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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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वीर सेवा मन्दिर
दिल्ली
क्रम संख्या
कालन.२६.औहरा
काल न०
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माणिकचन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला : प्रन्यांक ५२
जैन-शिलालेख-संग्रह
[ भाग ]
सम्पादक डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर हमीदिया महाविद्यालय, भोपाल ( म० प्र०)
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ
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माणिकचन्द्र दि० जैन अन्यमाला ग्रन्थमाला सम्पादक डॉ० हीरालाल जैन, डॉ० आ० ने० उपाध्ये
प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ ३६२०।२१ नेताजी सुभाष मार्ग, दिल्ली-६
प्रथम संस्करण वीर निर्वाण संवत् २४९७ विक्रम सवत् २०२८ सन् १९७१ मूल्य तीन रुपये
मुद्रक
सन्मति मुद्रणालय, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-५
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Mânıkachandra D. Jaina Granthamála · No.52
JAINA-SILĀLEKHA-SAMGRAHA
Edited by Dr Vidyadhar Joharapurkar Hamıdıa College, Bhopal (
MP)
Published by BHARATIYA JÑĀNAPITHA
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Mānikachandra D. Jaina Granthamālā General Editors : Dr. H. L. Jain, Dr. A N Upadhye
Published by Bharatiya Jñānapitha 3620/21 Netaji Subhas Marg, Delhi-6
First Edition VN S. 2497 V. S. 2028 A D 1971
Price Rs. 3/
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अनुक्रम
संकेतसूची प्रधान सम्पादकीय
प्राक्कथन
प्रस्तावना मूल लेख
१२१-१४०
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संकेतसूची
रि० इ० ए०
क. रि० इ०
एन्युअल रिपोर्ट ऑफ इण्डियन एपिग्राफी एपिग्राफिया इंडिका कन्नड रिसर्च इन्स्टीट्यूट, धारवाड द्वारा प्रकाशित शिलालेख सूची साउथ इंडियन इन्स्क्रिप्शन्स
सा० इ० इ.
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प्रधान सम्पादकीय
९ वें वर्ष में कलिंग देश पर आक्रमण किया था और उस महासंग्राम में लाखों योद्धाओं की मृत्यु हुई थी, लाखों बन्दी बनाये गये थे और लाखो लोग बेघरबार हो गये थे। इसी घटना ने अशोक के जीवन को हिंसा के मार्ग से अहिंसा की ओर लौटा दिया था। ईसवी पूर्व दूसरी शती में हुए सम्राट् खारवेल के लेख से विदित होता है कि वे यादि से हो, सम्भवतः अपने वंशानुक्रम से ही, जैनधर्मावलम्बी थे। उन का शिलालेख ही 'णमो अरहताण' के महामन्त्र से प्रारम्भ होता है। लेख में यह भी अंकित पाया जाता है कि जिस जैन प्रतिमा को नन्दवंशी राजा कलिंग से मगध ले गये थे उसे खारवेल सम्राट ने वहां से पुन लाकर अपनी राजधानी में प्रतिष्ठित किया। उन के जीवन में धार्मिक, नैतिक तथा लौकिक भावनाओ और घटनाओं का अद्भुत समन्वय पाया जाता है। कुमारकाल में राजोचित समस्त विद्याओ और कलाओं को सीखकर उन्होंने २४ वर्ष की आयु में राज्याभिषेक पाया, और फिर अगले १३ वर्षों में देश-विजय एव जन-कल्याणकारी कार्यों का ऐसा अनुक्रम स्थापित किया जो अपने आप में एक आदर्श है। उन के समय में जिन गुफा मन्दिरो का निर्माण किया गया ( शि० ले० सं० २, २), उन की सुरक्षा और जीर्णोद्धार आदि की व्यवस्था करना उन के उत्तराधिकारी राजाओं ने भी अपना धर्म समझा,
और यह क्रम १० वीं शताब्दी तक अखण्ड रूप से चलता पाया जाता है, जब कि वहाँ के राजा उद्योतकेसरीदेव द्वारा किये गये जीर्णोद्धारादि का उल्लेख वहां के शिलालेखो में मिलता है (शि० ले० सं० ४,९३-९५ ) ____ यो तो अन्य भारतीय शिलालेखो के साथ-साथ जैन शिलालेखो का वाचन, सम्पादन व अनुवाद सहित प्रकाशम आदि तभी से होता चला आ रहा है जब से पुरातत्त्व विभाग की स्थापना हुई, तथा ऐपियाफिया इण्डिका ऐपि. कर्नाटिका आदि विशेष जर्नलों का प्रकाशन आरम्भ हा; किन्तु यह सामग्री उक्त जर्नलो में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी थी और वह प्रायः जैनधर्म के इतिहास पर ग्रन्थ व लेख लिखनेवालो के लिए सरलता से उपलब्ध नही
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जैन-शिलालेख-संग्रह
थी। इस परिस्थिति में एक बड़ा सुधार तब आया जब दक्षिण भारत के एक प्राचीन तीर्थ स्थान श्रवणबेलगोल मे पाये जाने वाले ५०० शिलालेखों का एक ही जिल्द मे प्रकाशन हुआ। तब से जैनधर्म के साहित्यिक व ऐतिहासिक लेखो मे एक सुदृढ वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समावेश होने लगा। माणिक चन्द्र-दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला के सम्पादक प० नाथूराम प्रेमी को तीव्र इच्छा थी कि देश के अन्य भागो में बिखरे हुए व प्रकाशित जैन शिलालेखो का भी उसी रीति से संग्रह कराकर प्रकाशन करा दिया जाये। उन की इस इच्छा और प्रयास का ही यह फल हुआ कि प्रथम भाग मे श्रवणबेलगोल-शिलालेख-संग्रह के अतिरिक्त द्वितीय और तृतीय भागो में उन साढे आठ सौ लेखो का भी आकलन हो गया जिन की सूची डॉ. गेरिनो ने १९०८ में प्रकाशित की थी इस के पश्चात् लेखसंग्रह का कार्य बडा कठिन हो गया क्योकि इन की कोई व्यवस्थित सूची भी उपलब्ध नही थी। किन्तु डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर ने बडे परिश्रम से उन छह सौ चौवन लेखो का संग्रह चौथे भाग मे कर दिया जो १९०८ से १९६० तक प्रकाश में आये थे। और अब उन्ही के द्वारा सगृहीत किया गया यह पांचवा संग्रह प्रकाशित हो रहा है, जिस मे उन तीन सौ पचहत्तर जैन लेखो का सकलन है जिन का अन्यत्र स्फुट रूप से प्रकाशन १९६० ई० के पश्चात् हुआ है। इस प्रकार इस ग्रन्थमाला के इन ५ सग्रहो मे २००० से ऊपर जैन लेखो का सकलन हो चुका है।
इन जैन शिलालेखो को अपनी विशेषता है। इन मे अन्य लेखो के सदृश राजाओ व राजवंशो की प्रशंसा तथा उन के द्वारा किये गये युद्धो, विजयो व राज्य-विस्तार आदि का वर्णन नही है । इन मे वणित घटनाएँ है-मन्दिरो का निर्माण, मूर्तियो की प्रतिष्ठा, जीर्णोद्धार व धार्मिक दानादि । इन घटनाओ के सम्बन्ध में ही यहाँ मुनियो की परम्परामो का भी उल्लेख पाया जाता है और प्रसंगवश तत्कालीन व तद्देशीय नरेशो, मत्रियो व गृहस्थो के उल्लेख भी आये है। इस प्रकार इन लेखो की प्रेरणा का
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प्रधान सम्पादकीय
मूलस्रोत धार्मिक है । इन मे हमे जो चिन्तन और विचार प्राप्त होता है वह है संसार की असारता और क्षणभंगुरता, पारलौकिक हित की आकाक्षा तथा समाज में धर्म का प्रचार । ये लेख समाज के उस वर्ग का विवरण प्रस्तुत करते हैं जो अपने सासारिक सुख-साधनों का परित्याग कर समाज में महिंसा व शान्ति की भावना बढाने तथा अपने सुख से ऊपर दूसरो के दुःखो का निवारण करने की श्रेयस्कर भावना और सुसंस्कार के प्रचार हेतु अपने जीवन को लगा देते थे । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनेक शिलालेखो में उन के उत्कीर्ण किये जाने का काल भी निर्दिष्ट है । इस से are ग्रन्थकार मुनियो के काल निर्णय में व साहित्य में पायी जाने वाली पट्टावलियो के संशोधन में सहायता मिलती है । आनुषंगिक उल्लेखो से अनेक राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों की भी विशेष जानकारी प्राप्त हो जाती है । हमें पूर्ण आशा है कि इन शिलालेख संग्रहो से जैन साहित्य और इतिहास के शोधकार्य में बडी सहायता मिल सकेगी ।
११
डॉ० जोहरापुरकर ने लेख संग्रह के अतिरिक्त इन लेखो का अध्ययन कर के नाना दृष्टियों से उन का विश्लेषण जैसा चौथे भाग की प्रस्तावना मे किया था वैसा तथा उस से भी अधिक जानकारी- पूर्ण विवरण प्रस्तुत ग्रन्थ की २१ पृष्ठीय प्रस्तावना में भी किया है। उन के इस सहयोग के लिए हम उनके बहुत कृतज्ञ हैं । इस ग्रन्थमाला को अपने संरक्षण में लेकर उस की सम्पुष्टि में अपनी पूर्ण तत्परता रखने हेतु हम ज्ञानपीठ के संस्थापक श्री शान्तिप्रसादजी, श्रीमती रमाजी तथा ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री लक्ष्मीचन्द्रजी के भी बहुत अनुगृहीत है ।
बालाघाट
मैसूर
हीरालाल जैन आ. ने, उपाध्ये
प्रधान सम्पादक
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प्राक्कथन
प्रस्तुन शिलालेखसंग्रह का प्रथम भाग डॉ० हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित हो कर सन् १९२८ में प्रकाशित हुआ जिस में श्रवणबेलगुल के ५०० लेख हैं । तदनन्तर सन् १९०८ में प्रकाशित डॉ. गेरिनो की जैन शिलालेख सूची के अनुसार श्री विजयमूर्ति शास्त्री ने दूसरे तथा तीसरे भाग में ५३५ लेखो का संकलन किया तथा तीसरे भाग में डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी ने इन पर विस्तृत निबन्ध मे प्रकाश डाला । सन् १९५२ तथा १९५७ मे ये भाग प्रकाशित हुए। चौथे भाग मे हम ने सन् १९०८ से १९६० तक प्रकाशित ६५४ जन लेखों का संकलन और अध्ययन प्रस्तुत किया था, इस के परिशिष्ट में नागपुर के ३२४ लेखों का संग्रह भी दिया था।
इस पांचवें भाग मे सन् १९६० के बाद के वर्षों में प्रकाशित ३७५ जैन लेखो का संकलन और अध्ययन प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह कार्य पूरा करने के लिए मैसूर स्थित भारत सरकार के प्राचीनलिपिविज्ञ डॉ० गाइ द्वारा उन के ग्रन्यालय में अध्ययन की सुविधा मिली इस लिए हम उन के बहुत आभारी है। ग्रन्थमाला के प्रधान संपादको तथा भारतीय ज्ञानपीठ के अधिकारियों के भी हम आभारी है जिन के आग्रह और प्रोत्साहन से यह कार्य सम्पन्न हो सका। उन सभी विद्वानों के हम ऋणी है जिन्होने यहाँ संकलित लेखों को पहले सम्पादित किया है या उन का साराश प्रकाशित किया है। हम आशा करते है कि यह संग्रह जैन विषयों के अध्येताओं को उपयोगी प्रतीत होगा।
दीपावली ) सन् १९६९ । मंडला
-विद्याधर जोहरापुरकर
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प्रस्तावना
१. साधारण परिचय
इस संग्रह में पिछले लगभग दस वर्षों में प्रकाशित ३७५ जैन शिलालेखो का विवरण संकलित किया है। पहले हम इन का साधारण परिचय प्रस्तुत करेगे ।
(अ) प्रदेश विस्तार -- ये लेख भारत के नौ राज्यो तथा दो केन्द्रशासित प्रदेशो में प्राप्त हुए हैं तथा एक लेख का चित्र पैरिस म्यूजियम से प्राप्त हुआ है । लेखो की प्रदेशानुसार संख्या इस प्रकार है
महाराष्ट्र ४०, मैसूर ७५, मद्रास ७, आन्ध्र २५, मध्यप्रदेश ९८, राजस्थान २६, उत्तरप्रदेश १००, बिहार १, गुजरात १, दिल्ली १ तथा गोवा १ ।
(आ) भाषा व लिपि - इन लेखो मे प्राकृत, संस्कृत, कन्नड व तमिल इन चार मुख्य भाषाओ का उपयोग हुआ है ( मराठी व हिन्दी के कुछ अंश कुछ लेखों में हैं किन्तु इन का ठीक-ठीक विवरण नही मिल सका ) | इस दृष्टि से लेखों की संख्या का वर्गीकरण इस प्रकार है
प्राकृत २, संस्कृत २५६, कन्नड ११० व तमिल ७ । प्राकृत व संस्कृत के सातवी सदी तक के लेखों की लिपि ब्राह्मी है । बाद के संस्कृत लेख ब्राह्मी की उत्तराधिकारिणी नागरी लिपि में है । कन्नड लेख कन्नड लिपि में व तमिल लेख तमिल लिपि में हैं । यहाँ नोट करने योग्य है कि
१ इस सकलन के लिए इस अवधि में प्रकाशित लगभग सात हजार शिलालेखों के farरण का हम ने अध्ययन किया। इन में लगभग सात सौ जेनों से सम्बन्धित हैं । इस सग्रह के पूर्व प्रकाशित भागों की परम्परा के अनुसार इस में श्वेताम्बर सम्प्रदाय से सम्बद्ध लेखों का विवरण नहीं दिया गया ।
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जैन - शिलालेख संग्रह
महाराष्ट्र में प्राप्त लेखो में लगभग एक चौथाई तथा आन्ध्र में प्राप्त प्राय सभी लेख कन्नड भाषा में है ।
(इ) उद्देश - इन लेखो में दो ( क्र० १ व २ ) गुहानिर्माण के, ४० मन्दिरनिर्माण के तथा ५० आचार्यों व श्रावकों के समाधिमरण के स्मारक है । ४० लेखो मे जैन मन्दिरो व आचार्यों को दिये गये दानो का वर्णन है। एक-एक लेख मे व्रत का उद्यापन, दानशाला का निर्माण, कुँए का निर्माण तथा दो भट्टारको के विवाद का निपटारा यह वर्ण्य विषय है ।' लगभग ५० लेखो मे यात्रियों के नाम अकित है । सब से अधिक १७५ लेख मूर्तिस्थापना के विषय मे है ।
។
१६
(ई) समय- - सब लेख समय क्रमानुसार रखे गये है । इन मे सब से पुरातन सन् पूर्व दूसरी सदी का है । शताब्दी क्रम से लेखो की संख्या इस प्रकार है- सन् पूर्व दूसरी सदी १, सन् पूर्वं प्रथम सदी १, ईसवी सन् की चौथी सदी १, सातवी सदी ३, आठवी सदी २, नौवी सदी ५, दसवी सदी १३, ग्यारहवी सदी ४४, बारहवी सदी ६०, तेरहवी सदी ४३, चौदहवी सदी १४, पन्द्रहवी सदी ३७, सोलहवी सदी २१, सत्रहवी सदी २४, अठारहवी सदी ११ तथा उन्नीसवी सदी २२ । अन्त में दिये गये ६९ लेखो के समय का विवरण नही मिल सका । कई लेखो का समय पुरातत्त्व विभाग के अधिकारियो ने जैसा किया गया है । यह एक डेढ शताब्दी से जिन लेखो मे लिपि के आधार पर समय निकालते समय यह बात ध्यान में रखनी
लिपि के स्वरूप को देख कर बताया है वैसा ही यहाँ नोट आगे-पीछे का हो सकता है। बताया है उन से कोई निष्कर्ष
चाहिए ।
(3) लेखो के कुछ मुख्य प्राप्तिस्थान — इस सकलन के लेखो का काफ़ी बडा भाग चार स्थानो से प्राप्त हुआ है ।
१ क्रमश लेख क्रमांक ११८, १७३२५३ तथा ३०४ ।
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[१] महाराष्ट्र के परभणी जिले मे पूर्णा नदी के तौर पर उखलद ग्राम है, यहाँ के नेमिनाथमन्दिर को जिनमूर्तियो के पादपीठों पर २३ लेख मिले है। इन में पहले सात लेखों में उल्लिखित भद्रारक उत्तर भारत के है अत. ये मूर्तियां उत्तर भारत के किसी स्थान में प्रतिष्ठित हुई थी तथा बाद मे उखलद लायी गयी ऐसा प्रतीत होता है, इन का समय सं० १२७२ से सं० १५४८ तक का है। इन मे अन्तिम सं० १५४८ का लेख तो ४१ मर्तियों के पादपीठों पर है ( इस शिलालेखसंग्रह के चतुर्थ भाग में बताया गया है कि यही लेख नागपुर के विभिन्न मन्दिरो मे स्थित ७७ मूर्तियो के पादपोठो पर है)। बाद के सोलह लेख महाराष्ट्र के ही कारंजा व लातूर इन दो स्थानो के भट्टारको से सम्बन्धित है तथा अधिकतर सोलहवी-सत्रहवी सदी के है।
[२] मध्यप्रदेश के उत्तर कोने में स्थित ग्वालियर के किले मे २५ लेख प्राप्त हुए हैं । इन से पन्द्रहवी-सोलहवी सदी के ग्वालियर के राजाओ, भट्टारको तथा श्रावको के विषय मे काफी जानकारी मिलती है।
[३] मध्यप्रदेश के दतिया जिले में स्थित सोनागिरि पहाड़ी के विभिन्न मन्दिरो में ५२ लेख प्राप्त हुए है। इन में से एक सातवी सदी का और छह बारहवी से चौदहवी सदी तक के है। अत' प० नाथूरामजी प्रेमी ने इस स्थान की प्राचीनता के बारे में सन्देह प्रकट करते हुए जो विचार प्रकट किये थे ( जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४३८ ) उन में अब सुधार करना होगा । हाँ, सिद्धक्षेत्र के रूप में इस को प्रसिद्धि का इन प्राचीनतर लेखो से पता नहीं चलता। इस स्थान के भट्टारक गोपाचल पट्ट के अधिकारी कहलाते थे। उन के विषय में आगे अधिक स्पष्टीकरण दिया है।
[४] उत्तरप्रदेश के दक्षिण-पश्चिम कोने मे झांसो जिले मे बेतवा नदो के तीर पर स्थित देवगढ़ एक प्राचीन स्थान है। इस लेखसंग्रह के दूसरे भाग में यहां का नौवी सदी का एक लेख है तथा तीसरे भाग में पन्द्रहवी सदी के दो लेख है। प्रस्तुत संकलन में यहां से प्राप्त ९. लेखों का विव.
