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जैनॉलॉजी - परिचय ( ४ ) जैनधर्म की मूलभूत जानकारी
अट्टपाहुड- सार : प्रश्नसंच
प्राकृत-व्याकरण
संपादन डॉ. नलिनी जोशी
सन्मति - तीर्थ प्रकाशन, पुणे ४ जून २०१२
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जैनॉलॉजी-परिचय (४) जैनधर्म की मूलभूत जानकारी अट्ठपाहुड-सार : प्रश्नसंच
प्राकृत व्याकरण
सहसंपादन
डॉ. कौमुदी बलदोटा
डॉ. अनीता बोथरा
संपादन डॉ. नलिनी जोशी
सन्मति-तीर्थ प्रकाशन, पुणे ४
जून २०१२
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* जैनॉलॉजी-परिचय (४)
* लेखन और संपादन डॉ. नलिनी जोशी मानद निदेशक, सन्मति-तीर्थ
* सहसंपादन डॉ.अनीता बोथरा डॉ. कौमुदी बलदोटा
* प्रकाशक सन्मति-तीर्थ (जैनविद्या अध्यापन एवं संशोधन संस्था) ८४४, शिवाजीनगर, बी.एम्.सी.सी.रोड फिरोदिया होस्टेल, पुणे - ४११००४ फोन नं. - (०२०) २५६७१०८८
* सर्वाधिकार सुरक्षित * प्रथम आवृत्ति - जून २०१२ * प्रकाशन - जून २०१२ * मूल्य - ५० रु. * अक्षर संयोजन - श्री. अजय जोशी * मुद्रक : कल्याणी कॉर्पोरेशन
१४६४, सदाशिव पेठ पुणे - ४११०३० फोन नं. - (०२०) २४४७१४०५
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सम्पादकीय
युवक-युवतियाँ और नयी बहूएँ अगर जैनिझम के अभ्यास के प्रवाह में शामिल होना चाहते है, तो पाठ्यक्रम और परीक्षा के स्वरूप में परिवर्तन लाना अत्यंत आवश्यक है । सन्मति-तीर्थ पिछले आठ सालों से इसी कालानुरूप परिवर्तन से जुटी हुई है। 'जैनॉलॉजी-परिचय' इस धारा की चौथी किताब विद्यार्थीवर्ग के सामने लाते हुएहम सार्थ गौरव की अनुभूति कर रहे हैं।
___ “जैनॉलॉजी के पाठ्यक्रम में, प्राकृत व्याकरण और साहित्य का समावेश करना”-सन्मति-तीर्थ संस्था की खासियत है । जैनॉलॉजी परिचय के पहले तीन सालों में प्राथमिक प्राकृत व्याकरण की पहचान करायी । चौथे सल में एक कदम आगे बढ़ते हए. प्राकत के दो पाठ दिये हैं। दोनों पाठ अलग-अलग दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। __पूरे जैन समाज की एकता की ओर अगर हमें अग्रेसर होना है तो पहली आवश्यकता है कि जैनियों के सारे संप्रदाय, उपसंप्रदाय, पंथ और संघों की हम जानकारी रखें, उनकी मान्यताएँ निरखें, परखें ! इसी हेतु इस किताब में संप्रदाय-भेदोंपर आधारित पाठ की रचना प्रयासपूर्वक की है।
षड् द्रव्य और नौ तत्त्व - जैन तत्त्वज्ञान की आधारशिला है । इन सबकी परिभाषाएँ संक्षिप्त लेकिन परिपूर्ण रूपसे देने का प्रयास इस किताब में किया है।
'जैनॉलॉजी-परिचय' के समस्त केंद्रों के विद्यार्थी एवं उन्हें प्रेरणा देनेवाली शिक्षिकाओं का हम तहे दिल से अभिनंदन करते हैं।
सन्मति-तीर्थ संस्था के अध्यक्ष डॉ. अभयजी फिरोदिया के अमूल्य सहयोग एवं आशीर्वाद से संस्था उत्तरोत्तर कामयाबी हासिल करने में अवश्य सफल होगी !!
डॉ. नलिनी जोशी मानद सचिव, सन्मति-तीर्थ
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* शिक्षक एवं विद्यार्थियों के लिए सूचनाएँ *
१) सन्मति-तीर्थ द्वारा प्रकाशित “अट्ठपाहुड-सार” एवं संबंधित प्रश्नसंच सामने रखकर ही तैयारी करें ।
२) अट्ठपाहुड-सार में बहुत कुछ जानकारी दी है । वह पढने का जरूर प्रयास करें लेकिन परीक्षा के लिए नये
प्रश्नसंच का ही उपयोग करें ।
३) लेखी परीक्षा ४० गुणों की होगी । गुण-विभाजन सामान्यत: इस प्रकार का है ।
अ) जैनधर्म के सम्प्रदाय एवं उपसम्प्रदाय : लगभग ४ गुण ब) जैनदर्शन की महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ
लगभग ४ गुण क) अठ्ठपाहुड-सार i) अट्ठपाहूड-गाथा-पाठान्तर एवं लेखन
लगभग ३ गुण ii) एक-दो वाक्यों में जवाब
लगभग ५ गुण iii) बड़ा प्रश्न
लगभग ४ गुण ड) प्राकृत भाषा का प्राथमिक व्याकरण
लगभग १० गुण इ) प्राकृत भाषा की शब्दसंपत्ति
लगभग ३ गुण फ) स्वरपरिवर्तन
: लगभग २ गुण ग) प्राकृत गद्यपाठ i) अवि तुमं जाणसि ?
: लगभग २ गुण ii) पू.का.धा.अ
: लगभग ३ गुण
४) पाठ्यक्रम १५ जून से प्रारंभ करें । परीक्षा प्राय: फरवरी में होगी ।
५) हर एक विद्यार्थी ने अट्ठपाहुड-सार एवं प्रश्नसंच खरीदना आवश्यक है ।
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विषयानुक्रमणिका
विषय
पृ.क्र.
प्रार्थना
जैनधर्म के सम्प्रदाय एवं उपसम्प्रदाय
जैनदर्शन की महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ
अट्ठपाहुड-सार-प्रश्नसंच
प्राकृत भाषा का प्राथमिक व्याकरण
प्राकृत भाषा की शब्दसंपत्ति
प्राकृत में स्वरपरिवर्तन
प्राकृत-गद्य-पाठ (अ) पढमो पाढो - अवि तमं जाणसि ? (ब) बीओ पाढो - मूढा किसीवल-कन्ना
(व्याकरण - पू.का.धा.अ.)
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१. प्रार्थना
नमो अरिहंताणं । नमो सिद्धाणं। नमो आयरियाणं । नमो उवज्झायाणं। नमो लोए सव्व-साहूणं । एसो पंच-नमोक्कारो सव्व-पाव-प्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसिं पढम हवइ मंगलं ।।
मंगलं भगवान् वीरो , मंगलं गौतमः प्रभुः । मंगलं स्थूलिभद्राद्या , जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।
मंगलं भगवान् वीरो , मंगलं गौतमः प्रभुः । मंगलं कुन्दकुन्दार्यो , जैनधर्मोऽस्तु मंगलम् ।।
सर्व-मंगल-मांगल्यं , सर्व कल्याण-कारणम् । प्रधानं सर्व-धर्माणां , जैनं जयतु शासनम् ।।
या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना । या ब्रह्माच्युतशङ्करप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ।।
६
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः , गुरुर्देवो महेश्वरः । गुरु: साक्षात् परब्रह्म , तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
७.
खामेमि सव्वे जीवा , सव्वे जीवा खमंतु मे । मित्ति मे सव्व-भूएस , वे मज्झ ण केणई ।।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।।
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२. जैनधर्म के सम्प्रदाय एवं उप सम्प्रदाय
प्रस्तावना :
जैनविद्या के अध्ययन के जो प्रमुख आयाम हैं उसमें से एक आयाम ऐतिहासिकता' का है। जैनधर्म के इतिहास का विचार भी कई दृष्टियों से किया जा सकता है। भगवान् महावीर के काल में एकसंध या एकरूप रहा जैनधर्म, कौनकौनसी सदियों में किस-किस प्रकार सम्प्रदायभेद, पंथभेद और संघभेद में बँटा' - इसकी जानकारी जैनहोने के नाते हमें रखनी चाहिए।
विश्व का कोई भी धर्म हो उसमें कमसे कम दो भेद तो पाये ही जाते हैं । जैसे कि ख्रिश्चनों में कॅथॉल्कि और प्रॉटेस्टंट, मुस्लिमों में शिया और सुन्नी, हिंदुओं में शैव, वैष्णव, इत्यादि । इसी तरह जैनधर्म के भी प्रमुखसम्प्रदाय दो हैं - श्वेताम्बर और दिगम्बर । जिस जैन सम्प्रदाय के साधु 'श्वेत' याने धवल वस्त्र पहनते हैं, वे हैं श्वेताम्बर । निस जैन सम्प्रदाय के साधुओं के लिए 'दिक्' याने 'दिशा ही अंबर याने वस्त्र है', वे हैं दिगम्बर । अर्थात् दिगम्बसम्प्रदाय के ऐलक साधु नग्न होते हैं।
भ. महावीर के समय सचेलक एवं अचेलक संघ आचारांग तथा उत्तराध्ययन नाम के प्राचीन अर्धमागधी ग्रंथों से मालूम होता है कि उनके साधुसंघ में वस्त्रसहित एवं वस्त्ररहित - दोनों प्रकार के साधु होते थे । अंतरंग-आचार पर अधिक बल होने के कारण भ. महावीर नेवस्त्रों को ज्यादा महत्त्व नहीं दिया था । अधिक कठोर आचरणवाले एकलविहारी तपस्याप्रधान साधुओं को 'जिनकल्पी' कहते थे । मृदु आचारवाले, समाजगामी, प्रवचनप्रधान तथा संघ में रहनेवाले साधुओं को स्थविरकल्पी' कहते थे। भ. महावीर के कार्यकाल में श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय में भेद नहीं था । उदारमतवाद के आधारपर जैन संघ में सचेलकत्व-अचेलकत्व और जिनकल्पी-स्थविरकल्पी ये दोनों परम्पराएँ समान रूप से चलती रही।
श्वेताम्बर मत के अनुसार दिगम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति भ. महावीरद्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों से आंशिक रूप से मतभेद होनेवाले जैन विचारवंतों को 'निन्हव' कहा मा है । इन निन्हवों में आखरी याने आठवाँ निन्हव था - आ. शिवभूति ।।
शिवभूति साधु कडक आचारवाले' थे । 'नग्न' रहना पसंद करते थे और स्त्रियों को उसी जन्म में 'मोक्षगामी' मानने के पक्ष में नहीं थे। इस मत को बोटिक' (बोडिय) मत कहा जाता था । उन्होंने अपने इस मत का खून प्रचार किया । एक सुदृढ शिष्यपरम्परा भी प्राप्त की। यह सम्प्रदाय आगे जाकर 'दिगम्बर सम्प्रदाय' नाम से प्रसिद्ध हआ। यह हकीकत ईसवी की पहली शताब्दी की कही जाती है ।
दिगम्बर मत के अनुसार श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति पंचम श्रुतकेवलि भद्रबाहुस्वामी के काल में मगध में बारह वर्षीय भयंकर अकाल पडा । उन्होंने अपने शिष्य संघ के साथ दक्षिण की ओर विहार किया । कुछ साधु स्थूलभद्र के नेतृत्व में वहीं रहे । दुर्भिक्ष के कारण, उन्हें भिक्षा के बारे में कुछ शिथिलाचार अपना लिये । पात्र ग्रहण करके बस्तियों में जाकर भोजन माँगने लगे । जनलज्जो क्कारण, कमर को वस्त्र का टुकडा लटकाने लगे । बारह सालों के बाद, दक्षिण में गया हुआ मूलसंघ लौटकर वापस आया । भद्रबाहु एवं स्थूलाचार्य दोनों ने, संघ से पुन: पहला मार्ग अपनाने को कहा । मगधनिवासी साधुसंग ने इन्कारकिया । कपडे के 'अर्धफालक' भी कायम रखें । धीरे धीरे यह अर्धफालक संघ उत्तरीय और अधरीय, दो श्वेत वस्त्र एवंकुछ उपकरण पास में रखने लगा । इसी संघ का नाम, आगे जाकर 'श्वेताम्बर' पड गया । दिगम्बर मत के अनुसार, यह घटना भी ईसवी की पहली शताब्दी के आसपास ही घटी।
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उपरोक्त दोनों वृतान्तों से जाहिर होता है कि ईसवी की पहली शताब्दी में ये दोनों पन्थ अपनी अलग-अलग मान्यताएँ प्रस्थापित कर चुके थे । दक्षिण में याने कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश में दिगम्बर सम्प्रदाय का सुदृढ केंद्र बना
