Book Title: Jain Syadvadamuktawali
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Vadilal Vakhatchand Zaveri
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org * ** **** श्री जैन स्याद्वादमुक्तावली. COMMERCE DESPERD Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only * * * * **** * * * संशोधक, मुनि श्री बुद्धिसागरजी. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पंडित यशस्वत्सागरगाण कृत ॥श्री जैन स्याहाद मुक्तावली ॥ संशोधक, योगनिष्ठ मुनि श्री बुद्धिसागरजी. छपावी प्रसिद्ध करनार, झवेरी वाडीलाल वखतचंद. अमदावाद धी डायमंड ज्युबिलि मिन्टिंग प्रेस. =cor वीर संवत २४३५ संवत १९६५ मूल्य अमूल्य. For Private And Personal Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ स्यादाद मुक्तावली॥ श्लोक. अशुद्ध. १३ वादि ५ २६ दे दे विरुद्ध विरुद्ध विरुद्ध विरुद्ध कन्ते कान्ते बोर्द विरुद्ध प्रत्यक्षः सिदेन बोर्ड विरुद्ध प्रत्यक्षा: सिद्धन सद्धेतो सदेतो कुमद्य विरुद्ध कृताद्वय विरुद्ध विरुद्ध विरुद सिद्ध सिदि सिद्धि देशंन दर्शन पछे समीपाद नयः ६ गयम् ३४ For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir M E -.-- . प्रस्तावना. जैनतवन शान मनुष्योना आत्माओने परमात्म स्वरुप अपें छे-जैन तत्त्वना षणा ग्रंथो छ-केटलाक जैन न्याय ग्रंथो एवा छे के मोटा मोटा परितोयी तर्नु रहस्य बराबर सयजी शकाय. बाळजीवोने समजवा माटे जैन स्याद्वाद मुक्तावली नामनो ग्रंथ रचनामां आव्यो छे. आ ग्रंथ अमोए लहिया पासेथी लीधो हतो. पण बांचवायी मालुम पडओँ के, मा ग्रंय छपाशे तो जन न्यायना ग्रंथोमा प्रवेश करवा पाटे प्रथमाभ्यासी जनाने सरलता थशे अमदावादवाळा प्रवेरी शा. भोगीलाल (मंगळभाइ) ताराचंदने आ ग्रंथ संबंधी हकीकत कही. त्यारे तेमणे पोतानी तरफथी छपाववानी परजी जणाबवाथी परितोनी म्हायची यथामति संशोधन करी मुद्राकित कर्यो छे. आ ग्रंथमा जे कंइ अशुदि रही गह छे तेने सुपारी अशुदि एदि पत्रक आप्युं छे. _स्यादाद मुक्तावली ग्रंथना कर्ताः आ ग्रंथना कर्त्ता तपागच्छीय पंडित मुनिवर्य श्री यशस्वत्सागर गणि छे. सेमनुं जीवनचरित्र जाणवामां भाव्यु नथी. कया देशमा विशेषतः विचरता हता ते नकी करवानुं बाकी रहे छे तो पण गुजरात मारवाड, वगेरे देशमां विचरता हो एम अनुमान याय छे. संवत १७२० लगभगनी सालमा तपागच्छमा आचार्य श्री विजयप्रभसूरीश्वर थया. तेमना धर्म राज्यमा उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी तथा श्री विनयविजयजी वगेरे समय महा मानी मुनिरानो यएका छे. श्री विजयममसरिना शिष्य श्री पंडित कल्याणसागरजी गया. वेमना शिष्य पंडित यासागरजी यया. तेमना शिष्य हित श्री.यशस्वत्सागरगणि यया.. भी यशस्वत्सागरजी चारित्रसागजीनी पासे भया For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होय एम लागे छे तेथी स्वरचित ग्रंथमां गुरुचारित्रसागर आम लखे छ:-पदाच धर्म गुरू पण होष ते शानी बाणे. यशस्वत्सागरमणिनी न्याय तथा काव्यना विषचमी विद्ता अपूर्व लागे छे ते आग्रंथ जोनारने मालुम पडझे. स्पाबाद मुक्तावलीनी टीका छे के नहि ते जणायुं नयी. कोइ आ अंथनी टीका रचे तो धन्यमदने पात्र थशे .. पनसागरजीमणि के जे न्यायना विषयमा विद्वान् थयाते पण सागर शाखामां थया. तेमणे युक्ति प्रकाश नामनो न्याय ग्रंथ रच्यो छे. भोजसागरगणि नामना विद्वान यया तेमणे उपाध्याय श्री यशोविजयनीकृत द्रव्य गुण पर्यायना रास उपर संस्कृत टीका रची छे. तेनु नाम द्रव्यानुयोगतर्कणा राख्थु छ. आवी रीते सागर शाखामा पण अनेक विद्वानो थया छ. विजय, सागर, विमल,चंद्र, रत्न विगरे तपागच्छनी शाखाओ छे तेपायी हाल सागर, विजय, विमल ए प्रण शाखाओ नजरे पडे डे. सर्व शाखाओ वा गच्छोनो उद्देश तत्व ज्ञानवडे आत्म स्वरुपमा रमणता करी परमात्मपद प्राप्त करतुं ते छे. तेथी कोइने गच्छ, शाखा, उगाश्रयमो मुझावार्नु नथी, गच्छादिक बाबनी ओलखाण पाटे छे. अंतरमा उतरतां ते नथी. मा ग्रंथना श्लोकोनें कोई विस्तारपूर्वक गुजरभाषांतर करशे तो बहु लाभ यवा संभव छे. .. आ ग्रंथमा कोइ ठेकाणे अशुद्ध देखाय तो पंडित मुनिपर्योए जणान के जेथी बीजी आवृश्चिमा मुधारी शकाय.. जा ग्रंथ सुधारवामां कई मति दोष थयो शेप तो पंडित पुरुको सधारणे.. ॐशान्तिः शान्तिः शान्ति लेखक मुनि बुद्धिसागर. For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ॐ महामुनि रविसागरगुरुभ्यो नमः श्री जैन स्याद्वाद मुक्तावली ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रणम्य शंखेश्वर पार्श्वनाथं प्रकाशितानंत पदार्थ सार्थ स्वान्य प्रकाशाय तमस्तमार्कः प्रकाश्यते जैनविशेष तर्कः ॥ १ ॥ स्याच्छन्दार्थलसद्र सोद्भवभवा द्रव्यादिभिर्भास्वती स्वान्य द्रव्यचतुष्टयैक्य कलिता सार्वोक्तिभिःशाश्वती सत्सामान्यविशेषभावललिता स्यात्सप्तभंगावली धार्यासद्भिरियंसुखैककृमिला स्याद्वाद मुक्तावली |२| सत्तर्क कर्कशविचारपद प्रचारै दुवादिवाद रसनाशन शासनाय । अज्ञान संतमसराशि विनाशनाय स्यादवादसत्वतिलकाय नमो नमोस्तु ॥ ३ ॥ सम्यक् प्रमाण नय तत्त्वसतत्त्वसिद्धिः स्यात्सर्वदर्शि समयाध्ययनाभियोगात् For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्रैव वस्तु सकलं समरूप तत्त्वमाभासते तदपि मानयुग प्रतीतं ॥ ४॥ सन्त्येव प्राक्तन ग्रंथा स्तदुबोधप्रबोधकाः गभीरा विस्तृतास्तेषु नाधिकारोऽल्पमेधसां ॥५॥ सुखोपायेन तेषांसन्न्यायशास्त्रार्थकांक्षिणां अज्ञान तिमिरोभेद द्योतरूपा प्रतन्यते ॥६॥ चिरंतनानां विशदोक्तियुक्तेः संक्षेपतोवाप्युपजी. व्य तस्याः तल्लक्षणानीहतदीयशब्दैः पर्यायशब्दैःपरिकल्पयामि जीवाद्यधिगमोपायौ सत्प्रमाण नयाविमौ विवेक्तव्यौतथैवान्य प्रकारासंभवादतः॥ ८॥ जीवादिवस्तुनश्चैवाऽनेकान्तात्मकलक्षणं स्वद्रव्यगुणपर्यायैः स्थित्युत्पादव्ययात्मकैः ॥९॥ जीवाजीवौद्रौपदार्थोप्रसिद्धौतत्राऽप्याद्योद्विप्रभेदप्रभिन्नः अन्त्यस्त्विष्टः पञ्चधापुद्गलाख्यो धर्माधर्माकाशकालप्रभेदात् ॥१०॥ यथोक्तं ॥ द्रवत्यदुद्रवद्दोष्य त्येवंत्रैकालिकंचयत् तांस्तांतथैवपर्यायां स्तव्यं जिनशासने ॥ ११ ॥ For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुणोद्रव्यगतोधर्मः सहभावित्वलक्षणं पर्येत्युत्पादनाशौच पर्यायः स उदाहृतः ॥१२॥ द्रव्यहि सामान्यविशेषरूपं स्वतस्तथाप्रत्ययवेदनेन आद्यं विधास्यादनुवृत्तिहेतुः द्विधा द्वितीयोव्यतिवृत्तिहेतुः ॥ १३ ॥ सामान्यमेतत् किलतिर्यगूलता भेदप्रभिन्नं दिविधं वदन्ति ते व्यक्तौ समानं प्रथमं गवां बजे गोत्वंयथाद्रव्यमिदं ततोऽन्यथा ॥ १४ ॥ तुल्या सदा परिणतिःप्रथमस्यलक्षणं व्यक्तिंप्रतीहगदितं निजजातिवाचकं पूर्वापरात्म निजपर्यव वर्तनत्वतः द्रव्यंतदेवमपरंमतमूर्धताभिधं ॥१५॥ व्यक्ति विशेष स्वत एव सद्यो वच्छेदकत्वाद् व्यतिवृत्तिरूपः सोऽपिविधास्याद् गुणपर्यवाभ्यां स्वरूपभेदप्रथितात्मताभ्यां ॥ १६ ॥ द्रव्ये गुणाः सन्ति सदा सहोत्था स्तत्पर्यवास्ते क्रमभाविनः स्युः For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्याद् भेदभिन्ना नवधर्मापेक्षाकृतोप्यमीषां कथितः प्रभेदः ॥ १७ ॥ ॥ सर्व तथान्वयिद्रव्यं नित्यमन्वयदर्शनात् ॥ अनित्यमेतत्पर्यायै रुत्पादव्ययसंगतैः ॥ १८ ॥ प्रध्वस्तेकलशे शुशोचतनया भौलौसमुत्पादिते॥ पुत्रः प्रीतिमवाप कामपिनृपः शिश्रायमध्यस्थताम् ॥ पूर्वाकारपरिक्षयस्तदपराकारोदयस्तद्वया धारश्चैक इति स्थितंत्रयमतं तथ्य तथा प्रत्ययात्॥१९॥ घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् ॥ शोक प्रमोदमाध्यस्थ्यं जनोयाति सहेतुकं ॥२०॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोति दधिवतः॥ अगौरसवतोनेमे तस्मादस्तुत्रयात्मकम् ॥ २१ ॥ उत्पादोनविना व्ययेन नविना ताभ्यांप्रसाध्यास्थितिः संत्येतेहिपरस्परंखलुनिजैः पर्यायभावाश्रितैः ॥ भिन्नास्त्वेकपदार्थगाअपि मिथो भिन्नस्वभावादितः सैवेयंत्रिपदीजिनेशगदिता तस्यास्तुवश्यंजगत्।॥२२॥ द्रव्यपर्यायसंयुक्तं पर्यायाद्रव्यसंगताः ॥ गुणो द्रव्यगतो धर्मः स्वरूपात्रितयंविदुः॥ २३॥ तथोक्तं ।। द्रव्यं पर्यायवियुतं । पर्यायव्यवर्जिताः For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ककदा केनकिंरूपा । दृष्टा मानेन केन वा ॥ २४ ॥ स्वद्रव्यादि चतुष्टयेनपरतस्तेनैव तद्धेतुना ॥ भावाभावयुगात्मकस्तुकलशो जातस्तथा प्रत्ययात् इत्थंनैवयदा तदैव कलशः स्तंभादिवस्फुटम् || तस्मान्नात्रविचारणापि सुधिया कार्याविचार्यागमे २५ परस्परं यत्र विरुद्धधर्माश्रित स्वभावा गुणिपर्ययेषु || नदोषपोषायविरुद्धधर्मा ध्यासस्त्वनेकान्तमतानुगानाम् ॥ २६ ॥ सर्व मस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च अन्यथा सर्व सत्वं स्यात् स्वरूपस्याप्य संभवः ॥ २७ ॥ पुत्रत्वमपि पितृत्वं मातुलत्वंच पौत्रता भ्रातृव्यत्वं तथा भागिनेयत्वंचपितृव्यता ॥ २८ ॥ एकस्मिन्नेव पुरुषे धर्मा एते विरुद्धकाः ॥ संगच्छन्ते कथं विन्नास्त्यपेक्षाकृताअमी ॥ २९ ॥ पुत्रत्वं च पितृत्वंचा-पेक्षयापि कृतं भवेत् ॥ पितुः पुत्रस्य भेदस्यैकस्मिन्नरिहि संगतं ॥ ३० ॥ ॥ यथोक्तम् ॥ भागे सिंहोनरः सिंहो योऽसौ भागद्वयात्मकः ॥ तमभागं विभागेन नरसिंहं प्रचक्षते ॥ ३१ ॥ For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयः संकरो वैय-धिकरण्यानवस्थिती॥ अप्रतिपत्तिर्विषय व्यवस्थाहानिरित्यमी ॥ ३२ ॥ यत्कार्यकारणतयापिमतान्तरीया ॥ नित्यत्वमन्यदपिवस्तुनिमन्यमानाः॥ तत्किंविरुद्धघटना न भवेत्तदानीं ॥ स्वीयाश्रितेपि न मते गुणदोष चिन्ता ॥३३॥ एतेदोषानचैवात्र स्यादादे संभवन्त्यमी ॥ जात्यंतरवानिरवकाशाएवप्रतिष्ठिताः॥३४॥ स्वभाव भेदः किलवस्तुनस्तु स्वीय स्वभाव व्यतिवृत्तितोपि ॥ अतत्स्वभावात् पर कल्पनायां तदानवस्थास्वयमेतिवृद्धिं ॥ ३५॥ एकान्तनित्ये न गमागमौ स्तः न पुण्य पापे न च बन्ध मोक्षौ तथाप्यनित्यपि स एव दोष स्तस्मादनेकान्तमते न दोषः ।। ३६ ॥ स्यादित्यव्ययमेवेद मनेकान्त प्रदीपकम् अष्टास्वपिपदेष्वेव मियं तत्वचतुष्टयी ॥३७॥ नित्यानित्यत्वमेवैका-न्यासामान्यविशेषभिद् For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७ अभिलाप्यान्यभेदेका भावाभावात्मिका ॥ ३८॥ एकान्तनित्ये सुखदुःखयोस्तु | भोगो न जीवे न तथाप्यनित्ये । क्रमाक्रमाभ्यां तथाहिनिया । नित्येक्रियावस्तुनि नो घटेत ॥ ३९ ॥ 