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-The TFIC Team.
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जैन-शासन का ध्वज
(अर्हन्-नित्यय जैनशासनरतः)
-हनुमन्नाटक १७
डॉ. जयकिशनप्रसाद खण्डेलवाल
(एम. ए. हिन्दी, संस्कृत, प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति आदि, एलएल.बी., पी-एच.डी.)
प्रकामक:
वीर-निर्वाण भारती
मेरठ (उ.प्र.)
[पी.नि.सं. २४५५
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पीसीसी.भियाना लीची निन (लसीमनीचर, मेण)
प्राप्तिस्थान :
रामकुमारन, ६६, वीरगरान स्ट्रीट, मेरठ बहर (उ.प्र.)
[तीकर महावीर २५०० निर्वाच महोत्सव निमित्त ]
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ऐतिहासिक निर्णय विश्वधर्म प्रेरक मुनि श्री विद्यानन्द जी, मुनि श्री कान्तिसागर जी, पिया सम्मेलन संयोजक मुनि सुशीलकुमार जी. तथा अणुबत प्रचारक मुनि महेनीपारों सम्प्रदायों के मुनिराजों ने मार्च १९७१ के प्रथम सप्ताह में बवाना स्थित दिगम्बर जैन धर्मगाजा, दिल्ली में 'जैन-मासन' के ना के संबंध में नौपचारिक विचारविनिमय के साथ पांच रंग-१-अरुणाभ, २-पीताभ, ३-बल, ४-- हरिताभ तवा ५-नीलाभ के वर का सर्वसम्मति से अनुमोदन किया।
प्रस्तुत पुस्तिका में जैन शामन के मण्डे का संक्षिप्त विवरण देते हुए उसके वास्तविक स्वरूप का सैद्धान्तिक निरूपण किया गया है। चतुर्गति का प्रतीक स्वस्तिक बहुत प्राचीन है। श्रमण-संस्कृति में इसकी विशेष मान्यता है। इसीलिए इसे ध्वज के मध्य में स्थान दिया गया है। जैन समाज में ध्वज की विभिन्न परिपाटियां प्रचलित है। एक सार्वभौम ध्वज को अपनाकर उसे समस्त जैन समाज में प्रचलित करना चाहिए। पंच-रंग का ध्वज पंच परमेष्ठी का प्रतीक होने से समस्त जैन समाज के लिए भाव का प्रतिनिधि बनेगा और सदैव प्रेरणा प्रदान करेगा। हमारी कामना है कि यह अज सार्वभोम रूप से जैन ममाज में अपनाया जाकर सदैव चलता रहे। जैसे णमोकार मंत्र का समस्त समाज में एक रूप है, वैसी ही एकरूपता इस ध्वज को भी प्राप्त हो। जन समाज इस ध्वज के नीचे मंगठित होकर, जैन गासन की इस विजय-पताका को फहराता हमा जिन-धर्म को सुदृढ़ बनावेगा।
इस ला पुस्तिका में जैन मामन का ध्वज, उसका पाल्प, उसका महत्त्व, स्वस्तिक प्रतीक का महत्व, ध्वजारोहण की विधि, ध्वजगीत, धर्मवक आदि का शास्त्रीय प्रमाण सहित विवरण प्रस्तुत किया है। २५००३ तीर्थर महावीर निर्वाणोत्सव के शुभ अवसर पर इस ला पुस्तिका का प्रकासन इस संबंध में प्रामाणिक जानकारी प्रदान करने हेतु किया है। बामा है जैन समाज इसका उपयोग करके मेरे परिश्रम को सार्थक बनायेगा।
यह पांच रंगों का ध्वज पंच परमेष्ठी का प्रतीक तो है ही, साथ ही इसे नेवार्य में पंच बनत एवं पंच महावत का प्रतीक भी माना जा सकता है। बनवत धावकों के लिए बोर महाबत श्रमणों के लिए होते हैं। धवल रंग अहिंसा का, मल्लाप सत्व का, पीताप बर्वि का, हरिताप बापर्य का तवा नीलाम अपरिबह का बोतक माना या सकता है। यह संगति भी बहुत उपयुक्त प्रतीत होती है। पंच परमेष्ठियों में बहस बार
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लाल एवं तकनीत होने के कारण पर वो का ( लाल विवाहबार उसने मन में स्वस्तिक इसलिए रसाया है कमका प्रवीकहाचतुति संसार में परिचमनका कारण है। उससे अमर बजार बन्द कोहलपाबहिला को वापरल में उतारकर ही हम निर्वाचको पार कर सकते है।
ताम्बर मुनिश्री गोपियनी, साहवासप्रसाद, साहशान्तिप्रसाद तवा की मेवीपरन, दिल्ली नवनीर स्वस्तिक चिन्ह संबंधी सवा बन्द सुनावों को हमनेवास्थान स्वीकार किया है।
प्रातःस्मरणीय भगवान महावीर के साईहजाखें निर्वाणोत्सव के अवसर पर यह नपुस्तिका में समस्त भावों के करकमलों में समर्पित करता हूं।
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मंडेका माहात्म्य
"मंडा सभी राष्ट्रों के लिए एक जरूरी चीज है। लाखों लोग इसके लिए मर चुके हैं। निस्सन्देह यह एक प्रकार की मूर्ति पूजा है, जिसमें बाधा डालना एक पाप होगा, क्योंकि संडा एक आदर्श का प्रतिनिधित्व करता है।"
-महात्मा गांधी
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जीवमात्र के लिए
'जिन जिन मत देखिए मेव दृष्टिनो एह । एक सरवन मूल मां, व्याप्या मानो ते ॥ तेह तत्वरूप बृजनो, 'मात्मधर्म' के मूल । स्वभाव भी सिद्धि करे, धर्म तेज अनुकूल ॥'
श्रीमद् राजचन्द्र चैन
4 संसार में यो मित्र-मित्र मत देखे जाते हैं, वह सब दृष्टि का भेद है । सब ही मत एक तत्व के मूल में व्याप्त हो रहे हैं। उस तत्वस्य बुल का मूल है 'मात्मधर्म', यो आत्मस्वभाव की सिद्धि करता है; और यही धर्म प्राणियों के अनुकूल है। इससे स्पष्ट होता है कि आत्मधर्म ही विश्वधर्म है और विश्वधर्म ही आत्मधर्म है। आचार्य कुम्बकुछ का संवादिस्वर
सबक संकीरह केवलिमिनेहि भणियं
सपके तं च सहणं । सहमाणस्स सम्मतं ॥