श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदायों में तात्त्विक एवं सैद्धान्तिक मूलगामी मतभेद नहीं दिखायी देते । षड्द्रव्य, उनमें से पाँच अस्तिकाय, जीव-अजीव आदि सात या नौ तत्त्व, कर्मसिद्धान्त, गुणस्थान, पाँच महाव्रत, अनेकान्तवाद, अहिंसा एवं तप की प्रधानता - आदि सभी महत्त्वपूर्ण बातें दोनों सम्प्रदायों को पूर्णत: मान्य है । जो भी आचारविषयक तथा अन्य मतभेद हैं वे निम्नलिखित प्रकार से हैं -
दिगम्बर १) संपूर्ण अपरिग्रही होने के लिए 'नग्नता' आवश्यक। २) स्त्रियों को स्त्रीजन्म में 'मोक्ष' नहीं।
३) भ. महावीर की अर्धमागधी वाणी व्युच्छिन्न
श्वेताम्बर १) 'वस्त्रधारी' भी संपूर्ण 'अपरिग्रही' हो सकते हैं । २) उचित आध्यात्मिक विकास होने से, स्त्री-पुरुषनपुंसक कोई भी, उसी जन्म में 'मोक्षगामी' हो
सकता है। ३) आज उपलब्ध ४५ या ३२ अर्धमागधी ग्रन्थ महावीर
वाणी है। ४) भ. महावीर देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ से त्रिशला क्षत्रियाणी के गर्भ में प्रविष्ट हए । वे विवाहित थे।
उनकी एक कन्या एवं जमाई भी थे । ५) श्वेताम्बर साधु 'रजोहरणी', मुखपट्टिका और ‘पात्र'
रखते हैं। पात्र में भोजन करते हैं।
४) भ. महावीर त्रिशला क्षत्रियाणी के पुत्र थे ।
वे आजन्म ब्रह्मचारी थे।
५) दिगम्बर साधु ‘मयूरपिंछी' और कमण्डलु रखते
हैं । हाथ में भोजन करते हैं।
६) तीर्थंकर-मूर्तियाँ पूर्ण नग्न एवं ध्यानमुद्रा में होती
६) तीर्थंकर-मूर्तियाँ वस्त्र-अलंकार-नेत्रसहित होती
७) उन्नीसवें तीर्थंकर 'मल्ली', पुरुष थे । ८) केवलज्ञानी भोजन नहीं करते एवं निद्रा नहीं लेते।
७) उन्नीसवीं तीर्थंकर ‘मल्ली', स्त्री थी। ८) केवलज्ञानी को भी भोजन और निद्रा की आवश्यकता
होती है।
श्वेताम्बर - दिगम्बर उपसम्प्रदाय (१) श्वेताम्बरियों के मुख्य उपसम्प्रदाय निम्नानुसारी हैं -
अ) मूर्तिपूजक या मंदिरमार्गी ब) स्थानकवासी क) तेरापन्थी
(२) दिगम्बरियों के मुख्य उपसम्प्रदाय निम्नानुसारी हैं -
अ) बीसपन्थी ब) तेरापन्थी क) तारणपन्थी ड) गुम्मनपन्थी, कांजीस्वामीपन्थी इत्यादि ।
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(१) श्वेताम्बर उपसम्प्रदाय -
__ अ) मंदिरमार्गी या मूर्तिपूजक जैन, प्रात:स्नान के उपरान्त यथोचित उपचारद्रव्यसहित मंदिर में देवदर्शन करते हैं । उनकी धार्मिक क्रियाएँ बहुतांशी मंदिर से जुडी हुई रहती है । उपवास, व्रत, पारणा, पंचकल्याणक-महोसव, चैत्यवंदन, भक्ति, भजन, चक्रपूजन आदि आकर्षक विधिविधान इनमें होते हैं। मंदिरनिर्माण और मूर्तिनिर्माण कद्वारा भारतीय कलाविष्कारों को लक्षणीय योगदान दिया है । प्राय: हरेक मंदिरों में समृद्ध ग्रन्थभाण्डार भी होते हैं। मूर्तिपूजकों के उपकेशगच्छ, खरतरगच्छ, तपागच्छ एवं आंचलगच्छ आदि प्रमुख गच्छ हैं।
ब) चैत्यवासियों में मंदिर, पूजा-प्रतिष्ठा, क्रियाकाण्ड आदि का आडम्बर देखकर, अहमदाबादवासी लोकाशाह को जैनधर्म के मूल स्रोतों को जानने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई । लोंकाशाह एक कर्तृत्वशाली वैश्य श्रावकथे । वे ईसवीसन १४५१ में एक मंदिर में गये । वहाँ ज्ञानजी साधुमहाराज, आगमों के हस्तलिखित प्रतियों की व्यवस्था में जे हए थे । लोकाशाह का धर्मप्रेम, ज्ञान एवं सुंदर हस्ताक्षर देखकर, ज्ञानजी ने उन्हें आगमों की नयी प्रतियाँ उतासे का काम सौंपा । लोकाशाह ने हरएक आगम की दो-दो प्रतियाँ बनायी । एक आगम प्रति के आधार से खुद ने आग्मों का बारीकी से अध्ययन किया । उनका निश्चय हुआ कि मूलगामी आगमों में मूर्तिपूजा एवं क्रियाकाण्ड का प्रचलन नहीं है । उन्होंने ३२ आगमों को ही मूल आगम मानें । धीरे धीरे अपने मूर्तिपूजाविरोधी मत का खूब प्रचारकया । लोग उस मत को 'लौंका' या लुम्पाक' कहते थे । इसी लुम्पाक मत में लव ऋषिजी' ने अधिक सुधार किये । लकषिजी सूरत निवासी श्रावक वीरजी के पुत्र थे । लव ऋषिजी के अनुयायियों को लोग ढूंढिया' कहते थे । लेकिन ईसवी के १६५३ के आसपास वे अपने को स्थानकवासी' कहने लगें । स्थानकवासियों में मंदिर, पूजा-प्रतिष्ठा आदि का प्रावधान नहीं है । श्रावकों की सहायता से बनी हुई धार्मिक शालाओं को स्थानक' कहते हैं । धीरे धीरे स्थनकवासी उपसम्प्रदाय का पूरे भारतवर्ष में खूब प्रचार हुआ।
सुप्रसिद्ध जर्मन अभ्यासक ग्लासेनाप' के अनुसार, आज स्थानकवासियों की संख्या लगभग मूर्तिपूजकों जितनी अथवा दिगम्बरों जितनी मालूम पडती है । चातुर्मासकाल में स्थानक या उपाश्रयों में ठहरे हुए, साधु-साध्वियों के मार्गदर्शन में, स्थानकवासियों की धर्माराधना चलती रहती है।
क) अठारहवीं सदी में मारवाड के आचार्य भिक्षु (भिखन, भिखम) के नेतृत्व में 'तेरापन्थ' की स्थापना हुई । इस पन्थ की स्थापना में तेरह भिक्षुओं का अंतर्भाव होने के कारण इन्हें 'तेरापन्थ' नाम से पुकारा जाने लगा। (Glasenapp, Jainism p.391) कुछ अभ्यासकों के मत से 'तेरा' यह शब्द संपूर्ण अनासक्ति का एवं कठोर आचारपालन का निदर्शक है । बीसवीं सदी में आ. तुलसी तेरापन्थ के नायक थे । उन्होंने श्रावकों में जैनधर्म कासार के लिए 'अणुव्रत आंदोलन' का प्रवर्तन किया। उनके पश्चात् आ.महाप्रज्ञ ने राजस्थान में लाडनूं विश्वविद्यालय के स्थापना में सक्रिय योगदान दिया । आधुनिक काल में 'समण और समणी' नाम से कहलानेवाला विद्याव्रती ब्रह्मचायिों का संघ, लाडनूं (राजस्थान) में जैनविद्या के अध्ययन, संशोधन आदि कार्य में निरत है ।
(२) दिगम्बर उपसम्प्रदाय -
दिगम्बर सम्प्रदाय के इतिहास के अनुसार दिगम्बरों का प्राचीन संघ मूलसंघ' नाम से जाना जाता है । अष्टपाहुड के कर्ता आ. कुन्दकुन्द मूलसंघ के नायक थे। उनके पश्चात् मूलसंघ, चार शाखाओं में विभक्त हुआ -१) नन्दिसंघ २) सेनसंघ ३) सिंहसंघ और ४) देवसंघ । कहा जाता है कि ये चार नाम उन संघ के प्रवर्तकों के नाम से प्रचलित हुए । ये चार संघ बाद में अनेक पन्थों में विभक्त हुए । प्रत्येक में थोडा-थोडा आचारभेद था ।
जिस काल में मूलसंघ कार्यान्वित था, उसी काल में द्राविडसंघ, यापनीयसंघ और काष्ठासंघ, ये तीन मुख्य संघ भी दिगम्बरों में कार्यशील थे। इनमें से यापनीय (गोप्य) संघ ने ईसवी की छठी-सातवी शताब्दी में श्वेताम्बर
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दिगम्बरों में समन्वय करने की भरसक कोशिश की। लेकिन वे उसमें असफल रहें । इतिहासकार कहते हैं कि अरोक्त चार संघों में से केवल काष्ठासंघ ही आज जीवित है।
सांप्रत काल में दिगम्बर सम्प्रदाय के दो पन्थ प्रचलित हैं। __ अ) बीसपन्थी लोगों के धार्मिक नेताओं को 'भट्टारक' कहते हैं । क्षेत्रपाल, भैरव आदि दैवतों की प्रतिमा पूजेत हैं । पूजा में केशर और फूलों का उपयोग करते हैं । तीर्थंकरों की आरती भी उतारते हैं।
ब) तेरापन्थी लोग भट्टारकों का नेतृत्व नहीं मानते । आसनस्थ रहकर, जपमाला की सहायता से मंत्रोच्चार आदि करते हैं । पूजा का आडम्बर उन्हें मान्य नहीं है । तेरापन्थी और बीसपन्थी सनातनी लोग, एकदूसरे के मंदिरमें भी नहीं जाते । महाराष्ट्र और गुजरात में बीसपन्थियों की संख्या ज्यादा है । राजपुताना, मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश मेरापन्थियों की संख्या ज्यादा है । कर्नाटक के श्रवणबेळगोळ में चारुकीर्ति भट्टारक, सांप्रत काल में प्राकृत और जैनविद्या के अभ्यास का सुदृढ केन्द्र बनाने में जुटे हुए हैं।
क) इसके अलावा दिगम्बर सम्प्रदाय में सोलहवीं शती में 'तारणस्वामी'द्वारा मूर्तिपूजानिषेधक पन्थ की स्थापना हुई, जो ‘तारणपन्थ' कहलाता है । इनके अनुयायी विशेष रूप से मध्यप्रदेश में है ।
अठारहवीं सदी में 'गुमानराम'द्वारा 'गुमानपन्थ' की स्थापना हुई। सांप्रत काल में कांजीस्वामी के अनुयायियों का एक अलग सम्प्रदाय भी प्रचलित है।
अल्पसंख्याक जैन समाज उपरोक्त सम्प्रदाय-उपसम्प्रदाय में विभाजित होने के कारण, एक व्यासपीठपर आने का प्रयास नहीं करता था। लेकिन इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करते-करते जैन युवक-युवतियों में 'जैन एकता' कउमंग जागृत हो रही है । ये नयी चेतना की लहर, भेदविरहित एकसंध जैन समाज का निर्माण करेगी।
स्वाध्याय अ) वस्तुनिष्ठ प्रश्न प्रश्न १ : जैनधर्म के दो मुख्य सम्प्रदाय कौनसे हैं ? प्रश्न २ : श्वेताम्बरियों के तीन उपसम्प्रदायों के नाम लिखिए । प्रश्न३ : दिगम्बरियों के दो मुख्य उपसम्प्रदायों के नाम लिखिए ।
ब) बडा प्रश्न (गुण ५) प्रश्न : श्वेताम्बर-दिगम्बर के मतभेदों की तुलना, पाठ के आधार से लिखिए ।
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३. जैन दर्शन की महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ
१) जीव :- ‘उपयोग' अर्थात् चेतना, जीव का मुख्य लक्षण है । जिसमें जान हो, जानने और समझने की ताकत हो, जिसे सुख-दुःख का अनुभव होता हो, वह 'जीव' कहलाता है ।
२) अजीव :- चेतनारहित पदार्थ को 'अजीव' कहते हैं । जिसमें उपयोग' न हो, वह तत्त्व 'अजीव' है । जिसमें जीव नहीं है, जो ‘जड' है, जिसमें सुखदु:ख के वेदन की शक्ति नहीं है, वह अजीव' है ।
३) पुण्य :- शुभ कर्मों को ‘पुण्य' कहते हैं ।
४) पाप :- अशुभ कर्मों को 'पाप' कहते हैं ।
५) आस्रव :- मन-वचन-काया के योगों के (हलन-चलन-स्पंदन) द्वारा, पुण्य-पापरूप कर्मों का, आत्मा के अंदर प्रवेश होना, 'आस्रव' है।
६) बन्ध :- आस्रवद्वारों के माध्यम से प्रविष्ट कर्मों का आत्मा के साथ जुड जाने को बन्ध' कहते हैं । ये ई आत्मा को बाँधते हैं या आवृत करते हैं ।
७) संवर :- कर्मों के आने के कारणों को रोकना 'संवर' है । मानसिक, वाचिक तथा शारीरिक क्रियाओंर नियंत्रण रखना संवर' है।
८) निर्जरा :- आत्मा से जुडे हुए कर्मों को, एकेक करके नष्ट करना 'निर्जरा' है।