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जैन - शिलालेख संग्रह
रण है। इन में नौवी सदी से पन्द्रहवी सदी तक के २० लेख हैं । शेष लेखो का समय अनिश्चित हैं ।
१८
इनके अतिरिक्त ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण अन्य कुछ स्थानो का आगे यथास्थान उल्लेख किया है ।
२. लेखो से ज्ञात जैन साधुसघ का स्वरूप
इस सकलन के नौवी शताब्दी तक के लेखो मे ( तथा बाद के भी बहुत से लेखो में ) वर्णित जैन मुनियो के विषय मे यह ज्ञात नही होता कि वे माधुसंघ की किस शाखा के सदस्य थे । लगभग ८० लेखो मे साधुसंघ के भेद-प्रभेदो के नाम मिलते हैं । इन का विवरण आगे दिया जाता है ।
(अ) द्राविड संघ - सन् ९१५ के वजीरखेड ताम्रपत्रो मे (ले० १४१५ ) इस संघ के विशेषवीरगण वोर्णाय्य अन्वय के लोकभद्र के शिष्य वर्धमानगुरु को मिले हुए ग्रामदान का वर्णन है । चन्द्रनापुरी की अमोघ - वसति तथा वडनेर की उरिअम्मवसति की देखभाल उन के द्वारा होती थी । यह लेख द्राविड सघ के अब तक मिले हुए सब उल्लेखो मे प्राचीनतम है ( पिछले सग्रह मे प्राचीनतम लेख भाग २ का क्र० १६६ सन् ९९० के आसपास का है ) तथा इस मे वर्णित वीरगण-वोर्णाय्य अन्वय का अन्य किसी लेख में उल्लेख नही मिला था ( पिछले संग्रह मे उल्लिखित इस सघ का एकमात्र प्रभेद नन्दिगण - अरुगल अन्वय है ) । मैसूर प्रदेश के बाहर मिला हुआ द्राविड सघ का यह पहला व एकमात्र उल्लेख है । सन् १०८७ के पदूर के लेख ( क्र० ५६ ) मे इस संघ के पल्लवजिनालय के कनकसेन आचार्य को मिले हुए भूमिदान का वर्णन है । सन् १९६७ के उज्जिलि के लेख ( क्र० १०४ ) मे द्राविड सघ सेनगण - कीरूर गच्छ के इन्द्रसेन आचार्य को मिले हुए भूमिदान का वर्णन है । इस सघ के साथ सेनगण का सम्बन्ध पहले ज्ञात नही था ( पिछले सग्रह मे तथा इस संग्रह के भी कुछ लेखो मे सेनगण मूलसघ के अन्तर्गत बताया गया है, कौरूर गच्छ का
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प्रस्तावना
सम्बन्ध पिछले संग्रह में शूरस्थ गण के साथ पाया गया है, पिछले संग्रह मे सेनगण के पुस्तक गच्छ, पुष्कर या पोगिरि गच्छ एवं चन्द्रकवाट अन्वय के नाम मिलते है )। इस संकलन का द्राविड संघ का अन्तिम लेख (क्र. १११ ) सन् ११९४ का है, यह येत्तिनहट्टि में मिला है तथा इस मे इस सघ के अजितसेन आचार्य के स्वर्गवास का उल्लेख है ।
(भा) यापनीय संघ- इस संघ के वन्दियूर गण के महावीर पण्डित को मिले हुए दान का उल्लेख धर्मपुरी के ११वी सदी के लेख मे है (क्र. ७० ) । वरंगल के सन् ११३२ के लेख में ( क्र० ८६ ) इसी गण के गुणचन्द्र महामुनि के स्वर्गवाम का उल्लेख है । तेगली के १२वी सदी के लेख मे ( क्र० १२५) वर्णित वडियूर गण भी सम्भवत इसी वन्दियूर गण से अभिन्न है, इस के आचार्य नागवीर के एक शिष्य द्वारा मूर्तिस्थापना की गयी थी। ( पिछले सग्रह मे इस गण का कोई उल्लेख नही मिला था)। इस संघ के कण्डूर गण के आचार्य सकलेन्दु के शिष्य नागचन्द्र के शिष्य ने मूर्तिस्थापना की थी ऐसा लोकापुर के १२वी सदी के लेख ( क्र० ११७ ) से ज्ञात होता है (पिछले सग्रह मे इस गण के चार लेख सन् ९८० से तेरहवी सदी तक के है, यापनीय संघ के अन्य छह गणों के नाम पिछले संग्रह मे मिले है-कुमिलि या कुमुदि, पुन्नागवृक्षमूल, कारेय, कनकोपलसंभूतवृक्षमूल, श्रीमूलमूल तथा कोटिमडुव )।
(इ) वागट संघ-इस के आचार्य सुरसेन का उल्लेख कटोरिया के सन् ९९५ के एक मूर्ति लेख (क्र. २१ ) में मिलता है। इसी सघ के धर्मसेन आचार्य का उल्लेख सन् १००४ के अजमेर सग्रहालय के एक मूर्तिलेख ( क्र. ३. ) में मिलता है (पिछले संग्रह में इस संघ का नाम नहीं मिला था, काष्ठासत्र के चार गच्छो मे एक का नाम वागड है किन्तु इस के भी कोई लेख प्राप्त नहीं हैं । )।
(ई) पुझाट गुरुकुल-इस परम्परा के आचार्य अमृतचन्द्र के शिष्य विजयकोति का नाम सुलतानपुर के सन् ११५४ के आसपास के एक मूर्तिलेख
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जैन-विगल-संग्रह
(क्र. ९८) मै मिला है (पुन्नाट संघ बाद में काष्ठासंघ के एक गच्छ के रूप में परिवर्तित हुआ तथा इस का नाम भी लाडबागड गच्छ हो गया, इस का विवरण हमारे 'भट्टारक सम्प्रदाय' मे दिया है, शिलालेखो में पुबाट परम्परा का उल्लेख इसी लेख मे सर्वप्रथम मिला है)।
(उ) माथुरसंघ-नासून से प्राप्त सन् ११६० के मूर्तिलेख(क्र. १०१) में इस सघ के आचार्य चारुकीर्ति का उल्लेख मिलता है। बघेरा के सन् ११७५ के मतिलेख (क्र.० १०७) मे भी माथर सघ के श्रावक दूलाक का नाम उल्लिखित है ( इस सघ के बारहवी सदी के तीन उल्लेख पिछले संग्रह मे है, काष्ठासंघ के एक गच्छ के रूप मे इस के तीन लेखो का विबरण आगे देखिए )।
(ऊ) काष्ठासंघ-ग्वालियर से प्राप्त सन् १४५३ के मतिलेख में इस सघ के माथर गच्छ के किसी पण्डित का नाम प्राप्त होता है (क्र. २०३ )। सोनागिरि के सन् १५४३ के मूर्तिलेख (क्र. २३९ ) मे काष्ठासंघ-पुष्करगण के भ० जससेन का उल्लेग्व है ( हम ने भट्टारक सम्प्रदाय मे बताया है कि पुष्करगण माथुरगच्छ का नामान्तर था, इसी पुस्तक मे सं० १६३९ का फतेहपुर का एक लेख दिया है (पृ० २२९) जिस मे इस परम्परा के भ. यश:सेन का उल्लेख है, ये यश सेन सम्भवत उपर्युक्त जससेन से अभिन्न थे)। इस सकलन का काष्ठासघ का अगला लेख सन् १६१३ का है, यह उखलद मे प्राप्त मूतिलेख है (क्र. २५६ ) तथा इस मे भ० जसकीर्ति का नाम अकित है। इन के गच्छ का नाम नहीं बताया है। सोनागिरि में प्राप्त सन् १६४४ के लेख में ( क्र० २६६ ) काष्ठासंघ-नन्दीतटगच्छ के म० केशवमेन, भ० विश्वकीर्ति तथा व मगलदास की चरणपादुकाएँ प्रतिष्ठित होने का उल्लेख है ( हम ने भट्टारक सम्प्रदाय मे ( पृ० २९४ ) इन तीनो से सम्बद्ध अन्य विवरण दिया है)।
(भा) मूलस-इस संघ के ५ गणो के लगभग ६० उल्लेख इस संकलन मे आये हैं। इन का विवरण इस प्रकार है।
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प्रस्तावना
(1) सूरस्थ गण-कादलूर ताम्रपत्र में (क० १७) इस गण के एलाचार्य को मिले हुए ग्रामदान का वर्णन है । सन् ९६२ के इस लेख में इन के पूर्व के चार आचार्यों के नाम-प्रभाचन्द्र, कल्नेलेदेव, रविचन्द्र तथा रविनन्दि-दिये हैं अत इस परम्परा का अस्तित्व सन् ९०० के लगभग प्रमाणित होता है (इस गण का यही प्राचीनतम लेख है ) । अक्किगुन्द के १२वी सदो के लेख (क्र. ११८ ) में इस गण के जयकोति भट्टारक की शिष्याओ के व्रत-उद्यापन का वर्णन है। अलदगेरि के तेरहवी सदी के तीन लेखो में (क्र. १६३-५ ) इस गण की नागचन्द्र-नन्दिभट्टारक
-नयकीति इस आचार्यपरम्परा का उल्लेख है । ये लेख इन के शिष्यों के समाधिमरण के स्मारक है। इस संकलन में इस गण के उपभेदों का उल्लेख नही आ पाया है ( पिछले संग्रह मे कोरूर गच्छ तथा चित्रकूटान्वय इन उपभेदो के नाम मिले हैं, कही-कहीं सूरस्थगण सेनगण का नामान्तर मामा गया है)।
(२) सेनगण - पन्द्रहवी सदी के केरूर के मूर्तिलेख (क्र० २२८) मे इस गण के गुणभद्र आचार्य का उल्लेख है। सन् १६१४ के सोनागिरि के मूर्तिलेख ( क्र० २५८) में पुष्करगच्छ-ऋषभसेनान्बय के विजयसेन व लक्ष्मीसेन के नाम उल्लिखित है (यहाँ सेनगण का नाम नहीं है किन्तु उक्त गच्छ व अन्वय इसी गण के अन्तर्गत थे यह अन्य लेखो से मालूम हुआ है)। यही के सन् १८७३ के दो मूर्तिलेखो में इस गण के लक्ष्मीसेन का उल्लेख है (पिछले संग्रह में सेन-परम्परा के उल्लेख सन् ८२१ से प्राप्त हुए है, इस के ज्ञात उपभेदो का अपर द्राविड संघ के परिच्छेद में उल्लेख कर चुके हैं।
(१) देशीगण-सन् १०८७ के पदूर के लेख (क्र. ५५ ) में इस गण के पुस्तकगच्छ के पानन्दि मलधारिदेव को मिले हुए भूमि दान का वर्णन है। हलेबोड के ११वी सदी के लेख में इसो गच्छ के नेमिचन्द्र भट्टारक के शिष्यों द्वारा मूर्ति स्थापना का उल्लेख है (क्र. ६६) । चितापुर के १२वी
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प्रस्तावना
हुआ था। सम्राट् जगदेकमल्ल के राज्यकाल मे सन् १९४८ मे हेगडे मादिराज व आदित्य नायक ने कुयिबाळ के मन्दिर को दान दिया था ( लेख क्र. ९६ ) (पिछले संग्रह मे इस राजवंश के कई लेख हैं जिन मे प्राचीनतम सन् ९९० का है )।
कदम्ब-इस वंश के महामण्डलेश्वर मल्लदेव के राज्य मे दण्डनायक माचरस ने पार्श्वनाथ मन्दिर को दान दिया था ऐसा गुंडबले के लेख (क्र. ९० ) से ज्ञात होता है ( इस वंश को मुख्य शाखा के ११ और सामन्तो के १५ लेख पिछले सग्रह मे है जिन मे सब से पुराने पांचवी सदी
चोल- उज्जिलि के दानलेख (क्र. १०४ ) मे श्रीवल्लभ चोल महाराज द्वारा इन्द्रसेन आचार्य को दिये गये दान का वर्णन है । यह लेख बारहवी सदी का है (इस वश को मुख्य शाखा के २८ लेख पिछले संग्रह मे है जिन मे सब से पुराना लेख सन् ९४५ का है)। ___ यादव-देवगिरि के यादव राजा कन्नर के राज्यकालमे देशीगण के आचार्यों को सन् १२४८ मे कुछ दान मिला था ( लेख क्र० १४१ )। इमो वश के राजा रामचन्द्र के समय सन् १२७१ मे हिरेकोनति मे एक श्राविका का समाधिलेख (क्र. १४२ ) स्थापित हुआ था । सन् १२८३ का सुतकोटि का समाधिलेख (क्र. १४८ ) भो रामचन्द्र के राज्यकाल का है । हिरेअणजि के सन् १२९३ के दान लेखों (क्र० १५०-१ ) मे रामचन्द्र के राज्य में महाप्रधान परशुराम के शासनकाल का उल्लेख है। यही पर एक श्राविका का समाविलेख (क्र. १७५) इसी राजा के समय का है ( पिछले संग्रह मे यादव वंश के २४ लेख है जिन मे सब से पुराना सन् ११४२ का है)। ___खुमाण ( गुहिलोत )-चित्तौड के एक खण्डित, लेख (क्र० ११३) मे बारहवी सदी के खुमाण वश के राजा जैत्र सिंह का उल्लेख है। यहीं के एक अन्य लेख (क्र० १५३ ) मे आचार्य धर्मचन्द्र का सम्मान करने
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जैन-शिलालेख संग्रह
वाले जिस बोर हमीर का उल्लेख है वह भी सम्भवत. इस वंश का राजा था ( पिछले संग्रह मे इस वंश का कोई लेख नहीं मिल सका था)।
चाहमान हथूडी के सन् १२८८ के दानलेख (क्र. १४९ ) में इस वंश के सामन्तसिंह के राज्य का उल्लेख है ( पिछले संग्रह में इस वंश की विभिन्न शाखाओ के आठ लेख है जिन में सब से पुराना सन् ११३४
विजयनगर-दक्षिण के इस साम्राज्य के राजा हरिहर के मन्त्री बैच के पुत्र इगप दण्डनायक की प्रशंसा पानुगल्लु के सन् १३९७ के लेख ( क्र. १८२ ) मे मिलती है। इरुगप द्वारा एक जिन मन्दिर के निर्माण का वर्णन सन् १४०२ के आनेगोदि के लेख ( ऋ० १९२ ) में है । सन् १५१५ के खबदकोणे के लेख (क्र. २३२ ) मे सम्राट् कृष्णदेवराय के सामन्त विजयप्प वोडेय द्वारा आचार्य वीरसेन को दिये गये दान का वर्णन है। 'मकी के सन् १५१५ के दानलेख ( क्र० २३१ ) मे इम्मडि देवराज के शासन का उल्लेख है। केरवसे के सन् १४५० के दानलेख में (क्र० २०१ ) वीरपाण्ड्यदेव का तथा जलोल्ली के सन् १५४५ के मन्दिर लेख ( क्र. २४० ) में गेरसोप्पे के कृष्णभूपाल का प्रादेशिक शासक के रूप मे उल्लेख है, ये दोनो विजयनगर के सम्राटो के सामन्त थे ( पिछले संग्रह मे विजयनगर राज्य के कई लेख है जिन मे सब से पुराना सन् १३५३ का है)। __सोमर-ग्वालियर के तोमर वंश के १५वी सदी के राजा डूंगरसिह और कोर्तिसिंह का उल्लेख वहाँ के कई मूर्तिलेखो मे है ( लेख क्र. १९९, २०२, २०५-६ आदि ) ( पिछले मग्रह मे भी इन के कुछ लेख हैं )।
कूर्म ( कछवाह )-इस वश के राजा रायमल व उन के मन्त्री देईदास का उल्लेख रेवासा के सन् १६०४ के मन्दिरलेख मे (क्र. २५१ ) मिला है ( पिछले संग्रह मे कछवाहो की पुरानी शाखाओ के दो लेख सन् ९७७ व १०८८ के है)।
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प्रस्तावना
१६
चन्द्रावत- रामपुरा के चन्द्रावत राजा अचलदास तथा उस के पौत्र दुर्गभानु का वर्णन वहाँ के सन् १६०७ के लेख ( क्र० २५३ -४ ) मे है । इन्होने बघेरवाल जाति के साह जोगा और पाथू ( पदारथ ) को मन्त्रिपद पर नियुक्त किया था । दुर्गभानु के पुत्र चन्द्र ने पाथूसाह को मुख्य मन्त्री बनाया था । इन की वीरता व धर्म कार्यों के वर्णन के कारण यह लेख महत्त्वपूर्ण है । इस वंश का यह प्रथम जैन लेख प्रकाशित हुआ है ।
मुगल- बादशाह जहाँगीर के राज्य में राणोद में सन् १६१८ में मूर्तिप्रतिष्ठा उत्सव हुआ था ( ले० क्र० २५९ ) । उपर्युक्त चन्द्रावत राजा भी बादशाह अकबर व जहाँगीर के सामन्त थे ( पिछले संग्रह में भी मुगल राज्यकाल के कई लेख है ) ।
अन्य राजा व सामन्त- कई लेखो में कुछ अन्य राजाओ व सामन्तो का उल्लेख मिला है जिन के वश, राज्य या प्रभावक्षेत्र के बारे में निश्चित जानकारी प्राप्त नही है । सन् ९२३ के राजौरगढ लेख ( क्र० १६ ) में राजा पुलीन्द्र व सावट के नाम उल्लिखित है । देवगढ के सन् १९५४ के लेख ( क्र० ९९ ) में महासामन्त उदयपाल का नाम अंकित है । यहीं के १२वी सदी के लेख ( क्र० १३१ ) मे राजा नल्लट का नाम प्राप्त होता है । उखलद के दो मूर्तिलेखो ( क्र० १३६-७ ) में सन् १२१५ में राय प्रतापदमन व राय हमीर उल्लिखित है । देवगढ के अनिश्चित समय के दो लेखो ( क्र० ३७० तथा ३७२ ) में चन्देरी के राजा दुर्जनसिंह तथा महाराजकुमार तेजसिंह का उल्लेख है । ओर्छा के बुन्देल राजा जुगराज सन् १६२४ के सोनागिरि के मूर्तिलेख ( क्र० २६५ ) में उल्लिखित हैं । महाराजकुमार उदितसिंह और उन के अधीन अधिकारी गोपालमणि का सोनागिरि के सन् १६९० के लेख ( क्र० २७२ ) में उल्लेख है । दतिया के राजा छत्रजीत ( लेख क्र० २७८ व २८२ ), शत्रुजोत ( लेख क्र० २७६ ), पारीछत ( लेख क्र० २८५-७ ), विजयबहादुर (लेख क्र० २९६) तथा भवानीसिंह ( लेख क्र० ३०४ ) सोनागिरि के लेखों में उल्लिखित है ।
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६. उपसहार अन्त मे हम इस ओर विद्वानो का पुन
जैन - शिलालेख संग्रह
संकलन के कुछ विशिष्ट लेखो की उपलब्धियो की ध्यान दिलाना चाहते है ।
( १ ) पाला के लेख से महाराष्ट्र में जैन साधुओ का अस्तित्व ईसवी सन् पूर्व दूसरी सदी मे प्रमाणित हुआ है ।
( २ ) सोनागिरि के लेखो से इस स्थान की प्राचीनता सातवी सदी तक प्रमाणित हुई है ।
( ३ ) वजीरखेड ताम्रपत्रों से महाराष्ट्र मे द्राविड संघ के अस्तित्व का तथा सम्राट् अमोघवर्ष के नाम पर स्थापित जिनमन्दिर का पता चला है । ( ४ ) द्वारहट के लेख से उत्तरप्रदेश के पर्वतीय जिलो मे जैन साध्वियो के विहार का प्रमाण मिला है ।
( ५ ) देवगढ के लेखो से इस स्थान की प्राचीनता व लोकप्रियता प्रमाणित हुई है ।
( ६ ) कोलनुपाक ( प्रसिद्ध नामान्तर कुलपाक ) के लेखो से इस तीर्थ की प्राचीनता नौवी सदी तक प्रमाणित हुई है ।
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( ७ ) आन्ध्र प्रदेश के अनेक लेखो से वहीं नौवी से बारहवी सदी तक जैन समाज की समृद्ध स्थिति का पता चलता है ।
( ८ ) चित्तौड़ के लेखो से कीर्तिस्तम्भ के स्थापक साह जीजा के परिवार का विस्तृत परिचय मिला है ।
( ९ ) रामपुरा के लेखो से वहाँ के दीवान पाशाह के परिवार का विस्तृत परिचय मिला है ।
(१०) उखळद के लेखो से महाराष्ट्र में सोलहवी - सत्रहवी सदी मे कार्यरत जैन भट्टारको के इतिहास को महत्त्वपूर्ण सामग्री मिली है ।
इस संकलन को मिला कर इस शिलालेखसंग्रह मे लगभग २४०० लेखो का विवरण प्रकाशित हुआ है । इस सम्बन्ध मे अन्त मे हम कुछ विचार प्रकट करना चाहते हैं ।
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जैन- शिलालेख संग्रह
मूल - लेख - विवरण ( समय क्रमानुसार )
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मूल-लेख-विवरण
पाला ( पूना, महाराष्ट्र) लिपि-सन्पूर्व दूसरी सदो की, ब्राह्मी-प्राकृत
१ नमो अरहंतानं कातुन २ द मदंत इंदरखितेन लेनं ३ कारापितं पोढि च सह४ सिधं
पुना जिले के पाला गांव के समीप वन मे स्थित एक गुहा मे यह चार पतियो का लेख है । इस गुहा की खोज पूना विश्वविद्यालय के श्री. आर० एल० भिडे ने की। लेख की पहली पक्ति मे पचनमस्कारमंत्र की पहली पक्ति अंकित है। अन्य पक्तियो में कातुनद ( जो सभवत किसी स्थान का नाम है ) के भदत (आदरणीय) इदरखित (इन्द्ररक्षित ) द्वारा लेन ( गुहा ) और पोढि ( जलकुण्ड ) बनवाये जाने का उल्लेख है। लिपि का स्वरूप देखते हुए यह लेख सन्पूर्व दूसरी सदी का प्रतीत होता है । यह महाराष्ट्र में प्राप्त जैन धर्म संबधी लेखों में सबसे पुरातन है । उपर्युक्त विवरण धर्मयुग साप्ताहिक, बम्बई के १५ दिसम्बर १९६८ के अंक मे डा० हसमुख धोरजलाल साकलिया के लेख में दिया है। वही प्रकाशित लेख के चित्र से ऊपर लेख का पाठ दिया है।
