Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION
WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
-The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
युगवीर-समन्तभद्र-ग्रन्थमाला :१६
जैन तत्त्वज्ञान-मीमांसा
Jain TattyaJnana-Mimansa
लेखक डॉ० दरबारीलाल कोठिया
वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
ग्रन्थमाला-सम्पादक व नियामक डॉ० दरबारीलाल कोठिया
जैन तत्त्वज्ञान-मीमासा Jain Tattva Jnana-Mimnsa
ट्रस्ट-सस्थापक आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर'
लेखक डॉ० दरबारीलाल कोठिया
प्रकाशक वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट, १/१२८ बी०, डुमरावबाग कॉलोनी, अस्सी. वाराणसी-५ (उ० प्र०)
सस्करण .
प्रथम १९८३
मूल्य
पचास रुपए
मुद्रक
महावीर प्रेस, भेलपुर, वाराणसी (उ० प्र०)
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकाशकीय
AM
जून १९८० में वोर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट से 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' नामके महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका प्रकाशन हुआ था । इसके लेखक देश और समाज के प्रख्यात विद्वान् डॉ० दरवारोलालजी कोठिया न्यायाचार्य, वाराणसी है, जो ट्रस्टके ऑनरेरी मत्री भी हैं और ट्रस्टके कार्योंको बड़े उत्साह एव लगनसे करते हैं | यह ग्रन्थ विद्वद् जगत् में बहुत समादृत और उपादेय हुआ है । अनेक विश्वविद्यालयोकी लायब्रेरियो, सरस्वतीभवनों और मन्दिरोने क्रय करके इसे मँगाया 1 अनेक जिज्ञासु जैन-जैनेतर विद्वानो और साघुसन्तोने भी पुस्तक विक्रेताओंसे इस ग्रन्थको खरीदा है और इसे एक मन्दर्भ-ग्रन्थ माना है ।
इसमें सन्देह नही कि इसमें जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र से सम्वन्धित अनेक विषयोपर गहरा और अनुसन्धानपूर्ण विमर्श किया गया है । अनेक ग्रन्थकारो और उनके ग्रन्थोपर बिलकुल नया प्रकाश डाला गया है, जिसका उपयोग अन्य विद्वानोने भी अपने ग्रन्थो में प्रमाणरूपमें किया । 'तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण' जैसे विषयो और आचार्य विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, अभिनव धर्मभूषण जैसे ग्रन्थकारोके समय आदिमें जो अनिश्चितता थी, उसे इसमें दूर किया गया है और जिसे सभीने स्वीकार किया है । स्वामी समन्तभद्रके रत्नकरण्डकश्रावकाचारपर कर्तृत्वविषयक ऊहापोहपूर्ण विपुल सामग्री भी इसमें समाहित है, जो महत्त्वपूर्ण है ।
हमें प्रसन्नता है कि आज डॉक्टर कोठियाके एक अन्य ग्रन्थ 'जैन तत्त्वज्ञान-मीमांसा' को भी हम प्रकाशित कर रहे है । इसमें जैन तत्त्वज्ञानकी विभिन्न विधामोपर शोधात्मक चिन्तन उपलब्ध है । डॉक्टर कोठिया के द्वारा 'अनेकान्त' आदि पत्र-पत्रिकाओ में लिखे गये अनुसन्धानपूर्ण साठ (६०) निबन्ध इसमें संग्रहीत हैं । इनमें ग्रन्थोकी प्रस्तावनाएँ और अनेक विश्वविद्यालयोंकी संगोष्ठियोंमें पठित शोध- निबन्ध भी सम्मिलित हैं । ये सभी शोधार्थियो के लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगे ।
इसमें तीन खण्ड हैं । प्रथम खण्ड धर्म, दर्शन और न्याय है । इसमें इन्ही विषयोंसे सम्बन्धित २७ निबन्ध हैं | ये निबन्ध जैन दर्शन एव धर्मके जिज्ञासुओके लिए बहुत उपयोगी और महत्त्वपूर्ण हैं । द्वितीय खण्ड 'इतिहास और साहित्य' है । इस खण्ड में ११ निवन्ध हैं, जो साहित्य और इतिहासविषयक हैं । इन निबन्धो में भी नया और समीक्षात्मक विमर्श किया गया है । 'नियमसारकी ५३ वी गाथा और उसकी व्याख्या एव अर्थपर अनुचिन्तन', 'अनुसन्धानमें पूर्वाग्रहमुक्ति आवश्यक', 'अनुसन्धानविषयक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर' जैसे शोध - निबन्धों में प्रामाणिक और विपुल सामग्री निहित है, जो अनेक समस्याओ - प्रश्नोंका समाधान प्रस्तुत करनेमें सक्षम है । खण्डके अन्तमें जैन परम्पराके युगप्रवर्तक एव प्रभावशाली आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य गृद्धपिच्छ और आचार्य समन्तभद्रके जीवन समय और कृतित्वपर सक्षेप में किन्तु सारगर्भ प्रमाणिक प्रकाश डाला गया है।
ग्रन्थका तीसरा और अन्तिम खण्ड 'विविध' है । इसमें तीर्थो, पर्वो प्रवासो और विशिष्ट सन्तोविद्वानोंका परिचय निबद्ध है । 'श्रुत पञ्चमी' और 'जम्बूजिनाष्टकम्' ये दो रचनाएँ संस्कृतमें हैं। पहली संस्कृत-गद्यमें और दूसरी संस्कृत-पद्य में है । पहली में 'श्रुत पञ्चमी' पर्व पर ऐतिहासिक प्रकाश डाला गया है और दूसरी में अन्तिम केवली श्री जम्बूकुमारका सस्तवन किया गया है। राजगृहकी यात्रा और कश्मीरकी यात्रा विषयक आलेख भी पर्याप्त जानकारी एव तथ्योंका आकलन प्रस्तुत करते हैं । इस तरह यह खण्ड भारतीय वृति दर्शन केन्द्र
कपुर
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी अपनी विविधताको लिए हए अध्ययनीय और महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार यह समग्र ग्रन्थ 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' जैसा ही पाठकोंको उपयोगी और पठनीय सिद्ध होगा । वस्तुत यह उसका द्वितीय भाग है।
हम शीघ्र ही डॉ० पन्नालालजी साहित्याचार्यकी मौलिक संस्कृत-रचना 'सम्यक्त्व-चिन्तामणि', आचार्य समन्तभद्रके समग्न अन्योंका संग्रह 'समन्तभद्र-प्रन्यावली' और आचार्य विद्यानन्दकी लघ दार्शनिक कृति 'पत्र-परीक्षा' ये तीन ग्रन्थ भी पाठकोके समक्ष ला रहे हैं । ये तीनो छप चुके है । मात्र कुछ सामग्री (प्रस्तावनादि) छपने के लिए अवशिष्ट है।
सिद्धान्ताचार्य प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीके सम्पादन व अनुवादके साथ आचार्य देवसेनका 'आराधनासार' (सटीक) और श्री मिश्रीलालजी एडवोकेट गनाको मौलिक कृति 'द्वापरका देवता अरिष्ट नेमि ये दो ग्रन्थ प्रेसमें हैं, जो जल्दी प्रकाशमें आवेंगे।
जैन साहित्य और इतिहासके विशेषज्ञ एव अनुसन्धाता स्वर्गीय श्री जुगलकिशोर मुख्तार 'युगवीर' द्वारा संस्थापित यह वीर-सेवा-मन्दिर-टस्ट उनकी परम्परा-जैन साहित्य और इतिहास सम्बन्धी अ सन्धान-प्रवृत्तियों को अपने सीमित साधनोंसे चालू रखे हुए है और आशा है वह आगे भी चालू रहेगी।
__ ट्रस्टके सभी ट्रस्टियो, सरक्षक-सदस्यो, सहायको और पाठकोंके हम आभारी हैं, जिनके उदार सहयोग और प्रेरणासे ट्रस्ट साहित्य-सेवा और जिनवाणीके प्रचार-प्रसारमें सलग्न है ।
अन्तमें महावीर-प्रेसको हम धन्यवाद देते हैं, जो ट्रस्टके ग्रन्थोंका सुन्दर मुद्रण करके हमें सहयोग करता है। महावीर-जयन्ती,
डॉ० श्रीचन्द जैन, संगल २५, अप्रेल १९८३
कोषाध्यक्ष एव ट्रस्टी एटा (उ०प्र०)
वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राक्कथन
विगत अर्ध शताब्दिसे जन विद्याके अध्ययनकी ओर भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों ही विद्वानोका ध्यान जाने लगा है। भारतीय विद्वानोमें डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन्, महापडित राहुल साकृत्यायन एवं डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल मनीषियोने जैन दर्शन, साहित्य एव सस्कृतिको महत्ताको स्वीकार किया है और उसके अध्ययनपर बल दिय वर्तमानमें देशके कुछ प्रमुख विश्वविद्यालयोमें जैन विद्याके अध्ययनकी विशेष व्यवस्था की गयी है। साथ ही जैन दर्शनके प्रमुख अग अहिंसा, अनेकान्तवाद एव अपरिग्रहवादपर दार्शनिक चर्चायें होने लगी हैं। मनीषियोका यह प्रयास निस्सदेह प्रशसनीय है।
जैन विद्याके विभिन्न पक्षोकी व्याख्या करनेवाली प्रस्तुत पुस्तकके लेखक डॉ० दरबारीलालजी कोठिया दर्शनशास्त्रके मर्मज्ञ एव प्रतिभासम्पन्न मनीषी है । उन्होंने विगत तीन-चार दर्शकोमें जैन दर्शनका विश्वविद्यालयोमें प्रतिनिधित्व ही नहीं किया, किन्तु समय-समयपर आयोजित विभिन्न सेमिनारो, सगोष्ठियो एव विद्वत् परिषदोमें भी महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला है। डॉ० कोठियाजीने न्यायदीपिका, आप्तपरीक्षा, द्रव्यसग्रह, प्रमाणप्रमेयकलिका एव प्रमाणपरीक्षा जैसे जैन न्यायके ग्रन्थोका विद्वत्तापूर्ण सम्पादन किया है तथा जैन दर्शनके प्रामाणिक विश्लेषणात्मक अध्ययनके साथ उसकी प्रत्येक मान्यताके सम्बन्धमें अपनी प्रतिक्रिया भी व्यक्त की है। वास्तवमें डॉ० कोठियाका यह अध्ययन एक ऐसे विद्वान्का अध्ययन है जिसने मूल ग्रन्थ, भाष्य और टीकाओंके सूक्ष्म अध्ययनके साथ ही उनकी सूक्ष्मतम समस्याओका अध्ययन भी किया है।
डॉ० कोठियाने 'जैन तर्कशास्त्रमें अनुमान-विचार' जैसे दार्शनिक एव न्यायशास्त्रके महत्त्वपूर्ण पक्षको उद्घाटित करनेवाले विषयपर अपना शोध-प्रबन्ध लिखकर दार्शनिक जगतमें अपना विशिष्ट स्थान बनाया है। उन्होंने प्रस्तुत शोधप्रबधमें जैन परम्परामें अनुमानकी भारतीय तर्कशास्त्रमें सर्वांगीण अर्हता स्थापित करनेमें सफलता प्राप्त की है । उनका 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' शोध-निबन्धसग्रह तो यशस्वी कृति है।
प्रस्तत पस्तकमें डॉ० कोठियाके करीव ६० निबन्धोका संग्रह है, जो पहिले विभिन्न पत्रपत्रिकाओमें या तो प्रकाशित हो चुके हैं या फिर सेमिनारों एव सगोष्ठियोमें उनके द्वारा पढे जा चके हैं। लेकिन ये निबन्ध आज भी उतने ही महत्त्वपूर्ण है जितने पहिले माने जाते थे और भविष्यमें उनका महत्त्व उसी तरह बना रहेगा। इन निबन्धोका विषय एक न होकर धर्म, दर्शन, न्याय, इतिहास, पुरातत्व एव साहित्यसे सम्बन्धित हैं। इनमें कुछ निबन्धोको छोड कर अधिकाश निबन्ध छोटे-छोटे हैं और जिज्ञासुओ एव विद्यार्थियोमें तदविषयक रुचिको जाग्रत करनेवाले है । पुण्य और पापका शास्त्रीय दष्टिकोण. जीवनमें सयम एव चारित्रका महत्त्व, महावीरकी धर्म-देशना जैसे बहुचचित एव रुचिकर विषयोपर लेखकने बहत सन्दर प्रकाश डाला है। व्यवहारनयसे पुण्यको उपादेय मानते हुए भी उसे परमपद (मोक्ष) प्राप्त करनेमें बाधक बतलाया है । इसी तरह रोग, शोक, आधि, व्याधि आदिका मूल कारण वासना एव असयमको माना है, जो साधारण-से-साधारण पाठकको भी रुचिकर लगनेवाला है। इसी तरह आचार्य कुन्कुन्द, गद्धपिच्छ, समन्तभद्र. वादीसिंह. नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, आचार्य शान्तिसागर, नमिसागर, महापडित टोडरमल
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
त्यागमति गणेशप्रसाद वर्णी जैसे लोकप्रिय आचार्यों एव पडितोपर भी चित्ताकर्षक एव सुबोध शैलीमें विमर्श किया है । ये सभी निबन्ध विद्वान् और सामान्य सभी तरहके पाठकोके लिये उपयोगी हैं तथा स्थायी महत्त्वके हैं।
ग्रन्थमें कुण्डलगिरि, गजपंथा, अहार क्षेत्र, पपौरा, पायापुर, राजगृह जैसे लोकप्रिय तीर्थोपर विभिन्न दृष्टियोसे प्रकाश डालकर पुरातत्त्व एव इतिहास के क्षेत्रमे विद्वान् लेखकने प्रशसनीय योगदान किया है। इन्हीके साथ श्रुत-पचमी, दशलक्षणपर्व, क्षमापर्व, वीरनिर्वाणपर्व, महावीर-जयन्ती जैसे सास्कृतिक पर्वोपर भी सक्षिप्त एव सून्दर प्रकाश डाला है । इस प्रकार प्रस्तुत कृतिमें एक ओर जहां न्याय एव दर्शनके गढ विषयोके निवन्धोका सकलन है वहां इतिहास, पुरातत्त्व एव साहित्यके वहचचित एव लोकप्रिय विषयोपर लिखे गये निवन्धोको स्थान देकर पुस्तकको सभी तरहके पाठकोके लिये रुचिकर बना दिया है। प्रस्तुत पुस्तक जैनविद्याके विद्यार्थियोंके लिये बहुत उपयोगी सिद्ध होगी और सामान्य पाठक इससे लाभान्वित हो सकेगा। डॉ० कोठिया ने अपने निवन्धोका एक ही स्थानपर सकलन करके हिन्दी जगत् का महान् उपकार किया है, जिसके लिये वे हिन्दी जगत् एव जैन समाजकी हार्दिक बधाईके पात्र हैं।
८६७ अमृत कलश, बरकत कालोनी किसान मार्ग, टोकफाटक, जयपुर (राजस्थान) २२-२-८३ ई०
डॉ. कस्तूरचन्द कासलीवाल निदेशक, श्री महावीर ग्रन्थ-अकादमी
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रस्तुत कृति
सन् १९८० के जूनमें प्रकाशित अपने 'जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' के 'आत्म-निवेदन' में हमने लिखा था कि 'जैन साहित्य और इतिहासके अनुसन्धानका गम्भीर एव तलस्पर्शी अध्ययन भी नही -केबराबर होता जा रहा है। हाँ, एक प्रकाशकी किरण उन विश्वविद्यालयोसे जरूर दिखाई पडती है, जहाँ जैन विद्याका अध्ययन और अनुसन्धान हो रहा है । हमें आशा है इन विश्वविद्यालयो में कार्यरत जैन विद्याके विद्वान् और छात्र इस विद्याके अध्ययन-अध्यापन और अनुसन्धानमें गहराई एव पूरा परिश्रम करके नये तथ्य प्रस्तुत करेंगे तथा अप्रकाशित, लुप्त और अनुपलब्ध जैन साहित्यको विभिन्न शास्त्र भण्डारोमें खोजकर प्रकाशमें लायेंगे । पूज्यपादका मारसग्रह, पात्रस्वामीका त्रिलक्षणकदर्थन, श्रीदत्तका जल्प निर्णय, कुमारनन्दिका वादन्याय, सुमतिको सन्मति टीका, अनन्तवीर्यका प्रमाणसग्रह - भाष्य विद्यानन्दका विद्यानन्दमहोदय, अनन्तदीर्तिकी स्वत प्रामाण्यभङ्गमिद्धि प्रभृति ग्रन्थ जैन वाङ्मयके अपूर्व ग्रन्थ हैं, जो आज अनुपलब्ध हैं और जिनके उत्तरवर्ती ग्रन्योमें उल्लेख मिलते हैं । इनकी तथा इमी प्रकारके अन्य अनुपलब्ध ग्रन्थोकी खोज होनी चाहिये तथा जो बहुत-सा साहित्य शास्त्र भण्डारोमें अप्रकाशित पडा है उसका सुसम्पादनके साथ प्रकाशन होना चाहिए ।'
हमें प्रसन्नता है कि जयपुर के कर्मठ साहित्यसेवी डॉ० कस्तूरचन्दजी कासलीवाल इस दिशा में पूर्ण - तथा सलग्न है। उन्होने 'महावीर ग्रंथ अकादमी' की स्थापना करके उसके द्वारा हिन्दी के अनेक ग्रथोकी खोज कर उनका प्रकाशन किया है और वे ऐसे अप्रकाशित ग्रन्थोको बीस भागोमें निकालना चाहते हैं । उनके हाल के पत्रसे ज्ञात हुआ कि उनकी खोजके परिणामस्वरूप राजस्थानके कुछ शास्त्र भण्डारोमें उन्हें बहुत ही महत्त्वपूर्ण अप्रकाशित पाण्डुलिपिया मिली है, जिनका वे सुसम्पादन करके उक्त अकादमीसे प्रकाशन करेंगे, यह उनका स्तुत्य कार्य है |
अभी हाल में डॉ० भागचन्द्रजी 'भास्कर' नागपुर के ग्रन्थ उपलब्ध हुए है— चंदप्पह- चरिउ और यशोधर-चरित । वीर- सेवा मन्दिर ट्रस्टसे उनका प्रकाशन करेंगे ।
पत्र से भी ज्ञात हुआ है कि उन्हें दो अप्रकाशित इनका उन्होने सम्पादन भी कर लिया है | हम
साहित्योपामनामें लगे विद्वानोसे हमारा अनुरोध है कि वे अवकाश निकालकर उत्तर-दक्षिण के शास्त्रभण्डारोका अवलोकन करें। सभव है उन्हें उनमें ऐसी कई महत्त्वपूर्ण कृतिया मिल जायें, जो अभी तक कहीसे प्रकाशित न हुई हो और जो जैन वाड्मयको समृद्ध करने वाली हो ।
जैन पुरातत्त्व विद्यामहार्णव एव जैन साहित्यानुसन्धाता स्वर्गीय प० जुगल किशोरजी मुस्तार 'युगवीर' अपनी ९२ वर्षकी वृद्धावस्था तक शास्त्र भण्डारोकी छानबीन करते रहे और जिसके फलस्वरूप उन्हें उनमें कई महत्त्वपूर्ण ग्रन्य मिले । अभी हमने दक्षिण और उत्तरके शास्त्र भण्डारोको सूक्ष्मता से नही देखा लोर न उनको ग्रन्थ-सूची हो देखी है । लगभग १०-१२ वर्ष पहले आचार्य अमृतचन्द्रको पूर्व में अश्रुत और अहमदाबादके एक श्वेताम्बर शास्त्र भण्डारमें उपलब्ध 'लघुतत्त्वस्फोटसिद्धि के मिलान और वाचन के लिए आचार्य समन्तभद्र महाराजके सान्निध्यमे बाहुबली - कुम्भोज (कोल्हापुर) में सिद्धान्ताचार्य प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री वाराणसी, डॉ० पं० पन्नालालजी साहित्याचार्य सागर और हम एकत्रित हुए थे । वहाँते मूढविद्री
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
तथा हुम्बुच भी गये थे । हुम्बुच (हूमच) में भट्टारक देवेन्द्रकोतिजीने वहाँका शास्त्र-भण्डार दिखाया था। शास्त्र-भण्डारमें ताडपत्रकी सैकडो प्रतियाँ अस्त-व्यस्त पड़ी थी, जिनकी सूची भी नही बनी थी। हमने भट्रारकजीसे उनकी सूची बनवाने तथा उन्हें व्यवस्थित करने का अनुरोध किया था। उनकी कन्नड लिपि है।
इतना प्रासङ्गिक कहकर अब हम प्रस्तुत ग्रन्थके सम्बन्धमें चर्चा करेंगे । जैसा कि प्रकाशकीयमें कहा गया है, यह मेरे विगत ४०-५० वर्षों में लिखे या विभिन्न सगोष्ठियोमें पढे निबन्यो या मेरे द्वारा लिखी कुछ शोधपूर्ण ग्रन्थ-प्रस्तावनाओंका महत्त्वपूर्ण सग्रह है। "जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन के निवन्धोंकी तरह इस 'जैन तत्त्वज्ञान-मीमासा'के निवन्धोका भी हमने स्क्य आद्योपान्त पुनरीक्षण-सम्पादन, आवश्यक सशोधन, परिवर्धन और परिवर्तन किया है। लेखोको कई-कई बार पढा और मांजा है। इसे प्रकाशमें ला ही रहे थे कि सयोगमे इसी बीच मेरे अभिनन्दन-ग्रन्यका निश्चय किया गया । इस अभिनन्दन-ग्रन्यको नया रूप देने के लिए उसके सम्पादकमण्डल तथा अभिनन्दनग्रन्योके प्रकाशनके अनुभवी श्री बाबूलालजी फागुल्लके परामर्शानुसार उक्त निवन्धोको उसमें भी संयोजित किया गया और अन्य विद्वानोंके विभिन्न लेखोको देनेकी परम्पराको छोड दिया । इस तरह इस संग्रहके निवन्धोका पाठकोंके लिए दोहरा लाभ हुमा। हमें आशा है प्रस्तुत अन्य उन पाठकोंको अधिक लाभदायक होगा, जिनके पास उक्त अभिनन्दन-पन्य नहीं होगा और इस दृष्टिसे यह एक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भग्रन्थ सिद्ध होगा तथा कितनी ही नयी जानकारी प्रदान करेगा।
इसके अधिकाश निवन्ध तत्त्वज्ञानपरक होनेसे इसका नाम 'जैन तत्वज्ञान-मीमांसा' रखा गया है। 'पुण्य और पापका शास्त्रीय दृष्टिकोण,' 'वर्तनाका अर्थ', 'अनेकान्तवाद-विमर्श', 'स्यद्वाद-विमर्ग', 'जन दर्शनमें सल्लेखना', 'जैन दर्शन में सर्वज्ञता', 'अर्थाधिगम-चिन्तन', 'सजद पदके सम्बन्ध, अकलङ्कदेवका महत्त्वपूर्ण अभिमत', '९३वें सूपमें 'सजद' पदका सद्भाव', 'नियमसारको ५३वी गाथा और उसकी व्याख्या एव अर्थपर अनुचिन्तन' आदि लेख उसीके द्योतक हैं।
विश्वास है यह अन्य सभी प्रकारके पाठकोके लिए उपादेय एव उपयोगी सिद्ध होगा।
हम डॉ० कस्तूरचन्दजी कासलीवालके अत्यन्त आभारी हैं, जिन्होने हमारी प्रेरणापर ग्रन्थका प्राक्कथन' लिखनेकी कृपा की।
अन्तमें ट्रस्टके सभी दृष्टियो, कोपाध्यक्ष डॉ. श्रीचन्द्रजी जैन सगल एटाके हम विशेष अभारी हैं, जिनके सहयोगसे हमें सदैव उत्साह मिलता है । अभिनन्दनग्रन्थके सम्पादक-मण्डल और प्रिय वाबूलालजी फाल्गलको भी हम धन्यवाद दिये बिना नही रहेंगे, जिन्होंने इन निबन्धोको अभिनन्दन-ग्रन्थमें भी देकर उसके पाठकोंको लाभान्वित किया है । २७ जून १९८३,
दरबारीलाल कोठिया चमेली-कुटीर, १/१२८, डुमरावबाग कॉलोनी, अस्सी, वाराणसी-५
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन तत्त्वज्ञान-मीमांसा
विषयानुक्रम १. प्रकाशकीय २. प्राक्कथन ३. प्रस्तुत कृति खण्ड १: धर्म, दर्शन और न्याय धर्म विषय
१ पुण्य और पापका शास्त्रीय दृष्टिकोण २ वर्तनाका अर्थ ३. जीवन में संयमका महत्त्व ४. चारित्रका महत्त्व ५ करुणा · जीवकी एक शुभ परिणति ६ जैन धर्म और दीक्षा ७. धर्म एक चिन्तन ८ सम्यक्त्वका समढदृष्टि अग एक महत्त्वपूर्ण परीक्षण-सिद्धान्त ९ महायीरको धर्मदेशना १० वीर-शासन और उसका महत्त्व ११. महावीरका आध्यात्मिक मार्ग १२ महावीरका आचार-धर्म १३. भ० गहावीरकी क्षमा और अहिंसाका एक विश्लेषण १४. भ० महावीर गौर हमारा कर्तव्य वर्शन १५. अनेकान्तवाद-विमर्श १६ स्याहार-विमर्श १७ समय लट्रिपुत्त भोर स्याद्वाद १८ जैन पदानके ममन्वयवादी दृष्टिकोणको ग्राह्यता १९ पैदिक सस्कृतिको श्रमण-रास्कृतिकी देन २०. डॉक्टर अम्बेदकरमे भेंटयामि महत्यपूर्ण अनेकान्त-चर्चा २१. जैन दर्शनमें गहराना एक अनुशीलन २२. जग रानमें सर्वक्षता
५७-११४
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०५
२३. अर्थाधिगम-चिन्तन २४ ज्ञापकतत्त्व-विमर्श २५ ध्यान-विमर्श न्याय २६ भारतीय वाङ्मयमें अनुमान-विचार २७ न्याय-विद्यामृत
११४ ११७-१६४
११९
१६१
१६५-३००
१६७ १९६ २२० २४० २४३
२५५
खण्ड २ : इतिहास और साहित्य २८ स्याद्वादसिद्धि और वादीसिंह २९ द्रव्यसग्रह और नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ३० शासन-चतुस्त्रिशिका और मदनकीर्ति ३१ 'सजद' पदके सम्बन्धमें अकलङ्गदेवका महत्त्वपूर्ण अभिमत ३२ ९३वें सूत्रमें 'सजद' पदका सद्भाव ३३ नियमसारकी ५३वी गाथा और उसकी व्याख्या एव अर्थपर अनुचिन्तन ३४ अनुसन्धानमें पूर्वाग्रहमुक्ति आवश्यक कुछ प्रश्न और समाधान ३५ गुणचन्द्र मुनि कौन है ? ३६ कौन-सा कण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है? ३७ गजपथ तीर्थक्षेत्रका एक अति प्राचीन उल्लेख ३८ अनुसन्धानविषयक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर ३९ आचार्य कुन्दकुन्द ४० आचार्य गृद्धपिच्छ ४१. आचार्य समन्तभद्र
२५९ २७६ २७८ ૨૮૨ २८४ २९१ २९७ २९८
खण्ड ३: विविध
३०१-३७१
३०३
३०८ ३१५ ३२१ ३३१
४२ विहारकी महान देन तीर्थंकर महावीर और इन्द्रभूति ४३ विद्वान् और समाज ४४ हमारे सास्कृतिक गौरवका प्रतीक अहार ४५ आचार्य शान्तिसागरजीका ऐतिहासिक समाधिमरण ४६ आदर्श तपस्वी आचार्य नमिसागर . एक परिचय ४७ पूज्य वर्णीजी महत्त्वपूर्ण सस्मरण ४८ प्रतिभाभूति पं० टोडरमल ४९. श्रुत-पञ्चमी ५० जम्बूजिनाष्टकम् ५१. दशलक्षणधर्म ५२. क्षमावणी क्षमापर्व
३३५
३४०
३४२
३४५ ३४६ ३४८
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
५३. वीर-निर्वाणपर्व : दीपावली ५४. महावीर-जयन्ती ५५ श्री पपौराजी: जिनमन्दिरोंका अद्भुत समुच्चय ५६. पावापुर महावीरको निर्वाणभूमि ५७. श्रमणवेलगोला और श्री गोम्मटेश्वर ५८ राजगृहकी यात्रा और अनुभव ५९. कश्मीरको मेरी यात्रा और अनुभव ६०. वम्बईका प्रवास
परिशिष्ट
३५० ३५४ २५६ ३५८ ३६०
३६७ ३७० ३७१
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्म
१ पुण्य और पापका शास्त्रीय दृष्टिकोण २ वर्तनाका अर्थ ३. जीवनमें सयमका महत्त्व ४. चारित्रका महत्त्व ५ करुणा जीवको एक शुभ परिणति ६ जैनधर्म और दीक्षा ७ धर्म · एक चिन्तन ८ सम्यक्त्वका अमूढदृष्टि अग एक महत्त्वपूर्ण परीक्षण-सिद्धान्त ९ महावीरकी धर्मदेशना १० वीर-शासन और उसका महत्त्व ११ महावीरका आध्यात्मिक मार्ग १२ महावीरका आचार-धर्म १३ भगवान् महावीरकी क्षमा और अहिंसाका एक विश्लेषण १४ भ० महावीर और हमारा कर्तव्य
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
'मागे इसी ग्रन्थमें पुण्य और पापका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है कि जीवका शुभ परिणाम पुण्य पदार्थ है और अशुभ परिणाम पाप पदार्थ है । तथा इन दोनों शुभाशुभ परिणामोका निमित्त पाकर पुद्गलका परिणाम क्रमश. शुभ कर्म और अशुभ कर्मरूप अवस्थाको प्राप्त होता है। तात्पर्य यह कि जीवका शुभ परिणाम भावपुण्य और उसके निमित्तसे होने वाला पुद्गलका शुभकर्मस्प परिणाम द्रव्यपुण्य है। तथा जीवका अशुभ परिणाम भावपाप और उसके निमित्तसे होने वाला पुद्गलका अशुभकर्मरूप परिणाम द्रव्यपाप है। यथा
सुहपरिणामो पुण्ण असुहो पावति हवदि जीवस्स ।
दोण्ह पोग्गलमेत्तो भावो कम्मत्तण पत्तो। यहाँ मा० अमृतचन्द्र और आ० जयसेनकी टीकायें द्रष्टव्य है। उन्होंने विषयका अच्छा स्पष्टीकरण किया है । स्मरण रहे कि शुभाशुभ परिणाम (भावपुण्य-भावपाप) का कर्ता तो जीव है और उनके निमित्तसे होनेवाले पुद्गलकर्मरूप परिणाम (द्रव्यपुण्य-द्रव्यपाप) का कर्ता पुद्गल है। तात्पर्य यह है कि जीव और पुद्गल ये दोनो अपने-अपने परिणामके उपादान हैं और एक-दूसरा एक-दूसरेके प्रति निमित्त है । पुण्यका आस्रव
इतनी सामान्य चर्चा के बाद अब हम केवल पुण्यके मास्रवके सवधर्म प्रकाश डालनेका प्रयास करेंगे। पुण्य क्या है, यह समझ लेनेके उपरान्त अब प्रश्न है कि पुण्यका आस्रव कैसे होता है ? इसका समाधान ' करते हुए इसी पचत्थियसगहमें आचार्यने बडी विशदतासे कहा है कि जिसके प्रशस्त राग है, अनुकम्पारूप । परिणाम है और चित्तमें कालुष्य नहीं है उसी जीवके पुण्यका आस्रव होता है।
अरहन्त, सिद्ध और साधु इनकी भक्ति, व्यवहारचारित्ररूप धर्मानुष्ठानमें चेष्टा (प्रवृत्ति) और गुरुजनोका अनुगमन (विनय) प्रशस्त राग है । यह राग स्थूल लक्ष्य होनेके कारण केवल भक्तिप्रधान अज्ञानीके होता है अथवा अनुचित राग या तीव्र राग न होने पाये, इस हेतु वह कभी ज्ञानीके भी होता है । यथार्थमें सूक्ष्मलक्ष्यी सम्यग्दृष्टि ज्ञानीको यह राग नही होता।
प्याससे भाकुलित, भूखसे पीडित अथवा इष्टवियोगादिजन्य दु खसे दुःखित प्राणीको देखकर जो स्वय दुखी होता हुमा दयाभावसे उसके दुखको दूर करनेकी इच्छासे आकुलित है उसके इस प्रकारके भावको अनुकम्पा कहते हैं । यह अज्ञानीके होती है। ज्ञानीके तो नीचेको भूमिकामें रहते हुए जन्मोदधिमें डूबे जगत्को देखकर ईषत् खिन्नता होती है ।
जब क्रोध, मान, माया और लोभका तीव्रोदय होता है तब चित्तमें क्षोभ पैदा होता है और इसीको कालुष्य कहते हैं । परन्तु जब उन्ही क्रोवादिका मन्दोदय होता है तव चित्तमें क्षोभ नही आता, ऐसे भावको अकालुष्य कहा गया है । यह कभी विशिष्ट कषायका क्षयोपशम होनेपर अज्ञानीके भी होता है और कषायका उदय रहते हुए और उपयोगके पूर्ण निर्मल न होते हुए ज्ञानीके भी कदाचित् होता है । यह सब निम्न गाथामोंसे स्पष्ट है
रागो जस्स पसत्थो अणुकपाससिदो य परिणामो। चित्ते पत्थि कलुस्स पुण्ण जीवस्स आसवदि ।
अरहत-सिद्ध-साहुसु भत्तो धम्मम्मि जा य खलु चेट्ठा ।
। अणुगमण पि गुरूण पसत्थरागो ति वुच्चति ।। १. पचत्थियसगह, गा० १३२ ।
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
| तिसिदं बुभुक्खिदं वा दुहिद दट्ठूण जो हु दुहिदमणो । पडिवज्जदि तं किवया तस्सेसा होदि अणुकपा ॥ कोधो व जदा माणो माया लोभो व चित्तमासेज्ज । 'जीवस्स कुर्णादि खोह कलुसो त्ति य त बुधा वैति ॥
अब इन्ही कुन्दकुन्दके समयसारको लीजिये । उसमें पुण्य और पापको लेकर एक स्वतंत्र ही अधिकार हैं, जिसका नाम 'पुण्यपापाधिकार' है । इसमें कर्मके दो भेद करके कहा गया है कि शुभकर्म सुशील (पुण्य) _शुभकर्मशील है-- पाप है, ऐसा जगत् समझता है । परन्तु विचारनेकी बात है कि शुभकर्म भी ● तरह जीवको ससारमें प्रवेश कराता है तब उसे 'सुशील' कैसे माना जाय ? अर्थात दोनो ही पुद्गलके परिणाम होनेसे तथा ससार के कारण होनेसे उनमें कोई अन्तर नही है । देखो, जैसे लोहेकी वेडी पुरुषको बाँधती है उसी तरह सोनेकी बेडी भी पुरुषको बाँधती है। इसी प्रकार शुभ परिणामोसे किया गया शुभ और अशुभ परिणामोसे किया गया अशुभ कर्म दोनो 'जीवको बांधते है । अत: उनमें भेद नही है । जैसे कोई पुरुष निन्दित स्वभाववाले ( दुश्चरित्र) व्यक्तिको जानकर उसके साथ न उठता बैठता है और न उससे मंत्री करता है । उसी तरह ज्ञानी ( सम्यग्दृष्टि ) जीव कर्मप्रकृतियोके शीलस्वभावको कुत्सित ( बुरा) _जानकर उन्हें छोड़ देते हैं और उनके साथ ससर्ग नही करते । केवल अपने ज्ञायक स्वभावमें लीन रहते हैं।
चाहे प्रस्त हो, चाहे अप्रशस्त, दोनोसे ही जीव कर्मको बाँधता है तथा दोनो प्रकारके रागोसे रहित ही जीव उस कर्मसे छुटकारा पाता । इतना ही जिन भगवान् के उपदेशका सार इसलिए न शुभकम में रक्त होओ और न अशुभकर्ममे । यथार्थ में पुण्यकी वे ही इच्छा करते हैं जो आत्मस्वरूप के अनुभवसे च्युत हैं और केवल अशुभकर्मको अज्ञानतासे बन्धका कारण मानते है तथा व्रत, नियमादि शुभकर्मको बन्धका कारण न जानकर उसे मोक्षका कारण समझते हैं । इस सन्दर्भ में इस ग्रन्थके उक्त अधिकारकी निम्न गाथाएँ भी द्रष्टव्य हैं
1
कम्ममसुह कुसील सुहकम्म चावि जाणह सुसील । कह त होदि सुसील ज ससार पवेसेदि || १४५|| सोवण्णिय पिनियल बंधदि कालायस पि जह पुरिस । बंधदि एव जीव सुहमसुह वा कद कम्म || १४६ ॥ जह णाम को विपुरिसो कुच्छियसील जण वियाणित्ता । वज्जेदि तेण समय ससग्ग एमेव कम्मपयडीसीलसहाव च वज्जति परिहरति य तस्स सग्ग रत्तो बधदि कम्म मुचदि जीवो एसो जिणोवदेसो तम्हा कम्मेसु वद-णियमाणि धरता सीलाणि तहा परमट्ठबाहिरा जे णिव्वाण ते परमट्ठबाहिरा जे अण्णाणेण
सारगमण
वि मोक्ख
पचत्थियसगह, गा० १३५, १३६, १३७, १३८ । समयसार, पुण्यपापाधिकार ।
रायकरण च ॥ १४८ ॥
कुच्छिद गाउं ।
सहावरया ॥ १४९ ॥ विरागसपत्तो ।
मा रज्ज ॥ १५० ॥ तव च कुव्वता ।
ण विदंति ॥ १५३॥ पुण्णमिच्छति ।
अजाणता ॥ १५४ ॥
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
{
आचार्य अमृतचंद्रने इन
गाथाओका मर्म बडी विशदतासे उद्घाटित किया है, जो उनको टोकासे ज्ञातव्य है । यहाँ हम उनके दो दृष्टान्तोको उपस्थित करनेका लोभ सवरण नही कर सकते । एक दृष्टान्त द्वारा उन्होने बताया है कि जैसे कोई व्यक्ति ब्राह्मण कुलमें उत्पन्न होकर उसे अपने ब्राह्मणत्वका अभिमान हो जाता है और कोई शूद्र कुलमें पैदा होकर वह उसके अहकारसे नही बचता । परन्तु वे दोनो यह भूल जाते हैं कि उनकी जाति तो आखिर एक ही है- दोनो ही मनुष्य हैं । उसी तरह पुण्य और पाप कहनेको भले ही वे दो हो, किन्तु हैं दोनो ही एक ही पुद्गलकी उपज । दूसरे दृष्टान्त द्वारा आ० अमृतचन्द्र कहते हैं कि जिस प्रकार एक हाथीको बाँधनेके लिए मनोरम अथवा अमनोरम हथिनियां उसपर कूटनीतिका जाल फेंक उसे बांध लेती हैं और वह हाथी अज्ञानतासे उनके शिकजेमें आ जाता है, उसी प्रकार शुभकर्म और शुभकर्म भी जीवपर अपना लुभावना जाल डालकर उसे बन्धनमें डाल देते हैं और जीव अज्ञानतासे उनके जालमें फँस जाता है । तात्पर्य यह कि पुण्य और पाप दोनो ही जोवके सजातीय नही हैं - वे उसके विजा तीय हैं और एकजाति -- पुद्गलके वे दो परिणाम हैं। तथा दोनो ही जीवके बन्धन हैं । इनमें इतना ही अन्तर है कि एकको शुभ (पुण्य) कहा जाता है और दूसरेको अशुभ (पाप) । पर कर्म दोनों ही हैं । और दोनों ही बन्नकारक हैं । जैसे सोनेको वेडा और लोहेको वेडी । बेडी दोनो हैं और दोनों ही पुरुषको स्वतन्त्रताका अपहरण करके उसे बन्धनमें डालती हैं ।
आ॰ गृद्धपिच्छने भी पुण्य
और पाप दोनोको कर्म (बन्धनकारक पुद्गलका परिणाम ) कहा है और ज्ञानावरणादि आठो अथवा उनकी एक्सो अडतालीस प्रकृ तियोको पुण्य तथा पाप में विभक्त किया है । उनके सूत्र इस प्रकार हैं
१ सद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ।
२ अतोऽन्यत्पापम् ।'
दूसरे कुछ आचार्योंका भी पुण्य-पाप विषयक निरूपण यहाँ उपस्थित है ---
आ० योगीन्दुदेव योगसारमें लिखते हैं
पुण्यसे जीव स्वर्ग पाता है और पापसे नरकमें जाता है । जो इन दोनो ( पुण्य और पाप ) को छोडकर/ आत्माको जानता है वही मोक्ष पाता है । ( गा० दो० ३२) जबतक जीवको एक परमशुद्ध पवित्र भावका ज्ञान नही होता तबतक व्रत, तप, सयम और शील ये सब कुछ भी कार्यकारी नही होते । (गा० दो० ३१)Y पापको पाप तो सभी जानते और कहते हैं । परन्तु जो पुण्यको भी पाप कहता है, ऐसा पण्डित कोई विरला ही होता है । (दो, ७१)/ (बन्धनकारक ) (दो० ७२)
(ं जैसे लोहेकी साकल, साकल (बन्धनकारक ) है उसी तरह सोनेकी साकल भी साकल । यथार्थमें जो शुभ और अशुभ दोनो भावोका त्याग कर देते हैं वे ही ज्ञानी है ।
है
परमात्मप्रकाशमें भी आ० योगीन्दुदेव पुण्य और पापकी विस्तृत चर्चा करते हुए कहते हैं
जो व्यक्ति विभाव परिणामको बघका और स्वभाव परिणामको मोक्षका कारण नही समझता वही अज्ञान से पुण्यको भी और पापको भी दोनोंको ही करता है ।
(२-५३)
जो जीव पुण्य और पाप दोनोको समान नही मानता वह मोहके कारण चिरकाल तक दुख सहता हुआ ससारमें भटकता है ।
(२-५५)
१ तत्त्वार्थसू० ८२५, २६ ।
- ६
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस तरह हम सहज रूपमें जान सकते हैं कि पुण्य और पापके विषयमें शास्त्रका क्या दृष्टिकोण है ? अर्थात् निश्चयनयसे पाप भी हेय है और पुण्य भी हेय है, क्योकि वे दोनो पुद्गलके परिणाम है । पण्डितप्रवर दौलतरामजीके शब्दोमें
-
T E , - - । ___ 'पुण्य-पापफल माहिं हरख-बिलखो मत भाई,
यह पुद्गल-परजाय उपज विनस किर थाई । ' ''' 7 11 22 तथा व्यवहारनयसे पुण्य उपादेय है, क्योकि व्रतादिका ग्रहण प्रथमावस्थामे आवश्यक है और उनसे ।' पुण्यका आस्रव होता है। पाप तो सर्वथा वर्जनीय ही है।
१. छहढाला।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्तनाका अर्थ .
पण्डित राजमलजी द्वारा रचित 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसमें विद्वान लेखकने जैन दर्शनमें मान्य जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्योका विशद निरूपण किया है । इसका हिन्दी अनुवाद और सम्पादन हमने किया है तथा जैन साहित्यको प्रसिद्ध सस्था 'वीर-सेवामन्दिर' से उसका प्रकाशन हुआ है। इसमें वर्तनाका जो अर्थ हमने दिया है उसपर 'जैन गजट' के सम्पादक प० वशीधरजी शास्त्री सोलापुरने कुछ आपत्ति प्रस्तुत की है। ग्रन्थकी समालोचना करते हुए उन्होने लिखा है
। 'पष्ठ ८३ में कालद्रव्यका वर्णन आया है, वहाँ वर्तनाका हिन्दी अर्थ गलत हो गया है। वर्तनाका अर्थ लिखा है-द्रव्योके अपने रूपसे सत्परिणामका नाम वर्तना है । यह जो अर्थ लिखा गया है वह परिणामका' अर्थ है-वर्तनाका यह अर्थ नहीं है । 'वर्तना' शब्द णिजन्त है । उसका अर्थ सीधी द्रव्यवर्तना नहीं है, किन्तु द्रव्योंको वर्ताना अर्थ है। इसीलिये वर्तनारूप पर्याय खास अथवा सीधा कालपर्याय माना गया है और इसी सबबसे वर्तना द्वारा निश्चयकालद्रव्यकी सिद्धि होती है। यदि वर्तनाका अर्थ जैसाकि यहाँके हिन्दी अर्थमें बताया गया है कि द्रव्योका सत्परिणाम वर्तना है तो कालके अस्तित्वका समर्थक दसरा हेतु मिलना कठिन हो जायेगा। इसलिये पूर्वग्रथोके नाजुक एव महत्त्वयुक्त विवेचनोपर आधुनिक लेखकोको आदरसे ध्यान रखकर अपनी लेखनी चलानी चाहिए"।
इस पर विचार करनेके पूर्व मैं 'अध्यात्मकमलमार्तण्ड' के उस पूरे पद्य और उसके हिन्दी अर्थको भी यहाँ प्रस्तुत कर रहा है। इससे पाठकोंके लिये समझने में सहलियत होगी। पद्य और उसका हिन्दी अर्थ इस प्रकार है"द्रव्य कालाणुमात्र गुणगणकलित चाश्रितं शुद्धभावे
स्तच्छुद्ध कालसज्ञ कथयति जिनपो निश्चयाद् द्रव्यनीते । द्रव्याणामात्मना सत्परिणमनमिद वर्तना तत्र हेतु
___कालस्याय च धर्म स्वगुणपरणतिर्धर्मपर्याय एषः॥ अर्थ-गुणोसे सहित और शुद्ध पर्यायोंसे युक्त कालाणुमात्र द्रव्यको जिनेन्द्र भगवान्ने द्रव्यार्थिक निश्चयनयसे शुद्ध कालद्रव्य अर्थात् निश्चयकाल कहा है। द्रव्योंके अपने रूपसे सत्परिणामका नाम वर्तना है। इस वर्तनामें निश्चयकाल निमित्तकारण है-द्रव्योके अस्तित्वरूप वर्तनमें निश्चयकाल निमित्तकारण , होता है । अपने गुणोमें अपने ही गुणों द्वारा परिणमन करना कालद्रव्यका धर्म है-शुद्ध अर्थक्रिया है और यह । उसकी धर्मपर्याय है। 111,. . -
लात यहां पद्यका हिन्दी अर्थ हुवहू मूलके ही अनुसार किया गया है । मूलमें जो वर्तनाका लक्षण "द्रव्याणामात्मना सत्परिणमनमिद वर्तना" किया गया है वही-"द्रव्योंके अपने रूपसे सत्परिणामका नाम वर्तना है" हिन्दी अर्थ में व्यक्त किया गया है। अपनी ओरसे न तो किसी शब्दकी वृद्धि की है और न अपना कोई नया विचार ही उसमें प्रविष्ट किया है । अत यदि इस हिन्दी अर्थको गलत कहा जायगा तो मृलको भी गलत बताना होगा। किन्तु मूलको गलत नही बतलाया गया है और न वह गलत हो सकता हैं। प्रतीत होता है कि पडितजीने मूलपर और सिद्धान्तग्रथोमें प्रतिपादित वर्तनालक्षणपर ध्यान नहीं दिया और यदि कुछ दिया भी हो तो उसपर सूक्ष्म तथा गहरा विचार नही किया ।
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
वास्तवमे अनेक विद्वान यही समझते हैं कि वर्तना कालद्र व्यकी ही खास पर्याय, परिणमन अथवा गुण हैं और वह सीधी कालपर्याय है। पर यथार्थ में यह बात नहीं है । वर्तना जीवादि छहो द्रव्योका अस्तित्वरूप (उत्पाद-व्यय-प्रौव्यात्मक)२ स्वात्मपरिणमन है और इस अस्तित्वरूप स्वात्मपरिणमनमें उपादानकारण तो तत्तद्रव्य है और साधारण बाह्य निमित्तकारण अथवा उदासीन अप्रेरक कारण कालद्रव्य है । (यदि । प्रत्येक द्रव्य स्वत वर्तनशील न हो तो वर्तनाको केवल कालद्रव्यको सीघी पर्याय मानकर भी कालको उनका । वर्तयिता-वर्तानेवाला नहीं कहा जा सकता और न वह हो हो सकता है । किन्तु जब प्रत्येक द्रव्य प्रतिसमय वर्त रहे होगे तभी वह कालाणु (काल द्रव्य) प्रत्येक समय उनके वनिमें निमित्तकारण होता है। अतएव जिस प्रकार धर्मादि द्रव्य न हो तो जीव-पुद्गलोकी गत्यादि नही हो सकती अथवा कुम्हारके चाककी कीली . न हो तो चाक घूम नही सकता। उसी प्रकार कालद्रव्य न हो तो निमित्तकारणके विना उन द्रव्योका वर्तन नहीं हो सकता है। इसी निमित्तकारणताकी अपेक्षासे ही धर्मादिद्रव्यके गत्यादि उपकारकी तरह । वर्तनाको कालद्रव्यका उपकार कहा गया है । इसी बातको सर्वार्थसिद्धिकार आ० पूज्यपादने कहा है
'धर्मादीना द्रव्याणा स्वपर्यायनिर्वृति प्रति स्वात्मनैव वर्तमानाना बाह्योपनहाद्विना तद्वत्यभावात्त
प्रवर्तनोपलक्षित काल इति कृत्वा वर्तना कालस्योपकार ।' -स०सि० ५-२२ । (विद्वद्वर्य प० राजमल्लजीने अपना पूर्वोक्त वर्तनालक्षण पूज्यपादके इसी वर्तनालक्षणके आधारपर रचा जान पडता है, क्योकि दोनो लक्षणोको जब सामने रखकर एक साथ पढा जाता है तो वैसा स्पष्ट प्रतीत होता है । आ० अकलङ्कदेव भी यही कहते हैं
"प्रतिद्रव्यपर्यायमन्ततिकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना' एकस्मिन्नविभागिनि समये धर्मादीनि द्रव्याणि षडपि स्वपर्यायरादिमदनादिमद्भिरुत्पादव्ययध्रौव्यविकल्पवर्तन्ते इति कृत्वा तद्विषया वर्तना। साऽनुमानिकी व्यावहारिकदर्शनात् पाकवत् । यथा व्यावहारिकस्य पाकस्य तदुलविक्लेदनलक्षणस्यौदनपरिणामस्य दर्शनादनुमीयते-अस्ति प्रथमसमयादारम्य सूक्ष्मपाकाभिनिर्वृत्ति प्रतिसमयमिति । यदि हि प्रथमसमयेऽग्न्युदकसन्निधाने कश्चित् पाकविशेषो न स्यात्, एव द्वितीये तृतीये च न स्यात् इति पाकाभाव एव स्यात् । तथा सर्वेषामपि द्रव्याणा स्वपर्यायाभिनिर्वृत्ती प्रतिसमय दुरधिगमा निष्पत्तिरभ्युपगन्तव्या। तल्लक्षण काल । सा वर्तना लक्षण यस्य स काल इत्यवसेय.। समयादीना क्रियाविशेषाणा समयादिनिर्वृत्त्याना च पर्यायाणा पाकादीना स्वात्मसद्भावानुभवनेन स्वत एव वर्तमानाना निवृत्तेर्वहिरङ्गो हेतुः समय. पाक इत्येवमादिस्वसज्ञारूढिसद्भावे काल इत्यय व्यवहारोऽकस्मान्न भवतीति तद्व्यवहारहेतुनाऽन्येन भवितव्यमित्यनुमेय ।"
-त० वा०, ५-२२ यहाँ अकलङ्गदेवने बहुत ही विशदताके साथ कहा है कि "हरेक द्रव्यपर्यायमें जो हर समय स्वसत्तानुभवन-वर्तन होता है वह वर्तना है । अर्थात् एक अविभागी समयमें धर्मादि छहो द्रव्य स्वत ही अपनी सादि और अनादि पर्यायोसे जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यरूप हैं, वर्त रहे हैं उनके इस वर्तनको ही वर्तना कहते हैं ।
१ उदाहरणस्वरूप देखें, जयधवला, प्रथम पुस्तक (मुद्रित), पृ०४०। -२ 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत्', 'सद् द्रव्यलक्षणम्'-त० ० ५-३०, २९ । ८३ जैन सिद्धान्तदर्पण, प्र० भा०, पृ० ७२ ।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्तनमें काल निमित्त कारण होने मात्रसे वर्तयिता-वर्तनकर्ता (वर्ताने वाला) कहा है । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार ‘पढ़ाना' वस्तुत उपाध्यायनिष्ठ ही है किन्तु निमित्त रूपसे कारीप-अग्निनिष्ठ भी माना जाता है उसी प्रकार वर्तना वस्तुत समस्त द्रव्यपर्यायगत ही है फिर भी निमित्त होनेसे वर्तनाको कालगत भी मान लिया गया है । अत वर्तनाका अर्थ मुख्यत 'द्रव्यवर्तना' है और उपचारत 'द्रव्योंको वर्ताना' है । सीधी द्रव्यवर्तनाका व्यवच्छेद करके एकमात्र 'द्रव्योको वर्ताना' वर्तनाका अर्थ नहीं है । अन्यथा सर्वार्थ सिद्धिकार 'वर्तते द्रव्यपर्याय' इतने वाक्याशको न लिखकर केवल "द्रव्यपर्यायस्य वर्तयिता काल' इतना ही लिखते । इससे स्पष्ट है कि सत्परिणमनको जो हमने वर्तना कहा है वह मूलकार एव सिद्धान्तकारोंके विरुद्ध नही है और न गलत है।
अन्तमें जो एक बात रह जाती है वह यह कि सत्परिणमनको वर्तना माननेपर कालके अस्तित्वका समर्थक कोई दूसरा हेतु नही मिल सकता, उस सम्बन्धमें मेरा कहना है कि सत्परिणमनको वर्तना माननेपर कालके अस्तित्वकी साधक वह क्यो नही रहेगी। दूसरे द्रव्य तो उस सत्परिणमनरूप वर्तनामें उपादान ही होगे, निमित्तकारणरूपसे, जो प्रत्येक कार्यमें अवश्य अपेक्षित होता है, कालकी अपेक्षा होगी और इस तरह वर्तनाके द्वारा निमित्त कारणरूपसे कालकी सिद्धि होती ही है । ( यदि इस रूपमें वर्तनाका अर्थ वर्ताना इष्ट हो तो उसमें हमें कोई आपत्ति नही है। सत्परिणमन भी वहाँ वर्ताना रूप ही हो सकता है। यहां ध्यातव्य है कि पूज्यपाद और अकलङदेवके अभिप्रायसे वर्तना कालका असाधारण गुण और विद्यानन्दके अभिप्रायानुसार पर्याय माना गया है।
- १२ -
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवनमें संयमका महत्त्व
मानव-जीवनको सूखमय बनानेके लिए सयमकी बहुत आवश्यकता है। बिना सयमके इस दुखमय ससारसे मुक्ति नही मिल सकती। एक तो ससार स्वय दुखमय है। दूमरे, हम भी विविध वासनाओकी सृष्टि करके जीवनको भयानक गर्त में डाल देते हैं। हमारी वासनायें-इच्छायें दिन-दूनी रात-चौगुनी बढती ही चली जाती हैं । ज्यो ही एक इच्छाकी पूर्ति होती है त्यो ही दूसरी इच्छा-वासना आ खडी होती है । इस प्रकार एकके बाद दूसरी और दूसरीके बाद तीसरी, तीसरीके बाद चौथी आदि वासनाओका ताता लगा ही रहता है । भले ही जीवनका अन्त हो जाय, पर वासनाओका अन्त नही होता। अतएव कहना होगा कि वासनायें अपरिमित है, उनकी पूर्ति होना कठिन ही नही बल्कि असम्भव है, क्योकि उनके विषय परिमित हैं। प्रत्येक व्यक्ति चाहता है कि "दुनियाकी सारी चीजें मुझे ही मिल जायें" तव यह कैसे सम्भव है कि अनन्तानन्त जीव-राशिको इच्छायें-वासनायें परिमित वस्तुओसे पूर्ण हो जायें । एक विद्वान्का यह वचन प्रत्येक मानवको अपने हृत्पटलपर अकित कर लेना चाहिये
आशागर्त प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् । कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयेषिता ।
-आत्मानुशासन । ___ अर्थात्-अये । दु खागार ससार-निमग्न प्राणियो । तुम्हारी वासनायें-इच्छायें बहे भारी गड्ढेके समान हैं और यह दृश्यमान विश्व उसमें अणुके बराबर है तब उनकी पूर्ति अणु-विश्वसे कैसे हो सकती है ? अत तमको विषयोमें अभिलाषा करना व्यर्थ है। यह भी ध्रुव सत्य समझो कि जिसकी अभिलाषा की जावे, वह प्राय मिलती भी नही है। क्या यह नही सुना है कि "विन मागे मोती मिले, मागे मिले न चन"
जीवनमे जितने भी रोग, शोक, आधि, व्याधि आदि दुख भोगने पडते है, उन सबका मूल कारण वासना एव असयम ही है। यदि वासना-इच्छा न हो तो दुख कभी हो ही नही सकता, यह विलकुल यथार्थ है । इन्द्रिय और मनको विषयोमें स्वच्छन्द प्रवृत्तिका नाम ही वासना है । इसीको इन्द्रिय-असयम कहते हैं ।
मनसश्चेन्द्रियाणा च यत्स्वस्वार्थे प्रवर्तनम् ।
यदृच्छयेव तत्तज्ञा इन्द्रियासयम विदु ॥ अर्थात-मन और इन्द्रियोंके अपने-अपने विषयमें स्वच्छन्द प्रवर्तनको विद्वान् इन्द्रियासयम कहते हैं । सचमचमें मनुष्य इसके चगुलमें फंसकर जधन्य-से-जघन्य कुकृत्योके करनेमे सकुचित नही होता। उसकी तीव्र वासना एव स्वार्थलोलुपता उसके सच्चे स्वरूपपर कुठाराघात करती है। इतना ही नही, उसे महान दुखोंके गर्तमें पटक देती है। अत कहना होगा कि यह इन्द्रियासयम अपर नाम वासना अनन्त ससारका कारण है। इस लिये यदि हम अपने जीवनको सुखी एव शान्तिमय बनाना चाहते है, तो हमारा कर्तव्य है कि इस विपय-पिशाची वासनाका मूलोच्छेद करें। यह निश्चित है कि विपय नियत समयके लिये ही प्राप्त
-१३ -
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
होगे, अपना समय पूरा करके चले जायेंगे। इससे हमें महान् दु ख होगा, आकुलता होगी, असतोष पैदा होगा । यदि हम इनको स्वयमेव छोड देंगे तो हमें सन्तोप-सुख मिलेगा और दुखोका शिकार नही होना पड़ेगा। कहा है।
-
अवश्य यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् । व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनस स्वयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनत विदधति ||
अत विषयवासनाका उच्छेद करना परमावश्यक है। 'न रहेगा वास न बजेगी बासुरी', 'जट ही नष्ट हो गई तो अकुर कैसा', 'स्रोत ही सुग्वा दिया जाय तो प्रवाह कैसा' ? हमारे मनमें वासनायें ही पैदा न होगी तो दुख कहाँसे होगा ? वासना के निवृत्त हो जानेपर जो उनकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करने थे, जो विकलता उठानी पडती थी, उन सबका अन्त हो जायेगा। फिर किमी भी बाह्य चीजकी अभिलाषा न होगी । अपने अन्तर्जगतमें छिपी चीजे (अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुखादि) प्रकट हो जावेंगी । आत्माकी ये ही स्वाभाविक एव वास्तविक विभूति हैं। जब तक आकुलता रहती है तभी तक अशान्ति और दु सका ताता है। जब आकुलता न रहेगी तब निराकुलतात्मक सुख एव शान्तिको पूर्ण व्यक्ति हो जायगी। ऐसी ही अवस्थाका नाम मोक्ष है । प० दौलतरामजीके ये शब्द मदा स्मरणीय हैं
आतमको हित है सुख, सो सुख आकुलता बिन कहिये । आकुलता शिवमाहिन, तातें शिवमग लाग्यो चहिये ॥
हुए भी दीक्षा लेनेके बाद
यदि हम विषय-वासना अन्तस्थल में घुसे तो कहना होगा कि विषय वासना ही ससार है और उस की विमुक्ति ही मुक्ति है । "वद्धो हि को यो विपयानुरागी, का वा विमुक्ति विषये विरक्त ।" अर्थात् बद्ध कौन है ? जो विषयो में आसक्त है। मुक्ति क्या है? विषयोंमें विरक्तता वही मुक्त है जो विषयोमें विरक्त है, उनमें आसक्त नही है । सम्राट् भरत पट्खड विभूतिका उपभोग करते अन्तर्मुहूर्त में केवली हो गये। अत निश्चित है कि आसक्ति ही वधका कारण है सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी क्रियायें एक होने पर भी मिथ्यादृष्टिकी क्रियायें बघका कारण है, सम्यग्दृष्टिकी नही, क्योकि मिथ्यादृष्टि जो क्रियायें करता है आसक्त (तन्मय) होकर करता है, सम्यग्दृष्टि नहीं। वह तो केवल पदस्थ कर्त्तव्य समझ कर करता है—
ज्ञानिनो ज्ञाननिर्वृत्ता सर्वे भावा भवन्ति हि । सर्वेऽप्यज्ञान निवृत्ता भवन्त्यज्ञानिनस्तु ते ॥
- समयसारकलश |
अब विचारता है कि वासनाका उच्छेद कैसे हो सकता है, क्योंकि मनले इच्छामोका हटाना हसीखेल नही है, टेढी खीर है । अपने-अपने विषयोके प्रति गमन करनेवाली इन्द्रियो और मनको उनसे हटाना, उनको काबू करना उसी प्रकार कठिन है जिस प्रकार जगत्को विध्वस करनेवाले उन्मन्त गजको वशमें करना है किन्तु विशेषज्ञोने जहाँ वासना-निवृत्तिका उपदेश दिया है वही मन और इन्द्रियोको स्वच्छन्द न होने देनेका सुगम सामन भी बतलाया है। ज्यों ही इन्द्रियो और मनपर आत्माका पूर्ण आधिपत्य होता जायगा त्यों ही वासनाओकी निवृत्ति होती चली जायगी । मनको काबू में कर लेनेपर इन्द्रियाँ अपने आप काबू में हो जायेंगी । मनको काबू में करनेका सरल उपाय यही है कि मनमें बुरे विचार कभी भी उत्पन्न न
- १८
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
होने दें। अच्छे विचारोको पैदा करें । ज्यो ही मन बुरे विचारोमें गोता लगावे, त्यो ही विवेकाकुगसे लाभ लें। और उस समय इस प्रकार विचार करें-"धिक् छि तुझे ऐसे नीचातिनीच अकृत्योमे प्रवृत्त होते शर्म आनी चाहिये। लोकमे जो तेरी थोडी-बहत प्रतिष्ठा है वह मारी मिट्टीमे मिल जायगी, फिर ऊंचा सिर करके नही चल सकेगा। परभवमे दुर्गतियोंके अनेक असह्य दुखोका सामना करना पडेगा, उनके शिकजेमें पडे विना नही रह सकेगा। रे मन | चेत | जरा चेत ।। इन बीभत्स अनर्थोमे मत जा, अपने स्वाभाविक स्वरूपको पहचान"। इस प्रकार मनसे बुरे विचारोको अपना (आत्माका) शत्रु समझकर हटाएं और आत्माको अध पतनसे रक्षित करे। महात्मा गांधीने इन जघन्य मनोवृत्तियोके दमन करनेके लिये एक बार महाभारतका सुन्दर चित्र खीचकर बतलाया था कि जब मेरे मनमे वरे विचार उत्पन्न होते है तब मैं उसका इस प्रकार दमन करता हूँ
"शरीरको तो कुरुक्षेत्र समझता और आत्माको अर्जुन, बुरे विचारोको कौरव और अच्छे विचारोको पाण्डव, तथा शुद्ध ज्ञानको कृष्ण । जब बुरे और अच्छे विचारोमे सघर्प होता है तब बुरे विचार अच्छे विचागेको घर दवाते है तव फौरन शुद्ध ज्ञानकी वृत्ति उदित होकर (श्रीकृष्ण) आत्मा (अर्जुन) को सचेत कर कहती है (स्वकर्तव्योपदेश देती है) कि हे आत्मन् (अर्जुन) तेरी विरक्ति (मौन) का समय नहीं है, यह तेरे कर्तव्य पालनका समय है। बुरे विचारो (कौरवो) को तू अपना दुश्मन समझ, उनको अब भाई मत समझो। जब वे (बुरे विचार) तेरे निर्दोष भाइयो (अच्छे विचारो) पर अत्याचारोके करनेपर उतारू हो गये है तब भ्रातृमोह कैसा? यह असामयिक वैराग्य कैमा ? अत अविलम्ब तुम कुरुक्षेत्र (शरीर) के मैदान में जमकर दुश्मन कौरवो (बरे विचारो) का सहार करो और अपने भाई-पाण्डवो (अच्छे विचारो) की रक्षा करके विजय प्राप्त करो एव ससारके सामने नीतिका आदर्श पेश करो। इस प्रकार बुरे विचारोका दमन किया करता हूँ।" यह महात्मा गाधीने मनको वशमे करनेके लिये कितना अच्छा चित्र खीचा है।)
इम प्रकार मनमें दो प्रकारको वृत्तियां (विचार) पैदा हुआ करती है-अच्छी और बुरी । जब मनमें बुरे विचार पैदा होते हैं तब मनरूपी राजा इन्द्रियरूपी सेनाको लेकर विपयरूपी युद्धस्थलमें आत्मारूपी शत्रुको पराजित कर गिरा देता है । देवसेनाचार्य आराधनासारमें कहते हैं
इदिय-सेणा पसरड मण-णरवइ-पेरिया ण सदेहो।
तम्हा मणसजमण खवएण य हवदि कायव्व ॥५८॥ अर्थात् मननपतिसे प्रेरित होकर इन्द्रियसेना विपयोमें प्रवृत्त होती है । इसमें किसी प्रकारका सदेह नही । अत पहले मनोनृपतिको ही रोकना आवश्यक है
मणणरवइणो मरणे मरति सेणाई इदियमयाइ । ताण मरणेण पुणो मरति णिस्सेसकम्माड ॥६०।। तेसि मरणे मुक्खो मुक्खे पावेइ सासय सुक्ख ।
इदियविसयविमुक्क तम्हा मणमारण कुणह ॥६१।। अर्थात् मननृपतिके मर जानेपर इद्रियसेना अपने आप मर जाती है अर्थात् फिर इन्द्रियां आत्माको विपयोमें पतित नही कर सकती। जैसे जली हुई रन्सी वन्धनस्प अर्थक्रिया नहीं कर सस्ती । इन्द्रियोके मर जानेपर नि दोप काँका नाग हो जाता है। वर्मासोंके नारा हो जानेपर मात्माको अपना सामाज्य (मोक्ष) मिल जाता है और उसके मिल जानेपर आत्मि-स्वाभाविक सम्पत्ति-अतीन्द्रिय गाश्वत सुम
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्राप्त हो जाता है। अत मनको लिप्सामोको भस्मसात् कर देना चाहिये । एव मनोव्यापारके नष्ट हो जानेपर इन्द्रियां फिर विपयोमें प्रवृत्त नही हो सकती। "मूलाऽभावे कुत शाखा" समूल वृक्षको यदि नष्ट कर दिया जाय तो अकुर, पल्लव, शाखा आदि कैसे उत्पन्न हो सकते हैं । यथा
णट्टे मणवावारे विसएसु ण जति इदिया सव्वे । छिण्णे तरुस्स मूले कत्तो पुण पल्लवा हूंति ॥६९॥
-आराधनासार। यह भी निश्चित है कि मन ही बन्ध करता है और मन ही मोक्ष करता है-"मन एव मनुष्याणा कारण बन्धमोक्षयो ।" देवसेनाचार्य पुन कहते हैं -
मणमित्ते वावारे णट्टप्पण्णे य वे गुणा हुति ।
णट्टे आसवरोहो उप्पण्णे कम्मवन्धो य ।।७।। अर्थात् मनोवृत्तिके अवरोध और उसको उत्पत्तिसे दो बातें होती हैं। अवरोधसे कर्मोंका आस्रव रुकता है और उसकी उत्पत्तिसे कर्मो का बघ होता है। तब क्यो न हम अपनी पूरी शक्ति उसके रोकने में लगावें ।
} मन मतग हाथी भयो ज्ञान भयो असवार ।
पग पग पे अकुश लगे कस कुपन्थ चल जाय ।।
( मन मतग माने नही जो लो धका न खाय । जैनदर्शनमें मनोनिग्रहसे अपरिमित लाभ वताये हैं । यहाँ तक कि उससे केवलज्ञान–पूर्ण ज्ञान तक होता है और आत्मा परमात्मा हो जाता है, अल्पज्ञ सर्वज्ञ हो जाता है। देवसेनने कहा है
खीणे मणसचारे तु तह आसवे य दुवियप्पे । गलइ पुराण कम्म केवलणाण पयासेइ ।।७३।। उव्वसिए मणगेहे ण? णीसेसकरणवावारे ।
विप्फुरिये ससहावे अप्पा परमप्पओ हवइ ।।८५।। अर्थ-मनके व्यापारके रुक जाने पर दोनो प्रकारका आस्रव-पुण्यास्रव एव पापास्रव रुक जाता है और पुराने कर्मोका नाश हो जाता है तथा केवलज्ञान प्रकट हो जाता है और आत्मा परमात्मा हो जाता है। फिर ससारके दुखोमें नही भटकना पडता, क्योकि कर्मबीज सर्वथा नाश हो जाता है । अत सुखाथियोको सयमसे जीवन विताना चाहिये। असयमसे जो हानिया उठानी पडती हैं वे प्रत्येक ससारी मनुष्यसे छिपी नहीं है । सयमके विषयमें ससारके आधुनिक महापुरुषोंके मन्तव्य देखे-*
डॉ० सर ब्लेड कहते हैं कि-"असयमके दुष्परिणाम तो निर्विवाद और सर्वविदित है परन्तु सयमके दुष्परिणाम तो केवल कपोलकल्पित हैं। उपर्युक्त दो बातोंमें पहली बातका अनुमोदन तो बडे-बडे विद्वान करते हैं, लेकिन दूसरी बातको सिद्ध करने वाला अभी तक कोई मिला ही नहीं है"।
सर जेम्स प्रेगटकी धारणा है कि-"जिस प्रकार पवित्रतासे आत्माको क्षति नही पहुँचती उसी प्रकार शरीरको भी कोई हानि नही पहुँचती-इन्द्रियसयम सबसे उत्तम आचरण है।
डॉ० वेरियर कहते है कि–पूर्ण सयमके बारेमें यह कल्पना कि वह खतरनाक है, बिलकुल गलत खयाल है और इसे दूर करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। * विद्वानोंके ये मत लेखकने महात्मा गाधीरचित "अनीतिकी राह" पुस्तकसे उद्धृत किये हैं।
- १६ -
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
सर एडरू क्लार्क कहते हैं कि-"सयमसे कोई नुकसान नहीं पहुँचता और न वह मनुष्यके स्वाभाविक विकासको रोकता है, वरन् वह तो बलको बढाता है और तीन करता है। असयमसे आत्मशासन जाता रहता है, आलस्य बढ़ता है और शरीर ऐसे रोगोका शिकार बन जाता है जो पुश्त दरपुश्त असर
करते चले जाते हैं। ---
----
महाशय गैबरियल सीलेस कहते हैं कि- "हम बार-बार कहते फिरते है कि हमें स्वतन्त्रता चाहिये, हम स्वतन्त्र होगे। परन्तु हम नही जानते कि स्वतन्त्रता कर्त्तव्यकी कैसी कठोर बेडी है। हमे यह नही मालम कि हमारी इस नकली स्वतन्त्रताका अर्थ इन्द्रियोकी गुलामी है जिससे हमें न तो कभी कष्टका अनुभव होता है और न हम कभी इसलिये उसका विरोध ही करते हैं।"
ब्यूरोका यह वाक्य प्रत्येक मनुष्यको अपने हृदय-पटल पर अकित कर लेना चाहिये कि "भविष्य सयमी लोगोंके ही हाथोमें है।"
महात्मा गाधी जो इन्द्रियसयमके जागरूक प्रहरी थे--स्वय क्या कहते हैं, सुनिये
"सयत और धार्मिक जीवनमें ही अभीष्ट सयमके पालनकी काफी शक्ति है । सयत जीवन बितानेमें ही ईश्वर-प्राप्तिकी उत्कट जीवन्त अभिलाषा मिली रहती है। मैं यह दावा करता हूँ कि यदि विचार और विवेकसे काम लिया जाय तो विना ज्यादा कठिनाईके संयमका पालन सर्वथा सम्भव है । वह गांधी, जो किसी जमाने में कामके अभिभूत था, आज अगर अपनी पत्नीके साथ भाई या मित्रके समान रहता है और ससारकी सर्व श्रेष्ठ सुन्दरियोंको भी बहिन या बेटीके रूपमें देख सकता है, तो नीच-से-नीच और पतित मनुष्यके लिये भी आशा है ? मनुष्य पशु नही है। पशुयोनिमें अनगिनत जन्म लेनेके बाद उस पदपर आया है। उसका जन्म सिर ऊँचा करके चलनेको हुआ है, लेट कर या पेट के बल रेंगनेको नही । पुरुषत्वसे पाशविकता उतनी ही दूर है, जितना आत्मासे शरीर ।"
व्यूरोके वाक्य ये है--"सयममें शाति है और असयम तो अशान्तिरूप महाशत्रुका घर है। असयमीको अपनी इन्द्रियोकी बडी बुरी गुलामी करनी पडती है। मनुष्यका जीवन मिट्टीके बर्तनके समान है जिसमें तम यदि पहली बँदमे ही मैला छोड देते हो तो फिर लाख जायगा। यदि तुम्हारा मन सदोष है तो तुम उसकी बातें सुनोगे और उसका बल बढाओगे ध्यान रक्खो कि प्रत्येक काम-पूर्ति तुम्हारी गुलामीकी जजीरकी एक नई कड़ी बन जायगी, फिर तो इसे तोडनेकी तुम्हें शक्ति ही न रहेगी और इस प्रकार तुम्हारा जीवन एक अज्ञानजनित अभ्यासके कारण नष्ट हो जायगा। सबसे अच्छा उपाय तो ऊंचे विचारोको पैदा करना और सभी कामोमें सयमसे काम लेने में ही है"। ___अन्तमें सयम और असयमके परिणाकोको बतला कर लेखको समाप्त करता हूँ।
आपदा कथितः पन्था इन्द्रियाणामसयम ।
तज्जय सपदा मार्गो येनेष्ट तेन गम्यताम् ॥ (अर्थात् इन्द्रियोका असयम अनेक आपदाओ-रोगो आदिका मार्ग है और उनपर विज्य पाना सम्पत्तियो-स्वास्थ्यादिका मार्ग है । इनमें जो मार्ग चुनना चाहें, चुनें और चलें, आपकी इच्छा
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
चारित्रका महत्त्व
जैन दर्शनमें चारित्रका महत्त्व बहुत अधिक है। आत्मगवेषी मुमुक्षुको इस अनाद्यनन्त दुखमय ससारसे छूटनेके लिये चारित्रकी उपासना बहुत आवश्यक है । जब तक चारित्रकी उपासना नहीं की जाती तब तक यह जीव ससारके अनेक दु खोका शिकार बना रहता है और ससारमें परिभ्रण करता रहता है। यह निश्चित है कि प्रत्येक प्राणधारी इस परिभ्रमणसे बचना चाहता है और सुखकी खोजमें फिरता है । परन्तु इस परिभ्रमणसे बचनेका जो वास्तविक उपाय है उसे नही करता है। इसीलिये सुखी बनने के स्थानमें दुखी बना रहता है।
यों तो ससारके सभी महापुरुषोने जीवोको उक्त परिभ्रमणसे छुटाने और उन्हें सुखी बनानेका प्रयत्न किया है । पर जैन धर्मके प्रवर्तक महापुरुषोने इस दिशामें अपना अनूठा प्रयत्न किया है । यही कारण है कि वे इस प्रयत्नमें सफल हये है। उन्होने ससार-व्याधिसे छुटाकर उत्तम सुखमें पहुँचाने के लक्ष्यसे ही जैन धर्मके तत्त्वोका अपनी दिव्य वाणी द्वारा सम्पूर्ण जीवोको उपदेश दिया है। उनका यह उपदेश धाराप्रवाह रूपसे आज भी चला आ रहा है। इसके द्वारा अनन्त भव्य जीवोने कैवल्य और नि श्रेयस प्राप्त करके आत्मकल्याण किया है।
प्राय सभी आस्तिक दर्शनकारोने सम्पूर्ण कर्मबन्धनसे रहित आत्माकी अवस्था-विशेषको मोक्ष माना है। हम सब कोई कर्मबन्धनसे छूटना चाहते हैं और आत्माकी स्वाभाविक अवस्था प्राप्त करना चाहते है। अत हमें चाहिये कि उसकी प्राप्तिका ठीक उपाय करें। जैन दर्शनने इसका ठीक एव चरम उपाय चारित्रको बताया है। यह चारित्र दो भागोमें विभक्त किया गया है -१-व्यवहार चारित्र और २-निश्चय चारित्र । अशुभ क्रियाओसे हटकर शुभ क्रियाओमें प्रवृत्त होना सो व्यवहार चारित्र है । दूसरेका बुरा विचारना, उसका अनिष्ट करना, अन्याय-पूर्वक द्रव्य कमाना, पांच पापोका सेवन करना आदि अशुभ क्रियायें है । दूसरो पर दया करना, उनका परोपकार करना, उनका अच्छा विचारना, पांच पापोका त्याग, छह आवश्यकोका पालन आदि शुभ क्रियायें है। ससारी प्राणी अनादि कालसे मोहके अधीन होकर अशुभ क्रियाओमें रत है। उसे उनसे हटाकर शुभ क्रियाओमें प्रवृत्त कराना सरल है। किन्तु शुद्धोपयोग या निश्चयमार्ग पर चलाना कठिन है। जिन अशुभ क्रियाओके सस्कार खूब जमे हैं उन्हें जल्दी दूर नही किया जा सकता है। रोगीको कहवी दवा, जो कडवी दवा नही पीना चाहता है, मिश्री मिलाकर पिलाई जाती है । जब रोगी मिश्रीके लोभसे कडवी दवा पीने लगता है तब उसे केवल कडवी दवा ही पिलाई जाती है। ससारी प्राणी जब अनादि कालसे कषायो और विषयोंमें लिप्त रहनेसे उसकी वासनाओंसे ओतप्रोत है तो निश्चय मार्गमें नही चल सकता। चलानेकी कोशिश करने पर भी उसकी उस ओर अभिरुचि नहीं होती। अत उसे पहिले व्यवहारमार्ग या व्यवहार चारित्रका उपदेश दिया जाता है । आचार्य नेमिचन्द्र व्यवहार चारित्रका लक्षण करते हुये कहते हैं -
असुहादो विणिवित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं । वद-समिदि-गुत्तिरूव ववहारणया दु जिणभणिय ॥
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
(अशुभ क्रियाओसे निवृत्त होना और शुभ क्रियाओमें प्रवृत्ति करना व्यवहारचारित्र है । यह व्यवहारचारित्र तेरह प्रकारका है-५ व्रत, ५ समिति और ३ गुप्ति । रत्नत्रयपूजामें इसी प्रयोदशांग सम्यकचारित्रकी पूजा निहित है। प० आशाधारजीने भी "अशुभ-कर्मण निवृत्ति शुभकर्मणि प्रवृत्ति" को व्यवहारचारित्र या व्रत बतलाया है। इस व्यवहारचारित्रका अवलम्बन लेकर ही उत्तरोत्तर आत्मविकास करता हुआ आत्मसाधक बहिरङ्ग और अन्तरङ्ग क्रियाभोका निरोधकर अपने आपमें स्थिर हो जाने रूप परमोदासीनतात्मक परमोत्कृष्ट (निश्चय) चारित्रको प्राप्त करता है। आचार्य स्वामी समन्तभद्र ने लिखा है कि, "रागद्वेष-निवृत्य चरण प्रतिपद्यते साधु" रागादिकी निवृत्ति के लिये साधु हिंसादिनिवृत्तिलक्षण व्यवहारचारित्रका आचरण करता है । अत स्पष्ट है कि निश्चयचारित्रको प्राप्त करनेके लिये व्यवहारचारित्र पालन करना आवश्यक एव अनिवार्य है। यह व्यवहारचारित्र सब प्रकारसे मीठा है और तत्काल आनन्द देने वाला है।
विषयानुरागी जीवोने इन्द्रिय-विषयमें ही आनन्द मान रखा है। एक कविने कहा है कि"अविदितपरमानन्दो जनो वदति विपयमेव रमणीय । तिलतैलमेव मिष्ट येन न दृष्ट घृत क्वापि ॥"
__ अर्थात् जिसने कभी घीको नही खाया वह पुरुष तेलको ही मीठा बतलाता है । इसी प्रकार ससारी प्राणीने मोक्षानन्दका कभी अनुभव नही किया है इसलिये वह विषयजन्य सुखको ही सुख, आनन्द समझता है। वास्तवमें हमें इन्द्रियां इसलिये प्राप्त हुई हैं कि हम अनिष्टसे बचे रहें । स्पर्शन इन्द्रिय कोमल शरीर वाले जीवोकी रक्षाके लिये है। एकेन्द्रियादि जीवोका स्पर्श होते ही तुरन्त उनको रक्षाके भाव हो जाने चाहिये । रसना इन्द्रिय भी अनिष्ट, अनुपसेव्य, अभक्ष्य खाद्योसे बचने के लिये है । श्रोत्र इन्द्रिय शास्त्रश्रवण, जिनगुणश्रवण करनेके लिये है। चक्षुरिन्द्रिय देवदर्शन आदिके लिये है । घ्राणेन्द्रिय भी जीवरक्षाके लिये है । मन, आत्मचिन्तन, जिनगुणचिन्तन, दूसरोका भला विचारना आदिके लिये है। किन्तु हम लोगोने इन्द्रियोंका दुरुपयोग कर रखा है। कहा है -
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्त वयमेव तप्ता.। ___ कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णा ॥ अर्थात् भोगोंको हमने नही भोगा, किन्तु भोगोने ही हमें भोग लिया, मनुष्यपर्यायको पाकर हम तपश्चरण करनेके लिये आये थे, किन्तु विषयोमें फंसकर तपको नही कर सके और विषयोने ही हमें सतप्त कर दिया। काल नही बीता, सारी ही सारी उम्र बीत गयी। काल पूरा नही हो पाता, पर हम पूरे हो जाते है अर्थात् हम व्यर्थके झगडे-टटोमें अपना समस्त जीवन व्यतीत कर देते है। हमें जो समय प्राप्त था, उसका उपयोग नही करते हैं । चौथे पादमें कवि कहता है कि हम बुड्ढे हो गये, पर हमारी तृष्णा बुड्ढी नहीं हुई। गरज यह है कि हम विषयोमें लिप्त होकर अपने आपको बिलकुल भूल जाते है, आत्मकल्याणकी ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते हैं । अत आत्मकल्याणार्थियोको उचित है कि वे व्यवहारचारित्रका ठीक-ठीक आचरणकर अनन्तानन्त गुणोके भण्डार चिदानन्द स्वरूप शुद्धात्माकी प्राप्ति करें। इससे स्पष्ट है कि जैन दृष्टिमें चारित्रका कितना महत्त्व है।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
करुणा : जीवकी एक शुभ परिणति
करुणाको सभी धर्मों में स्वीकार किया गया और उसे धर्म माना गया है । जैन धर्ममें भी वह स्वीकृत है । परन्तु वह जीवके एक शुभ भाव (परिणाम) के रूपमें अभिमत है। उसे धर्म नही माना । धर्म तो अहिंसाको बताया गया है । अहिंसा और करुणामें अन्तर है। अहिंसामें रागभाव नहीं होता। वह भीतरसे प्रकट होती है और स्वाभाविक होती है। अतएव वह आत्माकी विशुद्ध परिणति मानी गयी है । पर करुणा जीवके, रागके सद्भावमें, बाहरका निमित्त पाकर उपजती है। अतएव वह नैमित्तिक एव कादाचित्क है, स्वाभाविक तथा शाश्वत नही ।
करुणा, अनुकम्पा, कृपा और दया ये चारो शब्द पर्यायवाची है, जो अभाव अथवा कमीसे पीडित प्राणीको पीडाको दूर करनेके लिए उत्पन्न रागात्मक सहानुभूति अथवा सहानुभूतिपूर्वक किये जानेवाले प्रयत्नके अर्थमें व्यवहृत होते है। आचार्य कुन्दकुन्दने करुणाका स्वरूप निम्म प्रकार दिया है
तिसिद वुभुविखद वा दुहिद दळूण जो दुहिदमणो ।
पडिवज्जदि त किवया तस्सेसा होदि अणुकपा ॥ 'जो प्याससे तडफ रहा है, भूखसे विकल हो रहा है और असह्य रोगादिकी वेदनासे दुखी हो रहा है उसे देखकर दुःखी चित्त होना अनुकम्पा-करुणा है।'
इसकी व्याख्यामें व्याख्याकार अमृतचन्द्राचार्य और जयसेनाचार्यने लिखा है'कञ्चिदुदन्यादिदु खप्लुतमवलोक्य करुणया तत्प्रतिविषीर्काकुलितचित्तत्वमज्ञानिनोऽनुकम्पा ।
ज्ञानिनस्त्वधस्तनभमिकास विहरमाणस्य जन्मार्णवनिमग्नजगदवलोकनान्मनाग्मन खेद इति ।। ('करुणा पात्रभेदसे दो प्रकारको है-एक अज्ञानीकी और दूसरी ज्ञानीकी । अज्ञानीकी करुणा तो वह है जो प्यास आदिके दु खसे पीडितको देखकर दयाभावसे उसके दुखको दूर करनेके लिए चित्तमें विकलता होती है । उसकी यह करुणा चूंकि उस प्यासादिसे दुखी प्राणीके भौतिक शरीर सम्बन्धी दुखको ही दूर करने तक होती है-उसके आध्यात्मिक (राग, द्वेष, मोहादि) दुखको दूर करने में वह अक्षम है । अतएव वह अज्ञानीकी करुणा अर्थात स्थूल करुणा बतलायी गयी है। जिसे शरीर और आत्माका भेदज्ञान हो गया है, पर अभी बहुत ऊंचे नहीं पहुंचा है-कुछ नीचेकी श्रेणियोमें चल रहा है, उस ज्ञानी (साधु, उपाध्याय और आचार्य) को जन्म सन्ततिके अपार दु खोमें डबे प्राणियोको देखकर जो उनके दुखकी निवृत्तिके लिए कुछ खेद होता है वह ज्ञानीकी करुणा है और उपर्युक्त अज्ञानीकी करुणासे वह सूक्ष्म एव विवेकपूर्ण है। किन्तु उसमें ईपत् रागभाव रहता ही है, भले ही वह लक्ष्यमें न आये । और इसलिये अज्ञानी और ज्ञानी दोनोकी करुणाएं पुण्यकर्मके आस्रवकी कारण हैं। कुन्दकुन्दने पुण्यासवका स्वरूप इस प्रकार दिया है
रागो जस्स पसत्थो अणकपाससिदो य परिणामो।
चित्ते णत्थि कलुस्स पुण्ण जीवस्स आसवदि ॥२ १ पचास्तिकाय, गाथा १३७ ।
२ पचास्ति०, गा० १३५ ।
-२०
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
('जिसके शुभ राग है, अनुकम्पा (दया) रूप परिणाम है और चित्तमें अकलुषता है उसके पुण्यकां आस्रव (आयात) होता है।)
( यहाँ दृष्टव्य है कि कुन्दकुन्दने अनुकम्पारूप परिणामको स्पष्टतया पुण्यकर्मके आगमनका कारण बतलाया है । इसका अर्थ है कि जैन धर्ममें अनुकम्पा जीवका एक शुभ भाव मात्र है, जिसमें रागाश रहनेके कारण वह पौद्गलिक पुण्यरूप कर्मका जनक है । और जो कर्मका जनक है वह धर्म नही हो सकता । अतएव करुणा पुण्यकर्मका कारण होनेसे धर्म नही है। अहिंसा, जो आत्मामे भीतरसे विकसित होती है, फूटती है, अनाकुला, स्थायिनी, स्वाभाविकी और स्व-परसुखदायिनी है-दु ख तो उससे किसीको होता नही, धर्म है । वस्तुका निज स्वभाव ही धर्म होता है और अहिंसा आत्माका निज स्वभाव है । वह अनैमित्तिक (अनौपाधिक) है और करुणा नैमित्तिक (औपाधिक) है । दुखी व्यक्ति जब सामने उपस्थित होता है तभी कारुणिकके चित्तमें करुणा जन्म लेती है । अहिंसाका स्रोत, ज्यो-ज्यो मोह और आवरण हटते जाते है, खुलता जाता है, सदा वहता रहता और बढता जाता है । दुखी व्यक्ति अहिसकके सामने उपस्थित हो, चाहे न हो । सम्भवत करुणा और अहिंसाके इसी सूक्ष्म अन्तर एव रहस्यको लक्ष्य करके योगसूत्रकार महर्षि पतञ्जलिने भी अहिंसाको सर्वाधिक महत्त्व दिया और कहा कि 'अहिंसाप्रतिष्ठाया तत्सनिधौ वैरत्यागः' (यो० सू० २-३५)) अहिंसाकी आत्मामें प्रतिष्ठा होनेपर समस्त प्रकारका वैर (रजिस) छूट जाता है और अहिंसकके समक्ष विश्वके । समस्त प्राणी आत्मवत् हो जाते है ।
जैन दार्शनिक आचार्य विद्यानन्दने करुणाको मोहविशेष (इच्छाविशेप) रूप बतलाते हुए लिखा है -'तेषां मोहविशेषात्मिकाया फरुणाया सम्भवाभावात्'- (अष्टस० पृ० २८३)-करुणा मोहविशेष (इच्छा) रूप है । वह वीतरागो (केवलियो) मे सम्भव नहीं है । जब विद्यानन्दसे प्रश्न किया गया कि बिना करुणाके वीतरागोकी दूसरोके दुखकी निवृत्ति के लिए किये जानेवाले हितोपदेशमें प्रवृत्ति कैसे होगी ? इसका वे सयुक्तिक समाधान करते हुए कहते हैं-'स्वभावतोपि स्वपरवु खनिवर्तननिबन्धनत्वोपपत्तेः प्रदीपवत' (वही पृ० २८३)-जिस प्रकार दीपक विना करुणाके दु.खहेतु अन्धकारकी निवृत्ति स्वभावत करता है उसी प्रकार वीतराग भी बिना करुणाके स्वपरदु खकी निवृत्ति स्वभावत करते हैं । विश्रुत जैन मनीषी अकलङ्कदेव भी उक्त प्रश्नका उत्तर देते हुए कहते हैं
('न वै प्रदीपः कृपालुतयात्मान पर वा तमसो निवर्त्तयति । कल्पयित्वापि कृपालुता तत्करणस्वभाव
सामर्थ्य मृग्यम् । एव हि परम्परापरिश्रम परिहरेत् ।'-अष्टश० अष्टस० पृ० २८३ । (क्या नही जानते कि दीपक कृपालु होनेसे स्वपरके अन्धकारको दूर नहीं करता, अपितु उसका उक्त प्रकारका स्वभाव होनेसे वह उभयका अन्धकार मिटाता है । वीतराग भी कृपालुताके कारण स्वपरके दुखकी निवृत्ति नही करते, किन्तु उनका उस प्रकारका स्वभाव होनेसे स्वपरके दुखको दूर करनेके लिए प्रवृत्त होते हैं । यदि करुणासे दु ख निवृत्तिपर बल दिया जाय तो वीतरागोके करुणा माननेपर भी उनका स्वपरदु खके निवर्तनका स्वभाव अवश्य मानना पडेगा । अत क्यो नही, वीतरागोके करुणाके विना भी उक्त स्वभाव ही माना जाय ।) विद्यानन्द यौक्तिक समाधानके अलावा आगमिक समाधान भी करते है--
ततो नि शेषान्तरायक्षयादभयदानस्वरूपमेवात्मन 'प्रक्षीणावरणस्य परमा दया । सैव मोहाभावाद्रागद्वेषयोरप्रणिधानादुपेक्षा । तीर्थकरत्वनामोदयात्तु हितोपदेशप्रवर्तनात् परदु खनिराकरण। सिद्धि ।'-अष्टस० पृ० २८३ ।
-२१
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्पूर्ण अन्तरायके क्षयसे वीतरागोंके जो आत्माका अभयदान स्वरूप प्रकट होता है वही उनकी परमा दया है और वह दया उनके मोहाभावमें होती है, क्योकि उस समय उनके न किसीके प्रति राग होता है और न किसीके प्रति द्वेष । इसके सिवाय वीतरागोकी द्वितोपदेशमें प्रवत्ति उनके विद्यमान तीर्थकरनामकर्मके उदयसे होती है और उस हितोपदेश-प्रवृत्तिसे ही परदु खनिराकरण सिद्ध हो जाता है । अव जैन धर्ममें अर्हतो (वीतरागो) की हितोपदेशमें प्रवृत्ति बुद्ध या ईश्वरकी तरह करुणासे स्वीकार नही की गयी। अतएव जैन दर्शनमें वीतराग परमात्माको अहिंमक माना गया है, कारुणिक नहीं । आचार्य समन्तभद्रने अहिंसाको जगद्विदित परमब्रह्म बतलाया है- 'अहिंसा भूतानां जगति विवित ब्राह्म परमम् ।'-(स्वयम्भू०)
इस प्रकार कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, अकलङ्क, विद्यानन्द जैसे युगप्रधान समर्थ शास्त्रकारोंके विवेचनसे अवगत होता है कि करुणा मोहविशेष (शुभेच्छा) रूप होनेसे वह परमार्थत धर्म नही है-वह आत्माका एक विकार ही है । शुभपरिणतिरूप होनेसे करुणाको व्यवहारत धर्म कहा गया है । कुन्दकुन्दने स्पष्ट कहा है कि फरुणासे पुण्यसचय होता है। इस पुण्यसे भोग प्राप्त होते हैं और भोगोसे आसक्ति तथा आसक्ति जन्मजन्मान्तरोत्पत्तिका कारण है। शास्त्रोमें कही-कही 'धर्मस्य मूल दया' जैसे प्रतिपादनो द्वारा जो दयाको धर्मका मूल या धर्म कहा गया है वह केवल अशुभसे निवृत्ति तथा शुभमें प्रवृत्ति कराने के प्रयोजनसे कहा है। जिससे व्यक्ति अशुभसे वचा रहे और शुभमें प्रवृत्त रहे । शुभमे शुद्धकी ओर जाया जा सकता है । अत जैनधर्ममें व्यवहार और निश्चय अथवा उपचार और परमार्थ या उपाधि और निरुपाधि इन दो दृष्टियोंको ध्यानमें रख कर प्रतिपादन है। निष्कर्ष यह कि करुणा व्यवहारत धर्म है, परमार्थत नही। परमार्थत अहिंसा धर्म है।
-२२
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैनधर्म और दीक्षा
भारतको सस्कृति और सभ्यता बहुत प्राचीन है। यहां समय-समयपर अनेक महापुरुषोने जन्म लिया और विश्वको नोति एव कल्याणका मार्ग प्रदर्शित किया है। भगवान् ऋषभदेव इन्ही महापुरुषोमेसे एक और प्रथम महापुरुष है, जिन्होने इस विकसित युगके आदिमें नीति व स्वपर-कल्याणका ससारको पथ प्रदर्शित किया । श्रीमद्भागवतमें इनका उल्लेख करते हुए लिखा है
_ 'जब ब्रह्माने देखा कि मनुष्य-सख्या नही बढी तो उसने स्वयम्भू मनु और सत्यरूपाको उत्पन्न किया। उनके प्रियवत नामका पुत्र हुआ। प्रियव्रतके अनीध्र, अनीघ्रके नाभि और नाभि तथा मरुदेवीके ऋषभदेव हुए । ऋषभदेवने इन्द्रके द्वारा दी गई जयन्ती नामकी भार्यामें सौ पुत्र उत्पन्न किये और बड़े पुत्र भरतका राज्याभिषेक करके सन्यास ले लिया। उस समय उनके पास केवल शरीर था और वे दिगम्बर वेषमें नग्न विचरण करते थे। मौनसे रहते थे । कोई डराये, मारे, ऊपर थके, पत्थर फेंके, मत्र-विष्ठा फेंके तो इस सबकी ओर ध्यान नही देते थे। इस प्रकार कैवल्यपति भगवान् ऋषभदेव निरन्तर परम आनन्दका अनुभव करते हुए विचरते थे।"
जैन वाइमयमे प्राय इसी प्रकारका वर्णन है। कहा गया है कि भगवान ऋषभदेव यगके प्रथम प्रजापति और प्रथम सन्यासमार्ग प्रवर्तक थे। उन्होने ही सबसे पहले लोगोको खेती करना, व्यापार करना. तलवार चलाना, लिखना-पढना आदि सिखाया था और बादको स्वय प्रबुद्ध होकर ससारका त्याग करके सन्यास लिया था तथा जगतको आत्मकल्याणका मार्ग बताकर ब्रह्मपद (अपार शान्तिके आगार निर्वाण) को प्राप्त किया था ।
इन दोनो वर्णनोसे दो बातें ज्ञातव्य है। एक तो यह कि भ० ऋषभदेव भारतीय सस्कृति एव सभ्यताके आद्य प्रवर्तक हैं। दूसरी यह कि उन्होने आत्मिक शान्तिको प्राप्त करनेके लिए राज-पाट आदि समस्त भौतिक वैभवका त्यागकर और शान्तिके एकमात्र उपाय सन्यास-दैगम्बरी दीक्षाको अपनाया था। इससे यह ज्ञात होता है कि जैनधर्ममें प्रारम्भसे दीक्षाका महत्त्व एव विशिष्ट स्थान है।
एक बात और है। जैनधर्म आत्माकी पवित्रताकी शिक्षा देता है। शिक्षा ही नहीं, बल्कि उसके आचरणपर भी वह पूरा जोर एव भार देता है और ये दोनो चीजें बिना सबको छोडे एव दिगम्बरी दीक्षा लिये प्राप्त नही हो सकती। अत आत्माकी पवित्रताके लिये दीक्षाका ग्रहण आवश्यकीय है।
यद्यपि ससारके विविध प्रलोभनोमें रहते हुए आत्माको पवित्र बनाना तथा इन्द्रियो व मन और शरीरको अपने कामें रखना बडा कठिन है । किन्तु इन कठिनाइयोपर विजय पाना और समस्त विकारोको दूर करके आत्माको पवित्र बनाना असभव नही है। जो विशिष्ट आत्माएं उनपर विजय पा लेती हैं उन्ही
१. प० फैलाशचन्द्र शास्त्री, जैनधर्म, पृ० ५।। २, स्वामी समन्तभद्र, स्वयम्भूस्तोत्रगत ऋषभजिनस्तोत्र, श्लोक २, ३.४।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
. धर्म : एक चिन्तन
धर्मका स्वरूप
जैन सस्कृतिमें धर्मका स्वरूप निरूपित करते हुए कहा गया है कि धर्म वह है जो प्राणियोको ससारके दुखोसे निकालकर उत्तम सुखमें पहुँचाये-उसे प्राप्त कराये। आचार्य समन्तभद्रने अपने रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें 'धर्म' शब्दकी व्युत्पत्तिसे फलित होनेवाला धर्मका यही स्वरूप बतलाया है
देशयामि समीचीन धर्म कर्मनिवर्हणम् ।
ससारदुखत सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ प्रश्न है कि ससारके दु खोका कारण क्या है और उत्तम सुखकी प्राप्तिके साधन क्या है, क्योकि जब तक दुखोंके कारणोको ज्ञातकर उनको निवृत्ति नही की जायगी तथा उत्तम सूखकी प्राप्तिके साधनोंको अवगत कर उन्हें अपनाया नही जायेगा तब तक न उन दु खोकी निवृत्ति हो सकेगी और न उत्तम सुख ही प्राप्त हो सकेगा? इस प्रश्नका उत्तर भी इसी ग्रन्थमें विशदताके साथ दिया है । उन्होने कहा है
सदृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदु ।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धति ॥ 'उत्तम सुखको प्राप्त करनेका साधन सदृष्टि-सम्यक् श्रद्धा (निष्ठा), सज्ज्ञान (सम्यक् वोघ) और सदवत्त-सदाचरण (सम्यक आचरण) इन तीनोकी प्राप्ति है और दुखोके कारण इनसे विपरीत-मिथ्याश्रता. मिथ्याज्ञान और मिथ्या आचरण है, जिनके कारण ससारकी परम्परा-ससार-परिभ्रमण होता है।'
तात्पर्य यह है कि धर्मका प्रयोजन अथवा लक्ष्य दुखकी निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति है। और प्रत्येक प्राणी, चाहे वह किसी भी अवस्थामें हो, यही चाहता है कि हमें दु ख न हो, हम सदा सुखी रहें । वास्तवमें ६ख किसीको भी इष्ट नही है, सभीको सुख इष्ट है। तब इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति किसे इष्ट नही है और कौन उसके लिए प्रयत्न नही करता? अनुभवको साक्षीके साथ यही कहा जा सकता है कि सारा विश्व निश्चय ही ये दोनो बातें चाहता है और इसलिए धर्मके प्रयोजन दुख-निवृत्ति एव सुखप्राप्तिमें किसीको भी मतभेद नही हो सकता। हाँ, उसके साधनोमें मतभेद हो सकता है। जैन धर्मका दृष्टिकोण
जैन धर्मका दृष्टिकोण इस विषय में बहुत ही स्पष्ट और सुलझा हुआ है। उसका कहना है कि वस्तुका स्वभाव धर्म है-'वत्युसहायो धम्मो।' आत्मा भी एक वस्तु है और उसका स्वभाव रत्नत्रय है, मत रत्नत्रय आत्माका धर्म है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक चारित्र ये तीन असाधारण आत्मगुण 'रत्नत्रय' कहे जाते हैं। जब आत्मा इन तीन गुणरूप अपने स्वभावमें स्थिर होता है तो उसे वस्तुत सुख प्राप्त होता है और दु खसे छुटकारा मिल जाता है। ससार दशामें आत्माका उक्त स्वभाव मिथ्यात्त्व, अज्ञान, क्रोध, मान, मात्सर्य, छल-कपट, दम्भ, असहिष्णुता आदि दुष्प्रवृत्तियो अथवा बुराइयोसे युक्त रहता है और इसलिए स्वभाव स्वभावरूपमें नहीं, किन्तु विभावरूपमें रहता है। इस कारण उसे न सच्चा सुख
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुलनात्मक सक्षिप्त अध्ययन ) नामको पुस्तकमें लिखते हैं कि 'हमने दुनियाके सर्व धार्मिक विचारोको सच्चे भावसे पढकर यह समझा है कि इन सबका मूलकारण विचारवान् जैनियोका यतिधर्म है । जैन साधु सब भूमियो में सुदूर पूर्वकालसे ही अपनेको ससारसे भिन्न करके एकान्त वन व पर्वतकी गुफाओ में पवित्र ध्यानमें मग्न रहते थे ।'
डाक्टर टाम्स कहते हैं कि 'जैन साधुओका नग्न रहना इस मतकी अति प्राचीनता बताता है ।'
सम्राट चन्द्रगुप्त के समय में नग्न गुरुओकी बडी प्रतिष्ठा थी । मुद्राराक्षसके कर्ता प्रसिद्ध विद्वान् कवि कालिदासने लिखा है कि इसीलिये जासूसोको नग्न साधुके वेषमें घुमाया जाता था । नग्न साधुओके सिवा दूसरोकी पहुँच राजघरानोमें उनके अन्त पुर तक नही हो पाती थी । इससे यह विदित हो जाता है कि जैन निर्ग्रन्थ साधु कितने निर्विकार, निस्पृही, विश्वासपात्र और उच्च चारित्रवान् होते हैं और उनकी यह नग्नमुद्रा बच्चेको तरह कितनी विकारहीन एव प्राकृतिक होती है ।
साघुदीक्षाका महत्व
इस तरह आत्म शुद्धि के लिये दिगम्बर साधु होने अथवा उसकी दीक्षा ग्रहण करनेका महत्त्व स्पष्ट हो जाता है । जब मुमुक्षु श्रावकको ससारसे निर्वेद एव वैराग्य हो जाता तो वह उक्त साधुकी दीक्षा लेकर साघनामय जीवन बिताता हुआ आत्म-कल्याणकी ओर उन्मुख होता है । जब उसे आत्मसाधना करते-करते आत्मदृष्टि (सम्यग्दर्शन), आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान) और आत्मचरण ( सम्यक् चारित्र ) ये तीन महत्त्वपूर्ण आत्मगुण प्राप्त हो जाते हैं और पूर्ण वीतराग सर्वज्ञ बन जाता है तो वह उन गुणोको प्राप्त करनेका दूसरोको भी उपदेश करता है । अतएव साधु दीक्षा एव तपका ग्रहण स्वपर कल्याणका कारण होनेसे उसका जैन धर्म में विशिष्ट स्थान है । दूसरोके लिये तो वह एक आनन्दप्रद उत्सव है ही, किन्तु साघुके लिये भी वह अपूर्व आनन्दकारक उत्सव है । और इसीसे पण्डितप्रवर दौलतरामजीने निम्न पद्यमें भव-भोगविरागी मुनियोके लिये 'बडभागी' कहा है
'मुनि सकलव्रती बडभागी, भव-भोगनतें वैरागी । वैराग्य उपावन माई, चिन्तौ अनुप्रेक्षा भाई ॥
जैन शास्त्र में बतलाया गया है कि तीर्थंकर जब ससारसे विरक्त होते हैं और मुनिदीक्षा लेनेके लिये प्रवृत्त होते हैं तो एक भवावतारी, सदा ब्रह्मचारी और सदैव आत्मज्ञानी लोकान्तिक देव उनके इस दीक्षाउत्सवमें आते हैं और उनके इस कार्यकी प्रशंसा करते हैं । पर वे उनके जन्मादि उत्सवोपर नही आते । इससे साधु दीक्षाका महत्त्व विशेष ज्ञात होता है और उसका कारण यही है कि वह आत्माके स्वरूप लाभमें तथा परकल्याणमें मुख्य कारण है ।
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
महान आत्माओको जैनधर्ममें 'जिन' अर्थात् विकारोको जीतनेवाला कहा है तथा उनके मार्गपर चलने वालोको 'जैन' बतलाया है ।
ये जैन दो भागो में विभक्त है -१ गृहस्थ और साघु । जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाच व्रतोको एक देश पालते हैं उन्हें गृहस्थ अथवा श्रावक कहा गया है । इनके ऊपर कुटुम्ब, समाज और देशका भार होता है और इसलिये उनके सरक्षण एवं समृद्धिमें योगदान देनेके कारण ये इन व्रतोको साधुकी तरह पूर्णत नही पाल पाते। पर ये उनके पालने की भावना अवश्य रखते हैं। खेद है कि आज हम उक्त भावनासे भी बहुत दूर हो गये हैं और समाज, देश, धर्म तथा कुटुम्बके प्रति अपने कर्त्तव्योंको भूल गये है ।
।
जैन का दूसरा भेद साधु है साधु उन्हें कहा गया है जो विषयेच्छा रहित हैं, अनारम्भी हैं, अपरिग्रही हैं और ज्ञान-ध्यान तथा तपमें लीन है। ये कभी किसीका बुरा नही सोचते और न बुरा करते हैं। मिट्टी और जलको छोडकर किसी भी अन्य वस्तुको ये बिना दिये ग्रहण नहीं करते । अहिंसा आदि उक्त पाँच व्रतोको ये पूर्णत पालन करते हैं। जमीन पर सोते हैं । यथाजात दिगम्बर नग्न वेषमें रहते हैं । सूक्ष्म जीवोकी रक्षा के लिये पीछी, शौच-निवृत्तिके लिये कमण्डलु और स्वाध्यायके लिये शास्त्र इन तीन धर्मोंपकरणोके सिवाय और कोई भी परिग्रह नहीं रखते। ये जैन शास्त्रोक्त २८ मूलगुणोका पालन करते हुए अपना तमाम जीवन पर कल्याणमें तथा आत्मसाधना द्वारा बन्धनमुक्ति में व्यतीत करते हैं। इस तरह कठोर चर्या द्वारा साधु 'जिन' अर्थात् परमात्मा पदको प्राप्त करते हैं और हमारे उपास्य एव पूज्य होते हैं । मतु हरिने भी वैराग्यशतकमें इस दि० साधु वृत्तिकी आकाक्षा एवं प्रशंसा की है। यथाएकाकी निस्पृह शान्त पाणिपात्रो दिगम्बर | कदाऽह सभविष्यामि कर्मनिर्मूलन-क्षम ॥
'कब मैं अकेला विहार करनेवाला, निस्पृही, शान्त, पाणिपात्री ( अपने ही हाथोको पात्र बना कर भोजन लेनेवाला), दिगम्बर नग्न होकर कर्मकि नाश करने में समर्थ होऊंगा।'
नग्न-मुद्राका महत्व
नग्नमुद्रा सबसे पवित्र, निर्विकार और उच्च मुद्रा है । श्रीमद्भागवतमें ऋषभदेवका चरित वर्णित है । उसमें उन्हें 'नग्न' ही विचरण करनेवाला वतलाया है। हिन्दू परम्पराके परमहस साधु भी नग्न ही विचरते थे । शुक्राचार्य, शिव और दत्तात्रेय ये तीनो योगी नग्न रहते थे । अवधूतोकी शाखा दिगम्बर वेषको स्वीकार करती थी और उसीको अपना खास वाह्य वेष मानती थी। सहिता (१०-१३६-२) में 'मुनयो बातवसना ' मुनियोको वातवसन अर्थात् नग्न कहा है। पद्मपुराण में नग्न सापूका चरित देते हुए लिखा है
नग्नरूपो महाकाय सितमुण्डो महाप्रभ । मार्जनी शिखिपक्षाणा कक्षाया स हि धारयन् ॥
'वे अत्यन्त कान्तिमान् और शिर मुडाये हुए नग्न वेषको धारण किये हुए थे । तथा बगलमें मयूर पखोकी पोछी भी दवाये हुए थे। इसी तरह जाबालोपनिषद्, दत्तात्रेयोपनिषद् परमहंसोपनिषद्, याइयवाल्क्योपनिषद् आदि उपनिषदोमें भी नग्नमुद्राका वर्णन है ।
ऐतिहासिक अनुसन्धानसे भी नग्नमुद्रापर अच्छा प्रकाश पढता है मेजर जनरल जे० पी० बार फर्लाङ्ग अपनी Short Studies in Science of Comparative Religiors (वैज्ञानिक दृष्टिसे धर्मोका
- २४ -
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
तुलनात्मक सक्षिप्त अध्ययन) नामको पुस्तकमें लिखते हैं कि 'हमने दुनियाके सर्व धार्मिक विचारोको सच्चे भावसे पढकर यह समझा है कि इन सबका मूलकारण विचारवान् जैनियोका यतिधर्म है। जैन साधु सब भूमियोमें सुदूर पूर्वकालसे ही अपनेको ससारसे भिन्न करके एकान्त वन व पर्वतकी गुफाओमें पवित्र ध्यानमें मग्न रहते थे।"
डाक्टर टाम्स कहते है कि 'जैन साधुओका नग्न रहना इस मतकी अति प्राचीनता बताता है ।'
सम्राट चन्द्रगुप्तके समयमे नग्न गुरुओकी बडी प्रतिष्ठा थी। मुद्राराक्षसके कर्ता प्रसिद्ध विद्वान् कवि कालिदासने लिखा है कि इसीलिये जासूसोको नग्न साधुके वेषमें घुमाया जाता था। नग्न साधुओके सिवा दूसरोकी पहुंच राजघरानोमें उनके अन्त पुर तक नहीं हो पाती थी। इससे यह विदित हो जाता है कि जैन निम्रन्थ साधु कितने निर्विकार, नि स्पृही, विश्वासपात्र और उच्च चारित्रवान् होते हैं और उनकी यह नग्नमुद्रा बच्चेकी तरह कितनी विकारहीन एव प्राकृतिक होती है। साधुदीक्षाका महत्व
इस तरह आत्म-शुद्धिके लिये दिगम्बर साधु होने अथवा उसकी दीक्षा ग्रहण करनेका महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। जब मुमुक्षु श्रावकको ससारसे निर्वेद एव वैराग्य हो जाता है तो वह उक्त साधुकी दीक्षा लेकर साधनामय जीवन बिताता हआ आत्म-कल्याणकी ओर उन्मुख होता है । जब उसे आत्मसाधना करते-करते आत्मदृष्टि (सम्यग्दर्शन), आत्मज्ञान (सम्यग्ज्ञान) और आत्मचरण (सम्यकचारित्र) ये तीन महत्त्वपूर्ण आत्मगुण प्राप्त हो जाते हैं और पूर्ण वीतराग सर्वज्ञ बन जाता है तो वह उन गुणोंको प्राप्त करनेका दूसरोको भी उपदेश करता है । अतएव साघु-दीक्षा एव तपका ग्रहण स्वपर-कल्याणका कारण होनेसे उसका जैन धर्ममें विशिष्ट स्थान है। दूसरोके लिये तो वह एक आनन्दप्रद उत्सव है ही, किन्तु साधुके लिये भी वह अपूर्व आनन्दकारक उत्सव है। और इसीसे पण्डितप्रवर दौलतरामजीने निम्न पद्यमें भव-भोगविरागी मुनियोके लिये 'बडभागी' कहा है
'मुनि सकलनती बडभागी, भव-भोगनतें वैरागी ।
वैराग्य उपावन माई, चिन्तौ अनुप्रेक्षा भाई॥ जैन शास्त्रोमें बतलाया गया है कि तीर्थकर जब ससारसे विरक्त होते है और मुनिदीक्षा लेनेके लिये प्रवृत्त होते हैं तो एक भवावतारी, सदा ब्रह्मचारी और सदैव आत्मज्ञानी लोकान्तिक देव उनके इस दीक्षाउत्सवमें आते हैं और उनके इस कार्यकी प्रशसा करते हैं। पर वे उनके जन्मादि उत्सवोपर नही आते । इससे साधु-दीक्षाका महत्त्व विशेष ज्ञात होता है और उसका कारण यही है कि वह आत्माके स्वरूपलाभमें तथा परकल्याणमें मुख्य कारण है।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
धर्म : एक चिन्तन
धर्मका स्वरूप
जैन सस्कृतिमें धर्मका स्वरूप निरूपित करते हुए कहा गया है कि धर्म वह है जो प्राणियोको ससारके दुखोंसे निकालकर उत्तम सुखमें पहुँचाये-उसे प्राप्त कराये। आचार्य समन्तभद्रने अपने रत्नकरण्डकश्रावकाचारमें 'धर्म' शब्दकी व्युत्पत्तिसे फलित होनेवाला धर्मका यही स्वरूप बतलाया है
देशयामि समीचीन धर्म कर्मनिवर्हणम् ।
ससारदुखत सत्त्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे ॥ । प्रश्न है कि समारके दुखोका कारण क्या है और उत्तम सुखकी प्राप्तिके साधन क्या है, क्योकि जब तक दु खोके कारणोको ज्ञातकर उनकी निवृत्ति नही की जायगी तथा उत्तम सुखकी प्राप्तिके साधनोको अवगत कर उन्हें अपनाया नहीं जायेगा तब तक न उन दु खोंकी निवृत्ति हो सकेगी और न उत्तम सुख ही प्राप्त हो सकेगा? इस प्रश्नका उत्तर भी इसी ग्रन्थमें विशदताके साथ दिया है । उन्होने कहा है
सददृष्टि-ज्ञान-वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदु ।
यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धति ।। 'उत्तम सुखको प्राप्त करनेका साधन सदृष्टि-सम्यक् श्रद्धा (निष्ठा), सज्ज्ञान (सम्यक् बोध) और सवृत्त-सदाचरण (सम्यक आचरण) इन तीनोको प्राप्ति है और दुखोके कारण इनसे विपरीत-मिथ्याश्रद्धा, मिथ्याज्ञान और मिथ्या आचरण है, जिनके कारण ससारको परम्परा-ससार-परिभ्रमण होता है।'
तात्पर्य यह है कि धर्मका प्रयोजन अथवा लक्ष्य दुखको निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति है। और प्रत्येक प्राणी, चाहे वह किसी भी अवस्थामें हो, यही चाहता है कि हमें दु ख न हो, हम सदा सुखी रहें । वास्तवमें दुख किसीको भी इष्ट नही है, सभीको सुख इष्ट है। तब इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टकी निवृत्ति किसे इष्ट नही है और कौन उसके लिए प्रयत्न नही करता ? अनुभवको साक्षीके साथ यही कहा जा सकता है कि सारा विश्व निश्चय ही ये दोनो बातें चाहता है और इसलिए धर्मके प्रयोजन दुख-निवृत्ति एव सुखप्राप्तिमें किसीको भी मतभेद नही हो सकता। हां, उसके साधनोमें मतभेद हो सकता है। जैन धर्मका दृष्टिकोण
जैन धर्मका दृष्टिकोण इस विषयमें बहुत ही स्पष्ट और सुलझा हुआ है । उसका कहना है कि वस्तुका स्वभाव धर्म है-'वत्युसहावो धम्मो।' आत्मा भी एक वस्तु है और उसका स्वभाव रत्नत्रय है, अत रत्नत्रय आत्माका धर्म है। सम्यकुदर्शन, सम्यकुज्ञान और सम्यकचारित्र ये तीन असाधारण आत्मगुण 'रत्नत्रय' कहे जाते हैं। जब आत्मा इस तीन गुणरूप अपने स्वभावमें स्थिर होता है तो उसे वस्तुत सुख प्राप्त होता है और दु खसे छुटकारा मिल जाता है। ससार दशामे आत्माका उक्त स्वभाव मिथ्यात्त्व, अज्ञान, क्रोध, मान, मात्सर्य, छल-कपट, दम्भ, असहिष्णुता आदि दुष्प्रवृत्तियो अथवा बुराइयोसे युक्त रहता है और इसलिए स्वभाव स्वभावरूपमें नही, किन्तु विभावरूपमें रहता है। इस कारण उसे न सच्चा सुख
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
मिलता है और न दुःखसे छूट पाता है। तात्पर्य यह कि आत्माका उक्त स्वभाव अथवा धर्म आत्मामें अपने रूपमें यदि उपलब्ध है तो आत्माको अवश्य सुख प्राप्त होता है और उसके दु तोका भी अन्त हो जाता है।
त जैन धर्मका दृष्टिकोण प्रत्येक प्राणीको दु खसे छुडाकर उत्तम सुख (मोक्ष) की ओर पहुँचाने का है। इसीसे जैन धर्ममें रत्नत्रय (सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र) को धर्म कहा गया है और मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको अधर्म बतलाया गया है, जो ससार-परिभ्रमणका कारण है। जैसाकि हम ऊपर आचार्य समन्तभद्रके उल्लिखित धर्मके स्वरूप द्वारा देख चुके है ।
इससे यह सहजमें जान सकते है कि जीवनको पूर्ण सुखी, शान्त, निराकुल और दु ख रहित बनाने
र हमें धर्म अर्थात स्वभावकी उपलब्धिकी कितनी भारी आवश्यकता है । इस स्वभावको उपलब्धिके लिये हमे उसके तीनो रूपो-अङ्गो--श्रद्धा, ज्ञान और आचारको अपनाना परमावश्यक है। श्रद्धा-शन्य ज्ञान
-विचार और आचार तथा विचारशून्य श्रद्धा एव आचार और आचारहीन श्रद्धा एव विचार ससारपरम्पराको काटकर पूर्ण सुखी नहीं बना सकते । अत इन तीनोकी ओर सुखाभिलापियो एव दुख-निवृत्तिके इच्छुकोको ध्यान रखना आवश्यक एव अनिवार्य है।
आज सारा विश्व अस्त और भयभीन है। इस त्रास और भयसे मुक्त होने के लिए वह छटपटा रहा है। पर उसके ज्ञान और प्रयत्न उचित दिशामे नही हो रहे । इसका कारण उसका मन अशुद्ध है । प्राय सबके हृदय कलुषित है, दुर्भावनासे युक्त है, दूसरोको पददलित करके अहकारके उच्च शिखरपर आसीन रहनेकी भावना समाई हुई है और इस तरह न जाने कितनी दुर्भावनाओसे वह भरा हुआ है। यह वाक्य अक्षरश सत्य है कि 'भावना भवनाशिनी, भावना भवद्धिनी' अर्थात् भावना ही ससारके दु खोका अन्त करती है और भावना ही ससारके दु खोको वढाती है।
यदि विश्व जैन धर्म के उसूलोपर चले तो वह आज ही सुखी और पासमुक्त हो सकता है। वह अहकारको छोड दे, रोषको त्याग दे, असहिष्णुताको अलग कर दे, दूसरोको सताने और अतिसग्रहकी वृत्तिको सर्वथा तिलाञ्जलि दे दे तथा सर्व ससारके सुखी होनेकी भावनाको-'भावना दिन-रात मेरी सब सुखी संसार हो'अपने हृदयमें समा ले तथा वैसी प्रवृत्ति भी करे। अनेकान्तके विचार द्वारा विचार-वैमत्यको और अहिंसा, अपरिग्रह आदिके सुखद आचार द्वारा आचार-सघर्षको मिटाकर वह आगे बढे तो वह त्रस्त एव दुखी न रहे।
अत श्रद्धा समन्वित ज्ञान और आचार रूप धर्म ही व्यक्ति-व्यक्तिको सुखी कर सकता है और दु खोंसे उसे मुक्त कर सकता है। इसलिए धर्मका पालन कितना आवश्यक है, यह उपर्युक्त सक्षिप्त विवेचनसे स्पष्ट है।
COM
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
सम्यक्त्वका अमूढदृष्टि अङ्ग : एक महत्त्वपूर्ण परीक्षण- सिद्धान्त
यो तो सभी दर्शनो एव मतोंमें अपने-अपने सिद्धान्त एव आदर्श हैं। पर जैन दर्शनके आदर्श एव सिद्धान्त किसी व्यक्ति या समाज विशेषको लक्ष्य में रखकर स्थापित नही हुए वे हर व्यक्ति हर समाज हर समय और हर क्षेत्रके लिए उदित हुए हैं। उनका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति और समाजका उत्पान तथा कल्याण करना है । अतएव जैनधर्मके प्रवर्तकों एवं स्थापकोने जहाँ आत्म-विकास तथा आत्म-कल्याणपर बल दिया है वहाँ बिना किसी चौकावाजीके दूसरोंके, चाहे वे उनके अनुयायी हो या न हो, उत्थान तथा कल्याणका भी ध्येय रखा है । जैन दर्शन जैनधर्मके इसी ध्येयकी पूर्तिके लिए उनके द्वारा आविष्कृत हुआ है । धर्म और दर्शनमें यही मौलिक अन्तर है कि धर्म श्रद्धामूलक है और दर्शन विचारमूलक । जब तक दर्शन द्वारा धर्मको पोषण नही मिलता तब तक वह धर्म कोरा अन्धानुकरण समझा जाता है । अत आवश्यक है कि धर्मसस्थापक धर्मको दर्शन द्वारा प्राणवान् बनायें ज्ञात होता है कि इसी दृष्टिको सामने रखकर लोककी गतानुगतिकता एव अन्धानुकरणको रोकने तथा उचित एव सत्य मार्गका अनुसरण करनेके लिए जैन मनीषियो तथा सन्तोने धर्मके उपदेशके साथ दर्शनका भी निरूपण किया है और उसके सिद्धान्तोकी स्थापना की है । आज हम इस छोटे से लेसमे जैन दर्शनके महत्वपूर्ण परीक्षण सिद्धात के सम्बन्धमें विचार करेंगे ।
परीक्षण सिद्धांत एक वैज्ञानिक तरीका
यह जैन दर्शनका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रमुख सिद्धान्त है। इसके द्वारा बताया गया है कि किसी बातको ठोक-बजाकर परीक्षा करके ग्रहण करो उसे इसलिए ग्रहण मत करो कि यह अमुक्की कही है और उसे इसलिए मत छोडो कि अमुकफी कही हुई नहीं है। परीक्षाको कसौटी पर उसे कस लो और उसकी सत्यता-असत्यताको परख लो। यदि परख द्वारा वह सत्य जान पडे, सत्य साबित हो तो उसे स्वीकार करो और यदि सत्य प्रमाणित न हो तो उसे स्वीकार मत करो, उससे ताटस्थ्य (उपेक्षा - राग और न द्वेष ) रखो । जीवन बहुत ही अल्प है और इस अल्प जीवनमें अनेक कर्तव्य विषेय हैं । उसके साथ खिलवाड नही होना चाहिए। एक पैसेकी हाँडी खरीदी जाती है तो वह भी ठोक-बजाकर ली जाती है। तो धर्मके क्रय ( ग्रहण) में भी हाँडीको नीतिको क्यों नही अपनाना चाहिए ? उसे भी परीक्षा करके ग्रहण करना चाहिए। अत जीवन विकासके मार्गको चुननेके लिए परीक्षण सिद्धात नितांत आवश्यक है और उसे सदैव उपयोगमें लाना चाहिए। एक बार लौकिक कार्योंमें उसकी उपेक्षा कर भी दी जाय, यद्यपि यहाँ भी उसकी उपेक्षा करनेसे भयकर अलाभ और हानियां उठानी पडती हैं, पर धर्मके विषयमें उसकी उपेक्षा नही होनी चाहिए ।
एक बारकी बात है । काशीमें पचकोशीकी यात्रा अश्विन कार्तिकमें आरम्भ हो जाती है और लोग इस यात्राको पैदल चलकर करते है। यात्री गंगाजीके पाटोंके किनारे-किनारे जाते है और सभी स्याद्वाद महाविद्यालयके जैन घाट ( प्रभुघाट) से निकलते है । एक दिन हम लोगोको क्या सूझा कि जैन घाटपर जाकर एक किनारे दो-तीन पत्थर रख दिए और उनपर फूल डालकर पानी छिडक दिया। जब हम लोग यहांसे चुप-चाप चले आये और विद्यालयके घाटपर जाकर खडे हो गये, तो मोडी ही देरमे हम देखते हूँ कि
- २८ -
-
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
वहां फलो, मालाओं, खीलों और पैसोका ढेर लग गया है। किसीने यह नही विचार किया कि यहां केवल पत्थर पडे है, किसी देवताकी मूर्ति नहीं है तो फिर फूल आदि क्यो चढाये जायें? इसीको गतानुगतिकता अथवा अन्धानुकरण कहते है । जैन-दर्शन कहता है कि ऐसी गतानुगतिकतासे कोई लाभ नहीं होता, प्रत्युत वह अज्ञानको बढाती है । अत धर्मके सम्बन्धमे परीक्षा-सिद्धान्त आवश्यक ही नही, अनिवार्य भी है।
___जैनधर्ममें जहाँ सम्यक्त्वके आठ अगोका वर्णन किया गया है वहाँ उनमें एक 'अमूढदृष्टि' अङ्ग भी बतलाया गया है । यह 'अमूढदृष्टि' अग परीक्षा-सिद्धातको छोडकर दूसरी चीज नही है। सत्यके खोजीकी दृष्टि निश्चय ही अमूढा (मूढा-अन्धी नही--विवेकयुक्त) होना चाहिए । उसके बिना वह सत्यकी खोज सही सही नही कर सकता। जैन दर्शनके इस अमूढदृष्टि बनाम परीक्षण-सिद्धातके आधारपर जैन चिन्तकोने यहाँ तक घोपणा की है कि देव (आप्त) को भी उसकी परीक्षा करके अपना उपास्य मानो । आ० हरिभद्र सूरिने लिखा है
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष कपिलादिपु । युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्य परिग्रह ।।
'महावीरमे मेरा अनुराग नही है और कपिलादिको द्वेष नही है। किन्तु जिसकी बात युक्तिपूर्ण है वह ग्राह्य है।'
स्वामी समन्तभद्राचार्य ने 'आप्तमीमासा' नामका एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ ही इसी विषयपर लिखा है, जिसमें उन्होने भगवान महावीरकी परीक्षा की है और परीक्षाके उपरान्त उन्हे उनमें परमात्माके योग्य गुणोको पाकर 'आप्त' स्वीकार किया है । साथ ही उनके वचनो (तत्त्वोपदेशों-स्याद्वाद) की भी परीक्षा की है। आचार्य विद्यानन्द आदि उत्तरकालीन जैन तर्कलेखकोने भी 'आप्त परीक्षा' जैसे परीक्षा-ग्रन्थोका निर्माण करके परीक्षण-सिद्धान्तको उद्दीपित किया है। वस्तुत सत्यका ग्रहण श्रद्धासे नही, परीक्षासे होता है। उसके बिना अन्य उपाय नहीं है।
जिस परीक्षा-सिद्धातको जैन विचारकोने हजारो वर्ष पूर्व जन्म दिया उसीको आज समूची दुनिया स्वीकार करने लगी है। इतना ही नहीं, अपनी वातकी प्रामाणिकताके लिए उसे सर्वोच्च कसौटी माना जाने लगा है और उसकी आवश्यकता मानी जाती है। वह विज्ञान (Science) के नामसे सबकी जिह्वाओपर है । इस विज्ञानके बल पर जहाँ भौतिक प्रयोग सत्य सिद्ध किये जा रहे हैं वहाँ प्राय सभी मत वाले अपने सिद्धात भी सिद्ध करनेको उद्यत है। जैन धर्मका 'अमूढदृष्टि' सिद्धान्त ऐसा सिद्धान्त है कि हम न धोखा खा सकते है और न अविवेकी एव अन्धश्रद्धाल बन सकते है। अत इस सिद्धान्तका पालन प्रत्येकके लिए सुखद है।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीरकी धर्म-देशना
महावीरका जन्म
आजसे २५५१ वर्ष पहले लोकवन्द्य महावीरने विश्वके लिए म्हणीय भारतवर्ष के अत्यन्त रमणीक पुण्य-प्रदेश विदेहदेश (विहार प्रान्त) के 'फुण्डपुर' नगरमें जन्म लिया था। 'कुण्डपुर' विदेहकी राजधानी वैशाली (वर्तमान वसाढ) के निकट बसा हुआ था और उस समय एक सुन्दर एव स्वतन्त्र गणसत्तात्मक राज्यके रूपमे अवस्थित था। इसके शासक मिद्धार्थ नरेश थे, जो लिच्छवी ज्ञाताशी थे और बडे न्याय-नीतिकुशल एव प्रजावत्मल थे। इनकी शासन-व्यवस्था अहिमा और गणतत्र (प्रजातत्र) के सिद्धान्तोंके आधारपर चलती थी। ये उस समयके नौ लिच्छवि (वज्जि) गणोमे एक थे और उनमें इनका अच्छा सम्मान तथा आदर था । सिद्धार्थ भी उन्हें इसी तरह सम्मान देते थे । इमीसे लिच्छवी गणोके वारेमें उनके पारस्परिक, प्रेम और सगठनको बतलाते हुए बौद्धोके दीघनिकाय-अट्ठकथा आदि प्राचीन ग्रन्थोमें कहा गया है कि 'यदि कोई लिच्छवि वीमार होता तो सब लिच्छवि उसे देखने आते, एकके घर उत्सव होता तो उसमें सव सम्मिलित होते, तथा यदि उनके नगरमें कोई साध-सन्त आता तो उसका स्वागत करते थे।' इससे मालूम होता है कि अहिंसाके परम पुजारी नृप सिद्धार्थके सूक्ष्म अहिंसक आचरणका कितना अधिक प्रभाव था ? जो साथी नरेश जैन धर्मके उपासफ नही थे वे भी सिद्धार्थकी अहिंसा-नीतिका समर्थन करते थे और परस्पर भ्रातृत्वपूर्ण समानताका आदर्श उपस्थित करते थे ।
मिद्धार्थ के इन्ही समभाव, प्रेम, सगठन, प्रभावादि गुणोंसे आकृष्ट होकर वैशालीके (जो विदेह देशकी तत्कालीन सुन्दर राजधानी तथा लिच्छवि नरेशोके प्रजातकी प्रवृत्तियोको केन्द्र एव गौरवपूर्ण नगरी थी) प्रभावशाली नरेश चेटकने अपनी गुणवती राजकुमारी त्रिशलाका विवाह उनके साथ कर दिया था। त्रिशला चेटककी सबसे प्यारी पुत्री थी, इसलिए चेटक उन्हे "प्रियकारिणी' भी कहा करते थे। त्रिशला अपने प्रभावशाली सुयोग्य पिताकी सुयोग्य पुनी होनेके कारण पैतृकगुणोसे सम्पन्न तथा उदारता, दया, विनय, शीलादि गुणोंसे भी युक्त थी।
इसी भाग्यशाली दम्पति-त्रिशला और सिद्धार्थ-को लोकवन्द्य महावीरको जन्म देनेका अचिन्त्य सौभाग्य प्राप्त हुआ। जिस दिन महावीरका जन्म हुआ वह चैत सुदी तेरसका पावन दिवस था।
महावीरके जन्म लेते ही सिद्धार्थ और उनके परिवारने पुत्रजन्मके उपलक्ष्यमें खूब खुशियां मनाई। गरीबोको भरपूर धन-धान्य आदि दिया और सबकी मनोकामनाएं पूरी की। तथा तरह-तरहके गायनवादित्रादि करवाये। सिद्धार्थ के कुटुम्बी जनो, समशील मित्रनरेशो, रिश्तेदारो और प्रजाजनोंने भी उन्हें बधाइयाँ भेजी, खुशियां मनाई और याचकोंको दानादि दिया।
महावीर बाल्यावस्थामें ही विशिष्ट ज्ञानवान् और अद्वितीय वुद्धिमान् थे । 'बडी-से-वडी शकाका समाधान कर देते थे। साधु-सन्त भी अपनी शकाएँ पूछने आते थे। इसीलिए लोगोने उन्हें सन्मति कहना शुरू कर दिया और इस तरह वर्धगनका लोकमें एक 'सन्मति' नाम भी प्रसिद्ध हो गया। वह बड़े वीर भी थे।
-३०
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
भयकर भापदाओंसे भी नही घबडाते थे, किन्तु उनका साहसपूर्वक सामना करते थे । अत उनके साथी उन्हें वीर और अतिवीर भी कहते थे ।
महावीरका वैराग्य
महावीर इस तरह बाल्यावस्थाको अतिक्रान्त कर धीरे-धीरे कुमारावस्थाको प्राप्त हुए और कुमारावस्थाको भी छोड़कर वे पूरे ३० वर्षके युवा हो गये। अब उनके माता-पिताने उनके सामने विवाहका प्रस्ताव रखा। किंतु महावीर तो महावीर ही थे । उस समय जनसाधारणकी जो दुर्दशा थी उसे देखकर उन्हें असह्य पीडा हो रही थी । उस समयको अज्ञानमय स्थितिको देखकर उनकी आत्मा सिहर उठी थी और हृदय दयासे भर आया था । अतएव उनके हृदय में पूर्णरूपसे वैराग्य ममा चुका था । उन्होने सोचा- 'इस समय देशकी स्थिति धार्मिक दृष्टिसे बडी खराब है, धर्मके नामपर अधर्म हो रहा है । यज्ञोमें पशुओकी बलि दी जा रही है और उसे धर्म कहा जा रहा है। कही अश्वमेघ हो रहा है तो कही अजमेध हो रहा है । पशुभोकी तो बात ही क्या, नरो ( मनुष्यो) का भी यज्ञ करनेके लिए, वेदोके सूक्त बताकर जनताको प्रोत्साहित किया जाता है और कितने ही लोग नरमेध यज्ञ भी कर रहे है । इस तरह जहाँ देखो वहाँ हिंसाका वोल-बाला और भीषणकाण्ड मचा हुआ है । सारी पृथ्वी खून से लथपथ हो रही है । इसके अतिरिक्त स्त्री, शूद्र और पतितजनोके साथ उस समय जो दुर्व्यवहार हो रहा है वह भी चरमसीमा पर पहुँच चुका है । स्त्री और शूद्र वेदादि शास्त्र नही पढ सकते 'स्त्रीशूद्रो नाधीयताम्' जैसे निषेधपरक वेदादिवाक्योकी दुहाई दी जाती है और इस तरह उन्हें ज्ञानसे वचित रखा जा रहा है । शूद्रके साथ सभापण, उसका अन्नभक्षण और उसके साथ सभी प्रकारका व्यवहार बन्द कर रखा है और यदि कोई करता है तो उसे कडे-से कडा दण्ड भोगना पडता है । पतितोकी तो हालत हो मत पूछिये । यदि किसी से अज्ञानवतावश या भूलसे कोई अपराध वन गया तो उमे जाति, धर्म और तमाम उत्तम बातोंसे च्युत करके बहिष्कृत कर दिया जाता है - उनके उद्धारका कोई रास्ता ही नही है । यह भी नही सोचा जाता कि मनुष्य मनुष्य है, देवता नही । उससे गलतियाँ हो सकती है और उनका सुवार भी हो सकता है ।
।
महावीर इस अज्ञानमय स्थितिको देखकर खिन्न हो उठे, उनकी आत्मा सिहर उठी और हृदय दयासे भर आया । वे सोचने लगे कि 'यदि यह स्थिति कुछ समय और रही तो अहिंसक और आध्यात्मिक ऋपियोकी यह पवित्र भारतभूमि नरककुण्ड बन जायगी और मानव दानव हो जायगा । जिस भारतभूमिके मस्तकको ऋषभदेव, राम और अरिष्टनेमि - जैसे अहिंसक महापुरुषोंने ऊँचा किया और अपने कार्योंसे उसे पावन, बनाया उसके माथेपर हिंसाका वह भीषण कलक लगेगा जो घुल न सकेगा । इस हिंसा और जडताको शीघ्र ही दूर करना चाहिए । यद्यपि राजकीय दण्ड विधान - आदेशसे यह बहुत कुछ दूर हो सकती है, पर उसका असर लोगोके शरीरपर ही पडेगा -- हृदय एव आत्मा पर नही । आत्मा पर असर डालने के लिए तो अन्दरकी आवाज - उपदेश ही होना चाहिए और वह उपदेश पूर्ण सफल एवं कल्याणप्रद तभी हो सकता है जब मैं स्वय पूर्ण अहिंसाकी प्रतिष्ठा कर लूँ । इसलिए अब मेरा घरमें रहना किसी भी प्रकार उचित नही है । घरमें रहकर सुखोपभोग करना और अहिंसाकी पूर्ण साधना करना दोनो बातें सम्भव नही हैं ।' यह सोचकर उन्होने घर छोडनेका निश्चय कर लिया ।
उनके इस निश्चयको जानकर माता त्रिशला, पिता सिद्धार्थ और सभी प्रियजन अवाक् रह गये, परन्तु उनकी दृढताको देखकर उन्हें ससारके कल्याणके मार्गसे रोकना उचित नही समझा और सबने उन्हें उसके लिए अनुमति दे दी । ससार भीरु सभ्यजनोने भी उनके इस लोकोत्तर कार्यकी प्रशंसा की और गुणानुवाद किया ।
३१
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीरकी निर्ग्रन्थ-दीक्षा
राजकुमार महावीर सव तरहके सुखों और राज्यका त्यागकर निर्ग्रन्थ-अचेल हो वन-वनमें, पहाडोंकी गुफाओ और वृक्षोकी कोटरोमें समाधि लगाकर अहिंसाकी साधना करने लगे। काम-क्रोध, राग-द्वेप, मोह-माया, छल-ईर्ष्या आदि आत्माके अन्तरग शत्रुओपर विजय पाने लगे । वे जो कायक्लेशादि बाह्य तप तपते थे वह अन्तरगकी ज्ञानादि शक्तियोंको विकसित व पुष्ट करने के लिए करते थे । उनपर जो विघ्नबाधाएँ और उपसर्ग आते थे उन्हें वे वीरताके साथ सहते थे। इस प्रकार लगातार बारह वर्ष तक मौनपूर्वक तपश्चरण करनेके पश्चात् उन्होने कर्मकलकको नाशकर अर्हत अर्थात् 'जीवन्मुक्त' अवस्था प्राप्त की। आत्माके विकासको सबसे ऊँची अवस्था ससार दशामें यही 'अर्हत् अवस्था' है जो लोकपूज्य और लोकके लिए स्पृहणीय है । बौद्धग्रन्थोमें इसीको ‘अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध' कहा है । उनका उपदेश
इस प्रकार महावीरने अपने उद्देश्यानुसार आत्मामें अहिंसाकी पूर्ण प्रतिष्ठा कर ली, समस्त जीवों पर उनका समभाव हो गया--उनकी दृष्टि में न कोई शत्रु रहा और न कोई मित्र । सर्प-नेवला, सिंह-गाय जैसे जाति-विरोधी जीव भी उनके सान्निध्यमें आकर अपने वैर-विरोधको भूल गये। वातावरणमें अपूर्व शान्ति आ गई। महावीरके इम स्वाभाविक आत्मिक प्रभावसे आकृष्ट होकर लोग स्वयमेव उनके पास आने लगे । महावीरने उचित अवसर और समय देखकर लोगोको अहिंसाका उपदेश देना प्रारम्भ कर दिया। 'अहिंसा परमो धर्म' कह कर अहिंसाको परमधर्म और हिंसाको अधर्म बतलाया। यज्ञोमें होनेवाली पशुवलिको अधर्म कहा और उसका अनुभव तथा युक्तियों द्वारा तीव्र विरोध किया। जगह-जगह जाकर विशाल सभाएं
रके उसकी बराहयां बतलाई और अहिंसाके अपरिमित लाभ बतलाये । इस तरह लगातार तीस वर्ष तक उन्होने अहिंसाका प्रभावशाली प्रचार किया, जिसका यज्ञोको हिंसापर इतना प्रभाव पड़ा कि पशु-यज्ञके स्थानपर शान्तियज्ञ, ब्रह्मयज्ञ आदि अहिंसक यज्ञोका प्रतिपादन होने लगा और यज्ञमें पिष्ट पशु (आटेके पशु) का विधान किया जाने लगा। इस बातको लोकमान्य तिलक जैसे उच्च कोटि के विचारक विद्वानोने भी स्वीकार किया है।
पशजातिकी रक्षा और धर्मान्धताके निराकरणका कार्य करनेके साथ ही महावीरने हीनों, पतितजनो तथा स्त्रियोंके उद्धारका भी कार्य किया । 'प्रत्येक योग्य प्राणी धर्म धारण कर सकता है और अपने आत्माका कल्याण कर सकता है' इस उदार घोषणाके साथ उन्हें ऊँचे उठ सकनेका आश्वासन, बल और साहस दिया। महावीरके सघमें पापोसे पापी भी सम्मिलित हो सकते थे और उन्हें धर्म धारणकी अनुज्ञा थी।
का स्पष्ट उपदेश था कि 'पापसे घणा करो, पापीसे नही' और इसीलिए उनके सघका उस समय जो विशाल रूप था वह तत्कालीन अन्य सघोमें कम मिलता था । ज्येष्ठा और अजनचोर जैसे पापियोका उद्धार महावीरके उदारधर्मने किया था। इन्ही सब बातोंसे महान् आचार्य स्वामी समन्तभद्रने महावीरके शासन (तीर्थ-धर्म) को 'सर्वोदय तीर्थ' सबका उदय करनेवाला कहा है। उनके धर्मकी यह सबसे बडी विशेषता है।
महावीरने अपने उपदेशोमें जिन तत्त्वज्ञानपूर्ण सिद्धान्तोंका प्रतिपादन एव प्रकाशन किया उन पर कुछ प्रकाश डालना आवश्यक है -
१ सर्वज्ञ (परमात्म) वाद-जहाँ अन्य धर्मोमें जीवको सदैव ईश्वरका दास रहना बतलाया गया है वहां जैन धर्मका मन्तव्य है कि प्रत्येक योग्य आत्मा अपने अध्यवसाय एव प्रयत्लो द्वारा स्वतन्त्र, पूर्ण एव
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईश्वर-सर्वज्ञ परमात्मा बन सकता है। जैसे एक छह वर्षका विद्यार्थी 'अ आ इ' सीखता हआ एक-एक दर्जेको पास करके एम० ए० और डॉक्टर बन जाता है और छह वर्षके अल्प ज्ञानको महस्रो गना विकसित कर लेता है. उसी प्रकार साधारण आत्मा भी दोपो और आवरणोको दूर करता हुआ महात्मा तथा परमात्मा बन जाता है। कुछ दोषो और आवरणोको दूर करनेसे महात्मा और सर्व दोषो तथा आवरणोको दूर करनेसे परमात्मा कहलाता है। अतएव जैनधर्ममें गुणोकी अपेक्षा पूर्ण विकसित आत्मा ही परमात्मा है, सर्वज्ञ एव ईश्वर है-उससे जुदा एक रूप कोई ईश्वर नहीं है । यथार्थत गुणोकी अपेक्षा जैनधर्म में ईश्वर
और जीवमें कोई भेद नही है। यदि भेद है तो वह यही कि जीव कर्म-बन्धन युक्त है और ईश्वर कर्मवन्धन मुक्त है। पर कर्म-वन्धनके दूर हो जानेपर वह भी ईश्वर हो जाता है । इस तरह जैनधर्म में अनन्त ईश्वर हैं। हम व आप भी कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जानेपर ईश्वर (सर्वज्ञ) बन सकते हैं । पूजा, उपासनादि जैनधर्ममें मुक्त न होने तक ही बतलाई है। उसके बाद वह और ईश्वर सब म्वतन्त्र व समान है और अनन्त गुणोके भण्डार हैं। यही सर्वज्ञवाद अथवा परमात्मवाद है जो मवसे निराला है। प्रिपिटिकों (मज्झिमनिकाय अनु पृ ५७ आदि) में महावीर (निग्गठनातपुत्त) को वुद्ध और उनके आनन्द आदि शिष्योने 'सर्वज्ञ सर्वदर्शी निरन्तर समस्त ज्ञान दर्शनवाला' कहकर अनेक जगह उल्लेखित किया है।
२ रत्नत्रय धर्म-जीव परमात्मा कैसे बन सकता है, इस बातको भी जैनधर्ममें बतलाया गया है। जो जीव सम्यकदर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक्चरित्ररूप रत्नत्रय धर्मको धारण करता है वह ससारके दुखोसे मुक्त परमात्मा हो जाता है।
(क) सम्यक्दर्शन-मूढता और अभिमान रहित होकर यथार्थ (निर्दोप) देव (परमात्मा), यथार्थ वचन और यथार्थ महात्माको मानना और उनपर ही अपना विश्वास करना ।
(ख)सम्यकज्ञान-न कम, न ज्यादा, यथार्थ, सन्देह और विपर्यय रहित तत्त्वका ज्ञान करना ।
(ग) सम्यक्चरित्र-हिमा न करना, झूठ न बोलना, पर-वस्तुको विना दिये ग्रहण न करना, ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना अपरिग्रही होना। गृहस्थ इनका पालन एकदेश और निम्रन्य साघु पूर्णत करते है ।
३ सप्त तत्त्व-जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्त्व (वस्तुभूत पदार्थ) हैं। जो चेतना (जानने-देखनेके) गुणसे युक्त है वह जीवतत्त्व है। जो चेतनायुक्त नही है वह अजीवतत्त्व है। इसके पुदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पांच भेद हैं। जिन कारणोंसे जीव और पुद्गलका सवध होता है वे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय और योग मानवतत्त्व है। दूध-पानीकी तरह जीव और पुद्गलका जो गाढ सम्बन्ध है वह वन्धतत्त्व है। अनागत वन्धका न होना सवरतत्त्व है और सचित पूर्व बन्धका छूट जाना निर्जरा है और सम्पूर्ण कर्मवन्धनसे रहित हो जाना मोक्ष है। ममक्ष और ससारी दोनोके लिए इन तत्त्वोका ज्ञान करना आवश्यक है ।
कर्म-जो जीवको पराधीन बनाता है-उसकी स्वतमतामें वाधक है वह कर्म है। इस कर्मकी वजहसे ही जीवात्मा नाना योनियोमें भ्रमण करता है। इसके जानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोप और अन्तराय ये आठ भेद है । इनके भी उत्तर भेद अनेक है।
५ अनेकान्त और स्याद्वाद-जैन धर्मको ठीक तरह समझने-समझाने और मीमासा फरने करानके लिए महावीरने जैनधर्मके साथ ही जैन दर्शनका भी प्ररूपण किया।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
(क) अनेकान्त---नाना धर्मरूप वस्तु अनेकान्त है |
(ख) स्याद्वाद - अपेक्षा से नाना धर्मो को कहनेवाले वचनप्रकारको स्याद्वाद कहते हैं । अपेक्षावाद, कथंचित्वाद आदि इसीके नाम हैं ।
इन और एसे ही और अनेक सिद्धान्तोंका महावीरने प्रतिपादन किया था, जो जैन शास्त्रोंसे ज्ञातव्य हैं ।
अन्तमें ७२ वर्षकी आयु में कार्तिक वदी अमावस्या के प्रात. महावीरने पावासे निर्वाण प्राप्त किया, जिसकी स्मृति में जैन समाज में वीर निर्वाण सवत् प्रचलित है और जो माज २४७८ चल रहा है ।
- ३४ -
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीर-शासन और उसका महत्त्वं
वीर-शासन
अन्तिम तीर्थकर भगवान वीरने आजसे २४९८ वर्ष पूर्व विहार प्रान्तके विपुलाचल पर्वतपर स्थित होकर श्रावण कृष्णा प्रतिपदाकी पुण्यवेलामे, जब सूर्यका उदय प्राचीसे हो रहा था, ससारके सतप्त प्राणियोके सतापको दूरकर उन्हें परम शान्ति प्रदान करनेवाला धर्मोपदेश दिया था। उनके धर्मोपदेशका यह प्रथम दिन था। इसके बाद भी लगातार उन्होंने तीस वर्ष तक अनेक देश-देशान्तरोमें विहार करके पथभ्रष्टोको सत्पथका प्रदर्शन कराया था, उन्हें सन्मार्ग पर लगाया था। उस समय जो महान् अज्ञान-तम सर्वत्र फैला हमा था. उसे अपने अमत-मय उपदेशो द्वारा दूर किया था, लोगोकी भूलोको अपनी दिव्य वाणीसे बताकर उन्हें तत्त्वपथ ग्रहण कराया था, सम्यकदृष्टि बनाया था। उनके उपदेश हमेशा दया एव अहिंसासे ओत-प्रोत हआ करते थे। यही कारण था कि उस समयकी हिंसामय स्थिति अहिंसामें परिणत हो गयी थी और यही वजह थी कि इन्द्रभूति जैसे कट्टर वैदिक ब्राह्मण विद्वान् भी, जिन्हें बादको भगवान वीरके उपदेशोंके सकलनकर्ता--मुख्य गणधर तकके पदका गौरव प्राप्त हुआ है, उनके उपाश्रयमें आये और अन्तमें उन्होने मुक्तिको प्राप्त किया। इस तरह भगवान वीरने अवशिष्ट तीस वर्षके जीवनमें सख्यातीत प्राणियोका उद्धार किया और जगतको परम हितकारक सच्चे धर्मका उपदेश दिया। वीरका यह सब दिव्य उपदेश ही 'वीरशासन' या 'वीरतीर्थ' है और इस तीर्थको चलाने-प्रवृत्त करने के कारण ही वे 'तीर्थकर' कहे जाते हैं। वर्तमानमें उन्हीका शासन-तीर्थ चल रहा है, । यह वीर-शासन क्या है ? उसके महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त कौनसे है ? और उसमें क्या-क्या उल्लेखनीय विशेषतायें हैं ? इन बातोसे बहुत कम सज्जन अवगत है । अत. इन्ही बातोंपर सक्षेपमें कुछ विचार किया जाता है ।
समन्तभद्र स्वामीने, जो महान् ताकिक एव परीक्षाप्रधानी प्रसिद्ध जैन आचार्य थे और जो आजसे लगभग १८०० वर्ष पूर्व हो चुके हैं, भगवान महावीर और उनके शासनकी सयुक्तिक परीक्षा एव जांच की है-'यक्तिमद्वचन' अथवा 'यक्तिशास्त्राविरोधिवचन' और 'निर्दोषता' की कसौटीपर उन्हें और उनके शासनको खब कसा है। जब उनकी परीक्षामें भगवान् महावीर और उनका शासन सौटची स्वर्णकी तरह ठीक सावित हुये तभी उन्हें अपनाया है। इतना ही नही, किन्तु भगवान् वीर और उनके शासनकी परीक्षा करने के लिये अन्य परीक्षको तथा विचारकोको भी आमन्त्रित किया है-निष्पक्ष विचारके लिये खुला निमत्रण दिया है।' समन्तभद्र स्वामीके ऐसे कूछ परीक्षा-वाक्य थोडे-से ऊहापोहके साथ नीचे दिये जाते है
देवागमनभोयानचामरादिविभूतय । मायाविष्वपि दृश्यन्ते नातस्त्वमसि नो महान् ।।
आप्तमीमासा १।
१ युक्त्यनुशासन, का० ६३ ।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
'है वीर ? देवीका आना, आकाशमै चलना, चमर छप, सिंहासन आदि विभूतियोका होना तो
"
छत्र, मायावियो —— इन्द्रजालियो में भी देखा जाता है, इस वजहसे आप हमारे महान् पूज्य नहीं हो सकते और न इन बातोसे आपकी कोई महत्ता या बडाई हैं ।
-
समन्तभद्र स्वामीने ऐसे अनेक परीक्षा वाक्यों द्वारा उनकी और उनके शामनकी परीक्षा की है, जिनका कथन सूत्ररूपसे आप्त-मीमासामें दिया हुआ है। परीक्षा करनेके बाद उन्हें उनमें महत्ताकी जो बात मिली है और जिसके कारण भगवान् वोरको 'महान्' तथा उनके शासनको 'अद्वितीय माना है। यह यह है त्व शुद्धि - शक्तयोरुदयस्प काष्ठा, तुलाव्यतीता जिन शान्तिरूपाम् । अवाविथ ब्रह्मपथस्य नेता महानितीयत्प्रतिवक्तमीशा ॥
युक्त्यनुशासन ४ ।
"हे जिन आपने शुद्धिकेशानावरण और दर्शनावरण कर्म के क्षयसे उत्पन्न आत्मीय ज्ञान दर्शन के तथा शक्तिके वीर्यान्तरायकर्मके वायसे उत्पन्न आत्मवलके परम प्ररूपको प्राप्त किया है आप अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान और अनन्तवीर्यके धनी हैं। साथ ही अनुपम एव अपरिमेय शान्तिरूपताको अनन्तसुलको भी प्राप्त हैं, इससे आप 'ब्रह्मपथ' के - मोक्षमार्गके नेता हैं और इसीलिए आप महान् है - पूज्य हैं । ऐसा हम कहने — सिद्ध करनेके लिए समर्थ हैं ।'
समन्तभद्र वीरशासनको अद्वितीय वतलाते हुए लिखते हैं
—
दया दम-त्याग समाधि-निष्ठ, नयप्रमाण प्रकृताञ्जसार्थम् । अधृष्पमन्यैरखिलं प्रवादेजिन त्वदीय मतमद्वितीयम् ॥
-
- युक्त्यनुशासन
'हे वीर जिन आपका मत - शासन नय और प्रमाणोके द्वारा वस्तुतत्वको बिलकुल स्पष्ट करने वाला है और अन्य समस्त एकान्तवादियोसे अवाध्य है-- असडनीय है, साथमें दया-अहिंसा, दम - इन्द्रियनिग्रहरूप सयम, त्यागदान अथवा समस्त परिग्रहका परित्याग और समाधि - प्रशस्त व्यान इन चारोंकी तत्परताको लिये हुये है, इसलिए वह 'अद्वितीय' है ।
दयाके बिना दम - सयम नही बन सकता और सयमके बिना त्याग नही और त्यागके बिना समाधि - प्रशस्त ध्यान नही हो सकता, इसीसे वीरशासनमें दया - अहिंसाको प्रधान स्थान प्राप्त है। 'वीर - शासन' की इस महत्ताको बतलाने के बाद समन्तभद्र उसे 'सर्वोदयतीर्थ' भी बतलाते हैंसर्वान्तवत्तद्गुणमुख्यकल्प सर्वान्तशून्य च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वापदामन्तकर निरन्त सर्वोदय तीर्थमिद तवेव ||
युक्त्यनुशासन
'हे वीर | आपका तीर्थ - शासन अथवा परमागम द्वादशाङ्गश्रुत- समस्त धर्मों वाला है और मुख्य गौणकी अपेक्षा समस्त धर्मोकी व्यवस्थासे युक्त है - एक धर्मके प्रधान होनेपर अन्य बाकी धर्म गौण मात्र हो जाते हैं - उनका अभाव नही होता । किन्तु एकान्तवादियो का आगमवाक्य अथवा शासन परस्पर निरपेक्ष होनेसे सब धर्मों वाला नही है उनके यहाँ धर्मो में परस्पर अपेक्षा न होनेसे दूसरे धर्मोका अभाव हो जाता है और उनके अभाव हो जानेपर उस अविनाभावी अभिप्रेत धर्मका भी अभाव हो जाता है। इस तरह एकान्तमें न वाच्यतत्त्व ही बनता है और न वाचकतत्त्व हो । और इसलिए हे वीर जिनेन्द्र । परस्परकी अपेक्षा रखनेके कारण अनेकान्तमय होने के कारण आपका ही तीर्थ-- शासन सम्पूर्ण आपदामीका मन्त करने वाला है और स्वयं निरत है-अतरहित अविनाशी है तथा सर्वोदयरूप है - समस्त अभ्युदयो
- ३६
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
आध्यात्मिक और भौतिक विभूतियोका कारण है। तथा सर्व प्राणियोके अभ्युदय-अभ्युत्थानका हेतु है । समन्तभद्रके इन वाक्योसे यह भले प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि वस्तुत 'वीर-शासन' सर्वोदय तीर्थ कहलाने के योग्य है। उसमें वे विशेषताएँ एव महत्तायें है, जो आज विश्व के लिए वीरशासनकी देन कही जाती है या कही जा सकती हैं । यहाँ वे विशेषतायें भी कुछ निम्न प्रकार उल्लिखित हैंवीरशासनकी विशेषताएँ
१ अहिंसावाद, २ साम्यवाद ३ स्याद्वाद और ४ कर्मवाद । इनके अलावा वीरशासनमें और भी वाद है-आत्मवाद, ज्ञानवाद. चारित्रवाद, दर्शनवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, परिग्रहपरिमाणवाद, प्रमेयवाद आदि । किन्तु उन सबका उल्लिखित चार वादोमें ही प्राय अन्तर्भाव हो जाता है। प्रमाणवाद और नयवादके ही नामान्तर हैं और इनका तथा प्रमेयवादका स्याद्वादके साथ सम्बन्ध होनेसे स्याद्वादमें और बाकीका अहिंसावाद तथा साम्यवादमें अन्तर्भाव हो जाता है। १ अहिंसावाद
'स्वय जियो और जीनो दो' की शिक्षा भगवान महावीरने इस अहिंसावाद द्वारा दी थी। जो परम आत्मा, परमब्रह्म, परमसुखी होना चाहता है उसे अहिंसाकी उपासना करनी चाहिये-उसे अपने समान ही सबको देखना चाहिये-अपना अहिंसक आचरण बनाना चाहिये । मनुष्य में जब तक हिंसक वृत्ति रहती है तब तक आत्मगुणोका विकास नही हो पाता-वह वृ खी, अशान्त बना रहता है। अहिंसकका जीवमात्र मित्र बन जाता है-सर्व वरका त्याग करके जातिविरोधी जीव भी उसके आश्रयमें आपसमे हिलमिल जाते हैं। क्रोध, दम्भ, द्वेष गर्व, लोभ आदि ये सब हिंसाकी वृत्तियां हैं। ये सच्चे अहिंसकके पासमें नही फटक पाती हैं। अहिंसकको कभी भय नही होता, वह निर्भीकताके साथ उपस्थित परिस्थितिका सामना करता है, कायरतासे कभी पलायन नहीं करता। अहिंसा कायरोका धर्म नही है वह तो वीरोका धर्म है। कायरताका हिंसाके साथ और वीरताका अहिंसाके साथ सम्बन्ध है । शारीरिक बलका नाम वीरता नही, आत्मबलका नाम वीरता है । जिसका जितना अधिक आत्मबल विकसित होगा वह उतना ही अधिक वीर और अहिंसक होगा। शारीरिक बल कदाचित ही सफल होता देखा गया है, लेकिन सूखी हड्डियो वालेका भी आत्मबल विजयी और अमोघ रहा है ।
अत अहिंसा पर कायरताका लाछन लगाना निराधार है। भगवान् महावीरने वह अहिंसा दो प्रकारकी वणित की है-गहस्थकी अहिंसा, २ साधुकी अहिंसा। गृहस्थ-अहिंसा
गृहस्थ चार तरहकी हिंसाओ-आरम्भी, उद्योगी, विरोधी और सकल्पीमें-केवल सकल्पी हिंसाका त्यागी होता है. बाकीकी तीन तरहकी हिंसाओका त्यागी वह नहीं होता। इसका मतलब यह नहीं है कि वह इन तीन तरहकी हिंसाओंमें असावधान बनकर प्रवृत्त रहता है, नही, आत्मरक्षा, जीवननिर्वाह आदिके लिये जितनी अनिवार्य हिंसा होगी वह उसे करेगा, फिर भी वह अपनी प्रवृत्ति हमेशा सावधानीसे करेगा। उसका व्यवहार हमेशा नैतिक होगा। यही गहस्थधर्म है, अन्य क्रियाएँ-आचरण तो इसीके पालनके दृष्टिबिन्दु हैं। साघु-अहिंसा
साधुकी अहिंसा सब प्रकारकी हिंसामोके त्यागमेसे उदित होती है, उसकी अहिसामे कोई विकल्प नहीं होता। वह अपने जीवनको सुवर्णके समान निर्मल बनानेके लिए उपद्रवो, उपसर्गोको सहनशीलताके
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
साथ सेहन करता है। निन्दा करने वालोपर रुष्ट नहीं होता और स्तुति करने वालोंपर प्रसन्न नही होता। वह सवपर साम्यवृत्ति रखता है। अपनेको पूर्ण सावधान रखता है। तामसी और राजसी वृत्तियोसे अपने आपको बचाये रखता है। मार्ग चलेगा तो चार कदम जमीन देखकर चलेगा, जीव-जन्तुओको बचाता हआ चलेगा, हित-मित वचन बोलेगा, ज्यादा बकवाद नही करेगा। गरज यह कि जैन साधु अपनी तमाम प्रवृत्ति सावधानीसे करता है। यह सब अहिंसाके लिए, अहिंसातत्त्वकी उपासनाके लिए 'परमब्रह्मको प्राप्त करनेके लिए 'अहिंसा भूताना जगति विदित ब्रह्म परम' इस समन्तभद्रोक्त तत्त्वको हासिल करनेके लिए। इस तरह जैन साधु अपने जीवनको पूर्ण अहिंसामय बनाता हुआ, अहिंसाकी साधना करता हआ, जीवनको अहिंसाजन्य अनुपम शाति प्रदान करता हुआ, विकारी पुद्गलसे अपना नाता तोडता हुआ, कर्म-वन्धनको काटता हुआ, अहिंसामें ही-परमब्रह्ममें ही-शाश्वतानन्दमे ही--निमग्न हो जाता है-लीन हो जाता है-सदाके लिए-अनन्तकालके लिए। फिर उसे संसारका चक्कर नहीं लगाना पडता। वह अजर, अमर, अविनाशी हो जाता है । सिद्ध एव कृतकृत्य बन जाता है यह सव अहिंसाके द्वारा ही । वीर-शासनको जड--बुनियादआधार और विकास अहिंसा ही है ।
वर्तमानमें जैन समाज इस अहिंसा-तत्त्व को कुछ भूल-सा गया है। इसीलिये जैनेतर लोग उसके बाह्याचारको देखकर 'जैनी अहिंसा', 'वीर अहिंमा', पर फायरताका कलक मढते हुए पाये जाते हैं । क्या ही अच्छा हो, जैनी लोग अपने व्यवहारसे अहिंसाको व्यावहारिक धर्म बनाये रखनेसे सच्चे अर्थोमें 'जैनी' बनें, आत्मबल पष्ट करे. साहसी और वीर बनें. जितेन्द्रिय होवें। उनकी अहिंसा केवल चिवटी-खटमल, जें आदिकी रक्षा तक ही सीमित न हो, जिससे दूसरे लोग हमारे दम्भपूर्ण व्यवहार-निरा अहिंसाके व्यवहारको देखकर वीर प्रभुकी महती देन-अहिसापर कलक न मढ़ सकें।
२ साम्यवाद
यह अहिंसाका ही अवान्तर सिद्धान्त है, लेकिन इस सिद्धान्तकी हमारे जीवनमें अहिंसाकी ही भांति अपनाये जाने की आवश्यकता होनेसे 'अहिंसावाद' के समकक्ष इसकी गणना करना उपयुक्त है, क्योंकि भगवान् वीरके शासनमें सबके साथ साम्य-भाव--सद्भावनाके साथ व्यवहार करनेका उपदेश है, अनुचित राग और द्वेषका त्यागना, दूसरोके साथ अन्याय तथा अत्याचारका बर्ताव नही करना, न्यायपूर्वक ही अपनी आजीविका सम्पादित करना, दूसरोके अधिकारोको हडप नही करना, दूसरोकी आजीविका पर नुकसान नहीं पहुंचाना, उनको अपने जैसा स्वतन्त्र और सुखी रहनेका अधिकारी समझकर उनके साथ 'वसुधैव कुटुम्बकम्'-यथायोग्य भाईचारेका व्यवहार करना, उनके उत्कर्षमें सहायक होना, उनका कभी अपकर्ष नही सोचना, जीवनोपयोगी सामग्रीको स्वय उचित और आवश्यक रखना और दूसरोको रखने देना, सग्रह, लोलुपता, चूसनेकी वृत्तिका परित्याग करना ही 'साम्यवाद' का लक्ष्य है-साम्यवादको शिक्षाका मुख्य उद्देश्य है । यदि आज विश्वमें वीरप्रभुकी यह साम्यवादको शिक्षा प्रसृत हो जावे तो सारा विश्व सुखी और शातिपूर्ण हो जाय । ३ स्याद्वाद अथवा अनेकान्तवाद
इसको जन्म देनेका महान् श्रेय वीरशासनको ही है। प्रत्येक वस्तुके खरे और खोटेकी जाँच 'अनेकान्त दृष्टि'-'स्याद्वाद' की कसौटीपर ही की जा सकती है। चूंकि वस्तु स्वय अनेकान्तात्मक है उसको वैसा मानने में ही वस्तुतत्त्वको व्यवस्था होती है । स्याद्वादके प्रभावसे वस्तुके स्वरूप-निर्णयमें पूरा-पूरा प्रकाश प्राप्त होता है और सकल दुर्नयो एव मिथ्या एकान्तोका अन्त हो जाता है तथा समन्वयका एक महानतम प्रशस्त मार्ग मिल जाता है । कुछ जनेतर विचारकोने स्याद्वादको ठीक तरह से नही समझा । इसीसे उन्होने स्याद्वादक
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
खडनमें कुछ दूषण दिये हैं। शंकराचार्यने 'एकस्मिन्नसभवात्' द्वारा 'एक जगह दो विरोधी धर्म नही बन सकते हैं।' यह कहकर स्याद्वादमें विरोधदूषण दिया है। किन्ही विद्वानोने इसे सशयवाद, छलवाद कह दिया है, किन्तु विचारनेपर उसमें इस प्रकारके कोई भी दूषण नही आते हैं। स्याद्वादका प्रयोजन है यथावत् वस्तुतत्त्वका ज्ञान कराना, उसकी ठीक तरहसे व्यवस्था करना, अब ओरसे देखना और स्याद्वादका अर्थ है कथचित्वाद, दष्टिवाद अपेक्षावाद, सर्वथा एकान्तका त्याग, भिन्न-भिन्न पहलुओमे वस्तुस्वरूपका निरूपण, मुख्य और गौणकी दृष्टि से पदार्थका विचार। स्याद्वादमें जो 'स्यात्' शब्द है उसका अर्थ ही यही है। कि किसी एक अपेक्षासे-सब प्रकारसे नही-एक दृष्टिसे-है। 'स्यात्' शब्दका अर्थ 'शायद' नही है जैसा कि भारतीय दर्शनशास्त्रका इतिहास' के लेखक विद्वान्ने भी समझा है। वे अपनी इस पुस्तकमें लिखते हैं कि 'स्याद्वादका वाच्यार्थ है 'शायदबाद' अगेजीमें इसे 'प्रोवेबिल्ज़िम' कह सकते हैं। अपने अतिरजितरूपमें स्याद्वाद संदेहवादका भाई है।" इसपर और आगे पीछेके जैनदर्शन सम्बन्धी उनके निबन्ध पर आलोचनात्मक स्वतन्त्र लेख ही लिखा जाना योग्य है। यहाँ तो केवल स्याद्वादको 'सदेहवाद' का भाई समझनेके विचारका चिंतन किया जायगा। उक्त लेखक यदि किसी जैन विद्वान्से 'स्याद्वाद' के 'स्यात्' शब्दके अर्थको निवन्ध लिखनेके पहिले अवगत कर लेते तो इतनी स्थूल गलती उन जैसोंसे-भारतीयदर्शनशास्त्रका अपनेको अधिकारी विद्वान समझने वालोसे-न होती। जैन विचारकोंने 'स्यात्' शब्दका जो अर्थ किया है वह मैं ऊपर बता आया हैं,। देवराजव्यक्तिमे अनेक सम्बन्ध विद्यमान हैं-किसीका वह मामा है तो किसीका भानजा, किसीका पिता है तो किसीका पुत्र, इस तरह उसमें कई सम्बन्ध मौजूद है। मामा अपने भानजेकी अपेक्षा, पिता अपने पकी अपेक्षा, भानजा अपने मामाकी अपेक्षा, पुत्र अपने पिताकी अपेक्षासे है, इस प्रकार देवराजमें पितृत्व, पुरत्व, मातुलत्व, स्वस्रीयत्व आदि धर्म निश्चित रूप ही है-सदिग्ध नही हैं और वे हर समय विद्यमान है । 'पिता' कहे जाने के समय पुश्रपना उनमेसे भाग नही जाता है-सिर्फ गौण होकर रहता है। इसी तरह जब उनका भानजा उन्हें 'मामा-मामा' कहता है उस समय वे अपने मामाकी अपेक्षा भानजे नही मिट जाते--उस समय भानजापना उनमें गौणमात्र होकर रहता है । स्याद्वाद इस तरहसे वस्तुधर्मोको गुत्थियोको सुलझाता है-उनका यथावत् निश्चय कराता है-स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल भावकी अपेक्षासे हो वस्तु 'सत'-अस्तित्ववान् है और परद्रव्य क्षेत्र, काल, भावको अपेक्षासे ही वस्तु 'असत्'-नास्तित्ववान है आदि सात भङ्गो द्वारा ग्रहण करने योग्य और छोडने योग्य (गौण कर देने योग्य) पदार्थों का स्याद्वाद हस्तामलकवत् निर्णय करा देता है। सदेह या भ्रमको वह पैदा नही करता है। बल्कि स्याद्वादका आश्रय लिये विना वस्तुतत्त्वका याथातथ्य निर्णय हो ही नही सकता है । अत स्याद्वादको सदेहवाद समझना नितात असाधारण भूल है। भिन्न दो अपेक्षाओसे विरोधी सरीखे दीख रहे (विरोधी नही) दो धर्मोके एक जगह रहने में कुछ भी विरोध नही है। जहां पुस्तक अपनी अपेक्षा अस्तित्वधर्मवाली है वहां अन्य पदार्थोकी अपेक्षा नास्तित्वधर्मवाली भी है, पर-निषेधके बिना स्वस्वरूपास्तित्व प्रतिष्ठित नही हो सकता है। अत यह स्पष्ट है कि स्याद्वादमें न विरोध है और न सन्देह जैसा अन्य कोई दूषण, वह तो वस्तूनिर्णयकातत्त्वज्ञानका अद्वितीय अमोघ शस्त्र है, सबल साधन है । वस्तु चूंकि अनेक धर्मात्मक है और उसका व्यवस्थापक स्याद्वाद है इसलिये स्याद्वादको ही अनेकान्तवाद भी कहते हैं। किन्तु 'अनेकान्त' और 'स्यादाद में वाच्य-वाचक-सम्बन्ध है।
१ आप्तमीमासा का० १०४ । ३. 'भारतीय दर्शनशास्त्रका इतिहास', पृ० १३५ ।
२ आप्तमीमासा का० १०३ । ४ देखो, आप्तमीमासा का० १५ ।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ कर्मवाद
कर्म जड है, पौद्गलिक है, उसका जीवके साथ अनादिकालिक सम्बन्ध है। कर्मकी वजहसे ही जीव पराधीन है और सुखदुखका अनुभव करता है । वह कर्मसे अनेक पर्यायोको धारण करके चतुर्गति ससारमें घूमता है । कभी ऊँचा बन जाता है तो कभी नीचा, दरिद्र होता है तो कभी अमीर, मुर्ख होता है तो कभी विद्वान्, अन्धा होता है तो कभी बहिरा, लगडा होता है तो कभी बौना, इस तरह शुभाशुभ कर्मोकी बदौलत दुनियाके रगम चपर नटकी तरह अनेको भेपोको धारण करता है-अनगिनत पर्यायोमें उपजता और मरता है। यह सब कर्मकी विडम्बना-कर्मकी प्रपञ्चना है। वीरशासनमें कर्मके मूल और उत्तरभेद और उनके भी भेदोका बहुत ही सुन्दर, सूक्ष्म, विशद विवेचन किया है। वध, बधक, बन्थ्य और वन्धनीय तत्त्वोपर गहरा
चार किया है । जीव कैसे और कब कर्मवध करता है इन सभी बातोका चितन किया गया है । कर्मवादसे हमें शिक्षा मिलती है कि हम स्वय ऊँचे उठ सकते है और स्वय हो नीचे गिर सकते है।
वीरशासनमें जीवादि सात तत्त्वो, सम्यकुदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्ररुप मोक्षमार्ग और प्रमाण, नय, निक्षेप आदि उपायतत्त्वोका भी बहुत ही सम्बद्ध एव सगत, विशद व्याख्यान किया गया है । प्रमाणके दो (प्रत्यक्ष और परोक्ष) भेद करके उन्हीमें अन्य सव प्रमाणोंके अन्तर्भावकी विभावना कितने सुन्दर एव युक्तिपूर्ण ढगसे की गई है, वह एक निष्पक्ष विचारकको आकर्षित किये बिना नहीं रहती है। नयवाद तो जैन दर्शनकी अन्यतम महत्त्वपूर्ण देन है। वस्तुके अशज्ञानको नय कहते हैं। वे नय अनेक है। वस्तुके भिन्न-भिन्न अशोको ग्रहण करने वाले नय ही है । ज्ञाताको हमेशा प्रमाण-दृष्टि नही रहती है। कभी उसका वस्तुके किमी खास धर्मको ही जाननेका अभिप्राय होता है, उस समय उसको नय-दृष्टि होती है और इसीलिये ज्ञाताके अभिप्रायको जैन दर्शनमें नय माना है। चकि वक्ताकी वचन:प्रवृत्ति भी क्रमश होती है-वचनो द्वारा वह एक अशका ही प्रतिवचन कर सकता है । इसलिये वक्ताके वचन-व्यवहारको भी जैनदर्शनमें 'नय' माना है। अतएव ज्ञानात्मक और वचनात्मकरूपसे अथवा ज्ञाननय और शब्दनयके भेदसे नय वर्णित है। इस तरह वीरशासन वैज्ञानिक एव तात्त्विक शासन है। उसके अहिंसा, स्याद्वाद जैसे विश्वप्रिय सिद्धान्तोसे उसकी उपयोगिता एव आवश्यकता भी अधिक प्रकट होती है।
वीरशासनके अनुयायी हम जैनोका परम कर्तव्य है कि भगवान् वीरके द्वारा उपदेशित उनके 'सर्वोदय तीर्थ' को विश्वमें चमत्कृत करें और उनके पवित्र सिद्धान्तोका स्वय ठीक तरह पालन करें तथा दूसरोको पालन करावें और उनके शासनका प्रसार करें।
-४०
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान् महावीरका अध्यात्मिक मार्ग
धर्मका ह्रास, समाजका ह्रास, देशका ह्रास जब चरम सीमाको प्राप्त हो जाता है उस समय किसी अनोखे महापुरुषका अवतार-जन्म-प्रादुर्भाव होता है और वह अपने असाधारण प्रभावसे उस ह्रासको दूर करने में समर्थ होता है। वास्तवमे उस पुरुषमें महापुरुषत्व भी इसी समय प्रकट होता है और अनेकानेक शक्तियो नथा परमोच्च गुणोका पूर्ण विकास भी तभी होता है। वह अपने समुचे जीवनको लोक-हितमें समर्पित कर देता है।
भगवान् महावीर ऐसे ही महापुरुषोमे हैं । उन्होने अपने जीवनके प्रत्येक क्षणको लोक-हितमे लगाया था। विश्वको आत्मकल्याणका सन्देश दिया था। उस समय विविध मतोकी असमञ्जसता तीव्र गतिसे चल रही थी। धर्मका स्थान सम्प्रदाय तथा जातिने घेर लिया था। एक सम्प्रदाय एव जाति दूसरे सम्प्रदाय एवं जातिको अपना शत्रु समझती थी। आजसे भी अधिकतम साम्प्रदायिकताकी तीन अग्नि उस समय धधक रही थी। दार्शनिक सिद्धान्तोसे स्पष्ट मालूम होता है कि बौद्ध और ब्राह्मण (याज्ञिक) आपसमें एक दूसरेको अपना लक्ष्य (वेध्य-भक्ष्य) समझते थे। आज के हिन्दू और मुसलमानो जैसी स्थिति थी। याज्ञिक यज्ञोमें निरपराध पशओके हवनको धर्म बताते थे। उनके विरुद्ध बौद्ध याज्ञिक हिंसाको अधर्म और पापकृत्य बताते थे।
युक्तिवादको लेकर याज्ञिक कहते कि -
"वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, आत्मनो नित्यत्वात्" वेदविहित हिंसा हिंसा (जीवघात) नहीं है, क्योंकि आत्मा नित्य है, अमर है, उसका विनाश नही होता। भौतिक शरीर, इन्द्रिय, प्राण आदिका ही विनाश होता है। इसकी पुष्टि करनेके लिये वे एडीसे चोटी तक पसीना बहाते थे। उधर बौद्ध भी युक्तिवादमें कम नही थे। वे भी "सर्व क्षणिक सत्वात्" समस्त चीजें नाशशील हैं क्योकि सत् है-इस स्वकल्पित सिद्धान्तको भित्तिपर "वैदिको हिंसा हिंसा अस्त्येव आत्मनोऽनित्यत्वात्" 'वेद में कही हिंसा जीवघात ही है क्योकि आत्मा अनित्य है, मरती है, उसका विनाश होता है' इस सिद्धान्तको झट रचकर उनका खडन कर देते थे। यही कारण है कि याज्ञिकोको बौद्धोके प्रति प्रतिहिंसाके भावोको लेकर उनके पराजित करनेके लिये छल, जाति, निग्रहस्थानोकी सष्टि करनी पडी, फिर भी वे इस दिशामें असफल रहे।
भगवान महावीर ऐमी-ऐसी अनेको विषम स्थितियो, उलझनोको तीस वर्षकी आयु तक अपनी चर्मचक्षुओ और ज्ञानचक्षु ओसे देखते-देखते ऊब गये, उनकी आत्मा तिलमिला उठी, अब वे इन विषमतामा, अन्यायों, अत्याचारोंको नही सह सके । फलत ससारके समस्त सुखोपर लात मार दी, न विवाह किया, न राज्य किया और न साम्राज्यके ऐश्वर्यको भोगा। ठीक है लोकहितकी भावनामें सने हए पुरुषको शन्द्रय-सुखकी बातें कैसे सुहा सकती है। सुखको भोगना या जनताके कष्टोको दूर करना दोनोमेंसे एक ही हो सकता है।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान् महावीर ससार, शरीर, विषय-भोगोसे विरक्त होकर पहले अपनेको पूर्ण बनानेके लिये उन्मुख हुये, क्योकि वे अच्छी तरह समझते थे कि मैं अपूर्ण अवस्था और साम्राज्यशक्तिसे लोकका पूरा-पूरा हित नही कर सकता है। भले ही साम्राज्यशक्तिसे तात्कालिक याज्ञिक हिंसा बन्द हो जावे, पर यह असर उनके शरीर तक ही सीमित रहेगा, आत्मा तक नहीं पहुंचेगा । आदेशका असर शरीर तक ही सीमित रहता है जबकि उपदेशका असर आत्मापर होता है और चिरस्थायी होता है। इन सब बातोको विचारकर भगवान् महावीरने साम्राज्य-शक्तिको न आजमाकर आत्मशक्तिको ही आजमानेका सफल प्रयत्न किया । फलत लगातार १२ वर्षकी कठोर तपश्चर्याके वाद उन्हें पूर्णत्वकी प्राप्ति हो गई और वे सर्वज्ञ कहे जाने लगे।
भगवान् महावीरने उक्त असमञ्जसताओको दूर करनेवाले सफल तथ्य साधन स्याद्वाद (अपेक्षावाद) के द्वारा समन्वय करना शुरू किया और उनके एकान्त मन्तव्योका समुचित निरसन किया । केवल आत्माकी नित्यता या अनित्यता वैदिक हिंमाका विधान या निषेध नही कर सकती है। विधान और नित्यता, निषेध और अनित्यताम व्याप्ति नही है । यह नहीं कहा जा सकता है कि आत्मा नित्य है इसलिए वैदिक हिंसाके करने में कोई दोप-जीवघात नही है, वैदिक हिंसा वैध है और यह भी नही कहा जा सकता है कि आत्मा अनित्य है इसलिये वैदिक हिंसा दोष-जीवधात है-वैदिक हिंसा निषिद्ध है । नित्यता और अनित्यता परस्परमें सप्रतिपक्ष है।
अत इस प्रकारसे समझना चाहिये कि आत्मा नित्य भी है और अनित्य भी। चैतन्यस्वरूप आत्मद्रव्य हर अवस्थाओमें रहता है उसका विनाश नही होता है. लेकिन अवस्थायें-पर्यायें बदलती रहती हैं, उनका विनाश होता है और ये पर्यायें आत्मद्रव्यसे पथक नही की जा सकती हैं. इसलिये अभिन्न है
और द्रव्य पर्यायका भेद सुप्रतीत होता है, इसलिए भिन्न भी हैं। यज्ञोमें किया गया पशुवध अवश्य हिंसा-जीवधात है क्योकि शरीरादिके नाश होनेपर आत्माका भी नाश होता है। जैसे तिलमें तेल सर्वत्र व्याप्त होकर रहता है उसी प्रकार शरीरके अवयवोमे आत्मा व्याप्त होफर रहती है । यही बात है कि अगुली आदिके कट जानेपर कष्ट होता है, वेदना होती है । हिंसाका अर्थ ही जीवघात है, केवल घात या विनाश नहीं। इसीलिये हिंसा शब्दका प्रयोग अचेतन जडपदार्थोमे नही होता है। अत स्पष्ट है कि यज्ञोंमें किया गया पशुवध जीवघात है क्योकि वह सकल्पपूर्वक-जान-बूझकर किया जाता है प्रसिद्ध कसाइयोंके पशुवधके समान । यद्यपि घर-बार बनाने, कुटुम्ब परिपालन करने, आजीविकोपार्जन करने, मन्दिर आदिके निर्माण कराने में भी हिंसा-जीवघात होता है । पर यह हिंसा गृहस्थपदकी हैसियतसे क्षम्य है, अनिवार्य है, असकल्पपूर्वक है, साधुपदकी हैसियतसे तो यह भी अक्षम्य एव निवार्य है, तब धर्मको ओटमें यज्ञोम याज्ञिक गृहस्थो द्वारा की जानेवाली निवार्थ सकल्पी हिंसा कैसे जायज हो सकती है या वैध कही जा सकती है ? दूसरी बात यह है कि वेदमे कही हिंसा धर्म नही है, उससे अपने तथा दूसरोको वेदना-दुख उत्पन्न होता है, राग-द्वेष आदि प्रमत्त भावोसे की जाती है। हिंसा कभी भी धर्म नहीं है और न हुई है और न होगी । अहिंसा ही आत्माका निज धर्म है और वही प्राणियोको ससार-समुद्रसे पार उतारनेवाली है। ससारकी वह पुस्तक धर्मपुस्तक नही है जिसमें हिंसाका प्रतिपादन है। वह केवल एकदेशीय लोगो द्वारा जनताको ठगनेके लिये लिखी गई है। अत स्पष्ट है कि यज्ञोमें किया गया पशुवध धर्म नहीं है। हाँ, यदि यज्ञ करना ही है तो निम्न प्रकारका यज्ञ करो-अपनी अन्तरात्माको कुण्ड बनाओ, उसमें ध्यानरूपी अग्नि जलाओ और उसे इन्द्रियोके निग्रहरूप दमरूपी पवनसे उद्दीपित करो तथा उसमें अशुभकर्मरूपी ईधनकी आहुति दो। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको नष्ट करनेवाले कषायरूपी पशओका शमरूपी मन्त्रोंका उच्चारण करके हवन करो। ऐसा आत्मयज्ञ ही विद्वानो द्वारा विधेय है। कर्म
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
विमुक्तिका सोघा मार्ग है । भूतयज्ञ - पशुयज्ञ तुम्हारी कर्मविमुक्तिका मार्ग नही है, प्रत्युत कर्म-युक्तिका मार्ग है, दुर्गतिका कारण है । अत यज्ञोमें किया गया पशु-वध धर्म नही है ।
arathi आत्माको सर्वथा क्षणिक मानना प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधित है । प्रत्यक्षसे समस्त पदार्थ स्थिर स्थूल प्रतीत होते है । " असत् का उत्पाद नही होता है और सन्का विनाश नही होता" अर्थात् जो नही है वह उत्पन्न नही हो सकता और जो है - जिसका सद्भाव है उसका सर्वथा विनाश -- अभाव नही हो सकता । इस सिद्धान्त के अनुसार आत्मा जब सद्- सद्भावरूप है तो उसका सर्वथा विनाश नही हो सकता । पर्यायरूपसे नाश होनेपर भी द्रव्यरूपसे उसका अवस्थान बना ही रहता है । अत आत्माकी अनित्यताको लेकर वैदिक हिसाका निषेध नही हो सकता । उसका तो उपर्युक्त ढगसे ही निपेध हो सकता है । इस प्रकार भगवान् महावीरने ऐसी-ऐसी अनेको समस्याये हल की और विश्वको समभाव द्वारा सन्मार्गपर लगाया । भगवान् महावीर के हो सिद्धान्तोपर महात्मा गाघी चले और समस्त राष्ट्रको चलाया है ।
सत्य और अहिंसा आत्माकी अपनी विभूति हैं। उन्हें हम भूले हुए हैं । भगवान् महावीर द्वारा प्रदर्शित सत्य और अहिंसाका आलोक स्थायी आलोक है । उसे हमें पूर्ण नैतिकता के साथ प्राप्त करना चाहिये । हमें भगवान् महावीरके पूर्ण कृतज्ञ होना चाहिये तथा उनके आदर्शो - उसूलो-- सिद्धान्तोका हार्दिकतासे अनुशीलन करना चाहिये ।
- ४३ -
Xx
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीरका आधार-धर्म
महावीर और तत्कालीन स्थिति
लोकमें महापुरुषो का जन्म जन-जीवनको ऊँचा उठाने और उनका हित करनेके लिए होता है। भग वान् महावीर ऐसे ही महापुरुष थे उनमें लोक-कल्याणकी तीव्र भावना, बसाधारण प्रतिभा, अद्वितीय तेज और अनुपम आत्मबल था । बचपनसे ही उनमें अलोकिक धार्मिक भाव और सर्वोदयकी सातिशय लगन होनेसे नेतृत्व, लोकप्रियता और अबूभूत संगठनके गुण विकसित होने लगे थे। भौतिकता के प्रति उनकी न आसनित थी ओर न आस्था उनका विश्वास आत्माके केवल अमरत्वमें ही नही, किन्तु उसके पूर्ण विकसित रूप परमात्मत्वमें भी था। अतएव वे इन्द्रिय-विषयोको तापकृत् और तृष्णाभिवर्द्धक मानते थे। एक लोकपूज्य एव सर्वमान्य ज्ञातृवशी क्षत्रिय घराने में उत्पन्न होकर और वहाँ सभी सामग्रियोके सुलभ होनेपर भी वे राजमहल में तीस वर्ष तक 'जलमें भिन्न कमल' की भांति अथवा गीताके शब्दो में 'स्थितप्रज्ञ' की तरह रहे, पर उन्हें कोई इन्द्रिय-विषय लुभा न सका। उनकी आँखोसे बाह्य स्थिति भी ओझल न थी। राजनैतिक स्थिति यद्यपि उस समय बहुत ही सुदृढ और आदर्श थी भी लिच्छिवियोका सयुक्त एवं सगठित शासन या और ये बढे प्रेम एव सहयोग से अपने गणराज्यका संचालन करते थे। राजा चेटक इस गणराज्य के सुयोग्य अध्यक्ष थे और वैशाली उनकी राजधानी थी । वैशाली राजनैतिक हलचलों तथा लिच्छवियोकी प्रवृत्तियों की केन्द्र थी । पर सबसे बडी जो न्यूनता थी वह यह थी कि शासन समाज और धर्मके मामले में मौन थाउसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता था। फलत सामाजिक और धार्मिक पतन पराकाष्ठाको पहुँच चुका या तथा दोनोकी दशा अत्यन्त विरूप रूप धारण कर चुकी थी। छुआछूत, जातीयता और ऊंच-नोच भेदने समाज तथा धर्मकी जडोको खोखला एव जर्जरित बना दिया था । अज्ञान, मिथ्यात्व, पाखण्ड और अपने अपना डेरा डाल रखा था इस वाह्य स्थितिने भी भगवान् महावीरको आँसोको अद्भुत प्रकाश दिया और वे तीस वर्षकी भरी जवानी में ही समस्त वैषयिक सुखोपभोगोंको त्यागकर और उनसे विरक्ति धारण कर साधु बन गये थे। उन्होने अनुभव किया था कि गृहस्य या राजाके पदकी अपेक्षा साधुका पद अत्यन्त उन्नत हैं और इस पदमें ही तप, त्याग तथा सयमकी उच्चाराधना की जा सकती है और आत्माको 'परमात्मा' बनाया जा सकता है । फलस्वरूप उन्होने बारह वर्ष तक कठोर तप और सयमकी भाराधना करके अपने चरम लक्ष्य वीतराग सर्वज्ञत्व अथवा परमात्मत्वकी शुद्ध एव परमोच्च अवस्थाको प्राप्त किया था।
महावीर द्वारा आचारधर्मकी प्रतिष्ठा
उन्होने जिस 'सुपथ' पर चलकर इतनी ऊँची उन्नति की और असीम ज्ञान एवं अक्षय आनन्दको प्राप्त किया, उस 'सुपय' को जनकल्याणके लिए भी उन्होने उसी तरह प्रदर्शित किया, जिस तरह स बडे परिश्रम और कठोर साधनासे प्राप्त अपने अनुपम चिकित्सा-ज्ञान द्वारा करुणा-बुद्धिसेरोग लोगोका रोगोपशमन करता है और उन्हें जीवन दान देता है । महावीरके 'आचार-धर्म' पर चलकर प्रत्येक व्यक्ति लौकिक और पारलौकिक दोनो ही प्रकारके हितोको कर सकता है। आजके इस चाकचिन एम
- ४४
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
भौतिकता-प्रिय जगत्में उनके 'आचार-धर्म' के आचरणकी बडी आवश्यकता है । महाभारतके एक उपाख्यानंमें निम्न श्लोक आया है
जानामि धर्म न च मे प्रवृत्ति , जानाम्यधर्म न च मे निवृत्ति ।
केनापि देवेन हृदि स्थितेन, यथा नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि ।। मैं धर्मको जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्मको भी जानता हूँ, लेकिन उससे निवृत्ति नही । हृदयमें स्थित कोई देव जैसी मुझे प्रेरणा करता है, वैसा करता हूँ।'
___यथार्थत यही स्थिति आज अमनीषी और मनीषी दोनोकी हो रही है । बाह्यमें वे भले ही धर्मात्मा हो, पर अन्तस् प्राय सभीका तमोव्याप्त है। परिणाम यह हो रहा है कि प्रत्येक व्यक्तिकी नैतिक और आध्यात्मिक चेतना शून्य होती जा रही है और भौतिक चेतना एव वैषयिक इच्छाएँ बढती जा रही है। यदि यही भयावह दशा रही तो मानव-समाजमें न नैतिकता रहेगी और न आध्यात्मिकता तथा न वैसे व्यक्तियोका सद्भाव कही मिलेगा । अत इस भौतिकताके युगमे भगवान् महावीरका 'अचारधर्म' विश्वके मानव समाजको बहुत कुछ आलोक दे सकता है-आध्यात्मिक एव नैतिक मार्गदर्शन कर सकता है। उसके आचरणसे मानव नियत मर्यादामे रहता हुआ ऐन्द्रियिक विषयोको भोग सकता है और जीवनको नैतिक तथा आध्यात्मिक बनाकर उसे सुखी, यशस्वी और सब सुविधाओसे सम्पन्न भी बना सकता है। दूसरोको भी वह शान्ति और सुख प्रदान कर सकता है।
अहिंसक व्यवहारकी आवश्यकता
मानव-समाज सुख और शान्तिसे रहे, इसके लिए महावीरने अहिंसा धर्मका उपदेश दिया। उन्होने बताया कि दूसरोको सुखी देखकर सुखी होना और दुखी देखकर दुखी होना ही पारस्परिक प्रेमका एयमात्र साधन है । प्रत्येक मनुष्यका कर्तव्य है कि वह किसी भी मनुष्य, पशु या पक्षी, यहांतक कि छोटेसे-छोटे जन्तु, कीट, पतग आदिको भी न सताये । प्रत्येक जीव सुख चाहता है और दुखसे बचना चाहता है । इसका शक्य उपाय यही है कि वह स्वय अपमे प्रयत्नसे दूसरोको दुखी न करे और सम्भव हो तो उन्हें सुखी बनानेकी ही चेष्टा करे। ऐसा करनेपर वह सहजमें सुखी हो सकता है । अत पारस्परिक अहिंसक व्यवहार ही सुखका सबसे बडा और प्रधान साधन है। इस अहिंसक व्यवहारको स्थायी बनाये रखनेके लिए उसके चार उपसाधन हैं ।
१ पहला यह कि किसीको घोखा न दिया जाय, जिससे जो कहा हो, उसे पूरा किया जाय । ऐसे शब्दोका भी प्रयोग न किया जाय, जिससे दूसरोको मार्मिक पीडा पहुँचे । जैसे अन्धेको अन्धा कहना या काणेको काणा कहना सत्य है, पर उन्हें पीडा-जनक है।
२ दूसरा उपसाधन यह है कि प्रत्येक मनुष्य अपने परिश्रम और न्यायसे उपार्जित द्रव्यपर ही अपना अधिकार माने । जिस वस्तुका वह स्वामी नही है और न उसे अपने परिश्रम तथा न्यायसे अर्जित किया है उसका वह स्वामी न बने । यदि कोई व्यवसायी व्यक्ति उत्पादक और परिश्रमशील प्रजाका न्याययुक्त भाग हडपता है तो वह व्यवसायी नही। व्यवसायी वह है जो न्यायसे द्रव्यका अर्जन करता है । छलफरेब, धोखाधडी या जोरजबर्दस्तीसे नही । अन्यथा वह प्रजाकी अशान्ति तथा कलहका कारण बन जायगा। अत न्यायविरुद्ध द्रव्यका अर्जन दुख तथा सक्लेशका वीज ह, उसे नही करना चाहिए ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
३ तीसरा यह है कि प्रत्येक व्यक्ति (स्त्री-पुरुष) को भोगोमें आसक्त नहीं होना चाहिए। भोगोंमें आसक्त व्यक्ति अपना तथा दूसरोका अहित करता है । वह न केवल अपना स्वास्थ्य ही नष्ट करता है, अपितु ज्ञान, विवेक, त्याग, पवित्रता, उच्चकुलोनता आदि कितने ही सद्गुणोका भी नाश करता है और भावी सन्तानको निर्बल बनाता है तथा समाजमें दुराचार एव दुर्बलताको प्रश्रय देता है । अत प्रत्येक पुरुषको अपनी पत्नीके साथ और प्रत्येक स्त्रीको अपने पतिके साथ सयमित जीवन विताना चाहिए।
४ नौथा यह है कि सचयवृत्तिको सीमित करना चाहिए, क्योंकि आवश्यकतासे अधिक सग्रह करनेसे मनुष्यको तृष्णा बढती है तथा समाजमें असन्तोष फैलता है। यदि वस्तुओका अनुचित रीतिसे सग्रह न किया जाय और प्राप्तपर सन्तोष रखा जाय तो दूसरोको जीवन-निर्वाहके साधनोंकी कमी नही पड सकती।
इस तरह अहिंसाको जीवन में लानेके लिए सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण इन चार नियमोका पालन करना आवश्यक है। उनके बिना अहिंसा पल नही सकती-पूर्णरूपमें वह जीवनमें नहीं आ सकती। यही पांच व्रत भगवान् महावीरका आचार-धर्म है । आचार-धर्मका मूलाधार अहिंसा
ऊपर देख चुके हैं कि इस आचार-धर्मका मूलाधार 'अहिंसा' है, शेष चार व्रत तो उसी तरह उसके रक्षक है जिस तरह खेतोकी रक्षाके लिए बाढ (वारी) लगा दी जाती है। यह देखा जाता है कि गलत बात कहने, कटु बोलने, असगत कहने और अधिक बोलनेसे न केवल हानि ही उठानी पडती है किन्तु कलुषता, अविश्वास और कलह भी उत्पन्न हो जाते हैं। जो वस्तु अपनी नही, उसे विना मालिककी आज्ञासे ले लेनेपर वस्तुके स्वामीको दुख और रोष होता है। परपुरुष या परस्त्री गमन भी अशान्ति तथा तापका कारण है । परिग्रहका आधिक्य तो स्पष्टत सक्लेश और आपत्तियोका जनक है। इस प्रकार असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह ये चारो ही पापवत्तियां हिंसाके बढ़ाने में सहायक हैं। इसलिए इनके त्यागमें अहिंसाकै हा पालनका लक्ष्य निहित है । अतएव अहिंसाको 'परम धर्म' कहा गया है। द्रव्यहिंसा और भावहिंसा
अहिंसाके स्वरूपको समझनेके लिये हमें पहले हिंसाका स्वरूप समझ लेना आवश्यक है । भगवान् महावीरने हिंसाको व्याख्या करते हुए बतलाया कि 'प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपण हिंसा' अर्थात् दुष्ट अभिप्रायसे प्राणीको चोट पहुंचाना हिंसा है। सामान्यतया हिंसा चार प्रकारकी है-सकल्पी, आरभी, उद्योगी और विरोधी । इन चारो हिंसाओमें 'चोट पहुँचाना' समान है, पर सकल्पी (जानबूझकर की जानेवाली) हिंसामें दुष्ट अभिप्राय होनेसे उसका गृहस्थके लिए त्याग और शेष तीन हिंसामोमें दुष्ट अभिप्राय न होनेसे उनका अत्याग बतलाया गया है। वास्तवमें उन तीन हिंसामोमें केवल द्रव्यहिंसा होती है और सकल्पी हिंसामें द्रव्य हिंसा और भावहिंसा दोनों ही हिंसाएं होती है। जैनधर्ममें बिना भावहिंसाके कोरी द्रव्य-हिंसाको पापबन्धका कारण नही माना गया है। गृहस्थ अपने और परिवारके भरण-पोषणके लिए आरम्भ तथा उद्योग करता है और कभी-कभी अपनी, अपने परिवार, अपने समाज और अपने राष्ट्रकी रक्षाके लिए आक्रान्तासे लहाई भी लडता है और उसमें हिंसा होती ही है। परन्तु आरम्भ, उद्योग और विरोधके करते समय उसका दुष्ट अभिप्राय न होनेसे वह अहिंसक है तथा उसकी ये हिंसाएं क्षम्य हैं, क्योकि उसका लक्ष्य केवल न्याययुक्त भरण-पोषण तथा रक्षाका होता है। अतएव जैनधर्मके अनुसार अपने द्वारा किसी प्राणीके मर जाने या दुखी होनेसे ही हिंसा नही होती। ससारमें सर्वत्र जीव पाये जाते हैं और वे
-४६
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपने निमित्तसे मरते भी रहते हैं। फिर भी जैनधर्म इस 'प्राणिघात' को हिंसा नही कहता । यथार्थमें हिसारूप परिणाम' ही हिंसा है । एक किसान प्रात से शाम तक खेतमे हल जोतता है और उसमें बीसियो जीवोका घात होता है, पर उसे हिंसक नही कहा गया। किन्तु एक मछुआ नदीके किनारे सुबहसे सूर्यास्त तक जाल डाले बैठा रहता है और एक भी मछली उस के जालमें नही आती। फिर भी उसे हिंसक माना गया है। इसका कारण स्पष्ट है । किसानका हिंसाका भाव नही है-उसका भाव अनाज उपजाने का है और मछुआका भाव प्रतिसमय तीव्र हिंसाका रहता है । जैन विद्वान् आशाधरने निम्न श्लोकमे यही प्रदर्शित किया है
विष्वग्जीव-चिते लोके क्व चरन् कोऽप्यमोक्ष्यत ।
भावैकसाधनो बन्ध-मोक्षी चेन्नाभविष्यताम् ।। 'यदि भावोपर बन्ध और मोक्ष निर्भर न हो तो सारा ससार जीवराशिसे खचाखच भरा होनेसे कोई मुक्त नही हो सकता।' जैनागममें स्पष्ट कहा गया है -
मरदु व जियदु व जीवो अयदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा ।
पयदस्स पत्थि बधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। 'जीव मरे या चाहे जिये, असावधानीसे काम करनेवाले व्यक्तिको नियमसे हिंसाका पाप लगता है। परन्तु सावधानीसे प्रवृत्ति करनेवालेको हिंसा होनेमात्रसे हिंसाका पाप नही लगता।'
जैनके पुराण युद्धोसे भरे पडे हैं और उन युद्धोमें अच्छे अणुवतियोंने भाग लिया है । पद्मपुराणमें लहाईपर जाते हुए क्षत्रियोके वर्णनमें एक सेनानीका चित्रण निम्न प्रकार किया है
सम्यग्दर्शनसम्पन्न शूर कश्चिदणुव्रती ।
पृष्ठतो वीक्ष्यते पल्या पुरस्त्रिदशकन्यया ॥ 'एक सम्यग्दृष्टि और अणुव्रती सिपाही जब युद्ध में जा रहा है, तो उसे पीछेसे उसकी पत्नी देख रही है और विचारती है कि मेरा पति कायर बनकर युद्धसे न लौटे-वही वीरगति प्राप्त करे और सामनेसे देवकन्या देखती है-यह वीर देवगति पाये और चाह रही है कि मैं उसे वरण करूं।'
यह सिपाही सम्यग्दृष्टि भी है और अणुव्रती भी। फिर भी वह युद्ध में जा रहा है, जहाँ असख्य मनुष्योका घात होगा। इस सिपाहीका उद्देश्य मात्र आक्रान्तासे अपने देशकी रक्षा करना है। दूसरेके देशपर हमला कर उसे विजित करने या उसपर अधिकार जमाने जैमा दुष्ट अभिप्राय उसका नही है। अत वह द्रव्य-हिंसा करता हुआ भी अहिंसा-अणुव्रती बना हुआ है। उसके अहिंसा-अणुव्रतमें कोई दूषण नही आता।