९) मोक्ष :- जन्मान्तरों में अर्जित सभी कर्मों का पूर्णत: क्षय होना, 'मोक्ष' है । आत्मा का अपने शुद्ध स्वरूप मेस्थत होना, 'मोक्ष' है । जन्ममरण के चक्र से सदा के लिए मुक्त होना, 'मोक्ष' है।
१०) धर्म :- 'धर्म' द्रव्य अजीव, अमूर्त एवं निष्क्रिय है । वह संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त है। जीव और पुद्गलों के गति को, वह सहायक होता है ।
११) अधर्म :- 'अधर्म' द्रव्य अजीव, अमूर्त एवं निष्क्रिय है । वह संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त है । जीव और पुलों के स्थिति को, वह सहायक होता है।
१२) आकाश :- 'आकाश' द्रव्य अजीव, अमूर्त एवं निष्क्रिय है । वह संपूर्ण लोकाकाश में व्याप्त जीव, पुद्गल, धर्म और अधर्म इन चार द्रव्यों को अवगाह अर्थात् अवकाश (जगह) देना, आकाशद्रव्य का कार्य है ।
१३) काल :- 'काल' द्रव्य अजीव एवं अमूर्त है । जो स्वयं परिणमता है तथा अन्य द्रव्यों के परिणमन में सहकारी होता है, वह कालद्रव्य है । जीव और पुद्गलों में जो अवस्थांतर पाये जाते हैं, उनसे कालद्रव्य अनुमित कियाजाता
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१४) पुद्गल :
'पुद्गल' द्रव्य अजीव एवं अमूर्त (रूपी) है। 'पूरण' और 'गलन' उसका स्वभाव है । इसलिए उसके स्कन्ध बनते हैं । प्रत्येक परमाणुपर वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, ये चार गुण रहते हैं। सभी जीवों के शरीर 'पुदालमय'
है ।
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स्वाध्याय
* ये चौदह परिभाषाएँ जैन तत्त्वज्ञान की मूलभूत परिभाषाएँ हैं । विद्यार्थी इन्हें समझबूझकर कंठस्थ करें ।
* 'परिभाषा दीजिए' - इस प्रकार का लगभग चार गुणों का प्रश्न परीक्षा में पूछा जायेगा
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४. अट्टपाहुड- सार - प्रश्नसंच
शिक्षिकाओं के लिए विशेष सूचना :
* ‘अट्टपाहुड-सार’ किताब के आखरी भाग में दिया हुआ प्रश्नसंच न देखें । * जैनॉलॉजी - परिचय ( ४ ) इस किताब में दिया हुआ प्रश्नसंच ही देखें । * ‘अट्टपाहुड-सार’ किताब की प्रस्तावना और प्रत्येक पाहुड के प्रारंभ मे दी हुई प्रस्तावना लक्षपूर्वक पढें और पढाएँ ।
* यद्यपि परीक्षा में गाथाओं के आधारपर प्रश्न नहीं दिये हैं तथापि शिक्षिका, कथा में सभी गाथा पढकर उनका भावार्थ समझाएँ ।
* प्राकृत के प्राथमिक व्याकरण की रिव्हिजन शिक्षिका हर क्लास में करायें ।
* जैनदर्शन के पारिभाषिक संज्ञाओं की रिव्हिजन भी करायें ।
अ) अट्ठपाहुड की निम्नलिखित गाथाएँ कंठस्थ करके शुद्ध रूप में अर्थसहित लिखिए । १) दंसणभट्टा भट्टा दंसणभट्ठस्स णत्थि णिव्वाणं ।
सिज्झंति चरियभट्ठा दंसणभट्ठा ण सिज्झति ।। (दंसणपाहुड गा. ३)
२) साहंति जं महल्ला आयरियं जं महल्लपुव्वेहिं ।
जं च महल्लाणि तदो महव्वया इत्तहे ताई ।। (चारित्तपाहुड गा. ३०)
३) सुत्तं हि जाणमाणो भवस्स भवणासणं च सो कुणदि ।
सूई जहा असुत्ता णासदि सुत्ते सहा णो वि ।। (सुत्तपाहुड गा. ३)
४) धम्मो दयाविसुद्धो पव्वज्जा सव्वसंगपरिचत्ता ।
देवो ववगयमोहो उदयकरो भव्वजीवाणं ।। (बोहपाहुड गा. २५)
५) तित्थयरभासियत्थं गणहरदेवेहिं गंथियं सम्मं ।
भावहि अणुदिणु अतुलं विसुद्धभावेण सुयणाणं ।। (भावपाहुड गा. ९० )
६) अरुहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंचपरमेट्ठी ।
ते वि हु चिट्ठदि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ।। (मोक्खपाहुड गा. १०४)
ब) एक-दो वाक्यों में वस्तुनिष्ठ जवाब लिखिए । ('अट्टपाहुड-सार' किताब की प्रस्तावना पर आधारित प्रश्न)
१) दिगम्बर परम्परा में भ. महावीर और गौतम गणधर के बाद किनका नाम लिया जाता है ?
२) परम्परा अनुसार आ. कुन्दकुन्द ने कितने पाहुडों की रचना की थी ? अब उनमें से कितने पाहुड उपलब्ध हैं ?
३) 'पाहुड' शब्द का संस्कृत रूपांतरित शब्द कौनसा है ? उसका अर्थ क्या ?
४) यह ग्रन्थरूपी पाथेय कौनसे व्यक्ति के लिए उपयुक्त
है ?
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५) आठ पाहुडों के सिर्फ नाम, क्रम से लिखिए । ६) अष्टपाहुड ग्रन्थ कौनसी भाषा में लिखा हुआ है ? ७) सामान्यतः कुन्दकुन्द का कौनसा समय अभ्यासकों ने निर्धारित किया है ? ८) आ. कुन्दकुन्द के आज उपलब्ध ग्रन्थों में से किन्हीं पाँच ग्रन्थों के नाम लिखिए ।
क) एक-दो वाक्यों में वस्तुनिष्ठ जवाब लिखिए । ('अट्ठपाहुड-सार' किताब में अंतर्भूत पाहडों पर आधारित प्रश्न) १) आ. कुन्दकुन्द के अनुसार ‘दसणपाहुड' की मुख्य देशना कौनसी है ? (पृ.११) २) सम्यग्दर्शनरूपी रत्न से भ्रष्ट मनुष्य की स्थिति किस प्रकार की होती है ? (पृ.११) ३) व्यवहारनय से तथा निश्चयनय से सम्यग्दर्शन किसे कहा जा सकता है ? (पृ.११) ४) आ. कुन्दकुन्द ने सम्यग्दर्शन का महत्त्व संक्षेप में किस प्रकार प्रगट किया है ? (पृ.११) ५) संयमी का मुख्य लक्षण कौनसा है ? (पृ.११) ६) आत्मा के अविनाशी तथा अनंत भाव कितने हैं ? कौनसे हैं ? (पृ.२०) ७) जिनेन्द्र भगवान् ने कौनसे दो प्रकार के चारित्रों का कथन किया है ? (पृ.२०) ८) 'सम्यक्त्वाचरण-चारित्र' किसे कहते हैं ? (पृ.२०) ९) संयमाचरण' के दो मुख्य भेद कौनसे हैं ? (पृ.२०) १०) श्रावकधर्म कौनसे बारह भेदों में विभाजित किया जाता है ? (पृ.२०) ११) किस प्रकार का आचरण मुनिचारित्र अर्थात् अनगाराचरण है ? (पृ.२०) १२) 'सूत्र' शब्द की परिभाषा लिखिए । (पृ.२९) १३) सूत्रसहित होने का महत्त्व सुई के आधार से किस प्रकार स्पष्ट किया है ? (पृ.२९) १४) आध्यात्मिक दृष्टि से, आ. कुन्दकुन्द ने, कौनसे तीन प्रकार से ज्येष्ठताक्रम बताया है ? (पृ.२९) १५) 'सुत्तपाहुड' में, आ. कुन्दकुन्द ने, नग्नत्व और स्त्रीमुक्ति के बारे में कौनसे विचार व्यक्त किये हैं ? पृ.२९) १६) आ. कुन्दकुन्द के अनुसार, निर्दोष निर्ग्रन्थ साधुओं में कौनकौनसी महत्त्वपूर्ण धार्मिक बातों का समावेशहोता
हैं ? (पृ.३४) १७) बोधपाहुड' के अंतिम गाथाओं में कुन्दकुन्द ने किनका जयजयकार किया है ? और क्यों ? (पृ.३४) १८) कौनसे पाहुड में सबसे ज्यादा गाथाएँ हैं और क्यों ? (पृ.४८) १९) आ. कुन्दकुन्द ने, योगियों का अंतिम ध्येय कौनसा बताया है ? (पृ.७०) २०) त्रिप्रकार आत्मा के नाम लिखिए । (पृ.७०) २१) उपवास आदि तप का फल कौनसा है ? ध्यान का फल कौनसा है ? (पृ.७०) २२) आ. कुन्दकुन्द ने ध्यान की पूर्वपीठिका के रूप में कौनसी तीन बातें बतायी है ? (पृ.७०) २३) 'आत्मा ही शरण है' - यह भावना आचार्यश्री ने क्यों प्रगट की है ? (पृ.७०)
क) बडे प्रश्न १) आ. कुन्दकुन्द के जीवनी के बारे में दस वाक्यों में जानकारी लिखिए । (प्रस्तावना) २) भावपाहुड के आधार से 'भावशुद्धि' का महत्त्व दस वाक्यों में लिखिए । (पृ.४८) ३) 'शिवभूति' की कथा दस-बारह वाक्यों में लिखिए । (पृ.९३) ४) 'मधुपिंगल मुनि' की कथा दस-बारह वाक्यों में लिखिए । (पृ.९४)
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५) 'बाहु मुनि' की कथा दस-बारह वाक्यों में लिखिए । (पृ.९४) ६) 'शालिसिक्त्थमत्स्य' की कथा दस-बारह वाक्यों में लिखिए । (पृ.९५)
शिक्षकों के लिए विशेष सूचना पृष्ठ ३५ एवं पृष्ठ ४२ पर जो टिप्पणक दिये हैं, वे शिक्षिका विद्यार्थियों से पढवाकर समझाएँ।
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५. प्राकृत भाषा का प्राथमिक व्याकरण
(प्राथमिक परिचय)
'जैनॉलॉजी प्रवेश पाठ्यक्रम के प्रथमा से पंचमी तक के किताबों में हमने कुछ प्राकृत वाक्य सीखें और उके अर्थ भी ध्यान में रखने का प्रयत्न किया । 'जैनॉलॉजी परिचय' पाठ्यक्रम में हम प्राकृत के व्याकरणसंबंधी अधिक जानकारी लेंगे ताकि भविष्य में जब कभी आगमग्रंथ पढने का मौका मिलें तब उनका अर्थ समझने में आसानी होगी
'प्राकृत' शब्द का अर्थ है सहज, स्वाभाविक बोलचाल की भाषा । भ. महावीर ने अपने उपदेश संस्कृत भाषा में नहीं दिये । सब समाज को समझने के लिए उन्होंने बोलीभाषा अपनायी । भ. महावीर के उपदेश ‘अर्धमागधी' नाम की भाषा में थे । उस समय वह भाषा समझने में सुलभ थी । उसका व्याकरण भी संस्कृत भाषा जैसा जटिल नहें था । जैन आचार्यों ने कई सदियोंतक प्राकृत भाषा में ग्रंथ लिखे । प्राकृत भाषा एक नहीं थी । प्रदेश के असार वे अनेक थी । आज भी हम हिंदी, मराठी, मारवाडी, गुजराती, राजस्थानी, बांगला आदि भाषाएँ बोलते हैं, वे आधुनिक प्राकृत भाषाएँ ही हैं ।
(अ) नाम - विभक्ति (Case-declension) प्राकृत वाक्यों में मुख्यतः दो घटक होते हैं - नाम (noun) और क्रियापद (धातु)(verb) । नामों का वाक्य में उपयोग करने के लिए उसे कुछ प्रत्यय लगाने पडते हैं । उसे 'विभक्ति ' (Case-declension) कहते हैं । प्राकृत में सामान्यत: सात विभक्तियाँ हैं - प्रथमा, द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी, संबोधन । प्राकृत में सामान्यत: चतुर्थी विभक्ति के प्रत्यय नहीं पाये जाते । चतुर्थी के बदले षष्ठी विभक्ति के रूप उपयोग में लाते हैं । हर एक विभक्ति का अर्थ दूसरी विभक्ति से अलग होता है । इसलिए कि हमारे मन के यथार्थ भाव हम दूसरे व्यक्तितक पहुँचा सकते हैं।
हर एक नाम के दो वचन होते हैं - एकवचन (singular) और अनेकवचन (बहुवचन) (plural) प्राकृत भाषा में संस्कृत या मराठी की तरह तीन लिंग (gender) होते हैं - पुंलिंग (masculine), स्त्रीलिंग (feminine), नपुंसकलिंग (neutor) । हिंदी में दो लिंग होते हैं - पुंलिंग और स्त्रीलिंग ।
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अकारान्त पुं. 'वीर' शब्द
विभक्ति
एकवचन
अनेकवचन
प्रथमा (Nominative)
वीरो, वीरे (एक देव)
द्वितीया (Accusative)
वीरं
तृतीया (Instrumental)
पंचमी (Ablative)
वीरा (अनेक देव) वीरे, वीरा (वीरों को) वीरेहि, वीरेहि (वीरों ने) वीरेहितो (वीरों से) वीराण, वीराणं (वीरों का)
वीरेसु, वीरेसुं (वीरों में,वीरों पर) वीरा (हे वीरों !)