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जैन-शिलालेख-संग्रह
मुत्तुप्पट्टि ( मदुरै, मद्रास) लिपि-सन्पूर्व पहली सदी की, तमिल-ब्राह्मी इस ग्राम के समीप की पहाडी पर जिनमूर्तियुक्त गुहा के बाजू मे यह लेख है
नार्प ऊर् (चे) (य) (चे आ) चा (शा) न् यह सभवत गुहा निर्माता का उल्लेख है।
रि० १० ए० १६६३-६४,शि० क्र० बी २८३
विदिशा ( मध्यप्रदेश) चौथी सदी ( सन् ३०५ के लगभग ), ब्राह्मा-संस्कृत
विदिशा नगर के समीप बेस नदी के तट पर एक टीले की खुदाई मे तीन तीर्थकर-मूर्तियां मिली जो श्री राजमल मडवैया के प्रयत्न से सुरक्षित रूप से विदिशा के शासकीय सग्रहालय मे रखी गयी है। इन के पादपीठो पर लेख है । एक लेख पूर्णत. नष्ट हुआ है, दूसरा आधा टूटा है और तीसरा पूर्ण है। एक मूर्ति पर तीर्थकर चन्द्रप्रभ का और एक पर तीर्थकर पुष्पदन्त का नाम अकित है । इन की चरण चौकियो पर सिंह अकित है। सिर के पीछे प्रभामण्डल है। शिल्प विन्यास की शैली कुषाण काल और उत्तर-गुप्त काल के बीच की है । लेखो के अनुसार मूर्तियो का निर्माण महाराजाधिराज श्री रामगुप्त के शासनकाल में ( सन् ३७५ के लगभग ) हुआ था। उपरिलिखित विवरण दैनिक नई दुनिया, जबलपुर के २३-२. ६९ के अंक में प्रकाशित डॉ. कृष्णदत्त बाजपेयी के लेख में दिया गया है।
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ऐहोळे
शिंगवरम् (दक्षिण अर्काट, मद्रास )
लिपि-सातवीं सदी की, तमिल इस ग्राम के निकट तिरुनाथर् कुण्रु नामक चट्टान पर यह लेख है। इस मे ५७ दिन के उपवास के बाद चन्द्रनंदि आशिरिगर के दिवंगत होने का वर्णन है। ( मूल तमिल में मुद्रित )
सा०६०६०१७ पृ०१०४
सोनागिरि ( दतिया, मध्यप्रदेश)
लिपि-सातवी सदी की, संस्कृत-नागरी यहाँ की पहाडो के मदिर न० ७६ में रखी हुई प्रतिमा के पादपीठ पर यह लेख है। इस मे स्थापना कर्ता का नाम सिंघदेवपुत्र वडाक बताया है।
रि० १० १० १६६२-६३, शि० क. बी ३८१
ऐहोळे ( बीजापुर, मैसूर )
लिपि-७वी सदी की, काड (?) यहां के जिन मदिर के पाषाणो पर निम्नलिखित नाम अकित हैं (ये संभवतः यात्रियो के है )
श्रीविण अम्मन् श्रीमानद स्थविर शिष्य श्रीपिण्टवादि महेन्द्र
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जैन-शिलालेख संग्रह
श्रीबिसादन् श्रीम (वा) ग्यमत्तन् श्रीमौरेय श्रीबिंज (डि) ओवजन् श्रीगुणप्रियन् (प) त्त श्रीचित्राधिपश्री
रि० ५० ५० १६५७-५८, शि०० बी २१२ से २१८
बेळ्ळट्टि ( सागली, महाराष्ट्र )
लिपि-आठवी सदी की, कन्नड मुळगुंद मे सिन्द राजा राज्य कर रहे थे उस समय दुर्गराज द्वारा निर्मित जिनमंदिर को श्रीभाग्य ने ५० मत्तर जमीन दान दी ऐसा इस लेख मे वर्णन है।
क० रि० ३० १६४१-४२, शि० क्र० ४०
सित्तण्णवाशल ( तिरुचिरपल्ली, मद्रास )
लिपि-आठवीं सदी की, तमिल पहाडी में खुदे हुए जैन मंदिर के इर्द गिर्द तथा मदिर के स्तम्भो पर ये आठ लेख है। इन में निम्नलिखित शब्द है ( ये सम्भवत. यात्रियो के नाम है )
श्रीयंकल श्रीतिरुवाशिरियन्
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-१२]
एलोरा
श्रीलोकादित्तन् तिरुक्को श्रीपिरुतिवि (न) चन् श्रीतिरुवि (र) म (न्) शीकायवन् वितिवलि शुणक्कुळम्
रि०१० ए० १६६०-६१, प्रस्तावना पृ० १६ शि० क० बी ३२४ से ३३॥
मेडूर ( धारवाड, मैसूर)
नौवी शताब्दी का प्रारम्भ, कन्नड राष्ट्रकूट सम्राट् प्रभूतवर्ष जगत्तुग ( गोविन्द तृतीय ) के अधीन बनवासि १२००० प्रदेश के शासक सळ कि वंश के राजादित्यरस द्वारा मल्लवे की बसदि ( जिनमंदिर ) के लिए मोनिगुरु के किसी शिष्य को कुछ भूमि दान दी गयी ऐसा इस लेख में वर्णन है। लेख किरुगुड्ड द्वारा उत्कीर्ण किया गया था।
रि०३० ए० १६५८-५६, शि० क्र० बी ५८२ यह लेख प्रोग्रेस रिपोर्ट ऑफ दि कन्नड रिसर्च इन्स्टीटयूट (१९५२-५७) में (१० ७०-७१ कन्नड) में पूर्ण रूप में छपा है।
१०.११.१२ एलोरा ( औरंगाबाद, महाराष्ट्र) लिपि-९वीं या १०वीं सदी की, संस्कृत-कबड गुहा नं. ३३ जगन्नाथसभा में ये तीन लेख अकित हैं। एक मे नागनंदि का नाम है। दूसरे में किसी बालब्रह्मचारी द्वारा पद्मावती की
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जैन-शिलालेख-संग्रह
[१३मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है। तीसरे में नागनंदि, (दो) पनंदि सिद्धात भट्टारक तथा शीलबे, आळ क एवं आचबे के नाम मिलते हैं ।
रि० ३० ए० १९५८-५६, शि० ऋ० बी १५६, १५८-६
लोकापुर (बेळगांव, मैसूर )
९वी शताब्दी, कन्नड इस लेख मे राजा कृष्ण के साले के रूप में लोकटे नामक सामन्त का वर्णन है। यह तलकब्बे का पुत्र था। धोर, दोण्ड तथा बंक इस के बन्धु थे । बनवासि १२००० प्रदेश पर शासन करते हुए इस ने लोकपुर नगर बसाया तथा उसे हरि, हर, जिन और बुद्ध के मदिरो से सुशोभित किया। इस ने लोकसमुद्र तालाब भी खुदवाया।
क० रि०६० १६४२-४३, शि० क्र० ३१
वजीरखेड ताम्रपत्र ( प्रथम ) ( नासिक, महाराष्ट्र )
शकवर्ष ८३६ = सन् ९१५, नागरी-संस्कृत प्रथम पत्र , ( स्वस्ति चिह्न ) श्रिय. पदनित्यमशेषगोव(च)रनयप्रमाणप्रतिषिद्ध
दुष्पथम् [ 1 ] जनस्य भव्यत्वसमाहितात्मनो जयत्यनुनाहि जि२ नेन्द्रशासनम् ।। [१] श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलान्छनम् ।
जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ।। [२] अ३ स्स्यद्यापि निशामुखैतिलको राजेति नामोज्वलम्
वि (वि) प्राणो मृदुमि करैर्जगदिदं यो राजते रञ्जयन् [1] यस्यै
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- 18 ]
वजीरखेड ताम्रपत्र
४ कापि कला कलङ्करहिता गङ्गेव तुक्रे जटाजूटे धूर्जटिना धृतामृतमयी सोमः स कि वर्ण्यते ।। [३] वंशे तस्य पुरू
५ रवः प्रभृतिभिर्भूपै कृतालंकृतावन्त सार तयोशतिं गतवति प्राप्ते च वृद्धिं क्रमात् [1] तुङ्गानामपि भूभृतामु
६ परिगे जातो यदुर्भूपतिः य कृत्वा कुलमात्मनामविदितं पूर्वान् विजिग्ये नृपान् [118 ] तस्मिन् विस्मयकारिचारुचरि
७ ते तस्यान्वये संभवम् मत्वा श्लाघ्यतमं पितामहमुखैरभ्यर्थितो नाकिभि: [1] कल्पान्तेपि निजोदरान्तरदरीविश्रा
८ न्तसप्तार्णवश्चक्रे जन्म हरिर्जितामररिपुः साक्षात् स्वयं श्रीपतिः || [4] इत्थं हरे प्रसरति प्रथि
९ ते पृथिव्यामव्याकुलं वरकुले कलितप्रताप [1] निर्मूलिताहितमहीपतिभूरिदुर्ग पृथ्वीपति.
१० पृथुममोजनि दन्तिदुर्ग. । [६] जेतुं तस्मिन् प्रयाते त्रिदिवमिव ततः कृष्णराजो नरेन्द्र तस्यैवा
११ सीत् पितृव्य समजनि तनयस्तस्य गोविन्दराजो [1] राजा तस्यानुजो भूनिरुपमनृपतिः श्रीजगत्तुङ्गदेव ॥
१२ सूनुस्तस्यावनीशो भवदवनिपतिस्तत्सुतो मोघवर्ष: [ 13 ] तस्मादिन्दुकराव दातयशसश्चालुक्य कालानलात् ले
१३ भे जन्म हिमांशुवंशतिलक श्रीकृष्णराजो नृपः ॥ राज्ञी तस्य च चेदिराजतनयाच्छयाधीश्वरा जाता भूमि
१४ पतेर्व्व (ब) भूव च जगत्तुङ्गस्तयोरात्मज || [८] यस्याद्यापि प्रचण्डासिपातविश्लिष्टविग्रहा [1] हतशेषा विमुंचन्ति गूर्ज -
१५ रा न मयज्वरम् ||०|| ( ९|| ) आसीद्वा (बा) हुसहस्रसेतुविहतध्यावृत्तरेवाजल' क्षोणीशो दशकण्ठदपदलन. ख्यातः
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जैन-शिलालेख-संग्रह
[४१६ सहस्रार्जुन ॥ वंशे तत्र च हैहयैकतिलकश्चेदीश्वर कोक्कलो जात
स्तस्य सुतश्च शंकरगण शकाको विद्विषां [10] १७ चालुक्यान्वयमण्डनस्य नृपतः श्रीसिहुकस्यात्मजो राजासीदरयम्म
इत्यनुपमस्तस्यात्मजायामभूत् ।।
द्वितीय पत्र पहली ओर १८ लक्ष्मीः क्षीरमहार्णवादिव सुता लक्ष्मीस्तत शंकुकात् देवी सा च
पराक्रमोजितजगत्तुङ्गस्य कान्ताभवत् ।। [11] तस्या५५ स्तस्मात् तनूजो मदन इव हरे[:] स्कन्दवच्चन्द्रमौलेरिन्दुः
क्षीराम्खुगशेरिव विमलयशोराशिशुक्लीकृताश. [] धातुः सौ.. न्दर्य सृष्टिव्यतिकरजनितानूनविज्ञानसेतु पृथ्व्या पुण्यातिरेकै. सुकृत
निधिरभूदिन्द्रराजो नरेन्द्रः ॥ [२] वे२१ धा विज्ञानपं विधु (बु) धपतिरांप स्वाधिपत्यैकदर्प, भूमाराधार
दप्पं फणिपतिरधिकं शत्रव शौर्यदर्पङ्क२२ दो रूपदपं भुवि समममुचं यं विलक्षाः समक्षं दृष्ट्वा दृष्टान्त
करूपं सकलगुणगणस्यैकमेवावनीशम् ॥ [१३] २३ न सर्वगुणसन्दोहमेकस्थं कुरुते विधि [0] यनिर्मायेति निर्मुष्टस्तेन ___ दोषश्चिरादयम् ॥ [१४] समर्पितकराम्भोधि२४ वेलामालावलम्बि (म्बि) नी। यग्निरस्तान्यभूपाला स्वयं वृतवती ___मही ।। [१५] तेजो वीक्षितुमक्षमा क्षणमपि स्वैरे२५ व दोषैर्मुहुर्धान्ता. सन्ततमक्रमेण सहसा संगम्य सर्वेप्यमी । ज्यालो
लाश्चलपक्षपातवि६ कला दीपप्रतापानले दायादा. स्वयमेध यस्य पतिता दीपे पतंगा इव ।। [३६] आक्रान्तं सम
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वजीरखेड ताम्रपत्र २७ मेव शस्त्रशिरसा येन स्वसिंहासनम् भू (भ्र.) मंगेन सहक मंगम
परे नीता परं विद्विषः [0] तेषां२८ राज्यमपि क्षणाच्चलमनोराज्यावशेपं (पं) कृतं राज्ये कल्पलतेव
कामफलदा यस्यामवन्मेदिनी ।। [१७] भूमारोव२९ हने जित: फणिपति. शक्रः श्रिया निर्जित. कीर्ति क्रान्तदिगन्तरा
मलिनिता येनाखिलक्ष्माभृताम् [1] त्रैलो. ३० क्येपि न विद्यतेस्य सदृशो राजेति यस्योच्चकैरामाति प्रकटीकृतं
यश इव श्वेतातपत्रत्रयम् ।। [१८] निर्मिन्न नर३१ सिहता गतवता वक्षोमुना विद्विषाम् देवोयं विततस्वचक्र दलितारा
तिश्रियाप्याश्रित. [1] तत्सेवेहममुं ध्वजा३२ प्रनिलयो राजानमित्याश्रितो रागादंचितकांचनोज्वल तनुय्य वैनतेय
[] स्वयम् ॥ [१९] दानं भद्रगज. सृजन्न३३ पि रुषा कृष्णं करोत्याननं सवृक्षोपि फलप्रद. स्वसमये वर्षन् घनो
गर्जति [1] न क्रोधोद्वहनं न कालह
द्वितीय पत्र . दूसरी ओर ३४ रणं नोस्सेकतो गर्जितं दानं यस्य तथाप्यनूनमभवद्राज्याभिषे
कोत्सवे ।। [२०] देवो दानित । स निर्जितव (ब) लि:३५ श्रीकीर्तिनारायण जित्वा वारिधिमेखलां वसुमतीमेकाधिपः पालयन
देवता (बा) ह्मणभोगजातम३६ खिलं कृत्रा (वा) नमस्य (म्यं) फलं सर्वेषामपि भूभुजां स्वयम
भूदेवो नमस्यश्चिरम् ॥ [३१] यश्च विनयविनतानेक३. भूपालमौलि मालालालितचरणारविन्दयुगल. सौन्दर्यशौर्य चातुर्योदा
यधैर्यगाम्मीर्यवीर्यादि
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बजारमा ५. उत्तरा मोसिनी नदी ॥ क्या पंचमा बाणवावशान्तर्गतचंदुहाणमामः
तस्मात् पूर्व: भग्ग1 वळियागप्रामः दक्षिणा अमिवारा मदी। पश्चिमः कगनाण प्रामः
उत्तरः बहारग्रामः । ६२ तथा षष्ठः उलटलचतुग्विशत्यन्तर्गतदिवारग्रामः ॥ तस्मात् पूर्वः
पिप्पलवग्राम. दक्षिणः सीहमा२६ मा परिच [श्चि] मः वडालीखत्रा उत्तरतः मोराग्रामः ॥ एवं यवा
[था] वस्थितचतुराधाटोपलक्षितग्रामषट्कसहिता ६४ पूर्वमर्यादया भुक्तभुज्यमाना यथावस्थितचतुराघाटोपलक्षिता सा
वसतिद्रविडसंघविशेषवीर६५ गणवोर्णाल्यान्वयपर्यशिष्याय वर्द्धमानगुरवे समर्पिता ॥ अयं
चास्मद्धर्मदायः समागामिमि पति१६ तिमिरस्मद् [४] स्यै [श्यै] रन्यैश्वानुमन्तव्यः ॥ यश्चाज्ञानतिमिर
पटलावृतमतिराच्छिन्द्याच्छिद्यमानं वा कदा६७ चिदनुमा [मो] दते स पचमिर्महापातकैरुपपातकैश्च लिप्यते ।।
उक्तं च भगवता व्यासेन । षष्टिं वर्षसहना६८ णि स्वर्गे वसति भूमिद [6] आच्छेत्ता चानुमन्ता च तान्येव नरके
वसेत् ॥ [२२] अत्रैव रामश्लोकार्थ ॥ राजशेखरक[क]ता प्रशस्तिरियं ॥
इन ताम्रपत्रों मे दानदाता इन्द्रराज ( तृतीय ) की प्रशस्ति पूर्वोल्लिखित प्रथम ताम्रपत्र के अनुसार ही है । द्रविडसंघ-विशेष वीरगण-वोर्णाय्य अन्वय के वर्षमान गुरु-जिन्हे ये ताम्रपत्र दिये गये थे वे भी संभवतः पूर्वोक्त लेख में वर्णित वर्धमान गुरु ही है यद्यपि यहाँ उन के गुरु का नाम नही दिया है। इन्हें कहाण ( वर्तमान उत्राण जि. नासिक), पन्नउर ( वर्तमान धानरी जि. नासिक), तुंगोणी ( वर्तमान तुंगण जि. नासिक),
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जैन - शिलालेख संग्रह
[१६
अज्जलोणी ( वर्तमान स्थान अज्ञात ), चंदुहाण ( वर्तमान चौंधाणे जि० नासिक ), तथा दिवार ( वर्तमान देवरगाँव जि० नासिक ) ये छह गाँव asनेर ( नासिक जिले में यह ग्राम इसी नाम से अभी भी हैं ) की उरिअम्मवसति के लिए दान दिये गये थे । दानतिथि तथा अन्य सब विवरण पूर्वोल्लिखित प्रथम ताम्रपत्रो के अनुसार हो समझना चाहिए ।
१८
१६
राजौरगढ ( अलवर, राजस्थान )
सं० ९७९ = सन् ९३३,
संस्कृत-नागरी
पुलीन्द्र राजा के
प्रसिद्ध शिल्पकार सर्वदेव द्वारा राज्यपुर में शातिनाथ मंदिर के निर्माण का इस मे वर्णन है । वह पूर्णतल्लक से निकले हुए धर्कट वश के देलक का पुत्र तथा आर्भट का पौत्र था । सर्वदेव ने यह कार्य आग्रह से किया था । राजा सावट का भी उल्लेख है । सर्वदेव का पुत्र वराग था तथा गुरु आचार्य सूरसेन थे । इम प्रशस्ति की रचना सागरनंदि और लोकदेव ने की थी ।
रि० ३० ए० १९६१-६२, शि० क्र० बी १२८
१७
कालूर ( माडया, मैसूर ) शक ८८४ = सन् ९६२, संस्कृत - कन्नड
चालुक्यान्वयमिहवनृपतेः पुत्री मता श्रीमती कल्लब्या जयदुत्तरंगनृपतेर्देवी महात्युत्तमा । सत्पुत्रोजनि मारसिंहनृपतिः श्रीसत्यवाक्याधिपः ख्यात श्रीमरुळस्थिरक्षितिभुजस्तस्यानुजः सांजसं ॥३३॥
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-१७]
विद्विदक्षत्रियकुंभिकुंमदळनप्रोद्भूतमुक्ताफळश्रीहारप्रविशोभितामळजयश्रीलक्ष्यवक्षस्थळः। कम्रानम्रसुरेश्वरस्तुतिवमधीमज्जिनेन्द्रक्रमश्रीपाद्वयमानसो विजयते श्रीगंगचूडामणिः ॥३॥ दुर्वृत्तक्षत्रपुत्रद्विरदमदमरभ्रंशबालद्विपारिः क्ष्माचक्राकान्तिमायत्कळिकलिलतमोभेदबाळांशुमाली। कैनस्तुत्योदयश्री. प्रतिदिनभुवनानन्दसंवृद्धिबाळश्वेतांशु,ळ एव क्षितितळजयिनामग्रणी रसिंहः ॥३५॥ पादांभोरुह गभृत्यमरणव्यापारचिंतामणिः संत्रासग्रहविह्वलीकृतरिपुक्ष्मापालरक्षामणिः । विद्वत्कण्ठविभूषणोकृतगुणप्रोद्भासिमुक्तामणिः देव. कस्य न वर्णनीयचरित. श्रीगंगचूडामणिः ॥३६॥
स तु सत्यवाक्यकोगुणिवर्मधर्ममहाराजाधिराजपरमेश्वरश्रीमान् मारसिंहदेवः
शैलेन्द्रादिव जाह्नवी जलधरात्सौदामिनीवाम्बुधेः मुक्तापंक्तिरिव प्रकाशितगुणश्रीमूलसंघान्वयात् । दिव्या भासुरवृत्तिरप्रतिहता प्रादुर्बभूवावनौ सूरस्ता गणवृत्तिरुज्वळधियां दिग्वाससां जन्मभू ॥३७॥ श्रीप्रमाचंद्रयोगीशस्तद्गणाधीश्वर. कृती। सर्वशास्त्रमहामोधिर्विश्रुत: सकलावनौ ॥३६॥ सस्य प्रमाचंद्रमुनीश्वरस्य शिष्यस्तपोमूर्तिरुदारकीतिः ।
बभूव मग्याजविकासमानुः सतां वरः कल्नेलेदेवनामा ॥३९॥ :: तस्य शिष्योजनि श्रीमान् रविचन्द्रमुनीश्वरः । ३ षट्त्रिंशद्गुणसंयुक्तः शास्त्रवाराशिपारगः ॥४०॥
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जैन-शिकाल-संग्रह मपि च श्रीसूरस्तगणः सुदुस्सहतपाशूरैस्तपोराशिमिः शिष्यलंधसुधांशुनिर्मक्षयसोराशिः समुद्भासते। मिय्याज्ञानतमोविभेदनरविर्विद्वत्समाकौमुदीचन्द्रश्रीरविचंद्रपडित इति ख्यातो यतिग्रामणीः ॥४॥ तस्य श्रीरविचंद्रपंरितगुरोः शिष्यः सतामप्रणीः दीनानाथवनीपकब्रजमनःसंतोषसाक्षानिधिः । मन्यांमोरहषण्डमंडनरविजैनागमांमोनिधिः जात. श्रीरविनंदिदेवमुनिपः सौजन्यजन्मालयः ॥४२॥ तस्यामवन्मुनेः शिष्यस्तपोनुष्ठानतत्परः ।
एळाचार्यो यतिः श्रीमानार्यवर्यः श्रुतांबुधिः ॥४३।। भपिच
दारिद्वातपतप्तदीनजनता संकल्पकल्पद्रम पादांभोरुहमध्य गजनतासंतोषचितामणि । एळाचार्यमुनीद्र एष विळसच्चारित्ररत्नाकरः श्रीमज्जैनमतीदयाचलरविर्विभ्राजते भूतळे ॥४४॥ कोगलदेशनिवासिनां निरुपम श्रीकादलूरसंज्ञक कल्लडबारचितस्य जैननिळयस्याभ्यर्चनार्थ कृती। एळाचार्यमुनीश्वराय विदुषे ग्राम नमस्यं स्वय धारापूर्वमदाज्जितारिनरप श्रीमारसिंहो नृप ॥४५॥
स्वकीयाम्बिकाकल्लब्बाराशीकारितस्य जिनालयस्य सुधाचित्रचित्रादिपूजार्थ मुनिजनेभ्यश्चतुर्विधदानाथं च तेनामिवंद्यमानैर्वाळकाळचरितैरप्यखवप्रतिपक्षखंडनैकाखडलमहितमहीपतिवाहिनीनिवहगहनदहनहुतवहमत्यन्तवितप्रत्यंतनृपसमीपवर्ति समवर्तिनामाजिविजयोद्धरविरोधिवसुधाधिराजराज्यागमासलालसैकराक्षसराजमवार्यगामीर्यसागरसाम्राज्यपालनैकपा. शपाणिमसिधाराजलप्रवृद्धबद्धमूळस्तब्धविद्विष्टनृपविषविटपनिर्मूलनानिळ .