जैन धर्ममें एक 'समाधिमरण' व्रतका वर्णन आता है, जो आयुके अन्तमे और कुछ परिस्थितियोमें जीवन-भर पाले हए आचार-धर्मकी रक्षाके लिए ग्रहण किया जाता है। इस व्रतमें द्रव्य-हिंसा तो होती है पर भाव-हिंसा नही होती, क्योकि उक्त व्रत उसी स्थिति में ग्रहण किया जाता है, जब जीवनके बचनेकी आशा नही रहती और आत्मधर्मके नष्ट होनेकी स्थिति उपस्थित हो जाती है। इस व्रतके धारकके परिणाम सक्लिष्ट न होकर विशद्ध होते हैं । वह उसी प्रकार आत्मधर्म-रक्षाके लिए आत्मोत्सर्ग करता है जिस प्रकार एक बहादुर वीर सेनानी राष्ट्र-रक्षाके लिए हंसते-हंसते आत्मोत्सर्ग कर देता है और पीठ नही
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
भगवान महावीरकी क्षमा और अहिंसाका एक विश्लेषण
शान्ति और सुख ऐसे जीवन-मूल्य हैं, जिनकी चाह मानवमात्रको रहती है। अशान्ति और दुख किसीको भी इष्ट नही, ऐसा सभीका अनुभव है। अस्पतालके उस रोगीसे पूछिए, जो किसी पीडासे कराह रहा है और डाक्टरसे शीघ्र स्वस्थ होनेके लिए कातर होकर याचना करता है । वह रोगी यही उत्तर देगा कि हम पीडाकी उपशान्ति और चैन चाहते हैं। उस गरीब और दीन-हीन आदमीसे प्रश्न करिए, जो अभावोंसे पीडित है। वह भी यही जवाब देगा कि हमें ये अभाव न सतायें और हम सुखसे जिएं । उस अमीर और साधनसम्पन्न व्यक्तिको भी टटोलिए, जो बाह्य साधनोसे भरपूर होते हुए भी रात-दिन चिन्तित है । वह भी शान्ति और सुखकी इच्छा व्यक्त करेगा। युद्धभूमिमें लड रहे उस योद्धासे भी सवाल करिए, जो देशकी रक्षाके लिए प्राणोत्सर्ग करने के लिए उद्यत है। उसका भी उत्तर यही मिलेगा कि वह अन्तरगमें शान्ति और सुखका इच्छुक है। इस तरह विभिन्न स्थितियोंमें फंसे व्यक्तिको आन्तरिक चाह शान्ति और सुख प्राप्तिकी मिलेगी । वह मनुष्यमें, चाहे वह किसी भी देश, किसी भी जाति और किसी भी वर्गका हो, पायी जायेगी। इष्टका संवेदन होनेपर उसे शान्ति और सुख मिलता है तथा अनिष्टका सवेदन उसके अशान्ति और दुखका परिचायक होता है।
इस सर्वेक्षणसे हम इस परिणामपर पहुंचते हैं कि मनुष्यके जीवनका मूल्य शान्ति और सुख है। यह बात उस समय और अधिक अनुभवमें आ जाती है जब हम किसी युद्धसे विरत होते हैं या किसी भारी परेशानीसे मुक्त होते हैं। दर्शन और सिद्धान्त ऐसे अनुभवोके आधारसे ही निर्मित होते हैं और शाश्वत बन जाते है।
जब मनमें क्रोधकी उद्भूति होती है तो उसके भयकर परिणाम दृष्टिगोचर होते हैं। क्रूद्ध जर्मनीने जब जापानयुद्ध में उसके दो नगरोको बमोंसे ध्वस कर दिया तो विश्वने उसकी भर्त्सना की । फलत सब ओरसे शान्तिकी चाह की गयी। क्रोधके विषले कीटाणु केवल आस-पासके वातावरण और क्षेत्रको ही ध्वस्त नही करते, स्वय क्रुद्धका भी नाश कर देते हैं। हिटलर और मुसोलिनीके क्रोधने उन्हें विश्वके चित्रपटसे सदाके लिए मस्त कर दिया । दूर न जायें, पाकिस्तानने जो क्रोधोन्मादका प्रदर्शन किया उससे उसके पूर्वी हिस्सेको उसने हमेशाके लिए अलग कर दिया । व्यक्तिका क्रोध कभी-कभी भारीसे भारी हानि पहुंचा देता है। इसके उदाहरण देनेकी जरूरत नही है। वह सर्वविदित है।
क्षमा एक ऐसा अस्त्रबल है जो क्रोधके बारको निरर्थक ही नही करता, क्रोधीको नमित भी करा देता है। क्षमासे क्षमावान्की रक्षा होती ही है, उससे उनकी भी रक्षा होती है, जिनपर वह की जाती है । क्षमा वह सुगन्ध है जो आस-पासके वातावरणको महका देती है और धीरे-धीरे हरेक हृदयमें वह बैठ जाती है। क्षमा भीतरसे उपजती है, अत' उसमें भयका लेशमात्र भी अश नही रहता। वह वीरोका बल है, कायरोका नही । कायर तो क्षण-क्षणमें भीत और विजित होता रहता है। पर क्षमावान् निर्भय और विजयी होता है। वह ऐसी विजय प्राप्त करता है जो शत्रुको भी उसका बना देती है । क्षमावान्को क्रोध आता ही नहीं, उससे वह फोसो दूर रहता है।
-५०
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
वास्तवमें क्षमा-क्षमता-सहनशीलता मनुष्यका एक ऐसा गुण है जो दो नही, तीन नही हजारो, लाखो और करोडो मनुष्योको जोडता है, उन्हें एक-दूसरेके निकट लाता है। सयुक्त राष्ट्रसघ जैसी विश्वसस्था इसीके बलपर खडी हो सकी है और जब तक उसमें यह गुण रहेगा तब तक वह बना रहेगा।
तीर्थकर महावीरमें यह गण असीम था । फलत उनके निकट जाति और प्रकृति विरोधी प्राणी-सर्पनेवला, सिंह गाय जैसे भी आपसके वैर-भावको भूलकर आश्रय लेते थे, मनुष्योका तो कहना ही क्या । उनकी दृष्टि में मनुष्यमात्र एक थे। हाँ, गुणोके विकासको अपेक्षा उनका दर्जा ऊँचा होता जाता था और अपना स्थान ग्रहण करता जाता था। जिनकी दृष्टि पूत हो जाती थी वे सम्यकदृष्टि, जिनका दृष्टिके साथ ज्ञान पवित्र (असावमुक्त) हो जाता था वे सम्यग्ज्ञानी और जिनका दृष्टि और ज्ञानके साथ आचरण भी पावन हो जाता था वे सम्यक्चारित्री कहे जाते थे और वैसा ही उन्हें मान-सम्मान मिलता था।
क्षमा यथार्थ में अहिंसाकी ही एक प्रकाशपूर्ण किरण है, जिससे अन्तरतम सु-आलोकित हो जाता है। अहिंसक प्रथमत आत्मा और मनको बलिष्ठ बनानेके लिए इस क्षमाको भीतरसे विकसित करता, गाढा बनाता और उन्नत करता है । क्षमाके उन्नत होने पर उसकी रक्षाके लिए हृदयमें कोमलता, सरलता और निर्भीकवृत्तिको वारी (रक्षकावलि) रोपता है । अहिंसाको ही सर्वांगपूर्ण बनानेके लिए सत्य, अचौर्य, शील, और अपरिग्रहकी निर्मल एव उदात्त वृत्तियोंका भी वह अहर्निश आचरण करता है।
सामान्यतया अहिंसा उसे कहा जाता है जो किसी प्राणीको न मारा जाय । परन्तु यह अहिंसाकी बहुत स्थूल परिभापा है। तीर्थंकर महावीरने अहिंसा उसे बतलाया, जिसमें किसी प्राणीको मारनेका न मनमें विचार आये, न वाणीसे कुछ कहा जाय और न हाथ आदिकी क्रियाएँ की जायें। तात्पर्य यह कि हिंसाके विचार, हिंसाके वचन और हिंसाके प्रयत्न न करना अहिंसा है। यही कारण है कि एक व्यक्ति हिंसाका विचार न रखता हा ऐसे वचन बोल देता है या उसकी क्रिया हो जाती है जिससे किसी जीवकी हिंसा सम्भव है तो उसे हिंसक नही माना गया है। प्रमत्तयोग-कषायसे होनेवाला प्राणव्यपरोपण ही हिंसा है। हिसा और अहिंसा वस्तुत व्यक्तिके भावोपर निर्भर है। व्यक्तिके भाव हिंसाके हैं तो वह हिंसक है और यदि उसके भाव हिंसाके नही हैं तो वह अहिंसक है। इस विषयमें हमें वह मछुआ और कृषक ध्यातव्य है जो जलाशयमें जाल फैलाये बैठा है और प्रतिक्षण मछली ग्रहणका भाव रखता है, पर मछली पकडमें नही आती तथा जो खेत जोतकर अन्न उपजाता है और किसी जीवके घातका भाव नहीं रखता, पर अनेक जीव खेत जोतनेसे मरते हैं। वास्तवमें मछआके क्षण-क्षणके परिणाम हिंसाके होनेसे वह हिंसक कहा जाता है और कृषकके भाव हिंसाके न होकर अन्न उपजानेके होनेसे वह अहिंसक माना जाता है । महावीरने हिंसाअहिंसाको भावप्रधान वतलाकर उनकी सामान्य परिभाषासे कुछ ऊँचे उठकर उक्त सूक्ष्म परिभाषाएँ प्रस्तुत की। ये परिभाषायें ऐसी हैं जो हमें पाप और वचनासे बचाती है तथा तथ्यको स्पर्श करती है।
अहिंसक खेती कर सकता है, व्यापार-धधे कर सकता है और जीवन-रक्षा तथा देश-रक्षाके लिए शस्त्र भी उठा सकता है, क्योकि उसका भाव आत्मरक्षाका है, आक्रमणका नही । यदि वह आक्रमण होनेपर उसे सह लेता है तो उसकी वह अहिंसा नही है, कायरता है। कायरतासे वह आक्रमण सहता है और कायरतामें भय आ ही जाता है तथा भय हिंसाका ही एक भेद है । वह परधात न करते हुए भी स्वघात करता है । अत महावीरने अहिंसाकी बारीकीको न केवल स्वय समझा और आचरित किया, अपितु उसे उस रूपमें ही आचरण करनेका दूसरोको भी उन्होने उपदेश दिया ।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
फेरता। यही कारण है कि इस व्रतका धारक वीर सेनानीकी भांति अहिंसक माना गया है। यदि कोई व्यक्ति इस व्रतका दुरुपयोग करता है तो किसी भी अच्छी बातका दुरुपयोग हो सकता है । बगालमें 'अन्तक्रिया' का बहुत दुरुपयोग होता था। अनेक लोग वृद्धा स्त्रीको गगा किनारे ले जाते थे और उससे कहते थे-'हरि बोल ।' अगर उसने 'हरि' बोल दिया तो उसे जीते ही गगामे बहा देते थे। परन्तु वह 'हरि' नही बोलती थी, इससे उसे बार-बार पानीमें डुबा-डुबाकर निकालते थे और जब तक वह 'हरि' न बोले तब तक उसे इसी प्रकार परेशान करते थे, जिससे घबराकर वह 'हरि' बोल दिया करती थी और वे लोग उसे स्वर्ग पहुँचा देते थे । 'अन्तक्रिया' का यह दुरुपयोग ही था। समाधिमरणवतका भी कोई दुरुपयोग कर सकता है । परन्तु दुरुपयोगके डरसे अच्छे कामका त्याग नही किया जाता। किन्तु यथासाध्य दुरुपयोगको रोकने के लिए कुछ नियम बनाये जाते हैं । समाधिमरणवतके विषय में भी जैनधर्ममें नियम बनाये गये हैं। अनशन कितना महत्त्वपूर्ण एव आत्मशुद्धि और प्रायश्चित्तका सान है। गांधीजी उसका प्रयोग आत्मशुद्धिके लिए किया करते थे। किन्तु अपनी बात मनवाने के लिए आज उसका भी दुरुपयोग होने लगा है। लेकिन इस दुरुपयोगसे अनशनका न महत्त्व कम हो सकता है और न उसकी आवश्यकता समाप्त हो सकती है।
इस विवेचनसे हम द्रव्य-हिंसा और भाव-हिंसाके अन्तरको सहजमें समझ सकते हैं और भावहिंसाको ही हिसा जान सकते हैं । लेकिन इसका यह मतलब नही है कि जैनधर्ममें द्रव्यहिंसाकी छूट दे दी गई है । यथा शक्य प्रयत्न उसको भी बचानेके लिए उपदेश दिया गया है और आचार-शुद्धिमें उसका बडा स्थान माना गया है। इस द्रव्यहिंसाके हो जानेपर व्रती (गहस्थ और साध दोनो) प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्त करते हैं । छोटे-से-छोटे और बडे-से-बड़े सभी जीवोसे क्षमा-याचना को जाती है और प्रायश्चित्तमें स्वय या गुरुसे कृतापराव के लिए दण्ड स्वीकार किया जाता है। जान पड़ता है कि जैनोके इस प्रतिक्रमण
और प्रायश्चित्तका पारसी धर्मपर भी प्रभाव पडा है । उनके यहाँ भी पश्चात्ताप करनेका रिवाज है। इस क्रियामे जो मत्र बोले जाते हैं उनमेंसे कुछका भाव इस प्रकार है-'धातु उपवातुके साथ जो मैंने दुर्व्यवहार किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हैं।' 'जमीनके साथ जो मैंने अपराध किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हूँ।' 'पानी अथवा पानीके अन्य भेदोंके साथ जो मैंने अपराध किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हैं।' 'वृक्ष और वृक्षके अन्य भेदोके साथ जो मैंने अपराध किया हो, उसका मैं पश्चात्ताप करता हैं।' 'महताब, आफताब, जलती अग्नि आदिके साथ जो मैंने अपराध किया हो, मैं उसका पश्चात्ताप करता हूँ।' पारसियोका यह विवेचन जैन-धर्मके प्रतिक्रमणसे मिलता-जुलता है, जो पारसी धर्मपर जैन धर्मके प्रभावका स्पष्ट सूचक है । अत भाव-हिंसाको छोडे बिना जिस तरह कोई व्यक्ति अहिंसक नही हो सकता, उसी तरह द्रव्य-हिंसाको छाडे बिना निदोष आचार-शुद्धि नही पल सकती। इसलिए दोनो हिसाओको बचानेके लिए सदा प्रयत्न करना चाहिए । आचार-धर्मके आधार गृहस्थ और साधु
इस तरह अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच प्रत हैं। इन व्रतोको गृहस्थ और साधु दोनो पालते हैं। गृहस्थ इन्हें एक देशरूपसे और साधु पूर्ण रूपसे पालन करते हैं। गृहस्थके ये व्रत अणुव्रत कहलाते हैं और साधुके महावत । साधुका क्षेत्र विस्तृत होता है। उसकी सारी प्रवृत्तियाँ सर्वजनहिताय और सर्वोदयके लिए होती है । वह ज्ञान, ध्यान और तपमें रत रहता हुआ वर्गसे, समाजसे और राष्ट्रसे बहुत ऊँचे उठ जाता है, उसकी दृष्टिमें ये सव सकीर्ण क्षेत्र हो जाते हैं। समाजसे वह कम लेकर और उसे अधिक देकर कृतार्थ होता है । लेकिन गृहस्थपर अनेक उत्तरदायित्व हैं। अपनी प्राणरक्षाके अलावा उसके कुटुम्बके प्रति, समाजके प्रति, धर्मके प्रति और राष्ट्र के प्रति भी कूछ कर्तव्य है । इन कर्तव्यों
-४८
-
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
को पालन करनेके लिए वह उक्त अहिंसा आदि व्रतोको अणुव्रतके रूपमें ग्रहण करता है और इन स्वीकृत व्रतोंकी वृद्धिके लिए अन्य सात व्रतोको भी धारण करता है, जो इस प्रकार है
(१) अपने कार्य-क्षेत्रकी गमनागमनकी मर्यादा निश्चित कर लेना 'विग्व्रत' है। यह व्रत जीवनभरके लिए ग्रहण किया जाता है । इस व्रतका प्रयोजन इच्छाओकी सीमा बाधना है ।
(२) दिग्वतको मर्यादाके भीतर ही उसे कुछ काल और क्षेत्रके लिए सीमित कर लेना-आने-जानेके क्षेत्रको कम कर लेना देशवत है।
(३) तीसरा अनर्थवण्डवत है । इसमें व्यर्थके कार्यों और प्रवृत्तियोका त्याग किया जाता है । ये तीनो व्रत अणुव्रतोके पोषक एवं वर्धक होनेसे गुणव्रत कहे जाते हैं। (४) सामायिकमें आत्म-विचार किया जाता है और खोटे विकल्पोका त्याग होता है।
(५) प्रोषधोपचासमें उपवास द्वारा आत्मशक्तिका विकास एव सहनशीलताका अभ्यास किया जाता है।
(६) भोगोपभोगपरिमाणमें दैनिक भोगो और उपभोगोकी वस्तुओका परिमाण किया जाता है । जो वस्तु एक बार ही भोगी जाती है वह भोग तथा जो वार-बार भोगने में आती है वह उपभोग है। जैसे भोजन, पान आदि एक बार भोगनेमें आनेसे भोग वस्तुएं हैं और वस्त्र, वाहन आदि बार-बार भोगने में आनेसे उपभोग वस्तुएँ हैं। इन दोनो ही प्रकारकी वस्तुओका प्रतिदिन नियम लेना भोगोपभोगपरिमाण व्रत है।
(७) अतिथिसविभागमें सुपात्रोको विद्या, औषधि, भोजन और सुरक्षाका दान दिया जाता है, जिससे व्यक्तिका उदारतागुण प्रकट होता है। तथा इनके अनुपालनसे साधु बननेकी शिक्षा (दिशा और प्रेरणा) मिलती है।
इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह सामाजिक जीवन-क्षेत्रमें हो या राष्ट्रीय, इन १२ व्रतोका सर+ लतासे पालन कर सकता है और अपने जीवनको सुखी एव शान्तिपूर्ण बना सकता है।
MMI
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
यदि आजको मनुष्य मनुष्यसे प्रेम करना चाहता है और मानवताको रक्षा करना चाहता है तो उसे महावीरकी इन सूक्ष्म क्षमा और अहिंसाको अपनाना ही पडेगा। यह सम्भव नही कि बाहरसे हम मनुष्यप्रेमकी दुहाई दें और भीतरसे कटार चलाते रहें। मनुष्य-प्रेमके लिए अन्तस् और बाहर दोनोंमें एक होना चाहिए । कदाचित् हम बाहर प्रेमका प्रदर्शन न करें, तो न करें, किन्तु अन्तस्में तो वह अवश्य हो, तभी विश्वमानवता जी सकती है और उसके जीनेपर अन्य शक्तियोपर भी करुणाके भाव विकसित हो सकते हैं।
क्षमा और अहिंसा ऐसे उच्च सदभाव पूर्ण आचरण हैं, जिनके होते ही समाजमें, देशमें, विश्वमें और जन-जनमें प्रेम और करुणाके अकूर उगकर फूल-फल सकते तथा सबको सुखी बना सकते हैं।
-५२
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
भ० महावीर और हमारा कर्त्तव्य
प्रस्तुतमें विचारणीय है कि वे कौन-से गुण और कार्य थे, जिनके कारण भगवान् महावीर भगवान् बने और सबके स्मरणीय हुए। आचार्यों द्वारा सग्रथित उनके सिद्धान्तो और उपदेशोसे उनके वे और गुण कार्य हमें अवगत होते हैं । महावीरने अपनेमें नि सीम अहिंसाकी प्रतिष्ठा की थी । इस अहिंसाकी प्रतिष्ठासे ही उन्होने अपने उन समस्त काम-क्रोधादि विकारोको जीत लिया था । कितना ही क्रूर एवं विरोधी उनके समक्ष पहुँचता, वह उन्हें देखते ही नत मस्तक हो जाता था, वे उक्त विकारोसे ग्रस्त दुनियाँसे इसी कारण ऊँचे उठ गये थे । उन्होने अहिंसासे खुद अपना जीवन बनाया और अपने उपदेशो द्वारा दूसरोंका भी जीवन-निर्माण किया । एक अहिंसाकी साघनामेंसे ही उन्हें त्याग, क्षमता, सहनशीलता, सहानुभूति, मृदुता, ऋजुता, सत्य, निलभता, ब्रह्मचर्य, श्रद्धा, ज्ञान आदि अनन्त गुण प्राप्त हुए और इन गुणोसे वे लोकप्रिय तथा लोकनायक बने । लोकनायक ही नही, मोक्षमार्गके नेता भी बने ।
हिंसा और विषमताओका जो नग्न ताण्डव-प्रदर्शन उस समय हो रहा था, उन्हें एक अहिंसा - अस्त्र द्वारा ही उन्होने दूर किया और शान्तिको स्थापना की । आज विश्वमें भीतर और बाहर जो अशान्ति और भय विद्यमान है उनका मूल कारण हिंसा एव आधिपत्यकी कलुषित दुर्भावनाएं हैं। वास्तवमे यदि विश्वमें शान्ति स्थापित करनी है और पारस्परिक भयोको मिटाना है तो एक मात्र अमोघ अस्त्र 'अहिंसा' का अवलम्बन एव आचरण है । हम थोडी देरको यह समझ लें कि हिंसक अस्त्रोंसे भयभीत करके शान्ति स्थापित कर लेंगे, तो यह समझना निरी भूल होगी । आतकका असर सदा अस्थायी होता है । पिछले जितने भी सकी युद्ध हुए वे बतलाते हैं कि स्थायी शान्ति उनसे नही । अन्यथा एकके बाद दूसरा और दूसरेके वाद तीसरा युद्ध कदापि न होता । आज जिनके पास शक्ति है वे भले ही उससे यह सन्तोष कर लें कि विश्वशान्तिका उन्हें नुस्खा मिल गया, क्योकि हिंसक शक्ति हमेशा बरबादी ही करती है । दूसरेके अस्तित्वको मिटा कर स्वयं कोई जिन्दा नही रह सकता । अत अणुबम, उद्जन वम आदि जितने भी हिंसाजनक साधन है उन्हें समाप्त कर अहिंसक एव सद्भावना पूर्ण प्रयत्नोसे शान्ति और निर्भयता स्थापित करनी चाहिए ।
जिन-जिन चीजोसे हिंसा होती
भीतर और बाहर जबर्दस्त यह सगठन निम्न प्रकारसे
हमारा कर्त्तव्य होना चाहिए कि हिँसाका पूरा विरोध किया जाय । है अथवा की जाती है उन सबका सख्त विरोध किया जाय। इसके लिए देशके आन्दोलन किया जाय तथा विश्वव्यापी हिंसाविरोधी सगठन कायम किया जाय। हिंसाका विरोध करे-
१. अणुवम, उद्जनवम जैसे सहारक वैज्ञानिक साघनोका आविष्कार और प्रयोग रोके जायें तथा हितकारक एव सरक्षक साधनोके विकास व प्रयोग किये जायें ।
२ अन्न तथा शाकाहारका व्यापक प्रचार किया जाय और मासभक्षणका निषेध किया जाय ।
३ पशु-पक्षियोपर किये जानेवाले निर्मम अत्याचार रोके जायें ।
४ कषायी - खाने बन्द किये जायें। उपयोगी पशुओका वध तो सर्वथा बन्द किया जाय ।
- ५३ -
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
५. बन्दर, कुत्ते, बिल्ली आदिपर वैज्ञानिक प्रयोग न किये जायें। सृष्टिके प्रत्येक प्राणीको जीवित रहनेका अधिकार है।
६. हीन, पतित, लूले-लंगडे और गरीबोंके जीवनका विकास किया जाय और उनकी रक्षा की जाय।
७ उद्योग, व्यापार और लेन-देनके व्यवहारमें भ्रष्टाचार न किया जाय और परिहार्य हिंसाका वर्जन किया जाय ।
८ धर्मके नामसे देवी-देवताओंके समक्ष होनेवाली पशुबलिको रोका जाय । ९. जीवित जानवरोको मारकर उनका चमडा निकालनेका हिंसक कार्य बन्द किया जाय ।
१० नैतिक एव अहिंसक नागरिक बननेका व्यापक प्रचार किया जाय । विश्वास है कि इस विषयमें अहिंसाप्रेमी जोरदार एव व्यापक आन्दोलन करेंगे।
Soceae
HTIAN
ASE
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शन
१. अनेकान्तवाद-विमश २. स्याद्वाद-विमर्श ३. सजय वेलट्ठिपुत्त और स्याद्वाद ४. जैनदर्शनके समन्वयवादी दृष्टिकोणकी ग्राह्यता ५ श्रमण-सस्कृतिको वैदिक संस्कृतिको देन ६ डॉ. अम्बेडकरसे भेंटवार्तामें महत्त्वपूर्ण अनेकान्त-चर्चा ७. जैन दर्शनमें सल्लेखना एक अनुशीलन ८ जैन दर्शनमें सर्वज्ञता ९ अर्थाधिगम-चिन्तन १० ज्ञापकतत्त्व-विमर्श ११. ध्यान-विमर्श
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनेकान्तवाद-विमर्श
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण निव्वडइ । तस्स भुवणेक्क-गुरुणो णमो अगंतवास्स ||
'जिसके बिना लोकका भी व्यवहार किसी तरह नही चल सकता, उस लोकके अद्वितीय गुरु 'अनेकान्तवाद' को नमस्कार है ।'
- आचार्य सिद्धसेन
यह उन सन्तोकी उद्घोषणा एव अमृत वाणी है, जिन्होने अपना साघनामय समूचा जीवन परमार्थचिन्तन और लोककल्याणमे लगाया है। उनकी यह उद्घोषणा काल्पनिक नही है, उनकी अपनी सम्यक् अनुभूति और केवलज्ञानसे पूत एव प्रकाशित होनेसे वह यथार्थ है । वास्तवमें परमार्थ-विचार और लोकव्यवहार दोनोकी आधार शिला अनेकान्तवाद । बिना अनेकान्तवादके न कोई विचार प्रकट किया जा सकता है और न कोई व्यवहार ही प्रवृत्त हो सकता है । समस्त विचार और समस्त व्यवहार इस अनेकान्तवादके द्वारा ही प्राण-प्रतिष्ठाको पाये हुए है । यदि उसकी उपेक्षा कर दी जाय तो वक्तव्य वस्तुके स्वरूपको न तो ठीक तरह कह सकते हैं, न ठीक तरह समझ सकते हैं और न उसका ठीक तरह व्यवहार ही कर सकते है । प्रत्युत, विरोध, उलझनें, झगडे-फिसाद, रस्साकशी, वाद-विवाद आदि दृष्टिगोचर होते हैं, जिनकी वजहसे वस्तुका यथार्थ स्वरूप निर्णीत नही हो सकता । अतएव प्रस्तुत लेखमें इस अनेकान्तवाद और उसकी उपयोगितापर कुछ प्रकाश डाला जाता है ।
८
वस्तुका अनेकान्त स्वरूप -- विश्वको तमाम चीजें अनेकान्तमय हैं । अनेकान्तका अर्थ है नानाधर्म । अनेक यानी नाना और अन्त यानी धर्म और इसलिये नानाधर्मको अनेकान्त कहते हैं । अत प्रत्येक वस्तुमें नानाधर्म पाये जानेके कारण उसे अनेकान्तमय अथवा अनेकान्तस्वरूप कहा गया है । यह अनेकान्तस्वरूपता वस्तुमें स्वय है- आरोपित या काल्पनिक नही है । एक भी वस्तु ऐसी है जो सर्वथा एकान्तस्वरूप (एकधर्मात्मक) हो । उदाहरणार्थ यह लोक, जो हमारे व आपके प्रत्यक्षगोचर है, चर और अचर अथवा जीव और अजीव इन दो द्रव्योसे 'युक्त । वह लोकसामान्यकी अपेक्षा एक होता हुआ भी इन दो द्रव्योकी अपेक्षा अनेक भी है और इस तरह वह अनेकान्तमय सिद्ध है । उसके एक जीवद्रव्यको ही लें। जीवद्रव्य जीवद्रव्य-सामान्यकी दृष्टिसे एक होकर भी चेतना, सुख, वीर्य आदि गुणो तथा मनुष्य, तिर्यंच, नारकी, देव आदि पर्यायोको समष्टि रूप होनेकी अपेक्षा अनेक है और इस प्रकार जीवद्रव्य भी अनेकान्तस्वरूप प्रसिद्ध है । इसी तरह लोकके दूसरे अवयव अजीवद्रव्यकी ओर ध्यान दें । जो शरीर सामान्यकी अपेक्षासे एक है वह रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणो तथा वाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था, वृद्धावस्था आदि क्रमवर्ती पर्यायोका आधार होनेसे अनेक भी है और इस तरह शरीरादि अजीवद्रव्य भी अनेकान्तात्मक सुविदित है । इस प्रकार जगत्का प्रत्येक सत् अनेकवर्मात्मक ( गुणपर्यायात्मक, एकानेकात्मक, नित्यानित्यात्मक आदि ) स्पष्टतया ज्ञात होता है ।
1971
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
और भी देखिए। जो जल प्यासको शान्त करने, खेतीको पैदा करने आदिमें सहायक होनेसे प्राणियोका प्राण है-जीवन है वही बाढ लाने, डूबकर मरने आदिमें कारण होनेसे उनका घातक भी है। कौन नही जानता कि अग्नि कितनी सहारक है, पर वही अग्नि हमारे भोजन बनाने आदिमें परम सहायक भी है। भूखेको भोजन प्राणदायक है, पर वही भोजन अजीर्ण वाले अथवा टाइफाइडवाले बीमार आदमीके लिये विप है। मकान, किताब, कपडा, सभा, संघ, देश आदि ये सब अनैकान्त ही तो हैं। अकेली इंटो या चूने-गारेका नाम मकान नहीं है। उनके मिलापका नाम ही मकान है । एक-एक पन्ना किताव नही है नाना पन्नोंके समूहका नाम किताब है। एक-एक सूत कपडा नही कहलाता । ताने-बाने रूप अनेक सूतोके सयोगको कपडा कहते हैं। एक व्यक्तिको कोई सभा या सघ नही कहता । उनके समुदायको ही समिति, सभा, सघ या दल आदि कहा जाता है। एक-एक व्यक्ति मिलकर जाति, और अनेक जातियाँ मिलकर देश बनते हैं । जो एक व्यक्ति है वह भी अनेक बना हुआ है। वह किसीका मित्र है, किसीका पुत्र है, किसीका पिता है, किसीका पति या या स्त्री है, किसीका मामा या भाजा है, किसीका ताक या भतीजा है आदि अनेक सम्बन्धोसे वधा हुआ है। उसमें ये सम्बन्ध काल्पनिक नहीं हैं, यथार्थ हैं। हाथ, पैर, आँखें, कान ये सब शरीरके अवयव ही तो है और उनका आधारभूत अवयवी शरीर है । इन अवयव-अवयवी स्वरूप वस्तुको ही हम सभी शरीरादि कहते व देखते हैं। कहनेका तात्पर्य यह है कि यह सारा ही जगत् अनेकान्तस्वरूप है। इस अनेकान्तस्वरूपको कहना या मानना अनेकान्तवाद है।
अनेकान्तस्वरूपका प्रदर्शक स्याद्वाद
भगवान् महावीर और उनके पूर्ववर्ती ऋपभादि तीर्थकरोंने वस्तुको अनेकान्तस्वरूप साक्षात्कार करके उसका उपदेश दिया और परस्पर विरोधी-अविरोधी अनन्त धर्मात्मक वस्तुको ठीक तरह समझने-समझानेके लिए वह दृष्टि भी प्रदान की जो विरोधादिके दूर करनेमें एकदम सक्षम है। वह दृष्टि है स्याद्वाद, जिसे कथचितवाद अथवा अपेक्षावाद भी कहते हैं। इस स्याद्वाद-दष्टिसे ही हम उस अनन्तधर्मा वस्तुको ठीक तरह जान सकते हैं। कौन धर्म किस अपेक्षासे वस्तुमें निहित है, इसे हम, जब तक वस्तुको स्याद्वाद दृष्टिसे नहीं देखेंगे, नही जान सकते हैं। इसके सिवा और कोई दष्टि वस्तके अनेकान्तस्वरूपका निर्दोष दर्शन नही करा सकती है । वस्तु जैसी है उसका वैसा ही दर्शन करानेवाली दष्टि अनेकान्तदृष्टि अथवा स्याद्वाददृष्टि ही हो सकती है, क्योकि वस्तु स्वय अनेकान्तस्वरूप है। इसीसे वस्तके स्वरूप-विषयमें "अर्थोऽनेकान्त । अनेके अन्ता धर्मा सामान्य-विशेष-गुण-पर्याया यस्य सोऽनेकान्त" यो कहा गया है । दूसरी दृष्टियां वस्तुके एक-एक अशका दर्शन अवश्य कराती हैं। पर उस दर्शनसे दर्शकको यह भ्रम एव एकान्त आग्रह हो जाता है कि वस्तु इतनी मात्र ही है और नही है । इसका फल यह होता है कि शेष धर्मों या अशोका तिरस्कार हो जानेके कारण वस्तुका पूर्ण एव सत्य दर्शन नही हो पाता। स्याद्वाद-तीर्थके प्रभावक आचार्य समन्तभद्रस्वामीने अपने स्वयम्भूस्तोत्रमें इसी बातको निम्न प्रकार प्रकट किया है -
य एव नित्य-क्षणिकादयो नया मिथोऽनपेक्षा स्वपर-प्रणाशिनः ।
त एव तत्त्व विमलस्य ते मुने परस्परेक्षा स्वपरोपकारिण ।। 'यदि नित्यत्व, अनित्यत्व आदि परस्पर निरपेक्ष एक-एक ही धर्म वस्तमें हो तो वे न स्वय अपने अस्तित्वको रख सकते हैं और न अन्यके। यदि वे ही परस्पर सापेक्ष हो-अन्यका तिरस्कार न करें तो हे विमल जिन ! वे अपना भी अस्तित्व रखते हैं और अन्य धर्मोका भी। तात्पर्य यह कि एकान्तदृष्टि तो स्वपरघातक है और अनेकान्त-दृष्टि स्वपरोपकारक है।'
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
इसी आशयसे उन्होने स्पष्टतया यह भी बतलाया है कि वस्तु में एकान्तत नित्यत्व और एकान्न्ततः अनित्यत्व अपने अस्तित्वको क्यो नही रख सकते हैं? वे कहते है कि 'सर्वया नित्य पदार्थ न तो उत्पन्न हो सकता है और न नाश हो सकता है, क्योकि उसमें किया और कारकको योजना सम्भव नहीं है। इसी तरह सर्वथा अनित्य पदार्थ भी, जो अन्वयरहित होनेसे प्राय असतरूप ही है, न उत्पन्न हो सकता है और न नष्ट हो सकता है, क्योकि उसमें भी क्रिया और कारककी योजना असम्भव है । इसी प्रकार सर्वथा असत्का उत्पाद और सत्का नाश भी सम्भव नही है, क्योकि असत् तो अन्वय-शून्य है और सत् व्यतिरेकशून्य है और इन दोनोके विना कार्यकारणभाव बनता नही । 'अन्वयव्यतिरेक समधिगम्यो हि कार्यकारणभाव' यो सर्व सम्मत सिद्धान्त है । अत वस्तुतत्त्व 'यह वही है' इस प्रकारकी प्रत्यभिज्ञा-प्रतीति होनेसे नित्य है और 'यह वह नही है-अन्य है' इस प्रकारका ज्ञान होनेसे अनित्य है और ये दोनो नित्यत्व तथा अनित्यत्व वस्तुमें विरुद्ध नही है, क्योकि वह द्रव्यरूप अन्तरग कारणको अपेक्षासे नित्य है और कालादि वहिरग कारण तथा पर्यायरूप नैमित्तिक कार्यकी अपेक्षासे अनित्य है । यथा
न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति न च क्रियाकारकमत्र युक्तम् । नेवाऽसतो जन्म सतो न नाशो दीपस्तम पुद्गलभावतोऽस्ति ॥२४॥ नित्य तदेवेदमिति प्रतीतेन नित्यमन्यत् प्रतिपत्तिसिद्धेः ।
न तद्विरुद्ध बहिरन्तरङ्गनिमित्त-नैमित्तिक-योगतस्ते ॥४३।। आगे इसी ग्रन्थमें उन्होने अरजिनके स्तवनमें और भी स्पष्टताके साथ अनेकान्तदृष्टिको सम्यक् और एकान्त दृष्टिको स्व-घातक कहा है -
अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शून्यो विपर्यय ।
तत सर्व मृषोक्त स्यात्तदयुक्त स्वघातत ॥१८॥ 'हे पर जिन ! आपकी अनेकान्तदृष्टि समीचीन है-निर्दोप है, किन्तु जो एकान्तदृष्टि है वह सदोष है । अत एकान्तदष्टिसे किया गया समस्त कथन मिथ्या है, क्योकि एकान्तदृष्टि बिना अनेकान्तदृष्टिके प्रतिष्ठित नही होती और इसलिये वह अपनी ही घातक है।'
तात्पर्य यह कि जिस प्रकार समुद्रके सदभावमें ही उसकी अनन्त विन्दुओकी सत्ता बनती है और उसके अभावमें उन बिन्दुओको सत्ता नही बनती उसी प्रकार अनेकान्तस्प वस्तुके सद्भावमें ही सर्व एकान्त दृष्टियाँ सिद्ध होती है और उसके अभावमें एक भी दृष्टि अपने अस्तित्वको नही रख पाती। आचार्य मिद्धसेन अपनी चौथी द्वानिशिकामें इसी वातको वहुत ही सुन्दर ढगसे प्रतिपादन करते हैं -
उदधाविव सर्वसिन्धव. समुदीस्त्वियि सर्वदृष्टय ।
न च तासु भवानुदीक्ष्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधि. ।।-(४-१५) 'जिस प्रकार समस्त नदियां समुद्र में सम्मिलित हैं उसी तरह ममस्त दृष्टियाँ बनेकान्त-मुद्र में मिली है । परन्तु उन एक-एकमें अनेकान्तका दर्शन नहीं होता । जैसे पृथक् धक् नदियोंमें समुद्र नहीं दिखता।'
अत हम अपने स्वल्प शानमे अनन्तधर्मा वस्तुके एक-एक अशको छूकर ही उसमें पूर्णतापा अहकार 'ऐसी ही है' न करें, उममें अन्य धर्मोके सदभावको भी स्वीकार करें। यदि हम इस तरह पक्षाग्रह छोटकर वस्तुका दर्शन करें तो निश्चय ही हमे उसके अनेकान्तारमफ विराट् रपया दर्शन हो सकता है। समन्तभद्र स्वामी युक्त्यनुशासनमें यही कहते है -
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकान्तधर्माऽभिनिवेश-मूला रागादयोऽहकतिजा जनानाम् ।
एकान्त-हानाच्च स यत्तदेव स्वाभाविकत्वाच्च सम मनस्ते ॥५१॥ 'एकान्तके आग्रहसे एकान्तीको अहकार हो जाता है और उस अहकारसे उसे राग, द्वेप, पक्ष आदि हो जाते हैं, जिनसे वह वस्तुका ठीक दर्शन नहीं कर पाता। पर अनेकान्तीको एकान्तका आग्रह न होनेसे उसे न अहकार पैदा होता है और न उस अहकारसे रागादिकको उत्पन्न होनेका अवसर मिलता है और उस हालतमें उसे उस अनन्तधर्मा वस्तुका सम्यग्दर्शन होता है, क्योकि एकान्तका आग्रह न करना-दूसरे धर्मोको भी उसमें स्वीकार करना सम्यग्दृष्टि आत्माका स्वभाव है और इस स्वभावके कारण ही अनेकान्तीके मनमें पक्ष या क्षोभ पैदा नहीं होता-वह समताको धारण किये रहता है।'
अनेकान्तदृष्टिकी जो सबसे बडी विशेषता है वह है सब एकान्तदृष्टियोको अपनाना-उनका तिरस्कार नही करना-और इस तरह उनके अस्तित्वको स्थिर रखना । आचार्य सिद्धसेनके शब्दोंमें हम इसे इस प्रकार कह सकते हैं
भई मिच्छादसण-समूह-मइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ सविग्गसुहाहिगम्मस्स ।।
'ये अनेकान्तमय जिनवचन मिथ्यादर्शनो (एकान्तो) के समूह रूप है-इसमें समस्त मिथ्यादृष्टियाँ (एकान्तदृष्टियां) अपनी-अपनी अपेक्षासे विराजमान हैं और अमृतसार या अमृतस्वादु हैं । वे सविग्नरागद्वेपरहित तटस्थ वृत्तिवाले जीवोको सुखदायक एव ज्ञानोत्पादक है। वे जगतके लिये भद्र हो-उनका कल्याण करें।
वन्ध, मोक्ष, आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, पुण्य-पाप आदिकी सम्यक व्यवस्था अनेकान्तमान्यतामें ही बनती है-एकान्तमान्यतामें नही । इसीसे समन्तभद्र स्वामीको देवागममें कहना पडा है कि
कुशलाऽकूशल कर्म परलोकश्च न क्वचित ।
एकान्त-ग्रह-रक्तेषु नाथ स्वपरवरिषु॥ 'नित्यत्वादि किसी भी एकान्तमें पुण्य-पाप, परलोक, इहलोक आदि नही बनते हैं, क्योकि एकान्तका अस्तित्व अनेकान्तके सद्भावमें ही बनता है और अनेकान्तके न माननेपर उनका वह एकान्त भी स्थिर नही रहता और इस तरह वे अपने तथा दूसरेके वैरी-अकल्याणकर्ता है।'
इन्ही सब बातोसे आचार्य समन्तभद्रने भगवान वीरके शासनको, जो अनेकान्तसिद्धान्तकी भव्य एव विशाल आधारशिलापर निर्मित हमा है और जिसकी बुनियाद अत्यन्त मजबूत है, 'सर्वोदय तीर्थ-सबका कल्याण करने वाला तीर्थ कहा है
सर्वान्तवत्तद्गुण-मुख्य-कल्प सन्ति-शून्य च मिथोऽनपेक्षम् । सर्वाऽऽपदामन्तकर निरन्त सर्वोदय तीर्थमिद तवैव ॥१॥
~युक्त्यनुशासन _ 'हे वीर जिन | आपका तीर्थ-शासन समस्त धर्मों-सामान्य-विशेष, द्रव्य-पर्याय, विधि-निषेध, एकअनेक, नित्यत्व-अनित्यत्व आदिसे युक्त है और गौण तथा मुख्यकी विवक्षाको लिये हुए है-एक धर्म मुख्य
- ६०
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
है तो दूसरा धर्म गौण है। किन्तु अन्य तीर्थ-शासन निरपेक्ष एक-एफ नित्यत्व या अनित्यत्य माटिका हो प्रतिपादन करनेसे समस्त धर्मों-उस एक-एक धर्मके अविनाभावी गेप धर्मोसे शून्य हैं और उनके अभावमें उनके अविनाभावी उस एक-एक धर्मसे भी रहित हैं। अत मापका ही अनेकान्तशामनस्प तीर्थ मर्व टु खोका अन्त करनेवाला है, किसी अन्यके द्वारा अन्त (नाश) न होने वाला है और सबका कल्याणकर्ता है।'
आचार्य अमतचन्द्र के शब्दोमें हम इस 'अनेकान्त' को, जिसे 'सर्वोदयतीर्थ पाहकर उसका अचिन्त्य माहात्म्य प्रकट किया गया है, नमस्कार करते और मगलकामना करते है कि विश्व इगको प्रकारापूर्ण एव आह्लादजनक शीतल छायामें आकर सुख-शान्ति एव सदृष्टि प्राप्त करे ।
परमागमस्य बीज निषिद्व-जात्यन्ध-सिन्धुर-विधानम् । सकल-नय-विलसिताना विरोधमथन नमाम्यनेकान्तम् ।।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वादादविमर्श
स्याद्वाद जैनदर्शनका मौलिक सिद्धान्त
'स्याद्वाद' जैन दर्शनका एक मौलिक एव विशिष्ट सिद्धान्त है । 'स्याद्वाद' पद 'स्यात्' और 'वाद' इन दो शब्दोसे बना है । यहाँ 'स्यात्' शब्द अव्यय निपात है, 'क्रिया' शब्द या अन्य शब्द नही है । इसका
अर्थ कथचित् किंचित्, किसी अपेक्षा, कोई एक दृष्टि, कोई एक धर्मकी विवक्षा, कोई एक ओर, है ।
"
और 'वाद' शब्द का अर्थ है मान्यता अथवा कथन जो 'स्यात्' (कथचित्) का कथन करने वाला अथवा 'स्यात्' को लेकर प्रतिपादन करने वाला है वह 'स्याद्वाद' है । अर्थात् जो विरोधी धर्मका निराकरण न करके अपेक्षासे वस्तु धर्मका प्रतिपादन (विधान) करता है उसे 'स्याद्वाद' कहा गया है। कथचित्वाद, अपेक्षावाद आदि इसी के नामान्तर हैं-इन नामोसे उसीका वोध किया जाता है।
स्मरण रहे कि वक्ता अपने अभिप्रायको यदि सर्वथाके साथ प्रकट करता है तो उससे सही वस्तुका बोष नही हो सकता और यदि 'स्यात्' के साथ वह अपने अभिप्रायको प्रकट करता है तो वह वस्तु-स्वरूपका यथार्थ प्रतिपादन करता है क्योकि कोई भी धर्म वस्तुमें 'सर्वया' ऐकान्तिक नहीं है। सत्त्व असत्त्व, नित्यता, अनित्यता, एफत्व, अनेकत्व आदि भी धर्म वस्तुमें हूँ और वे सभी भिन्न-भिन्न अपेक्षामसि उसमें विद्यमान हैं । सत्त्व असत्त्वका नित्यत्व अनित्यत्वका, एकत्व अनेकत्वका और वक्तव्यत्व अवतव्यत्वका नियमसे अविनाभावी है। वे एक दूसरेको छोटकर नहीं रहते। हाँ, एक्की प्रधान विवक्षा होनेपर दूसरा गौण हो जायेगा । पर वे धर्म रहेंगे सभी । इसीसे वस्तु अनन्तधर्मात्मक है । इस विषयको जैन विचारक आचार्य समन्तभद्रने' बहुत स्पष्टताके साथ समझाया है । अत. प्रत्येक वक्ता जब कोई बात कहता है तो वह 'स्याद्वाद' की भाषामें कहता है । भले ही वह स्याद्वादका प्रयोग करे या न करे ।
स्याद्वादका सार्वत्रिक उपयोग
लौकिक या पारलौकिक कोई भी ऐसा विषय नहीं है, जिसमें स्याद्वादका उपयोग न किया जाता हो । जीवनके दैनिक व्यवहारसे लेकर मुक्ति तक के सभी विषयो में स्याद्वादका उपयोग होता है और हर व्यक्ति उसे करता है। टोपी, कुरता, घोती आदि जितने शब्द और सकेत है वे सब विवक्षित अभिप्रायोको प्रकट करनेके साथ ही अविवक्षित गौण अभिप्रायोंकी भी सूचना करते हैं। यह दूसरी बात है कि उन्हें कहते समय या सुनते समय उन गौण अभिप्रायोकी और वक्ता या श्रोताका ध्यान न जाय क्योकि उसका काम
१ स्याद्वाद सर्वकान्तत्यागात्किवृत्तचिद्विषि । सप्तभङ्गनयापेक्षी यादेयविशेषक ॥
- समन्तभद्र, आप्तमी का १०४ ।
२ सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नया । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहिते ॥ सर्वथा नियम त्यागी यथादृष्टमपेक्षक । स्याच्छन्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥ — समन्तभद्र, स्वयम्भू स्तोत्र १०४, १०५ ।
- ६२
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
संजय वेलट्ठिपुत्त और स्यावाद
स्याद्वादके सम्बन्धमे भ्रान्तियाँ
जैन दर्शनके स्याद्वाद सिद्धान्तको अभी भी विद्वान् ठीक तरहसे समझनेका प्रयत्न नही करते और धर्मकीर्ति एव शङ्कराचार्यकी तरह उसके बारेमें भ्रान्त उल्लेख अथवा कथन कर जाते हैं। प० बलदेव उपाध्यायकी भ्रान्ति
काशी हिन्दू विश्वविद्यालयमें सस्कृत-पाली विभागके व्याख्याता प० बलदेव उपाध्यायने सन् १९४६ में 'बौद्ध-दर्शन' नामका एक ग्रन्थ हिन्दीमें लिखकर प्रकाशित किया है । इसमें उन्होने बुद्धके समकालीन मत-प्रवर्तकोके मतोको देते हुए सजय वेलठ्ठिपुत्तके अनिश्चिततावादको भी बौद्धोके 'दीघनिकाय' (हिन्दी अ०१० २२) ग्रन्थसे उपस्थित किया है और अन्तमें यह निष्कर्ष निकाला है कि "यह अनेकान्तवाद प्रतीत होता है । सम्भवत. ऐसे ही आधारपर महावीरका स्याद्वाद प्रतिष्ठित किया गया था।" राहुल सास्कृत्यायनका भ्रम
इसी प्रकार दर्शन और हिन्दीके ख्यातिप्राप्त बौद्ध विद्वान् राहुल सास्कृत्यायन अपने 'दर्शन-दिग्दर्शन' में लिखते हैं
"आधुनिक जैन-दर्शनका आधार 'स्याद्वाद' है, जो मालूम होता है सजय वेलठ्ठिपुत्तके चार अङ्गवाले अनेकान्तवादको (1) लेकर उसे सात अङ्गवाला किया गया है। सजयने तत्त्वो (परलोक, देवता) के बारेमें कुछ निश्चयात्मक रूपसे कहनेसे इन्कार करते हुए उस इन्कारको चार प्रकार कहा है
१. है ?-नही कह सकता। २ नही है ?-नही कह सकता । ३ है भी नही भी नहीं कह सकता। ४ न है और न नही है-तही कह सकता । इसकी तुलना कीजिए जैनोके सात प्रकारके स्याद्वादसे१ है ?-हो सकता है (स्याद् अस्ति) २ नही है ?-नही भी हो सकता (स्यान्नास्ति) ३ है भी नही भी ?-है भी और नही भी हो सकता है (स्यादस्ति च नास्ति च) उक्त तीनो उत्तर क्या कहे जा सकते (= वक्तव्य) है ? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते हैं४ स्याद् (हो सकता है) क्या यह कहा जा सकता (= वक्तव्य) है ?-नही, स्याद् अवक्तव्य है। ५ 'स्याद् अस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नही 'स्याद् अस्ति' अवक्तव्य है। ६ 'स्याद् नास्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नही, 'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है ।
७ 'स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य है ? नही, 'स्याद् अस्ति च नास्ति च' अवक्तव्य है।'
१ बौद्धदर्शन पृ० ४० ।
२. दर्शनदिग्दर्शन पृ० ४९६-९७ ।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
वस्तुमें सामान्य, विशेष, गुण, पर्याय आदि अनन्त धर्म भरे पडे हैं । उनमेंसे एक हो धर्मको यो एक धर्मात्मक ही वस्तुको स्वीकार करना एकान्तवाद है । सामान्यैकान्त, विशेषकान्त मेकान्त, अभेदेकान्त नित्यंकान्त, अनित्यैकान्त आदि एकान्तवाद हैं। एकान्तवादके स्वीकार करनेमें जो सबसे बडा दोष है वह यह है कि उन सामान्य विशेष आदिमेंसे केवल उसी एकको माननेपर दूसरे धर्मोका तिरस्कार हो जाता है और उनके तिरस्कृत होने पर उनका अभिमत वह धर्म भी नहीं रहता, जिसे वे मानते हैं, क्योकि उनका
परस्पर अभेद्य सम्बन्ध अथवा अविनाभाव सम्बन्ध है । किन्तु विवक्षित और अविवक्षित धर्मोको मुख्य तथा गौण दृष्टिसे स्वीकार करने में उक्त दोष नही आता । अतएव अन्तिम तीर्थंकर महावीरने बतलाया कि यदि अविकल पूरी वस्तु देखना चाहते हो तो उन एकान्तवादोके समुच्चयस्वरूप अनेकान्तवादको स्वीकार करना चाहिए - उनकी परस्पर सापेक्षतामें ही वस्तुका स्वरूप स्थिर रहता और निखरता है। यही अनेकान्तवाद है, जिसकी व्यवस्था स्याद्वादके द्वारा बतायी जा चुकी है।
सात उत्तरवाक्योंके समुदायका नाम सप्तभङ्गी है। यहाँ 'भङ्ग' शब्दका अर्थ उत्तरवाक्य अथवा वस्तुधर्म विवक्षित है। जिनमें सात उत्तरवाक्य या धर्म हो, उसे सप्तभागी कहते हैं। यह वक्ताकी प्रतिबोध्यको समझानेकी एक प्रक्रिया है। इसके स्वीकारका नाम सप्तमङ्गीबाद है। इस सप्तभगीमें सात ही उत्तरवाक्योका नियम इसलिए है कि प्रश्नकर्ताके द्वारा सात हो प्रश्न किये जाते हैं, और उन सात ही प्रश्न किये जानेका कारण उसकी सात ही जिज्ञासाएँ हैं तथा सात जिज्ञासाओका कारण भी वस्तुके विषयमें उठने वाले उसके सात ही सन्देह हैं और इन सात सन्देहोका कारण वस्तुनिष्ठ सात ही धर्म हैं । यो तो वस्तुमें अनन्त । धर्म हैं । किन्तु प्रत्येक धर्मको लेकर विधि-निषेध ( है, नही) की अपेक्षासे सात ही धर्म उसमें व्यवस्थित हैं वे सात धर्म इस प्रकार हैं--सत्त्व असत्त्व, सत्त्वासत्वोभय, अवक्तव्यत्व ( अनुभय) सत्त्वावक्तव्यत्व, असत्वावक्तव्यत्व और सत्त्वासत्त्वोभयावक्तव्यत्व । इन सातसे न कम है और न ज्यादा । इन सातमें तीन भङ्ग ( सत्त्व, असत्त्व और अवक्तव्यत्व) मूलभूत हैं, तीन (उभय, सत्त्वावक्तव्यत्व और असत्त्वावक्तव्यत्व) द्विसयोगी है और एक (सत्त्वासत्त्वोभयावक्तव्यत्व) त्रिसयोगी है । उदाहरणस्वरूप नमक, मिर्च और खटाई इन तीन मूल स्वादोके सयोगज स्वाद चार और बन सकते हैं और कुल सात ही हो सकते हैं। उनसे न कम और न ज्यादा ।
अत इन सात धर्मोके विषयमें प्रश्नकर्ताके द्वारा किये गये सात प्रश्नोका उत्तर सप्तभङ्गोसाव उत्तरवाक्योके द्वारा दिया जाता है । यही सप्तभगीन्याय अथवा शैली या प्रक्रिया है, जो वस्तुसिद्धिके लिए स्याद्वादका अमोघ साधन है ।
१ न्यायदीपिका पृ० १२७ तत्त्वार्थवात्तिक १६, जैनतर्कभाषा, पृ० १९ । २ अष्टसहस्री पृ० १२५, १२६ ।
-- ६४
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
संजय वेलट्ठिपुत्त और स्यावाद
स्याद्वादके सम्बन्धमे भ्रान्तियाँ
जैन दर्शनके स्याद्वाद सिद्धान्तको अभी भी विद्वान् ठीक तरहसे समझनेका प्रयत्न नही करते और धर्मकीर्ति एव शङ्कराचार्यकी तरह उसके बारेमें भ्रान्त उल्लेख अथवा कथन कर जाते है। प० बलदेव उपाध्यायकी भ्रान्ति
काशी हिन्दू विश्वविद्यालयमें सस्कृत-पाली विभागके व्याख्याता प० बलदेव उपाध्यायने सन् १९४६ में 'बौद्ध-दर्शन' नामका एक ग्रन्थ हिन्दीमें लिखकर प्रकाशित किया है । इसमें उन्होंने बुद्धके समकालीन मत-प्रवर्तकोंके मतोको देते हुए सजय वेलठ्ठिपुत्तके अनिश्चिततावादको भी बौद्धोके 'दीघनिकाय' (हिन्दी म०प० २२) ग्रन्थसे उपस्थित किया है और अन्तमें यह निष्कर्ष निकाला है कि "यह अनेकान्तवाद प्रतीत होता है । सम्भवत. ऐसे ही आधारपर महावीरका स्याद्वाद प्रतिष्ठित किया गया था।" राहुल सास्कृत्यायनका भ्रम
इसी प्रकार दर्शन और हिन्दीके ख्यातिप्राप्त बौद्ध विद्वान् राहुल सास्कृत्यायन अपने 'दर्शन-दिग्दर्शन' में लिखते हैं
आधुनिक जैन-दर्शनका आधार 'स्याद्वाद' है, जो मालूम होता है सजय वेलठ्ठिपुत्तके चार अङ्गवाले अनेकान्तवादको (J) लेकर उसे सात अजवाला किया गया है। सजयने तत्त्वो (= परलोक, देवता) के बारेमें कुछ निश्चयात्मक रूपसे कहनेसे इन्कार करते हुए उस इन्कारको चार प्रकार कहा है
१. है ?-नही कह सकता । २ नही है ?-नही कह सकता। ३ है भी नही भी -नही कह सकता । ४ न है और न नही है-नहीं कह सकता। इसकी तुलना कीजिए जैनके सात प्रकारके स्याद्वादसे१ है ?-हो सकता है (स्याद् अस्ति) २ नही है ?-नही भी हो सकता (स्यान्नास्ति) ३ है भी नही भी ?-है भी और नही भी हो सकता है (स्यादस्ति च नास्ति च) उक्त तीनो उत्तर क्या कहे जा सकते (= वक्तव्य) है ? इसका उत्तर जैन 'नहीं' में देते है४ स्याद् (हो सकता है) क्या यह कहा जा सकता (= वक्तव्य) है ?-नही, स्याद् अवक्तव्य है। ५ 'स्याद् अस्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नही 'स्याद् अस्ति' अवक्तव्य है । ६ 'स्याद् नास्ति' क्या यह वक्तव्य है ? नही, 'स्याद् नास्ति' अवक्तव्य है ।
७ 'स्याद् अस्ति च नास्ति च' क्या यह वक्तव्य है ? नही, 'स्याद् अस्ति च नास्ति च' अवक्तव्य है।'
१ बौद्धदर्शन पु० ४० ।
२ दर्शनदिग्दर्शन पृ० ४९६-९७ ।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
दोनोके मिलानेसे मालूम होगा कि जैनोने सजयके पहले वाले तीन वाक्यो (प्रश्न और उत्तर दोनो) को अलग करके अपने स्याहादकी छह भङ्गियां बनाई है, और उसके चौथे वाक्य "न है और न नही है" को छोडकर 'स्याद्' भी अवक्तव्य है यह सातवां भङ्ग तैयार कर अपनी सप्तभङ्गी पूरी की।
उपलभ्य सामग्रीसे मालूम होता है कि सजय अनेकान्तवादका प्रयोग परलोक, देवता, कर्मफल, मुक्त पुरुष जैसे-परोक्ष विषयोपर करता था। जैन सजयकी युक्तिको प्रत्यक्ष वस्तुओपर लागू करते हैं। उदाहरणार्थ सामने मौजूद घटकी सत्ताके बारेमें यदि जैन-दर्शनसे प्रश्न पूछा जाय, तो उत्तर निम्न प्रकार मिलेगा
१ घट यहाँ है ?-हो सकता है (= स्यादस्ति) । २ घट यहां नही है ?-नही भी हो सकता है (= स्याद् नास्ति)।
३ क्या घट यहाँ है भी और नही भी है ?-है भी और नही भी हो सकता है (= स्याद् अस्ति च नास्ति च)।
४ 'हो सकता है' (= स्याद) क्या यह कहा जा सकता है ?-नही, 'स्याद्' यह अ-वक्तव्य है।
५ घट यहाँ 'हो सकता है' (= स्याद स्ति) क्या यह कहा जा सकता है ?-नही, 'घट यहां हो सकता है' यह नही कहा जा सकता है।
६ घट यहाँ 'नही हो सकता है' (= स्यान् नास्ति) क्या यह कहा जा सकता है ?-नही, 'घट यहाँ नही हो सकता' यह नहीं कहा जा सकता।
७ घट यहाँ 'हो भी सकता है', नही भी हो सकता है', क्या यह कहा जा सकता है ? नही, 'घट' यहाँ हो भी सकता है, नही भी हो सकता है' यह नहीं कहा जा सकता ।
इस प्रकार एक भी सिद्धान्त ( = वाद) की स्थापना न करना, जो कि सजयका वाद था, उसीको सजयके अनुयायियोके लुप्त हो जानेपर जैनोंने अपना लिया, और उसके चतुभंगी न्यायको सप्तभङ्गीमें परिणत कर दिया।" उक्त भ्रान्तियोका निराकरण
मालूम होता है कि इन विद्वानोने जैनदर्शनके स्याद्वाद-सिद्धान्तको निष्पक्ष होकर समझनेका प्रयत्न नही किया और परम्परासे जो जानकारी उन्हें मिली उसीके आधारपर उन्होने उक्त कथन किया है । अच्छा होता, यदि वे किसी जैन विद्वान अथवा दार्शनिक जैन ग्रन्थसे जैनदर्शनके स्याद्वादको समझकर उसपर कुछ लिखते । हमें आश्चर्य है कि दर्शनो और उनके इतिहासका अपनेको अधिकारी विद्वान् माननेवाला राहलजी जैसा महापण्डित जैनदर्शन और उसके इतिहासको छिपाकर यह कैसे लिख गया कि "सजयके वादको ही सजयके अनुयायियोके लुप्त हो जानेपर जैनोने अपना लिया।" क्या वे यह मानते हैं कि जैनधर्म व जैनदर्शन और उनके माननेवाले जैन सजयके पहले नही थे ? यदि नही, तो उनका उक्त लिखना असम्बद्ध और भ्रान्त है। और यदि मानते हैं, तो उनकी यह बडी भारी ऐतिहासिक भूल है, जिसे स्वीकार करके उन्हें तुरन्त ही अपनी भूलका परिमार्जन करना चाहिये । यह अब सर्व विदित हो गया है और प्राय सभी निष्पक्ष ऐतिहासिक भारतीय तथा पाश्चात्म विद्वानोने स्वीकार भी कर लिया है कि जैनधर्म व जैनदर्शनके प्रवर्तक भगवान महावीर नही थे, अपितु उनसे पूर्व हो गये ऋपभदेव आदि २३ तीर्थकर उनके प्रवर्तक है, जो विभिन्न समयोमें हुए हैं और जिनमें पहले तीर्थदर ऋषभदेव, २२वें तीर्थङ्कर अरिष्टनेमि (कृष्णके समकालीन और उनके चचेरे भाई) तथा २३वें तीर्थसर पार्श्वनाथ तो ऐतिहामिक महापुरुष भी सिद्ध हो चुके हैं । अत भगवान् महावीरके समकालीन सजय और उसके अनयायियोके पूर्व जैनधर्म व जैनदर्शन और
- ६६
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
उनके माननेवाले जैन विद्यमान थे और इसलिये उनके द्वारा संजयके वादको अपनानेका राहलजीका आक्षेप सर्वथा निराधार और असगत है । ऐसा ही एक भारी आक्षेप अपने बौद्ध ग्रन्थकारोकी प्रशसाकी धुन में वे समग्न भारतीय विद्वानोपर भो कर गये, जो अक्षम्य है । वे इसी 'दर्शन दिग्दर्शन' (पृ० ४९८) में लिखते हैं
"नागार्जुन, असग, वसुबन्धु दिड़नाग, धर्मकीति-भारतके अप्रतिम दार्शनिक इसी धारामें पैदा हुए थे। उन्हीके ही उच्छिष्ट-भोजी पीछेके प्राय सारे ही दूसरे भारतीय दार्शनिक दिखलाई पडते है।"
राहुलजी जैसे कलमशूरोको हरेक वातको और प्रत्येक पदवाक्यादिको नाप-जोखकर ही कहना और लिखना चाहिए । उनका यह लिखना बहुत ही भ्रान्त और आपत्तिजनक है।
_____ अब सजयका वाद क्या है और जैनोका स्याद्वाद क्या है ? तथा उक्त विद्वानोका उक्त कथन क्या सगत एव अभ्रान्त है ? इन बातोपर सक्षेपमें विचार किया जाता है । संजयवेलठ्ठिपुत्तका वाद (मत)
भगवान महावीरके समकालमें अनेक मत-प्रवर्तक विद्यमान थे। उनमें निम्न छह मत-प्रवर्तक बहत प्रसिद्ध और लोकमान्य थे
१ अजितकेश कम्बल, २ मक्खलि गोशाल, ३ पूरण काश्यप, ४ प्रक्रुध कात्यायन, ५ सजय वेलट्टिपुत्त और ६ गौतम बुद्ध ।
इनमें अजितकेश कम्बल और मक्खलि गोशाल भौतिकवादी, पूरण काश्यप और प्रक्रुध कात्यायन नित्यतावादी, सञ्जय वेलट्रिपुत्त अनिश्चिततावादी और गौतम बुद्ध क्षणिक अनात्मवादी थे।
प्रकृतमें हमें सञ्जयके मतको जानना है। अत उनके मतको नीचे दिया जाता है। 'दीघनिकाय' में उनका मत इस प्रकार बतलाया है
"यदि आप पळे-'क्या परलोक है', तो यदि मैं समझता होऊँ कि परलोक है तो आपको बताऊँ कि परलोक है। मैं ऐसा भी नही कहता वैसा भी नहीं कहता, दूसरी तरहसे भी नही कहता । मैं यह भी नहीं कहता कि 'वह नही है। मैं यह भी नही कहता कि 'वह नही नही है । परलोक नही है, परलोक नही नही ।' देवता (= औपपादिक प्राणी) है । देवता नहीं है, है भी और नही भी, न है और न नही है अच्छे बुरे कर्मके फल है. नही है. है भी नही भी, न है और न नही है । तथागत (= मुक्तपुरुष) मरनेके बाद होते हैं, नही होते हैं " ?-यदि मझसे ऐसा पूछे, तो मैं यदि ऐसा समझता होऊँ तो ऐसा आपको कहूँ । मैं ऐसा भी नही कहता, वैसा भी नही कहता ।"
यह बौद्धो द्वारा उल्लेखित सजयका मत है । इसमें पाठक देखेंगे कि सजय परलोक, देवता. कर्मफल और मुक्तपुरुष इन अतीन्द्रिय पदार्थों के जानने में असमर्थ था और इसलिये उनके अस्तित्वादिके बारेमें वह कोई निश्चय नही कर सका। जब भी कोई इन पदार्थो के बारेमे उससे प्रश्न करता था तब वह चतुष्कोटि विकल्पद्वारा यही कहता था कि मैं जानता होऊँ तो बतलाऊँ और इसलिये निश्चयमे कुछ भी नही कह सकता । अत यह तो बिलकुल स्पष्ट है कि सजय अनिश्चितावादी अथवा सशयवादी था और उसका मत अनिश्चिततावाद या सशयवादरूप था। राहलजीने स्वय भी लिखा है कि "सजयका दर्शन जिस रूपमे हम १ देखो, 'दर्शन-दिग्दर्शन' पृ० ४९२ ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
तक पहुँचा है उससे तो उसके दर्शनका अभिप्राय है, मानवकी सहजबुद्धिको भ्रम में डाला जाये और वह कुछ निश्चय न कर भ्रान्त वारणाओको अप्रत्यक्ष रूपसे पुष्ट करे ।"
जैनदर्शनका स्याद्वाद और अनेकान्तवाद
परन्तु जैनदर्शनका स्याद्वाद सजयके उक्त अनिश्चिततावाद अथवा सशयवायसे एकदम भिन्न और निर्णय- कोटिको लिये हुए हैं। दोनों में पूर्व-पश्चिम अथवा ३६ के अको जैसा अन्तर है । जहाँ सजयका वाद अनिश्चयात्मक है वहाँ जैनदर्शनका स्याद्वाद निश्चयात्मक है । वह मानवकी सहज बुद्धिको भ्रममें नही डालता, बल्कि उसमें आभासित अथवा उपस्थित विरोधो व सन्देहोंको दूर कर वस्तु तत्त्वका निर्णय कराने में सक्षम होता है । स्मरण रहे कि समग्र ( प्रत्यक्ष और परोक्ष) वस्तु तत्त्व अनेकधर्मात्मक है उसमें अनेक (नाना ) अन्त ( धर्म - शक्ति - स्वभाव ) पाये जाते हैं और इसलिये उसे अनेकान्तात्मक भी कहा जाता है । वस्तुतत्त्वकी यह अनेकान्तात्मकता निसर्गत है, अप्राकृतिक नही । यही वस्तु में अनेक धर्मोंका स्वीकार व प्रतिपादन जैनोका अनेकान्तवाद है। सजयके वादको, जो अनिश्चिततावाद अथवा सशयवादके नाममे उल्लिखित होता है, अनेकान्तवाद कहना अथवा बतलाना किसी तरह भी उचित एव सङ्गत नही है, क्योकि सजयके बादमें एक भी सिद्धान्तकी स्थापना नही है, जैसाकि उसके उपरोक्त मत प्रदर्शन और राहुलजी पूर्वोक्त कथनसे स्पष्ट है । किन्तु अनेकान्तवादमें अस्तित्वादि सभी धर्मोकी स्थापना और निश्चय है । जिस जिस अपेक्षासे वे धर्म उसमें व्यवस्थित एव निश्चित हैं उन सबका निरूपक स्याद्वाद है । अनेकान्तवाद व्यवस्थाप्य है तो स्याद्वाद उसका व्यवस्थापक है । दूसरे शब्दोमें अनेकान्तवाद वस्तु ( वाच्य प्रमेय) रूप है और स्याद्वाद निर्णायक (वाचक तत्त्व) रूप है। वास्तव में अनेकान्तात्मक वस्तुतत्वको ठीक-ठीक समझने-समझाने, प्रतिपादन करने - कराने के लिये ही स्याद्वादका आविष्कार किया गया है, जिसके प्ररूपक जैनोके सभी (२४) तीर्थंकर हैं । अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरको उसका प्ररूपण उत्तराधिकारके रूपमे २३ वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथसे तथा भगवान् पार्श्वनाथको कृष्णके समकालीन २२ वें तीर्थंकर अरिष्टनेमिसे मिला था । इस तरह पूर्व पूर्व तीर्थकर अग्रिम तीर्थंकरको परम्परया स्याद्वादका प्ररूपण प्राप्त हुआ था। इस युगके प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं जो इस युगके आद्य स्याद्वादप्ररूपक है महान् जैन तार्किक समन्तभद्र' और अकलदेव' जैसे प्रख्यात जैनाचार्योंने सभी तीर्थंकरोको स्पष्टत स्याद्वादी - स्याद्वादप्रतिपादक बतलाया है और उस रूपसे उनका गुण-कीर्तन किया है। जैनोकी यह अत्यन्त प्रामाणिक मान्यता है कि उनके हर एक तीर्थंकरका उपदेश 'स्याद्वादामृतगर्भ' होता है और वे 'स्वाद्वादपुण्योदधि' होते हैं। अत केवल भगवान् महावीर ही स्याद्वादके प्रतिष्ठापक व प्रतिपादक नहीं है। स्याद्वाद जैनधर्मका मौलिक सिद्धान्त है और वह भगवान् महा वीरके पूर्ववर्ती ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक कालसे समागत है ।
स्याद्वादका अर्थ और प्रयोग
'स्याद्वाद' पद स्यात् और वाद इन दो शब्दोसे बना है । 'स्यात्' अव्यय निपातशब्द है, क्रिया अथवा अन्य शब्द नही, जिसका अर्थ है कथञ्चित् किचित्, किसी अपेक्षा, कोई एकदृष्टि, कोई एक धर्मकी
१ 'बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू वद्धश्च मुक्तश्च फल च मुक्ते ।
स्याद्वादिनो नाच तथैव युक्त नैकान्तदृष्टेस्त्वमतोऽसि शास्ता ॥ १४॥ । ' - स्वयभूस्तोत्रगत शभवजिनस्तोष २ "धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वाविभ्यो नमो नमः ।
वृषभारिमहावीरान्तेभ्य स्वात्मोपलब्धये ॥ १ ॥ "लपीमस्त्रय
- ६८ -
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवक्षा कोई एक और । और 'बाद' शब्दका अर्थ है मान्यता अथवा कथन । जो स्यात् (कञ्चित्) का कथन करनेवाला अथवा 'स्यात' को लेकर प्रतिपादन करनेवाला है वह स्याद्वाद है । अर्थात् जो सर्वथा एकान्तका त्यागकर अपेक्षासे वस्तुस्वरूपका विधान करता है वह स्याद्वाद है। कथञ्चिद्वाद, अपेक्षावाद आदि इसीके दूसरे नाम हैं-इन नामोसे भी उसीका बोध होता है। जैन ताकिकशिरोमणि स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमासा और स्वयम्भस्तोत्रमें यही कहा है
स्याद्वाद सर्वथैकान्तत्यागात्किवृत्तचिद्विधि । सप्तभङ्गनयापेक्षो हेयादेयविशेषक ॥१०४॥-आप्तमीमामा । सदेकनित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नया । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहिते ॥ सर्वथानियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षक ।
स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥–स्वयम्भूस्तोत्र । अत 'स्यात' शब्दको सशयार्थक, भ्रमार्थक अथवा अनिश्चयात्मक नही समझना चाहिये । वह अविवक्षित धर्मोकी गौणता और विवक्षित धर्मकी प्रधानताको सूचित करता हुआ विवक्षित हो रहे धर्मका विधान एव निश्चय करानेवाला है। सजयके अनिश्चिततावादकी तरह वह अनिर्णीति अथवा वस्तुतत्त्वकी सर्वथा अवाच्यताकी घोषणा नहीं करता। उसके द्वारा जैसा प्रतिवादन होता है वह समन्तभद्रके शब्दोमें निम्न प्रकार है
कथञ्चित्ते सदेवेष्ट कथञ्चिदसदेव तत् । तथोभयमवाच्य च नययोगान्न सर्वथा ॥१४।। सदेव सवं को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥१५॥ क्रमार्पितद्वयाद् द्वैत, सहावाच्यमशक्तित ।
अवक्तव्योत्तरा शेषास्त्रयो भङ्गा स्वहेतुत ॥१६।। । अर्थात् जैनदर्शनमें समग्र वस्तुतत्त्व कथञ्चित् सत् ही है, कथचित् असत् ही है प्रथा कथचित् उभय ही है और कथचित् अवाच्य ही है, सो यह सब नयविवक्षासे है, सर्वथा नही।
स्वरूपादि (स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव इन) चारसे उसे कौन सत् ही नही मानेगा और पररूपादि (परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल, परभाव इन) चारसे कौन असत् ही नही मानेगा। यदि इस तरह उसे स्वीकार न किया जाय तो उसकी व्यवस्था नही हो सकती।
क्रमसे अर्पित दोनो (सत और असत) की अपेक्षासे वह कथचित् उभय ही है, एक साथ दोनो (सत और असत्) को कह न सकनेसे अवाच्य ही है। इसी प्रकार अवक्तव्यके बादके अन्य तीन भङ्ग (सदवाच्य, असदवाच्य, और सदसदवाच्य) भी अपनी विवक्षाओसे समझ लेना चाहिए।
यही जैनदर्शनका सप्तभती न्याय है जो विरोधी-अविरोधी धर्मयुगलको लेकर प्रयुक्त किया जाता है और तत्तत अपेक्षाओंसे वस्तु-धर्मोका निरूपण करता है । स्याद्वाद एक विजयी योद्धा है और सप्तभङ्गीन्याय उसका अस्त्र-शस्त्रादि विजय-साधन है । अथवा यो कहिए कि वह एक स्वत सिद्ध न्यायाधीश है और सप्तभङ्गी उसके निर्णयका एक साधन है । जैनदर्शनके इन स्याद्वाद, सप्तभङ्गीन्याय, अनेकान्तवाद आदिका विस्तृत और प्रामाणिक विवेचन आप्तमीमासा, स्वयम्भूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन, सन्मतिसूत्र, अष्टशती, अष्टसहस्री, अनेकान्तजयपताका, स्याद्वादमञ्जरी आदि जैन दार्शनिक ग्रन्थोमें समुपलब्ध है।
-६९
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
संजयके अनिश्चिततावाद और जेनदर्शनके स्याद्वादमे अन्तर
ऊपर राहुलजीने सजयकी चतुङ्गी इस प्रकार बतलाई है१. है नहीं कह सकता ।
२ नही है ? नही कह सकता ।
३ है भी नहीं भी नही कह सकता। ४ न है और न नही है ?
नही कह सकता ।
सजयने सभी परोक्ष वस्तुओंके बारेमें 'नही कह सकता' जवाब दिया है और इसलिये उसे अनिश्चिततावादी कहा गया है ।
जैनोकी जो सप्तभगी है वह इस प्रकार है
१ वस्तु है ? – कथञ्चित् ( अपनी द्रव्यादि चार अपेक्षाओंसे) वस्तु है ही - स्यादस्त्येव घटादिवस्तु ।
२ वस्तु नहीं है ? कथञ्चित् (परद्रव्यादि चार अपेक्षामोसे) वस्तु नही ही है-स्यान्नास्त्येव घटादि वस्तु ।
3 वस्तु है, नही (उभय ) है ? कथञ्चित् ( क्रमसे अर्पित दोनो - स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादि चार अपेक्षाओोसे) वस्तु है, नहीं (उभय) ही है- स्यादस्ति नास्त्येय घटादि वस्तु ।
४ वस्तु अवक्तव्य है - कथचित् (एक साथ विवक्षित स्वद्रव्यादि और परद्रव्यादि दोनो अपेक्षाओं से कही न जा सकनेसे) वस्तु अवक्तव्य ही है- स्यादवक्तव्यमेव पटादिवस्तु ।
५ वस्तु 'है - अवक्तव्य है' ? - कथचित् (स्वद्रव्यादिसे और एक साथ विवक्षित दोनो स्व-परद्रव्यादिकी अपेक्षाओसे कही न जा सकनेसे) वस्तु ' है - अवक्तव्य ही है' —स्यादस्त्यवक्तव्यमेव घटादिवस्तु ।
६ वस्तु नहीं - अवक्तव्य हूँ' ? - कथचित् (परद्रव्यादिसे ओर एक साथ विवक्षित दोनों स्व-पर द्रव्यादिकी अपेक्षासे वही न जा सकनेसे) वस्तु 'नहीं - अववतव्य ही है'- स्यान्नास्त्यवक्तव्यमेव घटादिवस्तु ।
७ वस्तु है नही - अवतव्य है ? कथचित् (क्रमसे अर्पित स्व-पर द्रव्यादिसे और एक साथ अर्पित स्वपरद्रव्यादिकी अपेक्षासे कही न जा सकनेसे) वस्तु है, नहीं और अवक्तव्य ही है'- स्यादस्ति नात्यवतव्यमेव घटादि वस्तु ।
1
जैन की इस सप्तभङ्गीमें पहला, दूसरा और चौथा ये तीन पाँचवीं और छठा द्विसयोगी तथा सातवाँ त्रिसयोगी भङ्ग है और इस भङ्गो सयोगज भङ्ग हैं। जैसे नमक, मिर्च और खटाई इन तीनके ६ - नमक मिर्च, नमक-खटाई, मिर्च- खटाई और नमक मिर्च- खटाई इनसे ज्यादा या कम नहीं इन संयोगी चार स्वादोमें मूल तीन स्वादोको और मिला देनेसे कुल स्वाद सात ही बनते हैं। यही सप्तभङ्गोकी बात है । वस्तु में यो तो अनन्तधर्म हैं, परन्तु प्रत्येक धर्मको लेकर विधि-निषेधकी अपेक्षासे सात ही धर्म व्यवस्थित है - सत्यधर्म, असत्त्वधर्म, सत्वासत्वोभय, अवक्तव्यत्व, सत्यावक्तव्यत्व, असत्त्वावक्तव्यत्य और सत्त्वासत्त्वा वक्तव्यत्य । इन सात से न कम है और न ज्यादा अतएव शङ्काकारोको सात ही प्रकारके सन्देह, सात ही प्रकारकी जिज्ञासाएँ, सात ही प्रकारके प्रश्न होते हैं और इसलिये उनके उत्तरवाक्य सात ही होते हैं, जिन्हें
- ७०
भङ्ग तो मौलिक हैं और तीसरा, तरह अन्य चार भङ्ग मूलभूत तीन सयोगज स्वाद चार हो बन सकते
---
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
सप्तभङ्ग या सप्तभड्नीके नामसे कहा जाता है। इस तरह जैनोकी सप्तभती उपपत्तिपूर्ण ढङ्गसे सुव्यवस्थित और सुनिश्चित है । पर सजयकी उपर्युक्त चतुर्भङ्गीमें कोई भी उपपत्ति नही है । उमने चारो प्रश्नोका जवाब 'नही कह सकता' में ही दिया है और जिसका कोई भी हेतु उपस्थित नहीं किया और इसलिये वह उनके विषयमें अनिश्चित है ।
राहुलजीने जो ऊपर जैनोकी सप्तभङ्गी दिखाई है वह भ्रमपूर्ण है। हम पहले कह आये हैं कि जैनदर्शनमें 'स्याद्वाद'के अन्तर्गत 'स्यात्' शब्दका अर्थ 'हो सकता है' ऐसा सन्देह अथवा भ्रमरूप नहीं है उसका तो कथश्चित् (किसी एक अपेक्षासे) अर्थ है जो निर्णयरूप है। उदाहरणार्थ देवदत्तको लीजिये, वह पितापुत्रादि अनेक धर्मरूप है। यदि जैनदर्शनसे यह प्रश्न किया जाय कि क्या देवदत्त पिता है ? तो जैनदर्शन स्याद्वाद द्वारा निम्न प्रकार उत्तर देगा
१ देवदत्त पिता है-अपने पुत्रको अपेक्षासे-'स्यात् देवदत्त. पिता अस्ति' ।
२ देवदत्त पिता नही है-अपने पिता-मामा आदिकी अपेक्षासे-क्योकि उनकी अपेक्षासे तो वह पुत्र, भानजा आदि है-'स्यात देवदत्तः पिता नास्ति' ।
३ देवदत्त पिता है और नही है-अपने पुत्रकी अपेक्षा और अपने पिता-मामा आदिकी अपेक्षा से-'स्यात् देवदत्त पिता अस्ति च नास्ति च ।।
४ देवदत्त अवक्तव्य है-एक साथ पिता-पुत्रादि दीनो अपेक्षाओमे कहा न जा सकनेसे-'स्यात देवदत्त अवक्तव्यः'।
५. देवदत्त पिता 'है-अवक्तव्य है'-अपने पुत्रकी अपेक्षा तथा एक साथ पिता-पुत्रादि दोनो अपेक्षाओसे कहा न जा सकनसे-'स्यात देवदत्त पिता अस्त्यवक्तव्य' ।
६ देवदत्त 'पिता नही है-अवक्तव्य है-अपने पिता-मामा आदिकी अपेक्षा और एक साथ पिता पुत्रादि दोनों अपेक्षाओंसे कहा न जा सकनेसे-'स्यात् देवदत्त नास्त्यवक्तव्य.'।
७ 'देवदत्त पिता' है और नही है तथा अबवतव्य है'-क्रमसे विवक्षित पिता-पुत्रादि दोनोको अपेक्षासे और एक साथ विवक्षित पिता-पुत्रादि दोनो अपेक्षामोसे कहा न जा सकनेसे-'स्यात देवदत्त पिता अस्ति नास्ति चावक्तव्य' ।
यह ध्यान रहे कि जैनदर्शनमें प्रत्येक वाक्यमें उसके द्वारा प्रतिपाद्य धर्मका निश्चय कराने के लिये 'एवकारका' विधान अभिहित है जिसका प्रयोग नयविशारदोके लिये यथेच्छ है-वे करें चाहे न करें । न करनेपर भी उसका अध्यवसाय वे कर लेते हैं। राहुलजी जब 'स्यात्' शब्दके मूलार्थके समझनेमें ही भारी भूल कर गये तब स्याद्वादकी भगियोके मेल-जोल करनेमें भूलें कर ही सकते थे और उसीका परिणाम है कि जैनदर्शनके सप्तभगोका प्रदर्शन उन्होने ठीक तरह नहीं किया। हमें आशा है कि वे तथा स्याद्वादके सम्बन्धमें भ्रान्त अन्य विद्वान भी जैनदर्शनके स्याद्वाद और सप्तभगीको ठीक तरहसे ही समझने और उल्लेख करनेका प्रयत्न करेंगे।
यदि सजयके दर्शन और चतुर्भङ्गीको ही जैन दर्शनमें अपनाया गया होता तो जैनदार्शनिक उसके दर्शनका कदापि आलोचन न करते । अष्टशती और अष्टसहस्रीमें अकलकदेव तथा विद्यानन्दने इस दर्शनकी जैसी कुछ कड़ी आलोचना करके उसमें दोषोका प्रदर्शन किया है वह देखते ही बनता है। यथा
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
'तर्हस्तीति न भणामि, नास्तीति च न भणामि, यदपि च भणामि तदपि न भणामीति दर्शनमस्त्विति कश्चित् सोपि पापीयान् । तथा हि सद्भावेतराभ्यामनभिलापे वस्तुन केवल मूकत्व जगत स्यात्, विधिप्रतिषेधव्यवहारायोगात् । न हि सर्वात्मनानभिलाप्यस्वभाव बुद्धिरध्यवस्यति । न चानव्यवसेय प्रमित नाम, गृहीतस्यापि तादृशस्यागृहीतकल्पत्वात् । मूर्च्छाचैतन्यवदिति । "-- अष्टस० पृ० १२९ ।
इससे यह साफ है कि संजयकी सदोप चतुभंगी और उसके दर्शनको जैन दर्शनने नही अपनाया । उसके अपने स्याद्वादसिद्धान्त, अनेकान्त - सिद्धान्त, सप्तभगीसिद्धान्त सजयसे बहुत पहलेसे प्रचलित हैं । जैसे उसके अहिंसा - सिद्धान्त, अपरिग्रह सिद्धान्त, कर्म - सिद्धान्त आदि सिद्धान्त प्रचलित हैं और जिनके आद्यप्रवर्त्तक इस युगके तीर्थङ्कर ऋषभदेव हैं और अन्तिम महावीर हैं । विश्वास है उक्त विद्वान् अपनी जैनदर्शन व स्पाद्वाद के बारेमें हुई भ्रान्तियोका परिमार्जन करेंगे और उसकी घोषणा कर देंगे ।
७२ -
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन दर्शनके समन्वयवादी दृष्टिकोणकी ग्राह्यता
यों तो किसी भी युग और किसी भी कालमे सघटन और ऐक्यकी महत्ता और आवश्यकता है, किन्तु वर्तमानमे उसकी नितान्त अपेक्षा है। राष्ट्रो, समाजो, जातियो और धर्मों सभीको एक सूत्र में बधकर रहनेकी जरूरत है। यदि राष्ट्र, समाज, जातिया और धर्म सहमस्तित्वके व्यापक और उदार सिद्धान्तको स्वीकार कर उसपर आचरण करें तो न राष्ट्रोमें, न समाजोमें, न जातियोमें और न धर्मोमें परस्पर सघर्षकी नौबत आ सकती है। विश्वके मानव यह सोच लें कि मानवताके नाते हमें जैसे रहने और जीनेका अधिकार है वैसे ही दूसरे मनुष्योको भी, चाहे वे विश्वके किसी कोनेके, किसी समाजके, किसी जातिके, किसी धर्मके या किसी वर्गके हो। आखिर मनुष्य सब हैं और पैदा हुए हैं तो उन्हें अपने ढगसे रहने तथा जीनेका भी हक प्राप्त है। यदि हम उनके इस हकको छीनते है तो यह न्याय नही कहलायेगा-अन्याय होगा और अन्याय करना मनुष्यके लिए न उचित है और न शान्तिदाता एव प्रेम-प्रदर्शक है। यदि मनुष्यके सामने इतना विचार रहता है तो उनमें कभी सघर्ष नही हो सकता। संघर्ष होता है स्वार्थ और आत्माग्रहसे-अपने ही अस्तित्वको स्वीकार कर इतरका विरोध करनेसे । विश्वमें जब-जब युद्ध हुए या होते हैं तब-तब मनुष्य जातिके एक वर्गने दूसरे वर्गका विरोध किया, उसपर हमला किया और उसे ध्वस्त करनेका प्रयास किया है। आज भी विश्व दो गुटोमें बटा हआ है तथा ये दोनो गुट एक-दूसरेके विरुद्ध मोरचाबन्दी किये हुए हैं। अपनी शक्तिको विरोधीके ध्वंसमें प्रयुक्त कर रहे हैं । फलत युद्धका भय या युद्धकी आशका निरन्तर रहती है। यदि दोनो गुट विरोधमें नही, निर्माणमें अपनी सम्मिलित शक्तिका उपयोग करें तो सारा विश्व सदा निर्भय, शान्त, सुखी और समृद्ध हो सकता है।
यद्यपि एक रुचि, एक विचार और एक आचारके सब मही हो सकते, सबको रुचिया, सबके विचार और सबके आचार भिन्न-भिन्न होते हैं, किन्तु रुचि-भिन्नता, विचार-भिन्नता और आचार-भिन्नताके होते हुए भी उनमें समन्वयकी सभावना निश्चय ही विद्यमान रहती है । एक परिवारमें दस सदस्य हैं और सबकी रुचि, विचार और आचार अलग-अलग होते हैं। एक सदस्यको उडदकी दाल अच्छी लगती है, दूसरेको अरहरकी दाल प्रिय है, तीसरेको हरी शाक स्वादिष्ट लगती है। इसी तरह अन्य सदस्योकी रुचि अलगअलग होती है । विचार भी सबके एक-से नही होते । एक राष्ट्रकी सेवाका विचार रखता है, दूसरा समाजसेवाको अपना कर्त्तव्य समझता है, तीसरा धर्ममें सलग्न रहता है । दूसरे सदस्योके भी विचार जुदे-जुदे होते है । आचार भी सबका एकसा नही होता । एक कुर्ता, धोती और टोपी लगाता है, दूसरा कोट, पतलून और नेकटाईको पसन्द करता है, तीसरा पेटीकोट, साडी और जम्फरको अपनी पोशाक समझता है। यह तीसरा स्त्री सदस्य है, जो उस दश सख्यक परिवारकी ही एक सदस्या है। इसी प्रकार बच्चे आदि अपना पहिनाव अलग रखते हैं। इस प्रकार उस परिवारमें रुचि-भेद, विचार-भेद और आचार-भेद होनेपर भी उसके सदस्योम कभी सघर्ष नही होता। सवकी रुचियो, सबके विचारो और सबके आचारोका ध्यान रखा जाता है और इस तरह उनमें सदा समन्वयके दृष्टिकोणसे सुख और शान्ति रहती है। कदाचित् छोटा-मोटा मतभद हनिपर आपसी समझौते या प्रमखकी हितावह सलाहसे वह सब मतभेद दूर हो जाता है और पूरा परि
-७३
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
वार सुख-शान्तिसे जीवनयापन करता है । विश्व भी एक परिवार है और राष्ट्र उसके सदस्य हैं उनमें रुचिभेद, विचार-भेद और माचार-भेद होना स्वाभाविक है, पर परिवारके सदस्योकी तरह उनमें तालमेल बैठाना या समझदार राष्ट्रोको बीचमें पडकर निष्पक्ष ढगसे उनमें समझौता करा देना आवश्यक है। इससे विश्वके छोटे-बडे किसी भी राष्ट्रका अन्य राष्ट्र के साथ सघर्ष नही हो सकता। 'रहो और रहने दो' और 'जिओ और जीने दो' का सिद्धान्त ही सहअस्तित्वका सिद्धान्त है तथा यह सिद्धान्त ही मनुष्यजातिकी रक्षा, समृद्धि और हित कर सकता है। यह सिद्धान्त न्याय तथा सत्यका पोषक एव समर्थक है । इस सिद्धान्तको ध्यानमें रखनेपर कभी न्याय या सत्यको हत्या नही हो सकती तथा सारे विश्वमें निर्भयता एव शान्ति बनी रह सकती है।
हमारे देशमें, जिसमें भगवान महावीर, गौतम बुद्ध, महर्षि जैमिनि, कणाद, अक्षपाद, कपिल आदि धर्मोपदेशकोने जन्म लिया और अपने विचारो द्वारा जनकल्याण किया है, अनेक जातियां तथा अनेक धर्म हैं। सबका अपना-अपना स्थान है और सबको पनपने-बढनेका स्वातन्त्र्य है । एक जाति दूसरी जातिको, एक धर्म दूसरे धर्मको और एक वर्ग दूसरे वर्गको गिराकर वढ नहीं सकता। उसकी उन्नति या वृद्धि तभी सम्भव है जब वह दूसरेके भी अस्तित्वका विरोध नहीं करता, अपनी कुण्ठा, बुराइयो और कारणवश आ घुसी कमजोरियोको ही हटानेका प्रयास करता है। सच तो यह है कि दूसरी जाति, दूसरा धर्म या दूसरा वर्ग अपनी जाति, अपने धर्म और अपने वर्गका बाधक नही होता, बाधक वे दोष होते हैं जो हमपर हावी होकर हमसे अनौचित्य कराने में सफल हो जाते हैं । ऐसे दोष हैं सकीर्णता, असहिष्णुता, मूढता, कदाग्रह, ईर्ष्या, अहकार
और अनुदारता। यदि सतर्कता, विवेक, सहिष्णुता, सत्याग्रह, अमात्सर्य, निरहकार और उदारतासे काम लिया जाय तो जातियो, धर्मों और वर्गों में कभी भी सघर्षको सम्भावना नही की जा सकती है। जो हमारा है वह सत्य है और जो परका है वह असत्य है, यही दष्टिकोण संघर्षको जन्म देता है। इस संघर्षको बचानेके लिए अनेकान्तवादी दृष्टिकोण होना चाहिए । उस दृष्टिकोणसे ही परस्परमें सौहार्द सम्भव है । यदि कोई गलत मार्गपर है तो सही मार्ग उसके सामने रख दीजिये और उनमेंसे एक मार्ग चुननेकी छूट उसे दे दीजिये। आप उसके लिए अपना आग्रह न करें। निश्चय ही वह अपने विवेकसे काम लेगा और सत्यका अनुसरण करेगा। सत्यका आग्रह
आज विज्ञानका युग है। समझदार लोग विज्ञानके आधारसे सोचना, कहना और करना चाहते हैं । यह दृष्टिकोण सत्यके आग्रहका दृष्टिकोण है। लेकिन कभी-कभी आग्रही उसके माध्यमसे असत्यका भी समथन करने लगता है। अत पूर्वाग्रहसे मुक्त होनेपर ही सत्यको कहा और पकहा जा सकता है। समाजके दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों वर्ग भगवान महावीरके शासनके अनुयायी है। छोटे-मोटे उनमें अनेक मतभेद हैं और उनके गृहस्थो तथा साधओमें आचार-भेद भी हैं। किन्तु सबको बांधनेवाला और एकसूत्रमें रखने वाला महावीरका शासन है । जो मतभेद और आचार-भेद हो चुके हैं वे यदि कम हो सकें तो अच्छा है और यदि कम न भी हो तब भी वे एक सूत्र में बंधे रह सकते हैं। पिछली शताब्दियोमें दोनो परम्पराओमें फासला ही हुआ है, उन्हें समेटनेका दूरदर्शी सफल प्रयास हुआ हो, यह ज्ञात नही । फलत दोनोका साहित्य, दोनोंके आचार्य और दोनोंके तीर्थ उत्तरोत्तर बढते गये हैं। इतना ही होता तो कोई हानि नही थी। किन्तु भाज अपने साहित्य, अपने आचार्य और अपने तीर्थका आग्रह रखकर भी दूसरी परम्पराके साहित्य, आचार्य और तीर्थोके विषयमें स्वस्थ दृष्टिकोण नही है। एक साहित्यके महारथी अपने साहित्यकी अनुशसा करते समय
-७४
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
दुसरेके साहित्यको उसकी छाया या अनुसरण सिद्ध करने में जव अपनी शक्ति लगाते हैं तो दूसरी उसका विरोध करने के लिए तैयार रहता है। एक आचार्य अपनी श्रेष्ठता बतलाकर दूसरे आचार्यको समालोचनाके लिए उद्यत रहता है तो समालोच्य आचार्य भी पीछे क्यो रहेगा। समाजके तीर्थोंका प्रश्न भी ऐसा ही है। अपना प्रभुत्व और हक रहे, दूसरेका वहां प्रवेश न हो, यह दृष्टिकोण समाजके दोनो वर्गों को परेशान किये हुए है । फलत सघर्ष भी होते हैं और उनमे विपुल धन-राशि भी व्यय होती है। यदि दोनो वर्ग महावीरके शासनमें आस्था रखते हुए समन्वयका दृष्टिकोण अपना लें तो दोनोकी सम्मिलित शक्ति, दोनोका सम्मिलित साहित्य और दोनोके सम्मिलित तीर्थ समाजके अपार वैभवके सचक तो होगे ही, दोनो अपने विचार और आचारके अनुसार अपनी आस्थाको बनाये रखेंगे तथा सख्याकी दृष्टिसे वे दुगुने कहे जायेगे। जबतक वे अलग-अलग दो भागो या तीन भागो में बंटे रहेंगे तबतक अन्य लोगोको समुचित लाभ नही पहुंचा सकते हैं और न अहिंसा, स्याद्वाद, अनेकान्त एव अपरिग्रह जैसे सिद्धान्तोका विश्वको उचित मात्रामें दर्शन करा सकते है । अत आवश्यक है कि जैन दर्शनमें अनेकान्तवादी या समन्वयवादी दृष्टिकोणपर गम्भीरतासे विचार करें और उसका आचरण कर ऐक्य एव सघटनकी दिशामें प्रयत्न करें।
Villful
-७५
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैदिक संस्कृतिको श्रमण-संस्कृतिकी देन
[दिन और रातकी तरह अच्छाई और बुराईका, पुण्य और पापका, विचार-विभिन्नताका साथ सदासे हो रहा है । इतिहासके पन्नोंसे जहा यह स्पष्ट होता है कि श्रमणसस्कृतिका अस्तित्व भारतमें प्राचीनतम कालसे है वहा यह भी स्पष्ट होता है कि उसका विरोध भी बहुत पुराना है। पुराणोंके अनुसार भगवान् ऋषभदेवके समयसे ही उनके विरोधी भी उत्पन्न हो गये थे। इतने दीर्घकालसे साथ-साथ रहनेके कारण दोनोने ही एक-दूसरेसे बहुत कुछ लिया-दिया है। श्रमण-सस्कृतिने श्रमणेतर-सस्कृतिको जो कुछ दिया उसमें प्रमुख हैं अहिंसा, मूर्तिपूजा, अध्यात्म आदि । ]
जिस वर्ग, समाज या राष्ट्रकी कला, साहित्य, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान, पहनाव-ओढाव, धर्म-नीति, प्रत-पर्व आदि प्रवृत्तिया जिस विचार और आचारसे अनुप्राणित होती हैं या की जाती हैं वे उस वर्ग, समाज या राष्ट्रके उस विचार और आचार मूलक मानी जाती है। ऐसी प्रवृत्तिया ही सस्कृति कही जाती है।
भारत एक विशाल देश है। इसके भिन्न-भिन्न भागोमें सदासे ही भिन्न-भिन्न विचार और आचार रहे हैं तथा आज भी ऐसा ही है। इसलिए यहा कभी एक, व्यापक और सर्वग्राह्य सस्कृति रही हो, यह सभव नही और न ज्ञात ही है। हाँ, इतना अवश्य जान पड़ता है कि दूर अतीतमें दो सस्कृतियोंका प्राधान्य अवश्य रहा है । ये दो सस्कृतिया है-१ वैदिक और-२ अवैदिक । वैदिक सस्कृतिका आधार वेदानुसारी आचार-विचार है और अवैदिक सस्कृतिका मूल अवेदानुसारी अर्थात् पुरुष-विशेषका अनुभवाश्रित आचार-विचार है। ये दोनो सस्कृतिया जहां परस्परमें सघर्षशील रही है वहां वे परस्पर प्रभावित भी होती रही हैं।
वैदिक (ब्राह्मण) सस्कृति
१ वैदिक (ब्राह्मण) सस्कृतिमें वेदको ही सर्वोपरि मानकर वेदानुयायियोकी सारी प्रवृत्तिया तदनुसारी रही हैं। इस सस्कृतिमें वेदप्रतिपादित यज्ञोका प्राधान्य रहा है और उनमें अनेक प्रकारकी हिंसाको विधेय स्वीकार किया गया है । 'याज्ञिको हिंसा हिंसा न भवति' कहकर उस हिंसाका विधान करके उसे खुल्लम-खुल्ला छूट दे दी गयी है। उसका परिणाम यह हुआ कि उत्तर कालमें मास-भक्षण, मद्यपान और मैथन-सेवन जैसी निन्द्य प्रवृत्तिया भी आ घुसी और उनमें दोपाभावका प्रतिपादन किया गया
'न मास-भक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूताना, निवृत्तिस्तु महाफला ॥
-मनुस्मृति ।
इतना ही नही, उन्हें जीवोकी प्रवृत्ति (स्वभाव) वतलाकर उन्हें स्वच्छन्द छोड दिया गया है-उनपर कोई नियन्त्रण नही रखा । फलत उनसे निवृत्ति होना दुस्साध्य बतलाया है। सोमयशमें एक वर्षकी लाल
-७६ -
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाय हवन का विधान, अन्य यज्ञोमें श्वेत बकरेकी बलिका निर्देश जैसे सैकडो हिसा प्रतिपादक अनुष्ठानादेश वेदविहित है - 'एक हायन्या अरुणया गवा सोम क्रीणाति' 'श्वेतमजमालभेत' आदि ।
२ वैदिक संस्कृति मीमासक विचार और अनुष्ठान प्रधान है । अतएव आरम्भमें इसमें ईश्वरका कोई स्थान न था । क्रिया ही अनुष्ठेय एव उपास्य थी । किसी पुरुषविशेषको उपास्य या ईश्वर मानना इस सस्कृति के लिए इष्ट नही रहा, क्योकि उसे माननेपर वेदकी अपौरुषेयतापर आच आती और खतरेमें, पडती है । इसीलिए वैदिक मन्त्रो में केवल इन्द्र, वरुण जैसे देवताओका ही आह्वान हैं। राम, कृष्ण, शिव विष्णु जैसे पुरुषावतारी ईश्वरकी उपासना इस संस्कृति में आरम्भमें नही रही। वह तो उत्तर कालमें आयी और उनके लिए मन्दिर बने तथा तीर्थोंका स्थापन हुआ ।
सस्कृति क्रियाप्रधान है, अध्यात्म-प्रधान माध्यम से इस संस्कृतिमें पीछे आया
३ जहाँ तक ऐतिहासिको और समीक्षकोका विचार है यह नही । वेदोमें आत्माका विवेचन अनुपलब्ध है । वह उपनिषदोके है । माण्डूक्य उपनिषद् में कहा है कि विद्या दो प्रकारकी है- १. परा और २ अपरा । परा विद्या आत्मविद्या है और अपरा विद्या कर्म-काण्ड है । छान्दोग्योपनिषद् में आत्म-विद्याकी प्राप्ति क्षत्रियोंसे और क्रियाकाण्डका ज्ञान ब्राह्मणोसे बतलाया गया है । इससे प्रतीत होता है कि उस सुदूर कालमें आत्म-विद्या इस संस्कृतिमे नही थी ।
४. वेदोमें यज्ञ करनेसे स्वर्गप्राप्तिका निर्देश है, मोक्ष या निश्रेयस की कोई चर्चा नही है । उसका प्रतिपादन इस सस्कृति में पीछे समाविष्ट हुआ है ।
3
५ वेदोमें तप, त्याग, ध्यान, सयम और शम जैसे आध्यात्मिक साघनोको कोई स्थान प्राप्त नही है । तत्त्वज्ञानका भी प्रतिपादन नही है । उनमें केवल 'यजेत् स्वर्गकाम' जैसे निर्देशो द्वारा स्वर्गकामी लिए यज्ञका ही विधान है ।
अवेदिक (श्रमण) सस्कृति
इसके विपरीत अवैदिक ( श्रमण ) संस्कृति में, जो पुरुष-विशेषके अनुभवपर आधृत है और जो श्रमण-संस्कृति या तीर्थंकर - संस्कृतिके नाम से जानी-पहचानी जाती है, वे सभी (ईश्वर, नि श्रेयस, तप, ध्यान, सयम, शम आदि) बातें पायी जाती हैं जो वैदिक संस्कृति में आरम्भमें नही थी । यद्यपि जैन और बौद्ध दोनोकी सस्कृतिको अवैदिक अर्थात् श्रमण-संस्कृति कहा जाता है । पर यथार्थ में आर्हत सस्कृति ही अवैदिक ( श्रमण ) संस्कृति है, क्योकि उसे समण - सम + उपदेशक अर्हत्के अनुभव - केवलज्ञानमूलक माना गया है । दूसरे, बुद्ध भी आरम्भमें तीर्थंकर पार्श्वनाथकी परम्परामें हुए निर्ग्रन्थ मुनि पिहितास्रवसे दीक्षित हुए थे और वर्षों तक तदनुसार दया, समाधि, केशलु चन, अनशनादि तप आदि प्रवृत्तियोका आचरण करते रहे कारण उन्होने निर्ग्रन्थ-मार्गको छोड दिया
कुशल कर्मोंको नही त्यागा और वोधि प्राप्त
| बादको निर्ग्रन्थ-तप की क्लिष्टताको सहन न कर सकने के और मध्यम मार्ग अपना लिया। फिर भी दया, समाधि आदि हो जाने के बाद उन्होने भी निर्ग्रन्थ संस्कृतिके दया, समाधि आदिका उपदेश दिया तथा वैदिक क्रियाकाण्डको बिना आत्मज्ञान (तत्त्वज्ञान) के थोथा बतलाया । इसीलिए उनकी विचारधारा और आचरण वैदिक संस्कृतिके अनुकूल न होने और केवलज्ञानमूलक श्रमण-संस्कृतिके कुछ अनुकूल होनेसे उसे श्रमण - सस्कृतिमें समाहित कर लिया गया है ।
- 6167 -
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ विदित है कि श्रमणसंस्कृतिमें हिंसाको कही स्थान नहीं है। अहिंसाकी ही मर्वत्र प्रतिष्ठा है। न केवल क्रिया में, अपितु वाणी और मानसमें भी अहिंसाको अनिवार्यता प्रतिपादित है । आचार्य समन्तभद्रने इसीसे अहिंसाको जगत् विदित 'परम ब्रह्म' निरूपित किया है-'अहिंसा भूतानां जगति विदित ब्रह्म परमम,' इस हिंसाका सर्वप्रथम विचार और आचार युगके आदि में ऋपभदेवके द्वारा प्रकट हमा। वही अहिंसाका विचार और आचार परम्परया मध्यवर्ती तीयंकरो द्वारा नेमिनाथको प्राप्त हया। उनसे पार्श्वनायको और पार्श्वनाथसे तीर्थकर महावीरको मिला। इसीसे उनके शासनको स्वामी समन्तभद्रने दया, समाधि, दम और त्यागसे ओतप्रोत बतलाया है-'क्या-वम त्याग-समाधिनिष्ठ ।' इमसे यह सहजमें समझा जा सकता है कि वैदिक संस्कृतिमें अहिंसाकी उपलब्धि श्रमण-सस्कृतिकी देन है, अहिंसामूलक आचारविचार उसीका है।
२ श्रमणसस्कृतिकी दूसरी देन यह है कि उसने वेदफे स्थानमें पुरुषविशेषका महत्त्व स्थापित किया और उसके अनुभवको प्रतिष्ठित किया। उसने बतलाया कि पुरुपविशेष अकलक अर्थात् ईश्वर हो सकता है-दोषावरणयोर्हानिनिश्शेषास्यतिशायनात् । क्वचिद्यया स्वहेतुभ्यो वहिरन्तर्मलक्षय ॥ अतएव इस सस्कृतिमें पुरुषविशेषका महत्त्व वढाया गया और उन पुरुपविशेपो-तीर्थंकरोंकी पूजा-उपासना प्रचलित की गयी तथा उनकी उपासनार्थ उपासनामन्दिरो एव तीर्थोंका निर्माण हुआ । इसका इतना प्रभाव पड़ा कि अपौरुषेय वेदके अनुयायियोमें ही कितने ही वेदको ईश्वरकृत मानने लगे और राम, कृष्ण, शिव, विष्णु जैसे पुरुपोको ईश्वरका अवतार स्वीकार कर उनकी उपासना करने लगे । फलत वैदिक संस्कृतिमें भी उनकी उपासनाके लिए अनेको सुन्दर मन्दिरोका निर्माण हुआ तथा तीर्थ भी बने ।
३ नि सन्देह वैदिक संस्कृति जहाँ क्रियाप्रधान है, तत्त्वज्ञान उसके लिए गौण है वहाँ श्रमणसस्कृति तत्त्वज्ञानप्रधान है और क्रिया उसके लिए गौण है । यह भी प्रकट है कि यह सस्कृति क्षत्रियोंकी सस्कृति है, जो उनकी आत्मविद्यासे निसत हई। सभी तीर्थदर क्षत्रिय थे। अत वैदिक संस्कृतिमें जो आत्मविद्याका विचार उपनिषदोंके रूपमें आया और जिसने वेदान्त (वेदोके अन्त) का प्रचार किया वह निश्चय ही श्रमण (तीर्थकर) सस्कृतिका स्पष्ट प्रभाव है। और इसलिए वैदिक सस्कृतिको आत्मविद्याकी देन भी श्रमण सस्कृतिको विशिष्ट एव अनुपम देन है।
४ वेदोमें स्वर्गसे उत्तम अन्य स्थान नही है । अत वैदिक संस्कृतिमें यज्ञादि करनेवालेको स्वर्गप्राप्तिका निर्देश है। इसके विपरीत श्रमण सस्कृतिमें स्वर्गको सखका सर्वोच्च और शाश्वत स्थान न मानकर मोक्षको माना गया है। स्वर्ग एक प्रकारका ससार ही है, जहाँसे मनुष्यको वापिस आना पडता है। परन्तु मोक्ष शाश्वत और स्वाभाविक सुखका स्थान है । उसे प्राप्त कर लेनेपर मनुष्य मुक्तसिद्ध परमात्मा हो जाता है और बहाँसे उसे लौटकर आना नही पडता। इस प्रकार मोक्ष या नि श्रेयसकी मान्यता श्रमण संस्कृतिकी है, जिसे उत्तरकालमें वैदिक सस्कृतिमें मी अपना लिया गया है।
५ श्रमणसस्कृतिमें आत्माको उपादेय और शरीर, इन्द्रिय तथा भोगोंको हेय बतलाया गया है । ससार-बन्धनसे मुक्ति पाने के लिए दया (अहिंसा), दम (इन्द्रिय-निग्रह), त्याग (अपरिग्रह) और समाधि
१ युक्त्यनु० का०६। २ देवागम का०४।
-७८
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ध्यान, योग) का निरूपण इस सस्कृतिमें किया गया है। ये सब आध्यात्मिक गुण है। प्रमाण और नयसे तत्त्व (आत्मा) का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेका प्रतिपादन भी आरम्भसे इसी सस्कृतिमें है-'दया-दम-त्यागसमाधिनिष्ठ नय-प्रमाणप्रकृताञ्जसार्थम् ।' इससे अवगत होता है कि अहिंसा, इन्द्रियनिग्रह, अपरिग्रह, समाधि और तत्त्वज्ञान, जो वैदिक संस्कृतिमें आरम्भमें नही थे और न वेदोमें प्रतिपादित थे, बादमें वे उसमें आदृत हुए हैं, श्रमणसस्कृतिकी वैदिक सस्कृतिको असाधारण देन है।
यदि दोनो सस्कृतियोके मूलका और गहराईसे अन्वेषण किया जाये तो ऐसे पर्याप्त तथ्य उपलब्ध होगे, जो यह सिद्ध करने में सक्षम होगे कि क्या किसकी देन है-किसने किसको क्या दिया-लिया है।
१ युक्त्यनुशा० का० ४।
-७९
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
डाक्टर अम्बेदकरसे भेटवार्तामें महत्त्वपूर्ण अनेकान्त-चर्चा
१४ नवम्बर १९४८ को सिद्धार्थ कालेज बम्बईके प्रोफेमर और अनेक ग्रन्योंके निर्माता सर्वतंयस्वतत्र प० माववाचार्य विद्यामार्तण्ड के साथ हमें डाक्टर अम्बेडकरसे, जो स्वतन्त्र भारतको विधान-मसविदा समिति के अध्यक्ष थे और जिन्हें स्वतन्त्र भारत के विधान-निर्माता होनेसे वर्तमान भारतमें 'मन' की सज्ञा दी जाती है तथा कानूनके विशेषज्ञ विद्वानोमें सर्वोच्च एव विख्यात विद्वान् माने जाते हैं, भेंट करनेका अवसर मिला था।
डाक्टर सा० कानुनके पण्डित तो थे ही, दर्शनशास्त्रके भी विद्वान् थे, यह हमें तब पता चला, जब उनसे दार्शनिक चर्चा-वार्ता हुई । उन्होने विभिन्न दर्शनोका गहरा एवं तुलनात्मक अध्ययन किया है । वौद्धदर्शन और जैन दर्शनका भी अच्छा परिशीलन किया है।
__ जब हम उनसे मिले तब हमारे हाथमें 'अनेकान्त' के प्रथम वर्षकी फाइल थी, जिसमें उक्त प्रोफेसर मा० का एक निवन्ध 'भारतीय दर्शनशास्त्र' शीर्षक छपा था और उसमें प्रोफेसर सा० ने जैन दर्शनके स्थादाद और अनेकान्त सिद्धान्त पर उत्तम विचार प्रकट किये हैं। डाक्टर सा० ने बडे सौजन्यसे हमसे कुछ प्रश्न किये और जिनका उत्तर हमने दिया। यह प्रश्नोत्तर महत्त्वका है। अत यहां दे रहे हैं।
डॉक्टर सा०-आपके इस अखवारका नाम 'अनेकान्त' क्यो है ?
मैं-'अनेकान्त' जैन दर्शनका एक प्रमुख सिद्धान्त है, जिसका अर्थ नानाधर्मात्मक वस्तु है। अनेकका अर्थ नाना है और अन्तका अर्थ धर्म है और इसलिए दोनोका सम्मिलित अर्थ नानाधर्मात्मक वस्तु है। जैन दर्शनमें विश्वकी सभी वस्तुएं (पदार्थ) नानाधर्मात्मक प्रतिपादित है। एक घडेको लीजिए । वह मत्तिका (मिट्टी) की अपेक्षा शाश्वत (नित्य, एक, अभेदरूप) है-उसका उस अपेक्षासे न नाश होता है और न उत्पाद होता है। किन्तु उसको कपालादि अवस्थाओकी अपेक्षासे वह अशाश्वत (अनित्य, अनेक, भेदरूप) है-उसका उन अवस्थाओकी अपेक्षासे नाश भी होता है, उत्पाद भी होता है । इस तरह घडा शाश्वत-अशाश्वत (नित्यानित्य), एकानेक और भेदाभेदरूप होनेसे अनेकान्तात्मक है । इसी प्रकार सभी वस्तएं विधि-प्रतिषेधरूप उभयात्मक होनेमे अनेकान्तात्मक हैं। एक सरल उदाहरण और दे रहा हूँ। जिसे हम लोग डाक्टर या यकील कहकर सम्बोधित करते हैं उसे उनका पुत्र 'पिताजी' कहकर पुकारता है और उनके पिताजी उसे 'बेटा' कहकर बुलाते हैं। इसी तरह भतीजा 'चाचा' और चाग 'भतीजा' तथा भानजा 'मामा' और मामा 'भानजा' कहकर बुलाते हैं। यह सब व्यवहार या सम्बन्ध डाक्टर या वकीलमें एक साथ एक कालमें होते या हो सकते हैं, जब जिसकी विवक्षा होगी, तब । हाँ, यह हो सकता है कि जब जिसकी विवक्षा होगी वह मुख्य और शेष सभी व्यवहार या सम्बन्ध या धर्म गौण हो जायेंगे, उनका लोप या अभाव नहीं होगा। यही विश्वकी सभी वस्तुओके विषयमें है। वस्तुके इस नानाधर्मात्मक स्वभावरूप अनेकान्तसिद्धान्तका सूचन या ज्ञापन करनेके लिए इस अखवारका नाम 'अनेकान्त' रखा गया है।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
डॉक्टर सा०-दर्शनका प्रयोजन तो जगतमें शान्तिका मार्ग दिखानेका है। किन्तु जितने दर्शन है वे सब परस्परमें विवाद करते है। उनमे खण्डन-मण्डन और एक-दूसरेको बुरा कहने के सिवाय कुछ नही मालूम पड़ता है ? - मैं–नि सन्देह आपका यह कहना ठीक है कि 'दर्शन' का प्रयोजन जगत में शान्तिको मार्ग-प्रदर्शन है
और इसी लिए दर्शनशास्त्रका उदय हुआ है । जब लोकमें धर्मके नामपर अन्धश्रद्धा बढ गयी और लोगोका गतानुगतिक प्रवर्तन होने लगा, तो दर्शनशास्त्र बनाने पडे । दर्शनशास्त्र हमें बताता है कि अपने हितका मार्ग परीक्षा करके चुनो। 'धेलेकी हडी भी ठोक-बजाफर खरीदी जाती है तो धर्मका भी ग्रहण ठोक बजाकर करो। अमुक पुस्तकमें ऐसा लिखा है अथवा अमुक व्यक्तिका यह कथन है, इतने मात्रसे उसे मत मानो । अपने विवेकसे उसकी जाच करो, युक्त हो तो मानो, अन्यथा नही । जैन दर्शन तो स्पष्ट कहता और घोषणा करता है
पक्षपातो न मे वीरे न द्वेष कपिलादिषु ।
युक्तिमद्वचन यस्य तस्य कार्य परिग्रह ॥ मूलमें सभी दर्शनकारोका यही अभिप्राय रहा है कि मेरे इस दर्शनसे जगतको शान्तिका मार्ग मिले। किन्तु उत्तर कालमें पक्षाग्रह आदिसे उनके अनुयायियोने उनके उस स्वच्छ अभिप्रायको सुरक्षित नही रखा और वे परपक्षखण्डन एव स्वपक्षमण्डनके दल-दलमें फंस गये। इससे वे दर्शन विवादजनक हो गये। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जैन दर्शनमें विवादोको समन्वित करने और मिटानेके लिए स्याद्वाद और अहिंसा ये दो शान्तिपूर्ण तरीके स्वीकार किये गये हैं। अहिंसाका तरीका आक्षेप और आक्रमणको रोकता है तथा स्याद्वाद उन सम्बन्धो, व्यवहारो एव धर्मोका समन्वय कर उनकी व्यवस्था करता है। कौन सम्बन्ध या धर्म वस्तुमें किस विवक्षासे है, यह स्यावाद व्यवस्थित करता है। उदाहरणार्थ द्रव्य (सामान्य) की अपेक्षा वस्तु सदा नित्य है और अवस्थाओ-परिणमनोकी अपेक्षा वही वस्तु अनित्य है। पहलेमें द्रव्याथिकनयका दृष्टिकोण विवक्षित है और दूसरेमें पर्यायाथिकनयका दृष्टिकोण है । जैन दर्शनमें असत्यार्थ-एकान्त मान्यताका अवश्य निषेध किया जाता है और यह जरूरी भी है। अन्यथा सन्देह, विपर्यय और अनध्यवसायसे वस्तुका सम्यग्ज्ञान नही हो पायेगा। घटमें घटका ज्ञान ही तो सत्य है, अघटमें घटका ज्ञान सत्य नही है। उसे कोई सत्य मानता है तो उसका निषेध तो करना ही पड़ेगा।
डाक्टर सा०-समन्वयका मार्ग तो ठीक नही है। उससे जनताको न शान्ति मिल सकती है और न सही मार्ग । हाँ, जो विरोधी है उसका निराकरण होना ही चाहिए ?
- मै-मेरा अभिप्राय यह है कि वस्तु में सतत विद्यमान दो धर्मोमेंसे एक-एक धर्मको ही यदि कोई मानता है और विरोधी दिग्वनेसे दूसरे धर्मका वह निराकरण करता है तो स्याद्वाद द्वारा यह बतलाया जाता है कि 'स्यात्'-कथचित्-अमक दृष्टिसे अमुक धर्म है और 'स्यात्'-कथचित्-अमुक दृष्टिसे अमुक धर्म हैं और इस तरह दोनो धर्म वस्तु में हैं। जैसे, वेदान्ती आत्माको सर्वथा नित्य और बौद्ध उसे सर्वथा अनित्य (क्षणिक) मानते हैं। जैन दर्शन स्याद्वाद सिद्धान्तसे बतलाता है कि द्रव्यकी विवक्षासे वेदान्तीका आत्माको नित्य मानना सही है और अवस्था-परिणमनकी अपेक्षासे आत्माको अनित्य मानना बौद्धका कथन ठीक है। किन्तु आत्मा न सर्वथा नित्य है और न सर्वथा अनित्य है । अत एव दोनो-वेदान्ती और बाद्धका आत्माको कथचित नित्य (द्रव्य दष्टिसे) और कथचित अनित्य (पर्यायष्टिसे) उभयात्मक स्वीकार करना ही वस्तुस्वरूपका प्रतिपादन कहा जायेगा। उसकी गलत ऐकान्तिक मान्यताका तो निषेध करना ही
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
चाहिए । यही समन्वयका मार्ग है। हमारा सब सच और दूसरेका सब झूठ, यह वस्तु-निर्णयको सम्यक् नीति नहीं है । हिन्दुस्तान हिन्दुओंका ही है, ऐसा मानने और कहने में झगडा है। किन्तु वह उसके निवासी जैनो, बौद्धो, मुसलमानो आदि दूसरोका भी है, ऐसा मानने तथा कहने में झगडा नही होता । स्याद्वाद यही बतलाता है। जब हम स्याद्वादको दृष्टिमें रखकर कुछ कहते हैं या व्यवहार करते हैं तो सत्यार्थकी प्राप्तिमें कोई भी विरोधी नही मिलेगा, जिसका निराकरण करना पडे ।
__डाक्टर सा०-बुद्ध और महावीरकी सेवाधर्मको नीति अच्छी है। उसे अपनानेसे ही जनताको शान्ति मिल सकती है ?
___ मैं-सेवाधर्म अहिंसाका ही एक अङ्ग है। अहिंसकको सेवाभावी होना ही चाहिए। महावीर और बुद्धने इस अहिंसाद्वारा ही जनताको बही शान्ति पहुंचायी थी और यही उन दोनों महापुरुषोकी लोकोत्तर सेवा थी, जिसमें जनताके कल्याण और अभ्युदयकी भावना तथा प्रयत्न समाया हुआ था। महात्मा गाधीने भी अहिंसासे राष्ट्रको स्वतन्त्र किया। वास्तवमें सेवा, परिचर्या, वैयावृत्त्य आदि अहिंसाके ही रूपान्तर है । कोई सेवा द्वारा, कोई परिचर्या द्वारा और कोई वैयावृत्त्य द्वारा जनताके कष्टोंको दूर करता है और यह कष्ट दूर करना ही अहिंसाकी साधना है।
डाक्टर सा०-आज आपने बहुत-सी दर्शन-सम्बन्धी गूढ बातोकी चर्चा की, इसकी हमें प्रसन्नता
मैं-मुझे खुशी है कि बापने अपना बहुमूल्य समय इस वार्ता के लिए दिया, इसके लिए आपको धन्यवाद देता हूँ।
यह वार्ता बडी मैत्री और सौजन्यपूर्ण हुई। लगभग आधे घटे तक यह हुई ।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन दर्शनमें सल्लेखना : एक अनुशीलन
पृष्ठभूमि
जन्मके साथ मत्यका और मृत्युके साथ जन्मका अनादि-प्रवाह सम्बन्ध है। जो उत्पन्न होता है। उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म भी होता है। इस तरह जन्म और मरणका प्रवाह तबतक प्रवाहित रहता है जबतक जीवको मुक्ति नहीं होती। इस प्रवाहमें जीवोको नाना क्लेगो और दु खोको भोगना पडता है । परन्तु राग-द्वेष और इन्द्रियविपयोमें आसक्त व्यक्ति इस ध्रुव सत्यको जानते हुए भी उससे मुक्ति पानेकी ओर लक्ष्य नहीं देते प्रत्युत जब कोई पैदा होता है तो उसका वे 'जन्मोत्सव' मनाते तथा हर्प व्यक्त करते है । और जब कोई मरता है तो उसकी मृत्युपर आंसू बहाते एवं शोक प्रकट करते हैं।
पर ससार-विरक्त मुमुक्षु सन्तोकी वृत्ति इससे भिन्न होती है । वे अपनी मृत्युफो अच्छा मानते हैं और यह सोचते है कि जीर्ण-शीर्ण शरीररूपी पिंजरेसे आत्माको छुटकारा मिल रहा है। अतएव जैन मनीपियोने उनकी मृत्युको 'मत्युमहोत्सव के रूपमें वर्णन किया है। इस वैलक्षण्यको समझना कुछ कठिन नही है । यथार्थमें साधारण लोग ससार (विषय-कषायके पोपक चेतनाचेतन पदार्थों) को आत्मीय समझते हैं। अत उनके छोडनेमे उन्हें दुखका अनुभव होता है और उनके मिलने में हर्ष होता है। परन्तु शरीर और आत्माके भेदको समझनेवाले ज्ञानी वीतरागी सन्त न केवल विषय-कपायकी पोपक वाह्य वस्तुओको ही, अपितु अपने शरीरको भी पर-अनात्मीय मानते हैं। अतः शरीरको छोडनेमे उन्हें दुख न होकर प्रमोद होता है । वे अपना वास्तविक निवास इस द्वन्द्व-प्रधान दुनियाको नही मानते, किन्तु मुक्तिको समझते हैं और सद्दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, त्याग, सयम आदि आत्मीय गुणोको अपना यथार्थ परिवार मानते हैं। फलत सन्तजन यदि अपने पौदगलिक शरीरके त्यागपर 'मृत्यु-महोत्सव' मनायें तो कोई आश्चर्य नही है। वे अपने रुग्ण, अशक्त, जर्जरित, कुछ क्षणोमें जानेवाले और विपद्-ग्रस्त जीर्ण-शीर्ण शरीरको छोड़ने तथा नये शरीरको ग्रहण करनेमे उसी तरह उत्सुक एव प्रमुदित होते हैं जिस तन्ह कोई व्यक्ति अपने पुराने, मलिन जीर्ण और काम न दे सकनेवाले वस्त्रको छोडने तथा नवीन वस्त्र परिधानमें अधिक प्रसन्न होता है.१ 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्घव जन्म मृतस्य च ।'-गीता, २-२७ । २३ 'ससारासक्तचित्ताना मृत्युभॊत्य भवेन्नृणाम् ।
मोदायते पन सोऽपि ज्ञान-वैराग्यवासिनाम ॥'-मत्यमहोत्सव, प्लो०१७ । .. ४ 'शानिन् ! भय भवेत्कस्मात्प्राप्ते मृत्यु-महोत्सवे ।
स्वरूपस्थ पुर याति देहादेहान्तरस्थिति ॥ -मृत्युमहोत्सव, श्लो० १० । ५. जीणं देहादिक सर्व नूतन जायते यत ।
स मृत्यु. कि न मोदाय सता सातोत्यितिर्यथा ॥-मृत्युमहोत्सव, दलो० १५ । गीतामें भी इसी भावको प्रदर्शित किया गया है । यथावासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि सयाति नवानि देही ||-गीता, २-२२ ।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
(इसी तथ्यको दृष्टिमें रखकर संवेगी जैन श्रावक या जैन साधु अपना मरण सुधारनेके लिए उक्त परिस्थितियोमें सल्लेखना ग्रहण करता है। वह नही चाहता कि उसका शरीर-त्याग रोते-विलपते, सक्लेश करते और राग-द्वेषकी अग्निमें झुलसते हुए असावधान अवस्था हो, किन्तु दृढ, शान्त और उज्ज्वल परिणामोंके साथ विवेकपूर्ण स्थितिमें वीरोकी तरह उसका शरीर छूटे । सल्लेखना मुमुक्षु धावक और साघु दोनो के इसी उद्देश्यकी पूरक है । प्रस्तुतमें उसीके सम्बन्धमें कुछ प्रकाश डाला जाता है । सल्लेखना और उसका महत्त्व
'सल्लेखना' शब्द जैन-धर्मका पारिभाषिक शब्द है। इसका अर्थ है-'सम्यक्काय-कपाय-लेखना सल्लेखना'-सम्यक् प्रकारसे काय और कषाय दोनोको कृश करना सल्लेखना है । (तात्पर्य यह कि मरणसमयमें की जानेवाली जिस किया-विशेषमे बाहरी और भीतरी अर्थात शरीर तथा रागादि दोपोंका, उनके कारणोको कम करते हुए प्रसन्नतापूर्वक बिना किसी दबावके स्वेच्छासे लेखन अर्थात् कृशीकरण किया जाता है उस उत्तम क्रिया-विशेपका नाम सल्लेखना है। उसीको 'समाधिमरण' कहा गया है। यह सल्लेखना जीवनभर माचरित समस्त व्रतो, तपो और सयमकी सरक्षिका है। इसलिए इसे जन-सस्कृतिमें 'व्रतराज' भी कहा है ।)
____ अपने परिणामोके अनुसार प्राप्त जिन आय, इन्द्रियो और मन, वचन, काय इन तीन बलोंके सयोगका नाम जन्म है और उन्हीके क्रमश अथवा सर्वथा क्षीण होनेको मरण कहा गया है । यह मरण दो प्रकारका है-एक नित्यमरण और दूसरा नद्भव-मरण । प्रतिक्षण जो आयु आदिका ह्रास होता रहता है वह नित्य-मरण है तथा उत्तरपर्यायकी प्राप्तिके साथ पूर्व पर्यायका नाश होना, तद्भव-मरण है। नित्य
रन्तर होता रहता है, उसका आत्म-परिणामोपर विशेष प्रभाव नहीं पडता । पर तद्भव-मरणका कषायो एव विषय-वासनाओको न्यूनाधिकताके अनुसार आत्म-परिणामोपर अच्छा या बुरा प्रभाव अवश्य पडता है। इस तद्भव-मरणको सुधारने और अच्छा बनानेके लिये ही पर्यायके अन्तमें 'सल्लेखना' रूप अलोकिक प्रयत्न किया जाता है । (सल्लेखनासे अनन्त ससारकी कारणभूत कपायोका आवेग उपशमित अथवा क्षीण हो जाता है तथा जन्म-मरणका प्रवाह बहुत ही अल्प हो जाता अथवा बिलकुल सूख जाता है । जन लेखक आचार्य शिवार्य सल्लेखनाधारण पर बल देते हुए कहते हैं कि 'जो भद्र एक पर्यायमे समाधिमरणपूर्वक मरण करता है वह ससारमे सात-आठ पर्यायसे अधिक परिभ्रमण नहीं करता-उसके बाद वह अवश्य मोक्ष पा लेता है ।' आगे वे सल्लेखना और सल्लेखना-धारकका महत्त्व बतलाते हुए यहाँ तक
'(क) 'सम्यक्काय-कषाय-लेखना सल्लेखना। कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणा च कषायाणा तत्कारणहापन
क्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना।'-पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि ७-२२ । (ख) 'मारणान्तिकी सल्लेखना ज्योषिता'-आ० गृद्धपिच्छ, तत्त्वार्थसू० ७-२२ । 'स्वायुरिद्रियबलसक्षयो मरणम् । स्वपरिणामोपात्तस्यायुष इन्द्रियाणा बलाना च कारणवशात् सक्षयो मरणमिति मन्यन्ते मनीषिण । मरण द्विविधम, नित्यमरण तद्भवमरण चेति । तत्र नित्यमरण समय समये स्वायुरादीना निवृत्ति । तद्भवमरण भवान्तरप्राप्त्यनन्तरोपश्लिष्ट पूर्वभवविगमनम् ।'
-अकलङ्कदेव, तत्त्वार्थवा० ७-२२ । 'एगम्मि भवग्गहणे समाधिमरणेण जो मदो जीवो । ण हु सो हिंडदि बहुसो सत्तट्ट-भवे पमतूण ।।'-भगवती आरा० ।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
लिखते हैं कि 'सल्लेखना-धारक (क्षपक) का भक्तिपूर्वक दर्शन, वन्दन और वैयावृत्य आदि करनेवाला व्यक्ति भी देवगतिके सुखोको भोगकर अन्तमे उत्तम स्थान (निर्वाण) को प्राप्त करता है।' )
तेरहवी शताब्दीके प्रौढ लेखक पण्डितप्रवर आशाधरजीने भी इसी बातको बडे ही प्राज़ल शब्दोमें " स्पष्ट करते हुए कहा है कि 'स्वस्थ शरीर पथ्य आहार और विहार द्वारा पोषण करने योग्य है तथा रुग्ण शरीर योग्य औषधियो द्वारा उपचारके योग्य है। परन्तु योग्य आहार-विहार और
औषधोपचार करते हुए भी शरीरपर उनका अनुकूल असर न हो, प्रत्युत रोग बढता ही जाय, तो।' ऐसी स्थितिमे उस शरीरको दुष्टके समान छोड देना ही श्रेयस्कर है ।' (असावधानी एव आत्मघातके दोपसे बचनेके लिए कुछ ऐसी बातोकी ओर भी सकेत करते हैं, जिनके द्वारा शीघ्र और अवश्य मरणकी सूचना मिल जाती है। उस हालतमें व्रतीको आत्मधर्मको रक्षाके लिए सल्लेखनामे लीन हो जाना - ही सर्वोत्तम है।)
( इसी तरह एक अन्य विद्वान्ने भी प्रतिपादन किया है कि 'जिस शरीरका बल प्रतिदिन क्षीण हो रहा है, भोजन उत्तरोत्तर घट रहा है और रोगादिकके प्रतीकार करनेकी शक्ति नही रही है वह शरीर ही विवेकी पुरुषोको यथाख्यातचारित्र (सल्लेखना) के समयको इगित करता है।
मृत्युमहोत्सवकारकी दृष्टिमें समस्त श्रुताभ्यास, घोर तपश्चरण और कठोर व्रताचरणकी सार्थकता तभी है जब मुमुक्षु श्रावक अथवा साधु विवेक जागृत हो जानेपर सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग करता है । वे लिखते हैं :
'जो फल बडे-बडे व्रती पुरुषोको कायक्लेशादि तप, अहिंसादि व्रत धारण करनेपर प्राप्त होता है वह फल अन्त समयमें सावधानीपूर्वक किये गये समाधिमरणसे जीवोको सहज में प्राप्त हो। जाता है। अर्थात् जो आत्म-विशुद्धि अनेक प्रकारके तपादिसे होती है वह अन्त समयमें
समाधिपूर्वक शरीर-त्यागसे प्राप्त हो जाती है।'
'बहुत कालतक किये गये उग्र तपोका, पाले हुए व्रतोका और निरन्तर अभ्यास किये हुए शास्त्र ज्ञानका एक-मात्र फल शान्तिके साथ आत्मानुभव करते हुए समाधिपूर्वक मरण करना है।'
६ 'सल्लेहणाए मूल जो वच्चइ तिश्व-भत्ति-राएण ।
भोत्तण य देव-सुख सो पावदि उत्तम ठाण ||-भगवती आरा० । 'काय स्वस्थोऽनुवर्त्य स्यात्प्रतिकार्यश्च रोगित । उपकार विपर्यस्यस्त्याज्य सदिभ खलो यथा ॥' -आशाधर, सागरधर्मा०८-६ । 'देहादिवकृत सम्यक्निमित्तैस्तु सुनिश्चिते । मृत्यावाराधनामग्नमतेर्दूरे न तत्पदम् ।।-सागारधर्मा०, ८-१० । प्रतिदिवस विजहदबलमज्झद्भक्ति त्यजत्प्रतीकारम् । वपुरेव नणा निगदति चरमचरित्रोदय समयम् ||-आदर्श सल्ले०, पृ० १९ । यत्फल प्राप्यते सद्भिर्वतायासविडम्बनात् । तत्फल सुखसाध्य स्यान्मृत्युकाले समाधिना ।। तप्तस्य तपसश्चापि पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्रुतस्यापि फल मृत्यु समाधिना ।।-मृत्युमहोत्सव, श्लोक २१, २३ ।
-८५
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
नही है ।
पास्यत हो जायें, तो वह उनका
। परन्तु जब देखता है कि
विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दीके विद्वान् स्वामी समन्तभद्रको मान्यतानुसार जीवनमें आचरित तपोका फल वस्तुत अन्त समयमे गृहीत सल्लेखना ही है। अत वे उसे पूरी शक्तिके साथ धारण करनेपर जोर देते है।)
आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि भी सल्लेखनाके महत्त्व और आवश्यकताको बतलाते हुए लिखते हैं। कि 'मरण किसीको इष्ट नहीं है । जैसे अनेक प्रकारके सोना-चांदी, बहुमूल्य वस्त्रो आदिका व्यवसाय करनेवाले किसी व्यापारीको अपने उस घरका विनाश कभी इण्ट नही है, जिसमें उक्त बहुमूल्य वस्तुएँ रखी हुई हैं। यदि कदाचित् उसके विनाशका कारण (अग्निका लगना, वाढ आजाना या राज्यमें विप्लव होना
आदि) उपस्थित हो जाय, तो वह उसकी रक्षाका पूरा उपाय करता है और जब रक्षाका उपाय सफल होता हुआ दिखाई नहीं देता, तो घरमे रखे हुए बहुमूल्य पदार्थोको बचानेका भरसक प्रयत्न करता है. और घरको नष्ट होने देता है। उसी तरह व्रत-शीलादि गुणोका अर्जन करनेवाला व्रती श्रावक या साघु भी उन व्रतादिगुणरत्नोके आधारभूत शरीरकी, पोपक आहार-औपधादि द्वारा, रक्षा करता है, उसका नाश उसे इष्ट नहीं है । पर दैववश शरीरमें उसके विनाश-कारण (असाध्य रोगादि) उपस्थित हो जाये, तो वह उनको दूर करनेका यथासाध्य प्रयत्न करता है । परन्तु जब देखता है कि उनका दूर करना अशक्य है और शरीरकी रक्षा अव सम्भव नही है, तो उन बहुमूल्य व्रत-शीलादि आत्म-गुणोकी वह सल्लेखना-द्वारा रक्षा करता है और शरीरको नष्ट होने देता है।'
इन उल्लेखोंसे सल्लेखनाकी उपयोगिता, आवश्यकता और महत्ता सहजमें जानी जा सकती है। ज्ञात होता है कि इसी कारण जैन-सस्कृतिमें सल्लेखनापर बडा बल दिया गया है। जैन लेखकोने अकेले इसी विषयपर प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी आदि भाषाओमें अनेको स्वतत्र ग्रन्थ लिखे हैं । आचार्य शिवार्यकी 'भगवती आराधना' इस विषयका एक अत्यन्त प्राचीन और महत्वपूर्ण विशाल प्राकृत-ग्रन्थ है । इसी प्रकार 'मृत्युमहोत्सव', 'समाधिमरणोत्साहदीपक', 'समाधिमरणपाठ' आदि नामोंसे सस्कृत तथा हिन्दीमें भी इसी विषयपर अनेक कृतियां उपलब्ध हैं ।। सल्लेखनाका काल, प्रयोजन और विधि
यद्यपि ऊपरके विवेचनसे सल्लेखनाका काल और प्रयोजन ज्ञात हो जाता है तथापि उसे यहाँ और भी अधिक स्पष्ट किया जाता है । आचार्य समन्तभद्रस्वामीने सल्लेखना-धारणका काल (स्थिति) और उसका प्रयोजन बतलाते हुए लिखा है
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजाया च निप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहु सल्लेखनामार्या ॥-रत्नकरण्डश्रावका० ५-१।
सम्भव नहीं है,
८-१ अन्त क्रियाधिकरण तप फल सकलदर्शिन स्तुवते ।
तस्माद्यावद्विभव समाधिमरणे प्रयतितव्यम् ।।-रत्नकरण्डश्रा० ५-२ । 'मरणस्यानिष्टत्वात् । यथा वणिजो विविधपण्यदानादानसचयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्ट । तद्विनाशकारणे च कृतश्चिदुपस्थिते यथाशक्ति परिहरति । दुष्परिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते । एव गृहस्थोऽपि व्रतशीलपण्यसचये प्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य न पातमभिवाञ्छति । तदुपप्लववकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति । दृष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतते ।'
-सर्वार्थसि०७-२२।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
'अपरिहार्य उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और रोग-इन अवस्थाओमें आत्मधर्मकी रक्षाके लिए जो शरीरका त्याग किया जाता है वह सल्लेखना है।'
स्मरण रहे कि जैन व्रती-श्रावक या साधुकी दृष्टि में शरीरका उतना महत्त्व नहीं है जितना आत्माका है, क्योकि उसने भौतिक दृष्टिको गौण और आध्यात्मिक दृष्टिको उपादेय माना है । अतएव वह भौतिक शरीरकी उक्त उपसर्गादि सफटावस्थाओमें, जो साधारण व्यक्तिको विचलित कर देनेवाली होती है, आत्मधर्मसे च्युत न होता हुआ उसकी रक्षाके लिए साम्यभावपूर्वक शरीरका उत्सर्ग कर देता है। वास्तवमें इस प्रकारका विवेक, बुद्धि और निर्मोहभाव उसे अनेक वर्षोंके चिरन्तन अभ्यास और साधना द्वारा ही प्राप्त होता है । इसीसे सल्लेखना एक असामान्य असिधारा-व्रत है जिसे उच्च मन स्थितिके व्यक्ति ही धारण कर पाते है । सच बात यह है कि शरीर और आत्माके मध्यका अन्तर (शरीर जड़, हेय और अस्थायी है तथा आत्मा चेतन, उपादेय और स्थायी है) जान लेनेपर सल्लेखना-धारण कठिन नहीं रहता। उस अन्तरका ज्ञाता यह स्पष्ट जानता है कि 'शरीरका नाश अवश्य होगा, उसके लिए अविनश्वर फलदायी धर्मका नाश नही करना चाहिए, क्योकि शरीरका नाश हो जानेपर तो दूसरा शरीर पुन मिल सकता है । परन्तु आत्मधर्मका नाश हो जानेपर उसका पुन मिलना दुर्लभ है। अत. जो शरीर-मोही नही होते वे आत्मा और अनात्माके अन्तरको जानकर समाधि मरण द्वारा आत्मासे परमात्माकी ओर बढते हैं । जैन सल्लेखनामें यही तत्त्व निहित है । इसीसे प्रत्येक जैन देवोपासनाके अन्तमें प्रतिदिन यह पवित्र कामना करता है--
हे जिनेन्द्र ! आप जगत् बन्धु होने के कारण मैं आपके चरणोको शरणमें आया हूँ। उसके प्रभावसे । मेरे सब दु खोका अभाव हो, दु खोके कारण ज्ञानावरणादि कर्मोका नाश हो और कर्मनाशके कारण समाधि-') मरणकी प्राप्ति हो तथा समाधिमरणके कारणभूत सम्यक्बोध (विवेक) का लाभ हो ।'
जैन सस्कृतिमे सल्लेखनाका यही आध्यात्मिक उद्देश्य एव प्रयोजन स्वीकार किया गया है । लौकिक भोग या उपभोग या इन्द्रादि पदकी उसमें कामना नहीं की गई है। मुमुक्षु श्रावक या साधुने जो अब तक व्रत-तपादि पालनका घोर प्रयत्न किया है, कष्ट सहे हैं, आत्म-शक्ति बढाई है और असाधारण आत्म-ज्ञानको जागृत किया है उसपर सुन्दर कलश रखनेके लिए वह अन्तिम समयमें भी प्रमाद नही करना चाहता।) अतएव वह जागृत रहता हुआ सल्लेखनामें प्रवृत्त होता है ।
सल्लेखनावस्थामें उसे कैसी प्रवृत्ति करना चाहिए और उसकी विधि क्या है ? इस सम्बन्धमें भी जैन लेखकोने विस्तृत और विशद विवेचन किया है। आचार्य समन्तभद्रने सल्लेखनाकी निम्न प्रकार विधि बतलाई है:
नावश्य नाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामद ।
देहो नष्ट. पुनर्लम्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभ ॥ -सा०प०,८-७। 2 दुक्ख-खो कम्म-खो समाहिमरण च बोहिलाहो य ।
मम होउ जगदबघव | तव जिणवर ! चरणसरणेण ।।-भारतीय ज्ञान० पू०, पृ०८७ । स्नेह सग परिग्रह चापहाय शुद्धमना । स्वजन परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचन ॥ आलोच्य सर्वमेन कृतकारितमनुमत च नियाजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ।।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
सल्लेखना-धारी सबसे पहले इष्ट वस्तुओमें राग, अनिष्ट वस्तुओमें द्वष, स्त्री-पुत्रादि प्रियजनोंमें ममत्व और धनादिमें स्वामित्वका त्याग करके मनको शुद्ध बनाये। इसके पश्चात् अपने परिवार तथा सम्बन्धित व्यक्तियोसे जीवनमें हए अपराधोको क्षमा कराये और स्वय भी उन्हें प्रिय वचन बोलकर क्षमा करे।
इसके अनन्तर वह स्वय किये, दूसरोसे कराये और अनुमोदना किये हिंसादि पापोकी निश्छल भावसे आलोचना (उनपर खेद-प्रकाशन) करे तथा मृत्युपर्यन्त महावतोका अपनेमें आरोप करे ।
इसके अतिरिक्त आत्माको निर्बल बनानेवाले शोक, भय, अवसाद, ग्लानि, कलुषता और आकुलता जैसे आत्म-विकारोका भी परित्याग करे तथा आत्मबल एव उत्साहको प्रकट करके अमृतोपम शास्त्रवचनों द्वारा मनको प्रसन्न रखे ।
इस प्रकार कषायको शान्त अथवा क्षीण करते हुए शरीरको भी कृष करनेके लिए सल्लेखनामें प्रथमत अन्नादि आहारका, फिर दूध, छाछ आदि पेय पदार्थोका त्याग करे। इसके अनन्तर काजी या गर्म जल पीनेका अभ्यास करे ।
अन्तमें उन्हें भी छोडकर शक्तिपूर्वक उपवास करे। इस तरह उपवास करते एव पचपरमेष्ठीका ध्यान करते हुए पूर्ण विवेकके साथ सावधानीमें शरीरको छोडे ।
इस अन्तरङ्ग और बाह्म विधिसे सल्लेखनाधारी आनन्द-ज्ञानस्वभाव आत्माका साधन करता है और वर्तमान पर्यायके विनाशसे चिन्तित नही होता, किन्तु भावी पर्यायको अधिक सुखी, शान्त, शुद्ध एव उच्च बनानेका पुरुषार्थ करता है । नश्वरसे अनश्वरका लाभ हो, तो उसे कौन बुद्धिमान् छोडना चाहेगा? फलत सल्लेखना-धारक उन पांच दोषोंसे भी अपनेको बचाता है, जिनसे उसके सल्लेखना-प्रतमें दूषण लगनेकी सम्भावना रहती है । वे पांच दोष निम्न प्रकार बतलाये गये हैं - । सल्लेखना ले लेनेके बाद जीवित रहनेकी आकाक्षा करना, कष्ट न सह सकनेके कारण शीघ्र मरनेको इच्छा करना, भयभीत होना, स्नेहियोका स्मरण करना और अगली पर्यायमें सुखोकी चाह करना ये पांच सल्लेनावतके दोष हैं, जिन्हें 'अतिचार' कहा गया है।
शोक भयमवसाद क्लेद कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्त्वोत्साहमुदीर्य च मन प्रसाद्य श्रुतरमृतं ।। आहार परिहाप्य क्रमश स्निग्ध विवर्द्धयेत्पानम् । स्निग्धं च हापयित्वा खरपान पूरयेत्क्रमश ॥ खरपान-हापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या ।
पञ्चनमस्कारमनास्तनु त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥-रत्नक० श्रा० ५,३-७ । १ जीवित-मरणाशसे भय-मित्रस्मृति-निदान-नामान ।
सल्लेखनातिचारा पञ्च जिनेन्द्र समादिष्टा ॥-रत्नक० श्रा० ५,८।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
सल्लेखनाका फल
सल्लेखना-धारक धर्मका पूर्ण अनुभव और लाभ लेनेके कारण नियमसे नि श्रेयस अथवा अभ्युदय प्राप्त करता है । समन्तभद्रस्वामीने सल्लेखनाका फल बतलाते हुए लिखा है -
''उत्तम सल्लेखना करनेवाला धर्मरूपी अमृतका पान करनेके कारण समस्त दु खोसे रहित होकर या तो वह नि श्रेयसको प्राप्त करता है और या अभ्युदयको पाता है, जहां उसे अपरिमित सुखोकी प्राप्ति होती है।'
विद्वद्वर पण्डित आशाघरजी कहते है कि 'जिस महापुरुषने ससार-परम्पराके नाशक समाधिमरणको धारण किया है उसने धर्मरूपी महान् निधिको परभवमें जाने के लिए अपने साथ ले लिया है, जिससे वह उसी तरह सुखी रहे जिस प्रकार एक ग्रामसे दूसरे ग्रामको जानेवाला व्यक्ति पासमें पर्याप्त पाथेय होनेपर निराकूल रहता है। इस जीवने अनन्त बार मरण किया, किन्तु समाधि-सहित पुण्य-मरण कभी नही किया. जो सौभाग्यसे या पुण्योदयसे अब प्राप्त हुआ है । सर्वज्ञदेवने इस समाधि-सहित पुण्य-मरणको बडो प्रशसा की है, क्योकि समाधिपूर्वक मरण करनेवाला महान् आत्मा निश्चयसे ससाररूपी पिंजरेको तोड देता है-उसे फिर ससारके बन्धनमें नही रहना पडता है।' सल्लेखनामे सहायक और उनका महत्त्वपूर्ण कर्तव्य
आराधक जब सल्लेखना ले लेता है, तो वह उसमें बडे आदर, प्रेम और श्रद्धाके साथ सलग्न रहता है तथा उत्तरोत्तर पूर्ण सावधानी रखता हुआ आत्म-साधनामें गतिशील रहता है। उसके इस पुण्यकार्यमें, जिसे एक 'महान-यज्ञ' कहा गया है, पूर्ण सफल बनाने और उसे अपने पवित्र पथसे विचलित न होने देनेके लिए निर्यापकाचार्य (समाधिमरण करानेवाले अनुभवी मुनि) उसकी सल्लेखनामें सम्पूर्ण शक्ति एव आदरके साथ उसे सहायता पहुँचाते हैं और समाधिमरणमें उसे सुस्थिर रखते हैं। वे सदैव उसे तत्त्वज्ञानपूर्ण मधुर उपदेश फरते तथा शरीर और ससारको असारता एव क्षणभगुरता दिखलाते हैं, जिससे वह उनमें मोहित न हो, जिन्हें वह हेय समझकर छोड चुका या छोडनेका सकल्प कर चुका है, उनकी पुन चाह न करे। आचार्य शिवार्यने भगवती-आराधना (गा० ६५०-६७६) में समाधिमरण-करानेवाले इन निर्यापक मुनियोका वडा सुन्दर और विशद वर्णन किया है । उन्होने लिखा है :
'वे मुनि (निर्यापक) धर्मप्रिय, दृढश्रद्धानी, पापभीरु, परीषह-जेता, देश-काल-ज्ञाता, योग्यायोग्य- । विचारक, न्यायमार्ग-मर्मज्ञ, अनुभवी, स्वपरतत्व-विवेकी, विश्वासी और परम-उपकारी होते हैं। उनकी सख्या अधिकतम ४८ और न्यूनतम २ होती है।'
१ नि श्रेयसमभ्युदय निस्तीर दुस्तर सुखाम्बुनिधिम् ।
नि पिवति पीतधर्मा सर्वैर्दु खैरनालीढ ॥-रत्नक० ५-९ । २ सहगामि कृत तेन धर्मसर्वस्वमात्मन ।
समाधिमरण येन भव-विध्वसि साधितम् ॥ प्राग्जन्तुनाऽमुनाऽनन्ता प्राप्तास्तद्भवमृत्यव । समाधिपुण्यो न पर परमश्चरमक्षणः ।। पर शसन्ति माहात्म्य सर्वज्ञाश्चरमक्षणे । यस्मिन्समाहिता भव्या भजन्ति भव-पञ्जरम् ।।-साध० ७-५८, ८८२५, २८ ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
४८ मुनि क्षपककी इस प्रकार सेवा करें। ४ मुनि क्षपकको उठाने बैठाने आदिरूपसे शरीरकी टहल करें। ४ मुनि धर्म-अमण करायें । ४ मुनि भोजन और ४ मूनि पान करायें। ४ मुनि देख-भाल रखें। ४ मुनि शरीरके मलमूत्रादि क्षेपण में तत्पर रहें। ४ मुनि वसतिकाके द्वारपर रहें, जिससे अनेक लोग क्षपकके परिणामो में क्षोभ न कर सकें । ४ मुनि क्षपककी आराधनाको सुनकर आये लोगोको सभा में धर्मोपदेशद्वारा सन्तुष्ट करें । ४ मुनि रात्रिमें जागें । ४ मुनि देशकी ऊँच-नीच स्थिति के ज्ञानमें तत्पर रहें । ४ मुनि बाहरसे आये-गयोंसे बातचीत करें ओर ४ मुनि क्षपकके समाधिमरण में विघ्न करनेकी सम्भावनासे आये लोगोसे वाद (शास्त्रार्थ द्वारा धर्म - प्रभावना) करें। इस प्रकार ये निर्यापक मुनि क्षपकको समाधिमे पूर्ण प्रयत्नसे सहायता करते है । भरत और ऐरावत क्षेत्रोमे कालकी विपमता होनेसे जैसा अवसर हो और जितनी विधि बन जाये तथा जितने गुणोके धारक निर्यापक मिल जायें उतने गुणोवाले निर्वापकोसे भी समाधि करायें, अतिश्रेष्ठ है । पर एक निर्यापक नहीं होना चाहिए, कम से कम दो होना चाहिए, क्योकि अकेला एक निर्यापक क्षपककी २४ घण्टे सेवा करनेपर थक जायगा और क्षपककी समाधि अच्छी तरह नही करा सकेगा'।']
इस कथनसे दो बातें प्रकाशमें आती हैं । एक तो यह कि समाधिमरण करानेके लिए दोसे कम निर्यापक नही होना चाहिए । सम्भव है कि क्षपककी समाधि अधिक दिन तक चले और उस दशामें यदि निर्यापक एक हो तो उसे विश्राम नही मिल सकता । अत कम-से-कम दो निर्यापक तो होना ही चाहिए । दूसरी बात यह कि प्राचीन कालमें मुनियोको इतनी बहुलता थी कि एक-एक मुनिकी समाधिमें ४८, ४८ मुनि निर्यापक होते थे और क्षपककी समाधिको वे निर्विघ्न सम्पन्न कराते थे । ध्यान रहे कि यह साधुओं की समाधिका मुख्यत वर्णन है। श्रावकोकी समाधिका वर्णन यहाँ गौण है ।
ये निर्यापक क्षपकको जो कल्याणकारी उपदेश देते तथा उसे सल्लेखनामें सुस्थिर रखते हैं, उसका पण्डित आशावरजीने वहा सुन्दर वर्णन किया है। वह कुछ यहाँ दिया जाता है
'हे क्षपक | लोकमें ऐसा कोई पुद्गल नही, जिसका तुमने एकसे अधिक बार भोग न किया हो, फिर भी वह तुम्हारा कोई हित नहीं कर सका। परवस्तु या कभी आत्माका हित कर सकती है ? आत्माका हित तो उसी के ज्ञान, सयम और श्रद्धादि गुण हो कर सकते हैं । अत वाह्य वस्तुओसे मोहको त्यागो, विवेक तथा सयमका आश्रय लो । और सदैव यह विचारो कि मैं अन्य हूँ और पुद्गल अन्य है । मैं चेतन है, ज्ञाता द्रष्टा हूँ और पुद्गल अचेतन है, ज्ञान-दर्शन रहित है। मे आनन्दघन हैं और पुद्गल ऐसा नहीं है ।'
-१
पिय चम्मा दढम्मा सविग्गावज्जभीरुणो धीरा । छदण्हू पञ्चइया परचमाणम्मि य विदण्डू || कप्पाकप्पे कुसला समाधिकरणज्जुदा सुद-रहस्या । गीदत्था भयवतो अडयालीस (४८) तु णिज्जवया ॥ णिज्जवया य दोणि वि होति जहणेण कालसरायणा । एक्को णिज्जावयओ ण होइ कइया वि जिणसुत्ते ॥ २. सागारधर्मामृत ८-४८ से ८-१०७ ।
---
- ९० -
शिवार्थ, भगवती आराधना गा० ६६२-६७३ ।
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
'हे क्षपकराज | जिस सल्लेखनाको तुमने अब तक धारण नही किया था उसे धारण करनेका सुअवसर तुम्हें आज प्राप्त हुआ है । उस आत्महितकारी मल्लेखनामे कोई दोप न आने दो। तुम परोपहोक्षुधादिके कष्टोंसे मत डालो। वे तुम्हारे आत्माका कुछ त्रिगाड नही सकते। उन्हें तुम महनशीलता एव धीरता महन करो और उनके द्वारा कर्मोंकी असल्यगुणी निर्जरा करो ।'
'हे आराधक । अत्यन्त दुखदायी मिथ्यात्वका बमन करो, मुखदायी सम्यक्त्वका आराधना करो, पंचपरमेष्ठीका स्मरण करो, उनके गुणो में सतत अनुराग रखो और अपने शुद्ध ज्ञानोपयोग में लीन रहो । अपने महाव्रतोकी रक्षा करो, कपायोको जीतो, इन्द्रियोको वामें करो, सदैव आत्मामें ही आत्माका ध्यान करो, मिथ्यात्वके समान दुखदायी और सम्यवत्व के समान सुग्वदायी तीन लोक में अन्य कोई वस्तु नही है । देखो, धनदत्त राजाका सघश्री मन्त्री पहले सम्यग्दृष्टि था पीछे उसने सम्यवत्वको विराधना की और मिथ्यात्वका सेवन किया, जिसके कारण उसकी आँखें फूट गई और मसारचक्रमे उसे घूमना पडा । राजा श्रेणिक तीव्र मिथ्यादृष्टि था, किन्तु वादको उसने सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया, जिनके प्रभाव से उसने अपनी बँधी हुई नरकको स्थितिको कम करके तीर्थकर प्रकृतिका बन्ध किया और भविष्यत्कालमे वह तीर्थंकर होगा ।'
शिवभूति महामुनिको भी देखो,
'इसी तरह हे क्षपक । जिन्होने परीपहो एव उपसर्गोको जीत करके महाव्रतोका पालन किया, उन्होने अभ्युदय और नियम प्राप्त किया है। सुकमालमुनिको देखो, वे जब वनमे तप कर रहे थे और ध्यानमें मग्न थे, तो शृगालिनोने उन्हें कितनी निर्दयतामे गाया । परन्तु सुकमालस्वामी जग भी ध्यानसे विचलित नही हुए और उपमर्ग सहकर उत्तम गतिको प्राप्त हुए। उनके सिरपर अधीसे उड़कर घासका ढेर आपडा, परन्तु वे आत्म ध्यानसे रत्तीभर भी नही डिगे और निश्चल भावसे शरीर त्यागकर निर्वाणको प्राप्त हुए। पांचो पाण्डव जब तपस्या कर रहे थे, तो कौरवोंके भान आदिने पुरातन वैर निकालनेके लिए गरम लोहेकी माकलोसे उन्हें बाँध दिया और कोलियाँ ठोक दी, किन्तु वे अडिग रहे और उपमर्गोको सहकर उत्तम गतिको प्राप्त हुए। युविष्ठिर, भीम और अर्जुन मोक्ष गये तथा नकुल और सहदेव सर्वार्थसिद्धिको प्राप्त हुए । विद्युच्चरने कितना भारी उपसर्ग महा और उसने सद्गति पाई ।'
1
'अत है मारापक । तुम्हें इन महापुरुपोको अपना आदर्श बनाकर घीर-वीरतामे सब कष्टोको महन करने हुए आत्म-लीन रहना चाहिए, जिससे तुम्हारी समाधि उत्तम प्रकारते हो और अभ्युदय तथा निःश्रेयसको प्राप्त करो ।'
इस तरह निर्यापक मुनि क्षपकको समाधिमरणमें निश्चल और सावधान बनाये रखते हैं । क्षपकके समाधिमरणरूप महान् यशको मफलतामें इन निर्यापव साघुवरोंका प्रमुख एव अद्वितीय महयोग होनेवी प्रदामा करते हुए आचार्य शिपार्यने लिखा है' -
'ये महानुभाव ( निर्यापक मुनि) धन्य है, जो अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगाकर बडे आदर के साथ क्षपयकी सलोपना कराते है ।'
१. से महाणुभाया पष्णा जेहि च तस्य पवयस्म । सत्यापन सत्तीए
विहिदारापणा
सपना भ० आ०, गा० २०००
- ९१
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
सल्लेखनाके भेद
जैन शास्त्रो शरीरका त्याग तीन तरहसे बताया गया है । एक च्युत, दूसरा च्यावित और तीसरा त्यक्त।
त-जो आयु पूर्ण होकर शरीरका स्वत छूटना है वह च्युत त्याग (मरण) कहलाता है। २ च्यावित~जो विष-भक्षण, रक्त-क्षय, धातु-क्षय, शस्त्र-घात, सक्लेश, अग्नि-दाह, जल-प्रवेश, गिरि-पतन आदि निमित्त कारणोसे शरीर छोडा जाता है वह च्यावित त्याग (मरण) कहा गया है।
३ त्यक्त-रोगादि हो जाने और उनकी असाध्यता तथा मरणको आसन्नता ज्ञात होनेपर जो विवेकसहित सन्यासरूप परिणामोसे शरीर छोडा जाता है, वह त्यक्त त्याग (मरण) है ।
इन तीन तरहके शरीर-त्यागोमें त्यक्तरूप शरीर-त्याग सर्वश्रेष्ठ और उत्तम माना गया है, क्योंकि त्यवत अवस्थामे आत्मा पूर्णतया जागृत एव सावधान रहता है तथा कोई सक्लेश परिणाम नहीं होता।
इस त्यक्त शरीर-मरणको ही समाधि-मरण, सन्यास-मरण, पण्डित-मरण, वीर-मरण और सल्लेखनामरण कहा गया है । यह सल्लेखना-मरण (त्यक्त शरीरत्याग) भी तीत प्रकारका प्रतिपादन किया गया है, -१ भक्तप्रत्याख्यान, २. ईगिनी और३. प्रायोपगमन ।।
१ भक्तप्रत्याख्यान-जिस शरीर-त्यागमें अन्न-पानको धीरे-धीरे कम करते हुए छोडा जाता है उसे भवत-प्रत्याख्यान या भक्त-प्रतिज्ञा-सल्लेखना कहते हैं । इसका काल-प्रमाण न्यूनतम अन्तर्मुहूत है और अधिकतम बारह वर्ष है। मध्यम अन्तर्मुहूंतसे ऊपर तथा बारह वर्षसे नीचेका काल है। इसमें आराधक आत्मातिरिक्त समस्त पर-वस्तुओसे राग-द्वेपादि छोडता है और अपने शरीरकी टहल स्वय भी करता है और दूसरोंसे भी कराता है। 712 इगिनी--जिस शरीर-त्यागमे क्षपक अपने शरीरकी सेवा-परिचर्या स्वय तो करता है, पर दूसरोंसे नही कराता उसे इगिनी-मरण कहते है । इसमें क्षपक स्वय उठेगा, स्वय बैठेगा और स्वय लेटेगा
और इस तरह अपनी अमस्त क्रियाएँ स्वय ही करेगा । वह पूर्णतया स्वावलम्बनका आश्रय ले लेता है।) • • V३ प्रायोपगमन-जिस शरीर-त्यागमें इस सल्लेखनाका घारी न स्वय अपनी सहायता लेता है
और न दूसरेकी, उसे प्रायोपगमन-मरण कहते हैं। इसमें शरीरको लकडोकी तरह छोडकर आत्माकी ओर ही क्षपकका लक्ष्य रहता है और आत्माके ध्यानमैं हो वह सदा रत रहता है। इस सल्लेखनाको साधक तभी धारण करता है जब वह अन्तिम अवस्थामें पहुँच जाता है और उसका सहनन (शारीरिक बल और आत्मसामर्थ्य) प्रवल होता है। भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखनाके दो भेद
इनमें भक्त-प्रत्याख्यान सल्लेखना दो तरहकी होती है -(१) सविचार-भवत-प्रत्याख्यान और (२) अविचार-प्रत्याख्यान । सविचार-भक्तप्रत्याख्यानमें आराधक अपने सघको छोडकर दूसरे सघमें जाकर सल्लेखना ग्रहण करता है । यह सल्लेखना बहुत काल बाद मरण होने तथा शीघ्र मरण न होनेकी हालतमें ग्रहण की जाती है । इस सल्लेखनाका धारी 'अर्ह' आदि अधिकारोके विचारपूर्वक उत्साह सहित इसे धारण करता है। इसीसे इसे सविचार-भक्त प्रत्याख्यान-सल्लेखना कहते हैं। पर जिस आराधककी आयु अधिक नही है १ आ० नेमिचन्द्र, गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गा० ५६, ५७, ५८ . -२ आ० नेमिचन्द्र, गो० क० गा०६१ ।
-९२
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
और शीघ्र मरण होनेवाला है तथा दूसरे सघमें जानेका समय नही है और न शक्ति है वह मुनि दूसरी अविचार-भक्त-प्रत्याख्यान - सल्लेखना लेता है । इसके भी तीन भेद हैं -१ निरुद्ध, २ निरुद्धतर और ३ परमनिरुद्ध |
१ निरुद्ध—दूसरे सघमें जानेकी पैरोंमें सामर्थ्य न रहे, शरीर थक जाय अथवा घातक रोग, व्याधि या उपसर्गादि आ जायें और अपने सघमें ही रुक जाय तो उस हालतमें मुनि इस समाधिमरणको ग्रहण करता है । इसलिए इसे निरुद्ध- अविचार - भक्तप्रत्याख्यान - सल्लेखना कहते हैं । यह दो प्रकारकी है -१ प्रकाश और २ अप्रकाश । लोकमें जिनका समाधिमरण विख्यात हो जाये, वह प्रकाश है तथा जिनका विख्यात न हो, वह अप्रकाश है ।
२ निरुद्धतर – सर्प, अग्नि, व्याघ्र, महिष, हाथी, रीछ, चोर, व्यन्तर, मूर्च्छा, दुष्ट पुरुपो आदिके द्वारा मारणान्तिक आपत्ति आजानेपर आयुका अन्त जानकर निकटवर्ती आचार्यादिकके समीप अपनी निन्दा, करता हुआ साघु शरीर त्याग करे तो उसे निरुद्धतर- अविचार भक्तप्रत्याख्यान-समाधिमरण कहते हैं ।
३_परमनिरुद्ध - सर्प, व्याघ्रादिके भीषण उपद्रवोंके आनेपर वाणी रुक जाय, बोल न निकल सके, ऐसे समय में मन मे ही अरहन्तादि पचपरमेष्ठियो के प्रति अपनी आलोचना करता हुआ साधु शरीर त्यागे, तो उसे परमनिरुद्ध-भक्तप्रत्याख्यान - सल्लेखना कहते हैं ।
सामान्य मरणकी अपेक्षा समाधिमरणकी श्र ेष्ठता .
आचार्य शिवार्यने सतरह प्रकारके मरणोका उल्लेख करके उनमे विशिष्ट पांच तरहके मरणोका वर्णन करते हुए तीन मरणोको प्रशसनीय एव श्रेष्ठ बतलाया है । वे तीन मरण ये है -१ पण्डितपण्डितमरण, २ पण्डितमरण और ३ वालपण्डितमरण ।
उक्त मरणोंको स्पष्ट करते हुए उन्होने लिखा है कि चउदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगकेवली भगवान्का निर्वाण -गमन पण्डित पण्डितमरण' है, आचाराङ्ग - शास्त्रानुसार चारित्रके धारक साधु-मुनियोका मरण 'पण्डितमरण' है, देशव्रती श्रावकका मरण 'बालपण्डितमरण' है, अविरत सम्यग्दृष्टिका मरण 'बालमरण' और मिथ्यादृष्टिका मरण 'बालबालमरण' है । ऊपर जो भक्तप्रत्याख्यान, इगिनी और प्रायोपगमन-इन तीन समाधिमरणोका कथन किया गया है वह सब पण्डितमरणका कथन है । अर्थात् वे पण्डितमरणके भेद हैं ।
ja m
पदिपदि-मरण पदिय बाल-पडिद चेव ।
बाल-मरण
चउत्थ पचमय बालबाल च ॥ पदिपडिद-मरण च पडिद बालपडिद चेव ।
एदाणि तिष्णि मरणाणि जिणा णिच्च पससति ॥ भ० आ० गा० २७ । पदिपदिमरणे खीणकसाया मरति केवलिणो ।
-भ० आ० गा० २६ ।
विरदाविरदा जीवा मरति तदियेण मरणेण ॥ पापगमण - मरण भत्तप्पण्णा य इगिणी चेव । तिविह पडिदमरण साहुस्स जहुत्तचरियस्स || अविरदसम्मादिट्ठी मरति बालमरणे चउत्थम्मि ।
मिच्छादिट्ठी य पुणो पचमए बालबालम्मि ॥-भ. आ २८, २९, ३० ।
- ९३ -
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
समाधिमरणके कर्ता, कारयिता, अनुमोदक और दर्शकोंको प्रशंसा
1
शिवायने इस सल्लेखना करने कराने, देखने, अनुमोदन करने, उसमें सहायक होने, आहार- श्रपपस्थानादि देने तथा आदर-भक्ति प्रकट करनेवालोको पुण्यशाली बतलाते हुए उनकी वडी प्रशसा की है । वे लिखते है
'वे मुनि धन्य हैं, जिन्होने सघके मध्य में जाकर समाधिमरण ग्रहण कर चार प्रकार (दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप) को आराधनारूपी पताकाको फहराया है।'
'ये ही भाग्यशाली और ज्ञानी हैं तथा उन्होंने समस्त लाभ पाया हूँ जिन्होने दुर्लभ भगवती गाराघना (सल्लेखना) को प्राप्त किया है।'
'जिस आराधनाको ससारमे महाप्रभावशाली व्यक्ति भी प्राप्त नही कर पाते, उस आराधनाको जिन्होने पूर्णरूप से प्राप्त किया, उनकी महिमाका वर्णन कौन कर सकता है ?"
'वे महानुभाव भी धन्य है, जो पूर्ण आदर और समस्त शक्तिके साथ क्षपककी आराधना कराते हैं ।'
'जो धर्मात्मा पुरुष क्षपककी आराधनामे उपदेश, आहार-पान, औषध व स्थानादिके दानद्वारा सहायक होते है, वे भी समस्त आराधनाओको निर्विघ्न पूर्ण करके सिद्धपदको प्राप्त होते हैं।
१ ते सूरा भयवता आइच्चइऊण सघ मज्झम्मि ।
आराधणा- पढाया चउपयारा विदा जेहि ॥ ते घण्णा ते पाणी लद्धो लाभो य तेहि सव्वेंहि । आराघणा भयवदी पडिवण्णा जेहि सपुण्णा ॥ किं णाम तेहि लोगे महाणुभावेहि हुन्न ण व पत्त । आरावणा भयवदी सयला आराधिदा जेहिं || ते चि य महाणुभावा घण्णा जेहि च तस्स खवयस्स । सव्वादर - सत्तीए उवविहिदाराघणा सयला || जो उपनिवेदि सव्वादरेण आरायण लु अण्णस्स । सपज्जदि णिन्दिग्धा सयका आराधणा तस्स || ते विकत्था घण्णा य हुँति जे पावकम्म- मल- हरणे |
यति खवय- तित्थे सव्वादर-भत्ति-सजुत्ता ॥
गिरि णवियादिपवेत्ता तित्याणि तवोधणेह जदि उसिदा ।
तित्थ क ण हुज्जो तवगुणरासी सय खवओ || पुव्य-रिसीण पडिमा वयमाणस्स होइ जदि पुष्ण । वयस्य वदओ किह पुण्ण विउल ण पाविज्य ॥ जो मोलग्गदि आराध्य सदा तिव्वमत्तिसजुतो ।
सपज्जदि णिग्विग्या तस्स वि आरापणा सगला || भ० आ० गा० १९९७ - २००५ ।
- ९४
t
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
'वे पुरुष भी पुण्यशाली हैं, कृतार्थ है, जो पापकर्मरूपी मलको छुटानेवाले क्षपकरूपी तीर्थमें सम्पूर्ण भक्ति और भादरके साथ स्नान करते हैं । अर्थात् क्षपकके दर्शन, वन्दन और पूजनमें प्रवृत्त होते हैं।'
'यदि पर्वत, नदी आदि स्थान तपोधनोंसे सेवित होनेसे 'तीर्थ' कहे जाते है और उनकी सभक्ति - वन्दना की जाती है तो तपोगुणकी राशि क्षपक 'तीर्थ' क्यो नही कहा जावेगा ? अर्थात् उसकी वन्दना और ।' दर्शनका भी वही फल प्राप्त होता है जो तीर्थ-वन्दनाका होता है ।'
'यदि पूर्व ऋपियोकी प्रतिमाओकी वन्दना करनेवालोको पुण्य होता है, तो साक्षात् क्षपककी वन्दना) एव दर्शन करनेवाले पुरुषको प्रचुर पुण्यका सचय क्यो नही होगा ? अर्थात् अवश्य होगा।'
__ 'जो तीन भक्तिसहित आराधकको सदा सेवा-वैयावृत्य करता है उस पुरुषकी भी आराधना निर्विघ्न सम्पन्न होती है । अर्थात् वह भी समाधिपूर्वक मरण कर उत्तम गतिको प्राप्त होता है।' सल्लेखना आत्म-घात नही है :
अन्तमें यह कह देना आवश्यक है कि सल्लेखनाको आत्म-घात न समझ लिया जाय, क्योकि आत्मधात तीव्र क्रोधादिके आवेशमें आकर या अज्ञानतावश शस्त्र-प्रयोग, विष-अक्षण, अग्नि-प्रवेश, जल-प्रवेश, गिरि-पात आदि घातक क्रियाओसे किया जाता है, जब कि इन क्रियाओका और क्रोधादिके आवेशका सल्लेखनामें अभाव है । सल्लेखना योजनानुसार शान्तिपूर्वक मरण है, जो जीवन-सम्बन्धी सुयोजनाका एक अङ्ग है। . क्या जैनेतर दर्शनोंमे यह सल्लेखना है ?
___ यह सल्लेखना जैन दर्शनके सिवाय अन्य दर्शनोमें उपलब्ध नही होती । हाँ, योगसूत्र आदिमें ध्यानार्थक समाधिका विस्तृत कथन अवश्य पाया जाता है। पर उसका अन्त क्रियासे कोई सम्बन्ध नही है । उसका प्रयोजन केवल सिद्धियोके प्राप्त करने अथवा आत्म-साक्षात्कारसे है। वैदिक साहित्यमें वर्णित सोलह सस्कारोमें एक 'अन्त्येष्टि-सस्कार' आता है, जिसे ऐहिक जीवनके अन्तिम अध्यायकी समाप्ति कहा गया है और जिसका दूसरा नाम 'मृत्यु-सस्कार' है। इस सस्कारका अन्त क्रियाके साथ सम्बन्ध हो सकता था। किन्तु मृत्यु-सस्कार सामाजिको अथवा सामान्य लोगोका किया जाता है, सिद्ध-महात्माओ, सन्यासियो या भिक्षुओंका नही, क्योंकि उनका परिवारसे कोई सम्बन्ध नही रहता और इसीलिए उन्हें अन्त्येष्टि-क्रियाकी आवश्यकता नहीं रहती।' उनका तो जल-निखात या भू-निखात किण जाता है । यह भी ध्यान देने योग्य है कि हिन्दूधर्ममें अन्त्येष्टिकी सम्पूर्ण क्रियाओमें मृत व्यक्तिके विषय-भोग तथा सुख-सुविधाओके लिए ही प्रार्थनाएँ की जाती हैं । हमें उसके आध्यात्मिक लाभ अथवा मोक्षके लिए इच्छाका बहुत कम सकेत मिलता है। जन्म-मरणके चक्रसे मुक्ति पानेके लिए कोई प्रार्थना नही की जाती। पर जैन-सल्लेखनामें पूर्णतया आध्यात्मिक लाभ तथा मोक्ष प्राप्तिकी भावना स्पष्ट सन्निहित रहती है, लौकिक एषणाओकी उसमें कामना नहीं होती। इतना यहां ज्ञातव्य है कि निर्णय-सिन्धुकारने ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थके अतिरिक्त आतुर अर्थात् मुमूर्षु ( मरणाभिलाषी) और दुखित अर्थात् चौरव्याघ्रादिसे भयभीत व्यक्ति के लिए भी
१,२ डा० राजवली पाण्डेय, हिन्दूसस्कार पृ० २९६ । ३ डा० राजबली पाण्डेय, हिन्दूसस्कार पृ० ३०३ । ४ हिन्दूसस्कार पृ० ३०३ तथा कमलाकरभट्टकृत निर्णयसिन्धु पृ० ४४७ । ५ हिन्दुसस्कार पृ० ३४६ ।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
सन्यासका विधान करनेवाले कतिपय मतोंका उल्लेख किया है। उनमें कहा गया है कि 'सन्यास लेनेवाला) आतुर अथवा दुखित यह सकल्प करता है कि 'मैंने जो अज्ञान, प्रमाद या आलस्य दोषसे बुरा कर्म किया उसे | मैं छोड़ रहा हूँ और सब जीवोंको अभय-दान देता हूँ तथा विचरण करते हुए किसी जीवकी हिंसा नहीं करूंगा।' किन्तु यह कथन सन्यासीके मरणान्त-समयके विधि-विधानको नही बतलाता, केवल सन्यास लेकर आगे की जानेवाली चर्यारूप प्रतिज्ञाका दिग्दर्शन कराता है। स्पष्ट है कि यहां सन्यासका वह अर्थ विवक्षित नही है जो जैन-सल्लेखनाका अर्थ है । सन्यासका अर्थ यहाँ साधुदीक्षा-कर्मत्याग-सन्यासनामक चतुर्थ । आश्रमका स्वीकार है और सल्लेखनाका अर्थ अन्त (मरण) समयमें होनेवाली क्रिया-विशेपकपाय एव कायका कृशीकरण करते हुए आत्माको कुमरणसे बचाना तथा आचरित सयमादि आत्म-धर्मको रक्षा करना)। है । अत सल्लेखना जैनदर्शनकी एक विशेप देन है, जिसमें पारलौकिक एव आध्यात्मिक जीवनको उज्ज्व-- लतम तथा परमोच्च बनानेका लक्ष्य निहित है। इसमें रागादिसे प्रेरित होकर प्रवृत्ति न होनेके कारण वह शुद्ध आध्यात्मिक है । निष्कर्ष यह है कि सल्लेखना आत्म-सुधार एव आत्म-सरक्षणका अन्तिम और विचारपूर्ण प्रयत्न है।
१ सन्यसेद् ब्रह्मचर्याद्वा संन्यसेच्च गहादपि ।
वनाद्वा प्रवद्विद्वानातुरो वाऽथ दुखित ।। उत्पन्ने सकटे घोरे चौर-व्याघ्रादि-गोचरे । भयभीतस्य सन्यासमङ्गिरा मनुरब्रवीत् ।। यत्किचिद्बाधक कर्म कृतमज्ञानतो मया । प्रमादालस्यदोषाद्यत्तत्तत्सत्यक्तवानहम् ।। एव सत्यज्य भूतेभ्यो दद्यादमयदक्षिणाम् । पदण्या कराव्या विहरन्नाह वाक्कायमानस ॥
करिष्ये प्राणिना हिंसा प्राणिन सन्तु निर्भया ।-कमलाकरभट्ट, निर्णयसिन्धु पृ० ४४७ । २ वैदिक साहित्यमें यह क्रिया-विशेष भृगु-पतन, अग्नि-प्रवेश, जल-प्रवेश आदिके रूपमें मिलती है।
जैसा कि माघके शिशुपालवधकी टीकामें उद्धृत निम्न पद्यसे जाना जाता है - अनुष्ठानासमर्थस्य वानप्रस्थस्य जीर्यत । भृग्वग्नि-जल-सम्पार्मिरण प्रविधीयते ।।-शिशुपालवध ४-२३ की टीकामें उद्धृत ।
किन्तु जैन सस्कृतिमें इस प्रकारकी क्रियाओको मान्यता नहीं दी गई और उन्हें लोकमूढता बतलाया गया है - आपगा-सागर-स्नानमुच्चय सिकताश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूढ निगद्यते ।।-समन्तभद्र, रत्नकरण्ड० १-२२ ।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन दर्शनमें सर्वज्ञता तज्जयति पर ज्योतिः सम समस्तैरनन्तपर्याय । दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ।।
-अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसिद्धयुपाय १ । पृष्ठभूमि
भारतीय दर्शनोमें चार्वाक और मीमासक इन दो दर्शनोको छोडकर शेष सभी (न्याय-वैशेषिक, साख्य-योग, वेदान्त, बौद्ध और जैन) दर्शन सर्वज्ञताको सम्भावना करते तथा युक्तियो द्वारा उसकी स्थापना करते हैं। साथ ही उसके सद्भावमें आगम-प्रमाण भी प्रचुर मात्रामें उपस्थित करते हैं। चार्वाक दर्शनका दृष्टिकोण
चार्वाक दर्शनका दृष्टिकोण है कि 'यदृश्यते तदस्ति, यन्न दृश्यते तन्नास्ति'-इन्द्रियोसे जो दिखे वह है और जो न दिखे वह नही है । पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार भूत-तत्त्व ही दिखाई देते हैं । अत वे है । पर उनके अतिरिक्त कोई अतीन्द्रिय पदार्थ दृष्टिगोचर नही होता । अत वे नही हैं । सर्वज्ञता किसी भी पुरुषमें इन्द्रियो द्वारा ज्ञात नहीं है और अज्ञात पदार्थका स्वीकार उचित नही है । स्मरण रहे कि चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाणके अलावा अनुमानादि कोई प्रमाण नही मानते । इसलिए इस दर्शनमें अतीन्द्रिय सर्वज्ञकी सम्भावना नही है। मीमासक दर्शनका मन्तव्य
___ मीमासकोका मन्तव्य है कि धर्म, अधर्म, स्वर्ग, देवता, नरक, नारकी आदि अतीन्द्रिय पदार्थ हैं तो अवश्य, पर उनका ज्ञान वेदद्वारा ही सभव है, किसी पुरुषके द्वारा नही । पुरुष रागादि दोषोंसे युक्त हैं और रागादि दोष पुरुषमात्रका स्वभाव है तथा वे किसी भी पुरुषसे सर्वथा दूर नही हो सकते । ऐसी हालतमें रागी-द्वेषी-अज्ञानी पुरुषोके द्वारा उन धर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थों का ज्ञान सभव नही है। शवर स्वामी अपने शावर-भाष्य (१-१-५) में लिखते हैं
'चोदना हि भूत भवन्त भविष्यन्त सूक्ष्म व्यवहित विप्रकृष्टमित्येवजातीयकमर्थमवगमयितुमल नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम् ।'
इससे विदित है कि मीमासक दर्शन सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थोका ज्ञान चोदना (वेद) द्वारा स्वीकार करता है। किसी इन्द्रियके द्वारा उनका ज्ञान सम्भव नही मानता। शवर स्वामीके परवर्ती प्रकाण्ड विद्वान भट्ट कुमारिल भी किसी पुरुषमें सर्वज्ञताकी सम्भावनाका अपने मीमासाश्लोकवातिकमें विस्तारके साथ
१ तथा वेदेतिहासादिज्ञानातिशयवानपि । न स्वर्ग-देवताऽपूर्व-प्रत्यक्षकरणे क्षम ॥
-भट्ट कुमारिल, मीमासाश्लोकवा० ।
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुरजोर खण्डन करते है। पर वे इतना स्वीकार करते है कि हम केवल धर्मज्ञका अथवा धर्मज्ञताका निषेध करते हैं । यदि कोई पुरुष धर्मातिरिक्त अन्य सवको जानता है तो जाने, हमें कोई विरोध नही है ।
धर्मज्ञत्व-निषेधंस्तु केवलोऽनोपयुज्यते। सर्वमन्यद्विजानस्तु पुरुषः केन वार्यते ।। सर्वप्रमातृ-सबधि-प्रत्यक्षादिनिवारणात् ।
केवलाऽऽगम-गम्यत्व लप्स्यते पुण्य-पापयो २॥ किसी पुरुषको धर्मज्ञ न मानने में कुमारिलका तर्क यह है कि पुरुपोका अनुभव परस्पर विरुद्ध एव बाधित देखा जाता है। अत वे उसके द्वारा धर्माधर्मका यथार्थ साक्षात्कार नही कर सकते । वेद नित्य, अपौरुषेय और त्रिकालाबाधित होनेसे उसका ही धर्माधर्मके मामलेमे प्रवेश है (धर्मे चोदनव प्रमाणम्) । ध्यान रहे बौद्ध दर्शनमें बुद्धके अनुभव-योगिज्ञानको और जैन दर्शनमें अर्हत्के अनुभव-केवलज्ञानको धर्माधर्मका यथार्थ साक्षात्कारी बतलाया गया है। जान पडता है कि कुमारिलको इन दोनो दर्शनोकी मान्यता (धर्माधर्मज्ञतास्वीकार)का निषेध करना इष्ट है । उन्हें प्रयीवित मन्वादिका धर्माधर्मादिविषयक उपदेश मान्य
१ यज्जातीय प्रमाणस्तु यज्जतीयार्थदर्शनम् ।
दृष्ट सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत् ।।११२-सू० २ यत्राप्यतिशयो दृष्ट स स्वार्थानतिलघनात् । दरसमादिदष्टौ स्यान्न रूपे श्रोत्रवत्तिता ।।११४ येऽपि सातिशया दृष्टा प्रज्ञा-मेधादिभिर्नरा । स्तोकस्तोकान्तरत्वेन नत्वतीन्द्रियदर्शनात् ।। प्राज्ञोऽपि हि नर सूक्ष्मानर्थान् द्रष्टु क्षमोऽपि सन् । स्वजातीरनतिक्रमान्नतिशेते परान्नरान् । एकशास्त्रविचारे तु दृश्यतेऽतिशयो महान् । न तु शास्त्रान्तरज्ञान तन्मात्रेणैव लम्यते ।। ज्ञात्वा व्याकरण दूर बुद्धि शब्दापशब्दयो । प्रकृष्यति न नक्षत्र-तिथि-ग्रहणनिर्णये ॥ ज्योतिर्विच्च प्रकृष्टोऽपि चन्द्रार्क-ग्रहणादिषु । न भवत्यादिशब्दाना साधुत्व ज्ञातुमर्हति ।। दशहस्तान्तरे व्योम्नि यो नामोत्प्लुत्य गच्छति । न योजनमसौ गन्तु शक्तोऽभ्यासशतैरपि ॥ तस्मादतिशयज्ञानरतिदूरगतैरपि । किंचिदेवाधिक ज्ञातु शक्यते न त्वतीन्द्रियम ||-अनन्तकीति द्वारा बहत्सर्वज्ञसिद्धिमें उद्धृत कारिकाएँ। २ इन दो कारिकाओंमें पहली कारिकाको शान्तरक्षितने तत्त्वसग्रहमें (३१२८ का०) और दोनोको अनन्त
कीर्तिने बृहत्सर्वज्ञसिद्धि (पृ० १३७) में उद्धृत किया है । ३ सुगतो यदि सर्वज्ञ कपिलो नेति का प्रमा ।
तावुभौ यदि सर्वज्ञो मतभेद कथ तयो ।। अष्टस पृ ३, उद्धृत ।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
है, क्योकि वे उसे वेद-प्रभव बतलाते है। कुछ भी हो, वे किसी पुरुषको स्वय धर्मज्ञ स्वीकार नहीं करते। वे मन्वादिको भी वेद द्वारा हो धर्माधर्मादिका ज्ञाता और उपदेष्टा मानते हैं। बौद्ध दर्शनमे सर्वज्ञता
बौद्ध दर्शनमें अविद्या और तष्णाके क्षयसे प्राप्त योगीके परम प्रकर्षजन्य अनुभव पर बल दिया गया हैं और उसे समस्त पदार्थोंका, जिनमें धर्माधर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ भी सम्मिलित है, साक्षात्कर्ता कहा गया है । दिङ्नाग आदि बौद्ध-चिन्तकोने सूक्ष्मादि पदार्थों के साक्षात्करणरूप अर्थ में सर्वज्ञताको निहित प्रतिपादन किया है । परन्तु बुद्धने स्वय अपनी सर्वज्ञतापर बल नही दिया। उन्होने कितने ही अतीन्द्रिय पदार्थोंको अव्याकृत (न कहने योग्य) कह कर उनके विषयमें मौन ही रखा । पर उनका यह स्पष्ट उपदेश था कि धर्म जैसे अतीन्द्रिय पदार्थका साक्षात्कार या अनुभव हो सकता है। उसके लिए किसी धर्म-पुस्तककी शरणमें जानेकी आवश्यकता नही है। बौद्ध तार्किक धर्मकीतिने भी बुद्धको धर्मज्ञ ही बतलाया है और सर्वज्ञताको मोक्षमार्गमें अनुपयोगी कहा है।
तस्मादनुष्ठानगत ज्ञानमस्य विचार्यतास। कीट-सख्यापरिज्ञाने तस्य न क्वोपयुज्यते ॥ हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदक । य प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदक. ॥
-धर्मकीर्ति, प्रमाणवा ३१, ३२ ।
उपदेशो हि बुद्धादेधमधिर्मादिगोचर । अन्यथा चोपपद्येत सर्वज्ञो यदि नाभवत् ।। बुद्धादयो ह्यवेदज्ञास्तेषा वेदादसभव । उपदेश कृतोऽतस्तैामोहादेव केवलात् ।। येऽपि मन्वादय सिद्धा प्राधान्येन त्रयी विदाम् । श्रयीविदाश्रितग्रन्थास्ते वेदप्रभवोक्तय ।। नर कोऽप्यस्ति सर्वज्ञ स च सर्वज्ञ इत्यपि । साधन यत्प्रयुज्यत प्रतिज्ञामात्रमेव तत् ॥ सिसाधयिषितो योऽर्थ सोऽनया नाभिधीयते । यस्तूच्यते न तत्सिद्धी किंचिदस्ति प्रयोजनम् ।। यदीयागमसत्यत्वसिद्धो
सर्वज्ञतेष्यते । न सा सर्वज्ञसामान्यसिद्धिमात्रेण लभ्यते ।। यावबुद्धो न सर्वज्ञस्तावत्तद्वचन मृषा । यत्र क्वचन सर्वज्ञे सिद्ध तत्सत्यता कुत ॥ अन्यस्मिन्न हि सर्वज्ञे वचसोऽन्यस्य सत्यता । सामानाधिकरण्ये हि तयोरगागिता भवेत् ।। ये कारिकाएँ कुमारिलके नामसे अनन्तकीर्तिने ब. स सि में उद्धृत की है। देखिए, मज्झिमनिकाय २-२-३ के चूलमालुक्य सूत्रका सवाद ।
२
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
'मोक्षमार्गमें उपयोगी ज्ञानका ही विचार करना चाहिए। यदि कोई जगत्के कोडे-मकोडोकी संख्या को जानता है तो उससे हमें क्या लाभ ? अत जो हेय और उपादेय तथा उनके उपायोको जानता है वही हमारे लिए प्रमाण आप्त है, सबका जानने वाला नही।'
यहाँ उल्लेखनीय है कि कुमारिलने जहाँ धर्मज्ञका निषेध करके सर्वज्ञके सदभावको इष्ट प्रकट किया है वहाँ धर्मकीतिने ठीक उसके विपरीत धर्मज्ञको सिद्ध कर सर्वज्ञका निषेध मान्य किया है। शान्तरक्षित और उनके शिष्य कमलशील बुद्धमे धर्मज्ञताके साथ ही सर्वज्ञताकी भी सिद्धि करते हैं। पर वे भी धर्मज्ञताको मुख्य और सर्वज्ञताको प्रासङ्गिक बतलाते हैं। इस तरह हम नौद्ध दर्शनमें सर्वज्ञताकी सिद्धि देख कर भी, वस्तुत उसका विशेष बल हेयोपादेयतत्त्वज्ञतापर ही है, ऐसा निष्कर्ष निकाल सकते हैं।
न्याय-वैशेषिक दर्शनमे सर्वज्ञता
न्याय-वैशेपिक ईश्वरमें सर्वज्ञत्व माननेके अतिरिक्त दूसरे योगी आत्माओमें भी उसे स्वीकार करते है । परन्तु उनकी वह सर्वज्ञता अपवर्ग-प्राप्तिके बाद नष्ट हो जाती है, क्योकि वह योग तथा आत्ममनसयोग-जन्य गुण अथवा अणिमा आदि ऋद्धियोकी तरह एक विभूति मात्र है। मुक्तावस्थामें न आत्ममन - सयोग रहता है और न योग । अत ज्ञानादि गुणोका उच्छेद हो जानेसे वहां सर्वज्ञता भी समाप्त हो जाती है। हां, वे ईश्वरकी सर्वज्ञता अवश्य अनादि-अनन्त मानते है । साख्य-योग दर्शनमे सर्वज्ञता
निरीश्वरवादी साख्य प्रकृतिमें और ईश्वरवादी योग ईश्वरमें सर्वज्ञता स्वीकार करते हैं। साख्य दर्शनका मन्तव्य है कि ज्ञान बुद्धितत्त्वका परिणाम है और बुद्धितत्त्व महत्तत्त्व और महत्तत्त्व प्रकृतिका परिणाम है। अत सर्वज्ञता प्रकृतितत्त्वमें निहित है और वह अपवर्ग हो जानेपर समाप्त हो जाती । योगदर्शनका दृष्टिकोण है कि पुरुषविशेषरूप ईश्वरमें नित्य सर्वज्ञता है और योगियोकी सर्वज्ञता, जो सर्व विपयक 'तारक' विवेकज्ञान रूप है, अपवर्गके बाद नष्ट हो जाती है। अपवर्ग अवस्थामें पुरुष चैतन्यमात्रमें, जो ज्ञानसे भिन्न है, अवस्थित रहता है। यह भी आवश्यक नहीं कि हर योगीको वह सर्वज्ञता प्राप्त हो । तात्पर्य यह कि योगदर्शनमें सर्वज्ञताकी सम्भावना तो की गई है, पर वह योगज विभूतिजन्य होनेसे अनादि-अनन्त नही है, केवल सादि-सान्त है।
१ स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतूज्ञोऽस्तीति गम्यते ।
साक्षान्न केवल किन्तु सर्वज्ञोऽपि प्रतीयते ।।-तत्त्व स का ३३० । २ 'मुख्य हि तावत् स्वर्गमोक्षसम्प्रापकहेतुज्ञत्वसाधन भगवतोऽस्माभि क्रियते । यत्पुन अशेषार्थपरिज्ञातृत्व
साधनमस्य तत् प्रासङ्गिकम् ।'-तत्त्व स पृ ८६३ । ३ 'अस्मद्विशिष्टाना युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाशदिक्कलालपरमाणुवायुमनस्सु
तत्समवेतगुणकर्मसामान्यविशेषसमवाये चावितथ स्वरूपदर्शनमुत्पचते, वियुक्ताना पुन
-प्रशस्तपादभाष्य, पृ० १८७ । ४ 'क्लेशकर्मविपाकाशयरपरामृष्ट पुरुषविशेष ईश्वर'-योगसूत्र । ५ 'तदा द्रष्टु स्वरूपेऽवस्थानम्'-योगसूत्र १-१-३ ।
- १०० -
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेदान्त दर्शनमे सर्वज्ञता
वेदान्त दर्शनका मन्तव्य है कि सर्वज्ञता अन्त करणनिष्ठ है और वह जीवन्मुक्त दशा तक रहती है । उसके बाद वह छूट जाती है। उस समय जीवात्मा अविद्यासे मुक्त होकर विद्यारूप शुद्ध सच्चिदानन्द ब्रह्म मय हो जाता है और सर्वज्ञता आत्मज्ञतामें विलीन हो जाती है। अथवा उसका अभाव हो जाता है। जैन दर्शनमे सर्वज्ञता-विषयक विस्तृत विमर्श
जैन दर्शनमें ज्ञानको आत्माका स्वरूप अथवा स्वाभाविक गुण माना गया है और उसे स्व-पर प्रकाशक स्वीकार किया गया है। यदि आत्माका स्वभाव ज्ञत्व (जानना) न हो तो वेदके द्वारा भी सूक्ष्मादि ज्ञेयोका ज्ञान नही हो सकता । आचार्य अकलङ्कदेवने लिखा है कि ऐमा कोई ज्ञेय नही, जो ज्ञस्वभाव आत्माके द्वारा जाना न जाय । किसी विषयमें अज्ञताका होना ज्ञानावरण तथा मोहादि दोषोका कार्य है । जब ज्ञानके प्रतिबन्धक ज्ञानावरण तथा मोहादि दोषोका क्षय हो जाता है तो बिना रुकावटके समस्त ज्ञेयोका ज्ञान हुए विना नही रह सकता । इसीको सर्वज्ञता कहा गया है । जैन मनीषियोने प्रारम्भसे त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती अशेष पदार्थोके प्रत्यक्ष ज्ञानके अर्थ में इस सर्वज्ञताको पर्यवसित माना है। आगम-ग्रन्थो एव तर्क ग्रन्थोमें हमें सर्वत्र सर्वज्ञताका प्रतिपादन मिलता है । षट्खण्डागमसूत्रोमें कहा गया है कि 'केवली भगवान् समस्त लोको, समस्त जीवो और अन्य समस्त पदार्थोको सर्वदा एक साथ जानते व देखते हैं। आचारागसूत्रमें भी यही कथन किया गया है। महान् चिन्तक और लेखक कुन्दकुन्दने भी लिखा है कि 'आवरणोके अभावसे उद्भूत केवलज्ञान वर्तमान, भूत, भविष्यत्, सूक्ष्म, व्यवहित आदि सब तरहके ज्ञेयोको पूर्णरूपमें युगपत् जानता है । जो त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती सम्पूर्ण पदार्थोंको नहीं जानता वह अनन्त पर्यायो वाले एक द्रव्यको भी पूर्णतया नही जान सकता और जो अनन्त पर्याय वाले एक द्रव्यको नहीं जानता वह समस्त द्रव्योको कैसे एक साथ जान सकता है ? प्रसिद्ध विचारक भगवती आराधनाकार शिवार्य और आवश्यक नियुक्तिकार भद्र
१ 'उपयोगो लक्षणम्'-तत्त्वार्थसूत्र २-८ । २ 'णाण सपरपयासय' ३ 'न खलु ज्ञस्वभावस्य कश्चिदगोचरोऽस्ति यन्न क्रमेत, तत्स्वभावान्तरप्रतिषेधात् ।'-अष्ट० श०, अष्ट०
स० पृ० ४७ । ४ सय भयव उप्पण्णणाणदरिसी सव्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सव्व सम जाणदि पस्सदि विहरदि त्ति'
-षट्ख० पयदि० सू० ७८ । ५ से भगव अरिह जिणो केवली सव्वन्न सव्वभावदरिसी सव्वलोए सव्वजीवाण सव्वभावाइ जाणमाणे
पासमाणे एव च विहरइ ।'-आचारागसू० २-३। ज तक्कालियमिदर जाणदि जुगव समतदो सव्व । अत्थ विचित्तविसम त णाण खाइय भणिय ॥ जो ण विजाणदि जुगव अत्थे तेकालिगे तिहवणत्थे । णादु तस्स ण सक्क सपज्जय दत्वमेक वा ॥ दव्व अणतप्पज्जयमेक्कमणताणि दव्वजादाणि ।
ण विजाणदि जदि जुगव कध सो सव्वाणि जाणादि ।।-प्रवचनसा० १-४७, ४८, ४९ । ७ पस्सदि जाणदि य तहा तिणि वि काले सपज्जए सव्वे ।
तह वा लोगमसेस भयव विगयमोहो॥-भ० आ० गा० २१४१ ।
- १०१
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाह बडे स्पष्ट और प्राजल शब्दोमें सर्वज्ञताका प्रवल समर्थन करते हुए कहते हैं कि 'वीतराग भगवान् तीनो कालो, अनन्त पर्यायोंसे सहित समस्त ज्ञेयो और समस्त लोकोको युगपत् जानते व देखते हैं।'
आगमयुगके बाद जब हम तार्किक युगमें आते हैं तो हम स्वामी समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलङ्क, हरिभद्र, पानस्वामी, वीरसेन, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र प्रभृति जैन ताकिकोंको भी सर्वज्ञताका प्रवल समर्थन एव उपपादन करते हुए पाते है । इनमे अनेक लेखकोने तो सर्वज्ञताकी स्थापनामें महत्त्वपूर्ण स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लिखे हैं। उनमें समन्तभद्र (वि० स० दूसरी, तीसरी शती) को आप्तमीमासा, जिसे 'सर्वज्ञविशेप-परीक्षा कहा गया है,' अकलकदेवकी सिद्धिविनिश्चयगत 'सर्वज्ञ सिद्धि', विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा, अनन्तकीर्तिकी लघु व बृहत्सर्वज्ञसिद्धियां, वादीसिंहकी स्याद्वादसिद्धिगत 'मर्वज्ञसिद्धि' आदि कितनी ही रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। यदि कहा जाय कि सर्वज्ञतापर जैन दार्शनिकोने सबसे अधिक चिन्तन और साहित्य सृजन करके भारतीय दर्शनशास्त्रको समृद्ध बनाया है तो अत्युक्ति न होगी।
सर्वज्ञताकी स्थापनामें समन्तभदने जो यक्ति दी है वह बडे महत्त्वकी है । वे कहते हैं कि सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ भी किसी पुरुषविशेपके प्रत्यक्ष है, क्योकि वे अनुमेय है, जैसे अग्नि । उनकी वह युक्ति इस प्रकार है -
सूक्ष्मान्तरितदूरार्था प्रत्यक्षा कस्यचिद्यथा ।
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरति सर्वज्ञ-सस्थिति ॥ समन्तभद्र एक दूसरी युक्तिके द्वारा सर्वज्ञताके रोकने वाले अज्ञानादि दोषों और ज्ञानावरणादि आवरणोका किसी आत्मविशेषमें अभाव सिद्ध करते हुए कहते है कि "किसी पुरुषविशेषमें ज्ञानके प्रतिबन्धकोका पूर्णतया क्षय हो जाता है, क्योकि उनकी अन्यत्र न्यूनाधिकता देखी जाती है। जैसे स्वर्णमें बाह्य और अन्तरग दोनो प्रकारके मेलोका अभाव दृष्टिगोचर होता है। प्रतिवन्धकोंके हट जानेपर ज्ञस्वभाव आत्माके लिए कोई ज्ञेय अज्ञेय नही रहता । ज्ञेयोका अज्ञान या तो आत्मामें उन सब ज्ञेयोको जाननेकी सामर्थ्य न होनेपर होता है या ज्ञानके प्रतिबन्धकोंके रहनेसे होता है । कि आत्मा ज्ञ है और तप, संयमादिकी आराधनाद्वारा प्रतिवन्धकोका अभाव पूर्णतया सम्भव है। ऐसी स्थितिम उस वीतराग महायोगीको कोई कारण नही कि अशेप ज्ञेयोका ज्ञान न हो। अन्तमें इस सर्वज्ञताको अर्हतमे सम्भाव्य बतलाया गया है। उनका प्रतिपादन इस प्रकार है
दोषावरणयोर्हानिनिश्शेषाऽस्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षय ॥ स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्ट ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ।।-आप्तमी० का०५, ६ ।
१, सभिण्ण पासतो लोगमलोग च सव्वओ सव्व ।
त णत्थि ज न पासइ भूय भव्व भविस्स च ।।-आवश्यकनि० गा० १२७ । २ यहाँ ध्यान देने योग्य है कि समन्तभद्रने आप्तके आवश्यक ही नही, अनिवार्य तीन गुणो एव विशेषताओंमें
सर्वज्ञताको आप्तकी अनिवार्य विशेषता बतलायी है-उसके बिना वे उसमे आप्तता असम्भव बत. लाते हैं -
आप्तेनोच्छिन्नदोपेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्य नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत ।। -रत्नकरण्डधा० श्लोक ५ ।
-१०२
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
समन्तभद्रके उत्तरवर्ती सूक्ष्म चिन्तक अकलकदेवने सर्वज्ञताकी सभावनामें जो महत्त्वपूर्ण युक्तियाँ दी है वे भी यहाँ उल्लेखनीय हैं । अकलककी पहली युक्ति यह है कि आत्मामें समस्त पदार्थोंको जानने की सामर्थ्य है । इस सामर्थ्य के होनेसे ही कोई पुरुष विशेष वेदके द्वारा भी सूक्ष्मादि ज्ञेयोको जानने में समर्थ हो सकता है, अन्यथा नही । हाँ, यह अवश्य है कि ससारी अवस्थामें ज्ञानावरणसे आवृत होने के कारण ज्ञान सव ज्ञेयोको नही जान पाता । जिस तरह हम लोगोका ज्ञान सब ज्ञेयोको नही जानता, कुछ सीमितोको ही जान पाता है । पर जब ज्ञानके प्रतिबन्धक कर्मों (आवरणो ) का पूर्ण क्षय हो जाता है तो उस विशिष्ट इन्द्रियानपेक्ष और आत्ममात्र सापेक्ष ज्ञानको, जो स्वय अप्राप्यकारी भी है, समस्त ज्ञेयोको जाननेमें क्या बाघ है' ?
