Book Title: Jain Sanskrutik Chetna
Author(s): Pushpalata Jain
Publisher: Sanmati Vidyapith Nagpur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन सांस्कृतिक चेतना सेविका डॉ. stant yooner जैन एम. ए. (हिन्दी, भाषाविज्ञान), पी-एच्. डी. (हिन्दी, भाषाविज्ञान), प्राध्यापिका, हिन्दी विभाष, एस.एफ.एस. नामपुर (महाराष्ट्र) सन्मति विद्यापीठ, नागपुर 1984 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. भागबनाकर बपिष, सम्मति विद्यापीठ म्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर 440001 ..बीती पुस्माता न प्रथम संस्करण-मार्च, 1984 Price-Rs. 40.00 प्राधि-स्थान (1) Nare नएमसटेंशन एरिया, मागपुर-440001 (ii) मोतीलाल बनारसीदास बेंबलो रोक पवाहर नवर, नई दिल्ली-110007 (iii) बनारसन एवं Mafa 466/2/21, बरिणावंग, मिली-110006 (iv) सुति साहिल 944,मरावी, 2116006 - - - Tw:-. एस. कम्पोरिन सेन्टर, मनीहारीका रास्ता जयपुर, 302003, Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवात्मनिष्क न परोपकारात्मा स.नानीबी की पुनील सिमें Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परीयाक के विकास यहै-बिमों में ऐसी कोई विधा नहीं छोड़ी जिस पर उन्होंने पनी महत्वपूर्ण चलाई हो । प्रस्तुत कृति में हमने जैन धर्म के इन दोनों तत्वों के कुछ पहलुओं पर प्रकाश डाला है । जैन साहित्य की परम्परा की एक एकके साथ ही उपस्थित किया है। जहां हिन्दी साहित्य को इसलिए पीड़ दिया है कि उपद "हिन्दी चैन काव्य प्रवृत्तियाँ" कि पुस्तक में मारवा है। इसके बाद कुछ जैन दर्शन र साजना के मुद्दों पर प्रकाश डाला । बाब में 'नारी वर्ग चेतना' अध्याय में नारी की कतिपय समस्याओं को व्यावहारिक दृष्टि से समझने-समझाने का प्रयत्न किया है। भाता है," विज्ञान पाठक इन विचारों पर सहानुभूति और बहिष्कार करेंगे। म्यू एक्सटेंशन एरिया, सदर, नागपुर - 440001 Fr. 28-4-1984 इस पुस्तक में मैने अपने कुछ यों को भी समाहित कर दिया है। सम्मति विद्यापीठ इसे 'जैन सांस्कृतिक पतन के नाम से प्रकाशित कर रहा है । तदर्थ हम उसके प्रभारी हूँ । (डॉ.) श्रीमती पुलता चैन मानद उपनिवेशक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवनपरिवर्त बाप की ऐतिहासिक एवं सामाजिक परम्परा परोसाक है नाममा 1-13 कर पालनाम '... 13-63 2. रितीय परिवर्त . .. .....न साहित्य परम्परा । श1ि4), संत साहित्य (261, मत्य वा साहित्य Kanाहिती महिला बामदार30), बसमा साहित्यः सुगंधदनामी का का मायमसन (3) लेखन महषि (48). 3. तसीय परिवत .. न बानिक ना 64-86 स्थाहाव मोर अमेकाम्तवाद (64), यति का विकापस 471), और पुलोम (75) स्वबाव (शोध - ar) ..96 परिवाया और विकास (83), भाषकाल (83), मध्यकाल (88), उत्तरकाल (S, जो प्रबन्ध का सार (91)। __ . . . . . पाम परिवतं . मारी . ..97-129 शिवम्बर-ताम्बर परंपरा में नारी की स्थिति (97), पात्मासिस रह (105), सामाजिक स्थिति और विविध समस्याएं (107), पारिवारिक संबोजन काशपिल (123)। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 जैन धर्म की एतिहासिक एवं साहत्यिक परम्परा 1. जैन ऐतिहासिक परम्परा जैन धर्म वर्ग, जाति, लिंग प्रादि जैसे मानवकृत कटघरों से उन्मुक्त विशुद्ध safe धर्म है । ग्रात्मा की पवित्रतम ऊंचाई को छूकर पाकर उसके ज्ञानात्मक और दर्शनात्मक स्वभाव में रमण करना व्यक्ति का परम कर्तव्य है । जैन धर्म इस कर्तव्य के साथ सामाजिकता और मानवीयता को सहजताबस एकबद्ध कर देता है । 1. ग्राद्य परम्परा तीर्थंकर ऋषभदेव से नेमिनाथ तक जैन धर्म की कहानी व्यक्ति की सृष्टि की कहानी है । धनादि और अनन्त की कहानी है | अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी के कालचक्र से घूमता हुमा सृष्टिचक कुलकर व्यवस्था मे केन्द्रित हुम्रा और उसने प्रादिनाथ ऋषभदेव से बहार कलामों की शिक्षा पाकर भोगभूमि से कर्म भूमि की भोर अपने विकास के कदम बढ़ाये । कर्मभूमि में पदार्पण होते ही क्षमा, संतोष श्रादि सहज धर्मों में लिप्सा, मोह, कोष भादि बाह्य विकारो की वक्रता घर करती गई और फलतः भरत- बाहुवलि जैसे भाइयों के संघर्ष संसार के घिनौने स्वरूप को प्रमट करने लगे । मादिनाथ के बाद जैन धर्म अजितनाथ, संभवनाथ प्रादि बीस और प्राध्याfree eyes की सुखद छाया को बता बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के काल तक पहुंचा। इस बीच की कोई परम्परा स्पष्ट रूप में उपलब्ध नहीं होती । सिन्धु घाटी की सभ्यता मे जैन सस्कृति के बीज नहीं, विकसित चिन्ह खोजे जा सकते हैं और वेदों की ऋचायों में जैन मुनियों की जीवन रेखा को प्रकित पाया जा सकता है । बार्हद, व्रात्य, वातरशना के प्रनेक उल्लेखों ने विद्वानों को यह मानने के लिए बाध्य कर दिया है कि जैन संस्कृति वैदिक संस्कृति के साथ-साथ चलती रही है। कुछ विद्वानों का तो वह भी मत है कि जैन संस्कृति वैदिक संस्कृति से भी पूर्वसर होनी चाहिए । जाम कथा (2) में बाईसवें तीर्थकर अरिष्टनेमि को भगवान श्री कृष्णा का surfers गुरु माना गया है । छादोग्योपनिषद् (3.17,6) में घोर मांगिरस द्वारा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रदत श्री कृष्ण का उपदेश जैन परम्परा का स्मरण करा देता है।बी मुनि मषमन मांगिरस मोर मरिष्टनेमि को एक ही व्यक्तित्व होने की सम्भावना व्यक्त करते है। श्रीकृष्ण प्रौर परिष्टनेमि के पारिवारिक सम्बन्धो से भी हम परिचित ही है। 2. तीर्थकर पार्श्वनाथ और महावीर तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ से जैन संस्कृति का ऐतिहासिक काल प्रारम्भ होता है। इनके पूर्ववर्ती तथंकरो को पौराणिक कहकर नकाखमा चम्कन पर पार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता को अस्वीकार करने का साहस अब किमी में नहीं है। उनकी परम्परा भगवान महावीर के काल तक चलती रही है । महावीर का समूचा परिवार पार्श्वनाथ परम्परा का अनुमायी रहा है। पार्श्वनाथ का जन्म महावीर से 250 वर्ष पूर्व वाराणसी नगर में हुमा । उनके पिता राजा अश्वसेन पौर माता वामा थी। यह एक ऐसा समय था जबकि परीभित के बाद जनमेजय कुरु देश में यज्ञ संस्कृति का प्रचार कर रहा था। जैन साहित्य में तो पार्य परम्परा का वर्णन मिलता ही है पर बौद्ध साहित्म भी इससे अछूता नहीं रहा। पालि त्रिपिटक मे पार्श्वनाथ की चातुर्याम परम्परा का विवरण मिलता है-अहिंसा, सत्य, मचौर्य और अपरिग्रह । यह विवरण कुछ धूमिल रूप में अवश्य उपलब्ध है पर वह अस्पष्ट और अननुसन्धेय नहीं है । तथा गत बुद्ध ने भी पार्श्व परम्परा में दीक्षा ली थी। उनके प्रमुख शिष्य सारिपुत्र पौर मौद्गल्यायन भी कदाचित् बुद्ध के अनुयायी होने के पूर्व पार्श्व परम्परा के अनुपायी थे। यज्ञ संस्कृति का विरोध करने वाली पानाथ परमपरा का श्रमण संघ बुद्ध काल में मौजूद था उसकी साधना विशुद्ध प्राध्यात्मिक साधना थी। कहा जाता है, चातुर्याम परमरा अजितमाय से पार्श्वनाथ तक रही है । उसे पंचयाम में चौबी. सवें तीर्थकर महावीर ने परिवर्तित किया था। भगवान पार्श्वनाथ के उपरान्त चौबीसवें तीर्थकर वर्धमान महावीर हुए। वे अपने समय के कुशल चिन्तक और सामाजिक तथा धार्मिक परम्परामों किया रूढ़ियों को तोडकर, उन्हें सुष्यवस्थित करने वाले प्रतिभाशाली दार्शनिक तथा मास्मिक और सामाजिक क्रान्ति के अग्रदूत थे। उन्होंने व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को अपने सूक्ष्मचिंतन तथा ज्ञान से मालोकित किया । उत्तर काल में उनके अनुयायी शिष्यों प्रशिष्यों ने महावीर के चिन्तन को माधार बनाकर समयानुसार उनके तत्वों को विकास के चरण-पथ पर संजो दिया । । उनका प्राविर्भाव हमारी भारत वसुन्धरा के रमणीय बिहार (विवहा प्रवेश के वैशालीय क्षत्रिय कुण्डग्राम में चैत्र शुक्ला त्रयोदशी की मध्य रात्रि में ई.पू.599 में पा था। उनके पिता राजा सिद्धार्थ थे जिन्हें श्रेयांस पोर यशस्वी भी हा जाता था और माता का नाम पाशिष्ठ गोत्रीय विमला था यो विदाला और प्रियकारिणी के नाम से भी वित्रत थीं। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ aree adore at मेवा मौर प्रतिमा प्रारम्भ से ही इतनी चमत्कारी किस्पति का अवतार हुआ हो । उनके प्रति श के समय की arefree far-att क विषय में कोई विशेष मेल नहीं मिला वरण की गोद में पला पुसा बालक स्वयं प्रबुद्ध बन गया था । वर्धमान एक नाम परिवार के सदस्य थे। उन्हें चुहल पिता सुपार्श्व, बुधा यशोदur, aur नंदिवर्धन, मामी ज्येष्ठां और प्रजा सुदर्शना का बाया और साfers for area मे युवावस्या तक प्रतिप्रति वर्धमान के चिंतन और प्रकरण में और गहराई धायी । संगार के स्वरूप को परखा । प्रारमा तथा शरीर और जीव तथा जीव के यथार्थ वेद को अपने प्रांतरिक पौर बाह्य ज्ञान के माध्यम से धनुभव किया । यही कारण था कि वे स्वयं को वैवाहिक बंधन में नहीं बांधना चाहते थे। फिर भी कहा जाता है कि उन्होंने अपने परिवार के स्नेहवश वर्ततपुर के महासामंत ममवीरा जितशत्रु कि पुत्री यशोदा के साथ परिणय किया मौर कालांतर में वे एक पुत्री के जिसका विवाह संबंध जामाती के साथ हुवा। उनका विवाह हुमा इतना अवश्य है कि उनके मन में - विज्ञान कूट-कूट कर भर सांसारिक वासनाओं से विमुक्त हो 1 पिता भी हुए हो या नहीं, पर गया था और वे गये थे । महकार और ममकार का विसर्जन मुक्ति प्रक्रिया का वर्णन है एक दास को पीटता हुआ देखकर उन्हें ससारबोध हुम्रा पौर कालांतर में उन्होंने मृगशिर कृष्णा दशमी को चतुर्थ प्रहर में उत्तरा फाल्नी नक्षत्र के योग में घर छोड़कर महाfefroster किया। यह उनका स्वतंत्रता के लिए महाभियान था । इस महामियान में उनके पांच संकल्प स्मरणीय हैं 1. मैं प्रीतिकर स्थान में नहीं रहू मा 2. प्रायः ध्यान में लीन रहूँगा । 3. प्रायः मौन रहूंगा । 4, हाथ में भोजन करूंगा । 5. Teri at africन नहीं करूंगा। इन संकल्पों के साथ वर्धमान महावीर मे लगातार बारह वर्ष तेरह पक्ष तक な उमस्थ काल में कठोर तपस्या की । इस बीच उन्हें गोपालक, मूलपाणि, चटकौशिक सविन कटपूतना, खोला, तप्त बुलि, संगम, कां बलाका मादि प्राकृतिक प्राकृतिक उपसर्व सहन करना पड़े। इन दोख दुःखदायी उपसर्गों को उन्होंने जिसे २६ और होति से सहुन कि वह एक अप्रतिम बटना थी।" पैत्रिक परम्परा से से ॐ सम्प्रदाय के अनुयायी थे, पर उनका पात्मतेज उस परम्परागत नर्म से Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं मागे बढ़ा हुमा था जिसने उन्हें तीर्थकर बनाया। इस संदर्भ में महावीर केले वस स्वप्न उल्लेखनीय है- जिन्हें उन्होंने एक रात्रि में साधना काल में देते थे 1. ताल-पिशाच को स्वयं अपने हाथ से गिराना। 2. श्वेत पुस्कोकिल का सेवा में उपस्थित होना। 3. विचित्र वर्णमाला स्कोकिल के मामने दिखाई देना। 4. सुगंधित दो पुष्पमालायें दिखाई देना। 5 श्वेत गो-समुदाय दिखाई देना। 6. विकसित पद्म सरोसर का दर्शन । 7. ग्वयं को महासमुद्र पार करते देखना । 8. दिनकर किरणों को फैलते हुए देखना । 9. अपनी प्रांतों से मानुषोत्तर पर्वत को वेष्टित करते हुए देखना, पौर 10. स्वयं को मेरू पर्वत पर चढ़ते हुए देखना। पार्श्वनाथ परम्परा के अनुयायी निमित्त ज्ञानी उत्पल ने इन स्वप्नों का क्रमशः फल महावीर से इस प्रकार कहा 1. पाप मोहनीय कर्म का विनाश करेंगे । 2. प्रापको शुक्लध्यान की प्राप्ति होगी। 3. आप विवध ज्ञानरूप द्वादशांग श्रुत की प्ररूपणा करेंगे। 4. चतुर्थ स्वप्न का फल उत्पल नहीं समझ सका। 5. चतुर्विध संघ की माप स्थापना करेंगे। 6. चारों प्रकार के देव प्रापकी सेवा में उपस्थित रहेंगे। 7. पाप संसार सागर को पार करेंगे। 8. आप केवलज्ञान प्राप्त करेंगे। 9. पापकी कौति त्रिलोक में व्याप्त होगी, और 10. सिंहासनारूढ़ होकर माप लोक में धर्मोपदेश करेंगे। जिस चतुर्थ स्वप्न का फल उत्पल नहीं बता सका उसे महावीर ने स्पष्ट किया कि वे श्रावक धर्म और मुनि धर्म का कथन करेंगे । हम जानते है कि स्वप्न व्यक्ति की मन: स्थिति का प्रतीक होता है। उनके पीछे प्रायः एक सजग पृष्ठभूमि प्रतिबिम्बित होती दिखाई देती है। महावीर के स्वप्न मात्र स्वप्न नहीं थे बल्कि उनके पढ़ निश्चय और मानसिक विशुद्धि के परिचायक थे । इसी को चरम अभिव्यक्ति उनके केवलज्ञान की प्राप्ति तया तीर्घ प्रवर्तन में पृष्टव्य है। केवल. ज्ञान की प्राप्ति बैशाख शुक्ल दशमी को, दिम के चतुर्थ प्रहर में जमा नदी के तटवर्ती शाल वृक्ष के नीचे गोदोहिका मासन काल में हुई । फल-स्वम चार पातिया कर्मों का विनाश करके वे परिहंत हो गये। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलमानी पॉर सर्वश महापौर ने संसारी जीवों के कल्याण के लिए बीड़ा उठाया और पम्मिका ग्राम से माध्यम-पावा में पहुंचे जहां सोमिल ब्रास ने एकविराट पन की संयोजना की थी। इस यश को पूरा करने के लिए पास-पास के भनेक मूर्धन्य पंरित उपस्थित हुए थे। गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति भनिभूति और वायुमूति मगध से, मस्त और सुपर्भा कोलाग सन्निवेश से, मंडित और मौर्य पुष मौर्य संन्निवेश से, मकंपित मिथिला से मचनभाता कौशल से, मेतार्य तुगिक से पार प्रभास राजमुह से पाये । ये सभी विद्वान बाहरण गोत्रीय थे और वे अपनी 4400 शिष्य मंडली के साथ या शाला मे उपस्थित थे। महावीर को अपनी धर्म देखना के लिए इन विद्वानों की पावश्यकता थी। इसी दृष्टि से वे पाशाला के समीपवर्ती उचान में पहुंचे। बिजली के समान बड़ी शीघ्रता पूर्वक उनके माममन का समाचार सारे नगर में फैल गया। राजा से लेकर रंक तक उनके तपोतेज के समक्ष नतमस्तक होने पहुंचने लगे। भीड़ को किसी एक मोर जाते देखकर इन्द्रभूति गौतम ने जिज्ञासा प्रकट की और यह जानकर कि श्रमण महावीर माये हैं, एक मानसिक चिन्ता से प्रस्त हो गये । वे यह जानते थे कि उनकी यज्ञ सस्था को महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थकर पाश्वं नाथ ने काफी हानि पहुंचायी थी और उनके अनुयायी अभी भी उन्हें माति से नहीं बैठने देते थे। इन्द्रमूति को लगा कि महावीर को पराजित किए विना पत्रों की लोकप्रियता बढ़ापी नहीं जा सकती । वे चल पड़े महावीर के पास विवाद करने के उद्देश्य से पार पहुचे समवशरण मे । उन्हे माता देखकर महावीर ने गोल मौर माम के साम इन्द्र भूति का प्राज्ञान किया और बाद में उनकी दार्शनिक कामों का समाधान किया। प्रारम्भ मे तो इन्द्रभूति प्रहकार के मद से भरे थे, पर बाद में धीरे-धीरे उन्होंने महावीर के चुम्बकीय व्यक्तिस्व को प्रणाम किया और उनके शिष्य बन गये। इन्द्रसूति की यह स्थिति देखकर उनके भाई अग्निभूति और वायुभूति भी कृष हतप्रम-से हुए पर ये इन्द्रभूति को महावीर के प्रभाव से मुक्त करने के लिए उनके पास शात्रीय पर्चा के लिए निकल पड़े। अंत में वे भी महावीर के प्रभाव से बन सके। इसी तरह शेष विद्वान भी एक-एक कर महावीर के समवशरण में दीक्षित होते गये । यह उनकी धर्म देशना का प्रथम प्रभाव था। महावीर काल में प्रचलित पार्शनिक मतों की सस्या सूत्रांग व गोमसार पारियों में 363 बतायी है और बौड प्रथों में 62 प्रकार की मिथ्या दृष्टियों का उस्लेख पाया है । इन मत पादों का कुछ अनुमान हम उपयुक्त 11 विवानों के पिपिए सिखातों से भी कमा सकते Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1.इसति गौतम 2. परिनभूति 3. वायुभूति 4. व्यक्त - 5. सुषमा मारमा का एस्तित्व नहीं । ... कर्म का अस्तित्व बहीं है।.sha चैतन्य भूतों का धर्म है वा शरीर और.. पाल्मा अभिन्न है। पंच भूतों का अस्तित्व नहीं है। मरिण मृत्यु के बाद अपनी ही योनि में उत्पा होता है। बंध और मोक्ष नहीं है। ' स्वर्ग नहीं है। नरक नहीं है। पुष्य और पाप पृथक् नहीं है। पुनर्जन्म नही है। मोले नहीं है। है. मंडित 7. मार्यपुत्र 8: प्रोपित १.भवलभ्रात 10.,मेनार्य 11.प्रेमास सीकर महाबीर ने इस विद्वानों को अपना शिष्य बनाया और अन्ह अपने सिवान्तों की व्याश्या करने योग्य बनाकर 'गणपर' की पदवी से पलास किया। उनके साथ उनका भिष्य परिकर भी महावीर के चरणो में नतमस्तक हो गया। इससे महावीर का धर्म महनिम्म लोकप्रियता की भोर बढ़ने लगा । भाल, बामसी श्रावक, पौर श्राविका के रूप मे बषिष संघ की स्थापना कर उन्होन धर्म को परपर पहबा दिया। सष को अवस्थित करने की दुष्टसे उन्होंने उसे सास घटकों में विभाजित कर दिया-1. भाचार्य 2. उपाध्याय, 3. स्थविर, 4. प्रक, 5. मणी, 6. गणपर, तथा 7. गरगावच्छेवक । इन घटकों का चारित्रिक बिचान भी प्रस्तुत किया जिसके भाषार पर उनका पारस्परिक व्यवहार पलता था। . . . महावीर का युग विषमता का युग था। पातुर्वण्य व्यवस्था प्रस्त था। मीप- भाषना के दूषिस रोग से प्रस्त था। इस भासदी की कीपर से निकलने के लिए. हर व्यक्ति च्छल रहा था। इसलिए तीर्थकर महावीर मे समता का पाठ विका ऐसी विषम परिस्थिति मे भौर समाज को अभिनुस किया एक भये कतिवारी मान्दोलन की घोर । उनका मन्तव्य था कि प्रत्येक.मात्मा में परमारमा बनने की शक्ति निहित है। वह अनादिकास से कर्मों के वशीभूत होकर जन्म-मरण की प्रक्रिया सेभित हो रहा है। अन्म से कोई माहाणे नहीं, होता की से। इसलिए कम व्यक्ति-व्यक्ति के बीच ऊँच-नीच का भेद करता है, बम हो। मानसिक, बौविक और कार्षिक विशुदि सापकता लिए ए रखने की अवस्थिति इसी सापेकता पर भसंवित है। 17 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " माश्यक है कि महावीर की दृष्टि में मानदे या • परिकर कुछ नहीं है। साधु के लिए यदि सीमाचारिक पवित्रा नहीं है तो कहा जा सकता है ? इसलिए तिलक, चोपडीत - बाय, सिरमुजन भादि तत्व का देश तो हो सकता है । पर जब तक उसके साथ मान्तरिक निर्मलता, निस्मता बोर बीतरायता की प्रकर्षता व हो तब तक उनका वही कहा जायेगा । तप की समृद्धि सम्यक् वर्शन ज्ञान- चारित्र की समृद्धि के बिना नहीं कही जा सकती है । इसी तरह उस समय धर्म का सम्बन्ध हिंसात्मक देशों से हो गया था । नरमेव श्वमेच यादि यशों में साथ सामग्री की बाहूति एक साधारण प्रक्रिया भी । महावीर ने ऐसे यज्ञों का विरोध किया और मूक पशुओं की बलि को व्यर्थ सिद्ध किया | उसके स्थान पर दुष्कर्मों की बलि देने की बात कही। इससे गरीब जनता की खाच सामग्री उपलब्ध हो सकी तथा पशुहिंसा कम हो गई। महावीर की अहिंसा जीवन को सुव्यवस्थित करने वाली महिला थी । मैत्री, कररणा, मुदिता और उपेक्षा की ग्राहसा थी। इस महिसा मे राजनीतिक युद्ध की waterfinar को सिद्ध किया गया था। ये युद्ध अपने तथाकति स्वार्थं धर्षवा बड़प्पन की बनाये रखन के लिए मानवता पर क्रूर दलन था। इसलिए महावीर ने अनाक्रमण की बात कही । मतिक्रमण और माक्रमण दोनों तस्व युद्ध के ही दो पहलू हैं। यदि इन तत्वों से विमुख रहकर व्यक्ति और समाज के प्रभ्युस्थान की प्रार ध्यान दें तो उसकी वास्तविक सचेतनता कही जानी चाहिए। इसका तात्पर्य बह भी नहीं कि वह प्रस्मा क्रसरण करे ही नहीं या कायर बना रहे। प्रत्याक्रमण के लिए यदि वह विश किया जाये तो पूरी शक्ति के साथ उसका प्रतिरोध करना भी उतनी ही कर्तव्य परायणता कही जायेगी। बस, हिसा की मनिवार्यता में करुणा की माता सन्निहित रहनी चाहिए। इसलिए यह महिंसा कायरों की नहीं, वीरों की after है; वाश्वि-ग्रन्थ की नहीं, उत्तरदायित्वपूर्ण की महिमा है । महिला के साथ परिग्रह की भी बात जुड़ी हुई है। परिग्रह साधारण वोर पर बिना सोक्स के नहीं हो सकता । प्रावश्यकता से अधिक का सग्रह करना t माता की दृष्टि से दूर भागना है। साथ ही जो भी सग्रह किया जाये यह भी न्यायपूर्वक हो । मन्तर परिग्रह है मूर्च्छा या पासक्ति तथा बाह्य परिवह है तिमी मानसिक शरिय से मुक्त होना अपरिग्रही वृति के लिए आवश्यक है। अतः इच्छा-परिमाण तथा वस्तु-परिवारा ये अपरिग्रह की वो सही दिखाएं है व्यावहारिक और व्यापारिक भ्रष्टाचार भी प्रसंग्रह की भावना से दूर हो सकता है। इस प्रकार दीर्थंकर महावीर ने राजनीतिक, सामाजिक और माध्यामिक आन्त्रि के तीन सूत्र दिवे-शि-नाति और Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ g मुक्ति जैसे प्रान्दोलन भी इन्हीं सूत्रों मे मनुस्यूत थे। इन सूत्रों में जीवन का शाश्वत मूल्य छिपा हुआ है । मानवीय दृष्टिकोण से प्रोतप्रोत ये सूत्र विश्वबन्धुत्व को अपने प्रक में छिपाये, माज भी उतने ही मावश्यक हैं जितने पहले थे। भाज के परमाणुयुम मे तो इन सूत्रो को जगाने की कही अधिक प्रावश्यकता प्रतीत होती है । इसलिए महावीर के धर्म की उपयोगिता पर विशेष प्रकाश डाला जाना चाहिए । यहां यह उल्लेखनीय है कि तीर्थंकर महावीर का सुसम्बद्ध जीवन-चरित्र लगभग 8-9 वी शती में लिपिबद्ध हुआ । दिगम्बर परम्परा में तिलोयपति मौर विसट्टिमहापुरिसगुणालकार का प्राधार लेकर गुणभद्र ने उत्तरपुराण (शक सं. 820) में उनकी सक्षिप्त जीवन रेखाऍ प्रस्तुत की । श्वेताम्बर परम्परा मे प्राचाराम, सूत्रकृताग यादि प्राकृत जनागामों से छुटपुट उद्धरणो का आधार लेकर कल्पसूत्र की रचना हुई । लागे इसी का प्राधार बनाकर शीलाकाचार्य, हेमचन्द्राचार्य प्रादि जैसे विद्वानो ने अपने ग्रन्थो का निर्माण किया । पालि त्रिपिटक मे कुछ थोड़े से उल्लेख अवश्य मिलत है । पर वे उनके साधना काल से सम्बद्ध है । वैदिक साहित्य में महावीर का कोई प्राचीन उल्लेख नहीं मिलता । यह भ्राश्चय का विषय है । इसलिए उत्तरकाल मैं जो भी ग्रन्थ लिखे गये उनमे ऐतिहासिकता के साथ ही चमत्करात्मक तत्त्वों ने भी प्रवेश कर लिया जिनका विश्लषरण करना भी प्रावश्यक है । प्रायः प्रत्येक धर्म और संस्कृति में युगपुरुष हुए हैं। समय के प्रवाह में उन युग पुरुषों के जीवन प्रसगो के साथ चमत्कार जाड़ दिये गये है। इन चमत्कारो को प्रातिहाय अथवा अतिशय कह दिया जाता है मोर फिर घटनाम्रो के साथ उनकी प्रभिन्नता स्थापित कर दी जाती है । यह सब एक घोर उस महामहिम व्यक्तित्व के प्रति श्रद्धा भोर भक्ति का प्रदर्शन है तो दूसरी घोर लेखक के ऐतिहासिक ज्ञान की न्यूनता का प्रतीक है। यह भी मानवीय स्वभाव है कि जब तक किसी के साथ चमत्कार नहीं जुड़ेगा तब तक उसका अपेक्षित प्रतिष्ठा नही मिलेगी। यही कारण है कि महावीर के जीवन की हर घटना को भक्त साहित्यकारो न मसाधारण बना दिया । इस प्रसाधारणता की भी एक सीमा होती है । पर जब उसका भी प्रतिक्रमण हा जाता है तो वह अविश्वसनीय-सी बन जाती है । भ० महावीर की जीवन घटनाओ मे भी चमत्कार का प्राधिक्य कम नही । अत: प्रावश्यक यह है कि उनके ऐतिहासिक रूप को खोजने का प्रयत्न किया जाय । यहाँ हमने ऐसी घटनाओ को ही अपने विश्लेषण का विषय बनाया है । भ० महावीर मौर बुद्ध के समय ब्राह्मण संस्कृति ह्रास की पोर जा रही श्री और त्रियों का प्राबल्य बढ़ रहा था वैदिक विचारधारा मे जो विषमता और हिंसा बहुल क्रियाकलाप थे उनके विरोध में इन महापुरुषों ने अपने क्रांतिकारी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विचार प्रस्तुत किये । दोनों संस्कृतियों में परस्पर विरोध इतना बढ़ा कि किसी भी , सीकर को बाह्मलकुल में उत्पन्न होमा असम्भव कर दिया और क्षत्रिय कुल को ही विशुद्ध कुल मान लिया। इसी कुल में तीर्थंकर चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव मावि महापुरुषों को जम्म लेना उचित बतलाया। इतना ही नहीं, महावीर को पहले ब्राह्मणकुल में उत्पन्न देवानन्दा के गर्भ में धारण कराया और फिर उसे मशुद्ध पौर अयोग्य बताकर भत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में पहुंचाया। यह सब कार्य इन्द्र ने हरणेगमेषी देव के द्वारा करवाया। माचाराय सूत्र मादि ग्रन्थों में तो यह भी विस्तार से बताया गया है कि हरणंगमेषी ने गर्म परिवर्तन किस प्रकार से किया। यह सब निश्चित ही ब्राह्मण जाति की अपेक्षा क्षत्रिय जाति को श्रेष्ठ बताने के लिए किया गया है। पाज का विज्ञान गर्भ परिवर्तन कराने में सक्षम भले ही हो जाय परन्तु माज से लगभग पच्चीस सौ वर्ष पहले का विज्ञान इतना उन्नत भौर समृद्ध नहीं था और फिर यह तो किसी मानव ने नहीं बल्कि देव ने किया है। इस घटना से यही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जनधर्म प्रमुखतः क्षत्रियों का धर्म बन दिया गया था। कहा जाता है, तीर्थंकर के गर्भावतरण के छः मास पूर्व से ही देवगण के माता-पिता के राजप्रासाद पर रस्नो की दृष्टि करते हैं। यह रत्नष्टि धनसम्पत्ति की प्रतीक हो सकती है। सभव है, राज-महाराजे प्रथवा महासामंतों को ऐसे समय अपने माधीन रहने वाले कर्मचारियों से तरह-तरह के उपहार मिला करते हों। इन्द्र सबःजात बालक को सुमेरुपर्वत पर ले जाकर स्नान कराता है । यह क्रिया बालक के जन्म के तुरन्त बाद स्नान क्रिया का चामत्कारिक वर्णन होना चाहिए। महावीर के जन्म-महोत्सव का जो वर्णन मिलता है वह एक साधारण जन्म महोत्सव का दहद स होगा। बाल्यावस्था में भी इसी प्रकार की अनेक चमत्कार से भरी हुई घटनामों का उल्लेख मिलता है। विषधर सर्प का रूप धारण कर परीक्षा के निमित देव का मामा, शिक्षा ग्रहण के समय चमत्कारक बुद्धि की अभिव्यक्ति का कारण मूलतः बदामोर मक्ति रहा होगा । इसके बाद भ० महावीर के जीवन की घटनामों का कोई विशेष उल्लेख नहीं मिलता। जो भी है, प्रायः चमत्कारों से भरे हुए है। साधक इहावीर ने महाभिनिष्क्रमण करते ही यह अभिग्रह किया कि वे बेड की ममता को छोड़कर सभी प्रकार का उपद्रव सममान पूर्वक सहन 1. कल्पसून, 91 2. मादिपुराण, 13,84%B परम परिस, 3,61 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेंगे। वह समभाव उनकी प्रतिम सामना तक बता रहा। मामला से महामि निकमस कर महावीर कर्मरिणाम पहुंचे जहां उन्हें कोई पहिचान स मि वे एक महासामन्त के पुत्र थे इसलिए शायद ये जन-जीवन में नहीं पा सके होंगे। समूची साधना के बीच इन्द्र मादि जैसी कोई न कोई विभूति सनका रमण करती रही। उपसों का प्रारम्भ मौर पन्त दोनों गोपालक सेगमा है।गों से सम्बद्ध होने के कारण क्यो न इस संयोग को वात्सल्य घंव का प्रतीक माना गाय जी जनधर्म का प्रमुख अंग है। तपस्वी महावीर पर प्रथमतः ग्वाला जब प्रहार करने दौड़ता है तो तुरन्त ही उसे भान करा दिया जाता है कि-मो मूर्ख? तू यह क्या कर रहा है ? क्या तू। नहीं जानता ये महाराज सिद्धार्थ के पुत्र वर्षमान राजकुमार हैं । ये मास्म-कल्याण के साथ जगत कल्याण के निमित्त दीक्षा धारण कर साधना में लीन है। यह कथन साधना का उद्देश्य प्रकट करता है । इस उद्देश्य की प्राप्ति मे साध्य मोर साधन दोनों की विशुदि ने साधक को कभी विचलित नहीं होने दिया। यहाँ इन्द्र वर्षमान की सहायता करना चाहता है पर साधक वर्षमान कहते है कि "महन्त केवलज्ञान की सिद्धि प्राप्त करने में किसी की सहायता नहीं लेते। जितेन्द्र अपने बल से ही केवलज्ञान की प्राप्ति किया करते हैं। इसके बावजूद इद्र ने सिद्धार्थ नामक व्यतर की नियुक्ति कर दी जो वर्षमान की अन्त तक रक्षा करता रही। हम जानते हैं, महावीर के पिता का नाम सिद्धार्थ था और मौतम का भी नाम सिद्धार्थ था। सितार्य को व्यतर कहकर उल्लिखित करने का उद्देश्य यही ही सकता है कि पटना-लेखक गौतम बुद्ध के व्यक्तित्व को नीचा करना चाहता रहा हो । दोनो भो मे इस प्रकार की घटनामो का प्रभाव नहीं । इन्द्र को वैदिक संस्कृति मे प्रधान देवता का स्थान मिला है। वर्षमान के चरणों में नतमस्तक कराने का उद्देश्य एक मोर साधक के व्यक्तित्व को ऊंचा दिखाना और दूसरी और अमल सस्कृति को उच्चतर बतलाना रहा है । सिदार्थ यदि व्यवर होता तो उसने महापौर 1. पारस वासाई बोसट्टकाए चियत्त देहे थे केई उपसाया समुप्पबति से जहा, दिव्या वा, माणुस्सा वा, सेरिछिया वा, ते सम्मे उबसगे समुप्पण, समाणे सम्म सहिस्सामि, खमिरस्सामि, महियासिस्मामि ॥माचारांग. ७साध्यवन 2, 40 23, पत्र 391 2. निष्ठिशलाकापुरुषचरित, 10,3,17-26 भावश्यक पूणि 1, पृ. 270 | सक्को पग्मितो-सियत्यति विषष्टिशलाकापुरुषचरित, 10. 3. 29-33 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोबाला प्राम वर्ग में ही मस्थिग्राम के साम्यवन में हुए म के उपवर्य का निवारण स्वों नहीं किया ? साधना के सरे वर्ष भोराक सन्निवेश में इसी सिवा ने वर्षमान की मो. गाँधा एक बड़े क्योतिषी के रूप में फैला दी। फलतः ये सारी जनता के सोकप्रिय होमएं, परन्तु यहां रहने वाले मच्छन्दक ज्योतिषी की माजीविका पर कठोर पापात पा। यह जानकर बर्षमान ने यहां से बिहार कर दिया। यह उनका महाकाव्य या भाविष्यवाणी के और भी पनेक उदाहरणे यहाँ मिलते है बिनको सम्बाय मी सिवार्य से रहा है । अत: सिद्धार्थ नामक कोई अन्य देव नहीं बल्कि व्यक्ति होना जहिए। हो सकता है, उसका नाम भी सिद्धार्थ देख रहा हो। सपनाकाल के प्रथम तेरह मास तक कहा जाता है कि वर्षमान मात्र एक वस्त्र ग्रहण किये रहे । उसका दुध भाग एक निर्षन पाहण की याचना पर उन्होंने उसे दे दियी और शेव भाग स्वतः गिर गया। इस वस्त्र को देवदूष्य बस्त्र कही गया। पाचारांग पोर कल्पसूत्र में देवदूष्य वस्त्र के गिरने की बात तो मिलती है पर बाल को देने की घटना का बहा कोई उल्लेख नहीं मिलता। ण, टीका मादि में उसका उस्लेस अवश्य हुमा है। देव बस्त्र एक विवाद का विषय रहा है क्योंकि उसका सम्बन्ध सबैल मी यस परम्परा से जोड़ दिया गया । जो माँ हो, इसमा वम है, इसपटमा का सम्बन्ध ब्राह्मण सम्प्रदाय की भिक्षावृति को उपाटित करना तथा उसे महावीर बनवान ने की अभ्यर्थमा करना रहा होगा । साम्प्रदायिकता की भावना का सजिवन यहाँ विमा देखा है। वैसे महागीर बीबरामी में यह निर्विवाद : परम का कोई प्रयोजन नही रहा होगा । इस उत्तरकालीन विवाद समझना साहिए । देवष्य मम्द का प्रयोग भी इस बात को स्पष्ट करता है। महापौर ने इसे पल को नमन 13 माह तक रखा और उनका सामना काल भी संगम तेरह वर्ष रहो । संस्मी की बहसमानता भी इस सन्दर्भ में विचारसीव है। उत्तर भारत को पीत और उणेता, दोनों पूरे जोर पर रहती है। महावीर ने उन दोनो को भली-भांति सहा । कहा जाता है, साथमा काम में महागीर कभी सौ बारह वर्ष तक कोई सोये न यह सम्भव-सा नहीं लगता। सोने का तात्पर्य यदि प्रभाव से लिया जाय तो अवश्य हम कह सकते हैं कि महापीर पूर्खतः अप्रमादी रहेपरि पर्पनी साधना के लक्ष्य पर प्रतिपल जांबत रहकर ध्यान करते रहे। से ऐसे न साने वालों के कुछ उदाहरणं पाजकस अवश्य मिलते हैं। बिहार, लनता है, प्राकतिक पापवानों का बर या है। वर्षमान की सामनाकाल प्रथम में ही नहीं अकाल पड़ा था। परिवानक भूक पापों को भी अपने भाषण में बाहर कर दिया करते थे परन्तु काणिक वर्षमान सेवा नहीं कर HP-AHA Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12 सके । इसका दण्ड उन्हें यह मिला कि पाश्रम से निकल जाना पड़ा। उस समय की उनकी मानसिक स्थिति का अवलोकन कीजिए जो जैनधर्म किंवा मानवता का भभिन्न मन है। चण्डकौशिक नाग को महावीर ने प्रतिबोध दिया, यह सही हो सकता है, उसके काटने पर महावीर को कोई भसर न हमा हो यह भी सही हो सकता है पर उसके उसने पर महावीर के पर से रक्त के स्थान पर दूध की धारा बह निकले यह सही नहीं लगता । यह तो वस्तुतः उत्तरकालीन चमत्कार का नियोजन प्रतीत होता है। साधना के दूसरे वर्ष में गोशालक की भेंट महावीर से हुई और वह छठवेंवर्ष तक महावीर के साथ मे रहा भी। इस बीच गोशालक की अनेक घटनामों का उल्लेख है जिनमे उसके व्यक्तित्व को बिल्कुल नीचा पोर उपद्रवी दिखाया गया है। वस्तुतः गोशालक की श्रेष्ठता दिखाना स्वाभाविक है। बौवागमो ने भी ऐसा ही किया है। कठपूतना और मालार्य व्यन्तरियां तथा सममदेव के धनघोर उपसगों को साधक महावीर ने शान्ति पूर्वक सहन किया। अन्तिम उपसर्ग छम्माणि ग्राम मे हुमा जहाँ ग्वाले ने उनके कानो में कीले ठोके । इससे भी कही अधिक दुःखदायक उपसर्ग उस समय हमा जबकि सिद्धार्थ नामक वणिक ने अपने मित्र खरक नामक वैब से उन कीलों को निकलवाया। पालि साहित्य के मरिझम निकाय (चूल दुक्खक्खन्ध-सुत्त) तथा संयुसनिकाय (सखसुत्त) मे भी वर्षमान की तपो साधना का वर्णन है। परन्तु वहां निमण्ड नातपुस न होकर 'निग्गण्ठा' लिखा हुमा है जिसका साधा सादा अर्थ है जैन मुनि । अभयराज कुमार, मसिबन्धकपुस गामणी, उपालि मादि धारकों के पर्चा-प्रसमों में भी वर्धमान के स्वय के तप का रूप स्पष्ट नहीं होता बल्कि उनके सिवान्तों पर किञ्चित् प्रकाश पड़ता है । ये सभी उल्लेख उस समय के होंगे जबकि भगवान महावीर केवलज्ञान प्राप्त कर चुके थे और उन्होने अपने धर्म का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया था। भगवान् महावीर की देशना को दिव्यध्वनि कहा गया है। इस दिव्यध्वनि 1. इमेण तेरण पंच प्रभिन्महा गहिया (मा. मलय नि. पन 268 (1)। इमेय तेण पंच अभिग्गहा वाहिता (पावश्यक पू. पृ. 271) नाप्रीतिमद् गृहे वास. स्येयं प्रति मया सह । न हि विनयं कार्यो, मौनं पाणी च भोजनम् ॥ (कल्पसूत्र, सुबोषा-पृ. 288)। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को अभावाल्पक माना है। प्राचार्य बारसैन ने लिखा है कि एक पोवन के भीतर दूर भगवा समीप बैठे हुए मारह महामाषा और सात सौ लकुभाषामों से युक्त विर्षब, मनुष्य पौर देवों की भाषा के रूप में परिणत होने वाली तथा न्यूनता और प्रधिकता से रहित, मधुर, मनोहर, गम्भीर और विषद् भाषा के प्रतिमयों से युक्त तीर्थकर की विष्णम्पनि होती है। जिनसेन ने इसे अशेष-भाषामक कहा है। कोई ध्वनि पयवा भाषा सर्व भाषात्मक प्रयवा प्रश्शेष भाषात्मक रहे, यह कोरी कसना की बात है। तीर्थकर की प्रशान्त मूर्ति और प्रभावक व्यक्तित्व को देखकर वस्तुतः बोता या दर्शक पाकर्षित हो जाते थे। परन्तु उनकी ध्वनि इतनी भाषामों से मुक्त हो और वह मनुम्य तया देवों की भाषा के रूप में परिणत हो, यह कैसे सम्भव है । उस समय अठारह महाभाषायें तथा सात सौ लघु भाषायें भी तो नहीं वीं । तब इसे कैसे सत्य माना जाय ? इस प्रकार भगवान् महावीर की साधना के सन्दर्भ में जो कुछ भी मिलता है वह केवल जैन साहित्य में है मौर ऐसा जो जैन साहित्य है वह प्रायः उत्तरकालीन है। उनमें भक्ति के कारण चमत्कात्मिक वृति का प्राधिक्य हो जाने से मूल रूप प्रग्छन्न हो गया है । मनः महावीर की तत्कालीन घटनामों का सम्यक विश्लेषण मावश्यक हो जाता है। मैंने यहां उन घटनामों का कुछ विश्लेषण किया है। सम्भव है उसमें मतमेव हो । इसलिए इस विषय में पौर चिन्तन अपेक्षित है। 2. जैन साहित्य परम्परा साहित्य संस्कृति और समाज का दर्पण है । समाज की परम्परा, समृद्धि, विकास-रूपरेखा, दृष्टि, मान्यता प्रादि सारे तत्त्व साहित्य की विशाल परिधि के मन्तर्गत प्रतिबिम्बित होते रहे हैं। व्यष्टि और समष्टि के बीच प्रतिद्वन्धिता, सहयोग, सह-मस्तित्व, सद्भावना, संघर्ष मादि सब कुछ साहित्य की माँ से बच नहीं पाते । इसलिए संस्कृति और समाज के सम्मान में साहित्य को मेरुदाना जा सकता है। 1. 'मो बनान्तरदूरसमीपस्थाष्टादशभाषा--सप्तशतकुभाषा--तिर्यग्देव--- __ मनुष्य भाषाकारन्यूनाधिक-भाषातीतमधुरमनोहरगम्भीरविशदवागतिशय सम्पन्नः भवन वासिवानव्यन्तर-ज्योतिष्क-कल्पबासीन्द्र-विचार-पतिबल नारायण-राजाधिराज-महाराजाधं- महामणालीकेन्द्राग्नि-वायु-भूतिसिंह-पालादि-देव-विचापर मनुष्यषि-तियं गिन्ने भ्यः प्राप्त-पूजातिशयो महावीरोऽर्यकर्ता।' (षट्खण्डागम, परसाटीका, प्रयम जिस्व, पृ. 61) 2. मादिपुराण, 23, 154 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक दर्शन और संस्कृति की मूल रूप में एक भाषा रही है जिसके मागम से उसकी पाच मभिव्यक्ति की जाती है। जैन संसहाति प्रणेतामों में इस अमिम्मक्ति का माध्यम जनभाषा को चुना। उन्होंने ऐसी भाषा को माध्यम लाया जो उनके विचारों को जनसाधारण तथा मिर्वन और प्रशिक्षित परिवारों के बिना किसी संकोच मौर रुकावट के पहुंच सके। ऐमी भाषा संस्कृत हो नहीं सकती श्री क्योंकि वह तो उच्चकुलीन भाषा थी। इसलिए जन साधारण में प्रचलित बोली को ही उन्होंने स्वीकार किया । इसी को प्राकृत कहा जाता है। प्रादेशिक गोलियों के बीच जो स्वाभाविक अन्तर दिशा उसने प्राकृत को प्रादेशिक स्तर पर विनत कर दिया । कालान्तर में इसी के विकसित रूप को अपभ्रश कहा जाने लगा जिसको रूप अवहट्ट के दरवाजे से निकलकर प्राधुनिक भारतीय भाषाओं के विशाल प्राण तक पहुंचा । उधर संस्कृत भाषा समृट और सुशिक्षित समुदाम तक ही सीमित रही। भारतीय भाषा विज्ञान के महापिता पाणिनि ने उसे सूत्र-जालों में ऐसा कड़ दिया कि वह उनसे कभी उभर नहीं सकी । इसलिए उसमें कोई विशेड विकास भी मही हो सका। जैनधर्म जन समाज का धर्म रहा है। वह किसी जाति पत्रमा सम्प्रदाय विमेष से सम्बद्ध न होकर प्राणि मात्र से जुड़ा रहा। इसलिए उसने एक पोर नहीं प्राकृत जैसी जनभाषा को स्वीकार किया वहीं उसे संस्कृत को भी अपनाना पड़ा। फलतः अनाचार्यों ने प्रारुत-अपभ्रश और संस्कृत को पूरे मन से अपने विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया। बाद में हिन्दी, मराठी, गुजराती, तमिल, कन्नर पादि प्रादेशिक भाषामों को भी उसी रूप में अपनाया । इन सभी भाषामों का प्राध साहित्य प्रायः जैमाचार्यों से प्रारम्भ होता है। उत्तरकास में भी उन्होंने उसे भरपूर समृद्ध किया। इस तथ्य को हम प्रागामी पृष्ठों में देख सकेंगे। 1.प्राकृत साहित्य जैन साहित्य की परम्परा का प्रारम्भ श्रुति परम्परा से होता है। तीर्थकर महावीर के पूर्व का साहित्य तो उपलब्ध होता ही नहीं है। जो कुछ उस्लेख मिलते हैं उनके अनुसार उसे 'पूर्व' श्रेणी के अन्तर्गत अवश्य रखा जा सकता है । उनकी पूर्वो की संख्या बौदह है जिनका विवरण तस्वार्थपातिक, नन्दिसून प्रादि अन्यों में । इस प्रकार मिलता है। ___1. भर पूर्व- इसमें द्रव्य मोर पर्यायों की उत्पत्ति का विवेचन है। इसमें वस्तु बस, दो सौ प्रामृत और 12 करोड़ पद हैं। ___2. असायली पूर्व-इसमें वस्तु तस्त्र का प्रयानवः पर्वत, सा होगा। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तादौ सुर्नयों का तथा पांच मस्तिकाय, सप्त तस्य धीर नौ होगा । इसमें 14 वस्तु 283 प्राबुन और होते हैं। 3. J कर्मजीवों के का वर्णन है । प्रादि के का नरेन्द्र चक्रवर्ती, बलवेव वीर्य, काकी, मनवीर्य आदि नीम का भी यहां विबरण मिला है। इसमें 8 160 70 पद हैं। 4.स्वाद-इसमें स्वरूप मादि चतुष्टम की अमेजन के अस्थिका र रूपादि चतुष्टय की अपेक्षा उसके नास्तित्व का वर्णन है । इ 18 वस्तु, 360 माह और एक कम एक करोड़ पद है । 5. यहां मति, भूत प्रादि पांचों ज्ञानों की उत्पत्ति, स्वप प्रकार for wife का विवेचन है। इसमें 12 वस्तु, 240 पार, और एक करोड़ पत्र हैं। 6. सत् प्रवाद - द्रव्य के संदर्भ में विवचेन है । 7. प्रात्मबाद- प्रात्मा के अस्तित्व, नास्तित्व भावि धर्मों का, उसके ster कर्त्तव मादि स्वरूप का विस्तृत वर्णन है। इसमें 15 वस्तु, 320 पाहूड, और 26 करोड़ पद होते हैं । 13 4: पदार्थों का परिसन ला 8. कर्म प्रवाद - कर्मों के स्वरूप, बन्ध, उदप, व्युच्छिति प्रादि पर प्रकाश मलता है। इसमें 20 वस्तु, 400 पाहड़ धौर एक करोड़ प्रस्सी लाख पद होते हैं । 9. प्रधान प्रवाद-प्रत, प्राचार, प्रतिक्रमण, प्रतिभा, बाहाना, बिना समिति, गुप्ति प्रादि का वसंत है। इसमें 30 वस्तु, 600 और 841 माल पद होते हैं । 10. बाबा विद्यार्थी, निमित्तों, स्वप्नों, ऋद्धि-सिद्धियों यादि का वन है । इसमें 15 वस्तु, 300 पाहुड, पोर एक करोड़ 10 लाख पर होते है । 11.सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारा गश आदि की उत्पत्ति, यमन, सकुन, शुभ, अशुभ प्रादि का वन है। इसमें 10 वस्तु, 2 पाहुड़ और 26 करोड़ पद होते हैं । बाद प्रवाद-इन्द्रिय, वासोच्छवास, भायुष्य भौर प्रारण का नि वस्तु 20 पाहड़ मौर 13 करोड़ किंवा 12 करोड़ पा 12. है। इसमें 10 प्रह.. हैं. 1 13. क्ष्मी, सादि वास्त्रों का बहन है। इसमें 10 करोड़ 4 प्रबुन क्रियाओं का बहतर कमाशों का काम के 200, पाक, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14. लोक बिसार - परिकर्म, व्यवहार, रज्युरावि, कवासवन्त मावि 1 इसमें 10 वस्तु, 200 पाहुड, पौर साढे बारह करोड़ पद हैं। कुल मिलाकर चौदह पूर्वी में 195 वस्तु और 3900 पाहुड़ होते हैं। पद के प्रमाण के संदर्भ में कोई निश्चिन जानकारी नहीं मिलती। हां, पट्टखण्डागम के कुछ सूत्र इस गुत्थी को हल करने का प्रयत्न अवश्य करते हैं पर उन्हें अंतिम नहीं माना जा सकता। इन पूर्वो में स्वसमय औौर परसमय का सुन्दर विवेचन रहा है । दर्शन, ज्योतिष, भूगोल, गणित, प्रायुर्वेद भादि शालाओं को भी इसमें समाहित किया गया | परन्तु इतने विशाल परिमाण वाला 'पूर्व' साहित्य घाव न जाने क्यों उपलब्ध नहीं है । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि पूर्व साहित्य की भाषा परम्परा से संस्कृत मानी जाती है। पर मुझे लगता है वह प्राकृत में रहा होगा । व्यवहार सूत्र के अनुसार इस पूर्व साहित्य से अंग साहित्य की उत्पत्ति हुई है | धवला में 'इसे' श्रुत देवना' की संज्ञा दी गई है और उसके बारह मंगों के समान 'अंग' के भी बारह भेदों का वर्णन किया गया है चाचारोग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायाग, व्याख्याप्रज्ञाप्ति ज्ञातृधर्मक्रया, उपासकाध्ययन, अन्तः कृवृश, अनुतरोपपादिक दश प्रश्न-व्याकरण, विपाक सूत्र और दृष्टिवाद, दोनों परम्परात्रों मे इनके नामो मे कोई अन्तर नहीं है । } को सूत्रागम और गणधरों परम्परागत होने के कारण मंग साहित्य को अनुयोग में 'मागम' की संज्ञा दी गयी है। तीर्थंकरों द्वारा ज्ञान अर्थ को प्रात्मागम, गणधरों द्वारा रचित सूत्रों शिष्यो द्वारा रचित सूत्र अनन्तरागम हैं। परम्परागत होने के कारण यह सब परम्परागत है । इसे सिद्धान्त भी कहा जाता है। बीस पिटकों की तरह जैन सिद्धान्त साहित्य को 'गरि पिटक' भी कहा गया है। तीर्थकरों द्वारा प्रणीत उपदेश को गरणवर व्याख्यायित करते हैं जिसके माधार पर उनके शिष्य ग्रन्थ रचना करते हैं । शांतिचत्र की जंबूदीप्रज्ञप्ति की टीका में कुछ प्राचीन गाथाएं उद्धृत हैं जिनमें डॉ. बेबर ने केवल छ. प्रगों का ही उल्लेख पाया है- प्राचांराग, स्थान, समवाय arrerraria और दृष्टिवाद । प्रावश्यकनियुक्ति आदि में इन ग्यारह अंगों का निर्देश प्राचारांग आदि से प्रारम्भ किया गया है । लगता है, मंगों की परगना के संदर्भ में ये दो परम्पराएँ रही होंगी । सपूर्ण श्रुतज्ञान को दो भागो में विभाजित किया गया है-अंगप्रविष्ट पौर मंगers | अंगप्रfore द्वादशांग रचना है और उस पर आधारित ग्रन्थ समुदाय मंगबाह्य माना जाता है। प्रगबास के प्रावश्यक और प्रावश्यकव्यतिरिक्त ये दो मेद मावश्यक नियुक्ति, विशेावश्यक माध्य मादि ग्रन्थों में मिलते हैं । सामायिक Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के बिन्दुसार पन्त भेद भाववक यह tet " विनावश्यक माच्य में तमाम के गौबह व सिर कि असशि, मम्मक, मिग्या, सादि, अनादि, बक्षित laliens पर अपमिक, चंयप्रविष्ट व मनमाविष्ट । ये मेव मेली केसाबार परम । मंदिसूत्र, विशे गवश्यक भाष्य, षट्सबदामम पारियों में इसका विक पनि मिलता है। इन मेनों में गमिक पौर प्रथमिक व इष्टव्य है । प्रश्वा सहारा अधिक है उन्हें ममिक कहते है और जिनमें चार प्रसइस पाठ अधिक हैं उन्हे अमिक कहा जाता है। शिवा कोमिकी संज्ञा दी गई है और अंगवह्य ग्रन्थ भगमिक पात् कालिक पेत के नाम से जाने जाते हैं। नन्दिसूत्र में अंग बाह के दो भेद -मावस्यक और पावरमतिर आवश्यक के छः भेद हैं - सामायिक पतुविविस्तर, वन्दना, प्रतिकपणकामात पौर प्रत्याख्याना वावश्यक व्यतिरिक्त के दो भेद-कालिक धीर सत्कालिक । कालिक में निम्न प्रन्थ पाते हैं-उत्तराध्यवन, पकालिक काल्प. म्पबहार, निधी महानिशीय, ऋषि भाषित, अम्यूटीपप्राप्ति, दीपसागर प्राप्ति, पति , मल्लिका, विमान, निरयावली, कल्पावसिका प्रादि । उस्कालिक के भी अनेक मेव है-दशवकालिक, कल्याकल्प, मोपपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाधिनम, प्रशासना, प. योग द्वार, सूर्यप्राप्ति, वीराग अन पादि। ठाएंम, अनुयोबहार, तथा नाविक पादि ग्रन्थों में भी इसी प्रकार के भेद-प्रभेद मिलने है। यहाँ यह इष्टव्य है कि कालिक अन में दृष्टिबाद अन्तर्भूत नहीं है । दृष्टिबाद तो जमाविष्ट के मन्तव भाता है। भद्रबाहु से स्थूलभद्र ने दश पूों का अध्ययन किया। मनः जनः कामम से दस पूर्वो का भी लोप हो गया । श्वेताम्बर परम्परा वश पूर्वो का दिन महावीर के गिर्वाण के 162 वर्ष बाद मानती है कि दिगम्बर परम्परा में 345 वर्ष बाद हुमा स्वीकार करती है। पूरे पिर होग पाठियों का भी विचर हो गया । सेवाम्मर परम्परा अनुसार माता पारक्षित ने विशेष पाव्यिों का हाल देखकर को बित कर दिया। फिर भी पूषों का मोषमाया नहीं ब ERE इस मोर को महापौर-निर्माण के 683 वर्ष बाद पटना मारता है। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ #1 18 जन साहित्य को araनाओं के माध्यम से सुस्थिर रहा है। प्रथम वाचना महावीर - निर्वारण के 160 वर्ष बाद मौर्य ने कराई। इसके बाद दो दुर्भिक्षों का भाघात लगा । मे के नेतृत्व में मथुरा में वाचना हुई और इसी तरह नागार्जुन के नेतृत्व में एक अन्य areer बलभी में हुई। इन वाचनाओं के लगभग 150 वर्ष बाद (ई. 456 या 467 ) देवगिरिण क्षमाश्रमण के नेतृत्व बलभी मे पुनः वाचना का संयोजन किया गया और उपलब्ध श्रागम को वाचना, पृच्छना श्रादि के माध्यम से लिपिबद्ध कर स्थिर करने का प्रयत्न हुम्रा । श्वेताम्बर परम्परा द्वारा स्वीकृत आगम इसी बचना के परिणाम हैं। इतने लम्बे काल में श्रुति परम्परा का विच्छेद, मूल पाठों में भेद, पुनरुक्ति से बचने के लिये 'जाब यहा पण्णवरणाये' जैसे शब्दो का प्रयोग विषम प्रस्तुति मे परस्पर विसंगति, जोड़-घटाव आदि की प्रवृत्ति अंग ग्रंथों मे, दिलाई देती है । इसलिए स्वर्गीय प. वेचरदास दोषी का यह कथन सही लगता है। कि बलभी में संग्रहीत अंग साहित्य की स्थिति के साथ भगवान महावीर के समय के अंग साहित्य की तुलना करने वाले को दो सौतेले भाईयो के बीच जितना अंतर होता है उतना भेद मालूम होना सर्वया संभव है । इतना ही नहीं, देवगिरी के बाद भी यह परिवर्तन रोका नहीं जा सका । जेकोबी ने तो यहा तक कह दिया कि साक्षात् देवगिरणी के यहा भी पुस्तकारूढ किया गया पाठ श्राज मिलता श्रशक्य है। यह इसलिए भी संभव है कि भगवती आराधना आदि ग्रंथो मे उपलब्ध आगमो से उद्धृत उल्लेख वर्तमान में प्राप्त आगमो में नही मिलते । श्रट्टे पण्णत्तया मे सुयग सुम मे माहस तेरा भगवया एवमत्थं जैसे शब्द भी इसके प्रमाण हैं । अंग साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है 1. प्राचारंग श्राचारांग द्वादशांग का प्रथम और श्राद्य ग्रन्थ है । इसमें श्रमणाचार की व्यवस्था और उसकी मीमांसा की गई है । प्राचारांग की महत्ता इसी से प्रांकी जा सकती है कि इसके अध्ययन के उपरात ही सूत्रकृतांग श्रादि का अध्ययन किया जा सकता है । और भिक्षु भी उसके बाद ही भिक्षाग्रहरण के योग्य माना जा सकता है ।" बुज्झिज्जति तिउट्जिा बंधणं परिजाणिया । fruit बंध वीरो किवा जाणं तिउई || सूत्र कृतांग नियुक्ति, गाथा - 18-19 जैन साहित्य में विकास, 33 निशीय चूरिंग, भाग 4. पृ. 252; 4. व्यवहार भाष्य 3. 174-5, रखने का प्रयत्न होता पाटलिपुत्र में चन्द्रगुप्त तदनन्तर घायं स्कन्दिल 1. 2. 3. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्वार्थ बार्तिक के अनुसार सातारांग में भार, तीन पित, पांच समिति सानों का वर्णन है। इसी तरह षट्समागम भी प्राचारांग के विषय को मुनि पर्या, तक ही सीमित रखता है। नंदीसूत्र और समवायांग भी लगभग इस कंपन। सहमत है। वस्तुतः इसमें माचार और गोचर विधि का विस्मण राय पद्धति का प्ररूपण किया गया है। वर्तमान में उपलब्ध भाचारांग में दो श्रत स्काय हैं । प्रथम मत स्वास्थ का नाम 'बम्हरिय' है जिसके नव प्रध्ययन और उनके 31 उहक -1.* परिणा (शस्त्र परिज्ञा), 2. लोग-विजय (लोकविजय), 3. सीमोसगिज (सतो. गीय, 4. सम्मत्त (सम्यक्त्व), 5 प्राति प्रथया'लोगसार, 6. ध (धूत), 7, बिमोह (विमोक्ष), 8. उवहागसुप्र (उपधानश्रत), पौर 9. महापरिपा (महापरिमा) । प्राचारांग नियुक्ति में छठे अध्ययन धूत के बाद महापरिमा का नाम पाया है पौर उसे लुप्त माना गया है। प्राचाराग का द्वितीय श्रु तस्कन्ध प्रथम धुनस्कन्ध का परिशिष्ट है पी पोच चूलिकामो में विभक्त है। प्रथम चूलिका में, पिडषणा, शम्पवरणा, पिता, बाबाबातपणा, वस्त्रषणा, पात्रषणा और अवग्रहेषणा का वर्णन है। द्वितीय चूलिका में स्थान, निशीथिका प्रादि मात अध्ययन हैं। तृतीय भावना चूलिका में भ. महापीर का परित्र चित्रण है । चतुर्थ चूलिका विमुक्ति है जिसमें प्रारम्भ पार परित्रह से मुस होने की बात कही गई है। पाचवीं चूलिका बदाकार होने से पृथक् कर दी गई है जिसे निशीथ सूत्र कहा जाता है। इस प्रकार प्राचारोग के दोनों श्र तस्कन्धों में 25 अध्ययन और ईसा हैं। महापरिज्ञा को लुप्त मानने पर कुल 24 प्रध्ययन और 78 उद्देशक पास है। प्राचारांग की पद संख्या 1-00 मानी गई है। इस अंग का कुछ भागमय में है और कुछ पद्य मे । डॉ जैकोबी और सुविंग ने इसके छन्दों की मीमांसी की हुए प्राचीनतम मग माना है। भाषा और इंसी-भी इस सम्मको पुष्ट करती है। द्वितीय व तस्कन्ध स्तरकालीन है जो स्थविरकृत है। इस अंग की दो साजन' पाठ भेद के रूप में उपलब्ध है-प्रथम वाचना शीलांक की पत्ति में स्वीकृत पाप और द्वितीय नागार्जुनीय । वायना रूप देवषिणि अमात्रण ने इसे 'बष्णप्रो' पौर 'जाव' शब्दों का उपयोग कर संकलित किया है। विषय की दृष्टि से आचारांग समृर है। प्रदेसक मोर सनक दोनों परम्पराए इसमें समाहित है। यहां अचेलकता और वीतयगता को प्राधिक पाकर माना मया है । जैन धर्म की प्राचीनतम साधना. फान की जानकारी के लिए प्राचारांग प्रमुख अंग ग्रन्थ है । महावीर को जीवन पति का भी इसमें पल्या विवरण मिलता है । मांस मभण जैसे कुछ विषय हमारे समाप्रश्न चिन्ह प्रदायमा कर देते हैं। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर ऐसे विषय निश्चित ही काफी उत्तर कालीन रहे होंगे । क्योंकि जैन धर्म की भूल भावना से इसका कोई मेल नहीं खाता । ऐसे पाठ प्रक्षिप्त ही होना चाहिए । . सूत्रकृताङ्ग (सूयगडाङ्ग) प्राकृत जन प्रागम का द्वितीय अंग प्रन्थ है जिसे सुदयर, सूदयह, सूदयद, सूतगड, सूयगड और सुसगड जैसे प्रभिधान प्राकृत में उपलब्ध होते हैं। परन्तु संस्कृत में यह आगम ग्रन्थ सूत्रकृत नाम से ही अधिक प्रसिद्ध है। सुप, सूद अथवा सुत्त शब्द पालि के सुत्त शब्द से मिलता जुलता लगता है जिसे हम श्रुत, सूक्त प्रथवा सूत्र पर्थ में व्याख्यायित कर सकते हैं। कि जैन पौर बौद्ध भागमों की प्रारंभिक परम्परा श्रुति परम्परा रही है और जहाँ कहीं सूत्र शैली का भी प्रयोग हुपा है । इसलिए सूयगडाङ्ग का सूय शब्द उपयुक्त प्रर्थों में प्रयुक्त हुमा प्रतीत होता है। ___ सूत्रकृताङ्ग विषय सामग्री की दृष्टि से एक प्राकर ग्रन्थ है । समवायाङ्ग के मनुसार इसमें स्वसमय, परसमय प्रोर नव पदार्थों का वर्णन है। नंदीसूत्र के अनुसार इसमे लोक, प्रलोक, लोकालोक, जीव, प्रजीव, स्वसमय और परसमय का निरूपरण है। तथा क्रियावादी प्रादि 363 मिथ्यादृष्टियों के मतो का खडन किया गया है। वह दो श्रुत स्कन्धो, 23 अध्ययनो, 33 उद्देशन कालो मोर 36 समुद्देशन कालों में विभक्त है। इसका कुल पद परिमारण 36 हजार है । राजवार्तिक के अनुसार इसमें शान, विनय, कल्प तथा प्रकल्प छेदोपस्थापना, व्यवहार धर्म एवं क्रियानो का वर्णन है । कषाय पाहर में भी लगभग इसी तरह की विषय सामग्री का उल्लेख है। जय धवला में इन विषयों के साथ ही स्त्रीपरिणाम की भी चर्चा का उल्लेख मिलता है। इन सभी ग्रन्थों में सूत्रकृताङ्ग की उल्लिखित विषय सामग्री को एकत्रित किया जाय तो वर्तमान सूत्रकृताङ्ग का स्वरूप उपस्थित हो जाता है इसमें 32 अध्ययन हैं। 1. समय, 2. वतालीय, 3. उपसर्ग, 4. स्त्री परिणाम, 5. नरक, 7. वीर स्तुति, 7. कुशीलपरिभाषा, 8. वीर्य, 9. धर्म, 10. प्रन, 11. मार्ग, 12. समवसरण, 1. सूयगडेणं ससमया सूरजति परसमया सूइज्जति समय परसमया सूइजति समवायो-पउण्णम समयामो, सू. 90. 2, नन्वीसूत्र, सूत्र-82. प्रतिक्रमण अथवयी, प्रमाचंद्रीय वृत्ति Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13. त्रिकासगंज हिंद (2) 14. भात्मा 15. सविस्वमाया (?), 16. पुपरीक, 11. क्रिया स्थान, 18. पाहारक परिणाम 19. प्रत्यास्मान 20 अनगार मुकाति, 21. श्रुत, 22 अर्थ, 23. मालन्दा । म भन्यपनों में कु सीसामी अवस्य विलाई महीं देती जिसका उल्लेख उपयुक्त ग्रंथों में न किया गया हो। बसमाव में सबसे प्रस्तुत प्रय में कुछ परिवर्तन के साथ ये मध्ययन संकलित किये मो . सूत्रकृताल के संकलन के सन्दर्भ में किसी व्यक्ति-विक्षेप के नाम का उल्लेख तो यहां नहीं मिलता पर इतना निश्चित है कि उसका संकलन परम्परा का प्रनुसरण कर स्थविरों ने प्रश्नोत्तर गैली का माश्रय लेकर लगभग 5 बीमतों में किया है। सूत्रकृतांग भी दो श्रुत स्कन्धों में विभाजित है। प्रथम श्रुत स्कन्ध में सोसाइ अध्ययन है-समय, वैतालिक, उपसर्ग, स्त्रीपरिज्ञा, नरक, विभक्ति, वीरस्तुति, कुचील, वीर्य, धर्म, समाधि, मार्ग, समवशरण, याथातथ्य, ग्रंथ, यमकीय अथवा भावानीम, और गाथा । द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सात प्रध्ययन हैं-घुग्रीक, क्रिया स्थान, माहारपरिज्ञा, प्रत्याख्यान क्रिया, अनगारश्रुत, प्रादकीय, और नालन्दीय । इन अध्ययनों मे जैनेतर दर्शनों की प्राचार-विचार की मासांसा करते हुए अनाचार विचार को प्रस्थापित किया गया है। 3. ठाणांग यह तृतीय अंग है । इसमे संख्याक्रम से तस्व पर विचार किया गया है। इसमें दस स्थान और इक्कीस उद्देश्य हैं। 783 गय सूत्र और 169 पछ सूत्र है। विषय सामग्री के देखने से यह स्पष्ट प्राभास होता है कि इसकी रचना काफी बाद में हुई है। उदाहरण तौर पर सप्तनिन्हवों में दिगम्बर सम्प्रदाय का कोई उल्लेख नहीं। इसी तरह महावीर निर्वाण के लगभग 500 वर्ष बाद जिन गणों की उत्पति हुई उसका भी इसमें उल्लेख है । दस दशा ग्रंथों का तथा उपांगों का भी उल्लेख इसी प्रकार का है। इन सबके बावजूद यह ग्रंथ स्व-पर समय की अच्छी जानकारी प्रस्तुत करता है। 4. समवायांग ठाणांग की शैली पर ही समवायांग लिखा गया है। तास्वार्थवातिक और षट्सण्डागम के अनुसार इसमें सब पदार्थों के समवाय का विचार किया गया है। नन्दिसूत्र के अनुसार इसमें एक से लेकर सौ तक की संख्या वाले पदार्थों का प्रदर्भाव है। यह ग्रंथ भी उत्तरकालीन है । इसमें देवर्षिणि के संकलन के बाद भी कुछ 1. भिम ति तिदिना बंधणं परिजालिया। किमाह संपणे वीरो, किया बाई विनिम-18-19.. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 भगोया है । नन्दिसूत्र, उत्तराध्ययन] मरदि के उल्लेख तथा प्रमों का विस्तृत परिमाण इसे उत्तरकालीन मंग सिद्ध करता है । प्राचीन और प्रधान दोनों तरह के विषयों का समावेस यहां हो गया है । 5. विवाह पति : वार्तिक और षट्खण्डागम के अनुसार इसमें साठ हजार प्रश्नों का बाकर समाधान किया गया है। समवायांग में महसंख्या 36000 दी गई है विषय की दृष्टि से विशाल होने के कारण इसे 'भगवती' भी कहा जाता है इसमे 101 अध्ययन 10 हजार उसनकाल, 10 हजार समुद्देशन काल, 36 हजार प्रश्न और उनके उत्तर 288000 पद मीर संस्थात प्रक्षर है। वर्तमान में इसके 33 शतक मौर 1925 उद्देशक उपलब्ध हैं । इसका परिमाण 15750 श्लोक प्रमाण है। इसमें भी परिवर्तन-परिवर्धन हुमा है यहां रायपसेलीय, जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति प्रादि जैसे उत्तरकालीन ग्रंथो से उद्धरण दिये गये हैं बीस के बाद के शतको को उत्तरकालीन माना जाता है । वनस्पति शास्त्र आदि की दृष्टि से भी यह ग्रंथ अधिक उपयोगी है । 6. गावाचम्मकाओ जय धवला में इसे 'गाहधम्मकहा 'मौर श्रभयदेव सूरि ने इसे 'ज्ञाता धर्म कथा' कहा है । श्वेताम्बर साहित्य में महावीर के वश का नाम ज्ञातृ निर्दिष्ट है जबकि दिमम्बर साहित्य में उन्हें 'नाथव शोय' बताया है । जो भी हो, इस ग्रन्थ में धर्म कथाएं प्रस्तुत की गई हैं चाहे वे महावीर की हों अथवा महावीर के लिए हो। इसमें दो भूत स्कन्ध हैं- प्रथम श्रुत स्कन्ध में 19 अध्ययन हैं और दूसरे त स्कन्ध मे 10 वर्ग है। दोनों श्रुतस्कन्धों के 21 उद्देशन काल हैं, 29 समुद्देशन काल है और 57,600 पद हैं। इसमें मेघकुमार, धन्नासार्थवाह, थावच्चापुत्र, सार्थवाह की पुत्रबधूमों, मल्ली भगवती, जिनपाल. तेतलीपुत्र प्रादि की कथाश्री का वर्णन है जिनके अध्ययन से जीवन के विविध पक्ष उद्घाटित किये गये हैं । सामाजिक इतिहास की दृष्टि से यह एक उपयोगी ग्रन्थ है । उपासक दशांग में दस श्रावकों का चरित्र वर्णन है - मानन्द, कामदेव, बुलपिता, सुरादेव, चुल्लशतक, कुण्डकोलिक, सकडालपुत्र, महाशतक, नंदिनीपिता, और सालर्तियापिता । प्रन्तकदशा सूत्र में नीम, मातंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, मलीक, प्रादि दस मन्तकृत केवलियों का वर्णन है । प्रश्न व्याकररणांग में प्राचीन रूप और प्रर्वाचीन रूप दोनों सुरक्षित हैं। विपाकत के दश प्रकरणों में प्रायुर्वेद, इतिहास, गोन, कला आदि सामग्री को एकत्रित किया गया है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 23 दृष्टिवाद बारहवां अंग है । यह एक विणास कायिक ग्रन्थ था जो लुप्त हो गया है । तत्वाचं बार्तिक और मन्दिसूत्र के अनुसार इसके पांच मेव हैं- परिका, सूत्र, अनुयोग, पूर्वगत और चूलिका । पूर्वो के चौवह क्षेत्र हैं जिनका पीछे करका किया जा चुका है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार पूर्वी का देवज्ञान भारत की प्रा. मौर परसेन से पुष्पदन्त व भूतकलि ने पाया जिन्होंने षट्सपागम की रमना की। पर श्वेताम्वर परम्परा में महाबीर के निर्वाण के एक हजार वर्ष बाद पूहो का पूर्णतः लोप मान लिया गया है। शेष प्रागम अंग बाह्य है जो स्थविर कृत हैं। अंग बाह्म के दो भेद हैप्रावश्यक और मावश्यक व्यतिरिक्त । मावश्यक 6 है-सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याश्यान । मावश्यक व्यतिरिक्त कालिक और उत्कालिक के भेद से दो है। उत्तराध्ययन, निशीथ प्रादि कालिक पन्तर्गत्र हैं और दशवकालिक, प्रज्ञापना भादि उत्कालिक मे पाते हैं । श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संप्रदाय उपलब्ध भागमों में कुछ नियुक्तियों को बोड़ कर 45 अथवा 84 पागम मानता है। 45 मागमों की सूची इस प्रकार हैअंग 11- प्राचार, सूत्रकृत. स्थान, समवाय, व्याश्याप्रज्ञप्ति (भगवती), ज्ञातृ धर्मकया, उपासक दशा, पन्तकृत, दशा, अनुतरोपपादिक दशा, प्रश्न व्याकरण और विपाक । उपांग 12- औषपातिक, राजप्रश्नीय, जीवाभिमम, प्रज्ञापमा, अलीप प्राप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिया, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुपचूमिका वृष्णिदशा। मावश्यक, दशवकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी, अनुमोमबार, पिण्डनियुक्ति, प्रोधनियुक्ति छेद सूत्र 6-- निशीथ, महानिशीथ, वृहत्कल्प, व्यवहार दशा, पतस्मात्य, पचकल्प प्रकीर्णक 10- पातुर प्रत्याख्यान, भक्तपरिशा, तन्दुल वैचारिक, चन्द्रवेध्यक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान, चतुःशरस, वीरस्तन, संस्तारक 84 आगमों की संख्या पूर्वोक्त 45 मागमों के अतिरिक्त निम्न प्रकार है 46. कल्पसूत्र (पयुषण कल्प, जिनभरित, स्थविरावलि, समाचारी), 47. यतिजीत कल्प (सोमप्रभसूरि), 48. श्रद्धाजीत कल्प (धर्म घोष सूरि), 49. पाक्षिक सूत्र, 50. क्षमापना सूत्र, 51. बंदिस्तु, 51. ऋषिभाषित, 5. जीवकल्प, 54. गछाचार. 55. मरण समाधि, 56. सिद्धप्रामृत, 57. 'तीयोगार, 58. माराधना मूलसूत्र 6 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाका, 39. पसायर प्राप्ति, 60. ज्योतिष करण्यक, 61. पंग विद्या, 62. विधि प्र क,63. पिन्ट विशुद्धि, 64.सारापति, 65. पर्वतारापना, 66. पीवरिभक्ति 67. जयप्रकरण. 18. योनिप्राभूत, 69. मगलिया, 70. बग्गचूलिया, 71. एख धरल, 72. बम्पयन्ना, 73. पावश्यक नियुक्ति, 74. दशकालिक नियुक्ति, 73. रामवन निकुंक्ति, 76. भाचारांग नियुक्ति, 77, सूत्रकृताय नियुक्ति, 78. सूर्य प्राप्ति, 79. वहस्कल्प नियुक्ति, 80. व्यवहार, 81. दमा अत स्कन्ध नियुक्ति, 82. अषिभाषित नियुक्ति 83. संसक्त, नियुक्ति, 84. विशेषावश्यक स्थानकवासी, और तेरा पन्यप्रादय के अनुसार मामम 32 है-- जन-11, उपांग 12 मूल सूत्र 4- दसवै कालिक, उत्तराध्यान, मनुयोग द्वार, नंदी, खेव सून 4- निधीय, व्यवहार, पहस्कल्प, दशा श्रत स्कन्ध, मावश्यक सूत्र 1 इन पापों पर प्राचार्यों ने नियुक्ति, भाष्य चूरिण, टीका, विवरण, वृत्ति, पपिका पादिरूप में विशाल प्राकृत-ससत साहित्य लिखा। भद्रबाह इन प्राचार्यों में प्रमुखतम प्राचार्य रहे है। उन्होने दस ग्रन्पो पर पाबद्ध नियुक्तिया लिखी-- मावस्यक, दश-कालिक, उत्तराध्ययन, भाचारांग, सूत्रकृतांग, दशाश्रत स्कन्ध, बहकल्प, म्यवहार, सूर्य प्राप्ति और ऋषि भाषित। इनकी रचना निक्षेप पद्धति में की गई है। भावश्यक, दावे कालिक, उत्तराभ्ययन, वृहत्कल्प, पंचकल्प, व्यवहार, निशीष, जीतकल्प, मोषनियुक्ति पौर पिण नियुक्ति पर प्राकृत पय बद्ध भाष्य मिलते है। इनमें प्राचार्य जिनभद्र (वि.स. 650-660) का विशेषावश्यक भाष्य विशेष उल्लेखनीय है। सघवासमणि का दहस्कल्प लघुभाष्य भी इसी प्रकार दार्शनिक मौर साहित्यक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। पूणि साहित्य पच मे न होकर प्राकृत-सस्कृत मिश्रित गद्य में है। रिणकारों में जिन दास गणि महत्तर और सिरसेन सूरि प्रमुख हैं। टीकामों का कथाभाग अधिकांशतः प्राकृत में है। हरि भद्रसूरि, शीलांकाचार्य और शांतिसूरि इन टीका कारों में पप्रमण्य है। यह साहित्य पर्ष मागधी प्राकृत में है जिसे श्वेताम्बर संप्रदाय स्वीकार करता है पोर दिसम्बर सप्रदाय लुप्त मानता है। पीछे हम दृष्टिबाद के संदर्भ में लिख चुके है । श्वेताम्बर संप्रदाय उसे लुप्त मामता है जबकि दिसम्बर संप्रदाय उसके पुष भाग को स्वीकार करता है । उसका पदामागम इसी दृष्टिबाप के अन्तर्गत प्रयापणी मामक द्वितीय पूर्व के चयनलब्धि नामक पांचवे अधिकार के चतुर्व पाहर (प्रान्त) कर्म प्रकृति पर भाषारित है। इस Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 25. लिए इसे कर्मप्रामुख भी कहा जाता है। इसके प्रारम्भिक भाग सत्प्ररूपणा fear प्राचार्य पुष्पदन्त है और शेष भाग की रचना बलि ने की है। समय महावीर निर्धारण के लगभग 600-700 वर्ष बाद माना जाता है । इस पर बीरसेव (सं. 873) की 72 हजार श्लोक प्रमार धवला टीका उपलब्ध है । दृष्टिबाद के ही ज्ञान प्रवाद नामक पाचवें पूर्व की दसवों वस्तु के पैज दोस नामक तृतीय प्राभूत से 'कसाय पाहुड़' की उत्पत्ति हुई जिसकी रचना गुसचर (वीर निर्वाण के 685 वर्ष बाद) ने की। इस पर वीरसेन (सन् 874) 20 हजार श्लोक प्रमाण जो जयधवला टीका लिखी उसे अधूरी रही। जिनसेन मे सं. 894 में समाप्त किया 40 हजार श्लोक प्रमाण और लिखकर इन ग्रन्थों के घाधार पर ही नेमिचन्द सिद्धांत चक्रवर्ती ने वि. सं. की 11 वी शती में गोमट्सार व लम्बिसार की रचना की । पच सग्रह खबगसेठी भादि ग्रन्थ भी इसी श्र ेणी में माते हैं । कर्म साहित्य के ये अन्य शौरसेनी प्राकृत मे हैं। इनके अतिरिक्त कुछ और सिद्धांत ग्रन्थ है जिन्हें भागम ग्रन्थो के रूप में मान्यता मिली है। इन प्रत्थों में प्रमुख है - प्राचार्य कुन्दकुन्द (प्रथमशती) के पवयसार, समयसार, नियमसार, पचत्थिकाय संगहसुत्त, दसरण पाहुड़, चारित पाहुड़, सुतपाहुड़, बोधपाहुड़, भावपाहू, आदि बट्टर (उरी शनी) का मूलाचार, शिवायं (3 री शती) की भगवइ प्राराहला, वसुनन्दी का उवासयाञ्भयरण । 1 इनके अतिरिक्त और भी विशाल प्राकृत साहित्य है । माचार्य सिद्धसेन (5-6 वीं शती) का सम्म सुत्त, नेमिचन्द सूरि का पवयण सायद्वार, धर्मदासगणी (8 वीं शती) की उवएस माला, जिनरत्न सूरि का विवेग विलास हरिभद्र सूरि का पंचवत्थुग, वीरभद्व की श्राराहणापडाया, कुमारकार्तिकेय का वारसानुवेक्ला प्राथि कुछ ऐसे प्राकृत ग्रन्थ हैं जिनसे जैन सिद्धात औौर माचार पर विशेष प्रकाश पड़ता है। सठ शलाका महापुरुषो पर भी जैनचार्यों ने प्राकृत साहित्य लिखा है । विमलसूरि (वि. स. 530) का पउमचरिय, शीलाचार्य का असप्पन्न महापुरिसचरिय नेमिचद सूरि का महावीर चरिय, श्रीचन्दसूरि का सरांत कुमार चरिय, संवदासगण व धर्मदास मरिका वसुदवहिण्डी उल्लेखनीय है इन सभी के आधार पर कथा साहित्य की भी रचना हुई है । धर्मदासगरि का उपदेश माला प्रकरण, जयसिंह सूरि का धर्मोपदेसमाला विवरण. देवेन्द्रगरण का प्राक्खारणयमणि कोस प्रादि महत्वपूर्ण कथाकोश ग्रन्थ हैं । इसी तरह ज्योतिष, गणित, व्याकरण, कोश प्रादि विषाओं में भी प्राकृत साहित्य के अनुपम ग्रन्थ मिलते हैं । प्राकृत साहित्य के साथ ही हम प्रपत्र स साहित्य पर भी विचार कर सकते हैं । प्राकृत का ही विकसित रूप अपभ्रंश है। इसका साहित्य लगभग 7 वीं बसी से 16 वीं तक उपलब्ध होता है। इस बीच प्रनेक महाकाव्य और सण्डकाव्य Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बि गये। ये काम्य प्रायः संस्कृत शैली का अनुकरण करते दिखाई देते हैं । महाकषि स्वयंम (लयमग 8वीं पासी) के पउमरिउ, रिट्ठणेमिचरित, पुष्पदंत का महापुराण (ई.965), धनपाल का भविसपत्त कहा अवल, (14वीं शती) का हरिवंशपुराण, पीरकवि का जदूसामिवरिउ, नयनंदि का सुदंसरणचरिउ, श्रीपर के भविसयत्त परिठ, पासणाहपरिउ, सुकुमालचरिउ, यशः-कीति का चंदप्पह चरिउ, योगीन्द्र के परमप्पयासु व योगसार, महर्षद का दोहापाहुड, देवसेन का सावयधम्म दोहा मादि ऐसे अन्य है जो काव्यात्मकता और प्राध्यात्मिकता को समेटे हुए हैं। इस पर हम अपनी मन्यतम पुस्तक 'मध्यकालीन हिन्दी जैन साहित्य में रहस्यभावना' में विधार 2. संस्कृत साहित्य संस्कृत की लोकप्रियता मोर उपयोगिता को देखकर जैनाचार्यों ने भी उसे अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया। सस्कृत का सर्वप्रथम उपयोग करने वाले जनाचार्य उमास्वाति रहे हैं जिन्होने तत्वार्थ सूत्र की रचनाकर भागामी प्राचार्यों का मार्ग प्रशस्त किया । वे सिद्धान्त के उद्घट विद्वान थे । उनका अनुकरण कर उनके ही ग्रन्थ पर तस्वार्थवातिक, सर्वार्थ सिदि, तत्वार्थ श्लोक वार्तिक आदि जैसे वृहत्काय ग्रन्थ लिखे गये । हरिभद्रसूरि, अमृतचन्द्र, जयसेन, प्राशाधर, सिद्धसेन सूरि, माघनन्दी, जयशेखर, अमितगति मादि प्राचार्यों ने विपुल साहित्य का निर्माण किया। म्याप के क्षेत्र में समन्तभद्र (2-3 री शती) की माप्तमीमासा, स्वयमूस्तोत्र पौर युक्त्यनुशासन ग्रन्थ मानदण्ड रहे है । प्राचार्य अकलक, विद्यानन्द और वसुनन्दि ने इन प्रथो पर टीकाये लिखी है। इनके अतिरिक्त सिद्धसेन का न्यायावतार, हरिपारि के मास्ववार्ता समुच्चय, षड्दर्शन समुच्चय और अनेकान्त जयपताका, अकलंक के न्याय विनिश्चय, सिद्धि विनिश्चय प्रादि तथा प्रभाचन्द्र मादि के ग्रन्थ जन न्याय के प्रमुख ग्रन्थ है। इनमे प्रत्यक्ष और परोक्ष की परिभाषायें सुस्थिर हुई है। यशोविजय (18 वी शती) ने नव्यन्याय के क्षेत्र को प्रशस्त किया है। माचार के क्षेत्र में भी उमास्वामी आद्य प्राचार्य रहे है। उनके बाद समन्तभद्र का रत्नकरण्ड श्रावकाचार, सोमदेव का उपासकाध्ययन, माशाधर का सागर धर्मामृत, सोमप्रभ सूरि का सिन्दूर प्रकरण उल्लेखनीय है । मागम साहित्य पर टीकायें लिखने वालो मे जिनभद्र (7 वी शनी), हरिभद्र (8 वी शती), मभयदेव (12 वीं शती), मलयगिरी (12 वीं शती, हेमचन्द्र (12 वीं शती) प्रमुख हैं। म्तोत्र परम्परा भी लम्बी है। समन्तभद्र के देवागम स्तोत्र और स्वयंभू स्तोत्र से इस परम्परा का प्रारम्भ होता है । सिबसेन की वत्तीसियां, मकलंक का मकसक Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्तोत्र, पुररामद का पात्मानुशासन, मानतुंग का भक्तामर स्तोत्र, प्राचापर का सहस्रनाम स्तोत्र मादि स्तोत्र परक साहित्य मे उसका अनुकरण किया। इसी प्रकार पौराणिक मौर ऐतिहासिक काम्य साहित्य में रविषेण का पद्मपुराण (वि. सं. 734), जिनसेन का हरिवशपुराण (शक सं 705), मादिपुराण, गुणभद्र का उत्तरपुराण (सक सं. 776), हेमचन्द्र का त्रिषष्टिशलाकापुरुष परित (वि. स. 1228), पादि ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका सांस्कृतिक और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत अधिक महत्व है। जैनाचार्यों ने कथासाहित्य का उपयोग माध्यात्मिक जिज्ञासामों के समाधान के लिए किया है। समूचा मागम साहित्य ऐसी कथामों से प्रापूर है जिनमें लौकिक कथानों को अपने उद्देश्य के अनुसार परिवर्तित कर दिया गया है। हरिषेण का बाद कथाकोश (वि. सं 955), प्रभाचन्द्र तथा नेमिचन्द्र के कथाकोश, सकलकीति मादि के वृतकथाकोश इस सदर्भ मे विशेष उल्लेखनीय है। व्यक्ति विशेष को लेकर भी सैकड़ो ग्रन्थ लिखे गये हैं जिनका समीक्षात्मक अध्ययन करना पभी शेष है। इन सभी ग्रन्थों की पृष्ठभूमि मे जैन सिद्धान्त की व्याख्या-प्रस्तुति रही है। ___इसके अतिरिक्त व्याकरण, कोश, मलकार, छन्द, काम्य, ज्योतिष, कोथ, मायुर्वेद, नाटक प्रादि विधामो मे भी जैनाचार्यो ने सस्कृत साहित्य का सुचन किया है। अभी हमने जैन साहित्य की विविध विधामो को देखा । उनमे अधिकांश रचनाये उच्च कोटि की है । काव्य सौदर्य की दृष्टि से तो एक-एक च बेजोड़ दिखाई देता है । पाश्र्वाभ्युदय, धर्मशर्माम्युदय, पचितामणि, विलकमंबरी प्राधि काव्य कालिदास, माघ, भारवि तथा श्रीहर्ष मादि बसे महाकवियों के ग्रंथों की तुलना मे किसी तरह कम नही। चम्पू साहित्य मे यशस्तिलकचम्पू की कोटि का कोई अथ है ही नहीं । स्तोत्र साहित्य मे भक्तामर, विषापहार, ऐकीभाव पावि स्तोत्र भक्तिरस के कलश है। प्राकृत साहित्य तो अधिकांशतः जैनियो द्वारा ही लिखा गया है। यह सभी साहित्य प्राचीन भारतीय भूगोल और संस्कृति की जानकारी के लिए एक अनुपम और भजस मोत है । लालित्य के भतिरिक्त इसमें राष्ट्रीयता कूट-कूट कर भरी हुई है समन्वयवारिता के लिए तो जैन कवि अग्रदूत कहे जा सकते हैं। मनेकांत बाद की प्रतिष्ठा मोर उस पर सिखा गया साहित्य इसका स्पष्ट उक्षहरण है। पाचार क्षेत्र में हिंसा और विचार क्षेत्र मे अनेकांत की प्रस्थापना द्वारा मानव का जो नैतिक बौद्धिक उत्थान करने का प्रयल जैन तीर्थंकर और उनके शिष्योंप्रशिष्यों ने किया वह अविस्मरणीय रहेगा। समाजवाद को सही रूप में लाने का प्रयत्न मपरिग्रहबाद द्वारा किया गया है। इस प्रकार जैन धर्म मोर साहित्य की मूल भावना सर्वोदयमयी रही है Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 सर्वान्तवत् तद्गुणमुख्य कल्पम् सर्वान्तशून्यं च जियोनपैक्षम् । सामन्तकरं निरभ्वं सर्वोदयं तीर्थमिदं तवैव ॥ पाच जैन साहित्य पर आक्षेप किया जाता है कि वह साम्प्रदायिक साहित्य है । इस मीट में उसका मूल्यांकन करने कोई तैयार नहीं होता, यह बड़े दुःख व माश्वयं की बात है । सच तो यह है कि इस साम्प्रदायिक दृष्टि के व्यामोह में विद्वानों मौर राजनीतिकों ने जैन साहित्य को फूटी भांखों से भी नही देखा । यदि वे जैन साहित्य की साम्प्रदायिक साहित्य कहना चाहते हैं तो वेद से लेकर कालिदास, भारवि, श्रीहर्ष, शंकराचार्य मादि महाकवियों के साहित्य को असाम्प्रदायिक की श्रेणी में कैसे खड़ा किया जा सकता है ? प्राश्चर्य है, भारत के किसी भी विश्व विद्यालय की किसी भी प्राक्य भारतीय विद्या की परीक्षा में जैन साहित्य को कोई विशेष स्थान प्राप्त नहीं । इसका फल यह हुआ है कि विद्वान और छात्रगरण उस मोर दृष्टिपात ही नही करते । हर व्यक्ति किसी धर्म और सम्प्रदाय विशेष से सम्बन्धित होता ही है । तब निश्चित ही उसकी विचारधारा का प्रतिबिम्व उसके साहित्य पर पड़ेगा। इसलिए साम्प्रदायिक मौर साम्प्रदायिक जैसे शब्दों के बीच की भेदक रेखा स्पष्ट होनी चाहिए अन्यथा प्राचीन भारतीय सस्कृति के अनेक बहुमूल्य तत्व न जाने कब तक प्रच्छन्न रहेंगे । साहित्य के क्षेत्र मे विचारक की दृष्टि विशुद्ध और निष्पक्ष होनी चाहिए तभी उसका सही मूल्यांकन सम्भव है । जैनाचायों मे प्राकृत को विचारों की प्रभिव्यक्ति का माध्यम बनाया । बादमे लगभग सभी प्रादेशिक भाषाओं को भी उसी रूप में अपनाया गया इन सभी भाषाथों का प्राय साहित्य प्रायः जैनाचायों से प्रारम्भ होता है । प्राच्य भारतीय साहित्य में जन वाङ भय का नाम उस दिन स्वर्णाक्षरों में लिखा जायेगा जिस दिन उसका सम्पूर्ण साहित्य प्रकाश में था जायेगा । साहित्य की ऐसी कोई विधा नहीं जिसमें जैनाचार्यों ने कलम न चलायी हो । प्राचीन भारतीय भाषाओं मे ऐसी कोई भाषा भी नही, जिसे उन्होंने न अपनाया हो । लोकभाषा मौर साहित्यिक भाषा दोनो पर उन्होने समान अधिकार पाया और प्रागम, काव्य, न्याय व्याकरण, छन्द, कोष, अलंकार, आयुर्वेद, ज्योतिष, राजनीति, fures प्रादि सभी विषयों पर संस्कृत प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, मराठी, गुजराती, बगला, उड़िया श्रादि भाषाओं तथा राजस्थानी, बुंदेलखंडी, ब्रज आदि जैसी बोलियों में भरपूर साहित्य सर्जना की। इसके साथ are भाषाम्रों-तमिल, तेलगू, कन्नड़ और मलयालम में भी उसी कोटि का साहित्यिक कार्य जैनाचायों ने किया । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य भाषा साहित्य प्रवृत्ति तमिस भाषा के पांच माध महाकाय माने भासे है-चिप्पदिकारम, बसयापनि, चिन्तामरिण, कुण्डलकेशि मोर मरिण मेखले। इनमें प्रथम सीन निविवाद रूप से गैस महाकाव्य है । इनके अतिरिक्त पांच लघुकाम्य भी नामों की कृतियाँ है-नीलकेशि चूड़ामरिण, यशोषरकाक्यिम, नागकुमार कावियम्, तथा उदयपानक थे। कुरल काव्य को तो कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानी जाती है। अन्य तमिल काव्य विधायें भी जैनाचार्यों ने समृद्ध की हैं। कन्नड़ साहित्य तो जैनों से प्रोतप्रोत रहा है कुन्दकुन्द, उमास्वामी, समन्तभद्र, पूज्यवाद, अकलंक, विद्यानन्दि, सोमदेव जैसे प्रधान जैनाचार्य कर्नाटक की ही देन है । महाकवि पम्प, पोन्न, रत्न, चामुण्डराय, मागचन्द्र, सोमनाथ, मुणवर्मा, महाबल प्रादि जैन धर्म के ही अनुयायी थे जिन्होंने कन्नड साहित्य की विषिष विधानों मे साहित्य सृजन किया है तत्वतः कन्नड़ का पचहत्तर प्रतिशत साहित्य गैन साहित्य है जो कर्नाटक में जैन धर्म की लोकप्रियता का उदाहरण माना जा सकता है। इसी तरह मराठी साहित्य के भी प्राध लेखक गैन रहे हैं। पर प्रषिक मराठी जैन साहित्य 17 वी शती से प्रारम्भ होता है। गुजरात तो प्रारम्भ से जैनधर्म का प्राश्रयदाता रहा है। उसका साहित्य 12 वी शती से प्रारम्भ होता है जिसके प्रवर्तक जैनाचार्य ही थे। रासो, फागु, बारहमासा, विवाहलु प्रादि काव्य प्रवृत्तियों के जन्मदाता जैन ही थे। शालिमा सूरि, (1185 ई.) का भरतेश्वर बाहुबलि रास प्रथम प्राप्य मुजराती कृति है। विनयप्रम, राजशेखर सूरि जैसे प्रमुख गुजराती कवि उल्लेखनीय हैं। हिन्दी का भी प्राविकाल जैनाचार्यों से ही प्रारम्भ होता है। जिनदत सूरि का चचरी, उपदेश आसिग का जीवदयारास, जिनपदम की सिरिथूलिभह फानुपादि ऐसी ही जैन कृतियां है। मध्यकाल मे सहस्राधिक प्रबन्ध काम्य रूपक काव्य, मध्यात्म और भक्ति मूलक काव्य, गीति काव्य और प्रकीर्णक काव्य लिखे गये हैं। ब्रह्मणिनदास बनारसीदास, धानतराय' कुशल लाभ, रायमल्ल, जयसागर, भैयाममवतीदास मादि जैसे शीर्षस्थ कहाकवि मध्यकाल की देन है। इन सभी पर हम अपने "हिन्दी जैन काव्य प्रवृत्ति" तथा 'मध्यकालीन हिन्दी म कान्य में रहस्यभावना' प्रयों में विचार कर चुके हैं। यहां कविवर बम पयसागर तथा पामतराप पर विशेष ध्यान मास्ट Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविवर धानतराय थानतराय हिन्दी जैन साहित्य के मूर्धन्य कवि भावे नाम हैं। वे पच्यात्मरसिक पौर परमतत्व के उपासक थे । उनका जन्म वि० सं० 1733 में भागरा में हमा पा। कवि के प्रमुख ग्रन्थो में धर्मविलास स० 1780) प्रौर प्राममविलास उल्लेखनीय हैं । धर्मविलास मे कवि की लगभग समूची रचनामो का संकलन किया गया है । इसमें 333 पद, पूजायें तथा अन्य विषयों से सम्बद्ध रचनायें मिलती है। प्रामम बिलास का सकलन कवि की मृत्यु के बाद प० जगतराय ने स० 1784 में किया। इसमे 46 रचनाये मिलती हैं। इसके अनुसार धानतराय का निधन काल सं० 1783 कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी है। धर्मविलास में कवि ने स० 1780 तक की जीवन की घटनाओं का सक्षिप्त प्राकलन किया है । इसे हम उनका पात्मचरित् कह सकते हैं जो बनारसीदास के अधकथानक का अनुकरण करता प्रतीत होता है। इनके अतिरिक्त कवि की कुछ फुटकर रचनायें और पद भी उपलब्ध होते हैं । 333 पदों के अतिरिक्त लगभग 200 पद और होंगे। ये पद जयपुर, दिल्ली प्रादि स्थानों के शास्त्र भण्डारो मे सुरक्षित हैं। हिन्दी सन्त मध्यात्म-साधना को सजोये हुए हैं। वे सहज-साधना द्वारा परमात्मपद की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहे हैं। उनके माहित्य में भक्ति, स्वसंवेद्यज्ञान भौर मकर्म का तथा सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् का सुन्दर ममन्वय मिलता है जो प्रात्मचिन्तन से स्फुटित हुआ है। इस पथ का पथिक सत, संसार की क्षणभंगुरता, माया-मोह, बाह्याडम्बर की निरर्थकता, पुस्तकीय ज्ञान की व्यर्थता मन की एकाग्रता, चित्त शुद्धि, स्वसवेद्य ज्ञान पर जोर, सद्गुरु-सत्सग की महिमा प्रपत्ति भक्ति, सहज साधना प्रादि विशेषनामों से मंडित विचारधारामो में डुबकियां लगाना रहता है। इन सभी विषयों पर वह गहन चिंतन करता हुमा परम साध्य की प्राप्ति मे जुट जाता है। वि बानतराय की जीवन-साधना इन्हीं विशेषताओं को प्राप्त करने में लगी ही। और उन्होंने जो कुछ भी लिखा, वह एक मोर उनका भक्ति प्रवाह है तो दूसरी योर संत-साधना की प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति है। यही कारण है कि उनके साहित्य मे भक्ति प्रौर रहस्य भावना का सुन्दर समन्वय हुआ है। यहाँ हम कवि की पन्ही प्रवृत्तियों का संक्षिप्त विश्लेषण कर रहे हैं। साधक कवि सांसारिक विषय-वासना और उसकी प्रसारता एवं क्षणभंगुरखा पर विविध प्रकार से चिन्तन करता है । चिन्तन करते ससय वह सहजता पूर्वक भाबुक हो जाता है । उस अवस्था में बह अपने को कभी दोष देता है तो कभी तीर्थकरों को बीच में लाता है । कभी रागादिक पदार्थों की ओर निहारता है तो कभी तीर्थंकरों से प्रार्थना, विनती मोर उलाहने की बात करता है। कभी पश्चात्ताप करता हुमा दिखाई देता है तो कभी सत्संगति के लिए प्रयत्नशील दिखता है । पानतराय को तो यह सारा संसार बिल्कुल मिथ्या दिखाई देता है । वे अनुभव Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं कि जिस देह को हमने अपना माना और जिसे हम सभी प्रकार के रसपान से पोषते रहे, वह कभी हमारे साथ नहीं चलता, तब ग्रन्य पदार्थों की बात क्या सोचें ? सुख के मूल स्वरूप को तो देखा समझा ही नहीं । व्यर्थ में मोह करता है । uttarea को पाये बिना असत्य के माध्यम से जीव प्रम्पार्जन करता, भवत्व सरचना करता, यमराज से भयभीत होता मैं और मेरा की रट लगाता संसार में मुमता फिरता है । इसलिए संसार की विनाशशीलता को देखते हुए वे संसारी जीवों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं 1. 