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जैनागमन्यायसंग्रहः
जैनधर्मदिवाकर जैनाचार्य पूज्य श्री आत्माराम जी महाराज
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णमाऽत्थणं समरणस्सभगवओ महाव रस्स ॥ जैशास्त्रमाला -पष्ठरत्नम् ॥
जैनागमन्यायसंग्रहः
संकलनकर्ता जैनधर्मीदवाकर, माहित्यरत्न, जैनागमरत्नाकर, श्रीमज्जैनाचार्य पूज्य श्री आत्माराम जी
महाराज
प्रकाशक :
जैन-शास्त्रमाला-कार्यालय
जैन उपाश्रय, लुधियाना
प्र५०० प्रवार ।
वीर सम्बत, २४७८ विक्रम सं०, २००६
मूल्य लागतमात्र । २०५०
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प्राप्तिस्थान
जैन - शास्त्रमालाकार्यालय, जैन उपाय लुधियाना
नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें.
मुद्रक -
दी सैंट्रल अलैक्ट्रिक प्रेस गोकुल रोड लुधियाना में मास्टर लन्भूराम धवन के प्रबन्ध में छपी ।
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प्राक्कथन पदार्थों के ज्ञान के लिए और उन का सम्यग्बोध करने के लिए आगमों में प्रमाण और नय ये दो मार्ग प्रतिपादन किए गए हैं। प्रमाण सर्वांशग्राही होता है । और नय, पदार्थ के देश धर्म को ग्रहण कर उसका वर्णन करता है वर्तमान युग में न्याय को दो शैलियां प्रचलित हैं, जैसे- प्राचीन न्याय, और नव्यन्याय । प्राचीन न्याय शब्दाडम्बर को छोड़ कर अर्थावबोधविशेष रहता है और नव्यन्याय में अर्थावबोध को अपेक्षा शब्दाडम्बर।
जैन, बौद्ध तथा वैदिक आचार्यों ने न्याय शास्त्र के बहुत से ग्रन्थ निर्माण किए हैं और उन पर टीका टिप्पण भी यथा बुद्धि किए हैं जो आज कल पाठशालाओं के पाठ्यक्रम में नियुक्त भी हैं । अस्तु, इस जटिल तथा दुरूह विषय के सम्बन्ध में मेरा य बहुत दिनों से यह विचार था कि जो विद्यार्थी न्यायकक्षा में न्याय अध्ययन कर रहे हैं
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या कर चुके हैं उन को प्राचीन आगमों में वणन किए हुए प्रमाण और नय-वाद का ज्ञान प्राप्त होना आवश्यक है । एतदर्थ इस लघु पुस्तिका में अनुयोगद्वार सूत्र, नन्दीसूत्र, ठाणांग सूत्र,भगवतीसूत्र, प्रज्ञापन सूत्र, तथा उत्तराध्ययन सूत्र, आदि जैनागमों से प्रमाण और नय तथा आत्मवाद आदि विषय स्वाध्याय शील विद्वानों के अवलोकन के लिए संक्षिप्त रूप से संग्रह किए गए हैं। जिन को विशेषप्रमाण और नय-वाद आदि विषयों को देखने का अभिलाषा होवे जनागमां का सप्रेम स्वाध्याय कर और यथोचित लाभ उठाए।
___ इस पुस्तिका में प्राचीन टीकाओं के साथ साथ आगम पाठ का भी संग्रह किया गया है आशा है विद्वान् लोग इस पुस्तक को पढ़ कर मेरे परिश्रम को सफल करेंगे । अलविद्वत्सु ।
आचार्यआत्माराम
चैत्र शुक्ला प्रतिपदा
सं० २००६ जैन उपाश्रय लुधियाना
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दो शब्द
जैन शास्त्र के प्रकाण्ड विद्वान् पूज्य आचार्य श्री आत्मा राम जी महाराज वे विशेष सहबास से मुझे भी जैनागमों के देखने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा है । पूज्य श्री जी की कर लेखनी से जैन जगत् तथा जैनेतर विद्वज्जन सुपरिचित ही है। मैंने आचार्य श्री जी द्वारा प्रकाशित अनेकों ग्रन्थ पढ़े, जो साधारण तथा असाधारण जनता के लिए उपयोगी सिद्ध हुए हैं। मेरी आरम्भ से ही पूज्य श्री जो से सानुरोध प्रार्थना रही है कि जैनागमों में इतस्ततः बिखरे हुए न्याय - शास्त्र सम्बन्धित पाठों का एक पुस्तक के आकार में प्रकाशन होना अत्यावश्यक है ।
हर्ष का विषय है कि पूज्य श्री जी ने मेरी इस प्रार्थना को साकार रूप देकर मुझ पर ही नहीं किन्तु न्याय - शास्त्र के जिज्ञासुओं पर महान् उपकार किया है।
प्रूफ आदि संशोधन कार्य ---भार अपने ऊपर लेकर इस पुस्तक के मूर्तरूप देने में जैन मुनि रत्नचन्द्र जी महाराज तथा प्रकाण्ड पण्डित शान्त मुद्रा पं० श्री हेमचन्द्र जी महाराज के सुशिष्य मुनि श्री स्वरूप - चन्द्र जी महाराज और कान्ति मुनि जी ने अपने कर्तव्य का पालन किया है । इसके लिए इन तोनों मुनिजनों का विशेष धन्यवाद ।
चैत्र शुक्ला प्रतिपदा
सं० २००६
निवेदक:
झण्डूलाल शास्त्री
जैन उपाश्रय लधियाना
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धन्यवाद जालन्धर (छावनी) निवासी श्रीमान् लाला तेलूराम जी जैन समाज के मान्य व्यक्तियों में से एक हैं आरम्भ से ही आप सामाजिक सत्कार्यों में अपने द्रविण का सदुपयोग करते आये हैं। आप के अन्तस्तल में धार्मिक भावना सदैव जागृत रही है और उन्हीं सद् भावनाओं से प्रेरित हो आप ने अनेक ग्रन्थ प्रकाशित किए हैं, प्रस्तुत पुस्तक का प्रकाशन भार भी गणावच्छेदक श्री १००८ श्री रघुवरदयाल जी महाराज की सत्प्रेरणा से आप ने अपने ऊपर लिया है। अत: मैं "जैनशास्त्रमालाकार्यालय" लुधियाना को ओर से सेठ तेलूराम जी जैन रईस जालन्धर छावनी का शतशः धन्यवाद करता हूं।
आशा है. अन्य धनो महानुभाव भी लाला जो का अनुकरण करते हुए अपने धन का सदुपयोग करंगे।
नोट :-यद्यपि प्रस्तुत पुस्तक के प्रफ, संशोधन आदि में अति सावधानी रखी गई है, फिर भी यदि दृष्टिदोष से कोई अशुद्धि रह गई हो, तो पाठक महानुभाव सुधार कर पढ़ें।
आपका
मन्त्री, जैनशास्त्रमालाकार्यालय
लुधियाना।
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समर्पितम्
यह 'लघु निबन्ध' स्वर्गीय श्री श्री १००८ गणी श्री उदयचन्द्र जी महाराज के कर कमलों में समर्पण किया जाता है। आप की प्रथम ही यह उत्कृष्ट भावना थी कि जैनागमों में निर्दिष्ट प्रमाण और नय-वाद आदि का बोध न्याय शास्त्र के जिज्ञासुत्रों के लिए आवश्यक है ।
अतः मैं उसी भावना से प्रभावित होकर यह शास्त्रीय निबन्ध आप श्री जी की सेवा में समर्पित कर के हषातिरेक का अनभव कर रहा हूँ |
भवदीयः
आचार्य जैन मुनि, आत्माराम
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णमोऽत्थुणं समणस्स भगवो महावीरम्स जैनागमन्यायसंग्रहः
अथ भावप्रमाणमभिधित्सुराहमूल-से कि तं भावम्पमाणे १, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहागुणप्पमाणे नयप्पमाणे संखप्पमाणे (मू० १४३ ) से कि तं गुणप्पमाणे ?, २ दुविहे पएणत्ते, तंजहा-जीव गुणप्पमाणे अजीवगुणप्पमाणे अ।
से किं तं अजीवगुणप्पमाणे ?, २ पंचविहे पएणत्ते, तं जहा-चण्णगुणप्पमाणे गंधगुणप्पमाणे रसगुणप्पमाणे कासगुणप्पमाणे संठाणगणप्पमाणे, से किं तं वरणगुणप्पमाणे ?, २ पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-कालवएणगुणप्पमाणे जाव सुकिल्लवएणगुणप्पमाणे, से तं वरणगुणप्पमाणे । से किं तं गंधगुणप्पमाणे ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहासुरभिगंधगुणप्पमाणे दुरभिगंधगुणप्पमाणे, से तं गंधगुणप्पमाणे । से किं तं रसगुणप्पमाणे ?, २ पंचविहे पएणते, तंजहातित्तरसगुणप्पमाणे जाव महुररसगुणप्पमाणे, से तं रसगुणप्पमाणे ।
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जैनागमन्याय संग्रहः
से किं तं फासगुणप्पमाणे ?, २ विहे पणत्ते, तंजहाकक्खडका सगुणप्पमाणे जात्र लुक्खफासगुणप्पमाणे से तं फासगुप्पमाणे । से किं तं संठा गुणप्पमाणे १, २ पंच विहेपण्णत्ते, तंजहा - परिमंडल ठाणगुणप्पमाणे वट्टसं० तंस० चउरंस० श्राययसंठागुणप्पमाणे, से तं संठारण गुणप्पमाणे, सेतं जीवगुणप्पमाणे ।
टीका :- भवनंभावो - वस्तुनः परिणामो
ज्ञानादिर्वर्णादिश्च
प्रमितिः प्रमीयते अनने प्रमीयते स इति वा प्रमाणं, भाव एव प्रमाणं भाव प्रमाणं, भावसाधनपक्षे प्रामतिः - वस्तुपरिच्छेदस्तद्धेतुचाद भावस्य प्रमाणतावसेया, तच्च भावप्रमाणंत्रिविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथागुणप्रमाण मित्यादि गुणो-ज्ञानादिः स एव प्रमाणं गुणप्रमाणं, प्रमीयते च गुणैर्द्रव्यं, गुणाश्च गुणरूपतया प्रमीयन्तेऽतः प्रमाणता, तथानीतयो नया - अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांशपरिच्छितयः त एव प्रमाणं नयप्रमारणं, संख्यानं संख्या सैवप्रमाणं संख्याप्रमाणं, नयसंख्ये अपि गुणत्वं न व्यभिचरत, केवलं गुणप्रमाणात् पृथगभिधाने कारणमुपरिष्टाद्वक्ष्यते, तत्रगुणप्रमाणं द्विधा जीवगुणप्रमाणं च अजीवगुणप्रमाणं च तत्राल्पवक्तव्यत्वादजीवगुणप्रमाणमेव तावदाह - 'से किं तं अजीवगुणप्पमाणे, इत्यादि, एतत्सर्वमपि पाठसिद्ध, नबरं परिमण्डलसंस्थानं वलयादिवत्, वृत्तमयोगोलकवत् व्यस्त्र-त्रिकोणं, समचतुष्कोणम्, आयतं - दीर्घमिति ।
शृङ्गाटकफलवत्- चतुरस्र -
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भावप्रमाणम
मूल -से किं तं जीवगुणप्पमाणे?, २ तिविहे पएणत्ते, तंजहा-णाणगुणप्पमाणे दंसणगुणप्पमाणे चरित्तगुणप्पमाणे । से किं तं णाणगुणप्पमाणे १ , २ चउविहे पण्णत्ते, तंजहापच्चक्खे अणुमाणे ओवम्मे आगमे । से किं तं पच्चक्खे १.२ दुविहे पएणते, तंजहा-इंदिअपच्चक्खे अ णोइंदिअपच्चक्खे अ। से कितं इंदिअपच्चक्खे ? पंचविहेपएणत्त, तंचहा-सोइंदिअपञ्चक्खे चक्खुरिदियपञ्चक्खे घाणिदिअपञ्चक्खे जिमिंदिअपच्चखे फामिदिअपचवखे, से तं इंदियपञ्चवखे । से कि तणोइंदियपञ्चक्खे ?, २ तिविहे पएणत्ते, तंजहा-अोहिणाणपञ्चक्खे मणपज्जवनाणपञ्चक्खे केवलणाण-पञ्चक्खे, से तं णोइंदियपञ्चक्खे, से तं पञ्चक्खे ।
टीका :-जीवस्य गुणाः-ज्ञानादयस्तद्रूपंप्रमाणं जीवगुणप्रमाणं तच्च ज्ञानदर्शनचारित्रगुणभेदात्विधा, तत्र ज्ञानरूपो यो गुणस्तद्रूपं प्रमाण चतुर्विधं, तद्यथा--प्रत्यक्ष-मनुमानमुपानमागमः, तत्र ' अशू व्याप्ता' वित्यस्य धातोरश्नुते--ज्ञानात्मना अर्थान् व्याप्नोतीति अक्षो जीव; 'अशभोजने' इत्यस्य वा अश्नाति-मुक्त पालयति वा सर्वार्थानित्यक्षो-जोव एव प्रतिगतम्-आश्रितमक्षप्रत्यक्षमिति, अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयये (का० रु० ४३०) तिसमासः, जीवस्यार्थसाक्षात्कारित्वेन यद् ज्ञानवर्तते तत्प्रत्यक्षमित्यर्थः, अन्ये त्वक्षमक्षं प्रतिवर्तत इत्यव्ययीभावसमासं विदधति, तच्च न युज्यते, अव्ययीभावस्य नपुंसकलिङ्गत्वात्, प्रत्यक्षशब्दस्य
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जैनागमन्यायसंग्रहः त्रिलिङ्गता न स्यात्, दृश्यते चेयं, प्रत्यक्षा बुद्धिः प्रत्यक्षो बोधः प्रत्यक्षं ज्ञानमिति दर्शनात् , ततो यथादर्शितस्तत्पुरुष एवायं, तच्च प्रत्यक्षं द्विविधंइन्द्रियप्रत्यक्षं नोइन्द्रियप्रत्यक्षं च, अत्रेन्द्रियं-श्रोत्रादि तन्निमित्तं-सहकारिकारणं यस्योत्पित्सोस्तदलिङ्गिकं शब्दरूपरसगन्धस्पर्शविषयज्ञानमिन्द्रियप्रत्यक्षम, इदंचेन्द्रलक्षणजीवात् परं व्यतिरिक्तनिमित्तमाश्रित्योत्पद्यते इति धूमादाग्निज्ञानमिव वस्तुतोऽर्थसाक्षात्कारित्वाभावात् परोक्षमेव, केवल लोकेऽस्य प्रत्यक्षतया रूढत्वात् संव्यवहारतोऽत्रापि-तथोच्यत इत्यलंविस्तरेण, तदाकाक्षिणा तु नन्द्यध्ययनमन्वेषणीयम् । इन्द्रिय प्रत्यक्षं तु यन्न भवति तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षं, नो शब्दस्यसर्वनिषेधपरत्वात् यत्रेन्द्रियं सर्वथैव न प्रवर्तते किन्तु जीव एव साक्षादेयं पश्यति तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षअवधिमनःपर्यायकेवलाख्यमिति भावार्थः।
मुल:-से किं तं अणुमारणे ? २ तिविहे पएणते, तंजहापुव्ववं सेसवं दिट्ठसाहम्मवं । से किं तं पुचवं ? २ माया पुत्तं जहा नह', जवाणं पुणारागयं । काई पच्चभिजाणेज्जा, पुवलिङ्गण केणई ॥११५ ॥ तंजहा-खत्तेण वा वएणेण वा लंछणेण वा मसेण वा तिलएण वा, से तं पुव्ववं । से किं तं सेसबं १, २ पंचविहंपएणत्तं, तंजहा-कज्जेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसएणं । से किं तं कज्जेणं ?, संखं सद्दणं भेरि ताडिएणं वसभं ढक्किएणं मोरं किंकाइएणं हयं हेसिएणं गयं गुलगुलाइएणं रहं घणघणाइएणं, से तं कज्जेणं । से
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भावप्रमाणम् किं तं कारणेणं ?, २ तंतवो पडस्स कारणं ण पडो तंतुकारणं वीरणा कडस्स कारणं ण कडो वीरणाकारणं मिप्पिंडो घडस्स कारणं ण घडो मिप्पिंडकारणं, से तं कारणेणं । से किं तं गुणेणं?, २ सुवरणं निकसेणं पुप्फ गंधेणं लवणं रसेणं मह आसायएणं वत्थं फासेणं, से तं गणेणं । से किं तं अवयवेणं?, २ महिसं सिंगेणं कुक्क डंसिहाएणं हत्थिं विसाणेणं वराहं दाढाए मोरं पिच्छेणं आसं खुरेणं वग्नहेणं चमरि वालग्गेणं वाणरं लंगुलेण दुपयं मणुस्सादि चउपयं गवमादि बहुपयं गोमि
आदि सीहं केसरेणं वसहं कुक्कुहेणं महिलं वलयवाहए, गाहापरिअरवंधेण भडं जाणिज्जा महिलिअं निवसणेणं । सित्थेण दोणपागं कविं च एक्काए गाहाए ॥ ११६॥
से तं अवयवेणं । से किं तं पासएणं ?, २ अग्गिं धूमेणं सलिल वलागेणं वुद्धि अब्भषिकारेणं कुलपुत्तं सीलसमायारेणं (इंगिताकारितैज्ञेयः, क्रियाभिर्भाषितेन च । नेत्र वक्त्र विकारैश्चगृह्यतेऽन्तर्गतमनः ॥१॥] से तं आसएणं । से तं सेसवं । ___टीका :--अनु-लिङ्गग्रहणसम्बन्धस्मरणस्य पश्चान्मीयते-परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति अनुमानं, तच्चत्रिविधं पूर्ववत् शेषवत् दृष्टसाधर्म्यवच्चेति । से किं तं पुव्ववर मित्यादि, विशिष्टं पूर्वोपलब्धं चिन्हमिह पूर्वमुच्यते,
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जैनागमन्यायसंग्रहः तदेव निमित्तरूपतया यस्यानुमानस्यास्ति तत्पूर्ववत्, तद्द्वारेण गमकमनुमानं पूर्ववदिति भावः । तथा चाह 'माता पुत्र' मित्यादिश्लोक; यथा माता स्वकीयं पुत्र बाल्यावस्थायां नष्टं युवानं सन्तं कालान्तरेण पुनः कथमप्यागतं काचित्तथाविधस्मृतिपाटववती, न सत्रोः, पूर्वदृष्टेन लिङ्गन केनचित् क्षतादिना प्रत्यभिजानीयात्-मत्पुत्रोऽमिति अनुमिनुयादित्यर्थः, केनपुनर्लिङ्ग नेत्याह-'क्षतेन वे? त्यादि, स्वदेहोद्भवमेव क्षतं, आगन्तुकस्तु श्वदंष्ट्रादिकृतो व्रणः, लाञ्छनमपतिलकास्तु प्रतीताः, तदयमत्र प्रयोगो--मत् पुत्रोऽयम्, अनन्यसाधारणक्षतादिलक्षणविशिष्टलिङ्गोपलब्धेरिति, साध
वैधर्म्यदृष्टान्तयोः सत्त्वेतराभावादयमहेतुरिति चेत्, नैवं, हेतो:परमार्थेनैकलत्तणत्वात्, तद्वलेनैव गमकत्वोपलब्धेः, उक्त च न्यायवादिना पुरुषचन्द्र ण-" अन्यथाऽनुपपन्नत्वमात्रं हेतोः स्वलक्षणम् । सत्वासत्वे हितद्धर्मों, दृष्टान्तद्वयलक्षणे ॥ १॥ तद्धर्माविति-अन्यथाऽनुपन्नत्वधर्मों, कथम्भूते सत्वासत्वे इत्याह-साधर्म्यबैधर्म्यरूपे दृष्टांतद्वये लक्ष्यतेनिश्चीयते [अथ यदि ] दृष्टांतद्वय लक्षणेन च धर्मिसत्तायां धर्माः सर्वेऽपि सर्वदा भवन्त्येव, पटादेः शुक्लत्वादिधर्मं य॑ (ख्य) भिचारात; ततो दृष्टांतयोः सत्वासत्वधर्मों यद्यपि कचिद्धेतौ न दृश्येते तथापि धर्मिस्वरूपमन्यथानुपपन्नत्वं भविष्यतीति न कश्चिदविरोध इति भावः । यत्रापि धूमादौ दृष्टांतयोः सत्वासत्वे हेतोई श्येते तत्रापि साध्यान्यथानुपपन्नत्वस्यैव प्राधान्यात्तस्यैवैकस्य हेतुलक्षणा ताऽवसेया, तथा चाह-"धूमादेर्यद्यपि स्याता, सत्वासत्वे स्वलक्षणे । अन्यथानुपपन्नत्वप्राधान्याल्लक्षणैकता ॥॥ किंच यदि दृष्टान्ते सत्वासत्वदर्शनाद्धेतुर्गमक इष्यते तदालोहलेख्यं वज्र पार्थिवत्वात् काष्ठादिवदित्यादेरपि गमकत्वं स्यात् , अभ्यधायिच.
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भावप्रमाणम
"
,
" दृष्टान्ते सदसत्वाभ्यां हेतुः सम्यग् यदीष्यते । लोहलेख्यं भवेद्वत्र', पार्थिवत्वाद् द्रुमादिवद्” ||२|| इति । यदिच - पक्षधर्मत्व सपक्ष सत्वविपक्षासत्वलक्षणंहेतोस्त्रैरुप्यमभ्युपगम्यापियथोक्तदोषभयात् साध्येन सहान्यथानुपपन्नत्वमन्वेषणीयं तर्हि तदेवैकं लक्षणतयावक्त मुचितंकिंरुपत्रेणेति श्रहच - "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किं ? । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रये किम् ? || १||" इत्यादि, श्रत्रबहुवक्तव्यं तन्तु नोच्यते, ग्रन्थगहनता प्रसङ्गात, अन्यत्र यत्नेनोक्तत्वाच्चेति । आहप्रयक्षविषयत्वा देवान्नानुमानप्रवृत्तिरयुक्ता, नैवं पुरुषपिण्डमात्रप्रत्यक्षतायामपिमत्पुत्रो न वेति सन्देहाद्युक्त एवानुमानोपन्यास इति कृतं प्रसङ्ग ेन । 'से किं तं सेस' मित्यादि, पुरुषार्थोपयोगिनः परिजिज्ञासितात्तुरगादेरथादन्यो हेपितादिरर्थः शेष इहोच्यते, सगमकत्वेन यस्यास्ति तच्छेषवदनुमानं तच्च पंचविधं तद्यथा, - कार्ये शेत्यादि, तत्र कार्येणकारणानुमानं यथा - हयम् - अश्व हे पितेन इत्यध्याहारः, हेषितस्य तत्कार्यत्वात् तदाकर्ण्य हयोऽत्रेति या प्रतोतिरुत्पद्यते तदिह कार्येण – कार्यद्वारेणोत्पन्नं शेषवदनुमानमुच्यते इति भावः, चित्तु प्रथमतः शंख शब्देनेत्यादि दृश्यते तत्रोक्तानुसारतः सर्वोदाहरणेषु भावना कार्या । 'से किं तं कारण' मित्यादि, इह कारणेन कार्यमनुमीयते, यथः विशिष्टमे घोन्नतिदर्शनान कश्चित् वृष्टयनुमानं करोति यदाह - " रोलम्वगवलव्य लतमा लमलिनत्विषः । वृष्टिं व्यभिचरन्तीह नैव प्रायाः पयोमुचः ।। १ ।। " इति एवं चन्द्रोदयाज्जलधेवृ द्धिरनुमीयते कुमुद विकाशश्च मित्रोदयाज्जलरुहप्रबोधो घूकमदमोक्षश्च तथाविधवर्षणात् सस्यनिष्पत्ति: - कृषिवलमनः प्रमोदश्च ेत्यादि, तदेवं कारणमेवेदानुमापकं
अनुमिनुते
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साध्यस्य नाकारणं, तत्र कार्यकारणभाव एव केषांचिद् विप्रतिपत्तिं पश्यैस्तमेव तावन्नियतं दर्शयन्नाह - तन्तवः पदस्य कारणं नतु पटस्तन्तूनां कारणम् पूर्वमनुपलब्धस्य तस्यैवतद्भावे उपलम्भाद् इतरेषांतु पटाभावेऽप्युपलम्भाद् अत्राह - ननुयदा कश्चिन्निपुणः पटभावेन संयुक्तानपि तन्तून् क्रमेणवियोजयति तदा पटोऽपि तन्तूनां कारणं भवत्येव नैवं - सत्वेनोपयोगाभावात् यदेवहि लब्धसत्ताक - सत्स्वस्थितिभावेन कार्यमुपकुरुते तदेव तस्य कारण - त्वेनोपदिश्यते, यथा मृत्पिण्डोघटस्य, ये तु तन्तुवियोगतोऽभावीभवता पटेन तन्तवः समुत्पद्यन्ते तेषां कथं पटः कारणं निर्दिश्यते, नहिज्वराभावेन भवत आरोगितासुखस्य ज्वरः कारणमिति शंकयते वक्त्तं यद्येवं पटेऽप्युपद्यमाने तन्तवोऽभावी भवन्तीति तेऽपि तत्कारण न स्युरिति चेत्, नैवं, तन्तुपरिणामरूप एवहि पटो यदि च तन्तवः सर्वथाऽभावी भवेयुस्तदा मृदभावे घटस्येव पदस्य सर्वथैवोपलब्धिर्न स्यात्, तस्मात् पटकालेऽपि तन्तवः सन्तीति सत्येनोपयोग त्ते पटस्य कारणमुच्यन्ते, पटवियोजनकाले त्यैकैकतंत्यवस्थायां पटो नोपलम्यते तस्तत्र सत्वेनोपयोगाभावान्नासौतेषां कारणं, एवं वीररणकटादिष्वपि भावना कार्या, तदेवं यद्यस्य कार्यस्य कारणत्वेन निश्चितं तत्तस्य यथा समभव गमकत्वेन वक्तव्यतमिति । ' से किं तं गुणेण मित्यादि, निकषः कपणपट्टगताकथित सुवर्णरेखा तेन सुवरणमनुमीयते यथा पञ्चदशादिवर्ण कोपेतमिदं सुवर्णं, तथाविधनिकषोपलम्भात्, पूर्वोपलब्धोभयसम्मतसुवर्णवत् एवं शतपत्रिकादि पुष्पमत्र, तथा विधगन्धोपलम्भात्, पूर्वोपलब्धवस्तुवत् एवं लवणमदिरावस्त्रादयोSनेक भेदसम्भवतोऽनियतस्वरूपा अपि प्रतिनियत तथाविध रसास्वादस्पर्श
.)
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भावप्रमाणम् दिगुणोपलव्धेः प्रतिनियतस्वरूपाः साधयितव्याः । ‘से किं तं अवयवेण' मित्यादि, अवयवदर्शनेनावयवी अनुमीयते, यथा महिषः, अत्र तदविनाभूतशृङ्गोपलब्धेः, पूर्वोपलब्धोभयसम्मतप्रदेशवत् , अयंचप्रयोगोवृत्तिवरण्डकाद्यन्तरितत्वादप्रत्यक्ष एवावयविनि द्रष्टव्यः, तत्प्रत्यक्षतायामध्यक्षत एव तत् सिद्धरनुमानवैयर्यप्रसङ्गादिति एवं शेषोदाहरणान्यपि भावनीयानि, नवरं द्विपदमनुष्यादीत्यादि, मनुष्योऽयंतदविना भूतपद द्वयोपलंभात , पूर्वदृष्टमनुष्यवत् एवं चतुष्पदबहुपदेष्वपि, ' गोम्ही' कर्णशृगाली, 'परियरबंधेणभड' मित्यादि, गाथा पूर्व व्याख्यातैव, तदनुसारेणभावोऽप्यूह्य इति, । ‘से किं तं आसएण' मित्यादि, आश्रयतोत्याश्रायो-धूमवलाकादिः, तत्र धूमादग्न्यनुमानं वलाकादेस्तु जलाद्यनुमानप्रतीतमेव, आकारेङ्गितादिभिश्चपूर्वव्याख्यातस्वरूपैर्देवदत्ताद्याश्रितैस्तदन्तर्गतमनोऽनुमानंसुप्रसिद्धमेव, अत्राह-ननु-धूमस्याग्निकार्य त्वात्पूर्वोक्तकार्यानुमानएव गतत्वात् किमिहोपन्यास:१, सत्यं, किन्त्वग्न्याश्रयत्वेनापि लोके तस्यरुढत्वादत्राप्युपन्यासः कृत इत्यदोषः, तदेतत् शेषवदनुमानम् ।
मूलः-से कि तं दिटु साहम्मवं १, २ दुविहं पएणनं, तं जहा सामन्नदिट्टच विसेसदिच । से किं तं सामरणदिट्ठ?, २ जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा जहा वहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो जहा एगो करिसावणो तहा वहवे करिसावणा, जहा बहवे करिसावणा-तहा एगो करिसावणो, से तं
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जैनागमन्यायसंग्रहः सामएणदिट्ठ । से किं तं विसेसदिट्ठ १, २ से जहाणामए केई पुरिसे कचि पुरिसं बहूणं पुरिसाणंमज्मे पुवदिट्ठ पच्चभिजाणेज्जाअयं से पुरिसे बहूणं करिसावणणं मज्मे पुवदिड करिसावणं पच्चभिजाणिज्जा अयं से करिसावणे । तस्स समासोतिविहं गहणं भवइ, तं जहा–अतीयकालगहणं पडुप्पएणकालगहणं अणागय कालगहणं । से किं तं अतीय कालगहणं १, २ उत्तणाणि वणाणि निष्फरण सस्सं वा मेडणिं पुण्णाणि अ कुण्डसरणई दीहिआतडागाईपासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा -सुवुट्ठी आसी, से तं अतीय कालगहणं । से किं तं पड़पएणकालगहणं १, २ साहुँ गोबरग्गयं बिच्छड्डिअपउरभत्तपाणं पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा सुभिक्खे वट्टई, से तं पडुप्पएण काल गहणं । से कि तं प्रणागयकाल गहणं १, २ अब्भस्स निम्मल कसिणा य गिरी सविज्जुश्रा मेहा । थपियं वा उब्भामो संज्मा रत्ता पणिहा द्धा) य॥ ११७॥ वारुण वा महिंदं वा अएणयरं वा पसत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा-सुवुट्ठी भविस्सइ, से तं-अणागयकालगहणं । एएसि चेव विवज्जासे तिविहंगहणं भवइ, तं जहा–अतीयकाल गहणं पडुप्पएण कालगहणं अणागयकाल गहणं । से कि तं अतीयकालगहणं १, नित्तिणाई
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भावप्रमाणम् वणाई अनिएफएणसस्सं वा मेइणी सुक्काणि अ कुंडसरणईदीहिअतडागाई पासिता तेणं साहिज्जह जहा–कुवुट्ठी आसी, सेतं अतीयकालगहणं । से किं तं पडुप्पएण कालगहणं ? , २ साहुँ गोअरग्गगयं भिक्खं अलभमाणं पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा-दुभिक्खेवट्टइ, से तं पडुप्पएण काल गहणं । से किं तं अणागयकालगहणं ?, धूमायतिदिसाओ सं (?) विअमेइणी अपडिवद्धा । वाया नेरइया खलु कुवुट्टीमेवंनिवेयंति ॥ ११८ ॥ अग्गेयं वा वायव्वं वा अएणयरं वा अपसत्थं -उप्पायं पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा–कुवुट्ठीभविस्सइ, से तं अणागयकाल गहणं, से तं विसेसदिट्ट, सेतं दिट्ठसाहम्म, से तं अणुमाणे ।
टीका :-दृष्टेन पूर्वोपलब्धेनार्थेन सह साधर्म्य दृष्टसाधर्म्य, तद् गमकत्वेन विद्यते यत्र तद् दृष्टसाधर्म्यवत् , पूर्वदृष्टश्चार्थः कश्चित् सामान्यतः कश्चित्तु विशेषतो दृष्टःस्यात् , अतस्तद्भेदादिदं द्विविधं, सामान्यतो दृष्टार्थयोगात् सामान्यदृष्टं, विशेषतो दृष्टार्थयोगात् विशेषदृष्टं तत्र सामान्यदृष्टं यथा एकः पुरुषस्तथा बहवः पुरुषा इत्यादि, इदमुक्तं भवति-नालिकरद्वीपादायातः कश्चित् तत्प्रथमतया सामान्यतः एक कश्चन पुरुषं दृष्ट्वा अनुमानं करोति यथा अयमेकः परिदृश्यमानः पुरुष एतदाकारविशिष्टस्तथा बहवोऽत्रापरिदृश्यमाना अपि पुरुषा एतदाकारसम्पन्ना एव, पुरुषत्वाविशेषाद्, अन्याकारत्वे पुरुषत्वहानिप्रसङ्गात्, गवादिवत् , बहुषु तु पुरुषेषु तत्प्रथमतो वीक्षितेष्वेवमनुमिनोति यथाऽमी
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जैनागभन्यायसंग्रहः परिदृश्यमाना पुरुषा एतदाकारवन्तः तथाऽपरोऽप्येकः कश्चित् पुरुषः एतदाकारवानेव, पुरुषत्वोत् , अपराकारत्वेतद्धानिप्रसङ्गात् , अश्वादिवदिति, एवंकार्षापणादिष्वपिवाच्यं, विशेषतो दृष्टमाह --' से जहानामए' इत्यादि, अत्र पुरुषाः सामान्येन प्रतीता एव, केवलं यदा कश्चित् क्वचितकश्चित् पुरुषविशेषं दृष्ट्वा तद्देशनाहितसंस्कारोऽसंजाततत्प्रमोषः समयान्तरे वहुपुरुषसमाजमध्ये तमेवपुरुषविशेषमासीनमुपलभ्यानुमानयति-यः पूर्वमयोपलब्धः स एवायं पुरुषः, तथैव प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् , उभयाभिमत पुरुषवदिति, एतत्तदा विशेषदृष्टमनुमानमुच्यते, पुरुषविशेष. विषयत्वाद्, एवं कार्षापणादिष्वपि वाच्यं । तदेवमनुमानस्य त्रैविध्यमुपदय॑साम्प्रतं तस्यैव कालत्रयविषयतां दर्शयन्नाह -' तस्स समासो तिविहं गहण' मित्यादि, तस्येतिसामान्येनानुवर्तमानमनुमानमात्रं सम्बध्यते, तस्यानुमानस्य त्रिविधं ग्रहणं भवति, तद्यथा-अतीतकालविषयं ग्रहणं - ग्राह्यस्य वस्तुनः परिच्छेदोऽतीतकालग्रहणं, प्रत्युत्पन्नोवर्तमान कालस्तद्विषयं ग्रहणंप्रत्युत्पन्नकालग्रहणं,अनागतो - भविष्यत्कालस्तद्विषयंग्रहणमनागतकालग्रहणम् , कालत्रय वर्तिनोऽपि विषयस्यानुमानात , परिच्छेदो भवतीत्यर्थः, तत्र 'उत्तिणाई ति उद्गतानि तृणानि येषु वनेषु तानि तथा, अयमत्र प्रयोगः-सुवृिष्टिरिहासीद् , उत्तृणवननिष्पन्नसस्य पृथ्वीतलजलपरिपूर्णकुण्डादिजलाशय प्रभृतितत्कार्यदर्शनात् अभिमतदेशवदित्यतीतस्य वृष्टिलक्षण विषयम्यपरिच्छेदः, साधुच 'गोचराग्रगत भिक्षाप्रविष्टं विशेषेण छर्दितानि-- गृहस्थैर्दत्तानि प्रचुरभक्तपानानि यस्य स तथा तं तादृशं दृष्ट्वा कश्चित् साधयति-सुभिक्षमिह वर्तते, साधूनां तद्ध तुकप्रचुरभक्तपानलाभदर्शनात् ,
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भावप्रमाणम्
१३
पूर्वदृष्टप्रदेशवदिति । 'अब्भस्स निम्मलत्तं गाहा सुगमा, नवरं स्तनितं - मेघगर्जितं 'वाउ भामो' त्ति तथाविधो वृष्टयव्यभिचारी प्रदक्षिणं दिक्षु भ्रमन् प्रशस्तो वात: 'वारुणं' ति आर्द्रामूलादिनक्षत्रप्रभवं माहेन्द्ररोहिगीज्येष्ठा दिनक्षत्रसम्भवं अन्यतरमुत्पातम् उल्कापातदिग्दाहादिकं प्रशस्तं वृष्टयव्यभिचारिणम् दृष्ट्वाऽनुमीयते, यथा - सुवृष्टिरत्रभविष्यति, तद्व्यभिचारिणामभ्र निर्मलत्वादीनां समुदितानामन्यतरस्य वा दर्शनात्, यथाऽन्यदति, विशिष्टा ह्यभ्रनिर्मलत्वादयो वृष्टिं न व्याभिचरन्त्यत: प्रतिपत्त्रैव तत्र निपुणेन भाव्यमिति, 'एएसिंचेव विवज्जासे' इत्यादि, एतेषामेवोत्तण्वनादीनामतीतवृष्टयादि साधकत्वेनोपन्यस्तानां हेतूनां व्यत्यासे - व्यत्यये साध्यस्यापि व्यत्ययः साधयितव्योः यथा कुवृष्टिरिहासीन्निस्तृणवनादिदर्शनादित्या दिव्यत्ययः सूत्र सिद्धो नवरमनागतकालग्रहणे माहेन्द्रवारुणपरिहारेणाग्नेयवायव्योत्पाता उपन्यस्ताः तेषां वृष्टिविघातकत्वादितरेषां सुवृष्टितत्वादिति । ' से तं विसेसदिडं, से तं दिवस हम्म ' मित्येतन्निगमनद्वयं दृष्टसाधर्म्यलक्षणानुमानगतभेदत्र (द्व) यस्य समर्थनानन्तरं युज्यते, यदि तु सर्ववाचनास्वत्रैव स्थाने दृश्यते, तदासाधर्म्यतोSपि सभदेस्यानुमान विशेषत्वात्, कालत्रयविषयता योजनी यैवातस्तामप्यभिधाय ततो निगमनद्वयमिदमकारीति प्रतिपत्तव्यम् तदेतदनुमानयिति ।
साहम्मोवणी
अथोपमानमभिधित्सुराह -
मूलः - से किं तं श्रवम्मे ? २ दुविहे पण ते तं जहा वेहम्मोवणीए । से किं तं साहम्मोवणीए ?,
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जैनागमन्यायसंग्रहः
२ तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-किंचिसाहम्मोवणीए पायसाहम्मोवणीए सव्वसाहम्मोवणीयए । से किं तं किंचिसाहम्मोवणीए ?, २ जहामंदरो तहा सरिसवो जहा सरिसवो तहा मंदरो जहा समुद्दो तहा गोप्पयं जहा गोप्पयं तहा समुद्दो जहा आइच्चो तहा खज्जोतो जहा खज्जोतो तहा आइच्चो, जहा चन्दो तहा कुमुदो जहा कुमुदो तहा चंदो, से तं किंचिसाहम्मो० । से कि तं पायसाहम्मोवणीए १, २ जहा गो तहा गवत्रो जहा गवत्रो तहा गो, से तं पायसाहम्मो० । से किं तं सव्वसाहम्मोवणीए ? २ सव्वसाहम्मे ओवम्मे नत्थि, तहावि तेणेव तस्स प्रोवम्म कीरइ जहा अरिहंतेहिं अरिहंतसरिसं कयं चक्कवट्टिणा चक्कवट्टिसरिसं कयं, बलदेवेण बलदेवेसरिसं कयं, वासुदेवेणा वासुदेवसरिसं कयं साहुणा साहुरिसं कयं से तं सव्वसाहम्मे, से तं साहम्मोवणीए । से किं तं वेहम्मोवणीए ?, २ तिविहे .पएणत्ते, तं जहा-किंचिवेहम्मे पायवेहम्मे सव्ववेहम्मे । से कि तं किंचिवेहम्मे ! २ जहा सामलेरो न तहा बाहुलेरो, उहा बाहुलेरो न तहा सामलेरो, से तं किंचि वेहम्मे । से किं.त पाय वहम्मे ? जहा वायसो न तहा पायसो, जहा पायसो न तहा वायसो, से तं पायवेहम्मे । से किं तं सब्ववेहम्मे ?,
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भावप्रमाणम्
१५
२ सव्ववेहम्मे श्रवम्मे नत्थि, तहात्रि तेणेव तस्स श्रवम्मं कीरइ, जहा पीएणं गोसरिसं कयं दासेण दाससरिसं कयं का काकसरिसं कयं सारे सासरिसं कयं पाणेग पारणसरिसं कर्म से तं सव्ववेहम्मे । सेतं वेहम्मोवणीए । से तं मे |
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टीका :- उपमीयते - सदृशतया वस्तु गृह्यते अनयेत्युपमा सैवो पम्यं, तच्च द्विविधं - साधर्म्येणोपनीतमुपनयो यत्र तत् साधम्र्यो पनीतं वैधयेोपनीतम् - उपनयो यत्र तद्वैधर्म्यम्योपनीतम् तत्र साध - म्यपनीतं त्रिविधं – किञ्चित् साधर्म्यादिभेदात् किंचित् साधर्म्यच मंदर सर्वपादीनां तत्र मंदर सर्षपयोर्द्वयोरपि मूर्तत्वं सादृश्यं, समुद्र गोष्पदयोः सोदकत्वमात्रम्, आदित्यखद्योतयोराकाशगमनोद्योतकत्वरूपं, चन्द्रकुमुदयोः शुक्लत्वमिति । 'से किं तं पायसाहम्मे' इत्यादि, खुरककुदविपारसलाङ्ग - लादेद्वयोरपि समानत्वात्, नवरं सकम्वलोगोवृ त्तकण्ठस्तु गवय इति प्रायः साधर्म्यता । सर्व साधर्म्यन्तु क्षेत्रकालादिभिर्भेदात् न कस्यापि केनचित् सार्द्धं संभवति, सम्भवेत्वेकता प्रसङ्गः तर्हि - उपमानस्य तृतीय - भेदोपन्यासोऽनर्थक एवेत्यशङ्कयाह - तथापि तस्य विवचितस्यादादे--- स्वादादिना औपम्यं क्रियते, तद्यथा - 'अर्हता त्सदृशंकृतं तत् किमपि सर्वोत्तमं तीर्थप्रवर्तनादि कार्यमर्हता कृतं यदर्हन्नेव करोति नापरः कश्चिदिति भावः, एवं च स एव तेनोपमीयते लोकेऽपिहिकेनचिदत्यद्भुते कार्ये कृते वक्तारो दृश्यन्ते - तत् किमपीदं भवद्भिः कृतं यद्भवन्तु एव कुर्वन्ति नान्य: कश्चिदिति, एवं चक्रवर्तिवासुदेवादिष्वपि वाच्यम्' से किं