(वीर को) वीरेण, वीरेणं (वीर ने) वीरा, वीराओ (वीर से) वीरस्स (वीर का) वीरे, वीरंसि, वीरम्मि (वीर में, वीर पर) वीर (हे वीर !)
षष्ठी (Genitive)
सप्तमी (Locative)
संबोधन (Vocative)
देव, राम, जिण (जिनदेव), धम्म (धर्म), वाणर (बंदर, वानर), सीह (सिंह), सूरिय (सूर्य), चंद (चंद्र), गय (गज, हाथी), समण (श्रमण), वण्ण (वर्ण, रंग), हत्थ (हाथ), लोग (लोक), मेह (मेघ), आस (अश्व, घोडा), सरीर (शरीर), वग्घ (वाघ), ईसर (ईश्वर), कोव (कोप), आयरिय (आचार्य), कडय (कटक, सैन्य) ये सब अकारान्त (अंत में 'अ' स्वर आनेवाले) पंलिंगी शब्द उपरोक्त 'वीर' शब्द के अनुसार लिखिए ।
नाम-विभक्ति
(Case-declension)
(१) प्रथमा विभक्ति : (Nominative) कर्ताकारक
(यहाँ वाक्य का 'कर्ता' प्रथमा विभक्ति में है ।)
१) किंकरो अडं खणइ ।
नौकर कुआँ खनता है।
२) वाणरा रुक्खेसु वसंति ।
बंदर वृक्ष पर रहते हैं।
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(२) द्वितीया विभक्ति : (Accusative) कर्मकारक
(यहाँ वाक्य का 'कर्म' द्वितीया विभक्ति में है ।)
१) भत्तो रामं पूएइ ।
भक्त राम को पूजता है ।
२) सीहो मिगे भक्खइ ।
सिंह मृगों को खाता है ।
(३) तृतीया विभक्ति : (Instrumental) करणकारक
(यहाँ क्रिया का ‘साधन' तृतीया विभक्ति में है ।)
१) विज्जा विणएण सोहइ ।
विद्या विनयेन शोभते ।
२) सुलसा नेत्तेहिं पासइ ।
सुलसा नेत्रोंद्वारा देखती है ।
४) पंचमी विभक्ति : (Ablative) अपादानकारक
(चीज जिस स्थल से दूर जाती है, उस स्थल की विभक्ति पंचमी' है ।)
१) जणा सीहाओ बीहंति ।
लोग सिंह से डरते हैं।
२) तित्थयरेहिंतो लोगा धम्मं जाणिंसु ।
तीर्थंकरों से लोगों ने धर्म जाना ।
(५) षष्ठी विभक्ति : (Genitive) सम्बन्धकारक
(दो व्यक्ति या चीजों का सम्बन्ध' षष्ठी विभक्ति से सूचित होता है ।)
१) सिद्धत्थो खत्तिओ समणस्स महावीरस्स जणओ आसि । सिद्धार्थ क्षत्रिय श्रमण महावीर के जनक थे ।
२) सीलं नराणं भूसणं ।
शील मनुष्यों का भूषण है ।
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(६) सप्तमी विभक्ति : (Locative) अधिकरणकारक
(जिस क्षेत्र या स्थल में रहना है, जो चीज आधारभूत है, उसकी 'सप्तमी' विभक्ति उपयोजित की जाती है ।)
१) साविगाए मणं धम्मे / धम्मंसि / धम्मंमि रमइ ।
श्राविका का मन धर्म में रमता है।
I
२) माया पुत्तेसु वीससइ ।
माता पुत्रों पर विश्वास रखती है ।
(७) संबोधन विभक्ति : ( Vocative) निमंत्रण, संबोधन
( किसी को बुलाने के लिए 'संबोधन' विभक्ति होती है ।)
१) निव ! पसन्नो होसु ।
हे नृप ! प्रसन्न हो जाओ ।
२) मेहा ! कालेसु वरिसह ।
हे मेघों ! समयपर बरसो ।
विभक्ति
प्रथमा
(Nominative)
द्वितीया
(Accusative)
तृतीया
(Instrumental)
पंचमी
(Ablative)
षष्ठी
(Genitive)
सप्तमी
(Locative)
संबोधन
(Vocative)
आकारान्त स्त्री. 'गंगा' शब्द
एकवचन
गंगा
(एक गंगा)
गंग
(गंगा को)
गंगाए
(गंगा ने)
गंगाए, गंगाओ
(गंगा से)
गंगा
(गंगा का )
गंगा
(गंगा में)
गंगा, गंगे
(हे गंगा ! )
अनेकवचन
गंगा, गंगाओ
( अनेक गंगा) गंगा, गंगाओ
(गंगाओं को)
गंगाहि, गंगाहिं
(गंगाओं ने)
गंगाहिंतो
(गंगाओं से)
गंगा, गंगाण
(गंगाओं का )
गंगासु, गंगासुं
(गंगाओं में)
गंगा, गंगाओ
(हे गंगाओं !)
इसी तरह साला (शाला), बाला, पूया (पूजा), देवया (देवता), कन्ना (कन्या), लया (लता), साहा (शाखा), जउणा (जमुना), भज्जा (भार्या, पत्नी), सेणा (सेना), मज्जाया (मर्यादा), नावा, छाया, विज्जा (विद्या), नेहा (स्नेहा), महुरा (मधुरा, मथुरा), किवा (कृपा, दया), पया (प्रजा), भारिया (भार्या, पत्नी), सुसीला (सुशीला) इ.
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आकारान्त स्त्रीलिंगी शब्द उपरोक्त 'गंगा' शब्द के अनुसार लिखिए ।
(१) प्रथमा विभक्ति : (Nominative) कर्ताकारक
१) गंगा हिमालयाओ निग्गच्छइ ।
गंगा हिमालय से निकलती है ।
२) कन्नाओ पाढसालं गच्छंति ।
कन्याएँ पाठशाला जाती हैं ।
(२) द्वितीया विभक्ति : (Accusative) कर्मकारक
१) पहिया छायं इच्छंति ।
पथिक छाया की इच्छा करते हैं ।
२) मालायारो माला/मालाओ गुंफइ । मालाकार (माली) मालाओं को गूंथता है ।
(३) तृतीया विभक्ति : (Instrumental) करणकारक
१) दरिदो जणाणं किवाए जीवइ ।
दरिद्री लोगों की कृपा से जीता है ।
२) रुक्खो साहाहिं सोहइ ।
वृक्ष शाखाओं से शोभता है।
(४) पंचमी विभक्ति : (Ablative) अपादानकारक
१) लयाए पुप्फाइं निवडंति ।
लता से फूल गिरते हैं।
२) देवयाहिंतो लोगा वराई लहंति ।
देवताओं से लोग वरों को प्राप्त करते हैं ।
(५) षष्ठी विभक्ति
: (Genitive) संबंधकारक
१) जउणाए जलं महुरं ।
जमुना का पानी मधुर है ।
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२) नावाणं कडएणं राया जिणइ ।
नौकाओं के सैन्य से राजा जीता है ।
(६) सप्तमी विभक्ति : (Locative) अधिकरणकारक
१) छत्तो मज्जायाए वट्टेज्जा । छात्र मर्यादा में रहें ।
२) खगाणं नीडा साहासु सोहंति ।
पक्षियों के घोंसले शाखाओं पर शोभते हैं ।
(७) संबोधन विभक्ति : ( Vocative) निमंत्रण, संबोधन
१) भज्जे ! तुरियं आगच्छसु । भायें ! जल्दी आओ ।
२) कन्ना / कन्नाओ ! अज्झयणं करेह । कन्याओ ! अध्ययन करो ।
विभक्ति
प्रथमा
(Nominative)
द्वितीया
(Accusative)
तृतीया
(Instrumental)
पंचमी
(Ablative)
षष्ठी
(Genitive)
सप्तमी
(Locative)
संबोधन
(Vocative)
अकारान्त नपुं. 'वण' शब्द एकवचन वणं (एक वन) वणं (वन को ) वणेण, वणेणं
अनेकवचन वणाई, वाणि (अनेक वन) वणाइं, वणाणि (वनों को)
वणेहि, वणेहिं
II
(वन ने)
(वनों ने) वणेहिंतो
वणा, वणाओ
(वन से)
(वनों से )
वणस्स
(वन का )
वणे, वर्णसि, वणम्मि
(वन में, वन पर)
वणाण, वणाणं (वनों का) वणे, वसुं (वनों में, वनों पर) वणाइं, वणाणि (हे वनों !)
वण
(हे वन !)
इसी तरह पुप्फ (पुष्प), पण्ण (पर्ण, पान), घर, उज्जाण (उद्यान), कम्म (कर्म), सील (शील), पुण्ण (पुण्य), फल, गुण, दाण (दान), बल, मंस (मांस), मज्ज (मद्य), रज्ज (राज्य), पोत्थग (पुस्तक), पाव (पाप),
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सुवण्ण (सुवर्ण), नह (नभ, आकाश), मण (मन), मंदिर इ. अकारान्त नपंसकलिंगी शब्द उपरोक्त 'वण' शब्द के अनुसार लिखिए ।
(१) प्रथमा विभक्ति : (Nominative) कर्ताकारक
१) वणं रमणीयं ।
वन रमणीय है।
२) उज्जाणाइं/उज्जाणाणि नयरस्स हिययाई ।
उद्यान नगर का हृदय है ।
(२) द्वितीया विभक्ति : (Accusative) कर्मकारक
१) अग्गी वणं डहइ ।
अग्नि वन जलाती है।
२) ते विविहाई फलाइं आणेति ।
वे विविध फल लाते हैं।
(३) तृतीया विभक्ति
: (Instrumental) करणकारक
१) वणेण विणा किं कट्ठ लहइ ?
वन के सिवा क्या काष्ठ मिलेगा ?
