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॥ श्री चन्द्रप्रभ स्वामिने नमः ।।
मानावर
अमिसा परमोधर्मी
श्री वर्धमान जैन मंडल, चेन्नई द्वारा संचालित |
' (संस्थापक सदस्य : श्री तमिलनाड जैन महामंडल) । श्री वर्धमान कुंवर जैन संस्कार वाटिका
... Ek Summer & Holiday Camp
संस्कार वाटिका Estd.:2006
Estd.:1991
CAMERICAN
(JAIN TATVA DARSHAN)
संकलन व प्रकाशक
पाठ्यक्रम-4
श्री वर्धमान जैन मंडल, चेन्नई
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विशेष परिचय
जन्म दिवस 14-2-1913
एक ज्ञान ज्योत जो बनी अमर ज्योत
स्वर्गवास 27-11-2005
पंडित भूषण पंडितवर्य श्री कुंवरजीभाई दोसी
* जन्म गुजरात के भावनगर जिले के जैसर गाँव में हुआ था। * सम्यग्ज्ञान प्रदान भावनगर, महेसाणा, पालिताणा, बैंगलोर, मद्रास । * प. पू. पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी म.सा. का आपश्री पर विशेष उपकार। * श्री संघ द्वारा पंडित भूषण की पदवी से सुशोभित ।
* अहमदाबाद में वर्ष 2003 के सर्वश्रेष्ठ पंडितवर्य की पदवी से सम्मानित । * प्रायः सभी आचार्य भगवंतों, साधु-साध्वीयों से विशेष अनुमोदनीय । * धर्मनगरी चेन्नई पर सतत् 45 वर्ष तक सम्यग् ज्ञान का फैलाव । तत्त्वज्ञान, ज्योतिष, संस्कृत, व्याकरण के विशिष्ट ज्ञाता ।
*
* पूरे भारत भर में बड़ी संख्या में अंजनशलाकाएँ एवं प्रतिष्ठाओं के महान् विधिकारक । * अनुष्ठान एवं महापूजन को पूरी तन्मयता से करने वाले ऐसे अद्भुत श्रद्धावान्। * स्मरण शक्ति के अनमोल धारक |
* तकरीबन 100 छात्र-छात्राओं को संयम मार्ग की ओर अग्रसर कराने वाले। * कई साधु-साध्वीयों को धार्मिक अभ्यास कराने वाले ।
* आपश्री द्वारा मंत्रों का स्पष्ट उच्चारण एवं विधि में शुद्धता को विशेष प्रधानता । * तीर्थ यात्रा के प्रेरणा स्त्रोत ।
दुनिया से भले गये पंडितजी आप, हमारे दिल से न जा पायेंगे। आप की लगाई इन ज्ञान परब पर, जब-जब ज्ञान जल पीने जायेगें तब बेशक गुरुवर आप हमें बहुत याद आयेंगे......
वि.सं. २०७१ ई.स. 2015 सर्व अधिकार : भ्रमण प्रधान श्री संघ के आधीन
तृतीय आवृति - 5000 प्रतिया (कुल 8000 प्रतिया) मूल्य : रु.70/साधु-साध्वीजी भगवंतो को और ज्ञानभंडारो को भेंट स्वरूप मिलेगी।
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।। श्री चन्द्रप्रभस्वामिने नमः।
समान र
संस्कार वाटिका
संस्कार वाटिका
श्री वर्धमान कुंवर जैन संस्कार वाटिका
.... Ek Summer Holiday Camp
जैन तत्त्व दर्शन JAIN TATVA DARSHAN
पाठ्यक्रम4
* दिव्याशीष* "पंडित भूषण' श्री कुंवरजीभाई दोशी
* संकलन व प्रकाशक *
श्री वर्धमान जैन मंडल 33, रेती रामन स्ट्रीट, चेन्नई - 600 079. फोन : 044-2529 0018 / 2536 6201/2539 6070 / 2346 5721
website : jainsanskarvatika.com E-mail : svjm1991@gmail.com
यह पुस्तक बच्चों को ज्यादा उपयोगी बने, इस हेतु आपके सुधार एवं सुझाव प्रकाशक के पते पर अवश्य भेजे ।
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जैन तत्त्व दर्शन
संस्कार वाटिका
• अंधकार से प्रकाश की और
............. एक कदम
अज्ञान अंधकार है, ज्ञान प्रकाश है, अज्ञान रूपी अंधकार हमें वस्तु की सच्ची पहचान नहीं होने देता। अंधकार में हाथ में आये हुए हीरे को कोई कांच का टुकडा मानकर फेंक दे तो भी नुकसान है और अंधकार में हाथ में आये चमकते कांच के टुकडे को कोई हीरा मानकर तिजोरी में सुरक्षित रखे तो भी नुकसान हैं।
ज्ञान सच्चा वह है जो आत्मा में विवेक को जन्म देता है। क्या करना, क्या नहीं करना, क्या बोलना, क्या नहीं बोलना, क्या विचार करना, क्या विचार नहीं करना, क्या छोडना, क्या नहीं छोडना, यह विवेक को पैदा करने वाला सम्यग ज्ञान है। संक्षिप्त में कहें तो हेय, ज्ञेय, उपादेय का बोध कराने वाला ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। वही सम्यग्ज्ञान है।
संसार के कई जीव बालक की तरह अज्ञानी है, जिनके पास भक्ष्य-अभक्ष्य, पेय-अपेय, श्राव्यअश्राव्य और करणीय-अकरणीय का विवेक नहीं होने के कारण वे जीव करने योग्य कई कार्य नहीं करते और नहीं करने योग्य कई कार्यवे हंसते-हंसते करके पाप कर्म बांधते हैं।
___बालकों का जीवन ब्लोटिंग पेपर की तरह होता है। मां-बाप या शिक्षक जो संस्कार उसमें डालने के लिए मेहनत करते हैं वे ही संस्कार उसमें विकसित होते हैं।
बालकों को उनकी ग्रहण शक्ति के अनुसार आज जो जैन दर्शन के सूत्रज्ञान-अर्थज्ञान और तत्त्वज्ञान की
जानकारी दी जाय, तो आज का बालक भविष्य में हजारों के लिए सफल मार्गदर्शक बन सकता है।
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_जैन तत्त्व दर्शन
बालकों को मात्र सूत्र कंठस्थ कराने से उनका विकास नहीं होगा, उसके साथ सूत्रों के अर्थ, सूत्रों के रहस्य, सूत्रों के भावार्थ, सूत्रों का प्रेक्टिकल उपयोग, आदि बातें उन्हें सिखाने पर ही बच्चों में धर्मक्रिया के प्रति रूचि पैदा हो सकती है।
धर्मस्थान और धर्म क्रिया के प्रति बच्चों का आकर्षण उसी ज्ञान दान से संभव होगा। इसी उद्देश्य के साथ वि.सं. 2062 (14 अप्रेल 2006) में 375 बच्चों के साथ चेन्नई महानगर के साहुकारपेट में "श्री वर्धमान जैन मंडल'' ने संस्कार वाटिका के रूप में जिस बीज को बोया था, वह बीज आज वटवृक्ष के सदृश्य लहरा रहा है। आज हर बच्चा यहां आकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस करता है।
पंडित भूषण पंडितवर्य श्री कुंवरजीभाई दोसी, जिनका हमारे मंडल पर असीम उपकार है उनके स्वर्गवास के पश्चात मंडल के अग्रगण्य सदस्यों की एक तमन्ना थी कि जिस सद्ज्ञान की ज्योत को पंडितजी ने जगाई है, वह निरंतर जलती रहे, उसके प्रकाश में आने वाला हर मानव स्व व पर का कल्याण कर सके। इसी उद्देश्य के साथ आजकल की बाल पीढी को जैन धर्म की प्राथमिकी से वासित करने के लिए
सर्वप्रथम श्री वर्धमान कुंवर जैन संस्कार वाटिका की नींव डाली गयी। वाटिका बच्चों को आज सम्यग्ज्ञान दान कर उनमें श्रद्धा उत्पन्न करने की उपकारी भूमिका निभा रही हैं। आज यह संस्कार वाटिका चेन्नई महानगर से प्रारंभ होकर भारत में ही नहीं अपितु विश्व के कोने-कोने में अपने पांव पसार कर सम्यग् ज्ञान दान का उत्तम दायित्व निभा रही है। ___जैन बच्चों को जैनाचार संपन्न और जैन तत्त्वज्ञान में पारंगत बनाने के साथ-साथ उनमें सद् श्रद्धा का बीजारोपण करने का RK आवश्यक प्रयास वाटिका द्वारा नियुक्त श्रद्धा से वासित हृदय वाले र अध्यापक व अध्यापिकागणों द्वारा निष्ठापूर्वक इस वाटिका के माध्यम से किया जा रहा है।
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_जैन तत्त्व दर्शन
संस्कार वाटिका में बाल वर्ग से युवा वर्ग तक के समस्त विद्यार्थियों को स्वयं के कक्षानुसार जिनशासन के तत्त्वों को समझने और समझाने के साथ उनके हृदय में श्रद्धा दृढ हो ऐसे शुद्ध उद्देश्य से "जैन तत्त्व दर्शन (भाग 1 से 9 तक)" प्रकाशित करने का इस वाटिका ने पुरूषार्थ किया है। इन अभ्यास पुस्तिकाओं द्वारा "जैन तत्त्व दर्शन (भाग 1 से 9), कलाकृत्ति (भाग 1-3), दो प्रतिक्रमण, पांच प्रतिक्रमण, पर्युषण आराधना'' पुस्तक आदि के माध्यम से अभ्यार्थीयों को सहजता अनुभव होगी।
इन पुस्तकों के संकलन एवं प्रकाशन में चेन्नई महानगर में चातुर्मास हेतु पधारे, पूज्य गुरु भगवंतों से समय-समय पर आवश्यक एवं उपयोगी निर्देश निरंतर मिलते रहे हैं। संस्कार वाटिका की प्रगति के लिए अत्यंत लाभकारी निर्देश भी उनसे मिलते रहे हैं। हमारे प्रबल पुण्योदय से इस पाठ्यक्रम के प्रकाशन एवं संकलन में विविध समुदाय के आचार्य भगवंत, मुनि भगवंत, अध्यापक, अध्यापिका, लाभार्थी परिवार, श्रुत ज्ञान पिपासु आदि का पुस्तक मुद्रण में अमूल्य सहयोग मिला तदर्थ धन्यवाद । आपका सुन्दर सहकार अविस्मरणीय रहेगा। मंडल को विविध गुरु भगवंतों का सफल मार्गदर्शन एवं आशीर्वाद: 1. प.पू. पंन्यास श्री अजयसागरजी म.सा. 2. प. पू. पंन्यास श्री उदयप्रभविजयजी म.सा. ____प. पू. मुनिराज श्री युगप्रभविजयजी म.सा.
__प. पू. मुनिराज श्री अभ्युदयप्रभविजयजी म.सा. 5. प.पू. मुनिराज श्री दयासिंधुविजयजी म.सा.
अंत में इस पुस्तक के माध्यम से बालक/बालिका सुपवित्र आचरण एवं शोभास्पद व्यवहार द्वारा स्व-पर के जीवन को सुशोभित बनाकर जिनशासन के गरिमापूर्ण ध्वज को ऊँचे आकाश तक लहरायें।
भेजिये आपके लाल को, सच्चे जैन हम बनायेंगे। दुनिया पूजेगी उनको, इतना महान बनायेंगे।
जिनशासन सेवानुरागी श्री वर्धमान जैन मंडल साहुकारपेट, चेन्नई-79.
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_जैन तत्त्व दर्शन
पुस्तक में प्रकाशित विषय निम्न पुस्तकों में से लिए गये है:
:: उपयुक्त ग्रंथ की सूची ::1) धर्मबिंदु 2) योगबिंदु
3) जीव विचार 4) नवतत्त्व 5) लघुसंग्रहणी
6) चैत्यवंदन भाष्य 7) गुरुवंदन भाष्य 8) श्राद्धविधि प्रकरण 9) प्रथम कर्मग्रंथ
-:: उपयुक्त पुस्तक की सूची ::1) गृहस्थ धर्म
पू. आचार्य श्रीमद् विजय केसरसूरीश्वरजी म.सा. बाल पोथी
पू. आचार्य श्रीमद् विजय भुवनभानूसूरीश्वरजी म.सा. 3) तत्त्वज्ञान प्रवेशिका
पू. आचार्य श्रीमद् विजय कलापूर्णसूरीश्वरजी म.सा. 4) बच्चों की सुवास/व्रतकथा पू. आचार्य श्रीमद् विजय भद्रगुप्तसूरीश्वरजी म.सा. 5) कहीं मुरझा न जाए
पू. आचार्य श्रीमद् विजय गुणरत्नसूरीश्वरजी म.सा. 6) रात्रि भोजन महापाप
पू. आचार्य श्रीमद् विजय राजयशसूरीश्वरजी म.सा. पाप की मजा-नरक की सजा पू. आचार्य श्रीमद् विजय रत्नाकरसूरीश्वरजी म.सा. चलो जिनालय चले
पू. आचार्य श्रीमद् विजय हेमरत्नसूरीश्वरजी म.सा. 9) रीसर्च ऑफ डाईनिंग टेबल पू. आचार्य श्रीमद् विजय हेमरत्नसूरीश्वरजी म.सा. 10) सुशील सद्बोध शतक
पू. आचार्य श्रीमद् विजय सुशीलसूरीश्वरजी म.सा. 11) जैन तत्त्वज्ञान चित्रावली प्रकाश पू. आचार्य श्रीमद् विजय जयसुंदरसूरीश्वरजी म.सा. 12) अपनी सची भूगोल
पू. पंन्यास श्री अभयसागरजी म.सा. 13) सूत्रोना रहस्यो
पू. पंन्यास श्री मेघदर्शन विजयजी म.सा. 14) गुड बॉय/पंच प्रतिक्रमण सूत्र पू. पंन्यास श्री वैराग्यरत्न विजयजी म.सा.
15) हेम संस्कार सौरभ/जैन तत्त्व ज्ञान पू. पंन्यास श्री उदयप्रभविजयजी म.सा. ७३ 16) आवश्यक क्रिया साधना पू. मुनिराज श्री रम्यदर्शन विजयजी म.सा.
गरू राजेन्द्र विद्या संस्कार वाटिका पू. साध्वीजी श्री मणिप्रभाश्रीजी म.सा. 18) पच्चीस बोल
पू. महाश्रमणी श्री विजयश्री आर्या
नम्र विनंती:
समस्त आचार्य भगवंत, मुनि भगवंत, पाठशाला के अध्यापकअध्यापिकाओं एवं श्रुत ज्ञान पिपासुओं से नम्र विनंती है कि इन पाठ्यक्रमों के उत्थान हेतु कोई भी विषय या सुझाव अगर आपके पास हो तो हमें अवश्य लिखकर भेजें ताकि हम इसे और भी सुंदर बना सकें।
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* अनुक्रमणिका * 1) तीर्थंकर परिचय
8) दिनचर्या A. श्री 24 तीर्थंकर भगवान की
9) भोजन विवेक:22 अभध्य जन्म नगरी, ऊँचाई, आयुष्य
10) माता-पिता का उपकारB. समवसरण C. अरिहंत भगवान के अष्ट प्रतिहार्य
11) जीवदया-जयणा -- 2) काव्य संग्रह
12) विनय-विवेक A. प्रार्थना
1. दान करने योग्य श्रेष्ठ सात क्षेत्र B. प्रभु स्तुतियाँ
2.दान के पांच प्रकार C. श्री चैत्यवंदन संग्रह 1. श्री सीमंधर स्वामी का चैत्यवंदन
13) सम्यग् ज्ञान 2. श्री शत्रुजय तीर्थ का चैत्यवंदन
A. मेरे पर्व D. श्री स्तवन संग्रह
1. मुख्य पर्व, तिथि एवं आराधना 1. श्री सीमंधर स्वामी का स्तवन
2. श्री पर्युषण महापर्व 2. श्री शत्रुजय तीर्थ का स्तवन
3. पर्युषण महापर्व के 5 कर्त्तव्य E. श्री स्तुति संग्रह
B. मेरे तीर्थ 1. श्री सीमंधर स्वामी की स्तुति
1. तीर्थ की महिमा 2. श्री शत्रुजय तीर्थ स्तुति
2. मुख्य तीर्थ के नाम, मूलनायकजी व राज्य
3. श्री शत्रुजय तीर्थ 3) जिन पूजा विधि
4. तीर्थ की आशातना से बचें A. अष्टप्रकारी पूजा के दोहे, श्लोक एवं रहस्य
C. मेरे तप 1.जल पूजा
1. बारह प्रकार के तप 2. चंदन पूजा
D. अन हेप्पी बर्थ डे टु यू 3.पुष्प पूजा
E.टी.वी. यानि? 4. धूप पूजा 5. दीपक पूजा
14) जैन भूगोल 6. अक्षत पूजा
15) सुत्र एवं विधि 7. नैवेद्य पूजा
A. सूत्र 8. फल पूजा
B. पच्चक्रवाण B. नवांगी पूजा के दोहे, रहस्य
C. विधि C. परमात्मा कौन D. दस त्रिक
16) कहानी विभाग E. पूजा संबंधी उपयोग
1. हरिशचन्द्र को शमशान में क्यों रहना पडा
2. आलोचना ने लेने से दुःखी बने श्रीपाल राजा 4) ज्ञान
3. चोरी की सजा व देवकी माता A. ज्ञान के पाँच प्रकार
4. ढंढण कुमार और अंतराय B. ज्ञान संबंधी विनय-विवेक
5. अंजना सुन्दरी दुःखी क्यों हुई 5) नवपद
6. श्री स्थूलिभद्र मुनि
7. मदनरेखा A. सिद्ध के 8 गुण
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17) प्रश्नोत्तरी 6) नाद, घोष
18) सामान्य ज्ञान 7) मेरे गुरू
1. क्या आप जानना चाहेंगे 1. पंच महाव्रत धारी 2. साधुओं की वैयावच्च 3. दीक्षा की महत्ता 4. शासन प्रभावक आचार्य
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जैन तत्त्व दर्शन
1. तीर्थंकर परिचय
A. श्री 24 तीर्थंकर भगवान की जन्म नगरी, ऊँचाई,
तीर्थंकर
जन्म स्थल
शरीर प्रमाण
श्री ऋषभदेवजी
अयोध्या
श्री अजितनाथजी
अयोध्या
श्रावस्ती
अयोध्या
अयोध्या
कोशाम्बी
वाराणसी
चन्द्रपुरी
काकन्दी
क्र.
