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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला-२६
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जैनसाहित्यका इतिहास
प्रथम भाग
लेखक . सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्द्र शास्त्री
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उतीयति-दर्शन केन्द्र
जयपुर
श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला प्रकाशन
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श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला 27 सम्पादक और नियामके, - डॉ० दरबारीलाल कोठिया
प्रकाशक मत्री, श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला १/१२८, डुमरॉव कॉलोनी, अस्सी वाराणसी-५
प्रथम सस्करण ११०० प्रति, दीपावली, वी० नि० स० २५०२
मूल्य वधिले पन्य
का
भगवान महावीरकी पच्चीसवी निर्वाण-रजतशती
तथा वर्णी-शताब्दिके मङ्गल प्रसङ्गपर
मुद्रक वर्द्धमान मुद्रणालय जवाहरनगर कॉलोनी नाकाटोन नामी..
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प्रकाशकीय श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला द्वारा सन् १९६२ में जैन साहित्यका इतिहास (पूर्ववीठिका) प्रकाशित हुआ था। उसके अगले दो भागोंकी सामग्री भी ग्रन्थमालामें उसके यशस्वी लेखक श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने लिखकर दे दी थी। और वे दोनो भाग भी कई वर्ष पूर्व छप जाना चाहिए थे। किन्तु कई कारणो और विघ्न-बाधाओसे वे नही छप पाये । हम नही चाहते कि उन कारणो और विघ्न-बाधाओका यहाँ अकन किया जाय । कठिनाई यह है कि जिसे मत्री चुना जाता है उसे ही 'पीर ववरची भिस्ती खर' वनना पडता है ।
सन् १९६४-६५ में हमे अध्यक्ष व अन्य सदस्योने आर्थिक सहायता प्राप्त करानेके आश्वासनके साथ ग्रन्थमालाके नये मत्रित्वका दायित्व सोपा था। उस समय ग्रन्थमालाकी स्थिति ऐसी थी कि उसे भारतीय ज्ञानपीठ या अन्य प्रकाशनसस्थाओको दे देनेका समितिने कई वार विचार ही नहीं किया, पत्राचार भी किया। किन्तु कोई प्रकाशन-सस्था उसे ले न सकी। फलत ग्रन्थमाला-समितिने १९-१०-१९६४ की कटनी वैठकमें हमें मत्री और हमे ग्रन्थमालाकी आर्थिक दशा सुधारनेके लिए स्वर्गीय सेठ भागचन्द्रजी डोगरगढ और उपाध्यक्ष श्रीमान् प० जगन्मोहनलालजी शास्त्रीने प्रेरणा और आश्वासन दिया कि वे हमें अवश्य ग्रन्थमालाकी दशा सुधारनेमें सहयोग करेंगे। किन्तु हमें स्वय उसकी स्थितिको उन्नत करने में लगना पड़ा और संरक्षक-सदस्यकी योजना द्वारा न केवल ग्रन्थमालाकी स्थितिको उन्नत किया, अपितु कई ग्रथोको प्रकाशित भी किया गया। पूज्य वर्णीजीका समयसार-प्रवचनके दो सस्करण, वर्णी-वाणी १, २, ३ के दो-दो संस्करण, मेरी जीवनगाथाका द्वितीय सस्करण, जैनदर्शनका दूसरा-तीसरा सस्करण, द्रव्यसंग्रह-भाषावनिका, मन्दिरवेदीप्रतिष्ठा-कलशारोहणविधिका दूसरा संस्करण, सामायिकपाठ, अनेकान्त और स्याद्वादका दूसरा सस्करण, अध्यात्म-पत्रावली व सत्यकी ओर के दो-दो सस्करण, आदिपुराणमें प्रतिपादित भारत, तत्त्वार्थसार, सत्प्ररूपणासूत्र और कल्पवृक्ष इन ग्रंथोका पिछले वर्षों में प्रकाशन हुआ है और इससे ग्रन्थमाला सप्रमाण हो गयी।
किन्तु हमें दुख ही नही मार्मिक पीडा है कि पिछले दिनोमें हमें जो आर्थिक सकट रहा उसे बार-बार अध्यक्षजीके सामने रखा। किन्तु हम उनसे उस सकटनिवारणमें असमर्थ रहे। सौभाग्यकी वात है कि जनसाहित्यके इतिहासके अगले दो भागोको स्वर्गीय डॉ० नेमिचन्द्रजी शास्त्री, श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी और
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( ४ )
हमने व्यवस्थित रूप देनेका प्रयास ही नही किया, आर्थिक सहयोगमें भी प्रयत्न किया है । बा० नन्दलालजी सरावगी कलकत्ता और उनकी प्रेरणासे तेयार कुछ दाताओने भी इन भागोके प्रकाशनमे महत्त्वपूर्ण आर्थिक दान दिया । सुहहर प० खुशालचन्द्रजी गोरावालाकी प्रेरणाको भी हम नही भुला सकते, जिन्होने भी इनके प्रकाशनमे हाथ बटाया है । अभी इन दोनो भागोकी छपाई - चाईडिंग, कागज आदिमें हमे लगभग छ हजार रुपएकी आवश्यकता है । आशा है हमारे उपर्युक्त सहयोगी तथा अन्य उदार दानी हमें उक्त छोटी-सी राशि प्राप्त करानेमें पूरापूरा सहकार करेगे ।
हम श्रद्धेय पण्डित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री सिद्धान्ताचार्यके वहुत आभारी है, जिन्होंने ये दोनों भाग १३ वर्ष पूर्व लिखकर ग्रन्थमालाको दे दिये थे और अव तक धैर्य पूर्वक उनके प्रकाशनकी प्रतीक्षा की । किन्तु हम सकारण विवश थे इससे पूर्व छापने में । फिर उनसे क्षमा-प्रार्थी हूँ । हर कार्यकी काल-लब्धि होती है, तभी वह सम्पन्न होता है । पिछले दो वर्षोकी एक लम्बी कहानी है, जिसे हम यहाँ छोड रहे है ।
हमें इतनी ही प्रसन्नता है कि वर्द्धमान मुद्रणालय की प्रतीक्षित सलग्नतासे अव दोनों भाग दिसम्बर १९७५ तक प्रकाशमें आ जायेंगे और सरक्षक सदस्योको दिये आश्वासनकी पूर्ति हो सकेगी ।
जय महावीर ।
भ० महावीरकी २५००वी, निर्वाण-शताब्दी ३ नवम्बर १९७५
( डॉ० ) दरबारीलाल कोठिया मत्री, श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला,
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लेखकके दो शब्द
जैन साहित्य के इतिहासको पूर्वपीठिका सन् १९६३ में प्रकाशित हुई थी । अव बारह वर्षोंके पश्चात् जैनसाहित्यका यह करणानुयोग विपयक इतिहास प्रकाशित हो रहा है, यह भी मेरे लिये परम सन्तोष और प्रसन्नताको वात है । मुझे तो इसके प्रकाशनकी कोई आशा ही नही थी, क्योंकि उक्त प्रकाशनके साथ ही श्री गणेशवर्णी ग्रन्थमालाका कार्य ठप्प जैसा हो गया था । किन्तु सौभाग्यवश उसके मंत्रित्वका भार डॉ० प० दरबारीलालजी कोठियाने उठा लिया और उन्हीके प्रयत्नके फलस्वरूप मेरा यह श्रम रद्दीकी टोकरीमें जानेसे बच गया । यह करणानुयोग अन्तर्गत केवल कर्मसिद्धान्त विपयक साहित्यका ही इतिहास है । लोकानुयोग विपयक साहित्यका इतिहास इसके दूसरे भागमें आयेगा । वह भी प्रेस में है और यदि वर्द्धमान मुद्रणालय के मालिक की कृपा दृष्टि रही तो शीघ्र ही प्रकाशित हो जायगा और मैं उसे प्रकाशित हुए अपनी आँखोंसे देख सकूँगा ।
दि० जैनसमाजमे विद्वानोकी तो कमी नही है किन्तु जैनसाहित्य और उसके इतिहासके प्रति विशेष अभिरुचि नही है । दि० जैनसमाजमें भी चरित्रके प्रति तो आदरभाव है किन्तु ज्ञानके प्रति आदरभाव नही है । इसीसे जहाँ दि० जैनमुनि - मार्ग वृद्धि पर है वहाँ जैन पण्डित धीरे-धीरे कालके गालमें जाते हुए समाप्तिकी ओर बढ रहे हैं । दि० जैनमुनिमार्ग पर धन खर्च करनेसे तो श्रीमन्तोको स्वर्ग सुखकी प्राप्तिकी आशा है किन्तु दि० जैन विद्वानोके प्रति धन खर्च करनेसे उन्हें इस प्रकारकी कोई आशा नही है। फलत निर्ग्रन्थोके प्रति तो धनिकोके द्रव्यका प्रवाह प्रवाहित होता है और गृही जैन विद्वानोंको आजकी महँगाई में भी पेट भरने लायक द्रव्य भी कोई देना नही चाहता । इससे विद्वान् तैयार होते है और समाजसे विमुख होकर सार्वजनिक क्षेत्र अपना लेते है । वहाँ उन्हें धन-सम्मान दोनो मिलते है । ऐसे में साहित्यकी सेवा तो वही कर सकता है जिसे उससे अनुराग होता है । ऐसे अनुरागी थे डॉ० हीरालाल और डॉ० उपाध्ये | किन्तु आज दोनो ही नही है । डॉ० हीरालालजीके पश्चात् डा० उपाध्येके स्वर्गत हो जानेसे दि० जैनसमाजका साहित्यिक क्षेत्र सूना जैसा हो गया है। उनकी सव साहित्यिक प्रवृत्तियाँ नि शेप हो गई है और ग्रन्थमालाएँ अनाथ जैसी हो गई है ।
डॉ० उपाध्येसे पहले डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री तो एकदम असमयमे ही स्वर्गवासी हो गये ।
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मैंने यह इतिहास आजसे वीस वर्ष पहले लिखना शुरू किया था । उस समय मैं लिखता चला गया और फिर उसे व्यवस्थित करनेकी रुचि भी नही हुई क्योकि प्रकाशनकी तो कोई आशा नहीं थी। लिखकर समाप्त करनेके दस वर्ष पश्चात् जव उसके प्रकाशनकी वात चली तो मैं उस लिखे विषयसे दूर चला गया था, मेरी स्मृतिमे वह नही था। उसमें मन भी नही लगता था। तब यह तय हुआ कि डॉ. नेमिचन्द शास्त्रीके साथ एक वार उसका पारायण कर लिया जाये। स्वर्गवासी होनेके तीन मास पूर्व वह कुछ दिन वनारसमें ठहरे और उनकी तथा डॉ० कोठियाकी उपस्थितिमें उसे व्यवस्थित किया गया। तव किसे कल्पना थी कि डॉ० नेमिचन्द शास्त्रीके साथ यही अन्तिम संगोष्ठी है ।
आज इसके प्रकाशनके समय उनकी स्मृति विशेप रूपसे होना स्वाभाविक है। वह भी जैनसाहित्यरूपी महलके एक स्तम्भ थे। उनके पश्चात् ही डॉ० गुलाबचन्द चौधरी भी स्वर्गवासी हो गये । जैनसाहित्य और इतिहासके वे भी एक सुलेखक विद्वान् थे। इन सबके अभावमें जैनसाहित्यका यह इतिहास प्रकाशित होनेसे भी एक तरहका दु ख ही होता है कि अब इसको आगे गति कौन देगा?
दि० जैन समाजमें एक वर्ग ऐसा है जो अपनेमें ही मग्न रहता है और विश्वमें क्या होता है, इसे देखकर भी नही देखता। दि० जैनसाहित्य कितना पिछड गया है, सार्वजनिक क्षेत्रमें उसका मूल्याकन करनेकी ओरसे कितना अज्ञान या उपेक्षा है इसे अनुभव करनेवाले भी इने गिने है। डॉ० उपाध्ये देश विदेशके जर्नल्समें जैनसाहित्यके विपयमे लिखते रहते थे। उनके पश्चात् तो कोई ऐसा विद्वान् दृष्टिगोचर नहीं होता। अत अव यह पिछडना और भी वढेगा। इस ओर मै उदीयमान जैन विद्वानोका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ । अस्तु
कर्मसिद्धान्तका विषय सूक्ष्म है। आज तो उसके अध्येता भी अत्यन्त विरल है। तव मेरे इस इतिहासको कौन पढेगा यह मैं नहीं जानता। किन्तु इसे देखकर भी यदि किन्हीकी साहित्यिक इतिहास विषयक रुचि जाग्रत हुई तो मैं अपने श्रमको सफल समझूगा। __ जव पीठिकाका प्रकाशन हुआ था तो उसमें जो खर्चेकी विगत दी गई थी, उसमें पारिश्रमिक मध्ये दस हजार रुपये दिखाये गये थे। उसकी कोई विगत नही दी गई थी और न उस विपयमे कुछ लिखा ही गया था। फलत एक आवाज समाचार पत्रोमे उठाई गई कि जैनसाहित्यके इतिहासको पूर्वपीठिकाका पारिश्रमिक मुझे दस हजार रुपया दिया गया है। ग्रन्थमालाकी ओरसे उसका स्पष्टीकरण किया गया। यहाँ मैं अपने उन मित्रोकी गलतफहमी दूर करनेके लिये यह स्पष्ट कर देना उचित समझता हूँ कि यह भाग और इसका आगामी दूसरा भाग भी पूर्व
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पारिश्रमिकमें ही सम्मिलित है, इनका मैंने कोई नया पारिश्रमिक नही लिया है । भगवान महावीरके पच्चीससौवे निर्वाण महोत्सव वर्ष की समाप्तिके साथ ही इसका प्रकाशन विशेप आनन्दकारी है । इसमें उन्हीकी दिव्यध्वनिसे निसृत वाड, मयका इतिहास गुम्फित है । वीरप्रभुका शासन जयवन्त रहो ।
दीपावली
वीर नि० स० २५०२
कैलाशचन्द्र शास्त्री
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जैनसाहित्यका उद्गम
श्रुतावतार
कप्रायप्राभृतके रचयिता गुणधर् आर्यमक्षु और नागस्ती गुणघर और धरसेन
२०
कषायपाहुड नाम और विषयवस्तु २५ अधिकारो और गाथाओका विभाग २६
कषायपाहुड गाथा सख्या
19
12
17
29
कर्मसिद्धान्त षट्खण्डागम-रचनाकाल
17
२८
'की गाथाओका सूत्रत्व ३०
३४
३५
३७
४३
11
शैली
विषय परिचय
रचनास्थान
रचयिता
रूपरेखा निर्माण
नाम
21
संतकम्मपाहुड खण्डोके नाम अग्रायणीपूर्वका विवेचन
विषय परिचय
१ जीवद्वाण
२ खुद्दावन्ध
३ बन्धस्वामित्वविचय
विषय-सूची
४ वेदनाखण्ड
५ वर्गणाखण्ड
21
६७
९२
९५
१००
१२३
१ बन्धन अनुयोगद्वार १३२
२ बन्धक
१३५
३ बन्धनीय
१३५
17
४४
४५
४७
/ ५१
५३
५९
६५
कसायपाहुड और षट्खण्डागमका तुलनात्मक विवेचन - १४५
छक्खण्डागम और पण्णवणा
और कर्मप्रकृति
महाबन्ध
13
"
""
"
चूर्णिसूत्र साहित्य
कसायपाहुड और चूर्णिसूत्र चूर्णिसूत्रोकी रचनाशैली
आगमिक व्याख्यानशैली
छक्खण्डागम और चूर्णिसूत्रोंकी
32
अनुयोगद्वार और चूर्णिसूत्र चूर्णिसूत्र - ऐतिहासिक महत्त्व
रचयिता
यतिवृषभकी रचनाएँ
चूर्णिसूत्रकी विषयवस्तु
धवलाटीका - नाम
11
11
32
स्थितिबन्ध
अनुभागबन्ध
प्रदेशबन्ध
,,
वीरसेन स्वामी
27
11
31
महत्व
प्रामाणिकता
विपयपरिचय
तुलना १९५
२००
२०१
२०३
१४९
१५०
गुरु एलाचार्य
बहुज्ञता
समय विमर्श
रचनाएँ
१५२
१५७
- १५९
१६३
१७०
१७४
१७८
१८५
२०८
२१०
२१५
२१६
२१७
२२१
२४१
२४२
२४३
२४५
२५०
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३५६
२९
पंचसग्रह
-३७३
जयधवला-नाम - २५२
पञ्चसंग्रहका रचनाकाल ३४७ , शैली महत्त्व २५२
चन्द्रर्षिकृत पञ्चसग्रह ३५१ , रचनास्थान-काल २५४
ग्रंथकारके द्वारा निर्दिष्ट अथ ३५४ जयधवलागत विषयवस्तु २५५
पंचसंग्रहकारका अन्य रचयिता वीरसेन-जिनसेन २६० कार्मिको तथा सैद्धातिकोसे अन्य व्याख्यानाचार्योंका उल्लेख २६२
मतभेद
३५४ छक्खण्डागमकी अन्य टीकाएँ २६३ कर्ता कुन्दकुन्दकृत परिकर्म
२६४ समय
। ३६० शामकुण्डकृत पद्धति २७४
सित्तरी चूर्णि ३६८ तुम्वुलुराचार्यकृत चूडामणि २७४
रचना काल समन्तभद्रकृत संस्कृतटीका २७८
उत्तरकालीन कर्मसाहित्य सत्कर्मपंजिका
२८४
उत्तरकालीन कर्मसाहित्य ३७१ , रचनाकाल
लक्ष्मणसुत डड्ढाकृत अन्य कर्मसाहित्य
३७२ कर्मप्रकृति
२९३
रचनाकाल वृहत्कर्म प्रकृति २९४
विषय परिचय ३७५ कर्मप्रकृति विषयपरिचय २९५
सं०प० स०के रचयिता , कर्ता ३०२
अमितगति
३८० चूणिसूत्र और कर्मप्रकृतिचूणि ३०६
गोम्मटसार , समय - ३१०
नेमिचन्द्रके गुरु ३८२ शतक कर्मग्रन्थ ३११
नाम , विषयपरिचय ३११
नामका कारण
३८९ शतकचूर्णि
३१५
समय सित्तरी
३१८ विषय वस्तु
३९७ , रचयिता-रचनाकाल ३२०
कर्मकाड .. विषयपरिचय ३२० बन्धोदय सत्त्वाधिकार कर्मप्रकृति और सप्ततिका मतभेद ३२१ सत्त्व स्थान भंग
४०७ कर्मस्तव
३२२ त्रिचूलिका अधिकार , रचनाकाल ३२४ वन्धोदय सत्त्व युक्त स्थानं दि० प्राकृत पञ्चसंग्रह ३२५ प्रत्ययाधिकार
जीवसमास और सत्प्ररूपणा ३२८ भावचूलिका । सप्ततिका और पञ्चसंग्रह ३४० त्रिकरणचूलिका
४११
३८१
३८९
३९९
४०६
४०८
४०९
४११ ।
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कर्मस्थितिरचना अधिकार ४१२ / लब्धिसार-क्षपणासार
४१२
४१७
देवसेनकृत भावसग्ग्रह
कर्ता और समय
४२०.
४२९
गर्गषि रचित कर्मविपाक प्रकृतियोंके स्वरूपमें अंतर ४३०
आचार्य ग
४३१
गोविन्द्राचार्य रचित कर्म -
स्तव वृत्ति
वध स्वामित्व
जिनवल्लभ गणि रचित
षडषीति
देवेन्द्रसूरि रचित नव्य
कर्मग्रथ
( ११ )
कर्मविपाक
कर्मस्तव
बधस्वामित्व
षडशीति
समय
श्रुतमुनि की रचनाएँ
४३२
४३२
४३२
४३३
४३४
४३४
४३४
४३५
शतक
४३५ कर्मग्रथो की स्वोपज्ञ टीका ४३५
ग्रंथकार तथा उनका समय ४३६ संस्कृत कर्मग्रथ ४३६
- कर्मप्रकृति नामक अन्यग्रथ ४३६
संकलिता का नाम तथा
४४०
४४२
'
भावविभगी
आस्रवत्रिभागी
श्रुतमुनि का परिचय और
समय
૪૪૪
पचसग्रह की प्राकृत टीका ४४५ .
सिद्धान्तसार
४५०
ग्रथकार
४५०
सकलकीर्ति का कर्मविपाक ४५२
सिद्धान्तसार भाष्य
४५३
ज्ञानभूषण की दो गुरु'परम्पराएँ
समय विचार
त्रिभगी टीका
रचयिता और समय
गोम्मटसार की टीकाएँ
मन्दप्रबोधिक टीका
कर्ता और रचनाकाल
जीवतत्त्व प्रदीपिका
समयविचार
टीकाका परिचय
सुमतकीर्तिकी
पंचसग्रह वृत्ति
रचयिता का परिचय
पञ्चसग्रह वृत्ति
वामदेव का संस्कृत
४४२
४४३
भावसग्रह
रचयिता समय
४५४
४५५
४६०
४६१
४६३
४६६
४६७
४७०
४७३
४७७
४७७
४७८
४७९
४८२
४८४
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जैनसाहित्यका इतिहास
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जैनसाहित्यका इतिहास
प्रथम अध्याय मूलागम-साहित्य प्रथम परिच्छेद
कसायपाहुड प्रास्ताविक
पूर्वमें प्रकाशित 'जन माहित्यका इतिहाग' (पूर्व पीठिका) प्रथम भागमें श्रुतावतार और श्रुत-परिचय विस्तारपूर्वक लिया गया है। अत यहाँ केवल मन्दर्भनिर्वाहके लिए जैन माहित्यके उद्गम, विस्तार और श्रुतावतारपर गक्षेपमें प्रकाश डाला जाता है। जैन साहित्यका उद्गम
जैनसाहित्यके उद्गमकी कथाका आरम्भ भगवान महावीरसे होता है, क्योकि पार्श्वनाथके कालके जनसाहित्यका कोई सकेत तक उपलब्ध नहीं है। फिर जैन परम्पराके अनुसार महावीर भगवानने जिम दिन धर्मतीयका प्रवर्तन करना प्रारम्भ किया उसी दिन पार्श्वनाथका तीर्थकाल समाप्त हो गया और भगवान महावीरका तीर्थकाल चालू हो गया। आज भी उन्हीका तीर्य प्रवर्तित है। अत' उपलब्ध समस्त जनसाहित्यके उद्गमका मूल भगवान् महावीरकी वह दिव्यवाणी है, जो १२ वर्षकी कठोर साधनाके पश्चात् केवलज्ञानकी प्राप्ति होनेपर लगभग ४२ वर्षकी अवस्थामें (ईस्वी सन्से ५५७ वर्प) श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके' दिन ब्राह्ममहूर्तमें राजगृहीके वाहर स्थित विपुलाचल पर्वतपर प्रथम वार निसृत हुई थी और तीस वर्ष तक निसृत होती रही थी। __उनकी उस वाणीको हृदयगम करके उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधरने बारह अगोमें निवद्ध किया था। उम द्वादशागमें प्रतिपादित अर्थको यत गणधरने भगवान महावीरके मुखसे श्रवण किया था, इससे उसे 'श्रुत' नाम दिया गया और भगवान महावीर उमके अर्थकर्ता कहलाये। गौतम गणवरने उसे ग्रन्थका रूप दिया, १ पटख० पु. १, पृ०६२-६३ ।
'तत्य कत्ता दुविहो, अत्यकत्ता गयकत्ता चेदि। तदो भावसुदस्स अत्यपदाण च तित्थयरो कत्ता। तित्थयरादो सुदपज्जापण गोदमो परिणदो ति दन्वसुदस्स गोदमो कत्ता । तत्तो गंवरयणा जादेशि।'
-पटख०, पु० १, पृ०६०-६५
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२ जैनसाहित्यका इतिहास
इसलिये वह ग्रन्थकर्ता कहलाये ।
भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात् वही द्वादशागरूप, श्रुत गुरु-शिष्यपरपराके रूपमें मौखिक ही प्रवाहित होता रहा और श्रुतकेवली भद्रबाहुके समय तक अविच्छिन्न बना रहा । किन्तु उनके समयमे मगधमें बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पडनेसे सघ-भेद हो गया । और इस सघ भेदके कारण सबसे अधिक क्षति द्वादशागरूप श्रुतको पहुँची । उस समय द्वादगाग श्रुतके एकमात्र प्रामाणिक उत्तराविकारी श्रुतकेवली भद्रवाह थे । किन्तु वौद्ध सगीतिकी तरह पाटलिपुत्रमें जो प्रथम जैन वाचना हुई कही जाती है वह उनकी अनुपस्थितिमे ही हुई । और उसमें भी केवल ग्यारह अगोका ही सकलन किया जा सका । किन्तु सबसे अधिक महत्त्व - पूर्ण वारहवा अग सकलित नही हो सका, क्योकि उसका जानकार श्रुतकेवली भद्रargh सिवाय दूसरा व्यक्ति नही था ।
भद्रवाहु के पश्चात् जैन संघ दिगम्बर और श्वेताम्बर पन्थमें विभाजित हो गया और दोनोकी गुरुपरम्परा भी भिन्न हो गई । सभवतया श्रुतकेवली भद्रबाहु - का वारसा दोनो ही परम्पराओको प्राप्त हुआ था । फलत दिगम्बर परम्परामें महावीरके निर्वाणके पश्चात् ६८३ वर्ष तक (विक्रम सम्वत्को दूसरी शताब्दी पर्यन्त) अगज्ञान यद्यपि प्रचलित रहा, किन्तु दिन-पर-दिन क्षीण होता चला गया ।
(श्वेताम्बर परम्परामे पाटलिपुत्रके बाद दूसरी वाचना मथुरामे की गई और वीर निर्वाणसे ९८० वर्षं अथवा ९९३ वर्ष पश्चात् वलभीकी तीसरी वाचनाके समय सकलित ग्यारह अगोको पुस्तकारूढ किया गया । किन्तु महत्त्वपूर्ण बारहवाँ अग तो नष्ट ही हो गया । उसीके भेद चौदह पूर्व थे । उन्हीके कारण बारहवे अगका महत्त्व था । श्वेताम्बर परम्परामे तो ग्यारह अगोकी उत्पत्ति पूर्वोसे ही मानी गई है । अत पूर्वोका महत्त्व निर्विवाद है ।)
इन्ही चौदह पूर्वोमे से दो पूर्वोके दो अवान्तर अधिकारोसे सम्बद्ध दो महान् ग्रन्थराज दिगम्बर परम्परामे सुरक्षित है । उनमे वर्णित विषय और उसका विस्तार भी पूर्वक महत्त्वको ख्यापन करता है । दिगम्बर परम्पराके जैनसाहित्यका इतिहास एक तरहमे इन्ही ग्रन्थराजोसे आरम्भ होता है । अथवा यह कहना उचित होगा कि दिगम्बर परम्परा के साहित्यका उद्गम पूर्वोके उन विशकलित अशोसे।" होता है जो उमे उत्तराधिकारके रूपमें प्राप्त हुए थे ।
~~
जैनसाहित्यका विस्तार
जैन साहित्य वहुत विस्तृत है, ऐसा कोई विषय नही है जिसपर जैनाचार्योंने अपनी लेसनो न चलाई हो । और इसका कारण यह है अपने समय मे उपस्थित किसी चर्चाको अव्याकृत कहकर
कि भगवान् महावीर ने
अलक्षित या उपेक्षित
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जैन साहित्यका विस्तार : ३
नही किया था । तत्त्वज्ञान, आचार, लोकविभाग आदि सभी विपयोपर उनकी वाणी प्रवाहित हुई थी । उनमेंसे अनेक विपयोके सम्वन्धमे उनकी स्वतंत्र और मोलिक देन थी, जो जैन तत्त्वज्ञानकी अपनी विशेषता कहलाती है। उनके पश्चात् उनके अनुयायी शिष्यो और प्रशिष्योने टीकाओ और मोलिक रचनाओके रूपमें उनके सिद्धान्तोको निवद्ध करके जैन साहित्यके भण्डारको बरावर समृद्ध किया ।
यद्यपि भगवान् महावीरने तत्कालीन लोकभापा अर्धमागधी को अपने उपदेशोका माध्यम बनाया था, और इस तरह गोतम गणधरके द्वारा ग्रथित द्वादशाग श्रुतकी भाषा भी अर्धमागधी थी । किन्तु उनका लोप होने पर भी महाराष्ट्री और शौरसेनी भाषाएं, जो प्राकृतके ही भेद है, जैन आगमिक साहित्यकी रचनाका माध्यम रही । और जव संस्कृतभापा लोकप्रिय हुई तो जैनाचार्योंने उसके भण्डार - को अपनी कृतियोंसे भरा । पीछे अपभ्रंश भाषाका प्रचार होनेपर अपभ्रंश भाषाको अपनाकर उसे समृद्ध बनाया । अपभ्रंश भापा तो एक तरहसे जैन ग्रन्थकारोकी कृतियोसे ही समृद्ध हुई थी ।
इसलिये डाक्टर विन्टरनीट्सने' लिखा था कि "भारतीय भाषाओके इतिहासकी दृष्टिसे भी जैनोका साहित्य बहुत महत्वपूर्ण हैं, क्योकि जैनोने सदा इस वातका ध्यान रखा है कि उनकी रचनाएँ अधिक-से-अधिक जनता के लिये उपयोगी हो । इसीसे आगमिक रचनाएँ और प्राचीनतम टीकाएँ तथा विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ और काव्य लिखना शुरू किये । कुछ ग्रन्थकारोने सरल सस्कृतमे रचनाएँ की, तो कुछने काव्यशैलीमें परिश्रमसाध्य सस्कृतभापाको अपना कर प्राचीन संस्कृत-कवियोसे टक्कर ली ।
" ।
अन्तमें, काफी आधुनिक कालमें जैनोने विभिन्न आधुनिक भारतीय भाषाओका भी उपयोग किया और उन्होने खामतौरसे हिन्दी ओर गुजराती भाषाको समृद्ध बनाया)।१४
१. हि० इ० लि०, भा० २, पृ० ४२७ ।
२ जैन साहित्यकी तालिकाके लिये देखिये - आर० जी० भण्डारकरकी रिपोर्ट १८८३-८४, ९ पिटर्सनकी रिपोर्ट ४, और ५, ए० बी० कीथक्री 'बोटलियन' ( Bodlian ) लाइवेरीके प्राकृत ग्रन्थोंकी सूची, मध्यप्रदेश और वरारकी सरकारी आज्ञासे प्रकाशित सस्कृत और प्राकृत ग्रन्थोंकी सूची ( नागपुर १९२६), रायल एशियाटिक सोसायटी बम्बई शाखाकी लायब्रेरीके सस्कृत प्राकृत ग्रन्थकी वर्णनात्मक सूची जिल्द ३,४ । इण्डिया आफ्रिके संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थकी सूची, जिल्द २ । जिनरत्नकोश, पूना । जैन सिद्धान्त भवन आराकी सूची, भा० ज्ञानपीठ काशीसे प्रकाशित कन्नड प्रान्तीय ग्रंथसूची | राजस्थानके ( जैन मण्डारोंकी ग्रन्थसूची छह भाग । ऐलक पन्नलाल सरस्वती भवन बम्बईकी ग्रन्थसूची, तथा पाटन और जैसलमेरके भण्डारोंकी सूचियाँ, तथा अन्य सूचियाँ ।
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४ : जैनसाहित्यका इतिहास
दक्षिणको तमिल और कनडी भाषामे भी जैन गाहित्य काग नही है । चन्द्रगुप्त मौर्यके राज्यकालके अन्तमें श्रुतकेवली गद्रबाहु मगधमे भिक्ष पउने पर एक बडे साधु-मघके गाथ दक्षिणकी ओर चले गये थे। उसके बादगे दक्षिण जैन सस्कृतिका केन्द्र बन गया और लिंगायतोके अत्याचारोगे भारम्ग होने तक वहां जैनोका अच्छा प्रभाव रहा। दिगम्बर परम्पराके अधिकाग प्रानीन गन्यकार दक्षिणके थे । अत उन्होने प्राकृत और संस्कृतकी तरह कनदी और तमिलमे भी खूब रचनाएँ की। अतएव कनडी और तमिल भाषामे भी प्रचुर जैन गाहित्य उपलब्ध है । इग तरह जैन माहित्य बहुत विस्तृत है । वर्गीकरण और कालक्रम
दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो परम्पराओके गाहित्यमे गमस्त जैन गाहित्यका वर्गीकरण विपयकी दृष्टिमे चार भागोमे किया है। वे चार विभाग है-प्रथगानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग । पुराण, चरित आदि आख्यानग्रन्य प्रथमानुयोगमें गर्भित किये गये है। करणगब्दके दो अर्थ है-परिणाम और गणितके सूत्र । अतः खगोल और भूगोलका वर्णन करनेवाले तथा जीव गौर कर्मके सम्बन्ध आदिके निरूपक कर्मसिद्धान्त विषयक ग्रन्य करणानुयोगमें लिए गये है। आचार-सम्वन्धी साहित्य चरणानुयोगमे आता है और द्रव्य, गुण, पर्याय आदि वस्तुस्वरूपके प्रतिपादक ग्रन्थ द्रव्यानुयोगमे आते है।
श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार यह अनुयोग-विभाग आर्यरक्षितसूरिने किया था। अन्तिम दसपूर्वी आर्यवनका स्वर्गवाम वि० स० ११४ में हुमा । उसके बाद आर्यरक्षित हुए। उन्होने भविण्यमें होनेवाले अल्पवुद्धि शिष्योका विचार करके आगमिक साहित्यको चार अनुयोगोमें विभाजित कर दिया। जैसे, ग्यारह अगोको चरणकरणानुयोगमें समाविष्ट किया, ऋपिभापितोका समावेश धर्मकथानुयोगमें किया, सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति आदिको गणितानुयोगमे रखा और बारहवें अग दृष्टिवादको द्रव्यानुयोगमें रखा
(दिगम्बर परम्परामें जिसे प्रथमानुयोग नाम दिया है उसे ही श्वेताम्बर परम्परामें धर्मकथानुयोग कहा है और श्वे० परम्परामें जिसे गणितानुयोग सज्ञा दी गई है, उसका समावेश दिगम्बर परम्पराके करणानुयोगमें होता है। __ इस तरह विपयकी दृष्टिसे जैन आगमिक तथा तदनुसारी अन्य साहित्य चार भागोमें विभाजित है।
डा० विन्टरनीट्सने लिखा है कि यद्यपि जैनधर्म बौद्धधर्मसे प्राचीन है तथापि ४१ आव०नि० गा० ७६३-७७७ । '२, हिं० ई.लि., भा॰ २, पृ००४२६ ।
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श्रुतावतार ५ जैनोका आगमिक साहित्य अपने प्राचीनतम रूपमें हम तक नहीं आ सका दुर्भाग्यसे उसके कुछ भाग ही सुरक्षित रह सके और उनका वर्तमान रूप अपेक्षाकृत काफी अर्वाचीन है।)
डा० भण्डारकरने' दिगम्बर परम्परके कथनको विश्वस्त मानते हुए यह मत प्रकट किया था कि 'वीरनिर्वाणके पश्चात् ६८३ वर्ष पर्यन्त, ( ई० १३६ ) जब कि अगोके अन्तिम ज्ञाता आचार्यका स्वर्गवास हुआ, जैनोमे कोई लिखित आगम नही था'।
सम्भवतया यह वात वारह अगोके सम्बन्धमें कही गई है, क्योकि उनका लेखनकार्य श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार वीरनिर्वाणसे ९८० या ९९३ वर्ष पश्चात् हुआ था।
किन्तु डा० विन्टरनीट्सका मत है कि उक्त द्वादशागरूप आगमसाहित्यसे Vइतर आगमिक जैन साहित्यकी रचना श्वेताम्बरीय आगम-सकलनासे बहुत पहले ही प्रारम्भ हो गई थी, जैसा कि हमें आगे ज्ञात हो सकेगा। ___ सब बातोको दृष्टिमें रखते हुए जैन साहित्यके विकासका इतिहास प्रथम शताब्दी ईस्वीपूर्वसे आरम्भ होकर वर्तमानकाल तक आता है । इस सुदीर्घ कालको पाँचसौ-पाँचसौ वर्पोमें विभाजित करनेसे निम्न प्रकारसे उसका विभाग होगा
~१. ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दीसे ईस्वी सन्की चतुर्य शताब्दीके अन्ततक । V३, ईस्वी सन्की पाचवी शताब्दीके प्रारम्भसे ईस्वी सन्की नौवी शताब्दीके
अन्ततक । ३ ईस्वी सन्की दसवी शताब्दीके प्रारम्भमें १४वी शताब्दीके अन्ततक । /४ और ईस्वी सन् १५ वी शताब्दीके प्रारम्भसे १९ वी शताब्दीके अन्ततक ।
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श्रुतावतार अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर स्वामीने केवलज्ञान होनेके पश्चात् राजगृह नगरके निकट विपुल नामक पर्वतपर श्रावण कृष्णा प्रतिपदाके दिन ब्राह्म मुहू' में अपनी प्रथम धर्मदेशना दी। उनके प्रधान गणधर इन्द्रभूति गौतमने उसे
वारह अगो और चौदह पूर्वोमे निवद्ध किया। इस श्रुतके अर्थकर्ता भगवान महावीर थे और ग्रन्थकर्ता गौतम गणधर । गौतम गणधरसे वह श्रुत लोहाचार्य अपर नाम सुधर्मा स्वामीको प्राप्त हुआ और सुधर्मासे जम्बू स्वामीको । जम्बू स्वामीके ६. रिपोर्ट १८८३-८४, पृ० १२४ । ३. भूतवली-पुष्पदन्तकृत पटख०, पु० १, पृ० ६५-६६ । गुणधरकृत क. पा०, भा० १, पृ०
८३-८७।
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६ : जैन साहित्यका इतिहास
पश्चात् क्रमश पांच आचार्य श्रुतज्ञानके पारगामी हुए, जिनमें अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु थे । भद्रबाहुके पश्चात् श्रुतज्ञानका क्रमण विच्छेद होना प्रारम्भ हो गया ।
(भद्रवाहुके पदनात् ग्यारह आचार्य ग्यारह अगो और दग पूर्वीक पारगामी तथा शेष चार पूर्वोके एकदेश ज्ञाता हुए । उनके पश्चात् क्रमण पांच आचार्य ग्यारह अगांके पारगामी और चौदह पूर्वोके एकदेश ज्ञाता हुए। उनके पश्चात् क्रमश चार आचार्य आचारागके पूर्ण ज्ञाता और शेप अगो तथा पूर्वोके एकदेश ज्ञाता हुए। इस तरह भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात् ६८३ वर्पतक श्रुतकी परपरा चालू रही ।
तत्पश्चात् गव अगो और पूर्वोका एकदेश धरसेनाचार्य और गुणधराचार्यको प्राप्त हुआ । गुणधर भट्टारक ज्ञानप्रवाद नामक पंचम पूर्वको दमवी वस्तु सम्वन्धी तीसरे कपायप्राभृत नामक महारामुद्रके पारगामी थे। उन्होने ग्रन्थविच्छेदके भयसे सोलह हजार पदप्रमाण 'पेज्जदोमपाहुड' का एक्सो अस्मी गाथाओमे उपसहार किया और उन्हे कमायपाहुड ( कपायप्राभृत ) नाम दिया । भाचार्य घरसेन अष्टाग महानिमित्त पारगामी थे और उस समय सौराष्ट्र देशके गिरिनगर नामके नगरकी चन्द्रगुफामें रहते थे । उन्होने गन्थ- विच्छेदके भयसे प्रवचनवात्सल्यसे प्रेरित होकर महिमा नामकी नगरीमे सम्मिलित हुए दक्षिणापथके आचार्योंके पास एक लेख भेजा । उस लेखसे धरसेनाचार्यके अभिप्रायको भली-भांति जानकर उन आचार्यांने दो सुयोग्य साधुओको आध्र देशमे बहनेवाली वेणा नदीके तटसे भेजा ।
इधर एक दिन धरसेनाचार्यने रात्रिके पिछले पहर स्वप्तमे दो श्वेत विनम्र बैलोको अपने चरणोमें नमस्कार करते हुए देखा । उसी दिन वे दोनो साधु घरसेनाचार्यके चरणोमे पहुँच गये । मार्गका श्रम दूर होने पर तीसरे दिन दोनो साधुओने अपने आगमनका प्रयोजन आचार्यसे निवेदित किया । आचार्यने उनकी परीक्षा लेनेके निमित्तसे उन्हे विद्याएं सिद्ध करनेके लिए दी । उनमेसे एकमें अधिक अक्षर थे और दूसरी कम । विद्याएँ सिद्ध हो गई, किन्तु दोनों विद्यादेवताओोका रूप विकृत था, एक देवीके दाँत बाहर निकले थे ओर दूसरी कानी थी । 'देवता विकृत अगवाले नही होते' ऐसा विचारकर उन दोनोने मत्रशास्त्र सम्वन्धी व्याक
से अपनी-अपनी विद्याओके हीनाधिक अक्षरोको ठीक करके पुन सिद्ध किया, तो दोनो विद्यादेवताएँ अपने स्वाभाविक रूपमें दृष्टिगोचर हुईं।
विद्या सिद्ध करनेपर उन्होने आचार्यसे सव वृत्तान्त निवेदित किया । सन्तुष्ट होकर धरसेनने उन्हें पढाना प्रारम्भ किया । पठन समाप्त होनेपर उनमें से एककी पूजा भूत जातिके देवोने की । इससे धरसेनने उनका नाम भूतबलि रखा । दूसरे साधुकी भूतोने अस्त-व्यस्त दंतपक्तिको पूजापूर्वक सुन्दर बना दिया, इससे
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श्रुतावतार ७
उगा नाग पुष्पदन्त गगा।
भरगगे पिला देगी पदनात् दोनो गाभाने अगलेश्वर (गुजरात) में वर्णाभाग लिया । वर्षागोग गगा होनेपर आनार्ग गुणदन्त तो जिनपानितको देगने के लिए नाग देगाो चले गये और भूतबनि गिल भगत नले गये । गुपदन्तने गत्मपणा Tinी निना की मोर जिनपारित दीक्षा देकर तथा पढार भूतलो पान भेज दिया । नलिने जिनपालितो पाग गत्प्रापणारे गूत्र देसे और उगगे द्वारा गह भी जाना कि पुपरन्तगी बस आयु मेप है। अत उन्हें गहामार्गप्रकृतिमाता पिच्छर हो जानेगी आगफा हुई। तब उन्होंने द्रव्यप्रमाणानुगगी आदि लेकर गन्य रचना की। एग तरह भूतबलि और पुष्पदन्त मानायने पटगागग गिदान्तगी रचना की।
श्रुतावतारका यह विवरण पीग्गन स्वामीने कायपाहुको टीका जयघवलाम तथा पट्गपागमती टीका धरलाम दिया है। किन्तु इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमं मोनो ग्रन्यो अवतारका वर्णन क्रमग किया है। उन्होंने प्रथम पटमण्डागगन मयतारती गाथा दी है, गपचात् कगायपाही भरतारकी। पट्यण्डागमकी अवतारकयाम इतना विगग गाथन है कि भूनवाल आचार्यने द्रव्यप्रपणा आदि अधिकारको लेपार पनि राण्डोकी रचना की, फिर महावन्ध नामा छठ सण्डकी रचना की । उस तरह भूतलि आचार्यने पाण्यागमकी रचना करके उन्हे पुस्तकोमें स्थापित किया और ज्येष्ठ शुक्ला पचगीके दिन चतुविध सपके माय पुस्तकोंके दाग विधिपूर्वक पूजा की। उगगे वह तियि बुतपञ्चमीके नाममे ख्यात हुई । आज भी जैन उस दिन श्रुतपूजा करते है।)
सक्षेपमे यह उन दो गिद्धान्त-गन्योके अवतारको काथा है जिनका पूर्वोके साथ माक्षात् सम्बन्ध है और जिनके ऊपर कितनी ही टीकाएँ रची गई थी।
यद्यपि इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमै पट्यण्डागमो अवतारकी कथाको प्रथम स्थान दिया है और वीरसेन स्वामीने भी प्रथम उगीपर टीका रची थी, तथापि रचनाकाल आदिकी दृष्टिरो कपायपाहुट प्रथम प्रतीत होता है । अत प्रथम उसीके सम्बन्धमे विवेचन किया जाता है। १. 'श्व पटसण्यागगरचना प्रविधाय भूतवल्यार्य ।
आरोप्यामद्भावरथापनया पुस्तकेपु तत ॥१४२।। ज्येष्ठसितपक्षपञ्चम्या चातुर्वर्ण्यमघममवेत । तत्पुस्तकोपकरणबधात् मियापूर्वक पूनाम् ॥१४३।। श्रुतपज़मीति तेन प्रख्याति तिथिरिय परामाप । यथापि येन तस्या श्रुतपूजा कुर्वते जेना ॥१४४।।
-तत्त्वानु० पृ० ८६
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८ : जैन साहित्यका इतिहास
कपायपाहुड
कषायप्राभृतके रचयिता गुणधर
वीरसेन स्वामीको जयभचला टीका तथा इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारंगे यह तो स्पष्ट है कि कायपाहुडके रचयिता आचार्य गुणधर थे । हिन्तु ये कौन थे और कब हुए थे इत्यादि वातोको जानने के कोई गाधन दृष्टिगोचर नहीं होते ।
इन्द्रनन्दिने' तो अपने श्रुतावतार स्पष्ट लिन दिया है कि गुणवर और घररोन के वणगुरुके पूर्वापर क्रमको हग नही जानते, क्योकि उनके अन्ययका कथन करने वाले आगम गर मुनिजनो का अभाव है । ऐगी स्थितिमे गुणवर और घरसेनकी वशपरम्पराके सम्वन्धमे तथा उनके पौर्वापर्यके सम्वन्धमे निश्चित रुपये कुछ कह सकना कितना कठिन है, यह लिखनेकी आवश्यकता नहीं है ।
इन्द्रनन्दिके पूर्वज बोरसेन दोनोको चीर निर्वाणगे ६८३ वर्ष पश्चात् हुमा बतलाते है, किन्तु दोनो की पूर्वपरम्पराके सम्बन्धमे वह भी मूक है । अत स्पष्ट है कि वीरसेन स्वामीको भी दोनोका पूर्वापर क्रम ज्ञात नही था । चूकि वीर निर्वाण ६८३ वर्ष पर्यन्त अगज्ञानके प्रवाहित होनेकी परम्परा प्रवर्तित थी ओर अगज्ञान के प्रवर्तित रहते किसी अगज्ञानीने अंगज्ञानको पुस्तकास्ट करनेका प्रयत्न किया हो, ऐसा कोई सकेत अनुपलब्ध था और गुणधर तथा घरसेनका नाम अंगज्ञानियोकी परम्परामें था नही । अत वीरसेनने दोनोको वीर निर्वाणके ६८३ वर्षके पश्चात् बतला दिया । किन्तु ६८३ वर्षके कितने काल पश्चात् दोनो हुए, यह भी वह नही बतला सके ।
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जहाँ तक हम जान मके है, वीर निर्वाणके पश्चात् ६८३ वर्ष पर्यन्त होने वाले अंगज्ञानियोकी परम्पराका सबसे प्राचीन निर्देश / त्रिलोकप्रज्ञप्तिमे मिलता है । त्रिलोकप्रज्ञप्ति आचार्य यतिवृपभकी कृति मानी जाती है । और आचार्य यतिवृपभने ही गुणधरके कसायपाहुडपर चूर्णिसूत्रोकी रचना की थी । किन्तु उन्होने भी गुणधरके विपयमे कुछ नही लिखा ।
अत. हमे गुणधराचार्यकै विषयमे जयधवला टीका और इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे ही नीचे लिखी जानकारी प्राप्त होती है-
--१ गुणधराचार्य ज्ञानप्रवाद नामक पञ्चम पूर्वकी दसवी वस्तु सम्बन्धी तीसरे कषायप्राभृत या पेज्जदोसपाहुडरूपी महासमुद्र के पारगामी थे ।
१. 'गुणधरधरसेनान्वयगुर्वी. पूर्वापरक्रमोऽस्माभि ।
न ज्ञायते तदन्वयकथकागममुनिजनाभावात् ॥ १५१ ॥
२ ति० प० अ० ४, गा० १४७६ - १४९२ ।
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कसायपाहुड पर उन्होने सोलह हजार पदप्रमाण पेज्जदोसपाहुडको एकसौ अस्सी गाथाओमे निवद्ध किया था।
२३ जयधवलाकारके अनुसार वे गाथाएँ आचार्य-परम्परासे आकर आर्यमा और नागहस्ती आचार्यको प्राप्त हुई थी । किन्तु इन्द्रनन्दिके अनुसार गुणधरने स्वय उनका व्याख्यान नागहस्ती और आर्यमाके लिये किया था)
v४ गुणधराचार्य अगज्ञानियोकी परम्परा समाप्त हो जाने पर वीर निर्वाणके ६८३ वर्षके पश्चात् किसी समय हुए। २५. जयधवलाकारने उन्हें वाचक भी लिखा है रसन स्वामी
अत गुणधराचार्यकी परम्परा तथा कालनिर्णय करनेके लिये उनके उत्तराधिकारी आर्यमा और नागहस्तीकी ओर ध्यान देना आवश्यक है । आर्यमक्षु और नागहस्ती
किन्तु गुणधरकी तरह आर्यमा और नागहस्तीका उल्लेख कपायाभृतके प्रसगसे केवल जयधवलाटीका और श्रुतावतारमे ही मिलता है, उपलब्ध अन्य दिगम्बर जैन साहित्य या शिलालेखो अथवा पट्टावलियोमें नहीं मिलता (जयधवलाकारने गुणवरको तो केवल वाचक लिखा है किन्तु आर्यमक्षु और नागहस्तीके पहले महावाचक और पीछे 'खवण' या 'महाखवण' जैसे आदरसूचक विशेपण लगाये है । इससे इतना ही व्यक्त होता है कि दोनो महान् आचार्य थे । इससे अधिक इनके सम्बन्धमे ज्ञात करनेका अन्य कोई उपाय नही है। हाँ, एक बात अवश्य उल्लेखनीय है। चूर्णिसूत्रकार यतिवृपभने अपने चूणिसूत्रोमे कई विपयोके सम्बन्धमें दो उपदेशोका उल्लेख किया है और उनमें से एक उपदेशको 'पवाइज्जमाण' कहा है । जयधवलाकारने 'पवाइज्जमाण' का अर्थ 'सर्वाचार्यसम्मत और गुरुशिष्यपरम्पराके क्रमसे आया हुआ' किया है । तथा उक्त उपदेशोमें नागहस्तीके उपदेशको पवाइज्जमाण और आर्यमक्षुके उपदेशको अपवाइज्जमाण कहा है । इसके सम्बन्धमें आगे विशेष प्रकाश डाला जायेगा।
कतिपय श्वेताम्वर पट्टावलियोमे आर्यमगु और नागहस्ती नामके आचार्योका निर्देश अवश्य मिलता है । नन्दिसूत्रको स्थविरावलीमें इन दोनो आचार्योका स्म१. 'एतेनाशा घोतिता आत्मीया गुणधरवाचकेन ।' -क० पा०, भा० १ पृ० ३६५ । २. 'महावाचयाणमज्जमखुखवणाणमुवदेसेण
महावाचयाण णागहत्यिसवणाणमुवदेसेण । -ज० ध० प्रेसकापी, पृ० ७५८१ । ३ 'भणग करग रग पभावग णाणदसणगुणाण ।
वदामि अज्जमगु सुयसागरपारग धीर ॥२८॥ वड्ढउ वायगवसो जसवसो अज्जणागहत्थीण । वागरणकरणभगियकम्मपयडीपहाणाण ॥३०॥,' -नन्दि०
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१०. जेनसाहित्यका इतिहास
रण बडे भादरके साग करते हुए आर्यगगुको ज्ञान और दर्शन गुणी का प्रभावक तथा श्रुतरामुद्रका पारगागी लिया है और नागस्तीको कर्मप्रकृतिमं प्रधान बतलाते हुए उनके वाचकवंशकी वृद्धिको शुभकामना की है ।
आवश्यक नि० में ' गणधरव गाथ वानको भी नमस्कार किया है। टीकाकार मलयगिरिने इसकी टीकागे वाचकका अर्थ उपाध्याय, और गणधरका अर्थ आचार्य किया है । किन्तु नन्दिनको टोका उन्होंने नानकका दूगरा ही अर्थ दिया है - 'जो शिष्यको पूर्वगत गून तथा अन्य गोकी याचना करता है उसे वाचक कहते है |'
पाण्डागमके वर्गणागण्डके अन्तर्गत बन्धन - अनुयोगद्वार के १९ वे गूनमे भी वाचक गणि आदि लगियोका निर्देश है | धवलाटीकाकार वीरमैन स्वामीने ग्यारह अंगोके ज्ञाताको गणी और बारह अगोके शाताको बाचक कहा है। उससे यही व्यक्त होता है कि पूर्वोके ज्ञाताको वाचक कहा जाता था और वानको की परम्पराको वाचकवश कहा जाता होगा ।
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श्वेताम्बर मुनि दर्शन विजयजीने लिंगा – 'विक्रमको छठी शताब्दी तक जैन ग्रन्योमें पूर्ववित् होनेका उल्लेख है । 'पूर्वज्ञानका विच्छेद होनेके बाद बाचकवश या वाचकशब्दका कोई पता नही लगता । इससे भी वाचक और पूर्ववित्का सम्बन्ध ठीक मालूम होता है ।'
मुनिजीके लेखानुसार वाचकवण माधुरी वाचनाका सूनधार अर्थात् आगमसंग्राहक सम्प्रदाय था । इसकी पट्टावली नन्दिसूत्रमें है । उसके अनुसार आर्य नागहस्ति से भार्य नागार्जुन वाचक तक वाचकवश होना सम्भव है ।
उक्त दिगम्वर तथा श्वेताम्बर उल्लेसोसे यह प्रकट है कि पूर्वविद्को वाचक कहते थे । किन्तु वाचकवशकी स्थिति स्पष्ट नही होती । 'नागहस्तीके वाचकवश' से तो यही ज्ञात होता है कि नागहस्ती वाचकवशके सस्थापक थे । किन्तु आगे नन्दी सूत्रमे ' रेवती नक्षत्रके वाचकवशकी वृद्धिकी कामना की गई है । ओर टीका
१
१ 'एक्कारस वि गणहरे पवायण पवयणस्य वदामि ।
सव्व गणहरवस वायगवस पवयण
च ॥८२॥ '
--आ० नि०
२. ' पूर्वंगत सूत्रमन्यच्च विनेयान् वाचयन्तीति वाचका तेपा वश -क्रमभाविपुरुपपर्व प्रवाह ।' --न० सू० टी०, गा० ३० ।
३. पट्ख०, पु० १४, पृ० २२ ।
४ अनेकान्त, वर्ष १, पृ० ५७७ ।
५
'जच्च जणधाउसमप्पहाणमुद्दिय कुवलयनिहाण |
चढउ वायगवसो रेवनक्खत्तनामार्ण ॥३१॥
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कसायपाहुड • ११ कार मलयगिरिने उन्हें नागहस्तीका शिष्य वतलाया है।
इसके सिवाय प्रज्ञापनासूत्रके प्रारम्भमे दो गाथाओके द्वारा उसके कर्ता श्यामार्यको नमस्कार करते हुए उन्हें वाचकवरवशका तेईसवाँ धीर पुरुप बतलाया है। चूकि ग्रन्थकी आदिमें ग्रन्थकार अपनेको नमस्कार नहीं करता, इसलिए टीकाकार मलयगिरिने उन दो गाथाओको अन्यकर्तृक कहा है, किन्तु व्याख्यान दोनो गाथाओका किया है। उन्होने लिखा है कि सुधर्मा स्वामीसे लेकर भगवान आर्य श्याम तेवीसवे थे। इसका मतलब यह होता है कि परम्परा सुधर्मासे आरम्भ हुई । (किन्तु सुधर्मासे श्यामार्य तक स्थविरोकी सख्या १२ ही होती है। अत: भगवान् महावीर और उनके शेप दस गणधरोको भी उसमें सम्मिलित करके वीरसे श्यामार्य तककी तेईस' सख्या पूरी की गई है और इस तरहसे वाचकवरोका वश भगवान् महावीरसे प्रारम्भ हुमा माना जाता है। किन्तु जिस श्यामार्यको प्रज्ञापनाका कर्ता और वाचकवशका तेवीसवाँ पुरुप कहा है उनकी स्थिति निर्विवाद नही है । मेरुतुगकी विचारश्रेणिमें उस स्थान पर कालकाचार्यका नाम है । और व्याख्यामें लिखा है कि यह निगोदव्याख्याता कालकाचार्य ही श्यामार्य है या अन्य है, यह विचारणीय है । तपागच्छकी पट्टावलीमें उन्हें तत्त्वार्थसूत्रकार स्वातिका शिष्य बतलाया है। और वीर निर्वाणके ३७६वे वर्पमें उनका स्वर्गवास बतलाया है। पट्टावलीसारोद्धारमें भी यही काल दिया है । (एक टिप्पणीमें लिखा है कि चार कालकाचार्य हुए, जिनमें से प्रथम इन्द्रके प्रतिवोधक निगोदका व्याख्यान करनेवाले श्यामाचार्य थे, जो स्वातिके शिष्य थे और वी० नि० स० ३२० से. ३३५ में हुए थे । नन्दिसूत्रकी स्थविरावलीमें भी उन्हे स्वातिका शिष्य बतलाया है।)
किन्तु प्रज्ञापनामें जो उन्हें वाचकवरवशका तेवीसवाँ पुरुप बतलाया है उससे १ 'वायगवरवसाउ तेवीसइमेण धीरपुरिसेण ।
दुद्धरधरेण मुणिणा पुव्वसुयसमिद्धबुद्धीण ॥३॥ सुयसागराविएऊण जेण सुयरयणमुत्तम दिण्ण। सीसगणस्स भगवओ तस्स णमो अज्जसामस्स ॥४॥ टी-वाचका पूर्वविदो वाचकाश्च ते वराश्च वाचकवरा वाचकप्रधानास्तेपा वश. प्रवाह । सुधर्मस्वामिन आरभ्य भगवानार्यश्यामस्त्रयोविंशतितम एव ।।
-प्रज्ञा • 'अय च प्रज्ञापनोपाङ्गकृतसिद्वान्ते श्रीवीरादन्वेकादशगणभृद्धि सह त्रयोविंशतितम पुरुप.
श्यामार्य इति व्याख्यात ।' ततोऽसौ श्यामार्योऽन्यो वेति चिन्त्यम् ।'-वि००। ३ पट्टा० स०, पृ० ४६ । ४ पट्टा० स०, पृ० १५० । ५ 'चत्वार कालिकाचार्या । तद्यथा-प्रथम शक्रप्रतिबोधक. प्रज्ञापनासूत्रकृत् श्रीस्वाति
सूरिशिष्य श्यामाचार्य वी० स० ३२० त. ३३५'-पट्टा० स०, पृ० १९८ ।
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१२ : जैनसाहित्यका इतिहारा केवल यही व्यक्त होता है कि वे पूर्वविदोकी परम्परामेमे थे। किन्तु उगगे वाचकवशकी स्थितिपर कोई प्रकाश नही पडता।
यह हम ऊपर लिस आये है कि आवश्यकनियुक्तिमे गणधरबंगके गाथ वाचकवशको भी नमस्कार किया है। विगेपावश्यक मायके रचयिता जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने अपने भाग्यमे उसका विवेचन करते हुए लिया है कि 'यदि गणधरी
और वाचकोका वश न होता तो जिनवर भगवान् और गणधरोसे उत्पन्न हुए श्रुतका ग्रहण, धारण और दान आदि कौन करता? जैगे गणाधिप (गीतमादि)
और गणधर (जम्बूरवामी आदि शेप आचार्य) द्वादमागके वक्ता होनेके कारण शिष्योके हितकारी है, वैगे ही उस सूत्रके पाठक उपाध्याय गी शिष्योके हितकारी है । अतः उन उपाध्यायोके वशको भी नमस्कार करते है ।'
इस भाप्यके अर्थसे स्पष्ट है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणने वाचकवगमे द्वादशागके पाठकोकी परम्पराका ही गहण किया है। उन्होने वाचकानामके किसी विशेप वशकी सूचना नहीं की।
अत मूल द्वादशागके वेत्ता वाचक कहे जाते थे और उनको परम्पराको वाचकवश कहते थे। किन्तु नन्दिसूत्रम जो नागहस्तीके वाचकवशका उल्लेख है वह उक्त सामान्य अर्थमे प्रयुक्त न होकर विशेष अर्थम प्रयुक्त हुआ है।
(आर्यमंगु और नागहस्तीमेंसे आर्यमगुकी गणना दशपूवियोमें की जाती है, क्योकि वे अन्तिम दशपूर्वी वज्रस्वामीसे पहले हुए माने जाते है । किन्तु नागहस्ती वज्रस्वामीके पश्चात् हुए थे, अत वे दशपूर्वी नही थे । वनस्वामीके उत्तराधिकारी आर्यरक्षित थे । वे सम्पूर्ण नौ पूर्व और दशम पूर्वके २४ यविक मात्रके पाठी थे। उनके शिष्य दुर्वलिका पुष्पमित्र नी पूर्व पढकर भी नवें पूर्वको भूल गये।)
प्रभावकचरितमें आर्यनन्दिलको आर्यरक्षितके वशका तथा साढे नीपूर्वी वतलाया है। किन्तु नन्दीसूत्रकी टीकामें मलयगिरिने आर्यनन्दिलको आर्यमगुका शिष्य वतलाया है और आर्य नन्दिलके शिष्य नागहस्ती थे। नन्दिसूत्रमे आर्यमगुको श्रुतसागरका पारगामी और आर्यनन्दिलको दर्शन, ज्ञान एव तपमे नित्य उद्यत तथा नागहस्तीको कर्मप्रकृतिमें प्रधान बतलाया है । टीकाकार मलयगिरिने नदिसू० टीकामें 'कर्मप्रकृति प्रसिद्ध है' मात्र इतना ही लिखा है। किन्तु कर्मप्रकृतिकी टीकामें उन्होने दूसरे अनायणी पूर्वके पचम वस्तु अधिकारके अन्तर्गत चतुर्थ प्राभृतका १. 'जिणगणहरुग्गयस्म वि सुयस्स को गहणधरणतणाइ
कुणमाणो यह गणहरवायगवसो न होज्जाहि ॥१०६६।। सीसहिया वत्तारो गणाहिवा गणहरा तपत्थस्स
सुत्तस्सोवज्झाया वसो तेसिं परम्परओ ॥१०६७॥'-विशे० भा० । २ विशे० भा०, टी, गा० २५११ । ३ 'आर्यनन्दिल प्रवन्ध'-प्र० च०।
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कसायपाहुड . १३ नाग कर्मप्रकृति बतलाया है । यह वही कर्मप्रकृतिप्राभृत है जिसके अन्तिम ज्ञाता दिगम्वर परम्परामे धरसेनाचार्य थे और जिसे उनसे पढकर भूतवलि और पुष्प. दन्तने पट्खण्डागमकी रचना की थी। अत नागहस्ती पूर्वपदारावेदी थे। उनके समयमे पूर्वोके ज्ञानना बहुत कुछ लोप हो गया था। सम्भवत इसीसे उन्होने वाचकोकी परम्परा (वग) स्थापित करके उनके बचे-खुचे अगोको सुरक्षित बनाये ररानेका प्रयत्न किया था।
श्वेताम्बर परम्परामे पूर्वोके ज्ञानकी परम्पराका चलन वीर नि० के एक हजार वर्ष पर्यन्त माना गया है । माथुरी वाचनाके समयमें वलभीमे आगमवाचना करनेवाले नागार्जुनको नन्दिसूत्रमें वाचक तथा उनके गुरु हिमवंतको पूर्वधर लिखा है। इससे प्रकट होता है कि कम-से-कम माथुरी वाचना पर्यन्त पूर्वविद् थे । (किन्तु माथुरी और उसके समकालीन वालभी वाचनाओौ यद्यपि ग्यारह अगोकी वाचना तो हुई, किन्तु पूर्वोके किसी भी अशकी वाचना नही हुई । यदि हुई होती तो माथुरी वाचनाके डेढसौ वर्ष वाद वलभीमें हुई अन्तिम वाचनामें ग्यारह अगोकी तरह पूर्वोके भी कुछ अश अवश्य लिपिवद्ध किए जाते, किन्तु ऐसा नही किया गया । अत स्पष्ट है कि श्वेतावर परम्परामें पूर्वोका ज्ञान नागहस्तीसे पहले ही विलुप्त हो चुका था । वह भी घटते-घटते देवद्धिगणिके कालमें केवल विषयसूची आदिके रुपमें ही अवशिष्ट रहा, जिसका प्रमाण नन्दिसूत्र तथा समवायागसूत्रमें पायी जानेवाली दृष्टिवादविपयक सूची है) अस्तु, अब हमे देखना है कि नन्दिसूत्रको स्थविरावलीमें आगत आर्यमगु और नागहस्ती कब हुए थे। ___ नन्दिसूत्रमें आर्यमगुके पश्चात् आर्य नन्दिलको स्मरण किया है और उनके पश्चात् नागहस्तीको । नन्दिसूत्रकी चर्णि और हरिभद्रकी नन्दिवृत्तिमें भी यही क्रम पाया जाता है। तथा दोनोमें आर्यमगुका शिष्य आर्य नन्दिलको और आर्य नन्दिलका गिष्य नागहस्तीको बतलाया है । इससे नागहस्ती आर्यमगुके प्रशिष्य अवगत होते है। किन्तु मुनि कल्याणविजयजीका कहना है कि आर्यमगु और आर्य नन्दिलके वीचमे चार आचार्य और हो गये है और नन्दिसूत्रमें उनसे सम्बद्ध दो गाथाएँ छूट गई है जो अन्यत्र मिलती है । अपने इस कथनके समर्थनमें उनका कहना है कि आर्य मगुका युगप्रधानत्व वीर नि० ४५१ से ४७० तक था । परन्तु आर्य नन्दिल आर्य रक्षितके पश्चात् हुए थे और आर्य रक्षितका स्वर्गवास वी० नि० स० ५९७ मे हुआ था। इसलिए आर्य नन्दिल वी० नि० स० ५९७ के पश्चात् हुए थे। इस तरह मुनिजीकी कालगणनाके अनुसार आर्य मगु और आर्य नन्दिलके मध्यमें १२७ वर्षका अन्तराल है । और उसमें आर्य नन्दिलका समय
और जोड देने पर आर्य मगु और नागहस्तीके वीचमें १५० वर्पके लगभग अंतर वैठता है । अत मुनि कल्याणविजयजीके अनुसार आर्य मगु और नागहस्ती सम
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१४ जैनसाहित्यका इतिहास कालीन नही हो सकते । किन्तु जयधवलाकार चूणिसूत्रोके पर्ता आचार्य यतिवृपभको आर्य मंक्षुका शिष्य और नागहस्तीका अन्तेवासी बतलाते है । यद्यपि गाधरणतया शिष्य और अन्तेवासीका एका ही अर्थ माना जाता है तथापि च कि अन्तेवासीका शब्दार्थ 'निकटमे रहनेवाला' भी होता है और उगलिये यतिवपनको नागहस्तीका निकटवर्ती साक्षात् शिष्य गोर भार्थमक्षुका परम्परा शिष्य माना जा सकता है। किन्तु जयधवलाकारका कहना है कि यतिवृपभने उन दोनोके पादमूलमें गुणधर कथित गाथाओके अर्थका श्रवण निाया। अत. दोनो समकालीन होने चाहिये। __ जयधवलाकारके अनुसार गुणधर आचार्य अगज्ञानियोकी परम्परा समाप्त होनेपर वीर नि० सम्वत् ६८३ के बादमे हुए। और श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार आर्य मगुका युगप्रधानत्व वीर नि० सम्वत् ४७० में समाप्त हुआ । अत गुणधरका समय मगुसे दो सौ वर्पोसे भी अधिक उत्तरकालीन होनेमे गुणधरकी गाथाएँ आर्य मगुको प्राप्त नही हो सकती । रहे नागहस्ती । सो यदि मुनि कल्याणविजयजीके मतानुसार आर्य मगु और नागहस्तीके मध्यमे १५० वर्पोका अन्तर मान लिया जाता है तो वीर नि० स० ६२० में उन्हें पट्टासीन होना चाहिए । श्वेताम्बर परम्परामें उनका युगप्रधातकाल ६१ वर्प माना जाता है । अत उनका समय वी० नि० ६८९ तक जाता है । यदि गुणवराचार्यको वीर नि०स० ६८३ के लगभगका सानकर सीधे गुणधरसे ही नागहस्तीको कसायपाहुडकी प्राप्ति हुई मान ली जाये, जैसा कि इन्द्रनन्दिका मत है, तो गुणधर और नागहस्तीका पीर्वापर्य बैठ जाता है, किन्तु एक दूसरी वाधा उपस्थित होती है
जयधवलाकार और इन्द्रनन्दि दोनोका कहना है कि आर्यमा और नागहस्तीके पास कसायपाहुडके गाथासूत्रोका अध्ययन करके यतिवृपभ आचार्यने उनपर चूर्णिसूत्र रचे । वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्तिके आधारपर यतिवृपभका समय वी० नि० स० १०००के आस-पास होता है। अत उक्त प्रकारसे गुणधर और नागहस्तीका पौर्वापर्य वैठ जानेपर भी नागहस्ती और यतिवृपभका गुरु-शिष्यभाव नही बनता, नागहस्तीके दूसरे साथी आर्य मगुको तो पहले ही छोडा जा चुका है।
यहां यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि स्वय यतिवृपभने आर्य मंक्षु या नागहस्तीका कोई निर्देश नहीं किया। उनके चूणिसूत्रोमे किसी आचार्य का सकेत तक नही है । त्रिलोकप्रज्ञप्तिके अन्तमें एक गाथामे गुणधरका नाम होनेकी सम्भावना अवश्य है। अपने चूर्णिसूत्रोमे वे पवाइज्जमाण और अपवाइज्जमाण १. 'जो अज्जमखुसीसो अतेवासी वि णागहत्यिस्स । ___ सो वित्तिसत्तकत्ता जइवसहो मे वर देऊ ॥८॥'
-क० पा०, भा० १०, १४ ।
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कसायपाहुड · १५ उपदेशका निर्देश अवश्य करते है, किन्तु किसका उपदेश पवाइज्जमाण और किसका उपदेश अपवाइज्जमाण है इसकी कोई चर्चा नही करते। यह चर्चा करते है जयधवलाकार, जिन्हें इस विपयमें अवश्य ही अपने पूर्वके अन्य टीकाकारोका उपदेश प्राप्त रहा होगा । ऐसी अवस्थामें आर्यमक्षु, नागहस्ती तथा यतिवृपभके गुरुशिष्यभावको सहसा काल्पनिक और भ्रान्त भी नही कहा जा सकता ।
ऐसी स्थिति में यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि क्या दिगम्बर परम्परामें आर्यमक्षु और नागहस्ती नामके श्वेताम्बर परम्पराके उक्त नामधारी दोनो आचायोंसे भिन्न कोई दूसरे ही भाचार्य हुए है जो महावाचक और क्षमाश्रमण जैसी, उपाधियोसे भूपित थे ? किन्तु इस विपयमें कहीसे प्रकाश प्राप्त नही होता, क्योकि किसी दिगम्बर पट्टावलीमे इन आचार्योंका नाम नही मिलता ।
इसके सिवाय दोनोकी तुलना करनेसे कतिपय बातोमें समानता भी पायी जाती है । श्वेताम्वर परम्पराके आर्गमगुकी तरह दिगम्बर परम्पराके आर्यमक्षु भी नागहस्ती से जेठे थे, क्योकि जयधवलाकारने सर्वत्र नागहस्ती से पहले आर्य मक्षुका नाम निर्देश किया है । दूसरे, मगलाचरणमें तो आर्य मक्षुको ही विशेष महत्त्व देते हुए लिखा है—'जिन आर्यमक्षुने गुणधर आचार्यके मुखसे प्रकट हुई गाथाओके समस्त अर्थका अवधारण किया, नागहस्ती सहित वे आर्यमक्षु हमें वर प्रदान करें ।' यहाँ नागहस्तीका केवल नाम निर्देश किया है और आर्यमक्षुको गुणधरकृत गाथाओके समस्त अर्थका अवधारक कहा है । किन्तु आर्यमक्षुको ज्येष्ठता देनेपर भी जयधवलाकारने उनके उपदेशको 'अपवाइज्जमाण' और नागहस्तीके उपदेशको 'पवाइज्जमाण' कहा है । जो उपदेश सर्वाचार्य' सम्मत होता है और चिरकालसे अविच्छिन्न सम्प्रदायके क्रमसे चला आता हुआ शिष्यपरम्पराके द्वारा लाया जाता है उसे पवाइज्जमाण कहते है । किन्तु जयधवलाकारने आर्यमक्षुके सभी उपदेशोको 'अपवाइज्जमाण' नही कहा है । ऐसे भी प्रसग है जहाँ दोनोके उपदेशोको 'पवाइज्जमाण' कहा है । परन्तु ऐसे प्रसग वे ही है जिनमें आर्यमक्षु और नागहस्तीमें मतैक्य है । इससे यह प्रकट होता है कि नागहस्तीके उपदेश ही पवाइज्जमाण माने जाते थे - आर्यमक्षुके नही ।
उधर श्वेताम्बर साहित्यमें आर्य' मगुकी एक कथा पाई जाती है, जिसमें लिखा है कि आर्य मग मथुरामें जाकर भ्रष्ट हो गये थे और मरकर यक्ष हुए थे । शायद इसीसे उनके उपदेशोका मूल्य नही रहा था । इत्यादि बातोसे दोनो परम्पराओके उक्त समान नामवाले दोनो आचार्य एक ही प्रतीत होते है ।
इस सम्बन्धमें एक बात और भी उल्लेखनीय है । नन्दिसूत्र के अनुसार नागविशिष्ट ज्ञाता थे और जयघवलाके-. नागहस्ती से कपायप्राभृतका
हस्ती कर्मप्रकृति ( महाकर्मप्रकृतिप्राभृत) के अनुसार कपायप्राभृतके विशिष्ट ज्ञाता थे ।
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१६ . जैनसाहित्यका इतिहास करके यतिवृपभने उसके ऊपर चूणिमूनोंकी रचना की थी। उन चूणिसूत्रोम यतिवृपभने 'एसा कम्मपयडीसु' के द्वारा कर्मप्रकृतिका निर्देश किया है । इरामे यह (प्रकट होता है कि यतिवृपभ महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके भी ज्ञाता थे। सम्भवतया उसका भी अध्ययन उन्होने नागहस्तीसे किया होगा। इससे भी नन्दिसूत्रमें निर्दिष्ट नागहस्ती और जयधवलामे निर्दिष्ट नागहस्ती एक प्रतीत होते हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि चूंकि कपायप्राभृत और कर्मप्रकृति दोनो कर्मसिद्धान्तसे सम्बद्ध थे, इसलिए दोनोके कुछ प्रतिपाद्य विपयोमे गमानता थी । दिगम्बर परम्परामें तो 'कर्मप्रकृति' नामक कोई गन्य अभीतक उपलब्ध नहीं है किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें कर्मप्रकृति नामक एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है जो मुक्तावाई ज्ञानमन्दिर डभोई (गुजरात) से प्रकाशित हुआ है। उसके कर्ताका नाम शिवशर्मसूरि कहा जाता है । किन्तु अभी वह निर्विवाद नही है । कर्मप्रकृतिको उपान्त्य गाथामें कहा है'--'मैंने अल्पबुद्धि होते हुए भी जैसा सुना वैसा कर्मप्रकृतिप्रामृतमे इस ग्रन्यका उद्धार किया । दृष्टिवादके ज्ञाता पुरुप स्वलिताशोको सुधारकर उनका कथन करे।' इस ग्रन्थपर एक चूणि है । उसके आरम्भमें लिखा है कि-'विच्छिन्न कर्मप्रकृति महाग्रन्थके अर्थका परिज्ञान करानेके लिए आचार्य ने उसीका मार्थक नामधारी कर्मप्रकृतिसगहणी प्रकरण प्रारम्भ किया है ।' अत यह ग्रन्थ प्राचीन होना चाहिए।
इसके सक्रमकरण नामक अधिकारमे कपायप्राभृतके बन्धक महाधिकारके अन्र्तगत सक्रम-अनुयोगद्वारकी तेरह गाथाएं अनुक्रमसे पाई जाती है । तथा सर्वोपशमनानामक प्रकरणमे कपायप्राभृतके दर्शनमोहोपशमना नामक अधिकारकी चार गाथाएँ पाई जाती है । दोनो ग्रन्योमे आगत उक्त गाथाओके कुछ पदो और शब्दोमें व्यतिक्रम तथा अन्तर भी पाया जाता है। ____ यहाँ इस वातके निर्देशसे केवल इतना ही अभिप्राय व्यक्त करना है कि कपायप्राभृतके ज्ञाता कर्मप्रकृतिके और कर्मप्रकृतिके ज्ञाता कपायप्राभृतके अशत या पूर्णत ज्ञाता होते थे । अत नागहस्ती दोनोके ज्ञाता थे और उन्हीकी तरह यतिवृपभ भी दोनोके ज्ञाता थे । किन्तु कपायप्राभृतके वह विशिष्ट ज्ञाता थे।
इसके सिवाय आर्य मा और नागहस्तीको महावाचक कहा गया है । उधर नन्दीसूत्रमे नागहस्तीके वाचकवशका निर्देश है
इन सब बातोके प्रकाशमें दोनो परम्पराओके उक्त दोनो आचार्य हमे तो अगल-अलग व्यक्ति प्रतीत नहीं होते। किन्तु ऐसी स्थितिमें यह प्रश्न पैदा होना स्वाभाविक है कि वे किस परम्पराके थे-दिगम्बर थे या श्वेताम्बर ? क्योकि यो १ 'इय कम्पप्पगडीओ जहा सुर्य नीयमप्पमइणावि ।
सोहियणा भोगकय कहतु वरदिठिीवायन्नु ।"
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कमायपाहुड . १७ तो अन्तिम केवली जम्बूस्वामीके निर्वाणके साथ ही दोनों परम्पराओके आचार्योकी नामावली भित्र हो जाती है । किन्तु श्रतकेवली भद्रवाहु उसके मध्यमे एक ऐसे आलोकस्तम्भ है, जिनके प्रकाशकी किरणोको दोनो अपनाये हुए है । उनके पश्चात् ही मधभेदका सूत्रपात होता है, जो आगे जाकर विक्रम सम्वत्की द्वितीय शताब्दीके पूर्विमे स्पष्ट रूप ले लेता है। अत श्रुतकेवली भद्रवाहुके पश्चात् अन्य कोई आचार्य ऐसा नहीं हुआ, जिसे दोनो परम्पराओने मान्य किया हो। इससे उक्त प्रश्न पैदा होना स्वाभाविक है। उसके ममाधानके लिए हमे दोनो परम्पगओमे उक्त दोनो आचार्योकी स्थितिका विश्लेपण करना होगा।
गुणधर और धरमेनकी गुरुपरम्परा भिन्न थी । गुणधररचित कपायप्राभृतको आर्यमा और नागहम्तीके द्वारा जानकर यतिवृपभने उमपर चूणिसूत्रोकी रचना की और धरसेनसे महाकर्मप्रकृतिप्राभृतको पढकर भूतवलि और पुष्पदतने उसके आधारपर पट्खण्डागम सिद्धान्तकी रचना की। इन दोनो ग्रन्थोके कतिपय मन्तव्योमे भेद भी पाया जाता है-जयधवला और धवलाटीकामे उनकी चर्चा है । उनका निर्देश करते हुए टीकाकारने दोनोको भिन्न' 'आचार्योका कथन' कहा है। इससे भी दोनो सिद्धान्तग्रन्थोकी परम्पराके भेदका समर्थन होता है। किन्तु इस गुरुपरम्पराभेदमें ऐसी कोई बात नही ज्ञात होती है जिसमे श्वेताम्बर-दिगम्बरपरम्परा. रूप भेदका ममर्थन होता हो या सकेत मिलता हो ।
उबर श्वेताम्वर परम्परामें न तो गुणधराचार्यका नामोनिया मिलता है और न यतिवृपभका । हाँ, सित्तरीचूणिमे 'कपायप्राभृत'का निर्देश अवश्य पाया जाता है। इधर दिगम्बर परम्परामें गुणधर, आर्यमा और नागहस्तीका नाम कपायप्राभृतके निमित्तसे केवल जयधवला और श्रुतावतारमे ही स्पष्टरूपसे आता है । किमी गुर्वावली या पट्टावलीमै इनका नाम हमारे देग्वनेमें नही आया।
श्वेताम्बर परम्परामे भी आर्यमगु और नागहस्तीका विवरण एक-एक गाथाके द्वारा केवल नन्दिसूत्रकी स्थविरावलीमें ही पाया जाता है। इनके किसी मतका या किसी कृतिका कोई उल्लेख श्वेताम्बर साहित्यमे नही मिलता। जब कि जयधवलाके देखनेसे यह प्रकट होता है कि टीकाकार वीरसेन स्वामीके सामने कोई ऐसी रचना अवश्य थी, जिसमे इन दोनो आचार्योके मतोका स्पष्ट निर्देश था, क्योकि यतिवृपभने अपने चूर्णिसूत्रोमे ‘पवाइज्जमाण' उपदेशका निर्देश अवश्य किया है किन्तु किसका उपदेश ‘पावाइज्जमाण' और किमका उपदेश 'अपवाइज्जाण' है, यह निर्देश नहीं किया। इसका स्पष्ट विवेचन किया है टीकाकारते, १ क०, पा०, मा० १, पृ० ३८६ । पटसं०, पु० १,५० २१७ । २ 'तच कसायपाहुडादिसु विहडत्तित्ति काउ परिसेसिय'-मि० च०, पृ० १० ।
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१८ जनमाहित्यका इतिहाग
गत उनके गागने का उन प्रकार की रमना मान्य ना नागि। इस माह मार्गमा भीर नागपतीको हम दोनो गयो ग ग पाfr उगपर में यह निर्णय करना शगग नही जानी जानाय अगा, परागगी। frन्तु ानना स्पष्ट है कि दोना दिवा गाता गलानां प्रमग नाता थे और गे महावाले जाने । [EET informan दिगम्बर और श्वेताम्बग्गीय गोगो
: Iriशार बताओगी एग ता पगग भी नी. मग, गगन कामिकोका गलान्निागे ना वियोम
म
र गा . लोव नगे ही यह नाा प्राट नाम गिर नही पाया गता, किन्तु मामिगत गिगी गग प्रा. गागाता। आर्गमग बोर नागरती माया गिा गा माना। यारी चान यह भी है कि ये दोनो नाना गे गमगे , मानिनाम्बर मैदा प्रावत्य नही हुआ गाजत मिग-कग मिसान्नी पठन-पाठा आगमय आम्नायगारा प्रग्न नहीं गा । आगे शान्तिा शीरी प्रान. द्वारा उन शिपयार विगेर पाला जायगा ।
इग तरह दोनो परमगा जात आनागमभिमान गन्न प्रनीत नही होग। फिर भी दोनोकी नगगालीगना प्रस्न मनाही है। उनके गमानांल्पि हमे मर्वप्रयग नन्दिनी म्यविगालीगा ही पनिण ना होगा।
वेताम्बर आम्नायकी दो स्थविगलिगा प्रगानोर प्रानीन मानी जाती है । उनमे एक बाल्पगमे पाई जाती है और दूसरी नन्दिगूगमे । भद्रयाह अतयेवलीको गम्भाई सभूतिविजय के शिष्य स्यूरभद्गे दोनो ग्यविगर्वाग्गा नलती है । गलभद्रसे पूर्व के स्थविगेमें कोई अन्तर नहीं है।
स्थूलभद्रके दो गिप्य थे-गार्य महागिरि और मुहस्ती । आर्य महागिरिकी स्थविरावली नन्दिसूत्रमे है और आर्य सुहस्तीकी रिपसूत्रमे । किन्तु दोनो गुर्वावलियां देवद्धिगणिसे सम्बद्ध होनेमे देवद्धिगणिकी कही जाती है । मुनि दर्गनविजयजी क्ल्पसूत्रस्थविरावलीको गणधरवशीय और नन्दिमूत्रपट्टावलीको वाचकवीय बतलाते है । कल्प० स्थ० को क्यो गणवरवशीय माना गया है, यह हम नहीं समझ सके, क्योकि दोनो ही स्थविरावलियां सुधर्मा गणवग्मे आरम्भ हुई है। स्थूलभद्रके दो शिष्योसे ही उनमें भेद पडता है। तथा आर्य महागिरिकी गिण्यपरम्परामें ही आर्यमगु और नागहस्तीका नाम आया है। आर्य महागिरिकी नन्दिसूत्रोक्त शिष्यपरम्परा इस प्रकार है-वलिस्सह, स्वाति, श्यामार्य, शाण्डिल्य, ममुद्र, मगु, नन्दिल, नागहस्ति आदि । और आर्य सुहप्तिकी शिष्यपरम्परामें उनके
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कमायवाड १९ दो शिष्य हुए मुस्थित और सुप्रबुद्ध । उन दोनोके इन्द्रदिन्न नामका शिष्य हुआ । उमके आर्यदिन्न, उसके सिंहगिरि, उसके वज्रसेन आदि । नन्दिमूत्र स्थ० मे मगु और नन्दिलके बीच मे चार नाम ओर भी पाठान्तररूपमें मिलते है - वे है --आर्य धर्म, भद्रगुप्त, वज्र और आर्य रक्षित । वज्रका नाम कल्पसूनको स्थविरावलीमं भी आया है | ये वज्रस्वामी ' अन्तिमदसपूर्वी थे । उन्होने सिगिरिमे दीक्षा ली श्री और भद्रगुप्त से पूर्वाका अध्ययन किया था । इमीगे शायद उन्हें दोनो ग्यविरावलियोमे स्थान दिया गया है । किन्तु कल्पसूत्रकी म्यविरावलीके अनुसार आर्य सुहम्ति और वज्रस्वामी के बीच मे चार नाम है । और नन्दिसूत्रकी स्थविरावलीमें यदि उक्त चार नामोको गम्मिलित किया जाता है तो आर्य महागिरि और वज्रस्वामी वीचमे आठ नाम हो जाते हैं । अर्थात् वज्रस्वामी आर्य सुहस्तीकी पाचवी पीढी में थे और आर्य महागिरिको आठवी पीढीमे थे । उधर एक 'दु पाकाल श्री श्रमणसघन्तोन" नामक पट्टावलीमे आर्य सुहस्ति और वज्रस्वामी के बीचमे होनेवाले सात युगप्रधान के नाम दिये है और तपागच्छकी गट्टावलीमें भी उनका निर्देश किया है । वे मात युगप्रधान है - गुणसुन्दर, कालिकाचार्य, म्कन्दिलाचार्य रेवतीमित्र, धर्मसूरि, भद्रगुप्त और श्रीगुप्त । ये सातो नाम न तो कल्पसूत्रकी स्थविरावलीमे है और न नन्दिसूत्रको स्थविगवलीमे । हाँ, पाठान्तररूपमे जो चार नाम नन्दिसूत्रकी म्थविगवली में सम्मिलित किये जाते है उनमेसे दो नाम 'धर्मसूरि और भद्रगुप्त' इनमे है ।
मेगने अपनी विचारश्रेणीमे लिखा है - 'स्थूलभद्रके दो शिष्य थे-आर्य महागिरि और आर्य सुहम्ती । उनमेंसे आर्य महागिरिकी शाखा मुख्य है | स्थवि - गवलीमे वह इम प्रकार कही है-मूरि बलिम्सह, स्वाति, श्यामार्य, गाडिल्य, ममुद्र, मगु, नदिल, नागहत्थी, रेवती, सिंह, स्कन्दिल, हिमवन्त, नागार्जुन, गोविन्द भूतदिन्न, लोहित्य, दूष्यगणि ओर देवद्धि । श्रीवीरस्वामीके पञ्चात् सत्ताईसवें युगप्रधान देवद्विगणिने सिद्धान्तोका व्यवकछेद न हो, इसलिये उन्हे पुस्तकारूढ किया दूसरी गाया, जो कल्पसूत्रमे कही है, इस प्रकार है--'आर्य सुहस्ती, सुस्थित, इन्द्र दिन्न, आर्यदिन्न, सिंहगिरि, वज्रस्वामी, वज्रसेन । इन दोनो शाखाओमे आर्य मुहस्तीके पञ्चात् गुणसुन्दरका और श्यामार्य के पश्चात् स्कन्दिलाचार्यका नाम नही
१ देसो, प्रभा० च० में नजम्वामीका चरित ।
२ पट्टा० म०, पृ० १६ ।
3. 'श्री आर्यमुहम्ती श्रीवजम्बामिनोरन्तराल श्रीगुणसुन्दरस्रि, श्रीकालिकाचार्य, श्रीकाद्रिलाचार्य, श्री रेवतीमित्रसरि, श्री वर्ममरि, श्रीभद्रगुप्नाचार्य श्रीगुप्नाचायश्च क्रमेण युगप्रधानमनक वभूव ।' - पट्टा० म०, पृ० ४७
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२० · जनमाहित्यका इतिहाग पाया जाता, तथापि गम्प्रदागम देगा गया इगलिंग गहा बैगा ली लिग दिया' । ___ अत श्वेताम्बर पट्टावलियां भी गर्वाग्यत नही ।। १० बंधने (201o, जि० १९, १० २९३ आदि) नन्दिमूलकी ग्गविगालीगो विषयमे रिगा है कि उगमे बी अनिश्चितता है । भारवर्ग गागा १-०के गिग लिया क्षेपक होनरो वृत्तिमं उनका मन नहीं किया । गागा ३३-३ / टिप्पणी है कि इन दोनो गाथाओ अयं आवस्यापियो आधागे लगा है, अरणिगे भी नही है । गाया ४१-४२ प्रक्षिप्त है । गामिन्दानागी पियम उगमा T i 'मिपक्रम मा अभाव होने वृत्ति में नही Tr-मारण्याटी मिा है।' ___टा नारने जो गागनम्बर दिया गायानम्बर गा गागने उगम्गित म्थविगली मेट नही गाता । वह लिने गागानम्बर ३. गिगमें आर्य नन्दिलाा निर्देश है, नोहागपद है। मयगिन्टिीमायाले नन्दिमाम नग पट्टावलीगमनयम प्रमाणित नन्गूिगपट्टापलीम आयं नन्दिरगाली गागा नम्बर २. है । उस तरह नारका अन्तर है। गदि दो प्रसित गावाओ भी निगरिन कर लिया जाग नो भी दोका अन्नर रहता ही है। अत नन्दिमानी पट्टावली भी सुव्यवस्थित नही है और इगलिये उगो आधारपर आर्गमग और नागहग्नीके मध्यम जो एक गताब्दिगे भी अधिक का अन्नगल निारता, विगनीय नही माना जा गस्ता।
गुणधर और धरमेनका पौर्वापर्य आर्यमक्ष और नागहस्तिकी प्रामगिक चर्ना अनन्तर हम पुन. आ०गुणधरती ओर आते है। आचार्य गुणधरके रामयपर प्रकाश डालने के लिए धग्मेनके गमयपर संक्षेपमें चर्चा करना अनुपयुक्त न होगा। ___ धवलाकाग्ने वीर-निर्वाणमे ६८३ वर्ष पश्नात् जब अगपरम्परामा विच्छेद हो गया, उनका भी होना बतलाया है। किन्तु जैसे गुणधर और यतिवृपभका नाम किमी दि० जैन पट्टावलीमे नही पाया गया, वैनी वात धरमेन और उनके गिष्य भूतवलि-पुष्पदन्तके विपयम नही कही जा सकती। नन्दीसपकी प्राकृतपट्टावलीमे इन गुरु-शिष्योका नाम पाया जाता है । यह पट्टावली कई दृष्टियोमे महत्त्वपूर्ण है। यद्यपि इसमे भी महावीरके निर्वाणके पश्चात् ६८३ वर्षोंमे कालक्रममे होनेवाले आचार्योकी नामावली प्राय उसी क्रममे दी है जिस क्रममे वह तिलोयपण्णत्ति, धवला, जयधवला आदिमें पाई जाती है किन्तु उममें जो कालगणना दी है उममे उक्त सब ग्रन्थोसे वैशिष्ट्य है। उक्त ग्रन्योम महावीर-निर्वाणसे अन्तिम आचारागधर लोहाचार्य तककी कालगणना ६८३ वर्प बतलाई है। किन्तु नन्दी० पट्टा० के अनुमार लोहाचार्य तक ५६५ वर्ष ही होते है । इस तरह
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कसायपाहुड २१
दोनोकी कालगणनामे ११८ वर्षका अन्तर है। ___ उक्त ग्रन्थोके अनुसार महावीर निर्वाणके पश्चात् क्रमश ६२ वर्षमे तीनकेवली, १०० वर्पोमे पाँच श्रुतकेवली और १८३ वर्पोम ग्यारह दसपूर्वी हुए। न०प० मै भी यहाँ तक कोई अन्तर नही है । आगे उक्त ग्रन्थोमे पाँच एकादशागधारियोका काल २२० वर्ष और चार एकागधारी आचार्योका काल ११८ वर्ष बतलाया है, जो अधिक प्रतीत होता है। किन्तु न० पट्टा० में ५ ग्यारह अगधारियोका काल १२३ वर्प और चारका काल ९९ वर्ष बतलाया है जिसमें २ वर्ष की भूल होनेसे ९७ वर्प होते है, अत ११८ वर्पका अन्तर स्पष्ट है । इन ११८ वर्पोमें क्रमसे अर्हद्वलि, माघनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतवलि हुए । इस प्रकार इस पट्टावलीके अनुसार धरसेनका समय गीर-निर्वाणसे ६१४ वर्ष पञ्चात् आता है । पट्टावली में धरसेनका काल १९ वर्ष, पुष्पदन्तका तीस वर्प और भूतवलिका वीस वर्प बतलाया है। अत इन तीनोका समय वीरनिर्वाणके पश्चात् ६१४से ६८३ वर्पके अन्दर आता है।
पीछे धवलासे जो श्रुतावतारका आख्यान दिया है उससे यह स्पष्ट है कि धरमेनाचार्य मत्रशास्त्रके भी विद्वान थे। उनके द्वारा रचित एक जोणिपाहड नामक ग्रन्थका निर्देश १५५६ वि० सम्वत्मे लिखी गई बृहट्टिप्पणिका नामक सूचीमे पाया जाता है। उसमें उसे धरसेनके द्वारा वीरनिर्वाणसे ६०० वर्ष पश्चात् रचा हुआ लिखा है।
इससे भी नन्दी० पट्टा० क धरसेनविपयक समयकी पुष्टि होती है। अतः वरसेनका समय विक्रमकी दूसरी शताब्दीका पूर्वार्द्ध प्रमाणित होता है। __ पहले लिख आये है कि वीरसेनने वीर-निर्वाणसे ६८३ वर्ष बाद गुणधर और धरसेनका होना बतलाया है। और इन्द्रनन्दिके कथनसे यह स्पष्ट है कि इन दोनो आचार्योकी गुरुपरम्परा विस्मृतिके गर्तमे जा चुकी थी। फिर भी जो वीरसेन स्वामीने उक्त दोनो आचार्योका उक्त समय बतलाया है वह सभवतया इस आधारपर बतलाया है कि अगज्ञानके रहते हुए उसे लिपिवद्ध करनेका कोई प्रयत्न नही किया गया। अगज्ञानियोकी परम्परा समाप्त हो जानेपर जब श्रुतविच्छेद, 'अहिवल्लि माधनटि य धरसेण पुप्फयत भूतवली ।
अटवीस हगवीन उगणाम तीस नीस वास पुणो ॥१६ ।। इसासय अठार वासे इयगधारी य मुणिवरा जादा । छ मय तिरामिय वासे णिव्वाणा अगदिति कहिय जिणे ॥१७॥' न०प०
इम पट्टावली तथा धरसेनके ममयकी विवेचनाके लिए देखें-पट्स० पु. १, की प्रस्तावना, तथा 'समन्तभद्र' पृ० १६१ । • 'योनिप्रामृत वीरात ६०० धारमेलम् ।' वृह टिप्प०, जैन सा०म० भाग ", ।
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२२ जनसाहित्यका इतिहास
का भय उपस्थित हो गया तथा उस बने सुने जी लिपिक करनी निता उत्पन्न हुई।
पर
किन्तु जगजानियाकी परम्परा नमान हो जानकवादी भय की सम्भावनाका होना हम नमनित पतीत नहाना, क्याकिं व पायप्रानृत और पट् मीरगना पूर्वा नाशिष्ट वन और पूर्वाकी विपिपराका जन्त पीरनिर्वाण था। उनके होनेपर परेवा जयष्टि पुत्राकी विच्छिन्न परम्पराका अन हा जानेपर भी गजान तीन भी नगी अधिक कालतक क्रमणीयमान अवस्थानमे नमान था । इतनं गुरो का विच्छिन्न पूर्वा अवशिष्ट गुमान होना
नाही हा गया हो गये।
भी
जगनाम ही नष्ट होना होना या प्रतीत नहीं होता। पीि यह स्पष्ट किया गया है कि गागविशेषना जान मे ही हो गया। बत उनके होनवे पन्नानुग ही उनको सुरक्षित गनेकी नाना का उत्पन्न होना स्वाभाविक
६८३
।
1
फिर भी यत नरनागमय विक्रम गरी जनादीन प्रमाणा होता है और लगभग यही गमग (बी० नि० ९२०-६८९) ताम्वरी पट्टाव अनुसार नागहस्तीक आता है । और गुण के द्वारा निन गाया जाम मांग नागहस्तीको प्राप्त हुई थी, अत गुणनर जनदग ही उन पूर्वतीने नाहिये । वरसेन और नागहस्तीकी गमवालीनना भी गंभव प्रतीत होती है कि दोनों कर्मप्रतिप्राभृतके ज्ञाता थे। धरगनने कर्मप्रकृतिपाभूतका ज्ञान भूतबलितथा गुप्पदन्त को दिया, उन्होंने उगा जर पाण्ागमही बनना की । उगके पश्चात् कर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद होगया। टीकावार वीरगेन' स्वामीके अनुसार उगो कर्मप्रकृतिप्राभृता निदन अपने नृणिरोगे 'एना कम्पगडी' लिसकर यतिवृपमने भी किया है । यतिवृषभका नागहमी पागप्राभृतका जान प्राप्त हुआ था और नागहरती कर्मप्रकृति के विशिष्ट ज्ञाता थे । मत धरमैन और उनके शिष्य भूतबलि-पुष्पदन्त तथा नागहस्ती और उनके विष्य यतिवृपभ ऐसे समयमे हुए थे, जब कर्मप्रकृतिप्राभृत विच्छिन्न नहीं हो सका था । अत इनके मध्य में दीर्घकालका अन्तर सभव प्रतीत नही हाता । और ऐसी स्थितिमे आचार्य गुणधर अवश्य ही धरमेनके पूर्वकालिक प्रतीत होते ह ।
यह ऊपर लिख आये है कि नन्दिराधकी पट्टावलीमे लोहाचार्यके पश्चात् १२८
१ एसा कम्मपयटीमु । कम्मपयटीओ णाम विदिय पुव्यपनमवत्युपविट उत्यो पाहुर साणिदो अहियारो अस्थि ।' ज० च० प्र े० का०, पृ० ६५६७ |
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कसायपाहुड : २३ वर्षमें क्रमश पाँच आचार्योका होना बतलाया है वे आचार्य है-अहंद्वलि, माधनन्दि, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि । इनमेसे अहंद्वलिके विपयमै इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमे लिखा है कि उन्होने जैनधर्ममे मघोकी रचना की थी। जो मुनि शाल्मलिमहावृक्षके मूलसे पधारे थे उनमेसे कुछको 'गुणधर'' सज्ञा दी और कुछको 'गुप्त' नाम दिया। यदि ये 'गुणवर' नाम आचार्य गुणधरकी स्मृतिमे दिया गया हो तो स्पष्ट है कि गुणधराचार्य अर्हद्वलिमे पहले हो चुके थे। किन्तु चू कि गुणधर सज्ञा देनेका कोई कारण नहीं बतलाया गया, इसलिये इमपर विशेष जोर नहीं दिया जा सकता । फिर भी यह मज्ञा उपेक्षणीय भी नही है ।
प्रकृत विपयपर और भी प्रकाश डालनेके लिये हम धवला और जयधवलाको टटोलना होगा। वीरसेन स्वामीने गुणधरको वाचक और आर्यमक्षु तथा नागहस्तीको महावाचक लिखा है । और धवलाकी टीकामे वाचकका अर्थ पूर्वविद् किया है । जैसे गुणधर कपायप्राभृतके ज्ञाता थे, वैसे ही धरसन भी कर्मप्रकृतिप्राभूतक ज्ञाता थे । विन्तु फिर भी धरसेनको वाचक नहीं लिखा, इसका कारण क्या है ?
इसके समाधानके लिये हमे धवला और जयधवलाके प्रारम्भिक भागपर दृष्टि डालनी चाहिये। धवलाके प्रारम्भमे वीरसेन स्वामीने धरसेनको अष्टागमहानिमित्तका पारगामी लिखा है, किन्तु किसी पूर्व या उसके अशका ज्ञाता नही लिखा, पुष्पदन्त-भूतवलिको क्या पढाया, यह भी स्पष्ट नहीं किया--ग्रन्थ पढाया और ग्रन्थ समाप्त होगया। जव पुष्पदन्त सत्प्ररूपणाके सूत्रोकी रचना करके जिनपालितको भूतवलिके पास भेजते है तव उन्हे भय होता है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद हो जायेगा । और उसपरमे यह अनुमान करना पडता है कि घरसेनने अपने शिष्योको महाकर्मप्रकृतिप्राभृत पढाया था और वह उसके ज्ञाता ये। आगे तो बीरसेनने स्पष्टरूपसे उन्हें महाकर्मप्रकृतिप्राभूतका ज्ञाता लिखा है। अब जयधवलाको देखिये। मगलाचरणके पद्यसे ही यह स्पष्ट होजाता है कि गुणधरने कपायप्राभृतका गाथा
१ ये शाल्मलीमहाद्रुममूलाग्रतयोऽभ्युपगतास्तेषु। कौश्चि गुणधरगशान काश्चिद् गुप्ता
यानकरोत् ।।९४॥ श्रुता० । २ 'अगमहाणिमिरापारण्ण'-बट्स०, भा०१, पृ० ६७ । ३. 'गथो पारद्धो गथो समाणिदो'-पृ० ७० । ४ महाकम्मपयटिपाहुटस्स वोच्छेदो होहदित्ति'-पृ० ७१ । ५. 'महाकम्मपडिपाहुडामियजलपवाहो धरसेणभडारय मपत्ती । भूतबलि पुप्फदनाण
महाकम्मपाटपाहुट सयल समाणिद। महाकम्मपयडिपाहुडमुवमहरिऊण छपडाणि
कयाणि । पट्स, पु. ९, पृ०५३।। ६ 'जेणिह कसायपाहुडमणेयणयमुज्जल अणतत्थ । गाहाहि विवरिय न गुणहरभडारय
वदे ॥६॥ क० पा० भा० १।
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२४ जैनसाहित्यका इतिहास
ओहारा व्याख्यान किया। मगलाचरणके पश्नात् आदिवाइयगं ही गुणधका गुणगान करते हुए वह लिखते है- 'जानप्रवाद पूर्वक निर्मल दगवे वस्तु-अधिकारके तीसरे कपायप्राभृतरूपी समुद्रके जलगमूहगे धोये गये मतिज्ञानम्पी लोचनीसे जिन्होने त्रिभुवनको प्रत्यक्ष कर लिया है ऐसे गुणधर भट्टारना है और उनके द्वारा उपदिष्ट गाथाओमे सम्पूर्ण कपायप्राभतका अर्थ गमाया हुआ है। आगे पुन वीरसन स्वामीने तीसरे कपायप्राभृतको महाममद्रकी उपमा दी है और गुणवरको उमका पारगामी बतलाया है। किन्तु धवलाम धग्गेनाचाया प्रति उग प्रकारके उद्गार दृष्टिगोचर नहीं होते ।
इन वातोसे प्रतीत होता है कि गुणवर पूर्वविदोकी परम्परामेगे थे। किन्तु धरसेन पूर्वविद् होते हुए भी पूर्वविदो की परम्परामेमे नहीं थे। दूगरे, वग्गनकी पेक्षा गुणधर अपने विपयके विशिष्ट अथवा पूर्ण जाता थे और इसका कारण यह हो सकता है कि गुणधर ऐसे समयमे हुए थे जब पूर्वा आगिक ज्ञानमै उतनी कमी नहीं आई थी जितनी कमी धरसेनके गमयमे आगयी थी । उन गब बातोपर विचार करनेसे गुणधर धरसेनमे पूर्ववर्ती प्रतीत होते हैं। ____ इस विषयमे एक वात और भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है। उन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमे लिखा है कि 'भूतवलि आनार्यने पटसण्टागमकी रचना करके उसे पुस्तकोमे न्यस्त किया और ज्येष्ठ शुक्ला पचमोके दिन चतुर्विध मधके साथ उसकी पूजा की । उसके कारण यह तिथि श्रुतगचमीके नाममे ख्यात हुई । आज भी जैन उम दिन श्रुतकी पूजा करते है।'
धरसेनाचार्यने मुनिमघको पत्र लिखकर दो मुनियोको बुलाया था और पटालिसाकर उन्हे योग्य बनाया था। उन्होने अधीत आगमो आधारमे ग्रन्थरचना करके उसको पुस्तकोमे न्यस्त कराया, अत सधके द्वारा उसका उत्सव मनाया जाना उचित ही था। किन्तु गुणधरने तो स्वय ही दोसी तेतीस गाथाओमे समस्त कपायप्राभृतको निवद्ध किया था। और उन्हे पुस्तकोमे भी न्यस्त नही किया था, क्योकि जयधवलामे लिखा है कि आचार्यपरम्परासे आती हुई वे गाथाएँ आर्यमक्षु और नागहस्तीको प्राप्त हुई। और उन दोनोके पादमूलमे उनके अर्थको सम्यक् प्रकारसे सुनकर यतिवृपपभने उनपर चूणिसूत्र बनाये ।
१ 'पुणो ताओ चेव सुत्तगाहाओ आइरियपरपराए आगच्छमाणाओ अज्जमखुणाग । हत्यीण पत्ताओ। पुणो तेसिं दोण्हं पि पादमूले अत्य मम्म मोऊण जयिवसहभडारपण
पवयणवच्छलेण चुण्णिसुत्त कय'-क० पा०, भा० १, गा० १, पृ० ८८ ।
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कसायपाहुड २५
इन्द्रनन्दिने लिखा है कि गुणधरने गायासूत्रोको रचकर नागहस्ति और आर्यमक्षुके लिये उनका व्याख्यान किया और उन दोनोके पास यतिवृपभने उन गाथासूत्रोका अध्ययन किया और उनपर वृत्तिसूत्ररूप चूर्णिसूत्रोकी रचना की।
उक्त दोनो कथनोसे यही प्रमाणित होता है कि कपायप्राभृतके गाथासूत्र मौखिक ही प्रवाहित हुए। जब कि पट्खण्डागमके सूत्र पुस्तकवद्ध किये गये। अत आगमको सर्वप्रथम पुस्तकारूढ करनेके उपलक्ष्यमें हर्प मनाना उचित ही था।
इससे भी यही प्रतिफलित होता है कि कपायप्राभृतकी रचनाके समय आगमको पुस्तकारूढ करनेकी परिपाटी प्रचलित नही हुई थी। जवकि पखण्डागमके समय उसका प्रचलन हो चुका था। इससे भी पट्खण्डमसे कषायप्राभृतके पूर्ववर्तित्वका ही समर्थन होता है। अत गुणधर धरसेनसे पहले होने चाहिये । कषायपाहुड नाम और विपयवस्तुका स्रोत
कषायप्राभृत प्राकृतगाथासूत्रोमे निवद्ध है। इसको पहली गाथा मे बतलाया है कि पाँचवें पूर्वके दसवे वस्तु-अधिकारमें पेज्जपाहुड नामक तीसरा प्राभृत है, उससे यह कपायप्राभृत उत्पन्न हुआ है।
पीठिकामें पूर्वोके अन्तर्गत अधिकारोका परिचय कराते हुए बतलाया गया है कि प्रत्येक पूर्वमें वस्तुनामक अनेक अधिकार होते है और एक-एक वस्तु-अधिकारके अन्तर्गत बीस-बीस प्राभृताधिकार होते है । तथा एक-एक प्राभृताधिकारके अन्तर्गत चौवीस-चौबीस अनुयोगद्वार नामक अधिकार होते है । पाँचवे पूर्वका नाम ज्ञानप्रवाद है और उस ज्ञानप्रवादके अन्तर्गत वस्तु नामक वारह अधिकार है ।
और प्रत्येक वस्तु अधिकारके अन्तर्गत वीस-बीस प्राभृताधिकार है। उनमेसे दसवे वस्तु अधिकारके अन्तर्गत केवल एक तीसरे प्राभृतसे प्रकृत कपायप्राभृत रचा गया है । इससे पूर्वोके महत्त्व, वैशिष्टय और विस्तारका अनुमान किया जा सकता है । ___ कपायप्राभृतकी जयधवला टीकामे तीसरे पेज्जपाहुडका परिमाण सोलह हजार पदप्रमाण बतलाया है। उस प्राभृतरूपी महार्णवको गुणधराचार्यने एकसौ अस्सी मात्र गाथाओमें उपसहृत किया है। इससे गुणधराचार्यकी उस विपयकी १ 'एव गाथासूत्राणि पञ्चदशमहाधिकाराणि । प्रविरच्य ब्याचल्यो नागहस्त्यार्यमाभ्याम् ।
पाश्वे तयोर्डयोरप्यधीत्य मूत्राणि नानि यतिवृपभ । यतिवृपमनामधेयो बभूव शास्त्रार्य
निपुणमनि ॥- ता० २ 'पुचम्मि पचमम्मि दु उसमें वत्थुम्हि पाहुडे तदिए। पज्ज ति पाहुदम्मि दु ह्वटि
कमायाण पाहुट णाम ॥१॥-क-पा०, भा० १, पृ० १० । 'एद पेज्जदोसपाहुट सोलमपटसहम्मपमाण होत अमीढिमढमेत्तगाहाहि उवमधारिद ।' क. पा० भा० १ पृ० ८७ ।
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२६ जनसाहित्य का इतिहाग
पारंगतता और लता का परिचय मिलता है। उस नरः पली गावांगे गल्यका नाग और उगकी उत्पत्तिका सांत ज्ञात हो जाता है ।
अधिकारा और गाथाओका विभाग
एकगोवरना गावा
असारी
जनगन
दूगरी' गाया यह बताए ग विभक्त है, यह बताने की प्रतिज्ञा की गयी है कि कितनी कितनी गुणगाना है । जाने तोगरी, नीवी, पानी और उठी गायामें बतलाया है कि प्रायक पान अविराम तीन गाना है । वेदानागी छठे अधिकार भार गाथा | उपयोगनामक गाव नका गात गागा है । नतु ग्याननागत जना गाल गाया है । व्यजननामक नावे अभिकारम पान गाराएँ है | दर्शनमाहापशमनानामक दो अधिकारमेन्द्र गाया है । दशनमाक्षपणानामक ग्यारह अधिकार पान गाना है । गरमागरम नामक बारहवें और नापि नामक तेरही एक गाया है। और नाग्निमपरागनानामक नरहने अधिकार बाट गाया है । गीता र आठ गावांगं नारिमाणानाम अजवा तर अनिकारीका निर्दण करते हुए उनमें अड्डाईंग गाथाए बनाई है। नो आर दगवी गायामं बतलाया है कि नायिमोहनपणा-सम्बन्धी अट्टान
८
किन्निमिवापगाठान्नि
नामः अनार पल
जयामि ॥ पचासी
नागी गुम्
पादव्या ॥३॥ नान, ५० १५५ । ३. ruft af
Ai i sezm fanju} !-{
गाहाजा ॥४॥ नहीं, ४० १५०
४. 'दमणनाम्मुम्मामणा पणारस हानि गाहाजा । पात्तगाल सव
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० ० ५० १।
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||५|| ही ५० १६०
'लतीय समाजमन्स रोता नरिचरन । दाक्का गाल अठेवुन सामउम्मि ||६|| ' वह, ५० १६३
६ 'चत्तारि य पट्ठव गाहा मकाम विचचारि । जोना निशि एककारमहानि किट्टी ॥७॥ वहा, ५० १६४
७ 'चत्तारिय सवणार एक्का पुण होदि मीणमाहरमा नगणो गट्ठावाम ममा सेणा ||८|| वहीं, पृ० १६६
८ 'किट्टाकयवचारे मगनी सीणमोहपट । सत्तदा गाहाओ अण्णाज समास गाहाओ ||९|| वहीं, पृ० १६८
९. 'सकामण आवट्टण - किडीसवणार एक्कवास तु । प्रदाआ सुत्तगाहाओ सुग अण्णा भाम गाओ ||१०|| वही, पृ० १७०
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कसायपाहुड २७ गाथाओमे कितनी सूत्रगाथाएं है और कितनी असूत्रगाथाएँ है। ग्यारहवी'
और वारहवी गाथामें जिस जिम सूत्रगाथाकी जितनी भाष्यगाथाएँ है उनका निर्देश है । और तेरहवीर तथा चौदहवी गाथामे कसायपाहुडके पन्द्रह अधिकारोका नाम निर्देश है।
इस प्रकार प्रारम्भमें ही ग्रन्थके अन्तर्गत अधिकारो और उनमे गायाओके विभागका सूचन कर दिया गया है । अधिकारोके अनुसार सूत्रगाथाओ और भाष्यगाथाओकी तालिका इराप्रकार है
चारित्रमोहक्षपणाकी भाष्य गाथाएँ अधिकार नाम गाथा स० चारित्रमोह- गाथा स० भाष्य गाया
-
-
क्षपणा
-
-
-
-
-
GK .
१ प्ररथापक २ सक्रामक ३ अपर्वतना ४ कृष्टिकरण
११
१-५प्रारम्भके
५ अवि० ६ वेदक , ७ उपयोग, ८ चतु स्थान ९ व्यजन १० दर्शनमोहो
पशमना ११ दर्शनमोहक्षपणा' ५ १२ सयमासयम
लब्धि और । १ १३ चारित्र लब्धि १४ चरितमोहो- | ८
पशमना १५ चारिजमोह
क्षपणा
(१)५,(२)११,(३) | ४ गा०(४)२% २३
(१)३,(२)१,(३) | ४ = ८ । (१)३,(२)२,(३)१२, (४)३,(५)४,(६)२ (७)४,(८)४,(९)२ (१०) ५, = ४१ (१)१,(२)१,(३)१० (४) २= १४
५ कृष्टिक्षपणा
४
क्षीणमोह
८६ भाष्यगाथा
७
सग्रहणी
२८
सूत्रगाथा
-
-
पत्र य तिणि य दो ताक चउक्य तिणि निषिण एक्का य। चत्तारि य तिणि उभे पच य एक तह य क ॥१२॥ वहीं, पृ० १७१ तिणि य नउरो तह दुग चत्तारि य होनि तह चउक्फ च । दो पचेव य एका अण्णा
एक्का य दम दो य॥१०॥' क. पा० पृ० १७१ ।। २. 'पेज्जहामरिहत्ती निदि अणुभागे च बधग चेय । वेदग उवजोगे वि य चउठाण त्रियजणे
चेय ॥१३॥ सम्मत्तदेसविरयी सजम उवमामणा च यवणा च। दसणचरित्तमोहे अपरि. माणणि मो॥१४॥ क. पा०, भा० १, पृ० १७८ ।
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२८ : जैनसाहित्यका इतिहास
इस प्रकार पन्द्रह अधिकारोकी मूलगाथाओका जोड ९२ है और इनमेसे चारित्रमोहकी क्षपणासे सम्बन्ध रखनेवाली २८ गाथाओमेंसे २१ गाथाओकी भाण्यगाथाओका जोड ८६ है । इन सबका जोड ९२ + ८६ = १७८ होता है । प्रारम्भमे पन्द्रह अधिकारोका नाम निर्देश करनेवाली दो गाथाओको जोडनेमे कुल गाथाओकी सख्या १८० होती है। कसायपाहुडकी गाथासख्या
किन्तु कसायपाहुडकी कुल गाथाओकी मख्या २३३ हैं । पूर्वोक्त एकसी अम्मी गाथाओके सिवाय ५३ गाथाएँ और भी है। १२ गाथाएँ सम्बन्धज्ञापक है, ६ गाथाएँ अच्छापरिमाणका निर्देश करती है, सक्रमवृत्तिमे सम्वन्द्व ३५ गाथाएँ है । इन १२ + ६ + ३५ = ५३ गाथाओको १८० मे जोडनेसे कसायपाहुडकी गाथासख्या २३३ होती है । जयधवला-टीकाके रचयिता श्रीवीरसेन म्वामीके अनुसार इन समस्त गाथाओके रचयिता आचार्य गुणधर थे।
किन्तु जयधवला 'मे उन्होने स्वय यह गका उठाई है कि जव कसायपाहुडकी गाथासख्या २३३ थी, तो गुणधराचार्यने ग्रन्थके प्रारम्भमे १८० गायाओका ही निर्देश क्यो किया ? वीरसेन स्वामीने उसका समाधान करते हुए लिखा है कि पन्द्रह अधिकारोमे विभक्त गाथाओका निर्देश करनेकी दृष्टिसे गुणधराचार्यने १८० गाथासख्याका निर्देश किया है, किन्तु वारह सम्बन्धगाथाएँ और अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली छै गाथाएँ पन्द्रह अधिकारोमसे किसी भी अधिकारसे वद्ध नहीं है, अत उनको छोड दिया है ।
तब पुन शका की गई कि सक्रमणसम्बन्धी ३५ गाथाएं तो बन्धक नामक अधिकारसे प्रतिबद्ध है, अत उनको १८० के साथ मिलाकर २१५ गाथासख्याका निर्देश करना क्यो उचित नहीं समझा ? इसका समाधान करते हुए वीरसेन स्वामीने कहा है कि प्रारम्भके पाँच अर्थाधिकारोमे केवल तीन ही गाथाएँ है और उन तीन गाथाओसे वधे हुए पांच अधिकारोमेसे वन्धक नामक अधिकारसे ही उक्त पैतीस गाथाएँ सबद्ध है, इसलिये उन पैतीस गाथाओको १८० मे सम्मिलित नही किया।
क्या इन गाथाओमे कुछ गाथाएँ नागहस्तिकृत भी है ? इस प्रश्नपर विचार करनेसे ज्ञात होता है कि जयधवलाके अनुसार वीरसेन स्वामीसे पहले होनेवाले कुछ टीकाकारोका ऐसा मत रहा है कि एकसौ अस्सी गाथाओके सिवाय जो शेप ५३ गाथाएँ है वे नागहस्तिकृत है । १ क. पा. भा० १, पृ० १८२~१८३ ।
'अमीदिसदगाहाओ मोत्तण अवसेससबद्धापरिमाणणि ससक्रमणगाहाओ जेण णाग हत्यिआइरियकथाओ तेण 'गाहासदे असीदे' त्ति भणिदूण णागहत्यिआइरिएण पइज्जा कढा इदि के वि वक्साणाइरिया भणति, तण्ण घडदे ।'-क० पा०, भा० १, पृ० १८३ ।
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____ कसायपाहुड : २९ अर्थात् प्रारम्भकी सम्बन्धनिर्देशक वारह गाथाएँ, अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली १५ से २० तक छै गाथाएँ और सक्रमवृत्तिमम्बन्धी ३५ गाथायें किन्ही व्याख्याकारोके मतसे नागहस्तीकृत है। अत 'गाहासदे असीदे' इत्यादि प्रतिज्ञावाक्य नागहस्तीका है, गुणधरका नहीं। इन गाथाओके सम्बन्धमें दो बातें उल्लेखनीय है-एक तो प्रारम्भकी पहली गाथाको छोडकर 'गाहासदे असीदे' आदि सम्बन्धनिर्देशक गाथाओपर और अद्धापरिमाणका निर्देश करनेवाली छै गाथाओपर पतिवृपभके चूर्णिमूत्र नही है, दूसरी बात यह है कि सक्रमसे सम्बद्ध ३५ गाथाओमेसे तेरह गाथाएँ शिवशर्म रचित माने जाने वाली कर्मप्रकृतिमे भी पायी जाती है।
यद्यपि इन बातोमे उक्त गाथाओके नागहस्तीकृत होनेका समर्थन नहीं होता, तथापि ये बातें उक्त गाथाओकी स्थितिपर यत्किञ्चित् प्रकाश तो डालती ही है ।
किन्तु वीरसेन स्वामी उक्त व्याख्याकारोके मतमे सहमत नहीं है । उनका कहना है कि ऐसा माननेसे गुणधराचार्यकी अज्ञता घोतित होती है। किन्तु यह युक्ति कोई जोरदार नही है। क्योकि मोलह हजार पदप्रमाण कपायप्राभृतको एकसौ अस्सी गाथाओमें सक्षिप्त करनेवाले गुणवराचार्य स्वरचित गाथाओका अधिकारोमे विभाजन बतलानेके लिये ग्यारह गाथाएं जितना स्थान नही रोक सकते थे। फिर 'गाहासदे असीदे' आदि गाथाओकी रचनाशैलीमे भी उनके अन्यकर्तृक होनेका आभास होता है। उन गाथाओका रचयिता पन्द्रह अधिकारोमें विभक्त एकमी अस्सी गाथाओको किम अधिकारमे कितनी गाथाएं है, यह बतलानेकी प्रतिज्ञा करता है। इस प्रकारकी प्रतिज्ञा गुणधरकृत सभव नहीं है, उन्हें यदि प्रतिज्ञा करनी होती, तो सोलह हजार पदप्रमाण कसायपाहुडको एकमौ अस्सी गाथाओमे सक्षिप्त करता हूं, ऐसी प्रतिज्ञा करनी चाहिए थी। वे कसायपाहुडको उपस हृत करनेके लिये सन्नद्ध हुए थे, न कि स्वरचित गाथाओको स्वरचित अधिकारोमे विभाजित करनेके लिये ।
दूमरे 'मत्तेदा गहाओ', 'एदाओ सुत्तगाहाओं' आदि पद यह सूचित करते है कि इन गाथाओकी रचनासे पूर्व मूलगायाओ और भाष्यगाथाओकी रचना हो चुकी थी। अन्यथा अमुक अमुक सूत्रगाथा है, इस प्रकारका कथन सम्भव नही था। एक बात और भी द्रष्टव्य है । गाथा १३-१४ में गुणधराचार्यने अधिकारोका निर्देश किया है। उन गाथाओकी 'टीकाके आरम्भमें ही जयधवलाकारने यह शका उठाई है कि 'इम इस अधिकारमे इतनी इतनी गाथाए है' इस प्रकारके कथनसे ही पन्द्रह अधिकागेका ज्ञान हो जाता है। फिर इन गाथाओके द्वारा १५ अधिकागे
१ कमा० पा०, भा० १.५० १७८ ।
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३० जैनसाहित्यका इतिहास का कथन किस लिये किया गया है ।
इमका समाधान करते हुए जयधवलाकारने कहा है कि पूर्व निर्दिष्ट जिन गाथाओमे यह वतलाया है कि अमुक-अमुक अधिकाग्मे अमुक-अमुक गाथा सम्बद्ध है, वे गाथाएं इन्ही दो गाथाओकी वृत्तिगाथा है अत इनके विना उनका कथन नही बन सकता। __ इस कथनमे यह स्पष्ट है कि अधिकार-निर्देशक गाथाओके पश्चात् ही अधिकागेमे गाथाओका निर्देश करनेवाली गाथाएं रची गई है, क्योकि मुत्रगाथामे वृत्तिगाथा पहले नहीं रची जा सकती । और वृनिगाथाका मूत्रगाथासे पूर्व निर्देश भी कुछ विचित्र-मा ही लगता है ।
__ अत अन्य व्याख्याकारोका यह कथन कि 'गाहामदे अमीदे' आदि प्रतिनावाक्य नागहस्तीका है, नितान्त उपेक्षणीय नही है । कसायपाहुडकी गाथाओका सूत्रत्व __ यह पहले लिख आये है कि १६ हजार पदप्रमाण कमायपाहुइको गुणधराचार्यने केवल १८० गाथाओमे निवद्ध किया था। इतने विस्तृत गन्यका इतनी थोडी गाथाओमें निवद्ध किये जानेमे उन गाथाओका सूत्रम्प होना स्वाभाविक ही है। इसीलिये गाथानम्बर २ मे 'वोच्छामि सुत्तगाहा' पदके द्वारा गाथाओके मुत्ररूप होनेका निर्देग किया गया है। ___'मूत्र' गन्दका इतिहास वनलाते हुए डा. विन्टर नीटम्ने लिखा है-'सूत्र' शब्दका म्ल अर्थ 'धागा' या 'डोरा' था, फिर 'योडेसे शब्दोम निबद्ध 'नियम' या 'उपदेग' हो गया। जैसे वस्त्र अनेक धागोमे बुना जाता है वैसे ही एक शिक्षणका क्रम इन सक्षिात नियमोमे गथित किया जाता है । इस प्रकारके मक्षिप्त सूत्रोमे ग्रथित बड़े ग्रन्थोको भी सूत्र कहा जाता है। ये ग्रन्थ केवल प्रयोगात्मक कार्योके काम आते है। इनमे अतिमक्षिप्त किन्तु सुष्ठुरीतिसे किमी ज्ञान-विज्ञानका ममावेश रहता है और इमलिये विद्यार्थी उन्हें मरलतामे स्मृतिमे रख सकते है। सभवतया भारतीयोके इन सूत्रोके ममान विश्वके ममम्त साहित्यमें दूसरी वस्तु नही है । कम-से-कम शब्दोमे अधिक-से-अधिक कहना इन सूत्रात्मक ग्रन्थोकी रचना करने वालोका कर्तव्य होता है । भाष्यकार पतञ्जलिकी इस उक्तिको प्राय. उद्धृत किया जाता है, जिसका आशय यह है कि सूत्रकार अर्धमात्राके लाघवसे उतना ही प्रसन्न होता है जितना पुत्रोत्पत्तिमे ( हि० इ० लि०, भा० १, पृ० ०६८-२६९) । ___ कमायपाहुडके गाथासूत्रोमे भी कम-से-कम गन्दोमे अधिक-से-अधिक कहनेका मफल प्रयास किया गया है, यदि ऐमा न किया जाता तो इतने विशाल ग्रन्थका इतनी थोडी गाथाओके द्वाग उपमहार करना सभव न होता।
जैन माहित्यके अवलोकनसे यह प्रकट है कि द्वादशाग बडा विशाल था।
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कसायपाहुड ३१ उसकी विशालताका परिचय पूर्वपीठिकामे दिया गया है। किन्तु उस विशाल द्वादशागको 'सूत्र' भी कहते थे। कालक्रमसे जैन परम्परामें व्यक्तिविशेपके द्वारा रचित ग्रन्थोको ही सूत्र कहनेकी परिपाटी प्रवर्तित होगई थी। उसके अनुसार जो गणधरके द्वारा कथित अथवा प्रत्येकवुके द्वारा कथित अथवा श्रुतकेवलीके द्वाग कथित, अथवा अभिन्नदसपूर्वीके द्वारा कथित हो उसे सूत्र' कहते थे। ____ इसीमे जयधवलाम यह शका की गई है कि गुणधराचार्य न तो गणधर थे, श्रुतकेवली थे न प्रत्येकबुद्ध थे और न अभिन्नदमपूर्वी थे । तब उनके हाग रचित गाथाओको सूत्र क्यो कहा गया ? इस गकाका ममाधान करते हए श्रीवीरमेन स्वामीने कहा है कि गुणघराचार्यके द्वाग रचित गाथाएं निर्दोप है, अल्पाक्षर है,
और असदिग्ध है, अत सूत्रमम होनेसे उन्हे सूत्र कहा गया है । ___ इस समाधानके द्वारा जयधवलाकारने सूत्रके सर्वप्रसिद्ध लक्षणको उद्धृत करके कमायपाहुडके गाथाओकी सूत्रमजाका समर्थन किया है। सूत्रका3 मर्वप्रसिद्ध लक्षण इस प्रकार है-'जिममें अल्प अक्षर हो, जो असदिग्ध हो, जिममे सार भरा हो, जिसका निर्णय गूढ हो, जो निर्दोप हो, मयुक्तिक हो और तथ्यभूत हो उसे विद्वान् सूत्र कहते है । सूत्रका यह लक्षण सर्वमान्य है।
इमपर भी जयधवलामे यह शका की गई है कि यह सम्पूर्ण सूत्रलक्षण तो जिनदेवके मुखमे निकले हुए अर्थपदोमे ही सभव है, गणधरके मुखमे निकली हुई ग्रन्थरचनामें नही, क्योकि गणधरके द्वारा रचित द्वादगागरूप श्रुत तो वडा विशाल होता है ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि गणधरके वचन भी सूत्रसम होनेमे सूत्र कहे जानेके योग्य होते है। ___इस चर्चामे यही प्रकट होता है कि 'सूत्रमज्ञाके योग्य वे ही रचनाए होती है जिनमें सूत्रका उक्त लक्षण घटित होता है। चू कि इस प्रकारकी रचना करना साधारण व्यक्तिका काम नही है, अत विशिष्ट व्यक्तियोकी उक्त प्रकारकी कृतिया भी सूत्र कही जा सकती है । फलत गुणधररचित कसायपाहुडकी गाथाओको भी सूत्र कहा जा सकता है।
किन्तु गुणधराचार्यने जिन एकमौ अस्सी गाथाओमें कमायपाहुडको उपसहृत किया है उनमें उन्हें 'सुत्तगाहा' नहीं कहा। 'गाहासदे अमीदे' आदि जिन गाथाओके गुणधरकृत होनेमें विवाद रहा है उनमे ही उन्हें 'सुत्तगाहा' कहा है । उनमे भी १ 'सुत्त गणधरकहिय तहेव पत्त यवुद्धकहिय च । सुदकेवलिणा कहिय अभिण्णदमपुन्वि.
कहिय च ||३४|| भ० आ० । २ क. पा०, भा० १, पृ० १५३.१५४ । ३ 'अत्रोपयोगी श्लोक -अल्पाभरममन्ग्धि माग्वद्गृढनिर्णयम । निर्दाप हेतुमत्त य मत्र
मित्युपते बुधै ।'-क० पा० मा० १, पृ० १५४ ।
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३२ : जैनसाहित्यका इतिहास कुछको 'सुत्तगाहा', कुछको 'गाहा' और कुछको 'गभामगाहा' कहा है। ___ चारित्रमोहकी क्षपणा नामक पन्द्रहवे अधिकाग्मे कुल अट्टाईग गाथाए है। उनमेमे मातको' 'गाहा' और शेप इनकीगको 'सभामगाहा' कहा है। जिन गाथाओका व्याख्यान करनेवाली भाष्यगायाएं है उन्हें 'मभामगाहा' (गभाग्यगाथा) कहा है। २८ मेमे इक्कीग गाथा ऐसी है जिनकी भाग्यगाथाए भी है, अन उन्हें मभाष्यगाया कहा है। और गेप गातको केवल 'गाहा' लिया है। किन्तु 'मत्तेदा गाहाओका व्यास्यान करते हुए जयधवलाकाग्ने' लिगा है कि 'ये गात गायागं मूनगाथाएं नही है, क्योकि उनके द्वाग सूचित किये गये अर्थका व्याग्यान करनेवाली भाज्यगाथाओका अभाव है।' ___ इसका मतलब तो यह हुआ कि गभाष्यगाथाओको ही गूगाया वाहना चाहिए । और ऐमा माननेमे केवल इक्कीस गाथाएं ही मूत्रगाथा ठहरती है।
गाथामख्या नौकी उत्थानिकामे जयधवलाकारने लिगा है-' अब पन्द्रहवे अधिकारमे आई अट्ठाईस गाथाओमेमे कितनी मूरगाथाए है और कितनी मूत्रगाथाएं नही है, इसप्रकार पूछने पर अमूत्रगाथाओका प्रमाण वतलानो लिए आगेका मूत्र कहते है । जिममे अनेक अर्थ सूचित हो उमे सूत्रगाथा कहते है और जिसमे अनेक अर्थ मूचित न हो उमे अमूरगाथा कहते है ।' इगमे भी उक्त कथनका ही ममर्थन होता है।
किन्तु गाथामख्या दोमे एकसी अस्सी गाथाओको सूत्रगाया कहा है और जयधवलाकारने उसका समर्थन किया है। 'वोच्छामि सुत्तगाहा जयिगाहा जम्मि अत्यम्मि' पदका व्याख्यान करते हुए जयधवलाकारने लिखा है-'उन एकमी अस्मी गाथाओमेमे जिस अधिकारमे जितनी सूत्रगाथाएँ पाई जाती है उन सूत्रगाथाओका मैं कथन करता हूँ। इस सूत्रगाथाके तीसरे चरणमे स्थित गाथाशब्दके साथ लगे हुए 'सूत्र' शब्दको इमी गाथाके चौथे चरणमे स्थित 'गाथा' शब्दके साथ भी लगा लेना चाहिये ।'
इसप्रकार जयधवलाकारने मभी गाथाओको सूत्रगाथा स्वीकार किया है । ऐमी स्थितिमे यही समाधान उचित प्रतीत होता है कि गाथासख्या नौमे जो मात गाथाओको असू त्रगाथा कहा है वह आपेक्षिक कथन है । चारित्रमोहक्षपणा नामक अधिकारको इक्कीस गाथाओकी दृष्टिसे ही वे असूत्रगाथाएं है क्योकि उनकी भाष्यगाथाओका अभाव है। , 'मत्तेढा गाहाओ अण्णाओ मगामगाहाओ ॥९॥' • क०पा०, मा० १, पृ० १६९ ३ 'का सुत्तगाहा ? सूचिदणेगत्था। अवरा असुत्तगाहा।' वही, पृ० १६८ । ४. वही, पृ० १५३ ।
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कसायपाहुड ३३
रूप गाथाओको 'भा यगाथा' कहा है। तथा अन्य गाथाओको 'सुत्तगाहा' शब्दसे निर्दिष्ट किया है।
'इन्द्रनन्दिने भी अपने श्रुतावतारमें सब गाथाओको गाथासूत्र कहा है। किन्तु उनमेंसे १८३ को ( १८० होना चाहिये) मूलगाथा और शेप ५३ को विवरणगाथा कहा है।
किन्तु जयधवलाकारने 'मूलेगाथा' का अर्थ भी सूत्रगाथा ही किया है। सभवतया वे १८० गाथाओको मूलगाथा या सूत्रगाथा मानते है। किन्तु चूर्णिसूत्रकारने 'मूलगाथा' शब्दका व्यवहार केवल चारित्रमोहक्षपणानामक अधिकारमें आगत सभाष्य-गाथाओके लिये ही किया है और भाष्यगाथाओको छोडकर शेप सवको सूत्रगाथा कहा है। यही हमें उचित प्रतीत होता है ।
चूणिसूत्रकार श्रीयतिवृषभने कतिपय सूत्रगाथाओको उनके विषय-प्रतिपादनके अनुसार कुछ अन्य नाम भी दिये है । वे नाम है-पुच्छासुत्त, वागरणसुत्त और सूचणासुत्त ।
जिन गाथाओमें किसी विषयको पृच्छा की गई हो, कोई वात पूछी गई हो वे गाथाएँ पृच्छासूत्र कही गई है। चारित्रमोहक्षपणानामक अधिकारकी तीस मूलगाथाएँ पृच्छासूत्र है । अन्य अधिकारोमें भी पृच्छात्मक गाथासूत्रोकी पर्याप्त सख्या पाई जाती है।
पृच्छासूत्रका उदाहरण इस प्रकार है
'किस कपायमें एक जीवका उपयोग कितने काल तक होता है ? कौन उपयोगकाल किससे अधिक है और कौन जीव किस कषायमें निरन्तर एक-सा उपयोगी रहता है ॥ ६३ ॥
जयधवलाकारने 'वागरणसुत्त' का अर्थ किया है व्याख्यानसूत्र । अर्थात जिसके द्वारा किसी विषयका व्याख्यान किया जाता है उसे व्याकरणसूत्र कहते है। इसका उदाहरण-'विवक्षित कृष्टिका बन्ध अथवा सक्रमण नियमसे क्या सभी स्थितिविशेपोमें होता है ? विवक्षित कृष्टिका जिस कृष्टिमें सक्रमण किया १ अधिकाशीत्या युक्त शत च मूलमत्रगाथानाम् । विवरणगाथाना च अधिक पञ्चाशत
मकापीत् ॥१३॥ एव गाथासूत्राणि पञ्चदश महाधिकाराणि प्रविरच्य व्याचख्यौ स नागहस्त्यार्यमाभ्याम् ॥१५४॥ 'मूलगाहाओ णाम सुत्तगाहाओ'-क० पा० भा०। ३ 'पत्थेव पयटी य मोहणिज्जा एदिस्से मूलगाहाए अत्थो ममत्तो। क. पा० मा० ४ 'केवचिर उवजोगो कम्मि कसायम्मि को व केणहियो। को वा कम्मि कसाए अभिक्ख
मुवजोगमुवजुत्तो ॥६॥
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३४ जनसाहित्यका इतिहास जाता है उसके सर्व अनुभागविशेषोगे संक्रमण होता है। किन्तु उदय मध्यमकृष्टिसे जानना चाहिये ।। २१९ ॥
इम गाथा |' पूर्वि तो पृच्छासूत्रम्प है किन्तु उत्तरार्धको चूणिसूत्रकारने वागरणसुत्त कहा है।
जिस गाथाके द्वारा किसी विपयकी सूचना की गई हो उमको 'सूचनासूत्र' कहा है। जैसे गाया ६७ के 'केवडिया उवजुत्ता' पदमे द्रव्यप्रमाणानुगम, 'सग्मिीसु च वग्गणाकमाएसु' पदमे कालानुगम, 'केवडिया च कमाए' पदमे भागाभाग, और 'के के च विमिस्सदे केण' पदमे अल्पबहुत्व, इस प्रकार ये चार अनुयोग तो सूत्रनिबद्ध है । किन्तु शेष चार अनुयोग सूचनास्प अनुमानमे ग्रहण कर लेना चाहिये। कसायपाहुड शैली
गाथाओके उक्त विवरणसे कमायपाहुडकी शैलीका आभास मिल जाता है । रचनाकी दृष्टिने गाथाओकी शब्दावली क्लिष्ट नहीं है किन्तु जैन कर्मसिद्धान्तसे सबद्ध होनेके कारण जैन कर्मसिद्धान्तका ज्ञाता ही उनका रहस्य ममझ सकता है । परन्तु अधिकतर गाथाएं पृच्छारूप है-उनमें प्रत्येक अधिकारसे मबद्ध विषयोको प्रश्नके रूपमे निर्दिष्ट किया गया है किन्तु कही तो उन प्रश्नोसे मम्बद्ध कुछ आवश्यक वातोको सूत्ररूपसे कह दिया गया है, अन्यथा प्रश्नोके द्वारा ही विषयोकी सूचना देकर ज्यो-का-त्यो छोड दिया गया है। इसका कारण यह है कि इस ग्रन्थकी रचना जनसाधारणके लिये नही की गई है, किन्तु जैन कर्मसिद्धान्तके पारगामी बहुश्रुतोके लिये की गई है। अत इसके पृच्छासूत्रोमें उठाये गये प्रश्नोको हृदयगम करके उनका समाधान वही कर सकता है जो आर्यमक्ष और नागहस्तीकी तरह उस विषयका मर्मज्ञ हो ।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें जो यह लिखा है कि गुणधर आचार्यने अपने द्वारा रचित कसायपाहुडकी गाथाओका व्याख्यान आर्यमक्षु और नागहस्तीको किया, उसमें कितना तथ्य है, यह कहना तो शक्य नहीं है, किन्तु इसमें सन्देह नही कि गुणधराचार्यने कसायपाहुडकी रचना करके अवश्य ही उनका व्याख्यान अपने
१ 'बचो व सकमो वा णियमा सन्वेसु ठिदिविसेसु। सन्वेसु चाणुभागेसु मकमो मनिझमो
उदओ ॥२१९॥-'सबेसु चाणुभागेसु मकमो मज्झिमो उदओ ति एद मन्च वागरण
सुत्त-क. पा. सू, पृ० २८३ । २ 'केवडिया उवजुत्ता सरिसीसु च वग्गणाकसाएस' चेति एदिस्से गाहाए अत्थ विहासा
एसा गाहा सूचणासुत्त । एदीए सूचिदाणि अठ्ठ अणिोगद्दाराणि । -क. पा सू, पृ० ५८५ ।
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कसायपाहुड ३५
किमी बहुश्रुत शिष्यको अवश्य किया होगा और वही व्याख्यान साक्षात् या परपरासे आर्यमक्षु और नागहस्तीको प्राप्त हुआ होगा। यदि ऐसा न होता, तो कसायपाहुडरूपी गागरमें जो श्रुत-सागर भरा हुआ है उसका उद्घाटन करना शक्य नही था।
प्रश्नात्मक प्रणाली बहुत प्राचीन है। बौद्धोके अभिधम्मपिटककी शैली भी प्रश्नात्मक प्रणालोको लिये हुए है। प्रश्न और उत्तरके रूपमें विषयको समझाया गया है। श्वेता० आगमसाहित्यमें भी इस प्रणालीके दर्शन होते है । भगवतीसूत्र तो प्रश्नोत्तररूपमें ही है। गीतम गणधरके प्रश्नोका उत्तर भगवान् महावीर देते है । सभवतया प्रश्नात्मक प्रणाली उसीकी सूचक है, क्योकि भगवान महावीर गौतम गणधरके प्रश्नोंका उत्तर देते थे। उसीसे श्रुतकी धाराको गति मिलती थी। वीरसेन स्वामीने 'जयधवलामें प्रश्नात्मक प्रणालीके विपयमें यही समाधान किया है। आचार्य यतिवृपभने भी अपने चूर्णिसूत्रोमें इस प्रणालीको अपनाया है। उसका व्याख्यान करते हुए यह शका उठाई गई है कि यह पृच्छासूत्र किस लिये कहा है ? इमका उत्तर दिया है-शास्त्र की प्रामाणिकता बतलानेके लिये । इम पर पुन शका की गई कि पृच्छाके द्वारा शास्त्रको प्रामाणिकता कैसे सिद्ध होती है? पुन उत्तर दिया गया कि यह पृच्छा गौतम स्वामीने तीर्थङ्कर भगवान महावीरसे की है, अत इससे शास्त्रकी प्रमाणिकताका बोध होता है ।
वीरसेन स्वामीने इस सम्बन्धमें इतना और भी लिखा है कि 'इस पृच्छासूत्रके द्वारा चूर्णिसूत्रकारने अपने कर्तृत्वका निवारण किया है अर्थात् इससे उन्होने यह सूचित किया है कि उन्होने जिस तत्त्वका कथन किया है वह उनकी अपनी उपज नही है बल्कि गौतम गणधरने महावीर स्वामीसे जो प्रश्न किये थे और उनका जो उत्तर उन्हें भगवानसे प्राप्त हुआ था, उसे ही उन्होने यहाँ निवद्ध किया है।'
अतएव सक्षेपमें कसायपाहुडकी शैली प्रश्नोत्तररूप मूत्र-शैली है। यह शैली वैदिक वाङ्मय और बौद्ध वाङ्मयके प्राचीन ग्रन्थोमें भी पायी जाती है । कयायपाहुडका विपय-परिचय
पहले लिख आए है कि आचार्य गुणधरने सोलह हजार पद प्रमाण कसायपाहुडको मात्र दो सौ तेतीस गाथाओमें उपसंहृत किया है तथा उनमेंसे कुछ गाथाएँ सूचनात्मक, कुछ पृच्छात्मक और कुछ व्याकरणात्मक या व्याख्यात्मक है ।
सर्वप्रथम गाथामें आचार्य गुणधरने यह बतलाया है कि पांचवें पूर्वकी दसवी वस्तुमें पेज्जपाहुड नामक तीसरा अधिकार है उससे यह कसायपाहुड उत्पन्न हुआ १ क० पा०, मा २, ५ २११ ।
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३६. जैनमाहित्यका इतिहाग
है । इस तरह इस गाथाके द्वारा ग्रन्थकारने गय नाम और उ
सूचित किया है ।
दूगरी गाथामें कहा है कि
वे पन्द्रह अधिकारी भिगन है। प्रतिबद्ध है, उन्हें कहूँगा । मे
आगेकी छह गायाजीके द्वारा हि पेज्जगविनगर, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, बन्धक अर्थात् बन्ध और मन पनि अति नीन गाथाएँ निवल है । नागक अधिकारी नार उपयोगनामक अगि मान, चतु स्थाननामक अधिकार मोह और राजननागर अधिकार पनि सूत्रगाभाग निवत्र है । वनमहामनानामा अभिपन्द्रह और दर्शनमोहक्षपणानामक अनिकारी पनि गाथाएँ है । भगमागम और पारित्रनिनागा अधिकार एक ही गाया है तथा नागोठउपनामना नामक aftaara गनाएँ है | माहिती भगवान नार, naari चार, अपवर्तनमे तीन, कृष्टिकरण गारह, कृष्टिगो गणनार, क्षीणमोहमे एक, नगहणी एक, रंगप्रकार मन मिलाकर नामिह में अट्ठाईस गाथाए है ।
पानामा अधिकार
मम्मी
और
माया उनमें जिग अधिकारी जितनी भूगावा
उस तरह आठ गाथाओगे प्रत्येक अपार गम्बन्धी गावाजवा विभाजन करके आचार्य गुणधरने आगी नार गावाभीगे गुनगानाओं और उनको भाग्यगाथाभोका निर्देश किया है। उनके पटना दो गाथाओंगे के पन्द्रह अर्यानि कारोका निर्देश किया है ।
इसके पश्चात् छह गाथाओं ने अद्वापरिमाणका कथन है । उसमें काल अल्पबहुत्वका कथन है । यथा - दर्शनोपयोगका जघन्यकाल सबसे कम है। इनमे विशेष अधिक चक्षुइन्द्रियावग्रहका जघन्यकाल है । इनमे विशेष अधिक श्रोत्रावग्रहका जघन्यकाल है । इसी तरह प्राण-अवग्रह, जिल्हा अवग्रह, मनोयोग, वचनयोग, काययोग, स्पर्शन - अवग्रह, अवायज्ञान, ईहाज्ञान, श्रुतज्ञान और श्वामोच्छ्रासका जघन्यकाल उत्तरोत्तर विशेष अधिक है । तद्भवस्य केवलीके केवलज्ञान और केवलदर्शका काल तथा सकपाय जीवके शुक्ललेग्याका काल श्वाच्छोछ्वाम के जघन्य कालसे विशेष अधिक है । इन तीनोके जघन्यकालमे एकत्ववितर्क भवीचार ध्यानका जधन्यकाल विशेष अधिक है । इसी तरह पृथक्त्ववितर्कसवीचार ध्यान, उपशमश्रेणिसे गिरे हुए सूक्ष्मसाम्परायिक, उपशमश्रेणिपर चढनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक, क्षपकश्रेणिगत सूक्ष्मसाम्परायिक, मान, क्रोध, माया, लोभ, क्षुद्रभवग्रहण, कृष्टिकरण, मक्रमण, अपवर्तन, उपशान्तकपाय, क्षीणमोह, उपशामक,
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कसायपाहुड ३७ क्षपकका जघन्यकाल उत्तरोतर विशेष अधिक है । इसी तरह आगे इनका उत्कृष्टकाल कहा है ।
जैन सिद्धान्त में चर्चित उक्त विपयोको हृदयगम करनेके लिए फालके अल्पबहुत्वका कथन अपना विशेष महत्व है। इसीसे आचार्य गुणधरने ग्रन्थके प्रारम्भ में छह गाथाओसे उसका कथन किया है। इसके पश्चात् पन्द्रह अधिकारोसे सम्बद्ध गाथाएँ प्रारम्भ होती है ।
सबसे प्रथम अधिकार सम्बन्धी गाथामें यह शका की गई है कि 'किस नयकी अपेक्षा किस कषायमें पेज्ज ( प्रेय ) होता है अथवा किस कपायमें किस नयकी अपेक्षा ढेप होता है ? कौन नय किस द्रव्यमे दुष्ट होता है अथवा कोन नय किस द्रव्यमे प्रेय होता है ?"
इस आशकासूत्रका अभिप्राय यह है कि क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कपायोमेंसे किस नयको दृष्टिमें कौन कपाय राग है और कोन द्वेषरूप है ? रागद्वेपसे आविष्ट जीव किस द्रव्यको अपना अहितकारी द्वेषरूप मानता है और किस द्रव्यको रागरूप मानता है ? राग-द्वेप ही ससारकी जड है । इनके नष्ट हुए विना जीव ससारसे मुक्त नही हो सकता । अत उन्हीसे व विपयका प्रारम्भ होता है । आचार्य गुणधरने इस आशकासूत्रका स्वय कोई उत्तर नही दिया । यह कार्य चूर्णिसूत्रकार और उसके व्याख्याकारोने किया है ।
इससे आगे की गाथामें कहा है- 'मोहनीयकर्मकी प्रकृति-विभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभाग-विभक्ति, उत्कृष्ट अनुत्कृष्टप्रदेश - विभक्ति, झीणाझीण और स्थित्यन्तिककी प्ररूपणा करना चाहिए ।'
इस एक गाथाके द्वारा ही इस गाथामें आगत अधिकारोका कथन आचार्य गुणधरने कर दिया है । वृत्तिकार और टीकाकारोने प्रत्येक अधिकारका पृथक्पथक विवेचन किया है ।
यहाँ प्रसंगवश सक्षेपमे कर्मसिद्धान्तपर थोड़ा-सा प्रकाश डालना उचित होगा ।
कर्म - सिद्धान्त -
कसायपाहुड, छक्खडागम आदि समस्त करणानुयोगविषयक साहित्य कर्मसिद्धान्तसे सम्बद्ध है । अत उस सिद्धान्तका सामान्य परिचय यहाँ दिया जाता है ।
यह तो प्राय सभी परलोकवादी दर्शनोने माना है कि आत्मा जैसे अच्छे या बुरे कर्म करता है, तदनुसार ही उसमें अच्छा या बुरा सस्कार पड जाता है और उसे उसका अच्छा या बुरा फल भोगना पडता है । परन्तु जैनधर्म जहाँ अच्छे या बुरे सस्कार आत्मामे मानता है वहाँ सूक्ष्म कर्मपुद्रलोका उस आत्मासे बन्ध भी
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३८ जैनसाहित्यका इतिहास मानता है । उराकी मान्यता है कि इस लोकर्म सूक्ष्ग कर्मगुद्गलम्कन्ध भरे हुए है, जो इरा जीवनी कायिका, वाचनिा या मानसिक प्रवृनिगे, जिगे जैन गिदान्तमे योग कहा है, आष्ट होकर ग्वत आत्मागे बद्ध हो जाते है और आत्माम वर्तमान कपायके अनुसार उनमे स्थिति और अनुभाग पर जाता है। जब वे कर्म अपनी स्थिति पूरी होने पर उदगमे आने है तो अच्छा या बुग फर देते है । उग तरह जीव पूर्ववद्ध कार्गके उदय से प्रोनादिकपाय गारता है और उगगे नवीन कमा वन्ध करता है। कर्मगे कपाय और नयायसे कर्मबन्धकी यह पराग अनादि है। इनी वन्धनमे छूटनेका उपाय धर्म माना जाता है । कर्मवन्ध चार भंद है-प्रनिबन्ध, रियतिवन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवन्न । कर्मोग ज्ञानको घातने, मुग्गदु खादि देनेका स्वभाव पाना प्रकृतिवन्ध है। कर्ग बन्धनेपर जितने गय तमा आत्माके साथ बद्ध रहेगे, उस समयकी मर्यादाका नाम स्थितिवन्ध है। कगं तीन या मन्द जैसा फल दे उग फलदानकी शक्तिका पहना अनुभागवन्ध है। कर्मपरमाणुओकी सरयाके परिमाणका नाम प्रदेशवन्ध है । प्रकृतिवन्ध और प्रदेनवन्ध योगमे होते है और स्थितिबन्ध एव अनुभागवन्ध कपायम होते है । मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिका नाम योग है । यह योग जितना तीन या मन्द होता है, तदनुमार ही पीद्गलिक कर्मस्कन्ध आत्माकी और आकृष्ट होते हैं। जैसे हवा जितनी तेज, मन्द चलती है, तदनुसार ही धूल उडती है । और कपाय-क्रोध, मान, माया, लोभ जैसे-तीन या मन्द होते है, तदनुसार ही कर्मपुद्गलोमे तीन या मन्द स्थिति और अनुभाग पडता है। इस तरह योग और कपाय बन्धके कारण है। इनमें भी कपाय ही ससारकी जड है।
कर्मके आठ मूल भेद है-१ ज्ञानावरण-जो आत्माके ज्ञानगुणको ढाकता है, २ दर्शनावरण-जो आत्माके दर्शनगुणको ढाकता है, ३ वेदनीय-जो जीवको सुख-दुखका अनुभव कराता है, ४ मोहनीय-जो जीवको अपने स्वरूपके सवधमें विपरीत वुद्धि पैदा करता है, ५. आयु-जिसके उदयमे जीव किसी एक जन्ममें अमुक समय तक रहता है, ६ नाम-जिसके उदयसे जीवका नया शरीर वगैरह वनता है, ७ गोत्र-जिसके उदयमे जीव उच्च या नीच कहलाता है और ८ अन्तराय-जो जीवके कायोमे वाधा डालता है।
ये आठ कर्म मूल है । इनके १४८ भेद है, जिन्हे कर्मप्रकृतियाँ कहते है । इन कर्मोकी दस अवस्थाएँ होती है, उन्हे करण कहते है। सबसे प्रथम वन्ध करण होता है-जीव कर्मसे वधता है या कर्म जीवसे बधता है। बधनेके पश्चात् ही कर्म तत्काल फल नही देता, उस अवस्थाको सत्ता कहते है । फल देनेका नाम उदय है । फल देनेके भी दो प्रकार है-समय पर फल देनेका नाम उदय है और असमयमें
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कसायपाहुड ३९ फल देनेका नाम उदीरणा है । जैसे-आम पेडपर लगा-लगा गके तो वह सामयिक पकना है और उसे कच्ची अवस्थामें तोडकर भूसे वगैरहमें दवाकर जल्दी पका लिया जाये तो वह असमयका पकना है। इसी तरह बधे हुए कर्म जीवके परिणामोका निमित्त पाकर असमयमे भी उदयमें लाकर नष्ट किये जा सकते है उसे उदीरणा कहते है । बन्धे हुए कर्ममें अपने अच्छे-बुरे परिणामोके प्रभावसे स्थिति-अनुभागको कम कर देना अपकर्पण करण है और बढा देना उत्कर्पण करण है। परिणामोसे कर्मको इस योग्य कर देना कि वह अमुक समय तक उदयमे न आसके उसे उपशम करण कहते है । परिणामोक द्वारा एक कर्मको अपने सजातीय अन्य कर्मरूप परिणमा देना सक्रम करण है। कर्मकी उस अवस्थाको निधत्ति कहते है जिसमें न तो उसे उदयमे लाया जासके और न अन्य कर्मरूप ही किया जा मके । और उस अवस्थाको निकाचना कहते है जिसमे कर्मका उदय, सक्रमण, उत्कर्पण, अपकर्पण चारो ही सभव न हो। ___ इन आठ कर्मोमें सबसे प्रधान मोहनीय कर्म है । उसके दो मुख्य भेद है-१ दर्शनमोह और २ चारित्रमोह । दर्शनमोहके उदयमें जीवको अपने स्वरूपकी रुचि श्रद्धा, प्रतीति नही होती और जब तक वह न हो तव तक उसका समस्त धर्माचरण निरर्थक होता है, उसके होने पर ही मुक्तिका द्वार खुलता है। चारिनमोहके भेद कपाय है। इस ग्रन्थमे केवल एक मोहनीयकर्मका ही विवेचन है, उसीके सत्त्व, बन्ध, उदय, सक्रमण, उपशम और क्षयका विवेचन है । प्रारम्भके अधिकारोमे प्रकृतिसत्त्व, स्थितिसत्त्व, अनुभागसत्त्व और प्रदेशसत्व आदिका कथन है। इनके साथ ही बाईसवी गाथा समाप्त होती है।
तेईसवी गाथा बन्धक अधिकारसे सम्बद्ध है। इसमें कहा है कि 'कितनी प्रकृतियोको बाधता है ? कितना स्थिति-अनुभागको बाधता है ? कितने प्रदेशोको वाधता है ? कितनी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशका सक्रमण करता है ?'
बन्धका कथन तो नहीं किया, सक्रमका कथन आचार्य गुणधरने पैतीस गाथाओके द्वारा किया है । एक प्रकृतिका तथा उसकी स्थिति, अनुभाग और प्रदेशका अन्य सजातीय प्रकृति आदिमे परिवर्तनको सक्रम कहते हैं। यह भी चार प्रकारका है--प्रकृति-सक्रम, स्थितिसक्रम, अनुभागसनम और प्रदेशसक्रम । इन्हीका इसमें विवेचन है।
आगे चार गाथाओसे वेदक अधिकारका कथन है। ये चारो गाथाएँ भी प्रश्नात्मक है । यथा-कितनी प्रकृतियोका उदयावली में प्रवेश कराता है ? और किन जीवोके कितनी प्रकृतियाँ उदयावलीमें प्रविष्ट होती है ? क्षेत्र, भव, काल, और पुद्गलको निमित्त करके कितने कर्मोका स्थिति, विपाक और उदयक्षय होता है ?
आशय यह है कि कर्मोके फल देनेको उदय कहते है । इसके दो रूप है-उदय
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४० जैनसाहित्यका इतिहास और उदीरणा । कर्मोकी स्थिति यथाक्रम पूरी होने पर फल देना उदय है । और तप आदिके द्वारा बलपूर्वक स्थितिका अपकर्पण करने कर्मों को उदयमे ले आना उदीरणा है । इन्हीका विवेचन उग अधिकार है। आगे विवचन उत्तरकालमै वृत्तिकार और टीकाकारने किया। ___इसके आगे सात गाथाओसे उपयोग अधिकारका कयन है । ये गाथाएं भी प्रश्नात्मक है । यथा-किमी कपायमें एक जीवा उपयोग कितने काल तक होता है ? किस उपयोगका काल किगसे अधिक है ? कौन जीव किंग कपायगे निरन्तर एक सदृश उपयोगमें रहता है आदि ।
आगे गोलह गाथाओगे चतुस्थान-अर्याधिकारका कथन है । इगम क्रोध, मान, माया और लोभके नार-चार प्रकागेका कथन है । इमीगे उगे चनु स्थान नाम दिया है । ये गायाएं प्रश्नात्मक नहीं है, विवरणात्मक है । केबल अन्तकी दो गाथाएं प्रश्नात्मक है।
क्रोधादिके उत्तरोत्तर हीनताकी, अपेक्षा चार ग्यान जिनागममे प्रगिद्ध हैक्रोध चार प्रकारका है---पापाण-रेसाके ममान, पृथिवी-गाके समान, बालू-रेखाके समान और जल-रेखाके ममान । मानके भी चार भेद है-पत्थर, हड़ी, लाडी और लताके ममान । मायाके भी चार प्रकार है-वांगकी जड, मेटेके मोग, गोमूत्र और अवलेखनीके समान । तथा लोभके भी चार प्रकार है-कृमिगग, अक्षमल, पाशुलेप और हल्दीगे रगे वस्त्रके ममान ।
आगे इनके अनुभागकी हीनाधिकताका विवेचन है।
आगे पाँच गाथाओसे व्यजन अधिकारका विवेचन है। इनमे नारो कपायोके समानार्थक नाम बतलाये है । जैसे--क्रोध, कोप, रोप आदि । मान, मद, दर्प, माया, निकृति, वचना, काम, राग, निदान, लोभ आदि ।
यहाँ तक कर्मरूप कपायोका काथन करनेके पश्चात् आगेके अधिकारोमे दर्शनमोह और चारित्रमोहके उपशमन तथा क्षपणका कथन है।
सबसे प्रथम मोक्षमार्गी जीवको उपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है । अत सम्यक्त्व-अधिकारमे प्रथम चार गाथाओके द्वारा तो कुछ प्रश्न उपस्थित किये गये है। जैसे-दर्शनमोहके उपशामकका परिणाम कैसा होता है ? किस योग, कषाय, उपयोग, लेश्या और वेदसे युक्त जीव दर्शनमोहका उपशम करता है ? पन्द्रह गाथाओसे सम्यग्दर्शनसे सम्बद्ध वातोका विवेचन है । जैसे-दर्शनमोहनीय कर्मका उपशम करने वाला जीव चारो गतियोमें होता है तथा वह नियमसे पचेन्द्रिय सज्ञी और पर्याप्तक होता है। दर्शनमोहका उपशम होनेपर सासादन भी हो जाता है। किन्तु क्षय होनेपर सासादन नही होता। साकार उपयोग वाला
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कसायपाहुड ४१ जीव ही दर्शनमोहके उपशमनका प्रस्थापक होता है किन्तु निष्ठापक भजितव्य है । दर्शनमोहकी उपशान्त अवस्थामे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति ये तीनो उपशान्त रहते हैं । उपशमसम्यदृष्टि जीवके दर्शनमोहनीयकर्म अन्तर्मुहूर्त काल तक उपशान्त रहता है। इसके पश्चात् नियमसे उसके निथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृतिमेंसे किसी एकका उदय होता है । सम्यक्त्वका प्रथम वार लाभ सर्वोपशम से होता है ।
सम्यग्दृष्टि जीव सर्वज्ञके द्वारा उपदिष्ट प्रवचनका तो नियमसे श्रद्धान करता | किन्तु अज्ञानवश सद्भूत अर्थको स्वय नही जानता हुआ गुरुके नियोगमे अद्भुत अर्थका भी श्रद्धान करता है ।'
इस प्रकार इस अधिकारमें सम्यक्त्वका कथन विस्तारसे किया है । इससे आगे दर्शनमोहक्षपणा अधिकारमें कहा है कि नियमसे कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ और मनुष्यगतिमे वर्तमान जीव ही दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है, किन्तु उसकी पूर्ति चारो गतिमें होती है । मिथ्यात्ववेदनीय कर्मके सम्यक्त्व प्रकृतिमे अपवर्तित होनेपर जीव दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रस्थापक होता है । दर्शन मोहके क्षीण हो जानेपर तीन भवमें नियमसे मुक्त हो जाता है । मनुष्यगतिमें शायिक सम्यग्दृष्टि नियमसे संख्यात हजार होते है । शेष गतियोमे असख्यात होते हैं । उपगमसम्यक्त्वके पश्चात् क्षायिकसम्यक्त्व होने पर ही मुक्तिकी प्राप्ति होती हैं, क्योकि दर्शनमोहका क्षय किये बिना मुक्तिकी प्राप्ति सभव नही है |
आगे सयमा सयमलब्धि नामक अधिकारमें एक गाथासे कहा है - ' सयमा सयम - की लब्धि तथा चारित्रकी लब्धि, परिणामोकी वृद्धि और पूर्वबद्ध कर्मोकी उपशामना इस अधिकारमें वर्णन करने योग्य है । इतना कहकर ही यह अधिकार समाप्त कर दिया गया है । आगे चारित्रमोहको उपशमना नामक अधिकारमें प्रारम्भकी ५ गाथाए तो प्रश्नात्मक है । बादकी तीन गाथाओ में विपयसे सम्बद्ध बातोका विवेचन किया है । जैसे, यह प्रश्न किया गया है कि चारित्रमोहकी उपशमना करने वाले जीवका प्रतिपात कितने प्रकारका है तथा वह सर्वप्रथम किस कषायमें गिरता है ? उत्तरमे कहा हैं प्रतिपात दो प्रकारका है-एक भवक्षयसे अर्थात् आयु समाप्त हो जानेसे और दूसरा उपशमकालके समाप्त हो जानेसे । उपशमकालके समाप्त होनेसे जो प्रतिपात होता है वह सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें होता है अर्थात् ग्यारहवें गुणयानसे गिरकर दसवेमे आता है । किन्तु आयुक्षयसे जो प्रतिपात होता है वह स्थूल रागमें होता है । वह मरकर देव होता है ।
अन्तिम अधिकार चारित्रमोहक्षपणा है | दर्शनमोहका क्षय करनेके पश्चात् जीव चारित्रमोहका या तो उपशम करता है या क्षय करता है । यदि उपशम
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४२ जनसाहित्यका इतिहास
करता है तो ग्यारहवे गुणस्थानमे गहुँच कर नियमगे नीचे गिरता है। जैगा पर कहा है । और क्षय करनेपर नियगमे मोक्ष प्राप्त करता है । उगीसे ग अधिकार की गाथागण्या एकमोसे भी अधिक है।
चारित्रमोहनीयकी इक्कीस कर्मप्रकृतिया क्षय करने वाले जीवके पूर्ववद्ध कर्मको क्या स्थिति रहती है, उनमे अनुभाग गौमा रहता है, उस समय किंग कर्मका मक्रमण होता है और किमका मक्रमण नहीं होता, इत्यादि प्रश्नपूर्वक उनका ममाधान किया गया है। गाय ही दाय होने वाली प्रकृतिगोका क्षय किम प्रकारमे किरा-किस आन्तरिक क्रियाके द्वारा होता है, यह भी विस्तारगे स्पष्ट किया है। कपायोके अनुभागको घटाकर उन्हे यश किया जाता है, गमे कन्टिकरण कहते है इम कृष्टिकरणविषयक जिज्ञासाका भी सूत्रस्पर्म गमाधान किया गया है।
उस तरह मोहनीयकर्मके अनुभागका कृष्टिकरण करनेपर कृप्टिवंदनके प्रथम समयमे वर्तमान जीवके पूर्वबद्ध ज्ञानावरणादि कर्म किन-किन स्थितियोंमें और अनुभागोमे वर्तमान रहते है तमा वर्तमानमे वैचने वाले और उदयमे माने नाले कर्म किन-किन स्थितियोमे और अनुभागोमे पाये जाने है, ये जिज्ञामाए करके उनका समाधान किया गया है। यथा-मोहनीयामका कृष्टिकरण र देनेपर नाम, गोत्र और वेदनीय ये तीन कर्म असस्यात वर्षाको स्थितिवाले होते है और गेग तीन धातिया कर्म सत्यात वर्णकी स्थितिवाले रहते है इत्यादि । अन्तिम गाथामे कहा है-इस प्रकार मोहनीयकर्मके क्षीण होने तक सक्रमणा विधि, अपवर्तना विधि, और कृष्टिक्षपण विधि ये क्षपणा-विधिया मोहनीयकर्मको क्रमसे जानना ।
इस अन्तिम कथनके साथ कसायपाहुउ समाप्त होता है।
इस तरह आचार्य गुणधरने इस गन्थमें मोहनीयकर्मके प्रकृतिसत्व, स्थितिसत्व अनुभागसत्व और प्रदेशमत्वक पृच्छासूत्रात्मक कथनके साथ बन्ध, उदय, उदीरणाका निर्दशमात्र करके सक्रमणका कुछ विस्तारसे कथन किया है । एक कर्मप्रकृतिक अन्य सजातीय प्रकृतिरूप होनेको मक्रमण कहते है । इसके पश्चात् दर्शनमोहके उपशम और क्षपणका कथन करके अन्तमे चारिनमोहके उपशमन और क्षपणका विस्तारसे कथन किया है।
जिम तरह मोहनीयकर्मका वन्ध जीवके परिणामोसे होता है उसी तरह उनका सक्रमण, उपशम, क्षय भी जीवके ही परिणामोसे होता है। परिणामोकी विशुद्धि मोहनीयकर्मके उपशमादिमें निमित्त पडती है और उपशमादि परिणामोकी विशुद्धिमे निमित्त पडते है । विशुद्धि के तरतमाशका चित्रण कर्मसिद्धान्तके द्वारा किया जाता है। इसीसे कर्मसिद्धान्तके विश्लेषणने इतना वृहत् रूप लिया है।
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द्वितीय परिच्छेद
छक्खडागम (पट्खण्डागम) दिगम्बर परम्पराका दूसरा महनीय ग्रन्थ छक्खडागम है । इस ग्रन्थको विषयवस्तु केवल जैन साहित्यकी दृष्टिसे ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय वाड्मयके इतिहासकी दृष्टिसे महत्वपूर्ण है । जीवकी स्वतत्रता और उसके कर्मसम्बन्धका सूक्ष्म विवेचन धर्म, दर्शन एव सस्कृतिको दृष्टिसे नितान्त श्लाघनीय है । यह केवल ग्रन्थ ही नहीं, अपितु वाड्मय कोप है। अतएव वाड्मयके इतिहासके विवेचन-सन्दर्भमें इस ग्रन्थकी विपय-वस्तु, रचना-काल, रचयिता, रचना-स्थान आदिपर विचार करना परमावश्यक है। छक्खडागमका रचनाकाल
इस ग्रन्थके रचनाकालके सम्बन्धमें विचार करनेके हेतु ग्रन्थावतारका इतिवृत्त अकित किया जा चुका है । बताया है कि यह ग्रन्थ उस समय रचा गया था, जब अङ्गो और पूर्वोका ज्ञान प्राय लुप्त हो चुका था और विशकलित अशज्ञानके भी लुप्त होनेका भय उपस्थित हो गया था। अतएव धरसेनाचार्यने पुष्पदन्त और भूतबलि नामक दो मुनियोको महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका अध्ययन कराया। गुरुद्वारा प्राप्त अपने ज्ञानके आधारपर ही उक्त दोनो आचार्योने छक्खण्डागमकी रचना की।' ___ नन्दिसघकी पट्टावलिके अनुसार आचार्य धरसेनका समय वीर-निर्वाणसे ६१४ वर्ष पश्चात् आता है । धरसेनाचार्यकृत 'जोणिपाहुड' (योनिप्राभृत) ग्रन्थ उपलब्ध होता है । विक्रम संवत् १५५६ में लिखी गयी 'बृहटिप्पणिका' नामकी सूचीके आधारपर उसे वीरनिर्वापसे ६०० वर्प पश्चात्का रचा हुआ माना गया है ।
, लोहाइरिये सग्गलोग गदे आयारदिवायरो अत्यमिओ। एव वारासु दिणयरेसु भरह
खेत्तमि अत्यमिएसु सेसाइरिया सन्वेसिमगपुन्वाणमेगदेमभूदपेज्जदोसमहाकम्पयडि पाहुडादीण धारया जादा । एव पमाणीभूदमहरिसीपणालेण आगतूण महाकम्मपडि. पाहुडामियजलपवाहो परसेणभडारय सपत्तो। तेण वि गिरिणयरचदगुहाए भदलि पुप्फदताण महाकम्मपयडिपाहुड मयल समापिद । तदो भदवलिभडारएण सुदणईपवाहवोच्छेदमीण भवियलोगाणुग्गहठ्ठ महाकम्मपयडिपाहुडमुवसहरिऊण छक्खडाणि
कयाणि ।'-पटख०, पु० ९, पृ० १३३ । २. पटख, पु. १ की प्रस्ता० पृ०, ०५-०९।। ३ 'योनिमाभत वीरात ६०० धारसेनम् ।'-जै. सा स. १, २, परिशिष्ट ।
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४४ जैनसाहित्यका इतिहास इस 'टिप्पणिका' ग्रन्थकी एक प्रति भाण्डारकर ओरियटल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूनामें उपलब्ध है। इस प्रतिमे ग्रन्थका नाम तो 'योनिप्राभृत' ही बताया है। पर रचयिताका' नाम 'पण्णसमण' मुनि लिखा है। इन महामुनिने कुपमाण्डिनी देवीसे इसे प्राप्त किया था और अपने शिष्य पुष्पदन्त एव भूतबलिके लिए लिखा था।
इस कथनसे योनिप्राभृतके रचयिता धरसेनकी सभावना की जाती है । प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धि है । सम्भवत धरसेनाचार्य इस ऋद्धिके धारी रहे हो । इसी कारण उन्हे प्रज्ञाश्रमण कहा जाता रहा हो।
यहाँ यह स्मरणीय है कि इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें गुणधरके समान धरसेनाचार्यको गुरुपरम्परा अकित नही की है और न ऐसा स्रोत ही उपलब्ध है, जिसके आधारपर धरसेनाचार्यकी गुरुपरम्परापर विचार किया जा सके । पर हाँ, पुष्पदन्त और भूतबलि ये दो इनके शिष्य है। उनके सम्बन्धमें पहले लिखा जा चुका है । पट्टावलीसे केवल इतना ही ज्ञात होता है कि धरसेनका समय वीर निर्वाण सवत् ६१४-६८३ के बीच होना चाहिए । अत. छक्खडागमका रचनाकाल विक्रम सवत्की प्रथम शताब्दीका अन्तिम पाद और द्वितीय शताब्दीका प्रथम पाद होना चाहिए।
रचनास्थान ___ 'धरसेनाचार्यने गिरिनगरकी चन्द्रगुफामे निवास करते हुए पुष्पदन्त और भूतवलिको महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका अध्ययन कराया था। यह नगर सौराष्ट्रमें गिरिनारके नामसे प्रसिद्ध है। ___ पुष्पदन्त और भूतबलिने गिरिनारसे लौटकर अकुलेश्वरमे वर्षावास किया । सम्भवत गुजरातका भडोच जिलेका अकलेश्वर ही अकुलेश्वर रहा होगा। इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें बताया है कि धरसेनाचार्यने उन्हें कुरीश्वरपत्तन भेजा था, जहाँ वे नौ दिनमें पहुंचे थे । विवुध श्रीधरने भी अकुलेश्वरमे वर्षावास करनेका उल्लेख किया है । अत कुरीश्वर अंकुलेश्वरका ही भ्रष्ट रूप प्रतीत होता है।
वर्षायोग समासकर पुष्पदन्ताचार्य जिनपालितको देखकर और उसे साथ ले वनवास देशको चले गये और भूतवलिने द्रमिल (द्रविड) देशको प्रस्थान किया
१ 'इय पण्हसवण रडए भूयवली-पुप्फट तआलिहिए । कुसुमडीउवहठे विज्जयविपम्मि
अवियारे । अनेका०, वर्ष २, पृ० ४८७ । २. 'मोरट्ठविसयगिरिणयरपट्टणच दगुहाठिएण दक्षिणावहाइरियाण महिमाए मिलियाण
लेहो पेमिटो।'–पटसटागम, पु. १, पृ० ६७ ।
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छक्खडागम ४५
'इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारसे इतना ही ज्ञात होता है कि वर्षावास समाप्त होनेपर दोनो ही मुनि दक्षिणकी ओर विहार कर गये और वे करहाट पहुंचे । करहाटकको कुछ विद्वानोने सितारा जिलेका करहाड या कराड और कुछने महाराष्ट्रका कोल्हापुर बतलाया है । यह नगर प्राचीन समयमें विद्याका उत्कट स्थान रहा है । यहाँ आचार्य समतभद्र भी पहुचे थे।३।।
पुष्पदन्ताचार्यका भानजा करहाटकमें निवास करता था। अत बहुत मम्भव है कि आचार्य पुष्पदन्तका जन्म उसीके कही आस-पास रहा हो । दूसरी बात यह है कि धरसेनाचार्यने अपना पत्र महिमानगरीमे सम्मिलित दक्षिणापथके आचार्योंके पास भेजा था । और आध्रदेशकी वेणा नदीके तटसे पुष्पदन्त और भूतवलि उनके पास गये थे । वर्तमान सतारा जिलेमें वेण्णा नामकी नदी भी है और उसी जिलेमे महिमा नामक ग्राम भी है । अत यह बहुत सम्भव है कि यह महिमानगढ ही प्राचीन महिमानगरी हो । अतएव सितारा जिलेका करहाटक प्रतीत होता है ।
वनवासदेश उत्तर करनाटकका प्राचीन नाम है, वहाँ कदम्ववशका राज्य था और उसकी राजधानी बनवास थी। इस देशमें ही पुष्पदन्तने 'वीसदि' सूत्रोकी रचना की और जिनपालितको उन्हे पढाकर भूतबलिके पास भेजा। भूतबलिने 'विंशति' सूत्रोको देखा और जिनपालितसे ज्ञात किया कि पुष्पदन्ताचार्यकी अल्पायु शेष है। अतएव कर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद होनेके भयसे उन्होने द्रव्यप्रमाणानुगमको आदि लेकर ग्रन्थरचना की। ___ इस अध्ययनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि छक्खडागम सिद्धान्तका आरम्भिक भाग तो वनवासदेशमें और अवशेप ग्रन्थ द्रविड देशमें रचा गया होगा। ग्रन्थरचना-विभाजन और रचयिता
धवलाकार वीरसेन स्वामीने लिखा है कि आचार्य पुष्पदन्तने "वीसदि" सूत्रोकी रचना की और इन सूत्रोको देखकर आचार्य भूतवलिने द्रव्यप्रमाणानुगम आदि अवशिष्ट ग्रन्थ की रचना की । छक्खडागमके प्रथम खण्ड जीवस्थानके आठ अनुयोगद्वारोमेंसे प्रथम अनुयोगद्वारका नाम सत्प्ररूपणा और दूसरेका नाम द्रव्यप्रमाणानुगम है। स्पष्ट है कि प्रथम अनुयोगद्वार सत्प्ररूपणाकी रचना पुष्पदन्ताचार्गने की है । 'वीसदि' सूत्रसे अभिप्राय सत्प्ररूपणाका लेना चाहिए। १ जग्मतुरथ करहाटे तथो स य पुष्पदन्ननाम मुनि । जिनपालिताभिधान दृष्ट्वाऽमौ
भागिनेय स्व ।। दत्वा दीक्षा तस्मै तेन सम देशमेत्य वनवासम् । तस्थौ भूतबलिरपि मधुराया द्रविड.
देशेऽस्थात् ॥ श्रुतावतार श्लो० १३२ १३३ २ जै० सा० इ० वि० प्र० पृ० १७२ । ३ 'प्राप्तोह करहाटक बहुभट विद्योत्कट सकट ।'
जै० सा० इ० वि० प्र० पृ० १७४ । ४ पट ख० पु. १, पृ०७१ ।
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४६ जनगाहित्यनानिहाग
न्मानित भी गर्म निगागणग्यान, जीगगाग आरियाग प्रा. गुगोपी गत्प्रागणागे गुन, जीपानी मारी रमना पापन्तनं ।। गिन्तु गाव नीगनिया' ग भिनाग rareणा गन्प्रापणा न गाहार उगे 'गदिगुत्त' सम्म गयो अति निया, यह पाटनी |
लोण गमारी जानी नगर गोग्गेमामीन उनी प्रणा गरने प्रतिमा मान्ने प्रणा!! sifrगा:-गामाग और विशेगी अपेक्षा गणम्पानी, गोनगमाग, पर्यानि, प्राण, मा, गा, गि, Tय, मांग, वैद, गापाग, शान. गगग, गंन, गा, गणप, भगव्यान, गम्यान, गभी, अगी जातागजमा मार गयांग नग पर्मान गोर अपात्र पितान ITag जीपणा reणा ।'
गगनीराम गा गाला मान , निगमे गा गया fir-'गणन. जोगमाग, पांग, पान, गना, Tोर मार्गणाग और उपगोग ग प्रार कामे नोग प्रापणा ।'
आगे भलादी गागागा गा गीग मागी प्राण गो ग हो गई। गानी रगरगामीने गर वीर निगा है कि गह गा-निपाति। गाम निप्राग गानाशार्ग प्रणीला गात्रपणा मागेही जाग नगिनोम बोग प्रगानी गमन है, गलिग उन्हें बीदिमुन' कता जान पता। न्नुि पाराग्ने भन्न
पान गमाप्त करने परनान निगा fr-गमगोगा गिरण समाप्त हो जाने अगर उनी प्राणा रहेंगे। मगे स्पष्ट है कि नानागं गुणनो गन्मयोगी रमनाशी है. उगते पम्पमा मन नहीं गया । गगि उन्होने अनुपांगताग्गा नाम 'मतपम्वणा' ही रगा, ऐगी स्थितिम पुगपदन्तानायी ग ग्नं गगे गोको 'मनमुत्त' काहना उचित हो जाता था। किन्तु यह न सार 'योगदिगुत' ही पयो पता गया, इस गम्बन्धमे विशेष गन्तापजनक समाधान नहीं गिरना।
इन्द्रनन्दिने लिगा है fr पुष्पदन्नने गौ मुगोगो पटाकर, जिनपान्तिको १. 'पाच्या गाजीपातिविधिमाFMITI पुर समानाधिकार
व्यरचयत् मन्या । २५||~मुता 'मपरि मनमुत्तविवरणमगताणतर तमि परूषण मणिग्मामी। परपणा याम किं उस
होति ।-पट०, पु. २, प. ४११ । ३ पट्य० पु २, पृ ४.३ । ४. पटग पु २, पृ. ४१ । ५ 'रात्राणि तानि शनमध्याप्य तनो भूतबलिगुरो पावम् । तदभिप्राय शातु प्रस्थापयद
गमदेपोऽपि ॥१३६॥'-श्रुता०
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छक्खडागम ४७
भूतबलि के पास भेजा । किन्तु सत्प्ररूपणा के सूत्रो की संख्या १७७ है । अत उनका यह कथन भी स्खलित प्रतीत होता है । इस प्रकार की कतिपय विप्रतिपत्ति योके रहते हुए भी धवलासे तो यही प्रमाणित होता है कि सत्प्ररूपाणके सूत्र पुष्पदन्ताचार्यने रचे थे, क्योकि उनकी उत्थानिकाभमें धवलाकारने पुष्पदन्तका ही नामोल्लेख किया है । द्रव्यप्रमाणानुगम अनुयोगद्वार के प्रथम सूत्रको उत्थानिकामें भूतवलिका नाम निर्देश किया है । अत द्रव्यप्रमाणानुगमसे लेकर भूतबलि आचार्यकी रचना आरंभ होती है ।
रूपरेखाका निर्माण
इस ग्रन्थकी रूपरेखाका निर्माण भूतबलि और पुष्पदन्तमेंसे किमने किया ? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । यह तो स्पष्ट ही है कि ग्रन्थके निर्माणका आरम्भ आचार्य पुष्पदन्तने किया । उन्होने चौदह जोवसमासोके गुणस्थानोके ) निरूपणके लिए आठ अनुयोगद्वारोको ही जानने योग्य बताया है । वे आठ अनुयोगद्वार है— सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । जीवस्थाननामक प्रथम खडके ये ही आठ अधिकार है । इन अधिकारोके पश्चात् जीवस्थानकी चूलिका है, इस चूलिकाके अन्तर्गत अधिकारोका कोई निर्देश 'जीवट्ठाण' के उक्त आठ अनुयोगद्वारोमें नही पाया जाता । अत चूलिका अधिकारको भी जीवस्थानका ही भाग सिद्ध करनेके लिए, चूलिकाके आरम्भ में ही धवलाकारको शङ्का-समाधान करना पडा है, जो इस प्रकार है
शङ्का - आठो अनुयोगद्वारोके समाप्त हो जानेपर यह चूलिका नामक अधिकार किसलिए आया है ?