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जैनागमन्यायसंग्रहः
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तं होवणी' इत्यादि, यथेति - यादृशः शवलाया: गोरपत्यं शाबलेयो न तादृशो बहुलाया अपत्यं बाहुलेयो, यथाचायं न तथेतरः, अत्रचशेषधर्मैस्तुल्यत्वाद्भिन्ननिमित्त जन्मादिमात्रतस्तु - वैलक्षण्यात् किंचिद् वैधर्म्य भावनीयम्, 'से किं तं पायवेहम्मे' इत्यादि, अत्र वायसपायसयोः सचेतनत्वाचेतनत्वादिभिर्बहुभिर्धर्मैर्विसंवादात् अभिधानगतवर्णद्वयेन सत्वादि मात्रतश्च साम्यात्प्रायो वैधर्म्यता भावनीया. सर्ववैधम्र्यन्तु न कस्यचित् केनापि संभवति, सत्त्वप्रमेयत्वादिभिः सर्वभावानां समानत्वात् तैरप्यसमानत्वेऽसत्वप्रसङ्गात् तथापि तृतीयभेदोपन्यास वैयर्थमाशंक्याह - तथापि तस्य तैनैवोपम्यं क्रियते यथा नीचेन नीचसदृशं कृतं गुरुघातादि-इत्या दि. आह - नीचेन नीचसदृशं कृतंमित्यादि ब्रुवता साधम्यमेवोक्त स्यान्न वैधम्र्म्य, सत्यं, किन्तुनी चोऽपिप्रायो नैवं विधं महा पापमाचरति किंपुनरनीच, १ ततः सकल जगविलक्षरण प्रवृत्तत्वविवक्षया वैधम्यमिह भावनीयम्, एवं दासाद्यदाहरणेष्वपिवाच्यम् । 'सेतं सव्ववेहम्मे ' इत्यादि निगमनत्रयम् । मूलः - से किं तं श्रागमे १ २ दुविहे पण्णत्ते, तं जहालोइए लाउतरिए । से किं तं लोइए १, २ जणं इमं अण्णाणिहिं मिच्छादिट्टिएहिं सच्छंद बुद्धिमइविगप्पियं, तंजहा - भारहं रामायणं जाव चत्तारि वेया संगोवंगा, से तं लोइए आगमे । से किं लोउत्तरिए १, २ जणं इमं अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्परगणा देसणधरेहिंतीयपच्चुष्पराणमणागयजाएहिं तिलुक्कवहिमहिअपूइएहिं सव्वरा हिं सव्वदरसीहिं पणीयं दुवाल संगंगत्रिपिडगं, तंजहा आयारो जाव दिट्ठि
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भावप्रमाणम्
वाओ । हा आगमे तिविहे पण्णच े, तंजहा—सुत्तागमे श्रत्थागमे तदुभयागमे । अहवा - आगमे तिविहे पण्णत्ते, तंजा - श्रागमे अतरागमे परंपरागमे, तित्थगराणं अत्थस्स तागमे गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे अत्थस्स अतरागमे गणहरसीसाणं सुत्तस्स अतरागमे अत्थस्स परंपरागमे, तेरा परं सुत्तस्सव सवि णो अत्तागमे णो णंतरागमे परंपरागमे, से तं लोगुत्तरिए से तं आगमे, से तं गाणगुणप्पमाणे ॥
,
टीका: -- गुरुवारम्पर्येणागच्छतीत्यागमः, श्र - समन्ताद् गम्यन्ते -ज्ञायन्ते जीवादय: पदार्था अनेनेति वा आगमः, श्रयं च द्विधा प्रज्ञप्तः, तद्यथा - 'लोइए' इत्यादि, इदं चेहेव पूर्वं भावश्रुतं विचारयता व्याख्यातं, यावत् से तं लोइए, से किं तं लोगुत्तरिए आगमेत्ति "अहवा आगमे तिबिहे' इत्यादि, तत्र सूत्रमेव सूत्रागमः तदभिधेयश्चार्थ एवार्थागमः, सूत्रार्थोभयरूपस्तु तदुभयागमः, अथवा अन्येन प्रकारेणागमस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः तद्यथा - आत्मागम इत्यादि, तत्र गुरूपदेशमन्तरेणात्मन एव श्रगम श्रात्मागमो यथा - तीर्थङ्कराणामर्थस्यात्मागमः स्वयमेव केवलो ( लेनो ) पलब्धेः, गणधराणां तु सूत्रस्यात्मागमः स्वयमेव प्रथितत्वाद्, अर्थस्यानन्तरागमः अनन्तरमेव तीर्थकरादागतत्वाद्, उक्तं च - "प्रत्थंभासइ अरहा सुतं गंथति गहरा निउरण" मित्यादि, गणधर शिष्यणां जम्बूस्वामिप्रभूतीनां सूत्रस्यानन्तरागम:, अव्यवधानेन गणधरादेवश्रुतेः, अर्थस्य
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जैनागमन्यायसंग्रहः परम्परागमः गणधरेणैव व्यवधानात् , तत ऊचे प्रभवादीनां सूत्रस्यार्थस्य च नात्मागमो नानन्तरागमः, तल्लक्षणायोगात् , अपितु परम्परागम एव, अनेन चागमस्य तीर्थकरादिप्रभवत्वभणनेनैकान्तापौरुषेयत्वं निवारयति, पौरुषताल्वादिव्यापारमन्तरेण नभसोव विशिष्टशब्दानुपलब्धः, ताल्वादिभिरभिव्यज्यत एव शब्दो नतु क्रियते इति चेत्, ननु यद्येवं तर्हि सर्ववचसामपौरुषेयत्वप्रसङ्गः, तेषां भाषापुद्गलनिष्पन्नत्वाद् , भाषापुद्गलानां च लोके सर्वदैवावस्थानतोऽपूर्व क्रियमाणताऽयोगेन ताल्वादिभिरभिव्यक्तिमात्रस्यैव निवर्तनात् , नच वक्तव्यं -वचनस्य पौद्गलिकत्वमसिद्धम्. महाध्वनिपटलपूरितश्रवण वाधिर्य कुड्यस्खलनाद्यन्यथानुपपत्तेः, तस्मान्नैकान्तेनापौरुषेयमागमवचः, ताल्वादिव्यापाराभिव्यंग्यत्वात् , देवदत्तादिवाक्यवत, इत्याद्यत्र बहुवक्तव्यं तत्तु नोच्यते स्थानान्तरनिर्णोतत्वादिति । ‘से तं लोगुत्तरिए , इत्यादि निगमनत्रयम् ।। उक्त ज्ञानगुणप्रमाणमथ दर्शगुणप्रमाणमाह
मूलः--से किं तं दंसणगुणप्पमाणे ?, २ चउबिहे पएणत्ते, तंजहा-चक्खुदसणगुणप्पमाणे अचक्खुदंसणगुणप्पमाणे अोहिदंसणगुणप्पमाणे केवलदसणगुणप्पमाणे चक्खुढसणं चक्खुदंसणिस्स घडपडकडरहाइएसु इब्बेसु अचक्खुदसण अचखुदंसणिस्स प्रायभावे अोहिदसणं ओहिदंसणिस्स सव्वरुविदव्वेसु न पुण सव्वपज्जवसु केवलदंसणं केवलदंसणिस्स सव्वदव्वेसु अ सबपज्जवेसु अ, से तं दसणगुणप्पमाणे ।
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भावप्रमाणम टीका:-दर्शनावरणकम क्षयोपशमादिजं सामान्यमात्रग्रहणं दर्शनमिति, उक्त च--'जं सामन्नग्गहणं भावाणं नेय कट्टमागारं । अविसेसिऊण अत्थे दंसणमिइ बुच्चए समए ।।१।। तदेवात्मलो गुणः स एव प्रमाणं दर्शनगुणप्रमाणम् , इदंच चक्षुर्दर्शनादिभेदाच्चतुर्विधम् , तत्र भावचक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमाद् द्रव्येन्द्रियानुपघाताच्च चक्षुर्दर्शनिन:-चक्षुदर्शनलब्धिमतो जीवस्य घटादिषु द्रव्येषु चक्षुषो दर्शनं चक्षुर्दर्शनम् , भवतीति क्रियाध्याहारः, सामान्यविषयत्वेऽपि चास्य यद् घटादिविशेषाभिधानं तत्सामान्यविशेषयोः कथञ्चिदभेदादेकान्तेन विशेषेभ्यो व्यतिरिक्तस्य सामान्यस्याग्रहणख्यापनार्थम् , उक्तच-"नि विशेषं विशेषाणां ग्रहोदर्शनमुच्यते” इत्यादि, चक्षुर्जशेषेन्द्रिय चतुष्टयं मनश्चचक्षुरुच्यते, तस्य दर्शनमचक्षुर्दर्शनं, तदपि भावाचक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमात् द्रव्येन्द्रियानुपघाताच्च अचक्षुर्दर्शनिनः-अचक्षुर्दर्शनलब्धिमतो जीवस्यात्मभावे भवति, आत्मनि-जीवे भावः-संश्लिष्टतया सम्बन्धो, विषयस्य घटादेरिति गम्यते, तस्मिन् सति इदं प्रादुर्भवतीत्यर्थःइदमुक्त भवति-चक्षुरप्राप्यकारि ततो दुरस्थर्माप स्वविषयं परिच्छिनत्तीत्यस्याथेस्य ख्यापनार्थ घटादिषु चक्षुर्दर्शनं भवतीति पूर्व विषयस्य भेदेनाभिधानं कृतं, श्रोत्रादीनि तु प्राप्यकारीणि ततो द्रव्येन्द्रिय संश्लेष द्वारेण जीवेन सह सम्बद्धमेव विषयं परिचछिन्दन्तीत्येतदर्शनार्थमात्मभावे भवतीत्येवमिह विषयस्याभेदेन प्रतिपादनमकारीति, उक्त च- "पुढसुणेइ सह रुवं पुण पासई अपुट्ठतु” इत्यादि । अवधेदर्शनमवधिदर्शनम् , अवधिदर्शनिन:- अवधिदर्शनावरणक्षयोपशमसमुद्भू तावधिदर्शनलब्धिमतो जीवस्य सर्वेष्वपि रुपिद्रव्येषु भवति, न पुनः सर्वपर्यायेषु,यतोऽ
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जनागमन्यायसंग्रहः वघेरुत्कृष्टतोऽप्येकवस्तुगताः संख्येया असंख्येया वा पर्याया विषयत्वेनोक्ताः, जघन्यतस्तु द्वौ पर्यायौ द्विगुणितो. रुपरसगन्धस्पर्शलक्षणाश्चत्वारः पर्याया इत्यर्थः, उक्त'च "दव्वत्रो असंखेज्जे संखेज्जे आवि पज्जवे लहइ । दो पज्जवे दुगुणिए लहइ य एगाउ दवाओ ॥१॥ अत्राह-ननु पर्याया विशेषा उच्यन्ते, नच दर्शनं विशेषविषयं भवितुमर्हति, ज्ञानस्यैव तद्विषयत्वात् , कथमिहावधिदर्शनविषयत्वेन पर्यायानिर्दिष्टाः, साधूक्त, केवलं पर्यायैरपि घटशरावोदश्चनादिभिमदादिसामान्यमेव तथा तथा विशिष्यन्ते न पुनस्ते तत एकान्तेन व्यतिरिच्यन्ते, अतो मुख्यतः सामान्य गुणीभूतास्तु विशेषा अप्यस्य विषयी भवन्तीति, ख्यापनार्थोऽत्र तदुपन्यास: केवलं-सकलदृश्यविषयत्वेन परिपूर्ण दर्शनं केवलदर्शनिन:-तदावरणक्षयाविभूततल्लन्धिमतो जीवस्य सर्वद्रव्येषु मूर्तामूर्तेषु सर्वपर्यायेषु चभवतीति । मनः पयार्यज्ञानं तु तथाविधक्षयोपशमपाटवात् सर्वदाविशेषा नेव गृहदुत्पद्यते न सोमान्यं, अतस्तद्दशनं नोक्त मिति, तदेतदर्शनगुण प्रमाणम् ॥
मलः–से कि तं चरित्तगुणप्पमाणे १, २ पंचविहे पएणत्ते, तंजहा-सामाइअचरितगुणप्पमाणे छेओवट्ठावणचरित्तगुणप्पमाणे परिहारविसुद्धिअचरित्तगुणप्पमाणे सुहुमसंपराय चरित्तगुणप्पमाणे अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे । सामाइअचरित्तगुणप्पमाणे दुविहेपण्णत्ते, तंजहा-इत्तरिए अ आवकहिए । छेओवट्ठावणचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पएणन, तंजहा
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भावप्रमाणम् साइबारे अ निरइबारे अ। परिहारविसुद्धि चरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णात्ते, तंजहा निन्धिसमाण य निविट्ठकाइए अ। सुहुमसंपरायगुणप्पमाणे दुविहे पएणत्ते, तंजहा-(संकिलिस्समाणए य विसुज्झमाणए य, अहक्खायचरितगुणप्पमाणे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा--) पडिवाई अ अपडिवाई अ । (अहवा) अहक्खायचरिचगुणप्पमाणे, दुविहे पएण, तंजहाछउमथिए अकेवलिए य । से तं चरित्तगुणप्पमाणे, से तं जीवगणप्पमाणे, से तं गुणप्पमाणे (सू० १४४)
टीका :-चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं तदेव चारित्रं, चारित्र मेवगुणः २ स एव प्रमाणं २ सावद्ययोगविरतिरुपं. तच्च पंचविधम, सामायिकादि, पंचविधमप्येतदविशेषत: सामायिकमेव, छेदादि विशेषैस्तु विशेष्यमाणं पञ्चधा भिद्यते, तत्राद्यं विशेषाभावात् सामान्यसंज्ञायामेवावतिष्ठते सामायिकमिति, सामायिक पूर्वोक्तशब्दार्थ तच्चत्वरं यावत्कथितं च तत्रेत्वरं भाविव्ययदेशान्तरत्वात् स्वल्पकालं, तच्चाद्यचरमतीर्थकरकालयोरेव यावदद्यापि महाव्रतानि नारोप्यन्ते तावच्छिष्यस्य संभवति, आत्मन: कथां यावदास्ते तद् यावत् कथं-यावज्जीवमित्यर्थः यावत्कथमेव यावत्कथिकम् , एतच्च भरतैरावतेष्वाद्य चरमवर्जमध्यमतीर्थकरसाधूनां महाविदेहतीर्थकरयतीनां च संभवति, पूर्वपर्यायस्य छेदेनोपस्थापनं महाव्रतेष यत्र तच्छेदोपस्थापनं, भरतैरावतप्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थ एव, नान्यत्रप तच्च सातिचारं निरतिचारं च तत्रेत्वरसामायिकस्य शैक्षकस्य
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२२
जनागमन्यायसंग्रहः
यदारोप्यते तीर्थान्तर वा सक्रामतः साधोयेंथा पार्श्वनाथतोर्थान्महावीरतोर्थं संक्रामतस्तन्निरतिचारं, मूलगुणघातिनस्तु यत् पुन तारोपणं तत्सातिचारं । परिहारः- तपोविशेषस्तेन विशुद्धं, अथवा परिहारः अष णीयादेः परित्यागोविशेषेणशुद्धो यत्र तत्परिहारविशुद्ध' तदेव परिहारशुद्धिकम्, तदपि द्विविधं निर्विश्यमानकं निर्विष्टकायिकं च तत्र निर्वि श्यमानकम् - सेव्यमानम् अथवा तदनुष्ठातारः साधवो निर्विश्यमानका : तत्सहयोगात्तदपि निर्विश्यमानकं निर्विष्ट असेवितः प्रस्तुत तपो विशेषः कायो येषां ते निर्विष्टकायाः, त एव निर्विष्टकायिकाः साधवः, तदाश्रयत्वाद् प्रस्तुतचारित्रमपि निर्विष्टकायिकं, इदमत्र हृदयम्-त - तीर्थकर - चरणमूले येन तीर्थकरसपीपे द: प्रतिपन्नपूर्व तदन्तिके वा नवको गणः परिहारविशुद्धिचारित्रं प्रतिपद्यन्ते, नानस्य समीपे, तत्रैकः कल्पस्थितो यदन्तिके सर्वा सामाचारो क्रियते, चत्वारम्तु खाधवो वच्यमाणं तपः कुर्वन्ति, ते च परिहारिका इत्युच्यन्ते, अन्ये तु चत्वारो वैयावृत्य कर्तृत्वं प्रतिपद्यन्ते, तेचानुपरिहारिका इति व्यपदिश्यन्ते तत्र परिहारकारणां तपः प्रोच्यते-ग्रीष्मे जघन्यतश्चतुर्थ मध्यम पदे षष्ठं उत्कृष्टतस्त्वष्टमं शिशिरे जघन्यमध्यमोत्कृष्टपदेषु यथा संख्यंषष्ठमष्टमदशमं च, वर्षासु जघन्यादिपदत्रये पि यथाक्रममष्टमं दशमं द्वादशं च शेषास्तु कल्पस्थितानुपरिहारिका: पंचापि प्रायो नित्यभक्ता नोपवासं कुर्वन्ति, भक्तं च पखानामप्याचामलमेव, नान्यत्; ततः परिहारिकाः पण्मासान्यावद्यथोक्त* तपः कृत्वा अनुपहारिकतां प्रतिपद्यन्ते, अनुपरिहारिकास्तु परिहारिकतां, तैरपि षण्मासान्यावद्यदा तपः कृतं भवति तदा कृततपसामष्टार्ना मध्यादेकः कल्पस्थितो व्यवस्थाप्यते अतनश्चासौ षड्मासान्यावयथोक्तं तपः
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भावप्रमाणम
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२३
करोति, शेषास्तु सप्तानुचरतामाश्रयन्ति एवं चाष्टादशभिर्मासैरयं कल्पः समाप्यते तत्समाप्तौ च भूयस्तमेव कल्पं जिनकल्पं प्रति पद्येरन् गच्छं वा प्रत्यागच्छेयुरिति त्रयीगतिः, अपरं चैतच्चारित्रं छेदोपस्थापनचरवतामेव भवति, नान्येषामित्यलमतिप्रसंगेन, तदेवमिह यो यस्तपः कृत्वा अनुपरिहारिकतां कल्पस्थिततां वाऽङ्गीकरोति तत्सम्ब
परिहारविशुद्धिकं निर्विष्टकायिकमुच्यते, ये तु तपः कुन्ति तत्सम्बन्धि निर्विश्यमानकमिति स्थितम् । संपरैति - पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायः क्रोधादिकषायः, लोभांशमात्रावशेषतया सूक्ष्मः सम्परायो यत्र तत्सूक्ष्मसम्परायम् इदमपि संक्लिश्यमान विशुध्यमानकभेदात् द्विधैव, तत्र श्रेणीमा रोहतो विशुध्यमानकमुच्यते, ततः प्रयमस्य संक्लिश्यमानकमिति, 'अह्वायं' ति अथ शब्दोऽत्रयाथातथ्य्ये आङभिविधौ - समन्ताद्याथातथ्येन ख्यातमथाख्यातं कषायोदयाभावतो निरतिचारत्वात पारमार्थिकरूपेण ख्यातमथाख्यातमित्यर्थः, एतदपि प्रतिपात्यप्रतिपाति भेदात् द्व ेधा, तत्रोपशान्तमोहस्य प्रतिपाति क्षीरणमोदस्यत्वप्रतिपाति; अथवा केवलिनश्छद्मस्थस्य चोपशान्तमोहक्षीणमोहस्य तद् भवत्यतः स्वामो भेदात् द्वं विध्यमिति । तदेतच्चारित्रगुणप्रमाणम्, तदेत्तज्जीवगुणप्रमाणं, तदेतद्गुणप्रमाणमिति || १४४ || तदेवं जीवाजीवभेदभिन्नं गुणप्रमाणं प्रतिपाद्य क्रमप्राप्तं नयप्रमाणं प्रतिपादयन्नाह
मूलः -- से कि तं नयप्पमाणे १, २ तिविहे पण्णत्ते, तं जहा -- पत्थगदि तेणं वसहिदिट्ठ तेणं पएसदिट्ठ तेां । से किं तं पत्थगदिट्ठ तेणं १, २ से जहानामए केई
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जैनागमन्यायसंग्रहः
२४
पुरिसे परसु गहायडवीसमहुत्तो गच्छेज्जा, तं पासित्ता केई वएज्जा - कहिंभवं गच्छसि ?, अविसुद्धोगमो भइ - पत्थगस्स गच्छामि, तंच केई छिंदमाणं पासित्ता वएज्जा - किभवं छिदसि ?, विसुद्धोनेगमो भगइ --- पत्थयं छिंदामि, तंच केई तच्छमारां पासित्ता वएज्जा --- किंभवं तच्छसि ९, विशुद्धतराओ रोगमोभणइ पत्थयं तच्छामि, तंच केई उक्कीरमाणं पासित्ता वएज्जा - कि भवं उक्कीरसि १, विसुद्ध तरायो गमो भइ पत्थयं उक्कीरामि, तंच केई (वि) लिहमाणं पासित्ता वएज्जा - किं भवं (वि) लिहसि ?, विसुद्धतरागमो भइ पत्थयं (वि) लिहामि । एवं विशुद्धतरस्स रोगमस्स नामाउडिओ पत्थओ, एवमेव ववहारसवि, संगहस्स चियमियमेज्ज समारूढो पत्थओ, उज्जुसुयस्सपत्थोऽविपत्थोमेज्जंपि पत्थओ तिरहं सहनयाणं पत्थयस्म त्थादिगार जाण जस्स वा वसेणं पत्थओ निष्फज्जह, सेतं पत्थयदि ते |
टीका :- अनन्तधर्मणो वस्तुनः एकांशेन नयनं नयः स एव प्रमाणं नयप्रमाणं, त्रिविधं प्रज्ञप्तमिति, यद्यपि नैगम संग्रहादि भेदतो बहवो नयास्तथापि प्रस्थकादि दृष्टान्तत्रयेण सर्वेषामिह निरुपयितु मिष्टत्वात्त्रैविध्यमुच्यते, तथाचाह—तद्यथा— प्रस्थकदृष्टान्तेनेत्यादि,
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भावप्रमाणम्
२५ प्रस्थकादिदृष्टान्तत्रयेण हेतुभूतेन त्रिविधं नयप्रमाणं भवतीत्यर्थः, तत्र प्रस्थक दृष्टान्तं दर्शयति, तद्यथानामकः कश्चित्पुरुषः परशु-कुठारं गृहीत्वा अटवीमुखो गच्छेदित्यादि, इदमुक्त भवति- प्रस्थको-मागधदेशप्रसिद्धो धान्यमानविशेषस्तद्धेतुभूतकाष्ठकर्तनाय कुठारव्यग्रहस्तं तक्षादि पुरुषमटवींगच्छन्तं दृष्ट्वा कश्चिदन्यो वदेत्-क भवान् गच्छति ?, तत्राविशुद्ध नैगमो भणति-अविशुद्धनैगमनयमतानुसारी सन्नसौ प्रत्युत्तरयतीत्यर्थः, किमित्याह प्रस्थकस्य गच्छामि, इदमुक्त भवति-नके गमा - वस्तुपरिछेदा यस्य अपि तु बहवः स निरुक्तवशात् ककारलोपतो नैगम उच्यते, अतो यद्यप्यत्र प्रस्थककारणभूतकाष्ठनिमित्तमेवगमनं, नतु प्रस्थकनिमित्तं, तथाऽप्यनेकप्रकारवस्त्वभ्युपगम परत्वात् कारणे कार्योपचारात् तथाव्यवहार दर्शनादेवमप्यभिधत्तेऽसौ-प्रस्थकस्य गच्छामोति, तंच कश्चित् छिन्दन्तं, वृक्षमिति गम्यते, पश्येद् , दृष्ट्वा च वदेत्-किं भवान् छिनत्ति ?, ततः प्राक्तनात् किंचिद्विशुद्धनैगमनयमतानुसारी सन्नसौ-भणति-प्रस्थकं छिनद्मि, अत्रापि कारणे कार्योपचारात्तथाव्यवहति दर्शनादेव काष्ठेऽपि छिद्यमाने प्रस्थकं छिनमीत्युत्तरं, केवलं काष्ठस्यप्रस्थकं प्रति कारणताभावस्यात्र किंचिदासन्नत्वाद्विशुद्धत्वं, प्राक् पुनरतिव्यवहितत्वात् मलीमसत्वम् , एवं पूर्वपूर्वापेक्षया यथोत्तरस्य विशुद्धता भावनीया, नबरं तक्ष्णुवन्तं तनूकुर्वन्तं उत्किरतं वेधनकेन मध्याद् विकिरन्तं विलिखन्तंलेखन्या मृष्टं कुर्वाणं, एवमनेनप्रकारेण तावन्नेयं यावद्विशुद्धतरनैगमस्य 'नामाउडिउत्ति आकुट्टितनामा प्रस्थकोऽयमित्येवनामाङ्कितो निष्पन्न: प्रस्थक इति, । एवमेव व्यवहारस्यापीति, लोकव्यवहारप्राधान्येनार्य व्यवहारनयः, लोके च पूर्वोक्तावस्थासु सर्वत्र प्रस्थकव्यवहारो दृश्यतेऽतो
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जैनागमन्यायसंग्रहः व्यवहारनयोऽप्येवमेवप्रतिपद्यते इति भावः । 'संगहस्से त्यादि, सामान्यरुपतया सर्व वस्तु संगृह्णाति-क्रोडीकरोतीति संग्रहस्तस्य मतेन चितादिविशेषणैविशिष्ट एव प्रस्थो भवति, नान्यः, तत्र चितो-धान्येनव्याप्तः, सच देशतोऽपि भवत्यत आह मितः' पूरित:, अनेनैव प्रकारेण मेयं समारुढं यत्र स आहितादेराकृतिगणत्वान्मेयसमारुढः, अयमत्र भावार्थ:--प्राक्तननयद्वयस्याविशुद्धत्वात् प्रस्थककारणमपि प्रस्थक उक्तः अनिष्पन्न: प्रस्थकोऽपि स्वकार्याकरणकालेऽपि प्रस्थक इष्टः, अस्य तु ततोविशुद्धत्वाद्धान्यमानलक्षणं स्वार्थ कुर्वन्नेव प्रस्थकः, तस्य तदर्थत्वात् , तदभावे च प्रस्थकव्यपदेशेऽतिप्रसङ्गादिति यथोक्त एव प्रस्थकः, सोऽपि प्रस्थक सामान्याव्यतिरेकात् व्यतिरेके चाप्रस्थकत्व प्रसंगात् सर्व एक एव प्रस्थक इति प्रस्तुतनयो मन्यते, सामान्यवादित्वादिति; । “उज्जुसुयस्से त्यादि. ऋजुसूत्रः-पूवोक्तशब्दार्थ: तस्य निष्पन्नस्वरुपोऽर्थक्रियाहेतुः प्रथिको ऽपि प्रस्थकः, तत्परिछिन्नं धान्यादिकमपि वस्तु प्रस्थकः, उभयत्र प्रस्थकोऽयमिति व्यवहारदर्शनात् , तथाप्रतीते , अपरं चासौ पूर्वस्माद्विशुद्धत्वाद्वर्तमाने एव मानमेये प्रस्थकत्वेन प्रतिपद्यते, नातीतानागतकाले, तयोविनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्वादिति । 'तिरहसद्दनयाण' मित्यादि, शब्दप्रधाना नयाः शब्दनया :- शब्दसमभिरुद्वैवंभूताः, शब्देऽन्यथा स्थितेऽथमन्यथानेच्छन्न्यमी, किन्तु ?, यथैव शब्दो व्यवस्थितस्तथैव शब्देनार्थ गमयन्तीत्यतः शब्दनया उच्यन्ते, अद्यास्तु यथाकथञ्चिच्छब्दाः प्रवर्तन्तामर्था एव प्रधानमित्यभ्युपगमपरत्वादर्थनयाः प्रकीर्त्यन्ते, अत:-एषां त्रयाणां शब्दनयानां, ‘प्रस्थकार्थाधिकारज्ञः' प्रस्थकस्वरुपपरिज्ञ नोपयुक्तः प्रस्थकः, भावप्रधाना ह्यते नयाइत्यतो
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भावप्रमाणम्
भावप्रस्थकमेवेच्छन्ति, भावश्च प्रस्थकोपयोगोऽत: स प्रस्थकः, तदुपयोगवानपि च ततोऽव्यतिरेकात् प्रस्थकः, योहि यत्रोपयुक्तः सोऽमीषां मते स एवभवति, उपयोगलक्षणो जीव: उपयोगश्चत् प्रस्थकादिविषयतया परीणत: किमन्यजोवस्य रुपान्तरमस्ति १, यत्र व्यपदेशान्तरं स्यादिति भावः, 'जस्सवावसेणे' त्यादि, यस्य वा प्रस्थककत गतस्योपयोगस्य वशेन प्रस्थको निष्पद्यते तत्रोपयोगे वर्तमान कर्ता प्रस्थको, नहि प्रस्थकेऽनुपयुक्तः प्रस्थकं निर्वर्तयितु कर्ता समर्थः, ततस्तदुपयोगानन्यत्वात स एव प्रस्थकः, इमां च तेऽत्र युक्तिमभिदधति-सर्ववस्तु स्वात्मन्येव वर्तते, नत्वात्मव्यति रिक्त आधारे, वक्ष्यमाण युकत्या एतन्मतेनान्यस्यान्यत्र वृत्त्ययोगात्, प्रस्थक श्च निश्चयात्मक मानमुच्यते, निश्चयश्च ज्ञानं, तत्कथं जडात्मनि काष्ठभाजनेवृत्तिमनुभविष्यति १, चेतनाचेतनयोः सामानाधिकरण्याभावात् , तस्मात् प्रस्थकोपयुक्तः एव प्रस्थकः । 'से त' मित्यादि निगमनम् ।।
मल.-से किं तं वसहिदिट्टतेणं ?, २ से जहानामए केई पुरिसे कंचि पुरिसं वएज्जा-कहिं भवं वससि ?, तं अविसुद्धोणेगमो भणइ-लोगे वसामि, लोगे तिविहे पएणत्ते, तंजहाउड्ढलोए अहोलोए तिरिअलोएं, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसुद्धो णेगमो भणइ-तिरिअलोए वसामि, तिरीअलोए जंबुद्दीवाइया सयंभूरमणपज्जवसाणा असंखिज्जा दीवसमुद्दा पएणता, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसुद्धतराअोणेगमो भणइजंबुद्दीवे वसामि, जंबुद्दीवे दस खेचा, पएणत्ता, तंजहा-भरहे
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२८
जैनागमन्यायसंग्रहः
एरवए हेमवएं एरण्णवए हरिवस्से रम्मगवस्से देवकुरू उत्तरकुरू पुव्वविदेहे अवरविदेहे, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसुद्धतरात्रो णेगमो भणइ-भरहे वासे वसामि, भरहे वासे दुविहे पएणत्ते तंजहादाहिणड्ढभरहे उत्तरड्ढभरहे अ, तेसु सव्वेसु (दोसु) भवं वससि? विसुद्धतराश्रो णेगमो भणइ-दाहिणड्ढभरहे वसामि, दाहिणड्ढभरहे अणेगाई गामागरणगरखेडेकब्बडमडंवदोणमुहपट्टणासमसंवाहसण्णिवेसाई, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसुद्धतराश्रो णेगमो भणइ-पालिपुत्ते वसामि, पाइलिपुत्ते अणेगाइं गिहाई तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसु० णेग० भणइ-देवदत्तस्स घरे वसामि, देवदत्तस्सघरे अणेगा कोहगा, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसु० णे० भणइ-गब्भ घरे वसामि, एवंविसुद्धस्स णेगमस्स वसमाणो, एवमेव ववहारस्सवि, संगहस्स संथारसमारूढो वमइ, उन्जुसुअस्स जेसु आगासपएसेसु अोगाढो तेसु वसइ, तिएहंसद्दनयाणं आयभावे वसइ । से तं वसहिदिट्ठतेणं ।
टीकाः-वसतिः निवासस्तेन दृष्टान्तेन नयविचार उच्यते, तथा नामकः कश्चित्पुरुषः पाटलिपुत्रादौ वसन्तं कश्चित्पुरुष वदेत् क भवान् वसति ? तत्राविशुद्धनैगमो भणति अविशुद्ध नैगमनयमतानुसारी सन्नसौ प्रत्युत्तरं प्रयच्छति-लोके वसामि, तन्निवासक्षेत्रस्यापि चतुदेशरज्ज्वात्मकलोकादनन्तरत्वाद् इत्थमपि च व्यवहारदर्शनात् , विशु
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भावप्रमाणम् द्धनैगमस्त्वतिव्याप्तिपरत्वादिदमसङ्गतं मन्यते, सतस्तियल्लोके वसामीति संक्षिप्योत्तरं ददाति; विशुद्धतरस्त्विदमप्यतिव्याप्ति निष्ठं मन्यते, ततो जम्बूद्वोपेवसामीति संक्षिप्ततरमाह, एवंभारतवर्षदक्षिणार्द्धभरतपाटलिपुत्रदेवदत्तगृहगर्भगृहेष्वपि भावनीयम् , एवं 'विसुद्धस्सणेगमस्स वसमाणो वसइ' एवमुत्तरोत्तरभेदापेक्षया विशुद्धतरनैगमस्य वसन्नेव वसति, नान्यथा, इदमुक्तं भवति-यत्र गृहादौ सर्वदा निवासित्वेनासौ विवक्षितः तत्र तिष्ठन्नेव एष तत्र वसतीति व्यपदिश्यते, यदि पुनः कारणवशतोऽन्यत्र रध्यादौ वर्तते तदा तत्र विवक्षिते गृहादौ वसतीति न प्रोच्यते, अतिप्रसङ्गादिति भावः, 'एवमेवे' त्यादि, लोकव्यवहारनिष्ठो हि व्यवहारनयो, लोके च नैगमोक्तप्रकारः सर्वेऽपि दृष्यन्ते इति भावः, अथ चरमनैगमोक्तप्रकारो लोके नैष्यते, कारणतो ग्रामादौ वर्तमानेऽपि देवदत्ते पाटलिपुत्र एष वसतीति व्यपदेशदर्शनादिति चेत् , नैतदेवं, प्रोषिते देवदत्ते स इह वसति नवेति केनचित्पृष्टे प्रोषितोऽसौ नेह वसतीत्यस्यापि लोकव्यवहारस्य दर्शनादिति । 'संगहस्से' त्यदि, प्राक्तनात् विशुद्धत्वात् संग्रहनयस्य गृहादौ तिष्ठन्नपि संस्तारकारूढ़ एव शयनक्रियावान् वसतीत्युच्यते, इदमुक्तं भवनि-संस्तारकेऽवस्थानादन्यत्रनिवासार्थ एव न घटते, चलनादिक्रियावत्त वात् , मार्गादिप्रवृत्तवत् संस्तराके च वसतो गृहादौ वसतीति व्यपदेशायोग एव, अतिप्रसङ्गात् , तस्मात कासौ वसतीति निवासजिज्ञासायां संस्तराके-शय्यामात्रस्वरूपे बसतीत्ये तदेवास्य मतेनोच्यते, नान्यदिति भावः, स च नानादेशादिगतोऽप्येक एव संग्रहस्य सामान्यवादित्वादिति ? ऋजुसूत्रस्य तु पूर्वस्माद्विशुद्धत्वाद् येष्वाकाशप्रदेशेष्ववगाढस्तेष्वेव वसतीत्युच्यते. न संस्तराके, सर्वस्यापि
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जैनागमन्यायसंग्रहः वस्तुवृत्या नभस्येवावगाहात् , येषु प्रदेशेषु संन्तारको वर्तते संस्तारके रणवाक्रान्ता वर्तन्ते, ततो येष्वेव प्रदेशेषु स्वयमवगाढस्तेष्वेव वसतीत्युच्यते, सच वर्तमानकाल एवास्ति, अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेनैतन्मतेऽसत्वादिति ।: त्रयाणां शब्दनयानामात्मभावे-स्वस्वरूपे सर्वोऽपि वसति अन्यस्यान्यत्रवृत्ययोगात् , तथाहि अन्योऽन्यत्र वर्तमानः किं सर्वात्मना वर्तते देशात्मना वा ?, यद्याद्यः पक्षस्तर्हि तस्याधारव्यतिरेकिणास्वकोयरूपेणाप्रतिभासनप्रसङ्गो, यथाहि संस्तारकाद्याधारस्य स्वरूपं सर्वात्मना तत्र वृत्तं न तद् व्यतिरेकेणोपलभ्यते एवं देवदत्तादिरपि सर्वात्मना तत्राधीयमानस्तद् व्यतिरेकेण नोपलभ्यते, अथ द्वितीयो विकल्पः स्वीक्रियते, तर्हि तत्रोषि देशे अनेन वर्तितव्यं, ततः पुनरपि विकल्पद्वयं-कि सर्वात्मनावर्त्तते देशोत्मनावेति १ सर्वात्मपक्षेदेशिनो देशरूपताऽऽपत्ति, देशात्मपक्षे तु पुनस्तत्रापिदेशे देशिना वर्तितव्यं, ततः पुनरपि तदेव विकल्पद्वयं, तदेवदूषणमित्यनवस्था, तस्मात्सर्वोऽपि स्वस्वभाव एव निवसति, तत्परित्यागेनान्यत्र निवासे तस्य निःस्वभावता प्रसंगादित्यलं बहुभाषितया । ‘से त' मित्यदि निगमनम्
मूलः-से किं तं पएसदिट्ठ'तेणं १, २ णेगमो भणइछएह पएसो, तंजहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो अागासपएसो जीवपएसो खंधपएसो देसपएसो, एवं वयं णेगमं संगहो भणई-जं भणसि-छण्हंपएसो तं न भवइ, कम्हा ?, जम्हा जो देसपएसो सो तस्सेव दव्वस्स, जहा को दिढतो ?, दासेण मे खरो कीओ दासोऽवि मे खरोऽवि मे, तं मा भणाहि-छण्ड
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परसो, भणाहि पंचहं परसो, तंजहा-धम्मपएसो अधम्मपएसो गासपएस जीवपएसो खंधपएसो, एवं वयंत संग्रहं वबहारो भणइ - जं भणसि - पंचरहं पएसो, तं न भवइ, कम्हा ?, जइ जहा पंच गोडिया पुरिसाणं केइ दव्व जार सामरणे भवइ तं जहा - हिरण्ये वा सुव्वणे वा धणे वा धरणे वा तं न ते जुत्तं वत्तं जहा पंचहं परसो, तं मा भणिहि - पंचराहं परसो, भणाहि - पंचविहो पएसो, तंजहा - धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो, एवं वयंतं ववहारं उज्जुसुत्रो भइ - जं भणसि - पंचविहोपएसो, तं न भवइ, कम्हा ?, जड़ ते पंचविहो पएसो एवं ते एक्केक्को पएसो पंचविहो एवं ते पणवीसतिविहो परसो भवइ - तं मा भणाहि - पंचविहो पएसो, भणाहि - मइयब्बो परसा - सि धम्मपसो सि धम्मपरसो सि आगासपएसो सित्र जीवपएसो सित्र खंधपएसो, एवं वयं तं उज्जुसुयं संपइ सहनओ भरणइ - जं भणसि भड़यव्वो पएसो, तं न भाइ, कम्हा ?, जइ भइअव्वो पएसो, एवं ते धम्मपएसो sa स धम्मपएसोसि श्रधम्मपएसोसि श्रागासपएसो सि जीवurसो सित्र खंधपएसो, अधम्मपरसोऽवि सि धम्म सो जाव खंधपएसो, जीवपएसोऽवि सि धम्मपएसो
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जैनागमन्यायसंग्रहः जाव सिखंधपएसो, एवं ते अणवस्था भविस्सइ, तं मा भणाहिभइयव्वो पएसो, भणाहि धम्मे पएसे से पएसे धम्मे, अहम्मे पएसे से पएसे अहम्मे, अागासे पएसे से पए से आगासे, जीवे पए से से पएसे नो जीवे, खंधे पएसे से पएसे नोखंधे, एवं वयंत सदनयं मभिमरूढोमणइ-जं भणसि-धम्मे पएसे से पएसे धम्मे जाव जीवे पएसे से पएसे नोजीवे खंधे पएसे से पए से नोखंधे, तं न भवइ, कम्हा ?, इत्थं खलु दो समासा भवंति, तंजहातप्पुरिसे अ कम्मधारए अ, तं ण णज्जइ कयरेणं समासेणं भणसि ?, किं तप्पुरिसेणं किं कम्मधारएणं ?, जइ तप्पुरिसेणं भणसि तो मा एवं भणाहि, अह कम्मधारएणं भणसि तो विसेस
ओ भणाहि, धम्मे असे पएसे अ से पएसे धम्मे अहम्मे असे पएसे असे पएसे अहम्मे, आनासे असे पए से असे पएसे आगासे जीवे असे पएसे असे पए से नोजीवे, खंधे असे पएसे असे पए से नोखंधे, एवं वयं समभिरूढं संपइ एवंभूत्रोभणइ-जं जं भणसि तं तं सव्वं कसिणं पडिपुण्णं निरवसेसं एगगहण गहियं देसेऽवि मे अवत्थू पएसेऽवि मे अवत्थू से तं पएसदिट्टतेणं । से तं नयप्पमाणे (स० १४५)
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भावप्रमाणम् टीका:-प्रकृष्टोदेशःप्रदेशो-निर्विभागो भाग इत्यर्थ, स एव दृष्टान्त स्तेन नय मताान चिन्त्यन्ते--तत्र नैगमो भणति-धरणां प्रदेशः तद्यथा'धम्मपएसे' इत्यादि, धर्मशब्देन धर्मास्तिकायो गृह्यते, तस्य प्रदेशो धर्मप्रदेशः, एवमधर्माकाशजोवास्तिकायेष्वपियोज्यं, स्कन्धः-पुद्गलद्रव्यनिचय स्तस्य प्रदेशः स्कन्धप्रदेशः; देशः --एषामेव पंचानां धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां प्रदेशद्वयादिनिवृत्तोऽवयवस्तस्य प्रदेशो देशप्रदेशः, अयं च प्रदेश सामान्या व्यभिचारात् षण्णां प्रदेश इत्युक्त', विशेषविवक्षायां तु षट् प्रदेशा: । एवं वदन्तं नैगमं ततो निपुणतरः संयहो भणति-यद् भणसि पएणां प्रदेश इति, तन्न भवति-तन्न युज्यते, कस्मात् ?, यस्मात् यो देश प्रदेश इति षष्ट स्थाने भवता प्रतिपादितं, तदसङ्गतमेव, यतोधर्मास्ति कायादिद्रव्यस्य सम्बन्धी यो देशस्तस्य यः प्रदेश: स वस्तुवृत्या तस्यैव द्रव्यस्य यत्सम्बन्धी देशो विवक्ष्यते, द्रव्याव्यतिरिक्तस्यदेशस्य यः प्रदेशः स द्रव्यस्यैव भवति, यथा कोऽत्र दृष्टांत इत्याह–'दासेणे' त्यादि' लोकेऽप्यवं व्यवहति श्यते, यथा कश्चिदाह-मदीय दासेन खरः क्रीतः, तत्र दासोऽपि मदीयः, खरोऽपि मदीयः, दासस्य मदीयत्वात् तत्क्रीतः खरोऽपि मदीय इत्यर्थः, एवमिहापि देशस्य द्रव्यसम्बन्धित्वात्तत्प्रदेशोऽपि द्रव्यसन्बन्थ्येवेति भावः, तस्मान्मा भण –पएणां प्रदेशः, अपित्वेव भणपञ्चानां प्रदेश इति, स्वदुक्त-पष्ठप्रदेशस्यै वाघटनादित्यर्थः. तदेव दर्शयतितद्यथा-धर्मप्रदेश इत्यादि, एतानि च पंच द्रव्याणि तत्प्रदेशाश्च त्येवमप्यविशुद्धसंग्रह एव मन्यते, अवान्तर द्रव्ये समान्याद्यभ्युपगमात, विशुद्धस्तु द्रव्यवाहुल्यं प्रदेशकल्पनां च नेच्छत्येव, सर्वस्यैव वस्तुसामान्य क्रोडीकृतत्वेनैकत्वादित्यलं प्रसंगेन । प्रकृतमुच्यते-एवं वदन्तं संग्रहं ततोऽपि