12
3
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22 23
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24
श्री संभवनाथजी
श्री अभिनन्दनस्वामीजी
श्री सुमतिनाथजी
श्री पद्मप्रभस्वामीजी
श्री सुपार्श्वनाथजी
श्री चन्द्रप्रभस्वामीजी
श्री सुविधिनाथजी
श्री शीतलनाथजी
श्री श्रेयांसनाथजी
श्री वासुपूज्य स्वामीजी
श्री विमलनाथजी
श्री अनन्तनाथजी
श्री धर्मनाथजी
श्री शांतिनाथजी
श्री कुंथुनाथजी
श्री अरनाथजी
श्री मल्लिनाथजी
श्री मुनिसुव्रतस्वामीजी
श्री नमिनाथजी
श्री नेमिनाथजी
श्री पार्श्वनाथजी
श्री महावीरस्वामीजी
भदिलपुर
सिंहपुरी
चंपापुरी
कंपिलाजी
अयोध्या
रत्नपुरी
हस्तिनापुर
हस्तिनापुर
हस्तिनापुर
मिथिला
गृ
मिथिला
सौरीपुर
वाराणसी
क्षत्रियकु
500 धनुष
450 धनुष
400 धनुष
350 धनुष
300 धनुष
250 धनुष
200 धनुष
150 धनुष
100 धनुष
90 धनुष
80 धनुष
70 धनुष
60 धनुष
50 धनुष
45 धनुष
40 धनुष
35 धनुष
30 धनुष
25 धनुष
20 धनुष
15 धनुष
10 धनुष
9 हाथ
7 हाथ
आयुष्य
आयुष्य
84 लाख पूर्व
72 लाख पूर्व
62 लाख पूर्व
50 लाख पूर्व
40 लाख पूर्व
30 लाख पूर्व
20 लाख पूर्व
10 लाख पूर्व
2 लाख पूर्व
1 लाख पूर्व
84 लाख वर्ष
72 लाख वर्ष
60 लाख वर्ष
30 लाख वर्ष
10 लाख वर्ष
1 लाख वर्ष
95 हजार वर्ष
84 हजार वर्ष
55 हजार वर्ष
30 हजार वर्ष
10 हजार वर्ष
1000 वर्ष
100 वर्ष
72 वर्ष
7
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जैन तत्त्व दर्शन
समवसरण
नापन
AN
Mu
Ta
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_जैन तत्त्व दर्शन
B.समवसण 1. अरिहंत भगवान समवसरण में देशना देते है। 2. उसमें तीन गढ़ (तीन फ्लोर) होते है। 3. नीचे पहला गढ़ चाँदी का होता है। 4. दूसरा गढ़सोने का होता है। 5. तीसरा गढ़ रत्नों का होता है। 6. नीचे पहले गढ़ में आए हुए श्रोताओं के वाहनो की पार्किंग व्यवस्था रहती है। 7. दुसरेगढ़ में जिन वाणी सुनने आये हुए पशु-पक्षीओं की व्यवस्था रहती है। 8. तीसरे गढ़ में देव और मानवों की व्यवस्था होती है। 9. तीसरे गढ़ के बीच मे प्रभुसे 12 गुना ऊँचा अशोक वृक्ष होता है। 10. अशोकवृक्ष के नीचेस्वर्णका सिंहासन होता है। 11. सुवर्ण सिंहासन के उपर प्रभु देशना देने के लिये बैठते है। 12. रत्न जडित पाद पीठ के उपर प्रभुपैर रखते है। 13. प्रभु के आँजुबाजु मे देवता चामर ढोलते है। 14. प्रभुके मस्तक के पीछे सूर्य से भी ज्यादा तेजस्वी भामण्डल होता है। 15. प्रभु के मस्तक के उपर पिरामिड के आकर के तीन छत्र होते है। 16. आकाश में से देवता सुगंधी पुष्पों की वृष्टि करते है। 17. प्रभु की देशना प्रारंभ होने से पहले सबको समाचार (ळपीरींळेप) पहुँचाने के लिये आकाश में से
देवता देवदुंदुभी-नगाडे बजाकर घोषणा करते है। 18. प्रभुमालकोष राग में देशना देते है। 19. देव वाजिंत्र मंडली, प्रभु की देशना में संगीत का सुर पूरने के लिये आकाश में दिव्य ध्वनी करती है। 20. पूर्व दिशा में बैठकर अरिहंत प्रभु देशना देते है। 21. समवसरण के पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा में देवता रचित प्रभु बिंब (प्रतिमा) होती है, वे साक्षात् प्रभु
समान ही दिखाई देती है। 22. प्रभु की देशना सुनने आए जन्म जात वैरी पशु-पक्षी (चूहा-बिल्ली, मोर-सांप) वगैरह भी अपने वैर
भुलाकर शांत हो जाते है, वहाँ झगडते नही है। 23. तीसरेगढ़ में देव मानवो की कुल बारह पर्षदायें होती है। 24. प्रभु की देशना 1 योजन (12 कि.मी.) तक एक समान सुनाई देती है। 25. प्रभु की देशना सबको अपनी-अपनी भाषा में सुनाई पडती है। 26. प्रभु की देशना मे सबको ऐसा लगता है कि प्रभु मेरी ही भाषा में मेरी शंका का समाधान कर रहे है। 27. प्रभु की वैराग्यमय देशना सुनकर बडे-बडे राजा महाराजा भी वहीं पर दीक्षा लेते है।
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जैन तत्त्व दर्शन
अरिहंत भगवान के अष्ट प्रतिहार्य
आत
अष्ट महाप्रातिहार्य सह तीर्थकर देवों के विहार की झलक
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जैन तत्त्व दर्शन
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2.
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6.
प्रभु की दाढी, मूंछ, बाल, नाखून कभी बढ़ते नही है ।
कम से कम एक करोड देवता हमेशा रात-दिन प्रभु के चरणों मे हाजिर रहते है ।
प्रभु का रूप इतना सुंदर होता है कि इन्द्र जैसे इन्द्र भी प्रभु को देखते ही रहते है ।
भगवान जहाँ भी जाते है वहाँ 125 योजन तक किसी भी प्रकार की किसी को बीमारी नहीं होती हैं ।
10. अतिवृष्टि (ज्यादा बारीश होना) नही होती हैं ।
11. अनावृष्टि (बारीश नहीं होना, बारीश एकदम कम होना) नही होती हैं ।
12. दुष्काल (बारीश नही होने से जल भंडार - तालाब नदी सूख जाते है, अन्न-पानी का संकट खड़ा हो
जाता हैं) नही होता हैं ।
7.
8.
C. अरिहंत भगवान के अष्ट प्रतिहार्य
9.
प्रभु जब विहार करते है, तब सब वृक्ष नमन करते है ।
कांटे उलटे हो जाते है ।
पक्षी प्रदक्षिणा देते है ।
आठ प्रतिहार्य आकाश में साथ में चलते है ।
देवता नौ सुवर्ण कमल की रचना करते है, उनके उपर ही प्रभु चलते है। प्रभु केवलज्ञान के बाद कभी जमीन पर पैर नही रखते, क्योंकि जहाँ पर पैर रखते हैं वहाँ नौ सुवर्ण कमल एक के बाद एक आ
जाते हैं। लक्ष्मी स्वयं कमल बनकर प्रभु के चरणों मे रहती हैं।
13. छह ऋतुयें एक साथ रहती है।
14. रोगी - निरोगी बन जाते है ।
15. सूखे बाग-बगीचे फल-फूल से लद जाते हैं ।
16. युद्ध वगैरह नहीं होते ।
17. भूकंप, जल प्रलय (सुनामी) आदि प्राकृतिक विपत्तियाँ नहीं आती हैं।
18. प्रभु के आगे धर्मचक्र चलता है ।
परमात्मा को इतना सब क्यों मिला ? तो उसका कारण है, प्रभु पूर्व के भव में सभी को संसार सागर से तारने की भावना भायी थी ।
यदि आपको भी भगवान बनना है, तो आज से सभी जीवों को अपने समान समझो और दुःखीयों को देखकर हदय में करुणा (दया) लाओ । किसी से द्वेष मत करो ।
11
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जैन तत्त्व दर्शन
2. काव्य संग्रह
A. प्रार्थना हे शारदे माँ, हे शारदे माँ, अज्ञानता से हमे तार दे माँ... तू स्वर की देवी, ये संगीत तुझसे,
हर शब्द तेरे, हर गीत तुझसे, हम हैं अकेले, हम हैं अधूरे,
तेरी शरण में, हमे प्यार दे माँ हे शारदे माँ.. || 1 || मुनियों ने समझी, गुणियों ने जानी,
संतों की भाषा, आगमों की वाणी, हम भी तो समझे, हम भी तो जाने,
_ विद्या का हमको अधिकार दे माँ हे शारदे माँ.. || 2 || तू श्वेतवर्णी, कमल पे विराजे,
- हाथों में वीणा, मुकुट सर पे छाजे, मन से हमारे, मिटा दे अंधेरे,
हम को उजालों का परिवार दे माँ हे शारदे माँ.. || 1 ||
B. प्रभु स्तुतियाँ अद्य मे सफलं जन्म, अद्य मे सफला क्रिया, अद्य मे सफलं गात्रं, जिनेन्द्र तव दर्शनात् ।।
**** हे देव ! तारा दिलमां, वात्सल्यनां झरणां भर्या, हे नाथ! तारां नयनमां. करुणा तणा अमतभर्या । वीतराग तारी मीठी-मीठी, वाणी मां जादू भर्या, तेथी ज तारा चरण मां बालक बनी आवी चढया ।।
**** में दान तो दीधुं नहीं ने शियल पण पाल्युं नहीं, तप थी दमी काया नहीं, शुभभाव पण भाव्यों नहीं।
ए चार भेदे धर्ममाथी कांई पण प्रभु नव कर्यु, मारुं भ्रमण भवसागरे निष्फल गयुं निष्फल गयुं ।।
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जैन तत्त्व दर्शन
हुं क्रोध अग्निथी बल्यो, वली लोभ सर्प डश्यो मने, गल्यो मानरुपी अजगरे, हुं केम करी ध्यावं तने ?
मन मारुं मायाजालमां मोहन ! महा मुंझाय छे, चडी चार चोरो-हाथमां चेतन घणो चगदाय छे ||
जिने भक्ति र्जिने भक्ति, जिने भक्ति दिने दिने, सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु, सदा मेऽस्तु भवे भवे ||
भवो भव तुम चरणोनी सेवा, हुं तो मांगु छु देवाधिदेवा सामु जुओने सेवक जाणी ऐवी उदयरत्ननी वाणी
C. श्री चैत्यवंदन संग्रह 1. श्री सीमंधर स्वामी का चैत्यवंदन श्री सीमंधर वीतराग, त्रिभुवन तुमे उपकारी, श्री श्रेयांस पिता कुले, बहु शोभा तुमारी || 1 || धन्य धन्य माता सत्यकी, जेणे जायो जयकारी, वृषभलंछने बिराजमान, वंदे नर नारी।। 2 ||
धनुष पांचशे देहडी ए, सोहिए सोवनवान, कीर्ति विजय उवज्झायनो, विनय धरे तुम ध्यान ।। 3 ।।
2. श्री शचुंजय तीर्थ का चैत्यवंदन
श्री शत्रुजय सिद्धक्षेत्र, दीठे दुर्गति वारे। भाव धरीने जे चढे, तेने भवपार उतारे|| 1 ||
अनंत सिद्धनो एह ठाम, सकल तीरथनो राय। पूर्व नवाणुं रिखवदेव, ज्यां ठविआ प्रभु पाय || 2 ||
सूरजकुंड सोहामणो, कवडजक्ष अभिराम | नाभिराया कुलमंडणो, जिनवर करुं प्रणाम || 3 ||
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जैन तत्त्व दर्शन
सुणो. || 1 ||
सुणो. ।। 2 ||
D. श्री स्तवन संग्रह
1. श्री सीमंधर स्वामी का स्तवन सुणो चंदाजी। सीमंधर परमातम पासे जाजो। मुज विनतडी, प्रेम धरीने एणीपरे तुम संभलावजो || जे त्रण भुवननो नायक छ, जस चोसठ इंद्र पायक छ। नाण-दरिसण जेहने खायक छ। जेनी कंचनवरणी काया छे, जस धोरी लंछन पाया छे, पुंडरीगिणी नगरीनो राया छ। बार पर्षदामांहि बिराजे छ, जस चोत्रीश अतिशय छाजे छे, गुण पांत्रीश वाणीए गाजे छ । भविजनने जे पडिबोहे छे, तुम अधिक शीतल गुण सोहे छे, रुप देखी भविजन मोहे छ। तुम सेवा करवा रसीओ छु, पण भरतमां दूरे वसीओ छु, महामोहरायकर फसीओ छु। पण साहिब चित्तमां धरीओ छे, तुम आणा खडग कर ग्रहीयो छे, तो कांइक मुजथी डरीयो छे। जिन उत्तम पूँठ हवे पूरो, कहे पद्मविजय थाउं शूरो तो वाधे मुज मन अतिनूरो।
सुणो. ।। 3॥
सुणो. ।। 4 ||
सुणो. ।। 5 ||
सुणो. || 6 ||
सुणो. ।। 7 ||
2. श्री शत्रुजय तीर्थ का स्तवन सिद्धाचलना वासी, विमलाचलना वासी, जिनजी प्यारा, आदिनाथ ने वंदन हमारा........ प्रभुजीनुं मुखडु मलके, नयनों माथी वरसे, अमीरस धारा आदिनाथ. ।। 1 ।। प्रभुजीनुं मुखडु छे मनको मिलाकर, दिल में भक्ति की ज्योत जगाकर, भजले प्रभुने भावे, दुर्गति कदी न आवे, जिनजी प्यारा,
आदिनाथ. || 2 ||
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जैन तत्त्व दर्शन
मी लाख चौराशी हूँ आव्यो, पुण्ये दर्शन तमारा हु पाम्यो, धन्य दिवस मारो, भवना फेरा टालो, जिनजी प्यारा ।
अतो मायाना विलासी, तुमे छो मुक्ति पुरीना वासी, कर्मबंधन कापो, मोक्ष सुख आपो, जिनजी प्यारा ।
आदिनाथ ॥ 3 ॥
आदिनाथ. ॥ 4 ॥
अरजी माँ धरजो हमारी, अमने आशा छे प्रभुजी तमारी,
कहे हर्ष हवे, साचा स्वामी तमे, पूजन करीये अमें, जिनजी प्यारा । आदिनाथ. ।। 5 ।।
E. श्री स्तुति संग्रह
1. श्री सीमंधर स्वामी जिन स्तुति
सीमंधर जिनवर, सुखकर साहिब देव, अरिहंत सकलनी, भाव धरी करूं सेव ॥ सकलागम पारग, गणधर भाषित वाणी, जयवंती आणा, ज्ञानविमल गुण वाणी ॥
2. श्री शत्रुंजय तीर्थ स्तुति
सिद्धाचल मंडण ऋषभ जिणंद दयाल, मरुदेवा नंदन, वंदन करु त्रण काल । ए तीरथ जाणी, पूर्व नवाणुं वार, आदीश्वर आव्या, जाणी लाभ अपार ॥
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जैन तत्त्व दर्शन
3. जिन पूजा विधि A. अष्टप्रकारी पूजा के दोहे, श्लोक एवं रहस्य
(1) जल पूजा जल पूजा का रहस्य
जल द्वारा प्रभुजी का पक्षाल होता है और कर्म हमारी आत्मा पर से दूर हो जाते है
जलपूजा जुगते करो, मेल अनादि विनाश, जलपुजा फल मुज हजो, माँगु ओम प्रभु पास || ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरूषाय परमेश्वराय जन्म-जरामृत्यु-निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा । (दूध का पक्षाल करते समय बोलना)।
मेरू शिखर मेरू शिखर न्हवरावे हो, सुरपति मेरू शिखर न्हवरावे, जन्मकाल जिनवरजी को जाणी, पंचरूपे करी आवे || रत्नप्रमुख अडजातिना कलशा, औषधि चूरण मिलावे,
क्षीर समुद्र तीर्थोदक आणी, स्नात्र करी गुण गावे || अणी परे जिन प्रतिमा को न्हवण करी, बोधिबीज मानु वावे, अनुक्रमे गुण रत्नाकर फरसी, जिन उत्तम पद पावे ||
ज्ञान कलश भरी आतमा, समता रस भरपूर, श्री जिन ने नवरावता, कर्म थाये चकचूर ।।
भावना: हे प्रभु! आप तो स्वयं शुद्ध हो। आपको स्नान करा कर मैं अपनी अशुद्धि दूर कर रहा हूँ। दोषों से मलिन मेरी आत्मा को यह जलधारा स्वच्छ बना रही है। प्रभु! आपकी देह पर बह रहा यह झरना मेरी आत्मा में समता रस का अमृत झरना प्रवाहित कर रहा है।
आपका अभिषेक कर के हे प्रभु! मेरे हृदय-सिंहासन पर सम्राट के रूप में मै आपको प्रतिष्ठित करना चाहता हूँ क्योंकि अब मैनें अपने हृदय-सिंहासन पर आज तक स्थापित मोह राजा को बिदाईदे दी है। तो अब हे प्रभु ! आप मेरे हृदय में पधारिए और सिंहासन को सुशोभित किजिए! और मुझे मेरे आत्महितार्थसंयममार्गी बनाइए।
सचित्त जल द्वारा की जाती यह पूजा मुझे जलकाय ही नहीं, षट्काय की हिंसा से भी मुक्ति दिलाएगी ही, ऐसा विश्वास है!