समाधान --- पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वारोके नियम- स्थलोका विवरण करने के लिए आया है ।
शङ्का - चूलिका अधिकार आठ अनुयोगद्वारोसे प्ररूपित अर्थका ही कथन करता है अथवा अन्य अर्थका । यदि उसी अर्थ का कथन करता है
१ सपाहिं चोद्दसह जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाण सिरसाण तेमि चेव परिमाण पडिवोहणट्ठ भूद्रवलियार्शरओ सुत्तमाह । पट्स, पु. ३, पृ० १ ।
'
२ एदेसिं चेव चोद्दसह जीवसमासाण परूवण ट्ठदाए तत्थ इमाणि अट्ठ अणियोगद्दाराणि णायव्वाणि भवति ||५|| त जहा ||६|| सतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो, खेत्ताणुगमो फोस नागमो कालानुगमो, अतराणुगमो, भावाणुगमो, अप्पाबहुगाणुगमो चेदि ||७|| षट्ख पु, १, पृ १९३१५५ ।
३ षट्ख पु ६, पृ १२ ।
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४८ जैनसाहित्यका इतिहास
तो पुनरुक्त दोप आता है। दूसरे पक्षमे वह चौदह जीवसमामोसे प्रतिवद्ध अर्थका कथन करता है अथवा अप्रतिवद्ध अर्थका ? प्रथम विकल्पमें 'चौदह जीवसमासोके कथनके लिए ये आठ ही अनुयोगद्वार जानने योग्य है' इस सूत्रमे आये हुए एकवार (ही) की विफलता प्राप्त होती है, क्योकि चौदह जीवसमासोसे प्रतिवद्ध अर्थका कथन करने वाला चूलिका नामक नौवाँ अधिकार पाया जाता है। दूसरा पक्ष मानने पर चूलिका नामक अधिकार जीवस्थानसे पृथक्भूत हो जाएगा, क्योकि वह जीवस्थानसे प्रतिवद्ध अर्थका कथन
नही करता। समाधान- पुनरुक्त दोप नहीं आता, क्योकि चूलिका नामक अधिकारमे आठ
अनुयोगद्वारोसे नही कहे गये तथा कहे गये अर्थका निश्चय कराने वाले और आठ अनुयोगहारोसे सूचित, किंतु उनसे कथचित् भिन्न
अर्थका कथन किया गया है ।। इस शका-समाधानके पश्चात् धवलाकारने चूलिकाका अन्तर्भाव उक्त आठ अनुयोगद्वारोमे ही करके यह बतलाया है कि चूलिका जीवस्थानसे भिन्न नही है ।
इस चर्चासे प्रमाणित होता है कि पुष्पदन्त आचार्यके द्वारा सूचित आठ अनुयोगद्वारोमें जो बाते कथन करनेसे छूट गयी, उनका या सम्बद्ध अन्य बातोका कथन चूलिका नामक अधिकारमे किया गया। अत चूलिका अधिकार भूतबलिकी उपज जान पडता है और उसपरसे यही व्यक्त होता है कि पुष्पदन्तने केवल जीवस्थाननामक खण्डकी ही रूपरेखा निर्धारित की थी।
धवला-टीकाके आरम्भमें भी वीरसेनस्वामीने जीवस्थानके ही अवतारका कथन किया है, छक्खडागमसिद्धातका नहीं। जीवस्थानके अवतारका कथन करते हुए उन्होने बतलाया है कि-दूसरे अग्रायणीय पूर्वके अन्तर्गत चौदह वस्तुअधिकारोमें एक चयनलब्धि नामक पाचवाँ वस्तु-अधिकार है । उसमें वीस प्राभृत है । उनमेसे चतुर्थप्राभृत कर्मप्रकृति है । उस कर्मप्रकृतिप्राभृतके चौबीस अर्थाधिकार है । उनमे एक बन्धन नामक अर्थाधिकार है। उस बन्धन नामक अर्थाधिकारमें भी चार अधिकार है-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और वन्धविधान । इनमेंसे बन्धक अधिकारके ग्यारह अनुयोगहार है। उनमे पाचवा अनुयोगद्वार द्रव्यप्रमाणानुगम है । जीवस्थाननामक खण्डमें जो द्रव्यप्रमाणानुगम नामक अधिकार है वह इस बन्धकनामक अधिकारके द्रव्यप्रमाणानुगम नामक अधिकारसे निकला है । १ मपहि जीवट्ठाणस्स अवयारो उच्चदे।'–पटख पु १, पृ ७० 1 . २ पट्सडा०, पु. १, पृ १०३ ३ ।
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छक्खडागम ४९
बन्धविधान के चार भेद है -- प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागवन्ध, प्रदेशबन्ध । इन चार बन्धोमेंसे प्रकृतिबन्धके दो भेद है - मूलप्रकृतिवन्ध और उत्तर प्रकृतिबन्ध | उत्तरप्रकृतिबन्धके दो भेद है— एकैकोत्तर प्रकृतिबन्ध और अन्वोगाढउत्तरप्रकृतिवन्ध । एकैकोत्तर प्रकृतिबन्धके चौबीस अनुयोगद्वार है । उनमें से जो समुत्कीर्तन नामक अधिकार है उसमेंसे प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थान - समुत्कीर्तन तथा तीन महादण्डक निकले है । और तेईसवें भावानुगमसे भावानुगम निकला है | अव्वोगाढ उत्तरप्रकृतिबन्धके दो भेद है - भुजगारबन्ध और प्रकृतिस्थानबन्ध | प्रकृतिस्थानवन्धके आठ अनुयोगद्वार है - सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम । इन आठ अनुयोगद्वारोमेंसे है अनुयोगद्वार निकले है-सत्प्ररूपणा, क्षेत्रप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, कालप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा और अल्पबहुत्वप्ररूपणा । ये छै और बन्धक अधिकारके ग्यारह अधिकारोमेंसे द्रव्यप्रमाणानुगम नामक अधिकारसे निकला द्रव्यप्रमाणानुगम, तथा एकैकोत्त रप्रकृतिबन्धके चौबीस अधिकारोमेंसे तेईसवें भावानुगम अधिकारसे निकला भावानुगम, ये सब मिलकर जीवस्थानके आठ अनुयोगद्वार होते है ।
स्थितिवन्धके दो भेद है— मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध | उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धके चौबीस अनुयोगद्वार है । उनमेंसे अर्धच्छेद दो प्रकारका है— जघन्यस्थिति अर्धच्छेद और उत्कृष्टस्थिति अर्धच्छेद । इनमें जघन्यस्थिति अर्धच्छेदसे जघन्यस्थिति और उत्कृष्टस्थिति अर्धच्छेदसे उत्कृष्ट स्थिति निकली है । सूत्रसे सम्यक्त्वोत्पत्ति नामक अधिकार निकला है । पहले जो एकैकोत्तरप्रकृतिबन्ध अधिकारके समुत्कीर्तना नामक प्रथम अधिकारसे प्रकृतिसमुत्कीर्तना, स्थानसमुत्कीर्तना और तीन महादण्डकोके निकलनेका उल्लेख कर आये है उन पाँचोमें अभी कहे गये जघन्यस्थिति अर्द्धच्छेद, उत्कृष्टस्थिति अर्द्धच्छेद, सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति - आगति इन चार अधिकारोको मिला देने पर चूलिकाके नौ अधिकार होते हैं । इस सब कथनको मनमें अवधारण करके आचार्य पुष्पदन्तने 'एत्तो' इत्यादि सूत्र कहा है।' इस कथनसे केवल जीवस्थानकी ही नही, उसकी चूलिकाकी भी रूपरेखा पुष्पदन्ताचार्यकृत थी, ऐसा वीरसेनस्वामीका मत है । किन्तु समस्त छक्खडागमकी रूपरेखा उनकी निर्धारित की हुई ज्ञात नही होती ।
अतः समग्र सिद्धान्तग्रन्थकी रूपरेखाका निर्माण भूतवलिने ही किया जान पडता है क्योकि कृति अनुयोगद्वारके आदिमें ग्रन्थावतारका वर्णन करते हुए १ 'तदो भूदवलिभडारएण सुदणईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगागुग्गहट्ठ महाकम्मपयडिपाहुडमुवसहरिऊण छ+खडाणि क्याणि । - पटख, पु० ९, पृ० १३३ ।
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५० : जेनसाहित्यका इतिहास
वीरसेन स्वामीने स्पष्ट लिया है कि 'धरगेनानार्थने गिग्निगरकी चन्द्रगुफामें गुप्पदन्त गोर भूतबलिको गगरा महाकर्मप्रकृतिप्राभृत समर्पित कर दिया । तत्पदचात् भूतबलि भट्टाराने श्रुतनदी प्रवाह विच्छेद भय भव्य जीवोके उपकारके लिये महाकर्मप्रकृतिप्रा मृतका उपगहार करके छह सण्ड किये ।'
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इन्द्रनन्दिने लिगा है कि गुत्पदन्त मुनिने अपने भानजे जिनपालितको पढाने के लिये कर्मप्रकृतिप्राभृतका छ सण्डोमें उपगंहार किया और जीवस्थानके प्रथम अधिकारको ग्नना की ओर उगे जिनपालितको पटाकर भूतबलका अभिप्राय जानने के लिये उनके पास भेजा । उरागे गत्प्रम्पणाके सूयोको सुनकर, भूतबलिने पुगदन्त गुरुको गम रचनाका अभिप्राय जाना ।
इन्द्रनन्दिने यह भी लिया है कि भूतबलि आचार्यने पद्यण्डागगकी रचना करके उसे पुस्तको लिमाया ओर ज्येष्ठ शुक्ला पंनमीवो उगकी पूजा की। रगीसे यह पञ्चमी श्रुतपञ्चमीके नामगे ग्यात हुई । तत्पश्चात् भूतबलिने उस छाडागमसूत्रके साथ जिनपालितको पुष्पदन्त गुरुके पास भेजा । जिनपालितके हाथमें छक्स डागम पुस्तकको देसकर 'मेरे द्वारा चिन्तित कार्य सम्पन्न हुआ यह जान पुष्पदन्त गुरुने भी श्रुतभक्ति अनुरागरी पुलकित होकर श्रुतपञ्चमी के दिन ग्रन्थकी पूजा की ।
इस सब कथनगे तो यही प्रमाणित होता है कि पुष्पदन्ताचार्यने छक्सडागमकी रूपरेखा निर्धारित करके सत्प्ररणाके सूत्रो की रचना की थी ।
किन्तु धवला इसका समर्थन नही होता, उरामे यह भी नही लिखा कि भूतचलिने छक्सडागमके सूत्रोको रचना करके उन्हें पुष्पदन्ताचार्यके पास भेजे थे । धवलाके अनुसार तो पुष्पदन्ताचार्यके द्वारा सत्प्रम्पणाके सूत्रोको भूतबलिके पास भेजनेका कारण पुष्पदन्ताचार्यका अल्पायु होना था । अत. यह सभव प्रतीत होता है कि छक्सडागमकी रचना पूर्ण होने पर पुष्पदन्त स्वर्गवासी हो चुके हो । किन्तु श्रुतावतारके अनुसार पुष्पदन्ताचार्यने भूतवलिका अभिप्राय जानने के लिए उनके पास सत्प्ररूपणाके सूत्रोको भेजा था और भूतवलिने उन्हें सुनकर जाना कि पुप्पदन्ताचार्यका अभिप्राय छक्खडागमको रचना करनेका है । उन्होने छक्खडागमकी रचना की ।
इन दोनो कथनोमें हमें धवलाकारका कथन विशेष समुचित प्रतीत होता है, क्योकि पुष्पदन्ताचार्य अकलेश्वरसे लौटते हुए ही अपने भानजे जिनपालितको अपने साथ लेते गये थे और उन्हें जिन दीक्षा भी दे दी थी । ऐसा उन्होने महा
१. 'अथ पुष्पदन्तमुनिरप्यध्यापयितु स्वभागिनेय तम् ।
कर्मप्रकृतिप्राभृतमुपसहार्येव पद्भिरिह खण्डे ॥ - श्रुता० १३४
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'छक्खंडागम · ५१
कर्मप्रकृतिप्राभृतका उपसंहार करके उसे जिनपालितको पढाकर उसकी परम्परा चलानेके अभिप्रायसे किया था । किन्तु उन्हे ज्ञात हुआ कि मेरी आयु थोडी शेप है. उन्होने अपनी रचनाको जिनपालित के साथ भूतवलिके पास भेज दिया । यदि उन्होने केवल भूतबलिका अभिप्राय जानने के लिये जिनपालितको उनके पास भेजा होता तो भूतबलि अपने अभिप्राय के साथ जिनपालितको पुष्पदन्ताचार्य के पास लौटा देते, स्वय रचना करनेमें न लग जाते । अस्तु,
फिर भी यह प्रश्न रह जाता है कि पुष्पदन्ताचार्यने जिनपालितके हाथ केवल 'विसदिसुत्त' ही भेजे थे या पट्खण्डोकी कोई रूपरेखा भी भेजी थी ।
पट्खण्डोके क्रम तथा महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौबीस अनुयोगद्वारोसे उनके उद्धारका जो वर्णन मिलता है, उसे देखनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि पट्खण्डोकी रूपरेख। किसी एक व्यक्तिकी निर्धारित की हुई नही है, बल्कि दो व्यक्तियोकी और ऐसे दो व्यक्तियोकी – जो आपसमें नही मिल सके, निर्धारित की हुई है । हमारे इस अनुमानकी सत्यताके लिये महाकर्मप्रकृतिप्राभूत के अनुयोगद्वारोके साथ छ - खण्डोका मिलान करके देखे ।
महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौबीस अनुयोगद्वारोमेंसे प्रथम दो अनुयोगद्वारोसे वेदनाखण्डका उद्धार हुआ, जो चोथा खण्ड है । तीसरे, चौथे, पांचवें और छठे अनुयोगद्वारके बध और वन्धनीय भेदोको लेकर पाँचवाँ वर्गणा खण्ड बना । इसी छठे अनुयोगद्वारके एक भेद बन्धकसे दूसरा खण्ड खुद्दावन्ध बना, और दूसरे भेद बन्धविधानसे छठा खण्ड महाबन्ध बना । शेप दो खण्ड —- पहला और तीसरा भी इसी वन्धविधानके अवान्तर अनुयोगद्वारोसे निष्पन्न हुए ।
ग्रन्थनाम — मूलसूत्रोमें ग्रन्थका नाम नही दिया । अत नही कह सकते कि इसके रचयिता पुष्पदन्त और भूतवलिने इसे किस नामसे अभिहित किया था । धवलाटीकाके' प्रारम्भमें इसे 'खण्ड सिद्धान्त' कहा है और धवलाकारने कृति अनुयोगद्वारमें लिखा है कि भूतबलि भट्टारकने महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका उपसहार करके छ खण्ड किये । इन छ खण्डोके आधार पर ही इसका नाम उत्तरकालमें छक्खडागम प्रसिद्ध हुआ प्रतीत होता है । इन्द्रनन्दि और विवुध श्रीधरने
१ 'तदो एयं खंडसिद्ध त पडुच्च' भूतबलि - पुप्फयताइरिया वि कत्तारो उच्चति' - पट्ख०, पु० १, पृ० ७१ । द्दद पुण जीवट्ठाण खडसिद्ध त पडुच्च पुव्वाणुपुव्वीए ट्ठिद छण्ह खडाण पढमखड जीवट्ठाणमिदि वही, पृ० ७४ ।
२ 'महाकम्मपयडिपाहुडमुवसंहरिऊण छक्वडाणि कयाणि । - पट्ख, पु० ९, पृ० १३३ । पट्खडागमरचनाभिप्राय पुष्पदन्तगुरु ॥ १३७ ॥ एव पट्खडागमरचना प्रविधाय'॥ १४२ ॥ श्रुता०
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५२ : जैनसाहित्यका इतिहास
अपने-अपने श्रुतावतारमे इसी नागगे गन्यमा उरलेग लिया है। विन्तु, धवलाकारने काही गो 'उपगगग' नागगे एग ग्रन्या निर्दश नहीं लिया। धवला और जगधनलागे छ गण्डोग. नागोरी गा उनके अन्तर्गत अनुगागद्वारी नागोंगे ही उनका निर्देश मिलता है ।
यथा-'जुत्त गुहावंधम्हि भागलदादो एयस्चरम अवयण, एत्य गुण जीव. ट्ठाणम्हि ।'-पट्या, पु० ३, पृ० २५० ।
'एत्य गैरइयमिच्छाउट्ठीण जी रट्ठाणे परविदा ‘एदेण गुहावधेण राह विरोहादो ।-१० ७, पृ० २८६ ।
'वग्गणासुत्ते भणिद'- पु० १४, पृ० ३८५ । 'अथवा जहा वैयणाए परवणा नादातहा वि कायन्या,' पु०१४, पृ० ३५१ ।
'त कथ णव्वदे ? 'पचिदिए उवगामतो गन्गोवकातिएशु उवगादि गो राम्मुच्छिएसु' ति चूलियासुत्तायो ।-पु० ५, पृ० ११९ ।
जीवस्थान, सुद्दावन्ध, वेदना, वर्गणा ये गव पट्सण्डागमके अन्तर्गत सण्डीके नाम है । तया 'चूलिया' जीवट्ठाणका अन्तिम भाग है । उराका निर्देश भी 'जीवद्वाण' के नामरो न करके 'चूलिका' के नामसे किया है। एक ही ग्रन्यमे उनके अन्तर्गत सण्डोका उल्लेस सण्टके नामसे न करके मूलग्रन्यके नामसे करनेमे पाठकको कुछ भ्रम न हो, इसलिये ऐसा किया गया है, यह कहा जा सकता है, किन्तु जयधवलामे भी उनका उल्लेस सण्डोके नामोसे ही पाया जाता है । यथा
'खुद्दावधे जो आलावो मो काययो'।-का पा०, भा॰ २, पृ०:२। ण च जीवट्ठाणेण राह विरोहो'।- , , पृ० ३६१ ।
"खिप्पोग्गहादीणमत्यो जहा वग्गणासडे परविदो तहा एत्य वि परुविदव्यो।' क० पा०, भा० १, पृ० १४ ।
पखण्डागमके अन्तर्गत खण्डोका उल्लेख ग्रन्थान्तरोमे क्वचित् ही मिलता है, मगर वहाँ भी खण्डोके नामोसे ही मिलता है। यथा--अकलकदेवने अपने तत्त्वार्थवातिकमे 'जीवस्थान' का निर्देश किया है। और एक जगह 'आप' करके खुद्दावन्धका उल्लेख किया है । और एक जगह वर्गणाखण्डका उल्लेख किया है किन्तु पट्खण्डागम करके निर्देश नही किया। ___ इससे तो यही प्रमाणित होता है कि वैसे प्रत्येक खण्ड अपने-अपने स्वतत्र
१ 'आह चोदक -जीवस्थाने योगभन्न सप्तविधकाययोगस्वामिप्ररूपणाया'-पृ० १५३ । २ 'एव ह्याचे उक्तमन्तरविधाने-पृ० २४४ । ३. 'एव ह्युक्तमा वर्गणाया बन्धविधाने ।'--त० वा० ५।३७ ।
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छक्खंडागम : ५३
नामोसे ही अभिहित किया जाता था । किन्तु सामूहिक रूपगे उन्हें छ.सण्ड या पट्सण्ड कहा जाता था, क्योंकि जयधवलाकी 'प्रशरित में वीररानस्वामीका गुणगान करते हुए कहा गया है कि चक्रवर्ती भरतकी माज्ञाकी तरह जिनकी भारती पट्सण्डमे ररालित नही हुई । नेमिचन्द सिद्धान्तचक्रवर्तीने भी अपने कर्मकाण्डमे 'छक्खण्ड' नागसे ही उसका उल्लेस किया है । अत छहो सण्डी को उनके रचयिता भूतव लिने कोई नाम नही दिया था। इसीस वादको पट्सण्ड नामसे वे अभिहित किये जाने लगे ।
वीरसेनस्वामीने 'सण्ड' के साथ सिद्धान्तशब्दका प्रयोग करके उन्हे 'सण्डसिद्धान्त' कहा है । जयधर्वलाको प्रशस्तिमें इस गिद्धान्तशब्दकी सार्थकता बतलाते हुए कहा है-- जिसके अन्तमें सिद्धोका कथन हो उसे सिद्धान्त कहते हैं । अत वीरसेनस्वामी के अनुसार इसका नाम पट्खण्ड सिद्धान्त था । किन्तु इन्द्रनन्दिने आगमशब्दका प्रयोग करके उन्हें छवसडागम कहा है । यद्यपि सिद्धान्त ओर आगमशब्द एकार्यवाची है, फिर भी दोनो शब्दोका यौगिक अर्थ भिन्न है और दोनो अपना-अपना इतिहास रसते है ।
सतकम्मपाहुड ( सत्कर्म प्राभृत )
धवलाटीका और जयववलाटीकाम भी 'सत्कर्मप्राभृत' का उल्लेख मिलता हँ | धवला आरम्भमे ही लिखा है कि यह सतकम्मपाहुडका उपदेश है । ओर कराायपाहुडका उपदेश है कि आठ कपायोका क्षपण होने पर पीछे अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् सोलह कर्मप्रकृतियोका क्षय होता है । इस पर आशका की गई कि इन दोनो वचनोमे विरोध क्यो है, तो कहा गया कि वे दोनो आचार्यवचन है, 'जिनेन्द्रवचन नही है' अत उनमे विरोध होना सम्भव है ।
इसी तरह जयधवलाटोकामें भी सतकम्मपाहुडका उल्लेख मिलता है । ऊपर धवलामें कसायपाहुडके प्रतियोगीरूपमें सतकम्मपाहुडका जिस प्रकार निर्देश किया गया है उससे बराबर यह व्यक्त होता है कि सतकम्मपाहुड कसायपाहुडका समकक्ष आगमग्रन्थ होना चाहिये । उसके नामके साथ भी पाहुडशब्द जुडा हुआ है,
? 'भारती भारतीवाज्ञा पट्सण्डे यस्य नास्खलत् ॥ २० ॥ ' -- ज० प्र० ।
३ 'सिद्धानां कीर्तनादन्ते य सिद्धान्तप्रसिद्धवाक् ॥ १ ॥' – ज० प्र० ।
३ ' आगमो मिद्ध तो पवयणमिदि एयटठो' – पट्स०, पु० १, पृ० २० ।
४ 'एमो सतकम्मपाहुडउवामो । कसायपाहुटउवएसो पुण 1 पट्स० पु० १, पृ०
२१७-२२१ ।
५ 'एमो अत्यविसेसो सतकम्मपाहुडे वित्थारेण भणिदो । एत्थ पुण गयगउरवभएण ण भणिदो ।' - ज०ध० प्र े० का०, पृ० ७४४१ ।
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५४ : जैनसाहित्यका इतिहारा
जो उसे पूर्वोका हो मश बतलाता है ।
प्रो० हीरालालजीने इसके सम्बन्धमं लिया था 'यो स्पष्टत. कमायपाहु के साथ गत्कारी प्रस्तुत गगरत पट्गण्डगग से प्रयोजन होता है और यह ठीक भी है क्योकि पूर्वोकी रचनाये उक्त नोवीरा अनुयोगद्वारीका नाम महाकर्मप्रकृतिपाहुर है महाकर्मप्रकृति और गतागं ज्ञाएँ एक ही अर्थकी द्योतक है, अतः गिद्ध होता है कि इस नगरत उपागम का नाम गलर्मप्राभृत है । ओर चूँकि इसका भाग धवलाटी कामं ग्रपित है, अत गगरत धवलाको भी गत्तर्गप्राभृत कहना अनुचित नहीं । उसी प्रकार महाबन्ध या निबन्धनादि अठारह अधिकार भी इसके गण्ड होनेगे गलगं कहे जा सरते हैं ।' ( पट्ग० पु० १, प्रस्ता० पृ० ६९-७० | |
किन्तु वेदनाण्डके "क्षेत्रविनानमे स्यागिलका कथन करते हुए गुनकार भूतव लिने क्षेत्रको गणेना उत्कृष्ट ज्ञानावरणीय वेदना हिरा होती है, उग प्रश्नका गंगाधान करते हुए लिगा है - 'जो मग एक हजार योजनही अवगाहनावाला स्वयभुरगण समुद्र के बाप तटपर स्थित है, और वंदनागमुदुगातको प्राप्त हुआ है, तनुनातवलय स्पष्ट है, फिर भी जो तीन विगह लेकर मारणान्तिकगगुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त हुआ है और अनन्तर गमयमे गातवी पृथिवीके नातियोमें उत्पन्न होगा, उनके ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ।'
लाग पर यह नका की गई है कि उग महामत्रयको सातवी पृथिवीको छोडकर नीचे सात राजु गान जाकर निगोदिया जीवोमे क्यो उत्पन नही कराया ? इराका समाधान करनेके पश्चात् धवलाकारने लिया है कि - गंतकम्मपाहुडमे उसे निगोदमे उत्पन्न कराया है क्योकि नारकियोंमें उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यके समान सूक्ष्म निगोदजीवोमें उत्पन्न होनेवाला महामत्स्य भी विवक्षित शरीरकी अपेक्षा तिगुने वाहुल्यसे मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त होता है । परन्तु यह योग्य नही है, क्योकि अत्यधिक असाताका अनुभवकर्ता सातवी पृथ्वीमे उत्पन्न होने वाले महामत्स्यकी वेदना भर कपायकी अपेक्षा सूक्ष्मनिगोदजीवोमे उत्पन्न होनेवाले महामत्स्यकी वेदना सदृश नही हो सकती ।'
इस उल्लेससे स्पष्ट है कि पट्सण्डागमसे सतकम्मपाहुड भिन्न है क्योकि दोनोके कथनोमै अन्तर है ।
इसी तरह सत्प्ररूपणाकी टीका धवलामे जहाँ संतकम्मपाहुड और कसाय
१ से काले अधो सत्तमा पुढवी
खेत्तदो उवकस्सा ॥ १२ ॥ जुज्जदे । पट्ख०, पु० ११, पृ० २१-२२ |
-
२. पट्ख०, पु० १, पृ० २१७ ।
णेरइम्स उप्पज्जिहिदि त्ति तस्स णाणावरणीयवेदणा सतकम्मपाहुडे पुण णिगोदेसु उप्पादो ण च एद
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छक्खडागम . ५५
पाहुग्गो उपदेशो भेद बतलाया है। वहीं लिगा है I अनिवृत्तिारणो कालगे रारयातभाग शेष रहने पर रत्यानगृति भादि गोलह प्रतियोका क्षय करता है, फिर अन्तर्मुहर्त विताार आठ कपायोका भय मारता है, यह रातकम्गपाहमा उपदेश है। किन्तु कापायप्राशत का उपदेश है कि पहले माठ पायो क्षय हो जाने पर पीछे एक अन्तर्मुहर्तमे पूर्वोत्त गोलह प्रतियो का क्षय करता है।'
यहां जो सतकम्मगाहटो नामगे कायन है वह पट्मण्टागगमें नहीं मिलता। अत पट्गागमगे गतकामपाहुः भिन्न होना चाहिए ।
राम्पूर्ण धवलाटीकाम रातकम्गपाहुना उरलेग तीन बार माया है | उसमसे उपयोगी दो उल्लेसोफी चर्चा गहां की गई है। अब देगना यह है कि क्या महाकर्मप्रकृतिपातका नाग गतकम्गपाहुर है ?
महाकम्मायडिपाहुया उल्लेग धवलाटीकामे छ गात बार आया है। तीन बार तो उसका उल्लेप भगवान् भूतवलिके निमित्तिमे आया है। एक' जगह लिखा है कि भूतबलि भगवान्ने महाकम्मपयडिपाहुडका उपसहार करके छ सण्डोकी रचना की । दूगरी जगह लिया है कि भूतवलि भट्टारक अगवद्ध बात नही कह गकते, क्योकि महाकर्मप्रकृतिप्रागृतस्पी अमृतके पीनरो उनका समस्त रागटेप-मोह दूर हो गया था। तीगरी जगह लिया है कि भूतवलि भगवान चोवीस अनुयोगद्वारम्वस्प महाकम्मपडिपाहुडके पारगामी थे। इग तरह तीन उल्लेस तो भूतवलिके सम्बन्धमे आये है । शेप तीन उल्लेस चर्चाको प्रकरणसे आये है ।
एक जगह लिखा है कि दस प्रकृतियोकी उदयव्युच्छित्ति मिय्यादृष्टि गुणस्थानके अन्तिम समयमे होती है, यह महासम्मपयडिपाहुडका उपदेश है।
वर्गणाखण्डके स्पर्श अनुयोगद्वारमें लिखा है कि अध्यात्मविपयक इस सण्डग्रन्यमे कर्मम्पर्शप्रकरण प्राप्त है। महाकम्पप्रकृतिप्रागृतमे तो द्रव्यस्पर्ग, सर्वस्पर्श और कर्मरगर्ग तीनोका प्रकरण है।
१. 'महाकम्गपयटिपाटमुवमहरिऊण छक्खटाणि कयाणि। -पटग०, पु०९, १०१३३ । २. 'ण चामवर भूदवलिभटारओ परुवेदि महाकामापयटिपाटअगियवाणेण ओसारिदा
मेसरागटोममोहत्तादो'-पु. १०, पृ० २७४ ७५ । ३ 'चउवीसअणियोगधारमस्वमहाकम्मपयटिपाहुटपारयरस भूरवलिभयवतरम' ।
पु० १४, पृ० १३४।। ४ 'दसण्ह पयटीण मिच्छाठिस्स चरियसमयमिग उदयवोच्छेदो।' एसी महाकम्मपयडि.
पाटउवण्मो-पु०८, पृ०९। ५ 'एद सदगयमाप्पविसय पडुच्च कम्मफामे पयदमिदि भणिद । महाकम्मपयटिपागुडे
पुण दव्वफामेण सवफासेण कम्मफासेण पयद,'-पु० १३, ५० ३६ ।
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५६ · जैनसाहित्यका इतिहास
इसी खण्ड में आगे एक जगह यह शका की गई है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतमे शेप चौदह अनुयोगोके द्वारा कथन किसलिये किया है ?
इस तरह छै वार महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका उल्लेख हमें धवलाटीकामें मिला है । सतकम्मपाहुड और महाकम्मपय डिपाहुडके उक्त उल्लेखोमे कोई ऐसी बात लक्षित नही होती, जिससे हम दोनोको एक मान सकें । सत्कर्म और महाकर्मप्रकृति सज्ञाएँ भी एक अर्थकी द्योतक नही है | धवलाकारके कथनसे ही यह बात स्पष्ट हो जाती है और उसीसे यह भी प्रकट हो जाता है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृत और सत्कर्मप्राभृत एक नही है ।
महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौबीस अनुयोगद्वारोमेंसे केवल छ अनुयोगद्वारोके ऊपर ही भूतबलिस्वामीने षट्खण्डागमके सूत्रोकी रचना की थी । उन छे खण्डोमेंसे पाँच खण्डो पर धवलाटीका रचनेके पश्चात् वीरसेन स्वामीने शेप अट्ठारह अनुयोगद्वारोका भी कथन किया है। उन अनुयोगद्वारोमेंसे एक अनुयोगद्वारका नगम प्रक्रम है और एकका उपक्रम । यहाँ शका की गई है कि प्रक्रम और उपक्रममें क्या अन्तर है ?
इसका समाधान करते हुए श्री वीरसेनस्वामीने लिखा है " - प्रक्रम - अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति और अनुभागमे आने वाले प्रदेशाग्रका कथन करता है और उपक्रम - अनुयोगद्वार बन्धके दूसरे समयसे लेकर सत्तारूपसे स्थित कर्मपुद्गलोके व्यापारका कथन करता है । अत दोनोमें अन्तर है ।
इसके पश्चात् वीरसेनस्वामीने बन्धन- उपक्रमके चार भेद किये है-प्रकृतिबन्धन- उपक्रम, स्थितिबन्धन - उपक्रम, अनुभागवन्धन - उपक्रम और प्रदेशवन्धन - उपक्रम | इन चारोका स्वरूप बतलाकर लिखा है कि 'इन चार उपक्रमोका कथन जैसे 'सतकम्मपाहुड' मे किया गया है वैसे ही करना चाहिए ।'
इसपर यह शका की गई कि महाबन्धमें जैसा कथन किया गया है वैसा कथन इन चारोका यहाँ क्यो नही किया जाता, तो उसका समाधान करते हुए कहा गया है कि महाबधका व्यापार प्रथम समय सम्वन्धी वधमें ही है, अत यहाँ उसका कथन करना योग्य नही है ।
'महाकम्मपयडिपाहुटे किमट्ठ तेहि अणिओगद्दारेहि तस्म परूवणा कदा |' पट्०, पु० १३, पृ० १०६ ।
२. 'पक्कम-उवक्कमाण को भेदो ? पयरिट्ठिदिअणुभागेसु दुक्क माणपदेसग्गपरूवण पक्कमो कुण्ड, उवक्कमो पुण वधविदियममयप्पडुडिसतसरूवेणदिकम्मपोग्गलाण वावार परूवेदि । ~ 'एत्थ एदेसिं' चदुष्णमुवक्कमाण जहा सतकम्मपयटिपाहुडे परूविद ता परूवेयव्व । जहा महावधे परूविंद तहा परूवणा एत्य किण्ण कीरदे ? ण, तस्स पढमसमयबधम्मि चैव वावारादो ।'पट्०, पु० १५, पृ० ४२-४३ |
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छक्ख डागम : ५७
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि संतकम्मपाहुडमें वन्धके पश्चात् सत्तारूपमें स्थित प्रकृतियोका ही कथन किया गया है, अत. महावधसे वह भिन्न है ।
अतएव 'सतकम्मपाहुड' किसका नाम है ? इस प्रश्नका समाधान सत्कर्मपजिकासे होता है । वीरसेनस्वामीने जो शेष अट्ठारह अनुयोगद्वारोको लेकर धवलाटीका रची है, उसके प्रारम्भिक चार अनुयोगोपर एक पजिका उपलब्ध हुई है, उसका नाम सत्कर्मपजिका है । उसमें धवलाके उक्त अशका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है
'संतकम्मपाहुड' क्या है ? महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चोवीस अनुयोगद्वारोमें दूसरा अधिकार वेदना नामक है । उसके सोलह अनुयोगद्वारोमेंसे चौथे, छठे और सातवें अनुयोगद्वारोका नाम द्रव्यविधान, कालविधान और भावविधान है,' तथा महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका पांचवां प्रकृतिनामा अधिकार है उसमें चार अनुयोगद्वार है । आठो कर्मो प्रकृतिसत्व, स्थितिसत्व, अनुभागसत्व और प्रदेशसत्वका कथन करके उत्तरप्रकृतियोके प्रकृतिसत्व, स्थितिसत्व, अनुभागसत्व और प्रदेशसत्वको सूचित करनेके कारण उन्हें सतकम्मपाहुड कहते हैं ।'
सत्कर्मपंजिकाके इस कथन के अनुसार महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके जिन अनुयोगद्वारोंमें सत्तारूपसे स्थित कर्मका कथन है उन्हें सतकम्मपाहुड कहते है । वे अनुयोगद्वार है -- वेदना नामक अधिकारके चौथे, छठे और सातवें अनुयोगद्वार तथा महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका प्रकृतिनामक पाँचवाँ अधिकार ।
महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके स्पर्श, कर्म और प्रकृतिनामक तीन अनुयोगद्वारोको लेकर वर्गणानामक पांचवां खण्ड रचा गया है । उसके प्रकृतिनामक अनुयोगमें केवल आठो कर्मोकी प्रकृतियां मात्र बतलाई गई हैं। शेष कथन के लिए लिख दिया है कि वेदना की तरह जानना । पजिकाकारका अभिप्राय उसीसे जान पडता है । अत उनके कथनानुसार उक्त अनुयोगद्वारोको सतकम्मपाहुड कहा जाता था । अत संतकम्मपाहुड महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके अन्तर्गत ही जानना चाहिए ।
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१ ' सतकम्मपाहुड णाम त कध (द) म ? महाकम्मपय टिपाहुटस्स चउवीस आणिओगद्दारेसु विदियाहियारो वेदना णाम ? तस्स सोलसअणियोगद्दारेसु चउत्थ छट्ठम-सत्तमाणियोगद्दाराणि दव्वकालभावविहाणणामधेयाणि । पुणो तहा महाकम्मपय डिपाहुडस्स पचमो पयडीणामहियारो । तत्थ चत्तारि अणियोगद्दाराणि अट्ठकम्माण पयटिट्ट्ठिदिअणु भागप्पदेससत्ताणि परूविय सूचिदुत्तरपयडिट्ठिदिअणुभागप्पदेससत्तादो एदाणि सत्त (सत) कम्मपाहुड णाम । मोहणीय पडुच्च कसायपाहुड पि होदि । - पट्ख, पु० १५, परि०, पृ० १८ ।
२, 'सेस वेदणाए भंगो।' -पट्ख०, पु० १४, पृ० ३९२ |
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५८ . जनसाहित्यका तिहारा
गिन्तु जगधवलाम लिगा गि गति, वेदना मादि जीवीग अनुगांगदारी में प्रतिबद्ध राताम्गमहाधिकारी एग उदय नामक अधिकार है, जो प्रतियोके स्थिति, अनुभाग और प्रदेशांग उलष्ट, अनकन्ट, जगम भीर अजघन्ग उदया कथन करता है। उसमें माट प्रदेशोदगा रवामित्व गिद्ध मरनेके लिए 'राम्मुत्तुणत्ति' आदि गारह गुणश्रेणियोमा गायन गरी लिंगा है कि जो गुणश्रेणियां गगलेगो गाय भवान्तरमे गमान्त होती है उन्हें गहेंगे।
इस प्रसगग जो वागग उनत किये गये। वे वागा गदाण्यागग उक्त सतर्म नामक अभिकारगे, जिगार पाजका है, वर्तगान है। अत. वीग्गनग्यागी द्वारा गहाकर्मप्रतिमागतो शेप अद्यारह अनुयोगद्वारीको लेकर जो धवला रची गयी है वही सतागमहाधिकार है, गह प्रमाणित होता है। किन्तु जयभवलामें गतकम्गगहालिाको अद्यागत अनुगोगदारोग प्रतिवर न बतलाकर चौबीग अनुगोगहारोग प्रतिवन्त बतलाया है। गो गाय जव हम गतागंपजिकाके गायनको मिलाते है और वाग्मेनम्नागी उग नाथनको सामने रखते हैं कि वन्धफे दुगरे रागयगे लेकर राताम्पगे स्थित कर्गपुद्गलोके व्यापार स्थनको उपक्रम कहते है, तो उगसे पस्तुस्थिति पर प्रकाश पाता है । चौवीम अनुगोगद्वारीमेसे जिन-जिनमें उक्त सत्तास्पमे स्थित कर्मपुद्गलोका कयन है वे गव रातकम्ममहाधिकार या सतगमगाउमै गभित गमो जाने चाहिये । और सम्पूर्ण चौवीसो गनुयोगद्वार महाकर्मप्रकृतिप्रामृत कहे जाते है । उगमें महावन्ध भी गर्मित है। किन्तु संतकम्मपाहुडमें गहावन्ध गभित नहीं है । अत सतकम्मपाहुड महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका नामान्तर नहीं है, बल्कि उसके अन्तर्गत ही है।
जैसा कि पट्सण्ड नागमे स्पष्ट है। यह ग्रन्थराज छ सण्टोम विभक्त हैं। पहले सण्डका नाम जी चट्टाण (जीवस्थान ) है। दूसरे गण्टका नाम सुद्दावध (क्षुल्लक वन्ध ) है। तीगरे मण्डका नाम वधस्वामित्वविचय है। चौथे खण्डका नाम वेदना है, पांचवें सण्डका नाम वर्गणा है और छठे सण्डका नाम महावन्ध है।
१ 'सतकाम्गमाहियारे कदिवेदणादिनउवीमअणिओगदारसु पटिबद्ध उदओ णाम अत्याहि.
यारो 'जाओ गुणमेडीओ सकिलेसेण सह गवतर सकामेति तागो वत्तस्मामो। त जा-उवसमसम्मत्तगुणसेही संजदामजदगुणसेढी अधापवत्तसजदगुणमेदिन्ति पदाओ तिणि गुणमेदीगो अप्पसत्थगरणेण वि मदरस परभवे दीमति । सेमासु गुणमेढीसु मीणासु अप्पसत्थमरण भवे' :दि युत्त ।-ज०प० प्र०का० पृ० ३१९७९८ ।। 'जाओ गुणमेढीओ अण्णव सकागति तायो वत्तइरसामो। त जा-उवमममम्मत्तगुणमेठी सजढामजदगुणसेसी अधापमत्तगुणसेढी पदाओ तिणि गुणसेढीओ'अप्पमत्थ मरणेण वि मदम्स परभवे दिसति । सेमासु गुणसेढीसु मीणामु अप्पसत्यमरण गवे।'
-पटग्व०, पु०१५, पृ० २९७ ॥
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। छक्खंडागम : ५९ प्रस्तुत पट्खण्डागममें शुरूके पांच खण्ड ही है । छठा महावध नामक खण्ड स्वतंत्र ग्रन्थके रूपमें पृथक् माना जाता है।
'इन्द्रनन्दिने श्रुतावतारमे लिखा है कि भूतवलिने पुष्पदन्तविरचित सूत्रोको मिलाकर पांच खण्डोके छह हजार सूत्र रचे और तत्पश्चात् महावन्ध नामक छठे खण्डकी तीस हजार सूत्रग्रन्थरूप रचना की। । ।
पट्खण्डागमके सूत्रोके अवलोकनसे प्रकट होता है कि प्रथम खण्ड जीवट्ठाणके आदिमे सत्प्ररूपणासूत्रोके रचयिता पुष्पदन्ताचार्यने मगलाचरण किया है ।
और तदनुसार धवलाकारने भी कर्ता, श्रुतावतार आदिका, जो कि ग्रन्थके प्रास्ताविक कथन माने गये है, कथन किया है। पट्खण्डागमके कर्ता भूतबलिने चौथे खण्ड वेदनाके आदिमे पुन मगल किया है और तदनुसार धवलाकारने भी जीवट्ठाणके आदिकी तरह कर्ता, निमित्त, श्रुतावतार आदिको पुन. चर्चा की है । इससे यह पट्खण्डागम ग्रन्थ दो भागोमे विभक्त प्रतीत होता है । पहले भागमें आदिके तीन खण्ड है और दूसरे भागमे अन्तके तीन खण्ड है । इस दूसरे भागमे ही यथार्थत महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौबीस अधिकारोका वर्णन किया गया है। अत. प्रो० हीरालालजीने उसको विशेप सज्ञा सत्कर्मप्राभृत वतलाई है।
उन्होने लिखा है-'इस समस्त विभागमे प्रधानतासे कर्मोकी समस्त दशाओका विवरण होनेसे उसकी विशेप सज्ञा सत्कर्मप्राभृत है। महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका अपर नाम सत्कर्मप्राभृत समझकर ही प्रोफेसर साहबने ऐसा लिखा प्रतीत होता है, किन्तु इन दोनोके अन्तरकी चर्चा हम पीछे कर आये है । अत उन सबको सत्कर्मप्राभृत नही कहा जा सकता। खण्डोके नाम
षट्खण्डागमके मूलसूत्रोमें जैसे ग्रन्थका कोई नाम नहीं पाया जाता, वैसे ही खण्डोका नाम भी प्राय नही पाया जाता।
पहले खण्डका नाम जीवट्ठाण मूलसूत्रोमें नही पाया जाता। इस खण्डमे जीवके भेद-प्रभेदोको मुख्यतासे वर्णन होनेके कारण ही इसे यह नाम दिया गया है । दूसरे खण्डका प्रथम सूत्र है-'जे ते बधगा 'णाम तेसिमिमो णिद्देसो', इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस खण्डमें बन्धकोका कथन है । अत उस परसे इसे वन्धसज्ञा दी गई है और सम्भवतया 'महावन्ध' को दृष्टिमें रखकर बन्धके पहले 'खुद्दा' विशेषण लगाकर खुद्दाबन्ध नामसे इसे अभिहित किया गया है ।
किन्तु इस खण्डकी धवलाटीकाके प्रारम्भमे टीकाकारने इसके नामके सम्ब१ 'सूत्राणि पट्सहस्रग्रन्थान्यय पूर्वसूत्रसहितानि। प्रविरच्य महावन्याहये तत पष्ठक
खण्डम् ॥१३९।। त्रिशतसहस्रसूत्रग्रन्थ व्यरचयदसौ महात्मा ।-श्रुता० ।
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६० : जैनसाहित्यका इतिहास न्धमें कुछ नही कहा । हाँ, इसका उद्गम स्थान अवश्य बतलाया है।
तीसरे खण्ड 'बधसामित्त विचम'के पहले सूत्रमें उसका नाम आया है । यथा'जो सो बंधसामित्तविचओ णाम तस्स इमो दुविहो णिद्देसो ओघेण य आदेसेण य। ___ महाकर्मप्रकृतिप्राभृनके चौबीस अनुयोगद्वारोमेंसे प्रथम दोका नाम कृति और वेदना है। इन्ही दो अनुयोगद्वारोका कथन वेदना नामक चौथे खण्डों है । पहले कृतिका कथन है और फिर वेदनाका । वेदना अधिकारके पहले सूत्रमें-'वेदणा त्ति तत्थ इमाणि वेयणाए सोलस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवति' ऐसा उल्लेख है । इस परसे कहा जा सकता है कि सूत्रकारने इस खण्डका नाम सूचित कर दिया है।
उक्त दो अनुयोगद्वारोके पश्चात् स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन अनुयोगद्वारका कथन ५वें वर्गणाखण्डमें है। वन्धन-अनुयोगद्वारमें वर्गणाका बहुत विस्तारसे वर्णन है । इसीसे सम्भवतया इस खण्डको वर्गणा नाम दिया गया है।
वेदनाखण्ड और वर्गणाखण्डके बीचमे सूत्रकारने कोई ऐसी भेदरेखा सूचित नही की, जिससे इन दोनोके भेदका स्पष्ट सूचन हो सके। फिर भी वेदनाखण्डमें सोलह अनुयोगद्वार उन्होने बतलाये है, अत उनकी समाप्तिके साथ ही वेदनाखण्डकी समाप्ति समझ लेनी चाहिये। जैसे वेदनाखण्डमें पहले कृतिका कथन है, फिर अन्तमें वेदनाका कथन है और वही उस खण्डका प्रधान तथा अन्तिम विपय है, वैसे ही वर्गणामे पहले स्पर्श, कर्म और प्रकृतिका कथन है फिर बन्धनके निमित्तसे वर्गणाका कथन है । वर्गणाका कथन ही इस खण्डका प्रधान और अन्तिम प्रतिपाद्य विषय है । अत वेदनाके पश्चात्से वर्गणा पर्यन्त ही वर्गणाखण्ड होना चाहिये ।
खण्डोकी ये सज्ञाएँ वीरसेनस्वामीसे प्राचीन है, क्योकि वीरसेनस्वामीके पूर्वज अकलकदेवने अपने तत्त्वार्थवातिकमें 'जीवस्थान' और 'वर्गणा' खण्डोका उल्लेख किया है, यह हम पहले लिख आये है ।
वर्गणाखण्डका अन्तिम सूत्र है
'ज त बधविहाण त चउन्विह-पयडिवधो, ठिदिवघो, अणुभागबधो, पदेसबधो चेदि।'
इसके पश्चात् महाबन्ध नामक छठा खण्ड प्रारम्भ होता है ।
इसका महाबन्ध नाम मूल-सूत्रोमें उपलब्ध नही होता । ग्रन्थका प्रथम ताडपत्र अनुपलब्ध होनेसे यह भी नहीं कहा जा सकता कि इस खण्डकी रचनाके आरम्भमें भूतबलिने उसका नाम दिया था, या नही । किन्तु इसमें बन्धके चारो भेदोका वर्णन विस्तारसे है, अत. इसे महाबन्धसंज्ञा दी गई है।
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छक्खंडागम : ६१
सत्कर्मपंजिकाके' प्रारम्भिक कथनरो भी इसी वातका रामर्थन होता है । उसमें लिखा है-'महाकर्मप्रकृतिप्राभृतये कृति, वेदना आदि चौवीरा अनुयोगहारोमेसे कृति और वेदनाका वेदनाखण्डमे, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और वन्धनके चार अनुयोगोमेंसे वन्ध और वन्धनीयका वर्गणाखण्डमे, वन्धनविधान नामक अनियोगद्वारका महावन्धमे और बन्धक अनियोगद्वारका खुद्दावन्धमे विस्तारसे कथन किया है। शेप अठारह अनुयोगद्वार सतकम्ममें कहे गये हैं। तीर्थकर महावीरकी वाणीसे इसका सम्बन्ध और स्रोत
भगवान महावीर स्वामीकी धर्मोपदेशनाको श्रवण करके उनके प्रधान शिष्य गौतम गणधरने उसे बारह अगोमें निबद्ध किया था । वारहवा अंग दृष्टिवाद शेप सब अगोंसे महत्वपूर्ण और विशाल था। उसके महत्व और विशालताका कारण था उसके अन्तर्गत चौदह पूर्व । उनमेंसे द्वितीय आग्रायणीय पूर्वके पचम वस्तु अघिकार चयनलब्धिमें वीस प्राभृताधिकार थे। उन प्राभृत नामके अधिकारोमें चौथे प्राभृतका नाम महाकर्मप्रकृति था। उरा महाकर्मप्रकृतिके चौवीस अनुयोगद्वार नामक अधिकार थे । उनको उपसहृत करके इस पट्खण्डागम ग्रन्थको रचना की गई है। इस बातका निर्देश चतुर्थ वेदनाखण्डके आदिम कृति अनुयोगद्वारका अवतरण करते हुए स्वय सूत्रकार भूतबलिने किया है
_ 'भग्गेणियस्स पुन्वस्स पचमस्स क्त्थुस्स चउत्यो पाहुडो कम्मपयडी गाम । तत्य इमाणि चवीस अणिमोगद्दाराणि गादग्वाणि भवति–फदि वेदणाए पस्से कम्मे पयडीसु बंधणे णिवंधणे पक्कमे उवक्कमे उदए मोक्खे पुण सकमे लेस्सा लेस्सायम्मे लेस्सापरिणामे तत्थेव सादमसादे दोहेरहस्से भवधारणाए तत्य पोग्गलत्ता णिवत्तमणिवत्त णिकाचिदमणिकाचिदं कम्मढिदि पच्छिमक्खंघे अप्पाबहुग च सन्वत्य ॥४५॥
अर्थात् आग्नेयणीय पूर्वके पचम वस्तु अधिकारके अन्तर्गत चतुर्थ प्राभूतका नाम कर्मप्रकृति है। उसके विपयमें ये चौवीस अनुयोगद्वार जानने योग्य है-१. कृति, २. वेदना, ३ स्पर्श, ४ कर्म, ५. प्रकृति, ६. बन्धन, ७ निवन्धन, ८ प्रक्रम, ९ उपक्रम, १० उदय, ११. मोक्ष, १२ सक्रम, १३ लेश्या, १४ लेश्याकर्म, १ महाकम्मपयडिपाहुटस्स कदिवेदणाओ (इ) चउव्वीस मणियोगदारेसु तत्थ कदिवेदणा त्ति
जाणि अणियोगद्दाराणि वेयणाखण्डास्सि पुणो प (पस्स-कम्म-पयडि-वधण त्ति ) चत्तारि अणियोगद्दारेसु तत्थ वध बधणिज्जणामाणियोगेहि सह वग्गणा खडम्मि, पणो वधविधाण णामाणियोगद्दारो सहावधम्मि पुणो वधगाणियोगो खुद्दावधम्मि च सप्पवचेण परूविदाण । पुणो तेहिंतो सेसहारसाणियोगद्दाराणि सत कम्मे सन्वाणि परूविदाणि ।'पटख, पु. १५, परि० पृ०१।
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६२ : जैनसाहित्यका इतिहास
१५. लेश्यापरिणाम, १६ साताराात, १७ दीर्घह्रस्व, १८ गवधारणीय, १९ पुद्गलत्व, २० निधत्त-अनिवत्त, २१ निकाचित-अनिकाचित, २२ कर्मस्थिति २३ पश्चिमरकन्ध, २४ अल्पबहुत्व ।
इन्ही चौवीरा अनुयोगद्वारोको छ खण्डोम उपसहृत किया गया है। पहले कृति और दूसरे वेदना अनुयोगद्वारका उपरांहार करके चौथा वेदनासण्ड निप्पन हुआ है। तीसरे स्पर्श, चीये कर्म और पांचवें प्रकृति और छठे वन्धन अनुयोगद्वारसे पांच वर्गणासण्ड निष्पन्न हुआ है । और छठे बन्धन अनुयोगके भेदप्रभेदोसे शेप चार खण्ड उपसंहृत हुए है।
प्रथम खण्ड 'जीवस्थानका अवतार बतलाते हुए वीरसेनस्यामीने रात्परपणाके द्वितीय सूनकी धवलाटीकामें विरतारसे यह बतलाया है कि जीवस्थानका अवतार चतुर्थ कर्मप्रकृतिप्राभृतके किरा अनुयोगद्वारके अन्तर्गत किन-किन भेदो-प्रभेदोसे हुआ। यह हम पीछे लिस आये है।
दूसरे खण्ड खुद्दावन्धके प्रथमसूत्रको धवलाम वीरसेनस्वामीने लिखा है'महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके कृति, वेदना आदि चौवीस अनुयोगद्वारोमै छ? बन्धन अनुयोगद्वारके अन्तर्गत चार अधिकार है-बन्ध, वन्धक, वन्धनीय और बधविधान । उनमेरो जो बन्धक नामका दूसरा अधिकार है वही यहां सूत्रके द्वारा सूचित किया गया है । तात्पर्य यह है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतमे जो बन्धक वहे गये है उन्हीका यहाँ निर्देश है।'
इससे स्पष्ट है कि दूसरे खण्डका उद्धार महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके छठे अनुयोगद्वारके अवान्तर अधिकारोसे किया गया है ।
तीसरे खण्ड बन्धस्वामित्वविचयके प्रथमसूत्रकी धवलाटीकाम वीरसेनस्वामीने लिखा है-'कृति, वेदना आदि चौवीस अनुयोगद्वारोमे बन्धन नामक छठा अनुयोगद्वार है। उसके चार भेद है-बन्ध, वन्धक, , वन्धनीय और बन्धविधान । बन्धविधानके चार भेद है प्रकृतिवन्ध, स्थितिवन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवन्ध । प्रकृतिबन्धके दो भेद है-मूलप्रकृतिवन्ध और उत्तरप्रकृतिवन्ध ।
१ पट्ख०, पु०१, पृ० १२३-१३०।।
'जे ते वधगा णाम तेसिमिमो णिद्दे सो ॥१॥' टी०-'जे ते वधगा णाम' इति वयण वध. गाण पुज्वपसिद्धत्त सूचेदि । पुन्च कम्हि पसिद्ध वधगे सूचेदि ? महाकम्मपटिपाहुडम्मि । त जहा-महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदिवेदणादिगेसु चदुवीसअणिओगद्दारेसु छट्ठस्स बधणेत्ति अणियोगद्दारस्स बधो बधगो वणिज्ज वधविहाणमिदि चत्तारि अहियारा । तेसु - वधगेत्ति विदियो अहियारो एदेण वयणेण सूचिदो।-पटख०, पु. ७, पृ० १-२ । ३ पटख०, पु०८, पृ० २ ।
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__छक्खंडाग़म . ६३ मूलप्रकृतिवन्धके दो भेद है-एककमूलप्रकृतिवन्ध और अव्यागाढमूलप्रकृतिवन्ध । अव्यागाढमूलप्रकृतिबन्धके दो भेद हैं-भुजाकारवन्ध और प्रकृतिस्थानवन्ध । इनमें उत्तरप्रकृतिवन्धके चौवीरा अनुयोगद्वार है। उन चोवीस अनुयोगद्वारोमें एक वन्धस्वामित्व नामक अनुयोगद्वार है। उसीका नाम वधस्वामित्वविचय है। ___ इस तरह वन्धरवामित्वविचय नामक तीसरा खण्ड भी कर्मप्रकृतिप्राभृतके छठे अनुयोगटारसे उपजा है। ___ चतुर्थ खण्ड वेदनाके अन्तर्गत कृति अनुयोगद्वारके आदिमें तो सूत्रकारने स्वय ४४ सूत्रोसे मगलरूप नमस्कार किया है और पैतालीसवें सूत्रमे ग्रन्थकी उत्थानिकाके रूपमे आग्रायणीय पूर्वके पचम वस्तु-अधिकारके अन्तर्गत कर्मप्रकृतिप्राभृतके चौवीस अनुयोगद्वारोका निर्देश किया है। जिससे स्पष्ट है कि चतुर्थादि खण्ड कर्मप्रकृतिप्राभृतके कृति आदि अनुयोगद्वारोको ही सक्षिप्त करके लिखे गये है। सभवत इसीसे ही वीरसेनस्वामीने शुरूके तीन खण्डोकी तरह उत्तरके तीनो खण्डोके सम्बन्धमें यह कथन नहीं किया कि वे अमुक अनुयोगद्वारसे निकले है ।
किन्तु कृति अनुयोगद्वारके प्रारम्भिक मागलिक सूत्रोको लेकर वीरसेनस्वामीने जो लम्बी चर्चा की है उसे हम यहां दे देना उचित समझते है, क्योकि इन तीन खण्डोका द्वादशाग वाणीसे सीधा सम्बन्ध होनेके सम्बन्धमें उससे पर्याप्त प्रकाश पडता है।
शका-निवद्ध' और अनिवद्धके भेदसे मगलके दो प्रकार है। उनमेंसे यह मगल निवद्ध मगल है अथवा अनिवद्ध ? ।
समाधान ---यह मगल निवद्ध नही है क्योकि कृति आदि चौवीस अनुयोगद्वारवाले महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके आदिमें -गौतमस्वामीने यह मंगल किया है । और भूतबलि भट्टारकने इसे वहाँसे उठाकर वेदनाखण्डके आदिमें ला रखा है। अत इसे निवद्ध मगल नही मान सकते, क्योकि न तो वेदनाखण्ड महाकर्मप्रकृतिप्राभृत है, अवयवको अवयवी नहीं माना जा सकता, और न भूतवलि गौतम गणधर है, क्योकि धरसेनाचार्यके शिष्य और विकलश्रुतके धारक भूतवलि वर्धमानस्वामीके शिष्य और सकल श्रुतके धारक गौतम नही हो सकते । यदि ऐसा हो सकता, तो इस मगलको निवद्ध मगल कह सकते थे। अत यह अनिबद्ध मगल है। अथवा इसे निबद्ध मगल भी कह सकते है ।
१. सूत्रके आदिमे सूत्रकारके द्वारा जो देवताको नमस्कार किया जाता है उसे निवद्धमगल
कहते हैं। और जो सूत्रके आदिमे सूत्रकारके द्वारा निबद्ध देवतानमस्कार हैं उसे
अनिबद्धमगल कहते हैं। २, छक्ख०, पु. ९, पृ० १०३-१०४ । ।
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६४ : जेनसाहित्यका इतिहास
शका - इसे निवद्ध मंगल तो तभी कहा जा सकता है जब वेदना आदि सण्ड और महाकर्मप्रकृतिप्राभृत एक हो, किन्तु गण्डग्रन्थको महाकर्मप्रकृतिप्राभृत कैरो माना जा सकता है ?
समाधान - महाकर्मप्रकृतिप्राभृत चौवीस अनुयोगद्वारोसे सर्वथा पृथक्भूत नही है । अर्थात् चौबीस अनुयोगद्वारोका ही नाम महाकर्मप्रकृतिप्राभृत है और उन्ही अनुयोगद्वारोसे वेदना आदि सण्ड निप्पन्न हुए है, अत उन्हें महाकर्मप्रकृतिप्राभूतपना प्राप्त है ।
शंका- अनुयोगद्वारोको कर्मप्रकृतिप्राभृत मानने पर बहुतसे कर्मप्रकृतिप्राभृत हो जायेंगे ?
समाधान -- इसमें कोई दोष नही है, कयचित् ऐसा इष्ट ही है ।
शका -- महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका वेदना-अनुयोगद्वार तो महापरिमाणवाला है - वडा विशाल है उसके उपसंहाररूप इस वेदनाखण्डको वेदनापना कैसे सभव है ?
समाधान - अवयवी अपने अवयवोंसे सर्वथा पृथक नही पाया जाता । शंका- भूतबलिका गोतम होना कैसे संभव है ?
1
समाधान - उनके गोतम होनेसे क्या प्रयोजन है ?
शंका- क्योकि भूतबलिको गोतम माने विना यह मगल निवद्ध नही हो
सकता ।
समाधान --- इस खण्डग्रन्थके कर्ता भूतबलि नही है क्योकि दूसरेके द्वारा रचित ग्रन्थके अधिकारोके एकदेशरूप पूर्वोक्त शब्दार्थ सन्दर्भका कथन करनेवाला कर्ता नही हो सकता । ऐसा माननेसे अतिप्रसंग दोप आता है ।
उक्त चर्चासे दो बातें स्पष्ट होती है । एक तो वेदनाखण्डके आदिमें जो ४४ सूत्र मंगलात्मक है वे भूतवलिकृत नही है, बल्कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतकें मंगलसूत्र है और वही ज्यो-का-त्यो उठाकर भूतवलिने उन्हें वेदनाखण्डके आदि में रख दिया है। दूसरे, प्रकृत पट्खण्डागमके सूत्रोमें वर्णित अर्थ हो महाकर्म प्रकृतिप्राभृतका ऋणी नही है किन्तु शब्द भी उसीके है । भूतवलि तो उसके प्ररूपकमात्र है, कर्ता नही है ।
इन दोनो बातोसे प्रकृत षट्खण्डागमका द्वादशाग वाणीके एक अगरूप पूर्वोसे साक्षात् सम्बन्ध सिद्ध होता है ।
1 1, 3
आगे षट्खण्डोका उद्गम आग्रायणीय पूर्वके किस भेद - प्रभेदसे हुआ, इसके स्पष्टीकरणके लिए उनका यहाँ वृत्त दिया जाता है ।
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।
वेदनाखण्ड
वेदनास्पर्श
१ पूर्वान्त २ अपरान्त
।
।
कर्म
।
प्रकृतिवध १
बर्गणाखण्ड ५
बध
।
H
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।
प्रकृति--वधननिवधन
प्रक्रमउपक्रमउदयमोक्षसक्रम
उत्तर
३ ध्रुव ४ अध्रुव -५ चयनलब्धि ६ अर्धोपम ७ प्रणिधिकल्प ८ अर्थ
बधनीय
स्थितिवध २ अनुभागवध ३
२० पाहुड उनमेंसे चौथा कर्मप्रकृतिपाहुड
वधविधान
लेश्या
खुद्दावध खड २
२४ अनुयोग
। । १४ वस्तु
। ।
बधक
आग्रायणीयपूर्व बारहवे अग दृष्टिवादके चतुर्थ भेद पूर्वगतका दूसरा भेद
छक्खडागम • ६५
९ भीम
१० व्रतादिक
।
9
११ सर्वार्थ
।
महावधखण्ड ६
प्रदेशबध ४
।
लेश्याकर्मलेश्यापरिणाम
सातासातदीर्घह्रस्वभवधारणीय
पुद्गलतानिधत्तानिधत्त२१ निकाचिता
निकाचित २२ कर्मस्थिति२३ पश्चिमस्कन्ध२४ अल्पबहुत्व
वधविधान
१२ कल्पनिर्याण १३ अतीतसिद्ध-बद्ध - १४ अनागत , -
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६६ : जैनसाहित्यका इतिहास
उत्तरप्रकृतिबध
एकैकोत्तर
____ अन्वोगाढ
-205
सर्वबन्ध
नोसर्व१ समुत्कीर्तना
जघन्यअनुत्कृष्टसादि
ध्रुवअनादिअजघन्य
अध्रुववधकालबन्धान्तर
क्षेत्रभगविचयपरिमाणभागाभागस्पर्शन-- काल
अन्तर-१२-बन्धस्वामित्ववि०
भाव
अल्पवहत्व| १५ वधसन्निकर्प
१० ११ १३ १४ १६ १७ २२
2221
-२३
२४
बन्धस्वामित्ववि० प्रकृति स्थिति दण्डक १ दण्डक २ दण्डक ३ खण्ड ३ भावप्ररूपणा जीवट्ठाणकी पाँच चुलिका
(जीवठ्ठाणका ७वा अधिकार)
अव्वोगाढ
। प्रकृतिस्थान
भुजगार
जापा
१ २ ३ | ४ | ५ ६ ७ ८ सत् सख्या क्षेत्र स्पर्शन काल अतर भाव अल्पबहुत्व
J | । ।
जीवट्ठाणके छह अनुयोगद्वार बंधकके ग्यारह अनुयोगद्वारोमें पांचवें द्रव्यप्रमाणानुगमसे जीवट्ठाणकी संख्या रचना-शैली ____ प्रस्तुत छक्खडागमके अन्तर्गत पाँचो खण्ड प्राकृत-भापाके प्रसादगुणयुक्त सूत्रोमें रचे गये है । पाँचो खण्डोके सूत्रोकी सख्या साढे छ हजारसे अधिक है । चौथे और पांचवें खण्डमें कुछ गाथासूत्र भी है ।
स्त्र अपने आपमें पूर्ण और बहुत स्पष्ट है । प्राकृत-भापाका साधारण जानकार भी सूत्रोको पढते ही उनका शब्दार्थ समझ सकता है। किन्तु चूंकि उनमें प्रतिपादित विपय जैन सिद्धान्तके गूढ और गम्भीर तत्त्वोंसे सम्बद्ध है, अत पारिभापिक शब्दोके वाहुल्यके कारण उनका भाव समझ सकना सरल नही है । जो जैन कर्मसिद्धान्तकी मोटी-मोटी बातोमे परिचित है वे उनके सूत्रोके आगयको भी सरलतासे हृदयगम कर सकते है, पर सभी खण्डोके विपयमें ऐसा नही कहा जा सकता।
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छक्खडागम • ६७
सभी सूत्र अल्पाक्षर है, असन्दिग्ध है और सारवान् है । अल्पाक्षरका यह अभिप्राय नहीं है कि सभी सूत्र छोटे है। प्रतिपाद्य विपयकं अनुसार उनकी रचना है। उदाहरणके लिये 'सव्वद्धा' जैसे छोटे सूत्र भी है और ऐसे भी है जो कई पंक्तियोमे समाप्त होते है।
संक्षेपमे इस ग्रथकी शैली आगामिक सूत्रशैली है । इस शैलीकी निम्नलिखित विशेपताएँ पायी जाती है१ विपयानुसार सूत्रोके शब्दोकी योजना । २ निरर्थक शब्दोका अभाव । ३ प्रसादयुक्तता। ४ पारिभापिक शब्दोका प्रयोग ।
५ अर्थगाम्भीर्य । विषय-परिचय
जीवट्ठाण' पहले खण्डका नाम जीवट्ठाण या जीवस्थान है। इसके आठ अनुयोगद्वार है-सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । इनमेंसे प्रथम अनुयोगद्वार सत्प्ररूपणाके कर्ता आचार्य पुष्पदन्त है और शेपके कर्ता आचार्य भूतवलि है ।
सत्प्ररूपणा-इसके सूत्रोकी सख्या १७७ है। इसका प्रारम्भ जैनोके प्रसिद्ध महामत्रसे होता है । वही इसका प्रथम सूत्र है, जो इस प्रकार है
णमो अरिहताण णमो सिद्धाण णमो आइरियाण ।
णमो उवज्झायाणा णामो लोए सव्व-साहूण ॥१॥ इसका व्याख्यान करते हुए वीरसेनस्वामीने मगलके दो भेद निबद्ध और अनिबद्ध किये है । सूत्रोके आदिमे सूत्रकारके द्वारा निवद्ध किये गये देवता-नमस्कारको निवद्ध मगल और सूत्रके आदिमें सूत्रकारके द्वारा किये गये देवता-नमस्कारको अनिबद्ध मगल बतलाकर उन्होने इसे निवद्ध-मगल कहा है । इससे यह प्रकट होता है कि यह मगल पुष्पदन्तके द्वारा रचित है क्योकि निवद्धसे उनका १ यह पहला खण्ड प्रथम वार श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द, जैन साहित्योद्धारक
फण्ड कार्यालय, भेरसासे ५ जिरदोंमें प्रकाशित हुआ है। २ 'तत्य णिबद्ध णाम जो सुत्तस्सादी सुत्तकत्तारण णिबद्ध-देवदा-णमोकारो त णिवद्ध
मगला जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कय-देवदा-णमोकारो तमणिवद्वमगल । इद पुण जीवट्ठाण णिवद्धमगल । यत्तो 'इमेसि चोइसण्ह जीवसमासाण' इदि एदस्स सुत्तस्सादीए णिवध 'रामो अरिहंताण' इच्चादिदेवदा णमोकार-दसणाटो।'
-पट ख०, पु. १, पृ० ४१ ।
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६८ · जैनराहित्यका इतिहाग भभिप्राय स्वरचितगे है और किये गये (MT) गे अभिप्राय है दुगो द्वाग रन गये गंगतको गन्गगे नादिन राति गार तेगा। गैदनामको गति अनुयोगद्वार:के आदिंगे तवलिने जो मगलापगे ४४ गुग ग्यापित किये है उन्हें नीग्गेनस्वागीने अनिवद्ध गगल गाता है, गयोगिक गुण गार्गप्रातिप्रागत र गगलगून है और नहींगे लार उन्हें ग्भापित गागा गया है । अत उक्त मगला पुणदन्तरचित होना रगष्ट है। न्तु उगग भने गिप्रतिपत्तियां है-ताम्बर गम्प्रदायमें भी यह गा गी स्पगे मान्य है। भगवतीगूगका प्रारम्भ गी मगलमूनसे हमा है। आवश्य करागो मध्यगे भी यह मन पाया जाता है।
इरागे सिवाय गारवेग प्रगिद्ध गिलालेगमा आरम्भ भी 'णमो अग्रताण णमो सिद्धाणं, इन पदोरो होता है।' मत गह मान गिवादग्रस्त है । बग्तु । गूग दोरो गन्यमें प्रतिपादित निगगका बारम्भ होता है___ 'एतो इगेसिं गोदगण्ह जीवगगागाण गग्गणदाए तत्य गाणि चोदम चैव ट्ठाणाणि णादन्वाणि भवति ॥२॥ _ 'इन नौदह जीवसगागो ( गुणस्थानी ) के अन्वेपणगे लिये ये चौदह मार्गणास्थान जानने योग्य है।
सून ४ में चौदह मार्गणाओके नाग गिनागे है-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, नपाय, ज्ञान, संगम, दर्गन, लेगा, भव्यत्व, सम्यक्त्व, गजी, आहारक ।
सूत्र ५ में लिखा है कि-इन चौदह गुणरथानोके कथनके लिये ये गाठ अनुयोगद्वार जानने योग्य है।
सून ७ में उन गनुयोगदारोके नाम गिनाये है
'सतपस्वणा, दयपमाणाणुगमो, वेत्ताणुगमो, फोगणाणुगमो, कालाणुगमो, अतराणुगमो, गावाणुगमो, अप्पबहुगाणुगमो चेदि ॥७॥'
इन्ही आठ अनुयोगदारोमें जीवट्ठाण-पण्ड विभक्त है । सून ८ से प्रथग अनुयोगद्वार 'सतपस्वणा'का कथन प्रारम्भ होता है ।
'संतपख्वणाए दुविहो णिद्देशो ओघेण आदेसेण य ।।८॥'
'जीवसमासो ( गुणस्थानो )के सत्वकी प्ररूपणामे दो प्रकारका निर्देश हैओघ अर्थात् सामान्यसे और आदेस अर्थात् विशेषरो।'
सतका मतलब है सत्ता । और प्ररूपणाका मतलब है-निरूपण या प्रज्ञापन या कथन । गुणस्थानके लिये यहाँ जीवसमासशब्दका प्रयोग किया है । जीवसमास १ पट्ख०, पु० ९, पृ० १०३ । २ इसके विशेष विचारके लिये प० कैलाशचन्द्र शास्त्री लिसित 'नमस्कारमत्र' नामक
पुस्तक देखनी चाहिए। ३. 'सत्सत्त्वमित्यर्थ , "प्ररूपणा निरूपणा प्रज्ञापनेति यावत्'–पट ख०, पु० १, पृ० १५९।
-
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'छक्खंडागम • ६९ का अर्थ है जिनमें जीव भले प्रकार रहते है अथवा पाये जाते हैं उन्हें जीवसमास' कहते है । जैन सिद्धान्तमें गुणोके अनुसार संसारके सव जीवोका वर्गीकरण चौदह विभागोमे किया गया है । उन चौदह विभागोको ही गुणस्थान कहते है । ये गुणस्थान ससारके जीवोके क्रमिक विकासके सूचक स्थान है । इन पर अवरोह मोक्षकी ओर ओर अवतरण ससारकी ओर ले जाता है । उनके अस्तित्वके कथनके दो प्रकार है - सामान्य कथन और विरोप कथन । प्रथम सामान्य कथन किया है फिर विशेष कथन किया है । इन दोनो प्रकारके कथन के लिये जैन सिद्धान्तमें ओघ और आदेश शब्द रूढ है ।
सूत्रकारने चौदह सूत्रोके द्वारा चौदह गुणस्थानोंके नामोका निर्देश किया है | उनका स्वरूप जाने बिना प्रकृत सिद्धान्तग्रन्थके रहस्य को समझना शक्य नही है । अत सक्षेपमे उनका स्वरूप बतला देना अनुचित न होगा
?
१. 'ओघेण अत्थि मिच्छाइट्ठी ॥९॥
ओघसे मिथ्यादृष्टि जीव है । यहाँ मिथ्याशब्दका अर्थ असत्य है । और दृष्टिशब्दका अर्थ दर्शन अथवा श्रद्धान । जिन जीवोकी दृष्टि मिथ्या होती है उन्हे मिथ्यादृष्टि कहते है । दृष्टिके मिथ्या होनेका कारण मिथ्यात्वमोहनामक कर्मका उदय है । जिन जीवोके मिथ्यात्वका उदय होता है उनका श्रद्धान विपरीत होता है। ओर जैसे पित्तज्वरके रोगीको मीठा दूध भी कडुवा लगता है वैसे ही उन्हें यथार्थ धर्म भी अच्छा नही लगता । यह पहला गुणस्थान है ।
२. ' सासणसम्माइट्ठी 3 ॥ १०॥ '
दूसरे गुणस्थानका नाम सासादनसम्यग्दृष्टि है । सम्यग्दर्शनकी विराधनाको आसादन कहते है । जो आसादन सहित हो उसे सासादन कहते हैं । जो जीव सम्यग्दृष्टी होकर अपने सम्यग्दर्शनको विनष्ट कर लेता है और इस तरह सम्यक्त्वसे मिथ्यात्व की ओर अभिमुख होता है उसे सासादनसम्यग्दृष्टी कहते हैं । कहा है— 'सम्यग्दर्शनरूपी रत्नपर्वत के शिखरसे गिरकर जो जीव मिथ्यात्वरूपी भूमि ( पहला गुणस्थान ) के अभिमुख होता है, अतएव जिसका सम्यग्दर्शनरूपी रत्न तो नष्ट हो चुका है किन्तु जो मिथ्यात्वको प्राप्त नही हुआ है, पतनकी इस मध्य अवस्था वाले जीवको सासादनसम्यग्दृष्टि कहते हैं ।
३ ' सम्मामिच्छाइट्ठी ॥११॥'
१. ' जीवसमास इति किम् ? जीवा सम्यगासतेऽस्मिन्निति जीवसमास । क्वासते । गुणेपु ।
पट्ख, पु १, पृ० १६० ।
२ पट ख०, पु० १, पृ० १६१ ।
३ वही, पृ० १६३ |
४. वही, पृ० १६६ |
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७० · जैनसाहित्यका इतिहास
तीरारे गुणस्थानका नाम सम्यग्गिय्यादृष्टि है। जिगकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा या रुचि सच्ची जोर विपरीत दोनो प्रकारली होती है उरी राग्यग्गिय्यादृष्टि वाहते है । कहा है-जरो दही और गुड को मिला देने पर उन्हें अलग-अलग नहीं किया जा सकता। उगी प्रकार गायवल गौर मिय्यात्ताप मिले हुए भाव वाले जीवको सम्यग्मिथ्यादृष्टि जानना चाहिये ।
४. 'असजदराम्माद ठी' ॥१२॥' जिसकी दृष्टि अर्थात् अद्धा राम्यक्राच्ची होती है उसे गम्यग्दृष्टि कहते है । और सयमरहित राम्यग्दृष्टिको अरांयतराम्यग्दृष्टि कहते हैं । वे राम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकारसे होते है-क्षायिकराम्यग्दृष्टि, वेदकसम्गग्दृष्टि और ओपगमिकासम्यग्दृष्टि । __ मिथ्यात्व, राम्यमिथ्यात्व, राम्यक्त्वमोहनीय, अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोग ये मोहनीयामकी सात प्रकृतियां जीवकी श्रद्धाको दूपित करती है। अत इन सातो वामप्रकृतियोका सर्वथा विनाग हो जाने पर जीनमें जो सम्यग्दर्शन गुण प्रकट होता है उसे क्षायिकगम्यग्दर्शन नहते है और उरा जीवको क्षायिक सम्यग्दृष्टि कहते है । उक्त सात प्रकृतियोके उपशम (दव जाने)से जिसके सम्यग्दर्शन प्रकट होता है उसे औपशमिकसम्यग्दृष्टि कहते । उक्त सात कर्मप्रकृतियोमेसे सम्यक्त्वमोहनीयवामका उदग ररते हुए जो सम्यग्दर्शन होता है उसके धारी जीवको वेदकमभ्यग्दृष्टि कहते है ।
इन तीनोमेसे क्षायिकराम्यग्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्वमे नही जाता, किन्तु औपशमिकसम्यग्दृष्टि उपशमसम्यक्त्वके छूट जाने पर मिथ्यात्वनामक पहले गुणस्थानवाला हो जाता है। या सासादनगुणस्थानवाला होकर फिर मिथ्यात्वगुणस्थानमे जाता है। कभी तीसरे गुणस्थानवाला भी हो जाता है। कहा हैजो न तो इन्द्रियोके विपरोसे विरक्त है और न बस और स्थावर जीवोकी हिंसासे विरत है, किन्तु जिनेन्द्रदेवके द्वारा कहे हुए तत्वोपर श्रद्धा रखता है उसे असयतसम्यग्दृष्टि कहते है । मागेके सब गुणस्थान सम्यग्दृष्टिके ही होते है।
५. 'सजदासजदा ॥१३॥'
जो सयत होते हुए भी असयत होते है उन्हे संयतासयत कहते है । कहा है- जो जिनेन्द्रदेवमे ही श्रद्धा रखते हुए सजीवोकी हिंसासे विरत और स्थावर जीवोकी हिंसासे अविरत होता है उसे विरताविरत या सयतासयत कहते है।
१. पटख, पु १, पृ० १७१ । २. वही, पु०१, पृ० १७३ ।
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६ 'पमत्त राजदा ' ॥ १४॥
प्रमाद युवा जीवको प्रगत्त कहते हैं और हिसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिगहमे विरतको रायत कहते है । प्रमादी सयगीको प्रमत्तसयत कहते हैं । कहा भी है - 'जो व्यक्त या अव्यक्त प्रगाद में निवास करता है किन्तु समरत गुणो और शीलोमेयुक्त महाव्रती होता है उसे प्रमत्तसयत कहते है । उराका आचरण प्रमादके कारण सदोप होता है ।
७ 'अप्पमत्त सजदा ॥१५॥'
जो प्रमत्तसयत नही है उन्हें अप्रमत्तरायत कहते है । अर्थात् प्रमादरहित सयमी जीवोको अप्रमत्तरायत कहते है ।
आगे सब गुणस्थान सयमी मनुष्यो के ही होते हैं | सातवें गुणस्थानके वाद आठवे गुणस्थान दो श्रेणियां प्रारम्भ होती है । एक उपशमश्रेणि और एक क्षपक श्रेणि । उपशमश्रेणिमे चढने वाला जीव मोहनीयकर्मको नष्ट न करके दवाता जाता है । इमोसे ग्यारहवें गुणस्थानमें पहुँचकर वह नीचे गिर जाता है । और क्षपकश्रेणिपर आरोहण करने वाला मोहनीयकर्मको नष्ट करता हुआ आगे बढता है । अत उसका पतन नही होता। ये दोनों श्रेणियां ध्यानमग्न माधुओके ही होती है ।
.
छवखंडागम • ७१
८ ' अपुव्यकरणपविट्ठसुद्धिराजदेसु अस्थि उवसमा खवा' ॥१६॥'
आठवे गुणस्थानका नाम अपूर्वकरणमयत है । 'करण' शब्दका अर्थ है परिणाम --जीवके भाव या विचार । अपूर्व अर्थात् जो इससे पहले नही हुए, ऐसे सत्परिणाम वाले सयमी अपूर्वकरणसयत कहे जाते है । इन अपूर्वकरणसयतोमे उपशमश्रेणवाले भी होते है और क्षपकश्रेणिवाले भी होते है ।
९ 'अणियट्टिवादरसापराइयपविट्ठसुद्धिसजदे अस्थि उवसमा खव ॥ १७॥ ' नौवें गुणस्थानका नाम अनिवृत्तिवादरसाम्परायसयत है । इस गुणस्थानमे एक समयमे एक ही परिणाम निश्चित है । अत इसमें समानसमयवर्ती जीवो - के परिणाम सदृश ही होते हैं । इसीको अनिवृत्तिशब्दसे कहा है । साम्पराय - शब्दका अर्थ है कपाय और बादरका अर्थ है स्थूल । अत स्थूल कपायको वादरसाम्यराय कहते है और अनिवृत्तिवादरसाम्परायरूप परिणामवाले सयमियोको अनिवृत्तिवादरसाम्परायसयत कहते हैं । वे सयत उपशमक भी होते है और क्षपक भी होते है ।
१. पट्ख०, १४, पृ० १७५ ।
२ वही, पृ० १७८ ।
३ वही, पृ० १७९ |
४. वही, पृ० १८३ ।
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'७२ : जैनसाहित्यका इतिहास
यहाँ जो 'वादर' शब्द है वह उग वातका सूनक है कि पूर्वके राय गुणस्थानोमे स्थूल कापाय रहती है।
१० 'सुहुगराापराऽयपविट्ठशुद्धिराजदेसु अस्यि उवरामा सवा ॥ १८ ॥
दसवें गुणरथानका नाम गूद ममागरायगयत है। जिन रायमियोके सूक्ष्म कपाय रहती है उन्हे सूदमगारायरायत कहते है । वे उपशमक भी होते है और क्षपक भी।
११. 'उनरातकगायवीयरायछनुमत्या ॥ १९ ॥'
जिनकी कपाय उपशान्त है उन्हें उपशान्तकपाय कहते है । और जिनका राग नष्ट हो गया है उन्हें वीतराग कहते है । तया अल्पज्ञानियोको छास्थ कहते है। उपशान्तकपाय वीतरागी छमस्थोको उपशान्तकपायवीतरागछास्थ कहते है । यह ग्याहरहा गुणरथान है । कहा भी है
निर्मलीसे युक्त जलकी तरह अथवा शरदऋतुमे होने वाले सरोवरके निर्मल जलकी तरह, सम्पूर्ण मोहनीयकर्मके उपशमसे होनेवाले निर्मल परिणामवाले जीवको उपशान्तकपाय कहते है।'
१२ ‘खीणकगायवीयरायदुभत्या ॥ २० ॥
जिनकी कपाय क्षीण हो गई है उन्हे क्षीण कपाय कहते हैं। जो क्षीण कपाय होते हुए वीतराग होते है किन्तु छदारथ होते है उन्हें क्षीणकपायवीतरागमस्थ कहते है । यहाँ जो 'छद्मरथ' शब्द है वह पूर्वके सब गुणस्थानवर्ती जीवोको छमस्थ सूचन करता है। यह वारहवा गुणस्थान है । कहा भी है
"जिराने सम्पूर्ण मोहनीय कर्मको नष्ट कर दिया है अतएव जिनका चित्त स्फटिक मणिके निर्मल पानमे रखसे हुए जलके समान निर्मल है ऐसे निर्ग्रन्थ साधुको क्षीणकपायगुणस्थानवाला कहा है।'
१३ 'सजोगकेवली ॥ २१ ॥'
मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिको योग कहते है । और योगसहितको सयोग कहते है । तथा इन्द्रिय, मन, प्रकाश आदिकी सहायताके विना होने वाले ज्ञानको केवलज्ञान कहते है और जिसके केवलज्ञान होता है उसे केवली कहते है। तथा योगसहित केवलीको सयोगकेवली कहते है । यह तेरहवा गुणस्थान है। उसके चारो घातियाकर्म नष्ट हो जाते है। और शेप चार कर्म भी शक्तिहीन हो जाते है। कहा भी है१. पटख० पु. १, पृ० १८७ । २. वही, पृ० १८८। ३. वही, पृ० १८९ । ४. वही, पृ० १९०।
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छक्खंडागम • ७३
'जिसका केवलज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोके समूहसे अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो गया है और नौ केवललव्धियोके प्रकट हो जानेसे जो 'परमात्मा' कहा जाता है उसको ज्ञान और दर्शन परकी सहायतासे नही होता, इसलिये उसे केवली कहते है और योगसे युक्त होनेके कारण सयोग कहते है ।'
इस तरह तेरहवें गुणस्थानका नाम सयोगकेवली है ।
१४ 'अजोगकेवली' ॥ २२ ॥ '
जिसके योग नही होता उसे अयोग कहते है । और योगरहित केवलज्ञानीको अयोगकेवली कहते हैं । कहा है
'जिन्होने शील के अट्ठारह हजार भेदोके स्वामित्वको प्राप्त कर लिया है । समस्त कर्मोंके आस्रवको रोक दिया है, और कर्मबन्धनसे मुक्त है तथा योगसे रहित केवली है उन्हें अयोगकेवली कहते है । यह चौदहवाँ गुणस्थान है । इसमे आनेके पश्चात् ही जीव ससारके बन्धनोसे मुक्त हो जाता है ।'
इस तरह ये चौदह गुणस्थान मोक्षके लिये सोपानके तुल्य है ।
इस तरह ओघसे चौदह गुणस्थानोका कथन करके सूत्रकारने आदेशसे ( विस्तार से ) गुणस्थानोका कथन किया है ।
जिस तरह चौदह गुणस्थान होते हैं उसी तरह चौदह मार्गंणास्थान होते है । जिनमें या जिनके द्वारा जीवोको खोजा जाता है उन्हे मार्गणा कहते है । इन मार्गणाओके द्वारा गुणस्थानोका कथन करनेको आदेश कथन कहा जाता है । जैसे१ गति चार है - नरकगति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देवगति । नरकगतिमें प्रारम्भके चार गुणस्थान वाले ही जीव होते है । तिर्यञ्चगतिमे आदिके पाँच गुणस्थानवाले ही जीव होते है । मनुष्यगतिमे चौदहो गुणरथानवाले जीव होते है । देवगतिमें नरकगतिकी तरह चार ही गुणस्थानवाले जीव होते है ।
1
२ इन्द्रिय पाच है— स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र । जिसके एक स्पर्शन ही इन्द्रिय होती हैं उन्हें एकेन्द्रिय जीव कहते है जैसे वनस्पति । जिसके स्पर्शन, रसना दो इन्द्रियाँ होती है उन्हें दो इन्द्रिय कहते हैं, जैसे लट । जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण तीन इन्द्रियाँ होती है उन्हें त्रि-इन्द्रिय कहते हैं, जैसे चिउटी । जिसके शुरू की चार इन्द्रियाँ होती है उन्हें चौइन्द्रिय जीव कहते हैं, जैसे भौंरा । और जिनके पाचो इन्द्रियाँ होती है उन्हे पञ्चेन्द्रिय कहते है, जैसे गाय, भैंस, मनुष्य । इनमें से पञ्चेन्द्रिय जीवके तो चौदह गुणस्थान हो सकते है आदिके पहला ही गुणस्थान होता है ।
किन्तु शेप एकेन्द्रिय
३ कायकी अपेक्षा जीवोके छै भेद है - पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्नि
१. पट्ख, पु० १, पृ० १९२ ।
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७४ - जनसाहित्यका इतिहास कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और पराकायिक । गुरूके पांच कायिक जीवोंके केवल एक स्पर्मन इन्द्रिय होती है । अत. उनके पहला गुगस्थान ही होता है। शेप दो इन्द्रियम लेकर पञ्चेन्द्रिय तक सब जीन रा कहे जाते है । अत नसोके चौदह गुणग्यान होते है क्योकि पञ्चेन्द्रिय भी बग है।
४ योगो तीन भेद है-कागयोग, वचनयोग और मनोयोग । इन तीनो योगोके अनेक भेद है । ये तीनो याग तेरहवे गुणस्थान तक होते है ।
५ वेद भो तीन है--रनीवेद, पुम्पवेद, नपुगकावेद । ये तीनो भेद नौवे गुणस्थान तक होते है।
६ कपाय चार है-क्रोध, मान, माया और लोभ । गुरकी तीन कपाय नीवे गुणस्थान तक और अन्तकी लोग कपाय दगवे गुणस्थान तक रहती है। आगेके गुणस्थानोमे कपाय नही होती।
७ ज्ञान पाच है-गतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इनमसे प्रारम्भके तीन ज्ञान मिथ्या भी होते है । ये तीनो मिथ्याज्ञान पहले और दूमरे गुणस्थानमे रहते है। तीसरे मिश्रगुणस्थानगे आदिके तीन मिय्याज्ञानसम्यग्ज्ञान मिले-जुले होते है । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान चौथे गुणस्थानसे लेकर वारहवे गुणस्थान तक होते है । मन पर्ययज्ञान छठे प्रमत्तसयतगुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक होता है । केवलज्ञान रायोगकेवली, अयोगकेवली गुणस्थानोमे तथा सिद्धजीवोमे रहता है।
८ सयममार्गणाके सात भेद है-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहाविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यात ये पाँच सयम, एक सयमासयम और एक असयम ।
छठे गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तकके जीव सयमके धारी होते है। उनमेंसे सामायिकसयम और छोदोपस्थापनासयम ठेसे नौवे गुणस्थान तक होते है। परिहारविशुद्धिसयम प्रमत्तसयत और अप्रमत्तगयत गुणस्थानवाले जीवोके होता है। सूक्ष्मसाम्परायसयम एक सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवे गुणस्थानवाले जीवोके ही होता है। यथाख्यातसयम अन्तो चार गुणस्थानोमें होता है। सयमासयम एक सयतासयत गुणस्थानमे ही होता है । प्रथम चार गुणस्थान वाले जीव असयत होते है उनमे सयम नहीं होता। ___९ दर्शनमार्गणाके चार भेद है-चक्ष दर्शन, अचक्ष दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । चक्षु दर्शन और अचक्ष दर्शन वाले जीव वारहवें गुणस्थान तक होते है । अवधिदर्शन चौथेसे वारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है। केवलदर्शन सयोगकेवली, अयोगकेवली और सिद्धोके होता है। १ पट्ख., पु. १, पृ० ३६८-३७८ । • वही, पृ० ३७८-३८५ ।
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छक्खंडागम • ७५
१० लेश्याके' छै भेद है-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या चौथे गुणस्थान तक होती है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्या सातवे गुणस्थान तक और शुक्ललेश्या तेरहवे गुणस्थान तक होती है। उसके बाद लेश्या नही होती, क्योकि योग और कपायके मेलका नाम लेश्या है और तेरहवें गुणस्थानके वाद योग और कपाय दोनो नही रहते ।
११ भव्यत्वमार्गणाके दो भेद है-भव्य और अभव्य । जो जीव आगे मुक्तिलाभ करेंगे उन्हें भव्य कहते है । और जिन जीवोमे मुक्ति प्राप्त कर सकनेकी योग्यता नही है उन्हें अभव्य कहते है । अभव्य जीवोके पहला ही गुणस्थान होता है और भव्योके चौदह गुणस्थान होते है ।
१२ सम्यक्त्वमार्गणाके3 छ भेद है-क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृप्टि, उपशमसम्यग्दृप्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यगिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि ।
क्षायिकसम्यग्दृष्टि चौथेसे लेकर चौदहवें गुणस्थान तक होते है । वेदकसम्य-ग्दृष्टि चौथेसे लेकर सातवें गुणस्थान तक होते है। उपशमसम्यग्दृष्टि चौथेसे लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक होते है । सासादनसम्यग्दृष्टि एक सासादन गुणस्थानमे ही होते है । सभ्यक्मिथ्यादृष्टि एक सम्यक् मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे होते है और मिथ्यादृष्टि जीव पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमे होते है ।
१३ सज्ञीमार्गणाके दो भेद है-सज्ञी और असज्ञी । सज्ञीके पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर बारहवें क्षीणकपाय गुणस्थान तक होते है । असज्ञी पहले ही गुणस्थानमें होते है।
१४ आहारमार्गणाके दो भेद है-आहारक और अनाहारक । आहारक तेरहवे गुणस्थान तक होते है और अनाहारक विग्रहगति अवस्थामे पहले-दूसरे और चौथे गुणस्थानमें, समुद्घात करने वाले सयोगकेवली, अयोगकेवली और सिद्ध अवस्थामें होते है। __अन्तिम आहारमार्गणाके कथनकी समाप्तिके साथ ही सत्प्ररूपणा समाप्त हो जाती है । पुष्पदन्ताचार्यकी रचनाका अन्त भी उसीके साथ हो जाता है ।
सामान्य सत्प्ररूपणामें चौदह गुणस्थानोकी अपेक्षा जीवके अस्तित्वका प्रतिपादन किया गया है और विशेषमें चौदह मार्गणाओकी अपेक्षा गुणस्थानोमें जीवो१. पट्ख० पु. १, पृ० ३८६-३९२ । २ वही, पृ० ३९२-३९४ । ३ वही, पृ० ३९५-४०८ । ४ वही, पु०१, पृ० ४०८-४०९ । ५ वही, पृ० ४०९-४१० ।
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७६ - जैनसाहित्यका इतिहास के अस्तित्वका प्रतिपादन किया है। इसीसे इसका नाम सत्प्रस्पणा है । यही कथन आगेके काथनका प्रवेशद्वार है । उरामे प्रवेश हुए विना आगेके खण्डोमे गति होना कठिन है । अत पहले खण्ड 'जीवट्ठाण' के आदिमें ही उसे स्थान दिया है।
गुणस्थानो और मार्गणारयानोके द्वारा इस प्रकाररो जीवकी सत्ताका विवेचन जैन परम्पराके सिवाय न बौद्ध परम्पगमे पाया जाता है मीर न वैदिक परम्परामें । उपनिषदोगें आत्मतत्वका प्रतिपादन अवश्य है किन्तु मोक्षके सोपानभूत ऐसी किन्ही भूमिकाओका वर्णन उनमें नहीं है, जिनकी तुलना गुणस्थानोसे की जा सके । और न जीवकी विविध दशाओ और गुणोकी परिणतियोको लेकर ऐसा ही कोई विचार उनमें मिलता है जिसकी तुलना जैन सिद्धान्तके मार्गणास्थानोसे की जा सके।
हाँ, योगवाशिष्ठ और पातञ्जल योगदर्शनमे आत्माकी भूमिकाओका विचार अवश्य मिलता है । योगवाशिष्ठमे' सात भूमिकाए ज्ञानकी और सात भूमिकाएँ अज्ञानकी इस तरह चौदह भूमिकाएं वतलाई है, जो जैन परम्पराके उक्त १४ गुणस्थानोका स्मरण कराती है । उनमें जो सात ज्ञानभूमिकाएँ है वे इस दृष्टिसे द्रष्टव्य है-पहली भूमिकाका नाम शुभेच्छा है। वैराग्यपूर्व इच्छाको शुभेच्छा कहते है । शास्त्र और सज्जनोके सम्पर्कसे तथा वराग्यके अभ्यासपूर्वक जो सदाचार प्रवृति होती है उसे दूसरी विचारणा भूमिका कहते है । विचारणा और शुभेच्छासे जो इन्द्रियोके विषयोमें अनासक्ति होती है उसे तीसरी तनुमानसा भूमिका कहते है । तीसरी भूमिकाके अभ्याससे शुद्ध आत्मामें चित्तको स्थितिको चौथी सत्वापत्ति भूमिका कहते है। ___ सात ज्ञानभूमिकाओका उक्त वर्णन चतुर्थ आदि गुणस्थानोमे स्थित आत्माके लिए लागू होता है । योगवाशिष्ठके कुछ अन्य वर्णनोमे भी जैन विचारोकी
१ अशनभू सप्तपदा शभू सप्तपदैव हि । पदान्तराण्यसख्यानि भवन्त्यन्यान्यथैतयो ॥२॥
-उत्प० प्र०, स० ११७ । २ स्थित किं मूढ एवास्मि प्रक्षोऽह शास्त्रसज्जनै,।
वैराग्यपूर्वामिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यतै बुधै ॥ ८ ॥ ३ 'शास्त्रसज्जनसम्पर्कविराग्याभ्यासपूर्वकम् ।।
सदाचारप्रवृत्तिर्या प्रोच्यते सा विचारणा ॥ ९ ॥ ४ 'विचारणाशुभेच्छाभ्यामिन्द्रियार्थेष्वसक्तता ।
यत्र सा तनुताभावात् प्रोच्यते तनुमानसा ।। १० ।। ५ 'भूमिकात्रितयाभ्यासात चित्तथे विरतवंशात् ।
सत्यात्मनि स्थिति शुद्ध सत्वापत्तिरुदाहृता ॥ ११ ॥ उ० प्र० स० ११८ ।
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छक्खडागम ७७
झलक मिलती है। और जब श्री रामचन्द्र' कहते है कि मेरे कोई चाह नही है और न मेरा मन विपयोमे लगता है। मैं तो 'जिन' की तरह अपनी आत्मामे शान्ति प्राप्त करना चाहता हूँ, तब तो विचारोको भूमिकाकी उक्त झलकका रहस्य स्पष्ट हो जाता है।
योगकी परम्परा बहुत प्राचीन परम्परा है 'मोहेजोदडो' से प्राप्त योगीकी मूर्ति उसका प्रमाण है। योगका लक्ष्य आध्यात्मिक विकास था, उसीको भूमिका अथवा गुणस्थानोके द्वारा चित्रित करनेका प्रयास किया गया है ।
जैन परम्परामें गुणस्थानो और मार्गणाओके द्वारा जीवके कथनकी परम्परा बहुत प्राचीन है क्योकि भगवान महावीरके द्वारा उपदिष्ट पूर्वोमें उनका सागोपाग कथन था और जैन परम्पराके विभिन्न सम्प्रदायगत साहित्यमें भी उस कथनमें एकरूपता है । अत इसे भगवान महावीरकी देन कहना अनुचित न होगा।
__ मार्गणाओमें लेश्यामार्गणा अपना वैशिष्ट्य रखती है। उनके छै भेद किये गये है और ससारके जीवोको उनके भावोके अनुसार छै लेश्याओमें विभाजित किया है।
दीघनिकायकी टीकामे बुद्धघोपने लिखा है-गोशालकने शिकारी वगैरहको कृष्णमें, बौद्ध भिक्षुओको नीलमें, निम्रन्थोको लालमें, अचेलकोके अनुयायियोको पीतमें और आजीविकोको शुक्लमें विभाजित किया था। अगुत्तरनिकायमें इसे पूरणकाश्यपका मत कहा है। इस परसे डॉ० हानलेका अनुमान था कि छै रगोमे मनुष्योको विभाजित करनेका विचार बुद्धके छहो विरोधी तीर्थङ्करोमें साधारण रूपसे प्रचलित था। डॉ० हानलेका उक्त अनुमान ठीक हो सकता है, किन्तु इस विचारका उद्गम जैन विचार-क्षत्रमे होना अधिक सभाव्य जान पडता है क्योकि रगोके इस विचारके मूल उपादान योग और कपायके साथ लेश्यामोका वर्णन जैन शास्त्रोमें मिलता है।
२ द्रव्यप्रमाणानुगम-जीवट्ठाणके इस दूसरे अनुयोगद्वारसे भूतबलिकी रचना का प्रारम्भ होता है । इस भागमें बतलाया है कि विभिन्न गुणस्थानोमें सामान्यसे तथा विभिन्न मार्गणाओकी अपेक्षा जीवोकी सख्या कितनी है।
आजका पाठक इस वातको बडे कौतूहलके साथ पढेगा कि जैन सिद्धान्तमें ससारके जीवोकी सख्या तकका विवेचन द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आधारसे किया है। सबसे प्रथम तो यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि इस विवेचनका आधार क्या १. 'नाह रामो न मे वान्छा विषयेपु न मे मन ।
शान्तिमास्थातुमिच्छामि स्वात्मन्येव जिनो यथा ।।' ____२. इ० इ० रि०, जि० १, पृ० २६२ ।
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७८ : जनसाहित्यका इतिहाग
है ? प्रबग अनुगोगमार गत्तरपणाकी गाला-
टीने प्रारगम' वीरगेनम्यागीने या रपष्टीकरण ते तिा है कि पीपलम यन्तु अधिकार अन्तर्गत नागार्ग अन्तर्गत गीग अनुगोगटागेगंग बचननामक छठा अनुयोग गर है। गो चार वर्षारि है । उनांगे या नागा दूगरे अधिकारको ग्यागत मन्गोग गेमेंगे पांची अनुगोगार गागाणनागा है। उगोगे प्रतापगाणानुगग लिया गया है।
पुन पर जिनामा हो गाती पगानिप्राशनग गर बाती गग गिराने गित आभारगर यिा? गह पहले रिग आये है कि द्वारशागकी रनना गौतग गणपग्ने भगवान महावीरकी वाणीक जागापरी । गोतग गणधर भगनानगे प्रश्न करते थे और भगवान उगा उत्तर देते थे। पदमागमके बहुतसे सूत्र प्रश्नोत्तरम्पमे ही निब है जो ग वा सूचक है कि गोतम और भगान महानोरके बीच प्रश्नोत्तर होते थे और गौतम गणधग्ने प्रामाणिाताकी सुरभागे लिए उन्हें उगी म्पमें विवत किया था और वहांगे लेकर संग्रह गरने वाले भूतवलि आचार्यने भी उन्हें उगी रूपमै रगा । यथा
'गोषेण मिलाइट्ठी दव्यपगाणेण फेवडिया ? अणता ॥ २ ॥ ओघरो मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने है ? अनन्त है ॥ २ ॥
इमकी धवला-टी में गह प्रश्न उठाया गया है कि प्रश्नोत्तरस्प दिये बिना 'ओघेण मिच्छाइट्ठी दन्नपगाणेण अणता' (ओपसे मिथ्यादृष्टि द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा अनन्त है) ऐमा क्यो नही नहा ? TM गमाधान करते हुए धवलाकारने कहा है कि-'इग पकारकी गूजरचनाका फल है-अपने कर्तव्यको हटाकर भाप्तके कर्तृत्वका प्रतिपादन करना। अर्थात् भूतवलिने ग प्रकारको सूत्ररचनामे यह बतलाया है कि इसके वार्ता स्वय वह नहीं है । किन्तु यह आप्तपुरुष भगवान महावीरका कथन है। तव पुन यह प्रश्न किया गया कि-'तव भूतबलिने क्या किया?' तो उत्तर दिया गण कि भूतवलि तो आप्तवचनोके व्याख्याता मात्र है। अत पटवण्डागममे जो कुछ कहा गया है उगका उद्गग-स्थान भगवान् महावीरकी वाणी है।
भगवान महावीरको जैनागमोमें सर्वज्ञ सर्वदर्शी बतलाया है। और बौद्ध त्रिपिटिकोने भी पता चलता है कि भगवान महावीरके सर्वज्ञ सर्वदर्शी होनेकी चर्चा थी। सर्वज्ञ सर्वदर्शीका मतलब है-सबको जानने देखने वाला,
१. पटखा, पु० १, पृ० १२६ । २ वही, पु० ३, पृ० १०-११ ।
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छक्खडागम ७९
कोई बात जिसके ज्ञानसे वाहर न हो। भगवान महावीरकी इस सर्वज्ञताका उपहास करते हुए भी सातवी शताब्दीके पूर्वार्धमे हुए प्रसिद्ध बौद्ध तार्किक धर्मकीर्ति ने कहा था--'सर्वज सबको देखे या न देखे, किन्तु उसे इप्ट तत्त्वोको अवश्य जानना चाहिये । कीट-पतंगोकी सख्याका उसका ज्ञान हमारे लिए क्या उपयोगी है?' __ यह 'कीट-संख्याज्ञान' द्रव्यप्रमाणानुगम जैसे जैन ग्रन्थोमें वर्णित जीवोकी सख्याकी ओर ही सकेत करता है । अस्तु, ____ गुणस्थानोकी अपेक्षा जीवराशिका प्रमाण बतलाते हुए कहा है कि सर्वजीवराशि अनतानत है । उसका वहुभाग मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवर्ती है और शेप बाकीके तेरह गुणस्थानोमें और सिद्धोमें विभाजित है। मिथ्यादृष्टियोका प्रमाण अनन्तानन्त बतलाते हुए लिखा है कि अनन्तानन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालोके बीत जानेपर भी उनकी सख्याका कभी अन्त नहीं आता।
चौदह गुणस्थानोकी जीवराशियोका कथन करनेके पश्चात् गति आदि चौदह मार्गणओमें और उनके भेद-प्रभेदोमें जीवराशिका प्रमाण बतलाया है। ____ इस भागके सूत्रोकी संख्या १९२ है, जिनमेंसे प्रारम्भके चौदह सूत्रोमें गुणस्थानोमें जीवराशिका प्रमाण बतलाया है और सूत्र १५ से मार्गणास्थानोमें प्रमाणका निर्देश है।
जहाँ तक हम जानते है ससारकी जीवराशिकी सख्याका इस तरह निर्देश जैन आगमोके सिवाय अन्यन नही पाया जाता।
पहले जीवट्ठाण नामक खण्डमें आठ अनुयोगद्वार है। उनमेसे दो अनुयोगद्वारोका विवेचन यहाँ करके स्थगित करते है क्योकि षट्खण्डागमकी टीका धवलाके प्रसगमें पट्खण्डागमके विपयका विस्तृत विवेचन करने में लाघव और सुगमता होगी। यहां केवल शेप खण्डोका सामान्य परिचय दिया जाता है।
३ क्षेत्रानुगम--मे' जीवोके निवास व विहारादि सम्बन्धी क्षेत्रका परिमाण बतलाया है।
प्रथम सूत्र है--'खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य' । क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघसे और आदेशसे । दूसरे सूत्रमे उसी प्रश्नोत्तररूप शैलीमें कहा है--'ओघकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्रमें रहते है ? सर्वलोकमे रहते है।'
तीसरे सूत्र में कहा है--'सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवाले जीव कितने क्षेत्रमे रहते है ? लोकके असख्यातवें भागमें रहते है।'
१. पट्स० पु. 3 में क्षेत्र, स्पर्शन और कालानुम मुद्रित हैं।
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भूत, वर्तमान र भविष्य मीनाक्षेत्र मान लिया जाता है। मिध्यादृष्टि है। गोमयादृष्टि
और
जीवांका होने है और
और मगमन से है। वर्तमान अतीतकाल भी उन्होंने किया है । ऐसी बात नहीं है। जन्य व गुम्बा राजीयों के
ना
रहो है । एक दी अपवादीमध्यमं एक राजु को घो
क्षण भी गर्व है और किन्तु अन्य गुणग्यानबा हो हो गाते है | और को छोड़कर गगनाओंके बाहर नहीं रहते । ओर चौदह राजु ऊँची गना है। जो जी उनके जितने को करता है उसका उतना ही स्पर्शन क्षण माना गया है। जैसे बिहारवल्वग्थान और विक्रियारा मुद्धातकी अपेक्षा गागादनसम्यग्दृष्टि जोनो स्पर्शन प्रसनाके नोदह भागोमेरो आठ भाग बालाया है । यह आठ भाग घन राजु प्रमाण क्षेत्र तीसरी बालुका पृथिवीसे लेकर गोलहवे स्वर्ग तक लेना चाहिये। क्योकि भवननागी देव नीचे तीसरी पृथि तक और ऊपर यदि ऊपरके देव ले जायें तो सोलहवे स्वर्ग तक विहार कर सकते है | इस क्षं का प्रमाग रानाडीके चौदह भागोगे आठ भाग
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छक्खडागम ८१
है। यही उक्त अपेक्षाओसे सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानवालोका स्पर्शनक्षेत्र है।
इस प्रकार इस स्पर्शनानुगममें चौदह गुणस्थानो और चौदह मार्गणाओमें जीवोके स्पर्शनविषयक क्षेत्रका कथन है। इसमें १८५ सूत्र है।
५ कालानुगम-इसमें ओघ और आदेशकी अपेक्षा कालका कथन है अर्थात् यह बतलाया है कि नाना जीव और एक जीव किस गुणस्थान अथवा मार्गणास्थानमें कम-से-कम और अधिक-से-अधिक कितने काल तक रहते है।
जैसे, सूत्र २ में यह प्रश्न किया गया है कि ओघसे मिथ्यादृष्टी जीव कित काल तक होते है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि नाना जीवोकी अपेक्षा सर्वकाल होते है ( क्योकि मिथ्यादृष्टि जीव सर्वदा पाये जाते है, उनका कभी अभाव नही होता। किन्तु एक जीवकी अपेक्षा अनादि अनन्त, अनादि सान्त और सादिसान्त काल है। अभव्यजीव कभी मिथ्यात्वको नही छोडता, अत उसकी अपेक्षा अनादि अनन्तकाल है । जो भन्यजीव अनादिकालसे मिथ्यादृष्टि है किन्तु मिथ्यात्वको छोडकर सम्यग्दृष्टि हो जाते उनके मिथ्यात्वका काल अनादि सान्त है। और जो भव्यजीव सम्यक्त्वको छोडकर मिथ्यादृष्टि हो जाते है उनका काल सादि और सान्त है। ऐसे जीवोके मिथ्यात्वमें रहनेका काल कम-से-कम अन्तर्मुहूर्त होता है, अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यत्वमें रहकर वे पुन उससे निकलकर सम्यग्दृष्टी आदि हो जाते है । और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गलपरावर्तन है । चौदहमेंसे छै गुणस्थानोमें जीवोका कभी अभाव नही होता। वे छै गुणस्थान है-पहला, चौथा, पाँचवा, छठा, सातवां और तेरहवाँ ।
इसी प्रकार सब गुणस्थानोमें और सब मार्गणास्थानोमें कालका कथन किया गया है । इस कालानुगमके सूत्रोकी सख्या ३४२ है ।
६ अन्तर-किसी विवक्षित गुणस्थानवी जीवके उस गुणस्थानसे दूसरे गुणस्थानमें चले जानेसे पुन उसी गुणस्थानमें आनेके कालको अन्तर कहते है । इस अन्तरानुगममें ओघ और आदेशकी अपेक्षा इसी अन्तरका कथन किया गया है।
जैसे-ओघकी अपेक्षा मिथ्यादृष्टी जीवोका अन्तर काल कितना है ? इस प्रश्नके उत्तरमें कहा गया है कि नाना जीवोकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, मिथ्यादृष्टि जीव मदा पाये जाते है। किन्तु एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक सौ वत्तीस सागरोपम काल है। .
घवलाटीकामें इस अन्तरकालकी सगति विस्तारसे सिद्ध की है । चौदह गुणस्थानोमेंसे जिन छै गुणस्थानोमें सर्वदा जीव पाये जाते है, नाना जीवोकी अपेक्षा १ पटख०, पु० ५ में अन्तर, भाव और अल्पवद्दुत्व अनुयोगद्वार मुद्रित हैं।
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८२ जनमाहित्यका उनिहाग
उग गणग्गानीका अन्तगाल नही होता, गेप आठ गुणगाना है। अर्मात् उन आट गणरवानीगं गुर गगग ना कोई जीन नही गागा जाना । जंग क्षेप भेणी नार गुणरबानाग और गीगाली गणग्गागम - अमित माग तीन गाया गा
अगम कुल ३९५ गार।
७ भागानगग-~~मा उग, भग आणि निगिनगे जीवन जो परिणाग विशेप होते है उन्हें भार पहने। में भाव पान पाहा :-औगिगा, और. शगिा, भागिल, गोजागिर और पारिवागि उगनेवाले भाा. को औगिगार
गाँr समग उनि गरे भावी योगमगिक
भागमा प्राट होने रे गा माना। भाभिार गहते है । "111 उपगले गा जो जीनग अंग पका होता है यह भागोषणमित भाय। जो न मागे भाग निजी गौर अजीवगन नाश होता नह परिणामिक भाव।
ग अनुयोगताम्मे आप और नामंगमा नायन दिया है। भोग गायन मारने एक -'गिव्याटि गा गोन-गा भाव है और भाव है ॥ २ ॥ 'मागादनमम्मदाटी गह पौन-गा भाव है' पाग्णिागि भार है। गम्गग्गिध्यादृष्टि या कौन-सा भार ' भागोगनगिा भान है ॥ ॥ मयतगम्यादाटी या गोन-गा भान है ? औषमिर भार भी है,भागिक भाव भी है और क्षायोगगगिक भाव भी है ॥ ५ । गगनागयत, प्रमत्तगयत और अप्रमत्तगयन यह कौन-गा भाव है • भायोपामिक भाव है ।। ७ ।। उगी प्रकार नौदह गणम्थानाम भावकी प्रस्पणा करके पुन मार्गणारयानाम भावोका गबन किया है । धवलाटीकाम प्रोगमा उपपादन लिया है I यो अमुक भाव है। इसमें ९३ सूप है।
८ अल्पबहुत्वानुगम-द्रव्यप्रमाणानुगममे बतलाई गई जीवमभ्याके आधार. पर गुणस्थानो और मार्गणास्थानोमे मम्याकृत हीनता और अधिकताका कथन इस अनुयोगद्वारमै है। अन्य अनुगमोकी तरह इसका आरम्भ भी 'दुविही गिद्देमी , 'चदुग्नग अजोग कोणमनर केनिर कानादि ? गाणा नान पन्न
जएण्णेण एगममय' ॥ १६ ॥ 'उपकम्मेण सम्मान ॥ १७ ॥'-पट्य०, पु० ., प०००-१ 'भोघेण मिच्छादिदिल त्ति को भावो, औढरा भानो ॥ ॥ मामणमम्मादिदिठ त्ति का भावो, पारिणामिओ मावा ॥ ३ ॥ सम्मामिच्छादिदिठ त्ति को भावो, यओरममिओ भावो ॥ ४ ॥ असजदमम्माठि त्ति को मावो, उवममियो वा सदओ वा खओवममिओ वा भावो' ॥॥' पटा०, पु. ५, १० १९४ आरि।
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छक्वडागम ८३
ओघेण ओदेसेण य' सूत्रसे होता है । पहलेके मव अनुयोगदागेम ओघकथन पहले गुणस्थानमे आरम्भ होता है किन्तु यहाँ वह बात नहीं है । यहां सम्याके अल्पत्वके
और बहुत्वके आधारपर कथन है। जिन गुणस्थानोमे जीवोकी मम्या सबसे कम है उगका निर्देश प्रथम है और आगे जिन-जिन गुणस्थानोमे जीवोकी गरया क्रमग बढती जाती है उनका कथन है । यथा---'ओघमे' अपूर्वकरण आदि तीन गुणरथानोमें उपशामक जीव प्रवेगकी अपेक्षा परस्पर तुल्य है किन्तु अन्य मब गुणम्यानोमे अल्प है ॥ २॥ उपशान्तकपायवीतरागछद्मस्थगुणस्थानवाले जीव भी पूर्वोक्त प्रमाण ही है ॥ ३ ॥ उममे भगक असम्यात गुण है ।।।।।
इस तरह आठवे गुणस्थानसे प्रारम्भ करके भागी और ले गये है क्योकि अन्य मव गुणस्थानोमे उपशमश्रेणीके इन गुणस्थानोमे जीवोवी सख्या सबसे कम होती है । गुणस्थानोकी अपेक्षा अत्पबहुत्वका कथन करके फिर मार्गणाओमे अल्पवहुत्वका कथन है। यथा-'आदेशगे' गतिमार्गणाके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोमे सामादनसम्यग्दृष्टी जीव सबमे कम है ।। २७ ।। मम्यक् मिथ्यादृष्टि जीव मल्यातगुणे है ।। २८ ॥ इत्यादि । इममें ३८२ सूत्र है । इस अल्पवहुत्वानुगमके माथ जीवट्ठाण नामक प्रथम खडके आठो अनुयोगहार ममाप्त हो जाते है । और इस तरहसे पहला खड समाप्त हो जाता है। किन्तु इनके पश्चात् भी जीवस्थानकी चूलिकाके नामगे एक अधिकार और भी है। ___ जीवस्थान चूलिका-इसकी धवलाटीकाके प्रारम्भमें ही यह शका की गई है कि जीवस्थानके आठो अनुयोगद्वारोके समाप्त हो जानेपर चूलिका किसलिये आई है ? इसका समाधान करते हुए वीरसेनस्वामीने लिखा है-पूर्वोक्त आठो अनुयोगहारोके विपम स्थलोके विवरणके लिये आई है । पुन यह गका की गई है कि सत्प्ररूपणाके प्रारम्भमे कहा गया है कि 'चौदह गुणस्थानोके कथनके लिये ये आठ ही अनुयोगद्वार जानने योग्य है, यदि चूलिका उन्हीसे प्रतिबद्ध अर्थका कथन करती है तो 'आठ ही' कहना व्यर्थ हो जाता है क्योकि चूलिका नामक नौवा अधिकार भी हो जाता है । यदि चूलिका चौदह गुणस्थानोसे अप्रतिबद्ध अर्थका कथन करती है तो उसे 'जीवट्ठाण' सज्ञा नहीं दी जा सकती ? , 'ओघेण तिसु अद्वामु उवममा पवेमणेग तुल्ला योवा || उवमनकामायनीदराग
उदुमत्या नत्तिया चेव ॥ ३ ॥ मना मज्जगुणा ॥ ४ ॥ पटम०, पु०५, पृ० ०४३
आदि । • 'आदेमेण गढियाणुवाटेण गिरयगटी रइण्मु मन्बत्यो वा मामणमम्मादिटठी ।। २७ ।।
-पट्स०, पु० ५, ५० २६१ । । 'सम्मत्तेमु अटठसु अणियोगद्दारेसु चूलिया किमठ्ठमागढा ? पुव्वुत्ताणमण्णमणिओग
हाराण विममपएमविवरणहमागदा।' पटख०, पु० ६, पृ० ० ।
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८४ जैन साहित्यका इतिहास
इसका समाधान करते हुए भवलकारने लिगा है कि चूलिकामे ऐसे अर्थका कथन है जो आठो अनुयोगद्वारोमं नही कहे गये है किन्तु उनसे सूचित होते है । अत चूलिका उक्त आटो अनुयोगारोगे हो अन्तर्भुत है, उनसे बाहर नही है ।
इस चूलिका अन्तर्गत नो अधिकार है। प्रकृतिगमुत्कीर्तन, स्यानममुत्कीर्तन, प्रथम महादण्डक, द्वितीयमहादण्डक, तृतीय महादण्या, उत्कृष्टस्थिति, जघन्य - स्थिति, सम्यक्त्रोत्पत्ति और गति - आगति चूलिका | चूलिके उन नो अधिकारीका अन्तर्भाव उक्त आठ अनियोगहारोगे करने हा वीरगेनस्वामीने लिया है-क्षेत्र काल और अन्तर अनियोगहागेग गति- आगति चूलिया सूचित की गई है, वह गति - आगति चूलिका भी प्रकृतिगगकीर्तन जो रवानगीर्तनको सूचित करती है क्योकि कर्मवन्धके बिना गतियोंमे गमनागमन नही बनता । प्रकृतिगगुल्लीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तन के द्वारा कर्मो की जनन्यस्थिति और उत्कृष्टस्थिति सूचित की गई है, क्योकि मकपाय जीवके स्थितिबन्ध विना प्रकृतिबन्ध नहीं होता । कालानुयोगद्वार में जो मादिगान्त मिध्यादृष्टिका उत्कृष्ट बाल कुछ कम अर्धगुद्गल परावर्तन बतलाया है उसमे प्रथमसम्यक्त्वका ग्रहण किया गया है क्योकि उसके विना मिध्यादृष्टिका उक्त उत्कृष्टकाल नहीं बनता । प्रथम गम्यत्वमे तीन महादण्डक सूचित होते है । इस तरह वीरगनम्नाभीने चूलिका के नो अधिकारीको पूर्वोक्त आठ अनुयोगद्वारोमं ही अन्तर्भूत बतलानेका नत्प्रयत्न किया है। उनका आशय यह है कि गुणस्थान और मार्गणाओ द्वारा जीवके अस्तित्व, मरुया, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्वका कथन करने के पश्चात् यह कथन करना शेष रह जाता है कि जीव मरकर किम गतिमे किंग गतिमें जाता है । भत उस कथन के लिये गति-आगति चूलिका अधिकार हूं और शेप अधिकार प्राय उसीके सम्बन्धसे अवतरित हुए है । इनमेमे प्रकृतिसमुत्कीर्तन आदि कुछ अधिकार ऐसे भी है जो दूसरे खण्ड 'बन्धक' के लिये उपयोगी है । अत इस चूलिकाके द्वारा सूत्रकार भूतवलिने जीवस्थानके साथ आगे के खडोको सम्बद्ध करनेका प्रयत्न किया हो, यह भी हमे सम्भव प्रतीत होता है । अस्तु,
चूलिका प्रथमसूत्रके द्वारा सूत्रकारने नीचे लिखे प्रश्न किये है -१ ( सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव ) कितनी और किन प्रकृतियोको
१ पट्ख०, पु० ६, पृ० ३ ।
२ 'कदिकाओ पयडीओ वधदि, केवटिकालट्ठिदिदि कम्मेहि सम्मत्त लभेदि वाण लब्भ दिवा, केवचिरेण वा कालेण वा कढि भाए वा करेदि मिच्छत, उवसामणा वा सवणा वा केसु व खेतेसु कस्स व मूले केवडिय वा दमणमोहणीय कम्म नवेंतस्स चारित वा सपुण्णपडिवज्जतस्स ॥ १ ॥ - पट्ख०, पु० ६, पृ० १ ।
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सापागम ८५ पगिता • from frपतिमा गाँजाग गम्मपा प्राप्त करता
ही प्राप्त मा... frint द्वागnिो निन भाग ari सोr frieोग गधा निगः पागमे गितने नमोरनीय Fi पण पारनेवाले जोगा और मां पारिता प्राप्त होनेवाल जोगी गानीयमग मामना और प्रणाली
ही प्रती गमापान पनि नो भगितागती रनमा गृाग्न
१ इनमेंग 'मिनी' यामा: गपी विभागासामान पग प्रतिगमगीनन नाममा पानी गिरा
१ प्रतिमा कासंग... प्रानियोगः गगनंग अर्धा पनि प्रगतिनगीनंग ।
प्रतिगमतीसंग :-मतिमीनंग दी- उगप्रतिगमती गा
गृातिमा पाठ: भानामतीनाणीय, वेदनीय, मोहनीर, आग, नाम गौर और अन्तगग ।
शानमा मावरण फर्म र भानापरणत: । ना मारण करने वाले 7 नायग्ण है। जी. गुगम अनुगमन गारण पगरयो नागगर्ग है जिससे ग मीर गारित हो उगा मोहनीगर्म पहा है। जाम जोगको नाममा अगा मगर ता. रो गगता है उभे आयुगर्म गहते है । गर्गर आदिको मनाम मारणभून नर्मको नागकर्म रहते हैं । उच्च और नीन पुलमें उत्पन्न नगन बाले पर्गयो गोमाम रते है । दान लाभ भौग उपभोग आदिमें विघ्न मान्ने गाल गर्गको अन्तगया.मं करते है । जग तरह मूल गर्म पाठ है ।
जन गिद्धान्तम कर्मकदार--प्रत्यकर्म और गानार्म । जीवो गगवैषम्प भावाको भावक्रम पाहते है। और जीवके रागादि परिणामांप निमित्त मे जो पुद्गलम्मान्ध कर्ममा परिणत होते हैं उन्हें द्रव्यकर्म पाहते है । इष्ट और मनिप्ट विषयोको पाकर जीव जैम भाव होते है तदनुसार ही उनको गर्मवन्ध होता है । अत योग और कपाया निमित्त जीवके माथ गम्बद हुए जो पुद्गल
१ पाहि पानी पगसा यदि ति । ५८ तम्य विधामा ।।। दागि पगटिसगु
कित्तण कम्मामो ॥शा पटन०, पु०६, पृ०४७। • 'णाणावरणीय ॥५दमणावरणीय ॥६॥ चंदणीय ॥७॥ माहणार्या आरा
णाम 20 गोद ॥११॥ अंतगय नेटि ॥१२॥ वाही, पु०६, ५०६-१३ ।
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८६ जैनमाहित्यका इतिहास
ज्ञानका किना, दर्शनका नागना, मुग-गुसका अनुभवन गगना, मोहित करना, आदि कार्य करने में समर्थ होने है उन्हें कार्ग कहते हैं । इन आठो को कारण ही जीव समाग्मे भ्रमण करता है।
इन आठ लागामेगे भी ज्ञानावरणीय ' नामकी पाच उत्तरप्रतिया है-- मतिज्ञानावरणीय, अतशानावरणीय, अधिमानावरणीय और मन पयंगज्ञानावरणीय और कंवलज्ञानावरणीय । गति आदि पान जान है, अन जान भावरण करने वाले जानापरण भी पान प्रकार।गी तरह दर्गनी तानं वाले दर्शनावरणीय कर्मकी नौ प्रतिया है। बानीयागंगी दो प्रनिगा है। मोहनीयकर्मके दो भेद है-नगाहनीय और नान्निमोहनीग । आम, आगम भीर पदार्योसे रुचि या श्रद्धाका दर्शन नहत है । उगवन की जा मोहित करता है अर्थात् विपरीत नार दता है उग दर्शनमोहनीयामाहते हैं। मनमो उदगमें जो आप्त नहीं है उगमे आप्तबुद्धि और लूटे पसायोंग गन्य पार्ग बुद्धि होती है ।
उनकी तीन प्रतिगा है- मम्मात्य, गिन्यान्न और गम्यमिथ्यात्व ।
पागकार्यास निवृत्त होनेका नारिन कहते हैं । उग नारिको आनछादित करने वाले कर्मको नारियमोहनीय पहने है । नारिणमोहनीयके दो भेद होते है---पाय वेपनीय और ना ऊपायवेदनीय । कपागवेनीया १६ भेद है और नोकपायवैदनीगके नी भंद है । उग तरह मोहनीयागकी २८ प्रगतिया है।
आयुकसकी चार प्रतियां है--नरकासु, तिर्यञ्नायु, मनुयाय और दवायु नामामकी ९३ प्रतिमा है । गोयामी दो प्रकृतियां है--उच्नगो और नीनगोन । अन्तरायकर्मी पनि प्रकृतियाँ है । उस तरह आठ कमांगी ५+ ' +२+२८ + ४ + ९३ . २ + ५---१४८ प्रकृति होती है ।
कर्मप्रकृतियो के इन निरुपणके साथ प्रतिगमुलीनन नूलिका गमाप्त हो जाती है । इम चूलिकामे ४६ गून है । उसके पात् स्थानगमुत्तीनन नाममी चूलिका आरम्भ होती है।
, घट्स०, पु. ६, पृ० १४ । २. वही, पृ०३। ३. वही, पृ. ३४। ४. वही, प० ३७। १. वहीं, पु० ६, पृ० ४८ । ६ वही, पृ० ४९ । ७. वही, पृ० ७७ । ८ वही, पृ० ७८ । ९ 'पत्तो ठाणममुक्कितण वणइम्मायो ।॥१॥ वही, पृ० ७९ ।
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छपरसडागम ८७
२ स्थानसमुत्कीर्तन--पहली जूलियागे जिन प्रतियोका नाथन किया है, उनका वध क्रमसे होता है या अक्रमगे होता है, इस प्रश्नका उत्तर इम दूगरी नूलिगाडाग दिया गया है । वन्धक छ है--गिध्यावृष्टि, मागादनगम्यग्दृष्टि, मम्यग्गिध्यादृष्टि, अमयतसम्यग्दृष्टि, गयतागयत और गयत । गन्तके रायतरो ६ गे लेकर तेरह तक गुणस्थानवाले जीव विवक्षित है क्योकि वे ममी सयत होते है । यद्यपि नौदहवे अयोगवली गुणस्थान वाले गी गयमी होते है किन्तु उनके एक भी कार्गका बन्ध नही होता।
१. ज्ञानावरणीयकर्मको' पांचो प्रकृतिया एक गाय बघती है और उक्त गभी बधकोके यनती है । ( निन्तु दगवे गुणग्यान ता ही बनती है, आगे नहीं बधती)
२ दर्शनावरणीयकर्म नीन बन्ध ग्यान है--नीप्रकृतिक, छहप्रतिक और चारपकृतिक । पहले और दूगर गुणरथानमे एक गाथ नौप्रतियां वधती है। तीगरे गुणस्थानम लार आठचे गुणग्याना प्रथम माग पर्यन्त जीवो नौमंगे एक माथ छ ही प्रकृनिया बचती है, तीन नहीं वरती । आगे आठवेसे दसवे गुणस्थान पर्यन्त छहमेंते भी चारका ही वन्ध एक माय होता है । इग तरह दर्शनावरणीयपार्मकी नौ प्रकतियोगसे तीन बन्धस्थान है।
: वेदनीय कर्मशी दो ही प्रतियां है-गाता और अगाता । उन दोनोमेमें एक समयमै एक ही ववती है।
८ मोहनीयको दरा बन्धम्यान है-वाई1, वासीग, गतरह, तेरह, नी, पाच, चार, नीन, दो और एक प्रकृति का वाईसमे अधिक प्रकृतिया किगी भी जीवके नही वधती। मिथ्यात्व, गोलहकपाय, स्त्रीवेद, पुरुपवेद, नपुसक्वेद इन तीनो वेदोममे एक, हास्य-रति और अगति-शोक इन दो युगलोमेसे एक युगल, भय और जुगुप्सा इन वाईम प्रकृतियोका एक माथ वन्ध मिथ्यादृष्टी जीवके होता है । इनममे मिथ्यात्वके सिवाय शेप इक्कीम प्रकृतियोका बन्ध (जिनमे नपुमकवंद नहीं लेना चाहिये ) मामादनसम्यग्दृष्टीके होता है । इनमेमे अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभके मिवाय शेप सतरह प्रकृतियोका (जिनमे स्त्रीवेद नहीं लेना चाहिये) एक माथ बन्ध तीसरे और चौथे गुणस्थानवी जीवोके होता है । उन मतरहमसे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभके सिवाय शेप तेरह प्रकृतियोका बन्ध पाँचवे गुणस्थानवर्ती जीवोके होता है । उन तेरहमेंमे प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभको छोडकर शेष नौ प्रकृतियो का बन्ध छठेसे आठवें गुणस्थानपर्यन्त
१. पटन , पृ० ८०। • वही, पृ०८। ३ वही, पु ६, पृ ८८ ।
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८८ जैनसाहित्यका इतिहास जीवोके ही होता है । सज्वलन क्रोध, मान, माया, लोग और पुरुपवेद इन पांच प्रकृतियोका बन्ध एक साथ होता है। इनमेसे पुम्पवेदक गिवाय गेप चारका, कोवसज्वलनको छोउकर शेप तीनका, संज्वलग मानको छोउकर गेप दोका और सज्वलन मायाको छोडकर शेप एक प्रकृतिका बन्ध भी गयमीफे ही होता है।
५ आयुकर्मक' चार भेद है । उनमेंसे नरकायुका बन्ध पहले, गुणस्थानम, तिर्यञ्चायुका बन्ध पहले और दूसरेमें, मनुष्यायुका वन्ध पहले, दूसरे और चौथे गुणस्थानमे और देवायुका वन्ध ऊपर काहे छहो बन्यकोफे होता है।
६ नामकर्मक माठ बन्धस्थान है-इकतीस, तीस, उनतीस, अट्टाईम, छब्बीस, पच्चीस, तेईस और एक प्रकृतिक स्थान । इन स्थानीय बन्धकोका वर्णन बहुत विस्तृत है।
७ गोनकर्मको दो प्रकृतियोमेसे एक ममयमे एक जीवके एकका ही बन्ध होता है। नीचगोत्रका बन्ध केवल पहले और दूसरे गुणस्थानमें होता है और उच्चगोत्रका वन्ध उपत छहो वन्धकोके होता है।
८. अन्तरायकर्मकी पांचो प्रकृतिर्या एक साथ बघती है और सामान्यतया उक्त छहो बन्धक उनका बन्ध करते है
इस तरह दूसरी चूलिकामें आठो को बन्धस्यानोका कथन है । इसीसे उमका नाम स्थानसमुत्कीर्तन है। इसमें ११७ सून है ।
३ तीसरी चूलिकाका नाम प्रथम महादण्डक है । इसके प्रथमसूत्रके द्वारा सूत्रकारने कहा है-अब प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेके अभिमुस जीव जिन प्रकृतियोको बाँधता है उन प्रकृतियोको कहो । अर्थात् जब कोई मिथ्यादृष्टी जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके अभिमुख होता है तो वह किन-किन कर्मप्रकृतियोका बन्च करता है ? प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अभिमुस सज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य, देव और नारकी हो सकते है। प्रथम महादण्डकमे एकसूत्रके द्वारा प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख सज्ञी तिर्यञ्च और मनुष्यके बंधनेवाली प्रकृतियां बतलाई है। इसमें केवल दो सूत्र है ।
४ दूसरे महादण्डकमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख देव और सातवें नरक
१. पटव०, पु० ६, पृ० ९९ । २ वही, १०१०१। ३ वही, पृ० १३१ । ४ वही, पृ० १३० । ५ 'इदाणि पढमसम्मत्ताभिमुहो जाओ पयडीओ यदि ताओ पाणीओ कित्तऽस्सामो ॥१॥
-वही, पृ० १३३ । ६ 'तत्थ इमो विदिओ महादण्डओ कादवो भवदि ॥ १ ॥ वही, पृ. १४० ॥
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छक्खडागम ८९ के नारकियोको छोडकर शेप नारकियोके वधनेवाली प्रकृतियाँ वतलाई है । इसमें भी दो ही सूत्र है।
५ तीसरे महादण्डकमें सातवी पृथिवीके नारकीके प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख होनेपर बधनेवाली प्रकृतियाँ गिनाई है। इसमें भी केवल दो सूत्र है । इस तरह इन तीन महादण्डकोके रूपमें तीन चूलिकायें समाप्त होती है । सूत्रकारने क्यो एक-एक सूत्रका एक-एक महादण्डक बनाया है और क्यो उसकी महादण्डक सज्ञा रखी है, यह जिज्ञासा होना सहज है। जैन परम्परामें सिद्धान्तग्रन्थोके अशविशेषके लिये दण्डक या महादण्डक शब्दका भी व्यवहार होता था। सभव है जिस स्थानसे ये दण्डक लिये गये है वह महादण्डक नामसे अभिहित हो और वही नाम इन एक-एक सूत्र वाले दण्डकोको दे दिया हो।
६ उत्कृष्टस्थिति चूलिका-इसमें कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिका कथन है । इस चूलिकाके प्रथमसूत्र में कहा है कि आरम्भिक सूत्रमें जो प्रश्न किये गये थे उनमें एक प्रश्न था 'कितनी स्थितिवाले कर्मोके होनेपर मम्यक्त्वको प्राप्त करता है अथवा नही प्राप्त करता है।' इसमेंसे 'नही प्राप्त करता है' इस पदकी विभापा करते है । उसी विभापाके लिए कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका विवेचन किया गया है । उसमें बतलाया है कि किन-किन कर्मोंका उत्कृष्ट बन्धकाल कितना होता है । और उनमें कितना आवाधाकाल होता है । बन्धके पश्चात् जब तक कर्म अपना फल नहीं देता, उतने कालको आवाधाकाल कहते है । आवाधाकाल वीतनेपर कर्मका उदय प्रारम्भ होता है और स्थितिकालके पूरा होने तक उदय होता रहता है। इस चूलिकामें ४४ सूत्र है । ___७ जघन्यस्थिति चूलिका-इस चूलिकामे कर्मोकी जघन्य स्थिति और उसका आवाधाकाल बतलाया है। इसमें ४३ सूत्र है ।
८ सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका-इस चूलिकामें सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिका विवेचन करते हुए कहा है कि सब कर्मोकी जब अन्त कोडाकोडी सागर प्रमाण स्थितिको बाँधता है तब यह जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करता है ।। ३ ।। प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय सज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्तक
और सर्वविशुद्ध होता है ॥ ४ ॥ जब इन सब कर्मोंकी अन्त'कोडाकोडी सागरप्रमाण स्थितिको सख्यात हजार सागर काल हीन कर देता है । तब प्रथमोपशम
१ 'तत्थ इमो तदिओ महादण्डओ कादन्वो भवदि ॥ १॥-१० १४२ । • 'एवं हि व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकपूक्तम्-त वा ४-२६-५ । ३ 'केवडि कालटिठदीहि कम्मेहि सम्मत्त लन्भदि वा ण लब्भदि वा, ण लव्मदि ति
विभासा ॥१॥ एतो उक्कस्सयटिदि वण्णहस्सामो।'-पु० ६, पृ० १४५ ।
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९० जनमाहित्यका तिहाग
गम्यमलगो उत्पन्न करता है॥१॥ प्रगमापनम गम्य- TET MEn अन्तर्गत ता अन्तगरण
| उगी जाग मि गागागा गं अन्तरालमा निगम An form TM जाना जा । फलत गम्गा प्रार : जाना
परोगिगा नीन गाग-मम्गा, गम्ममा trimurt-नागना मा गुणांक नाग पनमोपनमा
भोर गम निगम-मय गायोगा नि पिया। गा गाHिit निर्णन।
नमोनीया गंगाधगमन : Harit.in, I प्रगम गह बतागा है कि अमाद्वीप-गगग EिET गिंगियों ना निकाली और तीर होन: गागागमनमागम RATE आना है ॥११॥ और उगा पति मार्ग गांगयोग ! • Inामनगर fariritit 199TI Infrar
गा: मचा : मानी प्राना अभिगा होता तो आगामना गमाiiiii। अा . कोनि मागरपमाण र '
नाग में गमलामा दिमाग गार नारिणो भी पाना भी गानी पमा EिTTी मागप्रमाण करता है।
गा?"-१६ म गातारण हमे TT ग्याप पतगर्ने नए कहा कि वह जीव जगमगा गार पानिमा गोनि अन्तरसं गाल पर दता है और वेदनीगी बातमहतं, गाम और गायकमती गाठ मान तथा नेग कमांकी अन्तर्मुरनं प्रमाण निति करता है । TRE निपल १: सूत्र है।
९. गति-आगति लिगा-विषम अनुगार म नलिका नार भागोंगे विभाजित लिया जा सकता है। प्रथम ४ नमो नग नागे गतिगामे गम्मपन्यकी उत्पत्ति बतलाते हुए यह स्पष्ट किया है कि गम्गदर्शननी प्राप्नि पर्याप्नक मशीपपञ्चेन्द्रियको ही होती है। तथा प्रत्येक गतिम गमागमनकी उत्पत्ति के वात्य कारण बतलाये है। जैसे नरकगतिमे पूर्वजन्मका म्मग्ण, धर्मश्रवण और कप्टसहन । तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिमे जातिम्मरण, धर्मश्रवण और जिनविम्बदर्शन। देवगतिमे जातिस्मरण, धर्मश्रवण, जिनमहिमादर्शन और देवद्धिदर्शन इत्यादि ।
सूत्र ४४ से ७५ तक बतलाया है कि नारो गतियोमे प्रवेश करने और वहाँमे निकलनेके ममय जीवोके कौन-कौन गुणस्थान हो सकते है । जैसे, मनुष्यगतिमे कितने ही जीव मिथ्यात्वसहित जाकर मिथ्यात्वमहित ही वहाँसे निकलते
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छक्खडागम ९१
है । कितने ही जीव मिथ्यात्वसहित जाकर सासादनसम्यक्त्वसहित निकलते हैं । कितने ही जीव सासादनसम्यक्त्वसहित जाकर मिथ्यात्वसहित निकलते हैं । कितन ही जीव सासादनसम्यक्त्वसहित जाकर मासादनसम्यक्त्वमहित निकलते है, इत्यादि ।
सूत्र ७६ से २०२ तक यह बतलाया है कि किस गतिसे किस गुणस्थानके माथ निकलकर जीव किन-किन गतियोमे जन्म ले सकता है । जैसे मिथ्यादृष्टि और सासादनमम्यग्दृष्टि जीव नरकसे निकल कर तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिमे जन्म लेते है | और सम्यग्दृष्टि नारकी नरकमे निकल कर मनुष्यगतिमें ही जन्म लेता है, इत्यादि ।
सूत्र २०३ से २४३ तक बतलाया है कि किस गतिमे निकल कर जीव किस गतिमें जन्म लेता है और वहाँ कहाँ तक उन्नति कर मकता है । जैसे, मातवे नरकसे निकल कर नारकी जीव तिर्यञ्चगतिमं ही जन्म लेता है और वहाँ किसी तरह की उन्नति नही कर सकता । मिथ्यादृष्टिका मिध्यादृष्टि ही बना रहता है । इस तरह प्रत्येक नरकसे तथा प्रत्येक गतिसे निकले हुए जीवोके सम्वन्धमे विस्तार - से कथन किया गया है । चूलिका में २४३ सूत्र है और पूरी जीवस्थान चूलिकामे सूत्रोकी सख्या ४६ + ११७ + २ + २ + २ + ४४ + ४३ + १६ + २४३ = ५१७ है ।
चूलिकाके माथ ही जीवट्ठाण नामक प्रथम खण्ड समाप्त हो जाता है | इस खण्ड में जीवके स्थानोका जो वर्णन जिस ढगसे किया गया है, उसका आभास अन्यत्र नही मिलता । प्रथम तो जिन आठ अनुयोगोके द्वारा जीवका विवेचन किया गया है, उन अनुयोगोके नाम सत्, सख्या आदि भले ही अन्यत्र व्यवहृत होते हो, किन्तु उनके द्वारा वस्तु विवेचनकी परम्परा सम्भवतया महावीर भगवानकी मौलिक देन है । जीव और कर्मके सम्बन्धमे जितना विचार उन्होने किया था, शायद अन्य किसी धर्मप्रवर्तकने नही किया था । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण 'जीवद्वाण' है ।
उक्त आठ अनुयोगोका निर्देश अनुयोगद्वार मूत्रमे मिलता है । अत अनुयोगोके द्वारा वस्तुविवेचनाकी परम्परा अखण्ड जैन परम्पराको सम्मत रही 1 किन्तु जिस तरह आठ अनुयोगोके द्वारा ओघ और आदेगसे जीवका कथन जीवट्ठाणमे किया गया है, श्वेताम्बर साहित्यमे नही किया गया । हाँ, चतुर्थ कर्म
१ 'से कि त अणुगमे ? नवविहे पण्णत्ते, त जहा - सतपयपरूवणया १टव्वपमाण २ च खित्त ३ फुसणा ४ य, कालो य ५, अंतर ६, भाग ७, भाव ८, अप्पाबहु चैव - अनु०,
म० ८० ।
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९२ • जैनसाहित्यका इतिहाग
ग्रन्यमे जीवरथान, मार्गणारयान, गणरबान, उपयोग, योग, लेपया, बन्ध, अरपबहुत्न, भाव और राम्याका राक्षिप्त गायन मिलता है । इगम गाथा ९गे १३ तक मार्गणास्थानके भेद तथा गाथा १२ से २५ तक मार्गणाओगं गणम्यान बालाये है । मार्गणाओमे गणस्थानोका वर्णन करते हुए गतिमान और ताज्ञानमें दो अथवा तीन गुणस्थान बतलाये है । दिगम्बर परम्पराम दो ही गुणग्यान माने गये है। गाथा ३७ मे ४८ तक मार्गणाओगे अल्पवहुन्यका विनार frया गया है । यह प्रज्ञापनाके अरपवहत्वनामक तीगरे पदगे लिया गया है । प्रजापना तीग पदम अल्पबहन्वका विचार विस्तारसे किया गया है।
अनुयोगहारमयम पायल गनुष्यारिको गरयाका योजागा वर्णन मिलता है। किन्तु द्रव्यप्रमाणानुगमो गा| उसका मेल नही गाना। गा मारण यह है कि दोनोम विभिन्न अपेक्षाओगे मनुष्योकी नग्माका गायन किया है। इस तरह जीवट्ठाणमे प्रतिपादित विषयको गुर फुटार बातीका थोडा-मा गायन वेताम्बर माहित्यमें मिलता है।
२ खुद्दाबन्ध इस सण्डका विषय उसके नामगे ही प्रकट है। इसमें राहा अर्थात् क्षुद्ररूपमे कर्मवन्धका विवेचन है । छठवें गड महावन्धगे इगका भेद करनेके लिए ही अथवा उसकी अपेक्षा इसकी लघुता मूचित करने के लिए ही काग्ने इमको सुद्दावन्य मज्ञा दी है, ऐमा प्रतीत होता है। गका प्रथम सूत्र है-'जे ते वागा णाम नेसिमिमो णिशो ॥१॥-जो व वधक जीव है उनका यहां निर्देश किया जाता है।
इसकी धवलाटोकामै लिखा है कि 'जे ते वगा णाम' ये शब्द बन्धकोकी पूर्व प्रसिद्धिको सूचित करते है । सो महाकर्गप्रकृतिप्राभृतो कृति, वेदना मादि चौवीस अनुयोगहारोमे छठवें अनुयोगद्वार वन्धनके वध, वचक, वधनीय और वधविधान ये चार अधिकार है। उसमेमे जो बन्धक नामका दूसरा अधिकार है उसमे निर्दिष्ट वन्धकोका ही यहाँ निर्देश किया गया है। अस्तु, दूसरे सूनम चौदह मार्गणाओके नाम गिनाकर तीसरे सूत्रमे मार्गणाओके अनुसार बन्धकोका कथन प्रारम्भ होता है । यथा--नारकी जीव वन्धक है। तिर्यञ्च बन्धक है । देव वन्धक है । किन्तु
१ नमिय जिण जिअमग्गण गुणठ्ठागुवओगगलेस्साओ।
बधप्पवहूभावे मसिज्जाई किमवि बुच्छ ॥१॥ ० गा०००। ३ पट्ख०, पु० १, पृ० ३६१ । ४ पटख०, पु० ३, सूत्र ४५, तथा अनुयोग०, पृ० २८५ । ५ पट्खण्डागमकी ७ौं पुस्तकमे खुधावन्ध खण्ड मुद्रित है।
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छक्खडागम १९१३
मनुष्य बन्धक भी है और अवन्धक भी है। इम तरह तेतालीस सूत्र तक वन्धकोके सत्वका कथन है ।
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आगे कहा है कि इन वन्धकोके प्ररूपणार्थ ग्यारह अनुयोगद्वार जानने योग्य है - वे ग्यारह अनुयोगद्वार है— एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, एक जीवकी अपेक्षा अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भगविचय, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, नाना जीवोकी अपेक्षा काल, नाना जीवो - की अपेक्षा अन्तर, भागाभागानुगम और अल्पबहुत्व || सब अनुयोगद्वारोका विवेचन प्रश्नोत्तर शैली मे किया गया है ।
1
१ स्वामित्व - --नरक गतिमे नारकी जीव कैसे होता है ? नरकगतिनामकर्मके उदयसे । तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्च जीव कैसे होता है ? तिर्यञ्चगतिनामकर्मके उदयसे । जीव एकेन्द्रिय आदि कैसे होता है ? क्षायोपशमिकलब्धिसे । जीव मतिज्ञानी कैसे होता है ? क्षायोपशमिकलब्धिसे । इग तरह जिस मार्गणावाला जीव जिस कर्मके उदय या क्षयोपशम आदिमे होता है उराका वैसा कथन किया गया है ( इम अनुयोगद्वार में ९१ सूत्र है ) |
तक रहता है ? कम
२ एक जीवकी अपेक्षा कालानुगम - - नरकगति में नारकी जीव कितने काल तक रहता है ? कम-से-कम दम हजार वर्ष तक और अधिक-से-अधिक तेतीस सागरकाल तक । भवनवामी देवोमें एक जीव कितने काल से-कम दस हजार वर्ष तक और अधिक से अधिक कुछ अधिक एक सागरोपम काल तक । जीव काययोगी कितने काल तक रहता रहता है ? कम-मे-कम अन्तर्मुहूर्तकाल तक और अधिक-से-अधिक अनन्तकाल तक । इस प्रकार २१६ सूत्रोके द्वारा कालका विवेचन किया गया है । जीवट्टणमे जो कालका कथन किया गया है वह गुणस्थानोकी अपेक्षा से है और यहाँ मार्गणास्थानोकी अपेक्षासे है | यही दोनोमें अन्तर है ।
३ एक जीवकी अपेक्षा अन्तरानुगम -- नरकगति में नारको जीवका अन्तर काल कितना है ? कम-मे-कम अन्तर्मुहूर्त और अधिक-से-अधिक असख्यात पुद्गल - परिवर्तन प्रमाणकाल । क्योकि कोई जीव नरकसे निकलकर मनुष्य या तिर्यञ्च - पर्यायमें उत्पन्न हो और तत्काल मरण करके पुन नरकमें जन्म ले लेता है । इसतरह उसकी नारकी पर्याय छूट कर पुन नारकी पर्याय प्राप्त करनेके बीच में केवल अन्तर्मुहूर्त कालका अन्तर रहता है । और कोई अधिक-से-अधिक उक्त काल तक नरकसे बाहर रहकर पुन, नरकमें चला जाता है । इसतरह मार्गणाओ - की अपेक्षा १४१ सूत्रोके द्वारा अन्तर कालका कथन किया गया है ।
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९४ जेनसाहित्यका इतिहास
४. नाना जीवोकी अपेक्षा मगविचयानुगम - भगका अर्थ है-भेद और विचयका अर्थ है विचारणा । हग अनुयोगद्वारमे यह विचार किया गया है कि मार्गणाओमे जीव नियमसे रहते है अथवा कभी रहते है और कभी नही रहते । उक्त चोदो मार्गणाओमे जीव नियममे रहते है- उनमें कभी भी जीवोका अभाव नही होता । उनके सिवाय आठ मार्गणा ऐसी है जिनमे सदा जीव नही रहते । इसीमे उन्हें मान्तर मार्गणा कहते है । उक्त चौदह मार्गणाएँ निरन्तर मार्गणा है । यह कथन नाना जीवोकी अपेक्षा किया गया है। इसमें २३ सूत्र है ।
५ द्रव्यप्रमाणानुगम - इसमे चौदह मार्गणाओमे पाये जाने वाले जीवोको संख्याका पृथक्-पृथक् कथन किया है। जीवट्ठाण के द्रव्यप्रमाणानुगममे गुणस्थानोकी अपेक्षा से जीवोकी सस्याना कथन है । यही दोनोंमें अन्तर है । इगमे १७१ मूत्र है ।
६ क्षेत्रानुगम- इसमे मार्गणास्थानोकी अपेक्षासे पूर्ववत् जीवोके क्षेत्रका कथन है । मूत्रसम्या १२४ है ।
७ स्पर्शनानुगम --- इसमें भी गुणस्थानोकी अपेक्षा न करके मार्गणाम्यानोमे जीवोके वर्तमान व अतीत काल सम्वन्धी क्षेत्रका कथन पूर्ववत् है । इसमें २७९ सून है ।
८ नाना जीवोकी अपेक्षा कालानुगम - इसमें नाना जीवोकी अपेक्षा मार्ग - गाओ जीवोके कालका कथन है । तदनुमार उक्त चौदह मार्गणाओमे जीव सर्वदा पाये जाते है । इसमें ५५ सूत्र है ।
९ नाना जीवोकी अपेक्षा अन्तरानुगम—- इसमे उक्त चौदह मार्गणाओमें नाना जीव मर्वदा पाये जानेके कारण अन्तरकालका निषेध करते हुए शेष आठ सान्तरमार्गणाओके अन्तरकालका कथन किया है । इसमे ६८ सूत्र है |
१० भागाभागानुगम नरकगतिमें नारकी सब जीवोके कितनेवे भाग है ? अनन्तवें भाग है । तीर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्च सब जीवोके कितनेवे भाग है ? अनन्त बहुभाग है । इस प्रकार चौदह मार्गणाओमे मव जोवोके भागाभागका कथन है । इसमें ८८ सूत्र है ।
११ अल्पबहुत्वानुगम - मनुष्य मवसे थोडे है । उनमे नारकी असख्यातगुणे है । नारकियोसे देव असख्यातगुणे है । देवोसे मिद्ध अनन्तगुणे है । सिद्धोसे तिर्यञ्च अनन्तगुणे है । इस प्रकार चौदह मार्गणाओके आश्रयसे जीवोके अल्पबहुत्वका कथन इस अनुयोगद्वार है । इसमें २०५ सूत्र है |
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छक्खडागम ९५
अन्तमै महादण्डक नामक अधिकार है । इसके प्रथम' सूत्रमे कहा है-- 'इमसे आगे सर्वजीवोमें महादण्डक करना योग्य है ।'
इस प्रथम सूत्रकी धवला-टीकामे इम महादण्डक अधिकारको लेकर जो शका-समाधान किया गया है उसे यहाँ दे देना उचित होगा । उममे च्लिका और महादण्डकका भेद स्पष्ट होता है।
शका-ग्यारह अनुयोगद्वारोके ममाप्त होनेपर यह महादण्डक किमलिये कहा है ?
समाधान -- ग्यारह अनुगेगदारोमै निवद्ध खुद्दावन्धकी चूलिका रूपसे महादण्डकको कहते है।
शका-चूलिका किसे कहते है ?
ममाधान-ग्यारह अनुयोगद्वारोमे सूचित अर्थका विशेष रूपसे कथन करनेको चूलिका कहते है।
__ शका-यदि ऐमा है तो यह महादण्डक चूलिका नही कहा जा सकता। क्योकि यह अल्पवहुत्वानुगम अनुयोगद्वारसे सूचित अर्थको ही कहता है, अन्य अनुयोगदारोमें कहे गये अर्थको नहीं कहता ? ___समाधान-ऐसा कोई नियम नही है कि सब अनुयोगोके द्वारा सूचित अर्थोका विशेषरूप कथन करनेवाली ही चूलिका होती है। किन्तु एक, दो अथवा सब अनुयोगदागेसे सूचित अर्थोकी विशेष प्ररूपणाको चूलिका कहते है । अत यह महादण्डक चूलिका ही है क्योकि यह अल्पबहुत्वानुगम अनुयोगद्वारसे सूचित अर्थका विशेपरूपसे कथन करता है।
इस प्रकार इस दूसरे खण्डके सूत्रोकी कुल संख्या अनुयोगद्वारोके क्रमसे ४३ + ९१ + २१६ + १५१ + २३ + १७१ + १२४ + २७९ + ५५ + ६८+ ८८+ २०५ + ७९ -
३ बन्धस्वामित्वविचय षट्खण्डागमके तीसरे खण्डका नाम वन्धस्वामित्वविचय है। इसका प्रथम
____ 'जो सो बधसामित्त विचओ णाम तस्स इमो दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य ॥१॥' वह जो बन्धस्वामित्वविचय नामक (खण्ड) है उमका यह निर्देश दो प्रकार है-ओघसे और आदेशसे ।
१ 'तो मव्वजीवेसु महादण्डओ कादवो भवदि' ॥१॥-पटख०, पु० ७, पृ० ५७५ । २ पटख०, पु०८॥
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९६ जैनसाहित्यका इतिहास
इस सूत्र की धवला - टीकामें इसका उद्गम बतलाते हुए लिया है कि कृति, वेदना आदि चीबीग अनुयोगद्वारोगे बन्धन नामक जो छठा अनुयोगद्वार है वह चार प्रकार है- वन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्ध- विधान । उनमें बन्ध नामक अधिकारaa की अपेक्षा जीव और कर्मो के सम्बन्धका कथन करता है । बन्धक अधिकार ग्यारह अनुयोगद्वारोसे बन्धकोका कथन करता है । बन्धनीय नामक अधिकार तेईस वर्गणाओमे बन्ध योग्य और अबन्ध योग्य पुद्गल द्रव्यका कथन करता है । बन्धविधानके चार भेद है - प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेगवन्च | उनमे प्रकृतिबन्धके दो भेद है-- मूलप्रकृतिवन्न और उत्तरप्रकृतिबन्ध | मूलप्रकृतिबन्ध के दो भेद है- एक मूलप्रकृतिबन्ध और अयोगार मूलप्रकृतिवन्ध । अग्वोगाढ मूलप्रकृतिबन्धके दो भेद है -- गुजगारवन्न और प्रकृतिस्थानवन्ध | उनमे उत्तरप्रकृतिबन्धका गमुत्कीर्तन करनेवाले चौबोग अनुयोगद्वार है । उनमें से एक वन्धस्वामित्व नामक अनुयोगद्वार है । उसीका नाम वन्धस्वामित्वविचय हूं ।'
मिथ्यात्व, असयम, कषाय और योगोके द्वारा जो जीव और कमोंका सम्बन्त्रविशेष होता है उसे वन्ध कहते है । और बन्धके स्वामित्वको बन्वस्वामित्व कहते है । और वन्वस्वामित्वके विचारको बन्धस्वामित्वविचय कहते है । विचय, विचारणा, मीमासा, परीक्षा ये सब शब्द समानार्थक है । अत यहाँ यह विचार किया गया है कि किस-किस गुणस्थान और मार्गणास्थान में किस -किम कर्मका वन्ध होता है । तदनुसार दूसरे सूत्रमें कहा है कि ओघको अपेक्षा वन्धस्वामित्वविचयके विषय में चौदह जीव समास ( गुणस्थान) जानने योग्य है । और तीसरे सूत्रके द्वारा चौदह गुणस्थानो के नाम वतलाये है ।
चौदह गुणस्थानोके नाम जीवद्वाणकी मत्प्ररूपणाके प्रारम्भमें आ चुके है । अत धवला टीकामें यह शका की गई है कि जीवसमास तो पहले ही हमने जान लिये है फिर यहाँ उनका कथन क्यो किया है ? इसका समाधान करते हुए धवलाकारने कहा है--- विस्मरणशील शिष्योके स्मरण करानेके लिये पुन कथन किया है । किन्तु सूत्रकारने प्रत्येक खण्डको यथासभव स्वतंत्र ग्रन्थके रूपमे निवद्ध किया है, ऐसा प्रतीत होता है । तथा उनका यह भी आशय रहा है कि जहाँ तक सम्भव हो कोई बात अस्पष्ट न रहे । इससे भी उन्होने पुनरुक्तिका दोष नही माना है ।
चौथे सूत्रमें कहा है कि इन चौदह जीवसमासोके प्रकृतिबन्धव्युच्छेदका कथन करना चाहिये ।
किसी कर्मप्रकृतिके बन्धके रुकनेको प्रकृतिवन्धभ्युच्छेद कहते है । सूत्रका
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छक्खडागम ९७
अभिप्राय यह है कि किस-किस गुणरयानमें कौन-कौन कर्म वन्धते है और आगे नही बंधते, यह कथन करते है। __ इसपर सूत्र ४ की धवलाटीकामें यह शका उठाई है कि यदि इसमें जीवसमासोके प्रकृतिवन्धव्युच्छेदका ही कथन करना है, तो इस ग्रन्थका वन्धम्वामित्वविचय नाम कैसे घटित होगा। समाधानमे कहा गया है कि 'इस गुणस्थानमें इतनी प्रकृतियोके बन्धका विच्छेद होता है' ऐसा कहनेपर यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है कि उससे नीचेके गुणस्थान उन प्रकृतियोके बन्धके स्वामी है । अत इस ग्रन्थका वन्धस्वामित्वविचय नाम सार्थक है।
सूत्र ५मे कहा है-'पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यश कीर्ति, उच्चगोत्र और पाच अन्तराय, इन कर्मोका कौन बन्धक है, कोन अवन्धक है।' सूत्र ६ में उत्तर दिया गया है-मिथ्यादृष्टिस लेकर सूक्ष्मसाम्परायिकसयत तक उक्त प्रकृतियोके बन्धक है । अत दमवें गुणस्थान तकके जीव उक्त कर्मोके वन्धक है, शेप अवन्धक है। इस तरह कर्मप्रकृतियोका निर्देश करते हुए पहले प्रश्न किया गया है और आगे उसका उत्तर दिया गया है कि अमुक कर्मोके वन्धक अमुक गुणस्थान वाले जीव है ।
इसप्रकार प्रारम्भके ४२ सूत्रोमें तो गुणस्थानोके अनुसार बन्ध और अवन्धका कथन है । तत्पश्चात् मार्गणाओके अनुसार कथन है ।
सूत्र ३९में यह प्रश्न किया गया है कि कितने कारणोसे जीव तीर्थकरनामगोत्रकर्मको बांधते है ? सूत्र ४०में उत्तर दिया गया है कि इन सोलह कारणोसे जीव तीर्थकरनामगोत्रकर्मको बांधते है । और सूत्र ४१में उन १६ कारणोके नाम बतलाये है जो इसप्रकार है
१ दर्शनविशुद्धता', २ विनयसम्पन्नता, ३. शीलवतोमै निरतिचारता, ४ छह आवश्यकोमें अपरिहीनता, ५ क्षणलवप्रतिबोधनता, ६ लब्धिसवेगसम्पन्नता, ७ यथाशक्ति तप, ८ साधुओकी प्रासुकपरित्यागता, ९ साधुओकी ममाधिसधारणा, १० साधुओकी वैयावृत्ययोगयुक्तता, ११ अरहतभक्ति, १२ बहुश्रुतभक्ति, १३ प्रवचनभक्ति, १४ प्रवचनवत्सलता, १५ प्रवचनप्रभावना, १. 'दसणविसुज्झदाए विणयमपण्णदाए मीलन्वदेसु गिरदिचारदाए आवासण्सु अपरि
हीणदाए मणलवपटिबुज्मणदाए लद्विसवेगसपण्णदाए जधाथामे तथा तवे साहूण पासु. अपरिचागदार माहूण समाहिसधारणाए माहूण वेज्जावच्चजोगजुत्तदाए अरहतभत्तीए बहुसुदभत्तीए पवयणभत्तीए पवयणवच्छलदाए पवयणप्पभावणदाए अभिक्खण अभिक्खण णाणोवजोगजुत्तदाए इच्चेदेहि सोलसेहि कारणेहि जीवा तित्थयरणामगोद कम्म वर्धति ।। १ ।।–पटख०, पु० ८, पृ० ७° ।
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९८. जनसाहित्यका इतिहास १६. अभीक्ष्णमभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तता । इन सोलह कारणोसे जीव तीर्थकरनामगोत्रकर्मको बाँधते है। ___ तत्त्वार्थसूत्रमें जो तीर्थकरनामकर्मके बन्धके सोलह कारण बतलाये है, उनमें इनसे कुछ अन्तर है । यहाँ 'साधुओकी प्रासुक परित्यागता है, तत्त्वार्थसूत्रमें 'शक्ति अनुसार त्याग' है। इन दोनोका आशय मिलता हुआ है। किन्तु यहाँ 'लब्धिसवेगसम्पन्नता' है, त० सू० में आचार्यभक्ति है। शेष चौदह कारण समान है । इन दोनोमें कोई मेल नही है ।
किन्तु श्वेताम्बरीय ज्ञाता धर्मकथा नामक आठवे अगमें २० कारण बतलाये है-१ अरहत, २ सिद्ध, ३ प्रवचन, ४ गुरु, ५ स्थविर, ६ बहुश्रुत और ७ तपस्वियोमें वत्सलता, ८ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ९, दर्शन, १० विनय, ११. आवश्यक, १२. निरतिचार शीलवत, १३ क्षणलव, १४ तप, १५ त्याग, १६ वैयावृत्य, १७ समाधि, १८ अपूर्व ज्ञानग्रहण, १० श्रुतभक्ति, २० प्रवचनप्रभावना।
इस अन्तरके सम्बन्धमें विशेष चर्चा तत्त्वार्थसूत्र सम्बन्धी प्रकरणमें की जायेगी।
बम्धस्वामित्वविचयकी सूत्रसख्या ३२४ है ।
श्वेताम्बर परम्पराके तीसरे कर्मग्रन्थका नाम बन्धस्वामित्व है। कर्मग्रन्थ प्राचीन और नवीनके भेदसे दो प्रकारके है। दोनोका विषय प्राय समान है। प्राचीनमे विपय-वर्णन थोडा विस्तृत है। तीसरे प्राचीन कर्मग्रन्थकी गाथासख्या ५४ है जवकि नवीनकी गाथासख्या २५ है। प्राचीनमे गति आदि मार्गणामोमे गुणस्थानोकी सख्याका निर्देश अलगसे करके तब बन्धस्वामित्वका कथन है किन्तु नवीनमें ऐसा नही किया है। उसमें जो मार्गणाओके आश्रयसे गुणस्थानोमें वन्धस्वामित्वका कथन दिखाया, उससे मार्गणाओमें गुणस्थानोकी सख्याका बोध हो जाता है।
१ 'दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णशानोपयोगसवेगौ शक्तितम्त्या
गतपसी साधुममाधियावृत्यकरणमर्हदाचार्यवहुश्रुतप्रवचनक्तिरावश्यकापरिहाणि
निप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ।।'-न० म०, ६।२४।। • 'अरहतमिद्धपवयणगुरुथेरबहुम्सुएसु वच्छलयाव तवस्सी तेमि अभिक्पणाणोयओगे य ।। दसण विणए आरास्सए य सोलन्यए निरडयार । खणलव तव चियाए वेयावच्चे
समाही य॥ अपुवणाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पभावणया। एहि कारणेहिं तित्थयरत्त लहद जीवो ।।
--शा० ध०, अ०८. सू० ६४
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छक्खडागम ९९
पट्खण्डागममें गतिके आश्रयमे प्रकृतियोका निर्देश करके यह बतलाया है कि इन प्रकृतियोका बध अमुक गुणस्थानवाले करते है । जैसे—आदेशसे' गतिके अनुवादसे नरकगतिमें नारकियोमे अमुक प्रकृतियोका (७० प्रकृतियोके नाम गिनाये है । कौन बन्धक है और कोन अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टिसे लेकर असयत सम्गग्दृष्टि तक बन्धक है । निद्रानिद्रा आदि ( २५ प्रकृतियोके नाम गिनाये है ) का कौन वधक है, कोन अबधक है ? मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि बन्धक है, शेप अवन्धक है । मिथ्यात्व आदि ४ का कौन बधक है और कोन अबधक है ? मिथ्यादृष्टि बन्धक है, शेष अबन्धक है । मनुष्यायुका कौन बन्धक है और कौन अबन्धक है ? मिथ्यादृष्टि, मासादनसम्यग्दृष्टि और असयतसम्यग्दृष्टि बन्धक है, शेष अवन्धक हैं । तीर्थकरनामकर्मका कौन वन्धक है और कौन अवन्धक है ? असयतसम्यग्दृष्टि बन्धक है, शेष अवन्धक है।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि सामान्यसे नरकगतिमें बन्धयोग्य प्रकृतियाँ ७० + २५ + ४ + १ + १ = १०१ है । उनमेंसे मिथ्यात्वगुणस्थानमें १०० ही बन्धयोग्य है, तीर्थकर वन्धयोग्य नही है । तथा १०० मेंसे सासादनसम्यग्दृष्टि गणस्थानमें ९६ ही बन्धयोग्य है, मिथ्यात्वादि चारका वन्ध केवल मिथ्यादष्टिके ही होता है । तथा नरकगतिमे चार ही गुणस्थान होते है । इन सब फलितार्थोके अनुसार कर्मग्रन्थमे २ कथन किया है कि नारकी मामान्यसे १०१ कर्मप्रकृतियोको बांधते है। किन्तु पहले गुणस्थानमें वर्तमान नारकी १०१ मेंसे तीर्थकरके बिना १०० कर्मप्रकृतियोको बांधता है और सासादनगुणस्थानमें वर्तमान नारकी उनमेंसे ४ प्रकृतियोको छोडकर ९६ को ही बांधता है
इसी तरह इस तीसरे खण्डके प्रारम्भमें सामान्यसे प्रकृतियोका नाम निर्देश करके उनके वन्धक और अवन्धक गुणस्थानोका निर्देश किया है । उससे यह फलित होता है कि अमुक गुणस्थानमें इतनी कर्मप्रकृतियां वन्धयोग्य है । तदनुसार दूसरे कर्मग्रन्थमें गणस्थानोमें बन्धयोग्य प्रकृतियोका निर्देश किया है।
अतः गुणस्थान और मार्गणास्थानोमें जो कर्मप्रकृतियोके बन्धस्वामित्वका कथन दिगम्बर और श्वेताम्वर परम्परामे पाया जाता है उसका मूल बन्धस्वामित्वविचयनामक तीसरा यह खण्ड ही प्रतीत होता है क्योकि श्वेताम्बर परम्परामें भी इस विषयका निरूपक कोई अन्य आकर ग्रन्थ उपलब्ध नही है।
१. पटख० पु०८, मूत्र ४३-. । २ 'सुरइगुणवीमवज्ज इसास: ओहेण वहि निरया । तित्थ विणा मिच्छिसय सासणि नपु
चर विणा छनुई ॥ ४ ॥'-कर्म ० ३ ।
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१०० · जनसाहित्यका इतिहास
४ वेदनाखण्ड एक तरहसे चतुर्थ वेदनासण्डसे पट्मण्डागमका उत्तर भाग प्रारम्भ होता है क्योकि इसके प्रारम्भमे भूतबलीने ४४ सूत्रोसे मगलाचरण किया है । और धवलाकारने उस मंगलको शेप तीनो खण्डोका मंगलाचरण कहा है । क्योति पांचवें और छठे खण्डके प्रारम्भमे कोई मगल नही पाया जाता । इमी तरह-जीवढाणके प्रथम अनुयोगद्वार गत्प्ररूपणाके आदिमें पुष्पदन्तने मंगलाचरण किया था। वही मगलाचरण दूसरे और तीसरे गण्डका भी मान लिया गया, क्योकि इन दोनो खण्डोके प्रारम्भमें कोई मगलाचरण नही पाया जाता। अत दोनो मगलोको पूर्वार्ध और उत्तरार्धका मगलाचरण कहना उचित होगा।
दूसरे, जिस महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका उपमहार करके ये छ पण्ड रचे गये है, उसके चौवीस अनुयोगद्वारोममे क्रमानुसार ही चौथे आदि मण्डोका निर्माण हुआ है और उमीके मगलसूत्रोको वेदनावण्डके आदिमें मगलरुपमे स्थान दिया गया है। अत चतुर्य वेदनासण्डमे पटवण्डागमका उत्तर भाग प्रारम्भ होता है, यह कहना उचित ही है। __इस चतुर्थ खण्डमे महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चौबीस अनुयोगदारोमेरो आदिके दो अनुयोगद्वार सक्षिप्त किये गये है। एक कृति अनुयोगद्वार और दूसरा वेदना अनुयोगद्वार इन दोनोमेंसे वेदनाका प्राधान्य होनेसे खण्डको वेदना नाम दिया गया है।
१ कृतिअनुयोगद्वार'-इसके प्रारम्भमें सूत्रकार भूतवलीने णमो जिणाण' इत्यादि ४४ सूत्रोसे मगल किया है । ठीक यही मगल 'योनिप्राभृत' ग्रन्यमें गणवरवलयमत्रके रूपमें पाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि योनिप्राभृतके कर्ना
आचार्य धरसेन थे और उन्होने अपने शिष्य भूतनली पुष्पदन्तके लिये उसकी रचना की थी। इन मगलसूत्रोमे अन्तिम सूत्र 'णमोवद्धमाणबुद्धरिसिस्स ॥४४॥' है । इसकी धवलाटीकामे वीरसेन स्वामीने इसे गौतमस्वामी रचित कहा है।
इसके ४५वें सूत्रमे बतलाया है कि अग्रायणीय पूर्वको पचमवस्तुके चतुर्थप्राभृतका नाम कम्मपयडी ( कर्मप्रकृति ) है । उसके चौवीस अनुयोगद्वार कृति आदि है।
१. घटखण्डागम, पुस्तक ९ मे मुद्रित है। २ 'योनिप्राभूत वीरात ६०० धारसेन ।' वृष्टिपणि०३ 'इय पण्हसवणरइए भूयवली-पुप्फयतआलिहिए। कुसुमडी उवहट्टे विज्जयवियम्मि
अवियारे।"-अनेकान्त, वर्ष , १० ४८७ से।
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छक्खडागम १०१
कृतिका वर्णन करते हुए सूत्र ४६में कृतिके सात भेद बतलाये है-नामकृति', स्थापनाकृति, द्रव्यकृति, गणनाकृति, ग्रन्थकृति, करणकृति और भावकृति ।
सूत्र ४७में प्रश्न किया गया है कि कौन नय किन कृतियोकी इच्छा करता है ? सूत्र ४८, ४९, ५०से उत्तर देते हुए कहा है कि नैगम, सग्रह, व्यवहार सब कृतियोको स्वीकार करते है । ऋजुसूत्रनय स्थापना कृतिको स्वीकार नही करता और शब्द आदि नय नामकृति और भावकृतिको स्वीकार करते है।
सूत्र ५१से कृतिके उक्त सात भेदोका स्वरूप बतलाया है, जो इसप्रकार हैजिस जीव या अजीव किसीका 'कृति' नाम रखा जाता है वह नामकृति है । ___ काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत्तकर्म ( वस्त्रसे निर्मित प्रतिमा ), लेप्यकर्म, लपनकर्म ( पर्वतको काटकर बनाई गई प्रतिमा ), शेलकर्म, गृहकर्म (जिनालयोमें बनाई गई प्रतिमा), भित्तिकर्म, दन्तकर्म और भेड ( ? ) कर्ममे अथवा अक्ष ( पासे-शतरञ्जके मोहरे ) और बराटक ( कोटी ) में यह कृति है' ऐसा आरोप करनेको स्थापनाकृति कहते हैं।
द्रव्यकृतिके दो भेद है-आगमद्रव्यकृति और नोआगमद्रव्यकृति । आगमद्रव्यकृतिके नौ अर्थाधिकार है-स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम । धवलाटीकामें इन सबका स्वरूप बतलाया है । जिनमेंसे कुछ इसप्रकार है
तीर्थङ्करके मुखसे निकले वीजपदोको सूत्र कहते है । उस सूत्रसे उत्पन्न होनेके कारण गणधरदेवका श्रुतज्ञान सूत्रसम है । श्रुतज्ञानी आचार्योकी सहायताके विना ही स्वयबुद्धोको जो श्रुतज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमसे द्वादशागका ज्ञान हो जाता है उसे अर्यसम कहते है। गणधरदेवके द्वारा रचित द्रव्यश्रुतको ग्रन्थ कहते है। उनके द्वारा बोधितबुद्धोको जो द्वादशागका ज्ञान होता है उसे ग्रन्थसम कहते है । द्वादशागके अनुयोगोके मध्यमें स्थित द्रव्यश्रुतज्ञानके भेदोको नाम कहते है, उससे उत्पन्न होनेके कारण शेष आचार्योमें स्थित श्रुतज्ञान नामसम है । ___ इस आगमके नौ अर्थाधिकारोमें जो उपयोग है उसके भेद सूत्र ५५में बतलाये है। वे है-वाचना, पृच्छना, पृतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा वगैरह।
सूत्र ६६में गणनाकृतिके अनेक भेद बतलाये है-एक संख्या नोकृति है, दो सख्या न कृति है और न नोकृति । तीनसे लेकर सख्यात, असख्यात, अनन्त, राशियाँ कृति है। १ 'कदि त्ति सत्तविहा कदी-गामकदी, ठवणकदी, दव्वकदी गणणकदी गथकदी करणकदी
भानकदी चेदि ॥४६॥
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१०२ जनसाहित्यका इतिहास
धवलाटीकामे इमका रपष्टीकरण करते हुए कहा है कि जिस राशिक वर्गमें उसकी मूल राशिको घटा देने पर जो शेष रहे उसका वर्ग करने पर वृद्धिको प्राप्त हो उसे कृति कहते है । जैसे तीनके वर्ग नौमसे तीनको घटा देने पर छ शेप रहते है उसका वर्ग ३६ होता है मत तीन रागि कृति है। एफ रागिका वर्ग करने पर भी एक ही लय आता है, गशि वढती नही और उसमेंसे मूलगशि एक को घटा देने पर कुछ भी शेप नही रहता । अतः एक राशि नोकृति है । दो का वर्ग करने पर राशि बढ़ जाती है, इसलिये दाको नोकृति नही कह सकते ।
और चूंकि उसके वर्ग ४ मेरो उसके मूल दोको घटाने पर दो शेष रहते है और उसका वर्ग करने पर चार ही होते है-राशि बढती नही, अत दोको कृति भी नही कह सकते।
सूत्र ६७में ग्रन्यकृतिका रवरूप बतलाते हुए कहा है-लोकमें, वेदमें, समयमे शब्दप्रवन्धरुप अक्षरकाव्यादिकी जो ग्रन्यग्नना की जाती है उमे ग्रन्य. कृति कहते है। सब कृतियोका स्वम्प बतलानेने बाद सूत्रकारने यह प्रश्न किया है कि इन कृतियोमेसे कौन-सी कृतिसे यहाँ प्रयोजन है । और उनका उत्तर दिया है कि गणनाकृतिसे यहां प्रयोजन है। इसकी व्याख्यामे धवलाकाग्ने लिखा है कि गणनाको जाने विना शेप अनुयोगद्वारोका थन नही हो सकता।
इस कृति अनुयोगद्वारमे ७६ सूत्र है।
कृति अनुयोगद्वार और श्वेताम्बरी अनुयोगद्वारको निरूपणशैलीमें बहुत कुछ समानता है । कृति अनुयोगद्वारमें कृतिके सात भेद किये है और अनुयोगद्वारसूत्रमें आवश्यककी चर्चा होनेसे आवश्यकके चार भेद किये हैं। नामावश्यक स्थापनाआवश्यक, द्रव्यावश्यक और भावावश्यक । कृतिके मात भेदोमें भी नामकृति, स्थापनाकृति, द्रव्यकृति और भावकृति ये चार भेद है। इन चारो भेदोके स्वरूपबोधक सूत्रोमें कितनी समानता है, यह दोनो ग्रन्थोके सूत्रोके मिलानसे स्पष्ट हो जाता है।
१ 'जा सा णामकदी णाम सा जीवस्स वा अजोवस्स वा, जीवाण वा, अजीवाण वा, जीवस्स च अजीवस्स च, जीवत्स च अजीवाण च, जीवाण च अजीवस्स [च], जीवाण च अजीवाण च ।। ५१ ॥'-पट्ख०, पु० ९, पृ० २४६ ।
१ 'से कि त नामावस्सयं ? जस्स ण जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सएत्ति नाम कज्जइ से त नामावस्सय ॥ ९॥'-अनु० सू० ।
। 'जा सा गथकदी णाम सा लोए वेदे समए सहपवधणा अक्खरकव्वादीण जा च गथ
रयणा कीरये सा सन्वा गथकदी णाम ॥ ६७ ॥-पु. ९, पृ० ३२१ ।
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छक्खडागम १०३
कृतिमें आठो भंगोका निर्देश किया गया है, किन्तु अनुयोगद्वारसूत्र में छहका निर्देश किया है। किन्तु उनमें शेप दो भी गर्भित है ।
स्थापनाका लक्षण लीजिये
२ 'जा सा ठवणकदी णाम सा कठकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा, पोत्तकम्सु लेप्पकम्मेसु वा लेण्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मसु वा भित्तिकम्मेस वा वतकम्मेस वा भेंडफम्मेसु वा अक्खो वा वराडो वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए विज्जति कदि ति सा सव्वा ठवणकदी णाम ॥५२॥'- षट्ल, पु. ९, पृ० २४८ ।
२ 'से कि त ठवणावस्सयं ? जण्ण कट्ठकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गथिम वा वेढिमे वा पूरिमे वा सघाइमे वा अखे वा बराडए वा एगो वा अणेगो वा सब्भावठवणा वा असम्भावठवणा वा आवस्सएति ठवणा ठविज्जइ से त ठवणावस्सय ।। १० ।'-अनु० सू० ।
३ जा सा आगमदो वश्वकदी णाम तिरसे इमे अठ्ठाहियारा भवति-छिद जिद परिजिद वायणोपगद सुत्तसम अत्थसम गथसमं गामसम घोससम ॥५४॥ जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियकृणा वा अणुपेक्खा वा थयथुइ धम्मफहा वा जे चामण्णे एवमादिया ॥ ५५ ॥"-पट्ख० पु० ९, पृ० २५१, २६२ ।
३ से कि त आगममो दवावस्सय ? जस्स ण आवस्सए ति पद सिक्खित ठित जित मित परिजित नामसम घोससम गुरुवायणोवगय, से ण तत्थ वायणाए पुच्छणाए परिभट्टणाए धम्मकहाए अणुप्पेहाए, कम्हा ? अणुवओगे दव्वमिति कट्ट ।। १३ ॥ अनु० सू० ।
यद्यपि दोनोके उक्त उद्धरणोमें कुछ अन्तर भी है। किन्तु जो समानता है वह उल्लेखनीय है।
दोनोकी द्रव्यनिक्षेपमें नययोजना भी दृष्टव्य है
४ 'णेगमववहाराणमेगो अणुवजुत्तो आगमदो दश्वकदी अणेया वा अणुवजुत्तो आगमदो दन्वकदी ॥ ५६ ।। सगहणयस्स एयो वा अणेया वा अणुवजुत्तो आगमदो दव्वकदी ।। ५७ ॥ उजुसुदस्स एओ अणुवजुत्तो आगमदो दन्वकदी ॥ ५८॥ सद्दणयस्स अक्तव्य ॥ ५९ ॥ सा सव्वा आगमदो दन्वकदी णाम ।। ६० ।पट्ख०, पु० ९, पृ० २६४-२६६ ।
४ "नेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दव्वावस्सय दोणि अणुवउत्ता आगमओ दोण्णि दवावस्सयाइ तिणि अणुवउत्ता आगमओ तिण्णि दवावस्सयाई एव जावइया अणुवउत्ता आगमओ तावइयाई दवावस्सयाइ, एवमेव
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१०४ जैनसाहित्यका इतिहास
वनहारस्सवि । सगहस्स ण एगो वा अणेगो वा अणुवउत्तो वा मनुवउत्ता वा आगमओ दव्वास्यं दव्वावस्सयाणि वा से एगे दव्वावस्तए । उज्जुसुअस्त एगो अणुवउत्तो आगमतो एग दव्वावस्सय पुहत्तं नेच्छइ । तिन्ह सद्दनयाण जाणए अणुवउत्ते अवत्यु, कम्हा ? नह जाणए अणुवउत्ते न भवति, जह अण्वउत्ते जाणए ण भवति, तम्हा णत्यि आगमभी दव्वावस्सयं । से त आगमओ दव्वावस्य ॥ १४ ॥ -- अनु० सू० ।
दोनो नययोजनाओ में कोई अन्तर नही है । कृतिका वर्णन सक्षिप्त है और अनुयोगद्वारका विस्तृत है ।
इस साम्यसे केवल यही प्रकट होता है कि जैन आगमिक शैली यही थी । अनुयोगोके प्रारम्भमें निक्षेप ओर निक्षेपोंमे नययोजना होना आवश्यक था और उसको लेकर विपयगत और शब्दगत साम्य था । किन्तु श्वेताम्वरीय आगमोमें इस शैली के दर्शन नहीं होते । सम्भव है यह दशैली पूवोंसे सम्बद्ध हो, क्योकि अनुयोग पूर्वगत श्रुतके भेद है ।
२ वेदना अनुयोगद्वार - वेदना अधिकार में १६ अनुयोगद्वार है - वेदनानिक्षेप, वेदनानयविभाषणता, वेदनानामविधान, वेदनद्रव्यविधान, वेदनक्षेत्रविधान, वेदनकालविधान, वेदनभावविधान, वेदनस्वामित्वविधान, वेदनवेदनविधान, वेदनगतिविधान, वेदनअनन्तरविधान, वेदनसन्निकर्षविधान, वेदनपरिमाण विधान, वेदनभागाभागविधान, और वेदनअल्पबहुत्वविधान । प्रथम सूत्र के द्वारा इन २ अनुयोगद्वारोका निर्देश किया गया है ।
१ वेदना निक्षेप - दो सूत्रोके द्वारा वेदनामे निक्षेपोका विधान किया है । वेदनाके चार भेद है-नामवेदना, स्थापनावेदना, द्रव्यवेदना और भाववेदना । वेदनाशब्दके अनेक अर्थ है । उनमेसे अप्रकृत अर्थका निराकरण करके प्रकृत अर्थको बतलाने के लिए यह अनुयोगद्वार है ।
२ वेदनानयविभाषणता -- सब व्यवहार नयाधीन है । अत नामादि निक्षेपगत व्यवहार किस नयके अधीन है, यह इस अनुयोगद्वार में वतलाया है । अर्थात् आगमिक शैली के अनुसार चार सूत्रोके द्वारो निक्षेपोंमें नययोजनाका कथन है । वेदनासे यहाँ बन्ध, उदय और सत्त्वरूप द्रव्यकर्मकी वेदना ली गई है ।
३ वेदनानामविधान - बन्ध, उदय और सत्त्वरूपसे जो कर्मपुद्गल जीवमें स्थित है उनमें किस-किस नयका कहाँ-कहाँ कैसा प्रयोग होता है इसके लिये यह वेदनानामविधान अधिकार है । कर्मके आठ भेद है, अत आठो कर्मोकी वेदनाके अनुसार वेदना भी आठ रूप है । सग्रहनयकी अपेक्षा आठो कर्मोकी एक वेदना है क्योकि सग्रहनय अनेकोको एकरूपसे ग्रहण करता है । और ऋजुसूत्रनय वर्तमान
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छक्खडागम • १०५
पर्यायको ही ग्रहण करता है, अत चूकि वेदनाका अर्थ सुख-दुख लोकमें लिया जाता है और वे सुख-दुख वेदनीयकर्मके सिवाय अन्य कर्मद्रव्योसे उत्पन्न नही होते । अत उदयागत वेदनीयकर्म ही ऋजुसूत्रनयसे वेदना है। इसमें भी ४ सूत्र है।
४. वेदनाद्रव्यविधान-वेदनारूप द्रव्यके विधान अर्थात् भेद उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य आदि अनेक है। उनका इस अनुयोगमें कथन है । इस अनुयोगद्वारके अन्तर्गत तीन अनुयोगद्वार है-पदमीमासा, स्वामित्व और अल्पवहुत्व । पदमीमासामें बतलाया है कि ज्ञानावरणीयद्रव्यवेदना उत्कृष्ट भी है, अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी है और अजघन्य भी है। सूत्रको देशामर्पक मानकर धवलाकारने सादि, अनादि आदि अन्य भी नौ पदोकी योजना की है । तथा वतलाया है कि सप्तम पृथिवीके गुणितकर्माशिक नारकीके अन्तिम समयमे उत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है, अत ज्ञानावरणीयवेदना उत्कृष्ट भी है और उक्त नारकीके सिवाय अन्यत्र सर्वत्र उसका अनुत्कृष्ट द्रव्य पाया जाता है, अत अनुत्कृष्ट भी है । क्षपित कौशिक जीवके वारहवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें उसका जघन्यद्रव्य पाया जाता है, अत ज्ञानावरणीयवेदना जघन्य भी है और उक्त जीवके बारहवें गुणस्थानके अन्तिम समयको छोडकर अजघन्यद्रव्य पाया जाता है, अत अजघन्य भी है । शेष सातो कर्मोमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये। ___ स्वामित्व अनुयोगद्वारमें ज्ञानावरणीय आदि कर्मोके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट आदि पद किन-किन जीवोमें किस प्रकारसे सम्भव है, इस तरह उनके स्वामियोका कथन बहुत विस्तारसे किया है। और अल्पबहुत्वमें ज्ञानावरण आदि आठ कर्मोको जघन्य उत्कृष्ट और जघन्य उत्कृष्ट वेदनाओके अल्पबहुत्वका प्रतिपादन किया है।
इस प्रकार पदमीमासा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारोके पश्चात् वेदनाद्रव्यविधानकी चूलिका आती है। इसके आरम्भिक सूत्रमें चूलिकाकी उपयोगिता अथवा विपयका प्रतिपादन करते हुए कहा है कि उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते हुए कहा है कि 'बहुत-बहुत वार उत्कृष्ट योगस्थानोको प्राप्त करता है और जघन्य स्वामित्वका भी कथन करते हुए कहा है कि बहुत-बहुत बार जघन्य योगस्थानोको प्राप्त होता है । इन दोनो ही सूनोका अर्थ भलीभांति अवगत नहीं हो सका। इसलिए दोनो ही सूत्रोका निश्चय करानेके लिए योगविषयक अल्पबहुत्व और प्रदेशविषयक अल्पवहुत्वका कथन किया जाता है । यथा
सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपयप्तिकका जघन्य योग सवसे थोडा है ॥१४५॥ वादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग उससे असख्यात गुणा है ॥१४६।। उससे दो इन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग असख्यात गुणा है ॥ १४७॥ उससे तेइन्द्रिय
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१०६ जेनसाहित्यका इतिहास अपर्याप्तकका जघन्य योग असंख्यातगुणा है ॥१४८॥ उमसे चौइन्द्रिय अपर्याप्तकका जघन्य योग असख्यात गुणा है ॥१४९।। इत्यादि । __ जिस प्रकार योगविषयक अल्पबहुत्वको प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकार प्रदेशविषयक अल्पबहुत्वको प्रस्पणा करनेका निर्देश सूत्रकारने किया है।
योगस्थानकी प्ररूपणाके लिए इन दस अनुयोगदारोको जानने योग्य कहा है
अविभागप्रतिच्छेदप्ररुपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानए रूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ॥१७६।। और आगे इनका कथन किया है । यथा
एक-एक जीवप्रदेशमें असख्यातलोकप्रमाण योग-अविभागप्रतिच्छेद होते है ॥१७८॥ अमख्यातलोकप्रमाण योगअविभागप्रतिच्छेदोकी एक वर्गणा होती है ॥१८०॥ असख्यात वर्गणाओका एक म्पर्धक होता है ।।१८२।। इस प्रकार एक योगस्थानमें श्रेणिके असख्यातवें भाग मान स्पर्धक होते है ॥१८३।। (दूसरे शब्दोमे) श्रेणिके असख्यानवें भाग स्पर्धकोका एक जघन्य योगस्थान होता है ।।१८६।।
अनन्तरोपनिधाके अनुसार जघन्य योगस्थानमें थोडे स्पर्धक है ॥१८॥ दूसरे योगस्थानमें स्पर्धक विशेष अधिक है ॥१८९।। तीसरे योगस्थानमें स्पर्धक विशेष अधिक है ।।१९०। इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानपर्यन्त उत्तरोत्तर विशेष अधिक स्पर्धक होते गये है ॥११॥
समयप्ररूपणाके अनुसार चार समय तक रहनेवाले योगस्थान श्रेणिके अमख्यातवें भागमात्र है ॥१९७॥ पाँच ममम तक रहनेवाले योगस्थान श्रेणिके असख्यातवें भाग है ॥१९८॥ इसी तरह छ समय, सात समय और आठ समय तक रहनेवाले योगस्थान श्रेणिके असख्यातवें भाग है ॥१९९।।
अल्पवहुत्वके अनुसार आठ समय तक रहनेवाले योगस्थान सबसे थोडे है ॥२०६॥ सात समय तक होनेवाले योगस्थान उनसे असख्यातगुणे है । इसी तरह क्रमग ६, ५, ४ आदि “समय तक होनेवाले योगस्थान उत्तरोत्तर असख्यातगुणे जानना चाहिये।
वेदनाद्रव्यविधानके अन्तिम सूत्रमें कहा है कि जो योगस्थान है वे ही प्रदेशबन्धस्थान है। अर्थात् प्रदेशबन्धके कारण योगस्थान ही है। जैसा उत्कृष्ट या जघन्य योगस्थान होता है तदनुसार ही ज्ञानावरणादि कर्मोका उत्कृष्ट या जघन्य प्रदेशवन्ध होता है । और प्रदेशबन्धके अनुसार ही ज्ञानावरणादि कर्मोंकी उत्कृष्ट या जघन्य द्रव्यवेदना होती है। इसीसे वेदनामें योगस्थान और उनके अवयवो-- वर्गणा आदिका कथन किया गया है।
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जाणा, वर्गणाके समान आठो कोंक दनाक्षत्रविध
छक्खडागम • १०७ योग जीवकी एक शक्तिविशेप है, जो कर्मोके आगमनमें कारण होती है । गक्तिके अविभागी अशको अविभागीप्रतिच्छेद कहते है और उनके समूहको वर्गणा, वर्गणाके समूहको स्पर्धक कहते है।
५ वेदनाक्षेत्रविधान-आठो कर्भोके द्रव्यकी वेदना सज्ञा है। वेदनाके क्षेत्रको वेदनाक्षेत्र और उसके विधानको वेदनाक्षे विधान कहते है। इसमें भी तीन अनुयोगद्वार है।
पदमीमासा, स्वामित्व और अल्पवहुत्व ।
वेदनाद्रव्यविधानकी ही तरह वेदनाक्षेत्रविधानका भी कथन किया गया है। पदमीमासामें बतलाया है कि ज्ञानावरणीयकर्मकी क्षेत्रकी अपेक्षा वेदना उत्कृष्ट भी है, अनुत्कृष्ट भी है, जघन्य भी है, और अजघन्य भी है । इसीप्रकार सातो कर्मोको जानना।
स्वामित्वके दो प्रकार है जवन्यपदरूप और उत्कृष्टपदरूप । स्वामित्वसे उत्कृष्टपदमें ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट किसके है ॥७॥ इम प्रश्नका समाधान करते हुए सूत्रकारने कहा है-'एक हजार योजनकी अवगाहना वाला जो मत्स्य स्वयभुरमण समुद्रके बाह्य तट पर स्थित है ॥८॥ वह वेदनाममुद्घातसे समुद्घातको प्राप्त हुआ और तनुवातवलयको उसने स्पृष्ट किया है। फिर तीन मोडोके साथ वह मारणान्तिक समुद्घातको प्राप्त हुआ। अनन्तर समयमे वह मातवें नरकमें उत्पन्न होगा। उसके ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है । क्यो होती है, इसका समाधान धवलाटीकामें किया गया है।
इमी तरह ज्ञानावरणकी क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य वेदना सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीवके बतलाई है।
अल्पबहुत्वमें भी तीन अनुयोगद्वार कहे है-जघन्यपद, उत्कृष्टपद और जधन्य-उत्कृष्टपद । और उनके द्वारा आठो कर्मोंकी उक्त वेदनाओके अल्पबहुत्वको प्ररूपणा की है।
६ वेदनाकालविधान'--इसमें भी पूर्ववत् तीन अनुयोगद्वार है । पदमीमासा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । पदमीमासामें ज्ञानावरणीय आदि कर्मोकी वेदना कालकी अपेक्षा उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य बतलाई है।
स्वामित्वमें, ज्ञानावरणादि कर्मोकी उत्कृष्ट आदि वेदना कालकी अपेक्षा किसके होती है, यह पूर्ववत् बतलाया है । तथा ज्ञानावरणीयकी उत्कृष्ट वेदना कालकी अपेक्षा सज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवके बतलाई है और वह सज्ञी पञ्चेन्द्रिय कैसा होना चाहिये, उसका विस्तारसे कथन किया है। इसी तरह आठो कर्मोकी वेदनाके १. पटखें , पु० ११, पृ० ७५ से।
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१०८ जनगाहित्यका इतिहास
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Ar, । प्रथम जिलामे र अग्रगोग गर -frmfuTRETIREMI TI, आधागा: Aणा गोर या I
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गानो रिलिज्मान गेर भATim Entry farty गगनगान | Premier AMITransferum गवगे था । दरग amrrity aftstarti . गण है। गरी गृहम मेनिम पां
-fresharir TITH है ॥५॥ मगरेनगिदियाना या मन न
folkat अल्पवता यन रायमी गनु TIT If गया भोग ॥६५॥ उराम गार पदिय पर्याप्त IP FIRE मगुप्ता। उगगे मूग गायियपाका नगन्य गिरियाग भरि ॥६॥ इत्यादि, विस्ताग्गे गायन है।
निकप्रापणा-गर्गपरमाणुगोगे मनगो निक्षेपण गरी निरोग रहने है। गोगस्थान द्वारा प्रदेशवन्म होता है। गो बन्नको प्राप्त हुए फर्मपरमाणुस्कन्ध आठो कोम विभाजित हो जाते है। और आवाधार बीतनंपर कमी उदयमें आने लगते है और स्थिति पूरी होने तक उदय भाते रहते हैं । उगीका कयन निकाप्ररूपणाम है। यगा-'अन्तरोपनिषाली अपेक्षा रानी पन्द्रिय पर्गाप्तक गिथ्यादृष्टि जीयोंके ज्ञानावरणीय, पशूनायग्णीय, पेदनीय, और अन्तराग कर्मकी तीन हजार वर्ष प्रमाण आवाधाको छोड़कर जो प्रसार प्रथम समयमें निक्षिप्त है वह बहुत है । दूगरे रामयमें जो प्रदेगारा निक्षिप्त है वह उससे विशेष हीन है, तीसरे समयमें जो प्रदेशारा निक्षिप्त है वह उससे विशेष हीन है । इसप्रकार उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोडी सागर पर्यन्त प्रति समय निक्षिप्त प्रदेशाग्न उत्तरोत्तर विशेप होन होता जाता है ॥१०२॥
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छक्खडागम १०९ सभी कर्मोके प्रदेशाग्र के निक्षेपणका यही क्रम है। सूचकारने मोहनीय, आयु आदिके भी प्रदेशाग्रोके निक्षेपणका चयन इमी प्रकार किया है। उक्त कर्मोसे मोहनीय और आयु कर्म की स्थिति और गावाधामें अन्तर होनेसे ही उनका पृथका कथन किया है।
आवाधाकाण्डकप्ररूपणा- 'अवाधकंदयपरूवणदाए' ॥१२१।। सूत्रकी धवलाटीकामें यह शका की गई है कि आवाधाकाण्डकप्ररूपणा किम लिये की गई है ? ममाधानमे कहा गया है कि गव स्थितिवन्धस्थानोंमें एक ही आवाचा होती है या भिन्न-भिन्न आवाधा होती है, यह बतलानेके लिये आवाधाकाण्डकपम्पणा की गई है। यथा
'सजी और अमज्ञी पञ्चेन्द्रिय, तेइन्द्रिय, दोइन्द्रिय, वादर और सूक्ष्म एकेन्द्रिय, इन पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोके आयुको छोडकर शेप मात कर्मोकी उत्कृष्ट स्थितिमे समय ममयमें पल्पोपमके अमख्यातवें भाग नीचे उतर कर एक आवाधाकाण्डकको करता है । यह क्रम जघन्य स्थिति तक है ।।१२२॥
आशय यह है कि उत्कृष्ट आवाधाके अन्तिम समयको पकडनेपर उत्कृष्ट स्थितिसे पल्पोपमके असख्यातवें भाग मात्र नीचे उतरकर एक आवाधाकाण्डकको करता है । अर्थात् आवाधाके अन्तिम समयको पकडकर उत्कृष्ट स्थितिको वाँधता है, उमसे एक समय कम स्थितिको बांधता है, दो ममय कम स्थितिको वांधता है । इस प्रकार पल्योपमके असख्यातवें भाग कम स्थिति तक ले जाना चाहिये। इस तरह आवाघाके अन्तिम समयमें बन्धयोग्य स्थितिविकल्पोको एव आवाधाकाण्डक कहते है । आवाधाके उपान्त्य समयको पकडकर भी इसी प्रकार दूमरे आवाधाकाण्डकका कथन करना चाहिये । आवाबाके त्रिचरम समयको पकडकर तीसरे आवाधाकाण्डकी प्ररूपणा करना चाहिये । जघन्य स्थिति तक यही क्रम जानना चाहिये ।
अल्पवहुत्वमें-सूत्रकारद्वारा चौदह जीवसमामोमें ज्ञानावरणादि मात कर्मों तथा आयुकर्मकी जघन्य व उत्कृष्ट आवाघा, आवाधा स्थान, आवाधाकाण्डक, नाना प्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, एकप्रदेशगुणस्थानान्तर, जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिवन्ध तथा स्थितिवन्धस्थान इन सबके अल्पवहुत्वकी प्ररूपणा विस्तारमे की गई है। यथा___ सज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीवोके आयुको छोडकर
१ पु० ११, पृ० २६६ । २ पु० ११, पृ० २७०
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११० जनमाहित्यका इतिहास
गंग गात कांगी जाना आवाधा गवर्ग पोली॥१२नानागारगान और आनापा दोनो ही गमान गगानगणं है ?