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- 10]
कासूर
मनवर तप्रधान विजयधनसंग्रहधनेश्वरमखिकजगद्वर्तिकीर्ति गंगोद्वहनमहेश्वरमनुकृष्टाष्टदिक्पाळमशेषराजर्षि मूर्धाभिषिक्तं पितरं सत्यवाक्यभूपतिमनुकुर्वता मारसिंहदेवेन मेल्पाटिशिबिरमधिवसति विजयस्कन्धावारे शकनृपकाळातोतसंवत्सराष्टशतेषु चतुरशीत्यभ्यधिकेषु दुंदुभिसंवत्सरांतर्गतपौषमासबहुळपक्षनवम्यां मंगळवारस्वातिमक्षत्र गरजकरणष्टतियोगसंयोगिनां कन्यालग्ने तत्समयसमाविर्भूत जिनसवनजनितानंदमनुजमुनिजनसमाजकोलाहल कलकछापूरितदिशायां तत्काल निराकुलसंचलत्कखिचंडालसंपर्क पातकातंकपं कक्षालनोद्य तजगज्जनमज्जनक्षोभित भूतलप्रतीतगंधीदकप्रवाहसहितायाम् उत्तरायणसंक्रांत्यां तस्मै एलाचार्य मुनीश्वराय सकळ भूपाळमौलिमाळामकरंदरजःपुंजपिंजरितचरणारविंदयुगलाय शिशिर - करनिकरविशदयशोराशिविशदीकृत सकळमहीतळाय जिनामिषेकगंधजलधारापुरस्सरं कोंगलदेशांतर्वर्ती कालूरनामा ग्रामो दस अस्य सीमा ( इस के बाद कन्नड में सीमा का विस्तृत विवरण तथा अन्त में दान की रक्षा के लिए शापात्मक श्लोक हैं ) ।
इस ताम्रशासन का सक्षिप्त विवरण जं० शि० सं० भाग ४ में दिया है ( लेख क्र० ८५ ) ' उस समय मूल पाठ नही मिल सका था । ९ ताम्रपत्रो पर लिखे गये इस लेख का प्रारंभिक गद्यभाग तथा ३२ वें श्लोक तक का पद्यभाग गंग राजाओं को वंशावली का वर्णन करता है जो प्रायः जै० शि० सं० भाग २ के लेख १२२ तथा १४२ के समान है । तदनंतर गग राजा बूतुग जयदुत्तरंग की पत्नी कल्लब्बा ( जो चालुक्य राजा सिंहवर्मा को कन्या थी ) के पुत्र मारसिंह ( द्वितीय ) का वर्णन है । इनके भाई का नाम मरुळ था । मारसिंह ने उन को माता द्वारा कोंगल देश में निर्मित जिनमंदिर के लिए सूरस्त गण के एळाचार्य को कादलूर ग्राम दान दिया था । उस समय वे मेलपाटि के स्कन्धावार में थे। दान की तिथि पौष वदी ९ मंगलवार शक ८८४ दुंदुभि संवत्सर की उत्तरायण सक्रांति थी । एळाचार्य की गुरुपरम्परा - मूलसंध - सूरस्तगण के प्रभाचन्द्र
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जैन-शिलालेख-स ग्रह
[१८योगोश-कल्नेलेदेव-रविचन्द्र मुनीश्वर-रविनन्दिदेव-रळाचार्यमुनीद्र इस प्रकार बताया है।
ए० ६ ० ३६ पृ०६७-११०
१८
येडरावी ( बेलगांव, मैसूर )
शक ९०१ = सन् ५७९, कन्नड बर्मदेव मन्दिर के आगे चबूतरे में लगी हुई एक शिला पर यह लेख है। इस मे बताया है कि कनकप्रभ सिद्धान्तदेव के चरण धो कर गांव के बारह गावुण्डोने एळरामे के देहार के लिए संक्रान्ति के अवसर पर कुछ भूमि पुष्य बदी १३ प्रमादि सवत्सर शक ९०१ को दान दी थी।
रि० १० ए० १६६३-६४, शि० क्र. बी ३५६
द्वारहट ( अलमोडा, उत्तरप्रदेश )
स. २०४४ = सन् ९८८, संस्कृत-नागरी चरणपादुका के पास यह लेख है। इस मे उक्त. वर्ष तथा अजिका देवश्री की शिष्या अजिका लालतश्री का नाम अंकित है।
रि० ३० ए० १९५८-५६, शि० क्र० सी ३८३
देवगढ (झाँसी, उत्तरप्रदेश)
सं० १०५१ = सन् ९९४, संस्कृत-नागरी यह लेख मन्दिर न० ७ मे है। स० १०५१ मे मन्दिर के द्वार के निर्माण का इस मे वर्णन है।
रि०५० ए० १६५६-६०, शि०० सी ५०५
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बडोह
३६
कुयिबाल ( घारवाड, मैसूर )
शक ९६७ = सन् १०४५, कन्नड
कुय्यबाळ की बसदि के लिए कुछ गावुण्डो द्वारा गुण (भद्र ) सिद्धान्तिदेव का दिये गये दान का इस लेख में वर्णन है । उन की शिष्या मोनिमति चालुक्य सम्राट् त्रैलोक्यमल्ल (सोमेश्वर १ )
- ३८ ]
कन्ति का नाम भी दिया है । के राज्य का उल्लेख भी हैं ।
( मूल लेख कन्नड में मुद्रित )
२७
सा० ६०५० २०५० ३५-३६
३७
या
बचाना ( भरतपुर, राजस्थान ) सं० १११० = सन् १०५३, संस्कृत - नागरा
ऋषभदेव की मूर्ति के पादपीठ पर यह लेख हैं । जाह के पुत्र देलूक ने आपाढ, स० १११० मे यह मूर्ति स्थापित की थी ।
रि० ५० ए० १९५६-५७, पृ० ६८ शि० क्र० बी २३४ रि० इ० ए० १९६१-६२ शि० क्र० बो ६४३ मे भी संभवत: इसी लेखका विवरण है । यद्यपि यहाँ मूर्तिस्थापक का नाम जादु का पुत्र देल्हुक ऐसा पढा गया है, तिथि वही है ।
३८
asोह ( विदिशा, मध्यप्रदेश )
सं० ( ११ ) १३ = सन् १०५७, संस्कृत-नागरी
यह लेख जिनमन्दिर के द्वार पर है । इस में द्वादसक्क मंडल के आचार्य केवली श्री अभयचन्द्र का नाम तथा उक्त वर्ष अकित है ।
रि०३० ए० १६६१-६२ शि० क्र० सी १६६२
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२.
जैन-शिलालेख संग्रह
३९
वरंगल ( अन्ध्र )
शक ९ (८० ) = सन् १०५८, कन्नड
[१९
विलम्ब संवत्सर का यह लेख टूटा है । किसी सिद्धांतदेव के शिष्य मुनिसुव्रत का इस में उल्लेख है । यह लेख किले में शंभुनिगुडि के सामने पड़ा है।
रि० ६० ए० १६५७-५८, पृ० २४ शि० क्र० बी ४४
४०
कोलनुपाक ( नलगोण्डा, आन्ध्र )
शक ९८९ = सन् १०६७, कन्नड
पेवागु नामक नाले के पास एक स्तम्भ पर यह लेख है । रेवुंडि और नेरिल में राष्ट्रकूट शंकरगंड द्वारा निर्मित बसदियों को जुव्विकुटे और निडंगलूरु में पहले कुछ जमीन दान मिली थी जो बाद मे अन्य लोगो ने छोन ली थी । महासधिविग्रहि दण्डनायक केसिमय्य तथा रेब्बिसेट्टि, अप्पय्य आदि की प्रार्थना पर रानी ने कार्तिक शु० १३ सोमवार, प्लवंग संवत्सर शक ९८९ को उक्त जमीन पुन उन बसदियो को सौपी। उक्त समय चालुक्य सम्राट् त्रैलोक्य मल्ल सपरवाडि से राज्य कर रहे थे तथा कोल्लिपाके ७००० प्रदेश पर महासामन्त मेळरस नियुक्त थे ।
रि० ३० ए० २६६१-१६६२, शि० क्र० बी ६३
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- १ ]
दपक
४१
दद्दल ( रायचूर), मैसूर
शक ९९१ = सन् १०६९, कमड
१ स्वस्ति समस्तभुवनाश्रय श्रीपृथ्वीवल्लम महाराजा२ धिराजपरमेश्वरं परमभट्टारकं सत्याश्रय
३ कुळतिळ चालुक्यामरणं श्रीमद्भुवनै कमल्क देवर वि४ जयराज्यमुत्तरोत्तराभिवृद्धिप्रवर्द्धमानमाचन्द्रार्कतारंब
५ र सलुत्तमिरे तत्पादपद्मोपजीवि समधिगतपंचमहा६ शब्द महामंडलेश्वरं अरिदुर्द्धरवरभुजासिमासुर प्र• चंडप्रद्यो[त ] दिनकर कुळनंदनं काश्यपगोत्रं कलिकालान्वयं का८ वेरीवल्लम कंबरूपरेघोषणं मयूरपिच्छध्वजं सिंहलांछ- ( नमो )
९ रेयूरवरेश्वरं परचक्र [धव] ळं मा [कों] ळ-मीमं गोत्रपवित्रं श्री१० मन्महामंडलेश्वरं पेडकलुजटाचोळभीममहाराजरु || समधिगतपंच११ महाशब्द महासामन्तं विजयलक्ष्मीकांतं माहेष्मतीपुरवरेश्वरं मध्य१२ देशाधिपति सहस्रबाहुप्रतापं निजान्वयमाणिक्यनेकवाक्यं चतु१३ रचारायणनुपायनारायणं गिरिगोटेमल्लं रिपुहृद
१४ यसेल्लं विषमहयारूढरेवन्त परबलकृतान्त मंगिय
१५ मरुळं श्रीमन्महासामन्त मानुवेय मळेयमरसर सकव१६ र्ष ९९९ नेय सौम्य संवत्सरदुत्तरायण संक्रान्तियतिवनि
१९
१७ मित्यदि श्रीयुत्तवमन्तकोलद माकिलेहियर पोचपाळल माडि१८ सिट गिरिगोटेमल्कजिनालयक्के पोनपाळ पहुवण पोल मेरेय
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जैन-शिलालेख-संग्रह [४२. १९ लु बिट्ट निगर मत्तरारु भा पोदिगेयल कन्तरिकेयल निगरं मत्तरा २० रु कोरविय तेकवोलदल बिट्ट निगर मत्तप्र्पोरडुअन्तु म. २१ त [२] ४ पूदोंट मत्त १ गाण १ मनेय निवेशन ५ २२ सामान्योयं धर्मसेतुर्नृपाणां काले काले पालनीयो २३ भवद्भि, सर्वानेतान् माविन पार्थिवेन्द्रान् भूयो भूयो याच२४ ते राममद्र । स्वदत्ता परदत्ता धा यो हरेत वसुंधरां प. २५ ष्टि वर्षसहस्राणि विष्टायां आयते क्रिमि ॥
चालुक्य सम्राट् भुवनैकमल्ल ( सोमेश्वर २ ) के अगेन महामडलेश्वर जटाचोळ भीम महाराज के अधीन महासामन्त मळेयमरस गिरिगोटेमल्ल के राज्य में माकिसेट्टि द्वारा पोन्नपाळ में निर्मित गिरिगोटेमल्ल जिनालय के लिए कुछ भूमि, उद्यान, तेलघानी और घरो के दान का इस लेख में वर्णन है । शक ९९१ सौम्य संवत्सर की उत्तरायणसक्राति के अवसर पर यह दान दिया गया था।
रि०५० ए० १९६२-६३ शि० क्र० बी ८१५ ए० इ० ३७ पृ० ११३-११६
कोहिर (मेडक, आन्ध्र )
शक ९९१ = सन् १०७०, काड चालुक्य सम्राट भुवनैकमल्ल (सोमेश्वर २) के राज्यकाल मे पौष शक ९९१ सौम्य संवत्सर मे पडवळ चावुण्डमय्य द्वारा निर्मित बसदि के लिए दान का इस लेख में वर्णन है। मन्दिर निर्माता के गुरु शुभचन्द्र .. सिद्धान्तदेव थे। प्रादेशिक शासक के रूप में पंपपेर्मानडि का नाम उल्लिखित है।
रि०६० ५० १६६१-६२ बी ५७
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- Ba ]
तलेखान
४३ 1
देवगढ (झाँसी, उत्तरप्रदेश )
३३
सं० १ ( 1 ) २६ = सन् १०७०, संस्कृत नागरी
मन्दिर नं० १९ मे यह लेख है । सं० १ ( १ ) २६ से ठकुर सोरुक की पत्नी मोहिनी द्वारा पद्मावती मूर्ति की स्थापना का इस में वर्णन है। इस के लेखक का नाम गोपाल पण्डित बताया है ।
रि० ३० ए० १६५७-५८ शि० क्र० सी ३०४
४४
तडखेल ( नादेड, महाराष्ट्र ) शक ९९३ = सन् १०७१, कनड
मल्लेश्वर मन्दिर मे पडी हुई एक शिल्पाकित शिला पर यह लेख है । पुष्य ब० ५ शुक्रवार शक ९९३ साधारण सवत्सर, उत्तरायण संक्रान्ति के अवसर पर यह दान की प्रशस्ति लिखो गयी थी । चालुक्य सम्राट् भुवनैकमल्ल ( सोमेश्वर २ ) के राज्यकाल मे वाजिकुल के दण्डनायक कालिमय्य ने निगलक जिनालय को कुछ भूमि दान दी तथा दण्डनायक नागवर्मा ने उस के लिए एक उद्यान व तेलघानी दान दो ऐसा इस में वर्णन है । ० ५० ५० १६५८-५६ शि० क्र० बी १६४
रि०
४५
तलेखान ( रायचूर, मैसूर )
शक ९९४ = सन् १०७२, कन्नड
उपर्युक्त गांव के पूर्व की ओर २ मील पर एक खेत में यह लेख है । तनकवावि के ऊरोडेय अप्पणय्य द्वारा निर्मित बसदि ( जिनमन्दिर ) के लिए आषाढ शु० ५ शक ९९४ दुन्दुभि संवत्सर के दिन कुछ भूमि दान
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-६४]
पटना संग्रहालय
बीदर ( मैसूर)
लिपि-११वी सदी की, कमड यह अधूरा लेख संग्रहालय मे रखा है। जिनशासन की प्रशंसा से इस का प्रारम्भ होता है। यम-नियम आदि शब्दो से प्रारम्भ होने वाली एक प्रशस्ति बाद मे है।
रि० ३० ए० १९५६-५७, पृ.६१ शि० क्र० बी १०३
६१.६२-६३ हनुमकोण्ड ( वरंगल, आन्ध्र )
लिपि-११वी सदी की, कन्नड-तेलुगु यहाँ पहाडी पर पद्माक्षी देवी के मन्दिर के पास तीन लेख खुदे है । इन मे एक बहुत अस्पष्ट है । दूसरे मे निम्नलिखित नाम है
श्रीप्रभाचद्रदेवर माधवशेटि तीसरे लेख में कन्नबोय यह नाम अकित है।
__ रि० १० ए० १९५८-५६, शि० क. बी ११६-२१
पटना संग्रहालय (बिहार )
लिपि-११वीं सदी की, सस्कृत-नागरी बिहार शरीफ से प्राप्त स्तम्भ पर यह लेख है। इस में किसी जैन आचार्य की प्रशंसा है।
रि०० ए० १९६०-६१, शि० क्र. बी.