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जैन तत्त्व दर्शन
(2) चंदन पूजा
चंदन पूजा का रहस्य
इस पूजा द्वारा हमारी आत्मा चंदन जैसी शांत और शीतल बने।
शीतल गुण जेमा रह्यो, शीतल प्रभु मुख रंग, आत्म शीतल करवा भणी, पूजो अरिहा अंग ||
ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु-निवारणाय
श्रीमते जिनेन्द्राय चंदनं यजामहे स्वाहा ।
भावना हे प्रभु! विश्व के सर्वशीतल पदार्थों में सर्वश्रेष्ठ है चंदन | और समस्त गुणों में सर्वश्रेष्ठ है समता |
तेरी इस चंदन पूजा द्वारा मुझे मेरी आत्मा को शीतल बनाना है। चंदन सबसे अधिक शीतल है और मैं अधिक संतप्त।समता सर्वोत्कृष्टगुण है और सर्वोत्कृष्टसमता का स्वामी तू है।
हे प्रभु ! मन की अस्वस्थता, तन की पीड और धन की चिंता इस त्रिविध अग्नि से दग्ध मेरी आत्मा को ठंडक प्रदान कर! विषय सुखों की मेरी अग्नि को बुझा दे! कषायों से दहकते मेरे हृदय को शांत बनादे! मुझे श्रद्धा है कि मेरी यह चंदन पूजा, जो संपूर्ण जगत को शांत, प्रशांत और उपशान्त करने में समर्थ है। मुझे भी अवश्य शांत बनायेगी। हृदय में शांत एवं प्रशांत बनने का एकमात्र उपाय चंदन पूजा ही तो है।
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जैन तत्त्व दर्शन
(3) पुष्प पूजा
पुष्प पूजा का रहस्य
इस पूजा द्वारा हमारा जीवन पुष्प जैसा सुगंधित बने और सद्गुणों से सुवासित बने।
सुरभि अखंड कुसुम ग्रही, पूजो गत संताप सुमजंतु भव्य ज परे, करिये समकित छाप ।।
ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु-निवारणाय
श्रीमते जिनेन्द्राय पुष्पं यजामहे स्वाहा।
भावना हे प्रभु! नंदनवन के पुष्प तो मैं नही ला सका पर ये जो भी सुगंधित, सप्तरंगी पुष्प ले आया हुँ उनको स्वीकार कीजिए । भले श्रेष्ठ पुष्प को तो मैं नही ला पाया परंतु श्रेष्ठ भाव तो अवश्य ले कर आया हुँ | इस पुष्प पूजा द्वारा मेरी एक ही प्रार्थना है कि अनादिकाल से मिथ्यात्व रूपी दुर्गंध से व्याप्त मेरी आत्मा सम्यग्दर्शन की सुगंध से महक उठे।
हे प्रभु ! मैं तेरी प्रतिमा पर सुगंध फैला रहा हूँ। तू मेरे हृदय में तेरी भक्ति की सुगंध फैला दे। मेरे भीतर रहे दोषों और दुर्गुणों की दुर्गंध दूर कर पाऊँ और सद्गुणों की सुगंध पा सकूँ ऐसा सामर्थ्य मुझे
प्रदान कर।
हे प्रभु ! समस्त सृष्टि को सुवासित कर सके, तेरा तो ऐसा सामर्थ्य है-पर मेरी प्रार्थना तो मात्र इतनी है कि मैं केवल स्वयं को ही सद्गुणों से सुवासित कर सकूँ ऐसी शक्ति तो मुझे दे दो। पुष्प पूजा करने वाले नागकेतु को आपने केवलज्ञान दिया-मुझे समयक्त्व तो देदो प्रभु।
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(4) धूप पूजा
धूप पूजा का रहस्य
इस पूजा द्वारा धूप की घटा जैसे ऊँचे जाती है, वैसे ही हमारी आत्मा उच्चगति को प्राप्त करे
ध्यान घटा प्रगटावीये, वाम नयन जिन धूप मिच्छत दुर्गंध दूरे टले, प्रगटे आत्म स्वरूप ।। (अमे धूप नी पूजा करीये रे, ओ मन मान्या मोहनजी प्रभु धुप घटा अनुसरीये रे, ओ मन मान्या मोहनजी प्रभु नहीं कोई तमारी तोले रे, ओ मन मान्या मोहनजी प्रभु अंते छे शरण तमारूं रे, ओ मन मान्या मोहनजी)
ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरूषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु __ निवारणाय, श्रीमते जिनेन्द्राय धुपं यजामहे स्वाहा ।
भावना
हे प्रभु! धूप से निकलती ये धूम्र घटायें जैसे ऊपर ही ऊपर जा रही है वैसे ही मुझे भी उर्ध्वगामी बनना है। इन धूम्रघटाओं जैसा ही पवित्र और सुगंधित मुझे बनना है।
अभी हे प्रभु! इस धूप के समान मेरे अष्टकर्म भी सुलग रहे हैं। और इस मंदिर की तरह मेरा आत्म मंदिर भी सम्यक्त्व की सौरभ से महक रहा है।
इस धूप को देखता हुँ और प्रभु! मुझे आपका साधनामय जीवन याद आता है। तप की अग्नि की ज्वाला को झेल कर आप ने इस जगत को महक प्रदान की है। इस धूप पूजा के प्रभाव से, हे प्रभु! मुझे भी आप जैसी "सर्वजीव करूं शासन रसी" की भावना और उस भावना को सार्थक कर दे ऐसी साधना करने की शक्ति दे। इसके अलावा मुझे कुछ नहीं चाहिए। मेरा आत्म स्वरूप प्रकट कर सकूँ और अनेकों को उसकी सुगंध दे सकूँ। ऐसी ध्यानदशा की मुझे भी पाने की इच्छा है।
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जैन तत्त्व दर्शन
(5) दीपक पूजा
दीपक पूजा का रहस्य
इस पूजा द्वारा मेरी आत्मा के अज्ञान रूपी अंधकार का नाश हो और ज्ञानरूपी दीपक का प्रकाश हो।
दव्य दीप सुविवेकथी, करतां दुःख होय फोक भाव प्रदीप प्रगट हुए, भासित लोका लोक ||
ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरुषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्युनिवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय दीपं यजामहे स्वाहा।
भावना
हे प्रभु! आप श्री तो स्वयं विश्वदीपक हो। फिर भी आप के सम्मुख यह द्रव्यदीपक प्रज्ज्वलित कर मैं अपने हृदय में भाव दीपक प्रज्वलित करना चाहता हूँ। इस भावदीपक की ज्योति का स्पर्श मेरी आत्मा को करा दो। मेरी आत्मा में भी भावदीपक की भव्य ज्योति प्रज्ज्वलित कर दो। आप को प्राप्त हुए केवलज्ञान का अनंत प्रकाशपुंज मुझे भी प्राप्त हो ऐसी प्रार्थना करता हूँ।
आप के मंदिर में उजाला करके हे प्रभु! मैं इतना ही चाहता हुँ कि मेरे हृदयमंदिर में भी उजाला फैले। ऐसा उजाला कि जो अनादिकाल से व्याप्त अंधकार का पल भर में नाश कर दे और उस उजाले में समस्त लोकाकाशतथा अलोकाकाश दैदीप्यमान हो जावे।
कम से कम, हे प्रभु, अच्छे-बुरे का स्पष्ट विवेक रख सकु उतना प्रकाश तो आज फैला ही दीजिए मेरे अंतःकरण में।
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जैन तत्त्व दर्शन
(6) अक्षत पूजा
अक्षत पूजा का रहस्य
अजरामर, अक्षय पद प्राप्त करने की पूजा अर्थात् अखंड अक्षत पूजा ।
शुद्ध अखंड अक्षत ग्रही, नंदावर्त विशाल पूरी प्रभु सन्मुख रहो, टाली सकल जंजाल ||
ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरूषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु-निवारणाय
श्रीमते जिनेन्द्राय अक्षतं यजामहे स्वाहा।
भावना
हे प्रभु! शुद्ध,अखंड और अक्षत ऐसा मुक्ति सुख प्राप्त करने की अभिलाषा से आज आपके समक्ष मैं शुद्ध और अखंड ऐसे अक्षत ले कर आया हुँ। चार गति का अनंत-अनंत परिभ्रमण कर अब मैं थक गया हुँ। अब मुझे शाश्वत पद प्राप्त करना है। जहाँ आप पहुँच चुके हैं वहाँ मुझे पहुँचना है। आपजैसा मुझे भी शुद्ध अक्षय बन जाना है। इस अक्षत के समान मुझे भी अब जन्म नहीं लेना है। जन्म-मरण की यह जंजाल अब मुझे तोडनी है। और इस हेतु तेरी कृपा प्राप्त करने आज तेरे पास आया हूँ। यह अक्षतपूजा इस उद्देश्य से ही कर रहा हूँ।
हे प्रभु! मुझे सम्यग्दर्शन दीजिए! हे प्रभु! मुझे सम्यग्ज्ञान दीजिए!
हे प्रभु! मुझे सम्यग्चारित्र दीजिए! आप मुझे य हरत्नत्रयी प्रदान कीजिए! उसके बाद तो जो मुझे प्राप्त करना है स्वयंमेव प्राप्त हो जायेगा | मैं भी अक्षय बन जाने वाला हुँऔर आपही के समीप, आपके पास बैठ जाने वाला हुँ।
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जैन तत्त्व दर्शन
(7) नैवेद्य पूजा नैवेद्य पूजा का रहस्य
इस पूजा के द्वारा
अनंतकाल की मेरी आहार की संज्ञाओं का नाश हो और अनाहारी पद की प्राप्ति हो।
अणहारी पद में कर्या, विग्गह गईय अनंत दूर करी ते दीजिये, अणहारी शिव संत ||
ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरूषाय परमेश्वराय जन्म-जरा-मृत्यु-निवारणाय
श्रीमते जिनेन्द्राय नैवेद्यं यजामहे स्वाहा।
भावना हे प्रभु ! चौरासी लाख योनि के परिभ्रमण में भटकते भटकते जब जब में एक जन्म पूर्ण कर दूसरे जन्म को प्राप्त करता था, एक शरीर को त्याग कर अन्य शरीर को प्राप्त करता था तब बीच बीच में एकाध दो समय मैं अनाहारी रहा हुँ। अन्यथा इस भवचक्र में मैने बेहिसाब खाया है। पल पल आहार की लालसा मुझे सताती है। क्या भक्ष्य है और क्या अभक्ष्य, कब खाना चाहिए और कब नहीं ऐसे विचार किए बिना कुछ भी, कभी भी मैं खाते ही रहा हूँ। तथापिहे प्रभु! मेरी क्षुधा यथावत है। मेरी आहार संज्ञा यथावत
है।
हे प्रभु! अब ऐसी कृपा बरसाइये कि मेरी आहार संज्ञा और स्वादलालसा का एक झटके से नाश हो जावे | बस, इसी एक मनोकामना से आज आपके समक्ष यह नैवेद्य ले कर आया हुँ। मुझे भी आपजैसा ही बिना स्वाद का, पर रसमय बना दो, हे प्रभु!
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जैन तत्त्व दर्शन
(8) फल पूजा
फल पूजा का रहस्य
इस पूजा के द्वारा श्रेष्ठ ऐसे मोक्ष फल की प्राप्ति हो।
इंद्रादिक पूजा भणी, फल लावे धरी राग पुरूषोत्तम पूजी करी, मांगे शिव फल त्याग ||
ॐ ह्रीं श्रीं परमपुरूषाय परमेश्वराय जन्म-जरा मृत्यु-निवारणाय श्रीमते जिनेन्द्राय फलं यजामहे स्वाहा।
भावना हे प्रभु! आपकी ये समस्त पूजा करके मुझे कुछ प्राप्त तो करना ही है। किसी फल की चाहत से मैं यह सब कुछ कर रहा हुँऔर वही दर्शाने अभी यह फल लाया हूँ। मुझे चाहिए प्रभु ! मोक्षफल ! उससे कम मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। पत्र-पुष्प तो अनंत जन्मों में अनंत बार आपके प्रभाव से मुझे मिले हैं। अन्य सुख-सुविधाओं का तो मैने बहुत उपयोग किया है,
और इस कारण ही आपके समक्ष मोक्षफल की कामना व्यक्त कर रहा हूँ। और जब तक मुझे मोक्षफल प्राप्त न हो तब तक जनम जनम मुझे तेरी कृपा चाहिए। वह तो चाहिए ही। आज भी हे प्रभु! तेरी कृपा के झरने में स्नान और पान कर जिस मिठास और ताजगी की
अनुभूती होती है वैसी अनुभूति दुनिया के किसी और फल में या जल में नहीं होती। मुझे दृढ विश्वास है कि मेरी इस फल पूजा को तू असफल नहीं होने देगा। मोक्षफल को प्राप्त कराने वाली तेरी कृपा का स्वाद मुझे जन्मोजन्म तक मिलता रहे ऐसी कृपा करना।
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जैन तत्त्व दर्शन
B. नवांगी पूजा के दोहे, रहस्य
: जल भरी संपुट पत्रमा, युगलिक नर पूजत ऋषभ चरण अंगुठडे, दायक भवजल अंत ॥1॥
हे प्रभु! आपके अभिषेक हेतु युगलिक जब पत्र संपुट में पानी भर लाए तब तक आपको इन्द्र ने भक्तिपूर्वक वस्त्राभूषण से सज्जित कर दिया था । यह देख विनीत युगलिकों ने प्रभु के चरणों की जल से पूजा की। इसी प्रकार मैं भी आपके चरणों को पूजकर भवजल का अंत चाहता हूँ ।
2. जानु
: जानु बले काउस्सग्ग रह्या, विचर्या देश विदेश
1. चरण
खड़ा खड़ा केवल लघुं, पूजो जानु नरेश 121
हे प्रभु! आपने इस जानु बल से काउस्सग्ग किया, देश-विदेश में विचरण किया और खड़े-खड़े ही आपने केवल ज्ञान प्राप्त किया । आपकी इस जानु पूजा के प्रभाव से मेरे भी जानु में वह ताकत प्रगट हों । लोकांतिक वचने करी, वरस्या वरसीदान
T 3. हाथ के कांडे :
कर कांडे प्रभु पूजना, पूजो भवी बहुमान ॥3॥
हे प्रभु! लोकांतिक देवों के वचन से आपने इन हाथों से वर्षीदान दिया, आपकी इस पूजा के प्रभाव से मैं आपके समान वर्षीदान देकर संयम को स्वीकार करूँ ।
4. खंभे (कंधा) :
मानगयुं दो अंश थी, देखी वीर्य अनन्त
भुजा बले भव जल तर्या, पूजो खंध महंत ॥ 4 ॥
प्रभु! आपके अनंत वीर्य (शक्ति) को देखकर अहंकार दोनों कंधों में से निकल गया एवं इन भुजाओं के बल से आप भव जल तिर गये उसी प्रकार आपकी पूजा के प्रभाव से मेरा भी अहं चला जाए एवं मेरी भी भुजाओं में संसार को तिर जाने की ताकत प्राप्त हो ।
5. शिखा
:
सिद्धशिला गुण उजली, लोकांते भगवंत
वसिया तिणे कारण भवि, शिरशिखा पूजत ॥15॥
उज्जवल स्फटिक वाली सिद्धशिला के ऊपर लोकांत भाग में आप जा बसे हैं अतः मुझे भी वह स्थान प्राप्त हो, इस भावना से मैं आपकी शिखा की पूजा करता हूँ ।
6. ललाट
:
तीर्थंकर पद पुण्यथी, त्रिभुवन जन सेवंत
त्रिभुवन तिलक समा प्रभु, भाल तिलक जयवंत |16||
हे प्रभु! आप तीर्थंकर नाम कर्म के उदय से तीन लोक में पूज्य बनने से तीन लोक के तिलक समान हो, इसलिये आपके भाल में तिलक कर मैं भी अपना भाग्य आजमाना चाहता हूँ ।
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जैन तत्त्व दर्शन
7.कंठ
: सोल प्रहर प्रभु देशना, कंठे विवर वर्तुल
मधुर ध्वनि सुर नर सुणे, तेणे गले तिलक अमूल ||7|| हे प्रभु! आपने सतत 16 प्रहर तक मधुर ध्वनि से देशना दी। देव मनुष्य ने वह देशना सुनी। आपकी कंठपूजा के प्रभाव से मुझे भी सत्पुरुषों के गुणगान करने का सौभाग्य प्राप्त हो। 8.हृदय
: हृदय कमल उपशम बले, बाल्या राग ने रोष
___ हिम दहे वनखंड ने, हृदय तिलक संतोष ||8|| हे प्रभु! जिस प्रकार हिम (बर्फ) वनखंड को जमा देता है, उसी प्रकार आपने हृदय कमल के उपशम भावरूपी बर्फ (करा) से राग-द्वेष रूपी वनखंड को जमा दिया है। आपके ऐसे हृदय की पूजा से मुझे जीवन में संतोष गुण की प्राप्ति हो। 9.नाभि
: रत्नत्रयी गुण उजली, सकल सुगुण विसराम
नाभि कमल नी पूजना, करतां अविचल धाम ।।७।। हे प्रभु! ज्ञान-दर्शन चारित्र से उज्जवल बनी, सकल सद्गुणों के निधान स्वरूप आपके नाभि कमल की पूजा से मुझे अविचल धाम अर्थात् मोक्ष सुख की प्राप्ति हो। 10.नवअंग का महत्व : उपदेशक नव तत्त्वना, तेणे नव अंग जिणंद
पूजो बहुविध राग थी, कहे शुभवीर मुणिंद ||10| प्रभु ने नवतत्त्वों का उपदेश दिया । इसलिये प्रभु के नवअंग की पूजा बहुमानपूर्वक करनी चाहिये । प्रभु की पूजा से अपने अंदर नव तत्त्वों के हेयोपादेय का ज्ञान होता है।
C. परमात्मा कौन? जो सभी को सच्चा सुख का मार्ग बताते हैं वे ही भगवान बनते हैं। दुनिया में बहुत सारे देवीदेवता हैं तो सच्चे भगवान कौन हो सकते हैं? आपही परीक्षा करो... प्रश्न 1 : जो शस्त्रधारी होते हैं, क्या वे भगवान हो सकते हैं? उत्तर : नहीं...क्योंकि उनसे तो हमें डर लगता है। शस्त्र द्वेष का प्रतीक है। द्वेषी व्यक्ति हमें सुख नहीं
देसकता। प्रश्न 2 : जोस्त्री को अपने पास रखते हैं, क्या वे भगवान हो सकते हैं? उत्तर : नहीं...क्योंकि स्त्री राग का कारण है, जो एक से राग करता है, वह सभी को समान दृष्टि से
नहीं देख सकता। प्रश्न 3 : सब जीव को सुख देने वाले भगवान कौन हो सकते हैं ? उत्तर : जो राग-द्वेष रहित हो, जिसको देखते ही मन खुश हो जाय, जो हमारे विषय-कषाय को
नाश कर हमारा सच्चा हित करे ऐसे वीतराग प्रभु ही सच्चे देव हो सकते हैं।
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जैन तत्त्व दर्शन
प्रश्न 4 : अपने भगवान सबसे महान् क्यों हैं ? उत्तर : क्योंकि दुनिया के सभी देवी-देवता के स्वामी जो 64 इन्द्र हैं वे भी प्रभु के दास बनकर सेवा
करते हैं। प्रश्न 5 : प्रभुकी इन्द्रादिदेव सेवा क्यों करते हैं? उत्तर : क्योंकि प्रभु ने पूर्वभव में "सवि जीव करूँ शासन रसी" की शुभ भावना से तीर्थंकर नाम कर्म
उपार्जित किया था | उस साधना में प्रभु ने सतत सब जीवों को तारने की शक्ति उपार्जित की है। इन्द्र महाराजा जानते हैं कि इनकी सेवा से ही शाश्वत सुख मिल सकता है।
इससे यह ज्ञात होता है कि प्रभुही सब सुख देते हैं। प्रश्न 6 : सब भगवान के फोटो सामने रखो, तो सबसे शांत स्वरूप किसका लगेगा ? उत्तर : वीतराग प्रभु ही सबसे शांत मुद्रा वाले हैं। जिनको देखते ही मस्तक झुक जाता है और वे
ही माध्यस्थ भाव वाले होने से बिना पक्षपात सबके लिए समान हितकारी हो सकते हैं। प्रश्न 7 : भगवान सबके लिए हितकारी हैं तो हमें मोक्ष क्यों नहीं देते?