1 चित्रं यदेकं तदनेक मत्र प्रामाणिकै रूप मुरीकृतयैः ॥ एकत्र मान्याः सततं त्वदन्यै रुपाधि भेदेन विरुद्ध धर्माः ॥ ४० ॥ स्वतंत्रनित्यानित्याभ्यामपरेवादिनः पुनः ॥ मिश्राभ्यामपि ताभ्यांतु प्रोचुः स्यादादवादिनः । ४१ । कुंडली कुंडली कारावावस्थाश्रितोपवा व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्ता नैकंतेसंगतास्तदा ॥ ४२ ॥ एकांतवादोनच कांतवादो प्यसंभवोयत्र चतुष्टयस्य उपक्रमो वानुगमो नयश्च निक्षेप एते प्रभवंति तदत् ॥ ४३ ॥ महाग्रंथेषु यत्प्रोक्तं तत्वं चतुश्चतुष्टयं विज्ञेयं वृत्तितो विद्भिः सविशेषं विशेषतः ॥ ४४ ॥ जीवः पदार्थों गुणिता गुणास्तु ॥ For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८ विज्ञान शक्ति प्रमुखास्त्वनंताः । नृदेवतिर्यग्निरयैकरूप पर्यायरूपं प्रवदन्ति तत्त्वं ॥ ४५ ॥ अजीवंश्वापिजीवंति जीविष्यंतिचयेसदा जीवाइति जिनास्तत्वं जगुर्हिजगदुत्तमाः ॥ ४६ ॥ संसारिणश्रयेजीवाः संसरति पुनः पुनः समसार्षुश्च संसारे संसख्यिंति ते सदा ॥ ४७ ॥ संसार्य संसारितयोपयोगी । द्विधा प्रमाता व्यवहारतोपि ॥ कर्त्ता च भोक्ता तनुमान मेयः । शुद्धात्स्व भावोर्द्धगतिस्त्व मूर्त्तः ॥ ४८ ॥ चेतना लक्षणोप्यात्मा प्रतिक्षेत्रं पृथगुस्थितः । ज्ञातश्रोभयमानेनादृष्टवान् परिणाम्य सौ ॥ ४९ ॥ ॥ अथ प्रकृतं ॥ उद्देश लक्षण तत्परीक्षा द्वारेण तेषां सदुपाय माहुः ॥ उद्देश मेवात्रहिनाम मात्र ॥ वस्तु प्रकाशोद्यत मामनन्ति ॥ ५० ॥ तल्लक्षणं यद्व्यतिकीर्णवस्तु । व्यावृत्ति हेतु द्विविधं तदेव ॥ For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आत्मानुभूतं तदनात्मभूत मौष्ण्यं यदमेः पुरुषस्तुदंडी ॥ ५१ ॥ तेषां यथा स्यात् सदसद्विचारो युक्तेर्बलात्सैव मतापरीक्षा ॥ एभिस्त्रिभिर्वस्तुसदैव लक्ष्य सत्तार्किकाणां किल वृत्तिरेषा ॥ ५२ ।। अव्यापकत्वं हि तदेकदेश्यतिव्यापकत्वंत्वितरानुवृत्ति ॥ कुत्राप्यवर्तित्वमसंभवस्यैते लक्षणाभासतयात्रयोमी ॥ ५३ ॥ स्वपरव्यवसायिलक्षणं गदितंज्ञानमिदंप्रमाणकृत् ॥ सदसत्सकलार्थसंग्रह ग्रहणाभिज्ञमतोविशेषकृत् ॥ ५४ ॥ यत्सन्निकर्षादिरसंविदात्मा प्रामाण्यशाली न भवेकदाचित् ॥ नार्थान्तरस्यैवमचेतनत्वा वार्थोवपत्तीकरणत्वमस्य ॥ ५५ ॥ किंस्यात्ममायाः करणत्वमस्य प्रत्यक्षता वापि कथं घटेत ॥ For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir प्रमाणता वापिकृतस्तमांस्यात् । नो सन्निकर्षे त्रितयं कदाचित् ।। ५६ ॥ असन्निकृष्टं प्रमितेर्हिचक्षु. प्राप्य कारित्वत एवं हेतोः। तदुद्भवः स्यात्खलु सन्निकर्षाभावपि तस्यां न घटेत तत्ता ॥ ५७॥ चक्षुर्मनोवद्विषयोद्भवानुग्रहोपघातानुपलंभतोपि । अप्राप्यकारीद्रिय मंडलेषु स्याव्यञ्जजनावग्रहकश्चतुषु ॥ ५८ ॥ न विद्यते चक्षुषि तैजसत्वं न रश्मिवत्ता न च तद्गतिस्तु अप्राप्तवस्तु प्रवर प्रकाशे तद्योग्यतैवं शरणं वदन्ति ॥ ५९॥ व्यवसाय स्वभावंहि । प्रमाणत्वादुदीरितं ॥ परोदितं तथा निर्विकल्पक व्यवसायहृत् ॥ ६॥ समारोप विरुद्धत्वाचनेवं न तदीदृशम् ।। तमि स्तदध्यवसायो व्यवसायः शितेशिनम् ॥ ६१ ॥ अतत्प्रकारे सतितत्प्रकारतान्तः समारोप इति प्रसिद्धः ॥ For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विपर्ययः संशय एव तत्रोपचारतोऽनध्यवसायसंज्ञः ॥ १२॥ विपरीतैककोटेस्तु निष्टंकनं विपर्ययः शुक्तिकायां हि रजतं समारोपोयमादिमः॥६३ ।। अनिश्चितानेककोटि-स्पशिज्ञानंचसंशयः स्थाणुर्वापुरुषोवेति समारोपो द्वितीयकः॥६४ ॥ किमित्यालोचनप्रायं ज्ञेयोऽनध्यवसायकः गच्छतश्चतृणस्पर्श विषयंज्ञानमुच्यते ॥६५॥ पूर्वाकारंपरिक्षयोत्तरधृता कारः स्मृतं कारणम् पूर्वाकारपरिक्षयोत्तरपरीणामस्तुकार्यं भवेत् निर्दिष्टकरणंचसाधकतमं तत्कारणस्यात्रिधोपादानंसहकारिकारणमतोऽपेक्षाकृतं कारणम् ।। ६६ ॥ एकंत्वसाधारण कारणंस्या दन्यच साधारण माहुरत्र ॥ एकं छुपादान मतो मतं च तथान्य दन्येन कृतं कृतं तत् ॥ ६७॥ उत्पत्तौ परतः स्वतश्च परतो जप्तौ प्रमाणं भवेत् प्रत्यक्षं च परोक्ष मेतदुभयं मानं जिनेंद्रागमे ॥ अक्षाधीनतयाऽस्मदादिविदितं स्पष्टंविधालौकिकम् For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२ मन्यत्तत्किलपारमार्थिक मतो नित्यं सतां संमतम्॥६८॥ आद्यं सांव्यवहारिकं पुनरपिद्वेधेन्द्रियाऽनिंद्रियोs त्पन्नत्वाद्विदितं तथापि हि चतुर्भेदं तथाऽवग्रहः ईहापाय सुधारणाभि रुदितं ज्ञानंहिमत्यात्मकम् तत्राद्यं विकलं तथा च सकलं तद्वान् स्मृत स्तीर्थ कृत् ॥ ६९ ॥ ज्ञानावरणनाशाच्च क्षयोपशम तो पिवा ॥ शब्दाद्यसंभविज्ञानं स्पष्टं स्वानुभवोदयात् ॥ ७० ॥ ज्ञानं सांव्यवहारिकं निगदितं प्रत्यक्षमेवेद्रियै र्जन्यंतत्किल पारमार्थिकमिदं तस्माच्च तद्धेतुकम् अन्यान्य व्यतिरिक्त लक्षणवतोः प्रत्यक्षताकिंतयो राधेस्यादुपचारतः कविवरैज्ञी ने परोक्षेऽग्रिमे ॥ ७१ ॥ स्पष्टं विशेष विशदप्रतिभासमानं ॥ प्रत्यक्षमेक मुदितं व्यवसाय रूपं तद्देशतो हि विशद प्रतिभासनत्वात् ज्ञानं विशिष्ट मिह सांव्यवहारिकं स्यात् ॥ ७२ ॥ ज्ञानं भवेदिंद्रिय जन्यमेकम् पुनस्तथानिंद्रिय जन्य मन्यत् स्पर्शादिकानां पुनरिंद्रियत्व मनिंद्रियत्वं मनसो वदंति ॥ ७३ ॥ For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३ मनः पुनस्तद्वय साधनोत्क मप्राप्यकारिस्वमते च चक्षुः ॥ ज्ञानं तथैवाहुरपीतराणि यत्प्राप्य कारीणि तदिन्द्रियाणि ॥ ७४ ॥ योग्येन्द्रियार्थसमयोद्भव मुख्यसत्ता तन्मात्र गोचर समुद्भवसद्विशिष्टम् संगृह्यतेऽविशदं खलु येन वस्तु सोsवग्रहः पुनरयं पुरुषः समस्ति ॥ ७५ ॥ तद्गोचरीकृत पदार्थ विशेष संवि दीहास्ति संशय निराकरणोद्भवाऽत्र यद्येषएष पुरुषः किल दाक्षिणात्य स्तत्प्रत्ययात्मकतया ग्रहणाभिमुख्यम् ॥ ७६ ॥ जातस्तथेहितविशेष विनिश्चितात्मा भाषाद्यशेष विषयाचरणादपायः निश्चित्यवैष पुरुषः खलुदाक्षिणात्यो याथात्म्यबोधविधिना विधिवत्प्रयुक्तः ॥ ७७ ॥ कालांतरेण तद् विस्मरणाय योग्यं तज्ज्ञानमेवगदिता किलधारणैषा स्याच्चागृहीतविषय ग्रहणादमीषां कोप्यत्र पूर्व मुनिभिः कथितः क्रमोऽयं ॥ ७८ ॥ For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४ तत्राद्यं विकलं निजावरण कच्छेदोद्भवोत्पत्तिमत् किञ्चित्स्यादसमस्तवस्तु विषयावच्छेदकत्वात् पुनः प्रत्येवं प्रथमं हियभवगुणी सत्प्रत्ययौ यस्य तौ रूपिद्रव्य सुगोचरं तदवधिज्ञानं ह्यदः षड्विधम् ॥ ७९ ॥ चारित्रशुद्धि संजात विशिष्टावरणक्षयात् यन्मनोद्रव्य पर्यायालम्बनं विनिवेदितम् ॥ ८० ॥ तद् देधा संज्ञिजीवानां । मानुषक्षेत्रवर्तिनाम् मनःपर्याय विज्ञानं । मनः पर्यवसंज्ञिकम् ॥ ८१ ॥ स्वसामग्री विशेषोद्यत्समस्तावरणक्षयात् सकलं घातिसंघात विघातापेक्षमीरितम् ॥ ८२ ॥ समस्तवस्तु विस्तार | साक्षात्कारि त्रिकालतः सर्वथा सर्वदा नित्यं । केवलज्ञान मेवतत् ॥ ८३ ॥ सर्वज्ञोऽसौ वीतरागः प्रसिद्धो निर्दोषत्वात्सद्भिरेवोदितश्च ।। निर्दोषोऽयं सत्प्रमाणाऽविरोधि वाक्तत्वादत्र स्पष्टदृष्टान्त एषः ॥ ८४ ॥ स्युः सूक्ष्मांतरितातिदूरगुणिन स्त्वण्वादयः कस्यचित् प्रत्यक्षः सततं यथाहुतवहः साध्योनुमेयत्वतः सर्वज्ञः किल सोस्त्यनिन्द्रियकतो ज्ञानाच्छ्रुतः सुश्रुतात् For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यस्मादिन्द्रियजं न सर्व विषयं ज्ञानं भवेत्कर्हिचित् त्वमेव निर्दोष इतीहशास्त्राऽविरोधिवाक्देवयतो विरोधः। यथा प्रसिद्धेन न बाध्यतेत्र। तस्मादनेकान्तमताद्यदिष्टम् ॥ ८६ ॥ त्वदाक्सुधापानपराङ्मुखानाम् सदैवमेकान्तमतानुगानाम् निजातहेवाकविदंबितानाम् खेष्टं च दृष्टेन हि बाध्यतेन ॥ ८७॥ चारित्रांशः कलौभूरि भाग्यभाजांसुदुर्लभः अस्मद् भाग्योदयादाप्तो गुरुश्चारित्रसागरः ॥ ८८॥ सूरिः श्रीविजयप्रभस्तपगणार्धाशोनतेशः श्रिये कल्याणादिम सागराह्वगुरवो विद्वद्यशः सागराः तच्छिण्यस्य यशस्वतः कृतिरियंस्यादाद मुक्तावली प्रत्यक्षस्तबकः प्रमाणरसिकस्तत्राद्य एवाजनि ।। ८९॥ इति श्रीमत्तपगच्छीय पण्डित श्रीयशः सागर गणि शिष्य भुजिष्य पं० यशस्वत्सागर गणिप्रगल्भितायां स्यादाद मुक्तावल्यां प्रत्यक्षप्रमाण प्रबो. धकः प्रथम स्तबका प्रस्फूर्तिभावमबीभजत् ॥ For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अथ द्वितीय स्तबकः॥ अथ द्वितीयं प्रतिपाद्यमानाs. स्पष्टत्वभावाभिमतं परोक्षं ॥ आद्ये परोक्षे हिमति श्रुते हे सैद्धान्तिकास्तावदिदं वदन्ति ॥१॥ स्मरणं १ प्रत्यभिजानं २ तर्कोऽ३ थानुमितिः ४ श्रुतं ५ परोक्षं पंचधा पाहु भूरयः पूर्व सूरयः ॥२॥ मानार्पिता या प्रसभंप्रतीता प्रतीतिरेवानुभवः प्रतीतः॥ क्रमोत्तरं कारण माहुरेषाम् क्रमोप्यमीषामय मेवसिद्धः॥३॥ संस्कार बोधोदित कारणेन तथानुभूतार्थक गोचरंयत् तच्छदमात्रोल्लिखन स्वरूपं विज्ञान मेतत्स्मरणं परोक्षम् ॥ ४॥ स्मृतं तथैवोपमितं वितर्कितम् । पुनस्तथैवानुमितं श्रुतश्रुतम् प्रत्यक्षतोवापि धृतं पुरा यत् सर्वज्ञ विवं स्मरणे निदर्शनम् ॥ ५॥ For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७ हेतू तु यस्यानुभवस्मृतीते सामान्ययुग्मं विषयोपदेश स्तथा पुनः संकलनस्वरूपं तत् प्रत्यभिज्ञानमतो वदन्ति ॥ ६॥ एकं हि पूर्वोत्तर कालवर्ति दशानुषक्तं सदृशत्वतोऽन्यत् ततोऽन्यथाऽन्यत् किलयोगक्लप्त मन्तः प्रविष्टं छुपमान मत्र ॥ ७ ॥ स एष दृष्टो जिनदत्त एष सगोसदृक्षो गवयस्तथाऽन्यः गोर्वे सदृक्षो महिषस्त्वयंत निदर्शनं संकलनात्मकेस्यात् ॥ ८॥ मानोपलंभानुपलंभहेतु ाप्ति हिं यस्मिन् विषयोपदेशः अस्मिन्सतीदं भवति स्वरूपं तर्कोस्ति धूमोदहन स्तु यत्र ॥९॥ अन्वय व्यतिरेकाभ्यां निदर्शन निदर्शनम् अन्वयः सति सद्भावे व्यतिरेक स्ततोन्यथा ॥१०॥ तर्कः प्रमाण मात्रेणोपलंभानुपलंभतः संभवः कारणं यत्र कालत्रितयवर्तिनोः ॥११॥ For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८ साध्य साधन यो व्यत्याद्यालंबन मिदंहियत् अन्वयव्यतिरेकाभ्यां संवेदन मुदीरितम् ॥ १२ ॥ साध्य साधनयोर्नित्यं कालत्रितयवर्तिनोः संबंधो व्याप्तिरित्येवाविनाभावितयोच्यते ॥ १३ ॥ अप्रत्यक्ष पदार्थस्य कथं प्रामाण्य निर्णयः अर्थ क्रियाभिसंवादादनुमानेन निर्णयः ॥ १४ ॥ अथानुमानं द्विविधं वदन्ति स्वार्थपरार्थं ह्युपचारतोपि स्वस्मैहितं स्वार्थमिदं सुधीभि रन्यत्परस्मैप्रतिपाद्यमानम् ॥ १५ ॥ ॥ स्वार्थ स्वहेतु ग्रहण व्याप्ति स्मरण पूर्वकम् ॥ यदेव साध्य विज्ञान मनुमानं तदेवहि || १६ || अप्रतीतमनिराकृतमेतत् साध्यमेवयदभीप्सितमत्र | व्याप्ति पक्षसमयोदित साध्यं तद्विकल्पवशतोपिचमानात् ॥ १७ ॥ साध्यंयदविनाभाव साधनं यत्र लक्षणम् अन्यथानुपपत्त्यैक लक्षणं यत्र साधनम् ॥ १८ ॥ यावान्कश्चिदयं सधूमनिकरः सत्येववह्नौ भवेत् यत्सत्वेप्रथमोन्वयोनिगदितोयत्सत्वमेवोभयम् For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धूमोऽत्राऽसतिपावके भवतिनोतत्तुद्वितीयोऽधुना। ज्ञातव्योव्यतिरेकएष सततं चैवाऽन्यथा लक्षण । १९ । व्याप्तिःसदा द्रव्यगुणक्रियाभिरत्यंत संयोग विशेषएव तथाविनाभावइतीह नित्यसंबंधिसंबद्धविशिल्या२० प्रतिबंधोऽविनाभावः संबंधोव्याप्तिरिष्यते हेतुव्याप्तिसमायोगः। परामर्शः स उच्यते ।। २० ॥ सहभावक्रमभावा वनयोर्नियमःस्मृतोऽविनाभावः। ब्यालेनिश्चयतःस्याव्याप्तिः सैव प्रकाश्यते विबुधैः॥२१॥ येनधर्मेणधर्मस्य । सहभावविनिश्चयः॥ वृक्षत्वंगमयत्येव । शिशपात्वेन हेतुना ॥ २२ ॥ धूमस्यापिबृहद्भान्वं-तरभाव विनिश्वयः॥ धूमोमिंगमयत्याशु । क्रमभावः स्मृतोऽपिसः ॥२३॥ साधनं त्रिविधं कार्य स्वभावानुपलंभभित् ॥ पक्षोपि हेतुवत्साध्यः। साध्य संबंध सिद्धये ॥ २४ ॥ पक्षस्य वचनंयत्स्था । त्साप्रतिज्ञाप्रकाश्यते। साध्य धर्म विशिष्टेऽपिपक्षत्वं धर्मिणिश्रुतं ॥२५॥ अनुमान स्वरूपातौ संबंध स्मरणान्वितः ।। पार्लिंगपरामर्शः कारणं तत्र सूरयः ॥ २६ ॥ धर्मिणोऽपिप्रसिद्धत्वं विकल्पाच प्रमाणतः॥ उभाभ्यांवापि विज्ञेयं स्वसंवेदन वेदकम् ॥ २७ ॥ For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir || २० स्वार्थानुमानं स्यात्र्यं । धर्मी साध्यं च साधनम् ॥ साधनात्साध्यसंसिद्धि नुमान प्रयोजनम् ॥ २८ ॥ 'साध्यधर्मविशिष्टेपि पक्षत्वं धर्मिणि श्रुतम् ॥ अन्यथानुपपयैक लक्षणोहेतुरिष्यते ॥ २९ ॥ सद्धेतोर्ग्रहणं तथा स्मरणकं व्याप्तेस्तयोः संभवम् साध्यज्ञानमतोऽनुमानकमिदं स्वार्थसुधीभिर्धृतं साध्यत्वंचतथाप्रतीतमितितत्त्रेधाश्रुते विश्रुतं किंत्वस्मादनिराकृताद्वयमिदंचा भीप्सितात्तत्रयं॥३०॥ कृशानुमानयंदेशः प्रोच्यते पक्षधर्मता हेतूदितं धूमवत्वादनुमानं सुधी हितम् ॥ ३१ ॥ हेतु प्रयोगतोद्वेधा तथोपपत्तिरन्वयः अन्यथानुपपत्तिस्तु व्यतिरेकः पुरोदितः ॥ ३२ ॥ परस्मैप्रतिपाद्यत्वात्प्रत्यक्षादेः परार्थता तथैवमनुमानस्य सर्वत्रैवं विभावना ॥ ३३ ॥ हेतोर्वचनतः स्वार्थ पक्षहेत्वोः परार्थकं बालव्युत्पत्तिसिद्ध्यर्थं पंचावयवमीरितम् ॥ ३४ ॥ प्रतिबंधप्रतिपत्ते रास्पदं यस्य लक्षणं देधा साधर्म्य वैधर्म्यभेदाद्दृष्टान्त एवसः ॥ ३५ ॥ साध्यधर्मिणि सद्धेतो रुपसंहरणं तथा ॥ धूमश्चात्र प्रदेशेऽयं तस्मादुपनयः स्मृतः ॥ ३६ ॥ For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्पुनः साध्यधर्मस्य पूर्वयोगेनभाषितम् तत्तस्मादमिरत्राय मेतन्निगमनं स्मृतं ॥ ३७॥ यथामिमानयं देशः प्रोच्यते पक्षधर्मता धूमवत्त्वाद्धेतुवाक्य मनुमानं परार्थकम् ॥ ३८॥ य एवं च सएवंतौ दृष्टान्तोपनयावुभौ पाकस्थानं निगमनं मंदधीसिद्धयेत्रयं ॥ ३९॥ प्रकाश्यते साधन धर्मसत्ता तस्यांकृता साध्य सुधर्मसत्ता साधर्म्य दृष्टान्त इति प्रदिष्टो यत्रास्तिभूमौ दहनस्तुतत्र ॥ ४०॥ साध्याभावे साधनस्याप्यभावो वैधोक्तौ वै स दृष्टान्त एषः॥ शौचिः केशाभावतोम्याप्यभावो। धूमस्यास्मिन ज्ञेय एव हृदे सः॥४१॥ प्रयोगतोपिद्विविधः सहेतु स्तथोपपत्तिस्तुयदन्वयः स्यात् ।। ततोतिरिक्त स्तु तथान्यथानुपपत्ति संज्ञो व्यतिरेक एव ॥ ४२ ॥ देधोपलब्ध्यनुपलब्धिभिदाहि हेतुः साध्यंतयोविधि निषेध विशेष सिद्धिः। For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir एतेद्विधातदविरुद्ध विरुद्धभेदात् । साध्येन सार्ध मिहतच्चनवाऽपिहेतोः ॥ ४३ ॥ कार्यात्पुनः कारणकार्यताभ्याम् ॥ पूर्वोत्तराभ्यां च चरात्सहाय्यात् ॥ स्मृतोपलब्धिस्तुतथैववाऽन्या खभावतोऽपिप्रथितात्प्रयोगात् ॥४४॥ सिद्धौविधेस्तदविरुद्धयुतोपलब्धि याप्यादितश्चनियुताः किलषप्रकाराः अन्या स्वभावनियुताप्रतिषेधसिद्धौ स्या सप्तधा किल विरुद्धयुतोपलब्धिः॥४५॥ सप्तप्रकाशः प्रतिषेधसिद्धौ यथाविरुद्धानुपलब्धिरेषा। विधिप्रतीतौ किल पंचधेति स्मृता विरुद्धाऽनुपलब्धिरेवं ॥ ४६॥ एताश्वसोदाहरणा ज्ञेयाःसद्भिस्तुविस्तरात् ग्रन्थस्यभूयस्त्वभयानाबालेखि प्रमादतः॥ ४७॥ सद्भावरूपः किल वस्तुनोपि॥ विधिः सदंशोगदितः सुधीभि । रभावरूपः खलु वस्तुनस्तु। तस्यासदंशः प्रतिषेध एवं ॥४८॥ For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २३ चतुर्घायंप्रागभावः प्रध्वंसाभाव एव वा ॥ तथेतरेतराभावोऽत्यंताभावश्चतुर्थकः ॥ ४९ ॥ यन्निवृत्तौहिकार्यस्य समुत्पत्तिः प्रजायते । प्रागभावः समृत्पिंडो यथा कुंभस्य कथ्यते ॥ ५० ॥ यदुत्पत्तौहिकार्यस्य व्ययोऽवश्यं द्वितीयकः । कलशस्ययथाजातं यत्कपालकदंबकम् ॥ ५१ ॥ स्वरूपान्तरतःस्त्रीय रूपव्यावृत्तिरिष्यते । स्वस्वरूपव्यवच्छेदः । सचान्यापोहनामतः ॥ ५२ ॥ कुंभस्वभावव्यावृत्ति यथास्तंभस्वभावतः । इतरेतरनामातु तार्त्तीयकतयोदितः ॥ ५३ ॥ तादात्म्यपरिणामस्य निवृत्तिस्तु त्रिकालतः सोऽत्यंताभावएवायं चेतनाचेतनेयथा ॥ ५४ ॥ आप्तस्यवचनादावि भूतमर्थस्य वेदनं आगमस्तूपचाराच । सआप्तवचनात्मकः ॥ ५५ ॥ अभिधेयं यथावस्तु यो जानाति यथास्थितं यथा ज्ञानं चाभिधत्ते सआप्त इति विश्रुतः ॥ ५६ ॥ सधा लौकिक वक्ता - दिमो लोकोत्तरो जिनः ॥ अविसंवादि वचनम् । तस्यतस्माद्ध्वनिः स्मृतः। ५७॥ तद्वचनं वर्णपद वाक्यात्मक मुदीरितम् ॥ अकारादिः पौगलिको वर्णः शब्दः पुनः स्मृतः ॥५८॥ For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org २४ रूपादि वद्व्योम गुणो भवे नो शब्दोऽस्मदादींद्रिय वेदनत्वात् ॥ रूपादिवत्पौद्गलिकस्तदिद्रि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यार्थत्वतः पौगलिकत्व सिद्धिः ॥ ५९ ॥ अन्योन्यापेक्ष वर्णानां निरपेक्षा च संहतिः ॥ पदपदैरेव कृतं वाक्य स्येदंहि लक्षणं ॥ ६० ॥ स्वस्वाभाविक सामर्थ्य समयाभ्यां निवेदितं सदर्थस्यप्रतिपत्ति कारणं शब्द उच्यते ॥ ६१ ॥ तुर्वाक्यार्थ विज्ञाने आकांक्षा योग्यता तथा ॥ सन्निधिश्चेति विज्ञेयं त्रयं साधारणं मतं ॥ ६२ ॥ अभिव्यक्तेन संकेतां जातिव्यक्त्युभयाश्रितात् । वाच्यवाचक भावेन सोर्थस्य प्रतिपादकः ॥ ६३ ॥ शब्दार्थयोः प्रतिपत्ति । लक्षणा व्यंजनादिका ॥ ध्वस्तात्पर्य विज्ञानं । बहुधाच बहुश्रुतैः ॥ ६४ ॥ स्यादस्तिभेद एवैकः स्यान्नास्तीतिद्वितीयकः । स्यादस्तिनास्तिभेदोन्य स्तूयवक्तव्य संगतः ॥६५॥ स्यादस्तितोप्यवक्तव्यं स्यान्नास्तिपदतोपिवा । स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यं । सप्तमोभेदएवच ॥ ६६ ॥ स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यै रेकद्वाभ्यां विमिश्रितैः । भंगा विधिनिषेधाभ्यां स्यात्पदात्सप्तविश्रुताः ॥६७॥ For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ २५ यथा ॥ प्रनाद्विधिपर्युदासंभिदया बाधच्युता सप्तधा धर्म धर्म मपेक्ष्यवाक्यरचना नेकात्म केवस्तुनि ॥ निर्दोषानिरदेशिदेव भवता सा सप्तभंगीयया 'जल्पन्जल्परणांगणे विजयतेवादी विपक्षक्षणात् ॥६८॥ द्रव्यक्षेत्रकालभावैः । स्वैरन्यैस्तु घटोस्त्ययम् ॥ स्वभावात्परभावाच्च द्रव्याद्यैर्नास्त्यययथा ॥ ६९ ॥ कालादिभिरभेदेनो-पचारात्प्रतिपाद्यते ॥ प्रमाणवाक्यात्सैवायं । सकलादेशउच्यते ॥ ७० ॥ कालात्मरूपसंबंधाः संसर्ग पक्रियेतथा ॥ गुणिदेशार्थशब्दश्चेत्यष्टौ कालादयः स्मृताः ॥ ७१ ॥ तद्भावाव्ययएवैकं नित्यंलक्षणमिष्यते पर्यायापेक्षयादन्यदनित्यत्वमथोच्यते ॥ ७२ ॥ यथोक्तं ॥ चार्वाकोध्यक्षमेकं सुगतकणभुजौ सानुमानं सशब्दं तद्वैतं पारमार्थः सहितमुपमया तत्रयं चाक्षपादः। अर्थापत्त्याप्रभाकृत् वदतिचनिखिलं मन्यते भट्ट एतत् ॥ साभावदेप्रमाणेजिनपतिसमयेस्पष्टतोऽस्पष्टतश्च ॥७३॥ आद्योऽनेकांतवादश्च तथा सदसदात्मकः ॥ नित्यानित्यात्मकोवादोऽन्यः सामान्यविशेषकः ॥७४॥ चत्वार एते वादाः स्युः स्याद्वादे न विरोधिनः सप्तभंग्यामभिलाप्या नाभिलाप्याद्वितीयके ॥ ७५ ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चारित्रचारुमूर्तिर्यश्चारित्ररससागरः॥ चारित्रसिद्धयेमेस्ताद्गुरुश्चारित्रसागरः ॥ ७६ ॥ सूरिः श्रीविजयप्रभस्तपगणाधीशोनतेशः श्रिये ॥ कल्याणादिमसागराहगुरवोविद्वद्यशः सागरा स्तच्छिष्यस्य यशस्वतः कृतिरियंस्याद्वादमुक्तावली दैतीयीकतयापरोक्षजनकोगुच्छोऽभवत्तत्रसन् ॥ ७७॥ इति श्रीमत्तपगच्छीय पंडित श्री यशःसागरगणि शिष्य भुजिष्य पं० यशस्वत्सागर गणि प्रगल्भितायां स्यादाद मुक्तावल्यां परोक्षप्रमाण प्रातीतिकोयं द्विती यस्तबकः संपूर्णभावमभजत् ॥ संक्षेपतः समाख्याय प्रमाणस्यो भयस्यच इत्थं स्वरूप संख्येच गोचरो गृह्यतेऽधुना ॥१॥ गुणपर्यायवद्व्यं स्थित्युत्पादव्ययात्मकं अनेकान्त स्वरूपं चानुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाक् ॥२॥ ज्ञानस्यैतस्य विषयो लोकालोकद्वयात्मकः प्रमेयंवस्त्वितिज्ञातं सकलंसकलीरितम् ॥३॥ षड्द्रव्यैःपूरितं सर्वं नवतत्वान्वितं स्मृतं ॥ निर्णीतं ज्ञानिभिः सम्यक् तथेत्थंज्ञानगोचरः॥१॥ यथाहुः॥ हरिभद्रपादाः गंतूणनपरिछिन्दइ ॥ नाणंनेयंतयंमि देसम्मि॥ For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २७ आयत्थंचियणवरं, अचिंतसत्तीउविणेयं ॥ ५ ॥ लोहोवलस्ससत्ती. आयत्थाचेवभिन्नदेसंमि लोहंआगिसंती, दीसईइहकज्जपञ्चख्खा ॥ ६ ॥ एवमिहनाणसत्ती, आयत्थाचे व हंदि लोग तं ॥ जइपरिछिन्दइसम्मं, कोणुविरोहोभवें तत्थ ॥ ७ ॥ इत्यादि फलमस्य द्विधातच प्रमाणेन प्रसाध्यते आनंतर्येणवापारं पर्येणेति प्रशस्यते ॥ ८ ॥ प्रमाणानांयदज्ञान, निवृत्तिः फल मुच्यते औदासीन्यं फलं पारंपर्यात्सकलिवां सदा ॥ ९ ॥ विपरीतास्तदाभासाः प्रमाणादिस्वरूपतः स्वरूपसंख्या विषय फलेभ्यः प्रतिपादिताः ॥ १० ॥ स्वरूपाभास इत्येवं प्रमाणाभास उच्यते अनुपपत्तेः स्वपर व्यवसायस्य तत्वतः ॥ ११ ॥ अज्ञानात्मकमित्येवं संन्निकर्षादि दर्शनम् अस्यसंविदितंज्ञेयं तदनात्मप्रबोधकम् ॥ १२ ॥ परावभासकत्वं नैषांस्वमात्रावभासकम् विपर्ययाः समारोपा दर्शनं निर्विकल्पकम् ॥ १३ ॥ स्वपर व्यवसायस्तु नचैतेभ्यः प्रसिध्यति आभासका स्तु तइमे प्रमाणस्य प्रकीर्तिताः ॥ १४ ॥ For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आद्याभासइतीहमेद सहितो गंधर्व पूर्वारिदे दुःखे शंचतथाझवग्रह मुखाभासानिवेद्याः पुनः आभासोप्यवधेः शिवस्य विदितोदीपाश्चसमाब्धयः आभासः सकलस्यनैव विदितःप्रत्यक्ष बोधेप्यमी॥