उतर आवामागे एगः गगमग जगमा मामाटा र आमामा ग्यानी उत्पत्ति होती। मन मग नावामा पा उमष्ट आवारा गरमानगणी लिग आना मान भी उगमे गायातना। और गयोगिक T-एग. आयाागानमन्त्री गोपगो TIME माग गार म्पितिवन्नम्मान : उनी जानामा गा।गि जानाम्या और आपका दोनों समान है।ग रग मानिfrया गया।
दुगरी लिकाम-मायामागम्यान पापा नीन जनुयोग नाग की गह
तीन अनुयागार -जीममा प्रनिगमसार और hिtगमाहार।
स्थितिबन्सम्यान मारणभूत मान-निलिम्पानोंको बिनाप्यागागस्थान गाहते है । अगातावंदनीय बनायाग्य कपागोदगम्मानोगी मगरंश रहते है और गातावंदनीगर्ग चन्मयोग परिणामांगो विगटिस्यान नहीं है। मे गपगविशुद्धिम्यान शितिवनमा मल गारण है । इनका वर्णन यहा तीन अनुगागनागेंगे किया गया है।
गाता और अगताको एक स्थितिमें इतने जीव है गौरतने नहीं है, पूरा वातका ज्ञान प्रथम अनुयोगदार जीपगगुदाहाग्गे द्वारा कराया गगा है। गया'ज्ञानावरणीयो वन्य जीव दो प्रकार है-गातबार और अमातबन्धक ॥१६॥
मातवन्धकजीव तीन प्रकारके है गतु.स्मानबन्धक, मिरवानगन्धक और हिस्यानवन्धकः ।
अगातवन्धकजीव तीन प्रकार है-द्विस्थानवन्धक, विस्थानवन्धर और नतुस्थानबन्धका ।
आशय यह है कि माता या असतावेदनीयके बिना ज्ञानावरणीयका वन्ध नही होता । इसलिये ज्ञानावरणीयकर्मका वन्ध करनेवालोके दो भंद कर दिये--मातवेदनीयवन्धक और अगातवेदनीयवन्धक । माताकी अनुभागशक्तिपी उपमा गुड, खाण्ड, शक्कर और अमृतमे दी गई है । गुडके समान प्रथम भागको पहला स्थान, खाडके ममान दूसरे भागको दूसरा स्थान, शक्करके ममान तीगरे भागको तीसरा स्थान और अमृतके समान चौथे भागका चौथा स्थान कहा जाता है। इसी तरह दुखदायी असाताके अनुभागको नीम, काजीर, विप और हालाहलकी उपमा दी
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छवमागम १११
गई है। नीमके समान प्रथम भागको पहला ग्यान, काजीरके समान दूगरे भागको दूसरा स्थान, विपके समान तीसरे भाग नीगरा स्थान और हालाहलके मान चतुर्थ भागको चौथा ग्यान कहते है ।
जिन माता अथवा भगाता के अनुभागमं अपने-अपने उक्त चारी स्थान होते है यह अनुभागवन्ध चतु स्थान कहा जाता है और उसको बधिनेवाले जीव चतु स्थानवन्धक कहलाते है । गोप्रकार निन्यानवन्धव और द्विस्यानवन्धक भी गमना चाहिये ।
गावेदनीयके चतु स्थानवन्धक जीप मवगे विशुद्ध है ।। १६९ ।। त्रिस्थानबन्धक सक्लिष्टतर ( उत्कृष्ट कपायवाले ) है || १७० || द्विस्यानवन्धक जीव उनसे मिलष्टतर है ॥ १७१ ॥
अगात वेदनीयके हिस्थानवत्रक जीव सर्वविशुद्ध है ।। १७२ ।। निग्यानवन्धक जीव सक्लिष्टतर है ॥ १७३॥ चतु स्थानवन्धक जीव उनसे सक्लिष्टतर है ॥१७॥ सातवेदनीयके चतु स्थानवन्धक जीव ज्ञानावरणीयको जघन्य स्थितिको बांधते है ॥ १७५ ॥ माताके निम्यानवन्धक जीव ज्ञानावरणीयकी मध्यम स्थितिको बांधते है ।। १७६ ।। इत्यादि कथन जीवममुदाहारमं किया गया है ।
प्रकृतिसमुदाहारमे दो अनियोगद्वार है - प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व | प्रमाणानुगमके अनुसार ज्ञानावरणीय असरयात लोकप्रमाण स्थिनिवन्धाध्यत्रनायस्थान है । इमीप्रकार शेष गात कर्मोकी भी प्रमाणप्ररूपणा करना चाहिये । अल्पबहुत्वके अनुसार आयुकर्मके स्थितिवन्धाध्यवसायस्थान गवसे कम है। नाम और गोत्रकर्मके स्थितिबन्धाध्यवमायस्थान दोनो ही तुल्य असख्यातगुणे है | ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय चारो कमोंके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान तुल्य है किन्तु नाम - गोनमे असख्यातगुणे है । मोहनीयके स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान मख्यातगुणे है ॥ २४५ ॥
तीरे स्थितिममुदाहार अधिकारमे तीन अनुयोगद्वार है -- प्रगणना, अनुकृष्टि और तीव्रमन्दता ॥ २४६ ॥
प्रगणना अनुयोगद्वार 'अमुक अमुक स्थिति के वन्धके कारणभूत स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान इतने इतने होते है' इसप्रकार स्थितिवन्धाध्यवसायस्थानोके प्रमाणकी प्ररूपणा करता है । यथा -- ज्ञानावरणीयकी जघन्य स्थिति के स्थितिघन्घाघ्यवसायस्थान असख्यातलोकप्रमाण है ।। २४७ ॥ द्वितीय स्थितिके स्थितिवन्घाध्यवसायस्थान असख्यात लोकप्रमाण है ।। २४८ ।। तीसरी स्थितिके स्थितिवन्वाध्यवसायस्थान असख्यातलोकप्रमाण है । इसप्रकार उत्कृष्ट स्थिति तक असख्यातलोक असख्यातलोक प्रमाण स्थितिवन्धाध्यवसायस्थान है || २५० ॥
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११२ जनसाहित्यका इतिहाग
उमीप्रकार गातो कर्मोग रियतिबन्धाध्यवगायरगानीको प्रम्पणा करना चाहिये ।। २५१ ।। इत्यादि।
अनुकृष्टि अनुगोगद्वार प्रत्येक गितिो स्थितिवन्याध्ययगायरयानोगी रागानता व असमानताको बतलाता है। गया-भानावग्णीयशी गपन्य ग्यितिमें जो स्यितिनन्वाध्यवमायग्यान है द्वितीय स्थितिमे ने म्यितिबन्धात्यवगागम्यान भी है और अपूर्व भी है।
तीव्र-मन्दता अनुयोगार जपन्य व उनष्ट परिणामोरे अनिभागी प्रतिन्ठेदोके अल्पबहुन्वको प्रमपणा करता है । यथा-जानावरणीगगा जघन्यस्थितिगम्बन्धी जघन्यस्थितिबन्धात्यवगायम्मान गवगे मन्ः अनुभाग वाला है ॥ २७२ ॥ उमीला उत्कृष्ट स्थितिवन्याध्यवगायम्यान अनन्तगुणा है ॥ २७३ ॥ न्यादि ।
७. वेदनाभावविभान-पोये वेदनानामा गठक वेदनाभाववि माननामक राप्तम अधिवारमें भी तीन अनुयोगद्गार है-पदमीमामा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । पदो की मीमामाको गदगीमागा कहते हैं। यह पहला अनुयोगदार है। म्वामिलगे यहां कर्मभागके स्वामित्वका ग्रहण छिया गया है। यह दूगरा गनुयोगद्वार है। अल्पबहुत्वसे भी यहां गर्मभावके अल्पवहृत्वका ही ग्रहण पिया गया है । यह तीसग अनुयोगद्वार है।
पदमीमामामे भानावग्ण आदि आठ कर्मोको उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य भाववेदनाओका विचार किया गया है। यया-जानावरणीयवेदना उत्कृष्ट भी होती है, अनुत्कृष्ट भी होती है, जघन्य भी होती है और अजघन्य भी होती है । इसी प्रकार शेप मातो कर्मोकी भी जाननी चाहिये। ___ स्वामित्वमें उत्कृष्ट आदि चार पदोकी अपे।ा ज्ञानावरणीय आदि कर्मोकी भाववेदनाके स्वामीका कथन किया है । यथा-भावमे ज्ञानावरणीयकर्मकी उत्कृष्ट वेदना किसके होती है ? पञ्चेन्द्रिय सजी मिथ्यादृष्टि, मव पर्याप्तियोसे पर्याप्त अवस्थाको प्राप्त, माकार उपयोगसे युक्त, जागृत और नियामसे उत्कृष्ट सक्लेशको प्राप्त जीवके द्वाग बांधे गये उत्कृष्ट अनुभागका मत्त्व जिम जीवके होता है उसके ज्ञानावरणीय वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है । चूकि उक्त उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चोइन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, सनी और असज्ञी, वादर-सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्थाको प्राप्त जीव जीवोके यथायोग्य चारो गतियोमेंसे किसी भी एक गतिमें वर्तमान रहते हुए होता है अतएव उक्त जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है। इसी प्रकारसे आठो कर्मोकी उत्कृष्ट आदि वेदनाओके स्वामित्वका कथन किया गया है।
१ पट्ख०, पु. १० में ।
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छक्खडागम • ११३
अत्पबहुत्वमें जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट पदोके द्वारा पहले आठो मूलकर्मोके आश्रयसे अल्पबहुत्वका विचार किया है । फिर उत्तरप्रकृतियो के आश्रयसे अनुभागके अल्पवहुत्वका कथन किया गया है ।
इस कथनमे उल्लेखनीय बात यह है कि पहले गाथासूत्र के द्वारा कथन किया गया है फिर गाथासूत्रमे प्रतिपादित कथनको गद्यात्मक सूत्रोके द्वारा कहा गया है । धवलाटीकामे इन गाथासूत्रोके आधारपर रचे गये गद्यात्मक सूत्रोको चूर्णिसूत्र नाम दिया है । कसायपाहुडकी गाथाओके ऊपर यतिनृपभ द्वारा रचे गये चूर्णिसूत्रोकी तरह ही उन्हे यह सज्ञा दी गई है । ये गाथासूत्र छे है और तीन-तीनको सख्यामें दो वार आये है । अर्थात् पहले तीन गाथाएँ देकर उनपर चूर्णिसूत्र दिये गये है और पुन तीन गाथाएँ देकर उनपर चूर्णिसूत्र दिये गये है !
गाथाएँ प्रचीन प्रतीत होती है, इसीसे उन्हें ज्यो-का-त्यो देकर भूतबलीने अपने सूत्रो के द्वारा उनमें कथित विपयका प्रतिपादन किया है । अल्पबहुत्वानुगमके पश्चात् तीन चूलिकाएँ है । प्रथमचूलिकाके प्रारम्भमें ये दो गाथाएँ है
'सम्मत्तप्पत्ती' विय सावय विरदे अणतकम्मसे । दसणमोहक्खवए कसाय उवसामए य उवसते ॥ ७ ॥ खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असखेज्जा तव्विवरीदो कालो सखेज्जगुणा य सेडीओ ॥ ८ ॥
'सम्यक्त्वोत्पत्ति अर्थात् सातिशय मिथ्यादृष्टि, श्रावक, विरत ( महाव्रती), अनन्तानुबन्धी कषायका विसयोजन करनेवाला, दर्शनमोहका क्षपक, चारित्रमोहका उपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह, स्वस्थानजिन और योगनिरोध में प्रवृत्त जिन इन ग्यारह स्थानोमे उत्तरोत्तर असख्यात गुणी निर्जरा होती है । परन्तु निर्जराका काल उससे विपरीत है अर्थात् अन्तसे आदिकी ओर बढता हुआ सख्यात गुणित श्रेणिरूप है ।
इन दोनो गाथाओको देकर सूत्रकारने गद्यसूत्रके द्वारा गायोक्त विपयका प्रतिपादन किया है ।
ये दोनो गाथाएँ दिगम्बर तथा श्वेताम्बर साहित्यमें अन्यत्र भी पाई जाती है किन्तु इनकी सबसे प्राचीन उपलब्धि पट्खण्डागममें ही पाई जाती है क्योकि अन्य जिन ग्रन्थोंमें ये दोनो गाथाएँ पाई जाती है उन सबमें कर्मप्रकृति प्राचीन
१ पट्ख, पु० १२, पृ० ७८ ।
२ कार्ति० अनु०, गा०, गो० जी० का० गा० ।
३ ' सम्मत्तप्पत्तिसावयविरए सजोयणाविणासे य । दसणमोहक्खवगे कसायउवसामगुव
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११४ · जैनसाहित्यका इतिहास
है। किन्तु कर्गप्रगति गद्गगगगे अर्वाचीन है और उगमें योटा-गा गब्दभेद भी है। उन्ही गाथाओो मामाग्गे तपासूगगे' भी पागून द्वारा उक्त विषयका प्रतिपादन किया गया है। उग तरह ऐनिहामिा दृष्टिगे भी उनत दोनो गाथागोषी स्थिति उरलेगनीय है। दूसरी चूलिका
दूगरी चूलिका अनुभागवन्यायवनायम्यानी प्रपणा बारह अनुयोगद्वारोग द्वारा की गई है। वे बारह अनुयोगार उग प्रकार - अविभागीप्रतिच्छेदप्रम्पणा, म्यानप्रापणा, चन्तरपागणा, गणकप्रापगा, ओजयुग्मप्रपणा, पदस्थानप्रापणा, अधस्तनम्यानप्रपणा, गमयप्राणा, वृद्धिमपणा, यवमयप्रम्पणा, पर्गवमानप्रम्पणा और अलगबहल प्रमपणा ॥१८॥
एक-एक अनुभागवन्वरयानम इतने इतने अविभागी प्रतिच्छेद होते है, यह बतलाने के लिए अविभागीप्रतिच्छेदप्रापणा की गई है। एक परमाणुमें गो जघन्य अनुभाग पाया जाता है उगे भविभागीप्रतिच्छेद कहते है । यथा-जो जघन्य अनुभागस्थान है उमो गब परगाणुओको एक जगह स्थापन कारके, उनमेगे सवरो मन्द अनुभाग वाले परमाणुगो गहण करो। उन परमाणुये म्प, रम और गनाको छोडकर नेवल स्पर्गको ही बुद्धि ताग ग्रहण करो और बुद्धिने ही द्वाग उग म्पर्णगुणका नब तक छेद करो जव तक विभागरहित छेद हो गके। उसी विभागरहित अन्तिम छेदको अविभागप्रतिच्छेद कहते है। उग अविभागप्रतिच्छेद रूपगे म्पर्शगुणके सण्डित करनेपर उगमे रामरत जीवरागिगे अनन्तगुणे अविभागी प्रतिच्छेद प्राप्त होते है । उन गव अविभागी प्रतिच्छेदोके ममूहका नाम वर्ग है । पुन उस परमाणुरामूहमरो उसी परमाणु के समान दूगरे परमाणुको गहण करके उसके स्पर्शगुणके भी पूर्ववत् प्रज्ञा द्वारा छेद करनेपर उतने ही अविभागी प्रतिच्छेद प्राप्त होते है। इस क्रगगे पूर्वपरमाणुके सदृश एक-एक परमाणुको लेकर प्रज्ञाके द्वारा उमके स्पर्शगुणके अविभागी प्रतिच्छेद करनेपर एक-एक वर्ग उत्पन्न होता है । जघन्यगुणवाले गव परमाणुओके समाप्त होने तक यह क्रिया करनी होती है । इन सव वर्गाके समूहको वर्गणा कहते है।
पुन पूर्वोक्त परमाणुसमूहमेगे एक परमाणुको ग्रहण करके प्रज्ञा द्वारा उसका छेद करनेपर उसमें पूर्वोक्त परमाणसे एक अधिक अविभागो प्रतिच्छेद पाये जाते
सते ॥८॥ सवगे य खीणमोहे जिणे य दुविहे असखगुणसेढी । उदओ तन्निवरीओ कालो
सग्वेज्जगुणमेढी ॥९॥ -कर्मप्र० उदया। १. 'सम्यग्दृष्टिश्रावकविरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणगोह
जिना क्रमशोऽसख्येयगुणनिर्जरा ।-त० सू०९ । ४५ । २, पु० १२, पृ०८७ से।
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छक्खडागम ११५ है । यह एक वर्ग हुआ। इसे अलग स्थापित करना चाहिए। इसी क्रमसे उसके समान अन्य परमाणुओको भी ग्रहण करके प्रत्येकका प्रज्ञाके द्वारा छेदन करनेपर तत्सदृश ही अविभागी प्रतिच्छेद प्राप्त होते है । उन सव वर्गोके समूहकी दूसरी वर्गणा होती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक-एक अविभागी प्रतिच्छेदकी अधिकताके क्रमसे तीसरी, चौथी, पांचवी आदि वर्गणाओको उत्पन्न करना चाहिये । इन सब वर्गणाओके समूहको स्पर्धक कहते है । एक जघन्यस्थानमें ऐसे बहुतसे स्पर्धक होते है । इनका विस्तृत विवेचन धवलाटीकामें किया गया है। इस तरह अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणामें अविभागप्रतिच्छेदोका कथन है। एक जीवमें एक समयमें जो कर्मानुभाग पाया जाता है उसे स्थान कहते है । स्थानके दो भेद हैअनुभागवन्धस्थान और अनुभागसत्त्वस्थान । उनका वर्णन स्थानप्ररूपणामें है । एक स्थानसे उसके अनन्तरवर्ती स्थानमें कितना अन्तर होता है, इसका कथन अन्तरप्ररूपणामे किया गया है।
छै वृद्धियां होती है-अनन्तभागवृद्धि, असख्यातभागवृद्धि, सख्यातभागवृद्धि, सख्यातगुणवृद्धि, असख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि । काण्डकप्रमाण पूर्ववृद्धिके होनेपर एक वार उत्तरवृद्धि होती है । यथा--काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिके होनेपर एक बार असख्यातभागवृद्धि होती है। और काण्डकप्रमाण असख्यातभागवृद्धियोके होनेपर एक बार सख्यातभागवृद्धि होती है। इस प्रकार अनन्तगुणवृद्धि तक यही क्रम जानना चाहिये । एक स्थानमें इन वृद्धियोका विचार काण्डकप्ररूपणामे किया गया है।
ओजयुग्मप्ररूपणामें कहा गया है कि अविभागी प्रतिच्छेद कृतयुग्म है, स्थान कृतयुग्म है और काण्डक कृतयुग्म है । इसका खुलासा करते हुए धवलाकार श्री वीरसेनस्वामीने लिखा है कि समस्त अनुभागस्थानोके अविभागी प्रतिच्छेद कृतयुग्म है, क्योकि उन्हे चारसे भाजित करनेपर कुछ शेप नहीं रहता। अत विवक्षित राशिमें चारसे भाग देनेपर जहाँ कुछ शेप नही रहता या दो शेप रहते है उसे युग्म कहते है और जहाँ एक या तीन शेप रहते है उसे ओज कहते है। ___ उक्त सब प्ररूपणाओका कथन सूत्रकारने तो केवल एक-एक सूत्रके द्वारा ही किया है। धवलाकारने प्रत्येकका व्याख्यान विस्तारमे करते हुए प्रत्येक प्ररूपणाका अभिप्राय व्यक्त किया है ।
पट्स्थानप्ररूपणामें बतलाया है कि अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि में अनन्तसे जीवराशिका प्रमाण लेना चाहिये । असख्यातभागवृद्धि और असख्यातगुणवृद्धिमें असख्यातसे असख्यातलोकका प्रमाण लेना चाहिये। और सख्यातभागवृद्धि तथा सख्यातगुणवृद्धिमें मख्यातसे उत्कृष्टसख्यात लेना चाहिये । अधस्तन
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११६ जैनसाहित्यका इतिहास स्थानप्ररूपणामे बतलाया है कि एक पट्स्थानबृद्धिमें अनन्तभागवृद्धि कितनी होती है, असख्यातभागवृद्धि कितनी होती है, सख्यातभागवृद्धि कितनी होती है इत्यादिका क्थन किया है।
समयप्ररूपणामें जघन्यअनुभागवन्धस्थानसे लेकर उत्कृष्टअनुभागवन्धस्थान तक जितने अनुभागवन्धस्थान है उनका प्रमाण बतलाकर उनमें परस्परमें अल्पबहुत्व बतलाया है। यथा-आठ समय वाले अनुभागवन्याध्यवसायस्थान सबसे थोडे है । सात समय वाले अनुभागवन्धाध्यवसायस्थान असख्यातगुणे है, इत्यादि ।
वृद्धिप्ररूपणामे प्रथम तो यह बतलाया है कि अनुभागवन्धस्थानोमे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानिस लेकर छह वृद्धियाँ और छह हानियां होती है । फिर इन वृद्धि-हानियोका काल बतलाया है कि अमुक वृद्धि और अमुक हानि इतने काल तक होती है। यथा-अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि कितमै काल तक होती है ? जघन्यसे एक समय तक और उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त काल तक होती है ॥२५२॥
यवमध्यप्ररूपणामें यवमध्यके दो भेद बताये है-कालयवमध्य और जीवयवमध्य । यहाँ कालयवमध्यका कथन है । यद्यपि समयप्ररूपणासे ही कालयवमध्य सिद्ध है तथापि उस यवमध्यका प्रारम्भ और समाप्ति कौन-सी वृद्धि अथवा हानिमें हुई है, यह नही जाना जाता है । अत. उसका प्रारम्भ और समाप्ति इन वृद्धि-हानियोंमें हुई है, यह बतलानेके लिए यवमध्यप्ररूपणा को गई है। इसमें केवल एक सूत्र है।
पर्यवसानप्ररूपणामे बतलाया है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्यस्थानसे लेकर पहले कहे गये समस्त स्थानोका पर्यवसान अनन्तगुणके ऊपर अनन्तगुणा होगा । इसमे भी एक ही सूत्र है।
अल्पवहुत्वप्ररूपणा अधिकारमे दो अनुयोगद्वार है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधासे अनन्तगुणवृद्विस्थान सवसे थोडे है । उनसे असख्यातगुणवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । उनसे सख्यातगुणवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । उनसे सख्यातभागवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । उनसे असख्यातभागवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । उनसे अनन्तभागवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । परम्परोपनिधामें अनन्तभागवृद्धिस्थान सवसे थोडे है। उनसे असख्यातभागवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है । उनसे सख्यातभागवृद्धिस्थान सख्यातगुणे है । उनसे सख्यातगुणवृद्धिस्थान सख्यातगुणे है। उनसे असंख्यातगुणवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है। उनसे अनन्तगुणवृद्धिस्थान असख्यातगुणे है, इत्यादि कथन है । तीसरी चूलिका
तीसरी चूलिकामे जीवसमुदाहारका कथन है । पहले जिन असख्यातलोक
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छक्खंडागम : १९७
प्रमाण अनुभागवन्वस्यानोकी प्ररूपणा की गई है उन सन स्थानोमे जीव क्या सदृश् होते है अथवा विसदृश होते ह अथवा सदृश-विसदृश होते है ? इन प्रश्नोका समा धान जीवसमुदाहारमे किया गया है। इसमें आठ अनुयोगद्वार है— एकस्थानजीव प्रमाणानुगम, निरन्तरस्थान जीव प्रमाणानुगम, सान्तरस्थान जीवप्रमाणानुगम नानाजीवकालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा भर अल्पबहुत्व || २६८ ॥
एकस्थान जीवप्रमाणानुगममे बतलाया है कि एक-एक स्थानमें यदि जीव होते हैं तो एक, दो, तीन अथवा उत्कृष्टसे आवली के असख्यातवें भाग होते है ॥२६९ ॥ निरन्तरस्थानजी व प्रमाणानुगममें बतलाया है कि निरन्तरजीवसहितस्थान उत्कृष्टसे आवलीके असख्यातमे भाग मात्र ही होते है ॥२७०॥
सान्तरस्थान जीवप्रमाणानुगममे बतलाया है कि जीवोसे रहित अनुभागवन्धस्थान एक भी होता है, दो भी होते हैं, तीन भी होते है । इस तरह उत्कृष्टसे असख्यात लोकप्रमाण होते है ॥२७१ ॥
नानाजी कालप्रमाणानुगममे बतलाया है कि एक-एक अनुभागवन्यस्थानमे नाना जीवोका काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलीके असख्यातवें भाग हे | वृद्धिप्ररूपणा में दो अनुयोगद्वार है --अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधासे जघन्य अनुभागवन्धस्थानमे जीव सबसे थोडे है || २७६ ॥ उनसे दूसरे अनुभागबन्धस्थानमे जीव विशेष अधिक है || २७७ || उनसे तीसरे अनुभागवन्धस्थानमे जीव विशेष अधिक है || २७८|| इस प्रकार यवमध्य तक जीव विशेषअधिक विशेष अधिक है || २७९ || इसके आगे जीव विशेषहीन है ॥२८०||
इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान तक जीव विशेषहीन विशेषहीन है । इसी प्रकार परम्परोपनिधासे कथन किया गया है ।
यवमध्यप्ररूपणामे बतलाया है कि सब स्थानोके असख्यातवे भागमें यवमध्य होता है । और यवमध्यके नीचेके स्थान थोडे है और ऊपरके स्थान असख्यात -
है
स्पर्शनप्ररूपणा में उत्कृष्ट अनुभागवन्धस्थान, जघन्य अनुभागवन्धस्थान, arush और यवमध्य आदिका स्पर्शनकाल वतलाया है ।
अल्पबहुत्वमें उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान, जघन्य अनुभागबन्धस्थान, काण्डक और यवमध्यमें स्थित जीवोके अल्पबहुत्वका विचार किया गया है ।
इस वेदनाभावविधान में ३१४ सूत्र है ।
८ वेदनाप्रत्ययविधान'
इस अनुयोगद्वार में नैगम आदि नयोंके आश्रयसे ज्ञानावरण आदि आठो कर्मों
१ षट्ख०, पु० १२, पृ० २७५ से ।
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११८ जनसाहित्यका इतिहास
की वेदनाके बन्ध के कारणोगा विनार लिया गया है। नया-नैगम, गग्रह और व्यवहारनपी अपेक्षा ज्ञानावरणीयवेदना प्राणातिपात (प्राणीने प्राणोका घातन ) प्रत्ययरो, मृपावादप्रत्ययगे ( अगत्यानन ), अवसादानप्रत्ययगे (चिना दी हुई वस्तुका गहण ), मैगुनप्रत्ययगे, परिगहप्रत्ययम, रात्रिभोजनप्रत्ययगे, क्रोध, मान, मागा, लोग, गग, ग, मोह नीर प्रेग पन्गयगे, निदानप्रत्ययगे, तथा अभ्याख्यान, नालह, पशून्य, गति, अति, उपधि, निगाति, मान, माया, मोप, मिथ्याज्ञान, गिथ्गादर्शन और प्रयोग प्रत्यग होती है। प्रत्ययका अ कारण है। अतः उक्त कारणोगे ज्ञानाचरणी बदना होती है। दोष गात गार्मोकी वेदना प्रत्यय भी इसी प्रकार जानने चाहिए।
उनी प्राणातिपात', गृपावाद, अदत्तादान, गैथुन और परिग्रह ये पांच पाप हैं, जिनका गर्वत. त्याग गहारत और पादेश त्याग अणुनत पहलाता है । अभ्याख्यान, कलह आदिको भगालपादेवने बारह भागागो म्पमे गिनाया है।
वेदनाप्रत्ययविधान पावल १६ गूत्र है । ९ वेदनास्वामित्व विधान
इरा अनुगोगटारले प्रयम गुम 'वयणमागित्त विहाणे त्ति' की धवलाटी कामे यह शका की गई है कि जिग जीनोमारा जो कर्म धिा गया है वह जीव उम कर्मकी वेदनाका स्वामी है, यह बात बिना कहे ही जानी जाती है, तब इग अनुयोगारकी क्या आवश्यकता है ? उगका समाधान करते हुए श्री वीरसेनरवामीने लिखा है कि कर्मो की उत्पत्ति न केवल जीवसे होती है और न केवल अजीवगे होती है । किन्तु मिथ्यात्य, अगयग, कपाय और योगको उत्पन्न करनेमे समर्थ पुद्गलद्रव्य
और जीव गमवन्धके कारण है। अत दो, तीन अथवा चार कारणोरो उत्पन्न होकर जीवमें स्थित वेदना उनमेरो एकके ही होती है, अन्यके नहीं होती, ऐसा नही कहा जा सकता। अत वेदनास्वामित्वका कथन करना उचित है ।
वंदनास्वामित्वका विधान करते हुए कहा गया है कि नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथञ्चित् जीवके होती है ।।२।। कथञ्चित् नोजीवके होती है ॥३॥ धवलामे लिखा है कि अनन्तानन्त विनसोपचयोसे १ 'पचमहव्यया पण्णत्ता, त जहा-सव्वातो पाणातिवायाओ वेरगण, जाव सव्वातो परिग्ग
हातो वेरमण । पचाणुव्वता पण्णत्ता, त जहा-थूलातो पाणावायातो वेरमण थूलातो मुमावायातो वेरमण थूलातो अदिन्नादाणातो वेरमण मदारसतोसे इच्छापरिमाणे।'स्थाना० रथा० ५, उ० १, सू० ३८९ । 'अभ्याख्यानकलहपैशुन्यासम्बद्धप्रलापरत्यरत्युपधिनिकृत्यप्रणतिमोपमम्यड मिथ्यादर्शना
त्मिका भापा द्वादशधा ।-त० वा०, पृ० ७५ । ३ पटख०, पु० १२, पृ० ०९४-२९५ ।
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छक्खंडागम • ११९ उपचित कर्मपुद्गलस्कन्ध कथञ्चित् जीव है, क्योकि वह जीवसे भिन्न नही पाया जाता। इस विवक्षासे जीवके वेदना होती है । तथा अनन्तानन्तविस्रसोपचयोसे उपचित कर्मपुद्गलस्कन्ध प्राणरहित होनेसे अथवा ज्ञान-दर्शनसे रहित होनेसे नोजीव है और उससे अभिन्न होनेसे जीव भी कथञ्चित् नोजीव है। ____ इस तरह जीव, नोजीव, अनेक जीव, अनेक नोजीव, एक जीव और एक अजीव, एक जीव और अनेक नोजीव, अनेक जीव और एक नोजीव, तथा अनेक जीव और अनेक नोजीवोकी वेदनाका स्वामी उक्त दो नयोसे बतलाया है । धवलाकारने प्रत्येक भगका स्पष्टीकरण धवलाटीकामे किया है । इस तरह वेदनाके स्वामी जीव और पुद्गल दोनो होते है। सग्रहनयकी अपेक्षा वेदनाका स्वामी जीव है क्योकि सग्रहनय जीव और अजीवका अभेद मानता है । इस अनुयोगद्वारमे केवल १५ सूत्र है। १० वेदनावेदनाविधान ___जिसका वर्तमानमें वेदन किया जाता है या भविष्यमे वेदन किया जायगा, वह वेदना है। इस निरुक्तिके अनुसार आठ प्रकारके कर्मपुद्गलस्कन्धको वेदना कहा है । और अनुभवन करनेका नाम वेदना है । वेदनाकी वेदनाको वेदनावेदना कहते है अर्थात् आठ प्रकारके कर्मपुद्गलस्कन्धोके अनुभवन करनेका नाम वेदनावेदना है । उसके विधान-कथन करनेको वेदनावेदनाविधान' कहते है।
वेदनावेदनाका विधान करते हुए सूत्र २ के द्वारा कहा है कि नैगम नयकी अपेक्षा सभी कर्मको प्रकृति मानकर यह प्ररूपणा की जाती है। इस सूत्रकी धवलामें स्पष्टीकरण करते हुए यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि नैगमनय वध्यमान (जो वध रहा है ), उदीर्ण ( जो उदयमें आ गया है ) और उपशान्त ( जो सत्तामें स्थित है ) इन तीनो ही कर्मोकी वेदनासज्ञा स्वीकार करता है। तदनुसार कहा गया है कि ज्ञानावरणीयवेदना कथञ्चित् वध्यमानवेदना है, कथञ्चित् उदीर्णवेदना है, कथञ्चित् उपशान्तवेदना है, इत्यादि अनेक भगोके द्वारा वेदनावेदनाका विधान कुछ विस्तारसे किया है । और धवलाटीकामे उन सव भगोके स्पष्टीकरणके साथ ही उनके अनेक अवान्तर भगोका भी कथन किया है।
इस अनुयोगद्वारमे ५८ सूत्र हैं । ११ वेदनागतिविधान
इस अनुयोगद्वारमे वेदनाकी गति अर्थात् गमनका कथन है। इसलिए इसे ', 'का वेयणा ? वेधते वेटिष्यत इति वेदनागब्दसिद्ध । अठविहकम्मपोग्गलक्स
धो वेयणा अनुभवन वेदना। वेदनाया वेदना वेदनावेदना अप्टकर्मपुदगल. म्कन्धानुभव इत्यर्थ ।-पट्स०, पु० १२, पृ० ३०२ ।
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१२० . जैनसाहित्यका इतिहास वेदनागतिविधान नाम दिया है। पहले लिग आये है कि जीवो गाय गम्ब कर्मपुद्गलस्पान्योकी वेदनारामा है । ति गाग द्वारा जीवमटेगी। गचरण होनपर उनसे अभिन्न कर्मरान्धोका गी सगार सातागयो । यदि ऐगा नहीं माना जायगा और कर्मप्रदगीको स्थित ही माना जायगा, तो देशान्तरम गये हुए जीवको सिद्धजीवके गगान मानना होगा। मयोंकि पूर्वमंचित गर्ग तो पूम्यानम ही स्थित है, उनका देशान्तर जाना मभव नहीं है । मत जीव गौर नगी पारतन्यस्वरुप सम्बन्धको बतलायो लिए और जीप्रदशी परिरगन्दका तु गोग ही है, इस बातको तिलाने के लिए उग अनुमोगरा गायन किया गया है। इसमे बतलाया गया है निगम, गग्रा और गहारनयी अपक्षा ज्ञानावरणीयवेदना कन्निन रियत है, पयोगिक नीप्रदनोगे नामप्रवेग स्थित ही रहते है। गौर उजवेदना कान्नित् नियत-अम्गित है, गयोमाग जीन जो प्रदेश जिग गगय गनारहित होते है उनमें रियत प्रदेश भी रियन होने है तया जो प्रदेश गनार करते है उनमें निर्मनरंग भी गगार करते है । न कि उसकी बेदना एक है, अत रह वेस्ना गित-अग्यित नही जाती है। दर्शनाररणीग, मोहनीय और अन्तराग कोको वेदना भी जानापरणीय गमान स्थित और स्थित-अस्थित होती है । वेदनीयमार्गकी बंदना कन्गित् रिपत है गोंकि चौदहमें गुणस्थानवी जीवो प्रदेश अवस्थित रहते है । तया वह कन्चित अस्थित और वायञ्चित् स्थित-रियत है । नाम, गोत्र और आयुगामी चंदना वेदनीयो तुल्य है क्योकि ये सब कर्म अघातिया है । प्रजुगूगनयकी अपेक्षा आठा कोंकी वेदना कञ्चित् स्थित और कञ्चित् अरियत है ।
इस अनुयोगद्वारमें १२ सून है । १२. वेदनाअन्तरविधान'
वेदनावेदनाविधान अनुयोगद्वारमें यह पाहा है कि वध्यगान कर्म भी वेदना है, उदीर्ण और उपशान्त कर्म भी वेदना है। उनमें जो वध्यमान वर्म है वह क्या वधनेके समयमें ही पक कर अपना फल देता है अथवा द्वितीयादिक समयोमें अपना फल देता है, यह बतलाने के लिये इस अनुयोगद्वारका अवतार हुमा है । वन्धके दो प्रकार है-अनन्तरवध और परम्परावन्य । मिथ्याल आदि प्रत्ययोके द्वारा कार्मणवर्गणारूप पुद्गलस्कन्धोके कर्मरूपसे परिणत होनेके प्रथम समयमें जो बन्ध होता है उसे अनन्तरवन्ध कहते है और वन्ध होनेके द्वितीय समयसे लेकर कर्मरूप पुद्गलस्कन्धो और जीवप्रदेशोका जो बन्ध होता है उसे परम्पराबन्ध कहते है।
१. पटख०, पु० १२, पृ० ३७० ।
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छक्खडागम १२१
इसमें बतलाया है कि नैगम और व्यवहारनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठो कर्मोकी वेदना अनन्तरबन्ध है, पराम्परावन्ध है और तदुभयवन्ध है । सग्रहनयको अपेक्षा ज्ञानावरणादि आठो कर्मोकी वेदना अनन्तरवन्ध और परम्पराबन्ध है । ऋजुसूत्रनयको अपेक्षा आठो कर्मोकी वेदना परम्पराबन्ध है।
इसमे ११ सूत्र है। १२ वेदनासन्निकर्षविधान'
ज्ञानावरणादि कर्मोकी वेदना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट भी होती है और जघन्य भी होती है । जघन्य तथा उत्कृष्ट भेदरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावोमेसे किसी एकको विवक्षित करके उसमे शेप पद क्या उत्कृष्ट है, क्या अनुत्कृष्ट है, क्या जघन्य है, अथवा क्या अजघन्य है इस प्रकारकी जो परीक्षा की जाती है उसे सन्निकर्ष कहते है। उसके दो भेद है-स्वस्थानवेदनासन्निकर्प और परस्थानवेदनासन्निकर्प। किसी एक विवक्षित कर्मका जो द्रव्य, क्षेत्र, काल एव भाव विपयक सन्निकर्ष होता है वह स्वस्थानवेदनासन्निकर्प है। और आठो कर्मविषयक सन्निकर्प परस्थानवेदनासन्निकर्ष है। ___स्वस्थानवेदनासन्निकर्ष दो प्रकारका है—जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट स्त्रस्यानवेदनासन्निकर्प चार प्रकारका है, द्रव्यसे, क्षेत्रमे, कालसे और भावसे ॥ ॥
जिसके ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके वह क्षेत्रकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ६ ॥ नियमसे अनुत्कृष्ट और असख्यातगुणी हीन होती है ॥ ७ ॥ इसका खुलासा धवलाटीकामें किया है । __ इसी तरह, जिसके ज्ञानावरणीयवेदना क्षेत्र से उत्कृष्ट होती है उसके वह द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है अथवा अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ।। १६ ॥
इत्यादि कथन है । इस अनुयोगद्वारमे ३२० सूत्र है। १४ वेदनापरिमाणविधान
पहले द्रव्याथिक नयका अवलम्बन करके आठ ही प्रकृतियाँ कही है । तथा उन आठो प्रकृतियोके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदिके प्रमाणकी भी प्ररूपणा की है। यहाँ पर्यायाथिकनयका अवलम्बन करके प्रकृतियोके परिमाणका कथन किया गया है। इसमें यह तीन अनुयोगद्वार है-प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्रप्रत्याश्रय ॥ २ ॥
प्रकृतिभेदसे कर्मभेदकी प्ररूपणा पहला अधिकार है। एक समयमें जो बाँधा जाता है वह समयप्रवद्ध है। समयप्रवद्धोके भेदसे प्रकृतिभेदकी प्ररूपणा दूसरा
षट्ख०, पु० १२, पृ० ३७५ ।
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१२२ : जेनसाहित्यका इतिहास अधिकार है और क्षेत्रोंगे प्रगतिभेदाप गायन करनेवाला नीगग अधिकार है।
इस प्रकार वेदनापग्गिाण को प्रापणा तीन प्रकाग्गे की है।
गया-प्रत्ययंता-अभितारको अपेक्षा नानापरणीय और वर्णनावरणीय वर्गका कितनी प्रकृतियां है? ॥३॥
ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीया की अमरगातलोत्रमाण प्रतियो है ॥४॥ ___आगय यह है जिनने गाना भेद है उतना ही फर्ग की भावग्णातिया। उनके बिना जगणातलोना प्रमाण भान नही बन गकने । त गय भान दर्शनपर्वक ही होत है और जितने दर्शन है उतनी ही दर्शनारणको आपणनिया है। इस प्रकारगे शानावरणीय और दर्शनापनीयती प्रतिया अगम्गातलाप्रमाण है।
वंदनीगकर्मकी दो प्रतियां है ।। -॥ मोहनीयकनगी अद्वारा प्रकृतिया है ॥१०॥ आयुकर्मको नार प्रकृतियां है ।।१३॥ नामार्गको अराम्गातलोकमात्र प्रकृतिया है ॥१६॥ गोगकर्गको दो प्रकृतिया है ।।१९।। अन्तरायकर्मी पांच प्रकृतियां है ॥२२॥
समयप्रवद्धार्यता-अधिकारको अपेक्षा नानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायफर्मकी कितनी प्रकृतियां है ? ॥२५।। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्मकी एक-एक प्रकृति, तीग फोडाकाठी मागरापगोको नमयप्रवहार्यतारो गुणित करनेपर जो प्राप्त हो, उतनी है ॥२६॥ ____ आशय यह है कि इन तीनो कोको स्थिति तीस कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण है। उसके अन्तिम समयमें कर्मस्थितिप्रमाण समयप्रवद्ध होते है, क्योकि कर्मस्थितिके प्रथम समयमे लेकर उसके अन्तिम समय तक बांधे गये मगयप्रवद्धोके एक परमाणुसे लेकर अनन्तपरमाणु तक कर्मस्थितिके अन्तिम मगयमे पाये जाते है। कालभेदमे प्रकृतिभेदको प्राप्त हुए इन समयप्रबद्धोका सकलन करनेपर एक समयप्रवद्धकी शलाकाओको स्थापित करके उसे तीस कोडाकोडी सागरोपमोसे गुणित करनेपर उतनी मात्र ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायमेंसे एक-एक कर्मकी प्रकृतियाँ होती है। इसी प्रकार प्रत्येक कर्मको स्थितिको उसकी समयप्रवद्धार्थतासे गुणित करनेपर प्रत्येक कर्मकी प्रकृतियाँ जाननी चाहिये । आयुकर्म इसका अपवाद है । अन्तर्मुहूर्तकालको समयप्रवद्धार्थतासे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी ही आयुकर्मकी प्रकृतियाँ वतलाई है, क्योकि आयुकर्मका बन्ध सदा नही होता।
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१२४ : जनगाहित्यका निहाग
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meकोर .. रिता । माग III, गर भाग को होता . 13.300 नीगंगासामीने पालायामर
पाली अगुफ नमः जगा गाही पण और
finी सा | निपग नगमानना पशात् गाने पिक तंग प्रभारी का अर्थ बतलाया है--
जिरा जीव या अगीयका सर्ग नाग रगा जाता रह नामस्पर्ग है । नाप्ठ कर्म, चियकर्म आदिगं म्पकी स्थापना स्थापनापन है। एमपा दूसरे प्रध्यक साथ स्पर्शको प्राप्त होना द्रव्यमर्श है ।।१२।। इगको गलाटीका वीरगनस्वामीने द्रव्यस्पर्शक ६३ विकल्पोका गायन गिया है।
जो द्रव्य एक धोके साथ स्पर्श करता है यह एकादशपर्श है ॥१४॥ जैसे एकआकाशप्रदेशमे स्थित पुद्गलसन्धोगा जो स्पर्श होता है गह एकक्षणम्पर्श है । जो द्रव्य अनन्तर क्षेनके साथ स्पर्श करता है वह अनन्तरोगस्पर्ग है ।।१६॥
जो द्रव्य एक देशरूपरी अन्य उपके अवयवके साथ स्पर्श करता है वह देशस्पर्श है ॥१८॥ जो द्रव्य त्वना (छाल) या नोत्वना (ऊपरी पपडी) को स्पर्श करता है वह त्वक्स्पर्श है ॥२०॥ जो द्रव्य सवका गव सर्वात्मना स्पर्श करता है वह सर्वस्पर्श है, जैसे परमाणु ॥२२॥ कर्कश, मृदु, आदि आठ प्रकारका स्पर्श स्पर्शस्पर्श है ॥२४॥
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छक्खडागम १२५
आशय यह है कि जो स्पर्श किया जाता है उसे स्पर्श कहते है, जैसे कोमलता आदि । और जिसके द्वारा स्पर्श किया जाता है उसे भी स्पर्श कहते है, जैसे स्पर्शन इन्द्रिय । इन दोनोका स्पर्श स्पर्शस्पर्श है । और वह आठ प्रकारका है।
कर्मोका कर्मोके साथ जो स्पर्श होता है वह कर्मस्पर्श है । उराके ज्ञानावरणादि आठ भेद है । धवलाटीकामें कर्मस्पर्शके भेदोका विवेचन विस्तारसे किया है।
बन्धस्पर्शके पांच भेद है-औदारिकशरीरवन्धस्पर्श, वैक्रियिकशरीरवन्धस्पर्श, आहारकशरीरवन्वस्पर्श, तेजसशरीरवन्धस्पर्श और कार्मणशरीरवन्धस्पर्श । धवलाटीकामें इन पांचोके २३ भग बतलाये है, जिनमे १४ अपुनरुक्त है, शेप नौ पुनरुक्त है।
विप, कूट (चूहेदान), यत्र, पिंजरा, कन्दक (हाथी पकडनेका यत्र) वागुरा (हिरण फंसानेकी फासा) आदि तथा इनके कर्ता और इन्हे इच्छित स्थानमें स्थापित करनेवाले, जो स्पर्शनके योग्य होगे परन्तु अभी उसे स्पर्श नही करते, उन सवको भव्यस्पर्श करते है ॥३०॥ ___ आशय यह है कि जो पर्याय भविष्यमें होने वाली होती है उसे भव्य या भावी कहते है । अत जो भविष्यमे स्पर्शपर्यायसे युक्त होगा वह भव्यस्पर्श है । उक्त यत्रादिका निर्माण पशुमोको पकडनेके लिए किया जाता है । अत चूंकि भविष्यमें वे पशुओका स्पर्श करेंगे, अत उन्हें भव्यस्पर्श कहा है। इसी तरह कारणमें कार्यका उपचार करके उनके निर्माताओको और उन्हें इच्छित स्थानमें स्थापित करनेवालोको भी भव्यस्पर्श कहा है। जो स्पर्शप्राभृतका ज्ञाता उसमे उपयुक्त है वह भावस्पर्श है ॥३२॥
इन तेरह प्रकारके स्पर्शोमेंसे प्रकृत स्पर्शअनुयोगद्वारमें 'कर्मस्पर्श' लिया गया है ॥३३॥ ___ इसमें ३३ सूत्र है। कर्मअनुयोगद्वार ___ इसमें १६ अनुयोगद्वार है-कर्मनिक्षेप, कर्मनयविभाषणता, कर्मनामविधान, कर्मद्रव्यविधान, कर्मक्षेत्रविधान, कर्मकालविधान, कर्मभावविधान, कर्मप्रत्ययविधान, कर्मस्वामित्वविधान, कर्मकर्मविधान, कर्मगतिविधान, कर्मअनन्तरविधान, कर्मसन्निकर्षविधान, कर्मपरिमाणविधान, कर्मभागाभागविधान, कर्मअल्पबहुत्व । ___कर्मनिक्षेपके दस भेद है - नामकर्म, स्थापनाकर्म, द्रव्यकर्म, प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध कर्म, ईर्यापथकर्म, तप कर्म, क्रियाकर्म और भावकर्म ॥४॥ १ पटख०, पु० १३, पृ० २६-२९ । २, वही, पृ० ३१-३३ ।
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१२६ : जैनसाहित्यका इतिहास
जिस जीव या अजीवका कर्म नाम रखा जाता है, वह नामकर्म है ॥१०॥ काष्ठकर्म, चित्रकर्म आदिमे यह कर्म है, इस प्रकारकी स्थापनाको स्थापनाकर्म कहते है ॥१२॥ जो द्रव्य अपनी-अपनी स्वाभाविक क्रियारूपसे निष्पन्न है वह सब द्रव्यकर्म है, जैसे जीवद्रव्यका ज्ञानादिरूपसे परिणमन और पुद्गलद्रव्यका रूप-रसादिरूपसे परिणमन उनकी स्वाभाविक क्रिया है।
प्रयोगकर्मके तीन भेद है--मन प्रयोगकर्म, वचनप्रयोगकर्म और वायप्रयोगकर्म ॥१६॥ यह प्रयोगकर्म ससारदशामे वर्तमान पहलेसे बारहवे गुणस्थान तकके जीवोके तथा तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली जीवोके होता है ॥१७॥ ___ कार्मणपुद्गलोका मिथ्यात्व, असयम, योग और कषायके निमित्तसे आठकर्मरूप, सातकर्मरूप या छहकर्मरूप भेद करना समवदानकर्म है ॥२०॥ ____ जो उपद्रावण (उपद्रव करना), विद्रावण (अगछेदन आदि करना), परितापन (सन्ताप उत्पन्न करना) और आरम्भ (प्राणियोके प्राणोका घात करना) रूप कार्यसे निष्पन्न होता है वह अध कर्म है ।।२२।। ।
ईर्याका अर्थ योग है। योगमात्रसे जो कर्म वधता है वह ईर्यापथकर्म है । वह छद्मस्थ वीतरागोके और सयोगकेवलियोके होता है। धवलाटीकामें इसका विवेचन थोडा विस्तारसे किया है ।
वारह प्रकारके अभ्यन्तर और बाह्य तपको तप कर्म कहते है ॥२६॥ धवलाटीकामें तपोका विस्तृत वर्णन है ।
आत्माधीन होना, प्रदक्षिणा करना, तीन बार करना, तीन बार नमस्कार, चार वार सिर नवाना और बारह आवर्त यह सब क्रियाकर्म है ।।२८।।
अर्थात् ये क्रियाकर्मके छै प्रकार है। क्रियाकर्म करते समय आत्माधीन होना चाहिये, पराधीन नही । वन्दना करते समय गुरु, जिन और जिनालयकी प्रदक्षिणा करके नमस्कार करना प्रदक्षिणा है। तीनो सन्ध्याकालोमें वन्दनाका नियम करनेके लिये तीन बार करना कहा है ।
पैर धोकर शुद्ध मनसे जिनेन्द्रदेवके दर्शनसे उत्पन्न हुए हर्षसे पुलकितवदन होकर जिनेन्द्रके आगे नमना प्रथम नमस्कार है । पुन उठकर विनन्ति करके नमना दूसरा नमस्कार है। फिर उठकर सामायिक दण्डकके द्वारा गात्मशुद्धि करके कषायसहित कायका उत्सर्ग करके, जिनके अनन्तगुणोका ध्यान करके, चौवीस तीर्थद्वरोकी वन्दना करके, फिर जिन, जिनालय और गुरुकी स्तुति करके
१ पट्ख०, पु० १३, पृ० ४८-५४ । २ वही, पु० १३, ५४-८८ ।
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छक्खडागम १२७ पृथ्वी पर नत होना तीसरा नमस्कार है। इस प्रकार एक-एक क्रियाकर्म करते समय तीन नमस्कार होते है ।।
सब क्रियाकर्मोमें चार बार सिर नमाया जाता है। सामायिकके आदिमें, फिर उसके अन्तमें, फिर 'त्योस्सामि' दण्डकके आदिमें और फिर अन्तमे । इस प्रकार एक क्रियाकर्ममें चार बार सिर नमाया जाता है।
सामायिक और 'त्थोस्सामि' दण्डकके आदि और अन्तम मन-वचन-कायकी विशुद्धिके परावर्तनके बारह बार होते है। इसलिये एक क्रियाकर्म बारह आवर्तोसे युक्त होता है । यह सव क्रियाकर्म है।
कर्मप्राभृतका जो ज्ञाता उसमें उपयुक्त होता है उसे भावकर्म कहते है ।
कर्मके इन भेदोमेसे यहाँ समवदानकर्मसे प्रयोजन है, क्योकि कर्म अनुयोगद्वारमें समवदानकर्मका ही विस्तारसे कथन किया है । ___ इस अनुयोगद्वारमें ३१ सूत्र' है । ३१वें सूत्रकी धवलाटीकामें श्रीवीरसेनस्वामीने लिखा है कि 'मूलतत्रमें तो प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध कर्म, ईर्यापथकर्म, तप कर्म और क्रियाकर्म प्रधान है, क्योकि वहां इनका विस्तारसे कथन है ।
यहाँ इन छै कर्मोको आधार मानकर सत्, द्रव्य, क्षेत्र, काल, स्पर्शन, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व अनुयोगोके द्वारा कथन करते है। तदनुसार लगभग सौ पृष्ठोमें उन्होने विस्तारसे कथन किया है । __ सूत्रकार भूतबलिने तो कर्मानुयोगद्वारमें ममवदानकर्मसे ही प्रयोजन बतलाया है । इसलिए मूलतत्रसे अभिप्राय महाकर्मप्रकृतिप्राभृतसे जान पडता है। उसके अन्तर्गत कर्मानुयागद्वारमें उक्त छै कर्मोका वर्णन रहा होगा । प्रकृति अनुयोगद्वार
प्रकृति अनुयोगद्वारके अन्तर्गत १६ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है- प्रकृतिनिक्षेप, प्रकृतिनयविभापणता, प्रकृतिनामविधान, प्रकृतिद्रव्यविधान, प्रकृतिक्षेत्रविधान, प्रकृतिकालविधान, प्रकृतिभावविधान, प्रकृतिप्रत्ययविधान, प्रकृतिस्वामित्वविधान, प्रकृतिप्रकृतिविधान,प्रकृतिगतिविधान, प्रकृतिअन्तरविधान, प्रकृतिसन्निकर्षविधान, प्रकृतिपरिमाणविधान, प्रकृतिभागविधान और प्रकृतिअल्पबहुत्वविधान ॥२॥
१, 'एदेमि कम्माण केण कम्मेण पयद ? समोदाणकम्मेण पयद ॥३२॥
(धव)-कुदो कम्माणियोगद्दारम्मि समोदाणकम्मस्व वित्थरेण परूविदत्तादो। .. मूलतत्रे पुण पयोगकम्म-समोदाणकम्म-आधाकम्म-इरियावथकम्म-तवोकम्म-किरियाकम्मा
णि पहाण तत्य वित्यारेण परूविदत्तादो-पटख०, पु० १३, पृ० ९० । २, वही, पु० १३, पृ० १९७ से।
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१२८ • जैनसाहित्यका इतिहास
प्रकृतिनिक्षेपके चार प्रकार है-नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ॥४॥ इनमेंसे नैगम, सग्रह और व्यवहारनय सवको स्वीकार करते है ॥६॥ ऋजुसूत्रनय स्थापनाप्रकृतिको नही चाहता ॥७॥ शब्दनय नामप्रकृति और भावप्रकृतिको स्वीकार करता है ॥८॥ जिस जीव या अजीवका 'प्रकृति' नाम किया जाता है वह नामप्रकृति है ॥९॥ काण्ठकर्म, चित्रकर्म आदिमें 'यह प्रकृति है ऐसी स्थापनाको प्रकृति कहते है ॥१०॥ द्रव्यप्रकृतिके दो भेद है-आगमद्रव्यप्रकृति और नोआगमद्रव्यप्रकृति ॥११॥ आगमद्रव्यप्रकृतिके अर्थाधिकार इस प्रकार है-स्थित, जित, परिजित, वाचनोगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रथसम, नामसम और घोपसम ।।१२।।
वेदनाखण्डके कृति अनुयोगद्वारमे भी इन सबका कथन आ चुका है ।
नोआगमद्रव्य प्रकृतिके दो प्रकार है- कर्मप्रकृति और नोकर्मप्रकृति ॥१५॥ घट, थाली, सकोरा, अरजण और उलु चण आदि विविध भाजनविशेषोकी मिट्टी प्रकृति है । धान 'तप्पण' ( तर्पण) आदि की जौ और गेहूँ प्रकृति है । सव' नोकर्मप्रकृति है ।।१८।। कर्मप्रकृतिके ज्ञानावरणादि आठ भेद है ॥१९। और ज्ञानावरणीयके आभिनिवोधिकज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय आदि पाच भेद
है
यके आभिनिवोतिके ज्ञानावरण
पहले कहा है कि जितने ज्ञानके भेद है उतनी ही ज्ञानको आवृत करनेवाले ज्ञानावरणीयकर्मकी प्रकृतियाँ है । इस प्रकृतिअनुयोगद्वारमें सूत्रकारने ज्ञानके भेदोका आलम्बन लेकर ज्ञानावरणकर्मकी प्रकृतियोका कथन किया है । यथाआभिनिवोधिकज्ञानावरणीय कर्मके चार, चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस भेद जानने चाहिये ॥२२॥ अवग्रहावरणीय, ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय ये चार भेद है ॥२३॥ अवग्रहावरणीय कर्मके दो भेद है-अर्थावग्रहावरणीय, और व्यञ्जनावग्रहावरणीय ॥२४॥ व्यञ्जनावग्रह केवल चार इन्द्रियोसे होता है, अत व्यञ्जनावग्रहावरणीय कर्मके भी चार भेद है। अर्थावग्रह पाँचो इन्द्रियो और मनसे होता है, अत अर्थावग्रहावरणीय कर्मके छै भेद है । इसी तरह ईहावरणीय, अवायावरणीय और धारणावरणीय कर्मोके भी छ-छै भेद होते है, क्योकि ये चारो ज्ञान इन्द्रियो और मनसे उत्पन्न होते है ।
उक्त चारो ज्ञानोको छहो इन्द्रियोसे गुणा करने पर मतिज्ञानके चौबीस भेद होते है और उनके आवरण भी २४ ही होते है। इन चोवीस भेदोमें जिह्वा, स्पर्शन, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रिय सम्बन्धी चार व्यञ्जनावग्रहोके मिलानेपर आभिनिवोधिक
१ 'घडपिढरसरावारजणोलु चणादीण विविहभायणविसेमाण मट्टिया पयडी, धाणतप्पणादीण
च जवगोधूमा पयटी, मा सव्वा णोकम्मपयटी णाम ॥१८॥-पु १३, ५ २०४-२०५ ।
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छक्खडागम १२९ ज्ञानके २८ भेद होते है और उतने ही उनके आवरणोके भी भेद होते है । इनमें चार मूल भेदोके मिलाने पर बत्तीस आभिनिबोधिक ज्ञानके भेद और उतने ही उनके आवरणोके भी भेद होते है ।
आभिनिवोधिक ज्ञानके ये भेद चार, चौबीस, अट्ठाईस और बत्तीस होते है । ये ज्ञान वारह प्रकारके पदार्थोंको विपय करते हैं । वे है वहु, बहुविध, क्षित्र, अनिसृत, अनुक्त और ध्रुव, तथा इनके प्रतिपक्षी - एक, एकविध, चिर, निसृत, उक्त अध्रुव । अत उक्त चौवीस भेदोको छैसे गुणा करने पर आभिनिवोधिकज्ञानके एकसौ चवालीस भेद होते है । उक्त अट्ठाईस भेदोको छैसे गुणा करने पर १६८ भेद होते है । और उक्त बत्तीस भेदोको छैसे गुणा करने पर १९२ भेद होते है । और उक्त चौवीस, अट्ठाईस और वत्तीस भेदोको १२ से गुणा करने पर आभिनिवोधिकज्ञानके दोसो अट्ठासी, तीनसी छत्तीस और तोनसो चौरासी भेद होते है । जितने ज्ञानके भेद है उतने ही उसके आवरण के भेद है । अत आभिनिवोधिकज्ञानावरणीयकर्मके भेदोको बतलाते हुए सूत्रकारने कहा है- 'इस प्रकार आभिनिवोधिकज्ञानावरणीयकर्मके चार, चौबीस, अट्ठाईस, वत्तीस, भड - तालीस, एकसौ चवालीस एकसी अडसठ, एकसी बानवे, दोसो अठासी, तीन सो छत्तीस, और तमसो चौरासी भेद होते है ||३५||
श्रुतज्ञानावरणीयकर्मकी प्रकृतियां बतलाते हुए कहा है — कि जितने अक्षर और अक्षरसयोग है उतनी श्रुतज्ञानावरणीयकर्मकी प्रकृतियाँ है || ४५ ॥
आशय यह है कि एक एक अक्षरसे श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति होती है, अत जितने अक्षर है उतने ही श्रुतज्ञान है । तेतीस व्यञ्जन, नौ स्वर अलग अलग ह्रस्व, दीर्घ और प्लुतके भेद से सत्ताईस और चार अयोगवाह – जिह्वामूलीय, उपध्मानीय, अनुस्वार और विसर्ग इस तरह चौंसठ मूल अक्षर है । इनके सयोगी अक्षरोको लानेके लिए सूत्रकारने एक 'गणित-गाथा' दी है—
,
सजोगावरणट्ठ चउर्साट्ठि थावए दुवे रासी । अण्णोष्णसमभासो रूवूण णिद्दिसे गणिद ॥४६॥
अर्थात् सयोगावरणोको लानेके लिए चौसठस ख्याप्रमाण दो राशि स्थापित करो - एक एकसे चौसठ तक और दूसरी उसके नीचे चौसठसे एक तक । दोनोको परस्परमें गुणा करके जो लब्ध आवे उसमेंसे एक कम करनेपर कुल सयुक्ता - क्षरोका प्रमाण होता है । इसके स्पष्टीकरण के लिये सूत्र ४६ की धवलाटीका देखना चाहिये ।
उसी श्रुतज्ञानावरणीय कर्मके वीस भेद बतलानेके लिये सूत्रकारने एक गाथासूत्र दिया है ।
९
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१३० जनसाहित्यका इनिहाग
'गज्जय-अगगर-गन-गपादय-गठियत्ति-जोगटाग।
पाहुगाहर-वल्ल गुन गमागा य बोला ॥१॥' अर्थात् गर्गाय, पर्यायगगाग, अपर, पारगमाग, , माग, गात, मघातगगाग, पतिपत्ति, प्रतिपत्तिसगाग, अनुगोगार, जनगांग, रगमाग, प्रामृत, प्राभृतरागास, प्रागृतप्रात, पानप्राभूतगगाग, पन्नु, गमाग, पूर्व और पूर्वगमाग ये गुतनागो बीग गेट है।
इन्हीको लेकर गुरगाग्ने गत १८ में पुतज्ञानापरणीयामी बीग भेद गिनाये है। श्रुतबानगे. इन भोगिनो ये भरलाटीका देगना नाहिये ।
श्वेताम्बर्गग नन्दिरागमे शागी गुन्दर गई। शिन्तु श्रनशानो इन बीम भेदोका कोई गोत तक आगगिक पगपरामे नही मिलना। हां, गन्गमे एक गाथाके दाग श्रुतज्ञानगे ये बीरा भेद अवरग गिनाये गये है।
प्रकार गतवरिने एगा गूगने गग शुतमानो तालीम पर्यायगन्द गिनाये है । जो इन गकार है-प्रावनान, पवननीय, प्रबननार्ग, गतियोमे गार्गणता, भात्मा, परमगलगि, अनुत्तर, प्रवनग, प्रवननी, प्रवननादा, प्रवचनसन्निकर्प, नयविधि, नगान्तरविधि, भगविधि, मंगपिपिपि , पन्छाविधि, पृच्छाविधिविशेष, तत्व, भूत, भन्य, भविष्यत्, अस्तिय, मविहत, वेद, न्याय, शुद्ध, सम्यग्दृष्टि, हेतुबार, नानाद, प्रवरवाद, गार्गवाद, श्रुतवाद, परवाद, लौकिकवाद, लोकोत्तरीयवाद, अग्य, मार्ग, यशानुगार्ग, पूर्व, यमानुपूर्व और पतिपूर्व ये श्रुतज्ञानो पर्यागनाम है ॥५०॥ धवलामे न व्याग्यान दिया है।
अवधिज्ञानावरणीयकारी अगण्यात प्रकृतियां बतलाते हुए अवधिनानके दो भेद किये है-वप्रत्यय और गुणप्रत्यय । भवप्रत्ययमवधिज्ञान देवनारकियोके होता है और गुणप्रत्यगमनधिज्ञान तिर्यञ्चो और मनुष्योके होता है।
अवधिज्ञानके अनेा भेद है - देगावधि, परगावधि, राविधि, हीयमान, वर्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, मप्रतिपाती, मप्रतिपाती, एकक्षेत्र और अनेक ॥५६॥
जिसके अवधिज्ञान होता है उसके शरीरमे नाभिसे जार श्रीवत्म, गालग, शख, स्वस्तिक, नन्दावर्त आदि आकार बन जाते है। इन्ही चिन्होसे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है । उन्हीके कारण उसे एक क्षेत्र या अनेक क्षेत्र कहते है। ___ आगे गाथासूत्रोके द्वारा सूत्रकारने अवधिज्ञानके क्षेत्रसे सम्बद्ध कालना और कालसे सम्बद्ध क्षेत्रका, तथा देवोके अवधिज्ञानके विपयका कथन किया है । सूत्रगाथा १५ के द्वारा परमावधिज्ञानके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका काथन किया
१ पट्ख०, धवला, पु० १३, पृ० ३०१.३२७ ।
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छक्खडागम १३१
है । गाथा न० १७ के द्वारा जधन्य और उत्कृष्ट अवधिज्ञानके स्वामित्वका कथन किया है। ___अवधिज्ञानसे सम्बद्ध ये गाथाएँ दिगम्बर परम्पराके माहित्यमें अन्यत्र भी पाई जाती है । गोम्मटसार जीवकाण्ड तोषट्खडागम और उसकी टीका धवलाके आधार पर ही सगृहीत किया गया है, अत उसमें तो कतिपय गाथाएँ यहीसे ली गई है। __ महाबन्धके आदिमें ये सव गाथाएं थोडेसे व्यतिक्रमके साथ पायी जाती है ।
चूँकि महाबन्ध भूतबलीकी ही रचना है, अत उनका वहाँ पाया जाना सम्भव है। गाथा न० १२, १३, १४ तिलोयपण्णत्तिके आठवें अधिकारमें पाई जाती है। गाथा न० १२-१३, मूलाचारके वारहवें अधिकारमें पाई जाती है। श्वेताम्बर परम्पगके नन्दिसूत्रमें भी ज्ञानकी चर्चा है । उसमें अवधिज्ञानके प्रकरणमें गाथाएँ ( गा० न० ५०, ५१, ५२, ५३, ५४ ) ऐसी है जो इस अनुयोगद्वारकी गा० ४-८ से मिलती है । कुछ पाठभेदके सिवाय और भेद नही है ।
षट्खण्डागमके वेदना और वर्गणा खण्डमें जो सूत्ररूपमें गाथाएँ आई है, हमारा विश्वास है कि वे गाथाएँ प्राचीन होनी चाहिये । इसीसे भूतवलिने उन्हें ज्यो-का-त्यो अपने ग्रन्थमे सूत्ररूपमें रख लिया है। सम्भवतया इसीसे उनमेसे कुछ गाथाएँ अन्यत्र भी उपलब्ध होती है । ___ मन पर्ययज्ञानावरणकर्मकी दो प्रकृतियाँ-ऋजुमतिमन पर्ययज्ञानावरण और विपुलमतिमन पर्ययज्ञानावरण बतलाई है। उनके प्रसगसे दोनो ज्ञानोके स्वरूप, विषय आदिका कथन सूत्रकारने विस्तारसे किया है। ____ मन पर्ययज्ञानका विपय बतलाते हुए सूत्रकारने कहा है-'मनके द्वारा मानसको जानकर मन पर्ययज्ञान दूसरोकी सज्ञा, स्मृति, मति, चिन्ता, जीवित-मरण, लाभ-अलाभ, सुख-दुख, नगरविनाश, देशविनाश, जनपदविनाश, खेटविनाग, कर्वटविनाश, मडबविनाश, पट्टनविनाश, द्रोणमुखविनाश, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, क्षेम, अोम, भय और रोगरूप पदार्थोको जानता है ॥६३॥
केवलज्ञानका वर्णन करते हुए लिखा है-'स्वय उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शनसे युक्त भगवान देवलोक और असुरलोकके साथ मनुष्यलोककी आगति, गति, चयन, उपपाद, वन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके साथ
१ गो०जी०का०गा०, ४०३-४०६, ४०७, ४२५, ४२६, ४२९, ४३' । २ म०ब०, भा० १, पृ० ०१-२४ । ३ ति० प०, गा० ६८५, ६८६, ६८७ । ४ मूलाचा० अधि० १२, गा० न० १०७-११० ।
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१३२ जनसाहित्यका इतिहास
जीवादि द्रव्योका राम्मिलन ), अनुभाग, तर्क, काला, मन, मानगिक, भक्त, कृत, प्रतिरोवित आदिकर्ग (अर्थपर्याय और व्यन्जन पर्यायस्पगे गव द्रव्योंकी आदि ), अरह कर्म (राव द्रव्योकी अनादिता), गव लोक, गव जीव, और राव भावोंको सम्यक् प्रकाररो एक साथ जानते-देराते हुए विहार करते है ।।२।। __ इस प्रकार प्रकृतिमनुयोगद्वारमै ज्ञानावरणार्मको प्रमातियोो सम्बन्धगे ज्ञानके भेदोकी मौलिक चर्चा है। यही चर्चा रायगिदि और तत्त्वार्थयातिकके प्रथम अध्यायमे भागत ज्ञानविषयक कथन का आधार है। उगका गायन इन गन्योफे प्रकरणमे किया जायगा। इगी प्रकार दर्शनापरणीय आदि कर्मों की प्रकृतियोका कथन प्रकृतिअनुयोगद्वारमे किया गया है। अन्तमे कहा है कि उन प्रतियोमेमे यहाँ कर्मप्रकृतिका प्रकरण है। वन्धनअनुयोगद्वार
वन्धनअनुयोगद्वारको आरम्भ करते हुए यूप्रकारने बन्धनके चार भेद किये है-१ वन्ध, २ वन्धक, ३ वन्धनीय मोर ४ बन्धविधान ॥१॥
वन्धके चार भेद है-नामवन्ध, स्थापनावन्ध, द्रव्यवन्ध और भाववन्य ॥२॥ नेगम, सग्रह और व्यवहाग्नय सब बन्योको स्वीकार करते है ॥४॥ ऋणुमूननय स्थापनावन्धको स्वीकार नही करता ॥५॥ गन्दनय नामवन्य और भाववन्धको स्वीकार करता है ॥६॥
जिस जीव या अजीवका 'वन्ध' यह नाम रखा जाता है वह नामवन्य है। काष्ठकर्म, चित्रकर्म आदिमे 'यह वन्ध है' ऐमी स्थापना करना स्थापनावन्ध है । भाववन्धके दो भेद है-आगम भाववन्ध और नोआगम भाववन्ध । यह सब वर्णन पूर्ववत् है।
नोआगम भाववन्धके दो भेद है-जीवभाववन्ध और अजीवभाववन्ध ।
जीवभाववन्धके तीन भेद है-विपाकप्रत्ययिक, अविपाकप्रत्ययिक और तदुभयप्रत्ययिक ॥१४॥ ___ कर्मोके उदय और उदीरणाको विपाक कहते है । विपाक जिस भावका कारण होता है वह विपाक प्रत्ययिक जीवभाववन्ध है। और कर्मोके उदय और उदीरणाके अभावको अथवा कर्मोंके उपशम वा, क्षयको अविपाक कहते है । अविपाक जिस भावका कारण है वह अविपाकप्रत्ययिक जीवभाववन्ध है। और विपाक तथा अविपाकसे जो भाव उत्पन्न होता है वह तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ।
'देवभाव, मनुष्यभाव, तिर्यञ्चभाव, नारकभाव, स्त्रीवेद, पुरुपवेद, नपुसक
१. षट्ख०, धवला०, पु० १४ ।
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छक्खंडागम १३३
वेद, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, दीप, मोह, कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ललेश्या, असगतभाव, अविरतभाव, अज्ञानभाव, मिथ्यादृष्टिभाव ये सव विपाकप्रत्ययिक अथवा ओदयिक भाव है ॥ १५॥'
अविपाक प्रत्ययिक जीवभाववन्धके दो प्रकार है--औपशमिक और क्षायिक ॥१६॥
उपशान्तक्रोध, उपशान्तमान, उपशान्तमाया, उपशान्तलोभ, उपशान्तराग, उपशान्तदोप, उपशान्तमोह, उपशान्तकपाय, वीतरागछद्मस्थ, ओपशमिकसम्यक्त्व और ओपशमिकचारित्र आदि जितने ओपशमिक भाव है वे सब ओपशमिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभाववन्ध है ॥१७॥
क्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणलोभ, क्षीणगग, क्षीणदोप, क्षीणमोह, क्षीणकपाय, वीतरागछद्मस्थ, क्षायिकसम्यक्त्व, क्षायिकचरित्र, क्षायिकदानलब्धि, चायिकलाभलब्धि, क्षायिकभोगलब्धि, क्षायिकपरिभोगलब्धि, क्षायिकवीर्यलब्धि, केवलज्ञान, केवलदर्शन, सिद्ध, बुद्ध, परिनिवृत्ति, सर्वदु खअन्तकृत् इसी प्रकार अन्य भी जो क्षायिक भाव है वे सव क्षायिक अविपाक प्रत्ययिक जीवभाववन्ध है ॥ १८ ॥
"
एकेन्द्रिय लब्धि, द्वीन्द्रिय लब्धि, त्रीन्द्रिय लब्धि, चतुरिन्द्रिय लब्धि, पञ्चेन्द्रिय लब्धि, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभगज्ञानी, आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन पर्ययज्ञानी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी अवधिदर्शनी, सम्यक्मिथ्यात्वलब्धि, सम्यक्त्वलब्धि, सयमासयमलब्धि, सयमलब्धि, दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि, परिभोगलब्धि, वीर्यलब्धि, आचारधर, सूर्यकृद्धर, स्थानवर, समवायधर, व्याख्याप्रज्ञप्तिधर, नाथधर्मधर, उपासकाध्ययनधर, अन्तकधर, अनुत्तरोपपादिकदशधर, प्रश्नव्याकरणधर, विपाकसूत्रधर, दृष्टिवादधर, गणी, वाचक, दशपूर्वघर, चतुर्दशपूर्वधर ये तथा इसी प्रकारके अन्य जो क्षायोपशमिक भाव है वे सब तदुभयप्रत्ययिक जीवभावबन्ध है ||१९||
इसी प्रकार अजीवभावबन्धके भी तीन भेद करके विपाकप्रत्ययिक, अविपाक प्रत्ययिक और तदुभयप्रत्ययिक अजीवभाववन्धोका कथन किया है ।
द्रव्यबन्धके दो भेद है -- भगमद्रव्यबन्ध और नोआगमद्रव्यबन्ध | नोआगमद्रव्यबन्धके दो भेद है -- प्रयोगवन्ध और विस्रसाबन्ध ।
विस्रसबन्धके दो भेद है――सादि और अनादि । धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय - देश और धर्मास्तिकाय प्रदेश, अधर्मास्तिक, अधर्मास्तिकदेश, और अधर्मास्तिकप्रदेश, आकाशास्तिक, आकाशास्तिदेश, आकाशस्तिप्रदेश, इन तीनो ही अस्तिकायोका जो परस्पर प्रदेशबन्ध है वह अनादिविस्रसाबन्ध है ॥३१॥
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१३४ - जैनसाहित्यका इतिहास
सादिवत्र शिकवन्ध कहते है-विगदृश स्निग्धता और बिगदग रूक्षताम वन्ध होता है । और रामस्निग्धता और रामग्क्षतामे भेद होता है । अत
णिद्धस्स णिद्वेण दुराहिएण रहुपगररा रहुपेण दुराहिएण । णिद्धररा ल्हुक्सेण हवेदि बधो जहण्णवज्जो विगगे गमे वा ॥३६॥
स्निग्ध पुद्गलका दो अधिना ग्निग पुद्गलो गाय और रूक्ष पुद्गला दो अधिक रुक्ष पुद्गलके साथ वन्ध होता है तथा स्निग्धगुण पुद्गलका सक्षगुण पुद्गलके साथ राग या विषग गुण होने पर वन्न होता है, जघन्गगुणवाला वध नहीं होता।
उक्त गाथा ग्वेताम्बर परम्पराग भी पाई जाती है। किन्तु द्वितीय पक्तिके अर्यमे दोनोमे मतभेद है। इसका विवंचन यवास्थान किया जायेगा।
उक्त गाथागे पहले इग बन्धनअनुयोगद्वारगं दी गून है
'वेमादा णिद्धदा वेमादा ल्हारादावधो ॥ ३२ ॥ गगणिद्धदा गमल्दुस्खदा भेदो ।। ३३ ॥
श्वेता० प्रज्ञापनाम भी ठीक इसी आशयको शब्दमा लिये हुए एक गाथा और तदनन्तर उक्त गाथा इस प्रकार आती है
समणिद्धयाए बधो न होति गमलुक्मयाए वि ण होति । वेमायणिद्धलुनसत्तणेण बधो उ मवाण ॥१॥ णिद्धस्स णिद्वेण दुयाहिएण लुक्सस्ग लुपयेण दुयाहिएण । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बधो जहण्णवज्जो विरामो गमो वा ॥२॥
-प्रज्ञापना०, परि० पद १३, सू० १८५ पुद्गलोके बन्धका स्वरूप बतलाकर आगे लिसा है
'इस प्रकार वे पुद्गल बन्धनपरिणामको प्राप्त होकर अभ्ररूपसे, मेघरुपसे सन्ध्यारूपसे, विजलीरूपसे, उल्कारुपसे, कनक ( वज्र ) रूपसे, दिशादाहरूपसे, धूमकेतुरूपसे, इन्द्रधनुपरूपसे, क्षेत्रके अनुसार, कालके अनुसार, ऋतुके अनुसार, अयनके अनुसार, पुद्गलके अनुसार, वन्धनपरिणामरूपसे परिणत होते है।'
ये सब तथा इनसे अन्य जो अमगलप्रभृति बन्धनपरिणामरूपसे परिणत होते है वह सब सादिवससिक बन्ध है ॥३७॥
प्रयोगवन्धके दो भेद है-कर्मवन्ध और नोकर्मवन्ध । नोकर्मबन्धके पांच भेद है-आलापनवन्ध, अल्लीवनवन्ध, संश्लेषवन्ध, शरीरबन्ध और शरीरिवन्ध ॥४०॥
शकटोका, यानोका, युगोका,' गड्डियोका, गिल्लियोका, रथोका, स्यन्दनो - १ जो घोडे और खच्चरोंसे खींची जाती है। २ हल्का भार ढोने वाली गाडी। ३ युद्धोपयोगी साधनोंसे सम्पन्न रथ ।
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छक्खंडागम १३५
का, शिविकाओका, गुहोका, प्रासादोका, गोपुरोका और तोरणोका काष्ठसे, लोहसे, रस्सीरो, चमडेकी रस्सीसे, और दर्भसे जो बन्ध होता है वह आलापनवन्ध है ॥४१॥ कटकोका ( चटाईका ), कुड्योका, गोवरपिण्डोका, प्राकारोका और शाटिकाओका, तथा इस प्रकारके अन्य द्रव्योका जो बन्ध होता है वह अल्लीवणबन्ध है ॥४२॥ लकडी और लाखके वन्धको सश्लेषवन्ध कहते है ॥४३।। औदारिक आदि शरीरोके वन्धको शरीरवन्ध कहते है।
जीवके माठ मध्य प्रदेशोका जो परस्पर में प्रदेशवन्ध है वह अनादि शरीरबन्ध है।
कर्मवन्धको कर्मानुयोगद्वारकी तरह जानना चाहिये ॥६४॥
इस वन्धनअनुयोगद्वारमे ६४ सूत्र है । २ वन्धकअनियोगद्वार ___ वन्धकअनुयोगको खुद्दावन्ध नामक दूसरे खण्डकी तरह जान लेना चाहिये । खुद्दाबन्धमें इसका कथन हो चुका है। ३ बन्धनीयअनुयोगद्वार
जो बन्धके योग्य होता है उसे वन्धनीय कहते है । पुद्गल बन्धनीय है क्योकि पुद्गलोके सिवाय अन्य कोई पदार्थ बन्धनीय नही है । वे वन्धनीय पुद्गल स्कन्धस्वरूप होते है । और वे स्कन्ध वर्गणारूप होते है । अत वन्धनीयका कथन करते हुए वर्गणाका कथन अवश्य करना चाहिये ।
वर्गणाओके सम्बन्धमें आठ अनुयोगद्वार जानने योग्य है-वर्गणा, वर्गणाद्रव्यसमुदाहार, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, अवहार, यवमध्य, पदमीमासा और अल्पबहुत्व ॥६९॥
वर्गणा-वर्गणाअनुयोगद्वारके विषयमें ये सोलह अनुयोगद्वार है-वर्गणानिक्षेप, वर्गणानयविभापणता, वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, वर्गणाध्रुवाध्रुवानुगम, वर्गणासान्तरनिरन्तरानुगम, वर्गणाओजयुग्मानुगम, वर्गणास्पर्शनानुगम, वर्गणाअन्तरानुगम, वर्गणाभावानुगम, वर्गणाउपनयनानुगम, वर्गणापरिमाणानुगम, वर्गणाभागाभागानुगम और वर्गणाअल्पबहुत्व ॥७०॥
वर्गणानिक्षेप छै प्रकारका है-नामवर्गणा, स्थापनावर्गणा, द्रव्यवर्गणा, क्षेत्रवर्गणा, कालवर्गणा, और भाववर्गणा ॥७१॥ नैगम, सग्रह और व्यवहार सब वर्गणाओको स्वीकार करते है। ऋजुसूत्र स्थापनावर्गणाको स्वीकार नहीं करता। शब्दनय नामवर्गणा और भाववर्गणाको स्वीकार करता है। इस तरह सूत्रकारने वर्गणाके सोलह अनुयोगद्वारोमेंसे आदिके दो ही अनुयोगद्वारोका कथन किया है ।
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१३६ - जैनसाहित्यका इतिहास
आगे वर्गणाका कथन करते हुए २३ वर्गणाएँ वतलाई हैं, जो इसप्रकार है
एकप्रदेशी परमाणु पुद्गलद्रव्यवर्गणा १, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, चतु प्रदेशी, पचप्रदेशी, पट्प्रदेशी, सप्तप्रदेशी, अष्टप्रदेशी, नवप्रदेशी, दसप्रदेशी, आदि सख्यातप्रदेशी, परमाणु पुद्गल द्रव्यवर्गणा २, असख्यातप्रदेशी परमाणु पुद्गलद्रव्यवर्गणा ३, अनन्तप्रदेशी, परमाणु पुद्गलद्रव्यवर्गणा ४, आहार द्रव्यवर्गणा ५, अग्रहण द्रव्यवर्गणा ६, तेजसशरीर द्रव्यवर्गणा ७, अग्रहण द्रव्यवर्गणा ८, भापाद्रव्यवर्गणा ९, अग्रहणद्रव्यवर्गणा १०, मनोद्रव्यवर्गणा ११, अग्रहण द्रव्यवर्गणा १२, कार्मणद्रव्यवर्गणा १३, ध्रुवस्कन्धद्रव्यवर्गणा १४, सान्तर निरन्तर द्रव्यवर्गणा १५, ध्रुवशून्यवर्गणा १६, प्रत्येक शरीर द्रव्यवर्गणा १७, ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा १८, वादर निगोद द्रव्यवर्गणा १९, ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा २०, सूक्ष्म निगोदवर्गणा २१, ध्रुवशून्य द्रव्यवर्गणा २२, महास्कन्धवर्गणा २३ । ।
इन तेईस वर्गणाओंके नाम सूत्रकारने वाईस सूत्रोके द्वारा बतलाये है।
इसका कारण यह है कि उन्होने प्रथम चार वर्गणाओके पश्चात प्रत्येक वर्गणा का निर्दश इस प्रकार किया है-'अनन्तानन्त प्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्यवर्गणाके ऊपर आहार द्रव्यवर्गणा है ॥७९॥ 'आहार द्रव्यवर्गणाके ऊपर अग्रहणद्रव्यवर्गणा है ॥८॥' 'अग्रहण द्रव्यवर्गणाके ऊपर तैजसद्रव्यवर्गणा है ॥८१ ॥' 'तेजस द्रव्यवर्गणाके ऊपर। अग्रहण द्रव्यवर्गणा है ।।८२॥' इत्यादि ।
इसका कारण यह है कि पूर्वपूर्वकी उत्कृष्ट वर्गणामें एक अक मिलाने पर आगेकी जघन्य वर्गणाका प्रमाण होता है। यथा-सवसे प्रथम परमाणु पुद्गल द्रव्यवर्गणा तो एकपरमाणुरूप है। उसमे एक परमाणुके मिल जानेसे अर्थात् दो परमाणुओके समागमसे द्विप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा होती है। यह जघन्यसख्याताणुवर्गणा है क्योकि जघन्य संख्यातका प्रमाण दो है। उत्कृष्ट सख्यातप्रदेशो परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर जघन्य असख्यातप्रदेशी द्रव्यवर्गणा होती है। उत्कृष्ट असख्यातासख्यातप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणामें एक अंक मिलाने पर जघन्य अनन्तप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा होती है। अपने जघन्यसे अनन्तगुणी उत्कृष्ट अनन्तप्रदेशी पुद्गलद्रव्यवर्गणा होती है। ये चारो ही वर्गणाएँ अग्राह्य है-जीवके द्वारा इनका ग्रहण नही होता ।
उत्कृष्ट अनन्तप्रदेशी द्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर जघन्य आहारद्रव्यवर्गणा होती है । औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरके योग्य पुद्गल स्कन्धोको आहारद्रव्यवर्गणा कहते है । उत्कृष्ट आहारद्रव्यवर्गणामे एक अक मिलाने पर प्रथम अग्रहणद्रव्यवर्गणा सम्बन्धी सर्वजघन्यवर्गणा होती है । जो
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छक्खंडागम १३७ पुद्गलस्कन्ध पांचो शरीर, भापा और मनके अयोग्य होते है उनको अग्रहणवर्गणा कहते है । प्रथम उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर जघन्य तैजसशरीरद्रव्यवर्गणा होती है। इसके पुद्गलस्कन्ध तैजसशरीरके योग्य होते है । इसलिए यह ग्रहणवर्गणा है । __ उत्कृष्ट तैजसशरीरद्रव्यवर्गणामे एक अक मिलाने पर दूसरी अग्रहण द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी जघन्य अग्रहणद्रव्यवर्गणा होती है। यह पाँच शरीरोके योग्य नही होती, इसलिये इसे अग्रहणद्रव्यवर्गणा कहा गया है ।
दूसरी उत्कृष्ट अग्रहण द्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर जघन्य भापाद्रव्यवर्गणा होती है । भापाद्रव्यवर्गणाके परमाणु पुद्गलस्कन्वभापाओके तथा शब्दोके योग्य होते है।
उत्कृष्ट भापाद्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर तीसरी जघन्य, अग्रहणद्रव्यवर्गणा होती है । इसके भी पुद्गलस्कन्ध ग्रहणयोग्य नहीं होते। तीसरी उत्कृष्ट अग्रहणद्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर जघन्य मनोद्रव्यवर्गणा होती है । मनोद्रव्यवर्गणासे द्रव्यमनकी रचना होती है। उत्कृष्ट मनोद्रव्यवर्गणामें एक अक मिलाने पर चौथी जघन्यअग्रहणद्रव्यवर्गणा होती है। यह भी ग्रहण योग्य नही होती। चौथी उत्कृष्ट अग्रहणद्रव्यवर्गणामे एक अक मिलाने पर जघन्यकार्मणशरीरद्रव्यवर्गणा होती है। कार्मणद्रव्यवर्गणाके पुद्गलस्कन्ध आठ कर्मोके योग्य होते है। ___ इस प्रकार पूर्वपूर्वकी उत्कृष्ट वर्गणामें एक एक प्रदेशकी वृद्धि होने पर आगेकी जघन्य वर्गणा होती है। प्रथम परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणाको छोडकर प्रत्येक वर्गणाके अपने जघन्यसे लेकर उत्कृष्टपर्यन्त बहुतसे भेद होते हैं । धवलाटीकामें उनका कथन किया है । विस्तार भयसे यहाँ हमने कथन नहीं किया ।
इन तेईस वर्गणाओमेंमे आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भापावर्गणा, मनोद्रव्यवर्गणा और कार्मणवर्गणा ये पांच वर्गणाएं ही ग्राह्यवर्गणाएँ है क्योकि जीवके द्वारा इनका ग्रहण होता है । अत वन्धनीयमें इन पाँचकी ही उपयोगिता है, शेपवर्गणाएँ बन्धनीय नही है। किन्तु शेपवर्गणाओका कथन किये बिना इन पाँच बन्धनीयवर्गणाओका कथन नही किया जा सकता। इसलिये बन्धनीयके सम्बन्धमें २३ पुद्गलवर्गणाओका कथन किया गया है। और उसीके कारण इस पचम खण्डका नाम वर्गणा खण्ड है।
धवलाटीकामें वीरसेनस्वामीने प्रत्येक शरीरद्रव्यवर्गणा और बादरनिगोद द्रव्यवर्गणाका विवेचन बहुत विस्तारसे किया है।
इसके पश्चात् सूत्रकारने यह बतलाया है कि इन तेईस वर्गणाओमेसे कौन वर्गणा
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१३८ जनसाहित्यका इतिहास भेदसे उत्पन्न होती है, कोन वर्गणा सघातसे उत्पन्न होती है और कौन वर्गणा भेद और सघात दोनोसे उत्पन्न होती है।
स्कन्धोका विभाग होनेको भेद कहते है। और परमाणुपुद्गलोके सम्मिलनका नाम सघात है । तथा भेदपूर्वक होनेवाले राघातको भेदसघात कहते है ।
परमाणुद्रव्यवर्गणा तो द्विप्रदेशी आदि ऊपरको वर्गणामोके भेदगे ही उत्पन्न होती है । शेप वर्गणाएँ भेदसे, राघातरो और भेदसघातगे उत्पन्न होती है । अर्थात् अपनेसे नीचेकी वर्गणाओके सघातसे और ऊपरकी वर्गणाओके भेदसे तथा स्वस्थान की अपेक्षा भेद-सघातरो उत्पन्न होती है । ___ उक्त वर्गणाओका कथन करनेके पश्चात् सूत्रकार भूतवलिने वहा है
'अव इस बाह्यवर्गणाकी अन्य प्ररूपणा करनी चाहिये ॥११७।। इसके विषयमे ये चार अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है-शरीरिशरीरप्रस्पणा, गरीरप्रस्पणा, गरीरविस्रसोपचयप्ररूपणा और विनसोपचयप्ररूपणा ॥११८॥'
धवलाटीकामे बतलाया है कि पांचो शरीरोकी वाद्यवर्गणा सज्ञा है। अत सूत्रकारने उक्त चार अनुयागोके द्वारा उनका विशेप कथन किया है। सबसे प्रथम शरीरिशरीरप्ररूपणावा कथन करते हुए कहा कि 'जीव प्रत्येकगरीरवाले और साधारणशरीरवाले होते है ।।११९॥ साधारणगरीरनाले जीव नियमसे वनस्पतिकायिक होते है । और शेप जीव प्रत्येकाशरीरी होते, है ॥१२०॥ आगे सात गाथाओसे साधारणशरीरवाले जीवोका कथन किया है। उनके प्रारम्भका सूत्र इस प्रकार है-'तत्थ इम साहारणलक्खण भणिद ॥१२१॥' 'वहाँ साधारणका यह लक्षण कहा है। इससे स्पष्ट है कि साधारणका कथन करनेवाली गाथा या गाथाएँ प्राचीन है । और अपने स्थलसे 'सभवतया' महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके बन्धनमनुयोगद्वारसे ही उठाकर यहाँ रखी गई है। यहां हम उन सातो गाथाओको अर्थके साथ देते है
"साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहण च ।
साहारणजीवाण साहारणलक्खण भणिद ॥१२२॥" साधारण आहार, साधारण उछ्वास-निश्वासका ग्रहण, यह साधारणकायवाले जीवोका साधारणलक्षण कहा है।
'एयस्स' अणुग्गहण वहूण साहारणाणमेयस्स ।
एयस्स ज बहूण समासदो त पि होदि एयस्स ॥१२३॥' एक जीवका जो अनुग्रहण (पर्याप्तियोके योग्य पुद्गल परमाणुओका ग्रहण
'इक्कस्स उ ज गहण बहूण साहारणाण त चेव । ज बहुयाण गहण समासओ त पि इक्कस्स ॥९६||--प्रज्ञा० १ पद ।
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छक्खंडागम : १३९
अथवा निष्पन्न शरीरके योग्य परमाणु पुद्गलोका ग्रहण ) है वह बहुतसे साधारण जीवोका तथा उस एक ग्रहण करनेवाले जीवका भी है। तथा वहुत जीवोका जो अनुग्रहण है वह गिण्डरूपसे उस एक विवक्षित निगोदिया जीवका भी है।
'समग वक्कताण समगं तैसि सरीरणिप्पत्ती ।
समग च अणुग्गहण समग उस्सासणिस्सासो ॥१२४।।' "एक साथ उत्पन्न होनेवाले उन जीवोके शरीरकी निष्पत्ति एक साथ होती है। एक साथ अनुग्रहण होता है और एक साथ उछ्वास-निश्वास होता है।"
'जत्थेउ मरइ जीवो तत्थ दु मरणं भवे अणताण ।
वक्कमइ जत्थ एक्को वक्कमण तत्थ णताण ॥१२५।।' "जिस शरीरमे एक जीवका मरण होता है वहाँ अनन्त जीवोका भरण होता है और जिस शरीरमे एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ अनन्त जीवोकी उत्पत्ति होती है ।।१२५॥"
'बादर-सुहुमणिगोदा बद्धा पुछा य एयमेएण ।
ते हु अणता जीवा मूलयथूहल्लयादीहि ॥१२६।।' "वादरनिगोदजीव और सूक्ष्मनिगोदजीव ये परस्परमे वद्ध और स्पृष्ट होकर रहते है। वे जीव अनन्त होते है और मूलक, थूहर, आर्द्रक आदि कारणोसे होते है।"
'अत्यि अणता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो ।
भावकलंकअपउरा णिगोदवास ण मुंचति ॥१२७॥' "ऐसे अनन्त जीव है जिन्होने त्रसभावको प्राप्त नहीं किया, क्योकि वे भावकलक अर्थात् सक्लेशपरिणामोकी अधिकतासे युक्त होते है, इसलिये निगोदवासको नही छोडते।"
'एगणिगोदशरीरे जीवा दवप्पमाणदो दिट्ठा ।
सिद्धेहि अणतगुणा सव्वेण वि तीदकालेण ।।१२८॥' "एक निगोदिया जीवके शरीरमें द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा समस्त अतीत कालमें सिद्ध हुए जीवोसे भी अनन्तगुणे जीव देखे गये है।" ___ इनमेंसे गाथा न० १२२, १२३ और १२४ श्वे० प्रज्ञापनासूत्रके प्रथम पदमें भी पाई जाती है । वहाँ इनका क्रम विपरीत है अर्थात् १२४ (९५), १२३ (९६) और १२२ (९७) के क्रमसे है । गाथा १२३ में पाठभेद भी है । अस्तु,
उक्त गाथाओके पश्चात् सूत्रकारने लिखा है'एदेण अट्टपदेण तत्थ इमाणि अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवति-सतपरू
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१४० जनसाहित्यका इतिहास
वणा, दन्वपमाणाणुगमो, खेताणुगगो फोसणाणुगमो, कालाणुगमो, अतराणुगमो भावाणुगमो अप्पवहुगाणुगमो चेदि ॥ १२९ ।।
इस अर्थपदके अनुसार यहाँ ये अनुयोगद्वार ज्ञातव्य है-रात्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगग, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पवहुत्वानुगम।
ये आठो अनुयोगहार वही है, जिनका जीवट्ठाणके सतपस्वणा अनुयोगद्वारके आदिमें पुष्पदन्ताचार्य ने निर्देश किया था। भूतबलिने शारीरिशरीरप्ररूपणाका कथन इन्ही आठ अनुयोगोके द्वारा किया है ।
ओघसे कथन करते हुए कहा है कि-'मोघसे दो गरीरवाले, तीन शरीरवाले, चार शरीरवाले और शरीररहित जीव होते है ॥ १३१ ।।
विग्रह गतिमें वर्तमान चारो गतियोके जीव दो शरीरवाले होते है क्योंकि उनके वहां तैजस और कार्मण ये दो ही शरीर होते है। औदारिक, तेजस और कार्मण शरीरवाले मनुष्य और तियञ्च अथवा वैक्रियिक, तैजस और कार्मण शरीरवाले देव और नारकी तीन शरोरवाले होते है । औदारिक, वैक्रियिक, तेजस और कार्मण अथवा औदारिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरवाले जीव चार शरीरवाले होते है । और मुक्त जीव शरीररहित होते है।
आगे सूत्रकारने आदेशसे १४ मार्गणामोमें उक्त शरीरवाले जीवोकी सत्ताका कथन किया है। सतपरूवणाके पश्चात् छै अनुयोगद्वारोका कथन सूत्रकारने नही किया । टीकाकार वीरसेनस्वामीने धवलाटीकामें उनका कथन किया है। सूत्रकारने अन्तिम अल्पवहुत्वानुगमका कथन किया है। उसके साथ ही शरीरिशरीरप्ररूपणाका कथन समाप्त हो जाता है। उसके पश्चात् शरीरप्ररूपणाका कथन प्रारम्भ होता है। शरीरप्ररूपणा
शरीरप्ररूपणा छ अनुयोगोके द्वारा की गई है । वे छै अनुयोगद्वार है-नामनिरुक्ति, प्रदेशप्रमाणानुगम, निपेकप्ररूपणा, गुणकार, पदमीमासा और अल्पबहुत्व ॥ २३६ ।। नामनिगक्तिमें सूत्रकारने प्रत्येक शरीरके नामकी निरुक्ति की है-'उरालमिदि ओरालिय ॥२३७॥ उदार-स्थूल होनेसे औदारिक कहा जाता है।
'विविहगुण इड्ढिजुत्तमिदि वेउन्विय ॥ २३८ ॥' विविध गुणो और ऋद्धियोसे युक्त होनेसे वैक्रियिक कहा जाता है।
'णिवुणाण वा णिण्णाणं वा सुहमाण वा आहारदव्वाण सुहुमदरमिदि आहारय
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छक्खंडागम १४१ ॥ २३९॥ अर्थात् आहारद्रव्यमेंसे निपुणतर, स्निग्धतर और सूक्ष्मतर स्कन्धको आहार ग्रहण करता है, इसलिए आहारक कहा जाता है ।
'तेयप्पहगुणजुत्तमिदि तेजइयं ।। २४० ॥ तेज और प्रभा गुणसे युक्त है, इसलिये तैजस कहते है। 'सव्वकम्माण पख्हणुप्पादय सुहदुक्खाणं बीजमिदि कम्मइय ॥२४१॥
सव कर्मोका प्ररोहण अर्थात् आधार, उत्पादक और सुख-दुखका बीज है, इसलिये इसे कार्मण कहते है। इस प्रकार नामनिरुक्तिमें पांचो शरीरोके नामोकी निरुक्ति की गई है।
प्रदेशप्रमाणानुगममें बतलाया है कि प्रत्येक शरीरके प्रदेश अभव्योसे अनन्तगुणे और सिद्धोके अनन्तवें भाग है। निषेकप्ररूपणाका कथन छ अनुयोगोके द्वारा किया है । वे छै अनुयोग है-समुत्कीर्तना, प्रदेशप्रमाणानुगम, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, प्रदेशविरच और अल्पबहुत्व ।
इन ? अनुयोगद्वारोका कथन करनेके पश्चात् पदमीमासानामक अनुयोगद्वारका कथन है। उसमें बतलाया है कि औदारिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशानका स्वामी तीन पल्यकी आयुवाला उत्तरकुरु और देवकुरुका मनुष्य होता है ॥४१८॥
आगे अनेक सूत्रोके द्वारा उसकी अन्य विशेषताएं भी बतलाई है, जिनके होनेसे ही वह उत्कृष्टप्रदेशसंचयका स्वामी होता है।
वैक्रियिकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशानका स्वामी बाईस सागरकी स्थितिवाला आरण-अच्चुतकल्पका वासी देव होता है ।।४३१॥ उसकी भी अनेक विशेषताएं बसलाई है। आहारकशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशानका स्वामी उत्तरशरीरको विक्रिया करने वाला प्रमत्तसयत मुनि होता है ।।४४६॥ तैजसशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी वह है जो पूर्वकोटिकी आयुवाला जीव सातवी पृथिवीके नारकियोकी आयुका बन्ध करके सातवी पृथिवीमें उत्पन्न हुआ, वहाँसे निकल कर पुन पूर्वकोटिकी आयुवालोमें उत्पन्न हुआ। उसी प्रकार मरण करके पुन सातवी पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ तेतीस सागरकी आयुको पालता हुआ रहा । चरम समयवर्ती वह जीव तैजस शरीरके उत्कृष्ट प्रदेशानका स्वामी होता है।
कार्मणशरीरके उत्कृष्ट प्रदेशाग्रका स्वामी वह जीव होता है जो बादरपृथिवीकायिक जीवोमें दो हजार सागर कम कर्मस्थितिप्रमाणकाल तक रहता है । इत्यादि। ___इसी तरह प्रत्येकशरीरके जघन्य प्रदेशाग्रके स्वामीका भी कथन किया है। अल्पवहुत्वमें बतलाया है कि औदारिकशरीरका प्रदेशाग्न सबसे थोडा है। उससे वैक्रियिकशरीरका प्रदेशाग्र असख्यातगुणा है ॥४९८॥ उससे आहारकशरीरका
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१४२ जनसाहित्यका इतिहास
प्रदेशाग्न असख्यातगणा है ॥४९९॥ उससे तेजसशरीरका प्रदेशाग्रका अनन्तगुणा है ।।५००॥ उससे कार्मणशरीरका प्रदेशाग अनन्तगुणा है ।।५०१॥
शरीरविनसोपचयारूपणाका कथन अविभागप्रतिच्छेद, वर्गणा, स्पर्धक, अन्तर, शरीर और अल्पबहुत्व इन छ अनुयोगोके द्वारा किया गया है। इनके कथनमे बतलाया है कि एक-एक औदारिकशरीरमै सब जीवोरो अनन्तगुणे अवि. भागी प्रतिच्छेद होते हैं । अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदोकी एक वर्गणा होती है । इस प्रकार अभव्योमे अनन्तगुणी और गिद्धोके अनन्त भागप्रमाण वर्गणाएं होती है और अभन्योसे अनन्तगणी और सिद्धोके अनन्तवे भाग वर्गणाओका एक स्पर्धक होता है । इस प्रकार अभव्योमे अनन्तगुणे और सिद्धोके अनन्तवें भागप्रमाण अनन्त स्पर्धक होते है ॥५०९॥ तथा शरीरके वन्धनके कारणभूत गुणोका बुद्धिके द्वारा छेद करने पर अविभागी प्रतिच्छेद उत्पन्न होते है ॥५१२।। औदारिक शरीरके अविभागी प्रतिच्छेद सबसे कम है । उससे मागेके शेप चार शरीरोके अविभागी प्रतिच्छेद उत्तरोत्तर अनन्तगुणे होते है ।
इमी तरह विससोपचयका कथन करते हुए बतलाया है कि एक-एक जीवप्रदेशपर अनन्त विससोपचय उपचित होते है, जो कि सब जीवोसे अनन्त गुणे है और वे सब लोकमेंसे आकर बद्ध हुए है। इत्यादि रूपसे विस्रसोपचयका कथन पूर्ण होनेके साथ वाह्यवर्गणाका कथन समाप्त होता है। ___'इससे आगेके गन्थका नाम चूलिका है ॥१८१॥' ऐसा रवग सूत्रकारने निर्देश किया है।
चूलिका जैसा कि चूलिकाका लक्षण कहा है, इसमें पहले सूचित किये गये अर्थोका विशेप रूपसे कथन किया गया है। पहले जो 'जत्थेय मरदि जीवो' आदि गाथा कही थी उसके उत्तरार्धमें कहा गया था कि 'जिस शरीरमें एक जीव उत्पन्न होता है वहाँ अनन्त जीव उत्पन्न होते है।' उसीका विशेप कथन प्रारम्भमें किया गया है । तत्पश्चात् उक्त गाथाके पूर्वार्धका, जिसमें कहा है कि 'जिस शरीरमें एक जीवका मरण होता है वहाँ अनन्तानन्त जीवोका मरण होता है', विशेप कथन किया है।
पहले तेईस वर्गणाओका कथन किया है । उसमें बतलाया है कि ये वर्गणाएँ ग्रहणयोग्य है और ये वर्गणाएँ गहणयोग्य नही है। उसीका कथन करनेके लिए-बन्धनीयके चार अनुयोगद्वार ज्ञातव्य बतलाये है-वर्गणा, वर्गणानिरूपणा, प्रदेशार्थता और अल्पबहुत्व ।।७०६॥
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छक्खंडागम १४३
वर्गणाप्ररूपणा में पुरानी वात ही दोहराई है— 'आहार द्रव्यवर्गणाके ऊपर अग्रहण द्रव्यवर्गणा होती है । अग्रहण द्रव्यवर्गणाके ऊपर तेजोद्रव्यवर्गणा होती है, इत्यादि । यहाँ केवल पाँच ग्रहण वगणापर्यन्त ही उक्त कथनको दोहराया है क्योंकि यहाँ पाँच शरीरोके ग्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्यका ही कथन किया है । अत इस वर्गणाप्ररूपणा के ७०८ से ७१८ तकके सूत्र वन्धनअनुयोगद्वारकी वर्गणाप्ररूपणा के ७६ से ८७ तकके सूत्रोके साथ प्राय अक्षरश मिलते है । इसीसे सूत्र नं० ७१८ की धवलाटीकामें वीरसेनस्वामीने लिखा है कि इन सब मूत्रोंके द्वारा पूर्वोक्त वर्गणाओ की ही सम्हाल की गई है ।
दूसरे वर्गणानिरूपणाअनुयोगद्वारमें पांचों शरीरोंके ग्रहणयोग्य और अग्रहणयोग्य वर्गणाओका थोडा प्रकारान्तरसे कथन किया है । इस कथनमे आहारवर्गणा आदि पाँचो ग्रहणवर्गणाओका और उनके मध्यकी अग्रहणवर्गणाओंका स्वरूप भी बतलाया है । यथा - 'औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरके जिन द्रव्योको ग्रहण कर जीव ओदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर रूपसे परिणमाते है उन द्रव्योकी आहारवर्गणा सज्ञा है || ७३ ||' 'जिन द्रव्योको ग्रहण कर जीव तैजसशरीररूपसे परिणमाता है उन द्रव्योकी तैजसवर्गणा संज्ञा है ।' इसी तरह जो वर्गणा चार प्रकारकी भाषारूपसे ग्रहण होकर प्रवृत्त होती है वह भापावर्गणा है और जो वर्गणा चार प्रकारके होती है वह मनोवर्गणा है । जो वर्गणा आठ प्रकारके होती है वह कार्मणवर्गणा है ।
मनरूपसे ग्रहण होकर प्रवृत्त कर्मरूपसे ग्रहण होकर प्रवृत्त
प्रदेशार्थता-अनुयोगद्वार में वतलाया है कि औदारिकशरीरवर्गणा, वैक्रियिकशरीरवर्गणा और आहारकशरीरवर्गणामें तो पाँचो वर्ण, पाँचो रस, दोनो गध और ओर आठो स्पर्श गुण होते है । किन्तु तैजसशरीरद्रव्यवर्गणा, भाषाद्रव्यवर्गणा, मनोद्रव्यवर्गणा और कार्मणद्रव्यवर्गणामें पांचों वर्ण, पाँचो रस, दोनो गन्ध होते है किन्तु स्पर्श चार ही होते हैं—स्निग्ध या रूक्ष, शीत या उष्ण, कठोर या कोमल, और गुरु अथवा लघु 1
अल्पबहुत्वमें प्रदेशोकी अपेक्षा उक्त वर्गणाओके अल्पवहुत्वका कथन किया है | अल्पवत्वकी समाप्ति के साथ ही बन्धनीय अनुयोगद्वार समाप्त हो जाता है ।
बन्ध, बन्धक, वन्धनीयका कथन कर चुकनेके पश्चात् केवल एक वन्धविधान शेप बचता है । वर्गणाखण्ड के अन्तिम सूत्रमें उसका निर्देश करते हुए केवल इतना कहा है- 'जो बन्धविधान है वह चार प्रकारका है - प्रकृतिवन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवन्ध || ७९७ ॥
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१४४ · जैनसाहित्यका इतिहास
इस सूत्र की धवलाटीका श्रीवीरगेनस्वामीने लिया है-' इन चारों वन्धोका विधान भूतबलो भट्टारकने महाबन्धमें विस्तार के साथ लिया है । इसलिये यहाँ हमने नही लिया । अत गफल महाबन्धका यह कथन करनेपर बन्धविधान समाप्त होता है ।
इस तरह पांचवें वर्गणागण्डकी रामाप्ति के साथ भृतवली विरचित पदुमण्डागमके पाँच खण्ड समाप्त हो जाते है। किंतु चूँ कि महाबन्धको इस गलग स्वतंत्र ग्रंथके रूपमें गिना जाता है, अत वर्गणासण्डके साथ ही पट्ण्डागम नामक ग्रन्थ समाप्त हो जाता है ।
इसकी सून सख्या उस प्रकार है
१ जीवट्टाण
२. खुद्दाबन्ध
प्र० पुस्तक १
पुस्तक ३
पुस्तक ४
""
पुस्तक ५
21
""
अल्पबहुत्व पु० ६ चूलिका - प्रकृतिसमुत्कीर्तन स्थानसमुत्कीर्तन
"
13
""
=
11
27
31
"
""
पुस्तक ७
11
"1
"1
11
सत्प्ररूपणा
द्रव्यप्रमाण
क्षेत्रानुगम
स्पर्शनानुगम
कालानुगम
अन्तर
भाव
17
प्रथम महादण्डक
द्वितीय महादण्डक तृतीय महादण्डक उत्कृष्ट स्थितिचू ०
जघन्यस्थितिचू०
सम्यक्त्वोत्पत्तिचू० गत्यागतिचूलिका
१७७ सून सम्या
१९२
९२
१८५
३४२
३९७
९३
३८२
४६
११७
२
२
MM
२
४४
४३
१६
२४३
सरवप्ररूपणा
४३
एक जीवकी अपेक्षा स्थायित्व ९१
एक जीवको अपेक्षा काल
२१६
एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नानाजीवोकी अपेक्षा भंगविचय
द्रव्य प्रमाणानुगम
१५१
२३
१७१
11
"
31
11
""
11
23
"
"
31
"
33
11
11
21
73
"
33
"
33
21
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छक्खंडागम · १४५ २ खुद्दाबंध ७ पुस्तक क्षेत्रानुगम
१२४ सूत्र स० स्पर्शनानुगम २७९ ॥ नाना जीवोकी अपेक्षा कालानुगम ५५ ,
, अन्तरानुगम ६८ भागाभागानुगम अल्पवहुत्वानुगम
महादण्डक ३ बन्धस्वामित्वविचार ८ पुस्तक बन्धस्वामित्व ४ वेदना ९पु० कृतिमनुयोगद्वार " १० पु० वेदनानिक्षेप
नयविभापणता नामविधान
द्रव्यविधान ११ पुस्तक क्षेत्रविधान
कालविधान भावविधान
.. गा०स०८ प्रत्ययविधान स्वामित्वविधान वेदनाविधान गतिविधान अनन्तरविधान सन्निकर्पविधान परिमाणविधान भागाभागविधान
अल्पवहुत्व ५ वर्गणाखण्ड १३ पुस्तक स्पर्शअनियोगद्वार
कर्मानुयोगद्वार
प्रकृतिअनुयोगद्वार १४२ , गा० १७ १४ पुस्तक वन्धनअनुयोगद्वार
७९७
कुल सूत्रसख्या ६८१९, गा०स० २७ कसायपाहुड और छक्खडागमका तुलनात्मक विवेचन कसायपाहुड और छक्खडागमके विश्लेषण और विवेचनके अनन्तर उक्त १०
१२ पुस्तक
" गा०२
३१
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१४६ : जैनसाहित्यका इतिहास दोनो गिन्द्वान्त-ग्रन्थोके तुलनात्मक अध्ययनपर प्रकाश डालना अनुचित न होगा। शैली और भापाकी दृष्टिसे दोनोको भिन्नता पहले ही लिपी जा चुकी है। अतएव इस सन्दर्भमे विषय-वस्तु के प्रतिपादनकी दृष्टिगे दोनोका तुलनात्मक निरूपण आवश्यक है।
यहां यह ध्यातव्य है कि छक्पंडागमके वेदना और वर्गणा पडमै पच्चीस गाथा-सूत्र आये है, जो प्राचीन प्रतीत होते है। इसी प्रकार कागायपाहुडकी भी कुछ गाथाएँ गुणधर-विरचित न भी हो, पर वे जिग कगायपाहुडको उपसंहत किया गया है उगीने ज्यो-की-त्यो ले ली गयी हो। यत प्राचीन परिपाटी ऐमी रही है।
एक विचारणीय वात यह है कि कसायपाहुट और छपवडागमको कुछ गाथाएं अन्य ग्रन्योमे मिलती है। परन्तु कगायपाहुडकी कोई भी गाथा न तो छक्मंडागममे मिलती है और न छपसंडागमकी कोई गाथा कसायपाहुडमे ही उपलब्ध होती है। अन्य भी कोई ऐसा तथ्य नहीं मिलता है, जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि एककी छाया दूसरेपर है अथवा एकके रचयिताने दूमरेकी कृतिको देखा है । किन्तु थोडा-सा सादृश्य जहां प्रतीत होता है उसका उल्लेख कर देना भी अनुचित न होगा। ___ कसायपाहुडके सम्यक्त्वअधिकारके प्रारम्भमे चार गाथाओके द्वारा पृच्छा की गयी है । गाथाएं इस प्रकार है
दसणमोहउवसामगस्स परिणामो केरिसो हवे । जोगे फसाय उवजोगे लेस्सा वेदो य को भवे ॥९१।। काणि वा पुन्व बद्धाणि के वा असे णिबंधदि । कदि आवलिय पविसति फदिण्हं वा पवेसगो ॥१२॥ के असे झीयदे पुवं बंधेण उदएण वा। अंतरं वा कहि किच्चा के के उवसामगो कहिं ॥९॥ किं द्विदियाणि कम्माणि अणुभागेसु केसु वा।
ओवढेवण सेसाणि कं ठाणं पांडवज्जदि ॥१४॥ अर्थ-दर्शनमोहका उपगम करने वाले जीवका परिणाम कैसा होता है ? किस योग, कपाय और उपयोगमें वर्तमान होता है, उसके कौन-सी लेश्या और कौन-सा वेद होता है ? ॥९१।। उसके पूर्ववद्ध कर्म कौनसे है और अब कौनसे नवीन कर्माशोको वाधता है ? किन-किन प्रकृतियोका उसके उदय होता है और किन-किनकी वह उदीरणा करता है ? ॥९२।। दर्शनमोहके उपशमकालसे पूर्व बन्ध अथवा उदयकी अपेक्षा कौन-कौनसे कर्मांश क्षीण होते है ? कहाँ अन्तर करता है और कहाँपर किन-किन कर्मोंका उपशामक होता है ? ॥९३॥ किस-किस स्थिति और
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छक्खडागम • १४७
अनुभाग वाले किन-किन कर्मोका अपवर्तन करके किस स्थानको प्राप्त करता है और अवशिष्ट कर्म किस-किस स्थिति और अनुभागको प्राप्त होते है ?
उधर जीवस्थानकी चूलिकाके आरम्भमे ये पृच्छाएँ की गई है
'कदिकाओ पयडीओ वदि, केवडि कालठ्ठिविएहि कम्मेहि सम्मत्त लब्भदि वा ण लब्भदि वा, केवचिरेण कालेण वा कदि भाए का करेंदि मिच्छत्त, उवसामणा वा खवणा वा केस व खेत्तेसु कस्स व मूले केवडियं वा दसणमोहणीय कम्म खर्वतस्स चारित्त वा सपुण्ण पडिवज्जतस्स ॥१॥
अर्थ-सम्यक्त्वको उत्पन्न करने वाला मिथ्यादृष्टि जीव कितनी और किन प्रकृतियोको बांधता है ? कितनी कालस्थिति वाले कर्मों के द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त करता है अथवा नही प्राप्त करता है ? कितने कालके द्वारा मिथ्यात्वकर्मको कितने भागरूप करता है और किन-किन क्षेत्रोमें तथा किसके पासमें कितने दर्शनमोहनीयकर्मको क्षपण करने वाले जीवके और सम्पूर्ण चारित्रको प्राप्त होने वाले जीवके मोहनीयकर्मकी उपशामना और क्षपणा होती है ? ॥१॥ ___ दोनो ग्रन्थोका प्रकरण एक ही है और पृच्छापूर्वक कथन करनेकी जैन आगमिक शैली है। किन्तु कसायपाहुडपे उक्त चार गाथाओके द्वारा केवल पच्छा ही की गई है । इन पृच्छाओका उत्तर तो चूर्णिसूत्रकारने दिया है। किन्तु जीवस्थानचूलिकामें प्रारम्भमें सामूहिक रूपसे सव पृच्छाओको देकर फिर एक-एक प्रकरणमें एक-एक पृच्छाका उत्तर दिया है । दोनो ग्रन्थोकी उक्त पृच्छाओमें केवल दो पृच्छा ऐसी है जो आपसमें मेल खाती है । किन्तु इतने मात्रसे निष्कर्ष निकालना तो दूर, कोई सभावना भी नही की जा सकती।
इसी तरह कसायपाहुडके इसी प्रकरणमें आगे १५ गाथाएँ आती है । उनमेंसे दो गाथाएँ उल्लेखनीय है । उनमें एक गाथा इस प्रकार है
दसणमोहस्सुवसामगों दु चदुस वि गदीस बोद्धन्वो ।
पचिदिओ य सण्णी णियमा सो होई पज्जत्तो ॥१५॥ अर्थ-दर्शनमोहनीयकर्मका उपशम करने वाला जीव चारो ही गतियोमें जानना चाहिये । वह जीव नियमसे पञ्चेन्द्रिय, सज्ञी और पर्याप्तक होता है ।
जीवस्थानकी सम्यक्त्वोपत्तिचूलिकामें इसीको विस्तारसे कहा है । यथा
'उवसातो कम्हि उवसामेदि, चदुस् वि गदीसु उवसामेदि । चदुसु वि गदीसु उवसातो पाँचदिएसु उवसामेदि, णो एइदियविलिदिएसु । पचिदिएसु उवसामॅतो सण्णीसु उवसामेदि, णो असण्णीसु । सण्णीसु उवसातो गम्भोवक्कतिएसु
१ पट्खा , पु०६, पृ० १ । २. पटख०, पु० ६, पृ० २३८
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१४८ · जैनसाहित्यका इतिहास
उवसामेदि णो सम्मुच्छिमेसु । गन्भोवक्कंतिएसु उवसामंतो पज्जत्तएसु उवसामेदि जो अपज्जत्तसु । पज्जत्तएसु उवसामेतो संखेज्जवस्साउगेस वि उवसामेदि, असंखेज्जवरसाउगेसु वि ॥९॥
अर्थ - - दर्शनमोहनीयकर्मको उपशमाता हुआ जीव कहीं उपशमाता है ? चारो ही गतियोंमें उपशमाता है । चारो ही गतियोमे उपशमाता हुआ पञ्चेन्द्रियो - में उपशमाता है, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियोंमें नही उपशमाता है । पचेन्द्रियो में उपशमाता हुआ सज्ञियोमें उपशमाता है, असज्ञियोमें नही । मजियोमें उपगमाता हुआ गर्भज जीवोमें उपशमाता है, सम्मूर्छन जन्मवालोमें नही । गर्भजोमे उपशमाता हुआ पर्याप्तको उपशमाता है, अपर्याप्तकोमें नही । पर्याप्तकोमें उपशमाता हुआ सख्यातवर्षकी आयुवाले जीवोमे भी उपशमाता है, और असख्यातवर्षकी आयुवाले जीवोमें भी उपगमाता है ||९||
दोनो की तुलना करनेसे ऐसा आभास होता है कि ऊपरकी गाथाकी ही विभापा नीचेके सूत्र द्वारा की गई है । किन्तु इतने से यह नही कहा जा सकता कि पट्खण्डागमकारके सन्मुख कसायपाहुड था । अत इस तरहके उल्लेग्वोके आधारपर कोई निश्चित निष्कर्ष नही निकाला जा सकता ।
कसाय पाहुडके' प्रदेशविभक्तिनामक अधिकारमें चूर्णिकारने मिथ्यात्वकर्म जघन्यप्रदेशसत्कर्मके स्वामीका कथन किया है और पट्खण्डागमके वेदनाखण्डके वेदनाद्रव्यविधान नामक अनुयोगद्वारमें द्रव्यसे ज्ञानावरणीयकर्मकी जघन्य वेदनाके स्वामीका कथन किया है। दोनोका यह कथन कुछ अर्थदृष्टिसे और कुछ शब्ददृष्टिसे भी परस्परमें मेल खाता है । यद्यपि दोनो ग्रन्थकारोमें उक्त विपयमें कुछ मौलिक मतभेद भी है, जो दोनो उद्धरणोसे स्पष्ट है और जिसकी चर्चा आगे करेंगे, तथापि दोनोका यह साम्य भी उल्लेखनीय है । इस साम्यका कारण यह भी हो सकता है, कि दोनो ग्रन्थकारोको अपनी-अपनी परम्परासे वह इसी रूप में प्राप्त
सुहुमणिगोदेसु कम्मट्ठदिमच्छिदाउओ । तत्थ सव्वव हुआणि अपज्जतभवग्गहणाणि । दीहाओ अपज्जन्तद्धाओ । जदा जदा आउअ वधदि तदा तदा तप्पाओग्गउक्करसएस जोगट्ठाणेसु वधढि । हैट्ठिल्लीणं ट्ठिदीणं णिसेयम्स उक्कस्स पदेस तप्पा ओग्ग उक्करसविसोहिमभिक्ख गदो' - क० पा० सु०, पृ० १८८ ।
'जो जीवो सुहुमणिगोदजीवेसु पलिदोवमस्स असखिज्जदिभागेण ऊणिय कम्मट्ठदि मच्छिद्रो । तत्थ य ससरमाणस्स बहुआ अपज्जतभवा, थोवा पज्जतभवा । दीहाओ अपज्जत्तद्धाओ रहस्साओ पज्जत्तद्धाओ । जदा जदा आउअ वधदि तदा तदा तप्पा ओग्गुक्कस्सरण जोगेण बधदि । उवरित्लीण ट्ठिदीणं जिसेयस्म जहण्णपदे हेट्ठिल्लीण ट्ठिदीण णिसेयस्स उक्कस्सपदे बहुसो बहुसो जहण्णाणि जोगट्ठाणाणि गच्छदि । बहुसो बहुमो मदसकिलेस परिणामो भवदि । पर्ख, पु० १०, पृ० २६८ - २७६ ।
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छक्खडागम १४९
हुआ हो, क्योकि मूल सिद्धान्त तो एक ही है, किन्तु उनमें जो मौलिक मतभेद है उसको देखते हुए यह नही कहा जा सकता कि केवल यह अश चूणिसूत्रकारने वेदनाखण्डसे लिया होगा। ___ पहले हम लिख आये है कि कसायपाहुड (चूणिसूत्रसहित) और षट्खण्डागम ये दोनो दो भिन्न आचार्यपरम्पराओके उत्तराधिकारी है क्योकि दोनोमें अनेक सैद्धान्तिक मतभेद है। अत उन दोनोका उद्गम यदि स्वतत्र भावसे हुआ हो तो असभव नही है। फिर यह हम पहले लिख आये है कि यतिवृपभके गुरु नागहस्ती भी कर्मप्रकृतिप्रधान थे और यतिवृषभने अपने चूर्णिसूत्रोमें कर्मप्रकृतिका निर्देश किया है। अत यह सभव है कि यतिवृपभ भी महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके ज्ञाता हो, जिसके आधारपर षट्खण्डागमके सूत्र रचे गये है । अत दोनोमें क्वचित् शब्दगत या अर्थगत साम्य हो सकता है ।
छक्खडागम और पण्णवणा षट्खण्डागममें चर्चित विषयोका कोई-कोई अश विभिन्न श्वे० आगमिक साहित्यमें मिलता है। यथा, पट्खण्डागमके वर्गणाखण्डके अन्तर्गत बन्धनअनुयोगद्वारके आदिमें विस्रसाबन्ध और प्रयोगबन्धके दो-प्रभेदोका कथन है। भगवती सूत्रके ८वें शतकके नौवें उद्देशमें भी वही कथन किञ्चित् अन्तरके साथ पाया जाता है। बन्धनअनुयोगद्वारमें प्रयोगवन्धके दो भेद किये है-कर्मवन्ध और नोकर्मवन्ध । तथा नोकर्मबन्धके पाँच भेद किये है—आलापनबन्ध, अल्लीवनबन्ध, सश्लेषबन्ध, शरीरवन्ध और शरीरीबन्ध । भगवतीसूत्रमें प्रयोगबन्धके तीन भेद किये है-अनादिअपर्यवसित, सादिअपर्यवसित और सादिसपर्यवसित । तथा सादिसपर्यवसितके चार भेद किये है-आलापनबन्ध, अल्लियावणबन्ध, शरीरवन्ध और शरीरप्रयोगबन्ध । दोनो ग्रन्थोमें अपने-अपने ढगसे इन बन्धोके जो लक्षण दिये है उनमें शब्दभेद होते हुए भी अभिप्रायभेद नहीं है।
षट्खण्डागमकी जीवस्थानचूलिकामें जो कर्मोकी जघन्य स्थिति, उत्कृष्ट स्थिति तथा आवाधा आदिका कथन है, प्रज्ञापनाके २३वें आदि पदोमें भी उसीसे मिलताजुलता हुआ कथन है । जैसे, जीवस्थानचूलिकाके आरम्भमें 'कदिकाओ पयडीओ वधदि' इत्यादि प्रथमसूत्रके द्वारा पाँच प्रश्नोका सूत्रपात करके फिर क्रमसे एक-एक चूलिकाके द्वारा उसका उत्तर लिग गया है। प्रज्ञापनाके २ २३ वें पदके १ पट्ख० पु. १४, पृ० ३६ आदि । २ 'कति पगडी कहिं वधइ कतिहिं टठाणेहिं वधई जीवो। कइ वेदेइ य पगडी अणभावी
कतिविहो कस्स ॥२॥'-प्रज्ञा०
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१५० जैनसाहित्यका इतिहास
प्रारम्भमें भी एक गाथाके द्वारा कर्मविपयक पाँच प्रश्नोको उठाया गया है-१ कितनी प्रकृतियाँ है ? २ किस प्रकारसे उनका बन्ध होता है, ३ कितने स्थानोके द्वारा बन्ध होता है, ४. कितनी प्रकृतियोका जीव वेदन करता है, और ५ किस कर्मका अनुभाग कितने प्रकारका होता है ? और फिर क्रमसे इन पांचो प्रश्नोका समाधान किया गया है।
मूलकर्मोका नाम बतलानेके पश्चात् उत्तरप्रकृतियोकी गणना जैसे चूलिकामे की है, प्रज्ञापनामें भी की है। चूलिकामें प्रत्येक उत्तरप्रकृतिका नाम गिनाया है। प्रज्ञापनामे कही पूरा नाम गिनाया है तो कही सक्षिप्त । जिस प्रकार छठी चूलिका'मे कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति, उनकी आवाधा और निपेक बतलाये है, प्रज्ञापनामें भी अपने ढगसे उनका उसी प्रकार कथन किया है। चूलिकामें जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका कथन पृथक पृथक् किया है, प्रज्ञापनामें एक साथ है । विपयकी दृष्टिसे दोनो ग्रन्थोके अन्य भी कोई-कोई कथन मिलते हुए है । किन्तु प्रज्ञापनामे सकलित कर्मविषयक कथन साधारण कोटिका है। भगवती और प्रज्ञापना दोनो ही सग्रह ग्रन्थ है, जिनमे विविध विपय सगृहीत है। उनके देखनेसे प्रकट होता है कि उनकी सकलनाके समय श्रुतका कितना विच्छेद हो चुका था और अवशिष्ट अशोको सुरक्षित रखनेका किस प्रकार प्रयत्न किया गया था। ___ ग्यारहवाँ अग विपाकसूत्र कर्मसिद्धान्तसे ही सम्बद्ध था, किन्तु उपलब्ध विपाकसूत्रमें वह बात नही है, यह उसका परिचय कराते हुए बतला चुके है । कसायपाहुड, चूणिसूत्र, षट्खण्डागम तथा प्रज्ञापना आदि आगमिक साहित्यके पर्यवेक्षणसे एक बात स्पष्ट है कि प्रश्नपूर्वक कथन करनेकी ही प्राचीन आगमिकशैली थी।
छक्खडागम और कर्मप्रकृति एक कर्मप्रकृति नामक प्राचीन ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परामे मान्य है। उसकी उपान्त्य गाथामें कहा गया है कि 'मुझ अल्पबुद्धिने जो जैसा सुना वैसा कर्मप्रकृति १. 'पचण्ह णाणावरणीयाण णवण्ह दमणावरणीयाण असादावेदणीय पचण्हमतराइयाणमुक्कस्सओ हिदिवधो तीस सागरोवमकोटाकोडीओ ॥४॥ तिण्णि वाससहस्साणि आवाधा |शा आवाधूणिया कम्मटिळदी कम्मणिसेओ ॥६॥'-पटख०, पु० ६, पृ० १४६
१५० ॥ २ 'नाणावरणिज्जस्स ण भते । कम्मस्स केवतिय काल ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेण
अतोमुहुत्त उक्कोसेण तीस सागरोवमकोडाकोडीओ तिन्निय वाससहस्साइ अवाहा
अबाहूणिता कम्मठिई कम्मणिसेगो।'-प्रशा०, २३ प० । ३. 'इय कम्मप्पगडीओ जहासुय तीयम्प्पभ ईणा वि। सोहियाणाभोगकय कह तु
वरदिट्ठीवायन्नु ॥५६।।-कर्मप्र०, सत्ता० ।
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छक्खडागम १५१ से इस ग्रन्थका उद्धार किया। जो मुझसे स्खलित कथन हुआ हो, दृष्टिवादके ज्ञाता उसे शुद्ध करके कहें।' इस परसे इस कर्मप्रकृतिको भी उसी कर्मप्रकृति प्राभृतसे उद्धृत कहा जाता है, जिसके आधारपर पट्खण्डागमसूत्रोकी रचना हुई थी। किन्तु दोनोकी तुलना करनेसे यह प्रकट नहीं होता कि भूतबलि आचार्य जिस प्रकार महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके ज्ञाता थे, उस प्रकार कर्मप्रकृतिकार भी उसके ज्ञाता थे। हाँ, उसके कुछ अशोके वे ज्ञाता अवश्य थे, जिन्हें उन्होने दृष्टिवादके बचे अवशिष्टाशके रूपमें गुरुमुखसे श्रवण किया होगा और इसलिए कर्मप्रकृतिकी प्रथम गाथाकी उत्थानिकाकी चूर्णिमें चूर्णिकारने जो कुछ कहा है वही समुचित प्रतीत होता है । चूर्णिकारने कहा है कि-'दुषमाकालके कारण जिनकी वुद्धि, आयुष्य वगैरह घटता जाता है ऐसे आजकलके साधुजनोका उपकार करनेकी कामनासे आचार्यने विच्छिन्न हुए कर्मप्रकृति नामक महाग्रन्थके अर्थका ज्ञान करानेके लिए उसी सार्थक नामवाले कर्मप्रकृतिसग्रहणी नामक प्रकरणको आरम्भ किया है।' अत कर्मप्रकृतिप्राभृतका विच्छेद होनेपर ही उक्त कर्मप्रकृतिसग्रहणी नामक ग्रन्थ रचा गया है । उसका नाम कर्मप्रकृतिसग्रहणी है, यही उसके लिए उचित भी है । उसीको लघु करके कर्मप्रकृति नामसे उसकी ख्याति हुई है।
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तृतीय परिच्छेद
महाबंध
कसायपाहुड और छक्खडागम इन दो मूल आगम-ग्रन्थोके रचयिता, रचनाकाल, विषयवस्तु एव उनके महत्वके विवेचनके पश्चात् तृतीय आगम-ग्रन्थ महाबधका विमर्श उपस्थित किया जा रहा है । यहाँ यह स्मरणीय है कि इस महावध सिद्धान्तग्रन्थके रचयिता भी आचार्य भूतवलि है। ___यह सिद्धान्त-ग्रन्थ छक्खण्डागमका अन्तिम खण्ड है । अपनी विशालता और विपयकी गम्भीरताके कारण इसे स्वतत्र सिद्धान्त-ग्रन्थकी सज्ञा प्राप्त है। ___ आचार्य वीरसेनने छक्खडागमपर अपनी धवलाटीका लिखी है, पर उनकी यह टीका पूर्वके पांच खण्डोपर ही है। इस छठे खण्डपर इनकी टीका नही है और न अन्य किसी आचार्यकी टीका प्राप्त है । इसका प्रधान कारण यही है कि आचार्य भूतबलिने इसे स्वय विवरणात्मक शैलीमें रचा है । जो ग्रन्थ इस शैलीमें लिखा जाता है, उसपर भाष्य या वृत्तियाँ बडी कठिनाईसे लिखी जाती है । यत सुगमपर विवृत्ति या भाष्य लिखनेमें सोकर्य रहता है और उसकी व्याख्या सुवोध होनेके कारण छोड दी जाती है । ___इस ग्रन्थकी शैली भी पूर्वके खण्डोकी सूत्रात्मक शैलीसे भिन्न है और इसका प्रमाण भी शेप पाँच खण्डोसे पांच गुना है । अत यह छठा खण्ड अपने पाँचो बडे भाईयोसे अलग पड गया है और महाबन्ध नामसे एक स्वतत्र ग्रन्थके रूपमें ही प्रकाशित हुआ है।
इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें महाबन्धको तीस हजार श्लोकप्रमाण बतलाया है और ब्रह्म हेमचन्द्रने चालीस हजार श्लोकप्रमाण बतलाया है । इसके रचयिता भी आचार्य भूतबलि है। उन्होने चतुर्थ वेदनाखण्डके आदिमें ४४ सूत्रोके द्वारा १ महाबन्धका प्रकाशन ७ भागोंमें भारतीय ज्ञानपीठ काशीकी ओरसे हुआ है। २ 'सूत्राणि पट्सहस्रग्रन्थान्यथ पूर्वसूत्रसहितानि । प्रविरच्य महाबन्धाय तत पष्ठक
खण्डम् ।।१३९॥ त्रिंशत्सहस्रसूत्रग्रन्थ व्यरचयदसौ महात्मा ।'-श्रुताव० ३ 'सदरीसहस्स धवलो जयधवलो सठिसहस्स बोधव्वो। महबधो चालीस सिद्ध तत्तय
अह वदे ॥८॥
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महाबंध · १५३
जो मगल किया है उसे टीकाकार' वीरसेनने शेप तीनो खण्डोका अर्थात् वेदना, वर्गणा और महाबन्धका मंगल बतलाया है, क्योकि वर्गणा और महावन्धखण्डके आदिमें मगल नहीं किया है । अत यह स्पष्ट है कि महावन्धके प्रारम्भमें ग्रन्थकार भूतवलिने मंगल नहीं किया। ___ महावन्धका प्रकाशन हो जानेपर भी यह बात हमें इसलिये लिखनी पड़ी है कि इस ग्रन्थराजकी केवल एक ही प्रति मूडबिद्रीके सिद्धान्तवसतिभण्डारमें सुरक्षित मिली, किन्तु उसके भी १४ ताडपत्र नष्ट हो गये थे। उनमें पहला पत्र भी था। इसलिये भूतवलिने इस खण्डग्रन्थका आरम्भ किस रूपमें किया था, उसके जाननेका कोई उपाय नहीं है। ____ वर्गणाखण्डके नन्धनअनुयोगद्वारके अन्तमें अथवा यह कहना चाहिये कि महावन्धके आरम्भसे पूर्वमें वन्धनके चार भेदोमेंसे बन्ध, बन्धक और वन्धनीयका कथन करनेके पश्चात् बन्धविधानके चार भेद कहे है-प्रकृतिवन्ध, स्थितिवन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशबन्ध । इन्ही चार बन्धोका वर्णन महाबन्धमें है । वन्धोका विस्तारसे कथन होनेके कारण ही इसका नाम महावन्ध रखा गया है। पहले प्रकृतिवन्धका कथन है।
चूंकि प्रथम ताडपात्र नष्ट हो गया है, अत अवधिज्ञानका निरूपण करने वाली गाथाओसे उपलब्ध महावन्धका प्रारम्भ होता है । ये गाथाएँ वर्गणाखण्डके प्रकृतिअनुयोगद्वारमें भी आई है। एक तरहसे प्रकृतिअनुयोगद्वारसे ही महावन्धका आरम्भ होता है । यहाँ उसका नाम प्रकृतिसमुत्कीर्ण है । महावन्धका प्रकृतिसमुत्कीर्तन वर्गणाखण्डके अन्तर्गत प्रकृतिअनुयोगका ही सक्षिप्त रूप है। वर्गणाखण्डके प्रकृतिअनुयोगद्वारमें पृच्छासूत्र भी है-'मणपज्जवणाणावरणीयस्स कम्मस्स केवडियामओ पयडीओ' अर्थात् मन पर्ययज्ञानावरणीयकर्मकी कितनी प्रकृतियां है। इस प्रकारके पृच्छासूत्र महाबन्धमें नहीं है, केवल विषयप्रतिपादन है और वह प्राकृतगद्यरूपमें है। दोनोंका अन्तर दिखानेके लिए यहाँ दोनो ग्रन्थोसे कुछ पक्तियाँ उद्धृत की जाती है
'मणपज्जवणाणावरणीयस्य कम्मस्स दुवे पयडीओ उजुमदिमणपज्जवणाणावरणीय चेव विउलमदिमणपज्जवणाणावरणीय चेव ॥६१॥ ज त उजुमदिमणपज्जवणाणावरणीय णाम कम्म त तिविह-उजुग मणोगद जाणदि
१. 'उवरि उच्चमाणेसु तिसु खडेसु कस्सेदं मगल ? तिण्ण खडाण। कुदो? वग्गणामहा
बंधाणमादीए मगलाकरणादो।'-पटख पु० ९, पृ० १०५ । २ 'न त वधविहाण त चउन्विह –पयडिवधो दिदिवयो अणुभागवधो पदेसबधो
चेदि ॥७९॥
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१५४ जैनसाहित्यका इतिहास उजुग वचिगद जाणदि उजुग कायगद जाणदि ॥६२।। गणेण माणस पडिविंदइत्ता परेसिं सण्णा सदि मदि चिंता, जीविदमरण लाहालाह सुहदुक्स णयरविणास देसविणास जणवयविणास सेदविणारा कवटविणास मडविणाम पट्टणविणास दोणामुहविणाग अइबुट्ठि अणावुठ्ठि सुबुट्ठि दुवुट्ठि सुभिक्य दुभिवस खेमाखेमभयरोगकालस[प] जुत्ते अत्थे वि जाणदि ॥६६॥ किं नि भूओअप्पणो परेसिं च वत्तमाणाण जीवाण जाणदि णो अवत्तमाणाण जीवाण जाणदि ॥६४॥ कालदो जहण्णेण दो-तिण्णि-भवग्गहणाणि ।।१५।। उपकस्मेण गत्तट्ठभवग्गहणाणि ॥६६॥ जीवाण गदिमादि पदुप्पादेदि ॥१७॥ तदो ताव जहणेण गाउवपुधत्त उक्कस्सेण जोयणपुचत्तस्ग अन्तरदो णो वहिदा ॥१८॥ ( छक्सडागम, पु० १३, पृ० ३२८-३३८) ।
उक्त सूत्रोको महावन्धमें इस प्रकार निवद्ध किया गया है
'ज त मणपज्जवणाणावरणीय काम्म वधतो त एयविध । तस्म दुविहपरूवणा उज्जुमदिणाण चैव विपुलमदिणाण चेव । ज त उजुमदिणाण त तिविध उज्जुग मणोगदं जाणदि । उज्जुग वचिगद जाणदि । उज्जुग कायगद जाणदि । मणेण माणस पडिविंदइत्ता परेसिं सग्णा सदि मदि चितादि विजाणदि, जीविदमरण लाभालाभ सुहदुक्स णगरविणासं देह(देस)विणास जणपदविणासं अदिबुठ्ठि अणावुट्ठि सुवुछि दुबुठ्ठि सुभिक्ख दुन्भिक्स समाखेमभयरोगं उन्भय इन्भय सभम वत्तमाणाण जीवाण णो अवत्तमाणाण जीवाण जाणदि । जहण्णेण गाउदपुधत्त । उक्कस्सेण जोयणपृधत्तस्स अन्भतरादो, णो वहिद्धा । जहण्णेण दोतिण्णि भवग्गहणाणि, उक्कस्सेण सत्तट्ठभवग्गहणाणि गदिरागदि पदुप्पादेदि।" (म०व०, भा० १, पृ० २४-२५ ।)
महावधमें ज्ञानावरणीयकी प्रकृतियोके निमित्तसे ज्ञानके भेदका विवेचन तो प्रकृतिअनुयोगद्वारके अनुसार किया है। किन्तु वाकीके सात कर्मोकी प्रकृतियोकी केवल सख्या वतला दी है । यथा दर्शनावरणीयकर्मकी नौ प्रकृतियाँ है, वेदनीयको दो प्रकृतियाँ है, आदि । चूँकि वर्गणाखण्डके प्रकृतिअनुयोगद्वारमे कर्मोकी प्रकृतियोका वर्णन किया जा चुका था, इसीसे महावन्धमें उन सबका वर्णन नही किया गया। ____ आगे वन्धस्वामित्वविचय-बन्धके स्वामीपनेके विचारका प्रतिपादन किया गया है। यह कथन बन्धस्वामित्वविचय नामक तीसरे खण्डका सक्षिप्त रूप है।
महाबन्धमें भी तीर्थंकरप्रकृतिके बन्धके सोलह कारण बतलाये है किन्तु सोलह कारणोके क्रममें थोडा अन्तर है। यहाँ आठवें नम्बरपर 'साधुसमाधिसधारणता के स्थानमे 'साधुप्रासुकपरित्यागता' पाठ है और नौवें नम्बरपर 'वैयावृत्ययोगयुक्तता' के स्थानमें 'समाधिसधारणता' पाठ है । तथा न० १०में 'साधु
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महावध १५५ प्रासुकपरित्यागता' के स्थानमें 'वयावृत्ययोगयुक्तता' पाठ है। शेप पाठ समान है ।
आगेका ताडपत्र त्रुटित होनेसे वन्धस्वामित्वका आदेशकथन अधूग रह गया है। आगे कालप्ररूपणा है। इसका भी आरम्भिक भाग नहीं है। इसमें गति आदि मार्गणाओकी अपेक्षा प्रत्येक कर्मप्रकृतिका जघन्य और उत्कृष्ट वन्धकाल बतलाया है । यथा-नरकगतिमें एक जीवको अपेक्षा तीयंकरप्रकृतिका जघन्यवन्धकाल ८४ हजार वर्ष और उत्कृष्ट साधिक तीन-तीन सागर है । आदि ।
आगे एक जीवको अपेक्षा अन्तरानुगमका कथन करते हुए प्रत्येक कर्मके वन्धका अन्तरकाल बतलाया है। यह कथन जीवस्थानके अन्तरानुगम अनुयोगद्वारपर आधृत है, उसीके आधारपर कर्मोके बन्धके अन्तरकालका कथन किया गया है ।
तत्पश्चात् सन्निकर्पका कथन है। उसके दो भेद किये है-स्वस्थानसन्निकर्प और परस्थानसन्निकर्प। स्वस्थानसन्निकर्पमें बतलाया है कि ज्ञानावरणीयकर्मको जो एक भी प्रकृतिका बन्ध करता है वह उस कर्मकी शेप प्रकृतियोका भी वन्धक होता है । इस प्रकार स्वस्थानसन्निकर्षमें एकजातीय प्रकृतियोके वन्धके सन्निकर्पका कथन है और परस्थानसन्निकर्षमें सजातीय तथा विजातीय प्रकृतियोके बन्धके सन्निकर्पका कथन है। यथा-मतिज्ञानावरणीय कर्मका बन्धक शेप चार श्रुतज्ञानावरण आदि सजातीय प्रकृतियोका और दर्शनावरणकी चार तथा अन्तरायकर्मकी पांच प्रकृतियोका बन्धक है। कथन बहुत विस्तारसे किया गया है ।
भगविचयअनुयोगद्वारमें भगोका विचार किया गया है। यथा सातावेदनीयके अनेक बन्धक और अनेक अवन्धक होते है। चारो आयुकर्मोके अनेक बन्धक है, अनेक अवन्धक है। इस तरह प्रत्येक प्रकृतिके भगोका विचार वन्धक और अवन्धककी अपेक्षा किया गया है।
भागाभागानुगममें बतलाया है कि अमुक प्रकृतिके बन्धक अथवा अबन्धक सब जीवोके कितने भागप्रमाण है ? यथा-सातावेदनीयके बन्धक सव जीवोके कितने भाग है ? सख्यातवें भाग है । अवन्धक सव जीवोके सख्यात बहुभाग है । असाताके वधक सर्वजीवोके कितने भाग है ? सख्यात बहुभाग है । अवधक सर्वजीवोके कितने भाग है ? सख्यातवें भाग है । आदि ।
परिमाणानुगम अनुयोगद्वारमें कर्मप्रकृतियोके वन्धको और अवन्धकोका परिमाण बतलाया है। यथा-सातावेदनीयके बन्धक और अवन्धक कितने है ? अनन्त है । असाताके बन्धक और अबन्धक कितने है ? अनन्त है। दोनो वेदनीयकर्मोके बन्धक और अवन्धक अनन्त है, इत्यादि ।
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१५६ . जैनसाहित्यका इतिहास
क्षेत्रानुगममें बतलाया है कि कर्मप्रकृतियो के बन्धक ओर अवन्धक जीव कितने क्षेत्रमें रहते है । यथा - माता और असाताके वन्धक भर अवन्धक जीव कितने क्षेत्रमे रहते है ? सर्वलोकमे दोनो वेदनीयकर्म के बन्धक कितने क्षेत्रमें रहते है ? सर्वलोक । अवन्धक कितने क्षेत्रमें रहते है ? लोकके असंख्यातवें भागमे ।
स्पर्शनानुगममे स्पर्शनका कथन है । यथा - साताके वन्धको और अबन्धकोने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्वलोकका । असाताके बन्धको ओर अबन्धकोने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्वलोकका । दोनो प्रकृतियोके बन्धकोन सर्वलोकका स्पर्शन किया है । और अबन्धकोने लोकके अमरुपातवें भागका स्पर्शन किया है ।
कालानुगममें नाना जोवोकी अपेक्षा प्रकृतियोके वन्धकोका काल वतलाया है । यथा— साता भर असाताके बन्धक ओर अवन्धक कितने काल तक होते है ? सर्वकाल होते है । दोनोके बन्धक और अवन्धक कितने काल तक होते है ? सर्वकाल होते है । नाना जीवोकी अपेक्षा अन्तरानुगममें कर्मप्रकृतियो के वन्धको ओर अवन्धकोका अन्तरकाल नाना जीवोकी अपेक्षा बतलाया है । नरकायु, मनुष्यायु और देवायु के वन्धको का जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे २४ मुहूर्त अन्तर है । अर्थात् अधिक-से-अधिक २४ मुहूर्तका समय ऐसा आ सकता है जिनमें कोई जीव इन तीनो आयुकर्मोका वन्धक न हो । अवन्धकोका अन्तर नही है । तिर्यञ्चाके वन्धको और भवन्धकोका अन्तर नही है । इत्यादि ।
भावानुगममे बतलाया है कि कर्मप्रकृतियोके वन्धको ओर अवन्धकोका कौन भाव है ? यथा — मिथ्यात्वके वन्धकोका कौन भाव है ? ओदयिक भाव है । अवन्धको कौन-सा भाव है ? औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक या पारिणामिक |
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अल्पबहुत्वके दो भेद किये है — एकजीव अल्पवहुत्व और दूसरा कालअल्पवहुत्व । इन दोनोके भी स्वस्थान और परस्थानकी अपेक्षा दो-दो भेद है । यथा -- साता और असाता दोनो प्रकृतियोके अवन्धक जीव सबसे कम है । साताके बन्धक जीव अनन्तगुणे है | असाताके वन्धक जीव उनसे संख्यातगुणे है । दोनो वन्धक जीव इनसे विशेष अधिक है । यह स्वस्थानजीव अल्पबहुत्व के कथनका उदाहरण है ।
कम है । तीर्थकर - वन्धक जीव उनसे
ओघकी अपेक्षा आहारकशरीरके बन्धक जीव सबसे प्रकृतिके बन्धक जीव उनसे असख्यातगुणे है । मनुष्यायुके असख्यातगुणे है, इत्यादि । यह परस्थानजीवअल्पबहुत्वका उदाहरण है ।
चौदह जीवसमासो साता - असाता इन दोनो प्रकृतियोके बन्धकोका जघन्य - काल समान रूपसे स्तोक है । सूक्ष्मअपर्याप्तकोमें साताके वन्धकका उत्कृष्टकाल
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महाबध १५७ संख्णतगुणा है । असाताके बन्धकका उत्कृष्टकाल सख्यातगुणा है । इत्यादि । यह स्वस्थानकालअल्पबहुत्वका उदाहरण है।
परस्थानकालअल्पबहुत्वमें परिवर्तमान प्रकृतियोका परस्थानमे अल्पबहुत्वका कथन किया है । ऐसी परिवर्तमान प्रकृतियाँ यहाँ २१ ली है-४ गति, २ गोत्र, २ वेदनीय, ४ आयु, हास्य-रतिका युगल और यश कीर्ति-अयश कीर्तिका युगल । इन्हीके अल्पबहुत्वका विवेचन है ।
इस प्रकार उक्त अनुयोगोके द्वारा प्रकृतिवन्धका कथन ओघसे और आदेशसे किया गया है।
बन्धस्वामित्वविचयमें तो गुणस्थानो और मार्गणाओमें कर्मप्रकृतियोंके बन्धके केवल स्वामियोका ही कथन था। यहाँ उनके बन्धको और अवन्धकोके काल क्षेत्र, अन्तर आदि अनुयोगद्वारोका कथन किया गया है।
२ स्थितिबन्धाधिकार स्थितिबन्धके मुख्य अधिकार दो है-मूलप्रकृतिस्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिवन्ध । मूलप्रकृतिस्थितिबन्धके मुख्य अधिकार चार है-स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणा, निषेकप्ररूपणा, आबाधाकाण्डकप्ररूपणा और अल्पबहुत्वप्ररूपणा।
प्रत्येक कर्मके जघन्यस्थितिबन्धस्थानसे लेकर उत्कृष्टस्थितिवन्धस्थान तकके समस्त विकल्पोको स्थितिबन्धस्थान कहते है । समस्त ससारी जीव चौदह जीवसमासोमें विभक्त है । इनमेंसे एक-एक जीवसमासमें अलग-अलग कितने स्थितिविकल्प होते है, स्थितिबन्धके कारणभूत सक्लेशस्थान और विशुद्धिस्थान कितने है, और सबसे जघन्य स्थितिबन्धसे लेकर उत्तरोत्तर किसके कितना स्थितिवन्ध होता है, अल्पबहुत्वकी प्रक्रिया द्वारा इन तीन बातोका कथन स्थितिबन्धस्थानप्ररूपणामें किया गया है।
एक समयमें बंधे हुए कर्मोंके निषेकोका उस समय प्राप्त स्थितिमें जिस क्रमसे निक्षेप होता है उसे निषेकरचना कहते है। इसका कथन करनेवाली प्ररूपणाको निषेकप्ररूपणा कहते है। निषेकप्ररूपणाका कथन दो अनुयोगोके द्वारा किया गया है-अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधाके द्वारा बतलाया है कि आयुकर्मके सिवाय शेष सात कर्मोका जितना स्थितिबन्ध होता है उसमेंसे आबाधाकालको कम करके जो स्थिति शेष रहती है उसके प्रथम समयमें सबसे अधिक कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते है, और उसके आगे द्वितीयादि समयोमें क्रमसे उत्तरोत्तर एक-एक चयहीन कर्मपरमाणुओका निक्षेप होता है। इस प्रकार प्रति समयमें जिस कर्मके जितने परमाणुओका बन्ध होता है उनका उक्त प्रकारसे
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१५८ जैनसाहित्यका इतिहास
स्थितिके समयोमें विभाग हो जाता है। किन्तु आयुवर्मकी आवाधा उराके स्थितिवन्धमे सम्मिलित नहीं है । इसलिये आयुकर्मके कर्मपरगाणुओका विभाग उक्त क्रमसे स्थितिबन्धके सब समयोमे होता है।
किस कर्मकी कितनी आवाधा होती है, इस बातका भी यहाँ गकेत किया है। जीवस्थानके चूलिकाअनुयोगद्वारकी छटवी और गातवी चूलिकामे क्रमरो उत्कृष्टस्थितिबन्ध और जघन्यस्थितिबन्धका कथन करते हुए भावाधाका भी कयन किया गया है । अत उसको फिर यहां लिपना जरूरी नहीं है।
परम्परोपनिधामें बतलाया है कि प्रथम निपेको आगे पल्यके असन्यातवे भागप्रमाणस्थान जानेपर प्रथम निपेकमें जितने कर्मपरमाणु निक्षिप्त होते है उनमे वे आधे रह जाते है । इसी प्रकार जघन्य स्थिति प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर पल्यके असख्यातवें भागप्रमाण जानेपर वे आधे-आधे रह जाते है । मब कर्मोकी निपेकरचनाका यही क्रम है।
वधको प्राप्त कर्म जितने काल तक फल देनेमे गमर्थ नही होते उतने कालको आवाधाकाल कहते है । और जितने रियतिविकल्पोका एका-गा आवाधाकाल होता है उतने स्थितिविकल्पोको एक आवाधा होनेसे आवाधाकाण्डक राजा है। इसका विचार जिसमें किया जाता है उसे आवाधाकाण्डकप्ररूपणा कहते है।
आवाधाकाण्डकप्ररूपणामें बतलाया है कि उत्कृष्टस्थितिमे पत्यक असख्यातवें भागप्रमाणस्थान जाने तक इन सब स्थितिविकल्पोका एक आवाधाकाण्डक होता है अर्थात् इतने स्थितिविकल्पोकी उत्कृष्ट आवाधा होती है।
उसके बाद इतने ही स्थितिविकल्पोको एक समय कम आवाधा होती है। इस प्रकार जघन्यस्थितिपर्यन्त ले जाना चाहिये । यहाँ जितने स्थितिविकल्पोकी एक आवाधा होती है उसकी आवाधाकाण्डकसज्ञा है। आवाधारहित उत्कृष्ट स्थितिमें उत्कृष्टआवाधाकालका भाग देनेपर एक आवाधाकाण्डकका प्रमाण आता है। किन्तु आयुकर्ममें यह नियम लागू नहीं होता, क्योकि आयुकर्मकी आवाधा उसके स्थितिवन्धके अनुपातसे नहीं होती।
चौथे अल्पबहुत्वप्रकरणमें जीवसमासोमे जघन्यआवाधा, आवाधास्थान, आबाधाकाण्डक, उत्कृष्टआवाधा, नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर, जघन्यस्थितिबन्ध, स्थितिवन्धस्थान और उत्कृष्टस्थितिबन्ध इन सबके अल्पवहुत्वका कथन किया है। ___ आगे उक्त विवेचनको अर्थपद मानकर चौबीस अधिकारोके द्वारा मूलप्रकृतिस्थितिबन्धका कथन किया गया है। वे अधिकार है-अद्धाछेद, सर्ववन्ध, नो
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महाबध १५९ सर्वबन्ध, उत्कृष्टवन्ध, अनुत्कृष्टवन्ध, जघन्यवन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिवन्ध, अनादिवन्ध, ध्रुववन्ध, अध्रुवबन्ध, स्वामित्व, बन्धकाल, वन्धान्तर, वन्धसन्निकर्प, नानाtant अपेक्षा भगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व | इसके वाद भुजगारवन्ध, पदनिक्षेप, वृद्धिबन्ध, अध्यवसान - समुदाहा और जीवसमुदाहार । इन प्रकरणो द्वारा भी मूलप्रकृतिस्थितिबन्धका विचार किया गया है । इनमेंसे भुजगारवन्धके तेरह अनुयोगद्वार है, पदनिक्षेपके तीन अनुयोगद्वार है, वृद्धिवन्धके तेरह अनुयोगद्वार है और अध्यवसानसमुदाहारके तीन अनुयोगद्वार है । जीवसमुदाहारका कोई अवान्तरअनुयोगद्वार नही है ।
आगे उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धका भी विचार इसी प्रकारसे किया गया है । अन्तर इतना है कि मूलप्रकृतिस्थितिवन्ध में केवल आठ मूलकर्मो के आश्रयसे विचार किया गया है और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्धमें १२० उत्तरप्रकृतियोके आश्रयसे विचार किया गया है क्योकि यद्यपि आठो कर्मोकी उत्तरप्रकृतियाँ १४८ है तथापि दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोमेंसे सम्यवत्वप्रकृति और सभ्य मिथ्यात्वप्रकृति ये दो अवन्धप्रकृतियाँ है और पाँच बन्धनो तथा पाँच संघातोका पाँच शरीरोंमें अन्तर्भाव हो जाता है, तथा स्पर्शनामकर्मके ८, रसनामकर्मके ५, गन्धनामकर्मके २ और वर्णनामकर्मके ५, इन बीस भेदोमेंसे स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण इन चारका ही ग्रहण किया जाता है । इस तरह २+१० + १६ = २८ प्रकृतियोके कम हो जानेसे १२० वन्धप्रकृतियाँ अभेदविवक्षामें ली गई है ।
३ अनुभागबन्धाधिकार
आत्मा के साथ बन्धको प्राप्त होने वाले कर्मोमे राग, द्वेप और मोहके निमित्तसे जो फलदानशक्ति पडती है उसे अनुभागबन्ध कहते हैं । मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतिकी अपेक्षा उसके भी दो भेद है - एक मूलप्रकृतिअनुभागबन्ध और दूसरा उत्तरप्रकृतिअनुभागबन्ध । इस प्रकरण में इन्ही दोनो वन्धोका विस्तारसे कथन किया गया है ।
सवसे प्रथम मूलप्रकृतिअनुभागबन्धका कथन किया गया है । उसमें दो मुख्य अनुयोगद्वार है - निषेकप्ररूपणा और स्पर्धकप्ररूपणा । निपेकरचना दो प्रकारकी है, एक स्थितिकी अपेक्षा और एक अनुभागकी अपेक्षा । आवाधाकालको छोडकर स्थितिके प्रत्येक समयमें वन्धको प्राप्त कर्मपुजका जो निक्षेप होता है वह स्थिति - की अपेक्षा निपेकरचना है । स्थितिबन्धाधिकारमें उसका कथन किया गया है । अनुभागके आधारसे निषेकरचनाका कथन वेदनाखण्डका परिचय कराते हुए किया गया है । अनुभागकी मुख्यतासे निपेक दो प्रकारके होते है- सर्वघाति और देशघाति । यद्यपि सर्वघाती और देशघाती भेद घातिकर्मोमें ही सम्भव है तथापि
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१६० • जैनसाहित्यका इतिहास
यहाँ अघातिकर्मो में भी ये दो भेद किये गये है क्योकि अघातिकर्म भी जीवके प्रतिजीवीगुणोको घातनेके कारण घातिप्रतिबद्ध ही है । अत निषेकप्ररूपणामें सव कर्मोके सर्वघाति और देशघाति निषेकोका कथन किया गया है ।
अनन्तानन्तअविभागीप्रतिच्छेदोके समुदायको एक वर्ग कहते है । अनन्तानन्त वर्गीकी एक वर्गणा होती है और अनन्तानन्त वर्गणाओके समूहको स्पर्धक कहते है | वेदनाखण्ड में स्पर्धक प्ररूपणाका परिचय कराया गया है । स्पर्धक प्ररूपणामें स्पर्धकोका कथन है |
ये दोनो अनुयोगद्वार आगेकी प्ररूपणाके मूलाधार है । उनको आधार बनाकर सज्ञा, सर्वबन्ध, नोसर्वबन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टबन्ध आदि चौबीस अनुयोगोके द्वारा अनुभागबन्धका कथन किया गया है । यहाँ सक्षेपमें इनका परिचय कराया जाता है ।
सज्ञा - सज्ञाके दो भेद है, घातिसज्ञा और स्थानसज्ञा आठ कर्मोमेंसे चार कर्मघाती है और चार अघाती है। घातिकर्मके भी दो भेद है, सर्वघाती और देशघाती । जो जीवके ज्ञानादि गुणोको पूरी तरहसे घातते है उन्हे सर्वघाती कर्म कहते है और जो एकदेशघात कहते हैं उन्हें देशघाती कहते हैं । चार घातिकर्मो का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्वघाती होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध सर्वघाती और देशघाती होता है । जघन्य अनुभागबन्ध देशघाती होता है तथा अजघन्य अनुभागबन्ध देशघाती और सर्वघाती होता है । शेष चार कर्मो का उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागबन्ध घातीसे सम्बद्ध अघाती होता है । घातिसज्ञामे यह कथन किया गया है ।
घातिकर्मोमें लता, दारु, अस्थि और शैलकी उपमाको लिये हुए चार प्रकारका अनुभाग माना गया है। जिसमें यह चारो प्रकारका अनुभाग होता है, उसे चतु स्थानिक अनुभाग कहते है । जिसमें शैलके बिना शेष तीन प्रकारका अनुभाग होता है उसे त्रिस्थानिक अनुभाग कहते है । जिसमें लता और दारुरूप अनुभाग होता है उसे द्विस्थानिक अनुभाग कहते है । और जिसमें केवल लता रूप अनुभाग होता है उसे एकस्थानिक अनुभाग कहते है । चारो घातिकर्मो का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतु स्थानिक होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक होता है । जघन्यअनुभागबन्ध एकस्थानिक होता है, और अजघन्य अनुभागबन्ध एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु स्थानिक होता है ।
अघातिकर्म दो प्रकारके होते है- प्रशस्त और अप्रशस्त । प्रशस्त कर्मोके अनुभागकी उपमा गुड, खाण्ड, शक्कर और अमृतसे दी जाती है । और अप्रशस्त
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महाबध · १६१ कर्मोके अनुभागकी उपमा नीम, काजीर, विष और हालाहलसे दी जाती है। अघातिकर्मों में भी पाये जानेवाले चारो प्रकारके अनुभागको चतु स्थानिक अन्तके भेदको छोडकर पाये जानेवाले शेष तीन प्रकारके अनुभागको त्रिस्थानिक और अन्तके दो भेदोको छोडकर पाये जाने वाले शेष दो प्रकारके अनुभागको द्विस्थानिक कहते है । चार अघातिकर्मोंका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतु स्थानिक होता है । अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध चतुस्थानिक, त्रिस्थानिक, और विस्थानिक होता है । जघन्य अनुभागवन्ध विस्थानिक होता है । तथा अजघन्य अनुभागबन्ध द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुस्थानिक होता है। यह सव कथन घातिसज्ञामें किया गया है।
सर्व-नोसर्वबन्ध-सब अनुभागोके बन्धको सर्वबन्ध और उससे कम अनुभाग बन्धको नो सर्वबन्ध कहते है। इनका विचार इस अनुयोगमें किया है । आठो कर्मोका अनुभागबन्ध सर्वबन्धरूप भी होता है और नो सर्वबन्ध रूप भी होता है ।
उत्कृष्ट अनुत्कृष्टबन्ध-सवसे उत्कृष्ट अनुभागबन्धको उत्कृष्ट अनुभागबन्ध और उससे कम अनुभागवन्धको अनुत्कृष्ट अनुभागवन्ध कहते है । __ सभी कर्मोंमें दोनो प्रकारका अनुभागवन्ध होता है।
जघन्य-अजघन्य अनुभागबन्ध-सबसे कम अनुभागबन्धको जघन्य अनुभागबन्ध कहते है । और उससे अधिक अनुभागबन्धको अजघन्य अनुभागबन्ध कहते है। समी कर्मोमें दोनो प्रकारका अनुभागवन्ध होता है।
सावि-अनादि ध्रुवाध्रुवबन्ध-किसी कर्मका बन्ध न होकर पुन बन्ध होवे तो उसे सादि बन्ध कहते है । जो जीव अनादि कालसे पहले ही गुणस्थानमें वर्तमान है उसका बन्ध अनादिवन्ध है । अभव्यका बन्ध ध्रुव है और भव्यका कर्मबन्ध अध्रुव है। ऊपर जो उत्कृष्ट आदि चार प्रकारका बन्ध कहा है वह सादि है अथवा अनादि, इसका कथन इन अनुयोगद्वारोमें किया गया है।
स्वामित्व-इसका कथन तीन अनुयोगद्वारोकी अपेक्षा किया गया है वे तीन अनुयोगद्वार है-प्रत्ययानुगम, विपाकदेश और प्रशस्ताप्रशस्तप्ररूपणा । प्रत्यय कहते है । कारणको कर्मबन्धके चार प्रत्यय है-मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग । इन चारोमेंसे किसके निमित्त से किस कर्मका बन्ध होता है इसका विस्तार प्रत्ययानुगममें किया गया है। यथा-छह कर्म मिथ्यात्वप्रत्यय, असंयम प्रत्यय और कषाय प्रत्यय होते है। वेदनीयकर्म मिथ्यात्वप्रत्यय, असयमप्रत्यय कषाय प्रत्यय और योगप्रत्यय होता है ।
कर्मके अनुभागका विपाक जीवमें, पुद्गलमें, क्षेत्रमें या भवमें होता है।
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१६२ · जनसाहित्यका इतिहास तदनुसार कर्मोके चार भेद किये गये है- जीवविपाकी, भवविपाकी, पुद्गलविपाकी और क्षेत्रविपाकी । चार घातिकर्म, वेदनीय और गोत्र ये जीवविपाकी है। आयुकर्म भवविपाकी है क्योकि नारक आदि भवोम उमका विपाक देसा जाता है नामकर्मको कुछ प्रकृतियाँ जीवविपाकी है, कुछ पुद्गलविपाकी और कुछ क्षेत्रविपाकी । यह मव कथन विपाकदेशमे किया गया है।
प्रशस्ताप्रशस्तप्ररूपणामें कहा है कि चार घातिकर्म अप्रगस्त है और अघातिकर्म प्रशस्त भी है अप्रशस्त भी । इन तीन अनुयोगद्वारोका कथन करनेके बाद उसके आधारमे स्वामित्वका कथन विस्तारमे किया गया है।
भुकजगारवन्ध-भुजगारसे यहां भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य बन्ध लिये गये है । वर्तमान समयमै पिछले ममयमे अधिक भागवन्ध होना भुजगार वन्ध है। और कम अनुभागवन्ध होना अल्प- अनुतरवन्ध है । तथा पिछले समयमें जितना अनुभागवन्ध हुआ हो, वर्तमानमें भी उतना ही अनुभागवन्ध होना अवस्थितवन्ध है । तथा पिछले समयमें वन्ध न होकर वर्तमानमें बन्ध होनेको अवक्तव्यवन्ध कहते है । इन चारो प्रकारके वन्धोकी अपेक्षा अनुभागवन्धका विचार इस अनुयोगद्वारमें किया गया है । इममें तेरह अवान्तर अधिकार है-समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पवहुत्व ।
पदनिक्षेप-इस अनुयोगद्वारमें अनुभागवन्ध सम्बन्धी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि, उत्कृष्ट अवस्थान, जघन्यवृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन अवान्तर अधिकारोके द्वारा कथन किया गया है।
वृद्धिवृद्धिवन्धमें छह वृद्धि, छह हानि, अवस्थित और अवक्तव्य पदोका समुत्कीर्तना, स्वामित्व काल, अन्तर, नानाजीवोकी अपेक्षा भग विचयानुगम भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पवहुत्व, इन तेरह अनुयोगोके द्वारा कथन किया गया है ।
अध्यवसान समुदाहार—इसमें ये बारह अनुयोगद्वार है-अविभाग प्रतिच्छेद, स्थान, अन्तर, काण्डक, ओजयुग्म, षट्स्थान, अधस्तन स्थान, समय, वृद्धि, यवमध्य पर्यवसान और अल्पबहुत्व प्ररूपणा । चतुर्थ वेदना खण्डके अन्तर्गत वेदनाभाव विधान नामक अनुयोगद्वारकी द्वितीय चूलिकाका परिचय कराते हुए इन सबका परिचय करा आये है। । जीवसमुदाहार- इसमे आठ अनुयोगद्वार है-एक स्थान जीव स्थान प्रमाणा
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महाबध . १६३
नुगम, निरन्तर स्थान-जीव प्रमाणानुगम, सान्तर स्थान जीव प्रमाणानुगम, नानाजीव काल प्रमाणानुगम, वृद्धि प्ररूपणा, यवमध्य प्ररूपणा, स्पर्शन प्ररूपणा
और अल्पबहुत्व । उक्त वेदना भाव विधानके परिचयसे इनका परिचय भी ज्ञात किया जा सकता है।
इसप्रकार मूलप्रकृति अनुभागवन्धका कथन करके पश्चात् उत्तर प्रकृति अनुभागवन्धका कथन उक्त अनुयोगोके द्वारा किया गया है ।
प्रदेशबन्धाधिकार महावन्धके इस अन्तिम अधिकारमें मूलप्रकृति प्रदेशबन्ध और उत्तर प्रकृतिप्रदेशवन्धका कथन किया गया है। दोनोके कथनका प्रकार एक ही है। सबसे प्रथम भागाभाग समुदाहारका कथन है
भागाभाग समुदाहार-आठ मूलकर्मोका बन्ध होते समय किस कर्मको समयप्रबद्धका कितना भाग मिलता है यह इसमें बतलाया गया है। सबसे कम भाग आयुको मिलता है क्योकि उसका स्थितिवन्ध सव कोसे अल्प है । उससे नामकर्म और गोत्रकर्मको विशेप अधिक भाग मिलता है क्योकि दोनोका स्थितिबन्ध तुल्य होते हुए भी आयुकर्मसे अधिक है। इन दोनोसे ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्मको विशेष अधिक भाग मिलता है क्योकि इन तीनोका स्थितिवन्ध नाम गोत्रसे अधिक है किन्तु परस्परमें समान है। उनसे मोहनीयकर्मको अधिक भाग मिलता है क्योकि उसका स्थितिबन्ध सबसे अधिक है। किन्तु वेदनीयकर्मको मोहनीयसे भी विशेष अधिक भाग मिलता है क्योकि सुख दुखके निमित्तसे वेदनीयकी निर्जरा बहुत होती रहती है । आठो कर्मोको जो भाग मिलता है वह उनकी बन्धको प्राप्त अवान्तर कर्म प्रकृतियोमे बँट जाता है । धातिकर्मोको प्राप्त द्रव्य दो भागोमें हो जाता है सर्वघाती और देशघाती । सर्वघाती द्रव्य सब प्रकृतियोमें बट जाता है किन्तु देशघाती द्रव्य केवल देशघाती प्रकृतियोमें ही बटता है । वेदनीयकर्म, आयुकर्म और गोत्रकर्मकी एक समयमें एक ही प्रकृति वधती है अत इन्हें जो द्रव्य मिलता है वह सब उस एक ही कर्मप्रकृतिको मिल जाता है । अत इनमें अवान्तर विभाग नहीं होता। शेप पाँच कर्मोमें ही अवान्तर विभाग होता है । उनकी जिस समय जितनी अवान्तर प्रकृतियाँ बधती है। उतनेमें ही बटवारा होता है।
यद्यपि महावन्धकी रचना गद्य सूत्रात्मक है। तथापि उत्तर प्रकृति प्रदेश बन्धाधिकारके प्रारम्भमें दो गाथाएं आती है । उनके द्वारा घातिकर्मोकी उत्तर प्रकृतियोमें बटवारेके क्रमका निर्देश किया गया है । गाथाएं इस प्रकार है
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१६४ : जैनसाहित्यका इतिहास
'ज सव्वघादिपत्त सगकम्म पदेसाणतिमो भागो । आवरणाण चदुधा तिधा च तत्थ पचधाविग्घे ॥ मोहे दुधा चदुद्धा पचधा वा पि वज्झमाणीण । वेदणीयाउगगोदे य वज्भमाणीणं भागो से ॥
(म० व०, भा० ६, पृ० ८९) इनमें बतलाया है कि प्रदेशवन्धके होने पर धातिकर्मोको जो द्रव्य प्राप्त होता है उसका अनन्तवाँ भाग सर्वघाती द्रव्य है और शेप बहुभाग देशघाती द्रव्य है । ज्ञानावरणको जो देशघाती द्रव्य मिलता है वह उसकी चारो देशघाती प्रकृतियोमें विभक्त हो जाता है। दर्शनावरणको जो देशघाती द्रव्य मिलता है वह उसकी तीनो देशघाती प्रकृतियोमें बट जाता है। अन्तरायकर्म देशघाती ही है । अत उसको प्राप्त द्रव्य उसकी पांचो देशघाती प्रकृतियोमें वट जाता है। मोहनीयकर्मके देशघाती द्रव्यके मुख्य दो भाग होते है एक भाग कपायवेदनीयको मिलता है और एक भाग नोकषाय वेदनीयको। कपायवेदनीयका द्रव्य वन्धानुसार चार भागोमें और अकषायवेदनीयका द्रव्य पाँच भागोमें विभक्त हो जाता है । वेदनीय, आयु और गोत्रकर्मकी उत्तर प्रकृतियोमेंसे एक कालमें एकका ही वन्ध होता है। इसलिये इन कर्मोको प्राप्त द्रव्य बधने वाली उस एक प्रकृतिको ही मिल जाता है।
भागाभाग समुदाहारके पश्चात् चौवीस अनुयोगद्वारोका निर्देश है। जो इस प्रकार है-स्थानप्ररूपणा, सर्वबन्ध, नोसर्ववन्ध, उत्कृष्टबन्ध, अनुत्कृष्टवन्ध, जघन्यबन्ध, अजघन्यबन्ध, सादिवन्ध, अनादिवन्ध, ध्रुवबन्ध अब्रुववन्ध, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षाकाल, अन्तर, सन्निकर्प, नानाजीवोकी अपेक्षा भगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व। उनके पश्चात् भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि, अध्यवसान समुदाहार और जीव समुदाहारका कथन किया गया है । इनका सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है--
स्थान प्ररूपणा-इसके अवान्तर अधिकार दो है-योग स्थान प्ररूपणा और प्रदेशबन्ध प्ररूपणा। योग स्थान प्ररूपणामें चौदह जीव समासोके आश्रयसे पहले जघन्य और उत्कृष्ट योगस्थानोंके अल्प बहुत्वका कथन किया है। फिर दस अनुयोगोके द्वारा उनका विशेष कथन किया है। वे दस अनुयोगद्वार हैअविभाग प्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा; अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपतिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ।
मन, वचन और कायसे युक्त जीवकी जो शक्ति कर्मोको लानेमें कारण है
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महाबध • १६५ उसे योग कहते है । जीवके सव प्रदेशो में योग शक्ति तारतम्यरूपसे रहती है । उसीसे योग स्थान बनते है । पहली अविभागी प्रतिच्छेद प्ररूपणामें बतलाया है कि प्रत्येक आत्म प्रदेशमें योगशक्तिके कितने अविभागी प्रतिच्छेद होते है । उन्हीके समूहको वर्गणा और वर्गणाओके समूहको स्पर्धक कहते है । वर्गणा और स्पर्धक प्ररूपणामें उनकी वर्गणाओ और स्पर्धकोका कथन है ।
अन्तर प्ररूपणामें बतलाया है कि एक स्पर्धककी अन्तिमवर्गणासे दूसरे स्पर्धककी प्रथमवर्गणामें अविभागी प्रतिच्छेदोकी अपेक्षा कितना अन्तर होता है । स्थानप्ररूपणामें बतलाया है कि कितने स्पर्धक मिलकर एक योगस्थान वनता है । अनन्तरोपनिधामें बतलाया है कि जघन्य योगस्थानसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थान तक प्रत्येक योगस्थानमें कितने स्पर्धक वढते जाते है । परम्परोपनिधामें बतलाया है कि कितने योगस्थान जानेपर वे स्पर्धक दूने हो जाते है । समय प्ररूपणा में वतलाया है कि चार समय वाले, पाँच समय वाले, छह समय वाले, सात समय वाले, आठ समय वाले तथा पुनः सात समय वाले, छह समय वाले, पाँच समय वाले, चार समय वाले, और इनसे ऊपरके तीन समय वाले तथा दो समय वाले योगस्थान अलग-अलग जगत् श्रेणिके असख्यातवें भाग प्रमाण है । वृद्धि प्ररूपणामें योगस्थान में होने वाली असख्यात भाग वृद्धि, असख्यातभाग हानि, सख्यात भागवृद्धि - सख्यात भागहानि सख्यातगुणवृद्धि - सख्यातगुणहानि, असख्यातगुणवृद्धि - असख्यात गुणहानि, इन चार हानि - वृद्धियोका कथन किया गया है । अल्पबहुत्व प्ररूपणमें आठ समय वाले सात समय वाले आदि योगस्थानोके अल्पबहुत्वका कथन है । योगस्थान प्रकरणका दूसरा अधिकार प्रदेशबन्ध स्थान प्ररूपणा है । इसमें बतलाया है कि जो योगस्थान है वे ही प्रदेशबन्धस्थान है किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रदेशबन्धस्थान प्रकृति विशेषकी अपेक्षा विशेष अधिक होते है ।
सर्व-नो सर्वबन्ध – समस्त प्रदेशबन्धको सर्वबन्ध और उससे कमको नो सर्वबन्ध कहते हैं । ओघसे सभी कर्मोका सर्वबन्ध भी होता है और नो सर्वबन्ध भी होता है । आदेशसे नरक गतिमें मोहनीय और आयु कर्मके सिवाय शेष कर्मोंका नो सर्वबन्ध होता है |
उत्कृष्ट- अनुकृष्ट प्रदेशबन्धप्ररूपणा - में बतलाया है कि ओघसे सभी कर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध भी होता है और अनुकृष्ट प्रदेशबन्ध भी होता है । आदेशसे नरक गति में मोह और आयुकर्मके सिवाय शेष छै कर्मोका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है ।
जघन्यअजघन्य प्रदेशबन्ध प्ररूपणा - में वतलाया है कि ओघसे सब कर्मोंका जघन्य प्रदेशबन्ध भी होता है और अजघन्य प्रदेशबन्ध भी होता है ।
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१६६ · जैनसाहित्यका इतिहास
सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुव प्रदेशबन्ध प्ररूपणा-मे बतलाया है कि ओघसे छह कर्मोका उत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशवन्ध सादि और अध्रुवबन्ध है अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सादि आदि चारो प्रकारका होता है। मोहनीय और आयुकर्मका उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट जघन्य अजघन्य प्रदेशवन्ध सादि और अध्रुवबन्ध होता है । इत्यादि कथन है ।
स्वामित्वप्ररूपणामें ओघ व आदेशसे मूल तथा उत्तर प्रकृतियोमें उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशवन्धके स्वामियोका कथन किया है। सामान्यरूपसे जो उत्कृष्ट योगसे युक्त होता है और उत्कृष्ट प्रदेशवन्धके साथ कमसे कम प्रकृतियोका बन्ध करता है वह उत्कृष्ट प्रदेश वन्धका स्वामी होता है। तथा जो जघन्य योगसे युक्त होता है और जघन्य प्रदेशबन्धके साथ अधिकसे अधिक प्रकृतियोका बन्ध करता है, वह जघन्य प्रदेशवन्धका स्वामी होता है।
कालप्ररूपणामे-ओघ व आदेशसे मूल तथा उत्तरप्रकृतियोमें जघन्य और उत्कृष्टप्रदेशवन्धके कालका कथन किया गया है । यथा-ओघसे छह कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशवन्धका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है, इत्यादि ।
अन्तरप्ररूपणामें-ओघ व आदेशसे मूल व उत्तरप्रकृतियोके उत्कृष्ट आदि प्रदेशवन्धोके अन्तरकालका कथन है। यथा-ओघसे छह कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परार्वतप्रमाण है, इत्यादि ।
सन्निकर्णप्ररूपणामें-उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध और जघन्यप्रदेशवन्धके आश्रयसे स्वस्थान सन्निकर्ष और परस्थानसन्निकर्पका कथन किया गया है । पहले उत्कृष्टस्वस्थान और उत्कृष्टपरस्थान सन्निकर्पका कथन है, पश्चात् जघन्यस्वस्थान और जघन्यपरस्थान सन्निकर्पका कथन है । यथा-मतिज्ञानावरणकर्मका उत्कृष्टप्रदेशवन्ध करनेवाला जीव श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मन पर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणका नियमसे उत्कृष्टप्रदेशवन्ध करता है। यह उत्कृष्टस्वस्थान सन्निकर्पका उदाहरण है। इसी प्रकार ओघ और आदेशसे सव सन्निकर्ष घटित किये है। यह प्रकरण काफी बडा है । उत्कृष्ट सन्निकर्षके अन्तमें यहाँ भी 'पवाइज्जमाण' और अपवाइज्जमाण उपदेशोका निर्देश मिलता है। जैसा कि यतिवृपभके चूणिसूत्रोम मिलता है ।
भंगविचयप्ररूपणामें-ओघ व आदेगसे मूल व उत्तरप्रकृतियोके उत्कृष्ट व जघन्य प्रदेगवन्यके भगोका नानाजीवोकी अपेक्षा कथन किया गया है। उसमेंसे मूलप्रकृतियोकी अपेक्षा कथन नष्ट हो गया है।
भागाभागप्ररूपणा-मूलप्रकृतियोमे भागाभागप्ररूपणाका कथन भी नष्ट हो
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पानावरण और यह तुष्टस्वस्थान कि घटित अन्तमें यहाँ भी
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गया है । उत्तरप्रकृतियोंमें भागाभागका कथन वर्तमान है । तीन आयु, वैक्रियिकषट्क और तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष् जीव इनका बन्ध करनेवाले जीवोके असख्यातवें भाग प्रम प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असख्यात बहुभागप्रमाण होते हैं, गया है । परिमाणप्ररूपणा -- मूलप्रकृतियोकी अपेक्षा कथन हो गया है । उत्तरप्रकृतियोकी अपेक्षा कथन करनेवाला भाग बतलाया है -- तीन आयु, और वैक्रियिकपट्कका उत्कृष्ट प्र देव प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव असख्यात है । आहारकद्विकका उत् प्रदेशबन्ध करनेवाले जीव संख्यात है । इत्यादि रूपसे परिमाण बतलाया गया है ।
क्षेत्र प्ररूपणा - मूलप्रकृतियो में क्षेत्रप्ररूपणाका कथन तो प्रकृति विषयक कथन अवशिष्ट है । उसमें बतलाया है कि षट्क, आहारकद्विक और तीर्थङ्कर प्रकृतिका उत्कृष्ट भौ करनेवाले जीवोका क्षेत्र लोकके असख्यातवें भाग है अं उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करनेवाले जीवोका क्षेत्र लोकके सख्या इत्यादि कथन है ।
स्पर्शन प्ररूपणा -- मूलप्रकृतियोमे कथन करनेवाला भ है । उत्तरप्रकृतियोके उत्कृष्ट अनुकृष्ट जघन्य और अजघन्य वालोके स्पर्शनका कथन अवशिष्ट है ।
नानाजीवोंको अप्रेक्षाकाल -- मूलप्रतियोकी अपेक्षा उत्कृष हो गई जघन्यकालप्ररूपणा तथा उत्तरप्रकृति विषयककाल प्र नानाजोवोकी अपेक्षा अन्तर- इसमें ओघतथा मदेशसे मूल उत्कृष्ट आदि प्रदेशबन्धोका अन्तरकाल नानाजीवोकी अपेक्ष यथा----आठ कर्मोके उत्कृष्ट प्रदेशबन्धका जघन्य अन्तर एक प्रदेशबन्धका अन्तरकाल नही है । उत्तरप्रकृतियोकी अपेक्ष इत्यादि कथन है ।
भावप्ररूपणा - चूकि सब प्रकृतियोका बन्ध औदयिकभा यहाँ सव मूल और उत्तरप्रकृतियोका जघन्य और उत्कृष्ट जीवोके औदयिक भाव बतलाया है ।
अल्पबहुत्वप्ररूपणा --- अल्पबहुत्वके दो भेद है स्वस्था
परस्थान अल्पवद्रत्व | मलप्रकतियोयें स्वस्थान मान
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१६८ : जैनसाहित्यका इतिहास
भुजगार बन्ध इस प्रकरणमें भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यबन्धोका कथन है । पिछले समयकी अपेक्षा वर्तमानमें अधिक प्रदेशोका बन्ध करना भुजगार बन्ध है, कम प्रदेशोका बन्ध करना अल्पतरबन्ध है, पिछले समयमें जितना प्रदेश बन्ध किया था वर्तमान समयमें भी उतना ही प्रदेशबन्ध होना अवस्थितबन्ध है, और बन्ध न करके बन्ध करना अवक्तव्यबन्ध है । इन बन्धोका कथन तेरह अनुयोगोके द्वारा किया गया है--समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर भाव और अल्पवहुत्व । ताडपत्रके नष्ट हो जानेसे इस प्रकरणका कुछ भाग लुप्त हो गया है।
यहाँ भी मूल प्रकृतियोमें ओघसे अवस्थित पदके कालका कथन करते हुए पवाइज्जत तथा अपवाइज्जत उपदेशका निर्देश किया है।
पदनिक्षेप उक्त भुजगार अल्पतर आदि पद उत्कृष्ट भी होते है और जघन्य भी होते है । अत इस प्रकरणमें भुजगारके उत्कृष्ट वृद्धि और जघन्य वृद्धि ये दो भेद करके अल्पतरके उत्कृष्ट हानि और जघन्य हानि ये दो भेद करके तथा अवस्थित पदके उत्कृष्ट अवस्थान और जघन्य अवस्थान ये दो भेद करके कथन किया गया है । अत पदनिक्षेपके समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारोमेसे प्रत्येकके उत्कृष्ट और जघन्य ये दो भेद करके कथन किया है । तदनुसार उत्कृष्ट समुत्कीर्तना, उत्कृष्ट स्वामित्व और उत्कृष्ट अल्पबहुत्वमें ओघ और आदेशसे मूल और उत्तर प्रकृतियोकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानका कथन है । तथा जघन्य समुत्कीर्तना, जघन्य स्वामित्व और जघन्य अल्पबहुत्वमें ओघ और आदेशसे मूल और उत्तर प्रकृतियोकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका कथन है।
इस प्रकरणका भी ताडपत्र नष्ट हो जानेसे कितना ही अश लुप्त हो । गया है।
वृद्धि वृद्धि पदसे यहाँ वृद्धि, हानि, अवस्थित और अवक्तव्य इन चारोका ग्रहण होता है। इन चारोके अवान्तर भेद बारह है-अनन्त भाग वृद्धि, अनन्तभाग हानि, असख्यातभागवृद्धि, असख्यातभागहानि, संख्यातभागवृद्धि, सख्यातभागहानि संख्यातगुणवृद्धि, सख्यातगुणहानि, असख्यातगुणवृद्धि, असख्यातगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य । यहाँ इन पदोकी अपेक्षा समुत्कीर्तना आदि तेरह अनुयोगोका ओघ
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महावध १६९ और आदेशसे मूल तथा उत्तर प्रकृतियोंमें कथन किया है। यहाँ भी मूल प्रकृतियोकी अपेक्षा वृद्धि अनुयोगद्वारका कथन करने वाला प्रकरण ताडपत्रके नष्ट हो जानेसे नष्ट हो गया है । केवल उत्तर प्रकृतियोका प्रकरण अवशिष्ट है ।
अध्यवसानसमुदाहार
अध्यवसान समुदाहारके अन्तर्गत दो अनुयोगद्वार है - प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व । प्रमाणानुगममें योगस्थानो ओर प्रदेशवन्धस्थानोके प्रमाणका कथन करते हुए बतलाया है कि ज्ञानावरणीय कर्मके असख्यात प्रदेशवन्वस्थान है जो योगस्थानोसे सख्यातवें भाग प्रमाण अधिक है । इसका कारण भी बतलाया है । मूलप्रकृतियोकी तरह ही उत्तर प्रकृतियोंमें प्रत्येक प्रकृतिकी अपेक्षा योगस्थानो और प्रदेशवन्धस्थानोके प्रमाणका अलग-अलग कथन किया है । तथा अल्पवहुत्वमें इन योगस्थान और प्रदेशवन्धस्थानोके अल्पबहुत्वका कथन मूल व उत्तर प्रकृतियोकी अपेक्षा किया है ।
जीवसमुदाहार
जीवसमुदाहारके अन्तर्गत भी दो अनुयोगद्वार है— प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व । प्रमाणानुगममें चौदह जीवसमासोके आश्रयसे जघन्य और उत्कृष्ट योगस्थानोको कथन करनेके वाद, उन्ही चौदह जीवसमासोके आश्रयसे जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध स्थानोके अल्पवहुत्वका कथन किया है । तथा अल्पबहुत्वमें उसके जघन्य उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट भेद करके ओध व आदेशसे सब मूल व उत्तर प्रकृतियोके प्रदेशोके वन्धक जीवोके अल्पबहुत्वका कथन किया है ।
इस प्रकार महाबन्धके अन्तर्गत प्रकृतिवन्ध, स्थितिवन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवधाधिकारोके विपयका यह सामान्य परिचय है । चारो अधिकारोकी शैली तथा अनुयोगद्वार आदि सव समान है । केवल आधार भूत प्रकृतिवन्ध स्थितिबन्ध आदि बन्धोको लेकर ही विषय भेद पाया जाता है ।
महावन्धके उपर्युक्त वस्तु-विश्लेषणसे यह स्पष्ट है कि इस सिद्धान्त - प्रन्थमें अनुयोगद्वार पूर्वकवन्धके भेदोका विवेचन किया गया है । इस विवेचन - सन्दर्भ में जिन भुजाकार आदि वन्ध- विकल्पोका कथन भाया है उनका उत्तरकालीन साहित्यपर पूरा प्रभाव दिखायी पडता है । वास्तवमें बन्धका ऐसा सूक्ष्म और विस्तृत प्रतिपादन अन्यत्र दुर्लभ है ।
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द्वितीय अध्याय
चूर्णिसूत्र साहित्य
दिगम्बर परम्परामें मूल सिद्धान्त ग्रन्थोके कुछ ही समय पश्चात् चूर्णिसूत्र साहित्य लिखा गया है । इस साहित्य विधाका उद्गम कब और कैसे हुआ यह तो निश्चित रूपसे नही कहा जा सकता पर 'कसायपाहुड' पर यतिवृपभके जो चूर्णि सूत्र उपलब्ध है, उनके अध्ययनसे यह अनुमान होता है कि इतने प्रोढ सूत्र एकाएक नही लिखे जा सकते है । अवश्य कोई पूर्ववर्ती परम्परा रही होगी, जो अनवच्छिन्न कालके प्रवाहमे आज उपलब्ध नही है ।
मूल सिद्धान्त ग्रन्थो और चूर्णि सूत्रोके तुलनात्मक अध्ययनसे इतना अवश्य प्रकट होता है कि चूर्णिसूत्र सिद्धान्त ग्रन्थोके पश्चात् और अन्य भाष्य एव विवृत्तियोके पूर्वमें रचे गये होगे । यहाँ यह स्मरणीय है कि दिगम्बर परम्पराका 'चूर्णिसूत्र साहित्य' श्वेताम्बर - परम्पराके 'चूर्णि साहित्य' से स्थापत्य और वर्ण्य - विषय दोनो ही दृष्टियोसे भिन्न है । श्वेताम्बर परम्पराकी चूर्णियाँ गद्यात्मक और पद्यात्मक मिश्रित शैलीमें लिखी गयी है । इनकी भाषा भी सस्कृत मिश्रित प्राकृत है तथा कतिपय चूर्णियाँ प्राकृतमे भी उपलब्ध है । इन चूर्णियोकी शैली - की एक प्रमुख विशेषता आख्यानात्मक उदाहरणो द्वारा विषयके स्पष्टीकरणकी है | चूर्णिकार अपनी ओरसे कोई सिद्धान्तात्मक नये तथ्य अकित नही करता, अपितु नियुक्तियो और भाष्यो द्वारा विवृत तथ्योकी ही पुष्टि करता है ।
पर दिगम्बर परम्पराके चूर्णि सूत्रोंमें आगम सम्बन्धी नये तथ्योकी प्रचुरता है । बीज पदरूप गाथा सूत्रो पर ये 'चूर्णिसूत्र' वृत्तिका कार्य करते हुए भी अनेक नये तथ्यो को सूत्र रूपमें प्रस्तुत करते है । यही कारण है कि जयधवलाकारने चूर्णि सूत्रोके भी व्याख्यान लिखे है । बताया जाता है कि 'कसायपाहुड' की गाथाओका सम्यक् अर्थ अवधारण कर उन पर वृत्ति सूत्र लिखे गये है । ये वृत्ति सूत्र ही चूर्णिसूत्र कहे जाते है । 'जयधवला' में वृत्ति सूत्रका लक्षण निम्न प्रकार बताया है
'सुत्तस्सेब विवरणाए सखित्तसद्दरयणाए सगहियसुत्तासेसत्याए वित्तिसुत्तववएसादो ।"
१. जयधवला अ० प० ५२ ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य १७१
अर्थात् जिसकी शब्द रचना सक्षिप्त हो और जिसमें सूत्रगत विशेष अर्थोंका सग्रह किया गया हो, ऐसे सूत्रोके विवरणको वृत्ति सूत्र कहते है ।
चूर्णि सूत्र के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकार के साहित्य में वृत्ति रूप संक्षिप्त सूत्र लिखे जाने पर भी अर्थ बहुल पदोका समावेश किया गया जिससे चूण सूत्र में पर्याप्त प्रमेयका समावेश हुआ है । यदि इन चूर्णि सूत्रोको चूर्णि पदो का समानार्थक मान लिया जाय, तो चूर्णिपदकी व्याख्यामें समाहित सभी लक्षण इन सूत्रोमें घटित होते हैं । हम यहाँ चूर्णिपदका लक्षण प्रस्तुत करते हैं । अत्थबहुल महत्य हेउ-निवाओवसग्गगम्भीर | बहुपायमवोच्छिन्नं गम-णयसुद्ध त चुण्णपय ॥
अर्थात् अर्थवहुल, महान अर्थका धारक या प्रतिपादक, हेतु निपात और उपसर्गसे युक्त गम्भीर, अनेक पद समन्वित और अव्यवच्छिन्न चूर्णिपद कहलाते हैं। आशय यह है कि जिनमें वस्तुका स्वरूप धारा प्रवाहसे कहा गया हो तथा जो अनेक प्रकारके जाननेके उपाय और नयोसे शुद्ध हो, उन्हें चौर्ण अथवा चूर्णि सम्वन्धीपद कहते है |
चूर्णिपदका यह लक्षण चूर्णि सूत्रोमें घटित होता है । अत यह अनुमान सहज है कि 'वृत्ति' और 'चूर्णि' एकार्थक है । आचार्य यतिवृषभने 'कसायपाहुड' के गाथा- सूत्रोपर वृत्यात्मक ऐसे सूत्र लिखें, जो बीजपदोके विश्लेषणके साथ प्रसगगत नये तथ्योके भी सूचक है । अतएव चूर्णि सूत्र सूत्रात्मक शैलीमें रचित बीजपद विवृत्यात्मक ऐसा साहित्य है, जिसमें शब्द अल्प और अर्थवहुल पाया जाता है । यथार्थत चूर्णिसूत्रकार गाथा - सूत्रोके बीजपदोका विश्लेषण कई सूत्रोमें भी करते है । बीजपदोमें अन्तर्निहित अर्थका विश्लेषण जब तक प्रकट नही हो जाता, तब तक वे सक्षिप्त रूपमें सूत्रोका प्रणयन करते हैं । अपने इस कथनकी पुष्टिके हेतु "पेज्जदोसविहत्ति अत्याहियारा" की दूसरी गाथा बाईसवी सख्यक ली जा सकती है। चूर्णि सूत्रकारने इस गाथाके प्रत्येक पदको वीज मानकर प्रकृतिविभक्तिका १२९ सूत्रोमें, स्थिति विभक्तिका ४०७ सूत्रोंमें, अनुमाग विभक्तिका १८९ सूत्रोमें, प्रदेश विभक्तिका २९२ सूत्रोमें, झीणाझीणका १४२ सूत्रोमें ओर स्थित्यन्तिकका १०६ सूत्रोमें वर्णन किया है । इस वर्णन से यह ध्वनित होता है कि चूर्णिसूत्र साहित्य वीजपदोका व्याख्यात्मक तो है ही, ही उसमें ऐसे भी अनेक पद प्रयुक्त है, जिनकी व्याख्या या वर्णन जाननेके लिये सकेत किया गया है । अणुचितिऊण णेदव्व (सूत्र १९२, गाथा ६२), गेहियव्व (सूत्र १५५, गाथा १२३), दट्ठव्व (सूत्र ३३५, गाथा १२३), साहेयव्व (सूत्र ८५ १ अभिधान राजेन्द्र 'चुण्णपद' |
साथ
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१७२ . जनसाहित्यका इतिहाग गाथा ५८९,) मादि पदोगे गा प्राट है कि मणिगूयोग निहित अर्थ उन्चारणाचार्य या व्याग्यानानायों दाग वगन्तग नया गननीग है।
चूणि गूगोगे विश्लेषण के मम्वन्धमे 'जगायलाटीका' में भी गतिपय तथ्य उपलग है। हग यहां ग पिगको प्रग्नुनगार 'णि गुर' माहित्य विधाके रनम्प निर्धारणका प्रयाग गरेंगे। यारतवम या माहिग विधा वृत्यात्मक प्रेमी मोलिक विना है, जिगम बीज पदोकी पत्तिय गाग विषय गम्बन्धी नये तथ्य भी गतित है। चूणि गूगोग प्रस्तुत की गयी तिगां गागा, गाप्यात्मक नहीं । साहित्य विधाको मनोवैज्ञानिक पीठिका बतलाया जाता है कि मृल आगग सम्बन्धी रचनागोग तताल ही मूमात्मनः पत्तियां गिी जाती है, जो उत्तरकालीन वातिगारा पूर्व मग रहती है, एंगे गूगोकरी माग्या भी उत्तरकालम टीगाकारों द्वारा लिपी जाती है।
जयधवलाकी मगल गावाभोमे यतिवषमको रिति गुत्तात्ता'-वृत्तिमूत्र फर्ता लिगा है। और जगधरला अन्दर तो जुग्गिगुत करगी बहुतायत उनका उल्लेरा पाया जाता है। इसी तरह पटगण्ठागमणी' टीका धवलामें भी चुण्णिसुत्त नामसे उनका निर्देग पाया जाता है। इन्द्र नन्दिने अपने श्रुतावतारम' वृत्तिान और चूणिगून दोनो नामी का प्रयोग बढे टगरी किया है। उन्होंने लिखा है कि उसके पश्चात् यतिवृपमने उन गाथाओ पर वृत्ति सूम स्पर्म छ हजार प्रमाण चूणि सूनोकी रचना की । इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यतिवृपभकी इस कृतिका नाम चूर्णिगूत्र है और कपायपाहुसकी वृत्तिस्प होनेरो उन्हें पृत्ति सूत्र कहते है।
धवलामें इन्हें पाहुड' चुण्णिसुत्त भी कहा है। कसायपाहुउका सक्षिप्त नाम पाहुड करके उसके चूणिसून होनेरो पाहुइचुण्णिसुत्त कहना उचित ही है। त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी अन्तिम गाथामे त्रिलोकप्रज्ञप्तिका परिमाण बतलाते हुए १. 'सो वित्तिसुत्तकत्ता जश्वसो मे वर देऊ ।' -क. पा., भा० १, पृ० २। २. क. पा० भा० १, पृ०५, १२, २७, ८८, ९६ । ३. 'पुणो सो अत्थो आशरियपर पराए आगतूण गुणहरभडारय सपत्तो । पुणो तत्तो
आइरियपरपराए आगतूण अजमखु णागहस्थिभटारयाण मूल पत्तो । पुणो तेहि दो. हिवि कमेण जदिवसह भारयस्म वक्साणिदो, तेणवि अणुभागसंकमे सिस्साणुग्गहट्ठम
चुण्णिसुत्ते लिहिदो।' -पटखें, पु० १२, पृ० २३० । ४. 'तेन ततो यतिपतिना तद्गाथा वृत्तिसूत्ररूपेण । रचितानि पट्सहस्रग्रन्थान्यथ चूणि.