भगवान तो हमें मोक्ष देने के लिए तैयार हैं लेकिन जब तक हम संसारका पक्षपात एवं उसकी
पकड़ नहीं छोड़ते तब तक हमें मोक्ष नहीं मिलता। प्रश्न 8 : संसारका पक्षपात कैसे छूट सकता है ? उत्तर : सब जीवों के साथ मित्रता रखने से संसार का पक्षपात छूट सकता है। प्रश्न : क्या ईश्वर ने यह जगत बनाया है ? उत्तर : जैन दर्शन के अनुसार ईश्वर जगत को बनाते नहीं है। क्योंकि अगर ऐसा माना जाय कि
ईश्वर जगत को बनाते हैं तो निम्न उलझनें पैदा होती है:(अ) ईश्वर ने बनाया तो कहाँ बैठकर बनाया ? ईश्वर को किसने बनाया ? (आ) ईश्वर का शरीर कहाँ से आया ? ईश्वरने हिंसक कसाइयों को क्यों बनाया ? (इ) ईश्वर ने यह विश्व क्यों बनाया ? ईश्वरने नरक आदिदुर्गति क्यों बनाई ? (ई) विश्व बनाया तो सबको सुखी, ज्ञानी, सुंदर, धनवान क्यों नहीं बनाया ? विश्व में विचित्रता क्यों की? (उ)अतःजगत को बनानेवाला ईश्वर नहीं है। ईश्वर तो जगत को बताने वाले हैं। भगवान जगत के कर्ता या सर्जक नहीं है परंतु ज्ञाता, दृष्टा और दर्शक है।
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जैन तत्त्व दर्शन
D.दस त्रिक 1. निसीहि त्रिक:
(1) मंदिर के मुख्य द्वार के पास - संसार संबंधी पाप त्याग के लिए। (2) गंभारे में प्रवेश समय - मंदिर संबंधी चिंता त्याग हेतु। (3) चैत्यवंदन के पूर्व - द्रव्य पूजा के त्याग हेतु। 2. प्रदक्षिण त्रिक:
(1) रत्नत्रयी की प्राप्ति के लिए। (2) प्रभु से प्रीत जोड़ने हेतु। (3) मंदिर की शुद्धि का ध्यान रखने के लिए।
3. प्रणाम निक: (1) प्रभु को देखते ही दो हाथ जोड़कर नमो जिणाणंकहना | (2) आधा शरीर झुकाकर प्रणाम करना। (3) खमासमणा देना (पंचांग प्रणिपात)।
4. पूजा त्रिक: (1) अंग पूजा (जल, चंदन, पुष्प) इससे विघ्न नाश होते हैं। (2) अव्य पूजा (धूप, दीप, अक्षत, नैवेद्य, फल) इससे भाग्योदय होता है। (3) भाव पूजा (चैत्यवंदन), इससे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
5. अवस्था त्रिक: (1) पिण्डस्थ - जन्म से लेकर दीक्षा तक की अवस्था का चिन्तन । (2) पदस्थ - समवसरण में बैठे प्रभु का चिन्तन | (3) रुपस्थ - रुप रहित सिद्ध अवस्था का ध्यान |
6. त्रि-दिशि-वर्जन त्रिक: प्रभु के सिवाय की तीन दिशा में देखने का त्याग।
7. प्रमार्जन त्रिक: चैत्यवंदन के पहले जमीन का तीन बार प्रमार्जन करना।
8. वर्णादि त्रिक:
(1) सूत्र आलम्बन - शुद्ध सूत्रों का उच्चारण करना। (2) अर्थ आलम्बन - अर्थ का चिन्तन करना। (3) प्रतिमा आलम्बन - प्रतिमा में उपयोग रखना।
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9. मुद्रा त्रिक: (1) योग मुद्रा - दोनों हाथ को कमल की नाल के समान एकत्रित कर कोहनी से पेट को स्पर्श करना एवं अंगुली को एक दूसरे के अंदर लगाना । चैत्यवंदन इस मुद्रा में बोलना चाहिए। (2) जिन मुद्रा - काउस्सग्ग के समय दो पैर के बीच आगे से चार अंगुल एवं पीछे चार अंगुल में कुछ कम जगह छोड़े तथा हाथ को लटकते हुए स्थिर रखना। (3) मुक्तासुक्ति मुद्रा-छीपकी तरह हथेली को चौडी करदो हाथ जोडकर ललाट पर लगाना | इस मुद्रा से जावंति-जावंत एवं जयवीयराय सूत्र की प्रथम दो गाथा बोली जाती है।
10. प्रणिधान त्रिक:
मन-वचन-काया की एकाग्रता रखना।
__E. पूजा संबंधी उपयोग 1) फणा को प्रभु का शिखा रूप अंग समझकर शिखा पूजा के साथ ही अनामिका अंगुली से पूजा
करना उचित है अथवा पूजा न करे तो भी चलेगा। 2) लांछन की एवं अष्ट मंगल की पूजा नहीं करना एवं परमात्मा के परिकर में रहे हुए देवी-देवता
की भी पूजा न करें। 3) सिद्धचक्रजी की पूजा के बाद भी अरिहंत की पूजा कर सकते हैं। 4) गौतमस्वामीजी की पूजा अनामिका अंगुली से ही करे। 5) देवी-देवता अपने साधर्मिक होनेसे उनकी अंगूठे से पूजा कर प्रणाम करें। परंतु वंदन ना करें। 6) मुखकोश बाहर ही नाक तक बांधकर फिर निसीहि बोलकर गंभारे में प्रवेश करें।
भाइयों को परमात्मा की पूजा धोती एवं खेस पहनकर, खेस से ही मुख बांधकर पूजा करनी
और 16 वर्ष के उपर की बहनें साड़ी पहनकर सिर ढककरही पूजा करें। 8) पुरुष परमात्मा के दांयी (Right Side) तरफ और स्त्री बांयी (Left Side) तरफ खड़े रहकर स्तुति,
दर्शन पूजा आदिकरें। 9) गंभारे या मंदिर से निकलते समय प्रभु को पीठ न पड़े, उसका ध्यान रखते हुए उल्टे पैर बाहर
निकले। 10) गंभारे में मौन रहे, दोहे मन में बोले, स्तवन एवं स्तुति अकेले बोले तो धीरे बोले। 11) प्रभु के विनय हेतु फल-फूल आदि पूजन सामग्री मंदिर में लेकर जाना, खाली हाथ नहीं जाना |
लेकिन अपने खाने की वस्तु लेकर नहीं जाना ।
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मामास
4.ज्ञान
A. ज्ञान के पाँच प्रकार ___ 1. मतिज्ञान : मन एवं पांच इन्द्रिय से होनेवाले सामान्य ज्ञान को मतिज्ञान कहते है। 1. 2. श्रुतज्ञान : शास्त्र आदि को सुनने से, पढ़ने से, शब्द एवं अर्थ का जो विशिष्ट ज्ञान
होता है उसे श्रुतज्ञान कहते है। 3. अवधिज्ञान : आत्मा से होनेवाले रुपी पदार्थ के प्रत्यक्ष ज्ञान को अवधिज्ञान कहते है। 4. मन:पर्यव ज्ञान : संज्ञी पंचेंद्रिय जीवों के मन की विचारणा का ज्ञान होना, मन:पर्यव ज्ञान है। 5. केवलज्ञान : संपूर्ण लोक-अलोक में रही हुयी तीनों काल की, सर्व वस्तुओं का ज्ञान
होना केवलज्ञान है।
B. ज्ञान संबंधी विनय-विवेक 1. ज्ञान नियमित समय मे पढ़ना। 2. विनय एवं बहुमान सहित ज्ञान पढना | 3. ज्ञान पढने के पूर्व उपधान तप करना | 4. सामायिक, प्रतिक्रमण करते समय अशुद्ध अक्षर नही बोलना। 5. काना, मात्रा, बिंदु अधिक या कम नही बोलना। 6. सूत्र, अर्थ एवं दोनो अशुद्ध नही बोलने । 7. अपवित्र स्थान में नही पढना । 8. ज्ञान के उपकरण, ठवणी, कागज, पैन, पेंसिल, आदि को पैर नही लगाना,
थुक नही लगाना। 9. थूक से अक्षर नही मिटाना। 10. ज्ञान के उपकरण को पास में रखकर भोजन, मल-मूत्र नही करना । 11. ज्ञान के उपकरण को सिर के नीचे रखकर नही सोना । 12. ज्ञानी व्यक्ति के प्रति द्वेष, ईर्ष्या नही करनी चाहिए। उनकी आशातना भी नही करनी । 13. किसी को पढ़ने में अंतराय नही करना चाहिए। 14. मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, केवलज्ञान इन पांच ज्ञानों में अश्रद्धा
नही करनी। 15. गुंगे, तोतले व्यक्ति की हंसी, मजाक नही करना।
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ज
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5. नवपद
A. सिद्ध के 8 गुण जीव का उसको ढंकनेवाला
जीव का स्वरूप कर्मरूपी बादल
नकली स्वरूप अनन्त ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म | अज्ञान, मन्द, मूर्ख, जड, विस्मरणशील... अनन्त दर्शन | दर्शनावरणीय कर्म आँख वगैरह नहीं होना । अर्थात् अन्धे, बहरे, लूले
लंगडे तथा नींद के प्रकार। सम्यग् दर्शन | मोहनीय कर्म मिथ्यात्व, अविरति, राग, द्वेष, काम, क्रोध... अनन्तवीर्यादि अन्तराय कर्म दुर्बलता, कृपणता, दरिद्रता, पराधीनता... अनन्त सुख | वेदनीय कर्म साता (सुख) असाता (कष्ट, पीडा, दुःख) अजर-अमरता आयुष्य कर्म जन्म, जीवन, मरण अरूपीपना नाम कर्म
नरकादि गति, एकेन्द्रियादि शरीर, रूप, यश,
अपयश, सौभाग्य, दुर्भाग्यादि... अगुरू-लघुपना गोत्र कर्म उच्चकुल, नीचकुल
अज्ञान
ऊंचकुल नीचकुल
ज्ञानावरण
अंधापादि निद्रा
दर्शनावरण
गोत्रकर्म
अनंत ज्ञान
अगुरु लधुता
अनंत
दर्शन
गति, शरीर
इन्द्रियादि यश, अपयश, साभाग्य, दार्भाग्यादि
नामकर्म
अरुपिता जीव
अरुपिता
सम्यग्दर्शन बीतरागता
मोहनीय
मिथ्यात्व अविरति राग-द्वेष काम-क्रोधादि
अनंतवीर्य आदि
स्थिति अक्षय
आयुष्य
अनंत सुख
अंतराय
जन्म जीवन
वेदनीय
कृपणता दरिद्रता पराधीनता दुर्बलतादि
शाता-अशाता
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6. नाद - घोष 1. गुरूजी हमारो अन्तर्नाद - अमने आपो आशीर्वाद 2. गुरुजी हमारे आये है - नयी रोशनी लाये है 3. गुरूजी हमारो पकडो हाथ - भवसागर में देजो साथ 4. गुरूजी हमें आशीष दो मुक्ति की बक्षीस दो 5. गुरूजी अमारो अंतर्नाद संयम ना दो आशीर्वाद 6. सत्य अहिंसा प्यारा है। यही हमारा नारा है 7. झंडा ऊंचा रहे हमारा
जैन धर्म का बजे नगारा 8. अमर रहे अमर रहे
आर्य संस्कृति अमर रहे 9. जैन धर्म छे तारणहार
शरणुं एनु सौ सौ बार 10. बोलो हृदयनां जोडीतार - जैन धर्म की जय जयकार
7. मेरे गुरु
1. पंच महाव्रत धारी अज्ञानरूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले जाने वाले गुरु होते हैं। प्रश्न-1 : हमारे गुरु कौन है ? उत्तर : जो पाँच महाव्रतों का पालन करते हैं। महाव्रत यानि बडे व्रत।
1. जीव हिंसा नहीं करना । 2. झूठ नहीं बोलना । 3. चोरी नहीं करना। 4. ब्रह्मचर्य का पालन करना। 5. पैसे वगैरह नहीं रखना।
1. जीव हिंसा नहीं करना :मात्र गाय, मच्छर, चिंटी, लट, शंख वगैरह चलते-फिरते जीव ही नहीं बल्की पृथ्वीकाय-नमक, मिट्टी..., अप्काय-कच्चा पानी, बरफ..., तेउकाय-अग्नि, गैस, पंखा, इलेक्ट्रीसीटी..., वाऊकाय-हाथ से भी हवा नहीं खाना, फूक नहीं देना, वनस्पतिकाय-फल, फूल, सब्जी, हरियाली वगैरह को छूते भी नहीं है। चाहे कितनी भी प्यास लगे तो कच्चा पानी नहीं
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पीते, गरमी लगे तो पंखा नहीं करते, जोर से भूख लगी हो कुछ खाने को न मिले, सामने फल का देर पड़ा हो तो भी लेकर नहीं खाते। 2. झूठ नहीं बोलना : मात्र धर्म संबंधी ही नहीं, कोई मारने आ जाये तो भी सत्य ही बोलते हैं। 3. चोरी नहीं करना : रास्ते पर रही हुई मिट्टी लेनी हो तो भी उसके मालिक को पूछे बिना नहीं लेते। 4. ब्रह्मचर्य का पालन : साधु भगवंत स्त्री का और साध्वीजी पुरुष का स्पर्श नहीं करते। चाहे एक दिन का छोटा बालक हो तो भी साध्वीजी नहीं छूते। 5. परिग्रह का त्याग : पैसा, सोना, चांदी, घर, दुकान, पुत्र, परिवार, 2 जोडी से अधिक कपड़े, बर्तन वगैरह किसी प्रकार की सामग्री नहीं रखते हैं। कोई सोने (सुवर्ण, रत्न) की माला वहोराने आ जाये तो भी उस पर ममत्व नहीं रखकर मना कर देते हैं। आश्चर्य है कि एक पैसा नहीं रखते, नहीं छूतें तो भी आराम से पूरी जिन्दगी आनंद पूर्वक व्यतीत करते हैं। एक शहर से दूसरे शहर पैदल ही जाते हैं। उपाश्रय में ही रहते हैं, निर्दोष एवं अचित्त आहार वगैरह वापरते हैं। प्रश्न-2 : गुरुभगवंत को वंदन करने से क्या लाभ होता है ?
1.अज्ञान रूपी अंधकार का नाश होता है। 2. नीच गोत्र का क्षय होता है। 3. अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है। 4. असंख्य भवों के पाप नाश होते हैं। 5. तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन होता है।
6. परमात्मा की आज्ञा का पालन होता है। विहार से लाभ : नीचे देखकर चलने से जीव हिंसा नहीं होती, शरीर हल्का होता है। किसी भी वाहन का गुलाम नही होना पड़ता। प्रतिक्रमण से लाभ : दिन-रात के पाप नाश होते हैं। एक्सर्साईज होती है, बिमारी नहीं आती।
संसार में जीव कितना भी काम करता है तो भी वह पापके भार से भारी ही होता है। वह कितना भी धर्म करे फिर भी छ: जीव निकायों की हिंसा से दूर नहीं रह सकता । अर्थात् कच्चा पानी, अग्नि, हरियाली, नमक वगैरह का उपयोग करना ही पड़ता है। संसार में चारों तरफ बंधन ही है जबकि गुरु भगवंत हमेशा स्वेच्छा से आराधना कर सकते हैं। गुरु भगवंतों को हर स्थान पर मान मिलता है। चाहे कितनी भी भीड़ हो, हजार रूपये की फीस हो, फिर भी फ्री में आदर पूर्वक उनको आगे बैठने को मिलता है। क्योंकि उन्होंने संसार का त्याग किया है।
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2. साधुओं की वैयावच्च
हमें साधु-साध्वी जहाँ भी दिखें विनयपूर्वक मस्तक झुकाकर 'मत्थएण वंदामि' कहना चाहिए। अगर (समय और स्थान) अनुकूलता हो तो वंदन भी करना चाहिए। हमें रोज उनके पास जाकर वंदन करके सुख-शाता पूछनी चाहिए। ___ साधु-साध्वी म.सा. जब घर पर गोचरी के लिये आयें तो खड़े होकर विनय व भावपूर्वक आहार वोहराना चाहिए। साधुओं की वैयावच्च और उन्हें आहार, वस्त्र, उपकरण, औषधि आदिसुपात्र दान करने से पुण्य का उपार्जन होता है और शुभ कर्म बंधता है।
शालिभद्र के जीवन मे पूर्वभव में साधु भगवंत को भावपूर्वक खीर वहोरायी थी तो उसे 99 पेटी (33 वस्त्र की, 33 आभूषण की, 33 भोजन की) देवलोक से आती थी।
साधु-साध्वी को आहार नहीं वोहराने से या वहोराकर मन में अशुद्ध भाव रखने से, कोई साधु को भोजन पानी देते (वहोरते) रोकने से हमें पापकर्म का बंध होता है अथवा अंतराय कर्मबंधन होता है।
दृष्टांत : मम्मण सेठ (पूर्वभव में) कंजूस था। एक बार व्याख्यान व पूजा में श्री केसरिया लड्डु की प्रभावना हुई। वह घर में ले आया । इतने में मुनि आये तो उन्हें पूरा लड्डूवहोरा दिया। सेठ से किसी ने कहा लड्डू बहुत स्वादिष्ट थे। थोड़ा अपने लिए रखना था तो वे उस मुनि के पीछे-पीछे घूमने लगे। तब मुनि ने सोचा यह लड्डू न मुझे खाने देगा और न मैं इसे वापिस दे सकता हूँ, इसलिए लड्डू को मिट्टी में परठ दिया । और यह बात मम्मण सेठ (पूर्वभव) के मन में रह गई कि मुझे इस साधु ने लड्डू नहीं दिया। और वह अगले भव में अपार संपत्ति के मालिक मम्मण सेठ बने (लड्डू को वोहराने से संपत्ति तो प्राप्त हुई लेकिन वे उसे भुगत नहीं सके)।
वह तेल और चवले के सिवाय अन्य कोई खाना नहीं खाता था इसलिए तेल और चवले खाकर जिंदगी निकालनी पड़ी। ___ आजकल डायबिटीज जैसी कई बिमारियाँ हमारे जीवन में अंतराय उत्पन्न करती है तो हमें समझ लेना चाहिए कि मम्मण सेठ जैसे कंजूस नहीं बल्कि शुद्ध भाव से साधु साध्वी की वैयावच्च में जीवन व्यतीत करना चाहिए।
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3. दीक्षा की महत्ता
___एक दरिद्र पुत्र ने दीक्षा ली। उसको गांव के लोग चिड़ाने लगे कि पैसा नहीं था, इसलिए दीक्षा ली। उससे सहन नहीं हुआ। उसने गुरु से कहा यहाँ से विहार करो, तब अभयकुमार ने गुरु को विहार करने से मना किया और लोगों को त्याग का महत्व बताने के लिए गांव में ढंढेरा बजवाया कि यहाँ पर रत्नों के तीन ढेर लगाये गये हैं, जो व्यक्ति अग्नि, स्त्री (पुरुष) एवं कच्चे पानी का त्याग करेगा उसे ये ढेर भेंट दिये जायेंगे। कई लोगों की भीड़ लगी पर कोई एक भी वस्तु का त्याग करके संसार में रहने के लिए तैयार नहीं हुआ। अभयकुमार ने कहा इस बालक ने इन तीनों का त्याग किया है। इसे यह रत्न दिये जाते हैं। लेकिन बालक साधु ने कहा कि मुझे नहीं चाहिए। तब लोगों को दीक्षा का महत्व पता चला कि इसने कितना महान कार्य किया है तो सब उसे पूजने लगे।
जो त्याग करता है उसे सब पूजते हैं। उन्हें सब सामने से मूल्यवान वस्तु वहोराते हैं। भिखारी के पास भी कुछ भी धन नहीं है। वह भी भीख मांगता है। लेकिन उसको कोई नहीं देता। उसका मूल्य नहीं है, क्यों ? क्योंकि उसने त्याग नहीं किया, वह हर समय लेने के लिए तैयार है।
4. शासन प्रभावक आचार्य
1. श्री भद्रबाहु स्वामीजी 2. श्री सिद्धसेनदिवाकरसूरिजी 3. श्री मानदेवसूरिजी 4. श्री मानतुंगसूरिजी 5. श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण 6. श्री हरिभद्रसूरिजी 7. श्री अभयदेवसूरिजी 8. श्री हेमचन्द्रसूरिजी 9. श्री हीरसूरिजी 10. श्री उपाध्याय यशोविजयजी
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8. दिनचर्या
2. ऊठ करके माता-पिता के चरण-स्पर्श करना । फिर प्रतिक्रमण, वह नहीं हो सके तो सामायिक करनी । यदि वह भी नहीं हो सके तो 'सकल तीर्थ' सूत्र बोलकर सर्व तीर्थों को वंदन करें और भरहेसर सज्झाय बोलकर महान आत्माओं को याद करें। रात्रि के पापों के लिये मिच्छामि दुक्कड़म् कहना । बाद में कम-से-कम नवकारशी पच्चक्रवाण धारें। पर्व तिथि हो तब बियासणा, एकासणा, आयंबिल आदि शक्ति अनुसार धारें ।
श्रावकों की दिनचर्या
1. सवेरे जल्दी जागना। जागते ही 'नमो अरिहंताणं' बोलना । बिस्तर छोड़कर नीचे बैठकर शांत चित्त से 7-8 नवकार गिनना । फिर विचार करना कि 'मैं कौन हूँ?' मैं जैन मनुष्य दूसरे जीवों से बहुत ज्यादा विकसित हुँ, इसलिये मुझे शुभ कार्य रूप धर्म ही करना चाहिये । उसके लिये अभी अच्छा अवसर है।
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3. मन्दिर में भगवान के दर्शन करने जाना | वहाँ प्रभु के गुणों को और उपकारों को याद करें। उपाश्रय जाकर गुरु महाराज को नमन करें। सुखशाता पूछनी । भात-पानी का लाभ देने की विनंती करनी, निश्चय किया हुआ पच्चक्खाण करना।
सूर्योदय से 48 मिनट पश्चात् नवकारशी का पच्चक्खाण पार सकते हैं। 1/4 दिन गुजरने पर पोरिसी, 1/4 + 1/8 दिन जाये तब साढ पोरिसी, 1/2
दिन जाए तब पुरिमुड्डपच्चक्खाण पारसकते हैं। नवकारशी से नरकगति लायक 100 वर्ष के पापटूटते हैं। पोरिसी से 1000 वर्ष के, साढपोरिसी से दस हजार वर्ष के, पुरिमुड से लाख वर्ष के पाप टूटते हैं।
4. स्नान करके स्वच्छ अलग कपड़े पहनकर हमेशा भगवान की पूजा करें। पूजा (भक्ति) किये बिना भोजन नहीं किया जाता। पूजा के लिये हो सके तो पूजन की सामग्री (दूध, चन्दन, केसर, धूप, फूल, दीपक, बरक, आंगी की अन्य सामग्री, चावल,फल, नेवैद्य आदि) घरसे ले जानी चाहिये।
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6. शाम को सूर्यास्त के पूर्व ही भोजन कर लेना चाहिये । श्रावकों को महापापकारी रात्रि भोजन करना उचित नहीं है। भोजन के पश्चात् मंदिर में दर्शन करें। धूप-पूजा, आरती उतारें।
5. गुरु भगवंत गाँव में बिराजमान हो तो गुरु महाराज के पास व्याख्यान - उपदेश सुनें । प्रभु की वाणी सुनने सच्ची समझ मिलती है, शुभ- भावना बढती है, जीवन सुधरता जाता है ।
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7. शाम को प्रतिक्रमण करना। 8. फिर धार्मिक पुस्तकें पढना | पाठशाला में हर रोज जाना | कभी भी झूठ नहीं बोलना, चोरी नहीं करनी, निंदा नहीं करनी, बीड़ी-सिगरेट नहीं पीना, जुआ नहीं खेलना, झगड़ा नहीं करना, जीवदया रखना, परोपकार करते रहना | पाप प्रवृत्तियों का त्याग और धर्मसाधना की वृद्धि से जीवन सफल होता है।
Early to sleep, early to rise, makes the body Healthy, Wealthy & Wise
आहार, शरीर उपधि, पचखुं पाप अढार मरण पामु तो वोसिरे, जीq तो आगार |
रात्रे वहेला जे सुओ, वहेला उठे वीर बल बुद्धि विद्या वधे, निरोगी रहे शरीर।
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9. भोजन विवेक
22 अभक्ष्य
* पाँच फल * (1) वट वृक्ष (2) पीपल (3) पिलंखण (4) काला उदूंबर और (5) गूलर
* चार महाविगई * (6) शहद (7) शराब (मदिरा)
(8) मांस (9) मक्ख न (10) बर्फ (हिम)
(11) जहर (विष) (12) ओला (13) मिट्टी
(14) रात्रि भोजन (15) बहुबीज (16) अनंतकाय-जमीनकंद (17) अचार (18) द्विदल (19) बैंगन
(20) अनजाना फल, पुष्प (21) तुच्छ फल (22) चलित रस
* रात्रि भोजन * यह नरक का प्रथम द्वार है। रात को अनेक सूक्ष्म जंतू उत्पन्न होते हैं। तथा अनेक जीव अपनी खुराक लेने के लिए भी उड़ते हैं। रात को भोजन के समय उन जीवों की हिंसा होती है।
विशेष यह है कि यदि रात को भोजन करते समय खाने में आ जाएँ तो जूं से जलोदर, मक्खी से उल्टी, चींटी से बुद्धि मंदता, मकड़ी से कुष्ठ रोग, बिच्छु के काँटे से तालुवेध, छिपकली की लार से गंभीर बीमारी, मच्छर से बुखार, सर्प के जहर से मृत्यु, बाल से स्वरभंग तथा दूसरे जहरीले पदार्थों से जुलाब, वमन आदि बीमारियाँ होती हैं तथा मरण तक हो सकता है।
रात्रि भोजन के समय अगर आयुष्य बंधे तो नरक व तिर्यंच गति का आयुष्य बंधता है। आरोग्य की हानि होती है। अजीर्ण होता है। काम वासना जागृत होती है। प्रमाद बढ़ता है। इस तरह इहलोक परलोक के अनेक दोषों को ध्यान में रखकर जीवनभर के लिए रात्रि-भोजन का त्याग लाभदायी है।
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10. माता-पिता का उपकार
इस जगत के सर्व जीवों को प्रेम देने के लिए परमात्मा स्वयं पहुँच नही सकते, इसीलिए
उन्होंने माता का सर्जन किया।
भगवान का अवतार ऐसी ममतामयी माता का उपकार चुकाना तो क्या, बताना भी असम्भव है। माँ शब्द में कितनी मिठास है, कितनी ममता वप्यार है। नौ दिन तक अगर हमारे हाथ में एक छोटी सी पुस्तक रख दी जाय तो क्या हम प्रसन्नतापूर्वक इस भार को उठा सकते है ? नहीं ! परन्तु करुणामयी, वात्सल्यमयी माँ अपने पेट में नौ महीने तक प्रसन्नतापूर्वक हमारे भार को सहन करती है और इन दिनों माँ को कितनी कुर्बानियाँ देनी पडती है उसकी गिनती तो सिर्फ केवलज्ञानी ही कर सकते है।
__ पिताजी घर में मस्तक समान है एवं माताजी घर में हृदय के समान है। A Father is the head of the house, and Mother is the heart of the house.