4 जितना चरित्र धारण किया जा सकता है उतना धारण करना चाहिए और जितना धारण नहीं किया जा सकता, उसका भट्टान करना चाहिए क्योंकि केवलानी तीर्थकर यमदेव ने महान करने वालों को सम्यम्युष्टि बतलाया है ।
4 महिंसाचार भारतीय जीवन का मेण्ड है तो अनेकान्तवाद भमण-संस्कृति का मानदण्ड। इन दोनों मापदण्डों के सहारे मनुष्य का मनोबल ये उठकर इष्टसिद्धि सर्वोच्च शिखर केस तक पहुँच सकता है।
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ध्वज और ध्वजारोहण-विधि
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(अतिशय क्षेत्र श्रीमहावीरजी के मौजन्य से प्राप्त) णमो अरहंताणं
अरहंतों को नमस्कार णमो सिद्धाणं
सिद्धों को नमस्कार णमो आइरियाणं
आचार्यों को नमस्कार णमो उबजमायाणं
उपाध्यायों को नमस्कार णमो लोए सव्वसाहणं
लोक में सर्वसाधुओं (श्रमण मुनियों) को नमस्कार
माहात्म्य
एमो पंच णमोकारो मव्व पावप्पणामणो।
मंगलाणं व ममि पढमं हवई मंगलं ।। (यह पंच नमकार (मंत्र) मवं पापा की निजंग करने वाला है और ममगला में प्रथम, उत्तम मंगल है।)
जिणमामणस्म मारो चउरमपुज्वाण जो ममदागे।
जस्म मणे णमोकारो समारो नस्य किं कुणई ॥ (अपर्गाजत महामन्त्र णमोकार 'जन गामन' का मार है और चौदह पूर्व जिनागम का सम्यक-ममानोन उद्धार है. ऐसे महामन्त्र गमांकार जिमकं चिन में महा स्थित है. मनार-मागर उमका क्या बिगाड़ मकना है, अर्थात् कोई अनिष्ट नहीं कर मकना।)
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महतो भगवन्त इनहिताः सितारण सिडिस्थिता। माचार्या जिनशासनोप्रतिकराः पूना उपाध्यायकाः ॥ श्री सिद्धांत सुपाठका मुनिवरा रत्नबया-राधकाः।
पंचते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं कुर्वन्तु ते मंगलं ॥ (इन्द्रों द्वारा पूज्य भगवान् अग्हंन, मिति (अप्टगुण म्प सम्पन्नता) में स्थिति मिद परमेष्ठि, जिनशामन के उन्नतिकारक आचार्य, मिदान्त के पाठक उपाध्याय और गन्नत्रय (मम्यग्दर्शन, मम्यग्जान, मम्यक् चारित्र) के धारक मुनिवर ! माधु परमेष्टी ! प्रतिदिन नुम्हारे (हमारे भी) मंगल को करें।)
'अहा सिद्धापरिया उनमाया साहु पंचपरमेट्ठी। ते बिहु बिहि आवे तम्हा आता हु मे सरणं ॥
-आचार्य कुन्दकुन्द, मोमपाइ ६।१०४ (अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और माध ये पांच परमेष्ठी हैं। ये पांचों परमेष्ठी भी जिम कारण आत्मा में स्थित हैं, वह कारण आत्मा ही मेरे लिए गरण हो।)
ते धन्ना जिजधम्म जिविलु सम्बदुक्याणासपरं। परिवजा विधिनिया विसुखमणसा गिरावेता॥
-भगवती माराधना ('जिन्होंने निर्मल मन से, निस्पह होकर, धैर्य धारण कर सर्व दु:खों का अन्त करने बाला वृषभदेव और महावीर प्रतिपादित 'जिनधर्म' धारण किया है, वे पुरुष धन्य हैं।')
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'विजया पंचवर्णाभा पंचवर्णमिदं ध्वजं ।"
जैन-शामन का ध्वज पांच रंगों वाला होता है। इसमें क्रमशः ममान अनुपात में अरुणाभ, पीताभ, श्वेताभ, हरिताभ और गहरा नीलाभ रंग आड़ी पट्टियों के रूप में रहना है। श्वेत पट्टी पर वीचों-बीच स्वस्तिक चिह्न स्वणिम रंग में अंकित होता है। म्वम्निक का न्यास श्वेत पट्टी की चौड़ाई जितना होता है। इसलिए यह पट्टी अन्य रंगों की पट्टी से अधिक चौड़ी होती है। पंचरंग पांचों परमेष्ठी
स्थापत्य एवं मूर्तिकला के मुप्रसिद्ध ग्रन्थ 'मानसार' (५वीं शती में रवित) में पांचों परमेष्ठियों की प्रतिमाओं के पञ्चवर्णों का निरूपण किया गया है
स्फटिक श्वेतरक्तं च पोतरपामनिमंतषा।
एतत्पंचपरमेष्ठि पंचवर्ग यथाक्रमम् ॥-अध्याय ५५ (पांचों परमेप्टियों की पांच प्रतिमाएं यथाक्रम में इन वर्गों की होती हैं-१-स्फटिक
(धवल),२-अरुणाभ, ३-पीताभ, 6-हरिताभ, ५-नीलाम।) ध्वजारोहण-विधि
प्रतिष्ठापाठ में ध्वजारोहण की विधि का निरूपण करते हुए ध्वज के महात्म्य का वर्णन इम प्रकार किया गया है
'कलशाहन्छिते हस्तं ध्बजे नीरोगता भवेत् । विहस्तमुन्छिते तस्मात्पुर्जाियते परा ॥ विहस्तं तस्य सम्पत्ति पवृद्धिावतः करम् । पञ्चहस्तं सुमिमं स्याद् राष्ट्रविरच जायते ॥ अम्बरेण कृतो पास्याद् मनः सम्यक् समन्ततः । सोति लम्मीदो राज्ये यशकीतिप्रतापरः।। भूपाला बालगोपाल, ललनानां समृद्धिहत् । रामां मुबापायी - धान्यावर्यजयावहः ॥'
-आचार्यकल बागाधर, प्रतिष्ठापाठ ५.१.४-७६ Aमन्दिर के शिखर-कलणों मे एक हाथ ऊंची ध्वजा आरोग्यता प्रदान करती है, दो हाप ऊंची मुपुवादि सम्पत्ति को, तीन हाथ ऊंची धान्य सम्पत्ति को, चार हाप ऊंची
बाचार्य नेमिषन : प्रतिष्ठानिमक, १०
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राजा की वृद्धि को और पांच हाय ऊंची मुभिक्ष एवं राज्यबाट को करने वाली है। वस्त्र में बनी तथा चागें और भलीभांनि फहगती हुई ध्वजा अति लक्ष्मीप्रद तथा राज्य में यण, कौनि एवं प्रताप को विकोणं करने वाली है। यह ध्वजा कृपक. बालक, गोरक्षक. म-नार्ग की मद्धि करने वानी और गायक के लिए धान्य ऐश्वर्यादि मुनदायिनी एव विजय प्रदायिनी है।