सूत्राणि ॥ १५६ ॥ तत्त्वानु ०, पृ० ८७ । ५ 'एयत्त कत्थ सिद्ध ? पाहुड चुण्णिसुत्त सुप्पसिद्ध। -पटख, पु० १२, पृ० ९४ । ६. 'चुण्णिसरूव छकरणसरूवपमाण होइ किं ज त । असहस्सपमाण तिलोयपण्णत्ति
णामाए ॥७७॥ -ति० प० भा० २, प०८८२ ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य · १७३ 'चूण्णिसरूव' का निर्देश आया है जो यतिवृपभकृत चूर्णिसूत्रोके लिये ही आया है। इस गाथाके यतिवृपभकी कृती माने जानेसे यह मानना पडता है कि यतिवृपभने स्वय अपनी इस कृतिको चूणि' सज्ञा प्रदान की थी।
दि० जनसाहित्यमें चूर्णिसूयके नामसे प्रसिद्ध अन्य किसी रचनासे हम अवगत नही है । किन्तु धवलाटीकामें वीरसेनस्वामीने पट्खण्डागमके सूत्रोको भी 'चुण्णिसुत्त' नामसे अभिहित किया है। परन्तु उन्ही सूत्रोको चूर्णिसूत्र कहा है जो गाथाके व्याख्यानरूप है । वात यह है कि वेदनाखण्डमें कुछ गाथाएं भी आती है जो सूत्र उनके व्याख्यानरूप है उन्हीको धवलाकारने चूर्णिसूत्र' कहा है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि गाथाओके व्याख्यानरूप सूत्र चूर्णिसूत्र कहे जाते थे।
जयधवलाकारने यतिवपभाचार्यके चूर्णिसूत्रोको वृत्तिसूत्र कहा है । जिस प्रसगसे जयधवलाकारने वृत्तिसूत्रका लक्षण दिया है, उस प्रमगको भी यहां दे देनेसे उसपर विशेषप्रकाश पडेगा ।
प्रसग यह है कि चूर्णिसूत्रोमें एक जगह केवल दोका अक रखा है। उसपर शकाकार पूछता है कि यह दोका अक यहाँ क्यो रसा ? तो जयधवलाकार उत्तर देते है कि अपने हृदयमें स्थित अर्थका ज्ञान करानेके लिये यतिवृषभाचार्यने २ का अक रखा है। इसपर शकाकार पुन पूछता है कि उस अर्थको अक्षरोके द्वारा क्यो नही कहा? तो जयधवलाकार उत्तर देते है कि वृत्तिसूत्रका अर्थ कहनेपर चूर्णिसूत्रके उपयुक्त कोई नाम ही नही रहता क्योकि जिसमें वृत्तिसूत्रका अर्थ भी कहा गया हो उसे वृत्तिसूत्र नही कहा जा सकता। 'जो सूत्रका ही व्याख्यान करता है तथा जिसकी शब्द रचना सक्षिप्त है और जिसमें सूत्रके समस्त अर्थको सग्रहीत कर दिया गया है उसे वृत्तिसूत्र' कहते है ।
वृत्तिसूत्रका उक्त लक्षण यतिवृपभके चूर्णिसूत्रोमें पूर्णतया घटित होता है क्योकि उसकी शब्द रचना सक्षिप्त है फिर भी उनमें गाथासूत्रोका समस्त अर्थ सगृहीत है। सभव है जयधवलाकारने वृत्तिसूत्रका यह लक्षण चूर्णिसूत्रोकी दृष्टि रखकर ही बनाया हो। ____ किन्तु इस प्रकारके वृत्तिसूत्रोको चूर्णिसूत्र नाम देनेका हेतु क्या है यह पूर्वमें लिखा जा चुका है। महत्त्व
चूणिसूत्रोका महत्त्व कसायपाहुडकी गाथाओसे किसी तरह कम नही प्रतीत १ 'एदस्स गाहासुत्तस्म विवरणभावेण रचिद उवरिम चुण्णिसुत्तादो।'
-पटख०, पु० १२, पृ० ४१ । २ क. पा०, भा॰ २, पृ० १४१ ।
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१७४ · जनसाहित्यका इतिहास
होता । चू कि गाथासूत्रोमे जिन अनेक विषयोकी पृच्छा मात्र और सूचना मात्र है उन सवका प्रतिपादन चूणिमूत्रोमें किया गया है। अतः एक तरहसे कसायपाहुड
और चूर्णिमूत्र दोनो मिलकर एक ग्रन्यरूप हो गये है और चूणिमूत्रकारका मत कसायपाहुणकारका मत माना जाता है । वीरगेनस्तामीने धवला टीकामें अनेक स्थानो पर चूर्णिसूत्रकारके मतको 'कमायपाहुइ"के नामसे उल्लिसित किया है । इतना ही नही किन्तु चूर्णिसूत्रको उद्धत करके उमे पाहुटसुत्त' नामगे अभिहित किया है। ___ धवला में अनेक स्थानो पर पट्यण्डागमके मत के सामने चूणिसूत्रकारके मतको रखकर वीरसेनस्वामीने दोनोको परस्पर विरुद्ध बतलाया है । और इस तरह चूणिसूत्रकारके मतोको पट्सण्डागमके मतोमे समकक्षता प्रदान की है । इसका प्रभाव हम उत्तर कालीन गन्यकारो पर भी पाते है । विक्रमकी ग्यारहवीं शताब्दीके जैनाचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने धवलाके आधार पर लब्धिसार' नामक ग्रन्यकी रचना की थी। उममें उन्होंने पहले यतिवृपभके मतका निर्देश किया है तदनन्तर भूतवलिके मतका निर्देश किया है। यतिवृपभका मत उनके चूणिसूत्रोके आधार पर ही दर्शाया गया है यह कहने की आवश्यकता नहीं है । अत चूर्णिसूत्रोका महत्त्व स्पष्ट है। कसायपाहुड और चुण्णिसुत्त अधिकार विमर्श
यह लिख आये है कि दो गाथाओके द्वारा गुणधराचार्यने कपाय प्राभूतके अधिकारोका नाम निर्देश किया है। और वे दोनो गाथाएं गुणधरकृत ही मानी गई है उसमें कोई मतभेद नहीं है।
यति वृपभने भी अपने चूर्णिसूत्रोके द्वारा १५ अर्थाधिकारोका निर्देश किया है किन्तु गुणधर निर्दिष्ट अधिकारोसे उसमें अन्तर है।
जयधवला टीकामें इस पर आपत्ति करते हुए यह आशङ्का की गयी है कि गुणधर भट्टारकके द्वारा कहे गये पन्द्रह अधिकारोके रहते हुए उन्ही पन्द्रह अधिकारोको अन्य प्रकारसे बतलानेके कारण यतिवषभ गुणधर भट्टारकके दोष दिखाने वाले क्यो नही होते ? इसका परिहार करते हुए जयधवलाकारने लिखा है कि १. कसायपाहुडे सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणु भागो दसणमोहक्खवग मोत्तण सम्बत्थ
होदित्ति परूविदत्तादो वा णव्वदे-पट्ख, पु० १२, पृ० ११६, पृ० १२९, पृ० १३८ । २ पट० पु०१२, पृ० २२१ । 'एसो पाहुड चूणिसुत्ताभिप्पाओ।- पटख, पु. ६,
पृ० ३३१ ३ 'कसायपाहुडसुत्तेणेद सुत्त विरुन्झदि ति वुत्ते सच्च विरुज्झइ-पटख पु०८, ५० ५६ ।
'एसो मतकम्मपाहुडउवदेसो कसायपाहुड उवदेसो पुण .. पु० १, पृ० २१७ ।। ४ जदि मरदि सासणों सो णिरय तिरिक्ख गर ण गच्छेदि । णियमा देवगच्छदि जइवसह
मुणिंद वयणेण ।।३४९।। उवसमसेढीदो पुण ओदिण्णो सासण ण पाउणदि । भूतबलिणाह णिम्मल सुत्तस्स फुडोवदेसेण ॥३५०॥ लब्धि.
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चूर्णिसूत्र साहित्य - १७५ यतिवृषभने गुणधराचार्यके द्वारा कहे गये अधिकारोका निषेध नही किया किन्तु उनके ही कथनका अभिप्रायान्तर व्यक्त किया है। गुणधराचार्यने तो पन्द्रह अधिकारोकी दिशा मात्र दिखलाई है । उससे यह आगय नही लेना चाहिये कि जिन अधिकारोका गुणधराचार्यने निर्देश किया है वे ही अधिकार होने चाहिये । इसी वातको दिखलानेके लिये यतिवृषभने अन्य प्रकारसे पन्द्रह अधिकार कहे है । सभवत अपने उक्त परिहारको उपपन्न करनेके लिये जयधवलाकारने एक तीसरे प्रकारसे पन्द्रह अधिकारोका निर्देश किया है और लिखा है कि इसी प्रकार चौथे पाचवें आदि प्रकारोसे पन्द्रह अधिकारोका कथन कर लेना चाहिये। गुणधराचार्यके द्वारा निर्दिष्ट पन्द्रह अधिकारोका कथन करने वाली गाथाए इस प्रकार है
'पेज्जदोस विहत्ती ट्ठिदि अणु भागे च बधगे चेय । वेदग उवजोगेवि य चउहाण वियजणे चेय ॥१३॥ सम्मन देस विरयी सजम उवसामणा च खवणा च ।
दसण चरित्त मोहे अद्धापरिमाणणिद्देसो ॥१४॥ १. पेज्जदोसविहत्ती (प्रेयोद्वेष विभक्ति,), २ ठिदि (स्थिति विभक्ति), ३ अणु भाज (अनुभाग विभक्ति), ४-५ वधग (अकर्मवन्धकी अपेक्षा बन्धक और कर्मवधकी अपेक्षा वन्धक अर्थात् सक्रामक), ६ वेदग (वेदक), ७ उवजोग (उपयोग) ८ चउहाण (चतु स्थान), ९ वियजण (व्यञ्जन), सम्मत्त (१० दर्शनमोहकी उपशामना और ११ दर्शनमोहकी क्षपणा । १२ देस विरयी देश विरति), १३ सजम (सकल सयम), १४ उवसामणा च (चारित्र मोहकी उपशामना), १५ खवणा च (चारित्रमोहकी क्षपणा) ये पन्द्रह अधिकार गुणधराचार्यने कहे है। उक्त गाथाओ के ही आधार पर रचित चूर्णिसूत्रोमें यतिवृषभने नीचे लिखे अनुसार पन्द्रह अधिकार गिनाये है__पेज्ज दोसे १ (प्रेयोद्वेप, विहत्ति ठिदि अणु भागे च २ (प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति, झीणाझीणा और स्थित्यन्तिकको लिये हुए दूसरा अधिकार), बधगेति वधो च ३ सकमो च ४ (वन्धकपदसे तीसरा बन्धक और चौथा सक्रम) अधिकार वेदएत्ति उदओ च ५. उदीरणा च ६ (वेदकपदसे पाचवा उदयाधिकार और छठा उदीरणाधिकार), उवजोगे च ७. (उपयोग), चउट्ठाणेच ८ (चतु स्थान), वजणे च ९ (व्यञ्जन), सम्मत्तेत्ति दसणमोहणीयस्स उवसामणा च १०. दसणमोहणीयक्खवणा च ११ ('सम्यक्त्व' पदसे दर्शन मोहनीयकी उपशामना नामक दसवा दर्शन मोहनीयकी क्षपणा नामक ग्यारहवां अधिकार), देसविरदी च १२ (देशविरति नामक बारहवा अधिकार), संजमे उवसाामणा च खवणा च चारित्त मोहणीयस्स उवसामणा च १३, खवणा च १४ (चारित्र मोहनीयकी उपशामना नामक तेरहवा और चारित्र मोहनीयकी
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१७ जननाहित्यका निताग नपणा नागा नो रिकार) पत परिमाणिनी १९. (और पन्द्रहवा अद्धापग्मिाण निभा नामक far ___ गुणागाचार्यन म नी ' माटि गामा पूर्वा दाग पान अधिकागो गणित निगा : नामो गायना पेज लोग पिहनी दिदि अण भागे ग बगिंगेग। नाही नागराग गागगे पंज्जदोग विह सी, टिछाद, मण माग र न मारनामा गीत गाम गिरता है । उगम यह स्पष्ट नही हातापागा. पान मागेगी जीन अधिकार किम नाम वाला है। इसीगे नर्ग गांरभ र गागागंग गमका अनुगरण करते हुए भी उगो मारा गात गारा निर्देश करते है और वेदा अधिकारके उदय और उदीग्णा से भेद मारी गगामी पति करते है।
ता गुणानार्गने नगमागमनभि और लधिको तेरहवां और नौदह्वा अधिकार गाना है। शिन्तु गनियमभने नगमाया लशको तो स्वतन्त्र अधिकार माना है परन्तु गागामें आये तर राजमें पाको उपनामना और आपणाके माय जोड दिया है और न वह उन्होंने गयम लगि नामक अधिकारको नहीं माना। रा तरह जो एक नया गीह उसकी पति उन्होंने अटापरिमाण निर्देशको पन्द्रहवां अधिकार मानार को है।
पिन दो नाधाओम पन्द्रह अधिकारीका नाम निर्देश है, उनका अन्तिम पद तापरिमाणपिनो' है। उत्तने गुट हावार्योंके मतानुसार वा परिमाणनिदा नामका पन्द्रह अधिकार है। परन जिन एक नौ स्नी गायामाम पर अधिकारोगा वर्णन करनेकी प्रतिज्ञा की है उनमे अद्धापरिमाण निदेय करने वाली दगाधाएँ नही आई है। तया पन्द्रह विकागें गायागेशविनाग ले हुए न प्रकारको कोई सूचना भी नहीं की गई है। इसने प्रतीत होता है कि
राना सहापरिमाण निर्देश नाम पन्द्रहवां धिकार इष्ट नहीं था। भन्नु पनि भने उसे एक स्वता अधिकार माना है। हसरणहमने उक्त विकार निर्देगर निनोको गन्ने रखर
'मन्न गतिवान सम्स्त चन्तुिगेके दोनपत चन्ना है कि हे एक पन्ह अधिकारीका निर्देश करते भी नै निी रचना
की
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. . चूणिसूत्र साहित्य • १७७ . इस दूसरे अधिकारके अन्तर्गत बाईसवी गाथाका' पदच्छेद करते हुए यतिवृषभने इसमें प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति, अनुभागविभक्ति, प्रदेशविभक्ति, झोणाझीण और स्थित्यन्तिकका समावेश कर लिया है।
आगे बधकके दो भेद बध और सक्रम करके तीसरे और चौथे अधिकारका ग्रहण किया है । आगे वेदका अणियोगद्वारके उदय और उदीरणा भेद करके पांचवें और छठे अधिकारका निर्देश किया है । गुणधराचार्यने वेदकके दो भेद नही किये है । आगे 'उवजोगेत्ति अणियोगद्दारस्स सुत्त' लिखकर सातवें उपयोग अधिकारका निर्देश किया है । आगे 'चउठाणेत्ति अणियोगद्दारे" लिखकर आठवें चतुस्थान नामक अधिकारका निर्देश किया है । फिर 'वजणेत्ति अणिमोगद्दारस्स सुत्त' लिखकर नौवें व्यजन नामक अधिकारका निर्देश किया है।
कसायपाहुडकी अधिकार-निर्देशक गाथा १४ में 'सम्मत्त' पद आया है उससे यतिवृषभने भी दो अधिकार लिये है-एक दर्शनमोहकी उपशामना और एक दर्शनमोहकी क्षपणा । किन्तु अधिकारोका वर्णन करते समय एक सम्यक्त्व' नामक अनुयोगद्वारका ही निर्देश किया है । यद्यपि उसके अन्तर्गत. दर्शनमोहकी उपशमना और क्षपणा दोनोका कथन किया है किन्तु उनका निर्देश अनुयोगद्वार शब्दसे नही किया।
आगे देशविरति नामक १२ वें अधिकारका निर्देश है।
यह पहले लिख आये है कि गुणधराचार्यने तेरहवां अधिगर नामक माना है और यतिवृपभने इसे नही माना। किन्तु क रने
१. 'पयडीए मोहणिज्जा विहत्ती तह टिठदीए अणुभागे । उक्कलन
ठिदिय वा ॥२२॥ चणिसू०--पदच्छेदो। त जहा- - - त्ति एसा पयडिविहत्ती । तह ठ्ठिदी चेदि एमा
किनविहत्ती। उक्कस्समणुक्कस्स त्ति पदेसविहत्ती।
' -क० पा० सु०, पृ० ४८-४९ । २ 'वधगेत्ति एदस्स वे अणियोगद्दाराणि । तन्ह-----
पु०-२४८)। ३ 'वेदगेत्ति अणियोगहारे दोणि अगिर्ग = = = = •
-क० पा० सु० पृ० ४६५ । ४ क. पा० सु० पृ० ५५६ । ५. क. पा० सु० पृ० ५९७ ॥ ६ वही पृ० ६१२। ७. 'कसायपाहुडे मम्मन्द्रे
-- : : ८ 'देसविरदेत्ति अ-ि ----
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१७८ : जैनसाहित्यका इतिहास 'लनिग' तहा पगितग' लिगकर यतिवपमने पापिलगिनामा मनयोगगरका निदेग किया है और यह भी लिगा है कि गयमानगर नामक अधिकारमें जो गाथा माई यही गागा ग अधिकार है। यहां गह मिग्ण दिलाना अनुचित न होगा कि जिन गाणामो माग शिकागेमे गागामओका विभाजन गिया गया है, और जिन पर नूणिगू नहीं है, नही गागानोमगे नम्बरको गायामें 'लवि तहा परित्तग्ग' पद पाया है। नौ उगीगे गह गहाकिनी अधिकागेंगे एक गाथा है । उमीका अनुगरण गतिवृषणने भी गिगा है।
तमा गणधरने सदापग्मिाणनिर्देगको अगिगार नही माना, मोर गतिवृषभने गाना है किन्तु उनमे भूणियोंमें मताग्मिाणनिग नामक मी अधिकारका गाग्यान नहीं है। गत गगनार्यमे गुरट भिन्न अधिकागेको मानार भी गतिवृषणने गभिमागे वर्णनगे प्राग गुणधगनाया ही अनुगरण किया है । चूणिमूत्रोको रचना और व्याग्यानगेली
खणिसूत्रोको रननागली ग्यम्प है। जिस तरह पसायपाहुटके गायागूगोका रहस्य मार्गमंच और नागहम्तीम द्वारा यतिवृषभ जान गये उगी तरह यतिवृषभके चूणिमूनो व्या राता निरन्तनाचार्यों और उच्चारणानाकिनारा ही जयघयलाकार जान गो थे, गयोकि नून तो गूनक होता है । २३३ गाथाओके द्वाग सूचित अर्थको सूचना यतिवृषभने ६००० प्रमाण निगमोन द्वारा दी
और उनका व्याख्यान उच्चारणाचायने १२००० प्रमाण उच्चारणा वृत्तिके द्वारा किया और उसका आश्रय लेकर ६०००० प्रमाण जयधवला टीका रची गई । अत: छ हजारमे ६० हजार समाये हुए है। इसीसे चूणिसूनोमें 'अणुचितिऊण णेदव' (चिन्तन करके ले जाना चाहिये), 'अणुमाणिय णेदव्य' (अनुमान करके घटित कर लेना चाहिये, 'वत्तव्य' (कहना चाहिये), 'विहामियन्वायो' (विशिष्ट वर्णन करना चाहिये) इस प्रकारकै शब्दोका बाहुल्य है।
जिस प्रकार चूणिसूनीकी सहायताके विना कसायपाहुडके सूत्रोका रहस्य समझना सम्भव नही है वैसे ही जयधवलाण्टीकाके साहाय्य विना चूणिसूत्रोके रहस्यको नहीं समझा जा सकता ।
१. 'लद्धि तहरा चरित्तस्सेत्ति अणिओगद्दारे पुन्च गमणिज्ज सुन्त।' त जहा। जा चैव
सजमासजमे भणिदा गाहा सा चेव पत्थ वि कायब्वा।' वही, पृ० ६६९ । २ 'लद्वीय संजमासंजमरस लद्धि तथा चरित्तस्स । दोसु वि ण्यका गाहा अठेवुवसामण
द्वाम्मि ॥६॥
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चूर्णिसूत्र साहित्य १७९ उदाहरणके लिये मूलपयडि' विभत्तिमें एक चूणिसूत्र केवल दो का अक रूप है । इसके सम्बन्धमें पीछे लिखा है।
शिष्यने शका की कि वह दो का अंक क्यो रखा है ? जयधवलाकारने उत्तर दिया-अपने मनमें स्थित अर्थका ज्ञान करानेके लिये चूर्णिसूत्रकारने यहाँ दो का अक रखा है । इसपर शिष्यने पुनः पूछा-उस अर्थका कथन अक्षरोसे क्यो नही किया ? तो जयधवलाकारने उत्तर दिया-इस प्रकार वृत्तिसूत्रोका अर्थ कहनेसे चूणिसूत्र ग्रन्थ वेनाम हो जाता, इस भयसे चूणिसूत्रकारने यहां अक द्वारा अपने हृदयस्थित अर्थका कथन किया। ___ जयधवलाकारने चूर्णिसूत्रोको देशामर्षक' कहा है अत उन्होने जगह-जगह लिखा है कि इससे सूचित अर्थका कथन उच्चारणावृत्तिके साहाय्यसे और एलाचार्यके प्रसादसे करता हूँ। इन बातोसे चूर्णिसूत्रोकी सक्षिप्तता और अर्थबहुलतापर प्रकाश पडता है, किन्तु सक्षिप्न और अर्थपूर्ण होनेपर भी चूर्णिसूत्रोकी रचनाशैली विशद और प्रसन्न है । भाषा और विषयका साधारण जानकार भी उनका पाठ सुगमतापूर्वक कर सकता है । चूणिसूत्रोकी व्याख्यानशैलीसे अभिप्राय यह है कि चूर्णिसूत्रोके द्वारा गाथासूत्रोके व्याख्यानकी क्या शैली है ? आगे उसपर प्रकाश डाला जाता है।
यह हम पहले लिख आये है कि कसायपाहुडकी सभी गाथाओपर चूर्णिसूत्र नही रचे गये है, कुछ गाथाएँ ऐसी भी है जिनपर चूर्णिसूत्र नहीं है । कसायपाहुडकी समस्त गाथासख्या २३३ है । इनमें १८० मूलगाथा है, शेष ५३ सम्बन्धगाथा आदि है । इन ५३ गाथाओमें से केवल तीनपर ही चूणिसूत्र है १२ सम्बन्ध ज्ञापक गाथाओपर, ६ अद्धापरिमाणनिर्देश सम्बन्धी गाथाओपर और सक्रमवृत्तिसम्बन्धी ३५ गाथाओमॅसे ३२ गाथाओ पर चूणिसूत्र नही है । और इस तरह २३३ गाथाओमेंसे ५० पर कोई चूर्णिसूत्र नहीं है।
जिन ५० गाथाओपर कोई चूणिसूत्र नहीं है उन्हे भी दो भागो में बांटा जा सकता है । सक्रमवृत्तिसम्बन्धी बत्तीस गाथाओका उत्थानिकासूत्र और उपसहार सूत्र है। इन गाथाओकी क्रमसख्या २७ से ५८ तक है। २७ वी गाथाके प्रारम्भका चूणिसूत्र इस प्रकार है-'एत्तो पयडिहाण सकमो, तत्थ पुव्व गम१. 'जइवसहाइरियेण एसो दोण्हमको किमहमेत्थ ठविदो ? सगहियट्ठियअत्थस्स जाणा
वणहूँ। मो अत्थो अक्सरेहि किण्ण परूविदो वित्तिसुत्तस्स अत्यै भण्णमाणे णिण्णामो
गथो होदित्ति भएण ण परूविदो-क० पा०, भा॰ २, पृ० १४ । २. 'एदेण वयणेण सुत्तस्स देसामासियत्त जेण जाणाविद तेण चउण्ह गईण उत्तुच्चारणावलेण
एलाइरियपसाएण च सेसकम्माण परूवणा कीरदे'--ज. प. प्रे० का०, पृ० ७५४५ । ३. क. पा. सू०, पृ००६०।
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१८० . जनसाहित्यका इतिहास
णिज्जा सुत्तसमुविकत्तणा । त जहा-' अर्थात् यहाँसे आगे प्रकृतिस्थान सक्रमका प्रकरण है। उसमें प्रथम गाथासूत्रोकी समत्कीर्तना करनी चाहिये ।' इसके पश्चात् ३२ गाथाएँ आती है । उनके अन्तमे चूणिसूत्र इस प्रकार है "सुत्तसमुक्कीत्तणाए समत्ताए इमे अणिओगद्दारा ।' अर्थात् संक्रम सम्बन्धी गाथाओकी समुत्कीतनाके समाप्त होनेपर ये (आगे कहे गये) मनुयोगद्वार ज्ञातव्य है।'
इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये बत्तीस गाथाएँ चूणिसूत्रकारके सन्मुख थी। किन्तु उन्होने इनका पदच्छेदरूपसे या विभाषारूपसे व्याख्यान करना आवश्यक नही समझा। इनमें आगत विषयका परिज्ञान अनुयोगद्वारोमें आगत विवेचनसे हो जाता है। किन्तु शेप १८ गाथाओंका न तो कोई उत्थानिकासूत्र है और न कोई उपसहारसूत्र । मानो ये गाथाएं उनके मामने थी ही नहीं। यद्यपि चूणिसूत्रोके अनुगमसे ऐसा प्रमाणित नहीं होता। फिर भी साधारण दृष्टिसे देखनेपर ऐसा ही प्रतीत होता है । ___ अव जिन गाथाओपर चूणिसूत्र है उनके विषयमें प्रकाश डालेंगे । गाथा नम्बर एकपर जो चूर्णिसूत्र है उनकी उत्थानिकादि नही है तथा चूणिसूत्रकी रचना उपक्रमरूप होते हुए भी इस प्रकारसे की गई है कि उसमे गाथाका अभिपाय आ जाता है। इस उपक्रमके रूपमें' आगे अलगसे प्रकाश डालेंगे। गाथा नम्बर दो से बारह तक पर कोई चूणिसूत्र नहीं है। गाथा नम्बर १३ और १४ में कसायपाहुडके पन्द्रह अधिकारोका निर्देश है । इन गाथाओकी भी कोई उत्थानिका नहीं है और चूणिसूत्रोमें केवल पन्द्रह अधिकारोके नाम इस तरहसे दर्शाए है कि दोनो गाथाओंके प्राय पूरे शब्द १ क० पा० सू०, पृ० ०८७ । २ 'पुव्वम्मि पचमम्मि दु दसमे वत्थुम्मि पाहुडे तदिए । पेज्ज ति पाहुटम्मि दु हवदि कसा
याण पाहुड णाम ॥१॥ चू० सू०-णाणप्पवादस्स पुवस्स दसमस्त वत्युस्स तदियस्स
पाहुडस्स पचविहो उवक्कमो।' ३ पेज्जदोसविहत्ती ठिदि अणु भागे च वधगे चेय। वेदग उवजोगे वि य चउट्ठाण "वियजणे चेय ॥१३॥ सम्मत्त देसविरयी सजम उक्सामणा च खवणा च । दसण-नरित्तमोहे अद्धापरिमाणणिद्देसो ॥१४॥ चू० सू०-अत्याहियारो पण्णारसविहो (अण्णेण पयारेण)। त जहा-पेज्जदोसे १, विहत्तिष्ठिदि अणुभागे च २, वधगे त्ति वधो च ३, सकमो ४, वेदए ति उदओ च ५, उदीरणा च ६, उवजोगे च ७, चउठाणे च ८, वजणे च ९, सम्मत्ते ति दसणमोहणीयस्स उवसामणा च १०, दसणमोहणीयक्खवणा च ११, देसविरदी च १२, सजमे उवसामणा च खवणा च-चरित्तमोहणीयस्स उवसामणा च १३, खवणा च १४, 'दसणचरितमोहे' त्ति पदपरिवूरण । अद्धापरिमाणणिद्देसो त्ति १५, एसो अत्याहियारो पण्णारसविहो ।
-क० पा०, मा० १, पृ० १८४-१९ ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य • १८१ चूणिर्नोगे आ पाये है, कोई पद छूटा नहीं है। यह पहले बतलाया जा चुका है कि गुणधराचार्यके द्वारा निर्दिष्ट १५ अधिकारोस यतिवृपभके द्वारा निर्दिष्ट १५ अधिकागेमें भेद है । अस्तु, गाथा नम्बर १५ ते २० तक पर भी कोई चूणिसून नही है । गाथा २१ मे कमायणाहुडमे चचित विषयका आरम्भ होता है और मवसे प्रथग हगी गाथाका उत्थानिकासूत्र पाया जाता है । 'एत्तो सुत्तममीदारो' 'इसके अनन्तर गायासूनका रामवतार' होता है । 'समवतार' शब्द कितना आदरसूचक है यह बतलानेको आवश्यकता नहीं है। आगे किसी सूनकी उत्यानिकामे इस शब्दका व्यवहार मेरी दृष्टिरो नही गुजरा।
चूणिराप्रकारने उपक्रमके पांच भेद बतलाये है-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । किन्तु मनुयोगहारसनम' उपक्रमके छ भेद भी बतलाये है उनमें उक्त पांच भेदोके सिवाय एक भेद समवतार भी है । चूर्णिसूत्रकारने यद्यपि समवतारको उपक्रमके भेदोमे नहीं गिना, फिर भी उन्होंने 'एतो सुत्तममोदारो' के द्वारा शायद उसी छठे भेदका उल्लेख किया है । अस्तु, गाथाके समवतारके पश्चात् चूणिसूम में कहा है कि इस गाथाके पूर्वार्धकी "विहासा' (विभापा) करना चाहिये। जयघवलाकारने सूत्रके द्वारा सूचित अर्थका विशेप कथन करनेको विभापा कहा है । आव०नि०४ के कर्ताने अनुयोग, निमोग, भापा, विभापा और वातिकको एकार्यक वतलाते हुए उनमें उत्तरोत्तर विशेप कथनकी अपेक्षा विशेप बतलाया है। विशे० भाष्यके' कर्ताने भी विविध प्रकारसे अथवा विशिष्ट प्रकारसे कथन करनेको विभापा कहा है।
जयधवलाकारने विभापाके दो भेद किये है-एक प्ररूपणाविभापा और एक
१. 'अहवा उवक्कमे छन्विरे पण्णत्ते । त जहा-आणुपुची १, नाम २, पमाण
३, वत्तव्यया ४, अत्याटियारे ५, समोआरे ६।-अनु० द्वा०, सू०७० । . पढिस्से गाहाए पुरिमस्स विहामा कायन्वा-क. पा. भा० १, पृ० ३६५ । ३ 'सुत्तण सृचिदत्यस्स विमेसिऊण भामा विभासाविवरण ति वुत्त होदि ।'
ज. प. प्रे० का० पृ. ३११९ । ४ अणुओगो य निओगो भाम विभामाय वतिय चेव । एए अणुओगस्म उ नामा एगठिया
पच ॥१०८।। कठे पोत्ये चित्ते सिरिधरिए वोंड देसिएचेव । भासग विभामए वा वित्ति
करणे य आहरणा ॥१३॥ आ० नि. ५ विविहा विसेसओ वा होड विभासा दुगादि पज्जाया। जह सामइय समओ सामाओ
वा समाओ वा ॥१४२१॥ विशे० भा० ६ विहामा दुविहा होदि-परूवणाविहासा सुत्तविहासा चेदि ।' तत्थ परूवणाविहासा णाम
सुत्तपदाणि अणुच्चारिय सुत्तसृचिदासेसत्यस्स वित्थरपरूवणा। सुत्तविहासा णाम गाहामुत्ताणमवयवत्यपरामरसमुहेण सुत्तफासो-ज. ध० प्र० का० ।
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१८२ • जनसाहित्यका इतिहास सूविभापा। सूपके पदोका उच्चारण न फरके सूपके द्वारा गचित समस्त अर्थका विस्तारसे कथन करनेको प्रमपणाविभापा कहते है। और गायागूोंके अवयवार्थका परामर्ग करते हुए रायका स्पर्श करनेको रान विभापा कहते है । चूणिसूत्रकारने काही तो गाथागूत्रोको सूयविभागा की है और कही प्रस्पणाविभापा की है। इसीसे जयघवलाकारने उन्हे विभापासूत्रकार' के नाम भी अभिहित किया है।
इन दोनो विभापाओगम सूपविभाषा गाथाके पदच्छेदपूर्वक होती है क्योकि अवयवार्थका कथन पदच्छेद विना नहीं हो सकता। किन्तु ऐसी गाथाए स्वल्प ही है, जिनका चूणिमूयकारने पदन्छेदपूर्वक व्याख्यान किया है। अत बहुत कम गाथाओकी सूत्रविभापा पाई जाती है, उसके विपरीत अधिकाश गाथामओयो प्रस्पणाविभापा की गई है।
उदाहरणकेलिये गाथानख्या २२ का व्याख्यान पदच्छेदपूर्वक किया है और इमका कारण यह है कि यह एक ही गाथा प्रारम्भके कई अधिकारोको आधारभूत है। इमीसे उसका पदच्छेद करके प्रत्येक पदको विभाषा की गई है। इसी तरह सक्रम अधिकारके अन्तर्गत प्रकृतिसक्रमको तीन गाथाओका भी पदच्छेदपूर्वक ही अर्थ किया है। यद्यपि ये गाथाए सरल है किन्तु उनमें उक्त अधिकार में आगत विपयोकी सूचना है। अत: उनका पदच्छेद करके उनके द्वारा सूचित अर्थका विस्तारसे कथन किया है।
डा. वासुदेवशरण अग्रवालने लिखा है कि 'पाणिनिने दो अर्थोमें वृत्तिशब्दका प्रयोग किया है-एक तो शिल्प या रोजगारके लिये दूसरे ग्रन्यकी टीकाको भी वृत्ति कहा जाता था। पाणिनिसूत्र 'वृत्तिसर्गतामने पुक्रम' (१।३।३८) की काशिकामें एक उदाहरण दिया है-'ऋक्षु अस्य क्रमते बुद्धि'। ऋग्वेदकी व्याख्यामें इनकी बुद्धि बहुत चलती है। इस उदाहरणमें वेदमत्रोके व्याख्यानको वृत्ति कहा है । मत्रोके प्रत्येक पदका विग्रह और उनका अर्थ यही इन आरम्भिक वृत्तियोका स्वरूप था। जैसा शतपथकी मंत्रार्थशलीसे ज्ञात होता है। पतञ्जलिने व्याकरणसूत्रोके व्याख्यानके लिये भी उसी शैलीका उल्लेख किया है।' ___यह हम लिख आये कि जयधवलाकारने यतिवृपभके चूणिसूत्रोको वृत्तिसूत्र कहा है। किन्तु वेदमत्रोके व्याख्यानरूप वृत्तिसे उनके इन वृत्तिसूत्रोकी १ 'एत्तो एदासिं गाहाण पदच्छेदो कायम्बो होदि, अवयवत्थवक्खाणे पयारतराभावादो ।'
-ज. ध० प्र० का० पृ० ३४७६ । २ पा० भा०, पृ० ३३२ ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य : १८३ प्रक्रियामें अन्तर है । इसीसे जयधवलाकारने चूर्णिसूत्रोको विभाषाग्रन्थ ' अथवा विभाषासूत्र भी कहा है और चूर्णिसूत्रकारको विभाषासूत्रकार कहा है । उक्त वृत्तिसे विभाषामें अन्तर है । जो दोनोके लक्षणोसे स्पष्ट है ।
दर्शनमोहक्षपणानामक अधिकारमें चूर्णिसूत्रकारनेर परिभापाका भी निर्देश किया है और परिभाषाके पश्चात् सूत्रविभाषा करनेका निर्देश किया है । जयधवला ४ अनुसार गाथासूत्र में निवद्ध अथवा अनिबद्ध किन्तु प्रकृतमें उपयोगी जितना अर्थसमूह है उस सबको लेकर विस्तारसे अर्थका कथन करनेको परिभाषा कहते है । परिभाषाका अनुगमन पहले करना चाहिये, पीछे सूत्रविभाषा करनी चाहिये, क्योकि सूत्रपरिभाषा करनेसे सूत्रके अर्थ के विषयमें निश्चय नही किया जा सकता ।
विभापा और परिभाषा शब्दोका यह अर्थ अन्यत्र देखनेमे नही आता ।
साराश यह है कि चूर्णिसूत्र विभाषारूप है - उनके द्वारा गाथासूत्रोके द्वारा सूचित समस्त अर्थोका विस्तारसे कथन किया है। कही यह कथन गाथाके अवयवार्थपूर्वक भी किया है । गाथासूत्रोका निर्देशकरके उनका विवरण करना यह उनकी सामान्यशैली है । प्रकृतचर्चापर और भी प्रकाश डालनेके लिये बन्धक नामक अधिकारकी व्याख्यानशैलीका चित्रण किया जाता है |
इस अधिकारके प्रारम्भमें ही यह चूर्णिसूत्र माता है—' वधगेत्ति एदस्स्स वे अणिओगद्दाराणि । त जहा, 'बधो च सकमो च' । इसके द्वारा चूणिसूत्रकार वन्धक अधिकारके प्रारम्भ होनेकी तथा उसके अन्तर्गत अनुयोगद्वारोकी सूचना करके 'एत्य सुत्तगाहा' इस उत्थानिकाके द्वारा गाथाका अवतरण करके, उसके बाद गाथासे सूचित होनेवाले अर्थकी सूचना देकर पदच्छेदपूर्वक गाथाके प्रत्येक पदका व्याख्यान करते है । इस अधिकारका मुख्य विषय 'सक्रम' है । अतः
१ 'सहि एदस्सेवात्यस्स फुर्डीकरणटुमुवरिम विहासागथमाढवेइ' ज० ध० प्र े० का० पृ० ७१८७१२३, ७१०५, ७१२७, ७१३४ ।
२ एतो अदीदासेसपबघेण विहासिदत्थाण गाहासुत्ताय सरूवर्णिदेस कुणमाणो विहासासुत्तया इदमाह --- ज० ध० प्र े० का०, पृ० ६१७९ ।
1
पा०सू० पृ० ६४२ ।
पदचे दाहिमुहेण जा
३. 'पच्छा सुत्तविहासा तत्थ ताव पुन्व गमणिज्जा परिहास | क० ४ ' का सुत्तविहासा णाम ? गाहासुत्ताणमुच्चारण काढूण तेर्सि अत्थ परिक्खा सा सुत्तविहासा ति भण्णदे । सुत्त परिहासा पुण गाहासुत्तणिवद्ध - मणिवद्ध च पयदोवजोगिजमत्थजाद त सव्व घेत्तण वित्थरदो अत्थपरूवणा । सा ताव पुव्वमेत्थाणुगतव्वा पच्छा सुत्तविहामा कायव्वा । किं कारणम् ? सुत्तपरिभासमकादूण सुत्तविहासाए कीरमाणाए सुत्तत्थविषयणिच्छयाणुववत्तीदो- ज० ६० प्र०
का०, पृ० ६०१७-१८ ।
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१८४ : जनसाहित्यका इतिहास
चूणिसूत्रकार राक्रमका वर्णन प्रारम्भ करनेगे पहले उगके प्रकृति अर्थका ज्ञान करानेके लिये पांच उपक्रमोका काथन करते है और यह बतलाकर कि यहां प्रकृतिराक्रमरो प्रयोजन है । वे प्रकृतिगक्रमकी तीन गायामका कयन करते है। पुन' लिसने हैं-ये तीन गापाएँ प्रकृतिगक्रमअनुगोगद्वारमें है और उन गायाओका पदच्छेद इग प्रकार है। गाथाओका व्याख्यान ममाप्त होने पर चूणिसूत्र आता है-'एरा सुत्तफासो' । यह इस बातकी सूचना देता है कि रानगाथाओका अवयवार्थ गमाप्त हुआ। इगगे चणिसूत्रकारको व्याख्यानगलीकी क्रमवद्धता
और स्पष्टता प्रकट है। ____ गाथामख्याको दृष्टिगे चारित्रमोहक्षपणा नामक अन्तिम अधिकार सबसे पड़ा है। इसमें ११० गाथाए है, जिनमें २४ मूलगाथाए है और ८६ भाष्यगाथाए है। प्रत्येक मूलगाथा और उससे सम्बद्ध भायगाथामोकी ममुत्कीर्तना और विभापा ऐगे सुन्दर ढगसे की गई है कि प्रत्येक गाथाका हार्द समजनेमें सरलता होती है और पाठक उकताता नही ।
यहां आगत 'सुत्तफास' शब्द अपना कुछ वैशिष्टय रसता है। अत उसके सम्बन्धमे दो शब्द लिखना आवश्यक है।
गाथाओकी उत्थानिकाके रूपमें 'एत्थ सुत्तगाहा', 'तत्य सुत्तगाहा', 'सुत्तसमुक्कित्तणा' जैसे चूणिसूत्रोकी तरह 'एत्तो' सुतप्फासो कायन्त्रो' चूणिसूत्र भी क्वचित् पाये जाते है। इसका अर्थ होता है-आगे सूरम्पर्श करना चाहिये । यहां 'सूत्रस्पर्श' शब्द 'सूत्रसमुत्कीर्तन' के अर्थमें ही प्रयुक्त हुआ है ।
किन्तु गाथासूत्रके उपसहाररूपमें भी 'एस सुत्तप्फामो' चूणिसूत्र क्वचित् पाया जाता है। इसका अर्थ जयधवलाकारने२ इस प्रकार किया है-'यह गाथासूत्रोके अवयवार्थका परामर्श ( विचार ) किया। स्पर्शका अर्थ परामर्श भी होता है।
अनु० द्वा० सू०मे अनुगमके दो भेद किये है-सूत्रानुगम और नियुक्तिअनुगम । तथा नियुक्ति-अनुगमके तीन भेद किये है-निक्षेप-नियुक्ति अनुगम, उपोद्घात-नियुक्ति अनुगम और सूत्रस्पर्शक-नियुक्ति अनुगम । सूत्रके व्याख्यानको सूत्रानुगम कहते है । निर्युक्त अर्थात् सूत्रके साथ सम्बद्ध अर्थोको स्पष्ट करना, १, 'एत्तो सुतफासो कायव्यो भवदि ।' पुन्य परिभासिदत्याण गाहासुत्ताणमेहि समु
क्कितणा जहाकम कायव्वा त्ति भणिद होइ-ज० ध० प्र० का० पृ० ६१७९ । २ 'एसो गाहासुत्ताणामवयवत्थपरामरसो को त्ति भणिद होइ'-ज० ध० प्र० का०
पृ० ३४९१ ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य • १८५ तद्रूप व्याख्याको नियुक्ति कहते है और सूत्रका स्पर्श करनेवाली नियुक्तिको सूत्रस्पर्शकनियुक्ति कहते है। इसमें प्रथम अस्खलित और अमिलित आदि रूपसे शुद्ध और निर्दोप सूत्रका उच्चारण करना होता है। सभवतया यही प्रथम 'सुत्तप्फास' है जो उत्थानिकारूपमें आया है ।
वि० भा में लिखा है कि सूत्रका उच्चारण करनेपर, उसकी शुद्धताका नियम हो जानेपर फिर पदच्छेद करनेपर और सूत्रमें आगत शब्दोका निक्षेप हो जानेपर सूत्रस्पर्शकनियुक्तिका अवसर आता है । यह दूसरा सुत्तफास है जो अन्तमें आया है।
इस तरह चूर्णिसत्रमें आगत 'सुत्तफास' शब्दका अर्थ जानना चाहिये।
चूणिसूत्रकारने जैसे कसायपाहुडकी गाथाओको सूचनासूत्र और पृच्छासूत्र कहा है वैसे ही किन्ही गाथाओको वागरण ( व्याकरण ) सूत्र भी कहा है। जयधवलाकारने व्याकरणसूत्रका अर्थ व्याख्यानसूत्र किया है। और वह भी व्याकरणशब्दकी व्युत्पत्तिपूर्वक किया है। किन्तु व्याख्यानके अर्थमें व्याकरणशब्दका प्रयोग न तो वैयाकरणोमें देखा गया और न श्वेताम्वर परम्पराके आगमिक साहित्यमें ही।
किन्तु बौद्ध परम्परामें 'वेय्याकरण' शब्द 'अर्थवर्णना' अर्थमें प्रयुक्त हुआ है । बौद्ध जातक पांच भागोमें विभक्त है-पच्चुप्पन्न वत्थु, अतीतवत्थु, गाथा, वेय्याकरण या अत्थवष्णना और समोधान । गाथाएँ जातकके प्राचीनतम अश है। गाथाओके बाद प्रत्येक जातकमें वेय्याकरण या अत्थवण्णना आती है। इसमें गाथामओकी व्याख्या और उसका शब्दार्थ होता है। पालीके वेय्याकरण अर्थमें ही यतिवृषभने प्राकृत 'वागरण' शब्द का प्रयोग किया है। आगामिक व्याख्यानशैली
चूणिसूत्र–किसी भी आगामिक विषयके प्रतिपादनकी जैन शैली अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है और उस वैशिष्ट्यके दर्शन अन्यत्र नहीं होते। इसका एक कारण यह है कि जैन परम्परामें वस्तुदर्शनकी और दृष्टवस्तुके प्रतिपादनकी अपनी शैली पृथक् है । उस शैलीको समझ बिना जैन आगामिक साहित्यमें चर्चित विषयोको समझना कठिन है।
जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन है। वह प्रत्येक वस्तुको अनेकधर्मात्मक मानता है । उसके मतसे वस्तु अनेक धर्मोका एक अखण्ड पिण्ड है। वस्तुके उन अनेक १ क. पा० सू० पृ० ८८३ । २ वागरणसुत्त ति व्याख्यानसूत्रमिति, व्याक्रियतेऽनेनेति व्याकरण प्रतिवचनमित्यर्थ ।
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१८६ : जैनसाहित्यका इतिहास
धर्मोको जान राकना किसी अपके लिये शक्य नहीं है । ओर अल्पज्ञ मनुष्य अपने अपने दृष्टिकोण वस्तुको जानते है और समझते हैं कि हमने पूर्ण वस्तुको जान लिया । फलत वे एक ही वस्तु के विपयमे विभिन्न दृष्टिकोण रसने के कारण परस्परमे टकरा जाते है । अनेकान्तदृष्टि उनके इस पारस्परिक विरोधको मिटाकर समन्वयका मार्ग दर्शाती है । वह बतलाती है कि एक ही वस्तुको लेकर परस्परमें टकरानेवाली दृष्टियां वस्तुके एक-एक अशको ही ग्रहण करती है और एकाशको ही पूर्ण वस्तु मान बैठने के कारण उनमें विरोध प्रतिभासित होता है । इस अनेकान्तग्राही दृष्टिको जैनदर्शन 'प्रमाण' के नामसे पुकारता है । ओर जो दृष्टि वस्तु एक धर्मको ग्रहण करके भी वस्तुमे वर्तमान इतर धर्मो का प्रतिक्षेप नही करती उसे नय कहते हैं । सक्षेपमें सकलग्राही ज्ञानको प्रमाण और एकाशग्राही ज्ञानको नय कहते है । यह नय प्रमाणका ही भेद माना गया है । चूकि वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है अत द्रव्यदृष्टिसे वस्तुको जाननेवाले ज्ञानको द्रव्यार्थिक नय और पर्यायदृष्टिसे वस्तुको जाननेवाले ज्ञानको पर्यायार्थिक नय कहते है । द्रव्यदृष्टि अभेदप्रधान है और पर्यायदृष्टि भेदप्रधान है । द्रव्यार्थिक नयके तीन भेद है नैगम, सग्रह और व्यवहार तथा पर्यायार्थिक नयके चार भेद है - ऋजुसून शब्द, समभिस्ढ और एवभूत ।
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सकल्पमात्रमे ही वस्तुका व्यवहार करनेवाले ज्ञानको नैगमनय कहते है । जैसे रसोई करनेका संकल्प करके उसका सामान जुटानेमें लगा मनुष्य पूछने पर उत्तर देता है मैं रसोई बना रहा हूँ । समस्त पदार्थों को अभेदरूपसे ग्रहण करने - वाला नय सग्रहनय है । जैसे वन, सेना, नगर । ये सज्ञाए सग्रहनयमूलक है । और सग्रहनयके द्वारा सगृहीत पदार्थोका क्रमश भेद-प्रभेद करके ग्रहण करनेवाला नय व्यवहारनय है । जैसे वनमें आम आदिके वृक्ष है । पदार्थकी वर्तमान एक क्षणवर्ती पर्यायको ग्रहण करनेवाला नय ऋजुसूत्रनय है । इस नयकी दृष्टिमे एक वर्तमान क्षणवर्ती पर्याय अतीत और अनागतसे भिन्न है तथा अतीतके नष्ट हो जाने और अनागत के अनुत्पन्न होनेसे वर्तमान क्षण ही व्यवहारोपयोगी है ।
काल, कारक, लिंग, सख्या आदिके भेदसे भिन्न अर्थको ग्रहण करनेवाला नय शब्दनय है । आशय यह है कि इनके भेदसे यह नय एक ही वस्तुको भिन्नरूप ग्रहण करता है । शब्दभेदसे अर्थभेदका ग्राही समभिरूढ नय है । जैसे इन्द्र, शक्र, पुरन्दर शब्द एक लिंगवाले होनेपर भी विभिन्न अर्थके वाचक है क्योकि इन शब्दोकी प्रवृत्तिका निमित्त भिन्न है, इन्दन क्रिया इन्द्रशब्दकी प्रवृत्तिका निमित और पूर्वारण ( नगरोका उजाडना ) किया पुरन्दरशब्दकी प्रवृत्ति में निमित्त है ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य • १८७ शब्दनय इन तीनो शब्दोमें अर्थभेद नही मानता, क्योकि तीनोमें लिंगादि भेद नही है, परन्तु समभिरूढ नय मानता है, यही दोनोमें अन्तर है।
क्रियाके भेदसे अर्थभेद माननेवाला एवभूतनय है । जिस शब्दका जिस क्रियारूप अर्थ हो उस क्रियाके कालमें ही उस शब्दका व्यवहार करना उचित मानता है । जब इन्द्र इन्दनकिया करता हो उसी समय उसे इन्द्र कहना उचित है । यह इस 'नयका मन्तव्य है ।
इन नयोके सिवाय जैनदर्शनकी एक देन निक्षेप है। उसके चार भेद है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । जाति, द्रव्य, गुण, क्रिया आदिकी अपेक्षा न करके व्यवहारके लिये वस्तुकी यथेच्छ सज्ञा रखनेको नाम निक्षेप कहते है, जैसे किसी साधारण मनुष्यके द्वारा अपने पुत्रका नाम 'राजा' रख लेना नाम निक्षेप है। किसी वस्तुमें किसी अन्यकी स्थापना कर लेना स्थापना निक्षेप है। जैसे राजाके मर जाने पर उसके प्रतिनिधिके रूपमें उसकी मूर्तिको राजा मानकर स्थापित करना।
जो भविष्यमें राजा होनेवाला हो या राज्यपदसे उतर चुका हो उसको राजा कहना द्रव्यनिक्षेप है और वर्तमानमे राज्यासीनको राजा कहना भाव निक्षेप है । इस निक्षेपके चार प्रयोजन है-अप्रेकृतका निराकरण, प्रकृतका प्ररूपण, सशयका विनाश और तत्त्वार्थका व्यवहार ।
अर्थात् जब प्रत्येक वस्तुका लोकमें चार रूपोमें व्यवहार पाया जाता है तब श्रोताको यह जानना आवश्यक है कि कहाँ नामरूप वस्तुका व्यवहार अपेक्षित है और कहाँ स्थापना, द्रव्य या भाव रूप वस्तुका, जिससे वह विसवादमे न पडे । इसके लिये निक्षेप आवश्यक है।
नयो और निक्षेपोमें वही सम्बन्ध है जो ज्ञान और ज्ञेयमें होता है । नय ज्ञानरूप है तो निक्षेप ज्ञेयरूप है । आगमिक शैलीमें प्रत्येक वस्तुका विवेचन पहले नय और निक्षेपके द्वारा होता है । कपायपाहुड और चूणिसूत्रोमें भी उसी शैलीको अपनाया गया है । यहाँ चूर्णिसूत्रोंके आधारपर उसका दिग्दर्शन कराया जाता है ।
पहली गाथाके उत्तरार्ध 'पेज्ज ति पाहुडम्मि दु हवदि कसायाण पाहुड णाम ।' में इस ग्रन्थके दो नाम कहे है-पेज्जदोसपाहुड और कसायपाहुड । ये दोनो नाम किस अभिप्रायसे कहे है यह बतलाते हुए चूर्णिसूत्रकार लिखते है
१ नयोंका स्वरूप जाननेके लिये देखें-कसायपाहुड मा० १, पृ० १९९-२५८ • 'अवगयणिवारण? पयदस्स परूवणाणिमित्त च। ससयविणासण? तच्चत्यववहारण?
च' । ज० ध० प्र० का०, पृ० ३४६।।
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१८८ - जैनसाहित्यका इतिहास
कहत है और जो
न
कहते है।
रनेवाला प्राभत
पे
___ 'उस' प्राभृतके दो नाम है-पेज्जदोसपाहुड और कमायपाहुड। इन दोनो नामोमेंसे पेज्जदोसपाहुड नाम अभिव्याहरण निष्पन्न है।' ।
अभिमुख अर्थके व्याहरण अर्थात् कथनको अभिव्याहरण कहते है और जो उससे उत्पन्न हो उसे अभिव्याहरण निष्पन्न कहते है । अत पेज्ज ( प्रेय ) और दोसका कथन करनेवाला प्राभूत पेज्जदोस प्राभृत कहलाता है ।
'और कसायपाहुड नाम नय निष्पन्न है ।'
आशय यह है कि 'पेज्ज और दोस' ये दोनो कपाय कहलाते है। और कषायका कथन करनेवाले प्राभृतको कपाय प्राभूत कहते है । अत. कसायपाहुड नाम नयनिष्पन्न है क्योकि द्रव्यार्थिक नयके द्वारा पेज्ज और दोसका एकीकरण करके उन्हें कपाय सज्ञा दी गई है । अस्तु
पेज्ज, दोस, कसाय और पाहुड ये शब्द जिनसे दोनो नाम बने है, अनेक अर्थोमें व्यवहृत होते हुए पाये जाते है । इसलिये अप्रकृत अर्यका निषेध करके प्रकृत अर्थका, जो वहाँ लिया गया है-ग्रहण करनेके लिये चूणिसूत्रकार उनमें निक्षेपोकी योजना करते हैं-उन चारो शब्दों से पहले पेज्जका निक्षेप करना चाहिये--नामपेज्ज, स्थापनापेज्ज, द्रव्यपेज्ज, और भावपेज्ज ।'
ऐसा कहा है कि-'पदैका उच्चारण करके और उसमें किये गये निक्षेपोको जानकर 'यहाँ इस पदका क्या अर्थ है' इस प्रकार ठीक रीतिसे अर्थ तक पहुंचा देते है अर्थात् अर्थका ठीक-ठीक ज्ञान करा देते है इसलिये उन्हे नय कहते हैं ।'
अत निक्षेपकी योजना करके और उसके अर्थको स्थगित करके चूर्णिसूत्रकार यह बतलाते है कि कौन नय किस निक्षेपको चाहता है
'नगमर्नय, सग्रहनय और व्यवहारनय सभी निक्षेपोको स्वीकार करते है।' ___'ऋजूसूत्रनय स्थापनाके सिवाय सभी निक्षेपोको स्वीकार करता है।'
१ 'तस्स पाहुडस्स दुवे णामधेज्जावि। त जहा-पेज्जदोसपाहुडे त्ति वि कसायपाहुडे त्ति
वि। तत्य अभिवाहरणनिप्पण्ण पेज्जदोसपाहुड। णयदो णिप्पण्ण कसायपाहुट
क० पा० भा० १, पृ० १९७-१९९ । २ 'तत्य पेज्ज णिक्खियन्व-णामपेज्ज ठवणपेज्ज दव्वपेज्ज भावपेज्ज चेदि ।-क० पा०
भा० १, पृ० २५८ ३ 'उच्चारयम्मि दु पदे णिक्खेव वा कय तु ठूण । अत्थ णयति ते तच्चदो त्ति तम्हा
णया भणिदा ॥११८॥-क० पा० मा० १, पृ० २५९ ४ णेगमसगहववहारा सव्वे इच्छति- क. पा० भा० १, पृ० २५९ । ५ 'उजुसुदो ठवणवज्जे' । पृ० २६० ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य : १८९
'शब्द,' समभिरूढ और एवं भूतनय नाम निक्षेप और भाव निक्षेपको विपय करते है।' इनका विशेष खुलासेके लिये जयधवला टीका देखनी चाहिये । अब हम पुन: निक्षेपोकी ओर आते है । 'पेज्ज' यह शब्द नाम पेज्ज है । किसी दूसरे पदार्थमें 'यह पेज्ज है' इसप्रकार पेज्जकी स्थापना करना स्थापना पेज्ज है। द्रव्य पेज्जके दो भेद है-आगम द्रव्य पेज्ज और नोआगम द्रव्यपेज्ज । जो जीव पेज्ज विपयक शास्त्रको जानता हुआ भी पेज्जविषयक शास्त्रके उपयोगसे रहित अर्थात् उसमें लगा हुआ नही है, उसे आगमद्रव्यपेज्ज कहते है । ___ नोआगमद्रव्यपेज्जके तीन भेद है-ज्ञायकशरीर, भावि और तद्वयतिरिक्त । पेज्जविषयक शास्त्रके ज्ञाताके भूत, वर्तमान और भावि शरीरको ज्ञायक शरीर कहते है । जो भविष्यमें पेज्जविषयक शास्त्रको जाननेवाला होगा उसे भावि नोआगमद्रव्यपेज्ज कहते है। तद्वयतिरिक्त नोमागमद्रव्यपेज्जके दो भेद हैकर्मपेज्ज और नोकर्मपेज्ज ।
उक्त निक्षेपोका अर्थ सुगम जानकर यतिवृषभाचार्यने इनका अर्थ नही कहा। आगेके निक्षेपका अर्थ करते हुए वह कहते है-'नोकर्म -तद्वयतिरिक्त-नोआगमद्रव्यपेज्ज तीन प्रकारका है-हितपेज्ज, सुखपेज्ज और प्रियपेज्ज । इन तीनोके सात भग होते है।' ___ जो द्रव्य व्याधिके उपशमनका कारण होता है उसे हित कहते है, जो द्रव्य जीवके आनन्दका कारण होता है उसे सुख कहते है और जो वस्तु अपनेको रचती है उसे प्रिय कहते है । तीन भग तो ये है ही। दाख हितरूप भी है और सुखरूप भी है । नीम हितरूप भी है और प्रिय भी है, पित्त ज्वरके रोगीको कडवी वस्तु प्रिय लगती है। दूध सुखकर भी है और प्रिय भी है। ये तीन द्विसयोगी भग हुए। गुड और दूध हितकर, सुखकर और प्रिय होते है। ये सब सात भग होते है।
_ 'यह तयतिरिक्त-नोआगम-द्रव्यपेज्जका सात भगरूप कथन नैगमनयकी अपेक्षासे है ।' सग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्रकी अपेक्षा समस्त द्रव्यपेज्जरूप है।" भावपेज्जका कथन स्थगित करते है । १ सद्दणयस्स] णाम भावो च' । क. पा० भा० पृ० २६४ । २. 'नोआगमदव्यपेज्ज तिविह-हिद पेज्ज, सुह पेज्ज, पिय पेज्ज । गच्छगा च सत्त
भगा क. पा० मा० १, पृ २७१ । ३ 'एद णेगमस्स। सगहववहाराण उजुसुदस्स च सव्य दव्व पेज्ज।' क. पा. भा०
१, पृ ०७४। ४ भावपेज्ज वणिज्ज' -क. पा० भा० १,०७६ ।
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१९० · जैनसाहित्यका इतिहास
इसप्रकार पेज्जमें निक्षेपोको योजना करके चूणिसूत्रकार दोसमे निक्षेप योजना करते है।
'दोसका' निक्षेप करना चाहिये-नामदोस, स्थापनादोस, द्रव्यदोस और भावदोस । नेगम, सग्रह और व्यवहार सभी निक्षेपोको विषय करते है । ऋजुसूत्रनय स्थापनाको छोड शेप तीन निक्षेपोको स्वीकार करते है। शब्दनय नाम निक्षेप और भाव निक्षेपको विषय करते है।'
सुगम जानकर यतिवृपभाचार्यने नामनिक्षेप, स्थापनानिक्षेप आगमद्रव्यनिक्षेप और नोआगमद्रव्यनिक्ष पके दो भेदोका कथन नही किया। उसके तीसरे भेदका कथन करते हुए वह कहते है
'जो द्रव्य जिस उपघातके निमित्तमे उपभोगको नही प्राप्त होता वह उपधात उस द्रव्यका दोष है । यही तद्वयतिरिक्तनोमागमद्रव्यदोप है।'
'वह उपघात दोस कौनसा है ? साडीका अग्निसे जल जाना या चूहोके द्वारा खाया जाना आदि उपघातदोस है । भावदोसका कथन स्थगित करते है।' ___ इस प्रकार दोसमें निक्षेप योजना करके चूर्णिसूत्रकार कषायमें निक्षेप योजना करते है
'कपायका निक्षेप करना चाहिये-नामकषाय, स्थापनाकषाय, द्रव्यकषाय, समुत्पत्तिकषाय, आदेशकषाय, रसकषाय और भावकषाय ।' नैगमनय सभी कषायोको स्वीकार करता है। संग्रह और व्यवहारनय समुत्पत्तिकषाय और आदेशकषायको स्वीकार नहीं करते। ऋजुसूत्रनय इन दोनोको और स्थापना कषायको स्वीकार नहीं करता ।
शब्द, समभिरूढ और एवभूतनय नामकषाय और भावकषायको विषय करते है।
नामकषाय, स्थापनाकपाय, आगमद्रव्यकषाय, ज्ञायकशरीर नोमागमद्रव्यकषाय और भाविनोआगमद्रव्यकषायका स्वरूप सुगम जानकर यतिवृषभने नही कहा । नो आगम तद्वयतिरिक्त द्रव्यकषायका स्वरूप वह कहते है
१ 'दोसो णिक्खियन्वो णामदोसो, ढवणदोसो, दन्वदोसो भावदोसो चेदि। वही पृ २७७ । • 'गोआगमदव्वदोसो णाम ज दव्व जेण उवधादेण उवभोग ण एदि तस्स दव्वस्स
सो उवधादो दोसो णाम। त जहा, सादियाए अग्गिदद्ध वा मूसयभक्खिय वा एवमादि। वही, पृ० २८१-२८० । 'कमाओ ताव णिक्खियन्वो णामकसाओ ढवणकसाओ दव्वकसाओ पच्चयकसाओ समुप्पत्तिकसाओ आदेशकसाओ रसकसाओ भावकसाओ चेदि। वही, पृ० २८३ ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य · १९१ 'सर्जकपाय' शिरीषकपाय आदि नोकर्मतद्वयतिरिक्त नोआगमद्रव्यकपाय है।'
सालवृक्षके कसैले रसको सर्जकपाय और सिरसवृक्षके कसैले रसको शिरीपकषाय कहते है।
क्रोध वेदनीय कर्मके उदयसे जीव क्रोधरूप होता है। इसलिये प्रत्ययकषायकी अपेक्षा क्रोधवेदनीय कर्म क्रोध कहा जाता है। इसी तरह मानवेदनीय कर्मके उदयसे जीव मानरूप होता है, इसलिये प्रत्ययकषायकी अपेक्षा मानवेदनीय कर्मको मान कहा जाता है । मायावेदनीयकर्मके उदयसे जीव मायारूप होता है इसलियेमायावेदनीय कर्म प्रत्ययकषायकी अपेक्षा माया है। लोभवेदनीयकर्मके उदयसे जीव लोभी होता है इसलिये प्रत्ययकषायकी अपेक्षा लोभकर्म लोभ कहलाता है । इस प्रकार जो क्रोधादिरूप कर्मको प्रत्ययकषाय कहा है वह नैगम, सग्रह और व्यवहारनयकी अपेक्षासे कहा है । और ऋजुसूत्रनयकी दृष्टिमें क्रोध कर्मके उदयकी अपेक्षा जीव क्रोधकषायरूप होता है इसलिये क्रोधकर्मका उदय प्रत्ययकषाय है । इसीप्रकार मान, माया आदिके विषयमें भी जानना चाहिये।
समुत्पत्तिकषायकी अपेक्षा कही जीव क्रोधरूप है और कही अजीव क्रोधरूप है । जिस मनुष्यके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वह मनुष्य समुत्पत्तिकषायकी अपेक्षा क्रोध है और जिस लकडी, ईंट आदि टुकडेके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है, समुत्पत्तिकषायकी अपेक्षा वह लकडी या ईंट आदिका टुकडा क्रोध है । इसप्रकार एक जीव या एक अजीव, अनेक जीव या अनेक अजीव या मिश्र, इनमेंसे जिसके निमित्तसे क्रोध उत्पन्न होता है वह समुत्पत्तिकषायकी अपेक्षा क्रोध कहा जाता है। इसी प्रकार मान, माया और लोभके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये।
आदेशकषायको अपेक्षा चित्रमें अकित क्रोधी जीवकी आकृति-भ्रकुटि चढी हुई, मस्तकमें त्रिवली पड़ी हुई आदि-क्रोधरूप है। इसी तरह चित्रमें अकित गविष्ठ पुरुप या स्त्री आदेशकषायकी अपेक्षा मान है । चित्रमें अकित दूसरेको ठगते हुए मनुष्यको आकृति आदेशकषायकी अपेक्षा माया है और चित्रमें अकित लालची मनुष्यकी आकृति आदेशकषायकी अपेक्षा लोभ है। इसीप्रकार लकडी१ 'नोआगम दव्वकसाओ जहा सज्जकसानो सिरिसकसाओ एवमादि । वही, पृ० २८५ । २ वही , पृ० ०८७। ३ वही, पृ० २९०। ४ क. पा० भा० १, पृ० २९३ आदि। ५ वही, पृ० ३०१। ६ एवमेदे कटकम्मे वा पोत्तकम्मे वा एस आदेसकसाओ णाम ॥ क० पा० भा० १,
पृ० ३०३ ।
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१९२ : जैनसाहित्यका इतिहास पर खोदे गये, वस्त्रपर छापे गये, भित्तिपर चित्रित किये गये और पत्थर पर खोदे गये क्रोधी, मानी, मायावी और लोभीकी आकृतियाँ आदेशकषायकी अपेक्षा क्रोध, मान, माया और लोभ कहे जाते है।
ये दोनो समुत्पत्तिकषाय और आदेशकषाय नैगमनयके विषय है। अन्य नयोके नही।
जिस द्रव्य या जिन द्रव्योका रस कसला है उस या उन द्रव्योको रसकषाय कहते है । और कषायसे रहित द्रव्यको नोकषाय कहते है।
भावनिक्षेपके दो भेद है-आगमभावनिक्षेप और नोमागमभावनिक्षेप । नोआगमभावनिक्षेपकी अपेक्षा क्रोधका वेदन करनेवाला जीव क्रोधकषाय है। इसीप्रकार मान, माया और लोभको भी जानना चाहिये ।
इस तरह आचार्य यतिवृषभने 'कसायप्राभृत' नामके कपायशब्दका निक्षेपोके द्वारा कथन करके यह बतलाया कि कषायशब्दका व्यवहार कितने रूपोमैं किसकिस प्रकारसे होता है। और उनमेंसे यहाँ केवल भावकषाय ही विवक्षित है, शेप कषाय नहीं।
आगे इस भावकषायका विशेष कथन करनेके लिये आचार्य यतिवृपभने छ अनुयोगद्वारोका कथन किया है
१. कपाय क्या है ? २ कषाय किसके होती है ? ३ कपाय किस साधनसे होती है ? ४ कपाय किसमें होती है ? ५ कपाय कितने काल तक होती है ?
और ६ कषायके कितने प्रकार है ? इन छै अनुयोगोका नाम क्रमश २ निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान है। इनके द्वारा कथन करनेसे कपायके विपयकी पूरी जानकारी या कथनी हो जाती है, इसीसे जैन आगामिक परम्परामें सभी पदार्थोका विवेचन इन छै अनुयोगोके द्वारा करनेका विधान है। अस्तु,
कपायका निक्षेपविधिसे कथन करनेके पश्चात् यतिवृपभने 'पाहुड' का कथन किया है
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१ वही, पृ०३०४। २ निर्देश-स्वामित्व-माधन-अधिकरण-स्थिति विधानत. न० सू० -१-६ । ३. 'कि केण कस्स कत्थ वि केवचिर कदिविधी य भावो य । छहिं अणिोगदारे सव्वे
भावाणुगतव्वा ।।" मूलाचा० ८.१५ । 'दुविहा परूवणा छप्पया य नवहा य छप्पया दणमो। कि कम्म केण व कर्हि केवचिर कइविधे य भवे १८९१॥ आव०नि०
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चूर्णिसूत्र साहित्य १९३ 'पाहुडका निक्षेप करना चाहिये । नामपाहुड, स्थापनापाहुड, द्रव्यपाहुड और भावपाहुड इसप्रकार पाहुडके विषयमें चार निक्षेप होते है ।
इनमें से सवका स्वरूप न बतलाकर आचार्य यतिवृषभने नोआगमतद्वयतिरिक्तनिक्षेपका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है
तद्वयतिरिक्तनोआगमद्रव्यनिक्षेपकी अपेक्षा पाहुडके तीन भेद है-सचित्त, अचित्त और मिश्र ।
यहाँ पाहुड (प्रामृत ) का अर्थ भेंट है । भेटमें दिये गये हाथी घोडा आदि सचित्त पाहुड है।
मणि, मुक्ता आदि' अचित्त पाहुड है और रत्नालकार भूषित स्त्री मिश्र पाहुड है।
'नोआगम भावपाहुडके दो भेद है-प्रशस्त और अप्रशस्त । दोगथिय पाहुड प्रशस्त नोआगम भावपाहुड है। और कलहपाहुड अप्रशस्त नोमागम भावपाहुड है।
इनकी व्याख्या करते हुए जयधवलाकारने लिखा है कि परमानन्द और आनन्द सामान्यकी सज्ञा 'दोगथिय' है। जो वस्तु परमानन्द या आनन्दका कारण होती है उपचारसे उसे भी 'दोगथिय' कहते है। केवल आनन्द तो किसीको उपहारमें नहीं दिया जा सकता, अत आनन्द या परमानन्दका निमित्त कोई द्रव्य भेंट देना दोगधियपाहुड कहा जाता है । अत दोगथियपाहुडके दो भेद है-परमानन्दपाहुड और आनन्दमात्रपाहुड । केवलज्ञान और केवलदर्शनरूप लोचनोसे समस्त लोकको प्रकाशित करनेवाले वीतराग जिनेन्द्रदेवने निर्दोष श्रेष्ठ विद्वान् आचार्योंकी परम्परासे भक्तजनोके लिये भेजा गया जो बारह अगरूप वाणी या उसका एक देश परमानन्द दोग्रन्थिक पाहुड है । इस ग्रन्थमें पाहुडसे परमानन्द दो गधिय पाहुड ही इष्ट है ।
इसके पश्चात् यतिवृपभने 'पाहुड' शब्दकी निरुक्ति की है-'पदेहिं पुद (फुडं ) पाहुड' । पदोसे जो स्फुट अर्थात् व्यक्त हो उसे 'पाहुड' कहते है ।
१ 'पाहुड णिक्खियछ । णामपाहुड टठ्वणपाहुड दवपाहुड भावपाहुट चेदि एव चत्तारि
णिक्खेवा सत्य होति । वही , पृ० ३०० । २ 'नोआगमदो भावपाहुड दुविह पसत्यमप्पसत्य च' वही, पृ० ३२३ । ३ पसत्य जहा दोगधियं पाहुड। अमत्र्य जहा कलहपाहुड ।' वही, पृ० ३२४,३२५ । १ 'पाहुडेत्ति का निरुत्ती जम्हा पदेहि पुद (फुड) तम्हा पाहुट ' वही, पृ. ३०६ ।
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१९४ जेनसाहित्यका इतिहाग ___गारांग यह है कि गर्दा गपाणिगगा भूतमानगो गापाग सा है और उसमे पासुको गपागपाल गामा है।
इगतरह 'गमायणातुट' गोयिंगग पर्यग नि गाय उपक्रम गमाप्त होता है।
गह हग लिग आगे निपभोर नगारा वरसुगा ना करनेगी भागगि Ter पी। उगी पतिदन गागपात गायागयोंमें भी पाते है
उपक्रमात पानात निग गागागा गार होता है उगमें गहा है
गिगनयगी अपेक्षा गिग-निगम नपान गज्ज (प्रेगन्स) होता है। अयवा "किरा नगनी अपेक्षा ग पायमलोप होता है? गौर नग गिग द्रव्यमे दुष्ट होता है अशा गोन नगशिरा द्रगो पेज होता है?"
इम गागा नारा उठागे गगे प्रनोज गगापाग आनार्य गतिवृषभ अपने नूणिमूगो दाग मारते है
'ग गाथाने पूर्वागी यिभाषा (शिरण) गरना चाहिये। वह इमप्रकार है
नंगमनग और गगहनगणी अपेक्षा मोघ नेप है, मान देष है, माया प्रेय है और लोभ प्रेग है।'
आशय यह है कि इस ग्रन्गो दो नाम है-कपायपाहुट या पेज्जदोमपाहुड । यहाँ कपायके लिये उगके स्थान दो शब्दोका प्रयोग किया है पेज्ज (प्रेय) और दोस (देप)। अत यह बतलाना आवश्यक है कि कपायके भेदोमेंगे कौन प्रेय है और कोन हेपरूप है ? तभी तो गापायके लिए 'पेज्जदोरा' नाम घटित हो सकता है ? ___ क्रोध द्वेष है क्योंकि माल अनर्थको जर है । मान भी इसीसे द्वेषरूप है, किन्तु माया पेज्ज है क्योकि उगकी सफलतासे मनुष्यको सन्तोप होता है । यही वात लोभके विपयमें भी जानना चाहिये । गाशय यह है कि जो कपाय उसके कर्ताके लिये सतापका कारण हो वह द्वप है और जो मानन्दका कारण हो वह पेज्ज है।
'व्यवहारनयकी अपेक्षा क्रोध द्वेप है, मान द्वेप है, माया द्वैप है और लोभ पेज्ज है।' ____ मायाचार लोकनिन्द्य और अविश्वासका कारण होनेसे द्वेप है किन्तु लोभसे द्रव्य वचाकर मनुष्य सुखपूर्वक जीवन विताता है इसलिये लोभ पेज्ज है।
२ 'पेज्ज वा दोसो वा कम्मि कसायम्मि कस्य व णयस्स। दुठो व कम्भि दव्वे पियायए
को कहिं वा वि॥ २१ । का० पा० अ० १, पृ० ३६४ ।
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चूणिसूत्र साहित्य · १९५ 'अजुसूत्रनयकी अपेक्षा क्रोध द्वैप है, मान न ढेप है न पेज्ज है, माया न द्वेप है न पेज्ज है, किन्तु लोभ पेज्ज है।' शब्दनयकी अपेक्षा मोघ द्वेप है, मान द्वेप है, माया द्वप है और लोभ द्वीप है। क्रोध मान माया पेज्ज नही है किन्तु लोभ कयचित् पेज्ज है।
इसप्रकार चूर्णिसूत्रकारने गाथासूत्रकारके द्वारा प्रश्नरूपसे निर्दिष्ट विषयका ही नयदृष्टिमे विवेचन किया है। मत जैन आगमिक परम्पराको यह विषयविवेचनपद्धति गाथासूत्रकारसे भी प्राचीन प्रतीत होती है। संभव है पूर्वोका विवेचन इमी शैलीमें हो।
वर्तमान श्वेताम्बरमान्य मूलसूत्रोमें हम इम पद्धतिके दर्शन नहीं होते। किन्तु अनुयोगद्वारसूत्रमें निक्षपयोजनाका क्रमबद्ध विवान विस्तारसे मिलता है और उसमें नयोका भी प्रयोग किया गया है। असलमे अनुयोगद्वारसूत्र, जैसा कि उसके नामसे प्रकट है-अनुयोगसे ही सम्बन्ध रखता है। प्रस्तुत अनुयोगद्वारसूत्रकी उत्थानिकामें उसके टीकाकार हेमचन्द्र मलधारीने लिखा है कि जिनवचनमें प्राय आचार आदि समस्त श्रुतका विचार उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नयोके द्वारा होता है और इस अनुयोगद्वार में उन्ही उपक्रम आदि द्वारोका कथन है।' अतः जिनवचनके व्याख्यानकी परिपाटी, जिसका अनुसरण गाथासूत्रकार और चणिसत्रकारने किया है उसीका विवेचन अनुयोगद्वारमें मिलता है, जो उस परिपाटीका ही समर्थक है । नियुक्तियोमें भी निक्षेप योजनाका विधान मिलता है। किन्तु प्रकृत विपय कपायमें निक्षेपयोजनाका विधान विशेषावश्यकभाष्यमें ही देखनेको मिलता है।
छक्खंडागम और चूर्णिसूत्रोंकी तुलना छक्खडागम और चूर्णिसूत्रकी तुलनाकी दृष्टिसे अन्य भी दो-एक बातें उल्लेखनीय है । जिस तरह छक्खडागममें निक्षेप और नय-योजना की गई है, चूणिसूत्रोमें भी की गई है।
किन्तु दोनोमें अन्तर है। भूतवलिने वेदनाखण्ड और वर्गणाखण्डके अनुयोगद्वारोमें निक्षेपयोजना करते हुए प्रत्येक निक्षेपका स्वरूप स्पष्ट रूपसे बतलाया है और उसमें पुनरुक्तिका भी ख्याल नही किया है। इसके प्रमाण रूपमें कृति
१ जिणपवयणउप्पत्ती पवयण एगठिया विभागो य । दारविही य नयविही वक्खाण विही य अणुओगो ।।१२५॥ नाम ठवणा दविए, खित्ते, काले वयण भावे वा । एसो अणुओगस्स निक्खेवो होई सत्तविहो ॥१२९॥ जत्थ य ज जाणिज्जा निक्खेव निक्खिवे
निरवसेस । जत्थऽवि य न जाणिज्जा चउक्कम निक्खिवे तत्थ । आ० नि० ॥४॥ २ जिनवचने हयाचारादि श्रुत प्राय सर्वमप्युपक्रमनिक्षेपानुगमनयद्वारे विचार्यते। प्रस्तुत
शास्त्रे च तान्येवोपक्रमादि द्वाराण्यभिधास्यन्त' । अनु० टी० ।
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१९६ : जैनसाहित्यका इतिहास
अनुयोगद्वार तथा वर्गणासण्डके स्पर्श अनुयोगद्वार, कर्म अनुयोगद्वार, प्रकृति अनुयोगद्वार ओर वन्धन अनुयोगद्वारके प्रारम्भमें नागनिक्षेप और स्थापनानिक्षेपके लक्षणपरक सूत्रोको देस जाइये, कृति, स्पर्श आदि शब्दोके भेदके सिवाय उनमें कोई भेद नही है । किन्तु यतिवृषभने अपने चूर्णिसूयोमे आवश्यकतानुसार निक्षेपयोजना की, यथा- 'पेज्ज णिक्सियन्त्र -- णामपेज्ज, ठत्रणपेज्ज, दव्वपेज्ज, भावपेज्ज चेदि ।' (क० पा०सु० पृ० १६) । 'दोसो णिक्सिवियन्वो णामदोसो, ठवणदोसो, दव्वदोसो, भावदोसो ।' ( पृ० १९), किन्तु सिवाय नोआगमद्रव्यनिक्षेपके किसी निक्षेपका स्वरूप या उदाहरण नही दिया। इससे कसायपाहुडकी तरह ही चूणिसूत्रोकी भी सक्षिप्त शब्दरचना द्योतित होती है। साथ ही ऐसा भी प्रकट होता है कि भूतबलि - पुष्पदन्ताचार्यको पट्गण्डागम के सूत्रोकी रचना करते हुए इस बातका ध्यान था कि जहाँ तक शक्य हो, सूत्ररचना स्पष्ट हो, जिससे उसके अध्येताको उसे समझने में कठिनाई नही हो, इसीलिये उन्होने शव्दलाघवपर विशेष ध्यान नही दिया और न पुनरुक्तिको दोष माना और ऐसा शायद उन्होने इसलिये किया— क्योकि बचे- सुचे महाकर्मकृतिप्राभृतके भी एकमात्र ज्ञाता घरसेनाचार्यका स्वर्गवास हो चुका था और अब आगे श्रुतज्ञानकी परम्पराके श्रोतका अन्त आ गया था ।
किन्तु यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोमें हम वह बात नही पाते। उनके द्वारा यद्यपि कसायपाहुडकी गाथाओका रहस्य खुलता है किन्तु स्वय उनका रहस्य खोलनेके लिए व्याख्याकारोकी आवश्यकता है । इससे ऐसा लगता है कि या तो यतिवृपभके सामने श्रुतविच्छेदका वैसा भय उपस्थित नही हुआ था या उनकी शैली ही ऐसी थी ।
एक बात और भी उल्लेखनीय है - 'चूणिसूत्र में केवल चित्रकर्म, काष्ठकर्म और पोतकर्मका उल्लेख मिलता है । किन्तु पट्खण्डागमके स्थापनानिक्षेप विषयक सूत्रमें काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत्तकर्मके सिवाय लेप्यकर्म, लेण्णकर्म, सेलकर्म, गृहकर्म, भित्तिकर्म, दन्तकर्म और भेडकर्मका भी निर्देश है ।
इसी तरह जयघवलामें ही एक दूसरे स्थानमें चूर्णिसूत्रके साथ जीवद्वाणका विरोध बतलाते हुए कहा है- 'यदि कहा जाय कि आठ समय अधिक छह महीना नियमके बलसे एक-एक गुणस्थानमें जीवोके सचयका समानरूपसे कथन
१ 'आदेसकसाएण जहा चित्तकम्मे लिहिदो । एवमेदे कट्ठकम्मे वा पोत्तकम्मे वा ।' क० पा० सू० पृ० २४ । २. 'ण च जीवट्ठाणसुत्तेण अट्ठसमयाहियछमासनियमवलेण एगेगगुण ठाणम्मि जीवसचय सरिसभावेण परूवणेण सह विरोहो, पुधभूदआइरियाण मुहविणिग्गयमेत्तेण दोन्ह थपभावमुवगयाण विरोहाणुववत्तीदां ।' क० पा० भा० २, पृ० ३६१ ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य : १९७ करनेवाले जीवस्थानके सूत्र के साथ इस कथनका विरोध हो जायगा, सो भी वात नही है क्योकि ये दोनो उपदेश अलग-अलग आचार्योंके मुससे निकले है अत दोनो स्वतन्त्र रूपमे स्थित होनेके कारण उनमें विरोध नही हो सकता ।'
यहां चूणिसूत्रके कथनको जीवस्थानके कथनसे स्वतन्त्र मानते हुए उन्हे दो पृथक-पृथक आचार्योंका उपदेश बतलाया है ।
पट्खण्डागमका छठा सण्ड महावध है, जो स्वतन्त्र ग्रन्थके रूपमें माना जाता है, वह भी आचार्य भूतबलिकी कृति है । जयघवलामें उसको भी तत्रान्तर बतलाया है । महाबन्ध और कसायपाहुडके मतभेदकी चर्चा करते हुए उसमें लिखा' है'महावन्धमे विकलेन्द्रियोंमें स्वस्थानमें ही सक्लेगक्षयमे सख्यात भागवृद्धिरूप वन्धके दो समय कहे हैं । उसके वलसे कसायपाहुडको समझना ठीक नही है क्योकि भिन्न पुरुपके द्वारा रचित ग्रन्थान्तरसे ग्रन्थान्तरका ज्ञान नही हो सकता ।'
जय वलाकी तरह धवला टीकामें भी पट्सण्डागम और कसायपाहुडके मतभेदोकी चर्चा अनेक स्थलो पर की गई है ।
धवलामें लिखा है कि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें पहले सोलह प्रकृतियोका क्षय होता है, पीछे आठ कपायोका क्षय होता है, यह 'सतकम्मपाहुड' का उपदेश हैं । किन्तु कसायपाहुडका उपदेश है कि आठ कपायोका क्षय होनेपर पीछे सोलह कर्मोका क्षय करता है । ये दोनो ही उपदेश सत्य है ऐसा कुछ आचार्य कहते है । किन्तु उनका ऐसा कहना घटित नही होता, क्योकि उनका ऐसा कहना सूत्रसे विरुद्ध पडता है । तथा दोनो कथन प्रमाण है, यह वचन भी घटित नही होता, क्योकि एक प्रमाणको दूसरे प्रमाणका विरोधी नही होना चाहिये ऐसा न्याय है ।'
प्रकृत विपयकी चर्चा करते हुए इसी प्रसगमे धवलामें आगे जो शका-समाधान किया गया है वह भी दृष्टव्य है । लिखा है
शका - उक्त दोनो वचनोमेंसे कोई एक वचन ही सूत्ररूप हो सकता है, क्योकि जिन अन्यथावादी नही होते । अत उनके वचनोमें विरोध नही होना चाहिये ।
समाधान - यह कहना ठीक है किन्तु उक्त वचन तीर्थङ्करके वचन नही है, आचार्योंके वचन है । आचार्यके वचनोमे विरोध होना सम्भव है ।
१. ' महावधम्मि विगलिदिएसु सत्थाणे चैत्र सकिलेसक्खरण सखेजभागवदिबधस्स वे समया परूविदा, तव्वलेण कसायपाहुडस्स ण पडिवोहणा काउ जुत्ता, तततरेण भिण्णपुरिसकएण तततरस्स पडिवोयणाणुववत्तीदो ।' क० पा० भा० ४, पृ० १६५ । २. 'एसो सतकम्मपाहुड उवसो । कसायपाहुड उवएसो पुण
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- पट्खं०, पु० १, पृ० २१७ |
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१९८ जैन साहित्यका इतिहास
शका-तो फिर 'आचार्यकथित मत्कर्मप्राभृत और कपायप्राभृतको सूत्रपना कैसे सम्भव हो सकता है। __ समाधान-तीर्थङ्करके द्वारा अर्थस्पगे कहे गये और गणधरो द्वारा ग्रन्यरूपसे निवद्ध द्वादगाग आचार्य परम्परासे निरन्तर चले आ रहे थे। परन्तु कालके प्रभावसे उत्तरोत्तर बुद्धिके क्षीण होनेपर और उन अगोको धारण कर सकनेवाले योग्य पानके अभावमें वे उत्तरोत्तर क्षीण होते गये। तव श्रेष्ठ बुद्धिवालोका अभाव देसकर तीर्थविच्छेदके भयसे पापभीर और गुरु-परम्पराशे श्रुतार्यको ग्रहण करनेवाले आचार्योने उन्हे पोथियोमें लिपिवद्ध किया । अतएव उनमें असूत्रपना नही हो सकता। ___ शका~-तव तो द्वादशागका अवयव होनेसे उक्त दोनो ही वचन सूत्र हो जायेंगे?
समाधान-दोनोमेसे किसी एक वचनको सूत्रपना भले ही प्राप्त हो, किन्तु दोनोको सूत्रपना नही प्राप्त हो सकता, क्योकि उन दोनोमे परस्परमे विरोध है ।
शका-दोनो वचनोमेंसे किसको सत्य माना जाये ?
समाधान-यह तो केवली या श्रुतकेवली ही जान सकते है, दूसरा नही जान सकता। उक्त विस्तृत चर्चासे मतभेदका कारण भिन्न आचार्यपरम्पराका होना ही प्रकट होता है।
२ जीवट्ठाणके 'अन्तरानुगममे चारो कपायोका उत्कृष्ट अन्तर काल छै मास बतलाया है। उसकी धवला टीकामें लिखा है कि ऐसा मानने पर पाहुडसुत्त (कसायपाहुड) के साथ व्यभिचार नही आता है क्योकि उसका उपदेश भिन्न है ।
__ ३ जीवस्थान चूलिकाकी धवलामें लिखा है-'यह व्याख्यान अपूर्वकरण गुणस्थानके प्रथम समयमें होनेवाले स्थितिवन्धका सागरोपम कोटिलक्ष पृथक्त्वप्रमाण कथन करनेवाले पाहुडचूर्णिसूत्रसे विरोधको प्राप्त होता है, ऐसी आशङ्का नही करना चाहिये । वह तत्रान्तर है ।
४. उक्त चूलिकाकी "धवलामे ही अन्यत्र लिखा है-'इस द्वितीयोपशम
आइरिय-कहियाण सतकम्मकसायपाहुडाण कथ सुत्तत्तामदि चेण्ण, तित्थयरकहियत्याण गणहरदेवकयगथरयणाण वारहगाण आशरियपरपराए णिरतरमागयाणं जुगसहावेण बुद्धीसु ओहट्टतीसु भायणाभावेण पुणो ओहट्टिय आगयाण पुणो सुलुबुद्धीण खय दठूण तित्थवोच्छेदभएण वज्जभीरूहि गहिदत्येहि आइरिएहि पोत्यएसु चढा
वियाण असुत्तत्तणविरोहादो।' -घटख०, पु० १, पृ० २२१ । २. 'ण पाहुडसुत्तेण वियहिचारो, तस्स भिण्णोवदेसत्तादो।' षट्ख० पु० ५, पृ० ११२ । ३ पटख० पु० ६, पृ० १७७ । ४. पु.६, पृ० ३११ ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य १९९ सम्यक्त्वकालके भीतर जीव असयमको भी प्राप्त हो सकता है, सयमासयमको भी प्राप्त हो सकता है और छह आवली काल शेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त हो सकता है। यदि सासादनको प्राप्त करके मरता है तो नरकगति, तिर्यञ्चगति और मनुष्यगतिको प्राप्त नही कर सकता, किन्तु नियमसे देवगतिमें जाता है। यह पाहुडचूणिसूत्रका अभिप्राय है। किन्तु भगवन्त भूतवलिके उपदेशानुसार उपशमश्रेणिसे उतरता हुआ जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त नही करता।'
५ उसी में पुन अन्यत्र लिखा है-'यह वात प्राभृतसूत्र (कसायपाहुडचूर्णिसूत्र) के अभिप्रायानुसार कही गई है। परन्तु जीवस्थानके अभिप्रायसे सख्यातवर्षकी आयुवाले मनुष्योमें सासादनगुणस्थान सहित निर्गमन नही बन सकता, क्योकि उपशमश्रेणिसे उतरे हुए मनुष्यका सासादनगुणस्थानमें गमन सम्भव नही है।' __खुद्दावन्धकी धवला-टीकामें महाकर्मप्रकृतिप्रामृत और चूर्णिसूत्रकर्ताके उपदेशोमें भेद बतलाते हुए लिखा है-'मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके अन्तिम समयमें दस प्रकृतियोकी उदयव्युच्छिति होती है, यह महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका उपदेश है । चूर्णिसूत्रकर्ताके उपदेशके अनुसार मिथ्यादृष्टिगुणस्थानके अन्तमें पाँच प्रकृतियोका उदयविच्छेद होता है, शेष पाँचका उदयविच्छेद सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें होता है।' ____ महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके आधारपर पट्खण्डागमकी रचना हुई है। अत षट्खण्डागमके मत अवश्य ही महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके मत होने चाहिये । और इस तरहसे चूणिसूत्रकारके मत महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके मतोसे भी भिन्न थे, यह कहा जा सकता है । अत ये सैद्धान्तिक मतभेद बहुत प्राचीन प्रतीत होते है।
खुद्दावन्धकी ही धवला-टीकामें एक अन्य भी उल्लेखनीय चर्चा है, जो इस प्रकार है
शका-कसायपाहुडसुत्तके साथ यह सूत्र विरोधको प्राप्त होता है ?
समाधान-सचमुचमें कषायप्राभृतके सूत्रसे यह सूत्र (२४) विरुद्ध पडता है किन्तु यहाँ एकान्तग्रह नही करना चाहिये कि यही सत्य है या वही सत्य है, क्योकि श्रुतकेवलियो या प्रत्यक्ष ज्ञानियोके बिना इस प्रकारका निश्चय करनेपर मिथ्यात्वका प्रसग आयेगा।
१ पु.६, पृ. ४४४ । २ 'एसो महाकम्मपपडिपाहुडउवएसो । चुर्णिणसुत्तकत्ताराणमुवेण्सेण पचण्ण' पयडीण
मुदयवोच्छेदो।' -पु. ८, पृ. ९ । ३. पु. ८, पृ. ५६-५७ ।
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२०० जेनसाहित्यका इतिहास
शका - सूनोमे विरोध कैसे हो सकता है ?
समाधान - अल्पश्रुतके धारक आचार्योंके द्वारा रचे गये सूत्रो व उपसहारोम विरोधका होना सम्भव प्रतीत होता है ।
शका - उपसहारोको सूत्रपना कैसे सम्भव है ?
समाधान-घट, घटी, सकोरा आदिमं रसे हुए अमृतसागरके जलमें अमृतत्व पाया हो जाता है ।
इस प्रकार पट्सण्डागम और कसायपाहुडचूर्णिसूत्र दो भिन्न आचार्य - परम्पराओके उत्तराधिकारी प्रतीत होते है । इसीसे उनके कतिपय सैद्धान्तिक मन्तव्यो मतभेद है |
अनुयोगद्वार और चूर्णिसूत्र
अनुयोगद्वारसूत्र स्वतंत्र ग्रन्थ है, व्याख्याग्रन्थ नही है, किन्तु चूर्णिसूत्र व्याख्यासूत्र है । अनुयोगद्वारमें जिस आगमिक शैलीका दर्शन मिलता है, चूर्णिसूत्र में भी उसी आगमिक शैलीका दर्शन होता है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि प्राचीन आगमिक व्याख्या -शैली वही थी जो इन दोनो सूत्रप्रन्योमें पाई जाती है ।
अनुयोगद्वारसूत्रको परम्परासे आर्यरक्षितकी कृति माना जाता है । पट्टावलियोके अनुसार आर्यरक्षित आर्यमक्षु और नागहस्तीके मध्य में हुए थे । अत उनका समय ' विक्रमकी प्रथम शतीका उत्तरार्ध माना जाता है । इस हिसावसे अनुयोगद्वारसूत्र चूर्णिसूत्रोका पूर्वज सिद्ध होता है । किन्तु उसको देखनेसे उसकी प्राचीनतामें सन्देह होता है । 'नन्दिसूत्रमें अनुयोगद्वारका नाम आया है । और नन्दिसूत्र वलभी वाचनाके समय अर्थात् विक्रमकी छठी शताब्दीके प्रारम्भमें रचा गया माना जाता है । नन्दिमें मिथ्याश्रुत और अनुयोगमें लौकिकश्रुतके नामसे अनेक ग्रन्थोके नाम दिये है । उनमें माठर और पष्ठितत्रका भी नाम है । ईश्वरकृष्णकी साख्यकारिकापर माठरकी कृति प्रसिद्ध है तथा "अनुयोगद्वारमे लौकिक भावावश्यकका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है- पूर्वाहमें भारतका और अपराण्हमें रामायणका वाचन अथवा श्रवण करना है यह लौकिक भावावश्यक है ।
१ 'श्रीमदार्थ रक्षितसूरि सप्तनवत्यधिकपचशत ५९७ वर्षान्ते स्वर्गभणिति पट्टावल्यादौ दृश्यते । प० स०, पृ० ४८ ।
२. से किं तं लोइय भावावस्सय ? पुन्वण्हे भारह अवरण्हे रामायण, से त लोइयं भावा
वस्य ( सू० २५ I
३ क० पा० भा० १, पृ०
I
४ ' जण्ण कट्ठकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा
(सू० १०) अ० ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य २०१ भारत और रामायणके इस प्रकार आवश्यक रूपसे वाचन अथवा श्रवणका परिचलन अवश्य ही गुप्तकालमे होना चाहिये । अत अनुयोगद्वारसूत्र गुप्तकालसे पूर्वका नही होना चाहिये। ___चूर्णिसूत्रोके साथ उसकी तुलना करनेपर भी उसका कोई प्रभाव परिलक्षित नही होता। प्रत्युत चूर्णिसूत्र ही उससे अधिक प्राचीन प्रतीत होते है। आदेश कषायका स्वरूप बतलाते हुए चूर्णिसूत्रोमें चित्रकर्म, काष्टकर्म और पोत्थकर्मका ही उल्लेख है किन्तु अनुयोगद्वारसूत्रमें लेप्यकर्मका भी निर्देश मिलता है । इसी तरह उसमें पूर्ववत् शेषवत् आदि अनुमानके तीन भेद गिनाये है । जो न्यायसूत्रोमें पाये जाते है। चूर्णिसूत्र • ऐतिहासिक महत्त्व-दो परम्पराएँ ___ यतिवृषभके चूणिसूत्रोमें ऐतिहासिक दृष्टिसे उल्लेखनीय है उपदेशकी दो परम्पराएं, जिनमेंसे एकको वह पवाइज्जमाण (प्रवाह्यमान) और दूसरीको अपवाइज्जमाण कहते है । इन दोनो परम्पराओका निर्देश कसायपाहुडके उपयोग नामक अधिकारमें पाया जाता है।
'पवाइज्जमाण'की व्याख्या बतलाते हुए जयधवलाकारने लिखा है-'जो सब आचार्योके द्वारा सम्मत हो और प्राचीनकालसे बिना किसी विच्छेदके सम्प्रदायक्रमसे आता हुआ शिष्य-परम्पराके द्वारा लाया हो उसे पवाइज्जत उपदेश कहते है । अथवा यहाँ पर भगवान आर्यमखुके उपदेशको अपवाइज्जमाण और नागहस्ती क्षपणके उपदेशको पवाइज्जमाण स्वीकार करना चाहिये ।
उपयोगाधिकारकी चतुर्थ गाथाकी विभाषा करते हुए चूणिसूत्रकारने लिखा है कि इस गाथाकी विभाषाके विषयमें दो उपदेश पाये जाते है। एक उपदेशके द्वारा व्याख्यान समाप्त करके लिखा है कि अब पवाइज्जत उपदेशके द्वारा चौथी गाथाकी विभाषा करते है। इसी 'पवाइज्जत' की टीकामें जयधवलाकारने उक्त बात कही है।
इससे ऐसा प्रकट होता है कि कसायपाहुडके गाथासूत्रोके व्याख्यानमें आर्यमक्षु और नागहस्तीमें मतभेद था। आचार्य यतिवृषभने आर्यमाके मतको प्रथम
१ (सू. ४१), २. 'एक्केण उवएसेण चउत्थीए विहासा समत्ता भवदि । पवाइज्जतेण उवएसेण चउत्थीए
गाहाए विभासा।' ज.ध.-को पुण पवाइज्जतोवएसो णाम वुत्तमेद ? सन्वाइरिय. सम्मदो चिरकालमवोच्छिण्णसपदायकमेणागच्छमाणो जो सिस्सपरपराए पवाइज्जदे पण्णविज्जदे सो पवाइज्जतोवएसो ति भण्णदे। अथवा अज्जमखुभयवताणमुवण्सो एत्यापवाइज्जमाणो णाम । णागहत्थिखवणाणमुवएसो पवाइज्जतवो त्ति घेतब्बो।'
-ज.ध.प्रे. का., पृ. ५९२० ।
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२०२ • जैनसाहित्यका इहितास
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स्थान दिया, और यद्यपि दूसरे उपदेशको - जिगे जयधवलाकार नागहस्तीका बतलाते है -- पवाइज्जंत बतलानेसे प्रथम उपदेशका अपवाइज्जत होना स्वय सिद्ध है, किन्तु उन्होने अपनी लेसनीसे उसे अपवाइज्जत नही कहा । इसी तरह इसी अधिकारकी सातवी गाथाकी विभाषामे भी दोनो उपदेशोका कथन करके एक ' उपदेशको पवाइज्जत लिया और अन्तमे लिस दिया कि इन दोनो उपदेशोसे त्रसजीवोके कपायोदयस्थान जान लेना चाहिये। ऐसा करके यतिवृपभने जहाँ प्राचीन उपदेशकी सुरक्षा की वहाँ दूसरेकी अवहेलना नही की । यह उनके बडप्पनको तो द्योतित करता ही है, साथ ही आर्यमक्षुके प्रति अनादरभावको भी प्रकट नही करता ।
किन्तु जयधवलाकारने इसी अध्यायमं तथा आगे आर्यमक्षु और नागहस्तो दोनोके उपदेशको पवाइज्जत भी कहा है ।
उपयोगाधिकारकी प्रथम गाथाकी विभाषा करते हुए चूर्णिसूत्रकारने लिखा है--' पवाइज्जत उपदेशकी अपेक्षा क्रोधादि कपायोका विशेष अन्तर्मुहूर्त है और उसी पवाइज्जत उपदेशकी अपेक्षा चारो गतियोमे अल्पबहुत्वका कथन करते है ।'
इस टीकामें 'जयधवलाकारने दोनोके उपदेशको पवाइज्जत कहा है । इसी तरह सम्यक्त्व अनुयोगद्वारमें भी उन्होने दोनोके उपदेशको पवाइज्जत कहा है । ऐसी स्थितिमे उपयोगाधिकारकी चतुर्थ गाथाके चूर्णिसूत्रोकी व्याख्यामें जो उन्होने आर्यमक्षुके उपदेशोको पवाइज्जत और नागहस्तीके उपदेशोको अपवाइज्जत कहा है, उसके साथ सगति नही बैठती और दोनो कथन परस्पर विरोधी प्रतीत होते है । किन्तु जयधवलाके शब्दोपर ध्यान देनेसे यह विसंगति दूर हो जाती है ।
जयधवलाकारने वहाँ पहले 'पवाइज्जत उपदेश' की व्याख्या की है कि जो सर्वाचार्य सम्मत आदि हो वह पवाइज्जत उपदेश है । फिर ' अथवा ' कहकर आर्यमक्षुके उपदेशको अपवाइज्जमाण कहा है। किन्तु अपवाइज्जमाणके पहले आगत 'एत्थ' शब्द खास ध्यान देने योग्य है जो बतलाता है कि यहाँपर अपवाइज्जमाणसे आर्यमक्षुका उपदेश ग्रहण करना चाहिये । अत आर्यमक्षुका प्रत्येक उपदेश अपवाइज्जमाण नही है । किन्तु नागहस्तिके साथ एत्थ पद नही है । अत नागहस्ती -
१ एसो उवएसो पवाइज्जइ । अण्णो उवदेसो | एहिं दोहि उवदेसेहिं कसायउदयक्खाणि दव्वाणि तसाण । क ० पा० सू०, पृ० ५९२-५०३ । २ 'तेसि चेव भयवताणमज्जमखु णागहृत्थीण पवाइज्जतेण उवएसेण ।'
- ज० ध० स० का०, पृ० ५८६४ । ३ ' पवाइज्जतेण पुण उवएसेण सव्वाइरियसम्मदेण अज्जमखु-णागहस्तिमहावाचयमुहकमल विणिग्गएण ।' -ज० ध० प्रे० क०, ६२६१ ।
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चूणिसूत्र साहित्य · २०३ का गो: उपदेश अपनाइज्जत नहीं था-राब उपदेश पवाइज्जत था। किन्तु आर्यमाका कोई-कोई उपदेग अपवाइज्जत भी था। ___ इस तरह नूणिसूयोर्म विभिन्न उपदेशोकी परम्पराको दर्शन होते हैं ।
चूणिसूत्रके रचयिता ___चूणिर्मो रनयिता आचार्य गतिवृषभ है । ये गुणधर, आर्यमा और नागहस्तिो उत्तराधिकारी है। पट्टावलि, शिलालेग तथा अन्य स्रोतोंगे आचार्य गतिवृपके जीवन-परिचय, गगय आदिके सम्बन्धमे विशेष जानकारी प्राप्त नही है।
इनकी दो ही कृतियां मानी जाती है-एक कमायपाहुटपर चूणिमूत्र और दूसरी प्रिलोकप्राप्ति । किन्तु उनमें अन्य बातोका तो कहना ही क्या, अन्यकर्ता तकका नाम नही पाया जाता। हाँ, ग्रिलोकप्रशप्तिके अन्तमें एक गाथा आई है
"पणमह जिणवरवसह गणहरवमह तहेव गुणवराह ।
दळूण परिमवगह जदिवसह धम्मसुत्तपाटरवसह ।। इस गाया 'जदिवसह ( यतिवृपा ) नाम आया है। और उसके अन्तमें वपह (वृपभ) शब्द होनेसे उसका अनुप्रास मिलानेके लिये अन्य शब्दोके अन्तमें भी 'वसह पद दिया है। जिनवरवृपभ और गणधरवृपभ पद तो स्पष्ट ही है, क्योकि जिनवर वृपभ प्रथम तीर्थदर थे और उनके प्रथम गणधरका नाम भी वृपभ ही था । किन्तु 'गुणवसह' पद स्पष्ट नहीं है । यो तो उसे 'गणहरवसह का विशेपण किया जा सकता है, जैसा कि त्रिलोकप्रज्ञप्ति के हिन्दी अनुवादमे और श्री नाथूरामजी प्रेमीने अपने "लोकविभाग और तिलायपण्णत्ति' शीर्षक लेसमें किया है । किन्तु उससे कोई विशेष चमत्कार प्रतीत नही होता। इसी तरह 'दठूण परिसवसह' पद भी अस्पष्ट है।
जयधवलाके सम्यक्त्व-अनुयोगद्वारके प्रारम्भमे मगलाचरणस्पमे भी यह गाथा पाई जाती है । और उससे उक्त पदोकी समस्या सुलझ जाती है । गाथा इस प्रकार है
पणमह जिणवरवसह गणहरवसह तहेव गुणहरवसह
दुसहपरीसहविसह जइवसह धम्मसुत्तपाढरवसह ॥ इससे अर्थ स्पष्ट हो जाता है जो इस प्रकार है
"जिनवरवृषभको, गणधरवृपभको, गुणधरवृपभ (श्रेष्ठ) और दुस्सह परीपह१ जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुरसे प्रकाशित । २ . सा. ३०, पृ०७।
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२०६ - जनसाहित्यका इतिहास
का समाधान करते हुए वीरसेन स्वामीने' कहा है-'विपुलाचलके शिखरपर स्थित महावीररूपी सूर्यसे निकलकर गौतम, लोहार्य, जम्बूस्वामी आदि आचार्य-परम्परासे आकर, गुणधराचार्यको प्राप्त होकर गाथारूपसे परिणत हो, पुन आर्यमा-नागहस्तीके द्वारा यतिवृषभके मुखसे चूर्णिसूत्ररूपसे परिणत हुई दिव्यध्वनिरूपी किरणोसे हमने ऐसा जाना है।' यहाँ यतिवृपभके वचनोको भगवान महावीरकी दिव्यध्वनिके साथ एकरसता बतलानेसे यतिवृपभके प्रति वीरसेन स्वामीकी असीम श्रद्धा व्यक्त होती है। तभी तो वे जिनेन्द्रोमें श्रेष्ठ प्रथम जिन और गणधरोंमें श्रेष्ठ उनके प्रथम गणधरके साथ गुणधर और यतिवृपभको नमस्कार करनेकी प्रेरणा करते है।
स्वय यतिवृषभ अपने विषयमें ऐसा नही कह सकते, क्योकि उक्त गाथामें आगत 'जइवसह' शब्द श्लेषरूपसे प्रयुक्त नही जान पडता । स्वय उसके साथ दो विशेषण पद लगे हुए है । यदि उसे श्लेषरूपमे प्रयुक्त माना जाता है तो गाथाके पूरे उत्तरार्धको किसी विशेष्यके साथ प्रयुक्त करना होगा । गाथाके पूर्वार्द्धमें तीन विशेष्यपद है, जिणवरवसह, गणहरवसह और गुणहरवसह । अव इन तीनों विशेष्योमेंसे किसके विशेपणरूपसे उक्त तीनो विशेषणोका प्रयोग किया जाये, यह समस्या उत्पन्न होती है। खीचातानी करके किसी एकके साथ या तीनोके साथ तीनो भेदोको सयुक्त कर देनेपर भी यतिवृषभ जैसे ग्रन्थकारकी कृतिके अनुरूप स्वाभाविकता उसमें नही रहती । अस्तु,
दूसरा विशेपण 'धम्मसुत्तपाढरवसह' बतलाता है कि यतिवृषभ धर्मसूत्रके पाठकोंमे श्रेष्ठ थे, किन्तु धर्मसूत्रसे किस सूत्र-ग्रन्थका अभिप्राय है यह स्पष्ट नही होता। इस तरहके शब्दका व्यवहार भी जैनपरम्परामें मेरे देखने में नही आया।
वर्तमान त्रिलोकप्रज्ञप्तिके आधारपर यतिवृषभ महावीर-निर्वाणके एक हजार वर्प पश्चात् अर्थात् ई०४७३ से पूर्व नही हो सकते, क्योकि उसमे महावीर-निर्वाणसे एक हजार वर्ष तकके प्रमुख राजवशोकी कालगणना दी हुई है और वह इस रूपमें है कि सहसा उसे प्रक्षिप्त भी नही कहा जा सकता। उनके चूर्णिसूत्रोसे भी कोई वात ऐसी प्रकट नही होती, जिससे उनकी अर्वाचीनता प्रमाणित हो सके । उन्होने अपने चूणिसूत्रोमें 'एसा कम्मपवादे' और 'एसा कम्मपयडीसु' लिखकर कर्मप्रवाद और कर्मप्रकृतिका उल्लेख किया है ।
१. "एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थवड्ढमाणदिवायरादो विणिग्गमिय गोदम लोहज्ज-जबु
सामियादिआइरियपरपराए आगतूण गुणहराइरिय पाविय गाहासरूवेण परिणमिय अजमखुणागहत्यीहितो जइवसहमुहणमिय चुण्णिसुत्तायारेण परिणददिवज्झुणिकिरणादो णव्वदे।" -क. पा., भा०५, पृ. ३८८ ।
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चूर्णिसूत्र साहित्य : २०७
कसायपाहुडके चारित्रमोहोपशामना नामक अधिकारमें यतिवृपभने उपशामनाके दो भेद किये है-एक करणोपशामना और दूसरा अकरणोपशामना । तथा करणोपशामनाके भी दो भेद किये है देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना ।
और लिखा है कि अकरणोपशामनाका कथन कर्मप्रवादमें और देशकरणोपशामनाका कथन कर्मप्रकृतिमें है। कर्मप्रवाद आठवे पूर्वका नाम है और कर्मप्रकृति दूसरे पूर्वके पञ्चम वस्तु-अधिकारके अन्तर्गत चतुर्थ प्राभृतका नाम है। अब प्रश्न यह होता है कि यतिवृषभने इन दोनो ग्रन्योका निर्देश स्वय उन्हें देखकर किया है या अन्य किसी आधारपर किया है ? दिगम्बर उल्लेखोके अनुसार पूर्वोका ज्ञान तो वीर निर्वाणसे ३४५ वर्ष पर्यन्त ही प्रचलित रहा है। उसके पश्चात् तो विशकलित ज्ञान ही रह गया था । श्वेताम्वर उल्लेखोंके अनुसार वीरनिर्वाणसे लगभग छ सौ वर्ष पश्चात् स्वर्गगत हुए आर्यरक्षितसूरि साढे नौ पूर्वोक ज्ञाता थे। उन्हीके वंशज नागहस्ती थे। वे आठवें कर्मप्रवादके ज्ञाता हो सकते है। नन्दिसूत्रमै उन्हें कर्मप्रकृतिमें प्रधान तो बतलाया ही है । इसलिए उनके द्वारा यतिवृपभको कर्मप्रवाद और कर्मप्रकृति दोनोका अनुगम होना शक्य है। इन्ही दो का निर्देश चूर्णिसूत्रोमें पाया जाता है। अतएव चूर्णिसूत्रकार यतिवृपभ आर्यमगुके न सही तो कम-से-कम नागहस्तीके तो लघु समकालीन होने ही चाहिये । विवध श्रीधरके श्रुतावतारमें आर्यमगुका नाम नही है । गुणधरने नागहस्तीको कसायपाहुडके सूत्रोका व्याख्यान किया। और गुणघर नागहस्तिके पास यतिवृषभने उनका अध्ययन किया। इसमें गुणधरके पास अध्ययन करने वाली बातका समर्थन अन्यत्रसे नही होता, अत उसे छोड देने पर भी नागहस्तीके समीप अध्ययन करनेकी ही बात पुष्ट होती है । एक अन्य बात यह भी है कि त्रिलोकप्रज्ञप्तिकी उपलब्ध प्रतिमें हम बहुत-सी ऐसी गाथाए पाते है जो कुन्दकुन्दके ग्रन्थोमें पाई जाती है और उनसे ली गई प्रतीत होती है। यद्यपि इससे यतिवृषभकी प्राचीनताको विशेप क्षति नही पहुँचती, क्योकि कुन्दकुन्दका समय ईसाकी प्रथम शताब्दी माना गया है तथापि यतिवृपभमें यदि इस प्रकारका संग्रह करनेकी प्रवृत्ति होती तो उसका कुछ आभास उनके चूर्णिसूत्रोमें भी परिलक्षित होता। अत हमारा अनुमान है कि इन प्राचीन गाथाओका कोई एक मूलस्रोत रहा है, जहाँसे कुन्दकुन्द और यतिवृषभ दोनोने ही उन गाथाओको ग्रहण किया होगा। दूसरे, धरसेनने महाकर्मप्रकृतिप्राभूतके विच्छेदके भयसे ही भूतबलि-पुष्पदन्तको उसका ज्ञान दिया था। उन्होने उसके आधारपर षट्खण्डागमकी रचना की और इस तरह महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका ज्ञान उनके साथ समाप्त हो गया। तब यतिवृषभको कर्मप्रकृतिका १. त्रि भा २ की प्रस्तावना तथा अनेकान्त वर्ष २, पृ. ३ । ।
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२०८ : जनसाहित्यका इतिहास ज्ञान किससे मिला ? अत. यतिवृषभ ऐसे समयमें होने चाहिये जव कर्मप्रकृतिप्राभृतका ज्ञान अवशिष्ट था।
तीसरे, यह आगे बतलायेंगे कि छक्खडागम और कसायपाहुडमें अनेक वातोको लेकर मतभेद है, मत उन दोनोको तत्रान्तर कहा गया है। जो मतभेद वतलाया जाता है उसका आधार कसायपाहुड पर रचित चूर्णिसूत्र है। वही उस मतभेदका प्रतिनिधित्व करते है । उन्ही परसे धवला व जयघवलामें भूतवाल और यतिवृपभके मतभेदकी चर्चा देखनेमें आती है। उस चर्चापरसे यतिवृषभका व्यक्तित्व भूतवलिके समकक्ष प्रतीत होता है। दोनोके सूत्रोकी भी तुलनासे यही बात प्रमाणित होती है। अत यतिवृपभ भूतवलि पुष्पदन्तसे विशेष अर्वाचीन प्रतीत नहीं होते। और जैसा कि हम आगे स्पष्ट करेंगे। चूंकि धरसेन और नागहस्ती लगभग समकालीन प्रमाणित होते है, क्योकि दोनोका समय वीर-निर्वाणकी सातवी शताब्दीमें थोडा आगे-पीछे आता है। अत यतिवृषभ भी उसी समयके लगभग होने चाहिये । यतिवृषभकी रचनाएं ___आचार्य यतिवृषभकी कृतिरूपसे दो ग्रन्थ प्रसिद्ध है-एक प्रकृत चूर्णिसूत्र' और दूसरी तिलोयपण्णत्ती। दोनो उपलब्ध है और हिन्दी अर्थके साथ छपकर प्रकाशित हो चुके है। तिलोयपण्णत्तीका विषय लोकरचनासे सम्बद्ध है, अत उसका परिचय आदि इस ग्रन्थके लोकरचना विपयक प्रकरणमें दिया जायगा।
तिलोयपण्णत्तीकी अन्तिम गाथामें तिलोयपण्णत्तीका प्रमाण आठ हजार बतलाते हुए लिखा है कि चूणिस्वरूप और षट्करणस्वरूपका जितना प्रमाण है उतना ही तिलोयपण्णत्तीका परिमाण है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि षट्करणस्वरूप नामक भी कोई ग्रन्थ यतिवृषभकृत होना चाहिये ।
प० जुगलकिशोर मुख्तारका कहना है कि 'करणस्वरूप' नामक भी कोई ग्रन्थ यतिवृषभके द्वारा रचा गया था जो अभी तक अनुपलब्ध है। बहुत सम्भव है कि वह ग्रन्थ उन करणसूत्रोका ही समूह हो, जो गणितसूत्र कहलाते है और जिनका कितना ही उल्लेख त्रिलोकप्रज्ञप्ति, गोम्मटसार, त्रिलोकसार और धवला जैसे ग्रन्थोमें पाया जाता है। चूर्णिसूत्रोको सख्या चूकि छ हजार है अतः करणस्वरूप ग्रन्थकी संख्या दो हजार श्लोक परिमाण समझनी चाहिये,
१. श्री वीरशासन सघ, कलकत्तासे प्रकाशित । २ जीवराज ग्रन्थ माला, शोलापुरसे प्रकाशित । ३. चुण्णिसरूवछक्करणसरुपपमाण होइ कि जतं । अट ठसहस्सपमाण तिलोयपण्णत्ति
णामाए ॥७७॥ ति, प., भा २, पृ. ८८० ।
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चूणिसूत्र साहित्य · २०९ तभी दोनोकी सग्या मिलकर आठ हजार परिमाण इग ग्रन्थ ( तिलोयपण्णत्ती) का वैठता है (जै० सा० ३० वि० प्र०, पृ० ५८९ )।
किन्तु सिद्धान्तगाली प० होगाउने गगायपाहःगुत्तको प्रस्तावनाम उक्त अन्तिम गायाये उक्त अपमा भिन्न असे निया है । उन्होंने गाथा उद्धृत करके लिसा है--'इसंग बतलाया गया है कि भाठ मारणोके म्बस्पका प्रतिपादन करने वाली कम्पनीका और उगमो चूणिका जितना प्रमाण है उतने ही आठ हजार प्रमाण इस तिलोयाण्णतोगा परिगाण है ।'
गाया प्रथम चरण 'चुपिणराम्ब-यारणसम्ब' में'' के स्थान पर 'त्य' पाठभेद भी मिलना है। पण्डितजीने 'स्व' के स्थानमे 'टु' मानकर 'अट्टकरण' शब्द निष्पन्न किया है। न कि कर्मप्रतिमें आठ करणोके स्वम्पका कथन है अतः 'अट्ठकरण' नाग फर्गप्रकृतिके लिए ही प्रयुक्त किया है, ऐसा प० जीका विचार है । और यत आप कर्मप्रकृति की चूणिका रचयिता आचार्य यतिवृपभको मानते है, इसलिये आपने उक्त प्रकारका आर्य किया है।
कर्मप्रकृतिकी चणिक कर्ताका विचार करते समय इस बात पर प्रकाश डाला जायेगा कि यतिवपम उमफे फर्ता नहीं हो सकने। यहां तो हम इतना ही लिसना उचित समझते हैं कि पण्डितजीने ति० ५० को उक्त अन्तिम गाथाका जो अर्थ किया है वह अपनी उक्त कल्पनाके आधार पर उतावलीमे कर डाला है। यह ठीक है कि कर्मप्रकृतिमें आठ करणोफे भी स्वरूपका कथन है। किन्तु आठ करणोके सिवाय उदय और सत्तामा भी कथन है और पहली गाथामें ही आठ करणोके साथ उदय और गत्वके भी कयनकी प्रतिज्ञा ग्रन्थकारने की है। अत ऐसे ग्रन्यका नाम 'अट्टकरणगरुब' नही हो सकता।
दूमरे, प्रकृत कम्मपयडी या कर्मप्रकृतिका 'अट्टकरणसरूव' नाम भी था, इसका एक भी ममर्थक प्रमाण मेरे देयने में नहीं आया। जिस चूणिको पडितजी यतिवृपभकृत मानते है उसमें भी प्रथम गाथाकी उत्यानिकारुपसे 'कम्मपयडीसगहणी' नामका निर्देश करते हुए उसे सार्थक बतलाया है।
तीसरे, 'चुण्णिसरूवठ्ठकरणसरुव'का अर्थ 'कर्मप्रकृति और उसकी चूणि' करना भी कष्टसाध्य ही है। उसका सीधा-सा अर्थ होता है चूणि और अट्ठकरण ( कर्मप्रकृति ) । अट्ठकरणकी चूणि यह अर्थ तो नही होता । फिर कोई ग्रन्थकार अपने ग्रन्थका परिमाण बतलानेके लिए अपनी कृतियोके सिवाय अन्य कृतिका निर्देश क्यो करेगा । अत प० जीने तिलोयपण्णत्तीकी अन्तिम गाथाके स्त्रकल्पित अर्थके आधारपर जो कर्मप्रकृतिचूणिको यतिवृपभकी कृति बतलाया है वह ठीक नही है। इसी तरह सतरीचूणि तथा शतकचूणि भी यतिवृपभकृत नहीं है । इस पर विशेष प्रकाश चूणियोके कर्तृत्वके विवेचनके समय डाला जायेगा।
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२१० · जेनसाहित्यका इतिहास चूर्णिसूत्रोको विषयवस्तु
आचार्य गुणधररचित गाथासूनोपर भाचार्य यतिवृपभने चूणिगूत्रोकी रचना की है। अत चूणिसूतोका भी मुख्य प्रतिपात्र विपय वही है, जो कमायपाहुडका है। किन्तु गाचार्य गुणधरने अपने पृच्छात्मक गायारायोमें जो जिज्ञासाए मान व्यक्त की थी या जिन विपयोकी सूचनागान की थी उन गवको चूणिसूनकाग्ने भी सक्षेपमे ही कहनेका प्रयत्न किया है। उदाहरणके लिए आचार्य गुणधरने एकमात्र गाथा ( २२ ) के द्वारा आदिो चार अधिकारीका निर्देगमात्र किया है। किन्तु यतिवृपभने उस एक गाथाना अवलम्बन लेकर चारो अधिकागेका कथन किया है। सबसे प्रथम उन्होने गाथाका पदच्छेद किया है-'पयडीए मोहणिज्जा विहत्ति' इस पदमे प्रातिविभक्ति नामका पहला अधिकार है । 'तह द्विदी' से स्थितिविभक्ति दूसरा अर्थाधिकार है। 'अणुभागे' मे अनुभागविभक्ति तीसरा अर्थाधिकार है। 'उक्करगमणुपास्स'से प्रदेश विभक्ति चतुर्य अर्थाधिकार है। 'शीणाझीण' पाचर्या अर्थाधिकार है गौर "स्थित्यन्तक' छठा है। प्रकृतिविभक्तिके दो भेद है-मूलप्रकृतिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिविभक्ति । मूलप्रकृतिविभक्तिके आठ अनुयोगद्वार है--म्यामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भगविचय, काल, अन्तर, भागाभाग, अल्पवहुत्व । इन अनुयोगद्वारोका कथन करनेपर मूलप्रकृतिविभक्ति समाप्त होती है । इसके पश्चात् उत्तरप्रकृतिविभक्ति दो प्रकारको है.-एकउत्तरप्रकृतिविभक्ति और प्रकृतिस्थानउत्तरप्रकृतिविभक्ति। उनमेंसे एककउत्तर प्रकृतिविभक्तिके ये अनुयोगद्वार है-एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भगविचयानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, सन्निकर्ष और अल्पवहुत्व । इन अनुयोगद्वारोके कहने पर एकैकउत्तरप्रकृतिविभक्ति समाप्त होती है ।
इस तरह चूर्णिसूत्रकारने गुणधराचार्यके द्वारा सूचित आद्य अधिकारोका विवेचन किया है। उक्त अनुयोगद्वार आगमिक परम्पराकी देन है। उनके द्वारा किसी भी वर्ण्य वस्तुका विवेचन करनेसे उसके विपयमें पूरी जानकारी प्राप्त हो जाती है।
प्रथम गाथाका व्याख्यान करते हुए चूर्णिसूत्रकारने पाँच उपक्रमोका निर्देश किया है-आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार । आनुपूर्वी तीन प्रकारकी है। नामके छह भेद, प्रमाणके सात भेद, वक्तव्यताके तीन भेद और अर्थाधिकार केपन्द्रह भेद है ।
तिलोयपण्णत्तिके प्रारम्भमें कहा है
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चूणिसूत्र साहित्य : २११ जो ण पमाण-णएहि णिक्खेवेण णिरक्खदे अत्थ ।
तस्साजुत्त जुत्त जुत्तमजुत्त च पडिहादि ॥८२॥ अर्थात् जो नय, प्रमाण, निक्षेपसे अर्थका निरीक्षण नहीं करता, उसको अयुक्त पदार्थ युक्त और युक्त पदार्थ भयुक्त प्रतीत होता है ।
इस आचार्यपरम्परासे आगत न्यायको दृष्टि में रखकर चूणिसूत्रोमें भी तदनुसार कथन किया है । प्रथम गाथामें आगत 'कसायपाहुड' शब्दपर चूणिसूत्र द्वारा कहा गया है-उस पाहुडके दो नाम है-पेज्जदोसपाहुड और कसायपाहुड । पेज्जदोसपाहुडनाम अभिव्याहरण निष्पन्न है और कसायपाहुडनाम नयनिष्पन्न है । पेज्जका निक्षेप करते है-नामपेज्ज, स्थापनापेज्ज, द्रव्यपेज्ज, भावपेज्ज । नेगम, सग्रह, व्यवहारनय सब निक्ष पोको स्वीकार करते है । ऋजसूत्रनय स्थापनाको छोडकर शेप तोनको स्वीकार करता है। शब्दनय नामनिक्षेप और भावनिक्षेपको स्वीकार करता है।
इसी तरह दोस कसाय और पाहुडमें भी निक्षपोकी योजना करके उनमें नयकी योजना की है।
पाहुडशब्दकी निरुक्ति 'पदेहि पुद' की है अर्थात् पदोसे स्फुट होनेसे प्राभूत कहते है।
प्रकृतिविभक्तिका कथन करते हुए विभक्तिका निक्षेप किया है-नामविभक्ति, स्थापनाविभक्ति, द्रव्यविभक्ति, क्षेत्रविभक्ति, कालविभक्ति, गणनाविभक्ति सस्थानविभक्ति और भावविभक्ति । विभक्तिका अर्थ करते हुए कहा है-तुल्यप्रदेशी द्रव्य तुल्यप्रदेशी द्रव्यका अविभक्ति है और वही द्रव्य असमानप्रदेशी द्रव्यका विभक्ति है अर्थात् विभक्तिका अर्थ असमानता है।
प्रकृतिविभक्तिके अन्तर्गत प्रकृतिस्थानविभक्तिका कथन करते हुए मोहनीय कर्मके पन्द्रह प्रकृतिसत्वस्थान कहे है-२८, २७, २६, २४, २३, २२, २१, १३, १२,११, ५, ४, ३, २ १। चूर्णिसूत्रकारने इनका कथन एकसे किया है। किन्तु यहाँ हम मोहनीयकर्मके इन सत्वस्थानोको इसी क्रमसे लिख रहे जिस क्रमसे ऊपर कहे है । उससे पाठक यह जान सकेंगे कि मोहनीयकर्मका क्षय किस क्रमसे होता है । __ मोहनीयकर्मको उत्तरप्रकृतियाँ अठाईस है। जिसके सब प्रकृतियोको सत्ता है वह अट्ठाईस प्रकृतिस्थान विभक्तिवाला है। ऐसा जीव सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिथ्यादृष्टि होता है। उनमेंसे सम्यक्त्वप्रकृतिकी उद्वेलना करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है । उसके सत्ताईस प्रकृतियोकी सत्ता होती है । उनमेंसे सम्यक्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करने वाला सादिमिथ्यादृष्टिजीव या
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२१२ : जैनसाहित्यका इतिहास अनादि मिथ्यादृष्टि जीय छब्बीस प्रकृतियोकी सत्ता वाला होता है। अठाईस प्रकृतियोमेसे अनन्तानुवन्धी क्रोध, मान, माया, लोभका विसंयोजन करने वाला सम्यग्दृष्टि चोवीरा प्रकृतियोकी सत्ता वाला होता है। मिथ्यात्वका क्षय होने पर और सम्यक्त्यप्रकृति तथा राम्यमिथ्यात्वप्रकृतिके शेष रहने पर मनुष्य सम्यग्दृष्टि तेईग प्रकृतियोको विभक्ति वाला होता है। मिथ्यात्व तथा मम्यक् मिथ्यात्वका क्षय होने पर और मम्यक्प्रकृतिके शेप रहने पर मम्यग्दृष्टि मनुष्य वाईस प्रकृतियोकी विभक्ति वाला होता है। दर्गनगाहनीयका क्षय करने वाला जीव इक्कीस प्रकृतियोकी विभक्ति वाला होता है । नौवें गुणस्थानमे अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया. लोभका क्षपण करने वाला सयमी मनुष्य तेरह प्रकृतियोकी विभक्ति वाला होता है। फिर उमी गुणस्थानमें नपुंसकवेदका क्षय करनेपर वारह प्रकृतियोंकी, स्त्रीवेदका क्षय करने पर ग्यारह प्रकृतियोकी, छह नोकपायोका क्षय करनेपर पांच प्रकृतियोकी, पुरुषवेदका क्षय करनेपर चार प्रकृतियोकी, तथा क्रमसे सज्वलन क्रोध, मान और मायाका क्षय करनेपर तीन, दो और एक विभक्ति वाला होता है । एक विभक्ति वालेके केवल एक सज्वलनलोभकपाय शेप रहती है। इसका विनाश कृष्टिकरणके द्वारा किया जाता है।
चूणिसूत्रकारने इन्ही प्रकृतियोके स्थितिसत्व, अनुभागसत्व, प्रदेशसत्व आदिका कथन अनुयोगहारोसे किया है। किन्तु उन्होने सभी अनुयोगद्वारोका कथन नही किया । जहाँ जिनका कथन आवश्यक समझा वहीं उनका कथन किया है । समस्त कथन इतना अधिक परिभापाबहुल है कि कर्मसिद्धान्तके अभ्यासी पाठकके लिये भी दुरूह है । उस सवका परिचय कराना भी कष्टसाध्य है। फिर भी कुछ कम दुरुह विपयोका परिचय कराते है___ बन्धक अधिकारमें आगत सक्रम-अधिकारमें मोहनीयके उक्त २८ आदि प्रकृतिस्थानोके सक्रम पर भी विचार किया गया है। प्रत्येक प्रकृतिसत्वस्थानकी प्रकृतिया वतलानेके साथ किस स्थानका सक्रम होता है और किसका नही होता इसका स्पष्टीकरण किया है।
इस सक्रम-अधिकारको आचार्य गुणधरने भी विस्तारसे लिखा है और चूर्णिसूत्रकारने भी उसे यथानुरूप स्पष्ट किया है। इसके स्पष्टीकरणके लिये उन्होने स्थानसमुत्कीर्तन, सर्वसक्रम, नोसर्वसक्रम, उत्कृष्टसक्रम, अनुत्कृष्टसनम, जघन्यसंक्रम, अजघन्यसक्रम, सादिसक्रम, अनादिसक्रम, ध्रुवसक्रम, अध्रुवसक्रम, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोकी अपेक्षा भंगविचय, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, अल्पबहुत्व, भुजकार, पदनिक्षेप और वृद्धि अनुयोगद्वार सूचित किये है । किन्तु विवेचन केवल स्थानसमुत्कीर्तन, काल अन्तर और अल्पबहुत्व
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चूणिसूत्र साहित्य २१३ का ही किया है। प्रकृतिसंक्रमकी तरह ही स्थितिसंक्रम, अनुभागसक्रम, और प्रदेशसक्रमका कथन किया है।
सक्रमके पश्चात् वेदक अधिकार है । इसमें आचार्य गुणधरने जो आशकासूत्र उपस्थित किये है उन सवका विवेचन चूर्णिसूत्र द्वारा किया गया है। वेदकके दो अनुयोगद्वार है-उदय और उदीरणा । पहली गाथा प्रकृति-उदीरणा और प्रकृतिउदयसे सम्बद्ध है। आगेकी गाथाएँ उदीरणासे सम्बद्ध होनेसे चूणिसूत्रकारने उदीरणाका ही कथन विस्तारसे किया है । अनुयोगद्वारोका क्रम आवश्यकतानुसार परिवर्तनसे सर्वत्र चलता है।
आगे उपयोगाधिकारमें आशङ्कासूत्रोको स्पष्ट करते हुए प्रत्येक कपायका उपयोगकाल अन्तमुहूर्त कहा है अर्थात् क्रोध आदिकी ओर उपयोग अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है । गाथामें पूछा गया है कि किस कपायका उपयोग काल किस कषायके उपयोगकालसे अधिक है ? इसके समाधानमें चूणिसूत्रकारने कहा है कि क्रोध कषायका काल मानकपायसे अधिक है। मायाकपायका काल क्रोधकषायसे अधिक है। लोभकपायका काल मायाकषायसे अधिक है । यह कथन गतिको लेकर भी किया है। जैसे नरक गतिमें लोभकपायका काल सबसे कम है। देवगतिमें क्रोधका काल नरकगतिके लोभके कालसे अधिक है आदि । कपायोंके अध्ययनके लिये यह अधिकार बहुत उपयोगी है।
सम्यक्त्व-अधिकारमें चूणिसूत्रकारने अध करण अपूर्वकरण, और अनिवृत्तिकरणका कथन किया है । इनके विना सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती। दर्शनमोहक्षपणामें उसके प्रस्थापकका स्वरूप विस्तारसे कहा है। उसमें सम्यक्त्वप्रकृतिकी स्थितिकी सत्ताके सम्बन्धमें दो मतोका भी निर्देश चूर्णिकारने किया है। कहा है कितने ही आचार्य कहते है कि उस समय (अर्थात् सम्यक्मिथ्यात्वके एक आवली प्रमाण स्थितिसत्व शेप रहने पर) सम्यक्त्वप्रकृतिकी स्थिति सख्यात हजार वर्ष शेप रहती है। किन्तु प्रवाह्यमान उपदेशसे आठ वर्प प्रमाण शेष रहती है । अन्तिम दो अधिकारोमें चारित्रमोहकी उपशमना और क्षपणाके सम्बन्धमें विपुल सामग्री भरी हुई है। लिखा है-वेदक सम्यग्दृष्टि जीव अनन्तनुबन्धी कषायका विसयोजन किये बिना शेष कषायोका उपशम करनेमें प्रवृत्त नही हो सकता। अनन्तानुवन्धीका विसयोजन करने पर अन्तर्मुहूर्त काल तक अधःप्रवृत्त रहता है। फिर दर्शनमोहनीयका उपशम करके कषायोका उपशम करनेके लिये अध प्रवृत्तकरण करता है। चूणिसूत्रमें प्रश्न किया गया है कि उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ अवस्थित परिणामवाला होने पर भी क्यो गिरता है। उत्तर दिया है कि उपशमकालका क्षय हो जानेसे गिरता है। आगे उसका विस्तारसे कथन किया है।
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२१४ . जनसाहित्यका इतिहास
कथन हैं। पर उसकी विशेष क्रिया अधिकार में सर्वप्रथम
समुच्छिन्नमक्रियाप्रतिया महातका कथन उसके बाद
इसी तरह चारियमोहक्षपणा नामक अन्तिम अधिकारमें सर्वप्रथम उसके प्रस्थापकका कथन किया है । फिर उसकी विशेप क्रियाका कयन किया है । अन्तमें कृष्टिवेदकक्रियाका कथन है । पुन कृष्टिक्षपणक्रियाका कथन है ।
चूर्णिसूनोके अन्तमें उपत पन्द्रह अर्थाधिकारीसे अतिरिक्त एक पश्चिम स्कन्धाधिकार विशेष है। इसमें कहा है कि सयोगकेवली अन्तमुहूर्त आयु शेप रहने पर पहले आवजित करण करते है, उसके बाद केवली समुद्धात करते है । इस तरह इसमे केवलीसमुद्धातका कथन है। केवलीसमुद्धातके मनन्तर सयांगकेवली सूक्ष्मक्रियाप्रतियाति ध्यानको करते है। फिर अयोगकेवली होकर समुच्छिन्नक्रियामनिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्ल ध्यानको ध्याकर एक समयमें मुक्ति स्थान पहुच जाते हैं। नीचे हम चूणिसूयोकी संख्या अधिकारानुसार देते हैं
अधिकारके क्रमसे चूणिसूत्रोकी सख्या पेज्जदोसविहत्ती प्रकृतिविभक्ति स्थितिविभत्ति अनुभागविभक्ति (प्रदेशविभक्ति झीणाझीण
१४२ (स्थित्यन्तिक बन्धक सक्रम
७४० वेदक उपयोग
orrowr-~
चतुस्थान
१४०
व्यञ्जन
सम्यक्त्व । दर्शनमोहक्षपणा सयमासयमलब्धि सयमलब्धि चारित्रमोहोपशमना चारित्रमोहक्षपणा पश्चिमस्कन्ध
७०६ १५७२
५२
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तृतीय अध्याय मूलागम-टीकासाहित्य
प्रथम परिच्छेद
घवला-टीका कसायपाहुड और छक्खंडागम पर विशाल टीकाएं लिखी गयी है । यह टीका-साहित्य अपने गुण और परिमाण दोनो ही दृष्टियोसे इतना महत्त्वपूर्ण है कि इसे ग्रन्थोकी सज्ञाएं प्राप्त है। किसी भी विषयका टीका-साहित्य तब लिखा जाता है जब मूल ग्रन्थोका ज्ञान लुप्त होने लगता है और आगमकी वशवर्तिता अनिवार्य हो जाती है। दिगम्बर परम्परामें उक्त दोनो मूलागमोपर आचार्य कुन्दकुन्दसे ही टीकाएँ लिखी जाने लगी थी। शामकुण्ड, तुम्बूलराचार्य, वप्पदेव वीरसेन आदि अनेक आचार्योंने टीकाएँ लिखी।
इन्द्रनन्द्रिने अपने श्रुतावतार में लिखा है कि वप्पदेवके पश्चात् कुछ काल बीत जानेपर सिद्धान्तोके रहस्य ज्ञाता एलाचार्य हुए। ये चित्रकूटके निवासी थे । इनसे आचार्य वीरसेनने सकल सिद्धान्तका अध्ययन किया। तत्पश्चात् गुरुकी अनुज्ञासे वाटकनामके आनतेन्द्र जिनालयमें षट्खण्डसे पहले व्याख्याप्रज्ञप्तिको प्राप्त कर आगेके बन्धन आदि अठारह अधिकारोके द्वारा 'सत्कर्म नामक छठे खण्डकी रचना की । और इसको पहलेके पाँच खण्डोमें मिलाकर छह खण्ड किये।
धवला-टीका नामकरण
वीरसेनने पूर्वोक्त छह खण्डो पर बहत्तर हजार श्लोक प्रमाण सस्कृतमिश्रित प्राकृत-भाषामें 'धवला' नामक टीका लिखी । इस टीकाके नामकरणका कारण यह प्रतीत होता है कि अमोघवर्षकी उपाधि 'धवल' होनेके कारण इस टीकाका नाम उनकी स्मृतिमें रखा गया है। दूसरी बात यह है कि यह टीका अत्यन्त विशद और स्पष्ट है, इसी कारण इसे 'धवला' कहा गया ज्ञात होता है । तीसरी बात यह है कि यह टीका कार्तिक मासके धवल-शुक्ल पक्षकी त्रयोदशीको समाप्त हुई थी, अतएव सम्भव है कि इसी निमित्तसे उक्त नामकरण हुआ है।
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श्रुतावतार, पद्य १७७-१८४ ।
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२१६ : जनसाहित्यका इतिहास महत्त्व ___ जयधवलाकी अन्तिम प्रशस्तिमे वीरसेनके शिष्य जिनसेनने लिखा है'टीका तो वीररोनकृत है वाकी तो या तो पद्धति कहे जानेके योग्य है या पजिका कहे जानेके योग्य है' जिनसेनाचार्यका उक्त कथन कोरा श्रद्धा-भक्ति मूलक नही है किन्तु उसमें यथार्यता है। और उसका अनुभव सिद्धान्तके पारगामी ही नही साधारण ज्ञाता भी धवला और जयघवला टीकाके अवलोकनसे सरलता पूर्वक कर सकते है । इतनी बृहत्काय और शुद्ध सैद्धान्तिक चर्चाओसे परिपूर्ण अन्य टीका जैन परम्परामें तो दूसरी है नही, भारतीय साहित्यमें भी नही है । फिर ये टीकाएं तो प्राकृत-गद्यम निबद्ध है, जिनके बीचमे काही-कही संस्कृत की भी पुट है और वह ऐसी शोभित होती है जैसे मणियोके मध्यमे मूगेके दाने ।
जिनसेनके अनुसार सम्पूर्ण श्रुतको व्याख्याको अथवा श्रुतकी सम्पूर्ण व्याख्याको टीका' कहते है । यह लक्षण वीरसेनकृत टीकामोमें पूरी तरहसे घटित होता है । सम्भवतया वीरसेनको टीकाको देखकर ही जिनसेनने टीकाका उक्त लक्षण बनाया जान पटता है । सचमुचमे धवला और जयधवला जैन सिद्धान्तकी चर्चाओका आकर है। महाकर्मप्रकृतिप्राभत और कपायप्राभत सम्वन्धी जो ज्ञान वीरसेनको गुरुपरम्परासे तथा उपलब्ध साहित्यसे प्राप्त हो सका वह सब उन्होने अपनी दोनो टीकाओमें निबद्ध कर दिया है और इस तरहसे उनकी ये दोनो टीकाएं एक प्रकारसे दृष्टिवादके अगभूत उक्त दोनो प्राभृतोका ही प्रतिनिधित्व करती है । वे मूल पट्खण्डागम तथा चूणिसूत्र सहित कसायपाहुडका ऐसा अग वन गई और उन्होने उन्हे ऐसा आत्मसात् कर लिया कि उन्होने अपना २ स्त्रीलिंगत्व छोडकर सिद्धान्तका पुल्लिगत्व स्वीकार कर लिया और पट्खण्डागम सिद्धान्त धवलसिद्धान्तके नामसे तथा कसायपाहुड सिद्धान्त जयधवलसिद्धान्त के नामसे ख्यात हो गया। और इन्ही नामोसे उनका उल्लेख किया जाने लगा। इतना ही नही, किन्तु जो धवलटीकाके साथ षट्खण्डागम सिद्धान्तका पारगामी होता था उसे सिद्धान्तचक्रवर्तीके पदसे भी भूपित किया जाने लगा । ऐसी महत्त्वपूर्ण ये दोनो वीरसेनीया टीकाएं है ।
१. 'टीका श्रीवीरसेनीया शेषा पद्वति पञ्जिका ॥३९॥ ज०० प्रश० २. 'प्राय. प्राकृतभारत क्वचित्सस्कृतमिश्रया। मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽय ग्रन्थ
विस्तर ॥३७॥ ज० ध० प्र० ३. 'कृत्स्राकृत्स्नश्रुतव्याख्ये ते टीकापन्जिके स्मृते ॥४०॥ ज० ध० प्रश० 1 ४. 'णउ बुज्झिउ आयमसद्दधामु । सिद्ध तु धवलु जयधवलु णाम ॥-म० पु० प्रा० ।
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धवला-टीका : २१७ प्रामाणिकता
इन टीकाग्रन्थोको इतना महत्त्व मिलनेका कारण वीरसेनका बहुश्रुत होना तो है ही, जिसका परिचय धवला तथा जयधवलाकी प्रत्येक पक्तिसे मिलता है, साथ ही वीरसेनकी प्रामाणिकता भी उसका एक कारण है। वीरसेन स्वामीको जो कुछ प्राप्त हुआ उसे उन्होने अपनी शैलीमें ज्यो-का-त्यो निबद्ध कर देना ही उचित समझा । जिन विषयो पर उन्हें दो प्रकारके मत मिले, उनपर उन्होने दोनो परस्पर विरोधी मतोको ज्यो-का-त्यो दे दिया और किसी एक पक्षमें अपना मत अथवा झुकाव व्यक्त नही किया। इस तरहके उदाहरण दोनो टीकाओमें बहुतायतसे मिलते है। यहाँ एक उदाहरण दे देना पर्याप्त होगाउससे ग्रन्थकारकी निर्मलताके साथ-ही-साथ जैनपरम्पराको प्रामाणिक बनाये रखनेकी प्रकृति पर भी प्रकाश पडता है।
अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती जीव सतकम्मपाहुडके अनुसार पहले सोलह कर्मप्रकृतियोका क्षय करके तव आठ कषायोका क्षय करता है और कसायपाहुडके अनुसार पहले आठ कपायोको क्षय करके पश्चात् सोलहका क्षय करता है । इसके सम्बन्धमें वीरसेन स्वामीने जो लिखा है, सम्बद्ध सैद्धान्तिक चर्चाको छोडकर उसका संक्षिप्त आशय यहा दिया जाता है
"शङ्का-दोनो वचनोमेंसे कोई एक वचन ही सूत्ररूप हो सकता है क्योकि जिन अन्यथावादी नहीं होते । अत उनके वचनोमें विरोध नही होना चाहिये? ___समाधान-आपका कहना ठीक है किन्तु ये दोनो जिनेन्द्रके वचन न होकर उनके पश्चात् हुए आचार्योके वचन है । इसलिये उनमें विरोध होना सभव है ।
शका-तो फिर आचार्योंके द्वारा कहे गये सतकम्मपाहुड और कसायपाहुड सूत्र कैसे हुए।
समाधान-तीर्थकरोके द्वारा अर्थरूपसे प्रतिपादित और गणधरोके द्वारा ग्रन्थरूपमें रचित बारह अग आचार्यपरम्परासे निरन्तर चले आते थे। परन्तु कालके प्रभावसे वुद्धिके उत्तरोत्तर क्षीण होने पर और उन अगोको धारण करने वाले योग्य पात्रके अभावमें वे उत्तरोत्तर क्षीण होते गये। इसलिये आगे श्रेष्ठ बुद्धि वाले पुरुषोंका अभाव देखकर, अत्यन्त पापभीरू और गुरुपरम्परासे श्रुतार्थको ग्रहण करने वाले आचार्योंने तीर्थविच्छेदके भयसे अवशिष्ट वचे श्रुतको पोथियोमें लिपिबद्ध किया, अतएव उनमें असूत्रपना होनेका विरोध है। १ पट्ख० पु. १, पृ० २१७-२२२ ।
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२१८ . जैनसाहित्यका इतिहास
शका-यदि ऐसा है तो उक्त दोनो ही कयनोको द्वादशागका अवयव होनेसे सूत्रपना प्राप्त होता है ?
समाधान-उन दोनोमेंसे कोई एकको सूत्रपना भले ही प्राप्त हो, किन्तु दोनोको सूत्रपना नहीं प्राप्त हो सकता, क्योकि उन दोनोम परस्पर विरोध पाया जाता है। __शका-तव सूत्रविरुद्ध लिखनेवाले आचार्यको पापभीरु कैसे कहा जा सकता है ?
समाधान-यह आपत्ति ठीक नहीं है, क्योकि उक्त दोनो कथनोमेंसे किसी एक ही कथनका सग्रह करनेपर पापभीस्ता नहीं रहती। किन्तु उक्त दोनो कथनोका सग्रह करने वाले आचार्योके पापभीरूता नष्ट नही होती।
शका-उक्त दोनो वचनोमेंसे कोन वचन सत्य है ?
समाधान-इस वातको तो केवली अथवा श्रुतकेवली ही जान सकते है, दूसरा कोई नही जान सकता । अत उसका निर्णय न होनेसे वर्तमान कालके पाप भीरू आचार्योको दोनो ही वचनोका सग्रह करना चाहिये, अन्यथा पापभीरताका विनाश हो जायगा। ___इस प्रकारके पापभीरू आचार्यके कथनमें अप्रामाणिकताकी अशका नही की
जा सकती। व्याख्यान शैली
षट्खण्डागमके सूत्र अल्पाक्षर होने पर भी असन्दिग्व है-पढते ही शब्दार्थका बोध हो जाता है । किन्तु उनमें जो सार भरा हुआ है उसका तो आभास भी साधारण पाठकको नही हो पाता । अत. वीरसेनाचार्यने अपनी धवला टीकाके द्वारा सूत्रोके शब्दार्थको न कहकर उनमें भरे हुए सारको ही प्रकट किया है। किन्तु वह सार-उद्घाटन भी ऐसा है कि उससे सूत्रगत प्रत्येक शब्दकी स्थिति स्वत स्पष्ट हो जाती है और यदि क्वचित् कदाचित् किसी सूत्रमें कोई शब्द भूलसे छूट गया हो तो विचारशील पाठकको यह प्रतिभास हुए बिना नही रहता कि अमुक शब्द यहाँ छूट गया है। इसका एक उदाहरण दे देना उचित होगा।
धवलासहित षट्खण्डागमकी जो प्रतिलिपि मूडविद्रोसे बाहर गई उसमें जीवट्ठाणके सतप्ररूपणा अनुयोगद्वारके ९३ वें सूत्रमे 'सजद' शब्द लिखनेसे छूट गया। किन्तु वीरसेन स्वामीकी टीकाके अनुशीलनसे वह बराबर प्रकट होता है कि सूत्रमें 'सजद' शब्द छूटा हुआ है। बादको जब मूडविद्री
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धवला-टीका • २१९ की ताडपत्रीय प्रतिसे मिलान करनेकी सुविधा प्राप्त हुई तो उसमें 'सजद' शब्द पाया गया।
धवलाकी व्याख्यानशैलीपर प्रकाश डालनेकी दृष्टिसे यहाँ उस तिरानवे सूत्रकी टीकाका अर्थ दिया जाता है। वह टीका सस्कृतमें है। यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि यद्यपि धवलाटीका सस्कृतमिश्रित प्राकृत-भापामें निबद्ध है तथापि सत्प्ररूपणाके सूत्रोका व्याख्यानसस्कृतभाषा प्रधान है। अस्तु, ___ 'सम्यक्मिथ्यादृष्टि, असयतसम्यग्दृष्टि, सयतासयत और सयत गुणस्थानोमें मानुषी नियमसे पर्याप्तक होती है ॥९३॥ यह सूत्रार्थ है । इसकी टीकाका अर्थ इस प्रकार है
शका-हुण्डावसर्पिणी कालमें सम्यग्दृष्टी जीव स्त्रियोमें क्या नही उत्पन्न
होते?
समाधान--नही उत्पन्न होते । शका-यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान--इसी आपसे जाना । शका-इसी आपसे तो द्रव्यस्त्रियोका मोक्ष जाना भी सिद्ध हो जायेगा ?
समाधान नही, क्योकि वस्त्रसहित होनेसे उनके सयतासयत गुणस्थान होता है अतएव उनके सयम उत्पन्न नही होता।
शका-वस्त्रसहित होते हुए भी उन द्रव्यस्त्रियोके भावसंयमके होने में कोई विरोध नही होना चाहिये ?
समाधान-उनके भावसयम नहीं है, यदि उनके भावसयम होता तो भावअसयमके अविनाभावी वस्त्रादिका ग्रहण करना सभव नही था।
शका-स्त्रियोमें चौदह गुणस्थान कैसे हो सकते है ?
१-'सामामिच्छाइट्ठी-असजदसम्माइट्ठि-सजदासजदद्वाणे णियमा पज्जत्तियाओ॥१३॥
हुण्डावसर्पिण्या स्त्रीपु सम्यग्दृष्टय किन्नोत्पद्यन्ते इति चेत्, नोत्पद्यन्ते। कुतोऽ वसीयते, अस्मादेवात् । अस्मादेवार्षात् द्रन्यस्त्रीणा निवृति सिद्धयेदिति चेन्न, सवासत्वादप्रत्याख्यानगुणास्थिताना सयमानुपपत्ते । भावसयमस्तासा सवाससामप्यविरुद्ध इति चेत्, न तासा भावसयमोऽस्ति भावासयमाविनाभाविवस्त्रायुपादानान्यथानुपपत्तः। कथं पुनस्तासु चतुर्दशगुणस्थानानीति चेन्न, भावस्त्रीविशिष्टमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात् । भाववेदो वादरकषायानोपर्यस्तीति न तत्र चतुर्दशगुणस्थानाना सम्भव इति चेन्न, अत्र वेदस्य प्राधान्याभावात्। गतिस्तु प्रधाना न साराद् विनश्यति । वेदविशेषणाया गतौ न तानि सभवतीति चेन्न, विनष्टेऽपि विशेषणे उपचारेण तद्वयपदेशमादधानमनुष्यगतौ तत्सत्त्वाविरोधात् । मनुष्यापर्याप्त वपर्याप्तिप्रतिपक्षाभावत सुगमत्वान्न तत्र वक्तव्यमस्ति ।।
पटख, धव. पु. १, पृ ३३२-३३३ ।
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२२० जैनसाहित्यका इतिहास
समाधान-भावस्त्री अर्थात् स्त्रीवेदके उदयसे युक्त मनुष्यगतिमें चौदह गुणस्थानोका सत्त्व माननेमे कोई विरोध नहीं है।
शका-नौवें गुणस्थानके ऊपर भावभेद नही पाया जाता, अत स्त्रीवेदके उदयसे युक्त मनुष्यगतिमें चौदह गुणस्थान सभव नही है ?