2. कबीर" दादू नानक श्रादि हिन्दी सन्तों ने भी संसार की प्रसारता और क्षणभंगुरता का द्यानतराय से मिलता जुलता चित्ररण किया है। सगुण भक्त afe भी संसार चिन्तन में पीछे नहीं रहे । उन्होंने भी निर्गुण सन्तों का अनुकरण किया है । 3. मिथ्या यह संसार है रे, झूठा यह संसार है रे ॥ जो देही वह रस सौं पोषे, सो नहि संग चले रे, श्रौरन को तोंहि कोन भरोसो, नाहक मोह करे रे ॥ सुख की बातें बूझे नाहीं, दुख को सुख लेखें रे । मूढी मांही माता डोले, साधौ नाल डरं रे ॥ झूठ कमाता झूठी खाता, झूठी जाप सच्चा सांई सूझे नाहीं, क्यों कर जम सौं डरता फूला फिरता करता द्यानत स्याना सोई जाना, जो जन ध्यान जपे रे । पार लगे रे ॥ संसारी जीव मिथ्यात्व के कारण ही कर्मों से बंधा रहता है वह माया फंदे मे फंसकर जन्म-मरण की प्रक्रिया लम्बी करता चला जाता है । बानसराय ऐसे मिथ्यात्व की स्थिति देखकर पूछ उठते हैं कि हे मात्मन् मह मिध्यात्व तुमने 4. 5. मैं मैं मेरे । घरे रं ।। * हिन्दी पद संग्रह 156 पृ. 130 ऐसा संसार है जैसा सेमरफूल । दस दिन के व्यवहार में झूठे रे मन सूल | कबीर साखी संग्रह, पृ. 61 यह ससार सेंवल के फूल ज्यों तापर तू जिनि फूर्स || वायुयानी भाग-2 पृ. 14 wre घड़ी को नाहि राखत घर ते देत निकार | संतवारणी संग्रह, भाग - 2 पृ. 46 झूठा सुपना यह संसार । दोसत है विनसत नहीं हौ बार || हिन्दी पव संग्रह, पृ. 133 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहा से प्राप्त किया। सारा संसार स्वार्थ की पोर मिहारता है, पर तुम्हें स्वर कल्याण स्प स्वार्थ नहीं रुचता । इस अपवित्र अचेतन देह में तुब को मोहासक्त हो गये । अपना परम पतीन्द्रिय शाश्वत सुख छोड़कर पंचेन्द्रियों की विषयवासना में तन्मय हो रहे हो। तुम्हारा चैतन्य नाम जड क्यों हो गया और तुमने पन ते ज्ञानादिक गुणों से पुक्त अपना नाम क्यों भुला दिया १ त्रिलोक का स्वतन्त्र राज्य छोड़कर इस परतन्त्र अवस्था को स्वीकारते हुए तुम्हें लज्जा नहीं माती? मिथ्यात्व को दूर करने के बाद ही तुम कर्ममल से मुक्त हो सकोगे और परमात्मा कहला सकोगे। तभी तुम अनन्त सुख को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त कर सकोगे। . "जीव ! तू मूढपना कित पायो । सब जग स्वारथ को चाहता है, स्वारथ तोहि न भायो। अशुचि समेत दृष्टि तन मांहो, कहा ज्ञान विरमायो । परम प्रतिन्द्री निज सुख हरि के, विषय रोग लपटामो ।। मिथ्यात्व को ही साधकों ने मोह-माया के रूप मे चित्रित किया है । सगुण निगुण कवियों ने भी इसको इसी रूप में माना है। भूधरदास ने इसी को 'सुनि ठगनी माया त सब जग ठग खाया' कबीर ने इसी माया को छाया के समान बताया जो प्रयत्न करने पर भी ग्रहण नहीं की जा सकती, फिर भी जीव उसके पीछे दौड़ता रहता है। साधक कवि नरभव की दुर्लभता समझकर मिथ्यात्व को दूर करने का प्रयत्न करता करता है। जैन धर्म में मनुष्य जन्म अत्यन्त दुर्लभ माना गया है । इसीलिए हर प्रकार से इस जन्म को सार्थक बनाने का प्रयत्न किया जाता है। खानतराय ने "नाहिं ऐसो जनम बारम्बार" कहकर यही बात कही है। उनके अनुसार यदि कोई नरभव को सफल नहीं बनाता, तो "अन्ध हाथ बटेर पाई, तमस ताहि मंवार" वाली कहावत उसके साथ चरितार्थ हो जायेगी। इसलिए उन्हें कहना पड़ा 'जानत क्यो नहिं हे नर मातमझानी' । प्रात्म चेतन को 1. अध्यात्म पदायमी, पृ. 360 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 124 3. संत वाणी संग्रह, भाग-, पृ. 57 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 116 5, वही, पृ. 1.15 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हुए पुनः यह कह उठता है कि संसारका तू है- 'तू अविनाशी प्रामा, विनासीय संचार H परन्तु गया-मोह के चक्कर में पड़कर तू स्वयं की शक्ति को मूल नया है तेरी हर प्रवासास के साथ सो-सोहं के भाव उठते हैं। यही तीनों मो का सार है। तुम्हें तो सोहं छोड़कर प्रजपा जाप में लग जाना चाहिए ।" ला को अविनाशी पर विशुद्ध बताकर उसे धनन्तचतुष्टय का धनी बताया इसी अवस्था को बरमात्मा कहा गया है । की संत कबीर ने भी जीव धीर ब्रह्म को पृथक नहीं माना। विवा के कारल ही वह अपने भाप को ब्रह्म से पृथक् मानता है । उस पविचा पर माया के दूर होने पर जीव और ब्रह्म प्रत हो जाते हैं-"सब पटि अन्तरि तु ही व्यापक सरूपै सोई ।" द्यानतराय के समान ही कबीर ने उसे भारम ज्ञान की प्राप्ति कराने वाला माना है । आत्मचिन्तन करने के बाद कवि ने भेदविज्ञान की बात कही । मेदविज्ञव का तात्पर्य है स्व-पर का विवेक । सम्यक्वष्टि ही भेदविज्ञानी होता है । संसारसागर से पार होने के लिए वह एक प्रावश्यक तथ्य है । यानतराय का विवेक जाग्रत हो जाता है और प्रात्मानुभूति पूर्वक चिन्तन करते हुए कह उठते हैं कि म उन्हें चर्म चक्षुत्रों की भी मावश्यकता नहीं । अब तो मात्र मा की uie गुण शक्ति की मोर हमारा ध्यान है। सभी वैभाविक भाव नष्ट हो चुके हैं और आत्मानुभव करके संसार-दुःख से छूटे जा रहे हैं। "हम लामे मातम राम सौं । ॥ farrate पुद्गल की खाया, कौन रमै धन-धाम समता-सुल घट में परनाट्यो, कौन काज हैं काम सौं दुबिधा भाव तलांजलि दीनों, मेल भयो निज श्याम सौं । भेद ज्ञान करि निज-पर देख्यौ, कौन विलोके नाम सौं । * भेदविज्ञान पाने के लिए वीतरागी सद्गुरु की आवश्यकता होती है। हर धर्म में सद्गुरु का विशेष स्थान है । साधना में सदगुरु का वही स्थान है जो 2. धर्म बिलास, पृ. 165 2. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 105 3. वही, पृ. 89 4. 2224 अध्यात्म पदावसी, 47, प. 358 J Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 परिहन्त का है। जैन साधकों ने पंच परमेष्ठियों को सद्गुरु मानकर उसकी उपासना, भक्ति और स्तुति की है। जैन दर्शन मे सद्गुरु को प्राप्त मौर प्रवि संवादी माना है । यानतराम को गुरु के समान श्रीर दूसरा कोई दाता दिलाई नहीं देता । उनके अनुसार गुरु उस अन्धकार को नष्ट कर देता है जिसे सूर्य भी नष्ट नहीं कर पाता । मेघ के समान सभी पर समान भाव से निस्वार्थ होकर वह पाजल बरसाता है, नरक तिर्यत्व प्रादि गतियों से मुक्तकर जीवों को स्वर्गमोक्ष मे पहुंचाता है । अतः त्रिभुवन मे दीपक के समान प्रकाश करने वाला सुरु ही है । वह संसार संसार से पार लगाने वाला जहाज है। विशुद्ध मन से उनके पद-पंकज का स्मरण करना चाहिए । गुरु समान दाता नही कोई । आदि । 1 संत साहित्य मे भी कबीर, दादू, नानक, सुन्दर दास प्रादि ने सद्गुरु पौर सत्संग के महत्व को जैन कवियों की ही भांति शब्दों के कुछ हेर-फेर से स्वीकार किया है । यानतराय कबीर के समान उन्हे कृतकृत्य मानते हैं । जिन्हें सत्संगति प्राप्त हो गई है- " कर कर संगत, सगत रे भाई | 2 भेदविज्ञान की प्राप्ति के लिए सद्गुरु मार्गदर्शन करता है । उसकी प्राप्ति के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान प्रौर सम्यक्चारित्र का ममन्वित रूप-रत्न जय माना गया है । भेदविज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान कहा गया है । प्रन्तरंग मौर बहिरंग सभी प्रकार के परिग्रहों से दूर रहकर परिषद् सहते हुए तप करने से परम पद प्राप्त होता है । 3 साधक कवि द्यानतराय भात्मानुभव करने पर कहने लगता है "हम लागे प्रातमराम सौं । उसकी मात्मा में समता सुख प्रकट हो जाता है, दुविधाभाव नष्ट हो जाता है और भेद विज्ञान के द्वारा स्व-पर का विवेक जात हो जाता है इसलिए स्थानतराय कहने लगते हैं कि प्रातम अनुभव करना रे भाई । "8 कवि यहां श्रात्मानुभूति प्रधान हो जाता है और कह उठता है "मोह कम ऐसा दिन प्राय है" जब भेदविज्ञान हो जायेगा । संत साहित्य में भी स्वानुभूति को रतन पाया रे करम विचारा. नैना नैन 1. atta पद संग्रह, पृ. 10 2. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 137 3. 4. 5. 6. वही पृ. 318 महत्व दिया गया है कबीर ने "राम प्रगोचरी, भाप पखाने श्राप थाप 5 हिन्दी पद संग्रह, द्यानतराय, पृ० 109-141 हिन्दी पद संग्रह, द्यानतराय, पृ. 109-141 कबीर ग्रन्थावली, पृ. 241 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । से उबरों के माध्यम के अनुभव की मापकता को वष्ट किया है भी इसी प्रकार से “सो हम देल्या नैन भरि, सुम्बर बहन सन" रेल में मनुभव किया। - स्वानुभूति के संदर्भ में मन एकाग्र किया जाता है और इसके लिए बन नियमों का पालन करना मावस्यक है। योगों ही पमध्यान और दुस्लमान को प्राप्त कर पाता है। यही समभाव मोर समरसता की प्रति होती है। पानतराम ने इस पनुभूति को नगे का मुह माना है। इस सहर सालवा में अजपा जाप, नाम स्मरण को भी महत्व दिया गया है। मबहार नायपि से बाप करना अनुचित नहीं है, निश्चय नय की दृष्टि से उसे बाहर किया माना। तभी पानतराय ऐसे सुमरन को महत्व देते है जिससे ऐसौ सुमरन करिये रे भाई। पवन घंमै मन कितह न बाद।। परमेसुर सौं साचीं रहो। लोक रंचया भय तजि दी। यम मम नियम दोड़ विधि वारौ। प्रासन प्राणायाम समारी।। प्रत्याहार बारना की ध्यान समाधि महारस पीजै ॥ उसी प्रकार अनहद नाद के विषय में लिखते हैं अनहद सबद सदा सुन रे ॥ पाप ही जाने पौर न जाने, कान बिना सुनिये धनु रे । भमर गुंज सम होत निरम्बर, ला तर मति चितवन रे ।। इसीलिए पानतराय ने सोहं को तीन लोक का सार कहा है। बिन सापकों के स्वासोच्छवास के साथ सदैव ही "सोहं सोहं की पनि होती रहती है और जो मोहं के पर्व को समझाकर, पमपा आप की सामना करते है, बेड है 1. दादूदयाल की बानी, भाग-1 परपाको ग,97,933109 2. पानविलास, कलकत्ता हिन्दी पद संग्रह, पृ. 119 4: बही -110 119-20 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहं सोहं नित, सांस उसास ममार। ताको भरप विचारिये, तीन लोक में सार ||........... !' जसो तसो भार, पाप निह तजि सोहं । प्रजपा जाप संभार, सार सुख सोहं सोहं ॥1 मामन्दधन का भी यही मत है कि जो साधक पाशापों को मारकर अपने मन्तः करण में अजपा जाप को जपते हैं वे चेतनमूर्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं। कबीर मादि सतों ने भी सहज-साधना, शब्द सुरति और शब्द ब्रह्म की उपासना की। ध्यान के लिए प्रजपा जाप भौर नाम जप को भी स्वीकार किया है। सहज समाधि को ही सर्वोपरि स्वीकार किया है। साधक कवि को परमात्मपद पाने के लिए योग साधना का मार्ग जब दुर्गम प्रतीत होता है तो वह प्रपत्ति (भक्ति) का सहारा लेता है। रहस्य साधकों के लिए यह मार्ग मधिक सुगम है इसलिए सर्व प्रथम वह इसी मार्ग का प्रवलम्बन लेकर क्रमश: रहस्य भावना की चरम सीमा पर पहुंचता है। रहस्य भावना की भूमिका चार प्रमुख तत्वों से निर्मित होती है-मास्तिकता, प्रेम और भावना, गुरु की प्रधानता और सहज मागे । जैन साधकों की प्रास्तिकता पर सन्देह की आवश्यकता नहीं। उन्होंने तीर्थकरों के सगुण और निगुंग दोनों रूमों के प्रति अपनी अनन्य भक्ति भावना प्रदर्शित की है। धानतराय की भगवद् प्रेम भावना उन्हें प्रपत्त भक्त बनाकर प्रपत्ति के मार्ग को प्रशस्त करती है। प्रपत्ति का अर्थ है अनन्य शरणागत होने अथवा प्रात्मसर्पण करने की भावना। नवधाभक्ति का मूल उत्स भी प्रपस्ति है। भागवत पुराण में नवषाभक्ति के 9 लक्षण हैं-श्रवण, कीर्तन, स्मरण , पादसेवन (शरण), अर्चना, वंदना, दास्पभाव. सख्यभाव और भात्म निवेदन । कविवर बनारसीदास ने इनमे कुछ अन्तर किया है । पाचरात्र लक्ष्मी मंहिता में प्रपस्ति की षविधायें दी गई है 1. बर्मविलास, पृ. 65 2. मानन्दधन बहोत्तरी, पृ. 359 3. अनहद शब्द उठ झनकार, तहं प्रभु मैठे समरथ सार । कबीर अन्धाक्मी पृ. 301 4. संतो सहज समाधि भली । कबीर वाखी, पृ. 262 अवन, कीरतन, चितवन, सेवन वन्दन ध्यान । लघुसा समता एकता नौधा भक्ति प्रमान ।। नाटक समयसार, मोजदार, 8, 1.218 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पनुन संकल्प, प्रातिकूल्य का विसर्जन, संरमण, एतब विश्वास, मोतृत्व म में वरण, भात्म निक्षेप पौर कायनान" प्रति माग से प्रेरित होकर मक के मन में माराध्य के प्रति श्रद्धा और प्रेम भावना का पतिरेक होता है। बामवराम अपने मंगों की सार्थकता को तभी, स्वीकार करते हैं कि वे भाराभ्य को मोर के रहें रे जिय जनम लाहो लेह । परन से जिन भवन पहचे, दान में सर पेह। सरसोई जा में क्या है, कीर को बेह। जीभ सो बिन नाम गाये, सांच सौ करे नेह ॥ ; मांस जिमराण देखें और पांच ह। । श्रवन ते जिन वचन सुनि शुभ तप तपै सो देह ॥ कविवर थानतराय में प्रपत्ति की लगभग सभी विशेषतायें मिलती है। भक्त कवि ने अपने पाराध्य का गुण कीर्तन करके अपनी भक्ति प्रकट की है। वह माराध्य में मसीम गुरखों को देखता है पर उन्हें अभिव्यक्त करने में समर्थ होने के कारण कह उठता है प्रभु मैं किहि विषि थुति करौं तेरी। गणधर कहत पार नहिं पाये, कहा दुधि है मेरी ॥ शक्र जनम भरि सहस जीम परि तुम जस होत न पूरा । एक जीभ कैसे गुण गावे उसू कहे किमि सरा॥ पमर छत्र सिंहासन बरनों, ये मुस तुम ते न्यारे। तुम गुण कहन वचन बल नाहिं, नैन-सिनै किमि तारे कवि को पाश्र्वनाथ दुःखहर्ता और सुखकर्ता दिखाई देते है। उन्हें विघ्नविनाशक, निर्धनों के लिए द्रव्यदाता, पुत्रहीनों को पुनशता और हासको के निवारक बताते हैं। कवि की भक्ति से भरा पावनाय की महिमा काम इन्टव्य है दुखी दुःखहर्ता सुखी सुक्खकर्ता। सवा सेवकों को महानन्द भर्ता । भानुकूलस्य संकल्पः प्रातिकूलस्व वर्षवम् ।। रक्षिष्यतीति विश्वासो, गोप्तृत्व वरणं तया । मात्मनिपकाये पविषा गरमापतिः ।। पानसपद संग्रह, पृ.4, कलकत्ता बानत पर संग्रह. पृ.45 2. 3. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38 हरे यक्ष राक्षस भूतं पिशाचं । विष डोfeat far के भय भवाचं ॥ दरिद्रीन को द्रव्य के दान दाने ॥ मीन को तू मले पुत्र कीने ॥ महासंकटों से निकारं विधाता । सर्व संपदा सर्व को देहि दासा ॥12 नामस्मरण प्रपत्ति का एक अन्यतम भंग है जिसके माध्यम से भक्त अपने इष्ट के गुणों का अनुकरण करना चाहता है। थानतराय प्रभु के नामस्मरण के लिए मन को सचेत करते हैं जो ममजाल को नष्ट करने में कारण होता है 1. 2. 3. रे मन भुज भज दोनदयाल || जाके नाम लेत इक खिन मे, कर्ट कोटि मजाल || पार ब्रह्म परमेश्वर स्वामी, देखत होत निकाल || सुमरन करत परम सुख पावत, सेवत भार्ज काल || इन्द्र फणिन्द्र चक्रभर गावं, जाको नाम रसाल । जाके नाम ज्ञान प्रकासं, नाी मिध्याजाल । सोई नाम जपो नित बानत, छाडि विषै विकराल || 2 प्रभु का नामस्मरण भक्त तब तक करता रहता है, जब तक वह तन्मय नहीं हो जाता । जैनाचायों ने स्मरण और ध्यान को पर्यायवाची कहा है । स्मरण पहले तो रुक-रुक कर चलता है, फिर शनैः-शनैः एकांतता प्राती जाती है मौर बहू या का रूप धारण कर लेता हूँ । स्मरण में जितनी अधिक तल्लीनता बड़ी जायेगी वह उतना ही तप होता जायेगा । इससे सांसारिक विभूवियों की प्रति होती आवश्यक है किन्तु हिन्दी के छैन कवियों ने माध्यात्मिक सुख के लिए ही बल दिया है। विशेषरूप से ध्यानवाची स्मरण जैन कवियों की विशेषता है । यानतराम प्ररहन्तदेव का स्मरण करने के लिए प्रेरित करते हैं । ये स्थातिलाभ पूजादि छोड़कर प्रभु के निकट्तर पहुंचना चाहते हैं मरहंत सुमरि मन बावरे ॥ क्याति लाभ पूजा तजि भाई । अन्तर प्रभु लौ जाब रे 118 सहजनवाणी संग्रह, कलकत्ता से प्रकाशित हिन्दी पद संग्रह, पू. 125-26 वही, पृ. 139 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fe माराम्य का का करता है अधिक लीन हो जाता है। निज वर माये । पर घर ताप के साथ भक्ति के वश है और कह देते हैं कि प्राप संसार में भटक रहा हूँ । मिलता नहीं । और कुछ नहीं तो कम से कम राग द्वेष दीजिए दर्शन कर भक्तिवाद उनके समक्ष अपने पूर्वक क्रम जिससे उसका मन हल्का होकर मवि में और वे पश्वाचाप करते हुए हम तो कु नांब अनेक बराये' || पश्चादेते हुए कुछ मुखर हो उठते फिरत बहुत प्राराध्य दिन बीते उपालम्भ को स्वयं तो मुक्ति में जाकर बैठ गये पर मैं मम भी तुम्हारा नाम हमेशा में जपता हूँ तुम प्रभु कहियत दीन दवाल । प्रापन जाय मुकति में बैठे, हम षु वखत जग जान || तुमरी नाम जपं हम नीके, मनबच तीनों काल । तुम तो हमको कछु देत नहि, हमरो कौन हवाल || बुरे भले हम भगत तिहारे जानत हाँ हम बाल । और कछु नहि यह चाहत है, राम द्वेष को टाल || हम सौं चूक परो सौ वस्सो, तुम तो कृपा विशाल । धानत एक बार प्रभु जगतै, हमको लेहु निकाल ॥12 एक अन्यत्र स्थान पर कवि का उपालम्भ देखिये जिसमें वह उद्धार किये गये व्यक्तियों का नाम गिनाता है और फिर अपने इष्ट को उलाहना देता है कि मेरे लिए प्राप इतना विलम्ब क्यों कर रहे हैं- 1. मेरी बेर कहा ढील करी जी । सूली सौं सिंहासन कीना, सेठ सीता सती प्रगनि मे बैठी वारिषेण खडग चलायां, चानत में कछु जांचत नाहीं, इस प्रकार प्रपत्त भावना के सहारे साधक अपने सानिध्य में पहुंचकर तत्तद्गुणों को इसमें श्रद्धा और प्रेम की भावना का 2. 3. पर मुझे उससे कुव को तो दूर कर वही, पृ. 109 हिन्दी पद संग्रह पृ. 114-15 धर्मविभास, 54 वा पद्म सुदर्शन विपति हरी जी || पावक नौर करी सगरी जी । फूल माल कीनी सुथरी रौं । कर वैराग्य दशा हमेरी जी ॥ धाराव्य परमात्मा के स्वात्मा में उतारने का प्रयत्न करता है । प्रतिरेक होने के फलस्वरूप साधक सपने Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पाराध्य के रंग में रंगने समता है। तब हो जाने पर ससको दुविधामा समाप्त हो जाता है पौर समरस भाव का प्रादुर्भाव हो जाता है। यहीं सांसारिक दुःखों से अस्त जीव शाश्वत की प्राप्ति कर लेता है। निगुण सन्तों ने भी प्रपत्ति का मांचल नहीं छोड़ा । वे भी 'हरि म मिले दिन हिरवे सूपा जैसा अनुभव करते हैं और दृढ़ विश्वास के साथ कहते है'अब मोही राम भरोसों-तेरा, पोर कोन का करौं निहोरा' । कबीर और तुलसीपादि सगुण भक्तों के समान बानतराय को भगवान में पूर्ण विश्वास 'भब हम नेमि जी को शरण पौर और न मन लगता है, छोरि प्रभ के शरन'।' इस प्रकार प्रपत्त भावना मध्यकालीन हिन्दी बन पौर अनेतर काव्य में समान रूप से प्रवाहित होती रही है। उपालम्भ, पश्चाताप, लघुता, समता और एकता पैसे तत्व उनकी भाव भक्ति मे यथावद उपलब्ध होते हैं। मध्यकाल मे सहज योगसाधना की प्रवृत्ति संतो मे देखने को मिलती है। इस प्रवृत्ति को सूत्र मानकर पानतराय ने भी भात्मज्ञान को प्रमुखता दी । उनको उज्जवल दर्पण के समान निरजन मास्मा का उद्योग दिखाई देता है। वही निर्विकल्प शुवारमा विवानन्दरूप परमात्मा है जो सहज-साधना के द्वारा प्राप्त हुमा है इसीलिए कवि कह उठता है "देखो भाई भातमराम बिराज। सापक अवस्था के प्राप्त करने के बाद सापक में मन में दृढ़ता मा जाती है और कह कह उठता है अब हम ममर भये न मरेंगे। माध्यात्मिक साधना करने वाले बैन नेतर संतों एवं कवियों ने दाम्पत्यमूलक रति भाव का अवलम्बन परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए लिया है। इसी सवर्म मे प्राध्यात्मिक विवाहों और होलियों की भी सर्जना हुई है। बानतराय ने भी ऐसी ही माध्यात्मिक होलियों का सरस चित्रण प्रस्तुत किया है। सहब बसन्त पाने पर होली खेलने का माहान करते हैं। दो दल एक दूसरे के सामने खड़े है । एक दल में बुद्धि, दया, क्षमारूप नारी वर्ग सड़ा हुमा है और दूसरे राम मे रनमयादि गुणों से सजा मारमा पुरुष वर्ग है । मान, ध्यान 1. कबीर ग्रन्थावली, पृ. 214 2. वही, पृ. 124 3. हिन्दी पर संग्रह, 140 4. हिन्दी पद संग्रह, पृ. 114 5. वही, पृ. 114 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का मामला है, समता का रंग गोल मिना पाता है, अपनीतर की परिगरिया एक पोर में प्रश्न होता है. हमीमारी हो, बोपरी और से अन्न होता है तुम किसके पास होसार में होली के म मममम पिन को पनुनपस्न अग्नि में बसा है और पामतः पारी मोर जात हो पाती है। इसी शिवानन्द को प्राप्त करने के लिए काम मे प्रेरित किया है मायो सहब बसन्त, से सब होरी होरा। इत बुद्धि दबा किस बासड़ी, इस जिय रवन सचं मन पीरा।। मान भ्यान बफ वाल बबत है, मनहर शब्द होत धन बोरा ॥ परम सुराग गुलाल उड़त है, समता रंग दुई में घोरा ........ इसी प्रकार चेतन से समतारूप प्राणप्रिया के साथ "छिमा बसन्त" में होसी खेलने का मामह करते हैं। प्रेम के पानी में करुणा की केसर घोलकर मान ध्यान की पिचकारी से होली खेलते हैं। उस समय गुरु के वचन की मृबंग है, निश्चय व्यवहार नय ही ताल है, संयम ही इत्र है, विमल प्रत ही बोला है, भाव ही गुलाल है जिसे अपनी झोरी में भर लेते हैं, परम ही मिठाई है, सपही मेवा है, समरस से मानन्दित होकर दोनों होली खेलते हैं। ऐसे ही वेतन और समता की जोड़ी चिरकाल तक बनी रहे, यह भावना सुमति अपनी सखियों से अभिव्यक्त करती है चेतन खेलौ होरी ॥ सत्ता भूमि छिपा बसन्त में, समता-पान प्रिया संग गौरी।। मन को मार प्रेम को पानी, तामें करना केसर चोरी। माम ध्यान पिचकारी भरि मारि,माप में बार होरा होरी॥ गुरु के वचन मृदंग बजत है, नय दोनों अफ वाल कोरी।। संजय प्रवर विमल व्रत चौला भाव गुलाल भर भर भारी॥ परम मिठाईलपबामेवा, समरस मानन्द ममस कटोरी॥ बानत सुमति सह सखियन सो, चिरजीवो यह चुन चुप चोरी सन्तों ने परमात्मा के साथ भावनात्मक मिलन करने के लिए मासस्तिक विवाह किया, मेमनार भी हुए और उसके वियोग से सन्तप्त भीए । बनारसीबास ने भी परमात्मा की स्थिति में पहुंचाने के लिए माध्यामिक विवाह, मेन 2. हिन्दी मह, पृ. 121 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पोर खबरत होकर परमात्मा के रंग में रंग जाने के लिए होली खेली। संत कति कबीर मावि अपनो सुनरियों को साहब से रगवाते रहे और उसे मोड़कर परम्पत्या के रंग में समरस हो गये। ये निर्गुणिया संत माध्यामिकता, परसबाय पौर पवित्रता की सीमा मे घिरे हैं। उनकी साधना में विचार और प्रेस का सुल्कर सबम्बय हमा है तथा ब्रह्म जिज्ञासा से वह अनुप्राशित है। कवि चानतराय ने भी इसी परम्परा का प्रबलम्बन लिया है । निर्गुण और सगुण दोनों परम्पराओं को बम्होंने स्वीकारा है। समूचा हिन्दी जैम साहित्य शान्ता भक्ति से परिपूरित है उसका हर कवि एक मोर परमात्मा का भक्त है तो दूसरी मोर प्रात्मकल्याण करने के लिए तत्पर भी दिखाई देता है , इस दौर मे वे अपनी पूर्व परम्परा का अनुकरण करते हुए संतो की श्रेणी मे बैठ जाते हैं कविवर थानतराय एक उच्च कोटि के साधक भक्त कवि थे। उनका साहित्य सत कधियो की विचारधारा से मेल खाता है। यह बात अवश्य है कि पानतराय के साहित्य मे जनदर्शन के तस्व धुले हुए हैं जबकि सन्त अपरोक्षरूप से उन तत्त्वो को स्वीकारते हुए नजर पाते हैं । द्यानतराय, योगीन्दु, मुनि रामसिंह बनारसीदास, प्रानन्दधन, भैया भगवतीदास प्रादि जैसे जैन कवियों की परम्परा लिए हैं। सन्त कवि भी परम्परा से प्रभावित रहे हैं। इस प्रकार जैन और गैनेतर सन्त अपने-अपने दर्शनो की बात करते हुए प्रथक्-प्रथक् दिखाई देते हैं। परन्तु सततः उनकी विचारधारा के मूल तत्त्व उतने भिन्न नही । यानतराय जैसे जैन कवि ने ऐसी ही परम्परा मे घुल-मिलकर अपनी प्रतिज्ञा और साहित्य से सन्त साहित्य को प्रशसनीय योगदान दिया है। पाश्चर्य की बात है कि ऐसे प्रतिभा सम्पन्न कवि का उल्लेख मात्र इसलिए मही किया गया कि वह न था । अन्यथा माज उसे अन्य नेतर कवियों जैसा स्थान मिल गया होता । रीतिकाल के भोग-विलास मौर शृंगार भरे वातावरण में अपनी कलम को अध्यात्मनिरूपण मोर महेतुका भक्ति की मोर मोड़मा साधारण प्रतिभा का कार्य नहीं था। भौतिकता की चकाचौंध मे व्यक्ति भन्धा हो गया था से सुमार्ग पर लाने के लिए उन्होने ससार की प्रसारता सिख करते हुए संसारी सीव को अपना कल्याण करने के लिए प्रेरित किया। उनका साहित्य भवसागर औपार उतरने के लिए प्रेरणा स्रोत है । सन्तों ने भी दूषित बाल क्रियाकारों के विरुद्ध भावाज उठाकर ससारी जीव को मारमकल्याण करने की सीख दी थी। इस प्रकार दोनों की वैचारिक विशेषतायें परम्परा से मेल खाती हैं। मतः हिन्दी साहित्य में पानतराय गैसे जैन कवियो के योगदान का यथोचित मूल्यांकन करना नितान्त मावश्यक है। इसके बिना हिन्दी साहित्य का इतिहास मधूरा ही कहलायेगा। 1. कबीर, पृ. 352-3, धर्मदास, सन्तवाणी संग्रह, भाग 2, पृ. 39, गुलाब साहब की मानी, पृ. 22. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 43" . बहसमर मट्टाक महाँचन्द्र के शिष्य थे। उनका काम लगभग 17 पीसीको अधि मिलित किया जा सकता है। उनके सीता हरण, निर्यात जिनसपना, मिल सूरि चौपई मादि अनेक अन्य उपलब्ध है। सीताहरण अन्य को बायोतात माने पर बह प्रष्ट हो जाता है कि कषि ने यहाँ विमल भूरि की परम्परा का अनुसरण किया है। काव्य को शायद मनोरंजन बनाने की दृष्टि से इधर-पर के खोटे मास्यानों को भी सम्मिलित कर दिया है। ढाल, दोहा, नोटक, गोपाई मादि बन्दों का प्रयोग किया है। हर प्राधिकार में बन्यो की विविधता है काम्बात्मक दृष्टि से इसमें लगभग सभी रसो कर प्राय है । कवि की काव्य कुशलता बर, बीर, प्रांत, प्रभुत, करुण प्रादि रसों के माध्यम से ममिल्यश्चित हुई है। बीच-बीच में कवि ने पनेक प्रचलित संस्कृत श्लोको को भी उपभूत किया है। भाषाविज्ञान की इष्टि से इस ग्रन्थ का अधिक महत्व है 'फोकट' बसे शब्दों का प्रयोग माकर्षक है। भाषा मे जहां यजस्थानी, मराठी, मोर गुजराती का प्रभाव है वही बुन्देलसपी बोली से भी कवि प्रभावित जान पड़ता है । मराठी और गुजराती की विमक्तियों का तो कवि ने मत्यन्त प्रयोग किया है। ऐसा लगता है कि ब्रह्मा जयसागर ने यह कृति ऐसे स्थान पर लिखी है जहा पर उन्हे चारो भाषामो से मिश्रित भाषा का मिला हो। भाषाविज्ञान की दृष्टि से इसका प्रकाशन उपयोगी जान परशा भाषा विज्ञान के अतिरिक्त मूल-कथा के पोषण के लिए प्रयुक्त विभिन्न माध्यानों का मालेखन भी इसकी एक भन्यतम विशेषता है। प्रवृत्ति जैन कथा साहित्य गैन साहित्य का एक विपुल भाग कथा मोर कोण साहित्य से भरा हमा है। जैन सिवान्तो की व्याख्या करना कथा साहित्य की मूल भूमिका रही है। मागम साहित्य से इन कथामो को लेकर उनमें लोकतत्व का पुट देकर जैनाचायों बड़े-बड़े कथा ग्रयों का निर्माण सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश हिन्दी प्रादि भाषामों में किया है। प्राकृत भाषा मे निबद्ध उपदेशमाला प्रकरण, धर्मपदेशमाला विवरण मापान मरिणकोथ, समराइच कहा, सिरिवाल कहा, कुवलयमाला, तरंग का पादि और तस्कृत भाषा में निवड बहल्कया कोण, कथाकोश, कथा महोदधिकबाकोश, पुण्याभवकथाकोश, धर्म परीक्षा, उपमिति भवप्रपच कथा, भविष्यात मादि सेकड़ो प्रय है जो भाषा, शैली प्रादि की दृष्टि से बड़े प्रभावक कहे जा सकते मी का मापार सेकर हिन्दी मे भी कया साहित्य का सृजन हमा है। यहां हम ऐसी कथामों में सुगंधदशमी कथा को उबाहरण के तौर पर प्रस्तुत कर रहे है जिसमें पील परतिको शव्यात्मिकता की ओर मोड़ने के लिए प्रा, भकिमान नया सामानकोला गया है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 जीवन रहस्य की अभिव्यक्ति है। रहस्य की गहनता कीनको सहता है । उस रहस्य के अन्तस्तल तक पहुंचना गृहस्थ-श्रावक के लिए साधारणता हुन्छसा है । अतः उसे सहजता पूर्वक जानने के लिए कथात्मक तत्व का लिया जाता है । ससार में जितनी लोक कथाये व मनुश्रुतिय उपक जीवन के वैषिष्य को समझने के मात्र साधन हैं । सुगन्ध दशमी कथा का श्री इसी उपक्रम का एक सूत्र है । जीवन विषमता का अथाह समुद्र है । उस विषमता मे भी यह जीव समता, सहजता और सुखानुभूति का रसास्वादन कर दुःखानुभूति से मुह मोड़ना चाहता है दुःख की काली बदली से सुख के उज्ज्वल प्रकाश की उपलब्धि मानता है और उसे ही सत्य की प्रतिष्ठापना स्वीकारता है। इस चरम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तथा भागत बाधाओ को तिरोहित करने के लिए प्रदृष्ट शक्ति की उपासना करने में प्रवृत्त होता है । उस प्रतीक की भोर उसका प्राकर्षण बढने लगता है । माध्यम मिलते ही उसके साथ अनेक कथाओं के रूप स्वभावतः जुड़ जाते हैं । परम्परानुसार सुगन्ध दशमी कथा स्वोपार्जित कर्मों से विमुक्त होने का मार्ग है । प्रत्येक कथा की तरह इसे भी श्रेणिक के प्रश्न व गौतम के उत्तर से सम्बद्ध किया गया है । सुगन्ध दशमी व्रत पालन के सन्दर्भ मे गौतम के मुख से कथा कहलाई गई है । यह प्राख्यान प्रख्यात है । लेखको ने प्राय: एक ही ढाँचे में इस कथा को ढाला है । भिन्न-भिन्न लेखको व कवियो ने इसे अपनी लेखनी का विषय बनाया | डॉ हीरालाल जी जैन ने अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी, मराठी व गुजराती में उपलब्ध इस कथा को प्रकाशित कराया है । तिगोड़ा व शाहगढ़ से प्राप्त गुटकों में प्रकाशित सुगन्ध दशमी कथा के अतिरिक्त प्राकृत व संस्कृत में और भी अन्य कवियों द्वारा लिखी यह कथा मिली है। उन्हें भी प्रकाशित करने का प्रयत्न कर रही हूँ ! अन्य प्रकाशित साहित्य को खोजने से संभव है कि कथा के अन्य रूप भी मिल जायें । वाराणसी (काशी) का राजा पद्मनाथ मौर उनकी महिषी श्रीमति सुखोपatr पूर्वक यौवन का मानन्द लेते हुए काल-यापन कर रहे हैं। वसन्त ऋतु के भागमन पर दम्पति वसन्त लीला के लिए नगर के बाहर निर्मित उद्यान में जाते हैं। इसी प्रसंग मे कोकिल ध्वनि को वसन्त रूपी नट घोर उसी के मुंह से रस, नृत्य व काव्य का रूप माना गया है। (1.51 ) चंडी 1. प्रस्तुत प्रसंग में दिये गये उद्धरण डॉ. हीरालाल जी जैन द्वारा सपादित व अनूदित, अपास की सुगम्बदशमी कथा से लिए गये है। L Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है स रा पनी भीमति को मुनि महार की व्यवस्था करने पर वापिस भब बेता है। यति मुक्ति के इस पागमन को बसन्त लीला में विन मानती है और कोषाविष्ट होकर उन्हें विशाक्त दुर्वन्धित कटु भोजन करा देती है । ज्ञात होने पर भीमान्त भाव से मुनि उस भोजन को ग्रहण करते हैं। मीर बोई समय बाय काल कवलित हो जाते हैं (1.5) श्रीमति के मन पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता है और उसके शारीर में असहनीय दुर्गन्ध का संसर्ग यहीं से प्रारम्भ हो जाता है। समा पद्ममाय श्रीमती को वैश-निस्कासन का दण्ड देता है। विविष दुःखों का संभार लिये हुए रानी श्रीमती मरकर मैंस की योनि पाती है। उससे बाय मिशः सकरी, सामरी चाण्डालिनी होती है। इन सभी अम्मों में उसने दुन्धित सरीर पाया और मुनि अथवा मुनि के जीव पर क्रोष व्यक्त किया। चाण्डालिनी योनि में जन्मी यह बालिका (श्रीमति) प्रत्यन्त दुर्गन्धित होने के कारण एक अटवी में छोड़ दी जाती है । प्रसंग वशात् उसे एक जैन मुनि के दर्शन होते हैं। वे उसे दस धर्मों के पोलन का उपदेश देते हैं और इसी व्रत के उपदेश को दुर्गन्ध से मुक्त होने का एक मात्र मार्ग बताते हैं। मनन्तर धार्मिक जीवन व्यतीत करती हुई वहाँ से व्युत होकर उज्जैन में एक दरिद्र ब्राह्मण के घर कुरूपिनी पुत्री के रूप में जन्म लेती है (1.7) पर वहां भी दुर्गन्ध उसका पीछा नहीं छोड़ती। उन्हीं मुनिराज को देख कर उसे जन्मान्तर का स्मरण हो जाता है भीर मूषित हो जाती है । मुनि उसे गोरस से सिंचित कर सचेत करते हैं । वहाँ श्रीमति के मुख से ही पूर्व भदों का विवरण दिया गया है (1.9) । उज्जैन के राजा ने मुनिराज से इस कारुण्य दुःस से विमुक्त होने का मार्ग पूछा पोर उत्तर में मुनि ने सुगन्ध दशमी पत पालन करने का विधान बताया। इसके बाद यहीं पर चमत्कृति लाने के निमित्त से विद्याधर की एक छोटी भवान्तर कथा का भी प्रसंग उपस्थित किया गया है। (1.10-12) . सुमन्यदशमी व्रत का पालन करने से दुर्गन्धा-कुरुपिनी प्राह्मण-पुनी मरकर रत्नपुर नपरी के श्रेष्ठीवयं जिनदत के घर पुत्री तिलकमती हुई । उसका शरीर मत्यंत रूपवान् और सुगन्धित था। परन्तु मुनि-कोप का दण अभी भी मोयना शेष था। तिलकमती की माता का देहावसान हुमा । जिनक्स ने पुनर्विवाह किया । उससे क्षेत्रमती नाम की पुत्री हुई। , विनयसको रत्म-कम के सन्दर्भ में रनपुरी के राजा कनकनभने देशान्तर भेजा । इषर सौतेली माता के बावात्मक प्रयत्न के बावजूद तिलकमही विवाह निस्पित होगमा विशात् सोसेली माता ने सोलर पूर्वक को श्मशान में मेवा और कहा कहे जी राठ बर वहीं माकर हुमसे निकाह करेगा-वेर को सदर पसरनु, परिक्षावहि अनुष पुति एल्यु ।" यह कहकर विमानती वारों Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46 मोर चार डीपक और चार कलश रख दिये। रात्रि में अपने साथ से राजा कनकप्रभ ने उसे देखा और सब कुछ समझकर वहीं उससे विवाह fear मीर एक रात सहवास भी किया। बाद में अपना परिचय देकर वापिस चला और पुनः पाकर उant समूची व्यवस्था कर दी (2.3 ) । इधर तिलकमती की सौतेली माता ने उसके चरित्र पर दोबारोपण किया और किसी चोर से उसे विवाहित बताया। इसी बीच जिनदत मा पहुंचे। तिखकमती की परीक्षा के निमित्त राजा ने भोजन का आयोजन किया और उसमें अपने पति को पहचानने का तिलकमती को प्रादेश दिया । पद प्रक्षालन के माध्यम से freeमती ने अपनी बन्द प्रांतों से कनकप्रभ राजा को अपने पति रूप में पहचान लिया मीर कहा-यही वह चोर है जिसने मुझसे विवाह किया है, अन्य कोई नहीं "इहू चोरु वि जे हऊ परिणियाय, उ प्रण्णु होइ इम अपिवाच" (2.5) इसके बाद प्रायोजन समाप्त हुआ मोर नव दम्पत्ति को जिन मन्दिर दर्शनार्थ ले जाया गया । वहां मुनि दर्शन हुए जो उन्हें उनके पूर्व भवान्तरों का स्मरण करा रहे थे । इस कथा मे सुगन्षदशमी व्रन के पालन की प्रक्रिया इस प्रकार दी हुई है । भाद्रपद शुक्ल पंचमी के दिन उपवास करना चाहिए पौर उस दिन से प्रारम्भ कर पांच दिन अर्थात् भाद्रपद शुक्ल नवमी तक कुसुमांजलि चढ़ाना चाहिए। कुसुमांजलि में फलस, बीजपुर, फोफल, कूष्माण्ड, नारियल मादि नाना फलों तथा पंचरंगी और सुगन्धी फूलों तथा महकते हुए उत्तम दीप, धूप श्रादि से खूब महोत्सव के साथ भगवान का पूजन किया जाता है । इस प्रकार पांच दिन नवमी तक पुष्पाजलि लेकर फिर दशमी के दिन जिन मन्दिर में सुगन्ध द्रव्यों द्वारा सुगन्ध करना चाहिए श्रीर उस दिन माहार का भी नियम करना चाहिए। उस दिन या तो प्रोसथ करे, और यदि सर्व प्रकार के बहार का परित्याग रूप पूर्ण उपवास न किया जा सके, तो एक बार मात्र भोजन का नियम तो अवश्य पाले । रात्रि को चौबीस जिन भगवान का प्रभिषेक करके दश बार दश पूजन करना चाहिए। एक दशमुख कलश की स्थापना करके उसमें दशांगी रूप लेना चाहिए। कुंकुम भादि दश द्रभ्यों सहित जिन भगवान की पवित्र पूजा स्तुति करना चाहिए । पुनः प्रक्षतों द्वारा वश भागों में नाना रंगों से fafer सूर्य मण्डल बनाना चाहिए उस मण्डल के दश भागो मे दश दीप स्थापित करके उसमे दश मनोहर फल और दश प्रकार नवेद्य चढ़ाते हुए दक्ष बार जिन भगवान की स्तुति वन्दना करना चाहिए। इस प्रकार की विधि हर्ष पूर्वक मन वचन काय से पांचों इन्द्रियों की एकाग्रता सहित प्रति वर्ष करते हुए दश वर्ष तक करना wife (1.11) इस व्रत की उद्यापन विधि इस प्रकार की हुई है। जगत की fafe पूर्वक पालन करते हुए दश वर्ष हो जायें तब उस प्रत का उद्यापन करना चाहिए। मन्दिर जी में जिन भगवान का अभिषेक पूजन करना चाहिए। समस्त Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिन मन्दिर को पहले मनोहर पुष्पों से समाना चाहिए, भांगन में दावा सानना पाहिण, दमध्यवाएं फहराना चाहिए और मनोहर तारा भी लटकाना चाहिए। मन्दिर जी को घण्टा पामरों की जोड़ी, धूपदानी, भारती, वंश पुस्तकें और दर्श वस्त्र भी पड़ाना चाहिए तथा व्यक्तियों को मौषधिदान देना चाहिए। जो व्रतधारी ब्रह्मचारी भादि धाषक हों उन्हें दश पोतियों और दश प्राण्यानक का दान करना चाहिए । फिर वश मुनियों को षट्रस युक्त पवित्र माचर देना चाहिए । दश कटो. रियां पवित्र खीर मोर घी से भर कर दश श्रावकों के घरों में देना चाहिए। यदि इतना विधान करना या दान देना अपनी शक्ति के बाहर हो तो थोड़ा दान करना चाहिए । नाना स्वर्गों की प्राप्ति की जो माना कहानियां कही जाती है, उनके समान ही इस व्रत के पालन करने से भी प्रत्यंत पुण्य की प्राप्ति होती है (1.12)। सुगन्धदशमी कथा की भूमि कर्मों के बिनाश की युक्ति पर ठिकी हुई है। इसलिए इसका उद्देश्य भी कर्मों का खण्डन करना और सांसारिक दुःखों को खोसकर उत्तम स्वर्गादि सुखों का अनुभव प्राप्त करना है । सुगन्ध दशमी व्रत का पालन मन में अनुराग सहित करना चाहिए। इससे कलिकाल के मल का अपहरण होता है और जीव अपने पूर्व में किये हुए पापों से मुक्त होता है (2.1)। ___ सुगन्धदशमी व्रत के फल मे दृढता लाने के लिए एक पन्य कथान्तर का सर्जन किया । गया मुनिराज सुगन्ध कन्या के पूर्व भवों का कथन करते समय एक देव अवतरित हुमा उसमे स्वयं का अनुभव बताया कि उसने सुगन्धवममी बत के प्रसाद से अमरेन्द्र पद पाया (2.6)। कथा का उपसंहार करते समय भी इसका फल संदर्शन किया गया है । (28.9) इस कथा को मौलिक प्राधार व विकस के सन्दर्भ में ग. जैन सा. ने सुगम्बदशमी कथा की प्रस्तावना में पर्याप्त प्रकाश मला है। प्राकृतिक और दिव्य शक्तियों से बचने के उपाय ऋग्वेद काल के पूर्व से ही मनुष्य करता मा रहा है। महाभारत का मत्स्यगन्धा कथानक सुमन्यदशमी कथा का प्रेरक सूत्र रहा होगा। विक पीर जैन ऋषियों, मुनियों की प्रवृत्तियों एवं साधनामों में जो मौलिक मन्दर है उसका प्रभाष कथानकों के मानस पर भी पड़े बिना नहीं रहता । सुगन्धवशमी कमा में भी एक परिवर्तन स्पष्ट दिखाई पड़ता है। नायाधम्मकुहामो के सोलहवें अध्ययन में नाग को तार मुनि को कई तुम्बी का माहारदान देना और उसके फलस्वरूप अनेक जन्नों में दुल पाना भी इस प्रकार की कथा है, इसी तरह हरिमारि (750) की साववपण्यत्ति, जिनसेन (शक सं. 