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३८
जैन-शिलालेख-संग्रह
बोधन ( निजामाबाद, आन्ध्र)
लिपि-११वी सदी की, संस्कृत-कन्नड किले मे एक स्तम्भ पर यह लेख है । देवेन्द्र सिद्धान्तमुनीश्वर के शिष्य शुभनंदि के समाधिमरण का यह स्मारक है।
रि० ३० ए० १९६१-६२ शि० ऋ० बी ११२
६६-६७ हळेबीड ( हासन, मैसूर)
लिपि-११वी सदी की, कन्नड केदारेश्वर मन्दिर मे पड़ी हुई शिला पर यह लेख है । मूलसंघ-देशिगण-पुस्तक गच्छ- कोण्डकुन्दान्वय के नेमिचन्द्र भट्टारक के शिष्य मल्लिसेट्टि के पुत्र हरिसदेव और तिप्पण्ण ने इस पार्श्वमति की स्थापना की थी। यही के एक और खण्डित लेख मे पुणिसजिनालय का उल्लेख है ।
रि०३० ए० १९६३-६४ शि० ऋ० बी १६१-२
मद्रास ( मूलस्थान अज्ञात )
लिपि-11वी सदी की, तमिल महावीर मूर्ति के पादपीठ पर यह लेख है। तिरुक्कोविलूर के किसी सज्जन ( नाम अस्पष्ट ) ने यह मूर्ति स्थापित की थी।
रि० ३० ए० १९६१-६२ शि० क्र० बी २६६
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- ७२ ]
बोधन
६९-७०
धर्मपुरी (बीड, महाराष्ट्र ) लिपि - ११वीं सदी की, कन्नड
३९
(१) यह लेख खण्डित है । इस मे यापनीय संघ का तथा प्रशस्ति लेखक के रूप मे ईश्वरभट्ट का उल्लेख है । ( २ ) इसमे यापनीय संघ - वदिपूर गण के महावीर पण्डित को पोट्टलकेरे पंचपट्टण की ओर से कुछ गयी थी । ये पण्डित धर्मपुर की ( बेसकि )
करों की आय अर्पित की सेट्टि बसदि के प्रमुख थे
।
रि० ३० ए० १६६१-६२, शि० क्र० बी ४६०-१
७१
ततिकोण्ड ( वरंगल, आन्ध्र ) लिपि - ११ वी सदी की, संस्कृत-कन्नड
इस अधूरे लेख में चन्द्रसूरि नयभद्रसूरि तथा मुनिसुव्रत का नामो
ल्लेख है ।
रि० ३० ए० १६५७-५८, पृ० २४, शि० क० बी ४१
७२
बोधन (निजामाबाद, आन्ध्र )
११वीं सदी का अन्तिम या १२वीं सदी का प्रारम्भिक माग,
संस्कृत-कन्नड
किले मे रखे हुए एक स्तम्भ पर यह लेख है । इस मे चालुक्य सम्राट् त्रिभुवनमल्ल के राज्य-काल में एक जिन-मन्दिर को मिले कुछ दानो का वर्णन है । श्रेष्ठिकुल के कुछ लोगो तथा नालिकाविका के नाम भी मिलते है ।
रि० ६० ए० १६६१-६२, शि० क० बी ११५
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४.
जैन-शिलालेख-सग्रह
[७३ -
खजुराहो ( छतरपुर, मध्यप्रदेश )
लिपि-११वीं सदी की, संस्कृत-नागरी जैन मन्दिर मे एक मूर्ति के पादपीठ पर यह लेख है । इस में क्षेत्रपाल वारेन्द्र का नाम अकित है ।
रि० ३० ए० १९६२-६३, शि० क्र० सी १७४०
७४-७५.७६-७७-७८ खजुराहो ( छतरपुर, मध्यप्रदेश) लिपि-19वीं-१२वी सदी की, संस्कृत-नागरी ये पांच लेख है। प्रथम तीन जिनमूर्तियो के पादपीठो पर है । एक में आम्रनन्दि भट्टारक तथा कालसेन-जिनालय के नाम है। दूसरे में आम्र'नन्दि तथा कुलन्धर के पुत्र जिनदास के घरवास-जिनालय के नाम है। तीसरे मे दुर्लभनन्दि के शिष्य रविचन्द्र के शिष्य सर्वनन्दि आचार्य का नाम है। शेष दो लेख जिनमन्दिर के द्वार पर है। इन मे भट्टपुत्र श्रीगोलुण तथा भट्टपुत्र देवशर्मा के नाम अंकित है ।
रि० ५० ५०१६६३.६४, शि० ऋ० सी १६४०. १९४४-४५, १९४७-४८
तंटोली ( अजमेर सग्रहालय, राजस्थान )
स. ११६१ = मन् ११०४, सस्कृत-नागरी एक जिनमूर्ति के पादपीठ पर यह लेख है । फाल्गुन शु. ३ शुक्रवार सं० ११६१ यह इस मूर्ति की स्थापना की तिथि बतायी है तथा श्रेष्ठ धमानाक के लिए बोधि ने यह स्थापित की ऐसा कहा है।
रि० ३० ए० १९५७-५८, शि० क. बी ४१२
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- ८१]
कोलनुपाक
हैदराबाद संग्रहालय ( मूलस्थान संभवतः गोब्बूर, आन्ध्र )
चालुक्य वि० वर्ष ३३ = सन् १,०९, कन्नड चालुक्य सम्राट् त्रिभुवनमल्ल जयन्तीपुर से राज्य कर रहे थे उस समय हिरिय गोब्बूरु के अग्रहार के कम्मटकारो (टकसाल के कर्मचारियों) द्वारा ब्रह्मजिनालय मे चैत्र पवित्र पूजा के लिए कुछ धन दान दिया गया था। तिथि माघ पौणिमा, सोमवार, सर्वधारी संवत्सर, चालुक्य वि० वर्ष ३३ बतायी है।
रि०३० ए० १९६०-६१, शि० क्र० बी २१
कोलनुपाक ( नलगोण्डा, आन्ध्र ) चालुक्य विक्रम वर्ष ५० = सन् ११२५, संस्कृत-कनाड सोमेश्वर मन्दिर के पीछे तालाब मे एक स्तम्भ पर यह लेख है । चैत्र व०३ सोमवार, विश्वावसु सवत्सर, चालुक्य विक्रम वर्ष ५० यह इस की तिथि है। दण्डनायक महाप्रधान मनेवेर्गडे सायिपय्य के निवेदन पर राजकुमार सोमेश्वर ने अम्बरतिलक की अम्बिकादेवी के लिए पाणुपुर ग्राम दान दिया था। इस दान मे से वह जमीन मुक्त रखी गयी थी जो पोळल के निकट की अक्कबसदि को पहले दी गयी थी। दान की व्यवस्था देविय पेर्गडे केशिराज को सौपी गयी थी। काणूरगण-मेषपाषाण गच्छके जैन आचार्यों का तथा अम्बिका मन्दिर मे केशिराज द्वारा मानस्तम्भ व मकरतोरण के निर्माण का भी इस लेख मे वर्णन है।
रि०६० ए० १९६१-६२ शि० क्र० बी १२ मूल कन्नड में आन्ध्र प्रदेश आकिं० सीरीज न० ३ में प्रकाशित ।
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- १०१ ]
नासून
९९
देवगढ़ ( झाँसी, उत्तरप्रदेश )
४७
सं० १२१० = सन् ११५४, संस्कृत नागरी
यहाँ के मन्दिर नं० ७ में यह लेख है । स० १२१० में महासामन्त उदयपाल का इस मे नामोल्लेख है ।
रि० ३० ए० १६५६-६० शि० क्र० सी ५०७
१००
खजुराहो ( छतरपुर, मध्यप्रदेश ) संवत् १२१५ = सन् ११५८, नागरी-संस्कृत
॥ श्रीसंवत् १२१५ मात्र सुदि ५ रवौ देशीगणे पडितः श्रीराजनंदि तत् सिष्य पंडितः श्रीमानुकीर्ति भर्जिका मेकुश्रा अभिनन्दनस्वामिनं नित्यं प्रणमति ॥
यह लेख खजुराहो के श्रीशान्तिनाथ मन्दिर में स्थित जिनमूर्ति के पादपीठ पर है । तात्पर्य मूल लेख से स्पष्ट हो है । दिसम्बर १९६६ में प्रत्यक्ष दर्शन के अवसर पर यह विवरण अकित किया गया था ।
१०१
नासून ( अजमेर संग्रहालय, राजस्थान )
सं० १२१६ = सन् ११६०, संस्कृत - नागरी
जैन सरस्वती मूर्ति के पादपीठ पर यह लेख है । वैशाख शु० ( ४ ) सं० १२१६ के इस लेख मे माथुर संघ के आचार्य चारुकीति के शिष्य सोनम और राहिल की कन्या वीग का नामोल्लेख है ।
रि० ३० ए० १६५७-५८ शि० क्र० बी ४१६
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जैन - शिलालेख संग्रह
१०२
जालोर ( राजस्थान )
सं० १२१७ = सन् ११६१, संस्कृत - नागरी
श्रावण व ० १ गुरुवार स० १२१७ के इस लेख में उद्धरण के पुत्र जिसा (लि ) ब द्वारा पार्श्वनाथ मन्दिर मे दो स्तम्भो की स्थापना का वर्णन है ।
४८
[ १०२ -
रि० ३० ए० १६५७-५८ शि० क्र० बी ४८६
१०३
उज्जिलि ( महबूबनगर, आन्ध्र )
शक १०८९ = सन् ११६७, काय
पुष्य शु० १३ शक १०८९ पराभव संवत्सर उत्तरायण संक्रान्ति के दिन राजधानी उज्जिवोळल के बद्दिजिनालय को कुछ करो की आय व भूमि दान दी गयी ऐसा इस लेख में वर्णन है । यह दान महाप्रधान सेनाधिपति श्रीकरण भानुदेवरस - जो कल्ल केळगुनाडु का दण्डनायक था— ने सौधरे केशवय्य नायक की सहमति से आचार्य इन्द्रसेन पण्डित देव को दिया था ।
( मूल कन्नड में मुद्रित )
अन्ध्र प्रदेश भाकिं० सीरीज ३, पृ० ४० - ४३
१०४
उज्जिलि ( महबूबनगर, आन्ध्र )
लगभग सन् ११६७, कन्नड
मार्गशिर शु० ५ गुरुवार शक ८८८ प्रभव संवत्सर का यह लेख है । इस मे श्रीवल्लभचोळ महाराज द्वारा राजधानी उज्जवोळल के बद्दिजिना - लय के लिए भूमि व उद्यान के दान का वर्णन है । द्राविळ सघ-सेनगण
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षधेरा
-...] कोरूर गच्छ का यह मन्दिर था। यहाँ के आचार्य का नाम इन्द्रसेन पण्डित तथा मुख्य तीर्थंकर मूर्ति का नाम चेन्नपाश्वदेव था। संपादक के कथनानुसार इस लेख की तिथि गलत प्रतीत होती है । ऊपर इसी स्थान का शक १०८९ का लेख दिया है उसी के आस-पास के समय का यह लेख होना चाहिए क्योकि दोनो में उल्लिखित मन्दिर व माचार्य का नाम एक ही है। ( मूल कन्नड में मुद्रित) आन्ध्रप्रदेश भाकि० सीरीज ३ पृ० ४०-४३
१०५-१०६ सुरपुर खुर्द ( जोधपुर, राजस्थान )
सं० १२३९ = सन् ११७२, संस्कृत-नागरी जैन मन्दिर के दो स्तम्भो पर ये लेख है । धाहड की पत्नी तथा देवघर की माता सूहवा द्वारा उक्त वर्ष मे नेमिनाथ मन्दिर में दो स्तम्भ लगवाये गये तथा इस के लिए १० द्रम्म खर्च हुआ ऐसा इन में कहा गया है।
रि० इ० ए० १९६०-६१ शिक०बी ५७०.१
१०७ बघेरा ( अजमेर संग्रहालय, राजस्थान )
सं० १२३१ = सन् ११७५, संस्कृत-नागरी पार्श्वनाथमूर्ति के पादपीठ पर यह लेख है। चैत्र शु० १३ सं० १२३१ इस को तिथि है । माथुर संघ के सादा के पुत्र दूलाक का नाम इस में अंकित है।
रि०३० ए० १९५७-५८ शि. क्र० बी ४३०
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५०
जैन - शिलालेख संग्रह
१०८
सोनागिरि ( दतिया, मध्यप्रदेश )
सं० १२३६ = सन् ११८०, संस्कृत - नागरी
यहाँ का पहाडी पर मन्दिर न० ३४ में एक जिनमूर्ति के पादपीठ पर यह लेख है । स्थापना के उक्त वर्ष के अतिरिक्त अन्य भाग अस्पष्ट है । रि० १० ए० १६६२-६३ शि० क्र० बी ३६२
५००
हस्तिनापुर ( मेरठ, उत्तर प्रदेश ) |स० १२३७ = सन् ११८०, नागरी संस्कृत
१ संवत १२३७ बैसाख सुदि १२ सोमे २ श्री अजयमेर वास्तव्य खंडेलवालान्त्रये
[ १०८
३ साधुश्री देवपालपुत्र वील्हा तस्य ४ मार्या खोद्री तेषामर्थे ढील्ली ५ स्थितेन पुत्रनेमिचद्रेण श्रीमतिनाथस्य
६ प्रतिमा कारापिता नित्यं प्रणमति
७ सत्रकारवस्ते पुत्रस्य सामलमाहव ८ गंगाधरस्य घटितां
उपर्युक्त लेख हस्तिनापुर के दि० जैन मन्दिर मे रखी हुई काले पाषाण की श्री शान्तिनाथ की मूर्ति के पादपीठ पर है। मूर्ति की स्थापना अजमेर के खण्डेलवाल जाति के साधु देवपाल के पुत्र वोल्हा तथा उन की पत्नी खोद्री के लिए उन के पुत्र ढोल्लो ( दिल्ली) निवासी नेमिचन्द्र ने की थी । स्थापना- तिथि पहली पक्ति मे अकित है । आखिरी दो पंक्तियों
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- १]
येतिनहडि का तात्पर्य अस्पष्ट है-सम्भवतः मर्ति के शिल्पकार का नाम गंगाधर बताया गया है। मूर्ति खड्गासन ४ फुट ऊंची है। चरणो के पास दो चामरषारी है तथा उन के नीचे एक स्त्री व एक पुरुष को आकृतियां ( जो सम्भवत वील्हा व खोद्री की हैं ) अंकित है। उक्त विवरण सम्पादक ने ३०-५-६९ को प्रत्यक्ष दर्शन के अवसर पर अंकित किया था।
११० सोनागिरि ( दतिया, मध्यप्रदेश )
सं० १२४८ = सन् ११९१, संस्कृत-नागरी यहाँ की पहाडी पर मन्दिर नं० ७६ में रखी हुई एक मति के पादपीठ पर यह लेख है । उक्त वर्ष तथा मूर्तिस्थापक साधु सिवराज व उन की पत्नी का इस में उल्लेख है।
रि० १० ए० १६६२-६३, शि० ऋ० बी ३६६
१११ येत्तिनहट्टि ( रायचूर, मैसूर ) शक : (१) १ = सन् ११९४, संस्कृत-काड इस लेख मे आश्वयुज ब० ११ मगलवार शक १ (१) १७ आनंद सवत्सर के दिन द्राविळ संघ के अजितसेन मुनि के समाधिमरण का वर्णन है।
रि०१० ५० १९६३-६४ शि० क० बी १८७
सवत्सर के दिन आश्वयुज ब० ११ मगलवार
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- १२९]
१२७
रामलिंग मुदगड (उस्मानाबाद, महाराष्ट्र)
लिपि-१२वीं सदी की, कन्नड इस शिला की एक बाजू में अभयनन्दि भट्टारक का नाम है। दूसरी बाजू में दिवाकरनन्दि सिद्धान्तदेव की निसिधि का उल्लेख है। तीसरी बाजू में कोण्डकुन्दान्वय के कई आचार्यों का वर्णन है ।
रि०३० २० १९६३-६४ शि० ऋ० बी ३३६
१२८ कोलनुपाक ( नलगोण्डा, आन्ध्र )
लिपि-१२वीं सदी की, कम्मर जैन मन्दिर में रखे एक स्तम्भ पर यह लेख है। श्रीपुष्पसेनदेव यह नाम इस में अकित है।
रि० १० १० १९६१-६२, शि० ऋ० वी १००
पूना ( महाराष्ट्र ) लिपि-१२वीं सदी को, संस्कृत-काड नेमिचन्द्र यति द्वारा नेमिनाथमूर्ति की स्थापना का इस पादपीठ में लेख में वर्णन है।
रि० ३० ए० १६५७-५८ पृ० ३५ शि० ऋ० बी १५६
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जैन-शिलालेख-सग्रह [१३० -
१३० पेद्द तुम्बळम् ( कुर्नूल, आन्ध्र )
लिपि-१२वी सदी की, कन्नड एक जिनमति के पादपीठ पर यह लेख है। मूलसंघ-देशीगणपोस्तकगच्छ-कोण्डकुन्द अन्वय के चन्द्रकीति भट्टारक के शिष्य चिसेट्टि की पत्नी बोचिकब्बे द्वारा गोम्मट पार्श्वजिन की स्थापना का इसमे वर्णन है।
रि० ३० ए० १९५६-५७ पृ० ४३ शि० क. बी ४४
१३१-१३२-१३३-१३४
देवगढ ( झांसी, उत्तरप्रदेश) लिपि-19वीं-१२वी सदी की, संस्कृत-नागरी ये लेख यहाँ के जैन मन्दिरो मे मिले है। एक मे शान्तिनाथ मन्दिर, राजा नल्लट तथा व्यापारी चक्रेश्वर के नाम अकित है। यह श्लोकबद्ध है। दूसरा मन्दिर न० १६ के पूर्व में एक शिला पर है। इसमे श्रीशुभ कीर्ति, माघनन्दि,-रचन्द्र, कामदेव, गागेयनृप ये नाम पढे गये है।
रि० १० ए० १९५८-५६ शि० ऋ० सी ४११, ४१६
यहो के मन्दिर न० १९ में इसी समय को लिपि निम्नलिखित शब्द पाषाण खण्डो पर पढे गये हैं-१) बालचन्द्र निर्मित दानशाला २) संझरा पुत्र चन्द्रना ३) जयदेव. प्रणमति । मन्दिर नं० २४ में इसी समय की लिपि मे यह लेख मिला है-भोणी प्रणमति ।
रि०६० ए० १९५७-५८ शि० क्र. सी ३०५-६
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-
१९]
हगरिटगे
१३५-१३६-१३७ उखळद (परभणी, महाराष्ट्र)
सं० १२७२= सन् १२१५, संस्कृत-नागरी जैन मन्दिर की तीन मूर्तियो के पादपीठो पर ये लेख है । माघ शु० ५ सं० १२७२ को मूलसंघ-सरस्वतीगच्छ के भ० धर्मचन्द्र ने ये मूर्तियां स्थापित की थीं। दूसरे लेख में राजा प्रतापदमनदेव का नाम भी है। तीसरे लेख मे राजा रायहमीर देव का नाम है।
रि० १० ए० १९५८-५६ शि० ऋ० बी २१० से २१२
१३८ सोनागिरि ( दतिया, मध्यप्रदेश)
सं० १२७१ = सन् १२१५, संस्कृत-नागरी यहाँ की पहाडी पर मन्दिर न० ५७ मे रखी हुई मूर्ति के पादपीठ पर यह लेख है । इस मे उक्त वर्ष तथा मूलसंघ-सरस्वती गच्छ के भ० धर्मचन्द्र का नाम अकित है।
रि० १० ए० १९६२-६३, शि० ० बी ३७३
१३९
हगरिटगे ( गुलबर्गा, मैसूर )
शक ११४७ = सन् १२२४, कन्नर आषाढ़ शु० ११ शुक्रवार शक १९४७ तारण संवत्सर के दिन मूलसंघ-देशोगण-पुस्तकगच्छ-गोमिनि अन्वय के आचार्य देवचन्द्र का समाधिमरण हुआ था। उन की स्मृति मे बब्बर कलिसेट्टि ने यह लेख स्थापित किया था।
रि० १० ए० १९५६-६० शि० क० बो ४६५
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་•
जैन - शिलालेख - सग्रह
१४०
हिरेकोनति ( धारवाड, मैसूर )
सन् १२४५, कन्नड
भाद्रपद शु० ३ रविवार विश्वावसु संवत्सर के दिन कल्याणकीर्ति भट्टारक के शिष्य बम्मय्य के समाधिमरण का यह स्मारक है । तिथि-वार व सवत्सरनामानुसार उक्त वर्ष बताया गया है ।
रि० ३० ५० १६५७-५८ शि० क्र० बी २८२
१४१ अगरखेड ( बीजापुर, मैसूर )
[ १४० -
शक ११७० = सन् १२४८, कन्नड
यादव राजा कन्नर के राज्य मे ज्येष्ठ पूर्णिमा शक ११७० कोलक सवत्सर के दिन चन्द्रग्रहण के अवसर पर देशी गण के आचार्यों को मिले हुए दान का इस लेख मे वर्णन है ।
( मूल कन्नड में मुद्रित )
सा० इ०६०२० पृ० २६५
१४२
हिरेकोनति ( धारवाड, मैसूर )
सन् १२७१, कन्नड
यादव राजा रामचन्द्र के राज्यवर्ष १२ मे ज्येष्ठ व० ११ शुक्रवार प्रजापति सवत्सर के दिन अनतकीर्ति भट्टारक की शिष्या सातिसेट्टि की पत्नी के समाधिमरण का यह स्मारक है ।
रि० ६० ए० १६५७-५८ शि० क्र० बी २८०
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-
१४४ ]
सिरपुर
१४३
हिरेकोनति ( धारवाड, मैसूर )
सन् १२७८, काड
यादव राजा रामचन्द्र के संवत्सर के दिन जिन भट्टारक स्मारक है ।
के
$9
राज्य में चैत्र व० १० सोमवार बहुधान्य किसी शिष्य के समाधिमरण का यह
रि० ३० ए० १६५७-५८, शि० क्र० बी २७३
६४४
सिरपुर (अकोला, महाराष्ट्र )
सं० १३३४ = सन् १२७८, संस्कृत - नागरी
इस ग्राम की सीमा पर स्थित पवळी मन्दिर नामक जिनालय के द्वार पर तीन पंक्तियों का यह लेख है । यह बहुत अस्पष्ट हुआ है । तथापि श्रीमाल वंश के ठ० राम, संघपति ठ० जगसीह तथा अंतरिक्ष श्री पार्श्वनाथ ये शब्द पढे जा सकते हैं । अकोला जिला गजेटियर ( सन् १९१० मे प्रकाशित ) मे डब्लू० हेग ने इस की तिथि संवत् दी है ( उन्होंने इस का रूपान्तर सन् १४०६ दिया है
१३३४ इस प्रकार
वह कैसे इस का
स्पष्टीकरण नही मिलता ) । मूल लेख तथा उस के फोटो को देखकर सम्पादक ने यह विवरण जून १९६८ मे अंकित किया था । अनेकान्त वर्ष २१ पृ० १६२ पर श्रीनेमचन्द डोणगावकर ने इस लेख के वाचन का प्रयास किया है । उन्होंने लेख की तिथि शक १३३८ पढ़ी है ।
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जैन-शिलालेख-संग्रह
[१४.