समाधान-यहाँ वेदकी प्रधानता नही है । गतिकी प्रधानता है और वह पहले नष्ट नहीं होती।
शका-फिर भी वेदविशिष्ट गतिमें तो चौदह गुणस्थान सभव नही हुए ? ।
समाधान वेदविशेषणके नष्ट हो जाने पर भी उपचारसे स्त्री पुरुष आदि सज्ञाको धारण करने वाली मनुष्यगतिमें चौदह गुणस्थानोके होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
उक्त चर्चा जैन सिद्धान्तकी मान्यताओसे सम्बद्ध होनेके साथ-ही-साथ दिगम्बरत्व और श्वेताम्वरत्वके मूलकारण वस्त्र और स्त्रीमुक्ति सम्बन्धी विवादसे सम्बद्ध है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्त्रीको मोक्ष मानता है, दिगम्बर सम्प्रदाय नही मानता है। किन्तु उक्त सूत्रमें मानुपीके चौदह गुणस्थान बतलाये है। इसीपरसे उसकी टीकामें उक्त विवादको स्थान दिया गया है। चौदह गुणस्थान होनेका मतलब ही मोक्षलाभ है क्योकि चौदहवें गुणस्थानको प्राप्त करनेके पश्चात् ही मुक्तिलाभ होता है ।
इसीसे टीकामें शंका की गई है कि इसी आर्षसे द्रव्यस्त्रियोको भी मोक्ष सिद्ध हो जायेगा, क्योकि मानुषीके चौदह गुणस्थान ९३ वें सूत्रमें बतलाये है । किन्तु गुणस्थानोकी तरह मार्गणाएं भी भावप्रधान है उनमें भी भावकी मुख्यता है । अत मानुषीसे आशय उस मनुष्यसे है जिसके शरीरसे पुरुप होते हुए भी अन्तरगमें स्त्रीवेदका उदय है। उसे ही भावस्त्री कहते है और स्त्रीशरीरधारीको द्रव्यस्त्री कहते है । भावस्त्रीके ही चौदह गुणस्थान होते हैं, द्रव्यस्त्रीके नहीं। ___ श्वेताम्बरीय शास्त्रोके अनुसार भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रीपर्यायमें जन्म नही लेता। जैन कर्मसिद्धान्तका यह एक सर्वसम्मत नियम है। किन्तु वाइसवें तीर्थकर मल्लिनाथको श्वेताम्वर परम्परामें स्त्री माना है । तीर्थङ्कर प्रकृतिका वन्ध सम्यग्दृष्टिके ही होता है तथा तीर्थकर होने वाला जीव सम्यक्त्वके साथ ही जन्म लेता है। अत इस सिद्धान्तके अनुसार कोई तीर्थङ्कर स्त्री नही हो सकता। किन्तु श्वेताम्वर परम्परामें ऐसा मान लिया गया और उसे हुण्डावसर्पिणी कालका दोप' माना है । उसीको लक्षमें रखकर वीरसेन स्वामीने १ 'दसअच्छेरा पण्णत्ता-उवसग्ग गव्भहरण इत्थी तित्थ । स्था १० ठा ।
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घर
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और वह
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प्रारम्भमें ही यह शका उठाई है कि हुण्डावसर्पिणीमें स्वियं उत्पन्न नहीं होता। __ श्वेताम्वरीय' टीकाकारोने भी कर्मसिद्धान्तके उक्त अपनी उक्त मान्यताके साथ बैठानेके लिए उसमें अपवाद सम्यग्दृष्टि स्त्रीनपुंसकोमें उत्पन्न नहीं होता, यह बहुत कदाचित् हो भी जाता है। किन्तु पञ्चसग्रहकारने इस तथोक्त नहीं की। यह उल्लेखनीय है । अस्तु,
इस तरह श्री वीरसेन स्वामीने अपनी धवलाटीकामें प्रत्ये करते हुए उससे सम्बद्ध सैद्धान्तिक चर्चाओका उपपादन कर किया है और गूढ-से-गूढ विपयको सरलरूपसे स्पष्ट किया है विषय-परिचय
यों तो पखण्डागमके विषय-परिचयसे धवलाका विप जाता है क्योकि वह उसकी टीका है तथापि सात हजार सूत्र श्लोक प्रमाण टीकामें ऐसी भी बहुत-सी प्रासगिक चर्चा ग्रन्थके विपय-परिचयमें आभास नही हो सकता । साथ ही जि का प्रारम्भ किया गया है उसका परिचय कराना भी उचित है
जिन, श्रुतदेवता, गणधरदेव, धरसेन, पुष्पदन्त और भूत करनेके पश्चात् प्रथम सूत्रको उत्थानिकाके रूपमें वीरसेनने एक
मगल-णिमित्त-हेऊ परिमाण णाम तह य करत
वागरिय छप्पि पच्छा वक्खाणउ सत्यमाइनि इसमें कहा है कि मगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम वातोका व्याख्यान करनेके पश्चात् आचार्यको शास्त्रका चाहिये। इसे वीरसेनस्वामीने आचार्य परम्परासे आगत = इसलिए सबसे प्रथम उक्त छै वातोका कथन अपनी धवला किया है । वीरसेन स्वामीसे पहले तिलोयपण्णत्ति में ही उक्त १ 'मणुस्सेसु सम्मट्ठिी इत्थीनपु सगेसु न उववज्जइ त्ति प्राचुर्यवच भवति'-सि चू, पृ ४३।
'तिर्यग् मनुष्येषु स्त्रीवेद-नए सकवेदिपु मध्येऽविरतसम्
EPTET fr पर एवंह और सी मन हत है,
~ र सांपर्यापम बम
मि । किन्तु बाइट माह। तोपर प्रतिभा पानाजीव सम्पत्तिके
स्त्री
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२२४ : जैनसाहित्यका इतिहास सूत्रोमें ही उस प्रकारका कथन है । उन्होने जो गाथा उद्धृत की है वह दि० प्राकृत पञ्चसग्रहके जीवसमासनामक प्रथम प्रकरणकी दूसरी गाथा है। और जीवससासप्रकरणमें वीसो प्ररूपणाओका कथन है। सम्भवतया उसीके अवलम्वनसे वीरसेन स्वामीने वीस प्ररूपणाओका विस्तारसे निरूपण किया है। यह विस्तार अवश्य ही उनको प्रतिभाका चमत्कार हो सकता है ।
जीवट्ठाणके द्रव्यप्रमाणनामक अनुयोगद्वारके व्याख्यानको आरम्भ करते हुए वीरसेन स्वामीने जो मंगलाचरण किया है उसमें 'दव्वणिोग गणियसार' लिखकर द्रव्यानुयोगको गणितसार कहा है। चूकि इस अनुयोगद्वारमें जीवोकी सख्याका वर्णन है अत' इसमें गणितकी प्रधानता है । स्व० डा० अवधेश नारायणसिंहका एक अंग्रेजी निबन्ध षट्खण्डागमकी चतुर्थ पुस्तकके आदिमें प्रकाशित हुआ है और पांचवी पुस्तकको आदिमें उसका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ है । उसमे गणितके उक्त अधिकारी विद्वान्ने लिखा है___वीरसेन तत्त्वज्ञानी और धार्मिक दिव्य पुरुष थे। वे वस्तुत. गणितज्ञ नही थे । अत जो गणितशास्त्रीय सामग्री धवलाके अन्तर्गत है वह उनसे पूर्ववर्ती लेखकोकी कृति कही जा सकती है और मुख्यतया पूर्वगत टीकाकारोकी। जिनमेसे पाँचका इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें उल्लेख किया है। ये टीकाकार कुन्दकुन्द, शामकुन्ड, तुंबुलूर, समन्तभद्र और वप्पदेव थे, जिनमेंसे प्रथम लगभग सन् २०० के और अन्तिम सन् ६०० के लगभग हुये । अत धवलाकी अधिकाश गणितशास्त्रीय सम्बन्धी सामग्री सन् २०० से ६०० तकके बीचके समयकी मानी जा सकती है। इस प्रकार भारतवीय गणितशास्त्रके इतिहासकारोके लिए धवला प्रथमश्रेणीका महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ हो जाता है क्योकि उसमें हमें भारतीय गणितशास्त्रके इतिहासके सबसे अधिक अन्धकारपूर्ण समय, अर्थात् पाचवी शताब्दीसे पूर्वकी बातें मिलती है। विशेष अध्ययनसे यह बात और भी पुष्ट हो जाती है कि धवलाकी गणितशास्त्रीय सामग्री सन् ५०० से पूर्वकी है। उदाहरणार्थ, धवलामें वणित अनेक प्रक्रियाए किसी भी अन्य ज्ञात ग्रन्थमें नहीं पायी जाती तथा इसमें कुछ ऐसी स्थूलताका आभास भी है जिसकी झलक पश्चात्के भारतीय गणितशास्त्रसे परिचित विद्वानोको सरलतासे मिल सकती है। धवलाके गणितभागमें वह परिपूर्णता और परिष्कार नही है जो आर्यभटीय और उसके पश्चात्के ग्रन्थोमें है।'
विद्वान् लेखकने धवलान्तर्गत गणितशास्त्रके सम्बन्ध में अपने लेखमें विस्तारसे प्रकाश डाला है । अत यहा उसकी विशेष चर्चा नही की है।
क्षेत्रप्रमाणका कथन करते हुए कहा है कि जगतश्रेणीके घनको लोक
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धवला-टीका २२५ कहते हैं और सात राजु प्रमाण आकाशके प्रदेशोकी लम्बाईको जगतश्रेणी कहते है । तथा तिर्यग्लोकके मध्यम विस्तारको राजू कहते है। इस पर यह शका की गई है कि तिर्यग्लोकका अन्त स्वयभुरमण समुद्रकी वेदिकासे उस ओर कितना स्थान जाकर होता है ? तो उत्तर दिया गया है कि असख्यात द्वीपो और समुद्रोके व्याससे जितने योजन रुके हुए है उनसे सख्यातगुणा जाकर तिर्यग्लोकका अन्त आता है और उसका समर्थन तिलोयपण्णत्तिसे किया गया है। यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इस प्रकार अर्थ करनेसे परिकमसे भी विरोध नही आता है। तब पुन शका की गई है कि अन्य व्याख्यानोसे तो विरोध आता है ? तो कह दिया कि वे सब व्याख्यानाभास है । उन्हें व्याख्यानाभास सिद्ध करके तथा अन्य एक-दो आपत्तियोका निरसन करके अपने अर्थका समर्थन करनेके पश्चात् वीरसेनने लिखा है-'यद्यपि यह अर्थ पूर्वाचार्योके सम्प्रदायके विरुद्ध है तथापि आगमके आधार पर और युक्तिके बलसे हमने उसका प्ररूपण किया है। इसलिये इस विपयमें यह इसी प्रकार है ऐसा आग्रह न करते हुए अन्य अभिप्रायका असग्रह नही करना चाहिये क्योकि अतीन्द्रिय पदार्थोके विषयमें छद्मस्थ जीवोके द्वारा कल्पित युक्तियोको निर्णायक नही माना जा सकता। ___ इसी तरह क्षेत्रानुगमद्वारमें लोकके आकारको लेकर वीरसेन स्वामीने अपने एक नये अभिप्रायका सयुक्ति स्थापन किया है। लोकका आकर अधोभागमें वेत्रासन, मध्यमें झल्लरी और ऊर्ध्व भागमें मृदगके समान माना गया है । किन्तु धवलाकारने उसे स्वीकार नही किया, क्योकि लोकको सात राजुका धन प्रमाण कहा है और ऐसा आकार माननेसे वह प्रमाण नही आता। इस बातको प्रमाणित करनेके लिये उन्होने अपने गणितज्ञानको विविध और अश्रुतपूर्व प्रक्रियाओके द्वारा उक्त कारवाले लोकका क्षेत्रफल निकाला है जो जगतश्रेणीके घन ३४३ राजूसे बहुत कम वैठता है । अत उन्होने लोकका आकार पूर्व पश्चिम दिशामें तो उक्त प्रकारसे घटता-बढता हुआ माना है किन्तु उत्तर दक्षिण दिशामें सर्वत्र सात राजू ही माना है । इस तरह माननेसे उसका क्षेत्रफल ३४३ राजू बैठ जाता है तथा दो दिशाओसे उसका आकार वेत्रासन, झल्लरी और मृदगके आकार भी दिखाई देता है। ____ उक्त लम्बी चर्चाका उपसहार करते हुए उन्होने कहा है कि लोकका वाहुल्य सात राजू मानना करणानुयोगसूत्रके विरुद्ध नही है, क्योंकि उसकी न तो १ एसो अत्थो जइवि पुज्वाइरियस पदायविरुद्धो तो वि तत-जुत्तिबलेण अम्हेहिं परूविदो।
तदो इदमित्थ वेत्ति णेहासगहो कायव्वो, अइदियत्यविसए छदुवेत्थवियप्पिदजुत्तीण णिण्णयहेउत्ताणुववत्तीदो।
-पटख० पु० ३, पृ० ३८ । १५
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२२६ - जैनसाहित्यका इतिहास विधि है और न निषेध ही है । अत: लोकका ऐसा ही आकार मानना चाहिये ।। स्पर्शनानुगमद्वारमें सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोका स्पर्शक्षेत्र बतलाते हुए प्रसगवश असंख्यात-द्वीप समुद्रोंके ऊपर फैले हुए ज्योतिष्क देवोका (चन्द्र और उसके परिवाररूप गृह, नक्षत्र आदिका) प्रमाण भी गणितशास्त्रके अनेक करणसूत्रोके द्वारा निकाला गया है। कहावत प्रसिद्ध है कि तारोको कौन गिन सकता है ? उन्ही तारोकी गणना गणितके अनुसार की गई है । (पृ १५०-१६०)
इसी प्रकरणमें द्वीपो और समुद्रोका क्षेत्रफल अनेक गणितसूत्रोके द्वारा पृथक्-पृथक् और सम्मिलित रूपसे निकालनेकी प्रक्रियाएँ दी गई है और यह भी सिद्ध किया है कि इस मध्यलोकमें कितना भाग समुद्रोसे अवरुद्ध है। (भा० ४, पृ० १९४-२०३) इस तरह द्रव्यप्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम और स्पर्शानुगम अधिकार गणितशास्त्रको दृष्टिसेभी महत्त्वके है। __इसी तरह कालानुगममें कालविपयक अनेको शकाओका अपूर्व समाधान किया गया है। जीवस्थानके शेप अनुयोगद्वारोमें भी जैन सिद्धान्त विषयक अनेको चर्चाए चर्चित है। उन सवका सकेत करना भी यहाँ शक्य नही है । चूलिकाके सम्यक्त्वोपत्ति चूलिका नामक अधिकारके सूत्र ११ में कहा है कि अढाई द्वीप समुद्रोमें स्थित पन्द्रह कर्मभूमियोंमें जहाँ जिस कालमें जिन केवली और तीर्थकर होते है वहाँ जीव दर्शनमोहनीय कर्मका क्षपण करता है। इस सूत्रकी व्याख्यामें वीरसेन स्वामोने कहा है यहाँ पर 'जिन' शब्दको दुबारा ग्रहण करके, जिन दर्शनमोहनीयकर्मका क्षपण करते है ऐसा कहना चाहिये, अन्यथा तीसरी पृथिवीसे निकले हुए कृष्ण आदिके तीर्थकरत्व नहीं बन सकता है, ऐसा किन्ही आचार्योंका व्याख्यान है। इस व्याख्यानके अनुसार दुषमा, अति दुषमा सुषमा और सुषमा कालोमे उत्पन्न हुए जीवोके दर्शन मोहनीयकी क्षपणा नही होती, शेष दोनो कार्लोमें उत्पन्न हुए जीवोके दर्शनमोहकी क्षपणा होती है। इसका कारण यह है कि एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर तीसरे कालमें उत्पन्न हुए वर्द्धनकुमार आदिके दर्शनमोहकी क्षवणा देखी जाती है। यहाँ यह व्याख्यान प्रधानरूपसे ग्रहण करना चाहिये।
इसका यह मतलब हुआ कि जो उसी भवमें जिन या तीर्थकर होनेवाले होते है वे तीर्थङ्करादिको अनुपस्थितिमें तथा तीसरे कालमें भी दर्शनमोहका क्षपण करते है । यह अपवाद कथन धवलाके सिवाय अन्यत्र नही देखा जाता।
चूलिका का यह अधिकार व्याख्यानकी दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
१ पटख० पु. ४, पृ० १०-२२ । २ पटल पु०६, पृ० २४६-२४७ ।
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धवला - टीका : २२७
इसके १६ वें सूत्रके व्याख्यानमें धवलाकारने कसायपाहुडचूर्णिसूत्रो के अनुसार सकलचारित्रकी प्राप्तिका कथन करते हुए औपशमिक चारित्रकी प्राप्तिके विधानमें- अनन्तानुबन्धी विसयोजना और दर्शनमोहनीयके उपशमका कथन, कषायोपशमनाका कथन, उपशान्तकषायके पतनका क्रम, फिर क्षायिक चारित्रकी प्राप्तिका विधान आदि कथन बहुत ही विशद रीतिसे किया है, जो अन्यत्र नही
पाया जाता ।
कृति-अनुयोगद्वार आदिमें मगलके निमित्तसे निमित्त, हेतु, परिमाण, कर्ता आदिका पुन विवेचन धवलाकारने किया है, जिसमें कर्ताके निमित्त से भगवान् महावीर, उनके समवसरण आदिका वर्णन उल्लेखनीय है । उनमें भगवान् महावीर - की सर्वज्ञताको भी सिद्ध किया है ।
भगवान् महावीरकी आयु मोटे रूपसे बहत्तर वर्ष मानी जाती है तथा मोटे रूपसे ही नो मास गर्भस्थकाल, तीस वर्ष कुमारकाल, १२ वर्षं छद्यस्थकाल (तपस्पा काल ), और ३० वर्ष केवलिकाल कहा जाता है । किन्तु धवलाकारने 'अण्णे के वि आइरिया' करके अन्य आचार्यक मतसे उक्त कालका प्रतिपादन किया है । वह अन्य आचार्योका मत गर्भमे आनेके दिनसे लेकर निर्वाण प्राप्त करने के दिन तककी गणनाके आधार पर स्थापित है । उसे हम ठीक-ठीक कालगणना कह सकते है । उसके अनुसार भगवान्' महावीरकी आयु ७१ वर्ष ३ मास २५ दिन थी । उसका हिसाब इस प्रकार है-आसाढ शुक्ल षष्ठीके दिन भगवान् महावीर त्रिशलाके गर्भमें आये । और वहाँ नौ माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशीके दिन उन्होने जन्म लिया । चैत्र मासके दो दिन, वैसाखको आदि लेकर २८ वर्ष, पुन वैसाखसे लेकर कार्तिक पर्यन्त सात मास कुमाररूपसे विताकर मगसिर कृष्णा दसमीके दिन उन्होने प्रव्रज्या धारण की । अत २८ वर्ष ७ मास, १२ दिन पर्यन्त वह घरमें रहे । अव छद्मस्थकाल लीजिये - मगसिर कृष्णपक्षकी एकादशीसे लेकर मगसिरकी पूर्णिमा तक २० दिन, फिर पौप मास से लेकर बारह वर्प, फिर उसी माससे लेकर चार मास, चूकि उन्हे वैसाख शुक्ला दशमी के दिन केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई, अत वैसाखके पच्चीस दिन, इस तरह बारह वर्प पाच मास, पन्द्रह दिन तक भगवान् महावीर छद्मस्थ रहे । अब केवली काल लीजिए — वैसाख शुक्ल पक्षको एकादशी से लेकर पूर्णिमा तक पाच दिन, फिर ज्येष्ठसे लेकर २९ वर्ष, फिर ज्येष्ठसे ही लेकर आसोज पर्यन्त पाच मास, फिर कार्तिक मास के कृष्ण पक्षके चौदह दिन बिताकर मुक्त हो गये । अमावस्याके दिन सव देवेन्दोने मिलकर निर्वाणपूजा की, इसलिये उस दिनको भी सम्मिलित
१ पट्स, पु० ९, पृ० १२१-१२६ ।
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२२८ : जैनसाहित्यका इतिहास कर लेनेपर १५ दिन होते है । अत २९ वर्ष ५ मास, २० दिन तक भगवान् महावीर केवली रहे।
९ मास ८ दिन + २८ ५० ७ मा० १२ दि०+१२ व०, ५ मा०, १५ दि० + २९ व० ५ मा०, २० दि० इस सब कालका जोड ७१ वर्ष, ३ मास, २५ दिन होता है । इतनी ही महावीर भगवान्की आयु वैठती है। किन्तु जब चौथे कालमें ७५ वर्ष ८ माह १५ दिन शेप थे तब भगवान् महावीर गर्भमें आये थे और उनके निर्वाणके पश्चात् तीन वर्ष, ८ माह, १५ दिन बीतनेपर श्रावण कृष्णा पडवाके दिन पाचवें दुपमा कालका प्रवेश हुआ। इस हिसावसे भगवान् महावीरको आयु बहत्तर वर्ष ठहरती है। इस तरहसे दोनोमें ८ माह ५ दिन का अन्तर पडता है। ___इन दोनो उपदेशोभेसे कौन ठीक है ? इस प्रश्नके उत्तरमें वीरसेन स्वामीने लिखा है-'इस विपयमें एलाचार्यका वत्स्य ( वीरसेन ) अपनी जवान निकालना नहीं चाहता, क्योकि न तो इस त्रिपयमें कोई उपदेश प्राप्त है और न उक्त दोनो कथनोमें ही कोई बाधा है किन्तु दोनोंमेंसे सत्य एक ही होना चाहिए।' (पु० ९, पृ० १२६ )।
तिलोयपण्णत्ति ( म० ४ ) में भगवान महावीरकी आयु ७२ वर्ष वतलाई है और गर्भ, जन्म, तप, केवलज्ञान और निर्वाणकी तिथिया उक्त प्रकारसे ही दी है। इसी तरह श्वेताम्बरी' आगमिक साहित्यमें भी आयु ७२ वर्ष और तिथिया उक्त ही है। केवल मोक्ष-दिवसमें एक दिनका अन्तर है। कार्तिक कृष्णा अमावस्याको रात्रिमें मुक्ति वतलाई है । तथा महावीरके गर्भमें आनेका काल भी वही दिया है जो ऊपर धवलामें दिया है अर्थात् चतुर्थ कालमे ७५ वर्ष ८॥ माह शेष रहने पर महावीर भगवान गर्भमैं माये । अत. मोटी कालगणनामें और दिन मासकी काल गणनामें ८ मास ५ दिनका अन्तर रह जाता है ।
वीरसेन स्वामीने अपनी जयधवला टीकाके आरम्भमें भी उक्त मतभेदको चर्चा बिल्कुल इसी रूपमें की है।
अर्थकर्ताके पश्चात् ग्रन्थकर्ताका कथन करते हुए धवलाकारने लिखा हैभगवान् महावीरकी वाणी तो वीजपदरूप होती है। जिसकी शब्दरचना सक्षिप्त हो, और जो अनन्त अर्थोका ज्ञान कराने में हेतुभूत अनेक चिन्होसे सयुक्त हो उसे वीजपद कहते है। इन बीजपदोमें जो अर्थ निहित रहता है उसका प्ररूपण १. 'पचहत्तरिए वासेहि अद्धनवमेहि य मासेहि सेसेहि.."त्ति, पञ्चसप्ततिवसु सार्धाष्टमा
साधिकेषु शेपेसु श्रीवीरावतार । द्वासप्ततिवर्षाणि च श्रीवीरस्यायु । श्रीवीरनिर्वाणाच्च विभिर्व सार्द्धाष्टमासैश्चतुर्थारकसमाप्ति ।'-कल्पसूत्र सुबो० । २. क. पास, भा१, पृ. ७६-८२ ।
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धवला-टीका · २२९ गणधर करते है। अत वीजपदोके व्याख्याता होनेके कारण गणधर ग्रन्थकर्ता कहे जाते है। ____ गणधरका कथन करते हुए लिखा है-'वे अक्षर-अनक्षररूप सव भाषाओमें कुशल होते है । समवसरणमें स्थित सव जनोको 'यह हमारी भापामें हमको समझाते है, इस प्रकार सबको विश्वासकारक होते है। और अपने मुखसे निकली हुई अनेक भाषामोमेंसे जो श्रोता जिस भापाका भापी होता है उसके कान उसी भाषाका प्रवेश कराते तथा अन्य भापाओका निवारण करते है।'
किन्तु धवलाके प्रारम्भमें वीरसेन स्वामीने भगवान् महावीरके अतिशयोका वर्णन करते हुए उनकी भाषाको यह विशेपता वतलाई है कि एक योजन क्षेत्रमें बैठे हुए और अठारह महाभाषाओ तथा सात सौ लघुभापाओके भाषी प्राणियोकी भाषाके रूपमें परिणत होनेवाली उनकी भापा होती है। तिलोयपण्णत्ति' आदिमें भी ऐसा ही कहा है । किन्तु उक्त कथनमें इससे अन्तर प्रतीत होता है । उसमें कहा है कि भगवान्के द्वारा कहे गये वीजपदोको, जो अवश्य ही अनेक भाषा गर्भित होते है, गणधरदेव उपस्थित प्राणियोको समझाते है और वे प्राणी उन्हें अपनी-अपनी भापामें समझते है । अर्थात् गणघरकी भापा भी भगवान्की भापाकी तरह सर्वभापात्मक होती है तथा गणधर जो जिस भापाका भापी है उसके कानमें वही भापा जाने देते है । शेपको रोक देते है । गणधरकी इस विशेषताका समर्थन अन्यत्रसे नहीं होता। श्वे. साहित्यके समवायागमें तीर्थङ्करके चौतीस अतिशयोमें एक अतिशय यह है कि भगवान् अर्धमागधी भापाके द्वारा १. सखितसद्दरयणमणतत्यावगमहेदुभूदाणेगलिंगसगयं वीजपद णाम। तेसिमणेयाण
वीजपदाण दुवालसगप्पयाणमट्ठारससत्तसयकुमाससरूवाण परूवओ अत्थकत्तारो णाम । वीजपटणिलीणत्यपरूवयाण दुवालसगाण कारओ गणहरभडारओ गथकत्तारो, अब्भुवगमादो। पटख. पु० ९, पृ० १२७ । 'परोवदेसेण विणा अक्खराणक्खरसरुवासेसभासाकुसलो समवसरणजणमेत्तरूवधारितणेण अम्हम्हाण भासाहि अम्हम्हाण चेव कहदित्ति सन्वेसि पच्चउप्पाअओ, समवसरणजणसोदिंदएसु सगमुहविणिग्गयाणेयभासाण सकरेण पवेसस्स विणिवारओ गणहरदेवो गयकत्तारो।'-पृ. १२८ ।
२ पटख., पु. १, पृ०६१। २. अट्ठरसमहाभासा खुल्लयभासासयाइ सत्त तहा। अक्खर-अणक्खरप्पयसण्णीजीवाण
सयलभासाओ॥९०१॥ एदासु भासासु तालुवदतो हव्कठवावारे । परिहरिय एक्ककाल भन्वजणे दिव्वभासित्त ॥९०२।।। ति. प ४, । 'एकतयोऽपि च सर्वनृभाषा सोन्तरनेष्टबहूश्च कुमापा । अप्रतिपत्तिमपास्य च तत्त्व बोधयति स्म 'जिनस्य महिम्ना ॥७॥'
-म० पु १३ पर्व। ३ 'भगव च ण अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ । सा वि ण अद्धमागही भासा भासि
ज्जमाणी तेसिं सव्वेसि आइरियमणाइरियाण दुपय-चउप्पय मिय-पसु-पक्खि-सरिसिवाणा अप्पप्पणो हियसिवसुहदाए भासत्ताए परिणमइ ।' समव०, ३५ ।
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२३० : जैनसाहित्यका इतिहास धर्मका उपदेश देते है और वह अर्धमागधी भाषा समस्त आर्य-अनार्योके दुपायचौपाये, मृग, पशु, पक्षी और सरीसृपोके अपनी-अपनी भापारूपसे परिणमन करती है । अर्थात् ये तीर्थङ्करका ही अतिगय है।
किन्तु' तीर्थकर गणधरकी अपेक्षा थोटा ही कथन करते है उसका द्वादशागरूपमें विस्तार तो गणधर ही करते है । इसीसे गणधरके अभावमें भगवान् महावीरकी वाणी केवल ज्ञान होने के पश्चात ६६ दिन बाद खिरी। इसका कथन जयधवलाके प्रारम्भमें वीरसेन स्वामीने किया है।
ग्रन्यकर्ता गणधर तथा उत्तरोत्तरतत्रकर्ता आचार्योका कथन करते हुए वीरसेनस्वामीने प्रकृत षट्खण्डागमकी उत्पत्तिका पुन सक्षिप्त कथन किया है । फिर आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकारके भेदसे पांच उपक्रमोका कथन करके निक्षेप, नय आदिका कथन किया है, जैसा कि ग्रन्थके आदिमें कथन करनेकी आगमिक परम्परा रही है। इस सबके पश्चात् कृति-अनुयोगद्वारका व्याख्यान आरम्भ होता है।
वेदना खण्डके वेदनाकालविधानमें आयुकर्मकी उकृष्ट वेदना सूत्रकारने देवायु और नरकायुका उत्कृष्ट वध करनेवाले स्त्रीवेदी, पुरुपवेदी अथवा नपुसकवेदी कर्मभूमिया पचेन्द्रिय सज्ञी जीवके बतलाई है । उसका व्याख्यान करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि यहां भाववेद लेना चाहिये । ऐसा न लेनेसे द्रव्यस्त्रीवेदके साथ भी नरकायुके उत्कृष्ट बन्धका प्रसग आयेगा, किन्तु स्त्रिया छठे नरक तकका ही आयुबन्ध कर सकती है।'
श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार भी स्त्री यद्यपि मोक्ष जा सकती है किन्तु मरकर सातवें नरकमें उत्पन्न नही हो सकती।
वर्गणाखण्डके कर्म-अनुयोगद्वारमें ईयापिथकर्म और तप. कर्मका व्याख्यान करते हुए वीरसेन स्वामीने दोनोके सम्बन्धमें बहुत अच्छा प्रकाश डाला है । तथा प्रयोगकर्म, समवदानकर्म, अध कर्म, ईपिथकर्म, तप कर्म और क्रियाकर्म, इन छह कर्मोंका सत् , सख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन आठ अनुयोगोके द्वारा ओघ और आदेशोसे कथन किया है। उसमें बतलाया है कि देवो और नारकियोमें प्रयोगकर्म, समवदानकर्म तथा क्रियाकर्म होते है । १. 'जिणभणिइ च्चिय सुत्त गणहरकरणम्मि को विसेसोत्य ? । सो तदविक्ख भासइ न
उ वित्थरओ सुयं किंतु ॥१११८॥ 'स तीर्थङ्करस्तदपेक्ष गणधरप्रज्ञापेक्षमेव किञ्चिदल्प
भापते, न तु सर्वजनसाधारण विस्तरत समस्तमपि द्वादशाङ्गश्रुतम् , विशे० मा २. क पा, मा १, पृ० ७५ । ३, पटखं., पु. ११, पृ. ११४ । ४, वही, पु. १३, पृ. ४८-८८ । ५. वही, पु. १३, पृ. ९१-१९६ ।
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धवला-टीका २३१
तिर्यञ्चोमें ईर्यापथकर्म और तप कर्म नही होता, शेप चार कर्म होते है । मनुष्योमें छहो कर्म होते है । इसका कारण यह है कि प्रयोगकर्म तेरहवें गुणस्थान तक सव जीवोके होता है क्योकि यथासम्भव मन, वचन और कायकी प्रवृत्ति तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त सब जीवोके पाई जाती है। समवदानकर्म दसवें गुणस्थान तकके सव जीवोके होता है क्योकि यहाँ तकके सब जीवोके किसीके आठ, किसीके सात और किसीके छ कर्मोंका निरन्तर वन्ध होता रहता है। अध कर्म केवल औदारिक शरीरके आलम्वनसे होता है इसलिये उसका सद्भाव मनुष्य और तिर्यञ्चोके होता है । ईपिथकर्म उपशान्तकपाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवलीके होता है अतः वह भी मनुष्योके ही सभव है। क्रियाकर्म चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानसे होता है इसलिए वह चारो गतियोमें सम्भव है । तप कर्म छठे प्रमत्तसयत गुणस्थानसे होता है अतः यह भी मनुष्योके ही सभव है । इस प्रकार काफी प्रकाश डाला है।
___ इसी खण्डके प्रकृति अनुयोगद्वारमें प्रसगवश शब्दको गतिका वर्णन करते हुए दो-एक ऐसी बातें कही है जो अन्यत्र हमारे देखने में नही आई। धवलाकारने लिखा है-'शब्दपुद्गल अपने उत्पत्तिप्रदेशसे उछलकर दसो दिशाओमे जाते हुए उत्कृष्टरूपसे लोकके अन्त भाग तक जाते है। यह बात सूत्रके अविरुद्ध व्याख्याता आचार्यवचनोसे जानी जाती है। तथा सभी शब्द लोकपर्यंत नही जा पाते, थोडे जा पाते है । धीरे-धीरे वे घटते जाते है । तथा सभी शब्द एक समयमें ही लोक पर्यन्त नही जाते है । कुछ शब्दपुद्गल दो समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालमें लोक पर्यन्त जाते है । शब्दोके इस प्रकार 'गमनके तथा उनके 'सुनाई देनेके समर्थनमें धवलाकारने दो प्राचीन गाथाए भी उद्धृत की है। दोनो ही गाथाए शब्दके सम्बन्धमें वर्तमान आविष्कारोकी दृष्टिसे अपना विशेप महत्त्व रखती है।
षट्खण्डागममें श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी उतनी ही प्रकृतियाँ बतलाई है जितने मूल अक्षर और उनके सयोगसे निष्पन्न अक्षरोका प्रमाण होता है। सयोगी अक्षरोका प्रमाण साधनेके लिये सूत्रकारने जो गणित-गाथा दी है उसका" व्याख्यान करते हुए धवलाकारने सत्ताईस स्वर, तेतीस व्यजन और चार योगवाह
१ षटल. पु. १३, पृ. २२२-२२४ । २. 'पभवच्चुदस्म भागा वठाण णियमसा अणता दु। पढमागासपदेसे विदियम्मि
अणतगुणहीणा ॥२॥'-वही, पृ९ २२३।। ३. 'भासागदसमसेडिं सद जदि सुणादि मिस्सय सुणदि । उस्सेडिं पुण सद्द सुणेदि _णियमा पराधादे ॥२॥'-पृ. २२४ । ४. प. प. १३, पृ. २४९-२६९ ।
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२३२ : जेनसाहित्यका इतिहास इन चौराठ मूलवर्णो के संयोगी अक्षरोको निष्पन्न करने बतलाया है । तथा उनकी संख्या निकालने गम्बन्धमे पाई गणित-गायाए उद्धृत की है।
श्रुतशानावग्णके भेदोो सम्बन्धले श्रुत शानो बोरा भेदोका निन्पण भी महत्त्वपूर्ण है। इसी तरह अवधिमान, मन.पर्ययगान और गेवलज्ञान का कथन भी अपना महत्त्व रराता है।
वर्गणापरपणा अनुगोगद्वारगे २३ वर्गणागों का गायन भी महत्त्वपूर्ण है। वर्गणाओके गम्बन्धमे इतना ठोरा कथन अन्यत्र नहीं पाया जाता। उनमे भी प्रत्येकशरीरद्रव्यवर्गणा, वादरनिगोदद्रव्यवर्गणा, गोर गूधमनिगोदद्रव्यवर्गणा विशेष उल्लेखनीय है। ___वर्गणाद्रव्यगमुदाहारणे चौदह भनुयोगनारोमेमे गूप्रकारने केवल दो ही अनुयोगद्वारोका कथन किया है । शेप बारहका गायन धवलाकारने किया है।
इन तेईम वर्गणामोमे एक आहारवर्गणा भी है । गोदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरफे योग्य मुगलान्धोको माहार द्रव्यवर्गणा सज्ञा है । इनी सण्डके
चूलिका नामक अधिकारमे गूकारने आहारद्रव्यवर्गणाका उक्त लक्षण कहा है । उराका व्यारयान करते हुए घवलाकारने लिसा है-आहारशरीरवर्गणाके भीतर कुछ वर्गणाए औदारिक शरीरके योग्य है, कुछ वर्गणाए वैक्रियिकशरीरके योग्य है और कुछ वर्गणाए आहारक शरीरके योग्य है। इस प्रकार आहारशरीरवर्गणा तीन प्रकार की है । इस पर यह शका की गई कि यदि इन तीनो शरीरोको वर्गणाए अवगाहनाभेदसे और सरगाभेदसे अलग-अलग है तो आहारद्रव्यवर्गणा एक ही क्यो कही? इसका उत्तर धवलाकारने यह दिया है कि उन तीनोके वीचमें अगायवर्गणाके द्वारा अन्तर नही है । अर्थात् जैसे आहारवर्गणा और तेजोद्रव्यवर्गणा, तेजोद्रव्यवर्गणा और भापावर्गणा आदिके वीचमें अग्राह्यवर्गणाके द्वारा अन्तर है वैसा अन्तर औदारिकगरीरवर्गणा, वैक्रियिक शरीरवर्गणा और आहारकशरीरवर्गणाके बीचमें नही है इसलिए आहार द्रव्यवर्गणा एक ही है। कर्मप्रकृति, और कर्मचूणिमें भी उक्त तीनो शरीरोके प्रायोग्य वर्गणाओके वीचमै अग्राह्यवर्गणा नही बतलाई है । किन्तु विशेषावश्यकमें वतलाई है । उसके पश्चात्से श्वेताम्बर परम्पराके पचसनह आदिमें तथा टीकाग्रन्थो और चूणियोमें विशेपावश्यकभाष्यकी परम्परा प्रवर्तित देखी जाती है। १. पट. पृ. १३१. २६१-२७९ २ पटख, पु, १४, पृ. ५४१३४ । ३. पट्ख, पु. १४, पृ.५४७ । ४. 'इह चूर्णिकृदादय औदारिकवैक्रियाहारकशरीरप्रायोग्याणां वर्गणानामपन्तरालेऽग्रहणवर्गणा नेच्छन्ति पर जिनभद्रगणिक्षमश्रमणादिभिरिष्यन्त इति तन्मतेनोक्ता।
-कर्मप्र. टी., वन्ध-, पृ. ४५ ॥
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धवला-टीका : २३३
प्रत्येकशरीरवर्गणा और बादरनिगोदवर्गणाके सम्बन्धमें कुछ मोटी बातें इस प्रकार है___ एक जीवके एक शरीरमें जो कर्म-नोकर्म स्कन्ध सचित होता है उसकी प्रत्येकशरीरवर्गणा सज्ञा है। यह प्रत्येकशरीर, पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, देव, नारकी माहारकशरीरवाले प्रमतसयत और केवलीजिनके होता है। इनको छोडकर बाकी जितने ससारी जीव है उनका शरीर या तो निगोदजीवोसे प्रतिष्ठित होनेके कारण सप्रतिष्ठित प्रत्येकरूप होता है या स्वय निगोद रूप होता है। हाँ, जो प्रत्येकवनस्पति निगोद रहित होती है वह इसका अपवाद है। यहां प्रश्न होता है कि जव मनुष्योका शरीर निगोदिया जीवोसे प्रतिष्ठित माना है तो आहारकशरीरी, सयोगकेवली और अयोगकेवली अवस्थामें मनुष्यका शरीर निगोदिया जीवोसे रहित कैसे हो जाता है ? ___ इसका समाधान करते हुए लिखा है कि जिस प्रमत्तसयत मुनिके आहारक शरीर उत्पन्न होता है उसका जो औदारिक शरीर है वह तो निगोदिया जीवोसे युक्त ही होता है किन्तु उसके जो आहारक शरीर उत्पन्न होता है उसमें निगोदिया जीव नही रहते । इसी प्रकार जब वह मनुष्य वारहवें गुणस्थानमे पहुँचता है तो उसके शरीरमें जो निगोदिया जीव रहते है उनका क्रमसे अभाव होता जाता है क्योकि ध्यानसे निगोदिया जीवोकी उत्पत्ति और स्थितिके कारण हट जाते है। इसपर यहाँ शका की गई है कि जो व्यक्ति ध्यानके द्वारा अपने शरीरमें बसनेवाले निगोदिया जीवोका सहार कर डालता है वह मोक्ष कैसे प्राप्त करता है ? इस प्रसगसे सक्षेपमें जैनो अहिंमाका स्वरूप धवलाकारने' बतलाया है। और प्रमाण रूपसे कुछ उद्धरण भी दिये है।
बादरनिगोदवर्गणाका व्याख्यान करते हुए धवलाकारने एक सेचीयवक्खाणाइरिय प्ररूपित कथनका उल्लेख किया है। सेचीयव्याख्याचार्य कौन थे, यह जाना नहीं जा सका । शायद 'सेचीय' शब्द अशुद्ध हो । ___ इस तरह वर्गणाखण्डके अन्त भागमें वर्गणाओका व्याख्यान अनेक दृष्टियोसे मौलिक है । और जो यहाँ है वह अन्यत्र नही ।
सत्कर्मान्तर्गत शेष अट्ठारह अनुयोगोका परिचय
यह हम पहले लिख आये है कि भूतबलि प्रणीत षट्खण्डागमका छठा खण्ड महावन्ध है । धवलाकारने उसपर कोई टीका नही लिखी। केवल आदिके पाच खण्डो पर ही धवला-टीका लिखी है। मगर षट्खण्डागम नामको सार्थक रखनेके १. पट० पु. १४, पृ. ८९-९० । २. हाणपरूवण सेचीयवक्खाणाइरियपरूविद वत्तइस्सामो-पृ. १०१ ।
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२३४ · जैनसाहित्यका इतिहास लिये उन्होने महावन्धके स्थानमे एक रात्वर्म नामक छठा सण्ड रचकर शेप पांच खण्डोमे शामिल कर दिया । पदसण्डागमके परिचयमे यह बतलाया है कि महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके चोवीरा अनुयोगद्वारोमेसे आदिवे के अनुयोगद्वागेको लेकर पट्खण्डागमकी रचना की गई है । अत शेप अठारह अनुयोगद्वारीका साधारण परिचय वीरसेनस्वामीने अपने इस सत्कर्ग नामक मण्डमें किया है और उसका आधार वप्पदेवकृत व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक छठा सण्ड था। इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें' ऐसा ही लिया है। ___ सत्कर्मका आरम्भ करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है कि 'भूतवलि भट्टारकने यह सूत्र देशामर्गक रूपसे लिसा है, अत. इस सूनसे सूचित शेप अठारह अनियोगद्वारोका कुछ सक्षेपसे प्ररुपण करता हूँ। शेप अठारह अनुयोगद्वारोके नाम इस प्रकार है-निवन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, सक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, सातासात, दीर्घतम्ब, भवधारणीय पुद्गलात्म, निवत्त-अनिधत्त, निकाचित, अनिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिम स्कन्ध और अल्पवहुत्व ।
७ निवन्धन-इस अनुयोगद्वारकी आवश्यकता बतलाते हुए लिखा है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके द्वारा कर्मोका कथन किया जा चुका है और उनके कारणभूत मिथ्यात्व, असयम, कपाय और योगका भी कथन किया जा चुका है। अव उन कर्मोंका व्यापार बतलानेके लिये निवन्धन अनुयोगद्वार माया है। ___इसमें बतलाया है कि ज्ञानावरणकर्म सव द्रव्योमें निवद्ध है क्योकि उसका एक भेद केवलज्ञानावरण केवलज्ञानका विरोधी है और केवलज्ञान त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायोसे पूर्ण छै द्रव्योको जानता है । किन्तु ज्ञानावरण सब पर्यायोमें निबद्ध नही है क्योकि ज्ञानावरणके भेद मतिज्ञानावरणादि सब द्रव्योको नहीं जानते और न सब पर्यायोको जानते है ।
दर्शनावरणकर्म आत्मामें ही निवद्ध है। यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो दर्शन और ज्ञान एक हो जायेगे । वेदनीयकर्म सुख व दु खमें निबद्ध है। मोहनीयकर्म आत्मामें निवद्ध है क्योकि जीवके सम्यक्त्व और चारित्र गुणको घातना उसका स्वभाव है । आयुकर्म भवसे निवद्ध है क्योकि भवधारण करना उसका लक्षण है। नामकर्मका विणाक पुद्गलनिवद्ध भी है, जीवनिवद्ध भी है और क्षेत्रनिबद्ध भी है । इसलिये वह तनसे निबद्ध है। गोत्रकर्म आत्मासे निबद्ध है और अन्तराय १. श्रुत्वा तयोश्च पार्वे तमशेप वप्पदेवगुरु ॥१७३॥ अपनीय महावन्ध पटखण्डाच्छेष
पन्चखण्डे तु। व्याख्याप्रशस्ति च पण्ठ खण्डं च तत सक्षिप्य ॥१७४॥ पण्णां खण्डानामिति निष्पन्नाना । व्याख्याप्रशप्तिमवाप्य पूर्वपटखण्डतस्ततस्तस्मिन् । उपरितमबन्धनाथधिकारैरष्टादशविकल्पै । १८०॥ सत्कर्मनामधेय पष्ठ खण्ड विधाय सक्षिप्य । इति पण्णां खण्डाना प्रन्यसहस्रद्विसप्तत्या ॥१८॥'-श्रुताव ।
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धवला - टीका
२३५
कर्म दानादिसे निबद्ध है । इसी प्रकार उत्तरप्रकृतियोंमें भी निबद्धताका विचार किया है ।
अन्तमें वीरसेन स्वामीने लिखा है - 'इस अनियोगद्वार में इतनी ही प्ररूपणा की गई है क्योकि शेप अनन्त पदार्थ विषयक निबन्धनके उपदेशका अभाव है ।'
८ प्रक्रम -- यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि प्रत्येक अनुयोगद्वारके आरम्भमें प्रथम निक्षेप योजना की गई है । जैसे प्रक्रमके छ भेद किये है-नाम प्रक्रम, स्थापना प्रक्रम, द्रव्य प्रक्रम, क्षेत्र प्रक्रम, काल प्रक्रम और भाव प्रक्रम | फिर प्रत्येकका स्वरूप वतलाकर यह स्थिर किया है कि यहाँ कर्म प्रक्रमका प्रकरण है अत वही लेना चाहिये । अत यहाँ कार्मणपुद्गलप्रचयको प्रक्रम कहा है ।
काकारने शका की है कि कर्मसे ही कर्मकी उत्पत्ति होती है अकर्मसे कर्म की उत्पति नही हो सकती ? धवलाकारने इसका विरोध करते हुए साख्यके सत्कारणवादका खण्डन किया है । और अन्तमें सप्तभगकी योजना की है । पश्चात् वस्तुको विनाशस्वभाव मानने वाले बौद्धका खण्डन करके वस्तुको उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक सिद्ध किया है । फिर मूर्त कर्मोका अमूर्त जीवके साथ सम्बन्ध कैसे होता है, इसका समाधान करते हुए प्रक्रमके तीन भेद किये है - प्रकृति प्रक्रम स्थिति प्रक्रम और अनुभाग प्रक्रम । फिर उनका वर्णन किया है । अन्तमें अल्पबहुत्वका कथन करके लिखा है, यह निक्षेपाचार्यका " उपदेश है ।
९. उपक्रम -- प्रक्रम और उपक्रममें अन्तर बतलाते हुए लिखा है कि प्रक्रम अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति और अनुभाग रूपसे बन्धको प्राप्त होनेवाले प्रदेशाग्रेका कथन करता है । परन्तु उपक्रम अनुयोगद्वार बन्ध होनेके द्वितीय समयसे लेकर सत्व रूपसे स्थित कर्मपुद्गलोके व्यापारका कथन करता है ।
उपक्रमके चार भेद किये है- प्रकृतिबन्धनउपक्रम, स्थितिवन्धनउपक्रम, अनुभागबन्धनउपक्रम और प्रदेशबन्धनउपक्रम । और लिखा है कि 'सतकम्मपयडिपाहुड' में जैसा कथन किया है वैसा कर लेना चाहिए। इसपर १. 'एवमेत्थ अणिओगद्दारे एत्तिय चैव परूविद, सेसअणतत्थविसयउवदेसाभावादो ।' - पट्ख. पु १५, पृ १४ ।
२. 'एसो णिक्खेवाइरियउवएसो - पु १५, पृ ४० । ३. 'पक्कम उवक्कमाण को भेदो ? पयडि ट्ठिदि - अणुभागेसु ढुक्कमाणपदेसग्गपरूवण पक्कमो कुणइ, उवक्कमो पुण बध विदिय-समयहुडिसतसरूवेण ठ्ठिदकम्मपोग्गलाण वावार परूवेदि ।' -पु. १५, पृ. ४२
४. " एत्थ एदेसिं चदुण्णमुवक्कमाण जहा सतकम्मपयडिपाहुडे परुविद तहा पारूत्रेयन्वं । जहा महाबधे परूविंद तहा परूवणा एत्थ किण्ण कीरदे ण, तस्स पढमसमयवधम्मि चैव वावारादो' - पु . १५, पृ. ४३ ।
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२३६ - जैनसाहित्यका इतिहास यह शका की गई कि महाबन्धमें जैसा कथन किया गया है वैसा कथन यहाँ क्यो नही करना चाहिए ? उसके समाधानमें कहा गया है कि महाबन्ध तो प्रथम समयमें होनेवाले बन्धमात्रका कथन करता है। उसका कथन करना यहाँ योग्य नही है। चू कि उपक्रम बन्धनके प्रथम समयके पश्चात् सत्वरूपसे स्थित कर्मपुद्गलोमें होनेवाले व्यापारका कथन करता है। अत यहाँ उदीरणा और उपशमका कथन किया है। उदयावलीको छोडकर आगेकी स्थितियोमें अवस्थित कर्मप्रदेशोको उदयावलीमें निक्षिप्त करनेको उदीरणा कहते है। इसका बहुत विस्तारसे कथन किया है । ___इसमें एक बात उल्लेखनीय यह है कि क्षीणकषाय गुणस्थानमें निद्रा-प्रचलाका उदय न माननेवालोंके मतका निर्देश किया है । कर्मप्रकृतिकार२ इसी मतको माननेवाले है।
उदीरणाके पश्चात् उपशामनाका कथन है, जो यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोकी अनुकृति है। लिखा है-कर्म-उपशामनाके दो भेद है-करणोपशामना और अकरणोपशामना । अकरणोपशामनाके दो नाम है-अकरणोपशामना और अनुदीर्णोपशामना । कर्मप्रवादमें उसका विस्तारसे कथन किया है। करणोपशामनाके भी दो भेद है-देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । सर्वकरणोपशामनाके दो नाम और भी हैं-गुणोपशामना और प्रशस्तोपशामना । इस सर्वकरणोपशामनाकी प्ररूपणा 'कसायपाहुड' में करेंगे । देशकरणोपशामनाके अन्य भी दो नाम है-अगुणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना । उसीका यहा प्रकरण है । अप्रशोस्तोपशामनाके द्वारा जो प्रदेशाग्न उपशान्त होता है उसमें उत्कर्षण भी हो सकता है, अपकर्पण भी हो सकता है तथा अन्य प्रकृतिरूप सक्रमण भी हो सकता है किन्तु उसका उदय नही हो सकता। इस अप्रशस्त उपशामनाका कथन स्वामित्व, काल आदि अनुयोगोके द्वारा किया गया है ।
१० उदय-इस अनुयोगद्वारमें कर्मोके उदयका कथन है । उदयके चार भेद किये है-प्रकृति उदय, स्थिति उदय, अनुभाग उदय और प्रदेश उदय । फिर प्रत्येकके मूल प्रकृति और उत्तर प्रकृतिकी अपेक्षा दो-दो भेद करके उनका कथन अनुयोगोके द्वारा किया है।
११ मोक्ष-कर्मद्रव्यमोक्षके चार भेद किये है-प्रकृति मोक्ष, स्थिति १. 'खीणकसायम्मि णिद्दापयलाणमुदीरणा णथि त्ति भणताणमभिप्पाण्ण' पु. १५,
पृ ११०। २ 'इदियपज्जत्तीए दुसमयपज्जत्तगाए [उ] पाउग्गा। णिदापयलाण खीणरागखवगे
परिच्चज्ज ॥१८॥-क.प्र, अ ४ । ३ पु. १५, पृ. २७५-२७६ ।
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धवला-टीका : २३७ मोक्ष, अनुभाग मोक्ष और प्रदेश मोक्ष। प्रकृति मोक्षके दो भेद है-मूलप्रकृति मोक्ष और उत्तरप्रकृति मोक्ष । उनमें भी प्रत्येकके दो भेद है--देशमोक्ष और सर्वमोक्ष । किसी कर्मप्रकृतिका निर्जराको प्राप्त होना अथवा अन्य प्रकृतिरूपसे सक्रान्त होना प्रकृति मोक्ष है। इसका अन्तर्भाव प्रकृति उदय और प्रकृति सक्रममें होता है । अपकर्पणको प्राप्त हुई, उत्कर्षणको प्राप्त हुई, अन्य प्रकृतिमें सक्रान्त हुई और अध स्थितिके गलनेसे निर्जराको प्राप्त हुई स्थितिका नाम स्थितिमोक्ष है । इसी तरह अपकर्पणको प्राप्त हुए, उत्कर्षणको प्राप्त हुए, अन्य प्रकृतिमें सक्रान्त हुए अध स्थिति गलनसे निर्जराको प्राप्त हुए अनुभागको अनुभाग मोक्ष कहते है । अध स्थिति गलनके द्वारा प्रदेशोकी निर्जरा होनेको और प्रदेशोका अन्य प्रकृतियोमें सक्रमण होनेको प्रदेश मोक्ष कहते है । जीव और कर्मका पृथक् हो जाना मोक्ष है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये मोक्षके कारण है। समस्त कर्मोसे रहित, अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य, चारित्र, सुख, सम्यक्त्व आदि गुणोसे पूर्ण, निरामय, नित्य, निरजन और कृत कृत्य जीवको मुक्त कहते है। इनका कथन निक्षेप, नय, निरुक्ति और अनुयोगदारोसे करना चाहिये।
१२ सक्रम-इस अनुयोगद्वारमें कर्म सक्रमका कथन है। उसके चार भेद है-प्रकृति सक्रम, स्थिति सक्रम, अनुभाग सक्रम और प्रदेश सक्रम । एक प्रकृतिका अन्य प्रकृतिरूपमें सक्रमण होनेको प्रकृतिसक्रमण कहते हैं । यह सक्रम मूलप्रकृतियोमें नही होता। तथा वन्धके होने पर सक्रम होता है। बन्धके अभावमें सक्रम नही होता। इत्यादि रूपसे सक्रमका कथन विस्तारसे किया है क्योकि कसायपाहुड और उसके चूणिसूत्रोमें सक्रमका विस्तृत वर्णन मिलता है ।
१३. लेश्या-इस अनियोगद्वारमें लेश्याका कथन है। लेश्याके मुख्य दो भेद है-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या । चक्षुके द्वारा ग्रहण करने योग्य पुद्गलस्कन्धोके रूपको द्रव्यलेश्या कहते है । उसके छै भेद है-कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल । भ्रमर आदिके कृष्ण लेश्या है, नीम, केला, आदिके पत्तोके नीललेश्या है। कबूतर आदिके कापोत लेश्या है। जपाकुसुम आदिकी पीतलेश्या है। कमल आदिके पद्म लेश्या है और हस वगैरहके शुक्ल लेश्या है क्योकि इनका रग इसी प्रकारका होता है।
मिथ्यात्व, असयम, और कषायसे अनुरक्त मन, वचन, कायकी प्रवृत्तिको भावलेश्या कहते है। इसी लेश्याके कारण जीव कर्मपुद्गलोसे वद्ध होता है। उसके भी द्रव्यलेश्याकी तरह ही छै भेद है । इन्हीका सक्षिप्त कथन है।
१४ लेश्या कर्म-इस अनियोगद्वारमें प्रत्येक लेश्यावाले जीवका कर्म-क्रिया
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२३८ : जैनसाहित्यका इतिहास बतलाई है । यथा-कृष्णलेश्या वाला प्राणी निर्दय, झगडालु, चोर, व्यभिचारी आदि होता है । नीललेश्या वाला विवेकरहित, बुद्धिहीन घमडी, मायाचारी आदि होता है। कापोतलेश्यावाला दूसरोका निन्दक, अपना प्रशसक तथा कर्तव्य अकत व्यके ज्ञानसे रहित होता है। तेजोलेश्यावाला अहिंसक, सत्यभापी, और स्वदारसन्तोपो होता है । पद्मलेश्यावाला तेजोलेश्यावालेसे और शुक्ललेश्यावाला पनलेश्यावालेसे भी अधिक सच्चा, अहिंसक और संयमी जीवन वाला होता है। यह भावलेश्याकी अपेक्षा जानना चाहिए।
१५ लेश्यापरिणाम-कौन लेश्या, कितनी वृद्धि अथवा हानिके द्वारा किस लेश्यारूप परिणमन करती है इसका कथन इस अनुयोगद्वारमें है। जैसे कृष्णलेश्यावाला जीव यदि और भी मक्लेशरूप परिणामोको करता है तो वह अन्यलेश्यारूप परिणमन न करके कृष्णलेश्यामें ही रहता है। इसी तरह शुक्ललेश्या वाला जीव यदि और भी अधिक विशुद्ध परिणामोको करता है तो वह शुक्ल लेश्यामें ही रहता है, अन्यम्प परिणमन नहीं करता। किन्तु मध्यकी चारलेश्या वाले जीव हानि या वृद्धिके होनेपर अन्य लेश्यारूप भी परिणमन कर सकते है। इन्ही बातोका कथन इस अनुयोगद्वारमें है । यह सब कथन भावलेश्याकी अपेक्षासे है।
१६. सातासात-सात और असातका कथन समुत्कीर्तना, अर्थपद, पदमीमासा, स्वामित्व और अल्पवहुत्व अनुयोगहारोंसे किया गया है। सात और असातके दो भेद किये है-एकान्तसात, अनेकान्त सात, एकान्त असात अनेकान्त असात । सातारूपसे बाधा गया जो कर्म सक्षेप और प्रतिक्षेपसे रहित होकर साता रूपसे वेदा जाता है उसे एकान्त सात कहते है । इससे विपरीत अनेकान्त सात है। इसी तरह जो कर्म असाता स्वरूपसे बाधा जाकर सक्षेप व प्रतिक्षेपसे रहित होकर असातरूपसे वेदा जाता है उसे एकान्त असात कहते है । इससे विपरीत अनेकान्त असात है । आगे इन्हीके स्वामित्व आदिका कथन किया है।
१७ दीर्घह्रस्व---इस अनुयोगद्वारमें दीर्घ और ह्रस्वका कथन करते हुए प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशकी अपेक्षा प्रत्येकके चार भेद किये है । यथाप्रकृति दीर्घ, स्थिति दीर्घ, अनुभाग दीर्घ, प्रदेश दीर्घ । माठो प्रकृतियोंका बन्ध होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उससे कमका बन्ध होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है । सत्त्वकी अपेक्षा, माठ प्रकृतियोका सत्त्व होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उससे कमका सत्त्व होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है। उदयकी अपेक्षा आठ प्रकृतियोकी उदीर्णा होनेपर प्रकृतिदीर्घ और उससे कमको उदीर्णा होनेपर नोप्रकृतिदीर्घ होता है। इसी तरह जिस-जिस कर्मकी जितनी उत्कृष्ट स्थिति है उसका बन्ध होनेपर स्थितिदीर्घ और उससे कम स्थितिका बन्ध होनेपर नोस्थितिदीर्घ है। इसी
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धवला-टीका • २३९
तरह अनुभाग और प्रदेशमें भी जानना चाहिये । ह्रस्वमें उससे विपरीत समझना चाहिये । अर्थात् एक-एक प्रकृतिका बन्ध करनेवालेके प्रकृतिह्रस्व है और उससे अधिकका वन्ध करनेवालेके नोप्रकृतिह्रस्व है। इस प्रकार दीर्घ और ह्रस्वका कथन किया है।
१८. भवधारणीय-भवके तीन भेद बतलाये हैं-ओघ भव, आदेस भव और भवग्रहण भव । उनमेंसे इस अनुयोगद्वारमें भवग्रहण भवका कथन कुछ पक्तियोमें किया है । भुज्यमान आयुको निर्जीण करके जिसके नवीन आयु कर्मका उदय हुआ है उस जीवके प्रथम समयमें होनेवाले परिणामको अथवा पुराने शरीरको त्यागकर नया शरीर धारण करनेको भवग्रहण भव कहते है । भवका धारण केवल आयुकर्मके द्वारा होता है । अन्य कर्मोका यह काम नहीं है ।
१९. पोग्गल अत्त-(पुद्गलात्त)-'आत्त' का अर्थ है 'गृहीत' । अत गृहीत पुद्गलोको 'पुद्गलात्त' कहा है । वे पुद्गल छै प्रकारसे गृहीत किये जाते है-ग्रहणसे, परिणामसे, उपभोगसे माहारसे, ममत्वसे और परिग्रहसे । हाथ अथवा पैरसे जो पुद्गल ग्रहण किये जाते है वे ग्रहणसे आत्त पुद्गल है । मिथ्यात्व आदि परिणामोसे गृहीत पुद्गल परिणामसे आत्त पुद्गल है। उपभोग रूपसे अपनाये गये सुगध, ताम्बूल आदि पुद्गल उपभोगसे आत्त पुद्गल है । खान-पानके द्वारा अपनाये गये पुद्गल आहारसे आत्त पुद्गल है। अनुरागसे गृहीत पुद्गल ममत्वसे आत्त पुद्गल है । और आत्माधीन जो पुद्गल है वे परिग्रहसे आत्त पुद्गल है । यही इसमें कथन है।
२० निधत्त-अनिधत्त-जो प्रदेशाग्र उदय, सक्रमके अयोग्य है किन्तु उत्कर्पण और अपकर्षणके योग्य होता है उसको निधत्त कहते है । शेपको अनिधत्त कहते है । कहाँ किस कर्मसे प्रदेशाग्र निधत्त और अनिधत्त है, इसका कथन कुछ पक्तियोके द्वारा किया है।
२१ निकाचित-अनिकाचित-जो प्रदेशाग्न उत्कर्पण, अपकर्पण, सक्रम और उदयके अयोग्य होता है उसे अनिकाचित और शेषको निकाचित कहते हैं । इसीका कथन इस अनुयोगद्वारमें कुछ पक्तियोके द्वारा किया है।
२२ कर्मस्थिति-इस अनुयोग द्वारमें कर्मस्थितिके लक्षणमें नागहस्ती और आर्यमाका' मतभेद बतलाया है। नागहस्ती क्षमाश्रमणके मतसे जघन्य ___ कम्मठिदि त्ति अणियोगद्दारम्हि भण्णमाणे वे उवदेसा होति-जहण्णुक्कस्सटिठदीण
पमाणपरूवणा कम्मठिदिपरूवणे ति णागहत्थिखमासमणा भणति। अज्जमखुखमासमणा पुण कम्मठिदिसंचिदसतकम्मपरूवणा कम्मठिदिपरूवणे त्ति भणति । एव दोहि उवऐसेहि कम्मठिदिपरूवणा कायन्वा। एव कम्मछिदि त्ति समतमणिमोगद्दार ।-पटख०, पु० १६, पृ० ५१८ ।
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२४० : जैनसाहित्यका इतिहास
और उत्कृष्ट स्थितियोके प्रमाणकी प्ररूपणाको कर्मस्थितिप्ररूपणा कहते है । और आर्यमक्षु क्षमाश्रमणका कहना है कि कर्मस्थित सचित सत्कर्मकी प्ररूपणाको कर्मस्थितिप्ररूपणा कहते है । वीरसेनस्वामीने दोनों ही मतोसे कर्मस्थितिप्ररूपणा करनेकी सम्मति देकर ही अनुयोगद्वार समाप्त कर दिया है।
२३ पश्चिम भवस्कन्ध-- इसके सम्बन्धमें वीरसेनस्वामीने इतना ही लिखा है कि जीवका जो अन्तिम भव है, उस अन्तिम भवमें उस जीवके सव कर्मोकी बन्ध मार्गणा, उदय मार्गणा, उदीरणा मार्गणा, सक्रम मार्गणा और सत्कर्म मार्गणा ये पाच मार्गणाएँ पश्चिम स्कन्ध अनयोगद्वारमें की जाती है । इन पाच मार्गणाओकी प्ररूपणा करनेके पश्चात् उस जीवके अन्य प्ररूपणा करनी चाहिये ।' अतः उन्होने केवलिसमुद्धातका वर्णन करके पश्चात् मुक्तिप्राप्ति पर्यन्त क्रियाओका साधारण-सा कथन किया है ।
मोक्ष - अनुयोगके पश्चात् एक सक्रमका ही वर्णन विस्तारसे किया गया है। शेष अनुयोगद्वारोका तो बहुत ही साधारण-सा कथन किया है। सम्भवतया उनके सम्बन्धमें उस समय अधिक जानकारी प्राप्त नही थी ।
२४ अल्पबहुत्व --- इस अन्तिम अनुयोगद्वारका कथन कुछ विस्तारसे किया है, क्योकि उसके सम्बन्धमें नागहस्ती और आर्यमक्षु दोनोके उपदेश प्राप्त थे । अनुयोगद्वारका आरम्भ करने हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है- 'नागहस्ती भट्टारक अल्पबहुत्व अनियोगद्वार में सत्कर्मकी मार्गणा करते है । यह उपदेश 'पवाइज्ज' परम्परासे प्राप्त है ।
उक्त सब अनुयोगद्वारोमें अल्पबहुत्वका कथन करते हुए वीरसेनस्वामीने निकाचित-अनिकाचितमें महावाचक' क्षमाश्रमणके उपदेशका निर्देश किया है । यह महावाचक क्षमाश्रमण शायद आर्यमक्षु हो । कर्मस्थिति अनियोगद्वारमें महावाचक' आर्यनन्दिके द्वारा सत्कर्मका कथन करनेका निर्देश है, इनके सम्बन्ध में नागहस्ती पर प्रकाश डालते हुए विचार कर आये है ।
पश्चिम स्कन्ध सम्बन्धी अल्पबहुत्वका कथन करते हुए लोकपूरण समुद्धातके पश्चात् केवली समुद्धातसे होनेवाले कार्यके सम्बन्धमे दो मत दिये है । महावाचक
१. ' महावाचयाण खमासमणाण उवदेसेण ।' पु. १६, पृ ५७७ ।
२ 'कम्मट्ठदित्ति अणियोगद्दारे एत्थ महावाचया अज्जगदिणो सतकम्मं करोति । महावाचया ट्ठिदिसतकम्म पयासति । पु० १६, पृ. ५७७ ।
३. 'महावाचयाणमज्जमखुसमणाणमुवदेसेण लोगे पुण्णे आउभसमं करेदि । महावाचयाणमज्जगदीण उवदेसेण अतोमुहुत्त ठवेदि सखेज्जगुणमाउआदो ।'
पु. १६, पृ. ५७८ ।
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धवला - टीका २४१
आर्यमक्षु क्षमाश्रमणके उपदेशके अनुसार लोकपूरण समुद्धात होनेपर शेष कर्मोंकी स्थितिको आयुकर्मके समान करता है और महावाचक आर्यनन्दीके उपदेश से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण करता है जो आयुकर्मको स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । सर्वत्र आर्यमक्षुके मतके विरोधके रूपमें नागहस्तीका मत पाया जाता है । किन्तु यहाँ वीरसेन स्वामीने आर्यनन्दीका मत दिया है जो उल्लेखनीय है ।
अल्पबहुत्व अनुयोगद्वारके साथ ही छठा सत्कर्म खण्ड तथा घवला टीका समाप्त हो जाती है ।
वीरसेन स्वामी परिचय
धवलाकी अन्तिम प्रशस्तिमें वीरसेन स्वामीने अपना परिचय देते हुए लिखा है
'अज्जज्जण दिसिस्सेणुज्जुवकम्मस्स चदसेणस्स । तह णत्तुवेण पचत्युहण्णयभाणुणा मुणिणा ||४|| सिद्ध त छद-जोइस वायरण पमाणसत्यणिवणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण ॥५॥
अर्थात् आर्य आर्यनन्दिके शिष्य और चन्द्रसेनके प्रशिष्य, पञ्चस्तु पान्वयभानु, सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाणशास्त्रमें निपुण मुनि वीरसेन भट्टारकने यह टीका लिखी ।
इससे स्पष्ट है कि उनके गुरुका नाम आर्यनन्दी था और दादा गुरुका नाम चन्द्रसेन था । सम्भवतया ये उनके दीक्षागुरु थे और वे पचस्तूप नामके अन्वयमें हुए थे ।
वीरसेन अपने समय के महान् आचार्य थे । उन्होने जो अपनेको सिद्धान्त, छन्द, ज्योतिष, व्याकरण और प्रमाणशास्त्रमें निपुण लिखा है, उसका समर्थन धवला - जयधवला टीकाओके अवलोकनसे भी होता है । जयधवलाकी अन्तिम प्रशस्तिमें उनके शिष्य जिनसेनने अपने गुरुका स्मरण करते हुए कहा है'भट्टारक' श्री वीरसेन विद्याओके पारगामी थे और वे साक्षात् केवलीके तुल्य
१ 'श्रीवीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथ ।
पारदृशवाधिविद्याना साक्षादिव स केवली || १९ ॥ प्रीणितप्राणिस पत्तिराक्रान्ताशेपगोचरा ।
भारती भारतीवाज्ञा पट्खण्डे यस्य नास्खलत् ||२०|| यस्य नैसर्गिकी प्रज्ञा दृष्ट्वा सर्वार्थगामिनीम् । जाता सर्वज्ञमद्भावे निरारेका मनीषिण ||२१|| य प्राहु प्रस्फुरद्बोधदीधितिप्रसरोदयम् । श्रुतकेवलिन प्राज्ञा प्रज्ञाश्रमणसत्तमम् ॥२२॥
१६
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२४२ : जैनसाहित्यका इतिहास थे। जैसे भारती-भरत चक्रवर्तीकी-आज्ञा भरत क्षेत्रके पट्खण्डोमें कभी स्वलित नहीं हुई वैसे ही वीरसेनकी भारती पट्यण्डरूप आगममें कभी स्खलित नही हुई। उनकी सर्वार्थगामिनी नैसर्गिक प्रज्ञाको देखकर मनीपीजम सर्वज्ञके अस्तित्वमें सन्देह रहित हो गये। उन्हे पण्डितजन श्रुतकेवली और प्रज्ञाश्रमणोमें श्रेष्ठ कहते थे। प्रसिद्ध सिद्धान्तस्पी समुद्रके जलसे प्रक्षालित होनेके कारण उनकी बुद्धि निर्मल हो गई थी और इसलिये वह बुद्धि-प्रद्धिसे सम्पन्न प्रत्येकबुद्धीमे स्पर्धा करते थे। वह प्राचीन पुस्तकोके तो मानो गुरु थे। उन्होने प्राचीन पुस्तकोका अध्ययन करके अपनेसे पहलेके सभी पुस्तकशिष्यकोको अतिक्रमण किया था।' __केवली, श्रुतकेवली, प्रनाश्रमण, प्रत्येकबुद्ध ये पद जैन परम्परामें ज्ञानकी दृष्टिसे अति उच्च माने गये है । वीरसेनको उनके समकक्षा वतलाना उनके महनीय व्यक्तित्व और सर्वोच्च ज्ञानगरिमाको प्रकट करता है। ___इन्ही जिनसेनने अपने महापुराणके प्रारम्भमें उन्हें वादिमुख्य, लोकवित्, कवि और वाग्मी बतलाया है । जिनसेनके शिष्य गुणभद्रने उन्हें समस्त वादियोको वस्त करनेवाला कहा है तथा पुन्नाटसघीय जिनसेनने कवियोका चक्रवर्ती कहा है। इन सब विशेपणोसे तथा स्वयं वीरसेनकी टीकाओके अवगाहनसे वीरसेनकी विद्वत्ता और मर्वतोमुखी प्रतिभाका यथोचित आभास मिल जाता है । वीरसेनके गुरु • एलाचार्य
धवलाको प्रशास्तिकी पहली गाथामें वीरसेनस्वामीने एलाचार्यका स्मरण करते हुए लिखा है-'जिसके आदेशसे मैंने यह सिद्धान्त लिखा वे एलाचार्य मुझ वीरसेन पर प्रसन्न हो। इसके सिवाय धवला और जयधवलामें वीरसेनने अपनेको एलाचार्यका वत्स ( वच्चा) भी लिखा है। जयधवलामें एक स्थान
प्रसिद्धसिद्धसिद्धान्तवाधिवाह्नतशुद्धधी । सार्थ प्रत्येकजुद्धर्य स्पर्धते धीद्धयुद्धिमि ॥२॥ पुस्तकाना चिरन्तानां गुरुत्वमिह कुर्वता । येनातिशायिता• पूर्वे सर्वे पुस्तकशिष्यका ॥२४॥ यस्तपोदीप्तकिरणैर्भव्याम्भोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ठ मुनिनेनः पञ्चस्तूपान्वयाम्बरे ॥२५॥ प्रशिष्यश्चन्द्रसेनस्य य शिप्योऽप्यार्य नन्दिनाम् । कुल गण च सन्तान स्वगुणैरुदजिज्वलत् ॥२६॥
-ज.ध.प्र. १. 'जस्साण्सेण मए सिद्धन्तमिद हि अहिलहुद। महु सो एलाइरियो पसियउ वरवीर
सेणस्स ॥२॥ २. 'दोसु वि उवएसेसु को एत्थ समजसो, एत्थ ण बाहइ जिब्भमेलाइरियवच्छओ।'
-पटख., पु. ९, पृ. १२६ । कसा. पा., भा. १, पृ. ८१ । ३. 'एदेण वयणेण सुत्तस्स देसामासियत्त जेण जाणाविद तेण चउण्ह गईण उच्चारणा
बलेन एलाइरिय पसाएण य सेसकम्माण परूवणा कीरदे।'-क. पा., भा०४, पृ. १६९।
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धवला-टीका • २४३
पर चूर्णिसूत्रका व्याख्यान करते हुए यह भी लिखा है कि चू कि यह सूत्र देशामर्षक है अत उच्चारणाके वलसे और एलाचार्यके प्रसादसे चारो गतियोमें शेष कर्मोंकी प्ररूपणा करते है। इससे स्पष्ट है कि वीरसेनने सिद्धान्तग्रन्थोका अध्ययन एलाचार्यसे किया था और उन्हीके आदेशसे टीका-ग्रन्थोकी रचना की थी।
अत एलाचार्य सिद्धान्तग्रन्थोके अपने समयके अधिकारी विद्वान थे, यह बात उनके शिष्य वीरसेनके द्वारा रचित दोनो टीकाओके देखनेसे ही स्पष्ट हो जाती है । ____ कसायपाहुडका परिचय कराते हुए हम यह लिख आये है कि कसायपाहुड के अधिकारोको लेकर मतभेद था। गाथासख्या ५ की जयधवला-टीकामें 'के वि आइरिया' कहकर एक मतभेदकी चर्चा है। उन किन्ही आचार्योके मतका निराकरण करके स्वकृत व्याख्यानका समर्थन करते हुए वीरसेनस्वामीने लिखा है-'अत भट्टारक एलाचार्यके द्वारा उपदिष्ट पूर्वोक्त व्याख्यान ही यहा प्रधानरूपसे ग्रहण करना चाहिये । उपदिष्ट व्याख्यानसे आशय उस व्याख्यानसे है, जिसका उपदेश एलाचार्यने वीरसेनको दिया था। अत यह स्पष्ट है कि एलाचार्य सिद्धान्तग्रथोके अधिकारी व्याख्याता थे। चूकि वीरसेनस्वामीने धवलाकी समाप्ति शक स० ७३८ ( ८१६ ई० ) में की थी, अत यह निश्चित है कि एलाचार्य ईसाकी ८ वी शतीके उत्तरार्धमें विद्यमान थे। परन्तु उनकी गुरुपरम्पराके सम्वन्धमें कुछ ज्ञात नही होता। वीरसेन स्वामीकी बहुज्ञता
जयधवलाको प्रशस्तिमें जो वीरसेन स्वामीको प्राचीन पुस्तकोके अध्ययनका अनुपम प्रेमी होनेके कारण चिरन्तन पुस्तकशिष्यकोका गुरु और उनकी प्रज्ञाको सर्वार्थगमिनी कहा है वह उचित ही है। अपनी धवला और जयधवला टीकामें उन्होने जो अनेको ग्रन्थोके नाम तथा उद्धरण दिये है उससे ही उक्त दोनो बातोकी पुष्टि हो जाती है। उद्धरणोका बहुभाग ऐसा है, खोजने पर भी जिसके मूल स्थानोका पता नही लग सका । उनमेंसे कुछ उद्धरण ऐसे भी है जो हरिभद्रसूरि के अनेकान्तवादप्रवेशमें, बौद्धग्रन्थ तत्त्वोपप्लवमें3 सिंहगणि क्षमाश्रमणकृत नयचक्रवृत्तिमें तथा भगवती आराधनाकी विजयोदया टीकामें भी उद्धृत है । धवलाजयधवलामें निर्दिष्ट अन्थो तथा जिन उद्धरणोके स्थलोका पता लग सका है उनके अनुसार वीरसेनस्वामीने नीचे लिखे ग्रन्थोका उपयोग अपनी टीकामोमें किया है ?
१ 'तदो पुन्वुत्तमलाइरियभडारण उवइट्ठवक्खाणमेव पहाणभावेण पत्थ घेतव्व ॥
-क पा, मा १, पृ १६२ । २ क.पा मा. १, पृ. २५५ । ३ क. पा. भा. १ पृ. २५६ । ४. क पा. भा १ पृ २२७ ।
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२४४ : जेनसाहित्यका इतिहास
१ राताम्गगाहट २. गोनिप्रागत-धरगेनाचार्य विरचित । ३. गुणघराचार्य विरचित-फसायपाहुउ ४. भूतवली विरचित-जीवट्ठाण, सुहावन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, वेदना,
वर्गणा और महावन्ध । ५. पुन्दगुन्दरचित-परिकर्म, प्रवननसार, समयसार, पञ्चास्तिकाय,
अष्टपाट । ६. यतिवृपभरचित-चूणिमूत्र और तिलोयपण्णत्ति । ७. उच्चारणाचार्यविरचित-उच्चारणावृत्ति । ८. वट्टकेराचार्यरचित-मूलाचार । ९. शिवार्यरचित-भगवती आराधना । १०. व्याख्याप्रज्ञप्ति १. गृद्धपिच्छाचार्यरचित-तत्त्वार्थसूत्र २ पिंडिया (२) ३. समन्तभद्ररचित-आप्तमीमासा, बृहत्स्वयम्भू०, युक्त्यनुशासन, ४. सिद्धसेनरचित-सन्मतिसूम ५ पूज्यपादरचित-सारसग्रह । ६. प्राकृत-पचसग्रह ७ अकलकदेवरचित-तत्त्वार्थभाष्य, सिद्धिविनिश्चय, लघीयस्त्रय १७ प्रभाचन्द्ररचित-कोई ग्रन्थ । १८ धनजयकविकृत नाममाला कोश । १९ वाप्पभट्टरचित-उच्चारणा । २०. जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, अगपण्णत्ति आदि
उक्त ग्रन्थोमेसे पिंडिया तथा पूज्यपादकृत सारसंग्रहका कोई पता नही चल सका है । कुछ उद्धृत गाथाए नीचे लिखे श्वेताम्बरीय आगमिक साहित्यमें पाई गई है। अत सभवतया इन ग्रन्थोका भी उपयोग वीरसेन स्वामीने अपनी टीकामओमें किया था। आधवश्यकनियुक्ति, आचारागनियुक्ति, अनुयोगद्वारसूत्र, दशवैकालिक, स्थानागसूत्र, नन्दिसूत्र, और ओपनियुक्ति ।
एक छेदसूत्रका भी उल्लेख है । लिखा है-द्रव्यस्त्री और नपुसक वस्त्र त्याग नही कर सकते, छेदसूत्रसे विरोध आता है । __ण च दन्वत्थीण णिग्गथत्तमत्यि, चेलादिपरिच्चारण विणा तासि भावणिग्गथत्ताभावादो।
ण च दव्वथिणव॑सयवेदाण चेलादिचागो अस्थि, छेदसुत्तेण सह विरोहादो'–पटख, पु. ११, ११४-११५।
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धवला - टीका • २४५
अन्य दर्शनोके ग्रन्थोमेंसे वौद्धकवि अश्वघोषके सौदरानन्दकाव्य, धर्मकीर्ति प्रमाणवार्तिक, ईश्वरकृष्णकी साख्यकारिका और कुमरिलभट्टके मीमासाश्लोकवार्तिकसे भी एक दो उद्धरण दिये गये है ।
जयधवलामें' पाहुडशब्दको व्युत्पत्तिके प्रसगसे कई प्राकृत गाथाएं उद्धृत की है जो प्राकृतव्याकरणके नियमोसे सम्बद्ध है । उसपर से ऐसा अनुमान होता है कि सम्भवतया प्राकृतभाषाका कोई गाथावद्ध व्याकरण भी था । धवला ओर जयधवलाके प्रथम भागमे भगवान महावीरके जीवनसे सम्बद्ध अनेक प्राकृत गाथाए उद्धत की है जिनपरसे अनुमान होता है कि प्राकृतगाथाओ में भगवान् महावीरका कोई सुन्दर चरितान्य अवश्य था ।
समय-विमर्श
वोरसेनस्वामीने अपनी धवला - टीकाके अन्तमें उसकी समाप्तिका काल दिया है । किन्तु गाथाओके अशुद्ध होनेसे उनमें दिये हुए काल के सम्वन्धमें विवाद है । अत उसे छोडकर जयधवलाकी अन्तिम प्रशस्ति में दिये गये कालको लेना उचित होगा । उसमे बतलाया है कि कसायपाहुडकी टीका जयघवला श्रीमान् गुर्जराके द्वारा पालित वाटकग्रामपुरमें राजा अमोघवर्षके राज्यकालमें फाल्गुन शुक्ला दशमी के पूर्वाह्न में, जबकि नन्दीश्वर महोत्सव मनाया जा रहा था, शकराजाके सात सी उनसठ वर्ष ( ७५९ ) वीतने पर समाप्त हुई । इससे स्पष्ट है कि शकसवत् ७५९, विक्रम सवत् ८९४ ओर ईस्वी सन् ८३७ के फाल्गुन मासकी सुदी दशमीको जयधवला समाप्त हुई थी ।
वीरसेन स्वामीने जयघवलाका केवल पूर्वार्ध ही रचा था, यह बात जयधवलाकी प्रशस्तिसे ३ प्रकट होती है । उसमें जिनसेनने लिखा है कि गुरुके द्वारा निर्मित पूर्वभागको देखकर मैंने उत्तर भागको रचा। यदि वीरसेन जीवित होते तो ऐसा प्रसग उपस्थित न होता । इसके सिवाय प्रशस्ति में वीरसेनके लिए
१
क. पा., भा. १, पृ. ३२६-३२७ २ इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी । वाटग्रामपुरे श्रीमद्गुर्जरार्यानुपलिते ॥ ६ ॥ फाल्गुने मासि पूर्वान्हे दशम्या शुक्लपक्षके । प्रवर्धमानपूजोरुनन्दीश्वरमहोत्सवे ॥ ७ ॥ अमोघवर्पराजेन्द्रराज्यप्राज्यगुणोदय ।
निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥ ८ ॥ एकोन्नपष्ठिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेन्द्रस्य ।
समतीतेषु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥ ११ ॥
३. गुरुणार्थेऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये सप्रकाशिते । तन्निरीक्ष्याल्पवक्तव्य. पश्चार्धस्तेन पूरित. ॥३६॥
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॥ ६ ॥ mirar माग गया गोनं । गुरे गुनासो गर मुर्गन मा होते ॥७॥ पाr: गर्ग it गुमि मंदिगामि । पातिकमागे गा पा र गमाणिजा भव ॥८॥
रणराम ग्दिननापति भुजते । मियागंमत्यिग गुगणमाण गिता सा ॥९॥ उगत प्रगन्तिी पानी पगित, जिसमें भगवाही गमाप्तिगा गगग दिया हुआ है, वितुल गटवट है। भागेगी परिगामें जो ममाप्तिकालका सूचक सहयोग दिया गया है यह भी अगुत है। फिर भी प्रो० होरालालजीने कालगणना आधाग्पर उसकी शुद्धि गरगे नीचे हिरो अनुसार शुद्ध पाठ स्थापित किया था
अठत्तीराम्हि मतगए विवकामराय किए सुरागणामे । वासे सुतेरसीए भाणुविलग्गे धवलपगरी ॥६॥ जगतु गदेवरज्जे रियम्हि कुम्हि राहुणा कोणे । सूरे तुलाए सते गुरुम्हि कुलविल्लए होते ॥७॥ चावम्हि तरणिपुत्ते सिंधे सुक्कम्मि मीणे चदम्मि । फत्तियमासे एसा टीका हु समाणिआ धवला ॥८॥
१ पटल०, भा० १, प्रस्ता० पृ. ३९-४५
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धवला-टीका २४७ और तदनुसार धवलाकी समाप्तिका काल शक सम्वत् ७३८ निर्धारित किया था। इस पर डा० ज्योतिप्रसाद जैनने आपत्ति की । वास्तवमें 'पासे'का 'वासे', 'भाव'का भाणु, 'वरणिवुत्ते'का तरणिपुत्ते और 'मॅढिचदम्मि'का 'मीणे चंदम्मि' सुधार तो सम्भव प्रतीत होता है किन्तु 'सासिय'का 'सतसए' और 'विक्कमरायम्हि एसु सगरमो'का 'विक्कमरायकिए सुसगणामे' सुधार कष्टसाध्य ही प्रतीत होता है । गाथा छैके मूल पाठसे इतना तो स्पष्ट है कि सवत् विक्रमराजाके नामसे सम्बद्ध है और उसके अकोमें एक अक ३८ है । विक्रमराजाके नामसे सम्बद्ध सम्वत् तो विक्रम सम्वत् है ही । किन्तु जैनपरम्परामें शक सम्वत्का उल्लेख भी विक्रमाक शकके नामसे मिलता है। जैसे त्रिलोकसारकी टीकामें टीकाकार माधवचंद त्रैविद्यने लिखा है-'श्रीवीरनाथनिवृते. सकाशात् पचोत्तरषट्शतवर्षाणि (६०५)पचमासयुतानि गत्वा पश्चात् विक्रमाकशकराजो जायते । अर्थात् वीरनिर्वाणसे ६०५ वर्प ५ मास पश्चात् विक्रमाक शक राजा हुआ।
यहाँ पर विक्रमाकशकसे तात्पर्य स्पष्ट रूपसे शक सम्वत्के सस्थापकसे है, क्योकि त्रिलोकसारकी जिस 'गाथा ८५० को यह टीका है उसमें शकका ही निर्देश है। तथा वीरसेन' स्वामीने भी अपनी धवला टीकामें वीर निर्वाण
और शक राजाके मध्यमें ६०५ वर्प पाच मासका अन्तर बतलाया है। यद्यपि उन्होने इस विषयमें अन्य आचार्योके मत भी दिये है किन्तु उनका अपना मत यही था।
अकलकचरित्र में अकलकके बौद्धोके साथ शास्त्रार्थका समय विक्रमार्क शक सम्वत् ७०० दिया है। यहा ग्रन्थकारने विक्रमार्क शक नामसे विक्रम सम्वत्का उल्लेख किया है, या शक सम्वत्का, यह निश्चयपूर्वक नही कहा जा सकता । तथापि इतना निश्चित प्रतीत होता है कि यह शक सम्वत् ७०० नही हो सकता, क्योकि शक सम्वत् ७०५ में रचे गये हरिवशपुराणमें वीरसेन और जिनसेनको स्मरण किया गया है और वीरसेनने अपनी धवलाके आरम्भमें ही अकलकदेवके तत्त्वार्थवार्तिकसे बहुतसे उद्धरण दिये है। तथा अकलकका उल्लेख करनेवाले धनजय कविके कोश से भी धवला में उद्धरण दिया गया है । अस्तु, १. पणछस्सयवस्स पणमासजुद गमिय वीरणिव्वुइदो सगराजो' २ 'एसो वीरजिणिदणिव्वाणगददिवसादो जाव सगकालस्स आदी होदि तावदियकालो।
कुदो? (१९१) एदम्हि काले सगणरिंदकालम्मि पक्खित्ते वड्ढमाणजिणणिव्वुदकाला
गमणादो।'-पर्खतप ९, पृ. १३२ । ३ "विक्रमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि। कालेऽकलकयतिनो बौद्धर्वादो महानभूत ॥'
अक.च.। ४ 'प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षण ।' ध० ना० मा० श्लो० २०३ । ५ पटख०, पु ९, पृ. २३७ ।
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२४८ : जैनसाहित्यका इतिहास
ऐसी स्थितिमें यह विचारणीय हो जाता है कि वीरसेन स्वामीने धवलाकी उक्त प्रशस्ति में यदि विक्रमाक शकका ही उल्लेख किया है तो विक्रम सम्वत्के अर्थमें किया है या शक सम्वत् के अर्थमें ? और ३८ के अकमे पहले कौन-सा अक होना संभव है ?
प्रथम विचारणीय विषयके सम्बन्धमें प्रो० हीरालालजीका कहना है कि 'वीरसेनस्वामीने जहां-जहां वीरनिर्वाणको कालगणना दी है वहा शककालका ही उल्लेख किया है । उनके शिष्य जिनसेनने जयधवलाकी समाप्तिका काल शकगणनानुसार ही सूचित किया है। दक्षिणके प्राय समस्त जैन लेखकोने शककालका ही उल्लेस किया है। ऐसी अवस्थामे आश्चर्य नही जो यहा भी लेखकका अभिप्राय शककालसे हो' ।
प्रोफेसर साहवका कथन उचित है । किन्तु वीरसेनने जहा कही शकका निर्देश किया है, उसके साथ विक्रमाक विशेषणका कही भी प्रयोग नही किया । यदि वह या उनके शिष्य जिनसेन शकके साथ एकाध जगह भी विक्रमाक विशेषणका प्रयोग करते तो प्रोफेसर साहबको उक्त युक्तिया वलवती होती । ऐसी स्थितिमें प्रशस्तिके छठे श्लोक में आगत विक्कमराय शब्द विचारणीय हो जाता है |
दूसरे विचारणीय विषयके सम्बन्धमें प्रोफेसर साहबका कथन है कि - 'गाथा में 'शत' सूचक शब्द गडवडीमें है । किन्तु जान पडता है लेखकका तात्पर्य कुछ सो ३८ वर्ष विक्रम सम्वत् के कहने का है । किन्तु विक्रम संवत्के अनुसार जगतुग का राज्य ८५१ से ८७० के लगभग आता है । अत उसके अनुसार ३८ के अक की कुछ सार्थकता नही बैठती । x x x यदि हम उक्त संख्या ३८ के साथ सात सौ और मिला दें और ७३८ शक सम्वत्को लें तो यह काल जगतुगके ज्ञातकाल अर्थात् शक सम्वत् ७३५ के बहुत समीप आ जाता है' ।
इस तरह जहाँ डा० हीरालालजी धवलामें प्रयुक्त सम्वत्को शक सम्वत् मानकर ३८ से पहले सात अक रखना उचित समझते है, वहा डा० ज्योति - प्रसादजी उसे विक्रम सम्वत् मानकर ३८ से पहले ८ का अक रखना उचित समझते है । अर्थात् उनके मतसे घवलाकी समाप्ति वि० स० ८३८ में ( शक स. ७०३ ) में हुई ।
ऐसी स्थितिमें इन दोनो कालो पर अब दूसरे प्रकारसे विचार करना उचित होगा । धवलाकी प्रशस्तिको गाथासख्या ७ में 'जगतुंगदेवरज्जे' पद है । अर्थात् जगतुगदेवके राज्यमें जयधवला समाप्त हुई । और गाथासख्या ९ में कहा है, कि उस समय नरेन्द्रचूडामणि वोद्दणरायनरेन्द्र राज्यका उपभोग करते थे ।
१. पट्ख., भा. १ प्रस्ता०, पृ ४५ ।
२ पटख, भा. १, प्रस्ता०, पृ. ४० ।
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धवला-टीका : २४९ प्रथम तो एक ही प्रशस्तिमें दो राजाओका निर्देश कुछ विचित्र-सा ही प्रतीत होता है । दूसरे, राष्ट्रकूट नरेशोमें जगतुगदेव नामक एक ही राजा नही हुआ तथा वोद्दणराय नामक राजा कौन था, इसमें भी विवाद है ।
इस उलझनके विपयमे प्रो० हीरालालजीने लिखा है-'शक स० ७३८में लिखे गये नवसारीके ताम्रपटमें जगतु गके उत्तराधिकारी अमोघवर्षके राज्यका उल्लेख है। यही नही, किन्तु शक सम्वत् ७८८के सिरूरसे मिले हुए ताम्रपटमें अमोघवर्षके राज्यके ५२वें वर्षका उल्लेख है । जिससे ज्ञात होता है कि अमोघवर्पका राज्य ७.७से प्रारम्भ हो गया था। तब फिर शक ७३८में जगतु गका उल्लेख किस प्रकार किया जा सकता है ? इस प्रश्न पर विचार करते हुए हमारी दृष्टि गा० न ७में 'जगतु गदेवरज्जें' के अनन्तर आये हुए 'रियम्हि' शब्द पर जाती है, जिसका अर्थ होता है 'ऋते' या 'रिक्त' | सभवत: उसीसे कुछ पूर्व जगतुगदेवका राज्य गत हुआ था और अमोघवर्ष सिंहासनारूढ हुए थे। इस कल्पनासे आगे गाथा न० ९में जो वोद्दणराय नरेन्द्रका उल्लेख है, उसकी उलझन भी सुलझ जाती है। वोद्दणराय सम्भवत अमोघवर्पका ही उपनाम होगा । या यह 'वड्डिग'का ही रूप हो और वड्डिग अमोघवर्षका उपनाम हो । अमोघवर्ष तृतीयका उपनाम वद्दिग या वडिग मिलता ही है। यदि यह कल्पना ठीक हो तो वीरसेन स्वामीके इन उल्लेखोका यह तात्पर्य निकलता है कि उन्होने धवला टीका शक सम्वत् ७३८में समाप्त की जब जगतु गदेवका राज्य पूरा हो चुका था और वोद्दणराय राजगद्दी पर बैठ चुके थे।'
जिस तरह ३८में ७के अककी कल्पना करके प्रोफेसर साहब ने ७३८ शक सम्वत् निर्धारित किया उसी तरह उक्त कल्पनाके आधार पर ही उन्होने जगतुग और वोद्दणरायकी समस्या को सुलझानेकी चेष्टा की है।।
अमोघवर्प प्रथम छै वर्षकी अवस्थामें शक स ७३६में राज्यगद्दी पर बैठा था। अतः ८ वर्पके बालकको 'नरेन्द्रचूडामणि' जैसे विशेषणसे अभिहित किया जाना खटकता है। हमारा विचार है, कि धवला प्रशस्तिकी अन्तिम गाथा सभवत' पीछेसे किसीने उसमें जोड दी है। उसमें आगत शब्द 'विगत्ता' भी अशुद्ध प्रतीत होता है । 'वि' उपसर्ग पूर्वक 'कृत' धातुसे प्राकृत रूप 'विगत्ता' बनता है, जिसका अर्थ होता है छेदी गई या काटी गई। इस अर्थका वहां कोई सम्बन्ध नही है। अत "विअत्ता' पाठ उचित प्रतीत होता है, जिसका अर्थ है स्पष्ट की गई । अर्थात् 'जब नरेन्द्रचूडामणि वोद्दणराय नरेन्द्र पृथ्वीका उपभोग करते थे उस समय सिद्धान्तग्रन्थका मथन करने वाले गुरुके प्रसादसे उस धवलाको व्यक्त किया गया १ वही, पृ ४१ ।
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२५० : जैनसाहित्यका इतिहास उसकी कोई टीका टिप्पणी लिखी गई। समाप्तिसूचक 'समाणिथा' पाठ तो उससे पूर्वकी गाथा में ही आ चुका है । अत' यह समस्या उलझी हुई है। रचनाए
वीरसेन स्वामीने सपूर्ण धवला और जयधवलाका पूर्वभाग रचा था। ये दोनो ग्रन्थ उपलब्ध है । पट्खण्डागम सूत्रोके साथ हिन्दी अनुवाद सहित धवलाटीका १६ भागोमें छपकर प्रकाशित हो गई है तथा कपायपाहुड और चूणिसूत्रो के साथ हिन्दी अनुवाद सहित जयधवलाकार प्रकाशन कार्य चालू है । जयधवलाम एक जगह श्रीवीरसेन स्वामीने स्वलिखित उच्चारणावृत्तिका भी निर्देश किया है। यदि वहाँ लिखितसे उनका आशय रचितसे है तो कहना होगा कि उन्होने यतिवृपभके चूर्णिसूत्रोपर उच्चारणावनि भी रची थी।
उत्तरपुराणको प्रशस्तिमें गुणभद्राचार्यने उनकी एक अन्य रचनाका निर्देश किया है उसका नाम प्रेमीजीने सिद्धभूपद्धति टीका दिया है और लिखा है कि नामपरसे ऐसा अनुमान होता है कि यह क्षेत्रगणित सम्वन्धी अन्य होगा। किन्तु गुणभद्रके उत्तरपुराणका जो सस्करण ज्ञानपीठसे प्रकाशित हुआ है उसमें 'सिद्धिभूपद्धति' पाठ है शोर श्लोकके भावको देखते हुए यही पाठ ठीक प्रतीत होता है। श्लोक इसप्रकार है
सिद्धिभूपद्धति यस्य टीका सविक्ष्य भिक्षुभिः ।
टीक्यते हेलयाऽन्येषा विपमादि पदे पदे ॥६॥-उ पु प्र अर्थ-दूसरोकेलिए पद-पदपर विषम भी सिद्धिभूपद्धति, जिसकी टीकाको देखकर भिक्षुओके द्वारा सरलतासे प्रवेश योग्य हो गई।
उक्त कथन श्लेषात्मक है । जो सिद्धिभू-मोक्षभूमिको पद्धति-मार्ग दूसरोके लिए पद-पदपर विषम है वह भिक्षुओके लिए सुगम है । इसपरसे ज्ञात होता है कि सिद्धिभूपद्धति नामक ग्रन्थ वडा कठिन था, जो वीरसेनको टीकासे सरल हो गया तथा उसमें मोक्षमार्गका विवेचन था।
इस ग्रन्थके सम्बन्धमें उक्त उल्लेखके सिवाय अन्य कोई उल्लेख नही मिलता । फिर भी यह स्पष्ट है कि उक्त ग्रन्थ तथा उसकी टीका दोनो ही बहुत महत्त्वपूर्ण थे। ___ इस तरह वीरसेनस्वामीने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण टीका-ग्रन्थोकी रचना प्राकृत१. प्रकाशक श्रीमन्त सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द, भेलसा (म प्र.)। २. भारतीय दिगम्बर जैन सघ, चौरासी, मथुससे प्रकाशित । ३ 'अम्हेहि लिहिदच्चारणाए पुण 1-क पा , भा.३, पृ. ३९८ । ४ जै. साइ,२ रा.स.,,१३१ ।।
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धवला-टीका : २५१ सस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषामें की थी। और वे सिद्धान्तग्रन्थोके अनुपम व्याख्याता थे। उन्होने अपनी टीकाओमें प्रकृत विषयोका स्पष्टीकरण और सम्बद्ध प्रासंगिक विषयोका विवेचन इस रीतिसे किया है कि वादके टीकाकारोके लिखनेके लिए कुछ शेष नही रहा और सम्भवतया इस कारण भी धवला और जयधवलाके पश्चात् सिद्धान्तग्रन्थोपर कोई टीका नही लिखी गइ। इतना ही नही, किन्तु इन टीकाओके सुविस्तृत परिमाणर्मे और उनमें चर्चित विषयोकी प्राञ्जलतामें उनकी मूलाधार कृति ऐसी समा गई कि षट्खण्डागमसूत्र धवलसिद्धान्तके नामसे और कषायपाहुड जयधवलसिद्धान्त नामसे ही प्रख्यात हो गये। ____ईसाकी १०वी शताब्दीके ग्रन्थकार अपभ्रशकवि पुष्पदन्तने अपने महापुराणमें उनका उल्लेख इसी नामसे किया है । वास्तवमें दोनो टीकागन्य जैन सिद्धान्तविषयक चर्चाओके भण्डार है ।
वीरसेनस्वामीकी किसी स्वतन्त्र ग्रन्थरचनाका कोई संकेत नहीं मिलता।
' 'णउ बुझिउ आयमसद्दधामु, सिद्ध तु धवलु जयधवलु णाम । -म, पु।
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तृतीय अध्याय द्वितीय परिच्छेद
जयधवला-टीका नामकरण
धवला-टीकाके पश्चात् दूसरी महत्त्वपूर्ण टीका 'जयधवला' है। यह टीका 'कपायपाहुड' पर लिखी गयी है । टीकाकारने इस टीकाकी प्रथम मङ्गल-गाथाके आदिमें ही 'जयइ धवलगतेए' पद देकर इसके नामकी सूचना दी है । अन्तमें तो इसके नामका स्पष्ट उल्लेख किया है
एत्य समप्पइ धवलियतिहुवणभवणा पसिद्धमाहप्पा ।
पाहुडसुत्ताणमिमा जयघवलासण्णिया टीका ॥१॥ 'तीनो लोकोको धवलित करनेवाली और प्रसिद्ध माहात्म्यवाली कपायपाहुडसूत्रोकी यह 'जयधवला' नामको टीका यहां समाप्त होती है।'
उपर्युक्त पद्यसे यह तो स्पष्ट है कि इस टीकाका नाम 'जयधवला' है । पर इस नामकरणका क्या कारण है, यह ज्ञात नहीं होता। टीकाकारने टीकाके आरम्भमें चन्द्रप्रभस्वामीकी जयकामना करते हुए उनके धवल वर्ण शरीरका उल्लेख किया है । अत यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि चन्द्रप्रभ स्वामीके धवलवर्णके आधारपर इस टीकाका नामकरण जयकामनाको मिश्रित कर 'जयधवला' किया गया हो।
इसके पूर्व छक्खडागमपर धवला-टीका रची जा चुकी थी। इसीके आधारपर कपायपाहुडकी इस टीकाका नाम 'जयधवला' रखा गया होगा । और दोनोमें भेद करनेके लिए 'जय' विशे पण नियोजित किया होगा। ___'जयधवला' टीका भी 'धवला' टीकाके समान ही विशद, स्पष्ट और गम्भीर है । सम्भव है कि इस कारणसे भी इसे 'जयधवला' नाम दिया गया हो । एक अन्य हेतु यह भी सम्भव है कि इन टीकाओकी उज्ज्वल ख्यातिने तीनो लोकोको धवलित कर दिया है । अतएव इनका सार्थक नाम धवला और जयधवला है। जयधवला टीका शैली और महत्त्व
इस टीकाकी शैली व्याख्यानात्मक होने पर भी नये तथ्योंसे सम्बद्ध है। टीकाकार जिस किसी आचार्यका मत देते हैं, उसे दृढताके साथ अधिकारपूर्वक
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जयधवला-टीका · २५३ लिखते है । उनके किसी भी व्याख्यानसे विषय सम्बन्धी कमजोरी प्रकट नही होती। वर्णनकी प्राजंलता और युक्तिवादिताको देखकर पाठक आश्चर्य चकित हुए विना नही रहता। टीकाकार प्रत्येक तथ्यकी पुष्टिके लिए प्रमाण प्रस्तुत करते है । उनके प्रत्येक कथनमें 'कुदो' लगा रहता है। वे इस 'कुदो' द्वारा प्रश्न करते है और तत्काल ही हेतुपरक उत्तर उपस्थित कर देते है। इस टीकामें टीकाकारने आगमिक परम्पराकी पूरी रक्षा की है और एक ही विषयमें प्राप्त विभिन्न आचार्योके विभिन्न उपदेशोका उल्लेख किया है।
इस टीकाग्रन्थकी रचनाशलीके सम्बन्धमें निम्नलिखित प्रशस्तिपद्यसे प्रकाश प्राप्त होता है
प्राय प्राकृतभारत्या क्वचित् सस्कृतमिश्रया । __ मणिप्रवालन्यायेन प्रोक्तोऽय ग्रन्थविस्तर ॥ -ज० प्र० प० ३७ इससे स्पष्ट है कि इस विस्तृत टीकाग्रन्थको रचना प्राय, प्राकृत-भापामें की गयी है । बीचमें इसमें कही-कही सस्कृतका भी मिश्रण है। इसी कारण यह टीका भी 'धवला' के समान 'मणिप्रवाल' कहलाती है।
निस्सन्देह 'धवला' की अपेक्षा जयघवला प्राकृतबहुल है। इसमें दार्शनिक चर्चाएं और व्युत्पत्तियाँ तो सस्कृत-भाषामें निबद्ध है, पर सैद्धान्तिक चर्चाओके लिए प्राकृतका प्रयोग उपलब्ध होता है । कही-कही तो कुछ वाक्य ऐसे भी मिलते है, जिनमें एक साथ दोनो भाषाओका उपयोग किया गया है। टीकाकी भाषा प्रसादगुणयुक्त और प्रवाहपूर्ण है। अध्ययन करते समय पाठककी जिज्ञासा निरन्तर बनी रहती है।
टीकाकारका भाषाके साथ विषय पर भी असाधारण प्रभुत्व है। जिस विषयका प्रतिपादन करते है। उसका शका-समाधान पूर्वक अत्यन्त स्पष्टीकरण कर देते है । चर्चित विषयको अधिक-से-अधिक स्पष्ट करनेकी कला इस टीकाग्रन्थमें विद्यमान है। जयधवलाके अन्तके निम्न पद्यसे शैलीगत वैशिष्टय पर प्रकाश पडता है
होइ सुगमं पि दुग्गममणिवुणवक्खाणकारदोसेण ।
जयधवलाकुसलाण सुगमं वि य दुग्गमा वि अत्थगई ।। -ज०म०प० ७ अनिपुण व्याख्याताके दोषसे सुगम वात भी दुर्गम हो जाती है, किन्तु जयधवलामें जो कुशल है, उनको दुर्गम अर्थका भी ज्ञान सुगम हो जाता है ।
इससे स्पष्ट है कि जयधवलाकी व्याख्यान शैली अत्यन्त सुगम है और इस टीकामें दुर्गम विषयको भी सुगम बनाया है।
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२५४ : जेनसाहित्यका इतिहास
जयधवला टीका महत्त्व विषयको गम्भीरता और प्रतिपादनौलीको सुगमतापी दृष्टिरो जितना है, उगगे गाही अधिक प्रमेयो अधिक गमाविष्ट गारनेकी दृष्टिरी भी है। यह टीका अपनी विशालता और प्रमेयाधिक्यके कारण ही स्यतनग अन्य 'जयपाल गिनान्त' कही जाती है। गर्म फेवल चूणिगूगोमे आये हुए अनुगोगदारोगे अनुसार ही विषयका व्याख्यान नही सिया है, अपितु 'उच्चारणावत्ति में आये हुए अनुयोगद्वारोंके मापार पर विषयका निरूपण गिया है। इग प्रगार मूलगन्य 'कसायपाहुट' और चणिसूत्रोम निहित विषयका विवेचन 'उच्चारणावृत्ति के गनुगांगहाग अनुसार विस्तारपूर्वक किया है । गतएव इम ग्रन्यमें विषयका कथन दृढता, बहुनता और आत्मविश्वान पूर्वक किया गया है। ___ चूणिसूमोके व्याख्यान प्रगंगमे किसी भी भगको दृष्टिगे भोसल नहीं होने दिया है। पदोकी तो बात ही क्या, आचार्यने अकोकी भी व्याख्या प्रस्तुत की है। उदाहरणार्थ अर्याधिकार प्रकरणमें प्रत्येक गर्याधिकारसूत्रके आगे पढे अकोकी मार्थकताको लिया जा सकता है।
इस टीकाका एक अन्य महत्त्व विभिन्न विषयक अनेक दार्शनिक और संद्धान्तिक मतोको जानकारी गी है। टीकाकारने उपदेशोका कथन आचार्योके नामोके उल्लेस पूर्वक करके अपनी प्रामाणिकता सिद्ध की है।
जयधवलाका एक दूसरा महत्त्व ज्ञान, जीव, कर्म और कर्म मम्वन्धको विस्तृत रूपसे प्रस्तुत करना भी है। रचना स्थान और काल
पहले धवलाफा रचना काल निवद्ध किया जा चुका है । अत. इस सम्बन्धमें विशेप प्रकाश डालनेकी आवश्यकता नही । सक्षेपमें जयघवला टीका शकसवत् ७५९ ( वि० स० ८९४ ) में पूर्ण हुई।
यह जयधवला टीका वाटकग्रामपुरमें रची गयी है। इसके शासक गुर्जरार्य बताये गये है। आचार्य जिनसेनने प्रशस्ति-पद्य १२-१५ में गुर्जरार्य नरेन्द्रकी बडी प्रशसा की है और चन्द्र-तारा पर्यन्त उसकी कीतिक स्थिर रहनेकी भावना व्यक्त की है।
यह वाटकग्रामपुर कहाँ अवस्थित था और इसका आधुनिक नाम क्या सम्भव है, यह विचारणीय है। बडौदाका पुराना नाम वटपद्र, वटपद्रक या वटपल्ली है। कोषोमें पद्रका अर्थ ग्राम मिलता है। अत वाटकग्राम बडौदा ही होना चाहिए । वहाँके कुछ राष्ट्रकूट राजाओके कुछ ताम्रपत्र भी मिले है।
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जयधवला-टीका · २५५ राष्ट्रकूट नरेश कर्कके शक सवत् ७३४ के ताम्रपत्रके अनुसार भानुभट्ट नामक प्राह्मणको अकोटक चौरासी ग्राम विषयक वटपद्रक गाव दानमें दिया गया था । कर्क सुवर्णवर्षके दानपत्रमें भी कर्क और गोविन्द दोनो भाईयोके द्वारा वटपद्रक गाव दानमें देनेका उल्लेख है। इसमें भी वटपद्रकको अकोटक चौरासी गावके अन्तर्गत लिखा है।
अकोटक आज भी बडोदासे ५-६ मीलपर दक्षिणकी ओर वर्तमान है । कुछ समय पहले वहासे खुदाईमें कासेकी प्राचीन जैन मूर्तियां मिली है।
उक्त वटपद्र या वाटग्रामको गुर्जरार्य अथवा गुर्जरनरेन्द्र द्वारा अनुपालित बतलाया है। यह गुर्जरनरेन्द्र राष्ट्रकूट अमोघवर्ष ही है । अमोघवर्प जिनसेनका परम भक्त शिष्य था। गुणभद्राचार्यने उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें लिखा है कि राजा अमोघवर्ष स्वामी जिनसेनके चरणोमें नमस्कार करके अपनेको पवित्र हुआ मानता था।
राष्ट्रकूटोकी राजधानी मान्यखेट थी। अमोघवर्पके पिता गोविन्दराज तृतीयके समयके श० स० ७३५ के एक ताम्रपत्रसे ज्ञात होता है कि उसने लाटदेश-गुजरातके मध्य और दक्षिणी भागको जीतकर अपने छोटे भाई इन्द्रराजको वहाका राज्य दे दिया था। इसी इन्द्रराजने गुजरातमें राष्ट्रकूटोकी दूसरी शाखा स्थापित की थी। शक स० ७५७ का एक ताम्रपत्र बडौदासे मिला है । यह गुजरातके राजा महा सामन्ताधिपति राष्ट्रकूट ध्रुवराजका है। इससे ज्ञात होता है कि अमोघवर्पके चाचाका नाम इन्द्रराज था और उसके पुत्र कर्कराजने बगावत करने वाले राष्ट्रकूटोसे युद्ध करके अमोघवर्षको राज्य दिलवाया था। कुछ विद्वानोका मत है कि लाटके राजा ध्रुवराज प्रथमने अमोघवपके विरुद्ध बगावत की थी । अत अमोघवर्षको उसपर चढाई करनी पडी और गुजरात उसके राज्यमें आ गया। यह घटना जयधवलाकी समाप्तिसे कुछ ही समय पहलेकी होनी चाहिये, क्योकि ध्रुवराज प्रथमका ताम्रपत्र श० स० ७५७ का है और जयधवलाकी समाप्ति श० स० ७५९ में हुई थी। अत. बाटग्रामके गुजरातमें होने तथा गुजरातका प्रदेश उसी समयके लगभग अमोघवर्षके राज्यमें प्रोतके कारण अमोघवर्पका गुणगान किया है। अतः जयधवलाकी रचना वाटग्रामपुरमें राजा अमोघवर्षके राज्यमें शक स० ७५९ में पूर्ण हुई थी। जयधवलागत विषय वस्तु
जयधवला कसायपाहुड और उसपर रचित चूर्णिसूत्रोकी विवरणात्मक विस्तृत व्याख्या है । अत उसका प्रतिपाद्य मूल विषय वही है जो उसके मूलभूत ग्रन्थोका है। किन्तु उसमें व्याख्याका रूप कैसा है और क्या विशेप कथन किया गया है, यही बतलाना यहाँ अभीष्ट है ।
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२५६ - जैनसाहित्यका इतिहास
यह हम पहले लिख आये है कि कसायपाहुडके अधिकारोकी संख्या यद्यपि पन्द्रह है तथापि नामोमें मतभेद है और उमका निर्देश करके वीरसेन स्वामीने जयघवलाके अधिकारोका निर्देश स्वय अपनी दृष्टिसे किया है। ___सबसे प्रथम जयधवलाकारने मंगलकी चर्चा करते हुए यह प्रश्न उठाया है कि आचार्य गुणधरने कसायपाहुडके और यतिवृपभने चूणिसूत्रोके आदिमें मंगल क्यो नही किया ? समाधानमें कहा है कि प्रारम्भ किये गये कार्यमें विघ्न विनाशके लिये मगल किया जाता है । किन्तु परमागममें उपयोग लगानेसे ही वे विघ्न नष्ट हो जाते है, इसीसे उक्त दोनो ग्रन्थकारोने मगल नही किया । ___चूर्णिसूत्रकारने प्रथम गाथाकी वृत्तिमें पांच उपक्रमोका निर्देश किया है । किन्तु जयधवलाकारने दोनोकी सगति बतलाते हुए कहा है कि गाथामें केवल एक नामोपक्रमका ही निर्देश है शेपकी सूचना 'दु' शब्द से की है । इसीसे यतिवृषभ ने पांच उपक्रमोका निर्देश किया है। ___यत इसका निकाम ज्ञानप्रवाद नामक पूर्वसे हुआ है अत' टीकाकारने मंगलके पश्चात् मति आदि पांच ज्ञानोका कथन करते हुए पांच उपक्रमोका विस्तारसे कथन किया है । तथा केवलज्ञानका अस्तित्व तर्क और युक्तिके आधारसे सिद्ध किया है। इसी प्रसगसे कर्मवन्धनकी भी चर्चा है । तत्पश्चात् केवलज्ञानी भगवान महावीरके जीवनकालकी चर्चा करते हुए विपुलाचलपर उनकी प्रथम धर्मदेशनाका समय बतलाया है तथा किस प्रकार आचार्यपरम्परासे आता हुआ उपदेश गुणधराचार्य तथा आर्यमा और नागहस्तीको प्राप्त हुआ, यह बतलाया है। द्वादशागरूप श्रुत और अगवाह्यश्रुतके विषयका परिचय करानेके वाद पन्द्रह अधिकारोको चर्चा विस्तारसे की है और उस विषयक मतभेदको भी स्पष्ट किया है।
चूणिसूत्रकारने कसायपाहुड नाम ननिष्पन्न कहा है। इस प्रसगसे नयोके स्वरूपकी चर्चा बहुत विस्तारसे करते हुए नयोमें निक्षेपोंकी योजना की है । जो नयोके अध्ययनके लिये उपयोगी है । ___ चूणिसूत्रोके विषय-परिचयमें कहा है कि आचार्य यतिवृषभने विवेचनके लिये अनुयोगद्वारोका निर्देश किया है तथा उनमेंसे कुछ अनुयोगद्वारोका सामान्य कथन भी किया है । जयधवलामें सभी अनुयोगद्वारोका विवेचन चौदह मार्गणाओमें किया है। तथा यह विवेचन चूर्णिसूत्रो पर निर्मित उच्चारणावृत्तिका आलम्बन लेकर किया गया है। जयधवलाकारने इस बातका निर्देश, कि हम यह कथन उच्चारणाका आश्रय लेकर कर रहे है, स्थान-स्थानपर किया है।
यहाँ प्रथम अधिकारमें मागत सतरह अनुयोगद्वारोका सक्षिप्त परिचय दिया जाता है क्योकि सब अधिकारोमें प्राय इनका कथन आता है।
मतभेवक बाद पन्द्रह अशागरूप श्रुत आमा और नागहस्तान
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जयधवला-टीका : २५७ १ समुत्कीर्तना-इसका अर्थ है कथन करना इसमें गुणस्थान और मार्गणामओमें मोहनीयकर्मका आस्तित्व और नास्तित्व बतलाया गया है । ग्यारहवें गुणस्थान तक सभी जीवोके मोड़नीय कर्मकी सत्ता पायी जाती है आगेके सभी जीव उससे रहित है । इसी तरह जिन मार्गणामोमें वारहवां आदि गुणस्थान संभव नही है उन मार्गणाओमें मोहनीय कर्मका आस्तित्व ही बतलाया है और जिन मार्गणामओमें सभी गुणस्थान सभव है उनमें अस्तित्व और नास्तित्व दोनो बतलाये है ।
सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव-इसमे बतलाया है कि मोहनीय विभक्ति किसके सादि है, किसके अनादि है, किसके ध्रुव (अनन्त ) है और किसके अध्रुव ( सान्त ) है।
स्वामित्व-इसमें बतलाया है कि जिसके मोहनीयकर्मकी सत्ता है वह उसका स्वामी है जो उसे नष्ट कर चुका है वह उसका स्वामी नही है ।
काल-इसमें बतलाया है कि किस जीवके मोहनीयकर्यकी सत्ता कितने काल तक रहती है और असत्ता कितने काल तक रहती है। किसी जीवके मोहनीयकी सत्ता अनादि-अनन्त है और किसके अनादि-सान्त है।
अन्तर-इसमें बतलाया है कि एक वार मोहनीयको सता नष्ट होने पर पुन कितने वाद प्राप्त होती है। किन्तु मोहनीयकर्म एक बार नष्ट हो जाने पर पुन नही बधता और वन्ध हुए बिना सता नही हो सकती अत मोहनीयका अन्तरकाल नही है ।
भगविचयानुगम-इसमें नाना जीवोकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके आस्तित्व और नास्तित्वको लेकर भगोका विचार किया है।
भागा-भागानुगम-इसमें बतलाया है कि सब जीवोके कितने भाग जीव मोहनीय कर्मकी सत्तावाले है और कितने भाग जीव मोहनीयकर्मकी असत्ता वाले है। __ परिमाण-इसमें मोहनीय कर्मकी सत्ता और असत्ता वाले जीवोंका परिमाण कहा है।
क्षेत्र-इसमें बतलाया है कि मोहनीयकर्यकी सत्ता और असत्तावाले जीव लोकके कितने भागमें रहते है ।
स्पर्शन-इसमें उक्त जीवोका त्रिकाल विषयक क्षेत्र कहा है।
काल-पहला कालका वर्णन किसी एक जीवकी अपेक्षासे है और यह नाना जीवोकी अपेक्षासे है। इसमें नाना जीवोकी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी सत्ता और
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२५८ · जनसाहित्यका इतिहास
असत्तावाले जीवोका काल बतलाया है। दोनो ही प्रकारके जीव सदा रहते है इसलिए उनका काल सर्वदा कहा है ।
अन्तर-यह अन्तर भी नाना जीवोकी अपेक्षा है अत मोहनीयकर्मकी सत्ता और असनावाले जीव सदा पाये जाते है अत उनमें सामान्यसे अन्तर नही है।
भाव-इसमें बतलाया है मोहनीयकर्मकी सत्ता और असत्ता वाले जीवोके पांच भावोमें से कौन भाव होते है । सत्तावालेके पारिणामिकके सिवा शेप चार भाव होते है और असत्तावालेके केवल क्षायिकभाव होता है।
अल्पवहत्व-इसमें बतलाया है कि मोहनीयकर्मकी सत्ता वाले और असत्तावाले जीवोमें कौन अधिक है और कौन अल्प है।
इन अनुयोग द्वारोके साथ मूल प्रकृति विभक्तिका कथन समाप्त होता है। आगे हम जयधवला टीकामें आगत कुछ विशेप विवेचनोको ही चर्चा करेंगे
१ प्रकृति-विभक्ति-इसमे कहा है कि उच्चाग्णाचार्यने मूल प्रकृति विभक्तिके सतरह अनुयोगद्वार कहे है और आचार्य यतिवृपभने आठ अनुयोगद्वार कहे है । किन्तु इसमें कोई विरोध की बात नही है क्योकि एकने पर्यायाथिक नयका अवलम्बन लिया है तो दूसरेने द्रव्याथिक नयका अवलम्बन लिया है। वीरसेन स्वामीने उच्चारणाचार्यके द्वारा कथित विवरणका आश्रय लेकर सतरह अनुयोगद्वागेका विवेचन किया है।
इसी तरह एकक उत्तर-प्रकृति विभक्तिके ग्यारह अनुयोगद्वार यतिवृपभने कहे है और उच्चारणार्यने चौबीस कहे है। जयधवलाकारने उच्चारणाचार्यके अनुसार चौबीम अनुयोगदागेका ही कथन किया है। इस तरह जयधवला केवल चूर्णिमूनोंका व्याख्या-ग्रन्थ नही है किन्तु उसमें विपयगत प्रतिपादन भी विगेप है।
आचार्य यतिवृपभने चूणिमूवमें कहा है कि मोहनीय कर्मकी वाइस प्रतियोकी मत्ताका म्वामी मनुष्य ही होता है। एमकी टीकामें वीरसेनने कहा है कि आचार्य यतिवृपभके इस विषयमे दो उपदंश है । उनमेंमे कृतकृत्यवेदक जीव मरण नहीं करता, एन उपदेशको लेकर उक्त कयन किया है। उच्चारणाचार्यके अनुनार तमस्य वेदक मम्यग्दृष्टी जीव नही मरता ऐमा नियम नही है क्योकि उच्चारणाचार्यने चारी ही गतियों में वाईग प्रकृतिक विभक्ति म्थानका सत्त्व स्वीकार किया है।
अनन्तानुसन्धीको विनयोजना गम्यग्दाटी जीय ही करना है। अनन्तानुवन्धी म्पन्धीतरी मन प्रति सम परिणमानको विषयोजना पाहते है।
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जयधवला-टीका २५९
विसयोजनासे क्षपणामें यह भेद है कि जिन कर्मोकी क्षपणा होती है उनकी पुन उत्पत्ति नहीं होती। किन्तु अनन्तानुवन्धीकी विसयोजना करने के बाद सम्यग्दृष्टी यदि मिथ्यात्वको प्राप्त होता है तो प्रथम समयमें ही चारित्र मोहनीयके कर्मस्कन्ध अनन्तानुबन्धी रूपसे परिणत हो जाते है । इसीसे मिथ्यात्वमें मोहनीयकी २४ प्रकृतियोकी सत्ता न पायो जाकर अट्ठाईसकी सत्ता पायी जाती है । उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजनाके होनेमें भी मतभेद है। उच्चारणाके अनुसार तो निषेध है।
इसपरसे यह शङ्का की गयी कि जिन आचार्योके कथनके अनुसार उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुबन्धीकी विसयोजना होती है उनसे उक्त कथनका विरोध क्यो नही आता। इसके उत्तरमें वीरसेन स्वामीने कहा है कि यदि उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुबन्धीको विसयोजनाका कथन करनेवाला वचन सूत्र वचन होता तो यह कथन सत्य होता क्योकि सूत्रके द्वारा व्याख्यान बाधित होता है परन्तु एक व्याख्यानके द्वारा दूसरा व्याख्यान वाधित नही होता इसलिए उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुवन्धीकी विसयोजना नही होती, यह वचन अप्रमाण नही है । फिर भी यहाँ दोनो उपदेशोका कथन करना चाहिये। क्योकि दोनोमें अमुक कथन सूत्रानुसारी है इसके ज्ञान कराने का कोई साधन नहीं है।
उपशमसम्यक्त्वके कालकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजनाका काल अधिक है अथवा वहाँ अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसयोजनाके कारणभूत परिणाम नहीं होते। इससे प्रतीत होता है कि उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजना नहीं होती। फिर भी यहाँ उपशम सम्यग्दृष्टीके अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी विसयोजना होती है यह पक्ष ही प्रधान रूपसे स्वीकार करना चाहिये क्योकि परम्परासे यह उपदेश चला आता है।
(क० पा० याग २, पृ० ४१७-१८) इससे वीरसेन स्वामीकी या जयधवलाकी प्रामाणिकतापर प्रकाश पडता है। २ स्थितिविभक्ति--
चूणिसूत्र में मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्ण सत्तर कोडाकोडी सागर कही है। इसकी व्याख्यामें जयधवलामें कहा है कि यह कथन एक समयप्रबद्धकी अपेक्षा है, नाना समयप्रवद्धकी अपेक्षा नहीं है यह स्थिति एक समय प्रबद्धकी है इसका प्रमाण यह है कि जो कार्मण वर्गणास्कन्ध अकर्मरूपसे स्थित है वे मिथ्यात्व आदि कारणोसे मिथ्यात्व कर्मरूपसे एक साथ परिणत होकर जब सम्पूर्ण जीव प्रदेशोसे सम्बद्ध हो जाते हैं तब उनकी एक समय अधिक
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२६० · जैनसाहित्यका इतिहास
सात हजार वर्षसे लेकर क्रमसे सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण स्थिति देखी जाती है इससे जाना जाता है कि यह स्थिति एक समय प्रवद्धकी है।
क्योकि महावन्धमें कहा है कि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट आवाधा सात हजार वर्ष है और आवाधासे हीन कर्मस्थिति प्रमाण कर्म निपेक है।
( क पा , भाग ३, पृ १९४-१९५) इस तरह जयधवलामें चूर्णिसूत्रगत कथनका आशय सप्रमाण उद्घाटित किया है।
जयधवलाका पूर्वार्घ ही वीरसेन स्वामीके द्वारा रचित है । उत्तरभाग जिसमे करीव दस अधिकार आते है वीरसेन स्वामीके शिष्य जिनसेन स्वामीने रचा है। अतः पूर्वभागमें जितना प्रमेय चचित है उत्तरभाग विषय बहुल होते हुए भी सैद्धान्तिक गुत्थियोके रहस्य के उद्घाटन से प्राय वैसा परिपूर्ण नहीं है। स्वामी जिनसेनने सम्बद्ध विषयका जो कपायपाहुड और चूणिसूत्रोमें चर्चित है, बरावर खुलासा किया है, किन्तु गुरु जैसी बात नहीं है। अत आगेके विषय-परिचयकी जानकारी कषायपाहुड और चूर्णिसूत्रोके विपय परिचयसे कर लेना चाहिये उसीका व्याख्यान और उपादान उसमें है । रचयिता : वीरसेन और जिनसेन __ धवलाके पश्चात् जयधवलाकी रचना हुई है, यह बात जयधवलाकी प्रशस्तिसे तो प्रमाणित होती है, साथ ही जयधवलासे भी प्रमाणित है। जयधवलाके प्रारम्भमें ही मतिज्ञान और अवधिज्ञानका कथन करते हुए वीरसेन स्वामीने लिखा है-'इनके लक्षण जिस प्रकार वर्गणा' खण्डमें या उनके अन्तर्गत प्रकृति अनुयोगद्वारमें कहे है, वैसा ही कथन कर लेना चाहिये। वर्गणाखण्ड पांचवां खण्ड है। पांच ही खण्डोंपर वीरसेनने जयधवलाकी रचना की थी। अत उक्त उल्लेखसे प्रमाणित होता है कि धवलाकी रचना कर चुकनेके पश्चात् ही वीरसेनने जयधवलाकी रचनामें हाथ लगाया था, किन्तु उसे वह अधूरी ही छोड कर स्वर्गवासी हो गये। उसकी पूर्ति उनके अन्यतम सुयोग्य शिष्य जिनसेनने की। जयधवलाकी प्रशस्तिमें अपने गुरु वीरसेनके सम्बन्धमें श्रद्धावनत हृदयसे लिखते हुए जिनसेनने भूतकालकी क्रिया 'आसीत'का प्रयोग किया है, जो इस बातका १. "खिप्पोग्गहादीणमत्थो जहा वग्गणाखडे परूविदो तहा एस्थ वि परूवेदव्वो' .
~क. पा., भा. १, पृ. १४ 'एसि तिहं णाणाण लक्खणाणि जहा पयडि अणुओगहारे परूविदाणि नहा परू. वेदव्याणि -पृ. १७॥
हुए
की प्रशस्तिम अपूर्ति उनके अन्त उसे वह अध
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जयधवला-टीका · २६१ सूचक है कि उनके गुरुका स्वर्गवास हो चुका था । अपने को उनका शिष्य घोषित हुए जिनसेनने अपने सम्बन्धमें भी थोडा प्रकाश डाला है जिससे ज्ञात होता है कि जिनसेन अविद्धकर्ण थे अर्थात् कानछेदन का सस्कार होनेसे पहले ही उन्होने गृहवास छोड दिया था और गुरुके पास रहकर विद्याध्ययनमें लग गये थे अतः उनके कान ज्ञान शलाकासे बीधे गये थे। वह बाल-ब्रह्मचारी थे । उन्होने बाल्यावस्था से ही अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन किया था। वे न तो अति सुन्दर थे और न अति चतुर ही फिर भा सरस्वतीने अनन्य शरण होकर उनका आश्रय ग्रहण किया। बुद्धि, शम और विनय ये तीन उनके नैसर्गिक गुण थे । वे शरीरसे अवश्य कृश थे, किन्तु तपसे कृश ( कमजोर ) नही थे। शारिरिक कृशता कृशता नही है । जो गुणो से कृश है वही वास्तवमें कृश है।'
जिनसेनके शिष्य गुणभद्रने अपने उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें लिखा है कि जैसे हिमालयसे गगाका, सर्वज्ञसे दिव्यध्वनिका और उदयाचलसे भास्करका उदय होता है, वैसे ही वीरसेनसे जिनसेन का उदय हुआ।
इन्ही जिनसेनने वीरसेनके द्वारा प्रारब्ध जयधवलाको पूर्ण किया ।
जयधवला टीकाके अन्त परीक्षण से भी यह निर्णय नही किया जा सका, कि गुरु और शिष्यमेंसे किसने कितना भाग रचा था। इसीसे जिनसेनाचार्यके वैदुष्य और रचना चातुर्यका अनुमान किया जा सकता है। उन्होने ज० ध०की प्रशस्तिमें लिखा है कि 'गुरुके द्वारा बहुवक्तव्य पूर्वार्धके लिखे जानेपर, उसको
१ 'तस्यशिष्योऽभवच्छीमान् जिनसेन समिद्धधी ।
अविद्धावपि यत्कौँ विद्धौ ज्ञानशलाकया ॥२७॥ यस्मिन्नासन्नभव्यत्वान्मुक्तिलक्ष्मी समुत्सुका । स्वयवरीतिकामेव श्रौति मालामयूयुजत् ॥२८॥ येनानुचरिता वाल्याब्रव्रतमसण्उितम् । स्वयवर विधानेन चित्रमूढा सरस्वती ॥२९।। यो नाति सुन्दराकारो न चातिचतुरो मुनि । तथाप्यनन्यशरणा यं सरस्वत्युपाचरत् ॥३०॥ धी शमोविनयश्चेति यस्य नैसर्गिका गुणा । सूरीनाराधयन्ति स्म गुणैराराध्यने न क ॥३१॥ य कृशोऽपि शरीरेण न कृशोऽभूत्तपोगुण ।
न कृशत्व हि शारीर गुणैरेव कृश कृश ॥३२।।' • 'अभवदिव हिमाद्रदेवसिन्धुप्रवाहो, ध्वनिरिव सकलज्ञात् सर्वशास्त्रैकमूर्ति । उदयगिरितटाद्वा भास्करो भासमानो, मुनि खु जिनसेनो वीरसेनादमुष्मात् ।।'
-उ०पु०प्र०। १ 'गुरुणाऽर्थेऽग्रिमे भूरिवक्तव्ये सप्रकाशिते।
तन्निरीक्ष्याल्पवक्तव्य पञ्चास्तेन पूरित ॥३६॥'
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२६२ : जेनसाहित्यका इतिहारा देसकर इस अल्पवक्तग्य उत्तरार्षको उसने [ जिनगेनने ] पूरा किया ।'
इसमे गोवल इतना ही व्यक्त होता है कि पूर्वागी रचना गुम्ने यी और उत्तरार्धी रचना शिष्यने । किन्तु ग्रन्थका पूर्वभाग यहाँ तक माना जाये, यह निर्णीत नही होता। जिनसेनने अपनी प्रशस्तिग जयपवला टीकाको ६० हजार एलोक प्रमाण बतलाया है तथा उसे तीन स्वन्धोम विभाजित किया है-प्रदेशविभक्तिपर्यन्त प्रथम स्मन्य है, राक्रम, उदय और उपयोग गरे सन्धमें गम्मिलिन हैं । और शेष भाग तीसरा स्मन्य है। ___मोटे तौरपर ६० हजार फ्लोक प्रमाणको तीन भागोमें विभाजित किया जाये, तो एक-एक स्वन्ध वीरा-बीरा हजार प्रमाण होता है। इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतार में लिया है कि प्रारम्भको चार विभक्तियोकी वीस हजार श्लोक प्रमाण रचना करनेके पश्चात् वीरसेन स्वामीका स्वर्गवास हो गया। अत शेप भागकी ४० हजार श्लोक प्रमाण टीकाको रचना जयसेन ( जिनसेन )ने की। अत इन्द्रनन्दिके कथनानुसार संक्रमरो पहलेका विभक्ति पर्यन्त भाग वीरसेन स्वामीने रचा था। यद्यपि गणना करनेपर विभक्तिपर्यन्त ग्रन्थका परिमाण साढे छन्दीस हजार श्लोक प्रमाण वैठता है तथापि ऐसा प्रतीत होता है कि इन्द्रनन्दिने जयधवलाको प्रशस्तिके उक्त कथनके आधारपर ही मोटे तौरपर स्कन्धोके प्रमाणको परिगणना की है।
सक्रमसे पहलेका विभक्तिपर्यन्त भाग बहुवाक्य भी है अत' जिनसेन स्वामीके कथनानुसार उसे पूर्वाध भाग माना जा मकता है। उक्त दोनो आचार्योंके उल्लेसोका समन्वय करनेसे यह निष्कर्ष निकलता है । अन्य व्याख्यानाचार्योका उल्लेख एव उपसहार
जयधवलामें कुछ अन्य व्याख्यानाचार्योके भी व्याख्यान उल्लिखित है । एक स्थानपर लिखा है-'यह उच्चारणाचार्य' अभिप्राय है, परन्तु अन्य व्याख्याना
१ 'पष्ठिरेवसहस्राणि ग्रन्थाना परिमाणत ।
श्लोकेनानुष्टभेनात्र निर्दिष्टान्यनुपूर्वश ३९॥ विभक्ति प्रथमस्कन्धो द्वितीय मक्रमोदयो। उपयोगश्च शेपस्तु तृतीय स्कन्ध इप्यते ॥१०॥
-ज० ध० प्र०। २ 'जयधवला च कपायप्राभतके चतस्रणां विभक्तिीनाम्। १८० । विंशतिसहस्रसग्रन्थरचनाया सयुताविरच्य दिवम् । यातस्तत पुनस्तच्छिप्यो जयसेनगुरुनामा ॥१८३।। तच्छेप चत्वारिंशता सहस समापितवान् । जयधवलेच पष्ठिसहस्रग्रन्थोऽभवट्टीका ॥१८४1,-श्र ताव० ।
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जयधवला - टीका : २६३
चार्य इस प्रकार कहते हैं " ।
इन व्याख्यानाचार्यों का मत किन्ही विपयो में यतिवृपभ और उच्चारणाचार्यसे भिन्न था। लिखा है - 'यह सच है कि पूर्वोक्त व्याख्यान इस सूत्रके साथ विरोधको प्राप्त होता है, किन्तु उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें तथा जघन्यथिति और जघन्य अद्धाच्छेदमें भेद कथन करनेके लिए व्याख्यानाचार्योने यह व्याख्यान किया है ।
२
आगे लिखा है कि यह उच्चारणाचार्यके द्वारा कहे गये अल्पबहुत्वकी सदृष्टि है | अब चिरन्तन व्याख्यानाचार्यके अल्पबहुत्वको कहते है
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उपर्युक्त उल्लेखोसे स्पष्ट होता है कि जयधवलाकारके समक्ष अनेक उच्चाचार्योंके व्याख्यान उपस्थित थे । इनमें कई उच्चारणाचार्योंकी व्याख्याएँ अतिप्राचीन भी थी । सम्भवतया उनका नाम ज्ञात न होनेसे उनमेंसे कुछको चिरन्तन व्याख्यानाचार्यकी सज्ञा दी गयी है ।
इस प्रकार जयधवला - टीकामें अनेक प्राचीन व्याख्याओ के समाविष्ट होनेसे मूल्य विषयसे भी अधिक विषय अकित करनेका प्रयास किया गया है ।
तृतीय परिच्छेद छक्खंडागमकी अन्य टीकाऍ
वीरसेन स्वामीकी प्रसिद्ध धवलाटीकाके अतिरिक्त 'छक्खडागम' पर अन्य टीकाएँ भी लिखी गयी है । आचार्य इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें इन समस्त टीकाओका उल्लेख किया है । कुन्दकुन्दने परिकर्मटीका, शामकुण्डने पद्धत्तिटीका, तुम्बलूराचार्यने चूडामणिटीका, वप्पदेवने व्याख्याप्रज्ञप्ति और सुप्रसिद्ध तार्किक * समन्तभद्रने 'सस्कृतटीका लिखी है । इन्द्रनन्दिने बताया है
इस प्रकार व्याख्यान क्रमको प्राप्त होता हुआ छक्खडागम रूप सिद्धान्त १ 'एसो उच्चारणाइरियाणमहिप्पाओ । अण्णे पुणवक्खाणाइरिया एव भणति । क० पा०, भा० ३, पृ० २१३ |
२ भा० ३, पृ० २९१ ।
३ ' एसा उच्चारणप्पावहुअस्स सदिट्ठी । सहि चिरन्तनवक्खाणाइरियाणमप्पा बहुअं वत्तइस्सामो ।' भा० ३, पृ० ५३२ ।
१ कालान्तरे तत पुनरासन्ध्या पर्लार (2) तार्किकार्कोऽभूत् ॥१६७॥ श्रीमान् समन्तभद्रस्वामात्य सोऽप्यफीत्य त द्विविधम् ॥
सिद्धान्तमत पट्खण्डागमगतखण्ड पञ्चकस्य पुन ॥ १६८ ॥ अष्टौ चत्वारिंशत सहस्रमद्ग्रन्थरचनया युक्तम् ।
विरचितवानति सुन्दरमृदुसस्कृतभाषया टीकाम || १६९ ॥ - श्रु तावतार
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२६४ : जेनसाहित्यका इतिहास गुरुपरम्परासे माता हुमा अति तीक्ष्णवुद्धिणाली गुभनन्दि और रविनन्दि मुनिको प्राप्त हुआ। भीमरथि और कृष्णमेसा नागको नदियोके मध्यदेगमें सुन्दर उत्कलिका ग्रामके समीप मगणवल्ली नागक विख्यात ग्राममे वप्पदेव गुरुने उन दोनो मुनियोके समीप उरा समस्त सिद्धान्तका विशेष रूपगे श्रवण किया । अनन्तर चप्पदेव गुरुने छ राण्डोमे-से गहावन्धको छोडकर शेप पांच गण्डोपर व्याख्यानामक टीका लिपी।
'छक्सटागम' को व्याण्या पूर्ण होने के पश्चात् 'कमायपाहुड' पर साठ हजार श्लोक प्रमाण टीका प्राकृतभापामें लिसी।
इम प्रकार उक्त दोनो मूलागम ग्रन्यो पर विभिन्न टीकाओंका उल्लेख केवल श्रुतावतारो में प्राप्त होता है । विवुध श्रीधरने अपने श्रुतावतारमें तुम्वुलूराचार्य और उनकी टोकाका निर्देश नही किया है । तथा इन्द्रनन्दिने महावन्य पर रचित जिस सात हजार श्लोक प्रमाण पजिकाको तम्बुलूराचार्यको कृति कहा है, उसे उन्होने शामकुण्डाचार्यको ही कृति बतलाया है। ___ अब इन टीकाओके अस्तित्वके सम्बन्ध विचार प्रस्तुत किया जाता हैकुन्दकुन्दकृत 'परिकर्म' नामक ग्रन्थ
इन्द्रनन्दिके कथनानुसार दोनो सिद्धान्त अन्योंको जान कर कुण्डकुन्दपुरमें श्रीपननन्दि मुनिने छ सण्डो में-से आदिके तीन सण्डोपर बारह हजार प्रमाण परिकर्म नामक ग्रन्थ रचा। कुण्डकुन्दपुरके यह श्रीपद्म नन्दि मुनि प्रसिद्ध जैनाचार्य कुन्दकुन्द ही ज्ञात होते है कुन्दकुन्दपुर ग्रामके निवासी होनेसे वह इसी नामसे विख्यात हुए। इनके द्वारा रचित समयपाहुड, पवयणसार, पंचाथिकाय, णियमसार, अठ्ठपाहुड आदि अनेक ग्रन्थ सुप्रसिद्ध है, किन्तु छक्खडागम पर उनके किसी व्याख्या ग्रन्थका अन्यत्र सकेत प्राप्त नही है।
वीरसेन स्वामीकी धवला टीकामें अनेक स्थानो पर परिकर्म नामक ग्रन्थका उल्लेख बहुतायतसे मिलता है और उससे अनेक उद्धरण भी दिये गये है। किन्तु यह परिकर्म नामक ग्रन्थ किसके द्वारा रचा गया था, इसका कोई निर्देश धवलामें नही है और न उसे आगम ग्रन्थकी टीकारूप ही बतलाया गया है । धवलाटीकामें उसके उल्लेखोकी बहुलता देखकर यह सन्देह होना स्वाभाविक है कि शायद वह परिकर्म इन्द्र नन्दिके द्वारा निर्दिष्ट टीका 'ग्रन्थ ही तो नहीं है अत हम धवला
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१ श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्द । द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चरित्र संजातसुचारणद्धि ॥'
-शिलालेख न० ४२, ४३, ४७, ५०
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जयधवला - टीका २६५ टीकासे उन सब उद्धरणो को दे देना उचित समझते है जिनसे परिकमं प्रतिपादित विषयका आभास मिलता है ।
परिकर्मका सबसे अधिक उल्लेख जीवद्वाणके द्रव्यप्रमाणानुयोग अनुयोगद्वार की घवलाटीकामें मिलता है । इस अनुयोगमें जीवोकी सख्याका कथन है । 'जम्हि जम्हि अणताणंतयं भगिज्जदि तम्हि तम्हि
अजहण्ण्णमणुक्कस्स अणताणतस्से वगहण"
इदि परियम्म वयणादो जाणिज्जदि अजहष्णमणुक्कस्स
अणताणतस्सेव गहण होदित्ति | पट्ख० पु० ३ पृ०१९]
1
'जहाँ जहाँ अनन्तानन्त देखा जाता है वहाँ वहाँ अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अनन्तानन्तका ही ग्रहण होता है', परिकर्मके इस वचनसे जाना जाता है कि प्रकृतमें अजघन्यानुत्कृष्ट अनन्तानन्तका ही ग्रहण है ।'
'जहण्ण अणताणतणग्गिज्जमाणे जहण्ण अणंताणतस्स हेट्टिमवग्गणट्ठाणेहितो उवरि अणतगुणवग्गट्टाणाणि गतूण सव्वजीवरासिवग्गसलागा उप्पज्जदि' त्ति परियम्मे वृत्त ' [ पु० ३, पृ० २४ ]
8
जघन्य अनन्तानन्तका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर जघन्यअनन्तानन्तके नीचेके वर्गस्थानोसे ऊपर अनन्तगुणे वर्गस्थान जाकर समस्त जीवराशिकी वर्गशालाका उत्पन्न होती है', ऐसा परिकर्ममें कहा है ।
अणताणतविषये अजहणमणुक्कस्स अणताणतेणेव गुणगारेणभागहारेणविहोदव्व' इति परियम्म वयणादो । (पु०३ पृ० २५ )
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अनन्वान्तके विषय में गुणकार और भागहार अजघन्यानुत्कृष्ट अर्थात् मध्यम अनन्तानन्तरूप ही होना चाहिये, इस प्रकार परिकर्मका वचन है ।
ण च एद वक्खाण 'जत्ति याणि दीवसायरख्वाणि जम्बूदीव छेदणाणि च ख्वाहियाणि' त्ति परियम्म सुत्तेण सह विरुज्झदिति । - पु० ३, पृ० ३६ ।
और यह व्याख्यान 'जितने द्वीपो और सागरोकी सख्या है और जम्बूद्वीपके रूपाधिक जितने 'छेद है उतने रज्जुके अर्धच्छेद है, परिकर्म सूत्रके साथ भी विरोधको प्राप्त नही होता ।'
'ज त गणणास खेज्जय त परियम्मे वृत्त । -- ५०३, पृ० १२४ । वह जो गणनासख्यात है उसका कथन परिकर्ममें है ।
'जम्हि जम्हि असख्खेज्जासखेज्जय भागीज्जदि तम्हि तम्हि अजहण्ण मणुवकस्स - असंखेज्जासज्जस्सेव गहण भवदि' इदि परियम्मवयणादो । -- पृ० १२७ 'जहाँ जहाँ असख्यात देखा जाता है वहाँ वहाँ अजघन्यानुत्कृष्ट असख्याता
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२६६ · जेनसाहित्यका इतिहास सख्यात अर्थात् मध्यम अगस्यातागरणात ही ग्रहण होता है ऐगा परिकर्मका वचन है।
गहरुव वागिज्जगाणे वागिज्जमाणे मगरोग्जाणि गट्टाणाणि गतूण सोहम्मोसाण विनराम सुई उप्पज्जदि। सा सुरु वागिदा गरेऽय विवयमसुई हवदि । सा सइ वागिदा भवणवागिय विश्वगाई हवदि। मा गइ बग्गिदा घणगुलो हवदि' ति परियम्मवयणादी णव्यदै घणपदरं गुलाण वगमू रस्म गहण ण हदि किंतु सूचि अगुलयागगृलस्सेय गहण होरि ति अण्णहा घणगुलविदिय वग्गमूल स्स मणुपत्तीदो' ।-पृ० १३४ 'माठया उत्तरोत्तर वर्ग करते हुए मसरन्यात वर्गस्यान जाकर गोधर्म और ऐगान सम्बन्धी विष्कम्म सूची उत्पन्न होती है। उसका एक बार वर्ग करनेपर नारकासम्बन्धी विष्कम्भ गूची होती है । उसका एक वार वर्ग करनेपर भवन वागी देवी मम्बन्धी विष्कम्भ सूची प्राप्त होती है। उसका एक बार वर्ग करनेपर पनागुल होता है' परिकर्मफे इस कथनसे जाना जाता है कि प्रकृतमे घनागुल और प्रतरागुलके वर्गमूला ग्रहण नही किया है किन्तु सूच्यगुलगे वर्गमूलका ही ग्रहण किया है।' ____ 'रज्जू गत्त गुणिदा जगसेटी, मा वग्गिदा जगपदरं, मेटीए गुणिदजगपदरं घणलागो होदि' त्ति परियम्म मुत्तण सव्वाऽरियसम्मदेण विरोहप्पसगादो च।पु० ४, पृ० १८४ । 'राजूको सातसे गुणा करने पर जगणी होती है, जगश्रेणीको जगश्रेणीसे गुणा करनेपर जगप्रतर होता है और जगप्रतरको जगश्रेणीसे गुणा करनेपर घनलोक होता है' इस सर्व आचार्योंमे सम्मत परिकर्म सूत्रसे विरोधका भी प्रसग प्राप्त होता है।
'सन्चोहि उक्कस्ससेत्तुप्पायणटुं परमोहि उपकस्सखेत तिस्मै चेव चरिममणवहिद गुणगारेण आवलियाए असखेजदि भाग पदुप्पणेण गुणिज्जदित्ति के वि भणति । तण्ण घडदे, परियम्मे वृत्त ओहिणिवद्ध खेत्ताणुप्पत्तीदो।'-पु० ९, पृ०४८ ।
सावधि ज्ञानके उकृष्ट क्षेत्रको उत्पन्न करानेके लिए परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको आवलीके असख्यातवें भागसे उत्पन्न करानेके लिए परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको आवलीके असख्यातवें भागसे उत्पन्न उसके ही अन्तिम अनवस्थित गुणकारसे गुण किया जाता है, ऐसा कोई आचार्य कहते है। किन्तु यह घटित नही होता, क्योकि ऐसा मानने पर परिकर्म में कहे हुए अवधिसे निवद्ध क्षेत्र नही बनते ।'
'जदि सुदणाणिस्स विसओ अणतसखा होदि तो जमुक्कस्स सखेज्जं विसओ ___ चोद्दसपुन्विस्से त्ति परियम्मे वृत्तं त कध घडदे ?-यु० ९, पृ० ५६ ।
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जयधवला-टीका - २६७ यदि श्रुतज्ञानका विषय अनन्त सख्या है तो चौदह पूर्वीका विषय उकृष्ट संख्यात है । ऐसा जो परिकर्ममें कहा है, वह कैसे घटित होगा।
'एदे जोगाविभागपडिच्छेदा च परियम्मे वग्गसमुद्विदात्ति परूविदा'-पु. १०, पृ० ४८३ ।
परिकर्ममें इन योगोके अविभागी प्रतिच्छेदोंको वर्गसमुत्थित वतलाया है।
'अपदेस णेव इदिए गेज्झ इदि परमाणूण णिखयवत्त परियम्मे वृत्तमिदि णासकणिज्ज पदेसो णाम् परमाणु सो जम्हि परमाणुम्हि समवेद भावेणणत्थि सो परमाणुअयदे समोत्ति परियम्मे वुत्तो । तेण ण णिखयवत्त तत्तो गम्मदे ।'-पु. १३ पृ०१८ ।
'परमाणु अप्रदेशी होता है और उसका इन्द्रियो द्वारा ग्रहण नही होता' इसप्रकार परमाणुमोका निरवयनपना परिकर्ममें कहा है ।' ऐसी आशका नही करना चाहिये, क्योकि प्रदेशका अर्थ परमाणु है । वह जिस परमाणुमें समवेत भावसे नही है वह परमाणु अप्रदेशी है ऐसा परिकर्ममें कहा है। अत परमाणु निर्अवयव है यह बात परिकमसे नही जानी जाती।'
सव्वजीवरासिदो लद्धिमक्खरमणतगुणमिदि कुदो णन्वदे ? परियम्मादो । त जहा-सव्वजीवरासी वागीज्ज्माणा अणत लोगमेज्ञवग्गणट्ठाणाणि उवरि गतूण सन्वपोग्गलदव्य पावदि । पुणो सन्वपोग्गालदव्व वग्गिज्जमाण वाग्गिज्जमाण अणत लोगमैत्तवग्गणट्ठाणाणि उवरि गतूण सव्वकाल पावदि । पुणो सम्वकाला वग्गिज्जमाणा वाग्गिज्जमाणा अणतलोगमेत्तवग्गणट्ठाणाणि उवरि गतूण सव्वागाससेदि पावदि । पुणो सन्वागाससेढी वाग्ज्जिमाणा वग्गिज्जमाणा अणतलोगमेत्त वग्गणट्ठाणाणि उवरि गतूण धम्मात्थिय अधम्मत्थियदन्वाणमगुरुअलहुअगुण पावदि । पुणो धम्मात्थिय-अधम्मत्थियअगुरुअलहुअगुणो वग्गिज्जमाणो वग्गिज्जमाणो अणतलोकामेत्तवग्गणढाणाणि उवरि गतूण एगजीवस्स अगुरुअलहुअगुण पावदि । पुणो एगजीवस्स अगुरुअलहुअगुणो वग्गिज्जमाणो वग्गिज्जमाणोअणत लोगमेत्तवग्गणट्ठाणाणि उवरि गतूण सुहुमणिगोद अपज्जत्तयस्स लद्धिक्खर पावदित्ति परियम्मे भणिदा' -पु० १३, पृ० २६२-६३ ।।
_ 'सव जीव राशिसे लब्ध्यक्षर ज्ञान अनन्तगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? परिकर्मसे जाना जाता है। परिकर्ममें कहा है-'सव जीव राशिका उत्तरोत्तर वर्ग करने पर अनन्त लोक प्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर सर्व पुद्गलद्रव्योंका प्रमाण प्राप्त होता । पुन सर्व पुद्गल द्रव्यके प्रमाणका उत्तरोत्तर वर्ग करनेपर अनन्त लोकमात्र वर्गस्थान आगे जाकर सर्व काल का प्रमाण आता है। पुन सर्वकालके प्रमाणका वर्ग करते-करते अनन्तलोक प्रमाण वर्ग स्थान आगे जाकर समस्त आकाश श्रेणी प्राप्त होती है । पुन सर्व आकाश श्रेणीका वर्ग करते-करते अनन्तलोक प्रमाण वर्ग स्थान जानेपर आगे धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय
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२६८ : जैनसाहित्यका इतिहास द्रव्य के अगुलघुगुण प्राप्त होते है । पुन धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकायके अगुरुलघुगुणोका उत्तरोत्तर वर्ग गरने पर अनन्त लाा प्रमाण वर्गस्थान आगे जाकर एक जीवका गगुएलघु गुण प्राप्त होता है। पुन' एक जीव अगुरुलघुगुणका उत्तरोत्तर वर्ग करनेवर अनन्तलोकमान वर्गस्यान आगे जाकर सूक्ष्मनिगोदिया लटध्यपर्याप्तकका लन्ध्यक्षर श्रुतज्ञान होता है।'
'राखेज्जायलिगाहि एगो उस्सासो, सत्तु स्तारोहि, एगो थोवो होदित्ति परियम्मवमणादो।' -पु० १३, पृ० २९९ ।
'सख्यात आवलियोका एक उच्चास होता और सात उछ्वाराका एक स्तोक होता है, ऐसा परिकर्मका वचन है ।
'अससेजमेत फुदो णव्वद ? परियम्मादो ।' त जहा ...... परियम्मे भणिदं । यहां गुणकारका प्रमाण गराण्यात लोक है, यह ( पु० १४, पृ० ३७४-७५ 1) किस प्रगाणसे ज.ना जाता है ? परिकर्मी जाना जाता है।
घवलाटीकामें पाये जानेवाले परिकके उक्त उद्धरणोंसे यह स्पष्ट हो जाता है कि परिकर्मका प्रधान प्रतिपाद्य विषय जैन गणित है, इसीसे उसके प्राय सभी उद्धरण गणनासे सम्बद्ध पाये जाते है। सम्भवतया गणनाके प्रसगसे ही उसमें ज्ञानोकी भी चर्चा आयी है, क्योकि श्रुतजान और उसके एक भेद लब्ध्यक्षर श्रुत ज्ञानके प्रमाणका भी उसमें वर्णन है । तथा वह प्राकृत गद्य रूपमें रचा गया था किन्तु 'अपदेसं गेव इदिए गेज्म' उद्धरणसे यह भी व्यक्त होता है कि उसमें गाथा भी होनी चाहिये । और द्रन्योका वर्णन भी होना चाहिए।
जैसा कि हम लिख आये है कि परिकमक अधिकतर उद्धरण जीवट्ठाणके द्रव्य प्रमाणानुगम अनुयोगद्वारकी धवला टीकाम है । द्रव्य प्रमाणमें गुण स्थानो और मार्गणास्थानोमें जीवोकी सख्या बतलायी गयी है। उद्धरणोंसे प्रकट होता है कि उसमें भी गति आदिकी अपेक्षा जीवोकी संख्याका प्रतिपादन होना चाहिये।
किन्तु 'परिकर्म' पट्खण्डागमकी व्याख्या है, इसका कोई निर्देश धवलाकारने नहीं किया है । वल्कि एक दो स्थानो पर 'परिकर्मसूत्र' करके उसका निर्देश किया है, जिससे ऐसा आभास आता है कि वह कोई स्वतत्र ग्रन्थ था। किन्तु कुछ निर्देश ऐसे भी मिलते है जिनसे विपरीत भावना व्यक्त होती है।
वेदना खण्डके वेदना भाव विधान नामक अधिकार के सूत्र नम्बर २०८ की व्याख्या दृष्टव्य है। सूत्रमे कहा गया है कि 'एक कम जघन्य असंख्यातकी वृद्धिसे सख्यात भाग वृद्धि होती है।' इसकी धवलामें लिखा है कि एक कम जघन्य असख्यात कहनेसे उत्कृष्ट सख्यातका ग्रहण करना चाहिये। इसपर शंका की गयी कि सीधेसे उत्कृष्ट सख्यात न कहकर और सूत्रको बडा करके 'एक कम जघन्य
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जयधवला-टीका · २६९ असख्यात' ऐसा क्यो कहा ? तो उत्तर दिया गया-'उत्कृष्ट सख्यातके प्रमाणके साथ सख्यात भाग वृद्धिका प्रमाण बतलानेके लिए वैसा कहा गया है । इससे आगे धवलाकरने लिखा है
'परिकम्मादो उक्कस्ससखेज्जयस्स पमाण मवगदमिदि ण पञ्चवट्ठाण कादु जुत्त तस्स सुत्तत्ता भावादो। एदस्स णिस्सेस्स आइरियाणुग्गहणेण पद वि णिगयस्स एदम्हादो पुत्तविरोहादो वा ण तदो उक्कस्ससखेज्जयस्स पमाण सिद्धी ।' -पु० १२, पृ० ५४।
'यदि कहा जाये कि उत्कृष्ट सख्यातका प्रमाण परिकर्मसे ज्ञात है तो ऐसा प्रत्यवस्थान करना उचित नहीं है क्योकि उसमें सूत्र रूपताका अभाव है । अथवा आचार्यके अनुग्रहसे पदरूपसे निकले हुए इस समस्त परिकर्मके चूंकि इससे पृथक् होनेका विरोध है इसलिए भी इससे उत्कृष्ट सख्यातका प्रमाण सिद्ध नही होता।' इस कथनमें प्रथम तो परिकर्मको सूत्र नही बतलाया है, दूसरे उसे इससे (षट्खण्डागम) भिन्न होनेका विरोध किया है। किन्तु परिकर्म इससे भिन्न क्यो नही है उक्त कथनसे स्पष्ट नहीं हो पाता । 'आचार्यके अनुग्रहसे पदरूप निकले हुए' इस शब्दार्थका भाव स्पष्ट नहीं होता । वे कौन आचार्य थे जिनके अनुग्रहसे परिकम की निष्पत्ति हुई, फिर 'पद विनिर्गत' शब्दसे क्या अभिप्राय धवलाकारको इष्ट है, सो सब अस्पष्ट ही रह जाता है । किन्तु फिर भी इतना तो स्पष्ट होता है कि परि कर्मका पट्खण्डागम सूत्रके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । अन्यथा सूत्र २०८की व्याख्या में यह क्यो कहा जाता कि उत्कृष्ट सख्यातका प्रमाण तो परिकर्मसे अवगत है तब यहां उत्कृष्ट सख्यात न कहकर 'एक कम जघन्य असख्यात' क्यो कहा । और क्यो उसके इससे भिन्न होनेका विरोध किया। इसी तरहकी चर्चा जीवट्ठाणके द्रव्य प्रमाणानुगम अनुयोग द्वारके सूत्र ५२ की धवलामें भी है । सूत्रमें क्षेत्रकी अपेक्षा लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योका प्रमाण जगत श्रेणीके असख्यातवें भाग बतलाकर यह भी बतला दिया है कि 'जगश्रेणीके असख्यातवें भागरूप श्रेणी असख्यात करोड योजन प्रमाण होती है।'
धवलामें इस पर यह शकाकी गयी है इसके कहनेकी क्या आवश्यकता थी? इसका उत्तर दिया गया कि इस सूत्रसे इस बातका ज्ञान नही हो सकता था कि जगश्रेणिके असख्यातवें भागरूप श्रेणीका प्रमाण असख्यात करोड योजन है। तो किर शका की गयी कि परिकर्मसे इस बातका ज्ञान हो जाता है तब फिर सूत्र में ऐसा कहनेकी क्या आवश्यकता है तो उत्तर दिया गया कि इस सूत्रके बलसे परिकमकी प्रवृत्ति हुई है।'
परिकर्म षट्खण्डागम सूत्रोका व्याख्यान ग्रन्थ है, उक्त दोनो उद्धरणोसे बराबर ऐसा लगता है कि परिकर्म अवश्य ही षट्खण्डागम सूत्रो का व्याख्यान ग्रन्थ था।
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२७० : जैनसाहित्यका इतिहास खुद्दावन्धके कालानुगम अनुयोग द्वारमें वादर पृथिवी-कायिक आदि जीवोंकी उत्कृष्ट ? स्थिति बतलानेके लिए एक सूत्र आता है-'उक्कस्सेण कम्मदिदी ॥७७॥ अर्थात् अधिक से अधिक से अधिक कर्मस्थिति प्रमाण काल तक जीव वादर पृथिवी-कायिक, आदिमें रहता है। ___इस सूत्रको धवलामें लिया है-'सूनमे जो 'कम्मदिदी' शब्द आया है उससे सत्तर कोडा-कोडी सागरोपम मात्र कालका ग्रहण करना चाहिये। फिर लिखा है-'के वि आइरिया सत्तरि सागरो इम कोडाकोडिमावलियाए असखेज्जदि भागेण गुणिदे वादर पुढवि कायादीण कायट्टिदी होदित्ति भणति । तोसि कम्मट्ठिदि ववएसो कज्जे कारणोवयरादो। एद वक्खाणमत्यित्ति कधं णव्वेदं ? कम्मद्विदिमावालियाए असखेज्जदि भागेण गुणिदे वादरहिदि होदि ति परियम्म वयणण्ण्हाणुववत्तीदो । तत्थ सामपणे वादरट्ठिदी होदि तिज वि उत्त तो वि पुढविकायदीणं वादराण पत्तेयकादिदी घेत्तन्वा, असखेज्जाखेज्जामो ओस प्पिणी-उस्सप्पिणीओति सुत्तम्मि बादहिदि परूवणादो।"-~-पु० ७, पृ० १४५ ।
'किन्ही आचार्योका ऐसा कहना है कि सत्तर सागरोपम कोडा-कोडीको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा करने पर चादर पृथिवीकायिक आदि जीवोकी कायस्थितिका प्रमाण होता है। किन्तु उनकी कर्मस्थिति यह सज्ञा कार्यमें कारणके उपचारसे ही सिद्ध होती है।
शङ्का-ऐसा व्याख्यान है यह कैसे जाना ?
समाधान-कर्मस्थितिको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर वादर स्थिति होती है, परिकर्मके ऐसे वचनको अन्यथा उपपत्ति बन नही सकती है । वहाँ पर ( परिकर्म में ) यद्यपि सामान्यसे 'वादर स्थिति होती है, ऐसा कहा है तो भी प्रत्येक वादर पृथिकायादिकी काय स्थिति ग्रहण करना चाहिये, क्योकि सूत्रमें (षट्ख० ) वादर स्थितिका कथन असंख्यात अवपिणी-उत्सर्पिणी प्रमाण किया है।'
इस उद्धरणमें जो खुद्दाबन्धके ७७वें सूत्रके विषयमें यह शका की गयी है कि ऐसा व्याख्यान है यह कैसे जाना और उसके समाधानमें जो यह कहा है कि यदि ऐसा व्याख्यान न होता तो परिकर्मका इस प्रकारका कथन नही बन सकता था उससे प्रकृत विषय पर थोडा विशेष प्रकाश पडता है। और ऐसा प्रतीत होता है कि परिकर्म सूत्रोंके व्याख्यानसे सम्बन्ध अवश्य था।
उक्त चर्चा जीवट्ठाणके कालानुगमकी धवला टीकामें प्रकारान्तरसे आई है उसमे लिखा है
'के वि आइरिया कम्मदिदीदो वादरद्विदी परियम्मे उप्पण्णा ति कज्जे कारणोवयार-मवलंबिय वादरट्ठिदौए चेय कम्मदिदि सण्णमिच्छति, तन्न घटते,
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जयधवला-टीका २७१ 'गौणमुख्ययो मुख्य सप्रत्यय इति न्यामात् । ण च वादगणं गामण्णेण वुत्तकालो वादरेगदेगाण बादर पुढविकाइयाण पि सोचेव होदि त्ति, विरोहा।'-पु० ४, पृ० ४०३। ___कोई आचार्य 'कर्मस्थितिसे वादर स्थिति परिकर्ममें उत्पन्न हुई है। इसलिए कार्यमे कारण उपचार करके बादर स्थिति की ही कर्मस्थिति मज्ञा मानते है । किन्तु यह घटित नहीं होता, क्योकि 'गीण और मुख्यमें मे मुख्यका ही ज्ञान होता है' ऐसा न्याय है। तथा वादरोका मामान्य म्परो कहा हुमा काल वादरोंके एक देश बादर पृथिवीकायिको का भी, वही ही नहीं हो सकता, क्योकि इसमें विरोध आता है।"
ग्वुद्दावन्धमें भी उक्त चर्चा 'उपकस्सेण कम्मट्ठिदी ।।७७॥' सूत्रकी व्यख्या आयो है । और जीवट्ठाणके कालानुगममें भी 'उपकस्सेणाम्मट्ठिदी ॥१४४।। सूत्रकी व्याख्यामें उक्त चर्चा निबद्ध है। उक्त चर्चामे प्रकट होता है कि परिकर्ममें वर्णित वादरस्थिति 'कर्मस्थिति' से उत्पन्न हुई है । अर्थात् पट्खण्डागमके सूत्रमें आगत 'कर्मस्थिति' शब्दसे ही परिकर्मगत वादरस्थिति उत्पन्न हुई है। अत यह तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि पटखण्डागम सूत्रोके आधार पर ही परिकर्म रचा गया किन्तु एक उद्धरणसे पटवण्डागमसे परिकर्ममें कही कुछ मतभेद भी प्रतीत होता है।
यही चर्चा जीव ढाणके कालानुगममें एक जीवको अपेक्षा वादर एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थिति बतलानेवाले सूत्र ११२ की धवलामें भी आयी है । लिखा है
कम्मट्ठिदी मावलियाए असखेज्जदि भागेण गुणिदे वादरद्विदी जादा ति परियम्म वयणेण सह एद सुत्त विरुज्झदि त्ति दस्स ओक्खत्तं, सुत्ताणुसारि परियम्मवयण ण होदि ति तस्सेव ओक्खत्तप्पसगा।'-पु० ४, पृ० ३९० । ___'कर्मस्थितिको आवली के असख्यातवे भागसे गुणा करनेपर वादर स्थिति उत्पन्न हुई है परिकर्मके इस वचनके साथ यह सूत्र विरुद्ध पडता है इसलिए इस सूत्रको अवक्षिप्तताका प्रसग नही आता । किन्तु परिकर्मका वचन सूत्रानुसारी नही है इसलिए परिकमंकी ही अवाक्षिप्तताका प्रसग आता है।'
यहां हम यह स्पष्ट कर देना उचित समझते है कि उक्त चर्चामें जो परिकर्मके वचनको सूत्रानुसारी नही होनेके कारण अवक्षिप्तताका प्रसग दिया है। इसीका परिहार खुद्दाबन्धकी धवलाके उक्त उद्धरणके अन्तमें वीरसेनस्वामीने ही स्वय कर दिया है । उन्होने लिखा है
'वहाँ ( परिकर्ममें ) यद्यपि सामान्यसे 'वादरस्थिति होती है ऐसा कहा है तथापि पृथिवीकायादि बादरोमेंसे प्रत्येकको कायस्थिति लेनी चाहिये क्योकि सूत्र
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२७२ . जैनसाहित्यका इतिहास ( षट्खण्ड० ) में असंख्यात उत्साणी-अवसर्पिणी प्रमाण वादर स्थिति कही है। अर्थात् परिकर्ममें जो बादरस्थिति कही है, वह पृथिवीकायिक, आदि प्रत्येक बादरकायिक जीवकी है और जीवट्ठाण के कालानुगम अनुयोगद्वारके सूत्र ११२ में जो वादर स्थिति, कही है वह वादर एकेन्द्रिय सामान्यकी उत्कृष्ट स्थिति है अस्तु । किन्तु धवलामें ही परिकर्मको लेकर एक चर्चा और भी है जो इस प्रकार है___ 'जत्तियाणि दीवसागर रूवाणि जबूदीवछेदणाणि च रुवाहियाणि तत्तियाणि रज्जुछेदणाणि' त्ति परियम्णण एद वक्खाण किण्ण विरुज्झदे ? एदेण सह विरुज्झदि, किंतु सुत्तेण सद्दण विरुज्झदि । तेणेदस्स वक्खाणस्स गहण कायम ण परियम्मस्स, तस्स सुत्तविरुद्धत्तादो । ण सुत्त विरुद्ध वक्खणं होदि, अइप्पसग्गादो ।'-पु० ४, पृ० १५६ ।
शका-'जितनी द्वीप और सागरोकी संख्या है - तथा जितने जम्बूद्वीपके अर्धच्छेद होते है, एक अधिक उतने ही राजुके अर्धच्छेद होते है' इस परिकर्मके साथ यह उपर्युक्त व्याख्यान क्यो नही विरोधको प्राप्त होता? __समाधान-भले ही परिकमके साथ उक्त व्याख्यान विरोधको प्राप्त होता हो, किन्तु प्रस्तुत सूत्रके साथ विरोधको प्राप्त नहीं होता। इस कारणसे इस व्याख्यानको स्वीकार करना चाहिए, परिकर्मको नही, क्योकि परिकर्मका व्याख्यान सूत्रविरुद्ध है। और जो व्याख्यान सूत्र विरुद्ध हो उसे व्याख्यान नही माना जा सकता, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आता है।'
उक्त उद्धरणमें परिकमको जो सूत्र विरुद्ध व्याख्यान कहा है । इससे भी उसके षट्खण्डागम सूत्रोके व्याख्यान रूप होनेका हो समर्थन होता है । प्रश्न केवल सूत्र विरुद्धताका रह जाता है। किन्तु जीवट्ठाणके ही द्रव्य प्रमाणानुगमकी धवलामें उक्त सूत्र विरुद्धताका परिहार भी किया है । लिखा है- ण च एद वक्खाण जत्तियाणि दीवसागररूवाणि जबूदीवच्छेदणाणि च ख्वाहियाणि त्ति परियम्म सुत्तेण सह विरुज्झइ, ख्वेण अहियाणि रूवाहियाणि ति गहुणादो।'-पु० ३, पृ० ३६ । ___ 'और यह व्याख्यान 'जितने द्वीपो और सागरोंकी सख्या है और जम्बूद्वीपके रूपाधिक जितने अर्धच्छेद है' इस परिकर्म सूत्रके साथ भी विरोधको प्राप्त नही होता क्योकि वहाँ 'रूपाधिकका' अर्थ रूपसे अधिक रूपाधिक नही लिया किन्तु रूपोसे अधिक रूपाधिक लिया है।'
उक्त उद्धरणोसे जो तथ्य प्रकाशमें आते है उनसे यही प्रमाणित होता है कि परिकर्मकी उत्पत्ति पट्खण्डगमके सूत्रोसे ही हुई थी और वह बहुत करके उनका व्याख्यात्मक ग्रन्थ होते हुए भी केवल व्याख्यारूप नही था । तथा 'सर्वाचार्य
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जयववला-टीका . २७३ सम्गत' था अनेक व्यास्याकारोने अपनी व्यायामका उसे आधार बनाया था अथवा उराको साहायता लेकर अपनी व्यारयाएं लिखी थी । धवलाकार श्रीवीरसेन स्वामीके राम्मुख वह मौजूद था और उन्होंने भी उसका सहाप्य ग्रहण किया था। अत. इन्द्रनन्दिने पट्यण्टागमके आय तीन सण्डोपर परिकर्म नामक ग्रन्थकी रचना करनेका निर्देश किया है वह यथार्य प्रतीत होता है यहां एक बात विशेष रूपसे उल्लेखनीय है । इन्द्रनन्दिने परिकम ग्रन्यको पद्धति, व्यास्या, टीका आदि शब्दोंसे नही कहा है जबकि अन्य व्याख्यात्मक ग्रन्योको इन शब्दोसे अभिहित किया है। इससे प्रकट होता है कि यद्यपि परिकर्म ग्रन्योका आधार पट्सण्डागम सूत्र थे किन्तु वह केवल एक व्याख्यारूप अन्य नही था । धवलाके उद्धरणोसे भी इसी वातका समर्थन होता है।
इन्द्रनन्दिने परिकर्मका रचयिता पानन्दि अपर नाम कुन्दकुन्दको वतलाया है। आचार्य कुन्दकुन्द दि० जैन परम्पराके एक ख्यात नाम प्राचीन आचार्य थे । उनके द्वारा रचित ग्रन्थोकी भाषा प्राकृत है और परिकर्म भी प्राकृत भापामें हो रचा गया था यह वात उसके उद्धरणोसे प्रमाणित होती है । किन्तु कुन्दकुन्दके सभी उपलब्ध अन्य गाथावद्ध है, जबकि परिकर्म गद्य प्राकृतमें रचा गया प्रमाणित होता है । इसका कारण परिकर्मका व्याख्यात्मक होना सम्भव है । जैसे आचार्य यतिवृपभने कसायपाहुडपर चूणिसूत्रोंकी रचनाकी थी शायद उसी तरह कुन्द कुन्दने पट्खण्डागमके आधारपर परिकर्मसूय नामक ग्रन्थकी रचना की थी। उससे धवलाकारने एक उद्धरण इसप्रकार दिया है ____ अपदेस णेवइदिए इ दिए गेज्झ' इदि परमाणूण मिरवयवत्त परियम्मे वुत्ता' पु १३, पृ १८ अपदेसणेव इदिए गेज्झ' यह उद्धरण गाथाका अश प्रतीत होता है। कुन्दकुन्दके नियमसारको एक गाथाका जो परमाणका स्वरूप वतलाती है द्वितीय चरण 'णेव इ दिए गेज्म' है किन्तु उसके पहले जो 'अपदेस' शब्द है वह उसमें नही है । अत सम्भव है कि जिस गाथाका उक्त अश है वह गाथा नियमसार वाली गाथासे भिन्न हो। किन्तु उससे दो वातें प्रमाणित होती है, प्रथम परिकर्ममें गाथाओका अस्तित्व और दूसरे परिकर्मका कुन्दकुन्द रचित होना।
पचास्तिकायके अग्रेजी अनुवादकी अपनी प्रस्तावनामें डा० चक्रवर्तीने तथा प्रवचनसारकी अपनी प्रस्तावनामें डा० ए० एन० उपाध्यायेने कुन्दकुन्दका समय ईसाकी प्रथम शती सुनिश्चित किया और नन्दिसघकी पटटवलीके आधार पर १ 'अत्तादि अत्तमज्य अत्त त णेव इ दिए गेज्य।
अविभागी ज दव्व त परमाण, विजाणीहि ।।६।।'
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२७४ : जैनसाहित्यका इतिहास पुष्पदन्तका समय ईसाफी दूसरी शतीका पूर्वाद्ध प्रमाणित होता है ऐमी रियतिम फुन्द-कुन्दका समय ईसाकी दूसरी पातीके मध्यगे पहिले नही होना चाहिए । शामकुण्डकृत 'पद्धति'
इन्द्रनन्दिके अनुसार यह टोका पट्यण्डागमके पाच सण्डीपर तथा कसायपाहडपर रची गयी थी। यह टीका पद्धति स्प थी । जयघवलाके अनुसार सूत्रवृत्ति इन तीनोफे विवरणको पति कहते हैं। तदनुमार वह पद्धति नामक टीका कसायपाहुडके गाथा सूमो और वृत्तिका विवरण रूप होनी चाहिये इसी पखण्डागमके भो किन्ही सूत्रो और वृत्तिको लेकर यह रची गया होगी । शायद वह वृत्ति परिकर्म सूत्र ही हो। इन्द्रनन्दिके अनुसार यह टीका परिकर्मसे कितने ही काल पश्चात् लिसी गयी थी। और उसकी भापा प्राकृत, मस्कृत और कन्नडी तीनो मिश्रित थी।
जयधवलामें वृत्तिसूत्र, टीका, पजिका, और पद्धतिका लक्षण है तथा जयधवलाको अन्तिम प्रशस्तिमें एक श्लोक द्वारा कपाय-प्राभूत विषयक साहित्यका विभाग इस प्रकार किया है-'सून तो गाया सूप है, चूणिसूत्र वार्तिक अथवा वृत्तिरूप है टीका श्री वीरसेन रचित जयधवला है और शेप या तो पद्धति रूप है या पजिकारूप है।' यहाँ बहुवचनान्त 'शेषा' शब्दसे यह स्पष्ट प्रतीत होता है, कि कपाय-प्राभूत पर अन्य भी अनेक विवरणात्मक ग्रन्थ थे जिन्हें जयधवलाकारने पद्धति या पजिका कहा है। उन्हीमें शामकुण्डाचार्य रचित 'पद्धति' भी हो सकती है। किन्तु धवला या जयघवलामें इम टोकाका कोई उल्लेख नहीं मिलता।
साथही सामकुण्ड नामक किन्ही आचार्यका पता भी अभी तक नही लग सका है। शामकुण्ड नाम कुन्दकुन्दका ही प्रतिपक्षी ज्ञात होता है । दोनोके अन्तमें कुण्ड या कुन्द शब्द आता है । और साम (श्याम) कुन्दका विपरीत हैकुन्द सफेद होता है और श्याम कालेको कहते हैं । अतः कुन्दकुन्द नामको सामने रख कर हो 'सामकुण्ड' नामको उपज होना सम्भव है । तुम्वुलूराचार्य कृत्त 'चूड़ामणि'
इन्द्रनन्दिने शामकुण्डाचार्य रचित पद्धतिके पश्चात् तुम्बुलूराचार्य रचित 'चूडामणि' नामकी व्याख्याका उल्लेख किया है और बतलाया है कि यह व्याख्या षट्खण्डागमके प्रथम पाचखण्डोपर तथा कसाय-पाहुड पर रची गयी थी और उसका प्रमाण चौरासी हजार था। उसकी भाषा कनडी थी। इसके अतिरिक्त १. सुत्तवित्ति विवरणाए पदई ववएसादो।'-क० पा०, भा॰ २, पृ० १४ । २. 'गाथासूत्राणि सूत्राणि चूर्णिसूत्र तु वार्तिकम् ।
टीका श्रीवीरसेनीया शेषा. पद्धति पजिका. ॥२९॥
है।' यहां वहवाला है और शेष या
होता है, कि
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जयधवला-टीका . २७५ उन्होने छठवें महावन्ध पर सात हजार श्लोक प्रमाण पजिका भी लिखी थी। इस प्रकार उनको कुल रचनामोका प्रमाण ९१ हजार था। धवला और जय धवलामें इनका कोइ उल्लेस हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
भट्टाकलक नामक एक विद्वान्ने अपने कर्नाटक 'शब्दानुशासनमें कनडी भापामें रचित चूडामणि नामक महाशास्त्रका उल्लेख किया है। किन्तु उसे तत्वार्थ महाशास्नका व्याख्यान वतलाया है तथा उसका परिणाम भी ९६ हजार बतलाया है। इससे इतना तो प्रमाणित होता है कि कनड़ी भापामें एक चूडामणि नामक वृहत्काय व्याख्या थी। किन्तु वह व्याख्या इन्द्रनन्दिके कथनानुसार दोनो सिद्धान्त ग्रन्थोकी या भटाकलकके निर्देशानुसार तत्त्वार्थ महाशास्त्रकी थी, यह विचार-ग्रस्त है।
तत्त्वार्थ महागास्त्र' तत्त्वार्थ सूत्रको कहा गया है। विद्यानन्दिने 'तत्त्वार्थशास्त्र' नामसे उसका उल्लेख किया है। किन्तु आदरणीय श्री जुगलकिशोर जी मुख्तारने लिखा है-तत्त्वार्थ सूत्रका अर्थ तत्त्वार्थ विपयक शास्त्र होता है और इसीसे उमास्वातिका तत्त्वार्थ-सूत्र, तत्वार्थ-शास्त्र और तत्त्वार्थाधिगम मोक्षशास्त्र कहलाता है किन्तु मापने यह भी लिखा है कि पुष्पदन्त भूतवल्यादि आचार्यों द्वारा विरचित सिद्धान्त शास्त्रको भी तत्त्वार्थ शास्त्र या तत्त्वार्थ महाशास्त्र कहा जाता है। इन सिद्धान्त शास्त्रो पर तुम्वुलूराचार्यने कनडी भापमें चूडामणि नामको टीका लिखी है जिसका परिमाण इन्द्रनन्दिकृत 'श्रुतावनारमें ८४ हजार और कर्नाटक शब्दानुशासमें ९६ हजार श्लोकोका बतलाया है।'
कर्नाटक शब्दानुशासनके उल्लेखको उद्धृत करके मुख्तारसाहबने लिखा है-'इस उल्लेखसे स्पष्ट है कि चूडामणि जिन दोनो ( कर्मप्राभृत और कषाय प्राभूत ) सिद्धान्त शास्त्रोकी टीका कहलाती है, उन्हें यहां तत्वार्थ महाशास्त्रके नामसे उल्लेखित किया गया है । इससे सिद्धान्तशास्त्र और तत्वार्थ दोनोकी एकार्थताका समर्थन होता है । और साथ ही यह पाया जाता है कि कर्मप्राभृत कषाय प्राभूत ग्रन्थ तत्वार्थसूत्र कहलाते थे। तत्वार्थ विपयक होनेसे उन्हें तत्वार्थशास्त्र या तत्वार्थसूत्र कहना कोई अनुचित भी प्रतीत नहीं होता।'
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१ 'न चैपामापा शास्त्रानुपयोगिनी, तत्त्वार्थमहाशास्त्रव्याख्यानस्य पण्णवतिसहस्रप्रमित ग्रन्थसन्दर्भरूपस्य चूडामण्यमिधानस्य महाशास्त्रस्य ।
-'इन्सक्रिाशन्स ऐट श्रवणबेलगोला' से उद्धत । २ 'प्रमाणनयैरधिगम' इति महाशास्त्र तत्त्वार्थसत्रम् ।-न्या० दी० । ३ ननु च तत्त्वार्थशास्त्रस्यादिसूत्र'-त० श्लो० वा०, पृ० ४ ।
इति तत्त्वार्थशास्त्रादौ-आ० प० अन्तिम श्लोक । ४ जै० सा० इ० वि० प्र०।
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२७६ : जैनसाहित्यका इतिहास
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षट्खण्डागम पुस्तक की अपनी प्रस्तावनाएँ प्रोफेसर हीरालालजीने भी लिखा-' इन ग्रन्थोकी भी तत्वार्थ महाशास्त्र नामसे प्रसिद्धि रही है, क्योकि, जैसा हम ऊपर कह आये है, तुम्बुलूराचार्यकृत इन्ही ग्रन्थोकी चूडामण टीकाको अकलकदेवने तत्वार्थ- महाशास्त्र व्याख्यान कहा है' ( पृ ५१ ) ।
जैसा कि हम ऊपर लिख आये है, 'तत्वार्थसूत्र' नाम लाक्षणिक होते हुए भी उस तत्वार्थसूत्र के लिए ही रूढ हुआ है जिसको उमास्वामीको कृति माना जाता है । उसे ही तत्वार्थशास्त्र या तत्वार्थ- महाशात्र कहा गया है । एक भी उल्लेख ऐसा नही मिलता जिसमें उक्त दोनो सिद्धान्त ग्रन्थोको तत्वार्थसूत्र या तत्वार्थ - महाशात्र कहा गया हो। अतएव चूँकि इन्द्रनन्दिने उक्त सिद्धान्तग्रथो पर तुम्वुलूराचार्यकी चूडामणिनामक टीकाका निर्देश किया है जो कनडीमें थी । ओर शब्दानुशासनमें तत्वार्थ महाशास्त्रकी चूडामणि नामक कनडी टीकाका निर्देश किया गया है, अतः सिद्धान्त -ग्रन्थोको तत्वार्थ- महाशास्त्र कहते थे, यह निष्कर्ष निकालना हमें उचित प्रतीत नही होता ।
कर्नाटक शब्दानुशासनको रचना १६०४ ई० में हुई है । और उक्त दोनों सिद्धान्त ग्रन्थोके ऊपर घवला - जयघवलाकी रचना होनेके पश्चात् श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके द्वारा उनके आधार पर श्री गोम्मटसारको रचना होनेपर हम सिद्धान्त-ग्रन्थोकी चर्चाका अवरोध पाते हैं जबकि तत्वार्थ सूत्रकी ख्याति उत्तरोत्तर बढती गयी है। कर्नाटक शब्दानुशासनकी तरह न्यायदीपिका में भी तत्वार्थसूत्रको महाशास्त्र कहा है । न्यायदीपिका ईसाकी १५ बी शतीके लगभग रची गयी थी अत उस कालमें तत्वार्थ - महाशास्त्र के रूपमें तत्वार्थ सूत्रको हो ख्याति थी, सिद्धान्त ग्रन्थोका तो नाम भी उसकाल में सुनायी नही देता । अत कर्नाटक शब्दानुशासनके रचयिताने चूडामणिको तत्वार्थ महाशास्त्रका व्याख्यान समझा हो, ऐसा भ्रम होना सम्भव है । अस्तु कर्नाटक शब्दानुशासन के उक्त उल्लेखसे यह प्रमाणित होता है, कि कनडी भाषामें एक व्याख्या - ग्रन्थ था और उस व्याख्या-ग्रन्थका इन्द्रनन्दिके द्वारा निर्दिष्ट व्याख्या -ग्रन्थ होना सम्भव है ।
किन्तु श्रीयुत् गोविन्द' 'पै' का मन है कि भट्टाकलक के द्वारा कर्नाटक शब्दानुशासनमें स्मृत चूडामणि तुम्बुलूराचार्य कृत चूडामणि नही हो सकता, क्योकि पहले का परिणाम ९६ हजार बतलाया गया है और दूसरेका ८४ हजार । अत पै महाशयका कहना है कि इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारकी 'कर्णाट भाषया कृत महती चूडामणि व्याख्याम्' पक्ति अशुद्ध प्रतीत होती हैं । इसमें आये हुए 'चूडामणि
१ 'श्रीमद्ध देव एण्ड तुम्वुलूराचार्य' - जैन एण्टि०, जि० ४ न० ४ ।
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जयधवला-टीका . २७७ पदको अलग न पढकर आगेके व्याख्या' पदके साथ मिलाकर 'चूडामणि व्याख्या' पढना चाहिए । तब उस पक्तिका अर्थ होगा-तुम्बलूराचार्यने कनडीमें चूडामणिकी एक बड़ी टीका बनायो।'
तव प्रश्न होता है कि चूडामणि गन्थ किसका था जिसकी व्याख्या तुम्बुलूराचार्यने बनायो ? श्रवणवेलगोलाके पार्श्वनाथ-बसदिके स्तम्भपर अकित शिलालेखमें चूडामणि नामक काव्यके रचयिता श्री वर्द्धदेवका स्मरण किया है और उनकी प्रशंसामें दण्डोकविके द्वारा कहा गया एक श्लोक भो उद्धृत किया है । यथा
"चूडामणि कवीना चूडामणि नाम सेव्य काव्य कवि ।
श्रीवर्द्धदेव एव हि कृतपुण्य कीर्ति माहर्तुम् ॥ य एव मुपश्लोकितो दण्डिना
जह्नो कन्या जटानेण वभार परमेश्वर ।
श्रीवर्द्धदेव संधत्से जिहवाग्रेण सरस्वती ।। शिलालेखके इस कथनके साथ कर्नाटक शब्दानुशासनके उल्लेखको मिला कर श्री पैने यह निष्कर्ष निकाला है कि श्रीवर्द्धदेवने तत्वार्थ-महाशास्त्रपर ९६००० श्लोक प्रमाण चूडामणि नामक टीका कन्नड भाषामें रची । और तुम्बुलूराचार्यने चूडामणिके ऊपर ८४ हजार प्रमाण कन्नड टीका और ७००० प्रमाण पजिका लिखी। ___इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके तुम्वुलूराचार्य विषयक श्लोक कर्णाटक-कविचरिते में उद्धृत है और श्री पै ने अपने लेखमें उन्हें वहीसे उद्धृत किया है । ___ अत प्रतीत होता है कि श्रीयुत पै ने इन्द्रनन्दिका श्रुतावतार नही देखा। अन्यथा वे 'चूणामणि-व्याख्या को समस्त, पद न बनाकर उसका 'चूडामणिकी व्याख्या' ऐसा अर्थ न करते । क्योकि श्रुतावतारमें सिद्धान्त ग्रन्थोके व्याख्यानोका कथन किया गया है, जिसमें से एक चूडामणि नामक व्याख्या भी है फिर शिलालेखमें श्री वद्ध देवको चूडामणि नामक काव्यका कर्ता कहा है। चूडामणि नामक कन्नड टोकाका कर्ता नही कहा। तभी तो वद्ध देवका शिलालेखमें 'कवीना' चूडामणि लिखा है और प्रसिद्ध कवि दण्डीके द्वारा उनकी प्रशसा किये जानेसे यह और भी अधिक स्पष्ट हो जाता है कि वद्धदेवका चूडामणि काव्य सस्कृतका गौरव रूप था। अत श्री पै महाशयका उक्त कथन भ्रामक है। __ तुम्बुलुर ग्रामके वासी होनेके कारण चूडामणि व्याख्याकार तुम्बुलूराचार्य कहलाते थे उनका असली नाम क्या था यह अज्ञात है। गगराजके मत्री तथा सेनापति चामुण्डरायने अपने चामुण्डपुराणमें, जो ९७८ ई में कन्नड गद्यमें रचा १, जै ९शिस०, प्र० मा०, पृ० १०३ ।
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२७८ . जैनसाहित्यका इतिहास गया था, अन्य महान जैनाचार्योमें तुम्बुलूराचार्यका भी स्मरण किया है अत. यह निश्चित है कि वह ईसाकी दसवी शतीसे पूर्वमें हुए है। इन्द्रनन्दिने उन्हें शामकुण्डाचार्य और समन्तभद्रके मध्य में रखा है। समन्तभद्रकृत सस्कृत टीका
इन्द्रनन्दिके कथनानुसार ताकिका आचार्य समन्तभद्रने भी पट्क्सडागमके प्रथम पांच खण्डोपर ४८ हजार श्लोक प्रमाण टीका रची थी यह टीका अति सुन्दर मृदु संस्कृत भापामें थी। ताकिकार्क विशेषणसे यह स्पष्ट है कि इन्द्रनन्दिका अभिप्राय आप्तमीमासा के स्वयभूस्तीन मादिके रचयिता प्रखर ताकिक आचार्य समन्तभद्र से ही है लघु-समन्तभद्ने अष्ट सहस्त्रीके टिपप्णमें समन्त भद्रको ताकिका विशेपणसे ही अभिहित किया है । यथा
'तदेव महा महभागस्ताकिकार्करूपज्ञाता श्रीमता वादीभसिंहेनो पलालिता माप्तमीमासा ।' बोरसेन स्वामीने अपनी धवला टीकामें समन्त भद्रके नामोल्लेख पूर्वक उनके आप्तमीमासा' तथा वहत्स्वयभूस्तोत्रसे२ उद्धरण दिये है। किन्तु ऐसा एक भी उल्लेख नहीं मिलता, जिससे उक्त टीकाका सकेत मिलता हो।
समन्तभद्र कृत गन्धहस्ति-महाभाष्य३के भी उल्लेख मिलते है जिनमें उसे तत्वार्थसूत्र अथवा तत्वार्थका व्याख्यान कहा है। उसका परिमाण कही ८४ हजार तो कहीं छियानवे हजार बतलाया है। गन्धहस्ति-महाभाष्य विपयक उल्लेख प्रायः विक्रमको ग्यारहवी शताब्दीके और उसके वादके है। अतः जैसे तुम्बुलूराचार्यकी टीकाको भ्रमसे तत्वार्थसूत्रकी टीका समझ लिया गया, कही इसी तरह समन्तभद्रकी पट्सडागम सूत्रोपर रचित टीकाको भी तत्वार्थ सूत्रकी टीका तो नहीं समझ लिया गया । ८४ और ९६ हजार सख्या किसी न किसी रूपमें ४८ हजारसे सम्बद्ध है एक उसके अकोका व्यतिक्रम रूप है तो दूसरी उसका द्विगुणित रूप है । किन्तु यह सव तो अनुमान मात्र है । यथार्थमें तो उक्त उल्लेखोके सिवाय ऐसे पुष्ट प्रमाणोका अभाव है जिनके आधार पर उक्त टीका तथा गन्धहास्ति-महाभाष्यका अस्तित्व प्रमाणित किया जा सकता हो ।
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१. 'तथा समन्तभद्रस्वा मिनाप्युक्तम्-'स्यावाद प्रविभक्तार्थ विशेष व्यन्जको नय.।' २. 'तहा समन्तभद्द समाणि वि उत्त-विधिविपक्त प्रतिवोधरूप । पटख, पु० ७,
पृ ९९ । तत्त्वार्थ सूत्रव्याख्यान गन्धहस्ति प्रवर्तक । स्वामी समन्तभद्रोऽभूदेवागम निदेशक ।' -वि० कौरव 'तत्त्वार्थ व्याख्यान पण्णवति सहस्र गन्धहस्तिमहाभाष्य विधायक देवागम कवीश्वर स्याद्वादविद्यापति समन्तभद्र जै. सा. ड वि प्र७ पृ २७७ ।
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जयधवला-टीका • २७९
बप्पदेवकृत व्याख्या-प्रज्ञप्ति
इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके जिन श्लोकोमें वप्पदेवकृत व्याख्या-प्रज्ञप्तिका उल्लेख है उनका अर्थ समझनेमें कुछ भ्रम हुआ है । श्लोक इस प्रकार है
श्रुत्वा तयोश्च पार्वे तमशेष वप्पदेवगुरू ॥१७३ ॥ अपनीय महावन्ध षट्खण्डाच्छेष पञ्चखण्डे तु । व्याख्या प्रज्ञप्तिं च षष्ठ खण्ड च तत साक्षिप्य ॥१४७।। षण्णा खण्डानामिति निष्पन्नाना तथा कषायाख्यप्राभूतकस्य च षष्ठि सहस्रग्रन्थ प्रमाण युताम् ॥१७५।। व्यलिखत् प्राकृत भाषा रूपा सम्यक् पुरातनव्याख्याम् ।
अण्टसहस्रग्रन्था व्याख्या पञ्चाधिका महावन्धे ॥१७६।। पहली पक्तिका अर्थ स्पष्ट है-'शुभनन्दि और रविनन्दिके समीप में समस्त सिद्धान्तको सुन कर वप्पदेवगुरूने' ।
दूसरी पक्तिका अर्थ-छखण्डमेंसे महावन्धको पृथक् करके, शेष पांचखण्डोंमें।
तीसरी पक्तिका अर्थ-व्याख्या प्रज्ञति नामक छठे खण्डोको मिलाकर
चौथी तथा पांचवी पक्ति- इस प्रकार निष्पन्न हुए छहो खण्डोकी तथा कषाय-प्राभृतकी साठ हजार ग्रन्थ प्रमाणवाली।।
छठी-सातवी पक्ति-प्राकृत भापारूप प्राचीन व्याख्याको लिखा और महाबन्ध पर आठ हजार पाँच ग्रन्थ प्रमाण व्याख्या लिखी ।
अत वप्पदेव टीकाका नाम व्याख्या प्रज्ञप्ति नही था। किन्तु भूतवलीपुष्पदन्त प्रणीत पांच खण्डोमें वप्पदेवने जो छठा खण्ड मिलाया उसका नाम व्याख्या-प्रज्ञप्ति था। इसी व्याख्या-प्रज्ञप्तिको प्राप्त करके वीरसेन स्वामीने सत्कर्म नामक छठा खण्ड रचा था। श्रु तावतारमें लिखा है
"व्याख्या प्रज्ञप्तिमवाप्य पूर्वषट् खण्डतस्तत स्तस्मिन् । उपरितमबन्धनाद्यधिकार रष्टादश विकल्पै ॥१८०॥ सत्कर्म नाम ध्येय षष्ठ खण्ड विधाय सक्षिप्य । इति षण्णा खण्डाना ग्रन्थ सहस्र द्विसप्तत्या ॥१८१।।
प्राकृत सस्कृत भाषामिश्रा टीका विलिख्य धवलाख्याम्" व्याख्या-प्रज्ञप्ति को प्राप्त करके वीरसेन स्वामीने आगेके निवन्धन आदि मदनारह अधिकारोंके भेदसे सत्कर्म नामक छठे खण्डकी रचना की और उसे पहले के षटखण्डमें मिलाया इस तरह छै खण्डोंकी बहात्तर हजार ग्रन्थ प्रमाण प्राकृत सस्कृत मिश्रित धवला नामक टीका लिखी।'
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२८० : जैनसाहित्यका इतिहास उक्त दोनो उद्धरणोकी दो पक्तियां विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य है___ "व्याख्या प्रज्ञप्ति च पष्ठ खण्ड च तत. साक्षिप्प"
और 'सत्कर्मनामधेय पष्ठ खण्ड विधाय साक्षिप्य' जैसे वप्पदेव गुरुने पांच खण्डोमें व्याख्या प्रज्ञप्ति नामक छठे खण्डको मिलाकर छ खण्ड निष्पन्न किये और फिर उन पर टीका रची। वैसे ही वीरसेन स्वामीने व्याख्या प्रज्ञप्तिके आधारपर सत्कर्म नामक छठे खण्डका निर्माण करके उसे पांच खण्डोमें मिलाकर छ खण्ड निष्पन्न किये तव उनपर धवला नामक टीका लिखी।
यह ऊपर लिखा जा चुका है कि महाकर्मप्रकृति-प्राभृतके ज्ञाता धरसेनाचार्य थे और उन्होने भूतवलि पुष्पदन्तको पढाया था । महाकर्म-प्रकृतिप्राभृतमें चौवीस मनुयोगद्वार थे, उनमेंसे आदिके छ अनुयोगद्वारोके आधारपर भूतवलीने पट्खागमकी रचनाकी थी। किन्तु वीरसेन स्वामीने पट्खण्डागमके पांच खण्डोमें एक सत्कर्म नामक स्वरचित छठा भाग मिलाकर छै खण्ड निष्पन्न किये है और इस सत्कर्म नामक छठे खण्डमें महाकर्मप्रकृति-प्राभृतके अठारह अनुयोगद्वारोका संक्षिप्त कथन है जिन्हें महाकर्मप्रकृति-प्राभृत-ज्ञाता भूतवलीने भी छोड दिया था ऐसी स्थितिमें यह जाननेका कौतूहल होना स्वाभाविक है कि वीरसेन स्वामीने उन अट्ठारह अनुयोगोका परिचय किस आधारसे दिया क्या ? उनके समय तक महाकर्मप्रकृति-प्राभृतका ज्ञान अवशिष्ट था । इन्द्रनन्दिके श्रु तावतारसे उस जिज्ञासाका समाधान हो जाता है। व्याख्या-प्रज्ञप्तिको पा करके उन्होने अपने 'सत्कर्म की रचनाकी थी। अत व्याख्या-प्रज्ञप्तिमें अवश्य ही शेप अट्ठारह अनुयोगोका कथन होना चाहिए ।
धवला टीकामें दो स्थानोंपर उद्धरण देते हुए व्याख्या-प्रज्ञप्तिका उल्लेख किया है एक स्थानपर यह शंका की गयी है कि तिर्यग्लोकका अन्त कहां होता है ? उत्तर दिया गया है कि तीनो वातवलयो के बाह्य भागमें तिर्यग्लोकका अन्त होता है । इसपर पुन शकाकी गयी कि यह कैसे जाना ? तो उत्तर दिया गया कि 'लोक वातवलयोसे प्रतिष्ठित है, इस व्याख्या-प्रज्ञप्तिके वचन से जाना।
दूसरी जगह एक लम्बा उद्धरण इस प्रकार दिया है'जीवा ण भते । कदि भागावसेसियसि याउगसि परभविय आउग कम्म णिवधता वधतिगोदम जीवादुविहा पण्णत्ता सखेज्जवस्साउआ चेव असखेज्जवस्साउआचेव।
१ कम्मि तिरिय लोगस्स पज्जवसाण ? तिण्ह वादवल याण वहिर भागे। त कध जाणिज्जदि
'लोगो वादपदिठ्ठदो' ति वियाह पण्णत्ति वयणादो।-पटख०, पु० ३५ ।
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जयधवला - टीका २८१
तथ्थ जे ते अस खेज्जवस्साउआ ते छम्मासाव से सयसि याउगसि परभवियं आउग विधता वधति । तत्थ जे ते सखेज्जवस्साउभा ते दुविहा पण्णत्ता सोवक्कमाउआ णिरुवकमाउआ चेव । तत्थ जे ते णिरूवक्कमाउआ ते तिभागा वसे सियसि याउगसि परभविय आयुग कम्म णिवधता बघति । तत्थ जे ते सोवक्कमाउआ ते सियातिभागत्ति भागावसेसियसियायुगसि परभविय आउग कम्म णिबधता बंधति । ' एदेण वियाह-पणत्ति सुत्तेण सह कध ण विरोहो ? ण, एदम्हादो तस्स पुघ भूदस्स आइरिय भेएण भेदभावण्णस्स एयत्ता भावादो । - षट्ख० पु०, १० पृ २३७-२३८ ।
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शका — 'हे भगवन् । आयुमें कितने भाग शेष रहनेपर जीव पर भविक आयु कर्मको बाघते हुए बाघते है ? हे गौतम जीव दो प्रकारके कहे गये है-सख्यात् वर्पायुष्क और असंख्यात् वर्षायुष्क । उनमें जो असख्यात् वर्षायुष्क है वे आयुके छै मास शेष रहने पर भविक आयुको बाघते हुए बाघते है । और जो सख्यात् वर्षायुष्क जीव है वे दो प्रकारके कहे गये है-सोपक्रमाायुष्क और निरूपक्रमायुष्क । उनमें जो निरूपक्रमायुष्क हैं वे आयुमें त्रिभाग शेष रहनेपर परभविक आयुकर्म को बाधते है । और जो सोपक्रमायुष्क जीव है, वे कथचित् त्रिभाग कथचित् त्रिभागका त्रिभाग और कथचित् त्रिभाग- त्रिभागका शेष रहनेपर परभव सम्बन्धी आयुकर्मको बांघते है ।' इस व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्रके साथ विरोध क्यो नही आता ?
समाधान — नही, क्योकि इस सूत्र से व्याख्या प्रज्ञप्ति सूत्र भिन्न है, आचार्य भेदसे भेदको प्राप्त है अत इन दोनोंमें एकत्वका अभाव है | धवलाके उक्त दोनो उद्धरण यद्यपि व्याख्या - प्रज्ञप्ति विषयक है तथापि दोनो दो विभिन्न दृष्टिकोणोको उपस्थित करते है । पहले उद्धरणमें वीरसेन स्वामी व्याख्याप्रज्ञप्ति के वचनको अपनी बातके समर्थनमें प्रमाण रूपसे उपस्थित करते है । दूसरे विस्तृत उद्धरणके सम्बन्धमें वे व्याख्या- प्रज्ञप्तिको षट्खण्डागम सूत्रसे भिन्न और आचार्य भेदसे भेदको प्राप्त कहते है । आचार्य भेदसे मतलब वहाँ आचार्य परम्पराका भेद ज्ञात होता है क्योकि यो तो भिन्न आचार्यों के द्वारा रचित सभी शास्त्रोमें आचार्य भेद पाया जाता है । अत उनका यह कथन सम्भवतया श्वेताम्वरीय पचम अग व्याख्या - प्रज्ञप्ति के विषयमें जान पडता है क्योकि उसमें उक्त प्रकारसे भगवान् महावीर और गौतमके मध्य हुए प्रश्नोत्तरोके रूपमें विवेचन मिलता है । साथ ही उक्त उद्धरणकी शैली और भाषा भी श्वेताम्बरीय आगमोके अनुरूप अर्धमागधी है । अर्धमागधीमें सप्तमीका एकवचन 'रिस' होता है यथा- 'छम्मा - सावसेयसि आउगमि ।' किन्तु महाराष्ट्रीमें जो दिगम्बर जैनागमोकी भाषा है 'म्मि' होता है ।
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२८२ : जैनसाहित्यका इतिहास
किन्तु उक्त उद्धरण उपलब्ध व्याख्या-प्रज्ञप्तिमें नही पाया जाता। हाँ इससे मिलता जुलता उद्धरण श्वेताम्बरीय 'प्रज्ञापना सूत्रमें अवश्य मिलता है ।
अकलकदेवने अपने तत्त्वार्थवातिकमें भी दो स्थानोपर व्याख्या-प्रज्ञप्ति दण्डकका निर्देश किया है। श्वेताम्बरीय व्याख्या-प्रज्ञप्ति में उन दोनो निर्देशो जैसा कथन तो नही मिलता किन्तु अन्य रूपमें इस प्रकारके कथनका आभास मिलता है।
ऐसी स्थितिमें व्याख्या- प्रज्ञप्तिकी स्थिति चिन्तनीय है।
धवलाका दूसरा उद्धरण तो अवश्य ही ऐसे व्याख्या-प्रज्ञप्तिसे सम्बद्ध है, जो भिन्न परम्पराका होना चाहिये । किन्तु वीरसेन स्वामीके द्वारा प्रमाण रूपसे उद्धृत किया गया वाक्य उस व्याख्या-प्रज्ञप्तिका होना चाहिये जिसे वह मान्य करते थे और वह व्याख्या-प्रज्ञप्ति शायद वही हो जिसे पाकर उन्होने सत्कर्मकी रचना की । और जिसे पांच खण्डोमें मिलाकर वप्पदेवगुरुने छै खण्ड निष्पन्न किये। शायद उस व्याख्या-प्रज्ञप्तिकी रचना वप्पदेवने की हो । किन्तु वह व्याख्या प्रज्ञप्ति षड्खण्डागमकी टीका नही थी। एक बात और भी चिन्तनीय है । इन्द्रनन्दिने लिखा है
'व्यलिखत प्राकृत भाषा रूपा सम्यक् पुरातन व्याख्याम्' इसका सीधा सा अर्थ होता है-'प्राकृत भाषा रूप प्राचीन व्याख्याको सम्बद्ध रूपमें लिखा' लिखानेका अर्थ रचा भी हो सकता है किन्तु व्याख्याके साथ लगा 'पुरातन' विशेषण बतलाता है कि वप्पदेवगुरुने किसी प्राकृत भाषा रूप
१. 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया ण भते । कइ भागावसेसाउया पर भवियाउय पकरति ?