निम्नांकित मंत्र का पाठ करकं ध्वजारोहण किया जाता है
'मों गमो अरहताणं स्वस्तिमा भवतु सर्वलोकस्य शान्तिभवतु स्वाहा।' वजारोहण करने वाला कहता है
'भीमग्जिनस्य जगदीश्वरताम्बजस्य । मोनथ्वजादि रिपुजाल जयध्वजस्य ॥ तन्यामार्शनजनागमनध्वजस्य ।
चारोपणं विधिवाविवधे ध्वजस्य ॥'(जो ध्वजा वृषभदेव महावीर आदि ८ नीथंकर और जन-शामन की जगदीश्वरता. कामदेव गव ममूह पर विजय नथा जिबिम्ब के दर्शनाथियों के आवाहन आदि की प्रतीक है. मैं मी ध्वजा का विधिवन आरोहण करना है।)
इति ध्वजारोहविधि समेरी संतारनं यो विदधाति भव्यः । स मोगलममीनयनोत्पलाना नमवनेमित्वमुपति नूनम् ।।'
(भंगे वादिव के घांपपूर्वक जो भव्य पुरुप ध्वजारोहण विधि को सम्पन्न करताकराता है, वह मोक्षलक्ष्मी के नेत्री के नागपन अर्थात् प्रिय-भाव को अवश्य प्राप्त करता है. उसे मुनि अवश्य प्राप्त होती है।)
जैन-शामन में ध्वज की प्रथा अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है। जनशासन के ध्वज के नीचे मभी साधर्मी बन्धु ममान है. न कोई छोटा है न वडा। श्रमणश्रमणा और श्रावक-श्राविका चतुः मंघ एक ही जन-शामन की छत्र-छाया में स्थित है।
'शिवमस्तु सर्वजगता परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः। दोषाः प्रयान्तु नाशं तिष्ठतु जिनशासनं सुधिरम् ॥'
-आचार्य नेमिचन्द्र, प्रतिष्ठातिलक :१७
(सर्व लोकों का कल्याण हो. जीवमात्र पर-हित में तत्पर रहें। दोषों का नाश हो, जन-शासन चिरकाल तक पृथिवी पर प्रवर्तित रहे।)
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ध्वजगीत
भारत देश महान
आदि वृषभ के पुत्र भरत का भारत देश महान । वृषभदेव से महावीर तक करें सुमंगल गान । पंच रंग, पाँचों परमेष्ठी, युग को दें आशीष । विश्व-शान्ति के लिए झुकाएं पावन ध्वज को शीप । 'जिन' की ध्वनि, जैन की संस्कृति, अग-मग को वरदान ॥
भारत देश महान...
-मुकवि मिश्रीलाल
( ध्वज के प्रति निष्ठा और प्रतिज्ञा
'मैं जन-गासन के प्रति और सार्वभौम महामन्त्र णमोकार के प्रति तया बनेकान्तवाद और अहिंसावाद के प्रति भी मन, वचन, काय से निष्ठा ( रखने की प्रतिमा करता हूं।'
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M. HARE
यह शिलांकित प्राचीनतम उपलब्ध स्वस्तिक प्रथम शताब्दी का है। यह मधुरा के पुरातत्व संग्रहालय में स्थित तीर्षकर पानाव की मूर्ति पर बने हुए सात सर्प-फनों में से एक पर मंकित है।
(पुरातत्व संग्रहालय, मधुरा के सौजन्य से प्राप्त)
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प्रतीक चिह स्वस्तिक
"स्वस्तिक भी एक रहस्यमय प्रतीक है। इसका उद्भव भारतीय संस्कृति में भी
पूर्व हुआ था। ऋग्वेद मबमे प्राचीन है। उसमें जहां तहां म्वस्तिक का विवरण
है। विद्वानों की धारणा है कि स्वस्तिक की उत्पनि ऋग्वेद में भी प्राचीन है।" "स्वस्तिक शब्द 'मु-अस' धातु मे बना है। 'सु' का अर्थ है मुन्दर-मंगल और 'अम्' अर्थात् अस्तित्व या उपस्थिति । तीनों लोकों, तीनों कालों तथा प्रत्येक वस्तु में जो विद्यमान हो. वही मुन्दर-मंगल-उपस्थिति का स्वरूप है-यही भावना है स्वस्तिक की।"
चतुर्गति नामांकन और उन्नति-वर्शक भावपूर्ण प्रतीक
जैन-शामन स्वस्ति-कल्याणमय है। इसका प्रतीक ग्वग्निक भी तदनम्प है। म्वनिक चिह्न अपना महन्वपूर्ण स्थान रखता है। म्वग्निक का भाव है--ग्नि कगतीति विस्तिक: अर्थात् जो म्वम्नि-कल्याण को करे। प्रत्येक शुभ कार्य में स्वग्निफादर्शन का महन्व है। यह मंमार में मुक्ति तक की मभी अवस्था की ओर प्राणियों का ध्यान आकर्षित करता है । देव, मनुष्य, तियंच और नारक ये चार गतियां हैं, जिन्हें यग्निक के चारों कोण इंगित करते हैं। तीन बिन्दु मोक्षमार्ग के मागंभूत मम्यग्दर्णन, मम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र को लक्षित करते हैं और अर्धचन्द्र मिशिला का प्रतीक है। इस प्रकार जन-गासन का फलित रूप स्वस्तिक के द्वाग मनं म्प मे मामने आ जाता है और हमें मंमार में उठकर मोक्ष के प्रति उद्यमशील होने का पाठ पढ़ाता है। अनः इमं ग्वग्निक नाम दिया गया है। यह सर्वथा मगलकारी है। ग्वग्निक के सम्बन्ध में प्रसिदि है कि--
'नर-मुर-तिरंड नारक योनिए परिभ्रमति जीव लोकोऽयम् ।
कुराला स्वस्तिक रचनेतीव निदर्शयति धीराणाम् ॥' -यह जीव इस लोक में मनुष्य, देव, नियंञ्च तथा नारकः योनियां (चतगतिक) में परिभ्रमण करता रहता है, मानोइमी को म्वग्निक की कुणन ग्चना व्यन करती है।'
नित्य शुभ मंगल
म्वम्निक चिह्न जन-धर्म का 'आदि चिह्न है और उनके दाग प्रनिनिन्य इमका ना कायों में प्रयोग किया जाता है। यह चिह्न जैन-धर्म के प्रन्या एवं मन्दिग में अधिक दिखाई पड़ना है। नियों की अक्षत-गृजा में यह चिह्न आज भी बनाया जाता है।
१काम्बनी-श्री अनवर आगंवान, नवम्बर १९ER.प. :-उदीमा में जन-धर्म, डा. नानीनागयण माह, पृ.