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जैनागमन्यायसंग्रहः निपुणो व्यवहारो भणति,-यद् भणसि पश्चानां प्रदेश इति. तन्न भवति युज्येते, कस्मात् ? यदि यथा पश्चानां गोष्ठिकानां किञ्चद् द्रव्यं सामान्य-एकं भवति, तद्यथा-हिरण्यवेत्यादि, एवं यदि प्रदेशोऽपि स्यात्तत्तो युज्यते वक्तु-पञ्चानां प्रदेश इति इदमुक्तं भवति-यथा केपाश्चित् पंचानां पुरुषणां साधारण किञ्चद्धिरण्यादि भवति, एवं पश्चानामपि धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां योकः कश्चित्साधारण: प्रदेश: स्यात्तदेयं वाचो युक्ति घटते, नचैतदस्ति प्रतिद्रव्यं प्रदेश भेदात, तस्मान्मा भण-पंचानां प्रदेशः, अपि तु भण- पंचविध:-पंचप्रकारः प्रदेशः, द्र. व्यलक्षणस्याश्रयस्य पंचविधत्वादिति भावः, तदेवाह-धर्मप्रदेश इत्यादि, एवं वदन्तं व्यवहारमृजुसूत्रो भरणति-यद् भणसि पंचविधः प्रदेशः तन्न भवति, कस्मात् ? यस्माद्यदि ते पंचविधः प्रदेश एवमेकैको धर्मास्तिकायादिप्रदेश: पंचविधः प्राप्तः, शब्दादत्र वस्तु व्यवस्था, शब्दाच्चैवमेव प्रतीतिभवति एवं च सति पंचविंशतिविधः प्रदेशः- प्राप्नोति, तस्मान्मा भण पंचविधः प्रदेशः, किन्त्वेवं भण-भाज्यः प्रदेशः, म्याद्धमस्येत्यादि, इदमुक्तं भवति-भाज्यो- विकल्पनीयो विभजनीयः प्रदेशः, कियभिविभागैः १ स्याद्धर्मप्रदेश इत्यादि पंचभिः, ततश्च पंचभेद एव प्रदेशः सिध्यति, स च यथा स्वमात्मीयात्मीय एवास्ति न परकीयः, तस्यार्थक्रियाऽसाधकत्वात् प्रस्तुत नयमतेनामत्वादिति । एवं भणन्तमृजुसूत्रं साम्प्रतं शब्दनयो भणति-यद्भांस-भाज्य प्रदेशः, तन्न भवति, कुतो?, यतो यदि भाज्यः प्रदेशः, एवं ते धर्मास्तिकाय प्रदेशोऽपि कदाचिद्धर्मास्तिकायादिप्रदेशः स्याद्, अधर्मातिकायप्रदेशोऽपि कदाचिद् र्धास्तिकायादि प्रदेशः स्याद्, इत्थमपिभजनाया अनिवारित्वात्,
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भावप्रमाणम् यथा एकोऽपि देवदत्तः कदाचिद्राज्ञोभृत्य कदाचिदमात्यादेरिति, एवमाकाशास्तिकायादिप्रदेशोऽपिवाच्यं, तदेवं नैयत्याभावात्तवाप्यनवस्था प्रसज्येतेति. तन्मैवं भण-भाज्यः प्रदेशः, अपितु इत्थं भण-'धम्मे पएसे? [ से पएसे धम्मे ], इत्यादि, इदमुक्तं भवति धर्म प्रदेश इति-धर्मात्मकःप्रदेश इत्यर्थः अत्राह-नन्वयं प्रदेशः सकलधर्मास्तिकायादिव्यतिरिक्त: सन् धर्मात्मक इत्युच्यते, आहोस्वित्तदेकदेशाव्यतिरिक्त सन् यथा सकलजीवास्तिकायैकदेशैकजीवद्रव्याव्यतिरिक्तः सँस्तत्प्रदेशो जीवात्मक इति व्यपदिश्यत इत्याह 'से पएसे धम्मेऽत्ति स प्रशोधर्मः-सकलधर्मास्तिकायादव्यतिरिक्त-इत्यर्थः, जीवान्तिकाये हि परस्परं भिन्नान्येवानन्तानि जीवद्रव्याणि भवन्ति, अतो य एकजीवद्रव्यस्य प्रदेशः स निःशेष जीवास्तिकायैकदेशवृत्तिरेव सन् जीवात्मक इत्युच्यते, अत्र तु धर्मास्तिकाय एकमेव द्रव्यं ततः सकलधर्मास्तिकाया व्यतिरिक्त एवं सँस्तत्प्रदेशो धर्मात्मक इत्युच्यत इति भावः, । अधर्माकाशास्ति. काययोरप्येकैकद्रव्यत्वादेवमेव भावनीयम् । जीवास्तिकाय तु 'जीवेपएसे से पएसे नोजीवे, त्ति, जीवः प्रदेश इति जीवास्तिकायात्मकः प्रदेशः इत्यर्थः सच प्रदेशो नोजीवः, नोशब्दस्येह देशवचनत्वात् सकलजीवास्तिकायैकदेश वृत्तिरित्यर्थः यो ह्य कजीवद्रव्यात्मकः प्रदेशः स कथमनन्तजीवद्रव्यात्मके समस्त जीवास्तिकाये वर्तेत इति भावः, एवं स्कन्धात्मकः प्रदेशो नो स्कन्धः, स्कन्धद्रव्याणामनन्तत्वादेक देशवर्तिरित्यर्थः, । एवं वदन्तं शब्दनयं नानार्थसमभिरोहणात् समभिरूढ़ः स प्राह-यद्भणसि-धर्म प्रदेशः सप्रदशो धर्म इत्यादि, तन्न भवति-न युज्यते कस्मादित्याह-इह खलु द्वौ समासौ भवतः, तह था-तत्पुरुषः कर्मधार्यश्च, इदमुक्तं भवति,- धम्मे पएसे से पएसे धम्मे इत्युक्ते समासद्वयारम्भकवाक्यद्वयमत्र सम्भाव्यते, तथाहि-यदि धर्म शब्दात्
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जैनागमन्यायसंग्रहः सप्तमीयं तदा सप्तमीतत्पुरुषस्यारम्भकमिदं वाक्यं, यथा वने हस्तीत्यादि, अथ प्रथमा तदा कमधारयस्य, यथा नीलमुत्वलमित्यादि, ननु यदि वाक्यद्वयमत्र सम्भाव्यते तर्हि क्थं द्वौ समासौ भवत इत्युक्तम् ?, उच्यते, समासारम्भक-- वाक्ययोः समासोपचारात्, अथवा अलुक्समासविवक्षया समासाधप्येतो भवतो, यथा कण्ठेकाल इत्यादीत्यदोषः, यदि नाम द्वौ समासावत्र भवतस्ततः किमित्याह तन्न ज्ञायते कतरेण समासेन भास ?, किं तत्पुरुषेण कर्मधारयेण वा ? यदि तत्पुरुषेण भणसि, तन्मैवं भण, दोषसम्भवादितिशेषः स चायं दोषो-धर्मे प्रदेश इति भेदापनिः, यथा कुण्डेवदराणीति, न च प्रदेशेदेशिनौ भेदेनोपलभ्येते, अथ अभेदेऽपि सप्तमीदृश्यते यथा घटेरूपमित्यदि, यहोवमुभयत्रदर्शनात् संशयलक्षणो दोष: स्यात्, अथ कर्म धारयेण भणसि । ततो विशेषेण भण, धम्मे असे पएसे य से त्ति, धर्मश्च स प्रदेशश्च स इति समानाधिकरण: कर्मधारयः, एवं च सप्त म्याशङ्काभावतो न तत्पुरुषसम्भव इति भावः । श्राह-नन्वयं प्रदेशः समस्तादपि धर्मास्तिकायादव्यतिरिक्तः सन् समानाधिकरणतयानिर्दिश्यते । उत तदेकदेशवृत्तिः सन् यथा जीवास्तिकायैकदेशवृत्तिर्जीवप्रदेशइत्याशंक्याह- से पएसे धम्मेत्ति, स च प्रदेश: सकलधर्मास्तिका. यादव्यतिरिक्तो न पुनस्तदेकदेशवृत्तिरित्यर्थः, शेषभावना पूर्ववत, से 'पएसे नोजीवे से पएसे नोखन्धे' इत्यत्रापि पूर्ववदेवार्थकथनम् । एवं वदन्तं समभिरूडं साम्प्रतमेवंभूतो भणति-यद्यद्धर्मास्तिकायादिकं वस्तु भणसि तत्तत् सर्व समस्तं कृत्स्नं देशप्रदेशकल्पनारहितं प्रतिपूर्णम्-श्रात्मस्वरूपेणाविकलं निरवेशेष-तदेवैकत्वान्निरवयवमेकग्रहणगृहीतम एकाभिधाना भिधेयं नानाभिधानाभिधेयं, तानि ह्य कस्मिन्नर्थेऽसौ नेच्छति, अभिधानभे
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दे वस्तुभेदाभ्युपगमात् तदेवंभूतं तद्धर्मास्तिकायादिकंवस्तु भरण, नतु प्रदेशादिरूपतया यतो देशप्रदेशौ ममावस्तुभूतौ अखण्डस्यैववस्तुन:सत्त्वेनोपयोगात् तथाहि प्रदेशप्रदेशिनोर्भदो वा स्यादभेदो वा १ यदि प्रथमः पचस्तर्हि भेदेनोपलब्धिप्रसंगो, न च तथोपलब्धिरस्ति, अथाभेदस्तर्हि धर्मप्रदेशशब्दयो पर्यायतैव प्राप्ता, एकार्थविषयत्वात् न च पर्यायशब्दयोर्युगपदुच्चारणं युज्यते, एकेनैव तदर्थं प्रतिपादने द्वितीयस्य वैयर्थ्यात, तस्मादेकाभिधानभिधेयं परिपूर्णमेकमेववस्त्विति, तदेवमेतेनिजनिजार्थ सत्यता प्रतिपादनपरा विप्रतिपन्ते नयाः, एते च परस्पर निरपेक्षा दुर्नया:, सौगतादिसमयवत्, परस्परसापेक्षास्तु सुनया:, तैश्चपरस्पर सापेक्षैः समुदितैरेव सम्पूर्ण जिनमतं भवति, नैकैकावस्थायाम्, उ
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भावप्रमाणम्
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स्तुतिका रे -" उदधाविव सर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयि नाथ | दृष्टयः न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरितास्ववोदधिः ॥ १ ॥ एते च नया ज्ञानरूपास्ततो जीवगुणत्वेन यद्यपि गुणप्रमाणेऽन्तर्भवन्ति तथापि प्रत्यक्षादि प्रमाणेभ्यो नयरूपतामात्रेण पृथक् प्रसिद्धत्वाद्बहुविचार विषयत्वाज्जिनागमे प्रतिस्थानमुपयोगित्वाच्च जीवगुणप्रमाणात् पृथगुक्ताः, तदेत् प्रदेशदृष्टांतेनेति निगमनम् । प्रस्थकादिदृष्टांतत्रयेण च नयप्रमाणं प्रतिपाद्योपसंहर्शत - तदेतन्नयप्रमाणमिति । अनेन च दृष्टांतत्रयेण दिग्माप्रदर्शनमेव कृतं यावता यत्किमपि जीवादि वस्वास्ति तत्र सर्वत्र नयविचार: प्रवर्तते, इत्यलं बहुजल्पितेनेति ॥ १४५ ॥
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अनुयोगद्वारसूत्र - मलधारीयावृत्तिः, प्रमाणद्वारम् ।
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अथ नयहारमभिधित्सुराह-- मूलः-से किं तं णए ? सत्त मूलणया पएणत्ता, ।। तंजहा- णेगमे संगहे ववहारे उज्जुसुए सद्दे समभिरूढे एवं भूए, तत्थ–णेगेहिं माणेहिं मिणइति णेगमस्स य निरुत्ती । सेसाणंपि नयाणं लक्खरणमिणमो सुणह वोच्छं ॥ १३६ संगहिअपिडिअत्थं संगहवयणंसमासो विति । बच्चा विणिच्छित्थं ववहारो सव्व दवेसु ॥१३७॥ पच्चु - प्पनग्गाही उज्जुसुरो णयविही मुणेअब्यो । इच्छइ विसे सियतरं पञ्च प्पएणं णो सहो ।। १३८ ।। वत्थूलो संकमणं होइ अवत्थू नए समभिरूढे। वंजण अत्थ तदुभयं एवंभूत्रो विसेसेइ ।। १३६ ।।
टीका:- श्रथ कोऽयं पूर्वोक्त शब्दार्थो नयः । तत्रोत्तरभेदापेक्षया सप्तैव मूलभूता नयाः मूल नयाः, तद् यथा नैगम इत्यादि तत्र नगमं व्याचिख्यासुराह-रणेगेहिमित्यादि गाथा, व्याख्या-न एक नैक प्रभूतानीत्यर्थः नैकर्मानैः-महासत्तासामान्यविशेषादिज्ञानैमिमीतेमिनोति वा वस्तूनि परिच्छिनत्तीति नैगमः इतीयं नैगमस्य निरुक्ति:
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नयद्वारम व्युत्पत्तिः, अथवा निगमा-लोके वसामि निर्यगलोके वसामीत्यादयः पूर्वोक्ता एव वह्वः परिच्छेदास्तेषु भवो नैगमः, शेषाणामपि नयानां संग्राहादीनां लक्षणमिदं शृणुत वक्ष्येऽहमिति गाथार्थः ॥ यथा प्रतिज्ञोतमेवाह "संगहि गाहा, व्यख्या-सम्यग् गृहीत-उपात्त: संगृहीतः पिण्डित एकजातिमापन्नोऽर्थो विषयो यस्य संग्रहवचनस्य तत् संग्रहीतपिण्डितार्थ संग्रहस्यवचनं संग्रहवचनं 'समासतः, संक्षेपतो अवतो तीर्थकरगणधाराः, अयंहि सामान्येमेवेच्छति न विशेषान, ततोऽस्य वचनं संगृहीतसामोन्यार्थमेव भवति, अत एव सङ्ग्रह्णातिसामान्यरूपतया सर्व वस्तु क्रोडीकरोतीति संग्रहोऽयमुच्यते, युक्ति श्चात्र लेशतः प्राग्दर्शितैव, “वच्चई" त्यादि, निराधिक्ये चयनं चयः पिण्डीभवनं अधिकश्चयो निश्चयः-सामान्यं विगतो निश्चयो विनिश्चयोसामान्याभावः तदर्थ-तन्निमित्तं व्रजति-प्रवर्तते, सामान्याभावायैव सर्वदा यतते व्यवहारो नय इत्यर्थः, क ! 'सर्व द्रव्येषु' द्रव्य विषये, लोके हि घट स्तम्भाभोरुहादयो विशेषा एव प्रायो जलाहरणादि क्रियासूपयुज्यमाना दृश्यन्ते न पुनस्तदतिरिक्तं सामान्यम, अतो लोकव्यवहारानङ्गत्वात् सामान्यमसौ नेच्छती ति भोवः, अत एव लोकव्यवहार प्रधानोनयो व्यवहारनयोऽसावुच्यते, युक्तिश्चात्रापिलेशतः प्रागुक्तैव, अथवा विशेषेण निश्चयो विनिश्च:-आगोपालाद्यंगना (घ) वबोधो न कतिपय विद्वत्सम्बद्धः तदर्थ व्रजति व्यवहारनयः सर्व द्रव्येषु. इदमुक्तं भवति यद्यपि निश्चयेन घटादिवस्तूनि सर्वाण्यपि प्रत्येकं पचवर्णानि द्विगंधानि पंचरसान्यष्टस्पर्शानि तथाऽपि गोपालाङ्गनादीनां यत्रैव कांचदे कस्मिन् स्थले कालनीलवर्णदौ विनिश्चयो भवति तमेवासौ सत्वेन
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जैनागमन्यायसंग्रहः प्रतिपद्यते न शेषान्, लोकव्यवहारपरत्वादेवेति गाथार्थः ॥ 'पच्चुप्पन्नगाहा' साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नमुच्यते वर्तमानकालभावीत्यर्थः, तद् ग्रहीतु शीलमस्येति प्रत्युत्पन्नप्राही ऋजुसूत्रो नविधिमुणितव्यः, तत्रातीतानागतयाभ्युपगमकुटिलतापरिहारेण ऋजु-अकुटिलं वर्तमान काल भावि वस्तु सूत्रयतीति ऋजुसूत्रः, अतीतनागतयो विनाशानुत्पत्तिभ्यामसत्वात्. असदभ्युपगमश्च कुटिल इति भावः, अथवा ऋजु - अवक्र' श्रुतमस्येति ऋजुश्रुतः' शेषज्ञानैमुख्यतया तथाविधपरोपकारासाधनात् श्रुतज्ञानमेवैक मिच्छतीत्यर्थः, उक्तंच-सुयनाणे अनिउतं केवलेतयाणंतरं । अप्पणो य परेसिं च, जम्हा तं परिभावगं ॥ छाया ।। श्रुतज्ञाने च नियुक्त (नियोक्त्तु योग्य) केवलेतदनन्तरम् । आत्मनश्च परेषाश्च यस्मात्तत् परिभावकम् ॥१॥ त्ति, अयश्च नयो वर्तमानमपीच्छन् स्वकीयमेवेच्छति. परकीयस्य स्वाभिमत कार्यसाधकत्वेन वस्तुतोऽसत्वादिति, अपरश्च-भिन्न लिगैभिन्नवचनैश्च शब्दैरेकमपि वस्त्यभिधीयते इति प्रतिजानीते--
यथा तटः तटी तटमित्यादि, तथा गुरुगुर्वः इत्यादि, तथा इंद्रादेर्नामस्थापनादिभेदान् प्रतिपद्यते, वन्क्ष्यमाणनयस्त्वतिविशुद्धत्वात् लिंगवचनभेदात् वस्तुभेदं प्रतिपत्स्यते, नामस्थापनाद्रव्याणि च नाभ्युपगमिष्यतीति भावः, इत्युक्त ऋजुसूत्रः ॥ अथ शब्द उच्यते-तत्र “शप
आक्रोशे" शप्यते अभिधीयते वस्त्वनेनेति शब्दः, तमेव गुणीभूतार्थ मुख्यतया यो मन्यते स नयोऽप्युपचाराच्छन्दः, अयश्च प्रत्युपत्पन्न वर्तमानं तदपि ऋजुसूत्राभ्युपगमापेक्षया विशेषित्तरमिच्छति, तथाहि तटस्तटी तटमित्यादि शब्दानां भिन्नान्येवाभिधेयानि, भिन्नलिंगवृतित्वात् ,
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नयद्वारम्
४१ स्त्रीपुरुषनपुस्क शब्दवदित्यसौप्रतिपद्यते, तथा गुरुगुरवः इत्यत्राप्याभिधेयभेद एव, भिन्नवचनवृत्तित्वात्पुरुषः पुरुषा इत्यादिवदिति, नामस्थापनाद्रव्यरूपाश्च नेन्द्राः, तत् कार्याकरणात खपुष्पवदिति प्राक्तनाद्विशुद्धत्वाद्विशेषिततरोऽस्याभ्युपगमः, समानलिंगवचनानां तु बहनामपि शब्दानामेकमभिधेयमसौ मन्यते, यन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादि इति गाथार्थः ॥ “वत्थूओ' इत्यादि, वन्तुनः- इंद्रादेः सङ्क्रमणमन्यत्र शक्रादाविति दृश्य, भवति अवस्तु अभवतीत्यर्थः, के त्याह नये-समभिरूढे, समभिरूढ़नयमतेनेत्यर्थः, तत्र वाचकभेदेनापरापरान् वाच्यविशेषान समभिरोहति समभिगच्छति प्रतिपद्यत इति समभिरूढः, अयमत्रभाव!ः- इंद्रशक्रपुरन्दरादिशब्दान् अनन्तरं शब्दनयेन एकाभिधेयत्वेनेष्टानसौ विशुद्धतरत्वात् , प्रत्येकं भिन्नाभिधेयान् प्रतिपद्यते, भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् सुरमनुजादि शब्दवत, तथाहि-इन्दतीति इन्द्रः शक्नोतीति शक्रः पुरं दारयतीति पुरंदरः, इह परमेश्वर्यादीनि भिन्नान्येवात्र प्रवृत्तिनिमित्तानि, एवमप्येकार्थत्वे अतिप्रसंगो, घटपटादिशब्दानामप्येकार्थताऽऽपत्तेः, एवं च सति यदा इन्द्रशब्दः शक्रशब्देन सहकार्थ उच्यते तदा वस्तुनः परमैश्वय्येस्य शकनलक्षणे वस्त्वन्तरे संक्रमणं कृतं भवति, तयोरेकत्वमापादितं भवतीत्यर्थः, तच्चासम्भवित्वादवस्तु, नहि य एव परमैश्वर्य्यपर्यायः स एव शकनपर्यायो भवितुमर्हति, सर्वपयोयसाकर्यापत्तिताऽतिप्रसंगादित्यलं विस्तरेण, उक्तः समभिरूद: । 'वंजण अत्थे। त्यादि, यत् क्रियाविशिष्टं शब्देनोकयते तामेवक्रियां कुर्वद् वस्त्वेवंभूतमुच्यते, एवं यः शब्देनोच्यते चेष्टाक्रियादिकः-- प्रकारस्तमेवंभूतं प्राप्तमितिकृत्वा, ततश्चैवंभूतवस्तुप्रति
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जैनागमन्यायसंग्राह पादको नयोऽप्युपचारादेवभूतः, अथवा एवं-यः शब्देनोच्यते चेष्टाक्रियादिकः प्रकारस्तविशिष्टस्यैव वस्तुनोऽभ्युपगमात्तमेवंभूत-प्राप्त एवंभूत इत्युपचारमन्तरेणापि व्याख्यायते, स एवं भूतोनयः किमित्याह व्यज्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनं शब्दः अर्थस्तु तदभिधेयवस्तुरूपः व्यञ्जनञ्चार्थश्च व्यञ्जनार्थों तौ च तौ तदुभयं चेति समासः व्यञ्जनार्थशब्दयायस्तनिर्देशः प्राकृतत्वात्, तव्यञ्जनार्थतदुभयं विषयति-नयत्येन स्थापयति, इदमत्र हृदयम्-शब्दमर्थनार्थ च शब्देन विशेषति, यथा “घ_ ट चेष्टायां घटते योषिन्मस्तकाद्यारूढश्चेष्टते इति घट इति, अत्र तदे. वासौ घटो यदा योषिन्मस्तकाद्यारूढतया जलाहरणचेष्टावोन नान्यदा, घटध्वनिरपि चेष्टां कुर्चत एव तस्य वाचकोनान्यादेत्येवं चेष्टावस्थातोऽन्य त्र घटस्य घटत्वं घट शब्देन निवत्येते, घटध्वनेरपि तदवस्थातोऽन्यत्र घटेन स्ववाचकत्वं निवत्यैते इति भावः इति गाथार्थः।। उक्ता मूल नया: एषाश्चोत्तरोत्तरभेदप्रभेदा आवश्यकादिभ्योऽवसेयाः एते च सावधारणाः सन्तो दुर्नयाः, अवधारणविरहितास्तु सुनयाः, सर्वैश्च सुनयैर्मीलितैः स्याद्वाद इत्यलं बहुभाषितया ॥ अत्राह कश्चित् -- ननूक्ता एते नयाः, केवलं प्रस्तुते किमेतैः प्रयोजनमिति नावगच्छामः, उच्यते, उपक्रमेणोपक्रान्तस्य निक्षेपेण च यथासम्भवं निक्षिप्तस्यानुगमेनानुगतस्य च प्रक्रान्तसामायिकाध्ययनस्य विचारणाऽमीषां प्रयोजनम् । पुनरप्याह नन्वेषा नयैर्विचारण किं प्रतिसूत्रमभिप्रेता सर्वाध्ययनस्य वा ? यद्याद्यः पक्षः स न युक्त, प्रतिसूत्रं नयविचारस्य "न नया समोयरंति इह " मित्यनेन निपिद्धत्वात, अथोपरः पक्षः सोऽपि न युक्तः, समस्ताध्ययन विषयस्यनयविचारस्य प्रागुपोद्घातनियुको
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नयद्वारम्
" नए समोयारणागुमए ” इत्यत्रोपन्यस्तत्वात्, न च सूत्रव्यतिरिक्त मध्ययनमस्ति यन्नयैर्विचाय्यते, अत्रोच्यते, यस्तावत्प्रतिसूत्रं नयविचारनिषेधः प्रेयेते तत्राविप्रतिपत्तिरेव, किं च-आसज्ज उ सोयारं नए विसारो वया ।। छाया-आसाद्य तु श्रोतारं नयान् नय विशारदो ब्रूयात् इति, इत्यनेनापवादिक: सोऽनुज्ञात एव, यदप्युच्यते-समस्ताध्ययनविपस्य नविचारस्य प्रागुपोद्घाते " त्यादि, तत् समयानभिज्ञस्यैव वचनं, यस्माद्विमेव चतुर्थानुयोगद्वारं नयवक्तव्यताया मूलस्थानम् , अत्र सिद्धानामेव तेषां तत्रोपन्यासः; यदप्युक्त" नच सूत्र व्यतिरिक्तमध्ययन मित्यादि, तदप्यसारंसमुदाय समुदायिनो: कार्यादिभेदतः कथञ्चिद्भेदसिद्धेः, तथाहि-प्रत्येकावस्थायामनुपलब्धमप्युद्वहन सामर्थ्यलक्षणं कार्य शिविकाबाहकपुरुषसमुदाये उपलभ्यते, एवञ्च प्रत्येकसमुदितावस्थयोः कार्यभेदः शिविकावाह नादिषु सामर्थ्यासामर्थ्य लक्षणो विरुद्धधर्माध्यासश्च दृश्यते, यदि चाय मपि न भेदकस्तर्हि सर्व विश्वमेकं स्यात् ततश्च सहोत्पत्त्यादि प्रसङ्गः, तस्मात् कार्यभेदाद् विरुद्धधर्माध्यासाच्च समुदाय समुदायिनोभेर्दः प्रत्तिपत्तव्यः, एवं संख्या संज्ञादिभ्योऽपि तद्भेदो भावनोयः, तस्मात् कश्चित् कचित् सूत्र विषयः समस्ताध्ययन विषश्च नय विचारो न दुष्यति, भवत्वेवं तथा ऽप्यध्ययनं नयैर्विचा-माणं किं सर्वैरेव विचायते ? आहोस्विद् कियद्भिरेव १ यदि सर्वैरिति पक्षः स न युक्त;, तेषाम संख्येयत्वेन तैविचारस्य कर्तु मशक्यत्वात्, तथाहि-यावन्तो वचन मागों स्तावन्त एव नया:, यथोक्तम्-जावइया वयणप्पहा तावइया चेव होंति नयवाया ॥ जावइया नयवाया तावइया चेव परसमया ॥१॥छाया
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जैनागमन्यायसं पह
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यावन्तो वचनपथास्तावन्तश्चैव भवन्ति वादा स्तावन्तश्चैव पर समयाः ॥ १ ॥ विरचितानां वचनमार्गाणां संख्या समस्ति, प्रतिप्रारिण प्रायोः भिन्नत्वादभिप्रायाणां नापि कियद्भिरिति वक्त शक्यम्, अनवस्था प्रसङ्गात्; संख्यातीतेषु हि तेषु यावदेभिर्विचारणा क्रियते तावदेभिरपि किं नेत्यनवस्था प्रेरणायां न नैयत्यावस्थापकं हेतु मुल्य श्याम:, अथापि स्यादसंख्येयत्वेऽप्येषां सकलनयसंग्राहिभिनयैर्विचारो विधीयते ननु तेषामपि संग्राहिनयानामनेकविधत्वात् पुनरनवस्थैव, तथाहि पुर्वविद्भिः सकलनयसंग्राहीणि सप्तनयशतान्युक्तानि यत् प्रतिपादकं सप्तशतारं नय चक्राध्ययनमासीद्, उक्तञ्च, एक्कक्को य सयविहो सत्त नय सया हवंति एवमेवेत्यादि, छाया - एकैकश्च शतविधः सप्तशतानि नया भवन्ति, एवमेव, सप्तानां च नयशतानां संग्राहकाः पुनरपि विध्यादयो द्वादशनया: यत् प्ररूपकमिदानीमपि द्वादशारं नयचक्रमस्ति, एतत् संग्राहिणोऽपि सप्तनैगमादि नया: तत् संग्राहिणौ पुनरपिद्रव्यपर्यायास्तिकौ नयौ ज्ञानक्रियानयौ वा निश्चय व्यवहारौ वा शब्दार्थ नयौवेत्यादि, इति संग्राहक नयानामप्यनेकविधत्वाद् सैवानवस्था, अहो अति निपुणमुक्त, किन्तु प्रक्रान्ताध्ययने सामायिकं विचार्यते, तथमुक्तिफलं ततो यदेवास्य मुक्तिप्राप्तिनिबंधनंरूपं तदेव विचारणीयं, तश्चज्ञानक्रियात्मकमेव, ततो ज्ञानक्रियानयाभ्यामे वास्य विचारो युक्ततरो नान्यैः ॥ तत्र ज्ञाननयो ज्ञानमेव मुक्तिप्रापक तया प्रतिजानीते, ततस्तन्मताविष्करणार्थमाह
मूल:- यायंमि गिरिहन्वे गिरिहअवंमि चेव
नयवाद ।: । यावन्तो नय
नच निजनिजाभिप्राय
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C
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नयद्वारम्
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अत्थमि। जइव्वमेव इइ जो उवएसो सो नम्रो नाम ॥ १४० ॥ सव्वेसिंपि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता । तं सन्न नयविसुद्ध जं चरण गुणडिओ साहु ॥ १४१ ॥ से तं नए । अणुयोगद्दारा सम्मता ( सू० १५२ )
टीका: - " ज्ञाते" सम्यन्- अवगते । गिरिहयव्वे" ग्रहीतव्ये उपादेय इत्यर्थः " अग्रहीतव्ये" अनुपादेये, सच हेय उपेक्षणीयश्व द्वयोरप्यग्रहणाविशेषात् च शब्द उक्त समुच्चये, अथवा अग्रहीतव्य शब्देन हेय एबैको गृह्यते उपेक्षणीयं त्वनुक्तमप्ययमेव चकारः समुचिनोति एवो गाथालंकारमात्रे " श्रत्थमित्ति " अर्थे " ऐहिकामुष्मिके, तत्र ऐहिको ग्रहीतव्यः स्रक्- चन्दनाङ्गनादिः अग्रहोतव्योऽहिविष कण्टकादिरुपेक्षणीयस्तृणादिः, आमुष्मिको महोतव्य:सम्यग्दर्शनचारित्रादिः ग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिरुपेक्षणीयस्तुस्वविभूत्यादि, एवंभूतेऽर्थे यतितव्यमेवेति, अत्रैव कारोऽवधारणे, तस्य च व्यवहितः प्रयोगः तद् यथा ज्ञात एवेति, तदयमर्थो - ग्राह्यग्राह्योपेक्षणीयेऽर्थे ज्ञात एव तत् प्राप्तपरिहारोपेक्षार्थिना यतितव्यं प्रवृत्यादि प्रयत्नः कार्य्य इति, "इति” एवंभूतः सर्वव्यवहाराणां ज्ञान निबन्धनत्व प्रतिपादनपरो य उपदेशः स किमित्याह -" नय " इति प्रस्तावाज् ज्ञाननयो “नामेति । शिष्यामंत्रणे इत्यक्षरघटना ॥ भावार्थस्त्वयम् - इह ज्ञाननयोज्ञानप्राधान्यख्यापनार्थं प्रतिपादयति- नन्वैहिका मुष्मिक फलार्थिना तावत्सम्यग्विज्ञात एवार्थे प्रवर्तितव्यम्, अन्यथा प्रवृत्तौ फलविसंवाददर्शनाद् आगमेऽपि च प्रोक्त-पढमं नाणं तदए"
लक्षण:
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जैनागमन्यायसंग्रह
४६
त्यादि, जंन्नाणी कम्मं खवेई, त्यादि, तथा अपरमप्युक्तम् । पावाओ वियित्ती पवत्तरणा तह य कुसल पक्खमि । वियरस य पडिवत्ती तिनिवि नाणेसमप्पति || १ || छाया || पापाद्विनिवृत्तिः प्रवर्तना तथा च कुशलपक्षे । विनयस्य च प्रतिपत्तिस्त्रीण्यपि ज्ञानात् समाप्यन्ते ॥ १ ॥ तथान्यैरयुक्त' - " विज्ञप्ति. फलदा पुसा न क्रिया फलदा मता । मिथ्या ज्ञानात्प्रवृत्तस्य फलासंवाददर्शनात् ॥ १ ॥ इति इतश्च ज्ञानस्यैव प्राधान्यं यतस्तीर्थकर गरधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारोऽपि निषिद्ध:, तथा च तद् वचनम् - गtयत्थो य विहारो बोओ गीयत्थमीसिओ भणि । इत्तो तहयविहारो नागुन्नाओ जिरणवरेहिं ।। छाया - गीतार्थश्र विहारो द्वितीय गीतार्थ मिश्रितो भणितः । एताभ्यां तृतीयो विहारो नानुज्ञातो जिनवरैः ||१|| न यस्मादन्वेनान्यः समाकृष्यमाण: सम्यक् पंथानं प्रति पद्यत इतिभावः, एवं तावत् क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्त, क्षायिक मध्यङ्गी कृत्य विशिष्टफल साधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादर्हतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षां प्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्ग प्राप्तिः संजायते यावदखिल जीवादि वस्तुस्तोम साक्षत्कररणदक्षं केवलज्ञानं नोत्पन्नं, तस्माज्ज्ञानमेव पुरुषार्थसिद्धेर्निबन्धनं, प्रयोगश्चात्र यद् येन विना न भवति तत्तन्निबन्धनमेव, यथा बीजाद्य विनाभावी तीन्नबन्धन एवाङ्कुरो, ज्ञानाविनाभाविनी च सकलपुरुषार्थसिद्धिरिति, ततश्चायं नयश्चतुर्विधे सामायिके सम्यक्त्व सामायिकश्रुतसामायिके एवाभ्युपगच्छति, ज्ञानात्मकत्वेन प्रधानमुक्तिकारणत्वात देशविरतिसर्वविति सामायिके तु नेच्छति, ज्ञान कार्यत्वने गौणत्वात् तयोरिति गाथार्थः ॥ विचारितं
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नयद्वारम्
ज्ञाननयमतेन सामायिकम , अथ क्रियानयमतेन तद् विचार्यते-तत्रासौ क्रियैव सकलपुरुषार्थसिद्धेः प्रधानं कारणमिति मन्यमानो ज्ञाननय मतव्याख्यातामेवमेवगाथामाह -- "नायम्मी” त्यादि, इयं च क्रियानय मतेनेत्थंव्याख्यायते - इह ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैवार्थे सर्वामपि पुरुषार्थसिद्धिमभिलषता यतितव्यमेवप्रवृत्यादिलक्षणा क्रियैव कर्तव्येति, एवमत्र व्याख्याने एवकारः स्वस्थान एव योज्यते, एवंचमति ज्ञातेऽप्यर्थे क्रियैव साध्या, ततो ज्ञानं क्रियोपकरणत्वाद्गौणमित्यतः सकलस्यापि पुरुषार्थस्य क्रियैव प्रधान कारणमित्येवं य उपदेशः स नयः प्रस्तावात् क्रियानयः, शेषपूर्ववत् । अयमपि स्वपक्षसिद्धये युक्तीरुभावांतननु क्रियैव प्रधानं पुरुषार्थसिद्धिकारणं, यत आगमेऽपि तीर्थकरगणधरै क्रिया विकलानां ज्ञानं निष्फलमेव उक्त', सुबहंपि सुयमहीयं किं काही चरण विमुक्कस्स । अन्धस्स जह पलिता दीवसयसहस्स कोडोयि ।। १ ।। छाया-सुबहपि श्रुतमधीतं किं करिष्यति चरण विप्रमुक्तस्य । अधस्य यथा प्रदीप्ता दोपशत सहस्रकोट्यपि ॥ नाणं सविसयनिययं न नाण मित्तण कज निष्फत्ती, मग्गरणू दिटुंतो होइ सचिट्ठो अचिट्ठो य ॥ १२। छाया-ज्ञानं स्वविषय नियनं न ज्ञानमात्रेण कार्यनिष्पत्ति: । मागेज्ञो दृष्टान्तोभवति सचेट्रोऽचेष्टश्च ॥२॥ जाणतोऽविय तरिउ काइयजोगं न जुजई जो । सो वुझइ सोएणं एवं नाणी चरणहीणो । ३॥ छाया--जानन्नपि तरीतु कायिकयोग न युनक्ति यस्तु । स उह्यते स्त्रोतसा एवं ज्ञानी चरणहीनः ॥ ३॥ जहा खरो चंदण भारवाही " इत्यादि, छाया--यथा खरश्चन्दन भारवाही" इत्यादि, तथा अन्यरप्युक्तम् -- क्रियैव फलदापसां न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्य भोगज्ञो न ज्ञानात्सु खितोभवेद् ॥१॥ इति एवं तावत् क्षायोपशमिक चरणक्रियामङ्गीकात्य
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जैनागमन्यायसंग्रहः
प्राधान्यमुक्तम् । अथ क्षायिकीमप्याश्रित्य तस्या एव प्राधान्यमवसेयम् । यस्मादहतोऽपि भगवतः समुत्पन्न केवलज्ञानस्यापि न तावत् मुक्त्यावाप्तिः संपद्यते यावदखिलकर्मेन्धानानल ज्वाला कलापरूपायां शैलेश्यवस्थायां सर्वसंवररूपां चारित्र क्रियां न प्राप्नोति तस्मात् क्रियैव प्राधाना सर्व पुरुषार्थ सिद्धि कोरणं; प्रयोगश्चात्र यद्यत्समनान्तरभावि तत्तत् कारणं यथा अन्त्यावस्था प्राप्त पथिव्यादिसामग्रयनन्तरभावी तत् कारणोऽङ्कुरः क्रियानन्तरभाविनी च सकलपुरुषार्थसिद्धिरिति, ततश्चैष चतुर्विधेसामायिके देशविरति सर्व विरतिसामायिके एव मन्यते, क्रियारूपत्वेन प्रधानमुक्तिकारणत्वात् सम्यक्व श्रुतसामायिके तु तदुपकारित्वमात्रतो गौणत्वान्नेच्छति इति गाथार्थ ॥ ननु पक्षद्वयेऽपि युक्तिदर्शनात् किमिह तत्त्वमिति न जानीम इति शिष्यजनसम्मोहमाशंक्यज्ञानक्रियानयमतप्रदर्शनानन्तरं स्थित पक्षं दर्शयन्नाह - _ "सव्वेसिपिगाहा, न केवलमनन्तरोक्त नयद्वयस्य' किं तर्हि ? सर्वेषामपि' स्वतंत्रसामान्यविशेषवादीनां नामस्थापनादिवादीनां वा नयानां "वक्तव्यतां' परस्परविरोधिनी प्रोक्ति "निशम्य' श्रुत्वा तदिह “सर्वनयविशुद्धं सर्वनयसम्मतं तत्त्वरूपतया ग्राह्य, यत् किमत्याह- यच्चरण गुणस्थितः साधुः' चरणं चारित्रक्रिया गुणोऽत्रज्ञानं तयोस्तिष्ठतोति चरणगुणस्थ:, ज्ञानक्रियाभ्यां द्वाभ्यामपि युक्त एव साधुः मुक्तिसाधको न पुनरेकेन केनचिदितिभावः, तथाहि-यत्तावज्ज्ञानवादिनाप्रोक्त -यद्येन विना न भवति तत्तन्निबन्धमेवेत्यादि, तत्र तदविनाभावित्त्वलक्षणो हेतुरसिद्ध एव. ज्ञानमात्राविनाभाविन्याः पुरुषार्थसिद्धेः काप्यदर्शनात् न हि
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नयद्वारम्
४६ दाह पाकाद्यर्थिनां दहन परिज्ञानमात्रादेव तत् सिद्धिर्भवति, किन्तु तदानयनसंधुक्षणज्वालादिक्रियानुष्ठानादपि, न च तीर्थकरोऽपि केवलज्ञान मात्रान्मुक्तिं साधयति, किन्तु यथाख्यात चारित्रक्रियातोऽपि , तस्मात् सर्वत्र ज्ञानक्रियाविनाभाविन्येव पुरुषार्थसिद्धिः, ततस्तदविनाभावित्वलक्षरणो हेतुर्यथा पुरुषार्थसिद्धेनिनिबन्धनत्वं साधयति तथा क्रियानिबन्धनत्वमपि, तामप्यन्तरेण तदसिद्धेरित्यनेकान्तिकोऽप्यसाविति, एवं क्रिया वादिनापि यद्यत्समनन्तरभावि तत्तत् कारणमित्यादि प्रयोगे यस्तदनन्तरभावित्त्वलक्षणो हेतुरुक्तः सोऽप्यसिद्धो नैकान्तिकश्च तथाहि-स्त्री भक्ष्य भोगादिक्रिया कालेऽपि ज्ञानमस्ति तदन्तरणतत्र प्रवृत्तरेवायोगात् , एवं शैलेश्यवस्थायां सर्व संवर रूप क्रिया कालेऽपि केवलज्ञानमस्ति, तदन्तरेण तस्या एवाप्राप्तः, तस्मात् केवल क्रियानन्तर भावित्वेन पुरुषार्थस्य काप्यसिद्धर सिद्धो हेतुः, यथा च तदनन्तरभावित्वलक्षणो हेतुः क्रियाकारणत्वं मुक्तयादि पुरुषार्थस्य साधयति तथा ज्ञानकारणत्वमपि, तदप्यन्तरेण तस्य कदाचिदप्यभावातदित्यनैकान्तिकताऽप्यस्येति, तस्मात् ज्ञान क्रियोभयसाध्यैव मुक्तयादि सिद्धिः, उक्तञ्च-हयं नाणं कियाहीणं हया अन्नाणो किया। पासंतो पंगुलोदड्ढो धावमाणो य अंधओ ||१छाया-हतं ज्ञानं क्रिया होनं हता अज्ञानतः क्रियापश्यन् पंगुर्दग्धो धावंश्चान्धः ।। संयोग सिद्धी अ फलं वयंति नहु एग चक्केण रहो पयाइ । अँधो य पंगू य वणे समेच्चा, ते संपउत्ता नयरं पविट्ठा ॥२॥ छाया-संयोग सिद्धयाफल फलं वदंति नैवैक चक्रेण रथः प्रयाति, अन्धश्च पंगुश्च वने समेत्य तौ सम्प्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ॥ २॥ इत्यादि, अत्राह नन्वेवं ज्ञान क्रिययोमुक्त्यवापिका शक्तिः प्रत्येकमसती समुदायेऽपिकथंस्यात् ?