उनकी दूसरी युक्ति यह है कि यदि पुरुषोको घर्माधर्मादि अतीन्द्रिय ज्ञेयोका ज्ञान न हो तो सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिर्ग्रहो की ग्रहण आदि भविष्यत् दशाओ और उनसे होनेवाला शुभाशुभका अविसवादी उपदेश कैसे हो सकेगा ? इन्द्रियोकी अपेक्षा किये बिना ही उनका अतीन्द्रियार्थविषयक उपदेश सत्य और यथार्थ स्पष्ट देखा जाता है । अथवा जिस तरह सत्य स्वप्न-दर्शन इन्द्रियादिकी सहायता के बिना ही भावी राज्यादि लाभका यथार्थ बोध कराता है उसी तरह सर्वज्ञका ज्ञान भी अतोन्द्रिय पदार्थोंमें सवादी और स्पष्ट होता है और उसमें इन्द्रियोकी आंशिक भी सहायता नही होती । इन्द्रियाँ तो वास्तवमें कम ज्ञानको ही कराती हैं। वे अधिक और सर्वविषयक ज्ञानमें उसी तरह बाधक हैं जिस तरह सुन्दर प्रासादमें बनी हुई खिडकियाँ अधिक प्रकाशको रोकती है ।
अकलककी तीसरी युक्ति यह है कि जिस प्रकार अणुपरिमाण बढता - वढता आकाशमें महापरिमाण या विभुत्वका रूप ले लेता है, क्योकि उसकी तरतमता देखो जाती है, उसी तरह ज्ञानके प्रकर्षमे भी तारतम्य देखा जाता है । मत जहाँ वह ज्ञान सम्पूर्ण अवस्था ( निरतिशयपने ) को प्राप्त हो जाता है वही सर्वज्ञता आ जाती है । इस सर्वज्ञताका किसी व्यक्ति या समाजने ठेका नही लिया । वह प्रत्येक योग्य साधकको प्राप्त हो सकती है ।
उनकी चौथी युक्ति यह है कि सर्वज्ञताका कोई बाधक नही है । प्रत्यक्ष आदि पाँच प्रमाण तो इसलिए बाधक नही हो सकते, क्योंकि वे विधि ( अस्तित्व) को विषय करते हैं । यदि वे सर्वज्ञताके विषय में दखल दें तो उनसे सद्भाव हो सिद्ध होगा । मीमासकोका अभाव- प्रमाण भी उसका निषेध नही कर सकता, क्योकि अभाव - प्रमाणके लिए यह आवश्यक है कि जिसका अभाव करना है उसका स्मरण और जहाँ
I
१. कथञ्चित् स्वप्रदेशेषु स्यात्कर्म-पटलाच्छता । ससारिणा तु जीवाना यत्र ते चक्षुरादय ॥ साक्षात्कर्तुं विरोध, क सर्वथाऽऽवरणात्यये । सत्यमर्थं यथा सर्वं यथाऽभूद्वा भविष्यति ॥ सर्वार्थग्रहणसामर्थ्याच्चैतन्यप्रति बन्धिनाम् कर्मणा विगमे कस्मात् सर्वान्नर्थान् न पश्यति ॥ ग्रहादिगतय सर्वा सुख दुखादिहेतव । येन साक्षात्कृतास्तेन किन्न साक्षात्कृत जगत् ॥ ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेय किमवशिष्यते । अप्राप्यकारिणस्तस्मात्सर्वार्थावलोकनम् ॥ २ गृहीत्वा वस्तुसद्भाव स्मृत्वा च प्रतियोगिनाम् । मानस नास्तिताज्ञान जायतेऽक्षानपेक्षया ॥
न्यायविनिश्चय, का०, ३६१, ६२, ४१०, ४१४, ४६५ ।
- १०३ -
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
परीत एवं निर्णयात्मक होता inीमार गियर धिमा और येवलशान । इन तीन
मारमा पारमादिका मारलार्ग इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदिपरकी अर्पना गलीशान
सपा रिनोने व व्यवहार विसवादी होते है आने गोम अगदिस अगिपणे IITHER पौने नही। शान दो हैं .-१ मति और २
साली गोपगेगमा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, ता, सनुमान, आगामी मानी पर (मनि मेन किया गया है। इस तरह परोक्ष और
मति, प्रग, अ मन वर्षय और स्वात अर्थाधिगम होता है। स्मरण शधियापियामादिजान प्रति लिग लोकसव्यवहारके कारण होते और मोमा इन मानोरा गोरुध्यता की दृष्टिरी जैन चिन्तकाने गाव्याग्नि प्रत्याभीTARIोगेको
अर्थाधिगमका हेतु नय, और प्रमाणमे उगका गनित पाय
अव प्रश्न है कि नगनी याअगाभिमाया मोगा मानना नहीं ? पदि जता हे तो वह प्रमाण है या अपमाणगामात प्रमाण अभिगमा नपाय बताना आवश्यकता थी? अन्य वर्णनाको मानिTRIT 'प्रमालमोपिगमोपाप मताना परोन का अप्रमाण है तो उमसे यथार्थ निगम गाम्ययापयादि निजामानाम' धिगम होना चाहिए और पनियमानापनही गं सन्निकर्यादिरी तरह ज्ञापर। किया जा सकता?
ये कतिपय प्रश्न है, जो नयको शपिगमोपाय मानने वाले जैनांना सामने उठन है । मन पियोने इन सभी प्रश्नोपर बटेकलापोहकेमाप विचार किया।
इममे सन्देह नही कि नयको मर्याधिगमोपासपोयानाने ग्यापार नहीं रिपा गया जन दर्शनमें ही उसे अगीकार किया गया है। यारतवमै 'नय' शानरा एक दाह प्रमाण हैं और न अप्रमाण, किन्तु शानात्मक प्रमाणका एफदेश जय शाता या बना भान । द्वारा पदार्थम अणकल्पना करके उसे ग्रहण करता है तो उसका यह शान नपया या जब पदाथम अशकल्पना किये बिना वह उसे गमन रूपमे गहण करता है तद पह मान मन होता है। ऊपर हम देख चुके हैं कि मति, प्रत, भयगि, मा पर्यय और फेवल इन गया है और उन्हें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष इन दो भेदो (वगों) में विभपत किया गया है अस्पप्ट एव अपूर्ण झलकता है उन्हें परोक्ष तया जिनमे विषय साष्ट एव पूर्ण प्राता प्रत्यक्ष निरूपित किया गया है। मति और श्रत इन दो शानोमे विषय अस्पष्ट एव
एक
है
और इसलिए वह
५ गाना
किका मान द्वारा या वचन
। यह मानिनपवा पचन नप कहा जाता है और
हतर पह मान प्रमाण रूपले व्यवद्ध पप और फेवल इन पनि मानीको प्रमान महा
है। जिन मानमिशिस
एष पूर्ण प्रतिविम्बित होता है उन्हें अस्पष्ट एव स्पूर्ण झलता ह, इन
१-२ 'मतिश्रुतावधिमन पर्ययकेवलानि ज्ञानम', 'तत्प्रमाणे', 'आचे परोक्षम्', 'प्रत्यक्षमन्यत्
-तत्त्वार्थ सू० १-९, १०, ११, १२।
३ 'मति स्मृति सज्ञा चिन्ताभिनिवोध इत्यनान्तरम्'
-तत्त्वार्थसूत्र १-१३। ४ 'प्रमाणकदेशाश्च नया ' 'पूज्यपाद, सर्वार्थ० १-३२ ।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
लिए उन्हें 'परोक्ष' कहा है तथा शेष तीन ज्ञानो (अवधि, मन.पर्यय और केवल) मै विषय स्पष्ट एवं पूर्ण प्रतिफलित होता है, अत उन्हें 'प्रत्यक्ष प्रतिपादन किया है ।
प्रतिपत्ति-भेदसे भी प्रमाण-भेदका निरूपण किया गया है। यह निरूपण हमे पूज्यपाद-देवनन्दिको सर्वार्थसिद्धिमें उपलब्ध होता है। पूज्यपादने लिखा है कि प्रमाण दो प्रकारका है -१ स्वार्थ और २ परार्थ । श्रुतज्ञानको छोडकर शेष चारो मति, अवधि, मन पर्यय और केवलज्ञान स्वार्थ-प्रमाण है, क्योकि उनके द्वारा स्वार्थ (ज्ञाताके लिए) प्रतिपत्ति होती है, परार्थ (श्रोता या विनेय जनोके लिए) नही । परार्थप्रतिपत्तिका तो एकमात्र साधन वचन है और ये चारो ज्ञान वचनात्मक नही है। किन्तु श्रुत-प्रमाण स्वार्थ और परार्थ दोनो प्रकारका है । ज्ञानात्मक श्रत प्रमाणको स्वार्थ-प्रमाण कहते हैं और वचनात्मक श्रुत प्रमाणको परार्थ-प्रमाण कहा गया है। वस्तुत श्रुत-प्रमाणके द्वारा स्वार्थ-प्रतिपत्ति और परार्थ-प्रतिपत्ति दोनों होती हैं । ज्ञानातक श्रुत-प्रमाण द्वारा स्वार्थ प्रतिपत्ति और वचनात्मक परार्थ-श्रुत-प्रमाण द्वारा परार्थ प्रतिपत्ति होती है। ज्ञाता-वक्ता जब किसी वस्तुका दूसरे को ज्ञान करानेके लिए शब्दोच्चारण करता है तो वह अपने अभिप्रायानुसार उस वस्तुमें अश-कल्पना-पट, घट, काला, सफेद, छोटा, बडा आदि भेदो द्वारा उसका श्रोता या विनेयोको ज्ञान कराता है। ज्ञाता या वक्ताका वह शब्दोच्चारण उपचारत वचनात्मक परार्थ श्रुतप्रमाण है और श्रोताको जो वक्ताके शब्दोसे बोध होता है वह वास्तव परार्थ श्रुत-प्रमाण है तथा ज्ञाता या वक्ताका जो अभिप्राय रहता है और जो अशग्राही है वह ज्ञानात्मक स्वार्थ श्रुतप्रमाण है । निष्कर्ष यह कि ज्ञानात्मक स्वार्थश्रुत-प्रमाण और वचनात्मक परार्थ श्रुतप्रमाण दोनो नय है। यही कारण है कि जैन दर्शन-ग्रन्थोमे ज्ञाननय और वचननयके भेदसे दो प्रकारके नयोका भी विवेचन मिलता है।
उपर्युक्त विवेचनसे स्पष्ट है कि नय श्रुत-प्रमाणका अश है, वह मति, अवधि तथा मन पर्ययज्ञानका अश नही है, क्योकि मत्यादि द्वारा ज्ञात सोमित अर्थके अशमे नयकी प्रवृत्ति नहीं होती। नय तो समस्त पदार्थोके अशोका एकैकश निश्चायक है, जबकि मत्यादि तीनो ज्ञान उनको विषय नही करते । यद्यपि केवलज्ञान उन समस्त पदार्थोके अशोंमें प्रवृत्त होता है और इसलिए नयको केवलज्ञानका अश माना जा सकता है किन्तु नय तो उन्हे परोक्ष-अस्पष्ट रूपसे जानता है और केवलज्ञान प्रत्यक्ष (स्पष्ट) रूपसे उनका साक्षात्कार करता है। अत नय केवलमूलक भी नही है। वह सिर्फ परोक्ष श्रुतप्रमाणमूलक ही है।
१ 'तज्जयति पर ज्योति सम समस्तैरनन्तपर्याय ।
दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र ॥'-अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसि० का०१। २ "तत्र प्रमाण द्विविध स्वार्थ परार्थ च । तत्र स्वार्थ प्रमाण श्रुतवजम् । श्रुत पुन स्वार्थ भवति परार्थ च । ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मक परार्थम् । तद्विकल्पा नया ।"
-पूज्यपाद, सर्वार्थसि० १-६ । ३. "तत परार्थाविगम प्रमाणनयर्वचनात्ममि कर्तव्य स्वार्थ इव ज्ञानात्मभि प्रमाणनय , अन्यथा कात्स्ये नकदेशेन तत्त्वार्थाधिगमानुपपत्ते ।"
-विद्यानन्द, तत्त्वार्थश्लोकवा० पृ० १४२ । ४ "मतेरवधितो वापि मनःपर्ययतोऽपि वा।।
ज्ञातस्यार्थस्य नाणेऽस्ति नयाना वर्तन ननु ॥२४॥ नि शेषदेशकालार्थगोचरत्वविनिश्चयात् । तस्येति भापित कैश्चिद्युक्तमेव तथेष्टित ॥२५।।
-१०७
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
उसका अभाव करना है वहाँ उसका प्रत्यक्ष दर्शन आवश्यक ही नही, अनिवार्य है। जब हम भूतलमें घडेका अभाव करते है तो वहाँ पहले देखे गये घडेका स्मरण और भूतलका दर्शन होता है, तभी हम यह कहते हैं कि यहां घडा नही है । किन्तु तीनो (भूत, भविष्यत् और वर्तमान) कालों तथा तीनो (ऊर्व, मध्य, और अधो) लोकोके अतीत, अनागत और वर्तमानकालीन अनन्त पुरुपोमें सर्वज्ञता नहीं थी, नही है और न होगी, इस प्रकारका ज्ञान उसीको हो सकता है जिसने उन तमाम पुरुषोका साक्षात्कार किया है। यदि किसीने किया है तो वही सर्वज हो जायगा। साथ ही सर्वज्ञताका स्मरण सर्वज्ञताके प्रत्यक्ष अनुभवके बिना सभव नही और जिन कालिक और त्रिलोकवर्ती अनन्त पुरुपो (आधार) में सर्वज्ञताका अभाव करना है उनका प्रत्यक्ष दर्शन भी सभव नही। ऐसी स्थितिमें अभावप्रमाण भी सर्वज्ञताका बाधक नही है। इस तरह जब कोई बाधक नही है तो कोई कारण नही कि सर्वज्ञताका सदभाव सिद्ध न हो।
निष्कर्प यह है कि आत्मा 'ज्ञ'-ज्ञाता है और उसके ज्ञानस्वभावको ढंकनेवाले आवरण दूर होते हैं। अत आवरणोके विच्छिन्न हो जानेपर ज्ञस्वभाव आत्माके लिए फिर शेष जानने योग्य क्या रह जाता है ? अर्थात कुछ भी नही । अप्राप्यकारी ज्ञानसे सकलार्थ विषयक ज्ञान होना अवश्यम्भावी है। इन्द्रियाँ और मन सकलार्थपरिज्ञान में साधक न होकर वाधक है । वे जहाँ नही हैं और आवरणोंका पूर्णत अभाव है वहां कालिक और त्रिलोकवर्ती यावज्ज्ञेयोका साक्षात् ज्ञान होनेमें कोई बाधा नही है।
आ वीरसेन और आ विद्यानन्द ने भी इसी आशयका एक महत्त्वपूर्ण श्लोक प्रस्तुत करके उसके द्वारा ज्ञस्वभाव आत्मामें सर्वज्ञताकी सम्भावना की है। वह श्लोक यह है -
ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञ स्यादसति प्रतिबन्धने । दाह्यग्निहको न स्यादसति प्रतिबन्धने ।
-जयधवला पु०६६, अष्टस पृ० ५० । अग्निमें दाहकता हो और दाह्य-ईंधन सामने हो तथा बीचमें रुकावट न हो तो अग्नि अपने दाह्मको क्यो नही जलावेगी? ठीक उसी तरह आत्मा ज्ञ (ज्ञाता) हो, और ज्ञेय सामने हो तथा उनके बीच में कोई रुकावट न रहे तो ज्ञाता उन ज्ञेयोको क्यो नही जानेगा? आवरणोंके अभावमें ज्ञस्वभाव आत्माके लिए आसन्नता और दूरता ये दोनों भी निरर्थक हो जाती है। उपसंहार
जैन दर्शनमें प्रत्येक आत्मामें आवरणो और दोषोके अभावमें सर्वज्ञताका होना अनिवार्य माना गया है। वेदान्त दर्शनमें मान्य आत्माको सर्वज्ञतासे जैन दर्शनकी सर्वज्ञतामें यह अन्तर है कि जैन दर्शनमें सर्वज्ञताको आवृत करनेवाले आवरण और दोष मिथ्या नही है, जब कि वेदान्त दर्शनमें अविद्याको मिथ्या कहा गया है। इसके अलावा जैन दर्शनको सर्वज्ञता जहां सादि-अनन्त है और प्रत्येक मुक्त आत्मामें वह पृथक्-पृथक् विद्यमान रहती है अतएव अनन्त सर्वज्ञ है, वहां वेदान्तमें मुक्त-आत्माएँ अपने पृथक् अस्तित्वको न रखकर एक अद्वितीय सनातन ब्रह्ममें विलीन हो जाते है और उनकी सर्वज्ञता अन्त करणसबन्ध तक रहती है, बादको वह नष्ट हो जाती है या ब्रह्ममें ही उसका समावेश हो जाता है। १ 'अस्ति सर्वज्ञ' सुनिश्चितासभवबाघकप्रमाणत्वात, सुखादिवत् ।'-सिद्धिवि० १०८-६ तथा अष्ट०
स० का०५ । २ विशेषके लिए वीरसेनकी जयधवला (१० ६४ से ६६) द्रष्टव्य है । ३. विद्यानन्दके आप्तपरीक्षा, अष्टसहस्री आदि ग्रन्थ देखें।
-१०४
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थाधिगम-चिन्तन
अन्त और बाह्य पदार्थों के ज्ञापक सावनोंपर प्राय सभी भारतीय दर्शनोमें विचार किया गया है और सबने अर्थाधिगमका साधन एकमात्र प्रमाणको स्वीकार किया है। 'प्रमाणाघीना हि प्रमेयव्यवस्था', 'मानाघीना हि मेयस्थिति', 'प्रमेयसिद्धि प्रमाणाद्धि' जैसे प्रतिपादनो द्वारा यही बतलाया गया है कि प्रमाण ही प्रमेयकी सिद्धि अथवा व्यवस्था या ज्ञानका साधन है, अन्य कोई नही । जैन दर्शनमे अर्थाधिगमके साधन
पर जैन दर्शनमे प्रमाणके अतिरिक्त नयको भी पदार्थोके अधिगमका साधन माना गया है। दर्शनके क्षेत्रमें अधिगमके इन दो उपायोका निर्देश हमें प्रथमत 'तत्त्वार्थसूत्र' में मिलता है। तत्त्वार्थसूत्रकारने लिखा है कि तत्त्वार्थका अधिगम दो तरहसे होता है -१ प्रमाणसे और २ नयसे । उनके परवर्ती सभी जैन विचारकोका भी यही मत है। यहां उन्हीके सम्बन्धमे कुछ विचार किया जाता है।
प्रमाण
(अन्य दर्शनोमें जहाँ इन्द्रियव्यापार, ज्ञातृव्यापार, कारकसाकल्य, सन्निकर्ष आदिको प्रमाण माना गया है और उनसे ही अर्थ-प्रमिति बतलाई गई है वहां जैन दर्शनमें स्वार्थ-व्यवसायि ज्ञानको प्रमाण कहा गया है और उसके द्वारा अर्थ-परिच्छित्ति स्वीकार की गई है। इन्द्रिय-च्यापार आदिको प्रमाण न मानने तथा ज्ञानको प्रमाण माननेमें जैन चिन्तकोंने यह युक्ति दी है कि ज्ञान अर्थ-प्रमितिमें अव्यवहितसाक्षात् करण है और इन्द्रियव्यापार आदि व्यवहित-परम्परा करण है तथा अव्यवहित करणको ही प्रमाजनक मानना युक्त है, व्यवहितको नही । उनकी दूसरी युक्ति यह है कि प्रमिति अर्थ-प्रकाश अथवा अज्ञान-निवत्तिरूप है वह ज्ञान द्वारा ही सम्भव है, अज्ञानरूप इन्द्रियव्यापार आदिके द्वारा नही। प्रकाशद्वारा ही अन्धकार दूर होता है, घटपटादिद्वारा नही। तात्पर्य यह कि जैनदर्शनमें प्रमाण ज्ञानरूप है और वही अर्थ-परिच्छेदक है।
प्रमाणसे दो प्रकारकी परिच्छित्ति होती है -१. स्पष्ट (विशद) और २ अस्पष्ट (अविशद)। जिस ज्ञानमे इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदि परकी अपेक्षा नही होती वह ज्ञान स्पष्ट होता है तथा असन्दिग्ध, अवि
१. 'प्रमाणनयर धिगम'-तत्त्वार्थसू० १-६ । २ (क) 'तत्त्वज्ञान प्रमाणं ते युगपत्सर्वभासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञान स्याद्वादनय-सस्कृतम् ॥'
-समन्तभद्र, आप्तमी० का० १०१ । (ख) 'प्रमाणनयाभ्या हि विवेचिता जीवादय. सम्यगधिगम्यन्ते । तव्यतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासम्भवात् ।'
-अभिनव धर्मभूषण, न्यायदी० पृ० ४ ।
-१०५ -
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
अतएव नयन अज्ञानरूप है, न प्रमाणरूप है और न अप्रमाणरूप । अपितु प्रमाणका एकदेश है। इसीसे उसे प्रमाणसे पृथक् अधिगमोपाय निरूपित किया गया है। अशप्रतिपत्तिका एकमात्र सावन वही है। अंशी-वस्तुको प्रमाणसे जानकर अनन्तर किसी एक अश-अवस्था द्वारा पदार्यका निश्चय करना नय कहा गया है। प्रमाण और नयके पारस्परिक अन्तरको स्पष्ट करते हुए जैन मनीपियोने कहा है कि प्रमाण समग्रको विषय करता है और नय असमग्रको।
प्रखर तार्किक विद्यानन्दने नो उपर्युक्त प्रश्नोंका युक्ति एवं उदाहरण द्वारा समाधान करके प्रमाण और नयके पार्थक्यका बड़े अच्छे ढगसे विवेचन किया है। वे जैन दर्शनके मूर्धन्य ग्रन्य अपने तत्त्वार्थश्लोकवातिकमें कहते हैं कि नय न प्रमाण है और न अप्रमाण, अपितु प्रमाणकदेश है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार समुद्रसे लाया गया घडा भर पानी न समुद्र है और न असमुद्र, अपितु समुद्रैकदेश है। यदि उसे समुद्र मान लिया जाय तो शेष सारा पानी असमुद्र कहा जायगा, अथवा बहुत समुद्रोकी कल्पना करनी
न हि मत्यवधि मन पर्ययाणामन्यतमेनापि प्रमाणेन गृहीतस्यार्थस्याशे नया प्रवर्तन्ते, तेषा नि शेषदेशकालार्थगोचरत्वात, मत्यादीना तदगोचरत्वात् । न हि मनोमतिरप्यशेषविषया करणविषये तज्जातीये वाप्रवृत्त ।। त्रिकालगोचराशेषपदार्थाशेषु वृत्तित । केवलज्ञानमूलत्वमपि तेषा न युज्यते ॥२६॥ परोक्षाकारतावृत्ते स्पष्टत्वात् केवलस्य तु । श्रुतमूला नया सिद्धा वक्ष्यमाणा प्रमाणवत् ।।२७॥
यथैव हि श्रुत प्रमाणमधिगमजसम्यग्दर्शननिवन्धनतत्त्वार्थाधिगमोपायभूत मत्यवधिमन पर्ययकेवलात्मक च वक्ष्यमाण तथा श्रुतमूला नया सिद्धास्तेषा परोक्षाकारतया वृत्ते । तत केवलमूला नयास्त्रिकालगोचराशेषपदार्थाशेष वर्तनादिति न युक्तमुत्पश्यामस्तद्वत्तेषा स्पष्टत्वप्रसगात् ।"
-विद्यानन्द, तत्त्वार्थश्लो०१-६, पृ० १२४ । १ (क) "एव हि उक्तम्-"प्रगृह्य प्रमाणत परिणतिविशेषादर्थावधारण नय ।"
-सर्वार्थसि०१-६ । (ख) "वस्तुन्यनेकान्तात्मन्यविरोधेन हि हेत्वर्पणात् साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवण प्रयोगो नय ।"
-सर्वा०सि० १-३३। २. (क) 'सकलादेश प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः'।-स०सि०१-६ ।
(ख) 'अर्थस्यानेकरूपस्य धी प्रमाण तदशधी ।
___नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्नयस्तन्निराकृति ॥'-अष्टस० पृ० २९० । ३ (क) नाप्रमाण प्रमाण वा नयो ज्ञानात्मको मत ।
स्यात्प्रमाणकदेशस्तु सर्वथाप्यविरोधत ।। -त० श्लो० वा० पृ० १२३ । (ख) 'नाय वस्तु न चावस्तु वस्त्वश कथ्यते यत ।
नासमुद्र समुद्रो वा समुद्राशो यथोच्यते ।। तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषाशस्यासमुद्रता । समुद्रबहत्व वा स्यात्तच्चेत्कोस्तु समुद्रवित् ।। -त० श्लो० पू० ११८ ।
-१०८ -
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
पडेगी। यदि उसे असमुद्र कहा जाय तो शेषााशोको भी असमुद्र कहा जायेगा और उस हालतमें समुद्रका व्यवहार कही भी नही होगा। ऐसी स्थितिमें किसीको 'समुद्रका ज्ञाता' नही कहा जायगा।
अत नयको प्रमाणकदेश मानकर उसे जैनदर्शनमें प्रमाणसे पृथक् अधिगमोपाय बताया गया है। वस्तुत अल्पज्ञ ज्ञाता और श्रोताकी दृष्टिसे उसका पृथक् निरूपण अत्यावश्यक है । ससारके समस्त व्यवहार और वचन-प्रवृत्ति नयोके आधारपर ही चलते हैं । अनन्तधर्मात्मक वस्तुके एक-एक अशको जानना या कहकर दूसरोको जनाना नयका काम है और उस पूरी वस्तुको जानना प्रमाणका कार्य है । यदि नय न हो तो विविध प्रश्न, उनके विविध समाधान, विविध वाद और उनका समन्वय आदि कोई भी नही बन सकता। स्वार्थप्रमाण गूगा है। वह बोल नहीं सकता और न विविध वादो एव प्रश्नोको सुलझा सकता है । वह शक्ति नयमे ही हैं । अत नयबाद जैन दर्शनकी एक विशेष उपलब्धि है और भारतीय दर्शनको उसकी अनुपम देन है।
उपसहार
वस्तु अनेक धर्मात्मक है, उसका पूरा बोध हम इन्द्रियो या वचनो द्वारा नही कर सकते । हाँ, नयोके द्वारा एक-एक धर्मका बोध करते हुए अनगिनत धर्मोंका ज्ञान कर सकते हैं। वस्तुको जब द्रव्य या पर्यायरूप, नित्य या अनित्य, एक या अनेक आदि कहते हैं तो उसके एक-एक अशका ही कथन या ग्रहण होता है। इस प्रकारका ग्रहण नय द्वारा ही सभव है, प्रमाण द्वारा नही। प्रसिद्ध जैन तार्किक सिद्धसेनने नयवादकी आवश्यकतापर बल देते हुए लिखा है कि जितने वचन-मार्ग हैं उतने ही नय हैं। मूलमें दो नय स्वीकार किये गये हैं.-१ द्रव्याथिक और २ पर्यायाथिक । द्रव्य, सामान्य, अन्वयका ग्राहक द्रव्यार्थिक
और पर्याय, विशेष, व्यतिरेकका ग्राही पर्यायार्थिक नय है। द्रव्य और पर्याय ये सब मिलकर प्रमाणका विषय है । इस प्रकार विदित है कि प्रमाण और नय ये दो वस्तू-अधिगमके साधन है और दोनो ही अपनेअपने क्षेत्रमें वस्तुके ज्ञापक एव व्यवस्थापक है।
१ 'जावइया वयणपहा तावइया चेव होति णववाया' -सन्मतितर्क ३-४७ । २. 'नयो द्विविध , द्रव्यार्थिक. पर्यायाथिकश्च । पर्यायार्थिकनयेन भावतत्त्वमधिगन्तध्यम्, इतरेपा प्रयाणा
द्रव्याथिकनयेन, सामान्यात्मकत्वात । द्रव्यमर्थ प्रयोजनमस्येत्यसो। द्रव्याथिक पर्यायोऽर्थ प्रयोजनमस्येत्यसौ । पर्यायाथिक तत्सर्व समुदित प्रमाणेनाधिगन्तव्यम्।'-सर्वाथसि० १-३३ ।
-१०९
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञापकतत्त्व-विमर्श
तत्त्व और उसके भेद
जैन दर्शनमें सद्, वस्तु, अर्थ और तत्त्व ये चारो शब्द एक ही अर्थक बोधक माने गये हैं । सद् या वस्तु अथवा अर्थके कहनेसे जिसकी प्रतीति होती है उसीका बोध तत्वके द्वारा होता है । इसके दो भेद है१ उपेय और २ उपाय । प्राप्यको उपेय और प्रापकको उपाय तत्त्व कहा जाता है। उपेय तत्त्वके भी दो भेद हैं-१ कार्य और २ ज्ञेय । उत्पन्न होनेवाली वस्त कार्य कही जाती है और ज्ञापककी विषयभत वस ज्ञेयके नामसे अभिहित होती है । इसी प्रकार उपायतत्त्व भी दो प्रकारका है-१ कारक और २ ज्ञापक । जो कार्यको उत्पन्न करता है वह कारक उपायतत्त्व कहा जाता है और जो ज्ञेयको जानता है वह ज्ञापक उपायतत्त्व है। तात्पर्य यह है कि वस्तुप्रकाशक ज्ञानज्ञापक उपायतत्त्व है तथा कार्योत्पादक उद्योग-दैव आदि कारक उपायतत्त्व है।
प्रकृतमें हमें ज्ञायकतत्त्वपर प्रकाश डालना अभीष्ट है । अतएव हम कारकतत्त्वकी चर्चा इस निबन्धमें नही करेंगे । इसमें केवल ज्ञापक उपायतत्त्वका विवेचन करना अभीष्ट है। ज्ञापक उपायतत्त्व प्रमाण और नय
प्रमाण और नय ये दोनो वस्तुप्रकाशक हैं। अत ज्ञापक उपायतत्त्व दो प्रकारका है-१ प्रमाण और २ नय । आचार्य गृद्ध पिच्छने, जिन्हें उमास्वामी और उमास्वाति भी कहा जाता है, अपने तत्त्वार्थ सूत्रमें स्पष्ट कहा है कि 'प्रमाणनयरधिगम' [त० सू० १-६]-प्रमाणो और नयोके द्वारा पदार्थोंका ज्ञान होता है। अत जैनदर्शनमें पदार्थोको जाननेके दो ही उपाय प्रतिपादित एव विवेचित हैं और वे हैं प्रमाण तथा नय । सम्पूर्ण वस्तुको जानने वाला प्रमाण है और वस्तुके धर्मों-अशोका ज्ञान कराने वाला नय है । द्रव्य और पर्याय अथवा धर्मी और धर्म । अशी और अश दोनोका समुच्चय वस्तु है। प्रमाण और नयका भेद
प्रमाण जहां वस्तुको अखण्ड रूपमें ग्रहण करता है वहां नय उसे खण्ड-खण्ड रूपमें विषय करता है । यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि ज्ञापक तो ज्ञानरूप ही होता है और प्रमाण ज्ञानको कहा गया है । 'स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान प्रमाणम्', 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' आदि सिद्धान्तवचनो द्वारा ज्ञानको प्रमाण ही बतलाया गया है, तब नयको ज्ञापक-प्रकाशक कैसे कहा? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि प्रमाण और नय ये दो भेद विषयभेदकी अपेक्षा किये गये हैं। वास्तवमें नय प्रमाणरूप है, प्रमाणसे वह भिन्न नही है । जिस समय ज्ञान पदार्थोंको अखण्ड-सकलाशरूपमें ग्रहण करता है तब बह प्रमाण कहा जाता है और जब उनके सापेक्ष एकाशको ग्रहण करता है तब वह ज्ञाननय कहलाता है। छद्मस्थ ज्ञाता जब अपने आपको वस्तुका ज्ञान करानेमें प्रवृत्त होता है तो उसका ज्ञान स्वार्थप्रमाण कहा जाता है और ऐसे ज्ञान मति, श्रुत, अवधि,
दूसरोको समझानेके लिए वचन-प्रयोग करता है तब उसके वचनोंसे जिज्ञासुको होनेवाला वस्तुके धर्मों-अशोका ज्ञान परार्थश्रत ज्ञान कहलाता है और उसके वे
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
वचन भी उपचारसे परार्थश्रुत ज्ञान माने जाते है । तथा वही प्रतिपत्ता उस वस्तुके धर्मोका स्वय ज्ञान करता है तो उसका वह ज्ञान स्वार्थश्रुतज्ञान है । आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि [१-६] में उक्त प्रश्नका अच्छा समाधान किया है । उन्होने लिखा है कि
'तत्र प्रमाण द्विविध स्वार्थ परार्थ च । तत्र स्वार्थ प्रमाण श्रुतवजम् । श्रुत पुन स्वार्थ भवति परार्थं च । ज्ञानात्मक स्वार्थ वचनात्मक परार्थम् । तद्विकल्पा नया.।'
अर्थात प्रमाण दो प्रकारका है-१ स्वार्थ और २ परार्थ। इनमें श्रुतको छोडकर शेष सभी (मति, अवधि, मन पर्यय और केवल) स्वार्थप्रमाण है। किन्तु श्रुत स्वार्थप्रमाण भी है और परार्थ प्रमाण भी है। ज्ञानात्मक श्रुत स्वार्थप्रमाण है और वचनात्मक श्रुत परार्थप्रमाण है। इसीके भेद नय है । पूज्यपादके इस विवेचनसे स्पष्ट है कि नय भी ज्ञानरूप है और श्रुतज्ञानके भेद है।
विद्यानन्दने भी तत्त्वार्थश्लोकवातिक [१-६] में उक्त प्रश्नका सयुक्तिक समाधान किया है । वे कहते हैं कि नय न प्रमाण है और न अप्रमाण, अपितु वह प्रमाणका अश है। जिस प्रकार समुद्रसे लाया गया घडे भर पानी न समुद्र है और न असमुद्र, अपितु समुद्रका अश है । यथा
नाय वस्तु न चावस्तु वस्त्वश कथ्यते यत. । नासमुद्र समुद्रो वा समुद्राशो यथोच्यते ॥ तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषाशस्यासमुद्रता। समुद्रबहुत्व वा स्यात्तच्चेत्स्वास्तु समुद्रवित् ॥
-त० श्लो० वा० पृ० ११८ । अत नय प्रमाणरूप एव ज्ञानरूप होनेपर भी छद्मस्थ ज्ञाता और वक्ताओकी दृष्टिसे उनका पथक निरूपण किया गया है। ससारके सभी व्यवहार नयोको लेकर ही होते हैं। प्रमाण अशेषार्थग्राहकरूपसे वस्तुका प्रकाशक--ज्ञापक है और नय वस्तुके एक-एक अशोके प्रकाशक-ज्ञापक है और इस प्रकार नय भी प्रमाणको तरह ज्ञापकतत्त्व है। आचार्य समन्तभद्रने भी आप्तमीमासामें प्रमाण और नय दोनोको वस्तप्रकाशक कहा है
तत्त्वज्ञान प्रमाण ते युगपत् सर्वभासनम् ।
क्रमभावि च यज्ज्ञान स्याद्वादनयसस्कृतम् ॥ 'सम्पूर्ण पदार्थोंको युगपत् प्रकाशित करनेवाला तत्त्वज्ञान प्रमाणरूप है और क्रमसे होनेवाला छदमस्थोका ज्ञान स्याद्वादनयस्वरूप है।' नयोका वैशिष्ट्य
ऊपरके विवेचनसे स्पष्ट है कि जैन दर्शनमें नयोका वही महत्त्वपूर्ण स्थान है जो प्रमाणका है। प्रमाण और नय दोनो जैन दर्शनकी आत्मा हैं। यदि नयको न माना जाय तो वस्तुका ज्ञान अपूर्ण रहनेसे जैन दर्शनकी आत्मा (वस्तु-विज्ञान) अपूर्ण रहेगी। वास्तवमें नय ही विविध वादो एव प्रश्नोके समाधान प्रस्तुत करते हैं। वे गुत्थियोके सुलझाने तथा सही वस्तुस्वरूप बतलाने में समर्थ हैं। प्रमाण गूंगा है, बोल नहीं सकता और न विविध वादोको सुलझा सकता है। अत जैन दार्शनिकोने मतान्तरोका समन्वय करनेके लिए नयवादका विस्तारके साथ प्रतिपादन किया है। वचनप्रयोग और लोकव्यवहार दोनो नयाश्रित है। विना नयका अवलम्बन लिए वे दोनो ही सम्भव नही है। अत सभी दर्शनोको इस नयवादको स्वीकार
-१११
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
करना आवश्यक है। उसके बिना वेन अपने खण्डनका परिहार या प्रतिवाद कर सकते हैं और न अपने दर्शनको उत्कृष्ट सिद्ध कर सकते हैं। न्यायदर्शनमें यद्यपि अपने ऊपर आनेवाले आक्रमणोंका परिहार करनेके लिए छल, जाति और निग्रहस्थानोंका कथन किया है। किन्तु ऐसे प्रयत्न सद्-सम्यक् नही कहे जा सकते। कोई भी प्रेक्षावान् असद् प्रयत्लो द्वारा अपने पक्षका समर्थन तथा परपक्षका निराकरण नही कर सकता । दर्शनका उद्देश्य जगत्के लोगोका हित करना और उन्हें उचित मार्गपर लाना है। वितण्डावादसे उक्त दोनो बातें असम्भव हैं। जैन दर्शनका नयवाद विविध मतोके एकान्तरूप अन्धकारको दूर करनेके लिए नही बुझने वाले विशाल गैसोका काम देता है। मध्यस्थ एव उपपत्तिचक्ष होकर उसपर विचार करें तो उसकी अनिवार्यता निश्चय ही स्वीकार्य होगी।
वस्तु अनेकधर्मात्मक है और उसका पूरा ज्ञान हम इन्द्रियो या निरपेक्ष वचनो द्वारा नही कर सकते है । हाँ, नयोसे एक-एक धर्मका बोध करते हुए उसके विवक्षित अनेक धर्मोंका ज्ञान कर सकते हैं। द्रव्यार्थिक नयसे विवक्षा करनेपर वस्तु नित्य है और पर्यायार्थिक नयसे कथन करनेपर वह भनित्य भी है । इसी प्रकार उसमें एक, अनेक, अभेद, भेद आदि विरोधी धर्मोकी व्यवस्था नयवादसे ही होती है।
विवक्षित एव अभिलषित अर्थकी प्राप्तिके लिए वक्ताकी जो वचनप्रवृत्ति या अभिलाषा होती है वही नय है । यह अर्थ क्रियाथियोकी अर्थक्रियाका सम्पादक है।
जैन दर्शनमें नयवादका परिवार विशाल है । या यो कहना चाहिए कि जितने वचनमार्ग हैं उतने ही नय हैं। आचार्य सिद्धसेनने सन्मतिसूत्रमें कहा है
__'जावइया वयणवहा तावइया चेव होति णयवाया।' जितना वचन व्यवहार है और वह जिस-जिस तरहसे हो सकता है वह सब नयवाद है । वचनमें एक साथ एक समयमें एक ही धर्मको प्रतिपादन करनेकी सामर्थ्य है, अनेक धर्मों या अर्थोके प्रतिपादनकी सामर्थ्य उसमें नही है । 'सफुदुच्चरित शब्द एकमेवार्थ गमयति'-एक बार बोला गया शब्द एक ही अर्थका बोध करा सकता है । इसीसे अनेक धर्मोकी पिण्डरूप वस्तु प्रमाणका ही विण्य होती है, नयका नहीं । नयके भेद
नयके मूल दो भेद हैं-१ द्रव्याथिक और २ पर्यायाथिक । जो नय मात्र द्रव्यको ग्रहण करता है और पर्यायकी सत्ताको गौण कर देता है वह द्रव्याथिक नय है तथा जो द्रव्यको गौण करके केवल पर्यायको विषय करता है वह पर्यायार्थिक नय है। द्रव्याथिकके तीन भेद है-१ नंगम, २ सग्रह और ३ व्यवहार । पर्यायार्थिक नयके चार भेद हैं-१ ऋजसत्र, २ शब्द, ३ समभिरूढ और ४ एवभुत । द्रव्याथिकके तीन और पर्यायार्थिकके चार इन सात नयोका निरूपग तत्त्वार्थसूत्रकारने निम्न सूत्र द्वारा किया है
_ 'नेगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूढवभूता नया.।' -त० सू०१-३३ ।
इनका विशेष विवेचन तत्त्वार्थसूत्रकी टीकाओ-सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवातिक, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक आदिमें तथा नयचक्र प्रभृति ग्रन्थों में किया गया है। विशेष जिज्ञासुओको वहाँसे उनके स्वरूपादि ज्ञातव्य है।
यहाँ स्मरणीय है कि आध्यात्मिक दृष्टिसे निश्चय और व्यवहार नयोका भी जैन दर्शनमें प्रतिपादन उपलब्ध है । निश्चय और व्यवहारके भेदोंका भी विशद वर्णन किया गया है। इस तरह हम देखते हैं कि नय भी प्रमाणकी तरह वस्तुके बोधक हैं और इसलिए ज्ञापक तत्त्वके अन्तर्गत उनका कथन किया गया है।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणका स्वरूप और उसके भेद
स्व तथा अपूर्व अर्थके यथार्थ निश्चय कराने वाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । किसी पदार्थको जाननेका प्रयोजन यह होता है कि तद्विषयक अज्ञानको निवृत्ति हो और उसकी जानकारी हो। जानकारी होनेके उपरान्त प्रमाता उपादेयका उपादान, हेयका त्याग और उपेक्षणीयको उपेक्षा करता है। इस प्रकार प्रमाणका साक्षात्फल अज्ञाननिवृत्ति और परम्पराफल हानोपादानोपेक्षाबुद्धि है। यह दोनो प्रकारका फल स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञान द्वारा ही सभव है । अत जैनदर्शनमें स्वार्थव्यवसायात्मक ज्ञानको प्रमाण माना गया है।
इसके मलमें दो भेद हैं-१ प्रत्यक्ष और २ परोक्ष । प्रत्यक्ष के भी दो भेद है-१ सान्यवहारिक और २ पारमाथिक । परोक्ष प्रमाणके पांच भेद हैं-१ स्मति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३ तर्क, ४ अनुमान और ५ आगम । प्रमाणके ये दार्शनिक भेद है। आगमकी अपेक्षा उसके पाँच भेद हैं-१ मति, २ श्रुत, ३ अवधि, ४ मन पर्याय और ५ केवल ।
इस प्रकार प्रमाण और नय दोनो ही वस्तुप्रतिपत्तिके अमोघ साधन हैं-उपाय हैं।
मर
.
.
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
ध्यान-विमर्श
यो तो सभी धर्मों और दर्शनोमें ध्यान, समाधि या योगका प्रतिपादन है । योगदर्शन तो उसीपर आघृत है और योगके सूक्ष्म चिन्तनको लिये हुए है । पर योगका लक्ष्य अणिमा, महिमा, वशित्व आदि ऋद्धिमिद्धियोकी उपलब्धि है और योगी उनकी प्राप्तिके लिये योगारावन करता है। योगद्वारा ऋद्धि-सिद्धियोको प्राप्त करनेका प्रयोजन भी प्रभाव-प्रदर्शन, चमत्कार-दर्शन आदि है। मुक्ति लाभ भी योगका एक उद्देश्य है, पर वह गौण है।
जैन दर्शनमें ध्यानका लक्ष्य मुख्यतया कर्म-निरोध और कर्म-निर्जरा है और इन दोनोके द्वारा अशेप कर्ममुक्ति प्राप्त करना है। यद्यपि योगीको अनेक ऋद्धियाँ-सिद्धियां भी उसके योग-प्रभावसे उपलब्ध होती हैं। पर वे उसकी दृष्टिमें प्राप्य नही है, मात्र आनुषङ्गिक है। उनसे उसको न लगाव होता है और न उसके लिये वह ध्यान करता है। वे तथा अन्य स्वर्गादि अभ्युदय उसे उसी प्रकार मिलते हैं जिस प्रकार चावलोंके लिये खेती करनेवाले किसानको भसा अप्राथित मिल जाता है। किसान भूसाको प्राप्त करनेका न लक्ष्य रखता है और न उसके लिये प्रयास ही करता है। योगी भी योगका आराधन मात्र कर्म-निरोध और कर्मनिर्जराके लिये करता है। यदि कोई योगी उन ऋद्धि-सिद्धियोमें उलझता है-उनमें लुभित होता है तो वह योगके वास्तविक लाभसे वचित होता है। तत्त्वार्थसूत्रकार आचार्य उमास्वातिने स्पष्ट लिखा है कि तप (ध्यान) से सवर (कर्म-निरोध) और कर्म-निर्जरा दोनों होते हैं । आचार्य रामसेन भी अपने तत्त्वानुशासनमें ध्यानको सवर तथा निर्जराका कारण बतलाते हैं। इन दोनोसे समस्त कर्मोका अभाव होता है और समस्त कर्माभाव ही मोक्ष है। इससे स्पष्ट है कि जैन दर्शनमें ध्यानका आध्यात्मिक महत्त्व मुख्य है।
ध्यानकी आवश्यकतापर बल देते हुए आचार्य नेमिचन्द्र लिखते हैं कि मुक्तिका उपाय रत्नत्रय है और यह रत्नत्रय व्यवहार तथा निश्चयकी अपेक्षा दो प्रकारका है। यह दोनो प्रकारका रत्नत्रय ध्यानसे ही उपलभ्य है । अत सम्पूर्ण प्रयत्न करके मुनिको निरन्तर ध्यानका अभ्यास करना चाहिये । तत्त्वार्थसारकार आ० अमृतचन्द्र' भी यही कहते हैं । यथार्थमें ध्यानमें जब योगी अपनेसे भिन्न किसी दूसरे मत्रादि पदार्थका अवलम्बन लेकर उसे ही अपने श्रद्धान, ज्ञान और आचरणका विषय बनाता है तब वह व्यवहार-मोक्षमागी होता है और जब केवल अपने आत्माका अवलम्बन लेकर उसे ही श्रद्धा, ज्ञान और चर्याका विषय बनाता है
१ 'आस्रवनिरोध सवर', 'तपसा निर्जरा च'-त० सू० ९-१, ३ । २ 'तद् ध्यान निर्जराहेतु सवरस्य च कारणम् ।'-तत्त्वानु० ५६ । ३ 'बन्धहेत्वभाव-निर्जराम्या कृत्स्नकर्मविप्रमाक्षो मोक्ष'-त० सू० १०-२। ४ दुविह पि मोक्म्वहेउ झाणे पाउणदि ज मुणी णियमा ।
तम्हा पयत्तचित्ता जूय झाण समब्भसह ।। -द्रव्यसग्रह गा० ४७ । ५ निश्चय-व्यवहाराम्या मोक्षमार्गो द्विधा स्थित ।
तत्राद्य साध्यरूप स्याद् द्वितीयस्तस्य साधनम् ॥-तत्त्वार्थसार ।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
होगा — उसके शब्द और अर्थ चिन्तनमें संलग्न होगा तो वह अन्यत्र जायेगा ही कैसे
-
और जब वह नही जायेगा तो इन्द्रियाँ उस अग्निकी तरह ठंडी (राख) हो जायेंगी, जो ईंधनके अभावमें राख हो जाती हैं । वस्तुत इन्द्रियोको मनके व्यापारसे ही खुराक मिलती है । इसीलिये मनको हो बन्ध और मोक्षका कारण कहा गया है । शास्त्रस्वाध्याय मनको नियत्रित करनेके लिए एक अमोघ उपाय है । सम्भवत इसीसे 'स्वाध्याय परमं तप स्वाध्यायको परम तप कहा है।
ये दो मुख्य उपाय हैं इन्द्रियो और मनको नियत्रित करनेके । इनके नियत्रित हो जानेपर ध्यान हो सकता है । अन्य सव ओरसे चित्तकी वृत्तियोको रोककर उसे एक मात्र आत्मामें स्थिर करनेका नाम ही ध्यान हैं। चित्तको जब तक एक ओर केन्द्रित नही किया जाता तब तक न आत्मदर्शन होता है न आत्मज्ञान होता है और न आत्मामें आत्माकी पर्या और जब तक ये तीनो प्राप्त नहीं होते तब तक दोष और आवरणोकी निवृत्ति सम्भव नहीं । अत योगी ध्यानके द्वारा चित् और आनन्दस्वरुप होकर स्वयं परमात्मा हो जाता है। आचार्य रामसेन' लिखते है कि जिस प्रकार सतत अभ्यास से महाशास्त्र भी अभ्यस्त एव सुनिश्चित होते हैं उसी प्रकार निरन्तरके ध्यानाभ्याससे ध्यान भी अभ्यस्त एव सुस्थिर हो जाता है। वे योगीको ध्यान करने की प्रेरणा करते हुए कहते हैं
'हे योगिन् । यदि तू ससार वधनसे छूटना चाहता है तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र - रूप रत्नत्रयको ग्रहण करके बन्धके कारणरूप मिथ्यादर्शनादिरुके त्यागपूर्वक निरन्तर सद्स्यानका अभ्यास कर' ।
" ध्यानके अभ्यासकी प्रकर्षतासे मोहका नाश करनेवाला चरम-शरीरी योगी तो उसी पर्यायमें मुक्ति प्राप्त करता है और जो चरमशरीरी नही है वह उत्तम देवादिकी आयु प्राप्त कर क्रमश मुक्ति पाता है । यह ध्यानकी ही अपूर्व महिमा है ।'
रत्नत्रयमुपादाय त्यक्त्वा बन्ध-निबन्धनम् । ध्यानमभ्यस्यता नित्यं यदि योगिन् । मुमुक्षसे ॥ ध्यानाभ्यास प्रकर्षेण त्रुस्यन्मोहस्य योगिन । चरमाङ्गस्य मुक्ति स्वात्तदेवान्यस्य च क्रमात् ॥
-आ रामसेन, तत्त्वानुशासन २२३, २२४ ।
नि सन्देह ध्यान एक ऐसी चीज है जो परलोकके लिए उत्तम पाथेय है । इस लोकको भी सुखी, स्वस्थ और यशस्वी बनाता है। यह गृहस्य और मुनि दोनोंके लिए अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार उपयोगी है । यदि भारतवासी इसके महत्त्वको समझ लें तो वे पूर्व ऋपियोके प्रभावपूर्ण आदर्शको विश्वके सामने सहज ही उपस्थित कर सकते हैं । जितेन्द्रिय और मनस्वी सन्तानें होगी तथा परिवार नियोजन, आपाधापी, सग्रह-वृति आदि अनेक समस्यायें इसके अनुसरणसे अनायास सुलझ सकती है।
१. यथाभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि स्युर्महान्त्यपि ।
तथा ध्यानमपि स्वयं लभतेऽम्यासर्वातिनाम् ।। ० ८८ ।
- ११६ -
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
भारतीय वाङ्मयमें अनुमान-विचार
प्रास्ताविक
भारतीय तर्कशास्त्रमें अनुमानका महत्त्वपूर्ण स्थान है। चार्वाक (लोकायत) दर्शनके अतिरिक्त शेष सभी भारतीय दर्शनोके अनुमानको प्रमाणरूपमें स्वीकार किया है और उसे परोक्ष पदार्थों की व्यवस्था एव तत्त्वज्ञानका अन्यतम साधन माना है।
विचारणीय है कि भारतीय तर्कग्रन्थोमें सर्वाधिक विवेचित एव प्रतिपादित इस महत्त्वपूर्ण और अधिक उपयोगी प्रमाणका सव्यवहार कबसे आरम्भ हुआ? दूसरे, ज्ञात सुदूरकालमें उसे अनुमान ही कहा जाता था या किसी अन्य नामसे वह व्यवहृत होता था? जहाँ तक हमारा अध्ययन है भारतीय वाङ्मयके निबद्धरूपमें उपलब्ध ऋग्वेद आदि सहिता-ग्रन्थोमें अनुमान या उसका पर्याय शब्द उपलब्ध नहीं होता। हाँ, उपनिषद्-साहित्यमें एक शब्द ऐसा अवश्य आता है जिसे अनुमानका पूर्व सस्करण कहा जा सकता है और वह शब्द है 'वाकोवाक्यम्'२ । छान्दोग्योपनिषद्के इस शब्दके अतिरिक्त ब्रह्मबिन्दूपनिषदें अनुमानके अङ्ग हेतु और दृष्टान्त तथा मैत्रायणी-उपनिषद्में अनुमानसूचक 'अनुमीयते' क्रियाशब्द मिलते हैं । इसी तरह सुबालोपनिषदमें 'न्याय' शब्दका निर्देश है। इन उल्लेखोके अध्ययनसे हम यह तथ्य निकाल सकते है कि उपनिषद् कालमें अध्यात्म-विवेचनके लिए क्रमश अनुमानका स्वरूप उपस्थित होने लगा था।
शाहर-भाज्यमें 'वाकोवाक्यम्' का अर्थ 'तर्कशास्त्र' दिया है । डा० भगवानदासने भाष्यके इस अर्थको अपनाते हुए उसका तर्कशास्त्र, उत्तर-प्रत्युत्तरशास्त्र, युक्ति-प्रतियुक्तिशास्त्र व्याख्यान किया है। इन (अर्थ और व्याख्यान)के आधारपर अनुभवगम्य अध्यात्मज्ञानको अभिव्यक्त करनेके लिए छान्दोग्योयपनिषद्में व्यवहृत 'वाकोवाक्यम्'को तर्कशास्त्रका बोधक मान लेनेमे कोई विप्रतिपत्ति नही है । ज्ञानोत्पत्तिकी प्रक्रियाका अध्ययन करनसे अवगत होता है कि आदिम मानवको अपने प्रत्यक्ष (अनुभव) ज्ञानके अविसवादित्वकी सिद्धि अथवा उसको सम्पुष्टिके लिए किसी तर्क, हेतु या युक्तिकी आवश्यकता पडी होगी ।
प्राचीन बौद्ध पाली-ग्रन्थ ब्रह्मजालसुत्तमें तर्की और तर्क शब्द प्रयुक्त हुए हैं, जो क्रमश तर्कशास्त्री तथा तर्कविद्याके अर्थमें आये है । यद्यपि यहाँ तर्कका अध्ययन आत्मज्ञानके लिए अनुपयोगी बताया गया है,
१ गौतम अक्षपाद, न्यायसू० ११११३, भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी। २ ऋग्वेद भगवोऽध्येमि वाकोवाक्यमेकायन अध्येमि ।
-छान्दो० ७.११२, निर्णयसागर प्रेस बम्बई, सन् १९३२ । ३ हेतुदृष्टान्तवजितम् । ब्रह्मबिन्दू० श्लोक ९, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९३२ । ४ वहिरात्मा गत्यन्तरात्मनानुमीयते ।-मैत्रायणी० ५।१, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९३२ । ५ "शिक्षा कल्पो न्यायो मीमासा ।-सुबालोपनिष० खण्ड २, प्रकाशन स्थान व समय वही। ६ वाकोवाक्य तर्कशास्त्रम् ।-आ० शङ्कर, छान्दोग्यो० भाष्य ७।१०२, गीताप्रेस, गोरखपुर । ७ डा भगवानदास, दर्शनका प्रयोजन पृ १।। ८ 'इघ, भिक्खवे, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा तक्की होति वीमसी । सो तक्कपरियाहत वीमसान
चरित ।-राय डेविड (सम्पादक), ब्रह्मजालसु० १।३२ ।
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
किन्तु तर्क और तर्की शब्दोका प्रयोग यहाँ क्रमश कुतर्क (वितण्डावाद या व्यर्थके विवाद) और कुतर्की (वितण्डावादी)के अर्थमें हुआ ज्ञात होता है । अथवा ब्रह्मजालसुत्तका उक्त कथन उस युगका प्रदर्शक है, जब तर्कका दुरुपयोग होने लगा था। और इसीसे सम्भवत. ब्रह्मजालसुत्तकारको आत्मज्ञानके लिए तर्कविद्याके अध्ययनका निषेध करना पड़ा। जो हो, इतना तो स्पष्ट है कि उसमें तर्क और तर्की शब्द प्रयुक्त हैं और तर्कविद्याका अध्ययन आत्मज्ञानके लिए न सही, वस्तु-व्यवस्थाके लिए आवश्यक था।
न्यायसूत्र' और उसकी व्याख्याओंमें तर्क और अनुमानमें यद्यपि भेद किया है-तर्कको अनुमान नही, अनुमानका अनुग्राहक कहा है । पर यह भेद बहुत उत्तरकालीन है । किसी समय हेतू, तर्क, न्याय और अन्वीक्षा ये सभी अनुमानार्थक माने जाते थे। उद्योतकरके उल्लेखसे यह स्पष्ट जान पडता है । न्यायकोशकारने तर्कशब्दके अनेक अर्थ प्रस्तुत किये हैं। उनमें आन्वीक्षिकी विद्या और अनमान अर्थ भी दिया है।
वाल्मीकि रामायणमें" आन्वीक्षिकी शब्दका प्रयोग है जो हेतुविद्या या तर्कशास्त्रके अर्थ में हुआ है। यहां उन लोगोको 'अनर्थकुशल', 'बाल', 'पण्डितमानी' और 'दुर्बुध' कहा है जो प्रमुख धर्मशास्त्रोके होते हए भी व्यर्थ आन्वीक्षिकी विद्याका सहारा लेकर कथन करते या उमकी पुष्टि करते हैं।
महाभारतमे आन्वीक्षिकीके अतिरिक्त हेतु, हेतुक, तर्कविद्या जैसे शब्दोका भी प्रयोग पाया जाता है। तर्कविद्याको तो आन्वीक्षिकीका पर्याय ही बतलाया है । एक स्थानपर याज्ञवल्क्यने विश्वावसूके प्रश्नोका उत्तर आन्वीक्षिकीके माध्यमसे दिया और उसे परा (उच्च) विद्या कहा है। दूसरे स्थलपर याज्ञवल्क्य राजर्षि जनकको आन्वीक्षिकीका उपदेश देते हुए उसे चतुर्थी विद्या तथा मोक्षके लिए प्रयी, वार्ता और दण्डनीति तीनो विद्याओसे अधिक उपयोगी बतलाते हैं। इसके अतिरिक्त एक अन्य जगह' शास्त्रश्रवणके अनधिकारियोके लिए 'हेतुदुष्ट' शब्द आया है, जो असत्य हेतु प्रयोग करनेवालोंके ग्रहणका बोधक प्रतीत होता है। ध्यातव्य है कि जो व्यर्थ तर्कविद्या (आन्वीक्षिकी) पर अनुरक्त हैं उन्हें महाभारतकारने वाल्मीकि रामायणकी तरह पण्डितक, हेतुक, और वेदनिन्दक कहकर उनकी भर्त्यस्ना भी की है । तात्पर्य यह कि तर्कविद्याके सदुपयोग और दुरुपयोगकी ओर उन्होने सकेत किया है। एक अन्य प्रकरणमें नारदको
१ अक्षपाद गौतम, न्यायसू० ११११३,११११४०।। २ वात्स्यायन, न्यायभाष्य ११११३, ११११४०, उद्योतफर, न्यायवा १२११३, १।११४० । ३ अपरे त्वनुमान तर्क इत्याह । हेतुस्तर्को न्यायोऽन्वीक्षा इत्यनुमानमाख्यायत इति ।-उद्योतकर,
न्यायवा०, ११११४०, चौखम्बा विद्याभवन, सन् १९१६ । ४ भीमाचार्य (सम्पादक), न्यायकोश, 'तर्क' शब्द, १० ३२१, प्राच्यविद्यासशोधनमन्दिर, बम्बई, सन्
१९२८ । ५ वाल्मीकि, रामायण, अयो० का १००।३८,३९, गीताप्रेस, गोरखपुर, वि स २०१७ । ६ व्यास, महाभारत, शान्तिपर्व २१०।२२, १८०।४७, गीताप्रेस, गोरखपुर, वि स २०१७ । ७ वही, शा०प० ३१८।३४ । ८ वही, शा०प० ३१८।३५ । ९ वही, अनुशा०प०१३४।१७ १० वही, शा० ५० १८०१४७ । ११. व्यास, महाभा० सभापर्व ५१५,८ ।
- १२०
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
पचावयवयुक्त वाक्य गुणदोपोका वेत्ता और 'अनुमान विभागवित्' वतलाया है । इन समस्त उल्लेखोसे अवगत होता है कि महाभारतमें अनुमानके उपादानो और उसके व्यवहार की चर्चा है ।
आन्वीक्षिकी शब्द अनुमानका वोधक है । इसका यौगिक अर्थ है अनु – पश्चात् + ईक्षा — देखना अर्थात् फिर जाँच करना । वात्स्यायन के अनुसार प्रत्यक्ष और आगमसे देखे जाने पदार्थको विशेष रूपसे जाननेका नाम 'अन्वीक्षा' है और यह अन्वीक्षा हो अनुमान है । अन्वीक्षापूर्वक प्रवृत्ति करनेवाली विद्या आन्वीक्षिकी— न्यायविद्या - न्यायशास्त्र है । तात्पर्य यह कि जिस शास्त्रमें वस्तु-सिद्धि के लिए अनुमानका विशेष व्यवहार होता है उसे वात्स्यायनने अनुमानशास्त्र, न्यायशास्त्र, न्यायविद्या और आन्वीक्षिकी बतलाया है । इस प्रकार आन्वीक्षिकी न्यायशास्त्रको सज्ञाको धारण करती हुई अनुमानके रूपको प्राप्त हुई है । डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषणनेर आन्वीक्षिकीमें मात्मा और हेतु दोनो विद्याओका समावेश किया I उनका मत है कि साख्य, योग और लोकायत आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि और असिद्धिमें प्राचीन कालसे ही हेतुवाद या आन्वीक्षिकीका व्यवहार करते आ रहे है ।
कौटिल्य के अर्थशास्त्रमें आन्वीक्षिकी के समर्थन में कहा गया है कि विभिन्न युक्तियो द्वारा विषयोका बलावल इसी विद्याके आश्रयसे ज्ञात होता है । यह लोकका उपकार करती है, दुख-सुखमें बुद्धिको स्थैर्य प्रदान करती है, प्रज्ञा, वचन और क्रियामें कुशलता लाती है । जिस प्रकार दीपक समस्त पदार्थोंका प्रकाशक है उसी प्रकार यह विद्या भी सब विद्याओ, समस्त कार्यों और समस्त धर्मोको प्रकाशिका है । कौटिल्यके इस विवेचन और उपर्युक्त वर्णनसे आन्वीक्षिकी विद्याको अनुमानका पूर्वरूप कहा जा सकता है ।
मनुस्मृतिमें" जहाँ तर्क और तर्को शब्दोका प्रयोग मिलता है वहाँ हेतुक, आन्वीक्षिकी और हेतुशास्त्र शब्द भी उपलब्ध होते हैं । एक स्थानपर' तो धर्मतत्त्वके जिज्ञासुके लिए प्रत्यक्ष और विविध आगमरूप शास्त्र के अतिरिक्त अनुमानको भी जाननेका स्पष्ट निर्देश किया है । इससे प्रतीत होता है कि मनुस्मृति - कारके समयमें हेतुशास्त्र और आन्वीक्षिकी शब्दोके साथ अनुमान शब्द भी व्यवहृत होने लगा था और उसे असिद्ध या विवादापन्न वस्तुओकी सिद्धिके लिए उपयोगी माना जाता था ।
९
पट्खण्डागममें” ‘हेतुवाद’, स्थानाङ्ग सूत्रमे ' 'हेतु', भगवती सूत्रमे 'अनुमान' और अनुयोगसूत्र में '
१०
१. प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमान साऽन्वीक्षा । प्रत्यक्षागमाभ्यामोक्षि तस्यान्वीक्षणमन्वीक्षा । तथा प्रवर्तत इत्यान्वीक्षिकी न्यायविद्या न्यायशास्त्रम् । वात्स्यायन, न्यायभा० १1१1१, पृ० ७ ।
२ A History of Indian Logice, Calcutta University 1921, page 5
३ कोटिल्य अर्थशास्त्र, विद्यासमुद्देश १1१, पृ० १०, ११ ।
४ विशेष के लिए देखिए, डा० सतीशचन्द्र विद्याभूषण, ए हिस्टरी ऑफ इण्डियन लॉजिक, पृ० ४० । ५ मनुस्मृति १२ १०६ १२ १११, ७४३, २०११, चौखम्बा स० सी०, वाराणसी ।
६ प्रत्यक्ष चानुमान च शास्त्र विविधागमम् ।
त्रय सुविदित कार्य धर्मशुद्धिमभीप्सता । - वही, १२1१०५ ।
७ भूतवली- पुष्पद्रन्त, पट्ख० ५।५।५१, सोलापुर सस्करण, सन् १९६५ ई० ।
८ मुनि कन्हैयालाल, स्था० सू० पृ० ३०९, ३१०, व्यावर संस्करण, वि० सं० २०१०
९ मुनि कन्हैयालाल, भ० सू० ५।३।१९१-९२, घनपतसिंह, कलकत्ता ।
१० मुनि कन्हैयालाल, अनु० सू० मूलसूत्ताणि, पृ० ५३९, व्यावर सस्करण, दि० स० २०१० |
- १२१ -
न-१६
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुमानके भेद-प्रभेदोंकी चर्चा समाहित है। अत जैनागमोंमें भी अनुमानका पूर्वरूप और अनुमान प्रतिपादित है।
इस प्रकार भारतीय वाड्मयके अनुशीलनसे अवगत होता है कि भारतीय तर्कशास्त्र आरम्भमें 'वाकोवाक्यम्', उसके पश्चात् आन्वीक्षिकी, हेतुशास्त्र, तर्कविद्या और न्यायशास्त्र या प्रमाणशास्त्रके रूपोमें व्यवहत हआ। उत्तरकालमें प्रमाणमीगसाका विकास होनेपर हेतविद्यापर अधिक बल दिया गया । फलत आन्वीक्षिकीमें अर्थसकोच होकर वह हेतूपूर्वक होनेवाले अनुमानकी बोधक हो गयी। अत 'वाकोवाक्यम्' आन्वीक्षिकीका और आन्वीक्षिकी अनुमानका प्राचीन मूल रूप ज्ञात होता है।
अनुमानका विकास अनुमानका विकास निबद्धरूपमें अक्षपादके न्यायसूत्रसे आरम्भ होता है। न्यायसूत्रके व्याख्याकारोवात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, जयन्त भद्र, उदयन, श्रीकण्ठ, गगेश, वर्द्धमानउपाध्याय, विश्वनाथ प्रभृति ने अनुमानके स्वरूप, आधार, भेदोपभेद, व्याप्ति, पक्षधर्मता, व्याप्तिग्रहण, अवयव आदिका विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। इसके विकासमे प्रशस्तपाद, माठर, कुमारिल जैसे वैदिक दार्शनिकोके अतिरिक्त वसुबन्धु, दिड्नाग, धर्मकीति, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर, शान्तरक्षित, अर्चट आदि बौद्ध नैयायिकों तथा समन्तभद्र, सिद्धसेन, पात्रस्वामी, अकलक, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, देवसूरि, हेमचन्द्र प्रमुख जैन ताकिकोने भी योगदान किया है। निसन्देह अनुमानका क्रमिक विकास तर्कशास्त्रको दृष्टिसे जितना महत्त्वपूर्ण एव रोचक है उससे कही अधिक भारतीय धर्म और दर्शनके इतिहासकी दृष्टिसे भी। यत भारतीय अनुमान केवल कार्यकारणरूप बौद्धिक व्यायाम ही नही है, बल्कि नि श्रेयस-उपलब्धिके साधनोमे वह परिगणित हैं। यही कारण है कि भारतीय अनुमानका जितना विचार तर्कग्रन्थों में उपलब्ध होता है उतना या उससे कुछ कम धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र और पुराणग्रन्थोमें भी वह पाया जाता है।
प्रस्तुतमें हमारा उद्देश्य स्वतन्त्र रूपसे भारतीय तर्कग्रन्थोमें अनुमानपर जो चिन्तन उपलब्ध होता है उसीके विकासपर यहाँ समीक्षात्मक विचार करना है। (क) न्याय-दर्शनमे अनुमान-विकास
अक्षपादने अनुमानकी परिभाषा केवल 'तत्पूर्वकम् २ पद द्वारा ही उपस्थित की है । इस परिभापामें "तत्" शब्द केवल स्पष्ट है, जो पूर्वलक्षित प्रत्यक्षके लिए प्रयुक्त हमा है और वह बतलाता है कि प्रत्यक्ष पूर्वक अनुमान होता है, किन्तु वह अनुमान है क्या? यह जिज्ञासा अतृप्त ही रह जाती है। सूत्रके अग्राशम अनुमानके पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदष्ट ये तीन भेद उपलब्ध होते हैं। इनमें प्रथम दो भेदोमें आगत 'वत्' शब्द भी विचारणीय है । शब्दार्थको दृष्टिसे 'पूर्वके समान' और 'शेषके समान' यही अर्थ उससे उपलब्ध होता है तथा 'सामान्यतोदष्ट' से 'सामान्यत दर्शन' अर्थ ज्ञात होता है । इसके अतिरिक्त उनके स्वरूपका कोई प्रदर्शन नहीं होता।
सोलह पदार्थों में एक अवयव पदार्थ परिगणित है । उसके प्रतिज्ञा, हेत, उदाहरण, उपनय और निग १ प्रदीप सर्वविद्याना । इह त्वध्यात्मविद्यायामात्मादितत्त्वज्ञान ।
-वात्स्यायन, न्यायभा० १११११, पृष्ठ ११ । २ गौतम अक्षपाद, न्यायसू० १२११५, । ३ न्यायसू० १११।५।
-१२२
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन इन पांच भेदोंका परिभाषासहित निर्देश किया है ।' अनुमान इन पांचसे सम्पन्न एवं सम्पूर्ण होता है । उनके बिना अनुमानका आत्मलाभ नही होता । अत अनुमानके लिए उनकी आवश्यकता असन्दिग्ध है । 'हेतु' शब्दका प्रयोग अनुमानके लक्षणमे, जो मात्र कारणसामग्रीको ही प्रदर्शित करता है, हमें नहीं मिलता, किन्तु उक्त पचावयवोके मध्य द्वितीय अवयवके रूप में 'हेतु' का और हेत्वाभासके विवेचन-सन्दर्भमें 'हेत्वाभासोका' स्वरूप अवश्य प्राप्त होता है।
अनुमान-परीक्षाके प्रकरणमें रोध, उपघात और मादृश्यसे अनुमानके मिथ्या होनेकी आशका व्यक्त की है। इस परीक्षासे विदित है कि गौतमके समयमें अनुमानकी परम्परा पर्याप्त विकसित रूपमें विद्यमान थी-'वर्तमानाभावे सर्वाग्रहणम्, प्रत्यक्षानुपपत्ते '४ सूत्रमें 'अनुपपत्ति' शब्दका प्रयोग हेतुके रूपमें किया है। वास्तवमें 'अनुपपत्ति' हेतु पचम्यन्त की अपेक्षा अधिक गमक है। इसीसे अनुमानके स्वरूपको भी निर्धारित किया जा सकता है। एक बात और स्मरणीय है कि 'व्याहतत्वात् अहेतु ५ सूत्रमें 'अहेतु' शब्दका प्रयोग सामान्यार्थक मान लिया जाए तो गौतमकी अनुमान-सारणिमें हेतु, अहेतु और हेत्वाभास शब्द भी उपलब्ध हो जाते है। अतएव निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गौतम अनुमानके मूलभूत प्रतिज्ञा, साध्य और हेतु इन तीनो ही अगोके स्वरूप और उनके प्रयोगसे सुपरिचित थे। वास्तवमें अनुमानकी प्रमुख आधार-शिला गम्य-गमक (साध्य-साधन) भाव योजना ही है । इस योजनाका प्रयोगात्मक रूप साधर्म्य और वैधर्म्य दृष्टान्तोमें पाया जाता है। पचावयावाक्यकी साधर्म्य और वैधर्म्यरूप प्रणालीके मूललेखक गौतम अक्षपाद जान पड़ते हैं । इनके पूर्व कणादके वैशेषिकसूत्रमें अनुमानप्रमाणका निर्देश 'लैगिक' शब्दद्वारा किया गया है, । पर उसका विवेचन न्यायसूत्र में ही प्रथमत दृष्टिगोचर होता है । अत अनुमानका निबद्धरूपमें ऐतिहासिक विकासक्रम गौतमसे आरम्भकर रुद्रनारायण पर्यन्त अकित किया जा सकता है। रुद्रनारायणने अपनी तत्त्वरोद्रीमे गगेश उपाध्याय द्वारा स्थापित अनुमानकी नव्यन्यायपरम्परामें प्रयुक्त नवीन पदावलीका विशेप विश्लेषण किया है। यद्यपि मूलभूत सिद्धान्त तत्त्वचिन्तामणिके ही हैं, पर भापाका रूप अधुनातन है और अवच्छेदकावच्छिन्न, प्रतियोगिताका भाव आदिको नवीन लक्षणावली में स्पष्ट किया है।
गौतमका न्यायसूत्र अनुमानका स्वरूप, उसकी परीक्षा, हेत्वाभास, अवयव एव उसके भेदोंको ज्ञात करनेके लिए महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । यद्यपि यह सत्य है कि अनुमानके निर्धारक तथ्य पक्षधर्मता, व्याप्ति और परामर्शका उल्लेख इसमें नहीं पाया जाता, तो भी अनुमानकी प्रस्तुत की गयी समीक्षासे अनुमानका पूरा रूप खडा हो जाता है। गौतमके समयमें अनुमान-सम्बन्धी जिन विशेष बातोंमें विवाद था उनका उन्होने स्वरूपविवेचन अवश्य किया है। यथा-प्रतिज्ञाके स्वरूप-निर्धारणके सम्बन्धमें विवाद था-कोई साध्यको प्रतिज्ञा मानता था, तो कोई केवल धर्मीको प्रतिज्ञा कहता था। उन्होंने साध्यके निर्देशको प्रतिज्ञा कहकर उस १ न्यायसू०, १।१।३२-३९ । २ वही, १।२।५-९ । ३ वही, २।११३८ । ४ वही, २।१।४३ । ५ वही, २११।२९ । ६ साध्यसाधात्तद्धर्मभावी दृष्टान्त उदाहरणम् । तद्विपर्ययाद्वा विपरीतम् ।-वही १११३६, ३७ । ७ तयोनिष्पत्ति प्रत्यक्षलैगिकाभ्याम् । अस्येद कार्य कारण सयोगि विरोधि समवायि चेति लैगिकम् ।
वैशेपिक सू० १०१।३, ९।२।१ । ८ साध्यनिर्देश प्रतिज्ञा।-न्यायसू० ११ ११३३ ।
- १२३
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवादका निरसन किया। इसी प्रकार अवयवों, हेतुओं, हेत्वाभासों एव अनुमान-प्रकारोके सम्बन्धमें वर्तमान विप्रतिपत्तियोका भी उन्होने समाधान प्रस्तुत किया और एक सुदृढ परम्परा स्थापित की ।
न्यायसूत्रके भाष्यकार वात्स्यायनने सूत्रोमें निर्दिष्ट अनुमानसम्बन्धी सभी उपादानोकी परिभाषाएँ अकित की और अनुमानको पुष्ट और सम्बद्ध रूप प्रदान किया है। यथार्थमे वात्स्यायनने गौतमको अमर बना दिया है। व्याकरणके क्षेत्रमें जो स्थान भाष्यकार पतजलिका है, न्यायके क्षेत्रमे वही स्थान वात्स्यायनका है । वात्स्यायनने सर्वप्रथम 'तत्पूर्वकम्' पदका विस्तार कर लिगलिंगिनो सम्बन्धदर्शनपूर्वकमनुमानम' परिभाषा अकित की । और लिंग-लिंगीके सम्बन्धदर्शनको अनुमानका कारण बतलाया।
गौतमने अनुमानके त्रिविध भेदोका मात्र उल्लेख किया था। पर वात्स्यायनने उनकी सोदाहरण परिभाषाएँ भी निबद्ध की है। वे एक प्रकारका परिष्कार देकर ही सन्तुष्ट नही हए, अपितु प्रकारान्तरसे दूसरे परिष्कार भी प्रथित किये है। इन व्याख्यामूलक परिष्कारोके अध्ययन बिना गौतमके अनुमानरूपोको अवगत करना असम्भव है । अत अनुमानके स्वरूप और उसकी भेदव्यवस्थाके स्पष्टीकरणका श्रेय बहुत कुछ वात्स्यायनको है।
अपने समयमें प्रचलित दशावयवकी समीक्षा करके न्यायसूत्रकार द्वारा स्थापित पचावयव-मान्यताका युक्तिपुरस्सर समर्थन करना भी उनका उल्लेखनीय वैशिष्टय है।" न्यायभाष्यमें साधर्म्य और वैधर्म्य प्रयुक्त हेतुरूपोकी व्याख्या भी कम महत्त्वकी नही है। द्विविध उदाहरणका विवेचन भी बहुत सुन्दर और विशद है। ध्यातव्य है कि वात्स्यायनने 'पूर्वस्मिन् दृष्टान्ते यो ती धौं साध्यसाधनभूती पश्यति, साध्येऽपि तयो साध्यसाधनभावमनुमिनोति ।" कहकर साधर्म्य दृष्टान्तको अन्वयदृष्टान्त कहने और अन्वय एव अन्वयव्याप्ति दिखानेका सकेत किया जान पडता है। इसी प्रकार 'उत्तरस्मिन् दृष्टान्ते तयोर्धर्मयोरेकस्यामावादितरस्पाभाव पश्यति, 'तयोरेकस्याभावावितरस्याभाव साध्येऽनमिनोतीति ।" शब्दों द्वारा उन्होने वैधयंदृष्टान्तको व्यतिरेकदृष्टान्त प्रतिपादन करने तथा व्यतिरेक एव व्यतिरेकव्याप्ति प्रदर्शित करनेकी ओर भी इंगित किया है। यदि यह ठीक हो तो यह वात्स्यायनकी एक नयी उपलब्धि है। सूत्रकारने हेतुका सामान्यलक्षण ही बतलाया है। पर वह इतना अपर्याप्त है कि उससे हेतुके सम्बन्धमें स्पष्टत जानकारी नहीं हो पाती । भाष्यकारने हेतु-लक्षणको उदाहरण द्वारा स्पष्ट करनेका सफल प्रयास किया है । उनका अभिमत है कि 'साध्यसाधन हेतुः' तभी स्पष्ट हो सकता है जब साध्य (पक्ष) तथा उदाहरणमें धर्म (पक्षधर्म हेतु) का प्रतिसन्धान कर उसमें साधनता बतलायी जाए। हेतु समान और असमान दोनो ही प्रकारके उदाहरण बतलाने पर साध्यका साधक होता है। यथा-न्यायसत्रकारके प्रतिज्ञालक्षण' को स्पष्ट करने के लिए उदा. हरणस्वरूप कहे गये 'शम्वोऽनित्य' को 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' १२ हेतुका प्रयोग करके सिद्ध किया गया है। तात्पर्य यह कि भाष्यकारने हेतुस्वरूपबोधक सत्रकी उदाहरणद्वारा विशद व्याख्या तो की ही है, पर 'साध्य
१ न्यायभा०, ११११५, पृष्ठ २१ ।। २, ३, ४ वही, ११११५, पृष्ठ २१, २२ । ५ न्यायभा० १३११३२, पृष्ठ ४७। ६ वही, ११११३४, ३५, पृष्ठ ४८ । ७ वही, ११११३७, पृष्ठ ५० । ८ वही, ११३७, पृष्ठ ५० । ९ न्यायसू० १।१।३४, ३५ । १० 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' इति । उत्पत्तिधर्मकमनित्य दृष्टमिति ।
-न्यायभा० १।१।३४, ३५, पृष्ठ ४८, ४९ । ११ साध्यनिर्देश प्रतिज्ञा-न्यासू० १।१३३ । १२ न्यायभा० १।१।३३, ३५, पृष्ठ ४८, ४९ ।
-१२४
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिसन्धाय धर्ममुदाहरणे च प्रतिसन्धाय तस्य साधनतावचन हेतु " कथन द्वारा साध्यके साथ नियत सम्बन्धीको हेतु कहा है । अत जिस प्रकार उदाहरणके क्षेत्रमे उनकी देन है उसी प्रकार हेतुके क्षेत्र में भी ।
अनुमानको प्रामाणिकता या सत्यता लिंग-लिंगोके सम्बन्धपर आश्रित है । वह सम्बन्ध नियत साहचर्यरूप है । सूत्रकार गौतम उसके विषयमे मौन हैं। पर भाष्यकारने उसका स्पष्ट निर्देश किया है । उन्होने लिगदर्शन और लिंगस्मृतिके अतिरिक्त लिंग ( हेतु ) और लिंगी ( हेतुमान् - साध्य ) के सम्बन्ध दर्शनको भी अनुमिति में आवश्यक बतला कर उस सम्बन्धके मर्मका उद्घाटन किया है । उसका मत है कि सम्बद्ध हेतु तथा हेतुमान्के मिलनेसे हेतुस्मृतिका अभिसम्बन्ध होता है और स्मृति एव लिंगदर्शनसे अप्रत्यक्ष (अनुमेय ) अर्थका अनुमान होता है । भाष्यकारके इस प्रतिपादन से प्रतीत होता है कि उन्होने 'सम्बन्ध' शब्दसे व्याप्ति सम्बन्धका और 'लिगलगिनी' सम्बद्धयोदर्शनम् पदोसे उस व्याप्ति सम्बन्धके ग्राहक भूयोदर्शन या सहचारदर्शनका संकेत किया है जिसका उत्तरवर्ती आचार्योंने स्पष्ट कथन किया तथा उसे महत्त्व दिया है । 3 वस्तुत लिंगलिंगीको सम्बद्ध देखनेका नाम ही सहचारदर्शन या भूयोदर्शन है, जिसे व्याप्तिग्रहण में प्रयोजक माना गया है । अत वात्स्यायन के मतसे अनुमानकी कारण सामग्री केवल प्रत्यक्ष (लिंगदर्शन) ही नही है, किन्तु लिंगदर्शन, लिंग-लिंगीसम्बन्घदर्शन और तत्सम्बन्धस्मृति ये तीनो हैं । तथा सम्बन्ध ( व्याप्ति) का ज्ञान उन्होंने प्रत्यक्ष द्वारा प्रतिपादन किया है, जिसका अनुसरण उत्तरवर्ती तार्किकोने भी किया है । ४
वात्स्यायनकी" एक महत्त्वपूर्ण उपलब्धि और उल्लेख्य है । उन्होने अनुमानपरीक्षा प्रकरणमे त्रिविध अनुमानोके मिथ्यात्वकी आशका प्रस्तुत कर उनकी सत्यताकी सिद्धिके लिए कई प्रकारसे विचार किया है । आपत्तिकार कहता है कि 'ऊपरके प्रदेशमें वर्षा हुई है, क्योकि नदीमें बाढ आयी हैं, ६ वर्षा होगी, क्योंकि चीटियाँ अण्डे लेकर जा रही है ये दोनो अनुमान सदोष हैं, क्योकि कही नदीकी धारामें रुकावट होनेपर भी नदी वाढ आ सकती है। इसी प्रकार चीटियोका अण्डो सहित सचार चीटियोके बिलके नष्ट होनेपर भी हो सकता है । इसी तरह सामान्यतोदृष्ट अनुमानका उदाहरण - 'मोर बोल रहे हैं, अत वर्षा होगी' - भी मिथ्यानुमान है, क्योकि पुरुष भी परिहास या आजीविका के लिए मोरकी बोली बोल सकता है। इतना ही नही मोरके बोलनेपर भी वर्षा नही हो सकती, क्योकि वर्षा और मोरके बोलने में कोई कार्य-कारण सम्वन्ध नही है । वात्स्यायन' इन समस्त आपत्तियो (व्यभिचार - शकाओ) का निराकरण करते हुए कहते हैं कि उक्त आपत्तियाँ ठीक नही हैं, क्योकि उक्त अनुमान नही है, अनुमानाभास हैं और अनुमानाभासोको अनुमान समझ लिया गया है। तथ्य यह है कि विशिष्ट हेतु ही विशिष्ट साध्यका अनुमापक होता
-
१ न्यायभा० ११११३४, ३५, पृष्ठ ४८, ४९ ।
२ लिंगलिंगिनो सम्बन्धदर्शन लिंगदर्शन चाभिसम्बद्ध्यते । लिंगलिंगिनो सम्बद्धयोर्दर्शनेन लिंग-स्मृतिरभिसम्बद्धयते । स्मृत्या लिंगदर्शनेन चाप्रत्यक्षोऽर्थोऽनुमीयते । - न्यायभा० १1१1५, पृ० २१ ।
३ यथास्व भूयोदर्शनसहायानि स्वाभाविकसम्बन्धग्रहणे प्रमाणान्युन्नेतव्यानि -- वाचस्पति, न्याय० ता० टी ० १ १५, पृ० १६७ ।
४ उद्योतकर, न्यायवा० १।११५, पृ० ४४ । न्यायवा० ता० टी० ११११५, पृ० १६७ । उदयन, न्यायवा० ता० टी० परिशु० १ ११५, पृ० ७०१ । गगेश, तत्त्वचिन्तामणि जागदी० पृ० ३७८, आदि ।
५ ६ ७ न्यायभा० २।१।३८, पृ० ११४ ।
८ न्यायभा० २ ११३८, पृष्ठ ११४ ।
९ वही, २।१।३९, पृष्ठ ११४, ११५ ।
- १२५ -
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
है । अत अनुमानकी सत्यताका आधार विशिष्ट ( साध्याविनाभावी) हेतु ही है, जो कोई नही । यहाँ वात्स्यायन के प्रतिपादन और उनके 'विशिष्ट हेतु' पदसे अव्यभिचारी हेतु अभिप्रेत है जो नियमसे साध्यका गमक होता है । वे कहते हैं कि यह अनुमाताका ही अपराध माना जाएगा कि वह अर्थविशेषवाले अनुमेय अर्थको सामान्य अर्थसे जाननेकी इच्छा करता है, अनुमानका नही ।
इस प्रकार वात्स्यायनने अनुमानके उपादानोंके परिष्कार एव व्याख्यामूलक विशदीकरणके साथ कितना ही नया चिन्तन प्रस्तुत किया है ।
अनुमानके क्षेत्रमें वात्स्यायनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य उद्योतकरका है । उन्होंने लिंगपरामर्शको ४ अनुमान कहा है । अब तक अनुमानकी परिभाषा कारण सामग्रीपर निर्भर थी । किन्तु उन्होने उसका स्वतन्त्र स्वरूप देकर नयी परम्परा स्थिर की । व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मताका ज्ञान ही परामर्श है । उद्योतकरकी दृष्टिमें लिगलिगसम्बन्धस्मृतिसे युक्त लिंगपरामर्श अभीष्टार्थ (अनुमेयार्थ ) का अनुमापक है । वे कहते हैं कि अनुमान वस्तुत. उसे कहना चाहिए, जिसके अनन्तर उत्तरकालमें शेषार्थ (अनुमेयार्थ ) प्रतिपत्ति (अनुमिति ) हो और ऐसा केवल लिंगपरामर्श ही है, क्योकि उसके अनन्तर नियमत अनुमिति उत्पन्न होती है । लिंगलिगसम्बन्धस्मृति आदि लिंगपरामर्शसे व्यवहित हो जानेसे अनुमान नही है । उद्योतकरकी यह अनुमानपरिभाषा इतनी दृढ एव बद्धमूल हुई कि उत्तरवर्ती प्राय सभी व्याख्याकारोंने अपने व्याख्या- प्रन्थो में उसे अपनाया है । नव्यनैयायिकोनें तो उसमें प्रभूत परिष्कार भी उपस्थित किये हैं, जिससे तर्कशास्त्र के क्षेत्रमें अनुमानने व्यापकता प्राप्त की है । और नया मोड लिया है।
न्यायवार्तिककारने' गौतमोक्त पूर्ववत् शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट इन तीनो अनुमान -भेदोकी व्याख्या करनेके अतिरिक्त अन्वयी, व्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी इन तीन नये अनुमान -भेदोकी भी सृष्टि की है, जो उनसे पूर्व न्यायपरम्परामें नही थे । 'त्रिविधम्' सूत्रके इन्होंने कई व्याख्यान प्रस्तुत किये हैं ।" निश्चयत उनका यह सब निरूपण उनकी मौलिक देन है । परवर्ती नैयायिकोने उनके द्वारा रचित व्याख्याओका ही स्पष्टीकरण किया है ।
उद्योतकर द्वारा बौद्धसन्दर्भ में की गयी हेतुलक्षणसमीक्षा भी महत्त्व की है। बौद्ध" हेतुका लक्षण त्रिरूप
१, २ वही ० २।१।३९, पृष्ठ ११५ ।
३ न्यायवा० ११११५, पृष्ठ ४५ आदि ।
४ वही ११११५, पृष्ठ ४५ ।
५ तस्मात् स्मृत्यनुगृहीतो लिंगपरामर्शोऽभीष्टार्थप्रतिपादक - वही, १1११५, पृ० ४५ ।
६ यस्माल्लिगपरामर्शादनन्तर शेषार्थप्रतिपत्तिरिति । तस्माल्लिंगपरामर्शो न्याय्य इति ।
स्मृतिर्न प्रधानम् । किं कारणम् ? स्मृत्यनन्तरमप्रतिपत्ते
। वही, १1१1५, पृ० ५ ।
७ वाचस्पति, न्यायवा० ता० टी० ११११५, पृ० १६९ । तथा उदयन, ता० टी० परिशु० १1१1५, पृ० ७०७ ।
८ गगेश उपाध्याय, तत्त्वचिन्तामणि, जागदीशी, पृ० १३, ७१ । विश्वनाथ, सिद्धान्तमु० पृष्ठ ५० आदि ।
९ न्यायवा० १।११५, पृ० ४६ ।
१० वही, १1१1५, ०४६-४९ ।
११ दिग्नागशिष्य शङ्कर, न्यायप्रवेश, पृ० १ ।
- १२६ -
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानते है । पर उद्योतकर न केवल उसकी ही आलोचना करते हैं, अपितु द्विलक्षणकी भी मीमासा करते हैं ।" किन्तु सूत्रकारोक्त एव भाष्यकार समर्थित द्विलक्षण, त्रिलक्षणके साथ चतुर्लक्षण और पचलक्षण हेतु उन्हें इष्ट े हैं । अन्वयव्यतिरेकीमे पचलक्षण और केवलान्वयी तथा केवलव्यतिरेकी में चतुर्लक्षण घट
है । यहाँ उद्योतकरकी विशेषता यह है कि वे न्यायभाष्यकारकी आलोचना करनेसे भी नही चूकते । वात्स्या यनने ' तथा वैधर्म्यात्' इस वैधर्म्य प्रयुक्त हेतुलक्षणका उदाहरण साधर्म्य प्रयुक्त हेतुलक्षणके उदाहरण 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' को ही प्रस्तुत किया है । इसे वे" युक्तिसंगत न मानते हुए कहते हैं कि यह तो मात्र प्रयोगभेद है । और प्रयोगभेदसे वस्तु (हेतु ) भेद नही हो सकता । अथवा वह केवल उदाहरणभेद हैआत्मा और घट | यदि उदाहरण-भेदसे भेद हो तो 'तथा वैधर्म्यात्' यह सूत्र नही होना चाहिए, क्योकि उदाहरण भेदसे ही हेतुभेद अवगत हो जाता हैं और भेदक उदाहरणसूत्र 'तद्विपर्ययाद्वा विपरीतम्' सूत्रकारने कहा ही है । अत 'उत्पत्तिधर्मकत्वात्' यह वैधर्म्य प्रयुक्त हेतुका उदाहरण ठीक नही है । किन्तु 'नेद निरात्मकं जीवच्छरीरं अप्राणादिमत्त्वप्रसगादिति' यह उदाहरण उचित है । इस प्रकार न्यायभाष्यकारकी मीमासा सूत्रकारद्वारा प्रतिपादित हेतुद्वयकी पुष्टिमें ही की गयी है । अतएव उद्योतकर अन्तिम निष्कर्ष निकालते हुए लिखते है कि परोक्त हेतुलक्षण सम्भव नही है, यही आर्ष (सूत्रकारोक्त ) हेतुलक्षण सगत है ।
न्यायभाष्यकारके" समय तक अनुमानावयवोकी मान्यता दो रूपोमें उपलब्ध होती है - (१) पचावयव और (२) दशावयव । वात्स्यायनने दशावयवमान्यताकी मीमासा करके सूत्रकार प्रतिपादित पचावयव - मान्यता की पुष्टि की है। पर उद्योतकरने' त्र्यवयवमान्यता की भी समीक्षा की है । यह मान्यता बौद्ध तार्किक दिङ्नागकी है, क्योकि दिङ्नागने ही अधिक-से-अधिक तीन अवयव स्वीकार किये हैं | साख्य विद्वान् माठरने° भी अनुमानके तीन अवयव प्रतिपादित किये हैं । यदि माठर दिङ्नागसे पूर्ववर्ती हैं तो श्यवयवमान्यता उनकी समझना चाहिए। इस प्रकार कितनी ही स्थापनाओ और समीक्षाओके रूपमें उद्योतकर की उपलब्धियाँ हम उनके न्यायवार्तिक में पाते है ।
वाचस्पतिकी' भी अनुमान के लिए महत्त्वपूर्ण देन है । व्याप्तिग्रहकी सामग्री में तर्कका प्रवेश उनकी ऐसी देन है जिसका अनुसरण उत्तरवर्ती सभी नैयायिकोने किया है। उद्योतकर द्वारा प्रतिपादित 'लिंग
१ 'त्रिलक्षण च हेतु बुवाणेन - अहेतुत्वमिति प्राप्तम् । तादृग विनाभाविधर्मोपदर्शन हेतुरित्यपरे तादृशा बिना न भवतीत्यनेन द्वय लभ्यते ।' न्यायवा० १।१।३५, पृ० १३१ ।
२ चशब्दात् प्रत्यक्षागमाविरुद्ध चेत्येव चतुर्लक्षण पचलक्षणमनुमानमिति । -- वही, १1११५, पृ० ४६
३ न्यायभा० १|११५, पृ० ४९ ।
४ न्यायसू० १।१।३५ ।
५ एतत्तु न समजसमिति पश्याम प्रयोगमात्रभेदात् । उदाहरणमात्रभेदाच्च । तस्मान्नेद उदाहरण न्याय्यमिति । उदाहरण तु 'नेद निरात्मक जीवच्छरीर अप्रमाणादिमत्व प्रसगादिति । न्यायवा० ११३५, पृ० १२३ ।
६ न्यायवा०, १११।३५, पृ० १३४ ।
७ न्यायमा ० १ १ ३२, पृ० ४७ ॥
९ न्यायप्रवेश पृ० १ २ ।
८ न्यायवा० १।१।३२, पृ० १०८ ।
१० पक्षहेतुदृष्टान्ता इति व्यवयवम् - माठर वृ०, का० ५ ।
११ न्यायवा० ता० टी० ११११५, पृ० १६७, १७०, १७८, १६५ तथा १।१।३२, पृ० २६७ ।
- १२७ -
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
परामर्शरूप' अनुमान-परिभापाका समर्थन करके उसे पुष्ट किया है। दो अवयवकी मान्यता भी उल्लेख करके उसकी समीक्षा प्रस्तुत की है। यह दो अवयवकी मान्यता धर्मकीर्तिकी' है । न्यायदर्शनमें अविनाभावका सर्वप्रथम स्वीकार या पक्षधर्मत्वादि पांच रूपोके अविनाभाव द्वारा सग्रहका विचार उन्हीके द्वारा प्रविष्ट हुआ है। लिंग-लिंगीके सम्बन्धको स्वाभाविक प्रतिपादन करना और उसे निरुपाधि अगीकार करना उन्हीकी सूझ है।
____ जयन्तभट्टका भी अनुमानके लिए कम महत्त्वपूर्ण योगदान नही है। उन्होने न्यायमजरी और न्यायकालिकामें अनुमानका सागोपाग निरूपण किया है। वे स्वतन्त्र चिन्तक भी रहे है । यहां हम उनके स्वतन्त्र विचारका एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । न्यायमञ्जरीमें हेत्वाभासोके प्रकरण में उन्होंने अन्यथासिद्धत्व नामके एक छठे हेत्वाभासकी चर्चा की है। सूत्रकारके उल्लघनकी बात उठनेपर वे कहते हैं कि सूत्रकारका उल्लघन होता है तो होने दो, सुस्पष्ट दृष्ट अप्रयोजक हेत्वाभासका अपह्नव नही किया जा सकता । पर अन्तमें वे उसे उद्योतक रफी तरह असिद्धवर्गमें अन्तर्भूत कर लेते हैं । 'अथवा' के साथ यह भी कहा है कि अप्रयोजकत्व (अन्यथासिद्धत्व) सभी हेत्वाभासवृत्ति अनुगत सामान्यरूप है । न्यायकलिकामें भी यही मत स्थिर किया है। समव्याप्ति और विषमव्याप्तिका निर्देश भी उल्लेखनीय है । अवयव-समीक्षा, हेतुसमीक्षा आदि अनुमान-सम्बन्धी विचार भी महत्त्वपूर्ण है।
उदयनका चिन्तन सामान्यतया पूर्वपरम्पराका समर्थक है, किन्तु अनेक स्थलोपर उनकी स्वस्थ और सूक्ष्म विचारधारा उनकी मौलिकताका स्पष्ट प्रकाशन करती है । उपाधि और व्याप्तिकी जो परि- । भाषाएँ उन्होने प्रस्तुत की उत्तरकालमें उन्हीको केन्द्र बनाकर पुष्कल विचार हुआ है।
अनुमानके विकासमें अभिनव क्रान्ति उदयनसे आरम्भ होती है। सूत्र और व्याख्यापद्धतिके स्थानमें करण-पद्धतिका जन्म होता है और स्वतन्त्र प्रकरणो द्वारा अनमानके स्वरूप, आधार, अवयव, परामर्श, व्याप्ति, उपाधि, हेतु एव पक्ष-सम्बन्धी दोषोंका इस कालमें सूक्ष्म विचार किया गया है।
गगेशने तत्त्वचिन्तामणिमें अनुमानकी परिभाषा तो वही दी है जो उद्योतकरने न्यायवार्तिकमें उपस्थित की है, पर उनका वैशिष्ट्य यह है कि उन्होने अनुमितिकी ऐसी परिभाषा" प्रस्तुत की है जो न्यायपरम्परामें अब तक प्रचलित नही थी। उसमें प्रयुक्त व्याप्ति और पक्षधर्मता पदोका उन्होने सर्वथा अभिनव १ 'अथवा तस्यैव साधनस्य यन्नाग प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि "
-वादन्याय० पृ० ६१ । किन्तु धर्मकीर्ति, न्यायबिन्दु (पृ० ९१ ) में दृष्टान्तको हेतुसे पृथक् नही मानते और हेतु को ही सावनावयव बतलाते है । प्रमाणवार्तिक (१-१२८) में भी 'हेतुरेव हि केवल'
कहते हैं। २ न्यायमजरी पृष्ठ १३१, १६३-१६६ । ३ मप्रयोजकत्व च सर्वहेत्वाभासानामनुगत रूपम् ।-न्यायक० पृष्ठ १५ । ४ किरणावली० पृष्ठ २६७ । ५ तत्र व्याप्तिविशिष्टपक्षधर्मताज्ञानजन्य ज्ञानमनुमिति., तत्करणमनुमानम् । -त० चि०, अनुमानलक्षण,
पृष्ठ १३ । ६ नन्वनुमितिहेतुन्याप्तिज्ञाने का व्याप्ति । न तावदव्यभिचरितत्वम । नापि ।अत्रोच्यते । प्रतियोग्य
सामानाधिकरणयत्सामानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्न यन्न भवति तेन सम तस्य सामानाधिकरण्य व्याप्ति ।
-त० चि०, अनुमानलक्षण, पृष्ठ ७७, ८६, १७१, १७८, १८१, १८६-२०९ । ७ वही, पृष्ठ ६३१ ।
१२८
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
तथा विस्तृत स्वरूप प्रदर्शित किया है। व्याप्तिग्रहके सावनोमें सामान्यलक्षणाप्रत्यासात्तिपर उन्होने सर्वाधिक बल दिया है। उनका अभिमत है कि यदि सामान्यलक्षणा न हो तो अनुकूल तर्कादिके बिना घूमादिमें आशकित व्यभिचार नही बन सकेगा, क्योंकि प्रसिद्ध धूममें वह्निसम्बन्धका ज्ञान हो जानेसे कालान्तरीय एव देशान्तरीय धूमके सद्भावका साधक प्रमाण न होनेसे उसका ज्ञान नही होता। सामान्यलक्षणा द्वारा तो समस्त धूमोको उपस्थिति हो जाने और धूमान्तरका विशेष दर्शन न होनेसे व्यभिचारकी आशका सम्भव है । तात्पर्य यह कि व्यभिचारशकाके लिए सामान्यलक्षणाका मानना आवश्यक है और व्यभिचारशकाके होने पर ही तर्कादिकी उपयोगिता प्रमाणित होती है। इसी प्रकार गगेशने अनुमानके सम्बन्ध मे मौलिक विवेचन नव्यन्यायके आलोकमें कर नये सिद्धान्त प्रस्तुत किये हैं।
विश्वनाथ, जगदीश तर्कालकार, मथुरानाथ तर्कवागीश, गदाधर आदि नव्यनैयायिकोने भी अनुमान पर बहुत ही सूक्ष्म विचार करके उसे समृद्ध किया है । केशव मिश्रकी तर्कभाषा और अन्नम्भट्टको तर्कसंग्रह प्राचीन और नवीन न्यायकी प्रतिनिधि तर्ककृतियां हैं, जिनमें अनुमानका सुबोध और सरल भाषामें विवेचन उपलब्ध है।
(ख) वैशेषिक-दर्शनमे अनुमानका विकास
वैशेषिकदर्शनसुत्रप्रणेता कणादने स्वतन्त्र दर्शनका प्रणयन करके उसमें पदार्थकी सिद्धि (व्यवस्था) प्रत्यक्षके अतिरिक्त लैगिक द्वारा भी प्रतिपादित की है और हेतु, अपदेश, लिंग, प्रमाण जैसे हेतुवाची पर्यायशब्दोका प्रयोग तथा कार्य, कारण, सयोगि, विरोधि एव समवाय इन पाच लैगिकप्रकारो और त्रिविध हेत्वाभासोंका निर्देश किया है। उनके इस संक्षिप्त अनुमान-निरूपणमें अनुमानका सूत्रपात मात्र दिखता है, विकसित रूप कम मिलता है। पर उनके भाष्यकार प्रशस्तपादके भाष्यमें अनुमान-समीक्षा विशेष रूपमें उपलब्ध होती है । अनुमानका लक्षण प्रशस्तपादने इस प्रकार दिया है-लिंगवर्शनात्सजायमान लैंगिकम् अर्थात् लिंगदर्शनसे होनेवाले जानको लैगिक कहते हैं। इसी सन्दर्भमें उन्होंने लिंगका स्वरूप बतलानेके लिए काश्यपकी दो कारिकाएँ उद्धत की है जिनका आशय प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि जो अनुमेय अर्थके साथ किसी देशविशेष या कालविशेषमें सहचरित हो, अनु मेयधर्मसे समन्वित किसी दूसरे सभी अथवा एक स्थानमें प्रसिद्ध (विद्यमान) हो और अनमेयसे विपरीत सभी स्थानोंमें प्रमाणसे असत (व्यावत्त) हो अप्रसिद्ध अर्थका अनुमापक लिंग है। किन्तु जो ऐसा नही वह अनुमेय के ज्ञानमे लिंग नही है-लिंगाभास है। इस प्रकार प्रशस्तपादने सर्वप्रथम लिंगको त्रिरूप वणित किया है। बौद्ध ताकिक दिनागने भी हेतको त्रिरूप बतलाया है । सम्भवत वह प्रशस्तपादका अनुसरण है ।
१ व्याप्तिग्रहश्च सामान्यलक्षणाप्रत्यासत्या सकलधूमादिविषयक । यदि सामान्यलक्षणा नास्ति तदा ।
-वहीं, पृष्ठ ४३३, ४५३ । २ वैशेषि० द०१०११३, तथा ९।२।१,४ । ३ प्रश० भा०, पृष्ठ ९९ । ४,५ वही, पृ० १००, १०१ । ६ हेतुस्त्रिरूप । किं पुनस्त्ररूप्यम । पक्षधर्मत्व सपक्षे सत्त्व विपक्षे चासत्त्वमिति । -न्यायप्र० पृ० १ ।
- १२९ -
न-१७
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
व्याप्तिग्रहण के प्रकारका निरूपण भी हम प्रशस्तपाद के भाष्य में सर्वप्रथम देखते हैं । उन्होने उसे बतलाते हुए लिखा है कि 'जहाँ घूम होता है वहाँ अग्नि होती है और अग्नि न होने पर घूम भी नही होता, इस प्रकारसे व्याप्तिको ग्रहण करने वाले व्यक्तिको असन्दिग्ध घूमको देखने और घूम तथा वह्निके साहचर्यका स्मरण होनेके अनन्तर अग्निका ज्ञान होता है । इसी तरह सभी अनुमानोमें व्याप्तिका निश्चय अन्वयव्यतिरेकपूर्वक होता है । अत समस्त देश तथा कालमें साध्याविनाभूत लिंग साध्यका अनुमापक होता है ।' व्याप्तिग्रहण के प्रकारका इस तरहका स्पष्ट निरूपण प्रशस्तपादसे पूर्व उपलब्ध नही होता ।
प्रशस्तपादने ऐसे कतिपय हेतुओके उदाहरण प्रस्तुत किये हैं जिनका अन्तर्भाव सूत्रकार कणादके उक्त कार्यादि पचविध हेतुओमें नही होता । यथा - चन्द्रोदयसे समुद्रवृद्धि और कुमुदविकासका, शरमें जलप्रसादसे अगस्त्योदय का अनुमान करना । अतएव वे सूत्रकारके हेतुकथनको अवधारणार्थक न मानकर 'अस्येदम्' इस सम्बन्धमात्र के सूचक वचनसे चन्द्रोदयादि हेतुओका, जो कार्यादिरूप नही है, सग्रह कर लेते हैं । यह प्रतिपादन भी प्रशस्तपादको अनुमानके क्षेत्र में एक देन है ।
अनुमानके दृष्ट और सामान्यतोदृष्टके भेदसे दो भेदो तथा स्वनिश्चितार्थानुमान और परार्थानुमान के भेदसे भी दो भेदोका वर्णन, शब्द, चेष्टा, उपमान, अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव और ऐतिह्य का अनुमानमें अन्तर्भाव-प्रतिपादन, ५ परार्थानुमानवाक्यके प्रतिज्ञा, अपदेश, निदर्शन, अनुसन्धान, प्रत्याम्नाय इन पाँच अवयवोकी परिकल्पना, हेत्वाभासोंका अपने ढगका चिन्तन, अनध्यवसितनाम के हेत्वाभासको कल्पना और फिर उसे असिद्ध के भेदोमें हो अन्तर्भूत करना तथा निदर्शनके विवेचनप्रसग में निदर्शनाभासोका कथन, ' जो न्यायदर्शनमें उपलब्ध नही होता, केवल जैन और बौद्ध तर्कग्रन्थोमें वह मिलता है, आदि अनुमानसम्बन्धी सामग्री प्रशस्तपादभाष्य में पर्याप्त विद्यमान है ।
व्योमशिव, श्रीधर आदि वैशेषिक तार्किकोने भी अनुमानपर विचार किया है और उसे समृद्ध बनाया है। (ग) बौद्ध दर्शनमे अनुमानका विकास
बौद्ध तार्किकोंने तो भारतीय तर्कशास्त्रको इतना प्रभावित किया हैं कि अनुमानपर उनके द्वारा सख्याबद्ध ग्रन्थ लिखे गये हैं । उपलब्ध बौद्ध तर्कप्रन्योमें सबसे प्राचीन तर्कशास्त्र और उपायहृदये' नामक १ विधिस्तु यत्र घूमस्तत्राग्निरग्न्यभावे घूमोऽपि न भवतीति । एव प्रसिद्धसमयस्यासन्निग्धघूमदर्शनात् साहचर्यानुस्मरणात् तदनन्तरमग्न्यध्यवसायो भवतीति । एव सर्वत्र देशकाला विनाभूतमितरस्य लिंगम् । -- प्रश० भा० पृष्ठ १०२, १०३
२ शास्त्र कार्यादिग्रहण निदर्शनार्थ कृत नावधारणार्थम् । कस्मात् ? व्यतिरेकदर्शनात् । तद्यथा - व्यवहितस्य हेतुलिङ्गम्, चन्द्रोदय समुप्रवृद्धे कुमुदविकासस्य च' । वही, पृष्ठ १०४ /
३ प्रश० भा० पृष्ठ १०४ ।
४ वही पृष्ठ १०६, ११३ ।
५ वही, पृष्ठ १०६-११२ ।
६ वही, पृष्ठ ७ वही, पृष्ठ
८. वही, पृष्ठ ११६ तथा १२० ।
११४- १२७ ।
११६-१२१ ।
९ वही, पृष्ठ १२२ ।
१० ओरियटल इस्टीट्यूट बडौदा द्वारा प्रकाशित Per Dinnaga Budhist texts on Logic Form
Chinese Sources के अन्तर्गत ।
११ वही ।
- १३० -
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
दो ग्रन्थ माने जाते हैं। तर्कशास्त्रमें तीन प्रकरण हैं। प्रथममें परस्पर दोषापादन, खण्डनप्रक्रिया, प्रत्यक्षविरुद्ध, अनुमानविरुद्ध, लोकविरुद्ध तीन विरुद्धोका कथन, हेतुफलन्याय, सापेक्षन्याय, साधनन्याय, तथतान्याय चार न्यायोका प्रतिपादन आदि है। द्वितीयमें खण्डनभेदो और ततीयमें उन्हीं वाईस निग्रहस्थानोका अभिधान है, जिनका गौतमके न्यायसूत्रमें है। किन्तु गौतमकी तरह हेत्वाभास पांच वणित नही है, अपितु असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक तीन अभिहित हैं। जैसी युक्तियाँ और प्रत्युक्तियाँ इसमें प्रदर्शित है उनसे अनुमानका उपहास ज्ञात होता है। पर इतना स्पष्ट है कि शास्त्रार्थमें विजय पाने और विरोधीका मुंह वन्द करनेके लिए सद्-असद् तर्क उपस्थित करना उस समयकी प्रवृत्ति रही जान पड़ती है।
उपायहृदयमें चार प्रकरण हैं। प्रथममें वादके गुण-दोपोका वर्णन करते हुए कहा गया है कि वाद नही करना चाहिए, क्योकि उससे वाद करनेवालोको विपुल क्रोध और अहकार उत्पन्न होता है तथा चित्त विभ्रान्त, मन कठोर, परपापप्रकाशक और स्वकीय पाण्डित्यका अनुमोदक बन जाता है । इसके उत्तर में कहा गया है कि तिरस्कार, लाभ और ख्यातिके लिए वाद नही, अपितु सुलक्षण और दुर्लक्षण उपदेशकी इच्छासे वह किया जाना चाहिए । पदि लोकमें वाद न हो तो मूर्योका बाहुल्य हो जायगा और उससे मिथ्याज्ञानादिका साम्राज्य जम जाएगा। फलत ससारकी दुर्गति तथा उत्तम कार्योंकी क्षति होगी। इस प्रकरणमें न्यायसूत्रकी तरह प्रत्यक्षादि चार प्रमाण और पूर्ववदादि तीन अनुमान वर्णित हैं । आठ प्रकारके हेत्वाभासो आदिका भी निरूपण है। द्वितीयमें वादधर्मों आदिका, तृतीयमें दूषणो आदिका और चतुर्थमें बीस प्रकारके प्रश्नोत्तर धर्मों, जिनका न्यायसूत्रमे जातियोके रूपमें कथन है, आदिका वर्णन है। उल्लेख्य है कि इसमें पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट इन अनुमानोंके जो उदाहरण दिये गये हैं वे न्यायमाप्यगत उदाहरणोंसे भिन्न तथा अनुयोगसूत्र और युवितदीपिकासे अभिन्न है। इससे प्रतीत होता है कि इसमे किसी प्राचीन परम्पराका अनुसरण है।
यहाँ इन दोनो ग्रन्थोके सक्षिप्त परिचयका प्रयोजन केवल अनुमानके प्राचीन स्रोतको दिखाना है। परन्तु उत्तरकालमें इन ग्रन्थोकी परम्परा नहीं अपनायी गयी। न्यायप्रवेश में अनुमानसम्बन्धी अभिनव परम्पराएँ स्थापित की गयी है। साधन (परार्थानुमान) के पक्ष, हेतु और दृष्टान्त तीन अवयव, हेतुके पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षासत्त्व तीन रूप, पक्ष, सपक्ष और विपक्ष के लक्षण तथा पक्षलक्षणमे प्रत्यक्षाद्य विरुद्ध विशेपणका प्रवेश, जो प्रशस्तपादके अनुसरणका सूचक है, नवविध पक्षाभास, तीन हेत्वाभास और उनके प्रभेद, द्विविध दृष्टान्ताभास और प्रत्येकके पांच-पांच भेद, प्रत्यक्ष और अनुमानके भेदमे द्विविध
१ यथापूर्वमुक्तास्त्रिविधा । असिद्धोऽनकान्तिको विरुद्धश्वेति हेत्वाभासा ।-तर्कशास्त्र पृष्ठ ४० । २. वही, पृष्ठ ३ । ३. उपायहृदय पृष्ठ ३ । ४ वही, पृष्ठ ६-१७, १८-२१, २२-२५, २६-३२ । ५ यया पडगुलि मपिडकमूर्धान बाल दृष्ट्वा पश्चावृद्ध बहुश्रुत देवदत्त दृष्ट्वा पहगुलिस्मरणात् सोऽयमिति पूर्ववत् । शेषवत् यथा, सागरसलिल पीत्वा तल्लवण समनुभय शेषमपि सलिल तुल्यमेव लवणमिति ।
-वही, पृष्ठ १३ । ६ स० मुनिश्री कन्हैयालाल, मूलसुत्ताणि, अ० सू० पृष्ठ ५३९ । ७ यु० दी० का० ५, पृष्ठ ४५ । ८ न्या० प्र० पृष्ठ १-८।
-१३१
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाण, लिंगसे होनेवाले अर्थ (अनुमेय) दर्शनको अनुमान, हेत्वाभासपूर्वक होनेवाले ज्ञानको अनुमानाभास, दूपण और दूपणाभारा आदि अनुमानोपयोगी तत्त्वो का स्पष्ट निरूपण करके बौद्ध तर्कशास्त्रको अत्यधिक पुष्ट तथा पल्लवित किया गया है। इसी प्रयोजनको पुष्ट और बढ़ावा देनेके लिए दिङ्नागने न्यायद्वार, प्रमाणसमुच्चय सवृत्ति, हेतुचक्रसमर्थन आदि ग्रन्थोकी रचना करके उनमें प्रमाणका विशेषतया अनमानका विचार किया है।
धर्मकीतिने प्रमाणरामुच्चयपर अपना प्रमाणवातिक लिसा है, जो उद्योतकरके न्यायवातिककी तरह व्याख्येय ग्रन्थसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण और यशस्वी हुआ। इन्होने हेतुयिन्दु, न्यायविन्दु आदि स्वतन्य प्रकरण-ग्रन्योकी भी रचना की है और जिनसे बौद्ध तर्कशास्त्र न केवल समृद्ध हुआ, अपितु अनेक उपलब्धियां भी उसे प्राप्त हुई है। न्यायविन्दु में अनुमानका लक्षण और उसके द्विविध भेद तो न्यायप्रवेश प्रतिपादित ही है। पर अनुमानके अवयव धर्मकोतिने तीन न मानकर हेतु और दृष्टान्त ये दो अयवा फेवल एक हेतु ही माना है। हेतु के तीन भेद (स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि), अविनाभावनियामक तादात्म्य
और तदुत्पत्तिसम्बधद्वय, यारह अनुपलब्धियां आदि चिन्तन धर्मको तिकी देन है। इन्होने जहाँ दिड्नागके विचारोका समर्थन किया है वहां उनकी कई मान्यताओकी मालोचना भी की है। दिइनागने विरुद्ध हेत्वाभामके भेदोमें इष्टविघातकृत नामक तृतीय विरुद्ध हेत्वाभाम, गनेकान्तिकभेदोमें विरुद्धाव्यभिचारी और साधनावयवोमे दृष्टान्तको स्वीकार किया है। धर्मकीतिने न्यायविन्दुमे इन तीनोकी समीक्षा की है। इनकी विचार-धाराको उनको शिष्यपरम्परामें होनेवाले देवेन्द्रवुद्धि, शान्तभद्र, विनीतदेव, अर्चट, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकर आदिने पुष्ट किया और अपनी व्याख्याओ-टीकाओ आदि द्वारा प्रवृद्ध किया है। इस प्रकार वौद्धतर्कशास्त्रके विकासने भी भारतीय अनुमानको अनेक रूपोमे समृद्ध किया है। (घ) मीमासक-दर्शनमे अनुमानका विकास
बौद्धों और नैयायिकोके न्यायशास्त्र विकासका अवश्यम्भावी परिणाम यह हआ कि मीमामक जैसे दर्शनोंमें, जहां प्रमाणकी चर्चा गौण थी, कुमारिलने श्लोकवार्तिक, प्रभाकरने वृहती शालिकनाथने वृहतीपर पचिका और पार्थसारथिने शास्यदीपिकान्तर्गत तर्कपाद जैसे ग्रन्थ लिखकर तर्कशास्त्रको मोमासक दृष्टिमे प्रतिष्ठिन किया । श्लोकवाति कमें तो कुमारिलने एक स्वतन्त्र अनुमान-परिच्छेदकी रचना करके अनुमानका विशिष्ट चिन्तन किया है और व्याप्य हो यो गमक होता है इसका सूक्ष्म विचार करते हुए उन्होने व्याप्य एव व्याप्तिके सम और विषम दो रूप बतलाकर अनुमानकी समृद्धि को है। १ प० दलसुखभाई मालवाणिया, धर्मोत्तर-प्रदीप, प्रस्ताय० पृष्ठ ४१ । २ धर्मोत्तरप्रदीप, प्रस्तावना, पृष्ठ ४४ । ३ अथवा तस्यैव साधनस्य यन्नाङ्ग प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि ।-सपादक राहुल साकृत्यायन, वादन्या०
पृष्ठ ६१ । ४ धर्मकोति, न्यायबिन्दु, तृतीय परि०, पृष्ठ ९१ । ५ (क) तप च तृतीयोऽपोष्ट विधातद्विरुद्ध । स इह कस्मान्नोक्त । अनयोरेवान्तर्भावात् ।
(ख) विरुद्धाव्यभिचार्यपि सशयहेतु रुक्त । स इह कस्मान्नोक्त । अनुमानविषयेऽ-सम्भवात् । (ग) त्रिरूपो हेतुरुक्त । तावतवार्थप्रतीतिरिति न पृथग्दष्टान्तो नाम साधनावयव कश्चित् ।-न्यायबि०
पृष्ठ ७९-८०, ८६, ९१ । ६ मी० श्लो०, अनुमा० परि०, श्लोक ४-७ तथा ८-१७१ ।
-१३२
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
(अ) वेदान्त और साख्यदर्शनमे अनुमान-विकास
वेदान्तमें प्रमाणशास्त्रकी दृष्टिसे वेदान्तपरिभाषा जैसे ग्रन्थ लिखे गये है । साख्य विद्वान् भी पीछे नही रहे। ईश्वर कृष्णने अनुमानका प्रामाण्य स्वीकार करते हुए उसे विविध प्रतिपादित किया है । माठर, युक्तिदीपिकाकार, विज्ञानभिक्षु और वाचस्पति आदिने अपनी व्याख्याओ द्वारा उसे सम्पुष्ट और विस्तृत किया है।
जैनदर्शनमे अनुमान-विकास जैन वाड्मयमें अनुमानका क्या रूप रहा है और उसका विकास किस प्रकार हुआ, इस सम्बन्धमें विचार करेंगे। (क) षट्खण्डागममे हेतुवादका उल्लेख
जैन श्रुतका आलोडन करनेपर ज्ञात होता है कि षट्खण्डागममें श्रुतके पर्याय-नामोमें एक 'हेतुवाद'१ नाम भी परिगणित है, जिसका व्याख्यान आचार्य वीरसेनने हेतुद्वारा तत्सम्बद्ध अन्य वस्तुका ज्ञान करना किया है और जिसपरसे उसे स्पष्टतया अनुमानार्थक माना जा सकता है, क्योकि अनुमानका भी हेतुसे साध्यका ज्ञान करना अर्थ है । अतएव हेतुवादका व्याख्यान हेतुविद्या, तर्कशास्त्र, युक्तिशास्त्र और अनुमानशास्त्र किया जाता है। स्वामी समन्तभद्र ने सम्भवत ऐसे ही शास्त्रको 'युपत्यनुशासन'२ कहा है और जिसे उन्होने दृष्ट (प्रत्यक्ष) और आगमसे अविरुद्ध अर्थका प्ररूपक बतलाया है। (ख) स्थानागसूत्रमे हेतु-निरूपण
स्थानागसूत्र में 'हेतु' शब्द प्रयुक्त है और उसका प्रयोग प्रामाणसामान्य तथा अनुमानके प्रमुख अग हेतु (साधन) दोनोके अर्थमे हआ है। प्रमाणसामान्यके अर्थमें उसका प्रयोग इस प्रकार है
१ हेतु चार प्रकारका है
१ प्रत्यक्ष, २ अनुमान, ३ उपमान, ४ आगम । गौतमके न्यायसूत्रमे भी ये चार भेद अभिहित हैं। पर वहाँ इन्हे प्रमाणके भेद कहा है। हेतु के अर्थमें हेतु शब्द निम्न प्रकार व्यवहृत हुआ है२ हेतुके चार भेद है१ विधि विधि-(साध्य और साधन दोनो सद्भावरूप हों) २ विधि-निषेध-(साध्य विधिरूप और साधन निषेधरूप) ३, निषेध-विधि-(साध्य निषेधरूप और हेतु विधिरूप ) ४ निषेध निषेध-(साध्य और साधन दोनो निषेधरूप हो ) हेतुवादो णयवादो परवादो मग्गवादो सूदवादो ।
-भूतबली-पुष्पदन्त, षटखण्डा० ५।५।५१, सोलापुर सस्करण १९६५ । २ दृष्टागमाभ्यामविरुद्धमर्थप्ररूपण युक्त्यनुशासन ते।।
-समन्तभद्र, युक्त्यनुशा० का० ४८, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली । ३ अथवा हेऊ चउन्विहे पन्नते त जहा-पच्चक्खे अनुमाने उवमे आगमे । अथवा हेक चउन्विढे पन्न
जहा-अत्थि त अत्थि सो हेक, अस्थि त णत्थि सो हेऊ, णस्थित अत्यि सो हेऊ, त्थि त णत्थि सो
हेऊ ।-स्थानागसू० पृष्ठ ३०९-३१० । ४ हिनोति परिच्छिन्नत्त्यर्थमिति हेतु ।
- १३३ -
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
इन्हें हम क्रमश निम्न नामोंसे व्यवहृत कर सकते हैं
१ विधिसाधक विधिरूप
२ विधिसाधक निषेधरूप
३ निषेघसाघक विधिरूप
४ प्रतिपेधसाधक प्रतिषेधरूप
इनके उदाहरण निम्न प्रकार दिये जा सकते हैं
१ अग्नि है, क्योकि घूम है ।
२ इस प्राणी में व्याधिविशेष है, क्योंकि निरामय चेष्टा नही है ।
अविरुद्धोपलब्धि
विरुद्धानुपलब्धि विरुद्धोपलब्धि
faralyada
३ यहाँ शीतस्पर्श नही है, क्योकि उष्णता है ।
४ यहाँ घूम नही है, क्योंकि अग्निका अभाव है ।
(ग) भगवतीसूत्रमे अनुमानका निर्देश
भगवती सूत्र में भगवान् महावीर और उनके प्रधान शिष्य गौतम ( इन्द्रभूति) गणधरके सवादमें प्रमाणके पूर्वोक्त चार भेदोका उल्लेख आया है, जिनमें अनुमान भी सम्मिलित है ।
(घ) अनुयोगसूत्रमे अनुमान-निरूपण
अनुमानकी कुछ अधिक विस्तृत चर्चा अनुयोगसूत्रमें उपलब्ध होती है । इसमें अनुमानके भेदोका निर्देश करके उनका सोदाहरण निरूपण किया गया है ।
१ अनुमान -भेद
इसमें अनुमानके तीन भेद बताये हैं । यथा१ पुण्वव ( पूर्ववत् )
२ सेसव (शेषषत् )
३ विट्ठसाहम्मद (दृष्टसाधर्म्यवत् )
१ पुग्वच - जो वस्तु पहले देखी गयी थी, कालान्तरमे किचित् परिवर्तन होनेपर भी उसे प्रत्यभिज्ञाद्वारा पूर्वलिंगदर्शनसे अवगत करना 'पुन्वव' अनुमान है । जैसे बचपनमें देखे गये बच्चेको युवावस्था में किंचित् परिवर्तनके माथ देखनेपर भी पूर्व चिह्नों द्वारा ज्ञात करना कि 'वही शिशु' है । यह 'पुवव' अनुमान क्षेत्र, वर्ण, लाछन, मस्सा और तिल प्रभृति चिह्नोसे सम्पादित किया जाता है । २ सेसव - इसके हेतुभेदसे पांच भेद हैं
१ घर्मभूषण, न्यायदी० पृ० ९५ - ९९, वीरसेवामन्दिर, दिल्ली ।
२ माणिक्यनन्दि, परीक्षामु० ३।५७-५८ ।
३ तुलना कीजिए -
१ पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्वान्यथानुपपत्तेः -- घर्मभूपण, न्यायदी० पृ० ९५ । २ यथाऽस्मिन् प्राणिनि व्याधिविशेषोऽस्ति निरामयचेष्टानुपलब्धे ।
३ नास्त्यत्र शीतस्पर्श औप्ण्यात् ।
४ नास्त्यत्र घ्मोऽनग्ने । माणिक्यनन्दि, परीक्षामु० ३।८७, ७६, ८२ ।
४ गोयमा णो तिणट्टे समट्ठ े । से कि त पमाण ? पमाणे छउबिहे पण्णत्ते । त जहा - पञ्चक्खे अणुमाणे
ओवम्मे जहा अणुयोगद्दारे तहा णेयव्व पमाण । भगवती ०५, ३, १९१-९२ ।
५, ६, ७ अणुमाणे तिविहे पण्णत्ते । त जहा - १
पुव्वव, २ सेसव, ३ दिट्ठसाहम्मव । मे कि पुव्वव ? पुग्वव---
- १३४ -
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ पार्यानुमान, २ गारणानुमान, ३ गुणानुगत, सवण्यामान, ५. मात्रयानुमान १.कार्यानुमान-कार्यममारणा अवगत वरना बानुमान है। जैसे-सद गंगो, ताउनने गेरीको, दालनेगे पागे, मायने मयूग्यो, हिनहिनाने (हें पित्त) में अपगे, मुनगलान्ति (विज्ञान) मेहाचीको और घणारणायित (पनपत्राने) रपती बनमित करना।'
२ कारणानुमान-कारण कार्यालनमान ना पारणानगाव -मलोपटया योग्य फटका, मस्पिण्डरी घटेवा अनुमान फाना। तामह यि जिनवाणीम मायाँको पति होती है, उनके द्वारा उन गार्योका अनगम प्राप्त करना 'कारण' नामदाय मान है।
३ गुणानुमान-गणगे गुणोका अनुमान फग्ना मृगानुमान है। यानी पुष्परा, मी तयणगा, म्पामि यम्पका और निसपने मवर्णका मनमान करना।'
४ अवषयानुमान-अवययगे अवयवी या मनमान यग्ना अवयवानुमान है । गगा-पीगगे महिषया, मिसामे युवकुटका, पटादण्डगे हापोरा. दाढगे चगरका, पिच्छने मयरका,लागारमे यारवा, पुराने बासा, नमगे व्याघ्रका, बालाप्रने चमरीगायका दो पंग्ने मनुष्यया, चार पैगमे गोदिया, दापा निगोजर (पटार) का, अंगरने निहका, पामगे उपभका, चुलीमति वाहम महिनाफा पद्धपरिनारतासे गोदामा, यस्वसे महिलाका, पान्यो एम काणमे द्रोण पासमा और एक गाथागे कविका अनुमान करना।
५ माघयो-अनुमान-आश्रयोग गधयमा अनुमान करना लापी-अनुमान था-मसे धग्नि का, यलाफासे जलका, विशिष्ट मेपोमे वृष्टिपा और शील नमाचारगे पुलका अनुमान रग्ना ।"
दोपवतये इन पांचो भेदो में अविनाभावी एकोप (अवगेप) का अनुमान होने पवन का।
माया पुत्त जहा नट्ट जुवाण पुणगगय । पाई परुचभिजाणेज्जा पुग्गेिण पेण ।। त जहा-पतेण या, पणे घा, राणेण पा, गोण या, सिएणया। में ध्व।सेनिस सेसचे। सेगम पचपि पण जहा- पण, २ फागण, गुणेष, ४ अययन.५
थानराण ।-मनि पी कन्हयालाल, अनुरोगहारगर मुरगाणि प०५३। १. जेण-गण, भेरि ताटिएण, दसन पिण, मोर फिराय गित, गय गलगलादार
पणपणाराण, मे से गज्जेन ।-अनुग० उपरमाधिकार प्रगनहार, पाठ । २ मारणेण-तंतो परम्प कारण पटो ततारप, योगमा चरम्य पार पशटो चोरणापासमिपिटो
पटरग मारण पटो मिप्पिटमारण, समारण।--ही, एप्ठ ५४० । ३. गुणेणे---सुपपप निबनेग, पुष्फ गधेत, पण गोण मार आगार, गन्य पामे, में गुर।
-यही, पृष्ठ ५४० । ४. अपर्या-मसि mm, Tarfarior निगमेगा, गाय, मोनि
गरेतपण गोण, परिसर, चार रोप, परमपरगा: rafcara आदि, मोरगरण दगा
E m. T-नागमोजातिRATH पोल नगश दिएem Fr {-i. retret काम- rrrTimfretirg Tru
. में मेगा | --ग माधिकार प्रमादार, ५४.rt
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
३ दिसाहम्मव-इस अनुमानके दो भेद है। यथा
१ सामन्नदिट्ठ (सामान्य-दृष्ट), २ विमेरा दिट्ठ (विशेपदृष्ट) । १ किसी एक वस्तुको देखकर तत्मजातीय सभी वस्तुओका साधर्म्य ज्ञात करना या बहुत वस्तुओको एक-सा देखकर किसी विशेष (एक) मे तत्साधर्म्यका ज्ञान करना सामान्यदृष्ट है। यथा-जैसा एक मनुष्य है, वैमे बहुतसे मनुष्य है । जैसे बहुतसे मनुष्य हैं वैमा एक मनुष्य है । जैसा एक करिशावक है वैसे वहुतसे फरिशावाक है। जैसे बहुतसे करिशावक है वैसे एक करिशावक है। जैसा एक कापण है वैसे अनेक कार्षापण है, जैसे अनेक कार्षापण है, वैसा एक कापण है। इस प्रकार सामान्यधर्मदर्शनद्वारा ज्ञातसे अज्ञातका ज्ञान करना सामान्य दृष्ट अनुमानका प्रयोजन है।
२ जो अनेक वस्तुओंमेसे किसी एकको पृथक करके उसके वैशिष्टयका प्रत्यभिज्ञान कराता है वह विशेषदृष्ट है । यथा-कोई एक पुरुष बहुतसे पुरुषोके वीचमें पूर्वदृष्ट पुरुषका प्रत्यभिज्ञान करता है कि यह वही पुरुष है। या बहुतसे कापणोके मध्य में पूर्वदृष्ट कार्यापणको देखकर प्रत्यभिज्ञा करना कि यह वही कार्षापण है । इस प्रकारका ज्ञान विशेषदृष्ट दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान है । २ कालभेदसे अनुमानका त्रैविध्यर
कालकी दृष्टि से भी अनुयोग-द्वारमै अनुमानके तीन प्रकारोंका प्रतिपादन उपलब्ध है । यथा-१ अतीतकालग्रहण, २ प्रत्युत्पन्नकालग्रहण और ३ अनागतकालग्रहण ।
१ अतीतफालग्रहण-उत्तणवन, निप्पन्नशस्या पृथ्वी, जलपूर्ण कुण्ड-सर-नदी-दीपिका-तडाक आदि देखकर अनुमान करना कि सुवृष्टि हुई है, यह अतीतकालग्रहण है।
२ प्रत्युत्पन्नकालग्रहण-भिक्षाचर्याम प्रचुर भिक्षा मिलती देख अनुमान करना कि सुभिक्ष है, यह प्रत्युत्पन्नकालग्रहण है।।
३ अनागतकालग्रहण-बादलकी निर्मलता, कृष्ण पहाड, सविद्यत् मेघ, मेघगर्जन, वातोभ्रम, रक्त और प्रस्निग्ध सन्ध्या, वारुण या माहेन्द्रसम्बन्धी या और कोई प्रशस्त उत्पात इनको देख कर अनुमान करना कि सुवृष्टि होगी, यह अनागतकालग्रहण अनुमान है।
उक्त लक्षणोका विपर्यय देखने पर तीनो कालोके ग्रहणमें विपर्यय भी हो जाता है। अर्थात् सूखी जमीन, शुष्क तालाब आदि देखने पर वृष्टिके अभावका, भिक्षा कम मिलने पर वर्तमान दुर्भिक्षका और प्रसन्न दिशाओं आदिके होने पर अनागत कुवृष्टिका अनुमान होता है, यह भी अनुयोगद्वारमें सोदाहरण अभिहित है। उल्लेखनीय है कि कालभेदसे तीन प्रकारके अनुमानोका निर्देश चरकसूत्रस्थान (अ० १११२१, २२) में भी मिलता है।
न्यायसूत्र, उपायहृदय और साख्यकारिका में भी पूर्ववत् आदि अनुमानके तीन भेदोका प्रतिपादन है। उनमें प्रथमके दो वही हैं जो ऊपर अनुयोगद्वारमे निर्दिष्ट है। किन्तु तीसरे भेदका नाम अनुयोगकी १. से कि त दिट्ठसाहम्मव । दिट्ठसाहम्मव दुविह पण्णत्त । जहा-सामन्नदिट्ठ च विसेसदिट्ट च ।
-वही, पृष्ठ ५४१-४२ २ तस्स समासो तिविह गहण भवइ । त जहा-१ अतीतकालगहण, २ पदुप्पण्णकालगहण, ३ अणा
गयकालगहण |-वही, पृष्ठ ५४१-५४२ । ३ अक्षपाद, न्यायसू० १।१।५ । ४ उपायह० पृ० १३ । ५ ईश्वरकृष्ण, सा० का० ५, ६ ।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
तरह दृष्टसाधर्म्यवत् न होकर सामान्यतोदृष्ट है। अनुयोगद्वारगत पूर्ववत् जैसा उदाहरण उपायहृदय (पृ० १३) में भी आया है।
इन अनुमानभेद-प्रभेदो और उनके उदाहरणोके विवेचनसे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि गौतमके न्यायसूत्रमे जिन तीन अनुमानभेदोका निर्देश है वे उस समयको अनुमान-चर्चा में वर्तमान थे। अनुयोगद्वारके अनुमानोकी व्याख्या अभिधामूलक है। पूर्ववत्का शाब्दिक अर्थ है पूर्वके समान किसी वस्तुको वर्तमानमें देखकर उसका ज्ञान प्राप्त करना । स्मरणीय है कि द्रष्टव्य वस्तु पूर्वोत्तरकालमें मूलत एक ही है और जिसे देखा गया है उसके सामान्य धर्म पूर्वकालमें भी विद्यमान रहते हैं तथा उत्तरकालमें भी पाये जाते हैं। अत पूर्वदृष्टके आधारपर उत्तरकालमे देखी वस्तुकी जानकारी प्राप्त करना पूर्ववत् अनुमान है। इस प्रक्रियामें पूर्वाश अज्ञात है और उत्तराश ज्ञात । अत ज्ञातसे अज्ञात (अतीत) अशको जानकारी (प्रत्यभिज्ञा) की जाती है । जैसा कि अनुयोग और उपायहृदयमें दिये गये उदाहरणसे प्रकट है। शेषवत्में कार्य-कारण, गुण-गुणी, अवयव-अवयवी एव आश्रय-आश्रयीमेंसे अविनाभावी एक अशको ज्ञातकर शेष (अवशिष्ट) अशको जाना जाता है। शेषवत् शब्दका अभिधेयार्थ भी यही है। साधर्म्यको देखकर तत्तुल्यका ज्ञान प्राप्त करना दृष्टसाधर्म्यवत् अनुमान है। यह भी वाच्यार्थमूलक है। यद्यपि इसके अधिकाश उदाहरण सादृश्यप्रत्यभिज्ञानके तुल्य हैं । पर शब्दार्थके अनुसार यह अनुमान सामान्यदर्शनपर आश्रित है। दूसरे, प्राचीन कालमें प्रत्यभिज्ञानको अनुमान ही माना जाता था। उसे पथक माननेकी परम्परा दार्शनिकोमें बहुत पीछे आयी है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अनुयोगसूत्र में उक्त अनुमानोकी विवेचना पारिभाषिक न होकर अभिघामूलक है।
पर न्यायसूत्रके व्याख्याकार वात्स्यायनने उक्त तीनो अनुमान-भेदोंकी व्याख्या वाच्यार्थके आधारपर नही की । उन्होने उनका स्वरूप पारिभाषिक शब्दावली में ग्रथित किया है। इससे यदि यह निष्कर्ष निकाला जाय कि पारिभाषिक शब्दोमें प्रतिपादित स्वरूपकी अपेक्षा अवयवार्थ द्वारा विवेचित स्वरूप अधिक मौलिक एव प्राचीन होता है तो अयुक्त न होगा, क्योकि अभिधाके अनन्तर ही लक्षणा या व्यजना या रूढ़ शब्दावली द्वारा स्वरूप-
निर्धारण किया जाता है। दूसरे, वात्स्यायनकी त्रिविध अनुमान-व्याख्या अनुयोगद्वारसूत्रकी अपेक्षा अधिक पुष्ट एव विकसित है। अनुयोगद्वारसूत्रमें जिस तथ्यको अनेक उदाहरणो द्वारा उपस्थित किया है उसे वात्स्यायनने सक्षेपमें एक-दो पक्तियोमें ही निबद्ध किया है। अत भाषाविज्ञान और विकास-सिद्धान्तकी दृष्टिसे अनुयोगद्वारका अनुमान-निरूपण वात्स्यायनके अनुमान-व्याख्यानसे प्राचीन प्रतीत होता है । (ड) अवयव-चर्चा
अनुमानके अवयवोके विषयमें आगमोमें तो कोई कथन उपलब्ध नही होता । किन्तु उनके आधारसे रचित तत्त्वार्थसूत्र में तत्त्वार्थसूत्रकारने' अवश्य अवयवोका नामोल्लेख किये बिना पक्ष (प्रतिज्ञा), हेतु और दृष्टान्त इन तीनके द्वारा मुक्त जीवका ऊर्ध्वगमन सिद्ध किया है, जिससे ज्ञात होता है कि आरम्भमें जैन रम्परामें अनुमानके उक्त तीन अवयव मान्य रहे हैं। समन्तभद्र२. पूज्यपाद और सिद्धसेनने भी इन्ही तीन अवयवोका निर्देश किया है । भद्र बाहुने५ दशवकालिकनियुक्ति में अनुमानवाक्यके दो, तीन, पांच, दश और
१ त० सू० १०१५, ६, ७ । २ आप्तमी० ५, १७, १८ तथा युक्त्यनु० ५३ । ३ स० सि० १०५, ६, ७। ४ न्यायाव० १३, १४, १७, १८, १९ । ५ दशव०नि० गा० ४९-१३७ ।
-१३७
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
दश इस प्रकार पांच तरहसे अवयवोंकी चर्चा की है। प्रतीत होता है कि अवयवोकी यह विभिन्न सस्या विभिन्न प्रतिपाद्योकी अपेक्षा बतलायी है।
ध्यातव्य है कि वात्स्यायन द्वारा समालोचित तथा युक्तिदीपिकाकार द्वारा विवचित जिज्ञामादि दशावयव भद्रबाहके दशावयवोंमे भिन्न हैं।
उल्लेखनीय है कि भद्रबाहुने मात्र उदाहरणसे भी साध्य-निद्धि होनेयी बात कही है जो किमी प्राचीन परम्पराको प्रदर्शक है ।
इस प्रकार जैनागमोमें हमें ठगनुमान-मीरागाफे पुष्कल बीज उपरब्ध होते है । यह सही है कि उनका प्रतिपादन फेवल नि श्रेयसाधिगम गौर उसमे उपयोगी तत्त्वोंके शान एव व्यवस्थाके लिए ही किया गया है। यही कारण है कि उनमें न्यायदर्शनकी तरह वाद, जल्प और वितण्डापूर्वया प्रवृत्त कथाओ, जातियों, निग्रहस्थानो, छलो तथा हेत्वाभामोंका कोई उल्लेस नही है।
(च) अनुमानका मूल-रूप
मागमोत्तर कालमें जव शानमीमामा और प्रमाणमीमासाका विकाम आरम्भ हआ तो उनके विकासके साथ अनुमानका भी विकाम होता गया। आगम-णित मति, श्रुत मादि पांच शानोको प्रमाण कहने और उन्हें प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दो भेदोंमें विमन करने वाले मर्वप्रयम माचार्य गपिच्छ है । उन्होने शास्त्र और लोकमें व्यवहृत स्मति, मशा, चिन्ता और अभिनिचोध इन चार शानोंको भी एक सूत्र द्वारा परोक्ष-प्रमाणके अन्तर्गत समाविष्ट करके प्रमाणशास्त्र विकासका सूत्रपात किया तथा उन्हें परोक्ष प्रमाणके आद्य प्रकार मतिज्ञानका पर्याय प्रतिपादन किया। इन पर्यायोमें अभिनिवोधका जिम क्रमसे और जिस स्थानपर निर्देश हमा है उससे ज्ञात होता है कि सूपकारने उमे अनुमान के अर्थ में प्रयुक्त किया है। स्पष्ट है कि पूर्व-पूर्वको प्रमाण और उत्तर-उत्तरको प्रमाण-फल बतलाना उन्हें अभीष्ट है। मति (अनुभव-धारणा) पूर्वक स्मृति, स्मृतिपूर्वक सज्ञा, सज्ञा-पूर्वक चिन्ता और चिन्तापूर्वक अभिनिबोध ज्ञान होता है, ऐमा सूअसे ध्वनित है । यह चिन्तापूर्वक होनेवाला अभिनियोघ अनुमानके अतिरिक्त अन्य नही है । अतएव जैन परम्परामें अनुमान
नवोप' और 'पूर्वोक्त 'हेतुवाद' में उसी प्रकार समाहित है जिस प्रकार वह वैदिक परम्परामें 'वाकोवाक्यम्' और 'आन्वीक्षिकी' में निविष्ट है।
उपर्युक्त मीमासासे दो तथ्य प्रकट होते है। एक तो यह कि जैन परम्परामें ईस्वी पूर्व शताब्दियोसे ही अनुमानके प्रयोग, स्वरूप और भेद-प्रभेदोकी समीक्षा की जाने लगी थी तथा उसका व्यवहार हेतुजन्य ज्ञानके अर्थ में होने लगा था। दूसरा यह कि अनुमानका क्षेत्र बहत विस्तृत और व्यापक था । स्मृति, सज्ञा और चिन्ता, जिन्हें परवर्ती जैन ताकिकोने परोक्ष प्रमाणके अन्तर्गत स्वतन्य प्रमाणोका रूप प्रदान किया है,
१ प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधत ।-प्र० परी०पू० ४९ में उद्धत कुमारनन्दिका वाक्य । २ श्रीदलसुखभाई मालवणिया, आगमयुगका जैन दर्शन, प्रमाणखण्ड, पृ० १५७ । ३ मतिश्रुतावधिमन पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । तत्प्रमाणे । आद्ये परोक्षम् । प्रत्यक्षमन्यत् ।-तत्त्वा० सू०
२९, १०, ११, १२।। ४ मति स्मृति सज्ञा चिन्ताऽभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम् ।-वही, १११३ । ५ गृद्धपिच्छ, त० सू० १११३ ।
- १३८ -
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुमान (अभिनिवोघ) में ही सम्मिलित थे । वादिराजने प्रमाण निर्णयमें सम्भवत ऐसी ही परम्पराका निर्देश किया है जो उन्हें अनुमानके अन्तर्गत स्वीकार करती थी। अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव जैसे परोक्ष ज्ञानोका भी इसीमें समावेश किया गया है । (छ) अनुमानका तार्किक विकास
अनुमानका तार्किक विकास स्वामी समन्तभद्रसे आरम्भ होता है । आप्तमीमासा, युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र में उन्होने अनमानके अनेको प्रयोग प्रस्तुत किये हैं, जिनमें उसके उपादानो-साध्य, साधन, पक्ष, उदाहरण, अविनाभाव आदिका निर्देश है। सिद्धसेनका न्यायावतार न्याय (अनुमान) का अवतार ही है। इसमें अनुमानका स्वरूप, उसके स्वार्थ-परार्थ द्विविध भेद, उनके लक्षण, पक्षका स्वरूप, पक्षप्रयोगपर बल, हेतुके तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति द्विविध प्रयोगोका निर्देश, साधर्म्य-वैधर्म्य दृष्टान्तद्वय, अन्तर्व्याप्तिके द्वारा ही साध्यमिद्धि होनेपर भार, हेतु का अन्यथानुपन्नत्वलक्षण, हेत्वाभास और दृष्टान्ताभास जैसे अनुमानोपकरणोका प्रतिपादन किया गया है । अकलकके न्याय-विवेचनने तो उन्हें 'अकलक न्याय' का सस्थापक एव प्रवर्तक ही बना दिया है । उनके विशाल न्याय-प्रकरणोमे न्यायविनिश्चय, प्रमाणसग्रह, लघीयस्त्रय और सिद्धिविनिश्चय जैन प्रमाणशास्त्रके मूर्धन्य ग्रन्थो में परिगणित है। हरिभद्रके शास्त्रवासिमुच्चय, अनेकान्तजयपताका आदि ग्रन्थोमें अनुमान-चर्चा निहित है। विद्यानन्दने अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा जैसे दर्शन एव न्याय-प्रबन्धोको रचकर जैन न्यायवाड़मयको समृद्ध किया है। माणिक्यनन्दिका परीक्षामुख, प्रभाचन्द्रका प्रमेयकमलमार्तण्डन्यायकुमुदचन्द्र -युगल, अभयदेवकी सन्मतितर्कटीका, देवसूरिका प्रमाणनयतत्त्वालोकालकार, अनन्तवीर्यको सिद्धिविनिश्चयटीका, वादिराजका न्यायविनिश्चयविवरण, लघु अनन्तवीर्यकी प्रमेयरत्नमाला, हेमचन्द्रकी प्रमाण-मीमासा, धर्मभूषणकी न्यायदीपिका और यशोविजयकी जैन तर्कभाषा जैन अनुमानके विवेचक प्रमाणग्रन्थ है।
अनुमानका स्वरूप व्याकरणके अनुसार 'अनुमान' शब्दकी निष्पत्ति अनु +मा+ ल्युट्से होती है। अनुका अर्थ है पश्चात् और मानका अर्थ है ज्ञान । अत अनुमानका शाब्दिक अर्थ है पश्चादवर्ती ज्ञान । अर्थात एक ज्ञानके बाद होनेवाला उत्तरवर्ती ज्ञान अनुमान है। यहां 'एक ज्ञान' से क्या तात्पर्य है ? मनीषियोका अभिमत है कि प्रत्यक्ष ज्ञान ही एक ज्ञान है जिसके अनन्तर अनुमानकी उत्पत्ति या प्रवृत्ति पायी जाती है। गौतमने इसी कारण अनुमगनको 'तत्पूर्वकम्-प्रत्यक्षपूर्वकम्' कहा है । वात्स्यायनका भी अभिमत है कि प्रत्यक्षके बिना कोई अनुमान सम्भव नही। अत अनुमानके स्वरूप-लाभमें प्रत्यक्षका सहकार पूर्वकारणके रूपमें अपेक्षित होता है। अतएव तकशास्त्री ज्ञात-प्रत्यक्षप्रतिपन्न अर्थसे अज्ञात-परोक्ष वस्तुकी जानकारी अनुमान द्वारा करते हैं। १ अनुमानमपि द्विविध गौणमुख्यविकल्पात् । तत्र गौणमनुमान त्रिविध स्मरण प्रत्यभिज्ञा तर्कश्चेति ।
-वादिराज, प्र०नि०, पृष्ठ ३३, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला बम्बई। २ अकलकदेव, त० वा० ११२०, पृष्ठ ७८, भारतीय ज्ञानपीठ, काशो। ३ अथ तत्पूर्वक त्रिविधमनुमानम् ।-न्यायसू० १११।५।। ४ अथवा पूर्ववदिति- यत्र यथापूर्व प्रत्यक्षभूतयोरन्यतरदर्शनेनान्यतरस्याप्रत्यक्षस्यानुमानम् । यथा धूमे.
नाग्निरिति ।-न्यायभा० ११११५, पृष्ठ २२ । ५ यथा धुमेन प्रत्यक्षेणाप्रत्यक्षस्य वह्नग्रहणमनुमानम् ।-वही, २१११४७, पृष्ठ १२० ।
-१३९ -
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
कभी-कभी अनुमानका आधार प्रत्यक्ष न रहने पर आगम भी होता है। उदाहरणार्थ शास्त्री द्वार आत्माकी सत्ताका ज्ञान होनेपर हम यह अनुमान करते हैं कि 'आत्मा शादवत है, क्योकि वह गत् है' इसी कारण वारस्यायनने ' 'प्रत्यक्षागमाश्रितमनुमानम्' अनुमानको प्रत्यन या आगगपर आश्रित कहा है। अनुमानका पर्याय अन्योक्षा' भी है, जिसका शाब्दिक अर्थ एक वस्तुशानको प्राप्ति के पश्चात् ड्रमरी वस्तुका शान प्राप्त करना है यथा धूमका ज्ञान प्राप्त करनेके बाद अग्निका ज्ञान करना ।
उपर्युक्त उदाहरणमें धूमद्वारा महिका ज्ञान ही कारण होता है कि धूम किसान हूँ । धूमको अनिका साधन हेतु माननेका भी कारण यह है कि घूमका अग्नि साथ नियन साहचर्य सम्बन्ध--- अविनाभाव है। जहाँ घूम रहता है यहाँ अग्नि अवश्य रहती है। हमका कोई अपवाद नही पाया जाता । तात्पर्य यह है कि एक अविनाभावो वस्तुके ज्ञान द्वारा तत्सम्बद्ध इतर वस्तुका निश्चय करना अनुमान है अनुमानके अग
।
अनुमानके उपर्युक्त स्वरूपका विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि घूमने अग्निका ज्ञान करनेके लिए दो तत्त्व आवश्यक है--१ पर्यंतमें घूमका रहना और २ घूमका अग्निके साथ नियत साहचर्य सम्वन्व होना प्रथमको पक्षपता और द्वितीयको व्याप्ति कहा गया है। यही दो अनुमानके आधार अथवा जग है ।" जिस वस्तुसे जहाँ मिद्धि करना है उसका वह अनिवार्य रूपसे पाया जाना पक्षधर्मता है । जैसे घूमसे पर्वत में अग्निको सिद्धि करना है तो घूमका पर्यंत अनिवार्य रूपसे पाया जाना आवश्यक है। अर्थात् व्यायका पक्षमें रहना पक्षधर्मता है तथा साधनरूप यस्तुका साम्यस्य वस्तु के साथ हो मर्वदा पाया जाना व्याप्ति है । जैसे धूम अग्निके होनेपर ही पाया जाता है-उसके अभावमें नही, अत धूमको वह्निके साथ व्याप्ति है। पक्षधर्मता और स्माप्ति दोनो अनुमानके आधार है। पापताका ज्ञान हुए बिना अनुमानका उद्भव सम्भव नहीं है। उदाहरणार्थ- पर्वतमें घूमकी वृतिताका ज्ञान न होने पर यहाँ उससे अग्निका अनुमान नही किया जा सकता । अत पक्षधर्मताका ज्ञान आवश्यक है । इसी प्रकार व्याप्तिका ज्ञान भी अनुमानके लिए परमावश्यक है । यत पर्वत में धूमदर्शनके अनन्तर भी तब तक अनुमानको प्रवृत्ति नही हो सकती, जब तक धूमका अग्नि के साथ अनिवार्य मम्बन्ध स्थापित न हो जाए। इस अनिवार्य सम्वन्धका नाम ही नियत साहचर्य सम्बन्ध या व्याप्ति है। इसके अभाव में अनुमानको उत्पत्तिमे धूमज्ञानका कुछ भी महत्त्व नही है । किन्तु व्याप्तिज्ञानके होनेपर अनुमानके लिए उक्त घूमज्ञान महत्त्वपूर्ण बन जाता है और वह अग्नि
१ यही १|१|१| पृष्ठ ७ ।
२ वही, १1१1१, पृष्ठ ७ ।
३ साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतु । माणिक्यनन्दि, परीक्षामु० ३।१५ ।
व्याप्यस्य ज्ञानेन व्यापकस्य निश्चय यथा वह्निमस्य व्यापक इति धूमस्तस्य व्याप्त इत्येव तयोर्भूय सहचार पाकस्थानादी दृष्ट्वा पश्चात्पर्वतादी उद्भूयमानशिखस्य धूमस्य दर्शने तत्र बहिरस्तीति निश्चीयते । वाचस्पत्यम् अनुमानशब्द प्रथम जिल्द पृष्ठ १८१, चौखम्बा, वाराणसी, सन् १९६२ ई० ।
५ अनुमानस्य हे अर्गे व्याप्ति पक्षधर्मता च । केशव मिश्र, तर्कमाया, अनु० निरु०, पृष्ठ ८८, ८९ 1 ६ व्याप्यस्य पर्वतादिवृत्तित्व पक्षधर्मता । -- अन्नभट्ट, तर्कस ० अनु० नि०, पृष्ठ ५७ ।
यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्राग्निरिति साहचर्यनियमो व्याप्ति । सर्कस० पृष्ठ ५४ तथा केशवमिश्र, तर्कना० पृष्ठ ७२ ।
- १४० -
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
ज्ञानको उत्पन्न कर देता है। अत अनुमानके लिए पक्षधर्मता और व्याप्ति इन दोनोके सयुक्त ज्ञानकी आवश्यकता है । स्मरण रहे कि जैन तार्किकोने' व्याप्तिज्ञानको ही अनुमानके लिए आवश्यक माना है, पक्षधर्मताके ज्ञानको नही, क्योकि अपक्षधर्म कृत्तिकोदय आदि हेतुओसे भी अनुमान होता है। (क) पक्षधर्मता -
जिस पक्षधर्मताका अनुमानके आवश्यक अगके रूपमें ऊपर निर्देश किया गया है उसरा व्यवहार न्यायशास्त्रमें कबसे आरम्भ हुआ, इसका यहाँ ऐतिहासिक विमर्श किया जाता है।।
कणादके वैशेषिकसूत्र और मक्षपादके न्यायसूत्रमें न पक्ष शब्द मिलता है और न पक्षधर्मता शब्द । न्यायसूत्रमें साध्य और प्रतिज्ञा शब्दोका प्रयोग पाया जाता है, जिनका न्यायभाष्यकारने प्रज्ञापनीय धर्मसे विशिष्ट धर्मी अर्थ प्रस्तुत किया है और जिसे पक्षका प्रतिनिधि कहा जा सकता है, पर पक्षशब्द प्रयुक्त नही है। प्रशस्तपादभाष्यमें यद्यपि न्यायभाष्यकारकी तरह धर्मी और न्यायसत्रकी तरह प्रतिज्ञा दोनो शब्द एकत्र उपलब्ध हैं। तथा लिंगको विरूप बतलाकर उन तीनो रूपोका प्रतिपादन काश्यपके नामसे दो कारिकाएँ उद्धृत करके किया है। किन्तु उन तीन रूपोमें भी पक्ष और धर्मपक्षता शब्दोका प्रयोग नही है। हां, 'अनुमेय सम्बद्धलिंग' शब्द अवश्य पक्षधर्मका बोधक है। पर 'पक्षधर्म' शब्द स्वय उपलब्ध नही है।
पक्ष और पक्षधर्मता शब्दोका स्पष्ट प्रयोग, सर्वप्रथम सम्भवत बौद्ध तार्किक शकरस्वामीके न्यायप्रवेशमे हुआ है। इसमें पक्ष, सपक्ष, विपक्ष, पक्षवचन, पक्षधर्म, पक्षधर्मवचन और पक्षधर्मत्व ये सभी शब्द प्रयुक्त हुए है । साथमें उनका स्वरूप-विवेचन भी किया है । जो धर्मीक रूपमें प्रसिद्ध है वह पक्ष है। 'शब्द अनित्य है' ऐसा प्रयोग पक्षवचन है । 'क्योंकि वह कृतक है' ऐसा वचन पक्षधर्म (हेतु) वचन है। 'जो कृतक होता है वह अनित्य होता है, यथा घटादि' इस प्रकारका वचन सपक्षानुगम (सपक्षसत्त्व) वचन है। 'जो नित्य होता है वह अकृतक देखा गया है, यथा आकाश' यह व्यतिरेक (विपक्षासत्त्व) वचन है। इस प्रकार हेतुको त्रिरूप प्रतिपादन करके उसके तीनो रूपोका भी स्पष्टीकरण किया है । वे तीन रूप है-१ पक्षधर्मत्व,
१ पक्षधर्मत्वहीनोऽपि गमक कृत्तिकोदय ।
अन्तप्तेिरत सैव गमकत्वप्रसाधनी ।। --वादीभसिंह, स्या०सि०४।८३-८४ । २ साध्यनिर्देश प्रतिज्ञा । -अक्षपाद, न्यायसू० १११।३३ । ३. प्रज्ञापनीयेन धर्मेण धर्मिणो विशिष्टस्य परिग्रहवचन प्रतिज्ञा साध्यनिर्देश अनित्य शब्द इति । वात्स्या
यन, न्यायभा० ११११३३ तथा ११११३४ । ४ अनमेयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञा । प्रतिपिपादयिषितधर्मविशिष्टस्य धर्मिणोऽपदेश-विषयमापादयितमद्देशमात्र
प्रतिज्ञा। ।-प्रशस्तपाद, वैशि० भाष्य पृष्ठ ११४ । ५ यदनुमेयेन सम्बद्ध प्रसिद्ध च तदन्विते ।
तदभावे च नास्त्येव तल्लिगमनुमापकम् ॥ -वही, पृष्ठ १०० । ६ प्रश० भा०, पृ० १००। ७ पक्ष प्रसिद्धो धर्मी । हेतु स्त्रिरूप । किं पुनस्त्ररूप्यम् ? पक्षधर्मत्व सपक्षे सत्त्व विपक्षे चासत्त्व
मिति । तद्यथा । अनित्य शब्द इति पक्षवचनम् । कृतकत्वादिति पक्षधर्मवचनम् । यत्कृतक तदनित्य दृष्ट तथा घटादिरिति सपक्षानुगमवचनम् । यन्नित्य तदकृतक दृष्ट तथाऽऽकाश मिति व्यतिरेकवचनम् । -शकरस्वामी, न्यायप्र० ६ष्ठ १-२ ।
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
२ सपक्षसत्त्व, और ३ विपक्षासत्त्व । ध्यान रहे, यहाँ 'पक्षधर्मत्व' पक्षधर्मताके लिए ही आया है। प्रशस्तपादने जिस तथ्यको 'अनुमयसम्बद्धत्व' शब्दसे प्रकट किया है उसे न्यायप्रवेशकारने 'पक्षधर्मत्व' शब्द द्वारा बतलाया है। तात्पर्य यह कि प्रशस्तपादके मतसे हेतुके तीन रूपोमें परिगणित प्रथम रूप 'अनमेयसम्बद्धत्व' है और न्यायप्रवेशके अनुसार 'पक्षधर्मत्व' । दोनोमें केवल शब्दभेद है, अर्थभेद नही । उत्तरकालमें तो प्राय सभी भारतीय ताकिकोके द्वारा तीन रूपो अथवा पांच रूपोके अन्तर्गत पक्षधर्मत्वका बोधक पक्षधर्मत्व या पक्षधर्मता पद ही अभिप्रेत हुआ है। उद्योतकर', वाचस्पति२, उदयन, गगेश, केशव प्रभृति वैदिक नैयायिको तथा धर्मकीति, धर्मोत्तर, अर्चट आदि बौद्ध ताकिकोने अपने ग्रन्थोमें उसका प्रतिपादन किया है । पर जैन नैयायिकोने पक्षधर्मतापर उतना बल नही दिया, जितना व्याप्तिपर दिया है । सिद्धसेन', अकलक', विद्यानन्द , वादीभसिंह आदिने तो उसे अनावश्यक एव व्यर्थ भी बतलाया है। उनका मन्तव्य है कि 'कल सूर्यका उदय होगा, क्योंकि वह आज उदय हो रहा है, 'कल शनिवार होगा, क्योकि आज शुक्रवार है', 'ऊपर देशमे वृष्टि हुई है, क्योकि अघोदेशमें प्रवाह दृष्टिगोचर हो रहा है', 'अद्वैतवादीको भी प्रमाण इष्ट है, क्योकि इष्टका साधन और अनिष्टका दूपण अन्यथा नही हो सकता' जैसे प्रचुर हेतु पक्षधर्मताके अभावमें भी मात्र अन्तर्व्याप्तिके बलपर साध्यके अनुमापक हैं। (ख) व्याप्ति
अनुमानका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और अनिवार्य अग व्याप्ति है। इसके होनेपर ही साधन साध्यका गमक होता है, उसके अभावमें नही। अतएव इसका दूसरा नाम 'अविनाभाव' भी है। देखना है कि इन दोनो शब्दोका प्रयोग कबसे आरम्भ हुआ है।
अक्षपादके १५ न्यायसूत्र और वात्स्यायनके ६ न्यायभाष्यमें न व्याप्ति शब्द उपलब्ध होता है और न अविनाभाव । न्यायभाष्यमें मात्र इतना मिलता है कि लिंग और लिंगीमें सम्बन्ध होता है अथवा वे सम्बद्ध
१ उद्योतकर, न्यायवा० १।१।३५, पृष्ठ १२९, १३१ । २ वाचस्पति, न्यायवा० ता० टी० १११११५, पृष्ठ १७१ । ३ उदयन, किरणा०, पृष्ठ २९०, २९४ । ४ त० चि० जागदी०टी० पृ० १३, ७१ । ५ केशव मिश्र, तर्कभा०, अनु० निरू०, पृष्ठ ८८, ८९ । ६-७ धर्मकीर्ति, न्यायबि०, द्वि० परि० पृष्ठ २२ । ८ अर्चट, हेतुवि० टी०, पृष्ठ २४ । ९ न्यायवि० १११७६ । १० सिद्धसेन, न्यायाव० का० २० । ११ न्यायवि० २।२२१ । १२ प्रमाणपरी० पृष्ठ ४९ । १३ वादीभसिंह, स्या० सि० ४४८७ । १४. अकलक, लघीय० १।३।१४ । १५ न्यायसू० ११११५, ३४, ३५ । १६ न्यायभा० ११११५, ३४, ३५ । १७ लिंगलिंगिनो सम्बन्धदर्शन लिंगदर्शन चाभिसम्बध्यते । लिंगलिंगिनो सम्बद्धयोर्दर्शनेन लिंगस्मृतिरभि
सम्बध्यते । --न्यायभा० १११।५ ।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
होते हैं। पर वह सम्बन्ध व्याप्ति अथवा अविनाभाव है, इसका वहां कोई निर्देश नही है । गौतमके हेतुलक्षणप्रदर्शक सूत्रोसे' भी केवल यही ज्ञात होता है कि हेतु वह है जो उदाहरण के साधर्म्य अथवा वैधय॑से साध्यका साधन करे । तात्पर्य यह कि हेतुको पक्षमें रहनेके अतिरिक्त सपक्षमे विद्यमान और विपक्षसे व्यावृत्त होना चाहिए, इतना ही अर्थ हेतुलक्षणसूत्रसे ध्वनित होता है, हेतुको व्याप्त (व्याप्तिविशिष्ट या अविनाभावी) भी होना चाहिए, इसका उनसे कोई सकेत नही मिलता । उद्योतकरके २ न्यायवार्तिकमें अविनाभाव और व्याप्ति दोनो शब्द प्राप्त हैं। पर उद्योतकरने उन्हें परमतके रूपमें प्रस्तुत किया है तथा उनकी आलोचना भी की है। इससे प्रतीत होता है कि न्यायवार्तिककारको भी न्यायसूत्रकार और न्यायभाष्यकारकी तरह अविनाभाव और व्याप्ति दोनो अमान्य है । उल्लेख्य है कि उद्योतकर अविनाभाव और व्याप्तिकी आलोचना (न्यायवा० ११११५, पृष्ठ ५४, ५५) कर तो गये। पर स्वकीय सिद्धान्तकी व्यवस्थामें उनका उपयोग उन्होने असन्दिग्ध रूपमें किया है। उनके परवर्ती वाचस्पति मिश्रने अविनाभावको हेतुके पांच रूपोंमें समाप्त कहकर उसके द्वारा ही समस्त हेतुरूपोका सग्रह किया है। किन्तु उन्होने भी अपने कथनको परम्परा-विरोधी समझकर अविनाभावका परित्याग कर दिया है और उद्योतकरके अभिप्रायानुसार पक्षधर्मत्वादि पांच हेतुरूपोको ही महत्त्व दिया है, अविनाभावको नहीं। जयन्त भट्टने अविनाभावको स्वीकार करते हुए भी उसे पक्षधर्मत्वादि पांच रूपोमें समाप्त बतलाया है।
इस प्रकार वाचस्पति और जयन्त भटके द्वारा स्पष्टतया अविनाभाव और व्याप्तिका प्रवेश न्यायपरम्परामें हो गया तो उत्तरवर्ती न्यायग्रन्थकारोने उन्हें अपना लिया और उनकी व्याख्याएँ आरम्भ कर दी । यही कारण है कि बौद्ध ताकिको द्वारा मुख्यतया प्रयुक्त अनन्तरीयक (या नान्तरीयक) तथा प्रतिबन्ध और जैन तर्कग्नन्थकारो द्वारा प्रधानतया प्रयोगमें आने वाले अविनामाव एवं व्याप्ति जैसे शब्द उद्योतकरके
१ उदाहरणसाधात् साध्यसाधन हेतु । तथा वैधात् । -न्यायसू० ११११३४, ३५ । २ (क) अविनाभावेन प्रतिपादयतीति चेत् । अथापीद स्यानु अविनाभावोऽग्निधूमयोरतो धूमदर्शनादग्नि प्रति
पद्यत इति । तन्न । विकल्पानुपपत्ते । अग्निधूमयोरविनाभाव इति कोऽर्थ ? किं कार्यकारणभाव. उतैकार्थसमवाय तत्सम्बन्धमात्र वा।।-उद्योतकर, न्यायवा० ११११५, पृष्ठ ५०, चौखम्भा, काशी, १९१६ ई०। (ख) अथोत्तरमवधारणमवगम्यते तस्य व्याप्तिरर्थ तथाप्यनुमेयमवधारित व्याप्त्या न धर्मो, यत एव
करण ततोऽन्यत्रावधारणमिति । सम्भवव्याप्त्या चानुमेय नियत ।-वही, ११११५, पृष्ठ ५५, ५६ । ३. (क) सामान्यतोदृष्ट नाम अकार्याकारणीभूतेन यत्राविनाभाविना विशेषणेन विशेष्यमाणो धर्मी गम्यते
तत् सामान्यतोदृष्ट यथा बलाकया सलिलानुमानम् । -न्यायवा० ११११५, पृ० ४७ । (ख) प्रसिद्धमिति पक्षे व्यापक, सदिति सजातीयेऽस्ति, असन्दिग्धमिति सजातीयाविनाभावि ।-वही,
१।१।१५, पृष्ठ ४९ । ४ यद्यप्यविनाभाव पचसु चतुषु वा रूपेषु लिंगस्य समाप्यते इत्यविनाभावेनैव सर्वाणि लिंगरूपाणि सगृह्यन्ते,
तथापीह प्रसिद्धसच्छब्दाम्या द्वयो सग्रहे गोवलीबर्दन्यायेन तत्परित्यज्य विपक्षव्यतिरेकासत्प्रतिपक्षत्वा
बाधितविषयत्वानि सगृह्णाति ।-न्यायवा० ता० टी० ११११५, पृष्ठ १७८, चौखम्भा १९२५ ई० । ५ एतेषु पचलक्षणेषु अविनाभाव समाप्यते। न्यायकलिका पृष्ठ २।
-१४३
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
बाद न्यायदर्शनमें समाविष्ट हो गये एव उन्हें एक-दूसरेका पर्याय माना जाने लगा । जयन्त भट्टने अविनाभावका स्पष्टीकरण करनेके लिए व्याप्ति, नियम, प्रतिबन्ध और साध्याविनाभावित्वको उसीका पर्याय बतलाया है। वाचस्पति मिश्र कहते हैं कि हेतुका कोई भी सम्बन्ध हो उसे स्वाभाविक एव नियत होना चाहिये और स्वाभाविकका अर्थ वे उपाधिरहित बतलाते हैं। इस प्रकारका हेतु ही गमक होता है और दूसरा सम्बन्धी (साध्य) गम्य । तात्पर्य यह कि उनका अविनाभाव या व्याप्तिशब्दोपर जोर नही है। पर उदयन, केशव मिश्र, अन्नम्भट्टण, विश्वनाथ पचानन प्रभृति नैयायिकोने व्याप्ति शब्दको अपनाकर उसीका विशेष व्याख्यान किया है तथा पक्षधर्मताके साथ उसे अनुमानका प्रमुख अग बतलाया है। गगेश और उनके अनुवर्ती वर्तमान उपाध्याय, पक्षघरमिश्र, वासुदेव मिश्र, रघुनाथ शिरोमणि, मथुरानाथ तर्कवागीश, जगदीश तर्कालकार, गदाधर भट्टाचार्य आदि नव्य नैयायिकोने" व्याप्तिपर सर्वाधिक चिन्तन और निवन्धन किया है । गङ्गेशने तत्त्वचिन्तामणिमें अनुमानलक्षण प्रस्तुत करके उसके व्याप्ति और पक्षधर्मता' दोनों अगोंका नव्यपद्धतिसे विवेचन किया है।
प्रशस्तपाद-भाष्यमें भी अविनाभावका प्रयोग उपलब्ध होता है। उन्होने अविनाभूत लिंगको लिंगीका गमक बतलाया है। पर वह उन्हें त्रिलक्षणरूप ही अभिप्रेत है।१२ यही कारण है कि टिप्पणकारने 3 अविनाभावका अर्थ 'व्याप्ति' एव 'अव्यभिचरित सम्बन्ध दे करके भी शकरमिश्र द्वारा किये गये अविनाभावके खण्डनसे सहमति प्रकट को है और 'वस्तुतस्त्वनोपाषिकसम्बन्ध एव व्याप्ति १४ इस उदयनोक्त५ व्याप्तिलक्षणको हो मान्य किया है। इससे प्रतीत होता है कि अविनाभावकी मान्यता वैशेषिकदर्शनको भी स्वोपज्ञ एव मौलिक नही है ।
१ अविनाभावो व्याप्तिनियम प्रतिबन्ध साध्याविनाभावित्वमित्यर्थ ।-न्यायकलि० पू० २ ।
तस्माद्यो वा स वाऽस्तु, सम्बन्ध , केवल यस्यासो स्वाभाविको नियत स एव गमको गम्यश्चेतर सम्बन्धोति युज्यते । तथा हि धूमादीना वह्नयादिसम्बन्ध स्वाभाविक न तु वह्नयादीना घूमादिभि । तस्मादुपाधि प्रयत्नेनान्विष्यन्तोऽनुपलभमाना नास्तीत्यवगम्य स्वाभाविकत्व सम्बन्धस्य निश्चिनुम ।
-न्यायवा० ता० टी० १६१०५, पृ० १६५ । ३ किरणा० पृ० २९०, २९४, २९५-३०२ । ४ तर्कभा० पृ० ७२, ७८, ८२, ८३, ८८ । ५ तर्कस० पृ० ५२-५७ । ६ सि० मु० का० ६८, पृ० ५१-५५ । ७ इनके ग्रन्योद्धरण विस्तारभयसे यहां अप्रस्तुत है । ८ त० चि० अनु० खण्ड, पृ० १३ । ९ वही, पृ० ७७-८२, ८६-८९, १७१-२०८, २०९-४३२ । १. वही, अनु० ख० पृ० ६२३-६३१ । ११-१२ प्र० भा०, पृ० १०३ तथा १०० । १३ वही, दुण्डिराज शास्त्री, टिप्प० पृ० १०३ । १४ प्र० भा० टिप्प० पृ० १०३ । १५ किरणा० पृ० २९७ ।
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुमारिलके मीमांसाश्लोकवातिकमें' व्याप्ति और अविनाभाव दोनो शब्द मिलते हैं। पर उनके पूर्व न जैमिनिसूत्रमें वे हैं और न शाबर-भाष्यमें।
बौद्ध तार्किक शकरस्वामीके न्यायप्रवेश में भी अविनाभाव और व्याप्ति शब्द नही हैं । पर उनके अर्थका बोधक नान्तरीयक (अनन्तरीयक) शब्द पाया जाता है। धर्मकीति, धर्मोत्तर, अर्चट आदि बौद्ध नैयायिकोने अवश्य प्रतिबन्ध और नान्तरीयक शब्दोके साथ इन दोनोका भी प्रयोग किया है। इनके पश्चात् तो उक्त शब्द बौद्ध तर्कग्रन्थोमें बहुलतया उपलब्ध हैं।
तब प्रश्न है फि अविनाभाव और व्याप्तिका मुल स्थान क्या है ? अनुसन्धान करनेपर ज्ञात होता है कि प्रशस्तपाद और कुमारिलसे पूर्व जन तार्किक समन्तभद्रने, जिनका समय विक्रमको २री, ३री शती माना जाता है, अस्तित्वको नास्तित्वका और नास्तित्वको अस्तित्वका अविनाभावी बतलाते हुए अविनाभावका व्यवहार किया है। एक-दूसरे स्थलपर भी उन्होने उसे स्पष्ट स्वीकार किया है । और इस प्रकार अविनाभावका निर्देश मान्यताके रूपमें सर्वप्रथम समन्तभद्रने किया जान पडता है। प्रशस्तपादको तरह उन्होंने उसे त्रिलक्षणरूप स्वीकार नही किया। उनके पश्चात् तो वह जैन परम्परामें हेतुलक्षणरूपमें ही प्रतिष्ठित हो गया। पूज्यपादने, जिनका अस्तित्व-समय ईसाकी पांचवी शताब्दी है, अविनाभाव और व्याप्ति दोनो शब्दोका प्रयोग किया है। सिद्धसेन' पात्रस्वामी", कूमारनन्दि१२, अकलक ३, माणिक्यनन्दि आदि जैन तर्कग्रथकारोने अविनाभाव, व्याप्ति और अन्यथानुपपत्ति या अन्यथानुपपन्नत्व तीनोका व्यवहार पर्याय-शब्दोके रूपमें किया है। जो (साधन) जिस (साध्य)के बिना उपपन्न न हो उसे अन्यथानुपपन्न कहा गया है।" असम्भव नहीं कि शावरभाष्यगत ६ अर्थापत्त्युत्त्थापक अन्यथानुपपद्यमान और प्रभाकरको बृहतीम" उसके लिए प्रयुक्त अन्यथानुपपत्ति शब्द अर्थापत्ति और अनुमानको अभिन्न मानने वाले जैन तार्किकोसे अप१ मी० श्लोक अनु० ख० श्लो० ४, १२, ४३ तथा १६१ । २ न्या०प्र०पू०४, ५। ३ प्रमाणवा० १:३, १।३२ तथा न्यायवि० पृ० ३०, ९३ । हेतुबि० पृ० ५४ । ४ न्यायवि० टी०पू० ३० ।। ५ हेतुबि० टी० पृ० ७, ८, १०, ११ आदि । ६ श्री जुगलकिशोर मुख्तार, स्वामी समन्तभद्र पृ० १६६ । ७ अस्तित्व प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकमणि । नास्तित्व प्रतिषेध्येनाविनाभाव्यकामणि ।
-आप्तमी० का० १७, १८ । ८ धर्मधर्म्यविनाभाव सिद्धयत्यन्योन्यवीक्षया ।-वही, का० ७५ । ९ स०सि० ५।१८, १०४ । १० न्यायाव० १३, १८, २०, २२ । ११ तत्त्वस०प० ४०६ पर उद्ध त 'अन्यथानुपपन्नत्व' आदि कारि० । १२ प्र०प० पृ० ४९ मे उद्ध त 'अन्ययानुपपत्त्येक क्षण' आदि कारि० । १३ न्या० वि० २।१८७, ३२३, ३२७, ३२९ । १४ परी० मु० ३।११, १५, १६, ९४, ९५, ९६ । १५ साधन प्रकृताभावेऽनुपपन्न~-न्यायवि० २।६९, तथा प्रमाणस० २१ । १६ अर्थापत्तिरपि दृष्ट श्रुतो बार्थोऽन्यया नोपपद्यते इत्यर्थकल्पना ।-शावरमा० ११११५, वृहती पृ० ११० । १७ केयमन्यथानुपपत्तिर्नाम ? न हि अन्यथानुपपत्ति प्रत्यक्ष समधिगम्या ।-बृहती प० ११०, १११ ।
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
नाये गये हो, क्योकि ये शब्द जैन न्यायग्रथोंमें अधिक प्रचलित एव प्रयुक्त मिलते हैं और शान्तरक्षित' आदि प्राचीन तार्किकोंने उन्हें पात्रस्वामीका मत कह कर उद्धृत तथा समालोचित किया है । अत उनका उद्गम जैन सर्कग्रन्थोंसे बहुत कुछ सम्भव है ।
प्रस्तुत अनुशीलनसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते है कि न्याय, वैशेषिक और दौद्ध दर्शनोमें आरम्भ में पक्षधर्मता ( मपक्ष सत्त्व और विपक्षव्यावृत्ति सहित) को तथा मध्यकाल और नव्ययुगमें पक्षधर्मता और व्याप्ति दोनोको अनुमानका आधार माना गया है पर जैन ताकिकोने आरम्भसे अन्त तक पक्षधर्मता (अन्य दोनो रूपो सहित) को अनावश्यक तथा एकमात्र व्याप्ति (अविनाभाव, अन्यथानुपपन्नत्व) को अनुमानका अपरिहार्य अग बतलाया है ।
अनुमान-भेद
प्रश्न है कि यह अनुमान कितने प्रकारका माना गया है? अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि सर्व प्रथम कणादने अनुमानके प्रकारोका निर्देश किया है। उन्होंने उसको कण्ठत संख्याका तो उल्लेख नही किया, किन्तु उसके प्रकारोको गिनाया है । उनके परिगणित प्रकार निम्न है - (१) कार्य, (२) कारण, (३) सयोगी, (४) विरोधि और (५) समवायि यत हेतुके पांच भेद है, अत उनसे उत्पन्न अनुमान भी पाँच है।
न्यायसूत्र' उपायहृदयें चरक' 'साख्यकारिका' और अनुयोगद्वारसूत्र में अनुमानके पूर्वोल्लिखित पूर्ववत् आदि तीन भेद बताये हैं । विशेष यह कि चरकमें त्रित्वसख्याका उल्लेख है, उनके नाम नही दिये । साख्यकारिकामें भी त्रिविधत्वका निर्देश है और केवल तीसरे सामान्यतोदृष्टका नाम है । किन्तु माठर तथा युक्तिदीपिकाकार ने तीनोके नाम दिये हैं और वे उपर्युक्त ही हूँ। अनुयोगद्वार में प्रथम दो भेद तो वही है, पर तीसरेका नाम सामान्यतोदृष्ट न होकर दृष्टसाधर्म्यवत् नाम है ।
इस विवेचनसे ज्ञात होता है कि ताकिकोने उस प्राचीन कालमें कणादकी पचविध अनुमान परम्पराको नही अपनाया, किन्तु पूर्ववदादि विविध अनुमानको परम्पराको स्वीकार किया है। इस परम्पराका मूल गया है? न्यायसूत्र है या अनुयोगसून आदिमेंसे कोई एक ? इस सम्बन्धमें निर्णयपूर्वक कहना कठिन है। पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उस समय पूर्वागत त्रिविध अनुमानकी कोई सामान्य परम्परा रही है जो अनुमान वर्षामें वर्तमान थी और जिसके स्वीकार में किसीको सम्भवत विवाद नहीं था।
पर उत्तरकालमें यह त्रिविध अनुमान परम्परा भी सर्वमान्य नहीं रह सकी। प्रशस्तपादने " दो तरह से
१. तत्त्वस० पृ० ४०५-४०८ ।
२ वैशे० सू० ९।२।१ ।
३ न्यायसू० १।११५ ।
४ उपायहु० पृ० १३ ।
५ चरक सूत्रस्थान ११।२१, २२ ।
६ सा० का०, का० ५ ।
७ मुनि कन्हैयालाल, अनुयो० सू० पृ० ५३९ ।
८ सा० का०, का० ६ ।
९. माठरवृ०, का० ५ ।
१० युक्तिदी०, का० ५ ० ४३, ४४ ।
११ प्रा० भा० पु० १०४, १०६, ११३ ।
- १४६ -
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुमान-भेद बतलाये हैं -१ दृष्ट और २ सामान्यतोदृष्ट । अथवा १. स्वनिश्चितार्थानुमान और परार्थानुमान । मीमासादर्शनमें शबरने' प्रशस्तपादके प्रथमोक्त अनुमानद्वैविध्यको ही कुछ परिवर्तनके साथ स्वीकार किया है-१ प्रत्यक्षतोदृष्टसम्बन्ध और २ सामान्यतोदृष्टसम्बन्ध । साख्यदर्शनमें वाचस्पतिके अनुसार वोत
और अवीत ये दो भेद भी मान लिये हैं । वीतानुमानको उन्होने पूर्ववत् और सामान्यतोदृष्ट द्विविधरूप और अवीतानुमानको शेषवत्रूप मानकर उक्त अनुमानविध्यके साथ समन्वय भी किया है। ध्यातव्य है कि साख्योकी सप्तविध अनुमान-मान्यताका भी उल्लेख उद्योतकर, वाचस्पति और प्रभाचन्द्रने५ किया है। पर वह हमें साख्यदर्शनके उपलव्ध ग्रन्थोमें प्राप्त नहीं हो सकी। प्रभाचन्द्रने तो प्रत्येकका स्वरूप और उदाहरण देकर उन्हें स्पष्ट भी किया है।
आगे चलकर जो सर्वाधिक अनुमानभेद-परम्परा प्रतिष्ठित हुई वह है प्रशस्तपादकी उक्त-१ स्वार्थ और २ परार्थभेदवाली परम्परा । उद्योतकरने पूर्ववदादि अनुमावत्रविध्यकी तरह केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी इन तीन नये अनुमानभेदोका भो प्रदर्शन किया है। किन्तु उन्होने और उनके उत्तरवर्ती वाचस्पति तकके नैयायिकोने प्रशस्तपादनिर्दिष्ट उक्त स्वार्थ-परार्थके अनुमानद्वैविध्यको अगीकार नहीं किया । पर जयन्तभद्र और उनके पश्चात्वर्ती केशव मिश्र आदिने उक्त अनुमान विष्यको मान लिया है।
बौद्ध दर्शनमे दिइनागसे पूर्व उक्त द्वैविध्यको परम्परा नही देखी जाती। परन्तु दिहनागने उसका प्रतिपादन किया है । उनके पश्चात् तो धर्मकीर्ति आदिने इसीका निरूपण एवं विशेष व्याख्यान किया है।
जैन तार्किकोने" इसी स्वार्थ-परार्थ अनुमानद्वैविध्यको अगीकार किया है और अनुयोगद्वारादिपतिपादित अनुमानत्रैविध्यको स्थान नही दिया, प्रत्युत उसकी समीक्षा की है ।१२
इस प्रकार अनुमान-भेदोके विषयमें भारतीय तार्किकोकी विभिन्न मान्यताएँ तर्कग्रन्थोमें उपलब्ध होती हैं। तथ्य यह कि कणाद जहां साधनमेदसे अनुमानभेदका निरूपण करते हैं वहां न्यायसूत्र आदिमें
rm»
१ शावरभा० ११११५, पृष्ठ ३६ ।
सा० त० को० का० ५, पृ० ३०-३२ । न्यायवा० ११११५, पृष्ठ ५७ । न्यायवा० ता० टी० ॥११५, पृष्ठ १६५ ।
न्यायकु० च० ३३१४, पृष्ठ ४६२ । ६ न्यायवा० ११११५, पृष्ठ ४६ । ७ न्यायम पृष्ठ १३०, १३१ । ८ तर्कभा० पृ० ७९ ।
प्रमाणसमु० २।१। १० न्यायवि० पू० २१, द्वि० परि० । ११ सिद्धसेन, न्यायाव० का० १० । अकलक, सि० वि० ६.२, पृष्ठ ३७३, । विद्यानन्द, प्र० ५० १०
५८ । माणिक्यनन्दि, परी० मु० ३१५२, ५३ । देवसूरि, प्र० न० त० ३१९, १०,। हेमचन्द्र, प्रमा
णमी० ११२१८, पृष्ठ ३९ आदि । १२ अकलक, न्यायविनि० ३४१, ३४२, । स्याद्वादर० पृष्ठ ५२७ । आदि ।
-१४७
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
विषयभेद तथा प्रशस्तपादभाष्य आदिमें प्रतिपत्ताभेदसे अनुमान-भेदका प्रतिपादन ज्ञात होता है । साधन अनेक हो सकते है, जैसा कि प्रशस्तपादने' कहा है, अत अनुमानके भेदोकी सस्था पाँचसे अधिक भी हो सकती है । न्यायसूत्रकार आदिको दृष्टिमें चूँकि अनुमेय या तो कार्य होगा, या कारण या अकार्यकारण । अत अनुमेय विध्यने अनुमान त्रिविध है। प्रशस्तपाद द्विविध प्रतिपत्ताओकी द्विविध प्रतिपत्तियोकी दृष्टिसे अनुमानके स्वार्थ और परार्थ दो ही भेद मानते हैं, जो बुद्धिको लगता है, क्योकि अनुमान एक प्रकारकी प्रतिपत्ति है और यह स्व तथा पर दोके द्वारा की जाती है। सम्भवत इसीसे उत्तरकालमें अनुमानका स्वार्थपरार्थद्वैविष्य सर्वाधिक प्रतिष्ठित और लोकप्रिय हुआ ।
अनुमानावयव
अनुमानके तीन उपादान है, जिनसे वह निष्पन्न होता है -१, साधन, २ साध्य और ३ धर्मी । अथवा १ पक्ष और २ हेतु ये दो उसके अंग हैं, क्योंकि साध्यधर्म विशिष्ट धर्मको पक्ष कहा गया है। अत पक्षको कहने से धर्म और धर्मी दोनोका ग्रहण हो जाता है। साधन गमकरूपसे उपादान है, साध्य गम्यरूपसे और धर्मी साध्य के आधाररूपसे, क्योकि किसी आधार - विशेषमें साध्य की सिद्धि करना अनुमानका प्रयोजन है। । सच यह है कि केवल धर्मकी सिद्धि करना अनुमानका ध्येय नहीं है, क्योकि वह व्याप्तिनिश्वयकाल में ही अवगत हो जाता है और न केवल धर्मीकी सिद्धि अनुमान के लिये अपेक्षित है, क्योकि वह सिद्ध रहना है । किन्तु 'पर्वत अग्निवाला है' इस प्रकार पर्वत में रहने वाली अग्निका ज्ञान करना अनुमानका लक्ष्य है । अत धर्मी भी साध्यधर्मके आवाररूपसे अनुमानका अग है । इस तरह साधन, साध्य और धर्मी ये तीन अथवा पक्ष और हेतु ये दो स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान दोनो अंग हैं। कुछ अनुमान ऐसे भी होते हैं नहीं धर्मी नहीं होता । जैसे- सोमवार से मंगलवारका अनुमान आदि। ऐसे अनुमानोंमे साधन और साध्य दो ही ग है।
उपर्युक्त अग स्वार्थानुमान और ज्ञानात्मक परार्थानुमानके कहे गये है। किन्तु वचनप्रयोग द्वारा प्रतिवादियों या प्रतिपाद्योको अभिधेयप्रतिपत्ति कराना जब अभिप्रेत होता है तब वह वचनप्रयोग परार्थानुमान - वाक्यके नामसे अभिहित होता है और उसके निष्पादक अगोवो अवयव कहा गया है । परार्थानुमानवाक्यके कितने अवयव होने चाहिए, इस सम्बन्धमें तार्किकोके विभिन्न मत हैं । न्यायसूत्रकारों का मत है कि परार्थानुमान वाक्यके पाँच अवयव है- १ प्रतिज्ञा २ हेतु ३ उदाहरण ४ उपनय और ५ निगमन भाष्यकारने " सूत्रकारके इस मतका न केवल समर्थन ही किया है, अपितु अपने कालमें प्रचलित दशावयव - मान्यताका निरास भी किया है । वे दशावयव हैं - उक्त ५ तथा ६ जिज्ञासा, ७ सशय, ८ शक्यप्राप्ति, ९ प्रयोजन और १० सशयव्युदास ।
यहाँ प्रश्न है कि ये दश अवयव किनके द्वारा माने गये हैं ? भाष्यकारने उन्हें 'वशावयवाने के नैयायिका वाक्ये सचक्षते" शब्दो द्वारा 'किन्ही नैयायिको' की मान्यता बतलाई है । पर मूल प्रश्न असमाधेय ही
रहता है ।
हमारा अनुमान है कि भाष्यकारको 'एके नैयायिका' पदसे प्राचीन साख्यविद्वान् युक्तिदीपिकाकार
१
प्रश० भा० पृ० १०४ ।
२ धर्मभूषण, न्यायदी० ० प्रकाश पृ० ७२ ॥
३ वही, पृष्ठ ७२-७३ ।
४ न्यायसू० १।१।३२ ।
५-६ व्याभा० १११।३२, पृष्ठ ४७ ।
- १४८ -
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
अभिप्रेत हैं, क्योकि युक्तिदीपिकामें' उक्त दशावयवोका न केवल निर्देश है किन्तु स्वमतरूपमें उनका विशद एव विस्तृत व्याख्यान भी है। युक्तिदीपिकाकार उन अवयवोको बतलाते हुए पतिपादन करते हैं कि 'जिज्ञासा, सशय, प्रयोजन, शक्यप्राप्ति और सशयव्युदास ये पांच अवयव व्याख्याग हैं तथा प्रतिज्ञा, हेतु, दष्टान्त, उपसहार और निगमन ये पांच परप्रतिपादनाग । तात्पर्य यह कि अभिधेयका प्रतिपादन दूसरोके लिए प्रतिज्ञादि द्वारा होता है और व्याख्या जिज्ञासादि द्वारा । पुनरुक्ति, वैयर्थ्य आदि दोषोका निरास करते हुए युक्तिदीपिकामें कहा गया है कि विद्वान् सबके अनुग्रह के लिए जिज्ञासादिका अभिधान करते हैं । यत व्युत्पाद्य अनेक तरहके होते है-सन्दिग्ध, विपर्यस्त और अव्युत्पन्न । अत इन सभीके लिए सन्तॊका प्रयास होता है । दूसरे, यदि प्रतिवादी प्रश्न करे कि क्या जानना चाहते हो ? तो उसके लिए जिज्ञासादि अवयवोका वचन आवश्यक है। किन्तु प्रश्न न करे तो उसके लिए वे नही भी कहे जाएँ । अन्तमें निष्कर्ष निकालते हए युक्तिदीपिकाकार कहते हैं कि इसीसे हमने जो वीतानुमानके दशावयव कहे वे सर्वथा उचित हैं। आचार्य (ईश्वरकृष्ण) उनके प्रयोगको न्याय-सगत मानते हैं।' इससे अवगत होता है कि दशावयवकी मान्यता युक्तिदीपिकाकारकी रही है। यह भी सम्भव है कि ईश्वरकृष्ण या उनसे पूर्व किसी साख्य विद्वान्ने दशावयवोको माना हो और युक्तिदीपिकाकारने उनका समर्थन किया हो।
जैन विद्वान् भद्रबाहने भी दशावयवोका उल्लेख किया है। जैसा कि पूर्वमें लिखा गया है। किन्त उनके वे दशावयव उपयुक्त दशावयवोसे कुछ भिन्न है।
प्रशस्तपादने पांच अवयव माने हैं । पर उनके अवयवनामो और न्यायसूत्रकादके अवयवनामोमें कछ अन्तर है। प्रतिज्ञाके स्थानमें तो प्रतिज्ञा नाम ही है। किन्तु हेतुके लिए अपदेश, दृष्टान्तके लिए निदर्शन. उपनयके स्थानमें अनुसन्धान और निगमनकी जगह प्रत्याम्नाय नाम दिये हैं। यहां प्रशस्तपादकी एक विशेषता उल्लेखनीय है। न्यायसूत्रकारने जहां प्रतिज्ञाका लक्षण 'साध्यनिर्देश प्रतिज्ञा' यह किया है कि वहां प्रशस्तपादने 'अनुमेयोद्देशोऽविरोधी प्रतिज्ञा' यह कहकर उसमें 'अविरोधी' पदके द्वारा प्रत्यक्ष-विरुद्ध आदि
१-२ तस्य पुनरवयवा-जिज्ञासा-सशय प्रयोजन-शक्य प्राप्ति-सशयव्युदासलक्षणाश्च व्याख्यागम प्रतिज्ञा
हेत-दष्टान्तोपसहार-निगमनानि परप्रतिपादनागमिति । -युक्तिदी० का० ६, पष्ठ ४७ । ३. अत्र ब्रूम -न, उक्तत्वात् । उक्तमेतत् पुरस्तात् व्याख्याग जिज्ञासादय । सर्वस्य चानुग्रह कर्तव्य
इत्येवमयं च शास्त्रव्याख्यान विपश्चिद्धि प्रत्याय्यते, न स्वार्थ शश्वदज्ञबुद्धयर्थं वा -वही. का०
६, पृष्ठ ४९ । ४. 'तस्मात् सूक्त दशावयवो वीत । तस्य पुरस्तात् प्रयोग न्याय्यमाचार्या मन्यन्ते ।' -यु० दी० का०६.