२) अज्ज पुण्णेहिं मए गुरु दिट्ठो।
आज पुण्य से मुझे गुरू दिखाई दिये ।
(४) पंचमी विभक्ति : (Ablative) अपादानकारक
१) सो वणाओ आगच्छइ ।
वह वन से लौटता है।
२) वणेहिंतो जणाणं बहुलाहो होइ ।
वनों से लोगों को बहुत लाभ होता है ।
(५) षष्ठी विभक्ति : (Genitive) संबंधकारक १) धणस्स चिंताए सो मओ ।
धन की चिंता से वह मर गया ।
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२) वणाणं सोहा पेक्खिउं सीया तत्थ गया ।
वनों की शोभा देखने के लिए सीता वहाँ गयी ।
(६) सप्तमी विभक्ति : (Locative) अधिकरणकारक
१) वणे सीहा गज्जंति ।
वन में सिंह गर्जना करते हैं।
२) मिगा वणेसु रमंति ।
मृग वनों में रमते हैं।
(७) संबोधन विभक्ति : (Vocative) निमंत्रण, संबोधन
१) पुप्फ ! तुम जणाणं आणंदं देसि ।
हे पुष्प ! तुम लोगों को आनंद देते हो ।
२) पण्णाई ! सव्वाणं सीयलं छायं अप्पेह ।
हे पर्णों ! सबको शीतल छाया प्रदान करो ।
(ब) क्रियापद के प्रत्यय (Verb - declesion)
भाषा में वाक्य बनने के लिए दूसरा महत्त्वपूर्ण घटक है 'क्रियापद' । १) वाक्य में क्रियापद प्रयुक्त करने के लिए प्रथमत: 'काल' देखना पडता है । प्राकृत में तीन मुख्य काल हैं - वर्तमानकाल (present tense), भूतकाल (past tense) और भविष्यकाल (future tense) । इसके अतिरिक्त आज्ञार्थ' और 'विध्यर्थ' भी होते हैं ।
२) क्रिया के रूप प्रयोग करते हुए एकवचन (singular) या अनेकवचन (plural) का उपयोग करना पडता है ।
३) क्रिया के रूप हमेशा प्रथमपुरुष (first Person), द्वितीय पुरुष (second Person), या तृतीय पुरुष (third Person) में प्रयुक्त होते हैं।
इस पाठ में हम वर्तमानकाल, भूतकाल, भविष्यकाल, आज्ञार्थ और विद्यर्थ के प्रत्यय, क्रियापद त वाक्य दे रहे हैं । वाक्य पढते समय क्रिया, वचन तथा पुरुष का विशेष ध्यान रखें ।
वर्तमानकाल : (Present Tense)
जो क्रिया हम अभी कर रहे हैं, उसके लिए वर्तमानकाल का प्रयोग होता है । जैसे कि - 'बालगा महावीर वंदति ।' इसका अर्थ हिंदी में हम इस प्रकार लिखेंगे - 'बालक महावीर को वंदन करते हैं ।'
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जो क्रिया हम हमेशा करते हैं, उनके लिए भी वर्तमानकाल का प्रयोग होता है । जैसे कि - 'अहं पइदिण भुंजामि ।' इसका अर्थ हिंदी में हम इस प्रकार लिखेंगे - 'मैं प्रतिदिन भोजन करता हूँ।'
कालिक सत्य विधानों के लिए भी हम वर्तमानकाल का उपयोग करते हैं । जैसे कि- 'मणुस्सा मरणसीला हवंति ।' (मनुष्य मरणशील होते हैं ।) 'सियालो धुत्तो होइ ।' (सियार धूर्त होता है ।)
वर्तमानकाल के प्रत्यय
पुरुष
एकवचन
अनेकवचन
प्रथम पुरुष द्वितीय पुरुष तृतीय पुरुष
अंति
सर्वनामसहित वर्तमानकाल के क्रियारूप धातु (क्रियापद) : पुच्छ (पूछना)
पुरुष प्रथम पुरुष द्वितीय पुरुष तृतीय पुरुष
एकवचन (अहं) पुच्छामि । (तुम) पुच्छसि । (सो) पुच्छइ ।
अनेकवचन (अम्हे, वयं) पुच्छामो । (तुम्हे) पुच्छह । (ते) पुच्छंति ।
निम्नलिखित क्रियापद ‘पृच्छ (पूछना)' क्रियापद के समान उपयोजित किये जाते हैं -
पास (देखना), गच्छ (जाना), आगच्छ (आना), खण (खनना), खिव (फेंकना), गेण्ह (ग्रहण करना), चिट्ठ (खडे होना), जाण (जानना), धाव (दौडना), पढ (पढना), फुस (स्पर्श करना), भास (बोलना), भण (बोलना), वस (रहना), हण (मारना, हनन करना), वंद (वंदन करना)
प्रश्न : निम्नलिखित प्राकृत वाक्यों के क्रियापद, पुरुष और वचन पहचानिए ।
१) समणो जिणदेवं वंदइ।
श्रमण जिनदेव को वंदन करता है । उदा. क्रियापद वंद' - तृतीय पुरुष, एकवचन ।
२) तुम्हे कूवं खणह ।
तुम सब कुआँ खन रहे हो ।
३) आसो वेगेण धावइ ।
अश्व वेग से दौडता है।
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४) लयाओ पुप्फाई पडंति ।
लताओं में से फूल गिरते हैं ।
५) अहं गयाओ पडेमि ।
मैं हाथी से गिरता हूँ।
६) अम्हे जिणधम्मं जाणामो ।
हम जिनधर्म को जानते हैं ।
७) ते मट्टियाए सुवण्णं गेण्हंति ।
वे मिट्टी में से सुवर्ण का ग्रहण करते हैं ।
८) बालय ! तुमं ओयणं इओ तओ किंखिवसि ?
बालक ! तुम ओदन (चावल) इधर उधर क्यों फेंक रहे हो ?
९) तुम्हे देवसमीवं चिट्ठह ।
तुम सब देव के समीप खडे रहो ।
१०) छत्ता पाइय भणति ।
छात्र प्राकृत बोलते हैं ।
११) अहं मेहं पासामि ।
मैं मेघ को देखता हूँ।
१२) अम्हे पाढसालं पभाए गच्छामो संझासमए आगच्छामो ।
हम सुबह पाठशाला जाते हैं संध्यासमय में आते हैं ।
१३) सो गणियं पढइ ।
वह गणित पढता है।
१४) अंधो हत्थेण वत्थं फुसइ ।
अंधा हाथ से वस्त्र को स्पर्श करता है ।
१५) राया किंकराणं उच्चावयं भासइ ।
राजा नौकरों से अनापशनाप बोलता है ।
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१६) भारहे बहुजणा गामंमि वसंति ।
भारत में बहुत लोग गाँव में बसते हैं ।
१७) रायपुरिसो चोरं हणइ ।
राजपुरुष (सिपाही) चोर को मारता है ।
प्राकृत में कुछ अकारान्त क्रियापद, 'ए' स्वर जोड के प्रयुक्त किये जाते हैं । जैसे - कर - करेमि । किन क्रियापदों को 'ए' जोडना है, इसके बारे में रूढी ही प्रमाण मानी जाती है । उदाहरण के तौरपर 'कर' के समान होनेवाले क्रियापद नीचे दिये हैं।
क्रियापद : कर (करे) (करना) पुरुष एकवचन
अनेकवचन प्रथम पुरुष (अहं) करेमि ।
(अम्हे, वयं) करेमो । द्वितीय पुरुष (तुमं) करेसि ।
(तुम्हे) करेह । तृतीय पुरुष (सो) करेइ ।
(ते) करेंति ।
निम्नलिखित क्रियापद कर (करे) क्रियापद के समान उपयोजित किये जाते हैं -
कह (कहना), गण (गणना करना), वण्ण (वर्णन करना), साह (कहना), लज्ज (लज्जित होना), अच्च (अर्चना करना), उड्ड (उडना), चोर (चोरी करना), दंड (दण्डित करना), आहार (आहार करना), निमंत (निमंत्रण करना), पाड (पाडना), मार (मारना), चिंत (चिन्तन करना)
प्रश्न : निम्नलिखित प्राकृत वाक्यों का क्रियापद, पुरुष और वचन पहचानिए ।
१) तुम सव्वया सच्चं कहेह ।
तुम सर्वदा सच कहते हो । उदा. क्रियापद कह' - द्वितीय पुरुष, एकवचन
२) बालियाओ पुप्फाइं गणेति ।
बालिकाएँ फूलोंकी गिनती करती हैं ।
३) समणो महावीरचरियं वण्णेइ ।
श्रमण महावीरचरित्र का वर्णन करता है।
४) जणणी हियं साहेइ ।
जननी हित का कथन करती है।
५) अहं दुच्चरियाओ लज्जेमि ।
मैं दुश्चरित्र से लज्जित होती हूँ ।
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६) वयं महावीरं अच्चेमो ।
हम महावीर की अर्चना करते हैं।
७) सुगा पंजराओ उड्डेति ।
शुक (तोते) पिंजरे से उडते हैं ।
८) तक्करा धणं चोरेंति ।
तस्कर (चोर) धन को चुराते हैं ।
९) अहं अकारणं न किमवि दंडेमि ।
मैं किसे भी विनाकारण दण्डित नहीं करता हूँ
१०) तुम्हे हिय मियं च आहारेह ।
तुम हितकर और मित आहार करते हो ।
११) घरिणी अतिहिं निमंतेइ ।
गहिणी अतिथि को निमंत्रित करती है ।
१२) मल्लो पडिमल्लं पाडेइ ।
मल्ल प्रतिमल्ल को पाडता है ।
१३) जुज्झे वीरा परुप्परं मारेंति ।
युद्ध में वीर परस्परों को मारते हैं ।
१४) सो पडिक्कमणे अप्पाणं अवराह चिंतेड ।
वह प्रतिक्रमण में खुद के अपराधों का चिंतन करता है ।
भूतकाल (Past-Tense) जो क्रिया घटी हुई है, उसके लिए हम भूतकालिक क्रियापदों का उपयोग करते हैं । इत्था' और 'इंसु' ये भूतकालवाचक प्रत्यय जादा तर अर्धमागधी भाषा में ही पाये जाते हैं । सामान्य प्राकृत में भूतकालिक क्रियापदों के स्थान पर भूतकालिक विशेषण प्रयुक्त करते हैं ।
अनेकवचन
पुरुष प्रथम पुरुष द्वितीय पुरुष तृतीय पुरुष
भूतकाल के प्रत्यय
एकवचन इत्था इत्था इत्था
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पुरुष
प्रथम पुरुष
द्वितीय पुरुष
तृतीय पुरुष
२) अम्हे दुद्धं पीविंसु । हमने दूध पीया ।
३) तुमं कत्थ उवविसित्था ? तू कहाँ बैठी थी ?
निम्नलिखित प्राकृत वाक्यों का क्रियापद, पुरुष और वचन पहचानिए ।
१) अहं मोरस्स चित्तं पासित्था ।
मैंने मोर का चित्र देखा ।
उदा. क्रियापद 'पास' - प्रथमपुरुष, एकवचन
४) तुम्हे किं सिक्खिसु ? तुमने क्या सीखा ?
५) सो रुक्खाओ पडित्था | वह झाड से गिरा ।
६) ते वणं गच्छिंसु । वे वन में गये ।
७) रावणो तवं करित्था | रावणने तप किया ।
८) अम्हे उवस्सए धम्मं सुणिंसु । हमने उपाश्रय में धर्म सुना ।
सर्वनामसहित भूतकाल के क्रियापद क्रियापद : पास (देखना)
९) रयणं समुद्दम्मि पडित्था । रत्न समुद्र में गिर गया ।
एकवचन
(अहं) पासित्था ।
(मैंने देखा ।)
(तु) पासित्था । (तूने / तुमने देखा ।) (सा) पासित्था ।
(उसने देखा ।)
अनेकवचन
(अम्हे) पासिंसु । (हमने देखा । )
(तुम्हे) पासिंसु । (तुमने/सबने देखा ।)
(ते) पासिं ।
(उन्होंने देखा । )
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भविष्यकाल (Future-Tense) जो घटनाएँ आगामी काल में होनेवाली हैं, उसके लिए हम भविष्यकालिक क्रियापदों का उपयोग करते हैं । भविष्यकाल के प्रत्यय दो प्रकार के होते हैं - एक प्रकार इस्स' प्रत्यय से और दूसरा प्रकार 'इह' प्रत्यय से होता है
पुरुष प्रथम पुरुष द्वितीय पुरुष तृतीय पुरुष
(१) भविष्यकाल के प्रत्यय
एकवचन इस्सामि, इस्सं इस्ससि इस्सइ
अनेकवचन इस्सामो इस्सह
इस्संति
पुरुष प्रथम पुरुष
सर्वनामसहित भविष्यकाल के क्रियारूप
क्रियापद : भण (बोलना) एकवचन
अनेकवचन (अहं) भणिस्सामि । (अहं) भणिस्सं। (अम्हे) भणिस्सामो । (मैं बोलूँगा ।)
(हम बोलेंगे ।) (तुम) भणिस्ससि।
(तुम्हे) भणिस्सह । (तू बोलेगा । तुम बोलोगे ।) (तुम सब बोलोगे ।) (सो) भणिस्सइ ।
(ते) भणिस्संति । (वह बोलेगा ।)
(वे बोलेंगे ।)
द्वितीय पुरुष
तृतीय पुरुष
पुरुष
(२) भविष्यकाल के प्रत्यय
एकवचन इहिमि, इहामि इहिसि इहिइ
अनेकवचन इहिमो, इहामो
प्रथम पुरुष द्वितीय पुरुष तृतीय पुरुष
इहिह
इहिंति
पुरुष प्रथम पुरुष
सर्वनामसहित भविष्यकाल के क्रियारूप
क्रियापद : पाल (पालना) एकवचन
अनेकवचन (अहं) पालिहिमि । (अहं) पालिहामि । (अम्हे) पालिहिमो । (अम्हे) पालिहामो । (मैं पालन करूँगा ।)
(हम पालन करेंगे ।) (तुम) पालिहिसि ।
(तुम्हे) पालिहिह । (तू पालन करेगा । तुम पालन करोगे ।) (तुम सब पालन करेंगे ।) (सा) पालिहिइ ।
(ते) पालिहिंति । (वह पालन करेगी ।)
(वे पालन करेंगी ।)
द्वितीय पुरुष
तृतीय पुरुष
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भविष्यकाल में प्रयुक्त करने के लिए कुछ क्रियापद और उनके अर्थ -
जंप (बोलना), हस (हँसना), नच्च (नाचना), भुंज (भोजन करना), तर (तरना), मुंच (छोडना), दे (देना), हो (होना), खा (खाना), गिल (गिलना), लह (प्राप्त होना), वरिस (वर्षाव करना), पेक्ख (देखना), विहर (विहार करना), पविस (प्रवेश करना), हर (हरना, ले जाना), सोह (शोभना), वट्ट (होना), विहूस (विभूषित करना), पयास (प्रकाशित करना), रोव (रोना), छिंद (तोडना)
प्रश्न : निम्नलिखित प्राकृत वाक्यों का क्रियापद, पुरुष और वचन पहचानिए ।
१) अहं सच्चं जंपिस्सामि । ___ मैं सत्य बोलूँगा। उदा. क्रियापद ‘जप' - प्रथमपुरुष, एकवचन
२) नट्ट पेक्खिऊण अम्हे हस्सिस्सामो ।
नाटक देखकर हम हसेंगे ।
३) तुमं मज्झण्हे किं भुंजिस्ससि ?