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जैनागमन्यायसंग्रहः
५०
नहि यद्येषु प्रत्येकं नास्ति तत्तेषुसमुदितेष्वपि भवति यथा प्रत्येक मसत् समुदितेष्वपि सिकता करणेषु तैलं प्रत्येकमसती च ज्ञानक्रिययोर्मुक्त्यवापिका शक्तिः, उक्त - पत्तेयमभावाओ । निव्वाणं समुदियालुवि न जुत्तं । नाा किरियासु वोतु' सिकता समुदाय तेल्लं व ॥१॥ छायाप्रत्येकमभावान्निर्वाणं समुदितयोरपि न युक्तम् । ज्ञान क्रिययोक्तु सिकता समुदाय तैलमिव ॥ १ ॥ उच्यते, स्थादेतत् यदि सर्वेथा प्रत्येकं तयोर्मु क्त्यनुपकारिताऽभिधीयेत यदा तु तयोः प्रत्यकं देशोपकारिता समुदाये तु संपूर्णा हेतुता तदा न कश्चिद्दोषः, श्रह च वीसु न सव्वहच्चिय सिकता तेल्लं व साहरणाभावा । देसोवगारिया जा सा समवायं मि संपुरणा ।। छाया - विष्वक् न सर्वथैव सिकता तैलवत् साधनाभावः । देशोपकारिता या सा समवाये सम्पूर्णा ||१|| अतः स्थितमिदं ज्ञान क्रिये समुदिते एव मुक्ति कारणं न प्रत्येकमिति तत्त्वम् । तथा च पूज्याः - नारणाही सव्वं नाग नओ भगइ किं च किरियाए १ । किरियाए चरण नयो तदुभयगाहो य सम्मत्तं ||२|| ज्ञानाधीनं सर्वं ज्ञाननय भगति किं च क्रियया । क्रियया ( अधीनं) चरण न यस्तदुभय ग्राहव सम्यक्त्वम् ।। १ ।। तस्माद् भाव साधुः सवैरपि नरिष्यत एव स च ज्ञान क्रियायुक्त एवेत्यतो व्यवस्थितमिदं तत्सर्व न विशुद्धं यच्चरण गुण व्यवस्थितः साधुरिति । तदेवं समर्थितं नय द्वारं तत्समर्थ ने च समर्थितानि चाप्युपक्रमाहोनि द्वाराणि तत् समर्थने च चानुयोग द्वारशास्त्र समाप्तम् ।
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अथश्रुतनिश्रितम्
? २ चउब्विहं
मूल:- से किं तं सुत्र निस्सि पण्णत्तं तं जहा उग्गह १ ईहा २ अवाओ ३ धारणा ४ ( सू० २७)
""
टीका :- " से किं त" मित्यादि, अथ किं तच्छुतनिश्रितं मतिज्ञानम् १ गुरुराह— श्रुतनिश्रतं मतिज्ञानं चतुर्विधं प्रज्ञप्त, तद्यथा अवग्रह ईहा पायो भरणा च तंत्र अवग्रहणमवग्रहः अनिर्देश्यसामान्य मात्र रूपार्थग्रहणमित्यर्थः यदाह चूणिकृत् " सामन्नरसरूवादि विसेसण रहियस्स अनि सरस अवगणमवग्ग" इति । तथा ईहनमीहा, सद्भूतार्थ पर्यालोचनरूपा चेष्टा इत्यर्थः किमुक्त भवति - श्रवमहादुत्तर कालमवायात्पूर्वं सद्भूतार्थ विशेषोपादानाभिमुखोऽसदभूतार्थ विशेष परित्यागाभिमुख: प्रायोऽत्र मधुरत्वादयः शंखादि शब्दधर्म्मा दृश्यन्ते न स्वरककेश निष्ठुरतादय शार्ङ्गदि शब्दधर्म्मा इत्येवं रूपो मतिविशेष ईहाश्रहच भाष्यकृत् - " भूयाभूय विसेसादाराच्चायाभिमुद्दमीहा " तथा तस्यैवाव ग्रहीतस्येहितस्यार्थस्य निर्णयरूपोऽध्यवसायोऽवाय: शांख एवायं शाङ्ग एवा (व वा ) यमित्यादि रूपोऽवधारणात्मक प्रत्ययोsवाय इत्यर्थः तस्यैवार्थस्य निरणीर्तस्य धरणं धारणा, साच त्रिधा - अविच्युतिर्वासना स्मृतिम्य तत्र तदुपयोगादत्रिच्यवनमविच्युतिः साचान्तमुहूर्त्त प्रमाणा,
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जैनागमन्यायसंग्रहः ततस्तयाऽऽहितो यः संस्कारः स वासना, सा च संख्येयमसंख्येयं वा कालं यावद् भवति, ततः कालान्तरे कुतश्चित्ताहरार्थ दर्शनादि कारणात् संस्कारस्य प्रवोधे यज ज्ञानमुदयते-तदेवेदं यत् मया प्राग उपलब्धमित्यादि रूपं सा स्मृतिः, उक्तञ्च तदनंतरं तदत्याविच्चवणं जो उ वासणा जोगो । कालंतरेण जे पुण अनुसरणं धारणा सा उ ॥ १॥ छाया -तदनन्तरं तदर्थ विच्यवनं यस्तु वासना योगः। कालान्तरे यत् पुनरनुस्मरणं धारणा सा तु ॥१॥ एताश्चाविच्युतिवासनास्मृतयो धारणालक्षण सामान्यान्यर्थयोगाद् धारणा शब्द वाच्याः ।।
मूलः-से कि तं उग्गहें ? उग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तंजहाअत्थुग्गहे अ वंजणुग्गहे अ (सू० २८) ___टीका :-"से किं त” मित्यादि; अथ कोऽयमवग्रहः ? सूरि राह अवग्रहो द्विविधा प्रज्ञप्तः तद्यथा-अर्थावग्रहश्च व्यञ्जनावग्रहश्च, तत्र अर्थ्यते इत्यथैः अर्थस्यावग्रहणं अर्थावग्रह:-सकल रूपादिविशेष निरपेक्षा निर्देश्यसामान्यमात्र रूपार्थ ग्रहणमेकसामायकमित्यर्थः, तथा व्यज्यते अनेनार्थऽप्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं, तचोपकरणेन्द्रियस्य श्रोत्रादे: शब्दादिपरिणत द्रव्याणां च परस्परं सम्बन्धः, सम्बन्धे हि सति सोऽर्थ शब्दादि रूपः श्रोत्रादीन्द्रियेण व्यञ्जयितु शक्यते, नान्यथा, ततः सम्बन्धो व्यञ्जनं, तथाचाह भाष्यक्रत्- "वजिज्जइ जेणऽथो घडोव दीवेण वंजणं तं च । उवगरणिदि य सद्दाइ परिणयद्दव्य संबंधो ॥१॥ छाया-व्यज्यते येनार्थो घट इव दीपेन व्यञ्जनं तच्च । उपकरणेन्द्रिय शब्दादिपरिणतद्रव्यसम्बधः ॥१॥ व्यजनेन-सम्बन्धेनावग्रहणं
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श्रुतनिश्रितम् सम्बध्यमानस्य शब्दादि रूपस्यार्थस्याव्यक्तरूप: परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, अथवा व्यज्यते इति व्यञ्जनानि, 'कृबहुल' मिति वचनात् 'कर्मण्यनट व्यञ्जनानां शब्दादिरूपतयापरिणतानां द्रव्याणामुपकरणेन्द्रियसम्प्रा. प्तानामवग्रह:- अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घटः इति व्यञ्जन-उपकरणेन्द्रियं तेन स्वसम्बद्धस्यार्थस्य-शब्दादे रवग्रहणम्-अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, इयमत्र भावना-उपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धे प्रथम समयादारभ्यार्थावग्रहात् प्राक् या सुप्तमत्तमूच्छितादिपुरुषाणामिव शब्दादिद्रव्यसम्बन्धमात्र विषया काचिदव्यक्ता ज्ञानमात्रा सा व्यञ्ज नावग्रहः, स चा तमुहूत्तंप्रमाणः। अत्राह --ननु व्यञ्जनावग्रहवेलायां न किमपि संवेदनं संवेद्यते, तत् कथमसौ ज्ञानरुपो गीयते ? उच्यते, अव्यक्तत्वान्न संवेद्य ते, ततो न कश्चिद्दोषः, तथाहि-यदि प्रथमसमयेऽपि शब्दादिपरिणतद्रव्यैरुपकरणेन्द्रियस्य सम्पृक्तौ काचिदपि न ज्ञानमात्रा भवेत्, ततो द्वितीयेऽपि समये न भवेत, विशेषाभावात्, एवं यावञ्चरमसमयेऽपि, अथ च चरमसमये ज्ञानम
र्थावप्रहरूपं जायमानमुपलभ्यते, ततः प्रागपि कापि कियती ज्ञान मात्रा द्रष्टव्या, अथ मन्येथाः --माभूत् प्रथमसमयादिषु शब्दादिपरिणत द्रव्य सम्बन्धेऽपि काचिदपि ज्ञानमात्रा, शब्दादिपरिणतद्रव्याणां तेषु समयेषु स्तोकत्वात, चरमसमये तु भविष्यति, शब्दोदिरूपपरिणतद्रव्य समूहस्य तदानीं भूयसो भावात् , तदयुक्त', यतो यदि प्रथमसमयादिषु शब्दादिद्रव्याणां स्तोकत्वात् सम्पृक्तावव्यक्ताऽपि काचिदपि ज्ञानमात्रा न समुल्लसेत् , तर्हि प्रभूतसमुदायसम्पर्केऽपि न भवेत , न खलु सिकता
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जैनागमन्यायसंग्रहः कणेषु प्रत्येकमसति तैललेशे समुदायेऽपितैलं समुद्भवदुपलभ्यते, अस्ति च चरमसमये प्रभूतशब्दादिद्रव्यसम्पृक्तौ ज्ञानं ततः प्राक्तने ध्वपि समयेषु स्तोकस्तोकतरैरपि शब्दादिपरिणतद्रव्यैः सम्बन्धे का चिदव्यक्ता ज्ञानमात्राऽभ्युपगंतव्या, अन्यथा चरमसमयेऽपि ज्ञानानुपपत्तेः तथा चोक्त ---"जं सव्वहा न वीसु सव्वेसुवि तं न रेणुतेलंब । पत्तेयमणिछतो कहमिच्छसि समुदये नाणं ॥५॥ छाया - यत् सर्वथा न विष्वक सर्वेष्वपि नत् न रेणु तैलवत् । प्रत्येकमनिच्छन् कथमिच्छसि समुदाये ज्ञानम् ॥ १ ॥ ततः स्थितमेतत्-व्यञ्जनावग्रहो ज्ञानरूप: केवलं तेषु ज्ञानमव्यक्तमेव वोद्धव्यं । च शब्दौ स्वगतानेकभेदसूचकौ । ते च स्वागता अनेक भेदो अग्र' स्वयमेव सूत्रकृता वर्णयिष्यन्ते, आह-प्रथमं व्यज्जनावग्रहो भवति ततोऽर्थावग्रहः, ततः कस्मादिह प्रथममर्थावग्रह उपन्यस्तः ?, उच्यते, स्पष्टतयोपलभ्य मानत्वात्, तथाहि-अर्थावग्रहः स्पष्टरूपतयासर्वैरपि जन्तुभिः संवेद्यते, शीघ्रतरगमनादौ सकृत् सत्वरमुपलम्भे मया किञ्जिद दृष्टं परं न परि भावितं सम्यगिति, व्यवहारदर्शनात् , अपि च-अर्थावग्रहः सर्वेन्द्रियमनोभावी व्यञ्जनावग्रहस्तु नेति प्रथममर्थावग्रहः उक्त: ॥ सम्प्रतितु व्यञ्जनावग्रहाद् ऊर्ध्वमर्थावग्रह इति क्रममाश्रित्य प्रथमं व्यञ्जनावग्रह स्वरूपं प्रतिपिपादयिषुः शिष्य प्रश्नं कारयति
· मृल :-“से किं तं वंजणुग्गहे ? वंजणग्गहे चउविहे पएणत्ते, तंजहा सोइंदिअ वंजणुग्गहे पाणिदिय वंजणुग्गहे जिभिंदिय वंजणुग्गहे फासिदिश वंजणुग्गहे । से तं वंजणु
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श्रुननिश्रितम् ग्गहे (सू २६)
टीका :-'से किं त' मित्यादि, अथ कोऽयं व्यञ्जनावयह: ? आचार्य आह- व्यनजावग्रहश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा- "श्रोत्रेन्द्रयव्यञ्जनावग्रह' इत्यादि, अत्राह-सत्सु पञ्चस्विन्द्रियेषु षष्ठे च मनसि कस्मादयं चतुर्विधो व्यावण्यते ?, उच्यते, इह व्यञ्जनमुपकरणेन्द्रियस्थ शब्दादिद्रव्याणाश्च परस्परं सम्बन्ध उच्यते, सम्बन्धश्चतुर्णामेव श्रोत्रेन्द्रि यादोनां, न नयनमनसोः तयोरप्रोप्यकारित्वात् , अाह-कथमप्राप्यकारित्वं तयोरवसीयते १ उच्यते विषयकृतानुग्रहोपघाताभावात् , तथाहियदि प्राप्तमर्थं चक्षुर्मनो वा गृह्णीयात् तहिं यथा स्पर्शनेन्द्रियं सक चन्दनादिकं अङ्गारादिकं च प्राप्तमर्थ परिच्छिन्दत्तत्कृतानुग्रहोपधातभाम् भवति तथा चक्षुर्मनसी अपि भवेतां विशेषाभावात् न च भवतः तस्मादप्राप्यकारिणी ते, ननु दृश्यते एव चक्षुषोऽपि विषयकृतानुग्रहोपधातो, तथाहि-घनपटलविनिमुक्तेि नभसि सवतो निविडजरटिमोपेतं-कर प्रसरमभिसर्पयन्तमंशुमालिनमनवरतमवलोकमानस्य भवति चक्षुसो विघातः, ५शाङ्ककरकदम्बकं यदिवा तरङ्गमालोपशोभितं जलं तरुमण्डलञ्च शाद्वलं निरंतरं निरीक्षमाणस्य चानुग्रहः, तदेतदपरिभावितभाषितं, यतो न बम: सर्वथा विषयकृतानुपग्रहोपघातौ न भवतः, किन्त्वेतावदेव वदामो-यदा विषयं विषतया चक्षुरवलम्वते तदा तत्कृतावनुग्रहोपघाती तस्य न भवत इति तदप्राप्यकारि, शेषकालं तु प्राप्तेनोपघातकेनोपघातो भविष्यति अनुप्राहकेण चानुग्रहः, तत्रांशुमालिनो रश्मयः सर्वत्रापि प्र. सरमुपदधाना यदांऽशुमालिन: सम्मुखमीक्षते तदा ते चक्षुर्देशमपि प्रा
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जैनागमन्यायसंग्रहः प्नुवन्ति ततश्चतु:सम्प्राप्तास्ते स्पर्शनेन्द्रियमिव चतुरुपघ्नन्ति, शीतांशुरश्मयश्च स्वभावत एव शीतलत्वादनुग्राहकाः, ततस्ते चक्षुःसम्प्राप्ताः सन्तस्ते स्पर्शनेन्द्रियमिव चक्षुरमुगृह्णन्ति, तरंग मालासंकुलजलावलोकने च जलकणसंपृक्तसमोरावयवसंस्पर्शतोऽनुग्रहो भवति, शाब्बलतरुमण्डलावलोकनेऽपि शाड्बलतरुच्छाया सम्पर्कशीती भूतसमीरणसंस्पर्शात् , शेषकालं तु जलवालोकनेऽनुग्रहाभिमान उपघाताभावादवसेयः, भवाते चोपधाताभावेऽनुग्रहाभिमानो यथाऽति सूक्ष्माक्षरनिरीक्षणद्विनिवृत्य यथासुखं नीलीरक्तवस्त्राद्यावलोकने, इत्थं चैतदङ्गीकर्त्तव्यं अन्यथा समाने संपर्के यथा सूर्यमीक्षमाणस्य सूर्येणोपघातो भवति तथा हुतवहजलशूलाद्यालोकने दाहक्लेदपाटनादयोऽपि कस्मान्न भवन्तीति ? । अपि च यदि चक्षुः प्राप्यकारि तहि स्वदेशगतरजोमलाजनशिलाकादिकं किं न पश्यति ?, तस्मात्प्राप्यकार्येवचक्षु । ननुयदि चक्षुरप्राप्यकारितहि मनोवत् कस्मादविशेषेण सर्वानपि दूर व्यवहितादीनान् न गृह्णाति ? यदि हि प्राप्तेपरिच्छिन्द्यात्तर्हि यदेवानावृत्तमदूरदेशं वा तदेव गृह्णोयात् नावृत्तं दूरदेशं वा, तत्र चक्षुरश्मीनां गमनासंभवः सम्पाभावात् , ततो युज्यते चक्षुषो ग्रहणाग्रहणे, नान्यथा, तथाचोक्तं-प्राप्याकारिचक्षुः उपलब्ध्यनुपलब्ध्योरनावरणेतरानपेक्षणात् अदूरेतरापेक्षणाच्चा' यदि हि चक्षुरप्राप्यकारिभवेत्तदाऽऽवरणभावादनुपलब्धिः अन्यथोपलब्धिरिति न स्यात् , नहि तदावरणमयघातकरणसमर्थ, प्राप्यकारित्वे तु मूर्त्तद्रव्य प्रतिघाताद् उपपत्तिमान् व्याघातोऽतिदूरे च गमनाभावादिति, प्रयोगश्चा त्र-न चक्षुषोविषयारिमाणं, अप्राप्यकारित्वात् मनोवत् तदेतद्युक्ततरम्
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श्रुतनिश्रितम्
५७
"
दृष्टान्तस्य साध्यविकलत्वात् न खलु मनोऽप्यशेषान् विषयान् गृह्णाति, तस्यापि सूक्ष्मेष्वागमगम्यादिष्वर्थेषु मोहदर्शनात्, तस्माद् यथा मनोप्राप्यकार्यपि स्वावरणक्षयोपशमसापेचत्वात् नियतविषयं तथा चतुरपि स्वावरणक्षयोपशमसापेक्षत्वदप्राप्यकार्यपि योग्यदेशावस्थितनियतविषयमिति न व्यवहितानामुपलम्भप्रसङ्गो नापि दूरदेशस्थितानामिति । अपिच दृष्टमप्राप्यकारित्वेऽपि तथास्वभावविशेषाद्द्योग्यदेशापेक्षणं यथाऽयस्कान्तस्य न खल्वयस्कान्तोऽयसोऽप्राप्यकपणे प्रवर्तमानः सर्वस्याप्ययसो जगद् afda aint भवति, किन्तु प्रतिनियतस्यैव, ( यत्तु ) शंकरस्वामी प्राह"अयस्कान्तोऽपि प्राप्यकारी, श्रयस्कान्तच्छायारणुभिः सह समाकृष्यमारण वस्तुन: सम्बन्धभावात्, केवलं ते छायारणवः सूक्ष्मत्वान्नोपलभ्यन्ते " इति तदेतदुन्मत्तप्रलपितु तद्ग्राहक प्रमाणाभावात् नहि तत्र छायारसम्भवप्रा हकं प्रमाणमस्ति, न चाप्रमाणकं प्रतिपत्तु ं शक्नुमः, अथास्ति ग्राहकं प्रमा णमनुमानं, इह यदाकर्षणं तत् संसर्गपूर्वकं यथाऽयो गोलकस्य सन्दंशेन कर्षणं चायसोऽयस्कान्तेन, तंत्र साक्षादयस्कान्ते संसर्गः प्रत्यक्ष बाधित इत्यर्थात् छायाभिः सह द्रष्टव्य इति, तदपि बालिशजल्पितं, हेतोरनैकान्तिकत्वात्, मंत्रेण व्यभिचारात्, तथाहि-- मंत्रः स्मर्यमाणोऽपि विवक्षितं वस्त्वकर्षति, न च तत्र कोऽपि संसर्गः इति, अपिच - यथा छायाणवः प्राप्तमयः समाकर्षन्ति तथा काष्ठादिकमपि प्राप्तं कस्मान्नाकन्ति, शक्तिप्रतिनियमादिति चेत् ननु स शक्तिप्रति नियमोऽप्राप्तावपि तुल्य एवेति व्यर्थे छायापरिकल्पनं । अन्यस्त्वाह-अस्ति चक्षुषः प्राप्यकारित्वे व्यवहितार्थानुपलब्धिरनुमानं प्रमाणं तदयुक्त, अत्रापि हेतोरनै कान्तिकत्वात् काचाभ्रपटलस्फटिकैरन्तरितस्याप्युपलब्धेः,
अथेदमा
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जैनागमन्यापसंग्रहः चक्षीथाः-नायना रश्मयो निर्गत्य तमर्थं गृह्णन्ति, नायनाश्च रश्मयस्तैजसत्वान्न तेजोद्रव्यैः प्रतिस्खल्यन्ते, ततो न कश्चिद्दोषः, तदपि न मनोरम महाज्वालादौ स्खलनोपलब्धेः, तस्मादप्राप्यकारि चक्षुरिति स्थितं ॥ एवं मनसोऽप्राप्यकारित्वं भावनीयं, तत्रापि विषय कृतानुग्रहोपघाताभावाद्, अन्यथा तोयादिचिन्तायामनुग्रहोऽग्निशस्त्रादिचिन्तायांचोपघातो भवेत् , ननु दृश्यते मनसोऽपि हर्षादिभिरनुग्रहः, शरीरोपचयदर्शनात्, तथाहिहर्षप्रकर्षवशान्मनसोऽपि पुष्टता भवति, तद वशाश्च स्वशरीरस्योपचयः, तथोपघातोऽपि शोकादिभिदृश्यते, शरीरदौर्बल्योरःक्षतादिदर्शनात् , अतिशोककरणतोहि मनसो विघात: सम्भवति ततस्तद् वशाच्छरीर दोबल्यमतिचिन्तावशाच्च हृद्रोग इति, तदेतदतीवासम्बद्धं यत इह मनसोऽप्राप्यकारित्वं साध्यमानं वर्तते, विषयकृतानुग्रहोपघाताभावात्, न चेह विषयकृतानुग्रहोपघातौ त्वयामनसोदर्येते तत् कथं व्यभिचार: ?, मनस्तु स्वयं पुद्गल मयत्वाच्छरीरस्यानुग्रहोपघातौ करिष्यति, यथेष्टानिष्टरूप आहारः, तथाहिइष्टरूप आहार: परिभुज्यमानः शरीरस्यपोषमाधत्ते, अनिष्टरूपस्तूपसंघातं ( स्तूपघातं ), तथा मनोऽप्यनिष्टपुद्गलोपचितमति शोकादिचिन्तानिय न्धनं शरीरस्य हानिमादधाति, इष्टपुद्गलोपचित्तं च हर्षादिकारणं पुष्टिं, उक्तश्च - " इटानिट्ठाहारऽन्भवहारे होति पुट्ठिहाणिओ । जहतहमणसो ताओ पुग्गलगुणउत्ति को दोसो ? ॥१॥ छाया-इष्टानिष्टाहाराभ्यवहारे भवत: पुष्टिहानी । यथा तथा मनसस्ते पुद्गलगुणत्वादिति को दोषः । ॥ १ ॥ तस्मान्मनोऽपि विषयकृतानुग्रहोपघाताभावादप्राप्यकारीति स्थितं, " इह सुगतमतानुसारिण: श्रोत्रमप्यप्राप्यकारि प्रपद्यन्ते, तथा च तदनथः- "चक्षुःश्रोत्रंमनोऽप्राप्यकारी " ति तदयुक्त, इहा प्राप्यकारि
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श्रुतनिश्रितम्
५६ तत्प्रतिपत्त शक्यते यस्य विषयकृतानुग्रहोपघाताभावो, यथा चक्षुर्मनसोः, श्रोत्रस्य च शब्दकृत उपघातो दृश्यते, सद्योजात वालकस्य समीपे महा-- प्रयत्नताडितझल्लरोझात्कारश्रवणतो यद्वा विद्युत् प्रपाते तत् प्रत्यासन्नदेशवर्तिनां निर्घोषश्रवणतो वधिरीभावदर्शनात, शब्दपरमाणवो हि उत्पत्तिदेशादारभ्य सर्वतो जलतरङ्गन्यायेन प्रसरमभिगृह्णानाः श्रोत्रेन्द्रियदेशमागच्छन्ति, ततः सम्भवत्युपघातः, ननु यदि श्रोत्रेन्द्रियं देशं प्राप्तमेव शब्दं गृह्णाति नाप्राप्तं तर्हि यथा गन्धादौ गृह्यमाणे न तत्र दूरासन्नादि तया भेदप्रतोतिरेवं शब्देऽपि न स्यात्, प्राप्तो हि विषयः परिच्छिद्यमानः सर्वोऽपि सन्निहित एव, तत कथं तत्र दूरासन्नादिभेदप्रतीतिर्भवितुमर्हति ?, अथ च प्रतीयते शब्दो दूरासन्नादितया, तथा च लोके वक्तार: श्रूयन्ते,-कस्यापि दूरे शब्द इति, अन्यच्च-यदि प्राप्तः शब्दो गृह्यते श्रोत्रेन्द्रियेण तर्हि चाण्डालोक्तोऽपि शब्दः श्रोत्रियेण श्रोत्रेन्द्रियसंस्पृष्टो गृह्यते इति श्रोत्रेन्द्रियस्य चाण्डालस्पर्शदोषप्रसंगः, तन्न श्रेयः श्रोत्रेन्द्रियस्ट प्राप्यकारित्वं, तदेतदतिमहामोहस्य मलीमसभाषितं त (य) तो यद्यपि शब्द प्राप्यो गृह्यते अत्रेन्द्रियेण तथापि यत उत्थितः शब्दस्तस्य दूरास नत्वे शब्देऽपि स्वभाववैचिन्यसंभवोह रासन्नादिभेदप्रतीतिर्भवति, तथाहि-दूरा दागतः शब्दः क्षीणशक्तिकत्वात्खिन्न उपलक्ष्यते अस्पष्टरूपो वा, ततो लोको वदति-दूरे शब्दः श्रूयते, अस्य च वाक्यस्यायं भावार्थों-दूरादाग तः शब्दः श्रूयते इति, स्यादेतत्-एवमति प्रसंग प्राप्नोति, तथाहि-एतदीप बक्तु शक्यते-दूरे रूपमुपलभ्यते, किमुक्तभवति ? -दूरागतं रूपमुपलभ्यते इति, ततश्चक्षुरपि प्राप्यकरि प्राप्नोति, नचेष्यते, तस्मा
नैतत् समीचीनमिति, तदयुक्तं, यत इह चक्षुषो रूपकतावनुग्रहोपघातौ
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जैनागमन्यायसंदहः नोपलभ्येते, श्रोत्रेन्द्रियस्य तु शब्दकृत उपघातोऽस्ति, एतच्चप्रागेवोक्तं, ततो नातिप्रसंगापानमुपपत्तिमत् , अन्यञ्च-प्रत्यासन्नोऽपि जनः पचनस्य प्रांतकूलमवतिष्ठमानः शब्दं न शृणोति; पवनवमनि तु वर्तमानो दूरदेश स्थितोऽपि शृणोति, तथाचलोके वक्तारो-न वयं प्रत्यासन्ना अपि त्वदीयं वचः शृणुमः, पवनस्य प्रतिकूलमवस्थानात, यदि पुनरप्राप्तमेव शब्द रूपमिव जना: प्रमिणुयुः, तर्हि वातस्य प्रतिकूलमप्यवतिष्ठमाना रूपमिवशब्दं प्रमिणुयुः, न च प्रमिण्वन्ति, तस्मात् प्राप्ता एव शब्द परमाणवः श्रोत्रेन्द्रियेण गृह्यन्ते इति अवश्यमभ्युपगन्तव्यम् , तथा च सति पवनस्य प्रतिकूलमवष्ठिमानानां श्रोत्रेन्द्रियं न शब्दप्रमाणवो वैपुल्येन प्राप्नुवन्ति, तेषामन्यथा वातेन नीयमानत्वात् , ततो न ते शृण्वन्तीति न काचित् क्षतिः, यदपि चोक्तं चाण्डालस्पर्शदोषः प्राप्नोती तिः, तदपि चेतनाविकलपुरुषभाषितमिवासमीचीनं, स्पर्शास्पर्शव्यवस्थाया लोके काल्पनित्वात् , तथाहि-न स्पर्शव्यवस्था लोके पारमार्थिकी, तथाहियामेव भुवमने चाण्डालः स्पृशन् प्रयाति तामेव पृष्टतः श्रोत्रियोऽपि, तथा यामेव नावमारोहति स्म चाण्डालस्तामेवारोहति श्रोत्रियोऽपि, तथा स एव मारुतश्चाण्डालमपि स्पृष्ट्वा श्रोत्रियमपि स्पृशति, न च तत्र लोके स्पर्शदोषव्यवस्था, तथा शब्दपुद्गलस्पर्शेऽपि न भवतीतिनकश्चिद्दोषः, अपि च-यथा केतकीदलनिचयं शतपत्रादिपुष्पनिचयं वा शिरसि निवध्य वपुषि वा मृगमदचन्दनाद्यवलेपनमारचय्यविपणिवीथ्यमागत्यचाण्डालोऽवतिष्ठते तदा तद्गतकेतकीदलादिगंधपुद्गलाः श्रोत्रियादि नासिकास्वपि प्रविशन्ति, ततस्तत्रापि चाण्डालस्पर्शदोषः प्राप्नोतीति तद् दोषभयान्नासिकेन्द्रियमप्राप्यकारि प्रतिपत्तव्यं, न चैतद् भवतोऽप्यागमे
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श्रुतनिश्रितम् प्रतिपाद्यते, ततो बालिशजल्पितमेतदिति कृतं प्रसंगेन । केचित्पुनः श्रोत्रेन्द्रिस्य प्राप्यकारित्वमभ्युपगच्छन्त: शब्दस्याम्बरगुणत्वं प्रतिपद्यन्ते, तदयुक्तं, अकाशगुणतायां शब्दस्यामूर्त्तत्त्वप्रसक्तेः, योहि यदगुण: स तत्समानधर्मा, यथा ज्ञानमात्मनः, तथाहि - अमूर्त आत्मा, ततस्तद् गुणो ज्ञानमायमूर्तमेव, एवं शब्दोऽपि यद्याकाशगुणस्ता काशस्यामूर्त्तत्वाच्छब्दस्याप तदगुणत्त्वेनामूर्तता भवेत् , न चासौ युक्तिसंगता, तल्लक्षणायोगात् , मूर्तिविरहो ह्यमूर्तताया लक्षणं, न च शब्दानां मूर्तिविरहः, स्पशवत्त्वात् , तथाहि - स्पशेवन्तः शब्दाः, तत्संपळदुपघातदर्शनाल्लोष्टवत् , न चायमसिद्धो हेतुः, यतो दृश्यते सद्योजातबालकानां करणदेशाभ्यीकृतगादास्फालितझलरीझात्कारश्रवणतः श्रवणस्फोटो, न चेस्थमुपधातकृत्त्वमस्पशेवत्वे सम्भवति, यथा विहायसः, ततो विपक्षे गमनासम्भवान्नानैकान्तिकोऽपि, अतश्च स्पर्शवन्तः शब्दाः, तैरभिघाते गिरिगहरभित्यादिषु शब्दोत्थानाल्लोष्टवत्,अयमपि हेतुरुभयोरपि सिद्धिः,तथाहि-- श्रूयन्ते तीव्रप्रयत्नोच्चारितशब्दाभिघातेगिरिगह्वरादिषु प्रतिशब्दाः प्रति दिक् , ततः स्पर्शवत्त्वान्मूर्ती एव शब्दाः, "रूपस्पर्शादिसन्निवेशो मूर्ति रिति वचन प्रामाण्यात , ततः कथमिवाकाशगुणत्वं शब्दानामुपपत्तिमन्, १ । अपि च-तदाकाशमेकमनेकं वा १ यद्येकं तर्हि योजनलक्षादपि श्रूयते,
आकाशस्यैकत्वेन शब्दस्य तद्गुणतया दूरासन्नादिभेदाभावात, अथानेकमे. वं सति वदनदेश एव स विद्यते इति कथं भिन्नदेशवर्तिभिः श्रोतृभिः श्रयते?, वदनदेशाकाशगुणतया तस्य श्रोतृगतश्रोत्रेन्द्रियाकाशसन्बन्धाभावात् अथ च श्रोत्रेन्द्रियाकाशसबन्धतया तच्छ्रवणमभ्युपगम्यते, तन्नाकाश गुणत्वाभ्युपगमः शब्दस्य श्रेयान्, नन्वाकाशगुणत्त्वमन्तरेण शब्दस्याव
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जैनागमन्यायसंग्रहः स्थानमेव नोपपद्यते, अवश्यहि पदार्थेन स्थितिमता भवितव्यं, तत्र रूपरसस्पर्शगंधानां पृथिव्यादिमहाभूतचतुष्टयमाश्रयः, शब्दस्य त्वाकाशमिति, तदयुक्त, एवं सति पृथिव्यादीनामध्याकाशगुणत्वप्रसक्तेः, तेषामप्याकाशानितत्वात्, न खल्वाकशमन्तरेणपृथिव्यादीनामप्यन्यदाश्रयः, अगुणत्वात्पृथिव्यादीनामाकाशगुणत्वमनुपपन्नमितिचेत्, न, आकाशानितत्त्वेन भवन्नीत्याबलादपि तद् गुणत्वप्रसक्ते , अथ नाश्रयण मात्रं तद् गुणत्व निवन्धनं किन्तु समवायः, सचास्ति शब्दस्याकाशे न तुपृथिव्यादीनामिति, ननुकोऽयं समवायो नाम ? एकत्रलोलीभावे नावस्थानं यथा पृथिव्यादिरूपाद्योरितिचेत्, न तर्हि शब्दस्य काशगुत्व माकाशेनसहैकत्र लोलीभावेन तम्याप्रतिपत्तेः, अथाऽऽकाशे उपलभ्यमानत्वा त्तद्गुणताशब्दस्य, तूलकादेरपि ताकाशे उपलभ्यमानत्वात्तद्गुणत्वं प्राप्नोति, अथ तुलकादेः परमार्थतः पृथिव्यादिस्थानमाकाशेतूपलम्भो वायुना सञ्चाय॑माणत्वात्, यद्येवं तर्हि शब्दस्यापि न परमार्थतः स्थानमोकाशं किन्तु श्रोत्रादि, यत् पुनराकाशेऽवस्थानमुपलभ्यते तद् वायुना सञ्चाय॑माणत्वादवसेयं, तथाहि-यतो यतो वायुः सञ्चरति ततस्ततः शब्दोऽपिगच्छति, वातप्रतिकूलशब्दस्याश्रवणात. उक्तं च- "यथा च प्रेयते तूलमाकाशे मातरिश्वना । तथा शब्दोऽपि किं वायोः, प्रतीपं कोऽपि शब्दवित्" तन्नाकाशगुणः शब्दः किन्तु पुद्गलमय इति स्थितम् ॥
मूलः-से कि तं अत्थुग्गहे ? अत्थुग्गहे छबिहेपएणत्ते, तंजहा सोइंदिअअत्थुग्गहे चक्खिंदिश अत्थुग्गहे, घाणिदिन अत्थुग्गहे । जिभिदिन अत्थुग्गहे फासिदिन अत्थुग्गहे नोई
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श्रुतनिश्रितम् दिअ अत्युग्गहे ॥ (सू० ३०)
टीका :-अथ कतिविधोऽयमर्थावग्रहः ।, सूरिराह -अर्थावग्रहः षडविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा यथा - 'श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः' इत्यादि, श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः, ( श्रोत्रेन्द्रियेण ) व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालमेकसामायिकर्मान
देश्यसामान्यरूपार्थावग्रहणं श्रोत्रंन्द्रियार्थावग्रहः , एवं घ्राणजिह्वास्पर्शनेन्द्रयोग्रहेष्वपि वच्यं, चक्षुर्मनसोस्तु व्यञ्जनावग्रहो न भवति, ततस्तयोः प्रथममेव स्वरूपद्रव्यगुणक्रियाविकल्पनातीतमनिर्देश्यं सामान्यमात्रारूपार्थवग्रहणमर्थावग्रहोऽवसेयः । तत्र "नोइंदिय अत्थावगहो” त्ति नो इन्द्रियंमनः, तच्चद्विधा-द्रव्यरूपं भावरूपं च, तत्र मनःपर्याप्तिनामकर्मोदयतो यह मनः प्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमितं तद्व्यरूपमनः, तथा चाह चूषिणकृत् - "मणपञ्जत्ति नाम कम्मोदयओ तज्जोग्गे मणोद्दव्वे घेत्तु भणत्तेण परिणामिया दव्यादबमणो भण्णइ तथा द्रव्यमनोऽ. वष्ठम्भेन जीवस्य यो मननपरिणामः स भावमनः, तथा चाह चूर्णिकार एव – “जीवो पुण मणणपारणामकिरिया पन्नो भावमणो, किं भणियं होइ ?-मणदव्यालंवणो जीवस्स मणणवा वारो भावमणो, भएणइ” तत्रेह भावमनसा प्रयोजन, तदग्रहणे ह्यवश्यद्रव्यमनसोऽपि ग्रहणं भवति, द्रव्यमनोऽन्तरेणभावमनसोऽसम्भवात् , भावमनो विनापि च द्रव्य मनो भवति, यथा भवस्थ केवलिनः, तत् उच्यते-भावमनसेह प्रयोजनं, तत्र नोन्द्रियेण-भावमनसाऽर्थावग्रहो द्रव्येन्द्रियव्यापारनिरपेक्षोघटाद्यर्थ स्वरूपपरिभावनाभिमुखः प्रथममेकसामायिकोरूपाद्यर्थाकारादिविशेषचिन्ता विकलोऽनिर्देश्यसामान्यमा चिन्तात्मकोवोधो नो इन्द्रियार्थावग्रहः ।।
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जैनागमन्यायसंग्रहः
भूल -तस्स णं इमे एगढिया नाणाघोसा नानावंजणा पंच नामधिज्जा भवन्ति, तंजहा-ओगेण्हणया उवधारणया सवणया अवलंबणया मेहा । सेत्तं उग्गहे सू० ३१)
टोका :-'तस्य' सामान्येनावग्रहस्य “ण” मिति वाक्यालंकारे 'अमूनि वक्ष्यमाणानि एकार्थिकानि 'नाना घोसाणि त्ति घोषा:- उदात्तादयः स्वरविशेषाः, आह च चूर्णिकृत- "घोसा उदात्तादओ सरविसेसा” नाना घोषा येषां तानि नानाघोपाणि, तथा नानाव्यञ्जनानि-कादीनि येषां तानि नाना व्यञ्जनानि, पञ्चनामान्येव नामधेयानि भवन्ति, 'तयथे' ति तेषामेवो. पदर्शने, 'भोगिरहणया' इत्यादि, यदा पुनरवग्रहविशेषानपेक्ष्यामूनि पञ्चापिनामधेयानि चिन्त्यन्ते तदा परस्परंभिन्नार्थानि वेदितव्यानि, तथाहि-इहावग्रहस्त्रिधा, तद्यथा-व्यञ्जनावग्रहः सामान्यार्थावग्रहो विशेषसामान्यार्थावग्रहश्च, तत्र विवेषसामान्यर्थावग्रह औपचारिकः, सचानन्तरमेवाग्रदर्शयिष्यते, तत्र ‘ोगिण्हणय' त्ति अवगृह्यतेऽनेनेति अवग्रहणं, करणेऽनट, व्यञ्जनावग्रहप्रथमसमयप्रविष्टशब्दादिपुद्गलादानपरिणामः, तद् भावोऽवग्रहणता । तथा 'उवधारणय' त्ति धार्यतेऽनेनेतिधारणं, उप-सामीप्येनधारणं उपधारणं-- व्यञ्जनावग्रहेऽपि द्वितीयादि समयेषुप्रतिसमयमपूवापूर्वशब्दादि पुद्गलादानपुरस्सरं प्राक्तनप्राक्तनसमयगृहीतशब्दादिपुद्गलधारणपरिणामः तद् भाव उपधारणता, तथा “स वणय” त्ति श्रूयतेऽनेनेति श्रवणम् - एकसामायिक: सामान्यार्थावग्रहरूपो , बोधपरिणामः तदभावः श्रवणता, तथा 'अवलंबणय ति अवलम्ब्यते इति अवलम्बन, 'कृबहुल' मिति वचनात् कर्मण्यनट् , विशेषसामान्यार्थावग्रहः
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श्रतनिश्रितम्
६५
3
कथं विशेषसामान्यार्थावमहोऽवलम्बन मिति १, चेत उच्यते इह शब्दो ऽयमित्यपि ज्ञानं विशेषावगमनरूपत्वाद्वायज्ञानं, तथाहि-- शब्दोऽयं नाशब्दो रूपादिः इति शब्दस्वरूपावधारणं विशेषावगमः, ततोऽस्मात् यत् पूर्वमनिर्देश्यसामान्यमात्रग्रहणमेकसामयिक स पारमार्थिकार्थाव ग्रहः, तत ऊर्ध्वं तु यत् किमिदमिति विमर्शनं सा ईहा, तदनन्तरं तु यच्छब्द स्वरूपावधारणं शब्दोऽयमिति तदवायज्ञानं तत्रापि यदा उत्तरधर्म जिज्ञासा भवति - किमयं शब्दः शाङ्खः किं वा शाङ्ग : १ इति तदा पाश्चात्य शब्द इति ज्ञानं विशेषावगमापेक्षया सामान्यम त्रालम्बनमित्यवग्रह इत्युपचर्यते, स च परमार्थतः सामान्यविशेषरूपार्थालम्बन इति विशेष सामान्यार्थावग्रह इत्युच्यते इदमेव च शब्द इति ज्ञानमवलम्ब्य किमयं शांख: ? किंवा शाङ्ग : ? इति ज्ञानमुदयते, ततो विशेषसामान्यार्थावग्रहोऽबलम्बन इत्युक्तः, ततोऽवलम्बनस्य भावोऽवलम्बनता, ततोऽप्यूर्ध्व किमयं शांख: ? किं वा शाङ्ग इतीहित्वा यच्छांख एव शाङ्ग एव वेति ज्ञानं तदवायज्ञानं, तदपि च किमयं शांग्वोऽपि शब्द: मंद्रः किं वा तार : १ इत्युत्तरविशेष जिज्ञासायां पाश्चात्य पाश्चत्यमवायज्ञानमुत्तरोत्तरविशेषावगमापेक्षया सामान्यार्थावलम्बनमित्यवग्रह इत्युपचर्यते, किं मन्द्रः ? किं वा तारः ? इतीह मन्द्र एवायं तार एवायमित्यवायः, एवमुत्तरोत्तर विशेष जिज्ञासायां पाश्चात्यं पाश्चात्यमवाय ज्ञानमुत्तरोत्तर विशेषाव गमापेक्षया सामान्यार्थावलम्बनमित्यवग्रह इत्युपचर्य
ते यदा उत्तरधर्मजिज्ञासा न भवति तदा तदत्यं विशेषज्ञानमवाय
J
ज्ञानमेव, नावग्रह इत्युपचर्यते, उपचार निबंधनाभावात् उत्तरविशेषाकांक्षाया अपगमात् ततस्तदनन्तरमविच्युतिरूपा धारणा प्रवर्तते, वास
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जैनागमन्यायसंग्राहः
नास्मृती तु सर्वेष्वपि विशेषावगमेषु द्रष्टव्ये, तथा चाह प्रवचनोपनिषदवेदी भगवान् जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण:- सामन्नमेत्तगणं निच्छयश्रो समयमोग्गो पढ़ो । तत्तोऽतरमीहिय वत्थु विसेसस्स जोडवा ||१|| छाया --- सामान्यमात्र ग्रहणं निश्चयतः समयमवग्रहः प्रथमः । ततोऽनन्तर मोहितवस्तुविशेषस्य योऽपायः ॥ १ ॥ सो पुरारीहावाया विक्खाओ उग्गहन्ति उवरि । एस विसेसावेक्खा सामन्नं गेरहए जेरण || २ || छाय - स पुनरीहापायापेक्षयाऽवग्रह इति उपचरितः । एष विशेषापेक्षया सामान्यं गृह्णाति येन ॥ २ ॥ ततोऽरणंतरमीहा तो अवाओ य तव्विसे सस्स । इह सामन विसेसाऽवेक्खा जावंतिमो भेओ ।। ३ ।। छाया - ततोऽनन्तरमीहा ततोऽपायश्च तद्विशेषस्य । इह सामान्यविशेषापेक्षा यावदन्तिमो भेदः || ३|| सव्वत्थेावाया निच्छयओ मोत्तुमाइसामन्नं । संववहारत्थं पुरण सव्त्रत्थावगाहोऽत्राओ || ४ || छाया सर्वत्रहापायौ निश्चयतो मुक्त्वाऽऽदि सामान्यम् । संव्यवहारार्थं पुनः सर्वत्रावग्रहोऽ पायः ॥ ४ ॥ तरतमजोगाभावेऽवा वियधारणा ततंमि । सव्वत्थ घोसणा पुरण भरिया कालंतरसई य || ५ ||" छाया - तारतम्ययोगाभावेऽपाय एव धोरणा तदन्ते । सर्वत्र वासना पुनर्भरिणता कालान्तरस्मृतिश्व ||५|| त्ति, तथा 'मेह' ति मेधा प्रथमं विशेषसामान्यार्थावग्रहमितिरिच्योत्तरः सर्वोऽपि विशेषसामान्यार्थावग्रहः ॥ तदेवमुक्तानि पश्चापि नामधेयानि भिन्नार्थानि यत्र तु व्यञ्जनावप्रहो न घटते तत्राद्यं भेदद्वयं न द्रष्टव्यं 'सेत्तं उग्गहो' त्ति निगमनम् ।
"
मूलः
""
से किं तं ईहा १, २ छव्विा पण्णत्ता,
तं जहा- सोइंदिईहा चक्खिदिय ईहा घाणिदिईहा जिभिदिईहा
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श्रुतनिश्रितम्
६७ फासिंदिअईहा नोइंदिअ ईहा, तीसे णं इसे एगडिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच नाम धिज्जा भवंति , तं जहा-आभोगणया मग्गणया गवसणया चिता विमंसा, से तं ईहा ॥ ( सू० ३२)
टीका :-अथ केयमीहा !, ईहा षड्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाश्रोत्रेन्द्रियेहा इत्यादि, तत्रोत्रेन्द्रियेणेहा श्रोत्रेन्द्रियेहा, श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रह मधिकृत्य या प्रवृत्ता ईहा सा श्रोत्रेन्द्रियेहा इत्यर्थः, एवं शेषा अपि साधनीयाः। 'तीसे ण' मित्यादि सुगमं । नवरं सामान्यत एकार्थिकानि, विशेष चिन्तायां पुनर्भिन्नार्थानि, तत्र ' आभोगणया ति आभोग्यतेऽनेनेति श्राभोगन-अर्थावग्रहसमनन्तरमेव सद्भूतार्थविशेषाभिमुख्मालोचनं तस्यभाव आभोगनता, तथा मार्यतेऽनेनेति मार्गणं-सद्भूतार्थ विशेषाभि. मुखमेव तदूर्वमन्वयव्यतिरेकधर्मान्वेषणं तद्भावो मार्गणता तथा-गवेश्यते ऽनेनति गवेषणं-तत ऊर्ध्व सद्भतार्थविशेषाभिमुखमेव व्यतिरेकधर्मत्यागतोऽन्वय धर्माध्यासालोचनं तद भावोगवेषणता, ततो मुहुर्मुहुः क्षयोपशविशेषतः स्वधर्मानुगतसद्भतार्थविशेषचिन्तनं चिन्ता, तत् अवक्षयोपशमविशेषात् स्पष्टतरं सद्भूतार्थविशेषाभिमुखमेव व्यतिरेक धर्मपरित्यागतोऽन्वयधर्मापरित्यागतोऽन्वयधर्मे विमर्शनं विमर्शः । 'से तं ईहे' त्तिनिगमनम् ।।
मूल:-"से किं तं अवाए ? २ अवाए छबिहे पएणते, तंजहा सोइंदिअप्रवाए चक्खिंदिअप्रवाए पाणिदिअप्रवा ए जिभिदिअप्रवाए फासिदिअप्रवाए नोइंदिअप्रवाए
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जैनागमन्यायसंग्रहः तस्स णं इमे एगढिा नाणाघोसा नाणावजणा पंचनामधिज्जा भवन्ति, तं जहा-आउट्टण या पञ्चाउट्टणया अवाए बुद्धि विएणणा, से तं अवाए ॥ (सू० ३३)
टीकाः-अत्र श्रोत्रेन्द्रियेणावायः श्रोत्रेन्द्रियावायः, श्रोत्रेन्द्रियनि मित्तमर्थावग्रहमधिकृत्य यः प्रवृत्तोऽपाय: स श्रोत्रेन्द्रियापाय इत्यर्थः, एवं शेषा अपि भावनीयाः । तस्स ण : मित्यादि प्रागवत्' अत्रापि सामान्यत एकार्थिकानि, विशेषचिन्तायां पुनर्नानार्थानि, तत्र आवर्तते-ईहातो निवृत्यापायभाव प्रत्यभिमुखो वर्तते येन बोधपरिणामेन स आवर्तनस्तद्भाव आवर्तनता, तथा आवर्तनं प्रति येगता अर्थ विशेषषूत्तरोत्तरेषु विवक्षिता अपायप्रत्यासन्नतरा बोधविशेषास्ते प्रत्याबतेनाः तद्भावः प्रत्यावर्तनता, तथा अपायो-निश्चयः सर्वथा ईहाभावाद् विनिवृत्तस्यावधारणाअवधारितमर्थमवगच्छतो यो बोधविशेष: सोऽपाय इत्यर्थः, ततस्तमेवारधारितमर्थ क्षयोपशमविशेषात् स्थिरतया पुनः, पुनः स्पष्टतरमववुध्यमानस्य या बोधपरिणतिः सा बुद्धिः, तथा विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानं-क्षयोपशमविशेषादेवावधारितार्थविषय एव तीव्रतरधारणा हेतुबोधविशेषः, से तं अवाए। इति निगमनम् ॥
मल:-से किं तं धारणा ? धारणा छबिहा पएणत्ता, तंजहा सोइंदिअधारणा चविखंदिअधारणा घाणिदिअधारणा जिभिंदिअधारणा फासिंदिअधारणा नोइंदिअधारणा। तीसे णं इमे एगडिया नाणाघोसा नाणावंजणा पंच ना.