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विका ततः कुर्यात्स्वस्तिकं टिलान्वितन् । पूर्वापररितो रम्यं तल पुम्बकापन् ॥
-सोमसेन ११० (बंदी के अग्रभाग में चौकान चबूतरे का आकार बनाकर उस पर स्वस्तिक चिह्न अंकित करें। पूर्व दिशा में एक और पश्चिम दिशा में दूसरा ऐसे दो चावलों के पुत्र (डेर) गमा।) स्वस्तिक द्वारा जीव-गतियों का निरूपण
म्वम्निक बिह्न के द्वारा जीव के चार विभाग एवं गतियों का निरूपण किया गया है । निम्नांकित चित्र में यह बात भली भांति ममनी जा मकदी है
मनुष्य
तिथंच
नारकी
बीब की बार पिया-नारकी, तिर्यञ्च, मनप्य और देवता। जिनकी आमुरी दति है और नरकों में वास करते हैं, वे नारकी हैं। पशु. पक्षी या कीट-पतंगादि के रूप में जन्म लेने वाले तियंञ्च है; नर देही मनुष्य हैं तथा मूक्ष्म शरीरी देवता है। तीन बिमुतिरल के प्रतीक-'सम्यग्दर्शनशानचारिवाणि मोक्षमार्ग: ।'
-आचार्य उमाम्बामी-जातामूव ११ विरत्न के ऊपर अर्धचन्द्र-जीव के मोन या निर्वाण की कल्पना। जीव स्वर्ग, मत्यं एवं पाताल लोक सर्वत्र व्याप्त है । नारकी जीव धर्म से देवता बन सकता है, विरत्न को धारणकर मोम प्राप्त कर सकता है।
स्वस्तिक का चिह्न 'मोहन-जो-दड़ों के उत्खनन में भी अनेक मुहरों पर प्राप्त हमा है। विद्वानों का मत है कि पांच हजार वर्ष पूर्व की सिन्धु सभ्यता में स्वस्तिक-पूजा प्रचलित थी।
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धर्म-चक्र
विजगवल्लभः श्रीमान भगवानाविपूरुषः । प्रबके विजयोद्योगं धर्मचक्राधिनायकाः ।।
--आनायं जिनमेन, महागण २५।६।। अप पुण्यः समाकृष्टो भन्यानां निःस्पृहः प्रभुः । देश-देशं तमाछेत्तं व्यचरर भानुमानिव ।। पवातिशय सम्पन्नो विजहार जिनेश्वरः। तव रोगग्रहातंक शोकशंकापि दुलंभा॥
धमंशांपदय : १।१६६. १७३
'विनोकनाथ धमंच के अधिनायक भगवान् आदि गुरूप बाभना तीथंकर ने अधर्म पर विजय का, धर्म प्रभावना का उद्योग प्रारम्भ किया । नि.म्पह, प्रभु ने गयं के ममान नाना देशों में व्याप्त अज्ञानान्धकार के निवारणार्थ विनरण किया। निणयं। में सम्पन्न भगवान वपभदेव ने जहा विहार किया, वहा गण-गानि का प्रमार रहा, क्योंकि प्रम के मंगलविहार प्रदेश में गंग, ग्रहपीडा. भय नया शांक की आणका के लिए भी स्थान नहीं था।'
सम्मइंसनतुंबं दुवालसंगारवं जिणि गाणं। बयमियं जगे जयह धम्मचक्कं तबोधा॥
--भगवनी प्रागपना, IT.."