सुबह उठ कर माता-पिता के पांव को छूकर अपने कार्य की शुरुआत करनी चाहिए। रात को सोने से पहले इनके पास बैठ कर प्रेम से दिन में किये हुए कार्यों के बारे में बातचीत करना, उनके साथ आनंद एवं ज्ञान चर्चा करना । टी.वी. व सेलफोन में मस्त होकर उपकारी माता-पिता को दुःखी मत करना । वे जो भी कहे उनकी बात मानना | माता-पिता की खुशी के लिये अगर हमें अपनी इच्छाओं को मारना पडे तो यह समझ कर अपनी इच्छा दबा दो कि इससे उनके उपकारों का एहसान का कुछ अंश मात्र ही सही, पर कर्ज चुकाने का यह अनमोल अवसर है।
माता-पिता की खुशी के लिए श्री रामचन्द्रजी ने 14 साल का वनवास स्वीकारा | भगवान महावीर ने - माता पिता जब तक जीवित रहेंगे तब तक संयम ग्रहण नही करुंगा ऐसा महान अभिग्रह धारण किया। ऐसे कई विनयी सुपुत्र भारत के इतिहास में पाये जाते है।
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जैन तत्त्व दर्शन
जानते हैं कि इन सबने माता-पिता के लिए ऐसा क्यो किया ? क्योंकि अगर बचपन में उन्होंने हमारी सार संभाल न की होती तो क्या आज हम इस संसार मे जीवित होते ? नही! कभी नही ! माता ने जन्म देकर तो उपकार किया ही है परन्तु उसके बाद माता-पिता ने हमारी सार संभाल न की होती तो हम कब के परलोक सिधार गये होते । वे सभी महापुरुष जिन्होने मातापिता के खातिर बड़ी-बड़ी कुर्बानियाँ दी वे सब इस बात को जानते थे, समझते थे और हमें यही सीख देकर गये।
अतः बच्चों से यही कहना है कि कभी माता-पिता को रुलाना नहीं। हर रोज उनके चरण स्पर्श करना, उनका आशीर्वाद लेना और उनका विनय करना । कभी उल्टा नहीं बोलना। सामने जवाब नहीं देना | वे कठोर बने तो उन पर क्रोध नहीं करना बल्कि यह सोचना कि वे जो कुछ भी कहेंगे या करेंगे हमारी भलाई के लिये ही होगा। इन सब बातों को जीवन का हिस्सा बना कर खुश रहना व सभी को खुश रखना।
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जीवदया-जयणा
एकेन्द्रिय
पृथ्वीकाय Earth Bodied
तेजस्काय Fire Bodied
वायुकाय Air Bodied
TRA
बेइन्द्रिय जीव Two Sensed Beings तेइन्द्रिय जीव Three Sensed Beings चउरेन्द्रिय जीव Four Sensed Beings
तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव Five Sensed Beings (Tiryanch) oo
o
O
SA
स्थलचर Animals of the Land
o खेचर Birds
जलचर Aquatic Animals
देव गति
मनुष्य गति
नरक गति
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जैन तत्व दर्शन
11. जीवदया - जयणा
जीव दो प्रकार के होते है । (1) संसारी और (2) मुक्त (मोक्ष के) संसारी अर्थात् चार गति में संसरण (भ्रमण )करने वाले, कर्म से बँधे हुए, देह में कैद हुए। मुक्त अर्थात् संसार से छुटे हुए कर्म शरीर के बिना के। संसारी जीव दो प्रकार के है-(1) स्थावर और (2) त्रस। स्थावर यानी स्थिर -जो अपने आप अपनी काया को जरा भी हिला-डुला नही सकते है। उदाहरण के तौर पर पेड-पौधों के जीव।
त्रस यानी उनसे विपरीत-स्वेछा से हिल-डुल सकते हैं वे| उदाहरण के तौर पर कीडी, मकोडी, मच्छर आदि।
स्थावर जीवों मे सिर्फ एक ही स्पर्शन इन्द्रियोंवाला (सिर्फ चमडी) शरीर होता है। इसमें कौनसी-एक-एक इन्द्रिय बढती है। उसका क्रम समझने के लिए अपनी जीभ से उपर कान तक देखिए। बेइन्द्रिय को चमडी + जीभ (स्पर्शन+रसन), तेइन्द्रिय को इसमें (नाक-घ्राण) ज्यादा, चउरिन्द्रिय को आँख (चक्षु) अधिक, पंचेन्द्रिय को कान (श्रोत) ज्यादा।
एकेन्द्रिय स्थावरजीवके पाँच प्रकार____ 1. पृथ्वीकाय-(मिट्टी, पत्थर, धातु, रत्न आदि), 2.अप्काय-(पानी, बरफ, वाष्प वगैरह) 3. तेउकाय-(अग्नि, बिजली, दिए का प्रकाश आदि), 4.वायुकाय-(हवा, पवन, पंखा, ए.सी. की ठंडी हवा आदि) 5.वनस्पतिकाय-(पेड, पान, सब्जी, फल, काई वगैरह) ये सब एकेन्द्रिय है।
बेइन्द्रिय-कोडी, शंख, केंचुआ, जोंक, कमि आदि, तेइन्द्रिय-किडी, खटमल, मकोडा, दीमक, कीडा, घुन इत्यादि । चतुरिन्द्रिय-भँवरा, डाँस, मच्छर, मक्खी, तीड, बिच्छु इत्यादि। पंचेन्द्रिय-नरक, तिर्यंच, मनुष्य, देव।
नरक-बहुत पाप कर्म इकट्ठे होने से राक्षसों के (परमाधामी के ) हाथ से सतत जहाँ कष्ट भुगतने पडते है। तिर्यंच-तीन प्रकार के जलचर, स्थलचर, नभचर।
जलचर-पानी में जीनेवाले मछली, मगर, वगैरह। स्थलचर-जमीन पर फिरनेवाले-छिपकली, साँप, बाघ-सिंह वगैरह जंगली पशु और गाय कुत्ते वगैरह शहरी पशु।
खेचर-आकाश में उडने वाले -तोता, कबूतर, चिडिया, मोर, चमगादड। मनुष्य-अपने जैसे। देव-बहुत पुण्यकर्म इकट्ठे हो तब हमारे उपर देवलोक में सुख सामग्री से भरपूर भव मिले वह।
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12. विनय-विवेक 1. दान करने योग्य श्रेष्ठ सात क्षेत्र जैन धर्म में बताए हुए दान धर्म के लिए श्रेष्ठ सात क्षेत्र निम्न प्रकार है :
करना जिन मूर्ति
जिन मन्दिर
जिन आगम
जैन साधु
जैन साध्वी
श्रावक
श्राविका
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2. दान के पाँच प्रकार दान दुर्गति का वारक है, गुण समूह का विस्तारक है, तेज के समूह का धारक है, आपत्तियों का नाशक है, पापों का विदारक है, संसार समुद्र से निस्तारक है, धर्मोन्नति का कारण है, एवं मोक्ष प्राप्ति का कारण है। ऐसा यह दान जगत में विजयवंत है दान देने से शत्रुता नष्ट हो जाती है एवं दान से सभी प्राणी वश हो जाते है।
1. अभयदान : भय त्रस्त आत्मा को भय मुक्त करना अभयदान है। हर आत्मा को अपने प्राण प्रिय है। अगर हमें कोई मारने की कोशिश करे और फिर वो हमें छोड़ दें तो हमें कितनी खुशी होती है। उसी प्रकार हर एक जीव को अपने-अपने प्राण प्रिय होते है। किसी भी जीव की हिंसा नही करनी चाहिए।
2. सुपात्रदान : मुक्ति मार्ग के प्ररुपक एवं साधकों को सहायक बनना, उनकी भक्ति करनी सुपात्रदान है। साधु, साध्वी भगवंत को भोजन वोहराना, जरुरत की सामग्री देना उनकी भक्ति करना, विहार में सहायक बनना, उनके ठहरने के लिए जगह का ख्याल रखना चाहिए। सुपात्र में दान देनेवाले मानव भविष्य में धनाढ्य होते है और उस धन के प्रभाव से वे दान पुण्य विशेष करते है। उस पुण्य बल से देवलोकादि के उत्तम सुख प्राप्त करते है। वहाँ से पुनः धनवान होते है। परम्परा से मुक्ति सुख के उपभोक्ता बनते है।
3. अनुकम्पा दान : दीन दुःखी के दुःख दूर करना वह अनुकम्पा दान है। हमें पुण्योदय से कई सुख सामग्री मिली है। हमें अपने दरवाजे पर आये हुए किसी भी याचक को खाली हाथ नहीं भेजना चाहिए।
4. उचित दान : स्वजन संबंधियों से व्यवहार निभाने हेतु, कन्या के विवाह के समय उसे शक्ति अनुसार धनमाल आदि देना उचित दान है।
5. कीर्तिदान : चारों दिशा-विदिशा में यश कीर्ति हेतु दान देना कीर्तिदान है। इनमें प्रथम के दो दान अभयदान एवं सुपात्रदान मोक्ष को देनेवाले है एवं अन्य तीन दान भौतिक सुख को देने वाले हैं।
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पर्व ज्ञानपंचमी
चौमासी चतुर्दशी
एकादशी
कार्तिक - चैत्री पूर्णिमा
नवपदजी की ओली
अक्षय तृतीया
पर्युषण महापर्व
13. सम्यग् ज्ञान
A. मेरे पर्व
1. मुख्य पर्व, तिथि एवं आराधना
तिथि
कार्तिक सुद 5
कार्तिक- फागुण - आषाढ सुदि 14
मगर सुदि 11
कार्तिक एवं चैत्र सुदि 15
सुदि 7 से 15 एवं
आसोज सुदि 7 से 15 तक
वैशाख सुद
भाद्रवा वदि 12 से सुदि 4 तक
आराधना
ज्ञान
चातुर्मासिक आराधना
मनपूर्वक 150 कल्याणक
की आराधना
श्री सिद्धाचलजी यात्रा
बलपूर्वक
नवपदजी की आराधना
वर्षीतप पारणा
क्षमापनादि पाँच कर्तव्य
एवं पौषधादि धर्माराधना
2. श्री पर्युषण महापर्व
श्री वीतराग सर्वज्ञ भगवंत द्वारा कथित सर्व पर्वों में पर्युषण महापर्व उत्कृष्ट पर्व है ।
तप के बिना मुनि की शोभा नहीं, शील के बिना स्त्री की शोभा नहीं, शौर्य के बिना वीर की शोभा नहीं, दया के बिना धर्म की शोभा नहीं, इसी तरह पर्युषण महापर्व की आराधना के बिना जैन श्रावक की शोभा नहीं ।
पर्युषण महापूर्व में बहुमान पूर्वक कल्पसूत्र शास्त्र का श्रवण, देव गुरु की भक्ति पूजा, स्नात्र पूजा, तप-संयम आदि के अनुष्ठान पूर्वक मन-वचन-काया की सुन्दरतम आराधना से तीन भव में मोक्ष होता है। सात आठ भव में तो जीव अवश्य सिद्ध गति को प्राप्त करता है ।
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3. पर्युषण महापर्व के 5 कर्तव्य
1) अमारी प्रवर्तन :
आठ दिन तक तन-मन-धन से अहिंसा का पालना करना व करवाना । जैसे पूज्य हेमचन्द्राचार्यश्री ने कुमारपाल महाराजा से तथा पूज्य हीरसूरीश्वरजी म.सा. ने अकबर बादशाह से करवाया था ।
2) साधर्मिक वात्सल्य :
जैन बंधुओं के प्रति भाई से भी अधिक प्रेम, सद्भाव, मैत्री, वात्सल्य रखना ।
भोजनादि से उनकी भक्ति करना ।
3) परस्पर क्षमापना :
पर्युषण पर्व का सार है- क्षमापना व क्रोध की उपशान्ति । जो खमता है व रवमाता
है, वही आराधक है।
4) अट्टम तप:
पर्युषण पर्व व संवत्सरी की आराधना का कर (टेक्स) अठ्ठम (तीन उपवास ) करके चुकाना चाहिए। न हो सके तो अलग अलग तीन उपवास, 6 आयंबिल, 9 निवि, 12 एकासना, 24 बियासना या 60 नवकार मंत्र की माला (6 हजार स्वाध्याय) से भी यह लगान - टेक्स चुकाना चाहीए। यह तप संवत्सरी आलोचना शुद्धि हेतु है ।
5) चैत्य परिपाटी :
जुलूस के साथ सकल संघ सहित जिनमंदिरों में जाकर दर्शन पूजन करना । जिन भक्ति बढानी चाहिए ।
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B. मेरे तीर्थ
1. तीर्थ की महिमा ___जो तार कर किनारे पहुँचा दे उसी का नाम तीर्थ है अथवा जो संसाररुपी समुद्र से उबार कर मुक्ति नगर रुपी किनारे पर सकुशल पहुँचा दे वही तीर्थ है। तीर्थ यात्रा करने वाले यात्री की चरण रज को भी पवित्र कहा गया है। जो भव्यात्मा तीर्थ यात्रा के लिए परिभ्रमण करता है उसका संसार परिभ्रमण दूर हो जाता है।
___ अनंत के यात्री को अनंत की यात्रा से मुक्त करवा कर अनंत काल के लिए अनंत आत्माओं के साथ अनंत सुख में निमन करवाने का सर्वोत्कृष्ट साधन तीर्थ है। तीर्थ के दो प्रकार है: 1.जंगम तीर्थ 2.स्थावर तीर्थ।
1. जंगम तीर्थ : विचरण करते हुए केवली भगवंत, पांच महाव्रतधारी साधुसाध्वी भगवंत जंगम तीर्थकहलाते है।
2. स्थावर तीर्थ : जो स्थिर है वह स्थावर तीर्थ कहलाते है। भगवान के पाँच कल्याणक की भूमि तीर्थ है।
2. मुख्य तीर्थ के नाम, मूलनायकजी एवं राज्य
तीर्थ
मूलनायकजी राज्य
तीर्थ
मूलनायकजी राज्य
राणकपुर
ऋषभदेवजी
राजस्थान
तारंगा
अजितनाथजी
गुजरात
गिरनार
नेमिनाथजी
गुजरात
शत्रुजय ऋषभदेवजी गुजरात हस्तिनापुर ऋषभदेवजी उत्तरप्रदेश भोपावर शांतिनाथ मध्यप्रदेश राजगृही मुनिसुव्रतस्वामी बिहार शंखेश्वर पार्श्वनाथजी गुजरात कुंभोजगिरि पार्श्वनाथजी महाराष्ट्र
सम्मेतशिखर पार्श्वनाथजी
| बिहार
नाकोड़ा
राजस्थान
पावापुरी केसरवाडी
पार्श्वनाथजी महावीरस्वामीजी बिहार आदिनाथजी तमिलनाडु
आबू-देलवाडा आदिनाथजी
राजस्थान
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3. शत्रुजय तीर्थ
“शत्रुजय समो तीर्थ नहीं, ऋषभ समो नहीं देव” शत्रुजय नदी के तट पर बसा, युगान्तर में हमेशा विद्यमान रहने वाला शाश्वत तीर्थ, जिसका कणकण पुण्यशाली है, जिसके नाम स्मरण मात्र से रोम-रोम प्रफुल्लित हो उठते हैं। जिसके राजा आदेश्वर दादा के दर्शन से आत्मा धन्य हो उठती है, यही है वो भव्य महातीर्थ शत्रुजय। जिसके अनेकों बार जीर्णोद्धार इन्द्रों के हाथों हुए है। पिछला सोलहवां जिर्णोद्धार वि.सं.1587 वैशाख वदछट्ठ को करमाशाह द्वारा हुआ और इस अवसर्पिणी काल का अंतिम एवं सत्रहवां जिर्णोद्धार राजा विमलवाहन द्वारा होने की शास्त्रोक्ति है।
यहीं एक ऐसा तीर्थ है जहां इस चौवीसी के 23 तीर्थंकरों ने पदार्पण किया है। युगादिदेव श्री आदिनाथ भगवान पूर्व नव्वाणु बार इस गिरिराज पर पधारे थे, उसी परंपरानुसार आज भी भारत के कोने कोने से श्रद्धालु यहां नव्वाणु एवं चातुर्मास हेतु आते है। फाल्गुन सुदी तेरस के दिन भावी तीर्थंकर श्री कृष्ण वासुदेव के पुत्र शाम्ब व प्रद्युम्न शत्रुजय गिरिराज के भाडवा डुंगर पर अनेक मुनियों के साथ मोक्ष
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सिधारे। उस प्रसंग की स्मृति में 6 कोस की फेरी दी जाती है, जो कि शत्रुजय पर होने वाले वार्षिक मेलों में से एक है, जिसे फागन की फेरी का मेला कहा जाता है।
अन्य मेले कार्तिक पूर्णिमा, चैत्र पूर्णिमा, अक्षय तृतीया व वैशाख वद छ? (दादा के मुख्य जिनालय के प्रतिष्ठा दिवस) को लगते हैं। इनके अलावा यहां प्रायः यात्री समूहों का आना जाना लगा रहता है, जिससे यहां सदैव मेलासा वातावरण रहता है।
(चातुर्मास के चार महिने - आषाढ़ सुद 15 से कार्तिक सुद 14 तक ऊपर यात्रा नहीं करनी चाहिए। ऐसा करने से संघ आज्ञा-भंग का दोष लगता है।)
"गिरिवर दर्शन विरला पावे, पूर्व संचित कर्म खपावे" जिस शाश्वत तीर्थ की महिमा श्री सीमंधर परमात्मा महाविदेह क्षेत्र में कहते हैं वह तीर्थ है - “सिद्धाचलजी" - यह सभी तीर्थों का सिरमौर है।
पृथ्वी तल पर, पहाड़ियों में चित्ताकर्षक मंदिरों के समूह को अम्बर में गंगा एवं सफेदी में हिमाचल के बर्फ की उपमा से विभूषित किया गया है। संपूर्ण पहाड़ पर सैकड़ों शिखर बद्ध मंदिरों का दृश्य विभिन्न सौन्दर्यात्मक कलाओं से युक्त है। साथ ही कई जैन साधु तथा महात्मा पुरूषों ने यहाँ पर महानिर्वाण प्राप्त
किया है। अपने मन के क्रोध, द्वेष, मोह, माया, लोभ आदि विकार रूपी शत्रु पर उन्होंने यहाँ पर विजय प्राप्त की, इसलिए इस तीर्थ का नाम शत्रुजय है। इस तीर्थ के कण कण में समाधि और कैवल्य की आभा हैं। ___ तलेटी से रामपोल तक 3745 पगथिए हैं। ऊँचाई 2000 फुट व चढाई 4 किलोमीटर है। गिरिराज पर बडी ढूंक में 13036 प्रतिमाजी विराजमान हैं, व नव ढूंक में 11474 प्रतिमाजी हैं। नव ढूंक में 124 मंदिरजी हैं एवं नवढूंक में कुल 8961 पगलियांजी हैं।