तुम दोपहर में क्या खाओगी ?
४) तुम्हे कल्लं समुदं तरिस्सह ।
तुम सब कल समुद्र को तरोगे/पार करोगे ।
५) असोगो सोगं मुंचिस्सइ ।
अशोक शोक को छोडेगा ।
६) अहं सव्व जीवाणं अभयं देइहिमि ।
मैं सब जीवों को अभय दूंगा ।
७) थेरी भणइ, 'हे रक्खस ! तुमं मं कल्लं खाइहिसि ।'
बूढी बोली, 'हे राक्षस ! तुम मुझे कल खाओगे ।'
८) तुम्हे लहुं लहुं ओयणं गिलिहिह ।
तुम सब जल्दी जल्दी चावल गिलो ।
९) समणो मोक्खं लहिहिइ ।
श्रमण मोक्ख प्राप्त करेगा ।
१०) जलहरा विउलं जलं वरिसिहिति ।
मेघ विपुल जल बरसेंगे ।
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११) अहं कया तव मुहं पेक्खिस्सं ?
मैं कब तुम्हारा मुख देखू ?
१२) कया वयं बंधणमुक्का होइस्सामो ?
कब हम बंधनमुक्त होंगे ?
१३) पुण्णेण तुमं सग्गे विहरिस्ससि ।
पुण्य से तुम स्वर्ग में विहार करोगे ।
१४) तुम्हे सुहेणं मंदिरं पविसिस्सह ।
तुम सब सुखपूर्वक मंदिर में प्रवेश करोगे ।
१५) पवणो तव परिस्समं हरिस्सइ ।
पवन (हवा) तेरे परिश्रम दूर करेगा ।
१६) चंद ! तुम गयणे सोहिहिसि ।
हे चंद्र ! तुम गगन में शोभोगे ।
१७) तुम्हाणं कालो सुहपुव्वयं वट्टिहिइ ।
तुम्हारा काल सुखपूर्वक बीतेगा ।
१८) ऊसवे महिलाओ घरं विहूसिहिति ।
उत्सव में महिलाएं घर विभूषित करेंगी ।
१९) अग्गिम - पूण्णिमाए चंदो रत्ती पयासिहिइ ।
अग्रिम (आनेवाली) पूर्णिमा को चंद्र रात को प्रकाशित करेगा ।
२०) कट्टहारो कट्टु छिंदिस्सइ ।
लकडहारा लकडी तोडेगा ।
31151Tef (Imperative Mood)
आज्ञा देने अथवा हुकूम करने के लिए जिस कालार्थ का प्रयोग किया जाता है उसे आज्ञार्थ कहते हैं । अंग्रेजी में उसे 'Tense' न कहते हुए Mood' कहते हैं । आज्ञा प्राय: सामनेवाले को दी जाती है । इसलिए यहाँ 'द्वितीय पुरुष' का ही प्राधान्य है । सामान्यत: व्यक्ति खुद को आज्ञा नहीं देता । इसलिए प्रायः द्वितीय और तृतीय पुरुष के प्रयोग ही आज्ञार्थ में पाये जाते हैं ।
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आज्ञार्थ के प्रत्यय
पुरुष
एकवचन
अनेकवचन
F
प्रथम पुरुष द्वितीय पुरुष तृतीय पुरुष
4 | 64
-, सु, हि
अत्
पुरुष
आज्ञार्थ धातु (क्रियापद) : गच्छ (जाना) एकवचन
अनेकवचन गच्छामु
गच्छामो गच्छ, गच्छसु, गच्छाहि गच्छह गच्छउ
गच्छंतु
प्रथम पुरुष द्वितीय पुरुष तृतीय पुरुष
पुरुष
प्रथम पुरुष
सर्वनामसहित आज्ञार्थ के क्रियारूप
क्रियापद : भक्ख (खाना) एकवचन
अनेकवचन (अहं) भक्खामु ।
(अम्हे) भक्खामो । (मैं खाऊँ ।)
(हम खायें ।) (तुम) भक्ख/भक्खसु/भक्खाहि । (तुम्हे) भक्खह। (तुम खाओ ।)
(तुम सब खाओ ।) (सो) भक्खउ ।
(ते) भक्खंतु । (वह खाये ।)
(वे खायें ।)
द्वितीय पुरुष
तृतीय पुरुष
कुछ प्राकृत क्रियापदों के आज्ञार्थी वाक्य
१) वय - बोलना ।
अहं सच्चं वयाम । मैं सच बोलूँ ।
२) वस - रहना ।
अम्हे सुहेण वसामो । हम सुखपूर्वक रहें।
३) जिण - जीतना ।
तुम लोहं जिण/जिणसु/जिणाहि । तुम लोभ को जीतो।
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४) आगच्छ - आना । तुम्हे एत्थ आगच्छह । तुम सब यहाँ आओ।
५) गच्छ - जाना ।
नेहा तत्थ गच्छउ । नेहा वहाँ जाएँ।
६) भक्ख - खाना ।
मिलिंदो अरविंदो य भोयणं भुंजंतु । मिलिंद और अरविंद भोजन करें ।
७) बोल्ल - बोलना । तुम्हे महुराई वयणाई बोल्लह । तुम सब मधुर वचन बोलो ।
८) सिक्ख - सीखना । तुमं पाइयं सिक्ख/सिक्खसु/सिक्खाहि । तुम प्राकृत सीखो ।
९) उवविस - बैठना ।
तुम हेटा उवविस/उवविसस/उवविसाहि । तुम नीचे बैठो।
१०) वंद - वंदन करना ।
तुम्हे महावीरं वंदह । तुम सब महावीर को वंदन करो ।
११) कुण - करना ।
तुमं कोहं मा कुण/कुणसु/कुणहि । तुम क्रोध मत करो।
fasztof (Potential Mood)
इच्छा, सूचन, विधि, निमंत्रण, आमंत्रण, प्रार्थना, आशा, संभावना, आशीर्वाद, उपदेश - आदि अर्थों को सूचित करने के लिए विध्यर्थक प्रत्ययों का प्रयोग होता है ।
आज्ञार्थक और विध्यर्थक दोनों के अर्थों में और प्रयोग में बहुत ही साम्य है ।
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पुरुष
प्रथम पुरुष द्वितीय पुरुष तृतीय पुरुष
विध्यर्थ के प्रत्यय एकवचन एज्जा, एज्जामि एज्जा, एज्जासि, एज्जाहि ए, एज्जा
अनेकवचन एज्जाम एज्जाह एज्जा
पुरुष
विध्यर्थ धातु (क्रियापद) : गच्छ (जाना) एकवचन
अनेकवचन गच्छेज्जा, गच्छेज्जामि
गच्छेज्जाम गच्छेज्जा, गच्छेज्जासि, गच्छेज्जाहि गच्छेज्जाह गच्छे, गच्छेज्जा
गच्छेज्जा
प्रथम पुरुष द्वितीय पुरुष तृतीय पुरुष
पुरुष
प्रथम पुरुष
सर्वनामसहित विध्यर्थ के क्रियारूप
क्रियापद : भक्ख (खाना) एकवचन
अनेकवचन (अहं) भक्खेज्जा, भक्खेज्जामि ।
(अम्हे) भक्खेज्जाम । (मैं खाऊँ ।)
(हम खायें ।) (तुम) भक्खेज्जा/भक्खेज्जासि/भक्खेज्जाहि । (तुम्हे) भक्खेज्जाह । (तुम खाओगे ।)
(तुम सब खाओगे ।) (सो) भक्खे/भक्खेज्जा।
(ते) भक्खेज्जा । (वह खाये ।)
(वे खायें ।)
द्वितीय पुरुष
तृतीय पुरुष
कुछ प्राकृत क्रियापद (धातु) और उनके विध्यर्थक वाक्य
१) अहं सयंनिब्भरं होज्जामि/होज्जा ।
मैं स्वयंनिर्भर होऊँ ।
२) अम्हे धम्मस्स पहावणं करेज्जाम ।
हम धर्म की प्रभावना करें ।
३) वट्ट - रहना ।
तुमं विणएण वट्टेजा/वट्टेज्जासि/वट्टेजाहि । तुम को विनय से रहना चाहिए ।
४) कर - करना ।
तुम्हे अज्झयणं करेज्जाह । तुम सबको अध्ययन करना चाहिए ।
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५) वंद - वंदन करना ।
सीसो आयरियं वंदे । शिष्य आचार्य को वंदन करें ।
६) उवविस - बैठना । गिलाणस्स समीवं उवविसे ।
ग्लान के समीप (नजदीक) बैठें ।
आय - आचरण करना ।
सुण्हा विणयपुव्वं आयरेज्जा ।
बहुओं को विनयपूर्वक आचरण करना चाहिए ।
८) कील - क्रीडा करना, खेलना ।
छत्ता संझासमए कीलेज्जा ।
विद्यार्थियों को संध्यासमय में खेलना चाहिए ।
९) खम क्षमा करना ।
मम अवराहं खमेज्जा ।
मेरे अपराधों की क्षमा करो ।
१०) वस - रहना ।
सीसो गुरुस सगास वसेज्जा ।
शिष्य को गुरु के पास रहना चाहिए ।
११) आराह - आराधना करना ।
मुणी सुणाणं आहेज्जा ।
मुनि को श्रुतज्ञान की आराधना करनी चाहिए |
१२) उट्ठ - उठना ।
सुघरिणी सुप्पहाए उट्ठेज्जा ।
सुगृहिणी को सुप्रभात में उठना चाहिए ।
- जीतना ।
नरो मोणेण कोहं जिणेज्जा । मनुष्य मौन से क्रोध जीतें ।
१३) जिण
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(क) व्याकरणपाठ : अभ्यासविषयक सूचनाएँ
* परीक्षा में व्याकरणपाठ पर आधारित प्रश्न, लगभग १०-१२ गुणों के होंगे । * नामविभक्ति पर आधारित प्रश्न, अकारान्त पुल्लिंगी, आकारान्त स्त्रीलिंगी और अकार
कारान्त पुल्लिगा, आकारान्त स्त्रालिगा और अकारान्त नपुसकलिंगी शब्दों पर आधारित होंगे। * क्रियापद पर आधारित प्रश्न, वर्तमानकाल, भूतकाल, भविष्यकाल, आज्ञार्थ एवं विध्यर्थ पर आधारित होंगे। * इस व्याकरणपाठ के अंतर्गत आये हुए प्राकृत वाक्यों का हिंदी अनुवाद नहीं पूछा जायेगा । हिंदी वाक्यों क प्राकृत रूपांतर भी नहीं पूछा जायेगा ।
नमूने के तौरपर दो प्रकार के प्रश्न दिये हैं । प्रश्न के इस ढाँचे को सामने रखकर विद्यार्थी तैयारी करें।
अ) निम्नलिखित शब्दों में निहित मूल शब्द, उसकी विभक्ति एवं वचन लिखिए । उदा. १) वीरेण - मूल शब्द 'वीर', तृतीया विभक्ति, एकवचन
२) वीरे - मूल शब्द 'वीर', प्रथमा एकवचन, द्वितीया अनेकवचन, सप्तमी एकवचन ३) गंगाए - मूल शब्द 'गंगा', तृतीया, पंचमी, षष्ठी, सप्तमी एकवचन ४) गंगे - मूल शब्द 'गंगा', संबोधन एकवचन । ५) वणाई - मूल शब्द ‘वण', प्रथमा, द्वितीया, संबोधन अनेकवचन ६) वणेहिंतो - मूल शब्द ‘वण', पंचमी अनेकवचन
जिणो, वाणरं, भज्जाओ, फलेहिं, वण्णाओ, बलेहितो, देवयाए, पोत्थगे, नावासुं, सीहेण, सालं, सुवण्ण, समणेहिं, नेहा, दाणा, मंदिराई, सेणाणं, लोगस्स, गुणेण, पूर्य, वीराणं, सरीरेसु, पुप्फ, आसम्मि, कन्नाहिंसाहाहिंतो, रज्जेसु, मज्जायाए, मज्जस्स, हत्थेहिंतो, ईसर, पण्णाई, महुराओ, सीलेण, गंगा - इन शब्दों का विवरण उपरोक्त प्रकार से लिखिए ।
(ब) निम्नलिखित क्रियापदसमूह से वर्तमानकाल, भूतकाल, भविष्यकाल, आज्ञार्थ और विध्यर्थ के
क्रियापद अलग-अलग कीजिए ।
पुच्छामि, कुण, पासित्था, करेज्जाम, मुंचिस्सइ, जिणसु, गच्छिसु, उद्वेज्जा, जाणामो, वरिसिहिंति, वंदे, हणइ, तरिस्सह, होज्जा, भुजंतु, सिक्खिंसु, करेज्जाह, करेंति, पेक्खिस्सं, वंदइ, वसेज्जा, बोल्लह, उवविसे, भति, पालिहिमि, रोविसिहिह, वसामो, खमेज्जा, साहेइ, गच्छेज्जामि, गच्छामो, वट्टेज्जासि, आहारेह, आराहेज्जा, खणह, जंपिस्सामि, वट्टे जाहि।
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६. प्राकृत भाषा की शब्दसम्पत्ति
प्रस्तावना
:
हमारे भारत देश में प्राचीन काल से संस्कृत और प्राकृत ये दोनों भाषाएँ प्रचलित थी । संस्कृत भाषा प्रमुखता से ज्ञान की भाषा एवं उच्चवर्णियों के व्यवहार की भाषा होती थी । संस्कृत में भी भाषा के दो स्तर दिखाईदेते हैं । ऋग्वेद आदि वेदों में प्रयुक्त संस्कृत को 'वैदिक संस्कृत' कहते है । संस्कृत के सभी अभिजात (lassical) महाकाव्य, नाटक आदि जिस संस्कृत भाषा में लिखे हैं उस भाषा को 'लौकिक संस्कृत' कहते हैं ।