-जिनेन्द्र वृषभदेव महावीर का धर्मचक्र जगत में जयवन्न र प्रतित हो रहा है। इम धर्मचक्र का मम्यग्दर्शन कप मध्य नंव (केन्द्र) है। आनागगादिक हातण अंग उमके अरे (आग) है । पंच महावत आदि मप उमयं. नाम (धुग) है। नप रूप उमका आधार है। मा भगवान जिनन्द्रदेव का धमंचक अष्टकमों को जीतकर पग्म विजय को प्राप्त होता है।
जन-शामन में धर्मचक्र के विविध प मिलते है। शास्त्रों में धमंचत्र. के इन कपों का स्पष्ट वर्णन मिलता है। शिवकोटि आचार्य की 'भगवती आगधना' में बारह आरे वाले धर्मचक्र की चर्चा मिलती है। ये बारह आ जिनवाणी के द्वारणांग के प्रतीक है। चौबीम आरं वाला धर्मचक्र चौबीम नीयंग का प्रतीक है। पांडम आरं वाला धर्मचक्र भी प्राचीन प्रतिमाओं के माय मिलता है। पांडम कारण भावनाओं में नीर प्रकृति का बन्ध होता है। महाकवि अमग ने बदमानग्नि में मयं की भांति भाम्बर
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महन किरणों वाले धर्मचक्र का वर्णन किया है, जो नीथंकरों के आगे-आगे चलता है। इनके अतिरिक प्राचीन कलाकृतियों में जिन बिम्बों के ऊपर तथा चरणों में भी धर्मचक्र मिननं है, जिनकी पूजा करने हा श्रावकगण दिखाए गए हैं। हमने चौबीम तीर्थरों के प्रतीक आरे वाले धमंचक्र को म्बीकार किया है।
'भेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः। काले काले पष्टिं बितरतु मघवा व्याधयो यान्तु नाराम् ।। दुनिलं पौर्यमारी मणपि जगतां मास्म भूज्जीवलोके।
अनेनं धर्मचक्र प्रसरतु मततं सर्वोत्यप्रवापि ॥'(मणं प्रजाओं का कल्याण हो। भमिपाल. धार्मिक और बलवान रहकर शासन में प्रभावशील हो। यथाममयों में आवश्यकतानुमार मेघ वर्षा करें। ममम्न गंगों का नाश होवे । चांगे. महामारी और अकालमन्य नथा दुष्काल जगत् में क्षण भर कष्ट देने के लिए भी न हो अर्थात् मवंदा और मवंथा जगन् में मुकाल रहे। मवंजीवों को मुख-शान्ति प्रदान करने वाला जिन-शामन' रूपी धर्मचक्र जो उत्तम क्षमादि दशांग पूर्ण है. विश्व में मयंकाल प्रमाग्नि रहकर अनन्त मुखों को देता रहे।) 'ओं मनो धर्मचक्राधिपतये सौभाग्यमस्तु संसारमा शातिरस्तु ।' सम्पूजकानां प्रतिपालकाना यतीन सामान्य तपोधनानाम् ।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्यरामः करोतु शान्ति भगवान् जिनेनाः॥ (हे तीपुर वृषभदेव-महावीर जिनेन्द्र, कृपया आप पूजा-अर्चा करने वालों, प्रतिपालकों, यतीन्द्रों, मामान्य तपस्वियों तथा देश, राष्ट्र, नगर, ग्राम के शासकों के लिए नित्य शान्तिकारक हों।)
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MainRIHARATtter.
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"योजक गगने पति पति पत्। नत्रावृतम्, संमत टीका १३५
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आदि ऋषभ
जप मंगलं नित्यशुभमंगलम् । जय बिमलगुणनिलय पुग्वेव! ते॥ जिनवृषभ बनानवन्दितबरण! मन्दारकुन्वसितकोतिधर ! ते । इनुकरणि कोटि जित विशवतनु किरण ! मनरगिरीन निमबर घोर ! ते ॥
'जैन लोग अपने धर्म के प्रचारक मिडों को 'तीपंधर' कहते हैं. जिनमें आद्य तीथंकर ऋषभदेव थे। इनकी ऐतिहासिकता के विषय में पुगणों के आधार पर मशय नहीं किया जा मकता। श्रीमद् भागवत में कई अध्याय (म्बन्ध ५. अ० ४-६) ऋषभदेव के वर्णन में लगाये गये हैं। ये मनुवंशी महीपति नाभि तथा महागजी मम्देवी के पत्र ५। इनकी विजय-वैजयन्ती अखिल महीमण्डल के ऊपर फहगती थी। इनके मो पुत्रों में मे मबगे ज्येष्ठ थे महाराज भग्न, जो भग्न के नाम में अपनी अलौकिक आध्यात्मिकता के कारण प्रमिद थे और जिनके नाम में प्रथम अधीश्वर होने के हेतु हमाग देश 'भारतवर्ष के नाम में विख्यात है।'
पं० बलदेव उपाध्याय, भाग्नीय दर्शन, सप्तम मम्करण, प०८८
'जैन परम्परा ऋषभदेव को जनधर्म का संस्थापक बनाती है, जो अनेक मदी पूर्व हो चके हैं। इस विषय के प्रमाण विद्यमान हैं कि ईम्बी मन में एक शताब्दी पूवं लांग प्रथम तीर्थर ऋषभदेव की पूजा करते थे। इसमें कोई मन्देह नहीं है कि पाश्र्वनाथ नगा वर्धमान के पूर्व भी जैन धर्म विद्यमान था । यजुर्वेद में ऋषभनाथ, अजितनाथ तथा अरिष्टनेमि-इन तीन नीगं का उल्लेख पाया जाता है। भागवन पुगण में "ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे हम विचार का ममर्थन होना है।"
"मिन्धु घाटी की अनेक मुद्राओं में अंकिन न केवल बैठी हुई देवमनियां योगमुद्रा में हैं और उम मुदर अतीत में मिन्ध घाटी में योग मार्ग के प्रचार को मिद करनी है बल्कि खड्गामन देवमनियां भी योग की कायोन्मगं मुद्रा में हैं। और ये कार्यान्मगं ध्यानमुद्रा विशिष्टतया जैन है। आदिपुगण अध्याय १८ में इम कार्यान्मगं मुद्रा का उल्लेख ऋषभ या वृषभदेव के तपश्चरण के मंबन्ध में बहुधा हुआ है। जैन ऋषभ की इम कायमगं मुद्रा में खड्गामन प्राचीन मूर्तियां ईस्वी मन के प्रारम्भकाल की मिलती है।"
1. सं. राधाकृष्णन्, इन्डियन, फिलामफी, १० ॥ 2. Sind Five Thousand Years Ago-R. P. Chanda, Modern Review,
Aug,1932, p. 155.