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श्रुतनिश्रितम्
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मधिज्जा भवति, तंजा धारणा साधारणा ठवरणा पट्टा कोड े,
से तं धारणा || ( सू० ३४ )
day
टीका 'से किं तमित्यादि सुगमं यावद्वारणा इत्यादि, अत्रापि सामान्यत एकार्थानिविशेषार्थचिन्तायां पुनर्भिन्नार्थानि तत्रापायानन्तरमवगतस्यार्थस्यावियुत्यान्तर्मुहूर्त्तकालं यावद्धरणं धारणा, ततस्तमेवार्थमुपयोगात् च्युतं जघन्यतोऽन्तमु हूत्तदुत्कर्षतोऽसंख्येय कालात् परतो यत्स्मरणं सा धारणा, तथा स्थापनं स्थापना, आपायावधारितस्यार्थस्य हृदिस्थापनं, वासेनेत्यर्थः अन्ये तु धारणास्थापनयोर्व्यत्यासेनस्वरूपमाचक्षते, तथा प्रतिष्ठापनं प्रतिष्ठा - अपायाबधारितस्यैवावर्थस्य हृदिप्रभेदेन प्रतिष्ठापनमित्यर्थः, कोष्ठ इव कोष्ठः अविनष्टसूत्रार्थ धारणमित्यर्थः । 'सेतं धारण सेयंधारणा' ।
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दर्शनविषयः
मूल: दुविहे दंसणे पन्नत्ते तं० – सम्मद सणे चैव मिच्छादंसणे चैव १ सम्म सो दुविहे पं तं० सिग्गसमम्द स चैव अभिगमसम्मद सणे चैव २ सिग्गसम्मद सो दुविहे पं, तं० --- पडिवाई चैव अपडिवाई चेव ३ अभिगम सम्मद्द स दुविहे पं तं ० - पडिवाई चैव अप्पडिवाई चेव ४ मिच्छादंसणे दुविहे पं, तं० - अभिग्गहियमिच्छदंसणे चैव ५ अभिगहिय मिच्छादंसणे चैव श्रभिग्गाहियमिच्छदिसणे दुविहे पं, तं०सपज्जवसिते चैव अपज्जवसिते चैव ६ एवं अणभिहितमिच्छादंसणेऽवि७ (सू० ७०)
टीका :- 'दुविहे दसणे' इत्यादि सूत्राणि सप्त सुगमान्येव, नवरं, दृष्टिर्दर्शनम् - तत्त्वेषु रुचिः तच्च सभ्यग्विपरीतं जिनोक्तानुसारि, तथा मिय्था - विपरीतमिति । 'सम्मदंसणे' इत्यादि, निसर्गः स्वभावोऽनुपदेश इत्यनर्थान्तरं, अभिगमोऽधिगमो गुरूपदेशादिरिति ताभ्यांयत्तत् तथा, क्रमेण मरुदेवी भरतवदिति, 'निसर्गे' त्यादि, प्रतिपतनशीलं प्रतिपाति सम्यग् दर्शनमौपशमिकं क्षायोपशमिकं च प्रतिपाति क्षायिक तत्रैषां क्रमेण लक्षणं - इहोपशमिकी -
"
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दर्शनविषयः
णीमनुप्रविष्टस्यानन्तानुबन्धिनां दर्शनमोहनीयत्रयस्य चोपशमादौपशमिकं भवति, यो वाऽनादिमिध्यादृष्टिरकृत सम्यकत्व मिध्यात्वमिश्राभिधान शुद्धाशुद्धो भयरूपमिथ्यात्वपुद् गलत्रिपुञ्जीक एव अक्षीण मिध्यादर्शनोऽक्षपक इत्यर्थः सम्यकत्वं प्रतिपद्यते तस्योपशमिकं भवतीति कथं १ - इह यदस्य मिथ्यादर्शनमोहनीयमुदीर्णं तदनुभवेनैवो पक्षीणमन्यत्तु मन्दपरिणामतया नोदितमतस्तदन्तमुहूर्त्त मात्रमुपशान्तमास्ते, विष्कम्भितोदयमत्यर्थः, तावतं कालमस्योपशमिकसम्यक्त्वलाभ इति श्राह च 'उवसामगसे हिगयरस' होह उवसामि तु सम्मतं । जो वा श्रकयतिपुञ्जो श्रखवियमित्रो लहइ सम्मं ॥ छाया - उपशमश्रेणिगतस्य भवति श्रपशमिकंतु सम्यक्त्वम् 1 यो वाऽकृतत्रिपुञ्जोऽक्षपित मिथ्यात्वो लभतेसम्यकूत्वम् || १ || खीणम्मि उदिनंमि अणुदिज्ज ते य सेसमिच्छत्ते । अन्तोमुहूत्त कालं उवसमसम्मं लहइ जीवो ॥ २ ॥" छाया - क्षीणे उदीर्णे अनुदीर्णे च शेषमिध्यात्वे । अन्तर्मुहूर्त्तकालमौपशमिकसम्यक्त्वं लभते जोवः || २ || चि । अन्तर्मुहूर्त्त मात्र कालत्वादेवास्य प्रति पातित्त्वं यश्चानन्तानुबन्ध्युदये पशमिकसम्यक्त्वात् प्रतिपततः सास्वादनमुच्यते तदौपशमिकमेव तदपि च प्रतिपात्येव, जघन्यतः समयमात्रत्वादुत्कृष्टतस्तु पडाबलिकामा नत्वादस्येति, तथेह यदस्य मिथ्यादर्शन दलिकमुदीर्ण तदुपक्षीणं यच्चानुदीर्ण तदुपशान्तम्, उपशान्तं नाम विष्कम्भितोदयमपनीतमिध्यास्वभावं च तदिहक्षयोपशमस्वभावमनुभूयमानं क्षायोपशमिकमित्युच्यते नन्वौपशमिकेऽपेि क्षयश्चोपशमश्च तथेहापीतिकोऽनयोर्विशेष १, उच्यते, अयमेवहि विशेष. या दह वेद्यते दलिकं न तत्र, इह हि क्षायोपशमिके पूर्वशमितमनुसमयमुदेति वेद्यते क्षीयते च,
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जैनागमन्यायसंग्राहः
औपशमिके तूदयविष्कम्भणमात्रमेव, आहच-मिच्छत्तं जमुइन्नं तं वीणं अणुइयं च उवसंतं । मीसीभाव परिणयं वेइजतं खोवसमं ।। १ ॥ छाया-मिथ्यात्वं यदुदीर्णं ता क्षीणं अनुदीर्ण चोपशान्तम् । मिश्रीभाव परिणतं वेद्यमानं क्षायोगशमिकम् ।। १ ।। त्ति, एतदपि जघन्यतोऽन्तमुहूर्त स्थितिकत्यादुत्कर्षतः घटषष्टि सागरोपस्थितिकत्वाच प्रति पातीति, यदपि च क्षपकस्य सम्यगदर्शनदलिकचरमपुद्गलानुभवनरूपं वेदकमित्युच्यते तदपि क्षायोपशमिकभेदत्वात् प्रतिपात्येवेति, तथा मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वमोहनीयक्षयात् , क्षायिकमिति, श्राहच-"खीणे दसणमोहे तिविहमिविभवनियाणभूयंमि। निष्पच्च वायमउलं सम्मत्त खाइयं होइ।। १॥ छाया-- क्षीणे दर्शनमोहे त्रिविधेऽपि भवनिदानभूते । निष्प्रत्यपायमतुलं सम्यक्त्वं क्षायिक भवति ।। १ ।। त्ति, इदन्तु क्षायिकत्वादेवाप्रतिपाति, अत एव सिद्धत्वेऽ प्यनुवर्तते इति । 'मिछादंसणे' इत्यादि, अभिग्रहः -- कुमतपरिग्रहः स यत्रास्ति तदाभिग्राहिकं तद् वियरोतम् --अनभिग्रहिकमिति । 'अाभग्गाहिए। इत्यादि अभिग्राहिक मिथ्यादर्शनं सपर्यवसितं -सपर्यवसानं सम्यक्त्व प्राप्तौ, अपर्यवसितमभव्यस्य सम्यक्त्वाप्राप्तः, तञ्च मिथ्यात्व मात्रमप्यतीत काल नयानुवृन्याऽऽभियाहिकामति व्यापदिश्श्यते, अनीभग्राहिक भव्यस्य सपर्यवसितमितरस्यापर्यवसितामति, अत एवाह-एवं अरणभी' त्यादि । दर्शनमभिहितमथ ज्ञानमभिधीयते, तत्र दुबिहे नाणे इत्यादीनि आवस्सग वइरित्ते दुविहे' इत्यादि सूत्रावसानानि त्रयो विशंति: सूत्राणि ॥
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दर्शनविषयः मूल - दुविहे नाणे पं० तं० - पञ्चकखे चैव परोक्खे चैव १, पच्चकखे नाणे दुविहे पन्नत्ते तं० - केवलनाणे चैत्र खोकेवलनाणेचैत्र २, केवलगा दुविहे पं० तं० - भवत्थकेवलनाणे चैव सिद्धके चलना चैत्र ३ भवत्थवलया दुविहे पं० तं ० सजोगिभवत्थ केवलणार चेव, अजोगिभवत्थ केवलणाणे चेव ४, सजोगि भवत्थ केवलगा दुविहे पं० ० - पदमसमय सजोगि भवत्थ केवलणा
चैत्र असजागिभवत्थ केवलणाणे चैत्र ५, अहवा after सजोगि भवत्थ केवल खाणे चेव चरिमसमय सजोगि भवत्थ केवलगा चैव ६, एवं अजोगि भवत्य केवलनाणेऽवि ७, ८ सिद्ध केला दुविहे पं० तं० - अतरसिद्ध केवलणाणे चेव परंपरसिद्ध केवल गाणे चैत्र ६, अतरसिद्ध केवलनाणे दुविहे पं० तं० - - एक्काणंतरसिद्ध केवलगा चैव अक्काणंतरसिद्ध केवलखाणे १०, परंपरसिद्ध केवलणा दुविहे पं० तं ० - एक्क परं परसिद्ध heard a rer परंपरसिद्ध केवलणाणे चेव ११, गोके चलणादविहे पं० तं० – प्रहिणाणे चेव मणपज्जवणाणे चेव १२, ओहिणा दुविहे ५० तं०-- भवपच्चइए चैव खओवसमिए चैव १३, दो मच्चए पन्नत्त, तं० – देवाणं चैव नेरइयाणं चे १४, दोह खोवसमिए पं० तं ० - मरगुस्साणं चैव पंचिंदिय
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जैनागमन्यायसंग्राहः
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तिरिक्खजोणीयाणं चैत्र १५, मणपज्जवरण | दुविहे पं० तं ० उज्जुमति चैव विउलमति चेव १६० परोक्खेणाखे दुविहे पन्नत्ते, तंआभिणिवोहिणा चैव सुयनाणे चेव, १७ आभिणिवोहियणोणे दुविहे पं० तं ० - सुयनिस्सिए चेव असुयनिस्सिए चैव १८, सुयनिस्सिए दुविहे पं० तं० - अत्थोग्गहे चैव वंजगोग्गहे चेव १६, सुनिस्सितेऽवि एमेव २०, सुयनाणे दुविहे पं० तं०— अंगपवि चैव गवाहिरे चैव २१, अंगवाहिरे दुविहे पं० तं ० आवस्सए चेव आवस्यवइरित्ते चैव २२, आवस्यवतिरित्तै दुविहे पं० तं० -कालिए चैव उक्कालिए चैव ॥२३॥, (सू०७१ )
-19
•
टीका: सुगमानि, नवरं ज्ञानं विशेषावबोधः अश्नाति भुक्ते अश्रुते वा व्याप्नोति ज्ञानेनार्थानित्यचः - अत्मा तं प्रति वर्तते इन्द्रियमनोनिरपेक्षत्वेन तत् प्रत्यक्षम् - अव्यवहितत्त्वेनार्थं साक्षात करण्दक्षमिति, आह च " अक्खो जीवो अत्थव्यावरणभोयर गुणािओ, जेण । तं पइ Tags नाणं जं पञ्चखं तमिह तिविहं ॥ | १ ||११ छाया - अक्षो जीवोऽर्थव्यापन भोजन गुणान्वितो येन । तं प्रति वर्तते ज्ञानं यत्प्रत्यक्षं तदित्रिविधम् ॥ १ ॥ 'ति' परेभ्यः - अक्षापेक्षया पुद्गलमयत्वेन द्रव्येन्द्रियमनोभ्योऽक्षस्य - जोवस्य यत्तत्परोक्षं निरुक्तवशादिति, आहच अक्खरसपोग्ग लकया जं दुव्विदियमा परा तेण । तेहिंतो जं नाणं परोकखमिह तमगुमागंव ॥ १ ॥" छाया - अक्षात् पुद्गलमयानि यद्रव्येन्द्रियमनांसि
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दशनविषयः
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पराणि तेन । तेभ्यो यद् ज्ञानं परोक्षमह तदनुमानमिव ॥ १ ॥ " ति अथवा परैरुक्षा सम्बन्धनं जन्यजनकभावलक्षणमस्येति परोक्षं - इन्द्रिय मनोव्यवधानेनात्मनोऽथं प्रत्यायकमसाक्षात्कारीत्यर्थः । । ' पच्चकखे' त्यादि केवलं - एकं ज्ञानं केवलज्ञानं तदन्यन्नोकेवलज्ञानम् -- श्रवधिमनः पर्य्यायलक्षण मिति । 'केवले' त्यादि, भवत्थ केवलनाणे चेच" त्ति भवस्थस्य केवलज्ञानं यत्तत्तथा, एवमितरदपि, 'भवत्थे' त्यादि, सहयोगः - काय व्यापारादि भिर्यःस सयोगी, इन्समासान्तत्वात् स चासौ भवस्था तस्य केवलज्ञानमितिविग्रहः, न सन्ति योगा यस्य स न योगीति वा योऽसावयोगीशैलेशीकरणव्यवस्थितः शेषं तथैव, सयोगी' त्यादि, प्रथमः समयः सयोगित्वे यस्य स तथा, एवमप्रथमो - द्वयादिसमयो यस्य स तथा, शेषं तथैव, " अथवे" त्यादि, चरम:- अन्त्य समयो यस्य सयोग्यवस्थायाः स तथा, शेषं तथैव, 'एव' मिति सयोगि सूत्रवत्प्रथमाप्रथमचरमाचरमविशेषण. युक्तम योगसूत्रमपिवाच्यमिति, 'सिद्धे' त्यादि, अनन्तर सिद्धो यः सम्प्रति समये सिद्ध:, सचैकोऽनेको वा, तथा परम्परसिद्धो यस्य द्वयादयः समयाः सिद्धस्य सोऽप्येकोsनेकोवेति तेषां यत् केवलज्ञानं तत्तथाव्यपदिश्यत इति । 'हिना' इत्यादि, ' भवपञ्चइए ति क्षयोपशमनिमित्तत्वेऽयस्य क्षयोपशमस्यापि भव प्रत्यत्त्वेन तत्प्राधान्येन भव एव प्रत्ययो यस्य तद् भव प्रत्ययमिति व्यपदिश्यत इति इदमेवभाष्यकारेण साक्षेपपरिहार मुक्तं, तत्राक्षेपः – “ओहो ओवसभिए भावे भरितो भवो तहोदइ । तो हि भवपचओ वो जुत्तोऽवही दोहं" ।। छाया --- अवधिः क्षायोप शमिके भावे भारणीतो भवस्तथौदयिके । ततः कथं भव प्रत्ययिको वक्तु युक्तोऽधियो ? ||१|| ( होरह ) ति देवनारकयो:, अत्रपरिहारः - सोडवि
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जैनागमन्यायसंग्रह: हु खत्रोवसमियो किन्तु स एव उ ह ओवसमलाभो। तंमि सइ होइऽवसं भए. णइ भवपञ्चओ तो सो ॥१॥ छाया-सोऽपिक्षायोपशामिकः किन्तु स एव तु क्षयोपशमलाभः । तस्मिन् सति भवत्यवश्यं भण्यते भवप्रत्ययिकस्ततः ।।१।। यतः-उदयक्खयखओवसमोवसमावि अजं च कम्मुणो भणिया। दव्यं खेत्तं कालं भवं च भावं च संपप्प ॥१॥ छाया-उदयक्षयक्षयोपशमोपशमा यश्चकर्मणो भणिताः । द्रव्यं क्षेत्रकालं भवञ्च भावञ्चसंप्राप्य ॥१॥ 'त्ति, तथा तदावरणस्य क्षयोपशमेभवं क्षायोपशमिकमिति । 'मणपञ्जवे? त्यादि, ऋज्वी-सामान्यग्राहिणीमतिः ऋजुमतिः-घटोऽनेन चिन्तत इत्यध्यवसायनिबन्धनंमनोद्रव्यपरिरच्छित्तिरित्यर्थः, विपुला-विशेष ग्राहिणीमतिः विपुलमतिः-घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलि पुत्रिकोऽद्यतनोमहान् इत्याद्यध्यवासायहेतुभूता मनोद्रव्यविज्ञप्तिरिति ।
आह च–'रिजु सामण्णं तम्मत्त गाहिणी रिजुमती मणोनाणं । पायविसेस विमुहं घडमेत्तं चिन्तितं मुणइ ॥ १ ॥' छाया--ऋतु: सामान्यं तन्मात्र प्राहिणी ऋजुमतिर्मनोज्ञानम् । प्रायोविशेषविमुखं घटमात्रं चिन्तितं जा नाति ॥ १॥ "विउलंवत्थु विसेसणमाणं तगगाहिणो मती विउला । चितियमणुसरइघडं पसंगओ पन्जयसएहिं ।।" छाया--विपुलं वस्तु विशेषणमानं तद् ग्राहिणीमतिः विपुला । चिन्तितमनुस्मरति घटं प्रसङ्गतः पर्यायशतैः ।। २॥ 'आभिणियोहिए' इत्यादि, श्रुतं कर्मतापन्नं निनितं-आश्रितं श्रुतं वा निश्रितमनेनेतिश्रुतनिश्रितं, यत् पूर्व मेवश्रुतकृतोपकारस्येदानी पुनस्तद नपेक्षमेवानुप्रवर्तते-तदवग्रहादि लक्षणं श्रुतनिश्रितमिति, यत्पुनः पूर्वं तद परिकर्मितमतेः क्षयोपशमपटीयस्त्वादौत्पत्तिक्यादिलक्षणमुपजायतेऽन्य
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दर्शनविषयः
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द्वा श्रोत्रादिप्रभवं तदश्रुतनिश्रितमिति, आह च - "पुच्वं सुयपरिकम्मिय मतिस्स जं संपयं सुयाइय । (त्तं) सुवास्सियमियरं पुरण आस्सियंमइ च उक्क्कं (तं ) " ॥ १ ॥ छाया - पूर्व श्रुतपरिकर्मितमतेयत् साम्प्रतं श्रुतातीतम् । तन्निश्रितमितरत् पुनरनिश्रितं मतिचतुष्कं तत् ||१||” ति 'ए' त्यादि, अत्थो' त्ति अर्थते अधिगम्यतेऽयते वा अन्विष्यत इत्यर्थः, तस्य सामान्यरूपस्य अशेषविशेष निरपेक्षानिर्देश्यस्य रूपादेरेवग्रहणं - प्रथम परिच्छेदनमर्थावग्रह इति निर्विकल्पकं ज्ञानं दर्शनमिति यदुच्यते इत्यार्थः, स च नैश्चायको यः स सामयिको यस्तु व्यवहारिक शब्दोऽयमित्याद्युल्लेखवान् सन्तमहतिक इति श्रयं चेन्द्रियमनः सम्बन्धात् षोढा इति, तथा व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यब्जनं तच्चोपकरणेन्द्रियं शब्दादित्यपरिणतद्रव्यसंघातो वा ततश्च व्यब्जनेन—उपकारणेन्द्रियेण शब्दादित्त्वपरिणतद्रव्याणां व्यञ्जनानामवग्रहो व्यंजनावग्रह इति, अथवा व्यंजनं-इन्द्रियशब्दादिद्रव्यसम्बन्ध इति, आह च"जिज्जइ जेणऽत्थो घडोव्व दीवेण वंजणं तोनं । उवगररिंखिादय सहादिपरि संबन्ध || १||" छाया - व्यज्यते येनार्थो घट इव दीपेन व्यंजन ततस्तत् उपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धः ॥ १ ॥ 'त्ति' अयं च मनो नयनवर्जेन्द्रियाणां भवतोति चतुद्धा, नयनमनसोरप्राप्तार्थपरिच्छेदकस्वात् इतरेषां पुनरन्यथेति, ननु व्यंजनावग्रहो ज्ञानमेव न भवति, इन्द्रियशब्दादिद्रव्यसम्बन्धकाले तदनुभवाभावात् श्रधिरादीनामिवेति, नैवं व्यंजना वग्रहान्ते तद्वस्तु ग्रहणादेवोपलब्धिसद्भावात् इह यस्य ज्ञेयवस्तु ग्रहस्यान्ते तत एव ज्ञयवस्तूपादानात् उपलब्धिर्भवति तत् ज्ञानं दृष्ट', र्थावग्रहपर्यन्ते तत एवाथोवग्रहग्राद्यवस्तु ग्रहरणाद् ईहासद्भावात् अर्थाव
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यथाऽ
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जैनागमन्यायसंग्रहः
ज्ञानमिति आह च 'अन्ना सो बहिराइ व तक्कालमवलंभा ।
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[ श्राचार्य ] न तदन्ते तत्तोच्चिय उवलंभाश्रोतयं नाणं ॥ १॥ छायो --- ज्ञानं स वधिरादीनामिव तत् कालमनुपलम्भात् । न तदन्ते तदेवोपलम्भात्त कत् ज्ञानम् ||१|| ति, किंच - व्यंजनावग्रहकालेऽपि ज्ञानमस्त्येव, सूक्ष्माव्यक्तत्वात्तु नोपलभ्यते, सुप्तः व्यक्तविज्ञानवदिति, ईहादयोऽपि श्रुतनिश्रिता एव, नतूक्ता:, द्विस्थानकानुरोधादिति । अस्यनिस्सिएऽवि एमेव ' ति अवग्रह व्यंजनावग्रहभेदेनाश्रुतनिश्रितमपि द्विधैवेति इदं च श्रोत्रादिप्र भवमेव, यत्त औत्पत्तिक्याद्यश्रुतनिश्रितं उत्रार्थावग्रहः सम्भवति, यदाह"कहपडि कुकडहीरो जुज्झे बिंबे उमाहो ईहा कि सुसिलिट्टमवाओ द परण संकेत बिवंति ||१||” छाया - कथं प्रतिकुक्कटहीनो युध्यति बिम्बेनावग्रह ईहा । किं सुश्लिमवायो दर्पणसंक्रान्तंविम्बमिति ॥ १ ॥ न तु व्यंजनावग्रहः तस्येन्द्रियाश्रितत्वात् बुद्धीनान्तु मानसत्वात् ततो बुद्धिभ्योऽन्यत्र व्यंजनावग्रहोमन्तव्य इति । 'सुयणा' इत्यादि' प्रवचनपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि तेषु प्रविष्टुं - तदभ्यन्तरं तत स्वरूपमित्यर्थः, तच्चगणधरकृतं "उत्पन्न इवे" त्यादि मातृका पदत्रयप्रभवं वा ध्रुव श्रुतं वा आचारादि, यत्पुनेः - स्थविरकृतं मातृकापदत्रयव्यतिरिक्तव्याकरण निवद्धमध्रुवश्रुतं वोत्तराध्ययनादि तदंग वाह्यमिति ॥ श्रहच - "गणहर थेराइकतं एसा मुकवागरणओ वा २ धुव १ चल विसेसरणाओ २ अंगा गंगेसुनारण" ॥१॥ छाया - गणधर स्थविरादिकृतं आदेशात् मुक्त व्याकरणतो वा । ध्रुवचल विशेषणाद्वा अङ्गानङ्गयोः नानात्वम् ||१|| 'अंगबाही' त्यादि अवश्यं कर्त्तव्यमित्यावश्यक - सामायिकादि षड्विधम्
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J
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दर्शनविषयः
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श्राहच--"समण सावरा य अवस्स कायव्ययं वइ जम्हा । तो होसिरस य तुम्हा आवरसयंनामं ||१|| छाया -- श्रमणेन श्रावकेण चावश्यं कर्त्तव्यं भवति यस्मात् । अंतेऽन्होनिशश्च तस्मादावश्यकं नाम ||१|| आवश्यकाद्व्यतिरिक्त ततो यदन्यदिति । "वरसगवतिरिक्त" इत्यादि यदि दिवसनिशाप्रथमपश्चिमपौरुपीद्वय एव पठ्यते तत् कालेन निवृत्तं कालिकम्--उत्तर ध्ययनादि यत पुनः कालवेलावर्जपठ्यते तदृध्वं कालिकादित्युत्तरकालिकं- दशकालिकादीति । उक्त ज्ञानं, चारित्रं प्रस्तावयति
मूलः - दुविहे धम्मे पं० तं० - सुयधम्मे चैव चरित्तधम्मे चैव, सुयधम्मे दुविहे पं० त०- - सुत्तसुयधम्मे चैव श्रत्थसुयधम्मे चैव चरितध मे दुविहे पं तं० अगारचरितम्मे चैव - अणगारचरितम्मे चैत्र, दुविहे संजमे पं० तं ० - सरागसंजमे चैव वीतरागसंजमे चैव, सरागसंजमे दुविहे पं० तं० - सुहुमसंपराय सरागसंअमे चैव वादरसंपरायसरागसंजमे चेव. सुहुमसंपराय सरागसंजमे दुविहे पत्ते ० - पढमसमयसुहुमसं पराय सरागसजमे चैव पढमसमयसु०, अथवा चरमसमय सु० अचरम समय सु० अहवा सुमसंपराय सरागसंजमे दुविहे पं, तं०संकिले समाए चैव विसुज्झमाणए चेव, संजमे दुविहे पं० तं० - पढमसमयवादरसं०
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वादररुं पराय सरागपढमसमय वादर
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जनागमन्यायसंग्रहः
सं० - अहवा चरिमसमय० अचरिम समय० अहवा वायरसंपराय
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सरागसंजमे दुविहे पं० तं० - पडिवाति चेव पडिवाति चेव, बीयरागसंजमे दुविहे पं० तं० उवसंतकसायवीयरागसंजमे चैव खीणकसायवीयरागसंजमे चेव उवसंतकसायवीयराग संजमे दुविहे पं० तं० - पढमसमयउवसंतकसायवीतरागसंजमे चेव, अपढमसमयउव०, अहवा चरिमसमय० चरिमसमय ०, खीकसायवीतरागसंजमे दुबिहे पं० तं० - छउमत्थखीणकसाय वीयरागसंजमे चैव केवलिखी कसायवोयरागसंजमे चेब, छउमत्थखीण कसायवीयरागसंजमे दुविहे पं० तं० सयंबुद्ध छउमत्थखी कसाय० बुद्धवोहियछ उमत्थ०, सयंबुद्धछ उमत्थ० दुविहे प० तं ० -- पढमसमय० अपढमसमय०, हवा चरिमसमय ० अचरिमसमय०, बुद्धवोहियछरमत्थखीण० दुविहे पं० तं०पढमसमय० अपढमसमय०, हवा चरिमसमय० चरिमसमय०, केवलिखीएकसायवीतरागसंजमे दुविहे पं० तं० - सजोगि केव लिखी एक साय० सजागिकेवलिखी एकसाय संजमे दुविहे पं० तं०- पढमसमय ०
जोगिन लिखी एक सायवीयराग०,
पदमसमय० अहवा चरिमसमय० श्रचरिमसमय ०,
अजोगि
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केवलिखी एक साय०
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संजमे दुविहे पं० तं० - पढमसमय ०
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दर्शनविषयः अपढमसमय०, अहवा चरिमसमय० अचरिमसमय ० (सू०७२)
टीकाः-दुर्गतौ प्रपततो जोवान रुणद्धि सुगतौ च तान्-धारयती तिधर्मः श्रुतं-द्वादशाङ्ग तदेवधर्मः श्रुतधर्मः, चर्यते-श्रासेव्यते यत तेन वा चर्यते-गम्यते मोक्ष इति चरित्रं-मूलोत्तरगुणकलापस्तदेव धर्मश्चारित्रधर्म इति । 'सुयधम्मे' इत्यादि, सूत्र्यन्ते सूच्यन्ते वाऽर्था अनेनेतिसूत्रं, सुस्थितत्वेन व्यापित्वेन च सुष्ठूतत्वादवा सूक्त सुप्तमिव वा सुप्तम् , अव्याख्यानेन प्रबुद्धावस्थत्वादिति भाग्यवचनंत्वेवं-सिञ्चतिखरइ जमत्थं तम्हा सुत्तं निरत्त विहिणो वा । सूएइ सवति सुब्बइ सिव्वइ सरए व जेणत्थं ॥१॥ छायासिञ्चति क्षरति यस्मादर्थं तस्मात् सूत्रं निरुक्तविधिना वा, सूचयति श्रवति श्रयते सिच्यते स्मयते वा येनार्थः ॥१॥ अविवरियं सुत्तपि व सुट्टियवावित्त ओ सुवुत्त ति छाया- अविवृतं सुप्तमिव सुस्थितव्यापित्वात सूक्तमिति ॥ अर्यतेऽधिगम्यतेऽर्थ्यते वा याच्यते बुभुत्सुभिरित्यर्थों-व्याख्यानमिति, आहच-'जो मुत्ताभिप्पाो सो अत्थो अजए य जम्हति' छाया-यः सूत्राभिप्राय: मोऽर्थाऽप्यते च यस्मादिति । ' चरित्ते' त्यादि, अगारं-गृह तदद्योगादागारा:- गृहिणस्तेषां यश्चरित्रधर्मः- सम्यक्त्वमूलाणुव्रतादि पालनरूपः स तथा, एवमितरोऽपि, नवरमगारं नास्ति येषां तेऽनगारा: साधव इति । चरित्रधर्मश्च संयमोऽतस्तमेवाह-'दुविहे' त्यादि, सह रागेणअभिष्वङ्गण मायादिरूपेण य. स सरागः स चासौ संयमश्च सरागस्य वा संयम इति वाक्यम् । बोतो-विगतो रागो यस्मात् स चासो संयमश्च वोतरागस्य वा संयम इति वाक्यमिति । ' सरागे ' त्यादि, सूक्ष्म:-असंख्याताकट्टकावेदनतः सम्पराय:-कषायः सम्परैति-संसरति संसारं जन्तुरनेनेति व्युत्पादनात् , आह च-कोहाइ संपराओ तेण जुओ संपरीति संसारं ति,
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जैनागमन्यापसंग्रहः छाया -क्रोधाद्या. संपरायास्तैर्युतः संपरैति संसारम्। स च लोभकषायरूपः उपशमकस्य क्षपकस्य वा यस्य स सूक्ष्म संपरायः साधुस्तस्य सरागसंयमः, विशेषणसमासो वा भणनीय इति, वादरा:-स्थूराः सम्परायाः कषाया यस्य साधो यस्मिन् वा संयमेः स तथा-सूक्ष्मसम्परायप्राचीनगुणस्थानकेषु, शेष प्रागवदिति ।‘सुहुमे' त्यादि, सूत्रद्वये प्रथमाप्रथमसमयादिविभागः केवलज्ञानवदिति । अहवे त्यादि, संक्लिश्यमानः संयमः उपशमश्रेण्या: प्रतिपततः, विशुद्धयमानस्तामुपशमश्रेणी वा समारोहत इति । 'वादरे' त्यादि सूत्रद्वयं, बादर सम्पराय सरागसंयमस्य प्रथमाप्रथमसमयता संयम प्रतिपत्तिकालापेक्षया चरमाचरमसमयतातु यदनन्तरं सूक्ष्मसम्परायता असंयतत्वं वा भविष्यात तदपेक्षयेनि, 'अइवे. त्यादि, प्रतिपाती उपशमकस्यान्यस्य वा अप्रतिपातीक्षपकस्येति । सरागस या उक्तोऽतो वीतरागसंयममा - 'वोयरागे' त्यादि, उपशान्ताः प्रदेशतोऽप्यवेद्यमाना: कषाया यस्य यस्मिन् वा स तथा साधुः संयमोवेति - एकादश गुणस्थानवर्ताति, क्षीणकषायो द्वादशगुणस्थानवाति, 'उवसंते' त्यादि सूत्रद्वयं प्रागिव 'खीणे? त्यादि, छादयत्यात्मस्वरूपं यत्तत् छद्मज्ञ नावरणादिघातिकर्म तत्र तिष्ठनोति छद्मस्थः-अकेवली, शेषं तथैव, केवलम उक्तस्वरूपं ज्ञानं च दर्शनं चास्यास्तीति केवलोति । 'छ उमत्थे' त्यादि, स्वयं बुद्धादिस्वरूपं प्रागिवेति, 'सयं बुद्ध' त्यादि नत्र सूत्राणि गतार्थान्येवेति ॥ (स्थानाङ्ग सूत्र ७२ उद्देश १) ।
मूल:-'अथवा तिविधे ववसाते पं० २०-- पच्चक्खे पञ्चतिते पाणुगामिए ॥ ५,
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दर्शनविषयः
८३
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टीका :- व्यवसायो - निश्चयः, स च प्रत्यक्षोऽवधिमनः पर्यायकेवलाख्यः प्रत्ययोत् इन्द्रियानिन्द्रियल क्षरणान्निमित्ताज्जातः प्रात्ययिकः साध्यम् - अग्न्यादिकमनुगच्छति साध्याभावे न भवति यो धूमादिहेतु: सोऽनुगामी ततो जातमानुगामिकम् अनुमानं तद्रूपो व्यवसाय श्रानुगामिक एवेति अथवा प्रत्यक्षः स्वयंदर्शनलक्षण: प्रात्ययिकः प्राप्तवचनप्रभवः, तृतीयस्तथैववेति ५ | (स्थानांग सू० स्थान ३ उ. ३ सू १८५) मूल:- चडविणाते पं० तं० - हरणे आहणत से आहरणतदोसे उबन्ना सोवणए १ आहरणे चव्वहे पं० तं०वाते उवाते ठवणाकम्मे पडुप्पन्नविणासी २, आहरणतद े से च उविहे पं० तं० - सिट्ठी उवालंभे पुच्छा निस्सावय ३, श्राहरणतद्दोसे चउव्विहे पं० तं० - अधम्मजुत्ते पडिलोमे अंतोवणी ते दुरुवणीते ४ उवन्नासोवणए चउन्विहे पं० तं० - तव्वत्थुते तदनवत्थुते पडिनिभे हेतु ५ हेऊचउब्विहे पं० तं०-जावते थावते वंसते लूसते, हवा हेऊच उव्जिहे पं० तं० – पच्चक्खे अणुमा
आगमे, हवा हेऊचडविहे पं० तं० – अत्थित्तं श्रत्थि - सो ऊ १ त्थित्तणत्थि सो हेऊ २ गत्थित्तं श्रत्थि सो हेऊ ३ पत्थितं गत्थितं सो हेऊ ४ (सू० ३३८)
टीका :- तत्र ज्ञायते श्रस्मिन् सति दाष्टन्तिकोऽर्थ इति अधिकरणे क्तप्रत्ययोपादानात् ज्ञातं - दृष्टान्तः, साधनसद्भावे साध्यस्यावश्यंभावः
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८४
जैनागमन्यायसंग्राहः
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साध्याभावे वा साधनस्यावश्यमभाव इत्युपदर्शन लक्षणो, यदाह - " साध्येनानुगमो हेतोः, साध्याभावे च नास्तिता । ख्याप्यते यत्र दृष्टान्तः, स साधम्र्मेतरो द्विधा ॥१॥” इति, तत्र साधर्म्यदृष्टान्तोऽग्निरत्र धूमाद् यथा महानस इति; वैधर्म्य दृष्टान्तस्तु श्रग्न्यभावे धूमो न भवति, यथा जलाशये इति, अथवा अख्यानकरूपं ज्ञातं तच्च चरितकल्पितभेदात् द्विधा, तत्र चरितं यथा निदानं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येव, कल्पितं यथा प्रमादवतामनित्यं यौवनादीतिदेशनीयं यथा पाण्डुपत्रेण किशलयानां देशितं तथा हि-'जह तुम्भे तह अम्हे तुन्भेविय होहिहा जहा म्हो अपार पडतं पंडुयपत्तं किसलयाणं ॥ १ ॥ । छाया -- यथा यूयं तथा वयं यूयमपि भविष्यथ यथा वयम् शिक्षयति पतत्पांडुपत्रं किशलयान् । इति, अथवोपमानमात्रं ज्ञातं सुकुमारः करः किशलयमिवेत्यादिवत् अथवा ज्ञातं उपपत्तिमात्रं ज्ञातहेतुत्वात् कस्मोद् यवाः क्रीयन्ते । यस्मान्मुधा न लभ्यते इत्यादिवदिति, एवमनेकधा साध्यप्रत्यायनस्वरूपं ज्ञातमुपाधिभेदात् चतुर्विधंदर्शयति-तत्र - अभिविधिना हियते प्रतीतौ नीयते अप्रतीतोऽर्थोऽनेनेत्याहरणं यत्र समुदित एव दाष्टान्तिकोऽर्थः उपनीयते यथापापं दुःखाय ब्रह्मदत्तस्येवेति तथा तस्यआहरणार्थस्यदेशस्तदशः स चासावुपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वात आहरणशब्दस्य पूर्वनिपाते आहरणतद्द ेश इति भावार्थश्चात्र यत्रदृष्टान्तार्थदेशेनैव दाष्टन्तिकार्थस्योपनयनं क्रियते तत्तद्द शोदाहरणमिति, यथा चन्द्र इव मुखमस्या इति, इह हि चन्द्र सौम्यत्वलक्षनणेनैव देशेन मुखस्योपनयनं नानिष्टेन नयननासावर्जितत्वकलं कादिनेति तथा तस्यैवआहरणस्य सम्बन्धी साक्षात् प्रसंग सम्पन्नो वा दोषस्तद्दोष स चासौ धर्मे धर्मिणः उपचारादाहरणं चेति प्राकृतत्वेन पूर्वनिपातादाहरण तद्दोष
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दर्शनविषयः
८५
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इति, अथवा तस्य - श्राहरणस्य दोषो यस्मिंस्तत्तथा शेषं तथैव, अयमन्त्र भावार्थ:- यतू साध्य विकलत्वादिदोषदुष्टं तद्दोष हरणं, यथा नित्य शब्दोऽमूर्त्तत्वात् घटवत् इहसाध्यसाधनवैकल्यं
नामदृष्टान्तदोषों, यच्च सभ्यादिवचनरूपं तदपि तद्दोषाहरणं यथा सर्वथाऽहमसत्यं - परिहरामि गुरुमस्तक कर्त नवदिति यद वा साध्यसिद्धिं कुर्वदपि दोषान्तरमुपनयति तदपि तदेव, यथा सत्यंधर्ममिच्छन्ति लौकिक मुनयोऽपि - "वरंकूपशताद् वापी वरं वापीशतात् क्रतुः । वरं क्रतुशतात् पुत्रः सत्यं पुत्रशताद् वरम् ॥ १ ॥ इतिवचन वक्तृनारदवदिति, अनेन च श्रोतुः पुत्र ऋतुप्रभृतिषु प्राय: संसारकारणेषुधर्मप्रतीतिराहितेति श्राहरणतदोषतेति, यथा वा - बुद्धिमता केनापि कृतमिदं जगत् सन्निवेशविशेषवत्वात् घटवत् सचेश्वर इति अनेन हि स बुद्धिमान् कुम्भकारतुल्योऽनीश्वरः सिद्धयतीति, ईश्वर
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विवक्षित इति, तथा वादिना अभिमतार्थसाधनायकृते वस्तूपन्यासे तद् विघटनाय यः प्रतिवादिनाविरुद्धार्थोपनयः क्रियते पर्यनु योगोपन्यासे वा य उत्तरोपनयः स उपन्यासोपनयः, उत्तररूपमुपपत्तिमात्र मपि ज्ञातभेदो ज्ञाततुत्वादिति यथा अकर्त्ता आत्मा अमूर्त्तत्वात् आकाशवदित्युक्ते अन्य आह - आकाशवदेवाभोक्तेत्यपि प्राप्तमनिष्ट चैतदिति, यथा वा मांसभक्षणमदुष्ट प्राण्यङ्गत्वादोदनादिवत् अत्राहान्यः - ओदनादि वदेव स्वपुत्रादिमांसभक्षणमप्यदुष्टमिति, यथा वा त्यक्तसङ्गा वस्त्र पात्रादि संग्रहं न कुर्वन्ति ऋषभादिवत्, अत्राह कुण्डिकाद्यपि ते न गृह ति तद्वदेवेति तथा कस्मात् कर्म कुरुषे यस्माद् धनार्थीति इह प्रथमं ज्ञातं समग्रसाधर्म्यं द्वितीयं देशसाधर्म्यं तृतीयं सदोषं चतुर्थ प्रतिवाद्युत्तररूपमित्यय मेषां स्वरूपविभाग इति, इह देशतः संवाद गाथा - चरियं च कप्पियं वा
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जैनागमन्यायसंग्राहः दुविहं तत्तो चबिहे केक । आहरणे तद्द से तहोसे चेवुवन्नासा ॥१॥ छाया-चरितं च काल्पकं वा द्विविधं ततश्चतुविधमेकैकं आहरणं तद्दशः तद्दोषश्च व उपन्यासः ॥ १।। इति, “ अवाये" अपायः-अनर्थः स यत्र द्रव्यादिष्वभिधीयते यथतेषु द्रव्यादिविशेष्वस्त्यपायो विवक्षितद्रव्यादिविशेषेष्विव, हेयता वाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमपाय इति, स च चतु र्धाद्रव्यादिभि:-तत्र द्रव्यात् द्रव्ये वाऽपायो द्रव्यमेव वा तत् कारणत्वादपायोद्रव्यापाय, एतद् हेयतासाधकं एतत्साधकं वाऽऽहरणमपि तथोच्यते, तत् प्रयोगो-द्रव्यापाय: परिहाय॑स्तत्र वाऽपायो वर्ततेदेशान्तरगमनेनोपार्जितद्रविणयोस्तल्लोभात् परस्परमारणपरिणतयोः स्व प्रामाद् वहिः प्राप्तावनुतापात् ह्रदत्यक्तमत्स्यगिलित तद् वित्तयोमत्स्यवन्धकपार्थान गृहीतस्य तस्यमत्स्यस्य विदारणेऽवाप्त तद्रुव्यलुब्धभगिन्या मत्स्यच्छेदकशस्त्राभिघातेन तदुद्दालनप्रवृत्तिमारित मातृकायास्तथाविधव्यतिकरदर्शनोत्पन्नसंवेगात् प्रतिपन्नप्रव्रज्ययोर्भ्रातृणिजोरिव, तत् परिहारश्च प्रव्रज्यया तत्त्यागादिति, आहरणता चास्यदेशेनोपनयस्याविवक्षणादिति, तथाक्षेत्रात क्षेत्रे वा क्षेत्रमेव वाऽपायः क्षेत्रापायः, शेषं तथैव, एवमुत्तरत्रापि तत् प्रयोगः-अपायवत् क्षेत्रं वर्जयेत् जरासन्धाभिधानप्रतिवासुदेवात् सम्भावितापायां मथुरानगरी यथा दशार्हचक्र वर्जयामासेति, अथवा सम्भवत्यपायः स प्रत्यनीक क्षेत्रे ससर्पग्रहवत्, कालापायो यथा-सापायकाल वर्जने यतेत, द्वैपायनो द्वारकामावर्षद्वादशकाद्धक्ष्यतीति श्रुतनेमिनाथ वचनोद्वादशवर्षलक्षणसापायकालपरिजिहीयोत्तरापथप्रवृत्तो द्वपायनोयथेति, अथवा सापायोऽपिभवति कालो रुद्रादिवदिति, तथा भावापायो यथाभावापायं परिहरेत् महानागवत् नागदत्तक्षुल्लकवद् वेति ,तथाहि
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दर्शनविषयः
किल कश्चित् चपकः प्रस्तुतपाररणकः सक्षुल्लकः समारब्ध भिक्षार्थ भ्रमणकः कथञ्चिन्मारितमण्डूकिकः क्षुल्लक प्रेरितोऽप्रतिपन्नतद्वचनः पुनरावश्यक काले स्मारिततदर्थः समुत्पन्नकोपः क्षुल्लकोपघातायाभ्युत्थितो वेगादागच्छन् स्तम्भ आपतितोमृतो ज्योतिष्केषूत्पन्नोऽनन्तरं च्युतो जातिस्मरणदृष्टिविष सर्पतयोत्पन्नः समृत् पुत्रेण च सर्वेषुकुपितेन राज्ञाऽऽदिष्टजनमार्यमा -
षु नागेषु नागवनाशकनरेण केनाप्योषधिवलादाकृष्यमाणो दृष्टकोपविपाकतया च मद्दष्टिविषेण मा घातकपुरुषविघातो भवत्विति भावनया पुच्छतो निर्गच्छन् यथानिगंभन्न खण्ड्यमानः कोपलक्षरणभावा पायं परिहृतवानिति तथा स एवानन्तरं नागदत्ताभिधानराजसुततयो नो प्रतिपन्नप्रव्रज्योऽत्यन्तसंविग्नस्तिर्यग्भवाभ्यासाच्चात्यन्त
८७
यावद् भोजनशीलोऽसाधारणगुणावर्जित तद्गच्छगतमा सादिक्षपक चतुष्टयस्येर्ण्यविषयी
केवलः
.
