सुज्ञानी, जैनवानीकी सरधा लाइये ॥टेक॥ जा विन काल अनंते भ्रमता, सुख न मिले कहू पानी !! जानके० ॥ १ ॥ स्वपर विवेक अखंड मिलत जाहीके सरवानी || जानके० ॥ २ ॥ अस्त्रिलप्रमानसिद्ध अविरुद्धत, स्यात्पद शुद्ध निशानी ॥ जानके ० ॥ ३ ॥ भागचन्द सत्यारथ जानी, परमधरमरजधानी || जानके० ॥ ४ ॥
·
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनपदसंग्रह
७०.
राग दीपचन्दी धनाश्री। तू स्वरूप जाने विन दुखी, तेरी शक्ति न हलकी वे ॥टेक ॥ रागादिक वर्णादिक रचना, सोहै सब पुगलकी वे ॥ तू स्व० ॥ १ ॥ अष्ट गुनातम तेरी मृ. रति, सो केवलमें झलकी वे ॥ तू स्व० ॥२॥ जगी अनादि कालिमा तेरे, दुस्त्यज मोहन मलकी वे ॥त स्व० ॥३॥ मोह नसे भासत है मूरत, पँक नसें ज्यों जलकी वेतृ स्व०॥ ४॥ भागचन्द सो मिलत ज्ञानसों, स्फूर्ति अखंड स्ववलकी वे ॥ तू स्व० ॥५॥
राग दीपचन्दी। महिमा जिनमतकी, कोई वरन सकै बुधिवान ॥ टेका काल अनंत भ्रमत जिय जा विन, पावत नहिं निज थान ॥ परमानन्दधाम भये तेही, तिन कीनों सरधान ॥ महिमा० ॥१॥ भव मस्थलमें ग्रीषमरितु रवि, तपत जीव अति प्रान । ताको यह अति शी. तल सुंदर, धारा सदन समान ॥ महिमा० ॥२॥ प्रथम कुमत वनमें हम भूले, कीनी नाहिं पिछान । भागचन्द अब याको सेवत, परम पदारथ जान ॥. महिमा ॥३॥
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयमाग!
राग दीपचन्दी सोरठ। प्रानी समकित ही शिवपंथा। या विन निर्मल सब ग्रंथा ।टेका जाविन पाह्यक्रिया तप कोटिक, सफल वृथा है रंथा। पानी॥१॥ यजुतरथ भी सारथ विन जिमि, चलत नहीं ऋजु पंथा ॥ प्रानी ॥२॥ भागचन्द सरधानी नर भये, शिवलछमीके कंथा ॥ प्रानी० ॥३॥
राग दीपचन्दी । । तेरे ज्ञानावरनदा परदा, तातै सूझत नहिं भेद स्व' परदा ॥ टेक ॥ ज्ञान विना भवदुख भोगै तू, पंछी जिमि विन परदा ॥ तेरे०॥ १ ॥ देहादिकमें आपौ मानत, विभ्रममदवश परदा ॥ तेरे ॥२॥ भागचन्द भव विनसै वासी, होय त्रिलोक उपरदा गातेरे ॥३॥
७४
.. .. राग दीपचंदी खम्माचकी। जैनमन्दिर हमको लागै प्यारा ॥टेका कैंधी व्याह मुकति मंगल ग्रह, तोरनादि जुत लसत अपारा ।। जैन० ॥ १॥ धर्मकेतु सुखहेत देत गुन, अक्षय पुन्य, रतनभंडार ॥ जैन ॥२॥ कहुं पूजन कहूं भजन होत हैं, कहुं बरसत पुन श्रुतरसधारा जैन॥ ३॥ ध्या
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
.
.
जैनपदसंग्रह
नारूढ़ विराजत हैं जहां, वीतराग प्रतिबिम्ब उदारा ॥ जैन० ॥४॥ भागचन्द तहां चलिये भाई, तजिकै गृहकारज अघ भारा ॥ जैन०॥५॥
७५
राग दीपचन्दी। - जिनमन्दिर चल भाई, शिव-तिय-व्याह सुमंगलग्रहवत ॥टेका। जन धर्मिष्ट समाज सकल तहाँ, तिष्टत मोद बढाई । अमल धर्मआभूषनमंडित, एकसी एक सवाई ॥जिन०॥१॥ धर्म ध्यान निहूम हुताशन कुंड प्रचंड वनाई । होमत कर्महविष्य सुपंडित, श्रुत धुनि मंत्र पढाई । जिन ॥२॥ मनिमय तोरनादि जुत शोभत, केतुमाल लहकाई । जिनगुन पढ़न मधुर सुर छावत, बुधजन गीत सुहाई ॥ जिन० ॥३॥ चीन मृदंग रंगजुत वाजत, शोभा वरनि न जाई। भागचंद पर लख हरषत मन, दूलह श्रीजिनराई ॥ जिनमंदिर० ॥ ४॥ . .