पृष्ठ ५१ । अवयवा पुनजिज्ञासादय प्रतिज्ञादयश्च । तत्र जिज्ञासादयो व्याख्यागम् प्रतिज्ञादय परप्रत्यायनागम ।
तानुत्तरत्र वक्ष्याम ।' -वही० का० १ की भूमिका पृष्ठ ३ । ५ यक्तिदीपिकाकारने इसी बातको आचार्य (ईश्वरकृष्ण) की कारिकाओ-१,१५,१६,३५ और ५७ के
प्रतीको द्वारा समर्थित किया है। -यु दी. का० १ की भूमिका पृष्ठ ३ । ६. दशवै० नि० गा० ४९-१३७ । ७ अवयवा पुन प्रतिज्ञापदेशनिदर्शनानुसन्धानप्रत्याम्नाया । -प्रश० भा० पृ० ११४ । ८ वही, पृ० ११४, ११५ ।
-१४९
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
पांच विरुद्धसाध्यो (साध्याभासो) का भी निरास किया है । न्यायप्रवेशकारने भी प्रशस्तपादका अनुसरण करते हुए स्वकीय पक्षलक्षणमे 'अविरोधी' जैसा ही 'प्रत्यक्षाधविरुद्ध' विशेपण दिया है और उसके द्वारा प्रत्यक्षविरुद्धादि साध्याभासोका परिहार किया है।
न्यायप्रवेश और माठरवृत्तिमें पक्ष, हेतु और दृष्टान्त ये तीन अवयव स्वीकार किये हैं। धर्मकीर्तिने उक्त तीन अवयवोमेंसे पक्षको निकाल दिया है और हेतु तथा दृष्टान्त ये दो अवयव माने है । न्यायबिन्दु और प्रमाणवातिकमें उन्होने केवल हेतुको ही अनुमानावयव माना है।'
मीमासक विद्वान् शालिकानाथने प्रकरणपचिकामें, नारायण भट्टनै मानमेयोदयमें और पार्थसारथिनं न्यायरत्नाकरमें प्रतिज्ञा, हेतु और दृष्टान्त इन तीन अवयवोके प्रयोगको प्रतिपादित किया है ।
जैन तार्किक समन्तभद्रका सकेत तत्त्वार्थसूत्रकारके अभिप्रायानुसार पक्ष, हेतु और दृष्टान्त इन तीन अवयवोको माननेका ओर प्रतीत होता है। उन्होने आप्तमीमासा (का०६, १७, १८, २७ आदि ) में उक्त तीन अवयवोसे साध्य-सिद्धि प्रस्तुत की है। सिद्धसेनन भी उक्त तीन अवयवोका प्रतिपादन किया है। पर अकलक और उनके अनुवर्ती विद्यानन्द", माणिक्यनन्दि', देवसूरि'३, हेमचन्द्र, धर्मभूषण'५, यशोविजय आदिने पक्ष और हेतु ये दो ही अवयव स्वीकार किये हैं और दृष्टान्तादि अन्य अवयवोंका निरास किया है। देवसरिने अत्यन्त व्युत्पन्नकी अपेक्षा मात्र हेतुके प्रयोगको भी मान्य किया है। पर साथ ही वे यह भी बतलाते हैं कि बहुलतासे एकमात्र हेतुका प्रयोग न होनेसे उसे सूत्रमे ग्रथित नही किया। स्मरण रहे कि जैन न्यायमें उक्त दो अवयवोका प्रयोग व्युत्पन्न प्रतिपाद्यकी दृष्टिसे अभिहित है। किन्तु अव्युत्पन्न प्रतिपाद्योकी
१ न्यायप्र० पृ० १। २ वही, पृ० १, २। ३ माठरवृ० का० ५। ४ वादन्या० पृ० ६१ । प्रमाणवा० १११२८ । न्यायवि०पू० ९१ । ५ प्रमाणवा० १,१२८ । न्यायवि० पृष्ठ ९१।। ६. प्र०प० पृ० २२० । ७ मा० मे० पृ० ६४ । ८ न्यायरत्ना० पृष्ठ ३६१ (मी० श्लोक० अनु० परि० श्लोक ५३) ९ न्यायाव० १३-१९ । १० न्या० वि०, का० ३८१ । ११ पत्रपरी०, पृ० १८ । १२ परीक्षामु० ३।३७ । १३ प्र० न० त० ३। २८, २३ । १४ प्र० मी० २।१।९। १५ न्याय० दी० पृष्ठ ७६ । १६ जैनत० पृ० १६ । १७ प्र० न० त० ३।२३, पृ० ५४८ ।
-१५०
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपेक्षासे तो दृष्टान्तादि अन्य अवयवोका भी प्रयोग स्वीकृत है।' देवसूरि', हेमचन्द्र और यशोविजयने भद्रबाहुकथित पक्षादि पांच शुद्धियोके भी वाक्यमें समावेशका कथन किया और भद्रबाहुके दशावयवोका समर्थन किया है। अनुमान-दोष ।
अनुमान-निरूपणके सन्दर्भमें भारतीय ताकिकोंने अनुमानके सम्भव दोषोपर भी विचार किया है। यह विचार इसलिए आवश्यक रहा है कि उससे यह जानना शक्य है कि प्रयुक्त अनुमान सदोष है या निर्दोष? क्योकि जब तक किसी ज्ञानके प्रामाण्य या अप्रामाण्यका निश्चय नही होता तब तक वह ज्ञान अभिप्रेत अर्थकी सिद्धि या असिद्धि नही कर सकता। इसीसे यह कहा गया है कि प्रमाणसे अर्थस सिद्धि होती है और प्रमाणाभाससे नही । और यह प्रकट है कि प्रामाण्यका कारण गुण हैं और अप्रामाण्यका कारण दोष । अतएव अनुमानप्रामाण्यके हेतु उसकी निर्दोषताका पता लगाना बहुत आवश्यक है। यही कारण है कि तर्कग्रन्थोमें प्रमाण-निरूपणके परिप्रेक्ष्य में प्रमाणाभास-निरूपण भी पाया जाता है। न्यायसूत्रमे प्रमाणपरीक्षा प्रकरणमें अनुमानकी परीक्षा करते हए उसमें दोषाशका और उसका निरास किया गया है। वात्स्यायनने अननमान (अनुमानाभास) को अनुमान समझनेकी चर्चा द्वारा स्पष्ट बतलाया है कि दूषितानुमान भी सम्भव है।
अब देखना है कि अनुमानमें क्या दोष हो सकते हैं और वे कितने प्रकारके सम्भव है ? स्पष्ट है कि अनुमानका गठन मुख्यतया दो अङ्गों पर निर्भर है-१ साधन और २ साध्य (पक्ष) । अतएव दोप भी साधनगत और साध्यगत दो ही प्रकारके हो सकते हैं और उन्हें क्रमश साधनाभास तथा साध्याभास (पक्षाभास) नाम दिया जा सकता है। साधन अनुमान-प्रासादका वह प्रधान एव महत्त्वपूर्ण स्तम्भ है जिसपर उसका भव्य भवन निर्मित होता है। यदि प्रधान स्तम्भ निर्बल हो तो प्रासाद किसी भी क्षण क्षतिग्रस्त एव घराशायी हो सकता है। सम्भवत इसोसे गौतमने साध्यगत दोषोका विचार न कर मात्र साधनगत दोषोका विचार किया और उन्हें अवयवोकी तरह सोलह पदार्थोके अन्तर्गत स्वतन्त्र पदार्थका स्थान प्रदान किया है। इससे गौतमको दृष्टिमें उनकी अनुमानमें प्रमुख प्रतिबन्धकता प्रकट होती है । उन्होने उन साधनगत दोषोको, जिन्हें हेत्वाभासके नामसे उल्लिखित किया गया है, पाँच बतलाया है। वे हैं-१ सव्यभिचार, २ विरुद्ध, ३ प्रकरणसम, ४ साध्यसम और ५ कालातीत । हेत्वाभासोकी पांच सख्या सम्भवत हेतुके पांच रूपोके अभावपर आधारित जान पडतो है । यद्यपि हेतुके पांच रूपोंका निर्देश न्यायसूत्रमें उपलब्ध नही है । पर उसके व्याख्याकार उद्योतकर प्रभृतिने उनका उल्लेख किया है। उद्योतकरने१० १ परी० मु० ३२४६। प्र० न० त० ३४२ । प्र० मी० २।१।१० । २. प्र० न० त० ३१४२, पृ० ५६५ । ३ प्र० मी० २।१।१०, पृष्ठ ५२ । ४ जनत० भा० पृष्ठ १६ । ५ प्रमाणादर्थससिद्धिस्तदाभासाद्विपर्यय ।-माणिक्यनन्दि, परी० मु०, प्रतिज्ञाश्लो०१। ६ न्यायसू० २।११३८, ३९ । ७ न्यायमा० २।१।३९ । ८ न्यायसू० १।२।४-९ । ९ सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमकालातीता हेत्वाभामा । न्यायसू० १।२।४ । १० समस्तलक्षणोपपत्तिरसमस्तलक्षणोपपत्तिश्च । -न्यायवा० ११२।४, पृष्ठ १६३ ।
- १५१ -
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
पादभाष्य और न्यायप्रवेश जैसे ही हैं किन्तु सन्दिग्धसाध्य, सन्दिग्वसाधन और सन्दिग्धोभय ये तीन साधर्म्यदृष्टान्ताभास तथा सन्दिग्धसाध्यव्यावृत्ति, सन्दिग्धसाधनव्यावृत्ति और सन्दिग्योभ यव्यावृत्ति ये तीन वधर्म्य दृष्टान्ताभास न प्रशस्तपादभाष्यमें है और न न्यायप्रवेशमें । प्रशस्तपादभाष्यमें आश्रयासिद्ध, अननगत और विपरीतानुगत ये तीन सावर्म्य तथा आश्रसिद्ध, अव्यावृत्त और विपरीतन्यावृत्त ये तीन वैधर्म्यनिदर्शनाभास है। और न्यायप्रवेशमें अनन्वय तथा विपरीतान्वय ये दो साधर्म्य और अन्यतिरेक तथा विपरीतव्यतिरेक ये दो वैधर्म्य दृष्टान्ताभास उपलब्ध है। पर हां, धर्मकीतिके न्यायविन्दुमे उनका प्रतिपादन मिलता है । धर्मकीतिने सन्दिग्धसाध्यादि उक्त तीन साधर्म्यदृष्टान्ताभासो और सन्दिग्धव्यतिरेकादि तीन वैधय॑दृष्टान्ताभासोका स्पष्ट निरूपण किया है। इसके अतिरिक्त धर्मकीतिने न्यायप्रवेशगत अनन्वय, विपरीतान्वय, अव्यतिरेक और विपरीतव्यतिरेक इन चार साधर्म्य-वैधर्म्य दण्टान्तामासोको अपनाते हए अप्रदर्शितान्वय और अप्रदर्शितव्यतिरेक इन दो नये दृष्टान्ताभासोंको और सम्मिलित करके नव-नव साधर्म्यवैधर्म्य दृष्टान्ताभास प्रतिपादित किये हैं।
अकलकने पक्षाभासके उक्त सिद्ध और वाधित दो भेदोके अतिरिक्त अनिष्ट नामक तीसरा पक्षाभास भी वर्णित किया है । जब साध्य शक्य (अबाधित), अभिप्रेत (इष्ट) और असिद्ध होता है तो उसके दोष भी बाधित, अनिष्ट और सिद्ध ये तीन कहे जाएंगे। हेत्वाभासोके सम्बन्धमें उनका मत है कि जैन न्यायमें हेतु न त्रिरूप है और न पांच-रूप, किन्तु एकमात्र अन्यथानुपपन्नत्व (अविनाभाव) रूप है । अत उसके अभावमें हेत्वाभास एक ही है और वह है अकिंचित्कर । असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक ये उसीका विस्तार हैं । दृष्टान्तके विषयमें उनकी मान्यता है कि वह सर्वत्र आवश्यक नहीं है। जहां वह आवश्यक है वहां उसका और उसके साध्यविकलादि दोषोंका कथन किया जाना योग्य है।
माणिक्यनन्दि५, देवसरि', हेमचन्द्र आदि जैन ताकिकोने प्रायः सिद्धसेन और अकलकका ही अनुसरण किया है।
इस प्रकार भारतीय तक्ग्रन्थोके साथ जैन तर्कग्रन्थोमें भी अनुमानस्वरूप, अनुमानभेदों, अनुमानागो, सनुमानावयवो और अनुमानदोषोपर पर्याप्त चिन्तन उपलब्ध है।
जैन अनुमानकी उपलब्धियां यहाँ जैन अनुमानकी उपलब्धियोंका निर्देश किया जायेगा, जिससे भारतीय अनुमानको जैन तार्किकों की क्या देन है, उन्होने उसमें क्या अभिवृद्धि या सशोधन किया है, यह समझने में सहायता मिलेगी।
अध्ययनसे अवगत होता है कि उपनिषद् कालमें अनुमानकी आवश्यकता एक प्रयोजनपर भार दिया जाने लगा था, उपनिषदोमे 'आत्मा वारे द्रष्टव्य श्रोतव्यो मन्तव्यो निविध्यासितव्य" आदि वाक्यों द्वारा आत्माके श्रवणके साथ मननपर भी बल दिया गया है, जो उपपत्तियों १ प्रश० मा० पृ० १२३ । २ न्यायप्र०, पृ० ५-७ । ३ न्याय०बि०, तृ० परि० पृष्ठ ९४-१०२ । ४ न्यायविनि०, का० १७२, २९९, ३६५, ३६६, ३७०, ३८१ । ५ परीक्षामु० ६।१२-५० । ६ प्रमाणन०, ६।३८-८२ । ७ प्रमाणमी०, श२।१४, २।१।१६-२७ । ८, बृहदारण्य० २।४।५ ।
- १५४ -
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
(युक्तियो) के द्वारा किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि उम कालमें अन मानको भी श्रुतिकी तरह ज्ञानका एक साधन माना जाता था-उसके बिना दर्शन अपूर्ण रहता था। यह सच है कि अनुमानका 'अनुमान' शब्दसे व्यवहार होने की अपेक्षा 'वाकोवाक्यम' 'आन्वीक्षिको', 'तर्कविद्या', हेतूविद्या' जैसे शब्दों द्वारा अधिक होता था।
प्राचीन जैन वाइमयमें ज्ञानमीमासा (ज्ञानमार्गणा) के अन्तर्गत अनुमानका 'हेतुवाद' शब्दसे निर्देश किया गया है और उसे श्रुतका एक पर्याय (नामान्तर) बतलाया गया है । तत्त्वार्थसत्रकारने उसे अभिनिवोध नामसे उल्लेखित किया है । तात्पर्य यह है कि जैन दर्शनमें भी अनुमान अभिमत है तथा प्रत्यक्ष (मान्यवहारिक और पारमार्थिक ज्ञानो) की तरह उसे भी प्रमाण एव अर्थनिश्चायक माना गया है। अन्तर केवल उनमें वैशद्य और अवैशद्यका है। प्रत्यक्ष विशद है और अनुमान अविशद (परोक्ष)।
अनुमानके लिए किन घटकोकी आवश्यकता है, इसका आरम्भिक प्रतिपादन कणादने किया प्रतीत होग है । उन्होने अनुमान का 'अनुमान' शब्दसे निर्देश न कर 'लैङ्गिक' शब्दसे किया है, जिससे ज्ञात होता है कि अनुमानका मुख्य घटक लिङ्ग है । सम्भवत इसी कारण उन्होंने मात्र लिङ्गों, लिङ्गरूपो और लिङ्गाभापोका निरूपण किया है, उसके और भी कोई घटक है इसका कणादने कोई उल्लेख नही किया। उनके भाष्यकार प्रशस्तपादने अवश्य प्रतिज्ञादि पांच अवयवोको उसका घटक प्रतिपादित किया है।
तर्कशास्त्रका निबद्धरूपमें स्पष्ट विकास सक्षपादके न्यायसूत्रमें उपलब्ध होता है । अक्षपादने अनुमानको 'अनमान' शब्दमे ही उल्लेखित किया तथा उसकी कारणसामग्री, भेदो, अवयवो और हेत्वाभासोका स्पष्ट विवेचन किया है । साथ ही अनुमानपरीक्षा, वाद, जल्प, वितण्डा, उल, जाति, निग्रहस्थान जैसे अनुमानसहायक तत्त्वोका प्रतिपादन करके अनुमानको शास्त्रार्योपयोगी और एक स्तर तक पहुंचा दिया है । वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, उदयन और गङ्गेशने उसे विशेष परिष्कृत किया तथा व्याप्ति, पक्षधर्मता,
मर्श जैसे तदुपयोगी अभिनव तत्त्वोंको विविक्त करके उनका विस्तृत एव सूक्ष्म निरूपण किया है । वस्तुत अक्षपाद और उनके अनुवर्ती ताकिकोने अनुमानको इतना परिष्कृत किया कि उनका दर्शन न्याय (तर्कअनुमान) दर्शनके नामसे ही विश्रुत हो गया।
असग, बसुबन्धु, दिड्नाग, धर्मकीर्ति प्रभृति बौद्ध ताकिकोने न्यायदर्शनकी समालोचनापूर्वक अपनी विशिष्ट और नयी मान्यताओके आधारपर अनमानका सूक्ष्म और प्रचुर चिन्तन प्रस्तुत किया है। इनके चिन्तनका अवश्यम्भावी परिणाम यह हुआ कि उत्तरकालीन तमग्न भारतीय तर्कगास्त्र उमसे प्रभावित हमा और अनमानकी विचारधारा पर्याप्त आगे बढ़ने के माथ सूक्ष्म-से-सक्ष्म एव जटिल होती गयी। वास्त में बौद्ध ताकिको चिन्तनने तर्कमें आयी कुण्ठाको हटाकर और सभी प्रकारके परिवेशोको दूर कर उन्मुक्तभावसे तत्त्वचिन्तनकी क्षमता प्रदान को । फलत सभी दर्शनोमें स्वीकृत मनमानपर अधिक विचार हुआ और उसे महत्त्व मिला।
ईश्वरकृष्ण, युवितदीपिकाकार, माठर, विज्ञानभिक्षु आदि साख्यविद्वानो, प्रभाकर, कुमारिल, पार्थसारथि प्रभूति मीमामकचिन्तकोने भी अपने-अपने ढगसे अनुमानका चिन्तन किया है। हमारा विचार है कि इन निन्तकोका चिन्तन-विषय प्रकृति-पुरुष और क्रियाकाण्ड होते हुए भी वे अनमान-चिन्तनसे अछूने नहीं रहे । श्रुतिके आलावा अनमानको भी इन्हें स्वीकार करना पटा और उसका कम-बद विवेचन दिया है। १. श्रोतव्य प्रतिवाक्येन्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि ।
मत्वा च सतत ध्येय एते दर्शनहेतव ॥
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
हेतुका प्रयोजक समस्तरूपसम्पत्तिको और हेत्वाभामका प्रयोजक असमस्तरूपसम्पत्तिको बतलाकर उन रूपोंका सकेत किया है। वाचस्पतिने' उनकी स्पष्ट परिगणना भी कर दी है। वे पांच रूप हैं-पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षासत्त्व, अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व । इनके अभावसे हेत्वाभास पांच ही सम्भव हैं। जयन्तभटने तो स्पष्ट लिखा है कि एक-एक रूपके अभावमें पांच हेत्वाभास होते हैं । न्यायसूत्रकारने एकएक पृथक् सूत्र द्वारा उनका निरूपण किया है। वात्स्यायनने हेत्वाभासका स्वरूप देते हुए लिखा है कि जो हेतुलक्षण (पचरूप) रहित हैं परन्तु कतिपय रूपोके रहनेके कारण हेतु-सादृश्यसे हेतुकी तरह आभासित होते हैं उन्हे अहेतु अर्थात् हेत्वाभास कहा गया है । सर्वदेवने भी हेत्वाभासका यही लक्षण दिया है ।
कणादने' अप्रसिद्ध, विरुद्ध और सन्दिग्ध ये तीन हेत्वाभास प्रतिपादित किये हैं। उनके भाष्यकार प्रशस्तपादन उनका समर्थन किया है। विशेष यह है कि उन्होंने काश्यपकी दो कारिकाएँ उधृत करके पहली द्वारा हेतुको त्रिरूप और दूसरी द्वारा उन तीन रूपोंके अभावसे निष्पन्न होनेवाले उक्त विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्ध तीन हेत्वाभासोको बताया है। प्रशस्तपादका एक वैशिष्टय और उल्लेख्य है । उन्होने निदर्शनके निरूपण-सन्दर्भमें बारह निदर्शनाभासोका भी प्रतिपादन किया है, जबकि न्यायसूत्र और न्यायभाष्य में उनका कोई निर्देश प्राप्त नही है। पांच प्रतिज्ञाभासो (पक्षाभामों) का भी कथन प्रशस्तपादने
या है. जो बिल्कुल नया है। सम्भव है न्यायसत्रमें हेत्वाभासोंके अन्तर्गत जिस कालातीत (बाधितविषयकालात्ययापदिष्ट) का निर्देश है उसके द्वारा इन प्रतिज्ञाभासोका सग्रह न्यायसूत्रकारको अभीष्ट हो । सवंदेवने° छह हेत्वाभास बताये है।
उपायहृदयमें आठ हेत्वाभासोका निरूपण है। इनमें चार (कालातीत, प्रकरणसम, सव्यभिचार और विरुद्ध) हेत्वाभास न्यायसूत्र जैसे ही हैं तथा शेष चार (वाक्छल, सामान्यछल, सशयसम और वर्ण्यसम) नये हैं। इनके अतिरिक्त इसमें अन्य दोषोका प्रतिपादन नही है। पर न्यायप्रवेशमें२ पक्षाभास, हेत्वाभास और दृष्टान्ताभास इन तीन प्रकारके अनुमान-दोषोका कथन है। पक्षामासके नौ3, हेत्वाभासके तीन, दष्टान्ताभासके१५ दश भेदोका सोदाहरण निरूपण है। विशेष यह कि अनैकान्तिक हेत्वाभासके छह भेदोमें १ न्यायवा० ता० टी० १२।४, पृष्ठ ३३० । २ हेतो पचलक्षणानि पक्षधर्मत्वादीनि उक्तानि । तेषामेकैकापाये पच हेत्वाभासा भवन्ति असिद्ध-विरुद्ध
अनकान्तिक-कालात्ययापदिष्ट-प्रकरणसमा ।-न्यायकलिका पृ०१४ । न्यायम० पृ० १०१ । ३ हेतुलक्षणाभावादहेतवो हेतुमामान्याद्ध तुवदाभासमाना ।-न्यायभा० १।२।४ की उत्थानिका, पृ०
४ प्रमाणम० पृष्ठ ९ । ५ वै० सू० ३।१।१५ । ६ प्रश० भा० पृ० १००-१०१ । ७ प्रश० भा० पृ० १०० । ८ प्र० भा०, पृ० १२२, १२३ । ९ वही, पृ० ११५ । १० प्रमाणम० पृष्ठ ९ । ११ उ० हृ० पृ० १४ । १२ एषा पक्षहेतु दृष्टान्ताभासाना वचनानि साधनाभासम् ।--ज्या० प्र०, पृ० २-७ । १३, १४, १५ वही, २,३-७ ।
- १५२ -
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
र बिग्मायभिचानका' गो सपनाना
प्राग मिनिमोनित दया। न्यायप्रवंगकाग्ने प्रष्टानामागॉर अन्तगरा उमान्दिदेवानामामकि जिन रिया
और जिगने प्रसस्तपाद मोही उनपटान्तामानाको सम्पादकहोगी। प्रधान, विविधयामिद उन्हें अभीष्ट नहीं है।
गुमारित और उनी कारवाया तामापन' मोमासर अष्टिी रिभानो, वाभागापौर इप्टानोपोवा प्रतिपादन किया है। प्रतिमागम प्रन्याविरोप, अनुमानवि भोरविगेप वीन प्राय: प्रशस्तपाद तथा न्यायप्रदेशकाग्दो रही है। हो, मलनिगेदो मिनाया , बीम-प्रमिटियरोष और पूर्वगंजापविरोधीनभंगिये है। तमालपांपनिषगर, अमानविरोध और जमातविगैरय सोनट बा नये है, जो उन मतान है।
दिन दिगो फर्म, घमाँ और उभरेगामान्य तमा विप म्यागत मायागना है। विदियानासा भी प्रदान गिया है और न्यायप्रदेशको नाति नमाग्लिने विज्ञापनमारोगे माना।
माप्पांनी पुषिदीपिा यास्मेिं तो सनमानसोपारा प्रतिपात हो नि। निमाग्ने" मिवादिनदहवामागो तथा माध्यविषादि दागाधर्म-वम् निर्णनाभानोगनिपरिया।। निदर्शनाभागोका प्रतिपान उन्होंने प्रशस्तपादने अनुमार किया है। बताना होमि मापन प्रगतमागे वाह निवांनाभागामें दमको म्योनार किया है और आधागिर नामक दो मामी-प निदर्शनानासाको छोट दिया। पक्षाभाग भी उन्होंने नो निष्टि किये।
जन परम्परायः उपका न्यायग्रन्पोमे सर्वप्रथम मायावतारमे नमान्दोनशा स्पष्ट पा प्राण होता। अनी पक्षादि तीनो वचनको परानमान पर उसके दोग भी नीनगरोदन '--
पक्षानाम, न्याभाग और इप्टान्गाभाग ! पक्षानानिद और साधित यो मामिार पातिक प्रत्यक्षवाधित, पनमानवाधित, सोकवाशित और मानवाधिक मामद गिनायी। यसिस, फिर और गनगन्ता तीन" हत्यामामों सपा करमापौर स्व यं पर दाग, यष्टान्ता भानीका भी गया किरा तय किसाध्यविन, मापनदिन और मावि सोनमर्गसाताभाग मा मायाम्पास मागाव्यावृत्त और भयामारा ये तीन बंधष्टानामा ११ प्रगला
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
पादभाष्य और न्यायप्रवेश जैसे ही हैं किन्तु सन्दिग्धसाध्य, सन्दिग्वसाधन और सन्दिग्धोभय ये तीन साधर्म्य दृष्टान्ताभास तथा सन्दिग्वसाध्यव्यावृत्ति, सन्दिग्वसावनव्यावृत्ति और सन्दिग्वोभयव्यावृत्ति ये तीन वैधर्म्य दृष्टान्ताभास न प्रशस्तपादभाष्यमें है' और न न्यायप्रवेश में । २ प्रशस्तपादभाष्य में आश्रयासिद्ध, अननुगत और विपरीतानुगत ये तीन सावर्म्य तथा मश्रर्यासद्ध, अव्यावृत्त और विपरीतव्यावृत्त ये तीन वैधर्म्य - निदर्शनाभास है । और न्यायप्रवेशमें अनन्वय तथा विपरीतान्वय ये दो साधर्म्य और अव्यतिरेक तथा विपरीतव्यतिरेकये दो वैधर्म्य दृष्टान्ताभास उपलब्ध हैं। पर हाँ, धर्मकीर्तिके न्यायविन्दुमे उनका प्रतिपादन मिलता है । धर्मकीर्तिने सन्दिग्धसाध्यादि उक्त तीन साधर्म्यदृष्टान्ताभासो और सन्दिग्धव्यतिरेकादि
वैधर्म्यदृष्टान्ताभासोका स्पष्ट निरूपण किया है । इसके अतिरिक्त धर्मकीर्तिने न्यायप्रवेशगत अनन्वय, विपरीतान्वय, अव्यतिरेक और विपरीतव्यतिरेक इन चार साधर्म्य वैधर्म्य दृष्टान्ताभासोको अपनाते हुए अप्रदर्शितान्वय और अप्रदर्शितव्यतिरेक इन दो नये दृष्टान्ताभासोको और सम्मिलित करके नव-नव सावर्म्यवैधर्म्य दृष्टान्ताभास प्रतिपादित किये हैं ।
अकलकने पक्षाभासके उक्त सिद्ध और बाधित दो भेदोके अतिरिक्त अनिष्ट नामक तीसरा पक्षाभास भी वर्णित किया है । जब नाष्य शक्य (अवाधित), अभिप्रेत (इष्ट) और असिद्ध होता है तो उसके दोष भी बाधित, अनिष्ट और सिद्ध ये तीन कहे जाएँगे । हेत्वाभासोके सम्बन्धमे उनका मत है कि जैन न्यायमें हेतु न त्रिरूप है और न पाँच रूप, किन्तु एकमात्र अन्यथानुपपन्नत्व (अविनाभाव) रूप है । अत उसके अभाव में हेत्वाभास एक ही है और वह है अकिंचित्कर । असिद्ध, विरुद्ध और अनैकान्तिक ये उसीका विस्तार हैं । दृष्टान्तके विषय में उनकी मान्यता है कि वह सर्वत्र आवश्यक नही है । जहाँ वह आवश्यक है वहाँ उसका और उसके साध्यविकलादि दोषोका कथन किया जाना योग्य है ।
माणिक्यनन्दि", देवसूरि", हेमचन्द्र आदि जैन तार्किकोने प्रायः सिद्धसेन और अकलकका ही अनुसरण किया है ।
इस प्रकार भारतीय तर्कग्रन्थोके साथ जैन तर्कग्रन्थोमें भी अनुमानस्वरूप, अनुमानभेदों, अनुमानागो, अनुमानावयवो और अनुमानदोषोपर पर्याप्त चिन्तन उपलब्ध है ।
जैन अनुमानकी उपलब्धियां
यहाँ जैन अनुमानकी उपलब्धियोंका निर्देश किया जायेगा, जिससे भारतीय अनुमानको जैन ताकिकों की क्या देन है, उन्होने उसमें क्या अभिवृद्धि या सशोधन किया है, यह समझनेमें सहायता मिलेगी । अध्ययनसे अवगत होता है कि उपनिषद् कालमें अनुमानकी आवश्यकता एव प्रयोजनपर भार दिया जाने लगा था, उपनिषदोमें 'आत्मा वाsरे व्रष्टव्य श्रोतव्यो मन्तव्यो निविष्यासितव्य आदि वाक्यों द्वारा आत्माके श्रवणके साथ मननपर भी बल दिया गया है, जो उपपत्तियो १ प्रश० भा० पू० १२३ ।
१८
२ न्यायप्र०, पृ० ५-७ ।
३ न्याय० बि०, तृ० परि० पृष्ठ ९४-१०२ ।
४ न्यायविनि०, का० १७२, २९९, ३६५, ३६६, ३७०, ३८१ ।
५ परीक्षामु० ६।१२- ५० ।
६ प्रमाणन ०, ६।३८-८२ ।
७. प्रमाणमी०, ११२१४, २।१।१६-२७ ॥
८
बृहदारण्य० २।४।५ ।
- १५४ -
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
(युक्तियो) के द्वारा किया जाता था। इससे स्पष्ट है कि उस कालमें अनुमानको भी श्रुतिकी तरह ज्ञानका एक साधन माना जाता था-उसके बिना दर्शन अपूर्ण रहता था। यह सच है कि अनुमानका 'अनुमान' शब्दसे व्यवहार होने की अपेक्षा 'वाकोवाक्यम' आन्वीक्षिकी', 'तर्कविद्या', हेतु विद्या' जैसे शब्दो द्वारा अधिक होता था।
प्राचीन जैन वाड्मयमें ज्ञानमीमासा (ज्ञानमार्गणा) के अन्तर्गत अनुमानका 'हेतुवाद' शब्दसे निर्देश किया गया है और उसे श्रुतका एक पर्याय (नामान्तर) बतलाया गया है। तत्त्वार्थसूत्रकारने उसे अभिनिवोध नामसे उल्लेखित किया है। तात्पर्य यह है कि जैन दर्शनमे भी अनुमान अभिमत है तथा प्रत्यक्ष (साव्यवहारिक और पारमार्थिक ज्ञानो) की तरह उसे भी प्रमाण एव अर्थनिश्चायक माना गया है । अन्तर केवल उनमें वैशद्य और अवैशद्यका है। प्रत्यक्ष विशद है और अनुमान अविशद (परोक्ष)।
अनुमानके लिए किन घटकोकी आवश्यकता है, इसका आरम्भिक प्रतिपादन कणादने किया प्रतीत होना है । उन्होने अनुमान का 'अनुमान' शब्दसे निर्देश न कर 'लैङ्गिक' शब्दसे किया है, जिससे ज्ञात होता है कि अनुमानका मुख्य घटक लिङ्ग है । सम्भवत इसी कारण उन्होने मात्र लिङ्गों, लिङ्गरूपो और लिङ्गाभाषोका निरूपण किया है, उसके और भी कोई घटक हैं इसका कणादने कोई उल्लेख नही किया। उनके भाष्यकार प्रशस्तपादने अवश्य प्रतिज्ञादि पांच अवयवोको उसका घटक प्रतिपादित किया है।
तर्कशास्त्रका निबद्धरूपमें स्पष्ट विकास सक्षपादके न्यायसूत्रमें उपलब्ध होता है । अक्षपादने अनुमानको 'अनुमान' शब्दसे ही उल्लेखित किया तथा उसकी कारणसामग्री, भेदो, अवयवो और हेत्वाभासोका स्पष्ट विवेचन किया है । साथ ही अनुमानपरीक्षा, वाद, जल्प, वितण्डा, छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे अनुमानसहायक तत्त्वोका प्रतिपादन करके अनुमानको शास्त्रार्थोपयोगी और एक स्तर तक पहुंचा दिया है । वात्स्यायन, उद्योतकर, वाचस्पति, उदयन और गङ्ग शने उसे विशेष परिष्कृत किया तथा व्याप्ति, पक्षधर्मता, परामर्श जैसे तदुपयोगी अभिनव तत्त्वोको विविक्त करके उनका बिस्तृत एव सूक्ष्म निरूपण किया है । वस्तुत अक्षपाद और उनके अनुवर्ती ताकिकोने अनुमानको इतना परिष्कृत किया कि उनका दर्शन न्याय (तर्कअनुमान) दर्शनके नामसे ही विश्रुत हो गया।
असग, बसुबन्धु, दिड्नाग, धर्मकीर्ति प्रभृति बौद्ध ताकिकोने न्यायदर्शनकी समालोचनापूर्वक अपनी विशिष्ट और नयी मान्यताओके आधारपर अनुमानका सूक्ष्म और प्रचुर चिन्तन प्रस्तुत किया है। इनके चिन्तनका अवश्यम्भावी परिणाम यह हुआ कि उत्तरकालीन समग्र भारतीय तर्कशास्त्र उससे प्रभावित हुआ और अनुमानकी विचारधारा पर्याप्त आगे बढ़नेके साथ सूक्ष्म-से-सूक्ष्म एव जटिल होती गयी। वास्तव में बौद्ध ताकिकोके चिन्तनने तर्कमें आयी कुण्ठाको हटाकर और सभी प्रकारके परिवेशोको दूर कर उन्मुक्तभावसे तत्त्वचिन्तनकी क्षमता प्रदान की। फलत सभी दर्शनोमें स्वीकृत अनुमानपर अधिक विचार हुआ और उसे महत्त्व मिला।
ईश्वरकृष्ण, युक्तिदीपिकाकार, माठर, विज्ञानभिक्षु आदि साख्यविद्वानो, प्रभाकर, कुमारिल, पार्थसारथिं प्रभृति मीमासकचिन्तकोने भी अपने-अपने ढगसे अनुमानका चिन्तन किया है। हमारा विचार है कि इन चिन्तकोंका चिन्तन-विषय प्रकृति-पुरुष और क्रियाकाण्ड होते हुए भी वे अनुमान-चिन्तनसे अछूते नही रहे । श्र तिके अलावा अनमानको भी इन्हें स्वीकार करना पड़ा और उसका क्म-बढ विवेचन किया है। १ श्रोतव्य श्रुतिवाक्येभ्यो मन्तव्यश्चोपपत्तिभि ।
मत्वा च सतत ध्येय एते दर्शनहेतव ॥
-१५५ -
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन विचारक ती आरम्भसे ही अनुमानको मानते आये हैं। भले ही उसे 'अनुमान' नाम न देकर 'हेतुवाद' या 'अभिनियोष' राज्ञामे उन्होंने उसका व्यवहार किया हो। तस्वमान स्वतरवसिद्धि परपक्षवूपणोद्भावनके लिए उसे स्वीकार करके उन्होने उसका पर्याप्त विवेचन किया है। उनके चिन्तनमें जो विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं उनमें कुछका उल्लेख यहाँ किया जाता है।
-
अनुमानका परोक्षप्रमाणमे अन्तर्भाव
1
अनुमानप्रमाणवादी सभी भारतीय तार्किकोने अनुमानको स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किया है। पर जैन ताकिकोंने उसे स्वतन्त्र प्रमाण नही माना । प्रमाणके उन्होंने मूलत दो भेद माने हूँ (१) प्रत्यक्ष और (२) परोक्ष हम पीछे इन दोनोको परिभाषाएँ अह्नित कर आये हैं। उनके अनुसार अनुमान परोक्ष प्रमाणमें अन्तर्भूत है, क्योंकि यह अविशद ज्ञान है और उसके द्वारा अप्रत्यक्ष अर्थकी प्रतिपत्ति होती है। परोक्ष प्रमाणका क्षेत्र इतना व्यापक और विशाल है कि स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव और शब्द जैसे अप्रत्यक्ष अर्थके परिच्छेदक अविशद ज्ञानोका इसी में समावेश है । तथा वैशद्य एव अवैद्य आधारपर स्वीकृत प्रत्यक्ष और परोक्षके अतिरिक्त अन्य प्रमाण मान्य नही हैं ।
अर्थापत्ति अनुमानसे पृथक् नही
प्राभाकर और भाट्ट मीमासक अनुमानसे पृथक् अर्थापत्ति नामका स्वतन्त्र प्रमाण मानते हैं। उनका मन्तव्य है कि जहाँ अमुक अर्थ अमुक अर्थके विना न होता हुआ उसका परिकल्पक होता है वहाँ अर्थापत्ति प्रमाण माना जाता है । —जैसे पीनोऽय देवदत्तो दिवा न भुक्ते' इस वाक्यमें, उक्त 'पोनत्व' अर्थ 'भोजन' के विना न होता हुआ 'रात्रिभोजन' की कल्पना करता है, क्योकि दिवा भोजनका निषेध वाक्यमें स्वयं घोषित है। इस प्रकारके अर्थका बोध अनुमानसे न होकर अर्थापत्तिसे होता है। किन्तु जैन विचारक उसे अनुमानसे भिन्न स्वीकार नही करते। उनका कहना है कि अनुमान अन्यथानुपन्न ( अविनाभावी) हेतुसे उत्पन्न होता है और अर्थापत्ति अन्यथानुपपद्यमान अर्थसे । अन्यथानुपपन्न हेतु और अन्ययानुपपद्यमान अर्थ दोनों एक है - उनमे कोई अन्तर नही है । अर्थात् दोनो ही व्याप्तिविशिष्ट होनेसे अभिन्न है । डा० देवराज भी यही वात प्रकट करते हुए कहते हैं कि 'एक वस्तु द्वारा दूसरी वस्तुका आक्षेप तभी हो सकता है जब दोनोंमें व्याप्यव्यापकभाव या व्याससम्बन्ध हो " देवदत्त मोटा है और दिनमें खाता नहीं है, यहाँ अर्थापत्ति । द्वारा रात्रिभोजन की कल्पना की जाती है । पर वास्तवमें मोटापन भोजनका अविनाभावी होने तथा दिनमें भोजनका निषेध करनेसे वह देवदत्त के रात्रिभोजनका अनुमापक है । वह अनुमान इस प्रकार है- 'देववत्त रात्रौ भुक्ते, दिवाभोजत्वे सति पीनत्वान्यथानुपपत्ते ।' यहाँ अन्यथानुपत्तिसे अन्तर्व्याप्ति विवक्षित है, बहिर्व्याप्ति या सकलव्याप्ति नहीं, क्योकि ये दोनों व्याप्तियाँ अव्यभिचरित नहीं हैं। अत अर्थापत्ति और अनुमान दोनो व्याप्तिपूर्वक होनेसे एक ही है- पृथक्-पृथक् प्रमाण नही ।
अनुमानका विशिष्ट स्वरूप
न्यायसूत्रकार अक्षपादकी 'तत्पूर्वकमनुमानम् प्रशस्तपादकी 'लिङ्गदर्शनात्सनायमान लेङ्गिकम्' और उद्योतकरकी लिंग परामर्शोऽनुमानम्' परिभाषाओमे केवल कारणका निर्देश है, अनुमानके स्वरूपका नही । उद्योतकर की एक अन्य परिभाषा 'लेङ्गिकी प्रतिपत्तिरनुमानम्' में भी लिंगरूप कारणका उल्लेख है, स्वरूप
१ पूर्वी और पश्चिमी दर्शन, पु० ७१ ।
- १५६ -
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
का नही । दिड्नागशिष्य शङ्करस्वामीकी 'अनुमान लिङ्गावर्थदर्शनम्' परिभापामें यद्यपि कारण और स्वरूप दोनोकी अभिव्यक्ति है, पर उसमें कारणके रूपमें लिंगको सूचित किया है, लिंगके ज्ञानको नही । तथ्य यह है कि अज्ञायमान धमादि लिंग अग्नि आदिके अनुमापक नहीं है। अन्यथा जो पुरुष सोया हुआ है, मूच्छित है, अगृहीतव्याप्तिक है उसे भी पर्वतमें धूमके सदभाव मात्रसे अग्निका अनुमान हो जाना चाहिए, किन्तु ऐसा नही है । अत शकरस्वामीके उक्त अनुमानलक्षणमें 'लिङ्गात्' के स्थानमे 'लिङ्गदर्शनात्' पद होनेपर ही वह पूर्ण अनुमानलक्षण हो सकता है।
__ जैन तार्किक अकलकदेवने जो अनुमानका स्वरूप प्रस्तुत किया है वह उक्त न्यूनतामोसे मुक्त है । उनका लक्षण हैं
लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनिबोधेकलक्षणात् ।
लिङ्गिधीरनुमान तत्फल हानादिबुद्धय ॥ इसमें अनुमानके साक्षात्कारण-लिङ्गज्ञानका भी प्रतिपादन है और उसका स्वरूप भी 'लिङ्गिधी' शब्दके द्वारा निर्दिष्ट है । अकलकने स्वरूपनिर्देशमे केवल 'घी' या 'प्रतिपत्ति' नही कहा, किन्तु लिगिधी' कहा है, जिसका अर्थ है साध्यका ज्ञान, और साध्यका ज्ञान होना ही अनुमान है। न्यायप्रवेशकार शकरस्वामीने साध्यका स्थानापन्न 'अर्थ' का अवश्य निर्देश किया है। पर उन्होने कारणका निर्देश अपूर्ण किया है, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है। अकलकके इस लक्षणको एक विशेषता और भी है। वह यह कि उन्होने तत्फल हानादिबुद्धयः' शब्दो द्वारा अनुमानका फल भी निर्दिष्ट किया है। सम्भवत इन्ही सब बातोंसे उत्तरवर्ती सभी जैन ताकिकोने अकलककी इस प्रतिष्ठित और पूर्ण अनुमान-परिमापाको ही अपनाया । इस अनुमानलक्षणसे स्पष्ट है कि वही साधन अथवा लिङ्ग लिगि (साध्य-अनुमेय) का गमक हो सकता है जिसके अविनाभावका निश्चय है । यदि उसमें अविनाभावका निश्चय नही है तो वह साधन नहीं है, भले ही उसमें तीन या पांच रूप भी विद्यमान हो। जैसे 'वज्रलोहलेख्य है, क्योकि पार्थिव है, काष्ठकी तरह इत्यादि हेतु तीन रूपो और पांच रूपोसे सम्पन्न होनेपर भी अविनाभावके अभावसे सघेतु नही है, अपितु हेत्वाभास है और इसीसे वे अपने साध्योके अनुमापक नही माने जाते । इसी प्रकार एक मुहूर्त बाद शकटका उदय होगा, क्योकि कृत्तिकाका उदय हो रहा है', 'समुद्रमें वृद्धि होना चाहिए अथवा कुमुदोका विकास होना चाहिए, क्योकि चन्द्रका उदय है' आदि हेतु ओमें पक्षधर्मत्व न होनेसे न त्रिरूपता है और न पचरूपता । फिर भी अविनाभावके होनेसे कृत्तिकाका उदय शकटोदयका और चन्द्रका उदय समुद्र वृद्धि एव कुमुदविकासका गमक है। हेतुका एकलक्षण (अन्यथानुपपन्नत्व) स्वरूप .
हेतुका स्वरूपका प्रतिपादन अक्षपादसे आरम्भ होता है, ऐसा अनुसन्धानसे प्रतीत होता है। उनका वह लक्षण साधर्म्य और वैधर्म्य दोनो दृष्टान्तोपर आधारित है। अत एव नैयायिक चिन्तकोने उसे द्विलक्षण, विलक्षण, चतुर्लक्षण और पचलक्षण प्रतिपादित किया तथा उसकी व्याख्याएं की है । वैशेषिक, बौद्ध, साख्य आदि विचारकोने उसे मात्र त्रिलक्षण बतलाया है। कुछ ताकिकोने षडलक्षण और सप्तलक्षण भी उसे कहा है, जैसा कि हम हेतुलक्षण प्रकरणमें पीछे देख आये हैं। पर जैन लेखकोने अविनाभावको ही हेतुका प्रधान और एकलक्षण स्वीकार किया है तथा अरूप्य, पाचरूप्य आदिको अव्याप्त और अतिव्याप्त बतलाया है, जैसा कि ऊपर अनुमानके स्वरूपमें प्रदर्शित उदाहरणोसे स्पष्ट है। इस अविनाभावको ही अन्यथानुपपन्नत्व अथवा अन्यथानुपपत्ति या अन्तर्व्याप्ति कहा है । स्मरण रहे कि यह अविनाभाव या अन्यथानुपपन्नत्व जैन लेखकोकी ही उपलब्धि है, जिसके उद्भावक आचार्य ममन्तभद्र है, यह हम पीछे विस्तारके साथ कह आये हैं।
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुमानका अङ्ग एकमात्र व्याप्ति
न्याय, वैशेषिक, साख्य, मीमासक और बौद्ध सभीने पक्षधर्मता और व्याप्ति दोनोको अनुमानका अग माना है । परन्तु जैन तार्किकोने केवल व्याप्तिको उसका अग बतलाया है । उनका मत है कि अनुमानमें पक्षधर्मता अनावश्यक है । 'उपरि वृष्टिरभूत् अघोपूरान्यथानुपपते' आदि अनुमानोमें हेतु पक्षधर्म नही है फिर भी व्याप्तिके बलसे वह गमक है । 'स श्यामस्तन्पुत्रत्वादितरतत्पुत्रवत्' इत्यादि असद् अनुमानोमें हेतु पक्षधर्म हैं किन्तु अविनाभाव न होनेसे वे अनुमापक नही हैं । अत जैन चिन्तक अनुमानका अग एकमात्र व्याप्ति (अविनाभाव ) को ही स्वीकार करते है, पक्षधर्मताको नही ।
पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर हेतुओकी परिकल्पना
अकल देव ने कुछ ऐसे हेतुओकी परिकल्पना की है जो उनमे पूर्व नही माने गये थे । उनमें मुख्यतया पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर ये तीन हेतु हैं । इन्हें किसी अन्य तार्किकने स्वीकार किया हो, यह ज्ञात नहीं । किन्तु अकलङ्घने इनकी आवश्यकता एव अतिरिक्तताका स्पष्ट निर्देश करते हुए स्वरूप प्रतिपादन किया है । अत यह उनकी देन कही जा सकती है ।
प्रतिपाद्योकी अपेक्षा अनुमान प्रयोग
व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न प्रतिपाद्योकी विचारकोने उक्त प्रतिपाद्योकी अपेक्षा और हेतु ये दो अवयव आवश्यक बतलाये
अनुमानप्रयोगके सम्बन्धमें जहाँ अन्य भारतीय दर्शनोमें विवक्षा किये बिना अवयवोका सामान्य कथन मिलता है वहाँ जैन उनका विशेष प्रतिपादन भी किया है । व्युत्पन्नोंके लिए उन्होने पक्ष हैं । उन्हें दृष्टान्त आवश्यक नही है । 'सर्व क्षणिक सत्त्वात्' जैसे स्थलोंमे बौद्धोने और 'सर्वमभिधेय प्रमेयत्वात्' जैसे केवलान्वयिहेतुक अनुमानोमें नैयायिकोंने भी दृष्टान्तको स्वीकार नही किया । अव्युत्पन्नोंके लिए उक्त दोनो अवयवोके साथ दृष्टान्त, उपनय और निगमन इन तीन अवयवोकी भी जैन चिन्तकोने यथायोग्य आवश्यकता प्रतिपादित की है । इसे और स्पष्ट यो समझिए -
गृद्धपिच्छ, समन्तभद्र, पूज्यपाद और सिद्धसेनके प्रतिपादनोंसे अवगत होता है कि आरम्भ में प्रतिपाद्यसामान्यकी अपेक्षासे पक्ष, हेतु और दृष्टान्त इन तीन अवयवोंसे अभिप्रेतार्थ ( साध्य) की सिद्धि की जाती थी । पर उत्तरकालमें अकलङ्कका सकेत पाकर कुमारनन्दि और विद्यानन्दने प्रतिपाद्योको व्युत्पन्न और अव्युत्पन्न दो वर्गोंमें विभक्त करके उनकी अपेक्षासे पृथक्-पृथक् अवयवोका कथन किया। उनके बाद माणिक्यनन्दि, देवसूरि आदि परवर्ती जैन ग्रन्थकारोंने उनका समर्थन किया और स्पष्टतया व्युत्पन्नोंके लिए पक्ष और हेतु ये दो तथा अव्युत्पन्नोके बोधार्थ उक्त दोके अतिरिक्त दृष्टान्त, उपनय और निगमन ये तीन सब मिलाकर पाँच अवयव निरूपित किये । भद्रबाहुने प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञाशुद्धि आदि दश अवयवोका भी उपदेश दिया, जिसका अनुसरण देवसूरि, हेमचन्द्र और यशोविजयने किया है ।
व्याप्तिका ग्राहक एकमात्र तर्क
अन्य भारतीय दर्शनोमें भूयोदर्शन, सहचारदर्शन और व्यभिचाराग्रहको व्याप्तिग्राहक माना गया है । न्यायदर्शन में वाचस्पति और साख्यदर्शनमें विज्ञानभिक्षु इन दो ताकिकोने व्याप्तिग्रहकी उपर्युक्त सामग्री में तर्क को भी सम्मिलित कर लिया । उनके बाद उदयन, गगेश, वर्द्धमान प्रभृति तार्किकोने भी उसे व्याप्तिग्राहक मान लिया । पर स्मरण रहे, जैन परम्परामें आरम्भसे तर्कको, जिसे चिन्ता, ऊहा आदि शब्दोसे व्यवहृत किया गया है, अनुमानकी एकमात्र सामग्री के रूपमें प्रतिपादित किया है । अकल ऐसे जैन
- १५८ -
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
ताकिक है जिन्होने वाचस्पति और विज्ञान भिक्षसे पूर्व सर्व प्रथम तर्कको व्याप्तिग्राहक समर्थित एव सम्पुष्ट किया तथा सबलतासे उसका प्रामाण्य स्थापित किया। उनके पश्चात् सभीने उसे व्याप्तिग्राहक स्वीकार कर लिया। तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति
यद्यपि बहिाप्ति, सकलव्याप्ति और अन्ताप्तिके भेदसे व्याप्तिके तीन भेदो, समव्याप्ति और विषमव्याप्तिके भेदसे उसके दो प्रकारो तथा अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकव्याप्ति इन दो भेदोंका वर्णन तर्कग्रन्थोमें उपलब्ध होता है किन्तु तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति इन दो व्याप्तिप्रकारो (व्याप्तिप्रयोगो) का कथन केवल जैन तर्कग्रथोमे पाया जाता है। इनपर ध्यान देनेपर जो विशेपता ज्ञात होती है वह यह है कि अनुमान एक ज्ञान है उसका उपादान कारण ज्ञान ही होना चाहिए। तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति ये दोनो ज्ञानात्मक है, जब कि उपर्युक्त व्याप्तियाँ यात्मक (विषयात्मक) हैं। दूसरी बात यह है कि उक्त व्याप्तियोमें एक अन्तर्व्याप्ति ही ऐसी व्याप्ति है, जो हेतुकी गमकतामें प्रयोजक है, अन्य व्याप्तियाँ अन्त
ाप्तिके बिना अव्याप्त और मतिव्याप्त हैं, अतएव वे साधक नहीं है । तथा यह अन्तर्व्याप्ति ही तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्तिरूप है अथवा उनका विषय है। इन दोनोमेंसे किसी एकका ही प्रयोग पर्याप्त है । इनका विशेष विवेचन अन्यत्र किया गया है।
साध्याभास:
अकलङ्कने अनुमानाभासोके विवेचनमें पक्षाभास या प्रतिज्ञाभासके स्थानमें साध्याभास शब्दका प्रयोग किया है। अकलके इस परिवर्तनके कारणपर सूक्ष्म ध्यान देनेपर अवगत होता है कि चूंकि साधनका विषय (गम्य) साध्य होता है और साधनका अविनाभाव (व्याप्तिसम्बन्ध) साध्यके ही साथ होता है, पक्ष या प्रतिज्ञाके साथ नही, अत साधनाभास (हेत्वाभास) का विषय साध्याभास होनेसे उसे ही साधनाभासोकी तरह स्वीकार करना युक्त है। विद्यानन्दने अकलङ्ककी इस सूक्ष्म दृष्टिको परखा और उनका सयुक्तिक समर्थन किया। यथार्थमें अनुमानके मुख्य प्रयोजक साधन और साध्य होनेसे तथा साधनका सीधा सम्बन्ध साध्यके साथ ही होनेसे साधनाभासकी भांति साध्याभास हो विवेचनीय है। अकलङ्कने शक्य, अभिप्रेत और असिद्धको साध्य तथा अशक्य, अनभिप्रेत और सिद्धको साध्याभास प्रतिपादित किया है-(साध्य शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्ध ततोऽपरम् । साध्याभास विरुद्धादि साधनाविषयत्वत ॥) अकिञ्चित्कर हेत्वाभास
हेत्वाभासोके विवेचन-सन्दर्भमें सिद्धसेनने कणाद और न्यायप्रवेशकारकी तरह तीन हेत्वाभासोका कथन किया है, अक्षपादकी भाँति उन्होने पांच हेत्वाभास स्वीकार नहीं किये। प्रश्न हो सकता है कि जैन तार्किक हेतुका एक (अविनाभाव-अन्यथानुपपन्नत्व) रूप मानते हैं, अत उसके अभावमें उनका हेत्वाभास एक ही होना चाहिए । वैशेषिक, बौद्ध और साख्य तो हेतुको त्रिरूप तथा नैयायिक पचरूप स्वीकार करते हैं, अतः उनके अभावमें उनके अनुसार तीन और पांच हेत्वाभास तो युक्त है । पर सिद्धसेनका हेत्वाभास-विध्य प्रतिपादन कैसे युक्त है ? इसका समाधान सिद्धसेन स्वय करते हुए कहते हैं कि चूंकि अन्यथानुपपन्नत्वका अभाव तीन तरहसे होता है-कही उसकी प्रतीति न होने, कही उसमें सन्देह होने और कही उसका विपर्यास होनेसे, प्रतीति न होनेपर असिद्ध, सन्देह होनेपर अनेकान्तिक और विपर्यास होनेपर विरुद्ध ये तीन हेत्वाभास होते हैं।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
अकलङ्क कहते हैं कि यथार्थमें हेत्वाभास एक ही है और वह है अकिञ्चित्कर, जो अन्यथानुपपन्नत्वके अभावमें होता है। वास्तव में अनुमानका उत्त्यापक अविनाभावी हेतु ही है, अत अविनाभाव (अन्यथानपपन्नत्व) के अभावमे हेत्वाभासको सृष्टि होती है। यत हेतु एक अन्यथानुपपन्नरूप ही है, अत उसके अभावमें मूलत एक ही हेत्वाभास मान्य है और वह है अन्यथा उपपन्नत्व अर्थात् अकिञ्चित्कर । असिद्धादि उसोका विस्तार हैं । इस प्रकार अकलङ्कके द्वारा 'अकिञ्चित्कर' नामके नये हेत्वाभासकी परिकल्पना उनकी अन्यतम उपलब्धि है। बालप्रयोगाभास.
माणिक्यनन्दिने आभासोका विचार करते हुए अनुमानामाससन्दर्भ में एक 'वालप्रयोगाभास' नामके नये अनुमानाभासकी चर्चा प्रस्तुत की है। इस प्रयोगाभासका तात्पर्य यह है कि जिस मन्दप्रज्ञको समझानेके लिए तीन अवयवोकी आवश्यकता है उसके लिए दो ही अवयवोका प्रयोग करना, जिसे चारको आवश्यकता है उसे तीन और जिसे पांचकी जरूरत है उसे चारका ही प्रयोग करना अथवा विपरीत क्रमसे अवयवोंका कथन करना बालप्रयोगाभास हैं और इस तरह वे चार (द्वि-अवयवप्रयोगाभास, त्रि-अवयवप्रयोगाभास, चतुरवयवप्रयोगाभास और विपरीतावयवप्रयोगाभास) सम्भव है । माणिक्यनन्दिसे पूर्व इनका कथन दृष्टिगोचर नही होता । अत इनके पुरस्कर्ता माणिक्यनन्दि प्रतीत होते हैं । अनुमानमे अभिनिबोध-मतिज्ञानरूपता और श्रुतरूपता
जैन वाड्मयमें अनुमानको अभिनिबोधमतिज्ञान और श्रुत दोनों निरूपित किया है । तत्त्वार्थसूत्रकारने उसे अभिनिबोध कहा है जो मतिज्ञानके पर्यायोमें पठित है। षट्खण्डागमकार भूतबलि-पुष्पदन्तने उसे 'हेतुवाद' नामसे व्यवहृत किया है और श्रुतके पर्यायनामोमें गिनाया है। यद्यपि इन दोनो कथनोंमें कुछ विरोध-सा प्रतीत होगा। पर विद्यानन्दने इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि तत्वार्थसूत्रकारने स्वार्थानुमानको अभिनिबोध कहा है, जो वचनात्मक नही है और पटखण्डागमकार तथा उनके व्याख्याकार वीरसेनने परार्थानुमानको श्रुतरूप प्रतिपादित किया है, जो वचनात्मक होता है। विद्यानन्दका यह समन्वयात्मक सूक्ष्म चिन्तन जैन तर्कशास्त्रमें एक नया विचार है जो विशेष उल्लेख्य है। इस उपलब्धिका सम्बन्ध विशेषतया जैन ज्ञानमीमासाके साथ है।
इस तरह जैन चिन्तकोकी अनुमानविषयमें अनेक उपलब्धियां हैं। उनका अनुमान-सम्बन्धी चिन्तन भारतीय तर्कशास्त्रके लिए कई नये तत्त्व देता है।
+१६०
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
न्याय-विद्यामृत
न्याय एक विद्या है, जिसे न्यायशास्त्र, तर्कशास्त्र, आन्वीक्षिकी विद्या और हेतुविद्या या हेतुवाद कहा गया है। आचार्य अनन्तवीर्यने तो इस न्याय-विद्याको अमृत कहा है। परीक्षा-मुखकी व्याख्याके आरम्भमें मङ्गलाचरणके बाद वे लिखते हैं--
अकलड्वचोऽम्भोधेरुध्र येन धीमता। न्याय-विद्यामृत तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ॥
'विद्वत्तासे ओतप्रोत जिन विद्वान् आचार्य माणिक्यनन्दिने अकलङ्कके वचन-समुद्रका अवगाहन कर उससे न्यायविद्यारूप अमृतको निकाला अर्थात् परीक्षामुख लिखा उन माणिक्यनन्दिके लिए विनम्रतापूर्वक नमस्कार (प्रणाम) करता हूँ।'
यहाँ अनन्तवीर्यने माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखको 'न्यायविद्यामत' कहा है, जो जैन न्यायका आद्यसूत्र ग्रन्थ है । अमृत जिस प्रकार अमरत्व प्रदान करता है उसी प्रकार न्यायविद्या तत्त्वज्ञानको प्रदान कर आत्माको अमर (मिथ्याज्ञानादि ससार-बन्धनसे मुक्त) कर देती है। निश्चय ही यह न्याय-विद्याके प्रभावकी उद्घोषणा है।
प्रत्यक्षादि प्रमाणको अथवा प्रमाणनयात्मक युक्तिको न्याय कहा है। निपूर्वक 'इण्' गमनार्थक घातुसे 'करण' अर्थमें 'धन्' प्रत्यय करनेपर 'न्याय' शब्दकी सिद्धि होती है, जिसका यह अर्थ होता है कि जिसके द्वारा पदार्थों का ज्ञान निश्चित रूपमें होता है । तत्त्वार्थसूत्रकारने भी यही लिखा है । वे कहते हैं कि प्रमाण
और नयमे जीवादि तत्त्वोका ज्ञान होता है। अत तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके लिए प्रमाण-नयात्मक न्यायविद्याका अध्ययन आवश्यक ही नही, अनिवार्य भी है। इसलिए ऐसी विद्याको 'अमृत' कहा जाना उपयुक्त है।
सभी दर्शनोमें इस विद्याका प्रतिपादन और विशेष विवेचन किया गया है। जैन दर्शनमें इस विद्याके प्रचुर बीज आचार्य गृद्धपिच्छके तत्त्वार्थसूत्रमें उपलब्ध होते हैं । स्वामी समन्तभद्रके देवागम (आप्तभीमासा), युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्रमें न्यायका विकासारम्भ प्राप्त है।
१ प्रमेयरत्नमाला, प्रथम समुद्देश, श्लोक २ । २ प्रत्यक्षादिप्रमाण न्याय । अथवा नयप्रमाणात्मिका युक्तिया॑य । निर्वादिणगतावित्यस्माद्धातो करणे
घप्रत्यय , तेन न्यायशब्दसिद्धि.। नितरा ईयते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति न्याय ।'-वही, टिप्पण पृ० ४ । ३ त. सू० १-६ । ४ न्यायदी० पृ० ५, मूल व टिप्प० । ५ 'तत्त्वार्थसूत्र में न्यायशास्त्रके बीज' शीर्षक निबन्ध, जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ० ७०। ६ इन्होंने अपने ग्रन्थोमें न्यायशास्त्रकी एक उत्तम एव योग्य भूमिका प्रस्तुत की है, जिसे जैन न्यायके
विकासका आदिकाल कह सकते है । देखो, जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ० ७ से ११ ।
-१६१ -
न-२१
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वामी समन्तभद्र ने भारतीय दार्शनिक क्षेत्रके जैन दर्शन क्षेत्रमें युग-प्रवर्तकका कार्य किया है। उनके पहले जैन दर्शनके प्राणभूत तत्त्व 'स्याद्वाद' को प्राय आगमरूप ही प्राप्त था और उसका आगमिक तत्त्वोंके निरूपणमें ही उपयोग होता था तथा सीधी-साधी विवेचना कर दी जाती थी। विशेष युक्तिवाद देनेकी आवश्यकता नहीं होती थी। किन्तु समन्तभद्रके समयमें उस युक्तिवादको आवश्यकता महसूस हुई। दूसरीतीसरी शताब्दीका समय भारतवर्षके सास्कृतिक इतिहासमें अपूर्व दार्शनिक क्रान्तिका रहा है, इस समय सभी दर्शनोमें अनेक क्रान्तिकारी विद्वान् पैदा हुए हैं। यह हम उस समयके दार्शनिक ग्रन्थोंसे ज्ञात कर सकते हैं। समन्तभद्रको आप्तमीमासा इसकी साक्षी है, जिसमें भावकान्त, अभावकान्त आदि अनेक एकान्तोंकी चर्चा और उनकी समालोचना उपलब्ध है। इसीलिए समन्तभद्रके कालको जैन न्यायके विकासका मादिकाल कहा जाता है। इस तरह इस आदिकाल अथवा समन्तभद्र कालमें जैन न्यायकी एक योग्य और उत्तम भूमिका तैयार हो गयी थी।
उक्त भूमिकापर जैन न्यायका उत्तु ग और सर्वांगपूर्ण महान् प्रासाद जिस कुशल और तीक्ष्णबुद्धि ताकिक-शिल्पीने खडा किया, वह है अकलक । अकलंकके कालमें भी समन्तभद्रसे कही अधिक जबर्दस्त दार्शनिक मुठभेड हो रही थी। एक तरफ शब्दाद्वैतवादो भर्तृहरि, प्रसिद्ध मीमासक कुमारिल, न्यायनिष्णात उद्योतकर प्रभृति वैदिक विद्वान् अपने पक्षोपर आरूढ थे, तो दूसरी और धर्मकीर्ति और उनके तर्कपट शिष्य एव व्याख्याकार प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि आदि बौद्ध तार्किक अपने पक्षपर दढ़ थे। शास्त्रार्थों और शास्त्र निर्माणकी पराकाष्ठा थी। प्रत्येक दार्शनिकका प्रयत्न था कि वह जिस किसी तरह अपने पक्षको सिद्ध करे और परपक्षका निराकरण कर विजय प्राप्त करे। इतना ही नही, परपक्षको असद् प्रकारोंसे पराजित एव तिरस्कृत भी किया जाता था। विरोधीको 'पशु', 'मह्रीक' जैसे गहित शब्दोंसे व्यव हृतकर उसके सिद्धान्तोको तुच्छ प्रकट किया जाता था। यह काल जहाँ तर्कके विकासका मध्याह्न माना जाता है वहां इस कालमें न्यायका बडा उपहास भी हमा है। तत्त्वके सरक्षणके लिए छल, जाति, निग्रहस्थान जैसे असद् उपायोंका खुलकर प्रयोग करना और उन्हें शास्त्रार्थका अग मानना इस कालकी देन बन गयो । क्षणिकवाद, शून्यवाद, विज्ञानवाद आदि पक्षोका समर्थन इस कालमें घडल्लेसे किया गया और कट्टरतासे इतरका निरास किया गया ।
तीक्ष्णदष्टि अकलङ्कने इस स्थितिका अध्ययन किया और सभी दर्शनोका गहरा एव सूक्ष्म अभ्यास किया। इसके लिए उन्हें कांची, नालन्दा आदिके तत्कालीन विद्यापीठोमें प्रच्छन्न वेपमें रहना पडा । समन्तभद्र द्वारा स्थापित स्याद्वादन्यायकी भूमिकाको ठीक तरह न समझनेके कारण दिङ्नाग, धर्मकीर्ति, उद्योतकर, कुमारिल आदि बौद्ध-वैदिक विद्वानोने पक्षाग्रही दृष्टिका ही समर्थन किया था तथा जैन दर्शनके स्याद्वाद, अनेकान्त आदि सिद्धान्तोपर आक्षेप किये थे । अत अकलङ्कने महाप्रयास करके तोन अपूर्व कार्य किये। एक तो शास्त्रार्थों द्वारा जैन दर्शनके सही रूपको प्रस्तुत किया और आक्षेपोंका निराकरण किया। दूसरा कार्य यह किया कि स्याद्वादन्यायपर आरोपित दूषणोंको दूर कर उसे स्वच्छ बनाया और तीसरा कितना ही नया निर्माण किया । यही कारण है कि उनके द्वारा निर्मित ग्रन्थों में चार ग्रन्थ केवल न्यायशास्त्रपर ही लिखे गये हैं, जिनमें विभिन्न वादियों द्वारा दिये गये सभी दूपणोका परिहार कर उनके एकान्त सिद्धान्तों की कही समीक्षा की गयी है और जैन न्यायके जिन आवश्यक उपादानोका जैन दर्शनमें विकास नहीं हो सका था, उनका उन्होंने विकास किया अथवा उनकी प्रतिष्ठा की है। उनके वे महत्त्वपूर्ण न्यायग्रन्थ निम्न
१ न्यायसू० १११११, ४।२।५०, १।२।२, ३, ४ आदि और उनकी व्याख्याएँ ।
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकार है-१. न्यायविनिश्चय (स्वोपज्ञवृत्ति सहित) २. सिद्धि-विनिश्चय, ३. प्रमाणसंग्रह और ४ लघीयस्वय (स्वोपज्ञवृत्ति सहित) । ये चारो ग्रन्थ कारिकात्मक है ।
अकलङ्कने जैन न्यायको जो रूपरेखा और दिशा निर्धारित की, उसीका अनुसरण उत्तरवर्ती सभी जैन तार्किकोने किया है। हरिभद्र, वीरसेन, कुमारनन्दि विद्यानन्द, अनन्तवीर्य प्रथम, वादिराज, माणिक्य
आदि मध्ययुगीन आचार्योने उनके कार्यको आगे बढाया और उसे यशस्वी बनाया है। उनके सूत्रात्मकएव दुरूह कथनको इन आचार्योंने अपनी रचनाओ द्वारा सुविस्तृत मौर सुपुष्ट किया है। हरिभद्र की अने कान्तजयपताका, शास्त्रवासिमच्चय, वीरसेनको तर्कवहल धवला-जयघवला टीकाएँ, कुमारनन्दिका वादन्याय, विद्यानन्दके विद्यानन्दमहोदय, तत्त्वार्थश्लोकवातिक, अष्टसहन्त्री, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, आप्तपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, अनन्तवीर्यकी सिद्धिविनिश्चयटीका, प्रमाणमग्रहभाण्य, वादिराजके न्यायविनिश्चयविवरण, प्रमाण-निर्णय और माणिक्यनन्दिका परीक्षामुख इस कालको अनूठी न्याय-रचनाएं है।
जैन न्यायके विकासका उत्तरकाल प्रभाचन्द्रका काल माना जा सकता है, क्योकि प्रभाचन्द्रने इस कालमें अपने पूर्वज माचार्योंका अनुगमन करते हुए जो विशालकाय व्याख्याग्रन्थ लिखे हैं वैसे व्याल्याग्रन्थ उनके बाद नही लिखे गये । अकलंकके लघीयस्त्रयपर लघीयस्त्रयालकार, जिसका दूसरा नाम न्यायकुमुदचन्द्र है और माणिक्यनन्दिके परीक्षामुखपर प्रमेयकमलमार्तण्ड नामकी प्रमेयवहुल एव तर्कपूर्ण टीकाएँ रची है, जो प्रभाचन्द्रकी अमोघ तर्कणा और उज्ज्वल यशको प्रसत करती है। अभयदेवकी सन्मतितकटीका और वादि-देवसूरिका स्याद्वादरत्नाकर (प्रमाणनय-तत्त्वालोकालकारटोका) ये दी टीकाएँ भी महत्त्वपूर्ण है, जो प्रभाचन्द्रकी तर्क-पद्धतिसे प्रभावित है।
इस कालमें मौलिक ग्रन्थोके निर्माणकी क्षमता प्रायः कम हो गयी और व्याख्यानन्थोंका निर्माण हुमा । लघु अनन्तवोर्यने परीक्षामुखकी लघुवृत्ति-प्रमेयरत्नमाला, अभयदेवने सन्मतितटीका, देवसूरिने प्रमाणनयतत्त्वालोकालकार और उसकी स्वोपज्ञ टीका स्याद्वादरत्नाकर, अभयचन्द्रने लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति, हेमचन्द्रने प्रमाणमीमांसा, मल्लिषेणने स्याद्वादमजरी, आशाधरने प्रमेयलाकर, भावसेनने विश्वतत्त्वप्रकाश, मजितसेनने न्यायमणिदीपिका, धर्मभूषणने न्यायदीपिका, चारुकीतिने अर्थप्रकाशिका और प्रमेयरत्नालकार, विमलदासने सप्तभडि-तरगिणी, नरेन्द्रसेनने प्रमाणप्रमेयकलिका और यशोविजयने अष्टसहस्रीविवरण, ज्ञानविन्दु और जैन तर्कभाषाकी रचना की, जो विशेष उल्लेखयोग्य न्यायग्रन्थ है। इसके बाद जैन न्यायकी धारा प्राय वन्द हो गयी। हां. बीसवी शताब्दीमें श्री गणेशप्रसाद वर्णी न्यायाचार्य, प० माणिचन्द्रनी न्यायाचार्य, ५० सुखलालजी प्रज्ञाचक्ष, प० दलसुखभाई मालवणिया और प० महेन्द्र कुमारजी न्यायाचार्यके भी नाम उल्लेख योग्य है, जिन्होने न्यायशास्त्रका गहरा अध्ययन किया और न्यायग्रन्थोका सम्पादनकर उनके नाय पोषपूर्ण प्रस्तावनाएँ निवद्ध की हैं।
इस न्याय-विद्याके अध्ययनकी विद्वत्ता और पाण्डित्य प्राप्त करनेके लिए बहुत आवश्यकता है। उससे चुदि पैनी एव तर्कप्रवण होती है। न्यायशास्त्रका अध्येता परीक्षा-चक्षु होता है। न्यायविद्याके अध्ययनसे लाभ
१ हरेक व्यक्तिको वृद्धि स्वभावत कुछ न कुछ तर्कशील रहती है। न्यायशास्त्र अध्ययनसे उस त में विकास होता है, वुद्धि परिमार्जित होती है, प्रश्न करने और उसे जमा कर उपम्पित करनेका बुद्धिम मादा आता है । विना तर्फको बुद्धि पाभी-कभी ऊटपटाग-जीको रपान करने वाले प्रश्न कर बनी है, जिससे व्यपित हास्यका पात्र बनता है ।
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
२ न्याय-ग्रन्थोंका पंढना व्यवहारकुशलताके लिये भी उपयोगी है। उससे हमें यह मालूम हो जाता है कि दुनियामें भिन्न-भिन्न विचारोके लोग हमेशासे रहे हैं और रहेंगे। यदि हमारे विचार ठीक और सत्य है और दूसरेके विचार ठीक एव सत्य नही है तो दर्शनशास्त्र हमें दिशा दिखाता है कि हम सत्यके साथ सहिष्णु भी बनें और अपनेसे विरोधी विचार वालोको अपने तर्कों द्वारा ही सत्यकी ओर लानेका प्रयत्न करें, जोर-जबरदस्तीसे नही। जैन दर्शन सत्यके साथ सहिष्णु है । इसीलिये वह और उसका सम्प्रदाय भारतमें टिका चला आ रहा है, अन्यथा बौद्ध आदि दर्शनोकी तरह उसका टिकना अशक्य था। अन्धश्रद्धाको हटाने, वस्तुस्थितिको समझने और विभिन्न विचारोका समन्वय करनेके लिये न्याय एव दार्शनिक ग्रन्थोंका पढना, मनन करना, चिन्तन करना जरूरी है । न्याय-अन्थोमे जो आलोचना पाई जाती है उसका उद्देश्य केवल इतना ही है कि सत्यका प्रकाशन और सत्यता ग्रहण हो । न्यायालयमें भी झूठे पक्षकी आलोचनाकी ही जाती है।
३ न्यायशास्त्रका प्रभावक्षेत्र व्यापक है । व्याकरण, साहित्य, राजनीति, इतिहास, सिद्धान्त आदि सबपर इसका प्रभाव है । कोई भी विषय ऐसा नही है जो न्यायके प्रभावसे अछूता हो । व्याकरण और साहित्यके उच्च ग्रन्थोमें न्यायसूर्यका तेजस्वी और उज्ज्वल प्रकाश सर्वत्र फैला हमा मिलेगा। मैं उन मित्रोको जानता है जो व्याकरण और साहित्यके अध्ययनके समय न्यायके अध्ययनकी अपनेमें महसूस करते हैं
और उसकी आवश्यकतापर जोर देते हैं। इससे स्पष्ट है कि न्यायका अध्ययन कितना उपयोगी और लाभदायक है।
४ किसी भी प्रकारकी विद्वत्ता प्राप्त करने और किसी भी प्रकारके साहित्य-निर्माण करनेके लिये चलता दिमाग चाहिये । यदि चलता दिमाग नही है तो वह न तो विद्वान बन सकता है और न किसी तरह के साहित्यका निर्माण ही कर सकता है। और यह प्रकट है कि चलता दिमाग मुख्यत न्यायशास्त्रसे होता है । उसे दिमागको तीक्ष्ण एव द्रुत गतिसे चलता करनेके लिए उसका अवलम्बन जरूरी है। सोनेमें चमक कसौटीपर ही की जाती है। अत साहित्यसेवी और विद्वान बननेके लिए न्यायका अभ्यास उतना ही जरूरी है जितना आज राजनीति और इतिहासका अध्ययन ।
५ न्यायशास्त्र में कुशल व्यक्ति सब दिशाओंमें जा सकता है और सब क्षेत्रोमें अपनी विशिष्ट उन्नति कर सकता है-वह असफल नही हो सकता । सिर्फ शर्त यह कि वह न्यायग्रन्थोका केवल भारवाही न हो। उसके रससे पूर्णत अनुप्राणित हो।
६ निसर्गज तर्क कम लोगोमें होता है। अधिकाश लोगोमें तो अधिगमज तर्क ही होता है, जो साक्षात् अथवा परम्परया न्यायशास्त्र-तर्कशास्त्रके अभ्याससे प्राप्त होता है। अतएव जो निसर्गत तर्कशील नहीं है उन्हें कभी भी हताश नही होना चाहिए और न्यायशास्त्र अध्ययन द्वारा अधिगमज तर्क प्राप्त करना चाहिए । इससे वे न केवल अपना ही लाभ उठा सकते हैं किन्तु वे साहित्य और समाजके लिए भी अपूर्व देनकी सृष्टि कर सकते हैं।
७ समन्तभद्र, अकलक, विद्यानन्द आदि जो बडे-बड़े दिग्गज प्रभावशाली विद्वानाचार्य हुए है वे सब न्यायशास्त्रके अभ्याससे ही बने है । उन्होने न्यायशास्त्र-रत्नकारका अच्छी तरह अवगाहन करके ही उत्तमउत्तम ग्रन्थरत्न हमें प्रदान किये हैं, जिनका प्रकाश आज प्रकट है और जो हमे धरोहरके रूपमें सौभाग्यसे प्राप्त है । हमारा कर्तव्य है कि हम उन रत्नोको आभाको अधिकाधिक रूपमें दुनियाके कोने-कोनेमें फैलायें, जिससे जैन शासनकी महत्ता और जैन दर्शनका प्रभाव लोकमें ख्यात हो ।
वस्तुत न्याय-विद्या एक बहुत उपयोगी और लाभदायक विद्या है, जिसका अध्ययन लौकिक और पारमार्थिक दोनो दृष्टियोसे आवश्यक है।
-१६४
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ स्याद्वादसिद्धि और वादीभसिंह
२ द्रव्यसंग्रह और नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव
३ शासन - चतुस्त्रिशतिका और मदनकीर्ति
४ सजदपदके सम्वन्धमें अकलकदेवका महत्त्वपूर्ण अभिमत
५ ९३वें सूत्र में 'सजद' पदका सद्भाव
६ नियमसारकी ५३वी गाथा और उसकी व्याख्या एव अर्थपर अनुचिन्तन
इतिहास और साहित्य
७ अनुसन्धानमे पूर्वाग्रहमुक्तिका आवश्यक कुछ प्रश्न और समाधान
८ गुणचन्द्रमुनि कौन है ?
९ कौन-सा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है ?
१० गजपथ तीर्थक्षेत्रका एक अतिप्राचीन उल्लेख
११ अनुसंधानविषयक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
- १६५ .
--
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्याद्वादसिद्धि और वादीभसिंह
स्वाद्वादसिद्धि
(क) ग्रन्थ-परिचय
___ इस ग्रन्थरत्नका नाम 'स्याद्वादसिद्धि' है । यह दार्शनिकशिरोमणि वादीभसिंहसूरिद्वारा रची गई महत्त्वपूर्ण एव उच्चकोटिको दार्शनिक कृति है। इसमें जैनदर्शनके मौलिक और महान सिद्धान्त 'स्याद्वाद' का प्रतिपादन करते हुए उसका विभिन्न प्रमाणो तथा युक्तियोसे साधन किया गया है। अतएव इसका 'स्याद्वादसिद्धि' यह नाम भी सार्थक है। यह प्रख्यात जैन तार्किक अकलकदेवके न्यायविनिश्चिय आदि जैसा ही कारिकात्मक प्रकरणग्रन्थ है। किन्तु दु ख है कि यह विद्यानन्दकी 'सत्यशासनपरीक्षा' ओर हेमचन्द्रकी 'प्रमाणमीमासा' की तरह खण्डित एव अपूर्ण ही उपलब्ध होती है। मालूम नहीं, यह अपने पूरे रूपमें और किसी शास्त्रभण्डारमें पायी जाती है या नही, । अथवा ग्रन्थकारके अन्तिम जीवनकी यह रचना है जिसे वे स्वर्गवास हो जानेके कारण पूरा नही कर सके ? मूडबिद्रीके जैनमठसे जो इसकी एक अत्यन्त जीर्ण-शीर्ण और प्राचीन ताडपत्रीय प्रति प्राप्त हुई है तथा जो बहुत ही खण्डित दशामें विद्यमान है-जिसके अनेक पत्र मध्यमें और किनारोंपर टूटे हुए हैं और सात पत्र तो बीचमें बिल्कुल ही गायब है उससे जान पडता है कि ग्रन्थकारने इसे सम्भवत पूरे रूपमें ही रचा है। यदि यह अभी नष्ट नहीं हुई है तो असम्भव नही कि इसको अनुसन्धान होनेपर यह किसी दूसरे जैन या जैनेतर शास्त्रभण्डारमें मिल जाय ।
यह प्रसन्नताकी बात है कि जितनी रचना उपलब्ध है उसमें १३ प्रकरण तो पूरे और १४ वा तथा अगले २ प्रकरण अपूर्ण और इस तरह पूर्ण-अपूर्ण १६ प्रकरण मिलते है । और इन सब प्रकरणोमें (२४ + +४४+ ७४+ ८९३+३२ + २२ + २२+२१ + २३ + ३९+ २८+ १६ + २१ +७० + १३८+६३ =)६७० जितनी कारिकाएँ सन्निबद्ध हैं। इससे ज्ञात हो सकता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ कितना महान् और विशाल है । दुर्भाग्यसे अब तक यह विद्वत्ससारके समक्ष शायद नही आया और इमलिए अभी तक अपरिचित तथा अप्रकाशित दशामें पडा चला आया। (ख) भाषा और रचनाशली
दार्शनिक होनेपर भी इसकी भाषा विशद और बहुत कुछ सरल है । ग्रन्थको सहजभावसे पढ़ते जाइये, विषय समझमें आता जायेगा। हां, कुछ ऐसे भी स्थल है जहां पाठकको अपना पूरा उपयोग लगाना पडता है और जिससे ग्रन्थकी प्रौढता. विशिष्टता एव अपूर्वताका भी कुछ अनुभव हो जाता है। यह ग्रन्थकारकी मोलिक स्वतन्त्र पद्यात्मक रचना है-किसी दूसरे गद्य या पद्यरूप मूलकी व्याख्या नही है। इस प्रकारकी रचनाको रचनेकी प्रेरणा उन्हें अकलकदेवके न्यायविनिश्चयादि और शान्तरक्षितादिके तत्त्वसग्रहादिसे मिली जान पड़ती है।
धर्मकीति (६२५ ई०) ने सन्तानातरसिद्धि, कल्याणरक्षित (७०० ई०) ने बाह्यार्थसिद्धि, धर्मोत्तर (६० ७२५) ने परलोकसिद्धि और क्षणभङ्गसिद्धि तथा शङ्करानन्द (ई०८००) ने अपोहसिद्धि और प्रतिबन्धसिद्धि जैसे नामोवाले ग्रन्थ बनाये हैं और इनसे भी पहले स्वामी समन्तभद्र (विक्रमकी २ री, ३ री शती)
= १६५ -
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२ अभावप्रम सिद्धिवारहवा प्रकरण अभावप्रमाणदूषणसिद्धि है। इसमें सर्वशका अभाव बतलाने के लिये भाट्टोद्वारा प्रस्तुत अभावप्रमाणमें दूपण प्रदर्शित किये गये हैं और उसकी अतिरिक्त प्रमाणताका निराकरण किया गया है। इसमें १६ कारिकाएँ निबद्ध है।
१३ तर्कप्रामाण्यसिद्धि-तेरहवां प्रकरण तर्कप्रामाण्य सिद्धि है। इसमें अविनाभावरूप व्याप्तिका निश्चय करानेवाले तर्कको प्रमाण सिद्ध किया गया है और यह बतलाया गया है कि प्रत्यक्षादि प्रमाणोंमे अविनाभावका ग्रहण नही हो सकता। इसमें २१ कारिकाएं हैं।
१४ " 'चौदहवा प्रकरण अधूरा है और इसलिये इसका अन्तिम समाप्तिपरिपकावाक्य उपलब्ध न होनेसे यह ज्ञात नहीं होता कि इसका नाम क्या है ? इसमें प्रधानतया वैशेषिकके गुण-गणीभेदादि और समवायादिकी समालोचना की गई है। अत सम्भव है इसका नाम 'गुण-गणीअभेदसिद्धि' हो। इसमें ७० कारिकाएं उपलब्ध हैं। इसकी अन्तिम कारिका, जा सण्डित एव श्रुटित स्पमें है, इस प्रकार है
तद्विशेपणभावाख्यसम्बन्चे तु न च (चा?) स्थित ।
समवा . . . . . . . ॥७०।। ब्रह्मदषणसिद्धि-उपलब्ध रचनामें उक्त प्रकरणके बाद यह प्रकरण पाया जाता है। मूडबिद्रीकी ताडपत्र-प्रतिमें उक्त प्रकरणकी उपर्युक्त तद्विशेषण' आदि फारिकाके बाद इस प्रकरणकी 'तन्नो चेग्रह्मानिर्णीति' आदि ५२वी कारिकाके पूर्वार्द्ध तक सात पत्र युटित है। इन सात पत्रोंमें मालूम नही कितनी कारिकाएँ और प्रकरण नष्ट है। एक पत्र में लगभग ५० कारिकाएँ पाई जाती है और इस हिसाबसे सात पत्रोमें ५०४७ = ३५० के करीब कारिकाएं होनी चाहिये और प्रकरण कितने होगे, यह कहा नहीं जा सकता । अतएव यह 'ब्रह्मवषणसिद्धि' प्रकरण कोनसे नम्बर अथवा सख्यावाला है, यह बतलाना भी अशक्य है। इसका ५१३ कारिकाओं जितना प्रारम्भिक अण नष्ट है। ब्रह्मवादियोको लक्ष्य करके इसमें उनके अभिमत ब्रह्ममें दूपण दिखाये गये हैं। यह १८९ (टित ५१३ + उपलब्ध १३७३-) कारिकामोमें पूर्ण हुआ है और उपलब्ध प्रकरणोमें सबसे बडा प्रकरण है।
अन्तिम प्रकरण-उक्त प्रकरण के बाद इसमें एक प्रकरण और पाया जाता है और जो खण्डित है तथा जिसमें सिर्फ आरम्भिक ६३ कारिकाएं उपलब्ध हैं। इसके बाद ग्रन्थ खण्डित और अपूर्ण हालतमें विद्यमान है। चौदहवें प्रकरणकी तरह इस प्रकरणका भी समाप्तिपुष्पिकावाक्य अनुपलब्ध होनेसे इसका नाम ज्ञात नही होता । उपलब्ध कारिकाओंसे मालूम होता है कि इसमें स्याद्वादका प्ररूपण और बौद्धदर्शनके अपोहादिका खण्डन होना चाहिए। अन्य ग्रन्थकारो और उनके ग्रन्थवाक्योका उल्लेख
ग्रन्यकारने इस रचनामें अन्य ग्रन्थकारो और उनके अथवाक्योका भी उल्लेख किया है। प्रसिद्ध मीमासक विद्वान् कुमारिल भट्ट और प्रभाकरका नामोल्लेख करके उनके अभिमत भावना और नियोगरूप वेदवाक्यार्थका निम्न प्रकार खण्डन किया है
नियोग-भावनारूप भिन्तमर्थद्वयं तथा
भट्ट-प्रभाकराभ्या हि वेदार्थत्वेन निश्चितम् ।।६-१९।। इसी तरह अन्य तीन जगहोपर कुमारिल भट्र के मीमासाश्लोकवात्तिकसे 'वार्तिक' नामसे अथवा उसके बिना नामसे भी तीन कारिकाएं उद्धृत करके समालोचित हुई है और जिन्हें ग्रन्थका अङ्ग बना लिया गया है । वे कारिकाएँ ये हैं
- १७० -
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
(क) 'यद्वेदाध्ययन सर्व तदध्ययनपूर्वकम्
तदध्ययनवाच्यत्वादधुनेव भवेदिति ॥'---मी० श्लो० अ० ७, का० ३५५ ।
इत्यस्मादनुमानात्स्याद्वेदस्यापौरुषेयता ।१०-३७। (ख) 'स्वत सर्वप्रमाणाना प्रामाण्यमिति गम्यताम् । न हि स्ततोऽसती शक्ति कर्तुमन्येन शक्यते ॥'
-मी० श्लो० सू० २, का० ४७ । इति वार्तिकसद्भावात् ।
-१-११। (ग) 'शब्दे दोषोद्भवस्तावद्वक्त्र्यधीन इति स्थिति ।
तदभाव. क्वचित्तावद् गुणवद्वक्तृकत्वत ॥'-मी०श्लो॰सू० २, का० ६२ । इति वात्तिकत शब्द
-११-२० । इसी तरह प्रशस्तकर', दिग्नाग', धर्मकीर्ति जैसे प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रन्थकारोके पाद-वाक्यादिकोके भी उल्लेख इसमें पाये जाते है।
स्याद्वादसिद्धि हिन्दी-सारांश १ जीव-सिद्धि
मङ्गलाचरण-श्रीवर्द्धमानस्वामीके लिये मेरा नम्र नमस्कार है जो विश्ववेदी (सर्वज्ञ) है, नित्यानन्दस्वभाव है और भक्तोको अपने समान बनानेवाले हैं-उनकी जो भक्ति एव उपासना करते हैं वे उन जैसे उत्कृष्ट आत्मा (परमात्मा) बन जाते है।
१ 'इह शाखासु वृक्षोऽयमिति सम्बन्धपूर्विका । बुद्धिरिहेदबुद्धित्वात्कुण्डे दधीति बुद्धिवत् ॥५-८॥
____ इसमें प्रशस्तकरके प्रशस्तपादभाप्यगत समवायलक्षणकी सिद्धि प्रदर्शित है । तथा आगेकी कारिकाओमें उनके 'अयतसिद्धि' विशेषणकी आलोचना भी की गई है। 'विकल्पयोनय शब्दा इति बौद्धवच श्रुते । कल्पनाया विकल्पत्वान्न हि बुद्धस्य वक्तृता ।।७-५॥
इस कारिकामें जिस 'विकल्पयोनय शब्दा' वाक्यको बौद्धका वचन कहा गया है वह वाक्य निम्न कारिकाका वाक्याश है'विकल्पयोनय शब्दा विकल्पा शब्दयोनय । तेषामन्योन्यसम्वन्धो नार्थान शब्दा स्पृशन्त्यमी ।'
यह कारिका न्यायकुमुदचन्द्र (पृ० ५३७) आदि ग्रथोमें उद्धृत है। ८वी-९वी शतीके विद्वान् हरिभद्रने भी इसे अनेकान्तजयपताका (१० ३३७) में उद्धृत किया है और उसे भदन्त दिन्नकी बतलाई है । भदन्त दिन्न सम्भवत दिग्नागको ही कहा गया है। इस कारिकामें प्रतिपादित सिद्धान्त (शब्द
और अर्थके सम्बन्धाभाव)को दिग्नागके अनुगामी धर्मकीर्तिने भी अपने प्रमाणवातिक (३-२०४) मे वणित किया है। "विधूतकल्पनाजालगम्भीरोदारमूर्तये । इत्यादिवाक्यसभावात्स्याद्धि बुद्धऽप्यवक्तृता ।।'७-४।
इस कारिकाका पूर्वार्ध प्रमाणवार्तिक १-१ का पूर्वार्ध है।
- १७१ -
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
और पूज्यपाद-देवनन्दि (विक्रमकी ६ठी शती) ने क्रमश जीवसिद्धि तथा सर्वार्थसिद्धि जैसे सिद्धयन्त नामके ग्रन्थ रचे हैं । सम्भवत वादीभसिंहने अपनी यह 'स्याद्वादसिद्धि' भी उसी तरह सिद्धयन्त नामसे रची है। (ग) विषय-परिचय
ग्रन्थके आदिमें ग्रन्थकारने प्रथमत पहली कारिकाद्वारा मङ्गलाचरण और दूसरी कारिकाद्वारा ग्रन्थ बनानेका उद्देश्य प्रदर्शित किया है । इसके बाद उन्होने विवक्षित विषयका प्रतिपादन आरम्भ किया है। वह विवक्षित विषय है स्याद्वादकी सिद्धि और उसीमे तत्त्वव्यवस्थाका सिद्ध होना। इन्ही दो बातोका इसमें कथन किया गया है और प्रसङ्गत दर्शनान्तरीय मन्तव्योकी समीक्षा भी की गई है।
इसके लिये ग्रन्थकारने प्रस्तुत ग्रन्थमें अनेक प्रकरण रखे हैं। उपलव्य प्रकरणोमें विषय-वर्णन इस प्रकार है -
१ जीवसिद्धि-इसमें चार्वाकको लक्ष्य करके सहेतुक जीव (आत्मा) की सिद्धि की गई है और उसे भतसघातका कार्य माननेका निरसन किया गया है। इस प्रकरण में २४ कारिकाएं हैं।
२ फलभोक्तृत्वाभावसिद्धि-इसमें वौद्धोके क्षणिकवादमें दूपण दिये गये हैं। कहा गया है कि क्षणिक चित्तसन्तानरूप आत्मा धर्मादिजन्य स्वर्गादि फलका भोक्ता नही बन सकता, क्योकि धर्मादि करनेवाला चित्त क्षणध्वसी है-वह उसी समय नष्ट हो जाता है और यह नियम है कि 'कर्ता ही फलभोक्ता होता है। अत आत्माको कथचित् नाशशील-सर्वथा नाशशील नही-स्वीकार करना चाहिए। और उस हालतमें कर्तृत्व और फलभोक्तृत्व दोनो एक (आत्मा) में बन सकते हैं। यह प्रकरण ४४ कारिकाओंमें पूरा हुआ है।
३ युगपदनेकान्तसिद्धि-इसमें वस्तुको युगपत-एक साथ वास्तविक अनेकधर्मात्मक सिद्ध किया गया है और बौद्धाभिमत अपोह, सन्तान, सादृश्य तथा सवृति आदिकी युक्तिपूर्ण समीक्षा करते हुए चित्तक्षणोको निरन्वय एव निरश स्वीकार करनेमे एक दूषण यह दिया गया है कि जब चित्तक्षणोंमें अन्वय (व्यापिद्रव्य) नही है-वे परस्पर सर्वथा भिन्न है तो 'दाताको ही स्वर्ग और वधकको ही नरक हो' यह नियम नहीं बन सकता। प्रत्युत इसके विपरीत भी सम्भव है--दाताको नरक और वधकको स्वर्ग क्यो न हो? इस प्रकरणमें ७४ कारिकाएं हैं।
४ क्रमानेकान्तसिद्धि-इसमें वस्तुको क्रमसे वास्तविक अनेक धर्मोवाली सिद्ध किया है। यह प्रकरण भी तीसरे प्रकरणकी तरह क्षणिकवादी बौद्धोको लक्ष्य करके लिखा गया है। इसमें कहा गया है कि यदि पूर्व और उत्तर पर्यायोमें एक अन्वयी द्रव्य न हो तो न तो उपादानोपादेयभाव बन सकता है, न प्रत्यभिज्ञा बनती है, न स्मरण बनता है और न व्याप्तिग्रहण ही बनता है, क्योकि क्षणिककान्तमें उन (पूर्व और उत्तर पर्यायो) में एकता सिद्ध नहीं होती, और ये सब उसी समय उपपन्न होते हैं जब उनमें एकता (अनुस्यूतरूपसे रहनेवाला एकपना) हो। अत जिस प्रकार मिट्टी क्रमवर्ती स्थास-कोश-कुशल-कपाल-घटादि अनेक पर्याय-धर्मोंसे युक्त है उसी प्रकार समस्त वस्तुएं भो क्रमसे नानाधर्मात्मक हैं और वे नाना धर्म उनके उसी तरह वास्तविक हैं जिस तरह मिट्टीके स्थासादिक ।।
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि वादीभसिंहकी तरह विद्यानन्दने भी अनेकान्तके दो भेद बतलाये गुणवद्रव्यमित्युक्त सहानेकान्तसिद्धये । तथा पर्यायवद्राव्य क्रमानेकान्तवित्तये ॥-तत्त्वार्थश्लो० श्लो० ४३८
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
है-एक सहानेकान्त और दूसरा क्रमानेकान्त । और इन दोनो अनेकान्तोकी प्रसिद्धि एव मान्यताको उन्होंने श्रीगृद्धपिच्छाचार्यके 'गुणपर्ययवद्व्यम्' [त० सू० ५-३७] इस सूत्रकथनसे समर्थित किया है अथवा सूत्रकारके कथनको उक्त दो अनेकान्तोकी दण्टिसे सार्थक बतलाया है। अत यगपदेनकान्त और क्रमानेकान्तरूप दो अनेकान्तोकी प्रस्तुत चर्चा जैन दर्शनकी एक बहत प्राचीन चर्चा मालूम होती है जिसका स्पष्ट उल्लेख इन दोनो आचार्यों द्वारा ही हुआ जान पडता है । यह प्रकरण ८९३ कारिकाओंमें ममाप्त है ।
५ भोक्तृत्वाभावसिद्धि-इसमें सर्वथा नित्यवादीको लक्ष्य करके उसके नित्यकान्तकी समीक्षा की गई है। कहा गया है कि यदि आत्मादि वस्तु सर्वथा नित्य-कूटस्थ-सदा एक-सी रहने वाली-अपरिवर्तनशील हो तो वह न कर्ता बन सकती है और न भोक्ता। कर्ता माननेपर भोक्ता और भोक्ता माननेपर कर्ताके अभावका प्रसङ्ग आता है, क्योकि कर्तापन और भोक्तापन ये दोनो क्रमवर्ती परिवर्तन हैं और वस्तु नित्यवादियोद्वारा सर्वथा अपरिवर्तनशील--नित्य मानी गई है । यदि वह कर्तापनका त्यागकर भोक्ता बने तो वह नित्य नही रहती--अनित्य हो जाती है, क्योकि कर्तापन आदि वस्तुसे अभिन्न हैं। यदि भिन्न हो तो वे आत्माके सिद्ध नही होते. क्योकि उनमें समवायादि कोई सम्बन्ध नही बनता। अत नित्यकान्तमें आत्माके भोक्तापन आदिका अभाव सिद्ध है । इस प्रकरणमें ३२ कारिकाएं हैं।
६ सर्वज्ञाभावसिद्धि-इसमें नित्यवादी नैयायिक, वैशेषिक और मीमासकोको लक्ष्य करके उनके स्वीकृत नित्यकान्त प्रमाण (आत्मा-ईश्वर अथवा वेद) में सर्वज्ञताका अभाव प्रतिपादन किया गया है । इसमें २२ कारिकाएँ हैं।
७ जगत्कर्तृत्वाभावसिद्धि-इसमें ईश्वर जगत्कर्ता सिद्ध नहीं होता, यह बतलाया गया है । इसमें भी २२ कारिकाएं है।
८ अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि-इसमें सप्रमाण अर्हन्तको सर्वज्ञ सिद्ध किया गया है और विभिन्न बाधाओका निरसन किया गया है । इसमें २१ कारिकाएँ हैं ।
९ अर्थापत्तिप्रामाण्यसिद्धि-नवां प्रकरण अर्थापत्तिप्रामाण्यसिद्धि है। इसमें सर्वज्ञादिकी साधक अर्थापत्तिको प्रमाण सिद्ध करते हुए उसे अनुमान प्रतिपादित किया गया है और उसे माननेकी खास आवश्यकता बतलाई गई है। कहा गया है कि जहां अर्थापत्ति (अनुमान) का उत्थापक अन्यथानुपपन्नत्व-अविनाभाव होता है वही साधन साध्यका गमक होता है। अत एव उसके न होने और अन्य पक्षधर्मत्वादि तीन रूपोके होने पर भी 'वह श्याम होना चाहिये, क्योकि उसका पुत्र है, अन्य पुत्रोकी तरह' इस अनुमानमें प्रयुक्त 'उसका पुत्र होना' रूप साधन अपने 'श्यामत्व' रूप साध्यका गमक नही है। अत अर्थापत्ति अप्रमाण नही है-प्रमाण है और वह अनुमानस्वरूप है । इस प्रकरणमें २३ कारिकाएँ हैं।
१० वेदपौरुषेयत्वसिद्धि-दशवा प्रकरण वेदपौरुषेयत्वसिद्धि है। इसमें वेदको सयुक्तिक पौरुषेय सिद्ध किया गया है। और उसकी अपौरुषेय-मान्यताकी मार्मिक मीमासा की गई है। यह प्रकरण ३९ कारिकाओमें समाप्त है।
११ परत प्रामाण्यसिद्धि-ग्यारहवां प्रकरण परत प्रामाण्यसिद्धि है। इसमें मीमासकोके स्वत प्रामाण्य मतको कुमारिलके मीमासाश्लोकवार्तिक ग्रन्थके उद्धरणपूर्वक कही आलोचना करते हुए प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द (आगम) प्रमाणोमें गुणकृत प्रामाण्य सिद्ध किया गया है। इस प्रकरणमें २८ कारिकाएँ है।
म-२२
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
धन्यका उद्देश्य -- ससारके सभी जीव सुख चाहते हैं, परन्तु उसका उपाय नही जानते । प्रस्तुत ग्रन्यद्वारा सुखके उपायका कथन किया जाता है क्योकि बिना कारण कोई भी कार्य उत्पन्न नही होता ।
प्रत्यारम्भ -- यदि प्राणियोंको प्राप्त सुख-दुखादिरूप कार्य विना कारणके हों तो किसीको ही सुख और किसीको ही दुख क्यों होता है, सभीको केवल सुख ही अथवा फेवल दुख ही क्यो नही होता ? तात्पर्य यह कि ससारमें जो सुखादिका वैषम्य कोई सुखी और कोई दुखी देखा जाता है यह कारण बिना सम्भव नही है |
-
तथा कोई कफप्रकृतिवाला है. कोई वातप्रकृतिवाला हूँ और कोई पित्तप्रकृतिवाला है सो यह कफादिकी विषमतारूप कार्य भी जीवोके बिना कारणभेदके नही बन सकता है और जो स्त्री आदिके सम्पर्कसे सुखादि माना जाता है वह भी बिना कारणके असम्भव है, क्योकि स्त्री कही अन्तक-- घातकका भी काम करती हुई देखी जाती है-- किसीको वह विपादि देकर मारनेवाली भी होती है।
क्या बात है कि सर्वाङ्ग सुन्दर होनेपर भी कोई किसीके द्वारा तान-वध-बन्धनाविको प्राप्त होता है और कोई तोता, मैना आदि पक्षी अपने भक्षकोंद्वारा भी रक्षित होते हुए बडे प्रेमसे पाले-पोषे जाते हैं ?
अत इन सब वातोसे प्राणियोके सुख-दु सके अन्तरङ्ग कारण धर्म और अधर्म अनुमानित होते है। वह अनुमान इस प्रकार है--धर्म और अधर्म हैं, क्योकि प्राणियोंको सुख अथवा दु ख अन्यथा नही हो सकता ।' जैसे पुत्रके सद्भावसे उसके पितारूप कारणका अनुमान किया जाता है ।
चार्वाक -
अनुमान प्रमाण नहीं है, क्योकि उसमें व्यभिचार (अर्थके अभाव में होना) देखा जाता
है ?
जैन --पह बात तो प्रत्यक्षमे भी समान है, क्योकि उसमें भी व्यभिचार देखा जाता है सीपमें चांदीका, रज्जु में सर्पका और वालो में कीडोका प्रत्यक्षज्ञान अर्थके अभाव में भी देखा गया है और इसलिए प्रत्यक्ष तथा अनुमानमें कोई विशेषता नहीं है जिससे प्रत्यक्षको तो प्रमाण कहा जाय और अनुमानको
अप्रमाण ।
चार्वाक जो प्रत्यक्ष निर्वाध है यह प्रमाण माना गया है और जो निर्वाध नहीं है वह प्रमाण नही माना गया । अतएव सीपमें चादीका आदि प्रत्यक्षज्ञान निर्बाध न होनेसे प्रमाण नही है ?
जेन - तो जिस अनुमानमें बाधा नहीं है--निर्वाध है उसे भी प्रत्यक्षकी तरह प्रमाण मानिये, क्योकि प्रत्यक्ष विशेषकी तरह अनुमानविशेष भी निर्वाध सम्भव है। जैसे हमारे सद्भावसे पितामह ( बाबा ) आदिका अनुमान निर्वाध माना जाता है।
--
इस तरह अनुमानके प्रमाण सिद्ध हो जानेपर उसके द्वारा धर्म और अधर्म निद्ध हो जाते हैं, क्योंकि कार्य कर्ताकी अपेक्षा लेकर ही होता है -- उसकी अपेक्षा लिये विना वह उत्पन्न नही होता और तभी वे धर्माधर्मं सुख-दुखादिके जनक होते हैं। अत अर्थापत्तिरूप अनुमान प्रमाणसे हम सिद्ध करते हैं कि धर्मा दिका कर्ता जीव है, क्योंकि सुखादि अन्यथा नहीं हो सकता।' प्रकट है कि जीव धर्माविसे सुखादि होते हैं, अस यह उनका कर्ता है, पा और आगे भी होगा और इस तरह परलोकी नित्य आत्मा (जीव) सिद्ध होता है ।
•
१ 'हमारे पितामह प्रपितामह आदि थे, क्योंकि हमारा सद्भाव अन्यथा नही हो सकता था ।'
- १७२ -
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
जीवकी सिद्धि ऐक दूसरे अनुमानसे भी होती है और जो निम्न प्रकार है --
'जीव पृथिवी आदि पच भूतोसे भिन्न तत्त्व है, क्योकि वह सत् होता हुआ चैतन्यस्वरूप है और अहेतुक (नित्य) है।'
आत्माको चैतन्यस्वरूप मानने में चार्वाकको भी विवाद नही है, क्योकि उन्होने भी भूतसहतिसे उत्पन्न विशिष्ट कार्यको ज्ञानरूप माना है। किंतु ज्ञान भूतसहतिरूप शरीरका कार्य नहीं है, क्योकि स्वसवेदनप्रत्यक्षसे वह शरीरका कार्य प्रतीत नहीं होता। प्रकट है कि जिस इन्द्रियप्रत्यक्षसे मिट्टी आदिका ग्रहण होता है उसी इन्द्रियप्रत्यक्षसे उसके घटादिक विकाररूप कार्योंका भी ग्रहण होता है और इसलिये घटादिक मिट्टी आदिके कार्य माने जाते हैं। परन्तु यह बात शरीर और ज्ञान में नही है--शरीर तो इन्द्रियप्रत्यक्षसे ग्रहण किया जाता है और ज्ञान स्वसवेदनप्रत्यक्षसे । यह कौन नहीं जानता कि शरीर तो आँखोसे देखा जाता है किंतु ज्ञान आँखोंसे देखनेमे नही आता।' अत दोनोकी विभिन्न प्रमाणोसे प्रतीति होनेसे उनमें परस्पर कारणकार्यभाव नही है। जिनमे कारणकार्यभाव होता है वे विभिन्न प्रमाणोसे गृहीत नही होते । अत ज्ञानस्वरूप आत्मा भूतसहतिरूप शरीरका कार्य नही है । और इसलिये वह अहेतुक--नित्य भी सिद्ध है।
चार्वाक-यदि ज्ञान शरीरका कार्य नही है तो न हो पर वह शरीरका स्वभाव अवश्य है और इसलिये वह शरीरसे भिन्न तत्त्व नही है, अत उक्त हेतु प्रतिज्ञार्थंकदेशासिद्ध है ?
जैन--नही, दोनोकी पर्याय भिन्न भिन्न देखी जाती है, जिम तरह शरीरसे बाल्यादि अवस्थाएँ उत्पन्न होती है उस तरह रागादिपर्याये उससे उत्पन्न नही होती--वे चैतन्यस्वरूप आत्मासे ही उत्पन्न होती है किन्तु जो जिसका स्वभाव होता है वह उससे भिन्न पर्यायवाला नहीं होता । जैसे सडे महुआ और गुडादिकसे उत्पन्न मदिरा उनका स्वभाव होनेसे भिन्न द्रव्य नही है और न भिन्न पर्यायवाली है । अत सिद्ध है कि ज्ञान शरीरका स्वभाव नही है ।
अतएव प्रमाणित होता है कि आत्मा भूतसघातसे भिन्न तत्त्व है और वह उसका न कार्य है तथा न स्वभाव है।
इस तरह परलोकी नित्य आत्माके सिद्ध हो जानेपर स्वर्ग-नरकादिरूप परलोक भी सिद्ध हो जाता है। अत चार्वाकोको उनका निषेध करना तर्कयुक्त नहीं है । इसलिये जो जीव सुख चाहते हैं उन्हें उसके उपायभूत धर्मको अवश्य करना चाहिए, क्योकि बिना कारणके कार्य उत्पन्न नही होता' यह सर्वमान्य सिद्धान्त है और जिसे ग्रन्थके आरम्भमें ही हम ऊपर कह आये हैं । २ फलभोक्तृत्वाभावसिद्धि
बौद्ध आत्माको भतसघातसे भिन्न तत्त्व मानकर भी उसे सर्वथा क्षणिक-अनित्य स्वीकार करते है, परन्तु वह युक्त नही है, क्योकि आत्माको सर्वथा क्षणिक माननेमे न धर्म बनता है और न धर्मफल वनता है। स्पष्ट है कि उनके क्षणिकत्वसिद्धान्तानुसार जो आत्मा धर्म करनेवाला है वह उसी समय नष्ट १ शरीरे दृश्यमानेऽपि न चैतन्य विलोक्यते ।
शरीर न च चैतन्य यतो भेदस्तयोस्तत' । चक्षुषा वीक्ष्यते गात्र चैतन्य सविदा यत । भिवज्ञानोपलम्भेन ततो भेदस्तयो स्फुटम् ।। पद्मपुराण ।
- १७३ -
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
हो जाता है और ऐसी हालत में वह स्वर्गादि धर्मफलका भोक्ता नही हो सकता । और यह नियम है कि 'कर्ता ही फलभोक्ता होता है, अन्य नही ।'
बौद्ध-यद्यपि आत्मा, जो चित्तक्षणोके समुदायरूप है, क्षणिक है तथापि उसके कार्यकारणरूप सन्तान के होनेसे उसके धर्म और धर्मफल दोनो वन जाते हैं और इसलिये 'कर्ता ही फलभोक्ता होता है' यह नियम उपपन्न हो जाता है।
जैन- अच्छा, तो यह बतलाइये कि कर्ताको फल प्राप्त होता है या नहीं ? यदि नहीं, तो फलका अभाव आपने भी स्वीकार कर लिया। यदि कहें कि प्राप्त होता है तो कर्ता नित्यपनेका प्रसंग आता है, क्योकि उसे फल प्राप्त करने तक ठहरना पडेगा । प्रसिद्ध है कि जो धर्म करता है उसे ही उसका फल मिलता है अन्यको नही किंतु जब आप आत्माको निरन्वय क्षणिक मानते हैं तो उसके नाम हो जानेपर फल दूसरा चित्त ही भोगेगा, जो कर्ता नही है और तब 'कर्त्ताको हो फल प्राप्त होता है' यह कैसे सम्भव है ? बोद्ध- जैसे पिताकी कमाईका फल पुत्रको मिलता है और यह कहा जाता है कि पिताको फल मिला उसी तरह कर्ता आत्माको भी फल प्राप्त हो जाता है ?
जैन -- आपका यह केवल कहना मात्र है-उससे प्रयोजन कुछ भी सिद्ध नहीं होता । अन्यथा पुत्रके भोजन कर लेनेसे पिताके भी भोजन कर लेनेका प्रसंग आवेगा ।
बौद्ध-व्यवहार अथवा सवृत्तिसे कर्ता फलभोक्ता वन जाता है, अत उक्त दोष नही है ?
जैन - हमारा प्रश्न है कि व्यवहार अथवा सवृत्तिसे आपको क्या अर्थ विवक्षित है? धर्मको फल प्राप्त होता है, यह अर्थ विवक्षित है अथवा धर्मकर्ताको फल प्राप्त नही होता, यह अर्थ इष्ट है या धर्मकर्ताको कथचित् फल प्राप्त होता है, यह अर्थ अभिप्रेत है ? प्रथमके दो पक्षोंमें वही दूषण आते हैं जो ऊपर कहे जा चुके हैं और इस लिये ये दोनो पक्ष तो निर्दोष नही हैं। तीसरा पक्ष भी बोद्धोके लिये इष्ट नही हो सकता, क्योकि उससे उनके क्षणिक सिद्धान्तको हानि होती है और स्याद्वादमतका प्रसङ्ग आता है ।
दूसरे, यदि सवृत्तिसे धर्मकर्ता फलभोक्ता हो तो ससार अवस्थामें जिम पिसने धर्म किया था उसे मुक्त 'अवस्थामें भी सवृत्तिसे उसका फलभोक्ता मानना पडेगा । यदि कहा जाय कि जिस ससारी चित्तने धर्म किया था उस सारी चित्तको ही फल मिलता है मुक्त चित्तको नहीं, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि धर्मकर्ता ससारी चित्तको भी उसका फल नही मिल सकता । कारण, वह उसी समय नष्ट हो जाता है और फल भोगनेवाला ससारी चित्त दूसरा ही होता है फिर भी यदि आप उसे फलभोक्ता मानते हैं तो मुक्त चित्तको भी उसका फलभोक्ता कहिये, क्योकि मुक्त और ससारी दोनों ही चित्त फलसे सर्वथा भिन्न तथा नाशकी अपेक्षासे परस्परमें कोई विशेषता नहीं रखते। यदि उनमें कोई विशेषता हो तो उसे बतलाना चाहिए।
बोद्ध - पूर्व और उत्तरवर्ती ससारी चित्तक्षणोमें उपादानोपादेयरूप विशेषता है जो ससारी और चित्तोमें नही है और इसलिए उक्त दोष नही है ?
मुक्त
जैन -- चितक्षण जब सर्वथा भिन्न और प्रतिसमय नाशशील हैं तो उनमें उपादानोपादेयभाव बन ही नही सकता है तथा निरन्वय होनेसे उनमें एक सन्तति भी असम्भव है। क्योकि हम आपसे पूछते हैं कि यह सन्तति क्या है? सादृश्यरूप है या देश-काल सम्बन्धी अन्तरका न होना (नैरन्तर्य) रूप है अथवा एक कार्यको करना रूप है? पहला पक्ष तो ठीक नहीं है। कारण, निरक्षवादमें सादृश्य सम्भव नहीं है सभी
- १७४ -
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षण परस्पर विलक्षण और भिन्न-भिन्न माने गये हैं । अन्यथा पिता और पुत्रमें भी ज्ञानरूपसे सादृश्य होनेसे एक सन्ततिके माननेका प्रसङ्ग आवेगा। दूसरा पक्ष भी युक्त नहीं है, क्योकि बौद्धोके यहाँ देश और काल कल्पित माने गये हैं और तब उनको अपेक्षासे होनेवाला नैरन्तर्य भी कल्पित कहा जायगा, किन्तु कल्पितसे कार्यकी उत्पत्ति नही हो सकती है अन्यथा कल्पित अग्निसे दाह और मिथ्या सर्पदंशसे मरणरूप कार्य भी हो जाने चाहिए, किन्तु वे नहो होते । एक कार्यको करनारूप सन्तति भी नही बनती, क्योकि क्षणिकवादमें उस प्रकारका ज्ञान ही सम्भव नही है। यदि कहा जाय कि एकत्ववासनासे उक्त ज्ञान हो सकता है अर्थात् जहाँ 'सोऽ'-'वही मैं हैं। इस प्रकारका ज्ञान होता है वही उपादानोपादेयरूप सन्तति मानी गई है और उक्त ज्ञान एकत्ववासनासे होता है, तो यह कथन भी ठीक नही है क्योकि उसमें अन्योन्याश्रय नामका दोष आता है। वह इस प्रकार है-जब एकत्वज्ञान सिद्ध हो तब एकत्ववासना बने और जब एकत्ववासना बन जाय तव एकत्वज्ञान सिद्ध हो। और इस तरह दोनो ही असिद्ध रहते हैं। केवल कार्य-कारणरूपतासे सन्तति मानना भी उचित नहीं है, अन्यया बुद्ध और ससारियोमे भी एक सन्तानका प्रसङ्ग आवेगा, क्योकि उनमें कार्यकारणभाव है-वे बुद्धके द्वारा जाने जाते हैं और यह नियम है कि जो कारण नही होता वह ज्ञानका विषय भी नही होता अर्थात् जाना नही जाता। तात्पर्य यह कि कारण ही ज्ञानका विषय होता है और ससारी बुद्धके विषय होनेसे वे कारण है तथा बुद्धचित्त उनका कार्य है अत उनमें भी एक सन्ततिका प्रसग आता है।
मत मात्माको सर्वथा क्षणिक और निरन्वय मानने पर धर्म तथा धर्मफल दोनो ही नही बनते, किन्त उसे कथचित् क्षणिक और अन्वयी स्वीकार करनेसे वे दोनो बन जाते हैं। 'जो मैं वाल्यावस्था में था वही उस अवस्थाको छोडकर अब मैं युवा है।' ऐसा प्रत्यभिज्ञान नामका निर्बाध ज्ञान होता है और जिससे आत्मा कथचित् नित्य तथा अनित्य प्रतीत होता है और प्रतीतिके अनुसार वस्तुकी व्यवस्था है। ३ युगपदनेकान्तसिद्धि
एक साथ तथा क्रमसे वस्तु अनेकधर्मात्मक है, क्योकि सन्तान आदिका व्यवहार उसके बिना नही हो सकता। प्रकट है कि बौद्ध जिस एक चित्तको कार्यकारणरूप मानते हैं और उसमें एक सन्ततिका व्यवहार करते है वह यदि पूर्वोत्तर क्षणोकी अपेक्षा नानात्मक न हो तो न तो एक चित्त कार्य एव कारण दोनोंरूप हो सकता है और न उसमें सन्ततिका व्यवहार ही बन सकता है ।
बौद्ध-बात यह है कि एक चित्त में जो कार्यकारणादिका भेद माना गया है वह व्यावृत्तिद्वारा, जिसे अपोह अथवा अन्यापोह कहते हैं, कल्पित है वास्तविक नही ?
जैन-उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योकि व्यावृत्ति अवस्तुरूप होनेसे उसके द्वारा भेदकल्पना सम्भव नही है। दूसरी बात यह है कि प्रत्यक्षादिसे उक्त व्यावृत्ति सिद्ध भी नही होती, क्योकि वह अवस्तु है और प्रत्यक्षादिकी वस्तुमें ही प्रवृत्ति होती है।
बौद्ध-ठीक है कि प्रत्यक्ष से व्यावृत्ति सिद्ध नही होती, पर वह अनुमानसे अवश्य सिद्ध होती है और इसलिये वस्तुमे व्यावृत्ति-कल्पित ही धर्मभेद है ।
जन--नही. अनमानसे व्यावत्तिकी सिद्धि मानने में अन्योन्याश्रय नामका दोष आता है। वह तरहसे है-व्यावृत्ति जव सिद्ध हो तो उससे अनुमानसम्पादक साध्यादि धर्मभेद सिद्ध हो और जब साध्यादि धर्मभेद सिद्ध हो तब व्यावृत्ति सिद्ध हो । अत अनुमानसे भी व्यावृत्तिकी सिद्धि सम्भव नही है। ऐसी स्थितिमें उसके द्वारा धर्मभेदको कल्पित बतलाना असगत है ।
बौद्ध-विकल्प व्यावृत्तिग्राहक है, अत उक्त दोष नही है ?
-१७५०
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
५ भोक्तृत्वाभावसिद्धि
वस्तुको सर्वथा नित्य मानना भी ठीक नहीं है, क्योकि उस हालतमे आत्माके कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो नही बन सकते हैं । कर्तृत्व माननेपर भोक्तृत्व और भोक्तृत्व माननेपर कर्तृत्वके अभावका प्रसग आता है, क्योकि ये दोनो धर्म आत्मामें एक साथ नही होते-क्रमसे होते हैं और क्रमसे उन्हें स्वीकार करनेपर वस्तु नित्य नही रहती । कारण, कर्तृत्वको छोडकर भोक्तृत्व और भोक्तृत्वको त्यागकर कर्तृत्व होता है और ये दोनो ही आत्मासे अभिन्न होते हैं। यदि उन्हें भिन्न मानें तो 'वे आत्माके है अन्यके नहीं' यह व्यवहार उत्पन्न नही हो सकता। यदि कहा जाय कि उनका आत्माके साथ समवाय सम्बन्ध है और इसलिये 'वे आत्माके हैं, अन्यके नहीं' यह व्यपदेश हो जाता है तो यह कहना योग्य नहीं है, क्योंकि उक्त समवाय प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे प्रतीत नही होता । यदि प्रत्यक्षसे प्रतीत होता तो उसमें विवाद ही नही होता, किंतु विवाद देखा जाता है।
योग--आगमसे समवाय सिद्ध है, अत उक्त दोष नही है ?
जैन--नही, जिस आगमसे वह सिद्ध है उसको प्रमाणता अनिश्चित है । अत उससे समवायकी सिद्धि बतलाना असगत है।
योग-समवायकी सिद्धि निम्न अनुमानसे होती है -'इन शाखाओमें यह वृक्ष है' यह वृद्धि सम्बन्धपूर्वक है, क्योकि वह 'इहेद' बुद्धि है । जैसे 'इस कुण्डमें यह दही है' यह बुद्धि । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार 'इस कुण्डमें यह दहो है' यह ज्ञान सयोगसम्बन्धके निमित्तसे होता है इसी प्रकार 'इन शाखाओंमें यह वृक्ष है', यह ज्ञान भो समवायसम्बन्धपूर्वक होता है । अत समवाय अनुमानसे सिद्ध है?
जैन--नही, उक्त हेतु 'इस वनमें यह आम्रादि है' इस ज्ञान के साथ व्यभिचारी है क्योकि यह ज्ञान 'इहेद' रूप तो है किन्तु किसी अन्य सम्बन्ध-पूर्वक नहीं होता और न यौगोने उनमें समवाय या अन्य सम्बन्ध स्वीकार किया भो है । केवल उसे उन्होंने अन्तरालाभाषपूर्वक प्रतिपादन किया है और यह प्रकट है कि अन्तरालामाव सम्बन्ध नही है । अत इस अन्तरालाभावपूर्वक होनेवाले 'इहेद' रूप ज्ञानके साथ उक्त हेतु व्यभिचारी होनेसे उसके द्वारा समवायकी सिद्धि नही हो सकती है ।
ऐसी हालतमें वृद्धधादि एव कर्तृत्वादिसे आत्मा भिन्न ही रहेगा और तब जड आत्मा धर्मकर्ता अथवा फल-भोक्ता कैसे बन सकता है ? अत क्षणिकैकान्तकी तरह नित्यकान्तका मानना भी निष्फल है।
अपि च, आप यह बतलाइये कि समवाय क्या काम करता है ? आत्मा और बुद्धधादिमें अभेद करता है अथवा उनके भेदको मिटाता है ? अन्य विकल्प सम्भव नही है ? प्रथम पक्षमें बुद्धधादकी तरह आत्म अनित्य हो जायगा अथवा आत्माको तरह बुद्धयादि नित्य हो जायेंगे, क्योकि दोनों अभिन्न हैं। दूसरे पक्षमें आत्मा और बुद्धयादिके भेद मिटनेपर घट-पटादिकी तरह वे दोनो स्वतत्र हो जायेंगे । अत समवायसे पहले इनमें न तो भेद ही माना जा सकता है और न अभेद ही, क्योकि उक्त दूषण आते हैं। तथा भेदाभेद उनमें आपने स्वीकार नही किया तब समवायको माननेसे क्या फल है ?
योग-भेदको हमने अन्योन्याभावरूप माना है अत आत्मा और बुद्धयादिमें स्वतत्रपनेका प्रसग नही आता?
जैन-यह कहना भी आपका ठीक नही है, क्वोकि अन्योन्याभावमें भी घट-पटादिकी तरह स्वतन्त्रता रहेगी-वह मिट नही सकती। यदि वह मिट भी जाय तो अभेद होनेसे उक्त नित्यता-अनित्यताका दोष तदवस्थित है।
-१७८
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
योग-पृथक्त्वगुणसे उनमें भेद बन जाता है अत अभेद होनेका प्रसंग नही आता और न फिर उसमें उक्त दोष रहता है ?
जैन-नही, पृथक्त्वगुणसे भेद माननेपर पूर्ववत् आत्मा और बुघयादिमें घटादिकी तरह भेद प्रसक्त होगा ही।
एक बात और है। समवायसे आत्मा बुद्धयादिका सम्बन्ध माननेपर मुक्त जीवमें भी उनका सम्बन्ध मानना पडेगा, क्योकि वह व्यापक और एक है।
योग-बुद्धयादि अमुक्त-प्रभव धर्म हैं, आ मुक्तोमें उनके सम्बन्धका प्रसग खडा नही हो सकता है ?
जैन-नही, बुद्धयादि मुक्तप्रभव धर्म क्यों नहीं हैं, इसका क्या समाधान है ? क्योकि बुद्धयादिका जनक आत्मा है और वह मुवत तथा अमुक्त दोनो अवस्थाओमें समान है। अन्यथा जनकस्वभावको छोडने और अजनकस्वभावको ग्रहण करनेसे आत्माके नित्यपनेका अभाव आवेगा।
योग-बुद्धयादि अमुक्त समवेतधर्म हैं, इसलिये वे अमुक्त-प्रभव-~मुक्तप्रभव नही है ?
जैन-नही, क्योकि अन्योन्याश्रय दोष आता है। बुद्धयादि जब अमुक्तसमवेत सिद्ध हो जायें तब वे अमुक्त-प्रभव सिद्ध हो और उनके अमुक्तप्रभव सिद्ध होनेपर वे अमुक्त-समवेत सिद्ध हो । अत समवायसे आत्मा तथा वृद्धयादिमें अभेदादि मानने में उक्त दूषण आते है और ऐसी दशामें वस्तुको सर्वथा नित्य माननेपर धर्मकर्ताके फलका अभाव सुनिश्चित है। ६ सर्वज्ञाभावसिद्धि
नित्यकान्तका प्रणेता-उपदेशक भी सर्वज्ञ नही है, क्योकि वह समीचीन अर्थका कथन करनेवाला नही है । दूसरी बात यह है कि वह सरागी भी है । अत हमारी तरह दूसरोको भी उसकी उपासना करना योग्य नहीं है।
सोचनेकी बात है कि जिसने अविचारपूर्वक स्त्री आदिका अपहरण करनेवाला तथा उसका नाश करनेवाला दोनों बनाये वह अपनी तथा दूसरोकी अन्योंसे कैसे रक्षा कर सकता है?
साथ ही जो उपद्रव एव झगडे कराता है वह विचारक तथा सर्वज्ञ नही हो सकता। यह कहना युक्त नहीं कि वह उपद्रवरहित है, क्योकि ईश्वरके कोपादि देखा जाता है।
अत यदि ईश्वरको आप इन सब उपद्रवोंसे दूर वीतराग एव सर्वज्ञ मानें तो उसीको उपास्य भी स्वीकार करना चाहिये, अन्य दूसरेको नही । रत्नका पारखी काचका उपासक नहीं होता।
यह वीतराग-सर्वज्ञ ईश्वर भी निरुपाय नही है। अन्यथा वह न वक्ता बन सकता है और न सशरीरी । उसे वक्ता माननेपर वह सदा वक्ता रहेगा-अवक्ता कभी नही बन सकेगा।
यदि कहा जाय कि वह वक्ता और अवक्ता दोनो है, क्योकि वह परिणामी है तो यह कहना भी ठीक नही है। कारण, इस तरह वह नित्यानित्यरूप सिद्ध होनेसे स्याद्वादकी ही सिद्धि करेगा-कुट नित्यकी नही।
अपि च, उसे कटस्थ नित्य माननेपर उसके वक्तापन बनता भी नही है, क्योकि उसको सिद्ध करनेवाला प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण नही है। आगमको प्रमाण माननेपर अन्योन्याश्रय दोप होता है।
-१७९ -
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
५ भोक्तृत्वाभावसिद्धि
___ वस्तुको सर्वथा नित्य मानना भी ठीक नहीं है, क्योकि उस हालतमे आत्माके कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो नही बन सकते हैं । कर्तृत्व माननेपर भोक्तृत्व और भोक्तृत्व माननेपर कर्तृत्वके अभावका प्रसग आता है, क्योकि ये दोनों धर्म आत्मामें एक साथ नही होते--क्रमसे होते हैं और क्रमसे उन्हें स्वीकार करनेपर वस्तु नित्य नही रहती । कारण, कर्तृत्वको छोडकर भोक्तृत्व और भोक्तृत्वको त्यागकर कर्तृत्व होता है और ये दोनो ही आत्मासे अभिन्न होते हैं। यदि उन्हें भिन्न मानें तो 'वे आत्माके हैं अन्यके नही' यह व्यवहार उत्पन्न नही हो सकता। यदि कहा जाय कि उनका आत्माके साथ समवाय सम्बन्ध है और इसलिये 'वे आत्माके हैं, अन्यके नही' यह व्यपदेश हो जाता है तो यह कहना योग्य नहीं है, क्योकि उक्त समवाय प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे प्रतीत नही होता । यदि प्रत्यक्षसे प्रतीत होता तो उसमें विवाद हो नहीं होता, किंतु विवाद देखा जाता है।
योग--आगमसे समवाय सिद्ध है, अत उक्त दोष नही है ?
जैन--नही, जिस आगमसे वह सिद्ध है उसकी प्रमाणता अनिश्चित है । अत उससे समवायकी सिद्धि बतलाना असगत है।
योग-समवायको सिद्धि निम्न अनुमानसे होती है ---'इन शाखाओमें यह वृक्ष है' यह वृद्धि सम्बन्धपूर्वक है, क्योकि वह 'इहेद' बुद्धि है। जैसे 'इस कुण्हमें यह दही है' यह बुद्धि । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार 'इस कुण्डमें यह दहो है' यह ज्ञान सयोगसम्बन्धके निमित्तसे होता है इसी प्रकार 'इन शाखाओंमें यह वृक्ष है', यह ज्ञान भो समवायसम्बन्धपूर्वक होता है । अत समवाय अनुमानसे सिद्ध है?
जैन--नही, उक्त हेतु 'इस वनमें यह आम्रादि हैं' इस ज्ञान के साथ व्यभिचारी है क्योकि यह ज्ञान 'इहेद' रूप तो है किन्तु किसी अन्य सम्बन्ध-पूर्वक नहीं होता और न योगोंने उनमें समवाय या अन्य सम्बन्ध स्वीकार किया भो है । केवल उसे उन्होने अन्तरालाभावपूर्वक प्रतिपादन किया है और यह प्रकट है कि अन्तरालाभाव सम्बन्ध नही है । अत इस अन्तरालाभावपूर्वक होनेवाले 'इहेद' रूप ज्ञानके साथ उक्त देत व्यभिचारी होनेसे उसके द्वारा समवायकी सिद्धि नही हो सकती है।
ऐसी हालतमें बुद्धयादि एव कर्तृत्वादिसे आत्मा भिन्न ही रहेगा और तब जड आत्मा धर्मकर्ता अथवा फल-भोक्ता कैसे बन सकता है ? अत क्षणिकैकान्तको तरह नित्यकान्तका मानना भी निष्फल है ।
अपि च, आप यह बतलाइये कि समवाय क्या काम करता है ? आत्मा और बुद्धधादिमें अभेद करता। है अथवा उनके भेदको मिटाता है ? अन्य विकल्प सम्भव नही है ? प्रथम पक्षमें बुद्धधादकी तरह आत्म अनित्य हो जायगा अथवा आत्माकी तरह बुधादि नित्य हो जायेंगे, क्योकि दोनो अभिन्न है । दूसरे पक्षमें आत्मा और बुद्धधादिके भेद मिटनेपर घट-पटादिकी तरह वे दोनो स्वतत्र हो जायेंगे । अत समवायसे पहले इनमें न तो भेद ही माना जा सकता है और न अभेद ही, क्योंकि उक्त दूषण आते है। तथा भेदाभेद उनमें आपने स्वीकार नहीं किया तब समवायको मानने से क्या फल है?
योग-भेदको हमने अन्योन्याभावरूप माना है अत आत्मा और वृद्धयादिमें स्वतत्रपनेका प्रसग
नही आता?
जैन-यह कहना भी आपका ठीक नहीं है, क्वोकि अन्योन्यामावमें भी घट-पटादिकी तरह स्वतन्त्रता ही बद मिट नही सकती। यदि वह मिट भी जाय तो अभेद होनेसे उक्त नित्यता-अनित्यताका दोष
वदवस्थित है।
-१७८
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
बौद्ध-बात यह है कि पिता-पुत्रमें देश-कालकी अपेक्षासे होनेवाला नैरन्तर्य नही है और उसके न होनेसे उनमे उपादानोपादेयभाव नहीं है । किन्तु पूर्वोत्तर क्षणोमें नैरन्तर्य होनेसे उपादानोपादेयभाव है ?
जैन-यह कहना भी युक्त नहीं है, कारण बौद्धोके यहाँ स्वलक्षणरूप क्षणोसे भिन्न देशकाला दिको नही माना गया है और तब उनकी अपेक्षासे कल्पित नैरन्तर्य भी उनके यहाँ नही बन सकता है। अत उससे उक्त क्षणों में उपादानोपादेयभावकी कल्पना और पिता-पुत्र में उसका निषेध करना सर्वथा असगत है।
अत कार्यकारणरूपसे सर्वथा भिन्न भी क्षणोमे कार्यकारणभावकी सिद्धिके लिये उनमें एक अन्वयो द्रव्यरूप सन्तान अवश्य स्वीकार करना चाहिए।
एक बात और है। जब आप क्षणोमें निर्बाध प्रत्ययसे भेद स्वीकार करते है तो उनमें निर्वाध प्रत्ययसे ही अभेद (एकत्व-एकपना) भी मानना चाहिए, क्योकि वे दोनो ही वस्तुमें सुप्रतीत होते हैं।
यदि कहा जाय कि दोनोमे परस्पर विरोध होनेमे वे दोनो वस्तुमे, नही माने जा सकते हैं तो यह कहना भी सम्यक नहीं है, क्योकि अनुपलभ्यमानोमे विरोध होता है, उपलभ्यमानोमें नही । और भेद अभेद दोनो वस्तुमें उपलब्ध होते हैं। मत भेद और अभेद दोनो रूप वस्तु मानना चाहिए।
यहां एक बात और विचारणीय है। वह यह कि आप (बौद्धो) के यहाँ सत् कार्य माना गया है या असत् कार्य ? दोनो ही पक्षोमें आकाश तथा खरविपाणकी तरह कारणापेक्षा सम्भव नहीं है।
__यदि कहें कि पहले असत् और पीछे सत् कार्य हमारे यहाँ माना गया है तो आपका धाणिकत्व सिद्धान्त नही रहता, क्योकि वस्तु पहले और पीछे विद्यमान रहनेपर ही वे दोनो (सत्त्व और असत्त्व) वस्तु के बनते है। किन्तु स्याद्वादी जैनोके यहाँ यह दोष नहीं है, कारण वे कार्यको व्यक्ति (विशेष) रूपसे असत् और सामान्यरूपसे सत् दोनो रूप स्वीकार करते है और इस स्वीकारसे उनके किसी भी सिद्धान्तका घात नही होता । अत इससे भी वस्तु नानाधर्मात्मक सिद्ध है।
बौद्धोने जो चित्रज्ञान स्वीकार किया है उसे उन्होने नानात्मक मानते हए कार्यकारणतादि अनेकधर्मात्मक प्रतिपादन किया है। इसके सिवाय, उन्होने रूपादिका भी नानाशक्त्यात्मक बतलाया है। एक रूपक्षण अपने उत्तरवर्ती रूपक्षणमें उपादान तथा रसादिक्षणमें सहकारी होता है और इस तरह एक ही रूपादि क्षणमें उपादानत्व और सहकारित्व दोनो शक्तियां उनके द्वारा मानी गई है।
यदि रूपादि क्षण सर्वथा भिन्न हो, उनमें कथचिद् भी अभेद-एकपना न हो, तो सतान, सादृश्य साध्य, साधन और उनकी क्रिया ये एक भी नही बन सकते हैं। न ही स्मरण, प्रत्यभिज्ञा आदि बन सकते है अत क्षणोकी अपेक्षा अनेकान्त और अन्वयो रूपकी अपेक्षा एकान्त दोनो वस्तुमें सिद्ध है। एक हो हेतु अपने साध्यकी अपेक्षा गमक और इतरकी अपेक्षा अगमक दोनो रूप देखा जाता है। वास्तवमे यदि वस्तु एकानेकात्मक न हो तो स्मरणादि असम्भव हैं । अत स्मरणादि अन्यथानुपपत्तिके बलसे वस्तु अनेकान्तात्मक प्रसिद्ध होती है और अन्यथानपपत्ति ही हेतकी गमकतामें प्रयोजक है, पक्षधर्मत्वादि नही । कृत्तिकोदय हेतुमे पक्षधमत्व नहीं है किंतु अन्यथानुपपत्ति है, अत उसे गमक स्वीकार किया गया है। और तत्पुत्रत्वादि हेतुमें पक्षधर्मत्वादि तीनो हैं, पर अन्यथानुपपत्ति नही है और इसलिये उसे गमक स्वीकार नहीं किया गया है।
अतएव हेतु, साध्य, स्मरण, प्रत्यभिज्ञा आदि चित्तक्षणोमे एकपनेके बिना नही बन सकते हैं, इस लिये वस्तु में क्रमसे अनेकान्त भी सहानेकान्तकी तरह सुस्थित होता है ।
-१७७
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन-यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योकि विकल्पको आपने अप्रमाण माना है। अपि च, यह कल्पनात्मक व्यावृत्ति वस्तुओमें सम्भव नही है अन्यथा वस्तु और अवस्तुमें साङ्कर्य हो जायगा ।
____ इसके सिवाय, खण्डादिमें जिस तरह अगोनिवृत्ति है उसी तरह गुल्मादिमें भी वह है, क्योकि उसमें कोई भेद नही है-भेद तो वस्तुनिष्ठ है और व्यावृत्ति अवस्तु है । और उस हालतमें 'गायको लामो' कहनेपर जिसप्रकार खण्डादिका आनयन होता है उसीप्रकार गुल्मादिका भी आनयन होना चाहिये ।
यदि कहा जाय कि 'अगोनिवृत्तिका खण्डादिमें सकेत है, अत 'गायको लाओ' कहनेपर खण्डादिरूप गायका ही आनयन होता है, गुल्मादिका नही, क्योकि वे अगो है-गो नहीं हैं' तो यह कहना भी सगत नही है, कारण अन्योन्याश्रय दोष प्रसक्त होता है। खण्डादिमें गोपना जब सिद्ध हो जाय तो उससे गुल्मादिमें अगोपना सिद्ध हो और उनके अगो सिद्ध होनेपर खण्डादिमें गोपना की सिद्धि हो।
अगर यह कहें कि 'वहनादि कार्य खण्हादिमें ही सम्भव है, अत 'गो' का व्यपदेश उन्हीमें होता है, गुल्मादिकमें नही' तो यह कहना भी युक्तियुक्त नही है, क्योकि वह कार्य भी उक्त गुल्मादिमें क्यो नही होता, क्योकि उस कार्यका नियामक अपोह ही है और वह अपोह सब जगह अविशिष्ट-समान है।
तात्पर्य यह कि अपोहकृत वस्तुमें धर्मभेदकी कल्पना उचित नहीं है, किन्तु स्वरूपत ही उसे मानना सगत है । अत जिस प्रकार एक ही चित्त पूर्व क्षणकी अपेक्षा कार्य और उत्तर क्षणकी अपेक्षा कारण होनेसे एक साथ उसमें कार्यता और कारणतारूप दोनों धर्म वास्तविक सिद्ध होते हैं उसी प्रकार सब वस्तुएँ युगपत् अनेकधर्मात्मक सिद्ध है। ४ क्रमानेकान्तसिद्धि
पूर्वोत्तर चित्तक्षणोमें यदि एक वास्तविक अनुस्यूतपना न हो तो उनमें एक सन्तान स्वीकार नही की जा सकती है और सन्तानके अभावमें फलाभाव निश्चित है क्योंकि करनेवाले चित्तक्षणसे फलभोगनेवाला चित्तक्षण भिन्न है और इसलिये एकत्वके बिना 'कर्ताको ही फलप्राप्ति' नही हो सकती।
यदि कहा जाय कि 'पूर्व क्षण उत्तर क्षणका कारण है, अत उसके फलप्राप्ति हो जायगी' तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कारणकार्यभाव तो पिता-पुत्र में भी है और इसलिये पुत्रकी क्रियाका फल पिताको भी प्राप्त होनेका प्रसग आयेगा।
बौद्ध-पिता-पुत्र में उपादानोपादेयभाव न होनेसे पुत्रकी क्रियाका फल पिताको प्राप्त नही हो सकता। किन्तु पूर्वोत्तर क्षणोमे तो उपादानोपादेयभाव मौजूद है, अत उनके फलका अभाव नहीं हो सकता?
जैन-यह उपादानोपादेयभाव सर्वथा भिन्न पूर्वोत्तर क्षणोकी तरह पिता-पुत्रमें भी क्यो नही है, क्योकि भिन्नता उभयत्र एक-सी है। यदि उसमें कथचिद् अभेद मानें तो जैनपने का प्रसग आवेगा, कारण जैनोने ही कथंचिद् अभेद उनमें स्वीकार किया है, बौद्धोने नही ।
बौद्ध-पिता-पुत्रमें सादृश्य न होनेसे उनमें उपादानोपादेयभाव नही है, किन्तु पूर्वोत्तर क्षणोमें तो सादृश्य पाया जानेसे उनमें उपादानोपादेयभाव है । अत उक्त दोष नही है ?
जैन-यह कथन भी सगत नही है, क्योकि उक्त क्षणोमें सादृश्य माननेपर उनमे उपादानोपादेयभाव नही बन सकता। सादृश्यमें तो वह नष्ट ही हो जाता है । वास्तवमें सदृशता उनमें होती है जो भिन्न होते हैं और उपादानोपादेयभाव अभिन्न (एक) में होता है।
-१७६
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
योग - पृथक्त्वगुणसे उनमें भेद वन जाता है अत अभेद होनेका प्रसंग नहीं आता और न फिर उसमें उक्त दोष रहता है ?
जैन--नही, पृथक्त्वगुणसे भेद माननेपर पूर्ववत् आत्मा और बुधयादिमें घटादिको तरह भेद प्रसक्त होगा ही ।
एक बात और है। समवायसे आत्मामें बुद्धधादिका सम्बन्ध माननेपर मुक्त जीवमें भी उनका सम्बन्ध मानना पडेगा, क्योकि यह व्यापक और एक है।
योग - बुद्धादि अमुक्त - प्रभव धर्म है, अश मुक्तोमें उनके सम्बन्धका प्रसग खडा नही हो सकता है ?
जैन- नहीं, बुद्धधादि मुपतप्रभव धर्म क्यों नहीं हैं, इसका क्या समाधान है ? क्योकि बुद्धधाविका जनक आत्मा है और वह मुक्त तथा अमुक्त दोनो अवस्थाओमें समान है । अन्यथा जनकस्वभावको छोडने और अजनकस्वभावको ग्रहण करनेसे आत्माके नित्यपनेका अभाव आवेगा ।
योग - बुद्धयादि अमुक्त समवेतधर्म हैं, इसलिये वे अमुक्त प्रभव --- मुक्तप्रभव नही है ?
जैन — नही, क्योकि अन्योन्याश्रय दोष आता है । बुद्धयादि जब अमुक्तसमवेत सिद्ध हो जाये तब
-
वे अमुक्त प्रभवमिद्ध हो और उनके अमुक्तप्रभव सिद्ध होनेपर वे अमुक्त समवेत सिद्ध हो। अत समवायसे आत्मा तथा बुद्धधादिमें अभेदादि माननेमें उपरा दूषण आते हैं और ऐसी दशामें वस्तुको सर्वथा नित्य माननेपर धर्मको फलका अभाव सुनिश्चित है।
६ सर्वज्ञाभावसिद्धि
नित्यैकान्तका प्रणेता- उपदेशक भी सर्वज्ञ नही है, क्योकि वह समीचीन अर्थका कथन करनेवाला नही है। दूसरी बात यह है कि यह सरागी भी है। अत हमारी तरह दूसरोको भी उसकी उपासना करना योग्य नहीं है ।
सोचने की बात है कि जिसने अविचारपूर्वक स्त्री आदिका अपहरण करनेवाला तथा उसका नाश करनेवाला दोनो बनाये वह अपनी तथा दूसरोंकी अन्योसे कैसे रक्षा कर सकता है ?
साथ ही जो उपद्रव एव झगडे कराता है वह विचारक तथा सर्वज्ञ नही हो सकता । यह कहना युक्त नहीं कि वह उपद्रवरहित है, क्योकि ईश्वरके कोपादि देखा जाता है ।
अत यदि ईश्वरको आप इन सब उपद्रवोंसे दूर वीतराग एव सर्वज्ञ मानें तो उसीको उपास्य भी स्वीकार करना चाहिये, अन्य दूसरेको नही । रत्नका पारखी काचका उपासक नही होता ।
यह वीतराग - सर्वज्ञ ईश्वर भी निरुपाय नही है । अन्यथा वह न वक्ता बन सकता है और न सशरीरी । उसे वक्ता माननेपर वह सदा वक्ता रहेगा -- अवक्ता कभी नही बन सकेगा ।
यदि कहा जाय कि वह वक्ता और अवक्ता दोनो है, क्योकि वह परिणामी है तो यह कहना भी ठीक नही है । कारण, इस तरह वह नित्यानित्यरूप सिद्ध होनेसे स्याद्वादकी ही सिद्धि करेगा - कूटस्थ नित्यकी नही ।
अपि च, उसे कूटस्य नित्य माननेपर उसके वक्तापन वनता भी नही है, क्योकि उसको सिद्ध करनेवाला प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण नही है | आगमको प्रमाण माननेपर अन्योन्याश्रय दोष होता है ।
- १७९ -
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
५ भोक्तृत्वाभावसिद्धि
वस्तु को सर्वथा नित्य मानना भी ठीक नहीं है, क्योकि उस हालतमें आत्माके कर्तृत्व और भोक्तृत्व दोनो नही बन सकते है । कर्तृत्व माननेपर भोक्तृत्व और भोक्तृत्व माननेपर कर्तृत्वके अभावका प्रसग आता है, क्योकि ये दोनो धर्म आत्मामें एक साथ नहीं होते-कमसे होते हैं और क्रमसे उन्हें स्वीकार करनेपर वस्तु नित्य नही रहती । कारण, कर्तृत्वको छोडकर भोक्तृत्व और भोक्तृत्वको त्यागकर कर्तृत्व होता है और ये दोनो ही आत्मासे अभिन्न होते हैं। यदि उन्हें भिन्न मानें तो 'वे आत्माके है अन्यके नहीं' यह व्यवहार उत्पन्न नही हो सकता। यदि कहा जाय कि उनका आत्माके साथ समवाय सम्बन्ध है और इसलिये 'वे आत्माके है, अन्यके नही' यह व्यपदेश हो जाता है तो यह कहना योग्य नहीं है, क्योकि उक्त समवाय प्रत्यक्षादि किसी भी प्रमाणसे प्रतीत नही होता । यदि प्रत्यक्षसे प्रतीत होता तो उसमें विवाद ही नही होता, किंतु विवाद देखा जाता है।
योग--आगमसे समवाय सिद्ध है, अत' उक्त दोप नही है ?
जैन--नही, जिस आगममे वह सिद्ध है उसकी प्रमाणता अनिश्चित है । अत उससे समवायकी सिद्धि बतलाना असगत है।
योग-समवायकी सिद्धि निम्न अनुमानसे होती है -'इन शाखाओमें यह वृक्ष है' यह बुद्धि सम्बन्धपूर्वक है, क्योकि वह 'इहेद' बुद्धि है । जैसे 'इस कुण्डमें यह दही है' यह बुद्धि । तात्पर्य यह कि जिस प्रकार 'इस कुण्डमें यह दहो है' यह ज्ञान सयोगसम्बन्धके निमित्तसे होता है इसी प्रकार 'इन शाखाओंमें यह वक्ष है', यह ज्ञान भो समवायसम्बन्धपूर्वक होता है । अत समवाय अनुमानसे सिद्ध है?
जैन--नही, उक्त हेतु 'इस वन में यह आम्रादि हैं' इस ज्ञान के साथ व्यभिचारी है क्योकि यह ज्ञान 'इहेद' रूप तो है किन्तु किसी अन्य सम्बन्ध-पूर्वक नहीं होता और न यौगोंने उनमें समवाय या अन्य सम्बन्ध स्वीकार किया भो है । केवल उसे उन्होने अन्तरालाभाषपूर्वक प्रतिपादन किया है और यह प्रकट है कि अन्तरालाभाव सम्बन्ध नहीं है । अत इस अन्तरालाभावपूर्वक होनेवाले 'इहेद' रूप ज्ञानके साथ उक्त हेतु व्यभिचारी होनेसे उसके द्वारा समवायको सिद्धि नही हो सकती है।
ऐसी हालतमें बुद्धघादि एव कर्तृत्वादिसे आत्मा भिन्न ही रहेगा और तब जड आत्मा धर्मकर्ता अथवा फल-भोक्ता कैसे बन सकता है ? अत क्षणिकैकान्तकी तरह नित्य कान्तका मानना भी निष्फल है।
अपि च, आप यह बतलाइये कि समवाय क्या काम करता है ? आत्मा और बुद्धधादिमें अभेद करता है अथवा उनके भेदको मिटाता है ? अन्य विकल्प सम्भव नही है ? प्रथम पक्षमें वुद्धघादकी तरह आत्म अनित्य हो जायगा अथवा आत्माको तरह बुद्धघादि नित्य हो जायेंगे, क्योकि दोनो अभिन्न है । दूसरे पक्षम आत्मा और बुद्धयादिके भेद मिटनेपर घट-पटा दिकी तरह ये दोनो स्वतत्र हो जायेंगे । अत समवायसे पहले इनमें न तो भेद ही माना जा सकता है और न अभेद ही, क्योंकि उक्त दूपण आते हैं। तथा भेदाभेद उनमें आपने स्वीकार नही किया तब समवायको मानने से क्या फल है ?
योग-भेदको हमने अन्योन्याभावरूप माना है अत आत्मा और बुद्धधादिमें स्वतत्रपनेका प्रसग नही आता?
जैन-यह कहना भी आपका ठीक नही है, क्वोकि अन्योन्याभावमें भी घट-पटादिकी तरह स्वतन्त्रता रहेगी-वह मिट नही सकती। यदि वह मिट भी जाय तो अभेद होनेसे उक्त नित्यता-अनित्यताका दोष तदवस्थित है।
-१७८
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
योग-पृथक्त्वगुणसे उनमें भेद बन जाता है अत अभेद होनेका प्रसंग नही आता और न फिर उसमें उक्त दोप रहता है ?
जैन-नही, पृथक्त्वगुणसे भेद माननेपर पूर्ववत् आत्मा और बुययादिमें घटादिकी तरह भेद प्रसक्त होगा ही।
___एक बात और है। समवायसे आत्मामें बुद्धयादिका सम्बन्ध माननेपर मुक्त जीवमें भी उनका सम्बन्ध मानना पडेगा, क्योंकि वह व्यापक और एक है ।
यौग-बुद्धयादि अमुक्त-प्रभव धर्म हैं, ॥ मुक्तोमें उनके सम्बन्धका प्रसग खडा नहीं हो सकता है ?
जैन-नही, वुद्धयादि मुवतप्रभव धर्म क्यों नहीं है, इसका क्या समाधान है ? क्योकि वृद्धयादिका जनक आत्मा है और वह मुक्त तथा अमुक्त दोनो अवस्थामोमें समान है। अन्यथा जनकस्वभावको छोडने और अजनकस्वभावको ग्रहण करनेसे आत्माके नित्यपनेका अभाव आवेगा।
योग-वुद्धयादि अमुक्त समवेतधर्म हैं, इसलिये वे अमुक्त-प्रभव- मुक्तप्रभव नहीं है ?
जैन-नही, क्योकि अन्योन्याश्रय दोप आता है । वुद्धयादि जब अमुक्तसमवेत सिद्ध हो जाये तब वे अमुक्त-प्रभव सिद्ध हो और उनके अमुक्तप्रभव सिद्ध होनेपर वे अमुक्त-समवेत सिद्ध हो । अत समवायसे आत्मा तथा बुधादिमें अभेदादि मानने में उक्त दूषण आते हैं और ऐमी दशामें वस्तुको सर्वथा नित्य माननेपर धर्मकर्ताक फलका अभाव सुनिश्चित है । ६ सर्वज्ञाभावसिद्धि
नित्यकान्तका प्रणेता-उपदेशक भी सर्वज्ञ नही है, क्योकि वह समीचीन अर्थका कथन करनेवाला नही है । दूसरी बात यह है कि वह सरागी भी है । अत. हमारी तरह दूसरोको भी उसकी उपासना करना योग्य नहीं है।
सोचनेकी बात है कि जिसने अविचारपूर्वक स्त्री आदिका अपहरण करनेवाला तथा उसका नाश करनेवाला दोनो बनाये वह अपनी तथा दूसरोंकी अन्योसे कैमे रक्षा कर सकता है ?
साथ ही जो उपद्रव एव झगडे कराता है वह विचारक तथा सर्वज्ञ नही हो सकता। यह कहना ययत नही कि वह उपद्रवरहित है, क्योकि ईश्वरके कोपादि देखा जाता है।
मत यदि ईश्वरको आप इन सव उपद्रवोंसे दूर वीतराग एव सर्वज्ञ मानें तो उसीको उपास्य भी स्वीकार करना चाहिये, अन्य दूसरेको नही । रत्नका पारखी काचका उपासक नही होता।
___ यह वीतराग-सर्वज्ञ ईश्वर भी निरुपाय नही है । अन्यथा वह न वक्ता बन सकता है और न सपारीरी। उसे वक्ता मानने पर वह सदा वक्ता रहेगा-अवक्ता कभी नही वन सवेगा।
यदि कहा जाय कि वह वक्ता और अवक्ता दोनो है, क्योंकि वह परिणामी है तो यह कहना भी ठीक नहीं है। कारण, इस तरह वह नित्यानित्यरूप सिद्ध होनेसे स्याद्वादको ही सिद्धि करेगा-फूटस्थ नित्यफो नही।
अपि च, उसे कूटस्थ नित्य मानने पर उसके वक्तापन बनता भी नहीं है, क्योकि उसको सिद्ध करनेवाला प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण नही है। आगमको प्रमाण माननेपर अन्योन्याश्रय दोष होता है।
-१७९ -
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्पष्ट है कि जब वह सर्वज्ञ सिद्ध हो जाय तो उसका उपदेशरूप आगम प्रमाण सिद्ध हो और जब आगम प्रमाण सिद्ध हो तब वह सर्वज्ञ सिद्ध हो।
इसी तरह शरीर भी उसके नही बनता है।
यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य है कि वेदरूप मागम प्रमाण नही है क्योकि उसमे परस्पर-विरोधी अर्थोका कथन पाया जाता है। सभी वस्तुओको उसमें सर्वथा भेदरूप अथवा सर्वथा अभेदरूप बतलाया गया है। इसी प्रकार प्रामाकर वेदवाक्यका अर्थ नियोग, भाद्र भावना और वेदान्ती विधि करते है और ये तीनों परस्पर सर्वथा भिन्न है। ऐसी हालतमें यह निश्चय नहीं हो सकता कि अमुक अर्थ प्रमाण है और अमुक नही।
अत वेद भी निरुपाय एव अशरीरी सर्वज्ञका साधक नहीं है और इसलिये नित्य कान्तमें सर्वज्ञका भी अभाव सुनिश्चित है। ७ जगत्वतत्वाभावमिद्धि
किन्तु हां, सोपाय वीतराग एव हितोपदेशी सर्वज्ञ हो सकता है क्योकि उसका साधक अनुमान है। वह अनुमान यह है
___ 'कोई पुरुप समस्त पदार्थोंका साक्षात्कर्ता है, क्योकि ज्योतिपशास्त्रादिका उपदेश अन्यथा नहीं हो सकता।' इस अनुमानसे सर्वज्ञकी सिद्धि होती है।
पर ध्यान रहे कि यह अनुमान अनुपाय सिद्ध सर्वज्ञका साधक नहीं है, क्योकि वह वक्ता नही है । सोपायमुक्त बुद्धादि यद्यपि वक्ता है किन्तु उनके वचन सदोष होनेसे वे भी सर्वज्ञ सिद्ध नहीं होते।
दूसरे, बौद्धोने वुद्धको 'विधूतकल्पनाजाल' अर्थात् कल्पनाओंसे रहित कहकर उन्हें अवक्ता भी प्रकट किया है और अवक्ता होनेसे वे सर्वज्ञ नहीं है।
तथा यौगो (नैयायिको और वैशेषिको) द्वारा अभिमत महेश्वर भी स्व-पर-द्रोही दैत्यादिका स्रष्टा होनेसे सर्वज्ञ नही है।
योग-महेश्वर जगत्का कर्ता है, अत वह सर्वज्ञ है, क्योकि बिना सर्वज्ञताके उससे इस सुव्यवस्थित एव सुन्दर जगत्की सृष्टि नही हो सकती है ?
जैन-नही, क्योकि महेश्वरको जगत्कर्ता सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है।
योग-निम्न प्रमाण है-'पर्वत आदि बुद्धिमानद्वाग बनाये गये हैं, क्योकि वे कार्य है तथा जडउपादान-जन्य है। जैसे घटादिक ।' जो बुद्धिमान उनका कर्ता है वह महेश्वर है। वह यदि असर्वज्ञ हो तो पर्वतादि उक्त कार्योंके समस्त कारकोका उसे परिज्ञान न होनेसे वे असुन्दर, अव्यवस्थित और बेडौल भी उत्पन्न हो जायेंगे । अत पर्वतादिका बनानेवाला सर्वज्ञ है ?
जैन-यह कहना भी सम्यक् नही है, क्योकि यदि वह सर्वज्ञ होता तो वह अपने तथा दूसरोंके घातक दैत्यादि दुष्ट जीवोकी सृष्टि न करता। दूसरी बात यह है कि उसे आपने अशरीरी भी माना है पर बिना शरीरके वह जगत्का कर्ता नहीं हो सकता। यदि उसके शरीरकी कल्पना की जाय तो महेश्वरका ससारी होना, उस शरीरके लिये अन्य-अन्य शरीरकी कल्पना करना आदि अनेक दोष आते हैं । अत महेश्वर जगत्का कर्ता नही है और तब उसे उसके द्वारा सर्वज्ञ सिद्ध करना अयुक्त है।
-१८०
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
८ अर्हत्सर्वज्ञसिद्धि
इस तरह न बुद्ध सर्वज्ञ सिद्ध होता है और न महेश्वर आदि । पर ज्योतिषशास्त्रादिका उपदेश सर्वज्ञके बिना सम्भव नही है, अत अन्ययोगव्यवच्छेद द्वारा अर्हन्त भगवान् ही सर्वज्ञ सिद्ध होते हैं।
मीमासक-अर्हन्त वक्ता है, पुरुष है और प्राणादिमान् हैं, अत हम लोगोकी तरह वे भी सर्वज्ञ नहीं है ?
जैन-नही, क्योकि वक्तापन आदिका सर्वज्ञपनेके साथ विरोध नही है । स्पष्ट है कि जो जितना अधिक ज्ञानवान होगा वह उतना हो उत्कृष्ट वक्ता आदि होगा। आपने भी अपने मीमासादर्शनकार जैमि. निको उत्कृष्ट ज्ञानके साथ ही उत्कृष्ट वक्ता आदि स्वीकार किया है।
मीमासक-अर्हन्त वीतराग हैं, इसलिये उनके इच्छाके बिना वचनप्रवृत्ति नही हो सकती है ?
जैन-यह कहना भी ठीक नही है, क्योकि इच्छाके बिना भी सोते समय अथवा गोत्रस्खलन आदिमें वचनप्रवृत्ति देखी जाती है और इच्छा करनेपर भी मूर्ख शास्त्रवक्ता नही हो पाता। दूसरे, सर्वज्ञके निर्दोष इच्छा मानने में भी कोई बाधा नही है और उस दशामें अर्हन्त भगवान् वक्ता सिद्ध है।
मीमासक--अर्हन्तके वचन प्रमाण नही हैं, क्योकि वे पुरुषके वचन है, जैसे बुद्धके वचन ?
जैन--यह कथन भी सम्यक् नही है, क्योकि दोषवान् वचनोको ही अप्रमाण माना गया है, निर्दोष वचनोको नही । अत अर्हन्तके वचन निर्दोष होनेसे प्रमाण है और इसलिये वे ही सर्वज्ञ सिद्ध है। ९ अर्थापत्तिप्रामाण्यसिद्धि
सर्वज्ञको सिद्ध करने के लिये जो 'ज्योतिषशास्त्रादिका उपदेश सर्वज्ञके बिना सम्भव नही है' यह अर्थापत्ति प्रमाण दिया गया है उसे मीमासकोकी तरह जैन भी प्रमाण मानते हैं, अत उसे अप्रमाण होने अथवा उसके द्वारा सर्वज्ञ सिद्ध न होनेकी शका निर्मूल हो जाती है। अथवा, अर्थापत्ति अनुमानरूप ही है। और अनुमान प्रमाण है।
यदि कहा जाय कि अनुमानमें तो दृष्टान्तकी अपेक्षा होती है और उसके अविनाभावका निर्णय दृष्टान्तमें ही होता है किन्तु अर्यापत्तिमें दृष्टान्तकी अपेक्षा नही होती और न उमके अविनाभावका निर्णय दृष्टान्तमें होता है अपितु पक्ष मे ही होता है, तो यह कहना ठीक नही, क्योकि दोनोमें कोई भेद नही हैदोनो ही जगह अविनाभावका निश्चय पक्षमें ही किया जाता है। सर्व विदित है कि अद्वैतवादियोके लिये प्रमाणोका अस्तित्व सिद्ध करने के लिये जो 'इष्टसाधन' रूप अनुमान प्रमाण दिया जाता है उसके अविनाभावका निश्चय पक्षमें ही होता है क्योकि वहां दृष्टान्तका अभाव है । अत जिस तरह यहाँ प्रमाणोके अस्तित्वको सिद्ध करने में दृष्टान्तके विना भी पक्षमें ही अविनाभावका निर्णय हो जाता है उसी तरह अन्य हेतुओमें भी समझ लेना चाहिए। तथा इस अविनाभावका निर्णय विपक्ष में बाधक प्रमाणके प्रदर्शन एव तकसे होता है। प्रत्यक्षादिसे उसका निर्णय असम्भव है और इसी लिये व्याप्ति एव अविनाभावको ग्रहण करने रूपसे तर्कको पृथक् प्रमाण स्वीकार किया गया है । अत अर्थापत्ति अप्रमाण नही है। १० वेदपौरुषेयत्वसिद्धि
मीमासक-ज्योतिषशास्त्रादिका उपदेश अपौरुषेय वेदसे सभव है, अत उसके लिये सर्वज्ञ स्वीकार करना उचित नहीं है?
-१८१ -
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
जन-नही, क्योकि वेद पद-वाक्यादिरूप होनेसे पौरुषेय है, जैसे भारत आदि शास्त्र ।
मीमासक-वेदमें जो वर्ण हैं वे नित्य हैं, अत उनके समूहरूप पद और पदोके समूहरूप वाक्य नित्य होनेसे उनका समूहरूप वेद भी नित्य है-वह पौरुषेय नही है ?
जैन-नही, क्योकि वर्ण भिन्न-भिन्न देशो और कालोमें भिन्न-भिन्न पाये जाते हैं, इसलिये वे अनित्य हैं। दूसरे, ओठ, तालु, आदिके प्रयत्नपूर्वक वे होते हैं और जो प्रयत्नपूर्वक होता है वह अनित्य माना गया है । जैसे घटादिक ।
मोमासक-प्रदीपादिकी तरह वर्णों की ओठ, ताल आदिके द्वारा अभिव्यक्ति होती है-उत्पत्ति नही । दूसरे, 'यह वही गकारादि हैं' ऐसी प्रसिद्ध प्रत्यभिज्ञा होनेसे वर्ण नित्य हैं ?
जैन-नही, ओठ, ताल आदि वर्णोके व्यजक नही है वे उनके कारक हैं । जैसे दण्डादिक घटादिके कारक हैं। अन्यथा घटादि भी नित्य हो जायेंगे। क्योकि हम भी कह सकते हैं कि दण्डादिक घटादि के
है कारक नही। दूसरे, वही मैं है' इस प्रत्यभिज्ञासे एक आत्माकी भी सिद्धिका प्रसग आवेगा । यदि इसे भ्रान्त कहा जाय तो उक्त प्रत्यभिज्ञा भी भ्रान्त क्यों नही कही जा सकती है।
मीमासक-आप वर्णोको पुद्गलका परिणाम मानते हैं किन्तु जड पुद्गलपरमाणुओका सम्बन्ध स्वय नही हो सकता। इसके सिवाय, वे एक श्रोताके काममें प्रविष्ट हो जानेपर उसी समय अन्यके द्वारा सुने नही जा सकेंगे?
जैन-यह बात तो वर्णोको व्यजक ध्वनियोमें भी लागू हो सकती है । क्योकि वे न तो वर्णरूप है और न स्वय अपनी व्यजक हैं। दूसरे, स्वाभाविक योग्यतारूप सकेतसे शब्दोंको हमारे यहाँ अर्थप्रतिपत्ति कराने वाला स्वीकार किया गया है और लोकमें सब जगह भाषावर्गणाएँ मानी गई है जो शब्द रूप बनकर सभी श्रोताओ द्वारा सुनी जाती हैं ।
मीमासक-'वेदका अध्ययन वेदके अध्ययनपूर्वक होता है. क्योंकि वह वेदका अध्ययन है, जैसे आजकलका वेदाध्ययन।' इस अनुमानसे वेद अपौरुषेय सिद्ध होता है ?
जैन-नही, क्योकि उक्त हेतु अप्रयोजक है-हम भी कह सकते हैं कि "पिटकका अध्ययन पिटकके अध्ययनपूर्वक होता है, क्योकि वह पिटकका अध्ययन है, जैसे आजकलका पिटकाध्ययन ।' इस अनुमानसे पिटक भी अपौरुषेय सिद्ध होता है।
मीमासक-बात यह है कि पिटकमें तो बौद्ध कर्ताका स्मरण करते हैं और इसलिये वह अपौरुषेय सिद्ध नही हो सकता। किन्तु वेदमे कर्ताका स्मरण नही किया जाता, अत वह अपौरुषेय सिद्ध होता है ?
जैन-यह कथन भी ठीक नही है, क्योकि यदि बौद्धोंके पिटक सम्बन्धी कत्तु स्मरणको आप प्रमाण मानते है तो वे वेदमें भी अष्टकादिकको कर्ता स्मरण करते हैं अर्थात् वेदको भी वे सकर्तृक बतलाते हैं, अत उसे भी प्रमाण स्वीकार करिये। अन्यथा दोनोंको अप्रमाण कहिए । अत कर्ताके अस्मरणसे भी वेद अपौरुषेय सिद्ध नहीं होता और उस हालतमें वह पौरुषेय ही सिद्ध होता है । ११ परत प्रामाण्यसिद्धि
मीमासक-वेद स्वत प्रमाण है, क्योंकि सभी प्रमाणोकी प्रमाणता हमारे यहां स्वत ही मानी गई है, मत' वह पौरुषेय नही है?
- १८२
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन- नही, क्योंकि अप्रमाणताकी तरह प्रमाणोकी प्रमाणता भी स्वत नही होती, गुणादि सामग्री से वह होती है । इन्द्रियोके निर्दोष निर्मल होनेमे प्रत्यक्ष में त्रिरूपतासहित हेतुसे अनुमानमें और आप्तद्वारा कहा होनेसे आगममें प्रमाणता मानी गई है और निर्मलता आदि ही 'पर' है, अत प्रमाणताकी उत्पत्ति परसे सिद्ध है और ज्ञप्ति भी अनम्यास दशा में परसे सिद्ध है । हां, अभ्यासदशामें ज्ञप्ति स्वत होती हैं । अत परसे प्रमाणता सिद्ध हो जाने पर कोई भी प्रमाण स्वत प्रमाण सिद्ध नही होता और इसलिये वेद पौरुषेय हैं तथा वह सर्वज्ञका बाधक नहीं है ।
१२ अभावप्रमाणदूषणसिद्धि
अभाव प्रमाण भी सर्वज्ञका बाधक नहीं है, क्योकि भावप्रमाणसे अतिरिक्त अभावप्रमाणकी प्रतीति नही होती प्रकट है कि 'यहाँ घडा नहीं है' इत्यादि जगह जो अभावज्ञान होता है यह प्रत्यक्ष स्मरण गोर अनुमान इन तीन ज्ञानोसे भिन्न नही है। 'यहा' यह प्रत्यक्ष है, 'पढा' यह पूर्व दृष्ट घटेका स्मरण है और 'नही है' यह अनुपलब्धिजन्य अनुमान है । यहा और कोई ग्राह्य है नही, जिसे अभावप्रमाण जाने। दूसरे, वस्तु भावाभावात्मक है और भावको जाननेवाला भावप्रमाण ही उससे अभिन्न अभावको भी जान लेता है, अत उसको जाननेके लिये अभावप्रमाणकी कल्पना निरर्थक है। अतएव वह भी सर्वज्ञका बाचक नहीं है।
१३ तर्कप्रामाण्यसिद्धि
सर्वज्ञका बाधक जब कोई प्रमाण सिद्ध न हो सका तो मीमासक एक अन्तिम शका और उठाता है । वह कहता है कि सर्वज्ञको सिद्ध करनेके लिये जो हेतु ऊपर दिया गया है उसके अविनाभावका शान बसमव है, क्योकि उसको ग्रहण करने वाला तर्क अप्रमाण हैं और उस हालत में अन्य अनुमानसे सर्वज्ञकी सिद्धि नही हो सकती है? पर उसकी यह शका भी निस्सार है क्योकि व्याप्ति (अविनाभाव ) को प्रत्यक्षादि कोई भी प्रमाण ग्रहण करने में समर्थ नही है । व्याप्ति तो सर्वदेश और सर्वकालको लेकर होती है और प्रत्यक्षादि नियत
देश और नियत कालमें ही प्रवृत्त होते हैं । अत व्याप्तिको ग्रहण करने वाला प्रमाण सिद्ध हो जानेपर उक्त सर्वज्ञ साधक हेतुके अविनाभावका ज्ञान उसके द्वारा उक्त हेतु असिद्ध विरुद्ध अनैकान्तिक आदि कोई भी दोष न होनेसे उससे होती है ।
1
3
१४. गुण- गुणीअभेदसिद्धि
तर्क प्रमाण है और उसके पूर्णत सम्भव है। गत सर्वशकी सिद्धि भली भाति
वैशेषिक गुणगुणी आदिमें सर्वथा भेद स्वीकार करते हैं और समवाय सम्बन्धसे उनमें अभेदज्ञान मानते हैं । परन्तु वह ठीक नही है, क्योकि न तो भिन्न रूपसे गुण- गुणी आदिको प्रतीति होती है और न उनमें अभेदज्ञान कराने वाले समवायकी ।
यदि कहा जाय कि इसमें यह है' इस प्रत्ययते समवायकी सिद्धि होती है तो यह कहना भी ठीक नही है, क्योंकि 'इस गुणादिमें सख्या है यह प्रत्यय भी उक्त प्रकारका है किन्तु इस प्रत्ययसे गुणादि और सख्यामें वैशेषिकोने समवाय नही माना । अत उक्त प्रत्यय समवायका प्रसाधक नही है ।
अगर कहें कि दो गन्ध, छह रस, दो सामान्य, बहुत विशेष, एक समवाय इत्यादि जो गुणादिकमें सख्याकी प्रतीति होती है वह केवल औपचारिक है क्योकि उपचारसे ही गुणादिकमें सख्या स्वीकार की गई है, तो उनमें 'पृथक्त्व' गुण भी उपचारसे स्वीकार करिए और उस दशामें अपृथक्त्व उनमें वास्तविक मानना पढ़ेगा, जो वैशेषिको के लिये अनिष्ट है। अत यदि पृथक्त्वको उनमें वास्तविक मानें तो सस्थाको भी गुणादिमें
1
- १८३ -
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
वास्तविक ही मानें । और तब उनमें एक तादात्म्य सम्बन्ध ही सिद्ध होता है-समवाय नही । अतएव गुणादिकको गुणी आदिसे कथचित् अभिन्न स्वीकार करना चाहिए ।
ब्रह्मदूषणसिद्धि
ग्रह्माद्वैतवादियो द्वारा कल्पित ब्रह्म और अविद्या न तो स्वत प्रतीत होते हैं, अनाथा विवाद ही न होता, और न प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणोंसे, क्योकि द्वैतकी सिद्धिका प्रसग आता है । दूसरे, भेदको मिथ्या और अभेदको सम्यक बतलाना युक्तिसगत नही है। कारण, भेद और अभेद दोनो रूप ही वस्तु प्रमाणसे प्रतीत होती है । अत ब्रह्मवाद ग्राह्य नहीं है । अन्तिम उपलब्ध खण्डित प्रकरण
शका-भेद और अभेद दोनो परस्पर विरुद्ध होनेसे वे दोनो एक जगह नहीं बन सकते हैं, अत उनका प्रतिपादक स्याद्वाद भी ग्राह्य नहीं है?
समाधान-नही, क्योकि भिन्न-भिन्न अपेक्षाओसे वे दोनो एक जगह प्रतिपादित है-पर्याथोकी अपेक्षा भेद और द्रव्यको अपेक्षा अभेद बतलाया गया है और इस तरह उनमें कोई विरोध नही है । एक ही रूपादिक्षणको जैसे वौद्ध पूर्व क्षणकी अपेक्षा कारण और उत्तर क्षणकी अपेक्षा कार्य दोनो स्वीकार करते हैं
और इसमें वे कोई विरोध नही मानते । उसी तरह प्रकृतमें भी समझना चाहिए। अन्यापोहकृत उक्त भेद मानने में साकर्यादि दोप आते है। अत स्याद्वाद वस्तुका सम्यक् व्यवस्थापक होनेसे सभीके द्वारा उपादेय एव आदरणीय है।
२. वादीभसिंहसरि (क) वादीभसिंह और उनका समय
ग्रन्थके प्रारम्भमें इस कृतिको वादीभसिंसूरिकी प्रकट किया गया है तथा प्रकरणोके अन्तमें जो समाप्तिपुष्पिकावाक्य दिये गये हैं उनमें भी उसे वादीभसिंहसरिकी ही रचना बतलाया गया है', अत यह निस्सन्देह है कि इस कृतिके रचयिता आचार्य वादीभसिंह है।
अब विचारणीय यह है कि ये वादीभसिंह कौनसे वादीभसिंह है और वे कब हुए हैं --उनका क्या समय है ? आगे इन्ही दोनों बातोपर विचार किया जाता है।
१ आदिपुराणके कर्ता जिनसेनस्वामीने, जिनका समय ई०८३८ है, अपने आदिपुराणमें एक 'वादिसिंह' नामके आचार्यका स्मरण किया है और उन्हें उत्कृष्ट कोटिका कवि, वाग्मी तथा गमक बतलाया है । यथा
कवित्वस्य परा सीमा वाग्मित्वस्य पर पदम् । गमकत्वस्य पर्यन्तो वादिसिंहोऽर्च्यते न कै ॥
१ यथा-'इति श्रीमद्वादीभसिंहसरिविरचिताया स्याद्वादसिद्धी चार्वाक प्रति जीवसिद्धि ॥१॥ इत्यादि ।
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
२ पार्श्वनाथचरितकार वादिराजमरि (ई. १०२५) ने भी पार्श्वनाथचरितमें 'वादिनिह' का समल्लेखन किया है और उन्हें स्याद्वादवाणीकी गर्जना करनेवाला तथा दिन्नाग और धर्मकीर्तिके अभिभानको चूर-चूर करनेवाला प्रकट किया है । यथा
स्याद्वादगिरमाश्रित्य वादिसिंहस्य गजिते ।
दिड्नागस्य मदध्वसे कीर्तिभङ्गो न दुर्घट ॥ ३ श्रवणवेलगोलाकी मल्लिपेणप्रशस्ति (ई० ११२८) मे एक वादीभसिंहमूरि अपरनाम गणभृत (आचार्य) अजितसेनका गुणानुवाद किया गया है और उन्हें स्याद्वादविद्याके पारगामियों द्वारा आदरपूर्वक सतत वन्दनीय और लोगोके भारी आन्तर तमको नाश करने के लिये पृथिवीपर आया दूसरा सूर्य बतलाया गया है। इसके अलावा, उन्हें अपनी गर्जनाद्वारा वादि-नाजोंको शीघ्र चुप करके निग्रहरूपी जीर्ण गड्ढे में पटकनेयाला तथा राजमान्य भी कहा गया है । यधा
वन्दे वन्दितमादरादहरहरस्याद्वादविद्याविदा । स्वान्त-ध्वान्त-वितान-घूनन-विधी भास्वन्तमन्य भुवि । भक्त्या त्वाऽजितसेनमानतिकृता यत्सन्नियोगान्मन - पद्म सद्म भवेद्विकास-विभवस्योन्मुक्त-निद्राभर ॥५४|| मिथ्या-भाषण-भषण परिहरेतीद्धत्यमन्मञ्चत, स्याद्वाद वदतानमेत विनयाद्वादीभकण्ठीरव । नो चेत्तद्गुरुगजित-श्रुति-भय-भ्रान्ता स्थ यूयं यतस्तूण्णं निग्रहजीर्णकूपकुहरे वादि-द्विपा पातिन ॥५५॥ सकल भुवनपालानम्रमूख्ववद्धस्फुरित-मुकुट चूडालीढ-पादारविन्दः । मदवदखिल-वादीभेन्द्र-कुम्भप्रभेदी,
गणभृदजितसेनो भाति वादीभसिंह ॥५७।-शिलालेख न० ५४ (६७) । ४ अष्टसहस्रीके टिप्पणकार लघुसमन्तभद्रने भी अपने टिप्पणके प्रारम्भमें एक वादोभमिहका उल्लेख निम्न प्रकार किया है--
___तदेव महाभागस्ताकिकारपज्ञाता श्रीमता वादीभसिंहेनोपलालितामाप्तमीमासमलचिकोपव स्याद्वादोद्धामिमत्यवाक्यमाणिक्यमकारिकापटमदेक्टकारा मुरयो विद्यानन्दस्वामिनस्तदादौ प्रतिज्ञाश्लोकमेक्माह।'
--अष्टसहनी टि० पृ० १ । यहाँ लघसमन्तभद्र (विक्रमकी १३वी शती) ने वादीभसिंहको ममन्तभद्राचार्यरचित माप्तमीमासाका उपलालन (परिपोषण) कर्ता बतलाया है । यदि लघुममन्तभद्र का यह उल्लेग्य अभ्रान्त है तो यहना होगा कि पादोभसिंहने आप्तमीमासापर कोई महत्त्वको टीका लिसी है और उसके द्वारा आप्तमीमामाका उन्होंने परिपोपण किया है। श्री १० फैलाशचन्द्र जी शास्त्रीने भी इसनी मम्भावना की है और उसमे नाचार्य विद्यानन्द अप्टराहसी गत 'अत्र शास्त्रपरिसमाप्ती फेचिदिद मङ्गलवचनमनुमन्यन्त' पब्दों के साप दत 'जयति जगति' भादि पचको प्रमाणरूपमे प्रस्तुत किया है। कोई आचर्य नहीं कि नाप्नमीमासापर विद्यानन्दवे पूर्व स्प. समन्तभद्रद्वारा उल्लिखित वादीमसिंहने टीका रचो हो और जिमसे ही लघुममन्तभटने उन्हें लाप्नमीमामा
१. न्यायकु०, प्र० भा०, प्रस्ता० पू० १११ ।
-१८५ -
न-२४
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
का उपलालनफर्ता कहा है और विद्यानन्दने 'केचित्' शब्दोंके गाथ उन्हीकी टीकाके उक्त 'जयति' आदि समाप्तिमङ्गलको अण्टराहस्रीके अन्तमें अपने तथा अकलद्धदेवके समाप्तिमङ्गलके पहले उद्धृत किया है।
५. क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि काव्यग्रन्थोके कर्ता वादीमसिंह मूरि अति विख्यात और सुप्रसिद्ध है।
६ प० के० भुजबलीजी शास्त्री'ई०१०९० और ई०११४७ के नं. ३ तथा ३७ के दो शिलालेखोंके आधारसे एक वादीभसिंह (अपर नाम अजितसेन) का उल्लेख करते हैं।
७ श्रुतसागरसरिने भी सोमदेवकृत यशस्तिलक (भापवास २-१२६) को अपनी टीकामें एक वादीभसिंहका निम्न प्रकार उल्लेख किया है और उन्हें सोमदेवका शिप्य कहा है
'वादोभसिंहोऽपि मदीयशिष्य.
श्रीवादिराजोऽपि मदीयशिष्य. । इत्युक्तत्वाच्च ।' वादिसिंह और वादोभसिंहके ये सात उल्लेख है जो अब तककी खोजके परिणामस्वरूप विद्वानोको जैन साहित्यमें मिले हैं। अब देखना यह है कि वे सातो उल्लेख भिन्न-भिन्न है अथवा एक? अन्तिम उल्लेखको प्रेमीजी, १० फैलागचन्द्रजी' आदि विद्वान् मभ्रान्त और अविश्वसनीय नही मानते, जो ठीक भी है, क्योकि इसमें उनका हेतु है कि न तो वादीभसिंहने ही अपनेको सोमदेवका कही शिप्य प्रकट किया और न वादिराजने ही अपनेको उनका शिष्य बतलाया है। प्रत्युत वादीभसिंहने तो पुष्पसेन मुनिको और वादिराजने मतिसागरको अपना गुरु बतलाया है। दूसरे, सोमदेवने उयत वचन किस अथ और किम प्रसङ्गमें कहा, यह सोमदेवके उपलब्ध ग्रन्योपरसे ज्ञात नही होता । अत जवतक अन्य प्रमाणोंसे उसका समर्थन नही होता तबतक उसे प्रमाणकोटिमे नही रखा जा सकता।
शेष उल्लेखोमें मेरा विचार है कि तीसरा और छठा ये दो उल्लेख अभिन्न हैं तथा उन्हें एक दूसरे वादीभसिंहके होना चाहिए, जिनका दूसरा नाम मल्लिपेणप्रशस्ति और निर्दिष्ट शिलालेखोंमें अजितसेन मुनि अथवा अजितसेन पण्डितदेव भी पाया जाता है तथा जिनके उक्त प्रशस्तिमें शान्तिनाथ और पद्मनाभ अपरनाम श्रीकान्त मोर वादिकोलाहल नागके दो शिष्य भी बतलाये गये है। इन मल्लिपणप्रशस्ति और शिलालेखोका लेखनकाल ई० ११२८, ई०१०९० और ई० ११४७ है और इसलिये इन वादीसिंहका समय लगभग ई० १०६५ से ई० ११५० तक हो सकता है। वाकीके चार उल्लेख-पहला, दूसरा, चौथा और पाचा प्रथम वादीभसिंहके होना चाहिए, जिन्हें 'वादिमिह' नामसे भी साहित्यमें उल्लेखित किया गया है । वादीभसिंह और वादिसिंहके अर्थमें कोई भेद नही है-दोनोका एक ही अर्थ है। वादिरूपी गजोके लिये सिंह और वादियोके लिये सिंह एक ही बात है।
अव यदि यह सम्भावना की जाय कि क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणि काव्यग्रथोके कर्ता वादीभसिंहसूरि ही स्याद्वादसिद्धिकार हैं और इन्हीने आप्तमीमासापर विद्यानन्दसे पूर्व कोई टीका अथवा वृत्ति
१ देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर भाग ६, कि० २ पृ० ७८ । २ देखो, न० शीतलप्रसादजी द्वारा सङ्कलित तथा अनुवादित 'मद्रास व मैसूर प्रान्तके प्राचीन स्मारक'
नामक पुस्तक । ३ देखो, जैनसाहित्य और इतिहास पृ० ४८० । ४. देखो, न्यायकुमुद, प्र० भा०, प्रस्ता० पृ० ११२ ।
- १८६ -
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
लिखी है जो लघुसमन्तभद्रके उल्लेख तथा विद्यानन्दके 'केचित' शब्दके साथ उद्धत 'जयति जगति' आदि पद्य परसे जानी जाती है तथा इन्ही वादीभसिंहका 'वादिसिंह' नामसे जिनसेन और वादिराजसूरिने बडे सम्मानपूर्वक स्मरण किया है। तथा 'स्याद्वादगिरमाश्रित्य वादिसिंहस्य जिते' वाक्यमें वादिराजने 'स्याद्वादगिर' पदके द्वारा इन्हीकी प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धि जैसी स्याद्वादविद्यासे परिपूर्ण कृतियोकी ओर इशारा किया है तो कोई अनुचित मालूम नही होता। इसके औचित्यको सिद्ध करनेवाले नीचे कुछ प्रमाण भी उपस्थित किये जाते है।
(१) क्षत्रचूडामणि और गद्य चिन्तामणिके मङ्गलाचरणोमें कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान् भक्तोंके समीहित (जिनेश्वर-पदप्राप्ति) को पुष्ट करें-देवें । यथा
(क) श्रीपतिर्भगवान्पुष्याद्भक्ताना व समीहितम् ।
यद्भक्ति शुल्कतामेति मुक्तिकन्याकरग्रहे ॥१॥–क्षत्रचू० १-१ । (ख) श्रिय पति पुष्यतु व समीहित,
त्रिलोकरक्षानिरतो जिनेश्वर । यदीयपादाम्बुजभक्तिशीकर ,
सुरासुराधीशपदाय जायते ।। -गद्य चि० १०१ । लगभग यही स्याद्वादसिद्धिके मङ्गलाचरणमें कहा गया है(ग) नम श्रीवर्द्धमानाय स्वामिने विश्ववेदिने।
नित्यानन्द-स्वभावाय भक्त-सारूप्य-दायिने ।।१-१॥ (२) जिस प्रकार क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिके प्रत्येक लम्बके अन्तमें समाप्तिपुष्पिकावाक्य दिए हैं वैसे ही स्याद्वादसिद्धिके प्रकरणान्तमें वे पाये जाते हैं । यथा
(क) 'इति श्रीमद्वादीसिंहसूरिविरचिते गद्य चिन्तामणी सरस्वतीलम्भो नाम प्रथमो लम्ब'-क्षत्रचूडा० ।
(ख) 'इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचिते गद्यचिन्तमणी सरस्वतीलम्भो नाम प्रथमो लम्ब ।'--द्यचिन्तामणि ।
(ग) 'इति श्रीमद्वादीभसिंहसूरिविरचिताया स्याद्वादसिद्धी चार्वाक प्रति जीवसिद्धि ।'--स्याद्वादसिद्धि ।
(३) जिस तरह ' क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिमें यत्र क्वचित नीति, तर्क और सिद्धान्तकी पुट उपलब्ध होती है उसी तरह वह प्राय स्याद्वादसिद्धिमें भी उपलब्ध होती है । यथा--
(क) 'अतकितमिद वृत्त तर्करूढ हि निश्चलम् ॥१-४२।। इत्यूहेन विरक्तोऽभूद्गत्यधीन हि मानसम् ॥१-६५।।
-क्षत्रचूडामणि । (ख) 'ततो हि सुधिय ससारमुपेक्षन्ते ।'
-गद्यचिन्तामणि पृ० ७८ । _ 'एव परगतिविरोधिन्या चार्वाकमतसब्रह्मचारिण्या राज्यश्रिया परिगहीता क्षितिपतिसूता नैयायिकनिर्दिष्टनिर्वाणपदप्रतिष्ठिता इव कापिलकल्पितपूरुषा इव प्रकृतिविकारपर वचन प्रतिपादयन्ति ।'
-द्यचि० पृ०६६
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
_ 'यतोऽभ्युदयनिश्रेयससिद्धिः स धर्म । स च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मक । अधर्मस्तु तद्विपरीत ।'
-गद्य० पृ० २४३ । (ग) 'तदुपायं ततो वक्ष्ये न हि कार्यमहेतुकम् ॥१-२॥
न ह्यवास्तवत कार्ये कल्पिताग्नेश्च दाहवत् ।२-४८।। न हि स्वान्यातिकृत्व स्याद्विरागे विश्ववेदिनि ॥७-२२।। सत्येवात्मनि धर्मे च सौख्योपाये सुखार्थिभि ।
धर्म एव सदा कार्यो न हि कार्यमकारणे ॥१-२४॥-स्याद्वा० । इन तुलनात्मक कुछ उद्धरणोपरसे सम्भावना होती है कि क्षत्रचूडामणि तथा गद्यचिन्तामणिके कर्ता वादीभसिंहसूरि और स्याद्वादसिद्धिके कर्ता वादीभसिंहसूरि अभिन्न हैं--एक ही विद्वान्की ये तीनो कृतियाँ है। इन कृतियोंसे उनकी उत्कृष्ट कवि, उत्कृष्ट वादी और उत्कृष्ट दार्शनिककी ख्याति और प्रसिद्धि भी यथार्थ जचती है । द्वितीय वादीमसिंहकी भी जो इसी प्रकारकी ख्याति और प्रसिद्धि शिलालेखोंमें उल्लिखित पाई जाती है और जिससे विद्वानोको यह भ्रम हुआ है कि वे दोनो एक है वह हमें प्रथम वादोभसिंहकी छाप (अनुकृति) जान पड़ती है। इस प्रकारके प्रयत्नके जैन साहित्यमे अनेक उदाहरण मिलते हैं । तत्त्वार्थश्लोकवातिक आदि महान् दार्शनिक ग्रथोके कर्ता आचार्य विद्यानन्दकी जनसाहित्यमें जो भारी ख्याति और प्रसिद्धि है वैसी ही ख्याति और प्रसिद्धि ईसाकी १६वी शताब्दामें हुए एक दूसरे विद्यानन्दिकी हुम्बुच्चके शिलालेखो और वर्द्धमानमुनीन्द्रके दशभक्त्यादिमहाशास्त्रमें वणित मिलती है और जिससे विद्वानोंको इन दोनोके ऐक्यमें भ्रम हुमा है, जिसका निराकरण विद्यानन्दको स्वोपज्ञ टीका सहित 'आप्त-परीक्षा की प्रस्तावनामें किया गया है। हो सकता है कि प्रथम नामवाले विद्वान्को तरह उसी नामवाले दूसरे विद्वान् भी प्रभावशाली रहे हों । अत ८वी-९वी शताब्दीसे १२वी शताब्दी तक विभिन्न वादीभसिंहोका अस्तित्व मानना चाहिए । यहा यह उल्लेखनीय है कि उक्त ग्रथोके कर्ता वादीभसिंहके कवि और स्याद्वादी होनेके उनके ग्रन्थोमे प्रचुर बीज भी मिलते हैं।।
अब इनके समयपर विचार किया जाता है ।
१ स्वामीसमन्तभद्ररचित रत्नकरण्डक और आप्तमीमासाका क्रमश क्षत्रचूडामणि और स्याद्वादसिद्धिपर स्पष्ट प्रभाव है । यथा(क) श्वाऽपि देवोऽपि देव श्वा जायते धर्म-किल्विषात् ।
-रत्नकरण्ड०, श्लोक २९ । देवता भविता श्वापि देव श्वा धर्म-पापत ।
-क्षत्रचूडामणि ११-७७ (ख) कुशलाकुशल कर्म परलोकश्च न क्वचित् ।। आप्त, मी०, श्लो० ८।। कुशलाकुशलत्व च न चेत्त दातृहिंस्रयो ।
-स्या० ३-५०। अत. वादीभसिंहसूरि स्वामो समन्तभद्रके पश्चाद्वर्ती विक्रमकी दूसरी-तीसरी शताब्दीके बादके विद्वान् हैं।
१ देखी, प्रस्तावना पृ०८ ।
-१८८
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
२ अकलङ्कदेवके न्यायविनिश्चयादि ग्रन्थोंका भी स्याद्वादसिद्धिपर असर है जिसके तीन तुलनात्मक नमूने इस प्रकार है
(१) असिद्धमिधर्मत्वेऽप्यन्यथानुपत्तिमान् । । हेतुरेव यथा सन्ति प्रमाणानीष्टसाधनात् ॥
-न्यायविनि० का० १७६ । पक्षधर्मत्व-वैकल्येऽप्यन्यथानुपपत्तिमान् ॥ हेतुरेव यथा सन्ति प्रमाणानीष्टसाधनात् ।
-स्या०-४-८७,८८ । (२) समवायस्य वृक्षोऽत्र शाखास्वित्यादिसाधने । अनन्यसाधने सिद्धिरहो लोकोत्तरा स्थिति ॥
-न्यायवि० का० १०३, १०४ इह शाखासु वृक्षोऽयमिति सम्बन्धपूर्विका ।
बुद्धिरिहेदबुद्धित्वात्कुण्डे दधीति बुद्धिवत् ।। -स्या० ५-८ । (३) अप्रमत्ता विवक्षेय अन्यथा नियमात्ययात् । इष्टं सत्य हित वक्तुमिच्छा दोषवती कथम् ।।
-न्यायवि० का० ३५६ । सार्वज्ञसहजेच्छा तु विरागेऽप्यस्ति, सा हि न ।
रागाद्युपहत्ता तस्माद्भवेद्वक्तैव सर्ववित् ॥ अत वादीभसिंह अकलसूदेवके अर्थात विक्रमकी सातवी शताब्दीके उत्तरवर्ती विद्वान हैं।
३ प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धिके छठे प्रकरणकी १९वी कारिकामें भट्ट और प्रभाकरका नामोल्लेख करके उनके अभिमत भावना-नियोगरूप वेदवाक्यार्थका निर्देश किया गया है। इसके अलावा, कुमारिलभटके मीमासाश्लोकवार्तिकसे कई कारिकाएँ भी उद्धृत करके उनकी आलोचना की गई है। कुमारिलभद्र और प्रभाकर समकालीन विद्वान् है तथा ईसाको सातवी शताब्दी उनका समय माना जाता है, अत. वादीभसिंह इनके उत्तरवर्ती हैं।
४ बौद्ध विद्वान् शङ्करानन्दको अपोहसिद्धि और प्रतिबन्धसिद्धिकी आलोचना स्याद्वादसिद्धिके तीसरेचौथे प्रकरणोमें की गई मालूम होती है। शङ्करानन्दका समय राहुल साकृत्यायनने ई०८१० निर्धारित किया है।' शहरानन्दके उत्तरकालीन अन्य विद्वान्की आलोचना अथवा विचार स्याद्वादसिद्धिमें पाया जाता हो, ऐसा नही जान पडता । अत वादीभसिंहके समयकी पूर्वावधि शङ्करानन्दका समय जानना चाहिये। अर्थात् ईसाकी ८वी शती इनकी पूर्वावधि मानने में कोई बाधा नही है।
अब उत्तरावधिके साधक प्रमाण दिये जाते हैं
१ तामिल-साहित्यके विद्वान् प० स्वामिनाथय्या और श्री कुप्पूस्वामी शास्त्रीने अनेक प्रमाणपूर्वक यह सिद्ध किया है कि तामिल भाषामें रचित तिरुत्तक्कदेव कृत 'जीवकचिन्तामणि' ग्रन्थ क्षत्रचूडामणि और गद्य चिन्तामणिकी छाया लेकर रचा गया है और जीवकचिन्तामणिका उल्लेख सर्वप्रथम तामिलभाषाके पेरियपुराणमें मिलता है जिसे चोल-नरेश कुलोत्तुङ्गके अनुरोधसे शेषिकलार नामक विद्वान ने रचा माना जाता १ देखो, 'वादन्यायका परिशिष्ट AI २. देखो, जैनसाहित्य और इतिहास ।
- १८९
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
है। कुलोत्तुङ्गका राज्यकाल वि० स० ११३७ से ११७५ (ई० १०८० से ई० १११८) तक है । अत वादीभसिंह इससे पूर्ववर्ती हैं-बादके नही।
२ श्रावकके आठ मूलगुणोंके बारेमें जिनसेनाचार्यके पूर्व एक ही परम्परा थी और वह थी स्वामी समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डकश्रावकाचार प्रतिपादित । जिसमें तीन मकार ( मद्य, मास और मघ) तथा हिंसादि पांच पापोका त्याग विहित है। जिनसेनाचार्यने उक्त परम्परामें कुछ परिवर्तन किया और मधुके स्थानमें जुआको रखकर मद्य, मास, जुआ तथा पांच पापोंके परित्यागको अष्ट मूलगण बतलाया। उसके बाद सोमदेवने तीन मकार और पाच उदुम्बर फलोके त्यागको अष्ट मूलगुण कहा, जिसका अनुसरण प० आशाघरजी आदि विद्वानोंने किया है। परन्तु वादीभसिंहने क्षत्रचूडामणिमें स्वामी समन्तभद्र प्रतिपादित पहली परम्पराको ही स्थान दिया है और जिनसेन आदिकी परम्पराओंको स्थान नही दिया। यदि वादीभसिंह जिनसेन और सोमदेवके उत्तरकालीन होते तो वे बहुत सम्भव था कि उनकी परम्पराको देते अथवा साथमें उन्हें भी देते। जैसा कि प० आशाधरजी आदि उत्तरवर्ती विद्वानोंने किया है । इसके अलावा, जिनसेन (ई० ८३८) ने आदिपुराणमें इनका स्मरण किया है, जैसाकि पूर्व में कहा जा चका है । अत वादीभसिंह जिनसेन और सोमदेवसे, जिनका समय क्रमश ईसाकी नवमी और दशमी शताब्दी है, पश्चाद्वर्ती नही हैं-पूर्ववर्ती हैं।
३ न्यायमञ्जरीकार जयन्तभट्टने कुमारिलकी मीमासाश्लोकवार्तिक गत 'वेदस्याध्ययन सर्व' इस, वेदकी अपौरुषेयताको सिद्ध करने के लिये उपस्थित की गई अनुमानकारिकाका न्यायमञ्जरीमें सम्भवत सर्व प्रथम 'भारताध्ययन सर्व' इस रूपसे खण्डन किया है, जिसका अनुसरण उत्तरवर्ती प्रभाचन्द्र, अभयदेव' देवसरि', प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य प्रभृति ताकिकोंने किया है। न्यायमन्जरीकारका वह खण्डन इस प्रकार है
'भारतेऽप्येवमभिधातु शक्यत्वात् भारताध्ययन सर्वं गुर्वध्ययनपूर्वक । भारताध्ययनवाच्यत्वादिदानीन्तनभारताध्ययनवदिति
--न्यायम पृ० २१४ । परन्तु वादीभसिंहने स्याद्वादसिद्धिमें कुमारिलकी उक्त कारिकाके खण्डनके लिये अन्य विद्वानोंकी तरह न्यायमञ्जरीकारका अनुगमन नही किया। अपितु स्वरचित एक भिन्न कारिकाद्वारा उसका निरसन किया है जो निम्न प्रकार है
पिटकाध्ययन सवं तदध्ययनपूर्वकम् ।
तदध्ययनवाच्यत्वादधनेव भवेदिति ।।-स्या० १०-३० । इसके अतिरिक्त वादीभसिंहने कोई पांच जगह और भी इसी स्याद्वादसिद्धिमें पिटकका ही उल्लेख किया है, जो प्राचीन परम्पराका द्योतक है। अष्टशती और अष्टसहस्री (पृ० २३७) में अकलदेव तथा उनके अनुगामी विद्यानन्दने भी इसी (पिटकत्रय) का ही उल्लेख किया है। १ अहिंसा सत्यमस्तेय स्वस्त्री-मितवसु-ग्रहो।
मद्यमासमधुत्यागैस्तेषा मूलगुणाष्टकम् ।।–क्षत्र०७-२३ । २ देखो, न्यायकुमुद पृ० ७३१, प्रमेयक०, पृ० ३९६। ३ देखा, मन्मतिटी०, पृ० ४१ । ४ देखो, स्या० र०, पृ० ६३४ । ५ देखो, प्रमेयरत्न०, पृ० १३७ ।
-१९०
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
इससे हम इस नतीजेपर पहुँचते हैं कि यदि वादीसिंह न्यायमञ्जरीकार जयन्तभट्टके उत्तरवर्ती होते तो सम्भव था कि वे उनका अन्य उत्तरकालीन विद्वानो की तरह जरूर अनुसरण करते-'भारताध्ययन सर्व' इत्यादिको ही अपनाते और उस हालतमें 'पिटकाध्ययन सर्व' इस नई कारिकाको जन्म न देते। इससे ज्ञात होता है कि वादीभसिंह न्यायमञ्जरीकारके उत्तरवर्ती विद्वान् नही है। न्यायमञ्जरीकारका समय ई० ८४० के लगभग माना जाता है । अत वादीभसिंह इनसे पहलेके हैं ।
४ आ० विद्यानन्दने आप्तपरीक्षामें जगत्कर्तृत्वका खण्डन करते हुए ईश्वरको शरीरी अथवा अशरीरी माननेमें दूषण दिये हैं और उसको विस्तृत मीमांसा की है। उसका कुछ अश टीका सहित नीचे दिया जाता है
'महेश्वरस्याशरीरस्य स्वदेहनिर्माणानुपपत्तेः । तथा हिदेहान्तराद्विना तावत्स्वदेह जनयद्यदि । तदा प्रकृतकार्येऽपि देहाधानमनर्थकम् ॥१८॥ देहान्तरात्स्वदेहस्य विधाने चानवस्थिति ।
तथा च प्रकृत कार्यं कुर्यादीशो न जातुचित् ।।१९।। यथैव हि प्रकृतकार्यजननायापूर्वशरीरमीश्वरो निष्पादयति तथैव तच्छरीरनिष्पादनायापूर्वशरीरान्तर निष्पादयेदिति कथमनवस्था विनिवार्यत?