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मोह-न-जोदड़ो में दिगम्बर जैन योगी
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सील नं. ४३०
प्रजापति वपनदेव को भागवन पुगण में बहुत ही दिव्य और भव्य महापुरुष के मध में ग्वीकार किया है। वर्णन की एक चरम मीमा भी होती है। ऋषभदेव की भागवत में वणन प्रगस्ति यहा प्रस्तृत है
'इति ह स्म मकल वेद-लोक-देव-बाह्मणगवां परमगुरोभगवत ऋषभाज्यस्य विशुद्धचरितमीहितं पुंसां समस्त दुरचरितामिहरणं परममहामंगलायनम्..।'
-भागवन
१६
(म प्रकार सम्पूर्ण यंत. लाय. देव. ब्राह्मण और गौओ के परमगुरु भगवान् ऋषभदेव
का विशद्ध चरित्र कहा गया है जो कि मनुष्यों के ममम्त दृश्चारित्र का अभिहरण करने वाला तथा उत्कृष्ट महान मुमंगलों का स्थान है।)
'प्राहिम पथिवीनाथमारिमं निष्परिपहम् । आदिमं तीर्थनापं च षम स्वामिनं स्तुमः ।।'
-हमचन्द्र. मकनाईनम्नत्र, १३ (पृथिवी के प्रथम म्यामी. प्रथम परिग्रहत्यागी और प्रथम तीथंकर श्री वृषभदेव म्वामी
को हम स्तुति करने है।)
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भरत का भारत
जयति भरतः श्रीमानिक्ष्वाकुवंशशिखामणि।
-सुभद्रा नाटक, ३३२५
'यह मुविदित है कि जैन धर्म की परम्पग अत्यन्त प्राचीन है। भगवान महावीर को
अन्तिम तीर्थङ्कर थे। भगवान महावीर में पूर्व २३ तीर्थकर और हो चुके थे। उन्ही में भगवान ऋषभदेव प्रथम नीर्थकर थे, जिसके कारण उन्हें आदिनाथ यहा जाता है। जैन कला में उनका अंकन घोर तपश्चर्या की मत्रा में मिलता। ऋषभनाथ के ग्ति का उल्लेख श्रीमद्भागवत में भी विस्तार में आता है और यह मोचने पर वाध्य होना पड़ता है कि टमका कारण क्या रहा होगा ? भागवा में ही दम बात का उल्लेख है कि महायोगी भग्न ऋषभदेव के शतावों में ज्योट थे और उन्ही में यह देश भाग्नवर्ग कहलाया।' म विषय में यह बात पटता गं जान लेनी चाहिए कि पुराणों में भारतवर्ष के नाम का मंबंध नाभि के पात्र और कपन के पुत्र भग्न में है (वाय पुगण १५२) ।
भागवन में भग्न के गणों की प्रशस्ति करने हग लिया--'गर्जात भग्न क. पवित्र गण और कर्मों की भकजन भी प्रशंमा करते है। उनका यह ग्वि बड़ा कल्याणकार्ग, आय और धन की वद्धि करने वाला, लोक में मुयश बढ़ाने वाला और अन्त में स्वर्ग तथा मोक्ष की प्राप्ति करने वाला है। जो पुरुप इम मुनता या मनाता है और इमका अभिनन्दन करना है. उसकी मम्पूर्ण कामनाणं म्वयं पूर्ण हो जाती है, दूमगे गे उमे कुछ भी नहीं मांगना पड़ता।
वाकुवंश के मकुटमणि भग्न चक्रवर्ती ने प्रजाओं का बहुत अच्छी नह भरणपोपण किया, इसलिए वे भग्न कहलाए ।
१-येषां जन महायोगी परतो ज्येष्ठः बेष्ठगणाचामोत् ।
पेने मारतमिति परिन्ति ।।--श्रीमदभागवन ! :-माकंगरंप पुगण : एक अध्ययन-हा. वासुदेवशरण अग्रवाल ३-भागवत ५॥१५॥
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ऋपभडव से महावीर
'धमनीयकोन्योऽस्तु म्याद्वादिभ्यो नमो नमः । ऋपमादिमहावीगन्नेभ्यः स्वात्मोपलब्धये ॥
-..'प्रमंतीय ना. धवन ने धान. पादयान
Fपना. मलार पावनि जिन्नी नया-म: नि: बारबार नमो नम ।
प्रम नोयंड्र ऋपनदेव और आलम तांदूर वर्धमानमाधार को एक पाषाण में यगन मति के रूप में उत्कीर्ण कर शिल्पो मे. नया उपर्यतः संगान श्लोक में इन दोनों तीर्थदरों को एक माय भक्तिपूर्ण स्तुति कर कवि ने नीर्थदरों को अविस्छन्न परम्परा की शृंखला का ऐतिहासिक कम में दिग्दर्शन कराया है।
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चतुर्विशति तीर्थङ्कर शुभ नामावलि
१. आदिनाथ (ऋषभदेव) ३. संभवनाथ ५. मुमतिनाथ ७. मुपार्श्वनाथ ६. पुप्पदन्तनाथ ११. श्रेयांसनाथ १३. विमलनाथ
धर्मनाथ १७. कुन्थुनाथ १६. मल्लिनाथ २१. नमिनाय २३. पाश्र्वनाथ
२. अजितनाथ ४. अभिनन्दननाथ ६. पद्मप्रभनाथ ८. चन्द्रनाथ (गोमनाय) १०. गीतलनाय १२. वासुपूज्यनाथ १४. अनन्ननाथ १६. शान्तिनाथ १८. अरहनाथ २०. मुनिनवानाय २२. नेमिनाथ २४. वीरनाथ (वर्षमान)
१
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२४ तीर्थङ्करों की स्तुति
उसहमजियं च बन्दे, संभवभिणंदणं न मुमई च। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥१॥ मुविहिं च पुफ्पायंतं, सीयल सेयं च वामुपुज्ज ध। विमलमणंतं भययं धम्म संति च वंदामि ॥२॥ कुंथं च जिणरिदं अरं च मल्लिं च सुम्वयं च म । बंदारिदुर्गेमि तह पासं बढ़माणं च ॥३॥