२५७२४८ उखलद (परभणी, महाराष्ट्र) सं० १६(५)१ = सन् १५९५, संस्कृत-नागरी ये लेख जिनमूर्तियो के पादपीठों पर है । पहले में मूलसंघ के वादिभूषण भट्टारक का नाम अकित है । दूसरे मे स० १६(५)१ में वादिभूषण के उपदेश से लखमा की पत्नी लखमादे द्वारा पार्श्वनाथ मूर्ति की स्थापना का उल्लेख है।
रि० इ० ए० १९५८-५९ शि० ऋ० बी० २६४, २५८
२४९ सोनागिरि ( दतिया, मध्य प्रदेश)
लिपि १६वीं सदी की, संस्कृत-नागरी यहां के मन्दिर नं० १३ की एक मूर्ति के पादपीठ पर यह लेख है। इस मे कुंदकुंदान्वय तथा भुमनलाल ये नाम अंकित है।
रि० ३० ए० १९६३-६४ शि० ऋ० बी १३९
२५० खंडेला ( सीकर, राजस्थान ) सं० ११(६) १ = सन् १६०५, संस्कृत-नागरी इस लेख में मार्गशिर व० ५ गुरुवार स० १६(६)१ के दिन शान्ति. नाथ मन्दिर के निर्माण का वर्णन है।
रि० इ० ए० १९५९-६० शि० ऋ० बी ५९०
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- १५४]
रामपुरा
२५१ रेवासा ( सीकर, राजस्थान)
सं० १६६१% सन् १९०४, संस्कृत-नागरी इस लेख में भ० जशकीर्ति के उपदेश से खंडेलवाल श्री कुम्भा द्वारा आदिनाथ मन्दिर में पद्मशिला की स्थापना का वर्णन है। कूर्मवंश के महाराज रायमल तथा मन्त्री देईदास के नाम भी अंकित हैं।
रि० ३० ए० १९५९-६० शिक्र० बी ५९३
२५२ सोनागिरि ( दतिया, मध्य प्रदेश )
सं० १६६३= सन् १६०६, संस्कृत-नागरी यहाँ के मन्दिर नं० ७६ मे स्थित एक मूर्ति के पादपीठ पर यह लेख है। इस में उक्त स्थापनावर्ष तथा भ० यशोनिधि का नाम अंकित है।
रि० इ० ए० १९६२-६३ शि० ऋ० बी ३८६
।
२५३-२५४ रामपुरा ( मन्दसौर, मध्य प्रदेश)
सं० १६६४ - सन् १६०७, संस्कृत-नागरी १ओं नम. सिद्धेभ्य. । संवत २११६४ वर्षे वसाप्प [वैशाख ] मास. ३ शुक्लपक्षसप्तम्यां गुसै पुष [य]8 नक्षत्रे एतस्मिन् दिने सं
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जैन-शिलालेख-संग्रह
[१५५--
५ गइ श्रीनाथु तस्य पुन्न ६ सं जोगा सस्य पुत्र सं ७ जीवा तस्य पुत्र संग८ इ श्रीपदारथ पा [थु] ९ ज्ञाता बघेरवाल १० गात्र [तेन] सव्या वापा [पी] प्र. ११ तिष्ठा कृता सुम [शुमं] १२ भवतु सन्नधर (सूत्रधार) १५ राभा |श्री
दूसरा लेख १ (श्री) गणेशमारतीभ्यां नमः । नत्वा देवं विघ्नराजं गणेशं देवीं वाणीं दिव्यसिंहासनस्था जीवासूनोद......."(दशायां)....."लोके
(कल्पवृक्ष) " (॥१)(भ्रा)जितपादपना ॥ २ (सम) स्तसंदर्शितमोक्षमार्गा विद्वप्रिय पान्तु पदार्थकं ते ॥२॥
सार्द्धद्वादशजातयो निगदिता श्रेष्ठा विशां भूतले तन्मध्ये (प्र)थिता सुधर्मनिरता व " " धर्मे स्वकीये स्थिता मि३ (थ्यास्थावि) निवर्जितातिनिपुणा. पण्ये स्थिताना शुभे ॥३॥
नेत्रवाणेषु गोत्रेषु श्रेष्ठिगोत्र शुमं मत । तस्मिन् पदार्थको जातः सर्वगोत्रप्रकाशक ||॥ त " " (प्र) दानाधिगतप्रतीति ॥ ४ (ज्या) पारदक्षो निजबंधुमुख्यः नाथू धनाढयः प्रथितः पृथिव्यां
॥५॥ तस्यात्मजोमस्सु (हृदाह)"रत्नाकराच्छीतकरः कलापः । यथा जनानंद (करः) " • (मुदन) कीर्ति. ॥३॥ मामददुर्गा
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- २५५]
रामपुरा
५ धिपति प्रजानां दूरीकृताधि सुनयेन दक्षं । प्रभु गुणाच्यं समवाप्य
शश्वद् धर्मार्थकामान् बुभुजेधिक श्रीः ॥७॥ मचल. किक यो (ग)
संज्ञिकं ""अधिकारिपदे नियुक्त६ (वान् ) निजकार्यक्षम (तां च) पाटवं ॥८॥ गूर्जरदेशाधिपतिः
शकपो यं प्राप्य मेदपाटसंधिस्थं । गतमीः पालयमान. शरणं यत्प्रतापसंशिकं कृतवान् ॥९॥ "नीय. सुगुणाभिरामः यो ७ ""दशलक्षणेभूत् कृतप्रयत्नो निजधर्ममुख्ये ॥१०॥ दयापरः सत्यपरः कृतार्थः सत्पात्रदानेन सुगीतकीर्तिः । चैत्यालयं सद्गुरु
मक्तियुक्तो॥११॥ जीवामिधस्तत्तनयो ८ (ब) भूव स्वकीयधर्मेषु दृढप्रतीतिः । दयाभावो गुरुदेवभक्तो वंशाप्रणीबुद्धिमतां वरिष्ठः ॥१२॥ चैत्यालये वृद्धिका स्वकीये
सदा शुमध्यानविधूतमोहं । "रिकं मव्यगुणं चकार ॥१३॥ ९ तदा श्रमात् प्राप्तसमस्तकामश्चतुर्विधंदानमदायतिभ्यः । सत्पात्र
दानेन कृपायुतेन प्राप्नोति लोके पदवीं च गुषी ॥१४॥
तस्यात्मजी द्वौ विनयोपपन्नौ "ज्यायान् पदार्थोनुजनिश्च १० नाथू दीर्घायुषौ तौ भवता मवेस्मिन् ॥१५॥ श्रीमद्दुर्गनरेशस्य
कृतैकसुकृतस्य च । वण्यते तस्य राज्यं हि रामराज्योपमं शुमं ॥१६॥ ॥ श्रीमत्प्रतापसूनौ दुर्गनृपे भूपतिप्रवरे ।कुर्वति
शाखा' 'पुण्यकारिणो मनुजाः ॥१०॥ ११ श्रीदुर्गभानु. किल पुत्रपौत्रोम्यात् सहस्र शरदा नरेन्द्रः । पति
यमासाथ नरेन्द्ररत्नं राजन्वती भूमिरिचं विमाति ॥१८॥ दूषणारिपुरपः कृतवान् यो यज्ञदाननिव(निजकीर्ति। सा... कोकगति वा अगलाविरहिवां
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९६
जैन शिलालेख संग्रह
[ १५५ -
१२ विपुलं वित् ॥ १९ ॥ निजस्वामिपुरे रम्ये श्रीमद् दुर्गनरेश्वरः । शुभं सरोवरं वक्रे सर्वलोकसुखावहं ॥ २० ॥ नयेन जित्वा नृपतीन् amraut नतांश्च चक्रे वशवर्तिनस्तान् । दिगंतराजांश्च दुराशयान् यो... देशान् विगतप्रभावान् ॥ २१ ॥
१३ पद्माकरं कारितवान् हि प्राच्यां दिश्युज्जयिन्यां बहुतत्त्वजुष्टं । बध्वा नदीं पिगलिकां धनानि श्रीदुर्गमा नुर्वितरन् बहूनि ॥२२॥ कलत्रपुत्रद्विजवयं सबैरुपेत्य तां पुण्यपिशाचमोक्षे । अचीकरद दुर्गनृपस्तुलां यो हिर
१४ व्यदानं बहु चान्नदानं ॥ २३ ॥ श्रीदुर्गभूपः किल दक्षिणस्यां सोहिल्लकं वारणदुर्निवारं । जित्वाहवे सैन्यपतींश्च हत्वा दिल्लीश्वरं कीर्तिपरं चकार ॥२४॥ गूर्जर देशाधिपतिः सुदुष्कर स्वं जय ध्रुवं मेने । वि
१५ लोक्य दुर्गनृपतेशीर गजपुरस्परं भग्न ॥२५॥ गोसहस्रमहादान विधिवद्दीनवल्लमः । दूषणारिपुरे दुर्गे ददौ कल्पद्रुमोपम. ॥ २६ ॥ मधो पुरी प्राप्य जगत्पवित्र सूर्योपरागे हि ददौ महान्ति । दानानि चान्यानि त्रयो
।
१६ दशानि श्रीदुर्गभूपो द्विजपुंगवेभ्यः ||२७|| क्षात्रं दयालुतां दानं विनयं धर्मरक्षणं । विज्ञानं विष्णुभक्ति च वर्णितुं तस्य कः क्षम. ॥२८॥ तस्य प्रमोदुर्गनराधिपस्य मान्याप्रणीर्याच गुणो वदान्यः । परोपकारेब्ज -
१७ निधिः पदार्थः प्रीत्या जनानंदकरः कृपालु ॥२९॥ दयमा दानमानाभ्यां नयेन प्रश्रयेण च । पदार्थ. प्राप्तसंकल्प. सर्वलोकप्रियोभवत् ॥३०॥ (कृ) त्वाधिकार विपुले धने स्वे सेवापरं दुर्गनृपः पदार्थ | दिल्ली
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- २५४ ]
१८ श्राप्रातमिजो रुमानो देशाननेकान् बुभुजे तदात्तान् ॥३१॥ विश्रामभूमि किe सज्जनानां पदारथः पुण्यनिधिः गुणज्ञः । समाश्रिताः सत्फलमाप्नुवन्ति निदाघतप्ता इथ कल्पवृक्षं ॥ ३२ ॥ विविधमंत्रप-
रामपुरा
१९ टु हि पदार्थकं सकलकार्यधुराधरणक्षमं । हृदि विश्चित्य सुधानि - धिसंशिकः सकलमंत्रिजनेष्करोद् विभुं ॥ ३३ ॥ श्रीम दुर्गनरेश्वरस्य तनयश्चन्द्रान्वयद्योत कश्चन्द्रः क्षात्रगुणान्वितो निजजनानंदप्रदः कांतिमान् ।
२० संग्रामे तुरतीं विजित्य सहसा म्लेच्छाधिपं दुस्सहं नीत्वा दुंदुभिबाजिराजिमतनोत् कीर्ति जगविश्रुतां ॥३४॥ दिशि मंत्रायते यस्यां मानोर्मानुसहस्रकं । तस्यामेव तु चन्द्रेण प्रतापैररयो जि
२१ ताः ॥ ३५ ॥ समरभूमिगतः सुतरां बभौ नृपतिपूजित दुर्गतनूद्भवः । यव (न) सैन्य पतीनहनत् परान् विजयिवोरकुमारसमप्रम. ॥३५॥ ईदृग् - विभाचन्द्रमसोधिकारं वा वितेने विपुलं यशः स्वं । देवा (ल) -
२२ यं तीर्थकृतां च भक्तिं कुर्वन् पदार्थों दयया च दानं ॥ ३७ ॥ देवोत्सवं तस्य जिनालयस्य द्वष्टुं प्रतिष्ठावसरे हि संघः । सम्मान मोज्याच्चदुकूलवस्त्रैः समर्पितः सङ्घचनैरिहासः ॥३८॥ रथं विधायामर (या ) --
२३ ''रूपं तत्रोपविश्यायंजन. पदार्थः । दानं ददत् पोरजनैः सहर्षेः शनैर्ययौ दुर्गसरः समीपे ॥३०॥ यात्रां विधायाशु जलस्य दवा वाण्यनंतानि सुवासिनीभ्यः । पूगीफलानां निचयं जनेभ्यो ---
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जैन-शिलालेख-संग्रह [२५४ - २४ .."तिं प्राविशदालयं स्वं ॥४०॥ घस्राष्टकं वर्गचतुष्टयेभ्यः
प्रीत्या ददन्नित्यमवारितानं । कृत्वा शुमं मंडपमत्र होम संपूज्य संघ विससर्ज पूर्ण ॥४१॥ जोवासूनुरकारयमिजकुले मास्वत्--
२५ " रथ्यासौधशतां गवाक्षरुचिरा शस्ताकृति दीर्घिकां । दूरा
दागतशर्मदां दृढशिलाबद्धां पुरात् पश्चिमे पूर्णा शीतजलेन मध्यरचनासोपानपंक्स्यन्वितां ॥४२॥ श्रीमद्विक्रमभूमिपस्य समयात् ष--
२६ "न्मिते मासे राधमि वत्सरे गुरुयुते मास्वत्तिथो चोज्वले । विप्रान् वेदविद. सुवर्ण वस्त्रादिभिस्तोषयन् पूर्णीकृत्य सुदीर्विकां च वितरन् वित्तं पदार्थोधिकं ॥४३॥ पेतासूनुः सूत्रधा (र)
२७ (श्चकार) शस्ताकारां दोर्षिका रामदास । शिल्प तस्या वीक्ष्य शिल्पी मनोज्ञं कश्चि (चित्ते नादधात् शिल्प ) गर्व ॥४॥ भारद्वाजकुलोद्भवो ( द्विजवर. ) श्रीकेशव पुण्यकृत् वेदव्याकरणागमार्थवि (द)
२८ . "न सुधि ॥४५॥ "पारगः सुचरितो कौसल्यगोत्रे मद्
२९ "सौगतधर्मवेत्ता । स्वे ...
३० - "(शोमावहां ) ॥ यस्य" .
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२५४ ]
रामपुरा
।
उपर्युक्त दो लेखो मे से पहला एक स्तम्भ पर तथा दूसरा एक सीढीदार कुँए की दीवाल में लगी हुईं शिला पर है। दोनो में बघेरवाल जाति के श्रेष्ठगोत्र के संगई नाथू के पुत्र जोगा के पुत्र जीवा के पुत्र पदार्थ द्वारा इस कुँए के निर्माण का वर्णन है । इस के शिल्पकार का नाम रामा या रामदास बताया है । दूसरे लेख में नाथू के पुत्र जोगा का नामान्तर योग बताया है तथा अचल ने उसे अधिकारिपद दिया ऐसा कहा है। मेवाड़ की सीमा पर योग की गुजरात के शकप ( मुसलमान राजा ) से मुठभेड़ हुई थी। योग ने दशलक्षण धर्म की साधना की तथा एक जिनमन्दिर बनवाया । उस के पुत्र जीवा के दान की ओर गुणो की बड़ी प्रशंसा की है । जीवा के पुत्र पदार्थ और नाथू हुए इस के बाद राजा दुर्गभानु और उस के पुत्र चन्द्र की विस्तृत प्रशसा है। दुर्ग ने अपने नगर में एक सरोवर बनवाया था । उज्जयिनी के पूर्व मे पिंगलिका नदी पर बांध बनवाया था तथा पिशाचमोक्ष तीर्थ पर तुलादान किया था । दिल्ली के बादशाह अकबर की ओर से गुजरात के सुलतान से लड कर अहिल्लक किला जीता था तथा एक हजार गायें दान दी थी । मथुरा की यात्रा कर बहुत से दान दिये थे । इस दुर्गराज ने पदार्थ को अपना मन्त्री नियुक्त किया था । दुर्ग के पुत्र चन्द्र ने पदार्थ को मुख्य मन्त्री बनाया । तदनन्तर पदार्थ द्वारा की गयी यात्रा, दान, होम, पूजा आदि गतिविधियो की चर्चा है तथा इस कुंए का निर्माण पूरा होने का वर्णन है । यह कुँआ अभी भी पाथू शाह की बावड़ी कहलाता है ( पाथू का ही संस्कृत मे पदार्थ यह रूप प्रयुक्त किया गया है ) |
*
१९
ये
ए० ई० ३६, पृ० १२१-३०
रामपुरा के चन्द्रावत राजा अचलदास थे। इन के पुत्र प्रतापसिंह तथा प्रतापसिंह के पुत्र दुर्गभानु हुए।
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जैन-शिलालेख-संग्रह
२५५ पैरिस संग्रहालय (मूल स्थान अज्ञात )
सं० १९६६ = सन् १६१०, संस्कृत-नागरी पैरिस के म्यूजी गिमे से प्राप्त एक फोटोग्राफ क्र० एम जी २१०८८ में कांसे की जिनमूर्ति दिखायी गयी है जो उक्त वर्ष में स्थापित की गयी थी।
रि० इ० ए० १९५६-५७ शि० ऋ० बी ५४४
२५६-२५७
उखलद (परभणी, महाराष्ट्र) सं० १६१९ = सन् १६१३ तथा शक १५३८ = सन् १६१६
संस्कृत-नागरी इस लेख में काष्ठासघ के भट्टारक जसकीर्ति द्वारा फाल्गुन व. (१०) गुरुवार सं० १६६९ में एक जिनमूर्ति को स्थापना का वर्णन है।
रि० इ० ए० १९५८-५९ शि० ऋ० बो २५९
यही के एक अन्य मूर्तिलेख मे फाल्गुन व. २ शक १५३८ नल संवत्सर यह स्थापना की तिथि तथा बलात्कारगण सरस्वतीगच्छ के विशालकीति का नाम अकित है।
रि० ३० ए० १९५८-५९ शि० ऋ० बी २६८
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- १९१]
उसकद
१
.