गोयमा । पचिंदियतिरिक्ख जोणिया दुविहा पन्नत्ता त जहा-सखेज्जवस्साउया असखेज्ज वस्साउया। तत्य ण जे ते असोज्जवस्साउया ते नियमाच्छम्मासावसेसाउया पर भवियाउय पकरति । तत्थ ण जे ते सखिज्जवस्साख्या ते दुविहा पण्णत्ता सोवक्कमाउया य निरुववक्कमाउया य। तत्थ ण जे ते निरुवक्कमा ते नियमा ति भागावसेसाउया पर भवियाउय पकरति। तत्थ ण जे ते सोवक्कमाउया ते ण सिय ति भागावसेसा परभवियाउय पकरति सिय तिभागा तिभागे परभवियाउय पकरति । सिय तिभाग तिभागावसेसाउया परभवियाउय पकरति । एव मणुस्सा वि ।'
-प्रज्ञा०, पद ६। 'व्याख्याप्रज्ञप्तिदण्डकेपु शरीरभगे वाप्पोरौदारिक वैक्रियिक तैजस कार्मणानि चत्वारि शरीराण्युक्तानि'-पृ० १५३-१५४ 'एव हि व्याख्या-प्रज्ञप्ति दडण्केपूक्तम्विजयादिषु देवा मनुष्य भवमास्कन्दन्त. कियतीर्गत्यागति. विजयादिपु कुर्वन्ति इति गौतम प्रश्ने भगवतोक्त जघन्येनैको भव आगत्या उत्कर्पण गत्यागतिभ्या द्वौ भवौ।' -त वा, पृ २४५ ।
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जयधवला-टीका . २८३ प्राचीन व्याख्याको सम्यक्पसे लिखा था। इस सम्बन्धमें एक बात और भी उल्लेखनीय है। ___ इद्रनन्दिने जहाँ अन्य टीकाकारोके लिये 'रचितानि' रचिता, 'व्याख्यामकृत्' 'विरचितवान्', जैसे रचनापरक शब्दोका प्रयोग किया है वहाँ अकेले वप्पदेवके लिये 'व्यलिखत्' शब्दका प्रयोग किया है।
यह भी अभिप्राय निकल सकता है कि वप्पदेवने किसी पुरातन व्याख्याको प्राकृत भाषामें लिखा हो और ऐसी स्थितिमें तुम्बुलूराचार्यके द्वारा कर्नाटक भाषामें रची गयी महती चूडामणि व्याख्या की ओर ही दृष्टि जाती है। क्योकि वही सबसे विशाल टीका थी और पुरातन भी थी।
धवला टीकामें तो वप्पदेव और उनकी किसी टीकाका संकेत तक नही है । किन्तु जयधवलामें वप्पदेवके द्वारा लिखित उच्चारण-वृत्तिका निर्देश मिलता है। यह उच्चारण-वृत्ति यतिवृषभके चूणिसूत्रोपर थी। वीरसेन स्वामीने भी वप्पदेवके साथ 'लिहिद' ( लिखित) शब्दका ही प्रयोग किया है, साथ ही उन्होने अपने द्वारा लिखी हुई उच्चारणाका निर्देश किया है। किन्तु वीरसेन स्वामीने यतिवृषभके चूर्णिसूत्रोपर कोई उच्चारण-वृत्ति रची थी, इसका कोई उल्लेख नही मिलता ऐसी स्थितिमें 'रचित'के स्थानमें 'लिखित' शब्दका प्रयोग अवश्य ही कुछ विशेष अर्थ रखता है ।
धवला टीकासे इस वातका कोई आभास नही मिलता कि वीरसेन स्वामीके सामने धवला टीका लिखते समय षट्खण्डागम सूत्रोकी कोई टीका उपस्थित थी । परिकर्मका उपयोग तो उन्होने किया है। किन्तु यह नही लिखा कि यह सूत्रोका व्याख्या-ग्रन्थ है। इस परिकर्मके सिवाय अन्य किसी ऐसे ग्रन्थका या ग्रन्थसम्बन्धी सकेतका विवरण नही मिलता जिसे व्याख्या ग्रथ कहा जा सकता है।
दो स्थलोपर उन्होने 'केसु वि सुत्तपोत्थएसु'२ लिखकर यह सूचित किया है कि उनके सामने षट्खण्डागम सूत्रोकी अनेक प्रतियाँ थी, जिनमें कुछ पाठ भेद थे। किन्तु व्याख्या पुस्तकोके सम्बन्धमें इस प्रकारका कोई उल्लेख हमारे देखने में नही आया ।
हाँ, अपने कथनकी पुष्टि करते हुए उन्होने 'आचार्य परम्परासे आगत उपदेशसे ऐसा जाना' या 'सूत्रसे अविरुद्ध आचार्यवचनसे ऐसा जाना' इस प्रकार
१ 'चुण्णि सुत्तम्मि वप्पदेवाइरियालिहिदुच्चारणा ए च अतोमुहुत्तमिदि भणिदो। अम्हे
लिहिदुच्चारणाए पुण- क पा, भा. ३, पृ. ३९८ । २ षट्ख , पु ८, पृ ६५ । पु. १४, पृ १२७ ।
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२८४ : जैनसाहित्यका इतिहास अनेक स्थलोपर कहा है । एक स्थानपर ऐसा भी लिखा है कि 'आचार्य परम्परा से आगत सूत्रसे अविरुद्ध व्याख्यानसे ऐसा जाना ।' सत्कर्मपजिका
धवलागत षट्खण्डागमके अतिम खंड सत्कर्मपर एक पजिका है जिसका पूरा नाम सत्कर्म-पजिका । यह पंजिका मूडविद्रीके उसी सिद्धान्तवसति मन्दिरके शास्त्र भण्डारसे प्राप्त हुई है, जिससे धवला, जयधवला और महावधको ताडपत्रीय प्रतियाँ उपलब्ध हो सकी । वहाँ महावन्धकी जो ताडपत्रीय प्रति है उसके प्रारम्भके २७ पत्र इसी सत्कर्म पंजिकाके है । यह पजिका सत्कर्मके अन्तर्गत अट्टारह, अनुयोगद्वारोमें से केवल आदिके चार ही अनुयोगद्वारो पर है। चौथे उदय अनुयोग द्वारके अन्तमें 'समाप्तोयमुद्ग्रन्थ' ऐसा लिखा है । फिर कन्नडी पद्योमें एक छोटी सी प्रशस्ति है।
यह पजिका किसने कब रची थी इसका कोई सकेत अभी तक प्राप्त नही हो। सका । यह भी ज्ञात करनेका कोई साधन नही मिला कि रचयिताने इतना ही। अश रचा था या पूरे सत्कर्मपर अपनी पजिका-वृत्ति रची थी।
पजिकाके आदिमें जो गाथा है उसका भी केवल उत्तरार्द्ध ही प्राप्त हो । सका है
'वोच्छामि संतकम्मे पंचि ( जि ) यरूवेण विवरण सुमहत्थ ॥१॥'
इसमें सत्कर्मपर पजिका रूपसे 'सुमहथं' विवरण लिखनेकी प्रतिज्ञाकी गयी है। यहाँ विवरणका 'समुहत्थ" विशेषण उल्लेखनीय है। सप्ततिका की प्रथम गाथामें भी सप्तप्तिकाकारने सिद्धयएहि महत्थ' लिखकर अपनी कृतिको 'महार्थ' बतलाया है । और चूर्णिकारने महार्थका अर्थ-'निपुर्ण, गम्भीरं दुरवगाह पयत्थ वित्थार विसय किया है । अर्थात् जिसमें दु.खसे अवगाहित करने योग्य पदार्थोका विस्तार हो उसे महत्थ या महार्थ कहते है ।
चन्द्रषिने भी अपने पञ्चसग्रहकी प्रथम गाथाके उत्तरार्धमें उसे 'महत्थ' कहा है और उसका अर्थ किया है-'जिसमें महान् अर्थ हो उसे महार्थ कहते है।' उक्त गाथाशसे चन्द्रर्षिकी गाथाका उत्तरार्ध मेल खाता है
'वोच्छामि पचसग्रहमेय महत्थ जहत्यं च ॥१॥' अत. पजिकाकारने जो अपने पजिकारूप विवरणको 'महार्थ' ही नही सुमहार्थ
'कुदो णव्वदे ? आइरियपरपरा गय सुत्ताविरुद्धवक्खाणादो'-पु १३, पृ ३१० । २ इसका उपलब्ध भाग पट्खण्डागमके १५ के खण्डके साथ उकके अन्तमे मुद्रित हो
गया है।
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जयधवला-टीका : २८५ कहा है उससे प्रकट होता है कि उनका यह पजिका रूप विवरण दुर्-अवगाहित पदार्थोके विस्तार को लिये हुए है। और उससे यह भी प्रकट होती है कि पंजिका काम पूरे सत्कर्म पर उसे रचनेके विचारसे ही आरम्भ किया था। वह अपने इस महान कार्यको पूर्ण करनेमें सफल हुए अथवा मध्यमें ही किसी देवी विघ्नके कारण उनका यह कार्य अधूरा ही रह गया, यह भी निर्णयात्मक रुपसे कह सकना संभव नहीं है । किन्तु इतना निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि यदि यह पजिका पूर्ण उपलब्ध हो सके तो वह भी एक महत्वको कृति मानी जायेगी।
वीरसेनस्वामीके अनुसार वृत्तिसूत्रोके विषम पदोको खोलनेवाले विवरणको पजिका कहते है। पजिका रूप विवरणमें पूरे ग्रन्थोका व्याख्यान नही होता किन्तु उसके कठिन और गम्भीर स्थल होते है, उनका खुलासा होता है। तदनुसार पजिकाकारने वीरसेन स्वामी कृत सत्कर्मके वाक्योको ले कर उनका खुलासा किया है । वह खुलासा केवल शब्दार्थरूपमें अथवा पदच्छेद रूपमें नही किया है किन्तु वाक्यसे सम्बद्ध विषयके सम्बन्धमें विवेचन भी किया है और उसके अवलोकनसे प्रकट होता है कि पजिकाकार अपने विपयके अधिकारी विद्वान थे और उन्हें एतत्सम्बद्ध प्राप्त विपयका अच्छा अनुगम था। __उनकी यह पजिका घवलाकी तरह ही प्राकृत गद्य में है। और उसीकी शैलीको लिये हुए है यथा स्थान मतान्तरोका भी निर्देश है और मतान्तर तो मौलिक प्रतीत होते है।
पजिकाको आरम्भ करते हुए लिखा है
महाकर्मप्रकृति-प्राभृतके कृति, वेदना, आदि चौबीस अनुयोगद्वारोमें से कृति और वेदना अधिकारका वेदना-खण्डमें, स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन अनुयोग
१ 'वित्तिसुत विसम पय माजियाए पजिय ववण्सादो।-क० पा०४० १४।। २ महाकम्म पयडिपाहुडस्स कदि-येदणामओ (इ) चउन्वीस मणियोगद्दारेसु तत्थ कदि
वेदणात्ति जाणि आणियोददाराणि वेदणाखडम्मि, पुणो प [पस्स-कम्म-पयडि-वधणत्ति] चत्तारि अणिओगरेसु तत्थवधावधणिज्जणामाणि योगेहिंसह वग्गणाखडम्मि, पुणो वधविधाण णामाणियोगद्दारो महाबधम्मि, पुणो वधगाणियोगो खुद्दावधम्मि च सप्पवचेण परू विदाणि । पुणो तेहितोसेसहारसाणियोगद्दाराणि सतकम्मे सव्वाणि परू वि दाणि । तोवि तस्साइ गभारत्तादो अत्थ विसम पदाणमत्थे थोरत्ययेणपजियसरूवेण मणि स्सामो। त जहातत्थ पढमाणिोगद्दारस्स णिबधण [स्म] परूवणा सुगमा। णवरि तस्स णिक्खेओ छन्विह सरूवेण परूविदो । तत्य तदियस्सदव्वणिक्खेवस्स सरूव परूवण? आईरियो एवमाह--पटख०, पु. १५, स०प० पृ०१।
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२८६ : जेनसाहित्यका इतिहास
हारोगे वन्य तथा नगनीय
अनुयोगद्वार वनागली, कम्प-विधान नामक अनुयोगहर महानयमे और बम्पक-अनुयोगवा गुद्दाबन्धमे विस्तार प्रपण अनुगोगारीका कपन गाम किया ।
प
किया। इनके गिना
नया
फिर भी उसके अत्यन्त गम्भीर होने
इस प्रकार परिकारका पूरे
हो महाप्रकृति के नोोग अनुगोगद्वारों में किसी अनुयोगवाया पचन किया गया यह बताते हुए, अपनी पंजिकाका आमा किया है जो इस प्रकार है
उनमेने, प्रथम अनुयोगवहार ना कथन सुगम है । किन्तु उनका निक्षेप छ प्रकारने कहा है उनमे में तीग पनि कथन करने के लिए आचार्यने ऐसा कहा है । उगका अर्थ कहते है ।
इन तहगत व्यायामको उत्पानिया के साथ उद्धृत करके व्याख्यान किया है।
धन नरह तत्कर्मके व्याग नाक्यको उत्थानका गाय उद्घृत करके पारगान किया है । सत्कर्मके उपक्रम अनुयोग वीरमेन स्वामीने लिगा है कि इन नारो ही वन्यनोपक्रमो का अर्थ जैगा संतकम्मा कहा है ना ही कहना चाहिये । न मे आगत गतम् पाहूपर प्रकाश टाउने हुए पजिकामें लिगा है - संतकम्म पाकुड कोन गा है ? महाकर्मप्रकृति प्राभृतके नोनोस मनुयोगद्वारोमेरो दूसरा अधिकार वेदना है। उनके सोलह अनुयोगद्वारोमें से चौथे, छठे और गातवें अनुयोगद्वार द्रव्य-विधान, काल-विधान और भाव-विधान है । तथा महाकर्मप्रकृति प्राभृतका पाच अधिकार प्रकृति नामक है। उसमें चार अनुयोग द्वार है उसमें गाठो कर्मों के प्रकृति-सत्य, स्थिति गत्व, अनुभाग सत्व और प्रदेश सत्वका कथन करके उत्तर प्रकृति सत्य, उत्तर स्थिति सत्व, उत्तर अनुभाग-सत्व और उत्तर प्रदेश- सत्वको सूचित किया है । इनको संत कम्मपाहुड कहते हैं । तथा मोहनीयको सत्ताका कथन करनेवाला कसायपाहुड भी हैं । इस तरह धवला में निर्दिष्ट सतकम्म- पाहुडका भी सुलासा पंजिकाकारने किया है ।
सत कम्मपालुट नाम कथ (द) मं ? महाकम्मपयटिपाहुडरस चडवीसमणियो। द्वारेसु विदियाहियारो वेदणा णाम । तस्स सोलम अणियोगद्वारेसु चउत्य-हट्ठम सत्तमाणियोगद्वाराणि दव्वकाल भावविहाण णामधेयाणि । पुणो तहा महाकम्म पयडी- पाहुडस्सपचमो पयटी णामहियारो । तत्थ चत्तारि अणियोगद्वाराणि अट्ठ कम्माण पयडि ट्ठिदि; अणुभागप्पदेस सत्ताणि परूविय सुनिदुत्तर पयडिं ठिदि-अणुभागप्पदेससत्ताद । एवाणि सत्त ( सत) कम्मपाहु णाम । मोहनीय पडुच्च कसाय पाहुड पि होदि । स० पं०, पृ० १८ ।
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जयधवला-टीका २८७ 'एत्य चोदगो भणादि' 'ण एस दोसो' जैसे वाक्यो के द्वारा पजिकाकारने आवश्यकतानुसार यत्र-तत्र शका-समाधान भी किया है । और 'केइ एव भणति' तत्य एक्कुवदेसेण' 'अण्णेक्कुवदेसेण' जैसे पदो और वाक्योंके द्वारा विवक्षित चर्चाओके सम्बन्धमें विभिन्न आचार्यों के मत दिये है। तथा उन मतोमें कौन ठीक है ? इसका उत्तर भी धवलाकारकी तरह ही दिया है-'उपदेश प्राप्त करके दोनोमें से एकका निर्णय कर लेना चाहिए। एक जगह लिखा है-'इन दोनो उपदेशोमें कैसे वैशिष्ट्य नही है ? नही जानता, उसे श्रुतकेवली जानते है । किन्तु मुझे बुद्धिसे ऐसा प्रतिभासित होता है ।
एक जगह लिखा है-'ये परस्परमें विरोधी दो प्रकारका स्वामित्व क्यों कहा ? अभिप्रायान्तर बतलानेके लिए कहा है और फिर उस अभिप्रायान्तरको स्पष्ट भी किया है।
एक जगह लिखा है कि-'भोगभूमिमें कदलीघात होता है एक मतसे ऐसा है । और भोगभूमिमें आयुका घात नही होता ऐसा कहनेवाले आचार्योंके मतसे पूर्वप्रकार है।' यहाँ भोगभूमिमें कदली-घात मरणवाला हमारे देखने में अन्यत्र नही आया सत्कर्मके उदयानियोगद्वारमें प्रदेशोदयके स्वामित्वका कथन करते हुए धवलाकारने लिखा है-'उत्कृष्ट स्वामित्वमें पांचो सहननोका उत्कृष्ट प्रदेशोदय किसके होता है ? सयमासयम-गुणश्रेणि, सयम-गुणश्रोणि और अनन्तानुबन्धी विसयोजन गुणश्रेणि, इन तीनोको एकत्र करके स्थित सयतके जब पूर्वोक्त तीनो गुणश्रेणि शीपं उदयको प्राप्त होते है तब पांचो सहननोका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है।'
१ 'तदो उवदेस लद्ध ण दोण्हमेक्कदर णिण्णवो कायव्वो,'–स. प, पृ० ४ । २ एदेसि
दोण्ह मुवदेसेसु कध मविसिट्ठमिदि चेण्णेव जाणिज्जदे, त सुदकेवली जाणिज्जदि । किंतु पढमतर परूवणाए विदियतर परूवण अत्यविवरणमिदि मम मइणा पडिभा
सदि।-पृ० २४। ३ किमढ़ दुप्पयार सामित्तमण्णोण विरोध परूविद ? अभिप्पायतरपयासणठ्ठ परूवि
दत्तादो'-पृ० ८०। _ 'भोगभूमीए कदली घातमथि त्ति अभिप्पायेण । त चेद । पुणो भोग भूमीए आउगस्स
घाद पत्थि त्ति भणताइरियाण अभिप्पाण्ण पुव्व ।'-पृ० ७८ । ५. 'पचण्ह सहडणाण उक्कस्स पदेसोदयो कस्स? सजमासजम सजम अणताणुबधि वि
सयोजण गुणसेढीओ तिण्णि वि एगठ्ठ कादूण टिठदसजदस्स जाहे पुन्वत गुणसेढि सीसयाणि तिण्णि वि उदयभागदाणि ताहे पचण्ह सहडणाण उक्कस्सो पदेसोदओ।'पृ० ३०१।
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२८८ . जैनसाहित्यका इतिहास
इसकी पंजिकामें लिखा है-'इससे पांचो सहननो के उदयवाले जीवोंके दर्शनमोहको क्षपण करनेकी शक्ति नहीं है, ऐसा कथित होता है । तथा वज्रनाराच और नाराच सहननके उदयवाले जीवोको भी उपशमश्रेणि चढना सभव नहीं है यह भी इसमे ज्ञापित कर दिया। यदि ऐसा है तो पूर्वापर विरोध क्यो नही आता? नही आता, यह आचार्यों के अभिप्रायोका सूचक होनेसे ग्रन्थान्तर ( मतान्तर ) है। वह अभिप्राय' कहते है इनका उदय पुद्गल-विपाकी है। वे पुद्गल जीवोके रागद्वेषोके उत्पादनमें निमित्तभूत शक्तिको उत्पन्न करते हैं। जैसे वाह्य पुद्गलोके........वैसे उपगम श्रेणीमें रागद्वेषको उत्पन्न करानेमें समर्थ नही है । अत' उनके फलके अभावको अपेक्षासे उपशमणिमें उनका उदय नहीं है, यह सूचित किया। अन्य अन्योंमें प्रदेश-निर्जरा मात्रकी विवक्षा करके उदय कहा है । अथवा वज्रनाराच और नाराच संहननवालोंके उपशमणि चढनेकी शक्ति नहीं है, ऐसा अभिप्राय कहना चाहिये।'
मागे एक जगह पुन इमी चातको दूसरे प्रसगसे इस प्रकार लिखा है'अन्तिम पांच सहनन असंन्यात गुने हैं। दो प्रकारके सयम गुणणि शार्प और उनसे गुणित अनन्तानुवन्धी विसंयोजन गुणोणिशीर्ष, इन तीनोको एकत्र करके नामकर्म सम्वन्धी अट्ठाईस अथवा तीस प्रकृतिक स्थानसे भाग देनेपर होता है । दर्शनमोहक्षपक-गुणधेणिका ग्रहण क्यो नही किया ? इन सहननोंक उदयसाहत जीवोके दर्शनमोहको क्षपण करनेकी शक्ति नही है। इस अभिप्रायसे उसका ग्रहण नही किया। दूसरे और तीसरे सहननवालाकी उपशान्त-कषाय गुण श्रेणिका ग्रहण क्यो नही किया जिनके दर्शन मोहको क्षपण करनेकी शान अभाव है उनके उपशम श्रेणिपर चढनेकी शक्तिके होनेका विरोध है इस आभप्रायसे नही किया। यदि ऐसा है तो मनन्तर ही बीती उदीरणास्थान प्रा विरोध • क्यो नही माता? विरोध तो आता है किन्तु ग्रन्थान्तरका आमा
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'एदेण पचण्ट संरडणाणमदरल्लाण पि उसमविचटण सभव णत्यिति जाणाविद । जाद एवं [तो पुवावरविरोही (हो) किं भवे? वा भवे, गंधातर माइरियाणसामपायाण सूचयत्तादो । तं फथ ? अभिप्पाय उच्चदे-देति मुदयो पोग्गल विवाग करोदि । ते पोनला जीवाण रागदोतागमप्पयागणिमित सत्तिमुप्पादयति । जहावार पोग्गलाणं सत्ते वियप्पो (1) हा उपसमतेढ़ ए राग-दोसमुप्पाएदु, ज्जदि ति । तदो तप्फलाम (भा) वावक्ताए उदओ उक्सम सैदिए णात्य दरगत पदेसणिज्जरामत्त विवक्लिय भणिद। महवा उसमताद चढतता त्यित्ति पदनभिप्पायमिद म (भा) विदम्ब ।'
-सं०प०, पृ०७६ ।
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जयधवला - टीका : २८९
होनेसे दोनोका ग्रहण करना चाहिये, ऐसा परिहार पहले ही कर दिया है ।"
गोम्मटसार े कर्मकाण्डके उदय प्रकरणमें नेमिचन्द्राचार्यने भूतवलि तथा यतिवृषभ दोनो आचार्योंके मतसे जो प्रत्येक गुणस्थानमें उदयसे व्युच्छिन्न होनेवाली कर्म प्रकृतियाँ बतलायी हैं दोनो हो मतोके अनुसार उनमें वज्रनाराच सहनन और नाराच सहननका उदय ग्यारहवें उपशान्तकषाय गुणस्थान तक बतलाया है । अत' पट्खण्डागम और कसायपाहुड दोनोंके मतोसे उक्त दोनो सहनन वाले जीव उपशम श्रेणी चढ सकते है और जव उपशम-श्रेणी चढ सकते है तो दर्शनमोहनीयका क्षपण भी कर सकते है । अत पजिकाकारके द्वारा निर्दिष्ट उक्त मत इन दोनो ग्रन्थोका तो नही जान पडता । यह ग्रन्थान्तर कोई दूसरा ही होना चाहिये । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें यद्यपि उक्त दोनों मत मिलते हैं । किन्तु
हुमान्य मत यही है कि दूसरे तीसरे संहननवाले उपशमश्रेणि नही चढ सकते, दिगम्बर परम्पराको जो मत मान्य है उसका उल्लेख वहाँ मतान्तरके रूपमें किया गया है । किन्तु चन्द्रषिने पञ्चसग्रहकी स्वोपज्ञ टीकामें केवल इसी मतको मान्य किया है कि दूसरे तीसरे सहननवाला उपशमश्रेणि चढ सकता है । उसीके दूसरे टीकाकार मलयगिरि ने ग्रन्थकार चन्द्रविको मान्य मतका निर्देश 'अन्ये' कर के किया है और नही चढनेवालो' के मत को मान्य स्थान दिया है । इसीसे यह प्रकट होता है कि सम्प्रदाय-मान्य मत यही है कि दूसरे तीसरे सहननवाले उप
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१. " पुणोवि अंतिम पत्रस हडणाणि असखेज्ज गुणाणि । कुटो ? दुविह सजमगुणसेढिसीससमहिंयमताणुवधि विसयोजयण गुणसेढिसीसयाणित्ति तिणिवि एगट्ठ काऊण णामकम्मसवधीण अट्ठावीसेण वा तीसेण वा भजिदमेत होदि ति । किमट्ठ दंसणमोहक्खवण गुणसेढीण घेप्पदे ? ण, त खवण (तक्खवण) सत्ती एदेसि संहंडणाण उदयसहिदजीवाण णत्थि त्ति अभिप्पयादो । विदिय-नदियमिदि दोन्ह सहडणाण उवसतकसायगुणसेढि किं ण गहिदा ? ण, दसणमोहक्खवणा सत्तिविरहिदाण उवसमसेढि चडणसत्तीण संभव विरोहो होदित्ति अभिप्पाएण । जदि एव ( तो ) अणतपदिक्कत उदीरणाणपरूवणाए ण मियूणेण ( ? ) च विरोहो किंण भवे ? होदि विरोहो, गथतराभिप्पाएण दोन्ह पि गहण कायन्व इदि पुव्व चैव परिहार दिण्णत्तादो ।" स० प०, पृ० ७९ ।
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२. 'सते वज्ज णारायणाराय' || २६९|| 'गो० क०
३ - 'अण्णे भणति ति सयणो उवसमसेढि पडिवज्ज इत्ति' - सि० चू०, पृ० ४९ । 'अन्ये त्वाचार्या न वते - आधसहननत्रयान्यतमसहननयुक्ता अप्युपशमश्रेणी प्रतिपद्यन्ते ।' सप्त० टी० पृ० २३३ ।
४ 'अपूर्वकरण वादर सूक्ष्मोप शान्तेषु प्रत्येक त्रिंशदुदयो भवति, द्वासप्तति भङ्गा, यतस्तेषु सहननत्रस्यैवोदयः । प०स० स्वो० टी० पृ० ३१८ । अन्ये त्वाचार्या ब्रुवते - आद्यसहननत्रयान्यतम सहनन युक्ता अपि उपशमश्र णिं प्रतिपद्यन्ते, तन्मतेन भङ्गा द्विमप्तति । प० स०टी०, भा० २, पृ० ३२५ ।
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२९० : जैनसाहित्यका इतिहास
शम श्रेणि नही चढ सकते । पजिकारको भी यही मत मान्य प्रतीत होता है। रचनाकाल__ जैसा कि प्रारम्भमें लिखा है, पजिकाके इस अन्त:-निरीक्षणसे ऐसा प्रतीत होता है कि उसके रचयिताको पट्खण्डागम सिद्धान्तका तो अच्छा ज्ञान था ही, साथ ही सत्कर्ममें वीरसेनस्वामी के द्वारा सगृहीत किये गये शेष अनुयोगोका तथा कसायपाहुडका भी अच्छा ज्ञान था और उनकी लेखन शैली भी वीरसेन स्वामीसे निम्न स्तरकी नही थी। फिर भी उसे हम वीरसेनस्वामीकी समकक्षता तो नही ही दे सकते । हाँ, जयधवलाको पूर्ण करनेवाले जिनसेन की समकक्षता अवश्य दे सकते है । इससे ऐसा लगता है कि यह पंजिका वीरसेनके ही किसी शिष्य या प्रशिष्यके द्वारा रचित हो सकती है ।
पंजिकामे उद्धरण भी दो तीनसे अधिक नही है। उनमें तीन गाथाएँ तो कसायपाहुडकी है उनके साथमें कसायपाहुडगाथासुत्त' लिखा हुआ है । एक गाथा ऐसी है जो दिगंबर प्राकृत पचसंग्रह की है । अत इन उद्धरणोसे भी हमरे उक्त अनुमानको कोई बाधा नहीं आती है ।
प्रक्रम अनुयोगके अंत में अल्प-वहत्वका प्रतिपादन कर के वीरसेन स्वामीने 'एसोणिक्खेवाइरिय उवएसो' लिखकर उसे निक्षेपाचार्य उपदेश बतलाया है उसकी पजिकामें पजीकारने लिखा है-स्थिति-अनुभागोमें प्रक्रमित कर्मद्रव्यका अल्पबहुत्व तो ग्रन्थ सिद्ध होनेसे सुगम है इसलिए उसका कथन न कर के स्थितिनिषेक प्रति प्रक्रमित अनुभागका अल्पबहत्व निक्षेपाचार्यने ऐसा कहा है। और लिखकर निक्षेपाचार्यका कथन बतलाया है फिर उसकी उपपत्ति भी पजिकाकारन दा हैं उनका यह सव प्रतिपादन दो पृष्ठसे भी अधिक है। अन्तमें लिखा हैइसप्रकार स्थितिके अनुसार अनुभाग अनतगुण हीन रूपसे वधको प्राप्त होते हैं यह निक्षेपाचार्यके वचन सिद्ध हुए' पश्चात् 'सेसाइरियाणमभिप्पायेण' लिखकर शेष आचार्योका अभिप्राय बतलाया है। इससे प्रकट होता है कि वीरसेनस्वामीन जिस निक्षेपाचार्यके उपदेशका उल्लेख किया है. पजिकाकार उसके उपदेशसे भी अच्छी तरह सागोपाग परिचित थे। जगह-जगह पजिकामें अपने कथनके समर्थनम
१. पु १५, पृ ४०। २ 'पुओ हिदि-अणुभागेसु पक्कमिदकम्मदव्वस्स अप्पाबहुग गंधसिद्ध सुगममिदि तमरू
विय पुणो ठिदिणिसेयप्पडि पक्कमिगाणुभागस्सघाबहुग णिक्खेवाइरियेण एव परूविंद' - - स प. पृ १४ । ३. 'एव ठिदिअणुसारेण अणु भागा अणत गुणहीणसरूवेण वज्जति ति णिक्खेवाइरियवयण सिद्ध-सं पं, पृ १७ ।
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प्राचीन कर्मसाहित्य : २९१ 'आष' और 'आर्षवचन'का निर्देश किया गया । बातोसे भी हमारे उक्त अनुमानका ही समर्थन होता है । वह व्यक्ति कौन हो सकता है, यद्यपि यह कहना शक्य नहीं है । किन्तु धवलाकी प्रशस्तिके अन्तमें एक गाथा इस प्रकार है
वोद्दणराय गरिदे णरिद चूडामणिम्हि भुजते । सिद्धतगथमत्थिय गुरुप्पसाएण विगत्ता सा ॥९॥
यहाँ यह बतला देना उचित होगा कि धवला प्रशस्तिकी इससे पूर्वकी गाथाओमें 'कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिया धवला' लिखकर धवलाकी समाप्तिका काल और जगत्तुगदेवके राज्यमें धवलाकी. समाप्तिका कथन किया जा चुका है। इसीसे उसके पश्चात् ही दूसरे राजाके राज्यका उल्लेख बडा अटपटा लगता है और उसकी सगति बैठानेके लिए यह कल्पना की जाती है । कि जगत्तु ग' के राज्यमें धवलाका प्रारम्भ हुआ और नरेन्द्रचूडामाणि वोद्दणराय (अमोघवर्ष प्र० के राज्यमें उसकी समाप्ति हुई। किन्तु यह सब उक्त अन्तिम गाथाके आये हुए अतमें 'विगत्ता' शब्दपर ध्यान न देनेका फल है । 'विगत्ता' शब्द अशुद्ध प्रतीत होता है । 'वि' उपसर्ग पूर्वक कृत् धातुसे कृदतमें 'विगत्ता' बनता है। उसका अर्थ होता काटा हुआ या छिन्न उससे यहा कोई प्रयोजन नही है। अतः 'विगत्ता के स्थानमें 'विअत्ता' पाठ शुद्ध प्रतीत होता है। उसका अर्थ होता है-व्यक्ता अर्थात् स्पष्ट की गयी। अत नरेन्द्रचूडामणि बोद्दणराय नरेन्द्रके राज्यकालमें धवला या उसके किसी अशको जिसने व्यक्त किया उसीके द्वारा यह पद्य रचा जान पडता है । और पीछेसे वह मूल प्रशस्तिके अन्तमें जोड़ दिया गया है । इस तरहकी यह घटना नई नही है । ऐसे और भी उदाहरण मिलते है ।
वीरसेनके शिष्य गुण भद्रके उत्तरपुराणको अन्तिम प्रशस्तिमें गुणभद्र शिष्य लोकसेनकी प्रशिस्त जुड गयी है । जिनसेनके पावर्वाभ्युदयका निर्देश हरिवशपुराण में है जो शक स० ७०५ रचा गयाथा और पाम्युिदय के अन्तमें अमोघवर्षका उल्लेख है जो शक स० ७३५ के पश्चात् गद्दीपर बैठे। अत स्पष्ट है, कि अमोघवर्पके उल्लेखवाले पद्य उसमें पीछेसे जोडे गये। इसी तरह धवलाकी
१. जै० सा० इ०, पृ० १४७ । २. जै० सा० इ०, पृ० १४२ । ३. 'या मिताभ्युदये पावजिनेन्द्र गुणस्तुति । स्वामिनो जिनसेनस्य कीर्ति सकीनं यत्यसौ
||४०॥ द० पु. १०प्र० । ४. 'इति विरचित मेतत् कान्यमावेष्टय मेघ बहुगुण मपदोष कालिदास्य काव्यम् ।
मलिनित परकाव्य तिष्ठता दशशाङ्क भुवनमवतु देव सर्वदाऽमोघवर्ष ॥-पाश्र्वा०
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२९२ : जैनसाहित्यका इतिहास
प्रशस्तिकी उक्त गाथा भी पीछेसे उसमें जोडी गयी जान पडती है । यदि वोद्दणराय यथार्थ में अमोघवर्ष प्रथम है तो कहना होगा कि पजिकाकी रचना वीरसेनके सामने अथवा उनके स्वर्गवासके पश्चात् तत्काल ही हो गयी थी । जयधवलाकी अन्तिम प्रशस्ति में वीरसेनके शिष्य जिनसेनने श्रीपाल, पद्मसेन, और देवसेन नाम के तीन विद्वानोका उल्लेख किया है । उनमेसे श्रीपालको तो उन्होने अपनी टीका जयधवलाका सम्पालक कहा है ये तीनो उनके गुरुभाई जान पडते है सम्भवतया उन्ही में से किसीने पजिकाका निर्माण किया हो ।
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चतुर्थ अध्याय
अन्य कर्मसाहित्य छक्खडागम, कसायपाहुड आदि मूल आगमग्रन्थोके अतिरिक्त कर्मविषयक अन्य प्राचीन साहित्य भी उपलब्ध है । यह साहित्य मूल आनुगमानुसारी है और इसका रचनाकाल विक्रमकी पांचवी शताब्दीसे लेकर विक्रमकी नवम शताब्दीतक है। यद्यपि कर्म-विषयक मूल और टीका ग्रन्थों का निर्माण विक्रमकी १५ वी-१६वी शताब्दीतक होता रहा है । पर इस अध्यायमें प्राचीन कर्म-साहित्य का ही इतिवृत्त प्रस्तुत है। यहाँ पर कर्म-प्रकृति, वृहत्कर्म-प्रकृति, शतकचूणि, सित्तरी, कर्मस्तव और प्राकृत-पचसग्रह आदि ग्रन्थोपर विचार किया जारहा है । ___ कर्म-प्रकृिति ग्रन्थको सर्वाधिक प्राचीन कहा जाता है । श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इस ग्रन्थपर कई चूर्णि और टीकाएँ भी उपलब्ध है। इसमें सन्देह नहीं कि कर्मप्रकृति प्राचीन ग्रन्थ है और इसका उपयोग दोनो ही परम्पराओंमे होता रहा है। कर्मप्रकृति
इस ग्रन्थमें ४७५ गाथाएँ है । प्राकृत चूणिके साथ मलयगिरिकी संस्कृत टीका भी उपलब्ध है। ग्रन्थपर एक अन्य टीका उपाध्याय यशोविजयजी ने भी लिखी है।
नाम-ग्रन्थाकारने ग्रन्थको अन्तिम गाथामें कहा है कि मैंने कर्म-प्रकृतिसे इसका उद्धार किया है । किन्तु स्वय उन्होंने अपनी इस कृतिको कोई नाम नहीं . दिया' उसीपरसे इसनथका नाम कर्मप्रकृति प्रवर्तित हुमा जान पडता है। किंतु चूणिकारने प्रथम गाथाकी उत्थानिकामें लिखा है कि विच्छिन्न-कर्मप्रकृति महानन्थके अर्थका ज्ञान करानेके लिए आचार्यने सार्थक नामवाला 'कर्मप्रकृति-सग्रहणी' नामक प्रकरण रचा है । उससे ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ का नाम कर्मप्रकृति-सनहणी था । शतकचूर्णिमें तथा सित्तरीचूर्णि* इसी नामसे इसका निर्देश मिलता है। १.-'इय कम्मप्पअडीओ जहा सुय नीय मप्प मइण्णो वि । सोहियणा भोग कर्य कहनु वर
दिट्टी वायन्न ॥५६॥-कर्म प्र०, मत्ता०।। २-'विच्छिन्न कम्मपयडिमहागंस्थत्य संवोहणत्य आरद्ध आयरिण्ण तग्गुणणामग कम्म
पयढी सगहणी णाम पगरण । क० प्र० चू०। ३-'जहा कम्मपडिमगणिए भणियं तहा भणामि,-पृ ४, एयाणि जहा कम्मपयटिमगह णीय ,-पृ. २६ । 'एतासिं अत्यो जहा कम्मपडि सगहणी -पृ० ४३ ।
० चू०। ४.-'उब्वट्टणाविही जहा कम्भपयटी सगहणीए-१० ६१ । 'विमेसपवची जहा कम्म
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२९४ : जैनसाहित्यका इतिहास देवेन्द्रसूरिने अपने नवीन कर्मग्रन्थोकी स्वोपज्ञ टीकामे यद्यपि कर्मप्रकृतिके नामसे ही उसका उल्लेख किया है। तथापि एक स्थल' पर कर्मप्रकृति-संग्रहणी नामसे ही उसका निर्देश किया है । अत ग्रन्थका प्राचीन नाम कर्मप्रकृति-सग्रहणी है । उसीका सक्षिप्त रूप कर्मप्रकृति है। बृहत्कर्म-प्रकृति
नव्य कर्म-ग्रन्थाकार श्रीदेवेन्द्रसूरिने स्वोपज्ञ टीका एक स्थल पर वृहत्कर्मका निर्देश किया है । कर्म विपाक नामक प्रथम ग्रन्यकी सातवी गाथामें उन्होने श्रुतज्ञानके यद्यपि पर्याय पर्याय-समास, आदि वीस भेदोको गिनाया है। शतकचूणिमें भी विल्कुल ऐसी ही एक गाथा उद्धृत है जिसमें श्रुतज्ञानके ये वीस भेद गिनाये गये। श्वेताम्वर सम्प्रदायमें श्रुतज्ञानके ये वीस भेद केवल कामिकोमें ही मिलते है, सैद्धान्तिक पक्ष इनसे भिन्न श्रुतज्ञानके चौदह भेद मानता है और वे ही भेद श्वेताम्बर साहित्यमें वहुतायतसे मिलते है । अस्तु,उक्त गाथा ७ की स्वोपज्ञ टीकामें श्रुतज्ञानके बीस भेदोको संक्षेपसे बतला कर लिखा है कि विस्तारसे जाननेके इच्छुक को 'वृहत्कर्मप्रकति' अन्वेषण करना चाहिये ।
वर्तमान कर्मप्रकृतिमें श्रुतज्ञानके वीस भेदोकी गन्ध भी नही है तथा इस कर्मप्रकृतिका तो देवेन्द्रसूरिने कर्मप्रकृति नामसे ही उल्लेख किया है। अत' यह 'वृहत्कर्मप्रकृति' इस कर्मप्रकृतिसे भिन्न होनी चाहिये । उसकी भिन्नता और महत्ताकी सूचना करनेके लिए ही देवेन्द्रसूरिने उसके नामके साथ 'वृहत्' शब्द जोडा जान पडता है।
किन्तु विक्रमकी १३-१४वी शतीके ग्रन्थकारके द्वारा वृहत्कर्म-प्रकृतिका उल्लेख देखकर उसका आधार खोजते हुए हमें 'शतक' ग्रन्थकी मलधारी हेमचद विरचित टीकामें इस तरहका उल्लेख मिला। उन्होने श्र तज्ञानके बीस भेदोका सामान्य कथन करके विस्तारार्थीको 'वृहत्कर्म चूर्णिका अन्वेषण करनेकी प्रेरणा की है।
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पयडीसगहणीए-पृ० ६३ । 'अन्तर करणविट्टी जहा कम्मपयडीसग्रहणीए -पृ०
६४।-सित० चू०। १. यदुक्त कर्मप्रकृति संग्रहण्याम्-आहारतित्थगहा भज्जति ।-शतक टीका० पृ० ११ २–'विस्तारार्थिना वृहत्कर्म प्रकृतिरन्वेषणीया-स० च० क०, पृ० १९ । ३,–'एवमेते सक्षेपत. श्रुतज्ञानस्य विंशतिर्भदा दर्शिता विस्तारार्थिना तु वृहत्कर्म
प्रकृतिं चूर्णिरन्वेषणीया।-शतक टी० गा० ३८ ।
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अन्य कर्मसाहित्य : २९५ मिलान करनेसे यह तो हमे स्पष्ट हो गया कि देवेन्द्रसूरिका उक्त कथन मलघारी जीको टीकाका प्राणी है । किन्तु चं कि वर्तमान कर्मप्रकृतिकी तरह उसकी चूणिमें भी श्रुतज्ञानके बीस भेदोकी चर्चा नहीं है अत. या तो उन्होने उसमें सशोधन करके 'वृहत्कर्म-प्रकृति' कर दिया या 'चूणि' शब्द लेखक वगैरहके प्रमादसे छूट गया । अत हम नहीं कह सकते कि श्री हेमचन्द्रके उक्त उल्लेसका क्या आधार है और उसमें कहां तक तथ्य है। ___यदि वृहत्कर्म-प्रकृतिसे मतलव अग्नायणीय पूर्वके अन्तर्गत कर्मप्रकृति प्राभृतसे है तो उसमें उक्त वीस भेदोका वर्णन अवश्य था, यह वात पट्खण्डागमसे स्पष्ट है पयोकि उसके वेदनासण्डमें श्रुतज्ञानावरणीय कर्मकी वीस प्रकृतियोको बतलाते हुए श्रुतज्ञानके वीस भेदोंका कथन किया है ।
कर्मप्रकृति विपय परिचय
कर्मप्रकृति की पहली पहली गाथामें सिद्धोको नमस्कार करते हुए ग्रन्थकारने आठो कर्मोके आठ करणो तथा उदय और सत्त्वके कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है। मत इस ग्रन्थम क्रमसे वन्धनकरण, सक्रमकरण, उद्वर्तन, अपवर्तन, उदीरणाकरण, उपशमनाकरण, निधत्ति, निकचना, उदय और सत्त्व इन दस करणोका कथन है ।
कर्मोके आत्माके साथ वधनेकी क्रियाका नाम वधन-करण है । बन्धके दो कारण है योग और कपाय । अत प्रथम योगका कथन किया है। वीर्यान्तराय कर्मके क्षय अथवा क्षयोपशमसे वीर्यलब्धि होती है उस वीर्यलब्धिसे वीर्य होता । उसे ही योग कहते हैं । उसके द्वारा जीव
औदारिक आदि शरीरोके योग्य पुद्गलोको प्रहण करके उन्हें औदारिक आदि शरीर रूप परिणमाता है । तथा श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनके योग्य पुद्गलो को प्रहण करके उन्हें श्वासोच्छ्वास आदि रूप परिणमाता है । योगका कथन दस अधिकारोके द्वारा किया गया है-अविभागप्रतिच्छेद-प्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनन्तरोपनिधा, परम्परोपनिधा, वृद्धिप्ररूपणा, समयप्ररूपणा और अल्पवहुत्व-प्ररूपणा षट्खण्डागमके वेदना खण्डमें बारह अनुयोगद्वारोसे अनुभाग बन्धाध्यवसाय स्थानका कथन करते हुए उक्त कथन कर आये है उक्त दसो अधिकार उसीमें गर्भित है अत उनका यहाँ पुन कथन करने से पिष्टपेषण ही होगा । कसायपाहुडके अनुभागविभक्ति और
१.-पट्ख०, पु० १३, पृ० २६० । २. कर्मप्रकृति, चूर्णि तथा दोनों टीकाओंके साथ है। सन् १९१७ मे जैनधर्म प्रसारक सभा
भावनगर से तथा सन् १९३७ में मुक्तावाई ज्ञान मन्दिर डभोइ (गुजरात)से प्रकाशित ।
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२९६ : जैनसाहित्यका इतिहास
विशेषतया प्रदेशविभक्ति नामक अधिकारोके चूणिसूत्रोमैं भी उक्त विषयोंकी चर्चा है।
गाथा १८-२० के द्वारा जीवके द्वारा ग्रहण योग्य और अग्रहणयोग्य वर्गणाओका निरूपण किया है षट्खण्डागमके वर्गणाखण्डके अन्तर्गत वन्धन अनुयोगद्वारमें इन वर्गणाओ का कथन आया है ।
बन्ध योग्य वर्गणाओका कथन करनेके बाद वद्ध समयप्रवद्वका विभाग आठो मूलकर्मोको उत्तर-प्रकृतियोमें किस प्रकारसे होता है इसका विवेचन किया है। चूर्णिकारने अपनी चूणिमें प्रत्येक उत्तर-प्रकृतिके विभागका कथन विस्तारसे किया है।
प्रदेशवन्ध के बाद अनुभागवन्धका कथन है । चूर्णिकारने चूर्णिमें वे सब अपने अनुयोगद्वार कुछ व्यतिक्रमसे गिनाये है जो षट्खण्डागमके वेदनाखण्ड के अन्तर्गत वेदना-भाव-विधानका कथन करते हुए बतलाये है । कर्मप्रकृति में चूर्णि निर्दिष्ट क्रमानुसार कथन किया है । तत्पश्चात् षट्खण्डागम के वेदनाभाव-विधानके अन्तर्गत जीव समुदाहारके अनुसार ही आठ अनुयोगोके द्वारा जीव समुदाहारका कथन है।
गाथा ६७ का व्याख्यान करते हुए चूर्णिकारने प्रत्येक प्रकृतिकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिमें उत्कृष्ट और जघन्य अनुभागके अल्पबहुत्वका विचार विस्तारसे किया है । अन्तमें लिखा है-'आदि अनादि प्ररूपणा, स्वामित्व, धातिसज्ञा, स्थानसज्ञा, शुभाशुभ-प्ररूपणा, बन्धप्ररूपणा, विपाकप्ररूपणाका कथन जैसा शतकमें कहा है वैसा कह लेना चाहिए।' तत्पश्चात् स्थितिबन्धका कथन किया है। जो जीव स्थान चूलिकाके ही अनुरूप है।
१ 'अनुभाग बन्धज्झवसाणस्स परूवणा कीरति । तस्स इमे अणुतोगदारा। त जहा
अविभागपलिच्छेद परूवणा, वग्गणपरूवणा, (फड्डगपरूवणा), अतरपरूवणा, ठाणपरूवणा, कडगपरूवणा, छठाणपरूवणा, हेवाट्ठाण-परूवणा, समयपरूवणा, जवमज्यपरूवणा उयजुम्णपरूवणा, पज्जवसाणपरूवणा, अप्पाबहुगपरूवणत्ति ।'
क० प्र० च०, पृ० ८५ । २ एत्तो अणुभागबधन्झवसाणाणदाए परूवणदाए तत्थ इमाणि बारस अणियोगद्दाराणि
॥१९७।। अविभागपडिच्छेद परूवणा, ठाणपरूवणा, अतरपरूवणा कदयपरूवणा, ओजजुम्मपरूवणा, छठाणपरूवणा, हेटाहाणपरूवणा, समयपरूवणा, वढिपरूवणा जवमज्मपरूवणा पज्जवसाणपरूवणा अप्पाबहुए त्ति ॥१९८॥-पटख, पु० १२
पृ०८८॥ ३. इदाणि सादि अणादि परूवणा, सामित्त घातिसन्ना ठाणसन्ना सुभासुभपरूवणा बधतो
विवागो य जहा सयगे तहा भाणियन्वा-क० प्र. चू पृ० २४६ ।
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अन्य कर्मसाहित्य • २९७
वन्धनकरणमें १०२ गाथाएं हैं ।
एक कर्मप्रकृति के दलिकोका सजातीय अन्य प्रकृतिरूप सक्रान्त होनेकी क्रियाको सक्रमण कहते है । किन्तु जैसे मूल प्रकृतियोंमें परस्परमें सक्रमण नही होता वैसे ही दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयमें परस्परमें सक्रमण नही होता और न आयु कर्मकी चार उत्तर प्रकृतियोंमें परस्पर सक्रमण होता है । इस सक्रमणके भी बन्धके चार भेदोकी तरह चार भेद है - प्रकृतिसक्रम, स्थितिसक्रम, अनुभागसक्रम और प्रदेशसक्रम । प्रकृतिसक्रमके भी दो मूल भेद है एकैक प्रकृति - संक्रम और प्रकृति-स्थान सक्रम । जब एक प्रकृति एक प्रकृतिमें सक्रान्त होती है तो उसे एकैक प्रकृति संक्रम कहते है । और जब वहुत-सी प्रकृतियों में परस्परमें सक्रमण होता है तो उसे प्रकृतिस्थान सक्रम कहते हैं । कसायपाहुडमें केवल मोहनीय कर्मका ही कथन है, जब कि कर्मप्रकृतिमें आठो कर्मोके सम्बन्धमें कथन है । अत कसायपाहुडके वन्धक महाधिकार के अन्तर्गत संक्रम नामक अधिकारकी २७ से ३९ नम्बर तककी तेरह गाथाएँ अनुक्रमसे कर्मप्रकृति के सक्रम करण नामक अधिकारमें पायी जाती है । यह कहने की आवश्यकता नही कि ये गाथाएं मोहनीय कर्मके प्रकृति स्थानसक्रम से सम्बद्ध हैं । यहाँ हम तुलना के लिए दोनो ग्रन्थोसे उक्त गाथाओको उद्धृत कर देना उचित समझते हैं इससे दोनोमें जो पाठ भेद है वह भी स्पष्ट हो जायेगा ।
अट्ठावीस चउवीस सत्त रस सोलसेव पण्णरसा ।
दे खलु मोत्तूण सेसाण संकमो होइ ||२७|| क० पा०
अट्ठ चउरहियवीस सत्तरस सोलस च पन्नरस ।
वज्जिय सकट्टालाई होति तेवीसइ मोहे ॥ १० ॥ क० प्र०
दोनो गाथाओ में कहा है कि अट्ठाईस, चौबीस, सतरह, सोलह और पन्द्रह प्रकृतिक स्थानोको छोडकर मोहनीय कर्मके शेष स्थानोमें जिनकी सख्या २३ है, सक्रमण होता है । दोनो गाथाओकी चूर्णियोमें कोई ऐसी उन्लेखनीय समानता नही है जिसपर कोई कल्पना की जा सके ।
सोलसग बारसट्टग वीस वीसं तिगादि गायिगा य ।
एदे खलु मोत्तूण सेसाणि पडिग्गहा होंति ॥ २८ ॥ क पा०
सोलस वारसगट्टग वीसग तेवीस गाइगे छच्च ।
वज्जिय मोहस्स पडिग्गहा उ अट्ठारस हवति ॥११॥ क० प्र० ।
दोनो गाथाओके अर्थमें कोई अन्तर नही है । रेखाकित पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है कर्मप्रकृतिका पाठ ठीक है । दोनोमें कहा है कि सोलह, बारह, आठ, बीस और तेईस आदि छै स्थानोको छोड कर शेष मोहनीयके पतद्ग्रह होते हैं । जिन
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२९८ : जैनसाहित्यका इतिहास
प्रकृति स्थानोमें कोई प्रकृति स्थान सक्रान्त होता है उन्हें पतद्ग्रह कहते है कसायपाहुड गाथा न २९ - ३०-३१ में कर्म- प्रकृति गा० न० १२-१३-१४ में कोई अन्तर नही है, क्वचित् शब्दोका अन्तर है ।
चोहसग दसग सत्तग अद्वारसगे च णियम वावीसा ।
णियमा मणुस गईए विरदे मिस्से अविरदे य || ३२|| क० पा० चोहसग दसग सत्ता अट्ठारसगे य होइ वावीसा | णियमा मणुय गईए णियमा दिट्ठीकए दुविहे ||१५|| क० प्र०
दोनो गाथाओके चतुर्थ चरण में अन्तर होनेपर भी दोनोके अभिप्रायमें अन्तर नही है । ऊपर की गाथामें बतलाया है कि चौदह, दस, सात और अट्ठारह में वाईस प्रकृतियों का संक्रमण होता है । वह सक्रमण नियमसे मनुष्य गतिमें, और संयतासयत और असयत - सम्यग्दृष्टि गुणस्थानोंमें होता है । कर्म प्रकृतिकी गाथामें गुणस्थानोंका निर्देश न करके यह निर्देश किया है कि यह बाईस प्रकृतिक स्थान नियमसे दर्शनमोहनीय की सम्यक्त्व और सम्यक मिथ्यात्व रूप प्रकृतियोंका ही अस्तित्व होने पर होता है। किंतु कषायपाहुड निर्दिष्ट गुणस्थानोका कथन सभीको मान्य है । उसमें कोई मतभेद नही है ।
तेरसय णवय सत्तय सत्तारस पणय एगवीसाए ।
एगाधिगाए वोसाए सकमो छप्पि सम्मले ||३३|| क० पा०
तेरसग णवग सत्ता सत्तरसग पणग एक्कवीसासु । एक्कावीसा संकमइ सुद्ध सासाण मीसेसु ॥ १६ ॥ क० प्र०
यहाँ भी दोनोंके चतुर्थ चरणमें अन्तर है तथा अभिप्रायमें भी थोडा अंतर है । दोनों में कहा है कि तेरह, नो, सात, सतरह, पांच और इक्कीस इन छै स्थानों में इक्कीस का संक्रमण होता है । कसायपाहुडमें कहा है कि यह सक्रमण सम्यक्त्व गुण विशिष्ट गुणस्थानोमें ही होता है । कर्मप्रकृति में कहा है कि अविरत सम्यग्दृष्टि आदि तथा ससादन और मिश्र गुणस्थानमें होता है । उक्त गाथाको व्याख्या करते हुए जयघवलामें सम्यक्त्व गुण विशिष्ट गुणस्थानो में सासादनका तो ग्रहण किया है किन्तु मिश्र गुणस्थान का ग्रहण नही किया । इन गाथाभोपर दोनो ग्रन्थोमें चूर्णियाँ नही है अतः कुछ विशेष कह सकना शक्य नही है ।
एत्तो अवसेसा सजमम्हि उक्सावगे च खवर्ग च ।
वीसाय सकमदुर्ग छक्के पयाए च वोद्धव्वा ||३४|| क० पा०
एत्तो अविसेसा सकर्मति उवसामगे व खवगे वा । उवसामगेसु वीसा य सत्तगे छक्क पणगे वा ॥ १७॥ क० प्र०
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अन्य कर्मसाहित्य : २९९ यहां भी दोनोफे उत्तरार्द्धमें अन्तर है और थोडा-सा मतभेद भी है। दोनोमें कहा है कि उक्तसे अवशिष्ट प्रकृतिस्थान-सक्रम उपशमणि और क्षपकश्रेणिमें सक्रान्त होते हैं । किन्तु कसायपाहुडमें आगे कहा है कि वीसका सक्रम केवल छ और पांच इन दो ही स्थानोमे होता है और कर्मप्रकृतिमें कहा है कि सात, छै और पांचमें वीसका सक्रमण होता है । यह अन्तर है ।
पचसु च ऊणवीसा अठारस चदुसु होति वोद्धन्वा । चोद्दस छसु पयडीसु य तेरसय छक्क पणगम्हि ।।३५।। क० पा० पचसु एगुण वीसा अट्टारस पचगे चउक्के य ।
चोदस छसु पगडीसुतेरसग छक्कपणगम्मि ॥१८॥ क० प्र० यहाँ भी दोनोमें थोडा अन्तर है । कसायपाहुडके अनुसार १८ का सक्रमण चार प्रकृतियोमें होता है और कर्मप्रकृतिके अनुसार चार और पांचमें होता है।
शेष चार गाथाओमें कोई अन्तर नहीं है। इस तरह संक्रमण प्रकरणमें १३ गाथाएँ ऐसी पायी जाती है जो कसायपाहुड की है। इस प्रकरणकी गाथासख्याका प्रमाण एक सौ ग्यारह है।
सक्रम-करणके पश्चात् उद्वर्तना-अपवर्तनाकरणका कथन है। ये दोनो करण स्थिति और अनुभागसे सम्बन्ध रखते है । स्थिति और अनुभागके वढानेको उद्वर्तना और घटानेको अपवर्तना कहते हैं । उद्वर्तना तो बन्धकाल पर्यन्त ही होती है किन्तु अपवर्तना बन्धकालमें भी होती है जोर अवन्धकालमें भी होती है । दस गाथाओके द्वारा इन दोनो करणोंका कथन है ।
पश्चात् उदीरणा-करण का कथन है। विशुद्ध अथवा सक्लेश परिणामोके द्वारा उदयावलि-बाह्य निषेकोको अपवर्तनाके द्वारा बलात् उदयावलीमें ला कर उनका वेदन करनेको उदीरणा कहते है। जैसे आमोको तोडकर भूसे आदिमें दवाकर जल्दी पका कर खाते है । उसी तरह जो कर्मको अपने समयसे पहले भोग किया जाता है उसे उदीरणा कहते हैं। उसके भी चार भेद है-प्रकृति-उदीरणा, स्थिति-उदीरणा, अनुभाग-उदीरणा और प्रदेश-उदीरणा । प्रकृति-उदीरणा और प्रकृतिस्थान-उदीरणाका कथन करते हुए उनके स्वामियोका कथन किया है कि अमुक-प्रकृतिकी उदीरणा कौन करता है। इसी प्रकार स्थिति-उदीरणा आदिका भी कथन किया है । इस प्रकरण की गाथा सख्या ८९ है । ___ उपशमना-करण का कथन करते हुए इन अधिकारोके द्वारा उसका कथन किया है-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी उत्पादना, देश विरति की प्राप्ति, अनन्तानुबन्धी काषाय का विसयोजन, दर्शनमोहकी क्षपणा, दर्शनमोहकी उपशामना, चारित्रमोहकी उपशमना।
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३०० : जनसाहित्यका इतिहास __ पहली गाथाके द्वारा उपशामनाके दो भेद बतलाये है-करणोपशामना और अकरणोपशामना । अकरणोपशामनाका दूसरा नाम अनुदीर्णोपशमना भी है। (यथा प्रवृत्त, अध प्रवृत्त), अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण रूप परिणामोके द्वारा जो कर्मोका उपशम किया जाता है उसे तो करणोपशमना कहते है। और इन करणोके विना जो उपशमना होती है उसे अकरणोपशमना कहते है । वैसे उपशमनाके दो भेद है---देशोपशमना और सर्वोपशमना । उक्त दो भेद देशोपशमनाके ही है । (सर्वोपशमना तो उक्त करणो के द्वारा ही होती है)। उपशमनाके उक्त दो भेद करके कर्म-प्रकृतिकारने अकरणोपशमनाके अनुयोगधरोंको नमस्कार किया है। चूर्णिकारने उसका व्याख्यान करते हुए लिखा है कि अकरणोपशमनाका अनुयोग विच्छिन्न हो गया। अत. उसको नही जानने वाले कर्म-प्रकृतिकारने उसके जानने वाले आचार्यको नमस्कार किया है।
दूसरी गाथामें कहा है कि सर्वोपाशमनाके दो नाम है-गुणोपशमना और प्रशस्तोपशमना । देशापशमनाके भी दो नाम है अगुणोपशमना और अप्रशस्तोपशमना । सर्वोपशमना केवल मोहनीय कर्मकी ही होती है । इस प्रकरणमें भी चार गाथाए ऐसी है जो कसायपाहुडमें भी पायी जाती है। कर्मप्रकृतिमें उनका नम्बर२३, २४, २५, २६ है। और ये गाथाएं कसायपाहुडके दर्शन मोहोपशमना नामक अधिकारके अन्तमें आती है । चारमें से अन्तकी दो में तो कोई अतर नही है। प्रारम्भकी दो में अन्तर है उसमेंसे भी भी दूसरीमें केवल शब्दोका व्यक्तिक्रम है। हा, पहलीमें उल्लेखनीय अन्तर है। कर्म-प्रकृति (उपशमना) की गाथा इस प्रकार है
सम्मत्त पढम लम्भो सब्वोवसमा तहा विगिट्ठो य ।
छालिगसेसा पर आसाण कोइ गच्छेज्जा ॥२३॥ इसमें बतलाया है कि औपशमिक सम्यक्त्व की प्रथम प्राप्ति मोहनीय कर्मके सर्वोपशमसे होती है तथा प्रथम स्थितिकी अपेक्षा उसके अन्तर्मुहुर्त कालका प्रमाण बडा होता है। जव उस सम्यक्त्वके कालमें कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक छै भावली काल शेष रहता है तो कोई कोई जीव गिर कर सासादन गुणस्थानके चले जाते है और वहासे पुन मिथ्यात्वमें आ जाते है । यह गाथा कसायपाहुडमें इस प्रकार पायी जाती है
सम्मत्त पढम लभो सव्वोपसमेण तह वियटेण ।
भजियन्वो य अभिक्ख सन्चोवसमेण देसेण ॥१०॥ १. 'सा अकरणोपसामणा ताते अणुओगो वोछिन्नो, तो त अजाण तो आयरिओ जाणतस्स
नमोक्कार करेति' कर्मप्र उप, गा.१च.
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अन्य कर्मसाहित्य : ३०१ इस गाथाके भी पूर्वार्द्धमें बतलाया है कि ओपशमिक सम्यक्त्वका प्रथम लाभ मोहनीयके सर्वोपशमसे होता है । किन्तु आगे 'वियद्वेण' का अर्थ भिन्न किया है, यद्यपि पिपट्ट और 'विगिट्ठ' शब्दोमें वैसा भेद प्रतीत नही होता । जयधवलाकारने उसका अर्थ किया है-'जो मिथ्यात्वमें जा कर बहुत काल बीतने पर पुन सम्यक्त्वको प्राप्त करता है वह भी सर्वोपशमसे ही प्राप्त करता है । और जो सम्यक्त्वसे च्युत होकर जल्दी पुन सम्यक्त्यके अभिमुख होता है वह सर्वोपशमसे अथवा देशोपशमसे सम्यक्त्वको प्राप्त करता है।
कर्म-प्रकृतिके उपशमना-करणकी २६ वी गाथा और कसायपाहुडकी १०५वी गाषामें कोई अन्तर नही है किन्तु दोनोके टीकाकारोके अर्थमें अन्तर है गाथा इस प्रकार है
सम्मामिच्छद्दिट्ठी सागारे वा तहा अणागारे ।
अह वजणोग्गहम्मि य सागारे होई नायब्वो ॥२६।। कषायपाहुड में सागारे और 'अणागारे के स्थानमें 'सागारौ' और 'अणागारो पाठ है । कर्म प्रकृतिकी चूर्णिमें पूर्वार्धका अर्थ किया है-'सम्यग्मिथ्यादृष्टि या तो साकार उपयोगमें वर्तमान होता है अथवा अनाकार उपयोगमें वर्तमान होता है।' जयधवलाके अनुसार अर्थ है-सम्यगमिथ्यादृष्टि साकारोपयोगी होता है अथवा अनाकारोपयोगी होता है। दोनो अर्थोमें कोई अन्तर नहीं है। किन्तु उतरार्धके अर्थ में अन्तर है
कर्म प्रकृति चूणिमें अर्थ किया है
'यदि साकार उपयोगमें वर्तमान होता है तो व्यजनावग्रहमें होता है अर्थावग्रहमें नही । क्योकि सशयज्ञानी अव्यक्त-ज्ञानी होता है।' और जयधवलामें अर्थ किया है-'वजणोग्गहम्मि दु' यदि विचार पूर्वक अर्थ ग्रहण करनेकी अवस्थामें होता है तो सकारोपयोगी होता है।। ___इन गाथामो पर कसायपाहुडमें चूणि सूत्र नहीं है । कसायपाहुड और कर्मप्रकृति दोनोको दर्शन-मोहोपशमना नामक प्रकरण उक्त गाथाके साथ समाप्त हो जाता है और उसके पश्चात् कर्मप्रकृतिमें चारित्रमोहकी उपशमनाका कथन है । इसमें ७४ गाथाएं है अन्तमें २-३ गाथाओ द्वारा निधत्ति और निकाचनाका कथन है।
आठो करणो का कथन समाप्त होने के पश्चात् कर्मों के उदय का प्रकरण प्रारम्भ होता है। उत्कृष्ट प्रदेशोदयके स्वामी का कथन करने से पूर्व दो गाथाओ १. 'सम्मतुप्पत्ति सावयविरएसजोयणा विणासे य ।
दसणमोह क्खगे कसाय उवसामगुवसते ।।८।।
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३०२ : जैनसाहित्यका इतिहास
के द्वारा ग्यारह' गुण-श्रेणिया गिनायी है । ये गुण-श्रेणिया जैन सिद्धान्तमें दोनो परम्पराओ में अति प्रसिद्ध है । षटखण्डागम्के वेदना-खण्डमें भी दो गाथाओके द्वारा ग्यारह गुणश्रेणिया गिनायी है । दोनो ग्रन्थो की गाथाओ में तो शब्दभेद हैं ही, आशय में भी किञ्चित अन्तर है । कर्मप्रकृतिमें 'जिणे दुविहें' पाठ है । चूर्णिमें उसका अर्थ सयोग केवली ओर प्रयोग - केवली किया है । किन्तु षट्खण्डागम में केवल 'जिणेय' पाठ है । और गाथाओं का विवरण करने वाले षट्खण्डागम के सूत्रों में जिनसे केवल अघ प्रवृत्त केवली और योग निरोध करने वाला सयोग - केवली लिया है । अयोग केवलीको नही लिया ।
तत्त्वार्थसूत्र के नौवें अध्यायमें भी ये गुण श्रेणिया गिनायी है । और दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनो परम्पराओके टीकाकारोने जिनसे सामान्य जिन ही लिया है और इस तरह वहा उनकी सख्या दस ही है ग्यारह नही |
1
उदय प्रकरणमें कर्मोके उदय का वर्णन है । कर्मों के फल देने को उदय कहते है । उदय के पश्चात् सत्ता का कथन है । किन स्थानोमें किन-किन कर्म प्रकृतियों का सत्त्व रहता है इसका विस्तारसे कथन है । उदय और सत्व दोनोके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश की अपेक्षा चार, चार भेद कर के उनके जघन्य और उत्कृष्ट भेदो के स्वामियो का कथन किया है । प्रदेश सत्कर्म में योग-स्थान और स्पर्धको का निर्देश करके भूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य भेदो का कथन है ।
कर्म प्रकृति के इन प्रकरणोमें क्रमसे १०२ + १११ + १० + ८९ + ७१ + ३+ ३२ + ५७ = ४७५ गाथाए है ।
कर्ता -
इसमें तो सन्देह नही कि कर्म-प्रकृति एक प्राचीन ग्रन्थ है और उसकी प्राकृति चूर्णि भी प्राचीन प्रतीत होती है । किन्तु इन दोनो के रचयिताओ का नाम ज्ञात नही है और इसीलिए उनके रचनाकाल का भी कोई निश्चित समय
खवगे य खीणमोहे जिणे य दुविहे असखगुणसेढी ।
उदओ तव्विवरीओ कालो सखेज्जगुण सेढी || ९ || कर्मप्र०, उदय
सम्मत्तपत्ती विसावय विरदे अणत कम्म सें ।
दसणमोह क्खवए कसाय उवसामए य उवसते ॥७॥
खवय रवीणमोहे जिणे य णियमा भवे अमखेज्जा ।
तीव्विवरीदो कालो सखेज्ज गुण य सेडीओ ||८||' पट्स० पु० १२, पृ०, ७८ । 'समग्दृष्टि श्रावक विरता नन्त वियोजक दर्शन मोह क्षपकोपशमकोपशान्त मोहक्षपक क्षीणमोह जिना. क्रमशोऽसख्येयगुण निर्जरा ||४५ || ' तत्त्वा० सू० ।
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अन्य कर्मसाहित्य : ३०३ निर्धारित नहीं है । परम्पराके आधार पर कर्म-प्रकृति को शिवशर्म सूरि की कृति माना जाता है।
मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिरसे प्रकाशित कर्म-प्रकृति की संस्कृत प्रस्तावना में लिखा है कि पूर्वधर भगवान श्री शिवशर्म सूरिने कर्म-प्रकृति नामक मूलग्रन्थ को रचा था । इतिहास का अभाव होनेसे इनका समय अभी तक निश्चित नहीं हो सका। इनके गुरु कौन थे और ये कितने पूर्वोके धारी थे यह भी निश्चित नहीं है । तथापि नन्दी-सूनके आदि पाठ को देखनेसे यह निश्चय किया जाता है कि ये आगमोद्धारक देवधिगणिके पूर्ववर्ती थे । ऐसी संभावना है कि ये दशपूर्वधर थे।"
जैन साहित्य का इतिहास (पृ. १३९)में लिखा है कि शिव शर्म सूरि नामके एक महान आचार्य हो गये हैं। उनका समय अनिश्चित है। उन्होने ४७५ गाथाओ में कर्म-प्रकृति नामक ग्रन्थ दृष्टिवादके अन्तर्गत दूसरे पूर्व में से उद्धार कर रचा है । अतः उनका समय वि स० ५००के आस पास रखा जा सकता है।'
कल्पसूत्रस्थस्थविरावली, नन्दीसूत्रस्थस्थविरावली आदि किसी प्राचीन पट्टावली में हमें शिवशर्म सूरि नाम देखने को नही मिला । चूर्णिकार को भी यह ज्ञात नही था कि इस कर्म-प्रकृति के रचयिता कौन है क्योकि उन्होने भी ग्रन्थकार का नाम नहीं दिया। चूर्णिकारकी तरह १२-१३ वी शताब्दीके टीकाकर मलयगिरिने भी यह नही लिखा कि कर्म-प्रकृति के कर्ता असुक नामके आचार्य है। हां, १८ वी शताब्दीके दूसरे टीकाकार यशोविजय ने कर्म-प्रकृति की प्रथम गाथा की उत्थानिकामें शिवशर्म सूरि का नाम दिया है। अतः उनके सामने कोई आधार अवश्य होना चाहिये जिसके आधार पर उन्होने कर्मप्रकृतिको शिवशर्म सूरि की कृति बतलाया । खोजने पर देवेन्द्रसूरि रचित नवीन कर्म-ग्रन्थो को स्वोपज्ञ' टीका में कर्म-प्रकृति का उद्धरण देते हुए उसे शिवशर्म सूरि रचित लिखा है। तथा उसी में एक स्थान पर शिवशर्म सूरि रचित शतक का उद्धरण दिया है। ____ कर्म-प्रकृतिकार ने कर्मप्रकृति की रचना करनेसे पहले शतक नामका भी एक ग्रन्थ रचा था वह कर्म-प्रकृतिसे ही ज्ञात होता है। अत देवेन्द्रसूरिके उल्लेखके अनुसार इन दोनोके रचयिता शिवशर्म सूरि थे। देवेन्द्र सूरि का समय १३-१४ वी शताब्दी है और मलयगिरि का समय १२-१३ वी शताब्दी है। दोनोमें एक शताब्दी का अन्तराल है फिर भी मलयगिरि जैसे बहुश्रुत टीकाकार ने कम-प्रकृति की अपनी टीकामें उसके रचयिता शिवशर्म सूरिके
१. 'यदाह शिवशर्म सूरिवर कर्मप्रकृतौ-स. च क., पृ. १३७ । २ यदुक्त शिवशम
सूरिपादै शतके'-स. च. क., पृ. ७९ ।
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३०४ : जैनसाहित्यका इतिहास नामका उल्लेख क्यो नही किया ? इस विचारवश खोज करने पर देवेन्द्रसूरिके इस उल्लेखका आधार शतकचूर्णिमें मिला । शतकचूर्णिमें लिखा है कि इस शतक नामके ग्रन्थको शब्द, तर्क, न्याय और कर्मप्रकृति सिद्धान्तके ज्ञाता, अनेक वादोमें विजय प्राप्त करनेवाले शिवशर्मा नामक आचार्यने रचा । अत चूर्णिसे यह प्रकट होता है कि शतक और कर्मप्रकृतिके रचयिता शिवशर्म सूरि थे। किन्तु शतकचूणिके इस उल्लेखका आधार क्या है, यह हम नही जान सके । कर्मप्रकृति-चूर्णिकी तरह ही शतक-चूणिके कर्ताका तथा उसका रचनाकाल भी अनिर्णीत है। किन्तु दोनो चूणियोकी शैली आदिकी तुलनासे यह स्पष्ट है कि दोनोके कर्ता भिन्न-भिन्न है तथा कर्म-प्रकृतिकी चूणिसे शतक चूणिवादमें रची गयी है। समय
यह शिवशर्मसूरि कब हुए इसके जाननेका कोई प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं है । जो कुछ है वह उनके दोनो ग्रन्थ ही है। कर्मप्रकृतिकी उपान्त्य गाथामें उन्होने कहा कि-'इस प्रकार मुझ अल्पबुद्धिने भी जैसा सुना वैसा कर्मप्रकृतिसे उद्धृत किया । जो कुछ स्खलित कथन किया हो, उसे दृष्टिवादके ज्ञाता शुद्ध कर के कहे।' ___ चूकि कर्मप्रकृति-प्राभृत दृष्टिवादके अन्तर्गत द्वितीय पूर्वका अश था और श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुसार भगवान् महावीरके निर्वाणसे एक हजार वर्ष तक दृष्टिवाद रहा । अत कर्म-प्रकृति के रचयिता शिवशर्म सूरिका समय वि० स० ५०० के लगभग अनुमान किया जाता है ।
प० हीरालालजी शास्त्रीने कसायपाहुड सूत्रकी अपनी प्रस्तावनामें लिखा है कि वर्तमान कर्मप्रकृति वही कर्मप्रकृति है जिसका निर्देश यतिवृषभने अपने चूणिसूत्रोमें किया है । कसायपाहुडके चारित्रमोहकी उपशमना नामक अधिकारमें 'उवसामणा कदि विधा' इस गाथाशका व्याख्यान करते हुए कहा है कि 'उपशामनाके १ 'केण कयं ? ति शब्दतर्क न्याय प्रकरण कर्मप्रकृति सिद्धान्त विजाणएण अयोगवायसमा.
लद्धविजएण सिवसम्मायरियणामधेज्जेण कय।-शत. चू० पृ० १। २. 'इय कम्मपगडीभी जहा सुय नीयमप्पमइणावि। णोहियणा भोगकयं कह तु वरदिठिवायन्नू ॥५६॥
-कर्म प्र० सता०। 'उवसामणा कदि विधा त्ति उवसामणा दुविहा करणोवसामणा च अकरणोव सामणा च । जा सभकरणोवसामणा तिस्से दुवे नामधेयाणि अकरणोवसामणा त्ति वि अणुदिण्णोवसामणा त्ति वि । एसा कम्मपवादे । जा साकरणोवसामणा सा दुविहा त्ति वि देसकरणोवसामणा ति वि। सव्वकरणोवसामणाए देसकरणीवसामाणाए दुवे णामणि देसकरणोवसामणाए त्ति वि अप्पसत्य उत्सामणा त्ति वि। एसा कम्मपयडीस ।
-क० पा० सू०, द०।
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अन्य कर्मसाहित्य - ३०५ दो भेद है-करणोपशामना और अकरणोपशामना । अकरणोपशामनाके दो नाम हैअकरणोपशामना और अनुदीर्णोपशामना। अकरणोपशामनाका कथन कर्म-प्रवाद में है। करणोपशामनाके भी दो भेद हैं—देशकरणोपशामना और सर्वकरणोपशामना । देशकरणोपशाम नाके दो नाम है देशकरणोपशामना और अप्रशस्तोपशामना । इसका कथन कर्म-प्रकृतिमें है ।'
इस सूत्रको व्याख्या करते हुए जयधवलाकारने लिखा है कि द्वितीय पूर्वक पञ्चम वस्तु अधिकारसे प्रतिबद्ध चतुर्थ प्राभृतका नाम कम्मपयडी है । उसमें इस देशकरणोपशामनाका विस्तारसे कथन है । शायद यह शका की जाये कि कर्मप्रकृति प्राभूत तो एक है उसका यहाँ 'कम्मपयडीसु' इस बहुवचन रूपसे निर्देश क्यो किया ?" तो उसका समाधान है कि 'यद्यपि कर्मप्रकृति-प्राभृत एक है किन्तु उसके अन्तर्गत कृति, वेदना, आदि अनेक अवान्तर अधिकार है, उनकी विवक्षासे बहुवचनका निर्देश करनेमें कोई विरोध नही है।'
जयधवलाकारके इस स्पष्ट निर्देशके सामने शास्त्रीजीके उक्त कथनको कैसे मान्य किया जा सकता है। फिर जिस देसकरणोपशामनाके लिए कर्मप्रकृतिका निर्देश यतिवृषभने किया है, प्रस्तुत कर्मप्रकृतिमें उसका केवल ६ (६६-७१) गाथा
ओमें उल्लेख मात्र है । उनसे पहली गाथामें तो देशकरणोपशामनाके भेद बतलाये हैं । दो में उसके स्वामियोका निर्देश है तथा एक गाथामें प्रकृति उपशामनाका, एकमें स्थिति-उपशामनाका और एकमें अनुभाग और प्रदेश-उपशामनाका उल्लेख है । अत अकरणोपशमनाके लिए कर्मप्रवाद नामक अष्टम पूर्वका निर्देश करनेवाले यतिवृषभ जैसे कसायपाहुडके वेत्ता विद्वान् देशकरणोपशामनाके लिए इस कर्मप्रकृतिका निर्देश नही कर सकते । प्रस्तुत कर्मप्रकृति अवश्य ही उनके उत्तरकालकी रचना होनी चाहिए । फिर जैसा प्रारम्भमें लिख आये है इस कर्मप्रकृतिके सिवाय एक बृहत्कर्म-प्रकृति भो थी। चूर्णिकारने शायद उसी कम्मपयडी महाग्रन्थके विच्छेदकी सूचना दी है । वह बृहत्कर्म-प्रकृति अथवा कम्मपयडी महाग्रथ सम्भवतया अग्रायणी पूर्वके चतुथ वस्तु अधिकारके अन्तर्गत कर्मप्रकृति-प्राभूत ही हो सकता है । जैसा कि जयधवलाकारका मत है । अत उसीका निर्देश यतिवृषभने अपने चूणिसूत्रोमें किया हो सकता है ।
१. 'कम्मपयडीओ णाम विदिय पुव्व पचम वत्थुपबद्धो चउत्थो पाहुड सण्णिदो अहियार
अत्थि । तत्थेसा देसकरणोवसामणा दट्ठन्वा, सवित्थरमेदिस्से तत्थ पवधेण परूविदत्तादो। कथमेत्थ एगस्स कम्मपयाडिपाहुडस्स 'कम्मपयडिसु' त्ति बहुवयणणिादसो त्ति णासकणिज्ज; एककस्सविदि तस्स कदि, वेदणा अवातराहियार भेदावेक्लाए बहुवयणणिदेसाविरोहादो।-ज० ५० प्रे० का, पृ० ६५६७-६८ ।
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३०६ : जेनसाहित्यका इतिहास
नन्दिसूत्रको स्थविरावलीमें नागहस्तीको कर्मप्रकृति प्रधान बतलाया है उसको लेकर शास्त्रीजीने लिखा है, जब यतिवृपभके गुरु कम्मपयडीके प्रधान व्याख्यातामोम थे तो यतिवृषभके सामने तो उसका होना स्वत सिद्ध है ? वात ठीक है, किन्तु जब यतिवृषभके सामने वर्तमान कर्म-प्रकृति थी तो नागहस्ती भी सभवत. उसीके प्रधान व्याख्याता होगे । और ऐसी दशा में वर्तमान कर्मप्रकृति नागहस्तीसे भी पूर्वरचित होनी चाहिये ? किन्तु यह राव निगधार कल्पना है । शास्त्रीजीने कसायपाहुडके चूणिसूत्रो और कर्मप्रकृतिको कतिपय गाथाओको उद्धृत करके यह प्रमाणित करनेको चेष्टा की है कि वर्तमान कर्मप्रकृतिके आधारपर ही चूणिसूत्र रचे गये है । किन्तु शास्त्रीजीने जितने तुलनात्मक उद्धरण दोनो ग्रन्योसे दिये है, वे सब निष्प्राण है, बल्कि उनके देखनेमे तो यही अधिक सभव प्रतीत होता है कि चूणिसूत्रकारने कर्मप्रकृतिका अनुसरण नहीं किया बल्कि कर्मप्रकृतिके रचयिताने कसायपाहुडके चूणिसूत्रोका अनुसरण किया है । यह सत्य शास्त्रीजीकी लेखनीसे भी प्रकट हुए विना नहीं रहा है । दर्शनमोह उपशामकके परिणाम, योग, उपयोग और लेश्यादिका वर्णन करनेवाले चूणिसूत्रोको उद्धृत करके शास्त्रीजीने लिखा है'इन सब सूत्रोंकी तुलना कम्मपयडीकी निम्न गाथासे कीजिये और देखिये कि किस खूवीके साथ सर्व सूत्रोके अर्थका एक ही गाथाम समावेश किया गया है ? (पृ० ३५) चूर्णिसूत्र और कर्मप्रकृति-चूणि____ कसायपाहुडके चूणिसूत्रोमें और कर्मप्रकृतिकी चर्णिमें यत्र तत्र कुछ साम्य प्रतीत होता है किंतु गहराईसे अवलोकन करने पर चूणिसूत्रोकी शैलीका कर्मप्रकृति की चूर्णिमें आभास नही मिलता । चूर्णिसूत्रोमें क्सायपाहुडकी गाथाओके व्याख्यानके लिए विभाषा और पदच्छेदकी जो शैली अपनायी गयी है यहां उसका अभाव है। कर्मप्रकृतिकी चूणि तो एक टोका प्रकारकी व्याख्या है जिसमें गाथाके अर्थको स्पष्ट करनेका प्रयल किया है । और उस परसे यह भ्रम होता है कि दोनों चूर्णियां एक ही की कृति है, किन्तु वात वास्तव में ऐसी नही है । दोनोंमें शैलीभेद और भाषाभेद तो है ही, सैद्धान्तिक-भेद भी परिलक्षित होता है। १. नीचे हम तुलनाके लिए शास्त्रीजीके उद्धरणोंगेसे एक उद्धरण देते हैं-'ज पदेसग्गमप्रणपयडि णिज्जदे, जत्तो पयहीदो त पदेसग णिज्जदि तिस्से पयटीए सो पदेससकमो। एदेण अठ्ठपदेण तत्थ पचविहो सकमो, त जहा, उज्वेलणसकमो, विज्झादसकमो, अद्धापवत्तसकमो, गुणसकमो, सबसकमो च ।' (क. पा. सू., पृ. ३६७ । इन चूर्णिसूत्रोंका मिलान कम्मपयडीकी निम्न गाथासे कीजिए
ज दलियमणपगड णिज्जइ सो सकमो यएसस्स। उज्वलणो विज्झाओ, अहापवत्तो गुणो सन्चो ॥६०॥ कर्मप्र.
~क. पा. सु. प्रस्तावना पृ०३३।
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अन्य कर्मसाहित्य : ३०७ उदीरणा' प्रकरणमें कर्मप्रकृति-चूणिमें उत्तरप्रकृतिके १५८ भेद बतलाये है। उदीरणा प्रकृतियोकी सख्या अभेद विवक्षा से १२२ मानी गयी है। और भेद विवक्षासे १४८ । औदारिकि, आदि शरीरोके सयोगी भग पन्द्रह होते है और उनको शामिल कर लेनेसे १५८ प्रकृतियां हो जाती है । गोमट्टसार कर्मकाण्ड में उक्त सयोगी भग गिनाये अवश्य है और नामकर्मकी सत्व-प्रकृतियोको गिनाते हुए ९३ या १०३ लिखकर उन्हें सम्मिलित भी किया है किन्तु सत्त्व-प्रकृतियोकी सख्या १४८ ही बतलायी है। ___ कर्मप्रकृतिके टीकाकार उपाध्याय यशोविजय ने अपनी टीकामें इसपर लिखा है कि यद्यपि उदय प्रकृतियोकी संख्याके तुल्य ही उदीरणा प्रकृतियोकी संख्या होती है और इसलिए कर्मस्तव-टीका आदिमें उनकी संख्या १२२ बतलायी है और यहाँ १५८ बतलायी है । तथापि एकसौ वाईस में वन्धनादिकी पृथक् विवक्षा नही की है और १५८ में पृथक् विवक्षा की है इसलिए कोई दोष नही है। फिर भी १५८ सख्यामें भी मान्यता-भेद तो रहा ही है । मलयगिरि ने गर्गषि आदिके मतमें १५८ प्रकृति संख्या होनेका निर्देश किया है।
२. कर्मप्रकृति में क्षपक-श्रेणीमें क्षीणकषाय गुणस्थानमें निद्रा और प्रचलाका उदय नही माना है । तदनुसार चूणिमें भी लिखा है । इस बातको लेकर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें मतभेद पाया जाता है। किन्तु दिगम्बर धर्मके भूतबलि और यतिवृषभ दोनो ही उक्त गुणस्थानोमें निद्रा और प्रचलाका उदय मानते है । गो०५ कर्मकाण्डमें उदय न्युच्छित्तिमें जो दोनो आचार्योंके मत दिये है, उससे यह स्पष्ट है । किन्तु इतना सुनिश्चित जान पडता है कि कर्मप्रकृतिकी चूणि बनानेवालेके सामने यतिवृषभके चूर्णिसूत्र अवश्य थे और उसने कही- कहीपर तो उनका शब्दशः अनुकरण किया है । उदाहरणके लिए हम उपशामनाका भाग उद्धृत करते हैं
'उवसामणा दुविहाकरणोवसामणा अकरणोवसामणा च । जा सा अकरणोवसामणा तिस्से दुवे गामधेयणि अकरणोवसामणाा त्ति वि अणुदिण्णोवसामणा
१. 'उत्तरपतिउदोरणा अछावणुत्तरसतभेदा'-क प्र. चू।। २ 'यद्यप्युदीरणायामुदयसमकक्षतया प्रकृतीना द्वाविंश शत कर्मस्तवटीकादावुक्तम्, इह तु
अष्टपञ्चाशं शतं, तथापि तत्र वन्धनादीना पृथग न विवक्षा, इह तु पृथग् विवक्षेति न
दोष ।-कर्म प्र., उदी.,पृ. ३. गर्षि प्रभूतिमते च बन्धन पञ्चदशकग्रहणादष्टपन्चाश शतम् ।'-क. प्र.टी,
पृ०८। ४. निद्दापयलाण खीणरागखवगे परिच्चज्ज ॥१८॥' 'खीणकसाय खवगखीणकसाय
खवगे मोत्तण तेसु उदओ णत्थि ति। कर्मप्र, चू, उदी.। ५ कर्मका०, गा०।
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३०८ : जेनसाहित्यका इतिहास
त्तिवि । एसा कम्मपवादे । जा सा करणोवसामणा सा दुविहा- देराकरणोवसामणाति वि सव्वकरणोवसामणा त्तिवि । देमकरणोवसामणाए दुवे णामाणि देसकरणोवसामणा त्तिवि अप्पसत्थोवगामणा ति वि । एमा कम्मपयडीसु । जा सा सव्वकरणोवसामणा तिस्से वि दुबे णामाणि राज्यकरणोवसामणा त्ति वि पसत्य करणोवसामणा त्तिवि । एदाए एत्य पयद । क० पा०
सु०, पृ०
७०७-७०८।
-
'करणकयाsकरणा वि य दुविहा उवसामणत्य वि इयाए । अकरण अणुइन्नाए अणुओगधरे पडिवयामि ॥ १ ॥
( चू०) 'करणकय' त्ति - करणोवसणा, 'अकरणकय' त्ति अकरणोवसामणा दुविहा उवसामणत्थ । 'वितिभ्याए अकरणअणु इन्नाए 'त्ति - वितिया अकरणोपसमणा तीसे दुवे नामधिज्जा णि --- अकरणोपममणा अणुदिन्नोपसमणा य, ताते अकरणोपसमाते 'अणुओगधरे पणिवयामि' त्ति कि भणिय होति ? करण क्रिया, ताए विणा जा उवसामणा अकरणोवसामणा, गिरिनदीपापाणवट्टससारत्थस्स जीवस्स वेदनादिभि कारणैरुपशातता भवति, सो अकरणोवसामणा, ताते अणुओगो वोच्छिन्नो, तो त अजाणतो आयारिभो जाणतस्स नमोक्कार करेति । करणुपसमणाते अहिगारोत्य ||१|| ' क० प्र० ।
चूणिसूत्रमें उपशामनाके दो भेद किये है । करणोपशामना और अकरणोपशामना । अकरणोपशामनाके दो नाम है-अकरणोपशामना और अनुदीर्णोपशा मना । इसका कथन कर्मप्रवादमें बतलाया है ।
कर्मप्रकृतिमें भी उक्त भेद करके अकरण - उपशामनाके ज्ञाताओको नमस्कार किया है । उसकी चूर्णि में लिखा है कि अकरणोपशामनाका अनुयोग नष्ट हो गया, इसलिए उसको न जाननेवाले कर्मप्रकृतिकार उसके ज्ञाताओको नमस्कार करते हैं ।
आचार्य यतिवृषभ उसके विच्छेदकी घोषणा न करके कर्मप्रवाद नामक आठवें पूर्व में उसका कथन होनेका निर्देश करते है । किन्तु कर्मप्रकृतिकार उसके ज्ञाताको नमस्कार करते है। और उनके चूर्णिकार कहते है कि कर्मप्रकृतिकारको उसका ज्ञान नही था क्योकि वह विच्छिन्न हो चुका था । इन दो प्रकारके कथनोसे दोनो चूर्णियोके कर्ता एक नही हो सकते ।
इसके सिवाय दोनो चूर्णियोमें जो भाषा-भेद पाया जाता है वह भी दोनोकी भिन्नकर्तृकताको ही प्रकट करता है । दिगम्बर धर्मकी मुख्य प्राचीन साहित्यिक भाषा शौरसेनी है । किन्तु इस भाषाका रूप कुछ विशेषताओको लिये हुए होनेसे उसे जैन- शौरसेनी कहते है । श्वेताम्बर आगम सूत्रो के भाष्य चूर्णि आदिकी
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अन्य कर्मसाहित्य : ३०९ भाषा महाराष्ट्री प्राकृत हैं । किन्तु उसमे भी कुछ अपनी विशेषताएँ है जिसके कारण उसे जैन-महाराष्ट्री कहा जाता है । दोनोका अन्तर दोनो चूणियोमें परिलक्षित होता है । प० हीरालालजीका कहना है कि कर्मप्रकृति चूणिकी भाषा परिवर्तित की गयी है। इसके लिए उन्होने मुद्रित कर्मप्रकृति चूणिसे तथा कर्मप्रकृतिके टीकाकार मलयागिरि एव यशोविजय उपाध्यायको टीकाओमें उद्धृत चूणि-वाक्योको तुलनाके लिए दिया है । यथा-नाम पगडीतो = णाम पगईओ । इस तरहके परिवर्तन अर्धमागधी और जैन-महाराष्ट्रीके ही अनुरूप है, शौरसेनीके नही । यतिवृषभके चूणि सूत्रोमें सर्वत्र 'पयडी' शब्द ही मिलता है। अर्धमागधीके अनेक लक्षण जैन-महाराष्ट्रोमें भी पाये जाते है और जैन-महाराष्ट्रीमें भी परिवर्तन हुए है 'क' के स्थानमें ग, तथा शब्द के आदि और मध्यमें भी 'ण' की तरह 'न', ये अर्धमागधीके लक्षण जैन-महाराष्ट्रीमें भी पाये जाते है । अनेक स्थलों में महाराष्ट्रीकी अपेक्षा शौरसेनीका सस्कृतके साथ पार्थक्य कम और सादृश्य अधिक है, यह बात कर्मप्रकृति-चूणि और कसायपाहुड-चूणिसूत्रोको देखनेसे स्पष्ट हो जाती है । अत टीकाकारोकी टीकामओमें उद्धृत चूणिवाक्योमें मूलचूणिसे जो कुछ अन्तर पाया जाता है वह इस बात का सूचक है कि टीकाकारोके द्वारा उद्धृत वाक्यो पर तत्कालीन प्रभाव है।
अत कर्मप्रकृति चूणि यतिवृषभकी कृति नही है । प्रत्युत यदि कर्म प्रकृतिके रचयिताने ही उसकी चूर्णि भी रची हो तो कोई असभाव्य वात नहीं है क्योकि चूर्णिकारने कई स्थानोपर बन्धशतकका निर्देश इस रूपमें किया है कि उससे उक्त सन्देहकी पुष्टि होती है । उदाहरण के लिए, उदीरणा प्रकरणको गाथा' ४७ के 'मणनाण सेससम' का व्याख्यान करते हुए चूर्णिमें कहा है । 'ये सब बन्धशतकमें कहा है फिर भी असमोहके लिए यहाँ उसका कथन किया है ।' यह बात चूर्णिकार ने चूणिमें किये गये कथनके सम्बन्धमें कही है । ___ चूणिके मूलकार रचित होनेमें यह आपत्ति की जा सकती है कि चूर्णिकारने प्रथम गाथाकी उत्थानिकामें 'आयरियेण' पदके द्वारा 'आचार्यने रची' ऐसा लिखा है। किन्तु हम देखते है कि पचसग्रहकारने अपनी स्वोपज्ञ पचसग्रहटीकामें अपना उल्लेख अन्यपुरुषके रूपमें अथवा सूत्रकारके रूपमें किया है। हम इस सम्बन्धमें विशेष जोर डालनेकी स्थितिमें नही है फिर भी हम अपने सन्देहको विद्वान् अन्वेषकोके सामने रखना उचित समझते है । हमारा विश्वास है कि कसायपाहुड और १ 'एए बधसतगे भणिया तहा वि असमोहत्य उल्लोइया-क० प्र० चू० । २ 'अतोत्यमपि न हि न शिष्ट अत इष्टदेवतानमस्कारपूर्वक प्रवृत्तवान्'-पञ्च०, सगा १
की उत्थानिका 'भावना सूत्रकार एवं करिष्यति'-'एतदेव स्वस्वामित्व भावयति', 'एतदेव वृत्तिकारो भावयति',-पंचस० ।
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३०८ - जैनसाहित्यका इतिहास त्ति वि । एसा कम्मपवादे । जा सा करणोवसामणा सा दुविहा-देसकरणोवसामणा त्ति वि सम्वकरणोवसामणा त्ति वि । देसकरणोवसामणाए दुवे णामाणि-देसकरणोवसामणा त्ति वि अप्पसत्थोवसामणा त्ति वि । एसा कम्मपयडीसु । जा सा सव्वकरणोवसामणा तिस्से वि दुवे णामाणि-सव्वकरणोवसामणा त्ति वि पसत्थकरणोवसामणा त्ति वि । एदाए एत्थ पयद ।'-क० पा० सु०, पृ० ७०७-७०८।
'करणकयाऽकरणा वि य दुविहा उवसामणत्थ वि इयाए ।
अकरण अणुइन्नाए अणुओगधरे पडिवयामि ॥१॥ (चू०) 'करणकय' त्ति-करणोवसणा, 'अकरणकय' त्ति अकरणोवसामणा दुविहा उवसामणत्थ । 'विति-याए अकरणअणु इन्नाए'त्ति-वितिया अकरणोपसमणा तीसे दुवे नामधिज्जाणि-अकरणोपसमणा अणुदिन्नोपसमणा य, ताते अकरणोपसमणाते 'अणुओगधरे पणिवयामि' त्ति किं भणिय होति ? करण क्रिया, ताए विणा जा उवसामणा अकरणोवसामणा, गिरिनदीपापाणवट्टससारत्थस्स जीवस्स वेदनादिभि कारणरुपशातता भवति, सो अकरणोवसामणा, ताते अणुओगो वोच्छिन्नो, तो त अजाणतो आयारिओ जाणतस्स नमोक्कार करेति । करणुपसमणाते अहिगारोत्थ ।।१।।' क० प्र० ।
चूणिसूत्रमें उपशामनाके दो भेद किये है। करणोपशामना और अकरणोपशामना । अकरणोपशामनाके दो नाम है-अकरणोपशामना और अनुदीर्णोपशा मना। इसका कथन कर्मप्रवादमें बतलाया है ।
कर्मप्रकृतिमें भी उक्त भेद करके अकरण-उपशामनाके ज्ञाताओको नमस्कार किया है । उसकी चूर्णिमें लिखा है कि अकरणोपशामनाका अनुयोग नष्ट हो गया, इसलिए उसको न जाननेवाले कर्मप्रकृतिकार उसके ज्ञाताओको नमस्कार करते है । ___ आचार्य यतिवृषभ उसके विच्छेदकी घोषणा न करके कर्मप्रवाद नामक आठवें पूर्वमें उसका कथन होनेका निर्देश करते है। किन्तु कर्मप्रकृतिकार उसके ज्ञाताको नमस्कार करते है। और उनके चूर्णिकार कहते है कि कर्मप्रकृतिकारको उसका ज्ञान नही था क्योकि वह विच्छिन्न हो चुका था । इन दो प्रकारके कथनोसे दोनो चूणियोके कर्ता एक नही हो सकते ।
इसके सिवाय दोनो चूणियोमें जो भाषा-भेद पाया जाता है वह भी दोनोकी भिन्नकर्तृकताको ही प्रकट करता है । दिगम्बर धर्मकी मुख्य प्राचीन साहित्यिक भापा शौरसेनी है। किन्तु इस भापाका रूप कुछ विशेषताओको लिये हुए होनेसे उसे जैन-शोरसेनी कहते है । श्वेताम्बर आगम सूत्रो के भाष्य चूणि आदिकी
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अन्य कर्मसाहित्य : ३०९ हाराष्ट्री प्राकृत हैं । किन्तु उसमें भी कुछ अपनी विशेषताएँ है जिसके उसे जैन-महाराष्ट्री कहा जाता है । दोनोका अन्तर दोनो चूणियोमें परिहोता है । ५० हीरालालजीका कहना है कि कर्मप्रकृति चूर्णिकी भाषा न की गयी है। इसके लिए उन्होने मुद्रित कर्मप्रकृति चूणिसे तथा कर्म- टीकाकार मलयागिरि एव यशोविजय उपाध्यायको टीकामोमें उद्धृत क्योको तुलनाके लिए दिया है । यथा-नाम पगडीतो = णाम पगईओ । इके परिवर्तन अर्धमागधी और जैन-महाराष्ट्रीके ही अनुरूप है, शौरसेनी। यतिवृषभके चूणि सूत्रोमें सर्वत्र 'पयडी' शब्द ही मिलता है। अर्घके अनेक लक्षण जैन-महाराष्ट्रोमें भी पाये जाते है और जैन-महाराष्ट्रीमें वर्तन हुए है 'क' के स्थानमें ग, तथा शब्द के आदि और मध्यमें भी 'ण' इ 'न', ये अर्धमागधीके लक्षण जैन-महाराष्ट्रीमें भी पाये जाते है। अनेक स्थलो राष्ट्रीकी अपेक्षा शौरसेनीका सस्कृतके साथ पार्थक्य कम और सादृश्य अधिक बात कर्मप्रकृति-चूर्णि और कसायपाहुड-चूर्णिसूत्रोको देखनेसे स्पष्ट हो है । अत टीकाकारोकी टीकाओमें उद्धृत चूणिवाक्योमें मूलचूणिसे जो कुछ पाया जाता है वह इस बात का सूचक है कि टीकाकारोके द्वारा उद्धृत पर तत्कालीन प्रभाव है। त कर्मप्रकृति चूणि यतिवृषभकी कृति नहीं है। प्रत्युत यदि कर्म प्रकृतिके ताने ही उसकी चूणि भी रची हो तो कोई असभाव्य बात नही है क्योकि परने कई स्थानोपर बन्धशतकका निर्देश इस रूपमें किया है कि उससे उक्त की पुष्टि होती है । उदाहरण के लिए, उदीरणा प्रकरणकी गाथा ४७ के गण सेससम' का व्याख्यान करते हुए चूणिमें कहा है । 'ये सव बन्धशतकमें है फिर भी असमोहके लिए यहाँ उसका कथन किया है ।' यह बात चूर्णिकार गमें किये गये कथनके सम्बन्धमें कही है । बूणिके मूलकार रचित होनेमें यह आपत्ति की जा सकती है कि चूर्णिकारने गाथाकी उत्थानिकामें 'आयरियेण' पदके द्वारा 'आचार्यने रची' ऐसा लिखा कन्तु हम देखते है कि पचसग्रहकारने अपनी स्वोपज्ञ पचसनहटीकामें अपना व अन्यपुरुषके रूपमें अथवा सूत्रकारके रूपमें किया है। हम इस सम्बन्धमें | जोर डालनेकी स्थितिमें नही है फिर भी हम अपने सन्देहको विद्वान् अन्वे। सामने रखना उचित समझते है । हमारा विश्वास है कि कसायपाहुड और रए बधसतगे भणिया तहा वि असमोहत्य उल्लोइया-क० प्र० चू०। अतोत्यमपि न हि न शिष्ट अत इष्टदेवतानमस्कारपूर्वक प्रवृत्तवान्'-पञ्च०, स०गा १ की उत्थानिका भावना सूत्रकार एव करिष्यति'--'एतदेव स्वस्वामित्व भावयति', एतदेव वृत्तिकारो भावयति',-पंचस० ।
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३१० · जैनसाहित्यका इतिहास यतिवृषभ के चूणिसूत्र कर्मप्रकृति तथा उसकी चूणिके रचयिताके सामने थे। चूर्णिका समय
चूणिके कर्ताकी तरह चूणिका समय भी अनिश्चित है। जिस तरह जिनभद्र गणिके द्वारा कर्मप्रकृतिका उल्लेख मिलता है उसी तरह उसकी चूणिका उल्लेख नही मिलता अत. जिनभद्रके सामने कर्मप्रकृतिकी चूणि उपस्थित थी या नही, यह निश्चयपूर्वक नही कहा जा सकता। किन्तु जिनभद्रगणिके विशेषावश्यकभाष्यका उद्धरण अपनी पचसग्रह टीकामें देनेवाले चन्द्रर्षि महत्तरके सम्मुख पचसंग्रहका कर्मप्रकृति विभाग रचते समय कर्मप्रकृति की ही तरह उसकी चूणि भी उपस्थित थी, यह निश्चित है । चूर्णिमें एक गाथा' उद्धृत है जिसमें योग के नामान्तर दिये है । यह गाथा पचसग्रह के मूलमें सम्मिलित कर ली गयी है । यह गाथा आवश्यक चूर्णिमें भी है किन्तु उसके मूलस्थानका पता नहीं लग सका। गाथा अवश्य ही प्राचीन होनी चाहिये। एक और गाथा क० चूर्णिमें उद्धृत है जो कुन्कुन्दके समयसार की ८०वी गाथा है, यह समयसार से ही उद्धृत की गयी होनी चाहिये क्योकि समयसारमें कोई गाथा ऐसी नही है जिसे सग्रह गाथा कहा जा सके । अत कर्मप्रकृति चूर्णिकी रचना समयसारके पश्चात् हुई है। कुन्दकुन्दका समय ईसाकी प्रथम शताब्दी है । कर्मप्रकृति ही जब उसके शताब्दियो पश्चात्' रची गयी है तब चूणिका तो कहना ही क्या है ।।
चूर्णिमें एक गद्याश और भी उद्धृत है-'सुठु वि मेहसमुदए होइ' यहाँ 'चदसूराण' (क० प्र० उदी० गा० ४८) यह अश नन्दीसूत्र ४३ में पाया जाता है। यद्यपि वाक्य नन्दीसूत्र में भी कहीसे लिया गया प्रतीत होता है । तथापि अनेक बातो का ध्यान रखते हुए यही सम्भव प्रतीत होता है कि चूर्णिकारने उसे नन्दीसूत्रसे लिया है । नन्दीसूत्र वलभी-वाचनाके समय (वि० स० ५१३)की रचना माना जाता है । अत चूर्णिको उसके पश्चात् की रचना मानना चाहिए । इसे भी चूर्णिको पूर्वावधि ही समझना चाहिए।
शतक-लघुचूर्णिके अवलोकनसे प्रकट होता है कि उसके कर्ताके सामने कर्मचूणि थी । उसका कर्ता भी पचसग्रहकार चन्द्रर्षि महत्तरको माना जाता है और
१ 'जोगो विरिय थामो उच्छ्राह परक्कभो तहा चिट्ठा । सत्ती सामत्थ त्ति य जोगस्स भवति
पज्जाया ॥१॥'-क० प्र०, च० (बध० ) गा०३ । २. पञ्चस०, कर्म प्र., गा० ४ । ३ 'जीवपरिणामहेतो(त) कम्मत्ता पोग्गला परिणमन्ति । पोग्गलकम्मणिमित्त जीवो वि तहेव
परिणमति ॥'-कर्म प्र०, चू०, सक. गा०१। ४ जै० सा० इ. (गु०), पृ १४३ ।
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अन्य कर्मसाहित्य • ३११ पचसग्रहके दूसरे भाग कर्मप्रकृतिमें चूर्णिका पर्याप्त उपयोग किया गया है मतः कर्म चूर्णि उसमे पूर्व रची जा चुकी थी । चन्द्रषि महत्तर का समय भी निश्चित नही है । किन्तु उन्होने पवसग्रहकी अपनी टीका में विशे० भाष्य से उद्धरण दिया है । अत. वे विक्रमकी सातवी शती से पहले नही हुए यह निश्चित है । उनकी उत्तराधि अभी अनिश्चित है । फिर भी इतना निश्चित है कि वे बारहवी शतीसे पहले हुए है क्योकि मलयगिरि की वृत्तिके अनुसार तो चूर्णिकी रचनाका समय वि० स० ५५०-७५० के मध्यमें जानना चाहिए ।
शतक कर्मग्रन्थ ( श्वे० ) -
कर्मप्रकृतिमें तथा उसकी चूर्णिमें शतक नामक ग्रन्थका उल्लेख पाया जाता । जिससे प्रकट होता है कि कर्मप्रकृतिकारने कर्म-प्रकृतिकी रचना करनेसे पूर्व एक शतक नामक ग्रन्थ भी रचा था । कर्म प्रकृतिके बन्धन करण की अन्तिम गाथामें कहा है कि-''इस प्रकार 'वन्धशतक' के साथ बन्धन-करणका कथन करने पर बन्ध- विधानका ज्ञान सुखपूर्वक शीघ्र होता है ।' चूर्णिकारने चूर्णिमें कहा है कि शतकको बन्ध-शतक कहा है । मलयगिरिने अपनी टीकामें लिखा है कि इससे शतक और कर्म-प्रकृतिकी एक कर्तृकताका आवेदन किया है ।
चूर्णिकारने तो अपनी चूर्णिमें अनेक स्थलो पर शतकका निर्देश किया है । उदाहरण के लिए कर्मप्रकृतिके उदीरणाकरण में अनुभागोदीरणाका कथन करते हुए कर्मप्रकृतिकारने कहा है कि 'अनुभाग- उदीरणामें सज्ञा, शुभ, अशुभ तथा विपाकका कथन अनुभागवधमें जैसा कहा है वैसा जानना, जो विशेष है वह कहते है ।' उसकी चूर्णि गाथाका व्याख्यान करते हुए चूर्णिकारने कहा है कि 'बन्धशतकके अनुभागबन्धमें जैसा कहा है वैसा ही कहना चाहिए ।' अत यह बात निर्विवाद है कि कर्मप्रकृतिका बडा भाई शतक नामक ग्रन्थ है ।
विषय परिचय
दूसरी और तीसरी गाथामें वर्णनीय विषयोंका निर्देश करते हुए ग्रन्थकारने १ 'सव्वस्स केवलिस्स वि जुगव दो नत्यि उवओगा । ( वि भा. गा ३०९६ ) ।
-प० स० टी० गा० ८ ।
२
'एव वधणकरणे परूविए सह हि वधसयगेण । बधविहाणाहिगमो सुहमभिगतु लहु होइ ॥ १०२ ॥ चू० - 'एतमि बधकरणेसयगेणा सह परूविते 'बन्धसतग'ति सतगमेव भण्णति । टी० -- एतेन किल शतक कर्मप्रकृत्योरेककट कता आवेदिता द्रष्टव्या 'क० प्र० वन्ध०, पृ० २०३ |
३ 'अणुभागुदीरणाए सन्ना य सुभा-सुभा विवागो य । अणुभागवन्ध भणिया नाणत्त पच्चया चेमे ||४३|| चू० –'अणुभागबन्ध भणिया' त्ति -- बधसयगस्स अणुभागबन्धे भणिया तहेव, भाणियव्वा ।' क० प्र० उदी० पृ० ६३ ।
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३१२ : जैनसाहित्यका इतिहास कहा है-'जिन जीवस्थानो और गुणस्थानोमें जितने उपयोग और योग होते है उन्हे कहे वन्धके चार प्रत्यय है-मिथ्यात्व, असयम, कपाय और योग । इनमेंसे किस गुणस्थानमें कितने प्रत्यय होते है यह कहेंगे । ज्ञानावरणादि आठो कर्मोके वन्धके विशेप कारणोका कथन करेंगे। जिनगुणस्थानोमे जितने वधस्थान उदयस्थान और उदीरणा स्थान होते हैं उनका तथा उनके सयोगका कथन करेंगे । अन्तमें सक्षेपसे वन्धविधानका कथन करेंगे।' ___ उक्त विषयसूचीके अनुसार कथन करते हुए ग्रन्थकारने सबसे प्रथम गाथा ४-५ में चौदह जीवस्थानोको कहा है। गाथा ६ में चौदह जीव समासोमें उपयोग ( ज्ञानोपयोग-दर्शनोपयोग ) का कथन किया है। गाथा ७ में योगका कथन है । गाथा ९ में चौदह गुणस्थानोके नाम गिनाये है । चूर्णिकारने अपनी चूर्णिमें अनेक गाथाए उद्धृत करके गुणस्थानोका स्वरूप समझाया है ।
गाथा १०में केवल गतिमार्गणामें गुणस्थानोका निर्देश किया है । किन्तु चूणिमें चौदहो मार्गणाओमें गुणस्थानोका कथन सक्षेपसे किया है। गाथा ११ में गुणस्थानोमें उपयोगका कथन किया है । गाथा १२-१३ में गुणस्थानोमें योगका कथन है। यद्यपि गाथा १२ में ही योगका कथन हो जाता है। किन्तु १३ वी गाथा मतान्तरकी सूचक है । उसके सवन्धमें चूर्णिकारने लिखा है कि किन्ही आचार्योके मतसे देशविरत और प्रमत्त-सयत गुणस्थानमें वैक्रियिक काययोग होता है उनके मतसे ऐसा पाठ है । शतककी ये दोनो गाथाएं चपकृत पंचसग्रहकी गाथा (अ०१-१८ ) की स्वोपज्ञ वृत्तिमें इसी क्रमसे उद्धृत है । गाथा १४-१५में गुणस्थानोमें बन्धके प्रत्ययोका कथन है । गाथा १६-२६तक आठो कर्मोके वन्धके विशेष कारण बतलाये है, जो तत्त्वार्थसूत्रके छठे अध्यायके अन्तमें भी बतलाये गये है । किन्तु दर्शन-मोहनीय कर्मके बन्ध-कारणोमें मौलिक अन्तर है । तत्त्वार्थसूत्र में 'केवली श्रुत,सघ, धर्म और देवोके अवर्णवादको दर्शन मोहनीयके वन्धका कारण बतलाया है । और शतक में अरिहन्त, सिद्ध, चैत्य, तप, श्रुत, गुरु, साधु और सघकी प्रत्यनीकताको बधका कारण बतलाया है। गाथा २७ से ३७ तक आठो कर्मोके बन्धस्थानो, उदयस्थानो और उदीरणास्थानो तथा उनके सयोगका कथन है । तत्पश्चात् प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग वन्ध और प्रदेशबन्धका कथन है।
शतक नामक एक ग्रन्थ, जिसे प्राचीन कर्मग्रन्थ कहा जाता है, चूणि,भाष्य और
१ केवलि श्रुतसधधर्मदेववर्णवादो दर्शनमोहस्य ।। त सू अ६ । २. अरहतसिद चेइय तघसुय गुरु साधु सघ पड़णोओ। बधइ दसणमोह अणत सारिओजेत
॥१८॥-५। तक
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अन्य कर्मसाहित्य ३१३
टीकाके साथ छपकर प्रकाशित हो चुका है । उसके दो सस्करण' हमारे सामने है। एकमें शतकके साथ चूणि भी मुद्रित है। इसपर श्रीशतक प्रकरण नाम मुद्रित है । दूसरे संस्करणमें शतकके साथ मलधारी हेमचन्द्र रचित टीका तथा चक्रेश्वराचार्य विरचित भाष्य मुद्रित है। चूणि टोकामें उसे कर्म-प्रकृतिकार शिवशर्म सूरिकी रचना बतलाया है। अत यह मानना होगा कि कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिमें जिस शतक अथवा बन्ध-शतकका निर्देश है वह यही है। उनमें जिन विषयोके लिए शतकका निर्देश किया है वे विषय भी प्रस्तुत शतकमें मिलते है।
चूर्णिकारने 'गाहापरिमाणेण सयमेत्त' तथा टीकाकारने 'गाथाशतपरिमाणनिष्पन्न यथार्थनामक शतकाख्य प्रकरणम्' लिखकर यह सूचन किया कि प्रस्तुत प्रकरणकी गाथा सख्या सौ है इसीसे इसका शतक नाम सार्थक है। किन्तु वास्तवमें दोनो ही सस्करणोमें गाथा परिमाण १०६ है। उन १०६ गाथाओपर चूणि और टीका दोनो है । फिर भी शतक नाम रखनेका और तदनुसार सौ गाथा सख्या बतलानेका कारण यह जान पडता है कि आदिकी तीन तथा अन्तकी तीन गाथाएं भारम्भ-परक और उपसहार-परक है। प्रतिपाद्य विषय मध्यकी सौ गाथाओमें ही पाया जाता है । अत 'शतक' नाम उचित ही है । इसका दूसरा माम बन्धशतक भी है। कर्मप्रकृतिमें इसका उल्लेख बन्धशतक के नामसे है । चर्णिकारने इसका खुलासा कर दिया कि शतकको ही बन्धशतक कहा है । अत चर्णिकारके समयमें शतक नामसे ही इसकी ख्याति थी ऐसा प्रतीत होता है। शतकके उत्तरार्णमें बन्धका वर्णन होनेसे उसे बन्ध-शतक नाम दिया गया है। किन्तु शतककी एक सौ सात गाथाओमें उसका कोई नाम नही दिया । प्रथम गाथा में कहा है-'इस प्रकरणमें जीवस्थान और गुणस्थानोके विपयमें दृष्टिवादसे सारयुक्त गाथाएं कहूगा, उन्हें सुनो,।' आगे गाथा २-३में वर्णित विषयकी सूची दी है। उसमें कहा है-'जिन जीवस्थानो और गुणस्थानोके जितने उपयोग और योग होते १ दोनों सस्करण राजनगरस्थ वीर समाजकी ओरसे प्रकाशित हुए हैं। २. 'केण कय ? ति शब्दतर्क न्याय प्रकरण कर्मप्रकृति सिद्धान्त विजाणएण अणेगवाय समा
लद्धविएण सिवसम्मायरियणामधेज्जेण कय।-चु०। ३. 'अनेकवादसमरविजयिमि श्रीशिवशर्मसूरिमि सक्षिप्ततर सुखबोध च गाथाशत
परिमाणनिष्पन्न यथार्थनामक प्रकरणमम्यधायीति । श० टी० । ४. 'सुणह इह जीवगुणसनिए सु ठाणेसु सारजुत्ताओ। वोच्छ कइवइयाओ गाहामओ दिठिवा
याओ ॥१॥-शतक । ५. 'उवयोग जोग विही जेसु य ठाणेसु जत्तिया अस्थि । जप्पच्चइओ वधो होइ जहा जेसु ठाणेसु ॥२॥बध उदयमुदीरणविहिं च तिण्ह पि तेसि सजोग । बधविहाण य तहा किंचि
समासं पवक्खामि ॥३॥-शतक ।
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३१४ ' जेनसाहित्यका इतिहास हैं उन्हें कहूँगा । जिन गुणस्थानोगे जिन-जिन गारणोग कबध होता है, उन्हें काहगा। वन्ध उदय और उदीरणाकी विधिको तथा उनके गगोगो कहगा। तया सक्षेपमें वधा भेदोका पाथन करगा '॥ अन्तगें गाथा' १०४में कहा है कि"विन्दुक्षेप FT गे परा बन्न-गमागका काथन किया । यह गर्गप्रवाद रूपी श्रुतसमुद्रका निस्यन्द माग है ॥' गाथा' १०५में कहा है-'मुक्त भरपज्ञानी गन्दमतिने वन्धविधान रागागको रना, बन्ध-गोभ शाता गुगल पुगप उगे पूग करके कहें ।।' ग अन्तिम गायाफे अनुगार तो यदि ग्रन्थगो कोई नाम दिया जा सकता है तो वह बन्धविधान समाग अगवा बन्धगमाम है । उमी परमे अन्यकारने उसे अपनी दूगरी कृति मगप्रतिमें वन्यगतक नाम दिया जान पडता है। उसके सम्बन्धमें और कुछ लिगनेरी पूर्व ग्रन्थका विषय-परिचय सक्षेपमें दिया जाता है।
इस विषय परिचयरो प्रकट होता है प्रस्तुत शतक अन्य एक सग्रह-नन्य जैसा है । उराको प्रथम गाथाके अनुसार भी उग रचयिताने दण्टिवादसे कुछ गाथाओका राम्भवतया सकलन किया है । इगीसे इसमें विविध विषयो का कथन पाया जाता है । इगका क्रमवद्ध प्रकरण बन्धरामास है, वही इसका मुख्य प्रतिपाद्य है। किन्तु उसमें भी परिपूर्णता नहीं है । गाथा ५२-५३ में कर्मोको उत्कृष्ट स्थिति बतला कर जघन्य स्थितिको करने की प्रतिज्ञा की है किन्तु जघन्य स्थिति नही बतलाई । शतकचूर्णिमें एक गाथा दी है जिसमें जघन्य स्थितिका कथन है और चूर्णिकार ने उसकी व्याख्या भी की है किंतु उस गाथाको मूलमें सम्मिलित नहीं किया। हेमचंद्र की टीका चूणिकी उस टीकको चर्चा तक नही है। प्रतिज्ञा करके भी कथन न करना कर्मप्रकृतिकार जैसे आचार्यके लिए उपयुक्त नहीं है। अत बन्धशतककी गाथाए सगृहीत जान पडती है । इसका समर्थन ग्रन्यके प्रारम्भको एक गाथासे होता है जो दोनो संस्करणोमें यथास्थान मुद्रित है किन्तु उसपर चूणिं नही है और इसी लिए टीकाकारने भी उसे मूलमें सम्मिलित नही किया किन्तु अपनी टीकामें उसे उद्धृत करते हुए लिखा है-' यह गाथा ग्रन्थके आदिमें पायी जाती है किंतु १ 'एसो वधसमासो विदु खेवेण वन्निओ कोइ । कम्मपवायसुयसागरस्स णिस्सदमेत्ताओ ॥१०४||- श.। २,-'बधविहाणसमासो रइओ अप्प सुयमद मइणा उ । त वधमोक्ख पिउणा पूरेऊण परिकहेतु
॥१०५॥-श०। , 'अरहते भगवते, अणुत्तर परक्कमे पणमिऊरण । बधसमये निवद्ध सग्रहणियमो पवक
खामि ॥१॥-(इतीय) गाथा आदौ दृश्यते, सा च पूर्वचूर्णिकारैरल्याख्यातत्वात् प्रक्षेपगाथेति लक्ष्यते, सुगमा च । नवरं कर्मप्रकृतिप्राभृताद्धृत्यसग्रहमेनमन्तस्तत्त्वगृहीत प्रवक्ष्यामि । कथभूतम् ? इत्याह-निबद्धम्' आरोपितम्, क्व ? इत्याह 'बन्धशतके' प्रस्तुतप्रकरणे । इद हि शतगाथानिष्पन्नत्वाचच्छतकोऽभिधीयते । बन्ध एव चात्र
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अन्य कर्मसाहित्य ३१५
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पूर्व चूर्णिकारोने भी उसका व्याख्यान नही किया है इसीलिए वह प्रक्षेप-गाथा प्रतीत होती है और सुगम भी है ।' फिर भी टीकाकारने गाथाके उत्तराद्ध का शब्दार्थ कर दिया है । गाथामें कहा है- 'अनुत्तर पराक्रमी अरहन्त भगवान्को नमस्कार करके बन्धशतकमें निबद्ध इस सग्रहको कहूगा ।'
टीकाकारने गाथा के उत्तरार्द्धका अर्थ इस प्रकार किया है -- 'कर्मप्रकृति प्राभूतसे उद्धृत करके इस बन्धशतक नामके प्रकरणमें आरोपित इस सग्रहको कहूगा ।' सो गाथाए होनेके कारण इसे शतक कहा जाता है और चूंकि इसमें बन्धका ही विस्तारसे कथन किया जायेगा इसीलिए इसे बन्धप्रधान शतक बन्ध - शतक कहा है ।'
इस गाथामें मगलाचरणके साथ बन्धशतक नाम भी आ जाता है । इसे मूल ग्रन्थसे अलग कर देनेपर ग्रन्थ बिना मगलका और बिना नामका रह जाता है । बन्धशतकके रचयिता की दूसरी अमरकृति कर्मप्रकृति' के आरम्भमें भी इसी प्रकार गाथाके पूर्वार्द्धसे मगल करके उत्तरार्धसे उसके प्रतिपाद्य विषयका सूचन किया गया है । अत उक्त गाथाकी स्थिति विचारणीय है। उससे शतककी स्थितिपर प्रकाश पडता है । बन्धशतक सग्रहात्मक होनेसे तथा प्रथम कृति होनेसे कर्मप्रकृति जैसी प्रोढ कृतिकी समकक्षता नही कर सकता और इसीसे उसके सम्बन्ध में ऐसा सन्देह होना संभव है कि कर्मप्रकृतिमें निर्दिष्ट बन्धशतक प्रस्तुत बन्धशतक नही है । किन्तु उसकी पुष्टिमें प्रबल प्रमाणोका अभाव है । शतक चूर्णि -
प्रस्तुत शतक पर एक चूर्णि उपलब्ध है जो मुद्रित हो चुकी है । यह लघु चूर्णि है इसके सिवाय एक बृहत् चूर्णि भी थी । उसका उल्लेख हेमचद्रने तो अपनी शतक टीकामें किया ही है, किन्तु मलयगिरि, देवेन्द्रसूरि आदिने भी अपनी टीकाओमें किया है । इसीसे टीकाकार हेमचन्द्रने प्रस्तुत मुद्रित चूर्णिको लघुचूर्णि कहा है । वृहच्चूर्णि अभी तक अनुपलब्ध है । लघुचूर्णिमें बृहच्चूर्णिका कोई उल्लेख देखनेमें नही आया । इससे निश्चयपूर्वक यह नही कहा जा सकता कि दोनोमेंसे
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विस्तरणाभिधास्यते अतो बन्धप्रधान शतको बन्धशतकस्तस्मिन्नित्यर्थं
शतक टी०- 1
१ 'सिद्ध सिद्ध त्यसुय वदिय णिधोय सव्वकम्ममल । कम्मट्ठगस्म करणठगु दय सताणि वोच्छामि ॥११- क० प्र० ।
२ ' उक्त च बृहच्चूर्णावस्मिन्न व विचारे' ( पृ ११ ) ।
लिखितमिति व स्वमनीपिंका भावनीयेति' - ( पृ २८ ) श०रि०
३. 'उक्तं च शतकगृहच्चूण ( पृ० १९, ३८,, ७८, -- पञ्चस. टी., पृ० १४७, १७३ । ४ ' शतकवृहच्चूर्णावप्युक्तम् - शतक टी० पृ० १२० ।
'एत्तच्च बृहच्चूर्णिमनुसृत्य
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२१८ : जेनहिलका नि
गति सज्ञान, भुताशाद, दिनकर
विध गदर कोई दो
गाय ११
गित्तरी
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महा भी
की माता है, नगमे
मानिने गए
उपयोग मार्गाने
जमिनका लगनानुयायी । पापना में जवानियां भी है। शुक
फ, धादि को माता
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विदारी त्या वर्गात नामक व
प्रागोन ग्रन्यदताम्यर है । भी जेन ६ को मेहतालामा हूँ ।
आत्मानन्द गभा भानगये कामप्रति हुआ है।
किन्तु प्रस्तावनाएँ सुनिधी पुण्यप्रियजने हमे भागने हुए प्रकारकाम होने का कारण भी बताया है
भोपा नहीं
वितन्
गतविका प्रकरण की प्राचीन ताम्रपतीय प्रतियोंक अन्त चन्द्र महत्तर
के नामको लिये हुए एक गाया दम प्रहार निती हूं
गाहग्ण गरीए नंदमहतरमानुगागे । टीगाइ नियमियाण गूगुना होइ गवई उ ॥
टीकाकारने इनका अर्थ इस प्रकार किया --नन्द्रमहार भावार्य मतका अनुसरण करनेवाली ७० गाथाओंमें यह ग्रंथ रचा गया है। उसमें टोकाकारीके द्वारा रचित नई गाथाओके मिलनेमे गाया सय्या नवानी हो गई है। इसके विवेचनमें लिया है कि इस सप्ततिका के कर्ता चन्द्रमहत्तर आचार्यने तो पहले सत्तर हो गाथाएँ रचो थी, आदि ।
उक्त गायाके इम भमपूर्ण अर्थके कारण हो गप्ततिकाको चन्द्रपि महत्तरकृत मान लिया गया जान पडता है । किन्तु गाथाका अर्थ है - 'चन्द्रपिं महत्तरके मतका अनुसरण करनेवाली टीकाके आधारसे सत्तरिकी गाथा ८९ हो गई ।' इसमें
१. 'अन्ने भणति - ओहिदसणसहिया छ उपभोगा- रा० नू पृ० ११ । ग अवधिदर्शन तत्कुन श्चिदभिप्रायाद्विशिष्टश्रुतविदो नेच्छन्ति ता सम्यगवगच्छाम । अथ सूने मियादृष्टयादीनामवधिदर्शन प्रतिपाणते । यत उक्त प्रशनी - 1 - पास. मलयटीका भा.१, पृ०१९ |
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अन्य कर्मसाहित्य : ३१९
सित्तरी प्रकरणकी गाथाओ में वृद्धि होनेका कारण बतलाया है । उसके कर्ताक विषयमें कुछ भी नही कहा । आचार्य मलयगिरिने भी अपनी टीकामें इस विषय में कुछ भी नही लिखा । सित्तरीकी चूर्णिमें भी उसके कर्ताका कोई निर्देश नही है । अत सित्तरी के कर्ताका प्रश्न अभी अनिर्णीत ही है । जैसे गाथा सख्याके आधारपर शतक नाम पड़ा वैसे ही गाथा सख्या के आधारपर इस ग्रन्थका नाम प्राकृतमें सित्तरी है । संस्कृत में उसे सप्ततिका कहते है । मलयगिरि टीकाके अनुसार ग्रन्थकी गाथा संख्या ७२ है । किन्तु चूर्णि सहित प्रकाशित सित्तरीमें गाथा सख्या ७१ है । इस अन्तरका कारण यह है कि मलयगिरि टीकाके अनुसार जिस गाथा - की सख्या २५ है उस गाथाको उक्त चूर्णि सहित सित्तरीमें मूलमें सम्मिलित नही किया है । यद्यपि उस पर भी चूर्णि है । किन्तु गाथाके आगे 'पाठतर' छपा हुआ है और पादटिप्पण में छपा है— 'अन्यकर्ता' का 'चेय गाथा' अर्थात् यह गाथा किसी अन्यके द्वारा रचित हैं । यदि उसे मूलमें सम्मिलित कर लिया जाये तो सित्तरीकी गाथा सख्या ७२ समझनी चाहिये । श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक- मण्डल आगराकी ओरसे प्रकाशित हिन्दी अनुवाद सहित सप्ततिका प्रकरणमें भी गाथा ७२ ही है ।
२
इन ७२ गाथाओं के सिवाय दस अन्य भाष्य गाथाएं है जिन पर चूर्णि भी है और टीका भी है । तथा पाँच गाथाएँ और है उनपर भी चूर्णि और टीका है । ये गाथाएँ विवरणात्मक हैं । इनके सिवाय एक गाथा और भी है जो आवश्यक नियुक्ति की है । इससे प्रतीत होता है कि मूल सप्ततिकाके व्याख्यानके लिए चूर्णि - कारके द्वारा ग्रन्थान्तरोंसे कुछ अन्य गाथाएँ भी सम्मिलित की गयी थी और मूल सप्ततिका अन्तर्भाष्य गाथाओं तथा उन अन्य गाथाओंके मिल जानेसे उनकी सख्या ८९ हो गयी । तथा पश्चात् उन सम्मिलित की गयी गाथाओको भी मूलकर्ता - की ही समझ लिया गया । यह बात मलयगिरिकी टीकासे प्रकट होती है । उसमें सम्मिलित की गई किन्ही किन्ही गाथाओ का निर्देश 'तथा चाह सूत्रकृत्' कहकर किया गया है, जो बतलाता है कि मलयगिरि उन्हें मूलकर्ताकी मानते है । किन्तु चूर्णिके अनुसार गाथा न० ६२ और ६३ तथा टीकाके अनुसार गाथा न ६३-६४ की व्याख्या अन्तर्गत आयी तीन गाथाएं दिगम्बरीय सप्ततिकाकी
। इस तरह
सप्ततिकाकी गाथा सख्यामें अन्तर पड गया है ।
१ मूल तथा अन्तर्भाष्य के साथ यह चूर्णि मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर डभोईसे प्रकाशित हो चुकी है।
२ ' सभिन्न पासंतो लोगमलोगं च सव्वभोसव्व । त नत्थि ज न पासइ भूय भव्व भविस्सं च ॥१२७॥ आ० नि० ।
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३२० : जेनगाहित्यका तिहाग रचयिता तथा रचनाकाल
म गति को रगना गिने गो गा गी अशा है। णि गंग में भी उरा गोई नही है । गितु गिलगे और पता दोनों पारम्भ और अन्तगे एकापता गो र पायी जाती है। पर की तरह गानतिमा आदिम भी मगल नही गिया गया है। मतगणी गागा १०४ में उसे गर्मप्रचार शुनमागरका निगन्न गा है। गन्ततिकागो प्रथम गागामें गेष्टिना नियन गाहा।। गप्तति पहली बार मन्तिम गाया ग प्रकार है
নিরা মিন যাণঠাগাগ। वोच्छ सुण गंगे गोराब वियागरग ॥१॥ जो जत्य अपरिपुन्नी अत्यो अपागमेण पोत्ति ।
स गगिऊण रहगा पूरे अण परिपातु ॥७२॥ शतापी आदि तथा मन्तिम गायाएं ग प्रकार है
मुणा इस जीवगुण गानाएगु गणेशु सारजुताओ। वोच्छ करण्यामओ गाहामो पिटुटोगगाओ ॥१॥ ऐसो बधनमागो विन्दुरोण बन्निओ कोइ । कम्मप्पवायसुयगागरस्म णिस्सदमेतामो॥१०४॥ वयविहाणामामो रइयो अप्पसुयमद मणा उ ।
तं वधमोक्सणितणा पूरेऊण परिकहेंति ॥१०५॥ यद्यपि भावगत तथा शन्दगत उक्त सादृश्य उल्लेसनीय है किन्तु उसके आधारपर कोई निष्कर्ष नही निकाला जा सकता। फिर भी इतना तो स्पष्ट रूपसे प्रतीत होता है कि शतककी तरह ही सप्ततिकाया रचनाकाल प्राचीन है । क्योकि जैसे जिनभद्रगणि क्षमा-श्रमणकी विशेषणवती कर्मप्रकृतिका निर्देश मिलता है वैसे ही सित्तरी' का भी निर्देश मिलता है । अत: यह निश्चित है कि कर्मप्रकृति और उसमें निर्दिष्ट शतककी तरह ही सप्ततिकाकी भी रचना विक्रमकी सातवी शताब्दीके पश्चात्को नहीं है। विषयपरिचय
सप्ततिकाकी प्रथम गाथामें बन्धप्रकृति-स्थान, उदयप्रकृति-स्थान और सत्त्वप्रकृति स्थानका सक्षपसे कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है। कर्मप्रकृतिका विषय१ 'सयरीए मोहवठ्ठाणा-॥९०।। 'सयरीए दो विगप्पा" ॥९१ सयरीय पचविहवंधगस्स
..||९२॥ विशेषणवती।
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प्राचीन कर्मसाहित्य . ३२१
परिचय कराते हुए दस करणोका अथवा कर्मोमें होनेवाली दस अवस्थाओंका स्वरूप बतला आये हैं। उनमें तीन अवस्थाएं मुख्य है-बन्ध, उदय और सत्ता । उन्हीका विशेषरूपसे कथन इस ग्रन्थमें है । जिसका निर्देश दूसरी गाथामें किया गया है। उसमें कहा गया है-कितनी प्रकृतियोंका बन्ध करनेवाले जीवके कितनी प्रकृतियोका वेदन ( उदय ) होता है तथा कितनी प्रकृतियोका बन्ध और वेदन करनेवाले जीवके कितनी प्रकृतियोका सत्व होता है । इस प्रकार मूल और उत्तर प्रकृतियोके विषयमें अनेक भंग जानने चाहिये ।' इन्ही भंगोका विवेचन इस ग्रन्थमें किया गया है। यथा, गाथा तीनमें कहा है-आठो कर्मोका अथवा सात कर्मोका अथवा छह कर्मोंका बन्ध करनेवाले जीवोंके आठो कर्मोंका उदय और सत्त्व होता है। (पांच, चार, तीन या दो कर्मोका बन्ध किसीके नहीं होता)। और एक कर्मका बन्ध करनेवाले जीवके तीन विकल्प होते है-एकका बन्ध, सातका उदय
और आठको सत्ता १, एकका बन्ध, सातका उदय और सातकी सत्ता २, एकका बन्ध, चारका उदय और चार की सत्ता ३ । पहला विकल्प ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीवके होता है क्योकि उसके मोहनीय कर्मका उदय नही होता। दूसरा विकल्प बारहवें गुणस्थानवी जीवके होता है क्योकि उसका मोहनीय कर्म नष्ट हो जाता है । और तीसरा विकल्प तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीवके होता है क्योकि उसके चार धाति कर्म नष्ट हो जाते हैं । और इन तीनों गुणस्थानोंमें केवल एक सातवेदनीय कर्मका ही बन्ध होता है। गाथा चारमें उक्त भगोंका कथन जीवसमासोमें और गाथा पाचमें गुणस्थानोमें किया है । आगे इसी प्रकारका कथन आठो कर्मोंको उत्तर प्रकृतियोको माधार बनाकर किया गया है। कर्म प्रकृति और सप्ततिकामे मतभेद
कर्मप्रकृति और सप्ततिकामें कुछ मतभेद पाया जाता है । सप्ततिका गाथा २८ में नामकर्मके सत्त्व स्थान ९३, ९२, ८९, ८८, ८६, ८०, ७९, ७८, ७६, ७५, ९, ८ ये बारह बतलाये है । और कर्मप्रकृतिमें (सत्ता० गा० ९) १०३, १०२, ९६, ९५, ९३, ९०, ८९, ८४, ८३, ८२, ९-८ ये बारह सत्त्व स्थान नाम कर्मके कहे है। इस अन्तरका कारण यह है कि कर्मप्रकृतिकार पांच बन्धन और पांच सघात नाम कर्मोको अलग गिनते है । किन्तु सप्ततिकामें उनकी पृथक् गणना नहीं की। उनका अन्तर्भाव शरीरमें ही कर लिया है। सप्ततिका चूर्णिमें 'अपणे करके कर्मप्रकृतिके मतको मागम और युक्तिसे विरुद्ध कहा है।
सप्ततिका गाथा ६१ में अनन्तानुबन्धी चतुष्कको उपशम प्रकृति वतलाया १ एत्य अण्णे अण्णारिसाणि संतठटाणाणि विगप्पयति, ताणि आगमे जुत्तीहिय न
घडति ।-सि० चू०, पृ० २७ ।
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३२२ : जेनसाहित्यका इतिहाग है किन्तु गर्गप्रगति ( उप२० गा० ३१ ) मे उगमा निषण किया है । राप्ततिगा 'णि 'गणेगि' गारगे उगमा निग किया है।
गगे मह नितित है गि गमतिका मागंप्रगनिगार यो गति नही है । अत. पतक मोर गप्ततिही आरा तथा अन्तिम गाथाओगे पाये जानेवाले गावश्यक भावारपर उन दोनोका गार्ता तब तक एका व्यक्ति नही माना जा गरता जवतक पातको कर्मप्रगतिकारी गति न माना जाये। कर्मस्तव
इन मूल अन्यती सरगा ५५ है। प्रारम्भिा गायाम जिनेन्द्रदेवको नगस्तार करके बन्ध, उस्य गोर सत्त्वगे गुरु 'रतव' को कहने की प्रतिज्ञा को गयो है । इसी परसे इगा गार्गस्तर नाग प्रतित हुगा प्रतीत होता है। पयोकि गार्गविषयक बना उदय सरवता ही इनमें विवेचन है। दिगम्बर्गय प्राप्त पचसंग्रहके अनार्गत तीसरा अधिकार कर्मस्तव नागा है। इस अधिकारमें प्रकृत कर्मस्तवकी प्राय सभी गाया पाई जाती है अतः इगो पर्मस्तव नाम के आधार पर ही उक्त पचराग्रह गोतीगरे अधिकारको कर्मस्तव नाम दिया गया है। चन्द्रपिकृत पसग्रहमी स्वोपन वृत्तिमें गर्मम्तया उरलेस मिलता है। अत प्रकृत गन्यका कर्मस्तव नाम गुमित एवं प्रसिद्ध है।
स्तवका प्रचलित अर्थ तो स्तुतिपरक ही है किन्तु स्तव और स्तुतिमें अन्तर है। अंगवायके चौदह भेदोमॅसे एक भेद चतुर्विशति स्तव है और एक भेद वन्दना है । चौवीस तीर्थसरोके स्तवनको चतुर्विशति स्तव कहते है और एक तीर्थकर विषयक स्तुतिको वन्दना चाहते है। अत स्तुतिसे स्तव व्यापक होता है।
पट्खण्डागमके वेदना खण्डके कृति अनुयोग द्वारमें आगममें उपयोगके प्रकार वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना अनुप्रेक्षा तथा स्तव स्तुति आदि
१. 'अण्णेसिं आयरियाण अणताणुवधीण उवसामणा नाम नत्थि, विसयोजणाणाम अणताणु
वधीण भवति ।' सि० चु० पृ० ६१ । २ 'नमिऊण जिणवारिंदे तिहुयणवरनाणदसणपईवे । वधुदयसत्तजुत्त वोच्छामि थय निसामेह, गोविन्दगणि की संस्कृत टीकाके साथ कमस्तव श्रीजैन आत्मानन्दसभा भाव.
नगरसे(वि० स० १०७२) 'सटीकाश्चत्वार प्राचीना कर्मग्रन्था' के अन्दर प्रकाशित हो चुका है। ३ 'चउबीसत्थो चउवीसह तित्थयराण वदणविहाण विदणा एकजिणजिणालयविपय ।'
-पटख पु १, ९६-९७ । 'एगदुगेतिसलोका थुतीसु, अन्तेसि होइ जा सत्त। देविदत्थयमादी तेण तु पर थया होइ ।।'-व्यव० स०७ उ० ।
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प्राचीन कर्मसाहित्य • ३२३
बतलाये है । इनका लक्षण बतलाते हुए धवलाकारने 'सब अंगोके विषयोकी प्रधानतासे वारह भगोके उपसहारको स्तव और बारह अगोंमेंसे एक अगके उपसंहारको स्तुति कहा है। इससे भी यही व्यक्त होता है कि स्तव सकलागी होता है और स्तुति एकागी होती है । अत उक्त कर्मस्तवमें अपने विषयका पूर्ण वर्णन है ऐसा ध्वनित होता है ।
यह पहले बतलाया है कर्म की दस अवस्थाएं होती हैं उनमें तीन मुख्य हैवन्ध, उदय और सत्ता । कर्मो के बंधनेको वन्ध, समयपर फल देनेको उदय और वन्ध के पश्चात् तथा उदय से पूर्व स्थिति रहनेको सत्ता कहते है ।
कर्म आठ है - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय । इनके अवान्तर भेद क्रम से पाँच, नो, दो, अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो और पांच कहे है । नाम कर्म के बयालीस भेदो के भी अवान्तर भेद मिलाने से नामकर्मके ९३ भेद होते है इस तरह आठो कर्मोंके कुल भेद १४८ होते हैं । उनमें भी अभेद विवक्षासे बन्धप्रकृतियोकी संख्या १२० और उदय प्रकृतियोकी संख्या १२२ ली गयी है किन्तु सत्त्व प्रकृतियो को सख्या १४८ ही ली गयी है |
मोक्ष के लिये प्रयत्नशील जीवकी आन्तरिक अभ्युन्नति के सूचक चौदह दर्जे है जिन्हे गुणस्थान कहते हैं । ज्यो ज्यो जीव ऊपरके गुणस्थानोमें चढता जाता है। उसके कर्मोंके बन्ध, उदय और सत्तामें ह्रास होता जाता है । पहले दूसरे तीसरे आदि गुणस्थानों में कर्मो के उक्त १२०, १२२ और १४८ भेदोमें से किन किन कर्मों का बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ताका विच्छेद होता है यही कथन इस कर्मस्तव में किया गया है ।
गा० २-३ में बतलाया है कि पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में सोलहका, दूसरे सासादनमें पच्चीसका और चौथे अविरत गुणस्थान में दस प्रकृतियोंके बन्धका विच्छेद होता है । इसी तरह आगे पांचवें गुणस्थानमें चारका, छठेंमें छेका, सातवें में एकका, आठवें में छत्तीसका, नौवेमें पाचका, दसवेंमें सोलहका और तेरहवें सयोग गुणस्थान में एक सातावेदनीयका बन्धविच्छेद होता है ।
गाथा चारमें बतलाया है कि चौदह गुणस्थानोमें क्रमसे ५, ९, १, १७, ८, ५, ४, ६, ६, १, २, १६, ३०, १२ कर्मप्रकृतियोंका उदय रुकता चला जाता है । पाँचवी गाथामें कहा है कि पहलेसे तेरहवें गुणस्थान पर्यन्त क्रमसे ५, ९, १, १७, ८, ८, ४, ६, ६, १, २, १६, और ३९ कर्मोंकी उदीरणाका विच्छेद होता है । इसी तरह आगे गा० ५, ६, ७ में सत्तासे विच्छिन्न होनेवाले कर्मोकी सख्याका निर्देश है । आगे उन्हीका विस्तारसे कथन करते हुए बतलाया है कि किस-किस
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१ 'वार सगसधारो सयलगविसयप्पणादो थवो णाम । वारसगेसु एक्कगोवसंधारो थुदी ग्राम । पट्ख ०, पु ९, पृ २६३ ।
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३२४ जैनसाहित्यका इतिहास गुणस्थानमें कौन-कौन कर्मप्रकृतियोको बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ताका विच्छेद
होता है।
कर्मस्तवके सबधमें एक उल्लेखनीय वात यह है कि इसमें क्षीणकषाय गुणस्थानके उपान्त्य समयमें निद्रा और प्रचला की उदयव्युच्छित्ति बतलाई है। दिगम्बर परम्परामें यही मत सर्वमान्य है। किन्तु श्वेताम्बर परम्परामें सत्कर्मका मत विशेष मान्य है जिसके अनुसार क्षपकश्रेणीमें और क्षीणकषायमें निद्रा प्रचलाका उदय नही होता। सप्ततिका-उसकी चूणि, कर्मप्रकृति और उसकी चूर्णिका यही मत है । नव्यकर्मग्रन्थके कर्ताने भी इसी मत को मान्य किया है। अकेले चन्द्रषि महत्तरने कर्मस्तवका मत मान्य किया है । रचनाकाल
इस ग्रन्थके कर्ताका पता न लग सकनेसे इसका रचनाकाल भी अनिश्चित है। फिर भी इसके अन्य ग्रन्थोमें पाये जानेवाले उल्लेख आदिसे इसकी प्राचीनता व्यक्त होती है। इसकी वृत्ति गोविन्दाचार्यने रची है। यह गोविन्दाचार्य नागदेवके शिष्य थे। किन्तु उनके समयादिका भी पता नही चलता। इस वृत्तिकी ताडपत्रीय प्राचीन प्रति सं १२८८ को लिखी हुई मिलती है । अत यह सुनिश्चित है कि गोविन्दाचार्य स० १२८८ से पहले हो गये है । और इसलिए कर्मस्तव उससे भी पहले रचा जा चुका था।
बन्धस्वामित्व नामक तीसरे प्राचीन कर्मग्रन्थके भी क्र्ताका पता नहीं है उसमें कर्मस्तवका का निर्देश किया गया गया है । अत इससे कर्मस्तव पहले रचा गया था । बन्धस्वामित्वकी टीका वृद्धगच्छीय देव सूरिके शिष्य हरिभद्रसूरिने रची थी । यह वृत्ति अहिल्ल पाटकपुरमें जयसिंहदेवके राज्यमें स० ११७२ में रची गयी थी। इसमें कर्मस्तवटीका का निर्देश है। यह टीका गोविन्दाचार्यकृत ही जान पडती है । अत कर्मस्तवकी उक्त टीका सं० ११७२ से भी पहले की है, इसलिये कर्मस्तव उससे भी पूर्वका है । दि० प्राकृत पचसग्रहके तीसरे अधिकार का नाम भी कर्मस्तव अथवा बन्धोदय सत्वाधिकार है । और उसमें उक्त कर्मस्तवकी गाथाएँ वर्तमान है । तथा चन्द्रषिकृत पंचसग्रहकी स्वोपज्ञ टीकामें कर्मस्तवका
१ 'इय पुव्वसूरिकयपगरणेसु जडवुद्धिणा मय रइय। बन्धस्सामित्तमिण नेय कम्मत्थय
सोउ ॥५४॥-ब० सा० । २ 'अणहिल्लपाटक पुरे श्रीमज्जयसिव्ह देवनृपराज्ये, व सा टी प्रशस्ति । ३. 'आसा दशानामपि गाथाना पुनव्याान कर्मस्तवटीकातो वोद्धव्य'-सा टी.।। ४. 'एवमेकादश भगा सप्ततिकाकार मतेन । कर्मस्तवकारमतेन पन्चानामप्युदयो भवति'
- सं. स्वो. भा २, पृ २२७ ।
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अन्य कर्मसाहित्य - ३२५ निर्देश है । अत उक्त कर्मस्तव इन दोनो पंचसंग्रहोंसे प्राचीन है। वीरसेनकी धवला टीकामें उद्धृत अनेक गाथाएं दि० पचसग्रह में ज्यो की त्यो पाई जाती हैं । अत दि० पंचसंग्रह विक्रमकी नौवी शताब्दीसे पहले रचा गया था और इसलिए कर्मस्तव उससे भी पूर्वका है। चन्द्रषि के प्राकृत पचसग्रह की स्वोपज्ञ टीकामें विशेषावश्यक माष्य का उद्धरण है और वि० भा० वि० स० ६८६ में रचा गया था । अत. चन्द्रर्षि विक्रमकी सातवी शतीसे पूर्व नही हुए यह निश्चित है।
विशेषावश्यक भाष्यकार जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणकी विशेषणवतीमें कर्मप्रकृति और सितरीका तो निर्देश है किन्तु कर्मस्तवका नहीं है।
किन्तु उसके आधार पर यह निष्कर्ष नही निकाला जा सकता कि इसलिए कर्मस्तव उसके बाद होना चाहिए। क्योंकि कमंस्तवका क्षीण कषायके उपान्त्यसमयमें निद्राद्विककी व्युच्छितिवाली बात श्वेताम्बर कार्मिकोके विरुद्ध है। और इसलिए कर्मस्तवकी ओर कट्टर पन्थियोकी अनास्था होना स्वाभाविक है जैसा कि आचार्य मलयगिरिके वचनोसे प्रकट होता है
'केचित् पुन क्षपकक्षीणमोहेष्वपि निद्राप्रचलयोरुदयमिच्छन्ति तत्सत्कर्मकर्मप्रकृत्यादिग्रन्थ सह विरुध्यते इत्युपेक्ष्यते,-(सप्तति० टी०, पृ० १५८)
'अर्थात् कोई आचार्य क्षपक और क्षीणमोहोमें भी निद्रा-प्रचलाका उदय मानते है, वह सत्कर्म और कर्मकृति आदि ग्रन्थो से विरोधको प्राप्त होता है, इसलिए उसकी उपेक्षा करते हैं।
विशेषावश्यक भाष्यकारने भी शायद इसीलिए उसकी उपेक्षा की हो। कर्मस्तवमें कर्मोके नाम तथा भेदसख्यावाली गा० ८-९, शतक में ३८, ३९ नं० पर है । इसी तरह गा० ४८ सप्ततिचूर्णिमें पृ० ६६ पर है। मलयगिरिने उसका उल्लेख 'तथाचाह सूत्रकृत' करके किया है । जिससे प्रकट होता है कि वह उसे सप्ततिकारकी मानते है।
इस सादृश्यसे भी कोई निष्कर्ष निकालना तो सम्भव नही है। किन्तु सित्तरी और शतककी प्राचीनता की दृष्टिसे यही सम्भावना की जा सकती है कि सम्भवतया वह उन दोनो के पश्चात् और दि०प० स के पहले रचा गया है। दि० प्राकृत पञ्च संग्रह
पच सग्रह नामके चार अन्य उपलब्ध है दो प्राकृत में और दो सस्कृतमें। प्राकृत पचसंग्रह एक दिगम्बर परम्परा का है और एक श्वेताम्बर परम्पराका । यहाँ प्रथमकी चर्चा पहले की जाती है।
इस पंच संग्रहको प्रकाशमें लानेका श्रेय वीर सेवा मन्दिर देहलीके प०
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३२६ - जैनसाहित्यका इतिहास परमानन्दको है । उन्होने 'अनेकान्त' वर्ष ३, कि. ३ में 'अति प्राचीन प्राकृत पंच संग्रह' शीर्षक से एक लेख प्रकाशित कराया था। उसीसे उसकी जानकारी प्राप्त हुई थी । अब तो यह प्रकाशित हो चुका है। ___ इस पचसग्नहमें न तो उसके रचयिताका ही कोई निर्देश है और न ग्रन्थका ही नाम है । अन्तमें एक वाक्य लिखा है 'इदि पचसंगहो समत्तो।' उसीसे यह प्रकट होता है कि इसका नाम पच सग्रह है। इसमें पांच प्रकरण है-जीव समास, प्रकृति समुत्कीर्तन, कर्मस्तव, शतक और सप्ततिका । अत पंच सग्रह नाम तो उचित ही है । किन्तु यह नाम पीछेसे दिया गया है या पहलेसे रहा है यह चिन्त्य है।
जो दो संस्कृत पंच सग्नह है वे प्राय इसीको लेकर रूपान्तरित किये गये है, अतः उनके नामसे यह तो स्पष्ट हो जाता है कि उनकी रचना के समय यह इसी नामसे प्रसिद्ध था। अमितगति (वि. स. १०७३) ने अपने पचसग्रहमें एक स्थानपर (पृ० १३१ ) लिखा है-पचसग्रहके अभिप्रायसे यह कथन है । मत पचसंग्रह नाम ही प्रचलित था ।
विक्रमकी तेरहवी शतीके ग्रन्थकार पं० आशाधरजीने भगवती आराधनाकी गाथा २१२४ पर रचित मूलाराधना दर्पण नामक टीकामें 'तदुक्त पञ्चसग्रहे करके छै गाथाएँ उद्धृतकी है । ये छहों गाथाएँ प्रकृत प्राकृत पचसग्रहके तीसरे अधिकारमें इसी क्रमसे पाई जाती है । हमारे जाननेमें आशाधरजो प्रथम व्यक्ति है जिन्होने प्राकृत पचसग्रहका इस प्रकार स्पष्टरूपसे निर्देश किया है। इससे यह निर्विवाद रूपसे निर्णीत हो जाता है कि विक्रमकी तेरहवी शतीमें प्रकृत ग्रन्थ पचसग्रहके नामसे ख्यात था तथा उससे पहले भी अर्थात् सस्कृत पचसग्रहके रचनाकालमें भी उसे पचसग्रह कहते थे।
विक्रमकी नौंवी शतीके प्रसिद्ध जैनाचार्य वीरसेनने अपनी धवलाटीकामें 'उक्त च' करके बहुत सी गाथाएँ उद्धत की है। उनमें बहुत-सी गाथाएं इस प्राकृत पंचसग्रहमें वर्तमान है। षट्खण्डागमके 'सत्प्ररूपणा' नामक प्रथम पुस्तकको धवलाटीकामें उद्धत जिन गाथाओको पादटिप्पणमें गोमट्टसार जीवकाण्डमें पाई
प्राकृत पञ्च सग्रह सुमति कीति की टीका तथा प. हीरालाल जी की भाषा टीका के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से सन् १९६० में प्रथमवार प्रकाशित हुआ है । इसी में उसकी प्राकृत चूर्णि तथा श्रीपाल सुत डड्ढा विरचित सस्कृत पचसग्रह भी प्रथमवार प्रकाशित हुआ है। दूसरा प्राकूत पचसग्रह स्वोपज्ञ और मलय गिरि की वृत्ति के साथ मुक्ताबाई ज्ञान मन्दिर डभोई (गुजरात) से सन् ३७-३८ मे प्रकाशित हुआ है। अमितगतिकृत पचसग्रह मूल माणिक चन्द ग्रन्थ माला बम्बई से प्रथमवार प्रकाशित हुआ था।
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अन्य कर्मसाहित्य ३२७ जानेवाली बतलाया है और जिनकी सख्या सो से भी ऊपर है, वे सब गाथाएँ पचसंग्रह प्रथम अधिकारमें जिसका नाम जीव समास है, पाई जाती है ।
उसपरसे प० परमानन्दजीने अपने लेख में यह निष्कर्ष निकाला था कि धवलाकारके सामने पचसंग्रह अवश्य था । इसपर आपत्ति करते हुए मुख्तार श्रीजुगलकिशोरजीने लिखा था- 'कम-से-कम जबतक धवलामें एक जगह भी किसी गाथाके उद्धरणके साथ पंचसंग्रहका स्पष्ट नामोल्लेख न बतला दिया जाये तवतक मात्र गाथामोकी समानता परसे यह नही कहा जा सकता कि धवला में वे गाथाएँ इसी पचसंग्रह परसे उद्धृत की गई है जो खुद भी एक सग्रह ग्रन्थ है ।' ( पु० वाक्य सू० प्रस्ता०, पृ० ९५ ) ।
मुख्तार साहबको आपत्ति बहुत ही उचित थी । किन्तु धवला' में ही एक स्थान पर 'जीवसमासए वि उत्त' करके नीचेकी गाथा उद्धृत है
छप्पच णव विहाण अत्थाणं जिणवरोवइट्ठाण | आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत ||
यह गाथा पचसग्रहके अन्तर्गत जोव समास नामक प्रथम अधिकारमें मौजूद है और सत्प्ररूपणाको घवलामें उद्धत लगभग १२५ गाथाएँ भी जीव समास नामक अधिकारकी ही है । अत' इस उद्धरण से यह बात तो निर्विवाद हो जाती है कि पचसंग्रहका कम-से-कम जीव समास नामक अधिकार तो वीरसेन स्वामी के सामने वर्तमान था । किन्तु जहाँ उक्त उद्धरणमे यह बात सिद्ध होती है वहां एक शका भी होती है कि वीरसेन स्वामीने पचसंग्रहका नामोल्लेख न करके उसके अन्तर्गत अधिकारका नाम निर्देश क्यो किया ?
यदि धवलामें केवल जीव समाससे हो उद्धरण लिये होते तो कहा जा सकता था कि पचसग्रहके अन्य अधिकार वीरसेन स्वामीके सामने नही थे । किन्तु 'उक्त च' करके उद्धृत कुछ गाथाएँ पचसग्रहके अन्य अधिकारो में पाई जाती है । इसीसे हमें यह सन्देह उत्पन्न हुआ कि पचसग्रह नाम क्या पीछे से दिया गया है । इस सन्देहके अन्य भी कारण है और उन्हें बतलाने के लिये ग्रन्थी आन्तरिक स्थिति आदि पर भी प्रकाश डालना आवश्यक है । उससे पहले एक आवश्यक जानकारी करा देना उचित होगा ।
पचसग्रह नामकी सार्थकता -
चन्द्रपि महत्तरकृत पचसंग्रहके आरम्भ में पचसग्रह नामकी सार्थकता बतलाते
O
-पटख पु० ४, पृ० ३१५।
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३२८ : जैनसाहित्यका इतिहास हुए कहा है कि इस ग्रन्थमें शतक अदि पांच ग्रन्थोको सक्षिप्त किया गया है अथवा इसमे पाँच द्वार है इसलिए इसका पचसग्रह नाम सार्थक है। शतक आदि पाँच ग्रन्थोका नाम ग्रन्थकार ने नही बताया। किन्तु उनकी स्वोपज्ञ टीकामें कर्मस्तव और सप्ततिका ग्रन्थोका नाम आया है। तथा दूसरे भागका नाम कर्मप्रकृति है जो शिवशर्मरचित कर्मप्रकृतिके आधार पर रचा गया है। अत तदनुसार शतक, सप्ततिका, कर्मप्रकृति और कर्मस्तव इन चार ग्रन्थोका इस पचसंग्रहमें संक्षेप किया गया है ऐसा कहा जा सकता है। किन्तु टीकाकार मलयगिरिने लिखा है कि इस पचसग्रहमें शतक, सप्ततिका, कषाय प्राभृत, सत्कर्म, और कर्मप्रकृति इन पाँच ग्रन्थोका संग्रह है अथवा योगोपयोग विषय मार्गणा, वधक, वधव्य, बन्धहेतु और बन्धविधि इन पांच अर्थाधिकारोका सग्रह है इसलिए इसका नाम पचसग्रह है । पंचसग्रह नामके इस अर्थक प्रकाशमें एक अर्थ तो दि०५० स० में स्पष्टरूपसे घटित होता है कि उसमें भी जीवसमास, कर्मप्रकृतिस्तव, बन्धोदयोदीरणास्तव, शतक और सप्ततिका नामक पाँच अधिकार है, इसलिए इसका पचसनह नामका सार्थक है। किन्तु क्या श्वे० प० स० की तरह दि० प० स० में भी पांच ग्रन्योका संग्रह किया गया है, यह प्रश्न विचारणीय है इसके समाधान के लिए हमें प्रत्येक अधिकार का तुलनात्मक परिशीलन करना होगा। १ जीव समास और सत्प्ररूपणा
इस दि० प० स० के प्रथम अधिकार का नाम जीवसमास है। इसमें २०६ गाथाएँ है । प्रथम गाथा में अरहन्तदेवको नमस्कार करके जीवका प्ररूपण करने की प्रतिज्ञा की है। इस गाथापर प्राकृतमें चूर्णि भी है। दूसरी गाथामें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति प्राण, सज्ञा, चौदह मार्गणा और उपयोग इन २० प्ररूपणाओको कहा है। इन्ही बीस प्ररूपणाओका कथन इस जीव समास नामक अधिकारमें है । षट्खण्डागम के प्रारम्भिक सत्प्ररूपणा सूत्रो में भी गुणस्थान और मार्गणाओका कथन है । किन्तु इस प्रकारसे वीस प्ररूपणाओ का कथन उसमें नहीं है । सत्प्ररूपणा सूत्रोको धवला टीका गुण स्थान और मार्गणाओका कथन वीर
१ सयगाइ पच गया जहारिह जेण येत्थ सखिता। दाराणि पच अहवा तेन जहत्थाभि
हाणमिद ॥२॥-श्वे० प० स०। 'एवमेकादश भगा . सप्तति काकारमतेन । कर्मस्तवकारमतेन पञ्चानामप्युदयो भवति ततश्च त्रयोदशभगा' -१० स० स्वो टी० भा० ३ गा० १४ । 'पचाना शनक-सप्ततिका-कपायप्रामत-सत्कर्म-कर्मप्रकृति लक्षणाना ग्रन्याना अथवा पचानामर्थाधिकाराणा योगोपयोगविषयमार्गणा -बन्धक-बधन्य-गन्धहेतु विधि लक्षणाना सग्रह पच सग्रह ।'-श्वे० १० स०, टी. पृ. ३ ।
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अन्य कर्मसाहित्य ३२९ सेन स्वामीने जीव समास नामक अधिकारके आधार पर ही किया है और उससे लगभग सवा सौ गाथाए भी प्रमाणरूपसे उद्धृत की है ।
सत्प्ररूपणा में पहले मार्गणाओका निर्देश है पश्चात् गुणस्थानोका और पचसग्रह गत जीवसभासमें पहले गुणस्थानोका कथन है पीछे मार्गणाओका । सत्प्ररूपणा सूत्र ४ की घवलामें चौदह मार्गणाओका सामान्य कथन करते हुए वीरसेन स्वामीने चौदह मार्गणाओसे सम्वद्ध १६ गाथाए प्रमाणरूपसे उद्धृत की हैं जो प० स० के जीवसमास अधिकारमे ज्यो की त्यो वर्तमान है । आगे गुणस्थानो के वर्णनमें तेईस गाथाएँ प्रमाणरूपसे उद्धृत की है । ये सब भी इसी प्रमाण में वर्तमान है । और जीवसमासाधिकारमें उनकी क्रम संख्या क्रमश ३, ६, ७, ९, १०, १२, ११, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २४, २५, २७, २९, ३०, ३१ है । इनमेंमे क्वचित् ही साधारण-सा पाठ भेद पाया जाता है और केवल एक जगह गाथाका व्यतिक्रम है । सत्प्ररूपणा में गुणस्थानोके पश्चात् मार्गणाओका विशेष कथन है उसकी धवलामें भी प्रत्येक मार्गणाके प्रकरणमें जीव समासको गाथाए उद्धृत है | गति 'मार्गणा में पाच गाथाएँ पाचो गति सम्बन्धी उद्धृत है और उनकी क्रम सं० जी० स० में क्रमसे ६० से ६४ तक है । इन्द्रिय मार्गणामें जी० स० की गा० न० ६६, ६७ और ६९ क्रमसे उद्धृत है । आगे क्रमसे चार गाथाएँ और उद्धृत है जिनमें दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पचेन्द्रिय जीवोको उदाहरण के रूप में गिनाया है । जो० स० में भी गा० ६९ से आगे ( ७०-७३ ) चार गाथाओ से दो इन्द्रिय आदि जीवोको गिनाया है किन्तु दोनो ग्रन्थो की केवल इन्ही गाथाओमें मेल नही है, भिन्नता है । नीचे उन चारो गाथाओको दिया जाता है ।
पञ्चसग्रह गत जीव समासमें ये चारो गाथायें इस प्रकार पाई जाती हैखुल्ला वराड सखा अक्खुणह अरिट्ठगा य गडोला । कुक्खि किमि सिप्पिआइ णेया वेइदिया जीवा ॥७०॥ कुथु - पिपीलिय- मक्कु - विच्छिय-जू विंद-गोव गु भीया । उत्तिंग मट्टियाई ( ? ) णेया तेइदिया जीवा ॥७१॥ दंस - मसगो य-मक्खिय- गोमच्छिय- भमर- कीड - मक्कडया | सलह - पयगाईया णेया चउरिदिया जीवा ॥७२॥ अंडज पोदज- जरजा-रसजा ससेदिया य सम्मुच्छा । उभिदिमोववादिय णेया पचिदिया जीवा ॥७३॥
१. पट्ख० पु० १, पृ० २०२-२०४ ।
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३३० . जैनसाहित्यका इतिहास और धवला में उद्धृ त गाथाएँ इस प्रकार है
'कुक्खि-किमि-सिप्पि सखा गडोलारिटु अक्ख-खुल्ला य । तह य वराडय जीवा णेया वीइदिया एदे ॥१३६।। कुथु-पिपीलिक-मक्कुड-विच्छिय-जू-इदगोव गोम्ही य । उतिरगणट्टियादी या तेइदिया जीवा ॥१३७॥ मक्कडय-भमर-महुवर-मसय-पयगा-य सलह गोमच्छी । मच्छी सदंस कीडा णेया चरिंदिया जीवा ॥१३८॥ सस्से दिम-सम्मच्छिम-उन्भेदिम-ओववादिया जीवा । रस-पोदंड जरायुज णेया पचिदिया जीवा ॥१३९॥'
~पट ख० पु. १, पृ० २४१-२५६ । इनमेंसे तेइन्द्रिय जीव सम्बन्धी गाथा में तो कोई अन्तर नहीं है, किन्तु शेष तीनो गाथाएँ भिन्न है और साथ में ही यह भी उल्लेखनीय है कि आगे १४० में जो गाथा उद्धृत है वह भी जी० स० में गाथा ७३ से आगे यथा क्रम पाई जाती है। मध्यकी केवल इन तीन गाथाओमें ही भेद होनेका कारण समझमें नही आता। ___ काय मार्गणामें ग्यारह गाथाएं उद्धृत है ये गाथाएं भी जीव समासमें है केवल उनके क्रममें अन्तर है। धवलामें उद्धृत गाथा १४४ का नम्वर जी० स० में ८७ है । १४५ से १४८ तक एक साथ उद्धृत गाथाओं की क्रमसख्या जी० स में ८२ से ८५ तक है । और १४९ से १५३ नम्बर तक उद्धृत गाथाओंकी सख्या जी० स० मे ७७ से ७८ तक यथाक्रम है। योग मार्गणामें १२ गाथाए उद्धृत है । उनमें अन्तिम गाथाको छोडकर, जो धवलामें प्रथम उद्धृत है, शेष गाथाएँ जी०स० में यथाक्रम पाई जाती है। उनमेंसे केवल तीन गायाओके प्रथम चरणमें पाठभेद है-ओरालिय मुत्तत्थं, । 'वेउन्विय मुत्तत्थ' और 'महारय मुत्तत्थ' इन तीन प्रथम चरणोके स्थानमें जीवसमास में 'अतोमुहुत्त मज्झ' पाठ पाया जाता है। इस मार्गणामें दो गाथा और भी उद्धृत है जो जी० स० में पाई जाती है।
वेद मार्गणामें चार गाथायें उद्धृत है चारों यथाक्रमसे जी० स० में वर्तमान है ।किन्तु कसाय मार्गणामें उद्धृत गाथाओकी स्थिति इन्द्रिय मार्गणाके तुल्य है । दोनो को चार गाथाओमें अन्तर पाया जाता है। धवला में उद्धृत वे चार गाथाएँ इस प्रकार है
सिल पुढवीभेद धूली जलराईसमाणो हवे कोहो । णारय-तिरिय-णरामर-गईसु उप्पायओ कमसो ॥१७४॥
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अन्य कर्मसाहित्य • ३३१ सेलठ्ठि कठिवेत्ते णियभेएणणु हरतो माणो । णारय तिरय परामरगईसु उप्पायो कमसो ॥१७५॥ वेलुवमूलोरभयसिंगे गोमुत्तेएण खोरप्पे । सरिसी माया णारयतिरियणरामरेसु जणइ जिम ॥१७६।। किमिराय चक्क तणु मल हरिदराएण सरिसमो लोहो । णारय तिरिक्ख-माणुस देवसुप्पायओ कमसो ॥१७७||
-(पृ० ३५०) जी० स० (पं० स० ) में ये गाथाए इस प्रकार है
सिलभेय पुढविभेया धूलीराई य उदयराइसमा । णिर तिरि पर देवत्त उविति जीवा हु कोहवसा ।।११२।। सेलसमो अद्विसमो दारुसमो तह य जाण वेत्तसमो । णिर-तिरि-णर देवत्त विति जीवा हु माणवसा ॥११३॥ वसीमूल मेसस्स सिंग गोमुत्तिय च ( खोरप्प) । णिर-तिरि-णर-देवत्त उवितिं जीवा हु मायवसा ॥११४॥ किमिराय चक्क मल कद्दमो य तह चेय जाण हारिद्द ।
गिर-तिरि-णर-देवत्त उविति जीवा हु लोहवसा ॥११५॥ यहाँ भी आगे की गाथा दोनोमें समान है ।
ज्ञानमार्गणा ८ गाथाएँ उद्धृत है जो जी० स० में यथाक्रम है। संयम मार्गणामें उद्धृत ८ गाथाएं भी जी० स० में यथाक्रम है। मध्यकी केवल एक गाथा सयमासयमवाली ऐसी है जो धवलामें छोड दी गई है । दर्शन मार्गणा में उद्धृत तीन गाथाएं भी जी० स० में यथाक्रम है। लेश्या मार्गणामें उद्धृत दस गाथायें भी जी० स० में यथाक्रम है। किन्तु सम्यक्त्व मार्गणामें उद्धृत पाच गाथाओमें से जी० स० में शुरु की तीन गाथायें तो यथाक्रम है अन्तकी दो गाथाओमें से उपशम सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाने वाली गाथा भी जी० स० में है किन्तु वेदकसम्यक्त्ववाली गाथा नही है उसके स्थान में अन्य गाथा है। इस तरह सत्प्ररूपणा सूत्रो की धवला टीका में उद्धृत बहुत-सी गाथायें पचसग्रह के प्रथम अधिकारमें वर्तमान है केवल उक्त गाथामो की स्थिति चिन्त्य है जीव समास अधिकारमें गाथा १८२ तक वीस प्ररूपणाओका कथन समाप्त हो जाता है । यहां तकका कथन क्रमबद्ध और व्यवस्थित है। किन्तु आगेका कथन वैसा व्यवस्थित नहीं है । १८२ वी गाथामें वीस प्ररूपणाओंके कथन का उपसहार करनेके पश्चात् पुन लेश्याओका वर्णन प्रारम्भ हो जाता है। यह कथन दस गाथाओमें है। इसमें जीवोके गतिके अनुसार द्रव्यलेश्या और भावलेश्याका कथन
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३३२ जैनसाहित्यका इतिहास किया है । यह कथन लेश्या मार्गणामें ही होना चाहिए था संस्कृत पं० स० में ऐसा ही किया गया है।
लेश्याओ का कथन समाप्त होने के बाद सिद्धान्त की फुटकर विशेप वातोका सग्रह है-जिनमें बतलाया है कि सम्यग्दृष्टि कहा-कहा उत्पन्न नही होता । कौन संयम किस किस गुणस्थानमें होता है ? फिर सात समुद्धातो का कथन है। केवलिसमुद्धात का कथन करते हुए एक गाथामें कहा है कि छै मास आयु शेष रहने पर जिन्हे केवलज्ञान होता है वे केवली नियमसे समुद्धात करते है । शेषके लिये कोई नियम नहीं है । यह गाथा इस प्रकार है--
छम्मासाउगसेसे उप्पन्न जेसि केवल णराण ।
ते णियमा समुग्धायं सेसेसु हवति भयणिज्जा ॥ २०० ।। यह गाथा धवलामें इस रूपमें उद्धृत है--
छम्मासाउवसेसे उप्पण्ण जस्स केवल णाणं । स समुग्धामो सिज्झइ सेसा भज्जा समुग्घाए ।।
(पट पु० १, पु० ३०३) भगवती आराधनामें यह गाथा इस रूपमें पाई जाती है--
उक्कस्सएण छम्मासाउगसेसम्मि केवली जादा ।
बच्चति समुग्धाय सेसा भज्जा समुग्धादे ॥ २१०९ ॥ गाथा के इन रूपो को देखते हुए यह कहना तो शक्य नही है कि धवलाकारने उक्त गाथा उसी जोव समास से उद्धत की है या भ० आराधना से । किन्तु इसी सम्बन्ध में उन्होने एक गाथा और उद्धत की है जो भ० आराधनाकी २११० वा गाथा है यद्यपि उसमें भी पाठ भेद है। अत. सभव है उन्होने उक्त दाना गाथा भ० आराधना से ही ली हो। किन्तु वीरसेन स्वामी ने इन दोनो गाथाओ को आगम नही माना है। जब कि जीव समास से उद्धत गाथा का आर्ष कहकर उल्लेख किया है और तत्वार्थ सूत्र से भी उसे प्रथम स्थान दिया है ।
वह उद्धरण इस प्रकार है-- 'के ते एकेन्द्रिया ? पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः । एतेषा स्पर्शनमेकमेवे
१ 'जेसिं आउ समाइ णामा गोदाणि वेयणीय च। ते अकय समुग्धाया वज्जतिपरे
समुग्घाए । जेसि आउसमाई णामगोदाइ वेदणीय च । ते अकद समुग्धादा जिणा
उवणमसति सलेमि ॥२११०॥ २. एतयोर्गाथयोरागमत्वेन निर्णयाभावात् । भावेवास्तु गाथयोरेवोपादानम् । -पट.
स, पु. १, पृ. ३०४
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अन्य कर्मसाहित्य ३३३
न्द्रियमस्ति न शेषाणोति कथमवगम्यते ? इति चेन्न, स्पर्शनेन्द्रियवन्त एते इति प्रतिपादक कार्योपलम्भात् । क्व तत्सूत्रमिति चेत् कथ्यते-----
'जाणदि पस्सदि भुंजदि सेवदि पस्सिदिएण एक्केण । कुर्णादि य तस्सामित्त थावरु एवं दिओ तेण ।। १३५ ।। 'वनस्पत्यन्तानामेकम्' इति तत्वार्थसूत्राद्वा -- ( षट्ख, पु० १, पृ० २३९ ) । शका- वे एकेन्द्रिय जीव कौन से है ?
समाधान -- पृथिवी, जल, अग्नि वायु और वनस्पति ।
शका-इन पात्रों के एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, शेष इन्द्रिया नही होती यह कैसे जाना ?
इस
समाधान -- पृथिवी आदि जीव एक स्पर्शन इन्द्रिय वाले ही होते है, प्रकार का कथन करनेवाला आर्पवचन पाया जाता है ?
शका----वह सूत्र रूप आर्ष वचन कहाँ है ?
समाधान - उसे कहते है- 'क्योकि स्थावर जीव एक स्पर्शन इन्द्रियके द्वारा ही जानता है देखता है, खाता है, सेवन करता है और उसका स्वामीपना करता है इसलिये उसे स्थावर एकेन्द्रिय कहते हैं 1,
अथवा 'वनस्पत्यन्तानामेकम्' तत्वार्थ सूत्र के इस वचनसे जाना जाता है कि उनके एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है ।'
उक्त आर्प रूपसे उद्धृत गाथा जीव समासको ६९वी गाथा है । मत जीव समासका वीरसेन स्वामी के चित्तमें बहुत आदर था, यह स्पष्ट है । चूकि जीवसमास नामका अन्य कोई ग्रन्थ उपलब्ध नही है और न उसके अस्तित्वका ही कोई सकेत मिलता है, अत यही मानना पडता है, कि वीर सेन स्वामीके द्वारा प्रमाण रूप से उद्धृत जीव समास पच सग्रह के अन्तर्गत जीव समास नामक अधिकार ही होना चाहिये ।
श्व ेताम्बर साहित्य मे जीव' समास प्रकरण नामका एक गाथाबद्ध प्राचीन ग्रन्थ है जिसका सकलन इसके एक उल्लेख के अनुसार दृष्टि वाद अग से किया गया है । चू कि पञ्चसग्रह एक संग्रहात्मक ग्रन्थ है अतः हमें सन्देह हुआ कि जीव समास नामक अधिकार कही उसका तो ऋणी नही है किन्तु दोनोका मिलान करने पर हमारा सन्देह ठीक नही निकला । यद्यपि यत्र तत्र कुछ
१ श्री जीवसमास प्रकरण मलधारो हेमचन्द्र रचित वृत्ति के साथ आगमोदय समिति से प्रकाशित हो चुका है ।
२. बहुभग दिट्ठीवाएं दिट्ठत्थाणं जिणोवइट्ठाण । धारण पत्तट्ठो पुण जीवसमासत्थ उब उत्तो ॥ २८५ ॥ --- जी० स० ।
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३३४ जेनसाहित्य का इतिहास गाथाएं ऐसी है जो दोनों में पायी जाती है-चौदह गुण स्थानो को नाम सूचक दो गाथाएं, जिनकी राख्या श्वे० जी० स० में ८-९ और दि० जी० स० में ४-५ है, पर्याप्ति के नागादि बतलानेवाली गाथा, जिगगो प्रगगरया २० जी० स० में २५ और दि० जी० स० में ४४ है, 'मुलग्ग पारवीया' इत्यादि गाया। दो एक गाथागोका केवल पूर्वाण दोनो गे समान है। इसके गिवाय और कोई ऐसी वात नही मिलती जिसके आधार पर कहा जा सगे कि एक का दूसरे पर प्रभाव है। दोनोका विषय वर्णन मादि स्वतम है। हा, नामसाम्य मयन्य है।
फिर भी यह बात नही मलाई जा माती कि पन राग्रह एम सग्रहात्मक ग्रथ है । भौर जीव रामास अधिकार भी उससे अछूता नहीं है। ___ ऊपर जो एक गाथा 'छम्गासाउग मेरो उद्गृत की गयी है, जो कि भगवती आराधना में भी है गौर जिग वीरगेन स्वामीने आगमण होने में सन्देह किया है, उसकी स्थिति सन्देह कारक है गोंकि जिगो नचनोगो यह आप रूपमें उपस्थित करें उसमें ही एक ऐसी गाया पाया जाना, जिसके मागमस्प होनेमे सन्देह है, इस जीव रागास की स्थिति में सन्देह उत्पन्न करता है। सम्भव है उसका सग्रह भगवती मा० से ही सग्रहकार ने किया हो क्योकि उमरी मागेकी एक गाथाको छोडकर तीन गाथाएं कमायपाहुकी है जो इन प्रकार है
'दसणमोहवखवणापटुवगो मम्मभूमिजादी य । णियमा मणुमगईए मिट्ठवगो चावि सन्चत्य ॥२०॥ सवणाए पट्ठवगो जम्मि भवे णियमदो तदो गन्ते । णादिक्कदि तिण्णि भव दसणमोहम्मि सीणम्मि ॥२०३॥ दसणमोहस्सुवसामगो दु चउसुवि गईसु वोहन्यो ।
पचिदिओ य सण्णी णियमा सो होइ पज्जत्तो ॥२०४॥ इसी तरह और भी कुछ गाथाएं सगृहीत हो सकती है।
पच सग्रहके दूसरे अधिकार का नाम प्रकृति समुत्कीर्तन है । इसकी पहली गाथा में भी जीव समासकी तरह हो मगलपूर्वक प्रकृति समुत्कीर्तनको कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है। इसमें १२ गाथाएँ और कुछ प्राकृत गद्य है । जैसा इसके नाम से व्यक्त होता है इस अधिकार में आर्यो कर्मों के नाम और उनकी प्रकृतियोका कथन है।
आठो कर्मोक नामोको बतलानेवाली गाथा उनकी प्रकृतियोको सख्या सूचक गाथा कर्मस्तवमें वर्तमान है। तीसरे अधिकारमें कर्मस्तवकी बहुत-सी गाथाएँ है, अत मानना पडता है कि ये दोनो गाथाएँ भी उसीकी हो सकती है। कर्मोकी
है
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अन्य कर्मसाहित्य • ३३५
प्रकृतियोंकी गणना गद्यमें है वह गद्य षट्खण्डागम प्रथम खण्ड जीवट्ठाणकी चूलिकाके अन्तर्गत प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारके सूत्रोंसे बिल्कुल मिलती है। मेल और अन्तरको स्पष्ट करनेके लिए थोडा-सा नमूना दे देना पर्याप्त होगा। ___णाणावरणीयस्स कम्मस पंच पयडीमो ॥१३।। माभिणिवोहियणाणावरणीयं सुदणाणावरणीयं मोहिणाणावरणीयं मणपज्जवणाणावरणीयं केवलणाणावरणीयं चेदि ॥१४॥-(षट्खे० पु०, ६ पृ० १४-१५) ____ 'जणाणावरणीय कम्म त पंचविह' । आगे ऊपर की तरह ही है, इसी प्रकार आभे कर्मों में समझना चाहिये । इस अधिकारका नाम भी चूलिकाके 'प्रकृति समुत्कीर्तन' नामका ही ऋणी है । अत. यह दूसरा अधिकार चूलिका के प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार के आधार पर ही रचा गया प्रतीत होता है। ____गद्यात्मक सूत्रोमे आठो कर्मों की प्रकृतियोको बतलानेके बाद कुछ गाथाएं आती है, उनमें बध प्रकृतियोंकी और उदय प्रकृतियोकी संख्या बतलाते हुए उद्वेलन प्रकृतियोंको और ध्रुवबन्धी तथा मध्रुवबन्धी प्रकृतियो को गिनाया है।
तीसरे अधिकारका नाम बन्धोदय सत्ताधिकार है। पहली गाथा में जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करके 'बन्धोदय सत्त्व' को कहनेकी प्रतिज्ञा की गई है । संस्कृत पच सग्रहमें इस अधिकारका नाम 'कर्मवन्धस्तव' है। यथा-'कर्मवन्धस्तवाख्य तृतीय परिच्छेद ।' पहले 'कर्मस्तव' नामक जिस प्रकरण ग्रन्थका परिचय करा आये हैं उसकी ५५ गाओं में से ५३ गाथाएं इस अधिकारमें प्रायः ज्योकी त्यो उपलब्ध होती है। इस अधिकारकी गाथा संख्या ७७ है उनमेंसे ५३ गाथाएँ कर्मस्तवकी है। उन्हें मुद्रित प्रतिमें मूल गाथा कहा है । पंचसंग्रहके इस अधिकारकी तथा कर्मस्तवको पहली गाथा एक ही है। अत' कर्मस्तवका भी मूल नाम 'बन्धोदय सत्त्वयुक्त स्तव' ही है। किन्तु यह कर्मस्तवके नामसे ही प्रसिद्ध है। मूल कर्मस्तवमें ५५ गाथाएँ है । उसमेंसे ५३ गाथाएं कुछ व्यतिक्रमसे इस पंच संग्रहके तीसरे अधिकारमें है। इस तीसरे अधिकारकी गाथा सख्या ६४ है। उसके बाद चूलिका अधिकार है उसमें १३ गाथाएँ है। इस तरह सब ७७ गाथएँ हैं। मूल कर्मस्तवकी ५३ गाथाएँ ६४ में गभित है, चूलिकामें नहीं।
पच सग्रहके इस अधिकार की जो गाथाएँ कर्मस्तव में नहीं है या व्यतिक्रमसे है उन पर प्रकाश डालना उचित होगा।
इस अधिकारका नाम बन्धोदय सत्त्व युक्त स्तव होनेका कारण यह है कि इसमें कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्वका कथन किया गया है। अत' पंच संग्रहमें पहले तो बन्ध उदय, उदीरणा और सत्ताका लक्षण वा स्वरूप कहा है । फिर गुणस्थानोमें आठों मूल कर्मोके बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ताका कथन किया है । यह कथन २ से ८ तक ७ गाथाओं में है । कर्म स्तवमें यह कथन नही है अतः
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३३६ - जैनसाहित्यका इतिहास उसमें उक्त गाथाएँ नही है । फर्मस्तव की २, ३ गाथाका नम्बर इसी से इस अधिकारमें ९-१० है । इन दोनो गाथाओमें प्रत्येक गुण स्थानमें बन्धमे व्युफिटन्न होने वाली कर्मप्रकृतियोकी सख्या वतलाई है । ___ गाथा ११-१२ कर्मस्तवमे नही है । इन गाथाओमें कहा है कि तीर्थदर और आहारकाद्विक को छोडकर शेप कर्मप्रकृतियोका बन्य मिथ्यादृष्टिके होता है।
कर्मस्तवमें गुणस्थानो में कर्मों को बन्धन्युच्छिति, उदयव्युच्छिति, उदीरणाव्युच्छित्ति और सत्त्वव्युच्छित्तिको बतलाने वाली गाथामोको, जिनकी क्रमसख्या २ से ८ तक है, एक साथ कहकर पीछे क्रमवार बन्धादिका कथन किया है और पं स के इस अधिकार में बन्धव्युच्छित्ति दर्शक गाथामो को बन्ध प्रकरणके आदि में, उदय-उदीरणा व्युच्छित्ति दर्शक गाथामो को उदय-उदीरणा प्रकरण के मादि में
और सत्वन्युच्छित्ति दर्गक गाथामो को सत्व प्रकरण के आदिमें दिया है। इसी से इस अधिकारमे कर्गस्तवकी गा० २, ३ को क्रम संख्या ९-१०, ४ की क्रम सं० २७, ५ की ४८ और ६-७, ८ को क्रम संख्या ४९, ५०, ५१ हो गई है जो बतलाती है कि इस अधिकारमें १३ से २६ गाथा तक वन्धका, २७ से ४३ गाथा तक उदयका, ४४ से ४८ तक उदीरणाका और ४९ से ६३ तक सत्ता का कथन है । ६४वी गाथा जो कि कर्मस्तवको अन्तिम गाथा है, मगलात्मक है। इस गाथाके पश्चात् इस अधिकार में १३ गाथाएँ और है । उनमें यह बतलाया है कि उदय व्युच्छित्तिसे पहले जिनकी वन्ध व्युछित्ति होती है, उदय व्युच्छित्तिके पश्चात् जिनकी वन्ध ज्युच्छित्ति होती है और उदय व्युच्छित्तिके साथ जिनकी वन्धव्युच्छित्ति होती है, ऐसी प्रकृतियां कौनसी है। इसी तरह स्वोदयबन्धी, परोदयबन्धी, उभयवन्धी, निरन्तरबन्धी, सान्तर वन्धी और उभयवन्धी प्रकृतियां कोनसी है, इन नौ प्रश्नो का समाधान किया गया है। __ चौथे अधिकारका नाम शतक है जवकि इस अधिकारकी गाथा सख्या ४२२ है । इस नाम का कारण यह प्रतीत होता है कि इस अधिकारमें बन्ध शतक नामक अथ समाविष्ट है। उसकी प्रथम गाथा इसकी तीसरी गाथा है । उससे पहले दो गाथाएँ और है जिनमें से प्रथम गाथामें वीर भगवानको नमस्कार करके श्रुतज्ञान से 'पद' कहने की प्रतिज्ञा की गयी है । बन्ध शतकका विषय परिचय पहले करा आये है अत उससे इसमें जो विशेप कथन है उसे ही बतलाया जाता है।
बन्ध शतककी गाथा २ से ५ तक इसमें यथाक्रम दी गयी है । ५ वी गाथा में कहा है कि तिर्यञ्च गतिमें चौदहो जीव समास होते है और शेष गतियो में दो दो जीव समास होते है । इस प्रकार मार्गणाओ में जीव समास जान लेने चाहिए।' पञ्चसग्रहके कर्ताने १२ गाथाओके द्वारा चौदह मार्गणाओ में जीव समासोका
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अन्य कर्मसाहित्य : ३३७ विवेचन किया है । तत्पश्चात् बं० श० की छठी गाथा दी गयी है । उसमें जीवसमासोमें उपयोगोका कयन है। पचसग्रहकारने उसके पश्चात् १९ गाथाओ के द्वारा मार्गणाओमें उपयोगोका कथन किया है और समाप्ति पर लिखा है'एवं मग्गणासु उक्मोगा समत्ता।'
पश्चात् व० श० की ७ वी गाथा आती है उसमें जीवसमासमें योगका कथन किया है। इस गाथा में थोडा-सा अन्तर है। ब० श० में 'पन्नरस' पाठ है और प० स० में 'चउदस' । बन्धशतकके अनुसार पर्याप्त सज्ञी पजेन्द्रियके पन्द्रह योग होते है और प० स० के अनुसार चौदह अर्थात् वैक्रियिक मिश्रकाय योग सज्ञी पर्याप्तक के नहीं होता। किन्तु दोनो स० प० स० में सज्ञी पर्याप्तकके पन्द्रह योग बतलाये है।
___ इस विषयमें जो वात ऐतिहासिक दृष्टिसे उल्लेखनीय है उसका वथन पचसग्रहके कालका विवेचन करते समय करेंगे ।
पचसग्रहकारने व० श० की ७वी गाथाके अर्थका स्पष्टीकरण दो' गाथाओंसे करके आगे ग्यारह गाथाओसे ( गा० ४४-५४ ) मार्गणाओमें योगका कथन किया है।
पच सग्रहमें बन्धशतक की ८-९वी गाथाका नम्बर ५५-५६ है । इनके द्वारा मार्गणाओमें योगोंके वर्णनकी समाप्तिकी सूचना है । किन्तु इससे स्पष्ट है कि बन्धशतककी गाथा ८ के पूर्वाध को पञ्चसग्रहकारने अपने अनुसार परिवर्तित किया है । व० श० में पाठ है-उवजोगा जोगविही जीवसमासेसु वन्निया एव' ।
और प० स० में है-'उवओगो जोगविही मग्गणजीवेसु वाण्णिया एव' । इस परिवर्तनका कारण यह है कि व० श० में उपयोग और योगका कथन केवल जीवसमासमें किया है किन्तु पचसग्रहमें जीवसमास और मार्गणाओमें कथन किया है । अत तदनुकूल परिवर्तन किया गया है । आगे पं० स० में गाथा ५७ से ७० तक मार्गणाओमें गुणस्थान का कथन है। - पुन वं० श० की ग्यारहवी गाथा आती है। इसमें गुणस्थानोंमें उपयोगका कथन है। प० सं० में दो गाथाओके द्वारा इसका व्याख्यान किया गया है। इसके पश्चात् व० श० की बारहवी गाथा है इसमें गुणस्थानोमें योगोका कथन है। इसका व्याख्यान भी प० स० में दो गाथाओके द्वारा किया गया है। __ १-'सण्णि अपज्जतेसु वेउब्वियमिस्सकायजोगो दु । सण्णीसु पुण्णेसु चउदस जोया मुणे
यवा ॥४२॥ प. सं० पृ०४। २-'द्वौ चतुर्यु नवस्वेक समस्ता सन्ति सशिनि । नवस्वथ चतुर्वेकस्मिन्नेको द्वौ तिथि
प्रमा । सं० प० स०, १८ ।
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३३८ : जैनगाहित्य का इतिहाग
पन्नताकी १३ गी गापाम भी गुणगानी गोगापा गगन लिया है जो गतान्तर से गम्मा तामह गाना नगगा मंगली और उगमें जो गर प्रदगिया भी दिगम्बर गाविस हा मिता।
सपना व १० गो गा० १४१५ माती उनमें गणगानीमें बन्ध गै कारणोना निमिा गमा नागारण:-गिरगान, गपिरति फमाग गोग गोर उ भे क्रम ५ + १२ + २५ + १५ = ५७ । गुणम्यान,
और मार्गणाओगे इन तान समारणोफा नमसमें बहुत गिस्तार से तगा गई प्रकार गगन रियाय पर्यन्त तगामिणार मी गाथा गरया २०३ हो जाती है। गाया सम्या २०४ मे २०१० पी १६ वी आदि गाथा माती है इनमे शानाारणादि पाठी गो भानन विशेष कारण बतलाये है। यह गारण प्राग ये ही है जो तत्वार्थ छठे मध्याग में बतलाये है। बन्धमतगणी दग गायामी में नका कयन है और वे दमो गायाएं पचगगह में यथाक्रम दी गयी है। उनगी पश्नात् दो गागा और है उनमें बतलाया है यह कथन अनुभाग बन्धकी अपेक्षा गे है ।
गफे पश्चात् बन्मशती २७ जी गागा नाती है। यहागे बन्धाता गुणस्थानोमे आठो गुलकर्मोनियम, उग, उदीरणा और गता का कथन है। यह कशन पचसमहके तीसरे अगियार प्रारम्भ में भी आता है और यहा भी है इस लिये पुनरुक्त जमा हो जाता है । बन्धशतक की २८वी गावा इन प्रकार है
सतछविहरू ( -विह ) बनगावि वेगन्ति अट्ठग णियमा । एगविह बन्धगा पुण चत्तारि व सत्त वेयन्ति ॥२८॥ पचसगह में इसके स्थान पर जो गाथा है वह इस प्रकार हैअठविह सत्त उव्वन्धगा वि वेयन्ति अठ्ठय णियमा ।
उवसत खीणमोहा मोहूणाणि य जिणा अघाईणि ॥२१६॥ दोनो के अभिप्रायमें कोई अन्तर नहीं है।
इसी तरह वधशतककी २९ वी गाथाका अन्तिम चरण है-'तहेव सत्तेवुदीरित्ति' । और पचसग्रहमें इसके स्थानमें "मिस्सूणा सात आऊण पाठ है।
व० श० की ३० से ३६ तककी गाथाएँ पञ्चसग्रहमें यथाक्रम है । ३७ वी गाथामें पाठान्तर' है। व० श० गा० ३८ में आठो कर्मों के नाम और भेद 'भवसेसट्ठ विहकरा वेयति उदीरयावि-अठण्ड । सत्तविहगावि वेश् ति अट्ठगमुर्रणे भज्जा ॥३७ । व. श० 'वधतिय वेयति य उदीरयंति यअ भट्ट अवसेसा । सत्तविहवंधगा पुणा अट्टण्टमुदीगे मज्जा' ॥२०६-५० स०।
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अन्य कर्मसाहित्य - ३३९ गिनाये है ये दोनो गाथाएँ पञ्चसंग्रहके प्रकृति समुत्कीर्तन नामक दूसरे अधिकारमें आ गई है । इसमे इस अधिकारमें नही दी है । इसके पश्चात् वधके मादि, अनादि ध्रुव और अध्र व भेदो का तथा अल्पतर, भुजकार, अवस्थित और अवक्तव्य भेदों का कथन है । ये कथन वन्ध शतक४० से ४३ तक चार गाथामओमे है ।
४३ वी गाथामें कहा है कि दर्शनावरण कर्मके तीन वन्ध स्थान है, मोहनीय कर्मके दस वन्धस्थान है, और नामकर्मक आठ बन्धस्थान है । इन तीन कर्मोमें ही भुजकारादिबन्ध होते हैं। शेप कर्मोंका तो एक ही वन्ध स्थान है । इस सामान्य कथनका पञ्चसग्रहमें बहुत विस्तारसे कथन ६५ गाथाभो द्वारा दिया गया है ।
पश्चात् व० श० में बन्धक का कथन गा० ४४ से ५० तक किया है । उसीका विस्तृत कथन पचसंग्रहमें है। व० शं० गा० २१ में कहा है कि गत्यादि मार्गणाओमें भी स्वामित्वका कथन कर लेना चाहिये । तदनुसार पचसग्रहमें गा० ३२५ से ३८९ तक उसका कथन किया है। उसके साथ ही प्रकृतिवन्धका कथन समाप्त हो जाता है। व० श० में गा० ५२ से ६४ तक स्थितिवन्धका कथन है। १० स० में यही कथन गा० ३९० से ४४० तक है। ब० श० की गा० ५२-५३ में आठों मुलकर्मो की स्थिति बतलाई है। ये दोनो गाथाएँ पञ्चसग्रहमें नहीं है । उनके स्थानमें दो भिन्न गाथामोके द्वारा आठो कर्मों की स्थिति वतलाई है। शेष गाथाएँ पञ्चसग्रहमें सम्मिलित है। व० श० में गाथा ६५ से ८६ तक अनुभाग वन्धका कथन है। ५० स० गा० ४४१ से ४९३ तक अनुभागवन्धका कथन है जिसमें व० श० की उक्त गाथाएं सम्मिलित है। केवल ७२ वी गाथा भिन्न है और ७३ वी गाथा के प्रथम चरणमें अन्तर है । मिलान से ऐसा प्रतीत होता कि इन गाथामोमें कुछ हेरफेर किया गया है किन्तु अभिप्रायमें भेद नही है । ब० श० की गाथा ८४ इस प्रकार है
चदुपच्चएग मिच्छत्त सोलस दु पच्चया य पणतीसं ।
सेसा तिपच्चया खलु तित्थयराहारवज्जामओ ॥८४॥ पं० स० में यह गाथा इस प्रकार है
सायं चउपच्चइओ मिच्छो सोलह दु पच्चया पणवीसा
सेसा तिपच्चया खलु तित्थयराहारवज्जा दो ।।४८॥ वन्ध शतकमें दूसरे गुणस्थान तक बंधने वाली पच्चीस और चौथे गुणस्थान तक बधनेवाली दस इन पैतीस प्रकृतियोके वन्धका कारण मिथ्यात्व और अविरतिको बतलाया है और शेष प्रकृतियोके बन्धके कारण मिथ्यात्व, अविरति, और कषाय को कहा है। किन्तु पचसग्रहमें केवल पच्चीसके ही बन्धका कारण मिथ्यात्व और अविरतिको वतलाया है और शेषके बन्धका कारण तीनोको बतलाया है ।
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३४० . जैनगाहित्य गा निहाग गिन्तु उगम गो वानिया टिगोचर Mmmi नो गुणस्थान तक अपिरतिको पानतामा प्रशासनामिनांग नातागं सोगको दुसरगग महा
ब०० गाल ८४-८५ मे गत nि unfrint foनागा और ८६ गं भर्यापागी भाको १० म० में में नीना गाया।
भाग प्रयगा Titी ८७ सेगर १०७ तरु राब गानाग। ८७ गागा घर १० म० ४.