अन्तिम तीर्थकर महावीर
पदीये चतन्ये मकुर इव भावपिचवितः सनं भान्ति प्रौव्यव्यवजनिलसन्तोऽन्तहिताः । जगत्साक्षी मार्ग प्रकटनपरो भानुरिव यो
महाबीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥१॥ (जिनके दर्पण मदृश चतन्य में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य-वियों में अन्तर्गहन चिन् और अचिन् (चेतन एवं जर) भाव एक साथ विलमित हो रहे है और मूयं के ममान जो लोकमाक्षी तया (सम्यक चारित्र) मार्ग को प्रकट करने में तत्पर हैं, वह भगवान् महावीर स्वामी मेरे नयनपयगामी (नेवों के समक्ष) हो।)
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मध्यना पावा के हस्तिपाल और निर्वाण भारती (निर्मल आत्मा ही पावा सरोवर)
varम्बर ग्रन्थ 'कल्पसूत्र' तथा दिगम्बर ग्रन्थ 'णिमीहिया दण्डग' के अनुसार तीर्थकुर महावीर का निर्वाण मध्यमा पावा* में हुआ। उस समय मल्ल गणराज्य के प्रधान हस्तिपाल आदि ने परिनिर्वाणोत्सव के उपलक्ष में दीपमालिकोत्सव मनाया। प्राकृत भाषा में रचित 'कल्पसूत्र' और णिमीहिया दण्डग' के उद्धरणों के साथ हमने यहाँ इस प्रसंग का संकेत किया है।
'णिसीहिया दण्डग' का दिगम्बर त्यागियों द्वारा नित्यपाठ किया जाता है। कमलयुक्त पावा सरोवर धार्मिक तीर्थक्षेत्र है परन्तु निश्चय से प्रत्येक व्यक्ति का निर्मल आत्मा ही पावा सरोबर होना चाहिए, तभी हमारा तीर्थङ्कर महावीर के २५०० वें परिनिर्वाण महा महोत्सव का आयोजन सफल समझा जावेगा ।
'तेनं कालेनं तेणं समएणं 'बाबतर बासाई सब्वाउयं पालइत्ता, बीजे वर्षाणिज्जाउय नामगोते, इमीले ओसप्पिणीए दूसमसुसमाए समाए बहवी इक्कंताए, तिहि बासह अडनवमेहि य मातेहिं सेतएहि पावाए मज्झिमाए हस्थिपालगस्स रज्जो रज्जु-कल्पसूत्र मू. १४७
वगसमाए
२४
( उस काल में और उस समय में ७२ वर्ष की पूर्ण आयु का योग करके तीर्थङ्कर महाबीर परिनिर्वाण को प्राप्त हुए । उनके वेदनीय आयु नाम और गोत्र कर्म नष्ट होगये। इस अवसर्पिणी का दुखमा मुखमा नाम का आरा व्यतीत होते-होते जब उसमें तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष रह गए, तब मध्यमा पावानगर में, जहाँ हस्तिपाल नामक राजा की रज्जुग सभा थी, उस राज्यसभाभवन के निकट पद्मवन उद्यान में परिनिर्वाण को प्राप्त हुए। उनका परिनिर्वाण महोत्सव प्रोषघोषोपवास करके गण-राजाओं द्वारा मनाया गया । )
'वं न च मं समने भगवं महावीरे काल गए जब सब्द क्यप्पहीने, सं रमण चणं मममल्लई मय लिन्छई काली कोसलगा अट्ठारस --वि गणरायानो अमाबासाए पाराभोवं पोसहोपवासं पटुबरंतु ।' -कल्पसूत्र सू. १३२
( जिस रात्रि में तोयंङ्कर भगवान् महावीर का परिनिर्वाण हुआ, यावत् वे सर्व दुःखों से रहित हुए, उस रात्रि में नौ मल्ल देश के नौ लिच्छिवि राष्ट्र के, काशी-कौशल जनपद के १८ गणराजाओं ने भी कार्तिक अमावस्या में प्रोषधोषोपवास करके पारणा की। इस प्रकार ३६ गणराजाओं ने बीर परिनिर्वाणमहोत्सव मनाया ।) पापानामा मरे ।-सुतपिटक, दीघनिकाय ३।१०।१
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महापरिणिव्वाण सुस
(णिसीहिया-दण्डग)
गनो निगाणं ३, गमो मिसीहियाओ ३, गमोत्पुरे ३, मरहत ! मिड ! पुर! गोरप ! जिम्मल ! सममण! सुभमण ! सुसमत्व! समजोग ! समाव। सल्लपट्टा। सल्लघत्ता! गित्मय। गिराय। निहोस। निम्मोह! निमम ! निस्संग । निस्सल । मागमायमोसमद्दन । तबप्पहावण । गगरपण। सीलसावर । अगंत! अप्पमेय। नमो भगवदो महदि महावीर प्रमाण पुरारिसिजो कि पमोत्यु रेगमोत्पुढे मोत्यु ॥१॥
(जिनेन्द्रों को नमस्कार हो, जिनेन्द्रों को नमस्कार हो, जिनेन्द्रों को नमस्कार हो। निवीधिकाओं को नमस्कार हो, निवीधिकाओं को नमस्कार हो, निवाधिकाओं को नमस्कार हो। हे अहंन्त ! हे मिद! हे बुद्ध! हे कममलहन! हे निमंल! हे ससमन, हे शुभमन, हे सुममर्य, हेममयोग, हे समभाव, हे शल्य विनाशक, हे शल्यपातक, हे निभंय, हे नीराग, हे निर्दोष, हे निर्मोह, हे निर्मम, है नि:संग, हे निशल्य, है मानमायामृषामदंक, हे तपः प्रभावन, हे गुणरत्न, हे सीलसागर, हे अनन्त, हे अप्रमेय, हे भगवान् महान् महावीर बुषि-बुढों के ऋषि ! आपको नमस्कार हो-नमोऽस्तु हो, नमोस्तु हो, नमोस्तु हो !!)