- भवषनमें, नहीं भूलिये भाई । कर निज थलकी याद ॥ टेक ॥ नर परजाय पाय अति सुंदर, त्यागहु सकल प्रमाद । श्रीजिनधर्म सेय शिव पावत, आतम जासु प्रसाद ।। भव ॥१॥अबके चूकत ठीक न ‘पड़सी पासी अधिक विषाद । सहसी नरक वेदना
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभाग : . पुनि तहां, सुणसी कौन फिराद । भव० ॥२॥ भाग.. चन्द श्रीगुरु शिक्षा विन, भटका काल अनाद । तू कतो तृही फल भोगतं, कौन करें क्कवाद।। भव ॥१॥
जे सहज होरीके खिलारी, तिन जीवनकी बलिहारी ॥टेक॥ शांतभाव कुंकुम रस चन्दन, भर ममता पिचकारी ।उड़त गुलाल निर्जरा संवर, अंवर पहरै भारी जे०॥? || सम्यकदर्शनादि सँग लेक, परम सखा सुखकारी। भीज रहे निज ध्यान रंगमें, मुमति सन्त्री प्रियनारी ॥ ७० ॥२॥ कर मान ज्ञान जलम पुनि, विमल भये शिवचारी । भागचन्द तिनं पनि नित वंदन, भावसमेत हमारी ॥ जे० ॥३॥
____ राग दीपचन्दी सारटकी । लखिक स्वामी रूपका, मेरा मन भया चंगा जी टेकाविभ्रम नष्ट गम्ड लखि जैसे, भगत भुजंगाजी । लखि० ॥१॥ शीतल भाव भये अब न्हायो, भक्ति सुगंगा जी लिखि० ॥२॥ भागचन्दु अब निलरसरंगा जी ॥ लाखक० ॥ ३ ॥
राग दीपचन्दी ईमन ! .. ... : स्वामीरूप अनूप विशाल, मन मेरे बसा टेका।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन पदसंग्रह
हरिगन चमरवृन्द ढोरत तहां, उज्जल जेम मराल ॥ स्वामी ० ॥ १ ॥ छनत्रय ऊपर राजत पुनि, सहित सुमुक्तामाल || स्वामी० ॥ २ ॥ भागचन्द ऐसे प्रभुजीको, नावत नित्य त्रिकाल || स्वामी० ३ ॥
४४
राग दीपचन्दी |
करौ रे भाई, तत्त्वारथ सरधान । नरभव सुकुल सुछेत्र पायके ॥ टेक ॥ देखन जाननहार आप लग्वि, देहादिक परमान ॥ करौ रे भाई० ॥ | १ || मोह रागमम्प अहित जान तजि, बंधहु विधि दुग्वदान ॥ करौ रे भाई० ॥ २ ॥ निज स्वरूपमें मगन होय कर, लगनविषय दो भान ॥ करौ रे भाई० ॥ ३ ॥ भागचन्द साधक व्है साधी, साध्य स्वपद अमलान || करौ रे भाई ० ॥ ४ ॥
}
८१
आनन्दाश्रु बहैं लोचनतें, तातें आनन न्हाया । गङ्गदं स्पष्ट वचनजुत निर्मल, मिष्टगान सुरगाया ॥टेक॥ भवं वनमें बहु भ्रमन कियो तहां, दुख दावानल ताया। अब तुम भक्तिसुधारस वापी, में अवगाह कराया ॥० ॥ १ ॥ तुम वपुदर्पनमें मैंने अब, आत्मस्वरूप लखाया । सर्व कषाय नष्ट भये अब ही, विभ्रम दुष्ट भगाया ॥ ०॥ २ ॥ कल्पवृक्ष मैंने निज
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्वितीयभाग। __ '४५ गृहके, आंगनमांझ उगाया । स्वर्ग विमोक्ष विलास चास पुनि, मम करतलमें आया आ०॥३॥कलिमल पंक सकल अब मैंने, चितसे दूर बहाया । भागचन्द तुम चरनाम्युजको, भक्तिसहित सिर नाया |आ०॥
राग दीपचन्दी परन । . महाराज श्रीजिनवर जी, आज मैंने प्रभुदर्शन पाये ॥टेक॥ तुमरे ज्ञान द्रव्य गुन पर्जय, निज चित गुन दरशाये । निज लच्छनतें सकल विलच्छन, ततछिन पर दृग आये ॥ ॥१॥ अप्रशस्त संक्लेशभाव अघ, कारन ध्वस्त कराये। राग प्रशस्त उदयतें निर्मल, पुन्य समस्त कमाये ॥म० ॥२॥ विषय कषाय अताप नस्यो सब, साम्य सरोवर न्हाये । रुचि भई तुम समान होवेकी, भागचन्द गुन गाये ॥ म०॥३॥