१५॥ अथ परोक्षाभासाः तदित्यननु भूतेपि स्मरणाभास उच्यते तुल्येर्थे प्रत्यभिज्ञाना भासमाहुः सएव च ॥१६॥ तर्काभासइतीह मैत्रतनयः सश्यामएवोदितः पक्षाभाससमुद्गतं ह्यनुमितेराभासमेवंजगुः तस्मात्तत्रितयंचतस्य विदितं, पूर्वोक्तमेतत्रयं पक्षस्य व्यतिरेकतः समुदितं तस्मात्ततो लक्षणं ॥१७॥ प्रतीताद्यास्त्रयोज्ञेयाःसाध्यधर्म विशेषणात् आद्यः समस्तिजीवोयं यत्परेणार्हतान् प्रति ॥ १८ ॥ प्रमाणश्रुत लोकस्वभाषादिभि रनेकधा आद्योनुष्णोमिरेवायं द्वितीयोस्ति न सर्ववित् ॥ १९ ॥ तृतीयोपिहिजैनेन कर्तव्यं रात्रि भोजनम् परदारा भिलाषोपि कर्त्तव्यः सर्वथा सदा ॥२०॥ तथा ॥ अथं गइमि आइचे पुरत्थायअणुग्गए आहारमइयं सव्वं मणसावि न पच्छए ।॥ २१॥ For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पक्षाभास प्रभेदाश्च बहुशोषहुधोदिताः सोदाहरणतस्तेतु द्रष्टव्या वृत्तितस्तथा ॥ २२॥ हेतुस्थाननिवेशात्त हेत्वाभासाअहेतवः असिद्धश्च विरुद्धश्वानकान्तिक इमेत्रयः ॥ २३ ॥ अन्यथानुपपत्तिस्तु यस्य मानेननोभवेत् सोसिद्धो विदितोदेधोभयान्यतर भेदतः॥२४॥ असिद्धभेदाबहवः पंचविशंति भेदिनः सविस्तरं विशेषस्तु । विज्ञेयो वृत्तितः खलु ॥२५॥ परिणामी पुनः शदश्चाक्षुषत्वात्तथादिमः अचेतनाहितरखो द्वितीयः सुगतेरितः ॥ २६ ॥ तथा. विकल्पार्मिणः सिद्धिः क्रियते कारणादतः देधाविधर्मिणः सिद्धि विकल्पातेसमागताः॥२७॥ विरुद्धस्तुभवेद्यस्यसैवसाध्य विपर्ययात् अनित्यो प्रत्यभिज्ञानादिमत्वात् पुरुषोप्ययं ॥ २८ ॥ अवान्तर प्रभेदा ये ज्ञेयास्तवृत्तितोभृशं यथापक्ष विपक्षेक देशवृत्ति विभेदतः ॥ २९॥ यस्य संदिह्यते सैव सोऽनैकान्तिक उच्यते देवानिीत संदिग्ध ताविपक्षवृत्तिकः ॥३०॥ नित्यः शब्दः प्रमेयत्वादाद्य भेदो भवेदयम् ॥ For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नैयायिकै स्तथोपाधिरुक्तोऽन्यः प्रतिपाद्यते ॥ ३१॥ दृष्टान्ताभास एवायम् । नवधापि द्विधापुनः। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां । नवभेदा भवन्ति ते ॥३२॥ अपौरुषेयः शब्दोत्राऽमूर्त्तत्वादुःखवत्स्मृतः निदर्शनानिदृष्टान्ता भासे ज्ञेयानिशास्त्रतः।३३ । शदोयंपरिणामवानुपनयाभासस्तुकार्यत्वत स्तस्मिन्नेवफले तथा निगमनाभासस्तुशद्धस्तथा तत्रानाप्तभवाहिचित्प्रवचनाभासश्च संख्यादितः प्रत्यक्षप्रवदंतिमानमपरेजातोद्वितीयस्तथा ॥ ३४॥ विषयाभासएवात्र सामान्योभयसंज्ञितम् फलाभासस्तथाभिन्न भिन्नमानादुदीरितं ॥ ३५॥ ददातिसेवयासम्यक्सागरः सामरोद्भवं मयारत्नत्रयंप्राप्तं गुरोश्चारित्रसागरात् ॥ ३६ ॥ सूरिःश्री विजयप्रभस्तयगणाधीशोनतेशः श्रिये कल्याणादिमसागराहगुरवोविद्वद्यशः सागराः तच्छिष्यस्ययशस्वतःकृतिरियंस्याबादमुक्तावली विज्ञातस्तबक प्रमेयविषयस्तस्यांतृतीयोप्यभृत् ॥३७॥ इति श्रीमत्तपगच्छीय पंडित श्री यशःसागरगणि शिष्यभुजिष्य पं० यशस्वत्सागरगणि प्रगल्भितायां स्यादाद मुक्तावल्यां प्रमेय सदाभासप्ररूपणोनाम For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तृतीयस्तबकः संपूर्णता मबीभजत् अथ नयस्वरूप प्ररूपणं. श्रुत प्रमाणाविषयीकृतस्य चार्थस्ययोंऽशः प्रकटोपियेन ॥ अंशस्यतस्मा दितरस्थ चौदा सीन्यादभिप्राय विशेष एषः ॥ १ ॥ 'तथा च वृद्धाः, जावइया वयणपहा तावइयाचेव इंतिनयवाया, जावइया नयवाया तावइया चेवपरसमया ॥२॥ नयः प्रसिद्धः प्रतिपत्तुरेव स्वार्थंकदेश व्यवसायकत्वात् सव्यासतोऽनेक विकल्प कल्प्यः समासतोयं द्विविधः प्रदिष्टः॥३॥ द्रव्यार्थिकनयस्त्वेको न्यः पर्यायार्थिकस्तथा निश्चयो व्यवहारस्तु शुद्धा शुद्ध भिदा द्विधा ॥४॥ नैगम संग्रहोन्यश्च व्यवहार स्तृतीयकः व्यार्थिकनयस्यैते भेदाः प्रोक्ताअमीत्रयः॥५॥ द्वितीयस्तु चतुर्भेदः ऋजुसूत्रश्च शब्दभाक् For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समभिरूढ एवस्या देवभूतश्चतुर्थकः ॥६॥ अमीसप्तनयाः प्रोक्ताः श्रीमत्स्याद्वादवादिभिः प्रमाणनयसंसिद्धं श्रीमत्स्यादाद शासनं ॥७॥ अहो ! चित्रं चित्रं तवचरितमेतन्मुनिपते स्वकीयानामेषां विविध विषयव्याप्तिवशिनां विपक्षाक्षेपाणां कथयसिनयानां सुनयतां । विपक्ष क्षेप्तॄणां पुनरिहविभो दुष्टनयतां ॥८॥ यथावा. निःशेषांशजुषांप्रमाणविषयीभूयंसमासेदुषां वस्तूनां नियतांशकल्पनपराः सप्तश्रुताःसंगिनः औदासीन्यपरायणास्तदपरेचांशाभवेयुनिया श्वेदेकान्तकलंकपंककलुषास्तेस्युस्तदादुर्णयाः॥९॥ मतपरीक्षापंचाशति ॥ स्वाभि प्रेतादथांशाचसद्यस्तव्यतिरेकतः इतरांशापलापीयोनयाभासः सउच्यते ॥१०॥ अत्र संग्रहश्लोकाः स्यादादमञ्जयो । अन्यदेवहिसामान्य मभिन्नज्ञानकारणं विशेषोप्यन्यएवेति मन्यतेनैगमोनयः ॥ ११ ॥ सद्रूपतानतिक्रान्त स्वस्वभावमिदंजगत् सत्तारूपतयासर्व निगृह्णन् संग्रहोमतः ॥ १२ ॥ For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir व्यवहारस्तुतमिव प्रतिवस्तु व्यवस्थिति तथैवदृश्यमानत्वाद् व्यापारयतिदेहिनः ॥१२॥ तत्रर्जुसूत्रनीतिःस्या छुद्धपर्याय संश्रिता नश्वर स्यैवभावस्य भावात् स्थिति वियोगतः ॥१३॥ विरोधिलिंग संख्यादि भेदाभिन्न स्वभावतार तस्यैवमन्यमानोऽयं शदः प्रत्यवतिष्ठते ॥१४॥ तथाविधस्यतस्यापि वस्तुनः क्षणवर्तिनः ब्रूते समधिरूढस्तु संज्ञाभेदेन भिन्नताम् ॥ १५॥ एकस्यापिञ्चनेर्वाच्यं सदातन्नोपपद्यते क्रियाभेदेनभिन्नत्वा देवंभूतोभिमन्यते ॥१६॥ ॥गद्यम् ॥ 'तत एव परामर्शाभिप्रेत धर्मावधारणात्मकतयाऽशेषधर्म तिरस्कारेण प्रवर्तमानोदुर्नयसंज्ञा मनुते नैगमनयदर्शनानुसारिणौनैयायिकवैशेषिको संग्रहाभिप्राय प्रवृत्ताः सर्वेप्यद्वैतवादाः सांख्य दर्शनं च व्यवहाररूपानुपपत्तिप्रायश्चार्वाकर्दर्शन ऋजु सूत्रोक्तमवृत्त बुद्धयस्तथागताः शब्दादिनयावलंबिनोवैयाकरणादयः॥ गव्यं पुरोक्तहितदेवसोर्थो द्रव्यार्थिकोयं विविधः प्रदिष्टः For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir खार्थेक देशस्यतथा विधस्य वस्त्वंशतायाश्च तथैवतत्त्वात् ॥ १७॥ मुख्यामुख्य स्वरूपेण धर्मयोधर्मिणोस्तयोः विवक्षणंचतेनैक गमोनैगम उच्यते ॥१८॥ ॥ तथा चावाचि ॥ नायवस्तुनवावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते बुधैः नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशोयथैवहि ॥ १९ ॥ तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषांशस्याऽसमुद्रता समुद्रबहता वास्यात् तत्त्वेकास्तु समुद्रवित ॥२०॥ तयोश्वचैतन्यक मात्मनीतिः पर्यायवदस्तु च धर्मिणोः स्यात् जीवः सुखीयो विषयाभितः क्षणं तृतीयभेदः खलु धर्मधर्मिणोः ॥ २१ ॥ उभेचसत्व चैतन्ये पृथक्भूते तथात्मनि नैगमाभासएवात्र पार्थक्याद्धर्म धर्मिणोः ॥२२॥ वैशेषिकमतंचात्र नैयायिकस्य दर्शनम् एतद्वयं तथा नैगमाभासे च प्ररूपितम् ॥ २३॥ इति नैगमः सामान्यमात्रग्रहणप्रवीणः। परोपरःस्यादविशेषतोपिर तथापरामर्शइतीहविश्वमेकंपदिष्टम्परसंग्रहोयम् ॥२४॥ For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्तैवतत्त्वंनपुनर्विशेषा अद्वैतवादिप्रकराश्वसांख्याः एतेतदाभासतयाहिविज्ञा एकांतवादात्परसंग्रहस्य २५ द्रव्यत्वमाश्रित्यतदंतराल व्यक्त्याश्रितं तेषुतदीयभेदाः तथापरःसंग्रहएषुनाग निमीलिकांदागवलंब्यमानः२६ द्रव्यत्वमेकंसकलंहिजानन् । तेषांविशेषान्खलुनिन्हुवानः तथातदाभासइतीरितः स्यात् सपर्ययत्वस्यतथाविशेषात् ॥ २७ ॥ इति संग्रहः अर्थास्तथासंग्रहसंगृहीतात्तथापरामर्शविशेषएषः तानेवयोयंप्रकटीकरोतिनयोनयज्ञैर्व्यवहारनामा॥२८॥ द्रव्यंहियत्सत् किलपर्ययोवा ॥ भासः पुनस्तस्यसुधीभिरुक्तः॥ निदर्शनं नास्तिक दर्शनं तै॥ मन्यिं जगद्भूत चतुष्टयैक्यं ॥ २९॥ ॥ इति व्यवहारनयः॥ पर्यायार्थिकएवाय । मृजुसूत्रस्तथादिमः॥ शब्दःसमभिरूढश्चे। त्येवंभूतश्चतुर्थकः ॥ ३०॥ For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सौतामागतवर्तमान समये कौटिल्यवैकल्पतो ॥ द्रव्यंप्राञ्जलमर्पयत्यविरतं पर्यायमात्रनवा ॥ संप्रत्यस्तिसुखादिरेवहितदाभासोप्यसौ सौगतः। तत्सर्वक्षणिकंतथागतगुणद्रव्यापलापीश्रुतः ॥३१॥ ॥ इति ऋजुसूत्रनयः॥ शदाख्यश्वनयोध्वनेरपिभवेत्कालादितोर्थस्यभित्॥ स्वर्णाद्रिस्त्वभवद्भविष्यतिभवत्पर्यायतीर्थाभिदा॥ भिन्नार्थलभतेनिरुक्तिभिदयापर्यायशब्देषुसः इन्द्रस्त्विन्दनतस्तथैवशकनाच्छकश्वतदर्शनम् ॥३२॥ यथेंदशकइत्याद्याः शब्दाभिन्नाभिधेयकाः भिन्नशब्दत्वतः कुंभस्तदाभासस्तुरंगवत् ॥ इति शब्दनयः पर्याय शब्देषु निरुक्ति भेदा दर्थं च भिन्नं प्रवदन्ति विज्ञाः॥ गुण क्रिया शब्द विशेषतोपि तथा तदाभास इतीह वृद्धाः ॥ ३४॥ एवंभूतनयः क्रियाश्रितविधेशदस्यवाच्यक्रियाविष्टार्थप्रकटीकरोतिकिलगौरश्वश्वतदर्शनम् चेष्टाशून्यमिदंघटाख्यमितितत्तस्माद्घटादे किया शून्यत्वात्पटवत्त्वनेनवचसाभासस्त्वदीयोभवेत्॥३५॥ For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ एवंभूतनयः॥ चत्वारएते प्रथमेथ रूप। निरूपणस्यप्रवणत्त्वतोये। भवंतिचार्थोपपदेनयास्ते। शेषास्त्रयः शब्दनावदन्ति ॥ ३६॥ कोवाखाबहुविषयः कोषाऽल्पविषयोनयः। विवेचयन्तिविधिवनयज्ञानयशासने ॥ ३७॥ पूर्वः पूर्वोनयोयस्तु सस्थालचुरगोचरः। परः परः परिमित विषयः प्रतिपाद्यते ॥ ३८॥ । श्री सिद्धसेनदिवाकर पादाः॥ उदधाविवसर्वसिन्धवः समुदीर्णास्त्वयिनाथदृष्टयः नचतासुभवानप्रदृश्यते प्रविरक्तासुसस्तिखिनोदधिः ॥ सामन्तभद्राः॥ नयास्तवस्यात्पदलांछनाइमे रसोपविद्धाइवलोहधातवः भवंत्य भिप्रेतफलायतस्ततो भवंतमार्याः प्रणताहितीषणः ॥ ४० ॥ नित्यसामान्यसदभि लाप्येतर चतुष्टयी जात्यंतरत्वादस्याबादे दोषपोषायनोभवेत् ॥ ४१ ॥ For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रसादयोधातवईशवांछा फलानयाः स्यात्पदलांछनास्ते ॥ प्रमाणवत्ते फलदायकाःस्यु श्वारित्रसत्सागरसंपदिष्टाः ॥ ४२ ॥ सूरिः श्रीविजयप्रभस्तपगणाधीशोनतेश श्रिये॥ कल्याणादिमसागराहगुरवोविद्वद्यशः सागराः तच्छिष्यस्ययशस्वतः कृतिरियंस्यादादमुक्तावली तत्रायंस्तबकोनयाद्भुतरसप्रेष्ठश्चतुर्थोभवत् ॥ ४३॥ स्याबादसुखबोधाय प्रक्रियेयंप्रतिष्ठिता विचाराम्बुधिबोधायदेवसूखिचोनुगा ॥४४॥ - इति श्रीमत्तपगच्छीय पंडित श्री यशःसागर गणि शिष्य भुजिष्य पं० यशस्वत्सागरगणि प्रगल्भितायांस्यादादमुक्तावल्यां संनयनिर्णयात्मकश्चतुर्थस्तवकःप्रस्फूर्तिभावमबीभजत् ॥ इति स्यादाद मुक्तावली समाता ॥ ... SAMIL For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private And Personal Use Only