वालत्व एव क्षुधालु रादित्योदयादस्तमयं देवताभिवंदितोऽत एव भूतो विनयार्थं तेषामुपदर्शितस्वार्थानीतभोजनः तैश्च मत्सराद्भोजन मध्यनिष्ठय तनिष्ठीवनोऽत्यन्तोपशान्तचित्तवृत्तितया यः सञ्जात पुर्देवतावन्दितस्तेषामपि क्षपकारणां संवेग हेतुत्वेन केवलज्ञानदर्शनसमृद्धि संपादक: कोपरूपं भावापायं परिजहारेति, अथवा कोपादिलक्षणो भावोऽपायोभवति क्षपकस्येवेति, गाथे इह - दव्यवाए दुन्नि उ वारिणयगा भायरो वरणनित्तिं । वह परियमेक्कमिक्कं दहमि मच्छेण निव्वे ॥ १ ॥ खित्तंभि अवक्कमणं दसारवग्गस्स होइ अरे । दीव यणो य काले भावे मण्डूकयाखमओ || २ || छाया - द्रव्यापाये द्वौ वणिग्भ्रातरौ धननिमित्तम् । वध - परिणत एकैकस्मिन हृदे मत्स्येन निवेदः ॥ १ ॥ क्षेत्रेऽवक्रमणं दशाई • वर्गस्य भवत्य परस्याम् । द्वीपायनश्च काले भावे मण्डूकिका क्षपकः ||२|| इति,
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जनागमन्यायसंग्रहः
'उवाए। त्ति उपायः-उपेयं प्रतिपुरुषव्यापारादिकासाधनसामग्री स यत्र द्रव्यादावुपेये अस्तीत्यभिधीयते यथैतेषु द्रव्यादिविशेषेषु साधनीयेष्वस्त्युपायो विवक्षितद्रव्यादिविशेषवत्, उपादेयता वाऽस्य यत्राभिधीयते तदाहरणमुपाय इति, सोऽपिद्रव्यादिभिश्चतुर्वि, तत्र द्रव्यस्य सुवर्णादेः प्रासुको दकादेर्वा द्रव्यमेव वा उपायो द्रव्योपायः, एतत्साधनमेतदुपादेयता साधनं वाऽऽहरणमपि तथोच्यते, तत् प्रयोगश्चैवम् अस्तिसुवर्णादिषूपायः उपायेनैव वा सुवर्णादौ प्रवर्तितव्यं, तथाविधधातुवादसिद्धादिवदिति, एवं क्षेत्रोपायः-क्षेत्रपरिकर्मणोपायो यथा अस्त्यस्य क्षेत्रस्य क्षेत्रीकरणोपायो लाङ्गलादिस्तथाविधसाधुव्यापारो वा तेनैव वा प्रवर्तितव्यमत्र तथा विधान्यक्षेत्रवादति, एवं कालोपाय:-कालज्ञनोपायः, यथा स्तिकालस्य ज्ञ ने उपायः धान्यादेरिव, जानीहि वा कालं घटिकाच्छायादि नोपायेन तथा भूतगणितज्ञवदिति, एवं भावोपायो यथा भावज्ञाने उपायोऽस्ति भावं वोपायत्तो जानीहि, वृहत कुमारिका कथाकथनेन विज्ञातचौरादिभावाभयकुमारवति, तथाहि-किल राजगृहनगरस्वामिनः श्रेणिकराजस्य पुत्रोऽभयकुमाराभिधानो देवता प्रसादलब्धसर्वत्तु कफलादिम्मृद्धारामस्याम्रफलानां अकालाम्रफलदोहदवद्भा-दोहद पूरणार्थ चाण्डालचौरेणापहरणे कृते चौरपरि ज्ञान थे नाट्यदर्शननिमित्तमिलितबहुजनमध्ये बृहत कमारिका कथामचकथत् , तथाहि काचिद् वृद्धकुमारिका वाञ्छितवरलाभायकामदेवपूजार्थमारामे पुष्पाणि चोरयन्ती आगमपतिना गृहीता सद्भावकथने विवाहितया पत्या अपारमुक्तया मतपार्श्वे समागन्तव्यमित्यभ्युपगम कारियित्वामुक्ता तत: कद चित् विवाहिता सती पतिमापृच्छय रात्रावारामपतिपायें
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दर्शनविषयः गच्छन्ती चौरराक्षसाभ्यां गृहीता सद्भावकथने प्रतिनिवृत्तया भवत्पावें
आगतव्यमिति कृताभ्युपगमामुक्ता आरामेगता आरामिकेण सत्यप्रतिज्ञे त्यखण्डितशीलाविसर्जिता इनराभ्यामपि तथैव विसर्जिता पतिसमीपमागतेति, ततो भो लोकाः पत्यादीनां मध्ये को दुष्करकारक इति चासौ पप्रच्छ तत ईर्ष्यालुप्रभृतयः ! पत्यादीन् दुष्करकारित्वेनाभिदधु , चौरचाण्डालस्तु चौरानिति, ततोऽसावनेनोपायेनभावमुपलक्ष्य चौर इति कृत्वा तं वन्धयामासेति, अत्रापि गाथे 'एमेव चउविगप्पो होइ उवाओऽवि तत्थ दव्वम्मि । धाउव्वाओ पढ़मो णंगलकुलिएहिं खेत्तं तु ॥१॥ कालोऽवि नालियाईहिं होइ भावम्मि पंडिओ अभओ। चोरस्स कर णट्टि य वड्ढकुमारि परिकहिंसु ।।२।।' छाया - एवमेव चतुर्विकल्पो भवत्युपायोऽपि तत्रद्रव्येधातुवादः प्रथमः लांगूलकुलिकैः क्षेत्रन्तु ।।१।। कालोऽपि नालिकादिभिः भवति भावे पंडितोऽभयः चोरस्य कृते नत्ये वृद्धकुमारी कथां परिचख्यौ ।।२।। इति, "ठवणा कम्मे" त्ति स्थापनं प्रतिष्ठापनं स्थापना तस्याः कर्म-करणं स्थापना कम् येन ज्ञातेन परमतं दूषयित्वा स्वमतस्थापनो क्रियते ततस्थापनाकमेति भावः तच्च द्वितीयाङ्ग द्वितीयश्रुतस्कन्धे प्रथमाध्ययनं पुण्डरीकाख्यं, तत्र ह्यु क्तमस्ति- काचित पुष्करिणी कदमप्रचुरजला तन्मध्यदेशे महत्त्पुण्डरीकं तदुद्धरणार्थ चतसृभ्यो दिगभ्यश्चत्वार पुरुषा: सकद्द ममार्गः प्रवेष्टुमारब्धाः, ते चाकृततदुद्धरणा एवं पङ्के निमग्नाः, अन्यस्त तेटस्थोऽसंस्पृष्टकई म एवामोघवचनतया तदुद्धृतवानिनि ज्ञातं, उपनयश्चायमत्र-कई मस्थानीया विषया पुण्डरीक राजादिभव्यपुरुषः चत्वारः पुरुषाः परतीथिकाः पंचमः पुरुषः साधुः अमोघवचनं धर्मदेशना पुष्करिणी संसारः तदुद्धारोनिर्वाणमिति, अनेन च ज्ञातेन विषयाभिष्वङ्गवतां तीथिकानां भ
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जैनागमन्योयसंग्रहः व्यस्य संसारानुत्तारकत्वं साधोश्च तदविपर्ययं वदता आचार्येण परमत दूषणेन स्वमतं स्थापितमतो भवतीदं ज्ञातं स्थापना काम्र्मेति, अथवाऽऽपन्नं दूषणमपोह्य स्वभिमतस्थापना कार्येत्येवंविधार्थप्रतिपत्तिर्यतो जायते तत् स्थपनाकर्म, किल मालाकारेण केनापि राजमार्गपुरीषोत्सर्गलक्षणापराधोपोहाय तत् स्थाने पुष्पपुञ्जकरणेन किमिदमिति पृच्छतो लोकस्य हिंगु शिवो देवोऽयमिति वदता व्यन्तरायतन स्थापनाकृतेति, एतस्मात् किलाख्यानकादुक्तार्थः प्रतीयते इतीदं स्थापनाकमैति, तथा नित्यानित्यं वस्त्वित्य संगतं जिनमतं विरुद्धधर्माध्यासादिति दूषणमापन्नमेतद् व्यपोहायोच्यतेविरुद्धधर्माध्यासो न भेदनिबन्धनं विकल्पस्येव, विकल्पोहि क्रमभाविवर्णोल्लेखवान् विरुद्धधर्मोपेतो भवति, न च कथञ्चिदेको न भवति, खण्डशो विभक्तस्य तस्य स्वरूपलाभाभावात् प्रवृतिनिवृत्योरकारणताम्यादसमंजसं चैवमिति, एवश्च विरुद्धधर्माध्यासस्य कथाश्चिदभेदकत्वे सति न केवलं नित्यानित्यं न भवतीति दूषणमपोढमपि तु सर्वमनेकान्तात्मकमिति विकल्पज्ञानेन स्वमतं प्रसाधितम, अतो विकल्पज्ञातं स्वमतस्थापनेन स्थापनाकर्मेति अत्र नियुक्तिगाथाः–'ठवणाकम्मं एक [अभेदमित्यर्थः] दिढतो तत्थ पुडरीयतु । अहवाऽवि सन्नढकण हिंगुसिवकयं उदाहरणं ॥१॥' छायास्थापनाकर्म अभिन्नं दृष्टान्तस्तत्र पुण्डरीक तु-अथवापि संज्ञाच्छादकहिंगु शिवदेवकृतमुदाहरणम् ।।१।। इति, सव्यभिचारो हेतुयः सहासोपन्यस्तस्तस्य समर्थनार्थ यो दृष्टान्तः पुनरुपन्यस्यते स स्थापनकम्र्मेति, उक्तश्च-सर्वाभचारं हेडं सहसा बोत्तु तमेव अन्नेहिं । उबबूहइ सप्पसरं सामत्थं चऽप्पणो गाउं ॥१॥" छाया-सव्यभिचार हेतु सहसोकत्वा तमेवान्यैः, उपबृहयति सप्रसंगं सामथ्र्य चात्मनो ज्ञात्वा ॥१॥ ति, तद् यथा-अनित्यः शब्दः कृत
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दर्शनविषयः कत्वात् , अथ वर्णात्मके शब्दे कृतकत्वं न विद्यते वर्णानां नित्यतयाऽभि हितत्वादिति व्यभिचारः, समर्थनापुनवर्णात्माशब्दः कृतको निजकारणभेदेन भिद्यमानत्वाद घटपटादिवत् , घटादिदृष्टान्तेन हि वर्णानां कृतकत्व स्थापितमिति भवत्ययं स्थापनाकर्मेति, 'पडुप्पन्नविणासि' ति:-प्रत्युपन्नस्य तत्कालोत्पन्नवस्तुनो विनाशोऽभिधेयतया यत्रास्ति तत् प्रत्युत्पन्नविना शीति, यथा केनापि वणिजा दुहित्रादिस्त्रीपरिवारशीलविनाशरक्षार्थ तदासक्तिनिमित्तस्वगृहासन्नराजगान्धर्विकगुणनिकायोः स्वगृहहे कुलदेवतानिवेशनात् गुणनिकाकाले तस्या देवताया अग्रतः आतोद्यानादव्याजेन राजा. पराधपरिहारेण विनाशः कृत , एवं गुरुणा शिष्यान् कचिद् वस्तुन्यध्युपपद्यमानानुपलभ्य तस्य तदासक्तिनिमित्तत्वमुपहन्तव्यमित्येवं प्रत्युत्पन्नविनाशनीयता ज्ञापकत्वात् प्रत्युत्पन्नविनाशिज्ञातता गन्धर्विकाख्यानकस्यावगन्तव्येति, उक्तश्च होतिपडुप्पन्नविणासणंमि गंधव्विया उदाहरणं सो सोऽवि कत्थइ जइ अझो वज्जेज तो गुरुणा ॥१॥ छाया-भवति प्रत्युत्पअविनाशने गांधर्विकोदाहरणम् शिष्योऽपि कुत्रापि यदि अध्युपपद्यत तदा गुरुणोपायेन वारयितव्यः ॥१॥ वारेयव्वो उवाएणं' इति, अथवा अ. त्ति आत्मा अमूत्वात आकाशवत् इत्युत्पन्ने आत्मनोऽकर्तृत्वापत्तिलक्षोणे दूषणे तदू विनाशायोच्यते-कतैवात्मा कथंचिन्मूत्वात् देवदत्तवदिति । व्याख्यातमाहरणं, आहरणताचैतभेदानां देशेनदोषवत्तया चोपनयाभावादिति, अथाहरणतद्द शो व्याख्यायते-स च चतुर्द्धा, तत्र अनुशासनमनुशास्ति:-सद्गुणोत्कीत्तनेनोपबृहणं सा विधेयेति यत्रोपदिश्यते साsनुशास्तिः, यथा गुणवन्तोऽनुशासनीया भवन्ति, यथा साधुलोचनपतितजः कणापनयनेन लोकसम्भावितशीलकलंका तत्क्षालनायराधितदेवताकृतप्राति
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१२
जैनागमन्यायसंग्रहः हार्या चालनीव्यवस्थापितोदकच्छोटनोद्घाटितचंपागोपुरत्रया सुभद्रा अहो शीलवतीति महाजनेनानुशासितेति, उक्तश्च-आहरणं तद से चउहा अणुसहि तह उवालंभो । पुच्छानिस्सा वयणं होइ सुभद्दाऽणुसट्ठीए ॥१॥ छाया- आहरणं तद्दे शे चतुर्धा अनुशास्तिस्तथोपालंभः। पृच्छा निश्रावचनं भवति सुभद्रानुशास्तौ ॥ १ ॥ साहुक्कार पुरोयं जह सा अणुसासिया पुरजणेणं। वेयावच्चाईसुवि एव जयंतेव चूहेजा ॥२॥ छायासाधुकार पूर्वकं यथासाऽनुशिष्टापौरजनेन । वैयावृत्यादिष्वपि एवं यतमानानप्युपबृहयेत् ॥ २ ॥ इति, इहच तथाविधवैयावृत्यकरणादिनाप्युपनयः सम्भवति तत्त्यागेन च महाजनानुशास्ति मात्रेणोपनयः कृत इत्याहरण तद्देश इति, एवमनभिमतांश त्यागादभिमतांशोपनयनमुत्तरे ध्वपि-भावनीयमिति, तथा उपालम्भनं उपालम्भो-भङ्गयन्तरेणानुशासनमेवस यत्राभिधीयते स उपालंभो यथाक्कचिदपराधवृत्तयो विनेयाउपालम्भनीयाः यथा महावीर समवसरणे सविमानागत चन्द्रादित्योद्योतेन काल विभागमजानती मृगावती नाम्नी साध्वी स्थिता ततस्तद्गमनेऽतिकालोऽयमिति सम्भ्रान्ता सह साध्वीभिरायचन्दना समीपं गतो तयाचोपालब्धा-अयुक्तमिदं भवादृशीनामुत्तमकुंलजातानामिति, तथा पृच्छा-प्रश्नः किं कथं केन कृतमित्यादि सा यत्र विधेयतयोपदिश्यते सा पृच्छा यथा प्रच्छनीया ज्ञानिनो निर्णयार्थिभिर्यथा भगवान् कोणिकेन पृष्टः, तथाहि किल कोणिकः श्रेणिकराजपुत्रः श्रमणंभगवन्तं महावीरं पमप्रच्छ। तद् यथाभदंत ! चक्रवर्ति. नोऽपरित्यक्त कामाः मृताः कोत्पद्यते । भगवताऽभिहितंसप्तमनरकपृथिव्यां, ततोऽसौ वभाण-अहं कोत्पत्स्ये । स्वामिनोक्त षष्टयां, स उवाच-अहं किं न सप्तम्याम् ? स्वामिनाजगदे-सप्तम्यां चक्रवर्तिनो यान्ति, ततोऽसवि
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दर्शनविषयः
६३ भिदधौ, किमहं न चक्रवतो ? यतो ममापि हस्त्यादिकं तत् समानमस्ति, स्वामिना प्रत्यूचे-तय रत्ननिधयो न सन्ति ततऽसौ कृत्रिमाणि रत्नानि कृत्वा भरतक्षेत्र साधन प्रवृत्तः कृतमालिकयक्षण गुहाद्वारे व्यापादितः षष्ठी गत इति, तथा — निस्सावयणे त्ति निश्रया वचन निश्रावचनं, अयमर्थःकमपि सुशिष्यमालम्ब्य यदन्य प्रबोधार्थ वचनं तन्निश्रावचनं तद्यत्रविधेयतयोच्यते तदाहरणं निश्रावचनं यथा असहनान् विनेयान माईव सम्पन्नमन्यमालंव्य किञ्जिद् ब यात्, गौतममाश्रित्य भगवानिवेति तथाहिकिल गौतमतापसादि प्रव्रजितानां केवलोत्पत्तावनुत्पन्न केवलत्वेनाधृतिमन्तं चिरसंश्लिष्टोऽसि गौतम ! चिर परिचितोऽसि गौतम ! मा त्वमधृतिं कार्षी रित्यादिनावचनसंदा हेनानुशासयता अन्येऽप्यनुशासिताः तदनुशासनार्थ द्रुमपत्रकाध्ययनं च प्रणिन्ये इति, उक्तश्च-'पुच्छाए कोणिए खलुनिस्सावयणमिगोय मस्सामि । छाया-(पृच्छायां कोणिकः खलु निश्रावचने गौतमस्वामी) । इति, ॥ व्याख्यातं तद्दशोदाहरणम् । तदोषोदाहरणमथ व्याख्यायते, तञ्चचतुर्द्धा तत्र 'अहम्मजुत्ते। ति यदुदाहरणं कस्यचिदर्थस्य साधनायोपादीयते केवलं पापाभिधानस्वरूपं येन चोक्तेन प्रतिपाद्यस्याधर्मबुद्धिरुपजन्यते तदधर्मयुक्तं तद्यथा उपायेन कार्याणि कुर्यात् कोलिकनलदामवत , तथाहि-पुत्रग्वादकमत् कोटकमार्गणोपलब्धबिलवासनामशेषमत्कोटकानां तप्तजलस्यविले प्रक्षेपणतो मारणदर्शनेन रञ्जितचित्त चणक्यावस्थापितेन चौरग्राहनलदामाभिधानकुविंदेन चौर्यसहकारि तालक्षणोपायेन विश्वासिता मिलिताश्चौरा विषमिश्रभोजनदानतः सर्वेव्या पदिता इति, आहरण तदोषता चास्याधर्मयुक्तत्वात् तथाविधश्नोतुरधर्मबुद्ध जनकत्वाच्चेति, अत एवं नैवं विधमुदाहर्जन्यं यतितेति पडिलो । त्ति
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६४
जैनागम न्यायसंग्रहः
प्रतिकूलं यत्र प्रातिकूल्यमुपदिश्यते यथा शठप्रति शठत्वं कुर्य्यात् यथा चण्डप्रद्योते तदपहरणार्थ तदपहृताभयकुमारश्वकारेति, तद्दाषताचास्य श्रातु परापकारकरण निपुणबुद्धिजनकत्वात्, अथवा धृष्ट प्रतिवादिना द्वावेव राशी जीवश्व | जीवश्चेत्युक्ते तत्प्रतिघातार्थ कश्चिदाह तृतोऽप्यस्ति नोजीवाख्यो गृहको लिकादिच्छिन्नपुच्छवदिति, अस्यापि तद्दोषताऽपसिद्धांताभिधानादिति, अत्तोवणी त्ति आत्मै त्रोपनोतः तथा निवेदितो नियोजितो यस्मिं स्तत्तथा येन ज्ञातेन परमतदूषरणायोपात्तेनात्ममतमेव दुष्टतयोपनीयते यथा पिंगलेनात्मा तदात्मोपनीतं, तथाहि कथमिदं तडागमभेदं भविष्यतीति राज्ञा पृष्टः पिंगलाभिधानः स्थपतिरवोचत् भेदस्थाने कपिलादिगुणे पुरुषे निखाते - सतीति अमात्येन तु स एव तत्र तद्गुणत्वान्निखात इति तेनात्मैव नियुक्तः, स्ववचनदोषात् तदेवंविधमात्मोपनीतमिति, अत्रोदाहरणं यथा सर्वेसत्वा न हन्तव्या इत्यस्यपक्षस्य दूषणाय कश्चिदाह - अन्यधर्मस्थिता हन्तव्या विष्णुनेवदानवा इत्येवं वादिना आत्माहन्तव्यतयोपनीतो धर्मान्तरस्थित पुरुषाणामिति, तद्दोषता तु प्रतोतैवास्येति 'दुरुवरणीए चिदुष्टमुपनीतं - निगमितं योजितमस्मिन्निति दुरुपनीतं परिव्राजकवाक्यवद्, यथाहि किल कश्चित् परिव्राजको जालव्यप्रकरोमत्स्यबन्धाय चलितः केनचित्धूर्त्तेन किविदुक्तः स्तेन च तस्योत्तरमसङ्गतं दत्तम्, अत्र च वृत्तं 'कथाssकचार्याऽघ नननु शफरवधे जालमश्नासि मत्स्यांस्ते मे मद्योपदंशान् पिबसि ननु ? युतोवेश्ययायासि वेश्याम् १ दावाऽरीणां गलेऽह्नि क नु तव रिपवो ? येषु सन्धि छिनद्भि, चौरस्त्वंद्यूतहेतोः कितव इति कथं येन दासी सुतोऽस्मि ” इत्ये प्रकृतसाध्यानुपयोगिस्वमत् वा यद् तद् दाष्टन्तिकेन सह साधर्म्याभावात् दुरुपनीतमिति,
दूषणावह
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६५
दशेनविषयः यथा नित्यः शब्दो घटवद् इह घटे नित्यत्वं नास्त्येवेति कुतस्तत् साधाच्छब्दस्य नित्यत्वमस्तु ? अपिनित्यत्वात्घटस्य तत्साधाच्छन्दस्यानित्यत्वमेवानभिमत सिध्यतोति साध्यानुपयोगीदमुदाहरणम् , तथा सन्तानोच्छेदोमोक्षो दीपस्येवेत्यभ्युपगमे दीपदृष्टान्तादनादिमतोऽपिसन्तानस्यावस्तुता प्रतीयते, तथाहिदीपस्यात्मनश्च सन्तानोच्छेद उत्तरक्षणाजनकत्वात् , तत्त्वे चार्थक्रिया कोरित्वलक्षणसत्वाभावादन्त्यक्षणस्यावस्तुत्वम् , अवस्त्त्वजनकत्वात् पूर्वक्षणस्यापि तत एव पूर्वतरस्यापीत्येवं समस्तस्यापि सन्तानस्यावस्तुत्वम् । अथक्षणान्तरानारंभेऽपि स्वगोचर ज्ञानजनन लक्षणार्थक्रियाकारित्वादन्त्यक्षणो वस्तु भविष्ट ति, नैवम्. एवं हि भूतभाविपर्याय परम्परापि योगिज्ञानं स्वविषयमुत्पादयतीति वस्तुत्वं स्वीकृर्यात् , तन्न क्षणान्तरानारंभे वस्तुत्त्व मित्यतो भवति दीपज्ञातं स्वमतदूषणावहमिति, अथवा अनित्यः शब्दः कृतकत्वाद् घटवदिति वक्तव्ये सम्भ्रमादनित्योघट: कृतकत्वाछब्ददिति वदतो दुरुपनीतमिति विपर्ययोपनयनादिति, अत्र गाथा -- 'पहम अहम्मजुत्तं पडिलोमं अत्तणो उबन्नासो दुरुवणियं च चउत्थं अहम्मजुत्तमि नलदामो । १॥ छाया-प्रथममधर्मटुक्त प्रतिलोमात्मन उपन्यास:, दुरुपनीतं च चतुर्थमधर्मयुक्ते नलदामः ।। १ ॥ पडिलोमे जह अभओ पज्जोयं हरइ अवहिओ संतो' इति "अत्तवन्नासंमि य तलायभेयंमि पिंगलो थवई । अणिमसगेण्हणभिच्छुग दुरवणीए उदाहरणं ॥ १।" छाया-- प्रतिलोम्नि यथाऽभयः प्रद्योत हरांत अपहृतः सन् । आत्मोपन्यासे च तडाक भेदे पिंगलः स्थपतिः । अनिमेषग्राहकभिक्षुदु रुपनीते उदाहरणम् ॥ १॥ इात, उक्त आहरणतदोषोऽधनोपन्यासोपनय उच्यते स च चतुर्दा, तत्र
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जैनागमन्यायसंग्रहः तव्वत्थुए, त्ति तदेव- परोपन्यम्तसाधनं वस्त्विति - उत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तद्वस्तुकोऽथवा तदेव-परोपन्यस्तं वस्तु तद्वस्तु तदेव तद्वस्तुकं तयुक्त उपन्यासोपनयोऽपि तद्वस्तुक इत्युच्यते एवमुत्तेरत्रापि, यथा कश्चिदाह-समुद्रतटे महान वृक्षोऽस्ति तच्छाखा जलस्थलयोरुपरिस्थिताः, ततपत्राणि च यानि जले निपतंति तानि जलचरा जीवाभवंति यानि च स्थले निपतंति तानि स्थलचरा इति. अन्य स्तदुपन्यस्तमवे तरुपत्रपतनवन्तु गृहीत्वा तदुक्त विघटयति, यदुत यानि पुनमध्ये तेषां का वार्तत्येतदुपपत्तिमात्रमुत्तरभूतं तद्वस्तुक उपन्यासोपनयो, ज्ञातत्त्वं चास्य ज्ञातनिमित्तत्त्वाद्, अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेतत् , तथाहि एवं प्रयोगोऽस्यजलस्थलपतितपत्राणि • न जलचरा दिसत्वाः सम्भवन्ति, जलस्थलमध्यपतितपत्रवत् , तन्मध्यपतितपत्राणां हि जलस्थलपतिप
तजलचरत्वादिप्राप्तिबदुभयरूपप्रसंगो, नचोभयरुपा: सत्वा अभ्युपगता इति , अथवा नित्यो जीव अमर्त्तत्वादाकाशदित्युक्त अाह- अनित्य एवास्तु अमूर्त्ततत्वात कमवदिति । तथा — तयन्नवत्थुए । ति तस्मात् परोपन्यस्ताद् वस्तुनोऽन्यदुत्तरभूतं वस्तु यस्मिन्नुपन्यासोपनये स तदन्यवस्तुको यथा जले पतितानि जलचरा इत्युक्ते एतत् विघटनाय पतनादन्यदुत्तरमाहयानि पुनः पायित्वाखादति नर्यात वा तानि किं भवन्ति १ न किञ्चिदित्य र्थोऽयमपि ज्ञापकतया ज्ञातमुक्तः, अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेषः, तथाहि-न जलस्थलपतितानि पत्राणि जलचरादिसत्वाः सम्भवंति, मनुष्यद्याश्रितानीव, अयमभिप्रायो यथा जलाद्याश्रितत्वात् जलचरादितया तानि सम्पर्धते तथा मनुष्याद्याश्रिततया मनुष्यादिभवयूकादितयाऽपि सम्पद्यताम् , आश्रितत्वस्याविशेषात् , न च तानि तथाऽभ्युपगम्यन्ते इति जलादि गतानामपि ज
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दर्शनविषयः
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७
चरत्वाद्यसम्भव इति, तथा 'पडिनिभे त्ति यत्रोपन्यासोपनये वादिनोपन्यस्तवस्तुनः सद्र्श वस्तूत्तरदानायोपनीयते स प्रतिनिभो यथा कोsपि प्रतिजानीते यदुत - यो मामपूर्व श्रावयति तस्मै लक्ष्यमूल्यमिदं कटोरकं ददामोति, स च श्रावितोऽपि तन्ना पूर्वमिति प्रतिपद्यते, तत् एकेन सिद्धपुत्रेणोक्तं- 'तुज्झ पिया मज्झ पिउणो धारेइ अयं सयस सं । जइ सुयपुत्रं दिज्जउ अह न सुयं खोरयं देहि ॥२॥, छाया - तब पिता मम पितुर्धारयत्यनूनं शतसहस्रम् । यदि श्रुतपूर्वं ददातु अथ न श्रुतं क्षौरकं देहि ॥ १॥ इति प्रतिनिभता चास्य सर्वस्मि - नयुक्ते श्रुतपूर्वैमेवेदं ममेत्येवमसत्यं वचो ब्रुवाणस्य परस्य निग्रहाय तव पिता मम पितुर्धारयति लक्षमित्येवंविधस्य द्विपाशरज्जुकल्पस्यासत्यस्यैव वचस उपन्यस्तत्वादिति, अस्य चोपपत्तिमात्ररूपस्याप्यर्थज्ञापकतया ज्ञातत्वमुक्तमिति, अथवा यथारूढमेव ज्ञातमेष:, तथाहि अत्रायं प्रयोगः नास्त्यश्रुतपूर्वं चित् श्लोकादिममेत्येवमभिमानधनं ब्रूमो वयम् अस्ति तवाश्रुतपूर्व वचनं तव पित मम पितुर्धारत्यनूनं शतसहस्र मिति यथेति । तथा 'हेड, त्ति यत्रोपन्यासोपनये पर्यनुयोगस्य हेतुरुत्तरतयाऽभिधीयते स हेतुरिति, यथा केनापि कश्चित् पर्यनुयुक्त:- हो किं यवाः क्रीयन्ते त्वया ?, स त्वाह-येन मुधैव न लभ्यन्ते इति तथा कस्मात् ब्रह्मचर्यादिकष्टमनुष्ठीयते । यस्मादकृततप ff नरकादौ गुरुतरावेदना भवतीति इदमपि उपपत्तिमात्रमेव ज्ञातत्वेनोक्तमर्थज्ञापकत्वादिति अथवाऽयमपि यथारूढं ज्ञातमेव, तथाह्यस्यैवं प्रयोगः कस्मात त्या प्रव्रज्या क्रियत इति पृष्टः सन् केनापि साधुराह - यतस्तां विना मोक्षो न भवति एतत् समर्थनायैव साधुस्तमाह - भो यत्रप्राहिन् । किमिति त्वया यवाः क्रीयन्ते ? स त्वाह-येन सुधा न लभ्यन्ते, साधोश्चायम
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जैनागमन्यायसंग्रहः
भिप्रायो यथा-मुधालाभाभावात् तान् क्रीणसि त्वमेवमहं तां विना तदभा. वात्तां करोमीति, इह च मुधा यवालास्भस्य क्रयणे हेतोः सतो दृष्टान्ततयोप न्यस्तत्वाद्धेतूपन्यासोपनयज्ञाततेति, इह च किञ्चद्विशेषेणैवंविधा ज्ञातभेदाः सम्भवन्त्यन्येऽपि किन्तु ते न विवक्षिताः अन्तर्भावो वा कथञ्चित् गुरुभिर्विवक्षितो न च तं वयं सम्यग् जानीम इति । अथ ज्ञातानन्तरं सातवद्धतोः साध्यसिद्धयङ्गत्वात् तद्भेदान् हेऊ इत्यादिना सूत्रत्रयेणाहव्यक्तं चैतत्, नवरं हिनोति गमयति ज्ञयमिति हेतुः -अन्यथाऽनुपपत्तिलक्षणः, उक्तञ्च-"अन्यथाऽनपपन्नत्वं, हेतोर्लक्षणमीरितम् । तदप्रसिद्धिसन्देहविपर्यासैस्तदाभता ॥१॥” इति, प्रागुक्तश्च हेतु पर्यनयुक्तस्योत्तररूपमुपपत्तिमात्रमयं तु साध्यं प्रत्यन्वयव्यतिरेकवान् तथाविधदृष्टान्तरमृततद्भाव इति, स चैकलक्षणोऽपि किञ्चविशेषाचतुर्धा, तत्र 'जावए त्ति या पयति-वादिनः कालयापनां करोति, यथा काचिदसती एकैकरूपकेण एकेकमुष्ट लिण्डं दात्तव्यमिति दत्ताशिक्षस्य पत्युस्तद्विक्रयार्थमुजयनोप्रेषणोगयेन विटा सेवायां कालयापनां कृतवतीति यापकः, उक्तश्च – 'उम्भामिया य महिला जाव' गहेउम्मि उट्टलिंबाई ॥, इति, इह वृद्धाख्यातम्-प्रतिवादिनं ज्ञात्वा तथा तथा विशेषणबहुलो हेतु: कर्तव्यो यथा कालयापना भवति, ततोऽसौ नावगच्छति प्रकृतमिति, स चेदृशः संभाव्यते-सचेतना वायवः अपरप्रेरणे सति तियनियतत्वाभ्यां गतिमत्त्वात् गोशरीरवदिति, अयं हेतुर्विशेषणबहुलतय परस्य दुरचिगमत्वाद् वादिनः कालयापनों करोति, स्वरूपमस्यानवयुद्धयामानो हि परो न झगित्येवानैकान्तिकत्वादिदूषणोद्भावनाय प्रवर्तितुशकोति, अतो भवत्यस्माद् वादिनः कालयापनांत, अथवायोऽप्रतीतव्याप्तिकतया व्याप्तिसाधकप्रमाणन्तरसव्यपेक्षत्वान्न, झगित्येवसाध्यप्रतीतिं करोति
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दशनविषयः अपि तु कालक्षेपेणेत्यसौ साध्यप्रतीति प्रति कालयापनाकारित्वाद् यापकः, यथा क्षणिक वस्त्विति पक्ष बौद्धस्य सत्त्वादिति हेतुः, नहि सत्त्वश्रवणादेव क्षणिकत्त्वं प्रत्येति पर इत्यतो बौद्धः सत्त्वं क्षणिकत्त्वेन व्याप्तमिति प्रसाधयितुमुपक्रमते, तथाहि-सत्त्वं नामार्थक्रियकारित्वमेव, अन्यथा वन्ध्यासुतस्यापि सत्त्वप्रसङ्गः, अर्थक्रिया त नित्यस्यैकरूपत्वोन क्रमेण नापि योगपद्येन क्षणान्तरे अकर्तृत्त्वप्रसंगादित्यतोऽर्थक्रियालक्षणं सत्त्वमक्षणिकान्निवर्त्तमानं क्षणिक एवावतिष्ठत इत्येवं क्षेपेण साध्यसाधने कालयापनाकारित्वाद्यापकः सत्त्वलक्षणो हेतुरिराते । तथा स्थापयति पक्षमतेपेण प्रसिद्धव्याप्तिकत्वात समर्थयति, यथा परिव्राजकधूर्ते लोकमध्यभागे दत्तं बहुफलं भवति तचाहमेव जानामोति मायया प्रतिग्राममन्यान्य लोकमध्य प्ररूपयति सति तन्नि ग्रहाय कश्चित् श्रावको लोकमध्यस्यैकत्वात् कथं बहुषु प्रामादिषु तत्सम्भव इत्येवंविधोपपत्या त्वदर्शितो भो ! लोकमध्यभागो न भवतीति पक्ष स्थापितवान् इति स्थापको हेतुः, उक्तश्च-लोगस्स मज्झ जाणण थावगहेऊ उदाहरण इति, स चायं-अग्निरत्र धूमात् तथा नित्यानित्यं वस्तु द्रव्य पर्यायतस्तथैव प्रतीयमानत्वादिति, अनयोश्च प्रतीतव्याप्तिकतया अकालपेण साध्यस्थापनात् स्थापकत्वमिति । तथा व्यसयति-परं व्यामोहयति शकटतित्तिरीमाहकधूतवद् यः स व्यंसक इति, तथाहि-कश्चिदन्तराललब्धमृततित्तरी युक्तेन शकटेन नगरं प्रविष्टः उक्तो धूर्तेन यथा-शकटतित्तिरी कथं लभ्यते ?, स च किलायं शकटस्य सत्कां तित्तिरी याचत इत्यभिप्रायादवोचत् तर्पणलोडिकयेति, सक्त्वालोडनेन जलाद्यालोडितसक्तुभिरित्यर्थः, ततो धूर्तः साक्षिण आहृत्य सतित्तिरीकं शकट जग्राह, उक्तवांश्च मदोयमेतद्' अनेनैव शकटतित्तरीति दत्तत्वादिति, मया त शकटसहिता तित्तिरी शक्ट
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जैनागमन्यायसंग्राहः तिरत्तिीति गृहीतत्वादिति, ततो विषण्ण: शाकटिक इति, अत्रोक्तम् –' सा सगडतित्तिरी वंसगंमि हेमि होइ रणायव्या ।। " इति, स चैवं-- अस्ति जीवोऽस्ति घट इत्यभ्युपगमे जीवघटयोरस्तित्वमाविशेषेण वर्त्तते ततस्तयोरेकत्वं प्राप्तमभिन्नशब्दविषयत्वोदिति व्यसको हेतु: घटशब्द विषयघटस्वरूप वत्, अथास्तित्वं जोबादौ न वर्तते तनो जीवाद्यभावः स्यादस्तित्वाभावादिति व्यंसकः प्रतिवादिनो व्यामोहकत्वादिति, तथा 'लूसएत्ति लूषयति -मुष्णाति व्यंसकापादितमनिष्टमिति लूषको हेतुः, स एव शाकटिको, यथा-धूर्तान्तरशिक्षितेन हि शाकटिकेन तेन याचितोऽसौ धूत्ते तर्हि देहिमेतर्पणालोडिकामिति, तत धूर्तेनोक्ता स्वभा--देह्यस्मै सतकूनालोड्योति, ताञ्च तथा कुर्वन्ती तद्भार्या गृहीत्वाऽसौ प्रस्थितोऽवदिच्च धूर्त्तमभि-मदीयेयं तर्पणमिति सत्कुनालोड्यतीति तर्पणालोडिकेति भवतैव दत्तत्वादिति, स चायं यदि जीवघटयोरस्तित्ववृत्या एकत्वं सम्भावयसि तदा सर्वभावानामेकत्वं स्यात् सर्वेष्वप्यस्तित्ववृत्तेरविशेषात्, न चैवमिति, इहास्तित्व वृत्तविशेषादित्ययं लूषको जीवघटयोरेकत्वापादनलक्षणस्याभावापत्तिलक्षणस्य वाऽनिष्टस्य परापादितस्यानेन लूषितत्वादिति, अथवेति हेतोः प्रकारान्तरताद्योतको विकल्यार्थो हिनोति-गमयति प्रमेयमर्थ स वा हीयते-अधिगम्यते अनेनेति हेत:-प्रमेयस्य प्रमितौ कारणं प्रमाणमित्यर्थः, स चतुर्विधः स्वरूपादिभेदात्, तत्र 'पञ्चक्खे' त्ति अनाति अश्नुते-व्याप्नोत्यानि त्यक्षः-आत्मा तं प्रति यद्वर्तते ज्ञानं तत्प्रत्यक्षं निश्चयतोऽवधिमनःपर्या, यकेवलानि, अक्षाणि वेन्द्रियाणि प्रति यत्तत्प्रत्यक्षं व्यवहारतस्तचक्षुरादिप्रभमिति, लक्षणमिदमस्य-'अपरोक्षतयाऽर्थस्य, ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् । प्रत्यक्षमितरत ज्ञेयं, परोक्षं ग्रहणेक्षया ॥ १॥” ग्रहणापेक्षयेति भावः
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दर्शनविषयः
१०१ अन्विति - लिङ्गदर्शनसबन्धानुस्मरणयोः पश्चान्मानं-ज्ञानमनुमानम्, एतल्लक्षणमिदम् – 'साध्याविनाभुवो लिंगात्, सायनिश्वायकं स्मृतम्। अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवद् ॥ १॥” इति, एतच्च साध्याविनाभू तहेतुजन्यत्वेनाप्युपचाराद्धेतुरिति, तथा उपमानमुपमा सैवोपन्यं अनेन गवयेन सदृशोऽसौ गौरिति सादृश्यप्रतिपत्तिरूपं, उक्तञ्च -- गां दृष्ट्वाऽयमरण्येऽन्यं गवयं वीक्षते यदा । भूयोऽवयवसामान्यभाजं वर्तुं लकण्ठकम् ॥११॥ तस्यामेव त्ववस्थायां यद्विज्ञानं प्रवर्तते । पशुनैतेन तुल मोऽसौ गोपिण्ड इति सोपमा ॥ २ ॥” इति, अथवा श्रुतातिदेशवाक्यस्य समानार्थोपलम्भनेसंज्ञा संज्ञिसंवन्धज्ञानमुपमानमुच्यत इति, आगम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेने त्यागमः आप्तवचनसंपाद्यो विप्रकृष्टार्थप्रत्ययः, उक्तञ्च-दृष्टष्टाव्याहताद् वाक्यात् परमार्थाभिधायिनः । तत्त्वग्राहितयोत्पन्नं मानं शब्दं प्रकीर्तितम् ॥१॥ आतोपज्ञमनुल्लध्यमदृष्टेष्टविरोधकम् । तत्वोपदेशकृत् सावं शास्त्र कापथघट्टनम्। ॥१॥ इति, इहान्यथानुपपन्नत्वलक्षणहेतुजन्यत्वादनुमानमेव कार्ये कारणोपचाराद्धेतः, स च चतुर्विधः चतुर्भगीरूपत्वात् , तत्र अस्ति-विद्यते तादति लिङ्गभूतं धूमादिवस्तु इति कृत्वा अस्ति सः अग्न्यादिकः साध्योऽर्थ इत्येव हेतुरिति अनुमानम् । तथा अस्ति तदग्न्यादिकं वस्त्वतो नास्त्यसौ तद्विरुद्धः शीतादिरर्थ इत्येवमपि हेतुरनुमानमिति, तथा नास्ति तदग्न्यादिकमतः शीतकालेऽस्ति स शीतादिरर्थ इत्येवमपि हेतुरनमानमिति, तथा नास्ति तवृक्षत्वादिकमिति नास्ति शिंशपात्वादिकोऽर्थ इत्यपि हेतुरनमानमिति, इह च शब्दे कृतकत्वस्यास्तित्वादस्त्यनित्यत्वं, घटवत्तथा धूमस्यास्तित्वदिहास्त्यग्निर्ममहानस इवेत्यादिकं स्वभावानुमान कार्यानमानंच प्रथमभंगकेन
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जैनागमन्यायसग्रहः सूचितं १, तथा अग्नेरस्तित्वाद्भूमास्तित्वाद् वा नास्ति शोतस्पर्श इत्यादि विरुद्धोपलम्भानुमान विरुद्धकार्योपलम्भानुमानञ्च, तथाऽग्ने— मस्य वाऽस्ति त्वान्नारित शीतस्पर्शजनितदन्तवीणारोमहर्षादिः पुरुषावकारो महानसदि. त्यादि कारणविरुद्धोपलम्भानुमानम् । कारविरुद्धकार्योपलम्भानुमानं च द्वितीयभंगकेनाभिहितं २ तथा छत्रादेरग्नेर्वा नास्तित्वादस्ति कचित् कालादिविशेषे आतपः शीतस्पर्शो वा पूर्वोपलब्धप्रदेश इवेत्यादिक विरुद्धकारणानुपलम्भानुमान विरुद्धानालम्भानुमानश्च तृतीयभंगकेनोपात्तं ३ तथा दर्शन सामग्रयां सत्यां घटोपलम्भस्य नास्तित्वान्नास्तीह घटो विवक्षितप्रदेशवदित्यादि स्वभावानुपलब्ध्यनमानं तथा धूमम्य नास्तित्वान्नास्त्यविलको धूमकारणकलापः प्रदेशान्तरवदित्यादि कार्यानुपलब्भ्यनुमानम्, तथा वृक्षनास्तित्वात् शिंशपा नास्तोत्यादि व्यापकानुपलम्मानमानं तथाऽग्ने स्तित्वाद्ध - मो नास्तीत्यादिकारणानुपलम्भानुमानं च चतुर्थभंगकेनावरुद्धमिति न च वाच्यं न जैनप्रक्रियेय. सर्वत्र जैनाभिमतान्यथानुपपन्नत्वरूपस्य हेतुलक्ष. णस्य विद्यमानत्वादिति ।।४॥ स्थनांगसूत्र स्थान ४ उद्देश ३
मूल :-कृतिविधे णं भंते ! इंदियश्रवाए पं० ?, गो० ! पंचविधे इंदियअवाएं पं,००-सोतिदियअवाए जाव फासिंदियअवाए, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, नवरं जस्स जइ इंदिया अस्थि । कतिविहा णं भंते ! ईहा पं० १, गो! पंचविहा ईहा पं० त०-सोतिदियईहा जाव फासिदियईहा, एवं जाव वेमाणियाणं, णवरं जस्स जइ इंदिया ८। कलिविविध णं भंते !