४और १०७ अन्तिम गाया गान० ५१० गत आठ गागा ग प्रकरणम यतिरित है जिन गायनको गया है। गागा ९४ मे अन्तर है।
२०१० में 'मागास पगरम १7 मोहम्ग गत ठाणाणि' पाठ है और प० ग० में 'मागाग परमस एण गोहम्ग गाठाणाणि, पाठ है । बन्धपातमा अनुगार आगमगा उशष्ट प्रदेशबन्ध मिलाइष्टि और नोये गुणरयानरो लेगार गात, गुणम्मान पर्यन्त पांच गुणगानगर जी मारत है। तथा मोहनीय पार्मगा उत्कृष्ट प्रदेशवना गागादन गम्गरष्टि भोर राम्गगगिच्यादृष्टि गुणस्थान याले जीनोको छोटार दोष गाल गुणस्थान गाले जीय करते हैं ।न्तुि पश्चगाह के अनुगार आयुकगंगा उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध दूगर गुण स्यानमें होता है । अत व्ह गुणस्थानवाले जीव मायुना उत्कष्ट प्रदेनवन्ध गरी है । और मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट प्रदेशवन्ध पहलेगे लेकर नो गुणस्थान पर्यन्त होता है।।
बन्धशतक' चूणिमें 'मन्ने पठति' गहार पनराग्रहवाले पाठमा निर्देश पिया है और उसे ठीक नही बतलाया । यह चतुर्थ प्रकरणको स्थितिका चित्रण है । परसग्रहमें इसका शतक नाम नही पाया जाता। किन्तु दोनो स० पश्च रांगहोके अन्तमें 'शतकसमाप्तम्' आता है। सप्ततिका और पचसग्रह
पंचसग्रहके पांचवे अधिकारका नाम सत्तरि या सप्तति है । इस अधिकारके आदिकी गाथामें पचसंग्रहकारने स्त्रय उसका निर्देश किया है । तथा अमितगतिने भी अपने संस्कृत पंच संग्रहमें पांचवें अधिकारका नाम सप्तति दिया है। अत. इस अधिकारका उक्त नाम निर्वाध है। १. 'अन्ने पठति-'आउयकोससरा पदेसरस छति' । मासणोवि उपकोस पतित्ति, त ण,
मोहस्स सत्त ठाण्णाणि । अन्ने पति-मोहस्म णव उ ठाणाणित्ति सासणसम्ममिच्छेहि
सर । त ण सम्भवति -. श चू.। २. 'णमिऊणणदाण वरकेललनिसुक्खपत्ताण । वोच्छा सत्तरिभग उवट्ठ वीरनाहेण ॥१॥ ३. नत्याहमहतो भक्त्या पातिफल्मपवातिनः । स्वशक्त्या सप्ततिवक्ष्ये वधभेदावबुद्धये
॥३७६।। स०५० सं०।
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अन्य कर्म साहित्य : ३४१ जैसे चौथे अधिकार में पंचराग्रहकारने शतक ग्रन्थका सग्रह किया है और उसीके कारण अधिकारका नाम शतक रखा है । वैसे ही पांचवें अधिकारमें सित्तरी अथवा सप्ततिका नामक प्रकरणका सगह है और उसीसे इस अधिकारका नाम सत्तरि या सप्तति रखा गया है। सित्तरी ग्रन्यका परिचयादि पहले लिख आये है । जो विषय सित्तरीका है वही इस पाचवें अधिकारका है। इस पांचवेअधिकारमें भगलाचरणके पश्चात् सित्तरीके आदिको पांच गाथाएँ यथाक्रमसे दी हुई है । उनके पश्चात् एक गाथा इस प्रकार माती है।
मूलपयडीसु एव अत्थोगाढेण जिह विही भणिया ।
उत्तर पयडीसु एव जहाविहिं जाण वोच्छामि ॥७॥ इसमें कहा है कि मूलप्रकृतियोमें कथनकर दिया अब उत्तर प्रकृतियोमें कहते है । इसके पश्चात् सि० की छठी गाथा आती है । उसमें ज्ञानावरण और अन्तराय कर्मक बन्ध स्थान, उदय स्थान और सत्वस्थान पचप्रकृति रूप कहे है । मागे दर्शनावरणीय कर्मके वन्वादिका कथन है । किन्तु सितरीकी दर्शनावरण कर्मके कथन सम्बन्धी गाथाएँ पञ्चसग्रहमें नहीं है । उनके स्थानमें पचसग्रहकारने अपनी स्वतत्र गाथाएं रची है । इसका कारण शायद यह प्रतीत होता है कि सप्ततिकामें क्षीण कषायमें निद्रा प्रचलाका उदय नहीं माना है। किन्तु दिगम्बर परम्परामें माना गया है ।
श्वे. पचसग्रहमें दोनो मतोको स्थान दिया गया है। सितरीमें वेदनीय गोत्र और आयुकर्मके भगोका कथन नहीं है किन्तु पचसग्रहकारने उनका कथन किया है। आगे मोहनीय कर्मका कथन है और उसका आरम्भ सित्तरीकी दसवी गाथासे होता है। उसकी सख्या प० स० में २५ है। दस से लेकर १६ तक सित्तरीकी गाथाएं पचसग्रहमें मिलती है । प्रत्येक गाथा का स्पष्टीकरण दो एक गाथाओंसे आवश्यकताके अनुसार किया गया है।
सित्तरीको गाथा १७, १८, २०, २१, २२ पञ्चसग्रहमें नही है। मोहनीय कर्म सम्बन्धी कथनके उपसंहार परक २३ वी गाथा है । २४वी गाथासे नामकर्मके के बन्ध स्थानोका कथन आरम्भ होता है। पं० स० में इसकी संख्या ५२ है। सित्तरीकी उक्त गाथामें केवल नामकर्मके वन्धस्थानोको गिनाया है। पचसग्रहमें उसका विवेचन ४५ गाथाओंके द्वारा किया है । यही कथन शतक नामा चौथे अधिकारमें भी है । अत यह कथन पुनरुक्त है। दोनो प्रकरणोकी गाथाएं भी एक ही है।
इसके पश्चात् सित्तरीकी २५ वी गाथा आती है। इसमें नामकर्मके उदयस्थानोंका कथन है । मलयगिरिकी टीकामें इस गाथाका न० २६ है मत गणनामें एकका व्यतिक्रम हो गया है । २७-२८ वी गाथा जिनमें नामकर्मके उदय स्थानोंके
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३४२ . जेनसाहित्यका इतिहास
भग बतलाय है पचगंगहमें नहीं है । गा० २१ है इसमें नागकर्मके सत्वस्यानोको बतलाया है । यह गाना शाब्दिक भेदको लिए हुए है। इसी तरह आगे ३० आदि राख्या वाली गाथाएँ पचराग्रहमें यथास्थान है।
इस प्रकार नामकर्म बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानके भेद तथा उनके सवेधका कथन करके जीव समारा और गुणस्थानोके आश्रयमे कर्मों के उक्त स्थानोके स्वामियोका कथन किया है।
उसमें सि० गा० ३५ में और पच सग्रहमें आगत इसी गाथामें कुछ अन्तर है जो मतभेदका सूचक है। सप्ततिकामे दर्गनावरण के भेद पर्याप्त सज्ञी पचेन्द्रिय के ग्यारह बतलाये है और प० स० में १३ बतलाये है । इस अन्तरका कारण यह है कि सप्ततिकामें क्षीण कपायमें निद्रा प्रचला का उदय नही माना गया किन्तु पंचसग्रहमें माना गया है।
गा० ३७-३८ प० स० में व्यतिक्रमसे है पहले ३८ वी है फिर ३७ वी है। तथा मित्तरीमे सज्ञीके नामकर्मके दस सत्त्वस्थान कहे है किन्तु पं० स० में ११ कहे है । इमलिए सितरी मे अट्ठ दसग पाठ है । प० स० में अट्ठटठमेयार' पाठ है।
ऊपर यह लिखना हम भूल गये कि नामकर्मके सत्वस्थानको लेकर दोनो ग्रन्थोमें मतभेद है-सित्तरीके अनुसार उनकी संख्या १२ है-९३, ९२, ८९, ८८, ८६, ८०, ७९, ७८, ७६ ७५, ९, मीर ८ प्रकृतिक । और प० स० मे ९३, ९२, ९१, ९०, ८८, ८४, ८२, ८०, ७९, ७८, ७७, १० और ९ प्रकृतिक ।'
जीव समासोमें स्थानोका कथन करनेके पश्चात् गुणस्थानमें वन्वादिस्थानोका कथन है। किन्तु दर्शनावरण कर्मकी प्रकृतियोके उदयको लेकर मतभेद होनेके कारण उस सम्बन्धी गाथाएँ पचसग्रहमें नहीं है। ____ मागे सितरीकी ४२ से ४५ तक गाथाएं लगातार है। सित्तरीमें कुछ अन्तर्भाव्यगाथाएं है उसमें से भी एक दो गाथा प० स० में मिलती है । उक्त गाथाओके व्याख्यानरूप मोहनीयके उदय स्थानोका वर्णन पचसमें बहुत विस्तारसे किया गया है। १. कर्म प्रकृतिमे नाम कर्मके सत्व स्थान इस प्रकार बताये हैं
'तिदुगसय छप्पचगतिगनउइ नउइ इगुण नउइ य । चउ तिगदुगाही गासी नव अठ्यनामठाणाह ।।१४॥१०३, १०२, ९६ ९५, ९३, ९०, ८९, ८४, ८३, ८२ ९, और ८ । वन्धन सवातकी अलग गणना करनेसे १० की सख्या बढ़ गई है। सि० च मे अण्णे करके इस मतको अमान्य किया है।
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अन्य कर्मसाहित्य : ३४३ फिर गुणस्थानोमें मोहनीयके सत्त्व स्थानोका कथन है, और उसके लिए सित्तरीकी गाथा ४८ पाई जाती है । इसमें भी मतभंद है । सित्तरीमें 'तिगमिस्से' लिखकर मिश्रगुण स्थानमें मोहनीय कर्मके तीन सत्त्वस्थान बतलाये है, २८, २७
और २४ प्रकृतिक । किन्तु पचसग्रहमें 'युगमिस्से' पाठ रखकर मिश्रमें ही दो सत्त्वस्थान बतलाये है २८ और २४ प्रकृतिक । यह सैद्धान्तिक मतभेद को सूचन करता है।
आगे गुणस्थानोमें नाम कर्मके वन्वादि स्थानोका कथन करनेके लिये सि० की गा० ४९-५० आती है । उनका विवेचन किया गया है।
आगे गति आदिमें नाम कर्मके बन्धादि स्थानोका कथन करनेके लिए प० स० में सित०की गा० ५१ आती है। फिर इन्द्रिय मार्गणामें कथन करनेके लिये सि० की ५२ वी गा० पं० सं० में आती है। सितरी में आगेकी मार्गणामों में कथन नही किया है किन्तु पचसग्रहमें किया है । उसके पश्चात् सि० की ५३ वी गाथा आती है जो उपसहार रूप है । आगे उदय और उदीरणाके स्वामियो में अन्तर बतलानेके लिये सित्तरीकी ५४, ५५, आई हैं। फिर गुणस्थानको आधार बनाकर कौन किन कर्मप्रकृतियोका बन्ध करता है, इसका कथन सि० की गा० ५६, ५७, ५८, ५९, ६० के द्वारा प० स० में किया गया है। ___ आगे सि०की ६१ वी आदि गाथाओसे गतियोमें कर्मप्रकृतियोकी सत्ता-असत्ता का विशेष कथन किया गया है । ६१से आगे ७२ पर्यन्त सब गाथाएँ प०स० में वर्तमान है और उनके साय ही वह सम्पूर्ण होता है।
इस तरह इस अधिकारमें सित्तरीको कतिपय गाथामओके सिवाय शेष सभी गाथाएं अन्तर्निहित है जिनमेंसे कुछमें पाठभेद भी पाया जाता है ।
पंचसग्रहके उक्त परिशीलनसे तो यही प्रकट होता है कि उसमें ग्रन्थकारने षट्खण्डागम, कसायपाहुड, कर्मस्तव, शतक और सितरी इन पांच ग्रन्थोका संग्रह किया है। उनमेंसे अन्तके तीन ग्रन्थोको एक तरह से पूरी तरह आत्मसात्कर लिया है, शेष दोका आवश्यकतानुसार साहाय्य लिया है।
किन्तु प० परमानन्दजीने अपने 'श्वेताम्बर कर्म साहित्य और दि० पचसग्रह' नामक दूसरे लेखमें उक्त कथनसे बिल्कुल विपरीत विचार व्यक्त किया था। उनका कहना है कि कर्मस्तव, शतक और सित्तरी नाम के जो प्रकरण पाये जाते है वे उक्त पचसग्रहसे संकलित किये है। इन तीनो ग्रन्थोंमें सकलित गाथाएँ पचसग्रहकी मूलभूत गाथाएं और शेष व्याख्या रूप गाथाएँ भाष्य गाथाएँ है । किसीने मूलभूत गाथाओको शतकादि नामोसे पृथक् सकलित कर लिया है ।
जो कुछ स्थिति है उसमें पंडितजीके उक्त कथनको सहसा भ्रान्त तो नही
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३४४ ; जैनसाहित्यका इतिहास
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कहा जा सकता, क्योकि न तो पचसग्रहके ही कर्ताके सम्वन्धमें कुछ ज्ञात है मोर न कर्मस्तव, और सित्तरी के हो कर्ताका पता है । हाँ, शतकको चूर्णिकारने । शतक अथवा वन्धशतकका निर्देश मिलता है और वह शतक या बन्ध कृति, अवश्य बतलाया है और कर्मप्रकृति तथा उसकी चूर्णिमें भी शिवशर्मसूरिकी शतक वही माना जाता है जिसकी ९४ गाथाएँ पचसग्रहके शतक नामक चतुर्थ अधिकारमे सगृहीत है साथ ही कमप्रकृति के साथ शतक की तुलना करने पर वे दोनो एक ही आचार्यकी कृति नही प्रतीत होते और शतक एक सग्रह ग्रन्थ जैसा प्रतीत होता है । दोनो पक्षोके अनुकूल और प्रतिकूल वातोके होते हुए भी एक वातको नही भुलाया जा सकता कि पचसंग्रहके चतुर्थ और पचम अधिकारका नाम शतक और सप्ततिका है । जिस प्रकरण में सौ या उसके आसपास गाथा स ख्या हो उसे शतक और जिसमें सत्तर या उसके आस पास गाथा सख्या हो उसे सित्तरी कहा जाता है । किन्तु प स० के चतुर्थ और पचम अधिकारोकी गाथा स त्या पांच-पांच सौ से भी कुछ अधिक है । ऐसी स्थितिमे समान स ख्या होते हुए भी एक अधिकार का नाम शतक और दूसरेका नाम सित्तरी रखनेका कारण समझमें नही आता । उसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि चतुर्थ अधिकारकी मूल गाथामोका प्रमाण सौ के लगभग और पाचवें अधिकारको मूल गाथाओका परिमाण सत्तरके लगभग होनेसे उन अधिकारोको शतक और सित्तरी नाम दिया गया । किन्तु इससे तो यही प्रमाणित होता है कि उक्त दोनो अधिकारोके मूल शतक और सित्तरी नामक प्रकरण है अतः मूल विवाद इस बात पर रह जाता है कि वे दोनो प्रकरण भी उन पर भाष्य रचने वाले पचसग्रहकारको ही कृति है या किसी दूसरे की कृति है ? इस विवादके समाचानके लिये हमें उक्त प्रकरणोको हो देखना होगा ।
प० सं० के प्रथम द्वितीय और तृतीय अधिकारके आदिमें ग्रन्थकारने केवल एक गाथाके द्वारा मगलपूर्वक विपयवर्णनको प्रतिज्ञा करके प्रकृत विपयका प्रतिपादन प्रारंभ कर दिया है और उन अधिकारोके अन्तमें कोई उपसहार तक नही किया । किन्तु चौये अधिकारके आदिमें तीन गाथाएं मगलरूपमें है । प्रथम गाथामें श्रुतज्ञानमे पद कहने की प्रतिज्ञा को गई है और तीसरी गाथामें जो शतकको प्रथम गाथा है दृष्टिवादमे कुछ गाथाओ को कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पहले अधिकारोका कथन दृष्टिवादके आधार पर नही किया गया और चौथेका कथन दृष्टिवादके आधार पर किया गया ऐसा भेद क्यो ? इम अधिकारके अन्तको तीन गायाओमें ग्रन्थनाने अपने कथनको कर्मप्रवादरूपी श्रुतसमुद्रका निस्यन्द कहा है और लिसा है मुन अत्पमतिने यह चन्ध विधान नक्षेपसे रचा, विशेष निपुण उसे पूरा करके कथन करें ।' अपनी कृतिके एक अवान्तर अधिकार के अन्त में कोई ग्रन्थकार ऐसी बात नहीं कहता । यही बात पत्रम अधिकारमें भी पाई जाती है । किन्तु उसके
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अन्य कर्मसाहित्य . ३४५
अन्तिम अधिकार होनेसे इस प्रकारका उपसहार उचित भी हो सकता है किन्तु बीचके केवल एक चतुर्थ अधिकारके अन्तमें इस प्रकारकी वात कहना, जो ग्रन्थकी समाप्ति के लिये ही उपयुक्त हो सकती है, इस बातको सूचित करती है कि शतक नामके किसी स्वतत्र प्रकरणका सग्रह इस अधिकारमें किया गया है उसीके कारण अधिकारका नाम 'शतक' रखा गया है । और यही बात सित्तरीके सवधर्म समझनी चाहिये । ऐसी स्थितिमे ये दोनो प्रकरण उस पचसग्रहकारके नही जान पडते जिसने पचसग्रहके आदिके तीन अध्याय रचे थे, क्योकि उनमें न कही दृष्टिवादका उल्लेख है और न अपनेको मन्दमति बतलाकर उसके सशोधनादिकी वात कही गई है।
५० फूलचन्द्रजी सिद्धातशास्त्रीने श्वे० सितरीके अपने अनुवादको भूमिकामें एक बात कही है कि शतक और सित्तरी की अन्तिम गाथाओमें कुछ साम्य प्रतीत होता है । यथा
वोच्छ पुण सखेव णीसद दिट्ठीवादस्स ॥१॥ सित्त० कम्मप्यवायसुयसागरस्स णिस्सदमेताओ ॥१०४।। शतक
जो जत्थ अपडिपुण्णो अत्थो अप्पागमेण बद्धोत्ति । त खमिऊण बहुसुया पूरेऊण परिकहतु ।।७२॥-सप्त० वधविहाण समासो रइओ अप्पसुयमदमइणावि ।
त वधमोक्खणिउणा पूरेऊण परिक्हेति ॥१०५॥–शतक प०जी का कहना है कि 'इनमें 'णीसद' अप्पणम, अप्पसुयमदमइ, 'पूरेऊणं परिकहतु' ये पद ध्यान देने योग्य है । ऐसा साम्य उन्ही ग्रन्थोमें देखनेको मिलता है जो या तो एककर्तृक हों या एक दूसरेके आधारसे लिखे गये हो । बहुत संभव है कि शतक और सप्ततिकाके कर्ता एक हो । __उक्त साम्यके आधार पर पण्डितजीकी उक्त सभावना अनुचित तो नही कही जा सकती । किंतु शतकको कर्मप्रकृतिकारकी कृति माना जाता है और कर्मप्रकृति तथा सित्तरीके कथनोमे मतभेद है । अत कर्मप्रकृतिकारकी कृति तो सित्तरी नही हो सकती । यदि शतक कर्मप्रकृतिकारकी कृति नहीं है जैसा कि सदेह प्रकट किया गया है तो शतक और सित्तरी एक व्यक्ति की भी कृति हो सकते है, क्योकि दोनोमें कोई मतभेद दृष्टिगोचर नही हुआ। किंतु इस सम्बन्धमें विशेष प्रमाणोके अभावमें कोई निर्णय कर सकना शक्य नहीं है। १. पृ० १०॥
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३४६ : जैनसाहित्य का इतिहास
पचगंग्रहकी स्थिति पर विचार करनेके लिए एफ बात भोर भी उल्लेखनीय है । और वह है उगमे पुनरुगत गाथागोया होना और उनकी गंख्या भी कम नहीं है । इग दृष्टिरो शतक नामक चौथा अधिकार उल्लेखनीय है जिराकी गाथाएं तोमरे और पानवे गधिकारमें पाई जाती हैं । इरा पुनरुक्तिका कारण है कि जो पथन चौधे में आया है यह तीसरे और पांचवेंमें भी आया है । और उसके आनेका कारण यह है कि कर्मस्तव और बन्धशतक तथा शतक और सित्तरीमें कुछ कथन समान है।
कर्मस्तवकी गा० १३ आदिमे बन्धव्युच्छितिका कथन है और उधर शतककी गाथा ४६में वन्धच्युच्छित्तिका काथन है, उसको आधार बनाकर पंचसग्रहकारने तीसरे अधिकारको बन्धन्युच्छितिवाली गाथाएं चौथे अधिकार में भी लाकर रख दी है।
इधर शतककी गा० ४२-४३ में कर्मोके बन्धस्थानीका कथन है । उसके भाज्यस्प में परसग्रहकारने बहुत सा कथन किया है। उधर सप्ततिका २४में भी यही कथन होनेसे पचसंग्रहकारने उनके व्याख्या रूपसे चौथे अधिकारकी गाथा पांचवे अधिकारमें लाकर रख दी है । इसी तरह दर्शनावरण कर्मके वन्धादिका कथन पांचवे अधिकार प्रारभमें भी किया है । और आगे भी किया है। इससे उसमें भी 'पुनरुक्तता' मा गई है।
इससे प्रथम तो इस वातका समर्थन होता है कि कर्मस्तव, शतक और सित्तरी पचसग्रहकारकी कृति नही है किंतु उन्हें उन्होने अपनाकर उनपर अपने भाष्यकी रचना की है। यदि वे एक ही व्यक्तिकी कृति होते तो उनमें पिष्टपेषण न होता । दूसरे, उन्होने उन्हें पृथक्-पृथक् प्रकरणके रूपमें रचा होना चाहिए। इसीसे एक प्रकरणकी गाथाओको दूसरे प्रकरणमें रखते हुए उन्हें सकोच नही हुआ और इसीसे समग्न ग्रन्थमें न ग्रन्थका नाम मिलता है और न एक अखण्ड ग्रन्थके रूपमें ही उसकी स्थिति दृष्टिगोचर होती है। उन्होने स्वय अथवा पीछेसे किसीने उनको सम्बद्ध करके पचराग्रह नाम दे दिया है। जैसे सिद्धात ग्रन्थ षट्खण्डागमको भूतबलिने कोई सामूहिक नाम नही दिया और धवलाकार वीरसेनस्वामीने उसके खण्डोके नामसे ही उसका निर्देश किया और पीछेसे छै खण्ड होनेके कारण षट्खण्डागम नाम दे दिया गया। वैसे ही उक्त पांचो प्रकरण प्रारभमें भिन्न २ थे । पीछे उन्हें पचसग्रह नाम दे दिया गया जान पडता है । इसीसे वीरसेनस्वामीने 'जीवसमास' प्रकरणका ही निर्देश किया है, सामूहिक नाम पचराग्रहका निर्देश पूरा नहीं किया । उसपर से यह भी अनुमान किया जा सकता है कि वीरसेन्स्वामीके पश्चात् ही किसीने उसे पचसग्रह नाम दिया होगा।
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अन्य कर्मसाहित्य : ३४७
रचनाकाल
१. १० भागापरी ने अपनी नारा बना दर्पण नागा दोग में भगवती आराधना की गाथा २१२४ गी टीम 'तथा नोगा नगग्रह' गारो छ गाथाएँ उद्धृत की है । ये हा गाया पनगग्रह यो तीगरे अधिकार के अन्त में उगी क्रमने अरस्थित है और उनको नाम गरया ६०-६५ है । प० आगाधर जी विक्रमही तेरहवी शताब्दी में हुआ है । अत गह निश्चित है कि उरागे पहले पचग्रहको रचना हो चुकी थी।
२ आचार्ग व मनगति ने पि० २० १०७२ में अपना सम्गृत पवनग्रह चार पूर्ण किया था। यह भारत प० ग० उरत प्राशन पनगग्रह को ही मामने रगकर रचा गया है । अत यह निग्नित है कि वि०म० १०७३गे पूर्व उमकी रचना हो चुकी थी। _३ पाचार्य वीरनेनने अपनी धवला टीका जो बहुत गी गाथाएं पचसंग्रहमें उद्धृत की है वे गाथाएं धवलामें जिग क्रममे उद्धृत है प्राय उमी क्रममे १० म०में पाई जाती है। अधिकाग गाथाएँ प० ग अन्तर्गत जीव समास नामक प्रकरण की है । यद्यपि वीरगनने 'पचमग्रह'का नामोल्लेस नही किया है मिन्तु एक स्थान पर जीवगमागका उल्लेप किया है । अत यह जीवसमाम पचसग्रहके अन्तर्गत जीव समाग ही होना चाहिए ।तथा कुछ गाथाएं प० स०के चौथे शतक नामक अधिकार की है: शतक नामक अधिकारमें एक शतक नामक प्रकरण सगृहीत है यह हम पीछे वतला आये है। ऐसी स्थितिमें यह सन्देह होना स्वाभाविक है कि गाथाए उम शतक प्रकरण से ही तो सीधे उद्धृत नही की गई। यद्यपि वे गाथाएँ उम शतकमे भी है किन्तु उनमें से एक गाथा ऐसी भी है जो उम शतव में नहीं है किन्तु प० स०के अन्तर्गत शतकमें है । वे तीन गाथाएं इस प्रकार है
चदुपच्चडगो वधो पढमे उवरिमतिए तिपच्चइगो । मिस्सग विदिओ उवरिमदुग च सेसेगदेराम्हि । उवरिल्लपचए पुण दुपच्चमओ जोग पच्चो तिण्ण । सामण्ण पच्चया खलु अठ्ठण्ण होति कम्माण ।। पणवण्णा इरवण्णा तिदाल छादाल सत्ततीसा य । चदुवीसदु वावीसा सोलस एगूण जाव णव सत्त ।।
-(पटख० पु० ८, पृ० २४) इनमेंसे शुरूको दो गाथाएँ शतक प्रकरणमें भी है । किन्तु प०स०में ये तीनो गाथाएं उसके चौथे अधिकारमें इसी क्रमसे वर्तमान है और उनकी क्रमसख्या ७८, ७९, ८० है । क्वचित् पाठ भेद है । यथा-'उवरिमतिए' के स्थानमें 'अण
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३४८ : जैनसाहित्यका इतिहास तरतिए' 'मेसेगदेगम्हि' के स्थान देसेवादेराम्हि' और 'इरवण्णा' के स्थान में 'पण्णासा' । किन्तु उनमें गाशयभेद नहीं है। अत: ये गाथाएँ पचरा ग्रहसे ही उद्धृत की गई होनी चाहिए। इसी तरह पवलागे एक और गाथा इस प्रकार । द्धृत है
एयगरोत्तोगाढंगग्नपदेसेहि कम्मणो जोग्गं । बधइ जहुत्तहेदू सादियमहणादिय वा वि ॥
(पटसं० पु० १२, पृ० २७७) यद्यपि यह गाशा गतक प्रकरणमे भी है किन्तु उसमे 'एयपदेमोगाढं' पाठ है । और प० रा० में एयक्सेत्तोगाढ पाठ (गाया स ० ४९४) है। अत यह भी उसीसे उद्धृत की गयी होनी चाहिए । ____उक्त उद्धरणो से प्रकट है कि धवलासे पहले पचसग्रहकी रचना हो चुकी थी। चूंकि धवला विक्रमकी नीवी शताब्दीमें रचकर पूर्ण हुई थी। अतः पचस ग्रह उससे पहले रचा जा चुका था।
४ शतक गाथा ९३ में पाठ है-'माउकस्स पदेसस्म पच मोहस्स सत्तठाणाणि' । और प० स० के शतकाधिकारमें पाठ है-'आउवकस्स पदेसस्स छच्चं मोहस्स णव दु ठाणाणि' । शतकचूणिमे 'अन्ने पढति करके पञ्चसग्रहोक्त पाठभेद को उद्धृत किया है । अत' यह सिद्ध है कि चूर्णिकार पञ्चसंग्रह से परिचित थे। इतना ही नहीं, श० चूमें पञ्चसग्रह से गाथाएँ भी उद्धृत की गई है । गुणस्थानो के वर्णन में (श० गा० ९) नीचे लिखी गाथा उद्धृत है
सद्दहणासद्दहण जस्स जीवस्स होइ तच्चेसु । विरयाविरएण समो सम्मामिच्छोति णादन्वो ॥ यह पचसग्रह के प्रथम अधिकारको १६९वी गाथा है । यदि ये गाथाएँ अन्यत्रसे सगृहीत की गयी हो तब भी उक्त उद्धरणसे तो यह स्पष्ट ही है कि चूर्णिकार के सम्मुख पचसग्रहकारका मत था।
मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिरसे प्रकाशित चूर्णिसहित सित्तरीकी प्रस्तावनामें लिखा है-'परन्तु शतक लघुणिका कर्ता श्रीचन्द्रषिमहत्तर छे एविपेनो उल्लेख खभात श्रीशान्तिनाथजी ताडपत्रीय भडारनी प्रतिना अन्तमा मलता नीचेना उल्लेखना आधारे जाणी शकाय छे--- 'कृतिराचार्य श्रीचन्द्रमहत्तरशिताम्बरस्य 'शतकस्य ग्रन्थस्य' । उसमें उस पत्रका फोटु भी दिया है।
१ 'अन्ने पढति 'आउक्कस्स पदेसस्स छ ति। . अन्ने पढति-'मोहस्स णव उ ठाण्णाणि'।
श० चू० गा० ९३।
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अन्य कर्मसाहित्य • ३४९ अत जब शतकचूणि चन्द्रपि महत्तर रचित है तो स्पष्ट है कि उनके द्वारा रचित पञ्चसग्रहसे प्रकृत पचसग्रह प्राचीन है और सम्भवतया उसीसे उन्हें शतकादि ग्रन्थोके आधारपर पचसंग्रह रचने की प्रेरणा मिली होगी । यद्यपि चन्द्रपि का भी समय सुनिश्चित नही है फिर भी उसकी स्थिति चिन्त्य है। ५ अकलक देवके तत्त्वार्थवार्तिकमे नीचे लिखी दो गाथाएं उद्धृत है
सव्वट्टिदीण मुक्कस्सगो दु उक्कस्स सकिलेसेण । विवरीदेण जहण्णो आउगतिगवज्ज सेसाण ।।-(त० वा०, पृ० ५०७) शुभपगदीण विसोधिए तिव्वमसुहाण सकिलेसेण ।
विपरीदे दु जहण्णो अणुभागो सव्वपगदीण ॥-(त० वा० पृ० ५०८ ) ये दोनो गाथाएँ पंचसग्रहके चतुर्थ शतक नामक अधिकारकी क्रमश. ४१९ और ४४५वी गाथाएं है । किन्तु ये दोनो गाथाएं शतक प्रकरणमें भी वर्तमान है और उनका नम्बर क्रमश ५७ और ६८ है । अत यह कहा जा सकता है कि ये गाथाएं शतक प्रकरण से न लेकर पञ्चसनहसे ही ली गई है इसमें क्या प्रमाण है? इस सन्देहको दूर करनेके लिए पचसग्रह और तत्त्वार्थवार्तिक में निर्दिष्ट सैद्धान्तिक चर्चा में उतरना होगा।
शतक प्रकरणकी ७वी गाथामें सज्ञी पर्याप्तकके पन्द्रह योग बतलाये है । शतक चूर्णिमें उसका खुलासा करते हुए लिखा है कि-'एक अर्थात् सज्ञी पर्याप्तके पन्द्रह योग होते हैं-मनोयोग ४, बचनयोग ४, औदारिक, वैक्रियिक और आहारक काययोग तो प्रसिद्ध ही है । औदारिक मिश्रकाय योग और कार्मणकाययोग सयोग केवलीके समुद्धातकालमें होते है । वैक्रियिक मिश्रकाययोग और आहारकमिश्रकाय योगाविक्रिया करनेवाले तथा अहारक शरीर उत्पन्न करनेवालोके होता है और वे पर्याप्तक ही होते है । इस तरह पर्याप्त अवस्थामें वैक्रियक मिश्र भी माननेसे सज्ञी - पर्याप्तकके पन्द्रह योग शतकमें बतलाये है । किन्तु पचसग्रहगत उक्त शतकवाली गाथामें पण्णरसकी जगह 'चउदस' पाठ है जो बतलाता है कि सज्ञी पर्याप्तकके चौदह योग होते है, वैक्रियिक मिश्र काययोग नही होता। प० स० की भाष्य
१ एक्कम्मि सन्निपज्जत्तगम्मि पन्नरस वि योगा भवन्ति । मणजोग (गा) वइजोग (गा) '४'
ओरालिय वेउन्विय अहारक कायजोगा पसिद्धा, ओरालियमिस्सकायजोगो कम्मइग कायजोगो य सयोगकेवलिं पडुच्च समुग्घायकाले लब्मन्ति, वेउन्विय मिस्सकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो य वेउब्धिय आहारगे विउन्वन्ते आहारयन्ते त पडुच्च, ते पज्जत्तगा चेव ।-श. चु०, पृ०६। सन्नि अपज्जत्त सुवेउन्वियमिस्स काय जोयो दु। सण्णीसु पुण्णेसु य चउदस जोया मुणेयन्वा ॥४२॥-स० स० ४ ।
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३५० : जेनसाहित्यका इतिहास गाथामें उसे स्पष्ट करते हुए लिया है कि गंगी अपर्याप्तको में वैक्रियिक मिश्र काग योग होता है और गशी पर्याप्तकोमे नौदह योग होते है ।
इस तरह दोनोमे संशी पर्याप्त नियिक मिश्रयोग होने और न होनेको लेकर मतभेद है। किंतु लक्ष्मणसुत बड़ा और अगित गति'आचार्यने अपने प० स० में सगी पर्याप्तको पन्द्रह ही योग बतलाये है। मुझे इसका कारण लक्ष्मणसुत डड्ढापर तत्मावातिकका प्रभाव प्रतीत होता है। अभितगतिने तो उन्हीका अनुसरण किया है।
अबालक देवने स्वामिभेदमे शरीरोमें भेद करते हुए बतलाया है कि औदारिक तिर्यन्य मनुष्योके होता है, क्रियिक देव नारकियो के होता है और किन्ही तेजस्कायिक, वायुकायिका, पञ्चेन्द्रिय तियंञ्च तथा मनुष्यो के होता है । अकलक देवने अपने इस कथनपर पट्यण्डागम के जीवस्यानका प्रमाण देकर यह आपत्ति शकाकारके द्वारा उठाई है कि जोपस्थान में तो काययोग के स्वामियोका कथन करते हुए ओदारिक पाययोग और औदारिक मिश्र काययोग तियंञ्च मनुष्योके तथा वैक्रियिक काययोग और वैक्रियिक मिश्रकाय योग देव नारकियोके कहा है यहाँ आप तिर्यञ्च मनुष्योके भी कहते है। यह बात तो आगम विरुद्ध है । इसका उत्तर देते हुए अकल सदेवने याहा कि-'यह कथन अन्यत्र मिलता है व्याख्या प्रज्ञप्तिदण्डको शरीरके भेदोका कथन करते हुए वायुके औदारिक वैक्रियिक, तेजस और कार्मण चार शरीर कहे है । और मनुष्यो के पांच ।' मनुष्योके पाचो शरीर माननेसे ही सज्ञी पर्याप्तकके पन्द्रह योग हो सकते है, अन्यथा नही ।
ढड्डाने प्राकृत पच सग्रहका सस्कृत अनुवाद करते हुए भी पचसग्रहगत पाठको छोडकर मूल शतक प्रकरणका पाठ क्यो रखा, यह अकलक देवके तत्त्वार्थवार्तिकके अवलोकनसे स्पष्ट हो जाता है उन्हें अकलकदेववाली बात जॅची।
१. द्वौ चतुपु नवस्वेक समस् ता. सति सशिनि ।
जीवस्थानेषु विज्ञ या योगा. योगविशारदै. ॥१०॥
तदित्यम् मशिनि पर्याप्ते पच दश योगा . - स०५० स०, पृ०.८२ । २. 'स्वामिभेदादन्यत्वम्-औदारिक तिर्यड मनुष्याणाम्, वैक्रियिकी । देवनारकाणाम्, तेजो. वायुकायिकपञ्चन्द्रियनिर्यड मनुष्याणाणाञ्च केपाश्चित् । अत्राए चोदक --जीवस्थाने योगभङ्गे सप्तविधकाययोगस्वामिप्ररूपणाया ओदारिकमिश्रकाययोग औदारिकमिश्रकाययोगश्च तिर्यञ्चमनुष्याणा वैक्रियकयोगो वैझियिक मिश्रकाययोगश्च देवनाराकाणाम्उक्त , इह तिर्यड भनुष्याणामपीत्युच्यते । तदिदमार्पविरुद्धमिति । अत्रोच्यते--न अन्य त्रोपदेशात्। व्याख्याप्रशप्तिदण्डकेषु शरीरभ गे वायोरौदारिकवैक्रियकतैजस कार्मणानि चत्वारि शरीराण्युक्तानि, मनुष्याणा पच ।
-~-त वा०, पृ १५३, १५४ ।
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अन्य कर्मसाहित्य ३५१ डड्ढा अकलक देवके भक्त ज्ञात होते है उन्होने अपने पच सग्रहके अन्तमें अकलक देवके लघीयस्त्रय से एक कारिका उद्धृत की है। उन्हें अलकलक देवका कथन ही उचित प्रतीत हुआ । डड्ढाका ही अनुसरण अमितगतिने किया । और पञ्चसंग्रहकारके सामने अकलकदेवका वार्तिक नही था क्योकि पञ्चस ग्रहको रचना वातिक से पहले हो चुकी थी। अत. उन्होने 'चउदस' पाठ रखना ही उचित समझा क्योंकि जीवट्ठाण के अनुसार वही पाठ उपयुक्त था।
अत. पचसग्रहकार अकलक देवके पूर्ववर्ती होने चाहिए । अकलकदेव विक्रम की आठवी शताब्दीसे पश्चात्के विद्वान् नही है। अन पञ्चसग्रहकी रचना विक्रमकी आठवी शताब्दीसे पूर्व होनी चाहिए। चन्द्रर्षि महत्तरकृत पच सग्रह
दिगम्बरीय प्राकृत पञ्चसग्रहकी तरह श्वेताम्बर परम्परामें भी एक 'पचस ग्रह नामक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। जिसपर पञ्चसग्रहकारकी एक स्वोपज्ञ सस्कृत वृत्ति भी है। तथा आचार्य मलयगिरिकृत सस्कृत टीका है। यह भी कर्म प्रकृति आदि की तरह प्राकृत गाथावद्ध है ।
उसकी प्रथम गथाम वीर प्रभुको नमस्कार करते हुए पचसग्रहको कहनेका प्रतिज्ञा की गई है और उसे महार्थ तथा यथार्थ कहा है । गाथा' दोमें पचसग्रह नामकी सार्थकता बतलाते हुए कहा है कि चूंकि इस ग्रन्थमें शतक आदि पांव ग्रन्थोका यथायोग्य न्यास किया गया है अथवा इसके पांच द्वार है इसलिए पचसग्रह नाम सार्थक है।
शतक आदिसे कौनसे पांच ग्रन्थ ग्रन्थकारको अभीष्ट थे वह उन्होने स्वय प्रकट नही किया । टीकाकार मलयगिरि ने पचसग्रह शब्दकी व्याख्या करते हुए लिखा है-'शतक',सप्ततिका, कषाय प्राभृत, सत्कर्म और कर्मप्रकृति इन पांच ग्रन्थोका अथवा योग उपयोग विषयक मार्गणा, बन्धक, बन्धव्य बन्ध हेतु और बन्धविधि, इन पांच अधिकारोका जिस ग्रन्थमें सग्रह है वह पचस ग्रह है।
शतक, सप्ततिका, कषाय प्राभृतका परिचय तो पीछे कराया जा चुका है। १. स्वोपशवृत्ति तथा मलयगिरिकी टीकाके साथ पञ्चस ग्रह मुक्तावाई ज्ञानमन्दिर डभोई
(अहमदाबाद) से प्रकाशित हो चुका है। २. 'सयगाइ पञ्च गथा जहारिह जेण एत्थ सखिता। दाराणि पञ्च अहवा तेण जहत्था
मिहाणमिण ॥२॥'-५० सं०। पञ्चाना शतक-मप्ततिका-कपायप्रामत-सत्कर्म-कर्मप्रकृतिलक्षणाना ग्रन्थाना अथवा पञ्चानामर्थाधिकाराणा योगोपयोगविषयमार्गणा-वधक वन्धन्य-बन्धहेतु-बन्धविधिलक्षणाना सग्रह पञ्चसग्रह ।'-५० सं० टी०, पृ० ३१ ।
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३५२ : जेनसाहित्यका इतिहास
किन्तु सत्कर्म गन्यमे हम परिचित नहीं हो सके । मलयगिरिने अपनी सप्ततिका टीका में उससे एक उद्धरण भी दिया है । सम्भवतया मलयगिरिका यह उद्धरण सप्ततिका चूर्णिका ऋणी है क्योकि उसमे यही उद्धरण' 'संतकम्मे भणियं' कहकर दिया गया है । 'सतकम्म' का नम्कृत रूप सत्कर्म होता है ।
पट्खण्डागमका परिचय कराते हुए रातकम्मपाहुड या सत्कर्मप्राभृतके विपयमें प्रकाश डाला गया है । सत्कर्म उससे भिन्न होना चाहिए क्योकि इसके उक्त उद्धरणमें बतलाया है कि क्षपक श्रेणि ओर क्षीण कपाय गुणस्थानमें निद्रा और प्रचलाका उदय नही होता । श्वेताम्बर कर्म साहित्यमे इस विषयमें दो मत पाये जाते है । कर्मप्रकृति, सप्ततिका और सत्कर्मके अनुसार उक्त गुणस्यान में निद्रा प्रचलाका उदय नही होता । किन्तु प्राचीन कर्मस्तत्र तथा प्राकृत पचसग्रहके अनुसार होता है । दिगम्बर कर्म साहित्य में यह मतभेद नही पाया जाता । उसमें क्षीणकपाय निद्रा प्रचलाका उदय माना है । अत दिगम्वरीय सतकम्मपाहुडसे श्वेताम्बरी 'रान्तकम्म' भिन्न होना चाहिए ।
तीसरी गाथा में गन्यकारने ग्रन्थके योग उपयोग मार्गणा, बन्धक, वन्धव्य, बन्धहेतु और वन्यविधि इन पांच द्वारोका निर्देश किया है और तदनुसार ही आगे कथन किया है । अर्थात् प्रथम द्वारमें योग और उपयोग का कथन गुणस्थान और मार्गणा स्थानो में किया है । जैसा कि राक्षेप रूपमें शतकके प्रारम्भमें पाया जाता है । दूसरे द्वार मे कर्मका बन्ध करनेवाले बन्धक जीवोका कथन है । प्रथम दो गाथाओके द्वारा प्रश्नोत्तर रूपमें जीवका सामान्य कथन है-जीव किसे कहते हैं ? मोपशमिक आदि भावोसे सयुक्त द्रव्यको । जीव विसका स्वामी है ? अपने स्वरूपका । किसने उन्हें बनाया है ? किसीने भी नही बनाया । कहाँ रहते है ? शरीर में अथवा लोकमें रहते है । कबतक रहते है ? सर्वदा रहते है । कितने भावोसे युक्त होते है ? आगे सतपद प्ररूपणा, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाग, भाव और अल्पबहुत्व इन नी अनुयोगोके द्वारा जीवका कथन है । तीसरे बन्धद्वारमें आठो कर्मों और उनके उत्तर भेदोका कथन है । आठो कर्मोकी प्रकृतियोको बतलाने के पश्चात् ध्रुवबन्धी, अध्रुववन्धी, ध्रुवोदयी, अध्रुवोदयी, सर्वघाती, देशघाती, शुभ, अशुभ, तथा क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी, पुद्गल-, विपाकी प्रकृतियोको वतलाया है । इस तरह कर्मप्रकृतियोका विविध रूपसे कथन तीसरे द्वारमें है ।
१. ' तदुक्त सत्कर्मग्रन्थे– 'निद्दादुगस्स उदओ खीणगखवगे परिच्चज्ज' ।
- सप्त० टी०, पृ० १५८ ।
२ स० चू०, पृ० ७ ।
३. इस चर्चा के लिए देखो - सि० चू० पृ० ७की टिप्पणी ।
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अन्य कर्मसाहित्य : ३५३ चौथे वन्धहेतु द्वार में कर्मवन्धके कारण मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग तथा उनके भेदोका कथन भगपूर्वक विस्तारसे किया है। चूंकि परीपह भी कर्मोके उदयसे होती है इसलिए अन्तमें परोपहोका भी कथन तीन गाथाओसे किया है । स्वोपज्ञ वृत्तिमें नग्नताका कोई अर्थ सम्प्रदायपरक नहीं किया है जैसा कि मलयगिरि ने अपनी टीका में किया है।
पांचवें वन्यविधि द्वारमें बन्धविधिके साथ ही उदय, उदीरणा और सत्ताका भी कथन किया है क्योकि बद्धफर्मका उदय होता है, और उदयप्राप्त कर्ममें अनुदय प्राप्त कर्मका प्रक्षेपण करनेको उदीरणा कहते है। और जिस कर्मका उदय अथवा उदीरणा नहीं होते वह मत्तामें रहता है । अत वन्धके साथ उदय उदीरणा और सत्ताका कथन किया गया है। अत ये द्वार वडा है इसमें वन्धके चारो भेदोका कथन होनेके साथ ही माय उदय उदीरणा और सत्ताका भी कथन है । इस तरह पचमग्रहके पांचो द्वार समाप्त हो जाते है । और उनके साथ ही ग्रन्यका पूर्वार्ध हो जाता है । ___ उत्तरार्धमें कर्मप्रकृतिमें कथित माठो करणोका स्वरूप प्रतिपादित है। इसके प्रारम्भमें पञ्चसंग्रहकारने श्रुतघरोको नमस्कार किया है। किन्तु उन्होंने यह नही कहा कि मैं कर्मप्रकृतिका कथन करता हूँ। टीकाकार मलयगिरिने प्रथम गाथाको उत्यानिकामें कहा है-'अब कर्मप्रकृति सग्रहको कहना चाहिए । कर्मप्रकृति महान शास्त्रान्तर है । उसे हमारे जैसे अल्पबुद्धि केवल अपनी बुद्धिके प्रभावसे सग्रहीत करनेमें असमर्थ है किन्तु कर्मप्रकृति प्राभूत आदि शास्त्रोके पारगामी विशिष्ट श्रुतपरोके उपदेशकी परम्पराके साहाय्यसे कर सकते है । इसीसे ग्रन्यकारने श्रुतधगेको नमस्कार किया है । ___इसका विषय परिचय करानेको आवश्यकता नही है क्योकि इसकी रचना शिवशर्मप्रणीत कर्मप्रकृति तथा उसकी चूर्णिको सामने रखकर उसीके अनुसार की गयी है । दोनोका मिलान करनेसे यह बात स्पष्ट हो जाती है। अन्तिम भागमें सप्ततिका का सग्रह किया गया है । अत सप्ततिकामें जो विपय प्रतिपादित है वही इसमें भी है।
१ 'नमिऊण सुयहराण वोच्छ करणाणि वधणाईणि।
सकमकरण बहुसो अइदेसिय उदय सतेज ॥१॥ मलयटी०–सम्प्रति कर्मप्रकृतिसंग्रहोऽभिधातव्य । कर्मप्रकृतिश्च शास्त्रान्तरं महद्धि च' ततो न मादृशैरल्पमेधोभि स्वमतिप्रभावत सग्रहीतु शक्यते। किन्तु कर्मप्रकृति प्रामृतादि-शास्त्रार्थ-पारगामि विशिष्ट श्रुतधरोदेशपारम्पर्यंत. ततोऽवश्य ते नमस्करणीया'-प० सं० उत्त।
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३५४ जनमाहित्यका इतिहास ग्रन्थकारके द्वारा निर्दिष्ट ग्रन्थ
पराग्रहमारने अपने गलग्रन्थगे 'सगगाई पंचगया' करके गतक आदि जि पांच अन्योका संग्रह गरनेकी प्रतिमा की है उनमे शतको शिवाय पोका न नही प्रतलागा, यह हम ऊपर लिए आये है। फिर भी पचसंग्रहके पर्यवेक्षणमे र निश्चित है कि दोप गार गन्योमगे दो अवश्य ही गर्मप्रकृति और गप्ततिका है
पदोका प्रश्न विवादनम्न है। मलयगिरिके अनुमार ये कमायपाहम और सत्क हैं । कमायपाहुडके सम्बन्ध में कोई ऐमा उल्लेरा हमारे देयने में नही आया जिस आधारपर उगको निधि या निषेधपर जोर दिया जामफे। किन्तु सत्कर्मक गम्मन्यतो यह कहा जा गगता है कि पनमग्रहकारको द्वारा निर्दिष्ट पांच ग्रन्योमें उग स्थिति सदिग्ध है गयोकि पचसग्रहकारने उसके गतके मामने कर्मस्तवका गत मान किया है । तथा एक म्यानपर वोपावृत्तिमें शर्मस्तवका उल्लेस भी किया है मत पचसग्रहकार द्वारा सगृहीत पांच ग्रन्थोमे एक कर्मस्तव अवश्य होन नाहिए। ___ सप्ततिका और कर्मस्तवके सिवाय पचगंगहकारने अपनो वृत्तिमें प्रज्ञापन
और जीवममासका उल्लेख किया है । दोनो ही प्राचीन ग्रन्य है और उनमें प्रकर ग्रन्यमें चचित कुछ विषय भी पाये जाते हैं। फिर भी पांच गन्योमें उनके होने की सम्भावना कम है। पञ्चसग्रहकारका अन्य कामिको तथा सैद्धान्तिकोसे मतभेद
पंचराग्रहकारने यद्यपि अपने ग्रन्थ पंचसगहमें पांच ग्रन्योका संकलन किया है तथापि उन्होने एकान्त रूपमे अनुमरण नही किया । अनेक विपयोमें उनका अन्य कार्मिको तथा सैद्धान्तिकोमे मतभेद प्रकट है । नीचे उसीको बतलाया जाता है।
१ पचसग्रह (गा० १७) सम्यमिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें दस योग बतलाये है । मलयगिरिने उसको टीकामें यह शका उठायी है कि वैक्रिय लन्धि सम्पन्न
१. 'कर्मस्तवप्रणेता तु क्षीणमोहेपि हिचरमममय यावनिद्रामचलयोरुदयमिच्छति । तथा
चोक्त कर्मस्तवे-'निदापयलाण ता खीणदुचरिममि उदयवोच्छेओ' । इति । ततस्तन्मतेन निद्राप्रचलयोरपि क्षीणमोहगुणस्थानकद्विचरमसमय यावदुदओ वेदितव्य ।प० स०, मलयटी०, भा० १, पृ० १९५। 'एतच्चाचार्यण कर्मस्तवाभिप्रायेणोक्तम् सत्कर्मग्रंथाघभिप्रायेणे तु क्षपकक्षीणमोहाना चतुमिवोदयो न पन्चानामपि । तदुक्त सत्कर्मग्रन्थे–'निदादुगस्स उदओ खीणगखवगे परिचज्ज ।' -५०, स. मलयटी०,
भा० २, पृ० २२७ । २. 'एवमेकादशभङ्गा सप्ततिकाकारमतेन कर्मस्तवकारमतेन पन्चानामप्युदयो भवति'
प० स०, भा॰ २, पृ० २०७। '
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अन्य कर्मसाहित्य : ३५५ पर्याप्त मनुष्य तिर्यञ्चो के सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें विक्रिया होती है उसके पहले वैक्रियमित्र होता है वह यहां क्यो नही कहा' । उत्तर दिया गया है कि वहां विक्रिया नही होती इसलिए अथवा अन्य किसी कारणसे आचार्यने तथा दूसरोने नही माना यह हम नहीं जानते क्योकि उस प्रकारके सम्प्रदायका अभाव है।'
दिगम्बर परम्परामें भी तीसरे गुणस्थानमें दस योग बतलाये है और उक्त शकित विक्रियाको स्वीकार नही किया है। _२ पञ्चसग्रह ( गा० ९) में उपयोगका कथन गुणस्थानोमें करते हुए पहले और दूसरे गुणस्थानमें पांच ही उपयोग बतलाये है । शतक गा० ४१ में भी . पांच ही उपयोग बतलाये है । यही कार्मिकोका मत है जो दिगम्बर परम्परामें भी मान्य है । किन्तु प्रज्ञापनामें विभङ्गावधिके साथ अवधिदर्शन भी बतलाया है। पचसग्रहकारकी कुछ बातोका विरोध मलयगिरिने स्पष्ट रूपसे अपनी टीकामें किया है। यथा
३ गाथा ४६ से ५१ तक पचसग्रहकारने जीवोकी कायस्थितिका कथन किया है । यह कायस्थिति प्रज्ञापनामें कथित कायस्थितिसे मेल नही खाती । अतः
मलयगिरिने उसे आगम विरुद्ध मान कर अपनी टीकामें प्रज्ञापनाके अनुसार ही कथन किया है। किन्तु यह कायस्थिति षट्खण्डागमके अन्तर्गत जीवट्ठाणके कालानुयोगद्वारमें कथित कायस्थितिसे मेल खाती है ।
४ चतुर्थद्वारकी गाथा १८ में पचसग्रहकारने चौइन्द्रियोके तीनो वेद माने है। मलयगिरिने केवल एक नपु सक वेद ही लिखा है। दिगम्बर परम्पराके अनुसार भी चौइन्द्रियपर्यन्तजीव नपु सकवेदी ही होते है । __ ५ चतुर्थद्वार में ही पञ्चसग्रहकारने उत्तर प्रकृतियोकी जो जघन्य स्थिति बतलायी है वह कर्मप्रकृतिसे मेल नही खाती। दोनोमें अन्तर है। यथा-पञ्चसंग्रहकारने तीर्थङ्कर नामकर्मकी जघन्यस्थिति दस हजार वर्प बतलायी है। तथा आहारकद्विककी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बतलायी है किन्तु कर्मप्रकृति मादिमें
१ 'इह मूलटीकायामन्यत्र च ग्रन्थान्तरे कायस्थितिरन्यथागमविरोधिनी दृश्यते। ततस्तामु
पेक्ष्य प्रज्ञापनासूत्रानुसारत सूत्रगाथा विवृता । अतएव ग्रन्थगौरवमनादृत्य सर्वत्र
प्रज्ञापनासूत्रमुपादशि-६० स० मलयटी०, भा० १ पृ० ८५। २. पटख०, पु० ४। ३- ५ स० मलय० टी०, भा० १, पृ० १८३ । ४- 'तिरिक्खा सुद्धा
णवुसगवेदा एइ दियप्पहुडि जाव चरिंदियाति ॥१०६।। षट्ख० पु०, पृ० ३४५ । ३ 'इद च किल निद्रापन्चकादारभ्य सर्वाषा प्रकृतीनां जघन्यस्थितिपरिमाणमाचार्येण मतान्तरमधिकृत्योक्तमवसेयम, कर्मप्रकृत्यादावन्यथा तस्यामिधानात् ।'-६० स० मलय यटी०, भा० १, पृ० २२७ ।
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३५६ जेनसाहित्य का इतिहास उनकी जघन्ग स्थिति गोटी-मोटी मागर बतलायी है। दिगम्बर परम्परामें भी यही बतलायी है। ___ कार्मिको गौर संसान्तिकोमें तो गतभेद है ही। कुछ बातोको लेकर कामिकोमे भी परसारमें मतभेद है । जगे क्षीणकपाग गुणस्थानमे निद्रा प्रचलाका उदय कोई मानता है कोई नही मानता। गर्गप्रकृतिकार और सप्ततिकार नही गानते। किन्तु प्राचीन कर्गस्तव मोर तदनुयायो पञ्चमंग्रहकार तथा दिगम्बराचार्य मानते है । किन्तु 'पञ्चसग्रहकारने अपने मप्ततिका प्रकरण मे सप्ततिकासंग्रह करते हुए दोनोंका निर्देश कर दिगा है। दूसरा मौलिक मतभेद अनन्तानुवन्धी कपायकी उपशमना और विगयोजनाको लेकर है कर्मप्रतिकारका मत
कि अनन्तानुसन्धीकी विसयोजना ही होती है, उपशमना नहीं होती। किन्तु पप्ततिका ( गा०६१ ) और पञ्चसग्रहके अनुसार उपशमना होती है । तथापि २पञ्चमग्रहमे विसयोजना भी बतलायी है।
पञ्नसग्रहवारने अपने सप्ततिका नामक प्रकरणमें गा० ९ में वैक्रियिक द्वयका उदय चौये गुणरयान तक ही बतलाया है। उसकी टीकामें 'मलयगिरिने लिया है कि वैक्रिय और वैक्रिय अगोपागका चौये गुणस्थानसे आगे उदयका निपेध आनार्यने नामस्तवके अभिप्रायानुमार किया है। स्वय तो वे देशविरत, प्रमत्त और अप्रमत्तमें उनका उदय मानते है। __उक्त नर्चाओगे प्राट होता है कि पञ्चराग्रहकार कर्मशास्नके बहुत विशिष्ट विद्वान थे और अपने समयके कर्मसिद्धान्त विपयक सभी प्रमुख ग्रन्योका उन्होने अवलोकन किया था। और उन सभीके मतोको उन्होने अपने ग्रन्थमें स्थान दिया, फिर भी कुछ विषयोमें उनका अपना भी विशिष्ट मत था। कर्ता
इस पञ्चसंग्रहके कर्ता आचार्यका नाम चन्द्रपि महत्तर था। पञ्च सग्रहको अन्तिम गाथा तथा उसकी वृत्तिमें उन्होने अपना नाम 'चन्द्रपि' मात्र दिया है। १. 'खवगे सुतुम मि चउवन्धमि अवधगम्मि खीणम्मि।
संत चउरदओ पंचण्हवि केर इच्छति । १४॥ -श्वे० ५० सं०, भाग, २२७ । २ श्वे.पं० स० उप०, गा०, ३४-३५ । ३. 'वैक्रियवेक्रियागोपागनिषेधस्तु अत्राचार्येण कर्मस्तवाभिप्रायेण कृतोभिवेदितन्यः, न स्वमतेन
स्वय देशविरत प्रमत्ताप्रमत्तेपु तदुदयाभ्युपगमात्, रवकृतमूलटीकाया तथा भगभावना
करणात् । प० स०, भा॰ २, पृ० २२७ । ४ सुयदेवि पसायाओ पगरणमेयं समासो भणिय ।
समयाओ चन्दरिसिणा समइ वि भवानुसारेण ॥१५६।।
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अन्य कर्मसाहित्य ३५७ और अपने गुरु आदिके सम्बन्धमें कोई निर्देश नही किया। सित्तरीकी प्रतियोके अन्तमें जो एक गाथा पाई जाती है । ___गाहग्गं सयरीए चदमहत्तरमयाणुसारीए'
उसमें 'चन्द्रमहत्तर' नाम आता है। खंभातके श्री शान्तिनाथभण्डारमें जो शतकचूणिकी प्रति है उसके अन्तिम पत्रके अन्तमें यह वाक्य लिखा है-'कृतिराचार्य श्रीचन्द्रमहत्तरशिताम्बरस्य' ।
इन सब उल्लेखोसे ग्रन्थाकारका पूरा नाम श्री चन्द्रपि महत्तर प्रमाणित होता है किन्तु उनके कुलगुरु समय आदिके सम्बन्धमें कोई जानकारी प्राप्त नही होती।
साधारणतया उन्हें एक बहुत प्राचीन आचार्य माना जाता है । 'जनसाहित्य नो इतिहास, (पृ० १३९) में उन्हें कर्मप्रकृतिकारके पश्चात् रखते हुए लिखा है-'चन्द्रपि महत्तर थयाते घणा प्राचीन समयमा थया जणाय छे । ते प्राय आ समयमा थया हशे ऐम गणी अही तेमनो उल्लेख कर्यो छ' ।
किन्तु मुनिश्री पुण्यविजयजीने 'पञ्चमकर्मग्रन्थ और पष्ठम कर्मग्रन्थ' का अपनी प्रस्तावना ( पृ० १५)में 'चन्द्रपि सप्ततिकाके रचयिता नही है इस बातको स्पष्ट करते हुए उनके सम्बन्धमें दो बातें मुद्दे को लिखी है। एक-यदि सप्ततिकर्ता और पचसग्रहकर्ता आचार्य एक ही होते तो भाष्यकार चूणिकार आदि प्राचीन ग्रन्थकारोंके ग्रन्थोमें जैसे शतक, सप्ततिका, कर्मप्रकृति आदि ग्रन्थोका उल्लेख साक्षी रूपसे मिलता है वैसे पञ्चसंग्रह जैसे प्रासादभूत ग्रन्थके नामका उल्लेख भी जरूर मिलता। परन्तु ऐसा उल्लेख कही भी देखनेमें नहीं आता। दूसरे मुद्दे की बात मुनिजीने यह लिखी है कि 'महत्तर' पद तथा गर्षि, सिद्धर्षि, पाश्वर्षि, चन्द्रषि आदि जैसे ऋपि पदान्त नाम सामान्यतया पिछले समय के होने चाहिए। आचार्य चन्द्रषिके समयका विचार करते समय दोनो मुद्दे नही भुलाये जा सकते।
इनके समयका विचार करनेसे पूर्व वहा शतकचूणि और सप्ततिचूणिका परिचय कराया जाता है। एक अन्य शतक'चूणि . शतक ग्रन्थका परिचय पहले कराया जा चुका है। उसीपर प्राकृत भाषामें यह चूणि रची गयी है । चूणिको देखनेसे प्रकट होता है कि उसका रचयिता कोई बहुश्रुत विद्वान होना चाहिए, क्योकि चूर्णिमें उद्धृत गाथाओका बाहुल्य है । १-राजनगरस्थ वीर समाजकी ओरसे प्रकाशित शतक प्रकरणका इसचूणिके साथ प्रकाशन
हुआ है।
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३५८ : जैनसाहित्यका इतिहास और चचित विषयके सम्बन्ध कामिको औच सैद्धान्तिकोमें जो मतभेद है उनका भी यथा स्थान निर्देश किया गया है । ___यद्यपि पूरी चूणि प्राकृत गापाबद्ध है किन्तु कही-कही सस्कृत वाक्य भी पार्य जाते हैं किन्तु उनको पिरलता है । प्रारम्भिक गाथाको उत्थानिकामें चूणिकारने सम्बन्धादिका कथन करने के लिए एक संस्कृत आर्या उद्धत की है
'संज्ञा निमित्तं कर्तार परिमाण प्रयोजन ।।
प्रागुक्त्वा सर्वतयाणा पश्चाद् वक्ता तं वर्णयेत् ।।' प्रथम गाथा में कहा है कि 'दृष्टिवादसे कुछ गाथाए कहूगा'। चूर्णिकारने दृष्टिवादका परिचय कराते हुए उसके पाच भेदोमें से दूसरे पूर्व अग्रायणीयके अन्तर्गत पचम वस्तुके वीस पाहुडोमेंसे चतुर्थ कर्मप्रकृति प्राभृतसे इस ग्रन्थको उत्पत्ति वतलायी है। चतुर्थ कर्मप्रकृति प्राभूतके चोवीस अनुयोगद्वारोके नाम गिनाकर उनमें से छठे अनुयोगद्वार बन्धनके चार भेद-बंध, बधक, वन्धनीय और वन्ध-विधानमें से बन्धविधानसे प्रकृत शतकको उत्पति बतलाई है। इससे सूचित होता है कि चूणिकारको इस सव उपपत्तिका परिचय था।
इसी तरह ग्रन्यमें वर्णित योग, उपयोग जीवसमास और गुणस्थानोंका चूणिमें अच्छा विवेचन किया गया है जो सक्षिप्त होते हुए भी बहुमूल्य है । गाथा ३८-३९की चूर्णिमें आठो कर्मों और उनकी उत्तरप्रकृतियोका विवेचन भी सुन्दर है । आगे चारो बन्धोके कथन में भी चूर्णिमें बहुत विषय भरा हुआ है और चूणिकारने 'गागरमें सागरकी कहावत को चरितार्थ किया है।
इस चूर्णिके कर्ताका भी नाम अज्ञात है। किन्तु खभातके शान्तिनाथ भण्डारसे प्राप्त शतक चूणिके अन्तमें उसे श्वेताम्बराचार्य श्री चन्द्रमहत्तरकी कृति बतलाया है।
किन्तु पचसंग्रहके साथ चूर्णिकी तुलना करनेसे कोई वात प्रकट नही होती जिसके आधारपर यह निस्सन्देह रूपसे कहा जा सके कि यह चन्द्रषि महत्तरकी कृति है।
१. प्रथम तो चूर्णिका उपोद्घात और पच-सग्रहका उपोद्घात ही भिन्न है। जहा चूणिमें सज्ञा, निमित्त आदिका कथन ग्रन्थके प्रारम्भ में आवश्यक बतलाया है वहा पञ्चस० के प्रारम्भमें मंगल, प्रयोजन, सम्बन्ध और अभिधेयका कथन करके व्याख्या क्रमके ६ भेद किये है और उनके सम्बन्धमें 'उक्त च' रूपमें यह श्लोक उद्धृत किया है।
सहिता च पद चैव पदार्थः पदविग्रह । चालना प्रत्यवस्थानं व्याख्या तन्त्रस्य षड्विधा ॥१॥'
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अन्य कर्मसाहित्य : ३५९
२ शतक गाथा १४ की चूर्णिमें मिथ्यात्वके अनेक भेद बतलाये हैं-एकान्त, वैनयिक, अज्ञान, सशय, मूढ और विपरीत । अथवा क्रियावाद, अक्रियावाद, वैनयिकवाद और अज्ञानवाद । तथा नीचे लिखी दो गाथाए उद्धृत की है
'असियसय किरियाण अकिरियवाईण जाण चुलसीई । अन्नाणि य सत्तट्ठी वेणइयाण च बत्तीस ॥" जावइया णयवाया तावइया चेव होति परसमया ।
जावइया परसमया तावइया चेव मिच्छत्ता ।' उधर पच'सग्रहमें मिथ्यात्वके पाच भेद गिनाये है-अभिगृहीत, अनभिगृहीत, आभिनिवेशिक, साशयिक और अनाभोग । तथा व्याख्यामें 'च' पद से सूचित मिथ्यात्व के भेदोंका सूचन करनेके लिए 'सेसटा तिन्नीसया' और 'जावइया वयण पहा' गाथाशोका निर्देश किया है जो बतलाता है कि चूर्णिमें उद्धृत इन गाथाओसे ये दोनो गाथाए भिन्न है। .
३ शतक गा० ५२-५३ की चूणिमें उत्तर प्रकृतियोके स्थितिबन्धका कथन विस्तारसे किया है । उसमें तीर्थङ्कर और आहारकद्वयकी जघन्यस्थिति कर्मप्रकृति के अनुसार, अन्त. कोटी-कोटी सागर ही बतलायी है। किन्तु पचसंग्रहमें तीर्थङ्कर प्रकृतिको अन्तर्मुहूर्त बतलायी है।
चूणिमें वर्णादिचतुष्ककी उत्कृष्टस्थिति बीस कोडाकोडी सागर बतलायी है और पचसग्रह में पृथक् २ बतलायी है । और भी उल्लेखनीय अन्तर स्थितिबन्धके सम्बन्धमें है।
अत इन बातोको लक्ष्यमें रखनेसे यह निर्विवाद रूपसे नही माना जा सकता कि शतकचूणिके कर्ता और पचसग्रहके कर्ता एक व्यक्ति है ।
शायद कहा जाये कि शतक कर्मप्रकृतिकारकी रचना है इसलिए चूणिकारने उसमें कर्मप्रकृतिके अनुसार ही स्थितिका प्रतिपादन किया होगा। किन्तु ऐसा कहना भी उचित नही है क्योकि चूर्णिकारने कर्मप्रकृतिका भी अनुसरण नही किया । कर्मप्रकृति के अनुसार प्रत्येक वर्गकी भी उत्कृष्ट स्थितिमें मिथ्यात्वकी
१ 'आमिग्गहियमणमिग्गहिच अभिनिवेसिय चेव । ससइयमणामोगे मिच्छत्त पचहा
होइ ॥२॥ २ सुक्किलसुरभी महुराण दस उ तह सुम चउण्ह फासाण । अठाइज्ज पवुड्डी अविल ___ हालिद पुव्वाण ॥३३॥ श्वे०५० स० भा० १, पृ० २१९ ।। ३. 'वग्गु क्कोस ठिण मिच्छतुक्कोसगेण ज लद्ध। सेसाण तु जहन्ना पल्लासखिज्जभागूण
॥ "७९."-क० प्र०, बन्धन-।
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३६० : जैनसाहित्यका इतिहास उत्कृष्ट स्थितिका भाग देनेसे जो लब्ध जाता है उसमे पत्यका असख्यातवा भाग कम करनेसे उत्तरप्रकृतियोकी जघन्य स्थितिका प्रमाण माता है । और पचराग्रहके' अनुसार प्रत्येक उत्तर प्रकृतिकी अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका भाग देने से जो लप आता है वही उस उत्तर प्रकृतिको जघन्यस्थितिका प्रमाण होता है। चूणिमें पचसग्रहवाली वातको स्वीकार किया गया है किन्तु उसमें कर्मप्रकृतिकी तरह पत्यका असख्यातवा भाग कम भी किया गया है। श्वे० पच स० की टीकाम मलयगिरि ने लिखा है कि जीवाभिगम वगैरह में यही स्थिति मान्य है जो चूणिमें बतलायी है।
दिपच सं० में भी यही स्थिति मान्य है । दि०५० स० की गाथाओके साथ स्थिति निर्देशक चूणिका मिलान करनेमे यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उक्त चूर्णि की रचना दि० पं० स० की गाथाओको सामने रसकर की गयी है । दोनों में कयनका क्रम भी एक है।
किन्तु शतकचूणिमें तथा १० स० को स्वीपज्ञ वृत्तिमे जिनभद्रगणी क्षमाश्रमणके विशेषावश्यक भाष्यसे गाथाए उद्धृत की गयी है । मत दोनोकी रचना विक्रमकी सातवी शताब्दीके पूर्व ही हुई है यह निश्चित है।
गुजरातके चालुक्यवशी नरेश कुमारपाल के समयमें हुए आचार्य मलयगिरिने पंचसंग्रह पर टीका रची थी। अत. पञ्चसग्रहको उत्तरावधि विक्रमकी वारहवी शती निश्चित होती है । देखना यह है कि विक्रमकी सातवीं शताब्दीके अन्तसे लेकर वारहवी शताब्दी पर्यन्त पाचसी वर्षों के अन्दर पञ्चस ग्रहको रचना कब हुई।
इस कालके बीचमें हुए ग्रन्थकारोके ग्रन्योमें भी पञ्चसग्रहसे उद्धृत पद्य हमारे देखने में नही आये।
पञ्चसग्रहसे भी कोई विशेष सहायता नही मिलती। हा, पञ्चसग्रहकी
१. ' 'सेसाणुक्कोसाओ मिच्छत्तठिइए ज ल ।।४।।
-~-इवे. ५० स०, भाग १ पृ. २५५ । २ 'जीवाभिगमादौ आचार्योंक्त जघन्यस्थितिपरिमाण पल्योपमासंख्येयभागन्यमुनमुक्तम् श्वे०
५० सं० पृ० २०७। ३. श० चू० गा० ३८-३९ मे-'जावन्ती अक्खराइ '-वि. भा० गा० ४४४ । 'इन्द
यमणोणिमित-'कि० मा गा० १००। ४ सव्वस्स केवलिस्स वि जुगवं दो नथि उवओगा० वि० भा० गा० ३०९६ ।-इवे०
प० स०, भा० १, पृ० १० ॥
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अन्य कर्मसाहित्य ३६१ स्वोप'ज्ञवृत्तिमें लिखा है कि कुछ 'आचार्य वामन को चौथा सस्थान मानते है किन्तु वह ठीक नहीं है । हमने खोजने पर गषिके कर्मविपाकमें वामनको चौथा और कुब्जकको पांचवा संस्थान पाया । यथा--
समचउरसे नग्गोहमंडले साइवामणे खुज्जे ।
हुडे वि य सठाणे तेसिं सरूव इम होइ ॥१११॥ तव क्या पचसग्रहकारने 'केचित्' के द्वारा गपिके मतका निर्देश किया है ? यदि ऐसा हो तो उन्हे गपिके पश्चात्का ग्रन्थकार मानना होगा।
सिपि आचार्यने अपनी उपमिति भव प्रपञ्चकथा वि० स० ९६२ में रचकर समाप्त की थी। उसमें उन्होने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि लाट देशके निवृतिकुल में सूर्याचार्य हुए । उनका शिष्य छेल्ल महत्तर था जो ज्योतिर्विद था। उनका शिष्य दुर्गस्वामी था। उसने जैन साधुको दीक्षा ली थी। उसकाशिष्य मैं सिद्धर्षि हूँ । सिर्षिने लिखा है कि मेरे गुरु दुर्गस्वामीको तथा मुझे गर्गस्वामीने दीक्षा दी थी। इन्ही गर्गस्वामीको कर्म विपाकका रचयिता माना जाता है । अत उसका समय विक्रमकी दसवी शतीका पूर्वाध समझना चाहिए। और ऐसी स्थितिमें पचसग्रहकार चन्द्रषिको दसवी शतीसे पहलेका विद्वान नही माना जा सकता। और इस आधार पर उनका समय विक्रमकी १० वी शताब्दीका उत्तरार्ध माना जा सकता है । यद्यपि इस समयसे पहलेके रचे हुए प्रन्थोमें पचसग्रहके उद्धरण हमारे देखनेमें नही माये और इसलिए उक्त समयमें कोई असमजसता प्रतीत नही होती । तथापि उक्त आधार इतना पुष्ट नही है जिसके आधार पर उक्त समयको निर्विवाद रूपसे माना जा सके । क्योकि गर्गषिने अपने कर्म विपाकमें जो वामनको चौथा सस्थान गिनाया है सम्भव है किसी अन्य आधार पर गिनाया हो और उसीका निर्देश पंचसग्रह में किया गया हो।
यद्यपि शतक चूणि हमें पचसग्रहकार रचित प्रतीत नही होती तथापि उसके आधार पर भी उसके कर्ताके विषयमें, चाहे वह चन्द्रर्षि हो या अन्य, विचार करना आवश्यक है।
शतक चूणिमें ग्रन्थान्तरोसे उद्धृत पद्योका बाहुल्य है और वही एक ऐसा स्रोत है जिसके द्वारा चूणिके रचना कालके सम्बन्धमें किसी निष्कर्ष पर पहुचा जा सकता है।
१ 'वामनस्य केचिच्चतुर्थ (थै स०) स्थान वदन्ति तन्न भवतीति ।-श्वे०प०स०, भा०
१, पृ० २२० । २ जै० सा० इ० (गु), पृ० १८२ ।
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३६२ : जैनसाहित्यका इतिहास
यह तो हम लिख ही आये है कि उसमें विशेपावश्यक भाष्यसे उद्धरण दिये गये है और उनके आधार पर उसके रचना कालकी पूर्वावधि निश्चित हो जाती है । अन्य उद्धरणोके स्थानका पता न लग मकनेसे अथवा उनके स्थल में विवाद होनेसे किसी निष्कर्ष पर पहुचने में जो कठिनाई उपस्थित होती है उसका विवरण दिया जाता है।
दि० पंचसग्रहका समय निर्णीत करते हुए यह लिख आये हैं कि शतक चूणिकार उससे परिचित थे। उसकी पुष्टिमें एक उद्धरण और भी मिलता है। नीचे लिखी गाथा श० चू० में उद्धृत है
‘ज सामण्णं गहणं भावाण णेवकटु आगार ।
अविसेसिकण अत्थे दसणमिई वुच्चए समए ।'-श० चू० पृ० १८ । यह गाथा दि० पं० सं० के प्रथम अधिकारकी १३८ वी गाथा है। यह धवलामें भी उद्धृत है और द्रव्य संग्रहमें तो इसे मूलमें सम्मिलित कर लिया गया है । शतक चूणिसे यह गाथा अन्य श्वेताम्बर टीकाओ में भी उद्धृत की गयी है। यथा कर्मविपाक नामक प्रथम नव्य कर्म ग्रन्थको गाथा १० की टीकामें वह उद्धृत है
और सम्पादक ने उसे वृहद्दव्यसंग्रहको बतलाया है। किन्तु मूलमें वह दि० पं० सं० की ही है। अत. शतक चूर्णिकार दि० प० स० से अवश्य सुपरिचित थे । अस्तु,
शतक गाथा ९ की चूर्णिमें गुणस्थानोका कथन करते हुए अनेक गाथाए उद्धृत की गयी है । उनमें से प्रथम गुणस्थानके वर्णनमें नीचे लिखी ५ गाथाए एक साथ क्रमवार उद्धृत हैउक्तंच-मिच्छत्त तिमिर पच्छाइयदिट्ठी रागदोससंजुत्ता।
धम्म जिणपण्णत्त भवावि णरा ण रोन्ति ॥१॥ मिच्छादिट्ठी जीवो उवइट्ठ पवयण ण सद्दहइ । सद्दहइ असन्भाव उवईट्ठ वा अणुवइळें ॥२॥ पदमक्खरं च एक्कपि जो ण रोएइ सुत्तणिदिळें । सेसं रोएन्तो वि हु मिच्छाद्दिट्ठी मुणयन्वो ॥३॥ सुत्त गणहरकहियं तहेव पत्तेयबुद्धकहियं च ।
सुयकेवलिणा रइय अभिण्णदसपुग्विणा कहिय ॥४॥ अहवा-त मिच्छत्त जमसद्दहण तच्चाण जाण अत्थाण ।
स इयमभिग्गहियं अणभिग्गहियं च त तिविहं ॥५॥' इनमें से गाथा २ तथा ५, दि० प० स० के प्रथम अधिकारको ८ वी तथा १. दि० ग्रन्थोमें 'भण्णए' पाठ है।
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अन्य कर्मसाहित्य - ३६३ ७ वी गाथा है । तथा ३, ४, ५, भगवती आराधनामें हैं और उनकी सख्या क्रमश ३९, ३४, और ५६ है। गाथा न. ४ के पाठमें थोडा भेद है जो इसप्रकार है
सुत्त गणधरगथिद तहेव पत्तेय बुद्धकहिय च ।
सुदकेवलिणा कहिय अभिण्णदसपुन्विगविंद च ॥३४॥ श्वेताम्बर साहित्यमें वृहत्सग्रहिणी में गा० ३-४ पाई जाती है और उनका नम्बर १५३-१५४ है । तथा उसमें कहिय' आदिके स्थानमें सर्वत्र 'रइय' पाठ है।
इस तरह उक्त पाच गाथाओमें से फुटकर रूपमें कुछ गाथाए दोनो परम्पराओके साहित्य में मिलती है। किन्तु लगातार पाचो गाथाए इसी क्रमसे किसी ग्रन्थमें नही मिलती और इसलिए यह निर्णय करना अशक्य है कि चूर्णिकारने इन्हें अमुकग्रन्थ से उद्धृत किया है । ___ खोजते खोजते हमें ये गाथाए इसी क्रमसे एक अन्य ग्रन्थमें भी उद्ध त मिली। सिद्धसेन गणिकृत तत्वार्थ भाष्यकी टीका ( अ ८ सूत्र १० में) में ये गाथाए इसी क्रमसे उद्धृत हैं । केवल पाचवी गाथाकी प्रथम पक्तिके अन्तिम शब्द 'अत्थाण' के स्थानमें 'भावाणं' पाठ है।
परन्तु चौथी गाथा उद्धृत नही है उसके स्थानमें उसी आशयकी दो सस्कृत आर्याए इसप्रकार उद्धृत है'सूत्र तु प्रतिविशिष्टपुरुपप्रणीतमेव श्रद्धागोचर इति यथोक्तम्
अर्हत्प्रोक्त गणधरदृब्धं प्रत्येकबुद्धदृब्ध वा । स्थविरग्रथितं च तथा प्रमाणभूतत्रिधा सूत्रम् ॥१॥ श्रुतकेवली च तस्मादधिगतदशपूर्वकश्च तो स्थविरो।
आप्ताज्ञकारित्वाच्च सूत्रमितरत् स्थविरदृब्ध ॥२॥ 'सुत्त गणधर कहियं', आदि गाथाके अभिप्रायसे उक्त संस्कृत आर्यामओके अभिप्रायमें कोई अन्तर नही है । गाथामें श्रुतवली रचितको तथा दसपूर्वी रचितको सूत्र कहा है। संस्कृत पद्योमें उन दोनोको स्थविर बतलाते हुए स्थविर रचितको सूत्र कहा है। हमारा विश्वास है कि शतक चूणि तथा सि० टीकाके वीचमें अवश्य ही आदान-प्रदान हुआ है और उन दोनोमें से एकने दूसरेका अनुकरण किया है । उसके विना विभिन्न ग्रन्थोंसे सकलित की गयी गाथाए उसी क्रमसे दोनोमें नहीं मिल सकती।
हमारे उक्त विश्वास का आधार केवल उक्त गाथाए ही नहीं है, किन्तु दोनो ग्रन्थोमें समान रूपसे पाये जानेवाले उद्धरणोका तथा वाक्योंका बाहुल्य है।
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३६६ • जेनसाहित्यका इतिहास
ऐसी स्थिति तचूर्णिका अनुगरण मितमेन ने किया हो यह राभव है यद्यपि निश्चयपूर्वक नही कहा जा सकता ।
नवागवृत्तिकार अगयदेवसूरिनं सप्नतिका या सित्तरी पर एक भाष्य रचा था । इसके प्रारम्भमें उन्होने लिया है कि यह भाष्य में सित्तरीकी चूर्णिके अनुगार लिखता हूँ । गत. अभयदेवसूरि (१०८८-११३५ स० ) से पहले मित्तरी चूर्णिकी रचना हो चुकी थी । और सित्तरीचूर्णिने पहले शतकपूणि रची जा चुकी थी । यह उसके देगनेगे प्रकट होता है ।
मि० तू. में कई स्थलो पर 'एयासि अत्यनविवरणा जहा गयगे' ( पृ० ३ ), आदि पदोके द्वारा कर्मोके भेद-प्रभेदोका, गुणस्थानोका, जीवस्थानीका, विवरण शतक ग्रन्यकी तरह कला है । मूल तक ग्रन्यमें तो उनके नाममात्र गिनाये है, उनका विवरण तो चूर्णिमें ही पाया जाता है । मत यही स्वीकार करना पडता है कि सि० चू० के कर्ताने 'शतक' नामरो शतकचूर्णिका ही निर्देश किया है । मतः जब सि० चू० वि० ग० ११०० में पहले रची जा चुकी थी तो दातकचूर्णि उससे भी पहले रची गयी थी । और इसलिये शतकचूणिको रचना की उत्तराaft विक्रम की दसवी शती मान लेना उचित होगा ।
अत हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि शतक चूर्णि वि० सं० ७५०-१००० तक कालमें किसी समय रची गयी है । और यदि पच राग्रहकार श्री चन्द्रर्पि महत्तर उसके रचयिता है तो कहना होगा कि वे इसी कालमें किसी समय हुए है ।
और यदि पञ्चग्रहमें निर्दिष्ट मत गर्गपिके कर्मविपाकका है तो उन्हें विक्रमको दमवो शताब्दीके अन्तका विद्वान् मानना होगा ।
वृहच्चूर्णि और लघुचूर्णि
शतककी हेमचन्द्राचार्यरचित वृत्तिसे तथा मलयगिरिको कुछ टीकाओंसे प्रकट होता है कि शतकपर दो चूर्णिय थी - एक वृहच्चूर्णि और एक लघुचूर्णि । प्रकृत शतकचूणि लघुचूर्णि है ।
हेमचन्द्र ने अपनी शतक वृत्तिके प्रारम्भमें लिसा है कि यद्यपि पूर्व चूर्णिकारो
१ 'नमिउण महावीर कम्मट्ठपरूवण करिस्सामि वधोदयसप्तेहिं सत्तरियाचुनिअनुसार ॥१॥
स० भा०
२
जै० सा०५० (गु०), पृ० २१७ ।
३ च यद्यपि पूर्वचूर्णिकारैरपि व्याख्यातम्, तथापि तच्चूर्णी नागतिगम्भीरत्वात् '
श० पृ०, १ ।
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अन्य कर्मसाहित्य : ३६७ ने भी शतकका व्याख्यान किया है, तथापि उनकी चूणियां अति गम्भीर है।' यहां उन्होने 'चूर्णिकार' और 'चूणिनाम्' लिखकर बहुवचनका प्रयोग किया है। जिससे प्रकट होता है कि शतकपर अनेक चूर्णियाँ थी। किंतु दो चूणियोंके ही उल्लेख मिलनेसे यह स्पष्ट है कि शतकपर दो चूणियाँ अवश्य थी और उनमें सैद्धातिक मतभेद भी था।
उपलब्ध 'लघुचूणिमें वेदक, मोपशमिक और क्षायिक सम्यग्दृष्टियोमें संज्ञीपर्याप्तक और सज्ञी अपर्याप्तक दो जीवसमास बतलाये है। किंतु हेमचन्द्रने अपनी वृत्तिमें 'अन्य' करके औपशमिक सम्यग्दृष्टिके सज्ञि अपर्याप्त होनेका निर्देश किया है किंतु इसे मान्य नहीं किया और अपने समर्थनमें वृहच्चूणिके मतका उल्लेख किया है। उसमें लिखा है कि जो 'उपशम सम्यग्दृष्टी उपशम श्रेणिमें मरण करता है वह प्रथम समयमें ही सम्यक्त्वपुञ्जको उदयावलीमें लाकर उसका वेदन करता है । अत उपशमसम्यग्दृष्टी अपर्याप्त नहीं होता।
शतक गाथा ३५ में दश गुणस्थानमें शुक्लध्यान बतलाया है । श्वेताम्बर परम्परामें इस विपयमें मतभेद है । अत' लघुचूणिमें लिखा है कि श्रेणिमें धर्म और शुक्ल दोनो हो सकते हैं । उसीको लेकर हेमचन्द्रने अपनी वृत्तिमें लिखा है कि लघुणिके अनुसार श्रेणिमें स्थित जीवके धर्म और शुक्ल ध्यान दोनो ही अविरुद्ध हैं। किन्तु वृहणिका अभिप्राय है कि सरागीके चाहे वह सूक्ष्म सराग भी हो, धर्मध्यान ही होता है।
१ 'समत्ते ति, सम्मदिछी खइग-वेयगउवसम-सासण-सम्मामिच्छ-मिच्छदिठीय, तत्य वेयग उवसम-खइयसम्मट्ठिीसु दो दो जीवाणाणि सन्निपज्जत्त-अपवत्तगाणि ।'
श० चू०, पृ० ५। २. 'अन्ये तु सशिपंचेन्द्रियस्यापर्याप्तकस्याप्यौपशमिकसम्यक्त्व यर्णयन्ति, तच्च नाव
गच्छामस्तथाहि .. उपशमश्रेणी मत्वाऽनुत्तरसुरेपूत्पन्नस्यापर्याप्तकस्यैतल्लभ्यते इति चेत् । ननु एतदपि न बहुमन्यामहे तस्य प्रथम समये एव सम्यक्त्वपुद्गलोदयात् । उक्तं च वृहच्चूर्णावस्मिन्नेव विचारे-'जो उवसम्मसम्मट्ठिी उवसमसेढीए काल करेइ, सो पढमसमये चेव सम्मत्त पुंज उदयावलियाए छोडूण सम्मत्तपुग्गले वेएइ,तेण
न उवसमसम्मविट्ठी अपज्जगो लब्भइ ।' इत्यादि ।'-२० वृ०, पृ० १०-११ । ३ 'सुक्कज्झाणग्गहण किणिमित्त इतिचेत् ? भन्नइ, सेढीए धम्मसुक्कज्झाणाइ सवि
गप्पाइ अविरुद्धाइत्ति 'तद्वोधनार्थं तु सुक्कज्झाणग्गहण ।'-श० चू०, पृ० १७ । ४. श्रोणि व्यवस्थितस्य हि जन्तोधमशुक्लध्यानद्वयमपि लघुचाद्यभिप्रायेणाविरुद्धमिति
शुक्लध्यानस्यपि ग्रहणमिह न विरुध्यते-वृहच्चूयभिप्रायस्तु सरागस्य सूक्ष्मसरागस्यापि धर्मध्यानमेव-२००, पृ० ३७ ।
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३६८ . जेनसाहित्यका इतिहास
मानार्ग मलयगिग्नेि भी 'पंराग्रह तथा कर्मप्रतिगी टीकामं 'उत्तच शतावृहच्चू!' लिगकर नवरण दिये है।
उगत उन्लेगोगे स्पष्ट है कि पतफगी पहचणि १२वी गतीमें विद्यमान घो। माग यह अनुपलभ । गत उग गर्ता, काल मादिगे गम्बन्धमें कुछ भी गाहना नया नही है । गिन्तु यह उरलेगनीय है कि शतको लघुनर्णिमें किगी अन्ग चूर्णिका निर्देश नहीं है। अत मगर है उगती रचना लघुणिो परनात् हुई हो । उगो लिए वहन पिनेषणका कारण उनका मा होना ही प्रतीत होता है, मोकि लघुर्णिका परिमाण ला है तया यू जू के रचयिता कोई कामिक न होर गंतान्तिका ही प्रतीत होते है, गयोंकि उन्होंने गिद्धान्त पक्षको ही अपनाया है। सित्तरी चूर्णि
सित्तरी अयमा मप्ततिकापर भी एक पूणि है जो मुक्ताबाई शान मन्दिर डभोसे प्रकाशित हुई है। इसके भी पाकिा नामादि अशात है। इस चूणिमें गस्कृतका मिश्रण नहीं है और न उघृत पोका बाहुल्य है। चूर्णिकारने परिमित शमोमें गायाने अभिप्रागको स्पष्ट करनेका ही प्रयत्ल किया है और यथास्थान अन्य भागार्योके गतोका भी निर्देश गिाया है । यथा स्यान कुछ ग्रन्थोके नामोका भी निर्देश किया है। ये गन्य है-कम्मपगरि सगहणी ( फर्मप्रकृति सग्रहणी), कमायपाहुन, मयग ( शतक ) और सतकम्म ।
कर्मप्रकृति मंग्रहणी तो शिवशर्म रचित कर्मप्रकृति है : उसको देखनेका निर्देश चूणिकारने कई जगह किया है। किन्तु सप्ततिका और कर्मप्रकृतिमें निर्दिष्ट नामकर्मके बन्धस्थानोमें अन्तर है। सप्ततिगामें नामकर्मको ९३ प्रकृतियां मानकर बन्धस्थानोका कथन किया है और कर्मप्रकृतिमें बन्धन और सघातको शरीरमें सम्मिलित न करके नाम कर्मको प्रकृतियाँ १०३ मानी है । अत उसमें १०३ को लेकर नामकर्मके बन्धस्थानोका कथन किया है। यहां चूर्णिकारने कर्मप्रकृतिमें निर्दिष्ट १०३ आदि वन्ध स्थानोको युक्तिसंगत' नही माना ।
जहाँ तक हम जान सके हैं, श्वेताम्बर साहित्यमें सित्तरीचूर्णि ही एक ऐसा ग्रन्य है जिसमें कसायपाहुडका उल्लेख है । यह कसायपाहुड गुणधररचित वही कसाय पाहुड है जिसपर यतिवृपभके चूर्णिसूत्र है । चूणिकारने उसका निर्देश तीन
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१. ५० स० टी०, भा० १, पृ० १७ तथा १८ । . क० प्र० टी०, पृ०५१ । ३ 'पत्थ अण्णे अण्णारिसाणि सतढाणाणि विगप्पयति । ताणि आगम जुत्तीति न घडति ।
-सि० च०, पृ० २७ ।
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अन्य कर्म साहित्य • ३६९ स्थानोपर किया है ।एक जगह लिखा है कि कृष्टियो का लक्षण जैसा कसायपाहुडमें कहा है वैमा जानना । दूसरी जगह लिखा है कि अपूर्व करण और अनिवृत्तिकरणके कालोके विषयमें अनेक वक्तव्यता है सो जैसे कसायपाहुड वा कर्मप्रकृतिसग्रहणीमें कहा है वैसे कहना चाहिए।' यह सब कथन कसायपाहुडके चारित्र मोह क्षपणा नामक अधिकारमें है । चूर्णिकारने शतकका निर्देश भी अनेक स्थलो पर किया है। किंतु जिन विषयोके लिये शतकका निर्देश किया गया है वे विषय मूल शतकमें नहीं है, किंतु. उसकी चूणिमें है । मत' शतक नामसे चूर्णिकारने उसकी चूर्णिका ही निर्देश किया है । यथा- आठो कर्मोके अर्थका विवरण जाननेके लिये शतकका निर्देश किया गया है। किंतु शतक गा० ३८ में आठो कर्मोके नाम मात्र गिनाये हैं। और गाथा ३९ में उन आठो कर्मों की अवान्तर प्रकृतियोकी सख्या मात्र । वतलाई है किंतु उनकी चूणिमें आठो कर्मों और उनकी उत्तर प्रकृतियोका कथन विस्तारसे किया है । इसी तरह जीवस्थान और गुणस्थानोका विवरण जाननेके लिए चूर्णिकारने शतकको देखनेका निर्देश किया है किंतु मूल शतकमें उनका विवरण नहीं है, चूर्णिमें है। अत यह निश्चित है कि शतक नामसे चूर्णिकारने शतकका ही निर्देश किया है। रचनाकाल मलयगिरिने अपनी सप्ततिका टीकाके आरम्भमें लिखा है
चूर्णयो नावगम्यन्ते सप्ततेमन्दबुद्धिभि
तत स्पष्टाववोधार्थ तस्याष्टीका करोम्यहम् ॥ अर्थात् मन्दबुद्धि लोग सप्ततिकी चूणियोको नही समझ सकते। इसलिए बोध करानेके लिए मैं उसकी टीका करता हूँ। __बहु वचनान्त चूर्णय' पदसे तो यही व्यक्त होता है कि सप्ततिकी अनेक चूणियाँ थी। किंतु मलयगिरिने अपनी टीका प्रकृतचूणिके आधारपर ही रची है, यह बात टीकामें प्रमाण रूपसे उद्धृत चूणिवाक्योंसे प्रमाणित होती है । अत विक्रमकी बारहवी शतीसे पहले इस चूणिकी रचना हो चुकी थी।
१ 'तेसिं लक्खणं जहा कसायपाहुडे।'-सि० च०, पृ० ६६ । • एस्थ अपुवकरण अणियहिअद्धासु अणेगाई वत्तव्वगाइ जहा कसायपाहुडे कम्मपगडि
सगहणीए वा तहा वत्तन्व। -सि० चू०, पृ० ६२।। ३. 'तत्थ मूलपगती अठ्ठबिहा, त जहा-णाणावरणिज्ज जावतरायियमिति । एयासि अत्य
विवरणा जहा सयगे। -सि० च०, पृ० ३ । ४ 'जीवट्ठाणाण विवरण जहा सयगे' -सि० चू०, पृ० ४ । ५ 'मिच्छादिट्ठीपभिती जाव अजोगित्ति, एएसि विवरण जहा सयगे'-सि च पृ ४ ।
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३७० : जैनसाहित्यका इतिहास
गप्ततिका माग रनगिता नयागवृत्तिकार अगरदेवमूरिने अपने भाग्यके 'प्रारम्भमे लिगा है कि सप्तति णिगी मनुगार मैं माठौं कोका फायन कर गा। अभगदेवमूरिगा अवसान वि० ग.११३५ में दुआ । अत' गित्तरी नूणिकी रचना उगसे पहले।ग मापारपर गोरखनालको उत्तरायघि विद्यमको ११वी शती निर्णीत होती है।
तमा तिमित्तरी णिमें गतमा नागने पतक णिका निर्देश किया है मोर पतकणिका रननागाल पि. गं. ७५०-१००० निर्णीत किया गया है अत पूर्णिको रचना भी मी गालगो बीच में गतमणिये परनान किंगी गमय होनी पाहिए।
गंभव है गित्तरीणिकाग्ने जयगवलाटोकाको देगा हो और जमे उन्होने पतग नाममे पतकणिका निर्देश किया है चंगे ही गसागपाहर नामने उसकी जयपवलाटीकाका निर्देश क्रिया हो गयोकि उनके द्वारा गचित विषय जयधवला में स्पष्टरपगे गिलते है, गमायपाट और चूणिगूपोनें तो उनका समेत अथवा निर्देगमान गिया गया है।
१ 'नमिऊण महावीर कम्मट्ठपरूवण करिस्सामि ।
वधोदयसतेहि सत्तरिया चुन्निअणुसारा ॥१॥
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जैन साहित्यका इतिहास द्वितीय भाग
पंचम अध्याय उत्तरकालीन कर्म - साहित्य
पिछले अध्यायमे प्राचीन कर्म - साहित्यका इतिवृत्त निरूपित इस अध्यायमें विक्रमकी नवम शताब्दीसे उत्तरकालमें रचे गये विवेचन निवद्ध किया जायगा ।
किया गया है |
कर्म -साहित्यका
नि सन्देह उत्तरकालमें कई सारगर्भित कर्म - साहित्य सम्वन्धी कृतियाँ रची गयी है । लोकप्रियता और उपयोगिताकी दृष्टिसे इन रचनाओका अध्ययन कई शताब्दियोसे अनवच्छिन्न रूपसे होता चला आया है । आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल्लजीने गोम्मटसार जैसे ग्रन्थपर लोकभापामे विशाल और विशद टीका लिखकर इस ग्रन्थका मर्मोद्घाटन किया है । यही कारण है कि आज भी जिज्ञासुओंके स्वाध्यायका वह विषय बना हुआ है ।
घवला और जयधवला जैसी प्रचुर प्रमेययुक्त टीकाओने मूल ग्रन्थका रूप ग्रहण कर लिया तो इन ग्रन्थोके आधारपर सक्षेपमें कर्म सिद्धान्तका बोध कराने के हेतु उत्तरकालीन आचार्योंने स्वतत्ररूपमें कर्मसाहित्यका प्रणयन किया । उत्तरकालीन कर्मसाहित्यकी शैली, भाषा और वर्ण्य-विपयकी दृष्टिसे निम्न विशेषताएँ उपलब्ध होती है
1
१ सक्षेप किन्तु स्पष्ट रूपमें कर्मसिद्धान्तका निरूपण ।
२ संस्कृत और प्राकृत दोनो ही भाषाओका उपयोग | ३ वन्ध, उदय और सत्त्वका गुणस्थान क्रमसे स्पष्ट निर्देश ।
४ गणितका बीजक्रम और अकक्रम रूपमें आलम्बन ।
५ विभिन्न मत मतान्तरोका सक्षेपमें प्रकटीकरण ।
६ शैली प्रसाद गुण युक्त और प्रवाह पूर्ण । ७ सरल और सुवोधताके हेतु काव्योपकरणोकी योजना | उत्तरकालीन कर्मसाहित्य
करणानुयोग विपयक प्राचीन कर्मसाहित्यके उक्त विवरणके पश्चात् हम उत्तरकालीन कर्मसाहित्यकी ओर आते हैं । साहित्यके कालक्रमानुसारी पर्य
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३७२ : जेनसाहित्यका इतिहास
वेक्षणमे ऐसा प्रतीत होता है कि गाहित्यिक प्रतिभाग भी लाग होता गया है । विक्रमकी प्रथम सहस्राब्दी के मध्य काल तक तथा उसके पन्नाकी दो तीन शताब्दी पर्यन्त जैसी प्रतिभाभने जन्म लिया, महमा पर्यवसान लगभग वैसी प्रतिभाएँ दृष्टिगोचर नही होती। आचार्य गुणधर, पुष्पदन्त भूतबली, आचार्य यतिनृपभ आदिमं जो वाग्मिता, पाण्डित्य, बहुश्रुतत्व और रचनाचातुर्य था, आचार्य वीरसेन तक यह गन्द हो चला था । गभवतः कर्मविषयक आगमिक साहित्यके पारगामी वीरगन स्वामी, अन्तिम साहित्यकार थे जिन्होंने घवला भोर जयधवला जैसे प्रमबद्दल विस्तृत टीकाग्रन्थ रचे और उनसे पहले कर्मप्रकृति, पंचrग्रह जैसी गायावन्द मौलिक कृतियां रची गई ।
उन रचनाओके पदनात् जो कर्मविषयक गाहित्य उक्तकालमें रचा गया, वह प्राय' इन्हीका ऋणी है। या तो उन्ही के आधार पर उनका गकलन किया गया है या उन्होको परिवर्तित किया गया है । राव प्रथम हम एक परिवर्तित या स्पान्तरित कृति की ओर आते हैं ।
लक्ष्मणसुत उड्ढाकृत पञ्चसग्रह
लक्ष्मणगुत उढाकृत पञ्चगग्रह एक दशक पूर्व ही प्राकृत पञ्चगग्रहके साथ भारतीय ज्ञानपीठगे प्रकाशित हुआ है । उनको प्रकाशमे लानेका श्रेय इसके सम्पादक प० हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री को है । इससे पहले न इस नामके किमी ग्रन्थकार को सुना गया था और न उनकी उग कृतिका हो कहींसे कोई आभान मिला था। हां, प्ररयात साहित्यकार आचार्य अमितगतिका एक पञ्चमंगह कई दशक पहले श्री माणिकचन्द ग्रन्थमालासे प्रकाशित हो चुका था और पञ्चसग्रह नामकी एक वही कृति दृष्ट श्रुत और अनुभूत थी । इसी नामकी किमी अन्य कृतिको कोई कल्पना भी नही थी । ये दोनो ही पञ्चगग्रह दि० प्राकृत पञ्चसग्रहके संस्कृत अनुष्टुपोमें परिवर्तित म्प है । यत अमितगति एक प्रख्यात ग्रन्थकार थे और उनके पचसग्रह को प्रकाशमें आये कई दशक हो चुके थे। दूसरी ओर श्रीपालसुत डढ्डा एक नये सर्वथा अपरिचित व्यक्ति थे । उनको एकमात्र कृति भी नई ही प्रकाशमें आई थी । अत सम्पादक प० हीरालालजी शास्त्रीने जव दोनोका तुलनात्मक अध्ययन किया तो उन्हें लगा कि एकने दूसरेका अनुकरण किया है । किन्तु यह तो कल्पना करना कठिन था कि अमितगति जैसे प्रख्यात ग्रन्थकार डढ्डा जैसे अज्ञात रचयिताका अनुकरण करेंगे । अत उन्होने यही माना कि डड्ढाने अमितगतिकी नकल की है फिर भी डड्ढाकी कृतिने शास्त्रीजी - को प्रभावित किया । उन्होंने अपनी प्रस्तावना में लिसा है-
१ डड्ढा की रचना मूल गाथाओंकी अधिक समीप है, अमितगतिकी
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ३७३
नही । जीव समास प्रकरण की ७४वी मूल गाथाका पद्यानुवाद जितना डड्ढाका मूलके समीप है उतना अमितगतिका नही।
२ कितने ही स्थलो पर डड्ढाकी रचना अमितगतिकी अपेक्षा अधिक सुन्दर है।
३ अमित गतिने 'जीव समास' की 'साहारणमाहारो' आदि तीन गाथामोको स्पर्श भी नहीं किया, किन्तु डड्ढाने उनका सुन्दर पद्यानुवाद किया है । उक्त स्थल पर अमित गतिने गोम्मटसार जीवकाण्डकी 'उववाद मारणतिय' इत्यादि गाथाका आशय लेकर उसका अनुवाद किया है। किन्तु जीवसमास प्रकरणमें उक्त गाथाके न होनेसे डड्ढाने उसका पद्यानुवाद नही किया।
४ कितने ही स्थलो पर डड्ढाने अमितगतिकी अपेक्षा कुछ विषयोर्का बढाया भी है। यथा प्रथम प्रकरणमें धर्मोंका स्वरूप, योगमार्गणाके अन्तमें विक्रिया आदिका स्वरूप ।
५ अमित गतिने सप्ततिकामें पृष्ठ २२१ पर श्लोक ४५३ में शेषमार्गणामें बन्धादित्रिकको न कहकर मूलके समान 'पर्यालोच्यो यथागमम्' कहकर समाप्त कर दिया है । किन्तु डड्ढाने श्लोक ३९० मे 'वन्धादित्रय नेयं यथागमम्' कहकर भी उसके आगे समस्त मार्गणाओमें वन्धादित्रिंकको गिनाया है जो प्राकृत पञ्चसग्रहके अनुसार होना ही चाहिये । __इसतरह शास्त्रीजीने डड्ढाकी रचनासे प्रभावित होनेपर भी उसे अमितगतिकी अनुकृति बताया। किन्तु वस्तुस्थिति इससे विपरीत है। रचनाकाल
डड्ढाके पञ्चसग्रहका अन्त परीक्षण करनेसे नीचे लिखे तथ्य प्रकाशमें आते है
१ डड्ढाने शतक प्रकरणमें पृ० ६८३ पर जो मिथ्यात्वके पांच भेदोका स्वरूप गद्यमें लिखा है वह पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि ( ८1१) से लिया गया है अत उनके पञ्चसंग्रहकी रचना पूज्यपाद (वि०की छठी शताब्दी) के पश्चात्
२ सप्ततिकाके अन्तमें (पृ० ७३७ ) 'उक्तच' करके जो कारिका दी गई है वह अकलकदेवके लधीयस्त्रयके सातवें परिच्छेदकी चतुर्थ कारिका है। अत अकलंकदेवके लधीयस्त्रयके ( वि०की सातवी शताब्दी ) पश्चात् उक्त पचसग्रह रचा गया है।
३ जीव समास प्रकरणमें (पृ० ६६७ ) "उक्तञ्च सिद्धान्ते' करके जो वाक्य उद्धृत है वह वीरसेनकी धवला टीकाका है। अत धवला टीका (नवमी शती) के पश्चात् उक्त पच सग्रहकी रचना हुई है।
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३७४ : जैनगाहित्यका इतिहाग
गरे प्रगति गगन अभियान (To ६७४ ) 'ना' करक गोल17 उन पर अगानन्द्रगणगंगागागा ग्याग्या ग्लोm । मत पगी रनना II गार (गी गती) गाना ।
ग TRai पगमा मगगी परिभि किमी गमी गती नितिनी । अब गजगापिका और मात ।।
१ भागार नदिने नागा पर गानापिनी टीनी मी गनुयं मागागोदर गगी टीला न्याय गम्बनाम पनि यो शत है। ये पानी दलो न गम भागार निता गमय १३-१४ची गती है। अत पर मनमानी गाना नही।
२ गम्नानिय ( गाथा ५६ ) की टीगाम जगनानागंने एक ग्लोक उदात लिया।
'मोक्ष गुर्षन्ति गिोषणामा शामिकाभिषा ।
बन्धमोदगिका नाया निकिया पारिणागिा ॥' गह सदा पस्नगगहा नवा लोग है। जयगेनानायकी टीम पर बतादेवारी वृहनगमग्रहका रगाट प्रभाव है।
३ बृहनग नगहणी ४१वी गायाकी ग्रहाय रनित टीकामे गम्यक्त्वका गाहात्म्य बतलाना लिा प्रगम र गागा 'हेछिमछणुटनीण' आदि उद्धत को है जो गोम्पटगार जीवगामी १२८वो गाया है। उनके पश्चात् ही 'उनी अर्गको प्रकारातरने गहते है' लिगका तीन र उद्धत किये है। ये तीनो फ्लोगवा पन्तनगहो जीवगगाग प्रारण उनी क्रमने वर्तमान है और उनकी गंम्मा प्रगगे २२७, २२९, २३० है। अत ब्रह्मदेवजीको उक्त टीकामे पूर्व उढाका पन्जमग्रह रना गया था।
इस तरह अमृतचन्द्र और बनादेवने अन्तरालमें किसी समय उड्ढाने अपना पञ्चमग्रह रचा था। आचार्य अमितगति भी इनी अन्तगलम हुए है। उन्होंने अपना पञ्चगग्रह वि०स० १०७०मे ममाप्त किया था। इस तरह उड्ढाके गमयकी पूर्व और उत्तर अवधि निश्चित हो जाने पर भी यह निर्णय शेप रहता है कि दोनो पन्चगंग्रहोने मे पहले फिसको रनना हुई थी? __इसका अन्वेषण करते हुए हमें जयसेनाचार्यके धर्मरत्नाकरमे पचायती जैन मन्दिर देहलीकी प्रतिके पृ० ६७ पर एक उद्धत पद्य मिला
'वचनहेतुभी रूप : सर्वेन्द्रियभयावहै ।
जुगुप्साभिश्च बीभत्स व क्षायिकदृक् भवेत् ॥ यह डड्ढाके पञ्चसग्रहके जीवसमास प्रकरणका २२३वा श्लोक है । अत
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ३७५
यह निश्चित है कि धर्मरत्नाकरसे पूर्व डड्ढाका पञ्चसग्रह रचा गया है । धर्मरत्नाकरमें उसका रचनाकाल वि०स० १०५५ दिया है। और अमित गतिके पञ्चसग्रहमें उसका रचनाकाल १०७० दिया है। अत यह सुनिश्चित है कि अमितगतिके पञ्चसनहसे कम-से-कम दो दशक पूर्व डड्ढाका पञ्चसग्रह रचा गया है । इस विषयमें यह भी उल्लेखनीय है कि आचार्य नेमिचन्द्रके गोम्मटसारका प्रभाव अमितगतिके पञ्चसग्रह पर है किन्तु डड्ढाके पञ्चसग्रह पर नही है। अत गोम्मटसारकी रचना इन दोनो पञ्चसग्रहोके रचनाकालके मध्यमें किसी समय हुई है।
डड्ढाके पञ्चसग्रहके अन्तमें प्रथकारने अपना परिचय केवल एक श्लोकके द्वारा दिया है
श्री चित्रकूटवास्तव्यप्राग्वाटवणिजा कृते ।
श्रीपालसुतडड्ढेण स्फुट प्रकृतिसग्रह । यह श्लोक चतुर्थ शतक प्रकरणके भी अन्तमें आता है । उसमें अन्तिम चरण 'स्फुटार्थ पञ्चसग्रहे है। इससे प्रकट है कि ग्रन्थकारका नाम डड्ढा है और उनके पिताका नाम श्रीपाल था । श्लोकके पूर्वाद्ध का 'वणिजाकृते' पद गडबड है। 'वणिजा' पद तृतीयान्त होनेसे डड्ढाका विशेषण प्रतीत होता है जो वतलाता है कि वे चित्रकूट वासी और पोरवाड जातिके वणिक् थे । चित्रकूट चित्तौड़का पुराना नाम है। आज भी उस ओर पोरवाड जातिका निवास है। किन्तु उक्त अर्थसे 'कृते' शब्द व्यर्थ पड़ जाता है। यदि यह अर्थ किया जाता है कि चित्रकूटवासी पोरवाड जातिके वणिक्के लिए रचा तो उस वणिक्का नाम ज्ञात नही होता । अस्तु, विषय परिचय
यत यह पञ्चसग्रह प्राकृत पञ्चसग्रहका ही सस्कृत श्लोकोमें अनुवादरूप है अत इसकी विषयवस्तु वही है जो प्राकृत पञ्चसंग्रह की है। उसीके अनुसार इसमें जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, कर्मस्तव, शतक और सप्ततिका नामक पाँच प्रकरण है । प्रा० प स के जीवसमास प्रकरणमें २०६ गाथा है और इसकेमें २५७ श्लोक है । इस अन्तरके कई कारण है । १ डड्ढाने प्रारम्भमें अपना मगल पृथक् किया है । २ श्लोक ४-५ के द्वारा जीवके पांच भाव गिनाकर उन्हें वन्ध और मोक्षका कारण कहा है । ३ श्लोक २०-२७ के द्वारा दस धर्मोके नाम गिना कर उनका स्वरूप कहा है। ४ वेदके कथनमें श्लोक १२८ से १३१ तक द्रव्यवेदके चिन्होका कथन किया है। साराश यह है कि प्रा० प०स० मे वेदमार्गणाका कथन केवल आठ गाथाओमें है। किन्तु इस स० प०स० मे श्लोक
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३७६ : जेनसाहित्यका तिहारा १२४ मे १३८ मा तागे गणंग । ५गी तरह प्रा०प०ग० में मानगागंणा गपंग लग गागागोग ग० १०० मे १५ योगी गगगगे शामिभाव और उगा मागियोका भी गायन पिया
जो गलग नही। सेनामोका नर्णन ग ग गिरनार में है । ७ गम्गावগাগা গা গম লা লিগা না fলা শাখা । इगर प्रा० 00 नगे जगणं या जिम्नासे करार है।
जागं अमिr पंग में भी ये गा गगन जो नागने निगमम्मो पि , पागे माने :
गजीवसमाग प्रारणा नगंग अगितगति १९३-२०२ नोक । मानमार्गणाका कपन, मेगा मान तथा गम्गारमार्गणा करन।।
प्रा० १०० ग गागा १११२८ नाग इतना ही गहा है कि गंनिपर्नेन्द्रिय पर्गाप्पा मालागि प्राप्ति होनेपर गम्गावग्रहणी गोग्ग होता है ।
ने गा राग पासो लगिया न्याय ग्तिाग्गे रहा है। अमितगतिने गी गतागंगानिकका अनुकरण करने हुए और भी अधिक विरतारगे उगन कयन पिया है। तया गम्मावानीनों भेदीप और उनके सम्बन्धमें विशेष बातें भी
या अनुकरण गरते हुए नही है।
फिर भी अगिनगतिने इन प्रथम प्रशारणमें दो कपन ऐगे किये है जो उइटाके पं० ग० में भी नही है तो उन्होंने ३६३ मतोल उपपत्तिपूर्वक कयन किया है जो गोम्पटमार गर्ग णी प्रतीत होता है। दुगरे, नौदह गुणरथानोंमें जीवाशी माया स्यन रिया है। यह गायन गोगटगार जीवकाण्ड (गा० ६२२६३२) गे अनुरूप है।
दुगरे, प्रतिगमकीर्तनमें मलकी तरह ही आठ कमों की प्रकृतियोका कथन है। तोगरे कर्मग्नयमें गुणम्यानोगं गर्मप्रतिकि वन्य उदय और मत्वका विवेचन मूल की तरह ही प्राय है।
प्रात पञ्चमग्रहमें पूर्वमें बन्धगुन्छिति और पश्चात् उदयव्युच्छिति जिन ८१ प्रकृतियोकी होती है उनकी गोयल मस्याका निर्देश है सं० पं० सं० में उनके नाम भी बताये है। इसी तरह आगे परोदयवन्धी प्रकृतियोको बतलानेके पश्चात् मं० १० मं० में एक गद्यवाक्यके द्वारा यह भी स्पष्ट किया है कि क्यों ये प्रकृतिया परके उदयमे बंधती है। प्रा०पं० स० मे अपने उदय और परके उदयमें वन्धनेवाली प्रकृतियोकी केवल मंख्या दी है। किन्तु सं० प०सं० में उनके भी नाम गिनाये है । अन्तमे गद्य द्वारा सान्तर और निरन्तर वन्धका गद्य द्वारा स्वरुप भी कहा है। इस तरह स० पं० स० मे मूलसे वैशिष्ट्य भी है। अमितगतिके पं० स० में ये सब कथन डड्ढाके अनुसार ही किया गया है।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ३७७ शतक नामके चतुर्थ प्रकरणमें भी उस वैशिष्टयके दर्शन स्थान-स्थानपर होते है। यद्यपि सव मूल कथन प्राकृत पञ्च स० के अनुसार है किन्तु वर्णनके क्रममें व्यतिक्रम है। प्रा०प० स० में मार्गणाओमें जीवसमास, जीवसमासोमें उपयोग, मार्गणाओमें उपयोग, जीवसमासोमें योग, मार्गणाओमें योग, मार्गणाओमें गुणस्थान, गुणस्थानोमें उपयोग, योग और प्रत्ययका क्रममे कथन है। किन्तु इस सं० १० स० मे मार्गणाओमें जीवसमास, गुणस्थान, उपयोग योगका कथन करके फिर जीवसमासोमें उपयोग और योग कथन है । तथा बन्धके कारणोके भेद प्रभेदोका कथन गद्य द्वारा स्पष्ट करते हुए वहुत विस्तारसे किया है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि डड्ढाने विपयको व्यवस्थित और सुस्पष्ट करनेका भी प्रयत्न किया है। मतभेद भी कही-कही है। जैसे गाथा ४१में जहाँ चौदह योग कहे है वहाँ श्लोक १२ में पन्द्रह योग कहे है । अमितगतिने भी श्लोक १० में पन्द्रह योग कहे है।
प्रा०प० स० के शतकमे गाथा ३२५ के द्वारा कहा गया है कि गुणस्थानोमें कहे गये प्रकृतिवन्धका स्वामित्व मार्गणाओमें भी लगा लेना। इस कथनका विवरण आगे भाष्य गाथाओंके द्वारा किया गया है । स०प० स० में गाथा ३२५ का रूपान्तर तो है किन्तु भाष्यगाथाओका नहीं है। अत यह सव कथन स०प० स० में नही है । यही पर प्रकृति बन्धको समाप्त कर दिया है। अमितगतिने भी ऐसा ही किया है। किन्तु नवम गुणस्थानमें जो प्रत्ययके भेद कहे है । डड्ढा ने तो प्रा०प० स० के अनुसार कहे है किन्तु अमितगतिने पृथक् ही कहे है ।
प्रा० ५० स० चौथे अध्यायमें नौवे गुणस्थानमें प्रत्ययोमे भेद इस प्रकार वतलाये है
सजलण तिवेदाण णव जोगाण च होइ एयदर ।
सढूण दुवेदाण एयदर पुरिसवेदो य ॥१९७।। अर्थात् नौवे गुणस्थानके सवेद भागमें चार सज्वलनकषायमें से एक, तीन वेदोमें से एक और नौ योगोमें एक होता है । नपुसक वेदका उदय व्युच्छिन्न हो जाने पर दो वेदोमेंसे एक वेदका उदय होता है और स्त्रीवेदका उदय व्युच्छिन्न हो जाने पर एक पुरुप वेदका उदय होता है ।
अत ४४३४९ = १०८,४४२४९ - ७२ और ४४१४९ = ३६ भग होते है इस तरह १०८ + ७२ + ३६ = २१६ कुल भग होते है । ये सवेद भागके भग हुए ।
चद् सजलण णवण्ह जोगाण होइ एयदरदोते । कोहूण माणवज्ज मायारहियाण एगदरगं च ॥१९८॥
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३७८ : जेनगाहित्यका इतिहास ___ अनि अद भागमं नार गजलन मागोगंगे एकका तथा नी योगोमंगे एकका उस होता है। प्रोगसी उपस व्युनिपत्ति हो जाने पर तीन कपायोमगे एक का उदय होता है, गानो गन्जित्ति हो जाने पर दो कपायोमगे का उदय होता है
और गागागी उग गन्जिनि हो जाने पर रिल लोग गापायका उदय होता है। गौगोगगंगे | गोगा उपग ग गाता है। अतः ४४९% ३६, १४- २७, २४९ - १८और १४९ प्रकार अद भाग ३६ + २७+१८+ ९ - १० भग होते है। गुल मिलाार २१६ +९० = ३०६ भग दोनो भागों होते।
गिन्तु न० पनगमहंगे नौवं गण स्थानो अवेदमागर्ग चार कपाय और नौ गोगोगे एकएको उदयशी अपेक्षा ४४९ = ३६ भग बतलाये है। गया जपन्यो प्रत्यगी ने यो हायवेदानिवृत्तिो।
नयालेषु नतुले योगाना नवी पर ॥६॥ १x१॥ भगा । ४९ अन्योन्याम्गम्नी ।
तमा सवेद भागमे नार गाय, तीन वेद और नो योगोमगे एक एकका उदय होने ४ x ३ x ९ = १०८ भग ही लिये है । गया
कपारवेद योगानामगीनग्रहणे सति ।
अनिवृत्त मवेदम्य प्रगृष्टा प्रत्ययास्यय ॥६॥ भगा ४।३।९ अन्योन्याम्गम्ता' १०८ ।
इन गरह अनिवृत्तिारण गुणन्थानके मवेद भाग और अवेद भागमें १४४ भग योगको अपेक्षा मोहनीगफे उश्य स्थानोो बतलाये है । आगे प्रा० पचसग्रहमें भी उतने ही भंग लिा है और गोम्मटमार कर्मकाण्डमें भी इतने ही लिए है। शायद इसीगे मं० पं०स० के गाने उक्त स्थानमें १४४ भेदोको ही रसकर जो सर्वसम्मत थे, गेपका उरलेरा नहीं किया । उस विषयमे मतभेद भी है।
पांचवें गप्ततिका कथन प्रा० पं०स० के ही समान है। मध्यमें कही-कही किसी कथनको उढाने छोड भी दिया है। जैने प्रा० पं०सं० में गतिमार्गणामे नामकर्मके उदयस्थानोको कहनेके बाद गा० १९१-२०७ में इन्द्रिय आदि शेप मार्गणाओमे भी नामकमके उदयस्थानोका कथन है। किन्तु डड्ढाने उसे छोड दिया है। अमितगतिने भी डड्ढाका ही अनुसरण किया है। प्रा० पचसंग्रहके पांचवें अव्यायमें मनुष्यगतिमें नामकर्मके २६०९ भग बतलाये है। किन्तु स० प०स०में २६६८ वतलाये है। उक्त २६०९ भंगोमे सयोग केवलिके ५९ भग और जोडे है । ये भंग प्रा० पंचसग्रहमें नही है । अमितगतिके पचसंग्रहमे भी ऐसा ही है।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ३७९ दोनो ही स० पचसग्रहमे एक उल्लेखनीय बात और भी है। प्रा०' पचतथा स० पचसग्रहमें योगकी अपेक्षा गुणस्थानोमें मोहनीयकर्मके उदय स्थानोके भंग १३२०९ बतलाये है और कर्मकाण्ड में १२९५३ बतलाये है। इस अन्तरका कारण यह है कि कर्मकाण्डमें छठे गुणस्थानमें आहारकका उदय स्त्रीवेद और नपु सकके उदयमें नही माना गया। अत छठे गुणस्थानमे भग पचसग्रह की अपेक्षा २११२ होते है और कर्मकाण्डमें १८५६ होते है इस तरह २५६ का अन्तर पडता है। ___इसमें उल्लेखनीय बात यह है कि दोनो ही स० पचसग्रहमें प्रथम अध्यायमे एक "श्लोकके द्वारा इस वातको स्वीकार किया है कि आहारक ऋद्धि, परिहार विशुद्धि, तीर्थकर प्रकृतिका उदय और मन पर्ययज्ञान ये स्त्रीवेद और नपुसकवेदके उदयमें नही होते । फिर भी आगे प्राकृत पञ्चसग्रहके अनुसार ही मोहनीयके उदय विकल्पोंका कथन किया गया है । ___ सप्ततिकाके पश्चात् इस स०प० स० में चूलिका भी है और उसमें ८४ श्लोकोके द्वारा मार्गणाओमें वन्ध स्वामित्वका विशेष रूपसे कथन है । इसके प्रारम्भ में कहा है कि यद्यपि आठकर्मोंकी सव प्रकृतियाँ १४८ है किन्तु उनमेसे अठाईसको बन्धमें नहीं गिना जाता है। वे है–सम्यक्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, पाँच बन्धन, पाँच सस्थान और रूप रस गन्ध स्पर्शके भेदोमेंसे केवल चार मूल भेदोको छोड कर १६ । अत वन्ध प्रकृतियाँ एक सौ बीस है। इनके बन्ध अवन्ध और बन्धव्युच्छित्तिका कथन चौदह मार्गणाओमें किया है। कर्मस्तव अधिकारमे गुणस्थानोमें तो कथन है कि किन्तु मार्गणा स्थानोंमें नही है ।
यह चूलिका प्रा०प० स० में नही है। किन्तु अमितगतिके पचसग्रहमे है । १. तेरस चेव सहस्सा बे चेव सया हवति नव चेव । उदयवियप्पे जाणसु जोग
पडि मोहणीयस्स ॥३३७॥ -प्रा० पचसग्रह, अ०५। 'मोहनोदयभगा ये योगानाश्रित्य मेलिता । नवोत्तरशते ते द्वे सहस्राणि
त्रयोदश ।।७४२॥ -स० ५०स०, पृ० २०७।। २ तेवण्ण णव सयाहिय वारससहस्सप्पमाणमुदयस्स। ठाणवियप्पे जाणसु जोग
पडि मोहणीयस्स ॥४९८॥'-गो० कर्मकाण्ड । ३ कर्मका०, गा० ४९६-४९७ । ४ 'आहारद्धि परीहारस्तीर्थकृत्तुर्यवेदनम् । नोदये तानि जायन्ते स्त्रीनपुसक
वेदयो ॥३४३॥'-अमि०स० प०स०, पृ० ४७ । आहारद्धि परिहारो मन पर्यय इत्यमी । तीर्थकृच्चोदये न स्यु स्त्रीनपुसकवेदयो । -डड्ढा पृ० ११२५५ ।
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३८० : जैन साहित्यका इतिहास
अत यह स्पष्ट है कि अमितगतिने डड्ढाके पचसग्रहके प्रत्येक कथनको अपनाया है । उद्धृत पद्यो तकको भी अपनाया है ।
यद्यपि अमितगतिने अपना पञ्चसग्रह गोम्मटसारके पश्चात् रचा क्योकि उसमें उन्होने गो० सा० का उपयोग किया है । तथापि प्रसंगवश उनका परिचय पूर्वमे दिया जाता है क्योंकि उनके स० प० स० का अलग से परिचय देना
।
अनावश्यक है ।
स० पं० स० के रचयिता अमितगति'
विक्रमको ग्यारहवी शताब्दीमें अमितगति नामके एक आचार्य हो गये है । उन्होने वि० स० १०७३ में अपना संस्कृत पञ्चसग्रह रचकर समाप्त किया था । यह माथुर सघके थे । देवमेन सूरिने अपने दर्शनसारमें माथुरसघ को पाँच जैनाभासोमे गिनाया है । माथुरसघ को नि पिच्छिक भी कहते थे, क्योकि इस सबके मुनि मोरकी या गोकी पिच्छि नही रखते थे ।
अमितगतिने अपनी धर्म परीक्षाकी प्रशस्तिमे अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार दी है -- वीरसेन, उनके शिष्य देवसेन, देवसेनके शिष्य अमितगति ( प्रथम ), उनके नेमिपेण, नेमिपेणके माधवसेन और उनके शिष्य अमितगति ।
तथा अमितगतिकी शिष्य परम्पराका पता अमर कीर्तिके छक्कमोवएससे लगता है जो इस प्रकार है-अमितगति, शान्तिपेण, अमरसेन, श्रीषेण, चन्द्रकीर्ति और चन्द्रकीर्तिके शिष्य अमरकीर्ति ।
प० विश्वेश्वरनाथ रेऊके कथनानुसार अमितगति वाक्पतिराज मुजकी सभाके एकरत्न थे । अपने ग्रन्थोमे उन्होने भुज और सिन्धुलका उल्लेख किया है । ये दोनो मालवेके परमार राजा थे और उनकी राजधानी धारा थी । अमितगतिने वि०स० १०५० में पौष शुक्ल पचमीके दिन अपना सुभाषित रत्न सन्दोह समाप्त किया था, उस समय राजा मुंज पृथ्वीका पालन करते थे ।
अमितगति बहुश्रुत थे । उन्होने विविध धार्मिक विपयो पर ग्रन्थोंका निर्माण किया है । उनके सब उपलब्ध ग्रन्थ संस्कृतमें है । वि० स० १०५० में उन्होने सुभाषित रत्न सन्दोह नामक ग्रन्थका निर्माण किया। इसमें सासारिक विषय निराकरण, माया अहंकार निराकरण, इन्द्रिय निग्रह, स्त्री गुणदोप विचार आदि
१
देखो - 'जै० 10 सा० इ० ' में पृ० २७५ पर 'अमितगति' शीर्षक निबन्ध | २ 'समारूढे पूतत्रिदशवसति विक्रमनृपे । सहस्र वर्षाणा प्रभवति हि पचाशदधिके ॥ समाप्ते पचम्यामवति धरणी मुंजनृपतो, सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनधम् ॥९२२ - सुभा० २० |
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ३८१ वत्तीस प्रकरण है । अन्तमें श्रावक धर्मका निस्पण है। पूरे ग्रन्यमे ९२२ पद्य है। स० १०७० में धर्म परीक्षाकी रचना की थी। इसमें सुन्दर कथाके स्पमे पुराणोकी उटपटाग कथाओ और मान्यताओकी मनोरजक स्पमे हंसी उडाई है। एक उपासकाचार रचा था जो अमितगति श्रावकाचारके नाममे प्रसिद्ध है। आराधना नागमे गिवार्यको प्राकृतमें निवद्ध भगवती आराधनाका सस्कृत पद्योमे अनुवाद किया था। इसके सिवाय मामायिक पाठ, भावना द्वात्रि शति भी रचे थे । इन ग्रन्थोमें उनका रचनाकाल नही दिया । १०७३ स०में सस्कृत पञ्च सग्रहकी रचना मसूतिका पुरमें की थी। यह धारके पास उसमे सात कोस दूर मसीद विलोदा नामक गाँव बताया जाता है। गोम्मटसार और उसके कर्ता
विक्रमकी नीवी शताब्दीम धवला और जयधवलाकी रचना होनेके पश्चात् इन दोनो टीका ग्रन्थोने अपने मूल ग्रन्थोके सिद्धान्त नामको अपना लिया और ये दोनो धवलसिद्धान्त और जयधवल सिद्धान्तके नामसे ख्यात हो गये । वि० स० १०२२ में रचकर समाप्त हुए पुष्पदन्त कविके महापुराणमें उनका स्मरण इन्ही नामोंसे कविने किया है । यह हम पहले भी लिख आये है। ___ पट्खण्डागम और कसायपाहुडपर टीकामोका निर्माण वरावर होता रहा है यह भी पहले विस्तारमे लिख आये है, और उन्हीके द्वारा कालक्रमसे उनके पठनपाठनकी प्रवृति भी चालू रही है। धवला और जयधवला टीकाके निर्माणके पश्चात् भो वह प्रवृत्ति चालू रही, किन्तु उसका आधार ये दोनों टीकाएं हो गई
और धवल तथा जयधवल सिद्धान्त ग्रन्थोका अभ्यास एक बहुत ही महत्वपूर्ण मापदण्ड सिद्धान्त विपयक विद्वत्ताका माना जाने लगा।
विक्रमकी ग्यारहवी शताब्दीमें दक्षिणमें नेमिचन्द्र नामके एक आचार्य हुए। उनकी उपाधि 'सिद्धान्त चक्रवर्ती' थी। ये दोनो सिद्धान्त ग्रन्थोके अधिकारी विद्वान थे। इन्होने धवल सिद्धान्तका मथन करके गोम्मटसार नामक ग्रन्थकी रचना की और जयधवल सिद्धान्तका मथन करके लब्धिसार ग्रन्थकी रचना की। इन्होने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें लिखा है
जह चक्केण य चक्की छक्खण्ड साहिय अविग्घेण ।
तह मइचक्केण मया छक्खण्ड साहिय सम्मं ॥३९७॥ जिस तरह चक्रवर्ती अपने चक्ररत्नसे भारतवर्पके छ खण्डोको विना किसी विघ्न-बाधाके साधता है या अपने अधीन करता है, उसी तरह मैंने (नेमिचन्द्रने) १ 'त्रिसप्तत्याधिकेऽन्दाना सहस्र शकविद्विष । मसूतिका पुरे जातमिद शास्त्र
मनोरमम् ॥६॥--सं० १० सं० ।
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३८२ · जेनसाहित्यका इतिहारा
अपने बुतिरगी गमागे पदगमको या पद्गगागम गिद्धान्तको राम्यक् रीतिगे
गिलान्त मन्यो अन्यासीले 'गिद्धान्त नकरों' पद देनेकी परम्पराका सूत्रपात काय शिगने नागे जिया, ग विषयगे निग्नित् पगे कुछ गहना शक्य नहीं है। किन्तु जी ना अवश्य ही जगपवला प्रगस्तिके उग ग्लोक के आवारगर गी गई होनी चाहिये जिसमे वीरमेन ग्यामीफे लिये कहा गया है कि भरत नसतीगो आजागी तरह जिनकी भारती पदमागममें स्पलित नही हुई। अत पवला-जयभवलागी गनारे पपनान् विक्रमको दगवी पताब्दीने ही उम पदवीका गूगपात होना चाहिये । नेमिचन्द्र गुरु-- __धी नेमिनन्द्र गिद्धान्त चक्राने अभयनन्दि, वीरनन्दि और उन्द्रनन्दिको अपना गुग बतलाया है। कर्मकाण्डमें दो स्थानोपर उन्होंने इन तीनोको नमस्कार किया है। उनमेमे एक ग्यानपर कहा है --जिनके चरणोके प्रमादमे वीरनन्दि
और इन्द्रनन्दिा यत्स्य अनन्त रासारस्पी समुद्रगे पार हो गया उन अभयनन्दि गुरुको मैं नमस्कार करता हूँ। दूसरे स्थानपर लिसा है'-'अभयनन्दिको, श्रुतसमुद्रके पारगामी इन्द्रनन्दि गुरुको और वीरनन्दिनाथको नमस्कार करके प्रकृतियोंके पत्यय-सारणको नगा।' लब्धिमारमें उन्होंने लिखा है-वीरनन्दि और उन्द्रनन्दिके वल्य और अभयनन्दिो शिष्य अस्पशानी नेगिचन्दने दर्शनलब्धि और चारिनलब्धिका फायन किया। किन्तु पिलोकसारमें उन्होंने अपनेको अभयनन्दिका वत्स्य मात्र लिगा है । गैप दोनो आचार्योका कोई निर्देश नही किया ।
इन तीनोभेमे वीरनन्दि तो चन्द्रप्रभ चरितके कर्ता जान पडते है क्योकि
१. 'प्रीणितप्राणिसपत्तिराक्रान्ताशेपगोनरा ।
भारती भारतीवाज्ञा पट्सण्डे यस्य नास्खलत् ॥२०॥ ज० ध० प्र० । २ 'जस्स य पायपसाएणणतससारजलहिमुत्तिण्णो ।
वीरिंदणदिवच्छो णमामि त अभयणदि गुरु ॥४३६।।-कर्म का ३ णमिऊण अभयणदि सुदसागरपारगिदणदिगुरु ।
वरवीरणदिणाह पयडीण पच्चय वोच्छ ॥७८५॥-कर्म का० ४ वीरिंदणदिवच्छेणप्पसुदेणभयणदिसिस्सेण ।
दसण चरित्तलद्धी सुसूयिया मिचदेण ॥६४८॥-ल० सा० ५ इदि मिचदमुणिणाणप्पसुदेणभयणदिवच्छेण ।
रइओ तिलोयसारो खमतु त बहुसुदाइरिया ।।-त्रि० सा०
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ३८३ उन्होने चन्द्रप्रभचरितको प्रशस्ति में अपनेको अभयनन्दिका शिष्य बतलाया है। और ये अभयनन्दि नेमिचन्द्र गुरु ही होने चाहिये क्योकि कालगणनासे उनका वही समय आता है। अत अभयनन्दि इन सबमें जेठे तथा गुरु होने चाहिये । और वीरनन्दि, इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र उनके शिष्य । नेमिचन्द्र सम्भवतया सबसे छोटे थे और उन्होने अभयनन्दि गुरुसे अध्ययन करनेसे पूर्व वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिसे भी अध्ययन किया था।
नेमिचन्द्रने वीरनन्दिको चन्द्रमाकी उपमा देकर सिद्धान्तरूपी अमृतके समुद्रसे उनका उद्भव बतलाया है। अत वीरनन्दि भी सिद्धान्त ग्रन्थोके पारगामी थे । उसी तरह इन्द्रनन्दिको तो नेमिचन्द्रने स्पष्ट रूपसे श्रुतसमुद्रका पारगामी लिखा है। उन्हीके समीप सिद्धान्त ग्रन्थोका अध्ययन करके कनकनन्दि ने सत्वस्थानका कथन किया था। उसी सत्व स्थानका सग्रह नेमिचन्द्रने गोम्मटसार कर्मकाण्डमें किया है।
इन्द्रनन्दिके सम्बन्धमें मुख्तार साहब ने लिखा है कि इस नामके कई आचार्य हो गये है। उनमेंसे ज्वाला मालिनीकल्पके कर्ता इन्द्रनन्दिने ग्रन्थका रचनाकाल श० स० ८६१ (वि०स० ९९६) दिया है। और यह समय नेमिचन्द्रके गुरु इन्द्रनन्दिके साथ बिल्कुल सगत वैठता है। किन्तु उन्होने अपनेको वप्प नन्दिका शिष्य बतलाया है। सभव है यह इन्द्रनन्दि बप्पनन्दिके दीक्षित हो, और अभयनन्दिसे उन्होने सिद्धान्त शास्त्रकी शिक्षा प्राप्त की हो ।
इस तरह विक्रमकी दसवी शताब्दीके उत्तरार्धसे लेकर ग्यारहवी शताब्दीके पूर्वार्ध तक सिद्धान्त ग्रन्थोंके ज्ञाताओकी एक अच्छी गोष्ठी थी। उनमेंसे सिद्धान्त विपयक रचनाये दो ही आचार्योंकी उपलब्ध है । वे है कनक नन्दि तथा नेमिचन्द्र।
१ 'मुनिजननुतपाद प्रास्तमिथ्याप्रवाद सकलगुणसमद्धस्तस्य शिष्य प्रसिद्ध ।
अभवदभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी स्वमहिमजितसिन्धु भव्यलोककवन्धु ॥३॥ भव्याम्भोजविवोधनोद्यतमते स्वित्समानविष
शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधिय श्री वीरनन्दीत्यभूत् ।'-चन्द्र० च० प्रश० । २ वर इदणदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्ध त ।
सिरिकणयणदिगुरुणा सत्तट्ठाण समुद्दिट्ठ ॥३९६||--कर्म का० । ३ पुरातन वा० सू०, प्रस्ता०, पृ० ७१-७२ । ४ 'अष्ट शतस्य (स) कषष्ठि प्रमाणशकवत्सरेष्वतीतेषु ।
श्रीमान्य खेटकटके पर्वण्यक्षयतृतीयायाम् ॥' -ज्वा० मा०, प्रश० ।
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३८४ · जेनसाहित्यका इतिहास
कनकनन्दिकी विस्तर सत्व विभगी आचार्य कनकनन्दि रचित विस्तर सत्व विभगी नामक एक ग्रन्थ जैनमिद्धात भवन आरामे वर्तमान है । उमकी कागज पर लिपी हुई दो प्रतिया हमे देखनेको प्राप्त हुई । जो गभवत एक ही लेयककी लिखी हुई है। दोनोंकी गाथा सख्याओ गे अन्तर है । एककी गंख्या ४८ है और दूसरीमे गाथाओकी गरया ५१ है। तथा दूसरी प्रतिम गायाओके साथ गदृष्टिया भी दी हुई है । इसीमे पहली प्रतिकी पृष्ठगरया नेवल ३ है दूगरीकी ७ है।
कर्म काण्डमें इस कनक नन्दि विरनित विस्तर रात्व विभगीको आदिमे अन्तकी गाथा पर्यन्त गम्मिलित कर लिया गया है। केवल वीचकी ८ या ११ गाथायें या तनमे छोर दी गई है। क्योकि कर्मकाण्डम इस प्रकरणकी गाथाओकी मस्या ३५८ गे ३९७ तक ४० है।
उस प्रकरणमें कर्मोके रात्व स्थानोका कथन गुणस्थानाम भगोके साथ किया गया है। इसका विशेष परिचय आगे कर्मकाण्डका परिचय कराते हुए दिया जायेगा। जो गाथाये छोड दी गई है उनके छोड देनेमे भी प्रकृत कथनमें कोई बाधा नहीं आती। हा, उनके रहनेमे प्रकृत विषयको चर्चा थोडा विशेप स्पष्ट हो जाती है। प्रथम और द्वितीय प्रतिके अनुसार छोडी हुई गाथाओकी क्रममख्या इस प्रकार है-४-५ । (यह गाथा दूसरी प्रतिमे व्यतिक्रममे दी गई है इससे इसकी सख्या उसमे ५ है। गा० ९, १० । दूसरी प्रतिमै १५ नम्बर पर स्थित गाथा पहली प्रतिमे नही है । अत दोनोकी सस्यामें एकका अन्तर पड गया है । फलत. छोडी गई गाथाओकी क्रम मख्या पहली प्रतिके अनुसार २२, २३, २८ ३० है और दूसरीके अनुसार २३, २४, २९ और ३१ है। दूसरी प्रतिकी गाथा ३८-३९ पहली प्रतिमें नही है। अत दानोकी सख्यामे तीनका अन्तर है । फलत पहली प्रतिके अनुसार छोडी गई ८वी गाथाकी सख्या पहली प्रतिमें ४१ और दूसरीमें ४४ है। इस तरह कर्मकाण्डमें उक्त नम्वरकी गाथायें छोड दी गई है। _____ साथ ही एक जगह थोडा व्यतिक्रम भी पाया जाता है। त्रिभगीकी गाथा न० १५, १६ और १७ की क्रम संख्या कर्मकाण्डमें, क्रमसे ३६८, ३६९, ३७० है । तथा गा० १४ की क्रमसख्या ३७१ है। अर्थात् गाथा १४ को जिसमे प्रथम गुण स्थानके सत्वस्थानोमें भगोकी सख्या वतलाई गई है कर्मकाण्डमें १५, १६, १७ के वाद दिया है। इन तीनो गाथाओमें प्रथम गुणस्थानके कुछ स्थानोमें भगोका स्पष्टीकरण किया गया है। अत त्रिभगीमें पहले भंगोकी सख्या वतलाकर पीछे उसका स्पष्टीकरण किया गया है। और कर्मकाण्डमें पहले स्पष्टीकरण करके पीछे भंगोकी संख्या वतलाई है। अस्तु,
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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य : ३८५
विचारणीय बात यह है कि कनक नन्दि आचार्यने ४८ या' ५१ गाथा प्रमाण विस्तरसत्व त्रिभगी ग्रन्थ क्या पृथक् रचा था और वादको उसे नेमिचन्द्राचार्य ने अपने गोम्मटसारमें सम्मिलित कर लिया अथवा कर्मकाण्डके लिये ही उन्होने इस प्रकरणकी रचना की ? उक्त दोनो वातोमेंसे दूसरी वात ही विशेष सगत प्रतीत होती है क्योकि कनकनन्दि भी सिद्धान्त चक्रवर्ती थे, यह वात त्रिभगीकी अन्तिम गाथासे जो कर्मकाण्डमें भी है, स्पष्ट होती है । ऐसे महान् आचार्यके द्वारा इतना छोटा-सा ग्रन्थ स्वतन्त्र रूपसे रचे जानेकी सभावना ठीक प्रतीत नही होती । अत यही विशेष सभावित प्रतीत होता है कि उन्होने गोम्मटसारके लिये हो उस प्रकरणको रचा और पीछे उसमें यथास्थान स्पष्टीकरणके लिये कुछ गाथाओको बढाकर उसे एक स्वतंत्र प्रकरणका रूप भी दे दिया । अत गोम्मटसारकी रचना कनकनन्दि आचार्यका भी योगदान था । त्रिभगीकी अन्तिम गाथा नेमिचन्द्राचार्यकी बनाई हुई हो सकती है जिसमें कहा है कि इन्द्रनन्दि गुरुके पासमें सम्पूर्ण सिद्धान्तको सुनकर कनकनन्दि गुरुने सत्व स्थानका कथन किया । यहाँ कनकनन्दिके साथ गुरु शब्दका प्रयोग इसी बातका सकेत करता है ।
कनक नन्दिके गुरु इन्द्रनन्दि थे । और इन्द्रनन्दिके गुरु अभयनन्दि थे । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके गुरु अभयनन्दी सिद्धान्त शास्त्रोके ज्ञाता थे । अत जैनेन्द्र महावृत्तिको हमने इस दृष्टिसे देखा कि उसमें सिद्धान्त शास्त्र विषयक कोई उदाहरण है या नही ? खोजने पर सूत्र १।३।५ की वृत्ति में 'प्राभृतपर्यन्तमधीते' एवं 'सवन्ध सटीकम्' उदाहरण महत्वपूर्ण है । इसके सम्बन्धमें डॉक्टर वासुदेव शरण अग्रवालने अपनी भूमिका ( पृ० ९) में लिखा है - 'यहाँ ऐसा विदित होता है कि प्राभूतसे तात्पर्य महाकर्म प्रकृतिप्राभूतसे था, जिसके रचयिता आ० पुष्पदन्त तथा भूतवलि माने जाते है । ( प्रथम द्वितीय शती) । इसीका दूसरा नाम षट्खण्डागम प्रसिद्ध है । इसीका भाग विशेष बन्ध या महाबन्ध ( महाधवल सिद्धान्तशास्त्र ) था जिसके अध्ययनसे यहाँ अभयनन्दीका तात्पर्य ज्ञात होता है । अर्थात् उस समय भी विद्वानोमे प्राभृत या पट्खण्डागमसे पृथक् महावन्धका
१ श्रीप्रेमीजीने लिखा है कि 'प० जुगलकिशोरजी मुख्तारके अनुसार जैन सिद्धान्त भवन आरामें कनकनन्दिका रचा हुआ 'त्रिभगी' नामका एक ग्रन्थ है । जो १४०० श्लोक प्रमाण है (जै० सा० इ०, पृ० २०९ ) । और टिप्पणमे जैन हितैषी भाग १४, अक ६ का निर्देश किया है । हमने उसे देखा उसमें मुख्तार साहवने जै० सि० भवनकी सूचीके आधार पर उक्त निर्देश किया था इसीसे पुरातन जैनवाक्य सूचीकी अपनी प्रस्तावनामें उन्होने त्रिभंगीके परिमाण के सम्बन्धमे उक्त निर्देश नही किया । अत त्रिभगीका १४०० श्लोक प्रमाण कथन भ्रामक है ।
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३८६ : जेनगाहित्यका इतिहास
अस्तिल था और दोनो आगगन जीवनका बावर्ग माना जाता था। 'सटीक मधीते' गे जिग टीम जलेग है यह पबला टी नहीं हो गानी क्योंकि उसी रनना धीरगनने ८१६६० में भी। श्रुतावतारी अनुगार महाामपान पर आगार्ग गुनगुन्दने भी पानी प्रागनटीका लिपीगी जो ग गमय अनुपलब्ध है। गभगत नही टीका प्रागन और बन्मने गाय पी जाती थी।'
पटर साहलगा उगन अनुमान हगे भी गगत प्रतीत होता है। पुष्पदन्त और भूनलिने जिग महार्ग प्रागृततो पदमागमो मे उपगहत रियामा गम्भवत प्रानगे उगीका ग्रहण वृत्तिसग्ने गिया। 'गबन्ग' और 'मटी' पदोशनी बातगा मगर्यन होगा कि बना भगवा महावन्य उगी अन्तर्गत अन्तिग गए और उनीको टीका लगेरे हाग रनी गई थी। गिन्तु प्राभूतगे पदगण्यागग 'गवन्न' प प्रगोग विगैप मर्ग गगता है। बना तो पदगणागमा ही : अत 'प्रागन' में पटगगमका गहण करनेपर बना भी गहण होली गाना पुन 'गा' कहना गुरु विग म रगता है। जो बननाता है कि महावृतिमी रमनागे अन्तिम गठ बन्ग पदगडागममे जुन हो गालगा । उनीगे 'गाय' में उगा गहण किया गया है।
न्ट नन्दिने अपने भुतारतारंगे लिगा है गि-'यप्पदेव गुग्ने पट्यण्डने महापनाको पगारिया। और गाग्याप्रमाप्ति नामा छ गण्डको मक्षिप्त करने उगमें मिलाया । उनी न्याग्गा प्राप्ति प्राप्त करके वीरमेन स्वामीने रातोर्ग नाम छ गण्डकी राना की और उगे पान गयोमें मिलाार छ सण्ड पूरे किये।
अत वप्पभट्ट स्वामीने गहावन्या गटाण्डागममे पृथक् कर दिया था। तथा वीरगेन स्वामीने भी उगे पृथए ही रगार सत्कर्म नामक नया पण्ड रचकर उसमे मिलाया था जो धवलाका ही अंगभूत है। अत 'सबन्ध' पदमे इतना स्पष्ट है कि वप्ण्देवके पश्चात अभयनन्दि हुए है। किन्तु वप्पदेवका समय भी ज्ञात न्ही है। परन्तु श्रुतायतारके अनुसार वे वीरसेनके गुरु एलाचार्यसे पूर्व हुए है। उनके और 'एलाचार्यके वीचमें श्रुतावतारमं किसी अन्य व्यारयाकारका निर्देश नहीं किया गया है । अत विक्रमकी गातवी शताब्दीके लगभग उनका काल माना जा सकता है। अत अकलकके पश्चात् होनेवाले अभयनन्दिका 'मवन्ध और सटीकम्' लिखना उचित ही है।
डॉ. अग्रवाल साहबने यद्यपि अभयनन्दिका कोई निश्चित समय नही लिखा तथापि वे उन्हें धवलासे पूर्वका विद्वान् मानते है इसीसे उन्होने 'सटीक' पदसे धवलाटीकाका ग्रहण नहीं किया।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ३८७ किन्तु यदि प्रभाचन्द्रके द्वारा गुरुस्परो स्मृत महावृतिकार अभयनन्दिका प्रभाचन्द्रके साथ कुछ विद्या सम्बन्ध था तो नेमिचन्द्रके गुरु भी वही हो सकते है और उस स्थितिमें उनके द्वारा 'सटीक' शब्दमे धवलाटीकाका उल्लेस होना ही सभव है । किन्तु अभी इस विषयमें निश्चित रूपसे कुछ कहना सभव नही है । एक अभयनन्दी नामक आचार्यने पूज्यपाद देवनन्दिके जैनेन्द्र व्याकरण पर जैनेन्द्र महावृत्ति रची है। इसका प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ कागीमे हुआ है उसमें आरम्भिक द्वितीय श्लोकमें वार्तिककारने अपना नाम अभयनन्दि' मुनि दिया है। किन्तु अपने गुरु आदिका नाम नहीं दिया और न ग्रन्थ रचनाका समय ही दिया । ___अभयनन्दीने सूत्र ४।३।११४ की वृत्तिमें माघकविके गिशुपालवधसे एक श्लोक उद्धृत किया है। माघका समय सप्तम शतीका उतरावं माना जाता है । क्योकि माघके दादा सुप्रभदेव वर्मलातके मत्री थे जिसका एक शिलालेख ६२५ ई० का पाया जाता है।
तथा उन्होने सूत्र ३-२-५५ की वृत्तिमे 'तत्त्वार्थ वार्तिकमधीते' उदाहरण दिया है। इससे प्रकट होता है कि वे तत्वार्थवातिकके रचयिता भट्टाकलकके पश्चात् हुए है।
तथा जैनेन्द्र पर एक 'पचवस्तु' नामकी टीका है उसके रचयिता आर्य श्रुतकीति है। कनडी भापाके चन्द्रप्रभ चरित नामक ग्रन्थके कर्ता अग्गल कविने श्रुतकीतिको अपना गुरु वतलाया है। यह चरित शक स० १०११ (वि० सं० ११४६) में वनकर समाप्त हुआ था । यदि ये दोनो श्रुतकीर्ति एक हों तो अभयनन्दिको विक्रमकी १२वी शतीसे पूर्वका विद्वान मानना चाहिये ।
श्रुतकीर्तिने अपनी पचवस्तु प्रक्रियाके अन्तमें एक श्लोकमें जैनेन्द्र शब्दागम अर्थात् जैनेन्द्र व्याकरणको महलकी उपमा दी है। मूल सूत्ररुपी स्तम्भो पर वह खडा है, न्यासरूपी उसकी रत्नमय भूमि है, वृत्ति रूप उसके कपाट है । भाष्य शय्यातल है । टीकारूप उसके माल या मजिल है और वह पचवस्तु टीका उसकी सोपान श्रेणी है । उसके द्वारा उस महल पर चढा जा सकता है । १ 'यच्छब्द लक्षण व्यक्तिकरोत्यभयनन्दिमुनि समस्तम् ॥२॥ जै० महावृ०,
पृ० १ । २ ' श्रुतकीर्ति श्रीविद्य चक्रवर्तिपदपद्म निधानदीपवति श्रीमदग्गलदेव विर
चिते चन्द्रप्रभ चरिते-जै० सा० इ०, पृ० ३६ ।। 'सूत्रस्तम्भसमुद्धृत प्रविलसन्न्यासोरुरत्नक्षिति श्रीमद्वृत्तिकपाटसंपुटयुते भाष्योऽथ शय्यातलम् । टीकामालमिहारुरुक्षुरचित जैनेन्द्रशब्दागम प्रासादं पृथु पचवस्तुकमिद सोपानमारोहतात् ॥'-जै० सा० इ०, पृ० ३३ ।
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३८८ : जेनसाहित्यका इतिहास
इगमें निर्दिष्ट वृत्ति तो अभयनन्दिात वृत्ति है। और न्याग मायद पूज्यपायात ही हो।
जनेन्द्र व्याारण पर प्रभानन्द्राचार्य कृत 'गन्दाम्भोज भाम्फर' नामक एक न्यास गन्य वम्बईके सरस्वती भवनमें वर्तमान है जो अपूर्ण है। उसमे तीसरे अध्यायको अन्तके एक पलोकम अभगनन्दिको नमग्कार किया है तथा महावृत्तिके गन्द ज्योंके त्यो लिये गये है। इस रगिता आनार्य प्रभानन्द्र चे ही प्रतीत होते है जिन्होने प्रमेयकमल मार्तण्ड और न्याय मुर की रचना की थी।
प्रभानन्द्रका समय न्यायाचार्य प० महेन्द्र कुमारजीने ९८०३० से १०६५ तक निर्णीत किया है । अत अभयनन्दिका उनमे पूर्व होना निश्चित है।
श्री नेमिचन्द्राचार्यका समय भी ९८९ ६० के लगभग है । अत उनके गुरु अभयनन्दिका समय भी उमीके लगभग उसने कुछ पूर्व होना चाहिये । यदि यह अभयनन्दि ही महावृत्तिको रचगिता हो तो महावृत्तिका रचनाकाल विक्रम म० १००० और १०५० के मध्यमे होना नाहिये । श्री युधिष्ठिर मीमासकने अपने 'गस्थत व्याकरणका इतिहास' में उस एकताको गभावनापर ही महावृत्ति के रचयिता अभयनन्दीका काल विक्रमको ग्यारहवी शताब्दीका प्रथम चरण मार कहा है।
श्री नाथूरामजी प्रेमीने 'जनेन्द्र व्याकरण और आनार्य देवनन्दी' शीर्षक अपना नियन्त्र प्रथमवार जै० सा० ग०, भा० १ अकमे प्रकाशित कराया था। उसमें उन्होंने लिखा था-'हमारा अनुमान है कि चन्द्रप्रभ काव्यके कर्ता महाकवि वीरनन्दिने जिन अभयनन्दिको अपना गुरु बनाया है ये चे ही अभयनन्दि होगे। आचार्य नेमिचन्द्रने भी गोम्मटसार कर्मकाण्डकी ४३ध्वी गाथामे इनका उल्लेख किया है। अतएव इनका समय विक्रमकी ग्यारहवीके पूर्वार्धके लगभग निश्चित होता है।'
किन्तु जै० सा० इ० में उन्होने अपने उस लेसमेंसे उपर वाला अश निकाल दिया है।
परन्तु प्रभाचन्द्रके न्यासमें जो श्लोक है वह उक्त अनुमानका पोपक प्रतीत होता है । श्लोक इस प्रकार है
नम श्री वर्धमानाय महते देवनन्दिने ।
प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभयनन्दिने । इसमें आगत 'तस्मै अभयनन्दिने गुरवें' पद महत्वपूर्ण है, जो इस सन्देहको पुष्ट करता है कि प्रभाचन्द्रने अभयनन्दिसे शायद अध्ययन किया था । यदि ऐसा हो तो वे अभयनन्दि नेमिचन्द्राचार्यके गुरु ही हो सकते है ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ३८९
नाम
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने पट्खण्डागमकी धवला टीकाका मथन करके गोम्मटसार नामक महान् ग्रन्थकी रचना की थी। इस ग्रन्थराजके दो भाग है-प्रथम भागका नाम जीवकाण्ड है और दूसरे भागका नाम कर्मकाण्ड है। ये दोनो नाम टीकाकारोके द्वारा दिये गये है। ग्रन्थकारने प्रथम भागकी पहली गाथामें 'जीवस्स परूवण वोच्छ' लिखकर जीवकी प्ररूपणा करनेकी प्रतिज्ञा की है और दूसरे भागकी पहली गाथामें कर्म प्रकृतियोका कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है । अत जीव और कर्मविषयक कथनोके कारण प्रथम भागको 'जीवकाण्ड और दूसरे भागको कर्मकाण्ड सज्ञा दे दी गई है। किन्तु ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थको बनाया दो ही भागोमें है क्योकि प्रथम भागके अन्तमें उस गोम्मट राजाकी जयकामना की गई है जिसके लिए गोम्मटसार रचा गया था। तथा दूसरे भागके अन्तमें चूँकि वह गोम्मटसार ग्रन्थका अन्तिम भाग है इसलिये विशेष रूपसे गोम्मटका गुणगान किया गया है । ___टीकाकारोने गोम्मटसारका एक नाम और भी दिया है पचसग्रह । किन्तु क्यों उसे यह नाम दिया, यह उन्होने नही बतलाया । सम्भवतया टीकाकारोने अमितगतिके पञ्चसग्रहको देखकर और उसके अनुरूप कथन इसमे देखकर इसे यह नाम दिया है । आचार्य नेमिचन्द्रने तो ग्रन्थके दूसरे भागके अन्तमें उसका नाम गोम्मट सग्रह सुत्त अथवा गोम्मट सुत्त दिया है। गोम्मटसार नाम भी टीकाओमें ही पाया जाता है। नामका कारण
जीवकाण्डके अन्तकी गाथा में ग्रन्थकारने कहा है-'आर्य आर्यसेनके गुण समूहको धारण करनेवाले अजितसेनाचार्य जिसके गुरु है वह राजा गोम्मट जयवन्त हो।' कर्मकाण्डके अन्तमें कुछ गाथाओके द्वारा गोम्मट राजाका जयकार करते हुए ग्रन्थकारने कहा है
'गणधर देव आदि ऋद्धि प्राप्त मुनियोंके गुण जिसमें निवास करते है, ऐसे १ 'तद् गोम्मटसार प्रथमावयवभूत जीवकाण्ड विरचयन्'-मन्द प्र० टी०,
पृ० ३। २ 'गोम्मटसारनामधेयपंचसग्रह शास्त्र प्रारम्भमाण'-मन्द प्रष्टी०, पृ०
३ । 'गोम्मटसार पञ्चसग्रह प्रपचमारचयन्'-जीव० टी०, पृ० २ । ३ 'गोम्मटसगह सुत्त'-कर्म का०, गा० ९६५ और ९६८ । ४ 'अज्जज्जसेनगुणगणसमूहसंधारिअजियसेण गुरू । भुवणगुरू जस्स गुरू सो राओ
गोम्मटो जयदु ॥७३५॥-जी०का० ।
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३९२ : जैनसाहित्यका इतिहास
गोम्मटेश्वरका अर्थ किया है-गोम्मट अर्थात् चामुण्डरायका देवता। उसीके कारण विन्ध्यगिरि, जिसपर गोम्मटेश्वरको मूर्ति स्थित है, 'गोम्मट' कहा गया। इसी गोम्मट उपनामधारी चामुण्डरायके लिये नेमिचन्द्राचायने अपने गोम्मटसार नामक सग्रह ग्रन्थको रचना की थी। इसीसे इस ग्रन्थको गोम्मटसार संज्ञा दी गई।
जीवकाण्डकी मन्दप्रवोधिनी टीकाकी उत्थानिकामे अभयचन्द्र सूरिने लिखा है कि गगवश के ललामभूत श्रीमद्राजमल्लदेवके महामात्य पद पर विराजमान, और रण रगमल्ल, असहाय पराक्रम, गुणरत्न भूपण, सम्यक्त्व रत्न निलय आदि विविध सार्थक नामधारी श्री चामुण्डरायके प्रश्नके अनुरुप जीवस्थान नामक प्रथम खण्डके अर्थका संग्रह करनेके लिये गोम्मटसार नाम वाले पञ्चसग्रह शास्त्रका प्रारम्भ करते हुए नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती परम मगल पूर्वक गाथासूत्र कहते है।'
अत श्री नेमिचन्द्राचार्यने चामुण्डरायके लिये, जिनका नाम गोम्मटराय भी था, यह ग्रन्थ रचा था । इसीसे उन्होने इस ग्रन्थको 'गोम्मट' नाम दिया। जैसे शाकटायनने अपने शाकटायन व्याकरण पर रचित वृत्तिको राजा अमोघ वर्पके नामपर अमोघवृत्ति नाम दिया था।
नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसारके सिवाय दो ग्रन्थ और भी रचे है उनमेंसे एक है लब्धिसार और दूसरा है त्रिलोकसार । त्रिलोकसारकी संस्कृत टीका
१ 'श्रीमदप्रतिहतप्रभावस्याद्वादशासन-गुहाभ्यन्तर-निवासि-प्रवादि-मदाध-सिंधुर
सिंहायमान-सिंहनन्दिमुनीन्द्राभिनन्दितगगवशललामराज-सर्वज्ञायनेकगुणनामधेय-भागवेय-श्रीमद्राजमल्लदेव-महीवल्लभ-महामात्यपदविराजमान रणरगमल्लसहायापराक्रम-गुणरत्नभूपण-सम्यक्त्व-रलनिलयादिविविध गुणनामसमासादितकीर्तिकात-श्रीचामुण्डराय-भव्य-पुण्डरीक-द्रव्यानुयोगप्रश्नानुरुप महाकर्मप्रकृतिप्राभतप्रथमसिद्धान्तजीव स्थानाख्य-प्रथम-खंडार्थ सग्रह-गोम्मटसारनामधेय-पञ्चसग्रह शास्त्रप्रारभमाण समस्तसैद्धान्तिकचूडामणि श्रीमन्नेमिचन्द्र-सैद्धान्तिकचक्रवर्ती तद्गोम्मटसारप्रथमावयवभूतं जीवकाण्ड विरचयन् ।'
-जी० का० म० पृ० टी०, पृ० ३ । सिद्धान्तामृतसागर स्वमतिमन्यक्ष्माभृदालोड्य मध्ये, लेभेऽभीष्ट फलप्रदानपि सदा देगीगणाग्नेसर । श्रीमद् गोमट-लब्धिसार-विलमत् त्रैलोक्यसाराम रखमाजश्रीसुरवेनुचिन्तितमणीन् श्रीनेमिचन्द्रो मुनि ॥६॥
बाहु० च० ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ३९३ माधवचन्द्र विद्यके द्वारा रची गई है। ये माधवचन्द्र विद्य नेमिचन्द्रके समकालिक और उनके एक प्रमुख शिष्य थे। उनके द्वारा रचित भी कुछ गाथाएँ त्रिलोकसारमें है ऐसा उन्होने अपनी टीकाकी अन्तिम प्रशस्ति में लिखा है। इन माधवचन्द्रने त्रि० सा० की प्रथम गाथाकी उत्यानिकामें लिखा है कि चार अनुयोग रूपी समुद्रोके पारगामी भगवान नेमिचन्द्र सद्धान्तदेव चामुण्डरायके वहानेसे समस्त विनेय जनोके प्रतिबोधनके लिये त्रिलोकसारकी रचना करते है ।
तथा त्रि० सा० की प्रथम गाथाका व्याख्यान करते हुए उन्होने उसे आचार्य नेमिचन्द्रके पक्ष में भी लगाया है और लिखा है कि बल अर्थात् चामुण्डराय और गोविन्द अर्थात् राचमल्लदेव (गगनरेश) ये दोनों नेमिचन्द्रको नमस्कार करते थे।
त्रिलोकसारकी एक प्राचीन प्रतिमें एक चित्र दिया है। जिसमें नेमिचन्द्राचार्य चामुण्डरायको उपदेश दे रहे है । ____ अत यह निर्विवाद है कि नेमिचन्द्र चामुण्डरायके समकालीन थे। उन्हीके निमित्तसे उन्होने अपने ग्रन्थोकी रचना की थी और अपने एक सबसे महान् ग्रन्थको चामुण्डरायके अपरनाम 'गोम्मट' से अभिहित किया था। समय
चामुण्डरायने अपना चामुण्डराय पुराण शक स० ९०० (वि०स० १०३५) में बनाकर समाप्त किया था । अत उनके लिए निर्मित गोम्मटसारका सुनिश्चित समय मुख्तार साहबने विक्रमको ११वी शताब्दी माना है, और श्री प्रेमीजीने विक्रमकी ग्यारहवी शताब्दीका पूर्वार्द्ध निश्चित किया है।
गोम्मटसार कर्मकाण्डमें चामुण्डरायके द्वारा निर्मित गोम्मट जिनकी मूर्तिका निर्देश है । अत यह निश्चित है कि गोम्मटसारकी समाप्ति गोम्मट मूर्तिकी स्थापनाके पश्चात् ही हुई है। किन्तु मूर्तिके स्थापना कालको लेकर इतिहासज्ञोमें
१ 'गुरुणेमिचन्द-सम्मद-कदिवय गाहा तहिं तहिं रइदा । माहवचदतिविज्जे
णिणमणुसरणिज्जमजेहिं ॥१॥-त्रि०सा० ।। २ . भगवान्नेमिचन्द्रसद्धान्तदेवश्चतुरनुयोगचतुरुदधिपारगश्चामुण्डरायप्रति - वोधनव्याजनाशेपविनेयजनप्रतिवोधनार्थ त्रिलोकसारनामान ग्रन्थमारचयन् ।'
-वि० सा० टी०, पृ० २।। ३ 'अथवा, णमसामि, कं० "विमलयरणेमित्रद' । विमलतर स चासो
नेमिचन्द्राचार्यश्च विमलतरनेमिचन्द्रस्त नमस्यामीति वल चामुण्डराय गा पृथ्वी विदति पालयतीति गोविन्दो रायमल्लदेव. ।-त्रि० सा० टी०, पृ० ३।
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३९४ जैनसाहित्यका इतिहास
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बडा मतभेद है | बाहुबलि चरित्रमें गोम्मटेश्वरकी प्रतिष्ठाका समय इस प्रकार दिया है
'कल्क्यब्दे षट्शताख्ये विनुंतविभवसवत्सरे मासि चैत्र पञ्चम्या शुक्लपक्षे दिनमणिदिवसे कुम्भलग्ने सुयोगे । सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटितभगणे सुप्रशस्ता चकार श्रीमच्चामुण्डराजो वेल्गुलनगरे गोमटेशप्रतिष्ठाम् ॥'
अर्थात् कल्कि सवत् ६०० में विभव संवत्सरमें चैत्र शुक्ल ५ रविवारको कुम्भलग्न, सौभाग्ययोग, मस्त ( मृगशिरा नक्षत्र में चामुण्डराजने वेल्गुल नगरमें गोमटेशकी प्रतिष्ठा कराई ।
किन्तु उक्त तिथि कब पडती है इसमे भी अनेक मत है । प्रो० घोपालने अपने वृहद्रव्यसंग्रहके अग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावना में उक्त तिथिको २ अप्रैल ९८० ई० माना है । श्री गोविन्द पैने १३ मार्च ९८१ ई० माना है | ज्योतिपाचार्य श्री नेमिचन्द्रजीने "लिखा है कि भारतीय ज्योतिषके अनुसार बहुबलि चरित्रमे गोम्मट मूर्तिकी स्थापना की जो तिथि, नक्षत्र, लग्न, सवत्सर आदि दिये गये है वे १३ मार्च सन् ९८१ में ठीक घटित होते है । प्रो० हीरालाल जी ने लिखा है कि २३ मार्च १०२८ सन् मे उक्ततिथि वगैरह ठीक घटित होती है । किन्तु शामशास्त्रीने ३ मार्च १०२८ सन् वतलाया है । एस० श्री कण्ठशास्त्री 'कल्क्यब्दे' के स्थान पर 'कल्यब्दे' पाठ ठीक मानते है और शामशास्त्रीके मतको अमान्य करते हुए लिखते है कि १०२८ ई० तक चामुण्डरायके जीवित रहनेके प्रमाणोका अभाव है । उन्होने एक नये आधार पर मूर्तिकी स्थापनाका समय ९०७-८ ई० निर्धारित किया है। इस तरहसे मूर्तिकी स्थापनाके समयको लेकर बहुत मतभेद है ।
चामुण्डराय ने अपने चामुण्डराय पुराणमें मूर्ति स्थापनकी कोई चर्चा नही की है । इस परसे साधारणतया विद्वानोका यही मत है कि उसकी समाप्तिके पश्चात् ही मूर्तिकी स्थापना हुई है । किन्तु श्रीकण्ठशास्त्री इस बातको महत्व नही देते । रन्नका अजितनाथ पुराण श० स० ९१५ में समाप्त हुआ था । उसमें लिखा है कि 'अत्तिमव्वे'ने गोम्मटेश्वरकी मूर्तिके दर्शन किये। अत यह निश्चित है कि श०स० ९१५ (वि०स० १०५०) से पहले मूर्तिकी प्रतिष्ठा हो
१ जै० सि० भा० भा० ६, पृ० २६१ ।
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२ जै०शि०स० भा० १, प्रस्ता० पृ० ३१
३ जै० एण्टी०, जि० ५, नं० ४ मे 'दी डेट आफ दी कन्सक्रेशन आफ दी इमेज, पृ० १०७ - ११४ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य - ३९५ चुकी थी। यदि चामुण्डरायपुराणमें मूर्तिकी स्थापनाकी कोई चर्चा न होनेको महत्व दिया जाये तो कहना होगा कि वि०स० १०३५ और १०५० के वीचमें किसी समय मूर्तिकी प्रतिष्ठा हुई और इसी १५ वर्षके अन्तरालमें गोम्मटसारकी रचना हुई।
प्रेमीजी ने गगनरेश राचमल्लका राज्यकाल वि०स० १०३१ से १०४१ तक लिखा है । और भुजवलि शतक अनुसार उसीके राज्यकालमे मूर्तिकी प्रतिष्ठा हुई थी, अत मूर्ति स्थापनाका समय ९८१ ई० (वि०स० १०३८) ही उपयुक्त जान पडता है । उसमें बाहुवलि चरितका तिथि क्रम भी घटित हो जाता है और चामुण्डराय पुराणमें उल्लेख न होने वाली वातकी सगति भी वैठ जाती है। यदि यह ठीक है तो उसके बाद स० १०४० के लगभग गोम्मटसारकी रचना होना सभव है।
इतने विस्तारसे इस पर प्रकाश डालनेका कारण यह है कि अमितगतिने अपना सस्कृत पञ्चसग्रह वि०स० १०७३ में बनाकर समाप्त किया था । और उसके देखनेसे प्रकट होता है कि अमितगतिने सम्भवतया गोम्मटसार को देखा था, क्योकि स० पञ्चसग्रहके प्रथम अध्यायमें जो ३६३ मिथ्यामतोकी उपपत्ति दी है वह कर्मकाण्डसे ली गई प्रतीत होती है । प्रा० पं०स० में तो वह है ही नही और कर्मकाण्डसे बिल्कुल मेल खाती है। कर्मकाण्डमें काल ईश्वर आत्मा नियति और स्वभावका जो लक्षण दिया है उसीका अनुवाद स० पञ्चसग्रह में है । केवल क्रममें अन्तर है । उसमें स्वभाव, नियति, काल, ईश्वर और आत्मा यह क्रम रखा गया है। नीचे कर्मकाण्डकी गाथा के साथ स. पञ्चसग्रहसे उसका सस्कृत अनुवाद दिया जाता है१ कालो सव्व जणयदि कालो सव्व विणस्सदे भूद ।
जागत्ति हि सुत्तेसु वि ण सक्कदे वचिदु कालो ॥८७९॥ क० का० । सुप्तेपु जागति सदैव काल काल प्रजा सहरते समस्ता ।
भूतानि काल पचतीति मूढा कालस्य कर्तत्त्वमुदाहरन्ति ॥३१२॥ २ अण्णाणि हु अणीसो अप्पा तस्स य सुह च दुक्ख च ।
सग्गं णिरय गमण सव्व ईसरकय होदि ॥८८०॥ अज्ञ शरीरी नरकेऽथ नाके प्रपेर्यमाणो व्रजतीश्वरेण ।
स्वस्याक्षमो दुःखसुखे विधातुमिद वदन्तीश्वरवादिनोऽन्ये ॥३१३॥ ३ एक्को चेव महप्पा पुरिसो देवो य सन्चवावी य ।
सन्वगणिगूढो वि य सचेयणो णिग्गुणो परमो ॥८८१॥ एको देव सर्वभूतेषु लीनो नित्यो व्यापी सर्वकार्याणि कर्ता । आत्मा मूर्त सर्वभूतस्वरूप साक्षाज्ज्ञाता निर्गुण शुद्धरूप ॥३१४॥
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३९६ जैनसाहित्यका इतिहास ४ जत्तु जदा जेण जहा जस्म य णियमेण होदि तत्त, तदा ।
तेण तहा तस्स हवे ऽदि वादो णियदिवादो दु ॥८८२॥ यथा यदा यत्र यतोऽस्ति येन यत् तदा तथा तन ततोऽस्ति तेन तत् ।
स्फुट नियत्येह नियत्र्यमाण परो न शक्त किमपीह कतुम् ॥३११॥ ५ को कर कटयाण तिक्सत्त मियविहगमादीण ।
विविहत्त तु सहाओ इदि सबपि य सहाओ ति ॥८८३॥ क स्वभावमपहाय वक्रता कटकेपु विहगेपु चित्रताम् ।
मत्स्यकेपु कुरुते पयोगति पकजेपु सरदण्डता पर ॥३१०॥ इसके सिवाय अन्य भी कई वाते है जो गोम्मटमार जीवकाण्डसे ली गई जान पटती है । जीवकाण्डमै कपायमार्गणामें पचगग्रहसे कुछ विशेप कथन किया है। इस कथनको करने वाली कोई गाथा धवलामे भी हमारे देखने में नही आई । उस कथनको करने वाली जीवकाण्डमें यह गाथा विशेप है
णारय-तिरिक्स-गर-सुर-गईसु उप्पण-पढम-कालम्मि ।
कोहो माया माणो लोहुदओ अणियमो वा पि ॥२८७॥ इसी वातको सं० पञ्च सग्रहमें इस प्रकार कहा गया है
क्रुद्ध श्वश्रेपु तिर्यक्षु मायाया प्रथमोदय । जातस्य नृपु मानस्य लोभस्य स्वर्गवासिपु ॥२१०॥ आचार्या निगदन्त्यन्ये कोपादि प्रथमोदये।
भ्रमतो भवकान्तारे नियमो नास्ति जन्मिनाम् ॥२११॥ पहले श्लोकमें उक्त गाथाके तीन चरणोका अनुवाद है और 'अणियमो वाऽपि' इस चतुर्थ चरणके आशयको दूसरे श्लोकसे स्पष्ट किया गया है। ___ इसी तरह जीवकाण्ड-योग मार्गणामें आहारक शरीरके आकारादिके सम्बन्धमें जो विशेप कथन किया गया है वह सब स० १० स० में भी यथास्थान वर्तमान है। जीव काण्डमें कहा है
सुह सठाण धवल हत्यपमाण पसत्थुदय ॥२३७॥
अव्वाघादी अतोमुहुत्तकालट्ठिदी जहण्णिदरे ।' स०प० स० मे इसका अनुवाद इस प्रकार है
'य प्रमत्तस्य मू|त्यो धवलो धातुवर्जित । अन्तर्मुहूर्तस्थितिक सर्वव्याघातविच्युत ॥१७६॥ पवित्रोत्तमसंस्थान हस्तमात्रोऽनघद्युति ।'
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___ उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ३९७ यदि श्लोक १७६ के उत्तरार्धके स्थानमें श्लोक १७७ के पूर्वार्धको रख दिया जाये तो गाथानुसार अनुवाद हो जाता है ।
इन उदाहरणोंसे यह स्पष्ट है कि अमितगतिने नेमिचन्द्राचार्यके गोम्मटसारका भी उपयोग अपने स० पञ्चसग्रहमे किया है । अत गोम्मटसार स० पञ्चसग्रहसे (वि० स० १०७३) तीस पैतीस वर्ष पूर्व रचा गया होना चाहिये । और इसलिये उसका रचनाकाल वि० स० १०४० के लगभग जानना चाहिये । विषय-वस्तु
यह पहले लिखा जा चुका है कि गोम्मटसारके दो भाग है, पहले भागका नाम जीवकाण्ड है और दूसरे भागका नाम कर्मकाण्ड । जीवकाण्डके तीन संस्करण प्रकाशित हुए है। गाँधी नाथारगजी बम्बई द्वारा प्रकाशित सस्करणमे मूल गाथाएँ और उनकी सस्कृत छाया मात्र है। रायचन्दशास्त्रमाला वम्बईसे प्रकाशित सस्करणमें प० खूबचन्दजी रचित हिन्दी टीका भी दी गई है। ये दोनों सस्करण पुस्तकाकार है । गाँधी हरिभाई देवकरण ग्रन्थ मालासे प्रकाशित शास्त्राकार सस्करणमें मूल और छायाके साथ दो सस्कृत टीकाएँ तथा प० टोडरमलजी रचित ढुढारी भाषामें टीका है। पहले दोनो सस्करणोमें गाथा सख्या ७३३ है। किन्तु प्रथम मूल सस्करणमें दूसरेसे एक गाथा जिसका नम्वर ११४ है, अधिक है, यह गाथा दूसरे सस्करणमें नही है। फिर भी गाथा सख्या वरावर होनेका कारण यह है कि प्रथम मूल सस्करणमें दो गाथाओ पर २४७ नम्बर पड गया है । अत पूरे ग्रन्थकी गाथा सख्या ७३४ है । तीसरे सस्करणमें गाथा सख्या ७३५ है । इसमें एक गाथा वढ जानेका कारण यह है कि गाथा न० ७२९ दो बार आई है और उस पर दोनो वार क्रमसे ७२९-७३० नम्वर पड गया है। अत जीवकाण्डकी गाथा सख्या ७३४ है।
जैसा इस भागके नामसे व्यक्त होता है इसमें जीवका कथन है । ग्रन्थकारने प्रथम गाथामें मगलपूर्वक जीवका कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है और दूसरी गाथामें उन बीस प्ररूपणाओको गिनाया है जिन वीस अधिकारोके द्वारा जीवका कथन इस ग्रन्थमें किया गया है। वे वीस प्ररूपणाएँ है--गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, सज्ञा, १४ मार्गणाएँ और उपयोग। इन्ही वीस प्ररूपणाओका कथन पञ्चसग्रहके जीव समास नामक अधिकारमें किया गया है। उसीका विस्तारसे प्रतिपादन जीवकाण्डमें है । जीवसमास प्रकरणकी २१६ गाथाओ से अधिकाश गाथाएँ जीवकाण्डमें ज्योकी त्यों ले ली गई है।
गोमट्टसार एक सग्रह ग्रथ है, यह वात कर्मकाण्डकी गाथा न० ९६५में आये हुए 'गोम्मटसग्रह सुत्त' नामसे स्पष्ट है । जीवकाण्डका संकलन मुख्यरूपसे पञ्चसग्रहके
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३९८ जैनसाहित्यका इतिहास
जीव समास अधिकार तथा पट्खण्डागमके प्रथम सण्ड जीवद्वाणके सत्प्ररूपणा और द्रव्यपरिमाणानुगम नामक अधिकारोकी धवलाटीकाके आधार पर किया गया है ।
यह पहले लिख आये है कि धवलामे दि० पञ्चसग्रहकी बहुत-सी गाथाएं उद्धृत है और क्वचित् किन्ही गाथाओमे शाब्दिक अन्तर भी है। किन्तु जीवकाण्ड में सकलित इस प्रकारकी गाथाओका पाठ धवलासे मिलता है, पञ्चसग्रहसे नही । अत जीवकाण्डके सकलनमें धवलाकी मुख्यता जाननी चाहिये । पचसग्रहसे जीवकाण्डमें जो विशेषता है उसका दिग्दर्शन इस प्रकार है
पञ्चसग्रहमें ३० गाथाओसे गुणस्थानोका कथन है किन्तु जी० का० मे ६८ गाथाओमें कथन है । उसमें बीस प्ररूपणामोका परस्परमे अन्तर्भावका कथन तथा प्रमादोके भगोका कथन पञ्चसग्रहमे विशेष है। पं०स० मे जीवसमासका कथन केवल ग्यारह गाथाओ मे है किन्तु जी० का ० में ४८ गाथाओमें है । उसमें स्थान, योनि, शरीरकी अवगाहना, और कुलोके द्वारा जीवसमासका कथन विस्तार से किया है । यह सब कथन प०स० मे नही है । तथा प०स०के इस प्रकरणकी केवल एक गाथा जी०का० मे है शेप सव कथन स्वतन्त्र है ।
पर्याप्तिका कथन प०स० में दो गाथाओमे है और जी०का० में ११ गाथाओमें । प०स०की दोनो गाथाएँ जी०का० में है । प्राणोका कथन प० स०में ६ गाथाओ में है और जी० का० मे ५ गाथाओंमें । इसमें प०स०की केवल दो गाथाएँ ली गई है । सज्ञाओकी पाचो गाथाएँ जी०का०में ले ली है केवल स्वा मियोका कथन जी० का ० में विशेष है ।
जी० का० के मार्गणाओके कथनमें एक वडी विशेषता यह है कि उसमें मार्गणाओ में जीवोकी सख्याका कथन भी किया गया है । यह कथन दि० प० स० में नही है ।
इन्द्रियमार्गणाके कथनमें पं० स० में एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय आदि जीवोको बतलाया है ये जीव एकेन्द्रिय है ये द्वीन्द्रिय है । जी० का० में इसे छोड दिया है और प्रत्येक इन्द्रियके विपयका तथा इन्द्रियोमे लगे हुए आत्मप्रदेशोका कथन विस्तारसे किया है, यह कथन पं० स० में नही है ।
कायमार्गणाके कथनमें जी० का ० में प० स० से कई बातें विशिष्ट है । जैसे त्रसोका वासस्थान, निगोदिया जीवोसे अप्रतिष्ठित शरीर और स्थावर जीवोके शरीरका आकार । योगमार्गणामें भी इसी तरह कई विशिष्ट कथन है ।
कषायमार्गणाके कथनमें जी० का० मे शक्ति, लेश्या और आयुबन्धावन्धकी
१ गा० १३९ - जी० का० ।
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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य • ३९९
अपेक्षा कषायके भेदोंका कथन किया गया है जो प० स० में नही है । ओर जी० का० में ज्ञानमार्गणाका कथन तो वेजोड है । श्रुतज्ञानके बीस भेद जो उसमें वतलाये है उनका कथन पट्खण्डागमके वेदनाखण्ड और उसकी धवलासे लिया गया है । यह कथन श्वेताम्बर साहित्यमे भी नही मिलता । इसी तरह अवधिज्ञानके भेदोंका कथन भी बहुत विस्तृत हैं । ज्ञानमार्गणाकी गाथा सख्या १६६ है | पं० स० में केवल १० गाथाएं इस प्रकरणमें है ।
इसी तरह जी० का ० में लेश्यामार्गणा भी बहुत विस्तृत है और लेश्याओका कथन बहुत विस्तारसे किया है । सम्यक्त्वमार्गणामें सम्यक्त्वके भेदोका तथा उनके सम्बन्धसे द्रव्यों और नो पदार्थोंका कथन वहुत विस्तृत है । इसमें तत्त्वार्थसूत्रके पांचवें अध्यायका तो सभी आवश्यक कथन सगृहीत कर दिया गया है । उसके अतिरिक्त भी वहुत सा कथन सगृहीत किया गया है ।
इस तरह जीवकाण्डमें 'गागर में सागर' की कहावत चरितार्थ की गई है । उसका सकलन बहुत ही व्यवस्थित, सन्तुलित और परिपूर्ण है । इसीसे दिगम्बर साहित्य में उसका विशिष्ट स्थान रहा है । उसीके कारण पचसग्रह और जीवस्थानके ओझल हो जानेपर भी उनका अभाव नही खटका और लोग एक तरहसे उन्हें भूल ही गये ।
कर्मकाण्ड
गोम्मटसारके दूसरे भागका नाम कर्मकाण्ड है । इसके दो सस्करण प्रकाशित हुए है । रायचन्द शास्त्रमाला बम्बईसे प्रकाशित सस्करणमें मूल तथा हिन्दी टीका है । और हरिभाईदेवकरण शास्त्रमालासे प्रकाशित सस्करणमें मूलके साथ सस्कृत टीका और उस संस्कृत टीकाके आधारपर ढुंढारी भाषामें लिखी हुई टीका दी गई है । उसकी गाथासख्या ९७२ है । उसमें नो अधिकार है - १ प्रकृतिसमुत्कीर्तन, २ वन्धोदयसत्त्व, ३ सत्त्वस्थानभग ४ त्रिचूलिका, ५ स्थानसमुत्कीर्तन, ६ प्रत्यय, ७ भावचूलिका ८ त्रिकरणचूलिका और ९ कर्मस्थिति
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रचना ।
१ प्रकृतिसमुत्कीर्तन
इसका अर्थ होता है आठो कर्मो और उनकी उत्तरप्रकृतियोका कथन जिसमे हो । यत कर्मकाण्डमे कर्मो और उनकी विविध अवस्थाओका कथन है अत पहले अधिकारमें यह बतलाते हुए कि जीव और कर्मका सम्वन्ध अनादि है कर्मोक आठ भेदोके नाम, उनका कार्य, उनका क्रम, उनकी उत्तरप्रकृतियोमेंसे कुछ विशेष प्रकृतियोका स्वरूप, वन्धप्रकृतियों, उदयप्रकृतियो और सत्वप्रकृतियोकी सख्यामें अन्तरका कारण, देशघाती, सर्वघाती, पुण्य और पापप्रकृतियाँ, पुद्गलविपाकी,
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४०० • जैनसाहित्यका इतिहास
क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी और जीवविपाकी प्रकृतियां, कर्ममें निक्षेपयोजना आदिका कथन ८६ गाथाओमें किया गया है ।
इस अधिकारकी गा० २२ में कर्मोके उत्तरभेदोकी संख्या दी है किन्तु आगे उन भेदोको न बतलाकर उनमें से कुछ भेदोके सम्बन्धमें विशेष बाते वतला दी है । जैसे दर्शनावरणीयकर्मके नौ भेदोमेंसे पाँच निद्राओका स्वरूप गा० २३-२४
२५ द्वारा बतलाया है । फिर गाथा २६ में मोहनीयकर्मके एक भेद मिथ्यात्वके तीन भाग कैसे होते हैं, यह बतलाया है । फिर गाथा २७ में नामकर्मके भेदोमेंसे शरीरनामकर्मके पाँच भेदोके सयोगी भेद वतलाये है । गा० २८ में अगोपाग वतलाये है । गा० २९, ३०, ३१, ३२ में किस सहननवाला जीव मरकर किस नरक और किस स्वर्ग तक जन्म लेता है, यह कथन किया है । गाया ३३ में बतलाया है कि उष्णनामकर्म और आतपनामकर्मका उदय किसके होता है । इस प्रकार आठ कर्मोकी प्रकृतियोको वतलाये बिना उनमेंसे किन्ही प्रकृतियोके सम्बन्धमें 'कुछ विशेष कथन करनेसे ग्रन्थ अधूरा सा प्रतीत होता है । कुछ वर्षो पहले इस प्रश्नको प० परमानन्दजीने उठाया था । और फिर यह भी प्रकट किया था कि कर्मप्रकृति नामक एक ग्रन्थ नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती कृत मिला है । उसपर - से कर्मकाण्डका अधूरापन दूर हो जाता है । इस कर्मप्रकृतिकी १५९ गाथाओमेंसे ७५ गाथाएँ ऐसी है जो उक्त कर्मकाण्डमें नही पाई जाती और जिन्हें यथास्थान जोड देनेसे कर्मकाण्डका सारा अधूरापन दूर होकर सबकुछ सुसम्बद्ध हो जाता है । पं० परमानन्दजीने उन छूटी हुई ७५ गाथाओको भी अपने उस लेखमें दिया था और यथास्थान उनकी योजना भी की थी । किन्तु प्रो० हीरालालजी आदि कतिपय विद्वानोने प० परमानन्दजीकी योजना तथा उनके मन्तव्यको स्वीकृत नही किया । उनका कहना था कि कर्मकाण्ड अपनेमें पूर्ण है उसमें अधूरापन नही है ।
प० श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार ने 'पुरातन जैन वाक्य सूची' की अपनी प्रस्तावना में उक्त चर्चाका विवरण देते हुए 'प० परमानन्दजीके इस मन्तव्यसे अपनी असहमति प्रकट की है कि कर्मप्रकृतिकी ७५ गाथाएँ कर्मकाण्डकी अंगभूत है ।
१ देखो - अनेकान्त वर्ष ३, कि० ४, पृ० ३०१ |
२ अनेकान्त, वर्ष ३, कि० ८-९ में 'गोम्मटसारको त्रुटिपूर्ति' शीर्षक लेख । ३ अनेकान्त, वर्ष ३, कि० ११ में 'गोमटसार कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्ति पर
विचार' शीर्षक लेख ।
पृ० ७४ आदि ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४०१ और किसी समय लेखकोकी कृपासे कर्मकाण्डसे छूट गई या उससे जुदा पड गई है । अत उन्हे कर्मकाण्डमें शामिल करके त्रुटिकी पूर्ति कर लेनी चाहिये। __उन्होने लिखा है कि कर्मप्रकृति प्रकरण और प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार इन दोनोको एक कैसे समझ लिया गया है जिसके आधारपर एकमें जो गाथाएँ अधिक है उन्हें दूसरेमें भी शामिल करनेका प्रस्ताव रक्खा है । जबकि कर्मप्रकृतिमे प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारसे ७५ गाथाएं अधिक ही नहीं, बल्कि उसकी ३५ गाथाएँ (न० ५२ से ८६ तक) कम भी है जिन्हे कर्मप्रकृतिमें शामिल करनेके लिये नही कहा गया । और इसी तरह २३ गाथाएँ कर्मकाण्डके द्वितीय अधिकारकी (गा० १२७ से १४५, १६३, १८०, १८१, १८४) तथा ग्यारह गाथाएं छठे अधिकारकी (८०० से ८१० तक) भी उसमें और अधिक पाई जाती है परन्तु प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारमें उन्हें शामिल करनेका सुझाव नही रक्खा गया। दोनोके एक होनेकी दृष्टिसे यदि एककी कमीको दूसरे से पूरा किया जाये और इस तरह प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारको उक्त ३५ गाथाओको कर्मप्रकृतिमे शामिल करानेके साथ कर्मप्रकृतिकी उक्त (२३ + ११) ३४ गाथाओको भी प्रकृति समुत्कीर्तनमें शामिल करानेके लिये कहा जाये तोxxx यह प्रस्ताव विल्कुल असगत होगा क्योंकि वे गाथाएँ प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारके साथ किसी तरह ही सगत नहीं है। वास्तवमें ये गाथाएँ प्रकृति समुत्कीर्तनसे नही, किन्तु स्थितिवन्धादिकसे सम्बन्ध रखती है।'
अत कर्मप्रकृति एक स्वतत्र ग्रन्थ ही ठहरता है जिसमें प्रकृति समुत्कीर्तनको ही नही, किन्तु प्रदेशवन्ध, स्थितिवन्ध और अनुभागवन्धके कथनोको भी अपनी रुचिके अनुसार सकलित किया गया है और उसका सकलन गोम्मटसारके निर्माणके बाद किसी समय हुआ जान पडता है। मुख्तारसाहवका यह निष्कर्ष उचित है। इसीसे उसको यहाँ उद्धृत कर दिया है। किन्तु इस तरह कर्मप्रकृतिके एक स्वतत्र ग्रन्थ मान लिये जानेपर भी कर्मकाण्डके प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारके गा०२२ से ३३ तकमें जो असवद्धता और अपर्णता प्रतीत होनेका प्रश्न है वह तो खडा ही रहता है। उसके सम्वन्धमें भी हमें मुख्तारसाहवका सुझाव मान्य प्रतीत होता है।
जिन दिनो कर्मकाण्डकी त्रुटिपूर्तिकी चर्चा चल रही थी तव स्व० प० लोक'नाथजी शास्त्रीने मूडविद्रीके सिद्धान्तमन्दिरके शास्त्र भण्डारमें, जहां धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थोकी मूलप्रतियां मौजूद है, गोम्मटमारकी खोज की थी और अपने खोजके परिणामने मुख्तारमाहवको सूचित किया था। उन्होने सूचित किया था कि उक्त गाम्न भण्डारम गोम्मटसारके जीवकाण्डकी मूलप्रति त्रिलोकमार और लब्धिमार क्षपणामार सहित ताडपनोपर मौजूद है। पन मस्या जीवकाण्डकी
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४०२ • जैनसाहित्यका इतिहास
३८, कर्मकाण्डकी ५३, त्रिलोकसारकी ५१ ओर लब्धिसार-क्षपणासारकी ४१ है | ये सब ग्रन्थ पूर्ण है । और उनकी पद्यसख्या क्रमश. ७३०, ८७३, १०१८ और ८२० है । ताडपत्रोकी लम्बाई दो फुट दो इच ओर चोडाई दो इच है । लिपि प्राचीन कन्नड है ।
ये तो हुआ प्रतियोके सम्वन्धमें । प्रकृत चर्चाके सम्बन्धमें शास्त्रीजीने लिखा था -- कि कर्मकाण्डमे विवादस्थ स्थल प्रतिमें सूत्र रूपमे है । ओर मुस्तारसाहबको उसका विवरण भी भेजा था। मुख्तारसाहबने पुरातन वाक्यसूचीकी अपनी प्रस्तावनामे उस विवरणके आधारपर जो कुछ लिखा है उसे हम यहाँ दे देना उचित समझते है
'कर्मकाण्डकी २२वी गाथामें ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियोकी उत्तर कर्मप्रकृतियोकी सख्याका ही क्रमश निर्देश है— उत्तरप्रकृतियोके नामादि नही दिये । २३वी गाथामें क्रम प्राप्त ज्ञानावरणकी ५ प्रकृतियोका कोई उल्लेख न करके दर्शनावरणकी नो प्रकृतियोंमेंसे स्त्यानगृद्धि आदि पाँच प्रकृतियोंके कार्यका निर्देश करना प्रारम्भ कर दिया है । इन २२ और २३ गाथाओके वीचमें निम्न गद्यसूत्र पाये जाते हैं जिनमे ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय कर्मोकी उत्तरप्रकृतियोका स्पष्ट उल्लेख है और जिनसे दोनो गाथाओका सम्वन्ध ठीक जुड जाता है -
'णाणावरणीय दसणावरणीयं वेदणीय (मोहणीय) आउग णाम गोद अतराय चेइ । तत्य णाणावरणीय पचविह आभिणिवोहिय-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणावरणीय केवलणाणावरणीयं चेइ । दंसणावरणीय नवविहं थोणगिद्धि, णिद्दाणिद्दा, पयलापयला, णिद्दा य पयला य चक्खु अचक्खु - ओहि दसणावरणीय केवलदसणावरणीयं चेइ ।'
२५वी गाथामें दर्शनावरणीय कर्मकी नौ प्रकृतियोमेंसे प्रचला प्रकृतिके कार्यका निर्देश है। इसके बाद क्रमप्राप्त वेदनीय तथा मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियोका कोई निर्देश न करके २६वी गाथामें एकदम यह प्रतिपादन किया है कि मिथ्यात्व - का द्रव्य तीन भागोमे वँटकर कैसे तीन प्रकृति रूप हो जाता है । मूडविद्रीकी उक्त प्राचीन प्रतिमें दोनो उक्त गाथाओके मध्यमें निम्न गद्यसूत्र है जिनसे उक्त त्रुटि अशकी पूर्ति हो जाती है
' वेदनीय दुविह सादावेदणीयमसादावेदणीय चेइ । मोहणीय दुविह दसणमोहणीय चारित्तमोहणीय चेइ । दसणमोहणीय बधादो एयविह मिच्छत्त, उदय सत पडुच्च तिविह मिच्छत्त सम्मामिच्छत्त सम्मत्तं चेइ ।'
२६वी गाथाके बाद चारित्र मोहनीयकी मूलोत्तर प्रकृतियो, आयुकर्मकी प्रकृ
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४०३ तियो और नामकर्मकी प्रकृतियोंका कोई नामनिर्देश न करके २७वी गाथामें एकदम १५ सयोगी भेदोको गिनाया है जो नामकर्मकी शरीरवन्धन प्रकृतियोसे सम्बन्ध रखते है, परन्तु वह कर्म कौन-सा है और उसकी किन-किन प्रकृतियोंके ये सयोगी भेद है यह सव ज्ञान नहीं होता । मूडविद्रीकी उक्त प्रतिमें निम्न गद्य सूत्र उक्त दोनो गाथाओके बीचमे पाये जाते है। जिनसे कथनकी सगति बैठ जाती है क्योकि उनमें चारित्र मोहनीयकी २८, आयुकी ४ और नामकर्मकी ४२ पिण्ड प्रकृतियोका नामोल्लेख करनेके अनन्तर नामकर्मके जाति आदि भेदोकी उत्तर प्रकृतियोका उल्लेख करते हुए शरीर बन्धन नामकर्मकी पाँच प्रकृतियो तक ही कथन किया गया है, इससे गाथा न० २७ के साथ उसकी सगति विल्कुल ठीक बैठती है
"चारित्त मोहणीय दुविह कसायवेदणीय णोकसायवेदणीय चेइ। कसायवेदणीय सोलसविह खवण पडुच्च अणताणुवधि कोह-माण-माया-लोह अपच्चक्खाण पच्चक्खाणावरण कोह-माण-माया-लोह कोहसजलण माणसंजलणं मायासंजलण लोहसजलण चेइ । 'पक्कमदव्व पडुच्च अणताणुबधि-लोह-कोह-माया-माण सजलण लोह-माया कोह-माण पच्चक्खाण लोह-कोह-माया-माण अपच्चक्खाण लोह-कोहमाया-माण चेइ । णोकसाय वेदणीय णवविह पुरसित्थिणउसयवेद रदि-अरदिहस्स-सोग-भय-दुगुच्छा चेदि । आउग चउविह णिरयाउगं तिरिक्ख-माणुस्स-देवाउग चेदि । णाम वादालीस पिंडापिंडपयडिभेयेण गयि-जायि-सरीर-बधण-सघादसठाण-अगोवग-सघडण-वण्ण-गध-रस-फास-आणुपुवी - अगुरुलहुगुवघाद - परघादउस्सास-आदाव-उज्जोद - विहायगयि-तस-थावर-वादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-पत्तेयसाहारणसरीर-थिराथिर-सुभासुभ-सुभग-दुब्भग-सुस्सर-दुस्सर-आदेज्जाणादेज्ज-जसाजसकित्ति-णिमिण-तित्थयरणाम चेदि । तत्थ गयिणाम चउन्विह णिरयतिरिक्खगयिणाम मणुसदेवगयिणाम चेदि । जायिणाम पचविह एइंदिय-विइदिय-तीइदियचउइदियजायिणाम पचिंदिय जायिणाम चेदि। सरीरणाम पचविह ओरालिय-वेगुविय-आहार-तेज-कम्मइयसरीरणाम चेइ । सरीरबधणणाम पचविह ओरालियवेगुन्विय-आहार-तेज-कम्मइय-सरीरबधणणाम चेइ । १ गो० कर्मकाण्डकी सस्कृत टीकामें इन सूत्रोका अक्षरश संस्कृत रूपान्तर
मिलता है। उससे मिलान करनेसे तथा सैद्धान्तिक दृष्टिसे भी सूत्रका पाठ अशुद्ध प्रतीत होता है । टीकाका सस्कृत पाठ इस प्रकार है-'प्रक्रमद्रव्य विभजनद्रव्य प्रतीत्य अनन्तानुवधि लोभ माया क्रोध मानं सज्वलनलोभमाया क्रोधमान प्रत्याख्यानलोभमायाक्रोधमान अप्रत्याख्यानलोभमाया क्रोधमान चेति ।
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४०४ • जैनसाहित्यका इतिहास
सूत्रके अन्तमें आगत शरीरबन्धन नामकर्मके पांच भेदोके १५ सयोगी भेद गाथा २७में बतलाये है । गाथा २८में शरीरके आठ अग वतलाये है । मूडविद्रीकी प्राचीन प्रतिमें गा० २७ और २८के बीचमे नीचे लिखे गद्य सूत्र है
'शरीरसघादणाम पचविह ओरालिय-वेगुन्विय-आहार-तेज-कम्मइयगरीरसघाद णाम चेदि । शरीरसंठाणणामकम्मं छविहं समचउरसठाणणामं णग्गोदपरिमडल-सादिय-कुज्ज-बामण हुडशरीरसठाणणामं चेदि। मरीरअंगोवगणाम तिविह ओरालिय-वेगुन्विय-आहार-सरीरअगोवग णाम चेदि ।
२८वी गाथाके बाद नीचे लिखा गद्य सूत्र है
'सहडणणाम छविह वज्जरिसहणारायसहडणणाम वज्जणाराय-णारायअद्धणाराय-खीलिय-असपत्तसेवद्विशरीरसहडणणाम चेइ।'
२८वी गाथाके अनन्तर चार गाथाओमें छ सहननोका कथन है । जिनमेंसे प्रथम तीन गाथाओमें यह बतलाया है कि किस सहनन वाला जीव मरकर किस स्वर्ग तक अथवा किस नरक तक जन्म लेता है। और चौथी गाथामे वतलाया है कि कर्मभूमिकी स्त्रियों के अन्तके तीन सहननोका ही उदय होता है ।
उक्त सूत्रके साथ इन गाथाओकी सगति बैठ जाती है। गाथा ३२के वाद नीचे लिखे गद्यसूत्र मूडविद्री की प्रति में है
'वण्णनाम पचविह किण्ण-नील-रुहिर-पीद-सुक्किलवण्णणाम चेदि । गधणामदुविहं सुगध-दुगध णाम चेदि । रसणाम पचविहं तिट्ठ-कडु-कसायविल-महुर-रसणाम चेइ। फासणाम अट्टविह कवकड-मउगगुरुलहुग-रुक्ख-सणिद्ध-सीदुसुण-फासणाम चेदि । आणुपुन्वी णाम चउन्विहं णिरय-तिरक्खगाय-पाओग्गाणुपुन्वीणामं मणुस-देवगयि-पाओग्गाणुपुन्वी-णाम चेइ। अगुरुलघुग-उवधाद-परघाद-उस्सासआदव-उज्जोद-णाम चेदि । विहायगदिणाम कम्म दुविह पसत्यविहायगदिणाम अप्पसत्थ-विहायगदिणाम चेदि। तस-वादर-पज्जत्त-पत्तेयसरीर-सुभ-सुभग-सुस्सरआदेज्ज-जसकित्ति-णिमिण-तित्ययरणाम चेदि । थावर-सुहुम-अपज्जत्त-साहारणसरीरअथिर-असुह-दुभग-दुस्सर-अणादेज्ज-अजसकिति णाम चेदि ।