१
२५८ सोनागिरि ( दतिया, मध्यप्रदेश)
सं० १६.. - सन् १९४१, संस्कृत-नागरी यहाँ के मन्दिर नं० ५७ में स्थित पार्श्वनाथभूति के पादपीठ पर यह लेख है । इस में पुष्करगच्छ-भाषभसेनगणघरान्वय के भ० विजयसेन के शिष्य भ० लक्ष्मीसेन तथा रावतचंद व उस की पत्नी केसरबाई के नाम अंकित है।
रि०१० ए० १९६२-६३ शि० क. बी ३७४
२५६ राणोद ( शिवपुरी, मध्यप्रदेश)
सं० १६७४ - सन् १६१८, संस्कृत-नागरी बाराखम्भा नामक स्तम्भ पर यह लेख है। इस में मूलसंघ-सरस्वतीगच्छ के जसकोति व ललितकीति का उल्लेख है । जहांगीर के राज्य का भी उल्लेख है।
रि० ३० ए० १९६१-६२ शि० क्र० सी १५९७
२६०-२६१-२६२ उखलद ( परभणी, महाराष्ट्र) शक १५४१ = सन् १९२०, संस्कृत नागरी जैन मन्दिर में स्थित मूर्तियों के पादपीठो पर ये लेख है। एक लेख में उक्त वर्ष में प्रतिष्ठापक विशालकोति का नाम अंकित है। दूसरे लेख
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- २७८]
सोनागिरि रुक्मावती के पुत्र लाला वासुदेव ने बनवाया था। प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में भ० कुमारसेन व देवसेन के नाम भी अंकित है।
रि० इ० ए० १९६२-६३ शि० ऋ० बी० ३६८ (२) यह लेख मन्दिर नं० ४६ में है। इस मन्दिर का निर्माण मूलसंघबलात्कारगण के भ० वसुदेवकीति के उपदेश से पं० बालकृष्ण द्वारा सं० १८१२ में किया गया था।
उपर्युक्त, शि० ऋ० बी ३६६ (३) यह लेख मन्दिर नं० १५ में है। दतिया के बुन्देल राजा शत्रुजीत के राज्य में इस मन्दिर , का निर्माण हुआ था। इस में तीन तिथियां दी है--सं० १८१९ में नीव खोदी गयी, सं० १८२५ में प्रतिष्ठा हुई थी तथा पूरा काम सं० १८८३ मे पूर्ण हुआ था। लेख में भ० महेन्द्रभूषण, जिनेन्द्रभूषण व आ० देवेन्द्रकीर्ति के नाम भी उल्लिखित हैं । निर्माणकार्य घोम्हानगर के शिल्पकार मटरू ने सम्पन्न किया था।
उपर्युक्त, शि० क. बी ४१३ (४) यह लेख मन्दिर नं. ७६ में स्थित एक जिनमूति के पादपीठ पर है । इस में स्थापना वर्ष सं० १८२८ तथा स्थापक देवेश का नाम अंकित है।
उपर्युक्त, शि० ऋ० बी ३८२ (५) यह लेख मन्दिर नं० ५० में है। बुन्देलखण्ड में दिलीपनगर (दतिया ) के राजा इन्द्रजीत के पुत्र छत्रजीत के राज्य में नोरोदा निवासी बोटेराम ने भ० देवेन्द्रभूषण के उपदेश से सं० १८३६ में एक जिनमूर्ति स्थापित की ऐसा इस मे कहा गया है। मूर्ति के शिल्पकार का नाम घासी था।
उपर्युक्त, शि० ऋ० बो ३६७
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जैन- शिलालेख संग्रह
२७९ सेमनवाड़ी (बेलगाँव, मैसूर )
शक १०१५ = सन् १७९३, कन्नड
कार्तिक शु० ४ गुरुवार शक १७१५ प्रमादि संवत्सर । इस तिथि के इस लेख में जिनसेनभट्टारक का नाम दिया है। जिनमन्दिर के गोपुर में रखी हुई मूर्ति के पादपीठ पर यह लेख है ।
रि० ३० ए० १९६३-६४ शि० क्र० बी ३५०
*
२८०
कोरोची ( कोल्हापुर, महाराष्ट्र ) संस्कृत-कन्नद
[ २०९ -
शक १७२० तथा १७४२ = सन् १७९८ तथा १८२०
रायप्प व बन्धु रेचप्प द्वारा एक जिनमन्दिर के निर्माण व पार्श्वनाथमूर्ति की स्थापना का इस लेख मे वर्णन है । इस में दो शकवर्ष बताये है -- १७२० तथा १७४२ ।
रि० ६० ए० १६६२-६३ शि० क्र० बी ७७८
२८१ से २८४
सोनागिरि ( दतिया, मध्यप्रदेश )
सं० १८५५ = सन् १७९९, संस्कृत- नागरी
उक्त वर्ष के ये चार लेख यहाँ के विभिन्न मन्दिरो में प्राप्त हुए हैं।
इन का विवरण इस प्रकार है-
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- २८५ ]
सोनागिरि
(१) मन्दिर नं० ४ व ५ के बीच चोबीस तीर्थंकरों के चरणों का एक शिल्पांकित पट है उस पर यह लेख है । इस मे भ० राजेन्द्रभूषण के बन्धु सुरेन्द्रकीति की शिष्या वसुमती का नाम अंकित है ।
रि० इ० ए० १९६२-६३ शि० क्र० बी ३६०
१०९
(२) यह लेख मन्दिर नं० ५८ में है । दतिया के राजा छत्रजीत के राज्यकाल में बलवन्तनगर निवासी परमानन्द व प्रतापकुंवरि के पुत्र लाला देवकीनन्दन, भगवानदास, मुकुन्दलाल व रामप्रसाद द्वारा आदिनाथ, पार्श्वनाथ व महावीर के मन्दिरों का निर्माण किया गया था । प्रतिष्ठा भ० महेन्द्रकीति द्वारा सम्पन्न हुई थी ।
उपर्युक्त, शि० क्र० बी ३७५ एक मूर्ति के पादपीठ पर महेन्द्रभूषण तथा ब्र०
(३) यह लेख मन्दिर नं० ९ में स्थित है । इस में भ० जिनेन्द्रभूषण के पट्टधर भ० हर्षसागर के नाम अकित हैं ।
उपर्युक्त, शि० क्र० बी ४०५
(४) यह लेख मन्दिर नं० ८ में स्थित एक मूर्ति के पादपीठ पर है । इस मे मूलसंघ बलात्कारगण के भ० जिनेन्द्रभूषण व महेन्द्रभूषण के नाम अंकित है ।
रि० १० २० १९६३-६४ शि० क्र० बी० १३७
२८५
सोनागिरि ( दतिया, मध्यप्रदेश ) सं० १८६८ = सन् १८११, संस्कृत-हिन्दी-नागरी
श्रीमच्चन्द्रप्रभाय नमो नमः । संवत् १८६८ मिती माघ सुदि ५ श्रीमहाराजाधिराज श्रीराडराजा पारीछत बहादुरजदेवस्य राज्योदये
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जैन-शिलालेख-संग्रह
[२८६ -
श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये श्रीगोपाचलपट्टे महारकजी श्रीविश्वभूषणजी तत्पट्टे श्रीसुरेंद्रभूषणजी तत्पढे श्रीलक्ष्मीभूषणजी तत्पट्टे श्रीमुनींद्रभषणजी तस्पट्टे श्रीदेवेंद्रभूषणजी तत्पष्टे श्रीनरेंद्रभषण नी तत्पट्टे श्रीसुरेद्रभूषण विद्यमाने श्रीमद्वारक देवेंद्रमषणस्य गुरुभ्राता मंडलाचार्यजी श्रीविजयकीर्तिजी तेन मंदिरजीर्णोद्धारेण पुनर्निमपिणं कृत तरिमप्यो पडित परमसुखजी पंरित मागीरथजी चि. हीरानंद मेघराजादि मंदिरस्य नित्य सेवां कुर्वतु श्रीरस्तु श्रीकल्याणमस्तु अपरं च १८६३ की सालमै तो मंदिर को नीम लगी अर संवत १८६६ की सालमै रथयात्रा प्राणप्रतिष्ठा मई भर स. १८६८ की सालमै मंदिर पूर्ण बनि गओ जै कोइ वाचै तिनिको धर्मवृद्धि आशीर्वाद यथायोग्यम् श्री श्री श्री श्री श्री ___ उपर्युक्त लेख सोनागिरि की तलहटी के मन्दिर क्र. ९ के द्वार पर लगी हुई शिलापट्टिका पर खुदा है । संवत् १८६३ से १८६८ तक रावराजा पारीछत (परोक्षित ) बहादुर के राज्यकाल में भट्टारक सुरेन्द्रभूषण के कार्यकाल में आचार्य विजयकीति द्वारा इस मन्दिर का जीर्णोद्धार किया गया था। उन के शिष्य पण्डित परमसुख, भागीरथ, होरानन्द, मेघराज आदि थे। उपर्युक्त विवरण प्रत्यक्ष दर्शन के अवसर पर ता० ६-६-६९ को अंकित किया गया था।
रि० इ० ए० १९६२-६३ शि० क्र. बी १०९ में भी इस का साराश दिया है।
२८६ से २९२
सोनागिरि ( दतिया, मध्यप्रदेश ) सं० १८७३ से १८९०८-सन् १८१८ से १८३५, संस्कृत-नागरी
ये सात लेख यहाँ के विभिन्न मन्दिरों में मिले है । इन का विवरण इस प्रकार है
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- २१२]
सोनागिरि
(१) यह लेख मन्दिर नं० ३४ में है । दतिया के बुन्देल राजा पारीछत के राज्य में सं० १८७३ मे भ० देवेन्द्रभूषण के शिष्य विजयकोति तथा पं० परमसुख व भागीरथ के उपदेश से बलवन्तनगर निवासी ठकुरो बुलाखीदास ने ऋषभदेवमूर्ति की स्थापना की तथा इस मूर्ति के शिल्पी का नाम नोरना था ऐसा इस मे वर्णन है।
रि० इ० ए० १९६२-६३ शि० क्र० बी ३६४
(२) यह लेख मन्दिर नं० ५७ मे है । राजा पारीछत के राज्य में पं० परमसुख व भागीरथ के उपदेश से लाला लछमीचन्द द्वारा सं० १८८३ मे मन्दिर का जीर्णोद्धार किया गया था तथा मणोराम बन्धु चम्पाराम ने यहां की यात्रा की थी ऐसा इस मे वर्णन है।
उपर्युक्त, शि० ऋ० बी ३७१
(३) यह लेख मन्दिर नं० २३ में है । इस मे सं० १८८४ में मूलसंघ के भ० सुरेन्द्रभूषण तथा चन्देरी निवासी खंडेलवाल सभासिंध के नाम अंकित है।
रि० इ० ए० १९६३-६४ शि० ऋ० बी० १४४
(४) यह लेख मन्दिर न० ३७ मे है तथा ऊपर के लेख जैसा
उपर्युक्त, शि० ऋ० बी १४७
(५) यह लेख मन्दिर नं० ७६ मे है । इस में सं० १८८८ तथा गोलानाथ यह शब्द अंकित है।
रि० १० १० १९६२-६३ शि० ऋ० बी ४००
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जैन - शिलालेख संग्रह
[ २९३ -
( ६ ) यह लेख मन्दिर नं० ७७ के सामने चरणपादुका के पास है । सं० १८९० मे मण्डलाचार्य विजयकीर्ति के शिष्य हीरानन्द, मेघराज, परमसुख, भागीरथ आदि के नामो का इस में उल्लेख है ।
उपर्युक्त, शि० क्र० बी ४०२
૧૧૨
( ७ ) यह लेख मन्दिर नं० ४३ मे है । राजा पारीछत के राज्य मे पं० परमसुख व भागीरथ के उपदेश से बलवन्तनगर के चौधरी कल्याणसाहि द्वारा सं० १८९० में मन्दिर निर्माण का इस में वर्णन है ।
उपर्युक्त, शि० क्र० बी ३६५
२९३-२९४-२९५
सोनागिरि ( दतिया, मध्यप्रदेश )
[सं०] १८९० = सन् १८३३, सस्कृत- नागरी
श्रीमहारक मूल संघतिलके श्रीकुंदकुंदान्वये श्रीगोपाचलपट्टके गणबलात्कारे हि वागच्छके आकाशे नवनागचन्द्र मिलिते सोमे सिते कार्तिके मुनितिध्यां च सुरेन्द्र भूषणयते, संस्थापिते पादुके तेनैव कथिता सदर्भवृद्धिः श्रेयसुधा ।
उक्त लेख सोनागिरि के तलहटी के मन्दिर क्र० १२ के आँगन में स्थापित चरणपादुकाओ के चारो ओर वृत्ताकार दो पंक्तियों में है । इस में कार्तिक शु० ७ सोमवार, १८९० ( जो संवत् होना चाहिए ) के दिन मूलसंघ - कुन्दकुन्दान्वय बलात्कारगण वाग्गच्छ - गोपाचलपट्ट के सुरेन्द्रभूषण यति की पादुकाओं की स्थापना का उल्लेख है । इन पादुकाओं के समीप दो अन्य छत्रियो में भी चरणपादुकाएं हैं जिन पर भ० हरेन्द्रभूषण तथा
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-३०६]
सोनागिरि भ० जिनेन्द्रभूषण के नाम पढे जा सकते हैं किन्तु लेखो का अन्य भाग अस्पष्ट है । उक्त विवरण ता० ६-६-६९ को प्रत्यक्ष दर्शन के अवसर पर अंकित किया गया था। वर्तमान भट्टारक चन्द्रभूषणजी के कथनानुसार उन के पूर्व के पट्टाधिकारी जिनेन्द्रभूषण के देहान्त की तिथि सं० २००० तथा उन के पूर्ववर्ती भट्टारक हरेन्द्रभूषण की देहान्ततिथि सं० १९८८ थो । भ० हरेन्द्रभूषण सं० १९४५ मे पट्टारूढ हुए थे।
प्रथम ( सं० १८९० के ) लेख का सारांश रि० इ० ए० १९६२-६३ शि० क्र. बी ४११ में भी मिलता है।
२९६ से ३०६ सोनागिरि ( दतिया, मध्यप्रदेश ) सं० १८९९ से १९४५ = सन् १८४३ से १८८९
संस्कृत नागरी ये ग्यारह लेख यहाँ के विभिन्न मन्दिरो में प्राप्त हुए हैं। विवरण इस प्रकार है
(१) यह लेख मन्दिर नं. १३ में है। दतिया के बुन्देल राजा विजयबहादुर के राज्य मे स० १८९९ में बलवन्तनगर के नन्दकिशोर, मणीराम, भोलानाथ और परिवार द्वारा इस मन्दिर का निर्माण किया गया था।
रि० इ० ए० १९६२-६३ शि० ऋ० दी ४१२ (२) यह लेख मन्दिर नं. ७६ की एक मूर्ति के पादपीठ पर है। इस मे बलात्कारगण के गोपाचलपट्ट के भ० जिनेन्द्रभूषण, महेन्द्रभूषण व
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११४
जैन-शिलालेख-संग्रह [३०६ - राजेन्द्रभूषण के नाम अकित है तथा स० १९१३ यह मूर्तिस्थापना का वर्ष बताया है।
उपर्युक्त शि० ऋ० बो ३९०
(३) यह लेख मन्दिर नं० ५२ मे है। इस में सं० १९१७ में ललतपुर के रामचन्द्र का नाम अकित है।
उपर्युक्त, शि० क्र० बी ३६९
(४) यह लेख मन्दिर न० ६५ व ६६ के बीच चरणपादुका के पास है । स. १९१८ के अतिरिक्त इस का अन्य विवरण अस्पष्ट है ।
___ उपर्युक्त, शि० ऋ० बी ३७६
(५) यह लेख मन्दिर न० १८ में है। स० १९२३ मे भ० चारुचन्द्रभूषण तथा कोलारस निवासी अग्रवाल मोतलगोत्रीय चौधरी रामकिसन, बन्धु लालीराम तथा ईश्वरलाल के नाम इस में अकित हैं ।
रि० इ० ए० १९६३-६४ शि० क्र० बी १४२ (६) यह लेख मन्दिर न० २५ मे है । मूलसंघ-कुन्दकुन्दान्वय के भ० राजेन्द्रभूषण तथा लम्बकंचुक अन्वय के उदयराज बन्धु खङ्ग सेन के नाम तथा सं० १९२५ यह स्थापना वर्ष इस मे अकित है।
उपर्युक्त, शि० ऋ० बी १४६ (७) यह लेख मन्दिर नं० २३ मे है। मूलसंघ-सेनगण के भ० लक्ष्मीसेन के उपदेश से स० १९३० मे खंडेलवाल सेठ सुपुण्यचन्द्र व पत्नी केसरबाई द्वारा जिनमूर्ति स्थापना का इस मे वर्णन है।
उपयुक्त, शि० ० बी १४५
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- ३०० ]
(८) यह लेख जैसा ही है ( सिर्फ गया है ) ।
डीग दरवाजा
मन्दिर न० ६ में है । इस का तात्पर्य ऊपर के लेख सुपुण्यचद्र के स्थान में चन्द इतना ही अंश पढ़ा
११५
उपर्युक्त, शि० क्र० बी १३८
सन् १८७८
( ९ ) यह लेख मन्दिर नं० ९ मे है । सन् १८७३ व मे सोनागिरि पहाडी पर मन्दिर निर्माण के अधिकार के बारे में भ० शोलेन्द्रभूषण व भ० चारुचन्द्रभूषण में कुछ विवाद चला था उस का राजा भवानीसिंह द्वारा निपटारा किया गया ऐसा इस में वर्णन है । रि० इ० ए० १९६२-६३ शि० क्र० बी ४१०
(१०) यह लेख मन्दिर न० ७५ मे है । इस मे सं० १९३४ में भ० चारुचन्द्रभूषण तथा फलटण ग्राम के बालचन्द नानचन्द का नाम अंकित है ।
उपर्युक्त, शि० क्र० बी ३७९
(११) मन्दिर नं० ४ के समीप चरणपादुका के पास यह लेख है । इसमें सं० १९४५ मे मूल संघ बलात्कारगण के गोपाचल पट्ट के भ० चारुचन्द्रभूषण का नाम अंकित है ।
उपर्युक्त, शि० क्र० बी ३५९
अनिश्चित समय के लेख
३०७
डीग दरवाजा ( मथुरा, उत्तरप्रदेश ) प्राकृत - ब्राह्मी
यह एक अर्हत् प्रतिमा का पादपीठ लेख है । अधिक विवरण प्राप्त
नही है ।
रि० ३० ए० १९५७-५८ शि० क्र० बी ५९३
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जैन-शिलालेख-संग्रह
[३.८
११६
३०८ मट्टेवाड ( वरंगल, आन्ध्र)
संस्कृत-कनाड़
इस लेख मे मूलसंघ-कोण्डकुन्दान्वय के त्रिभुवनचन्द्र भट्टारक के समाधिमरण का वर्णन है । यह शिला भोगेश्वर मन्दिर में पड़ी है।
रि० इ० ए० १९५८-५९ शि० क० बी १२२
३०९ मद्रास
तमिल इस ताम्रपत्र मे शेलेट्टि कुडियन् द्वारा इरुमुडिशोळपुरम के नगरत्तार से खरीदी भूमि पर पल्लि ( जिन मन्दिर ) के निर्माण का वर्णन है । उंबलनाडु तथा पुरंकरबैनाडु के अन्तर्गत दनमलिपॅडि की कुछ भूमि मन्दिरनिर्माता को खेती के लिए दी गयी थो। सुन्दरशोलपेरुबल्लि के लिए पल्लिच्छन्दम के रूप मे नन्दिसंघ के मौनिदेवर उपनाम संदणंदि तथा ऋषि व आयिकाओ के लिए दान देने हेतु कुछ भूमि अर्पित की गयी थी।
रि० इ० ए०६१-६२ शि०० ए० २९
दैन्जेक्शन्स ऑफ दि आकिं० सोसाइटी ऑफ साउथ इडिया १९५८-५९- पृ० ८४ पर प्रकाशित ।
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जन्नपिप्पल १३ जयकर्ष ३४ जयकोति ५४,.१ जयदुत्तरंग १८,२१ जयदेव ५८ जयन्ती ४१ जयश्री ११९ जयसिंह ३२ जराजचंद ८६ जलोल्ली ९०० जसकोति ९३,१००,१०१,११८ जससेन ८९ जसोधर ३३ जहांगीर १०१ जाकलदेवी ३६ जाटी ११७ जादु २७ जालोर ४८ जाल्हण ४३ जाह २७ जिनचन्द्र ४४,४५,८२,८४,८५ जिनदास ४० जिनब्रह्मयोगी ७१ जिनभट्टारक ६१ जिनयति ११९
जिनेन्द्रभूषण १०७,१०९,११३ जिषण ४२ जिन्नोज ७७ जिसालिब ४८ जीजा ६४,६५,६८,७० जीतराज ८६ जीवा ९४,९५,९८,९९ जीवाई १०२ जुगराज १०२ जुम्विकुंटे २८ जैत्रसिंह ५२ जोगा ९४,९९ जोगिसेट्टि ५४ ज्योतिप्रसाद १४ ज्ञानशिलाक्षर ११७
डोग दरवाजा ११५ डूंगरसिंह ८१,८२ डोगरग्राम १६ डोणगांवकर ६१
ढलधारी ।।
ढील्ली ५०
तडखेल, वि]
जिनसेन १०८
तंटोली ४०
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________________
जैन-शिलालेख-संग्रह
बाजपेयी ४ फलटण ११५
बाथा ७४ कंचनाम १६
बा) ८९ बारकूरु ८७
बारदेव ३२ बंक ८
बालकृष्ण १०७ बघेरवाल ६४,६८,९४,९९ बालचन्द्र ५८,७१ बघेरा ४३-४५,४९
बिण अम्मन् ५ बचाना २६,२७
विजडि ओवजन ६ बडोह २७,३२,४३
बिसादन ६ बड़ोदा ७४
बिहार शरीफ ३७ बद्दिजिनालय ४८
बोदर ३७ बनवासि ७,८
बुन्देल १०२,१०७,१११,११३ बन्दवड ७९
बुलाखीदास १११ बप्पोज ४४
बूतुग २१ बम्बई २३
बेळ्ळट्टि ६ बम्मदेव ५६
बैच ७६,७८ बम्मय्य ५४,६०
बोचिकव्वे ५८ बलवन्तनगर १०९,१११-११३
बोटेराम १०७ बलात्कारगण ६३,७०,७५,७९, बोधन २६,३२,३८,३९
८२, ८४, ९१, १००, १०२, बोषि ४० १०५, १०७, १०९, ११०, बोम्मिसेट्टि ६२ ११२,११३,११५
बोरगांव ७७ बसविसेट्टि ४२
ब्रह्म ५४ बहुधान्यपुर २६ बाचण ४२
भगवानदास १०९
Page #83
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________________
वारिवाहला १६
वारेन्द्र ४०
वाव ११७
वासुदेव १०७
विक्रमतुग १२
विजयकीर्ति ४६, ११०-११२
विजयनगर ७५,७९,८७
विजयप्प ८७
विजयबहादुर ११३
विजयसेन १०१ वितिवलिशुणकुळम् ७
विदिशा ४
विद्यागण १०३
विद्यानन्द ७९,८०,८३
विरुगप ७९
१०१,१०४,११८
विश्वकीर्ति १०३
नाम सूची
विश्वभूषण १०४,१०६,११०
वोग ४७
वीतचन्द्र ११८
वीर ३३
वीरगण १४, १५, १७
वीरचन्द्र २४, ११८, ११९
वीरनन्दि ७७
वीरपाण्डय ८१
वीरसिंघ १०२
वीरसेन ८७
शान्त ५३
शान्ति भट्टारक ७१
विशालकीर्ति ६३,६४,६७, १००, शिंगवरम् ५, २४
शिवदेव ७३
वीर्णाय्य अन्वय १४, १५, १७
वोल्हूण ४४
वोल्हा ५०, ५१
वेमकान्वय ३६
वेमुलवाड १५
[श ]
शकप ९५, ९९
शंकुक, शंकरगण १०, १५
शंकरगण्ड २८
शत्रुजोत १०७
शरवण १०२
शिवपुर २४
शिशुकलि ४४
शोकायवन् ७
120
शीलवे ८
शीलेन्द्रभूषण ११५
शुभ कीर्ति ५२, ५८, ६३, ६४,
६७
शुभंकर ११७
शुभचन्द्र ३०, ५२
Page #84
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________________
१३८
जैन-शिलालेख-संग्रह
सरस्वतीगच्छ ५९, ७५, ७९, ८३,
९०, १००, १०१, १०२,
शुभनन्दि ३८ शेलेट्टि ११६ श्यामदास १०४ श्रमणभद्र ११८ श्रमणाचल १०५ श्रीचन्द्र ११८ श्रीनामुळर २३ श्रीपाल ७९ श्रीमाल ६१ श्रीमाल्वव ११९ श्रीवल्लभचोळ ४८ श्रेष्ठिगोत्र ९४, ९९
सकलकीति ८३ सकलचन्द्र ७७ सकलेन्दु ५४ सजमश्रो ११९ सजर सेट्टि ८१ संझरा ५८ सतलखेडी ८५ सत्यवाक्य १८, १९, २१ सन्दणन्दि ११६ सभासिंघ १११ सपरवाडि २८ सम्यन्तसिंघ ६२
सर्वदेव १८ सर्वनन्दि ४० सहस्रकीति ११९, १२० सळुकि ७ सागरनन्दि १८, २५, २६ सांकलिया ३ साढा ४९ सातिसेट्टि ६० सान १०२ सायिपय्य ४१ सावट १८ साविणवाड १६ साविरी ८२ सिंगिसेट्टि ४२ सिंघदेव ५ सित्तण्णवाशल ६ सिन्द६ सिरपुर ६१ सिरिमा ११९ सिवराज ५१ सिंहकोति ८४ सिंहनन्दि ७९ सिंहपुर ८३
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नाम सूची
सोनागिरि ५, ५०,५१, ५९, ७४,
७८, ८५, ८६, ८८, ८९, ९१, ९२,१०१-१०६, १०८.