यथाऽनीश स्वदेहस्य कर्ता देहान्तरान्मत । पूर्वस्मादित्यनादित्वान्नानवस्था प्रसज्यते ॥२१।। तथेशस्यापि पूर्वस्माद्देहादेहान्तरोद्भवात् । नानवस्थेति यो ब्रूयात्तस्यानीशत्वमीशितु ॥२२॥ अनीश कर्मदेहेनाऽनादिसन्तानवर्तिना।
यथैव हि सकर्माणस्तद्वन्न कथमीश्वर ॥२३॥ प्राय यही कथन वादीभसिंहने स्याद्वादसिद्धिकी सिर्फ ढाई कारिकाओमें किया है और जिसका पल्लवन एव विस्तार उपर्युक्त जान पडता है । वे ढाई कारिकाएँ ये है
देहारम्भोऽप्यदेहस्य वक्तृत्ववदयुक्तिमान् । देहान्तरेण देहस्य यद्यारम्भोऽनवस्थिति ।। अनादिस्तत्र बन्धश्चेत्त्यक्तोपात्तशरीरता। अस्मादादिवदेवाऽस्य जातु नैवाशरीरता ।।
देहस्यानादिता स्यादेतस्या च प्रमात्ययात् ।-६-१०,११३ । इन दोनो उद्धरणोका मिलान करनेसे ज्ञात होता है कि वादीभसिंहका कथन जहाँ सक्षिप्त है वहाँ विद्यानन्दका कथन कुछ विस्तारयुक्त है। इसके अलावा, वादीभसिंहने प्रस्तुत स्याद्वादसिद्धिमें अनेकान्तके युगपदनेकान्त और क्रमानेकान्त ये दो भेद प्रदर्शित करके उनका एक-एक स्वतन्त्र प्रकरण द्वारा विस्तारसें वर्णन किया है। विद्यानन्दने भी श्लोकवार्तिक (प०४३८) मे अनेकान्तके इन दो भेदोका उल्लेख किया है।
१ देखो, न्यायकु०, द्वि० भा०, प्र० पृ० १६ ।
- १९१ -
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
के बीचमें 'निराश्रया श्री' यह पद्य फिर शायद न आता । छायामें मूल ही तो आता है । यही कारण है कि इस पदको शास्त्रीजी और प्रेमीजी दोनो विद्वानोने पूर्वोल्लिखित गद्य में उद्धृत नही किया-उसे अलग करके और 'अद्य' को 'निराधारा घरा' के साथ जोडकर उपस्थित किया है। अत यह दूसरी बाधा भी उपरोक्त समयकी बाधक नही है। (ख) पुष्पसेन और ओडयदेव
वादीभमिहके साथ पुष्पसेन मुनि और ओडयदेवका सम्बन्ध बतलाया जाता है। पुष्पसेनको उनका गुरु और ओडयदेव उनका जन्म नाम अथवा वास्तव नाम कहा जाता है। इसमें निम्न पद्य प्रमाणरूपमें दिये जाते हैं
पुष्पसेनमुनिनाथ इति प्रतीतो, दिव्यो मनुहदि सदा मम सनिदध्यात्। यच्छक्तित प्रकृतमूढमतिर्जनोऽपि, वादीभसिंहमुनिपुङ्गवतामुपैति ।। श्रीमद्वादीभसिंहेन गद्यचिन्तामणि कृत । स्थेयादोडयदेवेन चिरायास्थानभूषण ॥ स्थेयादोडयदेवेन वादीभहरिणा कृत ।
गद्यचिन्तामणिर्लोक चिन्तामणिरिवापर ॥ इनमें पहला पद्य गद्यचिन्तामणिकी प्रारम्भिक पीठिकाका छठा पद्य है और जो स्वय ग्रन्थकारका रचा हुआ है। इस पद्यमें कहा गया है कि 'वे प्रसिद्ध पुष्पसेन मुनीन्द्र दिव्य मनु-पूज्य गुरु मेरे हृदयमें सदा आसन जमाये रहें वर्तमान रहें जिनके प्रभावसे मुझ जैसा निपट मूर्ख साधारण आदमी भी वादीभसिंह मुनिश्रेष्ठ अथवा वादीभसिंहसरि बन गया।' अत यह अस दिग्ध है कि वादीभसिंह सूरिके गुरु पुष्पसेन मुनि थे-उन्होने उन्हें मूर्खसे विद्वान और साधारण जनसे मुनिष्ठ बनाया था और इसलिए वे वादीभसिंहके दीक्षा और विद्या दोनोके गुरु थे।
अन्तिम दोनो पद्य, जिनमें ओडयदेवका उल्लेख है, मुझे वादीभसिंहके स्वयके रचे नहीं मालूम होते, क्योकि प्रथम तो जिस प्रशस्तिके रूपमें वे पाये जाते है वह प्रशस्ति गद्य चिन्तामणिकी सभी प्रतियोंमें उपलब्ध नही है-सिर्फ तजोरकी दो प्रतियोंमेसे एक ही प्रतिमें वह मिलती है। इसीलिये मुद्रित गद्यचिन्तामणिके अन्तम वे अलगसे दिए गए हैं, और श्रीकुप्पूस्वामी शास्त्रीने फुटनोटमें उक्त प्रकारकी सूचना की है। दूसरे, प्रथम श्लोकका पहला पाद और दूसरे श्लोकका दूसरा पाद, तथा पहले श्लोक का तीसरा पाद और दूसरे श्लोकका तीसरा पाद तथा पहले श्लोकका तीसरा पाद और दूसरे श्लोकका पहला पाद परस्पर अभिन्न है -पुनरुक्त हैं-उनसे कोई विशेषता जाहिर नही होती और इसलिये ये दोनो शिथिल पद्य वादीभसिंह जैसे उत्कृष्ट कविकी रचना ज्ञात नहीं होते। तीसरे, वादीभसिंहसरिकी प्रशस्ति देनेकी प्रकृति और परिणति भी प्रतीत नही होती। उनकी क्षत्रचूडामणिमें भी वह नही है और स्याद्वादसिद्धि अपूर्ण है, जिससे उसके बारेमें कुछ कहा नहीं जा सकता। अत उपर्युक्त दोनो पद्य हमें अन्यद्वारा रचित एव प्रक्षिप्त जान पडते है और इसलिए ओडयदेव वादीभसिंहका जन्म नाम अथवा वास्तव नाम था, यह विचारणीय है। हाँ, वादीभसिहका जन्म नाम व असली नाम कोई रहा जरूर होगा। पर वह क्या होगा, इसके साधनका कोई दूसरा पुष्ट प्रमाण ढूंढना चाहिए। (ग) वादीभसिंहकी प्रतिभा और उनकी कृतिया
आचार्य जिनसेन तथा वादिराज जैसे प्रतिभाशाली विद्वानो एव समर्थ ग्रन्थकारोंने आचार्य वादीभसिंहकी प्रतिभा और विद्वत्तादि गुणोका समुल्लेख करते हुए उनके प्रति अपना महान् आदरभाव प्रकट किया
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
इन बातोसे लगता है कि शायद विद्यानन्दने वादीभसिंहका अनुसरण किया है । यदि यह कल्पना ठीक हो तो विद्यानन्दका समय वादोभसिंहकी उत्तरावधि समझना चाहिये। यदि वे दोनो विद्वान् समकालीन हो तो भी एक दूसरेका प्रभाव एक दूसरेपर पड़ सकता है और एक दूसरेके कथन एव उल्लेखका आदर एक दूसरा कर सकता है । विद्यानन्दका समय हमने अन्यत्र' ई० ७७५ से ८४० अनुमानित किया है।
५. गद्य चिन्तामणि (पीठिका श्लोक ६) में वादीभसिंहने अपना गुरु पुष्पपेण आचार्यको बतलाया है और ये पुष्पषेण वे ही पुष्पपेण मालूम होते हैं जो अकलकदेवके सघर्मा और 'शत्रुभयङ्कर' कृष्ण प्रथम (ई० ७५६-७७२) के समकालीन कहे जाते हैं । और इमलिये वादीभसिंह भी कृष्ण प्रथमके समकालीन हैं ।
अत इन सब प्रमाणोसे वादीभसिंहसूरिका अस्तित्व-समय ईसाकी ८वी और ९वी शताब्दीका मध्यकाल-ई० ७७० से ८६० सिद्ध होता है । बाधकोका निराकरण
इस समयके स्वीकार करने में दो बाधक प्रमाण उपस्थित किये जा सकते हैं और वे ये है
१ क्षत्रचूडामणि और गद्यचिन्तामणिमें जीवन्धर स्वामीका चरित्र निबद्ध है जो गणभद्राचार्यके उत्तरपुराण' (शक स० ७७०, ई० ८४८) गत जीवन्धरचरितसे लिया गया है । इसका सकेत भी गद्यचिन्तामणिके निम्न पद्यमें मिलता है
नि सारभूतमपि बन्धनतन्तुजात, मूर्ना जनो वहति हि प्रसवानुषङ्गात् ।
जीवन्धरप्रभवपुण्यपुराणयोगाद्वाक्य ममाऽप्युभयलोकहितप्रदायि ॥९॥ अतएव वादीभसिंह गुणभद्राचार्यसे पीछेके हैं।
२ सुप्रसिद्ध धारानरेश भोजकी झूठी मृत्य्के शोकपर उनके समकालीन सभाकवि कालिदास, जिन्हें परिमल अथवा दूसरे कालिदास कहा जाता है, द्वारा कहा गया निम्न श्लोक प्रसिद्ध है
अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती ।
पण्डिता खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवगते ।। और इसी श्लोकके पूर्वार्धको छाया सत्यन्धर महाराजके शोक प्रसङ्गमें कही गई गद्य चिन्तामणिकी निम्न गद्य में पाई जाती है
'अद्य निराधारा धरा निरालम्बा सरस्वती।' अत वादीसिंह राजा भोज (वि० स० १०७६ से वि० ११-१२) के बादके विद्वान् हैं ।
ये दो बाधक हैं जिनमें पहलेके उद्भावक श्रद्धेय ५० नाथूरामजी प्रेमी है और दूसरेके स्थापक श्रीकुप्पुस्वामी शास्त्री तथा समर्थक प्रेमीजी है । इनका समाधान इस प्रकार है
१ देखो, आप्तपरीक्षाकी प्रस्तावना पू० ५३ । २ देखो, डा० सालतोर कृत मिडियावल जैनिज्म पु०३६ । ३ प्रेमीजीने जो इसे 'शक स० ७०५ (वि० स० ८४०) की रचना' वतलाई है (देखो, जैनसा० और
इति० पृ० ४८१) वह प्रेसादिकी गलती जान पड़ती है, क्योंकि उन्हीने उसे अन्यत्र शक स०७७०, ई० ८४८के लगभगकी रचना सिद्ध की है, देखो वही पृ० ५१४ ।
- १९२ -
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
है और लिखा है कि वे सर्वोत्कृष्ट कवि, श्रेष्ठतम वाग्मी और अद्वितीय गमक थे तथा स्याद्वादविद्याके पारगामी और प्रतिवादियोके अभिमानचूरक एवं प्रभावशाली विद्वान थे और इसलिये वे सबके सम्मान योग्य हैं। इससे जाना जा सकता है कि आचार्य वादीभसिंह एक महान् दार्शनिक, वादी, कवि और दृष्टिसम्पन्न विद्वान् थे-उनकी प्रतिभा एव विद्वत्ता चहुमुखी थी और उन्हें विद्वानोमें अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त थी।
इनकी तीन कृतियाँ अवतक उपलब्ध हुई हैं । वे ये है१ स्याद्वादसिद्धि-प्रस्तुत ग्रन्थ है।
मणि-यह उच्चकोटिका एक नीति काव्यग्रन्थ है। भारतीय काव्यसाहित्यमें इस जैसा नीतिकाव्यग्रन्थ और कोई दृष्टिगोचर नही आया। इसकी सूक्तियाँ और उपदेश हृदयस्पर्शी हैं । यह पद्यात्मक रचना है । इसमें क्षत्रियमुकुट जीवन्धरके, जो भगवान् महावीरके समकालीन और सत्यन्धर नरेशके राजपुत्र थे, चरितका चित्रण किया गया है। उन्होने भगवान्से दीक्षा लेकर निर्वाण लाभ किया था और इससे पूर्व अपने शौर्य एव पराक्रमसे शत्रुओपर विजय प्राप्त करके नीतिपूर्वक राज्यका शासन किया था।
३ गद्यचिन्तामणि-यह ग्रन्थकारकी गद्यात्मक काव्यरचना है। इसमें भी जीवन्धरका चरित निबद्ध है । रचना वही ही सरस, सरल और अपूर्व है । पदलालित्य, वाक्यविन्यास, अनुप्रास और शब्दावलीकी छटा ये सब इसमें मौजूद है। जैन काव्यसाहित्यकी विशेषता यह है कि उसमें सरागताका वर्णन होते हुए भी वह गौण-अप्रधान रहता है और विरागता एव आध्यात्मिकता लक्ष्य तथा मुख्य वर्णनीय होती है । यही बात इन दोनो काव्यग्रन्थोमें है । काव्यग्रन्थके प्रेमियोको ये दोनो काव्यग्रन्य अवश्य ही पढने योग्य हैं ।
प्रमाणनौका और नवपदार्थनिश्चय ये दो ग्रन्थ भी वादीमसिंहके माने जाते हैं। प्रमाणनौका हमें उपलब्ध नहीं हो सकी और इसलिये उसके बारेमे नहीं कहा जा सकता है कि वह प्रस्तुत वादीभसिंहकी ही कृति है अथवा उनके उत्तरवर्ती किसी दूसरे वादीभसिंहकी रचना है। नवपदार्थनिश्चय हमारे सामने है और जिसका परिचय अनेकान्त वर्ष १० किरण ४-५ में दिया गया है । इस परिचयसे हम इसी निष्कर्षपर पहुंचे है कि यह रचना स्याद्वादसि द्धि जैसे प्रौढ ग्रन्थोके रचयिताकी कृति ज्ञात नही होती । ग्रन्थकी भाषा, विषय
और वर्णनशैली प्राय उतने प्रौढ नही है जितने उनमे हैं और न ग्रन्थका जैसा नाम है वैसा इसमें महत्त्वका विवेचन है-साधारण तौरसे नवपदार्थोके मात्र लक्षणादि दिये गये हैं। अन्त परीक्षणपरसे यह प्रसिद्ध और प्राचीन तर्क-काव्यग्रन्थकार वादीभसिंहसूरिसे भिन्न और उत्तरवर्ती किसी दूसरे वादीभसिंहकी रचना जान पडती है। ग्रन्थके अन्तमें जो समाप्तिपुष्पिकावाक्य पाया जाता है उसमे इसे 'भट्टारक वादीभसिंहसूरि' की कृति प्रकट भी किया गया है। यह रचना ७२ अनुष्ट्रप और १ मालिनी कुल ७३ पद्योमें समाप्त है। रचना साधारण और औपदेशिक है और प्राय अशुद्ध है। विद्वानोको इसके साहित्यादिपर विशेष विचार करके उसके समयादिका निर्णय करना चाहिए।
इस तरह ग्रन्थ और ग्रन्थकारके सम्बन्धमें कुछ प्रकाश डालनेका प्रयत्न किया गया है।
१ 'इति श्रीभट्टारकवादीमिहसूरिविरचितो नवपदार्थनिश्चयः' ।
-१९५
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यसंग्रह और नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव
द्रव्य-सग्रह प्रति-परिचय
यहाँ द्रव्य-सग्रहभाषामें उपयुक्त प्रतियोका परिचय दिया जाता है
१ ब-यह बडौत (मेरठ)के दि० जैन पचायती मन्दिरके शास्त्र-भण्डारकी प्रति है । आरम्भमें हमें यही प्रति प्राप्त हुई थी। इसमें कुल पत्र ४६ हैं । प्रथम पत्रका प्रथम पृष्ठ और अन्तिम पत्रका अन्तिम पृष्ठ खाली है-उनपर कोई लिखावट नहीं है। शेष ४५ पत्रों अर्थात् ९० पृष्ठोंमें लिखावट है । प्रत्येक पृष्ठकी लम्बाई ९.९ इच और चौडाई ६-६ इच है । प्रत्येक पृष्ठमें १३ लाइनें और एक-एक लाइनमें २८ से ३० तक अक्षर हैं। जिस पक्तिमें सयुक्त अक्षर अधिक हैं उनमें २८ अक्षर है और जिसमें सयुक्त अक्षर कम है उसमें ३० तक अक्षर है। उल्लेखनीय है कि इसमें प्रतिका लेखन-काल भी दिया हुआ है, जो इस प्रकार है
'इति द्रव्यसग्रहभाषा सपूर्ण ।। श्री ।। सवत् १८७६ माघ कृष्ण ११ भौमवासरे लिखित मिश्र सुखलाल बडौतमध्ये ॥ श्री शुभ मगल ददातु । श्री श्री ।।' -मुद्रित पृ० ८० ।
इस अन्तिम पुष्पिका-वाक्यसे प्रकट है कि यह प्रति माघ कृष्ण ११ मगलवार स० १८७६ में मिश्र सुखलालद्वारा बडौतमें लिखी गई है। यह प्रतिलेखन-काल ग्रन्थलेखन-काल (स० १८६३) से केवल १३ वर्ष अधिक है-ज्यादा बादकी लिखी यह प्रति नही है। फिर भी वह इतने अल्पकाल (१३ वर्ष) में इतनी अशुद्ध कैसे लिखी गयी? इसका कारण सम्भवतः वचनिकाकी राजस्थानी भाषासे लेखकका अपरिचित होना या प्राप्त प्रतिका अशद्ध होना जान पडता है, जो हो । प्रतिदाता ला० प्रेमचन्द्रजी सर्राफने प्रति-प्रेषक बा० लक्ष्मीचन्द्रजीको यह कहकर प्रति दी थी कि मूल वचनिका ज्यों-की-त्यों छपे-जिस भाण और जिन शब्दोंमें प० जयचन्दजीने टीका की है वे जरूर कायम रहें। उनकी इस भावनाको ध्यानमें रखा गया है और प० जयचन्दजीकी भाषा एव शब्दोमें ही वचमिका छापी गई है। इस प्रतिकी बढौत अर्थ सूचक '' सज्ञा रखी है ।
२ व~यह व्यावरके ऐ० पन्नालाल दि० जैन सरस्वती-भवनकी प्रति है। इसमें कुल पत्र ५७ अर्थात् ११४ पृष्ठ हैं। प्रत्येक पृष्ठकी लम्बाई मय दोनों ओरके हाँसियोके १० इच है । १,१ इच पत्रके दोनों ओर हाँसियोंके रूपमें रिक्त है और मात्र ८ इचकी लम्बाई में लिखाई है। इसी तरह चौडाई ऊपरनीचेके हाँसियोसहित ५ इच है और दोनो ओर ३ इच खाली है तथा शेष ३३ इच चौडाईमें लिखाई है । एक पृष्ठमें १० और एक पत्रमें २० पक्तियाँ तथा प्रत्येक पवितमें प्राय ३०-३० अक्षर हैं प्रति पुष्ट और मजबूत है तथा शुद्ध और सुवाच्य है। इसमें बडौत प्रतिकी तरह प्रतिलेखन-काल उपलब्ध नहीं है । जैसाकि उसके अन्तिम पुष्पिका-वाक्यसे स्पष्ट है और जो मुद्रित पृ० ८० के फुटनोटमें दिया गया है । इस प्रतिका साकेतिक नाम व्यावर-बोधक 'व' रखा गया है।
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
३ ज-यह जयपुरके महावीर-भवन स्थित आमेर-शास्त्रमण्डारकी प्रति है। इसमें कुल पत्र ५२ है, अर्थात् १०४ पृष्ठ है । प्रथम पत्रका प्रथम पृष्ठ खाली है और उसके दूसरे पृष्ठसे लिखावट आरम्भ है । इसी प्रकार पत्र ५२ के पहले पृष्ठमें सिर्फ चार पक्तियां हैं। इस पृष्ठका शेष भाग और दूसरा पृष्ठ रिक्त है। इस तरह ५०१ पत्रो अर्थात् १००३ पृष्ठोमें लिखावट है। प्रत्येक पृष्ठकी लम्बाई मय दोनो ओरके हासियोके १०१, १०३ इच और चौडाई मय ऊपर-नीचेके हासियोंसहित ४३, ४४ इच है । लम्बाईमें १३, ११ इचके दोनो ओर हासिये हैं तथा चौडाईमें भी ऊपर-नीचे 3, ३ इच हांसियोकी खाली जगह है । इस प्रकार ८ इच लम्बाई और ३४ इच चौडाईमें लिखाई है। प्रत्येक पृष्ठमें १० पक्तियां और प्रत्येक पक्तिमें प्राय ३२ अथवा कम-बढ अक्षर पाये जाते हैं। प्रति पुष्ट, शुद्ध और सुवाच्य है। व्यावर-प्रति और इस प्रतिके पाठ प्राय सर्वत्र समान हैं । इसका अन्तिम पुष्पिका-वाक्य ठीक उसी प्रकार है जैसा व्यावर-प्रतिमें है और जो पुस्तक (पृ० ७४) के अन्तमे मुद्रित है । हां, द्रव्यसग्रह-भाषाफा अन्तिम पुष्पिका-वाक्य भिन्न है और जो निम्न प्रकार है -
इति द्रव्यसग्रहभाषा सपूर्ण ।। लिपीकृत माणिकचन्द लेखक लिखापित सुखराम सिंभराम पापडीवाल रूपाहेडीका शुभ भूयात् ।'
इस पुष्पिका-वाक्यसे दो बातें ज्ञात होती हैं । एक यह कि इस प्रतिके लेखक माणिकचन्द हैं और यह सखराम सिभराम पापडीवाल द्वारा लिखाई गई है। दूसरी बात यह ध्वनित होती है कि सुखराम सिंभराम पापडीवाल रूपाहेडोके रहने वाले थे और सम्भवत यह प्रति रूपाहेडीमें ही लिखी गयी है। मालम पढता है कि यह रूपाहेही उस समय एक अच्छा सम्पन्न कस्बा होगा, जहाँ जैनियोंके अनेक घर होगे और उनमे धार्मिक जागति अच्छी होगी । यह 'रूपाहेडी' जयपुरके दक्षिणकी ओर करीब २० मीलपर एक कोटेसे गाँवके रूपमें आज भी विद्यमान है और वहाँ ४, ५ जैन घर होगे,' ऐसा डा० कस्तूरचन्द्रजी कासलीवाल के उस पत्रसे ज्ञात हा जो उन्होने २९ जलाई ६६ को लिखा ।
इस प्रतिके प्रथम पत्रके द्वितीय पृष्ठके मध्यमें एक छह पाखुडीका सुन्दर कमलका आकार लाल स्याहीसे बना हआ है, अन्य पत्रोमें नहीं है। इस प्रतिकी जयपुर-सूचक 'ज' सज्ञा रखी है। . ग्रन्थ-परिचय
प्रस्तुत मूल ग्रन्थ 'द्रव्यसंग्रह' है और उसके कर्ता श्री नेमिचन्द्र मुनि है। इसमें उन्होने जैनदर्शनमें १ दन्वसगहमिण
णेमिचदमुणिणा भणिय ज ॥
-नेमिचन्द्रमुनि, द्रव्यसग्रह गा० ५८ । २ भारतीय दर्शनोमें वैशेषिक और मीमासक दोनों दर्शन पदार्थ तथा द्रव्य दोनोको मानते हैं । पर उनके
अभिमत पदार्थ और द्रव्य तथा उनकी सख्या जैन दर्शनके पदार्थों और द्रव्योसे बिलकूल भिन्न है। इसी प्रकार न्यायदर्शनमें स्वीकृत केवल पदार्थ और साख्यदर्शनमें मान्य केवल तत्त्व और उनकी संख्या भी जैन दर्शनके पदार्थों तथा तत्त्वोसे सर्वथा अलग है । बौद्धदर्शनके चार आर्यसत्य-दुख, समुदय, मार्ग और निरोध यद्यपि जैनदर्शनके आस्रव, बन्ध, सवर-निर्जरा और मोक्ष तत्त्वोका स्मरण दिलाते है, पर वे भी भिन्न ही है और सख्या भी भिन्न है । वेदान्तदर्शनमें केवल एक आत्मतत्त्व ही ज्ञातव्य
और उपादेय है तथा वह एकमात्र अद्वैत है। चार्वाकदर्शनमें पृथिवी, जल, अग्नि और वायु ये चार भततत्त्व है और जिनके समुदायसे चैतन्यकी उत्पत्ति होती हैं। चार्वाकदर्शनके ये चार भूततत्त्व भी जैन दर्शनके सात तत्त्वोसे भिन्न है। इन दर्शनोके पदार्थों, द्रव्यों और तत्त्वोका उल्लेख अगले पादटिप्पणमें किया गया है, जो अवश्य जानने योग्य हैं।
- १९७
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
मान्य छह द्रव्योका संकलन तथा स्वरूपात्मक कथन किया है। इसके साथ ही पांच अस्तिकायो, सात तत्वों, नौ पदार्थों, दो प्रकारके मोक्षमार्गों, पाँच परमेष्ठियो और ध्यानका भी सक्षेपमें प्रतिपादन किया है। द्रव्योका कथन मुख्य अथवा आरम्भमे होनेसे ग्रन्थका नाम 'द्रव्यसग्रह' रखा गया है। यह शब्दपरिमाणमें लघु होते हुए भी इतना व्यवस्थित, सरल, विशद और अपने में पूर्ण है कि जैनधर्म-सम्बन्धी प्राय सभी मोटी बातोका इसमें वर्णन आ गया है और उनका ज्ञान करानेमें यह पूर्णत सक्षम है ।।
ध्यान रहे कि एक तत्त्वज्ञानीको नि श्रेयस अथवा सुखकी प्राप्तिके लिए जिनका सम्यक् ज्ञान आवश्यक है उन्हें साख्यदर्शनमें २५ तत्त्वो, न्यायदर्शनमें२ १६ पदार्थों, वैशेषिकदर्शनमें ६ पदार्थों तथा ९ द्रव्यो, मीमासादर्शनमें भाट्टोके अनुसार ५ पदार्थों और ११ द्रव्यों तथा प्राभाकरोके अनुसार ८ पदार्थों और ९ द्रव्यो, बौद्धदर्शनमें ४ आर्यसत्यो एव चार्वाक दर्शनमें ४ भूततत्त्वोंके रूपमें स्वीकार किया गया है। परन्तु जैनदर्शनमे छह द्रव्यो, पाँच अस्तिकायो, सात तत्त्वो और नौ पदार्थोके रूपमें उन्हें माना गया है । द्रव्यसग्रहकारने उनके दार्शनिक विवेचनमें न जाकर केवल उनका आगमिक वर्णन किया है, जो प्रस्तुत ग्रन्थमें बडी सरलतासे उपलब्ध है। (क) विषय
इसमें कुल अण्ठावन (५८) गाथाएँ हैं, जो प्राकृत-भाषामें रची गई है । यद्यपि इसमे ग्रन्थकारद्वारा किया गया अधिकारोका विभाजन प्रतीत नही होता, तथापि ब्रह्मदेवकी सस्कृत-टीकाके अनुसार इसमें तीन अधिकार और तीनों अधिकारोके अन्तर्गत आठ अन्तराधिकार माने गये है। इनका विषय-वर्णन इस प्रकार है -
१ यथा-'सत्त्वरजस्तमसा साम्यावस्था प्रकृति प्रकृतेर्महान् महतोऽहारोऽद्धारात् पञ्चतन्मात्राण्युभयमिन्द्रिय तन्मात्रेभ्य स्थूलभूतानि, पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गण ।'
-कपिल, साख्यशास्त्र १-६१ । २ प्रमाणप्रमेयसशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानाना (पदार्थाना) तत्त्वज्ञानान्नि श्रेयसाधिगम ।'
-गौतम अक्षपाद, न्यायसूत्र १-१-१ । ३ (अ) द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायाना पदार्थाना साधर्म्यवैधाभ्य तत्त्वज्ञानानिन्न श्रेयसम् ।'
-कणाद, वैशेषिकदर्शन १-१-४। (आ) 'पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाश कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि ।'
-वही १-१-५ । ४ (अ) 'द्रव्यगुणकर्मसामान्याभावभेदेन पञ्चविध पदार्थ ।'
भादमीमासक, P N Pattabhirama shastri द्वारा Journal of the benares hindu
university में प्रकाशित 'भद्रप्रभाकरयोर्मतभेद' शीर्षक निबन्ध पु० ३३१ । ५ (मा) 'पथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्मशब्दतमासि द्रव्याण्येकादश ।'
-भाट्टमीमासक, वही पृ० ३३१ । (इ) 'द्रव्यगुणकर्मसामान्यशक्तिसादृश्यसख्यासमवायभेदेनाष्टविध पदार्थ ।' ।
-प्राभाकरमीमासक, वही पु० ३३१ । (ई) 'पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनासि नव द्रव्याणि ।'-प्राभाकरमीमासक, वही पृ० ३३१ ।
- १९८
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
१ पहला अधिकार 'षड्द्रव्य-पञ्चास्तिकाय-प्रतिपादक' नामका है। इसमें तीन अन्तराधिकार है और सत्ताईस गाथाएँ है । प्रथम अन्तराधिकारमे चउदह गाथाओद्वारा जीवद्रव्यका, द्वितीय अन्तराधिकारमे आठ गाथाओद्वारा पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन पांच अजीवद्रव्योका और तीसरे अन्तराधिकारमें पांच गाथाओद्वारा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश इन पाँच अस्तिकायोका कथन है । प्रथम अन्तराधिकारकी चउदह गाथाओमें भी पहली गाथाद्वारा मङ्गलाचरण तथा श्रीऋषभजिनेन्द्र-प्रतिपादित जीव और अजीव इन मुल दो द्रव्योका नाम-निर्देश किया गया है। दूसरी गाथाद्वारा जीवद्रव्यके जीवत्व, उपयोगमयत्व, अमूत्तित्व, कर्तुत्व, स्वदेहपरिमितत्व, भोक्तृत्व, ससारित्व, सिद्धत्व और विस्रसा ऊर्ध्वगमन ये नो अधिकार (वर्णन-प्रकार) गिनाये गये हैं। तीसरी गाथासे लेकर चउदहवी गाथा तक बारह गाथाओद्वारा उक्त अधिकारोंके माध्यमसे जीवका स्वरूप वर्णित किया है।
२ दूसरा अधिकार 'सप्ततत्त्व-नवपदार्थप्रतिपादक' नामका है। इसमे दो अन्तराधिकार है तथा ग्यारह गाथाएँ हैं। प्रथम अन्तराधिकारमें अट्ठाईसवी गाथासे लेकर सैंतीसवी गाथा तक दस गाथाओ द्वारा जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोका और दूसरे अन्तराधिकारमें अडतीसवी गाथाद्वारा उक्त सात तत्त्वोमें पुण्य तथा पापको मिलाकर हुए नौ पदार्थोंका स्वरूप-कथन है ।
३ तीसरा अधिकार मोक्षमार्ग-प्रतिपादक' नामका है। इसमें भी दो अन्तराधिकार हैं और बीस गाथाएं हैं। प्रथम अन्तराधिकारमें उनतालीसवी गाथासे लेकर छियालीसवी गाथा तक आठ गाथामोद्वारा व्यवहार और निश्चय दो प्रकारके मोक्षमार्गोका प्रतिपादन है। यत ये दोनो मोक्षमार्ग ध्यानद्वारा ही योगीको प्राप्त होते हैं, अत इसी अधिकारके अन्तर्गत दूसरे अन्तराधिकारमें सैतालीसवी गाथासे लेकर सत्तावनवी गाथा तक ग्यारह गाथाओद्वारा ध्यान और ध्येय (ध्यानके आलम्बन) पांच परमेष्ठियोका भी सक्षेपमें प्ररूपण है । अन्तिम अण्ठावनवी गाथाद्वारा, जो स्वागताछन्दमें है, अन्यकर्त्ताने अपनी लघुता एव निरहकारवृत्ति प्रकट की है।
इस तरह मुनि श्री नेमिचन्द्रने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थमें बहुत ही थोडे शब्दो-केवल अण्ठावन (५८) गाथाओद्वारा विपुल अर्थ भरा है। जान पडता है कि इसीसे यह इतना प्रामाणिक और लोकप्रिय हुआ है कि उत्तरवर्ती लेखकोने उसे सबहुमान अपनाया है। इसके सस्कृत-टीकाकार श्रीब्रह्मदेवने इसकी गाथामोको 'सूत्र' और इसके कर्ताको 'भगवान्' कहकर उल्लेखित किया है । पण्डितप्रवर आशाघरजीने अनगारधर्मामृत की स्वोपज्ञ टोकामे इसकी गाथायोको उद्धृत करके उनसे अपने वर्ण्यविषयको प्रमाणित एव पुष्ट किया है। भाषा-वचनिकाकार ५० जयचन्दजीने भी ग्रन्थके महत्त्वको अनुभव करके उसपर सक्षिप्त, किन्तु विशद वचनिका लिखी है। प० जयचन्दजी वचनिका लिखकर ही सन्तुष्ट नहीं हुए, उसपर द्रब्यसग्रह-भाषा अर्थात् हिन्दी-पद्यानुवाद भी उन्होने लिखा है, जो गाथाके पूरे अर्थको एक-एक चौपाई द्वारा बडे अच्छे ____ भगवान् सूत्रमिद प्रतिपादयति'-सस्कृत-टीका पृष्ठ ४, 'अत्र सूत्रे'-वही पृ० २१, 'सूत्र गतम्'वही १० २३, 'तिष्ठन्तीत्यभिप्रायो भगवता श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवानामिति'-वही प० ५८. 'अत्राह सोमाभिधानो राजश्रेष्ठी । भगवन् ? '-वही पृ० ५८, 'भगवानाह'-वही पृ० ५९, 'अत्राह सोमनामराजश्रेष्ठी। भगवन् । '--वही पु०१४९, 'भगवानाह'-वही पृ० १४९, 'भगवान् सूत्रमिद प्रतिपादयति'-वही पु० २०९, २२३, 'भगवन्'-वही पृ० २२९, २३१।। देखिए, अनगारधर्मामृतटीका पृष्ठ ४, १०९, ११२, ११६, २०४ आदि । पृ० ११८ पर तो 'तथा चोक्त द्रव्यसग्रहेपि' कहकर उसकी 'सव्वस्स कम्मणों' आदि गाथा उद्धृत की गई है।
- १९९ -
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
ढगसे व्यक्त करता है। यह ग्रथ आज भी लोकप्रिय बना हआ है और उसपर अनेक हिन्दी-व्याख्याएँ उपलब्ध एव प्रकाशित हैं । मराठीमें भी इसका कई बार अनुवाद छप चुका है। प्रो० शरच्चन्द्र घोषालके सम्पादकत्वमें आरासे सन् १९१७ में और जैन समाज पहाडीधीरज दिल्लीसे सन् १९५६ में अग्रेजीमें यह दो बार प्रकाशित हो चुका है। अनेक परीक्षालयोंके पाठ्यक्रममें भी यह वर्षोंसे निहित है। इससे स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रन्थ कितना महत्त्व रखता है। (ख) लघु और बृहद् द्रव्यसग्रह .
श्रीब्रह्मदेवने सस्कृत-टीकाके आरम्भमें लिखा है कि 'धोनेमिचन्दसिद्धान्तिदेवने पहले २६ गाथामोमें 'लघु-द्रव्यसग्रह' बनाया था, पीछे विशेष तत्त्वज्ञानके लिए उन्होने 'बहव-द्रव्यसग्रह' की रचना की थी।' ब्रह्मदेवके इस कथनसे जान पडता है कि ग्रन्थकारने द्रव्यसग्रह लघु और वृहद दोनों रूपमें रचा था-पहले लघुव्रव्यसग्रह और पीछे कुछ विशेष कथनके लिए बृहद्रव्यसग्रह । आश्चर्य नही कि उन्होंने इस प्रकारकी दो कृतियोकी रचनाकी हो। जैन साहित्यमें हमें इस प्रकारके प्रयल और भी मिलते हैं। मुनि अनन्तकोतिने पहले लघुसर्वज्ञ सिद्धि और बादको वृहत्सर्वशसिद्धि बनाई थी। उनकी ये दोनो कृतियां उपलब्ध एव प्रकाशित हैं।
कुछ विद्वानोका खयाल है कि लघुद्रव्यसन हमें कुछ गाथाएँ बढाकर उसे ही बृहद्रव्य-संग्रह नाम दे दिया गया है। परन्तु अनुसन्धानसे ऐसी बात मालूम नही होती, क्योंकि न तो सस्कृत-टीकाकारके उक्त कथनपरसे प्रकट होता है और न दोनो ग्रन्थोके अन्त परीक्षणसे ही प्रतीत होता है। बृहद्रव्यसग्रहको लघुद्रव्यसग्रहका बृहद्रूप माननेपर उपलब्ध बृहद्व्यसग्रहमें लघुद्रब्यसग्रहकी सभी गाथाएँ पायी जानी चाहिए थी। परन्तु ऐसा नही है। धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्योकी लक्षणपरक तीन गाथागो न०८, ९, १० और काललक्षणप्रतिपादिका गाथा न० ११ के पूर्वार्ध तथा गाथा न० १२ व १४ को, जो बृहद्वव्यसनमें क्रमश न० १७, १८, १९, २१ (पूर्वार्ध), २२ और २७ पर पायी जाती हैं, छोडकर इसकी शेष सब (१९३) गाथाएँ बृहद्व्य सग्रहसे भिन्न है। इससे प्रकट है कि लघुद्रव्य संग्रहमें कुछ गाथाओकी वृद्धि करके उसे ही बहद रूप नही दिया गया है, अपितु दोनोको स्वतत्र रूपसे रचा गया है और इसीसे दोनोके मङ्गल-पद्य तथा उपसहारात्मक अन्तिम पद्य भी भिन्न-भिन्न है ।
१, २ प० जुगलकिशोर मुख्तार, 'द्रव्यसग्रह-समालोचना', जैन हितैषी, वर्ष १३, अङ्क १२, (सन् १९१८)
पृ० ५४१ । ३ ४ श्री नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवं पूर्व षडविंशतिगाथाभिलघुद्रव्यसग्रह कृत्वा पश्चाद्विनेयतत्त्वपरिज्ञानार्थ
विरचितस्य वृहद्रव्यसग्रहस्याधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन वृत्ति प्रारभ्यते ।'-स० टी० पृ० ४ । जीवमजीव दन्व जिणवरवसहेण जेण णिद्दिछ । देविदविंदवद वदे त सन्वदा सिरसा ॥१॥-मगल-पद्य, बृहद्रव्यस० । छद्र व्व पच अत्थी सत्त वि तच्चाणि णवपयत्या य ।
भगुप्पाय-धुवत्ता णिद्दिट्टा जेण सो जिणो जयउ ।।१।।-मगल-पद्य, लघुद्रव्यस० । ६ दन्वसगहमिण मणिणाहा दोससचयचुदा सुदपुण्णा ।
सोधयत् तणुसुत्तघरेण मिचदमुणिणा मणिय ज ॥५८॥-उपसहा० पद्य , बृहद्रव्यस० । सोमच्छलेण रइया पयत्थ-लक्खणकराउ गाहाओ । भन्नुवयार-णिमित्त गणिणा सिरिणेमिचदेण ॥२५॥-उपसहारात्मकपद्य, लघुद्रव्यस० । ।
-२००
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
यहाँ ध्यातव्य है कि लघुद्रव्यसंग्रहमें उसका नाम 'द्रव्यसंग्रह' नही दिया, किन्तु 'पयत्य- लक्खणक्रराओ गाहाओ' पदोके द्वारा उसे 'पदार्थलक्षणकारिणी गाथाएँ' कहा है, जब कि बृहद्रव्यसग्रह में 'बव्वसगहमिणं' पदके द्वारा उसका नाम स्पष्टरूपसे 'ब्रव्य संग्रह' दिया है और इससे मालूम होता है कि 'द्रव्यसंग्रह ' नामकी कल्पना प्रथकारको अपनी पूर्व रचनाके बाद इस द्रव्यसंग्रहको रचते समय उत्पन्न हुई है और इसके रचे जाने तथा उसे 'द्रव्यसग्रह' नाम दे देनेके उपरान्त 'पदार्थलक्षणकारिणी गाथाओं को भी ग्रन्यकार अथवा दूसरो के द्वारा 'लघुद्रव्यसग्रह' नाम दिया गया है और तब यह ५८ गाथाभोवाली कृति - - ' द्रव्यसग्रह' बृहद्विशेषण के साथ सुतरा 'बृहद्रव्य संग्रह' के नामसे व्यवहुत एव प्रसिद्ध हुई जान पडती है । अतएव 'लघुद्रव्यग्रह' के अन्त में पाये जानेवाले पुष्पिकावाक्यमें उसके 'लघुद्रव्यसग्रह' नामका उल्लेख मिलता है' ।
यहाँ एक प्रश्न यह उठ सकता है कि उपलब्ध 'लघुद्रव्यसंग्रह' में २५ ही गाथाएँ पायी जाती हैं, जबकि संस्कृत टीकाकार उसे २६ गाथाप्रमाण बतलाते हैं । अत वास्तविकता क्या है ? इस सम्बन्धमे श्रद्धेय प० जुगल किशोरजी मुख्तारने ऊहापोहके साथ सम्भावना की है कि 'हो सकता है, एक गाथा इस ग्रन्थ- प्रतिमें छूट गई हो, और सम्भवत १० वी - ११ वी गाथाओके मध्यकी वह गाथा जान पडती है जो 'बृहद्रव्य संग्रह ' में 'माघमा कालो' इत्यादि रूपसे न० २० पर दी गई है और जिसमें लोकाकाश तथा अलोकाकाशका स्वरूप वर्णित है।' इसमें युक्तिके रूपमें उन्होने कुछ आवश्यक गाथाओका दोनोमें पाया जाना बतलाया है । निसन्देह मुख्तार साहबकी सम्भावना और युक्ति दोनो बुद्धिको लगते हैं । यथार्थमें 'लघुद्रव्यसग्रह' में जहाँ धर्म, अधर्म, आकाश आदिको लक्षणपरक गाथाएँ दी हुई हैं वहाँ लोकाकाश तथा अलोकाकाशके स्वरूपकी प्रतिपादिका कोई गाथा न होना खटकता है । स्मरण रहे कि बृहद्रव्यसग्रहमें १७, १८, १९, २१ और २२ न० पर लगातार पायी जाने वाली ये पाँचो गाथाएँ तो लघुद्रव्यसंग्रहमें ८, ९, १०, ११ और १२ न० पर स्थित हैं, पर बृहद्रव्यस ग्रहकी १९ और २१ वी गाथाओके मध्यकी २० न० वाली गाथा लघुद्रव्यसग्रहमें नही है, जिसका भी वहाँ होना आवश्यक था । अत बृहद्रव्य सग्रहमें २० न० पर पायी जाने वाली उक्त गाथा लघुद्रव्य संग्रहकी उपलब्ध ग्रन्थ-प्रतिमें छूटी हुई मानना चाहिए । सम्भव है किसी अन्य ग्रन्थ- प्रतिमें वह मिल जाय । उपलब्ध २५ गाथा - प्रमाण यह 'लघुद्रव्यसग्रह' अपने सक्षिप्त अर्थके साथ इसी वृहद्रव्यसग्रह में मुद्रित है।
(ग) अध्यात्मशास्त्र
'
वस्तु के —— मुख्यतया जीवके - शुद्ध और अशुद्ध स्वरूपोका निश्चय और व्यवहार अथवा शुद्ध और अशुद्ध नयोंसे कथन करनेवाला अध्यात्मशास्त्र है । जो नय शुद्धताका प्रकाशक है वह निश्चय नय अथवा शुद्ध नय है । और जो अशुद्धताका द्योतक है वह व्यवहारनय अथवा अशुद्धमय है । द्रव्यसग्रहमें इन दोनो नयोसे जीवके शुद्ध और अशुद्ध स्वरूपोका वर्णन किया गया है । ग्रन्थकर्त्ताने स्पष्टतया न०३, ६, ७, ८, ९, १०, १३, ३० और ४५ वी गाथाओ में 'णिच्च्य दो', 'ववहारा', 'शुद्धणया' 'मशुद्धणया' जैसे पद-प्रयोगो द्वारा
- अन्तिम पुष्पिकावाक्य, लघुद्रव्यस० ।
१ इति श्रीनेमिचन्द्रस्त्रिकृत लघुद्रव्यसग्रहमिद पूर्णम् ।
२. अनेकान्त वर्ष १२, किरण ५, पृ० १४९ ।
३ शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनय । अशुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारनय. । उभावप्येतौ स्त, शुद्धाशुद्धत्वेनोभयथा द्रव्यस्य प्रतीयमानत्वात् । किन्त्वत्र निश्चयनय साधकतमत्वादुपात्त । साध्यस्य हि शुद्धत्वेन द्रव्यस्य शुद्धत्वद्योतकत्वान्निश्चयनय एक साधकतमो न पुनरशुद्धत्वद्योतको व्यवहारनय । —अमृतचन्द्र, प्रवच० ज्ञेया गा९ ९७ ।
न-२६
- २०१ -
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
निश्चय और व्यहार अथवा शुद्ध और अशुद्ध नयोंसे जीवके शुद्ध और अशुद्ध स्वरूपोंको बताया है । इसीसे संस्कृत टीकाकार श्रीब्रह्मदेवने इसे 'अध्यात्मशास्त्र' स्पष्ट कहा है और अपनी यह टीका भी उसी अध्यात्मपद्धतिसे लिखी है। अत द्रव्यसग्रह द्रव्यानुयोगका शास्त्र होते हुए भी अध्यात्मान्य है।
(घ) संस्कृत टीका
इनपर एकमात्र श्री ब्रह्मदेवकी सस्कृत टीका उपलब्ध है और जो चार बार प्रकाशित हो चुकी है। दो बार रामचन्द्रशास्त्रमाला बम्बई तीसरी बार पहाडीपीरज दिल्लीसे और चौथी बार सरसरी (धनवाद ) से। यह मध्यम परिमाणकी है, न अतिविस्तृत है और न अतिलघु टीकाकारने प्रत्येक गायाके पदोका मर्मोद्घाटन बडी विशदतासे किया है। साथ ही दूसरे ग्रन्थोके प्रचुर उद्धरण भी दिये हैं । ये उद्धरण आचार्य कुन्दकुन्द, गूढपिच्छ, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकल, वीरसेन, जिनसेन, विद्यानन्द, गुणमद्र, नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, शुभचन्द्र, योगीन्दुदेव और वसुनन्दिसिद्धान्तिदेव आदि कितने ही ग्रन्थकारोके ग्रन्थोसे दिये गये हैं, जिनसे टीकाकारकी बहुश्रुतता और स्वाध्यायशीलता प्रकट होती है। गुणस्थानों और मार्गणाओंका विशद प्रतिपादन, सम्बद्ध कथाओका प्रदर्शन, तत्त्वोका सरल निरूपण और लोकभावना के प्रकरणमे ऊर्ध्व, मध्य और अधो लोकका कथन करते हुए वीस विदेहोंका विस्तृत वर्णन उनके चारो अनुयोगोंके पाण्डित्यको सूचित करता है। गाया न० ३५ का उन्होने जो ५० पृष्ठोमे विस्तृत व्याख्यान किया है वह कम आश्चर्यजनक नहीं है। टीकाकी विशेषता यह है कि इसकी भाषा सरल और प्रसादयुक्त है तथा सर्वत्र आध्यात्मिक पद्धति अपनायी गई है। अपनी इस व्याख्याको ब्रह्मदेवने 'वृत्ति' नाम दिया है और उसे तीन अधिकारी तथा आठ अन्तराधिकारोमें विभाजित किया है ।
(ड) संस्कृत टीकामे उल्लिखित अनुपलब्ध ग्रन्थ
इस टीकामें कुछ ऐसे ग्रन्ोके भी उद्धरण दिये गये हैं, जो आज उपलब्ध नहीं है और जिनके नामसुने जाते हैं । उनमें एक तो 'आचाराराधना टिप्पण' है, जो या तो श्रीचन्द्र का होना चाहिए और या जय
१ 'अत्रायात्मशास्त्रे यद्यपि सिद्धपरमेष्ठिनमस्कार उचितस्तथापि व्यवहारनवमाथित्य प्रत्युपकारस्मरणार्थमहत्परमेष्ठिनमस्कार एव कृत । ब्रह्मदेव, बृ० स० टी० पृ० ६ ।
२ द्रव्यानुयोग त ( आगम) के पार अनुयोगो--स्तम्भो (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग ) मेंसे अन्यतम है । यह जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, बन्ध, सवर, निर्जरा और मोक्ष इन तत्त्वोका प्रकाशन करता है। देखिए, रत्नकरण्डकश्रा० श्लोक ४६ ।
३
प० नाथूरामजी प्रेमीने 'जैन साहित्य और इतिहास' ( पृ० २० ) में प्रभाचन्द्रकृत एक ' द्रव्यसग्रहपञ्जिका ' का उल्लेख किया है, पर वह उपलब्ध न होनेसे उसके बारेमें कुछ कहा नहीं जा सकता। प्रेमीजीने मी नामोल्लेख के सिवाय उसपर कोई प्रकाश नहीं डाला और न अपने उल्लेखका कोई आधार बताया है। इससे मालूम पडता है कि यह रचना या तो लुप्त हो गई और या किसी शास्त्रमण्टार में अज्ञात दशामें पडी हुई है । यदि लुप्त नही हुई तो अन्वेषकोकी उसकी अवश्य खोज करनी चाहिए ।
वृहद्रव्य० स०टी० पृ० २
वृहद्रव्यसमस्याधिकारशुद्धिपूर्वकल्येन वृत्ति प्रारभ्यते । आचारायनाटिप्पणे कवितमास्ते स० टी० पू० १०६ ।
- २०२ -
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
नन्दिका'। दूसरा ग्रन्थ हैं गन्धर्वाराधना | मालूम नहीं, यह सम्भव है भगवती आराधनाको ही गन्धर्वाराधना कहा गया हो । नही है |
(च) महत्त्वपूर्ण शङ्का समाधान
इसमें कई शङ्का-समाधान बड़े महत्त्वके हैं । एक जगह शङ्का की गई है कि सम्यग्दृष्टि जीवके पुण्य और पाप दोनो ही हेय है, फिर वह पुण्य कैसे करता है ? इसका समाधान करते हुए ब्रह्मदेव लिखते हैं कि ' जैसे कोई व्यक्ति किसी दूसरे देशमें स्थित मनोहर स्त्रीके पाससे आये पुरुषोका उस स्त्रीकी प्राप्ति के लिए दान (भेंट), सम्मान आदि करता है, उसी तरह सम्यग्दृष्टि जीव भी उपादेयरूपसे अपने शुद्ध आत्माकी ही भावना करता है, परन्तु चारित्रमोहके उदयसे उस निज-शुद्ध आत्म-भावनामें असमर्थ होता हुआ निर्दोष पर - मात्मस्वरूप अर्हन्त और सिद्धो तथा उनके आराधक आचार्य, उपाध्याय एव साधुओकी परमात्मपदकी प्राप्तिके लिए और विषय-कषायोको दूर करने के लिए दान, पूजा आदिसे अथवा गुणस्तुति आदिसे परम भक्ति करता है । इससे उस सम्यग्दृष्टि जीवके भोगोकी आकाक्षा आदि निदानरहित परिणाम उत्पन्न होता है। उससे उसके बिना चाहे विशिष्ट पुण्यका आस्रव उसी प्रकार होता है जिस प्रकार कुटुम्बियो ( कृषको) को बिना चाहे पलाल मिल जाता है । उस पुण्यसे वह स्वर्ग में इन्द्र, लौकान्तिक देव आदिकी विभूति पाकर वहाँकी विमान, परिवार आदि सम्पदाको जीर्ण तृणके समान मानता हुआ पाँच महाविदेहोमे पहुँच कर देखता है कि 'यह वह समवसरण है, ये वे वीतराग सर्वज्ञदेव है, और ये वे भेदाभेदरत्नत्रयके आराधक गणधरदेवादिक है, जिनके विषयमें हम पहले सुना करते थे । उन्हें इस समय प्रत्यक्ष देख लिया' ऐसा मानकर धर्ममें बुद्धिको विशेष दृढ करके चौथे गुणस्थानके योग्य अपनी अविरत अवस्थाको न छोड़ता हुआ भोगोका अनुभव होनेपर भी धर्मध्यानपूर्वक समय यापनकर स्वर्गसे आकर तीर्थंकरादि पदोके मिलने पर भी पूर्व भवमे भावना किये विशिष्ट भेदज्ञानकी वासनाके बलसे मोह नही करता है । इसके पश्चात् जिनदीक्षा लेकर पुण्य-पापरहित निज परमात्मा
ग्रन्थ कव और किसके द्वारा रचा गया । परन्तु जो उद्धरण दिया गया है वह उसमें
१ प० नाथूरामजी प्रेमी, 'जैन साहित्य और इतिहास' पृ० ८६ ।
२
तहि "तुसमास घोसतो शिवभूदी केवली जादो' इत्यादि गन्धर्वाराधनादिभणित व्याख्यान कथ घटते । - स० टी० पृ० २३३ ।
३ 'सम्यग्दृष्टेर्जीवस्य पुण्यपापद्वयमपि हेयम् । कथ पुण्य करोतीति ? तत्र युक्तिमाह-यथा कोऽपि देशान्तरस्थमनोहरस्त्रीसमीपादागतपुरुषाणा तदर्थे दानसन्मानादिक करोति तथा सम्यग्दृष्टिरभ्युपादेयरूपेण स्वशुद्धात्मानमेव भावयति । चारित्र मोहोदयात्तत्रासमर्थ सन् निर्दोषपरमात्मस्वरूपाणामर्हत्सिद्धाना तदाराधकाचार्योपाध्यायसाधूना च परमात्मपदप्राप्त्यर्थं विषयकषायवर्जनार्थं च दानपूजादिना गुणस्तवनादिना वा परमभक्त करोति । तेन भोगाकाङ्क्षादिनिदानरहितपरिणामेन कुटुम्बिना पलालमिव अनीहित - वृत्त्या विशिष्टपुण्यमास्रवति, तेन च स्वर्गे देवेन्द्रलौकान्तिकादिविभूति प्राप्य विमानपरिवारादिसम्पद जीर्ण-तृणमिव गणयन् पञ्चमहाविहेषु गत्वा पश्यति । किं पश्यतीति चेत् तदिद समवसरण ते एते वीतरागसर्वज्ञा ते एते भेदाभेदरलत्रयाराधका गणधर देवादयो ये पूर्व श्रूयन्ते त इदानी प्रत्यक्षेण दृष्टा इति मत्वा विशेषेण दृढधर्ममतिर्भूत्वा चतुर्थगुणस्थानयोग्यामात्मनोऽविरतावस्थामपरित्यजन् भोगानुभवेऽपि सति धर्मध्यानेन काल नीत्वा स्वर्गादागत्य तीर्थकरादिपदे प्राप्तेऽपि पूर्वभवभावित विशिष्टभेदज्ञानवासनाबलेन मोह न करोति । ततो जिनदीक्षा गृहीत्वा "मोक्ष गच्छति । मिथ्यादृष्टिस्तु ।'
- स० टी० पृ० १५९-१६० ।
4
- २०३ -
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
का ध्यान करके मोक्षको प्राप्त करता है। पर मिथ्यादृष्टि तीन निदानजनित पुण्यसे भोगोको पाकर, अर्धचक्रीरावणादिकी तरह, पीछे नरकको जाता है।'
इस शवा-समाधानसे सम्यग्दृष्टिकी दृष्टिसे पुण्य-पापकी हेयतापर अच्छा प्रकाश पडता है। इसी तरह इस टीकामें ब्रह्मदेवने और भी कई शहा-समाधान प्रस्तुत किये हैं, जो टीकासे ही ज्ञातव्य है। (छ) अन्य टीकाएँ
उक्त सस्कृत-टीकाके अतिरिक्त अन्य भाषाओमें भी इसके रूपान्तर हुए हैं। मराठीमें यह गाधी नेमचन्द बालचन्द द्वारा कई बार छप चुका है। अग्रेजीमें भी इसके दो सस्करण क्रमश सन् १९१७ और १९५६ में निकले हैं और दोनोंके रूपान्तरकार एव सम्पादक प्रो० घोषाल हैं। हिन्दीमें तो इसकी कई विद्वानोंद्वारा अनेक व्याख्याएँ लिखी गई हैं और वे सब प्रकाशित हो चुकी हैं। इनमें वा० सूरजभानजी वकील, ५० हीरालालजी शास्त्री, प० मोहनलालजी शास्त्री और १० भवनेन्द्रजी 'विश्व' की टीकाएँ उल्लेखनीय हैं। (ज) द्रव्यसंग्रह-वचनिका
ब्रह्मदेवकी सस्कृत-टीकाके बाद और उक्त टीकाओसे पूर्व पण्डित जयचन्दजी छावडाने इसपर देशभाषामय (बढारी-राजस्थानी में) वचनिका लिखी है। यह वनिका वि० स० १८६३ (सन् १८०६) में रची गयी है, जो लगभग १६० वर्ष प्राचीन है और अब पहली बार प्रकाशमें आ रही है । इसमें गाथाओका सक्षिप्त अर्थ व उनका भावार्थ दिया गया है। भाषा परिमार्जित, प्रसादपूर्ण और सरल है । स्वाध्यायप्रेमियोके लिए यह बही उपयोगी है। प० जयचन्दजीने अपनी इस वचनिफाका आधार प्राय ब्रह्मदेवकी सस्कृतटीकाको बनाया है। तथा उसीके आधारसे अनेक शहा-समाधान भी दिये हैं। वचनिकाके अन्तमें उन्होने स्वय लिखा है कि 'याका विशेष व्याख्यान याकी टीका. ब्रह्मदेव आचार्यकृत है. तात नानना।' इसमें कई चर्चाएँ बहे महत्त्वकी है और नयी जानकारी देती है।
(झ) द्रव्यसंग्रह-भाषा
उक्त वचनिकाके बाद प० जयचन्दजीने द्रव्यसग्रहका चौपाई-बद्ध पद्यानुवाद भी रचा है, जिसे उन्होने 'द्रव्यसंग्रह-भाषा' नाम दिया है। एक गाथाको एक ही चौपाईमें बडे सुन्दर ढग एव कुशलतासे अनूदित किया गया है और इस तरह ५८ गाथाओकी ५८ चौपाइयाँ, आदिमें एक और अन्तमे दो इस प्रकार ३ दोहे, सब मिलाकर कुल ६१ छन्दोमें यह 'द्रव्यसग्रह-भाषा' समाप्त हुई है। मारम्भके दोहामें मङ्गल और छन्दोंके माध्यमसे द्रव्यसग्रहको कहनेकी प्रतिज्ञा की है। तथा अन्तके दो दोहोमें प्रथम (न ६०) के द्वारा अपनी
सवत्सर विक्रमतणू, अठदश-शत पयसाठ । श्रावणवदि चोदशि दिवस, पूरण भयो सुपाठ ।।५।। -प्रस्तुत वचनिका, ३रा अधिकार, पृ०७४ । द्रव्यसग्रहभाषाका आदि और अन्तभाग, पृ० ७५ व ८०। देव जिनेश्वर वदि करि, वाणी सुगुरु मनाय । करू द्रव्यसग्रहतणी, भाषा छद वणाय ॥१॥
-~-प्रस्तुत वचनिका पृ० ८० ।
३
-२०४
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
लघुताको मुनि नेमिचन्द्रको लघुतासे अधिक प्रकट किया है । दूसरे दोहेके द्वारा अन्तिम मङ्गल किया है । इस तरह प० जयचन्दजीकी यह रचना भी बडी उपयोगी और महत्वकी है । बालक-बालिकाओको वह अनायास कण्ठस्थ कराई जा सकती है ।
२. नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव
(क) द्रव्यसंग्रह कर्त्ताका परिचय
इसके कर्ता मुनि नेमिचन्द्र हैं । जैसा कि ग्रन्थको अन्तिम (५८ वी ) गाथासे प्रकट है । संस्कृत टीकाकार श्रीब्रह्मदेव भी इसे मुनि नेमिचन्द्र की ही कृति बतलाते हैं । अब केवल प्रश्न यह है कि ये मुनि नेमिचन्द्र कौन-से नेमिचन्द्र है और कब हुए हैं तथा उनकी रची हुई कौन-सी कृतियाँ है, क्योकि जैन परम्परामें नेमिचन्द्र नामके अनेक विद्वान् हो गये हैं ? इसी सम्बन्धमें यहाँ विचार किया जाता है ।
(ख) नेमिचन्द्र नामके अनेक विद्वान्
१ एक नेमिचन्द्र तो वे हैं, जिन्होंने गोम्मटसार, त्रिलोकसार, लब्धिसार-क्षपणासार जैसे मूर्द्धा न्य सिद्धान्त-प्रन्थोका प्रणयन किया है और जो 'सिद्धान्तचक्रवर्ती' की उपाधि से विभूषित थे तथा गगवशी राजा राचमल्लके प्रधान सेनापति चामुण्डराय (शक स० ९०० वि स० १०३५ ) के गुरु भी थे । इनका अस्तित्वसमय वि० स० १०३५ है ।
२ दूसरे नेमिचन्द्र वे हैं, जिनका उल्लेख वसुनन्दि सिद्धान्तिदेवने अपने उपासकाध्ययन ( गा० ५४३ ) में किया है और जिन्हें 'जिनागमरूप समुद्रकी वेला तरङ्गोसे घुले हृदयवाला' तथा 'सम्पूर्ण जगत् में विख्यात' लिखा है । साथ ही उन्हें नयनन्दिका शिष्य और अपना गुरु भी बताया है ।
३ तीसरे नेमिचन्द्र वे है, जिन्होने प्रथम नम्बरपर उल्लिखित नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीके गोम्मटसार ( जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड दोनो ) पर 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' नामकी संस्कृत टीका, जो अभयचन्द्रकी 'मन्दप्रबोधिका' और केशववर्णीकी संस्कृत - मिश्रित कनडी टीका 'जीवतत्त्वप्रदीपिका' इन दोनो टीकाओंके आधारसे रची गई है, लिखी है ।
४ चौथे नेमिचन्द्र प्रस्तुत द्रव्यसग्रह के कर्त्ता नेमिचन्द्र है ।
१
'द्रव्यसग्रह - भाषा' पद्य न० ६०, वचनिका पृ० ८० । २ वही, पद्य न० ६१, पृ० ८० ।
३
'जह चक्केण य चक्की छक्खड साहिय अविग्घेण । तह मइ चक्केण मया छक्खड साहिय सम्म ॥
कर्मका० गा० ३९७ ॥
४ चामुण्डरायने इन्हीकी प्रेरणासे श्रवणबेलगोला (मैसूर) में ५७ फुट उत्तु ग, विशाल एव ससार - प्रसिद्ध
श्रीबाहुबली स्वामीकी मूर्तिका निर्माण कराया था ।
५ सिस्सो तस्य जिणागम-जलणि हि वेलात रग-घोयमणो ॥
सजाओ सयल-जए विक्खाओ मिचदुति ||५४३ ||
६
तस्य पसाएण मए आइरिय- परपरागय सत्थ । वच्छलयाए र भवियाणमुवासयज्झयण ॥४४४॥
- २०५ -
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
इन चार नेमिचन्द्रोंके सिवाय, सम्भव है, और भी नेमिचन्द्र हुए हो। पर अभीतक हमें इन चारका ही पता चला है।
अब विचारणीय है कि ये चारो नेमिचन्द्र एक ही व्यक्ति हैं अथवा भिन्न-भिन्न ?
१ जहां तक प्रथम और तृतीय नेमिचन्द्रकी बात है, ये दोनो एक व्यक्ति नही हैं। प्रथम नेमिचन्द्र तो मूल ग्रन्थकार है और तीसरे नेमिचन्द्र उनके टीकाकार है। तथा प्रथम नेमिचन्द्रका समय विक्रमको ११ वी शताब्दी है' और तीसरे नेमिचन्द्रका ईसा की १६ वी शताब्दी है । अत. इन दोनो नेमिचन्द्रोंके पौर्वापर्यमे प्राय ५०० वर्षका अन्तर होनेसे वे दोनो एक नही हैं।
२ प्रथम तथा द्वितीय नेमिचन्द्र भी एक नही हैं। प्रथम नेमिचन्द्र जहां विक्रमकी ११ वी शताब्दी (वि० स० १०३५) में हुए हैं। वहां द्वितीय नेमिचन्द्र उनसे लगभग १०० वर्ष पीछे-१२ वी शताब्दी (वि० स० ११२५) के विद्वान् हैं, क्योकि द्वितीय नेमिचन्द्र वसुनन्दि सिद्धान्तिदेवके गुरु थे और वसुनन्दिका समय १२वी शताब्दी (वि० स० ११५०) है। इसके अलावा, प्रथम नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कहे जाते हैं और दूसरे नेमिचन्द्र मिद्धान्तिदेव ।
३ प्रथम और चतुर्थ नेमिचन्द्र भी भिन्न है । चतुर्थ नेमिचन्द्र जहाँ अपनेको 'तनुसूत्रधर' (अल्पज्ञ) कहते हैं वहां प्रथम नेमिचन्द्र चक्रवर्तीकी तरह सिद्धान्तके छह खण्डोका विजेता-'सिद्धान्तचक्रवर्ती' अपनेको प्रकट करते हैं। सस्कृतटीकाकार ब्रह्मदेवने भी अपनी टीकामें द्रव्यसग्रहकार चौथे नेमिचन्द्र को जगह-जगह 'सिद्धान्तिदेव' ही लिखा है, सिद्धान्तचक्रवर्ती नही । अपि च, प्रथम नेमिचन्द्र अपने गुरुओका उल्लेख करते हुए पाये जाते हैं, पर चौथे नेमिचन्द्र ऐसा कुछ नहीं करते-मात्र अपना ही नाम देते देखे जाते है । इसके अतिरिक्त दोनोमें मान्यताभेद भी है । प्रथम नेमिचन्द्रने भावानवके जो भेद (५७) गिनाये हैं वे द्रव्यसग्रहकार-द्वारा प्रतिपादित भावास्रवके भेदो (३२) से भिन्न है१२ । इसके अलावा, प्रथम नेमिचन्द्र दक्षिण भारतके
१ डा० ए० एन० उपाध्ये, अनेकान्त वर्ष ४, किरण १, पृ० ११३-१२० । तथा प० जुगलकिशोर मुख्तार,
पुरातन जैन वाक्य-सूचीको प्रस्तावना पृ० ८९ । २ अनेकान्त वर्ष ४, किरण १। ३ वही। ४ पुरातन जैन वाक्यसूचीको प्रस्तावना पृ० १९० । ५ द्रव्यसग्रह, गाथा ५८ । ६ गोम्मटसार-कर्मकाण्ड, गा० ३९७ । ७ द्रव्यसग्रह-सस्कृतटीका, पृ० २, ५, ५८ आदि । ८ कर्मकाण्ड, गाथा ४३६, ७८५, त्रिलोकसार गा० १०१८, लब्धिसार गा० ४४८ । ९ बृ० द्रव्यसग्रह, गा० ५८, लघुद्रव्यस० गा० २५ । ० मिच्छत्त अविरमण कसाय-जोगा य आसवा होति ।
पण वारस पणवीस पण्णरसा होति तब्भया ।।-गोम्म० कर्म०, गा० ७८६ । १ मिच्छत्ताविरदि-पमाद-जोग-कोहादओऽथ विण्णेया ।
पण पण पणदस तिय चदु कमसो भेदा दु पुवस्स ।।-द्रव्यस०, गा० ३० । २. टीका पू०४, १०९, ११२, ११६, २०४ ।
- २०६
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
निवासी हैं और चतुर्थ नेमिचन्द्र उत्तर भारत (मालवा) के विद्वान् हैं । इन सब बातोसे प्रथम नेमिचन्द्र और चतुर्थ नेमिचन्द्र एक व्यक्ति न) है-वे दोनो एक दूसरेसे पृथक् एव स्वतन्त्र व्यक्तित्व रखते हैं ।
४ द्वितीय और तृतीय नेमिचन्द्र भी अभिन्न नही है, द्वितीय नेमिचन्द्र १२ वी शताब्दीके विद्वान हैं और तृतीय नेमिचन्द्र १६ वी शतीमें हुए है और इसलिए इनमें लगभग चारसौ वर्षका पौर्वापर्य है।
५ तृतीय और चतुर्थ नेमिचन्द्र भी एक नही है । १३ वी शताब्दी (वि० स० १३००) के ग्रन्थकार प० आशाधरजीने चौथे नेमिचन्द्रके द्रव्यसग्रहके नामोल्लेखपूर्वक तथा बिना नामोल्लेखके उसकी अनेक गाथाओको अनगारधर्मामतको स्वोपज्ञ-टीकामें उद्धृत किया है । अत चौथे नेमिचन्द्र स्पष्टतया प० आशाधरजीके पूर्ववर्ती अर्थात् १३ वी शताब्दीसे पहलेके है, जब कि तृतीय नेमिचन्द्र उनके उत्तरकालीन अर्थात १६ वी शतोमें हुए हैं। (ग) द्रव्यसग्रहके कर्ता नेमिचन्द्र
अब रह जाते हैं दुसरे और चौथे नेमिचन्द्र । सो ये दोनो विद्वान निम्न आधारोसे एक व्यक्तिमा होते हैं।
१५० आशाघरजी (वि० स० १३००) ने वसुनन्दि सिद्धान्तिदेवका सागारधर्मामृत तथा अनगारधर्मामृत दोनोकी टीकाओमें उल्लेख किया है और वसुनन्दिने द्वितीय नेमिचन्द्र का अपने गुरुरूपसे स्मरण किया है तथा उन्हें श्रीनन्दिका प्रशिष्य एव नयनन्दिका शिष्य बतलाया है। ये नयनन्दि यदि वे ही नयनन्दि हैं, जिन्होने 'सुदंसणचरिउ' की रचना की है और जिसे उन्होने धारामे रहते हुए राजा भोजदेवके कालमे वि० स० ११०० में पूर्ण किया है, तो द्वितीय नेमिचन्द्र नयनन्दिसे कुछ ही उत्तरवर्ती और वसुनन्दिसे कछ पूर्ववर्ती अर्थात वि० स० ११२५के करीबके विद्वान् ठहरते हैं । उधर चौथे नेमिचन्द्र (द्रव्यसनहकार) का भी समय प० आशाधरजीके ग्रन्थोमें उनका उल्लेख होने तथा ब्रह्मदेव द्वारा उनके द्रव्यसग्रहकी टीका लिखी जानेसे उनसे पूर्ववर्ती अर्थात वि० स० की १२ वी शताब्दी सिद्ध होता है। इसलिए बहत सम्भव है कि ये दोनो नेमिचन्द्र एक हो।।
२. वसुनन्दिने अपने गुरु नेमिचन्द्र को 'समस्त जगतमें विख्यात' बतलाया है। उधर 'सुदसणचरित' के कर्ता नयनन्दि भी अपनेको 'जगत-विख्यात' प्रकट करते है। इससे ध्वनित होता है कि वसुनन्दिको अपने द्वारा नेमिचन्द्र के गुरुरूपसे उल्लिखित नयनन्दि वे ही नयनन्दि अभिप्रेत हैं जो 'सुवंसणचरिउ' के कर्ता है और उन्हीके जगत-विख्यात जैसे गुणोको वे उनके शिष्य और अपने गुरु (नेमिचन्द्र) में भी देख रहे हैं। इससे जान पडता है कि वसुनन्दिके उल्लिखित नयनन्दि और 'सुवसणचरिउ' के कर्ता नयनन्दि अभिन्न है
१ सा० घ० टी० ४-५२, अनगा०प० टी० ५-६६, ८-३७ और ८-८८ । २ वसुनन्दिश्रावका०, गा० ५४३, ५४४ । ३ वही, गा० ५४०, ५४२ । ४ णिव-विक्कम-कालहो ववगएसु। एयारह-सवच्छर-सएसु ॥
तहिं केवलि-चरिउ अमयच्छरेण । णयणदी विरयउ वित्थरेण ।।-सुदसणचरिउ, अन्तिम प्रशस्ति । ५ पढम-सीसु तहो जायउ जगविक्खायउ मुणि णयणदी ।
चरित सुदसणणाहहो तेण अवाहहो विरइउ । सुदंसणचरिउ, अन्तिमप्रश० ४ ।
-२०७
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
तथा उन्हीके शिष्य नेमिचन्द्रका वसुनन्दिने अपने गुरुम्पगे स्मरण किया है और ये नेमिचन्द्र वे ही नेमिचन्द्र हो, जो द्रव्यसग्रहके कर्ता है, तो कोई आश्चर्य नही है।
३ द्रव्यसग्रहके सस्कृत-टीकाकार ब्रह्मदेवने द्रव्यसग्रहकार नेमिचन्द्रका 'सिद्धान्तिदेव' उपाधिके साथ अपनी सस्कृत-टीकाके मध्यम तथा अधिकारोके अन्तिम पुष्पिका-वाक्यो में उल्लेख किया है। उधर वसुनन्दि और उनके गुरु नेमिचन्द्र भी 'सिद्धान्तिदेव' की उपाधिसे भूपित मिलते है । अत असम्भव नही कि ब्रह्मदेव के अभिप्रेत नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव और वसुनन्दिके गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव एक हो।
४ ब्रह्मदेवने द्रव्यसग्रहके प्रथम अधिकारफे अन्तम और द्वितीय अधिकारमे पहले वसुनन्दि-श्रावकाचारकी दो गाथाएँ न० २३ और न०२४ उद्धत करते हुए लिखा है कि 'इसके आगे पूर्वोक्त छहो द्रव्योंका चूलिकारूपसे विशेष व्याख्यान किया जाता है। वह इस प्रकार है।' यह स्थानिकावाश्य देकर उन दोनो गाथाओको दिया गया है और द्रव्यसग्रहकारको गाथाओको तरह ही उनको व्याख्या प्रस्तुत की है। व्याख्याके अन्तमें 'लिका' शब्दका अर्थ बतलाते हुए लिखा है कि विशेष व्याख्यान, अथवा उयतानुक्त व्याख्यान और उक्तानुक्त मिश्रित व्याख्यानका नाम चूलिका है।
आशय यह है कि ब्रह्मदेवने वसुनन्दिकी गाापामो (न० २३ व २४) को जिस ढगसे यहाँ प्रस्तुत किया है और उनकी व्याख्या दी है, उससे विदित होता है कि वे वसुनन्दिके गुरु नेमिचन्द्रको ही द्रव्यसग्रहका कर्ता मानते थे और इसीलिए वसुनन्दिको उक्त विशिष्ट गाथाओ और अपनी व्यारुपाद्वारा उनके गुरु (नेमिचन्द्र-द्रव्यसग्रहकार) के सक्षिप्त कथन का उन्होने विस्तार किया है। और यह कोई असगत भी नहीं है, क्योकि गुरुके हृदयस्थ अभिप्रायका जितना जानकार एव उद्धाटक साक्षात्-शिष्य हो सकता है उतना प्राय अन्य नही। उक्त गाथाओकी ब्रह्मदेवने उसी प्रकार व्याख्या की है जिस प्रकार उन्होंने व्यसग्रहको समस्त गाथाओंको की है। स्मरण रहे कि ब्रह्मदेवने अन्य आचार्योंके भी वीसियों उद्धरण दिये है, पर उनमेंसे उन्होने किसी भी उदरणकी ऐसी व्याख्या नहीं की और न इस तरहसे उन्हें उपस्थित किया है-उन्हें तो उन्होने 'तदुक्तं', 'तथा चोयत' जैसे शब्दोंके साथ उद्धृत किया है। जब कि वसुनन्दिको उक्त गाथाओंको द्रव्यसग्रहकारकी गाथाओकी तरह 'मत पर पूर्वोक्तद्रव्याणा चलिफारूपेण विस्तर-व्याख्यान क्रियते । तद्यथा---'जैसे उत्यानिका-वाक्यके साथ दिया है। मत ब्रह्मदेवके उपर्युक्त प्रतिपादनपरसे यह निष्कर्ष सहज ही निकला जा सकता है कि उन्हें वसुनन्दिके गुरु नेमिचन्द्र ही द्रव्यसग्रहके कर्ता अभीष्ट है-वे उन्हें उनसे भिन्न व्यक्ति नही मानते हैं।
१. • श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवं पूर्व .'-१०२। तिष्ठन्तीत्यभिप्रायो भगवता श्रीनेमिचन्द्र
सिद्धान्तिदेवानामिति ।'-०५८। 'इति श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवविरचिते द्रव्यसग्रहान्थे प्रथमोऽधिकार समाप्त ।' 'इति श्रोनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवविरचिते द्रव्यसग्रहग्रन्थे द्वितीयोऽधिकार समाप्त ।' 'इति श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवविरचितस्य द्रव्यसनहाभिधानग्रन्थस्य श्रीब्रह्मदेवकृतवृत्ति समाप्त ।'
-पु० २४१ । २ आशाधर, सा० घ० टी०, ४-५२, अनगा०प०टी०, ८-८८ । ३ बृहद्रव्यसग्रह-सस्कृतटोका पृ० ७६ । ४. बृहद्रव्यसग्रह-सस्कृतटीका, पृ० ८० ।
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस तरह उपर्युक्त आधारोंसे द्रव्यसग्रहके कर्त्ता मुनि नेमिचन्द्र वे ही नेमिचन्द्र ज्ञात होते हैं, जो वसुनन्दि सिद्धान्तिदेवके गुरु और नयनन्दि सिद्धान्तिदेव ( सिद्धान्तपारगत ) ' के शिष्य हैं । सम्भवत इसीसे - गुरु शिष्योको 'सिद्धान्तिदेव' होनेसे - ब्रह्मदेव उन्हें (द्रव्यसग्रहकार मुनि नेमिचन्द्रको) भी 'सिद्धान्तिदेय' मानते और उल्लिखित करते हुए देखे जाते हैं । इसके प्रचुर प्रमाण उनकी द्रव्यसग्रहवृत्ति में उपलब्ध हैं । (घ) समय •
हम ऊपर कह आये हैं कि नयनन्दिने अपना 'सुवसणचरिउ' विक्रम स० ११०० में पूर्ण किया है । अत नयमन्दिका अस्तित्व समय वि० स० ११०० है । यदि उनके शिष्य नेमिचन्द्रको उनसे अधिक-से-अधिक २५ वर्ष पीछे माना जाय तो वे लगभग वि० स० ११२५ के ठहरते हैं । उधर इनके शिष्य वसुनन्दिका समय विक्रमकी १२ वी शताब्दीका पूर्वार्ध अर्थात् वि० स० ११५० माना जाता है, जो उचित है । इस भी नयनन्दि (वि०स० ११०० ) और वसुनन्दि (वि० स० ११५०) के मध्य होनेवाले इन नेमिचन्द्रका समय विक्रम स० ११२५ के आस-पास होना चाहिए ।
(ड) गुरु-शिष्य
यद्यपि द्रव्यसग्रहकारने न अपने किसी गुरुका उल्लेख किया है और न किसी शिष्यका । उनके उपलब्ध लघु और बृहद् दोनो द्रव्यसग्रहोमें उन्होने अपना नाममात्र दिया है । इतना विशेष है कि लघुद्रव्यसग्रहमें उसकी रचनाका निमित्त भी बताया है । और वह है सोम ( राजश्रेष्ठी) । उन्हीके बहाने से भव्यजीवोके कल्याणार्थ उन्होने उसे रचा है । फिर भी वसुनन्दिके उल्लेखानुसार उनके गुरु नयनन्दि हैं और दादा गुरु श्रीनन्दि | वसुनन्दि उनके साक्षात शिष्य हैं । वसुनन्दिने अपना 'उपासकाध्ययन', जो अर्थत आचार्य परम्परासे मागत था, शब्दत उन्हीसे सिद्धान्तका अध्ययन करके उनके प्रसादसे पूरा किया था । ग्रन्थकारके और भी शिष्य रहे होगे, पर उनके जाननेका अभी तक कोई साधन प्राप्त नही है ।
(च) प्रभाव .
यो तो ग्रथकारने स्वय अपना कोई परिचय नही दिया, जिससे उनके प्रभावादिका पता चलता, तथापि उत्तरवर्ती ग्रथकारोद्वारा उनका स्मरण किया जाना और 'भगवान्' जैसे सम्मानसूचक शब्दोके साथ उनके द्रव्यसग्रहकी गाथाओंका उद्धरण देना आदि बातोंसे उनके प्रभावका पता चलता है । वसुनन्दि सिद्धान्तिदेव तो उन्हें 'जिनागमरूपी समुद्रकी वेला तरंगोंसे घुले हृदयवाला' तथा 'समस्त जगतमें विख्यात' बतलाते हैं । इससे वे तत्कालीन विद्वानोमें निश्चय ही एक प्रभावशाली एव सिद्धान्तवेत्ता विद्वान् रहे होगे, यह स्पष्ट ज्ञात होता 1
१ वसुनन्दि, उपासकाध्ययन गा० ५४२ ।
२ प ० जुगल किशोर मुख्तार, पुरातन जैन वाक्य सूची, प्रस्तावना पृ० १०० ।
३ सोमच्छलेण रइया पयत्यलक्खणकराउ गाहाओ ।
भव्ववयार - णिमित्त गणिणा सिरिणेमिचदेण ||- लघुद्रव्यस० गा० २५ ।
४ वसुनन्दि सिद्धान्तिदेव, उपासकाध्ययन गा० ५४०, ५४१, ५४२ ।
५. वही, गा० ५४४ ।
६ ब्रह्मदेव, द्रव्यसग्रह - संस्कृतटीका, पृ० ५८, १४९, २२९ । तथा आशाधर, अनगारघर्मामृतटीका पृ० ४, १०९, ११६, ११८ | और जयसेन, पञ्चास्तिकाय - तात्पर्यवृत्ति पृ० ६, ७, १६३, १८६ ॥
- २०९ -
न- २७
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
(छ) स्थान
ब्रह्मदेवके उल्लेखानुसार ग्रन्थकारने अपने दोनो द्रव्यसग्रहोकी रचना 'आश्रम' नामक नगरके श्रीमुनिसुव्रततीर्थकरचैत्यालयमें रहते हुए की थी। यह 'आश्रम' नगर उस समय मालवाके अन्तर्गत था और मालवासम्राट् धाराधिपति परमारवशी भोजदेवके प्रान्तीय-प्रशासक परमारवशीय श्रीपालद्वारा वह प्रशासित था। 'सोम' नामक राजश्रेष्ठी उनका प्रभावशाली एव विश्वसनीय अधिकारी था, जिसके अधिकारमें खजाना आदि कई महत्त्वपूर्ण विभाग थे । इन सोमश्रेष्ठीके अनुरोधपर ही श्रीनेमिचन्द्र मिद्धान्तिदेवने पहले २६ गाथात्मक पदार्थलक्षणरूप 'लघुद्रव्यसंग्रह' और फिर पीछे विशेष तत्त्वज्ञानके लिए 'बृहद्वव्यसग्रह रचा था। ब्रह्मदेवने अपने इस उल्लेखमें सोमश्रेष्ठीको 'परम आध्यात्मिक भव्योत्तम' बताया है, जिससे सोमश्रेष्ठीकी उत्कट आध्यात्मिक-जिज्ञासाका परिचय मिलता है। इसी उल्लेखसे जहाँ यह भी ज्ञात होता है कि उक्त 'आषम' नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवके स्थायी अथवा अस्थायी निवासके रूप में विश्रत था. और सोमश्रेष्ठी जैसे आध्यात्मिक सुधारसपिपासु वहाँ पहुँचते थे वहीं इस पावन स्थानका महत्त्व भी प्रकट होता है । लगता है कि उन दिनो जैन परम्परामें इस स्थानकी प्रसिद्धि एव मान्यता वहांके उक्त चैत्यालयमें प्रतिष्ठित बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथकी सातिशय, मनोज्ञ एव आकर्षक प्रतिमाके कारण रही है। मूर्ति के इस अतिशयका उल्लेव मुनि मदनकीतिने शासनचतुस्पिशिका (पद्य २८), निर्वाणकाण्डकारने प्राकृत-निर्वाणकाण्ड (गा०२०) और मुनि उदयकीर्तिने अपभ्रश-निर्वाणभक्ति (गा० ६) में भी किया है। इन उल्लेखोसे स्पष्ट जान पडता है कि उक्त 'आश्रम' नगर एक प्रसिद्ध और पावन दिगम्बर तीर्थस्थान रहा है।
इस स्थानकी वर्तमान स्थितिके बारेमें पं० दीपचन्द्रजी पाण्डया और डा० दशरथ शर्माने ऊहापोह एव प्रमाणपूर्वक विचार करते हुए लिखा है कि 'आश्रम' नगर, जिसे साहित्यकारोंने आश्रम, आशारम्यपट्टण", आश्रमपत्तन, पट्टण और पुटभेदनके नामसे उल्लेखित किया है, राजस्थानके अन्तर्गत कोटासे उत्तरपूर्वकी ६ 'अथ मालवदेशे घारानामनगराधिपतिभोजदेवाभिधानकलिकालचक्रवर्तिसम्बन्धिन श्रीपालमण्डलेश्वरस्य
सम्बन्धिन्याश्रमनामनगरे श्रीमुनिसुव्रततीर्थकरचैत्यालये शुद्धात्मद्रव्यसवित्तिसमुत्पन्नसुखामृतरसास्वादविपरीतनारकादिदु खभयभीतस्य परमात्मभावनोत्पन्नसुखसुधारसपिपासितस्य भेदाभेदरत्नत्रयभावनाप्रियस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य भाण्डागाराद्यनेकनियोगाधिकारिसोमाभिधानराजश्रेष्ठिनो निमित्त श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवं पूर्व षड्वंशतिगाथाभिलघुद्रव्यसग्रह कृत्वा पश्चाद्विशेषतत्त्वज्ञानार्थ विरचितस्य
बृहद्रव्यसग्रहस्याधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन वृत्ति प्रारभ्यते ।'-ब्रह्मदेव, बृहद्दन्यस० वृत्ति, पृ० १-२ । २ 'क्या पाटण-केशोराय हो प्राचीन आश्रमनगर है?' शीर्षक लेख, वीरवाणी (स्मारिका) वर्ष १८, अक
१३, पृ० १०९। ३ 'आश्रमपत्तन ही केशोराय पट्टन है' शीर्षक निबन्ध, अनेकान्त (छोटेलाल स्मृति अक) वर्ष १९, कि.
१-२, पृ० ७० । ४ मदनकीर्ति, शासनचतुस्थिशिका पद्य २८ तथा उदयकीति अपभ्रशनिर्वाणभक्ति गा०६ । ५ निर्वाणकाण्ड गा० २० । ६ नयचन्द्रसूरि, हम्मीरकान्य ८-१०६ । ७ ८ चन्द्रशेखर, सुर्जनचरितमहाकाव्य ११-२२, ३९ । ९ जल और स्थल मागोंसे व्यापार करनेवाले नदी-किनारे स्थित नगरको पुटभेदन और मुख्यत बन्दरगाह
को पत्तन या पट्टन कहा जाता है, चाहे वह समुद्रतटपर हो या नदी-तटपर। आश्रमनगरके लिए ये दोनो शब्द प्रयुक्त हो सकते हैं, क्योकि वह चम्बलके किनारे स्थित है।
-२१०
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
ओर लगभग ९ मीलकी दूरीपर और बूँदीसे लगभग ३ मील दूर चर्मण्वती (चम्बल) नदीपर अवस्थित वर्तमान 'केशोराय पाटण' अथवा 'पाटण केशोराय' ही है । प्राचीन कालमें यह राजा भोजदेवके परमारसाम्राज्यके अन्तर्गत मालवा में रहा है । निसर्गरमणीय यह स्थान नाश्रम-भूमि (तपोवन) के उपयुक्त होनेके कारण वास्तवमे 'आश्रम' कहलाने का अधिकारी है । नदीके किनारे होनेसे यह वडा भव्य, शान्त और मनोज्ञ है । इसकी प्राकृतिक सुषमा बहुत ही आकर्षक है । सम्भवत इसी कारण यह जैनो (दिगम्बरो) के अतिरिक्त हिन्दुओका भी तीर्थ है । दिगम्बर - साहित्य में इसके दिगम्बर तीर्थ होने के प्रचुर उल्लेख विक्रमको १२वी १३वी शताब्दीसे मिलते हैं गौर जैनेतर साहित्य में इसके हिन्दू तीर्थ होनेके निर्देश विक्रमको १५वी - १६वी शताब्दी से उपलब्ध होते हैं । पाण्डवाजीके कथनानुसार आज भी वहाँ (पाटण केशाराय कस्बामें) चम्बल नदी के किनारे बहुत विशाल लगभग ४० फुट ऊँचा भव्य जैन मन्दिर है । मन्दिरका एक भाग सुदृढ नीव है, जिससे मन्दिरको पानीसे कभी क्षति न पहुँचे । दूसरे भाग में शाला, कोठे आदि बने हुए है, जहाँ बहुसख्यामें बाहरसे यात्री आते व ठहरते हैं और दर्शन, पूजन करके मनोरथ पूरा होने हेतु गण-भोज भी किया करते हैं । श्रीमुनिसुव्रतको दिगम्बरीय प्रतिमा मन्दिर के ऊपरी भाग में भूगर्भ में विराजमान है । पृथ्वीतलसे नीचे होनेके कारण जनता इस प्राचीन मन्दिरको 'भुई देवरा' भोयरा ) कहती है ।' डा० शर्माके सूचनानुसार रणथभोरके राजा हठीले हम्मीर के पिता जैसिंहने पुत्रको राज्य देकर आश्रमपत्तनके पवित्र तीर्थ के लिए प्रयाण किया था । तथा रणथंभोरेश्वर हम्मीरने राजधानीमें यज्ञ न कर इसी महान् तोर्थपर आकर 'फोटिमख' किया था । किन्तु प्रतीत होता है कि १६वी शताब्दीकी जनता इसे आश्रमवत्तन या आश्रमनगर न कहकर पत्तन या पट्टन या पुटभेदन कहने लगी थी ।
(
इस तरह आश्रमनगर" जैनोके साथ हिन्दुओका भी पावन तीर्थस्थान है । श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवने ऐसे महत्त्वपूर्ण एव प्राकृतिक सुषमासे सम्पन्न शान्त स्थानको साहित्य-सृजन, ज्ञानाराघन और ध्यान आदिके लिए चुना हो, तो कोई आश्चर्य नही हैं ।
(ज) रचनाएँ
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवकी दो ही रचनाएं उपलब्ध हैं- एक लघुद्रव्यसग्रह और दूसरी बृहद्रव्यसग्रह । इन दोके अलावा उनकी और कोई कृति प्राप्त नही है । उनके प्रभावको
१ डा० शर्माके उल्लिखित लेखमें उद्धृत 'आर्काएलॉजिकल सर्वे ऑफ इण्डियाकी १९०४-५ को प्रोग्रेस रिपोर्ट |
२ नयचन्द्रसूरि, हम्मीरमहाकाव्य ८ - १०६ ।
३ चन्द्रशेखर, सुर्जनचरितमहाकाव्य ११ - ५८ ।
४ वही, ११ - २२ ।
५ सन् १९४९में मदनकीर्ति की शासनचतुस्त्रिशिकाके सम्पादन समय उसके उल्लेख (पद्य २८) में आये आश्रम पदसे आश्रमनगरकी ओर मेरा ध्यान नही गया था और उसके तृतीय चरणमें विद्यमान 'विप्रजनावरोधन गरे' शब्दोपरसे अवरोधनगरकी कल्पना की थी, जो ठीक नही थी। वहाँ 'आश्रम' से आश्रमनगर मदनकीर्तिको इष्ट है, इसकी ओर हमारा ध्यान प० दीपचन्द्रजी पाड्याके उस लेखने आकर्षित किया है, जो उन्होने वीरवाणी ( स्मारिका ) वर्ष १८, अक १३ में प्रकाशित किया है और जिसका जिक्र ऊपर किया गया । इसके लिए हम उनके आभारी हैं । —लेखक ।
- २११ -
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
देखते हुए यह सम्भावना अवश्य की जा सकती है कि उनने और भी कृतियोका निर्माण किया होगा, जो या तो लुप्त हो गई या शास्त्र भण्डारोमें अज्ञात दशामें पडी होगी ।
(झ) ब्रह्मदेव
ब्रह्मदेव श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवके वृहद्रव्यसग्रहके संस्कृत टीकाकार हैं और वे उनके ग्रन्थोंसे । अत उनके व्यक्तित्व, कृतित्व और समयके सम्बन्धमें भी
बहुत परिचित एव प्रभावित मालूम पडते यहाँ विचार करना अनुचित न होगा ।
(१) व्यक्तित्व
श्रीब्रह्मदेवकी रचनाओपरसे उनके व्यक्तित्वका अच्छा परिचय मिलता है । वे प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत तीनो भाषाओके पण्डित थे और तीनोमें उनका अबाध प्रवेश दिखाई देता है । वे अध्यात्मकी चर्चा करते हुए उसके रसमें स्वय तो निमग्न होते ही हैं, किन्तु पाठकोको भी उसमें तन्मय कर देनेकी क्षमता रखते हैं ।' इससे वे स्पष्टतया आध्यात्मिक विद्वान् जान पढते हैं । लेकिन इससे यह न समझ लिया जाय कि वे केवल आध्यात्मिक ही विद्वान् थे । वरन् द्रव्यानुयोगकी चर्चाके साथ प्रथमानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोगके बीसियो ग्रन्थोके उद्धरण देकर वे अपना चारो अनुयोगोका पाण्डित्य एव बहुश्रुतत्व भी ख्यापित करते हैं । पचास्तिकायकी तात्पर्यवृत्तिमे जयसेनने और परमात्मप्रकाशको कन्नड - टीकामें मलघारी बालचन्द्र ने उनका पूरा अनुकरण किया है । पदच्छेद, उत्थानिका, अधिकारों और अन्तराधिकारोकी कल्पना इन दोनो विद्वानोने ब्रह्मदेवसे ली है । शब्दसाम्य और अर्थसाम्य तो अनेकत्र है । समयका विचार करते समय हम आगे दिखायेंगे कि जयसेनका अनुकरण ब्रह्मदेवने नही किया, अपितु ब्रह्मदेवका जयसेनने किया है ।
(२) कृतित्व
ब्रह्मदेवकी निम्न रचनाएँ मानी जाती हैं।
१ परमात्मप्रकाशवृत्ति, २ बृहद्रव्यसग्रहवृत्ति, ३ तत्त्वदीपक, ४ ज्ञानदीपक, ५ त्रिवर्णाचारदीपक, ६ प्रतिष्ठातिलक, ७ विवाहपटल और ८ कथाकोश ।
परन्तु डा० ए० एन० उपाध्ये उनकी दो • प्रामाणिक रचनाएँ बतलाते हैं" - एक परमात्मप्रकाशवृति और दूसरी वृहद्रव्यसग्रहवृत्ति ।
१ परमात्मप्रकाशवृत्ति - परमात्मप्रकाशवृत्ति (परमप्पयासु ) श्री योगीन्द्रदेवकी अपभ्रशमें रची महत्त्वपूर्ण कृति है । इसमें आत्मा ही परमात्मा है, इसपर प्रकाश डाला गया है । ब्रह्मदेवने इसीपर सस्कृतमें अपनी वृत्ति लिखी है, जिसे उन्होने स्वयं 'परमात्मप्रकाशवृत्ति' कहा है । आध्यात्मिक पद्धति, पदच्छेद, उत्थानिका, सन्धिकी यथेच्छता, अधिकारो और अन्तराधिकारोकी कल्पना ये सब बृहद्रव्यसग्रहवृत्तिको तरह इसमें भी हैं । भाषा सरल और सुवोध है ।
(२) बृहद्रव्यसग्रहवृत्ति - इसका परिचय इसी प्रस्तावना में पृष्ठ २३ पर दिया जा चुका है ।
१ परमात्मप्रकाशवृत्ति (नई आवृत्ति), १२१४, पृ० ३५१ ।
२
परमात्मप्रकाश ( नई आवृत्ति), हिन्दी प्रस्तावना पृ० ११६ ।
३
सूत्राणा विवरणभूता परमात्मप्रकाशवृत्ति समाप्ता ।' -डा० उपाध्ये, परमात्मप्रकाश अ० २ - २१४, पृ० ३५० ।
-
२१२ -
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३) समय
___ (१) ब्रह्मदेवने वसुनन्दिके उपासकाध्ययनसे दो गाथाएं (न० २३ व २४) बृहद्रव्यसग्रहवृत्ति (पृ० ७६) में उधत की है और उनका विस्तत व्याख्यान किया है। वसुनन्दिका समय विक्रम स० ११५० है। अत ब्रह्मदेव वसुनन्दि वि० ११५०) से पूर्ववर्ती नही है-उनके उत्तरवर्ती हैं।
____ (२) प० आशाधरजी (वि० स० १२९६) ने अपने सागारधर्मामृत (१-१३) में ब्रह्मदेवकी बृहद्द्रव्यसग्रहवृत्ति (पृ० ३३-३४) का अनुकरण किया है और उनके 'तलवरगृहीततस्कर' का उदाहरण ही नहीं अपनाया, अपितु उनके शब्दो और भावोको भी अपनाया है। अतएव ब्रह्मदेव १० आशाधरजी (वि० स० १२९६) से पूर्ववर्ती है।
(३) ब्रह्मदेवने सम्यग्दृष्टिके पुण्य और पाप दोनोको हेय बतलाते हुए दृष्टान्तके साथ जो इस विषय की गद्य दी है उसका अनुकरण जयसेनने पञ्चास्तिकायकी तात्पर्यवृत्तिमें किया है। इसके कई आधार हैं। पहले, जयसेनने यहां ब्रह्मदेवके दृष्टान्तको तो लिया ही है, उनके शब्दो और भावोको भी अपनाया है।
१ तुलना कीजिए -
(क) — निजपरमात्मद्रव्यमुपादेयम्, इन्द्रियसुखादिपरद्रव्य हि हेयमित्यर्हत्सर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारनयसाध्यसाधकभावेन मन्यते पर किन्तु भरेखादिसदशक्नोधादिद्वितीयकषायोदयेन मारणनिमित्त तलवरगहीततस्करवदात्मनिन्दासहित सन्निन्द्रियसुखमनुभवतीत्यविरतसम्यग्दृष्टलक्षणम् ।
-ब्रह्मदेव, वृ० द्र० वृ०, पृ० ३३-३४ । (ख) भूरेखादिसदृक्कपायवशगो यो विश्वदृश्वाज्ञया, हेय वैषयिक सुख निजमुपादेय त्विति श्रद्धत् । चौरो मारयितु धृतस्तलवरेणेवात्मनिन्दादिमान्, शर्माक्ष भजते रुजत्यपि पर नोत्तप्यते सोऽप्यप ।।
-आशाघर, सागारधर्मामृत, १-१३ । २ (क) यथा कोऽपि देशान्तरस्थमनोहरस्त्रीसमीपादागतपुरुषाणा तदर्थ दानसन्मानादिक करोति तथा
सम्यग्दृष्टिरप्युपादेयरूपेण स्वशुद्धात्मानमेव भावयति निर्दोषपरमात्मस्वरूपाणामहत्सिद्धाना तदाराधकाचार्योपाध्यायसाधना च परमात्मपदप्राप्त्यर्थं विषयकषायवर्जनार्थं च दानपूजादिना परमभक्ति करोति तेन च स्वर्गे देवेन्द्रलौकान्तिकादिविभूति प्राप्य विमानपरीवारादिसपद जीर्णतृणमिव गणयन् पञ्चमहाविदेहेषु गत्वा पश्यति । किं पश्यति, इति चेत्-तदिद समवसरण, त एते वीतरागसर्वज्ञा , त एते भेदाभेदरत्नत्रयाराधका गणधरदेवादयो ये पूर्व श्रूयन्ते इति मत्वा विशेषेण दृढधर्ममतिर्भूत्वा चतुर्थगुणस्थानयोग्यामात्मनोऽविरतावस्थामपरित्यजन् भोगानुभवेऽपि सति धर्मध्यानेन काल नीत्वा स्वर्गादागत्य तीर्थंकरादिपदे प्राप्तेऽपि पूर्वभवभावितविशिष्टभेदज्ञानवासनाबलेन मोह न करोति, ततो जिनदीक्षा गृहीत्वा पुण्यपापरहितनिजपरमात्मध्यानेन मोक्ष गच्छतीति ।'
-बृह० द्र० वृ०, पृ० १५९-१६० । (ख) 'यथा कोपि रामदेवादिपुरुषो देशान्तरस्थसीतादिस्त्रीसमीपादागताना पुरुपाणा तदर्थ दानसन्मानादिक करोति तथा मुक्तिस्त्रीवशीकरणार्थ निर्दोपपरमात्मना तीर्थकरपरमदेवाना तथैव गणधरदेवभरतसगररामपाण्डवादिमहापुरुषाणा चाशुभरागवर्जनाचं शुभधर्मानुरागेण चरित पुराणादिक श्रृणोति भेदाभेदरत्नत्रयभावनारतानामाचार्योपाध्यायादीना गृहस्थावस्थाया च पुननिपूजादिक करोति च तेन
-२१३
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
दूसरे, जयसेनने अपने ढगसे मामूली परिवर्तन (घटा-वढीरूप सुधार) भी किया है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि किसने किसका अनुकरण किया है । उदाहरणके लिए ब्रह्मदेवका 'देशान्तरस्थस्त्री'का दृष्टान्त लीजिए | इसमे जयसेनने 'सीतादि' पद और जोडकर 'देशान्तरस्थसीतादिस्त्री' का दृष्टान्त दिया है। इसी तरह ब्रह्मदेवके 'कोऽपि' पदके साथ 'रामदेवाविपुरुषो' और मिलाकर 'कोऽपि रामदेवादिपुरुषो' ऐसा व्याख्यात्मक पद जयसेनने प्रस्तुत किया है। इस ढगके सुधार और परिवर्तन उत्तरवर्ती ही करता है और इसलिए यह नि सकोच कहा जा सकता है कि जयसेनने ब्रह्मदेवका अनुकरण किया है। तीसरे, पदच्छेद, उत्थानिका, अधिकारी और अन्तराधिकारोकी कल्पना जयसेनने ब्रह्मदेवसे ली है। चौथे, जयसेनने पचास्तिकायमें व्याख्याका ढग वहो अपनाया है, जो ब्रह्मदेवने द्रव्यसग्रह और परमात्मप्रकाशमें अपनाया है। सन्धि न करनेका जो 'सुखबोधार्थ' हेतु ब्रह्मदेवने प्रस्तुत किया है वही जयसेनने दिया है। पांचवें, जयसेनने अपने निमित्त-कथनका समर्थन ब्रह्मदेवनिमित्त-कथनसे किया है और 'अत्र प्राभृतग्रन्थे शिवकुमार महाराजो निमित्तं, अन्यत्र द्रव्यसग्रहावौ सोमश्रष्ठयावि ज्ञातव्यम्' शब्दोको देकर तो उन्होने स्पष्टतया ब्रह्मदेवके अनुकरणको प्रमाणित कर दिया है । इस प्रकार दोनो टीकाकारोकी टीकामोके आभ्यन्तर परीक्षणसे जयसेन निश्चय ही ब्रह्मदेवके उत्तरकालीन विद्वान् ज्ञात होते हैं। जयसेनका समय डा० ए० एन० उपाध्येने ईसाकी वारहवी शताब्दीका उत्तरार्घ निर्धारित किया है। ब्रह्मदेव उक्त आधारोसे उनसे पूर्ववर्ती सिद्ध होनेसे उनका अस्तित्व-समय ईसाकी बारहवी शताब्दीका आरम्भ और विक्रमकी १२ वी शताब्दीका उत्तरार्द्ध (वि० स० ११५० से १२००) ज्ञात होता है।
इस तरह ब्रह्मदेव वसुनन्दि (वि० स० ११५०) से उत्तरवर्ती और जयसेन (वि० स० १२१७) तथा प० आशाधर (वि० स० १२९६) से पूर्ववर्ती अर्थात् वि० स० ११५० से वि० स० १२०० के विद्वान् प्रतीत होते हैं।
प० परमानन्दजी शास्त्रीने ब्रह्मदेव, द्रव्यसग्रहकार मनि नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव और राजा भोजदेव इन तीनोंको समकालीन बतलाया है। परन्तु हम ऊपर देख चुके हैं कि ब्रह्मदेव वसुनन्दि (वि०स० ११५०) से पूर्ववर्ती नही है और नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव वसुनन्दिके साक्षात् गुरु होनेसे उन्हें उनसे २५ वर्ष पूर्व तो होना ही चाहिए अर्थात् नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवका समय वि० स० ११२५ के लगभग है। राजा भोजदेव नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवके गुरु नयनन्दि (वि० स० ११००) द्वारा अपने समयमें उनके राज्यका उल्लेख होनेसे उनके समकालीन है। अत इन तीनोका समय एक प्रतीत नही होता। राजा भोजका वि० स०११०० (वि० १०७४-१११७), नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेवका वि० स० ११२५ और ब्रह्मदेवका वि० स० ११७५ अस्तित्व-स मय सिद्ध होता है।
कारणेन पुण्यानवपरिणामसहितत्वात्तदुभवे निर्वाण न लभते भवान्तरे पुनर्देवेन्द्रादिपद लभते । तत्र विमानपरीवारादिविभूति तृणवद्गणयन् सन् पञ्चमहाविदेहेषु गत्वा समवसरणे वीतरागसर्वज्ञान् पश्यति । निर्दोषपरमात्माराधकगणधरदेवादीना च तदनन्तर विशेषेण दृढधर्मो भूत्वा चतुर्थगुणस्थानयोग्यामात्मभावनामपरित्यजन सन् देवलोके काल गमयति । ततोऽपि जीवितान्ते स्वर्गादागत्य मनुष्यभवे चक्रवर्त्यादिविभूति लब्ध्वापि पूर्वभवभावितशुद्धात्मभावनाबलेन मोह न करोति, ततश्च विषयसुख परिहृत्य जिन
दीक्षा गृहीत्वा निजशुन्द्वात्मनि स्थित्वा मोक्ष गच्छतीति ।'-पचास्तिकायतातपर्य वृ०, पृ० २४३-४४ । १ 'द्रव्यसग्रहके कर्ता और टीकाकारके समयपर विचार' शीर्षक लेख, अनेकान्त (छोटेलाल जैन स्मृति 'अक) पृ० १४५।
-२१४
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
वचनिकाकार प० जयचदजी .
अब वचनिकाकार प० जयचन्दजीके सम्बन्ध में विचार किया जाता है। (१) परिचय
प. जयचन्दजीने स्वय अपना कुछ परिचय सर्वार्थसिद्धि-वचनिकाको अन्तिम प्रशस्तिमें दिया है। उससे ज्ञात है कि वे राजस्थान प्रदेशके अन्तर्गत जयपुरसे तीस मोलकी दूरीपर डिग्गीमालपुरा रोडपर स्थित 'फागई' (फागी) ग्राममें पैदा हुए थे। इनके पिताका नाम मोतीराम था, जो 'पटधारी'का कार्य करते थे । इनकी जाति खण्डेलवाल और गोत्र छावहा था । श्रावक (जैन) धर्मके अनुयायी थे। परिवारमें शुभ क्रियाओका पालन होता था। परन्तु स्वय ग्यारह वर्षकी अवस्था तक जिनमार्गको भूले रहे और जब ग्यारह वर्षके पूरे हुए, तो जिनमार्गको जाननेका ध्यान आया। इसे उन्होने अपना इष्ट और शुभोदय समझा। उसी ग्राममें एक दूसरा जिनमन्दिर था, जिसमें तेरापथकी शैली थी और लोग देव, धर्म तथा गुरुकी श्रद्धा-उत्पादक कथा (वचनिका-तत्त्वचर्चा) किया करते थे। 10 जयचन्दजी भी अपना हित जानकर वहाँ जाने लगे और चर्चा-वार्ता में रस लेने लगे। इससे वहां उनकी श्रद्धा दृढ हो गई और सब मिथ्या बुद्धि छूट गई। कुछ समय बाद वे निमित्त पाकर फागईसे जयपुर आ गये । वहाँ तत्त्व-चर्चा करनेवालोकी उन्होने बहुत बडी शैली देखी, जो उन्हें अधिक रुचिकर लगी। उस समय वहाँ गुणियो, साधर्मीजनो और ज्ञानी पण्डितोका अच्छा
१ काल अनादि भ्रमत ससार, पायो नरभव मैं सुखकार ।
जन्म फागई लयौ सुथानि, मोतीराम पिताके आनि ॥११॥ पायो नाम तहां जयचन्द, यह परजायतणू मकरन्द । द्रव्यदृष्टि में देखें जब, मेरा नाम आतमा कबै ॥१२॥ गोत छावहा श्रावक धर्म, जामे भली क्रिया शुभ कर्म । ग्यारह वर्ष अवस्था भई, तब जिनमारगकी सुधि लही ॥१३॥ आन इष्टको ध्यान अयोगि, अपने इष्ट चलन शुभ जोगि । तहां दूजो मन्दिर जिनराज, तेरापथ पथ तहाँ साज ॥१४॥ देव-धर्म-गुरु सरधा कथा, होय जहाँ जन भाष यथा । तब मो मन उमग्यो तहाँ चलो, जो अपनो करनो है भलो ॥१५॥ जाय तहां श्रद्धा दृढ करी, मिथ्याबुद्धि सबै परिहरी । निमित्त पाय जयपुर में आय, बडी ज़ शैली देखी भाय ॥१६॥ गुणीलोक साधर्मी भले, ज्ञानी पडित बहुते मिले। पहले थे वशीघर नाम, धरै प्रभाव भाव शुभ ठाम ॥१७॥ टोडरमल पडित मति खरी, गोमटसार वचनिका करी । ताकी महिमा सब जन करें, वाचै पढे बुद्धि विस्तर ॥१८॥ दौलतराम गुणी अधिकाय, पडितराय राजमैं जाय । ताकी बुद्धि लसै सब खरी, तीन पुराण वचनिका करी ॥१९॥ रायमल्ल त्यागी गृहवास, महाराम व्रतशील-निवास । मैं हूँ इनकी सगति ठानि, वृघिसारू जिनवाणी जानि ॥२०॥
-सर्वार्थसिद्धिवचनिका, अन्तिम प्रशस्ति ।
-२१५ -
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
समुदाय था। उसमें पडित वशीधरजी उनसे पहले हो चुके थे, जो बड़े प्रभावशाली तथा अच्छे विचारवाद थे। पडित टोडरमलजी उनके समयमें थे और जो बड़े तीक्ष्ण-बुद्धि थे। उनकी गोम्मटसार-वचनिकाकी प्रशसा सभी करते थे। उसीका वाचन, पठन-पाठन और मनन चलता था तथा लोग अपनी बुद्धि बढ़ाते थे। ५० दौलतरामजी कासलीवाल बडे गुणी थे और 'पंडितराय' कहे जाते थे। राजपरिवारमें वे आते-जाते थे। उन्होने तीन पुगणोको वचनिकाएं की थी। उनकी सूक्ष्म बुद्धिकी सर्वत्र सस्तुति होती थी। ब्रह्म रायमल्लजी और शीलवती महारामजी भी उस शैलीमें थे। प० जयचन्दजी इन्ही गुणी-जनो तथा विद्वानोकी सगतिमें रहने लगे थे । और अपनी बुद्धि अनुसार जिनवाणी (शास्त्रो) के स्वाध्यायमें प्रवृत्त हो गये थे । उन्होने जिन ग्रन्थोंका मुख्यतया स्वाध्याय किया था, उनका नामोल्लेख उन्होने इसी प्रशस्तिमें स्वय किया है । सिद्धान्तग्रन्थोके स्वाध्यायके अतिरिक्त न्याय-ग्रन्थो तथा अन्य दर्शनोके ग्रन्थोका भी उन्होने अभ्यास किया था। उनकी वचनिकाओमे भी उनको बहुश्रुतता प्रकट होती है। लगता है कि पडित टोडरमलजी जैसे अलौकिक प्रतिभाके धनी विद्वानोके सम्पर्कसे ही उनकी प्रतिमा जागत हई और उन्हें अनेक ग्रन्थोकी वचनिकाएँ लिखनेकी प्रेरणा मिली।
उक्त प्रशस्तिके आरम्भमें राज-सम्बन्धका भी वर्णन करते हुए उन्होने लिखा है कि जम्वद्वीपके भरतक्षेत्रके आर्यखण्डके मध्यमे 'ढुढाह' देश है। उसको राजधानी 'जयपुर' नगर है। वहाँका राजा 'जगतेश' (जगतसिंह) है, जो अनुपम है और जिसके राज्य में सर्वत्र सुख-चैन है तथा प्रजामें परस्पर प्रेम है। सब अपने-अपने मतानुसार प्रवृत्ति करते है, आपसमें कोई विरोध-भाव नही है । राजाके कई मंत्री हैं । सभी बुद्धिमान और राजनीतिमें निपुण हैं । तथा सब ही राजाका हित चाहनेवाले एव योग्य प्रशासक हैं। इन्हीम एक रायचन्द है, जो बडे गुणी है और जिनपर राजाको विशेप कृपा है । यहां 'विशेष कृपा' के उल्लेखसे जयचन्दजीका भाव राजाद्वारा उन्हें 'दीवान' पदपर प्रतिष्ठित करनेका जान पड़ता है।
इसके आगे इसी प्रशस्तिमें रायचन्दजीके धर्म-प्रेम, साधर्मी-वात्सल्य आदि गुणोकी चर्चा करते हुए उन्होने उनके द्वारा की गई उस चन्द्रप्रमजिनमन्दिरकी प्रसिद्ध प्रतिष्ठा (वि० स० १८६१) का भी उल्लेख किया है, जिनके द्वारा रायचन्दजीके यज्ञ एव पुण्यको वृद्धि हई थी और समस्त जैनसघको बडा हर्ष हुआ था।
जम्बूद्वीप भरत सुनिवेश, आरिज मध्य ढु ढाहह देश । पुर जयपुर तहां सूवस वस, नृप जगतेश अनुपम लस ।।१॥ ताके राजमाहि सुखचैन, धरै लोक कहूँ नाही फैन । अपने-अपने मत सब चलें, शका नाहिं धार शुभ फलैं ॥२॥ नपके मन्त्री सब मतिमान्, राजनीतिमे निपुण पुरान । सर्व ही नपके हितको चहैं, ईति-भीति टारै सुख लहैं ॥३॥ तिनमें रायचन्द गुण धरै, तापरि कृपा भूप अति करै ।
ताके जैन धर्मकी लाग, सब जैननिसू अति अनुराग ।।सर्वार्थसिद्धि वचनिका, अ० प्रशस्ति । २ करी प्रतिष्ठा मदिर नयो, चद्रप्रभ जिन थापन थयौ।।
ताफरि पुण्य बढी यश भयो, सर्व जैननिको मन हरखयौ ॥६॥-सर्वार्थसिद्धि-वचनिका, अ० प्रश०६ ।
-२१६
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रशस्तिमें प० जयचन्दजीने उनके साथ अपने विशेष सम्बन्धका भी सकेत किया है। उनके इस सकेतसे ज्ञात होता है कि रायचन्दजीने निश्चित एव नियमित आर्थिक सहायता देकर उन्हें आर्थिक चिन्तासे मुक्त कर दिया था और तभी वे एकाग्रचित्त हो सर्वार्थसिद्धि-वचनिका लिख सके थे, जिसके लिखने के लिए उन्हें अन्य सभी साधर्मीजनोने प्रेरणा की थी और उनके पुत्र नदलालने भी अनुरोध किया था। प० जयचन्दजीने नदलालके सम्बन्धमें लिखा है कि वह वचपनसे विद्याको पढता-सुनता था। फलत वह अनेक शास्त्रोमें प्रवीण पडित हो गया था।
पडितजी द्वारा दिये गये अपने इस परिचयसे उनकी तत्त्व-बुभुत्सा, जैनधर्ममें अटूट श्रद्धा, तत्त्वज्ञानका आदान-प्रदान, जिनशासनके प्रसारका उद्यम, कपायकी मन्दता आदि गणविशेष लक्षित होते हैं।
पडितजीके उल्लेखानुसार उनके पुत्र प० नन्दलालजी भी गुणी और प्रवीण विद्वान् थे । मूलाचारवचनिकाकी प्रशस्तिमे भी, जो प० नन्दलालजीके सहपाठी शिष्य ऋषभदासजी निगोत्याद्वारा लिखी गई है, प० नन्दलालजीको 'प० जयचन्दजी जैसा बहुज्ञानी' बताया गया है। प्रमेयरत्नमाला-वचनिकाकी प्रशस्ति (पद्य १६) से यह भी मालूम होता है कि प० नन्दलालजीने अपने पिता प० जयचन्दजीकी इस वचनिकाका सशोधन किया था। इससे प० नन्दलालजीकी सूक्ष्म बुद्धि और शास्त्रज्ञताका पता चलता है। प० नन्दलालजी दीवान अमरचन्दजीकी प्रेरणा पाकर मूलाचारको पांच-सौ सोलह गाथाओकी वनिका कर पाये थे कि उनका स्वर्गवास हो गया था। बादमें उस वचनिकाको ऋषभदासजी निगोत्याने पूरा किया था । निगोत्याजीने नन्दलालजीके तीन शिष्योका भी उल्लेख किया है । वे है-मन्नालाल, उदयचन्द और माणिकचन्द ।
प० जयचन्दजीके एक और पुत्रका, जिनका घासीराम नाम था, निर्देश प० परमानन्दजी शास्त्रीने किया है । पर उनका कोई विशेष परिचय उपलब्ध नही है ।
यहाँपर एक बात और ज्ञातव्य है । वह यह कि प० जयचन्दजीकी वचनिकाओंसे सर्व साधारणको तो लाभ पहुंचा ही है, ५० भागचन्दजी (वि० स० १९१३) जैसे विद्वानोके लिए भी वे पथ-प्रदर्शिका हुई है।
१ ताके ढिग हम थिरता पाय, करी वचनिका यह मन लाय ।-वही, प्रश०७। २ भयो बोध तव फछु चितयौ, करन वचनिका मन उमगयो ।।
सव साघरमी प्रेरण करी, ऐसे में यह विधि उच्चरी ॥-वही, प्रश० पद्य १० । ३, ४ नदलाल मेरा सुत गुनी, बालपने से विद्या सुनी।
पडित भयौ बढ़ी परवीन, ताहूने प्रेरण यह कीन ।।-वही, प्रश० पद्य ३१ । ५ तिन सम तिनके सुत भये, वहुज्ञानी नन्दलाल ।
गाय-वत्स जिम प्रेमकी, बहुत पढाये बाल ।।-मूला० वच० प्रश० । ६ लिखी यह जयचन्दन, सोधी सुत नन्दलाल ।
बुध लखि भूलि जु शुद्ध करि, बाँचौ सिखंवो बाल ||-प्रमेयर० वच० प्र० पद्य १६ । ७ मूलाचारवचनिका प्रशस्ति । ८ तव उद्यम भाषातणो, करन लगे नन्दलाल ।
मन्नालाल अरु उदयचन्द, माणिकचन्द जु वाल ।।-मूलाचारवचनिका प्रश० । ९ १० जयचन्द और उनकी साहित्य-सेवा' शीर्षक लेख, अनेकान्त वर्ष १३, कि० ७, पृ० १७१ ।
-२१७
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाणपरीक्षाकी अपनी वचनिका - प्रशस्ति में वे प० जयचन्दजोके प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए लिखते है कि उनकी वचनिकाओको देखकर मेरी भी ऐसी बुद्धि हुई, जिससे मैं प्रमाण-शास्त्रका उत्कट रसास्वादन कर सका और अन्य दर्शन मुझे नीरस जान पड़े।
२ समय
प० जयचन्दजीका समय सुनिश्चित है। इनकी प्राय सभी कृतियो ( वचनिकाओ) में उनका रचनाकाल दिया हुआ है | जन्म वि० स० १७९५ और मृत्यु वि० स० १८८१-८२ के लगभग मानी जाती है । रचनाओके निर्माणका बारम्भ बि० स० १८५९ से होता है और वि० स० १८७४ तक वह चलता है। प्राप्त रचनाएँ इन सोलह वर्षोंकी ही रची उपलब्ध होती हैं। इससे मालूम होता है कि ग्यारह वर्षकी अवस्यासे लेकर चौसठ वर्षकी अवस्था तक अर्थात् तिरेपन वर्ष उन्होने शास्त्रोके गहरे पठन-पाठन एव मननमें व्यतीत किये थे । और तदुपरान्त ही परिणत वयमें साहित्य-सृजन किया था। अत जयचन्दजीका अस्तित्व समय विक्रम स० १७९५- १८८२ है ।
३ साहित्यिक कार्य
इनकी मौलिक रचनाएँ और वचनिकाएँ दोनो प्रकारकी कृतियां उपलब्ध हैं । पर अपेक्षाकृत वचनिकाएँ अधिक हैं । मौलिक रचनाओंमें उनके संस्कृत और हिन्दीमें रचे गये भजन ही उपलब्ध होते हैं, जो विभिन्न राग-रागिनियो में लिखे गये हैं और 'नयन' उपनामसे प्राप्त हैं । उनकी वे रचनाएँ निम्न प्रकार हैं
-
१ तत्त्वार्थसून वचनिका
२ सर्वार्थसिद्धि वचनिका *
३ प्रमेयरत्नमाला वचनिका*
४ स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा-वच निका*
५ द्रव्यसंग्रह - वच निका*
६ समयसार वचनिका*
(आत्मख्याति सस्कृत टीका सहित की)
७ देवागम (आप्तमीमासा ) - वचनिका
८ अष्टपाहुड-वच निका*
९ ज्ञानार्णव वचनिका*
१० भवतामरस्तोत्र - वच निका
१ जयचन्द इति ख्यातो जयपुर्यामभूत्सुघी । दृष्ट्वा यस्याक्षरन्यास मादृशोऽपीदृशी मति ॥ १॥
यया प्रमाणशास्त्रस्य सस्वाद्य रसमुल्वणम् । नैयायिकादिसमया भासन्ते सुष्ठु नीरसा ॥२॥
वि० सं० १८५९ चैत्रशुक्ला ५० १८६१ आषाढ शु० ४ स० १८६३ श्रावण कृ० ३ स० १८६३ श्रावण कृ० १४ स० १८६३ कार्तिक कृ० १० स० १८६४
चैत्र कृ० १४ वि० स० १८६६ भाद्र शु० १२० १८६७
- २१८
माघ कृ० ५ स० १८६९ कार्तिक कृ० १२० १८७०
प्रमाणपरीक्षा वचनिका अन्तिम प्रश० ।
२ वीरवाणी (स्मारिका) वर्ष १७, अक १३ ५० ५० तथा ९५ ।
★ स्वयके हाथसे लिखी चिह्नाकित ग्रन्य-प्रतियां दि० जैन वटा मन्दिर, जयपुर में उपलब्ध है । वीर वाणी (स्मारिका) १०९५ ।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
११. पदोंकी पुस्तक [मौलिक
(२४६ पदोका संग्रह) आषाढ शु० १० सं० १८७४ १२ सामायिकपाठ-बच निका १३ पत्रपरीक्षा-वचनिका १४ चन्द्रप्रभचरित-द्वितीयसर्ग-वचनिका १५ मतसमुच्चय-वच निका १६ धन्यकुमारचरित-वचनिका इन रचनाओका परिचय उनके ही नामसे विदित हो जाता है। अत वह छोडा जाता है।
उपर्युक्त विवेचनसे प्रकट होता है कि पण्डित जयचन्दजी छावडा विशिष्ट शास्त्राभ्यासी, बहज्ञानी, सस्कृत-प्राकृत-हिन्दी भाषाओंके ज्ञाता, हिन्दीगद्य-पद्यसाहित्यकार, प्रवक्ता, चारित्रवान, भद्रपरिणामी और आध्यात्मिक विद्वान् थे । जनदर्शनके साथ ही अन्य भारतीय दर्शनोके भी मर्मज्ञ थे। उनकी शासन-सेवा एव साहित्यिक कृतियां उन्हें चिरस्मरणीय रखेंगी।
Domeneige
-२१९
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
शासनयरिंशिका और मदन १. शासन चतुस्त्रिशिका
१ प्रति - परिचय
'शासन-चतुस्त्रिशिका की यही एक प्रति जैन साहित्य उपलब्ध जान पडती है। यह हमें य प० नाथूरामजी प्रेमी बम्बईके अनुग्रहसे प्राप्त हुई।
इसके अलावा प्रयत्न करनेपर भी अन्यत्रसे कोई प्रति प्राप्त नही हो सकी । इसकी लम्बाई चौडाई १० x ६ इच है । दायी और बायी दोनो ओर एक-एक इचका हाशिया छूटा हुआ है। इसमें कुल पाँच पत्र हैं और अन्तिम पत्रको छोडकर प्रत्येक पत्र में १८१८ पक्तिया तथा प्रत्येक पक्ति प्राय ३२, ३२ अक्षर है । अन्तिम पत्र में (९+३= ) १२ पक्तियां और हरेक पक्तिमें उपर्युक्त ( ३२, ३२) जितने अक्षर हैं। कुछ टिप्पण भी साथ में कही-कही लगे हुए हैं जो मूलको समझने में कुछ मदद पहुँचाते हैं । यह प्रति काफी ( सम्भवत चार-पाँचसो वर्षकी ) प्राचीन प्रतीत होती है और बहुत जीर्ण-शीर्ण दशामें है । लगभग पालीस पैतालिस स्थानपर तो इसके अक्षर अथवा पद-चानवादि पशोके परस्पर चिपक जाने आदिके कारण प्राय मिट गये हैं और जिनके पढ़ने में घटी कठिनाई महसूस होती हूँ इस कठिनाईका प्रेमीजीने भी अनुभव किया है और अपने 'जैन साहित्य और इतिहास' (१० १३९ के फुटनोट) में प्रतिका कुछ परिचय देते हुए लिखा है - "इस प्रतिमें लिखनेका समय नहीं दिया है परन्तु वह दो-तीनसौ वर्षसे कम पुरानी नहीं मालूम होती । जगह-जगह अक्षर उड गये हैं जिससे बहुतसे पद्य पूरे नही पढे जाते ।" हमने सन्दर्भ, अर्थसगति, अक्षर-विस्तारकयन्त्र आदिसे परिश्रमपूर्वक सब जगहके अक्षरोको पढ कर पधोको पूरा करनेका प्रयत्न किया है सिर्फ एक जगह अक्षर नही पड़े गये और इसलिये वहाँपर ऐसे बिन्दु बना दिये गये हैं । जान पडता है कि अबतक इसके प्रकाशमें न आसकनेका यही कारण रहा है।
यदि यह जीर्ण-शीर्ण प्रति भी न मिली होती तो जैन साहित्यकी एक अनमोल कृति और उसने रपपिता एवं अपने समय विख्यात विद्वानके सम्बन्धमें कुछ भी लिखने का अवसर न मिलता न मालूम ऐसीऐसी कितनी साहित्यिक कृतियाँ जैन साहित्य भण्डारमें सड-गल गई होंगी और जिनके नामशेष भी नही हैं | आचार्य विद्यानन्दका विद्यानन्दमहोदय, अनन्तवीर्यका प्रमाणसग्रहभाष्य आदि बहुमूल्य ग्रन्थरन हमारे प्रमाद और लापरवाहीसे जैन-वाड्मयण्डारोमें नही पाये जाते थे या तो नष्ट हो गये या अन्यत्र चले गये । ऐसी हालत में इस उत्तम और जीर्ण-शीर्ण कृतिको प्रकाशमें लाने की कितनी जरूरत थी, यह स्वय प्रकट है ।
ग्रन्थ- परिचय
'शासनचतुरिवशिका' एक छोटी-सी विन्तु सुन्दर एवं मौलिक रचना है। इसके रचयिता विक्रमकी १३वी शताब्दीके सुविख्यात विद्वान् मुनि मदनफीति है। इसमें कोई २६ तीर्थस्थानो - ८ सिद्धी १८ अतिशय तीर्थक्षेत्रका परम्परा अथवा अनुभूतिसे यथाशात इतिहास एक-एक पथमें अतिक्षेप एव सकेत
और
- २२० -
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
रूपमें निवद्ध है । साथ ही उनके प्रभावोल्लेखपूर्वक दिगम्बरशासनका महत्त्व स्थापित करते हुए प्रत्येक पद्यमें उसका जयघोष किया गया है ।
जैन तीर्थोके ऐतिहासिक परिचयमें जिन रचनाओ आदिसे विशेष मदद मिल सकती है उनमें यह रचना भी प्राचीनता आदिकी दृष्टिसे अपना विशिष्ट स्थान रखती है ।
विक्रम संवत् १३३४में रचे हुए चन्द्रप्रभसूरि के प्रभावकचरित्र, विक्रम संवत् १३६१ में निर्मित मेरुतुङ्गाचार्य के प्रबन्धचिन्तामणि, विक्रम संवत् १३८९ में पूर्ण हुए जिनप्रभसूरिके विविधतीर्थंकल्प और विक्रम सवत् १४०५ में निर्मित राजशेखरसूरिके प्रबन्धकोश ( चतु विंशतिप्रबन्ध) में भी जैनतीर्थों के इतिहास की सामग्री पायी जाती है । मुनि मदनकीर्तिकी, जिन्हें 'महाप्रामाणिकचूडामणि' का विरुद प्राप्त था और जिसका उल्लेख राजशेखर स्त्रिने अपने उक्त प्रबन्धकोश (पृष्ठ ६४ ) में किया है और उनके सम्बन्धका एक स्वतन्त्र 'मदन कीर्तिप्रबन्ध' नामका प्रबन्ध भी लिखा है, यह कृति इन चारो रचनाओसे प्राचीन (विक्रम संवत् १२८५ के लगभगकी रची) है । अत यह रचना जनतीर्थोके इतिहास के परिचय में विशेष उल्लेखनीय है |
इसमें कुल ३६ पद्य हैं, जो अनुष्टुप् छन्दमें प्राय ८४ श्लोक जितने हैं । इनमें नवरहीन पहला पद्य अगले ३२ पद्योके प्रथमाक्षरोसे रचा गया है और जो अनुष्टुप् वृत्तमें है । अन्तिम ( ३५वा) पद्य प्रशस्ति-पद्य है, जिसमें रचयिताने अपने नामोल्लेख के साथ अपनी कुछ आत्मचर्या दी है और जो मालिनी छन्द में है । शेष ३४ पद्य ग्रन्थ-विषयसे सम्बद्ध है, जिनकी रचना शार्दूलविक्रीडित वृत्तमें हुई हैं । इन चौतीस पद्य में दिगम्बर शासन के प्रभाव और विजयका प्रतिपादन होनेसे यह रचना 'शासनचतुस्त्रिशि ( शति ) का' अथवा शासन चौंतीसी' जैसे नामोसे दि० जैनसाहित्यमें प्रसिद्ध है ।
विषय - परिचय
इसमें विभिन्न तीर्थस्थानो और वहाँके दिगम्बर जिनबिम्बोके अतिशयो, माहात्म्यो और प्रभावोके प्रदर्शनद्वारा यह बतलाया गया है कि दिगम्बरशासन अपनी अहिंसा, अपरिग्रह (निर्ग्रन्थता ), स्याद्वाद आदि विशेषताओके कारण सब प्रकारसे जयकारकी क्षमता रखता है और उसके लोकमें बडे प्रभाव तथा अतिशय रहे हैं । कैलासका ऋषभदेवका जिनबिम्ब, पोदनपुरके बाहुबलि, श्रीपुरके पार्श्वनाथ, हुलगिरि अथवा होलागिरिके शङ्खजिन, धाराके पार्श्वनाथ, बृहत्पुरके वृहद्देव, जैनपुर (जनविद्री ) के दक्षिण-गोम्मटदेव, पूर्वदिशाके पार्श्वजिनेश्वर, विश्वसेनद्वारा समुद्रसे निकाले शान्तिजिन, उत्तर दिशाके जिनबिम्व सम्मेदशिखर के बीस तीर्थङ्कर, पुष्पपुरके श्री पुष्पदन्त, नागद्रह के नागहृदेश्वरजिन, सम्मेदशिखरकी अमृतवापिका, पश्चिम समुद्रतटके श्रीचन्द्रप्रभजिन, छायापाश्र्वप्रभु, श्रीआदिजिनेश्वर, पावापुरके श्रीवीरजिन, गिरनारके श्रीनेमिनाथ, चम्पापुरके श्रीवासुपूज्य, नर्मदा के जलसे अभिषिक्त श्रीशान्तिजिनेश्वर, आश्रम' या आशारम्यके श्रीमुनिसुव्रतजिन, विपुलगिरिका जिनबिम्ब, विन्ध्यागिरिके जिनचैत्यालय, मेदपाट (मेवाड ) देशस्थ नागफणी ग्रामके श्रीमल्लिजिनेश्वर और मालवादेशके मङ्गलपुरके श्री अभिनन्दनजिन इन २६के लोक-विश्रुत अतिशयोका इसमें समुल्लेख हुआ है । इसके अलावा यह भी प्रतिपादन किया गया है कि स्मृतिपाठक, वेदान्ती, वैशेषिक, मायावी, योग, साख्य, चार्वाक और बौद्ध इन दूसरे शासनोद्वारा भी दिगम्बरशासन कई बातोमं समाश्रित हुआ है ।
१ उदयकीर्तिमुनिकृत अपभ्रंशनिर्वाणभक्ति में आश्रम और प्राकृत निर्वाणकाण्ड गाथा २० में आशा रम्यनगरका उल्लेख है ।
- २२१ -
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस तरह यह रचना जहाँ दिगम्बरशासनके प्रभावकी प्रकाशिका है वहां इतिहास प्रेमियोंके लिए इतिहासानुसन्धानकी इसमे महत्त्वपूर्ण सामग्री भी है। अत' इसकी उपादेयता तथा उपयोगिता स्पष्ट है। इसका एक-एक पद्य एक-एक स्वतन्त्र निबन्धका विषय है।
२. मुनि मदनकीर्ति अब बिचारणीय है कि इसके रचयिता मुनि मदनकी ति कब हुए हैं, उनका निश्चित समय क्या है और वे किस विशेष अथवा सामान्य परिचयको लिवे हए है ? अत इन बातोपर यहां कुछ विचार किया जाता हैसमय-विचार
(क) जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, कि श्वेताम्बर विद्वान् राजशेखरमूरिने विक्रम स० १४०५ में प्रवन्धकोप लिखा है जिसका दूसरा नाम चतुर्विशतिप्रवन्ध भी है। इसमे २४ प्रसिद्ध पूरुपो१० आचार्यों, ४ सस्कृतभापाके सुप्रसिद्ध कवि-पण्डितो, ७ प्रसिद्ध राजाओ और ३ राजमान्य सद्गृहस्थोके प्रबन्ध (चरित) निबद्ध है । सस्कृतभाषाके जिन ४ सुप्रसिद्ध कवि-पण्डितोके प्रवन्ध इसमें निबद्ध हैं उनमें एक प्रबन्ध दिगम्बर विद्वान विशालकोतिके प्रख्यात शिष्य मदनकीतिका भी है और जिसका नाम 'मदनकीर्ति-प्रबन्ध' है । इस प्रबन्धमें मदनकीतिका परिचय देते हए राजशेखरसरिने लिखा है कि "उज्जयिनीमें दिगम्बर विद्वान् विशालकीर्ति रहते थे। उनके मदनकीर्तिनामका एक शिष्य था। वह इतना बडा विद्वान् था कि उसने पूर्व, पश्चिम और उत्तरके समस्त वादियोको जीत कर 'महाप्रामाणिकचूडामणि'के विरुदको प्राप्त किया था। कुछ दिनोके बाद उसके मन में यह इच्छा पैदा हुई कि दक्षिणके वादियोको भी जीता जाय और इसके लिए उन्होने गुरुसे आज्ञा मागी। परन्तु गुरुने दक्षिणको 'भोगनिधि' देश बतलाकर वहाँ जानेकी आज्ञा नहीं दी। किन्तु मदनकीति गुरुकी आज्ञाको उलघ करके दक्षिणको चले गये। मार्गमें महाराष्ट्र आदि देशोंके वादियोको पददलित करते हुए कर्णाट देश पहुँचे । कर्णाटदेशमें विजयपुर में जाकर वहाँके नरेश कुन्तिभोजको अपनी विद्वत्ता और काव्यप्रतिभासे चमत्कृत किया और उनके अनुरोध करनेपर उनके पूर्वजोंके सम्बन्धमें एक ग्रन्थ लिखना स्वीकार किया । मदनकीर्ति एक दिनमें पांचसौ श्लोक बना लेत थे, परन्तु स्वय उन्हें लिख नही सकते थे। अतएव उन्होने राजासे सुयोग्य लेखककी मांग की। राजाने अपनी सुयोग्य विदुषी पुत्री मदनमजरीको उन्हें लेखिका दी । वह पके भीतरसे लिखती जाती थी और मदनकीति धाराप्रवाहसे बोलते जाते थे। कालान्तरमें इन दोनोमें अनुराग होगया जब गुरु विशालकीतिको यह मालूम हुआ तो उन्होने समझानेके लिये पर लिखे और शिष्योको भेजा । परन्तु मदनकीर्तिपर उनका कोई असर न हुआ ।' इस प्रबन्धके कुछ आदिभागको यहाँ दिया जाता है
"उज्जयिन्या विशालकीर्तिदिगम्बर । तच्छिष्यो मदनकीति । स पूर्वपश्चिमोत्तरासु तिसृषु दिक्षु वादिन सर्वान् विजित्य 'महाप्रामाणिकचूडामणि ' इति विरुदमुपाय॑ स्वगुर्वलकृतामुज्जयिनीमागात् । गुरूनवन्दिष्ट । पूर्वमपि जनपरम्पराश्रुततत्कीति स मदनकीर्ति भूयिष्ठमश्लाघिष्ठ । सोऽपि प्रामोदिष्ट । दिनकतिपयानन्तर च गुरु न्यगदीत-भगवन् । दाक्षिणात्यान् वादिनो विजेतुमोहे । तत्र गच्छामि । अनुज्ञा दीयताम् । गुरुणोक्तम्-वत्स | दक्षिणा मा गा । स हि भोगनिधिर्देश । को नाम तत्र गतो दर्शन्यपि न तपसो भ्रश्येत् । एतद्गुरुवचन विलध्य विद्यामदाध्मातो जालकुद्दालनि श्रेण्यादिभि प्रभूतश्च शिष्य परिकरितो महाराष्ट्रादिवादिनो मृद्ग्रन् कर्णाटदेशमाप ।
तम विजयपुरे कुन्तिभोज नाम राजान स्वय विद्यविदं विद्वप्रिय सदसि निषण्णं स द्वास्थनिवेदितो ददर्श । तमुपश्लोकयामास ।" इत्यादि ।
-२२२
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस प्रबन्धसे दो बातें स्पष्ट है। एक तो यह कि मदनकीति निश्चय ही एक ऐतिहासिक सुप्रसिद्ध विद्वान् हैं और वे दिगम्बर विद्वान् विशालकीर्तिके सुविख्यात एव 'महाप्रामाणिकचूडामणि' की पदवी प्राप्त वादिविजेता शिष्य थे तथा इन प्रबन्धकोशकार राजशेखरसूरि अर्थात् विक्रम स० १४०५ से पहले हो गये हैं। दूसरी बात यह कि वे विजयपुरनरेश कुन्तिभोजके समकालीन हैं । और उनके द्वारा सम्मानित हए थे। ।
अब देखना यह है कि कुन्तिभोजका समय क्या है ? जैन-साहित्य और इतिहासके प्रसिद्ध विद्वान् प० नाथूरामजी प्रेमीका अनुमान है कि प्रबन्धकोपवर्णित विजयपुरनरेश कुन्तिभोज और सोमदेव (शब्दार्णवचन्द्रिकाकार) वणित वीरभोजदेव एक ही हैं । सोमदेवमुनिने अपनी शब्दार्णवचन्द्रिका कोल्हापुर प्रान्तके अर्जुरिका ग्राममें वादीभववाङ्कश विशालकीति पण्डितदेवके वैयावृत्यसे वि० स० १२६२ में बनाकर समाप्त की थी और उस समय वहां वीर-भोजदेवका गज्य था। सम्भव है विशालकीति अपने शिष्य मदनकीतिको समझानेके लिये उघर कोल्हापुरकी तरफ गये हो और तभी उन्होंने सोमदेवकी वैयावृत्त्य की हो।' प्रेमीजीकी मान्यतानुसार कुन्तिभोजका समय विक्रम स० १२६२के लगभग जान पडता है और इस लिये विशालकीर्तिके शिष्य मदनकोतिका समय भी यही विक्रम स० १२६२ होना चाहिये।
(ख) पण्डित आशाघरजीने अपने जिनयज्ञकल्पमें, जिसे प्रतिष्ठासारोद्धार भी कहते हैं और जो विक्रम सवन् १२८५ में बनकर समाप्त हुआ है, अपनी एक प्रशस्ति दी है । इस प्रशस्ति में अपना विशिष्ट परिचय देते हुए एक पद्य में उन्होने उल्लेखित किया है कि वे मदनकीत्तियतिपतिके द्वारा 'प्रज्ञापुञ्ज' के नामसे अभिहित हुए थे अर्थात् मदनकीत्तियतिपतिने उन्हें 'प्रज्ञापुञ्ज' कहा था। मदनकीत्तियतिपतिके उल्लेखवाला उनका वह प्रशस्तिगत पद्य निम्न प्रकार है -
इत्युदयसेनमुनिना कविसुहृदा योऽभिनन्दित प्रीत्या ।
प्रज्ञापुञ्जोऽसीति च योऽभिहि (म) तो मदनकोत्तियतिपतिना ॥ इस उल्लेखपरसे यह मालूम हो जाता है कि मदनकीतियतिपति, पण्डित आशाधरजीके समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती विद्वान् थे और विक्रम सवत् १२८५के पहले वे सुविख्यात हो चुके थे तथा साधारण विद्वानो एव मुनियोमें विशिष्ट व्यक्तित्वको भी प्राप्त कर चुके थे और इसलिये यतिपति-मुनियोके आचार्य माने जाते थे। अत इस उल्लेखसे मदनकोत्ति विक्रम सवत १२८५ के निकटवर्ती विद्वान सिद्ध होते है।
(ग) मदनकोत्तिने शासनचतुस्थिशिकामें एक जगह (३४वें पद्य में) यह उल्लेख किया है कि आततायी म्लेच्छोने भारतभूमिको रोते हुए मालवदेशके मङ्गलपुर नगर में जाकर वहाँके श्रीअभिनन्दन-जिनेन्द्रकी मूर्तिको भग्न कर दिया और उसके टुकड़े-टुकडे हो गये, परन्तु वह जुड गयी और सम्पूर्णावयव बन गई और उसका एक बहा अतिशय प्रकटित हुआ। जिनप्रभसूरिने अपने विविधतीर्थकल्प अथवा कल्पप्रदीपमें, जिसकी
१ जैनसाहित्य और इतिहास पृ० १३९ । २ उक्त ग्रन्थके पृ० १३८के फटनोटमें उधत शब्दार्णवचन्द्रिकाकी अन्तिम प्रशस्ति । ३ विक्रमवर्पसपचाशीतिद्वादशशतेष्वतीतेषु ।
आश्विनसितान्त्यदिवसे साहसमल्लापराक्षस्य ।।१९।। ४ यही प्रशस्ति कुछ हेर-फेरके साथ उनके सागारधर्मामृत आदि दूसरे कुछ ग्रन्थोमें भी पाई जाती है ।
-२२३ -
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
रचना उन्होने विक्रम स० १३६४ से लगाकर विक्रम सं० १३८९ तक २५ वर्षों में की है', एक 'अवन्तिदेशस्थ-अभिनन्दनदेवकल्प' नामका कल्प निवद्ध किया है। इसमें उन्होने भी म्लेच्छमेनाके द्वारा अभिनन्दनजिनकी मूर्ति के भग्न होनेका उल्लेख किया है और उसके जुडने तथा अतिशय प्रकट होनेका वृत्त दिया है और बतलाया है कि यह घटना मालवाधिपति जयसिंहदेव के राज्यकालसे कुछ वर्ष पूर्व हो ली थी और जव उसे अभिनन्दन जिनका आश्चर्यकारी अतिशय सुनने में आया तो वह उनकी पूजाके लिये गया और पूजा करके अभिनन्दनजिनकी देखभाल करने वाले अभयकोति आदि मठपति आचार्यों (भट्टारको) के लिये देवपूजार्थ २४ हलकी खेती योग्य जमीन दी तथा १२ हलकी जमीन देवपूजकोके वास्ते प्रदान की। यथा
"तमतिशयमतियायिन निशम्य श्रीजयसिंहदेवो मालवेश्वर स्फरभक्तिप्राग्भारभास्वरान्त करण स्वामिन स्वयमपूजयत् । देवपूजाथं च चतुर्विशतिहलकृष्यां भूमिमदत्त मठपतिभ्य । द्वादशहलबाह्या चावनी देवार्चकम्य प्रददाववन्तिपसि । अद्यापि दिग्मण्डलव्यापिप्रभाववैभवो भगवानभिनन्दनदेवस्तत्र तथैव पूज्यमानोऽस्ति ।" -विविधतीर्थ० पृ० ५८ ।
जिनप्रभसूरिद्वारा उल्लिखित यह मालवाधिपति जयसिंहदेव द्वितीय जयसिंहदेव जान पडता है, जिसे जैतुगिदेव भी कहते है और जिसका राज्यसमय विक्रम स० १२९० के बाद और विक्रम स० १३१४ तक वतलाया जाता है । पण्डित आशाघरजीने विपष्टिस्मृतिशास्त्र, सागारधर्मामृतटीका और अनगारधर्मामृतटीका ये तीन ग्रन्थ क्रमश वि० स० १२९२, १२९६ और १३०० मे इसी (जयसिंहदेव द्वितीय अथवा जैतुगिदेव) के राज्यकालमें बनाये है। जिनयज्ञकल्पकी प्रशस्ति (पद्य ५) में पण्डित आशाघरजीने यहां ध्यान देने योग्य एक बात यह लिखी है कि 'म्लेच्छपति साहिदीनने जब सपादलक्ष (सवालाख) देश (नागौर-जोधपुरके आसपासके प्रदेश) को ससैन्य आक्रान्त किया तो वे अपने सदाचारकी हानिके भयसे वहांसे चले आये और मालवाकी धारा नगरीमें मा बसे । इस समय वहां विन्ध्यनरेश (विक्रम स० १२१७ से विक्रम स०१२४९) का राज्य था।' यहाँ पण्डित आशाधरजीने जिस मुस्लिम वादशाह साहिवुद्दीनका उल्लेख किया है वह शहाबुद्दीनगोरी है । इसने विक्रम स० १२४९ (ई० सन् ११९२) में गजनीसे आकर भारतपर हमला करके दिल्लीको हस्तगत किया था और उसका १४ वर्ष तक राज्य रहा। और इसलिये असम्भव नही इसी माततायी बादशाह अथवा उमके सरदारोने ससैन्य उक्त १४ वर्षोंमें किसी समय मालवाके उल्लिखित धन-धान्यादिसे भरपूर मङ्गलपुर नगरपर धावा मारा हो और हीरा-जवाहरातादिके मिलनेके दुर्लोभ अथवा धार्मिक विद्वेषसे वहाँ के लोकविश्रुत श्रीमभिनन्दनजिनके चैत्यालय और विम्बको तोहा हो और उसोका उल्लेख मदनकीतिने "म्लेच्छ प्रतापागत" शब्दो द्वारा किया हो। यदि यह ठीक हो तो यह कहा जा सकता है कि
१ मुनिजिनविजयजी द्वारा सम्पादित विविधतीर्थकल्पकी प्रस्तावना पृ० २ ।
जैनसाहित्य और इतिहास, पृ० १३४ । ३ इन ग्रन्थोंकी अन्तिम प्रशस्तियाँ। ४ म्लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षति
प्रासाद्विन्ध्यनरेन्द्रदो परिमलस्फूर्जस्त्रिवर्गाजसि । प्राप्तो मालवमण्डले बहुपरोवार पुरीमावसन् यो धारामपठन्जिनप्रमितिवाक्शास्त्रे महावीरत ॥५॥ 'म्लेच्छेशेन साहिबुदीन तुरुष्कराजेन' -सागारधर्मा० टीका पृ० २४३ ।
-२२४
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
मदनकीर्त्तिने इस शासनचतुस्त्रिशिकाको विक्रम स० १२४९ और वि० स० १२६३ या वि० स० १३१४ के भीतर किसी समय रचा है और इसलिए उनका समय इन सवतोका मध्यकाल होना चाहिये ।
इस ऊहापोहसे हम इस निष्कर्षपर पहुँचते हैं कि मदन कीर्तिका वि० स० १२८५ के प० आशाधरजीकृत जिनयज्ञकल्पमें उल्लेख होनेसे वे उनके कुछ पूर्ववर्ती विद्वान् निश्चित्रूपमें हैं, और इसलिये उनका वि० स० १२८५ के आसपासका समय सुनिश्चित है ।
स्थानादि - विचार
समयका विचार करनेके बाद अब मदनकीर्तिके स्थान, गुरुपरम्परा, योग्यता और प्रभावादिपर भी कुछ विचार कर लेना चाहिए । मदनकीर्ति वादीन्द्र विशालकीर्तिके शिष्य थे और वादीन्द्र विशाल कोर्ति प० आशाधरजीसे न्यायशास्त्रका अभ्यास किया था । प० आशावरजीने धारामें रहते हुए ही उन्हें न्यायशास्त्र पढाया था और इसलिये उक्त दोनो विद्वान् ( विशालकीर्ति तथा मदनकीर्ति) भी धारामें ही रहते थे । राजशेखरसूरिने भी उन्हें उज्जयिनीके रहनेवाले वतलाया है । अत मदनकीर्तिका मुख्यत स्थान उज्जयिनी (धारा) है। ये वाद-विद्यामें बडे निपुण थे । चतुर्दिशाओके वादियोको जीतकर उन्होने 'महाप्रामाणिक - चूडामणि' की महनीय पदवी प्राप्त की थी। ये उच्च तथा आशु कवि भी थे । कविता करनेका इन्हें इतना उत्तम अभ्यास था कि एक दिनमें ५०० श्लोक रच डालते थे । विजयपुर के नरेश कुन्तिभोजको इन्होने अपनी काव्यप्रतिभासे आश्चर्यान्वित किया था और इससे वह बडा प्रभावित हुआ था । पण्डित आशाधरजीने इन्हें 'यतिपति' जैसे विशेषणके साथ उल्लेखित किया है । इन सब बातोसे इनकी योग्यता और प्रभावका अच्छा आभ स मिलता है ।
संभव है राजाकी विदुषी पुत्री और इनका आपसमें अनुराग हो गया हो और ये अपने पदसे च्युत हो गये हो, पर वे पीछे सम्हल गये थे और अपने कृत्यपर घृणा भी करने लगे थे। इस बातका कुछ स्पष्ट आभास उनकी इसी शासनचतुस्त्रिशतिकाके " यत्पापवासाद्वालोय" इत्यादि प्रथम पद्य और " इति हि मदनकोर्तिश्चिन्तयन्नाऽऽत्मचित्ते" इत्यादि ३५ वें पद्यसे होता है और जिसपरसे मालूम होता है कि वे कठोर तपका आचरण करते तथा अकेले विहार करते हुए इन्द्रियो और कषायोकी उद्दाम प्रवृत्तियोको कठोरतासे रोकने में उद्यत रहते थे और जीवमात्र के प्रति बन्धुत्वकी भावना रखते थे । तात्पर्य यह कि मदनकीर्ति अपने अन्तिम और दंगम्बरी वृत्ति तथा भावनासे अपना
गये थे
उनका स्वर्गवास कब, कहाँ और किस अवस्था में
।
।
पर इतना जरूर कहा जा सकता है कि वे मुनि
जीवन में प्रायश्चित्तादि लेकर यथावत् मुनिपदमें स्थित समय यापन करते थे, ऐसा उक्त पद्योसे मालूल होता है हुआ, इसको जाननेके लिये कोई साधन प्राप्त नही है अवस्थामें ही स्वर्गवासी हुए होगे, गृहस्थ अवस्थामे नहीं, क्योंकि अपने कृत्यपर पश्चात्ताप करनेके बाद पूर्ववत् मुनि होगये थे और उसी समय यह शासनचतुस्त्रिशिका रची, ऐसा उसके अन्त परोक्षणपरमे प्रकट होता है ।
राजशेखरसूरिने कुछ घटा-बढाकर उनका चरित्र चित्रण किया जान पडता है । प्रेमीजीने' भी उनके इस चित्र पर अविश्वास प्रकट किया है और मदनकीर्तिसे सौ वर्ष वाद लिखा होनेसे 'घटनाको गहरा रग देने' या 'तोडे मरोढे जाने' तथा 'कुछ तथ्य' होनेका सूचन किया है । जो हो, फिर भी उसके ऐतिहासिक तथ्यका मूल्याकन होना चाहिए ।
१ जैनसाहित्य और इतिहास प० १३९ ।
न-२९
- २२५ -
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस रचनाके अलावा मदनकीर्तिकी ओर भी रचनाएँ हैं या नहीं, यह अज्ञात है । वर विजयपुर नरेश कुन्तिभोजके पूर्वजोके सम्बन्धमें लिखा गया उनका परिचयग्रन्थ रहा है, जिसका उल्लेक राजशेखरने मदनकीर्ति प्रबन्धमें किया है ।
शासनचतुस्त्रिशिका में उल्लिखित तीर्थ और उनका कुछ परिचय
इस शासनचतुस्त्रिशिकामें जिन तीर्थो एवं सातिशय दिगम्बर जिनबिम्बोंका उल्लेख हुआ है वे २६ हैं । उनमें ८ तो सिद्ध तीर्थ हैं और १८ अतिशयतीर्थ हैं । उनका यहाँ कुछ परिचय दिया जाता है । सिद्ध-तीर्थं
जहाँसे कोई पवित्र आत्मा मुक्ति अथवा मोक्ष प्राप्त करता है उसे जैनधर्म में सिद्धतीर्थ कहा गया है । इसमें यतिपति मदनकीर्तिने ऐसे ८ सिद्धतीर्थोंका सूचन किया है । वे ये है
१ कैलासगिरि, २ पोदनपुर, ३ सम्मेदशिखर (पार्श्वनाथहिल), ४ पावापुर, ५ गिरनार ( ऊर्जयन्तगिरि), ६ चम्पापुरी, ७ विपुलगिरि और ८ विन्ध्यागिरि ।
१ कैलासगिरि
भारतीय धर्मों में विशेषत जैनधर्म में कैलासगिरिका बहुत वडा महत्त्व वतलाया गया है । युग आदि में प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव (आदिनाथ ) ने यहाँसे मुक्ति-लाभ प्राप्त किया था। उनके बादमें नागकुमार, बालि और महावालि आदि मुनिवरोने भी यहीसे सिद्ध पद पाया था। जैसाकि विक्रमकी छठी शताब्दीके सुप्रसिद्ध विद्वानाचार्य पूज्यपाद (देवनन्दि ) की संस्कृत निर्वाणभक्तिसे और अज्ञातकर्तृक प्राकृत निर्वाणकाण्डसे' प्रकट है —'
(क) कैलासशैलशिखरे परिनिवृतोऽसी
शैलेसिभावमुपपद्य वृषो महात्मा । - नि० भ० श्लो० २२ ।
(ख) अट्ठावयम्मि उसहो । -- नि० का० गा० न० १ ।
-
नागकुमारमुणिदो बालि महाबालि चेव अज्झेया ।
अठ्ठावय- गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसि ॥ - नि० का०, १५ ।
मुनि उदयकीर्तिने भी अपनी 'अपभ्रंश निर्वाणभक्ति' में कैलासगिरिका और वहांसे भगवान् ऋषभदेवके निर्वाणका निम्न प्रकार उल्लेख किया है
(ग) कइलास - सिहरि सिहरि-रिसहनाहु,
जो सिद्धउ पयडमि धम्मलाहु ।
यह ध्यान रहे कि अष्टापद इसी कैलासगिरिका दूसरा नाम है। जैनेतर इसे 'गौरीशङ्कर पहाड' भी कहते हैं। भगवज्जिनसेनाचार्य के आदिपुराण तथा दूसरे दिगम्बर ग्रन्थो में इसकी बडी महिमा गाई गई है | श्वेताम्बर और जैनेतर सभी इसे अपना तीर्थ मानते हैं। इससे इसकी व्यापकता और महानता स्पष्ट है । किसी समय यहाँ भगवान् ऋषभदेवकी बडी ही मनोज्ञ और आकर्षक सातिशय सुवर्णमय दिगम्बर जिनमूि १ इसके रचयिता कौन हैं और यह कितनी प्राचीन रचना ? यह अभी अनिश्चित है फिर भी वह सात आठ सौ वर्षसे कम प्राचीन नही मालूम होती ।
• २२६ -
-
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिष्ठित थी, जिसका उल्लेख मदनकीर्तिने इस रचनाके प्रथम पद्य में सबसे पहले और बड़े गौरवके साथ किया है और 'अद्य' शब्दका प्रयोग करके अपने समयमें उसका होना तथा देवोद्वारा भी उसकी वन्दना किया जाना खासतौरसे सूचित किया है। मालूम नही, अब यह मूर्ति अथवा उसके चिह्नादि वहां मौजूद हैं या नही? पुरातत्वप्रेमियोको इसकी खोज करनी चाहिए ।
२ पोदनपुर पोदनपुरकी स्थितिके सम्बन्धमें अनेक विद्वानोने विचार किया है। डाक्टर जैकोबी विमलसूरिकृत 'पउमचरिय'के आधारसे पश्चिमोत्तरसीमाप्रान्त में स्थित 'तक्षशिला'को पोदनपुर बतलाते हैं और डाक्टर गोविन्द पै हैदराबाद-बरारमें निजामाबाद जिलेके 'वोधन' नामक एक ग्रामको पोदनपुर कहते हैं। वा० कामताप्रसादजी जैनने इन दोनो मतोकी समीक्षा करते हुए जैन और नेतर साहित्यकी माक्षी द्वारा प्रमाणित किया है कि तक्षशिला पोदनपुरसे भिन्न पश्चिमोत्तरसीमाप्रान्तमें अवस्थित थी और पोदनपुर दक्षिणभारतमें गोदावरीके तटपर कही बसा हुआ था। भगवज्जिनसेनके परमशिष्य और विक्रमकी ९वी शताब्दीके विद्वानाचार्य गणभद्र ने अपने उत्तरपुराणमें स्पष्ट लिखा है कि 'भारतके दक्षिणमें सुरम्य (अश्मक) नामका एक बडा (महान्) देश है उसमें पोदनपुर नामक विशाल नगर है जो उस देशको राजधानी है । श्रीकामताप्रसादजोने यह भी बतलाया है कि जैन पुराणोमे पोदनपुरको पोदन, पोदनापुर, पोदन और पौदन्य तथा बौद्धग्रन्थो में दक्षिणापथके अश्मक देश की राजधानी पोतन या पोतलि एव हिन्द्रग्रन्थ भागवतपुराणमे इक्ष्वाकुवणीय राजाओकी अश्मक देशको राजधानी पौदन्य कहा गया है और वह प्राचीन समयमें एक विख्यात नगर रहा है।
जैन इतिहासमें पोदनपुरका उल्लेखनीय स्थान है। आदिपुराण आदि जैनग्रन्थों और अनेक गिलालेखोंमें वणित है कि आदितीर्थद्वार ऋपभदेवके दो पुत्र थे-भरत और बाहुबलि । ऋषभदेव जब ससारसे विरवत हो दीक्षित हए तो उन्होने भरतको अयोध्याका और बाहुबलिको पोदनपुरका राज्य दिया और इस तरह भरत अयोध्याके और बाहवलि पोदनपुरके राजा हुए । कालान्तरमें इन दोनो भाइयोका युद्ध हुमा । युद्धमे वाहुबलिकी विजय हई। परन्तु वाइबलि ससारकी दशा देखकर राज्यको त्याग तपस्वी हो गये और कठोर तपकर पोदनपुरमं उन्होने केवलज्ञान प्राप्त करके निर्वाण-लाभ किया। बादको सम्राट् भरतने अपने विजयी, अद्भुत त्यागी तथा अद्वितीय तपस्वी और इस युगमे सर्वप्रथम परमात्मपद एवं परिनिर्वृत्ति प्राप्त करनेवाले अपने इन आदर्श भाईकी यादगारमें पोदनपुरमे ५२५ धनुषप्रमाण उनकी पारीराकृतिके अनुरूप अनुपम मूर्ति स्थापित कराई, जो बडी ही मनोज्ञ और लोकविश्रुत हुई । तबसे पोदनपुर सिद्धतीर्थ और अतिशयतीर्थ के रूपमे जैनसाहित्यमें विथत है। आचार्य पूज्यपादने अपनी निर्वाणभवितमें उसका सिद्धतीफे रूपमें समुल्लेख किया है । यथा
१ 'पोदनपुर और तक्षशिला' गीर्षक लेख, 'जैन एन्टीक्वेरी' भा० ४ कि० ३ । २ जम्बूविभूषणे द्वीपे भरते दक्षिणे महान् ।
गुरम्यो विषयरतम विस्तीर्ण पोदन पुरम् ॥ ३ शिलालेख न० ८५ भादि, जो विन्ध्यगिरिपर उत्कीर्ण है।-(मि०म० १० १६९)। ४. वह यह वि. राज्य जैसे जघन्य स्वार्थ के लिए भाई-भाई भी लटते है और एक दूगरेको जानके मन
बन जाते हैं।
-२२७
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
x
- (क) विन्ध्ये च पोदनपुरे वृषदीपके च ।।२९।।
x ये साधवो हतमला सुगति प्रयाताः।
स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूवन् ॥३०॥ 'निर्वाणकाण्ड' और मुनि उदयकीर्तिकृत 'अपभ्रशनिर्वाणभवित' में भी पोदनपुरके वाहबली स्वामीकी अतिशय श्रद्धाके साथ वन्दना की गई है । यथा
(ख) बाहूबलि तह वदमि पोदनपुर हत्थिनापुरे वदे।
__ सती कुथु व अरिहो वाराणसीए सुपास पास च ॥-गा० न० २१ । (ग) बाहुबलिदेउ पोयणपुरमि, हउ वदमि माहसु जम्मि जम्मि।
ऐसा जान पडता है कि कितने ही समयके बाद बाहुबलिस्वामीकी उक्त मूर्तिके जीर्ण होजानेपर उसका उद्धारकार्य और उस जैसी उनकी नयी मूर्तियां वहां और भी प्रतिष्ठित होती रही हैं। मदनकीर्तिके समयमें भी पोदनपुरमें उनकी अतिशयपूर्ण विशाल मूर्ति विद्यमान थी, जिसकी सूचना उन्होने पद्य दोम 'अद्यापि प्रतिभाति पोदनपुरे यो वन्धवन्ध सवै' शब्दोद्वारा की है और जिसका यह अतिशय था कि भन्योको उनके चरणनखोकी कान्तिमें अपने कितने ही आगे-पीछेके भव प्रतिभासित होते थे। मदनकोतिके प्राय समकालीन अथवा कुछ पूर्ववर्ती कन्नडकवि प० वोप्पणद्वारा लिखित एक शिलालेख न० ८५ (२३४)में, जो ३२ पद्यात्मक कन्नड रचना है और जो विक्रम सवत् १२३७ (शक स० ११०२)के लगभगका उत्कीर्ण है, चामुण्डरायद्वारा निर्मित दक्षिण गोम्मटेश्वरकी मूर्ति के निर्माणका इतिहास देते हुए बतलाया है कि चामुण्डरायको उक्त पोदनपुरके बाहुबलीकी मूतिके दर्शन करनेकी अभिलाषा हुई थी और उनके गुरुने उसे कुक्कुड साँसे व्याप्त और वीहड वनसे आच्छादित होजानेसे उसका दर्शन होना अशक्य तथा अगम्य बतलाया था और तब उन्होंने जैन बिद्री (श्रवणबेल्गोल)में उसी तरहको उनकी मूर्ति बनवाकर अपनी दर्शनाभिलाषा पूर्ण की थी । अत मदनकीतिको उक्त सूचना विचारणीय है और विद्वानोको इस विषयमें खोज करनी चाहिये ।
उपर्युक्त उल्लेखोपरसे प्रकट है कि प्राचीन कालमें पोदनपुरके बाहवलीका बहा माहात्म्य रहा है और इसलिये वह तीर्थक्षेत्रके रूप में जैनसाहित्यमें खासकर दिगम्बर साहित्यमें उल्लिखित एव मान्य है।
३. सम्मेदशिखर
सम्मेद शिखर जमोका सबसे बडा तीर्थ है और इसलिये उसे 'तीर्थराज' कहा जाता है। यहाँसे चार तीर्थस्थरों (ऋषभदेव, वासुपूज्य, अरिष्टनेमि और महावीर)को छोडकर शेष २० तीर्थङ्करो और अगणित मुनियोंने सिद्ध-पद प्राप्त किया है। इसे जैनोके दोनो सम्प्रदाय (दिगम्बर और श्वेताम्बर) समानरूपसे अपना पूज्य तीर्थ मानते हैं। पूज्यपाद देवनन्दिने अपनी 'सस्कृतनिर्वाणभक्ति में लिखा है कि बीस तीर्थकरोने यहसि परिनिर्वाणपद पाया है । यथा(क) शेषास्तु ते जिनवरा जित-मोहमल्ला ज्ञानार्क-भूरिकिरणैरवभास्य लोकान् ।
स्थान पर निरवधारितसौख्यनिष्ठ सम्मेदपर्वतले समवापुरीशा ॥२५॥
इसी तरह 'प्राकृतनिर्वाणकाण्ड' और मुनि उदयकीर्तिकृत 'अपभ्रशनिर्वाणभक्ति में भी सम्मेदपर्वतसे बीस जिनेन्द्रोने निर्वाण प्राप्त करनेका उल्लेख है और जो निम्न प्रकार है
-२२८
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
(ख) वीस तु जिणवरिंदा अमरासुर-वदिदा धुद-किलेसा । ___ सम्मेदे गिरिसिहरे निव्वाणगया णमो तेसि ॥२॥-नि० का० । (ग) सम्मेद-महागिरि सिद्ध जे वि, हउ वदउ वीस-जिणिंद ते वि |-अ० नि० भ० ।
इस तरह इस तीर्थका जैनधर्ममें वहा गौरवपूर्ण स्थान है। प्रतिवर्ष सहस्रों जैनी भाई इस सिद्धतीर्थकी वन्दनाके लिये जाते है। यह विहारप्रान्तके हजारीबाग जिलेमें ईसरी स्टेशनके, जिसका अब पारसनाथ नाम हो गया है, निकट है। इसे 'पारसनाथ हिल' (पार्श्वनाथका पहाड) भी कहते है, जिसका कारण यह है कि पर्वतपर २३वें तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथका सबसे बडा और प्रमुख जिनमन्दिर बना हुमा है। और इसके कारण ही उक्त स्टेशनका नाम भी 'पारसनाथ' हो गया है। मदनकीतिने इस सिद्धक्षेत्रका उल्लेख पद्य ११ में किया है।
४ पावापुर यहाँसे अन्तिम तीर्थकर वद्ध मान-महावीरने निर्वाण प्राप्त किया है । अतएव पावापुर जनसाहित्यमें सिद्धक्षेत्र माना जाता है । आचार्य पूज्यपादने लिखा है
पावापुरस्य बहिरुन्नतभूमिदेशे पद्मोत्पलाकुलवता सरसा हि मध्ये । श्रीवर्द्धमानजिनदेव इति प्रतीतो निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूतपाप्मा ॥
-निर्वा० भ० २४ । निर्वाणकाण्ड और अपभ्रश-निर्वाणभक्तिमें भी यही बतलाया है। यथा(क) पावाए णिन्वुदो महावीरो-नि० का० गा० १ । (ख) पावापुर वदउ वड्ढमाणु, जिणि महियलि पयडिउ विमलणाणु ।-अ० नि० भ० ।
यह पावापुर परम्परासे विहारप्रान्तमे माना जाता है जो पटनाके निकट है। गुणावासे १३ मोलको दूरीपर है और वहाँ मोटर, तांगे आदिसे जाते हैं । यहाँ कार्तिक वदी अमावस्याको भगवान महावीरके निर्वाणदिवसोपलक्ष्यमें एक बड़ा मेला भरता है। यहाँ वीरजिनेन्द्रकी सातिशय मूर्ति रही है, जिसका मदनकीतिने पद्य १९में उल्लेख किया है । अब तो वहां चरणपादुका शेष रही हैं।
यहाँ उल्लेखनीय है कि परातत्त्वविद् और ऐतिहासिक विद्वानोने उत्तर प्रदेशमें कुशीनगरके पास पावानगर (फाजिल नगर)को भगवान महावीरकी निर्वाणभूमि माना एव सिद्ध किया है। निर्वाण-दिवसपर यहाँ जनसमुदाय एकत्रित होता और निर्वाण दिवस मनाता है।
५ गिरनार (ऊर्जयन्तगिरि) यहाँसे २२वे तीर्थहर अरिष्टनेमिने निर्वाण प्राप्त किया है और असख्य ऋषि-मुनियोने भी यहाँ तप करके सिद्धपद पाया है। अतएव यह सिद्धतीर्थ है। आचार्य पूज्यपादने कहा है कि जिन 'अरिष्टनेमिकी इन्द्रादि और जैनेतर साधजन भी अपने कल्याणके लिये उपासना करते हैं उन अरिष्टनेमिने अष्टकर्मोको नाशकर महान ऊर्जयन्तगिरि-गिरनारसे मक्तिपद प्राप्त किया। यथा
यत्प्रार्थ्यते शिवमय विबधेश्वराचे पाखण्डिभिश्च परमार्थ-गवेष-शील.। नष्टाऽष्ट-कर्म-समये तदरिष्टनेमि सम्प्राप्तवान् क्षितिधरे बृहदूर्जयन्ते ।।२३।।
१. 'पावा समीक्षा', 'प्राचीन पावा', 'पावाकी झांकी' आदि पुस्तकें ।
-२२९ -
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
आठ जिनमन्दिर बने हुए हैं। गोम्मटेश्वरकी ससारप्रसिद्ध विशाल मूर्ति इसीपर उत्कीर्ण है, जिसे चामण्डराय ने विक्रमकी ग्यारहवी शताब्दीमें निर्मित कराया था। अतएव इस प्रसिद्ध मूतिके कारण पर्वतपर और भी कितने ही जिनमन्दिर बनवाये गये होंगे और इसलिए उनका भी प्रस्तुत रचनामें उल्लेख सम्भव है। यह पहाडी अनेक साधु-महात्माओकी तप भूमि रही है । अत विन्ध्यगिरि सिद्ध तीर्थ तथा अतिशयतीर्थ दोनों है ।
अतिशयतीर्थ मदनकी तिद्वारा उल्लिखित १८ अतिशयतीर्थो अथवा सातिशय जिनविम्बोका भी यहां कुछ परिचय दिया जाता है।
श्रीपुर-पाश्वनाथ जैन साहित्यमें श्रीपुरके श्रीपार्श्वनाथका बडा माहात्म्य और अतिशय बतलाया गया है और उस स्थानको एक पवित्र तथा प्रसिद्ध अतिशयतीर्थक रूपमें उल्लेखित किया गया है । निर्वाणकाण्डमें जिन अतिशय-तीर्थोंका उल्लेख है उनमे 'श्रीपुर' का भी निर्देश है और वहां पार्श्वनाथकी वन्दना की गई हैं।' मुनि उदयकीतिने भी अपनी अपभ्रशनिर्वाणभक्तिमें श्रोपरके पार्श्वनाथका अतिशय प्रदर्शित करते हुए उनका वन्दना की है। मदनकीतिसे कोई सौ-वर्ष बाद होनेवाले श्वेताम्बर विद्वान जिनप्रभसूरिने भी अपने विविध तीर्थकल्प'में एक 'श्रीपुर-अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकल्प' दिया है और उसमें इस अतिशयतीर्थका वर्णन करत उसके सम्बन्धमें एक कथाको भी निबद्ध किया है। कथाका साराश यह है कि 'लङ्काधीश दशग्रा सुमाली नामके अपने दो सेवकोको कही भेजा। वे विमानमें बैठे हुए आकाशमार्गसे जा रहे थे कि जाता भोजनका समय हो गया । सुमालीको ध्यान आया कि जिनेन्द्र प्रतिमाको घर भूल आये और बिना ६० भोजन नही कर सकते। उन्होने विद्याबलसे पवित्र बालद्वारा भाविजिन श्रीपाश्वनाथका ना बनाई। दोनोने उसकी पूजा की और फिर भोजन किया। पश्चात उस प्रतिमाको निकटवता विराजमानकर आकाशमार्गसे चले गये। वह प्रतिमा शासनदेवताके प्रभावसे तालाबमें अखण्डितरूपा रही। कालान्तरमें उस तालाबका पानी कम हो गया और सिर्फ उसी गड्डेम रह गया । स्थित थी। किसी समय एक श्रीपाल नामका राजा, जिसे भारी कोढ था, घूमता हुआ वहा पर पहुँचकर उस पानीसे अपना हाथ मुंह घोकर अपनी पिपासा शान्त की। जब वह घर लाना रानीने उसके हाथ-मुंहको कोढरहित देखकर पुन उसी पानोसे स्नान करनेके लिए राजामे कहा। वैसा किया और उसका सर्व कोढ़ दूर हो गया। रानीको देवताद्वारा स्वप्नमे इसका कारण माल वहां पार्वजिनकी प्रतिमा विराजमान है और उसके प्रभावसे यह सब हुआ है। फिर वह प्रतिमा जान में स्थित हो गई। राजाने वहाँ अपने नामाश्रित श्रीपरनगरको बसाया। अनेक महात प्रतिमाकी वहां प्रतिष्ठा की गई। तीनों काल उसकी पूजा हई । आज भी वह प्रतिमा उसी तर स्थित है। पहले वह प्रतिमा इतने अधर थी कि उसके नीचेसे शिरपर घडा रक्खे हुए स्त्री परन्त कालवश अथवा भूमिरचनावश या मिथ्यात्वादिसे दषित कालके प्रभावसे अब वह १ यथा-'पास सिरपुरि वदमि ।'-निर्वाणका० । २ यथा-'अरु वदउ सिरपुरि पासनाहु,
जो अतरिक्खि छइ णाणलाहु । ३ सिंधी ग्रन्थमालासे प्रकाशित 'विविधतीर्थकल्प' १० १०२।
फ उसी गड्डे में रह गया जहां वह प्रतिमा
। जब वह घर लौटा, तो उसकी
ए राजामे कहा । राजाने
का बसाया। अनेक महोत्सवोंके साथ उस
। वह प्रतिमा उसी तरह अन्तरिक्षम
विसे अब वह प्रतिमा इतने नीचे
-२३२
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
हो गई कि एक चादर (धागा)का अन्तर रह गया है । इस प्रतिमाके अभिषेक जलसे दाद, खाज, कोढ आदि रोग शान्त होते हैं।" लगभग यही कथा मुनि श्रीशीलविजयजीने अपनी 'तीर्थमाला'में दी है और श्रीपुरके पार्श्वनाथका लोकविश्रुत प्रभाव प्रदर्शित किया है। मुनिजीने विक्रम स० १७३१-३२ में दक्षिणके प्राय समस्त तीर्थोकी वन्दना की थी, उसीका उक्त पुस्तकमें वर्णन निबद्ध है।' यद्यपि उक्त कथाओका ऐतिहासिक आधार तथ्यभूत है अथवा नही, इसका निर्णय करना कठिन है फिर भी इतना अवश्य है कि उक्त कथाएँ एक अनुश्रुति है और काफी पुरानी हैं। कोई आश्चर्य नही कि उक्त प्रतिमाके अभिषेकजलको शरीरमे लगानेसे दाद, खाज और कोढ जैसे रोग अवश्य नष्ट होते होगे और इसी कारण उक्त प्रतिमाका अतिशय लोकमें दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गया होगा । विक्रमकी नवमी शताब्दीके प्रखर तार्किक आचार्य
निन्द जैसे विद्वानाचार्य भी श्रीपुरके पार्श्वनाथको महिमासे प्रभावित हुए हैं और उनका स्तवन करनेमें प्रवृत्त हुए है। अर्थात् श्रीपुरके पार्श्वनाथको लक्ष्यकर उन्होने भक्तिपूर्ण 'श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र'की रचना की है। गङ्गनरेश श्रीपुरुषके द्वारा श्रीपुरके जैनमन्दिरके लिए दान दिये जानेका उल्लेख करनेवाला ई० सन् ७७६ का एक ताम्रपत्र भी मिला है। इन सब बातोसे श्रीपुरके पार्श्वनाथका ऐतिहासिक महत्त्व और प्रभाव स्पष्टतया जान पडता है।
अव विचारणीय यह है कि यह श्रीपर कहां है-उसका अवस्थान किस प्रान्तमे है ?