जिस समय संस्कृत भाषा प्रचलित थी, उसी समय आम समाज में प्रदेश एवं व्यवसायों के अनुसार बोलचाल की भाषाएँ प्रचलित थी । भारत एक विशालकाय देश होने के नाते इन बोलचाल की भाषाओं में विविधता थी । झ सभी भाषाओं के समूह को मिलकर भाषाविदों ने 'प्राकृत' नाम दिया । इसका मतलब 'प्राकृत' यह संज्ञा किसी एक भाषा की नहीं है । प्रकृति याने स्वभाव को प्राधान्य देनेवाली अनेक बोलीभाषाएँ प्राकृत में समाविष्ट हैं
1
मगध याने बिहार के आसपास के प्रदेश में प्रचलित जो प्राचीन भाषा थी उसका नाम था 'मागधी' । भ. महावीर द्वारा प्रयुक्त ‘अर्धमागधी' और भ. बुद्ध द्वारा प्रयुक्त 'पालि' ये दोनों भाषाएँ मागधी भाषा के दो उपप्रकार हैं ।जैन संघ में जब श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय उद्भूत हुए तब श्वेताम्बर आचार्यों ने 'महाराष्ट्री' नामक भाषा का आश्रय लेकर ग्रन्थरचना की । उनकी महाराष्ट्री, अर्धमागधी से प्रभावित होने के कारण 'जैन महाराष्ट्री' नाम से विख्यात ुई । दिगम्बर आचार्यों ने उनके ग्रन्थ लेखन के लिए 'शौरसेनी' नामक भाषा का प्रयोग किया । सामान्य शौरसेनी से थोडी अलग होने के कारण अभ्यासकों ने इस भाषा का नामकरण 'जैन शौरसेनी' किया । लगभग दसवीं सदी के आसपास सभी प्राकृत भाषाओं में एक बदलाव आया । उस भाषा समूह को 'अपभ्रंश' भाषा कहा जाने लगा । लगभग पंद्रहवीं सदी के आसपास हमारी आधुनिक प्राकृत बोलीभाषाएँ प्रचार में आने लगी । अपभ्रंश भाषाओं से ही इनकी निर्मिति हुई। आज भी हम हिंदी, मराठी, मारवाडी, गुजराती, राजस्थानी, बांगला आदि भाषाएँ बोलते हैं, वे आधुनिक प्राकृत भाषाएँ ही हैं ।
I
उपरोक्त सभी याने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषाएँ 'आर्य भारतीय' भाषाएँ हैं । इसके अलावा भारत के दक्षिणी भाग में बोली जानेवाली कानडी, तेलगू, तमीळ और मल्याळम ये चार मुख्य भाषाएँ एवं नकी उपभाषाएँ ‘द्राविडी’ नाम से जानी जाती हैं । भारत के कई दुर्गम प्रदेशों में जो आदिवासी भाषाएँ बोली जमिहैं उनकी शब्दसम्पत्ति (vocabulary) तथा व्याकरण (grammar) आर्य एवं द्राविडी भाषाओं से अलग प्रकार का है । भारत वर्ष की समग्र भाषाओं का स्थूल स्वरूप इस प्रकार विविधतापूर्ण है ।
प्राकृत के शब्दसम्पत्ति का वर्गीकरण :
प्राकृत भाषा की शब्दसम्पत्ति का वर्गीकरण 'तत्सम शब्द', 'तद्भव शब्द' और 'देश्य शब्द' इस प्रकार से किया जाता है । तत् (तद्) - इस शब्द का अर्थ है - संस्कृत के समान । जो शब्द पूर्णतः संस्कृत के समान हैं उन्हें 'तत्सम' कहते हैं । जो शब्द संस्कृत शब्द से कुछ अंश में समान हैं और कुछ अंश में समान नहीं हैं उन्हें 'तद्भव' कहते हैं । 'देशी' या 'देश्य' शब्द वे होते हैं जिनका संबंध संस्कृत शब्दों से बिलकुल ही नहीं होता । वे शब्द बोलचाल्फ्रे नित्य व्यवहार में प्रचलित होते हैं लेकिन संस्कृत के साथ किसी भी प्रकार मेल नहीं खाते। सभी प्रकार की प्राकृत भाषाओं में तत्सम तद्भव और देश्य ये तीनों प्रकार के शब्द पाये जाते हैं ।
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१) तत्सम शब्द :
संस्कृत - प्राकृत समान ( तत्सम शब्द )
अहं
अंजलि
आगम
इच्छा
उत्तम
ओंकार
किंकर
गण
घंटा
चित्त
छल
जल
तिमिर
धवल
नीर
परिमल
बहु
भार
मरण
रस
लव
वारि
सुंदर
हरि
गच्छंति
नमंति
हरंति
२) तद्भव शब्द :
प्राकृत तद्भव शब्द
अग्ग
आरिय
इट्ठ
ईसा
उग्गम
कसिण
संस्कृत शब्द
अग्र
आर्य
इष्ट
ईर्षा
उद्गम
कृष्ण
हिंदी अर्थ
मैं
मूल ग्रन्थ, शास्त्र
इच्छा
उत्तम
ओंकार
नोकर
समूह
घंटा
चित्त
कपट
पानी
अंधकार
शुभ्र
पानी
सुगंध
बहुत
बोझ
मृत्यु
रस
अंश
पानी
सुंदर विष्णु, सिंह
जाते हैं ।
नमन करते हैं ।
हरण करते हैं ।
हिंदी अर्थ
प्रथम, मुख्य
आदरणीय, कुलीन
प्रिय
मत्सर
उत्पत्ति
काला
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प्राकृत तद्भव शब्द खज्जूर
संस्कृत शब्द खजूर गज
गय
हिंदी अर्थ खजूर हाथी पसीना चाक, पहिया गुस्सा
घम्म
चक्क छोह
चक्र क्षोभ
जक्ख
यक्ष
यक्ष
झाण
ध्यान
ध्यान
डंस
दंश
दश
नाथ
णाह तियस दिट्ठ
नाथ त्रिदश
दृष्ट
धम्मि पच्छा
धार्मिक पश्चात्
देखा हुआ धार्मिक पीछे स्पर्श
फंस
स्पर्श
बोर
बेर
भारिया
मेह
पत्नी मेघ, बादल अरण्य
रण
लेस
बदर भार्या मेघ अरण्य लेश शेष हृदय भवति पिबति
अंश
सेस
हियय हवइ पियइ/पिवइ पुच्छइ होहिइ
बाकी हृदय होता है। पीता है। पूछता है। होगा।
पृच्छति
भविष्यति
३) देशी या देश्य शब्द :
प्राकृत देशी शब्द इराव
हिंदी अर्थ
हाथी
उदुर
ऊसअ कंदोट्ट कोड्ड खिडक्किया गोस घढ चंग
चूहा (मराठी - उंदीर) उपधान, तकिया कमल कुतूहल (मराठी - कोड-कौतुक) खिडकी, झरोखा
सुबह
गढ, स्तूप अच्छा (मराठी - चांगला)
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प्राकृत देशी शब्द चिखल्ल चुक्क चोप्पड छिव छोयर जच्च झडप्प डगल डाल तुप्प
हिंदी अर्थ कीचड (मराठी - चिखल) चूकना चुपडना, मलना (मराठी - चोपडणे) छूना (मराठी - शिवणे) छोकरा पुरुष शीघ्र (मराठी - झडप) ढेला (मराठी - ढेकूळ) शाखा, डाली घी (मराठी - तूप) दादर, सीढी दाढी देखना नि:सार (मराठी - पोचट) पेट (मराठी - पोट) बैल बाप, पिता गुड्डा (मराठी - बाहुला) पुत्र, बेटा रोटी घूस (मराठी - लाच)
दद्दर
दाढिया देक्ख पोच्चड
पोट्ट बइल्ल
बप्प
बाउल्ल
बिट्ट
रोट्ट
लंचा
स्वाध्याय इस पाठ में तत्सम, तद्भव और देशी, ये शब्द प्रचुर मात्रा में दिये हैं । वे सब ध्यानपूर्वक अर्थसहित पढिए ।
१) परीक्षा में इन्हीं में से लगभग दस-बारह शब्दों का एक संग्रह दिया जायेगा । विद्यार्थी से अपेक्षित है कि वह उस शब्दसंग्रह का तत्सम, तद्भव और देशी शब्दों में वर्गीकरण करें ।
अथवा २) तत्सम, तदभव और देश्य शब्दों के प्रत्येकी पाँच-पाँच उदाहरण लिखिए' । - इस प्रकार का प्रश्न भी आ सकता है । (गुण लगभग ४)
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७. प्राकृत में स्वरपरिवर्तन
(सामान्य नियम) प्राकृत भाषाएँ प्राचीन काल से बोलीभाषाएँ थी। सबसे प्राचीन प्राचीन प्राकृत भाषा 'अर्धमागधी' मानी जाती है। उसके बाद शौरसेनी' एवं 'महाराष्ट्री' भाषा के ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। बोलचाल की भाषाएँ जब ग्रन्थेखन की भाषाएँ बनीं, तब उच्चारण तथा व्याकरण के नियम बनने लगे । इन नियमों का आधार प्रमाणित संस्कृत भाषा थी। वररुचि' तथा 'हेमचन्द्र' ने प्राकृत भाषा का व्याकरण लिखा । उसके आधारपर, इस पाठ में स्वर-परिवर्तन के नियम दिये हैं
* प्राकृत में सामान्यत: निम्नलिखित स्वर (vowels) पाये जाते हैं । - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ।
* संस्कृत में पाये जानेवाले निम्नलिखित स्वर प्राकृत में नहीं हैं। - ऋ , ल , ऐ, औ , अः ।
* प्राकृत में नहीं पाये जानेवाले उपरोक्त स्वरों का प्राकृत में सुलभीकरण (implification) होता हैं । इस पाठ में प्राकृत में सामान्यत: पाये जानेवाले स्वर-परिवर्तन दिये हैं ।
१) 'ऐ' स्वर के स्थान में 'ए' तथा 'अई' का उपयोग पाया जाता है। कैलास - केलास, कइलास
कैकयी - केगई दैव - देव्व, दइव
मैत्री - मेत्ती (मित्ती) दैवत - देवय
वैशाली - वेसाली वैकुंठ - वेगुंठ, वइकुंठ
वैरि - वेरि, वइरि वैद्य - वेज्ज
वैश्य - वइस्स सैन्य - सेन्न, सइन्न
शैल - सेल
२) 'औ' स्वर के स्थान में 'ओ' तथा 'अउ' का उपयोग पाया जाता है। औषध - ओसह
कौतुक - कोउय कौमुदी - कोमुई
कौरव - कउरव गौरी - गोरी, गउरी
गौरव - गउरव गौतम - गोयम
पौर - पोर, पउर यौवन - जोव्वण
पौरुष - पउरिस
३) प्राकृत में 'विसर्ग' के स्थान पर 'ओ' पाया जाता है। राम: - रामो
देवः - देवो महावीर: - महावीरो
गणेश: - गणेसो वाणर: - वाणरो
सूर्यः - सूरिओ
४) 'ऋ' स्वर के स्थान में प्राकृत भाषा में बहुत परिवर्तन पाये जाते हैं । 'ऋ' का रूपांतर प्राकृत में 'अ', 'इ', 'उ' तथा 'रि' में होता है । प्रत्येक के उदाहरण निम्नलिखित प्रकार से पाये जाते हैं ।
I) ऋ = अ कृत - कय
घृत - घय
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तृष्णा - तण्हा मृदु - मउ मृत्यु - मच्चु
तृण - तण मृत - मय
II) ऋ = इ ऋषि - इसि कृपा - किवा कृश - किस गृह - गिह नृप - निव शृगाल - सियाल
कृमि - किमि कृपण - किविण दृढ - दिढ मृग - मिग शृंगार - सिंगार हृदय - हियय
III) ऋ = उ ऋतु - उउ पितृ - पिउ पृथ्वी - पुढवी वृद्ध - वुड्ड
जामातृ - जामाउ मृषा - मुसा भ्रातृ - भाउ मातृ - माउ
IV) ऋ = रि ऋषभ - रिसह (उसह) ऋषि - रिसि
ऋण - रिण ऋद्धि - रिद्धि
स्वाध्याय १) निम्नलिखित स्वर-परिवर्तनों के दो-दो उदाहरण लिखिए । स्वर-परिवर्तन
उदाहरण १) 'ऐ' की जगह 'ए' २) 'ऐ' की जगह 'अइ' --- ३) औ' की जगह 'ओ' --- ४) औ' की जगह 'अउ' --- ५) विसर्ग की जगह 'ओ' --- ६) 'ऋ' की जगह 'अ' --- ७) 'ऋ' की जगह 'इ' --- ८) 'ऋ' की जगह 'उ' --- ९) 'ऋ' की जगह 'रि'
२) इस पाठ में अंतर्भूत संस्कृत शब्दों के प्राकृत रूप लिखिए ।
उदा. सैन्य - सेन्न ; पौर - पोर, पउर ; घृत - घय ; ऋषभ - रिसह इ.