इतिहास में उल्लेख मिलता है कि सिद्धाचल पर जब 16वें उद्धार के समय अंजनशलाका 2000 आचार्यों द्वारा हुई तब इन्हीं मूलनायक आदिश्वरजी (दादा साहबे) की प्रतिमा ने सात बार श्वासोश्वास लिए थे। इनके दर्शन वंदन पूजन का प्रभाव आज भी हम सभी जानते हैं।
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4. तीर्थ की आशातना से बचें तीर्थ उसको कहते है, जिससे आत्मा संसार सागर में तैरने की क्षमता प्राप्त करे। मनुष्य तीर्थ यात्रा करता है इसलिये कि कर्मों से हलका हो नहीं कि भारी, जैन तीर्थ तीर्थंकरों की पवित्र भूमि होती है, वहाँ पर तीर्थंकरों का पावन सान्निध्य होता है, वहाँ पर भक्ति करने से, पवित्र आचरण करने से, व्रत नियमों का पालन करने से मनुष्य की आत्मा तो क्या तिर्यंचों की आत्मा भी कर्मों का भार कम करके भवरूपी संसार से तिर जाती है। परंतु उससे विपरीत मनुष्य तीर्थयात्रा में जाकर वहाँ पर तीर्थंकरों की भक्ति न कर विकथा करता है। पवित्रता को छोड़कर मलिन आचरण करता है, व्रत नियमों का पालन न कर अभक्ष्य भक्षण - अनाचार में जीव अपना समय बिताता है, वह कर्मों को क्षय करने की जगह अनंतानंत कर्म बाँधता है जिसे अवश्य भोगना ही
पड़ता है।
शास्त्रों में भी कहा गया है,
अन्य क्षेत्रे कृतं पापं, तीर्थ क्षेत्रे विनश्यति
तीर्थ क्षेत्रे कृत पापं, वज लेपो भविष्यति अर्थात् : अन्यत्र स्थानों पर किये पापों की निर्जरा तीर्थ पर होती है, मगर तीर्थ भूमि पर किये हुए पापवज के लेप की तरह बन जाते है, जिसे अवश्य भोगना ही पड़ता है।
इसलिये तीर्थ यात्रा को पिकनिक के रूप में न लें। तीर्थ स्थानों पर ताश खेलना, फिल्मी गाने सुनना, इत्यादि का त्याग करें।
तीर्थ यात्रा के दौरान प्रात: नवकारशी का नियम, जमीकंद व रात्रि भोजन का त्याग अवश्य करें।
अत: तीर्थ यात्रा विवेकपूर्ण विधि सहित करके पुण्योपार्जन करें।
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C. मेरे तप
1. 12 प्रकार के तप तप के मुख्य दो प्रकार हैं : 1. बाह्य तप एवं 2. अभ्यंतर तप | बाह्य तप की परिभाषा:
जो तप बाह्य-शरीर द्वारा किये जाते है। ये 6 प्रकार के है:
1. अनशन : भोजन का त्याग | भोजन का त्याग दो प्रकार से होता है। एक त्याग जीवन भर का यानी जीवन भर के भोजन का त्याग वह यावत्कथिक' कहलाता है। ___ जो भोजन का त्याग एक घंटा, दस मिनट, पन्द्रह मिनट, आयंबिल, एकासना, बियासना आदि तपस्या में, खाने के सिवाय का वक्त वह भी अनशन में आता है। नवकारसी करे, उसमें भी सूर्योदय से 48 मिनट तक का अनशन होता है और तीन समय भोजन में भी हमें जिस समय खाना नहीं खाना हो चाहे वह समय मात्र 10-15 मिनट का हो फिर भी अगर हम उस 10-15 मिनट के लिए ही पच्चरखाण लें तो वह अनशन में आता है और वह अनशन कहलाता है।
2. उनोदरि:भूख से कम खाना । अगर हम हर रोज 4 रोटी खाते हैं तो हमें रोटी खानी चाहिए, कहने का मतलब हमें हमारे भूख से कम खाना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा पुरुषों के लिए 32 कवल, स्त्रियों के लिए 28 कवल का आहार कहा है।
3. वृति संक्षेप:खाने-पीने की जितनी वस्तु हो उसमें कोई न कोई चीजों का त्याग करना । जैसे भोजन में अगर 20 चीजें हो तो हमें 20 में से 18-19 ही खाना यानि 1 या 2 अथवा ज्यादा चीजों का भी त्याग कर सकते हैं।
4. रस त्याग :रस का त्याग | रस छ: प्रकार के हैं। दूध, दही, घी, तेल, गुड (गोल) एवं पकवान । इन छ: विगई में से कोई भी एक का त्याग करना अथवा रोटी के साथ सब्जी का त्याग, चावल के साथ दाल का त्याग इस तरह भी हम रस का त्याग कर सकते हैं।
5. काय क्लेश : काया (शरीर) को कष्ट देना । जैसे की बिना चप्पल बाहर जाना | वाहन का इस्तेमाल न करके चलकर एक जगह से दूसरी जगह जाना, पंखा, ए.सी., कूलर, लिफ्ट आदि का उपयोग न करना | इस तरह अपनी काया (शरीर) को कष्ट देना।
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6.संलीनता :शरीर को संकोच करना | यानि बिना कार्य हिलना नहीं, बैठे-बैठे हाथ, पैर, अंगुली आदि को हिलाना नहीं, सोते वक्त हाथ-पैर फैलाकर नहीं सोना, इस तरह अपने शरीर का संकोच करना । अभ्यंतर तपकी परिभाषा:
जो तप करते समय किसी और को मालूम न पडे, सिर्फ करने वाले को ही मालूम हो वह अभ्यंतर (आंतरिक तप) कहलता है। ये 6 प्रकार के है:
1. प्रायश्चित : अपनी छोटी-बड़ी सभी गलतियों के लिए सामने वाले से माफी मांगना यानि मिच्छामि दुक्कडम् कहना । और जो भी पाप हम करते हैं उन सभी को रात में याद करके वह गलतियाँ और पाप फिरसेन करने की कसम लेना । उनसे दूर हटने की कोशिश करना। ____2. विनय : अपने से बड़ों (माता,पिता, दादा, दादी, गुरु, अध्यापक आदि) को प्रणाम-नमन करना। उनका आदर करना। उनकी बातों । को बराबर सुनना | उनकी बातों को काटना नहीं और बड़ों को 'जी' । लगाकर पुकारें । उनसे आदर एवं सम्मान से बात करनी चाहिए। विधर्मी (अन्य धर्मवालों) को जयजिनेन्द्र कहना।
3. वैयावच्च : सेवा करना । अपने से बड़े तपस्वी और बीमार लोगों की सेवा करना। किसी के जख्म पर मरहम लगाना । माता-पिता आदि गुरुजनों के पैर दबाना । समयानुसार तपस्वियों की (आयंबिल, वर्षीतप आदि), साधर्मिक सामूहिक भोज में पुरस्कारी करना । 4.स्वाध्याय:अध्ययन करना | स्वाध्याय के पाँच प्रकार हैं। अ.) वाचना :जो भी धार्मिक पुस्तकें हो, सूत्र आदि को पढ़ना, याद करना । आ.) पूछना :अपने को जो भी शंका हो उसे गुरु से पूछकर उसका समाधान करना। इ.) परावर्तना : पहले पढ़े हुए सूत्र, अर्थ, स्तवन आदि काव्य इन सभी का पुनरावर्तन यानि फिर से याद करना। ई.) अनुप्रेक्षा : पढ़े हुए अध्याय, सूत्र आदि के बारे में बार-बार चिंतन करना, उसके बारे में सोचना।
उ.) धर्म कथा : आपस में बैठकर एक दूसरे से धार्मिक बातें करना । जैसे की आज आपने पाठशाला में क्या सीखा, किस महापुरुष की कहानी सुनी । ये सब बातें अपने मित्रों से एवं घर पर माता-पिता इत्यादि से करना ।
जिससे ज्यादा समय आपका धर्म में रहेगा और फिजूल की बातों में समय बरबाद भी नहीं होगा और कर्म बंधन से भी बच सकेंगे।
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5. ध्यान : मन में बुरे विचार नहीं करना । किसी का बुरा करने की या झगड़े आदि की बात नहीं सोचना । क्योंकि जब तक हम बुरे विचारों को छोडेंगे नहीं तब तक धर्म नहीं कर पाएँगे । इसलिए हमेशा अपने दुःख, चिंता को छोड़कर सबके कल्याण की अच्छी बात सोचना |
6. उत्सर्ग (काउस्सग्ग - कायोत्सर्ग) : लोगस्स नवकार आदि का काउस्सग्ग करने से ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का नाश होता है। त्याग, यानि जिन कार्यों से हमारे कर्म बंधन होते हो या पाप लगता हो उनका त्याग करना या मन, वचन एवं काया की एकाग्रता - स्थिरता, जैसे कि गुस्सा नहीं करना, किसी भी चीज के लिए झगड़ा नहीं करना, झूठ नहीं बोलना आदि ।
बाह्य तप से भी अभ्यंतर तप का फल कई गुणा ज्यादा है। और ये तप तो हर कोई आसानी से कर भी सकता है, क्योंकि तप को करने से कर्मों का नाश होता है। इसलिए रोज संकल्प के साथ कोई न कोई तप (यथाशक्ति) करने की कोशिश करनी चाहिए ।
D. अन हेप्पी बर्थ डे टु यू
प्यारे बच्चों ! जब आपका जन्म दिन (Birthday) आता है, तब उस दिन आप क्या करते हो ? उसे किस प्रकार मनाते हो ? रात्रि में केक काटकर, केक खाकर, आईस्क्रीम, केडबरी खाकर, कोल्ड ड्रिंक्स पीकर, डिस्को डांस करके, गुब्बारे फोड कर ? नहीं ! नहीं ! इस प्रकार नहीं मनाना चाहिए, यह अपनी भारतीय संस्कृति नहीं है । यह गोरे (अंग्रेज) लोगों की संस्कृति है । भारतीय संस्कृति के अनुसार किसी भी कार्यक्रम के प्रारंभ में अज्ञानता रुपी अंधकार के निवारण हेतु दीपक प्रज्वलित किया जाता है, परंतु इस पश्चिमी संस्कृति (गोरे लोगों की) के अनुसार बर्थ डे में जलती हुई मोमबत्ती ( कैंडल) को बुझाया जाता है । हैन उल्टी संस्कृति ? फिर बच्चों में ज्ञान का दीपक कहाँ से प्रज्वलित होगा ? साथ ही आपकी बर्थ डे पार्टी प्रायः रात्रि में आयोजित होती है, जिससे रात्रिभोजन का भयंकर दोष लगता है ।
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इसके अतिरिक्त आईस्क्रीम, कोल्ड ड्रिंक्स, केडबरी, केक आदि अभक्ष्य वस्तुओं के खान-पान और डिस्को डांस - गान से भी कर्म बंधन होता है, परंतु आपको इन सब बातों का ख्याल नहीं है अतः मजे से बर्थ डे मनाते हो, परन्तु इस मजा के परिणाम में आपको सजा भी भुगतनी पडेगी- इस बात से आप अपरिचित होंगे। अत: यह वास्तव में आपका हेप्पी बर्थ डे नहीं, बल्कि अन हेप्पी बर्थ डे है, अतः अब इसे पढने के बाद सावधान हो जाना !
बिस्कुट केक हृदय को लगाए ब्रेक:- केक, बिस्कुट, देखकर आपके मुहँ में पानी आता है न? परंतु ये वस्तुएं आपके हृदय के लिए हानिकारक है। आपकी कमर का नाप बढाता है, उसमें चर्बी होती है, एवं खराब कोलेस्ट्रोल (एल.डी.एल) की मात्रा अधिक होती है, जो हृदय रोग के खतरे में वृद्धि करता है। हावर्ड युनिवर्सिटी के संशोधकों ने 50 हजार व्यक्तियों पर परीक्षण करके यह शोध
की है, कि इससे 50 प्रतिशत हार्ट एटेक का
खतरा बढ जाता है। (यह बात समाचार पत्रों में सन् 2005 में प्रकाशित हो चुकी है।)
सुना है कि जापान में लोग अपने बर्थ डे के दिन हर्षोल्लास प्रकट करने के बजाय शोक व्यक्त करते है, क्योंकि अपने अमूल्य जीवन में से एक वर्ष कम होने की व्यथा का वे अनुभव करते है ।
आपका बर्थ डे आपको मनाना ही हो तो किस प्रकार मनाएँ- यह बात निम्नलिखित अनुमोदनीय सुंदर दृष्टांत से आप समझ सकेंगे ।
दृष्टांत : कोल्हापुर में जिज्ञा बहिन संदीपभाई शाह के दो पुत्र है। एक पुत्र तीसरे वर्ष में और दूसरा पुत्र चौथे वर्ष में कदम रख रहा था । वे दोनों ही पहिले केक काटकर बर्थ डे का उत्सव मनाते थे, परंतु बाद में समझ आने के पश्चात् उन्होंने सोचा कि ये सभी तो संसार वृद्धि के साधन है । ऐसा करने में कर्म निर्जरा - पुण्योपार्जन अथवा आत्मा के हित में कौन सा कार्य हुआ ?
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बडे लडके का नाम मोक्षेश तथा छोटे लङके का नाम अभिषेकथा | इन दोनों ने अपना जन्मदिन धार्मिक रीति से मनाने का विचार किया और बर्थ डे के दिन उन्होंने जिनालय में परमात्म भक्ति , बोली लगाकर पूजा करके पाठशाला गमन किया । तीन वर्ष पूर्ण हुए अत: बडी साईज के तीन नैवेद्य-तीन फल स्वस्तिक पर रखें, इस प्रकार अष्ट प्रकार की प्रभु पूजा की, चैत्यवंदन-प्रभु की आंगी रची और गुरुभक्ति, ज्ञान भक्ति, सहधर्मी की भक्ति, सुपात्रदान, अनुकंपादान और जीवदया की।
बच्चों! आपको भी इन दो छोटे बच्चों की तरह जन्मोत्सव मनाना चाहिये और केक आईस्क्रीम आदि का बहिष्कार करना चाहिए । मानो कि आपकी दस वर्ष की आयु हो तो आप बर्थ डे के दिन 10 भगवान की पूजा करें, 10 पुष्पों से प्रभु की आँगी करें, 10 रुपये भंडार में भरें, 10 गुरु भगवंतों को वंदन करें, 10 गरीबों को दान देना आदि करें और उस दिन प्रतिक्रमण-सामायिक एव मंगल रुप आयंबिल आदिन हो सके तो कम से कम बियासणा करें।
E.टी.वी. यानि? दूरदर्शन आया, दुःख दर्शन लाया
ओये-ओये, टी.वी. देखने वाले रोये-रोये पापा भी रोए, मम्मी भी रोए, मुन्ना भी रोए, मुन्नी भी रोए।
आधुनिक युग की बुराई, दुराचार की जननी, पवित्र मन को गटर जैसा गंदा बनाने वाला, सदाचार का निकंदन निकालने वाला, समाज में चोरी, लूट, अत्याचार, बलात्कार, हिंसाचार का प्रेरक, पति-पत्नि के जीवन में अविश्वास, क्लेश उत्पन्न करने वाला, बालमानस को विकृत करने वाला, इंद्रियों को विकारी बनाने वाला यह टी.वी है। टी.वी देखने से धन-मन-आँख और समय का दुरुपयोग होता है।
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अच्छे व्यक्तियों का मन भी बिगड जाता है । अत: इसकी व्याख्या चार प्रकार से की गई है ।
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1. टी. अर्थात् टेन्शन, वी. अर्थात् वृद्धि जो टेन्शन में वृद्धि करें, वह टी.वी.
4. टी. अर्थात् टाइम, वी. अर्थात् वेस्ट
=
जो आपका टाइम वेस्ट करे, उसका नाम टी.वी
टी.वी. ...यानी ?...
2. टी. अर्थात् तबियत,
वी. अर्थात् (वगाडे) बिगडे
3. टी. = टोटल, वी. = विनाश, जिससे आपका टोटल (संपूर्ण) विनाश हो, उसका नाम टी.वी.
प्रभु दर्शन सुख संपदा, प्रभु दर्शन नवविध । प्रभु दर्शन थी पामीये, सकल पदारथ सिद्ध ॥
=
जो अपना स्वास्थ्य बिगाडे, उसका नाम टी.वी.
दूरदर्शन नहीं परन्तु दुःखदर्शन : हिंदी में टी.वी. को दूरदर्शन कहते है, परन्तु उसकी व्याख्या एक लेखक ने की है कि टी.वी. को दूर से ही दर्शन अच्छे, निकट न जाएँ अर्थात् दूर से ही सलाम करोगें तो सुरक्षित रह सकोगें, सकुशल रह सकोगें। जैसे सिंह बाघ- साँप - भूत-पिशाच के निकट नहीं जाते, उसी प्रकार टी.वी रुपी भूत के भी निकट नहीं जाना चाहिए, वरना यही दूरदर्शन आपके लिये दुःखदर्शन रुप बन जाएगा। यदि आपको दर्शन करने ही हों, तो जिनेश्वर भगवंत के करना । देवदर्शन - गुरुदर्शन करना । दूरदर्शन से शरीर दीखता है, शरीर के दर्शन होते है, जबकि देवदर्शन से आत्मदर्शन होता है, जिससे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार प्रभु के दर्शन से आपको सुख संपत्ति, नौ निधि और सभी इष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है, इसलिये स्तुति में बोलते है कि
-
परन्तु इस टी.वी. दर्शन पर पिक्चर आदि देखने से उससे विपरित ही प्राप्त होगा। इसीलिये एक चिंतक ने कहा है कि
टी.वी. दर्शन दुःख आपदा, टी.वी. दर्शन नव पीड । टी.वी. दर्शन थी पामीये, भव भ्रमण नी भीड
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म
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सत्व की बरबादी। संपत्ति की बरबादी।
मर्यादा की बरबादी
देश की बरबादी ।
आरोग्य की बरबादी।
आत्मा की बरबादी..