प्रेमीजीका अनुमान है कि धारवाड जिले का जो शिरूर गांव है और जहाँसे शक स० ७८७का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है तथा जो इण्डियन ए भाग १२ पृ० २१६में प्रकाशित हो चुका है, वही प्रस्तुत श्रीपुर है । कुछ पाश्चात्य विद्वान् लेखकोंने वेसिङ्ग जिलेके 'सिरपुर' स्थानको एक प्रसिद्ध जैनतीर्थ बतलाया है और वहां प्राचीन पार्श्वनाथका मन्दिर होनेकी सूचनाएं की है। गङ्गनरेश श्रीपुरुष (ई० ७७६) और आचार्य विद्यानन्द (ई० ७७५-८४०)को इष्ट श्रीपुर ही प्रस्तुत श्रीपुर जान पहता है और जो मैसूर प्रान्तमें कही होना चाहिए, ऐसा भी हमारा अनुमान है।५ विद्वानोको उसकी पूरी खोज करके ठीक स्थितिपर पूरा प्रकाश डालना चाहिये। मदनकीर्तिने इस तीर्थका उल्लेख पद्य ३ में किया है और उसका विशेष अतिशय ख्यापित किया है।
हुलगिरि-शङ्खजिन श्रीपुरके पार्श्वनाथकी तरह हुलगिरि के शङ्खजिनका भी अतिशय जनसाहित्यमें प्रदर्शित किया गया है।
इस तीर्थक सम्बन्धमें जो परिचय-ग्रन्थ उपलब्ध हैं उनमें मदनकीर्तिकी प्रस्तुत शासनचतुस्थिशिका सबसे प्राचीन और प्रथम रचना है। इसके पद्य ४ में लिखा है कि-"प्राचीन समयमें एक धर्मात्मा व्यापारी गौनमें शङ्कोको भरकर कही जा रहा था। रास्ते में उसे हलगिरिपर रात हो गई। वह वही बस गया। सुबह उठकर जब चलने लगा तो उसकी वह शहोकी गौन अचल हो गई-चल नही सकी । जब उससे
१ 'जनसाहित्य और इतिहास' पृ० २२७ । २ जैनसि० भा०, भा०४ किरण ३, १० १५८ । ३ जैनसाहित्य और इतिहास पृ० २३७ । ४ आप्तपरीक्षा, प्रस्तावना, वीरसेवामन्दिर-सस्करण । ५ डा० दरबारीलाल कोठिया, श्रीपर-पार्श्वनाथ-स्तोत्र, प्रस्तावना, वीरसेवामन्दिर-सस्करण ।
-२३३ -
न-३०
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
निर्वाणकाण्डकार और अपभ्रश निर्वाणभक्तिकारका भी यही कहना है(क) उज्जते णेमिजिणो'-प्रा०नि० का० गा० १ । (ख) 'उज्जेंतिमहागिरि सिद्धिपत्तु, सिरिनेमिनाहु जादवपवित्तु ।
इसके सिवाय इन दोनो ग्रन्थकारोने यह भी लिखा है कि प्रद्युम्नकुमार, शम्भुकुमार, अनिरुद्धकुमार और सात सौ बहत्तर कोटि मुनियोने भी इसी ऊर्जयन्तगिरि-गिरनारसे सिद्ध-पद प्राप्त किया है । यथा(क) णमसामि पज्जुण्णो सवुकुमारो तहेव अणिरुद्धो।
बाहत्तरकोडीओ उज्जते सत्तसया सिद्धा ।।-नि० का० ५ । (ख) अण्णे पुणु सामपजुण्णवेवि, अणिरुद्धसहिय हउ नवमि ते वि । ___ अवरे पुणु सत्तसयाइ तित्त्थु, वाहत्तरिकोडिउ सिद्धपत्तु ।।-अप० नि० भ० ।
यह ऊर्जयन्तगिरि पांच पहाडोंमें विभक्त है । पहले पहाडको एक गुफामें राजुलको मूर्ति है । राजुलने इसी पर्वतपर दीक्षा ली थी और तप किया था। राजुल तीर्थकर नेमिनाथकी पत्नी बननेवाली थी, पर नेमिनाथके एक निमित्तको लेकर दीक्षित होजाने पर उन्होंने भी दीक्षा ले ली थी और विवाह नहीं कराया था। दूसरे पहाडसे अनिरुद्धकुमार, तीसरेसे शम्भुकुमार, चौथेसे श्रीकृष्णजीके पुत्र प्रद्युम्नकुमार और पांचवेंसे तीर्थकर नेमिनाथने निर्वाण प्राप्त किया था। इस सिद्धतीर्थकी जनसमाजमें वही प्रतिष्ठा है जो सम्मेदशिखरकी है । यह सौराष्ट्र (गुजरात)में जूनागढके निकट अवस्थित है । तलहटीमें धर्मशालाएं भी बनी हुई हैं । मदनकीतिके पद्य २०के उल्लेखानुमार यहाँ श्रीनेमिनाथकी बड़ी मनोज्ञ और निराभरण मूर्ति रही, जो खास प्रभाव एव अतिशयको लिये हुए थी। मालूम नही वह मूर्ति अब कहाँ गई, या खण्डित हो चुकी है, क्योकि अब वहां चरणचिह्न हो पाये जाते है ।
६ चम्पापुर बारहवें तीर्थकर वासुपूज्यका यह गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्षका स्थान है। अतएव यह सिद्धतीर्थ और अतिशय तीर्थ दोनो है। स्वामी पृज्यपादने लिखा है कि चम्पापुरमें वसुपूज्यसुत भगवान् वासुपूज्यने रागादि कर्मबन्धको नाशकर सिद्धि (मुक्ति) प्राप्त की है। यथा
चम्पापुरे च वसुपूज्यसुत सुधीमान् । सिद्धि परामुपगतो गतरागबन्ध ।।-स०नि० भ० २२ । यही निर्वाणकाण्ड और अपभ्रशनिर्वाणभक्तिमें कहा है(क) 'चपाए वासुपुज्जजिणणाहो'-नि० का० १। (ख) पुणु चपनयरि जिणु वासुपुज्ज, णिव्वाणपत्तु छडेवि रज्जु । अ० नि० भ० ।
इस तरह चम्पापुरको जैनसाहित्यमें एक पूज्य तीर्थ माना गया है। इसके सिवाय, जैनग्रन्थोंमें चम्पापुरकी प्राचीन दस राजधानियोमें भी गिनती,की गई है और उसे एक समृद्ध नगर बतलाया गया है।
यह चम्पापुर वर्तमानमें एक गांवके रूपमें मौजूद है और भागलपुरसे ६ मीलकी दूरीपर है । मदनकीतिके उल्लेखानुसार यहां १२वें तीर्थकर वासुपूज्यकी अतिशयपूर्ण मूर्ति रही है, जिसकी देव-मनुष्यादि पुष्पनिचयसे बडी भक्ति पूजा करते थे । प्रतीत होता है कि चम्पापुरके पास जो मन्दरगिरि है उससे सटा हुआ
१ डा. जगदीशचन्द्रकृत "जैनग्रन्थोमें भौगोलिक सामग्री और भारतवर्ष में जैनधर्मका प्रचार' शीर्षक
लेख, प्रेमी-अभिनन्दनग्रन्थ पृष्ठ २५४ ।
-२३०
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
एक तालाब है । इस तालाबके कमल ही मदनकोतिको पद्य २१ में उल्लिखित पुष्पनिचय विवक्षित हुए हैउनसे भक्तजन उनकी पूजा करते होगे।
७. विपुलगिरि राजगृहके निकट विपुलगिरि, वैभागिरि, कुण्डलगिरि अथवा पाण्डकगिरि, ऋपिगिरि और बलाहकगिरि थे पांच पहाड स्थित है । बौद्ध-ग्रन्थोमें इनके वेपुल्ल, वेभार, पाण्डव, इसिगिलि और गिज्झकूट ये नाम पाये जाते हैं । इन पांच पहाडोका जैनग्रन्थोमें विशेष महत्त्व वर्णित है। इनपर अनेक ऋषि-मुनियोने तपश्चर्या कर मोक्ष-साधन किया है । आचार्य पूज्यपादने इन्हे सिद्धक्षेत्र बतलाया है और लिखा है कि इन पहाडोंसे अनेक साधुओने कर्म-मल नशाकर सुगति प्राप्त की है । यथा
द्रोणीमति प्रवरकुण्डल-मेढ़के च वैभारपर्वततले वरसिद्धकूटे। ऋष्यद्रिके च विपलाद्रि-बलाहके च
ये साधवो हतमला सुगति प्रयाता
स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूवन्।-नि० भ० २९, ३० । इन पाँचोमें 'विपुलगिरि'का तो और भी ज्यादा महत्त्व है, क्योकि उसपर अन्तिम तीर्थंकर वर्धमानमहावीरका अनेकवार समवशरण भी आया है और वहांसे उन्होने मुमुक्षुओको मोक्षमार्गका उपदेश किया है। मदनकीतिने पद्य ३०में यहाँके प्रभावपूर्ण जिनबिम्बका उल्लेख किया है। जान पडता है उसका अतिशय लोकविश्रुत था। सम्भव है जो विपुलगिरिपर प्राचीन जिनमन्दिर बना हुआ है और जो आज खण्डहरके रूपमें वहां मौजूद है उसीमें उल्लिखित जिनबिम्ब रहा होगा । अब यह खण्डहर श्वेताम्बरसमाजके अधिकारमें है । इसकी खुदाई होनेपर जैन पुरातत्त्वकी पर्याप्त सामग्री मिलनेकी सम्भावना है।
८ विन्ध्यगिरि आचार्य पूज्यपादने 'विन्ध्यगिरि'को सिद्धक्षेत्र कहा है और वहाँसे अनेक साधुओके मोक्ष प्राप्त करनेका समुल्लेख किया है। यह विन्ध्यगिरि विन्ध्याचल जान पडता है जो मध्यप्रान्तमे रेवा (नर्मदा) के किनारेकिनारे बहुत दूर तक पाया जाता है और जिसकी कुछ छोटी-छोटी पहाडियां आस-पास अवस्थित हैं। मदनकीतिने पद्य ३२ में इसी विन्ध्यगिरि अथवा विन्ध्याचलके जिनमन्दिरोका, निर्देश किया प्रतीत होता है । झाँसीके पास एक देवगढ नामक स्थान है जो एक सुन्दर पहाडीपर स्थित है। वहीं विक्रमकी १०वी शताब्दीके आस-पास बहुत मन्दिर बने है। ये मन्दिर शिल्पकला तथा प्राचीन कारीगरीकी दृष्टिसे उल्लेखनीय हैं। भारत सरकारके पुरातत्त्व विभागको यहाँसे २०० के लगभग शिलालेख प्राप्त हुए है। उनमें ६० पर तो समय भी अङ्कित है। सबसे पुराना लेख वि० स० ९१९ का है और अर्वाचीन स० १८७६ का है । यह भी हो सकता है कि पूज्यपाद और मदनकीतिन जिस विन्ध्यगिरिकी सूचना की है वह मैसूर प्रान्तके हासन जिलेके वेन्नरायपाटन तालुकेमें पायी जानेवाली विन्ध्यगिरि और चन्द्रगिरि नामकी दो सुन्दर पहाडियोमेंसे पहली पहाडी विन्ध्यगिरि हो। यह पहाडी 'दोड्डबेट्ट' अर्थात वडी पहाडीके नामसे प्रसिद्ध है। इसपर १ 'विन्ध्ये च पौदनपुरे वषदीपके च'-नि० भ० । २ कल्याणकुमार शशिकृत 'देवगढ' नामक पुस्तककी प्रस्तावना । ३, जनशिलालेखसग्रह' प्रस्तावना पृ० २ ।
- २३१
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
शहजिन (पार्श्वनाथ) का आविर्भाव हुमा तो वह चल सकी। इस अतिशयके कारण हुलगिरि शह्वजिनेन्द्रका तीर्थ माना जाने लगा। अर्थात् तबसे शङ्खजिनतीर्थ प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ।" मदनकीतिसे एक शताब्दी बाद होनेवाले जिनप्रभसूरि अपने 'विविधतीर्थकल्प' गत 'शङ्खपुर-पार्श्वनाथ' नामक कल्पमें शङ्खजिनका परिचय देते हुए लिखते हैं कि "प्राचीन समयकी बात है कि नवमे प्रतिनारायण जरासन्ध अपनी सेनाको लेकर राजगृहसे नवमे नारायण कृष्णसे युद्ध करनेके लिये पश्चिम दिशाकी ओर गये । कृष्ण भी अपनी सेना लेकर द्वारकासे निकलकर उसके सम्मुख अपने देशको सीमापर जा पहुंचे। वहाँ भगवान् अरिष्टनेमिने शव बजाया
और शखेश्वर नामका नगर बसाया । शङ्खकी आवाजको सुनकर जरासन्ध क्षोभित हो गया और जरा नामकी कुलदेवताको आराधना करके उसे कृष्णकी सेनामे भेज दिया । जराने कृष्णको सारी सेनाको श्वास रोगसे पीडित कर दिया। जब कृष्णने अपनी सेनाका यह हाल देखा तो चिन्तातुर होकर अरिष्टनेमिसे पूछा कि 'भगवन् । मेरी यह सेना कैसे निरुपद्रव (रोगरहित) होगी और कैसे विजयश्री प्राप्त होगी।' तव भगवान्ने अवधिज्ञानसे जानकर कहा कि 'भूगर्भ में नागजातिके देवोद्वारा पूजित भाविजिन पार्श्वकी प्रतिमा स्थित है । यदि तुम उसकी पूजा-आराधना करो तो उससे तुम्हारी सारी सेना निरुपद्रव हो जायगी और विजयश्री भी मिलेगी।' इस बातको सुनकर कृष्णने सात मास और तीन दिन तक निराहार विधिसे नागेन्द्रकी उपासना की। नागेन्द्र प्रकट हुआ और उससे सबहुमान पार्श्वजिनेन्द्रकी प्रतिमा प्राप्त की। बडे उत्सवके साथ उसकी अपने देवताकै स्थानमें स्थापनाकर त्रिकाल पूजा की। उसके अभिषेकजलको सेनापर छिडकते ही उसका वह सब श्वासरोगादि उपद्रव दूर हो गया और सेना लडनेके समर्थ हो गई । जरासन्ध और कृष्ण दोनोका युद्ध हुआ, युद्ध में जरासन्ध हार गया और कृष्णको विजयश्री प्राप्त हुई। इसके बाद वह प्रतिमा समस्त विघ्नोको नाश करने और ऋद्धि-सिद्धियोको पैदा करनेवाली हो गई। और उसे वही शङ्खपुरमें स्थापित कर दिया। कालान्तरमें वह प्रतिमा अन्तर्धान हो गई। फिर वह एक शवकूपमें प्रकट हुई । वहाँ वह आज तक पूजी जाती है और लोगोके विघ्नादिको दूर करती है। यवन राजा भी उसकी महिमा (अतिशय) का वर्णन करते हैं।" मुनि शीलविजयजीने भी तीर्थमालामें एक कथा दी है जिसका आशय यह है कि 'किसी यक्षने श्रावकोसे कहा कि नौ दिन तक एक शखको फूलोमें रखो और फिर दसवें दिन दर्शन करो। इसपर श्रावकोने नौ दिन ऐसा ही किया और नवें दिन ही उसे देख लिया और तब उन्होने शङ्खको प्रतिमारूपमें परिवर्तित पाया, परन्तु प्रतिमाके पैर शङ्खरूप ही रह गये, अर्थात् यह दशवें दिनकी निशानी रह गई । शङ्खमेंसे नेमिनाथ प्रभु प्रकट हुए और इस प्रकार वे 'शङ्खपरमेश्वर' कहलाये।' निर्वाणकाण्ड और अपभ्रशनिर्वाणभक्तिके रचयिताओने भी होलागिरिके शहदेवका उल्लेख करके उनकी वन्दना की है। यथा
(क) वदमि होलागिरी सखदेव पि।'-नि० का० २४ । (ख) 'होलागिरि सखुजिणेंदु देउ,
विझणणरिंदु ण वि लद्ध छेउ ।'-अ० नि० भ० ।
यद्यपि अपभ्रशनिवणिभक्तिकारने विझण (विन्ध्य) नरेन्द्रके द्वारा उनकी महिमाका पार न पा सकनेका भी उल्लेख किया है, पर उससे विशेष परिचय नही मिलता। ऊपरके परिचयोमे भी प्राय कुछ विभिन्नता है फिर भी इन सब उल्लेखों और परिचयोंसे इतना स्पष्ट है कि शखजिन तीर्थ रहा है और जो
१ 'विविधतीर्थकल्प' १० ५२। २, प्रेमीजी कृत 'जनसाहित्य और इतिहास' (पृ० २३७) से उद्धृत ।
-२३४
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
काफी प्रसिद्ध रहा है तथा जिनप्रभसूरिके उल्लेखानुसार वह यवन राजाओ द्वारा प्रशसित और वर्णित भी रहा है । श्रीभानुकोतिने शवदेवाष्टक', श्रीजयन्त विजयने शखेश्वर महातीर्थ और श्रीमणिलाल लालचन्दने शखेश्वरपार्श्वनाथ जैसी स्वतन्त्र रचनाएँ भी शङ्खजिनपर लिखी हैं।
शङ्ख जिनतीर्थको अवस्थितिपर विचार करते हुए प्रेमीजीने लिखा है
'अतिशयक्षेत्रकाण्डमें "होलगिरि सखदेव पि" पाठ है, जिससे मालूम होता है कि होलगिरि नामक पर्वतपर शहदेव या शखश्वर पार्श्वनाथ नामका कोई तीर्थ है। मालूम नहीं, इस समय वह ज्ञात है या नही ।'
जैनमाहित्य और इतिहासको प्रस्तुत करते हुए अब उन्होने उसमें लिखा है
'लक्ष्मेश्वर धारवाड जिलेमें मिरजके पटवर्धनकी जागीरका एक गांव है। इसका प्राचीन नाम 'पुलगैरे' है । यहाँ 'शत-वस्ति' नामका एक विशाल जैनमन्दिर है जिसकी छत ३६ खम्भोपर थमी हुई है । यात्री (मुनि शीलविजय) ने इसीको 'शत-परमेश्वर' कहा जान पड़ता है । इस शह्व-वस्तिमे छह शिलालेख प्राप्त हुए हैं । शक सवत् ६५६ के लेखके अनुसार चालुक्य-नरेश विक्रमादित्य (द्वितीय) ने पुलगेरेकी शखतीर्थवस्तीका जीर्णोद्धार कराया और जिनपूजाके लिये भूमि दान की। इससे मालूम होता है कि उक्त वस्ति इससे भी प्राचीन है। हमारा (प्रेमोजीका) अनुमान है कि अतिशयक्षेत्रकाण्ड में कहे गये शख देवका स्थान यही है । जान पडता है कि लेखकोको अज्ञानतासे 'पुलगेरे' ही किसी तरह 'होलगिरि' हो गया है।'
मुनि शीलविजयजीने दक्षिणके तीर्थक्षेत्रोकी पैदल वन्दना की थी और जिसका वर्णन उन्होने 'तीर्थमाला' में किया है । वे धारवाड जिलेके वड़ापुरको, जिसे राष्ट्रकूट महाराज अमोघवर्ष (८५१-६९) के सामन्त 'वकेयेरस' ने अपने नामसे बसाया था', देखते हुए इसी जिले के लक्ष्मेश्वरपुर तीर्थ पहुंचे थे और वहाँके 'शखपरमेश्वर'की वन्दना की थी, जिनके बारे में उन्होने पूर्वोल्लिखित एक अनुश्रुति दी है । प्रेमीजीने इनके द्वारा वर्णित उक्त 'लक्ष्मेश्वरपुर तीर्थ' पर टिप्पण देते हुए ही अपना उक्त विचार उपस्थित किया है और पुलगेरेको शखदेवका तीर्थ अनुमानित किया है तथा होलगिरिको पुलगेरेका लेखकोद्वारा किया गया भ्रान्त उल्लेख बतलाया है।
पुलगेरेका होलगिरि या हुलगिरि अथवा होलगिरि हो जाना कोई असम्भव नही है । देशभेद और कालभेद तथा अपरिचितिके कारण उक्त प्रकारके प्रयोग बहुधा हो जाते हैं। मुनिसुव्रतनाथकी प्रतिमा जहां प्रकट हुई उस स्थानका तीन लेखकोने तीन तरहसे उल्लेख किया है । निर्वाणकाण्डकार 'अस्सारम्मे पट्टणि'
र 'आशारम्य' नामक नगरमें उसका प्रकट होना बतलाते हैं और अपभ्रशनिर्वाणभक्तिकार मुनि उदयकीर्ति 'आसरमि' लिखकर 'आश्रम में उसका आविर्भाव कहते हैं। मदनकीति उसे 'आश्रम' वणित करते है और जिनप्रभसूरि आदि विद्वान् प्रतिष्ठानपुर मानते हैं । अतएव देशादि भेदसे यदि
१ माणिकचन्द्र ग्रन्थमालामें प्रकाशित सिद्धान्तसारादिसग्रहमे सङ्कलित । २ विजयधर्मसूरि-ग्रथमाला, उज्जैनसे प्रकाशित । ३ सस्तीवाचममाला अहमदाबादसे मुद्रित । ४ सिद्धान्तसारादिसग्रहकी प्रस्तावना पृ० २८ का फुटनोट । ५ 'जनसाहित्य और इतिहास' पृ० २३६-२३७ का फुटनोट । ६ प्रेमीजी कृत 'जनसाहित्य और इतिहास' पृ० २३६ का फुटनोट ।
-२३५ -
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुलगेरेका हुलगिरि या होलागिरि आदि बन गया हो तो आश्चर्यकी बात नही है । अत जब तक कोई दूसरे स्पष्ट प्रमाण हलगिरि या होलागिरिके अस्तित्वके साधक नही मिलते तब तक प्रेमीजीके उक्त विचार और अनुमानको ही मान्य करना उचित जान पड़ता है।
धारा-पाश्र्वनाथ धाराके पार्श्वनाथके सम्बन्धमे मदनकोतिके पद्य ५ के उल्लेखके सिवाय और कोई परिचायक उल्लेख अभी तक नही मिले और इस लिये उसके बारे में इस समय विशेप कुछ नहीं कहा जा सकता।
बृहत्पुर-बृहदेव मदन कीतिने पद्य ६ में वृहत्पुरके बृहद्देवकी ५७ हाथकी विशाल प्रस्तर मूर्तिका उल्लेख किया है, जिसे अर्ककीर्ति नामके राजाने बनवाया था। जान पडता है यह 'बृहत्पुर' बडवानीजी है, जो उसीका अपभ्रंश (बिगडा हुआ) प्रयोग है और 'बृहद्देव' वहांके मूलनायक आदिनाथका सूचक है । बडवानीमें श्रीआदिनाथकी ५७ हाथ की विशाल प्रस्तर मूर्ति प्रसिद्ध है और जो बावनगजाके नामसे विख्यात है। वृहद्देव पुरुदेवका पर्यायवाची है और पुरुदेव आदिनाथका नामान्तर है । अतएव वृहत्पुरके वृहदेवसे मदन कीतिको वडवानीके श्रीआदिनाथ के अतिशयका वर्णन करना विवक्षित मालूम होता है। इस तीर्थके बारेमें सक्षिप्त परिचय देते श्रीयुत प० कैलाशचन्द्र जी शास्त्रीने अपनी 'जैनधर्म' नामक पुस्तकके 'तीर्थक्षेत्र' प्रकरण (पृ० ३३५) में लिखा है -
'बडवानीसे ५ मील पहाडपर जानेसे बडवानी क्षेत्र मिलता है। क्षेत्रकी वन्दनाको जाते हुए मबसे पहले एक विशालकाय मूतिके दर्शन होते हैं। यह खडी हुई मूर्ति भगवान ऋपभदेवकी है, इसकी ऊँचाई ८४ फीट है। इसे बावनगजाजी भी कहते है । स० १२२३ में इसके जीर्णोद्धार होनेका उल्लेख मिलता है । पहाडपर २२ मन्दिर हैं । प्रतिवर्ष पौष सुदी ८ से १५ तक मेला होता है।'
बडवानी मालवा प्रान्तका एक प्राचीन प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र है और जो इन्दौरके पास है । निर्वाणकाण्ड' और अपभ्रश निर्वाणभक्ति के रचयितामोने भी इस तीर्थका उल्लेख किया है।
जैनपुरके दक्षिण गोम्मटदेव । 'जैनपुर' जैनबिद्री व श्रवणवेलगोलाका प्राचीन नाम है । गङ्गनरेश राचमल्ल (ई० ९७४-९८४) के सेनापति और मन्त्री चामण्डरायने यहां वाहबलि स्वामीको ५७ फीट ऊंची खहगासन विशाल पाषाणमूर्ति बनवाई थी। यह मूर्ति एक हजार वर्षसे जाडे, गर्मी और वरसातकी चोटोको सहती हई उसी तरह आज भी वहां विद्यमान है और ससारकी प्रसिद्ध वस्तुमोमेंसे एक है। इस मतिकी प्रशसा करते हुए काका कालेलकरने अपने एक लेखमें लिखा है
'मूर्तिका सारा शरीर भरावदार, यौवनपूर्ण, नाजक और कान्तिमान है। एक ही पत्थरसे निमित इतनी सुन्दर मूर्ति ससारमें और कही नही। इतनी बडी मूर्ति इतनी अधिक स्निग्ध है कि भक्तिके साथ कुछ प्रेमको भी यह अधिकारिणी बनती है । धूप, हवा और पानीके प्रभावसे पीछेकी ओर ऊपरकी पपडी खिर पडनेपर भी इस मूर्तिका लावण्य खण्डित नही हुआ है।' १ नि० का० गाथा न० १२। २ अ०नि० म० गाथा न० ११ । ३ जैनधर्म पृ० ३४२ से उद्धृत ।
-२३५
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
डाक्टर हीरालाल जैन लिखते हैं'--'यह नग्न, उत्तरमुख खड्गासन मूर्ति समस्त संसारको आश्चर्यकारी वस्तुओमेसे है। एशिया खण्ड ही नही, समस्त भूतलका विचरण कर आइये, गोम्मटेश्वरकी तुलना करनेवाली मूत्ति आपको क्वचित् ही दृष्टिगोचर होगी। बडे-बडे पश्चिमीय विद्वानोके मस्तिष्क इस मूत्तिकी कारीगरीपर चक्कर खा गये हैं। इतने भारी और प्रबल पाषाणपर सिद्धहस्त कारीगरने जिस कौशलसे अपनी छैनी चलाई है उससे भारतके मूत्तिकारोका मस्तक सदैव गर्वसे ऊंचा उठा रहेगा । यह सम्भव नही जान पडता कि ५७ फुटकी मूत्ति खोद निकालनेके योग्य पाषाण कही अन्यत्रसे लाकर इस ऊंची पहाडीपर प्रतिष्ठित किया जा सका होगा। इससे यही ठीक अनुमान होता है कि उसी स्थानपर किसी प्रकृतिदत्त स्तम्भाकार चट्टानको काटकर इस मूर्ति का आविष्कार किया गया है। कम-से-कम एक हजार वर्षसे यह प्रतिमा सूर्य, मेघ, वायु आदि प्रकृतिदेवीकी अमोघ शक्तियोसे बातें कर रही हैं। पर अब तक उसमें किसी प्रकारकी थोडी भी क्षति नही हुई। मानो मृत्तिकारने उसे आज ही उद्घटित की हो।'
इस मृत्तिके वारेमे मदनकीतिने पद्य ७ में लिखा है कि 'पाँचसो आदमियोके द्वारा इस विशाल मूर्तिका निर्माण हुआ था और आज भी देवगण उसकी सविशेष पूजा करते है ।' प्राकृत निर्वाणकाण्ड और अपभ्रश निर्वाणमक्ति में भी देवोद्वारा उसकी पूजा होने तथा पुष्पवृष्टि (केशरकी वर्पा) करनेका उल्लेख है। इन सब वर्णनोंसे जैनपुरके दक्षिण गोम्मटदेवकी महिमा और प्रभावका अच्छा परिचय मिलता है।
विश्वसेन नपद्वारा निष्कासित शान्तिजिन मदनकीर्ति और उदयकीर्तिके उल्लेखोसे मालूम होता है कि विश्वसेन नामके किसी राजा द्वारा समुद्रसे श्रोशान्ति जिनेश्वरकी प्रतिमा निकाली गई थी, जिसका यह अतिशय था कि उसके प्रभावसे लोगोके क्षुद्र उपद्रव दूर होते थे और लोगोको वहा सुख मिलना था। यद्यपि मदनकीर्तिके पद्य ९के उल्लेखसे यह ज्ञात नही होता कि शान्तिजिनेश्वरकी उक्त प्रतिमा कहां प्रकट हुई ? पर उदयकीर्तिके निर्देशसे विदित होता है कि वह प्रतिमा मालवतीमें प्रकट हई थी। मालवती सम्भवत मालवाका ही नाम है। अस्तु ।
पुष्पपुर-पुष्पदन्त पुष्पपुर पटना (विहार) का प्राचीन नाम है। सस्कृत साहित्यमें पटनाको पाटलिपत्रके सिवाय कुसुमपुरके नामसे भी उल्लेखित किया गया है। अतएव पुष्पपुर पटनाका ही नामान्तर जान पडता है। मदनकीर्तिके पद्य १२ के उल्लेखानुसार वहां श्रीपष्पदन्त प्रभुकी सातिशय प्रतिमा भूगर्भसे निकली थी, जिसकी व्यन्तरदेवो द्वारा बडी भवितसे पूजा की जाती थी। मदनकीतिके इस सामान्य परिचयोल्लेखके अलावा पुष्पपुरके श्रीपुष्पदन्तप्रभुके वारेमें अभीतक और कोई उल्लेख या परिचयादि प्राप्त नहीं हुआ।
१ शिलालेखसग्रह, प्रस्तावना पृ० १७-१८ । २ गोम्मटदेव वदमि पचसय धणुह-देह-उच्चत्त ।
देवा कुणति बुट्टी केसर-कुसुमाण तस्स उवरिम्मि ॥२५॥ ३ वदिज्जइ गोम्मटदेउ तित्थ, जसु अणु-दिण पणवइ सुरह सत्यु । ४ मालव सति वदउ पवित्त, विससेणराय कड्डिउ निरुत्तु ।। ५ 'विविधतीर्थकल्प' गत 'पाटलिपुत्रनगरकल्प' पृ० ६८ ।
- २३७
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
नागग्रह - नागहृदेश्वर
विविधतीर्थंकल्पमे चौरासी तीर्थोके नामोको गिनाते हुए उसके कर्ता जिनप्रभसूरिने नागद्रह अथवा नागहृदमें श्रीनागहदेश्वर (पार्श्वनाथ) तीर्थका निर्देश किया है। प्राकृतनिर्वाणकाण्डकार तथा उदयकीर्तिने भी नागदहमें श्रीपार्श्वस्वयम्भुदेवकी वन्दना की है। इस तीर्थके उपलब्ध उल्लेखोमें मदनकीर्तिका पद्य १३ गत उल्लेख प्राचीन है और कुछ सामान्य परिचयको भी लिये हुए है । इस परिचयमें उन्होने लिखा है कि श्रीनागहदेश्वर जिन कोढ आदि अनेक प्रकारके रोगो तथा अनिष्टोको दूर करनेसे लोगोके विशेष उपास्य थे और उनका यह अतिशय लोकमें प्रसिद्धिको प्राप्त था । इससे प्रकट है कि यह तीर्थ आजसे आठसो वर्ष पहले का है । 'नागद्रह' नागदाका प्राचीन नाम मालूम होता है । जो हो ।
पश्चिमसमुद्रतटस्य चन्द्रप्रभ
मदनकीर्तिने पद्य १६ में पश्चिम समुद्रतटके जिन चन्द्रप्रभ प्रभुका अतिशय एव प्रभाव वर्णित किया है उनका स्थान कहाँ है ? उदयकीर्तिने उन्हें पश्चिम समुद्रपर स्थित तिलकापुरीमें वतलाया है । यह तिलकापुरी सम्भवत सिन्ध और कच्छके आस-पास कही रही होगी । अपने समय में यह तीर्थं काफी प्रसिद्ध हा प्रतीत होता है ।
छाया-पार्श्वभु
इस तीर्थका मुनि मदनकीर्ति, जिनप्रभसूरि और मानवसहिताकार शान्तिविजय इन तीन विद्वानोंने उल्लेख किया है । मदनकीर्तिने पद्य १७ के द्वारा उसे सिद्धशिलापर और जिनप्रभसूरि" तथा शान्तिविजयने माहेन्द्र पर्वत और हिमालय पर्वतपर बतलाया है । आश्चर्य नही मदनकीर्तिको सिद्ध शिलासे माहेन्द्र पर्वत अथवा हिमालय ही विवक्षित हो । यदि ऐसा हो तो कहना होगा कि माहेन्द्र पर्वत अथवा हिमालयपर कही यह तीर्थ रहा है और वह छायापार्श्वनाथतीर्थ के नामसे प्रसिद्ध था । मालूम नही, अब उसका कोई अस्तित्व है अथवा नही ?
आश्रम नगर-मुनिसुव्रतजिन
मुनि मनकीर्ति पद्य २८ गत उल्लेखानुसार आश्रममें, प्राकृतनिर्वाणकाण्डकार के कथनानुसार आशारम्यनगरमें, मुनि उदय कीर्तिके' उल्लेखानुसार आश्रम में और जिनप्रभसूरि, मुनि शीलविजय " तथा शान्ति विजयके " वर्णनानुसार प्रतिष्ठानपुर १२ में गोदावरी (बाणगङ्गा) के किनारे एक शिलापर प्राचीन समय में १ 'कलिकुण्डे नागह्रदे च श्रीपार्श्वनाथ । ' - विविधतीर्थकल्प पृ० ८६ ।
२ प्रा० नि० का० गाथा २० ।
३ 'नायद्दह पासु सयभुदेउ, हउ वदउ जसु गुण णत्थि छेव ।'
४ 'पच्चिमसमुद्दससि - सख-वण्णु, तिलयापुरि चदप्पहवण्णु ।'
५ ' माहेन्द्र पर्वते छायापार्श्वनाथ | हिमाचले छायापार्श्वो मन्त्राषिराज श्रीस्फुलिंग' ।' -विविधतीर्थकल्प पृ० ८६ ।
६ 'माहेन्द्र पर्वत में छायापार्श्वनाथका तीर्थ है । हिमालय पर्वतमें छाया पार्श्वनाथ मन्त्राधिराज मोर स्फुलिंग पार्श्वनाथका तीर्थ है ।' - मानवधर्मसहिता पृ० ५९९-६०० (वि०स० १९५५ में प्रकाशित संस्करण) । प्रा० नि० का० गाथा २० । ८ अपभ्रशनिर्वाणभक्ति गा० ६ । ९ विविधतीर्थकल्प पृ० ५९ । १० तीर्थमाला | ११ मानवधर्मसहिता, पृ० ५९९ । १२ प्रेमोजीने लिखा है कि इसका वर्तमान नाम पैठण है, जो हैदराबादके औरगाबाद जिलेकी एक तहसील है-- ( जैन सा० और इति० पृ० २३८ का फुटनोट) ।
७
२३८ -
-
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीमुनिसुव्रतस्वामीकी प्रतिमा प्रकट हुई, जिसका अतिशय लोकमें खूब फैला और तबसे यह तीर्थ प्रसिद्धि में आया। उक्त विद्वानोके लेखो और वर्णनोसे स्पष्ट है कि विक्रमकी १३वी, १४वी शताब्दीमे यह एक बडा तीर्थ माना जाता था। और वि० की १८वी शताब्दी तक प्रसिद्ध रहा तथा यात्री उसकी वन्दनाके लिये जाते रहे हैं। विशेपके लिए इसी ग्रन्थ में प्रकाशित द्रव्य सग्रहको प्रस्तावना दृष्टव्य है।
मेवाड़देशस्थ नागफणी-मल्लिजिनेश्वर मदनकोतिके पद्य ३३ के उल्लेखसे मालूम होता है कि मेवाडके नागफणी गांवमें खेतको जोतते हए एक आदमीको शिला मिली। उस शिलापर श्रीमल्लिजिनेश्वरकी प्रतिमा प्रकट हुई और वहां जिनमन्दिर बनवाया गया। जान पडता है कि उसी समयसे यह स्थान एक पवित्र क्षेत्रके रूप में प्रसिद्धिमें आया और तीर्थ माना जाने लगा। यद्यपि यह तीर्थ कबसे प्रारम्भ हुआ, यह बतलाना कठिन है फिर भी यह कहा जा मकता है कि वह सातसौ-माढ़े सातसौ वर्ष प्राचीन तो अवश्य है।
मालवदेशस्थ मङ्गलपुर-अभिनन्दनजिन मालवाके मङ्गलपुरके श्रीअभिनन्दनजिनके जिस मतिशय और प्रभावका उल्लेख मदनकीतिने पद्य ३४ में किया है उसका जिनप्रभसरिने भी अपने 'विविधतीर्थकल्प' गत 'अवन्तिदेशस्थ-अभिनन्दनदेवकल्प' नामके कल्प (पृ० ५७) में निर्देश किया है और साथमें एक कथा भी दी है । उस कथाका सार यह है कि म्लेच्छोंने अभिनन्दनदेवकी मूर्तिको तोड दिया लेकिन वह जुड गई और एक बडा अतिशय प्रगट हुआ। सम्भवत इसी अतिशयके कारण प्राकत निर्वाणकाण्ड' और अपभ्रश निर्वाणभक्ति में उसकी वन्दना की गई है । अतएव इन सब उल्लेखादिकोंसे ज्ञात होता है कि मालवाके मङ्गलपुरके अभिनन्दनदेवकी महिमा लोकविश्रुत रही है और वह एक पवित्र अतिशयतीर्थ रहा है। यह तीर्थ भी आठ-सौ वर्षसे कम प्राचीन नही है।
इस तरह इस सक्षिप्त स्थानपर हमने कुछ ज्ञात अतिशय तीर्थो और सातिशय जिनबिम्बोका कुछ परिचय देनेका प्रयत्न किया है। जिन अतिशय तीर्थों अथवा सातिशय जिनबिम्बोका हमें परिचय मालम नही हो सका उन्हें यहाँ छोड दिया गया है। आशा है पुरातत्त्वप्रेमी उन्हें खोजकर उनके स्थानादिका परिचय देगें।
C
१ 'पास तह महिणदण णायद्दहि मगलाउरे वदे।'-गाथा २० । २. 'मगलवुरि वदउ जगपयासु, अहिणदणु जिणु गुणगणणिवासु ।'
--२३९ -
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
'संजद' पदके सम्बन्धमें अकलङ्कदेवका महत्त्वपूर्ण अभिमत
'सजद' पदका विवाद
षटखण्डागमके ९३वें सूबमें 'सजद' पद होना चाहिये या नहीं, इस विषयमें काफी समयसे चर्चा चल रही है । कुछ विद्वानीका मत है कि 'यहां द्रव्यस्त्रीका प्रकरण है और ग्रन्थके पूर्वापर सम्बन्धको लेकर वरावर विचार किया जाता है तो उसकी ('सजद' पदकी) यहाँ स्थिति नही ठहरती ।' अत पट्खण्डागमके ९३वें सूत्रमें 'सजद' पद नही होना चाहिये । इसके विपरीत दूसरे कुछ विद्वानोंका कहना है कि यहा (सूत्रमें) सामान्यस्त्रीका ग्रहण है और ग्रन्थके पूर्वापर सन्दर्भ तथा वीरसेनस्वामीकी टीकाका सूक्ष्म समीक्षण किया जाता है तो उक्त सूत्रमें 'सजद' पदको स्थिति आवश्यक प्रतीत होती है । अत यहा भाववेदकी अपेक्षासे 'सजद' पदका ग्रहण समझना चाहिये । प्रथम पक्षके समर्थक ५० मक्खनलाल जी मोरेना, प० रामप्रसादजी शास्त्री वम्बई, श्री १०५ क्षुल्लक सूरिसिंहजी और प० तनसुखलालजी काला आदि विद्वान् है । दूसरे पक्षके समर्थक प० बशीधरजी इन्दौर, १० खूबचन्दजी शास्त्री वम्बई, प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री बनारस, ५० फुलचन्द्रजी शास्त्री बनारस और प० पन्नालालजी सोनी व्यावर आदि विद्वान् हैं। ये सभी विद्वान् जैनसमाजके प्रतिनिधि विद्वान् हैं। अतएव उक्त पदके निर्णयार्थ अभी हालमें बम्बई पचायतकी ओरसे इन विद्वानोको निमत्रित किया गया था। परन्तु अभी तक कोई एक निर्णयात्मक नतीजा सामने नहीं आया । दोनो ही पक्षके विद्वान् युक्तिवल, ग्रन्थसन्दर्भ और वीरसेनस्वामीकी टीकाको ही अपने अपने पक्षके समर्थनार्थ प्रस्तुत करते हैं।
पर जहाँ तक मुझे मालूम है पट्खण्डागमके इस प्रकरण-सम्बन्धी सूत्रोके भावको बतलाने वाला वीरसेनस्वामीसे पूर्ववर्ती कोई शास्त्रीय प्रमाणोल्लेख किसीकी ओरसे प्रस्तुत नही किया गया है। यदि वीरसेनस्वामीसे पहले षट्खण्डागमके इस प्रकरण-सम्बन्धी सूत्रोका स्पष्ट अर्थ बतलानेवाला कोई शास्त्रीय प्रमाणोल्लेख मिल जाता है तो उक्त सूत्रमें 'सजद' पदकी स्थिति या अस्थितिका पता चल जावेगा और फिर विद्वानोके सामने एक निर्णय आ जाएगा।
अकलकदेवका अभिमत
अकलङ्कदेवका तत्त्वार्थवातिक वस्तुत एक महान् सद्रत्नाकर है। जैनदर्शन और जैनागम विषयका बहुविध और प्रामाणिक अभ्यास करनेके लिये केवल उसीका अध्ययन पर्याप्त है। अभी मैं एक विशेष प्रश्नका उत्तर दृढनेके लिए उसे देख रहा था। देखते हुए मुझे वहाँ 'सजद' पदके सम्बन्धमें बहुत ही स्पष्ट और महत्त्वपूर्ण खुलासा मिला है। अकलदेवने शटखण्डागमके इस प्रकरण-सम्बन्धी समग्र सूर्धोका वहाँ प्रायः अविकल अनुवाद दिया है। इसे देख लेनेपर किसी भी पाठकको पटखण्डागमके इस प्रकरणके सूत्रोंके अर्थमें जरा भी सन्देह नही रह सकता। यह सर्वविदित है कि अकलदेव वीरसेन स्वामीसे पूर्ववर्ती हैं और उन्होने अपनी धवला तथा जयघवला दोनो टीकाओमें अफलनदेवके तत्त्वार्थवात्तिकके प्रमाणोल्लेखोंसे अपने
-२४०
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
वणित विषयोको कई जगह प्रमाणित किया है। अत तत्त्वार्थवात्तिक षटखण्डागमके इस प्रकरण-सवन्धी सूत्रोका जो खुलासा किया गया है वह सर्वके द्वारा मान्य होगा ही।
तत्त्वार्थवातिकके उद्धरण
मनुष्यगती मनुष्येषु पर्याप्तकेषु चतुर्दशापि गुणस्थानानि भवन्ति, अपर्याप्तके त्रीणि मिथ्यादृष्टि-सासादनसम्यग्दृष्टयसयतसम्यग्दृष्ट्याख्यानि । मानुषीपर्याप्तिकासु चतुर्दशापि गुणस्थानानि सन्ति भावलिङ्गापेक्षया, द्रव्यलिङ्गापेक्षेण तु पंचाद्यानि । अपर्याप्तिकासु द्वे आये,
सम्यक्त्वेन सह स्त्रीजननाभावात् ।'-तत्त्वार्थवार्तिक, पृ० ३३१, अ० ९, सू०७ ।
इसे षट्खण्डागमके निम्न सूत्रोके साथ पढ़ेंषट्खण्डागमके सूत्र
मणुस्सा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि असजदसम्माइटि-ट्टाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।। ८९ ॥
सम्मामिच्छाइट्रि-सजदासजद-सजद-ठाणे णियमा पज्जत्ता ॥१०॥ एव मणूस्स-पज्जत्ता ॥९१।।
मणुसिणीसु मिच्छाइट्टि-सासणसम्माइट्टि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ ॥१२॥
सम्मामिच्छाइट्रि-असजदसम्माइटि-सजदासजद-सजवट्ठाणे णियमा पज्जतियाओ ॥१३॥ पट्खण्डागम और तत्त्वार्थवात्तिकके इन दोनो उद्धरणोपरसे पाठक यह सहजमें समझ जावेंगे कि तत्त्वार्थवात्तिकमें षट्खण्डागमका ही भावानुवाद दिया हुआ है और सूत्रोमें जहाँ कुछ भ्रान्ति हो सकती थी उसे दूर करते हुए सूमोंके हार्दका सुस्पष्ट शब्दो द्वारा खुलासा कर दिया गया है । राजवात्तिकके उपर्युक्त उल्लेखमें यह स्पष्टतया वतला दिया गया है कि पर्याप्त मनुष्पणियोंके १४ गुणस्थान होते हैं किन्तु वे भावलिंगको अपेक्षासे हैं, द्रव्यलिङ्गको अपेक्षासे तो उनके आदिके पांच ही गणस्थान होते हैं। इससे प्रकट है कि वीरसेनस्वामीने जो मावस्त्रीको अपेक्षा १४ गुणस्थान और द्रव्यस्त्रीकी अपेक्षा ५ गुणस्थान षट्खण्डागमके ९३ वे सूत्रकी टीकामें व्याख्यात किये है और जिन्हें ऊपर अकलकदेवने भी बतलाये है वह बहुत प्राचीन मान्यता है और वह सूत्रकारके लिये भी इष्ट है। अतएव सूत्र ९२ वें मे उन्होने अपर्याप्त स्त्रियोमें सिर्फ दो ही गुणस्थानोका प्रतिपादन किया है और जिसका उपपादन 'अपर्याप्तिकासु आधे, सम्यक्त्वेन सह स्त्रीजननाभावात्' कहकर अकलङ्कदेवने किया है । अकलदेवके इस स्फुट प्रकाशमें सूत्र ८९ और ९२ से महत्वपूर्ण तीन निष्कर्ष और निकलते हुए हम देखते हैं। एक तो यह कि सम्यग्दृष्टि स्त्रियों में पैदा नहीं होता। अतएव अपर्याप्त अवस्था में स्त्रियोंके प्रथमके दो हो गुणस्थान कहे गये हैं जब कि पुरुपोमें इन दो गुणस्थानोके अलावा चौथा असयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान भी बतलाया गया है और इस तरह उनके पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान कहे गये हैं। इसी प्राचीन मान्यताका अनुसरण और समर्थन स्वामी समन्तभद्रने रत्नकरण्डश्रावकाचार (श्लोक ३५) में किया है। इससे प्रकट है कि यह मान्यता कुन्दकुन्द या स्वामी समन्तभद्र आदि द्वारा पीछेसे नहीं गढी गई है। अपितु उक्त सूत्रकालके पूर्वसे ही चली आ रही है ।
दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि अपर्याप्त अवस्थामे स्त्रियोके आदिके दो गुणस्थान और पुरुपोके पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान ही सभव होते हैं और इसलिये इन गुणस्थानोंको छोडकर अपर्याप्त
-२४१ -
न-३१
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
अवस्थामें भारवेद या भाव
नहीं होता, जिससे पर्याप्त मनुष्यनियोंकी तरह अपर्याप्त मनुष्यनियों १४ गुणस्थान भी कहे जाते और इस लिये वहा भाववेद या भावलिङ्गको विवक्षा अविवक्षाका प्रश्न नही उठता । हा, पर्याप्त अवस्थामें सभी गुणस्थानोमें भाववेद होता है, इसलिये उनकी विवक्षा अविवक्षाका प्रश्न जरूर उठता है। अत यहाँ भावलिंगकी दिवसासे १४ और द्रव्यलिंगको अपेक्षा से प्रथमके पांच ही गुणस्थान बतलाये गये हैं। इन दो निष्कयपरसे स्त्रीमुक्ति-निषेधकी मान्यतापर भी महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है और यह मालूम हो जाता है कि स्त्रीमुक्ति-निषेधकी मान्यता कुन्दकुन्दकी अपनी चीज नही है किन्तु वह भ० महावीरकी ही परम्पराकी चीज है और जो उन्हें उक्त सूत्रों भूतबलि और पुष्पदन्तके प्रवचनोके पूर्व से चली आती हुई प्राप्त हुई है ।
तीसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि यहाँ सामान्य मनुष्यणीका ग्रहण है—प्रयमनुष्याणी या द्रव्यस्त्रीका नहीं, क्योंकि अकलदेव भी पर्याप्त मनुष्यनियोके १४ गुणस्थानोका उपपादन भावलिंगको अपेक्षासे करते हैं और द्रव्यलिंगकी अपेक्षासे पांच ही गुणस्थान बतलाते हैं । यदि सूत्रमें द्रव्यमनुष्यनी या द्रव्यस्त्रीमात्रका ग्रहण होता तो वे सिर्फ पांच ही गुणस्थानोंका उपपादन करते, भावलिंगकी अपेक्षासे १४ का नही । इसलिये जिन विद्वानोका यह कहना है कि 'सूत्र' में पर्याप्त शब्द पता है यह अच्छी तरह सिद्ध करता है कि द्रव्यस्त्रीका यहाँ ग्रहण है क्यो कि पर्याप्तियाँ सब पुद्गल द्रव्य ही हूँ' 'पर्याप्तस्त्रीका ही द्रव्यस्त्री अर्थ है " वह सगत प्रतीत नही होता, क्योकि अकलकदेवके विवेचनसे प्रकट है कि यहाँ 'पर्याप्तस्त्री' का अर्थ द्रव्यस्त्री नही है और न द्रव्यस्त्रीका प्रकरण है किन्तु सामान्यस्त्री उसका अर्थ है और उसीका प्रकरण है और भावलिंगकी अपेक्षा उनके १४ गुणस्थान हैं। दूसरे, यद्यपि पर्याप्तियाँ पुद्गल है लेकिन पर्याप्तकर्म तो जीवविपाकी है, जिसके उदय होनेपर ही 'पर्याप्तक' कहा जाता है । अत 'पर्याप्त' शब्दका अर्थ केवल द्रव्य नही है— भाव भी है ।
निष्कर्ष :
अत तत्त्वार्थवातिकके इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि षट्ागमके ९३ सूत्रमें 'राजद' पर आवश्यक एव अनिवार्य है। यदि 'राजद' पद सूत्र में न हो तो पर्याप्त मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानका अलकदेवका उक्त प्रतिपादन सर्वथा असगत ठहरता है और जो उन्होंने भावलिंगको कपेक्षा उसकी उपपत्ति बैठाई है। तथा प्रथलिंगको अपेक्षा ५ गुणस्थान ही वर्णित किये हैं वह सब अनावश्यक और अयुक्त उद्धरता अतएव अकलदेव उक्त सूत्रमें 'राजद' पदका होना मानते हैं और उसका सयुक्तिक समर्थन करते हैं वीरसेनस्वामी भी अलकदेवके द्वारा प्रदर्शित इसी मार्ग पर पते हैं। अत यह निविवाद है कि उक्त सूत्रमे 'राजद' पद है और इसलिये ताम्रपत्रोपर उत्कीर्ण सूत्रोमें भी इस पदको रखना चाहिये तथा भ्रान्तिनिवारण एव स्पष्टीकरणके लिये उक्त सूत्र ९३ के फुटनोटमें तत्त्वार्थ राजवातिकका उपर्युक्त उद्धरण दे देना चाहिये । हमारा उन विद्वानोसे, जो उक्त सूत्र में 'सजद' पदकी अस्थिति बतलाते हैं, नम्र अनुरोध है कि वे तस्यार्थवालिक इस दिनकर प्रकाशकी तरह स्फुट प्रमाणोल्लेक्षके प्रकाशमें उस पदको देखें। यदि उन्होंने ऐसा किया तो मुझे आशा है कि वे भी भावलिगकी अपेक्षा उक्त सूत्रमें 'सजद' पदका होना मान लेंगे। श्री १०८ आचार्य शान्तिसागरजी महाराज से भी प्रार्थना है कि वे ताम्रपत्रमें उक्त सूत्रमें 'सजद' पद अवश्य रखें उसे हटायें नही।
-
१. प० रामप्रसादजी शास्त्रीके विभिन्न लेख और 'दि० जैन सिद्धान्तदर्पण' द्वितीयभाग, पृ० ८ और पृ० ४५ ।
- २४२ -
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
९३३ सूत्र में 'संजद' पदका सद्भाव सूत्रमे 'सजद' पद नही है पूर्व पक्षकी युक्तियां
'पट्खण्डागम' के उल्लिखित ९३। सूत्रमें 'ससद' पद है या नही ? इस विषयको लेकर काफी अरसे से चर्चा चल रही है। कुछ विद्वान उक्त सूत्रमें 'सजद' पदको अस्थिति बतलाते है और उसके समर्थनमें कहते हैं कि प्रथम तो यहाँ द्रव्यका प्रकरण है, अतएव वहां द्रव्यस्त्रियोके पांच गुणस्थानोका ही निरूपण है। दूसरे, पट्खण्डागममें और कही आगे-पीछे द्रव्यस्त्रियोके पांच गुणस्थानोका कथन उपलब्ध नहीं होता। तीसरे, वहाँ सूत्रमे 'पर्याप्त' शब्दका प्रयोग है जो द्रव्यस्त्रीका ही बोधक है । चौथे वीरसेन स्वामीकी टीका उक्तसूत्रमें 'सजद' पदका समर्थन नहीं करती, अन्यथा टीकामें उक्त पदका उल्लेख अवश्य होता। पांचवें, यदि प्रस्तुत सूत्रको द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोंका प्ररूपक-विधायक न माना जाय और चूंकि षट्खण्डागममें ऐसा और कोई स्वतन्त्र सूत्र है नही, जो द्रव्यस्त्रियोके पांच गुणस्थानोका विधान करता हो, तो दिगम्बर परम्पराके इस प्राचीनतम सिद्धान्तग्रन्थ पट्खण्डागमसे द्रव्यस्त्रियोके पांच गुणस्थान सिद्ध नहीं हो सकेंगे और जो प्रो० हीरालालजी कह रहें हैं उसका तथा श्वेताम्बर मान्यताका अनुपग आवेगा। अत प्रस्तुत ९३वें सूत्रको 'सजद' पदसे रहित मानना चाहिये और उसे द्रव्यस्त्रियोके पांच गुणस्थानोका विधायक समझना चाहिये। उक्त युक्तियोपर विचार
१ षट्खण्डागमके इस प्रकरणको जब हम गौरसे देखते हैं तो वह द्रव्यका प्रकरण प्रतीत नही होता मूलग्रन्थ और उसकी टीकामे ऐसा कोई उल्लेख अथवा सकेत उपलब्ध नही है जो वहाँ द्रव्यका प्रकरण सूचित करता हो । विद्वद्वर्य प० मक्खनलालजी शास्त्रीने हालमें 'जैन बोधक' वर्ष ६२, अक १७ और १९में अपने दो लेखो द्वारा द्रव्यका प्रकरण सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। उन्होने मनुष्यगति सम्बन्धी उन पांचो ही ८९, ९०, ११, ९२, ९३-सूत्रोको द्रव्य प्ररूपक बतलाया है। परन्तु हमें ऐसा जरा भी कोई स्रोत नही मिलता, जिससे उसे 'द्रव्यका ही प्रकरण' समझा जा सके। हम उन पांचो सत्रोको उत्थानिका वाक्य सहित नीचे देते हैं -
"मनुष्यगतिप्रतिपादनार्थमाह
मणुस्सा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असजद-सम्माइट्ठि-ढाणे सिया पज्जत्ता सिया अपज्जत्ता ।।८९॥
तत्र शेपगुणस्थानसत्वावस्थाप्रतिपादनार्थमाहसम्मामिच्छाइट्ठि-सजदासजद-सजद-ट्ठाणे णियमा पज्जता ।।९।। मनुष्यविशेषस्य निरूपणार्थमाहएव मणुस्सपज्जत्ता ।।९।। मानुषीषु निरूपणार्थमाह
मणुसिणीसु मिच्छाइटि-सासणसम्माइटि-टाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ ।।९२।।
-२४३
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्रैव शेपगुणविषयाऽऽरेकापोहनार्थमाह
सम्मामिच्छाइट्ठि-असजदसम्माइट्ठि-सजदासजद-सजद-टाणे णियमा पज्जत्तियाओ ॥९३॥
-घवला १, १, ८९-९३ ५० ३२९-३३२ ऊपर उद्धृत हुए मूलसूत्रो और उनके उत्थानिकावाक्योसे यह जाना जाता है कि पहला (८९) और दूसरा (९०) ये दो सूत्र तो सामान्यत मनुष्यगति-पर्याप्तकादिक भेदसे रहित (अविशेषरूपसे) सामान्य मनुष्यके प्रतिपादक हैं और प्रधानताको लिए हए वर्णन करते हैं । आचार्य वीरसेन स्वामी भी यही स्वीकार करते हैं और इसलिये वे 'मनुष्यगति प्रतिपादनार्थमाह' (८९) तथा 'तत्र (मनुष्यगतो) शेषगुणस्थानसत्त्वावस्थाप्रतिपादनार्थमाह' (९०)। इस प्रकार सामान्यतया ही इन सूत्रों के मनुष्यगति सम्बन्धी उत्थानिका वाक्य रचते हैं । इसके अतिरिक्त अगले सत्रोंके उत्थानिकावाक्यो में वे 'मनुष्यविशेष' पदका प्रयोग करते है, जो खास तोरसे ध्यान देने योग्य है और जिससे विदित हो जाता है कि पहले दो सूत्र तो सामान्य-मनुष्यके प्ररूपक हैं और उनसे अगले तीनो सूत्र मनुष्यविशेषके प्ररूपक हैं। अतएव ये दो (८९, ९०) सूत्र सामान्यतया मनुष्य गतिके ही प्रतिपादक है, यह निविवाद है और यह कहनेकी जरूरत नहीं कि सामान्य कथन भी इष्टविशेपमें निहित होता है--सामान्यके सभी विशेषोमें या जिस किसी विशेपमें नही। तात्पर्य यह कि उस्त सुयोका निरूपण सम्भवताकी प्रधानताको लेकर है।
तीसरा (९१), चौथा (९२) और पाचवा (९३) ये तीन सभ अवश्य मनुष्यविगेपके निरूपक हैमनुष्योके चार भेदो (सामान्यमनुष्य, मनुप्यपर्याप्त, मनुष्यनी और अपर्याप्त मनुष्य) मेसे दो भेदो-मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी-के निरूपक है। और जैसा कि उपर कहा जा चुका है कि वीरसेन स्वामीके 'मनुष्य विशेषस्य निरूपणार्थमाह', 'मानुषीष निरूपणार्थमाह' और 'तत्रैव (मानुपीष्वेव) शेषगुणविपयारेकापोहनार्थमाह' इन उत्था निकावाक्योंसे भी प्रकट है। पर द्रव्य और भावका भेद यहां भी नहीं है-द्रव्य और भाव का भेद किये बिना ही मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यणीका निरूपण है। यदि उक्त सूत्री या उत्थानिकावाक्योमें 'द्रव्यपर्याप्तमनुष्य' और 'द्रव्यमनुष्यणी' जैसा पद प्रयोग होता अथवा टीकामें ही वैसा कुछ कथन होता, तो निश्चय ही 'द्रव्यप्रकरण' स्वीकार कर लिया जाता । परन्तु हम देखते हैं कि वहाँ वैसा कुछ नही है। अत यह मानना होगा कि उक्त सूत्रोमें द्रव्यप्रकरण इष्ट नही है और इसलिए ९३वें सत्र में द्रव्यस्त्रियोके ५ गणस्थानोका वहाँ विधान नही है, बल्कि सामान्यत निरूपण है ओर पारिशेष्यन्यायसे भावापेक्षया निरूपण वहां सूत्रकार और टीकाकार दोनोको इष्ट है और इसलिए भावलिङ्गको लेकर मनुष्यनियोमें १४ गुणस्थानोंका विवेचन समझना चाहिये। अतएव ९३वें सत्र मे 'सजद' पदका प्रयोग न तो विरुद्ध है और न अनुचित है । सूत्रकार और टीकाकारको प्ररूपणशैली उसके अस्तित्वको स्वीकार करती है।
यहा हम यह आवश्यक समझते हैं कि प० मक्खनलाल जी शास्त्रीने जो यहां द्रव्यप्रकरण होनेपर जोर दिया है और उसके न मानने में जो कुछ आक्षेप एव आपत्तियां प्रस्तुत की हैं उनपर भी विचार कर लिया जाय । अत नीचे 'आक्षेप-परिहार' उपशीर्षकके साथ विचार किया जाता है। आक्षेप-परिहार
(१) आक्षेप-यदि ९२वां सूत्र भावस्त्रीका विधायक माना जाय-द्रव्यस्त्रीका नही, तो पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान होना आवश्यक है क्योकि भावस्त्री माननेपर द्रव्यमनुष्य मानना होगा। और
-२४४
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्यमनुष्यके चौथा गुणस्थान भी अपर्याप्त अवस्थामें हो सकता है। परन्तु इस सूत्रमें चौथा गुणस्यान नही बताया है, केवल दो ही (पहला और दूसरा) गुणस्थान बताये गये हैं । इससे बहुत स्पष्ट हो जाता है कि यह ९२| सूत्र द्रव्यस्त्रीका ही निरूपक है ?
(१) परिहार-प० जीकी मान्यता ऐसी प्रतीत होती है कि भावस्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्यके अपर्याप्त अवस्थामें चौथा गुणस्थान होता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीव मरकर भावस्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्य हो सकता है और इसलिए ९३वे सूत्रकी तरह ९२वें सूत्रको भावस्त्रीका निरूपण करनेवाला माननेपर सूत्रमें पहला, दूसरा और चौथा इन तीन गुणस्थानोको बताना चाहिये था। केवल पहले व दूसरे इन दो ही गुणस्थानोको नही ? इसका उत्तर यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव, जो द्रव्य और भाव दोनोसे मनुष्य होगा उसमें पैदा होता है-भावसे स्त्री और द्रव्यमे मनुष्य में नहीं, क्योकि सम्यग्दृष्टि जीव समस्त प्रकारको स्त्रियोमें पैदा नही होता। जैसा पण्डितजीने समझा है. अधिकाश लोग भी यही समझते है कि सम्यग्दष्टि के द्रव्यस्त्रियो-देव, तिर्यञ्च और मनुष्य द्रव्यस्त्रियोमे ही पैदा नही होता, भावस्त्रियोमे तो पैदा हो सकता है । लेकिन यह बात नही है, वह न द्रव्यस्त्रियो में पैदा होता है और न भावस्त्रियो । सम्यग्दृष्टिको समस्त प्रकारकी स्त्रियोमें पैदा न होनेका ही प्रतिपादन शास्त्रोंमें है। स्वामी समन्तभद्रने 'सम्यग्दर्शनशुद्धा नारकनपुसकस्त्रीत्वानि' रत्नकरण्डश्रावकाचारके इस श्लोकमे 'स्त्रीत्व' सामान्य (जाति) पदका प्रयोग किया है, जिसके द्वारा उन्होने यावत स्त्रियो (स्त्रीत्वावच्छिन्न द्रव्य और भावस्त्रियो)में पैदा न होनेका स्पष्ट उल्लेख किया है । पण्डितवर दौलतरामजीने 'प्रथम नरक विन ष ज्योतिष वान भवन सब नारी' इस पद्य में 'सब' शब्द दिया है जो समस्त प्रकारकी स्त्रियोका बोधक है। यह पद्य भी जिस पचसग्रहादिगत प्राचीन गाथाका भावानवाद है उस गाथामें भी 'सव-इत्थीस' पाठ दिया हुआ है। इसके अलावा, स्वामी वीरसेनने षटखण्डागमके सूत्र ८८की टोकामें सम्यग्दृष्टिकी उत्पत्तिको लेकर एक महत्त्वपूर्ण शका और समाधान प्रस्तुत किया है, जो खास ध्यान देने योग्य है और जो निम्नप्रकार है
वद्धायुष्क क्षायिकसम्यग्दृष्टि रकेषु नपुसकवेद इवात्र स्त्रीवेदे किन्नोत्पद्यते इति चेत्, न, तत्र तस्यैवैकस्य सत्त्वात । यत्र क्वचन समुत्पद्यमान सम्यग्दृष्टिस्तत्र विशिष्टवेदादिषु समुत्पद्यते इति गृह्यताम ।"
शका--आयुका जिसने बन्ध कर लिया है ऐसा क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव जिसप्रकार नारकियोमे नपुसक वेदमें उत्पन्न होता है उसीप्रकार यहां तिर्यचोमें स्त्रीवेदमें क्यो नही उत्पन्न होता?
समाधान नही, क्योकि नारकियोमें वही एक नपुसकवेद होता है, अन्य नही, अतएव अगत्या उसीमें पैदा होना पड़ता है। यदि वहाँ नपु सकवेदसे विशिष्ट-ऊँचा (बढकर) कोई दूसरा वेद होता तो उसीमें वह पैदा होता, लेकिन वहां नपु सक वेदको छोडकर अन्य कोई विशिष्ट वेद नही है । अतएव विवश उसीमें उत्पन्न होता है। परन्तु तिर्यञ्चोमें तो स्त्रीवेदसे विशिष्ट--ऊँचा दूसरा वेद पुरुषवेद है, अतएव बद्घायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि पुरुषवेदी तिर्यञ्चोमें ही उत्पन्न होता है। यह आम नियम है कि सम्यग्दृष्टि जहाँ कही (जिस किसी गतिमें) पैदा होता है वहां विशिष्ट (सर्वोच्च) वेदादिकोमें ही पैदा होता है-उससे जघन्यमें नही।
वीरसेन स्वामीके इस महत्वपूर्ण समाधानसे प्रकट है कि मनुष्यगतिमें उत्पन्न होनेवाला सम्यग्दष्टिजीव द्रव्य और भाव दोनोंसे विशिष्ट पुरुषवेदमें ही उत्पन्न होगा-भावसे स्त्रीवेद और द्रव्यसे पुरुषवेदमें नही, क्योकि जो द्रव्य और भाव दोनोसे पुरुषवेदी है उसकी अपेक्षा जो भावसे स्त्रीवेदी और द्रव्यसे पुरुषवेदी है वह हीन एव जघन्य है-विशिष्ट (सर्वोच्च) वेदवाला नही है। द्रव्य और भाव दोनोसे जो पुरुशवेदी है
-२४५ -
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
वही यहां विशिष्ट (सर्वोच्च) वेदवाला है । अतएव सम्यग्दृष्टि भावस्त्रीविशिष्ट द्रव्यमनुष्य नही हो सकता है और इसलिए उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथे गुणस्थानकी कदापि सम्भावना नही है। यही कारण है कि कर्मसिद्धान्तके प्रतिपादक ग्रन्थोमें अपर्याप्त अवस्थामें अर्थात् विग्रहगतिमें चातुर्थ गुणस्थानमें स्त्रीवेदका उदय नही बतलाया गया है । सासादन गुणस्थानमें ही उसकी व्युच्छित्ति बतला दी गई है, (कर्मकाण्ड गा० ३१२-३१३-३१९) । तात्पर्य यह कि अपर्याप्त अवस्थामें द्रव्यस्त्रीकी तरह भावस्त्रीके भी चौथा गुणस्थान नही होता है। इसीसे सूत्रकारने द्रव्य और भाव दोनो तरहकी मनुष्यनियोंके अपर्याप्त अवस्थामें पहला, दूसरा ये दो ही गुणस्थान बतलाये है उनमें चौथा गुणस्थान बतलाना सिद्धान्तविरुद्ध होनेके कारण उन्हें इष्ट नही था। अत ०२वें सूत्रकी वर्तमान स्थितिमें कोई भी आपत्ति नही है। पण्डितजीने अपनी उपर्युक्त मान्यताको जैनबोधकके ९१वें अकमें भी दुहराते हुए लिखा है--"यदि यह ९२वा सूत्र भावस्त्रीका विघायक होता तो अपर्याप्त अवस्थामें भी तीन गुणस्थान होने चाहिये, क्योकि भावस्त्रो (द्रव्यमनुष्य)के असयत सम्यग्दृष्टि चौथा गुणस्थान भी होता है।" परन्तु उपरोक्त विवेचनसे प्रकट है कि पण्डितजीकी यह मान्यता आपत्ति एव भ्रमपूर्ण है। द्रव्यस्त्रीकी तरह भावस्त्रीके भी अपर्याप्त अवस्थामें चौथा गणस्थान नही होता, यह ऊपर बतला दिया गया है। और गोम्मटसार जीवकाण्डकी निम्न गाथासे भी स्पष्टत' प्रकट है
हेट्टिमछप्पुढवीण जोइसि-वण-भवण-सव्वइत्थीण ।
पुण्णिदरे ण हि सम्मो ण सासणे णारयापुण्ण ।।---गा० १२७ । अर्थात् 'द्वितीयादिक छह नरक, ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी देव तथा सम्पूर्ण स्त्रियां इनकी अपर्याप्त अवस्थामें सम्यक्त्व नहीं होता । भावार्थ-- सम्यक्त्व सहित जीव मरण करके द्वितीयादिक छह नरक, ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी देवो और समग्र स्त्रियोमें उत्पन्न नही होता ।' आपने 'भावस्त्रीके असयत
म्यग्दष्टि चौथा गणस्थान भी होता है और हो सकता है।' इस अनिश्चित बातको सिद्ध करनेके लिए कोई भी आगमप्रमाण प्रस्तुत नही किया। यदि हो, तो बतलाना चाहिये, परन्तु अपर्याप्त अवस्थामें भावस्त्रीके चौथा गुणस्थान बतलानेवाला कोई भी आगमप्रमाण उपलब्ध नही हो सकता, यह निश्चित है।
(२) आक्षेप--जब ९२वां सत्र द्रव्यस्त्रीके गणस्थानोका निरूपक है तब उससे आगेका ९३वा सूत्र भी द्रव्यस्त्रीका निरूपक है । पहला ९२वा सूत्र उसकी अपर्याप्त अवस्थाका निरूपक है, दूसरा ९३वा पर्याप्त अवस्थाका निरूपक है, इतना ही भेद है। बाकी दोनो सूत्र द्रव्यस्त्रीके विधायक हैं। ऐसा नही हो सकता कि अपर्याप्त अवस्याका विधायक ९२वा सूत्र तो द्रव्यस्त्रीका विधायक हो और उससे लगा हुआ ९३वा सुत्र पर्याप्त अवस्थाका भावस्त्रीका मान लिया जाय ?
(२) परिहार-ऊपर बतलाया जा चुका है कि ९२वा सूत्र ‘पारिशेष्य' न्यायसे स्त्रीवेदी भावस्त्रीकी अपेक्षासे है और ९३वा सूत्र भावस्त्रीकी अपेक्षासे है ही। अतएव उक्त आक्षेप पैदा नही हो सकता है।
(३) आक्षेप--जैसे ९३३ सश्रको भावस्त्रीका विधायक मानकर उसमें 'सजद' पद जोडते हो, उसी प्रकार ९२वें मूत्रमें भी भावस्त्रीका प्रकरण मानकर उसमें भी असयत (असजद-ट्राणे) यह पद जोडना पडेगा । विना उसके जोडे भावस्त्रीका प्रकरण सिद्ध नही हो सकता ?
(३) परिहार-यह आक्षेप सर्वथा असगत है। हम ऊपर कह आये हैं कि सम्यग्दृष्टि भावस्त्रियोंमें भी पैदा नहीं होता, तब वहाँ सूत्रमें 'असजद-ट्टाणे' पदके जोडने व होनेका प्रश्न ही नही उठता। स्त्रीवेदकर्मको लेकर वर्णन होने से भावस्त्रीका प्रकरण तो सुतरा सिद्ध हो जाता है।
-२४६
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
(४) आक्षेप - यदि ८९, ९०, ९१ सूत्रोको भाववेदी पुरुषके मानोगे तो वैसो अवस्थामें ८९ वें सूत्रमे 'असजद - सम्माइट्ठि - ट्टाणे' यह पद है उसे हटा देना होगा, क्योकि भाववेदी मनुष्य द्रव्यस्त्री भी हो सकता है उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथा गुणस्थान नही बन सकता है। इसी प्रकार ९० वे सूत्रमें जो 'सजदट्टाणे' पद है उसे भी हटा देना होगा । कारण, भाववेदी पुरुष और द्रव्यस्त्रीके सयत गुणस्थान नही हो सकता है । इसलिए यह मानना होगा कि उक्त तीनो सूत्र द्रव्यमनुष्य के ही विधायक हैं, भावमनुष्य के नही ?
(४) परिहार -- पण्डितजीने इस आक्षेप द्वारा जो आपत्तियाँ बतलाई है वे यदि गम्भीर विचारके साथ प्रस्तुत की गई होती तो पण्डितजी उक्त परिणामपर न पहुँचते । मान लीजिये कि ८९ वें सूत्र में जो 'असजदसम्माइट्ठिट्ठाणे' पद निहित है वह उसमें नही है तो जो भाव और द्रव्य दोनोंसे मनुष्य ( पुरुष ) है उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथा गुणस्थान कौनसे सूत्रसे प्रतिपादित होगा ? इसी प्रकार मान लीजिये कि ९० वें सूत्रमें जो 'सजद द्वाणे' पद है वह उसमें नही है तो जो भाववेद और द्रव्यवेद दोनोसे ही पुरुष है उसके पर्याप्त अवस्थामें १४ गुणस्थानोका उपपादन कौनसे सूत्रसे करेंगे ? अतएव यह मानना होगा कि ८९व सूत्र उत्कृष्टतासे जो भाव और द्रव्य दोनोसे ही मनुष्य ( पुरुष ) है, उसके अपर्याप्त अवस्थामें चौथे गुणस्थानका प्रतिपादक है और ९० वाँ सूत्र, जो भाववेद और द्रव्यवेद दोनोसे पुरुष है अथवा केवल द्रव्यवेदसे पुरुष है उसके पर्याप्त अवस्थामें १४ गुणस्थानोका प्रतिपादक है । ये दोनो सूत्र विषयकी उत्कृष्ट मर्यादा अथवा प्रधानताके प्रतिपादक हैं, यह नही भूलना चाहिये और इसलिए प्रस्तुत सूत्रोको भावप्रकरणके माननेमें जो आपत्तियाँ प्रस्तुत की हैं ठीक नहीं हैं । सर्वत्र 'इष्ट सम्प्रत्यय' न्यायसे विवेचन एव प्रतिपादन किया जाता है । साथमें जो विपयकी प्रधानताको लेकर वर्णन हो उसे सब जगह यह कि ८९ व सूत्र भाववेदी मनुष्य द्रव्यस्त्रीको अपेक्षासे नही है, है । इसी प्रकार ९० व सूत्र भाववेदी पुरुष और द्रव्यवेदी पुरुष अपेक्षासे है और चूंकि यह सूत्र पर्याप्त अवस्थाका है इसलिए जिस प्रकार पर्याप्त अवस्थामें द्रव्य और भाव पुरुषो तथा स्त्रियोके चौथा गुणस्थान सभव है उसी प्रकार पर्याप्त अवस्थामें द्रव्यवेदमे तथा भावबेदसे पुरुष और केवल द्रव्यवेदी पुरुषके १४ गुणस्थान इस सूत्रमें वर्णित किये गये है ।
सम्बन्धित नही करना चाहिए। तात्पर्य किन्तु भाव और द्रव्य मनुष्यकी अपेक्षा तथा गौणरूपसे केवल द्रव्यवेदी पुरुषकी
इस तरह पण्डितजीने द्रव्यप्रकरण सिद्ध करनेके लिए जो भावप्रकरण-मान्यता में आपत्तियां उपस्थित की हैं उनका सयुक्तिक परिहार हो जाता है । अत पहली युक्ति द्रव्य - प्रकरणको नही साधती । और इसलिए ९३ व सूत्र द्रव्यस्त्रियोके पाँच गुणस्थानोका विधायक न होकर भावस्त्रियोके १४ गुणस्थानोका विधायक है । अतएव ९३ वें सूत्र में 'सजद' पदका विरोध नही है ।
ऊपर यह स्पष्ट हो चुका है कि पट्खण्डागमका प्रस्तुत प्रकरण द्रव्यप्रकरण नही है, भावप्रकरण है । अब दूसरी आदि शेष युक्तियोपर विचार किया जाता है ।
२ यद्यपि षट्खण्डागममें अन्यत्र कही द्रव्यस्त्रियोंके पाँच गुणस्थानोका कथन उपलब्ध नही होता, परन्तु इससे यह सिद्ध नही होता कि इस कारण प्रस्तुत ९३ व सूत्र ही द्रव्यस्त्रियोके गुणस्थानोका विधायक एव प्रतिपादक है क्योकि उसके लिए स्वतन्त्र हो हेतु और प्रमाणोकी जरूरत है, जो अब तक प्राप्त नही हैं और जो प्राप्त हैं वे निराबाध और सोपपन्न नही हैं और विचार कोटिमें है— उन्हीपर यहाँ विचार चल रहा है । अत प्रस्तुत दूसरी युक्ति ९३ वे सूत्र में 'सजद' पदकी अस्थितिकी स्वतन्त्र साधक प्रमाण नही है ।
, विद्वानोंके लिए यह विचारणीय अवश्य है कि षट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियोंके पाँच गुणस्थानोका
- २४७ -
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिपादन क्यो उपलब्ध नही होता? मेरे विचारसे इसके दो समाधान हो सकते हैं और जो बहुत कुछ सगत और ठीक प्रतीत होते है । वे निम्न प्रकार है -
(क) जिस कालमें पटखण्डागमकी रचना हुई है उस कालकी अर्थात्-करीब दो हजार वर्ष पूर्वकी अन्त साम्प्रदायिक स्थितिको देखना चाहिए। जहां तक ऐतिहासिक पर्यवेक्षण किया जाता है उससे प्रतीत होता है कि उस समय अन्त साम्प्रदायिक स्थितिका यद्यपि जन्म हो चुका था, परन्तु उममें पक्ष और तीव्रता नही आई थी । कहा जाता है कि भगवान् महावीरके निर्वाणके कुछ ही काल बाद अनुयायी साधुओमें थोडाथोडा मतभेद आरम्भ हो गया था और सघभेद होना प्रारम्भ हो गया था, लेकिन वोर-निर्वाणकी सातवी सदी तक अर्थात् ईसीकी पहली शताब्दीके प्रारम्भ तक मतभेद और सघभेदमें कट्टरता नही आयी थी। अत कुछ विचार-भेदको छोडकर प्राय जैन परम्पराकी एक ही धारा (अचेल) उस वक्त तक बहती चली आ रही थी और इसलिए उस समय पट्खण्डागमके रचयिताको पटखण्डागममे यह निबद्ध करना या जुदे परके बतलाना आवश्यक न था कि द्रव्यस्त्रियोके पांच गुणस्थान होते हैं, उनके छठे आदि नहीं। क्योकि प्रकट था कि मुक्ति अचेल अवस्थासे होती है और द्रव्यमनुष्यनियां अचेल नही होती-वे सचेल ही रहती हैं । अतएव सुतरा उनके सचेल रहने के कारण पांच ही गुणस्थान सुप्रसिद्ध है। यही कारण है कि टीकाकार वीरसेन स्वामीने भी यही नतीजा और हेतु-प्रतिपादन उक्त ९३ वें सूत्रकी टीकामे प्रस्तुत किये है तथा तत्त्वार्थवात्तिक कार अकलङ्कदेव (वि० ८ वी शती) ने भी बतलाये हैं।
ज्ञात होता है कि वीर-निर्वाणकी सातवी शताब्दीके पश्चात् कुछ साधुओ द्वारा कालके दुष्प्रभाव आदिसे वस्त्रग्रहणपर जोर दिया जाने लगा था, लेकिन उन्हें इसका समर्थन आगम-चाक्योसे करना आवश्यक था, क्योकि उसके बिना बहुजन सम्मत प्रचार असम्भव था । इसके लिये उन्हें एक आगम-वाक्यका सकेत मिल गया वह था साधुओकी २२ परिपहोमें आया हुआ 'अचेल' शब्द । इस शब्दके आधारसे अनुदरा कन्या की तरह 'ईपद् चेल-अचेल" अल्पचेल अर्थ करके वस्त्रग्रहणका समर्थन किया और उसे आगमसे भी विहित बतलाया। इस समयसे ही वस्तुत स्पष्ट रूपमें भगवान महावीरकी अचेल परम्पराको सर्वथा चेल रहित-दिगम्बर और अल्पचेल-श्वेताम्बर ये दो धारायें बन गयी प्रतीत होती हैं । यह इस बातसे भी सिद्ध है कि इसी समयके लगभग हुए आचार्य उमास्वामीने भगवान महावीरकी परम्पराको सर्वथा चेलरहित ही बतलानेके लिए यह जोरदार और स्पष्ट प्रयत्न किया कि 'अचेल' शब्दका अर्थ अल्पचेल नही किया जाना चाहिए-उसका तो नग्नता-सर्वथा चेल रहितता ही सीधा-सादा अर्थ करना चाहिए और यह ही भगवान् महावीरकी परम्परा है। इस बातका उन्होने केवल मौखिक ही कथन नही किया, किन्तु अपनी महत्त्वपूर्ण उभय-परम्परा सम्मत सुप्रसिद्ध रचना 'तत्त्वार्थसूत्र' में वाईस परिषहोके अतर्गत अचेलपरिषहको, जो अब तक दोनो परम्पराओके शास्त्रोमें इसी नामसे ख्यात चली आयो, 'नाग्न्य-परोषह' के नामसे ही उल्लेखित करके लिखित भी कथन किया और अचेल शब्दको भ्रान्तिकारक जानकर छोड दिया, क्योकि उस शब्दकी खीचतान दोनो तरफ होने लगी और उसपरसे अपना इष्ट अर्थ फलित किया जाने लगा। हमारा विचार है कि इस विवाद और भ्रान्तिको मिटानेके लिए ही उन्होने स्पष्टार्थक और अभ्रान्त अचेलस्थानीय 'नाग्न्य' शब्दका प्रयोग किया । अन्यथा, कोई कारण नही कि 'अचेल' शब्दके स्थानमें 'नाग्न्य' शब्दका परिवर्तन किया जाता, जो अब तक नही था । अतएव आ० उमास्वामीका यह विशुद्ध प्रयत्न ऐतिहासिकोंके लिए भी इतिहासकी दृष्टिसे बडे महत्त्वका है। इससे प्रकट है कि आरम्भिक मल परम्परा अचेल-दिगम्बर रही और स्त्रीके अचेल न होने के कारण उसके पाच ही गुणस्थान सभव है, इससे आगेके छठे आदि नही ।
-२४८
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
जान पड़ता है कि साधुओमें जव वस्नग्रहण चल पडा तो स्त्रीमक्तिका भी समर्थन किया जाने लगा. क्योकि उनकी सचेलता उनकी मुक्तिमे बाधक थी। वस्त्रग्रहणके वाद पुरुप अथवा स्त्री किमीके लिए भी मचेलता वाधक नही रही । यही कारण है कि याद्य जैन साहित्यमे स्त्रीमुक्तिका समर्थन अथवा निषेध प्राप्त नही होता। अत सिद्ध है कि सूत्रकारको द्रव्य स्त्रियोके ५ गुणस्थानोका बतलाना उस समय आवश्यक हो न था और इसलिए पट्खण्डागममें द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्यानोका विधान अनुपलब्ध है।
(ख) यह पहले कहा जा चुका है कि पट्खण्डागमका समस्त वर्णन भावको अपेक्षासे है । अत एव उसमें द्रव्यवेद विषयक वर्णन अनुपलब्ध है। अभी हालमें इस लेखको लिखते ममय विद्वद्वर्य प० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीका 'जैन बोधक' में प्रकाशित लेख पढने को मिला । उसमें उन्होने 'खुदावध' के उल्लेखके आधारपर यह बतलाया है कि 'पट्खण्डागम' भरमें समस्त कथन भाववेदकी प्रधानतामे किया गया है । अतएव वहाँ यह प्रश्न उठना ही नहीं चाहिए कि 'पट्खण्डागम' में द्रश्यस्त्रियाके लिए गुणम्यान-विनायक सूत्र क्यो नही आया? उन्होने बतलाया है कि "पखण्डागमको रचनाके समय द्रव्यवेद और भाववेद ये वेदके दो भेद ही नही थे उम समय तो सिर्फ भाववेद वर्णनमें लिया जाता था । पटखण्डागमको तो जाने दीजिये जोवकाण्ड में भी द्रव्यस्त्रियोके ५ गुणस्थानोका विधान उपलब्ध नहीं होता और इसलिये यह मानना चाहिये कि मूल ग्रथोमें भाववेदकी अपेक्षासे ही विवेचन किया जाता रहा, इसलिये मूलग्रथो अथवा सूपग्रन्धोमे द्रव्यवेदकी अपेक्षा विवेचन नही मिलता है। हां, चारित्रग्रथोमें मिलता है सो वह ठीक ही है। जिन प्रश्नोका सम्बन्ध मुख्यतया चरणानुयोगमे है उनका समाधान वही मिलेगा, करणानुयोगमें नही ।" पडितजाका यह सप्रमाण प्रतिपादन युक्तियुक्त है । दूसरी बात यह है कि केवल पट्खण्डागमपरसे ही स्त्रीमुक्ति-निषेधको - दिगम्बर मान्यताको कण्ठत प्रतिपादित होना आवश्यक हो तो सर्वथा वस्त्रत्याग और कवलाहार-निषेधकी दिगम्बर मान्यताओको भी उसमे कण्ठत प्रतिपादित होना चाहिए। इसके अलावा, सूत्रोमे २२ परिपहाका वर्णन भी दिखाना चाहिए । नया कारण है कि तत्त्वार्थसूयकारकी तरह पट्खण्डागमसूत्रकारने भी उक्त परिपहोके प्रतिपादक सूत्र क्यो नही रचे? इससे जान पडता है कि विषय निरूपणका सकोच-विस्तार मूत्रकारकी दृष्टि या विवेचन शैलीपर निर्भर है। अत परखण्डागममें भाववेद विवक्षित होने से द्रव्यस्त्रियोंके गुणस्थानोका विधान उपलब्ध नही होता ।
३ तीसरी युक्तिका उत्तर यह है कि 'पर्याप्त' शब्दके प्रयोगसे वहाँ उमका द्रव्य अर्थ बतलाना सर्वथा भूल है। पर्याप्तकर्म जीवविपाकी प्रकृति है और उसके उदय होनेपर जीव पर्याप्तक कहा जाता है। अत उसका भाव भी अर्थ है । दूसरे, वीरसेन स्वामीके विभिन्न विवेचनो और अकलकदेवके तत्त्वार्थवातिकगत प्रतिपादनसे पर्याप्त मनुष्यनियोके १४ गुणस्थानोका निरूपण होनेसे वहां 'पर्याप्त' शब्दका अर्थ द्रव्य नहीं लिया जा सकता है और इसलिये 'पज्जतमणुस्मिणी' से द्रव्यस्त्रीका बोध करना महान् मैद्धान्तिक भूल है । मैं इस सम्बन्धमें अपने "संजदपदके सम्बन्धमें अकलंफदेवका महत्त्वपूर्ण अभिमत" शोषक लेख में पर्याप्त प्रकाश डाल चुका हूँ।
४ हमें बड़ा आश्चर्य होता है कि 'मजद' पदके विरोधमें यह कैसे कहा जाता है कि "वीरसेनम्यामी पी टोका उक्त सूत्रमें 'सजद' पदका समर्थन नहीं करती, अन्यथा टोकामें उक्त पदका उल्लेख अवश्य होता।" पयोकि टोका दिनकर-प्रकाशकी तरह 'सजद' पदका समर्थन करती है। यदि सूममें 'सजद' पद न हो तो टोफागत समस्त शका-समाधान निराधार प्रतीत होगा। मैं टीफागत उन पद-वापयादिकारी उपस्थित करता है जिनगे 'सनद' पदका अभाव प्रतीत नहीं होता, बल्कि उनका समर्थन स्पष्टत जाना जाता है । यथा
न-३२
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
"इण्डावसपिण्या स्त्रीपु सम्यग्दृष्टय किन्नोत्पद्यन्ते, इहि चेत, नोत्पद्यन्ते । कुतोऽवसीयते ? अस्मादेवात् । अस्मादेवात् द्रव्यस्त्रीणा निति सिद्धघेत्, इति चेत्, न, सवामस्त्वादप्रत्याख्यानगुणस्थिताना सयमानुपपत्ते । भावसयमस्तासा सवाससामप्यविरुद्ध , इति चेत्, न तासा भावसयमोऽस्ति, भावासयमाविनाभाविवस्त्रायुपादानान्यथानुपपत्ते । कय पुनस्तासु चर्तुदश गुणस्थानानीति चेत्, न, भावस्पीविशिष्टमनुष्यगतो तत्सत्त्वाविरोधात् । भाववेदो वादरक्षायान्नोपर्यस्तीति न तप चतुर्दशगुणस्थानाना सम्भव इति चेत, न, अत्र वेदस्य प्राधान्याभावात । गतिस्तु प्रधाना न साऽराद्विनश्यति । वेदविशेषणाया गतौ न तानि सम्भवन्ति, इति चेत, न, विनष्टेऽपि विशेषणे उपचारेण तद्वघपदेशमादधानमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात ।"-धवला, १११
९३, प्रथम पुस्तक, पृ० ३३२-३३३ ।
यहां मबसे पहले यह शका उपस्थित की गयी है कि यद्यपि स्त्रियों (द्रव्य और भाव दोनों) में सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते हैं। लेकिन हुण्डावसर्पिणी (मापवादिक काल) में स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि क्यो नही उत्पन्न होते ? (इस शकामे यह प्रतीत होता है कि वीरसेन स्वामीके सामने कुछ लोगोंकी हुण्डावसपिणी कालमें स्थियो सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होनेकी मान्यता रही और इसलिए इस शुका द्वारा उनका मत उपस्थित करके उसका उन्होने निराकरण किया है। इसी प्रकारसे उन्होंने मागे द्रव्यस्त्रीमुक्तिको मान्यताको भी उपस्थित किया है, जो सूत्रकारके सामने नही थी और वीरमनके सामने वह प्रचलित हो चुकी थी और जिसका उन्होंने निराकरण किया हैं । हुण्डावसर्पिणी कालका स्वरूप ही यह है कि जिसमें अनहोनी वातें हो जायें, जैसे तीर्थङ्करके पुत्रीफा होना, चक्रवर्तीका अपमान होना आदि । और इसलिये उक्त शकाका उपस्थित होना असम्भव नही है ।) वीरसेन स्वामी इस शकाका उत्तर देते हैं कि हुण्डावसर्पिणी कालमें स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होते। इसपर प्रश्न हुआ कि इसमें प्रमाण क्या है ? अर्थात् यह कैसे जाना कि हुण्डावसपिणीमें स्त्रियोमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नही होते ? इसका उत्तर यह दिया गया है कि इसी आगम सूत्रवाक्यसे उक्त बात जानी जाती है। अर्थात् प्रस्तुत ९२, ९३३ सूत्रोंमें पर्याप्त मनुष्यनीके ही चौथा गुणस्थान प्रतिपादित किया है, अपर्याप्त मनुष्यनीके नहीं, इससे साफ जाहिर है कि सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी कालमें द्रव्य और भाव दोनों ही तरहकी स्त्रियोमें पैदा नही होते । अतएव सुतरा सिद्ध है कि हण्डावपिणीमें भी स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि पैदा नहीं होते।
यहाँ हम यह उल्लेख कर देना आवश्यक समझते हैं कि प० मक्खनलालजी शास्त्रीने टोकोक्त 'स्त्रीषु' पदका द्रव्यस्त्री अर्थ करके एक और मोटो भल की है। 'स्त्री' पदका विलकुल सीधा सादा अर्थ है और वह है 'स्त्रियोमें' । वहां द्रव्य और भाव दोनो हो प्रकारकी स्त्रियोका ग्रहण है। यदि केवल द्रव्यस्त्रियोंका ग्रहण इष्ट होता हो वीरसेन स्वामी अगले 'द्रष्यस्त्रीणा' पदकी तरह यहाँ भी 'द्रव्यस्त्रीष" पदका प्रयोग करते और जिससे सिद्धान्त-विरोव अनिवार्य था, क्योकि उससे द्रव्यस्त्रियोंमें ही सम्यग्दृष्टियोंके उत्पन्न न होनेकी बात सिद्ध होती, भावस्त्रियोमें नही। किंतु वे ऐसा सिद्धान्स-विरुद्ध असगत कथन कदापि नहीं कर सकते थे और इसीलिए उन्होंने 'द्रव्यस्त्रीषु' पदका प्रयोग न करके 'स्त्रीषु' पदका प्रयोग किया है जो सर्वथा सिद्धान्ताविरुद्ध और सगत है। यह स्मरण रहे कि सिद्धान्तमें भावस्त्रीमुक्ति तो इष्ट है, द्रव्यस्त्रीमुक्ति इष्ट नही है। किन्तु सम्यग्दृष्टि-उत्पत्ति-निषेध द्रव्य और भावस्थी दोनोमें ही इष्ट है । अत पडितजीका यह लिखना कि "९३वें सूबमें पर्याप्त अवस्थामें ही जव द्रव्यस्त्रीके चौथा गुणस्थान सूत्रकारने बताया है तब टीकाकारने यह शका उठाई है कि द्रव्यस्थी पर्याय में सम्यग्दष्टि क्यों उत्पन्न नही होते हैं ? उत्तरमें कहा गया है कि द्रव्यस्त्री पर्यायमें सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नही होते हैं । क्यो नही उत्वन्न होते है ? इसके लिये आप
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रमाण बतलाया गया है । अर्थात् आगममें ऐसा ही बताया है कि द्रव्यस्त्री पर्यायमें सम्यग्दृष्टि नही जाता है ।" "यदि ९३व सूत्र भावस्त्रीका विधायक होता तो फिर सम्यग्दर्शन क्यों नही होता, यह शका उठायी ही नही जा सकती, क्योंकि भावस्त्रीके तो सम्यग्दर्शन होता ही है । परन्तु द्रव्यस्त्रीके लिए शका उठाई है । अत द्रव्यस्त्रीका ही विधायक ९३व सूत्र है, यह बात स्पष्ट हो जाती है ।" बहुत ही स्खलित और भूलोसे भरा हुआ है । 'सजद' पदके विरोधी क्या उक्त विवेचनसे सहमत हैं ? यदि नही, तो उन्होने अन्य लेखोकी तरह उक्त विवेचनका प्रतिवाद क्यो नही किया ? हमें आश्चर्य है कि श्री प० वर्षमानजी जैसे विचारक तटस्थ विद्वान् पक्षमें कैसे बह गये और उनका पोषण करने लगे ? पं० मक्खनलालजीकी भूलोका आधार भावस्त्रोमें सम्यक् दृष्टिको उत्पत्तिको मानना है जो सर्वथा सिद्धान्त के विरुद्ध है । सम्यग्दृष्टि न द्रव्यस्त्रीमें पैदा होता है और न भावस्त्रीमे, यह हम पहले विस्तारसे सप्रमाण बतला आये हैं। आशा है पडितजी अपनी भूलका सशोधन कर लेंगे । और तब वे प्रस्तुत ९३ वें सूत्रको भावस्त्रीविधायक ही समझेंगे ।
दूसरी शका यह उपस्थित की गयी है कि यदि इसी आर्ष ( प्रस्तुत आगमसूत्र ) से यह जाना जाता है कि हुण्डावसर्पिणीमें स्त्रियोंमें सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नही होते तो इसी आर्ष (प्रस्तुत आगम सूत्र ) से द्रव्यस्त्रियोकी मुक्ति सिद्ध हो जाय, यह तो जाना जाता है ? (शकाकार के सामने ९३ व सूत्र 'सजद' पदसे युक्त है और उसमें द्रव्य अथवा भावका स्पष्ट उल्लेख न होनेसे उसे प्रस्तुत शका उत्पन्न हुई है । वह समझ रहा है कि ९३वें सूत्र में 'सजद' पदके होनेसे द्रव्यस्त्रियोके मोक्ष सिद्ध होता है । हो, पाँच ही गुणस्थान प्रतिपादित हो तो यह द्रव्यस्त्री मुक्तिविषयक इस प्रकारकी हुई है, कदापि नही हो सकती ) । इस शकाका वीरसेन स्वामी उत्तर देते हैं कि यदि ऐसी शका करो तो वह ठीक नही है क्योकि द्रव्यस्त्रियां सवस्त्र होनेसे पचम अप्रत्याख्यान ( सयमा सयम ) गुणस्थानमें स्थित है और इसलिये उनके सयम नही बन सकता है । इस उत्तरसे भी स्पष्ट जाना जाता है कि सूत्र में यदि पाँच ही गुणस्थानोका विधान होता तो वीरसेन स्वामी द्रव्यस्त्रीमुक्तिका प्रस्तुत सवस्त्र हेतु द्वारा निराकरण न करते, उसी सूत्र को ही उपस्थित करते तथा उत्तर देते कि द्रव्यस्त्रियोके मोक्ष नही सिद्ध होता, क्योकि इसी
गुणस्थान द्रव्य स्त्रियोंके वतलाये
आगमसूत्रसे उसका निषेध है । अर्थात् प्रस्तुत ९३ वें सूत्रमें आदिके पांच ही हैं, छठे आदि नही । वीरमेन स्वामीकी यह विशेषता है कि जब तक किसी रहता है, तो पहले वे उसे ही उपस्थित करते हैं, हेतुको नही, अथवा उसे पीछे
बातका साधक आगम प्रमाण आगमके समर्थन में करते हैं ।
यदि सूत्र में 'सजद' पद न शका, जो इसी सूत्रपरसे
शकाकार फिर कहता है कि द्रव्य स्त्रियोंके भले ही द्रव्यसयम न बने, भावसयम तो उनके सवस्त्र रहनेपर भी बन सकता है, उसका कोई विरोध नही है ? इसका वे पुन उत्तर देते हैं कि नही, द्रव्यस्त्रियोके भावासयम है, भावसयम नही, क्योंकि भावासयमका अविनाभावी वस्त्रादिका ग्रहण भावासयमके बिना नही हो सकता है । तात्पर्य यह कि द्रव्यस्त्रियोंके वस्त्रादि ग्रहण होनेसे ही यह प्रतीत होता है कि उनके भावसयम भी नहीं है, भावासयम ही है क्योकि वह उसका कारण है । वह फिर शका करता है 'फिर उनमें चउदह गुणस्थान कैसे प्रतिपादित किये हैं ? अर्थात् प्रस्तुत सूत्रमें 'सजद' शव्दका प्रयोग क्यो किया है ? इसका वीरसेन स्वामी समाधान करते हैं कि नही, भावस्त्रीविशिष्ट मनुष्यगति में उक्त चउदह गुणस्थानोंका सत्त्व प्रतिपादित किया है । अर्थात् ९३वें सूत्रमें जो 'सजके शब्द है वह भावस्त्री मनुष्यको अपेक्षासे है, द्रव्यस्त्री मनुष्य की अपेक्षासे नही । इस शका समाधानसे तो बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि प्रस्तुत ९३ वें सूत्रमें 'सजद' पद है और वह छठेसे चौदह तकके गुणस्थानोका बोधक है । और इसलिए वीरसेन स्वामीने उसकी उपपत्ति एव सगति भावस्त्री मनुष्यको अपेक्षा से बैठाई है, जैसीकि तत्त्वार्थवार्तिककार अकलकदेवने अपने तत्त्वार्थवार्तिकमें बैठाई है । यदि उक्त सूत्रमें 'सजद' पद न हो, तो ऐसी न तो शका उठती और न
- २५१ -
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
उक्त प्रकारसे उसका समाधान होता। दोनोंका रूप भिन्न ही होता। अर्थात् प्रस्तुत सूत्र द्रव्यस्त्रियोके ही ५ गुणस्थानोका विधायक हो और उनकी मुक्तिका निषेधक हो तो "अस्मादेव आर्षाद् द्रव्यस्त्रीणां निवृत्ति सिद्धचेत्" ऐसी शका कदापि न उठती। बल्कि "द्रव्यस्त्रीणां निर्वृत्तिः कथ न भवति" इस प्रकारसे शका उठती और उस दशामें "अस्मादेव आर्षाद्" और "निर्वृत्ति सिद्धयेत्" ये शब्द भूल करके भी प्रयुक्त न किये जाते । अत इन शब्दोके प्रयोगसे भी स्पष्ट है कि ९३वें सूत्र में द्रव्यस्त्रियोंके ५ गुणस्थानोका विधान न होकर भावस्त्रियोके १४ गुणस्थानोका विधान है और वह 'सजद' पदके प्रयोग द्वारा अभिहित है । और यह तो माना ही नही जा सकता है कि उपर्युक्त टोकामें चउदह गुणस्थानोका जो उल्लेख है वह किसी दूसरे प्रकरणके सूत्र से सम्बद्ध है क्योकि "अस्मादेवार्षाद व्यस्त्रीणां निवृत्ति सिद्धचेत्" शब्दो द्वारा उसका सबध प्रकृत सूत्रसे ही है, यह सुदृढ है ।
शकाकार फिर शका उठाता है कि भाववेद तो वादरकषाय (नौवें गुणस्थान) से आगे नही है और इसलिये भावस्त्री मनुष्यगतिमे चउदह गुणस्थान सम्भव नही हैं ? इसका वे उत्तर देते है कि "नही, यहाँ योगमार्गणा सम्बन्धी गतिप्रकरणमें वेदकी प्रधानता नही है किन्त गतिकी प्रधानता है और वह शीघ्र नष्ट नहीं होती। मनुष्यगतिकर्मका उदय तथा मत्त्व चउदहवें गुणस्थान तक रहता है और इसलिये उसकी अपेक्षा भावस्त्रीके चउदहगुणस्थान उपपन्न हैं। इसपर पुन शका उठी कि, "वेदविशिष्ट मनुष्यगतिमें वे चउदह गुणस्थान सम्भव नही है ? इसका समाधान किया कि नहीं, वेदरूप विशेषण यद्यपि (नौवें गुणस्थानमें) नष्ट हो जाता है फिर भी उपचारसे उक्त व्यपदेशको धारण करने वाली मनुष्यगतिमें, जो चउदहवें गुणस्थान तक रहती है, चउदह गुणस्थानोका सत्त्व विरुद्ध नही है।" इस सब शका-समाधानसे स्पष्ट हो जाता है कि टीका द्वारा ९३वें सूत्रमें 'सजद' पदका नि संदेह समर्थन है और वह भावस्त्रो मनुष्यकी अपेक्षासे है द्रव्यस्त्री मनुष्यकी अपेक्षासे नही।
१० मक्खनलालजी शास्त्रीने टीकागत उल्लिखित स्थलका कुछ आशय और दिया है लेकिन वे यहाँ भी स्खलित हुए है। आप लिखते हैं-"अब आगेको टोकाका आशय समझ लीजिए, आगे यह शका उठाई है कि इसी आगमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है क्या ? उत्तरमें टीकाकार आचार्य वीरसेन कहते है कि नही, इसी आगमसे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नही हो सकती है।" यहाँ पडितजी ने "इसी आगममे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है क्या? और इसी आगमसे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध नही हो सकती है।" लिखा है वह "अस्मादेवार्षाद् द्रव्यस्त्रीणा निवृत्ति सिद्धचेत् इति चेत् न, सवासस्त्वावप्रत्याख्यानगुणस्थिताना सयमानुपत्ते ।" इन वाक्योंका आशय कैसे निकला? इनका सीधा आशय तो यह है कि इसी आगमसूत्रसे द्रव्यस्त्रियोके मोक्ष सिद्ध हो जाये ? इसका उत्तर दिया गया कि 'नही, क्योकि द्रव्य स्त्रियां सवस्त्र होनेके कारण पचम अप्रत्याख्यान गुणस्थानमें स्थित हैं और इसलिये उनके सयम नहीं बन सकता है। परन्तु पडितजीने 'क्या' तथा 'इसी आगमसे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नही हो सकता है।' शब्दोको जोडकर शका और उसका उत्तर दोनो ही सर्वथा बदल दिये हैं । टीकाके उन दोनो वायोमें न तो ऐसी शका है कि इसी आगमसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष सिद्ध होती है क्या ?' और न उसका ऐसा उत्तर है कि 'इसी आगमसे यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नही हो सकती है।' यदि इसी आगमसूत्रमे द्रव्यस्त्रीके मोक्षका निषेध प्रतिपादित होता तो वीरसेन स्वामी 'सवासस्त्वात्' हेतु नही देते, उमी आगमसूत्रको ही प्रस्तुत करते, जैसाकि सम्यग्दृष्टिकी स्त्रियोम
गमको ही प्रस्तुत किया है, हेतुको नही। अतएव पडितजीका यह लिखना भी सर्वथा भ्रमपूर्ण है कि 'यदि ९३वें सूत्रमे 'सजद' पद होता तो आचार्य वीरसेन इस प्रकार टीका नही करते
हकि द्रव्यस्त्रीसकता है। पारण पचम अ
- २५२
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
कि इसी आर्षसे द्रव्यस्त्रोके मोक्ष नही सिद्ध होती है। क्योकि वीरसेन स्वामीने यह कही भी नही लिखा कि इसी आर्षसे द्रव्यस्त्रीके मोक्ष नही सिद्ध होती है ।' पडितजीसे अनुरोध करूंगा कि वे ऐसे गलत आशय कदापि निकालनेकी कृपा न करें।
पडितजीका यह लिखना भी सगत नही है कि वीरसेन स्वामीने 'सयम' पदका अपनी टीकामें थोडा भी जिकर नही किया । यदि सूत्रमें 'सयम' पद होता तो यहाँ 'सयम' पद दिया गया है वह किस अपेक्षासे है ? इससे द्रव्यस्त्रीके सयम सिद्ध हो सकेगा क्या? आदि शका भी वे अवश्य उठाते और समाधान करते ।
हम पडितजीसे पूछते है कि 'सयम' पदका क्या अर्थ है ? यदि छठेसे चउदह तकके गुणस्थानोका ग्रहण उसका अर्थ है तो उनका टीकामें स्पष्ट तो उल्लेख है। यदि द्रव्य स्त्रियोके द्रव्यसयम और भावसयम दोनो ही नहीं बनते हैं तब उनमे चउदह गुणस्थान कैसे बतलाये ? नही, भावस्त्री विशिष्ट मनुष्यगतिकी अपेक्षासे इनका सत्त्व वतलाया गया है-"कथ पुनस्तासु चतुर्दशगुणस्थानानीति चेत्, न भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगतो तत्सत्त्वाविरोधात् '-यह क्या है ? आपकी उपर्युक्त शका और समाधान ही तो है । शकाकार समझ रहा है कि प्रस्तुत सूत्रमे जो 'सजद' पद है वह व्यस्त्रियोके लिये आया है और उसके द्वारा छठेसे चउदह तकके गुणस्थान उनके बतलाए गये हैं। वीरसेन स्वामी उसकी इस शकाका उत्तर देते है कि चउदह गुणस्थान भावस्त्रीकी अपेक्षासे बताये गए है, द्रव्यस्त्रीकी अपेक्षासे नहीं। इससे साफ है कि सूत्र में 'सजद' पद दिया हुआ है और वह भावस्त्रीको अपेक्षासे है।
पण्डितजीने मागे चलकर एक बात और विचित्र लिखी है कि 'प्रस्तुत सूत्रकी टीकामें जो चउदह गणस्थानो और भाववेद आदिका उल्लेख किया गया है उसका सम्बन्ध इस सूत्रसे नही है-अन्य सरोसे है-इसी सिद्धान्तशास्त्रमें जगह-जगह ९ और १४ गुणस्थान बतलाये गये है, किन्तु पण्डितजी यदि गभीरतासे "अस्मादेव आर्षाद" इत्यादि वाक्यो पर गौर करते तो वे उक्त बात न लिखते । यह एक साधारण विवेकी भी जान सकता है कि यदि दूसरी जगहोंमें उल्लिखित गुणस्थानोकी सगति यहाँ वैठाई गयी होती तो "अस्मादेव आर्षाद" वाक्य कदापि न लिखा जाता, क्योकि आपके मतसे प्रस्तुत सूत्रमे उक्त १४ गुणस्थानो या "सजद" पदका उल्लेख नहीं है । जव सूत्रमें "सजद" पद है और उसके द्वारा चउदह गुणस्थानोका सकेत (निर्देश) है तभी यहां द्रव्यस्त्री-मुक्तिविषयक शका पैदा हुई है और उसका समाधान किया गया है । यद्यपि आलापाधिकार आदिमें पर्याप्त मनुप्यनियोके चउदह गुणस्थान बतलाये है तथापि वहाँ गतिका प्रकरण नही है। यहाँ गतिका प्रकरण हैं और इसलिये उक्त शका-समाधानका यही होना सर्वथा सगत है। अत ९ और १४ गुणस्थानोके उल्लेखका सबध प्रकृत सबसे ही है, अन्य सूत्रोमे नही । अतएव स्पष्ट है कि टीकासे भी ९३ वें सूत्र में 'सजद' पदका समर्थन होता है और उसकी उसमें चर्चा भी खुले तौर से की गयी है।
(५) अब केवल पांचवी युक्ति रह जाती है सो उसके सम्बन्धमें बहुत कुछ पहली और दूसरी युक्ति की चर्चामें कथन कर आये हैं। हमारा यह भय कि-"इस सूत्रको द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोका विधायक न माना जायगा तो इस सिद्धान्तग्रन्थसे उनके पांच गुणस्थानोके कथनकी दिगम्बर मान्यता सिद्ध न हो सकेगी और जो प्रो० हीरालालजी कह रहे है उसका तथा श्वेताम्बर मान्यताका अनुषग आवेगा।" सर्वथा व्यर्थ है, क्योकि विभिन्न शास्त्रीय प्रमाणो, हेतुओ, सगतियो, पुरातत्त्ववे अवशेषो, ऐतिहासिक तथ्यो आदिसे सिद्ध है कि द्रव्यस्त्रीका मोक्ष नहीं होता और इसलिये श्वेताम्बर मान्यताका अनुषग नही आ सकता। आज तो दिगम्बर मान्यताके पोषक और समर्थक इतने विपुलरूपमें प्राचीनतम प्रमाण मिल रहे हैं जो शायद
-२५३
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
पिछली शताब्दियोमें भी न मिले होगे। पुरातत्त्वका अबतक जितना अन्वेषण हो सका है और भूगर्भसे उसकी खुदाई हुई है, उन सबमें प्राचीनसे प्राचीन दिगम्बर नग्न पुरुषमूर्तियां ही उपलब्ध हुई हैं और जो दो हजार वर्षसे भी पूर्वकी हैं। परन्तु सचेल मूर्ति या स्त्रीमूर्ति, जो जैन निर्ग्रन्थ हो, कहींसे भी प्राप्त नहीं हुई । हाँ, दशवी शताब्दीके बादकी जरूर कुछ सचेल पुरुपमूर्तियां मिलती बतलाई जाती हैं सो उस समय दोनो ही परम्पराओमें काफी मतभेद हो चुका था तथा खण्डन-मण्डन भी आपसमें चलने लगा था। सच पूछा जाये तो उस समय दोनो ही परम्पराएं अपनी अपनी प्रगति करने में अग्रसर थी। अत उस समय यदि सचेल पुरुषमूर्तिया भी निर्मित कराई गई हो तो आश्चर्य ही नही है। दुर्भाग्यसे आज भी हम अलग हैं और अपने में अधिकतम दूरी ला रहे हैं और लाते जा रहे हैं। समय आये और हम इस तथ्यको स्वीकार करें, यही अपनी भावना है। और यदि सभव हो तो हम पुन आपसमें एक हो जावें तथा भगवान् महावीरके अहिंसा और स्याद्वादमय शासनको विश्वव्यापी बनायें । उपसहार
उपरोक्त विवेचनके प्रकाशमें निम्न परिणाम सामने आते हैं
१ षट्खण्डागममें समस्त कथन भावकी अपेक्षासे किया गया है और इसलिये उसमे द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोकी चर्चा नही आयी।
२ ९३ वें सूत्रमें 'सजद' पदका होना न आगमसे विरुद्ध है और न युक्तिसे । बल्कि न होनेमें इस योगमार्गणा सम्बन्धी मनुष्यनियोमें १४ गुणस्थानोके कथनके अभावका प्रसग, वीरसेन स्वामीके टीकागत 'सजद' पदके समर्थनकी असगति और तत्त्वार्थवात्तिककार अकलकदेवके पर्याप्त मनुष्यनियोंमें १४ गुणस्थानोंको बतलानेकी असगति आदि कितने ही अनिवार्य दोष सम्प्राप्त होते हैं।
३ "पर्याप्त" शब्दका द्रव्य अर्थ विवक्षित नही है, उसका भाव अर्थ विवक्षित है। पर्याप्तकर्म जीवविपाकी प्रकृति है और उसके उदय होनेपर ही जीव पयप्तिक कहा जाता है।
४ प० मक्खनलालजी शास्त्रीने भावस्त्रीमें सम्यग्दष्टिके उत्पन्न होनेकी मान्यता प्रकट की है वह स्खलित और सिद्धान्तविरुद्ध है । स्त्रीवेदकी उदय व्यच्छित्ति दूसरे ही गुणस्थानमें हो जाती है और इसलिपे अपर्याप्त अवस्थामें भावस्त्रीके चौथा गुणस्थान कदापि सभव नही है।
५ वीरसेन स्वामीके "अस्मादेवार्षाद" इत्यादि कथनसे सूत्रमें 'सजद' पदका टीकाद्वारा समर्थन होता है।
६ द्रव्यस्त्रीके गुणस्थानोका कथन मुख्यतया चरणानुयोगसे सम्बन्ध रखता है और षट्खण्डागम करणानुयोग है, इसलिए उसमें उनके गुणस्थानोका प्रतिपादन नही किया गया है । द्रव्यस्त्रीके मोक्षका निषेध विभिन्न शास्त्रीय प्रमाणो, हेतुभों पुरातत्त्वके अवशेषो, ऐतिहासिक तथ्यो आदिसे सिद्ध है और इसलिये षट्खण्डागममें द्रन्यस्त्रियोंके गणस्थानोका विधान न मिलनेसे श्वेताम्बर मान्यताका अनुषग नही आ सकता।
.-२५४
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
नियमसारकी ५३वीं गाथा और उसकी व्याख्या
एवं अर्थपर अनुचिन्तन
प्राथमिक वृत्त
आ० कुन्दकुन्दका नियमसार जैन परम्परामें उसी प्रकार विश्रुत एव - प्रसिद्ध प्राकृत ग्रन्थ है जिस प्रकार उनका समयसार है। दोनो ग्रन्थोका पठन-पाठन और स्वाध्याय सर्वाधिक है। ये दोनो ग्रन्थ मूलत आध्यात्मिक हैं । हाँ, समयसार जहाँ पूर्णतया आध्यात्मिक है वहाँ नियमसार आध्यात्मिकके साथ तत्त्वज्ञान प्ररूपक भी है।
समयसार, प्रवचनसार और पचास्तिकाय इन तीनपर आ० अमृतचन्द्र की सस्कृत-टीकाएं हैं, जो बहुत ही दुरुह एव दुरवगाह हैं । किन्तु तत्त्वस्पर्शी और मूलकार आ० कुन्दकुन्दके अभिप्रायको पूर्णतया अभिव्यक्त करनेवाली तथा विद्वज्जनानन्दिनी है। नियमसारपर उनकी सस्कृत-टीका नही है । मेरा विचार है कि उसपर भी उनकी सस्कृत-टीका होनी चाहिए, क्योकि यह ग्रन्थ भी उनकी प्रकृति एव रुचिके अनुरूप है ।
इसपर श्री पद्मप्रभमलधारिदेवकी सस्कृत-व्याख्या उपलब्ध है, जिसमें उन्होने उसकी गाथाओकी सस्कृत-व्याख्या तो दी है । साथमें अपन और दूसरे ग्रन्थकारोके प्रचुर सस्कृत-पद्योको भी इसमें दिया है। उनकी यह व्याख्या अमृतचन्द्रकी व्याख्याओं जैसी गहन तो नहीं है, किन्तु अभिप्रेतके समर्थनमें उपयुक्त है ही।
प्रसगवश हम नियमसार और उसकी इस व्याख्याको देख रहे थे। जब हमारी दृष्टि नियमसारकी ५३वी गाथा और उसकी सस्कृत-व्याख्यापर गयी, तो हमें प्रतीत हुआ कि उक्त गाथाकी व्याख्या करनेमें श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवसे बहुत बडी सैद्धान्तिक भूल हो गयी है। श्रीकानजी स्वामी भी उनकी इस भूलको नही जान पाये और उनकी व्याख्याके अनुसार उक्त गाथाके उन्होने प्रवचन किये । सोनगढ और अब जयपुर से प्रकाशित आत्मधर्ममें प्रकट हुए उनके वे प्रवचन उसी भूलके साथ प्रकाशित किये गये हैं । सम्पादक डॉ० ५० हुकमचन्दजी भारिल्लने भी उनका सशोधन नही किया। सोनगढसे ही प्रकाशित नियमसार एव उसकी सस्कृत-व्याख्याका हिन्दी अनुवाद भी अनुवादक श्री मगनलाल जैनने उसी भूलसे भरा हुआ प्रस्तुत किया है।
ऐसी स्थितिमें हमें मूल गाथा, उसकी सस्कृत व्याख्या, प्रवचन और हिन्दी अर्थपर विचार करना आवश्यक जान पडा। प्रथमत हम यहाँ नियमसारकी वह ५३ वी गाथा और उसकी सस्कृत-व्याख्या दे
सम्मत्तस्स णिमित्त जिणसुत्त तस्स जाणया पुरिसा । अतरहेऊ भणिदा दसणमोहस्स खयपहुदी ॥५३॥
०२५५.
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
'अस्य सम्यक्त्व परिणामस्य बाह्यसहकारिकारण वीतरागसर्वज्ञ-मुखकमल विनिर्गतसमस्तवस्तुप्रतिपादनसमर्थद्रव्यश्रुतमेव तत्त्वज्ञानामिति । ये मुमुक्षव तेप्युपचारत पदार्थ निर्णयहेतुत्वात् अन्तरङ्गहेतव इत्युक्ता दर्शनमोहनीय कर्मक्षयप्रभृते सकाशादिति ।'
- नियमसा० टी०, पृ० १०९, सोनगढ स० ।
अनुवादक द्वारा किया गया दोनोका हिन्दी अनुवाद
गाथा व उसकी इस संस्कृत - व्याख्याका हिन्दी अनुवाद, जो प० हिम्मतलाल जेठालालशाह के गुजराती अनुवादका अक्षरश रूपान्तर है, श्री मगनलाल जैनने इस प्रकार दिया है
'सम्यक्त्वका निमित्त जिनसूत्र है । जिनसूत्रके जाननेवाले पुरुषोंको (सम्यक्त्वके) अन्तरग हेतु कहे हैं, क्योकि उनको दर्शनमोहके क्षयादिक हैं ।' (गाथार्थ ) । ' इस सम्यक्त्व परिणामका बाह्य सहकारी कारण वीतराग सर्वज्ञके मुखकमलसे निकला हुआ समस्त वस्तुके प्रतिपादनमे समर्थ द्रव्यश्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है । जो मुमुक्षु हैं उन्हें भी उपचारसे पदार्थ निर्णयके हेतुपने के कारण (सम्यक्त्व परिणामके) अन्तरग हेतु कहे हैं, क्योकि उन्हें दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयादिक हैं ।' - वही, पृ० १०९ ।
इस गाथा (५३) के गुजराती पद्यानुवादका हिन्दी पद्यानुवाद भी श्री मगनलाल जैनने दिया है, जो इस प्रकार है
'जिनसूत्र समकित हेतु है, अरु सूत्रज्ञाता पुरुष जो । वह जान अन्तर्हेतु जिसके दर्शमोहक्षयादि हो ॥५३॥' उक्त गाथाकी संस्कृत-व्याख्या, प्रवचन, गुजराती और हिन्दी अनुवादोपर विचार
किन्तु उक्त गाथा के संस्कृत व्याख्याकार श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा की गयी संस्कृत व्याख्या, गाथा तथा व्याख्यापर किये गये श्री कानजी स्वामीके प्रवचन, दोनोके गुजराती और हिन्दी अनुवाद न मूलकार आचार्य कुन्दकुन्दके आशयानुसार हैं और न सिद्धान्त के अनुकूल हैं । यथार्थ में इस गाथामें आचार्य कुन्दकुन्दने सम्यग्दर्शनके बाह्य और अन्तरग दो निमित्त कारणोका प्रतिपादन किया है । उन्होने कहा हैं कि 'सम्यक्त्वका निमित्त ( बाह्य सहकारी कारण ) जिनसूत्र और जिनसूत्रज्ञाता पुरुष है तथा अन्तरग हेतु ( अभ्यन्तर निमित्त ) दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय आदि हैं ।'
यहाँ गाथाके उत्तरार्ध में जो 'पहूदी' शब्दका प्रयोग किया गया हैं वह प्रथमा विभक्तिके बहुवचनका जैसा रूप है । संस्कृत में उसका 'प्रभृतय' रूप होता है । वह पचमी विभक्ति --' प्रभृते' का रूप नही कि संस्कृत - व्याख्याकारने समझ लिया है और तदनुसार उनके अनुसर्ताओ - श्री कानजी स्वामी, गुजराती अनुवादक प० हिम्मतलाल जेठालाल शाह तथा हिन्दी अनुवादक श्री मगनलाल जैन आदिने भी उसका अनुसरण किया है। 'पहुदी' शब्दसे आ० कुन्दकुन्दको दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयोपशम और उपशम इन दोका सग्रह अभिप्रेत है, क्योकि कण्ठत उक्त दर्शनमोहनीय कर्मके क्षय के साथ उन दोनोंका सम्बन्ध है । और इस प्रकार क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक इन तीन सम्यक्त्वोका अन्तरंग निमित्त क्रमश दर्शनमोहनीयकर्मके क्षय, क्षयोपशम तथा उपशमको बताना उन्हें इष्ट है । अतएव 'पहूदी' शब्द प्रथमा विभक्तिका वहुवचनान्त रूप है, पचमी विभक्तिका नही ।
अन्तर निमित्त बाह्य वस्तु नही होती सिद्धान्त प्रमाण
" आदि सूत्र
आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धि (१-७) में तत्त्वार्थ सूत्रके 'निर्देश स्वामित्वसाधन (१-७) की व्याख्या करते हुए सम्यग्दर्शनके बाह्य और अभ्यन्तर दो साधन बतलाकर बाह्य साधन तो चारों
- २५६ -
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
गतियोमें विभिन्न प्रतिपादन किये हैं। किन्तु अभ्यन्तर साधन सभी (चारो) गतियोमें दर्शनमोहनीय कर्मके उपशम, क्षय और क्षयोपशमको ही बतलाया है । यथा
'साधन द्विविध अभ्यन्तर बाह्य च । अभ्यन्तर दर्शनमोहस्योपशम. क्षय क्षयोपशमो वा। बाह्य नारकाणा प्राक्चतुर्थ्या सम्यग्दर्शनस्य साधन केषाचिज्जातिस्मरण केषाञ्चिद्धर्मश्रवण केषाञ्चिद्वेदनाभिभव । चतुर्थीमारम्य आ सप्तम्या नारकाणा जातिस्मरण वेदनाभिभवश्च । तिरश्चा केषाञ्चिज्जातिस्मरण केषाश्चिद्धर्मश्रवण केषाञ्चिज्जिनबिम्बदर्शनम् । मनुष्याणामपि तथैव ।-स०सि० ए० २६, भा० ज्ञा० पी० सस्क० ।
आचार्य अकलङ्कादेवने भी तत्त्वार्थवात्तिक (१-७) मे लिखा है कि 'दर्शनमोहोपशमादि साधन बाह्य चोपदेशादि स्वात्मा वा।' अर्थात सम्यक्त्वका अभ्यन्तर साधन दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम, क्षय और क्षमोयशम है तथा वाह्य साधन उपदेशादि है और उपादानकारण स्वात्मा है।
इन दो आचार्योंके निरूपणोंसे प्रकट है कि सम्यक्त्वका अभ्यन्तर (अन्तरग) निमित्त दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय, क्षयोपशम और उपशम है । जिनसूत्रके ज्ञाता पुरुष सम्यक्त्वके अभ्यन्तर निमित्त (हेतु) नही हैं। वास्तवमें जिनसूत्रके ज्ञाता पुरुष जिनसूत्रकी तरह एकदम पर (भिन्न) है। वे अन्तरग हेतु उपचारसे भी कदापि नही हो सकते । क्षायिक सम्यग्दर्शनकी आवारक दर्शनमोहनीय कर्मकी क्षपणाका प्रारम्भ केवली द्विक (केवली या श्रुतकेवली) के पादसान्निध्यमे होनेका जो सिद्धान्तशास्त्रमें कथन है उसीको लक्ष्यमें रखकर गाथामे जिनसूत्रके ज्ञाता पुरुर्षोंको भी सम्यक्त्वका बाह्य निमित्तकारण कहा गया है। उन्हें अन्तरग कारण बताना सिद्धान्त-विरुद्ध है। तथा उनके साथ दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयादिका हेतू रूपमें सम्बन्ध जोडना तो एकदम गलत और अनुपयुक्त है । वस्तुत सम्यक्त्वके उन्मुख जीवोमें ही होनेवाला दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय, क्षयोपशम या उपशम उनके सम्यक्त्वका अन्तरग हेतु है और जिनसूत्रश्रवण या उसके ज्ञाता पुरुषोका सान्निध्य बाह्यनिमित्त है।
कुन्दकुन्द-भारतीके सम्पादक द्वारा सम्पुष्टि
कुन्दकुन्द-भारतीके सम्पादक डॉ० प० पन्नालालजी साहित्याचार्यने भी उक्त गाथा (५३) का वही अर्थ किया है जो हमने ऊपर प्रदर्शित किया है। उन्होने लिखा है
'सम्यक्त्वका बाह्य निमित्त जिनसूत्र-जिनागम और उसके ज्ञायक पुरुष हैं तया अन्तरग निमित्त दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय आदि कहा गया है।' इसका भावार्थ भी उन्होने दिया है। वह भी द्रष्टध्य है। उसमें लिखा है कि 'निमित्त कारणके दो भेद है-१ बहिरग निमित्त और २ अन्तरगनिमित्त। सम्यक्त्वकी उत्पत्तिका बहिरग निमित्त जिनागम और उसके ज्ञाता पुरुष हैं तथा अन्तरग निमित्त दर्शनमोहनीय अर्थात् मिथ्यत्व, सम्यङ्गमिथ्यात्व तथा सम्यक्त्वप्रकृति एव अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ इन प्रकृतियोंका उपशम, क्षय और क्षयोपशमका होना है। बहिरग निमित्तके मिलनेपर कार्यकी सिद्धि होती भी है और नही भी होती। परन्तु अन्तरगनिमित्तके मिलनेपर कार्यकी सिद्धि नियमसे होती है ॥५३॥'-वही, पृ० २०७।
-२५७
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपसहार
इस विवेचनसे स्पष्ट है कि नियमसारके सस्कृत-टीकाकार श्री पदमप्रभमलधारिदेवने उल्लिखित गाथाकी व्याख्यामें जिनसूत्रके ज्ञाता पुरुषोको सम्यक्त्वका उपचारसे अन्तरग हेतु पतला कर तथा उनसे दर्शनमोहनीय कमके क्षयादिकका सम्बन्ध जोड कर महान् सैद्धान्तिक भूल की है। उसी भूलका अनुमरण सोनगढने किया है। श्रीकानजी स्वामीने श्री पदमप्रभमलधारिदेवकी इस गाथा (५३) की सस्कृत व्याख्यापर सूक्ष्म ध्यान नहीं दिया । फलत उनकी ही व्याख्याके अनुसार उन्होने गाथा और व्याख्याके प्रवचन किये, जो बहुत बड़ी भूल है। गुजराती और हिन्दी अनुवादकोंने भी दोनोके अनुवाद उसी भूलसे भरे हुए किये।
इन भलोफा परिमार्जन होना आवश्यक है, ताकि गलत परम्परा मागे न चले।
-२५८
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुसन्धानमें पूर्वाग्रहमुक्ति आवश्यक :
कुछ प्रश्न और समाधान
प्राग्वृत्त
'श्रमण' के सम्पादकने 'जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन' की समीक्षामें कुछ ऐसी बातें कही है, जिनका स्पष्टीकरण आवश्यक है । यद्यपि समीक्षकको समीक्षा करनेकी पूरी स्वतन्त्रता होती है, किन्तु उसे यह भी अनिवार्य है कि वह पूर्वाग्रहसे मुक्त रहकर समीध्यके गुण-दोषोका पर्यालोचन करे। यही समीक्षाकी मर्यादा है।
ज्ञातव्य है कि समीक्षित ग्रन्थके शोध-निवन्ध और अनुसन्धानपूर्ण प्रस्तावनाएं आजसे लगभग ३९ वष पूर्व (सन् १९४२ से १९७७ तक) 'अनेकान्त', 'जैन सिद्धान्त-भास्कर' आदि पत्रों तथा न्यायदीपिका, आप्तपरीक्षा आदि ग्रन्थोमें प्रकाशित हैं। किन्तु विगत वर्षों में 'श्रमण' के सम्पादक या अन्य किसी विद्वान्ने उनपर कोई प्रतिक्रिया प्रकट नही की । अब उन्होने उक्त समीक्षामें ग्रन्थके कुछ लेखोके विषयोपर प्रतिक्रिया व्यक्त की है । परन्तु उसमें अनुसन्धान और गहराईका नितान्त अभाव है। हमें प्रसन्नता होती, यदि वे पूर्वाग्रहसे मुक्त होकर शोध और गम्भीरताके साथ उसे प्रस्तुत करते । यहाँ उनके उठाये प्रश्नो अथवा मुद्दोपर विचार करूंगा। १ प्रश्न १ और उसका समाधान
सम्पादकका प्रथम प्रश्न है कि 'समन्तभद्र की आप्तमीमासा आदि कृतियोमे कुमारिल, धर्मकीर्ति आदिकी मान्यताओका खण्डन होनेसे उसके आधारपर समन्तभद्रको ही उनका परवर्ती क्यो न माना जाये ?'
स्मरण रहे कि हमने 'कुमारिल और समन्तभद्र' शीर्षक शोध निबन्धमें सप्रमाण यह प्रकट किया है कि समन्तभद्रकी कृतियो (विशेषतया आप्तमीमासा) का खण्डन कुमारिल और धर्मकीतिके ग्रन्थोमे पाया जाता है। अतएव समन्तभद्र उक्त दोनो ग्रन्थकारोसे पूर्ववर्ती है, परवर्ती नही। यहां हम पुन उसीका विचार करेंगे।
हम प्रश्नकर्तासे पूछते हैं कि वे बतायें, कुमारिल और धर्मकीतिकी स्वयकी वे कौन-सी मान्यताएँ हैं जिनका समन्तभद्रकी आप्तमीमासा आदि कृतियोमें खण्डन है ? इसके समर्थन में प्रश्नकारने एक भी उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया। इसके विपरीत दोनो नथकारोने समन्तभद्रकी ही आप्तमीमासागत मान्यतामोका खण्डन किया है। यहां हम दोनो ग्रथकारोके ग्रन्थोंसे कुछ उदाहरण उपस्थित करते हैं। समन्तभद्र द्वारा अनुमानसे सर्वज्ञ-सिद्धि
(१) जैनागमो तथा कुन्दकुन्दके प्रवचनसार आदि ग्रन्थोमें सर्वज्ञका स्वरूप तो दिया गया है परंतु
अनेकान्त, वर्ष ५, किरण १२, ई० १९४५, जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परि०, १० ५३८, वीरसेवा__मन्दिर ट्रस्ट, वाराणसी-५, जून १९८० । २ (क) सन्वलोए सव्वजीवे सव्वभावे सम्म सम जाणदि पस्सदि ।-षट्ख० ५।५।९८ ।
(ख) से भगव अग्हि जिणो फेवली सन्वन्नू सन्वभावदरिसी · सन्वलोए सम्वजीवाण सव्व भावाइ जाणमाणो पासमाणो ।
-आचारा० सू० २ श्रु० ३ ३ प्रवच० सा०, ११४७, ४८, ४९, कुन्दकुन्द-भारती, फल्टन, १९७० ।
-२५९ -
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुमानसे उसकी मिद्धि उनमें उपलब्ध नहीं होती। जैन दार्शनिकोमें ही नही, भारतीय दार्शनिकोमें भी समन्तभद्र ही ऐसे प्रथम दार्शनिक एव ताकिक है, जिन्होने आप्तमीमांसा (का० ३, ४, ५, ६, ७) में अनुमानसे सामान्य तथा विशेष सर्वज्ञकी सिद्धि की है।
समन्तभद्रने सर्वप्रथम कहा कि 'सभी तीर्थ-प्रवर्तकों (सर्वज्ञों) और उनके समयो (आगमो-उपदेशोमें) परस्पर विरोध होनेसे सब सर्वज्ञ नही है, 'कश्चिदेव'-कोई ही (एक) गुरु (सर्वज्ञ) होना चाहिए।' 'उस एकको सिद्धि की भूमिका बाँधते हुए उन्होने आगे (का० ४ में) कहा कि 'किमी व्यक्तिमें दोपो और ओवरणोका नि शेष अभाव (र्वस) हो जाता है क्योकि उनकी तरतमता (न्यूनाधिकता) पायी जाती है, जैसे सुवर्णमें तापन, कूटन आदि साधनोंसे उसके बाह्य (कालिमा) और आभ्यन्तर (कीट) दोनो प्रकारके मलोका अभाव हो जाता है।' इसके पश्चात् वे (का. ५ में) कहते हैं कि 'सूक्ष्मादि पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष है, क्योकि वे अनुमेय है, जैसे अग्नि आदि ।' इस अनुमानसे सामान्य सर्वज्ञकी सिद्धि की गयी है। वे विशेष सर्वज्ञकी भी सिद्धि करते हुए (का०६ व ७ में) कहते हैं कि 'हे वीर जिन | अर्हन् ! वह सर्वज्ञ आप ही हैं, क्योंकि आप निर्दोष हैं और निर्दोष इस कारण हैं, क्योकि आपके वचनो (उपदेश) में युक्ति तथा आगमका' विरोध नही है, जबकि दूसरो (एकान्तवादी आप्तो) के उपदेशोंमें युक्ति एव आगम दोनोका विरोध है, तब वे सर्वज्ञ कैसे कहे जा सकते है ?' इस प्रकार समन्तभद्रने अनुमानसे सामान्य और विशेष सर्वज्ञ की सिद्धि की है। और इसलिए अनुमान द्वारा सर्वज्ञ सिद्ध करना आप्तमीमासागत समन्तभद्रकी मान्यता है । वादिराज और शुभचन्द्रद्वारा उसका समर्थन
आज से एक हजार वर्ष पूर्व (ई० १०२५) के प्रसिद्ध तर्कग्रन्थकार वादिराजसग्नेि भी उसे (अनुमानद्वारा सर्वज्ञ सिद्ध करनेको) समन्तभद्र के देवागम (आप्तमीमांसा) की मान्यता प्रकट की है। पार्श्वनाथचरितमें समन्तभद्रके विस्मयावह व्यक्तित्वका उल्लेख करते हुए उन्होने उनके देवागम द्वारा सर्वज्ञके प्रदर्शन का स्पष्ट निर्देश किया है। इसी प्रकार आ० शुभचन्द्र ने भी देवागम द्वारा देव (सर्वज्ञ) के आगम (सिद्धि) को बतलाया है।
इन असन्दिग्ध प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि अनुमानसे सर्वज्ञकी सिद्धि करना समन्तभद्रकी आप्तमीमासाकी १ तीर्थकृत्समयाना च परस्परविरोधत ।
सर्वेषामाप्तता नास्ति कश्चिदेव भवेद् गुरु ॥३॥ दोषावरणयोहानिनिश्शेषास्त्यतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षय ॥४॥ सूक्ष्मान्तरितदूरार्था प्रत्यक्षा कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञ-सस्थिति ॥५॥ स त्वमेवासि निर्दोषो युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो यदिष्ट ते प्रसिद्धन न बाध्यते ॥६॥ त्वन्मतामृतबाह्याना सर्वथैकान्तवादिनाम् ।
आप्ताभिमानदग्धाना स्वेष्ट दृष्टेन बाध्यते ।।८।। -समन्तभद्र, आप्तमी०, ३, ४, ५, ६, ७। २ स्वामिनश्चरित तस्य कस्य नो विस्मयावहम । देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदर्श्यते ॥
-पार्श्वनाथचरि० १११७ ३ देवागमेन येनार व्यक्तो देवाऽगम कृत
-पाण्डवपु० ।
-२६०
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
नि सन्देह अपनी मान्यता है। और उत्तरवर्ती अनेक ग्रन्थकार भी उसे शताब्दियोसे उनकी ही मान्यता मानते चले आ रहे हैं।
कुमारिल द्वारा खण्डन
अब कुमारिलकी ओर दृष्टिपात करें। कुमारिलने' सामान्य और विशेष दोनो ही प्रकारके सर्वज्ञका निषेध किया है। यह निषेध और किसीका नही, समन्तभद्रकी आप्तमीमासाका है। कुमारिल बडे आवेगके साथ प्रथमत सामान्यसर्वज्ञका खण्डन करते हुए कहते हैं कि 'सभी सर्वज्ञ (तीर्थ-प्रवर्तक) परस्पर विरोधी अर्थ (वस्तुतत्त्व) के जब उपदेश करने वाले हैं और जिनके साधक हेतु समान (एक-से) हैं, तो उन सबोमें उस एकका निर्धारण कैसे करोगे कि अमुक सर्वज्ञ है और अमुक सर्वज्ञ नही है " कुमारिल उस परस्पर-विरोधको भी दिखाते हुए कहते हैं कि 'यदि सुगत सर्वज्ञ है, कपिल नही, तो इसमें क्या प्रमाण है और यदि दोनो सर्वज्ञ हैं, तो उनमें मतभेद कैसा।' इसके अलावा वे और कहते हैं कि 'प्रमेयत्व आदि हेतु जिस (सर्वज्ञ) के निषेधक है, उन हेतुओंसे कौन उस (सर्वज्ञ ) की कल्पना (सिद्धि) करेगा।'
___ यहां ध्यातव्य है कि समन्तभद्र के 'परस्पर-विरोधत' पदके स्थानमें 'विरुद्धार्थोपदेशिषु', 'सर्वेषा' की जगह 'सर्वेषु' और 'कश्चिदेव' के स्थानमें 'को नामैक' पदोका कुमारिलने प्रयोग किया है और जिस परस्पर विरोधकी सामान्य सूचना समन्तभद्रने की थी, उसे कुमारिलने सुगत, कपिल आदि विरोधी तत्त्वोपदेष्टाओंके नाम लेकर विशेष उल्लेखित किया है। समन्तभद्रने जो सभी तीर्थप्रवर्तको (सुगत आदि) मे परस्पर विरोध होनेके कारण 'कश्चिदेव भवेद् गुरु' शब्दो द्वारा कोई (एक) को ही गुरु-सर्वज्ञ होनेका प्रतिपादन किया था, उस पर कुमारिलने प्रश्न करते हुए कहा कि 'जब सभी सर्वज्ञ हैं और विरुद्धार्थोपदेशी हैं तथा सबके सावन हेतु एकसे है, तो उन सबमेंसे 'को नामकोऽवधार्यताम्-किस एकका अवधारण (निश्चय) करते हो?' कुमारिल का यह प्रश्न समन्तभद्रके उक्त प्रतिपादनपर ही हुआ है । और उन्होने उस अनवधारण (सर्वज्ञके निर्णयके अभाव) को 'सुगतो यदि सर्वज्ञ कपिली नेतिका प्रमा' आदि कथन द्वारा प्रकट भी किया है । यह सब आकस्मिक नही है।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि समन्तभद्रने अपने उक्त प्रतिपादन में किसीके प्रश्न करने के पूर्व ही अपनी उक्त प्रतिज्ञा (कश्चिदेव भवेद्गुरु.) को आप्तमीमासा (का० ४ और ५) में अनुमान-प्रयोगपूर्वक सिद्ध किया है । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है । अनुमानप्रयोगमें उन्होंने 'अनुमेयत्व' हेतु दिया है जो सर्वज्ञ सामान्य१ सर्वज्ञेषु च भूयस्सु विरुद्धार्थोपदेशिषु ।
तुल्यहेतुषु सर्वेषु को नामैकोऽवधार्यताम् ॥ सुगतो यदि सर्वज्ञ कपिलो नेति का प्रमा। अथावभावपि सर्वज्ञौ मतभेद कथ तयो । प्रत्यक्षाद्यविसवादि प्रमेयत्वादि यस्य च । सद्भाववारणे शक्तं को नु त कल्पयिष्यति ।।
बौद्ध विद्वान् शान्तरक्षितने इन कारिकाओमें प्रथमकी दो कारिकाएं अपने तत्त्वस ग्रह (का० ३१४८-४९) में कुमारिलके नामसे दी हैं। दूसरी कारिका विद्यानन्दने अष्टस० १०५ में 'तदुक्तम्' के
साथ उद्धत की है । तीसरी कारिका मीमासाश्लोकवार्तिक (चोदनासू०) १३२ है। २ आप्तमी०, का० ४,५।
- २६१ -
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
का साधक है और जो किसी एकका निर्णायक नही है। इसीसे कुमारिलने 'तुल्यहेतुषु सर्वेषु' कह कर उसे अथवा उस जैसे प्रमेयत्व आदि हेतुओको सर्वज्ञका अनवधारक (अनिश्चायक) कहा है । इतना ही नहीं, उन्होने एक अन्य कारिकाके द्वारा समन्तभद्रके इस 'अनुमेयत्व' हेतुकी तीव्र आलोचना भी की है और कहा है कि जो प्रमेयत्व आदि हेतु सर्वज्ञके निषेधक है, उनसे सर्वज्ञकी सिद्धि कैसे की जा सकती है?
अकलक द्वारा उत्तर:
इसका सबल उत्तर समन्तभद्रकी आप्तमीमासाके वितिकार अकलकदेवने दिया है। अकलक कहते है कि प्रमेयत्व आदि तो अनुमेयत्व' हेतुके पोपक है:-अनुमेयत्व हेतुकी तरह प्रमेयत्व आदि सर्वज्ञके सद्भावके साधक हैं, तब कौन समझदार उन हेतुओंसे सर्व ज्ञका निषेध या उसके सद्भावमें सन्देह कर सकता है।'
यह सारी स्थिति बतलाती है कि कुमारिलने समन्तभद्र का खण्डन किया है, समन्तभद्र ने कुमारिलका नही । यदि समन्तभद्र कुमारिलके परवर्ती होते तो कुमारिलके खण्डनका उत्तर स्वय समन्तभद्र देते अकलकको उनका जवाब देनेका अवसर नही माता तथा समन्तभद्रके 'अनुमेयत्व' हेतुका समर्थन करनेका भी उन्हें मौका नही मिलता
(२) अनुमानसे सर्वज्ञ-सामान्यकी सिद्धि करनेके उपरान्त समन्तभद्रने अनुमानसे ही सर्वज्ञ-विशेषकी सिद्धिका भी उपन्यास करके उसे 'अर्हन्त में पर्यवसित किया है। जैसा कि हम ऊपर आप्तमीमासा कारिका ६ और ७ के द्वारा देख चुके हैं। कुमारिलने समन्तभद्रकी इस विशेष सर्वज्ञताकी सिद्धिका भी खण्डन किया है । अर्हन्तका नाम लिए बिना वे कहते हैं कि 'जो लोग जीव (अर्हन्त) के इन्द्रियादि निरपेक्ष एव सूक्ष्मादि विषयक केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की कल्पना करते हैं वह भी युक्त नही है, क्योकि वह आगमके बिना और आगम केवलज्ञानके बिना सम्भव नही है और इस तरह अन्योन्याश्रय दोष होनेके कारण अरहन्तमें भी सर्वज्ञता सिद्ध नहीं होती।'
ज्ञातव्य है कि जैन अथवा जैनेतर परम्परामें समन्तभद्रसे पूर्व किसी दार्शनिकने अनुमानसे उक्त प्रकार विशेष सर्वज्ञकी सिद्धि की हो, ऐसा एक भी उदाहरण उपलब्ध नही होता। हाँ, आगमोमें केवलज्ञानका स्वरूप अवश्य विस्तारपूर्वक मिलता है, जो आगमिक है, आनुमानिक नही है । समन्तभद्र ही ऐसे दार्शनिक है,
१ मी० श्लो० चो० सू० का० १३२ । २ 'तदेवं प्रमेयत्वसत्त्वादिर्यत्र हेतुलक्षण पुष्णाति तं कथ चेतन प्रतिषेद्ध मर्हति सशयितु वा ।'
-अष्टश० का० ५। ३ अकलकके उत्तरवर्ती बोद्ध विद्वान् शान्तिरक्षितने भी कुमारिलके खण्डनका जवाब दिया है । उन्होंने
लिखा हैएव यस्य प्रमेयत्ववस्तुसत्त्वादिलक्षणा । निहन्तु हेतवोऽशक्ता को न त कल्पयिष्यति ।
-तत्वस० का०८८५ । ४ आप्तमी०, का० ६,७, वीरसेवामन्दिर-ट्रस्ट प्रकाशन, वाराणसी, द्वि० स० १९७८ । ५ एव यै केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यनपेक्षिण ।
सूक्ष्मातीतादिविषय जीवस्य परिकल्पितम् ।। नर्ते तदागमात्सिद्धचेत् न च तेनागमो विना।
-मीमासा श्लो०८७।
-२६२
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिन्होने अरहन्तमें अनुमानसे सर्वज्ञता (केवलज्ञान) की सिद्धि की है और उसे दोषावरणोंसे रहित, इन्द्रियादि निरपेक्ष तथा सूक्ष्मादिविषयक बतलाया है। इससे स्पष्ट है कि कृमारिलने समन्तभद्र की ही उक्त मान्यता का खण्डन किया है।
अकलक द्वारा इसका भी सबल जवाब
इसका सबल प्रमाण यह है कि कुमारिलके उक्त खण्डनका भी जवाब अकलकदेवने दिया है। उन्होने बडे सन्तुलित ढगसे कहा है कि 'अनुमान द्वारा सुप्रसिद्ध केवलज्ञान (सर्वज्ञता) आगमके बिना और आगम केवलज्ञानके विना सिद्ध नही होता, यह सत्य है, तथापि दोनोमें अन्योन्याश्रय दोष नहीं है, क्योकि पुरुषातिशय (केवलज्ञान) प्रतीतिवशसे माना गया है । इन (केवलज्ञान और आगम) दोनोमें बीज और अकूरकी तरह अनादि प्रबन्ध (प्रवाह-सन्तान) है ।'
___ अकलकके इस उत्तरसे बिलकुल स्पष्ट है कि समन्तभद्र ने जो अनुमानसे अरहन्तके केवलज्ञान (सर्वज्ञता) की सिद्धि की थी, उसीका खण्डन कुमारिलने किया है और जिसका सयुक्तिक उत्तर अकलकने उक्त प्रकारसे दिया है । केवलज्ञानके साथ 'अनुमानविम्भितम्'-'अनुमानसे सिद्ध' विशेषण लगाकर तो अकलक (वि० स० ७वी शती) ने रहा-सहा सन्देह भी निराकृत कर दिया है, क्योकि अनुमानसे सर्वज्ञविशेष (अरहन्तमें केवलज्ञान) की सिद्धि समन्तभद्र ने की है। इस उल्लेख-प्रमाणसे भी प्रकट है कि कुमारिलने समन्तभद्रकी आप्तमीमासाका खण्डन किया और जिसका उत्तर समन्तभद्रसे कई शताब्दी बाद हुए अकलकने दिया । है । समन्तभद्रको कुमारिलका परवर्ती माननेपर उनका जवाब वे ही देते, अकलकको उसका अवसर ही नहीं आता।
कुमारिल द्वारा समन्तभद्रका अनुसरण
(३) कुमारिलने समन्तभद्रका जहाँ खण्डन किया है वहां उनका अनुगमन भी किया है। विदित है जैन दर्शनमें वस्तुको उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन रूप माना गया है। समन्तभद्रने लौकिक और आध्यात्मिक दो उदाहरणो द्वारा उसकी समर्थ पुष्टि की है। इन दोनो उदाहरणोके लिए उन्होने एक-एक १ एव यत्केवलज्ञानमनुमानविजृम्भितम् ।
नर्ते तदागमात्सिद्धचेत न च तेन विनाऽऽगम ॥ सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मत ।
प्रभव. पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ।।-न्या० वि० का० ४१२-१३ २ मी० श्लो० वा०, पृ० ६१९ ।।
दन्व सल्लक्खणय उप्पादन्वयधुवत्तसजुत । गुणपज्जयासय वा ज त भण्णति सन्वण्हू ।।-कुन्दकुन्द, पचास्ति०, गा० १० अथवा-'सद्रव्यलक्षणम्', उत्पादव्ययनौव्ययुक्त सत्।'-उमास्वाति (गृद्धपिच्छ), त० सू०५-२९,
३०। ४ घट-मौलि-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ।
शोकप्रमोद-माध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ।। पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिव्रत । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्व त्रयात्मकम् ।।-आ० मी०, का०, ५९, ६० ।
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
देते हुए वे कहते हैं कि 'जो विज्ञप्ति मात्रको जानता है और लोकानुरोधसे वाह्य--परको भी स्वीकार करता है और फिर भी सवको शून्य कहता है तथा प्रतिपादन करता है कि न ज्ञाता है, न उसमें फल है और न कुछ अन्य जाना जाता है, ऐसा अश्लील, आकुल और अयुक्त प्रलाप करता है, उसे प्रमत्त (पागल), जहबुद्धि और और विविध आकुलताओसे घिरा हुआ समझना चाहिए ।' समन्तभद्रपर किये गये धर्मकीति के प्रथम आक्षेपका यह जवाब 'जैसेको तैसा' नीतिका पूर्णतया परिचायक है।
धर्मकीतिके दूसरे आक्षेपका भी उत्तर अकलक उपहासपूर्वक देते हुए कहते हैं कि 'जो दही और ऊंटमें अभेदका प्रसग देकर सभी पदार्थोंको एक हो जाने की आपत्ति प्रकट करता है और इस तरह स्याद्वादअनेकान्तवादका खण्डन करता है वह पूर्वपक्ष (मनेकान्तवाद--स्याद्वाद) को न ममझकर दूपक (दूषण देनेवाला) होकर भी विदूषक-दूषक नही है, जोकर है-उपहासका पात्र है। सुगत भी कभी मृग था और मृग भी सुगत हुआ माना जाता है तथापि सुगतको वन्दनीय और मृगको भक्षणीय कहा गया है और इस तरह पर्यायभेदसे सुगत और मृगमें वन्दनीय एव भक्षणीयको भेदव्यवस्था तथा चित्तसन्तानकी अपेक्षासे उनमें अभेद व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार प्रतीति बलसे-पर्याय और द्रव्यको प्रतीतिसे सभी पदार्थोंमें भेद और अभेद दोनोंकी व्यवस्था है। अत 'दही खा' कहे जानेपर कोई ऊँटको खानेके लिए क्यो दौडेगा, क्योकि सत्द्रव्यकी अपेक्षासे उनमें अभेद होनेपर भी पर्यायको दृष्टिसे उनमें उसी प्रकार भेद है, जिस प्रकार सुगत और मृगमें है। अतएव 'दही खा' कहने पर कोई दही खानेके लिए ही दौडेगा, क्योकि वह भक्षणीय है और केंट खानेके लिए वह नही दौडेगा, क्योकि वह अभक्षणीय है। इस तरह विश्वकी सभी वस्तुओको उभयात्मक अनेकान्तात्मक मानने में कौन-सी आपत्ति या विपत्ति है अर्थात् कोई आपत्ति या विपत्ति नहीं है।
अकलकके इन सन्तुलित एव सवल जवाबोसे बिलकुल असन्दिग्ध है कि समन्तभद्रकी आप्तमीमासागत स्यावाद और अनेकान्तवादको मान्यताओका ही धर्मकीर्तिने खण्डन किया है और जिसका मुंहतोड, किन्तु शालीन एव करारा उत्तर अकलकने दिया है। यदि समन्तभद्र धर्मकीतिके परवर्ती होते तो वे स्वयं उनका जवाब देते और उस स्थितिमें अकलकको धर्मकीतिके उपर्युक्त आक्षेपोका उत्तर देनेका मौका ही नहीं आता।
चालीस-पचास वर्ष पूर्व स्व०प० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, स्व०प० सुखलाल सघवी आदि कुछ विद्वानोंने समन्तभद्रको धर्मकोतिका परवर्ती होनेकी सम्भावना की थी। किन्तु अब ऐसे प्रचुर प्रमाण सामने आ गये हैं, जिनके आधारपर धर्मकीति समन्तभद्रसे काफी उत्तरवर्ती (३००-४०० वर्ष पश्चात्) सिद्ध हा चुके हैं। इस विषयमें डाक्टर ए०एन० उपाध्ये एव डा०हीरालाल जैनका शाकटायन व्याकरण पर लिखा
(ख) दध्युष्ट्रादेरभेदत्वप्रसगावेकचोदनम् ।
पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषक ॥ सुगतोऽपि मृगो जातो मृगोऽपि सुगत स्मृत । तथापि सुगतो वद्यो मृग खाद्यो यथेष्यते ॥ तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थिते ।
चोदितो दधि खादेति विमुष्ट्रमभिधावति ?-न्या० वि०३-३७३, ३७४ । १. न्यायकु०, द्वि० भा०, प्रस्ता०, पृ० २७, अक्ल० ग्रन्थत्रथ०, प्राक्कथ०, पृ० ९, न्यायकु०, द्वि० भा।
पृ० १८-२० ।
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रधान सम्पादकीय द्रष्टव्य है । 'धर्मकीर्ति और समन्तभद्र' शीर्षक हमारा शोधपूर्ण लेख भी अवलोकनीय है,' जिसमें उक्त विद्वानोके हेतुओपर विमर्श करनेके साथ ही पर्याप्त नया अनुसन्धान प्रस्तुत किया गया है। ऐसे विषयोपर हमें उन्मुक्त दिमागसे विचार करना चाहिए और सत्यके ग्रहणमें हिचकिचाना नही चाहिए ।
प्रश्न २ और उसका समाधान
सम्पादकने दूसरा प्रश्न उठाया है कि 'सिद्धसेन के न्यायावतार और समन्तभद्र के श्रावकाचार में किसी पद (पद्य) को समान रूपसे पाये जानेपर समन्तभद्रको ही पूर्ववर्ती क्यो माना जाय ? यह भी सम्भव है कि समन्तभद्रने स्वय उसे सिद्धसेनसे लिया हो और वह उससे परवर्ती हो "
सम्पादककी प्रस्तुत सम्भावना इतनी कन्नी, शिथिल और निर्जीव है कि उसे पुष्ट करने वाला एक भी प्रमाण नही दिया जा सकता और न स्वय सम्पादकने हो उसे दिया है। अनुसन्धानके क्षेत्रमें यह आयश्यक है कि सम्भावनाके पोषक प्रमाण दिये जायें, तभी उसका मूल्याकन होता है और तभी वह विद्वानो द्वारा आदत होती है।
न्यायावतारमे समन्तभद्रके रत्नकरण्डका ही पद्य
यहाँ उसीपर विमर्श किया जाता है। ऊपर जिन समन्तभद्रको बहुत चर्चा की गयी है, उन्हीका रचित एक धावकाचार है, जो सबसे प्राचीन महत्त्वपूर्ण और व्यवस्थित श्रावकाचारका प्रतिपादक ग्रन्थ है। इसके आरम्भमें धर्मकी व्याख्याका उद्देश्य बतलाते हुए उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीन रूप प्रकट किया गया है । सम्यग्दर्शन का स्वरूप उन्होने परमार्थदेव, शास्त्र और गुरुका दृढ एव अमूढ़ श्रद्धान कहा है । अतएव उन्हें इन तीनोका लक्षण बतलाना भी आवश्यक था । देवका लक्षण प्रतिपादन करनेके उपरान्त समन्तभद्र ने ९ पथके द्वारा शास्त्रका लक्षण निरूपित किया है। यह पद्य सिद्धसेनके न्यायावतारमें भी उसके ९ वें पद्य के ही रूपमें पाया जाता है ।
उसपर सयुत्तिक विमर्श
अव विचारणीय है कि यह पद्य रत्नकरण्ड श्रावकाचारका मूल पद्य है या न्यायावतारका मूल पद्य है | श्रावकाचार में यह जहाँ स्थित है वहाँ उसका होना आवश्यक और अनिवार्य है । किन्तु न्यायावतारमें जहाँ वह है वहाँ उसका होना आवश्यक एव अनिवार्य नही है, क्योकि वह पूर्वोक्त शब्द लक्षण (का० ८ ) 3 के समर्थन में अभिहित है । उसे वहां से हटा देनेपर ग्रन्थका अगभग नही होता । किन्तु समन्तभद्रके श्रावका चारसे उसे अलग कर देनेपर उसका अग भग हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि उक्त ९वा पद्य, जिसमें शास्त्रका लक्षण दिया गया है, श्रावकाचारका मूल हैं और न्यायावतार में अपने विषय ( ८वें पद्य में कथित
१ जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, १२६ से १३३ ।
२ आाप्तोपशपमुलघमदृष्टेष्टविरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत्सार्व शास्त्र कापथघट्टनम् ।। ३ दृष्टेष्टाव्याहताद्वाक्यात् परमार्थाभिधायिन । तत्त्वग्राहितयोत्पन्न मानं शाब्द प्रकीर्तितम् ।।
1
- रत्न० श्लो० ९ ।
२६७ -
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
कारिकाका सृजन किया है। पहली (५९वी) कारिकाके द्वारा उन्होने प्रकट किया है कि जिस प्रकार घट, मुकुट और स्वर्णके इच्छुकोको उनके नाश, उत्पाद और स्थितिमें क्रमश शोक, हर्ष और माध्यस्थ्य भाव होता है और इसलिए स्वर्णवस्तु व्यय, उत्पाद और स्थिति इन तीन रूप है, उसी प्रकार विश्वको सभी वस्तुएं त्रयात्मक हैं। दूसरी (६० वी) कारिकाके द्वारा बतलाया है कि जैसे दुग्धनती, दूध ही ग्रहण करता है, दही नही लेता और दहीका व्रत रखनेवाला दही ही लेता है, दूध नही लेता है तथा दूध और दही दोनोका त्यागी दोनोंको ही ग्रहण नहीं करता और इस तरह गोरस उत्पाद, व्यय और ध्रुवता तीनोंसे युक्त है, उसी तरह अखिल विश्व (तत्त्व) त्रयात्मक है ।
कुमारिलने भी समन्तभद्रकी लौकिक उदाहरण वाली कारिका (५९) के आधारपर अपनी नयी ढाई कारिकायें रची हैं और समन्तभद्रकी ही तरह उनके द्वारा वस्तुको प्रयात्मक सिद्ध किया है। उनकी इन कारिकाओमें समन्तभद्रकी कारिका ५९ का केवल बिम्ब-प्रतिविम्बभाव ही नही है, अपितु उनकी शब्दावली, शैली और विचारसरणि भी उनमें समाहित है। समन्तभद्रने जिस बातको अतिसक्षेपमें एक कारिका (५९) में कहा है, उसीको कुमारिलने ढाई कारिकाओंमें प्रतिपादन किया है। वस्तुत विकासका भी यही सिद्धान्त है कि वह उत्तरकालमें विस्तृत होता है। इस उल्लेखसे भी स्पष्ट जाना जाता है कि समन्तभद्र पूर्ववर्ती है और कुमारिल परवर्ती ।
वादिराज द्वारा सम्पुष्टि
इसका ज्वलन्त प्रमाण यह है कि ई० १०२५ के प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित और प्रामाणिक तर्कग्रन्थकार वादिराजसूरि ने अपने न्यायविनिश्चयविवरण (भाग १, १० ४३९) में समन्तभद्रको आप्तमीमासाकी उल्लिखित कारिका ५९ को और कुमारिल भट्ट की उपरि चचित ढाई कारिकामोमेंसे डेढ कारिकाको भी 'उक्त स्वामिसमन्तभद्रैस्तदुपजीविना भट्टेनापि' शब्दोद्वारा उधृत करके कुमारिल भट्टको समन्तभद्रका उपजीवीअनुगामी प्रकट किया है। इससे स्पष्ट है कि एक हजार वर्ष पहले भी दार्शनिक एव साहित्यकार समन्तभद्रको पूर्ववर्ती और कुमारिल भट्टको उनका परवर्ती विद्वान मानते थे।
समन्तभद्रका धर्मकोति द्वारा खण्डन
5) अव धर्मकीतिको लीजिए। धर्मकीर्ति (ई०६३५) ने भी समन्तभद्रको आप्तमीमासाका खण्डन किया है । विदित है कि आप्तमीमासा (कारिका १०४) में समन्तभद्रने स्याद्वादका लक्षण दिया
वर्घमानकभगे च रुचक क्रियते यदि । तदा पूर्वार्थिन शोक प्रीतिश्चाप्युत्तराथिन ॥ हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु प्रयात्मकम् । न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् ।।
स्थित्या विना न माध्यस्थ्य तेन सामान्यनित्यता॥--मी० श्लो० वा०, पृ० ६१९ । २ "उक्त स्वामिसमन्तभद्रैस्तदुपजीविना भट्रेनापि"-शब्दोके साथ समन्तभद्रकी पूर्वोल्लिखित कारिका
५९ और कुमारिल भट्टकी उपर्युक्त कारिकाओमेंसे आरम्भकी डेढ कारिका उद्धत है।-न्या०वि०
वि०, भाग १, पृ० ४३९ । ३. एतेनैव यत्किचिदयुक्तमश्लीलमाकुलम् ।
प्रलपन्ति प्रतिक्षिप्तं तदप्येकान्तसभवात् ।।-प्रमाणवा० १-१८२
-२६४ -
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
है' और लिखा है कि 'सर्वथा एकान्तके त्यागसे जो 'किंचित्' (कथचित्) का विधान है वह स्वाद्वाद है।'
(क) धर्मकीर्तिने समन्तभद्रके इस स्याद्वाद लक्षणकी बडे आवेगके साथ समीक्षा की है। उनके "किचित्के विधान – स्याद्वादको अयुक्त, अश्लील और आकुल 'प्रलाप' कहा है।'
ज्ञातव्य है कि आगमोमें 'सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता', 'गोयमा । जीवा सिय सासया, तिय असासया' जैसे निरूपणोमें दो भगो तथा कुन्दकुन्दके पचास्तिकाय में सिय अस्थि णत्थि उहय - इस गाथा (१४) के द्वारा गिनाये गये सात भगोके नाम तो पाये जाते है। पर स्याद्वादकी उनमें कोई परिभाषा नहीं मिलती । समन्तभद्रको आप्तमीमासामें ही प्रथमत उसकी परिभाषा और विस्तृत विवेचन मिलते है। धर्मकोर्तिने उक्त खण्डन समन्तभद्रका ही किया है, यह स्पष्ट ज्ञात होता है । धर्मकीर्तिका 'तदप्येकान्त सम्भवात् ' पद भी आकस्मिक नही है, जिसके द्वारा उन्होने सर्वथा एकान्तके त्यागसे होनेवाले किंचित् (कथचित् ) के विधानस्याद्वाद ( अनेकान्त ) में भी एकान्तकी सम्भावना करके उसका अनेकान्तका खण्डन किया है।
(ख) इसके सिवाय धर्मकीर्तिने समन्तभद्रकी उस मान्यताका भी खण्डन किया है, जिसे उन्होने 'सदेव सर्वं को नेच्छेत्' (का० १५) आदि कथन द्वारा स्थापित किया है वह सान्यता है सभी वस्तुओको सद्-असद्, एक-अनेक आदि रूपसे उभयात्मक ( अनेकान्तात्मक) प्रतिपादन करना । धर्मकीर्ति इसका भी खण्डन करते हुए कहते हैं कि 'सबको उभयरूप माननेपर उनमें कोई भेद नही रहेगा। फलत जिसे 'दही खा कहा, यह ऊँटको खानेके लिए क्यो नही दोडता ? जब सभी पदार्थ सभी रूप है तो उनके वाचक शब्द और बोधक ज्ञान भी भिन्न-भिन्न नही हो सकते । '
अकलक द्वारा जवाब
धर्मकीर्ति द्वारा किया गया अपने पूर्वज ममन्तभद्रका यह खण्डन भी अफलकको सहा नही हुआ और उनके उपर्युक्त दोनो आक्षेपोका जवाब बडी तेजस्विताके साथ उन्होने दिया है ।" प्रथम आक्षेपका उत्तर
१ स्याद्वाद सर्वकान्तत्यागात्किवृत्तचिद्विपि ।
-
सप्तभगनयापेक्ष
२ भूतवली- पुष्पदन्त षट् ख० १।१।७९ ।
,
३ सिय अस्थि परिय उय अव्वत्तव्य पुणो य तत्तिदय ।
हेयादेय विशेषक || आप्तमी० का० १०५ ।
,
दन्व खु सप्तभग आवेसवसेण सभवदि ॥ -- पचास्ति० गा० १४ ।
1
४ सर्वस्पोभयरूपत्ये तद्विशेषनिराकृते ।
चोदितो दघि खादेति किमुष्ट्र नाभिधावति ॥ - प्रमाणा वा० १ १८३ ।
५ कथचित्ते सवेवेष्ट कथचिदरादेव तत् । तथोभयमवाच्य च नययोगान्न सर्वथा ॥ सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् । असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते । ६ (क) ज्ञात्वा विज्ञप्तिमात्र परमपि च वहिर्भासि
न-३४
देवागम, का० १४, १५ ।
भावप्रवादम् ।
चक्रे लोकानुरोधात् पुनरपि सकल नेति
तत्त्व प्रपेदे ॥
न ज्ञाता तस्य तस्मिन् न च फलमपर ज्ञायते नापि किचित् ।
इत्यश्लील प्रमत्त प्रलपति जडघीराकुल व्याकुलाप्त ॥ त्या०वि० १-१६१ ।
२६५ -
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
देते हुए वे कहते हैं कि 'जो विज्ञप्ति मात्रको जानता है और लोकानुरोधसे वाह्य--परको भी स्वीकार करता है और फिर भी सवको शून्य कहता है तथा प्रतिपादन करता है कि न ज्ञाता है, न उसमें फल है और न कुछ अन्य जाना जाता है, ऐसा अश्लील, आकुल और अयुक्त प्रलाप करता है, उसे प्रमत्त (पागल), जडबुद्धि और और विविध आकुलताओसे घिरा हुआ समझना चाहिए।' समन्तभद्रपर किये गये धर्मकीर्तिके प्रथम आक्षेपका यह जवाव 'जैसेको तसा' नीतिका पूर्णतया परिचायक है ।
धर्मकीतिके दूसरे आक्षेपका भी उत्तर अकलक उपहासपूर्वक देते हुए कहते हैं कि 'जो दही और ऊंटमें अभेदका प्रसग देकर सभी पदार्थीको एक हो जानेकी आपत्ति प्रकट करता है और इस तरह स्याद्वादअनेकान्तवादका खण्डन करता है वह पूर्वपक्ष (अनेकान्तवाद--स्याद्वाद) को न समझकर दूपक (दूषण देने वाला) होकर भी विदूषक-दूषक नही है, जोकर है-उपहासका पात्र है। सुगत भी कभी मृग था और मृग भी सुगत हुआ माना जाता है तथापि सुगतको वन्दनीय और मृगको भक्षणीय कहा गया है और इस तरह पर्यायभेदसे सुगत और मृगमें वन्दनीय एव भक्षणीयकी भेदव्यवस्था तथा चित्तसन्तानकी अपेक्षासे उनमें अभेद व्यवस्था की जाती है, उसी प्रकार प्रतीति बलसे-पर्याय और द्रव्यको प्रतीतिसे सभी पदार्थोंमें भेद और अभेद दोनोंकी व्यवस्था है । अत. 'दही खा' कहे जानेपर कोई ऊँटको खानेके लिए क्यो दौडेगा, क्योकि सत्द्रव्यकी अपेक्षासे उनमें अभेद होनेपर भी पर्यायकी दृष्टिसे उनमें उसी प्रकार भेद है, जिस प्रकार सुगत और मृगमें है। अतएव 'दही खा' कहनेपर कोई दही खानेके लिए ही दौडेगा, क्योकि वह भक्षणीय है और ऊँट खानेके लिए वह नही दौडेगा, क्योकि वह अभक्षणीय है। इस तरह विश्वकी सभी वस्तुओको उभयात्मक-अनेकान्तात्मक माननेमें कौन-सी आपत्ति या विपत्ति है अर्थात कोई आपत्ति या विपत्ति नही है ।
अकलकके इन सन्तुलित एव सबल जवाबोंसे बिलकुल असन्दिग्ध है कि समन्तभद्रकी आप्तमीमासागत स्याद्वाद और अनेकान्तवादकी मान्यताओंका ही धर्मकीर्तिने खण्डन किया है और जिसका मुंहतोड, किन्तु शालीन एव करारा उत्तर अकलकने दिया है। यदि समन्तभद्र धर्मकीतिके परवर्ती होते तो वे स्वय उनका जवाब देते और उस स्थितिमें अकलकको धर्मकीतिके उपर्युक्त आक्षेपोका उत्तर देनेका मौका ही नहीं आता।
चालीस-पचास वर्ष पूर्व स्व०प० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य, स्व० ५० सुखलाल संघवी आदि कुछ विद्वानोंने समन्तभद्रको धर्मकीर्तिका परवर्ती होनेकी सम्भावना की थी। किन्तु अब ऐसे प्रचुर प्रमाण सामने आ गये हैं, जिनके आधारपर धर्मकोति समन्तभद्रसे काफी उत्तरवर्ती (३००-४०० वर्ष पश्चात्) सिद्ध हो चुके हैं। इस विपयमे डाक्टर ए०एन० उपाध्ये एव डा० हीरालाल जैनका शाकटायन व्याकरण पर लिखा
(ख) दध्युष्ट्रादेरभेदत्वप्रसगावेकचोदनम् ।
पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषकोऽपि विदूषक ॥ सुगतोऽपि मृगो जातो मृगोऽपि सुगत स्मृत । तथापि सुगतो वद्यो मृग खाद्यो यथेष्यते ॥ तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थिते ।
चोदितो दधि खादेति विमुष्टमभिघावति ?-न्या० वि० ३-३७३, ३७४ । १ न्यायकु०, द्वि० भा०, प्रस्ता०, पृ० २७, अक्ल० ग्रन्थत्रथ०, प्राक्कथ०, पृ० ९, न्यायकु०, द्वि० भा०,
पृ० १८-२० ।
-२६६
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवान सम्पादकीय द्रष्टव्य है । 'धर्मकीति और समन्तभद्र' शीर्षक हमारा शोधपूर्ण लेख भी अवलोकनीय है, जिसमें उक्त विद्वानोंके हेतुओंपर विमर्श करनेके माय ही पर्याप्त नया अनुसन्धान प्रस्तुत किया गया है। ऐसे विपयोपर हमें उन्मुक्त दिमागमे विचार करना चाहिए और सत्यके ग्रहणमें हिचकिचाना नही चाहिए।
प्रश्न २ और उसका समाधान
सम्पादकने दूसरा प्रश्न उठाया है कि 'सिद्धसेनके न्यायावतार और समन्तभद्र के श्रावकाचारमें किसी पद (पद्य) को समान रूपसे पाये जानेपर समन्तभद्रको ही पूर्ववर्ती क्यो माना जाय? यह भी सम्भव है कि समन्तभद्रने स्वय उसे सिद्धसेनसे लिया हो और वह उससे परवर्ती हो?"
सम्पादककी प्रस्तुत सम्भावना इतनी कच्ची, शिथिल और निर्जीव है कि उसे पुष्ट करने वाला एक भी प्रमाण नही दिया जा सकता और न स्वय सम्पादकने ही उसे दिया है। अनुसन्धानके क्षेत्रमें यह आवश्यक है कि सम्भावनाके पोपक प्रमाण दिये जायें, तभी उसका मूल्याकन होता है और तभी वह विद्वानो द्वारा आदत होती है।
न्यायावतारमे समन्तभद्रके रत्नकरण्डका ही पद्य
यहाँ उसीपर विमर्श किया जाता है। ऊपर जिन समन्तभद्रको बहुत चर्चा की गयी है, उन्हीका रचित एक श्रावकाचार है, जो सबसे प्राचीन, महत्त्वपूर्ण और व्यवस्थित श्रावकाचारका प्रतिपादक ग्रन्थ है । इसके आरम्भमें धर्मकी व्याख्याका उद्देश्य बतलाते हुए उसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र इन तीन रूप प्रकट किया गया है। सम्यग्दर्शनका स्वरूप उन्होने परमार्थदेव, शास्त्र और गुरुका दृढ एव अमूढ श्रद्धान कहा है। अतएव उन्हें इन तीनोका लक्षण बतलाना भी आवश्यक था। देवका लक्षण प्रतिपादन करनेके उपरान्त समन्तभद्र ने ९ पद्यके द्वारा शास्त्रका लक्षण निरूपित किया है। यह पद्य सिद्धसेनके न्यायावतारमें भी उसके ९वें पद्य के ही रूपमे पाया जाता है।
उसपर सयुत्तिक विमर्श
अब विचारणीय है कि यह पद्य रत्नकरण्ड श्रावकाचारका मूल पद्य है या न्यायावतारका मूल पद्य है। श्रावकाचारमें यह जहाँ स्थित है वहाँ उसका होना आवश्यक और अनिवार्य है। किन्तु न्यायावतारमें जहाँ वह है वहां उसका होना आवश्यक एव अनिवार्य नहीं है, क्योकि वह पूर्वोक्त शब्द-लक्षण (का०८) के समर्थन में अभिहित है। उसे वहांसे हटा देनेपर ग्रन्थका अग-भग नही होता। किन्तु समन्तभद्रके श्रावकाचारसे उसे अलग कर देनेपर उसका अग भग हो जाता है। इससे स्पष्ट है कि उक्त ९वा पद्य, जिसमें शास्त्रका लक्षण दिया गया है, श्रावकाचारका मूल है और न्यायावतारमें अपने विषय (८वें पद्यमें कथित
१ जैनदर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, १२६ से १३३ । २. आप्तोपज्ञपनुल्लघमदृप्टेप्टविरोधकम् ।
तत्त्वोपदेशकृत्सा शास्त्र कापचघट्टनम् ॥ -रत्न. लो०९। दृष्टेष्टाव्याहताद्वावयात् परमार्थाभिधायिन ।। तत्वग्राहितयोत्पन्न माने जान्द प्रकीतितम् ।।
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्दलक्षण) के समर्थनके लिए उसे वहाँसे ग्रन्धकारने स्वय लिया है या किसी उत्तरवर्तीने लिया है और जो बादको उक्त ग्रन्थका भी अग बन गया। ध्यातव्य है कि श्रावकाचारमें आप्तके लक्षणके बाद आवश्यक तौरपर प्रतिपादनीय शाब्दलक्षणका प्रतिपादक अन्य कोई पद्य नही है, जबकि न्यायावतारमें शाब्दलक्षणका प्रतिपादक ८वा पद्य है। इस कारण भी उक्त ९वा पद्य (आप्तोपज्ञमनु०) श्रावकाचारका मूल पद्य है, जिसका वहाँ मूल रूपसे होना नितान्त आवश्यक और अनिवार्य है तथा न्यायावतारमें उसका ८वें पद्य के समक्ष, मूल रूपमें होना अनावश्यक, व्यर्थ और पुनरुक्त है । अत यही मानने योग्य एवं न्यायसगत है कि न्यायावतारमें वह समन्तभद्रके श्रावकाचारसे लिया गया है न कि श्रावकाचारमे न्यायावतारसे उसे लिया है। अत न्यायावतारसे श्रावकाचारमें उसे (९वें पद्यको) लेनेकी सम्भावना बिल्कुल निर्मूल एव बेदम हैं।
. इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यमें देखनेपर न्यायावतारमें धर्मकीति' (ई० ६३५), कुमारिल (ई० ६५०)२ और पात्रस्वामी (ई० ६ठी, ७वी शती)3 इन ग्रथ कारोका अनमरण पाया जाता है और ये तीनो ग्रन्थकार समन्तभद्रके उत्तरवर्ती है। तब समन्तभद्र को न्यायावतारकार सिद्धसेनका परवर्ती बतलाना केवल पक्षाग्रह है । उसमें युक्ति या प्रमाण (आधार) कुछ भी नही है । प्रश्न ३ और उसका समाधान
समीक्षकका तीसरा प्रश्न है कि 'न्यायशास्त्रके समग्र विकासको प्रक्रियामें ऐसा नही हुआ है कि पहले जैन न्याय विकसित हुआ और फिर वौद्ध एव ब्राह्मणोने उसका अनुकरण किया हो।' हमें लगता है कि समीक्षकने हमारे लेखको आपातत देखा है-उसे ध्यानसे पढा ही नही है । उसे यदि ध्यानसे पढ़ा होता, तो वे ऐसा स्खलित और भडकाने वाला प्रश्न न उठाते । हम पुन उनसे उसे पढनेका अनुरोध करेंगे। हमने 'जैन न्यायका विकास' लेखमें यह लिखा है कि जैन न्यायका उद्गम उक्त (बौद्ध और ब्राह्मण) न्यायोंसे नही हुआ, अपितु दृष्टिवाद श्रुतसे हुआ है । यह सम्भव है कि उक्त न्यायोके साथ जैन न्याय भी फला-फूला हो । अर्थात् जैन न्यायके विकासमें ब्राह्मण न्याय और बौद्ध न्यायका विकास प्रेरक हुआ हो और उनकी विविध क्रमिक शास्त्र-रचना जैन न्यायकी क्रमिक शास्त्र-रचनामें सहायक हुई ही । समकालीनोंमें ऐसा आदान-प्रदान होना या प्रेरणा लेना स्वाभाविक है।' यहां हमने कहाँ लिखा कि पहले जैन न्याय विकसित हुआ और फिर बौद्ध एव ब्राह्मणोने उसका अनुकरण किया । हमें खेद और आश्चर्य है कि समीक्षक एक शोध-सस्थानके १ (क) न प्रत्यक्षपरोक्षाम्या मेयस्यान्यस्य सभव ।
तस्मात्प्रमेय द्वित्वेन प्रमाण द्वित्वमिष्यते ।।-प्र० वा० ३-६३ ।
प्रत्यक्ष च परोक्ष च द्विघामयविनिश्चयात् । न्यायाव०, श्लो०१ । (ख) कल्पनापोढमभ्रान्त प्रत्यक्षम् । न्या० बि०, पृ० ११ ।
अनुमान तदभ्रान्त प्रमाणत्वात् समक्षवत् । -न्यायाव० श्लो० ५ । २ कुमारिलके प्रसिद्ध प्रमाणलक्षण (तत्रापूर्वार्थविज्ञान निश्चित वाधवर्जितम् । अदुष्टाकारणारब्ध प्रमाण
लोकसम्मतम् ॥) का 'बाधवजितम्' विशेपण न्यायावतारके प्रमाणलक्षणमें भी 'वाघवर्जितम्' के रूपमें
अनुसृत है। ३ पात्रस्वामिका 'अन्यथानुपपन्नत्वं' आदि प्रसिद्धहेतुलक्षण न्यायावतारमें 'अन्यथानुपपन्नत्व हेतोर्लक्षणमीरि
तम्' इस हेतुलक्षणप्रतिपादक कारिकाके द्वारा अपनाया गया है और 'ईरितम्' पदका प्रयोग कर उसकी
प्रसिद्धि भी प्रतिपादित की गयी है। ४ जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, प०७।
-२६८
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
निदेशक होकर भी तथ्यहीन और भडकाने वाली शब्दावलीका आरोप हमपर लगा रहे हैं । जहाँ तक जैन न्याय के विकासका प्रश्न है उसमें हमने स्पष्टतया वौद्ध और ब्राह्मण न्यायके विकामको प्रेरक बतलाया है और उनकी शास्त्र - रचनाको जैन न्यायकी शास्त्र रचना में सहायक स्वीकार किया है। हीं, जैन न्यायका उद्गम उनसे नही हुआ, अपितु दृष्टिवाद नामक बारहवें अगश्रुतसे हुआ । अपने इस कथनको सिद्धसेन (द्वात्रिंशिकाकार)', अकलङ्करै, विद्यानन्द और यशोविजय के प्रतिपादनोंसे पुष्ट एव प्रमाणित किया है । हम पाठको, खासकर समीक्षकसे अनुरोध करेंगे कि वे उस निबन्धको गौरसे पढनेकी कृपा करें और सही स्थिति एव तथ्यको अवगत करें ।
प्रश्न ४ और उसका समाधान
सम्पादकने चौथे और अन्तिम मुद्दे में मेरे 'तत्त्वार्थसूत्रको परम्परा' निवन्धको लेकर लिखा है कि 'अनेक ऐसे प्रश्न हैं, जिनमें तत्त्वार्थसूत्रकार और दिगम्बर आचार्योंमें भी मतभेद है । अत कुछ वातो में तत्त्वार्थ सूत्रकार और अन्य श्वेताम्बर आचार्योंमें मतभेद होना इस बातका प्रमाण नही है कि तत्त्वार्थसूत्रकार श्वेताम्बर परम्पराके नही हो सकते ।' अपने इस कथन के समर्थनमे कुन्दकुन्द और तत्त्वार्थसूत्रकारके नयों और गृहस्थके १२ व्रतो सम्बन्धी मतभेदको दिया है । इसी मुद्देमें हमारे लेखमें आयी कुछ बातोका और उल्लेख किया है ।
तत्त्वार्थसूत्रकी परम्परापर गहरा विमर्श
इस मुद्दे पर भी हम विचार करते है । प्रतीत होता है कि सम्पादक महोदय मतभेद और परम्पराभेद दोनोमें कोई अन्तर नही मान रहें है, जब कि उनमें बहुत अन्तर है । वे यह तो जानते हैं कि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहुके बाद जैन संघ दो परम्पराओमें विभक्त हो गया – एक दिगम्बर और दूसरी श्वेताम्बर । ये दोनो भी उप-परम्पराओमे विभाजित हैं । किन्तु मूलत दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो ही परम्पराएँ हैं । जो आचार्य दिगम्वरत्वका और जो श्वेतान्वरका समर्थन करते हैं वे क्रमश दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्य कहे जाते हैं तथा उनके द्वारा निर्मित साहित्य दिगम्बर और श्वेताम्बर साहित्य माना जाता है ।
अब देखना है कि तत्त्वार्थ सूत्र में दिगम्बरत्वका समर्थन है या श्वेताम्बरत्त्वका । हमने उक्त निबन्ध में इसी दिशामें विचार किया है । इस निबन्धको भूमिका बाघते हुए उसमें प्राग्वृत्तके रूपमे हमने लिखा है कि जहाँ तक हमारा ख्याल सबसे पहले पण्डित सुखलालजी 'प्रज्ञाचक्षु' ने तत्वार्थसूत्र और उसकी व्याख्याओ तथा कर्तृत्व विषयमे दो लेख लिखे थे ओर उनके द्वारा तत्त्वार्थसूत्र और उसके कर्ताको तटस्थ परम्परा ( न दिगम्बर न श्वेताम्बर) का सिद्ध किया था । इसके कोई चार वर्ष बाद सन् १९३४ में उपाध्याय श्री आत्मारामजीने कतिपय श्वेताम्बर आगमोंके सूत्रोके साथ तत्त्वार्थसूत्र के सूत्रोका तथोक्त समन्वय करके 'तत्त्वार्थसूत्र जैनागम-समन्वय' नामसे एक ग्रन्थ लिखा और उसमें तत्वार्थ सूत्रको श्वेताम्बर परम्पराका ग्रन्थ प्रसिद्ध किया । जब यह ग्रन्थ पण्डित सुखलाल जीको प्राप्त हुआ, तो अपने पूर्व ( तटस्थ परम्परा) के विचार
१ द्वात्रिंशिका, १ - ३०, ४-१५ ।
२ तत्त्वार्थवा० ८१, पृ० २९५ ।
३
अष्टस० पृ० २३८ ।
४
अस्टसह ० वि० टी०, पृ० १ ।
५ जैन दर्शन और प्रमाणशा० पू० ७६ ।
- २६९ -
-
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
को छोडकर उन्होने उसे मात्र श्वेताम्बर परम्पराका प्रकट किया तथा यह कहते हए कि 'उमारवाति श्वेताम्बर परम्पराके थे और उनका सभाष्य तत्त्वार्थ सचेल पक्षके श्रुतके आधार पर ही बना है।'-'वाचक उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परामें हुए, दिगम्बरमें नही ।' नि सकोच तत्त्वार्थसूत्र और उसके कर्ताको श्वेताम्बर होनेका अपना निर्णय भी दे दिया है।"
इसके बाद प० परमानन्दजी शास्त्री, प० फूलचन्द्र जी शास्त्री प० नाथूरामजी प्रेमी' जैसे कुछ दिगम्बर विद्वानोने भी तत्त्वार्थसूत्रकी जाच की। इनमें प्रथमके दो विद्वानोंने उसे दिगम्बर और प्रेमीजीने यापनीय ग्रथ प्रकट किया। हमने भी उसपर विचार करना उचित एव आवश्यक समझा और उसीके फलस्वरूप तत्त्वार्थसूत्रकी मूल परम्परा खोजने के लिए उक्त निवन्ध लिखा। अनुसन्धान करने और साधक प्रमाणोके मिलनेपर हमने उसकी मूल परम्परा दिगम्बर बतलायी। समीक्षकने उन्हें निरस्त न कर मात्र व्याख्यान दिया है। किन्तु व्याख्यान समीक्षा नही कहा जा सकता, अपितु वह अपने पक्षका समर्थक कहा जायेगा।
परम्पराभेदका सूचक अन्तर
तत्त्वार्थसूत्र और कुन्दकुन्दके ग्रन्थोमें प्रतिपादित नयो और गृहस्थके १२ व्रतो वैचारिक या विवेचन पद्धतिका अन्तर है। ऐसा मतभेद परम्पराकी भिन्नताको प्रकट नही करता। समन्तभद्र, जिनसेन और सोमदेवके अष्टमूलगुण भिन्न होनेपर भी वे एक ही (दिगम्बर) परम्पराके हैं। पात्रभेद एव कालभेदसे उनमें ऐसा विचार-भेद होना सम्भव है। विद्यानन्दने अपने ग्रन्थों में प्रत्यभिज्ञानके दो भेद माने हैं और अकलक, माणिक्यनन्दि आदिने उसके अनेक (दोसे ज्यादा) भेद बतलाये हैं। और ये सभी दिगम्बर आचार्य हैं। पर तत्त्वार्थसूत्र और सचेलध्रुतमें ऐसा अन्तर नही है। उनमें मौलिक अन्तर है, जो परम्परा भेदका सूचक है। ऐसे मौलिक अन्तरको ही हमने उक्त निबन्धमें दिखाया है। सक्षेपमें उसे यहा दिया जाता है
तत्त्वार्थसूत्र • १ अदर्शनपरीषह, ९-९-१४
दसणपरीसह, सम्मत्तपरीसह (उत्तरा० सू० पृ०८) २ एक साथ १९ परीषह, ९-१७
एक साथ बीस परीषह, उत्तरा० त०, जैना० पृ २०८ ३ तीर्थंकर प्रकृतिके १६ बधकारण, ६-२४ तीर्थकर प्रकृतिके २० बधकारण (ज्ञात सू०८-६४) ४ विविक्तशय्यासन तप, ९-१९
सलीनता तप, (व्याख्या प्र० स० २५१७-८) ५ नाग्न्यपरीषह, ९-९
अचेलपरीषह (उत्तरा० सू०, पृ० ८२ ६ लौकान्तिक देवोंके ८ भेद ४-४२
लौकान्तिक देवोके ९ भेद (ज्ञात०, भगवती०)
सचेल अत
यह ऐसा मौलिक अन्तर है, जिसे श्वे. आचार्योंका मतभेद नहीं कहा जा सकता। वह तो स्पष्टतया परम्पराभेदका प्रकाशक है। नियुक्तिकार भद्रबाहू या अन्य श्वेता० आचार्योंने सचेल श्रु तका पूरा अनुगमन किया है, पर तत्त्वार्थसूत्रकारने उसका अनुगमन नही किया। अन्यथा सचेलश्रुत विरुद्ध उक्त प्रकारका कथन तत्त्वार्थसूत्र में न मिलता। १ अनेकन्त, वर्ष, ४ कि० १ । २ वही, वर्ष ४ कि० ११-१२ तथा वर्ष ५ कि० १-२ । ३ जैन साहित्यका इतिहास, पृ०५३३, द्वि स., १९५६ ।
-२७० -
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वार्थ सूत्रमे नाग्न्यपरीषह
तत्त्वार्थ सूत्र में 'अचेलपरीषह' के स्थानपर 'नाग्न्यपरीषह' रखनेपर विचार करते हुए हमने उक्त निबध में लिखा था' कि 'अचेल' शब्द जब भ्रष्ट हो गया और उसके अर्थ में भ्रान्ति होने लगी तो आ० उमास्वातिने उसके स्थानमें नग्नता — मर्वथा वस्त्ररहितता अर्थको स्पष्टत ग्रहण करनेके लिए 'नाग्न्य' शव्दका प्रयोग किया।' इसका तर्कसगत समाधान न करके सम्पादकजी लिखते हैं कि 'डा० साहबने श्वे० आगमोको देखा ही नही है । श्वे० आगमो में नग्नके प्राकृत रूप नग्ग या गगिणके अनेक प्रयोग देखे जाते हैं ।' पर प्रश्न यह नही है कि आगमोमें नग्नके प्राकृत रूप नग्ग या णगिणके प्रयोग मिलते हैं । प्रश्न यह है कि श्वे० आगमोमें क्या 'अचेल परीषह' की स्थानापन्न 'नाग्न्य परीषह' उपलब्ध है ? इस प्रश्नका उत्तर न देकर केवल उनमें 'नाग्न्य' शब्दके प्राकृत रूपो ( नग्ग, णगिण) के प्रयोगोकी बात करना और हमें श्वे० आगमोसे अनभिज्ञ बताना न समाधान है और न शालीनता है । वस्तुत उन्हे यह बताना चाहिए कि उनमें नाग्न्य परीषह है । किन्तु यह तथ्य है कि उनमें 'नाग्न्य परीषह' नही है । तत्त्वार्थ सूत्रकारने ही उसे 'अचलपरीषह' के स्थान में सर्वप्रथम अपने तत्त्वार्थ सूत्रमें दिया है ।
तत्त्वार्थ सूत्रमे विविक्तशय्यासन तप
उक्त निबन्धमें परम्पराभेदकी सूचक तत्त्वार्थ सूत्रगत एक बात कही है कि तत्त्वार्थ सूत्र मे श्वे० श्रुतसम्मत सलीनता तपका ग्रहण नही किया, इसके विपरीत उसमें विविक्तशय्यासन तपका ग्रहण है, जो श्वे० श्रुतमें नही है । हरिभद्रसूरि के अनुसार सलीनता तपके चार भेदोमे परिगणित विविक्तचर्या द्वारा भी तत्त्वार्थ सूत्रकारके विविक्तशय्याशनका ग्रहण नही हो सकता, क्योकि विविक्तचर्या दूसरी चीज़ है और विविक्तशय्यासन अलग चीज है ।
सम्पादकजीने हमारे इस कथनका भी अन्धाधुन्ध विविक्तचर्यामें और विविक्तशय्यासनमें भी अन्तर मान करते हैं, इसका कोई स्पष्टीकरण नही दे पाये हैं, वस्तुत
समीक्षण करते हुए लिखा है कि 'डा० साहबने लिया है, किन्तु किस आधारपर वे इनमें अन्तर दोनोमें कोई अर्थभेद है ही नही ।'
उनके इस समीक्षणपर बहुत आश्चर्य है कि जो अपनेको श्वे० आगमोका पारगत मानता है वह विविक्तचर्या और विविक्तशय्यासन के अर्थ में कोई भेद नही बतलाता है तथा दोनोको एक ही कहता है । जैन धर्मका साधारण ज्ञाता भी यह जानता है कि चर्या गमन ( चलने) को कहा गया है और शय्यासन सोने एव बैठनेको कहते हैं । दोनोमें दो भिन्न दिशाओकी तरह भेद है । साधु जब ईर्यासमितिमे चलता है-चर्या करता है तब वह सोता बैठता नही है और जब सोता बैठता है तब वह चलता नही है । वस्तुत उनमे पूर्व और पश्चिम जैसा अन्तर है । पर सम्पादकजी अपने पक्ष के समर्थन की धुनमें उस अन्तरको नही देख पा रहे हैं । यहाँ विशेष ध्यातव्य है कि तत्त्वार्थसूत्रकारने २२ परीषहो में चर्या, निषद्या और शय्या इन तीनोको परीषहके रूपमें गिनाया है । किन्तु तपोका विवेचन करते समय उन्होने चर्याको तप नही कहा, केवल शय्या और आसन दोनोको एक बाह्य तप बतलाया है, जो उनकी सूक्ष्म सिद्धान्तज्ञताको प्रकट करता है । वास्तवमें
१ जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, पृ० ८३ ।
२. वही, पृ० ८१ ।
३ व्याख्याप्र० श० २५, उ० ७, सू० ८ की हरिभद्र सूरिकृत वृत्ति । तथा वही पृ० ८१ । ४, त० सू०, ९-१९ ।
- २७१ -
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
चर्या विविक्तमें नही हो सकती। मार्गमें जब साधु गमन करता है तो उसमें उसे मार्गजन्य कष्ट तो हो सकता है और उसे सहन करनेसे उसे परोपहजय कहा जा सकता है। किन्तु उसमें विविक्तपना नहीं हो सकता और इसलिए उन्होने विविक्तचर्या तप नही बतलाया। शय्या और आसन दोनों एकान्तमें हो सकते है । अतएव उन्हें विवियतशय्यासन नाममे एक तपके रुपमें बाह्य तपोंमें भी परिगणित किया गया है । सम्पादकजी मक्ष्म विचार करेंगे, तो उनमें स्पष्टतया अर्थभेद उन्हें ज्ञात हो जायेगा। प० सुखलालजीने चर्या और शय्यामन में अर्थ भेद स्वीकार किया है। उन्होने स्पष्ट लिखा है कि 'स्वीकार किये धर्मजीवनको पुष्ट रसनेके लिए मसग होकर भिन्न-भिन्न स्थानोमे विहार और किसी भी एक स्थानमें नियत वास स्वीकार न करना चर्या परीपह है।' 'आमन लगाकर बैठे हए ऊपर यदि भयका प्रमग आ पडे तो उसे अकम्पित भावसे जीतना किंवा आसनमे च्युत न होना निषद्या परीपह है जगहमें समभावपूर्वक शयन करना शय्यापरीपह है ।' आशा है मम्पादकजी चर्या, शय्या और आसनके पण्डितजी द्वारा प्रदरित अर्यभेदको नही नकारेंगे और उनके भेदको स्वीकारेंगे ।
तत्त्वार्थसूत्रमे तीर्थकर प्रकृतिके १६ वन्धकारण
तत्त्वार्थसूत्रमे परम्पराभेदकी एक और महत्त्वपूर्ण वातको उसी निवन्यमें प्रदर्शित किया है। हमने लिखा है कि श्वेताम्बर श्रुतमे तीर्थकर प्रकृतिके २० वन्यकारण बतलाये है और इसमें ज्ञातृधर्मकथागसूत्र (८-६४) तया नियुक्तिकार भद्रबाहुकी मावश्यफनियुक्तिको चार गाथाएं प्रमाणरूपमें दी है। किन्तु तत्त्वार्यसूत्रमे तीर्थकर प्रकृतिके १६ ही कारण निदिष्ट है, जो दिगम्बर परम्पराके प्रसिद्ध आगम 'पट्खण्डागम (३-१४) के अनुसार हैं और उनका वही क्रम तथा वे ही नाम हैं।'
इसकी भी उन्होने समीक्षा की है। लिखा है कि 'प्रथम तो यह कि तत्त्वार्थ एक सूअग्रन्थ है, उसकी शैली सक्षिप्त है । दूसरे,तत्त्वार्थमूषकारने १६ की संख्याका निर्देश नही किया है, यह लिखने के बाद तत्त्वार्थसूत्रमें सचेल श्रुतपना सिद्ध करने के लिए पुन लिखा है कि 'आवश्यकनियुक्ति और ज्ञातधर्मकथामें जिन बीस बोलोका उल्लेख है उनमें जो ४ वातें अधिक है वे हैं-धर्मकथा, सिद्धभक्ति, स्थविरभक्ति (वात्सल्य), तपस्वी-वात्सल्य और अपूर्वज्ञानग्रहण। इनमेसे कोई भी बात ऐसी नही है, जो दिगम्बर परम्पराको अस्वीकृत रही हो, इसलिए छोड दिया हो, यह तो मान उसकी सक्षिप्त शैलीका परिणाम है ।'
इस सम्बन्धमें हम समीक्षकसे पूछते हैं कि ज्ञातधर्मकथासत्र भी सूत्रगन्थ है, उसमें बीस कारण क्यो गिनाये, तत्त्वार्थमूत्रकी तरह उसमें १६ ही क्यो नही गिनाये, क्योकि सूत्रग्रन्थ है और सूत्रग्रन्थ होनस उसकी भी शैली सक्षिप्त है । तत्त्वार्थसूत्रमें १६ को सख्याका निर्देश न होनेकी तरह ज्ञातृधर्मकथासूत्रम भी २० की सख्याका निर्देश न होनेसे क्या उसमें २०के सिवाय और भी कारणोका समावेश है ? इसका उत्तर समीक्षकके पास नही है। वस्तुत तत्त्वार्थसममें सचेलश्रतके आधारपर तीर्थकर प्रकृतिके बन्धकारण नहीं बतलाये, अन्यथा आवश्यकनियुक्तिकी तरह उसमें ज्ञातधर्मकथासूत्र के अनुसार वे ही नाम और वे ही २० सख्यक कारण प्रतिपादित होते । किन्तु उसमें दिगम्बर परम्पराके षट्खण्डागम' के अनुसार वे ही नाम और उतनी ही १६ की सख्याको लिए हुए बन्धकारण निरूपित है। इससे स्पष्ट है कि तत्त्वार्थसूत्र दिगम्बर
१ त० स०, विवेचन सहित, ९-९, पृ० ३४८ । २ जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परि०, पृ० ७९-८० । ३. षट्ख०, ३-४०, ४१ पुस्तक ८, पृ० ७८-७९ ।
-२७२
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतके आधारपर रचा गया है और इसलिए वह दिगम्बर परम्पराका ग्रन्थ है और उसके कर्ता दिगम्बराचार्य हैं। उत्सूत्र और उत्सूत्र लेखक श्वेताम्बर परम्पराका अनुसारी नही हो सकता, यह समीक्षकके लिए अवश्य चिन्त्य है।
अब रही तत्त्वार्थसूत्रमें १६ की सख्याका निर्देश न होनेकी बात । सो प्रथम तो वह कोई महत्त्व नही रखती, क्योकि तत्त्वार्थसूत्रमें जिसके भी भेद प्रतिपादित है, उसकी सख्याका कही भी निर्देश नही है । चाहे तपोके भेद हो, चाहे परीषहो आदिके भेद हो। सत्रकारकी यह पद्धति है, जिसे सर्वत्र अपनाया गया है । अत तत्त्वार्थसूत्रकारको तीर्थंकर-प्रकृतिके बन्धकारणोको गिनाने के बाद सख्यावाची १६ (सोलह)के पदका निर्देश अनावश्यक है। तत्सख्यक कारणोको गिना देनेसे ही वह सख्या सुतरा फलित हो जाती है । १६ की सख्या न देनेका यह अर्थ निकालना सर्वथा गलत है कि उसके न देनेसे तत्त्वार्थसूत्रकारको २० कारण अभिप्रेत हैं और उन्होने सिद्धभक्ति आदि उन चार बन्धकारणोका सग्रह किया है, जिन्हें आवश्यकनियुक्ति और ज्ञातृधर्मकथामें २० कारणो (बोलो)के अन्तर्गत बतलाया गया है। सम्पादकजीका उससे ऐसा अर्थ निकालना नितान्त भ्रम है । उन्हें तत्त्वार्थसूत्रकी शैलीका सूक्ष्म अध्ययन करना चाहिए । दूसरी बात यह है कि तीर्थकर प्रकृतिके १६ बन्धकारणोका प्ररूपक सूत्र (त० सू०६-२४) जिस दिगम्बर श्रुत षट्खण्डागमके आधारसे रचा गया है उसमें स्पष्टतया 'दसणविसूज्झदाए-इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहिं जीवा तित्थयरणामगोद कम्म वधति ।'-(३-४१, पुस्तक ८) इस सूत्रमें तथा उसके पूर्ववर्ती सूत्र (३-४०)में भी १६ की संख्याका निर्देश है। अत षट्खण्डागमके इन दो सूत्रोके आधारसे रचे तत्त्वार्थसूत्रके उल्लिखित (६-२४) सूत्रमें १६ की सख्याका निर्देश अनावश्यक है। उसकी अनुवृत्ति वहांसे सुतरा हो जाती है। '
सिद्धभक्ति आदि अधिक ४ बातें दिगम्बर परम्परामें स्वीकृत हैं या नहीं, यह अलग प्रश्न है। किंतु यह सत्य है कि वे तीर्थकर प्रकृतिकी अलग बन्धकारण नही मानी गयी। सिद्धभक्ति कर्मव्वसका कारण है तव वह कर्मबन्धका कारण कैसे हो सकती है। इसीसे उसे तीर्थकर प्रकृतिके बन्धकारणोमें सम्मिलित नही किया । अन्य तीन बातोमें स्थविरभक्ति और तपस्विवात्सल्यका आचार्यभक्ति एव साधु-समाधिमें तथा अपूर्वज्ञानग्रहणका अभीक्ष्ण-ज्ञानोपयोगमें समावेश कर लेनेसे उन्हें पृथक् ग्रहण करनेकी आवश्यकता नही है। समीक्षकको गम्भीरता और सूक्ष्म अनुसन्धानके साथ ही समीक्षा करनी चाहिए, ताकि नीर-क्षीर न्यायका अनुसरण किया जा सके और एक पक्षमें प्रवाहित होनेसे बचा जा सके ।
तत्त्वार्थसूत्रमे स्त्रीपरीषह और दश-मशकपरीषह
हमने अपने उक्त निबन्धमें दिगम्बरत्वकी समर्थक एक बात यह भी कही है कि तत्त्वार्थसूत्रमें स्त्रीपरीषह और दशमशक इन दो परीषहोका प्रतिपादन है, जो अचेलश्रतके अनुकूल हैं। उसकी सचेल श्रतके आधारसे रचना माननेपर इन दो परीषहोकी तरह पुरुषपरीषहका भी उसमें प्रतिपादन होता, क्योकि सचेल १ दसणविसुज्झदाए विणयसपण्णदाए सीलव्वदेसु णिरदिचारदाए आवासएसु अपरिहीणदाए खणलवबुज्झण
दाए लद्धिसवेगसपण्णदाए जधाथामे तधा तवे साहूण पासुअपरिचागदाए साहूण समाहिसधारणाए साहूण वेज्जावच्च जोगजुत्तदाए अरहतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिवखण अभिक्खण णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोद कम्म
बधति ।।४९॥ २ तत्य इमेहि सोलसेहि कारणेहि जोवो तित्यकरणामगोदकम्म बधति ॥४०॥
इन दोनो सूत्रोमें १६ की सख्याका स्पष्ट निर्देश है ।
-२७३
न-३५
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुतमें स्त्री और पुरुष दोनोको मोक्ष स्वीकार किया गया है तथा दोनों एक-दूसरेके मोक्षमें उपद्रवकारी है। कोई कारण नहीं कि स्त्रीपरीपह तो अभिहित हो और पुरुपपरीपह अभिहित न हो, क्योकि सचेल श्रुतके अनुसार उन दोनोमें मुक्तिके प्रति कोई वैषम्य नहीं । किन्तु दिगम्बर श्रुतके अनुसार पुरुपमें वजवृपभनाराचसहननत्रय है, जो मुक्तिमें सहकारी कारण है। परन्तु स्त्रीके उनका अभाव होनेसे उसे मुक्ति सभव नही है और इसीसे तत्त्वार्थसूत्र में मात्र स्त्रीपरीषहका प्रतिपादन है, पुरुपपरीपहका नही । इसी प्रकार दशमशक परीषह सचेलसाधुको नही हो सकती-नग्न-दिगम्बर-पूर्णतया अचेल साधुको ही सभव है।
समीक्षकने इन दोनो वातोकी भी समीक्षा करते हए हमसे प्रश्न किया है कि 'जो ग्रन्थ इन दो परीषहोंका उल्लेख करता हो, वह दिगम्बर परम्पराका होगा, यह कहना भी उचित नहीं है। फिर तो उन्हें श्वे० आचार्यों एव ग्रन्थोको दिगम्बर परम्पराका मान लेना होगा, क्योंकि उक्त दोनो परीपहोंका उल्लेख तो सभी श्वे० आचार्योंने एव श्वे० आगमोंमें किया गया और किसी श्वे० ग्रन्थमें पुरुपपरीषहका उल्लेख नही है।'
समीक्षकका यह आपादन उस समय विल्कुल निरर्थक सिद्ध होता है जब जैन सघ एक अविभक्त सघ था और तीर्थकर महावीरकी तरह पूर्णतया अचेल (सर्वथा वस्त्र रहित) रहता था । उसमें न एक, दो आदि वस्त्रोका ग्रहण था और न स्त्रीमोक्षका समर्थन था । गिरि-कन्दराओ, वृक्षकोटरो, गुफाओ, पर्वतों और वनोमें ही उसका वास था। सभी साधु अचेलपरीपहको सहते थे । आ० समन्तभद्र (२ रो-३ री शती) के अनुसार उनके कालमें भी ऋषिगण पर्वतो और उनकी गुफाओमें रहते थे । स्वयम्भूस्तोत्रमें २२वें तीर्थकर अरिष्टनेमिके तपोगिरि एव निर्वाणगिरि ऊर्जयन्त पर्वतको 'तीर्थ-सज्ञाको वहन करनेवाला बतलाते हुए उन्होंने उसे ऋषिगणोंसे परिव्याप्त कहा है । और उनके काल में भी वह वैसा था।
भद्रबाहुके बाद जब सघ विभक्त हुआ तो उसमें पार्थक्यके बीज आरम्भ हो गये औ वे उत्तरोत्तर बढते गये। इन बीजोमें मुख्य वस्त्रग्रहण था। वस्त्रको स्वीकार कर लेनेपर उसकी अचेल परीषहके साथ सगति बिठानेके लिए उसके अर्थ में परिवर्तनकर उसे अल्पचेलका बोधक मान लिया गया । तथा सवस्त्र साधुकी मक्ति मान ली गयी । फलत सवस्त्र स्त्रीको मक्ति भी स्वीकार कर ली गयी। साघओंके लिए स्त्रियों द्वारा किये जानेवाले उपद्रवोंको सहन करने की आवश्यकतापर वल देन हेतु सवरके सावनों में स्त्रीपरीपहका प्रतिपादन तो ज्यो-का-त्यो बरकरार रखा गया। किन्तु स्त्रियोके लिए परुषो द्वारा किये जानेवाले उपद्रवोको सहन करने हेतु सवरके साधनोमें पुरुषपरीपहका प्रतिपादन सचेल श्रुतमें क्यो छोड दिया गया, यह वस्तुत अनुसन्धेय एवं चिन्त्य है। अचेल श्रुतमें ऐसा कोई विकल्प नही है। अत तत्त्वार्थसूत्र में मात्र स्त्रीपरीषहका प्रतिपादन होनेसे वह अचेल श्रतका अनुसारी है। स्त्रीमक्ति को स्वीकार न करनेसे उसमें पुरुषपरीपहके प्रतिपादनका प्रसग ही नही आता । स्त्रीपरीषह और दशमशकपरीषह इन दो परीषहोंके उल्लेखमात्रसे ही तत्त्वार्थ सूत्र दिगम्बर ग्रन्थ नही है, जिससे उनका उल्लेख करने वाले सभी श्वे० आचार्य और ग्रन्थ दिगम्बर परम्पराके हो जाने या माननेका प्रसग आता, किन्तु उपरिनिर्दिष्ट वे अनेक बातें हैं, जो सचेल श्रुतसे विरुद्ध हैं और अचेल श्रुतके अनुकूल हैं। ये अन्य सब बातें श्वे० आचार्यों और उनके ग्रन्थोमें नहीं हैं। इन्ही सब बातोंसे दो परपराओंका जन्म हुआ और महावीर तीर्थकरसे भद्रबाह श्रुतकेवली तक एक रूपमें चला आया जैन सघ टुकड़ों में बँट गया। तीव्र एव मुलके उच्छेदक विचार-भेदके ऐसे ही परिणाम निकलते हैं।
दशमशकपरीवह वस्तुत निर्वस्त्र (नग्न) साधुको ही होना सम्भव है, सवस्त्र साघुको नहीं, यह साधारण व्यक्ति भी समझ सकता है। जो साधु एकाधिक कपडो सहित हो, उसे डास-मच्छर कहासे
-२७४
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
काटेंगे, तब उस परीषहके सहन करनेका उसके लिए प्रश्न ही नही उठता । सचेल श्रुतमें उसका निर्देश मात्र पूर्वपरम्पराका स्मारक भर है। उसकी सार्थकता तो अचेल श्रुतमें ही सभव है।
अत ये (नान्यपरीषह, दशमणकपरीषह और स्त्री - परीषह ) तीनो परीषह तत्त्वार्थसूत्र में पूर्ण निर्ग्रन्थ (नग्न) साधुकी दृष्टिसे अभिहित हुए हैं । अत 'तत्त्वार्थ सूत्रकी परपरा' निबन्धमें जो तथ्य दिये गये हैं वे निर्बाध हैं और वे उसे दिगम्बर परम्पराका ग्रन्थ प्रकट करते है । उसमें समीक्षक द्वारा उठायी गयी आपत्तियोमेंसे एक भी आपत्ति बाधक नही है, प्रत्युत वे सारहीन सिद्ध होती हैं ।
समीक्षाके अन्त में हमें कहा गया है कि 'अपने धर्म और सप्रदायका गौरव होना अच्छी बात है, किन्तु एक विद्वान् से यह भी अपेक्षित है कि वह नीर-क्षीर विवेकसे बौद्धिक ईमानदारी पूर्वक सत्यको सत्यके रूपमें प्रकट करे । के अच्छा होता, समीक्षक समीक्ष्य ग्रन्थकी समीक्षाके समय स्वय भी उसका पालन करते और 'उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परामें थे और उनका सभाप्य तत्त्वार्थ सचेल पक्षके श्रुतके आधारपर ही वना है ।' 'वाचक उमास्वाति श्वेताम्बर परम्परामें हुए, दिगम्बरमें नही ।' ऐसा कहनेवालोके सम्बन्धमें भी कुछ लिखते और उनके सत्यकी जांच कर दिखाते कि उसमें कहाँ तक सचाई, नीर-क्षीर विवेक एव बौद्धिक ईमानदारी है ।
उपसहार
वास्तव में अनुसंधान में पूर्वाग्रहकी मुक्ति आवश्यक है । हमने उक्त निबन्ध में वे तथ्य प्रस्तुत किये हैं जो अनुसन्धान करनेपर उपलब्ध हुए हैं ।
- २७५ -
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणचन्द्रमुनि कौन हैं ?
आचार्य वादिराज (ई. सन १०२५) ने अपने न्यायविनिश्चयविवरण (२११०३) में अफलद्धदेवके न्यायविनिश्चयकी कारिका १०२, १०३ की व्याख्या करते हुए 'अथवा' शब्दके साथ निम्न पद्य दिया है
देवस्य शासनमतीवगम्भीरमेतत्तात्पर्यत क इव वोधुमतीव दक्ष ।
विद्वान्न चेत् स गुणचन्द्रमुनिन विद्यानन्दोऽनवद्यचरण सदनन्तवीर्य ।।१०४०।।
अर्थात् 'यदि गुणचन्द्रमुनि, अनवद्यचरण विद्यानद और सज्जन अनन्तवीर्य (रविभद्रशिष्य-सिद्धिविनिश्चय-टीकाकार एव प्रमाणसग्रह-भाष्यकार अनन्तवीर्य) ये तीन विद्वान् देव (अकलदेव) के गम्भीर शासन-वाङ्मय) के तात्पर्यका व्याख्यान न करते तो उसे कौन समझने में समर्थ था।'
यहां वादिराजसरिने विद्यानन्द और अनन्तवीर्यसे पहले जिन गुणचन्द्र मुनिका उल्लेख किया है वे कौन हैं और उन्होने अकलद्धदेवके कौन-से ग्रन्थकी व्याख्यादि की है ? आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री (देवागमालद्धार) में उनकी अष्टशतीका विशद व्याख्यान किया है और रविभद्र-शिष्य अनन्तवीर्यने उनके प्रमाणसग्रहपर प्रमाणसग्रहभाष्य तथा सिद्धिविनिश्चयपर विस्तृत टीका लिखी है, यह सभी विद्वान् जानते हैं । किन्तु गुणचन्द्रमुनिने उनके कौन-से ग्रन्थपर व्याख्या लिखी है, यह कोई भी विद्वान् नही जानता और न ऐसी उनकी कोई व्याख्या ही उपलब्ध है, न ही वह अनुपलब्धके रूपमें ही ज्ञात है। फिर भी वादिराजके इस स्पष्ट उल्लेखसे इतना जरूर ज्ञात होता है कि अकलङ्कके शासन (वाङ्मय) के व्याख्यातारूपमें उन्हें एक जुदा व्यक्ति अवश्य होना चाहिए। प्रभाचन्द्रने अकलहके लघीयस्त्रयपर लघीयस्त्रयालकार नामकी टीका लिखी है, जिसका दूसरा नाम न्यायकुमुदचन्द्र है। ये प्रभाचन्द्र वादिराजके समकालीन अथवा कुछ उत्तरवत्ती हैं । इसलिए 'गुणचन्द्रमुनि' पदसे प्रभाचन्द्रका उल्लेख उन्होने किया हो, यह सम्भव प्रतीत नहीं होता । अत उक्त पदसे वादिराजको अपनेसे पूर्ववर्ती अकलकका व्याख्याकार अभिप्रेत होना चाहिए, जो विद्यानन्द और अनन्तवीर्य जैसे व्याख्याकारोंसे पूर्ववर्ती एव प्रभावशाली भी हो। परन्तु अब तक उपलब्ध जैन साहित्यमें विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, वादिराज और प्रभाचन्द्र इन चार विद्वानाचार्योंके सिवाय अकलकका अन्य कोई व्याख्याकार दृष्टिगोचर नही होता । अत स्वभावत प्रश्न उठता है कि वादिराज द्वारा उल्लिखित गुणचन्द्र मुनि कौन हैं और वे कब हुए तथा उनकी रचनाएँ कौन-सी हैं ?