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८. प्राकृत-गद्य-पाठ
(अ) पढमो पाढो अवि तुम जाणसि ? (क्या तुम जानते हो ?)
१. कस्स जंतुणो मुहे जीहा न होइ ? (किस प्राणी के मुख में जीभ नहीं होती ?)
मगरस्स मुहे जीहा न होइ । (मगरमच्छ के मुख में जीभ नहीं होती ।)
२. को नेत्तेहिं सुणइ ? (कौन आँखों से सुनता है ?)
भुयंगमो नेत्तेहिं सुणइ । (नाग आँखों से सुनता है ।)
३. को विहंगो दूराओ वि सुठ्ठ पासइ । (कौनसा पक्षी दूर से भी अच्छी तरह से देखता है ?)
गिद्धो दूराओ वि सुठ्ठ पासइ । (गीध दूर से भी अच्छी तरह से देखता है ।)
४. का अप्पणो अवच्चं भक्खइ ? (कौन खुद के अपत्य को खाती है ?)
मज्जारी अप्पणो अवच्चं भक्खइ । (बिल्ली खुद के अपत्य को खाती है।)
५. को पक्खी सप्पमवि भुंजिऊण जीवइ ? (कौनसा पक्षी साँप को खाकर भी जीवित रहता है ?)
मोरो सप्पमवि भुंजिऊण जीवइ । (मोर साँप को खाकर भी जीवित रहता है ।)
६. को जंतू पुफ्फाणं सारं घेत्तूण परस्स देइ ? (कौनसा कीटक फूलों का रस (सार) लेकर दूसरों को सा है ?)
महु-मक्खिया पुफ्फाणं सारं घेत्तूण परस्स देइ । (मक्षुमक्षिका फूलों का रस लेकर दूसरों को देती है ।)
७. को पक्खी परपुट्ठो' त्ति पसिद्धो ? (कौनसा पक्षी ‘परपुष्ट' (दूसरों के द्वारा पोषित) नाम से प्रसिद्ध है ?)
कोइलो ‘परपुट्ठो' त्ति पसिद्धो । (कोयल ‘परपुष्ट' नाम से प्रसिद्ध है।)
८. को खगो दिणे न पासइ ? (कौनसा पक्षी दिन में नहीं देख सकता ?)
उलूओ दिणे न पासइ । (उल्लू दिन में नहीं देख सकता ।)
९. को नरो अंधो ? (कौनसा व्यक्ति अंधा होता है ?)
जो नरो इयराणं गुणे न पासइ सो अंधो । (जो व्यक्ति इतरों के गुण नहीं देखता, वह अंधा है।)
१०. कम्मि विसए अम्हे बहिरा होमो ? (कौनसे विषय में हमें बधिर होना चाहिए ?)
अम्हाणं पसंसा-विसए अम्हे बहिरा होमो । (हमारी प्रशंसा के बारे में हमें बधिर होना चाहिए ।)
टीप : परीक्षा में इस पाठ के एक-दो प्रश्न प्राकृत में पूछे जायेंगे । उनके जवाब विद्यार्थी प्राकृत में लिखें
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स्वाध्याय १. इस पाठ के सभी क्रियापदों का संग्रह कीजिए । सभी क्रियापद वर्तमानकाळ-तृतीय-पुरुष-एकवचन में हैं।
२. हिन्दी-संस्कृत नामसाम्य के आधार से प्राकृत शब्दों की जोडियाँ लगाएँ । 'अ' गट
'आ' गट १) कुत्ता (श्वान)
अ) सीह २) भालू (भल्लूक)
आ) गरुल ३) बाघ (व्याघ्र)
इ) भल्लू ४) सिंह (सिंह)
ई) कवोय ५) गरुड (गरुड)
उ) साण ६) कबूतर (कपोत)
ऊ) वग्घ ७) सियाल (शृगाल)
ए) मऊर ८) कौआ (काक)
ऐ) मक्कड ९) बंदर (मर्कट)
ओ) सियार १०) मोर (मयूर)
औ) काग
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(ब) बीओ पाढो मूढा किसीवल - कन्ना (मूर्ख कृषीवल - कन्या)
* विसालाए नयरीए का वि किसीवल-कन्ना परिवसइ । सा अईव रूववई, किंतु मूढा । अहं सव्वसेटुं पई लहामि इइ तीए संकप्पो । अह अन्नया विसालाहिवो गयं आरोहिऊण भमणत्थं गओ आसी । तं पासिऊण सा कुमारी 'अयं मे पई होऊं जोग्गो' त्ति चिंतिऊण तं अणुगया । तओ सो नरवई कं पि जोईसरंदठूण गयाओ ओयरित्ता तं नमित्था वंदित्था य । सा कुमारी तं जोईसरं पासित्ता 'अयं निवाओ सेट्ठो' त्ति नाऊण तं अणुसरिया । अह सो जोईसरो कं चि देवउलं पविटो । तत्थ देवं सिरसा नमिऊण गओ । एयं आलोएऊण एस देवो मुणीओ उत्तमो त्तिचिंतेत्ताण सा तत्थेव ठिया । अणंतर को वि साणो नियसामिणा सह तं देवउलं आगओ । तुरियं देवपीढस्स उवरिं आरोहिओ । एयंपासित्ता सा मूढा ‘किं साणो देवेण समाणो' त्ति चिंतेइ । एत्थंतरम्मि सो साणो देवउलाओ निग्गओ, निय-सामिस्स समीवगंतूण पाएसु पडिओ । अंते य तीए कुमारीए किसीवल-जुवाणो सव्वसेट्ठो' त्ति नच्चा तेण सह विवाहो कओ ।
प्रस्तावना : यह पाठ पूर्वकालवाचक धातुसाधित अव्ययों का उपयोग समझाने के लिए दिया है। परीक्षा में पाठ के वाक्य तथा भाषांतर नहीं पूछा जायेगा।
मूर्ख कृषीवल-कन्या (हिन्दी अनुवाद) 'विशाला' नामक नगरी में कोई एक किसान की कन्या रहती थी । वह अतिशय रूपवती थी लेकिन मूर्ख थी । 'मैं सर्वश्रेष्ठ पति प्राप्त करूँगी', ऐसा उसने संकल्प किया था । एक बार विशाला नगरी का राजा हाथीपर आरूढ होकर, भ्रमण करने के लिए गया था । उसको देखकर उस कुमारी ने, 'यही मेरा पति होने के लिए योग्य है ऐसा विचार करके, उसके पीछे पीछे गई । उसके बाद उस नरपति (राजा) ने किसी योगीश्वर को देखकर, हाथीपर से वरकर, उनको नमन और वंदन किया । कुमारी ने उस योगीश्वर को देखकर, 'यह योगी, राजा (नृप) से श्रेष्ठ है', ऐसा मकर, उसका अनुसरण किया । वह योगीश्वर किसी मंदिर में प्रविष्ट हुआ । वहाँ (अर्थात् मंदिर में) भगवान को मत्था टेक्कर नमन करके गया । यह देखकर, 'यह देव मुनि से उत्तम है', ऐसा विचार करके, वह (कुमारी) वहीं (उसी मंदिर में) ठहरी । अनंतर कोई एक श्वान (कुत्ता) अपने स्वामी के साथ उसी मंदिर में आया । तुरंत देव के उच्चासन पर आरूढ हुआ । यह (दृश्य) देखकर, वह मूर्ख लडकी ‘क्या कुत्ता देव के समान है ?', ऐसा विचार करने लगी। इतने में वह कुत्ता मंदिर से निकला, अपने स्वामी के नजदीक जाकर, पैरों पर गिरा (पडा) । अंतिमत: (अंत में) उस कुमारी ने किसान युवक ही सर्वश्रेष्ठ है', ऐसा जानकर, उसके साथ विवाह किया।
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स्वाध्याय १) प्राकृत पाठ में आये हुए पूर्वकालवाचक धातुसाधित अव्ययों का संग्रह कीजिए । उनका अर्थ भी लिखिए । २) रूप पहचानिए' इस प्रश्न में परीक्षा में पू.का.धा.अ. के रूप भी पूछे जाएँगे । वे इस प्रकार लिखने होंगे -
पासिऊण - धातु 'पास' - पू.का.धा.अ.
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________________ व्याकरण विवेचन : इस कथा में पूर्वकालवाचक धातुसाधित अव्ययों का उपयोग किया गया है। आरोहिऊण, पासिऊण, चिंतिऊण, दळूण, नाऊण, नमिऊण, आलोएऊण, ओयरित्ता, पासित्ता, गंतूण, नच्चा, चिंतेत्ताण - ये सब रूप पूर्वकालक्नक धातुसाधित अव्यय हैं। _ 'पूर्वकालवाचक' का मतलब है - दो घटनाओं में से जो घटना पहले हुई है, उसका सूचन करनेवाला शब्द / 'धातुसाधित' का मतलब है - क्रियापद (verb) से बना हआ। अव्यय' का मतलब है - जिस शब्द रूप में किसी भी तरह से बदल नहीं होता / अव्यय वाक्य में जैसे के तैसे उपयोग में लाये जाते हैं। उनके काल, विभक्ति, फुष, वचन नहीं होते। मराठी में ‘करून, खाऊन, पाहून, जाऊन' आदि जो रूप दिखायी देते हैं वे पूर्णत: प्राकृत के प्रभाव से आये हैं / पू.का.धा.अ. दो प्रकार से बनते हैं / 1) नियमित, 2) अनियमित 1) नियमित पू.का.धा.अ. रूप : I) अकारान्त धातुओं (verb) को 'इऊण' और इतर धातुओं को 'ऊण' प्रत्यय लगाकर ये रूप बनते हैं / II) सभी धातुओं को (क्रियापदों को) 'इत्ता, एत्ता, इत्ताणं, एत्ताणं, इत्तु और एत्तु' ये प्रत्यय लगते हैं / इसके कुछ उदाहरण - पास (देखना) - पासिऊण, पासित्ता, पासेत्ता, पासित्ताणं, पासेत्ताणं, पासित्तु, पासेत्तु कर (करना) - करिऊण, करित्ता, करेत्ता, करित्ताणं, करेत्ताणं, करित्तु, करेत्तु गा (गाना) - गाऊण, गाइत्ता, गाएत्ता, गाइत्ताणं, गाएत्ताणं, गाइत्तु, गाएत्तु ने (लेना) - नेऊण, नेइत्ता, नेएत्ता, नेइत्ताणं, नेएत्ताणं, नेइत्तु, नेएत्तु / हो (होना) - होऊण, होइत्ता, होएत्ता, होइत्ताणं, होएत्ताणं, होइत्तु, होएत्तु 2) अनियमित पू.का.धा.अ. रूप : ये रूप संस्कृत शब्दों के साक्षात् (direct) प्राकृतीकरण से बनते हैं / अनियमित होने से भी इन्हें ध्यान में रखना पडता है क्योंकि प्राकृत आगम तथा कथाओं में ये बार बार पाये जाते हैं / इसके कुछ उदाहरण - किच्चा (कृत्वा) - करके सोच्चा (श्रुत्वा) - सुनकर पेच्छिय (प्रेक्ष्य) - देखकर नच्चा (ज्ञात्वा) - जानकर गहाय (गृहीत्वा) - ग्रहण करके पणम्म (प्रणम्य) - प्रणाम करके **********