आँख की बरबादी।
टी.वी.से
। कुटुंब की बरबादी
संस्कृति की बरबादी।
संतति की बरबादी।
संस्कार की दृष्टि से:- हिंसा, काम, क्रोध के दृश्य देखने से लोगों के मन विकृत हो जाते है। अमेरिका में मनोवैज्ञानिक संस्था के प्रधान कहते है कि टी.वी. विडियो की चलन बढने के बाद हिंसा के केसों में 500 प्रतिशत की वृद्धि पाई गई है। इसमें कई बालकों के प्रतिभाव लिये तो पाया कि बच्चे हिंसात्मक दृश्यों विकृत मनोरंजन को महत्त्व देते हैं। अहिंसा के बदले संडे हो या मंडेरोज खाओ अंडे इस प्रकार का विज्ञापन देखने के पश्चात् कई लोग अंडे खाने लग गए है।
स्पाइडरमेन-सुपरमेन-शक्तिमान का सूट पहनकर उसकी नकल करने के प्रयत्न में दो बालक ऊपर से कूदे...वन..टू....श्री... रोड के साथ मस्तक टकराया, खोपडी फट गई और वे मौत के मुँह में चल बसे । ऐसे तो कई लडके मर गए-ऐसे लडकों को पता नहीं होता कि ये तो कम्प्यूटर की करामतें होती है क्योंकि उनके पास कोई जादूया आकाश में उडने की विद्या नहीं है, जिससे उडना संभव हो।
इसी प्रकार टी.वी. के काल्पनिक पात्र शक्तिमान के लिये 15 वर्ष के एक लडके ने प्राण खो दिया। धारावाहिक श्रेणी में शक्तिमान नामक पात्र चमत्कारिक शक्तियों से परिपूर्ण होता है कोई कैसी भी कठिनाई में हो तब शक्तिमान वहाँ पहुँच जाता है और उसे, कठिनाई में वह सहायता करता है। बालकों-किशोरों और बड़ी उम्र के लोगों में यह पात्र अत्यन्त लोकप्रिय बना हुआ है। सीरीयल में ऐसा देखने के पश्चात् मध्यप्रदेश में सिहोर जिले के लक्की को शक्तिमान पर श्रद्धा हो
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गयी! उसे वह मिलना चाहता था, परन्तु कोई मार्ग सूझा नहीं। वह समझता था कि हम कठिनाई में होते है तब शक्तिमान सहायक बनकर आ जाता है- बचा लेता है। अत: शक्ति मान को अपने पास बुलाने के लिये उसने स्वयं को कठिनाई में झोंक दिया | अपने शरीर पर केरोसिन छाँटा और आग लगा दी। प्रतीक्षा में खडा रहा कि शक्तिमान अभी आकर मुझे बचा लेगा, परन्तु वह नहीं आया । लक्की खडा-खडा जलता रहा। चार दिन तक पीडित अवस्था में हॉस्पिटल में शक्तिमान की रट लगाते-लगाते वह मर गया । इस प्रकार टी.वी. से बाल मानस पर कुप्रभाव होता है। यह एक ही घटना नहीं है, बल्कि ऐसे तो अनेक बालकों ने अपने प्राण खोए हैं।
शिक्षन की दृष्टि से :- पढाई से बालकों का मन सर्वथा उठ जाता है, क्योंकि उनका मन सतत पिक्चर के एक्टरों में, उनकी अदाओं में, फेशनों के विचारों में सतत खोया हुआ रहता है। अत: होमवर्क भी पूरा नहीं कर पाते। एक सर्वे के अनुसार टी.वी. देखने के पीछे एक बालक वर्ष में 1200 घंटों का समय बिगाडता है, जबकि पढने में उसके 100 घंटे व्यतीत होते है।
विश्व विख्यात पेग विन नामक कंपनी ने ऑस्ट्रेलिया तथा अन्य प्रदेशों में शिक्षकों, मानसशास्त्रियों और अनेक माता-पिताओं की पूछताछ मुलाकातें करने के बाद एक पुस्तक प्रकाशित की है, जो बालकों पर टी.वी. द्वारा क्या प्रभाव होता है ? इसके विषय में बहुत जानकारी देती है। उसमें स्पष्ट बताया गया है, कि बालकों की आँखे, ग्रंथियों, नसों पर बुरा प्रभाव पड़ता है। बालक पर्याप्त नींद न कर पाने से ज्ञान क्रांथियों तथा संपूर्ण मस्तिष्क का संतुलन धीरे धीरे बिगडता है। उसके कारण बुरे स्वप्न __ आना, भूख-प्यास न लगना, भोजन का न पचना, कब्ज आदिकुप्रभाव होते है।
टी.वी. में मस्त बच्चे भोजन करने में भी पूर्ण ध्यान नहीं देते, नींद भी पूर्णत: नहीं करते और सारे दिन उसके आगे बैठने से शरीर पर बुरा प्रभाव पडता है, उनकी निर्दोष कल्पना शक्ति समाप्त हो जाती है।
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14. जैन भूगोल
JAUCCEKACET
प्र-1. द्वीप-समुद्र तिर्छा लोक में कितने है ?
उः असंख्य है। प्र-2. मानव कितने द्वीप में होते है ?
उ: ढाई (2.5) द्वीप में। प्र-3. ढाईद्वीपकौनसे है ?
उ: (1) जंबूद्वीप (पूरा) (2) धातकीखंड द्वीप (पूरा)
(3) पुष्करावर्त द्वीप (आधा) प्र-4 द्वीप किसे कहते है ?
उ: जिसके चारों ओर समुद्र है। उसे द्वीप कहते है। प्र-5. जंबुद्वीप के चारों ओर कौनसासमुद्र है ?
उ: लवण समुद्र प्र-6. धातकीखण्डद्वीप के चारों ओर कौनसासमुद्र है ?
उ: कालोदधि समुद्र प्र-7. ढाई द्वीपको क्या कहा जाता है ?
उ:मनुष्य क्षेत्र प्र-8. मनुष्य क्षेत्र का माप क्या है ?
उ: 45 लाख योजन जंबूद्वीप- 1 लाख योजन लवण समुद्र- 4 लाख योजन धातकीखण्ड द्वीप-8 लाख योजन कालोदधि समुद्र - 16 लाख योजन
पुष्करावर्त द्वीप आधा - 16 लाख योजन प्र-9. जंबूद्वीप का आकार कैसा है ?
उ: गोल थाली के जैसा आकार है, गोल बोल के जैसा नहीं।
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15. सूत्र एवं विधि विभाग
A. सूत्र नवकार से सात लाख तक
B. पच्चक्खाण 1. नवकारसी-पोरिसी-साडपोरिसी-पुरिमुड-अवड-मुट्ठिसहिअं-विगइओ
-निवी-आयंबिल-एकासणा-बिआसणा-देशावगासिक धारणा
उठगए सूरे, नमुक्कारसहिअं, पोरिसिं, साडपोरिसिं, सूरे उठगए पुरिमूढ़ मुट्ठिसहिअं पच्चक्खाइ। उठगए सूरे, चउव्विहं पि आहारं, असणं, पाण, खाइम, साइमं, अन्नत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि-वत्तिआगारेणं, विगईओ निव्विगइअ, आयंबिलं पच्चक्खाइ अन्नत्थणाभोगेणं सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थसंसदेणं, उक्खितविवेगेणं, पडुच्चमविवएणं, पारिठ्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं । एगासणं बिआसणं पच्चक्खाइ, तिविहंपि आहारं, असणं, खाइम, साइम, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, आऊंटणपसारेणं, गुरुअब्भुट्ठाणेणं, पारिठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहि-वत्तियागारेणं, पाणस्स लेवेणवा, अलेवेणवा, अच्छेणवा, बहुलेवेणवा, ससित्थेण वा, असित्थेणवा, देसावगासिअं उवभोगं, परिभोगं, पच्चक्खाई, धारणा अभिग्रह पच्चक्खाई, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ॥
C. विधि विभाग 1. गुरूवंदन विधि 2. सामायिक विधि 3. चैत्यवंदन विधि
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___16. कहानी विभाग
1. हरिश्चन्द्र को श्मशान में क्यों रहना पड़ा?
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पूर्वभव न हरिश्चंद्र राजा न निषि मुनियों को इंटर मानाये थे।
पुर्व भव में भी हरिश्चन्द्र और तारा राजा-रानी थे। एक दिन दो मुनिवरों को देखकर रानी कामवश हो गई। उसने दोनों मुनियों को दासी द्वारा बुलवा कर हाव-भाव दिखाने शुरू किये। मेरु की तरह अड़िग मुनियों के सामने उसकी सभी मुरादें निष्फल गयी।
उसकी प्रार्थना को ठुकराते हुए मुनिवर ने उसे बहुत समझाने की कोशिश करते हुए कहा कि, “विष्ठा से भरी हुई आकर्षक अत्तर वाली थैली पर मोहित होना अज्ञानता है। उसी तरह मलमूत्र से भरे मानवीय शरीर पर मोहित होना अज्ञानता है, इत्यादि अनेक तरीके से दोनों मुनियों के द्वारा समझाने पर भी वह तस से मस न हुई। क्योंकि जिसे मोह का नशा चढ़ा हुआ हो, मोह के उल्टे चश्में लगे हुए हो, तो सच्ची बात उसके गले कैसे उतरे? निराश होकर रानी ने छेड़ी हुई नागिन की तरह बदला लेने के लिये हाहाकार मचा दिया। मेरे शील के ऊपर दुराचारी साधुओं ने आक्रमण किया है। बचाओ! बचाओ! सिपाहियों ने मुनियों को पकड़कर राजा के सामने उन्हें खड़े किये।
राजा की आँखों में से अग्नि की ज्वाला बरसने लगी। अरे....रे... ऐसी नीचवृत्तिवाले ये साधु हैं। जाओं.... कोडे. (हन्टर) मार-मार कर इनको अधमरा बना दो... और कारागार में डाल दो। इनको रोज के 100-100 कोडे मारना।
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एक महीने के बाद राजा को वस्तु स्थिति मालूम पड़ने पर उन्हें जेल से मुक्त कर दिया। राजा व रानी ने क्षमा माँगी। किंतु आलोचना-प्रायश्चित नहीं लिया। अतः हरिश्चन्द्र राजा के भव में उन्हें चंडाल के घर पर 12 साल तक श्मशान में काम करने के लिए रहना पड़ा तथा तारा रानी पर राक्षसी होने का कलंक आया व पुत्र रोहित का वियोग हुआ।
ये सारे कष्ट उन्हें पूर्वभव में किए हुए पापों की आलोचना-प्रायश्चित्त न लेने से आए। यह जानकर हमें भी आलोचना-प्रायश्चित्त लेना चाहिए।
2. आलोचना न लेने से दुःखी बने श्रीपाल राजा श्रीपालजी पूर्वभव में श्रीकान्त नाम के राजा थे। एक दिन नगर में मलिन वस्त्र वाले मुनिश्री को देखकर तिरस्कार भरे शब्दों में फटकारते हुए उन्होंने मुनि से कहा कि तुम कोढ़ी हो। __दूसरी बार श्रीकान्त राजा ने नदी के किनारे कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े हुए मुनि के प्रति तिरस्कार करते हुए उनको पानी में डुबकी लगवाई। मुनि ने उपसर्ग समता से सहन कर लिया, परंतु श्रीकांत का कर्म बंध हो गया।
श्रीकांत राजा ने इन दोनों पापों की आलोचना न ली, इसलिये दूसरे भव में श्रीपालजी को कोढ़ रोग हुआ। उस कर्म को भुगतने के बाद पानी में डुबाने का कर्म उदय में आने पर धवल सेठ ने उन्हें समुद्र में गिराया, परन्तु वहाँ पर नवपद के ध्यान के प्रताप से मगरमच्छ की पीठ पर गिरने के कारण बच गये । प्रायश्चित्त न लेने के फल बहुत दुःखदायी होते है। अतः छोटे-से पाप की भी आलोचना भावपूर्वक लेनी चाहिए।
की थी।
लों की चोरी
3. चोरी की सजा व 'देवकी माता
वसुदेव की पत्नी देवकी के जीव ने पूर्व भव में सौतन के सात रत्न चुराये थे। मगर जब सौतन आकुल-व्याकुल हुई, तब दया से आर्द्र होकर उसने एक रत्न किसी तरह वापस दे दिया | इस चोरी की आलोचना देवकी के जीव ने नहीं ली। उसके बाद वही जीव आगे जाकर देवकी बना। ___ भद्दिल ग्राम में नागिल सेठ रहते थे। उनकी धर्मपत्नी का नाम सुलसा था। 'उससे मरे हुए बच्चे ही जन्मेंगे, ‘ऐसी भविष्यवाणी सुनकर, उसने एक हरिनैगमेषी देव की साधना की। देव ने उसे
स्पष्ट कहा कि तेरा पुण्य नहीं है कि तुझसे जीवित संतान जन्म पाये, इसलिए मैं अपनी कान्ति से दूसरे के संतान तुझे अर्पण करूँगा । तू उन्हें बड़ा करके खुद को पुत्रवती समझना । 'मामा नहीं तो काना मामा' इस कहावत के अनुसार सुलसा ने देव की बात को स्वीकार कर लिया।
जीव ने पूर्व भव
देवकी के जी
रनवापस दियाथा
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देवकी के विवाह प्रसंग पर अईमुत्ता मुनि ने कंस की पत्नी जीवयशा को कहा कि “देवकी की सातवी संतति कंस का घात करेगी"। इसलिये मृत्यु से भयभीत बने हुए कंस ने देवकी के प्रथम सात संतानों को वसुदेव से प्राप्त करने की स्वीकृति प्राप्त कर उन्हें मारने का संकल्प किया, परन्तु जन्म पानेवालों का पुण्य प्रबल होने से क्रमशः जब देवकी के पुत्र जन्म पाते गये, तब हरिनैगमेषी उन्हें सुलसा के पास रख देता और सुलसा के पास से मरी हुई संताने देवकी के पास रख देता। ___ कंस उन मुर्दो पर छुरी चला देता और खुश होता। इस प्रकार छः संतानों का वियोग देवकी को हुआ | बाद में उन छः संतानों ने नेमिनाथ भगवान के वचन से प्रतिबोध पाकर दीक्षा ली। देवकी से जब सातवीं संतान कृष्णजी जन्म पाए, तब वसुदेव ने उन्हे यशोदा को सौंपा और उसकी लड़की देवकी के पास रखी। कंस ने उसकी नाक काट ली। इस प्रकार छः पुत्रों की वियोग हुआ। एक रत्न वापस दिया था, इसलिये कृष्ण का थोडे समय के लिये वियोग हुआ, परंतु बाद में स्वंय उन्हें कुछ समय बड़ा कर सकी।
इससे हमें सीखना चाहिये कि ईर्ष्या अथवा लोभ से किसी भी प्रकार की चोरी अपने जीवन में हो गयी हो, तो अवश्य प्रायश्चित्त की निर्मल गंगा में स्नान करके शुद्ध और भाररहित हो जाना चाहिये।
4. ढंढण कुमार और अंतराय
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ढंढण कुमार का जीव पूर्व भव में किसानों का निरीक्षक था, परन्तु जब किसानों को भोजन करने की छुट्टी का समय होता, तब वह किसानों से कहता “एक-एक चक्कर मेरे खेत में काट दो, जिससे मुझे खेत जोतना न पड़े।" इस प्रकार मुफ्त में काम करवा कर उसने भोजन में अंतराय किया और असकी आलोचना
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नहीं ली, तो दूसरे भव में नेमनाथ भगवान के पास दीक्षा लेकर जब वे ढंढण मुनि बने, तब उन्होंने अभिग्रह किया कि यदि मेरी स्वयं की लब्धि से आहार मिलेगा, तो ही पारणा मैं करूंगा, अन्यथा नहीं। यहाँ दूसरों को भोजन में किये हुए अंतराय के कारण बांधा हुआ अंतराय कर्म उदय में आया । शास्त्रकार ने कहा है कि
"बंध समये चित्त चेतीये रे, उदये शो संताप" अरे जीव! कर्मो को बांधते समय विचारना चाहिये, उदय आने पर रोने से क्या फायदा... हँसते हुए बांधे कर्म रोने से भी नहीं छूटते... छः छः महिने तक घूमे, परंतु उनको स्वयं की लब्धि से गोचरी नहीं मिली। एक दिन नेमिनाथजी ने ढंढण मुनि को सर्वश्रेष्ठ कहा, यह सुनकर आये हुए कृष्णजी ने उनको रास्ते में वंदन किया, यह देखकर एक पुण्यशाली ने ढंढण मुनि को गोचरी वहोरायी। पूछे जाने पर नेमीनाथ भगवान ने ढंढण मुनि से कहा...अरे ढंढण! ये तो कृष्ण महाराजा आपको वंदन कर रहे थे, इसलिये भावित होकर उसने आपको गोचरी वहोरायी है... इस प्रकार श्रीकृष्ण के प्रभाव (लब्धि) से आपको गोचरी वहोराई गयी है, अतः आपकी लब्धि से यह आहार नहीं मिला है... स्वयं का अभिग्रह पूरा नहीं हुआ है, यह जानकर वे गोचरी परठवने गये। परठवते परठवते शुक्ल ध्यान में चढ़कर उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त किया। आहार के अन्तराय की आलोचना नली, उससे कितना सहन करना पड़ा... इसलिये हे भविजनो! आलोचना अचूक लेनी चाहिये।
5. अंजना सुन्दरी दुःखी क्यों हुई?
एक राजा की दो पत्नियाँ थी। लक्ष्मीवती और कनकोदरी। लक्ष्मीवती रानी ने अरिहंत-परमात्मा की रत्नजड़ित मूर्ति बनवाकर अपने गृहचैत्य में उसकी स्थापना की। वह उसकी पूजा-भक्ति में सदा तल्लीन रहन
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लगी। उसकी भक्ति की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी। “धन्य है रानी लक्ष्मीवती को, दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।" यह रानी तो सुख में भी प्रभु सुमिरन करती है, धन्य है।।' बच्चे, बुढे, नौजवान सभी के मुँह पर एक ही बात-धन्य है रानी लक्ष्मीवती, धन्य है इसकी प्रभु भक्ति। लोक में कहा जाता है जिसको ज्वर चढ़ जाता है, उसे अच्छा भोजन भी कडवा लगता है। रसगुल्ला खिलाओं, तो भी वह व्यक्ति थू...थूकरेगा। ईर्ष्यालु व्यक्ति की यही दशा होती है।
रानी कनकोदरी के अंग-अंग में ईर्ष्या का बुखार व्याप्त हो गया | अपनी सौतन की प्रशंसा उससे सहन नहीं हो पाती थी। लोग मेरी प्रशंसा क्यो नहीं करते?' यह बात वह निरन्तर सोचती रहती थी। 'तू भी धर्म कर, तू भी परमात्मा की पूजा-सेवा कर| अरे! उससे भी बढ़कर लोग तेरी प्रशंसा करेंगे।' 'मैं करूँ या नहीं करूँ, मगर लक्ष्मीवती की प्रशंसा तो होनी ही नहीं चाहिये।'
इस प्रकार के विचारों की आंधी कनकोदरी के दिल और दिमाग मैं ताण्डव नृत्य मचाने लगी। देखिये! ईर्ष्या की आग, ईर्ष्या की धुन कैसी-कैसी भयंकर विपदाएं खड़ी कर देती हैं? कनकोदरी ने निर्णय लिया “मूलं नास्ति कुतः शाखा" जब बाँस ही नहीं रहेगा, तो बाँसुरी बजेगी कैसे? लोग इसकी प्रशंसा करते हैं आखिर क्यों? मूर्ति है इसलिये न! मूर्ति है इसलिये वह पूजा करती है, जिससे लोग प्रशंसा करते हैं और मुझे जलना पड़ता है। यदि मूल को ही काट दिया जाये, तो बस, चलो छुट्टी! और वह सक्रिय हो उठी। ईर्ष्या से अन्धी बनी हुई कनकोदरी एक भयंकरकृत्य करने के लिये तत्पर हो गयी।
अत्यंत गुप्त रीति से वह गई गृहमंदिर में और परम कृपालु परमात्मा की मूर्ति को उठाकर डाल दी...अहा...हा!कूडे करकट में...अशुचि स्थान में... अरे! ऐसी गंदगी में जहाँ से भयंकर बदबू ही बदबू आ रही थी। मगर उस अज्ञानान्ध, ईर्ष्यान्ध स्त्री को इस बात का दुःख तो दूर, लेकिन अपार हर्ष था, अपनी नाक कटवा कर जैसे दूसरों के लिये अपशुकन करने का अनहद आनन्द हो । ओह!.... "हंसता ते बॉध्या कर्म, रोतां ते नवि छूटेरे।जैसे कर्म करेगा बंदे, वैसा ही फल पायेगा | काश! कनकोदरी यह जान पाती!