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दशनविषयः
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१०३
उग्गहे पं० १, गो० १, दुविहे उग्गहे पं० तं० - श्रत्थोग्गहे य वंजगोग्गहे य | जणोग्गहे गं भंते ! कतिविधे ० १ गो० !
"
चउव्विहे पं० तं० – सोतिंदियवंजगोग्गहे घाणिदियवंजगोग्गहे जिब्भिंदियवं जगोग्गहे फासिंदिय० । अत्थोग्गहे प भंते । कतिविधे पं० १, गो० ! छवि हे पं० तं० – सोतिंदिय प्रत्थोवग्गहे चक्खिदिया ० जिब्भिदिया० फासिदियश्र० नोइंदिय
१०
ro | नेरइयाणं भंते! कतिविहे उग्गहे पण्णत्ते १ गो० ! दुविहे पं० तं० प्रत्योरगहे य वंजयोग्गहे य, एवं असुरकुमाराणं जान थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाण भंते ! कतिविधे उग्गहे, पं० १, गो० दुविधे उग्गहे पं० -- अत्थोग्गहे य वंजणावग्गहे य । पुढनिकाइयाणं भंते ! वंजणोग्गहे कतिविधे पं० १, गो० ! एगे फासिंदियवं जगोग्गहे पं० । पुढविकाइयाणं भंते ! कतिविधे
थोर गहे पणते ?, गो० एगे फासिंदिय अत्थोग्गहे पं० एवं जाव वणस्सइकाइयाणं, एवं वेइंदियाणवि, नवरं बेइंदियाणं वंजगो दुविहे पं०, त्याग दुविहे पं० एवं ते इंदिय चउरिंदिया णवि, वरं इंदियपरिवुड्ढी कायव्वा, चउर दियाणं वंजणोग्गहे तिविधे पं०, थोर चव्वधे पं०, सेसाणं जहा नेरहवाणं जाव वेमाणियाणं ६, १० ( सू० २०० )
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जेनागमन्यायसंग्रहः टीकाः- “कतिविहेणं भंते ! इंदियअवाए पं०' इत्यादि तत्रावग्रहज्ञानेनावगृहीतस्य ईहाज्ञानेन ईहितस्यार्थस्य निर्णयरूपो योऽध्यवसायः सोऽ पायः, शांख एवायं शाङ्ग एव वायं इत्यादिरूपोऽवधारणात्मको निर्णयोऽवाय इतिभावः । ईहा इति, 'ईह चेष्टायां' ईहनमोहा, सद्भूतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा इत्यर्थः, किमुक्त भवति ?–अवग्रहादुत्तरकालमवायात पूर्व सद्भूतार्थविशेषोपादानाभिमुखोऽसद्भूताविशेषपरित्यागाभिमुखः प्रायोऽत्र मधुरत्वादयः शंखादिशब्दधमा दृश्यन्ते न कर्कशनिष्ठुरतादयः शाङ्गादिशब्दधर्मा इत्येवंरूपो मतिविशेष ईहा, आह च भाष्यकृत - "भूयाभूयविसेसादा णच्चायाभिमुहमीहा"। [ भूताभूतविशेषादानत्यागाभिमुख्यमीहा] — दुविहे श्रोगहे पं०, तं०-वंजणोगहे य अत्थोग्गहे या इति, अवग्रहो द्विविधः - अर्थावग्रहो व्यञ्जनावग्रहश्च, तत्र अवग्रहणमवग्रहः अथस्यावग्रहोऽर्थावग्रहः, अनिदेश्यसामान्यरूपाद्यर्थग्रहणमिति भावः, आइ च नन्द्यध्ययनचूणिकृन् -'" सामन्नस्स रूवाइ विसेसणरहियश्स अनि स्सस्समवग्गहणं अब गह' इति, तथा व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदापेनेव धट इति व्यञ्जनं, तच्च उपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिपरिणत द्रव्याणां च यः परस्परं सम्बन्धः, सम्बन्धेहि सति सोऽथे: श्रोत्रादोन्द्रियेण व्यञ्जितु शक्यते नान्यथा ततः सम्बन्धो व्यञ्जनं, आह च भाष्यकृत्-" वंजिञ्जइ जेणत्यो घडोव दीवेण वंजणं तं च । उवगरणिदियसदाइपरिणयद्दव्यसंबंधो ॥ १ ॥ छाया-व्यज्यते येनार्थी घट इव दीपेन व्यंजनं, तोपकरणेन्द्रिय शब्दादिपरिणतद्रव्यसंबन्ध: ॥ १॥ व्यञ्जनेन–सम्बन्धेनावग्रहणं – सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्यांव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः, अथवा व्यज्यन्ते इति व्यञ्जनानि ‘कृबहुलं' मिति वचनात् कर्मण्यनट, व्यञ्जनानां -शब्दादिरूपतया परिरणतानां द्रव्याणामुपकरणेन्द्रियसम्प्राप्तानामर्थावग्रह अव्यक्तरूपः परिच्छेदो
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दर्शनविषयः
१०५
I
व्यञ्जनावग्रहः, आह – प्रथम अर्थावग्रहो भवति ततोऽर्थावग्रहस्तत कस्मोदिह प्रथममर्थावग्रह उपन्यस्त १ उच्यते, स्पष्टतयोपलभ्यमानत्वात्, तथाहिअर्थावग्रहः स्पष्टरूपतया सर्वैरपि जंतुभिः संवेधते शीघ्रतरगमनादौ सकृत्सत्वरमुपलभ्यते, किश्चिद् दृष्टं न परिभाषितं सम्यगिति व्यवहारदर्शनात् अपच अर्थावग्रहः सर्वेन्द्रियमनोभावी व्यञ्जनाबग्रहस्तु नेति प्रथममर्थावग्रह उक्तः । सम्प्रति व्यञ्जनावग्रहादूध्व अर्थावग्रह इति क्रममाश्रित्य प्रथमं व्यञ्जनावहस्त्ररूपं प्रतिपिपादयिषु प्रश्नं कारयति शिष्य – भंजणोम्हे णं भते ! कवि पं०' इत्यादि, इह व्यञ्जनमपकरणेन्द्रियस्य शब्दादिपरिएतद्रव्याणां च परस्परं सम्बन्ध इत्युक्तं प्राकू, ततश्चतुरणांमेव श्रोत्रादी नामिन्द्रियाणां व्यञ्जनावग्रहो न नयनमनसोः, तयोरप्राप्यकारित्वात्, सा चाप्राप्यकारिता नन्दयध्ययनटीकायां प्रदर्शितेति नेह प्रदर्श्यते, अर्थावग्रहः षद्विधः, तद्यथा - 'सोइंदियत्थुगा' इत्यादि श्रोत्रेन्द्रियेणार्थावग्रहों व्यञ्जनावग्रहोत्तरकालमेकसामयिकमनिर्देश्यं सामान्यमात्रार्थग्रहणं श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः एवं प्राणजिह्वास्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रहेष्वपि वाच्यं चतुर्मनसो स्तुव्यञ्जनावग्रहो न भवति, ततस्तयोः प्रथममेव स्वरूपद्रव्यगुणक्रियाकल्पनातोतम निर्देश्य सामान्यमात्रस्वरूपार्थावग्रहणमर्थावग्रहोऽवसेयः, 'नोइदि यथाहो' इति नोइन्द्रिय- मनः तच्च द्विधा - द्रव्यरूपं भावरूपच तत्र मनः पर्याप्तिनामकमदयतो यत् मनःप्रायोग्यवर्गणादलिकमादाय मनस्त्वेन परिणमनं तद् द्रव्यरूपं मनः तथा चाह नन्यध्ययन चूर्णिकृत् '-मणपज्जन्तिनामकम्मोदय जोग्गे मणोद धि मरणत्तेण परिणामिया दव्वा दव्वमणो भन्नइ' इति, तथा द्रव्यमनोऽवष्टम्भेन जोवस्य यो मनःपरिणामः स मात्र मनः तथा चार नन्द ध्ययनक्रिदेव - "जीवो पुण
3
मरणपरिणामक
G
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१०६
जैनागमन्यायसंग्रहः
रियावंतो भावमणो, किं भणियं होइ - मरणद्दव्वालंबरणो जीवस्समरणवा
,
वारो भावमणो भए” इति, तत्रेह भावमनसा प्रयोजनं, तद्ग्रहणे ह्यवश्यं द्रव्यमनसोऽपि ग्रहणं भवति, द्रव्यमनोऽन्तरेण भावमनसोऽसंमवात् भावमनो विनापि च द्रव्यमनो भवति यथा भवस्थ केवलिनां तत उक्त भावमनसा प्रयोजनं तत्र नोइन्द्रियेण - भावमनसाऽर्थावग्रहो द्रव्येन्द्रिय व्यापार निरपेक्षघटायर्थस्वरूपपरिभावनाभिमुखः प्रथममेकसामयिको रूपाद्युर्ध्वाकारादिविशेषचिन्ताविकलोऽनिर्देश्यसामान्यमात्र चिन्तात्मको बोधो नोइन्द्रियाथवग्रहः, अवग्रहग्रहणं चोपलक्षणं तेन नोइन्द्रियाथांवप्रस्य साक्षादितरयोस्तु ( ईहापाययोः) उपलक्षरगत उपादानं, विचित्रत्वात् सूत्रगतेरित्यदोषः ।
प्रज्ञापना सूत्र पद १५ उद्देश २ सू० २००
,
मूल :- कविहाणं भंते! आया पण्णत्ता ?, गोयमा ! विहा आया पण्णत्ता, तंजहा -दवियाया कसायाया योगाया उपयोगाया गाणाया दंसणाया चरिताया वीरियाया | जस्स णं भंते । दवियाया तस्स कंसायाया जस्स कसायाया तस्स दवियाया ?, गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स कसायायासिय अस्थि सिय नत्थि जस्स पुण कसायाया तस्स दवियाया नियमं प्रत्थि । जस्स गं भंते ! दविया तस्स जोगायाया ?, एवं जहा दवियाया कसायाया भणिया तहा दवियाया जोगाया भाणियव्वा । जस्स
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दर्शनविषयः
१०७
णं भंते ! दवियाया तस्स उवओोगाया एवं सव्वत्थ पुच्छा भाणि - यव्वा, गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स उवओोगाया नियमं अस्थि, जस्सा उगाया तस्सवि दवियाया नियमं अस्थि, जस्स दवियाया तस्स गाणाया भयणाए जस्स पुण गाणया तस्स दवियाया नियमं श्रत्थि, जस्स दवियाया तस्स दंसणाया नियमं
थि जस्सवि दंसणाया तस्स दवियाया नियमं अत्थि, जस्स दवियाया तस्स चरिताया भयणाए जंस्स पुण चरिताया तस्स दaियाया नियमं प्रत्थि एवं वीरियायाएव समं । जस्स गं
"
भंते! कसायाया तस्स जोगाया पुच्छा, गोयमा ! जस्स कमायाया तस्स जोगाया नियमं त्थि, जस्स पुण जोगाया तस्स कसायाया सिय सय नत्थि, एवं उव श्रोगायाएव समं कसायाया नेयव्वा, कसायाया य णाणाया य परोप्परं दोवि भइयन्वाओ, जहा कसाया य उद्योगाया य तहा कसायाया य दंसणाया य कसाया य चरिता य दोवि परोप्परं भइयव्वाओ, जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया य वीरियाया व भाणियन्त्राओ, एवं जहा कसायायाए वत्तव्वया भणिया तहा जोगायाएव उवरिमाहिं समं भाणियव्वाओ । जहा दवियायाए वत्तव्वया भणिया तहा उपयोगायाएव उवरिल्लाहिं समं भाणियन्वा । जस्य नाणाया
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१०८
जैनागमन्यायसंग्रहः
तस्स दंसणाया नियमं अत्थि जस्स पुरा दंसणाया तस्स गाणाया भयणाए, जस्स नाणाया तस्स चरिताया far for far नत्थि जस्स पुरा चरिताया तस्स नाणया नियमं अस्थि, गाणाया बीरियाया दोवि परोप्परं भयणाए । जस्स दंसणाया तस्स उवरिमाओ दोवि भयणाए, जस्स पुण ताओ तस्स दंसणाया नियमं प्रत्थि । जस्स चरिताया तस्स वीरियाया नियमं अत्थि जस्स पुण वीरियाया तस्स चरिताया सय थसिय नत्थि ।। एयासि - णं भंते ! दवियायाणं कसायायाणं जाव वीरियायाणं य कयरे २ जाव विसेसा० गोयमा १ सव्वत्थोवा चरितायाओ नाणाया अतगुणा
श्री कसाया अत० जोगायाओ वि० विरियायाओवि उबयोगदवियदसणाया तिन्निवि तुल्ला वि० ॥ ( सू० ४६७ )
या भंते! नाणे अन्नाणे १, गोयमा ! आया सिय नाणे सिय अन्नाणे गाणे पुण नियनं आया ॥ आया भंते! नेरइयाणं नाणे अन्ने नेरईयाणं नाणे ? गोयमा ! आया नेरइयाणं सिय नाणे सिय अन्नाणे नाणे पुरा से नियमं आया एवं जाव थणियकुमाराणं, आया भंते ! पुढवि० अन्ना अन्ने पुढविकाइयाणं अन्नाणे ?, गोयमा ! आया पुढविकाइयाणं नियमं
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दर्शनविषयः
१०६ अन्नाणे अन्नाणेवि नियमं आया, एवं जाव वणस्सइका०, बेइंदिय तेइंदिय जाव वेमाणियाणं जहा नेरइयाणं । आया भंते दंसणे अन्ने दसणे ? गोयमा ! पाया नियमं दसणे दंसणेवि नियम
आया । प्राया भंते ! नेर० दंसणे अन्ने नेरइयाणं दंसणे ?, गोयमा ! आया नेरइयाणं नियमा दंसणे दंसणेवि से नियम आया एवं जाव वेमा० निरंतरं दंडो ॥ (सू० ४६८ )
टीका :-'कइविहा णा मिति, 'आय' त्ति अतति-सततं गच्छति अपरापरान् स्वपरपर्यायानित्यात्मा, अथवा अतधतोगेमनार्थत्वेन ज्ञानार्थत्वादतति-सन्ततमवगच्छति उपयोगलक्षणत्वादित्यात्मा, प्राकृतत्वा च सूत्र स्त्रीलिंगनिर्देशः तस्य चोपयोगलक्षणत्वात् सामान्येनैकविधत्वेऽप्यपाधिभेदादष्टधात्वं ,तत्र 'दवियाय' त्ति द्रव्यं -त्रिकालानुगाम्युपसर्जनीकृतकषायादि पर्यायं तद्प आत्मा द्रव्यात्मा सर्वेषां जोवानां, 'कसायाया ति क्रोधादिकषाय विशिष्ट आत्माकषायात्मा अक्षीणानुपशान्तकषायाणाम्' 'जोगाय' त्ति योगामनः प्रभृतिव्यापारास्तत्प्रधान आस्मा योगात्मा योगवतामेव, 'उवओगाया त्ति उपयोग:- साकारानाकारभेदस्ततप्रधान आत्मा उपयोगात्मा सिद्धसंसारिस्वरूपः सर्वजीवानां, अथवा विवक्षितवस्तूपयोगापेक्षयोपयोगात्मा, 'नाणाय' त्ति ज्ञानविशेषित उपसर्जनीकृतदर्शनादिराल्मा ज्ञानात्मा सम्यग्दृष्टेः एवं दर्शनात्मादयोऽपि नवरं दर्शनात्मा सर्वजीवानां, चारित्रात्मा विरतानां वीर्य-उत्थानादि तदात्मा सर्वसंसारिणामिति, उक्तं च-जीवनां द्रव्यात्माज्ञयः सकषायिणां कषायात्मा । योगः सयोगिनां पुनरुपयोगः सर्वजीवा
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११०
जैनागमन्यायसंग्रहः नाम् ॥ १॥ ज्ञानं सम्यग्दृष्टदर्शनमथ भवति सर्वजीवानाम् । चारित्रं विरतानां तु सर्वसंसारिणां वीर्यम् ॥२७ इति । एवमष्टधाऽऽत्मनं प्ररूप्यथ यस्यात्मभेदस्य यदन्यदात्मभेदान्तरं युज्यते च न युज्यते च तस्य तदर्शयितुमाह-'जस्स ग' मित्यादि, इहाष्टौ पदानि स्थाप्यन्ते, तत्र प्रथमपदं शेषैः सप्तभिः सह चिन्त्यन्ते तत्र यस्य जीवस्य 'द्रव्यात्मा' द्रव्यात्मत्वं जीक्वमित्यर्थः तस्यकषायात्मा स्यादस्ति । कदाचिदस्ति सकषायावस्थायां 'स्यान्नाग्ति? कदाचिन्नास्ति क्षीणोपशान्तकषायावस्थायां, यस्य पुनः कषायात्माऽस्ति तस्य द्रव्यात्मा द्रव्योत्मत्वं-जीवत्वं नियमादस्ति, जीवत्वं विना कषायाणामभावादिति । तथा यस्य द्रव्यात्मा तस्य योगात्माऽस्ति, योगवतामिव, नास्ति भयोगिसिद्धानामिव, तथा यस्य योगात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमादस्ति, जीवत्वं विना योगानामभावात्, एतदेव पूर्वसूत्रोपमानेन दर्शयन्नाह-‘एवं जहा दवियाये' त्यादि । तथा यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य नियमादुपयोगात्मा, यस्याप्युपयोगात्मा तस्य नियमाद् द्रव्यात्ना, एतयोः परस्परेणाविनाभूतत्वात् यथा सिद्धस्य, तदन्यस्य च द्रव्यात्मास्त्युपयोगात्मा चोपयोगलक्षत्वान्जीवानां , एतदेवाह-'जस्स दवियाये? त्यादि । तथा 'जस्स दवियाया तस्स नाणाया भयणाए जस्स पुण नाणाया तस्स दवियाया नियम अत्थि' त्ति यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृष्टीनो स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृष्टीनामित्येवं भजना, यस्य तु ज्ञानात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमादस्ति, यथा सिद्धस्येति 'जस्स दवियाया तस्सदसणाया नियम अत्थिा त्ति यथा सिद्धस्य केवलदर्शनं 'जस्स वि दसणाया तस्स दवियाया नियम अत्थि' ति यथा चक्षुर्दर्शनादि.
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दशनविषयः
१११ दर्शनवतां जीवत्वमिति, तथा 'जस्स दक्यिाया तस्स चरित्ताया भयणाए' त्ति यतः सिद्धस्याविरतस्य वा द्रव्यात्मत्वे सत्यपि चारित्रात्मा नास्ति विरतानां चास्तीति भजनेति, 'जस्स पुण चरित्ताया तस्य दवियाया नियम' अत्थि, त्ति चारित्रिणां जोवत्वाव्यभिचारित्वादिति, ‘एवं वीरयातेवि समं ति यथा द्रव्या त्मनश्चारित्रात्मना सह भजनोक्ता नियमश्चैवं वीर्यात्मनाऽपि सहेति, तथाहियस्य द्रव्यात्मा तस्य वीर्यात्मा नास्ति, यथा सकरणवीर्यापेक्षया सिद्धस्य तदन्यस्य त्वस्तीति भजना, वीर्यात्मनस्तु द्रव्यात्माऽस्त्येव यथा संसारिणामिति ॥७॥ अथ कषायात्मना सहान्यानि षट्पदानि चिन्त्यन्ते-जस्सण?मित्यादि, यस्य कषायात्मा तस्य योगात्माऽस्त्येव, नहि सकषायोऽयोगी भवति, यस्य तु योगात्मा तस्य कषायात्मा स्याद्वा न वा, सयोगानां सकषायाणामकष याणां च भावादिति, ‘एवं उवोगाया, एवी' त्यादि, अयमर्थयस्य कषायात्मा तस्योपयोगात्माऽवश्यं भवति, उपयोगरहितस्य कषायाणामभावात् , यस्य पुनरुपयोगात्मा तस्य कषायात्मा भजनया, उपयोगात्मतायां? सत्यामपि कषायिणामेव कषायात्मा भवति निष्कषायाणां तु नासाविति भजनेति, तथा 'कसायाया य नाणाया य परोप्परं दोवि भइयव्वोओ' त्ति कथं यस्य कषायात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति स्थानास्ति, यतः कषायण: सम्यगद्दष्टेर्ज्ञानात्माऽस्ति मिथ्यादृष्टेस्तु तस्य नास्त्यसाविति भजना, तथा यस्य ज्ञानात्मास्ति तस्य कषायात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, ज्ञानिनां कषायभावात् तदभावाच्चेति भजनेति, 'जहा कसायाया उवओगाया य तहा कसायाया य दंसणाया या त्ति अतिदेश , तस्माच्चेद लब्धं -' जस्स कसायाया तस्स दसणाया नियमं अत्थि' दर्शनरहितस्य घटादेः कषायात्मनोऽभावात् 'जस्स पुण दसणाया तस्स कसायाया सिय अस्थि सिय नत्थि' दशेनवतां
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जैनागमन्यायसंग्रहः कषायसद्भावात्तदभावाच्चेति, दृष्टान्तार्थस्तु प्राक् प्रसिद्ध एवेति, 'कसायाया य चरित्ताया य दोवि परोप्परं भइयव्याओ' त्ति भजना चैवं-यस्य कषोयात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, कथं ?, कषायिणां चारित्रस्य सद्भावात् प्रमत्तयतीनामिव तदभावाचासंयतानामिवेति, तथा यस्य चारित्रात्मा तस्य कथायात्मा स्योदस्ति स्यान्नास्ति, कथं १, सामायिकादि चारित्रिणां कषायाणां भावाद् यथाख्यातचारित्रिणां च तदभावादिति, 'जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया वीरियाया य भाणियव्वाओ' त्ति दृष्टांतः प्राक् प्रसिद्धः, दान्तिकस्त्वेवं यस्य कषायात्मा तस्य वीर्यात्मा नियमादस्ति, नहि कषायवान् वीर्य विकलोऽस्ति, यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्य कषायात्मा भजनया, यतो वीर्यवान् स कषायोऽपि स्याद् यथा संयत: अकषायोऽपि स्याद् यथा केवलीति ॥ ६॥ अथ योगात्माऽनौतनपदैः पश्चभिःसह चिन्तनोयस्तत्र च लाघवाथेमतिदिशन्नाह – ' एवं जहा कसायायाए वत्तव्यया भणिया तहा जोगायाएवि उरिमाहिं समं भाणियव्य' त्ति, साचैवं -यस्य योगात्मा तस्योपयोगात्मा नियमाद् यथा सयोगानां, यस्य पुनरुपयोगात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति यथा सयोगानां स्यान्नास्ति यथाऽयोगिनां सिद्धानाञ्च ति, तथा यस्य योगात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्वादस्ति सम्यग्दृष्टीनामिव स्यान्नास्ति मिथ्यदृिष्टानामिव यस्य ज्ञानात्मा तस्यापि योगात्मा स्यादस्ति सयोगिनामिव स्यान्नास्त्योगिनामिवेति, तथा यस्य योगात्मा तस्य दर्दनऽऽत्माऽस्त्येव योगिनामिव यस्य च दर्शनात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति योगवतामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिव, तथा यस्य योगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति विरतानामिव स्यान्नास्त्यविरतानामिव, यस्यापि चारित्रात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति सयोगचा
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दर्शनविषयः
११३ रित्रवतामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिवेति, वाचनान्तरे पुनरिदमेवं दृश्यतेजस्स चरित्ताया तस्स जोगाया नियमा त्ति तत्र च चारित्रस्य प्रत्युपेक्षणादि व्यपाररूपस्य विवक्षितत्वात्तस्य च योगाविनाभाषित्वात् यस्य चारित्रात्मा तस्य योगात्मा नियमादित्युच्यत इति, तथा यस्य योगोत्मा तस्य वीर्यात्माऽ स्त्येव योगसावे वीर्यस्यावश्यम्भवात, यस्य तु वीर्यात्मा तस्य योगात्मा भजनया यतो वीर्यविशेषवान सयोग्यपि स्याद् यथा सयोगकेवल्यादि :अयोग्यपि स्याद् यथाऽयोगिकेवलीति ॥५॥ अथोपयोगात्मना सहान्यानि चत्वारि चिन्त्यन्ते तत्रातिदेशमाह-- 'जहदवियाये' त्यादि एवञ्च भाग्ना कार्या--यस्योपयोगात्मा तस्य क्षानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग् दृशां स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृषां, यस्य च ज्ञानात्मा तस्यावश्यमुपयोगात्मा सिद्धानामिवेति, ॥१॥ तथा यस्योपयोगात्मा तस्य दर्शनात्मऽस्त्येव यस्यापि दनितमा तस्योपयोगात्माऽस्त्येव यथा सिद्धादीनामिव ति २ तथा यस्योपयोगामातस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति यथा संयतानामसंयतानां च यस्य तु चारित्रात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्येवति यथा संयतानां ३ तथा यस्योपयोगात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणामिव स्यान्नारित सिद्धानामिव यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्येव संमारिणामिवेति ४ । अथ ज्ञानात्मना सहान्यानि त्रीणि चिन्त्यन्ते 'जस्स नाणे' त्यादि, तत्र यस्य ज्ञानात्मा तस्य दर्शनात्मा स्त्येव सम्यग्दृशामिव, यस्य च दर्शनात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृशां स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृशामत एवोक्त 'भयणाए। त्ति १ तथा 'जस्म नाणया तस्स चरित्ताया सिय अस्थि त्ति, संयतानामिव सिय नस्थि, त्ति, असंयतानमिव 'जस्स पुण चरित्ताया तस्स नाणाया नियमं अत्थि, त्ति ज्ञानं विना चारित्रस्याभावादिति २ तथा 'रणाणाये
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जैनागमन्याय संग्रहः
त्यादि स्यार्थः - यस्य ज्ञानात्मा तस्यवीर्यात्मा स्यादस्ति केवल्यादीनामित्रस्यान्नास्ति सिद्धानामिव यस्यापि वीर्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति सम्यग् दृष्टेरिव स्यान्नास्तिमिध्यादृश इवेति ३ ॥ अथ दर्शनात्मना सह
2
चिन्त्येते 'जस्स साये' त्यादि, भावना चास्य - यस्य दर्शनात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति संयतानामिव स्यान्नस्त्यसंयतानामिव यस्य च चारित्रात्मा तस्य दर्शनात्मानस्त्येव साधूनामिवेति १ तथा यस्य दर्शनात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणामिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव यस्य च वोर्यात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव संसारिणामिवेति २॥ अथान्तिम पदयोर्यो - जना 'जस्स चरित्तै त्यादि, यस्य चारित्रात्मा तस्य वीर्यात्माऽस्त्येव वीर्य विना चारित्रस्याभावात् यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति साधूनामिव स्यान्नास्त्यसंयतानामिवेति अधुनैषामेवात्मना मल्पबहुत्वमुच्यते 'सव्वत्थोवाओ चतित्तायाओ' त्ति चारित्रिणां संख्यातत्वात् 'खाणायाश्रत गुणाओ' त्ति सिद्धादोना सम्यग् दृशां चारित्रेभ्योऽनन्तगुणत्वात् 'कसाया अतगुणाओ' त्ति सिद्धेभ्यः कपायोदयवतामनन्तगुण त्वात् जोगाया विसेसाहियाओ' ति अपगतकपोयोदयैर्योगवद् मिरधिका इत्यथेः 'वीरियाओ विसेसाहियाओ' त्ति योगिभिरधिका इत्यर्थः योगिनां वीर्यवत्वादिति, 'उवओोगदवियदसणाया तिरियवि तुल्लाश्रो विसेसाहियाओ' त्ति परस्परापेक्षया तुल्याः सर्वेषा सामान्यजीवरूपत्वात् वीर्यात्मभ्यः सकाशादुपयोद्रव्यदर्शनात्मानो विशेषाधिका यतो बीर्यात्मानः सिद्धाश्च मोलिता उपयोगाचात्मानो भवति, ते च वोयत्मिभ्यः सिद्धराशिनाऽधिका भवन्तीति, भवतिं चात्र गाथा: - कोडी सहम्स पहुत्तं जईए तो थोविया चरणाया । खाणायात गुरणा पडुच्च सिद्धे य
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दर्शनविषयः
सिद्धा ||१|| छाया - यतीनांकोटी सहस्रपृथकत्वं ततः स्तोकाश्चरणात्मानः । ज्ञानात्मनोऽनन्तगुणाः सिद्धाः सिद्धान् प्रतीत्य ||१|| 'होंति कसायायाच ऽतगुणा जेण ते सरागाणं। जोगाया भणियाओ अयोगि वज्जाणतो अहिया ॥ २ ॥ छाया -- कषायात्मानोऽनन्तगुणा भवन्ति यतस्ते सरागाणाम् । ततो योगात्मानोऽधिका अयोगिवर्ज्या यतोभरिणताः ॥ २ ॥ ' जं सेलेसि गाविली विरियं तत्र समहियाओ । उवगदविय दंसण सव्वजिया गं ततो हिया ॥ ३ ॥ इति, छाया - यच्छैलेशीगतानामपि लब्धिatra ततस्ते समधिका । उपयोगद्रव्यदर्शनात्मानः सर्वे जीवास्ततोऽधिकाः ॥ ३ ॥ इति । अथात्मान एव स्वरूपनिरुणायाह - ' आया भंते ! नाणे इत्यादि, आत्मा ज्ञानं योऽयमात्माऽसौ ज्ञानं न तयोर्भेद: अथात्मनोऽन्यज्ज्ञानमिति प्रश्नः, उत्तरं तु - आत्मा स्याज्ज्ञानं सम्यक्त्वे सति मत्यादि ज्ञान स्वभावत्वात्तस्य, स्यादज्ञानं मिध्यात्वे सति तस्य मत्यज्ञानादि स्वभावत्वात्, ज्ञानं पुनर्नियमादात्मा आत्मधर्मत्वाज्ज्ञानस्य, न च सर्वथा धर्मो धर्मिणोभिद्यते, सर्वथा मेदे हि विप्रकृष्ट गुणिनो गुणमात्रोपलधौ प्रतिनियतगुणिविषय एवसंशयो न स्यात्, तदन्येभ्योऽपि तस्य भेदाविशेषात् दृश्यते च यदा कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखा विसररंधोदरान्तरतः किमपि शुक्ल पश्यति तदा किमियंपताका किमियं बालका १ इत्येवं प्रतिनियतगुणिविषयोऽसौ, नापि धर्मिणो धर्म्म सर्वथैवाभिन्नः, सर्वथैवाभेदेहि संशयानुत्पत्तिरेव, गुण महणत एव गुणिनोऽपि गृहीतत्वादतः कथञ्चिदभेदपक्षमाश्रित्य ज्ञानं पुनर्नियमादात्मेत्युच्यत इति इह चात्मा ज्ञानं व्यभिचरति ज्ञानं त्वात्मानं न व्यभिचरति खदिरवनस्पतिवदिति सूत्रगर्भार्थ इति ।। अमुमेवार्थं दण्डके निरूपयन्नाह - ' आये' त्यादि, नारकारणांचा
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जैनागमन्यायसंग्रहः त्मा' आत्मस्वरूपं ज्ञानं उतान्यन्नारकाणं ज्ञानं ? तेभ्यो व्यतिरिक्तमित्यर्थः इति प्रश्नः, उत्तरं तु आत्मा नारकाणां स्याज्ज्ञानं सम्यग्दर्शनाभावात् स्यादज्ञानं मिथ्या दर्शनाभावात् ज्ञानं-पुन: 'से' त्ति तन्नारक सम्बन्धि आत्मा न तद्व्यतिरिक्तमित्यर्थः ॥ 'आया भंते ! पुढविक्काइयाण' मित्यादि, 'आत्मा' आत्मस्वरूपज्ञानमुतान्यत्तत्तेषां ? उत्तरं तु
आत्मा तेषामज्ञानरूपो नान्यत्तत्तेभ्य इति भावार्थः एवं दर्शनसूत्राण्यपि, नवरं सम्यग्दृष्टिमिध्यादृष्टयोदर्शनस्याविशिष्टत्वादात्मा दर्शनं दर्शनमप्यास्मैवेति वाच्यं, यत्र हि धर्मे विपर्ययो नास्ति तत्र नियम एवोपनीयते न व्यभिचारो, यथेहैव दर्शने, यत्र तु विपययोऽस्ति तत्र व्यभिचारो नियमश्च यथा ज्ञाने श्रात्मा ज्ञानरूपोऽज्ञानरूपश्चति व्यभिचारः, ज्ञानं त्वात्मैवेति नियम इति ॥
मल:-आया भंते! रयणभापु० अन्ना रयणप्पभा पुढवी ! गोयमा! रयणप्पभा सिय आया सिय नो आया सिय अवत्तव्वं आयति य नो आयाइ य, से केणडेणं भंते ! एवं वच्चइ रयणप्पभा पुढवी सिय आया सिय नो आया सिय अवत्तव्यं आतातिय नो प्रातातिय ? गोयमा ! अप्पणो आदिड आया परस्स आदितु नो आया तदुभयस्स आदि8 अवत्तव्वं रयणप्पभा पुढवी आयातिय नो आयतिय य, से तेणेद्वणं तं चेव जाव नो आयातिय । आया भंते ! सक्करप्पभा पुढवी जहा रयणप्पभा पुढवी तहा सक्क,
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दर्शनविषयः
११७
रप्पभाएवि एवं जाव आहे सत्तमा । श्राया भंते ! सोहम्मकप्पे
पुच्छा, गोयमा ! सोहम्मे कप्पे सिय आया सिय नो आया जाव नो याति य, सेकेणटुणं भंते! जाव नो आयातिय ?, गोमा ! पण आया परस्स आइड नो आया तदुभयस्स आइड अवाच्च आताति य नो आताति य, से तेराणं तं चैव जाव नो आयाति य एवं जाव अच्चुकप्पे | या भंते! गेविज्जविमाणे अन्ने गेविज्जविमाणो एवं जहा रयप्पभा तहेव, एवं अणुत्तरविमाणावि, एवं ईसिपव्भारावि । श्राया भंते परमाण पोगले अन्ने परमाण पोग्गले ?, एवं जहा सोहम्म कप्पे तहा परमाणुपोग्गलेवि भाणियव्वे ॥ श्राया भंते दुपएसिए खंधे अने दुपसिए खंधे ? गोयमा ! दुपएसिए बंधे सिय या १ सिय नो आया २ सिय अवत्तव्यं आयाइ य नो आयातिय ३ सिय आया य नो आया य ४ सिय आया य
तवं याति य नो आया तिय ५ सिय नो आया य अवत्तव्वं आयाति य नो आयाति य ६, से केण णं भंते ?, एवं तं चैव जान नो आयाति य अवत्व्वं प्रयाति य नो प्रयाति य गोयमा ! अप्पणो आदि आया १ परस्स आदि यो आया २ तदुभयस्स आदि श्रवत्व्वं दुपएसिए खंधे ययाति य नो आयाति
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११८
जैनागमन्याय संग्रहः
य ३ देसे यदि
सम्भावपज्जवे देसे आदि
सम्भावपज्जवे
या य नो आया य ४ देसे आदि सम्भा
आया य
सब्भाव
दुप्पसिए खंधे चपज्जवे देसे यदि तदुभयपज्जवे दुपए सिए खंधे अवत्त आयाइ य नो आयाइ य ५ देसे आदि पज्जवे से आदि तदुभयपज्जवे दुपएसिए खंधे नो आया य वत्तव्यं याति य से आयाति य ६ से तेराणं त चेव जानो आयाति य ॥ आया भंते ! तिपएसिए खंधे अन्नेतिपएसिए खंधे ?, गोयमा १ तिपएसिए खंधे सिय आया १ सिय नो या २ सय वतव्यं श्रायाति य नो आयाति य ३ सिय
या य नो आया य ४ सिय आया य नो आयाओ य ५ सिय आयाउ य नो आयाय ६ सिय आया य अवत्तव्वं आ याति य नो आयाति य ७ सिय आयाइय अवत्तव्वाई आयाओ य नो आयाओ य ८ सय आयाओ य अवत्तव्यं आयाति य नो याति य ६ सय नो आया य अवतव्यं आयाति नो यायाति य १० सिय आया य अवत्तव्वाइं आयाओ य नो आया य ११ सिय नो आयाओ य अवत्तव्यं आयाइ य नो आयाइ य १२ सिय आया य नो आया य अवत्तव्यं आयाइ य नो आयाइय १३ सेकेण णं भंते ?, एवं बुच्चइ तिपए सिए खंधे सिय
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दशनविषयः
११६ पाया एवं चेव उच्चारेयव्यंजाव सिय अाया य नो आया य अवत्तबं आयाति य नो आयाति य ?, गोयमा ! अप्पणो अाइट्ठ आया १ परस्स आइडे नो आया २ तदुभयस्स प्राइ8 अवत्तव्वं आयाति य नो आयाति य ३ देसे आइटु सम्भावपञ्जवे देसे आदिट्ठ असब्भाव पज्जवे तिपएसिए खंधे आया य नो आया य ४ देसे आदितु सम्भावपज्जवे देसा अाइट्ठा असब्भाव पज्जवे तिपएसिए खंधे आया य नो आयाओ य ५ देसा आदिट्ठा सब्भावपज्जवे देसे आदिढे असब्भावपज्जवे देसे आदितु असभाव पज्जवे तिपएसिए खंधे आयात्रो य नो आया य ६ देसे आदितु सब्भाव पज्जवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आया य अवत्तव्यं आयाइ य नो आयाइ य ७ देसे
आदितु सब्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभयपज्जवा तिपएसए खंधे आया य अवत्तव्वाइं आयाओ य नो
आयायो य ८ देसा आदिवा स भावपज्जवा देसे आदिढे तदुभयपज्जवे तिपएमिएखंधे आयाओ य अवतव्यं
आयाति य ह एए तिन्नी भंगा, देसे आदितु असब्भावपज्जवे देसे आदिट्ठ तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे नो आया य अवत्तव्यं आयाइ य नो आयाति य १० देसे
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जैनागमन्यायसंग्रहः आदिट्ठ असब्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभयपज्जवा तिपएसिए खंधे नो आया य अवत्तब्वाइं आयाओ य नो आयात्रो य ११ देसा आदिट्ठा असम्भावपज्जवा देसे अदिखे तदभयपज्जवे तिपएसिए खंधे नो आयात्रो य अवत्तव्यं आयातिय नो आयाति य १२ देसे आदितु सब्भावपज्जवे देसेबादिव असब्भावपज्जवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आया य नो पाया य अवत्तव्यं आयाति य नो आयाइ य १३ से तेणढणं गोयमा ! एवं बुच्चइ तिपएसिए खंधे सिय आया तं चेव जाव नो आयाति य ॥ आया मंते ! चउप्पएसिए खंधे अन्ने पुच्छा, गोयमा ! चउप्पएसिए खंधे सिय प्राया १ सिय नो आया २ सिय अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य ३ सिय पाया य नो आयाय ४ सिय आया य अवत्तव्वं ४ सिय नो आया य अवत्तव्वं ४ सिय आया य नो आया य अवतव्यं आयाति य नो आयातिय १६ सिय आया य नो आयाय अवत्तव्बाई आयात्रा य नो आयात्रो य १७ सिय प्राया य नो आयाओ य अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य १८ सिय आयायो य नो पायाय अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य १६ से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ चउप्पएसिए खंधे
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दर्शनविषयः
सिय आया य नो श्राया य श्रवत्तव्यं तं चैव श्रट्ट पडिउच्चारेयव्वं ?, गोयमा ! पण आदि आया १ परस्स आदि नो या २ तदुभयस्स आदि अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य ३ देसे आदि सम्भावपज्जवे देसे आदि असम्भाव पज्जवे चउभंगो, सम्भावपज्जवेणं तदुभयेण य चडभंगो असम्भावेणं तदुभयण य चउभंगो, देसे आदि) सन्भावपज्जवे से आदि श्रसन्भावपज्जवे देसे दि तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आया य नो आया य अवतव्यं ययाति य नो आयाति य, देसे आदि सम्भावपज्जवे देसे आदि सम्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभयपज्जवा चउप्पएसिए खंधे भवड़ या य नो आयाय श्रवतव्वाईं आयाओ य नो याय १७ देसे आदि सन्भावज्जवे देसा दिट्ठा भावपज्जवा देसे दिट्ठ तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए बंधे श्रया य नो आयाओ य अवत्तव्यं आयाति य नो आयातिय १८ देसाइट्ठा सम्भावपज्जवा देसे आइड असन्भावप० देसे या तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे श्रायाओ य नो श्रया य अवतव्यं श्रायाति य नो आयातिय १६ से तेरा गोयमा ! एवं बुच्चर चउप्पएसिए खंधे सिय श्राया लिय नो
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१२२
जैनागमन्यायसंग्रहः
आया सिय अवत्तव्वं निक्खेवे ते चेव भंगा उच्चारेयव्वा जाव नो आयाति य ॥ आया भंते ! पंचपएसिए खंधे अन्ने पंचपएसिए खंधे ?, गोयमा! पंचपएसिए खंधे सिय आया १ सिय नो आया २ सिय अवत्तव्यं आयाति य नो आयाति य ३ सिय आया य नो आया य सिय अवत्तव्वं ४ नो आया य अवतव्वेण य ४ तियग संजोगे एकोण पडइ, से केणढणं भंते ! तं चेव पडिउच्चा रेयव्वं ?, गोयमा ! अप्पणो आदि8 आया १ परस्स आदिव नो
आया २ तदुभयस्स आदि8 अवत्तव्वं ३ देसे आदि8 सम्भाव पजवे देसे आदितु असम्भावपज्जवे एवं दयग संयोगे सव्वे पडति तियग संजोगे एक्कोण पडइ । छप्पएमियस्स सब्वे पडंतिजहा छप्पएसिए एवं जाव अशंतपएसिए । सेवं भंते । सेवं भंते ति जाव विहरति ॥ (सू० ४६६) ॥ दसमो उद्द सो समत्तो॥ वारसमं सयं समत्तं ॥ १२-१०॥
टीका :-आत्माधिकाराद् रत्नप्रभादिभावानात्मत्वादिभावेन चिन्तयन्नाह–'आयाभंते' इत्यादि, अतति-सततं गच्छति तांस्तानपर्यायानि त्यात्मा ततश्चात्मा-सद्पारत्नप्रभापथिवो 'अन्न' त्ति अनात्मा असद्रूपेत्यर्थः 'सिय आया सिय नो आया त्ति स्यात्सती स्यादसती 'सिय अवत्तव्यं त्ति आत्मत्वेनानात्मत्वेन च व्यपदेष्टुमशक्यं वस्त्विति भावः, कथमवक्तव्यम् ? इत्याह-आत्मेतिच नो आत्मेति च वक्तुमशक्यमित्यर्थ,
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दर्शनविषयः
१२३ 'अप्पणो आइट्ट ' त्ति आत्मनः-स्वस्य रत्नप्रभाया एव वर्णादिपर्यायः 'आ दिट्ठ' आदेशेसति तैर्व्यपदिष्टा सतीत्यर्थः आत्मा भवति, स्वपर्यायापेक्षया सतीत्यर्थः 'परस्स आइ8 नो आया' त्ति परस्य शर्करादिपृथिव्यन्तरस्यपर्यायैरादिष्ट-आदेशेसति तैर्व्यपदिष्टा सतीत्यर्थः नो आत्मा- अनात्मा भवति, पररूपापेक्षयाऽसतीत्यर्थः, 'तदुभस्य आइट्ट अवत्तव्वं त्ति तयोः स्वपरयोरुभयं तदेव वोभयं तदुभयं तस्य पर्यायैरादिष्टे-आदेशे सति तदुभ यपर्यायैर्व्यपदिष्टेत्यर्थः 'श्रवक्तव्यम्' अवाच्यं वस्तु स्यात् तथाहि- न ह्यसौ आत्मेति वक्तु शक्या, परपर्यायापेक्षयाऽनात्मत्वात्तस्याः, नाप्यनात्मेति वक्तु शक्या, स्वपर्यायापेक्षया तस्या आत्मत्वादिति, अवक्तव्यं चास्मानात्मशब्दापेक्षयैव न तु सर्वथा अवक्तव्यशब्देनैव तस्या उच्यमानत्वात् अनभिलाप्यभावानामपि भावपदार्थवस्तु प्रभृतिशब्दैरनभिलाप्यशब्देन वाऽभिलाप्यत्वादिति, एवं परमाणु सूत्रमपि ॥ द्विप्रदेशिक सूत्रे षड्भंगाः तत्राद्यस्त्रयः सकलस्कन्धापेक्षाः पूर्वोक्ता एव, तदन्ये तु त्रयोदेशापेक्षाः तत्र च 'गोयमे' त्यत आरभ्य व्याख्यायते 'अप्पणो त्ति स्वम्य पर्यायः 'अदिट्ठत्ति आदिष्ट-आदेशे सति आदिष्ट इत्यर्थः द्विप्रदेशिकस्कन्ध
आत्मा भवति १ एवं परस्य पर्यायैरादिष्टोऽनात्मा २ तदुभयस्य-द्विप्रदेशिकस्कन्धतदन्यस्कन्धलक्षणस्य पर्यायैरादिष्टोऽसाववक्तव्यं वस्तु स्यात् , कथम् ?