मन्त मंगलं मरहंता य सिहायता व जिणा य केबलियो मोहिनामिनो मनपन्जपणामिणो परसपुर गामिणो सुबनिदि समिता य, तबो व पारसविहो तबती, गुणाय गुणवतोय महारिती तित्वं तित्यारा य, पचय पत्नी यना नानीय, रस सनीय, संजनो संजाय, विषमो विणीरा य, वेवासो गंभचारी प, गुत्तीमो गुत्तिनंतो य, मुत्तोबो देव मुत्तिनंतो य, सनिवीबो व समिविनंतोष, सलमयपरसमविद् ति बगाय, बीजमोहा मनीषबंतो घ, बोहिया व बुद्धिनंतो घ, बेईबाबायपाणि एदे सम्मन्न मंगलं होतु ॥२॥
(अहंन्त, सिड, बुद्ध, जिन, केवली, अवधिज्ञानी, मनःपर्यायविज्ञानी, चतुर्दशपूर्वगामी, श्रुत समिति समृड, बारहविधतप तपस्वी गुण गुणों वाले महर्षि तीर्ष, तीर्थर, प्रवचन, प्रवचनवाले, जान-मानी, दर्शन-दणंनी, संयम-संयमी, विनय विनयी, ब्रह्मचर्यबासी ब्रह्मचारी, गुप्तियां गुप्तियों वाले, मुक्ती मुक्तीवाले, समितियां ममितिबाले, स्वसमय बौर परसमययता, नीति शांतिधारी अपक, भीगमोह और भीणमोहवाले, बोधितबुद्ध, बुद्धिशाली, प्रत्यरपत्य ये मेरे लिए मंगलशाली या कारी हों।)
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'महतिरिय लोए सिहापदणाण णमंसामि। सितिमिसीहियामो अदापयपए सम्मेटे, उन्वते, पाए, पावाए मनिममाए हस्थिवालिय सहाए नमसामि । जाबो मच्याबो का विमिसीहियाओ जीवलोम्मि ईसिपम्भार तलगया सिदानंदानं कम्मच. कमुक्का मोरया गिम्नलाणं गुरु-आयरिष-उबज्माया पन्चतित्येर कुलपराणं नसामि। चाउवण्णाय समणसंघा य मरहे राबएमु समु पंचमु महाविदहेतु मज्न मंगलं होग्य। लोए संति माहवो संजदा तपसीओ एदे मजममंगलं पवितं। एदे करे भावदो विमुडो मिरमा अहिएंदिऊण तिडकाऊण मंगालमत्यर्याम्म पडिलेहिय अट्टकम्मरिओ सिविहतियरण सुद्धो॥॥
(मैं ध्यंलीस अधीलंक के और तिरंग्लार-मध्यनीक के-मिदायतनी को नमम्मकार करना है। आसाम पवंत. मम्मशम्बर. उजंयन्न. चपापुर एवं मध्यमा पावानगर के हम्निपान की मभामष्टा में द्धि निपाधिका को मैं नमस्कार करता हूँ। नया और भी कोई मिडि निवाधिकार जीवलात में पिप्राग्भर थिवी में मिदा की. युद्धी की. कमंचक्र में मम्मी की. नीगंगा की, निमलों की. ग: आचार्य उपाध्यायों की एव कुलकों की हो. उन्हें मनमनार करना । चातुर्वणं (नि. मान. ऋषि और अनगार) श्रमणमंघ जो भी पान भन्न. पाच गवन, एवं पांच महाविदडी में हो गए वे मुझे मगलकारीहा। नाम जो भी माध हो. मयत हो, तपस्वी हो व मब म पवित्र करे और मंगलप्रद हो। या में भाव में बिगद्ध कर, मम्नक जमाकर इन्हें नमस्कार करता ह, मिडों को मानक पर हम्ता न करवं. मन वचन वाव में शुद्ध कर अप्ट कमी का प्रतिलेखन करना।)
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चैत्य-वन्दना-स्तोत्र [चत्यवन्दना चिनोपयोगेनानुष्ठानस्य माफल्यत्वात् ]
सद्भक्त्या देवलोके रवि शशि भवने व्यन्नराणां निकाये, नक्षत्राणां निवासे ग्रहगण पटले तारकाणां विमाने । पाताले पन्नगेन्द्र स्फुटमणि किरणध्वंस्तसान्द्रान्धकारे, श्रीमत्तीर्थङ्कराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वन्दे ॥१॥ वैताढये मेरुशृङ्गे रुचक गिरिवरे कुण्डले हस्तिदन्ते, वक्खारे कट नन्दीश्वर कनकगिरी नेपधे नीलवन्ते। चैत्रे गले विचित्रं यमक गिरिवरे चावाले हिमाद्री, श्रीमत्तीर्थराणां प्रतिदिवसमह तव चंन्यानि बन्द ॥२॥ थोशले विन्ध्यशृङ्गं विमलरिवरे ह्यवंदे पावके वा, मम्मने तारक वा कुलगिरिशिखरेप्टापदं स्वणं शने । सह्याद्री वैजयन्ने विमलगिरिवरे गजरे राहणाद्री, श्रीमतीर्थङ्कराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चंन्यानि वन्द ॥३॥ आघाटे मेदपाटे क्षिति तट मुकुट चित्रकट विकटे, लाटे नाटे च घाटे विपिघननटे हेमकटं विगटे । कर्णाटे हमकूटे विकट नरकंटे चक्र कटे च भाटे, श्रीमतीर्थङ्कराणां प्रनिदिवसमहं नत्र चंन्यानि वन्द ।।४।। श्रीमाले मालवे वा मलयिनि निपध मंम्बल पिच्छन्न वा, नेपाले नाहने वा कुवलय तिलक सिंहले करले या। डाहाले कोशले वा विगलिन सलिलजङ्ग वाढमाले, श्रीमत्तीर्थङ्कराणां प्रतिदिवममहं नत्र चंन्यानि वन्द ।।५।। अजै बङ्गे कलिङ्ग मुगत जनपदे सन्प्रयागे तिलंगे, गोडे चौडे मुण्डं बरतर द्रविडे उद्रियाणं च पौण्ई ।
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बारे माझें पुलिन्द्र द्रविड कवलये कान्यकुब्जे सुराष्टे, श्रीमतीर्थकुराणां प्रतिदिवसमहं तव त्यानि वन्दे ॥६।। चन्द्रायां चन्द्रमुख्यां गजपुर मथुरा पत्तने चोज्जयिन्यां, कोशाम्न्यां कोशलायां कनकपुरवरे देवगियां च काश्याम् । नासिक्ये राजगेहे दशपुर नगरे भहिले ताम्रलिप्त्यां, श्रीमत्तीर्थराणां प्रतिदिवसमहं तव चैत्यानि वन्दे ।।७।। स्वर्ग मत्येन्तरिक्ष गिरि शिखर हृदे स्वर्णदीनीरतीरे,
लाने नागलोके जलनिधि पुलिनेभूरुहाणां निकुञ्ज । पामेरण्ये वने वा स्थलजल विषमे दुर्गमध्ये त्रिसन्ध्यं, श्रीमत्तीयंकराणां प्रतिदिवसमहं तत्र चैत्यानि वन्दे ॥८॥ श्रीमन्मेरी कुलाद्री रुचक नगवरे शाल्मली जम्बुवृक्ष, चोज्जन्ये चैत्यनन्देरतिकर रुचके कोण्डले मानुषारू। इनुकारे जिनाद्री च दधिमुखगिरी व्यन्तरे स्वर्गलोके, ज्योतिर्लोके भवन्ति त्रिभुवन वलये यानि चैत्यालयानि ॥६॥ इत्यं श्रीजन चत्य स्तवनमनुदिनं ये पठन्ति प्रवीणाः, प्रोद्यत्कल्याणहेतु कलिमलहरणं भक्तिभाजरित्रसन्ध्यम् । तेषां श्रीतीर्थयावा फलमतुलमलं जायते मानवानां, कार्याणां सिद्धिरुन्चः प्रमुदितमनसां चित्तमानन्दकारि ॥१०॥
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