707-785) का हरिवंश पुराण, हरिणका बहत कथा कोस, श्रीचन्द्र का अपनश कथा कोश तथा अन्य अप्रकाशित ग्रंथों में Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बक्षित कथानक भी सुगन्ध दशमी कया गैसी भाव भूमि पर स्थापित पाक पर हैं। इन सभी कथानकों मे मुनि निन्दा मोर उनका फल विशिष्ट प्रतिपादित है । सम्भव है, ये कथानक मुनियों के प्रति बवाभाव जाग्रत रखने, निन्दा वन काय से दूर रहने मोर जैन धर्म के प्रति अनुराग मासक्ति पूर्वक प्रात्मोझर की बुदि. निमित किये मये हैं। ग्रहां पूमा विधान का विकास भी दृष्टव्य है। कथानक का प्रारम्भ वाराणसी (काशी) के वर्णन से होता है। पाठक को जिज्ञासा अन्त तक बनी रहती है कि श्रीमती का जीव कहाँ भोर से गया। कषा में संघर्ष और चरम सीमा तथा उपसंहार भी दिया गया है। कथा वस्तु प्रर्ष-ऐतिहासिक-पौराणिक प्रख्यात है। पात्र व चरित्र साधारणतः ठीक है। वर्तमान में प्रचलित कहानी के तत्व इस कथा में किसी न किसी रूप में उपलब्ध हो जाते परन्तु वे इतने सशक्त नहीं कि उनकी तुलना कहानियों से की जा सके। पौराणिक पाख्यानों के तस्व अवश्य ही इस कथा मे शत-प्रतिशत निहित हैं । उद्देश्य व भैली मनोहारी है। इस प्रकार सुगन्धदशमी कथा के विश्लेषण से स्पष्ट है कि वह मानव के प्रात्म कल्याण की पृष्ठभूमि में स्थापित की गई है और उसका महत्व जीवन में सामाजिक, धार्मिक, नैतिक और लौकिक दृष्टि से उत्कृष्ट है । कोस लेखन प्रवृत्ति किसी भाषा भोर उसमें रचित साहित्य का सम्यक अध्ययन करने के लिए सत्सम्बर कोशो की नितान्त मावश्यकता होती है। वेदों पोर संहितामों को समझने के लिए निघण्टु मौर निरुक्त जैसे कोशों की रचना इसीलिए की गई कि जनसाधारण उनमें सन्निहित विशिष्ट शब्दों का पर्थ समझ सके। उत्तरकाल में इसी माधार पर संस्कृत, पालि पोर प्राकृत के शब्दकोशों का निर्माण भाचार्यों ने किया। अमरकोश, विश्वलोचनकोश, नाममाला, अभिधानप्पदीपिका, पाइयलब्धी माममाला पादि जैसे अनेक प्राचीनकोश उपलब्ध हैं। इनमें कुछ एकाक्षर कोन है और कुछ अनेकार्थक शब्दों को प्रस्तुत करते हैं। कुछ देशी नाममाला जैसे भी सम्वकील है, जो देशी शब्दों के पर्व को प्रस्तुत करते है। इसी प्रकार की अन्य व्रत कथायें भी उपलबपिनका विश्लेषण गर्न के क्रियाकाण पिकासात्मक इतिहास को प्रतिविम्बित करता है। बहसहित्य प्रायः मध्यकालीन है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इम कोशों के प्रोडरिकम में प्रबल संत शब्दों पर कोष' का भी उल्लेन बिस्ता मिली बना 4139-419 की। प्राचार्य हेमचन्द्र परि की प्रकियाम चिन्तामणि (152 mins सम्मों को अन्वत किया गया है। इसमें सोविकार किया जा का स्वेस है । उनी के कार्य संबह (1931 लोलो, fegaram मोर लिंगानु भासन (138 श्लोक), जैसे महत्ता को यो खोस्कतिक सामग्री से भरे हुए हैं। अन्म कोही विनर रिमा शिसॉच (149 लोक), हेमचन्द्र सूरि की व नाममाया (208 ), महाका भनेका पनि मंबरी (224 श्लोक), हर्ष कवि कालिज मिg (230-. इसोक), विश्व सम्भू की एकाक्षर नाममाला (15 सोब), वियत सरि भार माममाला, महेश्वर सूरि कृत विश्व प्रकाश इत्ति, साधुसुदरपलिका रत्नाकर (:011 श्लोक), रामचन्द्र का देम्वनिवेश निषष्ट, विमल तरिका सद समुन्धय, विमल सूरि की देसी नाममाला, पुस्प रत्नपूरि का दबार कोड कवि का नानार्थ कोश, रामचन्द्र का नानार्थ संग्रह, हर्ष कौतिकी नाममाता, भानुचन्द्र का नाम संग्रह कोस, हर्ष कीति सूरि की लघुनाममाला प्रावि संस्कृत जैनकोष जैन साहित्य की पमूल्य निधि हैं। इसी प्रकार प्राकृत शम्ब कोगों में बमपाल त पाय लन्छी नाममाला, हेमचन्द की देवी नाममाला और देश्य सब संग्रह में दामोदर कुत उक्ति व्यक्ति प्रकरण, सुन्दरगणित उक्तिरत्नाकर भी उल्लेसमा कोश ग्रंथ है । प्राचीन हिन्दी में भी कुछ कोश ग्रंथ उपलब्ध हुए है। ___ इस प्राचीन कोश-साहित्य के अप्पमम से हम कोनों को कुछ विशेषणों में, विभाजित कर सकते हैं। उदाहरणतः पुत्पत्ति कोश, पारिभाषिक कोल, बायकोच, व्यक्तिकोष, स्थान कोष, एक भाषा कोन, बहुवावा कोश मादि । सो माध्यम से साहित्म की विधि विधायों एवं उनमें प्रयुक्त विशिष्ट भाकों के माधार पर भाषा वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक इतिहास की संरचना भी की वा सकती है। पातिक कोसों का प्रारम्भ उन्नीस को मतामी से माना जाता है। बम कोषों की रखवाली का प्राचार पाश्चात्य विद्वानों पराजिलिस मकोड . रहा है। शालीमारी-बीस मतादी में मस पोर न साहित्य समान, विमानों का निर्माण किया है। पावरकों के सिर पर , पोषिता निविवाद कम से तिब हुई है। ऐसे कोल पंपों में हम दिन पान रात कोल, पाइपसहमहान्याय, अर्धमागधी सिरी, मोग सया गेन सालाबली का लेप कर सकते हैं। बहां हम अंग्रेस में बोलायो का मुखांकन करने गाल परेन । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50. 1. शिवराजेश इस कोश के निर्माता श्री विजय राजेन्द्र सूरि का जन्म सं. 1883, पौष शुक्ल सप्तमी, गुरुवार (सन् 1829) को भरतपुर में हुमा । श्रापकी बाल्यावस्था का नाम रत्नराज था, पर सं. 1903 में स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित होने पर रत्न विजय हो गया। बाद में उन्होंने व्याकरण, दर्शन मादि का अध्ययन किया 1 सन् 1923 में वे मूर्ति पूजक सम्प्रदाय में दीक्षित हुए और बिजय राजेन्द्र सूरि के नाम की प्राचार्य पदवी प्राप्त की। उन्होंने अनेक मन्दिर बनवाये और उनकी प्रतिsort करायीं । वे अच्छे प्रवक्ता और शास्त्रार्थ कर्ता थे । उपाध्याय बालचन्द जी से उनका शास्त्रार्थ हुमा मौर वे विजयी हुए। प्रापको विद्वत्ता के प्रमाण स्वरूप aree ute ग्रंथ हैं जिनमें अभिधान राजेन्द्र कोश, उपदेश रत्न सार, सर्वसंग्रह प्रकरण, प्राकृत व्याकरण विवृत्ति, शब्द कौमुदी, उपदेश रत्न सार, राजेन्द्र सूर्योदय आदि प्रमुख हैं। उनके ग्रन्थों से उनकी विद्वत्ता स्पष्ट रूप से झलकती है । श्री सूरि का अन्त काल 31 दिसम्बर सन् 1906 में राजगढ़ में हुप्रा । प्रभिषान राजेन्द्र कोश के लेखक विजय राजेन्द्र सूरि ने जैन साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के दौरान यह अनुभव किया कि एक ऐसा जैन श्रागम कोश होना चाहिए जो समूचे जैन दर्शन की प्रकारादि क्रम से संयोजित कर सके । लेखक ने प्रपने कोश ग्रन्थ की भूमिका मे लिखा है कि "इस कोश मे अकारादि क्रम से प्राकृत शब्द, बाद में उनका संस्कृत में अनुवाद, फिर व्युत्पत्ति, लिंग निर्देश तथा जैन मागमों के अनुसार उनका अर्थ प्रस्तुत किया गया है । लेखक का दावा है कि जैन ग्राम का ऐसा कोई भी विषय नही रहा जो इस महाकोश मे न माया हो । केवल इस कोश के देखने से ही सम्पूर्ण जैन भागमो का बोध हो सकता है। इसकी श्लोक संख्या साढ़े चार लाख है औौर प्रकारावि वर्णानुक्रम से साठ हजार प्राकृत शब्दों का संग्रह है। लेखक के ये शब्द स्पष्ट संकेत करते हैं कि उनका उद्देश्य इसे सही अर्थ में महाकोश बनाने का था। इस महाकोश के मुख्य पृष्ठ पर लिखा है श्री सर्वरूपित गरणधर निवर्तिताऽद्य श्रीनोपोलभ्यमानाऽशेष - सुन्नवृत्तिभाष्य-- नियुक्ति चूयदि निहित सकल पार्शनिक सिद्धान्तेतिहास- शिल्पमेवान्त—याय-वैशेषिक मीमांसादि - प्रदर्शित पदार्थ युक्तायुक्तत्वनिर्णायकः । वृहद भूमिको पोधात - प्राकृतव्याकुति-प्ररकृत शब्द रूवावल्यादिपरिशिष्टसहितः । 1. अभिमान राजेन्द्रकोश, भूमिका, पृ. 13. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे पता चलता है कि कोशकार द्वारा इसमें प्राकृत-मैन धाम, वृति, भाष्य, नियुक्ति, चूल, पादि में उल्लिखित सिद्धान्त, इतिहास, विरूप, वेदान्त, न्याय, fre, मीमांसा पाfद को संग्रह किया गया हैं । इसका प्रकाशन जैन प्रभाकर प्रिंटि प्रेस रतलाम से सात भागों में हुआ । इसकी भूमिका में लिखा है कि "इस कोम में मूलसूत्र प्राचीन टीका, व्याख्या तथा ग्रंथान्तरों में उसका उल्लेख fer गया है। यदि किसी भी विषय पर कथा भी उपलब्ध है तो उसका भी उल्में है। और तीर्थंकरों के बारे में भी लिखा गया है ।"" यह महाकोश यद्यपि सात भागों में समाप्त हुम्रा है परन्तु भूमिका में चार भागो की ही विषय सामग्री का उल्लेख है। इसे हम संक्षेप में इस प्रकार देख सकते हैं- 1. प्रथम भाग - वर्ण 2. द्वितीय भागमा से ऊ वर तक 3. तृतीय भाग - 'ए' से 'क्ष' वर्ण तक 4. ' चतुर्थ भाग - 'ज' से 'न' वर्ण तक 5. पंचन भाग 'प' से 'भ' वर्ण तक 6. बष्ठ भाग – 'म' से 'व' वरणं तक 7. सप्तम भाग - स से ह वर्ण तक " 11 11 11 27 पृष्ठ 894 "1 1178 1364 2778 1636 1466 1244 $1 C प्रकाशन फाल सन् 1910 सन् 1913 सन् 1914 सन् 1917 सन् 1921 सन् 1923 सन् 1925 इन सातों भागों के प्रकाशन में लगभग पन्द्रह वर्ष लगे और कुल 10460 पृष्ठों में यह महाकोश समाप्त हुआ । इसमें प्रछेर, प्रहिंसा, श्रागम, प्रधाकम्म, प्रायरिय, आलोया, प्रोगाहगा, काल, क्रिया, केवलिपण्यति, मुख्छ, चारित, इय, जोगतिरथंयर, पवज्जा, रजोहरण, वत्थ, वसहि, विहार, सावध, उ, विनय, सद्दपावलि, पन्चक्खाण, पडिलेहरणा, परिसह, वंधरण, भाव मरण मलपुरा, मोक्ल, लोग, वस्थ, वसहि, विराय, वीर, वेयस्वच्च, श्रृंखडि सम्म, सामाइय इत्यादि जैसे मुख्य शब्दों पर विशेष विचार किया है। इसी तरह मल, प्रज्जचन्दा, वेधर, प्रभुदेव परिद्वनेमि, धाराहरणा, इलाक्स, इतिमद्दयुक्त, उपयण काकविय, aritra, write, दयदेत, वरणसिरि' पावर, मूलवंत, मूलसिरी, मेहजोस मेम, रोहिणी, समुद्रपाल, विजयसेन, सीह, सावत्थी, हरिभद पादि जैसी महत्वकुमाओं का विस्तार से उल्लेख किया गया है । + महाete rare है परन्तु महाकोश के प्रयोजन का चिह्न नहीं कर मम तो इसे हम मोटे रूप में मागधी महाकोश कह सकते हैं जिसमें अर्धमानवी Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 52 जैन मध्यमों को छोड़कर शेष प्राकृत साहित्य का उपयोग नहीं किया गया, और दूसरी बात यह है कि यह मात्र उद्धरणकोश बन गया । ये उद्धरण इतने लम्बे रख दिये कि पाठक देखकर ही पकड़ा जाता है। कहीं-कहीं तो ग्रन्थों के समूचे भाग प्रस्तुत कर दिये हैं। फिर इसके बाद उनका संस्कृत रूपान्तर मौर भी बोकिल बन पायसमष्णव के लेखक पं. हरगोविन्द दास सेठ ने इसकी जो सटीक ग्रामोक्ता की है वह इस सन्दर्भ में दृष्टव्य है । थोड़े गौर से देखने पर भाषामों का पर्याप्त " परन्तु वेद के साथ कहना पड़ता है कि इसमें कर्ता की सफलता की अपेक्षा forseeता ही afts मिली है और प्रकाशक के धन का अपव्यय ही विशेष हमा है । सफलता न मिलने का कारण भी स्पष्ट है। इस ग्रंथ को यह सहज ही मालूम होता है कि इसके कर्ता को न तो प्राकृत शान था और न प्राकृत शब्दकोश के निर्माण की उतनी प्रबल इच्छा, जितनी जैन दर्शन शास्त्र और तर्क शास्त्र के विषय में अपने पांडित्य प्रस्यापन की धुन । इसी धुन से अपने परिश्रम का योग दिशा में ले जाने वाली विवेक बुद्धि का भी हास कर दिया है। वही कारण है कि इस कोश का निर्मारण केवल 75 से भी कम प्राकृत जैन पुस्तकों के ही, जिनमें अर्धमागधी के दर्शन विषयक ग्रंथों की बहुलता है, माघार पर किया गया है मोर प्राकृत की ही इतर मुख्य शाखाभों के तथा विभिन्न विषयों के अनेक जैन तथा जैनेतर ग्रंथों में एक का भी उपयोग नहीं किया गया है। इससे यह कोच व्यापक न होकर प्राकृत भाषा का एकदेशीय कोश हो गया है। इसके सिवा प्राकृत तथा संस्कृत ग्रंथों के विस्तृत प्रशों को मौर कहीं-कहीं तो छोटे बड़े सम्पूर्ण ग्रंथ को ही अवतरण के रूप में उद्धृत करने के कारण पृष्ठ संख्या में बहुत बडा होने पर भी, शब्द संख्या में कम ही नहीं, बल्कि प्राधारभूत ग्रंथों में पाये हुए कई augh शब्दों को छोड़ देने से धौर विशेषार्थहीन प्रतिदीर्घ सामासिक शब्दों की भर्ती से वास्तविक शब्द संख्या में यह कोश प्रति न्यून भी है। इतना ही नहीं, इस कोक में प्रादर्श पुस्तकों की, असावधानी की, धौर प्रेस की तो प्रसंख्य दिया है ही, माकृत भाषा के प्रज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली मूलों की भी कमी नहीं है और सबसे बढ़कर दोष इस कोष में यह है कि वाचस्पत्य, अनेकान्त जय पताका, अष्टक, renteredfeet प्रादि केवल संस्कृत के और जैन इतिहास जैसे केवल सामूनिक पुजराती ग्यों के संस्कृत मौर गुजरात शब्दों पर से कोरी निजी कल्पना से ही जगाये हुए प्राकृत बच्चों की इसमें खूब मिलावट की गयी है, जिससे इस कोश की 1. जैसे 'वेद' शब्द की व्याख्या में प्रतिमा-शतक नामक सटीक संस्कृत पंच को धादि से प्रांत तक उबूत किया गया है। इस ग्रंथ की पांच हजार है। करीब Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रामाणिकता ही एकान बाट हो गयी है। और अन्य बैंमन्य होना साधारण जम्मा लिएकोमा यो सिमकार र शन पवता कोश के कोयकार विषय रामेन्द्र परिया पनिमय और बढीमा विषय है। उनके अभियान राम के की यह मासोचना निःसन्देह पर्वपूर्ण प्रतीत होती है पोलिस यहाँ पूरी नहीं हो सकी। इसके बावजूद इस विनासकार की को मी नहीं कह सकते । जिस समय इस कोड का निर्माण हमारे बायकी पायमों का प्रकाशन अधिक नहीं हुमा पापौर मोहमा भी था बहसी पाकित नहीं था। पनुसंधाता को एक ही स्थान पर सम्बर विषय की बानकारी मिल जाती है। इस वृष्टि से उसका विशेष उपयोग कहा जा सकता है। विजय राजेन्द्रसूरि ने एक और कोम सिखा पा जिसका नाम उन्होंने समा. बुधि कोश रखा था परन्तु इसका प्रकाशन नहीं हो सका । इसमें बेखक ने प्रकाराम कम से प्राकृत शब्दों का संग्रह किया था पोर साव ही संका कार हिन्दी अनुवास दिया था किन्तु प्रमिधान राजेन्द्र कोश की तरह शब्दों पर ध्यासा नहीं की। यह कोस कदाचित पधिक उपयोगी हो सकता था परन्तु म जाने मान बह पावित के रूप मे कहां पड़ा होगा। 2. पर्षमागचीकोश इस कोश के रचयिता मुनि रत्नचन्द्र लीपाड़ा-सम्प्रदाय के स्थानमा के। उन्होंने जैन-जनेतर अयों का अध्ययन कर गहनत पक्तित्व प्राप्त किया । उनके द्वारा कुछ और भी ग्रंथों की रचना हुई है जिनमें अजरामरस्तोत्र (1969) भावातपत्रिका (सं. 1970), कर्सव्यकौमुदी (सं. 1970), भानामा (सं. 1972), रत्नसिंकार (स. 1973), प्राकृत पाठमाला (सं. 1980), प्रस्तर रत्नावली (सं. 1981), गैनवान मीमांसा (सं. 1983), देखतीराम समालोचना (सं. 1991), जेन सिवान्त कौमुदी (सं. 1994), वर्षमाननीय सटीक भ्याकरण प्रमुख हैं। मह बर्षमागधी कोश मूमतः गुजराती में लिखा पया पोर उसका हिन्दी सा अंग्रेजी स्पान्तर प्रीतममाल कच्छीमादि अन्य विद्वानों से कराया गया। इस कोच 1. पाहसमहन्मार, वितीय संस्थारण, भूमिका, पृ. 13-14. 2. पमिपान राजेनकोष, भूमिका, 113-14, Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 के रपये में देखक को मुनि उत्तमचन्द जी, उपाध्याम पात्माराम बी, मुनि साथबजी तवा मुनि देवचन्द्रजी का भी सहयोग, मिना । ...मरतील . गनदेखकर ने भी इसमें सहयोग दिया। इन सभी विद्वानों के सहयोग कोख स स में प्रकाशित सो सका है। गें. बूलर की विस्तृत प्रस्तावना पार परसारखम भणबारी की विस्तृत म प्रेजी भूमिका के साथ यह कोस पार भावों में इस प्रकार प्रकाशित हुमा . भार1 'अ' वर्ण . पृ. 612 प्रकाशन काल सन् 1923 माम 2 'म' से 'रण' वर्ण तक पृ. 1002 ___.. सन् 1927 भाम3 'त' से 'ब' वर्ण तक लगभग पृ. 1000, सन् 1929 माम 'भ' सेहवणं तक पृ. 1015 सन् 1932 (परिशिष्ट सहित) इस प्रकार लगभग 3600 पृष्ठो मे यह कोश समाप्त हो जाता है। इसे हम पंच भाषा कोश कह सकते है क्योकि यह प्राकृत के साथ ही सस्कृत गुजराती हिन्दी और अंग्रेजी भाषामो मे रुपान्तरितहमा है । लगभग सभी शब्दो के साथ यथावश्यक भूल उखरगो को भी इसमे सम्मिलित किया गया है। ये उद्धरण सक्षिप्त पोर उपयोगी है। उनमे अभियान राजेन्द्र कोश जैसी बोझिलता नहीं दिखती। अभिधान रावेन्द्र कोश की पन्य कमियों को भी यहाँ परिमार्जित करने का प्रयल किया गया है। इस कोश में भागम साहित्य तथा मागम से निकटतः सम्बन्ध रखने वाले विशेषा. वश्यक भाष्य पिंड, नियुक्ति, मोपनियुक्ति प्रादि ग्रयो का उपयोग किया गया है। साप ही शम्द के साथ उसका व्याकरण भी प्रस्तुत किया गया है। मधमागधी से प्रतिरिक्त प्राकृत बोलियो के शब्दों को भी इसमें कुछ स्थान दिया गया है । इसके चारों भागो में कुछ परम्परागत चित्र भी सयोजित कर दिये गये है जिनमे मामलिन काध विमान, पासन्, अबलोक, उपशमधेणी, कनकाबली, कृष्णराजी, कालमा अपकोणी, धनरम्यु, षनोदधि, 14 रत्न' चन्द्रमण्डल, जम्बूदीप, नक्षत्रमाल, भरत, मेरू, लवरणसमुद्र लोभ, विमारण प्रादि प्रमुख हैं । इस कोश का सम्पूरणं नाम An Illustrated Ardha-Magadhi Dictionary है और इसका प्रकाशन S. S. Jaina Conference इन्दौर द्वारा हुमा है। इस कोश के परिशिष्ट के रूप में सन् 1938 में पचम भाग भी प्रकाशित हुमा । इसमें पर्षमागधी, देशी तथा महाराष्ट्री शब्दो का संस्कृत, गुजराती हिन्दी मौर मप्रेजी भाषामों के पनुवाद के साथ सग्रह हुमा है । परन्तु उनका यहां व्याकरण नहीं दिया जा सका । यह भाप भी लगभग 900 पृष्ठो का है। मुनि रनचन्द्र जी का.मह सम्पूर्ण कोश छात्रों पौर शोषकों के लिए उद्धरण अंग-सा बन गया है। मुनिजी का जन्म सं. 1936 वंशाख शुक्ल 12 गुरुवार को Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कच मागेरा नामक ग्राम में हमारपाका विवाह 13 की मस्यामा मोर853 में पत्नी की मृत्यु के बाद उन्होंने मुलि सेक्षा ली। इसकेपार त और प्राकृत ग्रंथों का गहन अध्ययन किया और बीवन उत्तरकाश क माल का कार्य हाप में लिया। वे शतावधानी से भार वपस्वी' । इस कोम के लेखक पं.हरगोविन्वयास विक्रययन मेटकर सब बि.सं. 1945 में राधनपुर (गुजरात) में हुमा । उनको शिक्षामा मत माक्षिय जन पाठशाला, वाराणसी में हुई। यही रहकर उन्होंने संस्कृत, और प्राकृत भाषा का अध्ययन किया । प. बेघरदास दोसी उनके सहाध्यायी रहे हैं। दोनों विधान पालि का अध्ययन करने श्रीलंका भी मये और बाद में वे संस्कृत, प्राकृत और सुबरावी के प्राध्यापक के रूप मे कलकत्ता विश्वविद्यालय में नियुक्त हुए । न्यायव्याकरणवीर्य होने के कारण जन-जनेतर दार्शनिक प्रयों का गहन अध्ययन हो पुका का होविजय जैन ग्रंथमाला से उन्होने अनेक सस्कृत-प्राकृत ग्रंथो का संपादन भी किया। लगभग 52 वर्ष की अवस्था में ही सं. 1997 मेवे कालकवशित हो गये। अपने इस अल्पकाल में ही उन्होने भनेक ग्रंथों का कुशल सम्पावन और लेखन किया। ___ सेठजी के प्रथो में पाइयसद्द महण्णव का एक विशिष्ट स्थान है। उसकी रखना उन्होने सम्भवतः भभिान राजेन्द्रकोश की कमियो को दूर करने के लिए की। जैसा हम पीछे लिख चुके है, सेठजी ने उपर्युक्त बंम की मार्मिक समीक्षा की मोर उसकी कमियो को दूर कर नये प्राकृत कोस की रचना का सकल्प किया उन्होंने स्वयं लिखा है-"इस तरह प्राकृत के विविध भेदों और विषयों के जैन तवा गीतर साहित्य के यथेष्ट शन्दो से सकलित, मावश्मक अवतरणों से मुक्त, मुर एवं प्रामाणिक कोश का नितान्त प्रभाव बना रहा है। इस समाव की पूर्ति के लिए मैंने अपने उक्त विचार को कार्य रूप में परिणत करने का बड़ सकल्प लिया और तदनुसार शीघ्र ही प्रयत्न भी शुरू कर दिया गया । जिसका फल प्रस्तुत गोम के रूप में चौदह वर्षों के कठोर परिश्रम के पश्चात माज पाठकों के सामने उपस्थित लेखक के इस कथन से यह स्पष्ट है कि कोश के तैयार करने में उन्होंने पर्याप्त समय भौर शक्ति लगायी । प्रकाशित संस्करणों को शुद्ध रूप में अंकित करने का एक दुष्कर कार्य था, जिसे उन्होने पूरा किया। इतना ही नहीं, बल्कि उन्होंने इस वृहत्काय कोश का सारा प्रकाशन-व्यय भी स्वय उठाया कोषकार ने भावनिक 1. • पाइयसहमहष्णव, भूमिका, द्वितीय संस्करण, पृ. 14, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसेसन 501 की विस्तृत प्रस्तावना भी सिखी, जिसमें प्राकृत भाषामों का विहावमा भारतीय भारतीय भाषाओं के विकास में उनके योगदान की। किर की। समय के निर्माण में उन्होंने लममम 300 या NAME बिता प्रायः वाम्बर सम्प्रदाय से सम्बड है। सवय प्रक किसी अंच का प्रमाण भी दिया गया है। इस दृष्टि से यह कोस पविक : सका है । एक सब के जितने सम्भावित पर्व हो सकते है उनका भी कोशकार के उल्लेख किया है। संदिग्ध पाठ को कोष्ठक में प्रश्नचिह्न के साथ प्रस्तुत किया गया है। बहमास्या उनकी विद्वत्ता और सावधानता को सूचित करती है। प्रस्तुत पंथ के सम्पादक बी जुगल किशोर मुस्तार प्राचीन बन बिताके प्रसिद्ध अनुसन्धाता ये। उन्होने वीर सेवा मग्दिर जैसे सोष-संस्थान और उसके अनेकान्त जोशोष पत्र की स्थापना मोर उसका सम्यक संचालन कर बन विषा के अनुसंधान क्षेत्र में महत्वपूर्ण योग दिया है। बी मुख्तार स्वयं भी एक विशिष्ठ सबोषक रहे हैं। उन्होंने अपनी अवस्था के लगभग 50 वर्ष इसी कार्य में व्यतीत किये हैं। उनके ग्रंथो में स्वयंभूस्तोत्र, स्तुति-विचा, युक्त्यनुशासन, समीचीन धर्मशास्त्र, अध्यात्मरहस्य, जैन साहित्य मौर इतिहास पर विशद प्रकाश, देवायम स्तोत्र मादि सम्पादित मोर पनुवादित अब तथा शताषिक शोष-निबंध शोषकों के लिए मार्गदर्शक बने हुए हैं। पुरातन जैन वाक्य सूची वस्सुसः एक ढंग का कोश ग्रन्थ है, जिसमें 64 मूल अन्यों के पाव-बाय की प्रकारादिक्रम से सूची है। इसी में 48 टीकादि ग्रंथों में उद्. धृत प्राकृत-पच भी संग्रहीत कर दिये गये हैं। कुल मिलाकर पच्चीस हजार तीन सौ पावन प्राकृत-पचों की अनुक्रमणिका के रूप इस ग्रन्थ को तैयार किया गया है। इसके साधारभूत बंप विशेषत: दिगम्बर सम्प्रदाय के हैं। जहां-तहां प्राचार्य 'उक्तंच' लिखकर अपने पूर्वाचार्यों के पचों का उल्लेख करते रहे हैं जिनका खोजना कभी. कभी कठिन हो जाता है । इस दृष्टि से यह ग्रंथ शोधकों के लिए प्रत्यधिक उपयोगी बन पाता है। इसके सम्पादन में डॉ. दरबारीलाल कोठिया और पं. परमानन्द शास्त्री ने विशेष सहयोग दिया है। इसका प्रकाशन वीरसेवा मन्दिर से सन् 1950 में जमा । इस ग्रंथ की प्रस्तावना 168 पृष्ठ की है, जिसमें मुख्तार सा. ने सम्बन अन्यों और मावावो के समय और उनके योगदान पर गम्भीर चितन प्रस्तुत नान्य प्रशस्ति संग्रह इसका दो भावों में बीर सेवा मन्दिर से प्रकासन हुमा है। प्रथम भाग का सम्मान पं. परमानन्दनी के सहयोग से भी बुलपकिशोर मुख्तार ने सन् 1934 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म में किया । इस्त-माइत पाषामों के 11 अन्य प्रतियों का संकलन रमर, स्वर मावि , TEAM की है कि प्रतिगत भौगोलिक , पी, पला, बामा, पागो, राममभिवों, विद्वानों; पाबाया, बारपाया माम की पी की सकाराविमो दिच नया है। परमानन्दकी धारा पवित्र 113 पृष्ठों की प्रस्तावना विशेष महत्वपूर्ण है। नव-प्रचस्थि-संबह के दूसरे मामलाकर मजोर क्षेत्र में इतिहास और साहित्य के सामान्य दिन् । पाप गारवा मन्दिर भनेकाम्त पत्र का लगभग प्रारम्भ हो सम्पादन का भार मा बीरताधिक शोध निबम्बों को स्वयं शिकार प्रकाशित किया। विषयगत पो परमानन जी की सूक्ष्मेनिका हे भलीभांति परचित है। उन्होंने संस्कत, पात, अ सा हिन्दी के अनेक प्राचार्या का काल-निर्धारण किया एवं उनके हिल पक्तित्व पर असाधारण रूप से शोध-सोजकर प्रथमतः प्रकार सा समका एक सीमान मंच जनधर्म का प्राचीन इतिहास अपने पहनाकार में देहली से प्राविमा है, को उनकी विद्वत्ता का परिचायक है । यह उनका चिम बंप है। इस दितीय भाग में विशेष स से अपभ्रश ग्रंथों की 122 प्रशस्तिवादी गयी है, जो साहित्य पोर इतिहास के साथ ही सामाजिक और वामिक रीति रिवाज पर भी अच्छा प्रकाश गलती हैं । इन प्रशस्तियों को हस्तलिखित ग्रंषों पर ये उपव किया गया है अधिकांश प्रकाशित अंघों को ही सम्मिलित किया गया है। इसमें कुछ उपयोगी परिशिष्ट भी दिए गये हैं जिनमें भौगोलिक पाम, नगर, नाम, संघ, गए, मच्छ, राणा मादि को प्रकारादिक्रम से रखा है। लगभग 150 पृष्ठ की सम्पारन की प्रस्तावना सोष की दृष्टि से और भी अधिक महत्वपूर्ण है। इसका प्रकाशन बीरसेवा मन्दिर, वेहली से सन् 1963 में हमा। एक अन्य प्रशस्ति संग्रह श्री. भुसाली शास्त्री के सम्पादन में बन सिमान्त भवन पारा से बि.सं. 1909 में प्रकाशित हुमा मा। इसमें शास्त्री जी ने 9 ग्रंथकारों की प्रमस्तिवारी है और साथ ही हिन्दी में उनका संक्षिप्त सारांश भी दिया है। 6.सेवा कोम इसके इस्पायक श्री मोहनलाल बांठिया पौर श्रीचन्द और दिया है और इसके प्रकासन-कार्य का गुरुवार भार भी थी बोठिया ने वाया है, वो कमकता से सन् 1966 में प्रकाशित हुमा । बोनों विद्वान् अनरसन और साहित्य के शोषकहे है। अम्पावकों के सम्मुई जैन कारमय को मारमोमिक दशमलव वर्गीकरण पद्धति का अनुसरण कर 100 बों में विमल किया पौर मावस्यकता के अनुसार ने मन-सत्र Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्तित भी किया । मूल विषयों में से भनेक विषयों के उपविषयों की भी सूची इसमें सन्निहित है। इसके सम्पादन में तीन बातों का भार लिया गया:-(1) पाठों का मिलान, (2) विषय के उपविषयों का वर्गीकरण तथा, (3)श्री.पद्रवाद। मुल पाठ को स्पष्ट करने के लिए सम्पादकों ने टीकाकारों का भी मार लिया है। इस संकलन का काम भागम ग्रंथों तक ही सीमित रखा या फिर भी सम्पादन, वर्गीकरण तथा अनुवाद के कार्य में नियुक्ति, बूरिण, पति, मादि टीकामों का तथा सिद्धान्त ग्रंथों का भी यथास्थान उपयोग हमा है । दिगम्बर ग्रंथों का इसमें उल्लेख नहीं किया जा सका । सम्पादक ने दिगम्बर लेश्या कोश को प्रथक स्प से प्रकाशित करने का सुझाव दिया है। कोश-निर्माण में 43 ग्रंथों का उपयोग किया गया है। 7. बिया कोस इसके भी सम्पादक श्री मोहनलाल बांठिया मोर श्री श्रीचन्द घोरख्यिा है पौर प्रकाशन किया है जनदर्शन समिति कलकत्ता ने सन् 1996 में। श्री बांठिया जैनदर्शन के सूक्ष्म विद्वान् हैं। उन्होंने जैन विषय-कोश की एक लम्बी परिकल्पना बनाई थी और उसी के अन्तर्गत यह द्विनीय कोश क्रिया-कोश के नाम से प्रसिद्ध हमा । इस कोश का भी संकलन दशमलव वर्गीकरण के माधार पर किया गया है पौर उनके उपविषयों की एक लम्बी सूची है। क्रिया के साथ ही कर्म विषयक सूचनामो को भी इसमे अंकित किया गया है । लेश्या-कोश के समान ही इस कोश के सम्पादन में भी पूर्वोक्त तीन बातो का प्राधार लिया गया है इसमे लगभग 45 ग्रंथों का उपयोग किया गया है, ओ प्राय. श्वेताम्बर मागम अथ हैं। कुछ दिगम्बर मागमों का भी उपयोग हो सका है। सम्पादक ने उक्त दोनों कोथों के अतिरिक्त पुद्गल-कोश, दिगम्बर लेश्या कोश मोर परिभाषा कोश का भी संकलन किया था परन्तु अभी तक इनका प्रकाशन नहीं हो सका है। इस प्रकार के कोश जैनदर्शन को समुचित रूप से समझने के लिए निःसंदेह उपयोगी होते हैं। 8. नम रिक्शनरी Gaina Gem Dictionary का सम्पादन नवर्शन के मान्य विद्वान् जे० एल० जैनी ने सन् 1910 में किया था, जो भारा से प्रकाशित हुमा। श्री गैनी ने Heart of Jainism जैसे अनेक ग्रंथों को स्वतन्त्र रूप से तैयार किया और तत्वार्थ सूत्र से मान्य ग्रंथो का अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किया। जैनधर्म को अंग्रेजी के माध्यम से प्रस्तुत करने में सी० मार० जैन 'पौर जे. एल. जैनी का नाम अधिस्मरणीय रहेगा। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 श्री जैनी का को जीन-पारिभाषिक शब्दों को समझने के लिए एक स्थान तन्त्र कहा जा सकता है भूमिका में उन्होंने स्वयं लिखा है- "ब मुझे अनुभव हुआ कि एक ही जैन शब्द के विभिन्न अनुवादों में विभिन्न अंगेजी पनि हो सकते हैं। इससे एकरूपता समाप्त हो जाती है और गन्धों के नेतर पाठकों के मन मैं दुविधा का कारण बन जाता है। इसलिए सबसे प्रच्छा उपाय सोचा गया कि प्रत्यन्त महत्वपूर्ण जैन पारिभाषिक शब्दों को साथ रखा जाय और जैनदर्शन के write में सही अर्थ प्रस्तुति का प्रयत्न किया जाये । निश्चित ही इस तरह के कार्य को अंतिम कहना उपयुक्त न होगा। यह उत्तम प्रयास है कि जैन पारिवाविक शब्दों की वर्णक्रमानुसार नियोजित किया जाये और उनका मनुबाद मंगे जी में दिया जाये ।" इस कोश का प्राधार पं. गोपालदास या द्वारा रचित जैन सिद्धान्त प्रवेशिका जैसा लघु कोश प्रतीत होता है। एक अन्य श्री बी. जैन मोर श्री मीनप्रसाद जैन ने 'बृहज्जैन शब्दाव' नाम से सन् 1924 और 1934 में दो भागो में बाराबंकी से प्रकाशित किया था। इसी प्रकार का भानन्द सामरसूरि द्वारा लिखित 'बल् परिचित मान्तिक सब्दकोश' भाग 1, सूरत से सन् 1954 में प्रकाशित हुआ था जिसमे जैन संद्धांतिक शब्दों को संक्षेप में समझाया गया है । 9. - - कोश इसके रचयिता शुल्लक जिनेन्द्र वर्णी हैं, जिन्होंने लगभग 20 वर्ष के सतत अमन के फलस्वरूप इसे तैयार किया है। इसमे उन्होंने जैन तत्वज्ञान, माचारकर्मसिद्धान्त, भूगोल, ऐतिहासिक तथा पौराणिक व्यक्ति, राजे तथा राजवंश 'मागम, शास्त्र व ग्रास्तकार, धार्मिक तथा दार्शनिक सम्प्रदाय शादि से सम्बद लगभग 600 2100 विषयों का सांगोपांग विवेचन किया है । सम्पूर्ण सामगी सं " तथा अपभ्रंश मे लिखित प्राचीन जैन साहित्य के 100 से अधिक महत्वपूर्ण एवं प्रामाणिक गन्थों से मूल सन्दर्भों, उद्धरणों तथा हिन्दी अनुवाद के साथ संकलित की गयी है। इसमें अनेक महत्वपूर्ण सारणियाँ मौर रेखाचित्र भी जोड़ दिये गये है, जिससे विषय अधिक स्पष्ट होता गया है। हर 'विषय को मूल शब्द के अन्तर्गत ऐतिहासिक दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। साथ ही यह ध्यान रखा गया है कि शब्द और विषय की प्रकृति के अनुसार उसके मर्च, तारण, मेद-प्रभेद, विषय-विस्तार, शंका-समाधान व समन्वय भादि में जो-जी और जितना जितना अपेक्षित हो वह सब दिया जाय । प्रस्तुत कोच को भारतीय ज्ञानपीठ से चार भागों में 8 और 10 प्वाइंट में प्रकाशित हुआ है। सुबह की दृष्टि से भी इसमें अन्य कोशों की मपेक्षा वैशिष्ट्य है। टाइप की मिश्रता से विषय Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की मित्रता को पहिचाना जा सकता है । मूल उबरणों को देने से इस अन्य की उपयोषिता और अधिक बढ़ गयी है। वस्तुतः यह सही पर्व में सन्दर्भ ग्रन्थ बन गया है। इसमें विकसितः दिसम्बर अम्चों का उपयोग किया गया है। पके पार भाग इस प्रकार है भाग 1 'म' से 'मी' वर्ण तक पृष्ठ 504 प्रकाशन कास सन् 1970 भाग 2 'क' से 'न' वणं तक , 634 , , 1971 माम 3 'प' से 'ब' वर्ष तक , 638 ॥ 1972 भाग 4 '' से 'ह' वर्ष तक , 544 1973 इतने छोटे टाइप में मुद्रित 2320 पृष्ठ का यह महाकोष निस्संदेह वणी जी की सतत साधना का प्रतीक है। उनका जन्म 1921 में पानीपत में हुमा। पापके पिता जयभगवान एव्होकेट जाने-माने विचारक पौर विद्वान् थे। मापकी बिजीविषा ने ही सन् 1938 में पापको क्षयरोग से बचाया तथा इसी कारण एक ही फेंकर से पिछले वर्ष तक अपनी साधना में लगे रहे। एम० ए० एस० अंसी उच्च उपाधि प्राप्त करने के बावजूद प्रति पय में उनका मन नहीं रम सका और फलतः 1957 में घर से संन्यास से लिया और 1963 में शुल्लक दीक्षा ग्रहण की। प्रकृति से अध्यवसायी, मृदु और निस्पृही वर्णीजी के कुछ अन्य महत्वपूर्ण प्रेय भी प्रकाशित हुए हैं जिनमें शांतिपथ-प्रदर्शक, नये दर्पण, जैन-सिद्धान्त शिक्षण, कर्म-सिद्धान्त, श्रवा-बिन्दु, द्रव्य-विज्ञान, कुन्दकुन्द-दर्शन मादि नाम उल्लेखमीय है। 10. चैनलममावती प्रस्तुत ग्रंथ के सम्पादक पं० बालचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री हैं, जिन्होंने अनेक कठिनाइयों के बावजूद इस ग्रन्थ का सम्पादन किया। उनका जन्म सं. 1962 में सोरह (झांसी) में हुमा और शिक्षा का बहुवर भाग स्यावाद विद्यालय वाराणसी मे पूरा हुमा । सन् 1940 से लगातार साहित्यिक कार्य में जुटे हुए हैं, गे. हीरालाल जी के साथ उन्होंने षट्समागम (धवला) के छह से सोलह भाग तक का सम्पावन मोर भनुवाद किया। इसके अतिरिक्त जीवराब जैन ग्रंयमाला से मारमानुशासन, पुण्यावर कथाकोल, तिलोयपष्णत्ति मौर पपनन्दिपविधतिका ग्रंथ हिन्दी अनुवाद के साप प्रकाशित हुए। लक्षणावली के अतिरिक्त वीर सेवा मन्दिर से ध्यानयतक भी विस्तृत प्रस्तावना के साथ प्रकाशित हुमा है । पाप मौन साधक और कर्मठ अध्येता है। ___लमणावली एक मैन पारिभाषिक शब्दकोश है। इसमें लगभग 400 दिनमार मौर श्वेताम्बर ग्रन्थों से ऐसे सम्दों का संकलन किया गया है विक्की कुछ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कुछ परिभाषा उपलब्ध होती है। सभी उपलब्द होते हैं। उनका ठीक-ठीक अभिप्राय urse सेना पड़ता है। श्रीमदर्शन के संदर्भ में इस प्रकार के पारिवारिक सयको की भावयकता थी जो एक ही स्थान पर विकास-क्रम की दृष्टि के दार्शनिक परिभाषाओं को प्रस्तुत कर सके। इस कमी की पूर्वि merennent से वीभांति हो पई । इसमें परिभाषाओं के साथ ही सक्षिप्त हिन्दी अनुवाद भी मोटे टाइप में दिया गया है अनुवादित ग्रंथ भाग का क्रम भी साथ में 'कित किया गया है। अनेक वर्षों के परिश्रम के बाद इस ग्रन्थ का मुद्रा हो पाया है। लगभग 100 पृष्ठों की शास्त्री जी द्वारा लिखित प्रस्तावना ने इसे और भी क सार्थक बना दिया। श्री जुगलकिशोर मुक्तार धीर बाबू छोटेलाल की स्मृतिपूर्वक इस का प्रकाशन हुआ है। इसके दो भाग क्रमशः 1972 और 1975 ई० में प्रकाशित हुए हैं जिनमें लगभग 750 पृष्ठ मुद्रित हैं। तृवीय भाग का भी मुद्रण हो चुका है । सत्रों में शायः ऐसे समझने के लिए परिभाषिक उन रंगों का 11. ए डिक्शनरी ग्रॉफ प्रायर मेन्स भागों में प्रकाशित A Dictionary of Prakrit Proper names का संकलन और सम्पादन डॉ. मोहनलाल मेहता और डॉ. के. मार. चन्द्र ने संयुक्त रूप से किया है और एल. डी. इन्स्टीट्यूट महमदाबाद ने उसे सन् 1972 में दो किया है। डॉ. नेहता बौर डॉ. चन्द्र प्राकृत और मैन क्षेत्र के लिए बात नहीं । दोनों विद्वानों के अनेक शोधग्रंथ बोर निबन्ध प्रकाशित हो चुके है। डॉ. मेहता के द्वारा लिखित ग्रन्थों में प्रमुख है--Jaina Psychology, Jaina Culture, Jaina Philosophy जैन प्राचार, कौन साहित्य का वृहद इतिहास, जैन धर्म दर्शन भादि । डा. चन्द्र ने विमलसूरि के पउमचरिय का अंग्रेजी में पवन प्रस्तुत किया है जो प्रकाशित हो चुका है । इन दोनों विद्वानों ने उपर्युक्त कौन की रचना डॉ. मलाल शेलर के 'A' Dictionary of Pali-Proper names के नामों के सन्दर्भ में यह कोश अच्छी जानकारी प्रस्तुत करता है । 12. Jaina Bibliography : (Universal Encyclopaedia of Jajn References) सन 25 वर्ष पहले कारोबारी ने एक Jaina Bibliography प्रकाशित की ग्राम नहीं है। वीरवार को से डॉ. ए. एन. के सम्पादन में एक और Jains, Bibliogmphy एक बी हो चुकी है। इसे भी किया Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62 था। इसमें 1062 तक के शोध कार्यों को सम्मिलित किया गया है। लगभग 2000 पृष्ठी के इस ग्रन्थ की शब्द सूची बनाने का दुष्कर कार्य सामाजिक सेवा की दृष्टि से डॉ. भागचन्द्र भास्कर, प्रोफेसर एवं निदेशक जैन अनुशीलन केन्द्र, जयपुर विश्वविद्यालय ने हाथ में लिया था जो 250 पृष्ठ में पूरा भी हो गया था । । परन्तु संस्था के आन्तरिक विवाद ने डॉ. जैन के किये हुए कार्य को मटियामेट कर दिया भीर भाज वह बिना शब्द सूची के हो विक्रयार्थ उपलब्ध हुआ है। डॉ. जैन की प्रमूल्य सेवा की यह दुर्गति संस्थान की वर्तमान स्थिति को स्पष्ट रूप से सामने रखने के लिए पर्याप्त है। प्रस्तुत Bibliography में देश विदेश में प्रकाशित ग्रन्थों भौर पत्रिकाओं से ऐसे सन्दर्भों को विषयानुसार एकत्रित किया गया है जिनमें जैनधर्म और संस्कृति से सम्बद्ध किसी भी प्रकार की सामग्री प्रकाशित हुई है जो निम्नलिखित शीर्षक के अन्तर्गत संकलित की गई है । Encyclopaedias, Dictionaries, Bibliographies, gazetteers, Census Reports and gvides, Historical and archaeological accounts, Archaeology (including Museum), Archaeological Survey, History, Geography, Biography Religion, Philosophy and Logic, Sociology, EnthoPology, Educational statistics, Languages, Literature, general works. इन समस्त Arist को भाठ विभागों में विभाजित किया गया है। इस वृहदाकार ग्रन्थ में देशीविदेशी विद्वानो द्वारा लिखित लगभग 3000 पुस्तकों और नितन्धों मादि का उपयोग किया गया है फिर भी कुछ श्रावश्यक सामग्री संकलित होने से रह गयी है । इसके बावजूद यह ग्रन्थ निर्विवाद रूप से प्राचीन भारतीय संस्कृति, विशेषत: जैन संस्कृति के संशोधन के लिए अत्यन्त उपयोगी सन्दर्भ ग्रन्थ कहा जा सकता है । 12. अन्य कोश उपर्युक्त कोशो के प्रतिरिक्त कुछ मौर भी छोटे छोटे कोश जैन विद्वानों ने तैयार किये हैं। उनमें निम्नलिखित उल्लेखनीय हैं- श्री बलभी छगनलाल का 'ar pest' ग्रहमदाबाद से सन् 1812 में प्रकाशित हुआ था, जिसमें प्राकृत शब्दों का गुजराती में मनुवाद दिया गया था। इसी तरह एच० भार० कापड़िया का English-Prakrit Dictionary के नाम से एक कोश सूरत से सन् 1941 में प्रकाशित हुआ था । यहा हम डॉ. भागचन्द्र जैन भास्कर द्वारा संकलित पौर सम्पादित 'विनोदिनी का भी उल्लेख कर सकते हैं, जिसमें उन्होंने संस्कृत पालि, प्राकृत हिन्दी और गुजराती साहित्य में उपलब्ध हलिकाओं का संग्रह किया है। इसका प्रकाशन प्रमोल जैन ज्ञानालय, पूलिंबा की और से सन् 1968 में हुआ था। इसमें संस्कृत, प्राकृत साहित्य में उपलब्ध कुछ और भी प्रहेलिका Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का संग्रह कर आकार को कुछ मौर भी बढ़ कर दिया ग्रंथ अधिक उपयोगी हो पाता । 63 कादि वह इनके अतिरिक्त डॉ. मोहनलाल मेहता मौर के प्रार. बत्रा के सम्पादन में श्रमण मासिक पत्रिका, बाराणसी के जनवरी 1976 के प्रांक से जैनागम पदानुक्रम कोश का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ था जो काफी प्रश तक हो चुका है । इसी तरह युवाचार्य महाप्रज्ञ श्री मुनि नथमल जी के निर्देशन में कौन विश्व भारती लातू से मागम शब्द कोश का प्रथम भाग भी प्रकाशित हुआ है । यह बहुत सारी सूचनाओं से प्रापूर है। श्री श्री चन्द चोरड़िया का 'वर्धमान कोश' भी उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने वर्धमान महावीर के जीवन से सम्बद्ध उद्धरण एकत्रित किये हैं । तुलसीप्रज्ञा में भी डॉ. नथमल टांटिया ने जैन पारिभाषिक शब्द कोश का प्रकाशन प्रारम्भ किया है । इस प्रकार प्राधुनिक युग में अनेक जैन विद्वानों ने विविध प्रकार के कोश ग्रन्थों को तैयार किया, जो मध्येतानों के लिए अनेक प्रकार से उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। यहां हमने कतिपय कोशग्रंथों का ही उल्लेख किया है। इनके प्रतिरिक्त कुछ मौर भी छोटे-मोटे अनेक कोश ग्रन्थों की रचना जैन विद्वानों ने की होगी पर उनकी जानकारी हमे नही हो सकी। यहां विशेष रूप से ऐसे कोश ग्रन्थों का उल्लेख किया गया है जिनका सम्बन्ध प्राकृत भोर जैन साहित्य से रहा है। संस्कृत हिन्दी, गुजराती, अग्रेजी भादि भाषाओं के जैन विद्वानों द्वारा लिखित कोश इस सीमा से बाहर रहे है । जैनग्रंथ सूचियों को भी हमने जानबूझकर छोड़ दिया है क्योंकि माधुनिक दृष्टि से वे कोशों की परिधि में नहीं भातीं। हों, यदि हम कोश का संकीर्ण प्रर्थं न लेकर उसका प्रयोग विस्तृत अर्थ में करें तो निस्संदेह कोशकार एवं कोमग्रन्थों की एक लम्बी सूची तैयार हो सकती है । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्त 3 जैन दार्शनिक चेतना 1. स्याद्वाद और अनेकान्तवाद स्याद्वाद और प्रनेकान्तवाद निर्दोष कथन और चितन का एक प्रशस्त मार्ग है। वह अपने दुराग्रह से मुक्ति धौर दूसरे के विचारों की सादर स्वीकृति है । सूत्रकृतान जैसे प्राचीन बंग साहित्य में इसका विवेचन मिलना इस बात का चीक है कि स्याद्वाद का चिंतन जैनदर्शन में लगभग महावीरकालीन है। बौद्धधर्म का पालि साहित्य भी इस बात का समर्थन करता है । सूत्रकृताङ्ग मे भिक्षु के लिए विभज्जवादमयी भाषा का प्रयोग निर्दिष्ट है । विवाद का तात्पर्य है, सम्यक् अर्थो को विभक्त करने के बाद उसे व्यक्त करना । भाषा समिति के सन्दर्भ मे भिक्षु के लिए उपदिष्ट यह निर्देशन पत्यन्त महत्व - पूर्ण है संकेज याsifhaभाव सिक्लू, विभज्जवायं च विवागरेज्जा । भासा धम्मसमुट्ठितेहि, बियागरेज्जा समया सुपन्ने || .... विभव्यबाद - पृबगर्थनिर्णयबाद ज्यामुसीवाद दिया विषयबाद: स्वाद्वावस्तं सर्वत्रास्त्रलितं लोकव्यवहाराविसंवादितयासर्वव्यापिनं स्वानुभवसिद्ध ववेद, अथवा सम्यगर्थान् विभ्रम्य पृथक्कृत्वा तद्वाद वदेत्, तथा निस्ववाद पार्वता पर्यायार्यतया त्वनित्यवाद वदेद् तथा स्वद्रव्य क्षेत्रकालचार्यः सर्वेऽपि पदार्थाः सन्ति, परद्रव्यादिभिस्तु न सन्ति तथा चोक्तम्- "सर्वच सर्व को स्वादिचतुष्टयात् ? असदेव विपर्यासवेन व्यवतिष्ठते ।" wer बुद्ध भी प्रपने ग्राप की विभज्यवादी मान रहे है, नहीं। वहां महावीर के विभज्यवाद और बुद्ध के विवाद में कुछ है। सभी अपना दृष्टि कोसों को पवित्रूप से सत्य स्वीकार करता है बुद्ध का विजयवाद प्रत्रिम स्पष्टीकरण किये बिना उसे सही नहीं माना। व्यापक है और दूसरा सीमित । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहिल्य में भी नया केस विचारों का वि 'है। बुद्ध के प्रश्नों का पार्श्वनाथ के अनुयायी सम्पक द्वारा उत्तर दिये जाने पर बुद्ध ने उसमें स्वात्मविरोध का दूवा दिया। इसी प्रकार विपति द्वारा प्रस्तुत में भी "सबै पुरिमं खच्यं, पछि ते चिच्चा, सबै पन्धिमं सच्चे पुरिमं से" के रूप में परस्पर विरोध बतलाया है । बुद्धपोष ने महावीर की इस स्वादी विचारधारा को उच्छेदवाद पीर माक्सबाद का संमिश्र कहा है । इन से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भगवान बुद्ध के काल में तीर्थकर पाना और महावीर के सिद्धान्तों में स्वाद्वाद अपने प्राथमिक रूप में विद्यमान था । सूनकवाङ्ग का अन्य उद्धरण भी हमारे मत का पोषक बन जाते हैं । मयवाद नय और निक्षेप इसी स्याद्वाद के अंग-प्रत्यंग हैं। नय प्रमाण द्वारा वस्तु का एक देश ग्रहण करता है । प्रमाण घड़े को पूर्ण रूप से जानता है जबकि नय उसे मात्र रूपवान् घट मानता है। बोद्ध-साहित्य मे वस्तु-विशेष को जानने के 10 मार्ग बताये गये हैं- प्रतुस्तवेन, परंपरा, इतिकिंरिय, पिटकसंपदाय, भव्यरूपताय, समणो न गुरु, तक्किहेतु, नयहेतु, आकारपरिचितक्केन धीर दिट्ठिनिज्झानक्खन्तिया । इसमे भाठवां मार्ग नमहेतु है जो किसी एक निर्णय विशेष की धोर संकेत करता है । शीलाकाचार्य ने नय के उद्देश्य व लक्षण को किसी अन्य प्राचार्य का उद्धरण देकर प्रस्तुत किया है। उन्होंने लिखा है कि वस्तु को उसे ग्रहण और स्थान करना चाहिए । यही नय है सायम्मि गिरिणयब्बे, प्रमिठिहयध्वंसि भेव प्रत्यंगि aeroयमेव इति जो, उबएसो सो नम्रो नाम सूत्रकृताङ्ग के मूलरूप में नय-निक्षेप के भेदों का वर्णन नहीं मिलता । संभव है, जब इसकी रचना की गई हो, इन भेदों का जन्म न हुआ हो भ्रमवा सिर्फ मूल को संकेतित करने की अपेक्षा रही हो । शीलांकाचार्य ने प्रवस्य एक-दो स्थानों पर प्रसंग लाकर नय और निक्षेपों के भेदों का प्रल्प विवेचन प्रस्तुत किया है। उन्होंने नब के प्राय. सर्वमान्य सात भेद बताये हैं- वेगम, संग्रह, व्यवहार शब्द, समभिरूद व एवंभूत। इनमें प्रथम चार नव अर्थनय हैं और तीन नय सब्य सब हैं। कार ने इन सात नयों को एक दूसरे में करते हुए इसके कोकी है। सामान्य विशेष रूप से व्यवहार में नेवाने हो जाता है इसलिए यदि यह मग हूँ - समर एवं नमक नय में प्रवेश हो जाने से नैगम, संव्यवहार Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 शब्द ये मोच नय हैं। नैवमनय भी व्यवहार में अन्तरभूत हो जाता है यतः चार ही नय हैं। व्यवहार भी सामान्य और विशेष रूप है इसलिए सामान्य और विशेषात्मक संग्रह मौर ऋजुसूत्र में इसका म्रन्तर्भाव हो जाता है। अतः संग्रह, ऋजुसूत्र और शब्द ये तीन नम्र हैं । ये तीन नय भी द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक में अन्तभूत हो जाते हैं इसलिए द्रव्यास्तिक और पर्यायास्तिक ये दो नय है । इन्हीं को द्रव्यार्थिक ate veforfen प्रथवा निश्चय मौर व्यवहारतय भी कहा जाता है । ये सभी नय ज्ञान और क्रिया में गभित हो जाते हैं । श्रत ज्ञान और क्रिया नामक दो नये हैं । उनमें शाननय ज्ञान को प्रधानता देता है और क्रियानय क्रिया को मुख्य मानता है । वस्तुत पृथक्-पृथक् रूप से सभी नय मिथ्या हैं और ज्ञान तथा क्रिया ये दोनों परस्पर की अपेक्षा से मोक्ष के भंग हैं, इसलिए इस दर्शन में दोनों ही प्रधान हैं। ज्ञान और क्रिया ये दोनों भिन्न-भिन्न विषय के साधक हैं, परन्तु परमार्थत समुदित रूप में पंगु और अंधे के समान अभिप्रेत फल (मोक्ष) देने में सक्षम हैं। इसलिए कहा है सब्वे सिपि मारण, बहुबिबत्तय्वयं णिसामेत्ता । तसवय विसुद्ध जं चरणगुणट्टियो साहू || वस्तु अनंत धर्मवान् है प्रतएव कथनाद्धति भी प्रनत होती चाहिए। इसलिए लिखा गया है ? जावया वयरणपहा, तावइया जेव होंति नयवाया । अर्थात् जितने वचन पक्ष हैं उतने ही नय प्रकार होते हैं फिर भी आचार्यो ने इन नयो को अधिक से अधिक उक्त रूप से सात भागों में मौर कम से कम दो भागो मे विभाजित किया है। इन सात नयों के संक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार हैं (1) नंगमनय - सामान्यात्मक और विशेषात्मक वस्तु का एक प्रकार से ज्ञान नहीं होना, नैगमनय है । सर्वार्थसिद्धि में संकल्प मात्र को ग्रहण करने वाला गमन बताया है। इसका दूसरा नाम नैकयमः प्रभवा नैकमगमः दिया गया है । इसका अर्थ है कि यह नय किसी एक विषय पर सीमित नहीं रहता, गौरा, सोर प्रधान रूप से धर्म और धर्मी दोनों का विषय-कर्ता है । समस्त पदार्थों में रहने वाली सत्ता को महासामान्य और द्रव्यत्व, जीवत्व आदि में रहने वाली सत्ताको भवान्तरालसामान्य कहा जाता है । यह नय परमाणु श्रादि विशेष पदार्थों के सुखों का भी परिच्छेद रहता है । प्रनुयोगद्वार में इस नय को निलयन, प्रस्थक और प्रवेश इन तीमवृष्टान्तों के माध्यम से समकाया है। धर्म-वर्भी पक गुराखी सा भेद मानमानैगमाभास कहलाता है । इस दृष्टि से नैयायिक-वैशेषिक वीर साय दर्शन नेमाभासी हैं। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (चों के सामान्य आकार का सम्यक् ग्रहण संपन हैं । त्वरि स्वभाव वाली सत्तावान् वस्तु को यह नये स्वीकार करता * सत्ता से व्यतिरिक्त वस्तु परविषाण के समान परिवहन है। गां वस्तु के सामान्य अंशमात्र को ही ग्रहण करना इस नय की सीमा है । area विशेष रहित सामान्य मिध्यादृष्टि है पर यही संग्रहामास हैं । पुरुषाय, ज्ञानात, मन्दाद्वैत प्रादि प्रद्वैतवाद संग्रहामास के अन्तर्गत है । (3) महारत यह नय लोक प्रसिद्ध व्यवहार का agent होता है लेकिन वस्तु के उत्पाद-व्यय-प्रोव्यात्मक स्वभाव से अपरिचित होने के कार पह नय भी मिया-कृष्टि है । वस्तु के यमेवश्व का सर्वथा निराकरण करना चहा मास है । सभातिक, योगाचार, विज्ञानाद्वैत र माध्यमिक दर्शन व्यवहारात अन्तर्गत प्राते हैं । (4) सूत्रमय वस्तु की वर्तमान पर्याय से इस नब का सम्बन्ध है । उeer uatr और अनागत पर्याय से कोई सम्बन्ध नहीं । सामान्य विशेषात्मक वस्तु के मात्र विशेषांश का ही समाश्रयसे होने के कारण यह दृष्टि सम्यकू नहीं है क्षतिकवाद ऋजुसूत्राभास है । (5) शब्दमय - शब्द द्वारा ही लिंग, वचन साधत, उपग्रह-न काल के भेद वस्तु के भिल-भिन्न अर्थों को ग्रहण करना है। उदाहरणार्थ पुष, तारा व नक्षत्र में समान अर्थ होने पर भी लिंगभेक है । जब प्रपः वर्षा ऋतु में संख्याभेद है । 'एहि मन्ये रथेन यास्यसि' में वाचनाद है। तानि रमते, उपरमति में उपग्रहभेद है । अतः मदभेद से प्रथमेव-मानवा अन्यथा वैयाकर पाधारहीन हो जायेंगे | क्ि है। (6) समसिंग आदि से प्रभिन्न शब्दों में अनेक विषय Heer प्रवृत्तियो का द्योतन होना समभिनय हैं। जैसे इन्द्रः शऋः पुरन्दरः अथवा घटः, कुद, कुस्त्र में समान-सिम होने पर भी प्रवृत्ति निर्मित की अपेक्षा से वर्ष में मिलता है । शब्दनय में समान लिम्बी पाक में वेद नहीं तु समfies नय पर्यायार्थक शब्दो मे भी पर्थभेद स्वीकार करता है । उसी रूप में में प्रयुक्त हो (7) एवंभूत-दीप में हो उसे स्वीकार करना एवभूवनय है। जैसे युक्ती जब जलादि के बाहर तभी पटको घट कहना चाहिए, निर्व्यापार स्थिति में नहीं। इस प्रकार यह नय हीदी प्रवृत्ति स्वीकार करता है जबकि क्रिया हो पति की हदों को भी स्वीकार कर लेता है । प्रयुतिक्त सत्र के स्थान पर धम्म शब्द का प्रयोग एवं नयागा है। हो Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये नय उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय को ग्रहण करने वाले हैं। मैगम-मय सदप्रसत् दोनों का ग्राहक है किन्तु संग्रहनय मात्र सत् को ही म्हण करता है। व्यवहार-नय की सीमा त्रिकालवर्ती पदार्थ को ग्रहण करना है। किन्तु युसूफान बर्तमान पदार्थ को ही जान पाता है। शादनय पर्यायभेद होने पर भी प्रभिन्न मर्य को स्वीकार करता है । एवंभूतनय क्रियाभेद से मथं को ग्रहण कर सबसे सूक्ष्म विषय को स्वीकार करने वाला नय है । निक्षेपवाद निक्षेप का अर्थ रखमा प्रथवा नियोजित करना है। साम्द के अर्थ बक्तृ बोपन्य, काकु, प्रसंग:मादि के कारण भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। ये कथन या तो भेवप्रधान होते हैं या फिर प्रभेदप्रधान । यद्यपि मौलिक अस्तित्व द्रव्य का है परन्तु उसका व्यवहारिक अर्थ के सम्भव नही प्रतः व्यवहार के निमित्त पदार्थों का निक्षेप प्राचार्यों ने नार पर्थों में प्रयुक्त किया है-नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । वक्ता अपने विवक्षित प्रथे को इम्ही के माध्यम से व्यक्त करता है। यही निक्षेप है। परिशा शब्द का भी निक्षेप अर्थ में प्रयोग हुमा है । परिज्ञा दो प्रकार की है-द्रव्यपरिज्ञा और भाव-परिज्ञा । माव-परिज्ञा के भी दो भेदह-ज्ञा-परिशा और प्रत्यास्यानपरिज्ञा । द्रव्य-परिज्ञा तीन प्रकार की है-सचित्त, अचित्त और मिश्र । पौण्डरीक अध्ययन मे निक्षेप के पाठ भेद बताये बताये गये हैं-नाम, स्थापना, प्रव्य, क्षेत्र, काल, गरगना, संस्थान और भाव 1 वहीं गणना और संस्थान को छोड़कर छह भेद भी बताये गये हैं । अन्य स्थान पर निक्षेप के पांच भेद गिनाये गये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र भोर भाव । प्रपम अध्ययन में शीलांक ने निक्षेप के तीन भेद किये है-पोष निष्पन्न, नामनिष्पक्ष और सूत्रालापक निष्पन्न । नामनिष्पन्न के बारह प्रकार मिलते हैं. नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, कुर्तीर्थ, संगार, कुल, गण, सकर, गण्डी और भाव । इसके उदाहरण मादि भी यहां दिये गये हैं-- नामठवरणा दविए देते काले कुतित्यसंगारे । कुलगण संकर गंडी बोद्धम्बो भाव समए य ।। निक्षेप का मुख्य प्रयोजन अप्रस्तुत का निराकरण कर प्रस्तुत का बोष कराना, संशय को दूर करना और तत्वार्थ का अवधारण करना है अवगयरिणबारणह पयवस्स, परूवरणारिणमित्तं च । संसपविणासणटुं, तम्बत्यवधारणटुं च ॥ स्यावाद भाषा की वह निर्दोष प्रणाली है जिसके माध्यम से सरे के विचारों का समादर करता है । अनेकान्त यचपि स्थूलतः स्थाबाद का पर्यायवाची धब्द कहा जा सकता है फिर भी दोनों में भेद है। स्थावाद धावा-दोष बवाना Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और अनेकान्तवाद लिन को निर्दोष घोषित करता है। दूसरे दों में ग्रह कह सकते हैं कि अनेकान्तवाद पूर्वक स्माद्वाद होता है क्योंकि निस्ट चिह्न के बिना thega भाव का प्रयोग सम्यक् रोति से नहीं हो सकता। जैवदर्शन के अनुसार वस्तु है । वह म संद है, और न प्रसद्, न नित्य है, न प्रतित्य किन्तु किसी अपेक्षा से सद हैं, मसत् है, नित्य है और प्रनित्य भी है। मदः सर्वे सद we, free, प्रनित्य इत्यादि एकान्तवादों का निरसन करके वस्तु का स्वरूप कचित् सत्, ब्रसत्, नित्य, मनित्य निर्धारित करना धनैकान्त है । पारस्परिक विचार-संघर्ष को दूर कर शान्ति को चिरस्थायी बनाने का यह एक ममोष वस्त्र है । इस स्थिति में यह परापवादक कैसे हो सकता है- नेत्रे frees freeष्टक, कौटसर्पान् । सम्यक् यथा व्रजति, तत्परिहृत्य सर्वान् ॥ कुकाम कुश्रुति कुमार्ग, दृष्टि दीवान, सम्यक् विचारयत, कोडम परापवादः ॥ स्याद्वाद में 'स्यात्' शब्द कवित् म का चोत है। यह शब्द संतय, सभावना, कदाचित् भ्रथवा अनिश्चित अर्थ का प्रतीक नहीं, प्रत्युत अपेक्षाकृत 'दृष्टि से सुनिश्चित अर्थ की अभिव्यक्ति करने वाला है। इसमें स्व-पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से वस्तु के सन्दर्भ मे विचार किया जाता है। वस्तु के नित्यानित्यात्मक भेदभेदात्मक, एकानकात्मक मादि तत्वो को स्याद्वाद एक सुनिश्चित दृष्टिकोण की पृष्ठभूमि मे उपस्थित करता है । वस्तु की तीन अवस्था रहती है । सर्वप्रथम उसको उत्पत्ति होती है, उसके बाद भित्र-भित्र पर्यायों में परिणमन रूप विकास दिखाई देता है जिसे व्यय कहते हैं इस परिणमन मथवा व्यय की अवस्था मे कुछ तत्व ऐसे भी रहते हैं जिनमें परिवर्तन नही होता । इन अपरिवर्तनशील तत्वों को धौव्य कहा जाता है। इस सिद्धान्त को सुस्पष्ट करने के लिए शीलाकाचार्य ने एक परम्परागत प्रसिद्ध उदाह रा दिया है- घटमविर्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । we प्रमोदमाध्यस्थ्य, जनो याति सहेतुकम् ।। सप्तमी शब्द मे विधेयात्मक और निषेधात्मक प्रवृद्धि हुमा करती है । पदार्थ में ये दोनों प्रकार के तत्व मनन्तरूप से विद्यमान हैं। उनका कथन प्रकाश सन्नी द्वारा से करने का प्रयत्न किया गया है। एक वस्तु में afree fafe और निषेध की कल्पना को सक्षम इस प्रकार से निर्दिष्ट हूँ । में प्रत्यक्ष कहा जाता है + Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1. दिपिकल्पना (स्यादस्ति) । 2. प्रतिवेधकल्पना (स्यात्रास्त)। 3. नमः विपि प्रतिष-कल्पना (स्मादस्तिनास्ति)। 4. युगपद् विपि प्रतिषेष-कल्पना (स्यादवसभ्यम्।। 5.विषिकल्पना पौर मुगपद् विपि प्रतिषेधकल्पना स्वाभाविक मल 6. प्रतिषेध कल्पना पौर युगपद् विषि प्रतिषेध-कल्पमस्या 7. मशः मोर युगपद् विधि प्रविषध- कल्पना (स्यादस्तिका नाति मे. इन सात भङ्गो के अतिरिक्त पाठवा भङ्ग होना सभव नहीं । इन भलों में मूलत. तीन भङ्ग है । तीन वस्तुप्रो का समिधरण शानिक माधार पर सात वस्तुभों से अधिक वस्तुमो की उत्पत्ति नहीं कर सकता । इसलिए आत प्रङ्गो से अधिक मङ्ग हो नही सकत । सात भङ्गों के क्रम-विधान में पाचायों के बीच मतभेद दिखाई देता है। सर्वप्रथम भाचार्य कुन्दकुन्द ने सात मङ्गो का नामोल्लेख मान किया है। उनमें से प्रवचनसार (गाथा 2.23) मे स्वादवक्तव्य को तृतीय भङ्ग और स्यादस्ति नास्ति को चतुर्थ भङ्ग माना है किन्तु पचास्तिकाय (गाया 14) मे स्वादस्तिनास्ति को उतीय पोर प्रवक्तव्य को चतुथ भङ्ग माना है। इसी तरह मकलंकी ने अपने तस्वार्थवातिक म दो स्थलो पर सप्तभङ्गो का कथन किया है। उनमें से एक स्थल (पू. 353) पर उन्होने प्रवचनसार का क्रम अपनाया है और दूसरे स्थल (पृ. 33) पर पचास्तिकाय का । सभाष्य तत्वार्याधिगम (म./31 स.) पौर विशेषण- श्यक भाष्य (गा. 2232) में प्रथम क्रम अपनाया गया है। किन्तु प्राप्तीमीमासा (कारिका 14), तत्वार्थश्लोकवातिक (पृ. 128), प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ. 682), प्रमासनमवस्वालोकालकार (परि. 4, सू. 17-18), स्यावादमजरी (पृ. 189), सप्तममीवरसिसी (प.2) और नयोपदेश (पृ. 12) में दूसरा क्रम अपनाया गया है। इससे लगता है कि दार्थनिक क्षेत्र मे स्यादस्ति-नास्ति को तृतीय और स्यादवक्तव्य को बर्ष मन मानकर सप्तभङ्गी का उल्लेख किया है। वस्तुतः स्यादस्तिन्नाम्ति को तृतीय मा मानना कही अधिक उचित है। शायद यह शीलांक को भी स्वीकार रहा होगा। उनके द्वारा उल्लिखित भङ्गो से यह बात अधिक स्पष्ट हो जाती है। (1) क्रिया स्थानो के वर्णन के प्रसग मे पार निभङ्गो का उल्लेख है1. अमिनो देवनामनुबन्ति विदन्ति, 2. सिवास्तु विन्ति नानुभवन्ति, । ३. अमिनोनुभवन्ति न पुनविदन्ति, । 4. अचीवास्तु न विवन्ति नाप्यमुपवन्ति । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 한 1 + (2) के पत्रके तस्यैव च निष्ठि निष्ठितं । - . 3. अभ्यस्तस्य निष्ठितं । 4. समस्त धन्वस्य निष्ठितं । 71 और बौद्ध साहित्य में भी ये चारों भङ्ग दिखाई देते हैं। संजय वेल गौतम बुद्ध की agonifiटयां प्रसिद्ध ही है। मक्बलिगोशाल का राशिक- सिद्धांत की भी इस सन्दर्भ में उल्लेख किया जा सकता है। चतुष्कोटिक सिद्धांत की अपेक्षा त्रिकोटिe fain प्राचीनतर होना चाहिए। मरियमविकास में विगष्ठम के बहुयायो दोषला परिव्राजक के कथन में यह त्रिकोटिक प्रश्न विशेष उल्लेखनीय है 1. सब्जं मे खमति (स्यावस्ति) । 2. सव्वं मे न खमति (स्यान्न । स्ति) 3. एकवं मे संमति, एकच्च मे न खमति इस उल्लेख से यह स्पष्ट हो जाता है कि की गणना तृतीय भङ्ग के रूप में होनी चाहिए । (स्यादस्ति नास्ति ) । 'स्यावस्ति नास्ति' नामक मङ्ग 2. ध्यान का मनोब ज्ञानि विश्व वरप मानवीय विज्ञानों में मनोविज्ञान भाज एक प्रत्यन्त लोकप्रिय विषय हो गया है । व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया का सबन्ध उसके मन से जोड़ा जाता है। यह तथ्य संगत है मी जीव की मानसिक अवस्था का ही चित्रेण निस्संदेह उसकी दैनिक . क्रियामों में होता है । भाव, उद्वेग, सर्वेग, स्मृति, कलमा, विस्मृति, अनुभव, भावत ध्यान, प्रत्यक्षीकरण प्रादि असगी से वह सम्बद्ध रहता है । यहीं उसको क्षेत्र है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते है कि मनोविज्ञान प्राणों की क्रियाओं प्रथवा उसके ' व्यवहारों का अध्ययन प्रस्तुत करता है । जैन वन में वात ध्यान का क्षेत्र भी मनोविज्ञान के उक्त क्षेत्र से भक् नहीं । प्राचीन काल में मनोविज्ञान दर्शन के साथ बंधा हुआ था । परन्तु प्राधुनिक मनोविज्ञान ने दर्शन के क्षेत्र से हटकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना लिया है। दर्शने के क्षेत्र में संसार और मोक्ष की बात पाती है । परन्तु आधुनिक मनोविज्ञान साधारातः इससे दूर है । यद्यपि वहाँ संवेन मादि भाव का सुन्दर विक्लेक्शन है परन्तु कर्म जैसे सिद्धांतों से उसका सीधा सम्बन्ध नहीं । तुलनात्मक दृष्टि देखा जाये तो स्थूलतः प्रातुनिक मनोविज्ञान और जैन दर्शनको म्यानम विज्ञान समान रूप से व्यक्ति के मन अथवा मानसिक क्रियाओं पर केन्द्रित भ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान का माप जैन साहित्य में "एका पिता निरोषो" कहा गया है। यहां चिन्ता का तात्पर्य है पन्त. करण व्यापार-चिन्ता पन्तकर पतिः। . बमन, भोजन, भवन, मध्ययन प्रादि विविष क्रियामों में मटकाले बामी मितिका एक क्रिया में रोक देना निरोष है। मन का तात्पर्य प्रधान के अतिरिक्त, "पर तीति अग्रम पात्मा" कहा गया है। इस म्युत्पत्ति से ध्यान का नाम है प्रधान मात्मा को लक्ष्य बनाकर निन्द्रा का निरोष करना । इसमें बाह चिन्तामों से नित्ति होती है और स्वकीय बुति में प्रवृत्ति होती है । ध्यान की परिभाषा में मान के प्रतिरिक्त ध्याता और ध्येय (मासंबमविषय) भी समाविष्ट है अर्थात किसी पालम्बन पर जब ध्याता मन्तःकरण की मापारिक क्रियाओं को केन्द्रित करता है तब हम उसे ध्यान कहते हैं। माधुनिक मनो. विशाम में भी ध्यान की परिभाषा यही दी गई हैं। जैन धर्म मे ध्यान के चार प्रकार किये गये हैं-पातं ध्यान, रोद्र ध्यान, धर्म ध्यान, मौर शुक्ल ध्यान । "विष, शत्र, शस्त्र भादि दुखद प्रप्रिय वस्तुमो से मिल जाने पर ये मुझ से कैसे दूर हो" इस प्रकार की सबल चिन्ता करना मार्स ध्यान है । इसमें क्रन्दन, दीनता, मश्र बहाना और विलाप करना जैसे लक्षण मिलते है। बाधक तत्वो के माने पर स्वभावतया व्यक्ति का मन और उसकी क्रियायें उन तत्वो को दूर करने में जुट जाती है । दूर करने की चेष्टामो मे जम शक्ति क्षीण हो जाती है तब वह रोने चिल्लाने लगता है । इस प्रवृत्ति के पन्तर्गन मरुचिकर संयोग को वियुक्त करना, रुचिकर सयोग को पृथक् न होने देना, सम्प्रयुक्त होने पर उसके विप्रयोग की स्मृति से समन्वागत होना और प्रीति जनक काम भोगो के सम्प्रयोग से सम्प्रयुक्त होने पर उनके मविप्रयोग की स्मृति से समन्वागत होना, ये पार प्रकार के मनोभाव दिखाई देते है। इनके होने पर व्यक्ति का मन सदैव दूषित 1. उत्तम सहननस्यकामिन्तानिरोधो ध्यानमाम्तहादतवाचं सूत्र 9.26. 2. बत्वार्थ वातिक 9.27.4. ३. बही-9. 27. 29 4. चित्तवृत्तियो को सभी पदार्थों से हटाकर किसी एक विशेष पदार्थ प्रया विषय पर केन्द्रित कर लेना, भ्यान है-मनोविज्ञान, पं. जगदानन्द पांडेय पुष्ट 277 5. तत्वा सूज 9. 28. 6. ही 9.30. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौरमा पका है। और तो सा, सीमावि बाईना में प्राकामी बों में श्रीराम कर निकाल पापा पाता प्रयोगाअन, कला संकल्लों से काम, विषय सम्हालय परीवारलायी। कपालीचार प्रभावी बात को होने है। साहलाई। इसमें पति हिलादि पापों से पनि प्रति उनसे दूर होने की चेष्टा नहीं करता, उन पापो को धर्म माता परमात पर्व भी पार का पलासा नहीं करता। ये मनोवृत्तिा दिवस पर कापोव या बालों की होती हैं। इस कारण जीप नरकवानी होता है। सैद्र ध्यान देशपती के भी बताया गया है परन्तु कि यह सम्मा-ष्टि होता है लिए उसका रोद्र ध्यान मरकादि गतियो का कारण नहीं होता बह निश्चित है कि बहा हिंसा, प्रसत्य, बोरी मादि अंसी सक्लेवमयी दुष्प्रवृत्तिया होती है यहां भक्ति के मन मे पार्मिक प्रवृत्ति का होना समय नहीं होता। वह मनोवंशानिकतम है। धर्म ध्यान (पार्मिक विषय पर चिंतन) चार प्रकार का है-मामाविषय, पपायविषय, विपाक विजय भौर सस्थान विषय ।बिनेन बनो के पुरखोका चितन करना और तदनुसार पदार्थों का निश्चय करना मासाविस है। रामदेषादि से उत्पन होने वाल वोषो को पयार्यालोचना तथा सम्मान के बाप बसों पर विचार करना अपायविषय भ्यान है । भानावरण पादि अष्टकमों के ब्रम्प, क्षेत्र, काल भव भोर भाव निमितक फनानुभवन का विचार विमा विषय है। और लोक के स्वभाव सस्थान बादि के स्वरूप पर विचार करना धर्मपान हलाता है। इन सभूचे भेदो मे जिन-सिवान्तो पर चितन, मनन मोर मनुकरण करने की प्रवृत्ति रखना उनका मुख्य कार्य प्रतीत होता है। उत्सम जमानि बस पो से मोत. प्रोत होने के कारण यह धर्मध्यान कहलाता है । चौथे, पांच पोर को मुण-स्थान वर्ती जीव इसके स्वामी होते है । यह ध्यान सम्यवर्शन पूर्वक होता है। पामाथि निसर्म कपि, उपदेश चिौर सूच कपि मे धर्म ध्यान के पार पक्षण है। पाचना, प्रतिश्या , परिवर्तना और धर्म कपा, बार उसके बावार है । भनित्य, बबरण, एकल और संसार, ये चार बर्म ध्यान की अनुप्रेक्षा है। यहां तक बीच जिनेन्द्र के 1. बवार्यवातिक 9.33. 2. भाभाविपासंस्थानविश्वायम्वत्या सून, 9.39 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44. उपदेशों पर चलकर बहुत कुछ निर्मोही हो जाता है मीर उसकी मानसिक अनुत्तिया aaree netra से दूर हो जाती हैं। शुक्लयन में साधक प्रात्मतत्व में चित्र को स्थिर करता है। वाय के चार मेवाश्रये ई-पृथक विवकं सविन पर विचार करना), एकस्व ब्रिक मविवारी (द्रव्य की किसी एक रूप से चिंतन करना), सूक्ष्म क्रिया मनिवृत्ति (उच्छवास मादि सूक्ष्म क्रियात्रों से निवृति के पूर्व उत्पन्न होने वाला घ्यान), व्युपरत किया निविः अथवा समुक्रिया प्रतिपाति (स्वसोवास भादि समस्त बाधों के बांदो से प्रकट हुई विश्वास अवस्था) 14 विवेक, व्युतार्ग, अव्यथा, और सम्मोह, ये ध्यान के बार कक्ष हैं। क्षति, मुक्ति, बाजेव और मार्दव ये चार उसके हैं। अपायानुप्रेक्षा तुप्रेक्षा, प्रनन्त वृत्तितानुप्रक्षा और विपरिणामानु, क्षा ये चार उसकी मनु खाये है। शुक्ल ध्यान का प्रथम ध्यान भावें गुणस्थान से ग्यारहवें गुण-स्थान तक, दूसरा ध्यान तेरहवे सुरपस्थान में, तीसरा ध्यान तेरहवें गुल स्थान के अन्तिम भाग मे मौर चौथा ध्यान चोदने गुणस्थान मे होता है। महब दो ध्यान साल बन होने के कारण श्रवज्ञानी के होते हैं तथा शेष दो ध्यान निरालम्बन होने के कारण केवलज्ञानी के होते हैं 7 ध्यान के उपर्युक्त चार मेदो में व्यक्ति के विकास की अवस्थायें प्रदर्शित की गई है । ध्यान का स्वरूप जैनंतर दशनों में भी वर्णित है, त्मक विधान की समरचनायें उनमें दिखाई नही देती । सबसे बड़ी विशेषता है | परन्तु मानव के विकासाजनधम क ध्यान की यह जैन दर्शन की दृष्टि से प्रात्मा का स्वरूप यद्यपि मूलतः विशुद्ध माना गया है, परन्तु विविध कर्मों के संसर्ग से वह भविशुद्ध होता जाता है। ससार की सर्वाfue wa भावना का प्रतीक प्रथम भास ध्यान हैं मीर उससे कुछ कम द्वितीय रोज ध्यान है । ये दोनो भातं मोर रौद्र ध्यान ग्रप्रशस्त माने गये हैं। शेष अन्तिम दो ध्यान प्रशस्त माने जाते हैं और वे मुक्ति कारण है । प्रशस्त और प्रवस्त ध्यानो के बीच की एक ऐसी संक्रमण अवस्था है जहाँ साधक की मानसिक चेतना पापमयी वासना से कुछ सीमा तक दूर हो जाती है मानवीय धर्म की ओर अपना पग बढ़ाने का प्रयत्न करता है में नानक ने मनोवैज्ञानिक ढंग से पूर्गबड़ी मात् प्रवृतियों में सत्प्रवृत्तियों 1. तत्वार्थ वार्तिक, 9.36. 2. तत्वार्थ सूत्र, 8.36. 3. वही, 9. 37.38, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को करने का में व्यक्ति विशेष को इषि संब और शनै: वनैः उसे जिनान के अनुकूल बनाने का कथन करता है। उत्तम दिवस ही उपदेश दिया जाता है इस स्पा में मौत के सिद्धांतों का मर्म और परिपालक बन जाता है । वहाँ उसको मार्मिक संस्था संट हो जाती है। ध्यान चूंकि चंचल होता है इसलिए उससे विरत रखने के लिए पूर्ण विषयक कथा साहित्य का प्रयोग किया जाता है। धर्मध्यान को सुस्थिर रहने के लिए उसकी वस्तुनिष्ठ (तीव्रता, याकार, गति, व्यवस्थित रूप, नवीनता प्रनुचितन) पर मनोवैज्ञानिक ढंग से विचार किया जाता है" सनीवैज्ञानिक विश्ले इस प्रकार जैन वन में 'वरित ध्यान के स्वरूप का धरण करने से हम इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि ध्यान व्यक्ति की अशुद्ध मानसिक मस्था का विशुद्ध मानसिक मनस्था की मोर क्रमिक है । 3. जैन भूगोल समग्र भारतीय वाङ्मय की मोर दृष्टिपात करने से यह निष्कर्ष निकालना तिहासिक नहीं होगा कि उसका प्रारम्भिक रूप बंति परम्परा के माध्य पीढ़ी दर पीढ़ी गुजस्ता हुआ उस समय संकलित होकर सामने माया जबकि उसके धार पर काफी साहित्य निर्मित हो चुका था । यह तथ्य वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों संस्कृतियों के प्राचीन पन्नों के उलटने से उद्घाटित होता है। ऐसी स्थिति में प्रत्कीन सूत्रों में अपनी आवश्यक्ता परिस्थिति और सुविधा के अनुसार परिवर्तन मौर परिवर्तन होता ही रहा है । वेद, प्राकृत मौर जैन भागन तथा त्रिपिटक साहित्य, का विकास इस तथ्य का निदर्शन है । इसी प्रकार वह तथ्य भी हमसे छिपा नही है कि तीनों संस्कृतियों ने अपने साहित्य मे तत्कालीन प्रचलित लोक कथाओं और लोक गाथाम्रों का अपने-अपने ढंग से उपयोग किया है। यही कारण है कि लोक कथा साहित कथायें कुछ हेर-फेर के साथ तीनो संस्कृतियों के साहित्य में हुई है । इस कथा सूत्रों के मूल उस्स को खोजना परम नहीं है। किस सूर्य की किसने " कहां से लेकर आत्मसात किया है निर्विाद से हल नहीं किया जा सकता। मानकर व अधिक उचित होगा कि इस प्रकार के कर्णालीक कथाओं के मंच रहे जिनका उपयोग सही धर्माचायों से र्मिक सिद्धांत' के प्रतिपादन की पृष्ठभूमि में किया है। तक चौबोलिक मान्यता का प्रश्न है, यह विषय भी कम विवादास्पद नहीं। दोनों संस्कृतियों के मौकों का उस एक ही रहा होगा जिसे विकिया Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबर्ग में जब हम भारतीय 'भौगोलिक शाम के ऊपर दृष्टिपात करते हैं-सब उ निकाय स्वरूप को माठ प्रमुख युगों में विभाजित कर सकते हैं 1. सिंधु सभ्यता काल (श्रादिकाल से लेकर 1500 ई. पू. तक) 2. मैदिक काल ( 2000 ई. पू. तक) 3. संहिता काल (1500 ई. पू. तक) 4. उपनिषद् काल (1500 ई. पू. से 600 ई. पू. तक) ई. पू. से 600 ई. पू. तक) 5. रामायण- महाभारत काल (1600 से 6. जैन-बौद्ध काल (600 ई. पू. से 200 7. नया पौराणिक काल ( 200 से 800 ईसवी तक ) ई. तक) 8. मध्यकाल ( 800 से लगभग 16 बी बताब्दि तक) भारतीय भौगोलिक ज्ञान का यह काल विभाजन एक सामान्य दृष्टि से किया गया है । इन कालों मे मूल भौगोलिक परम्परा का विकास सुनिश्चित रूप से हुभा है । भूगोल (Geography) यूनानी भाषा के दो पदों Ge तथा grapho से मिलकर बना है । ge का प्रयं पृथ्वी धौर graphio का अर्थ वर्णन करना है । इस प्रकार geograpoy की परिधि मे पृथ्वी का वर्णन किया जाता है । भूगोल जिसे हम साधारणतः पौराणिकता के साथ जोड़ते चले प्राये है, प्राज हमारे सामने एक प्रगतिशील विज्ञान के रूप में खड़ा हो गया है। उसका उद्देश्य और मध्यमन काफी विस्तृत होता चला जा रहा है। उद्देश्य के रूप मे उसने मानव की उन्नति मौर कल्याण के क्षेत्र मे अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है इसलिए भाज वह प्रन्तरवैज्ञानिक ( lhterdisciplinary) विषय बन गया है । जैसे-जैसे भूगोल के अध्ययन का विकास होता गया विद्वानों ने उसे परिभाव से बांधने का प्रयत्न किया है । ऐसे विद्वामो में एकरमेन, ल्यूकरमैन, यीट्स रिहर, हेटनर, भादि विद्वान प्रमुख है जिनकी परिभाषाम्रो के माधार पर भूगोल की निम्नलिखित परिभाषा प्रस्तुत की जाती है-', भूगोल वह विज्ञान है जो पृथ्वी का अध्ययन तथा वन मानवीय ससार या मानवीय निवास के रूप में, 1. क्षेत्रों या स्थानो की विशेषता 2. क्षेत्रीय विविधतामों तथा 3. स्थानीय संबन्धों की पृष्ठभूमि में करता है । इस प्रकार भूगोल पृथ्वी पर वितरणों का विज्ञान है (Science ot distribution on Barth ) है । -A Dictionary ot mohkhause, F. D. geography, London, - भौगोलिक विचार धारा एवं विधितंत्र में कि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस परिया के माधार पर यह कहा जा fter में पृथ्वी का uses प्रमुख है। इस कप में बre सम्मिलित है- 1. पृथ्वी पर समस्त व अण्डों और महासागरों के तल । 2. पृथ्वीतल से थोड़ी गहराई तक का सीमा प्रभावकारी पर्छ । 3. वायुमंडल, विशेषतः वायु मंडल का निचला पर्व, जिसमें जलवायु की विभिन्नता होती हैं । 4. पृथ्वी के सौर सम्बन्ध । पृथ्वी को केना में रखकर जर्मनी, फांस, अमेरिका सोवियत संघ प्रादि देशों में काफी शोष हुये हैं और हो रहे हैं। वहां के विद्वानों की भौगोलिक विचार धाराओं को हम एक दूसरे की परिपूरकता के संदर्भ में समझ सकते हैं । उनके अध्ययन में दो पक्ष उभरकर सामने माते हैं- 1. वातावरण प्रौर परिस्थिति विज्ञान 2. प्रादेशिक विभिन्नतायें और मानवीय प्रगति तथा कल्यास में भागतायें और प्रसंतुलन । इस संदर्भ में जब हम प्राचीन भूगोल मौर प्रर्वाचीन भूगोल की दीवा करते हैं तो हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्राचीन भूगोल कतिपय ढोकापनों पर प्राधारित रहा है और माधुनिक भूगोल वैज्ञानिक तथ्यों पर बल है मानवीय साधनों की क्षमता और योग्यता पर अधिक बल दिया जाता है । प्राचीन भूगोल प्रार्थिक प्रगति से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं रखता जबकि आधुनिक भूगोल का तो यह केन्द्रीय तत्व ही है। इसलिए माधुनिक यूगोल को व्यावहारिक स applied Geography कहा जाने लगा है। इसमें मुख्य रूप से 1.हार---Group Gehaviour तथा व्यावहारिक क्षेत्र में मानसिक समस्यसेवन जैसे तत्वों पर विशेष विचार किया जाता है । प्रारंभ से ही भूगोल का उद्देश्य और उपयोग व्यक्ति और साज का साधन रहा है चाहे वह प्राध्यात्मिक रहा हो या लौकिक । प्रायुविक भूनील में प्राध्यात्मिक दृष्टि का कोई विशेष सम्बन्ध नहीं है। इसलिए व्यावहारिक गौन की परिभाषा साधारण तौर पर इस प्रकार की जाती है-'साब की 'तयों की तियों के लिए भौगोलिक वातावरण के समस्त साधनों क # पूर्ण उपयोग करने के लिए भौतिक प्रचार-विचार ज्ञानपद्धतियों एवं कों का है व्यावहारिक उपयोग ही मवहारिक सूत है ।", T परिवारकी का उपयोग समाज 197 के दिन के लिए किया है और परिधि में नि 1 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -98 संचन का अध्ययन पत्ता हैं इसे हम निम्नलिखित वर्गीकरण के माध्यम से बन सकते हैं 1. भौतिक अध्ययन- वाहति, जलवायु, समुद्री विज्ञान आदि इसके अन्त गंधाता है। 2. प्रियन इसमें कृषि, प्रौद्योगिक, व्यापार, यातायात, पर्यटन माता है । 3. सामाजिक सांस्कृतिक अध्ययन -- इसमें जनसंख्या, अधिवास ( बसती, नवरीय, राजनीतिक, प्रादेशिक, सैनिक प्रादि का अध्ययन होता है । 4. अन्य साखायें जीव (वनस्पति), चिकित्सा मान चित्रकला आदि का storeन होता है । जैन भूगोल यद्यपि पौराणिकता को लिए हुए है फिर भी उसका यदि हम afferrer करें तो हम व्यावहारिक भूगोल के उपर्युक्त अध्ययन प्रकरणों से सम्बद्ध सामग्री को प्रासानी से खोज सकते हैं । इस दृष्टि से यह एक स्वतंत्र शोध-प्रबंध का विषम 1 जैसा हमने पहले कहा है जन-भूगोल प्रश्न चिह्नों से दब गया है । प्राधुनिक भूगोल से वह निश्चित ही समग्र रूप से मेल नहीं खाता, इसका तात्पर्य यह नही कि जैन भूगोल का समूचा विषय अध्ययन और उपयोगिता के बाहर है । इस परिस्थिति में हमारा मध्ययम वस्तुपरकता की मांग करता है । धुनिक श्रद्धा को वैज्ञानिक अन्वेषणों के साथ यदि हम पूरी तरह न जोड़ें और तब तक एक जायें जब तक उन्हें स्वीकार न कर ले तो हम उन्मुक्त मन उनके आयामों को परिधि के भीतर रख सकते हैं। से दोनों पहलुओं को और ' जम्बूद्वीप तीनों संस्कृतियों में स्वीकार किया गया है भले ही उसकी सीमा विषय में विवाद रहा हो। जैन संस्कृति में तो इसका वर्णन इतने अधिक विस्तार से मिलता है जितना जैनेतर साहित्य में नहीं मिलता। पर्गत गुफा, नदी, ख देश, नगर प्रादि का वरन पाठक को हैरान कर देता है। इसका प्रथम और समवायांग में मिलता है। इन दोनों यों के माप सूर्य प्रज्ञप्ति मौर चन्द्र प्रज्ञप्ति की रचना हुई हैं। इनकों की शताब्दी' की रचना कह सकते हैं। प्राचार्य विक्रम की वियोग पुण्याति भी इसी समय के भासपास की रचना होनी चहिए ।' श्री पं. फूलचन्द सिद्धांत शास्त्री इस कोसं 873 केकीसबि खुवमकिशोर सुधार उसे ईसकी समू के भासपास रखने का प्रयास करते हैं। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' गि संस्कृति में समस्त तथा प्रांत मध्य लोक का नामान्तरण जिसे सो क्षेत्रों में विमत किया गया है। इसके सारे संबों को रखने की यहां मावश्यकता नहीं है पर इतना अवश्य है कि पर्मत, नदी, मगर मादि की जो स्थितिवां करणानुयोग में परिणत हैं उन्हें माधुनिक भूगील के परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयत्न किया जाये बाहरण के तौर पर बूद्वीप को यूरेशिकार से यदि पहिचाना जाय तो सायव उसकी अवस्थिति किसी सीमा सक स्वीकार की जा सकती है। इसी वरह सुमेह को पामेर की पर्गत अगयों के साथ रखा जा सकता है। हिमवान को हिमालय, निषष को हिन्दुकुम, नील को मलाई नाम, शिखरी को सामान से मिलाया जा सकता है। रम्यक को मध्य एशिया या दक्षिणी-पश्चिमी सीमाम, हैरण्यवत को उत्तरी सीमांग, उत्तर कुरु को स तथा साइबेरिया से तुलना की जाये तो संभव है हम इन स्थलों की पहिचान कर सकते है। इसी प्रकार और स्थलों की भी तुलना करना उपयोगी होमा । इस प्रकार जैन भूगोल को माषुनिक भूमोल के व्यावहारिक पक्ष के साप रखकर हम यह निर्ष निकालना चाहते है कि जैन भूमोल का समूचा पक्ष कोरा बकवास नहीं हैं उनके पारिभाषिक शब्दों को प्राधुनिक संदों के साय यति मिला. कर समझने की कोशिश की जाय तो संभव है कि हम काफी सीमा कोलिक परम्परा को मालसात् कर सकेंगे। जैन भूगोल के साथ सर्वमता को नहीं जोड़ा जाना चाहिए । समता का सम्बन्ध पारमा पौर परमात्मा के साथ अधिक उचित प्रतीत होता है। इसका तात्पर्य यहा नहीं कि सर्वम को विमोक से कोई लेना-देना नहीं रहा । जैन मो-पायों ने पर लोक का वर्णन करते समय त्रिलोक का विस्तृत वरपेन किया है। इतना ही नहीं, मोकाकाश के प्रतिरिक्त पलोकाकाथ का भी विवेचन प्रस्तुत किया है जो मानके वैज्ञानिक जगत में सही-सा उतर रहा है । सूर्य , पन्द्र, ग्रह, नक्षव प्रादि का जो भी मालेसन'बैन साहित्य में हुपा है वह मान भी लगभग बरा सिद्ध हो रहा है। पुष बातें प्रवश्य ऐसी सामने पा रही है जो मूलतः गलत लगने लगी है-पाव के वैज्ञानिक खोष के संदर्भ में 1वी पाली के प्राकार जैसी चपटी है, सूर्य उसका परिमाण करता है भादि जैसे कुछ मुद्दों ने जैन भूगोल को ही नहीं, बल्कि बौन, वैदिक, किरियम न पारि मन्य पदों की मान्यतामों को भी मार दिया है । इससे ऐसा प्रयता है कि प्राचार्यों ने अपने समय में प्रचलित कुछ नौगोलिक मान्यताओं को परि वन-परिपन के साथ क्या लिया । यही कारण है कि तीनों-सरों सवियों में कतिपय वस्खों का विवेचन मममम समान उपसम्म होता है। इसी तरह इहलोक का वहन करते समय बैनाचार्यों ने मनसोक का विस्तृत वर्णन किया है। इस प्रसंग में उन्होंने पर्वों, नदियों, नपरों को भी साव पिरा है Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 और उनकी सूक्ष्म विशेषताओं को मोर भी संकेत किया है। जम्बूद्वीप का लम्बा चौड़ा वर्णन मौर उसमें भी भरत क्षेत्र को एक छोटा-सा सुचण्ड बतलाने में पाक कित-सा हो जाता है और फिर विदेह जैसे उपलब्ध देश-प्रदेशों को श्रद्धा के कोणों से जड़ दिया जाने पर तो वह और भी विक जाता है । इस संदर्भ में मेरा सुक्राव है कि जिन नथ्यों को हम अस्वीकार नहीं कर सकते और जो अब विशेषाभाषी प्रतीत होने लगे हैं उनकी तस्यात्मकता को स्वीकार करने में संकोच नहीं होना चाहिए । जैन भौगोलिक साहित्य में भी काव्यात्मकता का प्रयोग किया गया है । कवि अपने कवित्व से पीछे खिसक नहीं सकता। इसलिए उसने नदियों पर्वतों आदि के affe में भी afare का भरपूर उपयोग किया है। उनके छोटे-से प्राकार-प्रकार को भी हदाकार का रूप दे दिया है । फिर जो भी प्रथम प्राचार्य ने लिख दिया उसके मूल स्वरूप की स्वीकार कर, उसी की परिधि में रहकर उसका वन किया जाता रहा है । उस वन में जहां भी वह प्रतिशयोक्ति का प्रयोग कर सका, किया है । इतनी बड़ी कालावधि में नदियों के रूप तथा उनके मार्ग भी परिवर्तित हुए हूँ। नामों में भी प्रन्तर भाया है । यह हम भलीभांति जानते हैं । फिर जैन कवियों ने इन नामों का अनुवाद भी कर दिया अपनी प्रावश्यकतानुसार प्रतीको का भी उर योग किया नगर भी ध्वस्त हुए हैं और निर्मित हुए हैं। ऐसी स्थिति में प्राचीन भौगो लिक वर्णन माधुनिक भौगोलिक स्थिति के भालोक मे कुछ उगमगाता - सा यदि नजर माये तो उससे पवडाने की प्रावश्यकता नही है । उसे उलटा-सीधा सिद्ध करने की uter] अथवा वर्तमान भूगोल को प्रपलापित करने की भपेक्षा कदाग्रह छोड़कर स्वी कार कर लेना अधिक प्रछा है। वैज्ञानिक धरातल को छोड़कर अप्रत्यक्ष चौर प्रभात यथास्थिति के परिपालन में अपनी शक्ति को लगाये रखने का कोई विशेष अर्थ नहीं दिखता बल्कि इसका प्रतिफल यहां पर हो सकता है कि नई पीढ़ी उससे और दूर होती चली जाये। इसलिए धार्मिक मान्यता और वैज्ञानिक मान्यता के बीच जो सामंजस्य प्रस्थापित हो जाये उसे स्वीकार कर लिया जाना चाहिए और जो विरोध बजर पाये उस मात्र मान्यता की परिधि में निहित कर देना चाहिए। संभव है, पाने का विज्ञान उसे भी सिद्ध कर दे । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 4 जैन रहस्यवाद व्यक्ति मोर सृष्टि के सर्जक तत्वों की क्षमा एक राजा और संभवतः इसीलिये विन्तको प्रोर भोपकों में यह विवम विवादास्पद माया है अनुभव के माध्यम से किसी सस्य मोर परम माराध्य को मोबना मी मुनगाल । इस मूलप्रवृत्ति की परिपूर्ति में साधक की जिज्ञासा मोर सर्वप्रथाम बुद्धि विनोकदान देती है । यहीं से दर्शन का जन्म होता है। . इसमें साधक स्वय के मूल रूप में केन्द्रित साध्य की प्राप्ति का सनिलित लक्ष्य निर्मित कर लेता है। साध्य की प्राप्ति काल में व्यक्तित्व का होता है पौर इस म्यक्तिस्व की सर्जना में पध्यात्म चेतवा का प्रमुख हाप सहन है।" मानव स्वभावतमा सृष्टि के रहस्य को जानने का । उसके मन मे सदेव यह बिज्ञासा बनी रहती है कि इस दृष्टि का पता कौन है? . शरीर का निर्माण कैसे होता है ? शरीर के अन्दर मह कोन सी कि है कि मस्तिस्य से उसमें स्पंदन होता है और जिसके प्रभाव में उस संवा को को ही पाता है। यदि इस शक्तिको पात्मा वा ब्रह्म कहा गाय को मिला भनित्य ? उसके निस्थल पवा नित्यरव की स्थिति में कार्य और कामों से मुक्ति पाने पर उस पतिका स्याम यादव है और इन प्रश्न बिरहो करसमापान जन-सिखात में सात सुनो और समय ने अनेकान्तबम्ब का पाप लेकर किया गया है। .. ... ..' इस यहाबाद की दुरी पोषण में हर में विजिलो है और उन.