आत्मेति चानात्मेति चेति ३ तथा द्विप्रदेशत्वात्तस्य देश एक अदिष्टः, सद. भावप्रधानाः सत्तानुगताः पर्यवायस्मिन् स सद्भावपर्यवः, अथवा तृतीयबहुवचनमिदं स्वपर्यवैरित्यर्थः, द्वितीयस्तु देश श्रादिष्टः असीवपर्यवः परपर्यायरित्यर्थः , परपर्य वाश्च तदीय द्वितीयदेशसम्बन्धिनो वस्त्वन्तरसम्ब न्धिनो वेति ततश्चासौ द्विप्रदेशिकः स्कन्धः क्रमेणात्मा चेति नोआत्मा चेति
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१२४
जैनागमन्यायसंग्रहः ४, तथा तस्य देश आदिष्टः सद्भावपर्यवो देशश्चोभयपर्यवस्ततऽिसावात्मा चावक्तव्यंचेति ५ तथा तस्यैव देश आदिष्टोऽसद्भावपर्यवोदेशस्तूभयपर्यव स्ततोऽसौ नोआत्मा चावक्तव्यं च स्यादिति ६ सप्तमः पुनरात्मा च नोआत्मा चावक्तव्यं चेत्येवंरूपो न भवति द्विप्रदेशिके, द्वयंशवादस्य त्रिप्रदेशिकादौ तु स्यादिति सप्तभंगी॥ त्रिप्रदेशिस्कन्धे तु त्रयोदश भङ्गास्तत्रपूर्वोक्तेषु सप्तस्वाद्याः सकलादेशास्त्रयस्तथैव, तदन्येषु तु त्रिषु त्रयस्त्रय एकवचनबहुवचनभेदात् सप्तमस्त्वेकविध एव स्थापनाचेयम् यच्चेह प्रदेशद्वये
प्रव
आ शनी १ अव १
आ १ नौ १ अव १
-IFr-MB rrrat rarr|
ऽप्येकवचनं कचित्तत्तस्य प्रदेशद्वयस्यैकप्रदेशावगाढत्वादि हेतुनैकत्वविबक्षणात् , भेदविवक्षायां च वहुवचनामिति ॥ चतुष्पदेशिकेऽप्येवं, नवरमेकोनविंशतिभङ्गाः तत्र त्रयः सकलादेशाः तथैव शेषेषु चतुर्ष प्रत्येकं चत्वारो विकल्पाः ते चैवं चतुर्थादिषु त्रिषु | |
-
सप्तमस्त्वेवं
पंचप्रदेशिके
तु द्वाविंशतिस्तत्राद्यास्त्रयस्तथैव, तदुत्तरेषु च त्रिषु प्रत्येकं चत्वारो विकल्पा
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दर्शनविषयः
१२५
स्तथैव, सप्तमे तु सप्त, तत्र त्रिकसंयोगे किलाष्टौ भंगका भवन्ति तेषु च
सप्तैवेह ग्राह्याः, एकस्तु तेषु न पतत्यसंभवात्
इदमेवाह - 'तिगसंजोगे
त्यादि तत्रैतेषां स्थापना
1
oooooo aan po Ovov
यश्च न पतति - स पुनरयम् २२२, ॥ द्वादशशते दशम : १२, १० समाप्तं च द्वादशशत विवरणम् ॥ सू० ४६६ व्याख्या प्र. शतक १२ उद्द० १०
षट्प्रदेशिके त्रयोविंशतिरिति
मूल :-- दायं पेहमाणे मरणूसे अद्दार्य पेहति प्राणं पेes पलिभागं पेहति ? गोयमा ! अहायं पेहति नो अप्पाणं पेहति पलिभागं पेहति, एवं एतेणं अभिलावेगं असि मणि दुद्ध पाणं तेल्लं फाणियं वसं (सूत्र १६७ )
टीका - श्रायं पेहमाणो' इत्यादि, ' अहाय' मिति आदर्श 'पेहमाणे' इति प्रेक्षमाणो मनुष्यः किमादर्श प्रेते आहोश्विदात्मानं १ श्रत्रात्मशब्देन शरीरमभिगृह्यते, उत' पलिभाग' मिति प्रतिभागं प्रतिविम्बं ? भगवानाह - आदर्श तावत् प्रेक्षत एव तस्य स्फुटरूपस्य यथावस्थिततया तेनोपलम्भात्, आत्मानं आत्मशरीरं पुनर्न पश्यति, तस्य तत्राभावात्, स्वशरीरं हि स्वात्मनि व्यवस्थितं नादर्शे ततः कथमात्मशरीरश्च तत्र पश्येदिति ? प्रतिभागं - स्वशरीरस्य प्रतिविम्बं पश्यति, श्रथकिमात्मकं प्रतिविम्बम् १ उच्यते, छायापुद्गलात्मकं तथाहि सर्वमैन्द्रियकं वस्तु स्थूलं चयापचयधर्मकं रश्मिवच्च, रश्मय इति छाया पुद्गलाः व्यवह्रियन्ते च
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जैनागमन्यायसंग्रहः
१२६
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छाया पुद् गलाः प्रत्यक्षत एव सिद्धाः सर्वस्यापि स्थूलवस्तुनः छाया, अध्यक्षतः प्रतिप्राणि प्रतीतेः अन्यच्च यदि स्थूलवस्तु व्यवहिततया दूरस्थिततया वा नादर्शादिष्ववगाढरश्मिर्भवति, ततो न तत्र तद् दृश्यते तस्मादवसीयते सन्ति छाया पुद्गलाः इति, ते च छायापुद्गलास्तत्तत् सामग्रीवशाद् विचित्र परिणमनस्वभावास्तथाहि ते छाया पुद्गला दिवा वस्तुन्यभास्वरे प्रतिगताः सन्तः स्वसंबंधि द्रव्याकारमाविभ्रारणाः श्यामरूपतया परिणमन्ते निशि तु कृष्णामाः, एतच्च प्रसरति दिवसे सूर्य्यकरनिकरे निशि तु चन्द्रोद्योते प्रत्यक्षत एवं सिद्धं त एवं छाया - परमाणवः श्रादर्शदिभास्वर द्रव्यप्रतिगताः सन्तः स्वसंवंधिद्रव्याकारमादधानाः यादृग् वर्णः स्वसम्बन्धिनिद्रव्ये कृष्णो नीलः शितः पीतो वा तदाभाः परिणमन्ते, एतदप्यादर्शादिष्वभ्यक्षतः सिद्धं ततोऽधिकृतसूत्रेऽपि ये मनुष्यस्य छायापरमाणवः आदर्शमुपसंक्रम्य स्वदेहवर्णतया स्वदेहाकारतया च परिणमन्ते तेषां तत्रोपलब्धिर्न शरीरस्य, ते च प्रतिविम्बशब्दा वाच्या अत उक्तंन शरीरं पश्यति किन्तु प्रतिभागमिति, नैवेतत् स्वमनीषिकाविजृम्भितं, यत उक्तमागमे - 'सामा उ दिया छाया अभासुरगता निसिं तु कालाभा । सा चैव भासुर गया सदेह वरणा मुणेयव्या || १ || छाया - श्यामा तु दिवा छाया अभास्वरता निशि तु कालाभा । सैव भास्वरगता स्वदेहवर्णा ज्ञातव्या ॥ १ ॥ जे आदरिसरसन्तो देहावयवा हवंति संकेता | तेसिं तत्थुवलंभो पगासजोगा न इयरेसिं ॥ २ ॥ छाया - ये आदर्शस्यान्तर्देहावयवा भवन्ति संक्रान्ताः । तेषां तत्रोपलम्भः प्रकाशयोगात् नेतरेषाम् ॥२॥ मूलटीकाकारोऽप्याह - यस्मात् सर्वमेवहि ऐन्द्रियकं स्थूलं
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दर्शनविषयः
१३७
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द्रव्यं चयापचयधर्मिकं रश्मिवच भवति, यतश्चादर्शादिषु छाया स्थूलस्य दृश्यते श्रवगाढ रश्मिनः ततः स्थूलद्रव्यस्य कस्यचिद्दर्शनं भवति, नचान्तरितं दृश्यते किञ्चिति दूरस्थं वा अत: ' पलिभागं प्रति भागं ' पेहति ' पश्यतीति । एवमसिमण्यादि विषयाण्यपि षट सूत्राणिभावनीयानि, सूत्रपाठोऽप्येवम्- 'असिं देहमा रोम से किं असं देहइ अत्ताणं देहइ पलिभागं देहइ ? इत्यादि, गोयमा ! असं देहइ नो अत्ताणं देहइ पलि भागं देह इत्यादि ॥
प्रज्ञापना सूत्रपद १५ उद्देश १ सू० सं १६७ ॥
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ज्ञान विषयः
'यथोद्दशस्तथा निर्देश' इति न्यायतोज्ञानभेदानाह
4
' तत्थ पंचविहं नाणं सु श्रभिणि वोहियं । श्रोहियनाणं तइयं मणनाणं च केवलं ॥ उत्तराध्ययन--सूत्र मोक्षमार्ग गत्यध्ययन २८, गाथा, ४ ॥
टीका: 'तत्र' इति तेषु ज्ञानादिषु मध्ये ' पचविधं पच प्रकारं, किं तत् ? ज्ञानं, क एते पञ्च प्रकारा इत्याह- श्रूयते तदिति श्रुतं - शब्द मात्र, तच्च द्रव्यश्रुतमेव, यत् पुनः शब्दमाकर्णयतः स्वयं वा वदतः पुस्तकादिन्यस्तानि वा चक्षुरादिभिर क्षण्युपलभमानस्य शेषेन्द्रियगृहीतं वाऽर्थ विकल्पयतोऽक्षरारूषितं विज्ञानमुपजायते तदिह भावश्रुतं श्रुतशब्देनोक्त तथाऽभिमुखो योग्यदेशावस्थित वस्त्वपेक्षया नियतः स्वस्वविषयपरिच्छेदकतया - बोधः - अवगमोऽभिनिबोधः स एवाभिनिबोधिकं विनयादित्वात् स्वार्थ, 'ओहि त्ति अवशब्दोऽधः शब्दार्थः, ततश्वाधः इत्यधस्ता द्धावति अधोऽधा विस्तृतविषयवेदकतयेत्यत्रधिः, औरगादिको डि:, यद्वा 'अवेत्यध एव धानं धातूनामनेकार्थत्वात् परिच्छेदोऽवधिः उपसर्गे घो किरिति (पा. ३-३-६२) कि., अथवाऽवधिः - मर्यादा रुपिध्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृतिरित्येवंरूपा, तदुपलक्षितं ज्ञानमध्यवधिः ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञातिर्वा ज्ञानं ततोऽवधिश्वासौ ज्ञानं चावधिज्ञानं तृतीयं तृतीय
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ज्ञानविषयः
१२६ स्थानवतित्वात्, ' मणणाणं' ति मनः शब्देन द्रव्यपर्याययोः कथञ्चिद भेदात् मनोद्रव्यपर्याया गृह्यन्ते, तेषु तत्तत् संज्ञिविकल्पहेतुषु ज्ञानं मनो ज्ञानं, तानेव हि मनः पर्यायज्ञानी साक्षादेव वुध्यते नतु वाह्यान, अनुमान गम्यमानत्वात्तेषाम् ; उक्त हि-'जाणति वज्मेऽणुमाणाओ' त्ति चः समुच्चये भिन्नक्रमस्तत: केवलं च, तत्र केवलम्-एकमकलुषं सकलमसाधारणमनन्तं च ज्ञानमिति प्रक्रम , उक्त हि-' केवलमेगं सुद्धं सकलमसाधारणं अणंतं च' छाया- केवलमेकं शुद्धं सकलमसाधारण मनन्तं च । आह-नन्द्यादिषु मतिज्ञानानन्तरं श्रु तज्ञानमुक्त तदिह किमर्थमादित एष श्रुतोपादानं ? उच्यते, शेषज्ञानानामपि स्वरूपज्ञानस्य प्रायस्तदधीनत्वेन प्राधान्यख्यापनार्थमिति सूत्राथैः ।।
साम्प्रतं ज्ञानशब्दस्य सम्बन्धि शब्दत्वाद् येषां तज्ज्ञानं तान्यभिधातुमाहमल -एयं पंचविहं नाणं दवाण य गुणाण य ।
पज्जवाणं च सव्वेसि, नाणं नाणीहिं देसियं ॥शा टीका :- एतद्। अनन्तरोक्तं पञ्चविधं ज्ञानं द्रवन्ति गच्छन्ति तास्तानपर्यायानिति द्रव्याणि-वक्ष्यमाणलक्षणानि तेषां 'च' तद्गतानेकभेदख्यापको, गुणानां ---रूपादीनां, च प्राग्वत्, परीति-सर्वतः, कोऽर्थ । द्रव्येषु गुणेषु सर्वेष्ववन्ति-गच्छन्तीति पर्यवास्तेषां च ‘सर्वेषाम्' अशेषाणां, केवलापेक्षया चायं द्रव्यकान्ये, सर्व शब्दः शेष ज्ञानापेक्षया तु प्रकारकालय, प्रतिनियतपर्यायग्राहित्वात्तेषां, ज्ञानम्'
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जैनागमन्यायसंग्रहः
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अवबोधकं 'ज्ञानिभिः' अतिशयज्ञानोपेतैः केवलिभिरिति यावत् 'देशित कथितम् । अनेन च यदाहु: - ज्ञानं ज्ञानस्वरूपस्यैव ग्राहकं वाह्यभिमतस्य वस्तुनो ज्ञानातिरिक्तस्यासत्वाद्, अत एवोक्तं - स्वरूपस्य स्वतो गति रिति, तन्निरस्तम्, अन्तः सुखादिप्रतिभासद् वहिः स्थूलप्रतिभासस्यापि स्वसंविदितत्वात् न च युगपद्वेद्यमानयोरेकस्य तात्त्विकत्वमित्तरस्य त्वन्ययात्वमिति निमित्तं विना कल्पयितुं शक्यं, अथैकत्राविद्योपदशितत्वं तत् कल्पनिमित्त', न यतस्तदितरत्रापि किं न कल्प्यते ?, निमित्तं बिना कल्पनाया उभयत्राविशेषात् तथा च ज्ञानस्यप्यभावेन सर्वशून्यतापत्तिरित्यलं प्रसंगेनेति सूत्रार्थः ॥ अनेन द्रव्यादिविषयत्वं ज्ञानस्योक्तं, तत्र च द्रव्यादीनि किं लक्षणानी इत्यत आह
"
मूल - गुणाएं आसओ दव्वं, एगदव्वंस्सिया गुणा ।
लक्खणं पज्जवाणं तु उभो असिया भवे ॥ ६ ॥
टीका : 'गुणानां वक्ष्यमारणानां 'आश्रय' आधारो यत्रस्थास्त उत्पद्यन्ते उत्पद्ये चावतिष्ठन्ते प्रलीयन्ते च तद् द्रव्यम्, अनेन रूपादय एव वस्तु न तद्व्यतिरिक्तमन्यदिति तथागतमतमपास्तं, तथाहि-यदुत्पादविनाशर्न स्योत्पादविनाशौ न तत्तत्तोऽभिन्नं, यथा घटात्पटो, न भवतश्च पर्यायोत्पादविनाशयोर्द्रव्यस्योत्पादविनाशौ न चायमसिद्धो हेतु:, स्थासकोशकुशूलाद्यवस्थासु मृदादिद्रव्यस्यानुगामित्वेन दर्शनात्, न चास्य मिथ्यात्वं कदाचिदन्यथादर्शनासिद्धेः, उक्तं हि — “योह्यन्यरूपसंवेद्यः, संवेद्येतान्यथा पुनः । स मिथ्या न तु तेनैव, यो नित्यमवगम्यते ॥१॥”
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ज्ञानविषयः तथैकस्मिन् द्रव्ये स्वाधारभूते आश्रिताः स्थिताः-एकद्रव्याश्रिताः, के ते ?'गुणाः' रूपादयः, एतेन च ये द्रव्यमेववेच्छन्ति तद्व्यतिरिक्तांश्च रूपादीनविद्योपदर्शितानाहुस्तन्मतनिषेधः कृतः, संविन्निष्ठा हि विषयव्यवस्थितयो, न च रूपाद्युत्कलितरूपं कदाचित्केचिद् द्रव्यमवगतमवगम्य ते वा, अथ तद्विवर्त्त एव रूपादयो न तु तात्त्विकाः केचन तद्भेदेन सन्ति, नन्वेवं रूपादिविवतॊ द्रव्यमित्यपि किं न कल्प्यते ? अथ तथैव प्रतीतेः, एवं सति प्रतीतिरुभयत्र साधारणेत्युभयमुभयात्मकमस्तु, लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं 'पर्यवाणां' वक्ष्यमाणरूपाणां तु विशेषणे 'उभयोः' द्वयोः प्राकृतत्वाद् द्रव्यगुणयोराश्रिताः 'भवे' त्ति 'भवेयुः स्युः । अनेन च य एवमाहुः -यदाद्यन्तयोरसत् मध्येऽपि तत्तथैव, यथा मरीचिकादो जलादि, न सन्ति च कुशूलकपालाद्यवस्थयोर्घटादिपर्यायाः, ततो द्रव्यमेवोदिमध्यान्तेषु सत्, पर्यायाः पुनरसत्यैराकाशकेशादिभिः सदृशा अपि भ्रान्तैः सत्यतया लक्ष्यन्ते, यथोक्तम्- “आदावन्ते च यन्नास्ति मध्येऽपि न तत्तथा । वितथैः सदृशाः सन्तोऽवितथा इव लक्षिताः ॥” तेऽपाकृताः, तथाहिश्राद्यन्तयोरसत्त्वेनमध्येऽपिअप्यसत्त्वं साधयतामिदमाकूतं- यत् कचिदसत्तत्सर्वस्मिन्नसदिति, ततश्च मृद्रव्येऽप्यद्रव्यस्यासत्त्वात्सर्वस्मिन्नप्यसत्त्वप्रसंगः, अथेष्टमेवैतत् , सत्रामात्रस्यैव तत्त्वत इष्टत्वात्, उक्तं हि- "सर्वमेकं सदविशेषात्” नन्वेवमभावे भावाभावाद्भावस्यापि सर्वत्राभाव प्रसङ्गः, तस्माद्बाधकप्रत्ययोदय एवासत्त्वे निबन्धनमिति न कचिदसत्त्वे तस्यावश्यंभावः, ततो द्रव्यवत्पर्यायाणामप्यबाधितबोधविषयत्वे सत्त्वमस्तु, तथा गुणेष्वपि नवपुराणादिपर्यायाः प्रत्यक्षप्रतीता एव कियत्कालभाविनः, प्रतिसमयभाविनस्तु पुराणत्वाद्यन्यथानुपपत्तेरनुमान
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जैनागमन्यायसंग्रहः तोऽवसीयन्ते, ततश्च द्रव्यगुणपर्यायात्मकमेकं, शबलमणि वच्चित्रपतंगादिवद् वस्त्विति स्थितमिति सूत्रार्थः ॥ आह-गृह्णीमो 'गुणानामश्रयो द्रव्यामिति द्रव्यलक्षणं' तच्चैवलक्षणं द्रव्यं किमेकमेवोत तस्यभेदा अपि सन्तीत्याहमला-धम्मो अधम्मो आगासं कालो पुग्गलजंतवो ।
एस लोगुत्ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदसिहि ॥७॥
टीका:-'धर्म' इति धर्मास्तिकायः 'अधर्म' इत्यधर्मास्तिकायः 'आकाश' मित्याकाशास्तिकायः काल' अद्धासमयात्मकः 'पुद्गलजन्तवः, इति पुद्गलास्तिकायः जीवास्तिकायः, एतानि द्रव्याणीति शेष: प्रसंगतो लोकस्वरूपमप्याह-एष इत्यादि, सुगममेव, नवरमेष इति-सामान्यतः प्रतीतो लोक इत्येवं स्वरूपः, कोऽर्थः १, अनन्तरोक्तद्रव्यषटकात्मकः, उक्तं हि-'धर्मादीनां वृत्तिर्द्रव्याणां भवति यत्र तत्क्षेत्रम् । तैव्यैः सह लोकस्तविपरीतं ह्यलोकाख्यम् ॥१॥ इति सूत्रार्थ ।। आह किमेतेऽपि धर्मादयो भेदवन्त उतान्यथा ? उभयथाऽपोति मातथाचाह - मूल:-"धम्मो अधम्मो आगासं, दव्वं इक्किक्क माहियं ।
अणंताणि य दव्वाणि कालो पुग्गल जंतवो ॥८॥ टीका-धर्मोऽधर्म आकाशं द्रव्यमिति धर्मादिभिः प्रत्येकं योग्य ते ५ 'एकैकं एक संख्यायो एवैतेषु भावाद् आख्यातं तीर्थकृद्भिरिति गम्यते तत किं कालादिद्रव्याण्यप्येवमेवेत्याह- अनन्तानि' अनन्तसंख्यानि स्वगतभेदानन्त्यात् 'च: पुनरर्थे उत्तरत्र योक्ष्यते, कानि १ द्रव्याणि,
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ज्ञानविषयः
१३३ कतमानि ? काल: पुद्गल जन्तवश्चोक्तरूपाः, कालस्य चानन्त्यमतीतानागतापेक्षयेति सूत्रार्थः ॥ एषां परस्परभेदनिबन्धनं लक्षणभेदमाह
मूल :-गइलक्खणो उधम्मो, अहम्मो ठाणलक्षणो।
भायणं. सव्वदव्वाणं, नहं ओगाहलक्खणं ॥६॥ वत्तणालक्खणो कालो, जीवो उपयोगलक्खणो । नाणेणं ईसणेण च सुहेण य दुहेण य ॥१०॥ नाणं च दंसणं चेव चरित्त च तवो तहा । वीरियं उवोगे य, एयं जीवस्स लक्खणं ॥११॥ सद्द धयार उजोओ, पभा छाया तवृत्ति वा।
वएणरसगंधफासा, पुग्गलाणं तु लक्खणं ॥१२॥ टीकाः- गमनं गतिः - देशान्तरप्राप्तिः लक्ष्यतेऽनेनेति लक्षणं, गतिर्लक्षणमस्येति गतिलक्षणः, तुः, पूरणे, कोऽसौ ? धमोस्तिकायः, आह-सिद्धे सति वस्तुनोऽस्तित्वे इदमनेन लक्ष्यत इति वक्तु युक्तम् , अस्य तु सत्त्वमेवासिद्धम्, अत्रोच्यते, यद्यच्छुद्धपद् वाच्यं तत्तदस्ति, यथा स्तम्भादिः, शुद्धपदवाच्यश्च धर्मनामास्तिकायो, नचायमसिद्धो हेतुः, धर्म इत्यस्यैतद् वाचकस्यासमस्तपदत्वेन तथाऽभिधेयार्थबाधक-प्रमाणा. भावात्, प्रमाणान्तर बाधितविषयत्वाख्यदोषरहितत्त्वेन च सिद्धत्वात् , नच खपुष्पादिषु संकेतितैर्दु :खादि शुद्धपदैरनेकान्तो, वृद्धपरम्परायातसङ्केतविषयाणमेवशुद्धपदानां वाच्यत्वस्येह हेतुत्वेनेष्टत्वात्, निपुणेन
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जैनागमन्याय संग्रहः
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प्रतिपत्राभाव्यम्, अन्यथा धूमादेरपि गोपालघटादिष्वन्यथाभावदर्शनादेष प्रसङ्गो दुर्निवारः स्यात् उक्तञ्च - 'श्रत्थित्ति निव्वियप्पो जीवो नियमा उ सहतो सिद्धी । कम्हा ? सुद्ध परत्ता घडरवरसिंगारगुमाणाओ ॥ १ ॥ छाया - अस्तीति निर्विकल्पो जीवो नियमात् शब्दत एव सिद्धि: । कस्मात् । शुद्धपदत्वात् घटखर गानुमानात् ॥ १ ॥ इत्याद्यलं प्रसङ्ग ेन, तथा 'धर्म' अधर्मास्तिकायः स्थितिः स्थानं गतिनिवृतिरित्यर्थः । तल्लक्षरणमस्येति स्थानलक्षण:, स हि स्थितिपरिगतानां जीवपुद्गलानां स्थितिलक्षणकार्य प्रत्यपेक्षा कारणत्वेन व्याप्रियत इति तेनैव लक्ष्यत इत्युच्यते अनेनाप्यनुमानमेव सूचितं तच्चेदम् - यद्यत्कार्य्यं तत्तदपेक्षा कारणवद्, यथाघटादि, कार्यचासौ स्थितिः, यश्च तदपेक्षाकारणं तदधर्मास्तिकाय इति, अत्र च नैयायिकादिः सौगतो वा वदेत् - नास्ति श्रधर्मास्तिकाय:, अनुपलभ्यमानत्वात, शशविषाणवत्, तत्र यदि नैयायिकादिस्तदाऽसौ वाच्यः - कथं भवतोऽपि : गादयः सन्ति ? अथ दिगादिप्रत्ययलक्षणकार्यदर्शनात, भवति हि कार्यात् कारणानुमानम् । एवं सति स्थितिलक्षण कार्यदर्शनादयमत्यस्तीति किं न गम्यते । अथ तत्र दिगादि प्रत्ययकार्यस्यान्यतोऽसंभवात् कारणभूतान् दिगादीननुमिमीमह इति मतिः, इहाप्याकाशादीनामवगाहदानादिस्त्रस्वकार्यव्यापृतत्वेन ततोऽसंभवादधर्मास्ति कायस्यैव स्थितिलक्षणं कार्य्यमिति किं नानुमीयते ? अथासौ न कदाचिद् दृष्टः १ एतद्दिगादिस्वपि समानम् । अथ सौगतः सोऽप्येवं वक्तव्यः यथा - भवतः कथं वाह्यार्थसंसिद्धि: ? नहि कदाचिदसौ प्रत्यक्ष गोचरः, साकारज्ञानवादिनः सदा तदाकारस्यैव संवेदनात्; तथा च तस्या प्यनुपलभ्यमानत्वादभाव एव, अथाकारसंवेदनेऽपि तत् कारणमर्थः परि
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ज्ञानविषय:
१३५
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कल्प्यते, धूमज्ञान इवाग्निः एवं सति स्थितिदर्शनेऽपि किं न तत् कार णस्याधर्मास्तिकायस्य निश्वयः १ अथायमप्यभिदधीत न कदाचिदसौ तत् कारणत्वेनेक्षित इति, ननु वाह्यार्थेऽपि तुल्यमेतत्, नहि सोऽपि तदाकार कारितया कदाचिदवलोकितः अथ मनस्कारस्य चिद्रूपतायामेव व्यापारो नतु नियता (त) कारणत्वे, अतस्तत्रार्थः कारणं कल्प्यते, एवं तर्हि जीव पुद्गलौ परिणाममात्र एवं कारणं, स्थितिपरिणती पुनरधर्मास्तिकायोपेक्षा कारणत्वेन व्याप्रियत इति किं न कल्प्यते १ अथासौ सर्वदा सर्वस्य सन्निहित इत्यनियमेन स्थिति - कारणं भवेत्, नन्वेवमर्थोऽपि किं सन्निहित इत्येव स्वाकारमर्पयति १ श्रथ चक्षुरादि व्यापारमयमपेक्षते, अधर्मास्तिकायोऽपि तर्हि स्वपरगतौ विश्रसाप्रयोगावपेक्षत इति नानयोर्विशेषमुत्पश्याम:, तथा ' भाजनम्' आधार: सर्वद्रव्यारणां' जीवादीनां 'नमः' आकाशम्, अवगाहः - अवकाशस्तल्लक्षणमस्येत्यवगाहलक्षणं तद्भयव गादु प्रवृत्तानामालम्बनो भवति, अनेनावगाहङ्कारणत्वमाकाशस्योक्तं न चास्य तत् कारणत्वमसिद्धं यतो यद्यदन्वयव्यतिरेकाविधाय तत्तत कार्य यथा चक्षुराद्यन्वयव्यतिरेकानुविधायि रूपादि विज्ञानम्, आकाशान्वयव्यतिरेकानुविधायी चावगाह:, तथाहि - शुषिर रूपमाकाशं, तत्रैव चावगाहो, न तु तदुद्विपरीते पुद्गलादौ श्रथैवमलोकाकाशेऽपि कथं नावगाह : ? उच्यते स्यादेवं यदि कश्चिवगाहिता भवेत. तत्र तु धर्मास्तिकायस्य जीवादीनां चासत्त्वेन तस्यैवाभाव इति कस्यासौ समस्तु ! नन्वेवमपि न तत् सिद्ध:, हेतोरसिद्धत्वात्, तदसिद्धश्चान्वयाभावत् सति हि तस्मिन् भवनमन्वयो न च तत् सत्यसिद्धिरस्ति, अन्वयाभावे च व्यतिरेकस्याप्यसिद्धिरिति, ननु कथं न तत्सत्त्वसिद्धः १ अथ
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जैनागमन्यायसंग्रहः
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भित्याद्यभाव एवाकाशमिति, एवं सत्याकाशाभाव एव भित्त्यादय इत्यपि किं न भवति । श्रथ तेषां प्रमाणप्रतीतत्वात् इहापि किं न प्रमाणप्रतीति ? तथाहि - वियति विहग इत्यादि, प्रतीत्यन्यथानुपपत्याऽनुमानतस्तत् सिद्धः नचेयं प्रतोतिरन्यथाऽपि संभवतीति न ततस्तत् सिद्धिरिति ( वक्तु ) युक्तं एवं हि भित्त्यादिप्रतीतेरपि भित्त्याद्यभावेऽपि भावकल्पनया तेषामप्यभावप्रसक्तिः, अथ तत् प्रतीतेः प्रामाण्यनिश्चय इति नान्यथात्वकल्पना, एवं तर्हि वक्तव्यं – कुतोऽस्याः प्रमा निश्चयः ? कि प्रमाणान्तरानुग्रहात्, बाधकाभावाद् वा ? यदि प्रमाणान्तरानुग्रहात् किं तन प्रमाणान्तरं ? य इहाबाधितप्रत्ययः स सर्वः प्रमाणं यथा सुखादिप्रत्यय: बाधितप्रत्ययास्वामी भित्यादिप्रत्यया इत्यनुमानमितिचेत् यद्येवमिहापि यो य इह प्रत्ययः स सर्वः सालम्बनो यथेह कुण्डे दधीति प्रत्ययः इह् प्रत्ययश्चायम् इह विहग इति प्रत्ययः इत्यनुमानमस्त्येव, अथैवमाधारमात्रस्यैव सिद्धि: नत्वाकाशस्य कथं न तत् सिद्धि: ? यदेव ह्याधारमात्रं तदेवाकाशमिति वयं ब्रुमः, अथ वाधकाभावात् ननु वाधकमपि विपरीत प्रत्ययोत्पत्तिरूपं, तदभावश्वोभयत्र समान इति न भित्याद्यभाव एवाकाशं किंतुशु पर रूपमन्यदेव, ततस्तद्भावभावितत्त्वादवगाहस्य कथं न तत् कारणत्वसिद्धिराकाशस्य ? एवञ्च स्थितमेतद् - अवगाहन कार्यरूपेण लक्ष्यमाणत्वादवगाहलक्षणं नमः, तथा वर्त्तन्ते
"
भवंति भावास्तेन तेन रूपेण तान् प्रतिप्रयोजकत्वं वर्त्तना सा लक्षणं लिङ्गमस्येति वर्त्तना लक्षणः कोऽसौ १ कालः, इदमुक्तं भवति यदमी शीतवातातपादयः ऋतु विभागेन भवन्ति यच केचिच्छशधरकरनिकरा
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ज्ञानविषयः
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नुकारिपारतीप्रसवाः अन्ये तु तुहिनशिलाशकलविशदकुन्दमालतीकुसुमवासवाहिनः अपरे च केशरतिलकुरुबकशिरीषाङ्कोल्लप्रसूनजम्भमाण परागभाज: तदितेर च करिदशनसकलधयलमल्लिकाबहलपरिमल हारिणः परे च कदम्बकेतकरज:पूरपूरिताम्बराः अपरे तु सप्तच्छद कुसुमरजोधूलिधूसरितविश्वविश्व भराः अविशिष्टविशिष्टवस्तवः प्रकाशन्ते क्रमेणैव भुवनभागांस्तदवश्यममीषां नैयत्यहेतना केनापि भवितव्यं, स च काल इत्य प्रसंगेन, सर्वथा वर्तनया लक्ष्यमाणत्वादस्ति काल इति स्थितं, तथा 'जीवः' जन्तुरूपयोगो-मतिज्ञानादि लक्षणं-रूपं यस्यासौ उपयोगलक्षणो, मतिज्ञानादिको ह्यु पयोगस्तद्धर्मः, स च स्वसंविदित एवेति, तदनुभवतो रूराद्यनुभवादिव घटादिर्जीवो लक्ष्यत इति तल्लक्षणमुच्यते, प्रपश्चितं चैतदिहैव प्रागन्यत्रचेति न पुनः प्रतन्यते, अत एव 'ज्ञानेन' विशेषग्राहिणा 'दर्शनेन च । सामान्य विषयेण 'सुखेन च ' आह्लादरूपेण दुःखेन च-तद्विपरीतेन प्रक्रमाल्लक्ष्यत इति गम्यते, न हि ज्ञानादीन्यजोवेषु कदाचिदुपलभ्यन्त इतिकृत्वा । सम्प्रति विनेयानां दृढतरसंस्काराधनाय उक्तलक्षणमनद्य लक्षणान्तरमाह-' ज्ञानं च ' उक्त रूपमेवं दर्शनं चैव चरित्रं च तपस्तथा · वीर्य वीर्यान्तरायक्षयोपशम समुत्थं सामर्थ्यलक्षणम् 'उपयोगश्च' अवहिततत्वं, किमित्याह-' एतत् । ज्ञानादि जीवस्य लक्षणम्, एतेन हि जीवोऽनन्यसाधारणतया लक्ष्यत इति । इत्थं जीवलक्षणमभिधाय पुद्गलानां लक्षणमाह–'शब्दः' ध्वनिः 'अंधकारः' तिमिरम्, उभयत्रसूत्रत्वात् सुपोलुक् , ' उद्योतः' रत्नादिप्रकाशः 'प्रभा' चन्द्रादिदीधितिः 'छाया' शैत्यगुणा: 'आतपः ' रविबिम्बजनित उष्णप्रकाशः इति शब्द आद्यर्थः, ततश्च सम्बन्धभेदादीनां परिग्रहः, व'
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जैनागमन्यायसंग्रहः समुच्चये, वर्णश्च नीलादिः रसश्च–तिक्तादिः गन्धश्च--सुरभ्यादिः पश्चि-शीतादिरेषां द्वन्द्वः, इति शब्देन चाद्यार्थेनैषां ग्रहणेऽपि पुनरुपादानं– सर्वत्रानुयायिताख्यापनार्थ, 'पुद्गलानां स्कन्धादीनां 'तुः, पुनरर्थः लक्षणम् एतैरेव तेषां लक्ष्यत्वात्, आह-पौद्गलिकत्वे शब्दादीनां पुद्गललक्षणत्वं युक्त तच्च कथम् १ उच्यते, शब्दस्तावन्मूर्त्तत्वात् पौद्गलिको, मूर्तिभावोऽस्य प्रतिघातविधायित्वादिभ्यः उक्त हि-"प्रतिघात विधायित्वाल्लोष्टवन्मूर्त्तता ध्वने । द्वारवातानुपाताच्च, धूमवञ्च परिस्फुटम् ।१॥" अन्धकारोद्योत प्रभाणां तु पौद्गलिकत्वं चक्षुर्विज्ञानविषयत्वात, प्रयोग श्चात्र-यत्यौद्गलिकं न भवति तच्चक्षुर्विज्ञानविषयमपि न भवति, यथाऽऽत्मादयः, चक्षुर्विज्ञानविषयाश्चान्धकारादयः, अथालोकाभावोऽन्धकारं, तथा च निरुपाख्यत्वेन तस्या सत्त्वमुच्यते, न, सतः सर्वथा निरन्वयाभावस्थाभावेनाभावरूपत्वेऽपि निरुपाख्यत्वासिद्धेः, तथाहि-घटस्य कपालाख्यपर्यायान्तरोत्पत्तिरेवाभावो न पुनरुच्छेदमात्रम्, एवमलोक स्याप्यन्धकाराख्यपर्यायान्तरोत्पत्तिरेवाभावो न तु तथाविधपरमाणुरूपत शाऽप्यभाव एव, इत्थं चैतत् , परिणामित्वाद्वस्तुनः, परिणामस्य च सत एव वस्तुनः पूर्वरूपपरित्यागेन रूपान्तरोत्पत्तिरूपत्वात्, उक्त हि- ‘परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः ।। १ ॥” एवं छायाऽऽतपयोरपि पौद्गलिकत्वं वस्तुत्वञ्च भावनीयं , तथा स्पर्शनग्राह्यत्वाच्चानयोः पौद्गलिकत्वं , तथाहिछायाया. शैत्यमातपस्य चौग्णत्वं प्रतिप्राणि प्रतीतमेवेति, अतश्च यत् कैश्चिदुच्यते--शब्दोऽम्बरगुण इत्यादि, तदपास्त भवति, उक्तम्च-अणकः सर्वशक्तित्वाद्भेदसंसर्गवृत्तयः । छायाऽऽतपस्तमः शब्दमानेन
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ज्ञानविषयः
१३६
परिणामिनः ॥ १ ॥,, इत्यादि, वर्णादीनां च पौद्गलिकत्वं सुप्रसिद्धमेवेति अनेन द्रव्यलक्षणमुक्त, पर्यायलक्षणमाहमूल:- एगत्तं च पुहुत्तं च संखा संठाणमेव य ।
सूत्रचतुष्टयार्थः ॥
संजोगा य विभागा य, पज्जवाणं तु लक्खणं ॥ १३ ॥ टीका: -- एकस्य भावः एकत्वं - भिन्नेष्वपि परमाण्वादिषु यदेकोऽयं घटादिरिति प्रतीतिहेतुः सामान्य परिणतिरूपं च शब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये, पृथग्भावः पृथक्त्वम् - अयमस्मात्पृथगिति प्रत्ययोपनिबन्धनं, ' च सर्वत्र प्राग्वत्, संख्यानंसंख्या - यत एको द्वौ त्रय इत्यादिका प्रतीतिरुपजायते, संतिष्ठतेऽनेनाकारविशेषेण वस्त्विति संस्थानं - परिमण्डलोऽयमित्यादिबुद्धिनिबन्धनम्, एवेति पूरणे, 'संयोगाः' अयमंगुल्योः संयोग इत्यादि व्यपदेशहेतवः, ' विभागाश्च यमितो विभक्त इति बुद्धिहेतवः, उभयत्र सम्बन्धिभेदेन भेदमाश्रित्य बहुवचननिर्देशः, शब्दोऽनुक्तनव पुराणत्वादिपर्यायोपलक्षकः, पर्यवाणाम् ' उक्तनिरुक्तानां, 'तुः' पूरणे 'लक्षणम्' असाधारणरूपम्. अयमभिप्रायः - यः कश्चिदस्खलित प्रत्ययः स सर्वः सनिबन्धनो, यथा घटादिप्रत्ययः, अस्खलित प्रत्ययाश्वामी एकोऽयमित्यादिप्रत्ययाः ततोऽवश्यममीषां निबन्धनेन भवितव्यं तच्च न द्रव्यमेव, तस्य सदाऽवस्थितत्वेन प्रतिनियत कालैकत्वादिप्रत्ययानुत्पत्तिप्रसंगात् ततश्च यदमीषां कालनियमेनोत्पत्ति 'निबन्धनं न तत्पर्यवेभ्यस्तत्तत्परिणतिविशेषरूपेभ्योऽन्यत्, गुणानां तु लक्षणानभिधानं रूपादिरूपाणां तेषामतिप्रतीत्वात्प्रायो विप्रतिपत्त्यविषयत्वाच्चेति सूत्रार्थः ॥
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उत्तराध्ययन सू० मोक्षमार्ग गत्यध्ययन - २८
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