पूरे राज्य में हाहाकार मच गया | तहलका मच गया....चोरी....चोरी!! रानी लक्ष्मीवती की आँखे रो...रो कर सूज गयी। हाय! मेरे परमात्मा को कौन उठा ले गया? साध्वी जयश्री को इस बात का राज मिल गया | उन्होंने कनकोदरी को समझा-बुझा कर परमात्मा की पुनःस्थापना तो करवा दी। लेकिन कनकोदरी ने इस कृत्य की विधिवत् आलोचना नहीं ली। इसलिये उसे इस कृत्य का भयंकर परिणाम भुगतना पड़ा अंजना सुंदरी के भव में। अंजना सुंदरी को पति-वियोग में बाईस वर्ष तकरो...रो...कर व्यतीत करने पड़े।
पूर्व भव में वसन्ततिलका ने उसके इस अपकृत्य का अनुमोदन किया था, अतः उसे भी अंजना के साथ दुःख सहने पड़े। यदि हम किये गये पापों की आलोचना नहीं करते हैं और प्रायश्चित लेकर शुद्ध नहीं बनते हैं, तो उसका अति भयंकर परिणाम भुगतान पड़ता है, जैसे अंजना सुन्दरी की जिन्दगी के वे वियोग भरे वर्ष आँसू की कहानी बन कर रह गये।
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6. श्री स्थूलिभद्र मुनि
पाटलीपुत्र के महामन्त्री शकडाल का पुत्र था स्थूलिभद्र । वह कोशा नृत्यांगना से अत्यंत प्रेम करता था । उसके साथ उसके महल में ही रहता था। दोनों साथ-साथ में आपस में रंगराग में अपना समय व्यतीत करते थे । किसी कारणवश महामंत्री शकडाल के कहने पर उसके छोटे पुत्र श्रीयक ने भरसभा में उनकी हत्या कर दी। इस घटना से स्थूलभद्र के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया और मुनि संभूतिविजयजी के पास चारित्र ग्रहण किया ।
2010
चारित्र - आराधना से गंभीर बने हुए स्थूलिभद्र ने विचार किया कि जिसके साथ 12 वर्ष व्यतीत किये उस कोशा वेश्या को भी धर्म मार्ग में जोडूं ! इस विचार से गुरु आज्ञा प्राप्त करके कोशा के महल में चातुर्मासार्थ पधारे ।
कोशा वेश्या अपने प्रियतम को देख अत्यन्त खुश हुई । सोलह श्रृंगार सजकर उनका स्वागत करती है । मुनि अपने आने का प्रायोजन बताते हैं। कोशा की रंगशाला में नग्न चित्रपटों के बीच रहकर भी मुनि स्थूलभद्र के मन में जरा सा भी विकार उत्पन्न नहीं हुआ । कहते हैं.
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“जे रह्या काजल घरवास, पण डाघ न लाग्यो जरा । "
काजल की कोठरी में रहकर भी उन्हें अंशमात्र भी दाग नहीं लगा । कोशा विध- विध नृत्य करके उन्हें विचलित करने की कोशिश करती, लेकिन वे सागर से भी अधिक गम्भीरता धारण कर अपने ध्यान में निमग्न रहते। आखिर कोशा हार गयी और उनसे श्राविका-धर्म अंगीकार कर श्राविका बन गयी ।
चातुर्मास पूरा कर अपने गुरु के पास आये तो गुरु ने "दुष्कर दुष्कर” ऐसे वचन उल्लसित मन से कहा। पूर्व सहवासी वेश्या के साथ विचित्र रंगमण्डप में रहकर भी मन को विकार रहित रखने वाले श्री स्थूलभद्र स्वामी का नाम चौरासी (84) चोबीसी तक अमर रहेगा ।
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7. मदनरेखा
सुदर्शनपुर नामक नगर में मणिरथ राजा राज्य करते थे। उनके छोटे भाई युगबाहु की अत्यन्त रूपवती स्त्री थी मदनरेखा ।
मणिरथ राजा मदनरेखा पर मोहित हो गया और उसे विविध वस्त्र आभूषण दासी के द्वारा भेजकर उसे खुश करने की कोशिश करता है । मदनरेखा समाचार भिजवाती है कि राजा के पास तो इतना उत्तम अंतःपुर है, तो वे क्यों परस्त्री गमन जैसा महापाप इच्छते हैं ? वे कितनी भी कोशिश करें, लेकिन मुझे हासिल नहीं कर सकते ।
मणिरथ राजा की कामवासना कम न हुई तो उसने युगबाहु को अपने रास्ते से हटाना चाहा और
एक रात एकांत में अपने ही भाई की हत्या कर दी । मदनरेखा ने मृत्युशैय्या पर पड़े अपने पति से कहा- 'हे स्वामी! आप अभी थोड़ा भी वेद न करें। शत्रु, मित्र, स्वजन, परिजन सभी को क्षमा दीजिए और सभी से प्रत्यक्ष क्षमा मांग लीजिए। इस प्रकार अपने पति को अंतिम आराधना कराई ।
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पति की मृत्यु के पश्चात् मदनरेखा विचारने लगी- 'मुझे धिक्कार हो । मेरे रूप के कारण मेरे पति की मृत्यु हुई । अब पति-विहोणी जानकर मणिरथ मुझे पकड़कर मेरा शील लूटने की कोशिश करेगा।' गर्भवती मदनरेखा गुप्त रीत से वहाँ से निकल गयी ।
एक घने जंगल में सात दिन रहने के पश्चात उसने एक पुत्र को जन्म दिया । सरोवर में वस्त्र धोने उतरी तो एक जलहस्ती ने उसे सूंड में पकड़कर आकाश में उछाला। तभी एक विद्याधर ने उसे बचा लिया और वह भी उसके रूप से मोहित हो गया । उसने जब मदनरेखा से अपने मन की बात बतायी तो मदनरेखा विचारने लगी'ओह! मेरे कर्म नड रहे हैं । दुःख ऊपर दुःख आ रहे हैं । शीलरक्षा के लिए मुझे कोई बहाना निकालकर समय पसार करना चाहिए ।'
मदनरेखा के कहने पर विद्याधर ने अपने (विद्याधर के) पिता मुनि से धर्मोपदेश श्रवण किये । उसका मन परिवर्तित हो गया और उसने मदनरेखा को अपनी बहन स्वीकार कर दिया । मदनरेखा साध्वी भगवंत को वंदनार्थ गयी । धर्मवाणी सुनकर उसने वही चारित्र ग्रहण किया। और उत्कृष्ट चारित्र पालन कर केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष गये ।
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17. प्रश्नोत्तरी सामान्य ज्ञान विभाग प्रश्नोत्तरी
प्रश्न-1:-सही जोडी बनाईए
(ए) (बी) जयवीयराय जिन मुद्रा नमुत्थुणं मुक्ताशक्तिमुद्रा काउस्सग्ग योग मुद्रा सुदर्शनपुर कोषावेश्या पाटलीपुत्र मदनरेखा रत्नजड़ित फुलमाला ढंढणकुमार
हरिश्चंद्र रत्नचुराना देवकी श्मशान किसान स्वप्न
लक्ष्मीवती प्रश्न-2 :-वाली जगह पूर्णकीजिए
................ "भूख से कम खाना" कहलाता है। 2. स्वाध्याय.......
...............प्रकारके है। बाह्य तपसे भी......
............ का फल कई गुणा ज्यादा है। भद्दिल ग्राम में........ ..........................सेठरहतेथे। 5. हरिश्चंद्र राजा ने....
.......... के घर पर काम किया था।
की निर्मल गंगा में स्नान करके शुद्ध और भाररहित हो जाना चाहिए। 7. श्रीकांत राजा ने.
..........न ली। 8. भगवान के पिता....................................स्वप्न देखते हैं। 9. ज्ञान पंचमी..........
..... को आती है। 10. तीर्थकी.
.से बचना चाहिए। प्रश्न - 3:-लही (1) या गलत (x) का निशान करें। 1. तीर्थ क्षेत्र कृतं पापं, अन्य क्षेत्रे विनश्यति 2. वैशाख सुदि 11 को मौन एकादशी आती है। 3. तीर्थयात्रा विधि तथा विवेकपूर्वक करनी चाहिए। 4. तीर्थभूमि पर किये पापवज के लेपजैसे होते हैं। 5. तलेटी से रामपोल तक 3745 पगथिए हैं।
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जैन तत्त्व दर्शन
6. शत्रुजय के 15वें उद्धार के समय आदिनाथदादा ने 7 श्वासोश्वास लिए थे। 7. शत्रुजय पर्वत शाश्वत है। 8. शत्रुजय की नवटुंक में 143 मंदिर है। 9. गिरिवर दर्शन विरला पावे, पूर्व संचित कर्म खपावे | 10. फागण सुद तेरस को भाडवा डुंगर की महिमा है। 11. पर्युषण महापर्व में चैत्य परिपाटी एक ही देरासर की करनी चाहिए। 12. नवकार को पुरा गिनने से 500 साल तक के नरक के दुःख नहीं भोगने पड़ते हैं। 13. पुरुष को दायी और स्त्री को बायी तरफ खडे रहकर पूजा करनी चाहिए। 14. उपाश्रय संबंधी दश त्रिक बताई गई है। 15. एक वर्ष में टीवी देखेने से 1211 घंटों का समय बिगडता है।
प्रश्न - 4:- प्रश्नों के उत्तर लिखिए 1. टी.वी के बारे में एक चिंतक ने क्या कहा है ? 2. संसार का पक्षपात कैसे छुट सकता है? 3. अपने भगवान सबसे महान क्यों हैं ? 4. जैन धर्म में बताए हुए सात क्षेत्र कौन कौन से हैं ? 5. दान के पांच प्रकार कौन से हैं ? 6. गुरुभगवंत को वंदन करने से क्या लाभ है ? 7. हमारे गुरु कौन है - संक्षिप्त में बताएँ? 8. कौन से सूत्र में कितनी प्रार्थनाएं बताई गई है ? 9. पूजा करते समय कितनी शुद्धि होनी चाहिए ? 10. कितने प्रकार की त्रिक हमारे शास्त्र में दिखाई गई है ? 11. तीर्थ कितने प्रकार के है, कौन कौन से? 12. नवकार के एक अक्षर के स्मरण से कितने सागरोपम का पाप नष्ट हो जाते हैं ? 13. गिरीराज में बडीटुंक पर कितने प्रतिमाजी बिराजमान है ? 14. नवकार मंत्र की महिमा के कितने दृष्टांत हमारी बुक में दिए गए है? 15. बाह्य तप कितने प्रकार का है ?
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16. अभ्यंतर तपकितने प्रकार का है ? 17. स्वाध्याय कितने प्रकार का है ? 18. आरती क्यों उतारते हैं ? 19. भगवान किसे कहते हैं ?
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प्रश्न-5:-प्रश्नों के उत्तर दिजीए 1. प्रभुदर्शन से क्या लाभ है ? 2. स्वस्तिक का महत्व समझाओ? 3. प्रभुकी इन्द्रादिदेव सेवा क्यों करते हैं ? 4. सुदर्शना राजकुमारी का दृष्टांत लिखिए ? 5. भील भीलनी का दृष्टांत लिखिए ? 6. हमारी बुक में कौन कौनसी कहानी बताई गई है ? नाम बताइए? 7. अभ्यंतरतपके नाम बताइए? 8. पयुषण महापर्व के 5 कर्तव्य लिखिए ? 9. पुष्प पूजा करते समय हमको क्या भावना होनी चाहिए? 10. अभक्ष्य और महाविगइ के कितने प्रकार है ? 11. हमें विनय विवेक में कौन कौनसी बातों का ध्यान रखना चाहिए ? 12. अभयदान के बारे में समझाईए ? 13. उचित दान के बारे में समझाईए ? 14. दर्शन के उपकरण बताईए? 15. चारित्र के उपकरण बताईए? 16. ज्ञान के उपकरण बताईए? 17. हमारी बुक में नरक की कौन कौनसी सजा बताई गई है ? 18. हमें जीवदया किस प्रकार से पालनी चाहिए ? 19. दीक्षा की महता बताती हुई कहानी शोर्ट में बताइए? 20. मम्मणशेठ का दृष्टांत शोर्ट में बताइए? 21. दो प्रकार के तीर्थ की व्याख्या बताइए? 22. पांच महाव्रत कौन कौन से हैं ? 23. परमात्मा के पास कौन कौनसी प्रार्थनाएं हमको करनी चाहिए - 5 प्रार्थनाओं का नाम लिखें? 24. विधि शुद्धि समझाईए ? 25. अंग शुद्धि समझाईए? 26. प्रणाम त्रिकमें कौन कौन से प्रणाम आते हैं?
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18. सामान्य ज्ञान
GOOD HABITS
बच्चों ! आज हम आपको कुछ ऐसी बातें सिखलाऐंगे जो इस दुनियाँ में सावधानी से जीने के लिए जरुरी है । दैनिक जीवन में आपको इन बातों का सामना कभी भी करना पड सकता हैं। आपकी उम्र बढने के साथ अनुभव से इन बातों की जानकारी जरुर मिल जायेंगी। लेकिन किसी दुःखदायी घटना का अनुभव लेने से पहले अच्छे लोगों से हम इन बातों की जानकारी पहले से ले ले तो हम कितनी ही अनावश्यक विपत्तियों से बच जायेंगे ।
1. सडक पार (Cross) करते समय दौडना नही चाहिए। दायें-बायें (Left - Right) देखते हुए सड़क पार करनी चाहिए।
2. अगर हॉइवे है या सड़क पर सीग्नल लगे है तो लाल बत्ती देखकर जब वाहन रुक जाये तब.... सफेद (White) पट्टी पर चलकर सड़क पार करनी चाहिए।
3. ओटो, स्कूटर, कार, इत्यादि वाहनों में बैठने पर हाथ बाहर नही निकालना चाहिए।
4. अगर आप थोडे बडे है और साइकल, स्कुटर चला रहे है तो तेज स्पीड से न चलाये । ट्राफिक के सिग्नल व नियम की जानकारी पहले से ले ले रोड क्रास करते समय पुरा ध्यान रखे। टर्निंग पर पहले से साईड दिखाये। वाहन के कागज एवं ड्राइविंग लाईसेंस हमेशा साथ रखें ।
5. अगर कोई अजनबी आपको घर या बाहर अपने साथ चलने को कहें कोई पता बताने को कहें तो उसके साथ नहीं जाना चाहिए। ऐसा व्यक्ति अगर आपको चॉकलेट, बिस्किट या खाने पीने की कोई चीज दे तो नहीं लेनी चाहिए। उसमें बेहोशी की दवा मिलाकर आपको उठाकर (Kidnap) ले जाने की चाल हो सकती है।
6. घर का दरवाजा खोलते समय आवाज पहचान कर या चेहरा देखकर दरवाजा खोलें । दरवाजें पर कोई नया व्यक्ति है तो बड़ों को सुचना दें। स्वयं दरवाजा न खोलें ।
7. रसोई घर में खुद गैस या स्टोव चालू न करें। गैस लीक होने पर विशेष प्रकार की गंध आती है। ऐसी गंध आने पर कोई भी ईलेक्ट्रीक स्वीच ना चालू करे, न बंद करें। ऐसा करने पर स्पार्क से आग लगने का डर रहता है। गैस लीक होने पर दरवाजे खिडकी खोल दे और बड़ों को सूचित करें ।
8. घर में ईलेक्ट्रीक के अन्य उपकरण - ईस्त्री, वाशिंग मशीन, मिक्सी, ओवन इत्यादि से दुर रहे। बडे होने के बाद इनको चलाने की व्यस्थित जानकारी हासिल करने पर ही इनका इस्तेमाल करे। गीले हाथों से इनको न छुएँ।
9. मकान के बाहर की गेलरी पर या छत पर चढ़कर नीचे नही देखे, ना ही पतंग उड़ायें ।
10. आग और पानी से सावधान रहें। चलते समय सडक के खुले मेन होलों का ध्यान रखे । 11. चाकू, ब्लेड इत्यादि का इस्तेमाल पेन्सिल छिलने में न करें, कभी भी ऐसी वस्तु अपने पास
नही रखें।
12. किसी भी तरह की दवाई की गोली स्वयं न खाये। दवाई पर (Expiry date) देखकर एवं दवाई बडों को दिखा कर ही ले ।
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१४ राजलोक
शिवमस्तु सर्वजगतः,
पर-हित-निरता भवन्तु भूतगणाः।। दोषाः प्रयान्तु नाशं,
सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥
ना
* संस्कार वाटिका को हार्दिक शुभकामनाएँ *
SINGHI GROUP OF COMPANIES
SINGHI TEXTORIUM (MFRS & EXPORTERS OF SOFIL HANDKERCHIEFS)
145, Govindappa Naicken Street,
Chennai - 600 001. INDIA
T:25369368,25365246 Mobile: 98400 57245,9381008205
Fax:044-26412241 E-mail: nsinghiin@gmail.com
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________________ धार्मिक पाठशाला में आने से..... 4) 1) सुदेव, सुगुरु, सुधर्म की पहचान होती है। 2) भावगर्भित पवित्र सूत्रों के अध्ययन व मनन से मन निर्मल व जीवन पवित्र बनता है और जिनाज्ञा की उपासना होती है। कम से कम, पढाई करने के समय पर्यंत मन, वचन व काया सद्विचार, सद्वाणी तथा सद्वर्तन में प्रवृत्त बनते हैं। पाठशाला में संस्कारी जनों का संसर्ग मिलने से सद्गुणों की प्राप्ति होती है "जैसा संग वैसा रंग"। सविधि व शुद्ध अनुष्ठान करने की तालीम मिलती है। भक्ष्याभक्ष्य आदि का ज्ञान मिलने से अनेक पापों से बचाव होता है। कर्म सिद्धान्त की जानकारी मिलने से जीवन में प्रत्येक परिस्थिति में समभाव टिका रहता है और दोषारोपण करने की आदत मिट जाती है। 8) महापुरुषों की आदर्श जीवनियों का परिचय पाने से सत्त्वगुण की प्राप्ति तथा प्रतिकुल परिस्थितिओं में दुर्ध्यान का अभाव रह सकता है। विनय, विवेक, अनुशासन, नियमितता, सहनशीलता, गंभीरता आदि गुणों से जीवन खिल उठता है। 6) बच्चा आपका, हमारा एवं संघ का अमूल्य धन है। उसे सुसंस्कारी बनाने हेतु धार्मिक पाठशाला अवश्य भेजे।