प्रयासों का एक विशेष प्रतिमा बनाया है। हमारीमा पर वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल कपानिकों ने इन पलों पर मनन किया है और उसका निकर्ष यो के पृष्ठों पर किस किया है।मनियार 'काम में इस स्वार पर प वार प्रारम्भ और परिणाम पकानान मन्त्र भारतीय वनों में वापि इसका इतिहास लगाये Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 में प्राप्त योगी की मूर्तियों में भी देखा जा सकता है, परन्तु जब तक उसकी लिपि का परिज्ञान नहीं होता, इस सन्दर्भ में निश्चित नहीं का जा सकता। मुंडकोपनिषद् के ये शब्द चितन की भूमिका पर बार-बार उतरते हैं जहां पर कहा गया है कि ब्रह्म नेत्रों से, न वचनों से, न तप से प्रौर न कर्म से गृहीत होता है । विशुद्ध प्राणी उस ब्रह्म को शान प्रसाद से साक्षात्कार करते हैं--- नाते, नापि वाचा मान्यैर्देवंस्तपसा कर्मणा वा । ज्ञान- प्रसादेन विशुद्ध सत्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कले ध्यायमानः ॥ रहस्यवाद का यह सूत्र पालि-त्रिपिटक मौर प्राचीन जैनागमों में भी उपलब्ध होता है । मज्झिमनिकाय का वह सन्दर्भ जैन - रहस्यवाद की प्राचीनता की दृष्टि से त्यंत महत्वपूर्ण है, जिसमें कहा गया है कि निगण्ठ अपने पूर्व कर्मों की निर्जरा तप के माध्यम से कर रहे हैं। इस सन्दर्भ से स्पष्ट है कि जैन सिद्धांत में आत्मा के fiya रूप को प्राप्त करने का प्रथक प्रयत्न किया जाता था। ब्रह्म जालसुत में प्रपयन्तट्ठि के प्रसंग में भगवान बुद्ध ने भ्रात्मा को भरूपी भौर नित्य स्वीकार किये जाने के सिद्धांत का उल्लेख किया है। इसी सुख में जैन सिद्धांत की दृष्टि में रहस्य बाद व अनेकान्तवाद का भी पता चलता है । रहस्मवाद के इस स्वरूप को किसी ने गुह्य माना और किसी ने स्वसवेद्य स्वीकार किया । जैन संस्कृति में मूलतः इसका " स्वसंवेद्य" रूप मिलता है जब कि जैनेतर संस्कृति में गृह्म रूप का प्राचुर्य देखा जाता है। जैन सिद्धांत का हर कोना स्वयं की अनुभूति से भरा है उसका हर पृष्ठ निजानुभव और चिदानन्द चैतन्यमय रस से आप्लावित है। अनुभूति के बाद वर्क का भी अपलाप नहीं किया गया बल्कि उसे एक विशुद्ध चितन के धरातल पर खडा कर दिया गया | भारतीय दर्शन के लिए तर्क का यह विशिष्ट स्थान निर्धारण जैन संस्कृति का अनन्य योगदान है । रहस्य भावना का क्षेत्र असीम है । उस ममन्तशक्ति के लोत को खोजना मक्ति के सामयं के बाहर है। मतः असीमता भौर परम विशुद्धता तक पहुंच जावा था विवाद- तन्यरस का पान करना साधक का मूल उद्देश्य रहता है। इसलिए रहस्यवाद किंवा दर्शन का प्रस्थान बिन्दु संसार है जहां प्रात्यक्षिक और प्रात्यक्षिक सुख-दु:ख का अनुभव होता है और साधक चरम लक्ष्य रूप परम विशुद्ध 'अवस्था को प्राप्त करता है। वहां पहुंचकर वह कृतकृत्य हो जाता है मीर अपना भवचक्र समाप्त कर लेता है। इस अवस्था की प्राप्ति का मार्ग ही रहस्य बना हुआ है। एक रहस्य को समझने धौर धनुभूति में लाने के लिए निम्नलिखित प्रमुख तत्वों को घाधार बनाया जा सकता है। -- Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. संसारचक्र में श्रमण करनेवाले मात्मा का स्वरूप, 3. संसार का स्वस . 4. संसार से मुक्त होने के उपाय पोर 5. मुक्त अवस्था की परिकल्पना। 'प्रादिकास से हो रहस्यवाद भगम्य, अंगावर मूक मोर गोप माना जाता रहा है । वेद, उपनिषद, जैन और बौद्ध साहित्य में इसी रहस्यात्मक प्रवादियों का विवेचन उपलब्ध होता है यह बात अलग है कि माज का रहसनद रह.असम तक प्रचलित न रहा हो। 'रहस्य' सर्वसाधारण विषय है। स्वकीय अनुमति बनामें संगठित है । अनुभूतियों की विविधता मंत वैभिन्य को जन्म देती है। प्रत्येक प्राति वाद-विवाद का विषय बना है । शायद इसीलिए एक ही सत्य को पृडू पु स में उसी प्रकार अभिव्यजिन किया गया जिस प्रकार बह प्रवों के द्वारा हाधीको पागों की विवेचना कवियों ने इस तथ्य को सरन पोर मरस भाषा में प्रस्तुत किया है । उन्होंने परमात्मा के प्रति प्रेम और उसकी अनुभूति को "गूगे कासा-पुर" बताया है 'मकथ कहानी प्रेम की कन कही न जाय । गू गे केरि सरकरा, बैठा मुसकाई ।" जैन रहस्यबाद परिभाषा और विकास रहस्यवाद शब्द म ग्रेजी "Mysticism" का अनुवादा है, जिसे प्रथमत : सन् 1920 में श्री मुकुटधर पांडेय ने छायावाद विषयक लेख में माल किया पा। प्राचीन काल में इस सन्दर्भ में पात्मवाद अथवा मध्यात्मवाद बन्द कर प्रयोग होता रहा है। यहां साधक प्रात्मा परमात्मा. स्वर्म, मरक, राग-देष मादि के विषय में चिन्तन करता था। धीरे-धीरे प्राचार और विचार का समन्वय हमा पोरं पायनिक चिन्तन भागे बढ़ने लगा । कालान्तर में दिम्य शक्ति की प्राप्ति के लिए परमात्मा के द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनुकरण और मदुसरण होने लगा 'परमसचिव के प्रति भाव उमड़ने लगे पौर उम्रका साक्षाकार करने के लिए विभिन सासाराम सापरण किया जाने लगा। जैनदर्शन की रहस्यभावचा किंवा रहस्यवादी पृष्ठभूमि में दृष्टम्प है। रहस्यवाद की परिभाषा समय, परिस्थिति और मितान के अनुसार परिवलित होती ही है । प्रायः प्रत्येक दार्शनिक ने स्वयं से सम्बन्धित दर्शन के पसार पर रूप से बितन पोर माराधन किया है और उसी साधना के बल पर अपने परम सत्य को प्राप्त करने का प्रयत्न किया है। इस दृष्टि से रहस्यबारी परिभाषाएं भी उन परने रंग से अभिमंत्रित हुई है। पाचात्य विद्वानों ने भी इस्पा की Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिणापा पर विचार किया है। बनारसेस का कहना है कि रहस्यपार सिर को समझाने का प्रमुख साधन है। इसे हम स्वसंवेच भान कह सकते है बो तर्क पौर विश्लेषण से भिन्न होता है। फ्लीटर रहस्यवाद को पाना मौर परमात्मा के एकत्व की प्रतीति मानते हैं। प्रिमिस पेटीशन के अनुसार रहस्यवादी प्रवीति परम सत्य के पास करने के प्रपन में होती है। इससे मानन्द की उपलब्णि होती है। दुधि द्वारा परम सत्य को ग्रहण करना उसका दार्शनिक पक्ष है और ईबर के साप मिसन का बामन्व-उपयोग करना उसका धार्मिक पक्ष है वर एक स्कूल पदार्थ न रहकर एक अनुभव हो जाता है। यहां रहस्यवाद भनुभूति के मान की उच्चतम अवस्था मानी गयी है । पाषुनिक भारतीय विद्वानों ने भी रहस्यवाद की परिभाषा पर मंचन किया है। रामचन्द्र शुक्ल के शम्दों में 'मान के क्षेत्र में जिसे प्रत-बाप कहते है भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद कहलाता है। ग. रामकुमार वर्मा ने हस्यवाद की परिभाषा की है-"रहस्यवाद जीवात्मा की उस मन्तहित प्रवृत्ति का प्रकासन है जिसमें वह दिव्य पार पलौकिक शक्ति से अपना शांत और निश्चल सम्बन्य मोड़ना चाहती है। यह सम्बन्ध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी मन्तर नहीं रह जाता।" पौर भी अन्य प्राधुनिक विद्वानों ने रहस्यवाद की परिभाषाएं की है । उन परिभाषामों के माधार पर रहस्यवाद की सामान्य विधेषताएं इस प्रकार कही जा सकती/ 1.मात्मा पौर परमात्मा में ऐक्य की अनुभूति । 2. तावालय। 3. विरह-भावना। 4. भक्ति, शान और योग की समम्बित सामना । । 5. सदगुरु बार उनका सत्संग । प्रायः ये सभी विशेषताएं वैदिक संस्कृति और साहित्य में अधिक मिमतीहैं। मेन स्वाद मूलतः इन विशेषताओं से कुछ थोड़ा भिन्न था । उक्त परिभाषामों सार्थक वर के प्रति पात्मसमर्पित हो जाता है। पर जैन धर्म ने ईश्वर का 1.' Mysticism and Logic, Page 6-17 2. Mysticism in Religion, P25 ३. पक्तिकाम्य में स्मार-डॉ. रामनारायण पाय, पृ. 6 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ja संस्कृति में होता ह रूप स्वरूप टिका और नहीं है। इसी है vetrated ear को नास्तिक कह दिया गया था। वहां पावे। परन्तु वह वर्गीकरण नितान्द्र मावार मौर के अतिरिक वैदिक wer के मीमांसा पर सार नास्तिक को feareा की सीमा में मां जायेंगे । प्रसवता का विषय fears 'नास्तिक' की इस परिवांचा को स्वीकार जिसके मद में पुण्य मीर पाप का कोई महत्व न हो। तक दर्शन है । उसमें स्वर्ग, नरक, मोक्ष कवि की व्यवस्था स्वयं के कम रित है । उसमें ईस्वर अपना परमात्मा सापक के लिए दीपक का कार्य य है, परन्तु वह किसी पर कृपा नहीं करता, इसलिए कि वह बौवरामी नहीं करते । जैनवर्शन इंस इ की जैन दर्शन की उक्त विशेषता के प्राचार पर भाषा को हमें परिवर्तित करना पड़ेगा। जैन मिलन प्राप्ति में सहायक कारण मानता अवश्य है. पर हो प्रथवा उसकी प्राप्ति के पथ में पारमार्थिक दृष्टि से उसका कोई उपयोग नहीं। इस पृष्ठभूमि पर हम रहस्यवाद की परिभाषा इस प्रकार कर सकते है भोगो को की. होनमोच की ܐ ܕ " अध्यात्म की चरम सीमा की अनुभूति रहस्यवाद है। यह वह है, जहां प्रारमा विशुद्ध परमात्मा बन जाता है और वीतरागी होकर चन्द र का पान करता है।" रहस्यवाद की यह परिभाषा जैन साधना की दृष्टि से प्रस्तुत की है। जैन साधना का frere यथासमय होता रहा है। यह एक ऐति वह विकास तत्कालीन प्रचलित जनेतर सामनाओंों से प्रभावित भी रहा है पर हम मैन रहस्यवाद के विकास को निम्न भागों में विभाजित कर सकते - व (1) प्रादिकाल प्रारम्भ से लेकर ई. प्रथम तब (2) सपकाल - प्रथम द्वितीय सती से 7-8 वीं (३) उतरकाल -- 8 पी 9 वीं शती से आधुनिक का के समकक्ष बनाने का प्रयत्न करता है। स्यवर्ती पुरुषों में मुख है। " 1 1. प्रादिकाम-वेद और उपनिषद में पढ़ा का खानात्कार करना लक्ष्य माना जाता था । जीन रहस्यवाद, जैसा हम ऊपर कह चुके है ईश्वर को ईश्वर के रूप में स्वीकार नहीं करता। यहां जैन-दर्शन अपने को परमा माता है और उसके द्वारा विदिष्ट मार्ग पर रा दि Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 हम इस काल को सामान्यतः जैन धर्म के प्राविर्भाव से लेकर प्रथम शती तक निश्चित कर सकते हैं। जैन परम्परा के अनुसार तीर्थकर बादिनाथ ने हमें सामना की स्वरूप दिया । उसी के बाचार पर उत्तर कालीन तीर्थंकर मीर बाचायों ff की। इस सन्दर्भ में हमारे सामने दो प्रकार की रहस्य -साधनाए साहित्य में उपलम्ध होती हैं - 1. पार्श्वनाथ परम्परा की रहस्म साधना, खीर, 2. नि नतित परम्परा की रहस्य साधना । ASST SIN .. भ्रमवान पार्श्वनाथ जैन परम्परा के 23 वे तीर्थंकर कहे जाते हैं। उनसे भगवान महावीर, जिन्हे पालि साहित्य में विगठनातपुल के नाम से स्मरण किया गया है, लगभग 250 वर्ष पूर्व अवतरित हुए थे । त्रिपिटक मे उनके साधनात्मक रहस्यवाद को बाहुर्याम संबर के नाम से अभिहित किया गया है। से बार बार इस प्रकार महिला, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह है उत्तराध्ययन प्रादि ग्रन्थो मे भी इनका विवरण मिलता है । पार्श्वनाथ के इन व्रतों मे से चतुर्थ व्रत मे ब्रह्मचर्य व्रत भन्तत था के परिनिर्वाण के बाद इन व्रतो के माचरण में शैथिल्य भाया मौर फर्मतः समाय ब्रह्मय व्रत से पतित होने लगा । पार्श्वनाथ की इस परम्परा को जैन परम्परा वे 'पापस्थ' अथवा 'पासस्य' कहा गया है । freshneye अथवा महावीर के माने पर इस प्राचारर्शथित्य को परखा गया। उसे दूर करने के लिए महावीर ने अपरिग्रह का विभाजन कर निम्नाकित पथ व्रतों को स्वीकार किया - महिला, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह | महावीर के इन पंचों का उल्लेख कौन भागम साहित्य में तो माता ही है पर उनकी साधना के जो उल्लेख पालि साहित्य मे मिलते हैं। वे ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण पक्ष्ममद शास्त्री ने भागमो के ही किया है कि पार्श्वनाथ के पंच महाव्रत में, इस पर अभी मथन होना शेष है । है। इस सब में यह उल्लेखनीय है कि श्री प. आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयत्न पावन नही (अनेकान्स, जून 1977) महाबीर की रहस्यवादी परम्परा अपने मूलरूप में लगभग प्रथम सदी तक चलती रही। उसमे कुछ विकास अवश्य हुआ. पर वह बहुत अधिक नहीं । यहां तक मामा मात्मा के तीन स्वरूप ही गये । भ्रन्तरात्मा, बहिरात्मा और परमात्मा । साधक बहिरात्मा को जोड़कर अन्तरात्मा के माध्यम से परमात्मपद को प्राप्त करता है। दूसरे शब्दों में आत्मा और परमात्मा में एकाकारता हो जाती है- 1. डॉ. भागचन्द जैन भास्कर का ग्रन्थ जैन इन बुद्धिस्ट तीन ईगिल Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिपयारी वो पप्पा परबाहि देही । B तम्य परो, संतोषाण बहि महिना 12 जैन रहस्यवाद के इतिहास के मूल सर्जक और प्राचार्य !" से कुन्द, fere च मामा के मूल स्वरूप को प्राप्त करने का रहस्य प्रसव कर जन-दर्शन में हर मामा में परमात्मा बनने की शक्ति निहित मात्मा के तीन से बतलाये हैं-मन्तरात्मा, बहिरात्सा और परमात्मा से परे मन के द्वारा देखा जाने वाला "मैं हूँ" इस स्वसंवेदन स्वच्छ होता है । इन्द्रियों के स्पर्शनादि द्वारा पदार्थज्ञान कराने वाला बहराना है और ज्ञानावरणादिक द्रव्य कर्म, रागद्वेषादिक भावकर्म, शरीरादिक नौकर्म रहित अन ज्ञानादिक गुरण सहित परमात्मा होता है । अन्तरात्मा के उपाय से बहिरात्मा का परिस्याग करके परमात्मा का ध्यान किया जाता है । यह परमात्मा परम सर्व कर्म विमुक्त, शाश्वत और सिद्ध है 15 "तिपय सो अप्पा परमंतरवाहिरी हु देहीलं । तत्थ परो भाइज्ज अंतोबारण वयहि बहिरप्पा ॥ "earty वहिरप्पा प्रन्तर प्रप्याहु म्रत्वसंकल्पी | कम्मकलंक विमुक्sो परमप्पा भए देवो ॥ 87* I+ इस दृष्टि से कुन्दकुन्दाचार्य निस्संदेह प्रथम रहस्यवादी कवि कहे जा सकते, है । उन्होने समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार मावि ग्रन्थों में इसका सुन्दर विश्लेषण किया है। ये ग्रन्थ प्राचीन जैन मंग साहित्य पर भारत हे बैं जहा माध्यात्मिक चेतना को जाग्रत करने का स्वर बुजित होता है, । याचा मूल प्राचीनतम पग प्रन्थ है। यहां जैन धर्म मानव धर्म के रूप में अधिक गुजरा है। वहां 'प्रारिएहि" शब्द से प्राचीन परम्परा का उल्लेख करते हुए समता को ही धर्म कहा है-समियाए धम्मे भारिएहि पवेविते । प्रावारांग का प्रारम्भ वस्तुत: "इय मेगेसिंगो सख्त भबई" (इस संचार मे किन्हीं जीवों को शान नहीं होता) सूत्र से होता है इस सूत्र में आत्मा का स्वरूप तथा संसार में उसके भटकने के कारणों की ओर इंगित हुआ है । 'संज्ञा ) शब्द अनुभव और ज्ञान को समाहित किये हुये हैं । अनुभव मुख्यतः सोलह प्रकार के होते हैं-प्राहार, भय, मैथुन, परिग्रह, कोष, मान, माया, लोभ, शोक, मोह, 1. मोक्लपाहुडकुन्दकुन्दाचार्य 4 ग. पार्श्व के पंच महाव्रत अनेकांत, वर्ष 30, फिर 1, पृ. 23-27. मार्च 1977 2. मोमपा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोह विधिकिरता, कोक और धर्म । मान के पांच भेद है-मति, कात, पति, मनः पर्षद और केवलज्ञान। इस सूची में विषिष्ट मान ममाव की ही बात की गई है। इसका स्पष्ट तात्पर्य यह है कि मक्ति संसार में मोहादिक कमों के कारण मटकता रहता है। जो साधक यह जान लेता है वही व्यक्ति भारमा होता है। सी को पानी और प्रवल कहा गया है। ऐसा साधक कर्मों से बंधा नहीं रहता । वह तो मामास बनकर विकल्प जास से मुक्त हो जाता है। यहाँ महिसा, सत्य माधि का विच मिलता है पर उसका वर्गीकरण नहीं दिखाई देता । उसी तरह कमों और के प्रभावों का वर्णन तो है पर उसके भेद-प्रभेदों का वर्णन दिखाई नहीं बेवा । कुन्धकुम्दाचार्य तक पासे-पाते इन धर्मों का कुछ विकास हा जो उनके अंधों में प्रतिविम्बित होता है। कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उनके ही पद चिन्हों पर प्राचार्य उमास्वाति, समन्तभव, सिरसेन दिवाकर, मुनि कार्तिकेय, मकसक, विद्यानन्द, मनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, मुनि योगेनु मादि पाचार्यों ने रहस्यवाद का अपनी सामयिक परिस्थितियों के मनुसार विश्लेषण किया । यह दार्शनिक युग था । उमास्वाति ने इसका सूत्रपात किया पा मोर माणिक्यनन्दी ने उसे परम विकास पर पहुचाया था। इस बीच जैन रहस्य पाव वानिक सीमा में बड हो गया । इसे हम गैन दार्शनिक रहस्यवाद भी कह सकते हैं। दार्शनिक सिमान्तों के अन्य विकास के साथ एक उल्लेखनीय विकास पह मा किमाविकाल मे जिस बारिमक प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष कहा गया था पोर इन्द्रिय प्रत्वम की परोक्ष कहा गया था, उस पर इस काल मे प्रश्न-प्रतिप्रश्न खड़े हुए। सन्हें सुलझाने की दृष्टि से प्रत्यक्ष के दो भेद किये गये. साम्यावहारिक प्रत्यक्ष मौर पारमाषिक प्रत्यक्ष । यहां निस्षय नय मोर व्यबहार नय की दृष्टि से विश्लेषण किया गया । साधना के स्वरूप में भी कुछ परिवर्तन हुमा। इस काल में वस्तुतः साधना का क्षेत्र विस्तृत हुमा मात्मा के स्वरूप की एवमीमांसामयोगात्मकता पर भषिक जोर दिया गया, कर्मों के भेद-प्रमेव पर चना और मान-प्रसारण को भी चर्चा का विषय बनाया गया। दर्शन के सभीबों पर तर्कनिष्ठ ग्रन्थो की भी रचना हुई। पर इस युग मे साधना का बह रूप,कहीं दिखाई देता को प्रारम्भिक काल मे था। साधना का प्र साथ उतना सामन्जस्य बैठता भी नहीं है । इसके बावजूद दर्शन के साथ साधना और भक्ति का निरसनहीं पाया बल्कि सुधारात्मक तत्वो के साथ बा भक्तिमान्दोलनका रूम बहस कता गया। इस काम में वानिक सवाल-पुथल बहुताई और क्रिया हकीमोर प्रतिवा बने सीं। "अप्पा सो परमप्पा" प्रया" सम्मान Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा" कातिक इष्टि कीबोरामा मानिस गद चोर मार सामाग्यलकी मोर मान कर किसी एक पत्र की ओर भूलक सपिकोना। समंदर में पहलवा स्वरेस के स्वामी समस्याका कपा मम है वह कहते हैं कि मनान! पापको हमारी या कोई प्रो. बन नहीं है क्योंकि भाप बोहराब मौरन अपने निवाई प्रयोका है, क्योंकि मापने रमार को समूल नष्ट कर दिया है, फिर भीमा -भक्ति पूर्वक से श्री मापके गुणों का स्मरण करते हैं वह इसलिए कि ऐसा करने को पाप पासनामों पर मोह-राम वापि भारों से मलिन मन वकास परिय हो गया है। म पूजयास्त्वपि वीतरामे, न मिश्या ना विपतिवरे । तथापि ते पुण्य पुरुष स्मृतिनः पुनाति वितं दुरिता बनेयः॥ इस युग में मुनि योगेन्दु का भी योगदान उल्लेखनीय है। इनका समय यद्यपि विवादास्पद है फिर भी हम उसे लगभग 8 वीं 9 वी शताब्दी तक निषित कर सकते हैं। इनके दो महत्वपूर्ण प्रथ निर्विवाद रूप से हमारे सामने है-41) परमात्मसार पोर (2) योगसार । इन ग्रंथो मे कषि ने निरंजन प्रादि कुछ ऐसे सम्म दिये हैं जो उत्तत्कालीन रहस्यवाद के अभिव्यजक कहे मा सकते है। इन प्रन्थों में मनुभूति का प्राधान्य है इसलिए कहा गया है कि परमेश्वर से मम का मिलन होने पर पूजा प्रादि क्रियाकर्म निरर्थक हो जाते हैं, क्योंकि दोनों एकाकार होकर समरस हो जाते हैं। मणु मिलियउ परमेसरहं, परमेसर चिमणस्य । बीहि वि समरसि हूवाह पुग्ज पावर कम्स । कोमसार,12 3. उत्तरकाल उत्तरकाल मे रहस्यवाद की प्राचारमत शाला में समयानुल परिवर्तन हमा । इस समय तक जैनसंस्कृति पर वैदिक सापकों, राजाभो प्रौर मुसलमान प्राक्रमणकारियों द्वारा घनघोर विपदामों के बादल छा गये थे। उनके बचने के लिए भाचार्म जिमसेन ने मनुस्मृति के प्राचार को गेनीकत कर दिया, जिसका विरोध बसवी मताब्दी के प्राचार्य सोमदेव ने अपने यशस्तिमकसम्म में सबस्वर में ही किया। इससे लगता है, तत्कालीन समाज उस व्यवस्था को स्वीकार कर पुकी थी। बन रहस्यबाव की यह एक पौर सीड़ी पी, जिसने उसे वैदिक संस्कृति के नजदीक ला दिवा । जिनसेन पार सोमदेव के बाद रहस्यवादी कपियों में भूमि रामसिंह का काम विशेष रूप से लिया जा सकता है। उनका 'पाहुर वोहा' रहस्यवाद को परिभाषामों से भरा पड़ा है। लिव-शक्ति का मिलन होने पर प्रदतभाव की स्थिति का नाती हमार मोह पिसी हो पाता। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 सि विणु सलि ग जावई सिट पुणु बलि विहीणु । दोहिम जारहि समलु-चगु बुझइ मोह विलीषु वी55 11 मुनि रामसिंह के बाद रहस्यात्मक प्रवृत्तियों का कुछ मौर विकास होता गया। इस विकास का मूल कारण भक्ति का उद्रेक था। इस भक्ति का कर उत्कर्ष महाकवि बनारसीदास जैसे हिन्दी जैन कवियों में देखा जा सकता है। नाटक समयसार, मोहविवक युद्ध, (बनारसीदास) यादि ग्रंथों में उन्होंने भक्ति, प्रेम मीर श्रद्धा के जिस समन्वित रूप को प्रस्तुत किया है वह देखते ही बनता है । 'सुमति' को पत्नी और चेतन को पति बनाकर जिस प्राध्यात्मिक विरह को उकेरा है, वह स्पृहणीय है । श्रात्मा रूपी पत्नि और परमात्मा रूपी पति के वियोग का भी वर्णन प्रत्यन्त मार्मिक बन पड़ा है । मन्त में मात्मा को उसका पति उसके घर अन्तरात्मा में ही मिल जाता है। इस एकस्व की अनुभूति को महाकवि बनारसीदास ने इस प्रकार वर्णित किया है- पिय मोरे घट मैं पिय माहि । जल तरंग ज्यों दुविधा नाहि || पिय करता मैं करतूति । पिय ज्ञानी मैं ज्ञान विभूति || प्रिय सुख सागर में सुख-सींव । पिय सुख मंदिर मैं शिव- नींव || पिय ब्रह्म मैं सरस्वति नाम । पिय माषन मो कमला नाम || fee शकर में देवि भवानि । पिय जिनवर में केवल बानि ॥ ब्रह्म-साक्षात्कार रहस्यवादात्मक प्रवृत्तियों में अन्यतम है। जैन साधना में परमात्मा को ब्रह्म कह दिया गया है। बनारसीदास ने तादारम्य अनुभूति के सन्दर्भ मे अपने भावो को निम्न प्रकार से व्यक्त किया है"बालक तुह तन चितवन गागरि कूटि, अचरा गौ फहराय सरम में छूटि बालम ||1| पिग सुधि पावत वन मे पंसिउ पेलि, खाड़त राज डगरिया भयउ प्रकेलि, बालम 11 2112 रहस्य भावनात्मक इन प्रवृत्तियो के अतिरिक्त समग्र जैन साहित्य मे, विशेषरूप से हिन्दी जैन साहित्य में और भी प्रवृत्तिया सहज रूप में देखी जा सकती हैं। वहां भावनात्मक और साधनात्मक दोनों प्रकार के रहस्यवाद उपलब्ध होते हैं । मोह राग द्वेष प्रादि को दूर करने के लिए सत्गुरू श्रीर सत्संग की आवश्यकता तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए सम्यक् दर्शन-ज्ञान और चरित्र की समन्वित साधना की अभिव्यक्ति हिन्दी कौन रहस्यवादी कवियों की लेखनी से बड़ी ही सुन्दर, सरल 1. 2. बनारसीविलास, पु. 161. वही, पु. 228. (* Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Hin भाषा में प्रस्फुटिताई है। इस दृष्टि से सकलकति का पाराषना प्रवियोगमार,'" जिनकास का वनवीन गामवराम का मायमविलास, मवावीदासाचन सुमति सम्माम' भगवतीकास का योगीरासा, पद का परमार्थी पालकरामा' चामविलास पानदरम का मानवपन बहोत्तरी, भूपरदास का भूपरविलास पादि ग्रंथ बिष उल्लेखनीय है। माध्यामिक मापना की परम परिणति .. रहस्य को उपलनिस उपमासिके भागों में साधक एक मत नहीं। इसकी प्राप्ति में सापकों ने सुगमायुम अषवाक्षस-मकुशल कर्मों का विवेक खो दिया । बौद्ध-धर्म के सहजमान संस्थान,.. तंत्रयाम वजमान प्रादि इसी साधना के बीभत्स रूप है। वैदिक सापनापों में भी। इस रूप के दर्शन स्पष्ट दिखाई देते हैं। वयपि जैन धर्म भी इससे अछता नहीं था , परन्तु यह सौभाग्य की बात है कि उसमे श्रद्धा और भक्ति का अतिरेक तो अवश्य हमा, विभिन्न मत्रों और सिवियों का प्राविष्कार भी हुमा किन्तु उन मंत्रों और सिदियों की परिणति वैदिक अथवा बोट सस्कृतियों में प्राप्त उस बीमरस स्प जैसी नहीं हुई। यही कारण है कि जैन संस्कृति के मूल स्वरूप प्राण तो नहीं रहा पर गहित स्थिति में भी नही पहुंभा । जैन रहस्य भावना के उक्त विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि गैम रहस्यवादी साधना का विकास उत्तरोत्तर होता गया है, पर बह विकास मपनी मूल साधना के स्वरूप से उतना दूर नहीं हुमा जितना बौड सापना का स्वरूप अपने मूल स्वरूप से उसरकाल मे दूर हो गया । यही कारण है कि गैन रहस्यवाद ने जनेतर साधना मों को पर्याप्त रूप से प्रबल स्वरूप में प्रभावित किया । प्रस्तुत प्रबन्ध को माठ परिवतों में विभक्त किया गया है। प्रथम परिवर्त में मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि का अवलोकन है । सामान्यतः भारतीय इतिहास का मध्यकाल सप्तम शती से माना जाता है परन्तु जहां तक हिन्दी साहित्य के मध्य काल की बात है उसका काल कब से कब तक माना जाये, यह एक विचारणीय प्रश्न है। हमने इस काल की सीमा का निर्धारण वि. सं. 1400 से वि. सं. 1900 तक स्थापित किया है। वि. सं. 1400 के बाद कवियो को प्रेरित करने वाले सांस्शिक प्राधार में वैभिन्य दिखाई पड़ता है । फलस्वरूप जनता की वित्तरति मौर कृषि में परिवर्तन होना स्वाभाविक है । परिस्थितियों के परिणाम स्वरूप जनता की कवि जीवन से' उदासीन और भमरद भक्ति में लीन होकर मात्म कल्याण करने की भोर उन्मुख थी इसलिए कविगण(इस विवेच्य काल में भक्ति और मध्यात्म सम्बन्धी रब. मामें करते दिखाई देते है। मेन कमियो की इस प्रकार की रचमा मममम वि.सं. 1900 4 मिमी म इस सम्पूर्ण काम को मध्यकाल नाम देना होमसन प्रतीत होता है। इसके पवाद हममे समकालीपि Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52.. रूपरेखा प्रस्तुत की है। जिसके अन्तर्गत राजनीतिक पार्मिक और सामाजिक पृष्ठ भूमिको साठ किया है। इसी सांसारिक पृष्ठभूमि में हिन्दी बना साहित्य का : निर्माता हुमा द्वितीय परिवर्त में हिन्दी बैन साहित्य के प्रादिकाल की वर्षा की गई। इस संदर्भ में हमने अपभ्रंश भाषा और साहित्य को भी प्रवृत्तियों की दृष्टि से समाहित किया है। यह काल दो भागों में विभक्त किया है--साहित्यिक पत्र पौर अपभ्रंश परबती लोक मावा या प्रारम्भिक हिन्दी रबमाए प्रथम वर्ष स्वरदेव, पुष्पवंत मादि कवि हैं और द्वितीय वर्ग में शालिभद्र सूरि जिन-पद्मसूरि प्राधि विद्वान उल्लेखनीय है । भाषागत विशेषतामों का भी संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत अपनश भाषा और साहित्य ने हिन्दी के मादिकाल मोर मध्यकालको बहुत प्रभावित किया है। उनकी सहज-सरल भाषा, स्यवाभाविक वर्णन और सांस्कृतिक परातल पर व्याख्यायित दार्शनिक सिद्धांतों ने हिन्दी जैन साहित्य की समग्र कृतियो पर अमिट छाप छोड़ी है। भाषिक परिवर्तन भी इन ग्रन्यो में सहजता पूर्वक देखा जा सकता है । हिन्दी के विकास की यह माद्य कड़ी है । इसलिए अपभ्रंश की कतिपय मुख्य विशेषतामों की भोर दृष्टिपात करना मावश्यक हो जाता है। प्रतीम परिवर्त मे मध्यकालीन हिन्दी काव्य की प्रतियों पर विचार किया गया है। इतिहासकारो ने हिन्दी साहित्य के मध्यकाल को पूर्व-मध्यकाल (भक्तिकाल) मोर उसरमध्यकाल (रीतिकाल) के रूप मे वीकृत करने का प्रयल किया है। चूकि भक्तिकाल में निमुंण और सगुण विचारधारायें समानान्तर रूप से प्रवाहित होती ही है तथा रीतिकाल मे भी भक्ति सम्बन्धी रचनायें उपलब्ध होती मतः हमने इसका धारागत विभाजन म करके काव्य प्रवृत्यात्मक वर्गीकरण करना अधिक सायक माना । जैन साहित्य का उपयुक्त विभाजन भोर भी संभव नहीं क्योकि यहां भक्ति से सम्बस अनेक धारायें मध्य काल के प्रारम्भ से लेकर पन्त तक निषि क्प से प्रवाहित होती रही है। इतना ही नहीं, भक्ति का काव्य स्रोत जन मापायों और कवियों की लेखनी से हिन्दी के मादिकाल में भी प्रवाहित हमा प्रतः हिन्दी के मध्ययुगीन जैन काव्यों का वर्गीकरण काव्यात्मक न करके प्रत्या स्मक करना अधिक उपयुक्त समझा। इस वर्गीकरण में प्रधान पोर मौण दोनों प्रकार की प्रतियों का माकलन हो जाता है। बन कासियों और भाचार्यों ने मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में कर भनेक साहित्यिक विधामो को प्रस्फुटिप किया है। उनकी इस निम्मक्ति को हमने Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " 1. प्रकल महाकाया, परसहि काम, कथा काव्य बस्ति काव्य रासा साहित्य । ★ 2.काहीची विवम्लो, चेतमकर्म चरित 13. व्यात्म पीर भक्तिमूलक काव्य-स्तवन, पूजा, भीमाई, जयमाला, चोचर, फागू, पुनी, बेल, म बारहमासा आदि । *** """" 4. गीति काव्य - विविध प्रसंगों और फुटकर विषयों पर निर्मित भीत 5. प्रकर्सक काव्य - लाक्षणिक, कोश, गुर्वाजली, आत्मकथा भादि । उपर्युक्त प्रवृतियों को समीक्षात्मक दृष्टिकोण से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी प्रतियां मूलतः प्राध्यात्मिक उद्देश्य को लेकर प्रस्फुटित हुई हैं। इन रचनाओं में माध्यात्मिक उद्देश्य प्रधान है जिससे कवि की भाषा प्रालंकारिक न होकर स्वाभाविक पौर सात्विक दिखती है। उसका मूल जला रहस्यात्मक मनुभव भौर भक्ति रहा है। चतुर्थ परिवर्त रहस्यभावना के विश्लेषण से सम्बद्ध है । इसमें हमने रहस्य भावना और रहस्यवाद का प्र ंतर स्पष्ट करते हुए रहस्यवाद की विविध परिभाषाओं का समीक्षण किया है और उसकी परिभाषा को एकांगता के संकीर्ण दायरे से हटा कर सर्वागीण बनाने का प्रयत्न किया है । हमारी रहस्यवाद की परिभाषा इस प्रकार है -- "रहस्यभावना एक ऐसा माध्यात्मिक साधन है जिसके माध्यम से साधक स्वायुसूनि पूर्वक प्रात्म तत्व से परम तत्व में लीन हो जाता है । यही रहस्यभावना प्रत्रिव्यक्ति के क्षेत्र में माकर रहस्यवाद कही जा सकती है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि मध्यात्म की चरमोत्कर्ष अवस्था की अभिव्यक्ति का नाम रहस्यबाद है । यहीं हमने जैन रहस्य साधकों की प्राचीन परम्परा को प्रस्तुत करते हुए रहस्यवाद मौर अध्यात्मवाद के विभिन्न प्रायामों पर भी विचार किया है। इसी सन्दर्भ में और जैनेतर रहस्मभावना में निहित प्रन्तर को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है । यहां यह भी उल्लेक्य है कि जैन रहस्व साधना में प्राना की तीन अवस्थायें मानी गयी है-बहिरात्मा, अन्तरात्मा बहिरास्मा में जीव जन्म-मरण के कारण स्व सुख के मक्कर में भटकता रहता है। विवावस्था (मा) में पहुंचने पर संकार के कारणों पर गम्भीरतापूर्वक चित करने से मारा की पोर उत्सुक हो जाता है। कनः वह भौतिक हको क्षीरस्यायन कसा है। वच्ता (परमात्मा बाबाचार की प्राप्ति के कर है। इन्हीं तीनों वापर और सों से नव 1 सा के Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *94 पंचर्म परिवर्त में रहम्यभावना में बाधक तत्वों की स्पष्ट किया गया है। रहस्यसाधना का चरमोत्कर्ष ब्रह्मसाक्षात्कार है। साहित्य में इसको मात्म-साक्षात्कार परमात्मपद, परम सत्य, अजर-अमर पद, परमार्थ प्राप्ति भादि नामों से उल्लिचित fear गया है । म्रतः हमने इस अध्याय में भ्रात्म चिन्तन को रहस्यभावना का केन्द्र बिन्दु माना है । आत्मा ही साधना के माध्यम से स्वानुभूति पूर्वक अपने मूल रूप परमात्मा का साक्षात्कार करता है। इस स्थिति तक पहुंचने के लिए साधक को एक लम्बी यात्रा करनी पड़ती है। हमने यहाँ रहस्यभावना के मार्ग के बाधक तत्वों को जैन सिद्धांतों के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया है। उनमें सांसारिक विषय-वासना शरीर से ममत्व, कर्मजाल, माया-मोह, मिथ्यात्व बाह्याडम्बर और मन की चंचलता पर विचार किया है । इन कारणों से साधक बहिरात्म अवस्था में ही पड़ा रहता है। षष्ठ परिवर्त रहस्यभावना के साधक तत्वों का विश्लेषण करता है । इस परिवर्त में सद्गुरु की प्रेरणा, नरभव दुर्लभता, म्रात्म- संबोधन, प्रात्मचिन्तन, चिरा शुद्धि, भेदविज्ञान भौर रत्नत्रय जैसे रहस्यभावना के साधक तत्वो पर मध्यकालीन हिन्दी जैन काव्य के प्राधार पर विचार किया गया है। यहां तक आते- प्राते साधक अन्तरात्मा की अवस्था को प्राप्त कर लेता है । सप्तम परिवर्त रहस्यभावनात्मक प्रवृत्तियों को प्रस्तुत करता है । इस परिवर्त में अन्तरात्मावस्था प्राप्त करने के बाद तथा परमात्मावस्था प्राप्त करने के पूर्व उत्पक्ष होने वाले स्वाभाविक भावों की अभिव्यक्ति को ही रहस्यभावनात्मक प्रवृतियों का नाम दिया गया है । प्रात्मा की तृतीयावस्था प्राप्त करने के लिए साधक दो प्रकार के मार्गों का अवलम्बन लेता है— सावनात्मक और भावनात्मक । इन प्रकारों के अन्तर्गत हमने क्रमश. सहज साधना, योग साधना, समरसता प्रपत्ति-भक्ति, प्रायात्मिक प्रेम, प्राध्यात्मिक होली, प्रनिर्वचनीयता प्रादि से सम्बद्ध भावों और विचारों को चित्रित किया है। utee परिवर्त में मध्यकालीन हिन्दी जैन एवं जैनेतर रहस्यवादी कवियों का संक्षिप्त तुलनात्मक अध्ययन किया गया है । इस सन्दर्भ में मध्यकालीन सगुण. निर्गुण और सूफी रहस्यवाद की जैन रहस्य भावनाके साथ तुलना भी की गई है। इस सन्दर्भ में स्वानुभूति, भारमा मौर ब्रह्म, सद्गुरु, मावा, प्रात्मा ब्रह्म का सम्बन्ध, बिरहा नुभूति, योग सामना, भक्ति, अनिर्वचनीयता आदि विषयों पर सांगोपांग रूप से विचार किया गया है। प्रस्तुत प्रबन्ध में मध्यकाल की सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि को हमने बहुत संक्षेप में ही उपस्थित किया है और काल विभाजन के विवाद एवं नामकरण में भी इम नहीं उसके । विस्तार और पुनरुक्ति के भय से हमने भावि कालीन और मध्य Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काबीन हिन्दी बैन साहित्य को उसकासामान्य प्रतियों में ही विभाजित करना उचित समका । यह मात्र सूची बसी अवश्य दिखाई देती है पर उसका अपना महत्व है। यहाँ हमारा उद्देश्य हिन्दी साहित्य का इतिहास लिखने वाले विधारों को प्रत्येक प्र. तिगत महत्वपूर्ण कायों की गणना से जापित कराना मात्र रहा है जिनका सभी तक हिन्दी साहित्य के इतिहास में किन्हीं कारणों वय उल्लेख नहीं हो पाया । उन प्रवासियों के विस्तार में हम नहीं जा सके। जाना सम्भव भी नहीं पा क्योंकि उसकी एक-एक प्रवृत्ति पृपा पा पोष प्रबन्ध की मांग करती प्रतीत होती है । तुलनात्मक अध्ययन को भी हमने संक्षिप्त किया है अन्यथा वह भी एक अलग प्रबन्म-मा हो जाता । प्रस्तुत अध्ययन के बाद विश्वास है, रहस्यवाद के क्षेत्र में एक नया मानदण्ड प्रस्थापित हो सकेगा। प्रायः हर जैन मंदिर में हस्तलिखित ग्रंथों का महार है। परन्तु वे बड़ी बेरहमी से अव्यवस्थित परे हए हैं। माश्चर्य की बात यह है कि यदि शोषक उन्हें देखना चाहे तो उसे पूरी सुविधायें नहीं मिल पाती। हमने अपने मध्ययन के लिए जिन-बिन शास्त्र मंगरों को देखा, सरलता कहीं नहीं हुई। जो भी अनुभव हुए, उनसे यह अवश्य कहा जा सकता है कि शोषक के लिए इस क्षेत्र में कार्य करने के लिए प्रभूत सामग्री है पर उसे साहसी मोर सहिष्णु होना मावश्यक है। अन्त में यहां पर लिखना चाहूंगी कि पृ. 243 (285) पर जो वह लिखा गया है कि न कोई निरंजन सम्प्रदाय था और न कोई हरीदास नाम का उसका संस्थापक ही था, गलत हो गया है। तथ्य यह है कि हरीदास (सं. 1512-95) इसके प्रवर्तक थे जिनका मुख्य कार्य क्षेत्र रीडवाना (मागीर) था; ऐसा मानावत ने लिखा है। रहस्य भावना माध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में वस्तुतः एक ऐसा असीमित तत्व है जिसमें संसार से लेकर संसार से विनिमुक्त होने की स्थिति तक सापक मनुचिन्तन मोर भनुप्रेक्षण करता रहता है। हिन्दी साहित्य के जायसी, कबीर, सूर, तुलसी, मीरा भादि जैसे रहस्यवादी नेतर सापक कवियों में भी यह तत्व इसी रूप में प्रतिविम्बित होता है। उनके तथा बैन कवियों के विचारों में साम्य-वैषम्य लोपले का प्रयल हमने इस शोष प्रबन्ध में किया है। मध्य कालीन हिन्दी जैन संतों में प्रपत्ति भावना के सभी मंग उपलब्ध होते हैं। पतिरिक्त श्रवण, कीर्तन, चितवन, सेवन, बन्दन, ध्यान, सपुता, समता, एकता, वास्यनाव, सत्यभाव मादि नवधा भक्ति तत्व भी मिलते हैं इन तत्वों की एक प्राचीन सम्बी परम्परा है। बेदों, स्मृतियों, सूचों, पागों और पिटकों में इनका पर्याप्त विपल किया गया है। मध्यकालीन हिन्दी चैन और तर काय उनसे निःसंदेह प्रमा वित विकाई देते हैं। इन तस्यों में नामस्मरण विशेष उल्लेखनीय है।संचार सागर के पार होने के लिए सापकों ने इसका विष प्राषय लिया है। सूमि का मार्फत पौर देशों का पाल्पनिवेदन दोनों एक ही मार्ग पर चलते हैं । अल कोर्सन प्रादि प्रकार भी सूफियों के वरीयत, तरीकत, हकीकत पर मार्फत मादित Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामावरित सूफियों, रेलवों पार जनों ने मालामख कोमा स्वर पर स्वीकारा है। सूफी साधना में इसी को विक मीर फिक संशा से विहित किया गया है। पादसेवन, वन्दन और मिर्जन को भी इन कवियों ने अपने मों में भर है । उपासम्म, पश्चात्ताप, लघुता, समता मोर एकवा से सत्व भापति में यथाबत् उपलब्ध होते हैं। इन कपियों के पर्दो को तुमनात्मक दृष्टि से देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि वे एक पूसरे से किस सीमा तक प्रभावित रहे। योग साधना माध्यात्मिक रहस्य की उपलब्धि के लिए एक सापेग मंद है। सृष्टि के मादि काल से लेकर पाम तक यह समान कासे व्यवहत होता पा रहा है । जायसी, कबीर, नानक, मीरा प्रादि संतों ने, सरहपा, कण्हपा बादि से सहव. मामी सियोंने, कौलमार्गी और नाप प्राचार्यों ने, चमत्कारवादी सहजिया सम्प्रदायी महात्माप्रों मे योग साधना का भरपूर उपयोग किया है । जैन धर्म ने भी एक लम्बी परम्परा के साथ सूफी मोर सन्तों के समान मन को केन्द्र में रखकर सावना के क्षेत्र को विस्तृत किया है । उनमें यह विशेषता रही है कि साधारणतः उन्होंने अपने पापको हठ योम से दूर रखा है और साध्य की प्राप्ति में योग का पूरा उपयोग किया है। ब्रह्मस्व या निरंजन की अनुभूति के बाद साधक समरसता के रंग में रंग जाता है। रहस्य भावना का यह मन्यतम उद्देश्य है। आध्यात्मिक किंवा रहस्य की प्राप्ति के लिए स्वानुभूति एक अपरिहार्य तत्व है। इसे जैन-नेतर सापकों ने समान रूप से स्वीकार किया है । प्राध्यात्मिक विवाह पौर होली जैसे तत्वों को भी कवियों ने मात्मसात किया है । रहस्यवाद की प्रमिव्यक्ति के लिए संकेतात्मक, प्रतीकात्मक, व्यसनापरक एवं मालंकारिक शैलियों का उपयोग करना पड़ता है। इन शैलियों में अन्योक्ति शैली, समासोक्ति शैली, संवृत्ति मतामूलक शैली, रूपक शैली, प्रतीक शैली विशेष महत्वपूर्ण है। जैन साधकों ने निगुण और सगुण दोनों प्रकार की भक्तियों का प्रवलम्बन लिया है। परन्तु उन्होंने इस क्षेत्र में अपनी पहिचान बनाये रखी है। सूफी कवि जैन सापना से बहुत कुछ प्रभावित रहे हैं। कबीर प्रादि निर्गुणी सन्चों ने भी बैन विचारधारा को पात्मसात किया है। जनों का निकल-सकल परमारमा निर्मुख मोर सगुण का ही रूप है । यह अवश्य है कि मध्यकालीन जनेवर कवियों के समान हिन्दी बन कवियों के बीच निपुण अथवर सपुण भक्ति शाखा की सीमा रेखा नहीं वितरीये दोनों भवल्यामों पुवारी रहे हैं क्योंकि ये दोनों प्रस्थाएं एकही मात्मा की पानी गई है। उन्हें ही न पारिवारिक सम्बों में सिरमौर महन्त महा गया है। इस परिक्म में जाम माधुनिकाय में अधिक रहाव भावमा को देखते है तो गाय और बन रहस्य मावना मैं साम्म कम पार बसम्म माषिक सिचाई बालसभी सम्पों पर प्रस्तुत गोष-वन्य में सीमा पजवन स्तुत Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिवर्त 5 नारी वर्ग चेतना नदर्शन समतावादी, पुरुषार्थवादी, पास्मवादी पर मोदी साथ सामाजिक और दार्शनिक क्षेत्र में उतरा और उसने व्यष्टि और areकालिक तथा शाश्वत समस्यानों पर अपने सूत्र व्यक्ति के विकास के विभिन्न सोपान बनकर अमर बन गये। दर सन्दर्भ में इन सूत्रों का व्यावहारिक उपयोग न हो सका । जैनदर्शन को वैदिक काल की पृष्ठभूमि हामी जननी है यह शाश्वत सूत्र नारी की स्थिति के साथ प्रार अथ से लेकर इति तक किसी भी साहित्य में पुत्र की नहीं दिया गया बल्कि उसे बंधन कारक तथा मानक पांचा के पीछे उसकी प्राकृतिक तथा शारीरिक दुर्वखतायें समय ही है पर सिक स्थिति को दृढ़तार करने का सवसर प्रदान नहीं किया था। के steera में पुत्र प्राप्ति की तीव्रता पिता व्यक्त की जाती रही है। इसका नम कर वह का पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए पुत्र को ही होने पर पुत्री का परिवार बदच जाने से नही कर्म से कि भभीत रहता है लिए की स्थापना कर पूर्ण कराता है। उसके बावा-पिता की स्वार्यविधि नहीं हो पा यही कारण है। केके में कर कभी की कार पर ही की है। के क ही की ए की विव Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा है कि इसके समान मनुष्य का दूसरा शत्रु नहीं है इसलिए इसे नारी कहते है।। इसी तरह पुरुष का वध करने वाली होने से वधू, दोषों की सत्यादिका होने से स्वी, प्रमाद उत्पन्न करने वाली होने से प्रमदा तथा पुरुषों पर दोषारोपण करने वाली होने से महिला कहा गया है । इन प्रयों के पीछे चिंतकों की यह भूमिका रही है कि नारी के कारण पुरुष वर्ग अनेक दोषों की भोर माकर्षित होता है इसलिए वह हेय है, निंदनीय है । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस पर विचार किया जाये तो यही कहा जा सकता है कि अपराधी पाना अपराध किमी दूसरे पर थोपकर स्वयं मुक्त अथवा निर्दोष होना चाहता है। नारी को दुर्यस्था का एक और कारण रहा है कि उत्तर वैदिक काल में उसके धार्मिक अधिकार पुरोहितों के पास पहुंच गये । फलत: उसकी धार्मिक शिक्षा समाप्तप्राय हो गई मोर वह अपनयन संस्कार से वंचित होकर शूद्रवत् व्यवहार पाने लगी। 'इस तरह वह बुद्ध और महावीर के पूर्व काल में शिक्षा और धर्म के क्षेत्र से हटकर समाज में परतंत्रता का जीवन बिताने के लिए बाध्य हो गई। श्रमण संस्कृति में नारी के इस रूप ने करवट बदली और उसने महावीर के समतावादी दर्शन के प्रालोक में सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में पुन: प्रपना अस्तित्व प्राप्त किया । नायाधम्मकहाणो से पता चलता है कि संतान-प्राप्ति की काममा करते समय पुत्र अथवा पुत्री को समान रूप से देखा जाता था। इतना ही नहीं, विवाह करने के लिए वर पक्ष वधू पक्ष को शुल्क भी दिया करता था। यह उल्लेख पुषी के महत्व को अधिक स्पष्ट कर देता है। जैन संस्कृति लैंगिक और धार्मिक समता की पक्षधर है उसमें चाहे नारी हो या पुरुष, प्राणिमात्र अपने स्वयं के पुरुषार्थ से वीतरागी होकर मोक्ष प्राप्त कर सकता है । परन्तु इस सन्दर्भ में जन संस्कृति के दिगम्बर भौर श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार स्त्री भी मुक्त हो सकती है क्योंकि पुरुष के समान उसमें भी वे सभी गुण विद्यमान हैं जिवकी मोक्ष प्राप्ति में प्रावश्यकता होती है। पर दिगम्बर परम्परा इसे स्वीकार नहीं करती। वह अपने पक्ष में निम्नक्षित तर्क प्रस्तुत करती है 1. तारिसमो पन्धि परी परस्स प्रयोति उपदे नारी । 2. कहं ग तुमं वा दारयं वा पारियं वा पवाएवासि, नाया 1.2, 40 ' 3. पो भण, देवाणुप्पिया! कि वदानि सुक्की नाया. 1. 14.110 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ krit 1. गोवा के परसाब मान-वन शरिष की उसमें पता की विस.प्रचार उसमें पापको प्रकर्षता न होने में बह सप्तम नरक नहीं पाता तए पुन या राता की उतनी प्रार्षता उसमें नहीं होती कि यह मोल प्राप्त कर सके। पुरुष में पुग्ध और पाप दोनों की प्रर्वदा होती है इसलिए से मुक्षि वा महामारक गमन का विशाल वामा, गया है। 2.स्त्रीक समेत संबमी है इस्लीलए उसका प्राचार के समान होता है। संबर का प्रसाद मोष की प्राप्ति में बारक होता होई किए सामों के द्वारा उसे प्रवंधनाय कहा गया है। प्रमेममस माम मालवालाम की एक गाबा का उल्लेख है जिसमें कहा था कि सीक्वं की दीमित मावि माजरे ही सीमित तानु के द्वारा भी बंदनीय रहा है। परिससय दिक्खियाए पाए पण दिक्खियो साह। अभिगमण बंदणरणमसरण पिणएण सो पुण्यो ।। 3. वस्त्रादि बाह्य परिग्रह तथा अनुरागादि प्राभ्यंतर परिग्रह भी स्त्रियों में अधिक रहता है । दि उन्हें मोक्ष प्रधिकारिणी माना जाय तो महकों को भी मोक्ष प्राप्त हो सकता है, यह बात माननी होगी यो समुचित नहीं हो पा सकता। 'जीतकल्प' में पाई गाथा से भी यही प्रकट होता है। वस्त्र पहल करने में प्राक्षियों का अपपात तथा संभूर्छन जीवों की उत्पत्ति होती है । इस सन्दर्भ में बह प्रश्नमा किया जा सकता है कि विहार करने में भी यह होता है। यह प्रश्न मुक्ति संक्त नहीं क्योंकि प्रयत्न पूर्वक संयम पूर्वक चलने पर भी यदि प्राणिपात होता है तो मानिस नहीं, अहिंसा है। बापाभ्यांतर परिग्रह का त्याग ही वास्तविक संबम है । यह वस्त्र याचन, सीवन, प्रक्षालन, शोषण, निक्षेप, प्रादान और हरण मादि कारतों से मनः संक्षोभकारी है अतः उसे संबम का विघातक कारण कैसे न माना जाय ?' वही विचार-खला उत्तरकालीन विमम्बर अम्बों में प्रतिविम्बित सील पाहुड़ (गाया 29) में नारी को श्वान् मईभ, मोगादि पापों के समक्या रखा मया है । और इन सभी को मुक्ति से कोसों दूर किया गया है। प्रबनसार कोष प्रक्षेपक पाथानों में तो इसे और स्पष्ट कर दिया गया है कि नारी भले ही सम्म ग्दर्शन से शुद्ध हो, शास्त्रों का अध्ययन किया हो, तपश्चरल रूम पारिन मे.पर सहमा की संपूर्ण निर्जरा नहीं कर सकती। इन .उत्तरकालीन भाषामों 1. प्रमेयकमल मातंग, पृ. 330 2. 'मोबाईसा सेवाहरपट दिसम्म" । गीतकम, AL1972 3. प्रमेय कानमाड, पृ. 331-32 पर उदन्त श्लोक Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को प्राचार्य कुन्दकुन्द बैसे महनीय माध्यात्मिक दार्थनिक सन्त के साथ जोर देने का तात्पर्य यह है कि यह विचार मूल जैन परम्परा से सम्बद्ध न होकर उत्तरकालीन कुचपाताओं की देन है। जो भी हो, यह परम्परा अब दिगम्बर परम्परा के रूप में स्थिर हो पुणे है। सके अनुसार कर्मों की सम्पूर्ण निर्जरा करने के लिए नारी को भवान्तर में पुरुष द ग्रहण करना अनिवार्य है। प्रतः दे सद्भव मोक्षगामी म होकर भवान्तर में मोबगामी होती हैं। इसका कारण यह बताया है कि नारी चंचल स्वभाबी तथा सचिल होती है तथा उसके प्रथम संहनन नहीं होता। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार स्त्री तीपंकर नहीं हो सकती और सम्यग्दृष्टि जीव स्त्रियों में उत्पन्न नहीं हो सकते। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बोट संस्कृति भी इस सन्दर्भ में दिगम्बर परम्परा के मषिक समीप है। मानन्द के भाग्रह से भगवान बुद्ध ने महिलामों को मंघ में प्रवेश अवश्य दिया पर उन्हें मुक्ति का विधान नहीं किया जा सका। श्वेताम्बर परम्परा वीतरामता की इस उच्च स्थिति को स्वीकार नहीं करती। उसके अनुसार वीतरागता अन्तरंग का चिह्न है, बहिरंग का नहीं। प्रतः उसकी परमोच्च अवस्था प्राप्त करने के लिए कोई लिंग पादि का बन्धन नहीं माना जा सकता । अत: नारी भी मुक्ति प्राप्त कर सकती है। ललितविस्तरा में सिद्ध के पन्द्रह प्रकारों में स्त्रीलिंग सिख, नपुसकलिंग सिड, गिहिलिंगसिद्ध जैसे प्रकार भी दिये गये हैं। यहां यह उल्लेखनीय है कि यापनीय संघ (जो वि. सं 205 में कल्याण नामकनगर में श्रीकलश नामक श्वेताम्बर साघु द्वारा स्थापित किया गया था) के अनुसार भी स्त्री मुक्ति की प्रषिकारणी है । यहां इस संघ के विषय में अधिक कहना अभिषेय नहीं । पर इतन कम्य अवश्य है कि इसकी कुछ मान्यतायें श्वेताम्मर परम्परा पर माधारित थीं प्रौर नग्नस्व मावि कुछ मान्यतायें दिसम्बर परम्परा का अनुसरण करत पौं । ललित विस्तरा में इसी की मान्यता का उवरण देकर श्वेताम्बर परंपरा को प्रस्तुत किया गया है । तदनुसार नारी को मुक्ति प्राप्त होना असम्भव नहीं कहा जा सकता। - यह परम्परा उस्कृष्ट शुक्ल ध्यान से उत्कृष्ट रौद्र ध्यान की कोई व्याप्ति नहीं मानती। उसके अनुसार जहां मोम प्रापक शुक्ल ध्यान को योग्यता है वहां सप्तम् नरक 1. वर्शनबार Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ioi पापमान की योग्यता का कोई नियम नहीं है। प्रतः स्त्रियां सप्तम् मरक कायम होने पर भी समान के योग्य हो सकती पोक्त यापनीय लोबलु इत्थी अजीको (प्र.पजीवे) पानि माया, रण यावि देसविरोहिणी (प्र."विराहिली), सो प्रमाणुसा, यो प्रणारि उप्पत्ति, सोमवाउया, सो प्रहरी, हो रण उक्सन्तमोहा, को ख मुखाबारा, सो बसुनवादी, रखो बक्सावाविया, स्लो मधुमकरण विरोहिणी, सो बस्तारण रहिया, गो माजोग्या लडीए, वो अकल्माण मायणं ति कहं न उसमधम्मलिग सिमर्थात् जैसे कि मापनीय शास्त्र में कहा गया है कि "स्त्री कोई पीवो है नहीं, फिर वह उत्तम धर्म मोक्ष कारक पारित धर्म की साधक क्यों नहीं हो सकती ? वैसी ही वह मध्य भी नहीं है, वसंत गिरोषी नहीं है, अमनुष्य नहीं है, अनार्य देशोत्पन्न नहीं है, असंख्य वर्ष की प्रायु वाली नहीं है, प्रति कर मतिकाती नहीं है, मोह प्रशांत हो ही न सके ऐसी नहीं, वह खुद मापार से खून्य नहीं है, मधुब सरीर वाली नहीं है, परलोक हितकर प्रवृत्ति से रहित नहीं है, अपूर्वकरस की विरोधी नहीं है, नौ गुण स्थानक (घठवें से चौदहवें तक) से रहित नहीं है, लधि के प्रयोम्प.हीं है, मकल्याण की ही पात्र है ऐसा भी नहीं है फिर उत्तम धर्म की साधक स्वों नहीं हो सकती ?" नन्दिसूत्र, प्रज्ञापना, शास्त्रवार्ता-समुच्चय प्रादि श्वेताम्बर ग्रन्थों में भी इस विषय की पर्याप्त मीमांसा की गई है और मल्लि को तीर्षकर बताकर यह स्पष्ट किया गया है कि नारी भी शारीरिक और माध्यात्मिक विकास की पूर्ण मषिकारिणी है। उनके अनुसार वस्त्र प्रहण से वीतराग की कोई हानि नहीं होती मन्यथा पीछी, दवा, भोजन आदि भी इसी श्रेणी में भा जायेगा प्रतः वस्त्र को मारी की मुक्ति प्राप्ति में बाधक नहीं माना जा सकता। इसके बावजूद यह माश्वर्य का विषय है कि श्वेताम्बर परम्परा नारीको दृष्टिवाद के अध्ययन की भधिकारिणी नहीं मानती। 'दृष्टिवाद', बैसा हम जानते है, तात्कालिक प्रचलित परम्परामों, दर्शनों मोर साधनामों का मीमांसक संग्रह रहा है इसलिए उसका दुरूह और बटिल होना स्वाभाविक है। परम्परा से चूकि नारी वर्ग शारीरिक और मानसिक दुर्बलतामों का पिण्ड मानी गयी है इसलिए उसे दष्टि पाप जैसे दुर्वोष मागम अन्य के अध्ययन करने से दूर रखा गया है । इस सन्दर्भ में दो परम्परा है-प्रथम परम्परा का सूत्रपात जिनभद्रगणि ममाषम में किया है बिनके भनुसार दृष्टिवाद के समय के निषेध के पीछे नारी के तुगत, पानमान, 1. सलित विस्तरा पृ. 400 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ion इन्द्रिय पांचस्य, मति माय मत मानसिक बीमः परम्परा कोरका सरि ने प्रारम्भ किया जो नारी में माधुरि रूप शारीरिक दोष दिसाकर उसका इन दोनों परम्परामों में एक मोर नारी को शारीरिक और मानसिक रोगों से मात्र माना गया । मोर दूसरी पीर उसमें मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता को स्वीकार किया गया है। यहां दोनों विचारों में पारस्परिक विरोष दिखाई देता है। उदाहरणार्ग शुक्ल श्याम के पहले दो प्रकार-(1) पृथकस्व वितकं सविधार, (2) एकवितर्क विचार प्राप्त किये बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता। 'पूर्व' मान के बिमा शुक्स यान के प्रथम दो प्रकार प्राप्त नहीं होते और 'पूर्व दृष्टिबाद का एक भान है-शुपले पाये पूर्ववियः । (तत्वाचं सूत्र, ५,39) पवाद दृष्टिवाद के सम्मायन विमा केबसमान की प्राप्ति नहीं होती और केवलमान बिना मुक्ति प्राप्ति नहीं होती। ऐसी स्थिति में नारी को मुक्ति प्राप्ति का अधिकार दिया जाना पारस्परिक विचारविरोष व्यक्त करता है । इसका समाधान इस प्रकार किया जाता है कि शास्त्र मारी में दृष्टिवाद के पर्मशान की तो पोम्यता मानता है पर उसे शाबिक अध्ययन का निवेश करता है। पर यह समाधान उचित नहीं दिखाई नेता क्योकि शान्दिक मध्ययन के बिना पर्षमान कैसे होगा? जन वर्णन के अनुसार नारी की योग्यता के सन्दर्भ में दिगम्बर और श्वे. ताम्बर पम्पराये कुल मिलाकर बहुत दूर नहीं है । उन दोनों में नारी को पुरुष के समका बैठा नही देखते। इतना ही नही, प्राकृतिक दुर्बलतामों के कारण धनपोर निन्दा कर उसे ही दोषी ठहराया गया है। नारी की दुवंस्था का मूल कारण कदाचित यही रहा है कि उसे सांपत्तिक और धार्मिक अधिकार नहीं दिये गये। पाचार्य जिमसेन ने इस तथ्य को महसूस किया और उसे पुत्रों की भांति सम्पत्ति में समान अधिकार प्रधान किये-पुत्रयश्च संविभामाॉ. सम पुत्रः समांशके: (381.54)। इसी तरह से पूजा प्रमाल का भी अधिकार मिला । अंजना सुन्दरी, मैना सुन्दरी, मदनमेवा प्रावि ऐतिहासिक किंवा पौराणिक नारियों ने जिन प्रया-प्रशान किया हो।यह विदित है। होना भी चाहिए । जब उसे कर्मों की निर्जरा करने का बर्विकार है, क्षमता है तब उसे पूज्य-प्रक्षाल से रोकना एक प्रमानवीय मोर भसामा• विककता ही समा बाना पाहिए । ऐसी. परम्परामों के विरोध में नारी को एक मायाब से पाये बहकर पार्मिक कड़ियों को समाप्त करना-करवामहिए। 1. विशेषावस्यक माम्ब, मावा 552. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ios परम्परा से नारी एक मूक दर्शिका रही है। अधिकार देने वाला और अभिकार affe बाजा युवा वर्ष ही रहा है। सभी की पार मापन या समतावादी जैन धर्म और समाज में यह विषमताका दृष्टिको निश्चित हो वैदिक संस्कृति को प्रभाव कहा जायेना मीर उससे भी कहीं पुरुष ajit rare fम्मेदार है। भद्धा भक्ति के धावेव ने नारी को पोर उसे कुचलने के लिए मानिक नियमों के कठघरे में भी उसे बन्द क क को को मांज वस्तुतः इन परम्पराधों के पुनर्मूल्याकन की माता है Hareer है ferfar की देहली पर बड़े होकर नारी की प्रतिमा और समझने की तथा उसे संयोजित और सुव्यवस्थित करने की। वर्तमान मां देखने पर ये प्राचीन परम्परायें ध्वस्त-सी प्रतीत होने लगती हैं । ज्ञान की मरी ere are state प्रतिभा सम्पन्न सिद्ध कर रही है। यदि उसे पुरुष वर्ग साधन उपलब्ध कराये मौर शास्त्रीय कल्पनाओं से दूर हटकर उसके मे हाथ बढ़ाये तो समाज के मारी वर्ग का समूचा उपयोग हो सकता है भगवान महावीर का समतावादी और पुरुषार्थयादी दृष्टिकोण नारी शक्ति को जाग्रत करने के लिए पर्याप्त है। वह समूचे परिवार को एक आदर्शमयी वात- ' वरण देकर उसमे नये जीवन का संचार कर सकती है । प्रहिसा, सत्य, 'स्तै, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की अमृतमयी विचारधारा उसको तथा उसके परिवार को सुखी और समृद्ध करने के लिए एक सशक्त साधन है । प्रतेकातवाद मोर' स्याद्वाद उसे पारिवारिक और सामाजिक, विद्वेष से मुक्त रख सकते हैं। जैन दर्शन के ये सिद्धान्त नारी जीवन को एक सुखद और सुरभिमय वातावरण देकर उच्चतम प्रगतिपथ पर पहुंचा सकते है । १* 1 7% x X X. 1 > fare पृष्ठों मे हमने जैन दर्जन की परिधि में नारी की स्थिति को है । वस्तुतः नारी मुक्ति प्राप्त करने की अधिकारिणी है या नहीं, इस सम्बन्ध हमारे वर्तमान जीवन से बहुत अधिक नहीं है । इस शास्त्रीय चर्चा का कोई विशेष उपयोग भी नहीं । वर्तमान संदर्भ में तो प्रश्न यह है कि नारी जीवन संरचना में अपना किस प्रकार का महत्वपूर्ण योगदान दे सकती है। म. बुद्ध ने मा तौर किसने मारा, क्यों मरा, कैसे मारा मादि प्रश्न ताभविक नहीं होते ।। सामयिक यह होता है कि पहले उसका तीर निकाला जाय, मरहम पट्टी की और फिर भले ही समागतं प्रश्नो पर विचार किया जाये। यदि प्रश्नों में गये तो उसकी मृत्यु स्वभावी है। इसी तरह नारी को कुचलने देवाने घटनायें दैनिक जीवन की मब-सी बन गयी हैं। इन दुर्घटनाओं से मुक्त हो refore से कर सकती है. यह प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण है । संसार की m * • Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iM माये कि प्रति को उपेबिल पर दमित रखा जाना मानो wet औरत है। बन रन की सार्वभौमिकता मारी विकास में बाधक नहीं हो सकती ऐ मेरी मान्यता है। बंग इतिहास के संदर्भ में भी यदि बात की जाये तो स्पष्ट हो जायेगा किनापायों ने नारी की बनषोर निम्बा और उसे बर्माचरण में कठोर पाया भले ही माना हो पर समाज में उसकी स्थिति उज्ज्वल से उज्यसतर होती गई है। सभी मामानों को अनन्त चतुष्टय युक्त मानकर नारी को सर्वप्रथम बम बर्मन में ही यह कहकर सब किया है कि तुम्हारी मारमा में भी मनन्त भक्ति बम-बान पारित की है जो तुम्हारे जीवन को स्वावलम्बी और सुखी बना सकती है। भावसकता इतनी ही है कि हमें पब इस शक्ति का प्राभास हो पाना चाहिए । जब तक नारी स्वयं इसका माभास न कर ले, उसका विकास सम्भव नहीं । उसे अब किसी के मुंह की पोर देखने की प्रावश्यकता नही । उसे स्वयं ही इस बात का निर्णय करना है कि वह किन साधनो से प्रारमविकास कर सकती है और फिन साधनों से अपनी प्रतिभा पौर शक्ति को समाज के विकास में सपा सकती है। प्रथम बात तो यह है कि उसे यह मानकर चलना होगा कि वह परिवार का एक महत्वपूर्ण घटक है । उसे सामंजस्य और सहिष्णुतापूर्वक परिवार के सभी सदस्यों को लेकर पारिवारिक समस्याओं का समाधान खोजना चाहिए । दूसरी बात यह है कि परिवार के विकास में उसे स्वयं को भी उत्तरदायी समझना होगा। ये दोनों तस्व एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। परिवार का महत्वपूर्ण घटक ही परिवार के विकास का उत्तरदायी रहता है। परिवार व्यक्ति का सीमित समूह है मार परिवारों का समूह एक समाज है । यष्टि से समष्टि भोर समष्टि से यष्टि गुला हुया है । भर्षनारीश्वर की कल्पना नारी के महत्व की पौर स्पष्ट रूप से वित करती है। चैन बम बहस्य धर्म में भ्यायोपार्जन को एक मावस्यक तत्व मानता है। पाक के समय में एक माना गया है। शोषण की रति इस सत्व से दूर हो जाती है और समता भाप की जाति लाने में सहायक बनती है। भाष के बीवन का केंदरम भ्रष्टाचार भी इससे समाप्त हो जाता है। अपने जीवन को कम से कम परिणही बनायें जिससे उनके भावों में विभुतिया सके मितव्यषिता का निशान्त भी इसी सिडांत से जुड़ा हमा है। परिवार को सुव्यवस्थित रखने के लिए इस निमत से पिमुखमा भी नहीं जा सकता। दुर्भसनों से मुक्त रहकर धर्म साधना करना औ ल्याचार का पुनीसग है। हम जानते है कि पूर्व बड़ा और मन पान से कितने परिवार परवानी की कमार पर पांच बाते हैं। ऐसे परिवारों का नितमी समतापूर्वक नारी विमान से बना सकती नहीं। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमामापीर के अपरिमारोपति बपने जीवनसार सोमव्याक इन अटाचाराविनायक felam पासप्रतिको कारण है।कारी इस सरकार को दूर कर परिवहम्पनी मनीति में परिवर्तन करने। परिवार को सुखी बनाने इस प्रकार का मानसिक परिवर्तन प्रत्वावस्यक है। ० महापौर के परिवार का यही स्वर है। x इतिहास के पृष्ठ उलटने पर यह बात किसी से छिपी नहीं रहती कि प्राचीन काल में नारी की क्या स्थिति थी। वैविक काल की नारी मूलतः भोमा पीपर उत्तरकाल में उसे धर्मचारिणी बना दिया। इसके बावजूद उसका भोग्या स्म समार नहीं हो पाया भोग्या रूप से सहनारिणी तक माते-आते नारी ने शतावियां बिता दी हैं। भ. महावीर और महारमा दुर ने उसकी स्थिति पर गम्भीरता पूर्वक सोचा और उसे यथोचित स्थान देने का बीड़ा उठाया। चूंकि समाज के इस वर्ष में एक नई क्रान्ति थी इसलिए इन महामहिम क्रान्तिकारी व्यक्तित्वों को भी निश्चित ही अनेक प्रकार के विरोषो का सामना करना पड़ा होगा । परन्तु उन विरोषो को सहते हए भी महावीर ने नारी को लगभग वही अधिकार देने की पेशकश की जो मातारयतः पुरुषवर्ग को था। नारी की भोर से बुद्ध के समक्ष प्रानन्द वकील बनकर सरे हुए पर महावीर के समक्ष नारी को अपना कोई वकील करना पड़ा हो, ऐसा पता नहीं चलता लगता है, महावीर बुद्ध की अपेक्षा नारी के विषय में की मधिक उदार ये । बदनवाला के जीवन की पार्मिक षटनामो को क्या हम उसमय को नारी विकट परिस्थिति का प्रतीक नही पा सकते ? बन्दनवाला के हाथ पर बांधकर जेल में डाल दिया जाना उस समय की स्थिति को इंगित करते। महावीर वारा चन्दना का उद्धार किया जाना और उसे संघ में दीक्षित डोजाना नारी स्वातंत्र्य का प्रतीक है । उसे हम प्रतीक माने या न माने पर यह निश्चित है कि महावीर जसे कान्तिकारी व्यक्तित्व ने नारी की दुरवस्था पर मांस बार बहाये होग।मासद मगरमच्छ के प्रांसू नहीं रहे होंगे बल्कि एक कर्मठ क्रान्तिकारी मानवतावादी भागनिक का संवेदनशील प्रगतिवादी कदम रहा होगा जिसने नारी पर्व के स्पन्दन को जांचा, परसा और उसे सहलाया। नारी को दिये गये इस स्वातन्य ने उसमें मात्मचक्ति बापत की। माम. मक्तिका बामरण उसके जीवन की महान् सफलता का साधन बना । उसकी उस पात्लक्ति ने उसे मोक्ष तक पहुंचा दिया । मोल ही नहीं बल्कि तीर्थकर बनाकर ठा परन्तुमारीको स्थिति का यह परिवर्तन स्थायी नहीं पा । बोड़े समगार हमारी भावनाको शिरवोपलिया सेवनानको Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 मनसर मिला वह सहस-नहस कर बियर यया । उसकी शारीरिक वा मौर मानसिक भासा का लाभ उठाकर पुश्वकर्मा ने उसे पुनः बका शिकार पर सम्बन के कोर पिपड़े में फंसकर उसकी प्रतिमा मोषरा गई। एक प्रकीया करवा रंग देकर उसे भी खोलकर मना-बुरा कहा गया । पिनमहरियों में अपने णों का सारा बोझ मधला नारी के निर्बल कंधों पर रख दिया और दूर खो। होकर हर तरह की मालोचना भरे गीत गाना प्रारम्भ कर दिये। उचरमारलीन, कवियों ने तो नारी की प्रच्छी खबर ली। उसके मंग-प्रत्पगों का जी खोलकर रोमांचक वर्णन किया । इस प्रकार की स्थिति लगभग 19 वी शती तक चलती रही। कुछ गिनी-चुनी महिलाएं अवश्य हुई जिन्होंने ऐसी विकट परिस्थिति में भी अपनी बीरता व सहस का परिचय दिया। समाज में नारी की स्थिति का गम्भीर मध्ययन करने के बाद बिनोवा से अध्येता पौर पितक को यह कहना पड़ा कि जब तक नारी धर्म में से ही कोई शंकराचार्य जैसा व्यक्तित्व पैदा नहीं होता तब तक उसका उद्धार नहीं हो सकता । इसका स्पष्ट पर्थ यह है कि हमे अपने स्वातन्त्र्य के लिए स्वयं ही प्रयत्नशील होना होगा। वह किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा देने से नहीं मिल सकता। कदाचित् मिला तो हम उसका मूल्याकन नहीं कर पायेगे । ओ वस्तु स्वयं के श्रम से प्राप्त की जाती है उसके प्रति हमारे मन में अधिक श्रद्धा और लगाव रहता है और जो वस्तु बिना मायासे, के ही मिल जाती है उसके महत्व को हम नहीं समझ पाते । यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है। हमारा सारा धर्म मोर संहिताए पुरुष द्वारा निर्मित हुई हैं। उन पर पुरुषों का ही माधिपत्य रहा है इसलिए अभी तक नारी समाज को परावलम्बन का मुंह देखना पा। परावलम्बन में जागृति और चेतना कहाँ ? जब तक व्यक्ति के मन में अपने स्वतन्त्र मस्तित्व के लिए संघर्ष की बात गले न उतर आये तब तक वह प्रगति के रास्ते पर चल ही नहीं सकता । प्रगति के इसी रास्ते को अभी तक अवरुद्ध बनाये रखा है। इस अवरोष को नारी वर्ग स्वयं जब तक अपनी पूरी शक्ति से तोडगा नही, प्रमतिपथ प्रशस्त नही हो सकेगा। कभी वस्तु को तोड़ने से वह मौर टूट जाती है पौर कभी वस्तु के तोड़ देने पर उसे अपने ढंग से जोड़ भी दिया जाता है। यह जोड़ कभी-कभी मूल वस्तु से कही मधिक मजबूत होता है । हमें पुरानी निरर्थक परम्परामों को तोड़कर इसी प्रकार मजबूत जोड़ लगाना है । ऐसी परम्पराएं जिन्होंने नारी समाज को प्रस्त-व्यस्त कर दिया, अर्जर कर दिया, शक्तिहीन कर दिया, दहेज, बासविवाह, विधवा विवाह, बहुपत्नीप्रथा, परदा प्रथा मावि समस्याएं प्रमुख हैं।। इन सभी विकराल सबस्यों को पारकर हमें अपनी और समाज की प्रगति करनी है। इसलिए जिस परम शक्ति की भागस्यकता है से काम करने का Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस विषमता को मटियामेट करने वाला बह म्यक्तित्व कितना प्रार रहा होगा, गह सहा हा अनुमान अपक्षमा भाता है। सीए विचारों ने सभू मारी को सीहीन माया से मुक्त होने का मार सि 'भार समानतामांबार सिमा को प्रस्थापित किया। x महावीर का यह प्रगतिवादी सूत्र अधिक समय तक जिन्या नहीं रह सकता। शनैः शनैः वह काल कवलित होता गया । नारी का भी सरकार पूरी तरह संस्कारित नहीं हुमा था। इसलिए वह भी जैसे अपना अस्तित्व ही खो बैठी है। इन्हीं सब स्थितियों को देखकर सन् 1975 में अन्तरराष्ट्रीय महिला वर्ष मनाया गया ताकि नारी वर्ग अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को पुनः प्राप्त कर सके। इसके बावजूद यदि हम जागृत नहीं, हो सके तो हो सकता है, हमें फिर पुराने रास्तों पर लौटना पड़े। पर अब यह लौटना सरस नही होगा । नारी वर्ग में महावीर की समानता का सूत्र पर कर रहा है । मब उसे पुनः उसी रूप में रखना सरल नहीं होगा। पचकल्याणक प्रतिष्ठा, गजरथ महोत्सव मादि जैसे व्ययसाध्य मायोजन जैन धर्म और संस्कृति के प्रचार-प्रसार के प्रमुख माध्यमों में अयमग्य माने जाने। इन माध्यमो से धामिक और सामाजिक मेतामों ने जन-जन के बीच जन प्रभावमा में पभिवद्धि की है और उसके वास्तविक तत्व को प्रस्तुत करने का सफल प्रयत्न किया है। जन मानस ने ऐसे उत्सवों को सराहा भी है । नारी यर्म के लिए भी ये उपयोगी सिवाए है। भले ही इसमें समान का पैसा पनपेक्षित रूप से पानी की पार X हमारे संगाल का अधिकांस नारी वर्ष समरिक व में सभी बीमत पीछे है। उसके साम प्राचीन मिस्वास पोर किमानती परम्पसए सही मान विपकी हुई है। इन परम्परामों ने समाज के प्रस्थान में एकबाब पापा उत्सव की है। फलतः उसका अध्ययन, स्वाध्याय तथा ग्रहण शक्ति का विकास मशिनर्वसमावएत समलिमर से Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iot स्वरूप को यदि सही ढंग से उस तक पहुंचाया जाये तो उसके दृष्टिको ur कठिन नहीं है। वैसे पहले की अपेक्षा बाज कुछ परिवर्तन पाया भी है। फिर वहीं कहा जा सकता । भी तो धाज सारा विश्व नये मायाम लिये प्रगति कर रहा है पर हम उससे धनबिश से बने हुए हैं। हम अपने परिवारिक घटकों में न समन्वय स्थापित कर पा रहे हैं और न उन्हें एक निश्चित सुदृढ़ प्रगति का साधन दे पा रहे हैं। चाशुकि परिप्रेक्ष्य में हमें अपनी सारी समस्यानो की पृष्ठभूमि में उतरना होगा चौर निष्पक्ष होकर उन पर विचार करना होगा। अन्यथा हम जहां हैं वही रहेंगे। वहां से अधिक मागे बढ़ नहीं सकेंगे । नारी वर्ग चेतना का प्रतीक है। उसमे किसी भी प्रकार की क्षमता का प्रभाव नही है । बस, आवश्यकता है एक नये उत्साह भौर प्रेरणा स्रोत की जो उसे सहानुभूति और सहिष्णुता पूर्वक अविरल स्नेहिल सौहार्द दे सके तथा अपनी समस्थायी के समाधान की भोर मनसर हो सके। इसका सबसे अच्छा उपाय है कि हम अपनी बेटियो, बहुभो मौर बहनो को अधिक से अधिक सुशिक्षित करें और उन्हें सुसंस्कृत वातावरण के परिवेश में जीवन यापन करने दें। दहेज न दे पाने से उनका जीवन दूभर हो रहा है। पुत्रियों के प्रति होने वाले व्यवहार से उनके मन में हीनभावना और विद्रोह भावना दोनो एक साथ पनपती रहती है। इसलिए वे न तो अपनी शक्ति का उपयोग स्वयं के विकास में लगा पाती हैं पौरन दूसरों का ही विकास कर पाती हैं। बल्कि परेशान होकर प्रात्म हत्या की घोर उन्मुख होने के लिए विवश हो जाती हैं । कतिपय घन प्रेमी दानव परिवार तो उनका घात करने में भी संकोच नहीं करते । दहेज प्रथा निषेध अविनियम, 1961 नारी को इस नारकीय जीवन से मुक्त करने के लिए अपेक्षित वातावरण तैयार नही कर सका। सरकार दहेज का दीमक खतम करने के लिए कठोर कानून बनाने पर सक्रियता से विचार अवश्य कर रही है पर वह कहां तक सफल सो सकेगी, कहना कठिन है। हर कानून को तोड़ने के वैधानिक रास्ते निकाल लिए जाते हैं । मतः अब इसके विरोध में नारी द्वारा ही आन्दोलन का सूत्रपात किया जाना चाहिए । हम यह मानते हैं कि नारी की कुछ सामाजिक समस्याएं ऐसी हैं जितका समाधान पुरुष वर्ग के स्नेहिल सहयोग बिना सम्भव नहीं है । उसका सहयोग से पाना कठिन भी नहीं है। उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन जाने की बद्रा एवं Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माहान हसिमोष करमा हावा सामाविको बाबाले का संकल्म मेकर बहेन का पूर्णतः बहिष्कार करवा नारी के ही हाल में पविक है। यह मामशक्ति और प्रतिभा तथा साहस के बल अपने जीवन की हर समस्या को सुलझाने में सक्षम है। वैन वर्शन उसकी इस प्रखर शक्ति की पूर्ण अभिव्यक्ति को स्वीकार करता भी है। बस, समाज में व्याप्त बामपनों को तरजोड़ने का बीड़ा उठा लिया जाये तो समस्या सुलझार की मोर पड़ सकती है। हमारी निर्भीक प्रवृत्ति तथा यथार्पोन्मुख प्रादर्भवादी कृत्ति की पोर हमारा युवा वर्ग भीषि निश्छलता पूर्वक प्राकर्षित होगा तो समस्यामों का समाधान हम सब एक घुट होकर खोज निकालेंगे। X नारी वर्ग में नमी चेतना लाने के लिए पंचकल्याणक प्रतिष्ठा जैसे महोत्सव अमृत स्वरूप है। जैन धर्म नारी को समान अधिकार दिये हुए है चाहे वह प्राध्यारिमक क्षेत्र हो या राजनीतिक, सामाजिक हो या धार्मिक । सभी क्षेत्र नारी के परम विकास के लिए खुले हुए हैं। नारी के स्नेहिल सहयोग के बिना ये क्षेत्र मरुस्थल बन जाते है, प्रेम प्रदीप बुझ जाता है और संघर्ष तथा द्वेष की प्राग भभक उठनी है। पिछले कुछ वर्षों से इन उत्सवों के संदर्भ में अनेक प्रश्नचिन्ह सारे हो रहे है मोर उनके प्रायोजनों को प्रसामयिक बताया जा रहा है। वैसे बात किसी सीमा तक सही है भी । समाज का एक ऐसा भी वर्ग है जो मार्थिक पौर शैक्षणिक दृष्टि से बहुत पिछड़ा हुमा है। उसके अभ्युदय की पोर ध्यान दिये बिना यदि हम अपना वैभव प्रदर्शन भौर द्रव्य का अपव्यय करते है तो ऐसे प्रायोजनों पर प्रश्नचिन्ह सड़े होंगे ही। आश्चर्य तो यह है कि विरोष जितना अधिक हुमा, ऐसे प्रायोजनों को संसा उतनी ही बढ़ती गई । इसलिए मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इन प्रायोजनों का पुनर्मूल्यांकन होना मावश्यक है। अधिकांश मायोजनों की पृष्ठभूमि में सूत्री यशोलिप्सा काम करती है। व्यक्ति की मशोलिप्सा पूरी करने के व्यावहारिक मोर उपयोगी मार्ग और भी खोजे पा सकते हैं। ये मार्य ऐसे हैं जिनके माध्यम से सामुदायिक चेतना जागृत हो सके। माझ प्रदर्शन से बचकर पाय का बहुत माग सामाजिक विकास में समाया जाना पाहिए। पिछले परिवारों को योग और व्यापार के लिए माषिक सरयता दी जाये तथा उनके बच्चों को शिक्षा के क्षेत्र में बढ़ाने के लिए हर सम्बा भाषिक सहायता पहुंचायी जाये। मारकर इसमा अधिक सहर्ष होता रहा है कि एक एक वर्ग की नहीं रहना रे को मा मम Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम्परा प्रभावित भी है। प्रतः समस्याओं के मूल रूप को समझापानमा बायका-समाज विशाम कीमोर मोड़ लगा रहा है और बिहान श्वना भूलता लामा रहा है कि उसे मह भी पता नहीं रह बाबाकिमतिका किर चिड़िया का नाम है ? माध्यात्मिकता का उसके साथ क्या सम्बन्ध है. मावस्या क्या है ? समाजवाद की सही विक्षा क्या है ? इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण मिलते हैं जहां धर्म के कारण संघर्ष हुए हैं और राष्ट्र के राष्ट्र तहस-नहस हो गये हैं। उसके डीभत्स रूप को देखकर ही सायद चिन्तकों ने धर्म को अफीम कह दिया। परन्तु प्रश्न यह है कि धर्म क्या वस्तुतः अफीम है । प्रफीम रहा होगा किन्हीं परिस्थितियों में । परन्तु क्या उन परिस्थितियों को सार्वजनी न माना जाये? क्या यह कहा जा सकता है कि वे सारी परिस्थितियां भाज भी वैसी की वैसी ही है ? इसे हम निश्चित ही स्वीकार नहीं कर सकेंगे। उस समय की परिस्थितियां मलग थीं और प्राज की परिस्थितियां अलग हैं। धर्म परिस्थितिजन्य होता है। जैन दर्शन में "वत्थु सहावो धम्मो" कहकर धर्म की परिभाषा की है । इस परिभाषा से यह अभिव्यक्त होता है कि वस्तु मूलतः अप्रभावित रहती है। वह स्वयं में परिपूर्ण है। तत्वतः उसमें तीन गुण रहते हैं-उत्पाद, व्यय पोर ध्रौव्य । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि वस्तु प्रभावित और परिवर्तित भी होती रहती है पर उसका स्वभाव नष्ट नहीं होता । धर्म का एक अन्य स्वरूप है-कर्तव्य । व्यक्ति, समय, देश काल प्रादि की दृष्टि से कर्तव्य पृथक्-पृथक् हो जाते हैं । धर्म की और भी जितनी व्याख्यायें हुई है वे सभी इन दोनों प्यास्यानों के भास-पास महराती रहती है। प्रथम व्याख्या में हम संसार को कलिक मारकर पलते है। इसलिए उसमें अनासक्ति का भाव लिहिन रहता है। दूसरा स्वरूप कर्तव्य-का बोष कराता है। प्रथम उपदेशात्मक है मौर नितीप व्यावहारिक । इन सेनों स्वरूपों को समन्वित रूप में देखना यस्कर है मानन्द मिमित करीब दोष हमारे समाज के हर वर्ष से गिरता बसाका है। ग्रामसार की बोर अधिक व्यान देते है, परमाही मोर कल। यपि साप और परमार्थ का संचय सदेव होता रहा है पर-मार को उनका नाममा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमारे सामने पा रहा है वह पूर्व युगों से कही पनि संकर है । उसके इस रूप को दूर करना हमारा कर्तव्य है । -111 कोर पोर उत्तम बनाने में अधिक मा करता है। बचों के लाभ मुल्यवर्ग की भीक्षा वै कर रहा करती है । इसलिए संस्कारों की भूमिका जितनी सकती है उतनी ger नहीं । साज के बालक कल के समृद्ध नागरिक हैं। इसलिए उन्हें सही नागरिक बनाने का समूचा उत्तरदायित्व नारी वर्ग का है। महिनामों का मोक्षन कि समय पुलि सुन्दर नारी बना L आज के युवा वर्ग में कर्तव्य बोध की भावना कम होती चली जा रही है जो एक चिन्ता का विषय है। इसका भी उत्तरदायित्व हमारा ही है । हम उसे मादर्शनिष्ठ वातावरण नहीं दे सके जिसमें वह सुसंस्कारित हो सके। वातावरण वस्तुतः विया नहीं जाता, बन जाता है। वहां कृत्रिमता या बनावटीपन नहीं होता, स्वाभाविकता होती है । जीवन कृत्रिमता से प्रोतप्रोत रहेगा तो सारा वातावरण संदिग्ध, प्रविश्वस्त और छल कपटमय बना रहेगा । हम स्वयं अभी तक चेते नहीं और न चेतना चाहते हैं। हम स्वयं न जीते हैं मौर न जीना चाहते है। जीते तो सभी हैं। छोटे-छोटे प्राणी भी अपना जीवन यापन कर लेते हैं । परन्तु जीने के ढंग में अन्तर है। हमने जीने के ढंग को या तो समझ नहीं पाया या कदाचित समझ पाया हो तो उस पर अमल नहीं कर पाया । हम बहुत सो चुके हैं, युगों-युगों से सोते बले ना रहे हैं। ऐसा लगता है, कुम्भकरण की निद्रा का असर अभी भी है। दुनियां इतनी आगे बढ़ रही है पर हम आज भी अपनी अन्ध परम्परामों में गुमे हुए हैं। परम्पराम्रों के निर्माण में परिस्थितियाँ कारण बनती हैं । परिस्थितियां बदल जाती है पर परम्परायें बदलती नहीं बल्कि विकृत होती जाती हैं यदि उनके साथ विवेक न रहे । बोकी इन परम्परानों में विधवा विवाह न करने की परम्परा पर विशेष मन्मन four जाना mrateक है । वह महिला जो संसार का कुछ भी नहीं देख सकी और कि शादी के थोड़े समय बाद ही जीवन साथी के वियोग को प्रसह्य कुठाण्यात सहना पड़ा अपना सारा जीवन निरापद रूप से कैसे व्यतीत कर सकती है ? बोकिल उसका सारा जीवन दुस्सा हो जाता है। परिवार के सारे सव है। यह भी दीन-हीन बनकर अपना समय या जाती उसके बारों और सती रहती हैं । फ - हो जाने पर यह रस्म के लिए भी चित्र हो जाती है। इसमे की विकास " Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .112 प्रस्तुत परम्परा पर पुनर्विचार आवश्यक है। यदि यह विवाहित हो जाती है ता इन सारी विपदाओं से वह मुक्त हो जाती है। फिर यह प्राकृतिक विपन् नारी को ही क्यों, नर को क्यों नहीं ? मात्र इसीलिए की नारी अबला है, परतन्त्रता में का सारा जीवन व्यतीत होता है ? पर वह सामाजिकता की दृष्टि से भी ठीक नहीं है। यदि परिस्थितियाँ अनुकूल हों और वह महिला सहमत हो तो उनका पुनfare समाज को मान्य होना चाहिए। हां, यदि ऐसी कोई महिला afte fear प्रध्यात्मिकता के क्षेत्र में अपना कदम आगे बढ़ाना चाहे तो फिर पुनर्विवाह का प्रश्न ही नहीं उठता। जो भी हो, इस विकट समस्या पर सहानुभूति पूर्वक विचार किया जाना चाहिए और ऐसी महिलायों को जीवनदान दिया जाना चाहिए जो पब से विचलित होने के कंगार पर खड़ी हुई हों। X X X माय शिक्षा के क्षेत्र में नारी वर्ग महनिश भागे बढ़ता चला जा रहा है। उसके हर क्षेत्र में उसने अपनी साख बना ली है । प्रायः हर परीक्षा में प्रथम धाने बालों में महिलाओं की संख्या प्रषिक रहती है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है फि नारी में प्रतिभा की कमी नहीं है । कमी है उसे समुचित क्षेत्र तथा सुविधाएं मिलने की । माज भी बहुत परिवार ऐसे हैं जो अपनी कन्याम्रों को शिक्षित नहीं कर पाते या शिक्षित करना नहीं चाहते । प्रार्थिक समस्या भाड़े पाती है या मानसिक संकीर्णता का जोर अधिक रहता है । पारिवारिक संघर्ष का भी वह एक कारण बन जाता है । प्रत समाज के अभ्युदय की दृष्टि से महिला वर्ग को सुशिक्षित करना प्रावश्यक है । वर्तमान में एक और सबसे बडी समस्या है धर्म को व्यावहारिक बनाने की veer व्यावहारिक क्षेत्र में धर्म को समाहित करने। धर्म के तीन पक्ष होते हैंप्राध्यात्मिक, दार्शनिक और व्यावहारिक । प्राध्यात्मिक धर्म प्रात्मिक अनुभव प्रधान होता है। दर्शन प्रधान धर्म चिन्तन के क्षेत्र में भाता है और व्याबहारिक धर्म याच रण के क्षेत्र में माना जा सकता है। यह धाचरण ही धर्म बन जाता है । प्रश्न यह है कि यह धर्म कैसा है ? जैन धर्म मूलतः भाव के साथ जुड़ा आचरण प्रधान धर्म है । उसका माचार व्यावहारिक है । प्रव्यावहारिक नहीं । उसे जीवन में सरलता पूर्वक उतारा जा सकता है । मानवता के कोने-कोने को झांककर जैन धर्म ने अपने मूलाचार को निर्मित किया है। परन्तु बाज हम उसके मूल रूप को भूलकर मात्र का क्रियाओं पर ध्यान देने लगे हैं। यह वैसे ही होगा जैसे हम धान में से चावल निकास ने पर उड़ती हुई धान की फुकली को ही पकड़ने दौड़ते रहें। मे बाह्य क्रियाकाण उस भाग की फुकली के समान हैं जो निःस्व है। रात्रि भोजन व डो जोड़ना तो ठीक है ही, पर साथ ही महिला, धस्य चादि पंचाशुव्रतों का परिपालन मी होना चाहिए। जब तक हम रागादि विकारों को छोड़ने का प्रयत्न नहीं करेंगे Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ } Art 1 तब तक परिसानों में सरमता था ही नहीं सकती । जैन धर्म का वहीं सूब चार है कि हमें इस विकारी भावनाओं को बोर्ड और संरता की और कर मैं यह सरल नहीं होगी वह परिवार प्रायः चित्र- हो बाता है। बच्चे भी हमारे प्रधान वर्ष को दे हैं। शम्बः जितने मात्र क्रियाकाण्डी होते हैं उनमें स्वभावतः वादि nter afte होती है । सोमदेव सूरि ने ऐसे क्रियाकाण्ड प्रधान धर्म की एक पटना का उल्लेख किया है जहां क्रियाकाण्ड एक कुले को केवल इसलिए 'मार डा हैं कि उसने उनके पूजन द्रव्य को जा कर दिया था। मेरे कहने का मह नहीं है कि धर्म में किया नाम का कोई तत्व न हो। किया से बिना कहाँ ? मैं तो मात्र इतना ही कहना चाहती हूँ कि यि के साथ ज शुद्धि नहीं, सम्यग्ज्ञान की धारा उसके साथ जुड़ी नहीं, तब तक वह तो नहीं और कुछ भले ही हो । बालकों के समक्ष हमें धर्म का एसा रूप रखना चाहिए जो सीधा, सरल, नैतिक और व्यावहारिक हो और हमारे धर्म के विपरीत न हो। यह निर्विवाद तथ्य है कि हमारा जैनधर्म पूर्ख वैज्ञानिक है। व्यक्ति-व्यक्ति को शान्ति देने के लिए इसमें अनेक सुन्दर मार्ग स्पष्ट किये गये हैं। परन्तु कलिाई यह है कि इसे हम न घच्छी तरह समझ सके हैं और न समा सके हैं। ऐसी स्थिति में यदि युवा वर्ग क्रियाकाण्ड को देखकर, उसी को धर्म का मूल रूप समझकर वर्म से दूर भागने लगे और फिर हम उन्हें पथभ्रष्ट कहने में तो यह बस्ती बस्तुतः उनकी नहीं, हमारी है । हम उनको धर्म का सही रूप बता नहीं सके और न उनकी शक्ति का सही उपयोग कर पाये । उनके प्रश्नों का समाधान कठोर वचनों