यदि वस्तुत 'गुणचन्द्रमुनि' पदसे वादिराजको गणचन्द्रमुनि नामके विद्वान्का उल्लेख करना अभीष्ट है, जो अकलकके किसी ग्रन्थका प्रभावशाली व्याख्याकार रहा हो तो विद्वानोको इसपर अवश्य विचार करना चाहिए तथा उनका अनुसधान करके परिचय प्रस्तुत करना चाहिए।
यहाँ ध्यातव्य है कि प्रसिद्ध जैन साहित्य अनुसन्धाता प० जगलकिशोरजी मुख्तारका विचार है कि 'गुण' शब्द प्रभाके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है और इसलिए 'गुणचन्द्र' पदसे आचार्य वादिराजके द्वारा उन्ही प्रभाचन्द्र का उल्लेख किया गया है जिनका उल्लेख जिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें किया है और जिन्हें 'कृत्वा चन्द्रोदय' पदके द्वारा 'चन्द्र'के उदय (उत्पत्ति) का कर्ता अर्थात् न्यायकुमुदचन्द्र नामक जैन न्यायग्रन्थका जो अकलकदेवके लवीयस्त्रयकी टीका है, रचयिता बतलाया है। उनका मत है कि प्रमेयकमलमार्तण्डके कर्ता
-२७६ -
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रभाचन्द्र और न्यायकुमुदचन्द्रके कर्ता प्रभाचन्द्र भिन्न है-दोनोको अभिन्न मानना तब तक ठीक नही है जब तक उनकी अभिन्नताके समर्थक प्रमाण सामने न आजायें।
मुख्तारसाहबका यह मत विचारणीय है। हमारा विचार है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता एक ही प्रभाचन्द्र है और वे ११ वी शताब्दीमें राजा भोज और उसके उत्तराधिकारी जयसिंहके राज्यकालमें हुए है । वादिराज सूरि भी ११वी शतीके विद्वान् हैं । यह पूरी सभावना है कि वे प्रभाचन्द्रकी कृतियोंसे सुपरिचित हो चुके होगे । वादिराजने न्यायविनिश्चयविवरण, पार्श्वनाथचरित (ई०१०२५) के बाद ही लिखा है तब तक न्यायकुमुद (लघीयस्त्रयालकार) के कर्ता प्रभाचन्द्र वृद्ध ग्रन्थकारके रूपमें प्रसिद्ध हो चुके हो तो कोई आश्चर्य नही और तब वादिराजने 'गुणचन्द्रमुनि' पदके द्वारा उन्हीका उल्लेख किया हो । फिर भी यह सब अनुसन्धेय है ।
.
M
CER
-२७७
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
गुणचन्द्रमुनि कौन हैं ? आचार्य वादिराज (ई० सन् १०२५) ने अपने न्यायविनिश्चयविवरण (२११०३) में है न्यायविनिश्चयकी कारिका १०२, १०३ की व्याख्या करते हुए 'अथवा' शब्दके साथ निम्न पद्य ।
देवस्य शासनमतीवगम्भीरमेतत्तात्पर्यत क इव बोद्धमतीव दक्ष : - विद्वान्न चेत् स गुणचन्द्रमुनिन विद्यानन्दोऽनवद्यचरण सदनन्तवीर्य
अर्थात् 'यदि गुणचन्द्रमुनि, अनवद्यचरण विद्यानद और सज्जन अनन्तवीर्य (रविर विनिश्चय-टीकाकार एव प्रमाणसग्रह-भाष्यकार अनन्तवीर्य) ये तीन विद्वान् देव (अकलड्डू शासन-वाङमय) के तात्पर्यका व्याख्यान न करते तो उसे कौन समझने में समर्थ था।'
यहाँ वादिराजसरिने विद्यानन्द और अनन्तवीर्यसे पहले जिन गुणचन्द्र मुनिका उ कौन हैं और उन्होने अकलडूदेवके कौन-से ग्रन्थकी व्याख्यादि की है? आचार्य विद्या (देवागमालकार) में उनकी अष्टशतीका विशद व्याख्यान किया है और रविभद्र-शिष्य । प्रमाणसग्रहपर प्रमाणसग्रहभाष्य तथा सिद्धिविनिश्चयपर विस्तृत टीका लिखी है, यह सभी किन्तु गुणचन्द्रमुनिने उनके कौन-से ग्रन्थपर व्याख्या लिखी है, यह कोई भी विद्वान् नही ज उनकी कोई व्याख्या ही उपलब्ध है, न ही वह अनुपलब्धके रूपमें ही ज्ञात है। फिर स्पष्ट उल्लेखसे इतना जरूर ज्ञात होता है कि अकलङ्कके शासन (वाङ्मय) के व्यास जुदा व्यक्ति अवश्य होना चाहिए। प्रभाचन्द्रने अकलङ्कके लघीयस्त्रयपर लघीयस्त्रया लिखी है, जिसका दूसरा नाम न्यायकुमुदचन्द्र है। ये प्रभाचन्द्र वादिराजके समकालीन । है। इसलिए 'गुणचन्द्रमुनि' पदसे प्रभाचन्द्रका उल्लेख उन्होने किया हो, यह सम्भव प्रतः उक्त पदसे वादिराजको अपनेसे पूर्ववर्ती अकलकका व्याख्याकार अभिप्रेत होना चाहिये अनन्तवीर्य जैसे व्याख्याकारोंसे पूर्ववर्ती एव प्रभावशाली भी हो। परन्तु अब तक . विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, वादिराज और प्रभाचन्द्र इन चार विद्वानाचार्योंके सिवाय व्याख्याकार दृष्टिगोचर नही होता । अत. स्वभावत प्रश्न उठता है कि वादिराज हूँ मुनि कौन हैं और वे कब हुए तथा उनकी रचनाएँ कौन-सी हैं ?
यदि वस्तुत 'गुणचन्द्रमुनि' पदसे वादिराजको गृणचन्द्रमुनि नामके विद्वान्क है, जो अकलकके किसी ग्रन्थका प्रभावशाली व्याख्याकार रहा हो तो विद्वानोको इस चाहिए तथा उनका अनुसघान करके परिचय प्रस्तुत करना चाहिए।
यहाँ ध्यातव्य है कि प्रसिद्ध जैन साहित्य अनुसन्धाता १० जुगलकिशोरजी 'गुण' शब्द प्रभाके अर्थमें प्रयुक्त हुआ है और इसलिए 'गुणचन्द्र' पदसे आच प्रभाचन्द्र का उल्लेख किया गया है जिनका उल्लेख जिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें चन्द्रोदय' पदके द्वारा 'चन्द्र'के उदय (उत्पत्ति) का कर्ता अर्थात् न्यायकुमुदचन जो अकलकदेवके लवीयस्ययको टीका है, रचयिता बतलाया है। उनका मत है।
-२.१६-
--
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
'राजगृहनगरके पूर्वमें चतुष्कोण ऋषिशैल (ऋष्यद्रि), दक्षिणमें वैभार और नैऋत्यदिशामें विपुलाचल पर्वत हैं । ये दोनो वैभार और विपुलाचल पर्वत त्रिकोण आकृतिसे युक्त हैं।
पश्चिम, वायव्य और सोम (उत्तर) दिशामें फैला हुआ धनुषके आकार छिन्न नामका पर्वत है और ईशान दिशामें पाण्डु नामका पर्वत है । उपयुक्त पाँचो ही पर्वत कुशसमूहसे आच्छादित है । हरिवशपुराणमें इन पांचो पर्वतोका निम्न प्रकार उल्लेख है
ऋषिपूर्वो गिरिस्तत्र चतुरस्र सनिर्झर । दिग्गजेन्द्र इवेन्द्रस्य ककुभ भूषयत्यलम् । वैभारो दक्षिणामाशा त्रिकोणाकृतिराश्रित । दक्षिणापरदिड्मध्य विपुलश्च तदाकृति ॥ सज्जचापाकतिस्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहक ।
शोभते पाडुको वृत्त पूर्वोत्तरदिगन्तरे ॥३ ५३ से ३-५५॥ इन पद्यो द्वारा हरिवशपुराणकारने 'तिलोयपण्णत्ती' की तरह उक्त पांचो पर्वतोंके नाम और उनकी अवस्थिति बतलायी है। वीरसेनस्वामीने भी धवला और जयधवलामें उनका निम्न प्रकार कथन किया है
ऋषिगिरिरैन्द्राशाया चतुरस्रो याम्यदिशि च वैभार । विपुलगिरिनैऋत्यामुभौ त्रिकोणी स्थिती तत्र । धनुराकारश्छिन्नो वारुण-वायव्य-सोमदिक्षु तत । वृत्ताकृतिरीशाने पाडुस्सर्वे कुशाग्रवृता ।।
-धवला (मु०), पृ० ६२, जयधवला (मु०), पृ० ७३ । इन तीनो-चारो स्थानोमें ऋषिगिरि (ऋष्यद्रिक), वैभार, विपुलगिरि, बलाहक (छिन्न) और पाण्डगिरि इन पांच पर्वतोका समुल्लेख किया गया है और उनकी स्थिति बतलायी गयी है । यहाँ ध्यातव्य है कि बलाहकको छिन्न भी कहा गया है। अत ये एक ही पर्वतके दो नाम है और ग्रन्थकारोने उसका छिन्न अथवा बलाहक नामसे उल्लेख किया है। जिन्होने बलाहक नाम दिया है उन्होने 'छिन्न' नाम नहीं दिया और जिन्होने 'छिन्न' नाम दिया है उन्होने 'बलाहक' नाम नहीं दिया और उसका अवस्थान सभीने एक-सा बतलाया है तथा उसकी गिनती पच पहाडोमें की है, जो राजगृहके निकट है। अत बलाहक और छिन्न ये दोनो पर्यायवाची नाम हैं। इसी तरह ऋष्यद्रिक, ऋषिगिरि और ऋषिशल ये भी एक ही पर्वतके तीन पर्यायनाम हैं।
___ इसी प्रकार यह मी ध्यातव्य है कि जिन वीरसेन और जिनसेन स्वामीने पाण्डुगिरिका नामोल्लेख किया है उन्होने कुण्डलगिरिका उल्लेख नही किया । तथा पूज्यपादने जहां सभी निर्वाणक्षेत्रोको गिनाते हुए कुण्डलगिरिका नाम दिया है वहां उन्होने पाण्डुगिरिका उल्लेख नही किया। यतिबुषभने अवश्य दोनो नामोका प्रयोग किया है। पर उन्होने बिभिन्न स्थानोपर किया है। जहाँ (प्रथम अधिकार, गा० ६७ में) पाण्डगिरिका उल्लेख हआ है वहाँ कुण्डलगिरिका नही और जहाँ (४-१४७९) कुण्डलगिरिका उल्लेख है वहां फिर पाण्डुगिरिका नही । इससे स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि उन्हें दो स्वतन्त्र पहाड माननेकी नही है, अपितु वे एक ही पर्वतके उन्हें दो पर्यायनाम मानते हैं। वास्तवमें पाण्डुगिरिको वृत्ताकार (गोलाकार) कहा गया है और कुण्डलगिरि कुण्डलाकार-वृत्ताकार होता है । अतएव एक ही पर्वतके ये दो पर्यायनाम हैं और
-२७९
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
कौन-सा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है ?
आचार्य यतिवृषभने अपनी 'तिलोयपण्णत्ती' (४-१४७९) में 'कुण्डलगिरि' से श्री अन्तिम केवली श्रीधरके सिद्ध (मुक्त) होनेका उल्लेख किया है । जैसा कि निम्न गाथा-वाक्यसे प्रकट है
_ 'कुंडलगिरिम्मि चरिमो केवलणाणीसु सिरिधरो सिद्धो।' 'केवलज्ञानियोंमें अन्तिम केवलज्ञानी श्रीधरने कुण्डलगिरिमें सिद्ध पद प्राप्त किया ।'
इसके आधारसे कुछ लोगोका विचार है कि आचार्य यतिवृषभने यहाँ (उक्त गाथामें) उसी 'कुण्डलगिरि' का उल्लेख किया है, जो मध्यप्रदेशके दमोह जिलान्तर्गत पटेरा ग्रामके पास स्थित कुण्डलगिरि है, जिसे आजकल कुण्डलपुर कहते हैं और जो अतिशयक्षेत्र माना जाता है । अतएव इस प्रमाणोल्लेखके आधारपर अब उसे सिद्धक्षेत्र मानना चाहिए और यह घोषित कर देना चाहिए ।
गत वर्ष सन् १९४५ में जब अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषदका अधिबेशन कटनी (म० प्र०) में हमा, तो इसके निर्णयके लिए तीन विद्वानोंकी एक उपसमिति बनाई गई। उसमें एक नाम मेरा भी था। अतएव यह अनुसन्धेय था कि तिलोयपण्णत्तीके उपर्युक्त उल्लेखमें कौन-से कुण्डलगिरिसे अन्तिम केवली श्रीधरके निर्वाणका प्रतिपादन किया गया है ? आज हम उसीपर विचार करेंगे।
प्राप्त जैन साहित्यमें 'कुण्डलगिरि' के सिद्धक्षेत्रके रूपमें दो उल्लेख मिलते हैं। एक तो उपर्युक्त 'तिलोयपण्णत्ती' का है और दूसरा उल्लेख पूज्यपाद (देवनन्दि) की निर्वाण-भक्तिका है, जो इस प्रकार है ।
द्रोणीमति प्रवरकुडल-मेढ़के च वैभारपर्वततले वरसिद्धकूटे । ऋष्यद्रिके च विपुलाद्रि-बलाहके च विन्ध्ये च पोदनपुरें वृषदीपके च ॥
-दशभक्त्या० पृ० २३३ ।
इस उल्लेखमें 'कुण्डल' पदका स्पष्ट प्रयोग है और आगे-पीछेके सभी अद्रि (गिरि) हैं और इसलिए 'कुडल' पदसे 'कुण्डलगिरि' स्पष्टतया पूज्यपादको अभीष्ट है। कुण्डलगिरिके इस प्रकार ये दो उल्लेख है। इन दोके अतिरिक्त अभी तक हमें अन्य उल्लेख नही मिला। यदि पूज्यपाद यतिवृषभके पूर्ववर्ती हैं तो कूण्डलगिरिका उनका उल्लेख उनसे प्राचीन समझना चाहिए ।
अब देखना है कि जिस कुण्डलगिरिका उल्लेख पूज्यपादने किया है वह कौन-सा है और कहाँ है ? क्या उसके दूसरे भी नाम है ? तिलोयपण्णत्तीमें उन पांच पर्वतॊके नाम और अवस्थान दिये हैं, जिन्हें 'पच शैल' या 'पच पहाडी' कहा जाता है और जो राजगिर (राजगही) के पास हैं । वे इस प्रकार हैं
चउरस्सो पुवाए रिसिसेलो दाहिणाए वेभारो। णईरिदिदिसाए विउलो दोण्णि तिकोणट्ठिदायारा ॥ चावसरिच्छो छिण्णो वरुणाणिलसोमदिसविभागेसु । ईसाणाए पडू वण्णा सव्वे कुसग्गपरियरणा ॥१-६६, ६७।।
-२७८
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
'राजगृहनगरके पूर्वमें चतुष्कोण ऋषिशैल (ऋष्यद्रि), दक्षिणमें वैभार और नैऋत्यदिशामें विपुलाचल पर्वत है । ये दोनो वैभार और विपुलाचल पर्वत त्रिकोण आकृतिसे युक्त हैं ।
पश्चिम, वायव्य और सोम (उत्तर) दिशामें फैला हुआ धनुषके आकार छिन्न नामका पर्वत है और ईशान दिशामें पाण्डु नामका पर्वत है। उपयुक्त पांचो ही पर्वत कुशसमूहसे आच्छादित हैं। हरिवशपुराणमें इन पांचो पर्वतोका निम्न प्रकार उल्लेख है
ऋषिपूर्वो गिरिस्तत्र चतुरस्र सनिर्झर । दिग्गजेन्द्र इवेन्द्रस्य ककुभ भूषयत्यलम् ॥ वंभारो दक्षिणामाशा त्रिकोणाकतिराश्रित । दक्षिणापरदिडमध्य विपुलश्च तदाकृति ।। सज्जचापाकृतिस्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहक ।
शोभते पाडुको वृत्त पूर्वोत्तरदिगन्तरे ॥३ ५३ से ३-५५॥ इन पद्यो द्वारा हरिवशपुराणकारने 'तिलोयपण्णत्ती' की तरह उक्त पाँचो पर्वतोंके नाम और उनकी अवस्थिति बतलायी है। वीरसेनस्वामीने भी धवला और जयधवलामे उनका निम्न प्रकार कथन किया है
ऋषिगिरिरेन्द्राशाया चतुरस्रो याम्यदिशि च वैभार । विपुलगिरिर्नैऋत्यामुभौ त्रिकोणी स्थिती तत्र ॥ धनुराकारश्छिन्नो वारुण-वायव्य-सोमदिक्षु तत । वृत्ताकृतिरीशाने पाडुस्सर्वे कुशाग्रवृता ।।
-धवला (मु०), पृ० ६२, जयधवला (मु०), पृ० ७३ । इन तीनो-चारो स्थानोमें ऋषिगिरि (ऋष्यद्रिक), वैभार, विपुलगिरि, बलाहक (छिन्न) और पाण्डुगिरि इन पांच पर्वतोका समुल्लेख किया गया है और उनकी स्थिति बतलायी गयी है । यहाँ ध्यातव्य है कि बलाहकको छिन्न भी कहा गया है। अत ये एक ही पर्वतके दो नाम हैं और ग्रन्थकारोने उसका छिन्न अथवा बलाहक नामसे उल्लेख किया है। जिन्होने बलाहक नाम दिया है उन्होने 'छिन्न' नाम नही दिया और जिन्होने 'छिन्न' नाम दिया है उन्होने 'बलाहक' नाम नहीं दिया और उसका अवस्थान सभीने एक-सा बतलाया है तथा उसकी गिनती पच पहाडोमे की है, जो राजगृहके निकट हैं। अत बलाहक और छिन्न ये दोनों पर्यायवाची नाम हैं। इसी तरह ऋष्याद्रिक, ऋषिगिरि और ऋषिशल ये भी एक ही पर्वतके तीन पर्यायनाम हैं।
इसी प्रकार यह मो ध्यातव्य है कि जिन वीरसेन और जिनसेन स्वामीने पाण्डुगिरिका नामोल्लेख किया है उन्होने कुण्डलगिरिका उल्लेख नही किया। तथा पूज्यपादने जहाँ सभी निर्वाणक्षेत्रोको गिनाते हुए कुण्डलगिरिका नाम दिया है वहां उन्होने पाण्डुगिरिका उल्लेख नही किया। यतिबुपभने अवश्य दोनो नामोंका प्रयोग किया है। पर उन्होने बिभिन्न स्थानोपर किया है। जहाँ (प्रथम अधिकार, गा०६७ में) पाण्डुगिरिका उल्लेख हआ है वहां कुण्डलगिरिका नही और जहां (४-१४७९) कुण्डलगिरिका उल्लेख है वहां फिर पाण्डुगिरिका नही । इससे स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि उन्हें दो स्वतन्त्र पहाड माननेकी नही है, अपितु वे एक ही पर्वतके उन्हें दो पर्यायनाम मानते है । वास्तवमें पाण्डुगिरिको वृत्ताकार (गोलाकार) कहा गया है और कुण्डलगिरि कुण्डलाकार-वृत्ताकार होता है । अतएव एक ही पर्वतके ये दो पर्यायनाम हैं और
-२७९
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
इसलिए वे दो भिन्न स्थानोंपर भिन्न-भिन्न पर्यायनामसे उसका उल्लेख कर सकते हैं । दूसरे यतिवृषभने पूज्यपादकी निर्वाणभक्ति में उनके द्वारा पाण्डुगिरिके लिए नामान्तर रूपसे प्रयुक्त कुण्डलगिरि नामको पाकर कुण्डलगिरिका भी नामोल्लेख किया है, यह सरलतासे कहा जा सकता है । पूज्यपादके उल्लेखसे ज्ञात होता है कि उनके समय में पाण्डुगिरिको जो वृत्त (गोल) हैं, कुण्डलगिरि भी कहा जाता था । अतएव उन्होंने पान्डुगिरिकै स्थानमें कुण्डलगिरि नाम दिया है । इममें लेश भी आश्चर्य नही है कि पाण्डुगिरि और कुण्डलगिरि एक ही पर्वत के दो नाम हैं, क्योकि कुण्डलका आकार गोल होता है और पाण्डुगिरिको वृत्ताकार (गोलाकार) सभी आचार्योंने बतलाया है। जैसा कि ऊपरके उद्धरणोंसे प्रकट है । दूसरे, पूज्यपादने पाँच पहाडो में पाण्डुगिरिका उल्लेख नही किया - जिसका उल्लेख करना अनिवार्य था, क्योकि वह पांच सिद्धक्षेत्र- शैलों में परिगणित है । किन्तु कुण्डलगिरिका उल्लेख किया है। तीसरे, एक पर्वतके एकसे अधिक नाम देखे जाते हैं । जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं ।
अत इस सक्षिप्त अनुसन्धान से यही तथ्य निकलता है कि जैन साहित्यमें पाण्डुगिरि और कुण्डलगिरि एक हैं—पृथक्-पृथक् नही -- एक ही पर्वतके दो नाम
1
ऐसी वस्तुस्थितिमें मह कहना अयुक्त न होगा कि यतिवृषभने पाण्डुगिरिको ही कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र बतलाया है एव उल्लेखित किया है । और यह कुण्डलगिरि राजगृहके निकटवर्ती पाँच पहाडोंके अन्तर्गत है । इसलिए मध्यप्रदेश के दमोह जिलान्तर्गत पटेरा ग्रामके पासका कुण्डलपुर या कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र नही जान पडता है और न उसे शास्त्रो सिद्धक्षेत्र घतलाया गया है। जिस कुण्डलगिरि या पाण्डुगिरिको सिद्धक्षेत्र कहा गया है वह विहार प्रदेश के पचशैलीमें परिगणित पाण्डुगिरि या कुण्डलगिरि है ।
अत. मेरे विचार और खोजसे दमोहके कुण्डलपुर या कुण्डलगिरिको सिद्धक्षेत्र घोषित करना जल्दबाजी होगी और एक भ्रान्त परम्परा चल उठेगी ।
परिशिष्ट
उक्त लेखके लिखे जानेके बाद हमें कुछ सामग्री और मिली है
दमोह कुण्डलगिरि या कुण्डपुरकी ऐतिहासिकता नही
कहा जाता
जब हम दमोह के पार्श्ववर्ता कुण्डलगिरि या कुण्डलपुरको ऐतिहासिकतापर विचार करते हैं तो उसके कोई पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नही होते । केवल विक्रम सवत्की अठारहवी शताब्दीका उत्कीर्ण हुआ एक शिलालेख प्राप्त होता है, जिसे महाराजा छत्रसालने वहाँ चैत्यालयका जीर्णोद्धार कराते समय खुदावाया था । कि कुडलपुरमें भट्टारकी गद्दी थी । इस गद्दीपर छत्रसालके समकालमें एक प्रभावशाली एव मन्त्रविद्याके ज्ञाता भट्टारक जब प्रतिष्ठित थे तब उनके प्रभाव एवं आशीर्वाद से छत्रसालने एक बडी भारी यवनसेनापर विजय प्राप्त की थी। इससे प्रभावित होकर छत्रसालने कुण्डलपुरके चैत्यालयका जीर्णोद्धार कराया था और जिनमन्दिर के लिए अनेक उपकरणोके साथ दो मनके करीबका एक वृहद् घटा (पीतलका ) प्रदान किया था, जो बादमें चोरीमें चला गया था और अब वह पन्ना स्टेट (म० प्र०) में पकड़ा गया है' । उक्त शिलालेख विक्रम स० १७५७ माघ सुदी १५ सोमवारको उत्कीर्ण हुआ है और वही चंत्या
१, यह मुझे मित्रवर प० परमानन्दजी शास्त्रीसे मालूम हुआ है ।
- २८० -
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
लयमें खुदा हुआ है । यह लेख इस समय मेरे पास भी है। यह अशुद्ध अधिक है । कुन्दकुन्दाचार्यकी आम्नामयमें यश कीर्ति, ललितकीर्ति, धर्मकीर्ति (रामदेवपुराणके कर्ता), पद्मकीर्ति, सुरेन्द्रकीति और उनके शिष्य ब्रह्म हुए। सुरेन्द्रकीतिके शिष्य इन ब्रह्मने वहांको मनोज्ञ महावीर स्वामीकी जीर्ण मूर्तिको देखकर द्रव्य मांग मांग (चन्दा) करके उसका जीर्णोद्धार कराया तथा चैत्यालयका उद्धार छत्रसालने कराया। इन सब बातोका शिलालेखमें उल्लेख है। साथमें छत्रसालको बडा धर्मात्मा प्रकट किया गया है । अस्तु ।
इससे यही विदित होता है कि वहाँ १५वी से १७वी शताब्दी तक रहे भट्टारकी प्रभुत्वमें कोई महावीर स्वामीका मन्दिर निर्माण कराया होगा। उसके जीर्ण होनेपर करीब १०० वर्ष वाद वि० स० १७५७ में उसका उद्धार किया गया । चुकि छत्रसालको वहांके भट्टारककी कृपा और उनके मन्त्रविद्याके प्रभावसे यवन-सेनापर विजय प्राप्त हुई थी। इसलिए वह स्थान तबसे अतिशय क्षेत्र कहा जाने लगा होगा।
प्रभाचन्द्र (११वी शती) और श्रुतसागर (१५वी-१६वी शती) के मध्यमें बने प्राकृत निर्वाणकाण्डके आधारसे रचे गये भैया भगवती दास (स० १७४१) के भाषा-निर्वाणकाडमें जिन सिद्ध व अतिशय क्षेत्रोकी परिगणना की गयी है उनमें भी कुडलपुरको सिद्ध क्षेत्र या अतिशय क्षेत्रके रूपमें परिगणित नही किया गया। इससे यही प्रतीत होता है कि वह सिद्ध क्षेत्र तो नही है-अतिशय क्षेत्र भी १५वी १६वी शताब्दीके बाद प्रसिद्ध होना चाहिए ।
१ यह शिलालेख भी प० परमानन्दजो शास्त्रीसे प्राप्त हुआ है, जिसके लिए उनका आभारी हूँ।
-२८१ -
न-32
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुसन्धान - विषयक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
कितने ही पाठको व इतर सज्जनोको अनुसन्धानादि विषयक शकाएँ उत्पन्न होती हैं और वे इधरउधर पूछते हैं । कितनोको उत्तर ही नही मिलता और कितनोको उनके पूछनेका अवसर नही मिल पाता । इससे उनकी शकाएँ उनके हृदयमें हो विलीन हो जाती हैं और इस तरह उनकी जिज्ञासा अतृप्त ही बनी रहती है । अतएव उनके लाभकी दृष्टिसे यहाँ एक 'शका समाधान' प्रस्तुत है ।
१ शका - कहा जाता है कि विद्यानन्द स्वामीने 'विद्यानन्दमहोदय' नामक एक बहुत बडा ग्रन्थ लिखा है, जिसके उल्लेख उन्होने स्वय अपने श्लोकवात्तिक, अष्टसहस्री आदि ग्रन्थोमें किये हैं । परन्तु उनके बाद होनेवाले माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र आदि बडे-बडे आचार्यों में से किसीने भी अपने ग्रन्थोमें उसका उल्लेख नही किया, इससे क्या वह विद्यानन्दके जीवनकाल तक ही रहा है-उसके बाद नष्ट हो गया ?
१ समाधान नही, विद्यानन्दके जीवनकालके बाद भी उसका अस्तित्व मिलता है । विक्रमकी बारहवी तेरहवी शताब्दीके प्रसिद्ध विद्वान् वादी देवसूरिने अपने 'स्याद्वादरत्नाकर' (द्वि० भा०, पृ० ३४९) में 'विद्यानन्दमहोदय' ग्रन्यकी एक पवित उद्धृत करके नामोल्लेखपूर्वक उसका समालोचन किया है । यथा'यत्तु विद्यानन्द महोदये च ' कालान्तराविस्मरणकारण हि धारणाभिधान ज्ञान सस्कार प्रतीयते' इति वदन् सस्कारधारणयोरेकार्थ्य मचकथत्' ।
इससे स्पष्ट जाना जाता है कि 'विद्यानन्दमहोदय' विद्यानन्द स्वामीके जीवनकालसे तीन सौ चारसो वर्ष बाद तक भी विद्वानोकी ज्ञानचर्चा और अध्ययनका विषय रहा है । आश्चर्य नही कि उसकी सैकडों कापिया न हो पाने से वह सब विद्वानोंको शायद प्राप्त नही हो सका अथवा प्राप्त भी रहा हो तो अष्टसहस्री आदिकी तरह वादिराज आदिने अपने ग्रन्थोमें उसके उद्धरण ग्रहण न किये हो । जो हो, पर उक्त प्रमाणसे निश्चित है कि वह बनने के कई सौ वर्ष बाद तक विद्यमान रहा है । सम्भव है वह अब भी किसी लायब्ररी या सरस्वती भण्डारमे दीमकोंका भक्ष्य बना पडा हो । अन्वेषण करनेपर अकलङ्कदेव के प्रमाणसग्रह तथा अनन्तवीर्यकी सिद्धिविनिश्चयटीकाकी तरह किसी श्वेताम्बर शास्त्रभडारमे मिल जाय; क्योकि उनके यहाँ शास्त्रोको सुरक्षा और सुव्यवस्था यति-मुनियोके हाथोंमें रही है और अब भी वह कितने ही स्थानों पर चलती है। हाल में हमें मुनि पुण्यविजयजीके अनुग्रहसे वि० स० १४५४ की लिखी अर्थात् साढ़े पाचसौ वर्ष पुरानी अधिक शुद्ध अष्टसहस्रकी प्रति प्राप्त हुई है, जो मुद्रित अष्टसहस्रीमें सैकडों सूक्ष्म तथा स्थूल अशुद्धियो और त्रुटित पाठोको प्रदर्शित करती है। यह भी प्राचीन प्रतियोकी सुरक्षाका एक अच्छा उदाहरण है । इससे 'विद्यानन्दमहोदय' के भी श्वेताम्बर शास्त्रभडारोमें मिलनेकी अधिक आशा है । अन्वेषकोको उसकी खोजका प्रयत्न करते रहना चाहिये ।
२ शका - विद्वानोंसे सुना जाता है । कि बड़े अनन्तवीर्य अर्थात् सिद्धिविनिश्चयटीकाकारने अकलक देवके 'प्रमाणसग्रह' पर 'प्रमाण सहभाष्य' या 'प्रमाणसग्रहालकार' नामका बृहद् टोका-ग्रन्थ लिखा है परन्तु आज वह उपलब्ध नही हो रहा। क्या उसके अस्तित्व - प्रतिपादक कोई उल्लेख हैं जिनसे विद्वानोकी उक्त अनुश्रुतिको पोषण मिले ?
- २८४ -
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह मभी विद्वान् मानते है कि निर्वाण-भक्ति, मिद्धभक्ति, नन्दीश्वरभक्ति आदि ममी (दशो) सस्कृतभक्तियां प्रभाचन्द्रके 'क्रियाफलाप' गत उल्लेखानमार पूज्यपादकृत है। जैसा कि 'क्रियाकलाप' के निम्न उल्लेखमे प्रकट है
'सस्कृता सर्वभक्तय पूज्यपादस्वामिकृता प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः',-दशभवत्यादि स० टी० पृ० ६१ ।
प्रेमीजी भी प्रभाचन्द्रके इस उल्लेखके अनुसार दशो भक्तियोको, जिनमें निर्वाण-भक्ति भी है, पूज्यपादकृत स्वीकार करते हैं और अपनी स्वीकृति में वह हेतु भी देते हैं कि इन मिद्धभवित आदि सस्कृत भक्तियोंका अप्रतिहत.प्रवाह और गम्भीर शैली है, जो उनमें पृज्यपादकृतत्व प्रकट करता है, साथ ही प्रभाचन्द्रके उक्त कथनमें सन्देह करनेका भी कोई करण नही है।
अत .प्रकट है कि असग कविसे ५०० वर्ष पूर्व से भी 'गजपन्थ' निर्वाण क्षेत्रमें विश्रु त था ।
१. अन सा० और इति०,१०१२१ ।
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
गजपन्थ तीर्थ क्षेत्रका एक अति प्राचीन उल्लेख
'अनेकान्त वर्ष ७, किरण ७-८ मे प्रसिद्ध साहित्य-सेवी प. नाथुराम प्रेमीका 'गजपन्य क्षेत्रके पराने उल्लेख' शीर्षकसे एक सक्षिप्त किन्तु शोधात्मक लेख प्रकट हुआ है । इसमें आपने गजपन्थ क्षेत्रके अस्तित्वविषयक दो पुराने उल्लेख प्रस्तुत किये हैं और अपने उस विचारमें सशोधन किया है, जिसमें आपने गजपन्थ क्षेत्रको आधुनिक बतलाया था। आपने अपनी उस समयकी खोजके आधारपर उसे विक्रम स०.१७४६ के पहलेका स्वीकार नही किया था। अब जो उन्हें दो उल्लेख उस विपयके प्राप्त हुए हैं वे वि० स० १७४६ से पूर्ववर्ती हैं। उनमें एक तो श्रुतसागर सूरिका है, जो १६वी शताब्दीके वहश्रुत विद्वान् एव ग्रन्थकार माने जाते हैं। दूसरा उल्लेख 'शान्तिनाथचरित के कर्ता असग कविका है, जिनका समय उनके 'महावीरचरित' परसे शक स० ९१०, वि० स० १०४५ सर्व मम्मत है । असग कविने अपने 'शान्तिनायचरित' में गजपन्थ क्षेत्रका उसके ७ वें सर्गके ९८ वें पद्यमे उल्लेख किया है। 'शान्तिनाथचरित' 'महावीरचरित' के उपरान्त लिखा गया है। अत वि० स० १०४५ के लगभग गजपन्थ क्षेत्र एक निर्वाण क्षेत्रके रूपमें प्रसिद्ध था और वह नासिक नगरके निकटवर्ती माना जाता था। इन दो उल्लेखोके आधारसे अनुसन्धानप्रिय श्री प्रेमीजीने गजपन्थ क्षेत्रकी प्रामाणिकता स्वत स्वीकार कर ली है और उसे ११ वी शताब्दीमें प्रसिद्ध सिद्ध-क्षेत्र मान लिया है।
डॉ. हीरालालजी जैनके साथ चल रही 'रत्नकरण्डकश्रावकाचार' की चर्चाके प्रसगमें हम पूज्यपादकी 'नन्दीश्वर-भक्ति' को देख रहे थे। उसो समय 'दशभक्त्याविसंग्रह' के पन्ने पलटते हुए उनकी 'निर्वाणभक्ति' के उस पद्यपर हमारी दृष्टि गयो, जिसमें पूज्यपादने भी अन्य निर्वाण-क्षेत्रोका उल्लेख करते एह 'गजपन्थ क्षेत्रका भी उल्लेख किया है और उसे निर्वाण-क्षेत्र प्रकट किया है । वह पद्य इस प्रकार है
सह्याचले च हिमवत्यपि सुप्रतिष्ठे दण्डात्मके गजपथे पृथुसारयष्टौ ।
ये साधवो हतमला सुगति प्रयाता स्थानानि तानि जगति प्रथितान्यभूवन् ॥३०॥
यहाँ पूज्यपादने 'गजपथे' पदके द्वारा गजपन्थागिरिका निर्वाणक्षेत्रके रूपमें स्पष्ट उल्लेख किया है। 'गजपथ' शब्द सस्कृतका है और 'गजपथ''प्राकृत तथा अपभ्रशका है और यही शब्द हिन्दी भाषामें भी प्रयुक्त किया जाता है । अतएव 'गजपथ' और 'गजपन्थ' दोनो एक ही हैं और एक ही अर्थ 'गजपथ' के वाचक एवं बोधक है। पूज्यपादका समय ईसाकी ५वी और वि० स० की ६वी शताब्दी है। प्रेमीजी भी उनका यही समय मानते हैं। अत गजपन्ध क्षेत्र वि० स० की ६वी शताब्दीमें निर्वाणक्षेत्र के रूपमें प्रसिद्ध था और माना जाता था । अर्थात् असग कवि (११वी शताब्दी) से भी वह ५०० वर्ष पूर्व निर्वाणक्षेत्रके रूपमें दिगम्बर परम्परामें मान्य था।
१ जैन साहित्य और इतिहास, हमारे तीर्थ क्षेत्र' शीर्षक लेख पृ० १८५, १९४२ प्रथम संस्करण । २. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ११९, ई० १९४२ ।।
- २८२ -
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह सभी विद्वान् मानते हैं कि निर्वाण-भक्ति, सिद्धभक्ति, नन्दीश्वरभक्ति आदि सभी (दशो) सस्कृतभक्तियां प्रभाचन्द्रके "क्रियाकलाप' गत उल्लेखानुसार पूज्यपादकृत है। जैसा कि 'क्रियाकलाप' के निम्न उल्लेखसे प्रकट है
___'सस्कृता सर्वभक्तय पूज्यपादस्वामिकृता प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः',-दशभक्त्यादि स० टी० पृ० ६१ । ।
प्रेमीजी भी प्रभाचन्द्रके इस उल्लेखके अनुसार दशो भक्तियोको, जिनमें निर्वाण-भक्ति भी है, पूज्यपादकृत स्वीकार करते है और अपनी स्वीकृति में वह हेतु भी देते है कि इन सिद्धभक्ति आदि सस्कृत भक्तियोका अप्रतिहत.प्रवाह और गम्भीर शैली है', जो उनमें पूज्यपादकृतत्व प्रकट करता है, साथ टी प्रमाचन्द्रके उक्त कथनमें सन्देह करनेका भी कोई करण नहीं है। '
अत प्रकट है कि असग कविसे ५०० वर्ष पूर्वसे भी 'गजपन्थ' निर्वाण क्षेत्रमें विश्रु त था ।
.
C
१. जैन सा० और इति०, पृ० १२१ ।
- २८३ -
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुसन्धान-विषयक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
कितने ही पाठको व इतर सज्जनोको अनुसन्धानादि-विषयक शकाएं उत्पन्न होती हैं और वे इधरउघर पूछते हैं। कितनोको उत्तर ही नहीं मिलता और कितनोको उनके पूछनेका अवसर नहीं मिल पाता। इससे उनकी शकाएं उनके हृदयमें ही विलीन हो जाती हैं और इस तरह उनकी जिज्ञासा अतृप्त ही बनी रहती है । अतएव उनके लाभकी दृष्टिसे यहां एक 'शका-समाधान' प्रस्तुत है।
१शका-कहा जाता है कि विद्यानन्द स्वामीने 'विद्यानन्दमहोदय' नामक एक बहुत बडा ग्रन्थ लिखा है, जिसके उल्लेख उन्होने स्वय अपने श्लोकवात्तिक, अष्टसहस्री आदि ग्रन्थोंमें किये हैं। परन्तु उनके बाद होनेवाले माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचन्द्र आदि बडे-बडे आचार्योमेंसे किसीने भी अपने ग्रन्थोमें उसका उल्लेख नही किया, इससे क्या वह विद्यानन्दके जीवनकाल तक ही रहा है उसके बाद नष्ट हो गया।
१ समाधान नही, विद्यानन्दके जीवनकालके बाद भी उसका अस्तित्व मिलता है। विक्रमकी बारहवी तेरहवी शताब्दीके प्रसिद्ध विद्वान वादी देवसूरिने अपने 'स्याद्वादरत्नाकर' (द्वि० भा०, पृ० ३४९) में "विद्यानन्दमहोदय' ग्रन्यकी एक पक्ति उद्धृत करके नामोल्लेखपूर्वक उसका समालोचन किया है । यथा
'यत्तु विद्यानन्द महोदये च 'कालान्तराविस्मरणकारण हि धारणाभिधान ज्ञान सस्कार प्रतीयते' इति वदन् सस्कारधारणयोरकार्यमचकथत्' ।
इससे स्पष्ट जाना जाता है कि 'विद्यानन्दमहोदय' विद्यानन्द स्वामीके जीवनकालसे तीनसौ-चारसी वर्ष बाद तक भी विद्वानोकी ज्ञानचर्चा और अध्ययनका विषय रहा है। आश्चर्य नही कि उसकी सैकहो कापिया न हो पानेसे वह सब विद्वानोको शायद प्राप्त नहीं हो सका अथवा प्राप्त भी रहा हो तो अष्टसहनी आदिकी तरह वादिराज आदिने अपने ग्रन्थोमें उसके उद्धरण ग्रहण न किये हो। जो हो, पर उक्त प्रमाणसे निश्चित है कि वह बननेके कई सौ वर्ष बाद तफ विद्यमान रहा है । सम्भव है वह अब भी किसी लायब्ररी या सरस्वती-भण्डारमें दीमकोंका भक्ष्य बना पडा हो। अन्वेषण करनेपर अकलदेवके प्रमाणस ग्रह तया अनन्तवीर्यकी सिद्धिविनिश्चयटीकाकी तरह किसी श्वेताम्बर शास्त्रभडारमें मिल जाय, क्योकि उनके यहाँ शास्त्रोकी सुरक्षा और सुव्यवस्था यति-मुनियोंके हाथोमें रही है और अब भी वह कितने ही स्थानों पर चलती है। हालमें हमें मुनि पुण्यविजयजीके अनुग्रहसे वि० स० १४५४ की लिखी अर्थात साढ़े पाचसौ वर्ष पुरानी अधिक शुद्ध अष्टसहस्रीकी प्रति प्राप्त हुई है, जो मुद्रित अष्टसहनीमें सैकडों सूक्ष्म तथा स्थूल अशुद्धियो भार श्रुटित पाठोको प्रदर्शित करती है। यह भी प्राचीन प्रतियोकी सुरक्षाका एक अच्छा उदाहरण है । इसस 'विद्यानन्दमहोदय' के भी श्वेताम्बर शास्त्रभडारोमें मिलनेकी अधिक आशा है। अन्वेषकोको उसकी खोजका प्रयत्न करते रहना चाहिये।
२ शका-विद्वानोंसे सुना जाता है। कि बड़े अनन्तवीर्य अर्थात सिद्धिविनिश्चयटीकाकारने अकलक देवके 'प्रमाणसग्रह' पर 'प्रमाणसग्रहभाष्य' या 'प्रमाणसग्रहालकार' नामका बृहद् टीका-ग्रन्थ लिखा है परन्तु आज वह उपलब्ध नही हो रहा । क्या उसके अस्तित्व-प्रतिपादक कोई उल्लेख है जिनसे विद्वानोकी उक्त अनुश्र तिको पोषण मिले ?
-२८४
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
२ समाधान-हां, प्रमाणसंगहभाप्य अथवा प्रमाणसंग्रहालकारके उल्लेख मिलते हैं । स्वय सिद्धिविनिश्चयटीकाकारने सिद्धिविनिश्चयटीकामें उसके अनेक जगह उल्लेख किये है और उसमें विशेष जानने तथा कथन करनेकी सूचनाएं की हैं । यथा
१ 'इति चचित प्रमाणसग्रहभाष्ये'-*सि० वि० टी० लि. प० १२ । २ 'इत्युक्तं प्रमाणसग्रहालकारे-सि० लि. प०१९ । ३ 'शेषमत्र प्रमाणसग्रहभाष्यात्प्रत्येयम्'-सि० ५० ३९२ । ४ 'प्रपचस्तु नेहोक्तो ग्रथगौरवात् प्रमाणसग्रहभाष्याज्ज्ञेय -सि० लि. प० ९२१ । ५ 'प्रमाणसग्रहभाष्ये निरस्तम्'-सि० लि० १० ११०३ । ६ 'दोषो रागादिख्यिात प्रमाणसग्रहभाष्ये'-सि० लि०प०१२२२ ।
इन असदिग्ध उल्लेखोंसे 'प्रमाणसग्रहमाण्य' अथवा 'प्रमाणसग्रहालकार' की अस्तित्वविषयक विद्वद्अनुश्रुतिको जहां पोषण मिलता है वहां उसकी महत्ता, अपूर्वता और वृहत्ता भी प्रकट होती है । ऐसा अपूर्वग्रन्थ, मालूम नही इस समय मौजूद है अथवा नष्ट हो गया है ? यदि नष्ट नहीं हुआ और किसी लायन रीमें मौजूद है तो उसका अनुसन्धान होना चाहिये । (कितने खेदकी बात है कि हमारी लापरवाहीसे हमारे विशाल साहित्योद्यानमेंसे ऐसे-ऐसे सुन्दर और सुगन्धित ग्रन्थ-प्रसून हमारी नजरोंसे ओझल हो गये। यदि हम मालियोने अपने इस विशाल बागकी जागरूक होकर रक्षा की होती तो वह आज कितना हरा-भरा दिखता और लोग उसे देखकर जैन-साहित्योद्यानपर कितने मुग्ध और प्रसन्न होते । विद्वानोको ऐसे ग्रन्थोका पता लगानेका पूरा उद्योग करना चाहिये।
३ शका-गोम्मटसार जीवकाण्ड और धवलामें जो नित्यनिगोद और इतर निगोदके लक्षण पाये जाते हैं क्या उनसे भी प्राचीन उनके लक्षण मिलते हैं ?
३ समाधान-हां, मिलते हैं। तत्त्वार्थवातिकमें अकलङ्गदेवने उनके निम्न प्रकार लक्षण दिये हैं
'त्रिष्वपि कालेष त्रसभावयोग्या ये न भवन्ति ते नित्यनिगोता , सभावमवाप्ता अवाप्स्यन्ति च ये तेऽनित्यनिगोता.'-त. वा० पु. १००।
अर्थात् जो तीनों कालोमें भी प्रसभावके योग्य नहो है वे नित्यनिगोत हैं और जो प्रसभावको प्राप्त हुए हैं तथा प्राप्त होगे वे अनित्यनिगोव हैं।
४ शका-'सजद' पदकी चकि समय आपने 'सजद पदके सम्बन्धमें अकलङ्कदेवका महत्त्वपूर्ण अभिमत' लेखमें यह बतलाया था कि अकलहदेवने तत्त्वार्थवातिकके इस प्रकरणमे षट्खण्डागमके सूत्रोका प्राय अनुवाद दिया है । इसपर कुछ विद्वानोंका कहना था कि अकलदेवने तत्त्वार्थवातिकम पट्खण्डागमका उपयोग किया ही नही । क्या उनका यह कहना ठीक है ? यदि है तब आपने तत्त्वार्थवात्तिकमें पट्खण्डागमके सूत्रोका अनुवाद कैसे बतलाया?
४ समाधान-हम आपको ऐसे अनेक प्रमाण नीचे देते हैं जिनसे आप और वे विद्वान् यह माननेको वाध्य होगे कि अकलदेवने तत्त्वार्थवात्तिकमें पट्खण्डागमका खूब उपयोग किया है । यथा
(१) 'एव हि समयोऽवस्थित सत्प्ररूपणाया कायानुवादे-"असा द्वीन्द्रियादारभ्य मा अयोगकेवलिन इति"।-तत्त्वा० पृ०८८ । १. वीर-सेवामन्दिरमें जो सिद्धिविनिश्चयटीकाकी लिखित प्रति मौजूद है नमोके आधारसे पनों को सख्या
डाली गई है।
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह षट्खण्डागमके निम्न सूत्रका संस्कृतानुपाद है"तसकाइया बीइदिय-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति" |-पट्ख० १-१-४४ ।
(२) 'आगमे हि जीवस्थानादिष्वनुयोगद्वारेणादेशवचने नारकाणामेवादौ सदादिप्ररूपणा कृता।'-तत्त्वा० पृ० ५५ ।
इसमें सत्प्ररूपणाके २५वें स्त्रको ओर स्पष्ट सकेत है।
(३) 'एवं हि उक्तमार्षे वर्गणाया बन्धविधाने नोआगमद्रव्यवन्धविकल्पे सादिवेस्रसिकवन्धनिर्देश प्रोक्त विषम स्निग्धताया विषमरूक्षताया च बन्ध समस्रिग्धताया समरूक्षताया च भेद. इति तदनुसारेण च सूत्रमुक्तम्'-तत्त्वा० ५-३७, पृ० २४२ ।
यहां पाचवें वर्गणा खण्डका स्पष्ट उल्लेख है । (४) 'स्यादेतदेव मागम प्रवृत्त । पचेन्द्रिया असज्ञिपचेन्द्रियादारभ्य आ अयोगकेवलिन'
-२० वा० पू० ६३ । यह षट्खण्डागमके इस सुत्रका अक्षरश सस्कृतानुवाद है"पचिदिया असपिणपचिदिय-प्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति"-पट० १-१-३७ ।
इन प्रमाणोंसे अमदिग्ध है कि अकलव,देवने तत्त्वार्थवात्तिकमे पट्खण्डागमका अनुवादादिरूपसे उपयोग किया है। ___ ५-शका-मनुष्यगतिमे माठ वर्पकी अवस्थामें भी सम्यक्त्व उत्पन्न हो जाता है, ऐसा कहा जाता है, इसमें क्या कोई आगम प्रमाण है?
V५-समाधान-हां, उसमें आगम प्रमाण है । तत्त्वार्थवात्तिकमें अकलङ्कदेवने लिखा है कि पर्याप्तक मनुष्य ही सम्यक्त्वको उत्पन्न करता है, अपर्याप्तक मनुष्य नही और पर्याप्तक मनुष्य आठ वर्षको अवस्थासे ऊपर उसको उत्पन्न करते हैं, इससे कममें नहीं' । यथा___'मनुष्या उत्पादयन्त पर्याप्तका उत्पादयन्ति नापर्याप्तका । पर्याप्तकाश्चाऽष्टवर्षस्थिते
न्ति नाधस्तात् ।-पृ० ७२, म०२, सू० ३ ।
६-शका-दिगम्बर मुनि जब विहार कर रहे हो और रास्तेमें सूर्य अस्त हो जाय तथा आस-पास कोई गांव या शहर भी न हो तो क्या विहार बन्द करके वे वही ठहर जायेंगे अथवा क्या करेंगे?
६-समाधान-जहाँ सूर्य अस्त हो जायगा वही ठहर जायेंगे, उससे आगे नहीं जायेंगे । भले ही वहां गांव या शहर न हो, क्योकि मुनिराज ईर्यासमितिके पालक होते हैं और सूर्यास्त होनेपर ईर्यासमितिका पालन बन नही सकता और इसीलिए सूर्य जहां उदय होता है वहासे तब नगर या गांवके लिए बिहार करते हैं । कि जैसा आचार्य जटासिंहनन्दिने वराङ्गचरितमें कहा है -
यस्मिस्तु देशेऽस्तमुपैति सूर्यस्तत्रव सवासमुखा बभूवु ।
यत्रोदय प्राप सहस्ररश्मिर्यातास्ततोऽथा पुरि वाऽप्रसगा ॥-३०-४७ इसी बातको मुनियोके आचार-प्रतिपादक प्रधान ग्रन्थ मूलाचार (गाथा ७८४) में निम्न रूपसे बतलाया है
ते णिम्ममा सरीरे जत्थत्थमिदा वसति अणिएदा। सवणा अप्पडिवद्धा विज्जू तह दिट्ठणठ्ठा या ॥
- २८६ -
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थात् 'वे साधु शरीरमें निर्मम हुए जहां सूर्य अस्त हो जाता है वहाँ ठहर जाते हैं । कुछ भी अपेक्षा नही करते। और वे किसीसे बन्धे हुए नही, स्वतन्त्र हैं, बिजलीके समान दृष्टनष्ट है, इसलिये अपरिग्रह है।
७-शका-लोग कहते हैं कि दिगम्बर जैन मुनि वर्षावास (चातुर्मास) के अतिरिक्त एक जगह एक दिन रात या ज्यादासे ज्यादा पांच दिन-रात तक ठहर सकते है । पीछे वे वहाँसे दूसरी जगहको जरूर बिहार कर जाते है, इसे ये सिद्धान्त और शास्त्रोका कथन बतलाते हैं । फिर आचार्य शातिसागरजी महाराज अपने सघ सहित वर्षभर शोलापुर शहरमे क्यो ठहरे ? क्या कोई ऐसा अपवाद है ?
७-समाधान-लोगोका कहा ठीक है । दिगम्बर जैन मुनि गाँवमे एक रात और शहर में पांच रात तक ठहरते है । ऐसा सिद्धान्त है और उसे शास्त्रोम बतलाया गया है । मूलाचारमें और जटासिंहनन्दिके वरागचरितमें यही कहा है । यथा
गामेयरादिवासी णयरे पचाहवासिणो धीरा। सवणा फासुविहारी विवित्तएगतवासो' य ।।-मूला० ७८५ ग्रामैकरात्र नगरे च पञ्च समषरव्य नमन प्रचारा।
न किचिदप्यप्रतिबाधमाना विहारकाले समितो विजिह ।।-वराग ३०-४५ परन्तु गांव या शहरमें वर्षों रहना मुनियोके लिए न उत्सर्ग बतलाया और न अपवाद ।
भगवती आराधनामें मुनियोके एक जगह कितने काल तक ठहरने और बादमे न ठहरनेके सम्बन्धमें विस्तृत विचार किया गया है। लेकिन वहां भी एक जगह वर्षों ठहरना मुनियोके लिये विहित नही बतलाया । नौवें और दशवें स्थितिकल्पोकी विवेचना करते हुए विजयोदया और मूलाराधना दोनो टीकाओमें सिर्फ इतना ही प्रतिपादन किया है कि ' नोबें कल्पमे मुनि एक एक ऋतुमे एक एक मास एक जगह ठहरते है । यदि ज्यादा दिन ठहरे तो 'उद्गमादि दोषोका परिहार नहीं होता, वसतिकापर प्रेम उत्पन्न होता है, सुखमें लम्पटपना उत्पन्न होता है, आलस्य आता है, सुकुमारताकी भावना उत्पन्न होती है, जिन श्रावकोके यहाँ आहार पूर्वमें हुआ था वहाँ ही पुनरपि आहार लेना पडता है, ऐसे दोष उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिए मुनि एक ही स्थानमें चिरकाल तक रहते नही हैं। दशवें स्थितिकल्पमें चतुर्मासमें एक ही स्थानपर रहने का विधान किया है और १२० दिन एक स्थानपर रह सकनेका उत्सर्ग नियम बतलाया है। कमती बढती दिन ठहरनेका अपवाद नियम भी इस प्रकार बतलाया है कि श्रुतग्रहण (अभ्यास), वृष्टिकी बहुलता, शक्तिका अभाव, वैयावृत्य करना आदि प्रयोजन हो तो ३६ दिन और अधिक ठहर सकते हैं अर्थात् आषाढशुक्ला दशमोसे प्रारम्भ कर कात्तिक पौर्णमासीके आगे तीस दिन तक एक स्थानमें और अधिक रह सकते हैं। कम दिन ठहरनेके कारण ये बतलाये है कि मरी रोग, दुर्भिक्ष, ग्राम अथवा देशके लोगोको राज्य-क्रान्ति आदिसे अपना स्थान छोडकर अन्य ग्रामादिकोमे जाना पडे, सघके नाशका निमित्त उपस्थित हो जाय आदि, तो मुनि चतुर्मासमे भी अन्य स्थानको विहार कर जाते हैं। विहार न करनेपर रत्नत्रयके नाशकी सम्भावना होती है । इसलिये आपाढ़ पूणिमा बीत जानेपर प्रतिपदा आदि तिथियोमें दूसरे स्थानको जा सकते हैं और इस तरह एकसौ बीस दिनोमें बीस दिन कम हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त वर्षों ठहरनेका वहाँ कोई अपवाद नही है । यथा
"ऋतुषु षट्सु एककमेव वासमेका वसतिरन्यदा विहरति इत्यय नवम स्थितिकल्प । एकत्र चिरकालावस्थाने नित्यमदगमदोष चन परिहतु क्षम । क्षेत्रप्रतिबद्धता, सातगुरुता, अलसता, सौकुमार्यभावता, ज्ञातभिक्षाग्राहिता च दोषाः। पज्जो समणकप्पो नाम दशम । वर्षा
--२८७ -
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
कालस्य चतुर्ष मासेषु एकत्र वावस्थान भ्रमणत्याग । स्थावरजङ्गमजीवाकुलो हि तदा क्षिति तदा भ्रमणे महानसयम , वृष्टया शीतवातपातेन वात्मविराधना । पतेद् वाप्यादिषु स्थाणुकन्टकादिभिर्वा प्रच्छन्नलेन कईमेन बाध्यत इति विशत्यधिक दिवसशत एकनावस्थानमित्ययमत्सर्ग । कारणापेक्षया तु हीनाधिक वासस्थान, सयताना आषाढशुद्धदशम्या स्थिताना उपरिष्टाच्च कातिकपौर्णमास्यास्त्रिशहिवसावस्थानम् । वष्टिबहलता. श्रतग्रहण. शक्त्यभाववैयावत्यकरण प्रयोजनमुद्दिश्य अवस्थानमेकत्रेति उत्कृष्टकाल. | मार्या, दुर्भिक्षे, ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमित्ते समुपस्थिते देशान्तर याति । अवस्थाने सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति । पौर्णमास्यामाषाढयामतिक्रान्ताया प्रतिपदादिषु दिनेष याति । यावच्च त्यक्ता विशति-दिवसा एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य एष दशक स्थितिकल्प ।" -विजयोदया टी० ए० ९१६ ।
आचार्य शान्तिसागर महाराज संघ सहित वर्षभर शोलापुर शहर में किस दृष्टि अथवा किस शास्त्रके आधारसे ठहरे रहे । इस सम्बन्धमें सघको अपनी दृष्टि स्पष्ट कर देना चाहिए, जिससे भविष्यमें दिगम्बर मुनिराजोमें शिथिलाचारिता और न बढ जाय ।
८-शका-अरिहत और अरहत इन दोनों पदोमें कौन पद शुद्ध है और कौन अशुद्ध ?
2-समाधान-दोनों पद शद है। आर्प-ग्रन्थोमें दोनों पदोंका व्यत्पत्तिपूर्वक अर्थ दिया गया है और दोनोको शुद्ध स्वीकार किया गया है। श्रीषट्खण्डागमकी धवला टीकाकी पहली पुस्तकमें आचार्य वीरसेनस्वामीने देवतानमस्कारसूत्र (णमोकारमत्र) का अर्थ देते हुए अरिहत और अरहत दोनोका व्युत्पत्तिअर्थ दिया है और लिखा है कि अरिका अर्थ मोहशत्र है उसको जो हनन (नाश) करते हैं उन्हें 'अरिहत' कहते हैं । अथवा अरि नाम ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिकर्मोका है उनको जो हनन (नाश) करते हैं उन्हें अरिहत कहते हैं। उक्त कर्मोके नाश हो जानेपर शेष अघाति कर्म भी भ्रष्ट (सडे) बीजके समान नि शक्तिक होजाते हैं और इस तरह समस्त कर्मरूप अरिको नाश करनेसे 'अरिहत' ऐसी सज्ञा प्राप्त होती है । और अतिशय पूजाके अह-योग्य होनेसे उन्हें अरहत या अर्हन्त ऐसी भौ पदवी प्राप्त होती है, क्यो कि जन्मकल्याणादि अवसरोपर इन्द्रादिको द्वारा वे पूजे जाते हैं । अत. अरिहत और अरहत दोनो शुद्ध हैं। फिर भी णमोकारमन्त्रके स्मरणमें 'अरिहत' शब्दका उच्चारण ही अधिक उपयुक्त है, क्योकि षट्खण्डागममें मूल पाठ यही उपलब्ध होता है और सर्वप्रथम व्याख्या भी इसी पाठकी पाई जाती है । इसके सिवाय जिन, जिनेन्द्र, वीतराग जैसे शब्दोका भी यही पाठ सीधा बोधक है । भद्रबाहकृत आवश्यक नियुक्तिमें भी दोनो शन्दोका व्युत्पत्ति अर्थ देते हए प्रथमत 'अरिहत' शब्दकी ही व्याख्या की गई है । यथा
अट्ठविह पि य कम्म अरिभूय होइ सव्वजीवाण । त कम्ममरि हता अरिहता तेण वुच्चति ॥९२०॥ अरिहति वदण-णमसणाइ अरिहति पूयसक्कार ।
सिद्धिगमण च अरिहा अरहता तेण वच्चति ॥९२१॥ ९-शका कहा जाता है कि भगवान आदिनाथसे मरीचि (भरतपुत्र) ने जब यह सुना कि उसे अन्तिम तीर्थंकर होना है तो उसको अभिमान आगया, जिससे वह स्वच्छन्द प्रवृत्ति करके नाना कुयोनियमि गया । क्या उसके इस अभिमानका उल्लेख प्राचीन शास्त्रोमें आया है ?
९-समाधान-हाँ, आया है। जिनसेनाचार्यकृत आदिपुराणके अतिरिक्त भद्रबाहकृत आवश्यकनियंक्तिमें भी मरीचिके अभिमानका उल्लेख मिलता है और वह निम्न प्रकार है
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
तन्वयणं सोऊण तिवई आप्फोडिऊण तिक्खुत्तो। अन्भहियजायहरिसो तस्स मरीई इम भणई ॥४३०।। जइ वासुदेवु पढमो मूआइ विदेहि चक्कवट्टित्त । ।
चरमो तित्थयराण होऊ अल इत्तिम मज्झ ॥४३१॥ १० शका-पूजा और अर्चा में क्या भेद है ? क्या दोनो एक हैं ?
१० समाधान-यद्यपि सामान्यत दोनोमें कोई भेद नही है, पर्यायशन्दोके रूपमें दोनोका प्रयोग रूढ है तथापि दोनोमें कुछ सूक्ष्म भेद जरूर है। इस भेदको श्रीवीरसेनस्वामीने षट्खण्डागमके 'बन्धस्वामित्व' नामके दूसरे खण्डकी धवला-टीका पुस्तक आठमें इस प्रकार बतलाया है
"चरु-वलि-पुष्फ-फल गध-धूप दीवादीहि समभत्तिपयासो अच्चण णाम । एदाहि सह अइदघय-कप्परुक्ख-महामह-सव्वदोभद्दादिमहिमाविहाण पूजा णाम ।" पृ० ९२ ।
अर्थात् चरु, वलि (अक्षत), पुष्प, फल, गन्ध, धूप और दीप इत्यादिसे अपनी भक्ति प्रकाशित करना अर्चना (अर्चा) है और इन पदार्थों के साथ ऐन्द्रध्वज, कल्पवृक्ष, महामह, सर्वतोभद्र आदि महिमा (धर्मप्रभावना)/ का करना पूजा है। ___तात्पर्य यह कि फलादि द्रव्योको चढा कर (स्वाहापूर्वक समर्पण कर) सक्षेपमें लघु भक्तिको प्रकट करना अर्चा है और उक्त द्रव्यो सहित समारोहपूर्वक विशाल भक्ति प्रकट करना पूजा है ।
___ यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि इन्द्रध्वज आदि पूजामहोत्सवोका विधान वीरसेनस्वामीसे बहुत पहलेसे विहित है और जैन, शासनकी प्रभावनामें उनका महत्त्वपूर्ण स्थान है। ११ शका-निम्न पद्य किस ग्रन्थका मूल पद्य है ? उसका मूल स्थान बतलायें ?
सूखमाल्हादनाकार विज्ञानं मेयबोधनम् ।
शक्ति क्रियानुमेया स्याचून कान्तासमागमे ।' ११ समाधान-उक्त पद्य अनेक ग्रन्थोमें उद्धृत पाग जाता है। आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री (पृ० ७८) में इसे 'इति वचनात्' शब्दोके साथ दिया है। आचार्य अभयदेवने सन्मतिसूत्र-टीका (पृ० ४७८) में इस पद्य को उद्धृत करते हुए लिखा है
"न च सौगतमतमेतत, न जैनमतमिति वक्तव्यम, 'सहभाविनो गुणा क्रमभाविन पर्याया' [ ] इति जैनैरभिघानात । तथा च सहभावित्व गुणाना प्रतिपादयता
दृष्टान्तार्थमुक्तम्-"
इसके बाद उक्त पद्य दिया है। सिद्धिविनिश्चयटीकाकार बडे अनन्तवीर्यने इसी पद्यका निम्न प्रकार उल्लेख किया है
___ "कथमन्यथा न्यायविनिश्चये 'सहभुवो गुणा' इत्यस्य 'सुखमाल्हादनाकार ' इति निदर्शन स्यात् ।"-(टी० लि० पृ० ७६ ।)
अभयदेव और अनन्तवीर्यके इन उल्लेखोंसे प्रतीत होता है कि गुणोंके सहभावीपना प्रतिपादन करने के लिए दृष्टान्तके तौरपर उसे अकलदेवने न्यायविनिश्चयमें कहा है। परन्तु न्यायविनिश्चय मूलमें यह पद्य उपलब्ध नही होता । हो सकता है उसकी स्वोपज्ञवृत्तिमें उसे कहा हो। मूलमें तो सिर्फ ११वी कारिकामें इतना ही कहा है कि 'गुणपर्ययवतव्य ते सहक्रमवृत्तय'। यदि वस्तुत यह पद्य न्यायविनिश्चयवृत्तिमें कहा
-२८९ -
न-३७
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
है तो यह प्रश्न उठता है कि वहाँ वृत्तिकारने उसे उद्धत किया है या स्वय रचकर उपस्थित किया है ? यदि उद्धृत किया है तो मालूम होता है कि वह अकलवदेवसे भी प्राचीन है। और यदि स्वय रचा है तो उसे उनके न्यायविनिश्चयकी स्वोपज्ञवृत्तिका समझना चाहिए। वादिराजसरिने न्यायविनिश्चयविवरण (५० २४० पूर्वा०) में 'यथोक्त स्याद्वावमहार्णवे' शब्दोके उल्लेख-पूर्वक उक्त पद्यको प्रस्तुत किया है, जिससे वह स्यावावमहार्णव' नामक किसी जैन दाशनिक ग्रन्थका जाना जाता है। यह ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है और इससे यह नहीं कहा जासकता कि इसके रचयिता अमुक आचार्य है। हो सकता है कि अकलङ्कदेवने भी इसी स्याद्वादमहार्णवपरसे उक्त पद्य उदाहरणके बतौर न्यायविनिश्चयकी स्वोपज्ञवृत्ति में, जो आज अनुपलब्ध है, उल्लेखिप्त किया हो और इससे प्रकट है कि यह पद्य काफी प्रसिद्ध और पुराना है ।
१२ शका-आधुनिक कितने ही विद्वान् यह कहते हुए पाये जाते हैं कि प्रसिद्ध मीमासक कुमारिल भट्टने अपने मीमासा-श्लोकवात्तिककी निम्न कारिकामोको समन्तभद्रस्वामीकी आप्तमीमासागत 'घटमौलिसुवर्णार्थी' आदि कारिकाके आधारपर रचा है और इसलिए समन्तभद्रस्वामी कुमारिलभट्टसे बढ़त पूर्ववर्ता विद्वान् हैं। क्या उनके इस कथनको पुष्ट करनेवाला कोई प्राचीन पुष्ट प्रमाण भी है ? कुमारिलकी कारिकाएं ये है--
नर्द्धमानकभगेन रुचक. क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिन. शोक प्रोतिश्चाप्युत्तरार्थिन ।।
हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्य तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । १२ समाधान-उक्त विद्वानोके कथनको पुष्ट करने वाला प्रमाण भी मिलता है । ई० सन् १०२५ के प्रख्यात विद्वान् आचार्य वादिराजसूरिने अपने न्यायविनिश्चयविवरण (लि० प० २४५) में एक असन्दिग्व स्पष्ट उल्लेख किया है और जो निम्न प्रकार है
"उक्त स्वामिसमन्तभद्रेस्तदुपजीविना भट्टेनापिघटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ।। वर्तमानकभगेन रुचक्र क्रियते यदा। तदा पूर्वार्थिन शोक्त प्रोतिश्चाप्युत्तरार्थिन ।
हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्य तस्माद्वस्तु यात्मकम् । इति च ॥' इस उल्लेखमें वादिराजने जो 'तनुपजीविना' पदका प्रयोग किया है उससे स्पष्ट है कि आजसे नौ सौ वर्ष पूर्व भी कुमारिलको समन्तभद्रस्वामीका उक्त विषयमें अनुगामी अथवा अनुसा माना जाता था। (जो विद्वान् समन्तभद्रस्वामीको कुमारिल और उसके समालोचक धर्मकीति के उत्तरवर्ती बतलाते हैं उन्हें वादिराजका यह उल्लेख अभूतपूर्व और प्रामाणिक समाधान उपस्थित करता है ।।)
-२९०
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य कुन्दकुन्द
भारतीय चिन्तको और ग्रन्थकारोमें आचार्य कुन्दकुन्दका अग्रपक्तिमें स्थान है । उन्होंने अपने विपुल वाड्मयके द्वारा भारतीय सस्कृतिको तत्त्वज्ञान और अध्यात्म प्रधान विचार तथा आचार प्रदान किया है । भारतीय साहित्य में प्राकृत भाषाके महापण्डित और इस भाषामे निवद्ध सिद्धान्त - साहित्यके रचयिता के रूपमें इनका नाम दूर अतीतकालसे विश्रुत है । मङ्गलकार्यके आरम्भमें बडे आदर के साथ इनका स्मरण किया जाता है । अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर और उनके प्रधान गणवर गौतम इन्द्रभूतिके पश्चात् आचार्य कुन्दकुन्दका मङ्गलरूपमें उल्लेख किया गया । जैसा कि निम्न पद्यसे प्रकट है
मङ्गल भगवान् वीरो मङ्गल गौतमो गणी । मङ्गल कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ||
इससे अवगत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द एक महान् प्रभावशाली हुए हैं, जो पिछले दो हजार वर्षो में हुए हजारो आचार्योंमें प्रथम एव असाधारण आचार्य है । उनके उत्तरवर्ती ग्रन्थकारोने अपने ग्रन्थों में उन्हें सश्रद्ध स्मरण किया है । इतना ही नही, शिलालेखो में भी उनकी असाधारण विद्वत्ता, अनुपम सयम, अद्भुत इन्द्रिय-विजय, उन्हें प्राप्त ऋद्धि-सिद्धियो आदिका विशेष उल्लेख किया गया है। पट्टावलियोसे विदित है कि उन्होंने आठ वर्षकी अवस्थामे ही साधु-दीक्षा ले ली थी और समग्र जीवन सयम और तपोनुष्ठान पूर्वक व्यतीत किया था । वे चौरासी वर्ष तक जिये थे और इस लम्बे जीवनमें उन्होने दीर्घ चिन्तन, मनन एव ग्रन्थ-सृजन किया था ।
इनके समयपर अनेक विद्वानोंने ऊहापोहपूर्वक विस्तृत विचार किया है । (स्वर्गीय प० जुगलकिशोर ‘मुख्तार’ ने’अनेक प्रमाणोसे विक्रमकी पहली शताब्दी समय निर्धारित किया है । मूल सघकी उपलब्ध पट्टावलीके अनुसार भी यही ममय (वि० स० ४९ ) माना गया है । डॉ० ए० एन० उपाध्येने सभी मान्य समयपर गहरा ऊहापोह किया है और ईस्वी सन्का प्रारम्भ उनका अस्तित्व- समय निर्णीत किया है।
ग्रन्थ-रचना
कुन्दकुन्दने अपनी ग्रन्थ-रचनाके लिए प्राकृत, पाली और संस्कृत इन तीन प्राचीन भारतीय भाषाओमें प्राकृतको चुना । प्राकृत उस समय जन भाषा के रूपमें प्रसिद्ध थी और वे जन-साधारण तक अपने चिन्तनको पहुँचाना चाहते थे । इसके अतिरिक्त पट्खण्डागम, कषायपाहुड जैसे आर्ष ग्रन्थ प्राकृत मे ही निवद्ध होनेसे प्राकृतकी दीर्घकालीन प्राचीन परम्परा उन्हे प्राप्त थी । अतएव उन्होने अपने सभी ग्रन्थोंकी रचना प्राकृत भाषामें ही की । उनकी यह प्राकृत शौरसेनी प्राकृत है । इसी शौरसेनी प्राकृत में दिगम्बर परम्पराके उत्तरवर्ती आचार्योने भी अपने ग्रन्थ रचे हैं । प्राकृत - साहित्यके निर्माताओ में आचार्य कुन्दकुन्दका मूर्धन्य स्थान है । इन्होने जितना प्राकृत वाङ्मय रचा है उतना अन्य मनीपीने नही लिखा । कहा जाता है कि
पुरातन - वाक्य-सूची, प्रस्तावना, पृ० १२, वीर सेवा मन्दिर, सरसावा, १९५० ई० । २. प्रवचनसार, प्रस्तावना, पृ० १० २५, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, १९३५ ई० ।
- २९१ -
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुन्दकुन्दने ८४ पाहुहो (प्राभृतौ-प्रकरणग्रन्यो) तथा आचार्य पुष्पदन्त-भूतबली द्वारा रचित 'पट्खण्डागम' आर्ष ग्रन्थकी विशाल टीकाकी भी रचना की थी। पर आज वह सब ग्रन्थ-राशि उपलब्ध नहीं है। फिर भी जो ग्रन्थ प्राप्त है उनसे जैन वाड्मय समृद्ध एव देदीप्यमान है । उनकी इन उपलब्ध कृतियोका सक्षिप्त परिचय दिया जाता है
१ प्रवचनसार-इसमें तीन अधिकार हैं-(१) ज्ञानाधिकार, (२) ज्ञेयाधिकार और (३) चारित्राधिकार । इन अधिकारोमें विषयोके वर्णनका अवगम उनके नामोसे ज्ञात हो जाता है। अर्थात पहले अधिकारमै ज्ञानका, दूसरेमें ज्ञेयका और तीसरेमें चारित्र (साध-चारित्र) का प्रतिपादन है। इस एक ग्रन्थके अध्ययनसे जैन तत्त्वज्ञान अच्छी तरह अवगत हो जाता है। इसपर दो व्याख्याएँ उपलब्ध हैं-एक आचार्य अमृतचन्द्रकी और दूसरी आचार्य जयसेनकी। अमृतचन्द्रकी व्याख्यानुसार इसमें २७५ (९२ + १०८+७५) गाथाएँ हैं और जयसेनकी व्याख्याके अनुसार इसमें ३१७ गाथाएं हैं । यह गाथाओकी सख्याकी भिन्नता व्याख्याकारोको प्राप्त न्यूनाधिक सख्यक प्रतियोके कारण हो सकती है। यदि कोई अन्य कारण रहा हो तो उसकी गहराईसे छानबीन की जानी चाहिए । ये दोनो व्याख्याएँ सस्कृतमें निबद्ध हैं और दोनो ही मूलको स्पष्ट करती हैं । उनमें अन्तर यही है कि अमृतचन्द्रकी व्याख्या गद्य-पद्यात्मक है और दुरूह एव जटिल है । पर जयसेनकी व्याख्या सरल एव सुखसाध्य है । तथा केवल गद्यात्मक है । हां, उसमें पूर्वाचार्योंके उद्धरण प्राप्त हैं ।
२ पचास्तिकाय-इसमे दो श्रुतस्कन्ध (अधिकार) है-१ पढ्द्रव्य-पचास्तिकाय और २ नवपदार्थ । दोनोके विषयका वर्णन उनके नामोसे स्पष्ट विदित है । (इसपर भी उक्त दोनो आचार्योकी सस्कृतमे टीकाएं है और दोनों मूलको स्पष्ट करती है । पहले श्रुतस्कन्धमे १०४ और दूसरेमें आचार्य अमृतचन्द्रके अनुसार ६८ तथा जयसेनाचार्यके अनुसार ६९ कुल १७२ या १७३ गाथाएँ है। 'मग्गप्पभावण?' यह (१७३ सख्यक) गाथा अमृतचन्द्रकी व्याख्यामें नहीं है किन्तु जयसेनकी व्याख्यामें है। यह गाथा-सख्याकी न्यूनाधिकता भी व्याख्याकारोको प्राप्त न्यूनाधिकसख्यक प्रतियोका परिणाम जान पडता है ।
३ समयसार-इसमें दश अधिकार है-१ जीवाजीवाधिकार, २ कत कर्माधिकार, ३ पुण्यपापाधिकार, ४ आस्रवाधिकार, ५ सवराधिकार, ६ निर्जराधिकार, ७ बन्धाधिकार, ८ मोक्षाधिकार, ९ सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार और १० स्याद्वादाधिकार । इन अविकारोके नामसे ही उनके विषयोका ज्ञान हो जाता है । (अन्तिम अधिकार व्याख्याकार आचार्य अमृतचन्द्रद्वारा अभिहित है, मूलकार आचार्य कुन्दकुन्दद्वारा रचित नही है। अमृतचन्द्रको इस अधिकारको रचनेकी गावश्यकता इसलिए पडी कि समयसारका अध्येता पूर्व अधिकारोमें वर्णित निश्चय और व्यवहारनयोकी प्रधान एव गौण दृष्टिसे समयसारके अभिधेय आत्मतत्त्वको समझे और निरूपित करे । इसीसे उन्होंने स्याद्वादाधिकारमें स्याद्वादके वाच्य-अनेकान्तका समर्थन करनेके लिए तत्-अतत्, सत्-असत्, एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि अनेक नयो (दृष्टियो) से आत्मतत्त्वका विवेचन किया है। अन्तमें कलश काव्योमें इसी तथ्यको स्पष्टतया व्यक्त किया है। समयसारपर भी उक्त दोनो आचार्योंकी सस्कृत-व्याख्याएं हैं, जो मूलके हार्दको बहुत उत्तम ढगसे स्पष्ट करती है । अमृतचन्द्रने प्रत्येक गाथापर बहुत सुन्दर एव प्रौढ़ कलशकाव्य भी रचे हैं, जो आचार्य कुन्दकुन्दके गाथा-मन्दिरके शिखरपर चढे कलशकी भौति सुशोभित होते है । अनेक विद्वानोने इन समस्त कलशकाव्योको 'समयसार-कलश'के नामसे पुस्तकारुढ करके प्रकाशित भी किया है । समयसार और समयसार-कलशके हिन्दी आदि भाषाओंमें अनुवाद भी हुए हैं, जो इनकी लोकप्रियताको प्रकट करते है। इसमें ४१५ गाथाएँ है। यह समयसार (समयप्राभृत) तत्त्वज्ञानप्रपूर्ण है।
-२९२
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
४ नियमसार --- इसमें १२ अधिकार और १८७ गाथाएँ हैं । इसपर पद्मप्र ममलघारीदेवकी सस्कृतटीका है, जो मूलको तो स्पष्ट करती ही है, सम्वद्ध एव प्रसंगोपात्त स्वरचित एव अन्य ग्रन्थकारोके श्लोकोका भी आकर है । इस ग्रन्थ में भी समयसार की तरह आत्मतत्त्वका प्रतिपादन है । मुमुक्षुके लिये यह उतना ही उपयोगी और उपादेय है जितना उक्त समयसार ।
५ दसण - पाहुड - इसमें सम्यग्दर्शनका २६ गाथाओ में विवेचन है । इसकी कई गाथाएँ तो सदा स्मरणीय है । यहाँ निम्न तीन गाथाओ को देनेका लोभ सवरण नही कर सकता
1
दसणभट्टा भट्टा दसणभट्टस्स णत्थि सिज्झति चरियभट्टा दसणभट्टा ण समत्तरयणभट्टा जाणता बहुविहाइ आराहणाविरहिया भमति तत्थेव सम्मत्तविरहियाण सुट्ठ वि उग्ग तव चरताण । ण लहति बोहिबाह अवि वाससहस्सकोडीहि ||५||
तत्येव ॥ ४ ॥
णिव्वाण | सिज्झति ॥३॥ सत्थाइ ।
( इन गाथाओ में कहा गया है कि 'जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे वस्तुत भ्रष्ट ( पतित) हैं, क्योकि सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट मनुष्यको मोक्ष प्राप्त नही होता । किन्तु जो सम्यग्दर्शनसे सहित है और चारित्र से भ्रष्ट हैं उन्हें मोक्ष प्राप्त हो जाता है । पर सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट सिद्ध नही होते । जो अनेक शास्त्रोके ज्ञाता हैं, किन्तु सम्यक्त्व - रत्नसे च्युत है वे भी आराधनाओोसे रहिन होनेसे वही वही ससारमें चक्कर काटते है । जो करोडो वर्षों तक उग्र तप करते हैं किन्तु सम्यग्दर्शन से रहित हैं वे भी बोधिलाभ (मोक्ष) को प्राप्त नही होते ।
कुन्दकुन्दने 'दसण- पाहुड' में सम्यग्दर्शनका महत्त्व निरूपित कर उसकी प्राप्तिपर ज्ञानी और साघु दोनो के लिए बल दिया है ।
६ चारित पाहुड - इसमें ४४ गाथाओके द्वारा मनुष्य जीवनको उज्ज्वल बनाने वाले एव मोक्षमार्ग के तीसरे पाये सम्यक्चारित्रका अच्छा निरूपण है ।
७ सुत्तपाहुड -- इसमें २७ गाथाएँ है । उनमें सूत्र (निर्दोषवाणी) का महत्त्व और तदनुसार प्रवृत्ति करनेपर बल दिया गया है ।
८ बोधपाहुड - इसमें ६२ गाथाएँ हैं, जिनमें उन ११ बातोका निरूपण किया गया है, जिनका बो मुक्ति लिए आवश्यक है ।
९. भावपाहुड - ६समें १६३ गाथाओ द्वारा भावो - आत्मपरिणामोकी निर्मलताका विशद निरूपण किया गया है ।
१० मोक्खपाहुड - इसमे १०६ गाथाएँ निबद्ध हैं । उनके द्वारा आचार्यने मोक्षका स्वरूप बतला हुए बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा इन तीन आत्मभेदोका प्रतिपादन किया है ।
११ लिंगपाहुड – इसमें २२ गाथाएँ है । इन गाथाओ में मुक्तिके लिए आवश्यक लिंग (वेष ), जो द्रव्य और भाव दो प्रकार का है, विवेचित है ।
१२ सीलपाहुड - ४० गाथाओ द्वारा इसमें विषयतृष्णा आदि अशीलको वन्ध एव दुखका कारण बतलाते हुए जीवदया, इन्द्रिय-दमन, सयम आदि शीलो (सम्प्रवृत्तियो ) का निरूपण किया गया है ।
- २९३ -
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
इन उपर्युक्त आठ पाहुडोको 'अष्टपाहुड' कहा जाता है और आरम्भके ६ पाहृढोपर श्रुतसागर सूरिकी सस्कृत-व्याख्याएँ है।
१३ बारस अणुवेक्खा-इसमें वैराग्योत्पादक १२ अनुप्रेक्षाओ (भावनाओ) का ९१ गाथाओंमें प्रतिपादन है।
१४ सिद्धभत्ति-इसमें १२ गाथाओ द्वारा सिद्धोका स्वरूप व उनकी भक्ति वणित है। १५ सूदभत्ति-इसमें ११ गाथाएं हैं। उनमें श्रुतकी भक्ति प्रतिपादित है। १६ चारित्तभत्ति-इसमें १० अनुष्टुप् गाथाओ द्वारा पांच प्रकारके चारित्रका दिग्दर्शन है। १७ योगिभत्ति-२३ गाथाओ द्वारा इसमें योगियोकी विभिन्न अवस्थाओका विवेचन है। १८ आयरियभत्ति-इसमें १० गाथाओ द्वारा आचार्य के गुणोंकी संस्तुति की गयी है।
१९ णिव्वाणभत्ति-इसमें २७ गाथाएं हैं और उनमें निर्वाणका स्वरूप एव निर्वाणप्राप्त तीर्थकरोंकी स्तुति की गयी है।
२० पचगुरुभत्ति-यह सात गाथाओंकी लघु कृति है और पांच परमेष्ठियोकी भक्ति इसमें निवद्ध है।
२१ थोस्सामिथुदि- -इसमें ८ गाथाओ द्वारा ऋषभादि चौबीस तीर्थकरोकी स्तुति की गयी है।
हन रचनाओंके सिवाय कुछ विद्वान् 'रयणसार' और 'मूलाचार' को भी कुन्दकुन्दकी रचना बतलाते हैं। कुन्दकुन्दकी देन
कुन्दकुन्दके इस विशाल वाड्मयका सूक्ष्म और गहरा अध्ययन करनेपर उनकी हमें अनेक उपलब्धियाँ अवगत होती है । उनका यहां अकन करके उनपर सक्षिप्त विचार करेंगे । वे ये हैं
१ साहित्यिक उद्भावनाएं, २ दार्शनिक चिन्तन, ३ तात्त्विक विचारणा और ४ लोककल्याणी दृष्टि ।
१ साहित्यिक उद्भावनाएँ-हम पहले कह आये है कि कुन्दकुन्दकी उपलब्ध समग्र प्रन्थ-रचना प्राकत-भाषामें निबद्ध है । प्राकृत-साहित्य गद्यसूत्रो और पद्यसूत्रो दोनोमें उपनिबद्ध हुआ है। कुन्दकुन्दने अपने समग्र ग्रन्थ, जो उपलब्ध है, पद्यसूत्रोाथाओमें ही रचे हैं । प्राकृतका पद्य-साहित्य यद्यपि एकमात्र गाथा-छन्दमें, जो आर्याछन्दके नामसे प्रसिद्ध है, प्राप्त है । किन्तु कुन्दकुन्दके प्राकृत पद्य-चाइमयकी विशेषता यह है कि उसमें गाथा-छन्दके अतिरिक्त अनुष्टुप् और उपजाति छन्दोका भी उपयोग किया गया है और इस छन्दवैविध्यसे उसमें सौन्दर्य के साथ आनन्द भी अध्येताको प्राप्त होता है । अनुष्टप् छन्दके लिए भावपाहह गाथा ५९, नियमसार गाथा १२६ और उपजाति छन्दके लिए प्रवचनसारके ज्ञेयाधिकारको 'णिस्स णिण दुराहिएण' गाथाएँ द्रष्टव्य हैं। यद्यपि षट्खण्डागमके पचम वर्गणाखण्डके ३६ वें "णिद्धस्स णि ण' सूत्रको ही अपने ग्रन्थका अग बना लिया है। फिर भी छन्दोकी विविधतामें क्षति नहीं आती।
इसी प्रकार मलकार-विविधता भी उनके ग्रन्थोंमे उपलब्ध होती है, जो कान्यकी दृष्टिसे उसका होना अच्छा है। अप्रस्तुतप्रशसा अलकारके लिए भावपाहुडको ‘ण मुयइ पयडि अभवो' (१३७ सख्यक) गाथा, उपमालकारके लिए इसी ग्रन्थकी 'जह तारयाण चद्रों' (१४३ सख्यक) गाथा और रूपकालकारके लिए उसीको 'जिणवरचरणबुरुह' (१५२) गाथा देखिए। इस प्रकार कुन्दकुन्दके प्राकृत वाङ्मयमें अनेक साहित्यिक उदभावनाएं परिलक्षित होती है, जिससे अवगत होता है कि आचार्य कुन्दकुन्द केवल सिद्धान्तवेत्ता मनीषी
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
ही नही थे, वे प्राकृत और सस्कृत भाषाओके प्रौढ कवि भी थे और इन भाषाओमें विविध छन्दों तथा अलकारोमें कविता करनेको विशिष्ट प्रतिभा उन्हें प्राप्त थी।
दार्शनिक चिन्तन
। कुन्दकुन्दका दार्शनिक चिन्तन आगम, अनुभव और तर्कपर विशेष माधृत है । जब वे किसी वस्तुका विचार करते है तो उसमें सिद्धान्तके अलावा दर्शनका आधार अवश्य रहता है। पचास्तिकायमें कुन्दकुन्दने द्रव्यके लक्षण किये है । एक यह कि जो सत् है वह द्रव्य है तथा सत् उसे कहते हैं जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य : दो पाये जायें । जगतकी सभी वस्तुएँ सत्स्वरूप है और इसीसे उनमें प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाया जाता है । दूसरा लक्षण यह है कि जो गुणो और पर्यायोका आश्रय है । अर्थात् गुण-पर्याय वाला है। पहला लक्षण जहाँ द्रव्यकी त्रयात्मक शक्तिको प्रकट करता है वहीं दूसरा लक्षण द्रव्यको गुणो और पर्यायोका पुञ्ज सिद्ध करता है तथा उसमे सहानेकान्त और क्रमानेकान्त दो अनेकान्तोको सिद्ध कर सभी वस्तुओको अनेकान्तात्मक बतलाता है । कुन्दकुन्दके इन दोनो लक्षणोको उत्तरवर्ती गृद्धपिच्छ जैसे सभी आचार्योंने अपनाया है ।
कुन्दकुन्दका दूसरा नया चिन्तन यह है कि आगमोमें जो 'सिया अत्यि' (स्याद् अस्ति-कथचित् है) और 'सिया णत्यि' (स्यान्नास्ति-कथचित् नही है) इन दो भगो (प्रकारो)से वस्तुनिरूपण है । कुन्दकुन्दने उसे सात भगों (प्रकारो) से प्रतिपादित किया है तथा द्रव्यमात्रको सात भग (सात प्रकार) रूप बतलाया है। उनका यह चिन्तन एव प्रतिपादन समन्तभद्र जैसे आचार्योंके लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ । समन्तभद्रने उनकी इस ‘सप्तभगी' को आप्तमीमासा, स्वयम्भूस्तोत्र आदिमें विकसित किया एव विशदतया निरूपित किया है। तात्त्विक चिन्तन
कुन्दकुन्दकी उपलब्ध सभी रचनाएं तात्त्विक चिन्तनसे ओतप्रोत हैं । समयसार और नियमसारमें जो शुद्ध आत्माका विशद और विस्तृत विवेचन है वह अन्यत्र अलभ्य है। आत्माके बहिरात्मा, अन्तरात्मा।
और परमात्मा इन तीन भेदोका (मोक्षपाहुड ४ से ७) कथन उनसे पहले किसी ग्रन्थमें उपलब्ध नहीं है । सम्यग्दर्शनके आठ अगोका निरूपण (स० सा० २२९-२३६), अणुमात्र राग रखने वाला सर्वशास्त्रज्ञ भी स्वसमयका ज्ञाता नही (पचा० १६७), जीवको सर्वथा कर्मबद्ध अथवा कर्म-अबद्ध बतलाना नय पक्ष (एकान्तवाद) है और दोनोका ग्रहण करना समयसार है (स सा १४१-१४३), तीर्थकर भी वस्त्रधारी हो तो सिद्ध नहीं हो सकता (द० पा० २३) आदि तात्त्विक विवेचन कुन्दकुन्दकी देन है । लोक कल्याणी दृष्टि
कुन्दकुन्दकी दृष्टिमें गुण कल्याणकारी हैं, देह, जाति, कुल आदि नही । (द पा २७) आदि निरूपण भी उनकी प्रशस्त देन है । इस प्रकार मनुष्यमात्रके हितका मार्ग उन्होंने प्रशस्त किया है ।
--२९५
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य गृद्धपिच्छ
सस्कृत-भापाम जैन सिद्धान्तोको गद्य-सूमोमें निवद्ध करने वाले प्रथम आचार्य गद्धपिच्छ है। इन्हें उमास्वामी और उमास्वाति भी कहा जाता है ।। पुरातनाचार्य वीरसेन और आचार्य विद्यानन्दने 'गृद्धपिच्छाचार्य' नामसे ही इनका उल्लेख किया है। इन्होने अपने किसी भी ग्रन्थमें उनके उमास्वामी और उमास्वतिनामोका उल्लेख नहीं किया । अभयचन्द्रने भी उनका गृद्धपिच्छके नामसे ही उल्लेख किया है।
निर्विवादरूपमें इनकी एक ही कृति मानी जाती है। वह है 'तत्त्वार्थसूत्र'। यह जैन परम्पराका विश्रुत और अधिक मान्य ग्रन्थ-रत्न है। यह समन श्रुतका आलोटन कर निकाला गया श्रुतामृत साहित्य और शिलालेखोमें इसका उल्लेख तत्त्वार्थ, तत्त्वार्थशास्त्र, मोक्षशास्त्र, नि श्रेयसशास्त्र, तत्त्वार्थाधिगम जैसे नामोसे किया गया है।
इसके सूत्र नपे-तुले. अर्थगर्भ, गम्भीर और विशद है। इस पर दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओके आचार्योने टीकाएँ, व्याख्याएँ, टिप्पण, भाष्य, वातिक आदि लिखे हैं और इसे बह मान दिया है। इन टीकादिमें कई तो इतनी विशाल और गम्भीर हैं कि वे स्वतंत्र ग्रन्थकी योग्यता रखती हैं। इनमें आचार्य अकलकदेवका तत्त्वार्थवार्तिक और वातिकोपर लिखा उनका भाष्य तथा आचार्य विद्यानन्दका तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और उसपर लिखा गया उन्हीका स्वोपज्ञ भाष्य ऐसी टीकाएँ हैं, जिनमें अनेकों विषयोंका विशद एव विस्तृत विवेचन है ।।
आचार्य गुद्धपिच्छको उनके अकेले इस तत्त्वार्थसूत्रने अमर एव यशस्वी बना दिया है । तत्त्वार्थसूत्रके सूक्ष्म और गहरे अध्ययनसे उनके व्यक्तित्वका उसके अध्येतापर अमिट प्रभाव पड़ता है। वे सिद्धान्तनिरूपणमें तो कुशल हैं ही, दर्शन और तर्कशास्त्रके भी महापण्डित है । तत्त्वार्थसूत्रका आठवा, नवा और दशवा ये तीन अध्याय सिद्धान्तके निरूपक है। शेष अध्यायोमें सिद्धान्त, दर्शन और न्यायशास्त्रका मिश्रित विवेचन है । यद्यपि दर्शन और न्यायका विवेचन इन अध्यायोमें भी कम ही है किन्तु जहाँ जितना उनका प्रतिपादन आवश्यक समझा, उन्होने वह विशदताके साथ किया है। वह युग मुख्यतया सिद्धान्तोंके प्रतिपादनका था। उनके समर्थनके लिए दर्शन और न्यायकी जितनी आवश्यकता प्रतीत हई उतना उनका आलम्बन लिया गया है। उदाहरणके लिए कणादका वैशेषिकसूत्र और जैमिनिका भीमासासत्र ले सकते हैं। इनमें अपने सिद्धान्तोका मुख्यतया प्रतिपादन है और दर्शन एव न्यायका निरूपण आवश्यकतानुसार हुआ है। आचार्य गृद्धपिच्छने इस तत्त्वार्थसूत्रमें भी वही शैली अपनायी है।
तत्त्वार्थसूत्रके पहले अध्यायके ५, ७, व ८ सख्यक सूत्रोंमें आगमानुसार सिद्धान्तका और इसी अध्यायके ६, १०, ११, १० सख्यक सूत्रोमें दर्शनका तथा इसी अध्यायके ३१ व ३२ सूत्रो एव दशवें अध्यायके ५, ६, ७, ८ सूत्रोमें न्याय (तर्क) का विवेचन इस बातको बतलाता है कि तत्त्वार्थसूत्रमें सिद्धान्तोंके प्रतिपादनके साथ दर्शन और न्यायका भी प्रतिपादन उपलब्ध है, जो अध्येताओंके लिए समयानुसार आवश्यक
रहा है।
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्वार्थ सूत्रकारको इस सस्कृत गद्य-सूत्ररचनाके समय अनेक स्थितियोका सामना करना पडा होगा, क्योंकि उनके पूर्व श्रमणपरम्परामें प्राकृत भाषा में ही गद्य या पद्य ग्रन्योके रचनेकी अपनी परम्परा थी । सम्भ है उनके इस प्रयत्नका आरम्भमें विरोव भी किया गया हो और इसीसे इस गद्यसूत्र संस्कृतग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्रको कई शताब्दियों तक किसी आचार्यने छुआ नही - उस पर किसीने कोई वृत्ति, टीका, वार्तिक, भाष्य आदिके रूपमें कुछ नही लिखा । देवनन्दि-पूज्यपाद (छठी शताब्दी) ही एक ऐसे आचार्य हैं, जिन्होंने उसपर तत्त्वार्थवृत्ति—सर्वार्थसिद्धि लिखी और उसके छिपे महत्त्वको प्रकट किया । फिर तो आगे अकलकदेव, विद्यानन्द, सिद्धसेन गणी आदिके लिए मार्ग प्रशस्त गया ।
इस सूत्र -प्रन्थमें वैशेषिकसूत्रकी तरह १० अध्याय है और आदि तथा अन्तमें एक-एक पद्य है । आदिका पद्य मङ्गलाचरणके रूपमें है और अन्तका पद्य ग्रन्थसमाप्ति एव लघुता सूचक है । वे ये है
आदि पद्य -
मोक्षमार्गस्य नेतार भेत्तार कर्मभूभृताम् । ज्ञातार विश्वतत्वाना वन्दे तद्गुणलब्धये ॥
अन्तिम पद्य
अक्षर-मात्र-पद-स्वरहीन व्यजन सधि-विवर्जितरेफम् । साधुभिरत्र मम क्षमितव्य को न विमुह्यति शास्त्र - समुद्रे ॥
वस्तुत आचार्य गृद्धपिच्छ और उनके तत्त्वार्थस्त्रका समग्र जैन वाङ्मयमें सम्मानपूर्ण एव विशिष्ट
स्थान है ।
न-3
else ge
२९७
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य समन्तभद्र
आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य गृद्धपिच्छके पश्चात् जैन वाङ्मयकी जिस मनीपीने सर्वाधिक प्रभावना की और उसपर आये आघातोको दूर कर यशोभाजन हुआ वह है स्वामी समन्तभद्राचार्य । शिलालेखो तथा परवर्ती ग्रन्थकारोके ग्रन्थोमें इनका प्रचर यशोगान किया गया है। अकलकदेवते इन्हें म्याटादतीर्थक प्रभावक और स्याद्वादमार्गका परिपालक, विद्यानन्दने स्याद्वादमार्गानणी, वादिराजने सर्वज्ञप्रदर्शक, मलयगिरिने आद्य स्तुतिकार तथा शिलालेसोमें वीर-शासनकी सहस्रगुणी वृद्धि करने वाला, श्रुतकेवलिसन्तानोन्नायक, समस्तविद्यानिधि, शास्त्रकार एव कलिकालगणधर जैसे विशेषणो द्वारा उल्लेखित किया है।
समन्तभद्र का समय वस्तुत दार्शनिक चर्चामो, शास्त्रार्थों और खण्डन-मण्डनके ज्वारभाटेका समय था। तत्त्वव्यवस्था ऐकिान्तिक की जाने लगी और प्रत्येक दर्शन एकान्त पक्षका आग्रही हो गया। जैन दर्शनके अनेकान्तसिद्धान्तपर भी घात-प्रतिघात होने लगे। फलत आहत-परम्परा ऋपभादि महावीरान्त तीर्थंकरो द्वारा प्रतिपादित तत्त्वव्यवस्थापक स्याद्वादको भूलने लगी, ऐसे समयपर स्वामी समन्तभद्रने ही स्याद्वादको उजागर किया और स्याद्वादन्यायसे उन एकान्तोका समन्वय करके अनेकान्ततत्त्वकी व्यवस्था की।
इनका विस्तृत परिचय और समयादिका निर्णय श्रद्धेय ५० जुगलकिशोरजी मुस्तारने अपने 'स्वामी समन्तभद्र' नामक इतिहास-ग्रन्थमें दिया है। वह इतना प्रमाणपूर्ण, अविकल और शोधात्मक है कि उसमें सशोधन, परिवर्तन या परिवर्धनको गुन्जाइश प्रतीत नही होती। वह आज भी विलकुल नया और चिन्तनपूर्ण है। विशेप यह है कि समन्तभद्र उस समय हुए, जब दिगम्बर परम्परामें मुनियोमें वनवास ही प्रचलित था, चैत्यवास नही । जैसा कि उनके स्वयभूस्तोत्रगत श्लोक १२८ तथा रत्नकरण्डश्रावकाचारके पद्य १४७ से प्रकट है । इसके सिवाय कुमारिल (ई० ६५०) और धर्मकोति (६३५) ने समन्तभद्रका ग्वण्डन किया है, अत वे उनसे पूर्ववर्ती हैं। आचार्य वादिराज3 (१०२५ ई०) के न्यायविनिश्चियविवरण (भाग १, पृ० ४३९) गत उल्लेख ("उक्त स्वामिसमन्तभद्रस्तुदुपजोविना भट्टेनाऽपि') से स्पष्ट है कि कुमारिलसे समन्तभद्र पूर्ववर्ती है । शोधके आधारपर इनका समय दूसरो-तीसरी शताब्दी अनुमानित होता है । समन्तभद्र द्वारा प्रतिपादित तत्त्व-व्यवस्था
आचार्य समन्तभद्रने प्रतिपादन किया कि तत्त्व ( वस्तु ) अनेकान्तरूप है-एकान्तरूप नहीं और अनेकान्त विरोधी दो धर्मों सत्-असत्, शाश्वत-अशाश्वत, एक-अनेक, नित्य-अनित्य आदि) के युगलक आश्रयसे प्रकाशमें आनेवाले वस्तुगत सात धर्मोका समुच्चय है और ऐसे-ऐसे अनन्त सप्तवर्म-समुच्च विराट 'अनेकान्तात्मक तत्त्वसागरमे अनन्त लहरोकी तरह लहरा रहे हैं और इसीसे उसमे अनन्त सप्तकोटियां । (सप्तभङ्गियां) भरी पडी हैं । हाँ, दृष्टाको सजग और समदृष्टि होकर उसे देखना-जानना चाहिए । उसे यह | ध्यातव्य है कि वक्ता या ज्ञाता वस्तुको जब अमुक एक कोटिसे कहता या जानता है तो वस्तुमें वह धर्म
6 जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन, प० १८० से १८७ । १ २ ३, यही ग्रन्थ, ‘अनुसधानमें पूर्वाग्रहमुक्ति आवश्यक कुछ प्रश्न और समाधान शीर्षक लेख ।
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
अमुक अपेक्षासे रहता हुआ भी अन्य धर्मोका निषेधक नही है । केवल वह विवक्षावश या अभिप्रायवश मुख्य ।
और अन्य धर्म गौण हैं। इसे समझनेके लिए उन्होने प्रत्येक कोटि (भङ्ग-वचनप्रकार)के साथ 'स्यात्' निपात-पद लगाने की सिफारिश की और 'स्यात्' का अर्थ 'कथञ्चित्'-किसी एक दृष्टि-किसी एक अपेक्षा बतलाया । साथ ही उन्होने प्रत्येक कोटिको निर्णयात्मकताको प्रकट करनेके लिए प्रत्येक उत्तरवाक्यके साथ ‘एवकार' पदका प्रयोग भी निर्दिष्ट किया, जिससे उस कोटिकी वास्तविकता प्रमाणित हो, काल्पनिकता या सावृतिकता नही। तत्त्वप्रतिपादनकी इन सात कोटियो (वचन प्रकारो)को उन्होने एक नया नाम भी दिया। वह नाम है भङ्गिनी प्रक्रिया-सप्तभङ्गी अथवा सप्तभङ्ग नय । समन्तभद्रकी वह परिष्कृत सप्तभङ्गी इस प्रकार प्रस्तुत हुई
(१) स्यात् सत्रूप ही तत्त्व (वस्तु) है। (२) स्यात् असत्रूप ही तत्त्व है। (३) स्यात् उभयरूप ही तत्त्व है। (४) स्यात् अनुभय (अवक्तव्य) रूप ही तत्त्व है। ) स्यात् सद् और अवक्तव्य रूप ही तत्त्व है। । स्यात् असत् और अवक्तव्यरूप ही तत्त्व है।
। स्यात् और असत् तथा अवक्तव्यरूप ही तत्त्व है।
इस सप्तभङ्गीमें प्रथम भङ्ग स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षासे, दूसरा परद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी अपेक्षासे, तीसरा दोनोकी सम्मिलित अपेक्षासे, चौथा दोनो (सत्त्व-असत्त्व)को एक साथ कह न सकनेसे, पांचा प्रथम-चतुर्थक सयोगसे, षष्ठ द्वितीय-चतुर्थक मेलसे और सप्तम तृतीय-चतुर्थके मिश्ररूपसे विवक्षित है। और प्रत्येक भङ्गका प्रयोजन पृथक्-पृथक् है। उनका यह समस्त प्रतिपादन आप्तमीमासामें' - द्रष्टव्य है।
____ समन्तभद्रने सदसद्वादकी तरह अद्वैत-द्वैतवाद, नित्य-अनित्यवाद, आदिमें भी इस सप्तभगीको समायोजित करके दिखाया है तथा स्याद्वादकी प्रतिष्ठा की है।
इस तरह तत्त्व-व्यवस्थाके लिए उन्होने विचारकोको एक स्वस्थ एवं नयी दृष्टि (स्यावाद शैली) प्रदानकर तत्कालीन विचार-सघर्षको मिटाने में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। दर्शन सम्बन्धी उपादानो-प्रमाणका स्वरूप, प्रमाणके भेद, प्रमाणका विषय, प्रमाणका फल, नयका स्वरूप, हेतु का स्वरूप, वाच्य-वाचकका स्वरूप आदिका उन्होने विशद प्रतिपादन किया। इसके लिए उनकी आप्तमीमासा (देवागम)का अवलोकन एव आलोडन करना चाहिए। आप्तमीमासाके अतिरिक्त स्वयम्भस्तोत्र और युक्त्यनुशासन भी उनकी ऐसी रचनाएँ हैं, जिनमें जैन दर्शन के अनेक अनु द्घाटित विषयोंका उद्घाटन हुआ है और उनपर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।
१. समन्तभद्र, आप्तमी० का० १४, १५, १६, २१ ।
-२९९ -
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य सामन्तभद्रका प्रभाव
कवीना गमकाना च वादीना वाग्मिनामपि । यश सामन्तभद्रीय मूनिचूडामणीयते ।।
अवटु-तटमटति झटिति स्फुट-पटु-वाचाट-धूर्जटेजिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितिवति का कथान्येषाम् ।।
पूर्व पाटलिपुत्र-मध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालव-सिन्धु-ठक्क-विषये काचीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽह करहाटक वहभट विद्योत्कट सकट वादार्थी विचराम्यह नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।।
वन्द्यो भस्मक-भस्मसात्कृतिपटु पद्मावतीदेवतादत्तोदात्तपद-स्वमन्त्र-वचन-व्याहूत-चन्द्रप्रभ । आचार्यस्स समन्तभद्राणभृद् येनेह काले कलौ जैन वम समन्तभद्रमभवद्भद्र समन्तान्मह ।।
काच्या नग्नाटकोऽह मलमलिनतनुलाम्बुशे पाण्डुपिण्ड पुण्डोड़े शायभिक्षु दशपुरनगरे मिष्टभोजी परिव्राट् । वाराणस्यामभूव शशधरघवल पाण्डुरागस्तपस्वी राजन् यस्यास्ति शक्ति स वदतु पुरतो जैन-निर्ग्रन्थवादी ।।
आचायोह कविरहमह वादिराट् पण्डितोह दैवज्ञोह भिषगहमह मान्त्रिकस्तान्त्रिकोह । राजन्नस्या जलघिवलयामेखलायामिलायामाज्ञासिद्ध. किमिति बहना सिद्धसारस्वतोह ।।
-३०० -
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
विविध
१ विहारको महान् देन तीर्थंकर महावीर और इन्द्रभूति २. विद्वान् और समाज ३ हमारे सास्कृतिक गौरवका प्रतीक अहार ४ आचार्य शान्तिसागरजीका समाधिमरण ५ आदर्श तपस्वी आचार्य नमिसागर ६, पूज्य वर्णी जी महत्त्वपूर्ण सस्मरण ७ प्रतिभा मूर्ति प० टोडरमल ८. श्रुत-पञ्चमी ९ जम्बू-जिनाष्टकम् १० दशलक्षण पर्व ११ क्षमावणी क्षमा पर्व १२ वीरनिर्वाण पर्व दीपावली १३ महावीर-जयन्ती १४, श्री पपौराजी जिनमन्दिरोंका अद्भुत समुच्चय १५. पावापुर १६ श्रवणबेलगोला और गोम्मटेश्वरका महामस्तकाभिषेक १७ राजगृहकी यात्रा और अनुभव १८. काश्मीरकी यात्रा और अनुभव १९. बम्बईका प्रवास
-३०१
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
विहारकी महान् देन : तीर्थंकर महावीर और इन्द्रभूति विहारकी महत्ता
विहारकी माटी बडी पावन है । उसने सस्कृति के निर्माताओको जन्म देकर अपना और सारे भारतका उज्ज्वल इतिहास निर्मित किया है। सास्कृतिक चेतनाको उसने जगाया है। राजनैतिक दृष्टिसे भी भारतके शासकीय इतिहासमें विहारका नाम शीर्ष और स्मरणीय रहेगा । विहारने ही सर्वप्रथम गणतन्त्र (लोकतन्त्र)को जन्म दिया और राजनीतिक क्रान्ति की। यद्यपि वैशालीका वह लिच्छवियोका गणतन्त्र आजके भारतीय गणतन्त्रको तुलनामे बहुत छोटा था। किन्तु चिरकालसे चले आये राजतन्त्रके मुकाबलेमें वैशाली गणतन्त्रकी परिकल्पना और उसकी स्थापना निश्चय ही बहुत बड़े साहसपूर्ण जनवादी कदम और विहारियोकी असाधारण सूझबूझकी बात है। सास्कृतिक चेतनामें जो कुण्ठा, विकृति और जडता आ गयी थी, उसे दूरकर उसमे नये प्राणोका संचार करते हुए उसे सर्वजनोपयोगी बनानेका कार्य भी विहारने ही किया, जिसका प्रभाव सारे भारतपर पडा। बुद्ध कपिलवस्तु (उत्तर प्रदेश) में जन्मे । पर उनका कार्यक्षेत्र विहार खासकर वैशाली, राजगृह आदि हो रहा, जहाँ तीर्थंकर महावीर व अन्य धर्मप्रचारकोकी धूम थी। महावीर और गौतम इन्द्रभूति तो विहारकी ही देन है, जिन्होने सस्कृतिमें आयी कुण्ठा एव जडताको दूर किया, उसे संवारा, निखारा और सर्वोदयी बनाया। प्रस्तुत निबन्धमें हम इन दोनोके महान् व्यक्तित्वोंके विषयमें ही विचार करेंगे और उनकी महान देनोका दिशा-निर्देश करेंगे। तीर्थंकर महावीर
तीर्थकर महावीर जैनधर्मके चौबीस तीर्थंकरोमें अन्तिम और चौवीसवें तीर्थकर हैं। आजसे २५७३ वर्ष पूर्व वैशालीके निकटवर्ती क्षत्रियकुण्डमें राजा सिद्धार्थ और रानी त्रिशला, जिनका दूसरा नाम प्रियकारिणी था, की कुक्षिसे चैत्र शुक्ला १३ को इनका जन्म हुआ था। राजा सिद्धार्थ ज्ञातृवशी क्षत्रिय थे और क्षत्रियकुण्डके शासक थे। वैशाली गणतन्त्रके अध्यक्ष (नायक) राजा चेटकके साथ इनका घनिष्ठ एव आत्मीय सम्बन्ध था। उनकी पुत्री त्रिशला इन्हें विवाही थी।
उस समय विहार और भारतकी घार्मिक स्थिति बहत ही दयनीय थी। धर्मके नामपर अन्धश्रद्धा, मूढता और हिंसाका सर्वत्र वोलबाला था । पशुवलि और नरवलिकी पराकाष्ठा थी। और यह सब होता था उसे धर्म मानकर । महावीर वचपनसे ही विवेकी, प्रज्ञावान और विरक्त स्वभावी थे। उनसे समाजकी यह स्थिति नहीं देखी गयी। उसे सुधारा जाय, यह सोचकर भरी जवानीमें ३० वर्षकी वयमें ही घर, राज्य और ससारसे विरक्त होकर संन्यास ले लिया-निग्रन्थ दीक्षा ले ली। १२ वर्ष तक जगलोमें, पर्वतगुफाओमें और वृक्षकोटरोमें समाधि लगाकर आत्म-चिन्तन किया तथा कठोर-से-कठोर अनशनादि तपोका आचरण किया । यह सब मौनपूर्वक किया। कभी किसीके कुछ पूछने और उत्तर न मिलनेपर उन्हें पागल समझा गया। किन्तु वे तो निरन्तर आत्म-चिन्तनमें लीन रहते थे। फलत उन्हें लोगो द्वारा पहुँचाये गये बहुत कष्ट भी सहने पडे । उन्हें जब केवलज्ञान हो गया और योग्य शिष्य इन्द्रभूति गौतम पहुँच गये, तब उनका मौन टूटा और लगातार तीस वर्ष तक उनके उपदेशोकी धारा प्रवाहित हुई । उनके पवित्र उपदेशों और
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार-सम्पन्न उच्च जीवनका तत्कालीन वातावरण एव उस वातावरणमें रहनेवाले लोगोंपर ऐसा असाधारण प्रभाव पहा, जो भारतके धार्मिक इतिहासमें उल्लेखनीय रहेगा । भारतीय संस्कृतिमें आगत कुण्ठा और जडताको दूर करनेके लिए उन्हें भागीरथी प्रयत्न करना पड़ा । पशुबलिका वडा जोर था। स्थान-स्थानपर यज्ञोकी महिमा (अभ्युदय, स्वर्गफल, स्त्री-पुत्र-धनादिका लाभ) बतलाकर उनका आयोजन किया जाता था। यज्ञमें मृत पशुको स्वर्गलाभ होता है और जो ऐसे यज्ञ कराते हैं उन्हें भी स्वर्ग मिलता है। ऐसी विडम्बना सर्वत्र थी। महावीरने इन सबका विरोधकर हिम्मतका कार्य किया। उन्होने अहिंसाका शखनाद फूंका, जिसे प्रबुद्धवर्गने ही नही, कट्टर विरोधियोंने भी सुना और उसका लोहा माना । इन्द्रभूति और उनके सहस्रों अनुगामी अपने विरोधभावको भूलकर अहिंसाके पुजारी हो गये और पशुबलिका उन्होंने स्वय विरोध किया। वैदिक यज्ञोमें होनेवाली अपार हिंसापर महावीरकी अहिंसक विचार-धाराका अद्भुत, जादू जैसा, असर हुआ। महावीरने मनुष्यकी भी बलिका निषेध किया तथा मासभक्षणको निन्द्य एव निषिद्ध बतलाया । मास-भक्षण करनेपर अहिंसाका पालन सम्भव नही है। प्रतीत होता है कि उस समय यज्ञोमें हुत पशुओ या मनुष्यकी बलिसे उत्पन्न मासको धर्म-विहित एक शास्त्रानुमोदित मानकर मक्षण किया जाता था और वेदवाक्योसे उसका समर्थन किया जाता था। महावीरने इसे दढ़तापूर्वक भूल और अज्ञानता बतलायी । दूसरे जीवोंको दुख देकर एव उन्हें मारकर उनके मासको खानेसे धर्म कदापि नही हो सकता । धर्म तो आत्मविकारो (काम-क्रोधादि) का जीतना, इन्द्रियोको वशमें करना, जीवो पर दया करना, दान देना और आत्मचिन्तन करना है। धर्म वह प्रकाश है, जो अपने आत्माके भीतरसे ही प्रकट होता है तथा भीतर और बाहरके अन्धेरेको मिटाता हम अभय प्रदान करता है । हिंसा अन्धकार है और वह अविवेकसे होती है । विचार और आचारमें लोग जितने अधिक अप्रमत्त-सावधान-विवेकवान होगे उतनी ही अधिक अहिंसा, निर्भयता और सम्यक् बुद्धि आयेगी।
महावीरने पूर्ण अहिंसाकी प्राप्ति तभी बतलायी, जब मन, वाणो और क्रिया इन तीनोको अप्रमत्त रखा जाये । इसीसे उन्होने स्पष्ट कहा है कि 'प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपण हिंसा' (त० सू० ६-११) अर्थात् कषायके कारण अपने या दूसरे जीवोंके प्राणोको घात करना हिंसा है।
इससे प्रतीत होता हैकि महावीरकी दृष्टि बहत विशाल और गम्भीर थी। वे सृष्टिके प्रत्येक प्राणी को अपने समान मानते थे और इसी से वे 'समभाव' का सदैव उपदेश देते थे। उन्होने सबसे पहले जो आत्मकल्याणकी ओर कदम उठाया और उसके लिए निरन्तर साधना की, उसीका परिणाम था कि उन्हें पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन, पूर्ण वल और पूर्ण सुख प्राप्त हो गया था। तत्पश्चात् उन्होंने ३० वर्ष तक विहार करके जनकल्याण किया। इस अवधिमें उन्होंने जो उपदेश दिये वे प्राणी मात्रके कल्याणकारी थे। उनके उपदेशोका चरम लक्ष्य जीवकी मुक्ति-कर्मवन्धनसे छुटकारा पाना था और समस्त दु खोंसे मुक्त होना था। अपने आचरणको स्वच्छ एव उच्च बनाने के लिए अहिंसाका पालन तथा अपने मन एव विचारोंको शुद्ध और निर्मल बनानेके लिए सर्व समभावरूप 'अनेकान्तात्मक' दृष्टिकोणके अपनानेपर उन्होंने बल दिया। साथ ही हित मित वाणीके प्रयोगके लिए 'स्यावाद' पर भी जोर दिया। महावीरके इन उपदेशोंका स्थायी प्रभाव पडा, जिनकी सशक्त एव जीवन्त परम्परा आज भी विद्यमान है। उनके उपदेशोका विशाल वाड्मय प्राकृत, अपभ्रश, सस्कृत, तमिल, तेलुग, महाराष्ट्री, गुजराती आदि भाषाओंमें निबद्ध देशके विभिन्न शास्त्रभडारोंमें समुपलब्ध है। राजकुमार विधुच्चर, चौर्यकार्यमें अत्यन्त कुशल, अंजन चोर जैसे सहस्रों व्यक्तियोंने
-३०४
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
उनके उपदेशोसे आत्मोद्धार किया, चन्दना जैसी सैकडो नारियोने, जो समाजसे च्युत एव बहिष्कृत थी, महावीरकी शीतल छाया पाकर श्रेष्ठता एव पूज्यता को प्राप्त किया। कुत्ते जैसी निन्द्य पर्याय में जन्मे पशुयोनिके जीवोने भी उनकी देशनासे लाभ लिया। प्रथमानुयोग और श्रावकाचारके ग्रन्थोमें ऐसे सैकडो उदाहरण है, जिनसे स्पष्टतया महावीरके धर्मकी उदारता एव विशालता अवगत होती है । तात्पर्य यह कि तत्कालीन बडे-से-बडे और छोटे-से-छोटे सभीको अधिकार था कि वे महावीरके उपदेशोको सुनें, ग्रहण करें और उनपर चलकर आत्मकल्याण करें। चतुर्विध संघका गठन
महावीरने समाजका गठन विल्कुल नये ढगसे किया। उन्होने उसे चार वर्गोमे गठित किया। वे चार वर्ग हैं-१ श्रावक, २ श्राविका, ३ साधु ( मुनि ) और ४ साध्वी ( आर्यिका )। प्रत्येक वर्गका संचालन करने के लिए एक एक वर्गप्रमुख भी बनाया, जिसका दायित्व उस वर्गकी अभिवृद्धि, समुन्नति और उसका सचालन था । फलत उनकी सघव्यवस्था बडी सुगठित ढगसे चलती थी और आजतक वह चली आ रही है । तत्कालीन अन्य धर्म-प्रचारकोने भी उनकी इस सघ-व्यवस्थासे लाभ लिया था। बुद्धने आरम्भमें स्त्रियोको दीक्षा देना निषिद्ध कर दिया था। किन्तु णिग्गथनातपुत्त महावीर की सघव्यवस्थाका आनन्दने जब बुद्धके समक्ष उदाहरण प्रस्तुत किया और स्त्रियोको भी दीक्षा देने पर जोर दिया तो बुद्धने उन्हें भी दीक्षित करना आरम्भ कर दिया था तथा उनके सघकी सघटना की थी।
अन्तमें महावीरने मध्यमा पावासे मक्ति-लाभ लिया ।
गौतम इन्द्रभूति
इन्द्रभूति उस समयके महान् पडित और वैदिक विद्वान् थे। जैन साहित्यमें जो और जैसा उल्लेख इनके विषयमें किया गया है उससे इनके महान व्यक्तित्वका परिचय मिलता है।
आचार्य यतिवृषभ (विक्रमकी ५वी शती) के उल्लेखानुसार इन्द्रभूति निर्मल गौतम गोत्रमें पैदा हुए थे और वे चारों वेदोके पारगामी तथा विशुद्ध शीलके धारक थे। धवला और जयधवला टीकाओके रचयिता आचार्य वीरसेन (विक्रमकी ९वी शती) के अनुसार इन्द्रभूति क्षायोपशमिक चार निर्मल ज्ञानोसे सम्पन्न थे। वर्णसे ब्राह्मण थे, गौतमगोत्री थे, सम्पूर्ण दुश्रुतियोंके पारगत थे और जीव-अजीव विषयक सन्देह को लेकर वर्धमान तीर्थकरके पादमूलमे पहुंचे थे।
वीरसेनने इन्द्रभूतिके परिचय-विषयक एक प्राचीन गाथा भी उद्धृत की है। गाथामें पूर्वोक्त परिचय ही निवद्ध है । इतना उसमें विशेष कहा गया है कि वे ब्राह्मणोत्तम थे।
१ विमले गोदमगोत्ते जादेण इदभूदिणामेण ।
चउवेदपारगेण सिस्सेण विसुद्धसीलेण ।। -ति० प०१-७८ २ " खओवसम-जणिद-चउरमल-बुद्धि-सपण्णेण बम्हणेण गोदमगोत्तेण सयल-दुस्सुदि-पारएण जीवाजीवविसय-सदेह-विणासणठ्ठमुवगय-वडढमाण-पाद-मूलेण इ दभूदिणावहारिदो।
-धव० पु०१, पृ० ६४ ३ गोत्तेण गादमो विप्पो चाउज्वेय-सडग वि ।
णामेण इंदभूति त्ति सीलव बह्मणुत्तमो । -वही, पु० १, पृ० ६५
-३०५
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरसेनके शिष्य और आदिपुराण के कर्ता आचार्य जिनमेन' ( विक्रम की ९वी शती) ने 'इन्द्रभूति' और 'गौतम' पदोकी व्युत्पत्ति भी दिखाई है। बतलाया है कि इन्द्रने आकर उनकी पूजा की थी, इससे वे 'इन्द्रभूति' और गौ- सर्वज्ञभारतीको उन्होने जाना पड़ा, इससे ये गौतम कहे गये।
जैन साहित्यके अन्य स्रोतोंसे भी अवगत होता है कि शायं सोमिलने मध्यमा पावामें जो महन् यज्ञ आयोजित किया था, उसका नेतृत्व इन्द्रभूति गौतमके हाथमें था । इम यज्ञमें बडे-बडे दिग्गज विद्वान् । शिष्य परिवार सहित आमत्रित थे । इससे यह प्रकट है कि इन्द्रभूति नि सन्देह प्रकाण्ड वैदिक विद्वान् थे और उनका अप्रतिम प्रभाव था ।
किन्तु आश्चर्य है कि इतने महान् प्रभावशाली वैदिक विद्वान्का वैदिक साहित्य में न उल्लेख मिलता है और न परिचय | इसका एकमात्र कारण यही प्रतीत होता है कि इन्द्रभूति तीर्थंकर महावीरके शिष्य हो गये थे और वैदिक विचारधाराका उन्होने परित्याग कर दिया था। ऐसी स्थति में उनका वैदिक साहित्यमे कोई उल्लेख एव परिचय न मिले, तो कोई आश्चर्य नही हैं ।
महावीरका शिष्यत्व
जैन साहित्यके उल्लेखोसे विदित है कि तीर्थंकर महावीरको कैवल्य प्राप्त हो जानेपर भी ६५ दिन तक उनका उपदेश नही हुआ। इसका कारण या उनके अव्यर्थ उपदेशोको सकलन - अवधारण करने की योग्यता रखनेवाले असामान्य व्यक्तिका अभाव । इन्द्रने अपने विशिष्ट ज्ञानसे ज्ञात किया कि तीर्थंकर महावीरको वाणीको अवधारण करनेकी क्षमता इन्द्रभूति में है। पर वह वैदिक है और महाभिमानी है। इन्द्रने विप्र-वटुका स्वय देश बनाया और इन्द्रभूतिके चरण सान्निध्य में पहुँचा। उस समय इन्द्रभूति अपने ५०० शिष्योसे मिरे हुए थे और वेदाध्ययनाध्यापनमें रत ये विप्रवटु वेशधारी इन्द्र प्रणाम करके इन्द्रभूतिसे वोला -- गुरुदेव, मैं बहुत बडी जिज्ञासा लेकर आपके पादमूलमें माया हूँ । आशा है आप मेरी जिज्ञासा पूरी करेंगे और मुझे निराश नही लौटना पड़ेगा। इन्द्रके विनम्र निवेदन पर इन्द्रभूतिने त्वरित ध्यान दिया और कहा कि वटो । अपनी जिज्ञासा व्यक्त करो। में उसकी पूर्ति करूंगा । इन्द्रने निम्न गाथा पढकर उसका अर्थ स्पष्ट करनेका अनुरोध किया
----
1
पचेव अस्थिकाया छज्जीव-गियाया महव्वया पच । अट्ठ य पवयणमादा सहेउओ बघ मोक्खो य ॥ - उद्धृत - धवला, पु० ९, पृ० १२९ में इन्द्रभूति इस गाथाका अर्थ और उपमें निरूपित पारिभाषिक विषयोको बहुत सोचनेपर भी समझ न सके। तब वे वटुसे योले कि यह गाथा तुमने किससे पढी और किस ग्रन्थकी है ? ब्राह्मण बटुवेषधारी इन्द्रने कहा गुरुदेव । उक्त गाथा जिनसे पढ़ी है वे विपुलगिरिपर मौनावस्थित हैं और कब तक मौन रहेंगे, कहा नही जा सकता । अतएव श्रीचरणोमे उसका अर्थ अवगत करनेके लिए उपस्थित हुआ हूँ ।
-
१ (क) इन्द्रेण प्राप्य पूद्ध रिन्द्रभूतिस्त्वमिष्यते ।
(ख) गौतमा गौ प्रकृष्टा स्यात् सा च सर्वज्ञभारती । ता वेत्सि तामधीष्टे च त्वमतो गोतमो मत ॥
-आ० पु० २।५२-५४
२. तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड १, परि० ७ १० १८५
- ३०६ -
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
विद्वान् और समाज
विद्वान समाजका एक विशिष्ट अङ्ग है। शरीरमें जो स्थान शिर (उत्तमाङ्ग) का है वही समाजमें विद्वान (ज्ञानवान) का है। यदि शरीरमे शिर न हो या रुग्ण हो तो शरीर शरीर न रहकर घड हो जायेगा या उससे सार्थक जीवन-क्रिया नहीं हो सकेगी। सारे शरीरको शोभा भी शिरसे ही है । अत शिर और उसके उपागो-आँख, कान, नाक आदिकी रक्षा एव चिन्ता सदा की जाती है। विद्वान् समाजके धर्म, दर्शन, इतिहास और श्रुतका निर्माण एव सरक्षण करके उसे तथा उसकी सस्कृतिको सप्राण रखता है। यदि विद्वान् न हो या वह चिन्ताग्रस्त हो तो स्वस्य समाज और उसकी उच्च सस्कृतिकी कल्पना ही नही की जा सकती है। पर दुर्भाग्यसे इस तथ्यको समझा नही जाता। यही कारण है कि समाजमें विद्वानकी स्थिति चिन्तनीय और दयनीय है। किसी विद्यालय या पाठशालाके लिए विद्वानको आवश्यकता होनेपर उससे व्यवसायकी मनोवत्तिसे बात की जाती है । सस्था-सचालक उसे कम-से-कम देकर अधिक से अधिक काम लेना चाहता है। कुछ महीने पूर्व एक सस्था-सचालक महानुभावने हमें विद्वान्के लिए उसकी वाछनीय योग्यताओका उल्लेख करते हुए लिखा । हमने उन्हें उत्तर दिया कि यदि उक्त योग्यतासम्पन्न विद्वानके लिये कम-से-कम तीनसी रुपए मासिक दिया जा सके तो विद्वान् भेज देंगे। परन्तु उन्होंने तीनसौ रुपए मासिक देना स्वीकार नहीं किया। फलत वही विद्वान् छहमौ रुपए मासिकपर अन्यत्र चला गया। कहा जाता है कि विद्वान् नही मिलते । विचारणीय है कि जो किसी धार्मिक शिक्षणसंस्थामें दश वर्ष धर्म-दर्शनका शिक्षण लेकर विद्वान् बने
और बादमें उसे उसकी श्रुत-सेवाके उपलक्ष्यमें सो-डेढसो रुपए मासिक सेवा-पारिश्रमिक दिया जाय तो वह आजके समय में उससे कैसे निर्वाह करेगा। काश | वह सद्गृहस्थ हो और दो-चार बाल-बच्चे हो, तो वह श्रत-सेवा कर सकेगा या आर्थिक चिन्तामें ही घुलता रहेगा। मत आज हमें इस महत्त्वपूर्ण प्रश्नपर गम्भीरतासे विचारकर श्रुत-सेवकोकी परम्पराको हर प्रयत्नसे जीवित रखना है । यदि हमने इसकी उपेक्षा की तो अगले दश वर्ष में ये टिमटिमाते दीपक भी बुझ जावेंगे और इस दिशामें कोई भी आना पसन्द नहीं करेगा, जबकि लौकिक विद्याके क्षेत्रमें विविध मार्गोमें प्रवेशकर भरपूर आर्थिक लाभ होगा। इससे सस्कृतिको जो क्षति होगी उसकी कस्पना भी नहीं की जा सकती।
विद्वान्का दायित्त्व
विद्वान्को यह सदा ध्यान रखना आवश्यक है कि वह समाजसे अलग नही है-वह उसका ही अभिन्न अङ्ग है। बिना शिरके जैसे शरीर सज्ञाहीन धड कहा जाता है उसी प्रकार बिना घडके शिर भी चेतनाशून्य होकर अपना अस्तित्व खो देता है। अतः दोनोका अभिन्नत्व ही जीवन-क्रियाका सम्पादक है। ठीक इसी प्रकार बिना विद्वान्के समाज और विना समाजके विद्वान भी अपना अस्तित्व नही रख सकते हैं। फिर समाजमे उसने जन्म लिया है उसके प्रति उसका कृतज्ञभावसे बहुत बडा कर्तव्य है, जिसकी उपेक्षा नही की जा सकती और न उसे भुलाया ही जा सकता है । सस्कृति, धर्म, दर्शन और साहित्यके सरक्षणका जिस तरह समाजका परमावश्यक कर्तव्य है उसी तरह विद्वान्का भी उनके सरक्षणका परम दायित्व है । इस सत्यको हमे नही भूलना है । हमपर उस श्रेष्ठ परम्पराको आगे बढ़ानेका उत्तरदायित्व है, जिस परम्परा
-३०८
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
को आचार्योके बाद आचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमल्लजी, पण्डित जयचन्दजी, गुरु गोपालदासजी, वर्णी गणेशप्रसादजी जैसे विद्वद्रत्नोने जीवनव्यापी कष्टोको सहते हुए त्यागवृत्तिके साथ हम तक पहुँचाया है। विना त्यागके श्रुतसेवा की ही नही जा सकसी है । हमारा विश्वास है कि श्रुतसेवाका लक्ष्य और उसकी ओर प्रवृत्ति रहनेपर विद्वान् धनी न बन सके, तो भूखा भी नही रह सकता। जो श्रुत केवलज्ञान-प्रदाता और परमात्मपद-दाता है उसके उपासक आर्थिक कष्टसे सदा ग्रस्त नहीं रह सकते । सारस्वतका ध्येय स्वामी समन्तभद्रके शब्दोमें 'लोकमें व्याप्त जडता और मूढताको दूरकर जिनशासनका प्रकाश करना' है । भौतिक उपलब्धियां तो उसे अनायास प्राप्त होगी। सरस्वतीका उपासक यो अपरिग्रहमें ही सरस्वतीकी अधिक सेवा करता और आनन्द उपलब्ध करता है ।
समस्याएँ
यो तो जीवन ही समस्याओसे घिरा हुआ है । कोई-न-कोई समस्या जीवनमें खडी मिलती है । किन्तु घोर और वृद्धिमान् उन समस्याओपर काबू पा लेता है। आज देशके सामने कितनी समस्याएं हैं। पर राष्ट्रनेता उन्हें देर-सवेर हल कर लेते है। हमारी समाजमें भी अनेक समस्याएं हैं। उनमें तीर्थक्षेत्रोकी समस्या प्रमुख है। यदि दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो समाजें, जो भगवान् महावीर और उनसे पूर्ववर्ती ऋषभादि तेईस तीर्थंकरोकी उपासिका है, आगामी भगवान् महावीरके २५०० वें निर्वाणोत्सवके उपलक्ष्यमें समानताके आधारपर तीर्थक्षेत्रोकी समस्याको सुलझा लें, तो दोनोमे घृणा और भयका भाव दूर होकर पारस्परिक सौहार्द सम्भव है और उस दशामें तीर्थोका विकास तथा समृद्धिकी भी सम्भावना है, जहां विश्वके लोग भारत-भ्रमणपर आनेपर जा सकते हैं और विश्वको उनका परिचय दे सकते हैं।
यहां हमें मुख्यतया विद्वानोकी समस्याओका उल्लेख अभीष्ट है। उनकी समस्याएँ साम्पत्तिक या आधिकारिक नहीं है। वे केवल वैचारिक है। तीन दशक पूर्व दस्सा-पूजाधिकार, अन्तर्जातीय-विजातीयविवाह जैसी समस्याएँ थी, जो समयके साथ हल होती गयी है। दस्साओको समानरूपसे मन्दिरोमें पूजाका अधिकार मिल गया है। अन्तर्जातीय और विजातीय विवाह भी, जो शास्त्र-सम्मत हैं और अनार्यप्रवृत्ति नही हैं, होने लगे हैं और जिनपर अब कोई रोक नहीं रही। स्वामी सत्यभक्त (प० दरबारीलालजी) वर्धा द्वाराकी गयी जैनधर्मके सर्वज्ञतादि सिद्धान्तोकी मीमासा भी दि० जैनसघ द्वारा प्रकाशित 'विरोष-परिहार' जैसे ग्रन्थोंके द्वारा उत्तरित हो चुकी है। डाक्टर हीरालालजी द्वारा उठाये गये प्रश्न भी 'अनेकान्त' (मासिक) आदि द्वारा समाहित किये गये है।
हमें स्वर्गीय प० देवकीनन्दनजी सिद्धान्तशास्त्री द्वारा सुनाये गये उस युगकी याद आती है जब गुरु गोपालदासजीको समाजके भीतर और बाहर जानलेवा जबर्दस्त टक्कर लेना पडती थी, जिसे वे बडी निर्भयता और ज्ञानवैभवसे लेते थे। उस समय सकीर्णता और अज्ञानने समाजको तथा घणा और असहनशील आर्यसमाजको बलात जकड रखा था। गुरुजीने दोनो मोर्णोपर शानदार विजय प्राप्त की थी। शास्त्रार्थ-सघ अम्बालाका, जो अब दि० जैन सघ मथुराके नामसे प्रसिद्ध है, उदय सकीर्णता, अज्ञान, घृणा, असहनशीलता जैसी कुण्ठाओके साथ संघर्ष करने के लिए ही हुआ था और इस दिशामें उसने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। वेदविद्या-विशारद प० मगलसेनजी अम्बाला, विचक्षण-मेघावी प. राजेन्द्रकुमारजी न्यायतीर्थ जैसे समर्थ
-३०९
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवेचन है। उससे मुक्त होनेके लिए ही सवर, निर्जरा आदि तत्वोका विवेचन है । तात्पर्य यह कि शासन जब स्वय स्याद्वादमय है, तो उसमें प्रतिपादित आत्मस्वरूप स्याद्वादात्मक होना ही चाहिर । इस तरह दोनो नयोसे तत्त्वको समझने और प्रतिपादन करनेसे ही तत्त्वोपलब्धि एव स्वात्मोपलब्धि प्राप्य है । साहित्यक प्रवृत्तियाँ और उपलब्धियां
आजसे पचास वर्ष पूर्व जैन साहित्य सबको सुलभ नहीं था। इसका कारण जो भी रहा हो । यहाँ साम्प्रदायिकताके उन्मादने कम उत्पात नही किया। उसने बहुमूल्य सहस्रो अन्योकी होलो खेली है। उन्हें जलाकर पानी गरम किया गया है और समुद्रों एव तालाबोमें उन्हें डवा दिया गया है। सम्भव है उक्त भयसे हमारे पूर्वजोंने बचे-खुचे वाङ्मयको निधिको तरह छिपाया हो या दूसरोके हाथ पडनेपर अविनयका उन्हें भय रहा हो । प्रकाशनके साधन उपलब्ध होनेपर सम्भवत उसी भयके कारण उन्होने छापेका भी विरोध किया जान पडता है। परन्तु युगके साथ चलना भी आवश्यक होता है। अतएव कितने ही दूरदर्शी समाजसेवकोने उस विरोधका सामना करके भी ग्रन्थ-प्रकाशनका कार्य किया। फलत आज जैन वाङ्मयके हजारों ग्रन्थ प्रकाशमें आ गये हैं। षट्खण्डागम, कषायप्राभूत, धवला-जयधवलादि टीकाएँ जैसे सिद्धान्त-ग्रन्थ भी छप गये हैं और जनसामान्य भी उनसे ज्ञानलाभ ले रहा है। इस दिशामें श्रीमन्तसेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द्र जैन-साहित्योद्धारक-फन्डद्वारा डाक्टर हीरालालजी, उनके सहयोगी प० फूलचन्द्रजी शास्त्री, प० हीरालालजी शास्त्री और प० बालचन्द्रजी शास्त्रीके सम्पादन-अनुवादादिके साथ षटखण्डागमके १६ भागोका प्रकाशन उल्लेखनीय है । सेठ माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमालासे स्वर्गीय प० नाथूरामजी प्रेमीने कितने ही वाङ्मयका प्रकाशन कर उद्धार किया है। जीवराज-ग्रन्थमालासे डाक्टर ए० एन० उपाध्ये एवं १० बालचन्द्रजी शास्त्रीने तिलोयपण्णत्ती आदि अनेक ग्रन्थोको प्रकाशित कराया है । स्व० ५० जुगलकिशोर मुख्तारके वीर-सेवा-मन्दिर दिल्ली और वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट वाराणसीसे कई महत्त्वके ग्रन्थ प्रकट हुए है। श्री गणेशप्रसादवर्णी-ग्रन्थमालाका योगदान भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। जिस प्रकाशन-सस्थासे सर्वाधिक जैन वाङ्मयका प्रकाशन हुआ, वह है भारतीय ज्ञानपीठकीमूर्तिदेवी ग्रन्थमाला। इस ग्रन्थमालासे सिद्धिविनिश्चय जैसे अनेक दुर्लभ ग्रन्थ सामने आये हैं और आ रहे हैं। इसका श्रेय जहाँ स्व० पं० महेन्द्रकुमारजी, प० कैलाशचन्द्रजी, १० फूलचन्द्रजी, ५० हीरालालजी आदि उच्च विद्वानोको प्राप्त है वहाँ ज्ञानपीठके सस्थापक साहू शान्तिप्रसादजी और अध्यक्षा श्रीमती रमारानीजीको भी है। उल्लेख्य है कि श्रीजिनेन्द्रवर्णीद्वारा सकलित-सम्पादित जैनेन्द्र-सिद्धान्त कोष (२ भाग) का प्रकाशन भी स्वागतयोग्य है। इस प्रकार पिछले पचास वर्षों में साहित्यिक प्रवृत्तियाँ उत्तरोत्तर बढती गयी हैं, जिसके फलस्वरूप बहुत-सा जैन वाङ्मय सुलभ एव उपलब्ध हो सका है।
स्व० डॉ० नेमिचन्द्रजी शास्त्रीने विद्यादान और साहित्य-सुजनमें जो असाधारण योगदान किया है वह मुक्तकण्ठसे स्तुत्य है। लगभग डेढ दर्जन शोधार्थी विद्वान आपके निर्देशन में जैन विद्याके विभिन्न अङ्गोपर,पी-एच० डी० कर चुके हैं और लगातार क्रम जारी है। भारतीय ज्योतिष, लोकविजय-यन्त्र आदिपुराणमें प्रतिपादित भारत, सस्कृत-कान्यके विकास में जैन कवियोका योगदान जैसे अनेक ग्रन्थ-रत्न आपकी रत्नगर्भा सरस्वतीने प्रसूत किये है । पण्डित पन्नालालजी साहित्याचायकी भारतीने तो भारतके प्रथम नागरिक सर्वोच्च पदासीन राष्ट्रपति श्री वराह वेंकटगिरि तकको प्रभावित कर उन्हें राष्ट्रपति-सम्मान दिलाया और भारतीय वाङ्मयको समृद्ध बनाया है। आदिपुराण, हरिवशपुराण, पपपुराण, उत्तरपुराण, गद्य चिन्तामणि, जीवन्धरचम्प, पुरुदेवचम्पू, तत्त्वार्थसार, समयसार, रत्नकरण्डकश्रावकाचार आदि अर्घशती ग्रन्थ-राशि
म्पादित हुई है । डा० देवेन्द्रकुमारजी रायपुरका 'अपभ्रश भाषा और साहित्यको शोधप्रवृत्तियां, डा0 हीरालालजी जैनका ‘णायकुमारचरिउ', डा० ए०एन० उपाध्येका गीतवीतराग, ५०
-३१२
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीका 'नयचक्र', प० अमृतलालजी शास्त्रोका 'चन्द्रप्रभचरित', डा० कस्तूरचन्द्रजी कासलीवालका 'राजस्थानके जैन सन्त कृतित्व और व्यक्तित्व', श्री श्रीचन्द्रजी जैन उज्जैनका 'जैन कथानकोका सास्कृतिक अध्ययन'' आदि नव्य भव्य रचनाओने जैनवाङ् मयके भण्डारकी अभिवृद्धि की है ।
जैन शिक्षण सस्थाएँ
आजसे पचास वर्ष पूर्व एकाध ही शिक्षण सस्था थी । गुरु गोपालदासजी वरैया और पूज्य श्रीगणेशप्रसादजी वर्णके धारावाही प्रयत्नोसे सौ से भी अधिक शिक्षण संस्थाओंकी स्थापना हुई । मोरेना विद्यालय और काशीका स्याद्वाद महाविद्यालय उन्हीमेंसे हैं । मोरेनासे जहाँ आरम्भमें सिद्धान्तके उच्च विद्वान् तैयार हुए वहाँ काशीसे न्याय, साहित्य, धर्म और व्याकरणके ज्ञाता तो हुए ही, अग्रेजीके भी विद्वान् निकले हैं । यह गर्वी बात है कि आज समाजमें जो बहुसख्यक उच्च विद्वान् हैं वे इसी विद्यालयकी देन हैं । वस्तुत इसका श्रेय प्राचार्य गुरुवर्य प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीको है, जो विद्यालयके पर्यायवाची माने जाते हैं । सागरके गणेशविद्यालयकी भी समाजको कम देन नही है । इसने सैकडो बुझते दीपकोमें तेल और बत्ती देकर उन्हें प्रज्वलित किया है ।
पर आज ये शिक्षण संस्थाएँ प्राणहीन-सी हो रही हैं । इसका कारण मुख्यतया आर्थिक है । यहाँसे निकले विद्वानोकी खपत समाजमें अब नही के बराबर है और है भी तो उन्हें श्रुतसेवाका पुरस्कार अल्प दिया जाता है । अत छात्र अब समाजके बाजारमें उनकी खपत कम होनेसे, दूसरे बाजारोको टटोलने लगे हैं और उनमें उनका माल ऊँचे दामोपर उठने लगा है । इससे विद्वानोका ह्रास होने लगा है । फलत समाज और सस्कृतिको जो क्षति पहुँचेगी, उसकी कल्पना नही की जा सकती । अत समाजके नेताओको इस दिशा में गम्भीरतासे विचार करना चाहिए । यदि तत्परतासे तुरन्त विचार न हुआ तो निश्चय ही हमारी हजारो वर्षोंकी संस्कृति और तत्त्वज्ञानकी रक्षाके लिए सकटकी स्थिति आ सकती है ।
विद्वत्परिषद्का भावी कार्यक्रम
विद्वत्परिषद् के साधन सीमित है और उसके चालक अपने-अपने स्थानोपर रहकर दूसरी सेवाओ में सलग्न हैं। उन आवश्यक सेवाओंसे बचे समय और शक्तिका ही उत्सर्ग वे समाज, साहित्य और सगठनमें करते हैं । अत हमें अपनी परिधिके भीतर आगामी कार्यक्रम तय करना चाहिए ।
हमारा विचार है कि परिषद्को निम्न तीन कार्य हाथमें लेकर उन्हें सफल बनाना चाहिए ।
१ जैन विद्या-फण्डकी स्थापना ।
२ भगवान् महावीरकी २५००वी निर्वाणशतीपर सेमिनार ।
३ ग्रन्थ प्रकाशन |
१ पूज्य वर्णीजीके साभापत्य में सन् १९४८ में परिषद्ने एक केन्द्रीय छात्रवृत्ति-फण्ड स्थापित करनेका प्रस्ताव किया था, जहाँ तक हमें ज्ञात है, इस प्रस्तावको क्रियात्मक रूप नही मिल सका है । आज इस प्रकारके फण्डकी आवश्यकता है । प्रस्तावित फण्डको 'जैन विद्या- फण्ड' जैसा नाम देकर उसे चालू किया जाय । यह फण्ड कम-से-कम एक लाख रुपएका होना चाहिए। इस फण्डसे ( क ) आर्थिक स्थितिसे कमजोर विद्वानों के बच्चोंको सम्भव वृत्ति दी जाय । (ख) उन योग्य शोधार्थियोंको भी वृत्ति दी जाय, जो जैन-विद्या के किसी अङ्गपर किसी विश्वविद्यालय में शोधकार्य करें । (ग) शोधार्थी के शोध-प्रबन्धके टङ्कन या शुल्क या दोनो के लिए सम्भव मात्रामें आर्थिक साहाय्य किया जाय ।
न-४०
-
३१३ -
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
विद्वान मानिने आर्यसमाजके साथ शास्त्रार्थ करके जैनधर्मके सिद्धान्तोंकी रक्षा ही नही की, स्वामी कमीनन्दजी जैसे आर्यसमाजी महाशास्त्रार्थी विद्वान्को आस्थाको जैनधर्ममें परिणत भी किया था।
आज भी कुछ सैद्धान्तिक मतभेदकी समस्याएँ हैं, जिनका होना अस्वाभाविक नहीं है। आचार्योतकमें सैद्धान्तिक मतभेद रहा है। आचार्य वीरसेनने ऐसे अनेक आचार्य मतभेदोका धवलामें समुल्लेख किया है। किन्तु दुर्भाग्य से आज कुछ खिंचाव पाया जाता है । वह नही होना चाहिए। वाणी और लेखनी दोनों में संयम वाछनीय है। वीतरागकथामें असयमका स्थान तो है ही नही। जब हम अपनी शास्त्र सम्मत वातको दूसरेके गले में उतारनेका प्रयास करें तो आग्रह और आग्रहसे चिपटे रोष अहकार एवं असदुद्भावसे मुक्त होकर ही उसको चर्चा करें। दोनो पक्ष स्याद्वादी हैं । उन्हें निरपेक्ष आग्रह तो होना ही नही चाहिए । यह गौरव और प्रसन्नताकी बात है कि ये दोनो पक्ष विद्वत्परिषद् समाहित हैं और दोनो ही उसका समादर करते हैं। हमारा उनसे नम्र निवेदन है कि वे विद्वत्परिषद्का जिसप्रकार गौरव रखकर आदर करते हैं उसी प्रकार वे समग्र श्रुतकी उपादेयताका भी गौरव के साथ सम्मान करें। श्रुत चार अनुयोगो प्रथमानुयोग द्रव्यानुयोग करणानुयोग और चरणानुयोग में विभक्त है। समन्तभद्रस्वामीने इनका समानरूपमें विवेचन किया है और चारोंकी आस्था भक्तिको सम्यग्ज्ञानका तथा सम्यानको मुक्तिका कारण बतलाया है। ऐसी स्थितिमें अनुयोगविशेषपर बल देकर दूसरे अनुयोगोंकी उपेक्षा या अनादेयता नही ही होनी चाहिए। यह बात अलग है कि अमुक अनुयोगको अपेक्षासे विवेचन करनेपर उसकी प्रधानता हो जाय और अन्यकी अप्रधानता पर उनकी उपेक्षा न की जाय-विवेचन में उन्हें भी स्थान मिलना चाहिए। इसीलिए शेयतत्त्वको समझने के लिए प्रमाणके अतिरिक्त द्रव्यार्थिक-पर्यावाचिक नय और निक्षेपोका तथा उपादेवको ग्रहण करनेके लिए व्यवहार और निश्चय नयोका आगम में प्रतिपादन है । प्रथमको दर्शन शास्त्रका और दूसरेको अध्यात्मशास्त्रका प्रतिपादन कहा गया है। महर्षि कुन्दकुन्दने इन दोनों शास्त्रोका निरूपण किया है। उनके पचास्तिकाय, अष्टपाहुड और प्रवचनसार मुख्यत दर्शनशास्त्र के प्रन्थ हैं तथा नियमसार एवं समयसार अध्यात्मशास्त्रके । द्वादशाग श्रुत इन दोनोका समुच्चय है । दर्शनशास्त्र जहाँ साधन है वहाँ अध्यात्मशास्त्र साध्य है और साध्यकी उपलब्धि विना साधन के सम्भव नहीं। हाँ, साम्यके उपलब्ध हो जानेपर साधनका परित्याग या गौणता हो जाय, यह अलग बात है । अग्निज्ञान हो जानेपर घूमज्ञान अनावश्यक हो ही जाता है । पर अग्निज्ञानके लिए घूमज्ञानकी अनिवार्यता अपरिहार्य है।
1
जैनधर्म वीतराग-विज्ञान धर्म है, इसमें जरा भी सन्देह नही । किन्तु वह अपने इस नामसे लक्ष्य - निर्देशभरको अभिव्यक्ति करता है। उसमें लक्ष्य प्राप्ति के उपकरणों का समावेश नही है, ऐसा न कहा जा सकता है और न माना जा सकता है। किसी ग्रन्थका नाम 'मोक्षशास्त्र' है वह केवल मोक्षका ही प्रतिपादक नहीं होता। उसमें उसके विरोधी अविरोधी सभी आवश्यक शेय और उपादेय तरवोका विवेचन होता है । स्वय 'समयसार' में शुद्ध आत्माका प्रतिपादन करनेके लिए ग्रन्थकार कुन्दकुन्दमहाराजने बन्ध, आस्रव, सबर, निर्जरा आदिका भी निरूपण किया है । इन्ही बन्धादिका विस्तृत एवं सूक्ष्म विवेचन 'षट्खण्डागम' में आचार्य भूतबली - पुष्पदन्तने और 'कषायप्राभूत' में आचार्य गुणधरने किया है। तथा इन्हीके आघारसे गोम्मटसारादि ग्रन्थ रचे गये हैं ।
धर्मका आधार मुमुक्षु और सद्गृहस्थ दोनो हैं तथा सद्गृहस्थोंके लिए संस्कृति और तत्त्वज्ञान आवश्यक हैं और इन दोनोको स्थितिके लिए वाङ्मय, तीर्थ, मन्दिर, मूर्तियाँ, कला, पुरातत्त्व और इतिहास अनिवार्य हैं । इनके विना समाजकी कल्पना और समाजके बिना धर्मकी स्थिति सम्भव ही नही । मुमुक्षुधर्म भी गृहस्यधर्मपर उसी प्रकार आधारित है जिस प्रकार लम्भो पर प्रासाद निर्भर है । मुमुक्षुको मुमुक्षुतक
- ३१० -
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
पहुँचानेके लिए आरम्भमें दर्शन - शास्त्रका विमर्श आवश्यक है । उसके विना उसकी नीव मजबूत नही हो सकती । यह भी हमें नही भूलना है कि लक्ष्यको समझने और पानेके लिए उसकी ओर ध्यान और प्रवृत्ति रखना नितान्त आवश्यक है । दर्शन शास्त्रको तो सहस्रोबार ही नही, कोठि-कोटि बार भी पढा-सुना है फिर भी लक्ष्यको नही पा पाये । तात्पर्य यह कि दर्शन - शास्त्र और अध्यात्म-शास्त्र दोनोका चिन्तन जीवन-शुद्धिके लिए परमाश्वक है । इनमें से एककी भी उपेक्षा करनेपर हमारी वही क्षति होगी, जिसे आचार्य अमृतचन्द्रने निम्न गाथाके उद्धरणपूर्वक बतलाया है
इणिमयं पवज्जह तो मा ववहार- णिच्छए मुयह । एक्केण विणा छिज्जइ तित्थ अण्णेण उण तच्च ॥ - आत्मख्याति,
स० सा०, गा० १२ ।
'यदि जिन शासनको स्थिति चाहते हो, तो व्यवहार और निश्चय दोनोको मत छोडो, क्योकि व्यवहारके छोड देनेपर घर्मतीर्थका और निश्चयके छोडने से तत्त्व (अध्यात्म) का विनाश हो जायेगा ।'
यह सार्थ चेतावनी ध्यातव्य है ।
स्वामी अमृतचन्द्रने उभयनयके अविरोधमें ही समयसारकी उपलब्धिका निर्देश किया है
उभयनयविरोधध्वसिनि स्यात्पदाङ्के जिनवचसि रमन्ते ये स्वय वान्तमोहा । सपदि समयसार ते पर ज्योतिरुच्चेरनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥४॥
'उभयनयके विरोधको दूर करनेवाले 'स्यात्' पदसे अकित जिन शासनमें जो ज्ञानी स्वय निष्ठ है वे अनव-नवीन नही, एकान्त पक्षसे अखण्डित और अत्यन्त उत्कृष्ट ज्ञानस्वरूप समयसारको शीघ्र देख (पा) ही लेते हैं ।'
अमृतचन्द्रसे तीनसौ वर्ष पूर्व भट्ट अकलदेवने ऋषभको आदि लेकर महावीर पर्यन्त चौबीसो तीर्थकरोको धर्मतीर्थकर्ता और स्याद्वादी कहकर उन्हें विनम्रभावसे नमस्कार किया तथा उससे स्वात्मोपलब्धिकी अभिलाषा की है । जैसाकि भाषणके आरम्भमे किये गये मङ्गलाचरणसे, जो उन्हीके लघीयस्त्रयका मङ्गलश्लोक है, स्पष्ट है । इससे हम सहज हो जान सकते हैं कि स्याद्वाद तीर्थंकर वाणी है - उन्ही की वह देन है । वह किसी आचार्य या विद्वान्का आविष्कार नही है । वह एक तथ्य और सत्य है, जिसे इकारा नही जा सकता । निश्चयनयसे आत्माका प्रतिपादन करते समय उस परद्रव्यका भी विश्लेषण करना आवश्यक है, जिससे उसे मुक्त करना है । यदि बद्ध परद्रव्यका विवेचन, जो षट्खण्डागमादि आगमग्रन्थोंमें उपलब्ध है, न किया जाय और केवल आत्माका कथन किया जाय, तो जैन दर्शनके आत्म-प्रतिपादनमें और उपनिषदोंके आत्मप्रतिपादनमें कोई अन्तर नही रहेगा ।
एक बार न्यायालङ्कार प० बशीधरजीने कहा था कि एक वेदान्ती विद्वान्ने गुरुजीसे प्रश्न किया था कि आपके अध्यात्ममें और वेदान्त के अध्यात्ममें कोई अन्तर नही है ? गुरुजीने उत्तर दिया था कि जैन दर्शनमें आत्माको सदा शुद्ध नही माना, ससारावस्था में अशुद्ध और मुक्तावस्थामें शुद्ध दोनो माना गया है । पर वेदान्त में उसे सदा शुद्ध स्वीकार किया है । जिस मायाको उसपर छाया वह मिथ्या है । लेकिन जैन दर्शन मैं आत्मा जिस पुद्गलसे बद्ध, एतावता अशुद्ध है वह एक वास्तविक द्रव्य है । विजातीय परिणमन होता है । यह विजातीय परिणमन ही उसकी अशुद्धि है
इससे सयुक्त होनेसे आत्मामें । इस अशुद्धिका जैन दर्शनमें
- ३११ -
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
२ भगवान् महावीरकी २५००वी निर्वाण-शती सारे भारतवर्ष में व्यापक पैमानेपर मनायी जायगी। उसमें विद्वत्परिषद्के सदस्य व्यक्तिश योगदान करेंगे ही, परिषद् भी एक साथ अनेक स्थानोपर अथवा भिन्नभिन्न समयोंमें अनेक विश्वविद्यालयोमें सेमिनारो (सगोष्ठियों) का आयोजन करे। इन सेमिनारोमें जैन एव जैनेतर विद्वानो द्वारा जैन विद्याकी एक निर्णीत विषयावलिपर शोधपूर्ण निबन्ध-पाठ कराये जायें। इन सेमिनारोंका आज अपना महत्त्व है और उनमें विद्वान् रुचिपूर्वक भाग लेंगे।
३. आगामी तीन वर्षोंकी अवधिके लिए एक ग्रन्थ-प्रकाशनकी योजना बनायी जाय । इस योजनाके अन्तर्गत 'तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्यपरम्परा' ग्रन्थका तो प्रकाशन हो ही, उसके अतिरिक्त तीन अप्रकाशित सस्कृत-प्राकृत-अपभ्रशके ग्रन्थो या भगवान् महावीर-सम्बन्धी नयी मौलिक रचनाओंका प्रकाशन किया जाय ।
यदि अगले तीन वर्षों में परिषद् ये तीन कार्य कर लेती है तो वह सस्कृतिकी एक बहुत बड़ी सेवा कही जावेगी।
-३१४
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
हमारे सांस्कृतिक गौरवका प्रतीक : अहार क्षेत्रकी पावनता और अतीत गौरव
आजसे एक हजार वर्ष पूर्व यह वन-खण्ड (क्षेत्र) कितना समृद्ध था, कितनी जातियां यहाँ रहती थी, कितने धनकुबेरोको यहां गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ थी और कितने धर्मपिपासु साधक और श्रावकजन यहाँ द्रव्यका व्यय कराकर और करके अपनेको धन्य मानते थे। आप क्या कह सकते हैं कि यह सब समृद्धिविभिन्न अनेक जातियोका निवास, अनगिनत जिनमन्दिरोका निर्माण और उनकी तथा असख्य मूर्तियोकी प्रतिष्ठाएँ जादूको छडीकी तरह एक दिन में होगई होगी ? मेरा विश्वास है कि इस अद्भुत समृद्धिके लिए, दस-बीस वर्ष ही नही, शताब्दिया लगी होगी। यहांकी चप्पे-चप्पे भमिके गर्भ में सहस्रो मूर्तियो, मन्दिरो और अट्टालिकाओके भग्नावशेष भरे पड़े हैं। क्षेत्रकी भूमि तथा उसके आस-पासके स्थानोकी खुदाईसे जो अभी तक खण्डित-अखण्डि मूर्तियां और महत्त्वपूर्ण भग्नावशेष उपलब्ध हुए हैं, वे तथा उनपर अद्धित प्रचुर लेख यहाँके वैभव और गौरवपूर्ण इतिहासकी परम्पराको प्रकट करते हैं । सत्तरह-अठारह वर्ष पहले प० गोविन्ददासजी न्यायतीर्थने, जो यहीके निवासी हैं, बडे श्रमसे यहाँके ११७ मूर्तिलेखो व अन्य लेखोका सग्रह करके उन्हें अनेकान्त (वर्ष ९, १०, सन् १९४८-४९) में प्रकाशित किया था । वा० यशपालजी जैन दिल्लीके प्रयाससे एक संग्रहालयकी भी यहाँ स्थापना हो गई है, जिसमें कितनी ही मूर्तियोके अवशेष सगृहीत हैं । बरिषभचन्द्रजी जैन प्रतापगढने भी इस क्षेत्रकी कुछ ज्ञातव्य सामग्रीपर प्रकाश डाला है। स्व० क्षेत्र-मत्री प० वारेलालजीका तो आरम्भसे ही इस दिशामें स्तुत्य प्रयास रहा है। आपने प० धर्मदासजी द्वारा रचित हिन्दीके 'चौबीसकामदेव-पुराण' के, जिसे लेखकने श्रीनामक आचार्यके 'प्राकृत चौवीस फामदेव पुराण' का अनुवाद बताया है, आधारसे उसमें वर्णित यहाँके स्थानोकी पुष्टि उपलब्ध वर्तमान स्थलोसे करते हुए कुछ निष्कर्ष ऐसे निकाले हैं जो विचारणीय हैं । उदाहरणके लिए उनके कुछ निष्कर्ष इस प्रकार है -
१ कोटी नामक भाटो वर्तमान क्षेत्रसे अत्यन्त निकट है, जो एक फलींग ही है। इस भाटेमें गगनचुम्बी पर्वत है, जिनपर मन्दिरोके भग्नावशेष अब भी पाये जाते है।
२ मदनसागर तालाव, काममदनसागर और मदनेशसागर ये तीनो तालाब पर्वतोके नीचे तलहटीमें हैं।
३. हथनपुर (हन्तिपुर) नामक स्थान पहाडके नीचे हाथीपडावके नामसे प्रसिद्ध है।
४ सिद्धान्तश्री सागरसेन, आर्यिका जयश्री और चेल्लिका रत्नश्रीके नाम यहाँके मूतिलेखोंमें अङ्कित हैं।
५. गगनपुर नामक स्थान आज गोलपुरके नामसे प्रसिद्ध है, जो क्षेत्रके समीप ही है। ६ टाडेको टोरिया, टाडेका खदा और पडाव ये तीनो स्थान क्षेत्रके अत्यन्त निकट है। ७ सिद्धोकी गुफा, सिद्धोकी टोरिया नामक स्थान भी पासमें ही है।
-३१५
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
८ एक पहाड खनवारा पहाड कहा जाता है, जिसपर पत्थरके बडे खनवारे हैं । सम्भवत यहाँसे मूर्तियोके लिए पत्थर निकाला जाता होगा।
९ मदनेशसागरसरोवरके तटकी पहाडीपर एक विशाल कामेश्वर(मदनेश्वर) का मन्दिर था, जिसके विशाल पत्थरोके अवशेप आज भी वहां देखे जा सकते हैं और वह स्थान अब भी मदनेश्वरके मन्दिरके नामसे प्रसिद्ध है।
इन निष्कर्षों में कितना तथ्य है, इसकी सूक्ष्म छानबीन होना चाहिए । इसके लिए आवश्यक है कि उल्लिखित हिन्दी और प्राकृत दोनों 'चौबीस कामदेव-पुराण' प्रकाशमें आयें और उनका गवेषणाके साथ अध्ययन किया जाय । "सिद्धोंकी गुफा" और "सिद्धोंको टोरिया' नामक स्थान अवश्य महत्त्व रखते है और जो बतलाते हैं कि इस भूमिपर साधकोंने तपश्चर्या करके 'सिद्ध' पद प्राप्त किया होगा और इसीसे वे स्थान 'सिद्धोंकी गुफा', 'सिद्धोंको टोरिया' जैसे नामोंसे लोकमें विश्रुत हुए हैं। इस निष्कर्षमें काफी बल है। यदि इसकी पुष्ट साक्षियां मिल जायें तो निश्चय ही यह प्रमाणित हो सकेगा कि यह पावन क्षेत्र जहां काफी प्राचीन है वहाँ अतीतमें सिद्धक्षेत्र भी रहा है और साधक यहां आकर 'सिद्धि' (मुक्ति) के लिए तपस्या करते थे । भले ही उस समय इसका नाम अहार न होकर दूसरा रहा हो । विक्रमकी ११वी-१२वी शतीके मूर्तिलेखोमें इसका एक नाम 'मदनेशसागरपुर' मिलता है । जो हो, यह सब अनुसन्धेय है। मूर्तिलेखोका अध्ययन
यहाँके उपलब्ध मूर्तिलेखोका अध्ययन करनेपर कई बातोपर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पडता है । उन्हीका यहाँ कुछ विचार किया जाता है ।
१ पहली बात तो यह है कि ये मूर्तिलेख वि० स० ११२३ से लेकर वि० स० १८८१ तकके हैं । इनके आधारपर कहा जा सकता है कि यहां मन्दिरो और मूर्तियो की प्रतिष्ठाएं वि० स० ११२३ से आरम्भ होकर वि० स० १८८१ तक ७५८ वर्षों तक लगातार होती रही है।
२ दूसरी बात यह कि ये प्रतिष्ठाएं एक जाति द्वारा नही, अपितु अनेक जातियो द्वारा कराई गई है । उनके नाम इस प्रकार उपलब्ध होते हैं -
खडिल्लवालान्वय (खडेलवाल-ले०७०), गर्गराटान्वय (ले०७१), देउवालान्वय (ले० ६९), गृहपत्यन्वय (गहोई-ले० ८७), गोलापून्विय (ले०६०), जैसवालान्वय (ले०५९), पौरपाटान्वय (ले०४२), मेडवालान्वय (लेख ४१), वैश्यान्वय (ले० ३९), मेहतवालवश (ले० ३३), कुटकान्वय (ले० ३५), लभेचुकान्वय (ले० २८), अवधपुरान्वय (ले० २३), गोलाराडान्वय (ले० १२), श्रीमाधुन्वय (ले० ७), मइडितवालान्वय (ले० २७, यह लेख ३३ में उल्लिखित मेडतवालवश ही जान पडता है), पुरवाहान्वय (ले० १००), पोरवालान्वय (ले० १०२), माथु रान्वय (ले० ५६) । ध्यान रहे कि ब्र'कटमें जो लेख-नम्बर दिये गये हैं वे मात्र उदाहरणके लिए हैं । यो तो एक-एक जातिका उल्लेख कई-कई लेखोमें हुआ है।।
इस प्रकार इन लेखों, १९ जातियोका स्पष्ट उल्लेख मिलता है। इनमें कईके उल्लेख तो ऐसे है, जिनका आज अस्तित्व ज्ञात नही होता । जैसे गर्गराटान्वय, देउवालाम्वय आदि । इनकी खोज होनी चाहिए। यह भी सम्भव है कि कुछ नाम भट्टारको या ग्रामोके नामपर ख्यात हो।
३ तीसरी बात यह कि इनमें अनेक भट्टारकोके भी नामोल्लेख हैं और जिनसे जान पडता है कि इस प्रदेश में उनकी जगह-जगह गद्दियां थी-प्रतिष्ठाओका सचालन तथा जातियोका मार्गदर्शन वे ही करते थे।
- ३१६ -
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
सबसे पुराने वि० सं० १२१३ के लेख (७३) मैं भट्टारक श्रीमाणिक्यदेव और गुण्यदेवका, मध्यकालीन वि० स०१५४८ के लेख (९७) में भ० श्रीजिनचन्द्र देवका और अन्तिम वि० स०१६४२, वि० स० १६८८ के लेखो (११४, ९५) में क्रमश भ० धर्मकीर्तिदेव, भ० शीलसूत्रदेव, ज्ञानसूत्रदेव तथा भ० जगन्द्रषेणके नामोल्लेख हैं। अन्य और भी कितने ही भट्टारकोके इनमें नाम दिसे हुए हैं।
४ चौथी बात यह कि कुन्दकुन्दान्वय, मूलसघ, बलात्कारगण, सरस्वतीगच्छ, काष्ठासघ आदि सघ-गण-गच्छादिका उल्लेख है, जिनसे भट्टारकोकी यहाँ कई परम्पराओका होना ज्ञात होता है।
५ पांचवी बात यह कि इन लेखोमें कई नगरो और ग्रामोका भी उल्लेख है। जैसे वाणपुर (ले० १, ८७, ८९), महिषणपुर (ले० १००), (ले० १), ग्राम अहारमेंथे (महार-ले० ९१) आदि । इससे मालूम पडता है कि ये सभी स्थान इस क्षेत्रसे प्रभावित थे और वहाँ के भाई यहाँ आकर प्रतिष्ठाएँ कराते थे ।
६ छठी बात यह कि वि० स० १२०७ और वि० स० १२१३ के लेखो (न० ८७, ८९) में गृहपत्यन्वय (गहोई जाति) के एक ऐसे गोत्रका उल्लेख है जो आजकल परवार जातिमें है और वह है कोच्छल्ल गोत्र । इस गोत्र वाले वाणपुर (वानपुर) में रहते थे। क्या यह गोत्र दोनो जातियोमें है ?, यह विचारणीय है । यह भो विद्वानोंके लिए विचारयोग्य है कि इन समस्त उपलब्ध लेखोमें इस प्रान्तकी शताब्दियोसे सम्पन्न, शिक्षित, धार्मिक और प्रभावशाली परवार जातिका उल्लेख अवश्य होना चाहिए था, जिसका इनमें अभाव मनको कौंच रहा है । मेरा विचार है कि इन लेखोमें उसका उल्लेख है और उसके द्वारा कई मन्दिरो एव मूर्तियोकी प्रतिष्ठाएं हुई है । वह है 'पौरपाटान्वय', जो इसी जातिका मूल नाम जान पडता है और उक्त नाम उसीका अपभ्रश प्रतीत होता है। जैसे गृहपत्यन्वयका नाम गहोई हो गया है। यह 'पौरपाटान्वय' पद्मावती पुरवाल जातिका भो सूचक नही है, क्योकि उसका सूचक 'पुरवाडान्वय' है जो अलगसे इन लेखोमें विद्यमान है। इस सम्बन्धमें विशेषज्ञोको अवश्य प्रकाश डालना चाहिए। ७ सातवी बात यह है कि इन लेखोमें प्रतिष्ठा कराने वाली अनेक धार्मिक महिआओके भी नाम
ती महिलाओके अतिरिक्त सिवदे, सावनी, मालती, पदमा, मदना, प्रभा आदि कितनी ही श्राविकाओंके भी नाम उपलब्ध है।
और भी कितनी ही बातें हैं जो इन लेखोका सूक्ष्म अध्ययन किये जानेपर प्रकाशमें आ सकती हैं। हमारा वर्तमान और भावी
आप अपने पूर्वजोके गौरवपूर्ण और यशस्वी कार्योसे अपने शानदार अतीतको जान चुके हैं और उनपर गर्व भी कर सकते हैं । परन्तु हमें यह भी देखना है कि हम उनकी इस बहूमूल्य सम्पत्तिकी कितनी सुरक्षा और अभिवृद्धि कर सके और कर रहे हैं ? सुयोग्य पुत्र वही कहलाता है जो अपनी पैतृक सम्पत्तिकी न केवल रक्षा करता है अपितु उसे बढाता भी है। आज हमारे सामने प्रश्न है कि हम अपनी सास्कृतिक सम्पत्तिको सरक्षा किस प्रकार करें और उसे कैसे बढायें, ताकि वह सर्वका कल्याण करे ? कोई भी समाज या देश अपने शानदार अतीतपर चिरकाल तक निर्भर एव जीवित नहीं रह सकता। यदि केवल अतीतकी गुण-गाथा ही गायी जाती रहे और अपने वर्तमानको न सम्हाला जाय तथा भावीके लिए पुरुषार्थ न किया जाय तो समय आनेपर हमारे ही उत्तराधिकारी हमें अयोग्य और नालायक बतायेंगे । सास्कृतिक भण्डार भी रिक्त हो जायेगा । अत उल्लिखित प्रश्नपर हमें गम्भीरतासे विचार करना चाहिए। हमारे प्रदेशम सास्कृतिक सम्पत्ति प्राय सर्वत्र विखरी पडी है। पपौरा, देवगढ, खजुराहा आदि दर्जनो स्थान उसके उदाहरण हैं।
-३१७
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रात स्मरणीय पूज्य श्रीगणेशप्रसादजी वर्णीने इस प्रान्तमें कई वर्षों तक पैदल यात्रा करके भ्रमण किया और समाज में फैली रूढियों तथा अज्ञानताको दूर करने का अदम्य प्रयास किया था। उन्होने अनुभव किया था कि ये दोनो ऐसे धुन हैं जो अनाजको भूसा बना देते हैं-समाज उनसे खोखला हो जाता है। 'मेरी जीवन-गाथामे' उन्होने ऐसी बोसियो रूढियो और अज्ञानताका उल्लेख किया है, जिनसे समाजमें पार्थक्य और अनैक्यका साम्राज्य जड जमा लेता है और उसे शन्य बना देता है। जैन धर्म तीर्थंकरोका धर्म है और तीर्थंकर समस्त जगत्का कल्याण करने वाले होते हैं। इसीसे जैनधर्मके सिद्धान्तोमें विश्वकल्याणकी क्षमता है। जैन धर्म किसीका भी अहित नही चाहता। और इसी लिए प्रतिदिन जिन-पूजाके अन्तमे यह भावना की जाती है
क्षेम सर्वप्रजाना प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल काले काले सम्यग् वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुर्भिक्ष चौरमारी क्षणमपि जगता मास्म भूज्जीवलोके
जैनेन्द्र धर्मचक प्रभवतु सतत सर्बसौख्यप्रदायि ।। अर्थात् समस्त देशोकी प्रजाओंका भला हो, उनका पालक राजा बलवान और धार्मिक हो, यथासमय उचित वर्ग हो, कोई किसी प्रकारकी व्याधि (शारीरिक कष्ट) न हो, देशमें कही अकाल न पडे, कही भी चोरियां-डकैतियां न हो और न एक क्षणके लिए भी कही हैजा, प्लेग जैसी दैवी विपत्तियां आयें । सभीको सुख देनेवाला वीतराग सन्तोका धर्म निरन्तर प्रवृत्त रहे।
यह है जैनधर्मके अनुयायी प्रत्येक जैनकी कामना । 'जियो और जोने वो', 'रहो और रहने दो' जैसे अहिंसक सिद्धान्तोके प्रवर्तक तथा अनुपालक हम जैन अपनेको निश्चय ही भाग्यशाली मान सकते हैं । लेकिन जहाँ अहिंसा दूसरोके हितोका घात न करनेको शिक्षा देती है वहां वह अपने हितोकी रक्षाका भी ध्यान दिलाती है । हममें इतना बल, साहस, विवेक और ज्ञान हो, जिससे हम अपने कर्तव्योका बोध कर सकें और अपने अधिकारोको सुरक्षित रख सकें । इसके लिए मेरे निम्न सुझाव है।
१ बालकोको स्वस्थ और बलिष्ठ बनाया जाये। माता-पिताको इस ओर आरम्भसे ध्यान रखना आवश्यक है। इसके लिए प्रत्येक जगह खेल-कूद और व्यायामके सामूहिक साधनोकी व्यवस्था की जाय । आज जैन लोग कमजोर और डरपोक समझे जाते हैं और इससे उनके साथ अन्याय होता रहता है।
२ प्रत्येक बालकको आरम्भसे धार्मिक शिक्षा दी जाये और इसके लिए हर जगह सम्मिलित धर्मशिक्षाकी व्यवस्था की जाय ।
३ बालकोंकी तरह बालिकाओको भी शरूसे शिक्षा दी जाय, ताकि समाजका एक अङ्ग शिक्षा-हीन न रहे।
४ प्रतिसप्ताह या प्रतिपक्ष बालकोकी एक सभाका आयोजन किया जाय, जिसमें उन्हें उनके सामाजिक और धार्मिक कर्त्तव्योके साथ देशसेवाका बोध कराया जाय ।
५ जो बालक-बालिकाएँ तीव्र बुद्धि और होनहार हो, उन्हें ऊँची शिक्षाफे लिए बाहर भेजा जाय तथा ऐसे बालकोकी आर्थिक सहायता की जाय।
६ प्रौढोमें यदि कोई साक्षर न हो तो उन्हें साक्षर बनाया जाय और आजके प्रकाशमें उन्हें उच्च उद्योगो, व्यवसायो और धघोके करनेकी प्रेरणा की जाये।
७ समाजमे कोई भाई गरीवीके अभिशापके पीडित हो तो सम्पन्न भाई उन्हें मदद करें और इसे वे परोपकार या साधर्मी वात्सल्य जैसा ही पुण्य-कार्य समझें ।
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
८ यदि किसी भाईसे कभी कोई गलती हो गई हो तो उसे सुधारकर उनका स्थितीकरण करें और उन्हें अपना वात्सल्य प्रदान करें।
९ मन्दिरो, तीर्थो, पाठशालाओ और शास्त्रभण्डारोकी रक्षा, वृद्धि और प्रभावनाका सदा ध्यान रखा जाय।
१०. ग्राम-सेवा, नगर-सेवा, प्रान्त-सेवा और राष्ट्र-सेवा जैसे यशस्वी एव जनप्रिय लोक-कार्योमें भी हमें पीछे नही रहना चाहिए। पूरे उत्साह और शक्तिसे उनमें भाग लेना चाहिए।
इन दशसूत्री प्रवृत्तियोंसे हम जहां अपने वर्तमानको सम्हाल सकेंगे वहाँ अपने भावीको भी श्रेष्ठ बना सकेंगे । जो आज बालक और कुमार हैं वे हमारी इन प्रवृत्तियोके बलपर गौरवशाली भावी समाजका निर्माण करेंगे। शिक्षाका महत्त्व शान्तिनाथ दि० जैन सस्कृत-विद्यालयको स्थापना
यहाँ शिक्षाके सम्बन्धमें भी कुछ कहना आवश्यक है । आचार्य वादीभसिंहने लिखा है कि 'अनवद्या हि विद्या स्याल्लोकद्वयसुखावहा'-अर्थात निर्दोष विद्या निश्चय ही इस लोक और परलोक दोनो ही जगह सुखदायी है। पूज्य वर्णीजीके हम बहुत कृतज्ञ हैं । वे यदि इस प्रान्तमें शिक्षाका प्रचार न करते, जगह-जगह पाठशालाओं और विद्यालयोकी स्थापना न करते, तो आज जो प्रकाण्ड विद्वान् समाजमें दिखाई दे रहे हैं वे न दिखाई देते । उनसे पूर्व इस प्रान्तमें ही नही. सारे भारतमें भी तत्त्वार्थसूत्रका शुद्ध पाठ करनेवाला विद्वान दुर्लभ था। यह उनका और गुरु गोपालदासजी वरैयाका ही परम उपकार है कि षट्खण्डागम, धवला, जयधवला, समयसार, तत्त्वार्थवात्तिक, तत्त्वार्थश्लोकवातिक, अष्टसहस्री, न्यायविनिश्चय जैसे महान् गन्थोके निष्णात विद्वान् आज उपलल्य हैं। अब तो छात्र जैनधर्मके ज्ञाता होनेके साथ लौकिक विद्याओ (कला, व्यापार, विज्ञान, इञ्जिनियरिंग, टैक्नालॉजी आदि) के भी विशेषज्ञ होने लगे हैं और अपनी उभय-शिक्षाओके बलपर ऊँचे-ऊँचे पदोपर कार्य करते हुए देखे जाते हैं। आपके स्थानीय शान्तिनाथ दि० जैन सस्कृत विद्यालयसे शिक्षा प्राप्तकर कई छात्र वाराणसीमें स्याद्वाद महाविद्यालय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और वाराणसेय सस्कृत-विश्वविद्यालयमें उच्च शिक्षा पा रहे है। ये पूज्य वर्णीजी द्वारा लगाये इस विद्यालय-रूपी पौधेके ही सुफल हैं। इस विद्यालयका उल्लेख करते पूज्य वर्णीजीने 'मेरी जीवनगाथा' (पृ० ४४२ प्रथम सस्करण) में लिखा है कि 'मैंने यहाँपर क्षेत्रको उन्नति के लिए एक छोटे विद्यालयको आवश्यकता समझी, लोगोंसे कहा, लोगोंने उत्साहके साथ चन्दा देकर श्रीशान्तिनाथ विद्यालय स्थापित कर दिया। पं० प्रेमचन्द्रजी शास्त्री तेंवखेगवाले उसमें अध्यापक हैं, एक छात्रालय भी साथमें है। परन्तु धनकी त्रुटिसे विद्यालय विशेष उन्नतिन कर सका।'
ये शब्द हैं उस महान् सन्तके, जिसने निरन्तर ज्ञानको ज्योति जलायी और प्रकाश किया। वे ज्ञानके महत्त्वको समझते थे, इसीसे उनके द्वारा सस्थापित स्याद्वाद महाविद्यालय वाराणसी, गणेश सस्कृत महाविद्यालय सागर जैसे दर्जनों शिक्षण-सस्थान चारो ओर ज्ञानका आलोक विकीर्ण कर रहे हैं। वर्णीजीके ये शब्द कि 'धनको त्रटिसे विद्यालय विशेष उन्नति नहीं कर सका'-हम सबके लिये एक गम्भीर चेतावनी है । क्या हम उनके द्वारा लगाये इस पौधेको हरा-भरा नही कर सकते और उनको चिन्ता (धनको त्रुटिको) दूर नही कर सकते? मेरा विश्वास है कि उस निस्पह सन्तने जिस किसी भी सस्थाको स्थापित किया है, उसे आशीर्वाद दिया है वह सस्था निरन्तर बढ़ी है। उदाहरणार्थ स्याद्वाद महाविद्यालयको लीजिए, इसके लिए
-३१९ -
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
वर्णीजीको आरम्भमें सिर्फ एक रुपया दानमें मिला था, जिसके ६४ पोस्टकार्ड खरीदकर उन्होने ६४ जगह पत्र लिखे थे, फिर क्या था, वर्णीजीका आत्मा निर्मल एव निस्पृह था और वाराणसी जैसे विद्याकेन्द्र में एक जैन विद्यालयके लिए छटपटा रहा था, फलत चारों ओरसे दानकी वर्षा हुई। आज इस विद्यालयको ५६ वर्ष हो गये और उसका ध्रौव्यकोष भी कई लाख है। यह एक निरीह सन्तका आशीर्वाद था। शान्तिनाथ दि० जैन विद्यालयको भी उनका आशीर्वाद ही नही, उनके करकमलोंसे स्थापित होनेका सौभाग्य प्राप्त है । मेरा विश्वास है कि इस विद्यालयका भी ध्रौव्यकोष आप लोग एक लाख अवश्य कर देंगे। तब वर्णीजीका स्वर्गमें विराजमान आत्मा अपने इस विद्यालयको हरा-भरा जानकर कितना प्रसन्न एव मालादित न होगा।
TURALLLLLUS
.
HAPRALE
३
हासमा
-३२०
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
आचार्य शान्तिसागरका ऐतिहासिक समाधिसरण
प्राग्वृत्त
१८ अगस्त १९५५ का दिन था। श्रीसमन्तभद्र मम्मान-विवाटर आरम्भ हो नगा पापा०० आचार्य शान्तिसागरजी महाराजके द्वारा १४ अगस्त ५५ को पीपल गिरि निरक्षेपार ली गई 'मल्सेना' के ग्राप्त समाचारमे समस्त अध्यापको तथा छानोंको एक छोटेमे वक्तव्याने माप अवगत परामा । सपने मौनपूर्वक बडे-बडे नोवार णमोकारमन' का जाप्य किया और महाराजको निविघ्न गुल्लेगना (नमाश्मिरमक लिये सद्ध गुभकामनाएँ की।
विद्यालयको पढ़ाई चालू ही हुई थी कि महागभाको आफिसमें शीघ्र ही लगनी लि फोन आया । हम वहाँ पहने। वहां स्थानीय समाजके ४.६ प्रतिप्टत महानुभाव भी पे। सदको बताया गया कि 'प. य. मानजी शास्त्री गोलापुरका आज तार आया है, जिसमे उन्होने सूनित पिया है कि नाचार्य महाराग्ने १५ अगस्त ५५ फो ३॥ बजे मध्याहमे 'यम-गल्लेसना' ले ली है । अर्थात जलया भी रयाग कर दिया -पादि चाचा हुई और आवश्यकता पड़ी तो उसे लेंगे।' यह ये बता ही रहे थे कितनेमें गोगपुरसे ठगानी देवनदका फोन माया। उसमें उन्होंने भी यही कहा । निश्चय हला किमबह औराम प्रगर मन्दिरजीमे अप, ध्यान, पान्तिधारा, पूजा, पाठ आदि मत्कार्य किये जायें। दान, एकागन बार भी, जोपर गरमा। हमने महाराजके अन्तिम उपदेशोको रिकार्डिन ममीन (अनिग्रादपाय) दारा रिपाई (ध्वनिप्र) पाने सपा फिम (महाराजको गमन नियालोका सायाचित्र)ने का विचार रना, जिनपर हमनगम हो निश्चा नहीं मार सके और इम चिन्ताप साप -टं कि 'जो विभूति नारामा मामन और गिर हमारा साधारण उपकार किया है उसफे कुछ दिन बाद दर्शन नही करेंगे।'
१९ अगस्तको बटोत (मेरठ) में मानायं घी १०८ नमिमागरजी महागरण, शेवानाधाने प्रमुप शिष्य थे, दालोप था। विद्यालपणे मरमापण लागतीपानी नपरबागेसामा । पहा महाराज नमिसागरजी भी नाचार्वधी सल्लेगनाप्रहरी मचिन्त। सरगमोहम मिलती पापिम आगये।
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाडी करके हीराबागकी धर्मशाला आये। वहां स्नान, देवदर्शन, पूजन और भोजन आदि दैनिक क्रियाओंसे निवृत्त हुए। वहाँ श्री १०८ मुनि नेमिसागरजीका चतुर्मास हो रहा था। उनके दर्शन किये । शामको उसी दिन कुथलगिरि जानेके लिये स्टेशनपर आये। मद्रास एक्सप्रेससे सवार होकर ता० २५ अगस्तको प्रात ७ बजे कुडुवाडी पहुंचे। वहां पहुंचनेपर पता चला कि एडसी-कुथलगिरि जानेवाली गाडी डेढ घंटे पूर्व छूट चुकी है । अत कुर्दुवाडीमें स्नान, देवदर्शन, पूजन आदि करके मोटर बस द्वारा वार्सी होते हुए उसी दिन मध्याह्नमें ३।२० पर श्रीकुथलगिरि पहुँचे । कुथलगिरिका सुन्दर पहाड २-३ मील पहलेसे दिखने लगता है । यहाँसे देशभूषण और कुलभूषणने घोर उपसर्ग सहनकर सिद्धपद प्राप्त किया था ।
__ मोटरसे उतरते ही मालूम हुआ कि महाराज दर्शन दे रहे हैं और प्रतिदिन मध्याह्नमें ३ से ३ बजे तक दर्शन देकर गफामें चले जाते है। अत मामानको वही छोड तीव्र वेगसे महाराजके दर्शनोके लिये पहाडपर पहुंचे। उस दिन महाराजने ३-४५ बजे तक जनता को दर्शन दिये । महाराज सबको अपने दाहिने हाथ और पिछीको उठाकर आशीर्वाद दे रहे थे। उस समयका दृश्य बहा द्रावक एव अनुपम था। अब मनमें यह अभिलाषा हुई कि महाराजके निकट पहुँचकर निकटसे दर्शन व वार्ता करें तथा महाराज नमिसागरजीका लिखा पत्र उनके चरणोमें अर्पित करें।
सुयोगसे प० सुमेरुचन्द्रजी दिवाकर सिवनीने हमें तत्क्षण देखकर निकट बुला लिया और सेठ रावजी पढारकर सोलापुर तथा श्री १०५ लक्ष्मीसेन भट्टारक कोल्हापुरसे हमारा परिचय कराया एव आचार्य महाराजके चरणोमें पहुँचानेके लिए उनसे कहा । ये दोनो महानुभाव महाराजकी परिचर्या में सदा रहनेवालोंमें प्रमुख थे। एफ घटे बाद पौने पांच बजे माननीय भट्टारकजी हमें महाराजके पास गुफामें ले गये।
सौम्यमुद्रामें स्थित महाराजको त्रिवार नमोऽस्तु करते हुए निवेदन किया कि 'महाराज | आपके सल्लेखनाव्रत तथा परिचर्या में दिल्लीकी ओरसे, जहां आपने सन् १९३० में ससघ चतुर्मास किया था, महाराज नमिसागरजीने हमें भेजा है। महाराज नमिसागरजीने आपके चरणोंमें एक पत्र भी दिया है ।' आचार्यश्रीने कहा-'ठीक है, तुम अच्छे आये ।' और पत्रको पढनेके लिये इङ्गित किया । हमने १० मिनट तक पत्र पढ़कर सुनाया। महाराजने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। महाराजकी शान्त मुद्राके दर्शनकर प्रमुदित होते हुए गुफासे बाहर आये। बादमें पहाडसे नीचे आकर डेरा तलाश करते हए दिल्लीके अनेक सज्जनोंसे भेंट हुई। उनसे मालूम हुआ कि वे उसी दिन वापिस जा रहे हैं । मत हम उनके हेरेमें ठहर गये ।
यहाँ उल्लेख योग्य है कि वर्षाका समय, स्थानकी असविधा और खाद्य-सामग्रीका अभाव होते हुए भी भक्तजन प्रतिदिन आ रहे थे और सब कष्टोंको सह रहे थे ।
२९ अगस्त तक हम महाराजके पादमूलमें रहे और भाषण, तत्त्वचर्चा, विचार-गोष्ठी आदि दैनिक कार्यक्रमोमें शामिल होते रहे । तथा सल्लेखना-महोत्सव के प्रमुख सयोजक सेठ बालचन्द देवचन्दजी शहा सोलापुर-बम्बईके आग्रह एव प्रेरणासे 'सल्लेखनाके महत्त्व' तया 'आचार्यश्रीके आदर्श-मार्ग' जैसे सामयिक विषयोपर भाषण भी देते रहे । स्थान और भोजनके कष्टने इच्छा न होते हुए भी कुथलगिरि और आचार्यश्रीका पादमूल हमें छोडनेके लिए बाध्य किया और इस लिये दिल्ली लौट जानेका हमने दुखपूर्वक निश्चय किया । अत महाराजके दर्शनकर और उनकी आज्ञा लेकर मोटर-बसपर आ गये ।
उल्लेखनीय है कि हमें दिवाकरजीगे प्रेरणा की थी कि शेडवाल (जि. वेलगाव)में आचार्य महाराजके बढे भाई और २७ वर्ष पहले आचार्यश्रीसे दीक्षित, जिनकी ९४ वर्षकी अवस्था है, मुनि वर्धमानसागरजी तथा
- ३२२ -
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
कुम्भोजबाहुबलीमें मुनि समन्तभद्रजी, जो वर्धमानसागरजीसे दीक्षित, अनेक गुरुकुलोके संस्थापक एवं आजन्म ब्रह्मचारी, बी० ए०, न्यायतीर्थ है, विराजमान है, उनके दर्शन अवश्य करना और आचार्यथीके बारेमें उनसे विशेष जानकारी प्राप्त करना । अतएव २९ अगस्तको श्रीकुथलगिरिसे चलकर हम मिरज होते हुए ३० अगस्तको
शेडवाल पहुंचे । वहाँ सौम्यमुद्रादित एव तेजस्वितापूर्ण मुनि वर्धमानसागरजीके दर्शन और आचार्य महाराज के वारेमें उनसे विशेष जानकारी प्राप्तकर बडा आनन्द हुआ। आचार्य महाराजके सदुपदेशसे यहाँ निर्मापितभव्य एव मनोहर तीस चौबीसी विशेष आकर्षणको वस्तु है। यहांका श्री शान्तिसागर दि० जैन अनाथाश्रम भी उल्लेखनीय है।
शेडवालसे ३१ अगस्त को चलकर उसी दिन कुम्भोज-बाहुबली पहुँचे । मुनि समन्तभद्रजी महाराजके, जो अभीक्ष्णज्ञानोपयोगमें निरत रहते है, दर्शन किये और उनके साथ चर्चा-वार्ताकर अतीव प्रमुदित हुए। यहाँका गुरुकुल, समवशरणमन्दिर, स्वाध्यायमन्दिर, बाहुबली मन्दिर, सन्मतिमुद्रणालय आदि सस्थाएँ द्रष्टव्य हैं । इन सब सस्थाओंके सस्थापक एव प्राण महाराज समन्तभद्र है। महागज पहाडपर श्री १००८ बाहुबलीको २८ फुट उन्नत विशाल मूर्तिकी भी स्थापना कर रहे हैं। आप जैसा धर्मानुराग हमें अवतक अन्यत्र देखनेमे नही मिला । श्रमणसस्कृतिके आप सच्चे और मूक प्रसारक एव सेवक है।
यहाँसे श्रमणवेलगोल-जनबिद्री ज्यादा दूर नही है। अत वहाँको विश्वविख्यात गोम्मटेश्वरको मूतिको वन्दनाका लोभ हम सवरण नही कर सके । श्री समन्तभद्र महाराजने भी हमे प्रेरणा की । अतएव कुम्भोज बाहुबलीसे १ सितम्बरको चलकर २ सितम्बरको ६॥ बजे शामको श्रमणवेलगोल पहुंचे । पहुँचते ही उसी दिन रातको तथा दूसरे दिन ३ सितम्बरको गोम्मटेश्वरकी उस महान् अद्वितीय, ५८ फुट उत्तुङ्ग, अद्भुत, सौम्य मूर्तिकी वन्दनाकर चित्त सातिशय आह्लादित हुआ। यह मूर्ति एक हजार वर्षसे गर्मी, बरसात और सर्दीकी चोटोको सहन करती हुई विद्यमान है और आज भी अपने निर्माताकी उज्ज्वल कीतिको विश्वविख्यात कर रही है। इतनी विशाल और उत्तङ्ग भव्य मूर्ति विश्वमें अन्यत्र नही है। यह वीतराग मूति दूरसे ही दर्शकको अपनी ओर खीच लेती है और अपनेमें उसे लीन कर लेती है।
कुथलगिरिसे यहा वापिस हुए यात्रियों से ज्ञात हमआ कि महाराजकी स्थिति चिन्ताजनक है और २९ अगस्तसे १ सितम्बर तक जल नही लिया। इम समाचारसे मेरे मनमें महाराजके चरणों में पुन. और शीघ्र कुथलगिरि जानेके लिए ऊथल-पुथल एव बेचैनी पैदा हो गई। फलत ३ सितम्बर को ही श्रमणबेलगोलसे माटरसे हम कुथलगिरिके लिए पुन चल दिये और ४ सितम्बरको ९ बजे रात्रिमें मिरज आगये । आनेपर मालूम हुआ कि एडसी-कुथलगिरि जाने वाली गाडी आधा घण्टा पूर्व चली गई है और अब दूसरे दिन ११-४५ बजे जावेगी। फलस्वरूप उस दिन हम वही मिरज स्टेशन पर रहे। प्रात ५ मितम्बरको मिरज शहर में श्रीजिनमन्दिरके दर्शनोके लिए गये । वहाँ भी देवेन्द्रकोति भट्टारकजीसे भेंट हो गई। आप बहुत सज्जन भद्र भद्र हैं । मिरजसे ११-४५ बजेकी गाडीसे रवाना होकर ६ सितम्बरको एडसी होते हुए कुथलगिरि पहुंचे। यहाँ आते ही ज्ञात हुआ कि महाराजकी प्रकृति उत्तम है । २ मितम्बरसे ४ सितम्बर तक उन्होंने जल ग्रहण किया। कल ५ सितम्बरको जल नही लिया है।
उसके बाद फिर भाचार्यश्रीने जल ग्रहण नही किया। आचार्यश्रीने दो एक बार जल ग्रहण करने के लिए प्रार्थना भी की गई, किन्तु आचार्यधीने दृढताके साथ कहा कि 'जब शरीर आलम्यन लिए विना पहा नहीं रह सकता तो हम पवित्र दिगम्बर चर्याफो सदोष नहीं बनायेंगे।' ७ सितम्बरको बम्बईमे किाटिंग मगोनके भाजानेसे ८ सितम्बरको महाराजसे अन्तिम उपदेशके लिए प्रार्थना की गई। महाराजन मयको
-३२३ -
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रार्थना स्वीकार कर अपना अन्तिम भाषण दिया, जो मराठीमें २२ मिमट तक हुआ और जिसे रिकार्ड करा लिया गया।
आचार्यश्रीने समाजका लगभग अर्ध-शताब्दी तक मार्गदर्शन किया, देशके एक छोरसे दूसरे छोरतक पाद-विहार करके उसे जागृत किया और शतब्दियोसे ज्योतिहीन हुए दि० मुनिधर्म-प्रदीपको प्रदीप्त किया। इस दुषमाकालमें उन्होने अपने पवित्र एव यशस्वी चारित्र, तप और त्यागको भी निरपवाद रखते हुए निर्ग्रन्थरूपको जैसा प्रस्तुत किया वैसा गत कई शताब्दियोमें भी नहीं हुआ होगा। उनके इस उपकारको कृतज्ञ समाज चिरकाल तक स्मरण रखेगी।
हमें आचार्यश्रीके सल्लेखना-महोत्सवमें २५ अगस्तसे २९ अगस्त तक और ६ सितम्बरसे १९ सितम्बर तक उनके देहत्याग तथा भस्मोत्थानक्रिया तक १९ दिन श्री कुथलगिरिमें रहनेका सौभाग्य मिला। एक महान् क्षपकके समाधिमरणोत्सवमें सम्मिलित होना आनन्दवर्धक ही नहीं, अपितु निर्मल परिणामोत्पादक एव पुण्यवर्धक माना गया है। महाराजने ३५ दिन जितने दीर्घकाल तक सल्लेखनाव्रत धारणकर उसके अचिन्त्य महत्त्व और मार्गको प्रशस्त किया तथा जैन इतिहासमें अमर स्थान प्राप्त किया। आचार्यश्रीकी नेत्रज्योति-मन्दता
चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराजको आंखोकी ज्योति पिछले कई वर्षोंसे मन्द होने लगी थी और वह मन्दसे मन्दतर एव मन्दतम होती गई। आचार्य महाराज नश्वर शरीरके प्रति परम निस्पही और विवेकवान होते हए भी इस ओरमे कभी उदासीन नही रहे और न शरीरकी उपयोगिताके तत्त्वको वे कभी भूले। 'शरीरमाद्य खलु धर्मसाधनम्'-शरीर धर्मका प्रथम साधन है, इसे उन्होने सदा ध्यानमें रखा और आखोकी ज्योति-मन्दताको दूर करनेके लिए भक्तजनोद्वारा किये गये उपचार-प्रयत्नोको सदैव अपनाया। महाराज स्वय कहा करते थे कि 'भाई! आंखोकी ज्योति सयम पालन में सहायक है और इस लिए हमें उसका ध्यान रखना आवश्यक है परन्तु यदि वह हमें अवाब देवे तो हमें भी उसे जवाब देना पडेगा।' यथार्थमें आत्माके अमरत्वमें आस्था रखने वाले ममक्ष साधुका यही विवेक होता है। अत एव आचार्यश्रीने समय-समय पर उचिरा और मार्गाविरोघो उपचारोको अपनाया तथा पर्याप्त औषधिोका प्रयोग किया । किन्तु आखोकी ज्योतिमें अन्तर नही पडा, प्रत्यत वह मन्द ही होती गई। धार्मिक भक्तजनो द्वारा सुयोग्य डाक्टरो के लिए भी महाराजकी आंखें दिखाई गई । परन्तु उन्हें भी सफलता नहीं मिली। समाधिमरण-धारणका निश्चय
ऐसी स्थितिमे आचार्यश्रीके सामने दो ही मार्ग थे, जिनमेंसे उन्हें एक मार्गको चुनना था । वे मार्ग थे-शरीररक्षा या आत्मरक्षा । दोनोकी रक्षा अब सम्भव नही थी। जबतक दोनोंकी रक्षा सम्भव थी तबतक उन्होने दोनोका ध्यान रखा। उन्होने अन्तर्दष्टिसे देखा कि 'अव मुझे एककी रक्षाका मोह छोडना पडेगा । शरीर ८४ वर्षका हो चुका, वह जाने वाला है, नाशशील है, अब वह अधिक दिन नही टिक सकेगा। एक-न-एक दिन उससे मोह अवश्य छोडना पडेगा । इन्द्रियां जवाब दे रही है । आखोने जवाब दे ही दिया है। विना आखोकी ज्योतिके यह सिद्धसम आत्मा पराश्रित हो जायेगा। ईर्यासमिति और एषणासमिति नही पल सकती। क्या इन आत्मगणोको नाशकर अवश्य जाने-वाले जीर्ण-शीर्ण शरीरकी रक्षाके लिए मैं अन्न-पान ग्रहण करता रह? क्या आत्मा और शरीरके भेदको समझनेवाले तथा आत्माके अमरत्वमें आस्था रखने वाले साधुके लिए यह उचित है ? जिन ईर्यासमिति ( जीवदया), एपणासमिति (भोजनशुद्धि ) आदि आत्ममूलगुणोंके विकास, वृद्धि एव रक्षाके लिए अनशनादि तप किये, उपसर्ग सहन
-३२४
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
किये और घोर परीषह सहे, क्या उनका नाश होने दूं? नश्वर शरीर नष्ट होता है तो हो, जीवनभर पालितपोषित आत्मगुणोको नाश नही होने दूंगा । अत शरीरसे मोह छोडकर आत्माकी रक्षा करूँगा, क्योकि शरीररक्षाकी अपेक्षा आत्मरक्षा अधिक लाभदायक और श्रेयान् है । में सिद्धसम हूं और इसलिये निर्विकल्पक समाधि द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर शुद्ध बुद्ध-सिद्ध बनूँगा ।' यह विचारकर आचार्य महाराजने सल्लेखनाव्रत धारण करनेका निश्चय किया और भगवान् श्री १००८ देशभूषण कुलभूषण के पावन सिद्धिस्थान श्री कुथलगिरिपर पहुँचकर अपने उस सुविचारित एव विवेकपूर्ण निश्चयको क्रियात्मक रूप दिया । अर्थात् १४ अगस्त १९५५ रविवारको बादामका पानी लेकर उसी दिन समस्त प्रकारके आहार पानीका आमरण त्यागकर दिया । १७ अगस्त तक उनका यह त्याग नियम सल्लेखना के रूपमें रहा और उसके बाद उसे उन्होने यमसल्लेखनाके रूपमें ले लिया। इतना विचार रखा कि बाधा होनेपर यदि कभी आवश्यकता पडी तो जल ले लूँगा ।
समाधिमरण क्यो और उसकी क्या आवश्यकता ?