११०, ११२, ११३, ११५ सोम ७८ सोमानी ६४ सोमेश्वर २७, ३०, ३१, ४१ स्तवनिधि ७०, ७६
सिंहवर्मा १८, २१ सिंहान्वय ११७ सिंहक १०, १५ सिहक २३ सीरुक ३१ सोहग्राम १७ सीहपुर १३, १५ सुगिगोडि ५४ सुतकोटि ६२ सुन्दरशोलपेरंबल्लि ११६ सुपुण्यचन्द्र ११४, ११५ सुरपुर ४९ सुरेन्द्रकीति १०९ सुरेन्द्रभूषण ११०-११२ सुलतानपुर ४६, ७२ सूरसेन १८, २३ सूरस्तगण १९, २०, २१, ५४.
५५, ७१, ७२ सुहवा ४९ सेनगण ४८, ८६, ११४ सेनरस ७७ सेमनवाडी १०८ सोढाक ५२ सोनम ४७ सोना ११८
हगरिटगे ५९ हथूडी ६२ हनुमकोण्ड ३७ हमीर ६४, ६७ हम्मिकन्वे ४२ हरति ५४ हरदास ८३ हरिचन्द्र ४४, ८२ हरिपिसेट्टि ६३ हरियण ७९ हरिसदेव ३८ हरिहर ७५, ७६, ७८ हरेन्द्रभूषण ११२, ११३ हर्षसागर १०९ हल्लवरस ३५
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जैन-शिलालेख-संग्रह
हविचन्द्र ११९ हस्तिनापुर ५० हिरियगोम्बूर ४१ हिरेअणजि ६३, ७४, ७७ हिरेकोनति ६०, ६१, ७१ हीरानन्द ११०, ११२
हेमकोति ८३ हेमराज ८३ हेमाक ६२ हैदराबाद ४१ होल्ल ५३
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MĀŅIKACHANDRA D. J. GRANTHAMÄLA
* Ihe Serial Numbers marked with asterisk are out of print
four small works
Laghiyastraya-ādi-saṁgrahaḥ : This vol. contains 1) Laghiyastrayam of Akalankadeva (c 7th century A. D.), a small Prakarana dealing with pramāna, naya and pravacana. Akalaňka is an eminent logician who deserves to be remembered along with Dharmakirti and others. His works are very important for a student of Indian logic. Here the text is presented with the Sk. commentary of Abhayacandrasüri. 2) Soarüpasambodhana attributed to Akalanka, a short yet brilliant exposition of atman in 25 3-4) Laghu-Sarvajña-siddhth and Bṛhat-Sarvajñasiddhıh of Anantakīrti. These two texts discuss the Jaina doctrine of Sarvajñata. Edited with some introductory notes in Sk. on Akalanka, Abhayacandra and Anantakirti by PT. KALLAPPA BHARAMAPPA NITAVE, Bombay Samvata 1972, Crown pp. 8-204, Price As. 6/-.
verses
*1
•
#2. Sägära-dharmāmṛtam of Asadhara: Asadhara is a voluminous writer of the 13th century A. D., with many Sanskrit works on different subjects to his credit. This is the first part of his Dharmāmṛta with his own commentary in Sk. dealing with the duties of a layman. PT. NATHURAM PREMI, adds an introductory note Asadhara and his works. Ed. by PT. MANOHARLAL, Bombay Samvat 1972, Crown pp. 8-246, Price As, 8/-.
on
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(2)
Hastimalla (A.D. 13th century)
six acts.
*3. Vikrantakauravam or Sulocanānāṭakam of A Sanskrit drama in Ed. with an introductory note on Ha stimalla and his works by PT. MANOHARLAL, Bombay Samvat 1972, Crown pp. 4-164, Price As. 6/-.
*4. Pārsvanatha-caritam of Vadırājasūri· Vadiraja was an eminent poet and logician of the 10th century A. D. This is a biography of the 23rd Tirthankara in Sanskrit extending over 12 cantos. Edited with an introductory note on Vadirāja and his works by PT. MANOHARLAL, Bombay Samvat 1973, Crown pp. 18198, Price As 8/
5. Maithilikalyapam or Sitänātakam of Hastimalla A Sk. drama in 5 acts, see No 3 above. Ed. with an introductory note on Hastimalla and his works by PT MANOHARLAL, Bombay Samvat 1973, Crown pp 4-96, Price As 41
6. Ārādhanäsära of Devasena A Prakrit work dealing with religio-didactic topics Prakrit text with the Sk commentary of Ratnakirtideva, edited by PT. MANOHARLAL, Bombay Samvat 1973, Crown pp. 128, Price As. 4/6.
*7
Jinadattacaritam of Gunabhadra: A Sk. poem in 9 cantos dealing with the life of Jinadatta, edited by PT. MANOHALAL, Bombay samvat 1973, Crown pp. 96, Price As 5/-.
8. Pradyumnacarita of Mahāsenācārya: A Sk. poem in 14 cantos dealing with the life of Pradyumna. It is composed in a dignified style. Edited by
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(3) PTS. MANOHARLAL and RAMPRASAD, Bombay Samvat 1973, Crowa pp. 230, Price As. 8/
9. Caritrasära of Camundarāya : It deals with the rules of conduct for a house-holder and a monk, Edited by PT. INDRALAL and UDAYALAL, Bombay Samvat 1974, Crown pp. 103, Price As. 6/-.
*10. Pramapanirpaya of Vadırāja : A manual of logic discussing specially the nature of Pramāpas. Edited by PTS INDRALAL and KHUBCHAND, Bombay Samvat 1974, Crown pp. 80, Price As. 5/-.
*11. Acaranára of Viranandi . A Sk text dealing with Darsana, Jñana etc. Edited by PTS. INDRALAL and MANOHARLAL, Bombay Samvat 1974, Crown pp. 2-98, Price As 6/
*12. Trilokasära of Nemichandra : An important Prakrit text on Jaina cosmography published here with the Sk, commentary of Madhavacandra, Pt. Premi has written a critical note on Nemicandra and Madhavacandra in the Introduction. Edited with an index of Gáthás by PT. MANOHARLAL, Bombay Samvat 1975, Crown pp 10-405-20, Price Rs. 1/12/-.
*13. Tattvīnusāsana-adi-samgrabaḥ : This vol. contains the following works. 1) Tatloanušāsana of Nagasena 2) Istopadeśa of Pajyapada with the Sk. commentary of Aladhara. 3) Nitisara of Indranandi 4) Mokşapañcaśko. 5) Śrutavat ära of Indranandi. 6) Adhyatmatarangint of Somadeva. 7) Brhat-pañcanamaskara or Patrakesari-stotra of Patrakesart with a Sk. commentary. 8) Adhyatmaştaka of Vadiraja. 9) Dod
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tremórka of Amitagati 10) Vairagyamanimala of Sricandra. 11) Tattvasara in Prakrit) of Devasena 12) Śrutaskandha (in Prakrit) of Brahma Hemacandra 13) Dhädasi-gātha in Prakrit with Sk, chāya. 14) Fñanosūra of Padmasimha, Prakrit text and Sk. chāya. PT. PREMI has added short critical notes on these authors and their works Edited by PT. MANOHARLAL, Bombay Samvat 1975, Crown pp 4.176, Price As. 14/-.
*14. Apagāra-dharmimpta of Asadhara · Second part of the Dharmāmrta dealing with the rules about the life of a monk Text and author's own commentary. Edited with verse and quotation Indices by Prs BANSIDHAR and MANOHARLAL, Bombay Samvat 1976, Crown pp 692-35, Price Rs. 3/8)-.
#15 Yuktyanušāsaga of Samantabhadra A logical Stotra which has weilded great influence on later authors like Siddhasena, Hemacandra etc. Text published with an equally important commentary of Vidyānanda. There is an introductory note on Vidya. nanda by PT PREMI. Ed by PIS INDRALAL and SHRILAL, Bombay Samvat 1977, Crown pp 6-182, Price As. 13/.
*16. Nayacakra-adi-sangraha : This vol. contains the following texts 1) Laghu-Nayacakra of Devasena, Prakrit text with Sk chāyā. 2) Nayacakra of Devasena, Prakrit text and Sk. chāyā 3) Alapapaddhatt of Devasena. There is an introductory note in Hindi on Devasena and his Nayacakra by PT. PREMI. Edited by Pt. BANSIDHARA with Indices, Bombay Samvat 1977, Crown pp. 42-148, Price As. 15/-.
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( 5 ) *17. Şatprabbftadi-sangraha : This vol. contains the following Prakrit works of Kundakunda of venerable authority and antiquity. 1) Darsana-prabhria, 2) Carstra-prabhyta, 3) Sūtra-prăbhrta, 4) Bodha-prabhịta, 5) Bhada-prăbhrta, 6) Mokşa-prăbhịta, 7) Linga-prabhtta, 8) Šila-prabhria, 9) Rayanasära and 10) Dvadaśanupreksā. The first six are published with the Sk. commentary of Śrutasagara and the last four with the Sk. chāya only. There is an introduction in Hindi by PT. PREMI who adds some critical information about Kundakunda, Śrutasāgara and their works Edited with an Index of verses etc. by Pr. PANNALAL SONI, Bombay Samvat 1977, Crown pp 12-442-32, Price Rs. 3).
*18. Prayascittádi-sangraha : The following texts are included in this volume 1) Chedapında of Indranandi Yogindra, Prakrit text and Sk. chāyā. 2) ChedaŠāstra or Chedanavatı, Prakrit text and Sk chāya and notes 3) Prayascitta-cülıkā of Gurudāsa, Sk. text with the commentary of Nandiguru. 4) Prayascittagrantha in Sk. verses by Bhajtákalaika. There is a critical introductory note in Hindi by PT PREMI. Edited by PT. PANNALAL SONI, Bombay Samvat 1978, Crown pp 16-172-12, Price Rs. 1/2/
*19. Malicära of Vattakera, part I : An ancient Prakrit text in Jaina Saurasent, Published with Sk. chāya and Vasunandi's Sk. commentary. A highly valuable text for students of Prakrit and anaent Indian monastic life. Edited by PTS PANNALAL, GAJADHARALAL and SHRILAL, Bombay Sarvat 1977, Crown pp.516, Price Rs. 2/4/
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( 6 )
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Bhavasamgraha-ādiḥ : This vol contains the following works 1) Bhavasamgraha of Devasena, Prakrit text and Sk chāyā. 2) Bhāvasamgraha in Sk. verse of Vamadeva Pandita 3) Bhava-tribhangi or Bhavasamgraha of Śrutamuni, Prakrit text and Sk chāyā. 4) Asravatribhngi of Śrutamuni, Prakrit text and Sk chāyā There is a Hindi Introduction with critical remarks on these texts by PT PREMI Edited with an Index of verses by PT PANNALAL SONI, Bombay Samvat 1978, Crown pp 8-284-28, Price Rs. 2/4/
21.
Siddhantasära-ādi-Saṁgraha : This vol contains some twentyfive texts 1) Siddhantasăra of Jinacandra, Prakrit text, Sk chāyā and the commentary of Jñānabhūsaņa. 2) Yogasura of Yogicandra, Apabhramsa text with Sk. chāyā, 3) Kallaraloyană of Ajitabrahma, Prakrit text with Sk. chāyā. 4) Amṛtāśīti of Yogindradeva, a didactic work in Sanskrit 5) Ratnamala of Sivakoți. 6) Sastrasarasamuccaya of Maghanandı, a Sūtra work divided in four lessons. Arhatpravacanam of Prabhacandra, a Sūtra work in five lessons 8) Aptasvarūpam, a discourse on the nature of divinity 9) Jñanalocanastotra of Vadiraja (Pomarājasuta). 10) Samavasaraṇastotra of Vispusena 11) Sarvajñastavana of Jayanandasūri. 12) Pārsvanathasamasya-stotra 13) Catrabandhastotra of Gunabhadra 14) Maharşı-stotra (of Asadhara). 15) Parsvanathastotra or Laksmistotra with Sk. commentary. 16) Neminatha-stotra in which are used only two letters viz n & m 17) Śankhadevāṣṭaka of Bhanukīrti. 18) Nyatmaştaka of Yogindradeva in Prakrit. 19) Tattvabhāvana
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or Samāyika-patha of Amitagati 20) Dharmarasajana of Padmanandı. Prakrit text and Sk chāyā 21) Sarasamuccaya of Kulabhadra. 22) Amgapannalt of Subhacandra Prakrit text and Sk. chāyā. 23) Śrutadatūra of Vibudha Sridhara. 24) Šalakanıksepananişkāsana-vrvaranam 25) Kalyanamala of Āsadhara. Pr PREMI has added critical notes in the Introduction on some of these authors. Edited by PT. PANNALAL SONI Bombay Samvat 1979 Crown pp. 32-324, Price Rs 1/8
*22 Nitiväkyämrtam of Somadeva : An important text on Indian Polity, next only to Kautilya-Arthaśastra. The Sūtras are published here along with a Sanskrit commentary. There is a critical Introduction by PREMI comparing this work with Arthaśāstra. Edited by PT. PANNALAL SONI, Bombay Samvat 1979, Crown pp. 34-426, Price Rs 1/12/
*23. Molācāra of Vattakera, part II ; Prakrit text, Sk, chāyā and the commentary of Vasunandi, see No 19 above Bombay Samvat 1980, Crown pp. 332, Price Rs 1/8/..
24. Ratnakarandaka-śrävakicára of Samantabhadra · With the Sanskrit commentary of Prabhacandra. There is an exhaustive Hindi Introduction by PT. JUGAL KISHORE MUKTHAR, extending over more than pp. 300, dealing with the various topics about Samaktabhadra and his works. Bombay Saṁvat 1982, Crown pp. 2-84252-114, Price Rs. 2/
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( 9 )
32-33. Harivaṁśa-puräņa of Jinasena I: This is the Jaina recension of the Krsna legend. These two volumes are very useful to those interested in Indian epics. It was composed in A. D. 783 by Jinasena of the Punnata-samgha. There is a Hindi Introduction by PT. PREMIJI. Edited by PT. DARBARILAL, Bombay 1930, vol. i and ii, pp. 48-12-806, Price Rs. 3/8/-.
34. Nitiväkyämṛtam, a supplement to No. 22 above. This gives the missing portion of the Sanskrit commentary, Bombay Samvat 1989, Crown pp. 4-76, Price As. 4/-.
35. Jambüsvāmi-caritam and Adhyātma-kamalamärtanḍa of Rajamalla. See No. 26 above. Edited with an Introduction in Hindi by Pr. JAGADISHCHANDRA, M. A., Bombay Samvat 1993, Crown pp. 18-264-4, Price Rs 1/8/.
36
Trişaşti-smrti-śästra of Asadhara : Sanskrit text and Marathi rendering. Edited by PT. MOTILAL HIRACHANDA, Bombay 1937, Crown pp. 2-8-166, Price As. 8/-.
37. Mahāpurāņa of Puspadanta, Vol. I Ādipurāņa (Samdhis 1-37): A Jaina Epic in Apabhramsa of the 10th century A. D. Apabhramsa Text, Variants, explanatory Notes of Prabhacandra. A model edition of an Apabhramsa text, Critically edited with an Introduction and Notes in English by DR. P. L. VAIDYA, M. A., D. Litt., Bombay 1937, Royal 8vo pp. 42-672, Price Rs. 10/-.
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( 10 ) 37 (a). Ramāyaṇa portion separately issued, Price Rs. 2.50.
38. Nyāyakumudacandra of Prabhācandra Vol. I This is an important Nyāya work, being an exhaustive commentary on Akalanka's Laghiyastrayam with Vivrtı (see No 1 above). The text of the commentary is very ably edited with critical and comparative foot-notes by PT, MAHENDRAKUMARA There is a learned Hindi Introduction exhaustively dealing with Akalanka, Prabhācandra, their dates and works etc. written by Pt KAILASCHANDRA A model edition of a Nyāya text. Bombay 1938, Roval 8vo pp 20-126-38-402-6, Price Rs 81.
39. Nyáyaku mudacandra of Prabhacandra, Yol II: See No. 38 above, Edited by PT. MAHENDRAKUMAR SHASTRI who has added an Introduction Hindi dealing with the contents of the work and giving some details about the author. There is a Table of contents and twelve Appendices giving useful Indices Bombay 1941. Royal 8vo pp. 20+94+403-930, Price Rs. 8/8/
40. Varādgacaritam of Jața-Simhanandı : A rare Sanskrit Kavya brought to light and edited with an exhaustive critical Introduction and Notes in English by PROF. A N. UPADHYE, M A., Bombay 1938, Crown pp. 16+56+392, Price Rs. 3/-.
41. Mabápurina of Puspadanta, Vol. II (Samdhis 38-80) : See No. 37 above. The Apabhramsa Text critically edited to the variant Readings and Glosses, along with an Introduction and five Appendices by
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________________ वीर सेवा मन्दिर 22ौहरा लेखक अजनारय वियर क्रम संख्या शोक जैनाबाट