राग दीपचन्दी जोड़ी। जिन स्वपरहिताहित चीना, जीव तेही हैं साचै जैनी ॥ टेक ॥ जिन बुधछैनी पैनीतें जड़, रूप निराला कीना, परतें विरच आपसे राचे, सकल विभाव.विहीना | जि० ॥१॥ पुन्य पाप,विधि बंध उदयमें, प्रमुदित होत न दीना । सम्यकदर्शन ज्ञान • चरन निज, भाव सुधारस भीना ॥ जिन० ॥२॥
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
४६
जैनादसंग्रह
विषयचाह तजि निज वीरज सजि, करत पूर्वविधि छीना । भागचन्द साधक व्है साधत, साध्य स्वपद स्वाधीना ॥ जिन० ॥ ३ ॥
८४
राग दीपचन्दी ।
J
यह मोह उदय दुख पावै, जगजीव अज्ञानी ॥ टेक ॥ ॥ टेक ॥ निज चेतनस्वरूप नहिं जाने, परपदार्थ अपनावै । पर परिनमन नहीं निज आश्रित, यह तह अति अकुलावै ॥ यह० ॥ १ ॥ इष्ट जानि रागादिक सेवै, ते विधिबंध बढ़ावै । निजहितहेत भाव चित सम्यक दर्शनादि नहिं ध्यावै ॥ यह० ॥ इन्द्रियतृप्ति करन के काजै, विषय अनेक मिलावै । ते न मिलें तब खेद खिन्न है, सममुख हृदय न ल्यावै ॥ यह० ॥ ३ ॥ सकल कर्मछय लच्छन लच्छित, मोच्छदशा नहिं चावै । भागचन्द ऐसे भ्रमसेती, काल अनंत गमावै यह मोह० ॥ ४ ॥
८५
प्रेम अब त्यागहु पुद्गलका । अहितमूल यह जना सुधीजन ॥ टेक ॥ कृमि-कुल-कलित स्रवत नव द्वारन, यह पुतला . मलका । काकादिक भखते जु नं होता, चामतना खलका || प्रेम० ॥ १ ॥ काल च्याल -मुख थित इसका नहिं, है विश्वास पलका । क्षणिक
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
४७
द्वितीय भाग। मात्रमें विघट जात है, जिमि वुद जलका | प्रेम ॥ २॥ भागचन्द क्या सार जानके, तया सँग ललका । तातै चित अनुभव कर जो तृ, इच्छुक शिवफलका | प्रेम० ॥
सहज अवाध समाघ धाम तहाँ, चेतन सुमति ग्वेलें होरी | टेक | निजगुनचंदनमिश्रित सुरभित, निर्मल कुंकुम रस घोरी । समला पिचकारी अति प्यारी, भर जु चलावत चहुँओरी सहज० ॥१॥ शुभ संवर सुअरि आडंबर, लावत भरभर कर जोरी । उड़त गुलाल निर्जरा निर्भर, दुखदायक भव पिति टोरी ॥ सहज० ॥२॥ परमानंद मृदंगादिक धुनि, विमल विरागभावघोरी । भागचंद दृग-ज्ञान -चरनमय, परिनन अनुभव रँग बोरी सहज० ।।३।।
सत्ता रंगभूमिमें, नटत ब्रह्मा नटराय ॥ टेक ॥ रत्नत्रय आभूपणमांडित, शोभा अगम अयाय । सहज सखा निशंकादिक गुन, अतुल समाज बदाय ॥ सत्ता रंग ॥१॥ समता वीन मधुररस बोले, ध्यान मृदंग बजाय।नदतनिर्जरा नाद अनूपम, नूपुर संवरल्याय|| सत्ता रंग ॥२॥ लय निज-रूप-मगनताल्यावत, नृत्य सुज्ञान कराय । समरस गीतालापन पुनि जो, दुर्लभ
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
"जैनपदसंग्रह
४८
जंगमह आय | सत्ता रंग० ||३|| भागचन्द आपहि रीझत तहाँ, परम समाधि लगाय । तहाँ कृतकृत्य' सु होत मोक्षनिधि, अतुल इनामहिं पाय । सत्ता० ॥
॥ ४ ॥
इति श्रीभागचन्द्र पदावली - समाप्ता ।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
_