विक्रमकी छठी शताब्दीके विद्वान् आचार्य पूज्यपाद- देवनन्दि सल्लेखनाका महत्त्व और आवश्यकता बतलाते हुए लिखते हैं ।
'मरणस्यानिष्टत्वाद्यथा वणिजो विविधपण्यदानादानसञ्चयपरस्य स्वगृहविनाशोऽनिष्ट । तद्विनाशकारणे च कुतश्चिदुपस्थिते यशाशक्ति परिहरति, दु परिहारे च पण्यविनाशो यथा न भवति तथा यतते एव गृहस्थोऽपि व्रतशीलपण्यसञ्चये प्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य न पातमभिवाञ्छति तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति । दु परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतते इति । स० सि० अ० ७ सू० २२ ।
अर्थात् मरण किसीको इष्ट नही है । जिस प्रकार अनेक तरहके जवाहरातोका लेन-देन करनेवाले व्यापारीको अपने घरका नाश इष्ट नही है । यदि कदाचित् उसके नाशका कोई (अग्नि, बाढ, विप्लव आदि ) कारण उपस्थित होजाय तो वह उसके परिहारका यथाशक्ति उपाय करता है । और यदि परिहारका उपाय सम्भव नही होता तो घरमें रखे हुए जवाहरातोकी जैसे बने वैसे रक्षा करनेका यत्न करता है -- अपने बहुमूल्य जवाहरातको नष्ट नही होने देता है उसीप्रकार जीवनभर व्रत शीलरूप जवाहरातका सञ्चय करने वाला श्रावक अथवा साघु भी उसके आधारभूत अपने शरीरका नाश नही चाहता -- उसकी सदा रक्षा करता है । और शरीरके नाशकारणो रोग, उपसर्ग आदिके उपस्थित होनेपर उनका पूर्ण प्रयत्न से परिहार करता है तथा असाध्य रोग, अशक्य उपसर्ग आदि के होनेपर जब देखता है कि शरीरका रक्षण अब सम्भव नही है। आत्मगुणोका नाश न हो वैसा प्रयत्न करता है । अर्थात् शरीररक्षाकी अपेक्षा वह आत्मरक्षाको सर्वोपरि मानता है ।
इसी बातको प० आशाघरजी भी कहते हैं
काय स्वस्थोऽनुवर्त्य. स्यात् प्रतिकार्यश्च रोगित । उपकार विपर्यस्यस्त्याज्यः सद्भि खलो यथा ॥ देहादिकृ सम्यक्निमित्तैस्तु सुनिश्चिते । मृत्यावाराधनामग्नमतेर्दूरे न तत्पदम् ॥
'स्वस्थ शरीर, पथ्य आहार और विहार द्वारा पोषण करने योग्य है । और रोगी शरीर योग्य औषधियों द्वारा उपचारके योग्य है । परन्तु योग्य आहार-विहार और औषधोपचार करते हुए भी शरीरपर
-
३२५ -
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
उनका कोई असर न हो, प्रत्युत व्याधिको वृद्धि ही हो, तो ऐसी स्थितिमें उस शरीरको दुष्टके समान छोड देना ही श्रेयस्कर है । अर्थात् समाधिमरण लेकर आत्मगुणोंकी रक्षा करनी चाहिये ।'
'शीघ्र मरण सूचक शरीरादिके विकारोद्वारा और ज्योतिषशास्त्र, एव शकुनविद्या आदि निमित्तोंद्वारा मृत्युको सन्निकट जानकर समाधिमरणमें लीन होना बुद्धिमानोका कर्तव्य है। उन्हें निर्वाणका प्राप्त होना दूर नही रहता।'
इन उद्धरणोसे सल्लेखनाका महत्व और आवश्यकता समझमें आ जाती है। एक बात और है वह यह कि कोई व्यक्ति रोते-विलपते नही मरना चाहता । यह तभी सम्भव है जब मृत्युका अकषायभावसे सामना करे । नश्वर शरीरसे मोह त्यागे। पिता, पुत्रादि बाह्य पदार्थोंसे राग-द्वेप दूर करे । आनन्द और ज्ञानपूर्ण आत्माके निजत्वमें विश्वास करे। इतना विवेक जागृत होनेपर मुमुक्षु श्रावक अथवा साधु सल्लेखनामरण, समाधिमरण या पडितमरण या वीरमरण पूर्वक शरीर त्याग करता है। समाधिमरणपूर्वक शरीरत्याग करनेपर विशेष जोर देते हुए कहा है --
यत्फल प्राप्यते सद्भितायासविडम्बनात् । तत्फल सुखसाध्य स्यान्मृत्युकालं समाधिना ।। तप्तस्य तपसश्चापि. पालितस्य व्रतस्य च ।
पठितस्य श्रु तस्यापि फल मृत्यु समाधिना ॥ 'जो फल बडे-बडे व्रती पुरुपोको कायक्लेश आदि तप, अहिंसादि व्रत धारण करनेपर प्राप्त होता है वह फल अन्त समयमें सावधानी पूर्वक किये हुए समाधिमरणसे जीवोको सहजमें ही प्राप्त हो जाता है । अर्थात जो आत्मविशुद्धि अनेक प्रकारके तपादिसे होती है वह अन्त समयमें समाधिपूर्वक शरीर त्यागनेपर प्राप्त हो जाती है।'
'बहत काल तक किये गये उग्र तपोका, पाले हए तोका और निरन्तर अभ्यास किये हुए शास्त्रज्ञानका एक मात्र फल शान्तिपूर्वक आत्मानुभव करते हुए समाधिमरण करना है । इसके बिना उनका कोई फल प्राप्त नही होता-केवल शरीरको सुखाना या ख्यातिलाभ करना है।'
इससे स्पष्ट है कि सल्लेखनाका कितना महत्त्व है। जैन लेखकोने इसपर अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। 'भगवती आराधना' इसी विषयका एक प्राचीन ग्रन्थ है, जो प्राकृत भाषामें लिखा गया है और जिसका रचनाकाल हेढ-दो हजार वर्षसे ऊपर है । इसी प्रकार 'मृत्युमहोत्सव' नामका सस्कृत भाषामें निबद्ध अथ है, जो बहुत ही विशद और सुन्दर है । आचार्य समन्तभद्रने लिखा है
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजाया च नि प्रतीकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहु सल्लेखनामार्या ॥
'जिसका कुछ उपाय शक्य न हो, ऐसे किसी भयङ्कर सिंह आदि द्वारा खाये जाने आदिके उपसर्ग आ जानेपर, जिसमें शुद्ध भोजन-सामग्री न मिल सके, ऐसे दुष्कालके पहनेपर, जिसमें धार्मिक व शारीरिक क्रियाएँ यथोचित रीतिसे न पल सके, ऐसे बुढापेके आ जानेपर तथा किसी असाध्य रोगके हो जानेपर घर्मकी रक्षाके लिये शरीरके त्याग करनेको सल्लेखना (समाधिमरण--साम्यभावपूर्वक शरीरका त्याग करना) कहा गया है।'
-३२६
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
इसी बातको एक दूसरी जगह भी इस प्रकार बतलाया गया है -
नावश्यं नाशिने हिंस्यो धर्मो देहाय कामदः ।
देहो नष्ट. पुनर्लभ्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभ. ॥ "नियमसे नाश होनेवाले शरीरके लिये अभीष्ट फलदायी धर्मका नाश नही करना चाहिये; क्योकि शरीरके नाश हो जानेपर तो दूसरा शरीर पुन मिल सकता है । परन्तु नष्ट धर्मका पुन मिलना दुर्लभ है।'
सल्लेखना धारण करनेवाले जीवका किसी वस्तुके प्रति राग अथवा द्वेष नही होता। उसकी एक ही भावना होती है और वह है विदेहमुक्ति । समन्तभद्रस्वामीने लिखा है
स्नेह वैर सङ्ग परिग्रह चापहाय शुद्धमनाः । स्वजन परिजनमपि च क्षान्त्वा क्षमयेत्प्रियैर्वचनैः ।। आलोच्य सर्वमेन कृतकारितमनुमत च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ।। शोक भयमवसाद क्लेद कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्त्वोत्स्माहमुदीर्य च मन प्रसाद्य श्रु तैरमृतै ॥ आहार परिहाप्य क्रमश स्निग्ध विवर्द्धयेत्पानम् । स्निग्ध च हापयित्वा खरपान पूरयेत्क्रमश ॥ खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या।
पञ्चनमस्कारमनास्तनु त्यजेत्सर्वयत्नेन ॥ 'क्षपक इष्ट वस्तुसे राग, अनिष्ट वस्तुसे द्वेप, स्त्री-पुत्रादिसे ममत्व और धनादिसे स्वामीपनेकी बुद्धिको छोडकर पवित्र मन होता हआ अपने परिवारके लोगो तथा पुरा-पडोसी जनोंसे जीवन में हुए अपराघोको क्षमा करावे और स्वय भी उन्हें प्रियवचन बोलकर क्षमा करे और इस तरह अपने चित्तको निष्कषाय बनावे ।'
'इसके पश्चात वह जीवनमें किये, कराये और अनुमोदना किये समस्त हिंसादि पापोकी निश्छल भावसे आलोचना (खेद-प्रकाशन) करे तथा मृत्युपर्यन्त समस्त महाव्रतो (हिंसादि पांच पापोके त्याग) को धारण करे।
'इसके साथ ही शोक, भय, खेद, ग्लानि (घृणा), कलुषता और आकुलताको भी छोड दे तथा बल एव उत्साहको प्रकट करके अमृतोपम शास्त्रवचनोंसे मनको प्रसन्न रखे।'
'इसके बाद सल्लेखनाधारी सल्लेखनामें सर्वप्रथम आहार (भक्ष्य पदार्थों) का त्याग करे और दूध, छाछ आदि पेय पदार्थों का अभ्यास करे। इसके अनन्तर उसे भी छोडकर काजी या गर्म जल पीनेका अभ्यास करे।'
'बादमें उनको भी छोडकर शक्तिपूर्वक उपवास करे और इस तरह उपवास करते एव पचपरमेष्ठीका ध्यान करते हुए पूर्ण जागृत एव सावधानीसे शरीरका त्याग करे।
इस विधिसे साधक अपने आनन्द-ज्ञान घन आत्माका साधन करता है और भावी पर्यायको वर्तमान जीर्ण-शीर्ण नश्वर पर्यायसे भी ज्यादा सुखी, शान्त, निर्विकार, नित्य-शाश्वत एव उच्च बनाने का सफल पुरुषार्थ करता है । नश्वरसे यदि अनश्वरका लाभ हो, तो उसे कौन विवेकी छोडनेको तैयार होगा?
- ३२७ --
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
सल्लेखनाधारी उन पांच दोषोंसे भी अपनेको बचाता है जो उसकी पवित्र सल्लेखनाको कलङ्गित करते हैं। वे पांच दोष निम्न प्रकार हैं -
जीवित-मरणाऽऽशसे भय-मित्रस्मृति-निदान-नामान ।
सल्लेखनाऽतिचारा पञ्च जिनेन्द्र समादिष्टा ।। 'सल्लेखना धारण करनेके बाद जीवित बने रहनेकी आकाक्षा करना, जल्दी मरनेकी आकाक्षा करना, भयभीत होना, स्नेहियोका स्मरण करना और अगली पर्यायके इन्द्रियसूखोकी इच्छा करना ये पांच बातें सल्लेखनाको दूषित करनेवाली कही गई हैं।' उत्तम समाधिमरणका फल स्वामी समन्तभद्रने लिखा है कि
निश्रेयसमभ्युदय निस्तोर दुस्तर सुखाम्बुनिधिम् ।
नि पिवति पीतधर्मा सर्वैर्दु खैरनालीढ. ॥ 'उत्तम सगधिमरणको करनेवाला धर्मरूपी अमृतको पान करनेके कारण समस्त दु खोंसे रहित होता हुआ नि श्रेयस और अभ्युदयके अपरिमित सुखोको प्राप्त करता है ।' क्षपककी सल्लेखनामे सहायक और उनका महत्त्वपूर्ण कर्त्तव्य
इस तरह ऊपरके विवेचनसे सल्लेखनाका महत्त्व स्पष्ट है और इसलिये आराधक उसे बडे आदर, प्रेम तथा श्रद्धाके साथ धारण करता है और उत्तरोत्तर पूर्ण सावधानीके साथ आत्म-साधनामें तत्पर रहता है। उसके इस पुण्यकार्यमें, जिसे एक 'महान् यज्ञ' कहा गया है, पूर्ण सफलता मिले और अपने पवित्र पथसे विचलित न होने पाये, अनुभवो मुनि (निर्यापक) सम्पूर्ण शक्ति एव आदरके साथ सहायता करते है और आराधकको समाधिमरणमें सुस्थिर रखते हैं । वे उसे सदैव तत्त्वज्ञानपूर्ण मधुर उपदेशों द्वारा शरीर और ससारकीअसारता एव नश्वरता बतलाते हैं, जिससे वह उनमें मोहित न होवे ।' समाधिमरणकी श्रेष्ठता
आचार्य शिवार्यने 'भगवतो आराधना' में सतरह प्रकारके मरणोंका उल्लेख करके पांच तरहके मरणोका वर्णन करते हुए तीन मरणोको उत्तम बतलाया है। लिखा है कि
पडिदपडिदमरण च पडिदं बालपडिद चेव । एदाणि तिण्णि मरणाणि जिणा णिच्च पससति ॥२७॥
'पण्डितपण्डितमरण, पण्डितमरण और बालपण्डितमरण ये तीन मरण सदा प्रशसायोग्य है।'
१ भ० आ० गा० ६५०-६७६ । २ पडिदपडिदमरण पंडिदयं बालपडिद चेव ।
बालमरण चउत्थ पचमय बालबाल च ।। 'पण्डितपण्डितमरण, पण्डितमरण, बालपण्डितमरण, बालमरण और बालबालमरण ये पांच मरण हैं। भ० आ० गा० २५ ।
-३२८
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगे लिखा है -
पंडिदपडिदमरणे खीणकसाया मरति केवलिणो। विरदाविरदा जीवा मरति तदिएण मरणेण ॥२८।। पाओपगमणमरण भत्तप्पण्णा य इगिणी चेव । तिविहं पडियमरण साहुस्स जहुत्तचरियस्स ।।२९।।
अविरदसम्मादिट्ठी मरति बालमरणे चउत्थम्मि ।
मिच्छादिट्ठी य पुणो पचमए बालबालम्मि ।।३०।। अर्थात् चउदहवें गुणस्थानवर्ती वीतराग-केवली भगवान्के निर्वाण-गमनको पण्डितपण्डितमरण, देशव्रती श्रावकके मरणको वालपण्डितमरण, आचारागशास्त्रानुसार चारित्रके धारक साधु-मुनियोके मरणको पण्डितमरण, अविरतसम्यग्दृष्टिके मरणको बालमरण और मिथ्यादृष्टिके मरणको बालबालमरण कहा गया है। भक्तप्रत्याख्यान, इङ्गिनी और प्रायोपगमन ये तीन पण्डितमरणके भेद हैं। इन्ही तीन भेदोका ऊपर सक्षेपमें वर्णन किया गया है। आचार्य शान्तिसागर द्वारा इगिनीमरण सन्यासका ग्रहण
आचार्य शान्तिसागरजीने समाधिमरणके इस महत्त्वको अवगत कर उपर्युक्त पण्डितमरणके दूसरे भेद इङ्गिनीमरण व्रतको ग्रहण किया । यद्यपि महाराज ५ वर्षसे पडितमरणके पहले भेद भवतप्रत्याख्यानके अन्तर्गत सविचारभक्तप्रत्याख्यानका, जिसको उत्कृष्ट अवधि १२ वर्ष है, अभ्यास कर रहे थे। किन्तु शरीरको जर्जरता व नेत्रज्योतिकी अत्यन्त मन्दतासे जब उन्हें अपना आयुकाल निकट जान पडा तो उन्होंने उसे इङ्गिनीमरणके रूपमें परिवर्तित कर दिया, जिसे उन्होने ३५ दिन तक धारण किया। महाराजने स्वय दिनाक १७-८-५५ को मध्याह्नमें २।। बजे सेठ बालचन्द्र देवचन्द्र जी शहा, सेठ रावजी देवचन्द्रजी निम्बरगीकर, सघपति सेठ गेंदनमलजी, सेठ चन्दूलालजी ज्योतिचन्द्रजी, श्री बण्डोवा रत्तोवा, श्री बाबूराव मारले, सेठ गुलाबचन्द्र सखाराम और रावजी बापूचन्दजी पढारकरको आदेश करते हुए कहा था कि 'हम इङ्गिनीमरण सन्यास ले रहे हैं, उसमें आप लोग हमारी सेवा न करें और न किसीसे करायें।' महाराजने यह भी कहा था कि 'पंचम काल होनेसे हमारा सहनन प्रायोपगमन (पण्डितमरणके तीसरे भेद) को लेने के योग्य नहीं है, नहीं तो उसे धारण करते ।' यद्यपि किन्ही आचार्योंके मतानुसार इङ्गिनीमरण सन्यास भी आदिके तीन सहननके धारक ही पूर्ण रूपसे धारण कर सकते हैं तथापि आचार्य महाराजने आदिके तीन सहननोक अभावमें भी इसे धारण किया और ३५ दिन तक उसका निर्वाह किया, जिसका अवलोकन उनके सल्लेखनामहोत्सवमें उपस्थित सहस्रो व्यक्तियोने किया, वह 'अचिन्त्यमोहित महात्मनाम्' महात्माओको चेष्टाएँ अचिन्त्य होती है, के अनुसार विचारके परे है। समाधिमरणमे आचार्यश्रीके ३५ दिन
समाधिमरणके ३५ दिवसोमें आचार्यश्रोकी जैसी प्रकृति, चेष्टा एव चर्या रही उससे आचार्य महाराजके धैर्य, विवेक, जागृति आदिकी जानकारी प्राप्त होती है । १९ दिन तो हम स्वय उनके पादमूलमें कुथलगिरि रहे और प्रतिदिन नियमित दैनदिनी (डायरी) लिखते रहे तथा शेष १६ दिवसोकी उनकी चर्यादिको अन्य सूत्रोसे ज्ञात किया।
१८ सितम्बर ५५, रविवारको-प्रात ६-४५ वजे श्री लक्ष्मीसेनजी भट्टारकने अभिपेकजल ले जाकर कहा-'महाराज | अभिषेकजल है।' महाराजने उत्तर दिया है और उसे उत्तमागमें लगा लिया। इसके ५ मिनट बाद ही ६-५० बजे उन्होने शरीर त्याग दिया। शरीरत्यागके समय महाराज पूर्णत जागृत और
-३२९
न-४२
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
सावधान रहे । अन्तिम समयकी उनके शरीरकी शास्त्रानुसार विधि करके उसे पद्मासन रूपमें चौकीपर विराजमान किया गया और प्रतिदिनकी तरह मचपर ले जाकर जनताके लिए उनके दर्शन कराये । २ घटे तक दशभक्ति आदिका पाठ हुआ। इसके बाद एक सुसज्जित पालकीमें महाराजके पौद्गलिक शरीरको विराजमान करके उस स्थानपर पहाडके नीचे ले गये, जहाँ दाह-सस्कार किया जाना था । पहाडपर ही मानस्तम्भके निकटके मैदान में बड़े सम्मानके साथ डेढ बजे प्रभावपूर्ण दाह-सस्कार हुआ। लगभग ३० मन चन्दन. ३ बोरे कपूरकी टिकिया तथा खुला कपूर, हजारो कच्चे नारियल व हजारो गोले चितामें डाले गये। दाहसंस्कार महाराजके भतीजे, रावजी देवचन्द, माणिकचन्द वीरचन्द आदि प्रमख लोगोंने किया । आगने धू-धूकर महाराजके शरीरको जला दिया । 'ओं सिद्धाप नम' प्रात ६-५० से १।। बजे तक जनताने बोला। इसी समय महाराजके आत्माके प्रति प० वर्द्धमानजी, हमने, प० तनसुखलालजी काला आदिने श्रद्धाञ्जलि-भापण दिये। दाह-सस्कारके समय सर्पराजके आनेकी बात सुनी गई। ज्योतिषशास्त्रानुसार महाराजका शरीरत्याग अच्छे मुहूर्त, योग और अच्छे दिन हुआ। रातको अनेक लोग दाहस्थानपर बैठे-खडे रहे।
१९ सितम्बर ५५, को भस्मीके लिए हम ५ बने प्रात दाहस्थानपर पहुँचे और देखा कि भस्मीके विशाल ढेरको भक्तजनोंने समाप्त कर दिया और अब बीचमें आग मात्र रह गई। भक्तजनोकी उपस्थिति
इस प्रकार यह महाराजका समाधिमरण ३५ दिवस तक चला, जो वस्तुत ऐतिहासिक है । इस अवसरपर निम्न व्रतीजन विद्यमान रहे -
(१) मुनि श्री पिहितास्रव, (२) ऐलक सुबल, (३) ऐ० यशोधर, (४) क्षु० विमलसागर, (५) क्षु० सूरिसिंह, (६) क्षु० सुमतिसागर, (७) क्षु० महाबल, (८) क्षु० अतिबल, (९) क्षु० आदिसागर, (१०) क्षु० जयसेन, (११) क्षु० विजयसेन, (१२) क्षु० पार्श्वकीति, (१३) क्षु० ऋषभकीर्ति, (१४) क्षु० सिद्धसागर, (१५) भट्टारक श्री लक्ष्मीसेन, (१६) भट्टारक श्री जिनसेन, (१७) भट्टारक देवेन्द्रकीति (प्रारम्भमें रहे), (१८) क्षुल्लिका पार्श्वमती, (१९) क्षु० अजितमति, (२०) क्षु० विशालमती, (२१) क्षु० अनन्तमती (२२) क्ष० जिनमती, (२३) क्ष वीरमती, ब्रजीवराज,अ. दीपचन्द, ब्र० चान्दमल, प्र० सूरजमल, ब्र० श्रीलाल आदि । समाजके अनेक प्रतिष्ठित श्रीमान तथा विद्वान् भी वहां उपस्थित रहे । ३५ दिवसोंमें लगभग ५० हजार जनता पहुंची। इतने जन-समहके होते हुए भी कोई विशेष घटना नहीं हुई। ३५ दिन जितना बहा मेला न सुना और न देखा। वह महाराजके जीवनव्यापी तप और आत्मत्यागका प्रभाव था।
-३३०
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
आदर्श तपस्वी आचार्य नमिसागर : एक परिचय
आचार्य मिसागरका जन्म सन् १८८८ में दक्षिण कर्णाटक प्रान्तके शिवपुर गाँव (जिला वेलगाँव) में हुआ | आपका जन्मनाम 'म्होणप्पा होणप्पा' है । आपके पिताका नाम यादवराव और माताका नाम कालादेवी है । दो वर्ष की अवस्थामें पिताका और १२ वर्षकी अवस्थामें माताका वियोग हो गया था ।
प्रारम्भिक शिक्षा
वचपनमे आपको पढनेमें रुचि नही थी । अपने अध्यापकोको चकमा देकर स्कूलसे भाग जाते थे और तीन-तीन दिन तक जगलमें वृक्षोपर पेटसे कपडा बाँधकर चिपके रहते थे तथा भूख-प्यास भी भूल जाते थे । अतएव आपने प्रारम्भिक शिक्षा कर्णाटकी की पहली दो पुस्तकों भरकी ली।
विवाह और गृहत्याग
सन् १९१४ में २६ वर्षको अवस्थामें आपका विवाह हुआ, ४ वर्ष बाद गौना हुआ और एक वर्ष तक धर्मपत्नीका सयोग रहा । पीछे उससे एक शिशुका जन्म हुआ, किन्तु तीन माह बाद उसकी मृत्यु हो गई और उसके तीन माह बाद शिशुकी माँका भी स्वर्गवास हो गया ।
आप दस-दस बीस-बीस बैलगाडियो द्वारा कपास, मिर्च, बर्तन आदिका व्यापार करते थे । एक दिन आप कपास खरीदने के लिए जाम्बगी नामके गाँवमें, जो तेरदाड राज्य में है, गये । वहाँ रातको भोजन करते समय भोजनमें दो मरे झिंगरा (एक प्रकारके लाल कोडे) दीख गये । उसी समय आपको ससारसे वैराग्य हो गया और मनमें यह विचार करते हुए कि "मैं कितना अधम पापी और धर्म-कर्म हीन हूँ कि इस आरम्भपरिग्रहके कारण दो जीवोका घात कर दिया ।” घर बार छोड़कर सवेगी श्रावक हो गये । तीन वर्ष तक आप इसी श्रावक वेषमें घूमते रहे । बोरगांवमें पहुँचकर श्रीआदिसागरजी नामके मुनिराजसे क्षुल्लक दीक्षा ले और फिर दो वर्ष बाद ऐलक दीक्षा भी ले ली । पाँच वर्ष तक आप इस अवस्थामें रहे ।
साधु-दीक्षा
सन् १९२९ में श्री सोनागिरजी (मध्यप्रदेश) में चारित्रचक्रवर्ती तपोनिधि आचार्य शान्तिसागरजी महाराजके निकट साधु-दीक्षा ग्रहण की और उन्हें अपना दीक्षा गुरु बनाया । क्षुल्लकावस्थासे लेकर आपने जैन विद्री, जयपुर, कटनी, ललितपुर, मथुरा, देहली, लाडनू टाकाटूका (गुजरात), जयपुर, अजमेर, व्यावर, हाँसी आदि अनेक स्थानो-नगरो तथा गांवोंमें ३० चातुर्मास किये और भारतके दक्षिणमे उत्तर और पश्चिमसे पूर्व समस्त भागो में विहार किया । इस विहारमे आपने लगभग दस हजार मोलकी पैदल यात्रा की और जगह- जगहकी जनताको आत्म-कल्याणका आध्यात्मिक एवं नैतिक उपदेश देकर उनका वडा उपकार किया ।
आचार्य-पद
सन् १९४४ में आप तारगामें आचार्य कुन्थुसागरजीके संघमें सम्मिलित हो गये । सघ जब विहार करता हुआ घरियावाद (वागड) पहुँचा तो आचार्य कुन्थुसागरजीका वहाँ अकस्मात् स्वर्गवास हो गया । सधने पश्चात् आपको तपादि विशेषताओसे 'आचार्य' पदपर प्रतिष्ठित किया ।
- ३३१ -
1
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह क्या कहते हैं। चातुर्मास बाद तो आपको दिल्ली चलना है। दिल्लीकी समाज और जैन अनाथाश्रम आपको लाने के लिये उत्सुक हैं । महाराज चुप रह गये। पर उनका सकेत उनकी सौम्य मुखाकृतिसे मुझे उनकी समाधिके अवसरपर आने के लिये ही था। महाराज की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए चिन्ताके साथ कहा'महाराज, चरणोमें अवश्य उपस्थित होऊँगा।'
उसी समय एक पत्र ला० सरदारीमलजी गोटेवालो और एक पत्र आश्रम-मत्री ला० रघुवीरसिंह कोठीवालोको लिखा और उसमें महाराजके चिन्ताजनक स्वास्थ्यका उल्लेख करते हुए वैद्यराज कन्हैयालाल जो आयुर्वेदाचार्य प्रधान चिकित्सक जैन औषधालय, देहलीको शीघ्र भेजनेके लिए प्रेरणा की। वैद्यजी महाराजके चरणोंमें पहुंच गये और उन्होने २२ दिन तक महाराजको पूरी वैयावृत्य की ।
___ किन्तु हम जाते-जाते रह गये । हमलोग यही सोचते रहे कि महाराज अपनी असाधारण तप शक्तिके प्रभावसे अभी हमलोगोके मध्य में अवश्य रहेंगे । किन्तु जिनके चरण-सान्निध्यमें पिछले छह वर्षोंमे सैकडो बार आया, गया और स्वाध्याय कराया । उनके तपसे प्रभावित होकर उनका भक्त बना और मेरे ही परामर्शसे वर्णीजीके समागममें सम्मेदशिखर सिद्ध क्षेत्रपर जानेका उन्होने निश्चय किया । पर समाधिमरणके समय न पहुच सका।
ऐसे महान तपस्वीको शत-शत वन्दन है।
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
उनका निधन
२२ अक्तूबर १९५६ का दुखद दिन चिरकाल तक याद रहेगा। इस दिन १२ बजे श्री सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखरजीकी पावन भूमि (ईशरी-पारसनाथ) में जहाँ २० तीर्थकरो और अगणित ऋषियोने तप व निर्वाण प्राप्त किया, इस युगके इस अद्वितीय तपस्वीने समाधिपूर्वक देह त्याग किया । ढाई घण्टे पूर्व साढे नौ बजे उन्होने आहारमें जल ग्रहण किया। दो दिन पूर्वसे ही अपने देहत्यागका भी सकेत कर दिया । क्षु० श्री गणेश प्रसादजी वर्णी, भगत प्यारेलालजी आदि त्यागीगणने उनसे पूछा कि 'महाराज, सिद्धपरमेष्ठीका स्मरण है ?" महाराजने 'हूँ' कहकर अपनी जागृत अवस्थाका उन्हें बोध करा दिया। ऐसा उत्तम सावधान पूर्ण समाधिमरण सातिशय पुण्यजीवोका ही होता है। आचार्य नमिसागरजीने घोर तपश्चर्या द्वारा अपनेको अवश्य सातिशय पुण्यजीव बना लिया था। एक सस्मरण
जब वे बडौतमे थे, मैं कुथलगिरिसे आकर उनके चरणोमें पहुंचा और आचार्य शान्तिसागरजी महाराजकी उत्तम समाधिके समाचार उन्हें सुनाये तथा जैन कालेज भवन में आयोजित सभामें भाषण दिया तो महाराज गद्गद होकर रोने लगे और बोले-'गुरु चले गये और मैं अधम शिष्य रह गया ।' मैंने महाराजको धैर्य बधाते हुए कहा-'महाराज आप विवेकी वीतराग ऋषिवर है । आप अधीर न हो। आप भी प्रयत्न करें कि गुरुकी तरह आपकी भी उत्तम समाधि हो और वह श्री सिद्धक्षेत्र सम्मेद शिखरपर हो। वहाँ वर्णीजीका समागम भी प्राप्त होगा।' महाराज धैर्यको बटोरकर तुरन्त बोले कि'पडितजी, ठीक कहा, अब मैं चातुर्मास समाप्त होते ही तुरन्त श्री सम्मेद शिखरजीके लिये चल दूंगा और वर्णीजीके समागमसे लाभ उठाऊँगा।'
उल्लेखनीय है कि चातुर्मास समाप्त होते ही महाराजने बडीतसे विहार कर दिया। जब मैं उनसे खुर्जामें दिसम्बर-जनवरीमें मिला तो देखा कि महाराजके पैरोमें छाले पड गये हैं । मैंने महाराजसे प्रार्थना की कि-'महाराज जाडोंके दिन हैं। १० मीलसे ज्यादा न चलिए।' तो महाराजने कहा कि-'पडितजी, हमें फाल्गुनकी अष्टान्हिकासे पूर्व शिखरजी पहुंचना है। यदि ज्यादा न चलेंगे तो उस समय तक नही पहुँच पायेंगे।' महाराजकी शरीरके प्रति निस्पृहता, वर्णीजीसे ज्ञानोपार्जनकी तीब्र अभिलाषा और श्रीसम्मेदशिखरजीकी ओर शीघ्र गमनोत्सुकता देखकर अनुभव हुआ कि आचार्यश्री अपने सकल्पकी पूर्तिके प्रति कितने सूदढ हैं । उनके देहत्यागपर श्री दि. जैन लालमन्दिरजीमें आयोजित श्रद्धाञ्जलि-सभामें महाराजके अध्यवसायकी प्रशसा करते हुए ला० परसादीलाल पाटनीने कहा था कि 'वडे महाराजको अन्न त्याग किये २॥ वर्ष हो गया और हम सब लोग असफल हो गये तो मा नमिसागरजी महाराजने अजमेरसे आकर दिल्लीमें चौमासा किया और हरिजन मन्दिर प्रवेश समस्याको अपने हाथमें लेकर ६ माहमें ही हल करके दिखा दिया ।' यथार्थमें उक्त समस्याको हल करनेवाले आचार्य नमिसागरजी महाराज ही हैं। आचार्य महाराजने अपनी कार्यकुशलता और बुद्धिमत्तासे ऐसी-ऐसी अनेक समस्याओको हल किया, किन्तु उनके श्रेयसे वे सदैव अलिप्त रहे और उसे कभी नही चाहा। उनमें वचनशक्ति तो ऐसी थी कि जो बात कहते थे वह सत्य सावित होती थी।
देहत्यागसे ठीक एक मास पूर्व २३ सितम्बर '५६ को जब मैं सस्था (समन्तभद्र सस्कृत विद्यालय, देहली) की ओरसे वर्णी-जयन्तीपर उनके चरणोमें पहुँचा, तो महाराज बोले-'पडितजी, आपको मेरे समाघिमरणके समय आना है।' महाराजके इन शब्दोको सुनकर मैं चौंक गया और निवेदन किया कि 'महाराज
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
तपस्या और त्याग
आपकी तपस्या और त्याग अद्वितीय रहे। सन् १९२४ में आपने जयपुरमै वहाँके अनाजोंकी भाषाका ज्ञान न हो सकनेसे ८ माह तक लगातार केवल कड़ीका आहार लिया । सन् १९३१ मे देहलीमें प्रथम चातुमासमें २१ दिन तक उपवास और बादमें डेढ माह तक केवल छाछ ग्रहण की । सन् १९३३ में सरघना (मेरठ) के चातुर्मासमे ३६ दिन तक सिर्फ नीनूका रस लिया। मेरठमे दो माह तक लगातार केवल गन्ने का रस ग्रहण किया। मन् १९४० में जेर (गुजरात) के चीमासेमें साढ़े छह महीनो में सिर्फ २९ दिन आहार और शेष दिनोमे १६४ उपवास किये । यह सिंह-विक्रीडत व्रत है । सन् १९४१ में टाकाटूका (गुजरात) में चौमासे में सर्वतो - भद्र व्रत किया, जिसमे एक उपवाससे सात उपवास तक चढ़ना और फिर सातसे क्रमश एक उपवास तक आना और इस तरह साढे आठ महीने में केवल ४९ आहार और २४५ उपवास किये । सन् १९४७ में अजमेरमे ढाई माह तक जलका त्याग और केवल छाछका ग्रहण किया । सन् १९४८ में व्यावरमें केवल अन्न (दाल-रोटी) का ग्रहण और जलका त्याग किया। सन् १९३५ में देहली में दूसरे चातुर्मास में लगातार चा चार उपवास किये और इस तरह कई उपवास किये। सन् १९५२ में भी तीसरे चातुमिके आरम्भ में देहली में आपने २० दिन तक अन्न और जलका त्याग किया तथा सिर्फ फल ग्रहण किये महीनों आपने सिर्फ एक
परके वलपर रहकर तपस्या की ।
नमकका त्याग तो आपने कोई २७, २८ वर्षकी अवस्था में ही कर दिया था और छह रसका त्याग भी आपने पौने दो वर्ष तक किया। इस तरह आपका तमाम साधुजीवन त्याग और तपस्यासे ओत-प्रोत रहा ।
ध्यान और ज्ञान
बागपत (मेरठ) में जब आप एक डेढ माह रहे तो यहाँ जमनाके किनारे चार-चार घंटे प्यानमें लीन रहते थे । वडेगांव (मेरठ) में जाडोमें अनेक रात्रियां छतपर बैठकर ध्यानमे बितायी । पावागढ ( वडोदा), तारगा आदिके पहाडोपर जाकर वहाँ चार-चार घंटे समाधिस्थ रहते थे ।
तपोवलका प्रभाव और महानता
आपके जीवन की अनेक उल्लेखनीय विशेषताएँ हैं। जोधपुरमे आपके नेत्रोको ज्योति चली गई और इससे जनता में सर्वत्र चिन्ताको लहर फैल गई किन्तु आप इस दैविक विपत्तिसे लेशमात्र भी नहीं घबराये और आहार-जलका स्यागकर समाधिमें स्थित हो गये। अन्तमें मातवें दिन आपको अपने तपोबल और आत्मनिर्मलताके प्रभावसे आँखोकी ज्योति पुन पूर्ववत् प्राप्त हो गई। उस मरुभूमिमे ग्रीष्मऋतुमे, जहाँ दर्शकोंके पैरोमें फोले पड जाते थे, बालूमें तीन-तीन घंटे आप ध्यान करते थे । पीपाठ (जोधपुर) में ५००० हजार हरिजनोको वैयावृत्य तथा दर्शन करनेका आपने अवसर दिया तथा उनकी इच्छाको तृप्त करके धर्मपूर्वक अपना जीवन वितानेका उन्हें सन्देश दिया ।
१५ दिसम्बर १९५० में जब आपको आहारके लिये जाते समय मालूम हुआ कि संयुक्त भारतके महान् निर्माता स्व० उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेलका बम्बई में देहावसान हो गया तो आपने आहार त्याग दिया और उपवास किया ।
आप कितने गुणग्राही, निस्पृही और विनयशील रहे, यह आपके द्वारा पारियचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराज और भी १०५ शुल्लक गणेशप्रसादजी वर्णी न्यायाचार्यको लिखे गये पत्रोंसे विदित होता है और जिनमें उनकी गुणग्राहकता और विनयशीलताका अच्छा परिचय मिलता है ।
- ३३२ -
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
उनका निधन
२२ अक्तूबर १९५६ का दुखद दिन चिरकाल तक याद रहेगा। इस दिन १२ बजे श्री सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखरजीकी पावन भूमि (ईशरी-पारसनाथ) में जहाँ २० तीर्थंकरो और अगणित ऋषियोने तप व निर्वाण प्राप्त किया, इस युगके इस अद्वितीय तपस्वीने समाधिपूर्वक देह त्याग किया। ढाई घण्टे पूर्व साढे नौ बजे उन्होने आहारमे जल ग्रहण किया। दो दिन पूर्वसे ही अपने देहत्यागका भी सकेत कर दिया। क्षु० श्री गणेश प्रसादजी वर्णी, भगत प्यारेलालजी आदि त्यागीगणने उनसे पूछा कि 'महाराज, सिद्धपरमेष्ठीका स्मरण है ?' महाराजने 'है' कहकर अपनी जागृत अवस्थाका उन्हें बोध करा दिया। ऐसा उत्तम सावधान पूर्ण समाधिमरण सातिशय पुण्यजीवोका ही होता है। आचार्य नमिसागरजीने घोर तपश्चर्या द्वारा अपनेको अवश्य सातिशय पुण्यजीव बना लिया था।
एक सस्मरण
जब वे बडौतमें थे, मैं कुथलगिरिसे आकर उनके चरणोमें पहुँचा और आचार्य शान्तिसागरजी महाराजको उत्तम समाधिके समाचार उन्हें सुनाये तथा जैन कालेज भवनमे आयोजित सभामें भाषण दिया तो महाराज गदगद होकर रोने लगे और बोले-'गुरु चले गये और मैं अधम शिष्य रह गया। मैंने महाराजको घेर्य बघाते हए कहा-'महाराज आप विवेकी वीतराग ऋषिवर है । आप अधीर न हों। आप भी प्रयत्न करें कि गुरुकी तरह आपकी भी उत्तम समाधि हो और वह श्री सिद्धक्षेत्र सम्मेद शिखरपर हो। वहां वर्णीजीका समागम भी प्राप्त होगा।' महाराज धैर्यको बटोरकर तुरन्त बोले कि'पडितजी, ठीक कहा, अब मैं चातुर्मास समाप्त होते ही तुरन्त श्री सम्मेद शिखरजीके लिये चल दूंगा और वर्णीजीके समागमसे लाभ उठाऊंगा।'
__ उल्लेखनीय है कि चातुर्मास समाप्त होते ही महाराजने बडौतसे विहार कर दिया। जब मैं उनसे खुर्जामें दिसम्बर-जनवरीमें मिला तो देखा कि महाराजके पैरोमें छाले पड गये है । मैंने महाराजसे प्रार्थना की कि-'महाराज जाडोके दिन हैं। १० मीलसे ज्यादा न चलिए।' तो महाराजने कहा कि-'पडितजी, हमें फाल्गुनकी अष्टान्हिकासे पूर्व शिखरजी पहुंचना है। यदि ज्यादा न चलेंगे तो उस समय तक नही पहुंच पायेंगे।' महाराजको शरीरके प्रति निस्पृहता, वर्णीजीसे ज्ञानोपार्जनकी तीन अभिलाषा और श्रीसम्मेदशिखरजीकी ओर शीघ्र गमनोत्सुकता देखकर अनुभव हुआ कि आचार्यश्री अपने सकल्पकी प्रतिके प्रति कितने सदढ है । उनके देहत्यागपर श्री दि० जैन लालमन्दिरजीमें आयोजित श्रद्धाञ्जलि-सभामें महाराजके अध्यवसायकी प्रशमा करते हुए ला० परसादीलाल पाटनीने कहा था कि 'बडे महाराजको अन्न त्याग किये २॥ वर्ष हो गया और हम सब लोग असफल हो गये तो आ नमिसागरजी महाराजने अजमेरसे आकर दिल्लीमें चौमासा किया और हरिजन मन्दिर प्रवेश समस्याको अपने हाथमें लेकर ६ माहमें ही हल करके दिखा दिया ।' यथार्थमें उक्त समस्याको हल करनेवाले आचार्य नमिसागरजी महाराज ही है। आचार्य महाराजने अपनी कार्यकुशलता और बुद्धिमत्तासे ऐसी-ऐसी अनेक समस्याओको हल किया, किन्तु उनके श्रेयसे वे सदैव अलिप्त रहे और उसे कभी नही चाहा। उनमें वचनशक्ति तो ऐसी थी कि जो बात कहते थे वह सत्य सावित होती थी।
देहत्यागसे ठीक एक मास पूर्व २३ सितम्बर '५६ को जब मैं सस्था (समन्तभद्र सस्कृत विद्यालय, देहली) की ओरसे वर्णी-जयन्तीपर उनके चरणोमे पहुँचा, तो महाराज बोले-'पडितजी, आपको मेरे समाधिमरणके समय आना है।' महाराजके इन शब्दोको सुनकर मैं चौंक गया और निवेदन किया कि 'महाराज
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
उत्तर कितना सात्यिक, गपुर और सहिष्णुता घोता था। वर्णीजी सबके थे, गरीवके भी, अमीरके भी, विज्ञान भी, अनपढ़के भी, और वृद्ध तथा बच्चोंगे भी। उनका वात्सल्य गभी पर था। गाघीजीके लिए विटला जैसे फुवेर स्नेहपात्र थे तो उससे कम उनका स्नेह गरीयों या हरिजनोंसे न था। वे उनके लिए ही जिए और मरे । वर्णीजी जैन समाजमे गांधी थे । उनकी रग-रग में सबके प्रति समान स्नेह और यात्सल्य था।
हमें बुन्देलपण्डफा स्वय अनुभव है । यह एप्रकारमे गरीव प्रदेश है। यहाँ वर्णीजीने जितना हित और सेवा गरीयोकीगी है, उतनी अन्यकी नहीं। विद्याधी हो, विद्वान् हो । उद्योगहीन हो और चाहे कोई गरीबनी विधवा हो उन सबपर उनकी फातर दृष्टि रहती थी। वे इन सभी मसीहा थे। सत्यानुसरण
वर्णीजी वैष्णव फुलमे उत्पन्न हुए। किन्तु उन्होंने अमूह दुष्टि एव परीक्षा दिसे जैनधर्मको आत्मधर्म मानकर उसे अपनाया। उनका विवेक और श्रद्धा फितनी बढ़ एव जागृत हो, यह बात निम्न घटनासे स्पप्ट मालूम हो जाती है। वर्णीजी जब महारनपुर पहने और वहाँ आयोजित विशाल मार्वजनिक सभामें उपदेशके ममय एक अजैन भाईने उनसे प्रपन किया कि 'आपने हिन्दू धर्म छोटकर जो जनधर्म ग्रहण किया तो क्या वे विशेषताएँ आपको हिन्दूधर्ममें नहीं मिली ?' इमया उत्तर वर्णीजीने बढे सन्तुलित शब्दोमे देते हुए कहा कि 'जितना सूक्ष्म और विशर विचार तथा आचार हमें जैन धर्ममें मिला है उतना पडदर्शनोमें किमीमें भी नही मिला। यदि हो तो बतलायें, मै आज ही उस धर्मको स्वीकार कर ल। मैंने सब दर्शनोंके आचारविचारोको गहराईसे देखा और जाना है। मुझे तो एक भी दर्शनमें जैनधर्ममें वर्णित अहिंसा और अपरिग्रहफा अद्वितीय एव सूक्ष्म आचार-विचार नहीं मिला। इसीसे मैने जैनधर्म स्वीकार किया है। यदि सारी दुनिया जैनधर्म स्वीकार कर ले तो एक भी लडाई-झगडा न हो। जितने भी लडाई-झगडे होते है वे हिंसा और परिग्रहको लेकर ही होते हैं। ससारमें सुख-शान्ति तभी हो सकती है जब अहिंसा और अपरिग्रहका आचार-विचार सर्वत्र हो जाय ।' यह है वर्णीजोका विवेक और श्रद्धापूर्वक किया गया सत्यानुमरण । आचार्य अकलदेवने परीक्षक होने के लिए दो गुण आवश्यक माने हैं-१ अदा और २ गुणज्ञता (विवेक)। इनमेंसे एकका भी अभाव हो, तो परीक्षक नहीं हो सकता । पूज्य वर्णीजीमें हम दोनो गुण देखते हैं, और इस लिए उन्हें सत्यानुयायी पाते हैं। अपार करुणा
वर्णीजी कितने कारुणिक और परदुखकातर थे, यह उनकी जीवन-व्यापी अनेक घटनाओंसे प्रकट है। उनकी करुणाको न सीमा थो और न अन्त था। जो अहिंसक और सन्मार्गगामी थे उनपर तो उनका वात्सल्य रहता ही था, किन्तु जो अहिंसक और सन्मार्गगामी नही थे-हिंसक एवं कुमार्गगामी थे, उन पर भी उनकी करुणाका प्रवाह वहा करता था। वे किसी भी व्यक्तिको दुखी देखकर दुखकातर हो जाते थे। गत विश्वयुद्धोकी विनाशलीलाकी खबरें सुनकर उन्हें मर्मान्तक दुख होता था। सन् १९४५ में जब आजाद हिन्द फौजके सैनिकोंके विरुद्ध राजद्रोहका अभियोग लगाया गया और उन्हें फांसीके तख्ते पर चढाया जान वाला था, उस समय सारे देशमें अग्रेज सरकारके इस कार्यका विरोध हो रहा था और उनकी रक्षाके लिए धन इकट्ठा किया जा रहा था। उस समय वर्णीजी जवलपुरमें थे। एक सार्वजनिक सभाग, जो धन एकत्रित करनेके लिए की गयी थी, वर्णीजी भी उपस्थित थे। उनका हृदय करुणासे द्रवित हो गया और बोले"जिनकी रक्षाके लिए ४० करोड मानव प्रयत्नशील है उन्हें कोई शक्ति फांसीके तख्तेपर नहीं चढा सकती। आप विश्वास रखिए, मेरा अन्त करण कहता है कि आजाद हिन्द फौजके सैनिकोका बाल भी बाका नही हो सकता है।" इतना कहा और अपनी चद्दर (ओढनेकी) उनकी सहायताके लिए दे डाली। उसे नीलाम
-३३८
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
करने पर एक उनके भक्तने २९००) में ले ली । इसका उपस्थित जनता और अध्यक्ष मध्यप्रदेश के तत्कालीन गृहमंत्री प० द्वारकाप्रसाद मिश्रपर बडा प्रभाव पडा । वर्णीजीकी करुणाके ऐसे-ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
जगत्कल्याणकी सतत भावना
वर्णीजीमें जो सबसे बडी विशेषता थी वह है जगत् के कल्याणकी सतत भावना । विहारसे मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और दिल्लीकी पदयात्रामें उन्होने लाखो लोगोको शराब न पीने, मास न खाने और हिंसा न करनेका मर्मस्पर्शी उपदेश दिया और उन्होने उनके इस उपदेशको श्रद्धापूर्वक ग्रहण किया । उनकी इस पदयात्रामें लोगोंने उन्हें बडा आदर दिया और उनके प्रति अपूर्व श्रद्धा व्यक्त की । अनेक जगह उनका श्रद्धापूर्वक उन्होने आतिथ्य किया । आजके विश्वको त्रस्त देखकर वे हमेशा कहते थे कि 'एक हवाई जहाज लो और सायमें १०।१५ मर्मज्ञ विद्वानोको लो और यूरोपमें जाकर अहिंसा और अपरिग्रह धर्मका प्रचार करो । साथमें हम भी चलनेको तैयार हैं। जहाँ शराब और मासकी दुकानें है और नाचघर बने हुए है वहाँ जाकर सदाचार और अहिंसाका उपदेश करो । आज लोगोका कितना भारी पतन हो रहा है । देशके लाखो मानवोका चरित्र इन सिनेमाघरों से बिगड रहा है, उन्हें बन्द कराओ और भारतीय पुरातन महापुरुषो के सदाचारपूर्ण चरित्र दिखाओ ।' यह थी वर्णीजीकी विश्वकल्याणकी भावना ।
पूज्य वर्णीजीमें ऐसे-ऐसे अनेको गुण थे, जिनका यहाँ उल्लेख करना शक्य नही । वास्तव में उनका जीवन-चरित्र महापुरुपका जीवन चरित्र है । इसी लिए उन्हें करोडो नर-नारी श्रद्धापूर्वक नमन करते है । उनके गुण हम जैसे पामरोको भी प्राप्त हो, यह भावना करते हुए उन्हें मस्तक झुकाते हैं ।
- ३३९ -
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
नही हुआ । यह समाचार दिल्ली पहुंचा। वहाँसे ला० राजकृष्णजी, हम आदि कई लोग ललितपुर आये। वर्णीजीके दर्शन किये। उनके उस भयानक फोडेको भी देखा। किन्तु वर्णीजीके चेहरेपर जरा भी सिकूडन न थी और न उनके चेहरेसे उसकी पीडा ही ज्ञात होती थी। ला० राजकृष्णजी एक सर्जन डाक्टरको शहरसे ले आये । डाक्टरने फोडाको देखा और कहा कि इसका आपरेशन होगा, अन्य कोई चारा नही है । वर्णीजीने कहा, तो कर दीजिए। डा० बोला 'आपरेशनके लिए अस्पताल चलना होगा।' वर्णीजीने दृढतापूर्वक कहा कि हम 'अस्पताल तो नही जायेंगे, यही कर सकते हो तो कर दीजिए, अन्यथा छोड दीजिए।' ला० राजकृष्णजीने डॉक्टरसे कहा कि ये त्यागी महात्मा है, अस्पताल नही जायेंगें, ऑपरेशनका मब सामान हम यही ले आते हैं। डॉक्टर वहीं (क्षेत्रपालमें) ऑपरेशन करनेको तैयार हो गया । जब डॉक्टरने पुन बीजीसे बेहोश करने की बात कही तो वर्णीजीने कहा कि 'बेहोश करनेकी आवश्यकता नही' और अपना पैर आगे वढा दिया । पौन घटेमें ऑपरेशन हुआ। पर वर्णीजीके चेहरेपर कोई सिकुडन या पीडाका आभास नही हुआ । रोजमर्राकी भांति हम लोगोसे चर्चा-वार्ता करते रहे । यह थी उनकी शरीरके प्रति निर्मोह वृत्ति और जागृत विवेक । हम लोग यह देखकर दग रह गये । १०५ डिग्री बुखार
दूसरी घटना इटावाकी है। वर्णीजीका यहाँ भी एक चातुर्मास था। यहां उन्हें मलेरिया हो गया और १०४, १०५ डिग्री तक बुखार रहने लगा। पैरोमें शोथ भी हो गया। उनकी इस चिन्ताजनक अस्वस्थताका समाचार ज्ञात होनेपर दिल्लीसे ला० राजकृष्णजी, ला० फीरोजीलालजी, ला० हरिश्चन्द्रजी, हम आदि इटावा पहुचे ।
जिस गाडीसे गये थे, वह गाडी इटावा रातमें ३-३।। वजे पहुँचती है। स्टेशनसे तांगा करके गाडीपुराकी जैनधर्मशालामें पहुँचे, जहाँ वर्णीजी ठहरे हुए थे । सब ओर अंधेरा और सभी सोये हुए थे। एक कमरेसे रोशनी आ रही थी। हम उसी ओर बढे और जाकर देखा कि वर्णोजी समयसारके स्वाध्यायमें लीन हैं। सबको वही बुला लिया। ला० फीरोजीलालजीने थर्मामीटर लगाकर वर्णीजीका तापमान लिया। तापमान १०५ डिग्री था और रातके ३।। बजे थे। उनकी इस अद्भुत शरीर-निर्मोह वृत्तिको देखकर हम सभी चकित हो गये और चिन्ताकी लहर में डूब गये। पैरोंकी सूजन तो एकदम चिन्ताजनक थी। किन्तु वर्णीजीपर कोई असर नहीं दिखा।
अन्तिम समयकी असह्य पीडा
तीसरी घटना उनके अन्त समयकी ईसरीकी है। वे अन्तिम दिनोमें काफी अशक्त हो गये थे। उन्हें उठने, बैठने और करवट बदलने में सहायता करनेके लिए एक महावीर नामका कुशल परिचारक था । अन्य कितने हो भक्त उनके निकट हर समय रहते थे। किन्तु महावीर बडी कुशलता एव सावधानीसे उनकी परिचर्या करता था। इस अशक्त अवस्थामें भी वर्णीजीकी किसी चेष्टासे उनकी पीडाका आभास नही होता था। महसे कभी ओफ तक नही निकलती थी । उस असह्य पीडाको वे अद्भुत सहनशीलतासे सहते थे, वे वेदनासे विचलित नही हए। ऐसी थी उनकी शरीरके प्रति विवेकपूर्ण निर्मोह वृत्ति, जो उनके अन्तरात्मा होने की सूचक थी, बहिरात्मा तो वे जीवन में प्राय कभी नही रहे होगे । प्राथमिक १८ वोंसे वे यद्यपि वैष्णवमतमें रहे, किन्तु उनके मनमें अन्तर्द्वन्द्व और वैराग्य एव विवेक तब भी रहा। इसीसे वे पत्नी, माता आदिके मोहको छोड सके थे और अत्यन्त ज्ञानवती, धर्मवत्सला, धर्ममाता चिरोंजावाईके अनायास सम्पर्कमें आ गये थे।
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
इन तीन घटनामोसे स्पष्टतया उनको निर्मोहवृत्ति का परिचय मिलता है ।
वे परमोही भी न थे। उनके दर्शनो एव उपदेश सुनने के लिए रोज परिचित-अपरिचित सैकटो व्यक्ति माते-जाते रहते थे और वे अनुभव करते थे कि वर्णीजीकी हमपर कृपा है और हमसे स्नेह करते है। पर वास्तवमें उनका न किसी भी व्यक्तिके प्रति राग था और न किसी सस्था या स्थान विशेपसे अनुराग या।
कभी कुछ लोग उनके सामने किसीकी आलोचना भी करने लगते थे, पर वर्णीजी एकदम मौनतटस्थ । कभी भी वे ऐसी चर्चा में रस नही लेते थे। हग्जिन-मन्दिर-प्रवेशपर अपना मत प्रकट करनेपर आवाज आयी कि वर्णीजीकी पीछी-कमण्डलू छीन ली जाय । इसपर उनका सहज उत्तर था कि 'छोन लो पोछो-कमण्डलु, हमारा आत्म-धर्म तो कोई नही छीन सकता ।' ऐसी उनमे अपार सहनशीलता थी।
उनके निकट कोई सहायतायोग्य श्रावक, छात्र या विद्वान पहुंच जाये, तो तुरन्त उसकी सहायताके लिए उनका हृदय उमड पडता था और उनका सकेत मिलते ही उनके भवतगण उसकी पूर्ति कर देते थेउनके लिए उनकी थैलियां खुली रहती थी। वस्तुत वे एक महान सन्त थे, महात्मा थे और महात्माके सभी गुण उनमें थे। लोकापवादपर विजय
भारविने कहा है कि 'विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषा न चेतासि त एव घोरा ।'-विकारका निमित्त मिलनेपर भी जिनका चित्त विकृत (विकार युक्त) नही होता वे ही धीर पुरुप है। सेठ सुदर्शन, सती सीता जैसे अनेक पावन मनुष्योके लिए कितने विकारके निमित्त मिले, पर वे अडिग रहे-उनके मन विकृत नही हुए, गाधीजीको क्या कम विकारके निमित्त मिले ? किन्तु वे भी अविकृत रहे और लोकमें अभिवन्दनीय सिद्ध हुए।
बहुत वर्ष बीत गये । वर्णीजी तव समाज-सेवाके क्षेत्रमे आये ही थे। उन्होने समय-सुधारणा बीडा उठाया। विवाहोमें बारातो और फैनारोमें औरतोके जानेकी प्रथा थी । यह प्रथा फिजुलखर्ची और अपव्ययकी जनक तो थी ही, परेशानी भी बहत होती थी। वर्णीजीने इस प्रथाको बन्द करने के लिए समाजको प्रेरित किया। किन्तु जब उसका कोई असर नही हआ, तो वे स्वय आगे आये। वे गहते थे कि वारातमे तथा फनामि औरतें न जायें, क्योकि परुषोके लिए काफी परेशानियां उठाना पडती है तथा उनकी सुरक्षाका विशप खयाल रखना पड़ता है। अत उनका जाना बन्द किया जाय । परन्तु औरतें यह कब मानने वाली पानीमटोरिया (ललितपुर, उत्तर प्रदेश) मे एक बारात गयी। उसमें औरतें भी गयी। वर्णीजीको जव पता चला तो वे वहाँ पहुँचे और सभी औरतोको वापिस करा दिया । औरतोपर उसकी तीव्र प्रतिक्रिया इई । उन्होने विवेक खोकर वर्णीजोको अनेक प्रकारको गालियां दी, बुरा-भला कहा और खूब कोगा । विन्तु पणजोपर उनकी गालियोका कोई असर नही हआ। उनके मनमें जरा भी रोप या क्रोध नहीं आया । फलत धार-धीरे उयत प्रया बन्द हो गयी। अब तो सारे बन्देलखण्ड में बारात में औरतोका जाना प्राय बन्द ही हो गया है । यह थो वर्णीजीकी सहिष्णुता और सकल्प शक्तिको दृढता ।
दिल्लीमें चातुर्मास हो रहा था। उमो समयकी बात है। कुछ गमराह भाइयोंने वर्णीजीये विशेष एक परचा निकाला और उनमें उन्हें पूजीपतियोका समर्थव बतलाया । जब यह चर्चा उन तक पहंची, तो ये हनकर बोले-'भइया । मैं तो त्यागी हूँ और स्यागका हो
ो त्यागी हूँ और स्यागका ही उपदेश देता है तथा सभीगे-पूर्जीपतियों और जापातपान त्याग कराता है और त्यागी बनाना चाहता है । इसमें फोर-मी दगई है।' वीजा यह
-३३७
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतिभामूर्ति पण्डित टोडरमलजी
महामना आचार्य भूतबलि तथा पुष्पदन्तने बट्खण्डागम सिद्धान्त और आचार्य गुणधरने कसाय-पाहुड सिद्धान्त-ग्रन्थोका प्रणयन करके भगवान् महावीरके अवशिष्ट तत्त्वज्ञान सौर सद्धर्मका विस्तार किया था। यह समय लगभग विक्रमकी पहली शताब्दीका है। कुछ शताब्दियो तक इन सिद्धान्त-ग्रन्थोका पर्याप्त पठनपाठन बना रहा-इनपर कई टीकाएँ, निबन्ध और रचनाएँ लिखी गई। परन्तु कुछ काल बाद इनका पठनपाठन विरल हो गया और टीकादि ग्रन्थ लुप्त अथवा अनुपलब्ध हो गये । विक्रमकी नवमी शतीमें जैन वाइमयके नभमें एक दीप्तिमान् प्रतिभा-प्रकाशपुञ्ज विद्वन्नक्षत्रका आविर्भाव हुआ, जिसका नाम आचार्य वीरसेन स्वामी है । वीरसेन स्वामीने उक्त सिद्धान्त-ग्रन्योपर विद्वत्ता एव पाण्डित्यपूर्ण विशाल और महान् धवला तथा जयधवला टीकाएं लिखी, जो लगभग नब्बे हजार श्लोक प्रमाण है । जयघवलाके दो तिहाई भागको जिनसेन स्वामीने लिखा, जो वीरसेन स्वामीके बुद्धिमान प्रधान शिष्य थे। इन टीकाओके आधारसे विक्रम स० की ग्यारहवी शताब्दीमें नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने गोम्मटसार सिद्धान्तग्रन्थको रचना की। गोम्मटसार जैन समाजको इतना प्रिय हुआ कि इसके बनने के बाद विद्वानोंमें प्राय उसीका पठन-पाठन रहा और केशववर्णी, द्वितीय नेमिचन्द्र, अभयचन्द्र आदि विद्वानाचार्यों द्वारा विस्तृत एव सरल कनडी तथा सस्कृत टीकाएं इसपर लिखी गई। इस तरह वीरसेन स्वामी द्वारा पुन प्रवर्तित सिद्धान्तज्ञान-परम्परा तेरहवी शताब्दी तक अनवच्छिन्न रूपसे चली आई। परन्तु तेरहवी शताब्दीके बाद अठारहवी शताब्दी पर्यन्त उसका पठन-पाठन, लिखना-लिखाना प्राय बन्द हो गया और उनके ज्ञाताओका अभाव हो गया।
विक्रमकी अठारहवी शताब्दीके अन्तमें जयपुरको पवित्र उर्वरा भूमिपर एक दूसरे बहु प्रकाशमान तेजस्वी नक्षत्रका उदय हुआ, जिसका प्रकाश चारो तरफ फैला और जो 'पडित टोडरमल' इस नामसे विख्यात एव विश्रुत हुआ। हम इन्हें इनकी असाधारण विद्वत्ता और असाधारण कार्यसे दूसरे वीरसेन स्वामी कह सकते है । वीरसेनस्वामोने जैसा धवलादि टीकाओंके निर्माणका कार्य किया, प्राय वैसा ही इन महाविद्वान् पडित टोडरमलजीने किया । जब गोम्मटसार, त्रिलोकसार आदि गहन सिद्धान्तग्रन्थोके जानकार दुर्लभ थे-उनका प्राय अभाव था और तत्त्वज्ञानपरम्परा विच्छिन्न हो गयी थी, उस समय इन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा और अद्भुत क्षयोपशमसे गोम्मटसारादि सिद्धान्तग्रन्थोंके गहन एव सूक्ष्म तत्त्वों व रहस्योको ज्ञातकर उनपर पैंसठ हजार श्लोक प्रमाण 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' नामकी विशाल भाषा-टीका रची और अनेको तत्त्वजिज्ञासुओको उसके मर्मसे परिचित कराया। गुरुमुखसे पढकर पढ़े विषयको दूसरोंके लिये समझाना अथवा उसपर कुछ लेखादि लिखना सर्वथा सरल है। परन्तु जिस गहन तथा सूक्ष्म विषयका उस पर्यायमें किसीसे परिचय अथवा ज्ञान नहीं हुआ उस विषयको दूसरोके लिये बड़ी सरलतासे समझाना अथवा उसपर विस्तृत टीकादि लिखना बिना असाधारण प्रतिभा और पूर्वजन्मीय विलक्षण क्षयोपशमके असम्भव है। उनका बनाया मोक्षमार्गप्रकाशक हिन्दी भाषाका बेजोड गद्यग्रन्थ है। भारतीय समग्र हिन्दीगद्य-साहित्यमे इसकी तुलनाका एक भी ग्रन्थ दृष्टिगाचर नहीं होता। क्या भापा, क्या भाव, क्या पदलालित्य और क्या सरलता सवसे भरपूर है। इस ग्रन्थने जैन परम्परामें थोडेमे ही समयमें वह महत्त्व प्राप्त कर लिया है जो हिन्दुओके यहाँ गीताने, मुसलमानोके यहां कुरानने और ईसाइयोके यहां वाईविलने प्राप्त किया है। काश ! यदि यह ग्रन्थ अधूरा न
-३४०
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
रहता, पण्डितजी उसे पूरा कर जाते, तो वह अकेला ही हजार ग्रन्थोको पढनेको जरूरतको पूरा कर देता । फिर भी वह जितना है उतना भी गीतादि जैसा महत्त्व रखता है। पण्डितजीने इन ग्रन्थोंके अतिरिक्त पुरुषार्थसिद्धयपाय आदि ग्रन्थोंपर भी टीकाएं लिखी हैं और इस तरह वीरसेनस्वामीकी तरह इनकी समग्न रचनाओका प्रमाण लगभग एक लाख श्लोक जितना है । ऐसे असाधारण विद्वान्को प्रतिभामूर्ति एव दूसरे वीरसेनस्वामी कहना कोई अत्युक्ति नहीं है। सिर्फ अन्तर यही है कि एक आचार्य है तो दूसरे गृहस्थ । एकने स्वतत्र सस्कृत व प्राकृतमें टीकाएँ लिखी तो दूसरेने पूर्वाधारसे राष्ट्रभाषा हिन्दीमें । लेखनका विस्तार, समालोचकता, शकासमाधानकारिता, दार्शनिक-विज्ञता, सिद्धान्त-मर्मज्ञता, वीतरागधर्मकी अनन्य-उपासकता तथा परोपकारभावना दोनो विद्वानों में निहित हैं। दोनोका साहित्य ज्ञाननिधि है और दोनो ही अपने-अपने समयके खास युगप्रवर्तक है। अतएव पण्डित टोडरमलजीको आचार्य अथवा ऋषि नही तो आचार्यकल्प अथवा ऋषिकल्प तो हम कह ही सकते हैं। ___ पण्डितजी इतने प्रतिभावान् होते हुए भी जब अपनी लघुता प्रकट करते हैं और अपनेको 'मन्द बुद्धि'
है तो उनकी सात्त्विकता, प्रामाणिकता और निरभिमानताका मूर्तिमान चित्र सामने आ जाता है। उनकी इन पक्तियोको पढिये
"जातै गौम्मटसारादि ग्रन्थनि वि. सदष्टिनि करि जो अर्थ प्रकट किया है सो सदृष्टिनिका स्वरूप जाने विना अर्थ जाननेमे न आवे तातै मेरी मति अनुसारि किचिन्मात्र अर्थ सदृष्टि निका स्वरूप कहीं हौं तहाँ जो किछू चूक होइ सो मेरि मद बुद्धिकी भूलि जानि बुद्धिवत कृपा करि शुद्ध करियो"-अर्थसदृष्टिअधिकार ।
यही कारण है कि साधर्मी भाई रायमलके, जो पण्डितजीके गोम्मटसारादिकी टीका लिखने में प्रेरक थे और जैन शासनके सार्वत्रिक प्रचारको उत्कट भावनाको लिये हुए एक विवेकवान धार्मिक सत्पुरुष थे, लिखे अनुसार पण्डितजीके पास देश-देशके प्रश्न आते थे और वे उनका समाधान करके उनके पास भेजते थे। इनकी इस परिणतिका ही यह प्रभाव था कि उस समय जयपुरमें जो जैनधर्मकी महिमा प्रवृत्त हो रही थी वह रायमल साधर्मीक शब्दोमें 'चतुर्थ कालवत्' थी।
यदि इस प्रतिभामूति विद्वानका उदय न हआ होता तो आज जो गोम्मटमारादि ग्रन्थोंके अभ्यासी विद्वान् व स्वाध्यायप्रेमी दिख रहे हैं वे शायद एक भी न दिखते और जययुर बादको प० जयचन्दजी, सदासुखजी आदि विद्वन्मणियोको पैदा न कर पाता। इस सबका श्रेय जयपुरके इसी महाविद्वानको है। साधर्मी भाई रायमलने यह ठीक ही लिखा है कि-"अबारके अनिष्ट काल विष टोडरमलजीके ज्ञानका क्षयोपशम विशेष भया । ए गोम्मटसार ग्रन्थका बचना पांच से बरस पहली था। ता पीछे बुद्धिकी मदता करि भाव सहित बचना रहि गया। अब फेरि याका उद्योत भया । बहुरि वर्तमान काल विष यहाँ धर्मका निमित्त है
यहाँ धर्मका निमित्त है तिसा अन्यत्र नाही।"
पण्डित टोढरमलजी भारतीय साहित्य और जैन वाङ्मयके इतिहासमें एक महाविद्वान् और महासाहित्यकारके रूपमें सदा अमर रहेंगे । उनके सिद्धान्तमर्मज्ञता, समालोचकता और दार्शनिक अभिज्ञता आदि कितनं ही ऐसे गुण हैं, जिनपर विस्तृत प्रकाश डालना चाहता था, परन्तु समयाभाव और शीघ्रताकै कारण उसे इस समय छोडना पड रहा है। वस्तुत प० टोडरमलजीपर एक स्वतत्र पुस्तक ही लिखी जाना चाहिए. जैसी तुलसीदासजी आदिपर लिखी गई है।
१-२ देखो, 'साधर्मी भाई रायमल' लेखगत उनका आत्मपरिचयात्मक लेखपत्र, वीर-वाणी वर्ष १,
अक २।
-३४१ -
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रुत पञ्चमी
रागद्वेषविवर्जितम् ।
श्रीवृषभादिवीरान्त जिन नत्वा गुरु चेति श्रुत नौमि जिनोद्भवम् ॥
दिगम्बरजैनपरम्पराया महावीर जन्यत्युत्सववदेव श्रुत पञ्चभ्युत्सवोऽपि महताऽऽदरेण प्रतिवर्षं सोल्लास सम्पद्यते । तद्दिवसे स्वे स्वे स्थाने सर्वे जैना सम्भूय श्रुतपूजा प्रकुर्वते । श्रुतोत्पत्तेश्चैतिह्यमाकर्णयन्ति । तन्माहात्म्य चावधारयन्ति । प्रसीदन्ति च मुहुर्मुहु स्वमनस्सु । धन्योऽय दिवस | धन्यास्ते महाभागाः यैरस्मिन् दिवमेऽस्मत्कृते स्वहितप्रदर्शक श्रुतालोक प्रदत्त । यदालोकेनाद्यावधि पश्यामो वय स्वहितस्य पन्थानम् । यदि नाम न स्याच्छ तालोकोऽय न जाने पथभ्रष्टा सन्त क्व गच्छेम वयम् । 'न हि कृतमुपकार साधवो विस्मरन्ति' इति सता वचनमनुस्मृत्यास्माभि श्रुतदेवताजन्मदातु स्मरणार्थं स्वस्य कृतज्ञताप्रकाशनार्थं चेद श्रुतपञ्चमीतिपर्व सवैशिष्ट्य सम्पादनीयम् । सतत श्रुताम्यास - पठन-पाठनदत्तचेतोभिश्च भाव्यम् । सर्वत्र च श्रुतप्रचार कार्य । केवलमेकत्र स्थाने शास्त्राण्येकीकृत्य तेभ्य अर्धप्रदान न श्रुतपूजा श्रतोपासना वा, अपितु नित्य प्रसन्नेन मनसा शास्त्राध्ययन गृहे गृहे शास्त्रप्रवेश शास्त्रदान शास्त्रप्रकाशन 'चेत्येव श्रुतप्रचार श्रुतप्रसारो वा श्रुतपूजा विज्ञेया । श्रावकस्य षडावश्यकेषु 'देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय सयमस्तप । इत्यादिना स्वाध्यायस्यावश्यक कर्त्तव्यत्वेन निर्देश कृत श्रावकाचार - साध्वाचार मर्मज्ञेन विदुपा श्रीमदाशाघरेण श्रुतपूजा देवपूजातुल्यैवाभिहिता --
ये यजन्ते श्रुत भक्त्या ते यजन्ते जिनमञ्जसा । न किञ्चिदन्तर प्राहुराप्ताहि
श्रुतदेवो ॥
स्वामिसमन्तभद्राचार्येणाप्युक्त देवागमे ---
स्याद्वाद - केवलज्ञाने
भेद
साक्षादसाक्षाच्च
--- सागारधर्मामृते २-४४
सर्वतत्त्व - प्रकाशने । ह्यवस्त्वन्यतम भवेत् ॥ १०५ ॥
अतएव पूजा - भक्त्यादिषु श्रुतस्यैव भक्ति प्रार्थिता, न मत्यादिचतुष्टयस्य, ससारवारकत्वाभावात् मोक्षकारणत्वाभावाच्च । श्रुतस्य तु तदुभयकार्यकारित्वात् । तथा हि
श्रुते भक्ति श्रुते भक्ति श्रुते भक्ति सदाऽतु मे । सज्ज्ञानमेव ससारवारण मोक्षकारणम् ॥
इत्य श्रुतस्य माहात्म्य विदितमेव ।
साम्प्रत श्रुतोत्पत्ते किञ्चिदति विलिख्यते । यद्यपि श्रुतावतारादिग्रन्थेषु श्रुतोत्पत्तेरैतिह्य निबद्धमेव तथापि सर्वजनावबोधार्थमत्र सक्षेपत तन्निगद्यते । तथा हि
-
षट्खण्डागमस्य टीकाया घवलाया वीरसेनाचार्येण कर्त्तृ विवेचनप्रसङ्गेन कर्ता द्विविध प्रोक्त - अर्थकर्ता ग्रन्थकर्ता च । तत्रार्थकर्ता द्रव्यादिचतुष्टयापेक्षया चतुर्विधो निरूपित द्रव्यकर्ता क्षेत्रकर्ता कालकर्ता भावकर्ता च । अष्टादशदोषविमुक्तश्चतुर्विधोपसग द्वाविंशतिपरीषहातिक्रान्तो योजनान्तरदूरसमीपस्थाष्टादशभाषासप्तशत
३४२ -
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षुल्लकभाषासमन्विततिर्यग्देवमनुष्यभाषाकारन्यूनाधिकभावातीतमधुरमनोहरगम्भीरविशदवागतिशयसम्पन्न शतेन्द्रप्राप्तपूजातिशयो महावीरोऽर्थकर्ता। क्षेत्रतोऽर्थकर्ता पञ्चशैलपुरे (राजगृहनगरसमीपे) रम्ये पर्वतोत्तमे विपुलाचले भव्यलोकाना हितार्थ महावीरेणार्थ कथित । इत्य स एव विपुलाचलस्थो भव्यजीवानामर्थोपदेशको महावीर क्षेत्रका विज्ञेय । कालतोऽर्थकर्ताऽभिधीयते
इम्मिस्से वसप्पिणोए चउत्थ-सममस्स पच्छिमे भाए। चीतीस-वास सेसे किंचि वि सेसूणए सते ॥ वासस्स पढममासे पक्खम्मि सावणे बहुले।
पाडिवद-पुव्व-दिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजम्मि । आभ्या गाथाम्यामिदमुक्तम्-अस्यामवसपिण्या चतुर्थकालस्य दुपमासुषमानामकस्यान्तिमे भागे किञ्चिन्न्यूनचतुस्त्रिशद्वर्षावशेष वर्पस्य प्रथममासे श्रावणेऽसितपक्षे प्रतिपद्दिवसे पूर्वाह्नेऽभिजिन्नक्षन्ने धर्मतीर्थोत्पत्ति (वीरशासनोत्पत्ति ) जाता। तात्पर्य मिद यच्छ्रावणकृष्णप्रतिपद्दिवसे भगवता तीर्थकरेण महावीरेण स्वदिव्यध्वनिना भव्यलोकस्य हितमपदिष्टमिति । अतएव श्रावणकृष्णप्रतिपहिवस समग्रजनससारे 'वीरशासन-जयन्ति' इति नाम्ना पर्व प्रख्यातिमवाप । वीरजयन्तिवद्वीरशासनजयन्त्यपि सम्प्रति क्वचित्क्वचित् समायुज्यते जैनै । इदानी भावतोऽर्थकर्ता निरूप्यते-कर्मचतुष्टयमुक्तोऽनन्तचतुष्टयसम्पन्नो नवकेवललब्धिसयुतो महावीरो भावश्रुतमुपदिशतीति भावतोऽर्थकर्ता समभिधीयते । तेन महावीरेण केवलज्ञानिना कथितार्थस्तस्मिन्नेव काले तत्रैव क्षेत्रे क्षायोपशमिकमत्यादिज्ञानचतुष्टयसम्पन्नेन जीवाजीवविषयसन्देहविनाशनार्थमुपगतवद्धमान-पादमूलेन गौतमेन्द्रभूतिनाऽवधारित । इत्थ श्रुतपर्यायेण परिणतो गौतमो द्रव्यश्रुतस्य कर्ता । तस्माद् गौतमाद् ग्रन्थरचना जाता इति । तेन गौतमेन द्विविधमपि श्रृत लोहार्यस्य सचारितम् । तेनापि जम्बूस्वामिन । एव परिभाटीक्रमेण एते त्रयोऽपि महाभागा सकलश्रुतधारका भणिता । परिपाटीक्रममनवेक्ष्य च सख्यातसहस्रा सकलश्रुतधारका वभूबु । गौतमदेवो लोहार्यो जम्बूस्वामी चैते त्रयोऽपि सप्तविघलब्धिसम्पन्ना सकलश्रुतपारगता भूत्वा केवज्ञज्ञानमवाप्य निर्वृति (मुक्ति) प्रापु । ततो विष्णुनन्दिमित्रादय पञ्चापि चतुर्दशपूर्वधारका जाता । तदनन्तर विशाखाचार्यादय एकादशाचार्या एकादशानामङ्गानामुत्पादपूर्वादिदशपूर्वाणा च पारगता सजाता । शेषोपरिमचतुर्णा पूर्वाणामेकदेशधराश्च । ततो नक्षत्राचार्यादय पञ्चाचार्या एकादशानामङ्गाना पारगताश्चतुर्दशाना च पूर्वाणामेकदेशज्ञातार सम्भूता । तत सुभद्रादयश्चात्वार आचार्या सामस्त्येनाचाराङ्गधारका शेषाङ्गपूर्वाणामेकदेशधारका समभवन् । एतेषा सर्वेषा काल ६८३ वर्षपरिमित । वीरनिर्वाणात ६८३ वर्षाणि यावदनश्रुतज्ञानमवस्थितम् ।।
तत सर्वेषामङ्गाना निखिलपूर्वाणा चैकदेश श्रुतबोध आचार्यपरम्परया धरसेनाचार्य सम्प्राप्त इति । तेन घरसेनाचार्येण श्रुतवत्सलेनाष्टाङ्गमहानिमित्तपारतेन ग्रन्थविच्छेदो भविष्यतीति जातश्रुतविच्छेदभयेन महिमानगर्यां समायोजिते विशिष्टधर्मोत्सवे सम्मिलिताना दक्षिणापथाचार्याणा समीपे एको लेख (पत्रात्मक ) प्रेषितः । तल्लेखात् धरसेनाचार्यस्य श्रृतरक्षणाभिप्राय विज्ञाय तैराचार्यविद्याग्रहण-धारणसमर्थों धवलामलबहुविधविनयविभूषिताङ्गो सुशीली देश-कुल-जातिशुद्धो सकलकलापारगतौ द्वौ साधू धरसेनाचार्यसमीपे सौराष्ट्रदेशस्थे गिरिनगरे प्रेषिती । निशाया पश्चिमे प्रहरे धरसेनाचार्येणातिविनयसम्पन्नौ धवलवों शुभौ द्वौ वृषभो स्वप्ने दृष्टौ । एवविध सुस्वप्न दृष्ट्वा प्रसन्नेन चेतसा धरसेनाचार्येण 'जयउ सुयदेवदा'-जयतु श्रुतदेवतेति सलपितम् । तस्मिन्नेव दिवसे प्रात तो द्वावपि साधू समागतौ । ताभ्या घरसेनाचार्यस्य पूर्णतया विनयाचारो विहित । तथापि तयो परीक्षणार्थ सुपरीक्षा हि हृदयसन्तोषकरेति सञ्चिन्त्य हीनाधिकवर्णयुक्ते द्वे विद्ये साधयितु प्रदत्ते । तो प्रत्युक्त चैते विद्ये षष्ठोपवासेन साघनीये । तदनन्तर तयो विकृताङ्गे विद्यादेयते
-३४३
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
दृष्टिपथमाजग्मतु । तयोर्मध्ये एकोद्गतदन्ता अपरैकनेया। न चैपो देवताना स्वभाव इति विचिन्त्य मत्रव्याकरणशास्त्रकुशलाम्या ताभ्या ते विद्ये शद्धीकृत्य पुन साधिते । ततश्च ते विद्यादेवते स्वस्वभावस्थिते दष्टे । पुनस्ताम्या सर्वमेतद्वृत्त वरसेनाचार्य प्रति निवेदितम् । घरसेनाचार्येण ज्ञातश्रुतग्रहणयोग्यताविशिष्टपात्रेण सन्तुप्टेन शुभतिथौ शुभनक्षत्रे शुभदिवमे ताम्या सिद्धान्तग्रन्थ प्रारब्ध । पुन क्रमेण व्याचक्षमाणेन तेन धरसेनाचार्येणाषाढमासशुक्लपक्षकादशम्या पूर्वाह्न ग्रन्थ समाप्ति नीत । तेन सन्तुष्टभूतविशेषैर्देवैस्तदा तयोर्मध्ये एकस्य वलि (नैवेद्य) पुष्पादिभि महती पूजा कृता । तेनाचार्येण धरसेनेनैकस्य भूतवलोति नाम कृतम् । अपरस्य भूतविशेषवेरेव पूजितस्य समीकृतास्तव्यस्तदन्तस्य पुष्पवन्त इति सज्ञा कृता । एताभ्यामेवाचार्याया पट्खण्डागमस्य धरसेनाचार्यत पठितस्य ग्रन्थ-रचना कृता । यद्यपि अल्पायुष्केण पुष्पदन्ताचार्येण विशति
णासमन्वितसत्प्ररूपणाया एव सत्राणि रचितानि. भतबल्याचार्यस्य सविधे जिनपालितद्वारा प्रेषितानि च, भगवता भूतबलिभट्टारकेण महाकर्मप्रकृतिप्राभूतस्य विच्छेदो भविष्यतीति विचार्य द्रव्यप्रमाणानुगमादिनिखिलपट्खण्डागमश्रुतस्य निवन्धन कृतम्, तथापि खण्डसिद्धान्तापेक्षया तावुभावाचार्या श्रुतस्य (पटखण्डागमस्य) कारावभिधीयते ।
एव मूलग्रन्थकर्ता वर्द्धमानभट्टारक, अनुग्रन्थकर्ता गौतमस्वामी, उपग्रन्थकर्तारो भृतवलि-पुष्पदन्तादयो वीतराग-द्वेष-मोहा मुनिवरा इत्यवधेयम् । श्रतनिवन्धनविपयकमेतावन्मात्रमेव वृत्त वीरसेनाचार्येण धवलाटीकाया निबद्धमस्ति । अतस्तदुक्तवचनात् श्रुतारम्भतिथिर्न विज्ञायते । तस्मात्तु केवलमिदमेवावगम्यते यच्छुभतिथौ शुभनक्षत्रे शुभवारे ताभ्या श्रुताम्यास समारब्ध । आषाढमासशक्लपक्षकदशम्या च समाप्ति नीत ।
किन्तु श्रीमदिन्द्रनन्दिकृते श्रुतावतारे पुस्तकाकारेण निवद्धस्य श्रुतस्य (षट्खण्डागमस्य) तिथे स्पष्टतयोल्लेख कृत । तथा हि
ज्येष्ठसितपक्षपञ्चम्या चातुर्वर्ण्यसघसमवेत । तत्पुस्तकोपकरणैर्व्यधात् क्रियापूर्वकं पूजाम् ।। श्रु तपञ्चमीति तेन प्रख्याति तिथिरिय परामाप ।
अद्यापि येन तस्या श्रुतपूजा कुर्वते जैना ।। अत एतत्प्रमाणाज्ज्येष्ठशुक्ला पञ्चमी समपलब्धस्य निबद्धश्रतस्य तिथिरिति निश्चीयते । अत्र सन्देहस्य किमपि कारण नास्ति, तदवचनस्य प्रामाण्याङ्गीकारात ततोऽस्या तिथौ श्रृतपञ्चमीसमारोह सर्वे जैन समुल्लासपूर्वक समायुज्यते ।
-३४४ -
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
जम्बूजिनाष्टकम् यदीयवोधे सकला पदार्था समस्तपर्याययुता विभान्ति। जितारिकर्माष्टकपापपुञ्जो जिनोऽस्तु जम्बूमम मार्गदर्शी ॥१॥ अभूत्कलावन्तिमकेवली यो निरस्तसंसारसमस्तमाय । समुज्ज्वलत्केवलबोधदीपो जिनोऽस्तु जम्बूर्मममार्गदर्शी ।।२।। विहाय यो बाल्यवयस्यसीमान्भुजङ्गभोगान्करुणान्तरात्मा। ' प्रपन्न-निर्वेद-दिगम्बरत्वो जिनोऽस्तु जम्बूर्मम मार्गदर्शी ॥३॥ कृते विवाहेऽपि धृतो न कामो अणोरणीयानपि भोगवगें । निजात्महितभावनया प्रबुद्धो जिनोऽस्तु जम्बूमम मार्गदर्शी ॥४॥ वार्ती यदीया विनिशम्य नक्त चौरोऽपि चौरत्वमपास्य यस्य । सम्पर्कमासाद्य मुनिर्बभूव जिनोऽस्तु जम्वूर्मम मार्गदर्शी ॥५॥ जिनेन्द्रदीक्षा सुखदा गृहीत्वा निहत्य य. कर्मचतुष्टय च । य. केवली भव्यहितोऽन्तिमोऽसौ जिनोऽस्तु जम्बूमम मार्गदर्शी ।।६।। हितोपदेश कुर्वन् हितैषी समानयद्धर्मपथे सुलोकान् । समन्ततो यो विजहार लोके जिनोऽस्तु जम्बूर्मम मार्गदर्शी ॥७॥ स्वयवृतो मुक्तिरमाविलासै सद्यो विमुक्तो मथुरापुरीत । स विश्वचक्षविवधेन्द्रवन्द्यो जिनोऽतु जम्बूमम मार्गदर्शी ॥८॥
१ जव मैं सन् १९४०-४२ में मथुराके ऋषभ ब्रह्मचर्याश्रम (जैन गुरुकुल) में दो वर्ष प्राचार्य रहा, तभी
यह 'जम्बू-जिनाष्टक' रचा था। आश्रमके छात्र इसे प्रार्थनाके रूपमें शामको मन्दिरजीमें बोलते थे । यद्यपि जम्बूस्वामीका मोक्ष विपुलगिरि (राजगृह, विहार) से हुआ है, तथापि चौरासी, मथुरासे उनके
मोक्ष होनेकी अनुश्रुति होनेसे उसी आधारपर यह रचा गया था । । २ विद्युच्चर ।
*३४५ -
न-४४
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशलक्षण धर्म
अग्निके सयोगसे पानी गर्म हो जाता है और उसके अस योगमें वह ठण्डा रहता है । ठण्डापन पानीका निज स्वभाव है, उसका अपना धर्म है और गर्मपना उसका स्वभाव नहीं है, विभाव है, अधर्म है । वस्तुका अपनी प्राकृतिक (स्वाभाविक) अवस्थामें रहना उसका अपना स्वरूप है, धर्म है । पानीको अग्निका निमित्त न मिले तो पानी हमेपा ठण्डा ही रहेगा, वह कभी गर्म न होगा।
इसी तरह कर्मये निमित्तसे आत्माम क्रोध, मान, माया और लोम आदि विकार (विभाव) उत्पन्न होते हैं । यदि आत्माके साथ कर्मका सयोग न रहे तो उसमें न क्रोध, न मान, न माया और न लोभादि उत्पन्न होंगे । इससे जान पडता है कि मात्मामें उत्पन्न होनेवाले ये सयोगज विकार है । अतएव ये उसके स्वभाव नही है, विभाव है, अधर्म है। फर्मकी प्रागभाव और प्रध्वंसाभावरूप अवस्थामें वे विकार नहीं रहते । उस समय वह अपने क्षमा, मार्दय, आर्जव, शौच आदि निज स्वभावमें स्थित होता है । यथार्थमें वस्तुका असली स्वभाव उसका धर्म है और नकली-औपाधिक स्वभाव अर्थात विभाव उसका अधर्म है । आचार्य कुन्दकुन्दने स्पष्ट कहा है कि 'वत्यु-सहावोषम्मो' वस्तुका स्वभाव धर्म है और विभाव अधर्म । आत्माका असली स्वभाव क्षमादि है, इसलिए वह उसका धर्म है और क्रोधादि उसका नकली स्वभाव अर्थात विभाव है, अत वह उसका अधर्म है।
इस सामान्य आवारपर जीवोको अपने स्वभावमें स्थित रहन का और कर्मजन्य विभावोसे दूर रहने अथवा उनका सर्वथा त्याग कर देनेका उपदेश दिया गया है।
आत्मामें कर्मके निमित्तसे यो तो अनगिनत विकार प्रादुर्भूत होते हैं । पर उन्हें दश वर्गों (भागो)में विभक्त किया जा सकता है । वे दश वर्ग ये हैं १ क्रोध वर्ग
६ हिंसा वर्ग २ मान वर्ग
७ काम वर्ग ३ माया वर्ग
८ चोरी वर्ग ४ लोभ वर्ग
९ परिग्रह वर्ग ५ झूठ वर्ग
१० अग्रह्म वर्ग मुमुक्षु (गृहस्थ या साधु) जब आत्म-स्वभावको प्राप्त करनेके लिए तैयार होता है तो वह उक्त क्रोधादिको अहितकारी और क्षमादिको हितकारी जानकर क्रोधादिसे निवृत्ति तथा क्षमादिकमें प्रवृत्ति करता है। सर्वप्रथम वह क्षमाको धारण करता है और क्रोधके त्यागका केवल अभ्यास ही नहीं करता, अपितु उसमें प्रगाढता भी प्राप्त करता है। इसी तरह मार्दवके पालन द्वारा अभिमानका, आर्जवके आचरण द्वारा मायाका, शौचके अनुपालन द्वारा लोभका, सत्यके घारण द्वारा झूठका, सयमको अपनाकर हिंसाका, तपोमय वृत्तिके द्वारा काम (इच्छाओं) का, त्यागधर्मके द्वारा चोरीका, आकिंचन्यको उपासना द्वारा परिग्रहका और ब्रह्मचर्य पालन द्वारा अब्रह्मका निरोध करता है और इस प्रकार वह क्षमा आदि दश धर्मोके आचरण द्वारा क्रोध आदि दश आत्म-विकारोको दूर करनेमें सतत सलग्न रहता है। ज्यो-ज्यो उसके क्षमादि गुणोकी वृद्धि होती
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाती है त्यो त्यो उसके वे क्रोधादि विकार भी अल्पसे अल्पतर और अल्पतम होते हुए पूर्णत अभावको प्राप्त हो जाते हैं। जब उक्त गुण सतत अभ्याससे पूर्णरूपमें विकसित हो जाते हैं तो उस समय आत्मामें कोई विकार शेष नही रहता और आत्मा, परमात्मा बन जाता है। जब तक इन विकारोका कुछ भी अश विद्यमान रहता है तब तक वह परमात्माके पदको प्राप्त नही कर सकता।
जैन दर्शनमें प्रत्येक आत्माको परमात्मा होनेका अधिकार दिया गया है और उसका मार्ग यही 'दश धर्मका पालन' बतलाया गया है। इस दश धर्मका पालन यो तो सदैव बताया गया है और साधुजन पूर्णरूपसे तथा गृहस्थ आशिक रूपसे उसे पालते भी हैं। किन्तु पयूषण पर्व या दशलक्षण पर्वमें उसकी विशेष आराधना की जाती है । गृहस्थ इन दश धर्मोकी इन दिनो भक्ति-भावसे पूजा करते हैं, जाप देते हैं और विद्वानोसे उनका प्रवचन सुनते हैं। जैनमात्रकी इस पर्व के प्रति असाधारण श्रद्धा एव निष्ठा-भाव है । जैन धर्ममें इन दश धर्मोके पालनपर बहुत बल दिया गया है।
-३४७
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षमावणी : क्षमापर्व
भारतवर्ष में प्राचीनकालरो दो रास्फतियोको अविराम-धारा वहती चली आ रही है । वे दो सस्कृतियाँ हैं-१ वैदिक और २ श्रमण । 'सस्कृति' शब्दका सामान्यतया यर्थ आचार-विचार और रहन-सहन है । जिनका आचार-विचार और रहन-महन वेदानुसारी है उनकी सस्कृति तो वैदिक सस्कृति है तथा जिनका आचार-विचार और रहन-गहन श्रमण-परम्पराके अनुसार है उनकी सस्कृति श्रमण-सस्कृति है । 'श्रमण' शन्द प्राकृत भाषाके 'समण' गन्दका सस्कृतरूप है। और यह 'समण' शब्द दो पदोंमे बना है-एक 'सम' और दूसरा 'अण', जिनका अर्थ है सम-इन्द्रियो और मनपर विजयकर समस्त जीवोंके प्रति समता भावका 'अण'-उपदेश करनेवाला महापुरुप (महात्मा-सन्त-साध)। ऐसे आत्मजयी एव आत्मनिर्भर महात्माओ द्वारा प्रवत्तित आचार-विचार एव रहन-सहन ही धमण-गस्कृति है। इन श्रमणोका प्रत्येक प्रयत्न और भावना यह होती है कि हमारे द्वारा किसी भी प्राणीको कष्ट न पहुँचे, हमारे मुखसे कोई असत्य वचन न निकले, हमारे द्वारा स्वप्नमें भी परद्रव्यका ग्रहण न हो, हम सदैव ब्रह्मस्वरूप आत्मामें ही रमण करें, दया, दम, त्याग और समाधि ही हमारा धर्म (फर्तव्य) है, परपदार्थ हमसे भिन्न है और हम उनके स्वामी नही हैं। वास्तव में इन श्रमणोका प्रधान लक्ष्य आत्म-शोधन होता है और इसलिए वे इन्द्रिय, मन और शरीरको भी आत्मीय नही मानते उन्हें भौतिक मानते है। अत जिन वातोसे इन्द्रिय, मन और शरीरका पोपण होता है या उनमें विकार आता है, उन बातोका श्रमण त्याग कर देता है और सदैव आत्मिक चरम विकासके करने में प्रवृत्त रहता है । यद्यपि ऐसी प्रवृत्ति एव चर्या साधारण लोगोको कुछ कठिन जान पढेगी । किन्तु वह असाधारण पुरुपोंके लिए कोई कठिन नहीं है।
ससारमें रहते हुए परस्पर व्यवहार करनेमें चूफ होना सम्भव है और प्रमाद तथा कपाय (क्रोध, अहकार, छल और लोभ) की सम्भावना अधिक है। किन्तु विचार करनेपर मालम होता है कि न प्रमाद अच्छा है और न कपाय । दोनोंसे आत्माका महित ही होता है-हित नही होता। यहां तक कि उनसे परका भी अहित हो सकता है-दूसरोको कष्ट पहुंच सकता है और उनसे उनके दिल दुखी हो सकते हैं तथा उनके हृदयको आघात पहुंच सकता है।
अतएव इन श्रमणोने अनुभव किया कि देवसिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक और वार्षिक ऐसे आयोजन किये जायें, जिनमें व्यक्ति अपनी भलोके लिए दूसरोसे क्षमा मागे और अपनेको कर्मबन्धनसे हलका करे । साधु तो दैवसिक, साप्ताहिक, पाक्षिक, मासिक और वार्षिक प्रतिक्रमण (क्षमायाचना) करते है । पर गृहस्थोके लिए वह कठिन है । अतएव वे ऐसा वार्षिक आयोजन करते हैं जिसमें वे अपनी भूल-चूकके लिए परस्परमें क्षमा याचना करते हैं। यह आयोजन उनके द्वारा सालमें एक बार उस समय किया जाता है, जब वे भाद्रपद शुक्ला ५मोसे भाद्रपद शुक्ला १४ तक दश दिन क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, सयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन दश धर्मके अगोकी सभवित पूजा, उपासना और आराधना कर अपनेको सरल और द्रवित बना लेते हैं। साथ ही प्रमाद और कषायको दुखदायी समझकर उन्हें मन्द कर लेते हैं तथा रत्नभय (सम्यक् दृष्टि, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् आचार)को आत्माकी उपादेय निधि मानते हैं। फलत वे कषाय या प्रमादसे हुई अपनी भूलोके लिए एक-दूसरेसे क्षमा मागते और स्वय उन्हें
-३४८
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षमा करते हैं । ऐसे आयोजनको 'क्षमापर्व' कहते हैं और वह भाद्र मासको समाप्तिपर आश्विन कृष्ण १ को मनाया जाता है। इस दिन सभी श्रमणोपासक-गृहस्थ और श्रमणोपासिका-गृहस्थनी एक-दूसरेसे अपनी एक सालकी भूलोके लिए क्षमा याचना करते हैं और उस समय निम्न मार्मिक भाव-व्यक्त करते हैं
खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमतु मे।
मित्ती मे सव्वभूदेसु वैरं मझं ण केणचिद ।। 'मैं समस्त जीवोको क्षमा करता हूँ और वे मुझे क्षमा करें। समस्त जीवोपर मेरा मैत्रीभाव है, किसीके साथ मेरा वैर नही है।'
इस प्रकारसे क्षमाके वचन-वाणीका परस्परमें व्यवहार होनेसे इस 'क्षमा पर्व'को 'क्षमावाणी' पर्व तथा उस दिन क्षमाकी अवनी-भूमि स्वय बनने-बनानेसे 'क्षमावनी' या 'क्षमावणी' पर्व भी कहते हैं । निसन्देह यह पर्व वर्षोंसे या एक वर्षके भरे हुए मनके कालण्य-मलको धो देता है और मित्रता एव बन्तुत्वभावको स्थापित करता है।
MINS
ans
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरनिर्वाण पर्व : दीपावली
भारतीय संस्कृति अध्यात्मप्रधान होनेके कारण यहाँ प्रत्येक पर्वको अपनी-अपनी कुछ विशेषता है और उन पर्योका सम्बन्ध किसी-न-किसी महापुरुष से है, जो विदवको कुछ देता है । तात्पर्य यह कि भारतीय पर्व प्राय महापुरुपोसे सम्बन्धित हैं और वे उनकी स्मृतिमें स्थापित हुए हैं।
यहाँ पसे हमारा अभिप्राय विशेषतया नैतिक एवं धार्मिक पर्वोसे है । यों तो रौढिक ओर सामाजिक पर्वो की भारतवर्ष में और प्रत्येक जातिमें कमी नही है । इनमें कितने ही परम्परागत है और जिन्हें जनसमुदाय आज भी अपनाये हुए है । पर उनमें कितना तथ्याश है, यह कह सकना कठिन है । एक परीक्षक वृद्धि अवश्य उनकी सचाई या असचाईको आक सक्ती है । यह अवश्य है कि इन पर्वोंसे लोगोको मनोविनोद और इन्द्रियपोपणको सामग्री सहजरूपमें मिल जाती है । किन्तु उनसे न विवेक जागृत होता है मोर न आध्यात्मिकता जगती है, जो जोवनको उन्नत और वास्तविक सुखी बनाने के लिए आवश्यक हैं ।
पर जिन पर्वो के बारेमे हम यहाँ चर्चा कर रहे है वे है धार्मिक और नैतिक पर्व । इन पर्वोस अवश्य हमारा विवेक जागृत होता है, चेतना जागती है और हम गलत मार्गसे सही मार्गपर आ जाते हैं । इन पर्वोसे अध्यात्मप्रेमियोको नीति, धर्म और अध्यात्मको शिक्षा मिलती है। किन्तु यह नही कहा जा सकता कि कितने लोग इस साचेमे ढलते है और निश्छल भावसे अपनेको आध्यात्मिक बनाते हैं । प्राय देखा जाता है कि इन धार्मिक एवं नैतिक पर्वोके अवसर पर, जब उनसे पूरी अप्रत्यक्षत इन्द्रियपोषणके आयोजन किये जाते हैं। लगता जा रही कि भोगोका त्याग भी न करना पडे और धर्म एव पाहुडदोहाकारका निम्र वचन याद आ जाता है
वेपथेह ण गम्मई वेमुहसूई ण सिज्जए कथा । विष्णि ण हुति अयाणा इदियसोक्ख च मोक्खं च ॥
है
धार्मिकता सीखनी चाहिए, मनो विनोद और कि हमारी मनोदशा उत्तरोत्तर ऐसी होती नीतिका पालन भी हो जाये । इस प्रसगमें
- पा० दो० २१३ |
‘दो रास्तोंसे जाना नही होता, दो मुखोसे सुई कथरी नही सोती । हे अजान । इसी तरह ये दो कार्य नही हो सकते कि इन्द्रियसुख भी प्राप्त हो और मोक्ष भी मिल जाय । इनमेंसे प्रथम मार्गपर चलनेसे ससार होगा और दूसरे मार्ग ( भोगत्याग ) से मोक्ष प्राप्त होगा ।'
हिन्दीके एक विद्वान् कविने भी यही कहा है---
दो-मुख सुई न सीवे कथा, दो-मुख पथी चले न पथा । यो दो काज न होय सयाने, विषय-भोग अरु मोक्ष पयाने ॥
धार्मिक एव नैतिक पर्वोका सम्बन्ध जिन महापुरुषोसे है, वास्तवमें उनके सन्देशों, उपदेशो मर जीवन-चरितोको अपने जीवन में लाना चाहिए, तभी व्यक्ति अपनी उन्नति, अपने कल्याण और वास्तविक मोक्ष सुखको प्राप्त कर सकता 1
-
३५० -
Page #379
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रकृतमें हमें 'वीर-निर्वाण' पर्वपर प्रकाश डालना है । अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरने कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीको रात्रि और अमावस्याके प्रत्यूषकाल ( ब्राह्ममुहूर्त-प्रात ) में स्वातिनक्षत्रमे पावानगरीसे निर्वाण प्राप्त किया था। अत एव इस महान् एव पावन दिवसको जैन परम्परामें 'वीर-निर्वाण' पर्वके रूपमें मनाया जाता है। आचार्य यतिवृषभ ( ई० सन्० ५ वी शती ) ने अपनी 'तिलोयपण्णत्तो' (४-१२०८ ) में स्पष्ट लिखा है
कत्तिय-किण्हे चोद्दसि-पच्चूसे सादिणामणक्खत्ते।
पावाए णयरीए एक्को वीरेसरो सिद्धो ।। इस गाथामे कहा गया है कि भगवान् वीरनाथ कात्तिकवदी १४ के प्रत्यूषकाल में स्वातिनामक नक्षत्र में पावापुरीसे अकेले सिद्ध ( मुक्त ) हुए ।
इसके सिवाय आचार्य वीरसेन ( ई० ८३९ ) ने अपनी 'षट्खण्डागम' की विशाल टीका 'धवला' में 'वीर-निर्वाण' का प्रतिपादन करने वाली एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है। उसमे भी यही कहा गया है। वह गाथा निम्न प्रकार है
___ पच्छा पावाणयरे कत्तियमासे य किण्ह-चोदसिए ।
___ सादीए रत्तीए सेसरय हत्तु णिव्वाओ ।। 'पश्चात वीरनाथ पावानगरमे पहुंचे और वहाँसे कार्तिकवदी चउदसकी रात्रिमें स्वातिनक्षत्रमें शेष रज (अघातिया कर्मों) को भी नाश करके निर्वाणको प्राप्त हुए।
२
यहाँ एक असगति और विरोध दिखाई दे सकता है कि उपर्युक्त 'तिलोयपण्णत्ती' के उल्लेखमें चतुर्दशीका प्रत्यूषकाल' बतलाया गया है और यहां (धवलामें उद्धृत गाथामें' ) 'चतुर्दशीकी रात' बतलायी गयी है ? इसका समाधान स्वय आचार्य वीरसेनने टीकामे 'रत्तीए' पदके विशेषणके रूपमें पच्छिमभाए''पिछले पहरमें' पदका प्रयोग अध्याहृत करके कर दिया है और तब कोई असगति या विरोध नही रहता। इससे स्पष्ट होता है कि चतुर्दशीकी रातके पिछले पहरमे अर्थात् अमावस्याके प्रत्यूषकाल (प्रात ) में भ० वीरनाथका निर्वाण हआ। 'तिलोयपण्णत्ती' को उक्त गाथामे भी यही अभिप्रेत है। अत आम तौरपर निर्वाणकी तिथि कार्तिकवदी अमावस्या मानी जाती है, क्योकि धवलाकारके उल्लेखानुसार इसी दिन निर्वाणका समस्त कार्य-निर्वाणपजा आदि सकल देवेन्द्रों द्वारा किया गया था । धवलाकारका वह उल्लेख इस प्रकार है
'अमावसीए परिणिव्वाणपूजा सयलदेवेंदेहिं कयात्ति ।' उत्तरपुराणमें आचार्य गुणभद्र ने भी 'कातिककृष्णपक्षस्य चतुर्दश्यां निशात्यये।' इस पद्यवाक्यके द्वारा कार्तिकवदी चतुर्दशीको रातके अन्तमें भ० महावीरका निर्वाण बतलाया है ।
हरिवशपुराणकार जिनसेनके हरिवशपुराणगत उल्लेखसे भी यही प्रकट है। उनका वह उल्लेख इस प्रकार है
जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य सन्तत समन्ततो भव्यसमूहसन्ततिम् । प्रपद्य पावानगरी गरीयसी मनोहारोद्यानवने तदीयके ।। चतर्थकालेऽर्धचतर्थमासविहीनताभिश्चतरदशेपके । सकार्तिके स्वातिषु कृष्णभूतसुप्रभातसन्ध्यासमये स्वभावतः ।।
-३५१
Page #380
--------------------------------------------------------------------------
________________
अघातिकर्माणि निरुद्धयोगको विध्य घातिघनवद्विबन्धनः । विबन्धनस्थानमवाप शङ्करो निरन्तरायोरुसुखानुवन्धनम् ।।
हरिव० ६६ ॥ १५, १६, १७ ॥ 'वीर जिनेन्द्र समस्त भव्यसमुदायको सतत सवोधित करके अन्तमें पावानगरी पहुंचे और उसके सुन्दर उद्यानवनमें कार्तिकवदी चउदसकी रात और अमावस्याके सुप्रभात समयमें, जव कि चौथे कालके साढे तीन मास कम चार वर्ष अवशेष थे, स्वातिनक्षत्रमें योग निरोध कर अघातियाकर्मोको घातियाकर्मोकी तरह नष्ट कर बन्धनरहित होकर बन्धनहीन (स्वतत्र) और निरन्तराय महान सुखके स्थान मोक्षको प्राप्त हुए।
आचार्य पूज्यपाद-देवनन्दि ( ई० ५ वी शती) का 'निर्वाणभक्ति' गत निम्न उल्लेख भी यही बतलाता है
पावानगरोद्याने व्युत्सर्गेण स्थित स मुनिः ।
कार्तिककृष्णस्यान्ते स्वातावृक्षे निहत्य कर्मरज ॥ इस प्रकार इन शास्त्रीय प्रमाणोसे स्पष्ट है कि भ० महावीरका कार्तिक वदी चउदसकी रात और अमावस्याके सुवह, जव कुछ अन्धेरा था, निर्वाण हुआ था और उसी समय उनका निर्वाणोत्सव मनाया गया था। इस तरह 'वीर-निर्वाण' पर्व प्रचलित हआ और जो माज भी सर्व मनाया जाता है।
भ० महावीरके निर्वाणके समयका पता जनसमुदायको पूर्वदिनसे ही विदित हो चुका था और इसलिए वे सब वहाँ पहलेसे ही उपस्थित थे । इनमें अठारह गणराज्योके अध्यक्ष, विशिष्टजन, देवेन्द्रो, साधारण देवो और मनुष्योके समूह मौजूद थे। समस्त (११) गणधर, मुनिगण, आर्यिकाएँ, श्रावक और श्राविकाएं आदि भी विद्यमान थे । जो नही थे, वे भी भगवान्के निर्वाणका समाचार सुनते ही पहुंच गये थे। बिजलीकी भांति यह खबर सर्वत्र फैल गयी थी। भगवान् बुद्धके प्रमुख शिष्यने उन्हें भी यह अवगत कराया था कि पावामें अभी-अभी णिग्गथनातपुत्त (महावीर) का निर्वाण हुआ। प्रदीपोका प्रज्वलन
उस समय प्रत्यूषकाल होनेसे कुछ अधेरा था और इसलिए प्रकाश करनेके लिए रत्नों और घृतादिके हजारों प्रदीप प्रज्वलित किये गये। आचार्य जिनसेनके हरिवशपुराणमें स्पष्ट उल्लेख है कि उस समय ऐसा प्रकाश किया गया, जिससे पावानगरी चारो ओरसे आलोकित हो गयी। यहाँ तक कि आकाशतल भी प्रकाशमय-ही-प्रकाशमय दिखाई पड रहा था । यथा
ज्वलत्पदीपावलिकया प्रवृद्धया सुरासुरै दीपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समन्तत प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ।। तथैव च श्रेणिकपूर्वभूभृत प्रकृत्य कल्याणमद सहप्रजाः। प्रजज्मुरिन्द्राश्च सुरैर्यथा पथ प्रयाचमाना जिनबोधिमर्थिन ।
-हरिवं० ६६।१९,२० । वीर-निर्वाण और दीपावली
हरिवशपुराणकार (९वी शती) ने यह भी स्पष्ट उल्लेख किया है कि इसके पश्चात् भगवान् महावीरके निर्वाण-लक्ष्मीको प्राप्त करनेसे इस पावन निर्वाण-दिवसको स्मृतिके रूपमें सदा मनानेके लिए भक्त जनताने 'दीपावली' के नामसे एक पवित्र सार्वजनिक पर्व ही संस्थापित एव सुनियत कर दिया-अर्थात्
- ३५२ -
Page #381
--------------------------------------------------------------------------
________________
जनसमूह प्रतिवर्ष बडे आदरके साथ इस निर्वाण पर्वको प्रसिद्ध 'दीपावली' के नामसे इस भारतवर्ष में मनाने लगा । उनका वह उल्लेख इस प्रकार है
ततस्तु लोक प्रतिवर्षमादरात्प्रसिद्धदीपावलिकयाsत्र भारते । समुद्यत पूजयितु जिनेश्वर जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक् ।।
वही, ६६।२१ ।
'इसके बाद तो समस्त भारतवर्ष में लोग प्रतिवर्ष बड़े आदर के साथ वीर जिनेन्द्रके निर्वाणोत्सवको अपनी अनन्यभक्ति एव श्रद्धाको 'दीपावली' के रूपमें प्रकट करने लगे और तभीसे यह 'दीपावली' पर्व प्रचलित हुआ ।'
इस तरह भारतवर्षमें दीपावली पर्वकी मान्यता भगवान् महावीरके निर्वाण पर्व से सम्बन्ध रखती है और यह एक सास्कृतिक एव राष्ट्रीय पर्व स्पष्ट अवगत होता है । मेरे अनुसन्धान से इससे पूर्वका इतना और ऐसा उल्लेख अबतक नही मिला । यत भगवान्का निर्वाण कार्तिक वदी १४की रात और अमावस्याके प्रात हुआ था, अत उसके आसपास के कुछ दिनोंको भी इस पर्व में ओर शामिल कर लिया गया, ताकि पर्वको विशेष समारोह और आयोजनके साथ मनाया जा सके। इसीसे दीपावली पर्व कार्तिक वदी तेरससे आरम्भ होकर कार्तिक शुक्ला दूज तक मनाया जाता है । इन दिनो घरोकी दीवारो और द्वारोपर जो चित्र वनाये जाते हैं वे भ० महावीरके सभास्थल - समोशरण (समवसरण ) की प्रतिकृति हैं, ऐसा ज्ञात होता है । गणेशसस्थापन और लक्ष्मीपूजन भ० महावीरके प्रधान गणधर गौतम इन्द्रभूतिको, जिन्हें जैनवाड्मयमे 'गणेश' भी कहा है, उनका उत्तराधिकारी बनने तथा केवलज्ञानलक्ष्मीकी प्राप्ति करनेके मूर्तरूप प्रतीत होते हैं । इन जैसी और भी कितनी ही बातें इन दिनोमें सामान्य जनता द्वारा की जाती है। उनका भी सम्बन्ध भ० महावीरसे स्पष्ट मालूम होता है। इन तथ्योकी प्रचलित मान्यताओ और निर्वाणकालिक घटित घटनाओ के सामञ्जस्यके आधारपर खोज की जाय तो पूरा सत्य सामने आ सकता है और तथ्योका उद्घाटन हो सकता है । फिर भी उपलब्ध प्रमाणो और घटनाओंपरसे यह नि सकोच और असन्दिग्धरूपमें कहा जा सकता है कि वीर-निर्वाण पर्व और दीपावली पर्वका घनिष्ठ सम्बन्ध है अथवा वे एक दूसरेके रूपान्तर हैं ।
0
न-४५
- ३५३ -
Page #382
--------------------------------------------------------------------------
________________
महावीर-जयन्ती
चैत्र सुदी १३ का सुहावना दिवम भगवान् महावीरका जन्म-दिन है। आजसे २५५४ वर्ष पूर्व इस दिन उन्होने जन्म लिया था। वे एक मानव थे और मानवसे भगवान् बने थे। उनमें इतनी विशेषता थी कि उनका ज्ञान और बल असाधारण था। सजय और विजय मुनिराजोके लिए उन्हें देखकर अभिलषित ज्ञान होना, भयकर सर्पको अपने वशमें करना, विषय-वासनाओसे अलिप्त रहना, आदि सैकड़ों घटनाएं हैं, जो उनकी अलौकिकताको प्रकट करती है ।
पर महावीरका महावीरत्व इन चमत्कारोसे नही है। उनका महावीरत्व है-आत्मविकारोंपर विजय पानेसे । सबसे पहले उन्होने दूसरोपर शासन करनेकी अपेक्षा अपनेपर शासन किया। मानवसुलभ जितनी कमजोरियां और विकार हो सकते हैं उन सबपर उन्होंने काबू पाया । प्राय यह प्रत्येकके अनुभवगम्य है कि दूसरोंको उपदेश देना बहा सरल होता है, पर उसपर स्वय चलना उतना ही कठिन होता है । महावीरने लोकके इस अनुभवसे विपरीत किया। उन्होंने सबसे पहले महावीरत्व प्राप्त करनेके लिये स्वय अपनेको उस ढांचे में ढाला और जब वे उसमें उत्तीर्ण हो गये-आत्म-विश्वास, आत्मज्ञान और आत्मसयमको पूर्ण रूपमें स्वय प्राप्त कर लिया तब दूसरोको भी उस मार्गपर चलनेके लिये कहा।
महावीरने एक दिन नही, एक माह नही, एक वर्ष नही, अपितु पूरे १२ वर्ष तक कठोर साधना की। उनका एक लक्ष्य साधनामें रहा। वह यह कि 'शरीर वा पातयामि कार्य वा साधयामि ।' और इसीसे वे अपने लक्ष्यकी प्राप्तिमें पूर्णत सफल हुए। उन्होंने पार्श्वनाथ आदि अन्य तीर्थकरोकी तरह तीर्थकरत्व प्राप्त किया। सबसे बड़ी बात तो यह है कि उन्हें अपने समयकी अनगिनत विषमताओ और सघर्षाका सामना करना पहा । लेकिन उन सबको उन्होंने समुद्र की तरह गम्भीर, मेरुकी तरह निश्चल, आकाशकी तरह निर्लेप और सूर्यकी तरह निरपेक्ष प्रकाशक बनकर शान्त किया । परिणाम यह हुआ कि समकालीन अन्य तीथिकधर्मप्रवर्तक उनके सामने अधिक समय तक न टिक सके और न अपना प्रभाव लोक-मानसपर स्थायी बनानेमें समर्थ हो सके। मक्खलि गोशालक, अजितकेश कबलि, सजय वेलट्रिपुत्त आदि धर्मप्रवर्तक इसके उदाहरण हैं।
मज्झिम निकायमें आनन्द और बुद्धके अनेक जगह सवाद मिलते हैं। उनमें बुद्धने आनन्दसे महावीरके सम्बन्धमें मनेक जिज्ञासाएं प्रकट की है। आनन्दने महावीरकी सभामोमें जा-जा कर जानकारी प्राप्तकर बद्धकी जिज्ञासाओको शान्त किया है । उनमेंसे दो-एकको हम यहां देते हैं। एक बार बुद्धने आनन्दसे कहा'आनन्द | जाओ, देखो तो, निग्गंठनातपुत्त इस समय कहां है और क्या कर रहे हैं ? मानन्द जाता है और महावीरको देखता है कि वे एक विशाल पाषाण जैसे ऊचे निरावरण स्थानपर बैठे हुए हैं और ध्यानमग्न हैं। उनकी इस कठोर तपस्याको देखकर आनन्द बुद्धसे जाकर कहता है। बुद्ध महावीरको तपस्यासे प्रभावित होकर कहते हैं कि वे दीर्घ तपस्वी हैं। एक बार महावीर जब विपुलगिरिपर विराजमान थे और सर्वज्ञ तथा सर्वदर्शी हो गये थे एव मानव, देव, तिर्यन्च सभीको आत्मज्ञानकी धारा बहा रहे थे, उसी समय वृद्ध भी विपुलगिरिके निकटवर्ती गृद्धकूट पर्वतपर विराजमान थे। वे आनन्दसे कहते हैं, आनन्द !
-३५४
Page #383
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाओ, देखो, निग्गठनातपुत्तकी सभामें स्त्रियाँ भी रहती है ? आनन्द जाता है और देखता है कि महावीरको सभामे पुरुषोसे कही अधिक स्त्रियाँ भी है और वे न केवल श्राविकाएं ही है, भिक्षुणियां भी हैं और महावीरके निकट बैठकर उनका सदा उपदेश सुनती हैं व विहारके समय उनके साथ चलती है। इस सबको देखकर आनन्द बुद्धसे जाकर कहता है-भन्ते । निग्गठनातपुत्तकी विशाल सभामें अनेको स्त्रियां, श्राविकाएं और भिक्षुणियाँ हैं। बुद्ध कुछ क्षणो तक विस्मित होकर स्तब्ध हो जाते हैं और तुरन्त कह उठते है कि निग्गठनातपुत्त सर्वज्ञ-सर्वदर्शी हैं। हमें भी स्त्रियोको अपने सघमें लेना चाहिए। इसके बाद बुद्ध स्त्रियोको भी दीक्षा देने लगे।
बुद्धकी इन दोनो बातोसे स्पष्ट मालूम होता है कि महावीर अपने समकालीन बुद्ध जैसे प्रभावशाली धर्मप्रवर्तकपर भी अपना अप्रतिम प्रभाव डाल चुके थे । वास्तवमें वाह्य शत्रुविजेताको अपेक्षा आत्मविकारविजेताका स्थान सर्वोपरि है। उसके आत्मामें अचिन्त्य शक्ति, अचिन्त्य ज्ञान और अचिन्त्य आनन्दका स्रोत निकल आता है । महावीरको भी यही स्रोत प्राप्त हो गया था ।
भ० महावीरने इसके लिये अनेक सिद्धान्त रचे और उन सबको जनताके लिए बताया । इन सिद्धान्तोमें उनके दो मुख्य सिद्धान्त है-एक अहिंसा और दूसरा स्याद्वाद । अहिंसासे आचारकी शुद्धि और स्याद्वादसे विचारकी शुद्धि बतलाई । आचार-विचार जिसका जितना अधिक शुद्ध होगा-अनात्मासे आत्माकी ओर बढेगा वह उतना ही अधिक परमात्माके निकट पहुंचेगा। एक समय वह आयेगा जब वह स्वय परमात्मा बन जायगा।
महावीरने यह भी कहा कि जो इतने ऊँचे नही चढ सकते वह श्रावक रहकर न्याय-नीतिके साथ अपने कर्तव्योका पालन कर स्वय सुखी रहें तथा दूसरोको भी सुखो बनानेका सदैव प्रयत्न करें।
-३५५ -
Page #384
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीपपौराजी : जिनमन्दिरोंका अद्भुत समुच्चय
भारतीय जन-मनकी सुदृढ धार्मिक रुचिका साकार रूप देखना हो, तो इन पवित्र भूमियोको देखिए, जहाँ पहुँचकर हम अपनी मानस-कालिमाको घोकर शान्तिके सुखद प्रवाहमें गोता लगाने लग जाते है । ये पुण्य-भूमियां भारतीय सस्कृतिको प्रतीक है । दृश्य काव्यके समान ये पवित्र तीर्थक्षेत्र भी आह्लादजनक होते है और अध्यात्मकी ओर अग्रसर करते हैं। इन तीर्थक्षेत्रोंपर निर्मित देवालयो आदिकी कलामय कारीगरी भी तत्कालीन स्थापत्य कलाके गौरव और गरिमाको प्रकट करती हई दर्शकके मनपर अमिट प्रभाव डालती है । देशके अस्सी प्रतिशत उत्सव, सभाएं और मेले इन्ही तीर्थक्षेत्रोपर सम्पन्न होते हैं । भारतीय समाजको ये तीर्थक्षेत्र जीवन प्रदान करते तथा उसकी गरिमामय सस्कृतिका प्रतिनिधित्व करते हैं, इनका समाजसे बहुत धनिष्ठ सम्बन्ध है । इसीसे भारतके कोने-कोने में इनका अस्तित्व पाया जाता है । एक तरफ पुरी है तो दूसरी तरफ द्वारिका, एक ओर सम्मेदाचल है तो दूसरी ओर गिरनार ।
बुन्देलखण्ड भारतका मध्यक्षेत्र हृदय है। यह आचारमें उन्नत और विचारमें कोमल तो है ही, धार्मिक श्रद्धा भी अपूर्व है । वीरत्व भी इसकी भूमिमें समाया हुआ है। यहां अनगिनत तीर्थ क्षेत्र है । उनकी आभासे यह सहस्रो वर्षोंसे अलोकित है। जिस ओर जाइये उसी ओर यहां तीर्थ भूमियां मिलेगी । द्रोणगिर, रेशिन्दीगिर और सोनागिर जैसे जहां सिद्धक्षेत्र है वहाँ देवगढ, पपौरा, महार, खजुराहो जैसे अतिशय क्षेत्र भी हैं। देवगढ और खजुराहोकी कला इसके निवासियोके मानसकी आस्था और निष्ठाको व्यक्त करती है तो द्रोणगिर और रेशिन्दीगिरकी प्राकृतिक रमणीयता दर्शकको अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। महार क्षेत्रकी विशाल और भव्य शान्तिनाथमूर्ति हमारी निष्ठा और आकर्षणको द्विगुणित कर देती है।
श्रीपपौराजीके उत्तु ग एव विशाल शिखरवन्द भव्य जिनालय दूरसे ही हमें आह्वान करते हैं । टीकमगढ (म० प्र०) से तीन मील दूर दक्षिण-पूर्वमें यह पुण्य तीर्थ अवस्थित है। इसकी पश्चिम दिशामें विशाल सिंहद्वार है जो सौम्य आकृतिसे हमारी भावनाओंको पहलेसे ही परिवर्तित करने लगता है। तीर्थके चारो ओर विस्तत प्राकार है, जिसके भीतर समतल मैदानमें १०७ विशाल जिनालय निर्मित हैं । इनमें अनेक जिनालय शताब्दियो पर्वके हैं। यहांकी चौबीसी उल्लेखनीय है । प्रत्येककी परिक्रमा पथक-पथक और सबकी एक सयुक्त है। छोटी-छोटी वाटिकामओ, कुओ और धर्मशालाओंसे यह क्षेत्र बहुत ही मनोरम एव सुशोभित है। वातावरण एकदम शान्त और साधनायोग्य है । आकाशसे बातें करते हुए १०७ शिखरबन्द जिनमन्दिरोकी शोभा जनसाधारणकी भावनाओ और भक्तिको विराट् बना देती है। जिनप्रतिमाएं अपनी मूकोपदेशो द्वारा स्निग्ध एव शीतल शान्तरसकी धारा उडेलती है। उस समय दर्शकका मन आनन्द-विभोर होकर घटो भक्तिमें तल्लीन हो जाता है ।
यद्यपि प्रदेश आर्थिक और शैक्षणिक दृष्टिसे पिछहा हुआ है, किन्तु उसकी धार्मिक भावनाएं प्रोन्नत है, जिनका परिचय यहाँके कार्योंसे मिल जाता है । क्षेत्रके वार्षिक मेलेपर एकत्र होकर समाज अपनी दिशाको पहचानने और समस्यामोको सुलझानेका यहाँ अवसर प्राप्त करती है।
Page #385
--------------------------------------------------------------------------
________________
क्षेत्रपर श्रीवीर दि० जैन विद्यालय स्थित है, जिसके द्वारा इस प्रान्तकी धार्मिक शिक्षाकी पूर्ति होती है और जो उल्लेखनीय है । सैकडो विद्यार्थी यहांसे शिक्षा ग्रहण कर विद्वान् बने है। इस विद्यालयकी स्थापना स्वर्गीय ५० मोतीलालजी वर्णीके प्रयत्नोसे हुई थी। इसकी उन्नति और सचालनमें वर्णीजीका पूरा एव वरद हस्त रहा है। बा० ठाकुरदासजीने मत्रित्वका दायित्व वहन करके उसके विकासमें अथक श्रम किया है । क्षेत्र और विद्यालय दोनोकी उन्नति तथा विकासमे दोनो महानुभावोंकी सेवायें सदा स्मरणीय रहेंगी।
पपौराजी एक ऐसा दर्शनीय और बन्दनीय क्षेत्र है जहाँ बडी शान्ति मिलती है। हमें उक्त विद्यालयमें तीन वर्ष तक अध्यापन करानेका सुअवसर मिला। इस कालमें क्षेत्रपर जो शान्ति मिली और धर्मभावना वृद्धिगत हई उसे हम क्षेत्रका प्रभाव मानते हैं। इस पुण्य तीर्थक्षेत्रका एक बार अवश्य दर्शनबन्दन करना चाहिए।
XUXUSNRISE
-३५७
Page #386
--------------------------------------------------------------------------
________________
पावापुर : महावीरकी निर्वाणभूमि
महात्माओंने जहाँ जन्म लिया, तप किया, ज्ञान प्राप्त किया, उपदेश दिए, जीवन में अनेकों बार आये गये. शरीरका त्याग किया, उन स्थानोको लोकमें तीर्थ (पवित्र जगह) कहा गया है। पावापुर भी एक ऐसा ही पावन तीर्थ स्थान है जहाँसे भगवान महावीरने शरीरका त्याग कर निर्वाण-लाभ किया था।
महत्त्व विक्रमकी पांचवी शताब्दीके विद्वान् आचार्य यतिवृषभने 'तिलोयपण्णत्ति' में कहा है
पावाए णयरीए एक्को वीरेसरो सिद्धो ॥४-१२०८ ॥ पावापुरसे भ० वीरने सिद्ध पद प्राप्त किया । इसी प्रकार विरूमकी छठी शतीके आचार्य पूज्यपादने भी अपनी 'निर्वाण भक्ति में लिखा है
पावापुरस्य बहिरुन्नत-भूमिदेशे, पद्मोत्पलाकुलवता सरसा हि मध्ये ।
श्रीवर्द्धमानजिनदेव इति प्रतीतो, निर्वाणमाप भगवान्प्रविधूत-पाप्मा ॥२४॥ अर्थात् पावापुरके बाहर ऊंचे स्थानपर, जिसके चारो ओर विविध कमलोसे व्याप्त तालाब हैं, पाति अधातिरूप पापमलको सर्वथा नाश कर भगवान् वर्द्धमान जिनेन्द्रने निर्वाण प्राप्त किया।
आचार्य जिनसेन (विक्रमकी ९वी शती) ने भी अपने 'हरिवंशपुराण'में पावापुरसे निर्वाण प्राप्त करनेका विस्तृत वर्णन किया है। वे कहते हैं कि भ० वीरनाथ चारो ओरके भव्योंको प्रबुद्ध करके समृद्धिसम्पन्न पवित्र पावा नगरीमें पहुंचे और वहां उसके मनोहर उद्यानमें स्थित होकर कर्मबन्धनको तोड मुक्तिको प्राप्त हुए।
इसी तरह 'निर्वाणकाण्ड' तथा अपभ्रश 'निर्वाणभक्ति' में भी कहा है
(क) पावाए णिव्वुदो महावीरो ।।१।। (ख) पावापुर वदउ वड्ढमाणु, जिणि महियलि पयडिउ विमल णाणु ॥
अर्थात् हम उस पवित्र तीर्थ पावापुरकी वन्दना करते हैं जहाँसे वर्धमान जिनेन्द्र ने निर्वाण लाम किया और पृथ्वीपर विमल ज्ञानकी धारा बहाई ।
विक्रमकी १३वी शताब्दीके विद्वान यतिपति मदनकीर्तिने भी अपनी रचना 'शासन चतुस्चिशिका' में वहाँ वीर जिनेन्द्रकी सातिशयमूर्ति होने और लोगो द्वारा उसकी भारी भक्ति किये जानेका उल्लेख करते हुए लिखा है
तियंञ्चोऽपि नमन्ति य निज-गिरा गायन्ति भक्त्याशया द्रष्टे यस्य पदद्वये शुभदृशो गच्छन्ति नो दुर्गतिम् । देवेन्द्राचित-पाद-पकज-युग पावापुरे पापहा श्रीमद्ववीरजिन. स रक्षतु सदा दिग्वाससा शासनम् ।।१८।।
-३५८
Page #387
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थात जिन्हें तिर्यञ्च भी अतिशय भक्तिके साथ नमस्कार करते हैं और अपनी अव्यक्त वाणी द्वारा गुणगान करते हैं। जिनके चरणोके दर्शन करनेपर भव्यजीव दुर्गतिको प्राप्त नही होते तथा जो पावापुरमें इन्द्र द्वारा अचित हैं और लोकके पापोके नाशक है वह श्री वीरजिनेन्द्र दिगम्बर शासनकी सदा रक्षा करेंलोकमें उसके प्रभावको प्रख्यापित करते रहें।
इन समस्त उल्लेखो एव कथनोसे पावापुरकी पावनता और उसका सास्कृतिक एव ऐतिहासिक महत्त्व लोकके लिये स्पृहणीय हो तो कोई आश्चर्य नही है। स्थिति
___ यह पावापुर विहार प्रान्तमें पटनाके पास है और गुणावा अतिशय क्षेत्रसे १३ मील है। भारतवर्षक समस्त जैन बन्धु वन्दनार्थ वहां हर वर्ष जाते है। कार्तिकवदी अमावस्याका वहां वीर निर्वाणोपलक्ष्यमें प्रति वर्ष एक बडा मेला भरता है, जिसमें सहस्रो जैन व अजैन भाई शामिल होते हैं और वडी भक्ति करते है । ऐसे पवित्र स्थानकी वन्दना करना, दर्शन करना और पूजा करना निश्चय ही हमारी कृतज्ञता और श्रद्धाका द्योतक है और पुण्य सचयका कारण है। भगवान् महावीरके निर्वाण-दिवसके उपलक्ष्यमें प्रचलित दीपावलीपर उसकी विशेप स्मृति होना और भी स्वाभाविक है। भ० महावीर अन्तिम तीर्थहर होनेसे उनकी इस पावन निर्वाणभूमि पावापुरका समग्र जैन साहित्यमें अनुपम एव महत्वपूर्ण स्थान है। और इसलिए वह भारतीय जनताके लिए सदैव अभिवन्दनीय है ।
-३५९
Page #388
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रमणवेलगोला और श्रीगोम्मटेश्वर
श्रमणबेलगोला दक्षिण भारतमें करनाटक प्रदेशमें हासन जिलेका एक गौरवशाली और ऐतिहासिक स्थान रहा है। यह जैन परम्पराके दि० जैनोका एक अत्यन्त प्राचीन और सुप्रसिद्ध तीर्थ है। इसे जनग्रन्थकारोने जैनपुर, जैनविद्री और गोम्मटपुर भी कहा है। यह बेंगलौरसे १०० मील, मैसूरसे ६२ मील, आर्सीकेरीसे ४२ मील, हासनसे ३१ मील और चिनार्यपट्टनसे ८ मील है। यह हासनसे पश्चिमकी ओर अवस्थित है और मोटरसे २-३ घण्टोका रास्ता है। यह विन्ध्यगिरि और चन्द्रगिरि नामकी दो पहाडियोकी तलहटी में एक सुन्दर और मनोज्ञ चौकोर तालाबपर, जो प्राकृतिक झीलनुमा है, बसा हुआ है। यह है तो एक छोटा-सा गांव, पर ऐतिहासिक पुरातत्त्व और धार्मिक दृष्टिसे इसका बड़ा महत्त्व है।
दुष्काल
जैन अनुश्रु तिके अनुसार ई० ३०० सौ वर्ष पूर्व सम्राट चन्द्रगुप्तके राज्यकालमें उत्तर भारतमें जब बारह वर्षका दुष्काल पहा तो अन्तिम श्रतकेवली आचार्य भद्रबाहके नायकत्वमें १२ हजार श्रमणो (जैन साधुओं) के सघने उत्तर भारतसे आकर इस स्थानकी मनोज्ञता और एकान्तता देखी तथा यही रहकर तप और ध्यान किया। आचार्य भद्रबाहुने अपनी आयुका अन्त जानकर यही समाधिपूर्वक देहोत्सर्ग किया। सम्राट चन्द्रगुप्तने भी, जो सघके साथ आया था, अपना शेष जीवन सघ व गुरु भद्रबाहको सेवामें व्यतीत किया था।
इस स्थानको श्रमणबेलगोला इसलिए कहा गया कि उक्त श्रमणों (जैन साधुओ) ने यहाँके वेलगोल (सफेद तालाब) पर तप, ध्यानादि किया तथा आवास किया था। तब कोई गांव नही था, केवल सुरम्य पहाडी प्रदेश था।
यहाँ प्राप्त सैकडों शिलालेख, अनेक गुफाएँ, कलापूर्ण मन्दिर और कितनी ही विशाल एव भव्य जैन मतियां भारतके प्राचीन गौरव और इतिहासको अपने में छिपाये हुए हैं । इसी स्थानके विन्ध्यगिरिपर गगवशके राजा राचमल्ल (ई० ९७५-९८४) के प्रधान सेनापति और प्रधान मन्त्री वीर-मार्तण्ड चामुण्डराय द्वारा एक ही पाषाणमें उत्कीर्ण करायी गई श्री गोमेटेश्वर बाहुबलिको वह विश्वविख्यात ५७ फुट ऊंची विशाल मत्ति है, जिसे विश्वके दर्शक देखकर आश्चर्यचकित हो जाते हैं। दूसरी पहाडी चन्द्रगिरिपर भी अनेक मन्दिर व बसतियां बनी हुई हैं। इसी पहाडीपर सम्राट चन्द्रगुप्तने भी चन्द्रगुप्त (प्रभाचन्द्र) मुनि होकर समाधिपूर्वक शरीर त्यागा था और इसके कारण ही इस पहाडीका नाम चन्द्रगिरि पहा । इन सब बातोसे 'श्रमणबेलगोला' का जैन परम्परामे बड़ा महत्व है। एक बार मैसूर राज्यके एक दीवानने कहा था कि "सम्पूर्ण सुन्दर मैसूर राज्यमें श्रमणवेलगोला सदृश अन्य स्थान नहीं है, जहां सुन्दरता और भन्यता दोनोका सम्मिश्रण पाया जाता हो।" यह स्थान तभीसे पावन तीर्थक रूपमें प्रसिद्ध है।
परिचय
यहां गोम्मटेश्वर और उनकी महामूर्तिका परिचय वहीके प्राप्त शिलालेखों द्वारा दे रहे हैं। शिलालेख न० २३४ (८५) में लिखा है कि-"गोम्मटेश्वर ऋषभदेव प्रथम तीर्थकरके पुत्र थे । इनका नाम बाहु
-३६०
Page #389
--------------------------------------------------------------------------
________________
वली या भुजबली था। इनके ज्येष्ठ भ्राता भरत थे। ऋषभदेवके दीक्षित होनेके पश्चाद् भरत और बाहुबली दोनो भाइयोमें साम्राज्यके लिए युद्ध हुआ। युद्धमें बाहुबलिकी विजय हुई। पर ससारकी गति (राज्य जैसी तुच्छ चीजके लिए भाइयोका परस्परमें लडना) देखकर बाहवलि विरक्त हो गये और राज्य अपने ज्येष्ठ भ्राता भरतको देकर तपस्या करने के लिए वनमें चले गये। एक वर्षकी कठोर तपस्याके उपरान्त उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुमा । भरतने, जो सम्राट् हो गये थे, बाहुबलीके चरणोमें पहुंचकर उनकी पूजा एव भक्ति की । बाहुबलीके मुक्त होनेके पश्चात् उन्होने उनकी स्मृतिमें उनकी शरीराकृतिके अनुरूप ५२५ धनुषप्रमाणको एक प्रस्तर मूर्ति स्थापित कराई । कुछ काल पश्चात् मूर्तिके आस-पासका प्रदेश कुक्कुट सोसे व्याप्त हो गया, जिससे उस मूर्तिका नाम कुक्कुटेश्वर पड गया। धीरे-धीरे वह मूर्ति लुप्त हो गयी और उसके दर्शन अगम्य एव दुर्लभ हो गये। गगनरेश रायमल्लके मन्त्री चामुण्डरायने इस मूर्तिका वृतान्त सुना और उन्हें उसके दर्शन करनेकी अभिलाषा हुई, पर उस स्थान (पोदनपुर) की यात्रा अशक्य जान उन्होने उसीके समान एक सौम्य मूत्ति स्थापित करनेका विचार किया और तदनुसार इस मूर्तिका निर्माण कराया ।"
कवि वोप्पण (११८० ई०) ने इस मूर्तिको प्रशसा करते हुए लिखा है कि "यदि कोई मूर्ति मत्युन्नत (विशाल) हो, तो यह आवश्यक नही कि वह सुन्दर भी हो। यदि विशालता और सुन्दरता दोनो भी हो, तो यह आवश्यक नही कि उसमें अलौकिक वैभव (भन्यता) भी हो। गोम्मटेश्वरकी मूर्तिमें विशालता, सुन्दरता और अलौकिक वैभव तीनोका सम्मिश्रण है। गोम्मटेश्वरकी मूर्तिसे बढकर ससारमें उपासनाके योग्य अन्य क्या वस्तु हो सकती है ?"
पाश्चात्य विद्वान् फर्गुसनने अपने एक लेखमें लिखा है कि "मिस्र देशके सिवाय ससार भरमे अन्यत्र इस मूर्तिसे विशाल और प्रभावशाली मूर्ति नहीं है।"
पुरातत्त्वविद् डा० कृष्ण लिखते हैं कि "शिल्पीने जैनधर्मके सम्पूर्ण त्यागकी भावना इस मूर्तिके अगअंगमें अपनी छैनीसे भर दी है। मत्तिकी नग्नता जैनधर्मके सर्व त्यागकी भावनाका प्रतीक है। एकदम सीधे
और मस्तक उन्नत किये खडे इस प्रतिबिम्बका अग-विन्यास पूर्ण आत्म-निग्रहको सूचित करता है । होठोकी दयामयी मुद्रासे स्वानुभूत आनन्द और दुखी दुनियाके साथ मूक सहानुभूतिकी भावना व्यक्त होती है ।"
हिन्दी जगत्के प्रसिद्ध विद्वान् काका कालेलकरने एक लेखमें लिखा है-"मूर्तिका सारा शरीर भरावदार, यौवनपूर्ण, नाजुक और कान्तिमय है। एक ही पत्थरसे निर्मित इतनी सुन्दर मूत्ति संसारमें और कही नही। इतनी बड़ी मुत्ति इतनी अधिक स्निग्ध है कि भक्तिके साथ कुछ प्रेमकी भी यह अधिकारिणी है। धूप, हवा और पानीके प्रभावसे पीछेको ओर ऊपरकी पपडी रिपर पडनेपर भी इसका लावण्य खण्डित नही
हुआ है।" -
- -
प्राच्यविद्यामहार्णव डॉ. हीरालाल जैनने लिखा है कि-"एशिया खण्ड ही नही, समस्त भूतलका विचरण कर आइये, गोम्मटेश्वरकी तुलना करनेवाली मूर्ति आपको क्वचित् ही दृष्टिगोचर होगी। बडे-बडे पश्चिमीय विद्वानोके मस्तिष्क इस मूर्तिकी कारीगरीपर चक्कर खा गये हैं। कम-से-कम एक हजार वर्षसे यह प्रतिमा सूर्य, मेघ, वायु आदि प्रकृतिदेवीकी अमोघ शक्तियोसे बातें कर रही है, पर अब तक उसमें किसी प्रकारकी थोडी-सी भी क्षति नहीं हुई है, मानो मूर्तिकारने उसे आज ही उद्घाटित किया हो।"
ऊपर उल्लेख किया जा चुका है कि इस ससारको अद्भुत मूर्तिके प्रतिष्ठाता गगवशी राजा राचमल्लके प्रधान आमात्य और सेनापति चामुण्डराय है। चामुण्डरायको शिलालेखोमें समरधुरन्धर, रणरगसिंह, वैरिकुलकालदण्ड, असहायपराक्रम, समरपरशुराम, वीरमार्तण्ड, भटशिरोमणि आदि उपाधियोसे विभू
-३६१
Page #390
--------------------------------------------------------------------------
________________
षित किया गया है। चामुण्डराय अपनी सत्यप्रियता और धर्मनिष्ठाके कारण "सत्य युधिष्ठिर" भी कहे जाते थे। इनकी जैनधर्ममें अनुपमेय निष्ठा होने के कारण जैन ग्रन्थकारोने भी इन्हें सम्यक्त्वरत्नाकर, गुणरत्नभूषण, शौचाभरण आदि विशेषणो (उपाधियो) द्वारा उल्लेखित किया है । इन्ही चामुण्डरायने गोम्पटेश्वरकी महामूर्तिकी प्रतिष्ठा २३ मार्च ई० सन् १०२८ में कराई थी, जैसाकि इस मूर्तिपर उत्कीर्ण लेखसे विदित है । महामस्तकाभिषेक
इस मूर्तिका महामस्तकाभिषेक बडे समारोहके साथ सम्पन्न होता है । ऐतिहासिक दृष्टिसे इसके महामस्तकाभिषेकोका वर्णन ई० सन् १५००, १५९८, १६१२, १६७७, १८२५ और १८२७ के उत्कीर्ण शिलालेखोमें मिलता है, जिनमें अभिषेक करानेवाले आचार्य, गृहस्थ, शिल्पकार, बढई, दूध, दही आदिका व्यौरा मिलता है। इनमें कई मस्तकाभिषेक मैसूर-नरेशो और उनके मन्त्रियोने स्वय कराये है। सन् १९०९ में भी मस्तकाभिषेक हुमा था, उसके बाद मार्च १९२५ में भी वह हुआ, जिसे मैसूर नरेश महाराज कृष्णराज बहादुरने अपनी तरफसे कराया था और अभिपेकके लिए पांच हजार रुपये प्रदान किये थे तथा स्वय पूजा भी की थी। इसके अनन्तर सन् १९४० में भी गोम्मटेश्वरकी इस मूर्तिका महामस्तकाभिषेक हुआ था। उसके पश्चात् ५ मार्च १९५३ मे महामस्तकाभिषेक किया गया था, उस समय भारतके कोने-कोनेसे लाखो जैन इस अभिषेकमें सम्मिलित हुए थे। इस अवसरपर वहां दर्जनो पत्रकार, फोटोग्राफर और रेडियोवाले भी पहुंचे थे। विश्वके अनेक विद्वान् दर्शक भी उसमें शामिल हुए थे।
समारोह २१ फरवरी १९८१ में जो महामस्तकाभिषेक हुआ, वह सहस्राब्धि-महामस्तकाभिषेक महोत्सव था। इस महोत्सवका महत्त्व पिछले महोत्सवोसे बहुत अधिक रहा । कर्नाटक राज्यके माननीय मुख्यमन्त्री गुडुराव और उनके सहयोगी अनेक मन्त्रियोने इस महोत्सवको राज्यीय महोत्सव माना और राज्यकी ओरसे उसकी सारी तैयारियों की गयी। प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरागाधी और अनेक केन्द्रीय मन्त्रिगण भी उक्त अवसर पर पहुँचे थे। लाखो जैनोके सिवाय लाखो अन्य भाई और बहनें भी इस उत्सवमें सम्मिलित हुए। विश्वधर्मके प्रेरक एलाचार्य मुनि विद्यानन्दके प्रभावक तत्त्वावधान में यह सम्पन्न हुआ, जिमके मार्गदर्शनमें भगवान महावीरका २५०० वा निर्वाण महोत्सव सारे राष्ट्रने व्यापक तौरपर १९७४ मे मनाया।
भारतीय प्राचीन संस्कृति एव त्याग और तपस्याकी महान् स्मारक यह गोम्मटेश्वरकी महामूर्ति युग-युगो तक विश्वको अहिंसा और त्यागकी शिक्षा देती रहेगी।
-३६२
Page #391
--------------------------------------------------------------------------
________________
राजगृहकी मेरी यात्रा और अनुभव
इतिहासमे राजगृहका स्थान
श्रद्धेय प० जुगलकिशोर मुख्तारका अरसेसे यह विचार चल रहा था कि राजगृह चला जाय ओर वहाँ कुछ दिन ठहरा जाय तथा वहाकी स्थिति, स्थानो, भग्नावशेषो और इतिहास तथा पुरातत्त्व सम्बन्धी तथ्योका अवलोकन किया जाय ।
राजगृहका इतिहाममें महत्त्वपूर्ण स्थान है। सम्राट विम्बसारके, जी जैनपरम्पराके दिगम्बर और श्वेताम्बर तथा बौद्ध माहित्यमें गजा श्रेणिकके नामसे अनश्रत है और मगधसाम्राज्यके अधीश्वर एव भगवान् महावीरकी धर्म-सभाके प्रधान श्रोता माने गये है, मगधसाम्राज्यकी राजधानी इसी राजगृहमें थी । यहाँ उनका किला अब भी पुरातत्त्वविभागके सरक्षणमें है और जिसकी खुदायी होने वाली है। एक पुराना किला और है जो कृष्णके समकालीन जरासन्धका कहा जाता है । वैभार पर्वतके नीचे उधर तलहटीमें पर्वतकी शिला काट कर एक आस्थान बना है और उसके आगे एक लबा चौडा मैदान है। ये दोनो स्थान गजा थेणिकके खजाने और बैठकके नामसे प्रसिद्ध हैं। तीसरे-चौथे पहाडके मध्यवर्ती मैदानमें एक बहुत विशाल प्राचीन कुआँ भूगर्भसे निकाला गया है और जिसे मिट्टीसे पूर भी दिया गया है । इसके ऊपर टीन की छतरी लगा दी गई है । यह भी पुरातत्त्व-विभागके सरक्षणमें है। इसके आसपास कई पुराने कुएँ और वेदिकाएं भी खुदाईमें निकली हैं । किंवदन्ती है कि रानी चेलना प्रतिदिन नये वस्त्रालकारोको पहिनकर पुराने वस्त्रालकारोको इस कुएं में डाला करती थी। दूसरे और तीसरे पहाडके मध्यमें गृद्धकूट पर्वत है, जो द्वितीय पहाडका ही अश है
और जहां महात्मा बुद्धकी बैठकें बनी हुई है और जो बौद्धोका तीर्थस्थान माना जाता है। इसे भी हम लोगोने गौरसे देखा। पुराने मन्दिरोंके अवशेष भी पड़े हुए हैं । विपुलाचल कुछ चौडा है और वैभारगिरि चौडा तो कम है पर लम्बा अधिक है। सबसे पुरानी एक चौवीसी भी इसी पहाड पर बनी हुई है जो प्राय खडहरके रूपमे स्थित है और पुरातत्वविभागके सरक्षणमें है। अन्य पहाडोके प्राचीन मन्दिर और खडहर भी उसीके अधिकारमें कहे जाते हैं। इसी वैभारगिरिके उत्तरमें सप्तपर्णी दो गुफाएं है जिनमें ऋषि लोग रहते बतलाये जाते है । गुफाएँ लम्बी दूर तक चली गई है। वास्तवमे ये गुफाएं सन्तोके रहने के योग्य है। ज्ञान और ध्यानकी साधना इनमें की जा सकती है । परन्तु आजकल इनमें चमगीदडोका वास है और उसके कारण इतनी बदबू है कि खडा नही हुआ जाता।
भगवान महावीरका सैकडो वार यहाँ राजगृहमें समवसरण आया है और विपुलगिरि तथा वैभारगिरि पर ठहरा है। और वहीसे धर्मोपदेशकी गड्डा बहाई है। महात्मा बुद्ध भी अपने सघ सहित यहाँ राजगृहम अनेक वार आये हैं और उनके उपदेश हुए है। राजा श्रेणिकके अलावा कई वौद्ध और हिन्दू सम्राटोकी भी राजगृहमें राजधानी रही है। इस तरह राजगृह जैन, बौद्ध और हिन्दू तीनो सस्कृतियोक सङ्गम एव समन्वयका पवित्र और प्राचीन ऐतिहासिक तीर्थ स्थान है, जो अपने अचलमे अतीतके विपुल वैभव और गौरवको छिपाये हए है और वर्तमानमे उसकी महत्ताको प्रकट कर रहा है।
-३६३ -
Page #392
--------------------------------------------------------------------------
________________
यहाँके कुण्ड और उनका महत्त्व
यहाँके लगभग २६ कुडोने राजगृहकी महत्ताको और वढा दिया है । दूर-दूरसे यात्री और चर्म रोगादिके रोगी इनमें स्नान करनेके लिये रोजाना हजारोकी तादादमें आते रहते हैं। सूर्यकुण्ड, ब्रह्मकुण्ड और सप्तधाराओका जल हमेशा गर्म रहता है और बारह महीना चालू रहते है । इनमें स्नान करनेसे वस्तुत
, शारीरिक क्लान्ति और चर्मरोग दूर होते हए देखे गये हैं। लकवासे ग्रस्त एक रोगीका लकवा दो तीन महीना इनमें स्नान करनेसे दूर हो गया। कलकत्ताके सेठ प्रेमसुख जी को एक अङ्गमें लकवा हो गया। वे भी वहां ठहरे है और उनमें स्नान करते हैं। पूछनेसे मालूल हुआ कि उन्हें कुछ आराम है । हम लोगोने भी कई दिन स्नान किया और प्रत्यक्ष फल यह मिला कि थकान नहीं रहती थी-शरीरमें फुरती आजाती थी। राजगृहके उपाध्याय-पण्डे
कुण्डोपर जब हमने वहाँके सैकडो उपाध्यायो और पण्डोका परिचय प्राप्त किया तो हमें ब्राह्मणकुलोत्पन्न इन्द्रभूति और उनके विद्वान् पाँचसो शिष्योकी स्मृति हो आई और प्राचीन जैन साहित्यमें उल्लिखित उस घटनामें विश्वासको दृढता प्राप्त हुई, जिसमें बतलाया है कि वैदिक महाविद्वान् गौतम इन्द्रभूति अपने पांचसौ शिष्योके साथ भगवान महावीरके उपदेशसे प्रभावित होकर जैनधर्म में दीक्षित हो गया था और उनका प्रधान गणधर हुआ था। आज भी वहां सैकडो ब्राह्मण 'उपाध्याय' नामसे व्यवहृत होते है । परन्तु आज वे नाममात्रके उपाध्याय है और यह देख कर तो बडा दुख हुआ कि उन्होने कुण्डोंपर या अन्यत्र यात्रियोसे दो-दो, चार-चार पैसे मांगना ही अपनी वृत्ति-आजीविका बना रखी है। इससे उनका बहुत ही नैतिक पतन जान पडा। यहाँके उपाध्यायोको चाहिए कि वे अपने पूर्वजोकी कृतियो और कीत्तिको ध्यानमें लायें और अपनेको नैतिक पतनसे बचायें। श्वेताम्बर जैनधर्मशाला और मन्दिर
यहां श्वेताम्बरोकी ओरसे एक विशाल धर्मशाला बनी हुई है, जिसमे दिगम्बर धर्मशालाकी अपेक्षा यात्रियोको अधिक आराम है। स्वच्छता और सफाई प्राय अच्छी है । पाखानोकी व्यवस्था अच्छी है-यत्रद्वारा मल-मूत्रको बहा दिया जाता है, इससे बदव या गन्दगी नही होती। यात्रियोके लिये भोजनके वास्ते कच्ची और पक्की रसोईका एक ढाबा खोल रखा है, जिसमें पांच वक्त तकका भोजन फ्री है और शेष समयके लिये यात्री आठ आने प्रति बेला शुल्क देकर भोजन कर सकता है और आटे, दाल, लकडीकी चिंतासे मुक्त रहकर अपना धर्मसाधन कर सकता है। भोजन ताजा और स्वच्छ मिलता है। मैनेजर बा० कन्हैयालालजी मिलनसार सज्जन व्यक्ति है। इन्हीने हमें धर्मशाला आदिकी सब व्यवस्थासे परिचय कराया। श्वेताम्बरोके अधिकारमें जो मन्दिर है वह पहले दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनोंका था। अब वह पारस्परिक समझौतेके द्वारा उनके अधिकारमें चला गया है । चार जगह दर्शन है । देखने योग्य है । बा० छोटेलालजीके साथ १३ दिन
कई बातोंपर विचार-विमर्श करनेके लिये बा० छोटेलालजी कलकत्ता ता०५ मार्चको राजगृह आ गये थे और वे ता० १८ तक साथ रहे । आप काफी समयसे अस्वस्थ चले आ रहे हैं.-इलाज भी काफी करा चके हैं, लेकिन कोई स्थायी आराम नहीं हुआ। यद्यपि मेरी आपसे दो-तीन वार पहले भेंट हो चुकी थी, परन्तु न तो उन भेंटोंसे आपका परिचय मिल पाया था और न अन्य प्रकारसे मिला था। परन्तु अबकी वार उनके निकट सम्पर्कमें रह कर उनके व्यक्तित्व, कर्मण्यता, प्रभाव और विचारकताका आश्चर्यजनक परिचय
-३६४
Page #393
--------------------------------------------------------------------------
________________
मिला । वाबू साहबको मैं एक सफल व्यापारी और रईसके अतिरिक्त कुछ नही जानता था, पर मैंने उन्हें व्यक्तित्वशाली, चिन्ताशील और कर्मण्य पहले पाया-पीछे व्यापारी और रईस। आप अपनी तारीफसे बहत दूर रहते हैं और चुपचाप काम करना प्रसन्द करते हैं। आप जिस उत्तरदायित्वको लेते हैं उसे पूर्णतया निभाते हैं । आपको इससे बडी घृणा है जो अपने उत्तरदायित्वको पूरा नहीं करते । आपके हृदयमें जैन सस्कृतिके प्रचारकी बडी तीन लगन है। आप आधुनिक ढगसे उसका अधिकाधिक प्रचार करने के लिए उत्सुक हैं । जिन वडे-बडे व्यक्तियोसे, विद्वानोंसे और शासकोसे अच्छे-अच्छोकी मित्रता नही हो पाती उन सबके साथ आपकी मित्रता-दोस्ताना और परिचय जान कर मैं बहुत आश्चर्यान्वित हुआ। सेठ पद्मराजजी रानीवाले और अर्जुनलालजी सेठीके सम्बन्धकी कई ऐसी बातें आपने बतलाईं, जो जैन इतिहासको दृष्टिसे सकलनीय हैं । आपके एकहरे दुर्वल शरीरको देख कर सहसा आपका व्यक्तित्व और चिन्ताशीलता मालूम नहीं होती, ज्यो-ज्यों आपके सम्पर्क में आया जाये त्यो-स्यो वे मालूम होते जाते हैं। वस्तुत समाजको उनका कम परिचय मिला है। यदि वे सचमुच में प्रकट रूपमें समाजके सामने आते और अपने नामको अप्रकट न रखते तो वे सबसे अधिक प्रसिद्ध और यशस्वी बनते । अपनी भावना यही है कि वे शीघ्र स्वस्थ हो और उनका सकल्पित वीरशासनसघका कार्य यथाशीघ्र प्रारम्भ हो। राजगृहके कुछ शेष स्थान
बर्मी बौद्धोका भी यहाँ एक विशाल मन्दिर बना हुआ है । आज कल एक वर्मी पुजी महाराज उसमें मौजूद हैं और उन्हीकी देखरेख में यह मन्दिर है । जापानियोंकी ओरसे भी वौद्धोका एक मन्दिर बन रहा था, किन्तु जापानसे लडाई छिड जाने के कारण उसे रोक दिया गया था और अब तक रुका पड़ा है। मुसलमानोने भी राजगृहमें अपना तीर्थ बना रखा है । विपुलाचलसे निकले हए दो कुण्डोपर उनका अधिकार है । एक मस्जिद भी बनी हुई है । मुस्लिम यात्रियोके ठहरने के लिये भी वही स्थान बना हुआ है और कई मुस्लिम वासिंदाके रूपमें यहाँ रहते हुए देखे जाते हैं । कुछ मुस्लिम दुकानदार भी यहां रहा करते हैं। सिक्खोके भी मन्दिर और पुस्तकालय आदि यहाँ है। कुडोंके पास उनका एक विस्तृत चबूतरा भी है। ब्रह्मकुडके पास एक कुड ऐसा बतलाया गया जो हर तीसरे वर्ष पडने वाले लोडके महीनेमें ही चालू रहता है और फिर बन्द हो जाता है । परन्तु उसका सम्बन्ध मनुष्य कृत कलासे जान पडता है। राजगृहकी जमीदारी प्राय मुस्लिम नवावके पास है, जिसमेंसे रुपयामें प्राय चार आना (एक चौथाई) जमीदारी सेठ साह शान्तिप्रसादजी डालमियानगरने नवाबसे खरीद ली है। यह जानकर खुशी हुई कि जमीदारीके इस हिस्सेको आपने दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र राजगृहके लिये ही खरीदा है। उनके हिस्सेकी जमीनमे सर्वत्र S P Jain के नामसे चिन्ह लगे हुए है, जिससे आपको जमीनका पार्थक्य मालूम हो जाता है । और भी कुछ लोगोने नवाबसे छोटे-छोटे हिस्से खरीद लिए है। राजगहमे खाद्य सामग्री तेज तो मिलती है। किन्तु बेईमानी बहुत चलती है। गेहओको अलगसे खरीद कर पिसानेपर भी उसमें चौकर बहुत मिला हुआ रहता था। आटा हमें तो कभी अच्छा मिलकर नही दिया। बा० छोटेलालजीने तो उसे छोड ही दिया था। क्षत्रके मुनीम और आदमियोंसे हमें यद्यपि अच्छी मदद मिली, लेकिन दूसरे यात्रियोके लिये उनका हमें प्रमाद जान पड़ा है। यदि वे जिस कार्यके लिये नियुक्त है उसे आत्मीयताके साथ करें तो यात्रियोको उनसे पूरी सदद और सहानभति मिल सकती है। आशा है वे अपने कर्तव्यको समझ निष्प्रमाद होकर अपने उत्तरदायित्वको पूरा करेंगे । आरा और बनारस
राजगहमें २० दिन रह कर ता०१८ मार्चको वहाँ से आरा आये। वहीं जैन सिद्धान्तभवनके अध्यक्ष प० नेमिचन्द्रजी ज्योतिषाचार्य के मेहमान रहे । स्टेशनपर मापने प्रिय प० गुलाबचन्द्रजी जैन, मैनेजर
-३६५ -
Page #394
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन बाला विधामको हमें लेने के लिये भेज दिया था। आरामें स्व० वा० देवकुमारजी रईस द्वारा स्थापित जैनसिद्धान्त-भवन और श्रीमती विदुषी पण्डिता चन्दाबाईजी द्वारा सस्थापित जैन बाला विथाम तथा वहां प्रतिष्ठित श्री १००८ बाहुबलिस्वामीको विशाल खड़गासन मूर्ति वस्तुत जैन भारतकी आदर्श वस्तुएँ हैं। आरा आनेवालोको जैनमन्दिरोके अलावा इन्हे अवश्य ही देखना चाहिये। भवन और विश्राम दोनो ही समाजकी अच्छी विभूति है। यहाँ स्व० श्रीहरिप्रसादजी जैन रईसको औरमे कालेज, लायनेरी आदि कई सस्थाएं चल रही है । आरामे चलकर बनारस आये और अपने चिरपरिचित स्याद्वादमहागिद्यालयमें ठहरे । सयोगसे विद्यालयके सुयोग्य मत्री मौजन्यमूर्ति वा० सुमतिलालजीमे भेंट हो गई। आपके मन्त्रित्वकालमें विद्यालयने बहुत उन्नति की है । कई वर्पसे आप गवर्नमेंट सविससे रिटायर्ड है और समाजसेवा एव धर्मोपासनामें ही अपना समय व्यतीत करते हैं। आपका धार्मिक प्रेम प्रशसनीय है । यहां अपने गुरुजनो और मित्रोके सम्पर्कमें दो दिन रहकर वडे आनन्दका अभूभव किया। स्याद्वादमहाविद्यालयके अतिरिक्त यहांकी विद्वत्परिपद्, जयधवला कार्यालय मीर भारतीय ज्ञानपीठ प्रभति ज्ञानगोष्ठिा जनसमाज और साहित्यके लिए क्रियाशीलताका सन्देश देती हैं। इनके द्वारा जो कार्य हो रहा है वह वस्तुत' समाजके लिये शुभ चिह्न है । मैं तो समझता हूँ कि समाज में जो कुछ हरा-भरा दिस रहा है वह मख्यतया स्याद्वादमहाविद्यालयकी ही देन है और जो उसमें क्रियाशीलता दिख रही है वह उक्त सस्थाओके सचालकोकी चीज है । आशा है इन सस्थाओंसे समाज और साहित्यके लिए उत्तरोत्तर अच्छी गति मिलती रहेगी।
इस प्रकार राजगृहकी यात्राके साथ आरा और बनारमकी भी यात्रा हो गई और ता० २४ मार्चको सुबह साढे दस बजे यहां यरसावा हमलोग सानन्द सकुशल वापिस आ गये।
Page #395
--------------------------------------------------------------------------
________________
काश्मीरकी मेरी यात्रा और अनुभव यात्राका कारण और विचार
कितने ही दिनोसे मेरी यह इच्छा बनी चली आ रही थी कि भारतके मुकुट और सौन्दर्यको क्रीडाभूमि काश्मीरकी यात्रा एक बार अवश्य की जाय । सौभाग्य कहिए या दुर्भाग्य, अप्रेलके मध्यमे तपोनिधि श्री १०८ आचार्य नमिसागरजी महाराजके मेरठ में दर्शन कर देहलो वापिस आते ही मैं अस्वस्थ पड़ गया और लगभग सवा माह तक 'लो ब्लड प्रेशर' का शिकार रहा। मित्रो, हितैषियो व सस्याधिकारियोंने मुझे स्वास्थ्य-सुधारके लिए काश्मीर जानेकी प्रेरणा की। उनकी सद्भावनापूर्ण प्रेरणा पा मेरी इच्छा और बलवती हो गई। अन्तमें काश्मीर जानेका पूर्ण निश्चय किया और भारत सरकारके काश्मीर विभागसे तीन माहके पाम बनवा कर २२ मई १९५४ को देहलीसे श्रीनगर तक के ४२ रु० के वापिसी इन्टर-टिकट लेकर हमने सपत्नीक ला० मक्खनलालजी जैन ठेकेदार देहलीके साथ काश्मीर मेलसे प्रस्थान किया। दूसरे दिन प्रात पठानकोट पहुंचे और उसी समय रेलवेकी आउट एजेन्सी लेने वाली N D राधाकृष्ण बस कम्पनीकी १३ सीटी बससे, जो हर समम तैयार रहती है, हम लोग श्रीनगरके लिए रवाना हो गये । १२ बजे दिनमे जम्मू पहुँचे और वहाँ खाना-पीना खाकर एक घण्टे बाद चल दिये । यहाँ उक्त बम-सर्विसका स्टेशन है । अनेक घाटियोको पार करते हए रातको ८॥ बजे बनिहाल पहुंचे और वहाँ रात विताई । यहाँ ठहरनेके लिये किरायेपर कमरे मिल जाते है । जम्मू और उसके कुछ आगे तक तीव्र गर्मी रहती है किन्तु वनिहालसे चित्ताकर्षक ठडी हवायुक्त सर्दी शुरू हो जाती है और कुछ गर्म कपडे पहनने पडते हैं । यात्री यहाँसे गर्मीके कष्टको भूलकर ठडका सुखद अनुभव करने लगता है।
काश्मीरकी उत्तु ग घाटियो और प्राकृतिक दृश्योको देखकर दर्शकका चित्त वडा प्रसन्न होता है। जब हम नौ हजार फुटकी ऊंचाईपर टेनिल पहुँचे और एक जगह रास्ते में बर्फकी शिलाओपर चले-फिरे बर्फको उठाया तो अपार आनन्द आया। काश्मीर में सबसे ऊंची जगह यही टेनिल है। यहाँसे फिर उतार शुरू हो जाता है । हमारी बस पहाडोके किनाने-किनारे गोल चक्कर जैसे मार्गको तय करती हुई २४ मईको प्रात ७ बजे खन्नाबल पहुँच गयी । यहाँसे श्रीनगर सिर्फ ३० मील रह जाता है। पहले श्रीनगर न जाकर यही उतर कर मटन, पहलगांव, अच्छावल, कुकरनाग आदि स्थानोको देख भाना चाहिये और बादमे श्रीनगर जाना चाहिये । इसमें काश्मीर-पर्यटकको समय, शक्ति और अर्थकी बचत हो जाती है। अत हम लोग यही उतर गये और तांगे करके ११ बजे दिन में मटन पहुँचे।
मटन-में प० शिवराम नीलकण्ठ पण्डेके मकानमें ठहरे। प०शिवराम नीलकण्ठ सेवाभावी और सज्जन है। यहाँ तीन-सौ के लगभग पण्डे रहते हैं। यह हिन्दुमोका प्रमुख तीर्थ स्थान है । यहाँ पानीकी खूब बहार है । चारो ओर पानी ही पानी है । तीन कुण्ड है, जिनमें एक वृहद् चश्मसे पानी आता है। पास ही लम्बोदरी नदी अपना लम्बा उदर किये वहती है, जिसपर सवा लाख रुपयेके ठेकेपर एक नया पुल बन रहा है। इसी लम्बोदरी नदोसे महाराजा प्रतापसिंहके राज्य-समयमे गण्डामिह नामके साधारण सिखने अपने बुद्धिचातुर्यसे पहाडी खेतीकी सिंचाईके लिए पहाडोंके ऊपरसे एक नहर निकाली थी, जो आश्चर्यजनक है
-३६७
Page #396
--------------------------------------------------------------------------
________________
और जिसपर महाराजाने उसे अपनी रियासतका चीफ इन्जीनियर बना दिया था। यह नहर २२ मील लम्बी और वेगसे पानी बहाने वाली है। नहरके पास एक डाक बगला है जिसमें पहले दर्शक भी ठहरते थे । हम व ला० मक्खनलालजी यही आकर स्वाध्याय व तत्त्वचर्चा किया करते थे । मटनसे एक मीलकी दूरीपर वह प्रसिद्ध एव विशाल हिन्दुओका मार्तण्ड मंदिर है, जिसे सन् ८५६ में अवन्तिवर्मा (श्रीवर्मा) ने बनवाया था और सन् १३९० में सुलतान सिकन्दरने तोडा था । मन्दिरके विशाल और बडे-बडे पत्थरोंको देख कर आश्चर्य होता है कि उस जमाने में जब क्रेन नहीं थी, इतने वडे पत्थर इतगे कैसे कैसे पढाये गये होगे। कहते है कि इस मार्तण्ड मन्दिरके कारण ही मार्तण्डका मटन नाम हो गया ।
कुकरनाग - मटनसे अनन्तनाग, अच्छावल होते हुए ३ जूनको हम लोग बस द्वारा कुकरनाग गये । कुकरनाग मटनसे १९ मील है । ठहरनेके लिए जगह अच्छी मिल जाती है । यहाँ कई चश्मे हैं, जिनका पानी बहुत अच्छा व स्वास्थ्यप्रद है। चश्मोंसे इतना पानी आता है कि उससे एक नदी बन गई और जिसका नाम 'कुकरनाग' हूँ पहाटपर राज्यसरकारकी ओरसे एक बगला बना हुआ है, जो दर्शको के लिए भी किराये पर दिया जाता है। एक बगला और राज्यसरकारकी ओरसे नीचे बन रहा है। और भी कई लोगोने बगले बनवा रखे हैं, जो किराये पर दिये जाते हैं । यहाँ एक मीलपर एक चूने वाला चश्मा है, जिसके बारेमें प्रसिद्धि है कि इसके पानीमें कैलशियम है और खुजली आदि चर्मरोगोको दूर करता है । यहाँ कितने ही लोग चार-चार महीना इसीलिये रहते हैं कि यहाँका जलवायु उत्तम है । चीडके असख्य उन्नत वृक्षोंसे पहाड व हरे-हरे धान्यके खेत बडे ही शोभायमान होते हैं ।
अनन्तनाग - यह काश्मीरका एक जिला है । यहाँ उल्लेखनीय दो चश्मे हैं । एक गन्धकका चश्मा है, जो मस्जिदके पास है और जिसका जल चर्मरोगोंके लिये खास गुणकारी है। दूसरे चश्मेसे कई कुण्ड बना दिये गये हैं। यहाँ गन्बे (कालीन) विशेष प्रसिद्ध है।
अच्छावल - यह काश्मीरके द्रष्टव्य स्थानोंमेंसे एक है। यहाँ भी कई झरने हैं, जो बहुत मशहूर हैं | बाग फव्वारोसे सजा हुआ है । कहते हैं कि ये फव्वारे जहाँगीरकी बीबी नूरजहाँने अपने मनोविनोदके लिये बनवाये थे। यहाँ दर्शको की भीड बनी रहती है। यहाँ ५-५, ७-७ सेरकी सरक्षित मछलियाँ हैं।
बेरीनाग यहाँ एक ५४ फुट गहरी और पट्कोण नीलवर्णी झील है, जो बढी सुन्दर और देखने योग्य है । झेलम नदी इसी झीलसे निकली है । इसे देखने के लिए हम घोडो द्वारा गये ।
।
पहलगाँव - कुकरनागमें ९ दिन रह कर हमलोग १२ जूनको वापिस मटन आ गये और वहाँ पुन ११ दिन ठहरकर २४ जूनको पहलगाँव चले गये। पहलगांव काश्मीर भरमे सबसे सुन्दर जगह है और प्राकृतिक सौन्दर्यका अद्वितीय आगार हैं । एक ओरसे लम्बोदरी और दूसरी ओरसे आडू नदी कल-कल शब्द करती हुई यहाँ मिलकर मटनकी ओर बहती हैं। नदीके दोनो ओर हरे-हरे उत्तु ग कैलके वृक्षोंसे युक्त मनोरम वर्फाच्छादिन पर्वत श्रृंखला है जो बडी भव्य व सुहावनी है । पहाडों और नदियोके बीच के सुन्दर मैदानमें पहलगांव बसा हुआ है। यहाँ हमने १३) रोजपर एक खालसा फोठी किरायेपर की, जो बहुत सुन्दर और हवादार थी । यहाँ ठहरनेके लिए प्लाजा, वजीर, खालसा आदि होटल, कोठियाँ, मकान और तम्बू मिल जाते हैं। दिल्ली से गये ६०० छात्र-छात्राएँ और अध्यापक-अध्यापिकाएँ उक्त होटलों तथा तम्बुओंमें ठहरे थे। यहाँसे हम लोग वाइसरायन और शिकारगा देखने गये, जो पहलगाँव से १-१॥ मीलकी दूरीपर है और सुन्दर मैदान है । १ जुलाईको हम पत्नी सहित घोडोपर सवार होकर चन्दनबाडी गये, जो पहलगाँवसे ८ मील है और जहाँ दो पहाटोके बीच बने वर्षके पुलके नीचेसे लम्बोदरी बहती हुई वही सुहावनी लगती है। वर्षाका पुल देखने योग्य है । इसी परसे दर्शक व अन्य लोग शेषनाग, पचतरणी और अमरनाथ की यात्रार्थ जाते हैं ।
• ३६८ -
-
Page #397
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीनगर - पहलगाँव से हम लोग २ जुलाईके प्रात ८ बजे रवाना होकर ११ बजे श्रीनगर पहुँचे । श्रीनगरके सन्निकट रास्ते में अवन्तीपुर भी देखा, जहाँ मार्तण्ड मन्दिर जैसा ही हिन्दुओका विशाल मंदिर बना हुआ है और जो भग्नावस्थामें पडा हुआ है । श्रीनगरमें हम विजय होटलमें और ला० मक्खनलालजी मैजिस्टिक होटल में ठहरे । यहाँ ला हरिश्चन्द्र जी और श्री प० कैलाशचन्द्र जी बनारस भी सोभाग्यसे मिल गये । मिलकर बडी प्रसन्नता हुई। इससे पहले पहलगाँव तथा मटनमें भी आपसे भेंट हो गई थी ।
डल लेक आदि दृष्टव्य कुछ स्थान - ४ जुलाईको हमलोग तागो द्वारा डल लेक, शाही चश्मा, निषाद, शालामार और हार्वन बाग देखने गये । ये चारो ही स्थान श्रीनगरके प्रसिद्ध और मनोज्ञ स्थान है । डल लेक एक बडी और मनोरम झील है। झीलमें एक नेहरू पार्क और एक होटल है । हर रविवार को लोग यहाँ सैर करने आते हैं । चश्मा शाहीका पानी सुस्वादु और पाचक है । यहाँसे हमलोग सीधे पहले हार्वन गये यहाँ चश्मोसे निकले पानीकी एक झील है, जो नील वर्ण है। हार्वनके बाद शालामार और निषाद आये । निषाद अति सुन्दर और चित्ताकर्षक है । पहाडसे निकले चश्मेके पानीकी कई जगह ऊँची फाले और फव्वारे बनाये गये हैं । यह बाग भी नूरजहाँकी कृति है, जहाँ वह मनोविनोद और क्रीडाके लिये आती थी । लोग छुट्टीका दिन यही आनन्दसे व्यतीत करते हैं ।
।
गुलमर्ग व खिलनमर्ग - ५ जुलाईको हमलोग गुलमर्ग और खिलनमर्ग देखनेके लिये बस द्वारा टनमर्ग गये । मोटर बस टनमर्ग तक ही आती-जाती हैं । यहाँसे घोडो द्वारा उक्त स्थानोको देखने जाना होता है | ये दोनो स्थान ऊँची पहाडीपर हैं । गुलमर्ग एक लम्बा चौडा मैदान है जहाँ अनेक होटल व मकान बने हैं, जिनमें यात्री आकर महीनो ठहरते हैं । यहाँ हम आते-जाते वर्षाक कारण १०-१५ मिनट ही ठहरे । खिलनमर्ग भी एक ऊँचाईपर सुन्दर मैदान है, जहाँ पास ही बर्फकी शिलायें हैं और जिनपरसे यात्री चलते व दोडते हैं और आनन्दानुभव करते है ।
हमने रास्तेमें वह जगह भी देखी, जहाँ तक १९४७ में लुटेरे कबायली अथवा पाकिस्तानी सैन्य दल टिड्डियोकी तरह लूटमार और अपहरण करते हुए आ चुके थे । इस जगहसे श्रीनगर सिर्फ पाँच मील है । उक्त दोनो स्थानोंको देखकर उसी दिन ५॥ बजे शामको हम वापिस श्रीनगर आ गये ।
श्रीनगरके बाजारोमें जितनी बार जायें उतनी ही बार चीजोको खरीदने की इच्छा हो जाती है । यहाँको सूक्ष्म और बारीक कारीगरी अत्यन्त प्रशसनीय है । लकडीका काम, ऊनी व रेशमी कपडेका काम, टोकनियाँ, गब्बे, नमदे और केशर यहाँकी खास चीजें हैं। हाँ, वोटो व शिकारोसे पटी झेलमका दृश्य भी भवलोकनीय है । उसमे हर व्यक्तिको सैर करनेकी इच्छा हो आती है । उसके सातो पुल भी उल्लेखनीय हैं ।
७ जुलाईको श्रीनगरसे N D राधाकृष्ण बस द्वारा रवाना होकर ८ जुलाईको प्रात पठानकोट आ गये और वहाँसे ५-५० पर शामको छूटने वाली काश्मीर मेलसे चलकर ७ जुलाईको प्रात देहली सानन्द आ गये । स्टेशनपर प० बाबूलालजी जमादार, १० मन्नूलालजी शास्त्री, भगत हरिश्चन्द्रजी और छात्रवर्गने हम लोगोका हार्दिक स्वागत कर हमें अपना अनन्य स्नेह दिया । समन्तभद्र सस्कृत विद्यालयमें हम उस समय प्रिंसिपल ( प्राचार्य) रहे ।
काश्मीरके सौन्दर्यकी अभिवृद्धिमें पहलगांव, चन्दनवाडी, अच्छावल, डल लेक, वेरीनाग, कुकरनाग निषाद वा ये स्थान प्रमुख कारण हैं । यहाँ यह खास तौरसे उल्लेखनीय है कि काश्मीर राज्य में, जहाँ ७५ प्रतिशत मुसलिम आबादी है, गोहत्या नही होती — कानूनन बन्द है । वहाँके भोले, भद्र और गरीब लोगोको सुजनता देखने योग्य है। खाने-पीनेकी सभी चीजें सस्ती और अच्छी मिल जाती हैं । कवि क अपनी राजतरगिणीमें जो काश्मीरका विशद वर्णन किया है उससे स्पष्ट है कि काश्मीरका भारतके माथ बहुत पुराना सम्बन्ध है और वह भारतका ही एक अभिन्न प्रदेश रहा है ।
अत काश्मीरके साथ हमारा सास्कृतिक और सौहार्दका सम्बन्ध उत्तरोत्तर बढते रहना चाहिये । ●
न-४७
· ३६९ -
-
Page #398
--------------------------------------------------------------------------
________________
बम्बईका प्रवास
बम्बईमें हमारा तीन दिनका प्रवास था । यहाँ श्रद्धेय प्रेमीजीने हमारा प्रेमपूर्ण आतिथ्य किया । आप समाज व साहित्यके पुराने सेवक है। आपने समाज व साहित्यपर सैकडो लेख लिखे हैं एव अन्धेरे में पड़े हए सैकड़ों ग्रन्थों और ग्रथकारोको प्रकाशमें लाकर जैन इतिहासके निर्माणमें अपूर्व योगदान दिया है। जैनहितपी व जैनमित्रका आपने जिस योग्यता और विद्वत्तासे सम्पादन किया उसकी समता आज समाजका प्राय कोई पत्र नही रखता । अपने जीवनको अर्घशताब्दी आपने समाजसेवामें व्यतीत किया है । यद्यपि अब आप लगभग ७० वर्पके हो गये और काफी अशक्त रहने लगे है फिर भी समाजसेवाकी चिन्ता अहनिश रखते हैं। हमारी आपके साथ घटो सामाजिक व साहित्यिक चर्चाएँ हुई। उनमें हमने यही महसूस किया कि उन जैसे अध्यवसायी, लगनशील, समाजचिन्तक और साहित्यसेवी बहुत कम विद्वान् होगे । जैन समाजमें कही कोई नई बात या हलचल हुई उससे समाजको परिचित करानेका प्रेमीजीने सदैव ध्यान रखा । किन्तु अब इस ओर किसीका भी लक्ष्य नही है। श्वेताम्बर समाजमें दिगम्बर समाजके सम्बन्धमें कितनी ही ऐसी बातें एव घटनाएं हो जाती है जिनकी हमें खबर नही मिलती और कदाचित् मिल भी जाय तो बहुत पीछे मिलती है। दिगम्बर समाजको आज विरोधात्मक कार्यकी ओर नही, विधेयात्मक कार्यकी ओर गतिशील होना चाहिए । उसका जो भी प्रयत्न हो विसगठित एव विरोधात्मक नही होना चाहिए।
प्रेमीजीके सिवाय बम्बईमें हम जिन सज्जनोके परिचयमें आये, उनमे धर्मनिष्ठ सघपति सेठ पूनमचद घासीलालजी, सेठ निरजनलालजी, मित्रवर पडित विजयमूर्तिजी एम० ए०, दर्शनाचार्य और बन्धुवर ५० कुन्दनलालजी मैनेजर रायचन्द शास्त्रमालाके नाम विशेष उल्लेखनीय हैं।
सधपतिजीके साथ हमारी उनकी अपनी कोठीमें निर्मापित श्री चैत्यालयजीमें धार्मिक चर्चाएं हुई, जो काफी महत्त्वपूर्ण थी। कालबादेवीमें आपके द्वारा बहुत विशाल और आदर्श जिनमन्दिर बनवाया जा रहा है। इसमें लाखो रुपये लगेंगे। यह वम्बईको कलापूर्ण कृतियोंमें एक अपूर्व एव अन्यतम कृति होगी। इसे बनते हुए दो-तीन वर्ष हो गये और कई वर्ष और लगेंगे। इसका प्राय सारा ही सगमरमरका पत्थर विदेशी है और बहुत सुन्दर है ।। - भूलेश्वरके श्री जिनमन्दिरजीमें हम प्रतिदिन पूजन करते थे। यहां पूजनादिका सुप्रबन्ध है। इसके प्रबन्धकोमें एक धर्मप्रेमी सेठ निरजनलालजी हैं । दिगम्बर समाज, जैन इतिहास-निर्माण और 'सजद' पदके सम्बन्धमें हमारी आपसे विस्तृत और सौजन्यपूर्ण बातचीत हुई। हमने जैन इतिहास-निर्माणकी आवश्यकता और 'सजद' पदकी स्थितिपर बल दिया। फलत आपने इस सब वार्ताको बडे महाराज (चा० च० पूज्य आचार्य शान्तिसागरजी) से कहने और उनके पास जानेके लिए आग्रह किया। परन्तु समय न होनेसे हम महाराजके पास न जा सके । लेकिन उनके इस निमत्रणको हमने स्वीकार कर लिया कि बादमें बुलानेपर हम अवश्य आवेंगे।
प० विजयमूर्तिजी और श्री कुन्दनलालजी हमारे सुपरिचित मित्रोमें हैं। इन मित्रोने हमें बम्बईके प्रसिद्ध स्थानो चौपाटी, इडियागेट, समुद्रकी सर, हिडिंग-गार्डन, कमलानेहरू-गार्डन, रानी-बाग, अजायबघर आदि दिखाये । विशाल सहकें, गगनस्पर्शी मकान, बडे-बडे मार्केट, शिष्टतापूर्ण रहन-सहन, समुद्रकी सीनरी आदि बातें बम्बईकी अपनी खास विशेषताएँ है। यहां नगे शिर चलते हुए प्राय कोई नही मिलेगा। वास्तवमें यहाँको शिष्टता एव सभ्यता अन्य बातोके साथ अवश्य ही दर्शकके चित्तको आकर्षित करती है और इन्ही सब बातोंसे बम्बईको, भारतका पहला एव सुन्दर नगर कहलानेका गौरव प्राप्त है।
Page #399
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट
प्रस्तुत ग्रन्थमे डॉ० कोठियाके जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओ और ग्रन्थोकी प्रस्तावनाओमें पूर्व प्रकाशित सामग्री दी गयी है, उसके पूर्व प्रकाशित शीर्षक आदिका विवरण इसमें प्रकाशित शीर्षकोंके साथ यहां दिया जाता है- इस ग्रन्थमे प्रकाशित शीर्षक
अन्यत्र प्रकाशित शीर्षक आदि विवरण धर्म १ पुण्य और पापका शास्त्रीय दृष्टिकोण पुण्य और पापकी शास्त्रीय स्थिति, जैन सन्देश, वर्ष ३०,
अक २४, जैन सघ, मथुरा। २. वर्तनाका अर्थ
क्या वर्तनाका अर्थ गलत है ?, 'अनेकान्त', वर्ष ७, किरण
११-१२, ई० १९४५ । ३ जीवनमे सयमका महत्त्व
सयमकी आवश्यकता, 'जैनदर्शन' (मासिक), जनवरी
१९३७ । ४ चारित्रका महत्त्व
जैन दृष्टिमें चारित्रका स्थान, 'जैन प्रचारक', मासिक,
सितम्बर १९४०, बालाश्रम, दिल्ली। ५ करुणा जीवकी एक शुभ परिणति शीर्षक वही, प्रज्ञा (त्रैमासिक), का० हि० वि० वि०,
दिसम्बर १९७२ । ६ जैन धर्म और दीक्षा
शीर्षक वही, सम्पादकीय, जैन प्रचारक (मासिक), जनवरी
१९५१। ७ धर्म एक चिन्तन
धर्मकी आवश्यकता, जैन सन्देश, सितम्बर १९५०, जैन
सघ, मथुरा। ८ सम्यक्त्वका अमूढदृष्टि अग एक महत्त्व- अमूढदृष्टि बनाम परीक्षण-सिद्धान्त, जैन सन्देश पूर्ण परोक्षण-सिद्धान्त
(साप्ताहिक), सितम्बर १९६४ । ९ महावीरको धर्मदेशना
महावीरकी जीवन-झांकी, जीवन साहित्य, (मासिक),
दिल्ली, अक्तूबर १९५२ । १०. वीर-शासन और उसका महत्त्व शीर्षक वही, अनेकान्त (मासिक), वर्ष ५, किरण ५, ई०
१९४३, सरसावा (सहारनपुर)।। ११. महावीरका आध्यात्मिक मार्ग
महावीर और दीपावली, जैन प्रचारक, अक्तूबर १९४०,
बाल आश्रम, दिल्ली । १२ महावीरका आचार-धर्म
शीर्षक वही, पुस्तिका, पर्यपण, २३ सितम्बर १९६१ । १३ भ० महावीरकी क्षमा और अहिंसाका शीर्षक वही, महावीर-जयन्ती स्मारिका, जयपुर। -.
एक विश्लेषण १४ भ० महावीर और हमारा कर्तव्य शीर्पक वही, जैन गजट, अप्रेल १९५४ । .
-३७१
Page #400
--------------------------------------------------------------------------
________________
दर्शन १. अनेकान्तयाद-विमर्ग
सोमपा अन्तिीग गम मनेकानगाः, 'बकान्त' (मासिक),
पर्ष ११, फिरण', १९५२।। २ स्पाहाय-पिग
स्मार, 'प्रशा' माग १, २१४, अगायर १९६८ । ३ संजययाद्विपत्त और ग्यातार •शीपंगतो, 'अनारमि०२, १०८८ । तपा
विषयगाणी, लावाय, जन १९८1 ४. जनदर्शन के समन्नययायो यष्टिकोणती मोर्षन यही, 'आज' का बागमी, ४ मा प्रासा
१९७०६०। ५ श्रमण-गरगृतिको दिन गम्मृशिमोदन सोपंग यही, महावीर-गगन्ती म्मारिका, जयपुर,
१९७१६.। ६० अम्बारगे भेंटगामि अनेकान्स- . ० अम्बटकर और उन निर विनार, 'भनेकान्त',
वर्ष १०, किरण ८, दिसम्बर १९४९, मिली। ७ जन सामें गोगा क मामोसन गीर्षक कही, ममाधिमरणोगादीपा,प्रस्तावना, अन्तवर
१९६३६०। ८ जैन यर्शन गर्वशता
जैन यांनी मगभगानी गभावनाएं, यगिल मा० दर्शन परिपम पठिन सगा Afr' (मागिस) ११, अफ
१, जनवर्ग १९६५ म प्रमागित । ९ अर्याभिगम-चिन्तन
नदनमें अधिगम-चिन्तन, 'प्रशा', Vol-xu (1),
माणी हिन्द गिगि०, वागणगी। १०. शापक्तत्व-विमर्श
प्रमाण घोर गय, जैन प्रनाग, अगस्त-सितम्बर १९३८,
दिल्ली। ११ ध्यान-विमर्श
जैन दर्शन में प्याग-विचार, जिनवाणी, योगाक, जयपुर ।
न्याय १ भारतीय वाइमगमें अनुमान-विनार
जैन तमगाम्नमें मनमान-विचार, गोध-प्रबन्य, प्रास्ताविक, अनुमान-विकास, सक्षिप्त अनुमान-विवेचन, उपसहार, ई० १९६९, योर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट, पाराणसी। न्यायकी उपयोगिता, 'अनेकान्त', यर्ष ९, कि० १।
२ न्याय-विद्यामृत इतिहास और साहित्य १ स्याद्वाद-मिद्धि और वादीसिंह
२. द्रव्यसंग्रह और नेमिचन्द्र मिशान्तिदेव
शीर्षक वही, प्रस्तावना, स्याद्वाद-मिद्धि माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, १९५० ई०1 सम्पादकीय (प्रति-परिचय, प्रस्तावना-ग्रन्थ और अन्यकार, द्रव्यसग्रह, गणेश वर्णी दि० जैन ग्रन्थमाला, वाराणसी, १९६६ । सम्पादकीय (प्रति-परिनय), प्रस्तावना-शासन-चतुस्त्रिशिका और मदनकौति परिशिष्ट, वीर-सेवा-मन्दिर-ट्रस्ट, १९४९ ।
३ शासन-मस्त्रिशिका और मदनकोति
-३७२
Page #401
--------------------------------------------------------------------------
________________
४. 'संजद' पदके सम्बन्धमें अकलङ्कदेवका शीर्षक वही, 'अनेकान्त', 'वर्ष ८, फि० २, जनवरी । महत्त्वपूर्ण अभिमत ।
१९४६ । ५.९३ वें सूत्रमें 'सजद' पदका सद्भाव ९३ वें सूत्रमें 'संजद' पदका विरोध क्यो?, 'अनेकान्त' वर्ष
८, कि० १०, सितम्बर, १९४६ ई० ।-, । ६ नियमसारकी ५३ वी गाथा और उसको शीर्षक वही, 'वीर-वाणी', वर्ष ३५, अक २, अक्टूबर व्याख्या एव अर्थपर अनुचिन्तन १९८२, 'नियमसारको ५३ वी गाथाकी व्याख्या और अर्थ
में भूल' जैन सन्देश, १६ सितम्बर १९८२, जैन विद्वत्स:
गोष्ठी बम्बईमें पठित, ७, ८ सितम्बर १९८२ । ७ अनुसन्धानमें पूर्वाग्रहमुक्ति आवश्यक अनुसन्धानमें पूर्वाग्रहमुक्ति आवश्यक, अनेकान्त, वर्ष ३४, कुछ प्रश्न और समाधान
कि० ४, दरियागज, नई दिल्ली, १९८१ । ८ गुणचन्द्र मुनि कौन है ?
शीर्षक वही, 'अनेकान्त', जनवरी १९५० ९ कौन-सा कुण्डलगिरि सिद्धक्षेत्र है ? 'शीर्षक वही, 'अनेकान्त', वर्ष ८, कि० ४-५, अप्रेल १९४६ । १० गजपन्थ तीर्थ क्षेत्रका एक अति प्राचीन शीर्षक वही, 'अनेकान्त', वर्ष ७, कि०.१९४५। ।
उल्लेख ११ अनुसन्धान विषयक महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर शवा-समाधान, ‘अनेकान्त'; वर्ष ९, कि० १, ३, १९४८ ११ आचार्य कुन्दकुन्द
आचार्य कुन्दकुन्दका प्राकृत वाङ्मय और उसकी देन, १०
चिदानन्द स्मृतिग्रन्थ, द्रोणगिर, वी०नि० २४९९।। १३ आचार्य गृद्धपिच्छ
। तत्त्वार्थसूत्रकी परम्परा, जैन सिद्धान्त भास्कर, आरा,
सन् १९४५ । १४ आचार्य समन्तभद्र
'देवागम और समन्तभद्र', प्रस्तावना, वीर सेवा मन्दिर
ट्रस्ट, वाराणसी, १९६७ (प्र० स०), १९७८ (द्वि० स०) । विविध . . १ बिहारकी महान् देन तीर्थंकर महावीर शीर्षक वही, मगघ यूनिवर्सिटी और जैन समाज गया के और इन्द्रभूति
सयक्त तत्त्वावधानमें आयोजित जैन विद्या सगोष्ठीमें पठित एव उनके द्वारा प्रकाशित महावीर-जयन्ती स्मारिका में
मुद्रित, सन् १९७५ । २ विद्वान् और समाज
अखिल भारतीय दि० जैन विद्वत्परिषदके रजत-जयती अधिवेशन शिवपुरीके अध्यक्षपदसे दिया गया अध्यक्षीय
भाषण, फरवरी १९७३ । ३ हमारे सास्कृतिक गौरवका प्रतीक श्री शान्तिनाथ दि० जैन विद्यालय, अहारके अध्यक्षपदसे अहार
दिया गया अध्यक्षीय भाषण, दिसम्बर १९६६ । ४. आचार्य शान्तिसागरका ऐतिहासिक शीर्षक वही, सम्पादकीय, जैन प्रचारक सल्लेखनाक, दिल्ली, समाधिमरण
अगस्त १९५५। ५ आदर्श तपस्वी आचार्य नमिसागर . आचार्य तपस्वी श्री १०८ आचार्य नमिसागरकी जीवन
झांकी, प्रकाशक जैन समाज, हिसार, दिसम्बर १९५२ तथा सम्पादकीय, जैन प्रचारक, नवम्बर १९५६, दिल्ली।
-३७३
Page #402
--------------------------------------------------------------------------
________________
६ पूज्य वर्णीजी : महत्त्वपूर्ण संस्मरण न भूलने वाले संस्मरण, दिगम्बर जैन, वर्ष ५९, अक ११,
सूरत, सितम्बर १९६६ । तथा महामानव पूज्य चर्णीजी,
जैन प्रचारक, 'वो अक', १९५२ । , ७. प्रतिभामूति प० टोडरमल
शीर्षक वही, वीर वाणी, टोडरमलाङ्ग, जयपुर । ८. श्रुत-पञ्चमी
. . जैन मित्र, अप्रेल १९३७, सूरत । ९ जम्बू-जिनाष्टकम्
: शीर्षक वही, 'अनेकान्त', वर्ष ८, कि० १, जनवरी १९४६ । १० दशलक्षणधर्म पर्व
दशलक्षणधर्म, पुस्तिका, वाराणसी, १९६३ । तथा 'जैन
सन्देश', जैन सघ, मथुरा, अगस्त १९५२ । ११. क्षमावणी • क्षमापर्व
: क्षमावाणी पर्व और उसका महत्व, जैन सन्देश, मथुरा,
अगस्त, १९५२ । १२. वीर-निर्वाण पर्व : दीपावली : वीर-निर्वाण और दीपावली, खण्डेवाल हितेच्छु, इन्दौर,
नवम्बर १९४३, तथा जैन गजट, दिल्ली, नवम्बर १९५३ । १३. महावीर-जयन्ती
शीर्षक वही, सम्पादकीय, जैन प्रचारक, दिल्ली, अप्रेल
१९५६ । १४. श्री पपौराजी · जिन मन्दिरोंका · श्री पपौराजी : एक पावन तीर्थक्षेत्र, 'वीर,' २८ मई अद्भुत समुच्चय
. १९५१, दिल्ली। १५ पावापुर
• भगवान् महावीरकी पावन निर्वाणभूमि पावापुर, जैन
प्रचारक, १९५४, दिल्ली। १६. श्रमणवेलगोला और श्री गोम्मटेश्वर श्री गोम्मटेश्वरका सहस्राब्दि-महोत्सव महामस्तकाभिषेक,
'आज', वाराणसी, १९८० तथा इसके पूर्व नवभारत
टाइम्स, दिल्ली, २२ फरवरी, १९५३ ।। १७ राजगहकी यात्रा और मेरे अनुभव राजगृहकी यात्रा, अनेकान्त', वर्ष ८, कि० ४-५, १९४६ ।
ई०, सरसावा (सहारनपुर)। १८ काश्मीरकी यात्रा और
सौन्दर्यकी क्रीडाभूमि काश्मीरकी यात्रा, जन सन्देश, २९ और मेरे अनुभव
जुलाई १९५४, मथुरा। १९ बम्बईका प्रवास
प्रवासमें मेरे ४५ दिन, जैन प्रचारक, दिल्ली, सन् १९५१ ।
-३७४
Page #403
--------------------------------------------------------------------------
_