user डण्डों से नहीं, बल्कि सही दिशादान से होना चाहिए। इसमें हमारे परिणामों की सरलता विशेष उपयोगी हो सकती है । fer विधान की पृष्ठभूमि में साधारण तौर पर व्यक्ति के मन में कोई न कोई आशा लगी रहती है। व्यक्ति सांसारिक माता से मित्र-मिल करना कवित धार्मिक प्रावरण भी करता है। कभी-कभी उसके प्राचरण की प्रक्रिया से ऐसा भी समने लगता है कि वस्तुतः उसका were feat वर्म से नहीं, afe affesar की प्रभिवृद्धि से जुड़ा हुआ है। धर्म तो वस्तुतः पात्मिक विकारों को शान्त करने का एक ऐसा मार्ग है जिसके पीछे परम शान्ति की मला सकती रहती है । उस महक से वह व्यक्ति स्वयं तो सुरक्षित होता है पास के वातावरण को सुनन्द सुद बना देता है । - धर्म L1" भारतीय संस्कृति में धार्मिक विधि-विधानों की एक सभी प परध में प्रति परम्प का सम्बन्ध ऐसे विविधानों से है जिन्हें हम पूर्णतः Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 शामिक नहीं पाते। बैन का विधि परम्परा से सम्बार और नि परंपंरा से सम्बय होने के कारण इसके विधि-विधान भी शुद्ध पानिकोला चाहिए। धर्म पत्रिमता अपना स्वाभाविकता का दूसरा नाम है यदि हमारा लक्ष्य परमसुख और निर्माण की प्राप्ति की भोर हैपी उसके साधन न विधि-विधान भी परम बन मामा केही विशुद्ध स्वम को परमात्मा मानवा है। इस पर. मापद की प्रावि लिए उसे किसी सामान की पावश्यकता नहीं होती। यह सात्वनिम्तन भारत र मर पदाथों से मोह छोड़ते हुए क्रमशः मागे पता है भारबहन-सिवनमा प्राप्त कर सकता है। इस अवस्था की प्राप्ति के लिए शनिक विधि-विधान एक सोपान किंवा साधनको रूप में स्वीकारे गये हैं। चाहे वह मूर्वि-पूजा हो अथवा विधान, चाहे वह उपवास हो अथवा कीर्तन, ये सभी वस्तुतः बाप साधन है। म संस्कृति के विकासात्मक इतिहास को देखने से यह पता चलता है कि बेन धर्म मूल रूप से इनको विधि-विधानों का पक्षपाती नहीं है । उत्तरकाल में विविध पर-छ परम्पराएं भायीं और उनके माध्यम से शासन देवी-देवताओं की भक्ति, पासना, पूजा पाठ प्रादि साधनों का प्रारम्भ हो गया । इन सभी पर वैदिक संस्कृति का सर्वाधिक प्रभाव पड़ा। अब प्रश्न उठता है कि वर्तमान संदर्भ में इनकी मावस्यकता क्या है ? भाज की मार्ट कट संसहति यह मांग करती है कि उसे कम समय और शक्ति में अधिक से यधिक फल मिले । साधना का क्षेत्र तो निश्चित ही बड़ा नम्बा, चौरा और गम्भीर है। उसमें एकायक प्रवेश करना भी सरल नही है। इसलिए युवा पीढी को पाकपित करने के लिए पार्मिक विधि-विधान निश्चित ही उपयोगी साधन है। ये साधन ए जिनमें व्यक्ति अपने मापको कुछ समय के लिए रमा लेता है और मामे की सारियों पर बढ़ने की पृष्ठभूमि संचार कर मेता है। यदि कोई निमननय मात्र की बात करके पबहारनय की उपेक्षा कर दे तब तो वह मात्र मात्मा की ही बात करता रहेगा और मजिल तक पहुंचने के लिए शायद ही उसे कमी सौभाग्य मिल सकेगा। दुनिया में कोई भी ऐसा नहीं हमा को बामिक विधि-विधानों की उपेक्षा कर सका हो । शुभोपयोग की बितनी भी प्रतिया पान-पूजा धादि, वे सभी कर्ममक विधि-विधानों के मन्तर्मत या बाती है। ऐसी स्थिति में शामिक विधि विधान से मुसाले का सरते हैं। पान की युग पाली वर्तमान राजनीतिक भार सामाजिक सन्बनों को देखकर Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PUR पांच गई है। की शिल्पास्मा देखकरपी समाविका कोहली है। मो योनि की समाय है को मन मार्मिक मानों का जमावा गारिक विधि-विधान कराने वाला हमारा साधु और पंडित वर्ग माया के उसकी वास्तविकता को गले उतार सके तो निश्चित ही एक नया मा दुरगा। पार की पूर्ण पोदी-इन वि-िमानों को पानी मनसे विमुख हो जाती है और फिर धर्म की सीमा को हो छोड़ देता है स्ततः बाह्य क्रियाकाण्ड सांस्कृतिक रस्में को, समेटे रहते हैं। साल है कि ये क्रियाकाह कभी-कभी धर्म के मूल बस से कटकर कुछ दूसरे ही मान रास्ता ग्रहण कर लेते हैं जिसे हम धर्म के वास्तविक स्वरूप से सम्बद नई र पाते । परन्तु यह तस्व तो हर धर्म के विकास के इतिहास के साथ बुरा हमा रहना है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि इस प्रकार के तस्व पर्थ होते हैं। हाल तौर पर प्रतिष्ठा, पवामृताभिषेक, शासन देवी-देवतामों की पूजा ?) मारिजोवलयाच की नयी पीढ़ी को धर्म की और प्राकर्षित कर सकते है और किया, भीम धर्म की भोर विशेष लगाव नही है, वे भी इन साधनों के माध्यम से सामाजिकता की भोर अपना कदम बढ़ाते हैं और सास्कृति की विरासत को मजबूत करते हुए वार्षिक क्षेत्र में प्रवेश करते हैं। दूसरे शब्दो में हम यह कह सकते है कि विनि-विमान के पुनीत मन्दिर के अन्दर तक पहुचने के लिए एक सुन्दर द्वार है जिसके बिना वर्ष तक पहुंचना कठिन होता है पर इसमें भेदविज्ञान, विवेक और नमकपर्व पर ध्यान रखना भाषश्यक है। इन सबके बावजूद यह पवश्य ध्यान रखा जाना चाहए कि ये विधिविधान साधन है, साध्य नहीं । पहिंसा, अपरिग्रह पौर'समता के सम्मा की कामाबाद निश्चयनय और व्यवहारनय की समन्वयवादिता पर बन, समाव को असकर सिद्ध होगा। वैसे ये विकास के ही परिणाम। माजकल समाज में एक पौर विवाद चल पड़ा है प्रतातीय विवाहा चाहिए या नहीं। मैं समझती है, ऐसे सम्बन्ध होने में कोई बुराई नहीं है। प्रभार के मूल्यांकन का प्राधार समय सम्पख हुमा करता है। प्राचीनकाल में विजन अम्भसयामाप्रसमिकड़ियों से विकास नहीं रेसलिए Aname भगति के वो उसे प्राचीन ग्रन्थों में मिले । मन्हें पड़कर इस है। महापुण और कुबलरमाला प्रावि साये में सार्यवाहों मिले। जिन शिविध सहावी भारी कमीनो मरे भने में मामी मम मरे से और ज्यापार के साथ प्रश्पिरिक पावरा ही विना करते Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केबानको सम्मान भापताप मोर कोणाली सीमा gree मेम्बर बापारी विदिशा के विम्बर परिवार से अपनी पुषी का सम्बन करा बारपटना का विमम्बर पावक बमपुर के स्वास्थर श्रावक वे अपने पुत्र का , इस सम्बन्धों से साम्प्रवारिक एकता बनी रहती दी। पारस्परिक विवाद मन्दिरों, मूर्तियों अथवा उपायों के सम्बन्ध में अधिक कटुता नहीं रहा करती था। बॉकि हर सम्प्रदाय परस्पर में किसी न किसी रूप में सम्बद रहता था । विवाद साम्प्रदायिकताभन्म होते है और विवाहों से इस प्रकार की साम्प्रदायिकता टूटती है, विवादों की जा स्वतः कट-सी बाती है और सम्बन्ध में मधुरता माती है जो सामाजिक विकास के लिए मावश्यक है। सामाजिक प्रगति के लिए एक और अन्य मावश्यक साधन है-प्रार्षिक प्रगति जिसकी सम्भावना इस प्रकार के विवाह-सम्बन्षों से और अधिक बढ़ जाती है । सम्प्र. वाय प्रवेशपत भी होते है और हर प्रदेश के अपने-अपने स्वतन्त्र साधन होते है जिनपर उसका भाचार निर्भर करता है। यह व्यापार विवाह सम्बन्ध के माध्यम से पारस्परिक नावान-प्रदान बढ़ाता है, मार्थिक क्षेत्र का विकास होता है और अमीरीगरीबी के बीच की खाई को भरने के नये साधन सामने मा जाते हैं। विाहों की साम्प्रदायिक परिधि के टूट जाने से शिक्षा जगत को भी लाभ होमा विससे विभिन्न साम्बाधिक साहित्य का अध्ययन-अध्यापन बढ़ेगा । एक दूसरे के विवादों में निःसंकोच प्रवेश होने से मानसिक पुस्षियों सुलझेगी, मलगाव दूर होला, कवियों र लेखकों को चितन की नई सामग्री मिलेगी। अध्यात्मिक प्रगति के क्षेत्र में भी इस प्रकार के विवाह सम्बन्ध उपयोगी होते।हर बैन सम्प्रदाय की माध्यात्मिक प्रक्रिया कुछ न कुछ मिल रहा करती है। विवाह सम्बाप उनमें पारस्परिक समझ पौर सामंजस्य स्थापित करें जिससे महात्मा विकसित होगा और म्पति वा समाज की प्रपति रात दिन बनी। अलेक सम्बवाब के साथ उसकी संसति कुड़ी रहा करती है। बब बिभिन्न बसन्नबालों में विवाह समान्य मारम्भ हो जाये तो स्वभावतः संकलियों में सायनवालोमा और एक सम्प्रदाय तरे सम्प्रदाय के उपयोगी तत्वों को पहल भरमा बाचनल्ल, कोणीत, मोकनाट्य लोककपाएं बैठी मिपाए परिपुष्ट हाली, ईब की निता महामा, पार भनेक पुड़ियों का मत होला। . वहाँ वह मन रमवा गा सकता है कि हर न सम्प्रदाय की तमि Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनारह महानि बसत होगा । एकान में बना और या एका विवाह के माध्यम से ही प्रस्थापित हो सकती है बो विकासका हैदोषी या भाषा विस्यक असमाव भी स्वतःसनात होने की। पारिवासीय सम्बन्धों में मान रहेंने यह सोचना भी गलत होगा । तमाव का कोई भी नहीं है। यहाँ को पस्तुतः बन्दुत्वका बामरस होगा 1 पाश किरपुर, स्विीर शिसवी से विवादों का करक हमारे माथे पर मनाइमा है। ऐसे किसानों को समम करने में अन्तर्जातीय विवाह उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। समातिक निकासा में योगा समय अवश्य लग सकता है पर उससे स्थायी कि की मम्मा किसी जा सकती है। मतः मेरी दृष्टि में तो समाज की सर्वागीण प्रपति के लिए धन संपवानों के बीच विवाह संबन्ध होना मावश्यक है । सांस्कृतिक एकता, मेलरिणक, भाषिक तथा माध्यात्मिक प्रगति के लिए विवाह जैसे तत्व की उपेक्षा अब नहीं की जा सकती है । समाज सेवकों भौर चिंतकों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस विषय पर विषयालंक रूप में चिन्तन करना चाहिए। ___ महिला वर्ग समाज का एक अभिन्न अंग है। जो वस्तु प्रविष्टि होती ससके विकास के लिए समाज का हर वर्ग सामने पा जाता है।बी कारण है कि माज समाज का हर वर्ग महिला समाज के सम्मुत्थान के लिए सबेष्ट है। मे हमे यह बात अच्छी तरह समझ में मा जानी चाहिए कि जबाबमा प्रको मन में विकास की बात नहीं सोचेंगे तब तक कोई कितनी भी लिहम माने नहीं बढ़ सकते । स्वयं की उत्सुकता, ललकता, परिमम, प्रतिमा, स्थान पादि से गुण हर प्रकार के विकास के मूल कारण कहे जा सकते है । समान के निर्माण में 'हमारा त्याम, हमारा बखिकान, हमारा परिमम हमारी सायंका अवतार प्रतिमा इन सभी को जोड़ने का एक सूत्र है। स्थान, परिषद और प्रतिमा की . 'जन समाष के स्वस्थ स्वरूप की संकल्पना के लिए मूल स्वम्ब है पिरमाने बीवन को अवचित करना है। सारी वर्ग की खपनी सीमाएं होती है जिनकी अपेक्षा नहीं समाती है। पर सीमा के साथ एक सीमता भी ही रहती है और पसीना मातृत्व बलि को पार, पारस्परिक प्रेक भोर मार-मस्तित्व का पल बिशाली। . इस स्टि से सम्मान के निर्माण में हमापवर्ष योजनाव Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 हमने अपनी को नहीं पहचाना तो न तो हम स्वयं संर कोने की क्षमता बनी रह सकती है। इसलिए सबसे प्रथम कर्तव्य यह है कि म स्वयं की शक्ति को पहचानें । इस सूत्र के साथ हमारी ईमानदारी, हमारी ममता और हमारी प्रामाणिकता रहे कहीं और किसुनज सकती है। प्राणिमात्र का कल्याण यह जैन व व्यक्तिनिष्ठ होकर की बात करता है। बालको के व्यकित विकास के लिए तथा समाज के इतर घटकों के लिए हमें अपनी जिम्मेदारी सम कमी होगी । पुरुष वर्ग का सहयोग लेकर यह कार्य अधिक सफलता पूर्वक हो सकता है। इसके लिए वह भी घावश्यक है कि हमारा माचार-विचार शुद्ध धार्मिक और नीतिपरक हो । तो जीवन करने वाला इस दृष्टि से प्रभ्युदय के X X x नारी और पुरुष जीवन राम के दो पहिये माने गये हैं जिनके परस्पर साहचर्य बार के बिना वह संसार-पथ पर शान्तिपूर्वक नही चल सकता । इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां ये दोनो वर्ग परस्पर मिलकर धर्मसाधना करते रहे, समाज सेवा में जुटे रहे और अपनी प्रात्मिक प्रगति करते रहे । पर यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि प्राचीनकाल में नारी का जीवन बडा कुंठित रहा है । साधारण तौर पर पुरुष ने नारी वर्ग की मात्र भोंग्या माना और उसकी जन्मजात प्रतिमा को उन्मेषित करने के लिए कोई भी साधन प्रस्तुत नहीं किये। यह एक ऐसा तथ्य है जिसे कहते हुए भी कोई अस्वीकार नहीं कर सकता । नारी समाज ने जिन विकट परिस्थितियों में अपने जीवन को व्यतीत किया, वह विचारणीय है । उनका ध्यान जाते ही हमारे रोगटे खड़े हो जाते हैं । 2 वहां तक प्रतिभा की बात है वह क्रायः सभी के पास होती है । वोपन नाविकता, पुरुषार्थ का सामन मोर मनुकुल परिस्थितियों की निर्मितिव्यक्ति परि को बनाने में विशेष कारण हुमा करती है। यदि समान रूप से अभिव्यक्ति सभी कोटा किये जायें तो कोई कारण नही कि व्यक्ति अपना विकास न 1 कर सके । भगवान् महावीर के अनुसार सभी की प्रात्मा बराबर है चाहे वह ली हो या पुष । चात्मा मे ही परमात्मा बनने की शक्ति विद्यमान है । यतः कोई भी विकास करके परमात्म मंवस्था पर सकता है । उसमें लिगभेद का प्रश्न ही हमारी अपनी पारियक यक्ति को पहचानकर मपना उबटन विकास कर |मेर की गोति नारी में भी मनबकि है, इसे मेज को नकार नही संपता 1 सबद कीर्तन कित्रित करने की प्रावश्यकता हो सकती है। छ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ """ नारी में कि यक्ति की क्षमता हो हुए भी उसे अपनी तंत्र नहीं की गई। यह कारण है कि साहित्य, राजनीति अपना में पुरुष वर्ग के समक्ष नारी वर्ग का उतना योगदान दिवाई नहीं देखा प्रारम्भ से ही दुरुषों के समान नारी वर्ग भी क्या साहित्य का सजेब नहीं कर सकता था, पर करना कैसे ? उसे तो मात्र घर का खिलौना बना लिया था। उसके पास शुल्हा-चक्की और पति को प्रसन्न रखने के अतिरिक्त समय ही कहाँ ? मा ये सारी परिस्थितियां और संदर्भ बदलते चले जा रहे हैं और पुरुष वर्ग महिला वर्ग को क्रमशः स्वतन्त्रता देता चला जा रहा है । देता क्यों नहीं ? नारी चाम्स को उग्र रूप उसके सामने जो था । परिणामस्वरूप जब कभी नारी को अपनी प्रतिमां मौर शक्ति का प्रदर्शन करने का अवसर मिला, उसने उसका भरपूर उपयोग किया। यही कारण है कि बाज हर क्षेत्र में महिलामो का योगदान दिखाई दे रहा है। ( भाज के सन्दर्भों में हम जब महावीर की लाकर खड़ा करते हैं वो ऐसा मनता है कि महावीर बड़े क्रांतिकारी विचारक थे। उन्हें हम मात्र अध्यात्मसाचक नहीं कह सकते । उनके सिद्धान्तो की मोर ध्यान देने से तो हमें ऐसा लगता है कि बिना काम उन्होंने प्रात्म साधना के क्षेत्र में किया उससे भी कहीं प्रषिक समाज की संरचना में उनका हर सिद्धान्त मात्मचिन्तन के साथ मागे बढ़ता है और उसकी परिनिष्ठा समाज की प्रगति में पूरी होती है। इसे हम दूसरे शब्दों में कहें तो कह सकते है कि महावीर ने व्यष्टि के साथ ही समष्टि पर ध्यान दिया मौर प्रादर्श परिवार के निर्माण में अपने सिद्धान्तो की सही व्याक्या की । V. महावीर के मूल सिद्धान्त अहिंसा को सभी जानते हैं। इस एक सिद्धान्त में उनके समूचे सिद्धान्त गर्भित हैं। परिवार को प्रादर्शमय बनाने में उनकी विशेष उप योगिता देखी जा सकती है। परिवार का हर सदस्य यदि संकल्प कर ले कि वह किसी दूसरे के दिल को दुखाने का उपक्रम नहीं करेगा तो संघर्ष होने की बात ही नहीं प्रायेगी । वस्तु को यथातथ्य प्रस्तुत करना, एक दूसरे के प्रस्तित्व पर कुठाराघात न करना, प्राचरण में विशुद्धि बनाये रखना और मावश्यकता से प्रणिक पा का संकलन न करना तथा सभी की दृष्टियों का समादर करना ऐसे तथ्य है जिन परं प्रादर्श परिवार को संरचना टिकी हुई रहती है । " बहावीर ने ग्रात्म-संयम की भी बात बड़े विश्वास के साथ कहीं । समों विश्वास था कि संक्रम ही एक ऐसा साधन है जो व्यक्ति-व्यक्ति के बी स्थापित कर सकता है। नारी यदि धात्मसंयम की बात ग्रहण कर से भर जितने बर्तन बनते हैं, उनका बचना बन्द हो जाय । नारी यदि कमनी भूल Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 * में दो उसका सारा परिवार बिल उठे । फोन, या और ईर्ष्या का माना तो परिवार का हर सदस्य सामंजस्य के बातावरण में फूला न समाये । महावीर मे कहा कि वैर से पैर की शांति नहीं होती, कितनी सुन्दर बात है। प्राय प्रायः हम देखते हैं कि बुराइयां हमारी संकीर्णता के कारण होती हैं और ये संकीतायें इतने बंरों को जन्म दे देती है कि उससे परिवार के सारे सदस्य रसको ही बसे जाते हैं, सुलझ नहीं पाते । यदि हम महावीर की वाणी का अनुगमन करें तीर के स्थान पर प्रेम का वातावरण प्रस्तुत कर सकेंगे जिससे परिवार विधटन के कवारों से बच सकेगा । जहां तक सुसंस्कार जाग्रत करने की बात है, यह उत्तरदायित्व विशेष रूप से महिलाओं का है। छोटे-छोटे बालको का जीवन-निर्मारण उनकी माताभो पर निर्भर करता है । हमारी प्रादर्शनिष्ठा बालकों के सुकोमल जीवन को सही मार्ग की घोर प्रेरित कर सकती है । चारित्रिक विकास की दृष्टि से वालकों के समक्ष मादर्श महा पुरुषों की जीवनी कहानी के रूप में बतलाकर उन्हे सुपथ पर असर कर सकते हैं । जीवन का स्वरूप मर्यादायों का पालन करना है। जिस जीवन में मर्यादा नहीं वह जीवन की परिभाषा से बिलप स्थिति कही जा सकती है। नदी को मर्यादा के समान नारी का जीवन भी किसी प्रकार की मर्यादाओं से बंधा रहता है । उसे हर क्षरण अपनी मर्यादाओंों पर ध्यान देना मावश्यक है । यदि वह उन मर्यादानों का बंधन करके " माडनं सर्व" बनना चाहे तो परिवार को जलाये बिना उसे शांति नहीं मिल सकती । + हमें परिवार को जलाना नही, बनाना है, मिटाना नहीं उठाना है । इस स्थिति में पहुंचने के लिए नारी वर्ग के हर प्रतिनिधि को अपनी शिक्षा पर विशेष ध्यान देना होगा। उसे शिक्षा के हर क्षेत्र में अपने पूरे पुरुषार्थ से भागे बढ़ना है । feer के बिना उसकी कोई गति नहीं । जहां गति नहीं, वहां जीवन नही । नारी को अपना जीवन सही रूप से जीना है । प्रसन्नता की बात है कि भाव का नारी वर्ग दिसा के क्षेत्र में पुरुष वर्ग से कम धागे नहीं बढ़ा । इसका प्रमाण हमारी हर परीआमों के परीक्षाफल हूँ। वह भौतिक शिक्षा के साथ ही प्राध्यात्मिक शिक्षा की ओर भी काफी बड़ा हुआ है। परन्तु नारी की कुछ अपनी समस्यायें हैं जैसे बहेज-प्रथा, परवा प्रथा, free areन इत्यादि, जिनका समाधान हुए बिना उसकी प्रगति संभव नहीं, Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tat इसे प्रकार महावीर के नारी की अनेक समस्यायों पर जीपूर्वक सोचा और परम्परा के विशेष में बड़े होकर नारी को स्वता का दान दिया उनकी ही ऋतिकारी विचारधारा के परिणामस्वरूप नारी पुरुष के कये है feareर मध्यात्म क्षेत्र में उतर सकी। इसे हम नारी मुक्ति का मान्दोलन कह सकते हैं। महावीर ने नारी को प्रगति पथ पर लाने के लिए जो कुछ भी किया, वह अविस्मरणीय है और रहेगा। वह तब और सार्थक माना जा सकता है कि बारी वर्ग उसके बताये मार्ग पर चलकर मादर्श परिवार की संरचना करे तथा अपनी आत्मयति को पहिचाने। साथ ही पुरुष वर्ग उसे मनुकूल वातावरण प्रदान करें । एव के दोनों चक जब तक समन्वय की साधना नहीं करते तब तक परिवार में सुख और शांति नही हो सकती । प्रतिष्ठा और गजरथ महोत्सव मैसी प्रभावनात्मक पाकि afaffoयां भी तभी सार्थक मानी जा सकती हैं जबकि हम महावीर भगवान द्वारा निर्दिष्ट मार्ग पर भलीभांति चलकर तृतीय विश्व युद्ध के कगारों पर बड़ी दुनिया को महिंसा का शान्ति सन्देश सुनायें | धन्यया निर्धनों के समय और पैसे का दुछपयोग तथा धूमधाम के अतिरिक्त और कुछ नही होगा । नारी वर्ग इस लक्ष्य की प्राप्ति मे निश्चित ही प्रसनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है । इस प्रकार समतावादी भोर पुरुषार्थवादी जैन दर्शन नारी चेतना का पुरस्कृत करने का पूर्ण पक्षपाती है। कुछ समस्याएं ऐसी भी हैं जिन्हें समाधानित करने के लिए नारी को स्वयं ही कमर कसनी होगी । पुरुषवर्ग उसमें निमित्त भले ही बन सकता है । निमित-मिलक प्राधार लेकर जैन सिद्धान्त के अनुसार वस्तुतः नारी की प्राध्यात्मिक और व्यावहारिक समस्याओं का समाधान ग्रन्वेषीय है । X X X देश, काल मौर परिस्थितियों के अनुसार वस्तु भीर व्यक्ति को परवाने के मापदण्ड बदलते रहते हैं । एक समय था जब नारी घरेलू काम-काज में दक्ष होते मात्र से 'आदर्श गृहिणी' समझी जाती थी लेकिन सब एक प्रादर्श पहिली बनने से ही नारी जीवन की इतिश्री नही होती। उसे कुछ और धागे बढ़कर सोचने की धावश्यकता है । ure के भौतिकवादी युग में मानव जीवन भय, संत्रास, कुंठा और निराशा से भरा हुआ है । लोगों में जीवन के प्रति कोई प्रास्पा नहीं विवाई देती यह मद हुए संवों का ही परिणाम है। ऐसी स्थिति में मात्र कृत्रिमता और के प्रति निःसंता का का परिवार के सदस्यों में दृष्टिगोचर हो । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ iii शनैः परिवार विघटित होते जा रहे हैं। विदेशों में 'पारिवारिक विवंटन की प्रक्रिया तो स्वाभाविक कही जा सकती है परन्तु भारत जैसे सुसंस्कृत और शान्तित्रिये देश में विघटन के मूल तत्वों को समूल नष्ट करना आवश्यक है । नारी अनन्त शक्ति की लोतस्विनी है और विविध रूपा भी 1 पुत्री, पत्नी एवं माता के ममतामयी रूपों में उसका व्यक्तित्व प्रतिभासित होता है । इन सभी रूपों की भूमिका निभाने का तात्पर्य है एक बहुत बड़े उत्तरदायित्व को सम्हालना | शायद वह व्यस्तता भरे जीवन के कारण इन उत्तरदायित्वों को पूर्णतया निभाने में सक्षम नहीं हो पा रही है । इसीलिए परिवारों freerare rea नजर आने लगे हैं। ऐसा लगता है, मब महिलाएं अधिक प्रात्म केन्द्रित होकर अपने कसम से विमुख होती जा रही हैं। इसे हम नारी शिक्षा या प्रशिक्षा का परिणाम कहें या परिस्थिति जम्य पर्याय रणगत विफलताएं, यह प्रश्न विचारणीय है । इतिहास साक्षी है कि समय-समय पर नारी स्वातन्त्र मान्दोलन भगवान महा वीर, महात्मा बुद्ध, राजा राम मोहन राय, रामकृष्ण परमहंस आदि जैसे क्रान्ति कारी महापुरुषो धौर समाज सुधारकों द्वारा होते रहे हैं। उनके प्रगतिशील उपदेशों से प्रेरित होकर नारी वर्ग ने स्वयं जति लाने का प्रयत्न किया। फिर भी उसमें मपेक्षित जागृति नही था सकी । प्रपेक्षित जागृति लाने के लिए माधुनिक युग में भी नेक प्रान्दोलन हुए। स्वतन्त्रता और समानता का अधिकार देने के उद्देश्य से अन्तरराष्ट्रीय महिला वर्ष भी मनाया गया । पर इन सबके बावजूद जो प्रगतिशीलता महिलाधों के व्यक्तित्व में समाविष्ट होनी चाहिए भी वह नही हो पायी । इसका प्रमुख कारण रहा- परिस्थितियों के अनुकूल उसकी शिक्षा-दीक्षा का प्रभाव । परम्परागत शिक्षा नीति अपनाने से महिलाओंों में घपने वैचारिक दृष्टिकोण में परिवर्तन लाने की योग्यता नहीं मा पाई। हाँ, आधुनिक का सुखोटा उसने भवश्य मोड़ लिया। दुर्भाग्बवश वह शिक्षित होकर यूरोप और अमेरिका जैसे संपन्न देशों की te geral का अंधानुकरण करने लगी। पर ये सब काम हमारी समाज में हमारी भारतीय संस्कृति के अनुकूल बैठते हैं या नहीं, इस प्रश्न पर तनिक भी विचार नहीं किया । समावश्यकता है संतुकरण को रोक कर परिवारों को समायोजित करने की, विसंगतियों और विक्की प्रतियों को रोकने की तथा कुंठा, भयो उत्पीड़न से निर्युक होने को बिना इसके वह अपने कदन काये नहीं बढ़ सकती । भी शेष की नहीं पाता। हेय मानव प्लेट Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नीर नवीदिक परिवर्तन भी बड़ी तेजी से हो रहे है। कामाद असामायिक जीवन पर पड़े बिना कैसे रह सकता है ? कोमा नारी में होने की वेश्या और राजनीतिक प्रषिकारों की जानकारी के अतिरिक्त, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में होने मा परिवर्तनों की जानकारी भी परमावश्यक है | को ・ है महिला ने सर स्वभाव, कर्मठ कार्यक्षमता, व्यवस्थित संयोजनशीलता तथा प्रारमीय निश्णसनीयता से समाज और परिवार के विभिष घटकों में परस्पर सौहार्द मीर सौजन्य का वातावरण बना सकती हैं। पुरुष वर्ग स्वयं उस मिठास भरे गावागरण से प्राकर्षित होकर पारिवारिक उत्तरदायित्व में पूरी तन्मयता के साथ जुट जायेगा, घरेलु कार्यों में हाथ बटाकर संसार की शिक्षादीक्षा में भरपूर साथ देवा तथा महिलाओं को भी भागे बढ़ने, प्रगति करने और अपनी प्रतिभा को मकसित करने का पूरा अवसर प्रदान करेगा । साथ ही आधुनिक नावावर ब वस्तुतः बालकों में उत्तम संस्कारो के निर्मारण करने, परिवार को उत बनाने और संतान को सुशिक्षित करने की जिम्मेदारी महिलाओं की अपनी है । संस्कारों कानना-बिगडना सामाजिक वातावरण पर निर्भर करता है । किन्तु सर्वाधिक उत्तरदायित्व माता के रूप में नारी पर ही है क्योकि पुरुष तो दिन भर चापान के निमित्त प्रायः घर से बाहर रहते हैं । बालकों को जीवनोपयोगी शिक्षा देने तथा उनके दैनिक क्रिया-कलापों की देख रेख करने का गुरुतर भार भी उनके ही कंचों पर रहता है। इसीलिए उन्हें ही कहा गया है । "यमस्तु तत्र देवता: " जाला कथन महिला के महत्व को स्पष्ट होतत करता है। ते महिलाएं ही परिवार के प्रत्येक सदस्य के बीच पारस्परिक समझ का भाव जाग्रत करके दो पीढ़ियों के बीच समन्वय स्थापित कर सकती है। वे अपनी सहज सूझ-बूझ, सहानुभूति, सहिष्णुता, मीर सदभावना जैसे माधुर्य गुणों द्वारा नई और 'पुरानी पीढ़ी के बीच पंगारिक दृष्टिकोटा में संसद के कारण को बार पड़ जाती है उसे पाट सकती हैं। परिवार में विबदन प्रायः सम्स और बहू इन दो सुखी और नई पीढ़ी में ममेद होने के कारण ही होते हैं। ऐसे समय सुरात्री पीढ़ीकिभी कभी बहू भी उस करिए। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 प्राययावरण का निर्माण कर स्वयं को उसमें बाद कर दिए। के का और आधुनिक शिक्षित महिलाबों की भी पुरानी पीढी के पारिवारिक के प्रति सम्मानास्पद भाव रखकर अपने भावको परेवा भी प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार दोनों पीकियों के द्वारा समदृष्टिकोण अपनाने से महिलाएं परिवार और समाज के विघटन को बचा सकती है। पारिवारिक विघटन में धाविक विसंगति भी एक कारण होत है। विक्षित महिलाएं सुरक्षा जैसी बढ़ती मंहगाई के इस युग में परिवार के सदस्यों को शैक्षणिक जैसे उत्तम प्रकार के क्षेत्रों में सर्विस करके भाषिक सहयोग भी दे सकती हैं । पर यह तथ्य भी यहाँ पुष्ट है कि कतिपय शिक्षित महिलाएं, विशेषत: नौकरी-पेशा वाजी, पारिवारिक विटन में कारणभूत बन जाती हैं। इस कथ्य की पृष्ठभूमि की ओर यदि हम दृष्टिपात करें तो यह पायेंगे कि जो पुरुष या महिलाएं म शिक्षित रहती हैं, उनमें ज्ञान की गम्भीरता का मामास न होने से महं मन्यता छा जाती है । पर जो महिलाएं पूर्णतया शिक्षित रहती हूँ और निरन्तर अपने को आगे बढ़ाने में प्रयत्नशील रहती हैं, उनमें प्रायः प्रभिमान की भावना नहीं रहती । ऐसी ही महिलाएं पार्थिक सहयोग प्रदान कर अपने परिवारों को समायोजित कर सकती हैं । नई पीढी भौतिक चकाचौध में गुमराह हो जाती है। उसे अपने प्रादर्शमयी जीवन की प्रस्तुति के माध्यम से बचाया जा सकता है। इसके लिए बदलते मानव गुरुयों के अनुकूल घरेलु वातावरण को प्रस्तुत करना प्रावश्यक होगा । यदि परिस्थितियों से जूझने की क्षमता, यं ओर सहनबीलता असे सहज स्वाभाविक गुण उनमें पुनर्जीवित हो जायें तो परिवार भलीभांति समवेष्ठित बने रह सकते हैं । ऐसी नारी जिनसेनाचार्य के सब्दों में उल्लेखनीय बन जाती है विद्यावान, पुरुषो लोके सम्मुति माति कोमिदैः । नारी न सहती जसे, स्त्री सृष्टेरग्रिमं पदम् ॥ arcaritreat जीवन का सौन्दर्य है । धार्मिक और सामाजिक कर्त्तव्य उसके सुगन्धित पुष्प है। अधिकार में पिरोयी हुई ऐसी ममता उसके गले की माता है । इसलिए विशा के साथ ऐसा धार्मिक वातावरण यावश्यक है जिसमें कृत्रिमया, खलकपट, मागाजाल की युक्ता न हो । शुद्ध भोजन चोर प्राधुनिक व्यंजन यदि घर में ही पका दिये जायें तो होसिन से भी पारिवारिक सदस्यों को बचाकर उनके स्वास्थ्य की है दो होनी ही की Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ताब की हंसी है प्रदे दुष्परिणाम जितना की मानवता कति' होने से नहीं बच पाती । इसका महिला को भोगना पड़ता है उतना मोर दूसरे को नहीं। जीवन के इस कैन्सर को बड़े साहस, धैर्य मौर विवेक से समाप्त करना होगा । कान्ति करनी होगी । हृदय परिवर्तन करना होगा । शिक्षा के प्रचार-प्रसार से इस प्रकार की बार शनैः शनैः समाप्त होती चली जायेंगी। "अमला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी" कह कर राष्ट्रकवि मैथिलीकरण गुप्त ने नारी जीवन की विवशता की भोर इंगित किया चौर "मांचल में है इम मौर मालों में पानी" कह कर ममता तथा सहिष्णुता जैसे स्वाभाविक गुणों की मौर संकेत किया । इन दो पंक्तियों में कवि ने समूची नारी को प्रस्तुत कर दिया है । परिस्थितियों से घुटने टेक देने का भी कारण कदाचित् उसकी ये ही स्वाभाविक वृत्तियां हैं। पुरुष की महंमन्यता के साथ उनकी टकराहट होती है मीर परस्वर द्वन्द प्रारम्भ हो जाता है। नारी को ही अन्ततः उत्सर्ग की मोर अपने कदम माने बढ़ाने पड़ते हैं । कामायनी के प्रमुख पात्र श्रद्धा-मनु का चरित्र विकास कदाचित् इसी तथ्य को प्रस्तुत करता है । नारी ने सासाजिक उत्कर्ष में सदैव हाथ बढ़ावा है । राष्ट्रीय बेलना को भी उसने खूब जाग्रत किया है। पन्ना धाय, पद्मिनी, लक्ष्मीबाई के उत्सर्ग को कीम भुला सकता है ? सीता, सुलोचना, भजना, राजुल, चन्दन बाला, विजय ला हेमश्री, महतरा, पद्मश्री, मैना सुन्दरी प्रभुति नारियों के उज्ज्वल उदाहरत भी उसके साथ हैं । मार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा, ब्राह्मी, सुन्दरी के प्रादर्श जीवन उसके मुख्य सूत्र है। मिल बारा की कवित्रियों में दया बाई, सहजो बाई, उमाबाई, गवरी बाई भावि तथा सगुण धारा की कवित्रियों में मीरा बाई, चणकुमरी बाई, चन्द्रकला बाई, प्रताप कुंवरी बाई प्रादि प्रमुख ऐसी महिलाएं हुई हैं जिन्होंने अपने पवित्र जीवन पर आधारित साहित्य-सृजन से सारे समाज को मरकृष्ट किया है । उपर्युक्त तथ्यों से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि महिलाएं परिवि परिस्थितियों में भी अपने परिवार और समाज को सुसंगठित रख सकती हैं पर राष्ट्रीय एकता को कायम कर भारतीय संस्कृति को समृद्ध करने में योगदान दे सकती हूँ । राजनीतिक, सांस्कृतिक, प्राध्यात्मिक मारिरिक स्वकी स्वस्थ व सुसंस्कृत बनाने की दृष्टि से बाज महिलाओं के ऊपर विशेष उत्तरवादित्व या पड़ा है। यदि उसमें नारी चेतना और ग्रात्म विचाव हो तो इस उनको मेह बढ़ी सुगमतापूर्वक निभा सकती है। "नारी शक्ति का प्रतीक Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TWIT "म समापस जानना पाहता है। बानो, हम सब एक जुट होकर इस तिको मायमार। पा राष्ट्रव्यापी प्रन्यापार की बात दिमाग में अपनी तो कराह उठता है सब कुछ कह देने को । लगता है जो एक तमिलनाकी की तय उसे न निगला जा सकता है और न उमला जा सकता है। उगलने से ससाई बामने भायेकी सो विद्रप विशेषी । और निगला इसलिए नहीं जा सकता कि उसको पचाना माज की कामक प्रातिशीन नारी के लिए सरल नहीं होना । प्राकृतिक पुष्टि के निगलो की प्रपेना उमदना निमित्रस ही बहतर होता है। वाज माम मादमी छोराहे पर खड़ा है। जैसे वह चाह में फंस गया हो । जिस रास्ते पर भी वह दृष्टिपात करता है वह उसे स्वच्छ और उन्मुक्त नहीं दिखाई देता। तथाकषित पषिक महाजन रिन की टिकियां से धूले बभ्र वस्त्रों से ढके प्रबश्य दिखते है पर उनके कृत्वों को उघाड़ा जाये तो जनसे अधिक कृष्ण वर्ण का कोई पौर नहीं मिलेगा । ऐसे ही 'बमुला भगत' नेतामों से माज का समाज संत्रस्त हो गया है। उनकी कथनी और करनी मे कोई एकरूपता नही । हर क्षेत्र इस केंसर से बुरी तरह पीड़ित है । पाश्वर्य यह है कि हर आदमी जानता समझता हुमा भी इसे शिर पर लाये बेतहासा दौड़ रहा है। उसे सुनने की भी फुरसत नहीं । कदाचित् इसलिए कि कही इस दौड़ में वह पीछे न हट जाये । मात्र 'मलता है' कहकर वह मामे बढ़ पर इतना कहने मात्र से क्या होगा ? यदि हमने इस उलझन भरे समास पर मिसन मनान नहीं किया तो समाज में भटकाव बढ़ता ही जायेगा । उसे फिससस से बचने के लिए कोई मामय नहीं सिनेमा । अतः माल पावस्याला है उस विय पता को समाप्त करके सोवयं लाने की बौर मह सौन्दर्य जीवन-रथ का दूसरा पहिया भी मा सकता है। पर्याद महिलाएं विषमता में समता और सौन्दर्य लाने का कार्य को सुमार, सक्षमता और सहदयबा के साथ कर सकती हैं। उनकी प्रतिमा कोमलता और बाकृत बक्ति परिवार को हरा-भरा करने से नही पड़ा प्रिय हो वही है। रव्यावहारिक कठिनाइयां समापी पर उन्हें अस्ले सारख पौर महनील समानकर मार्म को, निबंटा लाया जा सकता है। और मत गटई और उसकी बहन मालमत भारत का महिनाएं सिर नहीं मा जानकी Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारने की पृष्मी यो मुला गर्व की बमबहाती विनायी बापावापी नही करती मे जैसी महमाई के समय बेरोक से सात मानक के समान दुबले पखसे वेतन मामा म्यापार से उनकी पहा मी मां पूरी हो सकती ...इस पैसे प्रश्न का उतर गम्भीर नी के तट पर बैठकर पिता पूर्वक देना होगा। मन का हर कोना बग-बगल झांकेगा कुछ कहने म बाहने को, विश होमा तथ्य के उद्घाटन में स्वयं को पाटबरे के पन्दर खरे करने को तमी त्य की परतें उपड़ेंगी, वास्तु स्थिति सामने प्राणी मोर रोगले मुक्त होने का रास्ता नबर मावेगा। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि माधुनिकता किंवा भौतिकता के प्रवाह में माधुनिक नारी अपने पापको जितनी प्रवाहित करती जा रही है उतनी ही पनसिकता समाज मोर राष्ट्र मे फैलती जा रही है । माधुनिकता के चक्कर में उसके अरमानों, पावश्यकताओं और अपेक्षाओं की इतिश्री विराम लेने की राह पर दिखती नहीं। उसका दृष्टिकोण घनघोर भौतिकतावादी होता आ रहा है। पाज की जी-सोड मंहगाई, प्रासमान को छूते बीजों के भाव और सिमपर वेकारी का मांधी शिरदर्द । इन सभी ने मानव मूल्यों का बास मस्तस तक मिरा दिया है । इस स्थिति में माधुनिकता का जामा यदि और मोड लिया जाये सो समान अनैतिकता के गहन कीचड़ में फंसे बिना रह कैसे सकता है? फेशन परस्त महिला का पाये दिन बदलते फैशन के साथ चलने के लिए भी मचल उठता है और उसकी करि पाद पुरुषवन के सामने बढ़ जाती है । साधन सीमित और मावश्यकताए असीमित पाखिर क्या करे प्रयोगजित करने वाला । परिवार के सदस्यों को खुण रखने और समाज में सथापित स्टेटस को बनाए रखने के लिए उसे विषय होकर कुछ और करना पड़ता है । यही कुछ और' उसे प्रमैतिक मोर भ्रष्टाचारी बनाने को बाध्य भारी के बाल सोन्दर्य का उपासक ' पुरुष मनोवजानिक दृष्टि से नारी के समक्ष अपने की मसहाय मौर बुबंस सिद्ध नहीं करना चाहता । उसकी प्राजक्षामों के सामने यह साधारणतः घुटने टेकने के लिए तैयार नहीं हो पाता। इसलिए मार. पारिक शांति की दृष्टि से बह सान्दर्य प्रसाधनों की हर हिंसक मामी को पुकाने में Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सन्दर्भ में पब हमें वह सौचना प्रापश्यक हो पाता है कि पुल . इस मैक्षिक पतन में क्या हम उत्तरदायी नहीं है ? हमारा पूक मव निस्सम हो जाने पर निश्चित ही योग उठेगा विवेवात्मक स्वर में । निकल उठेको प्रयासली "हम भी इस नैतिक पतन में कारणभूत है।" चिन्तन की यही क्षणिका जीवन में परिपर्सन ला सकती है। - बस्तुसः यह माधुनिकसा भी किस काम की जो हमारे पालीवजनों को भ्रष्टापार के मार्य पर मानकर है, राष्ट्र को पतन के गले में फेंकने का मार्य प्रशस्त कर थे, भान्तरिक बौन्दर्य को भाटियामेट करने का बीड़ा उठा ने ? कहाँ गया हमारा बह बारतीय जीवन दर्शन पिसमें हिंसा और अपरिग्रह की मौरव माषाएँ बुट्टी हुई है, सन्तोषी हुत्ति को सहजता पूर्वक अपनाने पर बल दिया गया है, पात-प्रतिपातों को शान्ति पूर्वक सहन करने का आह्वान भी है। हमारी प्राध्यात्मिक विचारधारा का अवलम्बन ले रहे हैं पाश्चात्यवासी और एक हम हैं कि प्रपनी ही पवित्र धरोहर को समाप्त करने पर तुले हुए हैं, मौर भातिकवादी दृष्टिकोण अपना रहे हैं, पाश्चात्य सभ्यता की जूठन का अन्धानुकरण कर रहे हैं । जैसा हम जानते हैं, भौतिक सुख-समृद्धि के माधुनिक साधनों से पास्तविक सुख भोर शान्ति नहीं मिल सकती । जितना हम भोमते जाते हैं, उतनी ही हमारी पाहें बढ़ती जाती हैं। उनकी प्रपूर्ति हो जाने पर मन प्रसन्न अवश्य हो उठता है पर बह प्रसन्नता क्षणिक होती है, भाभास मात्र होती है । अनैतिकता के दलवल में पनपा पेट कहां तक हरा भरा रहेगा? भारतीय संस्कृति इसीलिए अध्यात्म पर जोर देती है, जीवन को समयता से देखने का माहान करती है, और नैतिकता को भान्तरिकता के साथ बोड़ने का पुरजोर समर्थन करती है। यहां मेरे कहने का यह भी तात्पर्य नहीं कि हम एकदम विजुट मध्यात्मकाबी बन जायें। मध्यात्मवाद तो वास्तविक जीवन का मभित्र मन है, एक स्वाभाविक संघटना है। विधुत्ता की स्थिति तक पहुंचने वा यथाक्रम प्रयास ही सफलता का सही साधन बन सकेगा। भ्रष्टाचार पमपाने में जहां हम कारणभूत हैं वहीं उसके उन्मूलन की बिम्मेवारी भी पास की विषम परिस्थिति में हमारे शिर पर है। हम सीमित प्राय के दायरे में अपने संयमित जीवन को सीमित इन्धानों के माध्यम से सुखद बना सकते है और कमरोन की सरह बनने वाले संक्रामक इस दूषित पापार-विचार को फैलाने से रोक वाते हैं। हमारी महं भूमिका प्राण की कामाबाबारी, मिलावट, धूमसोरीपादि विषाक्त बयानों को दूर मारने में महत्वपूर्ण पार्ट भरा कर सकता है। भवलल महारीमारी से निकसकर पुल्या के मार्ग को अपनायें पोर नैतिकता बमा माम्बात्मिकता के हित जीवन को प्रात्त बनाने में अपनी प्रतिषा और स्थाभाषिक पति का पचासम्भव श्योग करें। नारी मुछिका भानोमन पापड़ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया। माकन करना होता और बाधा स्माष्टमें मामालिखना को जापत कर बोक्न को सही शिक्षा पर जाना होगा सस बातावरण में पलता-फूलता बीवन का बहा वसन्त पृष्ठ एक दिन सब महक ळेवा व पावसाब हम अपनी बहिनों से इस विचार- विपर मान करने का विन माहल करते है। इन जिन सारे बिन्दुनों पर हमने गुट बर्षा की है। सब मारी गोल को पान्दोलित करने वाले हैं। जैन संसति की मूल पात्मा में नारी को कहीं हुकराया नही गया बल्कि उसकी शक्तिको पहिचाना गया, पहिचानने के लिए प्रेरित किया गया । परन्तु उत्तरकाल में परिस्थिति-पस उसकी प्यास्याएं परिवर्तित होती रही भोर नारी के व्यक्तित्व के हर कोने पर रोंपर्क की मोटी परतें समा गई। जापत चेतना को हठात् या बलात् महानता का पातावरण रेकर उसे सुप्त का दिया गया। बहारदीवारी के भीतर उसे मात्र मलंकार का साधन बना दिया गया। दूसरों के निर्णय पर उसका बीवन तरने लगा, मावदेवट कोई मोरया। वह माम पुतलीम बेग दी गई। उसी पुतनी को पक्किार में लाने के लिए इतिहास में न जाने कितना खून बहा मोर मांगों के सिन्दूर से नदियो रक्तिमा मय समय कुछ पलटाबा हा है वहां नारी की सुप्त बेतमा को अमल होने का वातावरण उपलब्ध होने ममा है। पातो वस्तुतः उसकी अस्मिता का प्रश्न है। उसे तो हर सही पुरातन परम्परा को विद्रोह के गही स्वर मे भूलसा कर प्रगति के परयो को प्रशस्त करमा है । म संसाति की प्रामारिनक चेतमा इस स्वर को संयमित करेगी पोर उसे विद्रोह की कठोरता तथा प्रसासाविकता के पनम्बरों को तहस-नहस कर पिक और सामाजिक वषा नैतिक तत्वों से जोड़े रखेगी, ऐसा हमारा विश्वास पाश्चात्व सम्पदा के दुषित रंग मे परिमारी समाजको पीला बना दिया तो 'पुनषको प्रब' की कमा परितार्य होने में भी अधिक समय नहीं अमेवा। वह संक्रमण की बाबा नारी की स्वयं की शक्ति उसकी वर्ग चेतना उसके विवेक पर प्रतिष्ठित होनी है। महावीर की पाली रस विजकको स्वयं बंदुर बनाने के लिए पर्याप्त हैरों उसे बही विधा में समका-समझाना पाये।हा. पौर का "पडनं मा सो स्था" सूप महिला पर के बीवन मे साबोक्षित करने मा सिड होना। भान और भारत के उज्यान में रहने वालनिरता, परिवल, संवम और सजाव की ना शिक्षित होऔर मष्टिबाट करि मायापिकवना कम भावान Page #137 -------------------------------------------------------------------------- _