इसके पश्चात् गाथा ३३ है जिसमें उष्ण नामकर्म और आतप नामकर्ममें अन्तर स्पष्ट किया है । गाथा ३३ के साथ नामकर्मकी प्रकृतियोकी गणना समाप्त हो जाती है । ३३ गाथाके पश्चात् नीचे लिखे सूत्र है। जिनमें गोत्रकर्म और अन्तराय कर्मकी प्रकृतियाँ बतलाई है___ 'गोदकम्म दुविह उच्चणीचगोद चेइ । अतराय पंचविह दाण-लाभ-भोगोपभोग-चीरिय-अंतराय चेइ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४०५ मूउविद्री प्रतिमे पाये जाने वाले उन मूनोको यथारथान ग्स देनेमे कर्मकाण्ड गा० २२ मे ३३ तामे जो अगम्बद्धता प्रतीत होती है वह दूर हो जाती है और राव गाथाएं सुरागत प्रतीत होने लगती है ।
दि० प्रा० पञ्चराग्रहके दूसरे अधिकारका नाम भी प्रकृति गमुत्कीर्तन है। उसके प्रारम्भमें चार गाथाएँ है । पहली मगल गाथाको छोटकर गेप तीनी गायाएं कर्मकाण्डम २०, २१, २२ नम्बरको लिये हुए विराजमान है। २२वी गायामें आचार्य नेमिचन्द्रने थोडा-सा परिवर्तन कर दिया है। नाम कर्मकी ९३ या १०३ प्रकृतिया लिपकर उन्होने कर्म पठतिमें निर्दिष्ट १५८ कर्म प्रकृतियोकी मान्यताका भी मग्रह किया है।
पञ्चगग्रहमें आठो कर्मोकी प्रकृतियोकी मख्या वतलाने वाली गायाके पश्चात् प्रकृतियोके नामादिका कयन गद्य मूत्री द्वारा ही किया गया है। उमी पद्धतिका अनुसरण नेमिचन्द्राचार्यने भी किया था, ऐमा मूढविडीको कर्मकाण्डकी प्रतिमे प्रतीत होता है। पञ्चसग्रहमे गय सूत्रोके द्वारा क्रमम सब प्रकृतियोका निर्देग किया है। कर्मकाण्डमे बीच बीचमे गाथासून देकर प्रकृतियोके सम्बन्धमे आवश्यक उपयोगी कथनोका भी मग्रह किया गया है।
जीव स्थानकी चूलिकाके अन्तर्गत भी प्रकृति समुत्कीर्तन नामक अधिकार है। पञ्चसग्रहका प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार उसीकी उपज है। और इन्हीकी उपज कर्मकाण्डका प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकार है। उसमें जो गद्यसूत्र है वे उक्त ग्रन्योंके अन्तर्गत गद्यसूत्रोका ही सक्षिप्त रूप है। उनमें जो कही अन्तर किया गया है वह कर्मकाण्डकी दृष्टिसे ही किया गया है ।। ___ उल्लेखनीय अन्तर दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियोके क्रममें है । जी० स्था० चूलिका तथा पञ्चमग्रहमें निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा और प्रचला यह पांच निद्राओका क्रम है और कर्मकाण्डगत गद्य सूत्रमें, जो कि मूडविद्रीकी प्राचीन प्रतिमे उपलब्ध है-स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा, प्रचला प्रचला, निद्रा और प्रचला यह क्रम है। उक्त क्रमको बदलनेका कारण यह है कि कर्मकाण्डमें प्रदेशवन्धके कथनमे समय प्रवद्धका विभाग आठो मूलकर्मोमें तथा उनकी उत्तर प्रकृतियोमें बतलाया है। दर्शनावरणीय कर्मकी उत्तरप्रकृतियोमें जिस क्रमसे बँटवारा होता है वही क्रम कर्मकाण्डके गद्यसूत्रमें अपनाया गया है। यह वात चारित्र मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियोको वतलाने वाले गद्यसूत्रोसे समर्थित होती है। मूडविद्रीवाली प्रतिसे ऊपर चारित्रमोहनीय सम्वन्धी जो गद्यसूत्र दिये गये है उनमें कषायवेदनीयके सोलह भेदोको दो अपेक्षाओसे गिनाया गया है-एक क्षपणकी अपेक्षा से और एक प्रक्रम द्रव्यकी अपेक्षासे । प्रक्रम द्रव्यका अर्थ ५० टोडरमलजी ने
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४०६ : जेनसाहित्यका इतिहाग
अपनी टीका जिया-बरि प्रदेश ननागिरी परमाणनि टयाग: तागी अपेक्षा गहिये।' आपणासी गंगा तो जो प्रगिन का यही : रिन्नु उँटयारेगी अपना क्रम मिप जंगा गिगे काागा ____अत' गनिमी की प्रनिग वनगान गणना अवरही कर्म को अगर जोर
नेमिनन्द्रानाशी नि की महित गंग टीका ग गोमा ससात स्पान्तर गरम पाया जाना भी नष्ट गरना । उग को गया गान गनेगे म हिपति की जानी।। २ घन्मोत्यमायाधिकार
इम अधिकाग्मं मना और गरमा गगन f० पा० परसंगरमें भी ग नागगा तोगरा गिर: जो लागी। उगी प्रया गागाका जरा-'यस्यमागग पीमिग निजागर । नेगिगन्द्रागागने अपने नाममा अनुगा उसमे परिपतंग करणे उगेग प्रचार सा है-यस्वगत गरा आगा । गंता गा पागामे तबला अर्थ नहीं किया I
निशिगी दूरी गाया में उनका अर्थ कहा है-'जिनमे गाल गोm frतार गा गटोगगे गगन हो जग भारतको स्तव नाहते है। जिगमे गा गितार या गंगगे पपन हो उने स्तुति कहते है और निगम अगो आमाका गान विग्तार गा गपने हो उगे धर्गकया गहते हैं'। यह लक्षण गवला आधार पर रनित है । वेदना राण के कति अनुयोग सारके गुर ५५ 'यय-युधि-भाग पहा' आया है। धवला'में उसके लक्षण कहे है । उनीपरमे नेमिनमानार्गने एक गायाके वाग तीनो लक्षणोको कहा है। ___ स्तवके लक्षणके अनुगार कर्मकाण्ठन दूगरे अधिकाग्में कर्मोके वन्ध, उदय सत्त्वका गुणस्थान और मार्गणाओगे सर्वांगपूर्ण कथन दिया गया है। ऐसा समझना चाहिये।
सबसे प्रथम बन्धका कथन करते हुए बन्यो चारो भेदोका-प्रकृतिवन्ध, स्थिति बन्ध, अनुभागवन्ध और प्रदेशवन्धका, क्रमश कथन किया गया है। प्रकृति
१ 'सयलगेक्कगेक्कगहियार सवित्थर ससरोव । वणणसत्य थयथुइ-धम्मकहा
होड णियमेण ।।८८-क० का० । २ वारसगसधारो सयलगविसयप्पणादो थवो णाम । वारसगेसु एक्कगोवसघारो थुदोणा म। एक्कगस्स एगाहियारोवसहारो धम्मकहा।'
-पट्स०, पु० ९, पृ० २६३ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४०७ वन्धका कथन करते हुए प्रथम यह बतलाया है कि किन २ कर्म प्रकृतियोका वन्ध किस किस गुणस्थान तक होता है, आगे नहीं होता। यह कथन पञ्चसंग्रहम भी है । गुणस्थानोमें आठो कर्मोकी १२० वन्ध प्रकृतियोके बन्ध, अवन्ध और वन्ध व्युच्छित्तिका कथन करनेके वाद चौदह मार्गणाओम वही कथन किया गया है। यह कथन पचसग्रहमे नही है। इसे नेमिचन्द्राचार्यने पट्खण्डागमके वन्ध स्वामित्व विचय नामक तीसरे खण्डसे लिया है।
प्रकृतिवन्धके पश्चात् स्थितिवन्धका कथन है । उसमे कर्मोकी मूल तथा उत्तरप्रकृतियोकी उत्कृप्ट और जघन्यस्थितिवन्धका तथा उनके बन्धकोका कथन किया है। पचसग्रहके चतुर्थ अधिकारमें जो स्थितिबन्धका कथन है उससे कर्मकाण्डके कथनमें कई विशेपताएं है । कर्मकाण्ड में एकेन्द्रियादि जीवोके होनेवाले स्थितिवन्धका भी कथन किया है, जो जीवस्थानकी जघन्यस्थिति चूलिकाको धवलाटीका का ऋणी है । अन्तमें कर्मोकी आवाधाका कथन है।
तत्पश्चात् अनुभागवन्धका और फिर प्रदेशवन्धका कथन है। ये कयन पञ्चसग्रहके ऋणी है। किन्तु कुछ कथन उससे विशेष भी है। प्रदेशवन्धका कथन करते हुए प० स० में तो समयप्रवद्धका विभाग केवल मूलकर्मोमें ही बतलाया है किन्तु कर्मकाण्डमें उत्तरप्रकृतियोमें भी विभागका कथन किया है । तथा कर्मकाण्डमें प्रदेशवन्धके कारणभूत योगके भेदो और अवयवोका भी कथन है। यह कथन पंचसग्रहमें नही है, धवला और जयधवलामें है। इस वन्धप्रकरणमें पञ्चसग्रहकी कई गाथाएँ ज्योकी त्यो संगृहीत है । उदयप्रकरणमें कोक उदय और उदीरणका कथन गुणस्थान और मार्गणाओमें है अर्थात् प्रत्येक गुणस्थान और मार्गणामें प्रकृतियोके उदय, अनुदय और उदय व्युच्छित्तिका कथन है । सत्त्व प्रकरणमें गुणस्थान और मार्गणाओमें प्रकृतियोकी सत्ता, असत्ता और सत्त्व व्युच्छितिका कथन है। मार्गणामोमें वन्ध उदय और सत्त्व का कथन अन्यत्र नहीं मिलता। नेमिचन्द्राचार्यने प्राप्त उल्लेखोके आधारपर उसे स्वय फलित करके लिखा है। यह वात उदय और सत्त्वकी अन्तिम गाथाके द्वारा ग्रन्थकार नेमिचन्द्रने स्वय भी कही है। ३ सत्त्व स्थान भग
पिछले प्रकरणमें कहे गये सत्त्व स्थानका भगोके साथ कथन इस प्रकरणमें १ गा० १४४-१४५ । २-पट्ख० पु०६, पृ० १८४ तथा १९५ । ३ 'कम्मेवाणाहारे पयडीणं उदयमेवमादेसे । कहियमिण बलमाहवचदच्चिय
णेमिचदेण ॥३३२॥ कम्मेवाणाहारे पयडीण सत्तमेवमादेसे । कहियमिणं वलमाहवचंदच्चियणेमिचदेण ॥३५६॥-क०-का० ।।
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४०८ · जेनसाहित्यका इतिहास
है । प्रत्येक गुणस्थानमे प्रकृतियांका रात्त्व स्थान कितने प्रकार गंभव है, और उसके गाय जीव किंग आयुकी भोगता है और परवीन २ आयुको वाता है | यह सब कथन इस प्रकरण है ।
उगी प्रकरणके अन्तगं ग्रन्थकारने यह कहा है कि मन्त्रि गुरुके पाग श्रवण करके कनकनन्दिने मत्व स्थानका कथन किया । कननन्दिके 'विस्तरसत्त्व freगी' नामक ग्रन्थका परिचय पीछे करा आगे है । उसे नेमिचन्द्राचार्यने अपने इस प्रकरणमे प्राय. ज्योका त्यो अपना लिया है। आपकी प्रतिमं गाया ग० ८८ है और कर्मकाण्ड मुक्ति मस्करण प्रकरणको गाया गया ३५८ ने ३९७ तक ४० है । अत केवल ८ गायाएं छोड़ दी गई है और उनमें क्रमभेद भी किया गया है । जिन गाथा ३९७ में चकी तरह गिद्धान्त छ गण्डीको अपनी बुद्धि साधने की बात कही गई है वह गाया भी कनानन्दिके विस्तार रात्त्व निभगीकी है । अत नेमिचन्दकी तरह मनकनन्दि भी सिद्धान्त नक्रनर्ती थे । ४ विचूलिका अधिकार
इस अधिकार तीन मूलिकाएँ है-नव प्रश्न चूलिका, पचभागद्दार चूलिका भर दमकरण लिया । जैसे जीवस्थानके विषम स्वलोके विवरणके लिये उसके अन्तमे चूलिका नामक एक भाग आता है येने ही कर्मकाण्ड प्रतिपादित पूर्वाविकारोके सम्बन्ध विशेष कथन करनेके लिये यह अधिकार आया है । पहली नौ प्रश्न नृलिकामं नौ प्रदनांका समाधान किया गया है। वे नो प्रश्न इस प्रकार है ? उदयव्युच्छित्तिके पहले बन्धकी व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोकी होती है । २ उदय व्युच्छित्तिके पीछे बन्धको व्युच्छित्ति किन प्रकृतियोकी होती है । २ और उदय व्युच्छित्तिके साथ बन्धकी व्युच्छित्ति किन प्रकृतियांकी होती है । ४ जिनका अपना उदय होनेपर बन्ध हो ऐसी प्रकृतियां कौनसी है । ५ जिनका अन्य प्रकृतिका उदय होनेपर बन्ध हो ऐमी प्रकृतिया कोन सी है । ६ ओर जिनका अपना तथा अन्य प्रकृतिका उदय होनेपर बन्ध हो, वे प्रकृतियो कोनसी है । ७ जिनका निरन्तर वध होता है ऐसी प्रकृतियां कौनसी है । ८ जिनका सान्तरवन्ध होता है अर्थात् कभी वन्ध होता है और कभी नही होता, वे प्रकृतियाँ कोनसी है ९ और जिनका निरन्तर बन्ध भी होता है और सान्तरवन्ध भी होता है वे प्रकृतियाँ कोनसी है ? इन नौ प्रश्नोका उत्तर इस चूलिकामें दिया गया है । प्रा० प० स० के तीसरे अधिकारके अन्तमें नो प्रश्न चूलिका आई है तथा पट्खण्डागम के अन्तर्गत वन्वस्वामित्वविचय नामक तीसरे खण्डकी
१
क० का०, गा० ४९६ । २ पट्ख० पु० ८, पृ० ७---
- १७ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४०९ धवलाके प्रारम्भमें ये नौ प्रश्न उठाकर उनका समाधान किया गया है और उसके समर्थनमें कुछ आप गाथाएँ भी उद्धृत की गयी है। इन्हीके आधारसे यह नौ प्रश्न चूलिका लिया गया प्रतीत होता है।
पच भाग हार चूलिकामें उद्वेलन, विध्यात, अध प्रवृत्त, गुणसक्रम और सर्वसक्रम इन पांच भागहारोका कथन है । इन भागहारोके द्वारा जीवोके शुभाशुभकर्म अपने परिणामोके निमित्तसे अन्य प्रकृतिरूप परिणमन करते है। जैसे शुभ परिणामोका निमित्त पाकर बधा हुआ असातावेदनीयकर्म सातावेदनीय रूप परिणत हो जाता है। किस-किस कर्मप्रकृतिमे कौन-कौन भागहार सम्भव है और किस-किस भागहारके अन्तर्गत कौन-कौन प्रकृतियाँ है यह सव भी कथन किया गया है । साथ ही चूंकि पाँचो भागहार एक भाजक राशिके तुल्य है अत उनका परस्परमें अल्पबहुत्व भी बतलाया गया है । यह सव कथन पञ्चसग्रहमें नहीं है।
दशकरण चूलिका-इसमें वन्ध, उत्कर्पण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा, सत्ता, उदय, उपसम, निधत्ति और निकाचना इन दस करणोका स्वरूप कहा गया गया है और बतलाया गया है कि कौन करण किस गुणस्थान तक होता है। करण नाम क्रिया का है-कर्मोमें ये दस क्रियाएँ होती है । कर्मप्रकृतिमें इन करणोका स्वरूप बहुत विस्तारसे वर्णित है। 'जयधवलामें 'दसकरणी सग्रह' नामक एक ग्रन्थका निर्देश है उसमें भी, जैसा कि उसके नामसे प्रकट होता है, दस करणोके कथनका सग्रह होना चाहिए । ५. वन्धोदय सत्त्व युक्त स्थान समुत्कीर्तन
एक जीवके एक समयमें जितनी प्रकृतियोंका वन्ध, उदय अथवा सत्त्व सभव है उनके समूहका नाम स्थान है। इस अधिकारमें पहले आठो मूलकर्मोको लेकर
और फिर प्रत्येक कर्मकी उत्तर प्रकृतियोको लेकर बन्धस्थानो, उदयस्थानो और सत्त्व स्थानोका कथन किया गया है। जैसे मूलकर्मोका कथन करते हुए कहा है कि तीसरे मिश्रगुणस्थानके सिवाय अप्रमत्त पर्यन्त छै गुणस्थानोमें एक जीवके आयुकर्मके विना सातकर्मोका अथवा आयु सहित आठ कर्मोका बन्ध होता है, तीसरे, आठवें और नौवें, इन तीन गुणस्थानोमें आयुके विना सात कर्मोका ही बन्ध होता है। दसवें गुणस्थानमें आयु और मोहनीयके सिवाय छ ही कर्मोका वन्ध होता है। ग्यारहवें आदि तीन गुणस्थानोमें एक वेदनीय कर्मका ही बन्ध होता है, और चौदहवें गुणस्थानमें एक भी कर्मका बन्ध नहीं होता । अत आठो कर्मोके चार बन्धस्थान होते है-आठ प्रकृतिक, सात प्रकृतिक, छै प्रकृतिक और एक प्रकृतिक । १ ज०० प्रे०का०, पृ० ६६०० ।
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४१० · जेनसाहित्यका इतिहास
इसी तरह दसवें गुणस्थान तक आठो कर्मीका उदय होता है, ग्यारहवें और वारहवें गुणस्थानमें मोहनीयके विना सातकर्माका उदय होता है । तथा तेरहवें और चौदहवे गुणस्थानमे चार ही कर्माका उदय होता है । अत आठ कर्मोके तीन उदयस्थान होते है-आठ प्रकृतिक, मात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक ।
ग्यारहवे गुणस्थान तक आठो प्रकृतियोकी गत्ता रहती है, वारहवें गुणम्यानमे मोहनीयके बिना सात कर्मोंकी ही गत्ता रहती है और तेरहवें तथा चौदहवे गुणस्थानमें चार कर्मो की ही सत्ता रहती है । अत आठो कर्मोक तीन मत्त्वस्थान -आठ प्रकृतिक, गात प्रकृतिक और चार प्रकृतिक ।
इसी तरहका कथन प्रत्येक कर्मके विषयमें भी किया गया है । आठो कर्मोमेंरो वेदनीय, आयु और गोत्रकर्मकी उत्तर प्रकृतियोंमेने एक जीवके एक समयमे एक ही प्रकृतिका बन्ध होता है और एकका ही उदय होता है । ज्ञानावरण और अन्तरायकी पांचो प्रकृतियांका एकगाथ बन्ध, उदय और सत्त्व होनेसे स्थान एक ही है । अत इन पांच कर्मो को छोड़कर दर्शनावरण, मोहनीय और नामकर्मके वन्धस्थानो, उदयस्थानी और सत्त्वम्थानोका कथन बहुत विस्तार किया गया है । प्रत्येकका कथन करनेके बाद निमयोगी भगोका कथन है अर्थात् वन्धमे उदय और सत्त्व, उदयमें वन्ध और सत्त्व और सत्त्वमें बन्ध और उदयका कथन किया गया है । फिर बन्धादिमेंसे दोको आधार और एकको आधेय बनाकर कथन किया गया है । प्रा०दि० पञ्चसग्रहके अन्तर्गत शतक तथा सप्ततिका नामक अधिकारमें भी उक्त कथन है और कर्मकाण्डका उक्त कथन उसका ऋणी जान पडता है । कुछ गाथाएँ भी दोनोमे मिलती हुई है । 'कथनमें कुछ भेद भी है। जिसका कारण विवक्षा भेदके साथ मतभेद भी है, वह मतभेद परम्परामूलक है । इस प्रकरणमें आठो कर्मोके विपयमें प्रसगवश आगत कर्मविषयक और भी बहुत सा ज्ञातव्य विषय है । यह अधिकार बहुत विस्तृत है इसकी गाथा संख्या ३३४ है । ६ प्रत्ययाधिकार
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इस अधिकारमें कर्मबन्धके कारणोका कथन है । मूल कारण चार हैमिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग । तथा इनके भेद क्रमसे ५, १२, २५, और १५ = कुल ५७ होते हैं । गुणस्थानोमें इन्ही मूल और उत्तर प्रत्ययोका कथन इस अधिकार मे किया गया है कि किस गुणस्थानमें वन्धके कितने प्रत्यय होते है । और उनके भङ्गोका भी निर्देश किया है । प्रा० पंञ्चसग्रहके शतका
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इस भेदको जाननेके लिए सप्ततिका प्रकरणका प० फूलचन्द्रजी कृत अनुवाद ( पृ० १०३) देखना चाहिए ।
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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य ४११
धिकारके प्रारम्भ में यह कथन बहुत विस्तारसे किया गया है । यहाँ तो उसको वहुत सक्षिप्त कर दिया है ।
इन प्रत्ययोके पश्चात् कर्मकाण्डके इस अधिकारमें प्रत्येक कर्मके विशेष कारण ११ गाथाओ द्वारा वतलाये है । ये गाथाएँ वही है जो शतक प्रकरणमे वर्तमान है ओर दि० प्रा० पञ्चसग्रहके शतक प्रकरणसे ली गई जान पडती हैं । ७. भावचूलिका
इस अधिकारमें औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक, और पारिणामिक इन पाँच भावोका तथा इनके भेदोका कथन करके उनके स्वसयोगी भगोका कथन गुणस्थानो मे किया गया है ।
उसके पश्चात् जैन परम्पराकी वह प्राचीन गाथा दी गई है जिसमें कहा है कि क्रियावादियो के १८०, अक्रियावादियोके ८४, अज्ञानवादियोके ६७ और वैनयिको ३२ इस तरह ३६३ मिथ्यामत है ।
उस गाथाको देकर आगे उन मतोकी उपपत्ति दी है कि किस तरह क्रियावादी आदि मत १८० आदि होते है । वे सूत्रकृताग के प्रथम श्रुत स्कन्ध अध्ययन १२ में भी मतोकी चर्चा मिलती है । और उसकी टीकामें शीलाकने उनकी उपपत्ति भी दी है किन्तु कर्मकाण्डको उपपत्तिसे उसमें अन्तर है । तथा अमितगतिके संस्कृत पञ्चसग्रहमें ( पृ० ४१ आदि) भी उपपत्ति मिलती है जो कर्मकाण्डके ही अनुरूप है । अस्तु,
अन्तमें एक गाथाके द्वारा जो सन्मतितर्क (का० ३, गा० ४७) में भी वर्त - मान है, कहा गया है कि 'जितने वचनके मार्ग है उतने ही नयवाद है और जितने नयवाद है उतने ही परसमय है । अर्थात् सव नयोके समूहका नाम ही
जैनदर्शन है ।
८ त्रिकरणचूलिका
इस अधिकारमें अध करण और अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन तीन करणोका स्वरूप कहा गया है । जीवकाण्डके प्रारम्भमें भी गुणस्थानोके प्रकरण में इन करणोका स्वरूप कहा गया है और तीनो करणका स्वरूप बतलाने वाली
१ देखो - कर्मकाण्ड गा० ८००-८१० और शतक गा० १६-२६ । २ असिदिसद किरियाण अक्किरियाणा च आहु चुलसीदी | सत्तट्ठण्णाणीण वेणयियाण तु वत्ती ॥८७६ ॥
३ 'जावइया वयणवहा तावदिया चेव होति णयवादा | जावदिया गयवादा तावदिया चेव होति परसमया ॥ ८९४ || गो० क० का० ।
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४१२ : जेनमाहित्यका इतिहास गाथा भी जीवकाण्डकी ही है। इस अधिकारी विगेपता यह है कि उगम पहले दोनो करणोग स्वस्गको अगगदृष्टिो नारा गमाया गया है। ९ कर्मस्थितिरनना अधिकार
प्रतिगगग बपनेवाले कर्मपरमाणुओका आठो कोम विभजन होनो पश्चात् प्रत्येक कर्मप्रतिको प्राप्त कर्मनिपेकोकी रगना उगकी रिगतिी अनुसार आवायाकालको छोड़कर हो जाती है अनि बन्नको प्राप्त हुए ये कगपरमाणु उदयकाल आने पर गिरने प्रारम्भ हो जाते है और अन्तिम रियति पर्यन्त गिरते रहते है। उनकी रचनाको ही नर्मस्थिति रनना कहते है उगीका कथन इस अधिकारमें है। वन्धोदय मन्वाधिकार नागा दूगर अधिकारको अन्तर्गत स्थितिवन्धाधिकारके अन्तमें भी यह कयन आया है। फलत गावा न० ९१४ मे १२१ ता जो गाया है वे मर गानाएं उग अभिग्गे आती है और वहाँ उमका नम्बर १५५ से १६२ तक है । किन्तु यहाँ यही गगन विस्तार किया है। अन्त में प्रगस्ति है ।
सपमे यह कर्म काण्डका परिचय है। लब्धिसार-क्षपणामार
लब्धिसार-गोम्मटगार अनिरिकन नानपिनन्द्रानार्गको दूमरी कृति लन्धिसार है । यह गाथा बद्ध है । इसके भी दो गकरण प्रागित हुए है, एक रायवद गास माला बम्बई गे। इसमे मूल तथा १० मनोहरलालजी द्वारा रचित सक्षिप्त हिन्दी टीका है, जिसमें गायाका अर्थमा दिया गया है। इसमे गाथाओकी सख्या ६४९ है । दूगरा सम्करण हरिभाई देवकरण ग्रन्य मालामे प्रकाशित हुआ है, गास्नाकार है । इसमें लभिसार पर नेमिनन्द्र रचित मस्कृत टीका और प० टोडरमलजी रचित ढुढारी भापाकी टीका है। तया क्षपणासार पर केवल प० टोडरमलजी रचित भापा टीका ही है। इगकी गाथा सस्या ६५३ है । इस अन्तरका कारण यह है कि दूसरे सस्करणकी गाथा न० १५६, १६७, २५४, ५३१ चार गाथाएँ पहले सस्करणमे नही है । ____ यह लब्धिसार क्षपणासार गोम्मटसारका ही उत्तर भाग समझना चाहिये । गोम्मटसारके जीवकाण्डमें जीवका और कर्मकाण्डमे जीवके द्वारा वांधे जाने वाले कर्मोका कथन है और इस लब्धिसारमें जीवके कर्मवन्धनसे मुक्त होनेका उपाय तथा प्रक्रिया बतलाई गई है।
मोक्षकी पात्रता जीवमें सम्यक्त्वकी प्राप्ति होने पर ही मानी जाती है क्योकि सम्यग्दृष्टि जीव ही मोक्ष प्राप्त करता है। तथा सम्यग्दर्शन होनेके पश्चात् सम्यक् चारित्रका भी होना जरूरी है। अत सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्रकी
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४१३ लब्धि अर्थात् प्राप्तिका कथन होनेसे ग्रन्थका नाम लब्धिसार' रखा गया है । इसकी प्रथम गाथामें पच परमेष्ठीको नमस्कार करके सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र लब्धिको कहनेकी प्रतिज्ञा ग्रन्थकारने की है। ___ सर्वप्रथम सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका कथन है। उसकी प्राप्ति पाँच लब्धियोके होने पर ही होती है। वे पाँच लब्धिया है-क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करणलब्धि । इनमेंसे आरम्भकी चार लब्धियाँ तो सर्वसाधारणके होती रहती है किन्तु करणलब्धिके होने पर ही सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। इन लब्धियोका स्वरूप ग्रन्थके प्रारम्भमें दिया गया है। अध करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करणका स्वरूप गोम्मटसारमें भी दिया गया है। इनकी प्राप्तिको ही करणलब्धि कहते है । अनिवृत्ति करणके होनेपर अन्तमुहूर्त के लिये प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कालमें कम से कम एक समय और अधिक से अधिक ६ आवलि काल शेप रहने पर यदि अनन्तानुबन्धी कषायका उदय आ जाता है तो जीव सम्यक्त्वसे च्युत होकर सासादन सम्यक्त्वी हो जाता है और उपशम सम्यक्त्वका काल पूरा होने पर यदि मिथ्यात्व कर्मका उदय होता है तो मिथ्यादृष्टि हो जाता है। __इस तरह गाथा १०९ पर्यन्त प्रथमोपशम सम्यक्त्वका कथन है । इस प्रकरणमें आगत गाथा ९९ कसायपाहुडसे ली गई है। गाथा १०६, १०८ और १०९ जीवकाण्डके प्रारम्भमें भी आई है।
गाथा ११० से क्षायिक सम्यक्त्वका कथन प्रारम्भ होता है। दर्शनमोहनीय कर्मका क्षय होनेसे क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। किन्तु दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयका प्रारम्भ कर्म भूमिका मनुष्य तीर्थंकरके पादमूलमे अथवा केवलि श्रुतकेवलीके पादमूलमे करता है (गा० ११०)। और उसकी पू। वही अथवा सौधर्मादिकल्पोमें अथवा कल्पातीत देवोंमें अथवा भोगभूमिमें अथवा प्रथम नरकमें करता है क्योकि बद्धायुष्क कृतकृत्यवेदक मरकर चारो गतियोमें जन्म ले सकता है (गा० १११)।
अनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शन मोहकी तीन, इन सात प्रकृतियोके क्षयसे उत्पन्न हुआ क्षायिक सम्यक्त्व मेरुकी तरह निष्कम्प, अत्यन्त निर्मल और अक्षय होता है (गा० १६४)। क्षायिक सम्यग्दृष्टी उसी भवमे, अथवा तीसरे भवमें अथवा चौथे भवमें मुक्त हो जाता है । (गा० १६५) ।
१ 'सम्यग्दर्शन-सम्यक्चारित्रयोलब्धि प्राप्तिर्यस्मिन् प्रतिपाद्यते स लब्धिसाराख्यो
ग्रन्थ ।'ल. सा०, टी० ।
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४१४ जनसाहित्यका इतिहास
क्षायिक सम्यक्त्वके साथ दर्शनलब्धिका-कथन पूर्ण हो जाता है और चारित्रलब्धिका कथन प्रारम्भ होता है।
चारित्र लब्धि एक देश और सम्पूर्णके भेदसे दो प्रकारकी है (गा० १६८)। अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्वके साथ देश चारित्रको ग्रहण करता है । और सादि मिथ्यादृष्टी जीव उपशम सम्यक्त्व अथवा वेदक सम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको धारण करता है । जिस तरह धारण करता है और उस समय जो जो कार्य होते है उन सवका कथन किया गया।
सकल चारित्रके तीन प्रकार है-क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक ।
क्षायोपशमिक चारित्र सातवें और छठे गुणस्थानमें होता है। यह उपशम सम्यक्त्व सहित भी होता है और वेदक सम्यक्त्व सहित भी होता है । (गा० १८९-१९०) । गा० १९५ में म्लेच्छ मनुष्यके भी आर्य मनुष्यकी तरह सकलसयम बतलाया है । उसको टीका मे यह प्रश्न किया गया है कि म्लेच्छ भूमिके मनुष्य सकल सयमको कैसे धारण कर सकते है । उसके समाधानमें कहा गया है कि जो म्लेच्छ मनुष्य चक्रवर्तीके साथ आर्यखण्डमें आते है, और उनका चक्रवर्ती आदिके साथ वैवाहिक सम्बन्ध हो जाता है वे सकल सयम धारण कर सकते है । अथवा चक्रवर्ती आदिसे विवाही गईं म्लेच्छ कन्याओके गर्भसे उत्पन्न सतान, मातृपक्षकी अपेक्षा म्लेच्छ कही जाती है, उसके सयम धारण करना सभव है क्योकि इस प्रकारको जाति वालोको दीक्षाके योग्य होनेका निषेध नही है ।
वीरसेनने जयधवलाटीकामें यह चर्चा उठाई है। उसीसे टीकाकारने उसे लिया जान पडता है । अस्तु,
वेदक सम्यग्दृष्टी जीव क्षायोपशमिक चारित्रको धारण करनेके बाद जब औपशमिकचारित्रको धारण करनेके अभिमुख होता है तो पहले या तो क्षायिकसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है या द्वितीयोपशमसम्यक्त्वको धारण करता है । क्षायिकसम्यक्त्वकी उत्पत्तिका विधान तो पहले कहा गया है अत' यहाँ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्तिका कथन करके चारित्रमोहकी उपशमनाका कथन किया गया है । चारित्रमोहका उपशम करनेपर जीव ग्यारहवे उपशान्तकषाय गुणस्थान
१ 'म्लेच्छ-भूमिज-मनुष्याणा सकलसयमग्रहण कथ सभवतीति नाशकितव्य
दिग्विजयकाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागताना म्लेच्छराजाना चक्रवर्त्यादिभि सह जात वैवाहिकसम्बन्धाना सयमप्रतिपत्तेरविरोधात् । अथवा तत्कन्यकाना चक्रवर्त्यादिपरिणीताना गर्भेषूत्पन्नस्य मातृपक्षापेक्षया म्लेच्छ व्यपदेशभाज सयमसम्भवात् तथाजातीयकाना दीक्षाहत्वे प्रतिषेधाभावात् ॥१९५॥ -ल० सा० टी० ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४१५ में पहुँचता है और वहाँ अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहता है। उसके बाद उसका वहाँसे पतन हो जाता है। पतनके कारण दो है या तो मृत्युकालका उपस्थित होना या उपशमकालका समाप्त होना। यदि मृत्युकाल आ जाता है तो वह मरकर देवगतिमें जन्म लेता है और उसके चौथा गुणस्थान हो जाता है। यदि उपशमकालके समाप्त हो जानेसे गिरता है तो ग्यारहवेंसे गिरकर दसवेंमें, दसवेसे नौवेंमें, नौवेसे आठवेमें और आठवेंसे सातवेंमें पहुंचता है। पीछे यदि उसके परिणाम विशुद्ध होते है तो फिर आठवें आदि गुणस्थानोंमें चढ जाता है, अन्यथा नीचे गिर जाता है (अ० ३१०)। ___ द्वितीयोपशम सम्यक्त्वका काल भी अन्तमुहूर्त है। उसके साथ अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थानमें चढनेवाला जीव जितनी देरमें गिरकर पुन आठवेंमें आ जाता है, उससे सख्यातगुणाकाल द्वितीयोपशमसम्यक्त्वका है । जव उसका काल पूरा होता है तो या तो वह जीव गिरकर चौथे गुणस्थानमें आ जाता है अथवा पाचवें गुणस्थानमें आ जाता है। अथवा द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलीकाल शेप रहनेपर अनन्तानुवन्धीकपायका उदय होनेसे सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो जाता है। यदि वह मरता है तो यतिवृषभ आचार्यके वचनोके अनुसार मरकर नियमसे देव होता है । (३४९ गा०) क्योकि जिसने परभवकी नरक, तिर्यञ्च या मनुष्यायुका वन्ध कर लिया है वह मनुष्य चारित्रमोहनीयका उपशम नही कर सकता।
यहाँ ग्रन्थकारने कपायपाहुडपर चूर्णिसूत्रोके रचयिता यतिवृपभ'के मतका उल्लेख करके पट्खण्डागम सूत्रोके रचयिता भूतबलिका भी मत दिया है। उनका मत यतिवृपभके मतके विपरीत है। अर्थात् यतिवृपभके मतमे उपशम श्रेणीसे गिरा हुआ जीव दूसरे सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो सकता है किन्तु भूतवली के मतसे प्राप्त नही हो सकता। इन्ही दोनो आचार्योंकी उक्त कृतियो तथा उनकी टीकाओके आधारपर लब्धिसारकी रचना की गई है।
गाथा ३९१ तक चारित्रमीहनीय कर्मको उपशम करनेका कथन है । उससे आगे चारित्रमोहकी क्षपणाका कथन है ।
चारित्रमोहकी क्षपणाके अन्तर्गत जो क्रियाएँ होती है उन्हीको आधार बनाकर चारित्रमोहकी क्षपणाके अधिकारोका नामकरण किया गया है वे अधिकार १ जरि मरदि सासणो सो णिरय तिरिक्ख पर ण गच्छेदि ।
णियमा देव गच्छदि जइवसहमुणिंदवयणेण ॥३४९॥-लसा० । उवसमसेढीदो पुण ओदिण्णो सासण ण पाउणदि। भूदवलिणाह णिम्मलसुत्तस्स फुडोवदेसेण ॥३५१।।-लसा० ।
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४१६ · जैनसाहित्यका इतिहास
है-अध करण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ये तीन करण, वन्धापसरण, सत्त्वापसरण ये दो अपसरण, क्रमकरण, कपायो आदिकी क्षपणा, देशघातिकरण, अन्तरकरण, सक्रमण, अपूर्वस्पर्धककरण, कृष्टिकरण, और कृष्टिअनुभवन (गा० ३९२)। इन्ही अधिकारोके द्वारा उस क्रियाका कथन किया गया है।
चारित्रमोहका क्षय करनेपर जीव वारहवे गुणस्थानमे पहुँचता है इसीसे उसका नाम क्षीणमोह है । क्षीणमोह होनेके पश्चात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय
और अन्तरायकर्मको नष्ट करके तेरहवे गुणस्थानमे पहुँच जाता है और सर्वज्ञ सर्वदर्शी हो जाता है। जव अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयु शेप रहती है तो वह तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगकेवली दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्धात करके तथा उसका उपसहार करके शेष बचे चारो कर्मोकी स्थिति आयुकर्मके वरावर करके तीसरे शुक्लध्यानके द्वारा अयोगकेवली हो जाता है । और वहाँ सव कर्मोको नष्ट करके मुक्त हो जाता है। ____ जैसे इस ग्रन्थकी प्रथम गाथामें ग्रन्थकारने दर्शन लब्धि और चारित्रलब्धिको कहनेकी प्रतिज्ञा की है वैसे ही अन्तिम (६५२ में) भी कहा है कि वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिके वत्स्य तथा अभयनन्दीके शिष्य नेमिचन्द्रने दर्शन और चारित्रकी लब्धि भले प्रकार कही। यहाँ भापा टीकाकार पं० टोडरमलजी ने 'लब्धिसार नामक शास्त्र विप कही' ऐसा लिखा है । अत इस ग्रन्थका नाम लब्धिसार ही है।
किन्तु टीकाकार नेमिचन्द्रकी टीका गाथा ३९१ तक ही पाई जाती है जहाँ तक चारित्रमोहकी उपशमनाका कथन है। चारित्रमोहकी क्षपणा वाले भाग पर सस्कृत टीका नही है । अत भाषा टीकाकार प० टोडरमल जीने उसके प्रारम्भमें लिखा है
'इहाँ पर्यन्त गाथा सूत्रनिका व्याख्यान सस्कृत टीकाके अनुसार किया जात इहाँ पर्यन्त गाथानि ही की टीका करिकै सस्कृत टीकाकारने ग्रन्थ समाप्त कीना है। वहुरि इहा ते आग गाथा सूत्र है तिनि विप क्षायिकका वर्णन है तिनकी सस्कृत टीका तौ अवलोकन मैं आई नाही तातै तिनका व्याख्यान अपनी बुद्धि अनुसार इहाँ कीजिये है। बहुरि भोज नामा राजा वाहुवलि नामा मत्रीक ज्ञान उपजावनेके अथि श्रीमाधव चन्द्रनामा आचार्य करि विरचित क्षपणासार ग्रन्थ है । तिहि विप क्षायिक चारित्र ही का विधान वर्णन है सो इहाँ तिस क्षपणासारका अनुसार लिएँ भी व्याख्यान करिए है ।'
माधवचन्द्र रचित क्षपणासारके अनुसार व्याख्यानके कारण लब्धिसारके इस भागको क्षपणासार नाम दे दिया गया जान पडता है ।
इस तरह आचार्य नेमिचन्द्र रचित गोम्मटसार तथा लब्धिसार एक तरहसे
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४१७ सग्रह ग्रन्थ है उनमें षट्खण्डागम, कषायपाहुड और उनकी धवला टीकाका सार ही सग्रहीत नही किया गया है, बल्कि उनसे तथा पञ्चसग्रहसे बहुत-सी गाथाएँ भी सगृहीत की गई है। किन्तु सगृहीत होने पर भी इसकी अपनी विशेपता है । उसी विशेपताके कारण गोम्मटसार और लब्धिसारकी रचनाके पश्चात् षट्खण्डागम और कसायपाहुडके साथ उनकी टीका धवला और जयधवलाको भी लोग भूल से गये और उत्तरकालमें इन सिद्धान्त ग्रन्थोको जो स्थान प्राप्त था, धीरे-धीरे वह नेमिचन्द्राचार्य गोम्मटसारको मिल गया ।
आचार्य नेमिचन्द्र रचित त्रिलोकसार नामक एक ग्रन्थ और भी है लोकानुयोगके प्रसंगमें उसके सम्बन्धमें लिखा जायेगा। देवसेनकृत भावसंग्रह ___भावसंग्रह नामक एक ग्रन्थ विमलसेन गणधरके शिष्य देवसेनने रचा था। इस ग्रन्थमें ७०० गाथाओंके द्वारा चौदह गुणस्थानोका स्वरूप बतलाया गया है। सैद्धान्तिक दृष्टिसे यह ग्रन्थ विशेप महत्वपूर्ण नही है क्योकि इसमें चौदह गुणस्थानोका कथन तो बहुत साधारण है। किन्तु उनका आलम्बन लेकर ग्रन्थकारने विविध विषयोका कथन विस्तारसे किया है ।
दो गाथाओके द्वारा चौदह गुणस्थानोके नाम बतलाकर ग्रन्थकारने मिथ्यात्व गुणस्थानका स्वरूप बतलाया है । तथा मिथ्यात्वके एकान्त, विनय, सशय, अज्ञान और विपरीत इन पांच भेदोको बतलाकर ब्राह्मण मतको विपरीत मिथ्यादष्टि बतलाते हुए लिखा है-ब्राह्मण ऐसा कहते है-'जलसे शुद्धि होती है, माससे पितरोकी तृप्ति होती है, पशु वलिदानसे स्वर्ग मिलता है और गो योनिके स्पर्शसे धर्म होता है ।' इन्ही चारोका खण्डन आगे किया गया है और स्वपक्षके समर्थनमें गीता आदि ब्राह्मण ग्रन्थोसे प्रमाण भी उद्धृत किये गये है । ___ एकान्त मिथ्यात्वके कथनमे क्षणिकवादी बौद्धोका खण्डन किया गया है और वैनयिक मिथ्यात्वके कथनमें यक्ष, नाग, दुर्गा, चण्डिका आदिको पूजनेका निषेध किया गया है। सशय मिथ्यात्वका कथन करते हुए श्वेताम्बर मतका खण्डन किया गया है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय स्त्रीको निर्वाणकी प्राप्ति मानता है, केवलीको कवलाहारी मानता है और साधुओके वस्त्र-पात्र रखनेका पक्षपाती है। इन्हीकी आलोचना की गई है। श्वेताम्वर अपने साधु ओको स्थविरकल्पी बतलाते है । ग्रन्थकारने लिखा है यह स्थविरकल्प नहीं है यह तो स्पष्ट रूपसे गृहस्थ कल्प है। आगे उन्होने जिनकल्प और स्थविर कल्पका स्वरूप बतलाया है । (गा० ११९१३९) । और लिखा है कि परीपहसे पीडित और दुर्धर तपसे भीत जनोने गृहस्थकल्पको स्थविरकल्प बना दिया (गा० १३३)।
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४१८ - जैनसाहित्यका इतिहास ____ आगे ग्रन्थकारने श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिकी कथा दी है और लिखा है कि सौराष्ट्र देशकी बलभी नगरीमें वि०स० १३६ श्वेताम्बर सघकी उत्पत्ति हुई (गा० १३७) । यह कथा इससे पूर्वके किसी ग्रन्थमें नही मिलती । इसके सम्बन्धमें पीठिका भागमें विस्तारसे लिखा जा चुका है ।।
अज्ञान मिथ्यात्वका कथन करते हुए लिखा है कि पार्श्वनाथ स्वामीके तीर्थमें मस्करिपूरण नामक ऋपि हुआ। वह भगवान महावीरके समवशरणमें गया । किन्तु उसके जानेपर भगवानकी वाणी नही खिरी। यह रुष्ट होकर समवसरणसे चला आया और बोला-मैं ग्यारह अगोका धारी हूँ फिर भी मेरे जानेपर महावीर की वाणी प्रवाहित नही हुई और अपने शिष्य गौतम गणधरके आनेपर प्रवाहित हुई। गौतमने अभी ही दीक्षा ली है वह तो वेदभापी ब्राह्मण है, वह जिनोक्त श्रुतको क्या जाने ।' अत उसने अज्ञानसे मोक्ष बतलाया । (गा० १६१
भगवान महावीर तथा गौतमबुद्ध के समयमें मक्खलि गोशाल और पूरणकश्यप नामके दो शास्ताओका उल्लेख त्रिपिटक साहित्यमें मिलता है । मक्खलिका सस्कृत रूप मस्करी माना जाता है। अत मस्करी और पूरण इन दोनो नामोको मिलाकर एक ही व्यक्ति समझ लिया गया जान पडता है। मक्खलि गोशाल नियतिवादी माना जाता है।
इन पांचो मिथ्यात्वोका कथन करनेके पश्चात् चार्वाकके द्वारा स्थापित मिथ्यात्वका कथन है । चार्वाक चैतन्यको भूतोका विकार मात्र मानता है । ग्रन्थकारने इसे 'कौलाचार्यका मत कहा है। किन्तु यशस्तिलकके छठे आश्वासमे कौलिक मतको शैवतत्रका अग बतलाया है। लिखा है-'सव पेय अपेयोंमें और भक्ष्य अभक्ष्योमें नि शब्द चित्तसे प्रवृत्ति करना कुलाचार्यका मत है । इसीको उसमें त्रिक मत भी बतलाया है। त्रिक मतमें आराधक मनुष्य मास और मदिराका सेवन करके और वामागमें किसी स्त्रीको लेकर स्वय शिव और पार्वनीका पार्ट करता हुआ शिवकी आराधना करता है।'
चूंकि चार्वाक भी पुण्य पाप, परलोक आदि नही मानता । इसीसे ग्रन्थकारने कौलिक मतको भी चार्वाक समझ लिया जान पडता है ।
चार्वाकके पश्चात् साख्य मतकी चर्चा है। उसमें लिखा है कि जीव सदा १ 'कउलायरिओ अक्खइ अत्थि ण जीवो हु कस्स त पावं । पुण्ण वा कस्स भवे
को गच्छइ णिरयसग्गवा ॥१७२॥ भा०स० । २ 'सर्वेपु पेयापेयभक्ष्यादिपु नि शंकचित्तावृत्तात् इति कुलाचार्यका.। तथा च
त्रिकमतोक्ति -।' य०च०, भा॰ २, पृ० २६९ ।
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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य ४१९
अकर्ता है और पुण्य पापका भोक्ता भी नही है । ऐसा लोकमें प्रकट करके वहन और पुत्रीको भी अगीकार किया गया है । ( गा० १७९ ) ।
एक पद्य इस प्रकार है
'धूय मायरिवहिणी अण्णावि पुत्तत्थिणि आयति य वासवयणुपयडे वि विप्पे । जह रमियकामाउरेण वेयगव्वे उपण्ण दप्पे भणि-छिपणि-डोवि-नडिय - वरुड - रज्जइ - चम्मारि । कवले समइ समागमइ तह भुत्ति य परणारि ॥१८५॥'
इसमें कहा है कि व्यास का वचन है कि पुत्री माता बहन तथा अन्य भी कोई स्त्री पुत्रोत्पत्तिको भावनासे आये तो कामातुर वेदज्ञानी ब्राह्मणको उसको भोगना चाहिये । तथा कपिलदर्शनमें आई हुई ब्राह्मणी, डोम्नी, नटी, धोबिन, चमारिन आदि परनारियोको भोगना लिखा है । स्मृतियोंमें इस प्रकारका कथन है कि जो पुरुष स्वय आगता नारीको नही भोगना उसे ब्रह्महत्याका पाप लगता है । उसी को लक्ष्यमें रखकर तथा पौराणिक उपाख्यानोके आधार पर उक्त कथन किया गया है । किन्तु इस तरहकी बातोका कपिलदर्शनसे कहाँ तक चिन्त्य है |
सम्बन्ध है यह
:
यहाँ यह स्पष्ट कर देना उचित होगा कि यद्यपि भावसंग्रहकी रचना प्राकृत गाथावद्ध है तथापि यत्र तत्र कुछ उक्त प्रकारके छन्द भी पाये जाते है उन्हे 'वस्तुच्छन्द' लिखा है ।
आगे तीसरे मिश्र गुणस्थानका कथन करते हुए ब्रह्मा, विष्णु और रुद्रकी आलोचना की गई है । ब्रह्माकी आलोचना करते हुए तिलोत्तमा आदिके उपाख्यानोकी चर्चा है और कृष्णकी आलोचनामें शूकर कूर्म तथा रामावतारकी समीक्षाकी गई है । रुद्रकी आलोचनामें उनके स्वरूप और ब्रह्म हत्या आदि कार्यो - की आलोचना है | ( गा० २०३ - २५५)
चौथे अविरत सम्यग्दृष्टी गुणस्थानका स्वरूप वतलाते हुए सात तत्त्वोका कथन किया गया है । पाँचवे गुणस्थानका स्वरूप २५० गाथाओके द्वारा बहुत विस्तारसे बतलाया है । चूकि पाँचवा गुणस्थान श्रावकाचारसे सम्बद्ध है ' अत उसमें श्रावकाचारका वर्णन है । उसमें अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रतोके नामोके साथ अष्टमूल गुण भी वतलाये है और वे अष्टमूल गुण है— पाँच उदम्बर, फलो और मद्य मास मधुका त्याग । फिर चार प्रकारके घ्यानका कथन है । आगे देव पूजाका कथन है अन्य श्रावकाचारोमें इस प्रकारका कथन नही मिलता । इसमें अभिषेकके समय वरुण, पवन, यक्ष आदि देवताओको अपने २ प्रियवाहन तथा शस्त्रोके साथ आवाहन करनेका और उन्हे यज्ञका भाग देनेका विधान है । ( गा०
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४२० : जनसाहित्यका इतिहास
४३९-४४०)। अन्य श्रावकाचारोमें इस तरहका विधान हमारी दृष्टिसे नही गुजरा। इसमें सिद्ध चक्रयत्रका भी उद्धार है (गा० ४५४)। तथा भगवानके चरणोमें चन्दनका लेप करनेका भी विधान है (गा० ४७१) । आगे चार दानोका, और उसके फलका कथन है । ___ सातवें गुणस्थानके स्वरूप कथनमें पिण्डस्थ, पदरथ, स्पस्य और स्पातीतध्यानका सक्षिप्त कथन है । आगे शेप गुणरथानोका सामान्य कथन करके ग्रन्यको समाप्त कर दिया गया है। कर्ता और समय
यह पहले लिप आये है कि इम ग्रन्यके कर्ता विमल गणधरके शिष्य देवसेन है । देवसेन नामके कई आचार्य हो गये है । उनमें एक देवसेन वह है जिन्होने वि० स० ९९० मे दर्शनसार नामक ग्रन्यकी रचना की थी। आलाप पद्धति, लघुनयचा, आराधनासार और तत्त्वमार नामक ग्रन्थ भी देवसेनके द्वारा रचित है । ये सव अन्य माणिकचन्द्र ग्रन्यमाला बम्बईसे प्रकागित हो चुके है । इन सबको दर्शनसारके रचयिता देवमेनकी ही कृति माना है। दर्शनसारके अन्तमें अपना परिचय देवसेनने इस प्रकार दिया है
'पुन्वाइरियकयाइ गाहाइं सचिऊण एयत्य । सिरिदेवसेणगणिणा धाराए संबसतेण ॥४९॥ रइओ दसणमारो हारो भन्वाण णवसए नवई ।
सिरिपासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए ॥५०॥' अर्थात् पूर्वाचार्योकी रची हुई गाथाओको एकत्र करके श्रीदेवसेन गणिने धारामें रहते हुए श्रीपार्श्वनाथके जिनालयमें माघ सुदी दसमी वि० स० ९९० को यह दर्शनसार रचा। तत्त्वसारके अन्त में लिखा है
सोऊणे तच्चसार रइय मुणिणाहदेवसेणेण ।
जो सद्दिट्ठी भावइ सो पावइ सासय सोखं ॥७४॥ 'मुनिनाथ देवसेनने सुनकर तत्वसार रचा। जो सम्यग्दृष्टि उसकी भावना करता है वह शाश्वत सुख को पाता है ।' आराधनासारके अन्तमें लिखा है
ण य मे अत्थि कवित्त ण मुणामो छदलक्खण कि पि । णियभावणाणिमित्तं रइय आराहणासार ॥११४॥ अमुणिय तच्चेण इम भणिय जं कि पि देवसेणेण । सोहंतु तं मुणिंदा अत्थि हु जइ पवयणविरुद्ध ॥११५॥
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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य : ४२१
'न मेरे में कवित्व है और न मैं छन्दका लक्षण ही कुछ जानता हूँ । अपनी भावनाके निमित्त मैंने आराधनासार रचा है ॥ ११४ ॥ तत्त्वसे अनजान देवसेनने जो कुछ भी इसमे कहा है, उसमें यदि कुछ आगम विरुद्ध कथन है तो मुनीन्द्र उसे शुद्ध करलें ॥११५॥
इस तरह देवसेनने दर्शनसारमें तो ग्रन्थके रचनास्थान तथा कालका निर्देश किया है किन्तु अन्य रचनाओमें वैसा नही पाया जाता । दर्शनसारमें अपनेको देवसेन गणि कहा है, तत्त्वसारमें मुनिनाथ देवसेन कहा है और आराधनासारमें केवल देवसेन कहा है । गणि और मुनिनाथ पदको एकार्थवाचक मान लेनेसे दोनोमें एकवाक्यता मानी जा सकती है । किन्तु जो विनम्रता आराधनासारकी अन्तिम गाथासे व्यक्त होती है, भावसग्रहमें उसका अभाव है । इसके सिवाय इन सबमे उन्होने अपने गुरुका नाम नही कहा, परन्तु भावसग्रहमें कहा है । परन्तु आराधनासारकी मगलगाथामें 'विमलयर गुणसमिद्ध', पदके द्वारा, दर्शनसारमे 'विमलणाण' पदके द्वारा, नयचक्रमें 'विगयमल' और 'विमलणाण सजुत्त' पदोके द्वारा गुरुके नामका उल्लेख किया गया है, ऐसा श्री जुगल किशोरजी मुख्तार' का मत है । अत वह भावसंग्रहको उक्त देवसेनकी ही कृति माननेके पक्षमें है ।
किन्तु प० परमानन्दजीका कहना है कि भावसग्रह दर्शनसारके रचयिता देवसेनकी कृति नही है, क्योकि दर्शनसार मूलसघका ग्रन्थ है । उसमें काष्ठासघ, द्रविडसघ, यापनीयसघ और माथुरसघको जैनाभास घोषित किया है । परन्तु भावसग्रह केवल मूलसघका मालूम नही होता क्योकि उसमें त्रिवर्णाचारके समान आचमन, सकलीकरण, यज्ञोपवीत, और पचामृताभिषेकादिका विधान है । इतना ही नही किन्तु इन्द्र, अग्नि, काल, नैऋत्य, वरुण, पवन, यक्ष और सोमादिको सशस्त्र तथा युवतिवाहनसहित आह्वानन करने, वलि, चरु आदि पूजा द्रव्य तथा यज्ञके भागको बीजाक्षरयुक्त मत्रोंसे देनेका विधान है ।'
उनका मत है कि अपभ्रंश भाषाका 'सुलोचना चरिउ' के कर्ताका भी नाम देवसेन है और उनके गुरुका नाम भी विमल सेनगणि है अत भावसग्रह उन्हीका हो सकता है ।
श्री प्रेमीजीने भी उनके इस मतको अपने 'जैनसाहित्य और इतिहास' नामक पुस्तकके दूसरे सस्करणमे स्थान देते हुए लिखा है - ' एक और प्राकृतग्रन्थ भावसग्रह है जो विमलसेन गणिके शिष्य देवसेनका है । यह भी मुद्रित हो चुका है इसमें कई जगह दर्शनसारकी अनेक गाथाएँ उद्धृत है इसपरसे हमने अनुमान
१ पु० वा० सू० की प्रस्ता० पृ० ५९ | देवसेनके लिये इस प्रस्तावनाके सिवाय 'जै० सा० इ०' ( पृ० १६८ ) देखना चाहिये |
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४२२ जैनसाहित्यका इतिहास
किया था कि दर्शनसारके कर्ता ही इसके कर्ता है । परन्तु प० परमानन्दजी शास्त्रीने अनेकान्त (वर्ष ७, अक ११-१२ ) में इसपर सन्देह किया है और सुलोयणा चरिऊके कर्ता तथा भावसग्रहके कर्ताको एक वतलाया है जो विमलगणिके शिष्य है' ( पृ० १७६) ।
इस तरह भावसग्रहके कर्ता देवसेन कौनसे है, इसमें विवाद है । 'सुलोचनाचरिउ" मे उसका रचनाकाल राक्षस सवत्सरकी श्रावण शुक्ला चतुर्दशी दिया है । ज्योतिपकी गणनाके अनुसार यह सवत्सर वि० स० ११३२ में तथा १३७२ मे पडता है ऐसा प० परमनन्दजीने लिखा है । इन दोनोंमॅसे किस सम्वत्में उक्त रचना हुई यह भी चिन्त्य है ।
उक्त विप्रतिपत्तिके निरसनके लिये भावसग्रहका अन्त परीक्षण करना उचित प्रतीत होता है । सम्भव है उससे प्रकृत विपयपर कुछ प्रकाश पड सके ।
यह हम बतला आये है कि भावसग्रहमे गुणस्थानोंका कथन है और उन्हें ग्रन्थका मुख्य आधार वनाया गया है ।
गुणस्थानोके वर्णनमें देवसेनने पचसग्रह प्राकृतका अनुसरण किया है और उससे अनेक गाथाएँ ज्योकी त्यो वैसे ही ली है । जैसे धवलामें और गोम्मटसारमें ली गई है । उन गाथाओको यहाँ दे देना उचित होगा
मिच्छो सासण मिस्सो अविरय सम्मो य देस विरदो य । विरओ पमत्त इयरो अपुव्व अणियट्टि सुमो य ॥१०॥ उवसत खीणमोहो सजोइ केवलिजिणो अजोगी य । ए चउदस गुणठाणा कमेण सिद्धा य णायव्वा ॥ ११ ॥
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णो इंदिए विरओ णो जीवे थावरे तसे वापि । जो सद्दहइ जिणुत्त अविरह सम्मोत्ति णायव्वो ।। २६१॥ जो तसवहारविरओ णो विरओ तह य थावरबहाओ । एक्कसमयम्मि जीवो विरयाविरउत्ति जिणु कहई ॥ ३५१ ॥
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वत्तावत्तपमाए जो णिवसइ पमत्त सजदो होइ । सयलगुणसीलकलिओ महव्वई चित्तलायरणो ॥ ६०१॥ विकहा तहा कसाया इंदिय णिद्दा तह य पणओ य । चउ चउ पणमेगेगे हुँति पमाया हु पण्णरसा ॥ ६०२ ॥
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'रक्खस सवत्सरे बुहदिवसए । सुक्कचउद्दिसि सावण मासए । चरिउ सुलोयणाहि णिप्पण्णउ, सहअत्य वण्णसवण्णओ - सुलो० च० ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ' ४२३ गट्टागपगाओ वयगुणगीलेहि मडिओ गाणी । अणुवगमओ अगवओमाणणिलीणो हु अप्पमत्ती गो ॥१४॥
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हुति अणियट्टिणो ते पडियममय जग्ग एक्कपरिणाम । विमलयर माणहुयवहगिहाहि णिहटकम्गवणा ॥५१॥
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जह सुद्धफलियगायणि गित णीर गुणिम्गल सुद्ध ।
तह णिमालपरिणामो पीण कमाओ मुणेयनी ॥२॥ उपत गाथाएं प्राकृत पञ्चगग्रहमे है और उगीगे ली गई जान पड़ती है। अन्तिम गायाको छोटकर शेप गाथाएँ गोम्पटगार जीवकाण्टम तथा कुछ धवलाम भी है जो प्रा० पजगग्रही ली गई है। ऐनी स्थितिम यह गका हो सकती है फि उन गाथाओको भावनग्रहकारने पञ्चगग्रहमे ही लिया और धवला या जीवकाण्डने न लिया इसमें क्या प्रमाण है ? उसके सम्बन्धम पहला प्रमाण तो यह है कि न० ६६२ वाली गाथा पञ्चगग्रह की है । यह न तो धवलामे है और न जीवकाण्डमें । उगमे यह स्पष्ट है कि भावगग्रहकारके सामने पञ्चगग्रह अवश्य या। दूगरे जीवकाण्ड और पञ्चगग्रहम पाठभेद भी है। भावमग्रहगत पाठ पञ्चसग्रहके अनुस्प है जीवकाण्डके नही । यथा---गा० ११में “ए चउदमा गुण ठाणा' पाठ पञ्चसग्रहरी अधिक मिलता है। प०स०में 'चोद्दम गुण ठाणाणि य' पाठ है और जीवकाण्डमे इमके स्थानमें 'चोद्दस जीवसमासा' है। यह गाय धवलामें नहीं है।
किन्तु इससे यह प्रमाणित नही किया जा सकता कि भावसग्रहकारके सामने जीवकाण्ड नही था। प्रत्युत कुछ गाथाएं तथा पाठ ऐसे है जिनमे यह प्रमाणित होता है कि दोनोके कर्ताओममे किसी एकने दूसरेको अवश्य देखा था। इसके लिये प्रथम तो उक्त उद्धृत गाथामओमें न० ३५१की गाथा है। प०स०में इस गाथाका रूप इस प्रकार है
जो तसवहाउ विरदो गोविरमओ अक्खथावरवहाओ ।
पडिसमय सो जीवो विरयाविरओ जिणेक्कमई ॥१३॥ और 'धवला तथा जीवकाण्डमें उसका रूप इस प्रकार है
जो तसवहादु विरदो अविरदओ तह य थावरवहाओ ।
एक्कसमयम्मि जीवो विरदाविरदो जिणेक्कमई ॥३१॥ किन्तु भावसग्रहमें उक्त गाथाका रूप पञ्चसग्रह और जीवकाण्डका मिश्रित १ 'धवलामें' 'द' के स्थाने 'अ' है केवल इतना ही अन्तर है।
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४२४ · जैनसाहित्यका इतिहास रूप है। अब हम भावसग्रहसे कुछ ऐसी गाथाएं उद्धृत करते है जो पचसग्रहमें नही है किन्तु जीवकाण्डमें ज्योकी त्यो या कुछ अन्तरको लिये हुए मिलती है
एए तिण्णि वि भावा दसणमोह पडुच्च भणिआ हु ।
चारित्त णत्थि जदो अविरयअतेसु ठाणेसु ॥२६०॥ यह गाथा जीवकाण्डमें इसी रूपमें वर्तमान है इसका नम्वर वहाँ १२ है ।
तेसि यि समयाण सखारहियाण आवली होई । सखेज्जावलिगुणिमओ उस्सासा होई जिणदिट्ठो ॥३१२॥ सत्तुस्सासे थोओ सत्तथोएहिं होइ लओ इक्को ।
अट्ठत्तीसद्धलवा णाली वेणालिया मुहुत्त तु ॥३१३।। जीवकाण्डमें इन गाथाओका रूप इस प्रकार है
आवलि असखसमया सखेज्जावलिसमूहमुस्सासो। सत्तुसासा थोवो सत्तत्थोवा लवो भणियो ॥५७३॥ अट्टत्तीसद्धलवा नाली वे नालिया मुहुत्त तु ।
एग समएण हीण भिण्णमुहुत्त तदो सेस ।।५७४॥ जीवकाण्डमें एक गाथा इस प्रकार है
एदे भावा णियमा दसणमोह पडुच्चभण्णिदाहु ।
चारित्त णत्थि जदो अविरदअन्तेसु ठाणेसु ॥१२॥ पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थानमें भावोका कथन करके यह गाथा कही गयी है । इसमें वतलाया है कि ये भाव दर्शनमोहनीयकी अपेक्षासे कहे गये है क्योकि अविरत गुणस्थान पन्त चारित्र नही होता । भावसग्रहमें चतुर्थ गुणस्थानका स्वरूप बतलाते हुए उसमें तीन भाव बतलाये है। और आगे उक्त गाथाके प्रथम चरणको 'एदे तिण्णि वि भावा' रूपमे परिवर्तित करके दिया है। ध्यान देनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि यह गाथा मूलमें जीवकाण्डकी होनी चाहिये । अस्तु । ___इसमे सन्देह नही कि भावसग्रह एक संग्रहात्मक ग्रन्थ है और ग्रन्थकारने पूर्वाचार्योके वचनोको ज्योका त्यो या परिवर्तित करके उसमें सगृहीत किया है । यह बात सर्वांशमें नहीं लेना चाहिए, आशिक रूपमें ही लेना चाहिये क्योकि भावसग्रहमें उसके कर्ताके विचार ही अधिक है। केवल जैनतत्त्व ज्ञानसे सवधित विवेचनमें ही पूर्वाचार्यो के वचनोको यत्र तत्र लिया गया है। इसके समर्थनमें एक तो पचसग्रह को ही उपस्थित किया जा सकता है। उसके सिवाय कुन्दकुन्दके ग्रन्थोको भी रखा जा सकता है। भाव सग्रहमे दो गाथाएँ इस प्रकार है
जीवो अणाइ णिच्चो उवओगसजुदो देहमित्तो य । कत्ता भोत्ता चेत्तो ण हु मुत्तो सहाव उड्ढगई ॥२८६॥
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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य ४२५
पाण चक्क पउत्तो जीवस्सइ जो हु जीविओ पुव्व । जीवे वट्टमाण जीवत्त गुणसमावण्णो ॥ २८७॥
ये दोनो गाथाएँ पञ्चास्तिकायकी नीचे वाली दो गाथाओको सामने रखकर
रची गई है
जीवो त्ति हवदि चेदा स्वओगविसेसिदो पहू कत्ता । भोत्ता य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसत्तो ॥ २७॥ पाणेहि चदुहिं जीवदि जीवस्सदि जो हु जीविदो पुव्व । सो जीवो पाणा पुण बल मिंदियमाउ उस्सासो ॥३०॥
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प्रा० पञ्चसग्रह और पञ्चास्तिकाय तो देवसेनसे बहुत पहले रचे गये है अत उनमें तो किसी तरहका विवाद सभव नही है । किन्तु उनकी ही तरह जीवकाण्ड, द्रव्यसंग्रह और वसुनन्दिश्रावकाचारकी कतिपय गाथाओके साथ भी भावसग्रहकी कुछ गाथाओमे अशत अथवा सर्वत समानता पाई जाती है । और ये सब ग्रन्थ उसी समय लगभगके है जिस समयका भाव सग्रह माना जाता है । अत उनके साथ जो समानता है, काल निर्णयकी दृष्टिसे वही विचारणीय है । जीवकाण्डकी रचना वि स १०४० के लगभग हुई है, वसुनन्दि' का समय विक्रमकी वारहवी शताब्दी है । और पहले द्रव्यसन को भी जीवकाण्डके रचयिताकी ही कृति मान लिया गया था किन्तु अव वह मत मान्य नही है । फिर भी उसे ११वी १२वी शताब्दीके लगभगकी रचना माना जाता है |
१ जै० सा० इ० पृ० ३०२ और ९९ ।
भावसग्रहमें सम्यग्दर्शनका वर्णन करते हुए सम्यग्दर्शनमें प्रसिद्ध हुए आठ व्यक्तियोके नाम गिनाये है । भा० स० की ये २७९ से २८४ तक छहो गाथाएँ ज्यो की त्यो उसी क्रमसै वसु० श्रा० मे वर्तमान है और वहाँ उनकी क्रम संख्या ५१ से ५६ तक है |
दोनोका मिलान करनेसे अन्य भी गाथाओ में शाब्दिक तथा विपयगत समानता पाई जाती है ।
इसी तरह द्रव्य संग्रहके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये । उसके साथ साम्य दर्शनके लिये नीचे भावसग्रहसे कुछ गाथाएँ दी जाती है ।
जीवाण पुग्गलाण गइप्पवत्ताण कारण धम्मो जहमच्छाण तोयं थिरभूया णेव सो णेई || ३०६ ॥ ठिदिकारण अधम्मो विसामठाण च होइ जह छाया । पहियाण रुक्खस्स य गच्छत णेव सो धरई ॥३०७॥
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तथा पु० वा० सू० की प्रस्ता० पृ० ९२
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४२६ - जैनसाहित्यका इतिहास
कालेण उवाएण य पच्चति जहा वणस्सुई फलाइ ।
तह कालेण तवेण य पच्चति कयाइ कम्माइ ॥३४५।। द्रव्यसंग्रहकी गाथा इस प्रकार है
गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी । तोय जह मच्छाण अच्छता णेव सो णेई ॥१७॥ ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहियाण गच्छता णेव सो धरई ॥१८॥
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जह कालेण तवेण य भुत्तरस कम्मपुग्गलं जेण ।। इस तरह भावसग्रहका सादृश्य उक्त ग्रन्थोके साथ पाया जाता है और उनके अवलोकनसे कोई ऐसा विशिष्ट प्रमाण प्रकट नही होता जिसके आधार पर निसशय कहा जा सके कि अमुकने अमुकका अनुसरण किया है। अत उसके निर्धारणके लिये कुछ अन्य सवल प्रमाणोकी आवश्यकता है।
पं० आशाधरजीने अपने सागार धर्मामृतकी टीका १२९६ वि० स० और अनगार धर्मामृतकी टीका वि०स० १३००में समाप्त की थी । अनगार धर्मामृतकी टीका उद्धरणोके लिये आकर सदृश है। उसमें बहुतसे ग्रथोके उद्धरण दिये गये है। उनमें गोम्मटसार, द्रव्यसग्रह और वसुनन्दि श्रावकाचारके अनेक उद्धरण है । देवसेनके आराधना सारके भी कई उद्धरण है, एक उद्धरण इस प्रकार है- -
'सवेओ णिब्वेमो जिंदा गरुहा य उपसमो भत्ती।
वच्छल्ल अणुकपा गुणा हु सम्मत्तजुत्तस्स ।।-अनगा० टी०, पृ० १६४ । चामुण्डरायके चरित्रसार नामक ग्रन्थमें उक्त गाथाका संस्कृत रूपान्तर इस प्रकार है
सवेगो निर्वेदो निंदा गर्दा तथोपशम भक्ती ।
अनुकपा वात्सल्य गुणास्तु सम्यक्त्वयुक्तस्य ॥ चामुण्डरायका समय विक्रमकी ११वी शताब्दीका पूर्वार्ध है । आशाधरजीने उक्त श्लोकको गाथाके रूपमें परिवर्तित करके दिया है यह तो सभव प्रतीत नही
होता, क्योकि गाथाओको तो संस्कृत रूपान्तर करनेकी परम्परा रही है किन्तु । प्राचीन संस्कृत श्लोकोको गाथाके रूपमें परिवर्तित करनेकी परम्परा नही रही ।
अत आशाधरजीके द्वारा उद्धृत गाथा अवश्य ही चामुण्डरायसे पहलेकी होनी चाहिये । शायद उसीसे भावसग्रहकारने या वसुनन्दिने उसे परिवर्तित किया है । __ ऐसी स्थितिमें आशाधरके द्वारा भावसंग्रहका उद्धृत न किया जाना अवश्य ही उल्लेखनीय है।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४२७ यदि भावसग्रह दर्शनसारके रचयिता देवसेनका है तो सोमदेवके उपासकाध्ययनसे वह अवश्य ही एक चतुर्थ शताब्दी पूर्वका है क्योकि सोमदेवने अपने यशस्तिलकको शक स० ८८१ (वि० स० १०१६) में समाप्त किया था । सोमदेव सूरिने जो पाँच उदुम्बर और तीन मकारोके त्यागरूप अष्टमूल गुण बतलाये है भावसग्रहमें भी वे ही अष्टमूल गुण बतलाये है । अत उन अष्टमूल गुणोके आविष्कर्ता भावसग्रहकार ठहरते है, सोमदेव नहीं। किन्तु सागार धर्मामृतमें अष्टमूल गुणोके मतभेदका निर्देश करते हुए आशाधरजीने उक्त अष्टमूल गुणोको सोमदेव सूरिका बतलाया है । भावसग्रहकारका वहाँ सकेत तक नही है। सागार धर्मामृतके ही टिप्पणमें एक गाथा उद्धृत है जो इसप्रकार है
'उत्तम पत्त साहू मज्झिमपत्त च सावया भणिया ।
अविरद सम्माइट्ठी जहण्णपत्त मुणेयन्वम् ॥' भावसग्रहमें इस गाथाको इस रूपमें परिवर्तित पाया जाता है
तिविह भणति पत्त मज्झिम तह उत्तम जहण्ण च । उत्तमपत्त साहू मज्झिम पत्त च सावया भणिया ।।४९७॥ अविरइ सम्मादिट्ठी जहण्णवत्त तु अक्खिय समये ।
णाऊ पत्तविसेस दिज्जइ दाणाइ भत्तीए ॥४९८॥ ऐसी स्थितिमें वसुनन्दिके द्वारा भावसग्रहकी गाथाओको लिये जानेकी अपेक्षा यही अधिक सभव प्रतीत होता है कि भावसग्रहके कर्ताने ही वसुनन्दिको अपनाया और वसुनन्दिको ही क्यो, उन्होंने जीवकाण्ड और द्रव्यसग्रहको भी सामने रखकर उनका भी अनुसरण किया प्रतीत होता है।
जीवकाण्डमें' मिथ्यात्वके पाँच भेद करके बुद्धको एकान्तवादी, ब्रह्मको विपरीतवादी, तापसको वैनयिक, इन्द्रको संशयिक और मस्करीको अज्ञानी कहा है । भावसग्रहमें भी उन्हीको आधार बनाकर मिथ्यात्वके पांच भेदोका कथन किया है (गा० १६-१७१) । किन्तु उसमें ब्रह्मसे ब्राह्मण लिया है।
दर्शनसारमें बुद्धको एकान्तवादी, श्वेताम्वर सघके प्रवर्तकको विपरीतवादी, मस्करी पूरणको अज्ञानी कहा है और वैनयिकोको अनेक प्रकारका बतलाया है। यदि दर्शनसारके रचयिताकी कृति भावसग्रह होती तो वे श्वेताम्बर सघको सशय मिथ्यात्वी न कहते । साथ ही मिथ्यात्वका कथन करते हुए तथोक्त जैनाभासोको यू ही अछूता न छोड देते । चूकि भावसग्रहके कर्ता उन्हीमेंसे थे इसलिये उन्होने उनको छोड दिया जान पडता है। १ 'एयत बुद्धदरिसी विवरीओ बम्ह तावसो विणओ । इदोविय ससइओ मक्क
डिओ चेव अण्णाणी ॥१६॥'-जी का०
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४२८ · जैनसाहित्यका इतिहास
यदि भावसग्रह विक्रमकी दसवी शताब्दीके अन्तमें रचा गया होता तो उस समयके लगभग रचे गये श्रावकाचारोमेंसे किसी एकमें तो उन बातोकी प्रतिध्वनि सुनाई पडती जिन्हें भावसग्रहकारने स्थान दिया है। किन्तु उस समयकी कृतियोमें उन बातोका सकेत तक नही है। उनके द्वारा निरूपित पूजा विधानकी विधि भी सागार धर्मामृत पर्यन्त किसी श्रावकाचारमें देखनेको नहीं मिलती। ___ भावसग्रहमें स्त्री वाहनादियुक्त दश दिग्पालोको अर्घ्यदान देनेके सिवाय एक उल्लेखनीय बात और भी है। उत्तमपात्रोमेंसे कुछको वेदमय' और कुछको तपोमय कहा है । और वेदका अर्थ सिद्धान्त करके सिद्धान्तके जानकारको वेदमय पात्र और तपस्वी ज्ञानीको तपोमय पात्र कहा है। इस तरहका भेद भी किसी श्रावकाचारमें नही मिलता। वैसे सागार धर्मामृतमे शास्त्रज्ञोका भी समादर करना पाक्षिक श्रावकका कर्तव्य बतलाया है।
एक बात और भी उल्लेखनीय है। भावसग्रहमें पशुवधका निषेध करते हुए कहा है कि हरिहरादिके भक्तोके शास्त्रोमें कहा है कि सब जीवोके पाच स्थानोमें देवताओका आवास है । तो उनके मारनेपर सव देवताओका भी धात होगा। आगेकी गाथा इस प्रकार है
देवे वहिऊण गुणा लन्भहि जइ इत्थ उत्तमा केई ।
तु रुक्कवदणया अवरे पारद्धिया सव्वे ॥४८॥ केकडीके प० रतनलालजीने हमें सूचित किया है कि अजमेरकी प्रतिमे 'वहिऊण' के स्थानमे 'हणिऊण' तथा 'तु रुक्कवदणया' के स्थानमे 'तो तुरुक्कवदणीया' पाठ है। ___ इन पाठोसे गाथाका अर्थ स्पष्ट हो जाता है जो इस प्रकार है-'यदि देवोका हनन करनेसे किन्ही उत्तम गुणोकी प्राप्ति होती है तो तुर्क (मूर्तिभजक मुसलमान) तथा सब शिकारी भी वदनीय है । इससे स्पष्ट है कि भावसंग्रह उस समय रचा गया है जब भारतमें मुसलमानोका आक्रमण हो चुका था। प्रसिद्ध मूर्तिभंजक मुहम्मद गजनीने ई० स० १०२३ में सोमनाथका मन्दिर तोडा था । उसके बाद बारहवी शताब्दीमें सहाबुद्दीन गौरीके आक्रमण हुए थे । उसकी चर्चा आशाधरजीने अनगार धर्मामृतकी प्रशास्तिमें की है। अत यह निश्चित है कि भावसग्रह वि०स० ९९० (ई० सन् ९३३)की रचना किसी भी तरह हो नही सकती। ____ अत भावसग्रहके देवसेन (वि० ९९०) की रचना होनेके सम्बन्धमें अनेक विप्रतिपतियाँ है और कोई सबल प्रमाण नही है । १ किं किंचिवि वेयमय किंचिवि पत्त तवोमयं परम । त पत्तं संसारे तारणय
होइ णियमेण ॥५०५॥-भा० स०
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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य ४२९
प्रभाचन्द्राचार्यने अपने प्रमेयकमलमार्तण्डमें नीचे लिखी गाथा उद्धृतकी है
णोकम्मकम्महारो कवलाहारो य लेप्पमाहारो । ओज मणोवि य कमसो आहारो छव्विहो यो ||
यह गाथा भावसग्रहमें बिल्कुल इसी रूपमें वर्तमान है और उसकी क्रम सख्या ११० है | न्यायाचार्य प० महेन्द्र कुमारजीने उक्त ग्रथकी भूमिकामें प्रभाचन्दाचार्यका समय ९८० ई० से १०६५ तक निश्चित किया है । किन्तु भाव सग्रहकी उक्त स्थितिको देखते हुए यह नही कहा जा सकता कि उक्त गाथा भावसंग्रहसे ली गई है ।
भावसग्रह अवश्य ही कम से कम भारतमें गजनीके आक्रमणके पश्चात् रचा गया है । और उसे उसकी पूर्वावधि माना जा सकता है । तथा कर्मप्रकृति नामके संग्रह ग्रन्थ में कुछ गाथाएँ ऐसी है जो भावसग्रहमें भी है और उनकी क्रमसख्या भावसग्रहमें ३२५ से ३३८ तक ( न० ३३० को छोडकर ) है | चूँकि कर्म प्रकृतिमें उन गाथाओकी स्थिति उतनी सगत नही जान पडती जितनी भावसग्रहमें है । अत भावसग्रहसे यदि उन्हे कर्मप्रकृतिमें सगृहीत किया माना जाये तो भावसग्रहकी उत्तरावधि कर्मप्रकृतिके पूर्व हो सकती है । किन्तु कर्मप्रकृतिके संग्रहका समय भी सुनिश्चित नही है |
वामदेवकृत सस्कृत भावसंग्रह प्राकृत भावसग्रहका ही छायानुवाद जैसा है । वामदेव रचित त्रलोक्य प्रदीप ग्रन्थको स० १४३६ की लिखी हुई प्रति श्री महावीर जीके शास्त्र भण्डारमें है । अत वामदेवने अपना भावसग्रह यदि विक्रमकी चौदहवी शताब्दी के उत्तरार्ध में रचा हो तो यह निश्चित है कि प्राकृत भावसग्रह उससे पूर्वका रचा हुआ है । पूर्वोल्लिखित बातोकी घ्यानमें रखते हुए प्राकृत भावसग्रहको विक्रमकी १२वी १३वी शताब्दीका मानना ही उचित प्रतीत होता है । जैसा कि प० परमानन्दजीका भी मत है ।
गर्ग रचित कर्मविपाक
शतक और सित्तरीसे प्रमाणित होता है कि जैन परम्परामें इस प्रकारके प्रकरणोको रचनेकी प्रवृत्ति आरम्भसे ही रही है । उससे कर्मसिद्धान्तके एक एक विपयको समझने में सरलता होती है, अन्यथा यह सिद्धान्त इतना गहन और विस्तृत है कि साधारण बुद्धिका प्राणी उसका पार पाना तो दूर, उसमें प्रवेश करनेका भी साहस नही कर सकता । इस प्रकारके प्रकरण ग्रन्थ दोनो जैन परम्पराओं में रचे गये । दिगम्बरमें तो आचार्य नेमिचन्द्रने गोम्मटसारके द्वारा जीव और कर्मविपयक मौलिक सिद्धान्तोंको दो भागोमें निबद्ध कर दिया । किन्तु
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४३० : जैनसाहित्यका इतिहास श्वेताम्वर परम्परामें विभिन्न आचार्योने छोटे २ प्रकरण रचकर उस कमीकी पूर्ति की।
आचार्य गर्गीषने १६८ गाथाओके द्वारा कर्मविपाक नामक ग्रन्थ रचा। जैसा कि ग्रन्थके नामसे प्रकट होता है इस ग्रन्थमें आठो कर्मों और उनकी उत्तरप्रकृतियोके विपाक (पककर फल देने) का कथन किया है । साधारणतया आठो कर्मोकी १४८ प्रकृतियाँ ही मान्य है किन्तु नामकर्मकी प्रकृतियोमे पांच शरीरोके अवान्तर भेदोको ले लेनेसे उनकी संख्या १५८ भी हो जाती है। तदनुसार गर्पिने अपने कर्मविपाकमें कर्मप्रकृतियोकी सख्या १५८ ही मान्य की है। आठो कर्मोके स्वभावको बतलानेके लिये आठ दृष्टान्त दिये गये है
पड-पडिहारसिमज्जा-हलिचित्त-कुलाल-भडगारीण ।
जह एदेसि भावा तह वि य कम्मा मुणेयव्वा ॥ यह गाथा शतकमें है। फिर उसीसे प्राकृत दि० पञ्चसग्रह, कर्मकाण्ड, और गपिके कर्मविपाकमें भी ज्यो-की-त्यो ले ली गई है। केवल चतुर्थचरणमें थोडासा पाठ भेद है। कर्मविपाकमें गपिने प्रत्येक दृष्टान्तका पृथक्से स्पष्टीकरण भी किया है। दिगम्वर परम्पराके भावसग्रह और कर्मप्रकृतिमें भी वैसा किया गया है।
___ कर्मविपाकमें प्रत्येक कर्मप्रकृतिका कार्य पृथक् २ बतलाया है । इससे वह बहुत विस्तृत हो गया है, किन्तु उससे प्रत्येक प्रकृतिका कार्य स्पष्ट रूपसे समझमें
आ जाता है। प्रकृतियोके स्वरूपमे अन्तर
दोनो जैन परम्पराओमें आठों कर्मो सौर उनकी उत्तरप्रकृतियोंकी संख्या तथा उनके नामोमें अन्तर नही है। किन्तु कुछ उत्तरप्रकृतियोके कार्योमें और अर्थोमें अन्तर है । ऐसी प्रकृतियोमें दर्शनावरण कर्मके अन्तर्गत पाँच निद्राएं और नामकर्मके अन्तर्गत कुछ प्रकृतिया उल्लेखनीय है । उनमे भी नामकर्मके सहननके
१ 'भणिओ कम्मविवाओ समासो गग्गरिसिणा उ ॥१६७॥
एव गाहाण सय अहिय छावट्ठिए पढिऊण ।
जो गुरु पुच्छइ नाही कम्मविवाग च सो अइरा ॥१६८॥'-ग०क०वि० । यह कर्मविपाक ग्रन्थ दो सस्कृत टीकाओके साथ 'सटीकाञ्चत्वार प्राचीना कर्मग्रन्था के अन्तर्गत जैन आत्मानन्द सभा भावनगरसे प्रकाशित हुआ था।
२ आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल आगरासे प्रकाशित 'पहला कर्मग्रन्थ' __- पृ० १३३ आदिमें यह अन्तर दिया हुआ है ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४३१ भेद वज्रर्षभनाराच सहननका अर्थ विशेष रूपसे उल्लेखनीय है । कर्मविणकमें उसका अर्थ इस प्रकार किया है
रिसहो य होइ पट्टो वज्ज पुण कीलिया मुणेयव्वा ।
उभो मक्कडवघं नाराय त वियाणाहि ॥१०९॥ यह गाथा जीव समास ग्रन्थसे ली गई है। अत इसे प्राचीन होना चाहिये । इसमें कहा है-ऋपभ पट्टको अर्थात् परिवेष्टन पट्टको कहते है । वज्रका अर्थ कील जानना चाहिये और दोनो ओरसे मर्कटवन्धको नाराच जानना चाहिये । अर्थात् जिसमें दो हड्डियाँ दोनो ओरसे मर्कटवन्धमे वधी हो, और पट्टकी आकृति वाली तीसरी हड्डीमे वेष्टित हों और ऊपरसे इन तीनो हड्डियोको वीधने वाली कील हो उस संहननको वज्रऋपभनाराच कहते है।
दिगम्बर परम्परामें-सहनन अर्थात् हड्डी समूह, ऋपभ-वेष्टन, वज्रके समान अभेद्य होनेसे वज्रऋपभ कहलाता है । और वज्रके समान नाराचको वज्र नाराच कहते है । अर्थात् जिस सहनन नामकमके उदयसे वज्रमय हड्यिा , वज्रमय वेष्टनसे वेष्ठित और वज्रमय नाराचसे कीलित होती है वह वज्रपभ नाराच शरीर सहनन है ।' (पखं०, पु० ६, पृ० ७३) ___यह अर्थभेद बहुत पुराना प्रतीत होता है। इसी तरहका अर्थ भेद कुछ अन्य प्रकृतियोमें भी पाया जाता है । ___ इस कर्मविपाकको वृहत्कर्मविपाक भी कहते है। और इसे प्रथम प्राचीन कर्मग्रन्थ भी कहा जाता है। इसका कारण यह है कि देवेन्द्र सूरिने विक्रमकी तेरहवी शताब्दीके अन्तमें चार कर्मग्रन्थोकी रचना की थी जो नवीन कर्मग्रन्थ कहे जाते है । उन्हीके कारण पहलेके कर्मग्रन्थोको प्राचीन तथा वृहत् विशेपण दिया गया है जिससे दोनोका भेद परिलक्षित किया जा सके, क्योकि देवेन्द्र सूरिने अपने कर्मग्रन्थोको वही नाम दिया है । आचार्य गर्गर्षि
आचार्य गपिने अपने सम्बन्धमें कोई जानकारी नही दी और न अन्य स्रोतसे ही उनके सम्वन्धमें कोई जानकारी मिलती है । उनके कर्मविपाककी दो संस्कृत टीकाएँ मुद्रित हो चुकी है उनमेंसे एक टीका तो अज्ञातकर्तृक है। उसके कर्ताके सम्वन्धमें कोई भी बात ज्ञात नही है। दूसरी टीका परमानन्द सूरिकी रची हुई है। यह कुमारपालके (स० ११९९-१२३०) राज्यमें वर्तमान थे। उनकी टीका की एक ताडपत्रीय प्रति स० १२८८ की लिखी हुई उपलब्ध है। और गर्षि कुमारपालसे पहले हो गये है । १ जै० सा० इ० (गु०), पृ० ३९० ।
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४३२ · जैनसाहित्यका इतिहास
सिद्धर्षिने अपनी उपमिति भव प्रपञ्च कथामें गर्गपिका गुरु रूपसे स्मरण किया है। और उक्त कथा उन्होने स० ९६२ में समाप्त की थी। अत गर्पि और उनकी कृति कर्मविपाकका समय विक्रमकी नौवी शताब्दीका अन्तिम चरण या दशवीका प्रथम चरण होना चाहिये। गोविन्दाचार्य रचित कर्मस्तव वृत्ति ____ कर्मस्तव' के सम्बन्धमे पहले लिखा जा चुका है । श्वेताम्बर परम्परामें उसे द्वितीय प्राचीन कर्म ग्रथके रूपमे माना जाता है। इस पर २४ और ३२ गाथात्मक दो भाग्य भी है। उनके कर्ता आदिके सम्बन्धमें कुछ भी ज्ञात नही है । तथा गोविन्दाचार्य रचित एक सस्कृत वृत्ति है। इस वृत्तिकी एक प्रति १२८८ की लिखी हुई उपलब्ध है । अत यह निश्चित है कि ग्रन्थकार उससे पहले हो गये है। बन्दस्वामित्व
यह एक ५४ गाथाओका प्रकरण ग्रन्थ है। जैसा कि नामसे प्रकट होता है, इसमें चौदह मार्गणाओके आश्रयसे कर्मप्रकृतियोके वन्धके स्वामियोका कथन है । इसके कर्ताका नाम अज्ञात है । अन्तिम गाथामें उसने कहा है-'मुझ जडबुद्धिने पूर्व सूरि रचित प्रकरणोमेंसे कर्मस्तवको सुनकर इस वन्ध स्वामित्वको रचा।' अत कर्मस्तवके पश्चात् इसकी रचना हुई है । इस प्रकरण पर हरिभद्रसूरि रचित एक सस्कृत टीका है । यह वृहद्गच्छके मानदेव सूरि जिनदेव उपाध्यायके शिष्य थे। इन्होने जयसिंहके राज्यमें वि० स० ११७२ में वन्धस्वामित्व पडशीति आदि कर्मग्रन्थो पर वृत्ति रची थी। इन्होने अपनी टीकामें कर्मस्तव टीकाका निर्देश किया है । यदि यह टीका गोविन्दाचार्य रचित है तो गोविन्दाचार्यका समय उनसे पहले होना चाहिये। जिनवल्लभ गणि रचित षडशीति
यह छियासी गाथाओका एक प्रकरण ग्रन्थ है। इसीसे इसका नाम षडशीति १ यह कर्मस्तव भी गोविन्दाचार्यकी टीकाके साथ आत्मानन्दसभा भावनगरसे
'सटीका चत्वार कर्मग्रन्था' के अन्तर्गत प्रकाशित हो चुका है। २ यह बन्धस्वामित्व भी हरिभद्रसूरि रचित टीकाके साथ 'सटीका चत्वार
कर्मग्रन्था' के अन्तर्गत आत्मानन्द जैन सभा भावनगरसे प्रकाशित हुआ है। ३ 'इय पुन्वसूरि कय पगरेणसु जडबुद्धिणा मए रइय ।
बधसामित्तमिण नेय कम्मत्थय सोउ ॥५४॥'-व० स्वा० । ४ 'आसा दसानामपि गाथाना पुनर्व्याख्यान कर्मस्तवटीकातो बोद्ध व्यमिति ।
-प्रा०व० स्वा० गा० १४ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४३३ है। इसमें ग्रन्थकारने जीवसमास, मार्गणा, गुणस्थान, उपयोग, योग और लेश्या आदिका कथन किया है । इसका दूसरा नाम आगमिक वस्तु विचारसार भी है।
इसमें जो विषय वर्णित है वह सब गोमट्टसार जीवकाण्डमें है। किन्तु दोनोकी शैलीमें बहुत अन्तर है । जीवकाण्डमें वीस प्ररूपणाएं है और प्रत्येक प्ररूपणाका उसमें वहुत विस्तृत और विशद वर्णन है। प्रकृत षडशीति तो उसका एक अंश जैसा है। अनेक स्थलोमें दोनोमें मतभेद भी है। ____ इसके रचयिता जिनवल्लभगणि चत्यवासी जिनेश्वर सूरिके शिष्य थे और उन्होने नवाग वृत्तिकार अभयदेव सूरिके पास विद्याध्ययन किया था। इससे वह चैत्यवासके विरोधी हो गये और उन्होने अभयदेव सूरिसे दीक्षा ली। वादको वे उनके पट्टधर हुए और स० ११६७ में उनका स्वर्गवास हुआ । ___ इस ग्रथकी तीन वृत्तियाँ उपलब्ध है । एक वृत्ति तो बन्धस्वामित्व पर वृत्तिके रचयिता हरिभद्रसूरिकी है । दूसरी वृत्ति मलय गिरिकी है। तीसरी वृत्ति यशोभद्र सूरिकी है । इनमेंसे पहली दो वृत्तियोके साथ षडशीतिका प्रकाशन आत्मानन्द सभा भावनगरसे हुआ है।
ये सब वृत्तियाँ विक्रमकी १२वी १३वी शताब्दी की है।
जिन वल्लभ गणिका एक सार्धशतक नामक ग्रथ भी है । इसमें १५५ गाथायें है और ११० गाथाओका उसपर एक भाष्य है । उसके कर्ताका नाम ज्ञात नही है। मुनिचन्द्र सूरिने वि० सं० ११७० में उस पर चूणि रची थी और धनेश्वर सूरिने उसी समयके लगभग उस पर वृत्ति रची थी। देवेन्द्रसूरि रचित नव्य कर्मग्रन्थ
आचार्य देवेन्द्रसूरिने पाँच कर्मग्रन्थोकी रचना की थी और उन्होने उनका नामकरण भी पूर्व में विद्यमान प्रकरणोके नामोके आधारपर कर्मविपाक, कर्शस्तव, वन्धवामित्व, पडशीति और शतक ही रखा था। वास्तवमें उनके ये पांचो कर्मग्रन्थ स्वतत्र नही है किन्तु प्राचीन कर्मग्रन्थोके आधारपर ही उनकी रचना हुई है। यद्यपि ग्रन्थोका नाम, विपय, वस्तु वर्णनका क्रम आदि प्राय सभी उक्त प्राचीन कर्मग्रन्थोंका ऋणी है। तथापि उसमें जो वैशिष्ट्य है वह ग्रन्थकारके वैदुष्य और रचना चातुर्यका परिचायक है। इन नवीन कर्मग्रन्थोकी इस विशिष्टताके कारण ही प्राचीन कर्मग्रन्थोकी ओरसे पाठक उदासीन जैसे बन गये ।
-जल-मा० इ० (गु०), पृ० २३०-३१ । २ श्री आत्मानन्द जैन पुस्तक प्रचारक मण्डल आगरासे षडशीति नामक नवीन
चतुर्थ कर्मग्नथका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित हुआ है। उससे मतभेदोको जाना जा सकता है।
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४३४ जैनसाहित्यका इतिहास
हमने भी इसीसे उनका साधारण परिचय देकर सन्तोप कर लिया क्योकि नवीन कर्मग्रन्योके विपयमे आवश्यक वक्तव्य देना अपेक्षित था।
उक्त नामके प्राचीन पाँचो कर्मग्रन्य विभिन्न आचार्योंकी कृति होनेसे विभिन्न कालोमें रचे गये थे । अत उनका कोई क्रम निर्धारित नही था। देवेन्द्रसूरिने अपने पाँचो कर्मग्रन्थोको पुराना नाम देकर जो क्रम निर्धारित किया, उसी क्रमके अनुसार प्राचीन कर्मग्रन्थोको भी पहला दूसरा आदि सज्ञाएं दे दी गई । फलत कर्मविपाक पहला, कर्मस्तव, दूसरा, बन्धस्वामित्व तीसरा, पडशीति चौथा और . शतक पांचवा कर्मग्रन्थ प्रसिद्ध हो गया। __ यह क्रम इतना अधिक रूढ हो गया है कि इन कर्मग्रन्थोके मूलनामसे अपरिचित भी प्रथम, द्वितीप आदि कर्मग्रन्थ कहनेसे ठीक-ठीक समझ जाते है । कर्मविपाक
इस प्रथम कर्मग्रन्थमें कर्मोकी सब प्रकृतियोके विपाकका ही मुख्य रूपसे कथन है । उस कथनको पाँच भागोमें बाटा जा सकता है
१-प्रत्येक कर्मके प्रकृति आदि भेदोका कथन । २-कर्मोकी मूल तथा उत्तरप्रकृतियाँ। ३-पाँच प्रकारके ज्ञान और चार प्रकारके दर्शनोका कथन । ४-सब प्रकृतियोका दृष्टान्तपूर्वक कार्य-कथन और ५–मव प्रकृतियोंके कारणो का कथन । इसमे केवन ६० गाथाएँ है । और इस तरह यह प्राचीन कर्मविपाकसे बहुत छोटा है। किन्तु उससे इसमें विषय अधिक है। आठों कर्मोके वन्धके जो कारण शतकमें वतलाये है, देवेन्द्रसूरिने उन्हे कर्मविपाकमें ही दे दिया है ।
प्राचीन कर्मविपाकमे श्रुतज्ञानावरण कर्मका वर्णन करते हुए श्रुतज्ञानके चौदह भेदोका निर्देश मात्र किया है। किन्तु इस कर्मविपाकमें एक गाथाके (६) द्वारा उन चौदह भेदोको गिनाया है और एक गाथा (७) के द्वारा श्रुतज्ञानके उन बीस भेदोको भी गिनाया है जो षड्खण्डागम और जीवकाण्डमें गिनाये गये है । श्वेताम्बर परम्परामें ये बीस भेद अन्य किसी ग्रन्थमें देखनेमें नही आये । २ कर्मस्तव
देवेन्द्रसूरि रचित इस नवीन कर्मस् वमें केवल ३४ गाथाएँ है और इस तरह यह भी प्राचीन कर्मस्तवसे प्रमाणमे छोटा है । इसमे गुणस्थानोमे कर्मोके बन्ध, . उदय, उदीरणा और सत्त्वका कथन थोडेमें वडे सुन्दर ढंगसे किया गया है। ३ बन्धस्वामित्व
बन्ध स्वामित्व नामके इस तीसरे कर्मग्रन्थकी गाथा सख्या मात्र २४ है । और इस तरह प्राचीन बन्ध स्वामित्वसे प्रमाणमें यह भी छोटा है। दोनोमें विषय समान होते हुए भी प्राचीनमें जो वात विस्तारसे कही है नवीनमे उसे
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४३५ परिमित शब्दोमें कहा है । इसीम गति आदि मार्गणाओमे गुणस्थानोकी रास्याका निर्देश जैसा प्राचीन बन्धस्वामित्वमें अलगगे किया है, नवीन कर्मग्रन्यमें वैसा नही किया । किन्तु गुणस्थानोको लेकर वन्ध स्वामित्वका कथन इस रीतिमे किया है उनका ज्ञान पाठकको स्वत हो जाता है । ४ षडगीति _पडशीति नामक चतुर्थ वर्मग्रन्थमं प्राचोनकी तरह ही ८६ गाथाएं है । इमोसे दोनोके पडगीति नाममे भी ममानता है। किन्तु प्राचीनकी टीकाके अन्तमें टीकाकारने उसका नाम 'आगमिक वस्तु विचारसार' दिया है, जबकि नवीनके कर्ताने 'सूदमार्य विचार' नाम दिया है। प्राचीनकी तरह नवीनमें भी मुख्य अधिकार तीन ही है-जीवस्थान, मार्गणा स्थान और गुणस्थान । किन्तु गाथामख्या ममान होते हुए भी नवीनमें ग्रन्यकारने विषयका विस्तारपूर्वक कथन किया है। 'भाव' और 'सख्या' का कथन प्राचीनमें नहीं है किन्तु नवीनमे विस्तारसे है। शतक
गतक नामक इस पञ्चम कर्मग्रन्थका नाम गतक होते हुए भी प्राचीन शतकसे इसके विपयवर्णनमें अन्तर है । सवमे प्रथम ध्रुववन्धिनी, देगघाती, अघाती, पुण्यस्पा, पापस्पा, परावर्तमाना और अपरावर्तमाना कर्मप्रकृतियोका कथन है । फिर उन्ही प्रकृतियोमें कौन क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, भव विपाकी और पुद्गलविपाकी है यह बतलाया है। फिर बन्धके चार भेदोका स्वरूप बतलाकर उनका कयन किया है । प्रकृतिवन्धका कथन करते हुए मूल तथा उत्तरप्रकृतियोमें भूयस्कार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यवन्धोको वतलाया है। स्थितिबन्धका कथन करते हुए मूल तथा उत्तप्रकृतियोकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति, एकेन्द्रिय आदि जीवोमें उसका प्रमाण निकालनेकी रीति, और उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति वन्धके स्वामियोका कथन किया है । प्रदेशवन्धका कथन करते हुए वर्गणाओका स्वरूप, उसकी अवगाहना, बद्ध कर्मदलिकोका मूल तथा उत्तरप्रकृतियोमें वटवारा, कर्मके क्षपणमें करण ग्यारह गुणश्रेणियाँ, गुणश्रेणी रचनाका स्वरूप, गुणस्थानोका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तराल, प्रसगवश पल्योपम सागरोपम और पुद्गल परावर्तके भेदोका स्वरूप, योगस्थान वगैरहका अल्पवहुत्व और लोक आदिका स्वरूप बतलाया है। तथा अन्तमें उपशम श्रेणि और क्षपक श्रेणिका कथन किया है । इनमेंसे वहुतसे कथन प्राचीन शतकमें नही है । कर्मग्रन्थोकी स्वोपज्ञ टीका
देवेन्द्रसूरिने अपने पांचो कर्मग्रन्थो पर सस्कृतमें टीका भी वनाई है। और
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४३६ . जैनसाहित्यका इतिहास उनकी टीका उनकी विद्वत्ता और रचना चातुर्यको परिचायिका है । इससे उनकी अध्ययन शीलताका पता चलता है। उनकी टीकाएँ कर्मसाहित्यके उद्धरणोसे और कर्मविपयक विविध चर्चाओसे भरी हुई है । उसको देखनेसे उनके कर्मविषयक पाण्डित्यके प्रति गहरी आस्था होती है । टीकाकी शैली प्रसन्न और भाषा सरल है । कर्मसाहित्यके अभ्यासीके लिए यह टीका अवश्य ही अवलोकनीय है । ग्रन्थकार तथा उनका समय
उक्त कर्मग्रन्थोके रचयिता श्री देवेन्द्रसूरिने अपनी टीकाके अन्तमें अपनी प्रशस्ति दी है। उससे ज्ञात होता है कि उनके गुरुका नाम जगच्चन्द्रसूरि था
और वे चान्द्रकुलमें हुए थे । तथा विवुध श्री धर्मकीर्ति और विद्यानन्दसूरिने उनके कर्मग्रन्थोकी टीकाका सशोधन किया था। ___ गुर्वावलि में श्री जगच्चन्द्रसूरिके विषयमें लिखा है कि वि०स० १२८५में इन्होने उन तप धारण किया, इससे इनकी ख्याति 'तपा' नामसे हो गई और इनका वृद्धगच्छ तपागच्छ नामसे प्रसिद्ध हुआ। दैलवाराके प्रसिद्ध मन्दिरोंके निर्माता श्री वस्तुपाल तेजपाल इनका बहुत आदर करते थे। तपागच्छकी स्थापनाके बाद श्री जगच्चन्द्रसूरिने अपने शिष्य देवेन्द्रसूरि और विजयचन्द्रसूरिको सूरिपद दिया। ____ श्री देवेन्द्रसूरिने उज्जैनी नगरीके वासी सेठ जिनचन्द्रके पुत्र वीरधवलको प्रतिबुद्ध करके वि०स० १३०२में दीक्षा दी थी और वि०सं० १३२३में गुजरातके प्रल्हादनपुर नामक नगरमें उसे सूरिपद दिया था। यही वीरधवल विद्यानन्दसूरिके नामसे प्रसिद्ध हुए और उन्होने अपने गुरु श्री देवेन्द्रसूरि रचित कर्मग्रन्थोकी टीकाका सशोधन किया । गुर्वावलीके अनुसार वि०स० १३२७में देवेन्द्रसूरिका स्वर्गवास हुआ। अत उनका समय विक्रमकी तेरहवी शताब्दीका उत्तरार्ध तथा चौदहवीका पूर्व भाग है। संस्कृत कर्मग्रन्थ
विक्रमकी १५वी शताब्दीके प्रारम्भमें जयतिलक सूरिने संस्कृतके ५६९ श्लोकोमें चार कर्मग्रन्थोकी रचना की थी। कर्मप्रकृति नामक अन्य ग्रन्थ
जिन रत्नकोशमे कर्मप्रकृति नामक आठ ग्रन्योका निर्देश है । इनमेंसे पहलीके रचयिता शिवशर्म सूरि है इसके सम्बन्धमे पीछे विस्तारसे लिख आये है। दूसरी१ 'तदादिवाणद्विप भानुवर्षे श्रीविक्रमात् प्राप तदीयगच्छ ।
वृहद्गणाह्वोऽपि तपेति नाम श्रीवस्तुपालादिभिरर्च्यमान ।'
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४३७ के रचयिता तथागच्छके यशोविजय सूरि है जो विक्रमकी १८वी शतीके पूर्वार्धमें हुए है। तीसरीके रचयिता नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक है। इसकी प्रतियां अनेक भण्डारोमें पाई जाती है। चौथीके रचयिता ऋपभनन्दि है। आरा जैनसिद्धान्त भवनकी ग्रन्थसूचीमें ऐसा ही छपा हुआ है । उसीका निर्देश जिन रत्नकोगमे है। हमने आरासे उसकी प्रति मगाई तो नेमिचन्द्र सैद्धान्तिककी कर्मप्रकृति आई। अत उक्त ऋपभनन्दिका निर्देश भ्रमपूर्ण प्रतीत होता है किन्तु उस भ्रमका कारण क्या है यह चिन्त्य है । अस्तु,
पांचवीके रचयिता सुमतिकीर्ति है । किन्तु यह उल्लेख भी भ्रमपूर्ण ही प्रतीत होता है । कोशमें लिखा है कि ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, वम्बईको सूचीमें कर्मप्रकृति टीकाको ज्ञानभूषण और सुमतिकीर्ति रचित बतलाया है। वही ठीक भी प्रतीत होता है क्योकि उसकी प्रति देहली और जयपुरके शास्त्र भण्डारोमें भी वर्तमान है । अस्तु,
नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक रचित कर्मप्रकृति नामक ग्रन्थकी गाथा सख्या १६२ है। यह कोई स्वतन्त्र कृति नही है किन्तु सकलित है। और इसका सकलन गोम्मटसारके कर्मकाण्डसे किया गया है । इसमें प्रकृति समुत्कीर्तन, स्थितिवन्ध, अनुभागवन्ध और मूलप्रकृतियोके बन्धके कारणोका कथन है जो कर्मकाण्डके प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक प्रथम अधिकार, बन्धोदयसत्ता नामक द्वितीय अधिकार और प्रत्यय नामक छठे अधिकारसे सकलित किया गया है और आवश्यकतानुसार सकलयिताने कुछ अन्य गाथाएँ भी यथास्थान उसमें सम्मिलित कर दी है जो सम्भवतया सकलयिताकी कृति हो सकती है ।
कर्मप्रकृतिकी गाथाओका पूरा विश्लेषण इस प्रकार है-कर्मकाण्डके प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक प्रथम अधिकारकी पहली गाथासे कर्मप्रकृतिका प्रारम्भ होता है इस अधिकारको प्रथम १५ गाथाएँ कर्मप्रकृतिमें यथाक्रम वर्तमान है । १५वी गाथामें सप्तभगीके द्वारा जानकर श्रद्धान करनेकी गत आई है अत कर्मप्र में १६वी गाथा सात भगोका कथन करनेवाली है। यह गाथा पञ्चास्तिकायकी १४वी गाथा है और वहीसे ली गई जान पड़ती है। इस एक गाथाके वीचमें बढ जानेसे कर्मकाण्ड और कर्मप्रकृतिकी यथाक्रम गाथा सख्यामें एकका अन्तर पड गया है । आगे पुन कर्मकाण्डकी २० पर्यन्त गाथाएँ कर्मप्रकृतिमें यथाक्रम वर्तमान है। कर्मकाण्डकी वीसवी गाथामें जिसकी सख्या कर्मप्रकृतिमें २१ है, आठो कर्मोके क्रमपाठका समर्थन करते हुए उसका उपसहार किया गया है। इसके आगे पांच गाथाएँ कर्मप्रकृतिमें नवीन है। इनमें बतलाया है कि जीवके अनादिकालसे विविध कर्मोंका बन्ध होता है। उनका उदय होनेपर जीवके राग-द्वपरूप भाव होते है । उन भावोंके कारण पुन कर्मवन्ध होता है। उस बन्धके चार भेद है।
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४३८ जैनसाहित्यका इतिहास
चालू चर्चाके मध्यमें उक्त कथन बिल्कुल बेमौके प्रतीत होता है। उसका गाथा २१ और २७ के साथ कोई सम्बन्ध नही है। अस्तु,
२७वी गाथामें, जिसका नम्बर कर्मकाण्डमे २१ है आठो कर्मोका स्वभाव उदाहरणके द्वारा प्रकट किया गया है। कर्मप्रकृतिकी जो प्रति हमारे सामने है उसमें उस गाथाका संस्कृतमें व्याख्यान किया गया है। आगे नवीन आठ गाथाओके द्वारा उसी कथनको विस्तारसे किया है अर्थात् एक एक गाथाके द्वारा एकएक कर्मका स्वभाव बतलाया गया है । फिर गाथा ३६ में जिसका क्रमाक कर्मकाण्डमें २२ है प्रत्येक कर्मको उत्तरप्रकृतियोकी सख्या वतलाई है।
आगे जीवकाण्ड के ज्ञानमार्गणाधिकारसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञानका लक्षण बतलानेवाली गाथाएँ देकर तथा दर्शनमार्गणाधिकारसे दर्शन, चक्षुदर्शन, अचक्षदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन सम्बन्धी गाथाएँ देकर ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मोकी प्रकृतियां वतलाई ' है। दो गाथाओके द्वारा जिनकी क्रमसख्या ४७-४८ है, दर्शनावरणीयके भेद गिनाकर पाचो निद्राओका स्वरूप तीन गाथाओके द्वारा बतलाया है। ये तीनों गाथाएँ कर्मकाण्ड की है। कर्मकाण्डमें इनकी क्रमसख्या २३, २४, २५ है और कर्मप्रकृतिमें ४९, ५०, ५१ है । गाथा ५२-५३ के द्वारा वेदनीय और मोहनीयके एक भेद दर्शनमोहनीयके भेद बतलाकर कर्मकाण्डकी २६वी गाथाके द्वारा दर्शनमोहनीयके तीन भेद कैसे हो जाते है यह बतलाया है।
आगे चारित्रमोहनीयके भेद गिनाये है। उसके लिये पहली दो गाथाएँ तो नई रची गई है । आगे कपायके भेदोका कथन करनेवाली ५ गाथाएँ जीवकाण्ड के कषायमार्गणाधिकारसे ली गई है।
फिर एक गाथा न० ६२ के द्वारा नोकषायके भेद बतलाये है । आगे स्त्री और पुरुषकी व्युत्पत्ति करनेवाली दो गाथाएँ तथा नपुंसक वेदका स्वरूप बतलाने वाली एक गाथा जी का के वेद मार्गणाधिकारसे ली है।
आगे आयु और नाम कर्मकी प्रकृतियोको गिनाया है। कर्मकाण्डमें गा० २७ के द्वारा पांच शरीरोके सयोगीभेद, गा० १८के द्वारा शरीरके आठ अग और गाथा २९-३२के द्वारा सहननोके बारेमें विशेष कथन किया गया है तथा गाथा ३३के १ जी० का०, गा० ३०५, ३१४, ३६९, ४३७, ४५९। २ जी०का०, गा० ४८१, ४८३, ४८४,४८५ । इनमेंसे गा० ३०५ के उत्तरार्ध
में थोडा परिवर्तन कर दिया गया है। ३ जी०का०, गा० २८३, २८४, २८५, २८६ और २८२ । ४ जी० का०, गा० २७२, २७३, २७४ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४३९ द्वारा आतप नामकर्म और उष्ण नामकर्मके अन्तरको स्पष्ट किया है। नामकर्मके भेदोको बतलाते हुए कर्मप्रकृतिके संकलयिताने इन सब गाथाओको यथास्थान सकलित कर लिया है। इस तरह सब कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियोकी सख्या समाप्त होने पर्यन्त कर्म प्रकृतिकी गाथा सख्या १०३ हो जाती है। आगे पुन कर्मकाण्डकी गाथा ३४ से ५१ तक यथाक्रम है। ५१ सख्याकी गाथाका नम्बर कर्म प्रकृतिमें १२२ है । यही प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार समाप्त हो जाता है । जबकि कर्मकाण्डके इस अधिकारमें ५१के बाद भी ३५ गाथाएँ शेप रह जाती है जो कर्म प्रकृतिमें नहो ली गई है। अस्तु,
इसके बाद कर्म प्रकृतिमें स्थितिवन्धका कथन है। यह कर्मकाण्डसे सकलित है । कर्मकाण्डके अन्तर्गत स्थिति वन्धाधिकारकी गा० १२७से १४४ तक ज्यो की त्यो यथाक्रम सकलित है। उनका नम्बर १२३ से १४० तक है । यही स्थितिवन्धाधिकार समाप्त हो जाता है। यद्यपि कर्मकाण्डमे आगे भी चलता है। अतभागवन्धाधिकारमें केवल चार गाथाएं है जो कर्मकाण्डके अनुभागबन्धा० की है। कर्मकाण्डमें उनका नम्बर १६३, १८०, १८१ और १८४ है । ___ आगे आठो कर्मों के प्रत्ययोका कथन भी कर्मकाण्डके प्रत्ययाधिकार नामक छठे अधिकारसे सकलित किया गया है। कर्मकाण्डमें ८०० से ८१० गाथा तक ग्यारह गाथाओसे यह कथन किया गया है। किन्तु कर्मप्रकृतिमें गा० १४५ से १६२ तक १८ गाथाओसे प्रत्ययोका कथन है। उसका कारण यह है कि कर्मप्रकृतिके सकलयिताने एक गाथाके द्वारा असाता वेदनीयके वन्धके कारणोका, ५ गाथाओके द्वारा तीर्थकर नामकर्मके वन्धके कारणोका और एक गायाके द्वारा अशुभ नामकर्मके वन्धके कारणोका विशेप कथन किया है जो कर्मकाण्डमें नही है। इससे गाथा सख्या बढ गई है। ___इस तरह कर्मप्रकृति एक सकलित रचना है । मुख्य रूपसे कर्मकाण्डसे उसका सकलन किया गया है और कमी पूर्ति के रूपमें सकलयिताने उसके कुछ अन्य गाथाएँ भी जो उसकी स्वरचित प्रतीत होती है, जोड दी है। किन्तु सकलयिताकी रुचि कुछ विचित्र सी जान पड़ती है। उसने अनुभागवन्धकी केवल चार गाथाएँ ही सकलित की और प्रदेशवन्ध' को तो एक तरहसे छोड ही दिया है। १ कर्मप्रकृतिकी गाथा २१-२६ में जीव प्रदेशों और कर्मप्रदेशोके वन्धादिका
कथन किया है । और गाथा २६ में वन्धके चार भेद बतलाकर उत्तरार्धमें लिखा है-'पयडिट्ठिदि अणुभागपएसवधो पु कहियो ।' मुख्तार साहवने अपनी पु० वा० सू० की प्रस्ता० (१० ८३) के फुटनोटमें लिखा कि 'पयडिट्ठिदि अणु भाग पएसवधो पुरा कहिओ' कर्मप्रकृतिकी अनेक प्रतियोमे यही पाठ पाया जाता है जो ठीक जान पडता है क्योकि 'जीपपएसेक्केक्के'
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४४० : जैनसाहित्यका इतिहास अथवा जिस रूपमें उसका कथन किया गया है वह सकलयिताकी बुद्धिमत्ताका
नहीं होता। सकलयिताका नाम तथा समय
प्रतिमें कर्मप्रकृतिके रचयिताका नाम नेमिचन्द सिद्धान्ति लिखा है। कर्मकाण्डके रचयिताका नाम नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती था। अत यह नेमिचन्द सिद्धान्ती कोई दूसरे ही व्यक्ति प्रतीत होते है। मुखतार साहबने लिखा है'मेरी रायमें यह कर्मप्रकृति या तो नेमिचन्द्र नामके किसी दूसरे आचार्य, भट्टारक अथवा विद्वान्की कृति है, जिनके साथ नामसाम्यादिके कारण 'सिद्धान्त चक्रवर्ती पद बादको कही कही जुड गया है, सब प्रतियोमें यह नही पाया जाता । या किसी दूसरे विद्वान्ने उसका सकलन कर उसे नेमिचन्द्र आचार्यके नामाकित कर दिया है। ऐसा करनेमें उसकी दो दृष्टि हो सकती है, एक तो ग्रथ प्रचारकी
और दूसरी नेमिचन्द्रके श्रेय तथा उपकार स्मरणको स्थिर रखनेकी क्योकि इस अथका अधिकाश शरीर आद्यन्त भागो सहित उन्हीके गोम्मटसारसे बना है । (पु० वा० सू० प्रस्ता०, पृ० ८८)।
यद्यपि सकलयिताके नामका निर्णय न हो सकनेसे उसके समयका निर्णय किया जा सकना शक्य नही है । तथापि हमारे सामने आरा जैन सिद्धान्त भवनकी जो प्रति उपस्थित है उस पर प्रति लेखनका काल सम्बत् १६६९ लिखा है । भट्टारक ज्ञान भूषण और सुमतिकीति ने उस पर एक टीका भी लिखी है। पचसग्रहकी वृत्ति भी सुमतिकीर्तिकी लिखी हुई है और उसमें उसका रचनाकाल सम्बत् १६२० दिया है। उसका सशोधन भी ज्ञानभूषणने ही किया था । अत यह वृत्ति भी उसी समयके लगभग की होनी चाहिये ।
अत इतना तो सुनिश्चित है कि विक्रमकी ११वी शताब्दीके पश्चात् १६वी इत्यादि पूर्वकी तीन गाथाओमें प्रदेश बन्धका ही कथन है । ज्ञानभूषणने अपनी टीकामें इसका अर्थ देते हुए लिखा है-'ते चत्वारो भेदा के ? प्रकृतिस्थित्यनुभागा प्रदेशबन्धश्च, अय भेद पुरा कथित ।' मुख्तार साहबने यह भी लिखा है कि मेरे पास कर्मप्रकृतिकी एक वृत्ति सहित प्रति और है जिसमें यहाँ पाँचके स्थान पर छै गाथाएँ है । छठी गाथा 'सो बधो चउभेओ' से पूर्व इस प्रकार है
'आउगभागो थोवो णामा गोदे समो तदो अहिओ ।
घादि तिये वि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदिये ॥' यह कर्मकाण्डकी गाथा १९२ है ।
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उत्तरकालीन कम - साहित्य ४४१
शताब्दी पर्यन्त ५०० वर्षोंके सुदीर्घ कालके अन्दर किसी समय इस कर्मप्रकृतिका सकलन किया गया है ।
इस कालमें कव इसकी रचना हुई यही विचारणीय है
संस्कृत क्षपणासारके रचयिता माधवचन्द्र त्र विद्यके गुरुका नाम भी नेमिचन्द्र गणी था । उन्होने क्षपणासारकी प्रशस्तिमें उन्हें सैद्धान्ताधिप लिखा है । कर्मकाण्डके आधार पर सकलित वन्ध त्रिभगीके रचयिताका नाम एक प्रतिमें नेमिचन्द्रके शिष्य माधवचन्द्र लिखा है । मत क्षपणासारके रचयिता माधवचन्द्रके गुरु नेमिचन्द्र सिद्धान्ती ही कर्म प्रकृतिके सकलयिता प्रतीत होते है । माधवचन्द्र ने क्षपणासारको शक स० ११२५ (वि०स० १२६० ) मे रचा है । अत कर्मप्रकृति भी इसी समय लगभग संकलित की गई जान पडती है । बन्धत्रिभगी, उदयत्रिभगी और सत्त्वत्रिभगी
जिस तरह किसी सकलयिताने कर्मकाण्डके आधारसे कर्मप्रकृतिकी सकलना की है संभवतया उसी प्रकार कर्मकाण्डके आधार पर अन्य भी प्रकरण सग्रहीत किये गये है । इसी तरहके तीन प्रकरण कर्मकाण्डके बन्धोदय सत्त्व नामक दूसरे अधिकारसे सकलित किये गये है । कर्मप्रकृतिके सकलयिताकी तरह इनके सकलयिताने उक्त अधिकारसे अपनी रुचिके अनुसार गाथाएँ सकलित की है और आवश्यकताके अनुसार उनके बीचमें कुछ स्वरचित गाथाएँ भी जोड दी है ।
इनमेंसे प्रथम प्रकरण वन्धत्रिभगीका प्रारम्भ कर्मकाण्डके दूसरे अधिकारकी प्रथम गाथासे होता है जिसकी क्रमसख्या कर्मकाण्डमें ८७ है । ८७के वाद ८८वी गाथा है और फिर कर्मकाण्डकी गा० ३४, ३७ यथाक्रम है । फिर कर्मप्रकृतिकी ५३ - ५४वी गाथा यथाक्रम है । फिर कर्मकाण्डकी ३५वी गाथा है । फिर कर्म -
काण्डके दूसरे अधिकारकी ८९, ९०, ९१ नम्बरकी तीन गाथाएं छोडकर ९२वी से १०७ पर्यन्त गाथाएं है । फिर जीवकाण्डकी १२८वी और त्रिलोकसारकी २०३वी गाथा है । पुन कर्मकाण्डकी गाथा १०८ और १०९ है । फिर एक गाथा स्वरचित है । पुन कर्मकाण्डकी गाथा ११० है । फिर स्वरचित गाथाएँ है । बीच-बीचमें कुछ व्याख्या भी संस्कृत में है । सदृष्टिया भी है इस तरहसे बधत्रिभगी, उदयत्रिभगी और सत्त्वत्रिभंगी का कथन किया गया है। कुल गाथा सख्या १४३ है | अन्तमें लिखा है 'तत्त्वत्रिभगी समाप्ता ।' शायद 'सत्त्व' के स्थानमें तत्त्व लिखा गया । एक दूसरी प्रति भी उक्त भण्डारमें उसीके साथ है उसमें 'सत्त्वत्रिभगी' लिखा हुआ है उसमें कुछ गाथाएँ अधिक है ।
।
इनकी एक संस्कृत टीका भी है । उसके सम्बन्धमें आगे प्रकाश डाला जायेगा । आराके जैनसिद्धान्त भवनमें त्रिभगीके नामसे एक हस्तलिखित ग्रन्थ वर्तमान है उसमें ही उक्त प्रकरण वर्तमान है ।
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४४२ जैनसाहित्यका इतिहास
जिन रत्न कोशमें त्रिभगीमार नामक एक ग्रन्थका निर्देश है जिसे नेमिचन्द्र सैद्धान्तिकका बतलाया है । उसके विवरणमें लिखा है कि इस ग्रन्थमें आगे लिखे विभाग है - १ आस्रवत्रिभगी, २ वन्धत्रिभगी ३ उदय - उदीरणात्रिभगी, ४ सत्तात्रिभागी, ५ सत्त्वस्थानत्रिभगी, ६ भावत्रिभंगी । इस ग्रन्थका निर्देश बम्बई रायल एशियाटिक सोसायटीकी बम्बई शाखामें स्थित हस्तलिखित प्रतियोकी विवरणात्मक सूचीसे जिन रत्नकोशमें लिया गया है।
जिन रत्नकोशमे उसका विवरण देते हुए लिखा है कि त्रिभंगीमारके अन्तर्गत विभाग विभिन्न ग्रन्थ कर्ताओके द्वारा रचे गये है- प्रथम आस्रवत्रिभगीमें ६३ गाथाएँ है और वह श्रुतमुनिके द्वारा रचित है । द्वितीय वन्धत्रिभंगीमें ४४ गाथाएँ है और उनके रचयिता नेमिचन्द्र के शिष्य माधवचन्द्र है । तीसरी उदयत्रिभगीमें ७३ गाथाएं है और उसके कर्ता नेमिचन्द्र है ।' चौथी सत्तात्रिभगीमें ३५ गाथाएँ है और उनके रचयिता भी नेमिचन्द्र है । पाँचवी सत्त्वस्थानत्रिभगीमें ३७ गाथाएँ है और उनके रचयिता कनकनन्दि है । इस पर नेमिचन्द्रकी टीका भी है । अन्तिम भावत्रिभगीमें ११६ गाथाएँ है और यह भी श्रुतमुनिके द्वारा रचित है ।
आराकी उक्त त्रिभंगी उक्त त्रिभगीसार की ही प्रतिलिपि है । उसमें उक्त क्रमसे छहो त्रिभगियाँ सकलित है । किन्तु उसमें वन्धत्रिभगी, उदयत्रिभगी और सत्त्वत्रिभगीके कर्ताका नाम नही दिया है । गाथा सख्यामें भी कुछ अन्तर है ।
उक्त छहो त्रिभगीमेंसे आदि और अन्तकी त्रिभंगी तो श्रुतमुनि रचित है । एक सत्त्वस्थानत्रिभगी कनकनन्दि रचित है । यह कनकनन्दि नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके गुरुओमें से थे । शेष तीन त्रिभगी कर्मकाण्डसे सकलित की गई है । उनमें से एकका रचयिता नेमिचन्द्रके शिष्य माधवचन्द्रको बतलाया है और शेषका नेमिचन्द्र को । जैसाकि कर्मप्रकृतिके सम्बन्धमें विचार करते हुए लिख आये हैक्षपणासार संस्कृतके रचयिता माधवचन्द्र और उनके गुरु नेमिचन्द्र सैद्धान्ताधिप या संद्धान्ती ही उनके संकलयिता प्रतीत होते है ।
श्रुतमुनिकी रचनाएँ —
भावत्रिभगी
श्रुतमुनिके द्वारा रचित इस भावत्रिभंगीमें जीवके औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक औदयिक और पारिणामिक भावोका कथन गुणस्थान और मार्गणास्थानोमें ११६ गाथाओके द्वारा किया गया है ।
१ 'इदि गुणमग्गणठाणे भावा कहिया प्रवोह सुयमुणिणा ।
सोहंतु ते मुणिदा सुयपरिपुष्णा दु गुणपुण्णा ॥ ११६ ॥ ' - भा० त्रि०
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४४३
कर्मकाण्डके भावचूलिका नामक सातवें अधिकारमें भावोका कथन विविध भगोंके साथ किया गया है । यहाँ भगोको छोडकर सामान्य कथन है किन्तु कर्मकाण्डमें मार्गणाओके आश्रयसे भावीका कथन नहीं है, जबकि इस ग्रन्थमें है। पहले गुणस्थानोमें कथन है और फिर मार्गणास्थानोमें कथन है।
पाँचो भावीके उत्तर भेदोमेंसे किस स्थानमें कितने भाव होते है, कितने नही होते और कितने भाव उसी स्थानमें होकर आगे नहीं होते। इन तीन बातोंको लेकर भावोका कथन होनेके कारण इसे भावविभगी कहते है। वैसे दूसरी' गाथामें तो सूत्रोक्त मूलभाव तथा उत्तरभावोका स्वरूप कहनेकी प्रतिज्ञाकी गई है । उसपरसे इसे -भाव स्वरूप' नामसे कहा जा सकता है।
श्रीमाणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला बम्बईसे प्रकाशित भावसग्रहादि नामक २०वें ग्रन्थमें यह ग्रन्थ प्रकाशित हो चुका है। उसमें भावविभगी नाम पर लगे पाद टिप्पणमें लिखा है कि पुस्तकके अन्तमें 'भावसग्रह समाप्त.' पाठ था किन्तु प्रारम्भमें उल्लिखित नामके अनुसार उसे परिवर्तित करके 'भावविभगी समाप्ता' ऐसा छापा गया है । इसपरसे उसका भावसग्रह नाम भी ज्ञात होता है ।
पुस्तकके साथमें सदृष्टियां भी बनी हुई है । सभव है ये सदृष्टियां श्रुतमुनिने ही अपने ग्रन्थमें बनाकर लगा दी हो। इनसे ग्रन्थका विषय स्पष्ट हो जाता है।
रचना सरल और स्पष्ट है। प्रत्येक वातको बहुत सरलता और स्पष्टताके साथ कहा गया है। और उसका आधार कर्मकाण्डका सातवाँ अधिकार है। गोम्मटसारको गाथाओको अनुकृति उसकी गाथाओ पर छाई हुई है। आस्रवत्रिभगी
इन्ही श्रुतमुनिकी दूसरी कृति आस्रवत्रिभगी है । कर्मकाण्डके प्रत्यय नामक छठे अधिकारमें भी आस्रवके प्रत्ययोका कथन आया है । और यहाँ उस प्रकरण की दो एक गाथाएँ भी ज्योकी-त्यो ले ली गई हैं। किन्तु कर्मकाण्डमें केवल गुणस्थानोमें भगोके साथ कथन है जव कि यहाँ गुणस्थानोमें सामान्य कथन है
और उसके सिवाय चौदह मार्गणाओमें भी प्रत्ययोका कथन है जो कर्मकाण्डमें नही है । तथापि उसका आधार कर्मकाण्ड ही प्रतीत होता है। आस्रवके कारण १ 'इदि वंदिय पचगुरू सरूव सिद्धत्य भवियवोहत्य ।
सुत्तुत्त मुलुत्तरभावसरूव पवक्खामि ।।२।।'-भा० त्रि० । २ यह आस्रवत्रिभंगो माणिकचन्द्र ग्रन्थमालासे प्रकाशित भावसंग्रहादि नामक
२०वें ग्रन्थमें प्रकाशित हो चुकी है।
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४४४ • जैनसाहित्यका इतिहास चार है-मिथ्यात्व, अविरति, कपाय और योग । मिथ्यात्वके ५ भेद है अविरतिके १२ भेद है, कपायके २५ और योगके १५ भेद है। इस तरह मूल प्रत्यय चार है और उत्तर प्रत्यय ५७ है । इनके निमित्तसे कर्मोका आस्रव होता है।
ये आस्रव प्रत्यय किस गुणस्थानमें कितने होते है, कितने नही होते और कितने प्रत्यय उसी गुणस्थान तक होते है आगे नही होते, इन तीन भगोका कथन होनेसे इसका नाम आस्रवत्रिभगी है। इसमें कुल ६२ गाथाएं है और साथमें सदृष्टियाँ भी है। श्रुतमुनिका परिचय और समय
श्रुतमुनिने अपने भावविभगी अथवा भावसग्रह नामकग्रन्थके अन्तमें अपनी प्रशस्ति दी है उससे ज्ञात होता है कि श्रुतमुनिके अणुव्रतगुरु वालेन्दु या वालचन्द्र थे और महावतगुरु अभयचन्द्र सैद्धान्तिक थे। तथा शास्त्र गुरु अभयसूरि और प्रभाचन्द्र नामक मुनि थे। इनका परिचय कराते हुए श्रुतमुनिने लिखा है कि कुन्दकुन्दान्वयके मूलसघ, देशगण, पुस्तकगच्छकी इगुलेश्वर शाखामें हुए मुनि प्रधान अभयचन्द्र सैद्धान्तिकके शिष्य वालचन्द्र मुनि थे । और शब्दागम, परमागम, तांगमके पूर्णज्ञाता अभयसूरि सैद्धान्तिक थे। तथा सारत्रयमें निपुण, शुद्धात्मामें लीन और भव्य जीवोका प्रतिवोध करनेवाले प्रभाचन्द्र नामक मुनि थे।' श्रुतमुनिने वालचन्द मुनि और अभयसूरि सिद्धातका जयघोष करनेके वाद दो गाथाओके द्वारा चारुकीति मुनिका भी जयघोष किया है।
श्रुतमुनिके द्वारा रचित एक ग्रन्थ परमागमसार है उसमे भी उक्त प्रशस्ति
'अणुवदुगुरु बालेन्दु महन्वदे अभयचद सिद्धति । सत्येऽभयसूरि पभाचंदा खलु सुयमुणीस गुरु ॥११७॥ श्रीमूलसघ देसियगणपुत्थयगच्छकोडकुदाणं । परपण्णइगलेसरवलिम्हि जादस्स मुणिपहाणस्स ॥ सिद्धताभयचदस्स य सिस्सो वालचदमुणिपवरो। सो भन्वकुवलयाणं आणंदकरो सया जयउ ॥११९॥ सदागम-परमागम-तक्कागम णिरवसेसवेदी हु । विजिदसयलण्णवादी जयउ चिर अभयसूरि सिद्धती ॥१२०॥ णयणिक्खेवपमाण जाणित्ता विजिदसयलपरसमओ। वरणिवयिणि वह वंदियपयपम्मो चारुकीत्तिमुणी ॥१२१॥ णाद णिक्खिलत्थसहो सयलरिदेहिं पूजियो विमलो। जिणमग्गगयणसूरो जयउ चिरं चारुकित्तिमुणी ॥१२२॥ वरसारत्तयणिउणो सुद्धप्परओ विरहियपरभावो । भवियाणं पडिवोहणपरो पहाचदणाम मुणी ॥१२३॥'-भा० त्रि० प्रश० ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४४५ दी है किन्तु उसमें उसका रचनाकाल भी दिया है जो शक स० १२६३ (वि० स० १३९८) है अत श्रुतमुनि विक्रमकी चौदहवी शताब्दीके उत्तरार्धमें हुए है ।
श्रवणवेल गोलाके विन्ध्यगिरि पर्वतके एक शिलालेख न० १०५ में अभयचन्द्रके शिष्य श्रुतमुनिकी बडी प्रशंसा की गई है। इसमें चारुकीर्ति और अभयसूरिकी भी प्रशसा है । अत यह श्रुतमुनि ही प्रतीत होते है । यह शिलालेख शक स० १३२० का है अर्थात् परमागमसारकी रचनाके ५७ वर्ष पश्चात् का है ।
चन्द्रगिरि पर्वत परके एक अन्य शिलालेखमें भी अभयचन्द्र और उनके शिष्य बालचन्द्र पण्डितका उल्लेख है । यह शिलालेख शक स० १२३५ का है । ये दोनो श्रुतमुनिके व्रत गुरु ही प्रतीत होते है ।
इन्ही अभयचन्द्रको डॉ० उपाध्येने गोम्मटसारकी मन्द प्रवोधिकाका रचयिता माना है। किन्तु वेलूर शिलालेखोके आधारपर अभयचन्द्रका स्वर्गवास सन् १२७९ में और वालचन्द्रका ईस्वी १२७४ में बतलाया है जो ठीक प्रतीत नही होता । मन्द प्रबोधिकाकी रचनाके समयकी चर्चामें इसपर प्रकाश डाला गया है ।
केशववर्णीने अपनी कर्णाटवृति शक स० १२८१ में बनाकर समाप्त की थी। केशववर्णी अभयसूरि सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य थे। अभयसूरि श्रुतमुनिके शास्त्र गुरु प्रतीत होते है । क्योकि परमागमसारकी रचनाके १८ वर्ष वाद केशववर्णीने अपनी कर्णाटवृति समाप्त की थी। अत श्रुतमुनिके वह लघु समकालीन थे, यह निश्चित है। पचसग्रहकी प्राकृत टीका
पञ्चसग्रह पर एक प्राकृत टीका है उसकी जो प्रति हमारे सामने है उसमें उसका लेखनकाल सवत् १५२६ दिया है। यह टीका किसने कब रची इसका कोई पता उससे नही चलता। किन्तु इतना निश्चित है कि धवला टीकाके पश्चात् ही उसकी रचना हुई है क्योकि टीकाके प्रारम्भमें धवलाकी तरह मगल निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता की चर्चा है जो धवलासे ली गई है किन्तु यथास्थान उसमें कुछ काट-छाट कर दी गई है। उल्लेखनीय बात यह है कि ग्रन्थका नाम बतलाते हुए 'आराधना' नाम बतलाया है । यथा
'तत्थ गुणणाम आराहणा इदि । किं कारण ? जेण आराधिज्जते अणआ दसण-णाण-चरित्त-तवाणि त्ति ।'
इससे प्रतीत होता है कि आराधना भगवतीको प्राकृत टीकाका यह आद्यश १ 'सगगा (का) ले हु सहस्से विसयतिसट्ठिगदे दुविसवरिसे। मग्गसिर सुद्ध
सत्तमि गुरुवारे गथ सपुण्णो ॥२२३॥-जै० प्र० सं०, भा० १, पृ० १९१ । २ शि० सं०, भाग १, पृ० २०१ ।
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४४६ : जैनसाहित्यका इतिहास होना चाहिये । भगवती आराधनाकी विजयोदया' टीकामें प्राकृत टीकाका उल्लेख है। किन्तु वह टीका धवलासे प्राचीन होनी चाहिये, अत उसमें धवलाकी अनुकृतिकी सभावना नहीं की जा सकती। सम्भव है धवलाके बाद किसीने उस पर कोई प्राकृत टीका रची हो । किन्तु यह सब अनुमान मात्र है । ___ अन्य सब कथन धवलासे लेने पर भी उसके रचयिताने कर्ताके विपयमें परिवर्तन कर दिया है। धवलामें कर्ताके दो भेद बतलाये है अर्थकर्ता और ग्रथकर्ता । किन्तु इसमें तीन भेद बतलाये है, मूलतंत्रकर्ता, उत्तरतत्रकर्ता और उत्तरोत्तरतंत्रकर्ता । तथा भगवान महावीरको मूलतत्रकर्ता, गौतम गणधरको उत्तरतत्रकर्ता और लोहाचार्य तथा भट्टारक 'अप्पभूदिम' आचार्यको उत्तरोत्तर तत्रकर्ता लिखा है । यथा
'कत्तारा तिविधा मूलततकत्ता, उत्तरततकत्ता, उत्तरोत्तरततकत्ता चेदि । तत्थ मूलततकत्ता भगव महावीरो। उत्तरततकत्ता गोदम भयवदो । उत्तरोत्तर ततकत्ता लोहायरिया भट्टारक अप्पभूदिम आयरिया ।' ___ यहाँ उत्तरोत्तर तत्रकर्ता जो भट्टारक 'अप्पभूदिन' आचार्य का नाम दिया है, वह टीकाके कर्ताके अन्वेषणकी दृष्टि से चिन्त्य है।
आगे श्रुतज्ञान रूपी वृक्षका वर्णन है उसमें बारह अंगो और चौदह पूर्वोका कथन धवलासे प्राय ज्योका त्यो ले लिया गया है। और अन्तमें लिखा है'एव श्रुतवृक्ष समाप्त ।'
इसके पश्चात् पचसग्रह गत प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार आता है। पञ्चसग्रहमें इसका नम्बर दूसरा है और जीवसमास नामक अधिकारका पहला । किन्तु . इस टीकामें प्रकृति समुत्कीर्तनको पहला स्थान दिया है।
प्राय प्रत्येक अधिकारमे टीकाकार पहले ग्रन्थका मूलभाग जो प्राय अधूरा होता है, देता है। फिर उसका व्याख्यान करता है। प्रत्येक गाथाका अलगअलग व्याख्यान करनेकी पद्धति टीकाकारने नही अपनाई है।
प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकारमें प्रकृतियोका स्वरूप निरूपण प्राकृतगद्यमें बहुत सुन्दर रीतिसे किया गया है । और बीच-बीचमें कुछ गाथाएँ भी ग्रन्थान्तरसे उद्धृत की गई है।
टीकामें धवलाकी तरह प्राकृतके साथ यत्रतत्र सस्कृत भापाका भी उपयोग
१ इसके परिचय तथा उल्लेखोके लिये देखें-जै०सा० इ० पृ० ८४ आदि ।
इयमूलततकत्ता सिरिवीरो इदभूदि विष्पवरो। उवतते कत्तारो अणुतते सेस आइरिया ।।८०॥-त्रि० प०, अधि० १ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४४७
किया गया है खास कर जहाँ व्युत्पत्ति आदि दी गई है। और इस तरह उसमें जानने योग्य विपयकी बहुतायत है। आभिनिबोधिक ज्ञानकी जो व्युत्पत्ति दी गई है वह अभी तक हमारे देखनेमें किसी ग्रन्थान्तरमें नह आई । यथा____ 'आभिनिवोधिक ज्ञानमिति'-अ इति द्रव्य पर्याय । भि इति द्रव्याभिमुख 'निरिति निश्चयबोध इति ।' बुध अवगमने धातु । अभिनिवोधिक एव आभिनिवोधिक वा प्रयोजन अस्येति आभिनिवोधिकम् । आभिनिवोधिकमेव ज्ञान आभिनिवोधिक ज्ञानम् । आभिनिवोधिक ज्ञानस्य आवरण आभिनिवोधिक ज्ञानावरणीय चेति ।
इसमें 'अ' का अर्थ द्रव्य और 'भि' का अर्थ द्रव्याभिमुख अश्रुत पूर्व है । समस्त दिगम्बर तथा श्वेताम्बर साहित्यमें 'अभिमुख नियमित वोध' अर्थ ही किया गया है। ज्ञानके भेदोका अच्छा कथन ज्ञानावरणीय कर्मके कथनमें किया गग है।
नामकर्मकी कुछ प्रकृतियोका स्वरूप कथन प्राय तत्त्वार्थवार्तिकसे लिया गया है। किन्तु आनुपूर्वी नामकर्मका जो लक्षण किया है वह दिगम्वर परम्पराके शास्त्रोमे हमारे देखनेमें नही आया। दिगम्बरीय साहित्यके अनुसार आनुपूर्वी नामकर्मका कार्य पूर्व शरीर छोडनेके बाद और नया शरीर धारण करनेके पहले विग्रह गतिमें जीवका आकार पूर्व शरीरके समान बनाये रखना है ।
किन्तु टीकाकारने लिखा है कि यदि आनुपूर्वी नामकर्म न होता तो जीव एक क्षेत्रसे दूसरे क्षेत्रमें नही जा सकता था। अत क्षेत्रसे क्षेत्रान्तरमें ले जाने वाला कर्म आनुपूर्वी है । यह लक्षण श्वेताम्बर परम्परासे मेल खाता है । उसके अनुसार आनुपूर्वी नामकर्म समणिसे गमन करते हुए जीवको खीचकर उसके विश्रेणि पतित उत्पत्तिस्थानमें ले जाता है।
इसी तरह विहायोगति नामकर्मका स्वरूप बतलाते हुए लिखा है-यदि
१ 'पदुदयात् पूर्वशरीराकाराविनाशस्तदानुपूयं नाम ।।-त०वा० पृ० ५७७ । २ "अनुपूर्वे भवा अनुपूर्वी अनुगति अनुक्रान्तिरित्यर्थ । यद्यानुपूर्वी नामकर्म
न स्यात् क्षेत्रात् क्षेत्रान्तर प्राप्तिर्जीवस्य न स्यात् । अत क्षेत्रान्तर प्रापककर्मानुपूर्वी नाम ।'
देखो प्रथम कर्मग्रन्थके हिन्दी अनुवादका परिशिष्ट पृ० १३४ । ४ 'विहायसि गति विहायोगति । यदि विहायोगति नामकर्म न स्यात् आकाशे
जीवगतिर्न स्यात् । तदभावे अल्पप्रदेशाना भूम्यवस्थान बहूवा आकाश व्यवस्थापन पतनमेव स्यात् । यदि त्रसनाकर्म न स्यात् न त्रसत्ति जीव ,
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४४८ : जैनसाहित्यका प्रतिद्वारा
योगति नामकर्म होताशी बान में जोगी गति न भूमिवर नार
अभावमेण प्रदेशी
दाना (न), पवन ही जाना ।
नागरम ना तो
जाका हि यदि
निमील, मी
नगो ओपन दा
1
ये है आदि जीवनचन, प्रमाण, हळनिहाय यावर नागा
नस्यापर
मुनि
जा
भी की। को,
पर
टीकाका लोग एवं दिया है भन्नु
प्रानि
"
का नाम अगिनार आता है। गर्भग्नव श्री र
गाव गावाजी
र उपर
कर्मन एक गाव गया है। जो भाष गावाएं जरा को निर्देश नहीं है।
उपनाव मा गरे। गाया है उनमें अनेक गावाएं ऐसी है और
बहुतनी
भी गई है। मगर गए जीव
नमान नामक प्रकरणमा यान गमाप्त हो जाने वा नाग
जो भगवन
और
मा लगना है । यकी समाधिके साथ ही प्राक नमन कर दिया गया है । यह तो हुई मूल प्रकरण की बात ।
नाम पर केवल दो स्यानोपर टीका की गई है। एक तो प्रारम्भमें गुणस्थानके लक्षण वाली तीनरी गायक नीने 'उदापी लद्भिविह्वत्तम्नामी । लिगकर लब्धि विधान ? कथन है । इस लगि विधानमें प्रत्येक गुणस्थानमें कौन सा भाव क्यो होता है, उसका स्पष्ट और सुन्दर कथन है । दूगरी मार्गणाके मोक्षां वाली गाथाके नीचे चौदह मार्गणाभोंकी व्युत्पत्ति की गई है जो धवला भाग एक ली गई है । बस, इस प्रकरणमें टीकाके नामपर इनता ही है ।
आकुञ्चन प्रमारण- निमीलनोन्मीलन-स्पन्दनादि यसन ।
तद्वीन्द्रियादीना
न स्यात् । अत प्रसनिर्वर्तक सनाम । यदि स्थावर नामकर्म न स्यात् नावतिष्ठति जीव स्पन्दनाभावात् । अत स्थावर निर्वर्तक स्थावरनाम ।'
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य · ४४९ इसके बाद शतक है। मूल शतककी प्रत्येक गाथाका व्याख्यान टीकाकारने किया है किन्तु पञ्चसग्रह गत भाष्य गाथाएँ केवल तीस पैतीसके लगभग ली गई है शेषको छोड दिया है। अन्तमे लिखा है-'सदगपजिया समत्ता' । अर्थात् शतककी पजिका समाप्त हुई।
शतकमें गत्यादि मार्गणाओमें बन्ध स्वामित्वका कथन कर लेनेकी सूचना एक गाथाके द्वारा दी गई है। उसकी टीकामें टीकाकारने मार्गणाओमें कर्मप्रकृतियोंके वन्धादिका कथन विस्तारसे किया है। उसके अन्तमें तीन गाथाएँ इस प्रकार है
जह जिणवरोहिं कहिय गणहरदेवेहिं गथिय सम्म । आयरियकमेण पुणो जह गगणइपवाहुन्व ॥१२॥ तह पउमणदि मुणिणा रइयं भवियाण वोहणट्टाए । ओघेणादेसेण य पयडीण वधसामित्त ॥१३॥ छउमत्थिया य रइअ ज इत्थ हविज्ज पवयणविरुद्ध ।
त पवयणाइ कुसला सोहतु मुणी पयत्तेण ॥१४॥ इसमें कहा है कि जैसा जिनवरने कहा और गणधर देवोने सकलित किया फिर जैसा गगानदीके प्रवाहकी तरह आचार्य परम्परासे आया, वैसा ही ओघ और आदेशकी अपेक्षासे प्रकृतियोके बन्धस्वामित्वको भव्यजीवोको बोध करानेके लिये पद्मनन्दि मुनिने रचा। इस छद्मस्थके रचे हुएमें जो वात आगमविरुद्ध हो उसे प्रवचनमें कुशल मुनि प्रयत्न पूर्वक शुद्ध करें। ___यह पद्मनन्दि मुनि इस टीकाके रचयिता है अथवा टीकाकारने जहाँसे बन्धस्वामित्वको लिया है उसके रचयिता है, यह विना प्रमाणोके प्रकाशमें निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता।
पद्मनन्दी नामके अनेक आचार्य हुए है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके कर्ताका नाम भी पद्मनन्दी था रज० प्रज्ञ० की प्रशस्तिमें उन्हे सिद्धान्त पारगामी भी लिखा है । तथा उसकी अन्तिम गाथा उक्त उद्धृत अन्तिम गाथासे वहुत अधिक मिलती है, जो इस प्रकार है
छउमत्येण विरइय ज कि पि हवेज्ज पवयणविरुद्ध ।
मोधतु सुगीदत्था तं पवयणवच्छलत्ताए ॥१७०॥ तथा उसमें भी ग्रन्थकारका निर्देश 'मुणिपउमणदिणा' करके है। अत संभव है उन्होने वन्धस्वामित्वका कथन किसी ग्रन्थमें किया हो और उसीसे टीकाकारने उसे लिया है। ज० प्र० की रचना विक्रमकी ग्यारहवी शताब्दीके उत्तरार्धमें
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४५० · जैनसाहित्यका इतिहास
हुई है । अत उसके बाद ही यह टीका रची गई है यह निश्चित समझना चाहिये, क्योकि जीवकाण्ड और त्रिलोकसारसे भी उसमे गाथाएँ उद्धृत है । अस्तु,
गतकके पश्चात् सित्तरीकी टीका है। इसमें टीकाकारने मूल सित्तरी तो प्राय पूर्ण ले ली है किन्तु भाष्य गाथाएँ केवल ३० के लगभग ही ली है। टीका में शतककी टीकाका कई जगह उल्लेख किया गया है।
अन्तमें लिखा है-'एव सत्तरि चूलिया समत्ता'।
टीकामे 'पञ्चसग्रह' नामका निर्देश दृष्टिगोचर नहीं होता। सिद्धान्तसार
माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला वम्बईसे प्रकाशित सिद्धान्तसारादिसग्रह नामक २१वें पुष्पके प्रारम्भमें सिद्धान्तसार नामक प्रकरण ज्ञानभूपणके भाष्यके साथ प्रकाशित हुआ है । इसमें ७९ प्राकृत गाथाएँ है । उनके द्वारा ग्रन्थकारने चौदह मार्गणाओंमे जीवसमासोका, गुणस्थानोका, योगोका और उपयोगीका तथा चौदह जीवसमासोमें योगोका और उपयोगोका, व चौदह गुणस्थानोमें योगोका और उपयोगोका, फिर चौदह मार्गणाओमे चौदह जीवसमासोमें और चौदह गुणस्थानोमें वन्धके ५७ प्रत्ययोका कथन किया है । ___ इस तरहसे ग्रन्थकारने थोडी-सी गाथाओके द्वारा काफी सैद्धान्तिक वातोका कथन किया है। ग्रन्थकार
सिद्धान्तासारादिसग्रहके प्रारम्भमें ग्रन्थकर्ताका परिचय देते हुए श्री नाथूराम जी प्रेमीने लिखा है-'इस सग्रहके प्रथम ग्रन्थ 'सिद्धान्तसार' के मूलकर्ता जिननामके आचार्य है जैसा कि उक्त ग्रन्थकी ७८वी गाथासे और उसकी टीकासे भी मालूम होता है । प्रारम्भमें 'जिनेन्द्राचार्य' नाम सशोधककी भूलसे मुद्रित हो गया है।' सम्पादक और सशोधक प० पन्नालालजी सोनीने भी उक्त गाथाके पादटिप्पणीमें लिखा है-'प्रारम्भे हि जिनेन्द्राचार्य' इति विस्मृत्य लिखितोऽस्माभिरन्यमूलपुस्तक विलोक्य' अर्थात् अन्य मूल पुस्तकको देखकर ग्रन्थके प्रारम्भमे हमने भूलसे 'जिनेन्द्राचार्य लिख दिया है। हमारे सामने भी आराके जैनसिद्धान्त भवनकी हस्तलिखित प्रतिके अन्तमे ग्रन्थकारका नाम जिनेन्द्राचार्य ही लिखा है ।
गाथा ७८में 'जिनइदेण पउत्त' पाठ है। 'जिनइद' का संस्कृत रूप जिनेन्द्र होता है जिनचंद्र नही होता। किन्तु भाष्यकार ज्ञानभूपणने 'जिणइदेण जिनचन्द्रनाम्ना, सिद्धान्तग्रन्थ वेदिना' लिखा है । इससे सिद्धान्तसारके कर्ताका नाम जिनचद्र मान लिया गया है।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४५१ किन्तु जिनेन्द्राचार्य नामके किसी ग्रन्थकारका पता अन्यत्रसे नही चलता जबकि जिनचद्र' नामके सिद्धान्त वेत्ता अनेक विद्वान् हो गये है। उनमेंसे एक धर्मसंग्रह श्रावकाचारके कर्ता मेधावीके गुरु और पाण्डव पुराणके कर्ता शुभचन्द्रके शिष्य थे । तिलोय पण्णत्तिकी दान प्रशस्तिमें मेधावीने अपनी गुरुपरम्पराका परिचय देते हुए सरस्वती गच्छके प्रभाचन्द्र-पद्मनन्दि-शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्रका उल्लेख किया है जो सैद्धान्तिको की सीमा थे । उक्त प्रशस्ति वि०स० १५१९ में लिखी गई है और उस समय जिनचन्द्र वर्तमान थे। परन्तु प्रेमीजीने उन्हे सिद्धान्तसारका कर्ता नही माना है, क्योकि सिद्धान्तसारकी एक कनडी टीका प्रभाचन्द्रकृत है । और प्रभाचन्द्रका समय कर्नाटक कवि चरिते (द्वि०भा०)में तेरहवी शताब्दी अनुमान किया है।
दूसरे जिनचन्द्र तत्त्वार्थसूत्रकी सुखवोधिका टीकाके कर्ता भास्करनन्दिके गुरु थे। इनका ठीक समय मालूम नही है । प० शान्तिराज शास्त्रीने वि०स० १३५३ के लगभग अनुमान किया है। इन्हें भी भास्करनन्दिने महासद्धान्त कहा है । यदि उक्त अनुमानित समय ठीक हो तो ये भी सिद्धान्तसारके कर्ता नही हो सकते। इस तरहसे सिद्धान्तसारके कर्ताका नाम तथा समय दोनो ही विवादग्रस्त है।
किन्तु ग्रन्थके अन्तरग परीक्षणसे यह स्पष्ट है कि गोम्मटसारको पढकर ग्रन्थकारने उसकी रचना की है। उसका प्रारम्भ ही जीवकाण्डके अन्तकी दो गाथाओको लेकर हुआ है वे दोनो गाथाएँ इस प्रकार है
सिद्धाण सिद्ध गई केवलणाण व दंसण खयिय । सम्मतमणाहार उवजोगाणक्कमपडत्ती ॥७३२॥ गुण जीव ठाण रहिया सण्णापज्जत्तिपाण परिहीणा ।
सेसणवमग्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ॥७३३॥ और सिद्धान्तसारके प्रारम्भकी दो गाथाएं इस प्रकार है
जीवगुणठाणसण्णा पज्जत्तिपाण मग्गणाणवूणे । सिद्धतसारमिणमो भणामि सिद्धे णमसिता ॥१॥ सिद्धाण सिद्धगई दसण णाण च केवल खइय ।
सम्मत्तमणाहारे सेसा ससारिए जीवे ॥२॥ अत ग्यारहवी शताब्दीके पश्चात् ही सिद्धान्तसार रचा गया है । और चूंकि
१ देखो-'जिनचन्द्र, ज्ञानभूपण और शुभचन्द्र' शीर्पक निवन्ध, जै०सा०३०,
पृ० ३७८ ।
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४५२ : जनसाहित्यका इतिहास सिद्धान्तमाफी कनडी टीके कर्ता प्रभाचन्द्रका गमय तेरहवी शतान्दो अनुमान किया गया है, अतः बारहवी शताब्दीके लगभग गिलान्तमार रचा गया होना चाहिये। सकलकीतिका कर्मविपाक
सालकीति विरनित कर्मविपात गम्गत भागामे रचित एक गुन्दर गरल ग्रन्य है। इसमे प्रतिबन्ध, रिगतिवा, अनुभागन्ध और प्रदेशबन्धका माधारण कथन है। अधिकतर मगन गम है। प्रत्येक प्रकरण प्रारम्भमे श्लोक है जो नमस्कारागा है। प्रतिबनगम कोंकी उत्तर प्रहानियों के लक्षण विस्तारसे कहकर मिथ्यावृष्टि गुणरथानामे प्रगतिगाके बना और अबन्धका कथन को स्पष्ट रूपम किया है, केवल गरया न बतलाार प्रानियां नाग गिनाये है। फिर स्थितिबन्धका कथन है । उगर्ग प्रत्येक प्रकृतिको उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति विस्तारगे वतलाई है। फिर अनुभाग बन्धका कथन है। और फिर प्रदेशवन्यका कगन है। उनमें पता करे बन्यो कारणीका यन तन्यायमूत्र तथा उगकी टीकाओके आधारले छिया है। अन्तमें गुणगानीमें प्रकृतियां क्षयका गायन किया है।
उग ग्रन्यमें तो सकलगीतिने अपना कोई परिनग नहीं दिया। किन्तु अन्य ग्रन्थकारोने इनका म्गरण बडे आदरके गाय किया है। इसका कारण यह है कि यह मूलराघ, बलात्कारगण और गरस्वती गच्छी उरकी गहीने भट्टारक थे। इनकी गिण्य परम्परामें अनेक विद्वान भट्टारक ग्रन्यकार हुए है और उन्होंने अपने पूर्वज सकलकोतिका म्मरण वडे आदरके साथ किया है।
कामराजकृत जयपुराणकी प्रगस्तिमें लिया है कि सकलकोति भट्टारकने गुजरात और वागड आदि देशोमे जैनधर्मका उद्धार किया था। भ० सकलकीर्ति के शिष्य और लघुभाता ७० जिनदाराने भी अपने ग्रन्थोमें सकलकोतिका स्मरण वडे गौरवके साथ किया है । प० परमानन्दजीने लिखा है कि स० १४४४ में वह ईडरकी गद्दी पर बैठे थे और म० १४९९ के पूपमासमें उनकी मत्यु महसाना (गुजरात) में हुई थी। महसानामें उनका समाधि स्थान भी वना हुआ है । ५० १ 'आचार्य कुन्दकुन्दाख्यस्तस्मादनुक्रमादभूत् ।
स सकलकीर्ति योगीशो ज्ञानी भट्टारकेश्वर ॥२१॥ येनोद्धृतो गतो धर्मो गुर्जरे वाग्वरादिके । निर्ग्रन्थेन कवित्वादि गुणानेवार्हता पुरा ॥२२॥
-जै० प्र० स० भा १, पृ० ४० । २ जै० स० १ भा०, प्रस्ता, ४०१०-११ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४५३ परमानन्दजीने यह भी लिखा है । कि सकलकीतिके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियोके कितने ही अभिलेख स० १४८० से १४९२ तकके मेरी नोटबुकमें दर्ज है। अत यह निश्चित है कि वे विक्रमकी १५वी शतीके उतरार्द्धके विद्वान है । उनके द्वारा रचित कुछ ग्रन्थोके नाम इस प्रकार है
सिद्धान्तसार दीपक, धन्यकुमार चरित्र, कर्म विपाक, सद्भापितावली, धर्म प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, मूलाचार प्रदीप, सुकुमालचरित्र, जम्बूस्वामिचरित्र, श्रीपाल चरित्र, वृपभचरित्र, सुदर्शनचरित्र, वर्षमान पुराण, पार्श्वनाथपुराण, मल्लिनाथ पुराण, सारचतुर्विशतिका, यशोधरचरित्र पुराणसार आदि । सिद्धान्तसार भाष्य ___आचार्य जिनेन्द्र या जिनचन्द्र रचित सिद्धान्तसार पर एक सस्कृत व्याख्या है जो सिद्धान्तसारके साथ माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला वम्वईसे प्रकाशित हो चुकी है। व्याख्या साधारण होते हुए भी मूल ग्रन्थको समझने के लिये उपयुक्त है और उससे प्रतीत होता है कि टीकाकार प्रकृत विषयका अच्छा अभ्यासी है। ___ यद्यपि भाष्यकारने सिद्धान्तसारके भाष्यमें अपना कोई स्पष्ट परिचय नही दिया है, ग्रन्थके अन्तमें कोई प्रशस्ति भी नहीं दी है, तथापि मगलाचरणके श्लोकमें सिद्धान्तसार भाष्यके दो विशेषण दिये है-'लक्ष्मी वीरेन्दुसेवित' और 'ज्ञान सुभूपणम्'। इन विशेषणोके द्वारा लक्ष्मीचन्द, वीरचन्द और ज्ञानभूषण ये तीन नाम प्रकट होते है । अत प्रेमीजीने ज्ञानभूपणको भाष्यका कर्ता बतलाया है । सुमतिकीर्ति भट्टारकने प्राकृत पचसग्रहकी अपनी वृत्तिके अन्तमें जो प्रशस्ति दी है। उसमें उन्होने ज्ञानभूपणकी गुरु परम्परा इस प्रकार दी है—मूलसघमें उत्पन्न हुए नन्दिसघमें वलात्कार गण और सरस्वती गच्छमें आचार्य कुन्दकुन्द १ 'श्रीमूलसंघेऽजनि नन्दिसघो वरो वलात्कारगणप्रसिद्ध ।
श्रीकुन्दकुन्दो वरसूरिवर्यो बभौ वुधो भारतिगच्छ सारे ॥१॥ तदन्वये देवमुनीन्द्रवद्य श्री पद्मनन्दी जिनधर्मनन्दी। ततो हि जातो दिविजेन्द्रकीतिविधा (दि) नन्दी वर धर्ममूर्ति ॥२॥ तदीयपट्ट नृपमाननीयो मल्ल्यादिभूषो मुनिवदनीय । ततो हि जातो वरधर्मधर्ता लक्ष्मादिचन्द्रो बहुशिष्यकर्ता ॥३॥ पचाचाररतो नित्य सूरिसद्गुणधारक । लक्ष्मीचन्द्र गुरुस्वामी भट्टारकशिरोमणि ॥४॥ दुर्वारदुर्वादिकपर्वताना वजायमानो वरवीरचन्द्र । तदन्वये सूरिवरप्रधानो ज्ञानादिभूषो गणिगच्छराज ॥५॥
-प्रा० पच ०, प्रशस्ति ।
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४५४ : जेनसाहित्यका इतिहास
हुए । उनके वशमें पद्मनन्दी हुए । उनके पट्ट पर विविजेन्द्रकीति विद्यानन्दि हुए, उनके पट्ट पर राज मान्य गल्लिभूषण हुए। फिर कमगे लक्ष्मीचन्द, वीरचन्द और ज्ञानभूषण हुए। इन्ही ज्ञानभूषणको प्रेरणागे सुमतिरुर्तिने प्राकृत पचसग्रहकी वृत्ति बनाई और ज्ञानभूषणने उनका गोधन किया ।
कर्मप्रकृतिको टीका ज्ञानभूषण और सुमतिकोति दोनोने बनाई है। उनमें भी गल्लिभूषण के पूर्वज विद्यानन्दि मे उक्त गुरु परम्परा दी है ।
अत सुमतिकोतिके गुर ज्ञानभूषण ही उक्त भाज्या रनयिता प्रतीत होते है । किन्तु श्रीनाथूरामजी प्रेमीने लिया है कि कारणा में जो सिद्धान्तगार भाष्यकी प्रति है उसमे मालूम होता है कि उसके कर्ना ज्ञानभूषण नहीं है, गुमतिकीर्ति है । और उसका मनोधन सुमतिकीर्ति के गुरु ज्ञानभूगणने किया है। ऐसा होना सभव है क्योंकि कर्मप्रकृतिको टीका भी ज्ञानभूपणने गुमतिपतिके गाय बनाई थी और प्रा० पंचगंग्रहको वृत्तिका उन्होंने गणोधन किया था । अत सिद्धान्तमार भाष्यकी रचना सुमतिकी तिने और संशोधन ज्ञानभूषणने किया हो तो कोई विशेष बात नही है | किन्तु ऐसी स्थिति सिद्धान्तगार भाष्यमे शुभतिकीर्तिका नाम कही दृष्टिगोचर न होना कुछ का पैदा करता है क्योकि शेप दोनों टीकाभमें ज्ञानभूपणके साथ सुमतिकोर्तिका भी नाम है । अस्तु,
ज्ञानभूपणको दो गुरु परम्पराएँ
प्रा० पचसग्रहको प्रशस्तिम, ज्ञानभूषणकी गुरु परम्परा इस प्रकार दी हैपद्मनन्दि, दिविजेन्द्र (देवेन्द्र) कीर्ति, विद्यानन्दि, मल्लिभूषण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र, ज्ञानभूषण | और ज्ञानभूषणके उत्तराधिकारी प्रभाचन्द्र थे । कर्मप्रकृति
१ 'विद्यानन्दि - सुमल्ल्या दिभूप- लक्ष्मीन्दु-सद्गुरून् ।
वीरेन्दु, ज्ञानभूपंहि वन्दे सुमतिकीतियुक् ॥ २॥ ' - फर्मप्र० टी० । २ ' इति श्रीसिद्धान्तसारभाप्य श्रीरत्नत्रयज्ञापनार्थं सुमतीन्दुना लिखितम् । सूरिवर श्रीरमरकीर्तिसमुपदेशात् श्रीमूलसंघवलात्कारगणाग्रणी श्रीमद्भट्टारक श्रीलक्ष्मीचन्द्रस्तत्पट्टपयोधिचचच्चन्द्रभट्टारक श्रीवीरचन्दस्तत्पट्टालंकार भट्टारक श्रीज्ञानभूपण श्री सिद्धान्तसार भाष्यं बल्लभजनवल्लभ मुमुक्षु श्री सुमतिकीर्ति विरचित शोधितवान् ।
टीका सिद्धान्तसारस्य सता सद्ज्ञानसिद्धये । ज्ञामभूप इमा वक्रे मूलसंघविदावर ॥ सिद्धान्तसार भाष्य च शोधित ज्ञान भूपण । रचित हि सुमत्यादि
॥ -- जै० सा० इ०, पृ० ३७९ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४५५ टीकाके प्रारम्भमें भी यही गुरुपरम्परा दी है। उसमें पद्मनन्दि और देवेन्द्रकीतिका नाम नही है। __ किन्तु भट्टारक सकलभूपणने अपनी उपदेश रत्नमालाकी प्रशस्तिमें, ब्रह्म कामराजने जयपुराणको प्रशस्तिमें और भट्टारक शुभचन्द्रने अपनी प्रशस्तिमें जो गुरुपरम्परा दी है वह है-पद्मनन्दि, सकलकीर्ति, भुवनकीर्ति और ज्ञानभूपण । ज्ञानभूपणके उत्तराधिकारी थे विजयकोति, उनके शुभचन्द्र और शुभचन्द्रके
सुमतिकीति ।
__श्रीयुत नाथूराजी प्रेमीने इन दोनो परम्पराओके ज्ञानभूपणको एक ही व्यक्ति माना है। किन्तु गुरुपरम्परा तथा कालक्रमको देखते हुए ये दोनो ज्ञानभूषण दो व्यक्ति प्रतीत होते है।
प्रथम गुरुपरम्पराके अनुसार ज्ञानभूषणके गुरु लक्ष्मीचन्द और वीरचन्द्र थे इसीसे सिद्धान्तसार भाष्यके मगलाचरणमे भी 'लक्ष्मीवीरेन्दुसेवित' के द्वारा उनका स्मरण ज्ञानभूपणने किया है। किन्तु दूसरी परम्पराके अनुसार ज्ञानभूषण के पूर्व गुरु भुवनकीर्ति थे।
तथा प्रथम गुरु परम्पराके अनुसार पद्मनन्दी और ज्ञानभूषणके मध्यमे पाँच व्यक्ति है किन्तु दूसरी परम्पराके अनुसार केवल दो ही व्यक्ति है। अत ये दोनो ज्ञानभूपण एक व्यक्ति नहीं हो सकते। उन दोनोको एक व्यक्ति मान लेनेसे समय सम्बन्धी कठिनाई उपस्थित होती है। जिसका खुलासा इस प्रकार हैसमय विचार ___ ज्ञानभूषणकृत तत्त्वज्ञानतरगिणीमें उसका रचनाकाल वि०स० १५६० दिया है। प्रेमी जीने लिखा है कि-'जैन धातु प्रतिमा लेखसग्रहमें प्रकाशित वीसनगर (गुजरात) के शान्तिनाथके श्वेताम्बर मन्दिरकी एक दिगम्बर प्रतिमाक लेखसे और पैथापुरके श्वेताम्वर मन्दिरको दि० प्रतिमाके लेखसे मालूम होता है कि वि सं १५५७ और १५६१में ज्ञानभूषण भट्टारक पद पर नही थे, किन्तु उनके शिष्य विजयकीर्ति थे और वे १५५७के पहले इस पदको छोड चुके थे। इसलिये तत्त्वज्ञान तरगिणीकी रचना उन्होने उस समय की है जब भट्टारक पदपर विजयकीर्ति थे।'
पूर्वोक्त जैनधातु प्रतिमा लेखसग्रह नामक ग्रन्थमें विक्रम सवत् १५३४, १५३५ और १५३६के तीन प्रतिमा लेख और भी है जिनसे मालूम होता है कि उक्त सवतोमें ज्ञानभूषण भट्टारक पद पर थे। भट्टारक पद छोडनेके बाद भी वह बहुत समय तक जीवित रहे ।'
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४५६ : जैनसाहित्यका इतिहास
उक्त प्रतिमा लेसोमे यह स्पष्ट है कि ज्ञानभूपण १५३४म भट्टारक पद पर थे। किन्तु वे कब उस पद पर बैठे यह ज्ञात नही है। सकलकीति भट्टारको विपयमें प० परमानन्द जीने लिखा है कि वे ग १४४४मे गद्दी पर आमीन हुए थे और रावत् १४९९के पूप मागमें उनकी मृत्यु महगाना (गुजगत)में हुई थी। इनके शिष्य तथा कनिष्ठ भाता न जिनदागने कई ग्रथ रने है। १५२० स०मे इन्होने गुजराती भापामें हरिवग रागकी रचना की है। उनके प्रयोकी प्रगस्तिम सकलकीति और उनके गिप्प भुवनकीतिका नाम है शानभूषण का नहीं है। अत शानभूपण १५२० के पश्चात् और १५३४ से पहले गद्दी पर बैठे थे। __श्रीयुत प्रेमीजीने जिग जैनधातु प्रतिमा लेख संग्रहका उल्लेख किया है उसमें नन्दिसघ बलात्कारगण गरस्वती गच्छो उक्त आचार्योंके अनेक प्रतिमा लेप सगहीत है जिनसे उनके गमय पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। उन प्रतिमालेसोके अनुसार जिस सम्बत्मे जो आचार्य भट्टारक पद पर प्रतिप्ठित थे उनकी तालिका इस प्रकार हैलेस न० ५३५-स० १४८८ भ० पमनन्दिदेव , न० ६-म० १४९२ भ० सकलकीति , न० ६७३-० १५०९ भ० भुवनकीर्ति
७४८-म० १५१३ ७५१-स० १५१५ ६६-सं० १५१६ ४४-स० १५२३ ४३-स० १५२६ भ० ज्ञानभूपण ८६७-सं० १५३४ ॥ ६७४-स० १५३५ " ५०९-स० :५३० ५०३-स० १५५७ विजयकीर्ति ४९७-सं० १५५९ ६९३-स० १५६१ ६७७–स० १६११ शुभचन्द्र
६८-सं० १६३२ सुमतिकीर्तिके शिष्य गुणकीर्ति १३९०-स० १६५१ गुणकीर्तिके शिष्य वादिभूपण , १४५१-सं० १६६० भ० वादिभूपण अत उक्त प्रतिमा लेखोसे यह स्पष्ट है कि भ० ज्ञानभूपण स० १५२६ से
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४५७ १५३६ तक तो अवश्य ही भट्टारक पद पर विराजमान थे । और वे स० १५२३ के पश्चात् और १५२६ से पहले किसी समय भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित किये गये थे। तथा स० १५५७ में उनके शिष्य विजयकीति उस पद पर थे। सूरतके' मन्दिरकी एक जिनविम्ब पर स० १५४४ का लेख है । लेखसे प्रकट है कि वह मूर्ति भुवनकीर्तिके शिष्य ज्ञानभूषणके उपदेशसे प्रतिष्ठितकी गई थी। अत स० १५४४ तक ज्ञानभूपण भट्टारक पद पर थे।
उधर सुमतिकीर्तिने अपनी पचसग्रह वृत्तिके अन्तमे उसका रचना काल स० १६२० दिया है । यह वृत्ति भ० जानभूपणकी प्रेरणासे रची गई थी और उन्होने उसका सशोधन भी किया था । अत यह स्पष्ट है कि वि० स० १६२० में ज्ञान भूपण जीवित थे । उधर ज्ञानभूपण वि० स० १५२६में भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित थे और वि० स० १५२३ के पश्चात् वे गद्दी पर बैठे थे। यदि यही मान लिया जाये कि वे स० १५२५ में गद्दी पर बैठे थे और उस समय उनकी उम्र १५ वर्ष भी मानी जाये तो पञ्चसग्रहवृत्तिको रचनाके समय उनकी उम्र ११० वर्ष ठहरती है। एक तो इतनी छोटी अवस्थामें भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित होना और फिर इतनी लम्बी उम्रका होना चित्तको लगता नही।
फिर यदि ज्ञानभूपणकी दूसरी गुरु परम्परा सामने न होती तो उक्त दोनो वातोको भी अगीकार किया जा सकता था। किन्तु दूसरी परम्परा न केवल ग्रन्थ प्रशस्तियोमें किन्तु मूर्तिलेखोमें भी अकित मिलती है। बुद्धिसागर सूरिके जैनधातु प्रतिमालेख सग्रहमें ही दोनो परम्पराओके मूर्तिलेख मिलते है जो इस प्रकार है ।
न० ६७४–स० १५३५ वर्षे पोप व० १३ श्रीमूलसघे सरस्वतीगच्छे भ० श्री सकलकीर्ति तत्पट्टे भ० श्री भुवनकीर्ति तत्पट्टे भ० श्री ज्ञानभूषण गुरूपदेशात् ।'
न० ७५७–'स० १६३० वर्षे चैत वदि ५ श्री मूलसघे श्री सरस्वती गच्छे श्री बलात्कार गणे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री वीरचन्द भ० श्री ज्ञानभूषण भ० श्री प्रभाचन्द्रोपदेशेन । इस तरह पहले वाले ज्ञानभूपणके गुरुका नाम भुवनकीर्ति था और दूसरे ज्ञानभूषणके गुरुका नाम वीरचन्द था।
श्री कामता प्रसादजीके द्वारा सम्पादित प्राचीन जैनलेख संग्रह (१ भाग) में अलीगजके जैनमन्दिरकी एक मूर्तिके तलमें भी दूसरे ज्ञानभूषणसे सम्बद्ध एकलेख अकित है । किन्तु उसमें सम्बत् नही है । यह मूर्ति वीरचन्द्रके शिष्य ज्ञानभूषणके उपदेशसे प्रतिष्ठित हुई थी। शिलालेख इस प्रकार है१ 'स० १५४४ वर्षे वैशाख सुदी ३ सोमे श्रीमूलसघे भ० श्री भुवनकीर्तिस्त
पट्ट भ० श्रीज्ञानभूपण गुरुपदेशात् । -दान० माणि० पृ० ४५ ।
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४५८ · जनसाहित्यका इतिहास
२६-'श्रीमूलसघे भ० लक्ष्मीचन्द्र तत्पट्टे भ० वीरचन्द तत्पट्टे भ० ज्ञानभूपणोपदेशात् ।' __यही ज्ञानभूपण सिद्धान्तसार भाज्यके रचयिता है।
उक्त दोनो गुरुपरम्परायें पमनन्दीसे प्रारम्भ होती है । जिसमे प्रकट होता है कि पद्मनन्दीके दो शिष्य थे सकलकीति और देवेन्द्रकीति । ५० परमानन्दजी' ने लिखा है कि पद्म नन्दीके गियोमे मतभेद हो जानेके कारण गुजरातकी गद्दीकी दो परम्परायें चालू हो गई थी। एक भट्टारक सकलकीतिकी और दूसरी देवेन्द्रकीर्ति की । सकलकी तिसे ईडरको गद्दीकी परम्परा चली और देवेन्द्रकीतिमे सूरतकी गद्दीकी परम्परा चली।
देवेन्द्रकीर्तिके उत्तराधिकारी भट्टा० विद्यानन्दि थे। इनके मूर्ति लेख वि० स० १४९९ से वि० स० १५२३ तकके पाये जाते है। विद्यानन्दिके उत्तराधिकारी मल्लिभूपण थे। सूरत आदिके मूर्तिलेखोंमे जाना जाता है कि मल्लिभूपण वि० स० १५४४ मे भट्टारक पद पर आसीन थे।
सूरत जैनमन्दिरके दो प्रतिमालेसो पर वि० स० १५४४ वैसास सुदी तीज अकित है । किन्तु एक शिलालेसमें भुवनकीतिक गिण्य ज्ञानभूपणका नाम है और दूसरेमें भट्टारक विद्यानन्दिके भिण्य भट्टारक मल्लीभूपणका नाम है। अर्थात् जिस समय ईडरकी गद्दीके भट्टारक पद पर ज्ञानभूपण थे तव सुरतकी गद्दी पर भ० मल्लिभूपण विराजमान थे। मल्लिभूपणके पश्चात् लक्ष्मीचन्द और लक्ष्मीचन्दके पश्चात् वीरचन्द और तव ज्ञानभूपण सूरतकी गद्दी पर बैठे। मल्लिभूपणके समकालीन ज्ञानभूषण वीस पच्चीस वर्ष तक ईडरकी भट्टारकी करनेके बाद मल्लिभूपणके दो उत्तराधिकारिोके पश्चात् पुन सूरतके भट्टारक पद पर प्रतिण्ठित हुए हो ऐसा तो सभव प्रतीत नही होता । अत ईडरके भट्टारक ज्ञानभूपणसे सूरतके भट्टारक ज्ञानभूपण जुदे ही होने चाहिये । अत सूरतवाले ज्ञानभूपण ही सिद्धान्तसार भाष्य और कर्मप्रकृति टीकाके कर्ता है।
वे कब सूरतकी गद्दी पर बैठे यह ज्ञात नही हो सका। अन्य मूर्तिलेखोके प्रकाशमें आने पर ही उस पर प्रकाश पडनेकी पूर्ण आशा है। किन्तु इतना १ जै० प्र० स०, भा० १, पृ० १९। २ 'स० १५४४ वर्षे वैसाख सुदी ३ सोमे श्रीमूलसघे भ० श्री भुवनकीर्ति
स्तत्पट्ट भ० श्री ज्ञानभूपणगुरू पदेशात्' ।-दान० माणि० पृ० ४५ । ३ स० १५४४ वर्षे वैसाख सुदी २ सोमे । श्रीमूलसंघे । सरस्वतीगच्छे बलात्कार गणे। भट्टारक श्री विद्यानन्दी देवा तत्पट्ट भट्टारक श्री मल्लीभूषण ।
-दा० मा०, पृ० ४३ ।
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अन्तिम
इन मेरी
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उत्तरकालीन कर्म-माहिल ८५९
निश्चित है कि कि ० ६६२० में मान में और उस समय गुतकी
गद्दी पर
है। यह रात प्रा० प पहा गमः दिवारी नाका प्रथम नमना नाहिये ।
सारी जाने प्रभारीन्द्र बहाने । म० १० १६१३ म प्रतिकि
1
है। प्रशस्तिम भने
1
मुमकिन
बालागुरु हो महाक तथा
बे की जो होना निगम गुणतियोतिषांना गुगतिरीति जपना गुरु
8
और
ऐसा प्रतीत
थे । नायद
है।
बाद
दृष्टि भी का भविष्य नकद
परनुमतिकति है।
पाई
शुभ दि० ० १६११ मे भट्टारा पगीन वे वह बात एक प्रतिमाप्राद होती है। तथा दि० ० १६२६ मे सुमतिकोतिर नहारा परपर विराजमान थे। उपदेश मालाकी रचनाओ नमय वि० न० १९२७ में गतिकोति गान थे । वहवृत्तिकी रचना पञ्चात् ही यह भट्टारक परपर विराजमान हुए ये ऐसा प्रतीत होता है क्योकि उनको प्रशस्ति वन तक नही है ।
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६ 'तथा गाधु सुभत्यादिकीर्तिना कृतप्रार्थना | गायकृता नमन शुभचन्द्रेण सूरिणा ||९||
भट्टारक पदाचा मूलगघे विदावरा । रमाविरेन्दु-चिद्रूप-गुरवां हि गणेशिन ॥ १० ॥ ' - जै०ग्र० प्र०म० भा० १, पृ० ४२-४३ ।
२ 'पट्ट तम्य प्रीणित प्राणिवगं शान्तो दात शीलशाली सुधीमान् । जीयात्सूरि श्री सुमत्यादिकोतिर्गच्छाधोग कनकान्ति कलावान् ॥२३१॥ —जै०न० प्र०मं० भा० १, पृ० २० ।
३ 'म० १६११ वर्षे माघ व ७ श्री मूलमधे नदिमधे सरस्वतीगच्छे वलात्कार गणे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० विजयकीतिस्तत्पट्टे भ० श्री शुभचन्द्र ।' - जै०प्र० ले०स०, ले० न० ६७७ ।
'रा० १६२६ वर्षे फाल्गुण सुदी ३ शुक्र श्री मूलसंघे भ० श्री सुमतिकीर्ति उपदेगात् ईडरवास्तव्य'' - प्रा० जै०ले० स०, पृ० २८ |
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४६० · जैनसाहित्यका इतिहास
सुमतिकीर्तिके उत्तराधिकारी गुणकीति थे । एक प्रतिमालेखसे प्रकट होता है कि वि० स० १६३२ में गुणकीति पट्टपर थे ।
सकलभूपणने सुमतिकीतिकी वडी प्रशसा की है। लिखा है वह वडे शीलवान, बुद्धिमान्, जितेन्द्रिय और सयमी थे । उनसे सव प्रसन्न रहते थे । आदि । विभगी टीका
पीछे त्रिभगीसार नामरो सगृहीत जिन छै त्रिभगियोका निर्देश किया है, उनमेंसे आश्रवत्रिभगी तथा वन्ध उदय और सत्त्व विभगीकी टीकाकी कई प्रतियाँ धर्मपुरा दिल्लीके नये मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें वर्तमान है । यह टीका एक ही ग्रन्थके रूपमें है और उसके अन्तमे लिखा है 'इति त्रिभंगीसार टीका समाप्ता।'
प्रारम्भकी आस्रव विभगीके रचयिता श्रुतमुनि है। किन्तु टीकाकारने उसे भी नेमिचन्द्र सिद्धान्तीकी कृति समझकर बन्धोदयसत्त्वविभगीके साथ एक ग्रन्थके रूपमें सम्मिलित कर लिया जान पडता है, क्योकि आस्रवत्रिभगी टीकाके अन्तमें लिखा है-'इति मूलनेमिचन्द्रसिद्धान्तीकर्ता आस्रवत्रिभगी समाप्ता।'
किन्तु प्रथम गाथाके 'वोच्छे ह' पद का अर्थ करते हुए लिखा है-'श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तिणा कथित अह सप्तपचाशदाश्रवा कथयाम (मि)।' ___अर्थात् श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके द्वारा कथित सतावन आस्रवोंको मैं कहता हूँ। श्रोनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने कर्मकाण्डमें सत्तावन प्रत्ययोका कथन किया है और उसीके आधारसे श्रुतमुनिने आस्रवत्रिभगीकी रचना की है। और इसलिये आस्रवत्रिभगीके मूलकर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती है । किन्तु आगे कर्ताका निरूपण करते हुए लिखा है-'उत्तरोत्तरकर्ता गुरु पूर्व क्रमागत सकलसिद्धान्तचक्रवर्ती अखडित रत्नत्रयाभरणभूपित मूलोत्तराराद (२) सकल गुण सम्पूर्ण श्रोनेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तिना भट्टारकेणासन्नभव्यसंदोहस्योपकारार्थ श्रीमज्जिनागमात्युद्धारकरणाथं च ग्रन्थरचनानिमित्त ।'
टीकाकारकी भाषा वहुत स्वलित है इससे उनका ठीक आशय समझने में कठिनाई होती है। आस्रवत्रिभगीके कर्ता श्रुतमुनिने अन्तिम गाथामे अपना नाम दिया है और उसका अर्थ करते हुए टीकाकारने 'सुदमुणिणा-श्रुतमुनिना' ऐसा लिखा है तथापि उन्होने अन्यत्र कही श्रुतमुनिको उसको रचयिता नही लिखा। टीकाके आरम्भ में एक श्लोक इस प्रकार है
या पूर्व श्रुतटीका कर्णाटभापया विहिता। लाटीया भाषया सा विरच्यते सोमदेवेन ॥४॥
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४६१ अर्थात् पहले जो श्रुतमुनिने कर्णाट भाषामें टीका लिखी थी, उसे सोमदेव लाटीय भाषामें रचता है।
श्रुतमुनिने स्वरचित आस्रवत्रिभगी पर कन्नड भाषामें टीका भी बनाई थी। मूडविद्री के जैन मठमें इसकी प्रति वर्तमान है और उसका ग्रन्थ न० २०४ है। उसी टीकाको सोमदेवने लाटी भाषामें रचा है। किन्तु सस्कृत भाषाके लिये लाटीया भापा शब्दका व्यवहार विचित्र ही है। लाटीया भापाका मतलव लाट देशकी भापा होता है । लाट गुजरातका प्राचीन नाम है । उसकी भाषाको लाटी भाषा कहना चाहिये । अस्तु, आगे एक श्लोक इस प्रकार है
प्रणिपत्य नेमिचन्द्र वृषभाद्यान् वीर पश्चिमान् जिनान् ।
सर्वान् वक्ष्ये सुभाषयाऽह विशदा टीका त्रिभग्याया ॥६॥ इसमें सुभापाके द्वारा त्रिभगीकी टीका रचनेकी प्रतिज्ञा की गई है। सुभाषासे तो सस्कृत भापाका ग्रहण हो सकता है किन्तु लाटीया भापासे सस्कृतका ग्रहण नहीं हो सकता । शायद टीकाकारने जिस भ्रष्ट सस्कृत भाषामे अपनी टीका रची है उसे लाटी भाषा कहा हो । किन्तु उसके लिए भी यह प्रयोग विचित्र ही है ।
देहलीके सेठके कूचेके जैन मन्दिरमें उक्त टीकाकी एक भाषा टीका भी है। उसे देखकर हमें लगा कि टीकाकारने उस भापा टीकाके लिये तो लाटीया भाषा शब्दका प्रयोग नही किया। क्योकि उस टीकामें किसी अन्य टीकाकारका नाम नही है और सस्कृत टीकाके अन्तमें जो प्रशस्ति है वह प्रशस्ति ज्योकी त्यो है उसकी भापा टीका नही की गई है। यदि कोई अन्य टीकाकार होता तो वह प्रशस्तिकी भी भाषा करता । खेद है कि उस प्रतिका प्रथमपत्र नही है यदि होता तो शायद इस विषय पर उससे विशेष प्रकाश पडता। रचयिता और समय
इस त्रिभगी टीकाके रचयिताका नाम सोमदेव है। ग्रन्थ टीकाके आदिमें उन्होने श्लोकमें, जो पीछे उद्धृत किया गया है, अपना नाम दिया है। उससे पहले श्लोक' ३ में उन्होने गुणभद्र सूरिको नमस्कार किया है। किन्तु उससे यह स्पष्ट नही होता कि गुणभद्र सूरि उनके गुरु थे।
१ कन्नड० ता० न० सू०, पृ० १० । २ 'कर्म द्रुमोन्मूलनदिक्करीन्द्र सिद्धान्तपाथोनिधिदृष्टपार ।
षत्रिंशदाचार्यगुणं प्रयुक्त नमाम्यह श्रीगुणभद्रसूरि ॥३॥'
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४६२ जैनसाहित्यका इतिहास
ग्रन्थको अन्तिम प्रशस्तिमें' उन्होंने अपने वश वगैरहका कथन किया है । पिताका नाम आभदेव था और माताका नाम वैजेणी था । वह वधेरवाल वशके थे । उन्होने मूल सघके श्री पूज्यपादके प्रसादसे आत्मशक्तिके अनुसार जिनोक्त शास्त्रोका ज्ञान प्राप्त किया था । यह ग्रहस्थ थे और जिन विम्ब प्रतिष्ठाचार्य थे । इनका संस्कृत भाषा विषयक ज्ञान परिपक्व नही था इसीसे उन्होने अपनी टीकामे आगम विरोधी के साथ ही साथ शब्द शास्त्रसे विरुद्ध कथनको भी शोधनेकी प्रार्थना मनीपियोसे की है ।
प्रशस्तिका अन्तिम श्लोक आशाधरजी की शैलीके अनुकरणको लिये हुए है और उसमें उन्ही की तरह 'शिवाशाधर' पदका प्रयोग भी किया गया है । आशाघर जी भी बघेरबालवशी थे । शायद इसी जाति स्नेहवश उनके नामका इस प्रकार प्रयोग किया गया है |
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सोमदेवने अपने स्थान और समयका कोई निर्देश नही किया फिर भी यह निश्चित है कि वह विक्रमकी चौदहवी शताब्दीके पश्चात् हुए है क्योकि जिस श्रतमुनिकी आस्रव त्रिभगी पर उन्होने टीका रची है उन्होने अपना परमागमसार वि० सं० १३९८में समाप्त किया था । अब विचारणीय यही है कि चौदहवी शताव्दीके पश्चात् वह कव हुए है ?
१ ' अमितगुणगण साध्वाभदेवाब्धिसोम विजयनिवररत्न काममुद्योतकारी । गतकलिलकलक सर्वदोष स्ववृत्त स जयति जिनविम्व स्थापनाचार्यचार्या (वर्ण) ॥ १ ॥
यथामरेन्द्रस्य पुलोमजा प्रिया नारायणस्याब्धिसुता वभूव । तथाभदेवस्य वैजेणिनाम्नी प्रिया सुधर्मा, सुगुणा सुशीला ॥२॥ तयो सुत सद्गुणवान् सुवृत्त सोमोऽमिध कौमुदवृद्धिकारी । व्याघेरवालबुनिधे सुरत्नं जीयाच्चिर सर्वजनीनवृत्ति ॥३॥ श्रीमज्जिनेोक्तानि समजसानि शास्त्राणि लेभे स यथात्मशक्त्या । श्रीमूलसघाब्धिविवर्धनेन्दो श्रीपूज्यपादप्रभुसत्प्रसादात् ॥४॥
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शब्दशास्त्रविरोधंयत् यदागमविरोधि च । न्यूनाधिकं च यत्प्रोक्त शोधित तन्मनीपिभि । श्रीसद्माघ्रियुगे जिनस्य नितरा लीन शिवाशाधर । सोम सद्गुणभाजन सविनय सत्यात्रदाने रत । सद्रत्नत्रययुक् सदा बुघमनाल्हादी चिर भूतले । नद्याद्येन विवेकिना विरचिता टीका सुवोधाभिधा ॥७॥
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४६३ त्रिवर्णाचारके कर्ता भट्टारक सोमसेनने भी गुणभद्रसूरिका स्मरण किया है और उन्होने अपना त्रिवर्णाचार स० १६६७में तथा रामपुराण स० १६५६ में रचा है। इस परसे प० परमानन्दजीने सोमसेन और सोमदेवके ऐक्यकी सम्भावना पर विभगीसार टीकाका समय विक्रमकी सतरहवी शताब्दीका उत्तरार्ध माना है।
किन्तु प्रथम तो दोनोके नामोंमें भेद है। दूसरे, जब सोमसेन भट्टारक है तब सोमदेव गृहस्थ प्रतिष्ठाचार्य है। तीसरे, नया मन्दिर देहलीके भण्डारकी विभगीटीकाकी प्रतिमें उसका लेखनकाल विक्रम सम्वत् १६१५ लिखा है। अत सोमसेन और सोमदेव एक व्यक्ति नही हो सकते । सोमदेव सोमसेनसे पहले हुए है।
अत उक्त उल्लेखोके आधार पर इतना ही कहा जा सकता है कि सोमदेव विक्रम सम्वत्की १५वी और १६वी शताब्दीमें किसी समय हुए है। गोम्मटसारकी टीकाएँ कर्मकाण्डके अन्तमें एक गाथा इस प्रकार आती है
गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटरायेण जा कया देसी ।
सो राओ चिरकाल णामेण य वीर मत्तडी ।।९७२।। इस गाथाकी जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका तथा तदनुसारिणी सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भापाटीका इस प्रकार है।
जी० प्र०-गोम्मटसार सूत्रलेखने गोम्मटराजेन या देशी भाषा कृता स राजा नाम्ना वीरमार्तण्डश्चिरकाल जयतु ।।
स च०-गोम्मटसार ग्रन्थके सूत्र लिखने विष गोम्मट राजाकरि जो देशी भापा करी सो राजा नामकरि वीर मार्तण्ड चिरकालपर्यन्त जीतिवत प्रवृत्तौ ।
इस परसे यह धारणा बनी कि चामुण्डरायने गोम्मटसारकी रचनाके समय उसपर देशी भापामें अर्थात् कनडीमें कोई वृत्ति रची थी और चामुण्डरायके नाम पर उसका नाम वीर मार्तण्डी था ।
जीवतत्त्व प्रदीपिकाके आरम्भिक मगलपद्यमें उसके रचयिताने कहा है कि मैं कर्णाट वृत्तिके आधारसे गोम्मटसारकी टीका करता हूँ । इस परसे उक्त धारणा को बल मिला और कतिपय विद्वान लेखकोंने यहा तक लिखा कि जीव० प्रदी१ 'नेमिचन्द्र जिन नत्वा सिद्ध श्रीज्ञानभूपण । वृत्ति गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाट
वृत्तित ॥१॥ कर्मकाण्ड भूमिका पृ० ५ (रा० शा० माला स० १९२८ ई०), जीवकाण्ड भूमिका, द्रव्यसग्रह अग्रेजी, भूमिका, पृ० ४१, जीवकाण्ड अग्रेजी, भू० पृ० ७, और गोम्मटसार, मराठी टीकाकी भूमिक, पृ० १ आदि ।
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४६४ जैनसाहित्यका इतिहास पिकामें जिस कर्णाटक वृत्तिका उल्लेख है वह चामुण्डरायकी वह वृत्ति है जिसका उल्लेख गो० कर्मकाण्डकी अन्तिम गाथामें किया गया है । __ डॉ० ए० एन० उपाध्येने एक लेख 'गोम्मट शब्दके अर्थ विचार पर सामग्नी' शीर्षकसे इ० हि० क्वा०, जि० १६मे प्रकाशित कराया था। उसका अनुवाद जै० सि० भास्करके भा८, कि० २ में प्रकाशित हुआ था। उसमें कर्मकाण्डकी उक्त अन्तिम गाथाके सम्बन्धमें अपने नोटमें डॉ० उपाध्येने लिखा है-'इस गाथाकी रचना असन्तोपजनक है जीवतत्त्व प्रदीपिकाके अनुसार यह 'वीरमत्तडों' पढा जाता है । क्योकि वहाँ इसे 'राओ' का विशेषण कहा है। जीवतत्त्व प्रदीपिका' में 'जाकया देसी' का 'या देशी भाषा कृता' कर लिया गया है। प० टोडरमल्ल इत्यादि चामुण्डरायकी टीकाका इसे एक उल्लेख समझते है । नरसिंहाचार्यके अनुसार, चामुण्डरायने ऐसी कोई रचना नही की। इसका अर्थ केवल इतना होता है कि इस ग्रन्थकी कोई हस्तलिपि अभी तक प्रकाशमें नही आई है (2)! जीव० प्रदी०का प्रथम श्लोक स्पष्ट रूपमें कहता है कि इसका आधार एक कन्नड टीका पर है । हमारे पास इस कथनके लिये कोई प्रमाण नहीं है कि यह चामुण्डरायकी कृति है। हमे मालूम है कि कन्नडमें गोम्मटसारकी टीका है जिसका नाम जीवतत्त्व प्रदीपिका है जिसे केशववर्णीने सन् १३५९ में रचा था । वे अभय सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य थे और धर्मभूषणके आदेशानुसार यह टीका की थी। वीर मार्तण्डी, जैसा कि गाथामें मिलता है देशीका विशेपण है और यह वृत्तिका नाम है। चामुण्डरायकी उपाधि भी वीरमार्तण्ड थी, जो उन्होने तोलम्बाके युद्धमें अपनी वीरता प्रदर्शित करके प्राप्त की थी। और यह असगत प्रतीत नहीं होता कि उन्ह ने इसका नाम अपनी एक उपाधिके नाम पर रक्खा हो। यदि हमारे देशी शब्दका अर्थ सत्य है तो इसका अर्थ है कि कन्नड जो कि एक द्रविड भाषा है एक प्राकृतभाषाके लेखकके द्वारा देशी नामसे सम्बोधित की गई है।'
उक्त उद्धरणसे स्पष्ट है कि डॉ० उपाध्ये भी इस वातसे सहमत है कि उक्त गाथाका वीरमार्तण्डी देशीका विशेषण है और वृत्तिका नाम है । अत उक्त गाथाका जो अर्थ समझा गया वह एकदम गलत तो नही समझा गया। किन्तु चामुण्डरायकी इस प्रकारकी किसी कृतिका कोई उल्लेख अन्यत्र नही मिलता ।।
गोमट्टसार पर अब तक दो सस्कृत टीकाएँ प्रकाशमें आई है, उनमेंसे एकका नाम मन्द प्रवोधिका है और दूसरीका जीव तत्त्व प्रदीपिका । ये दोनो टीकाएँ गान्धी हरिभाई देवकरण जैन ग्रन्थमाला कलकत्तासे प्रकाशित गोमट्टसारके शास्त्राकार संस्करणमें प० टोडरमलजीकी हिन्दी टीका सम्यग्ज्ञान चन्द्रिकाके साथ १ जै० सि० भा० ८, कि० २, पृ० ९० ।
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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य ४६५
प्रकाशित हो चुकी है । इनमें मन्द प्रबोधिका जीवकाण्डकी गाथा ३८३ तक ही
मुद्रित है । इस टीका कर्ता अभयचन्द्र है । अभयचन्द्र ने अपनी टीका पूरे गोमट्टसार पर रची थी । या उसे उन्होने अपूर्ण ही छोड दिया था, यह अभी तक अनिर्णीत है ।
जीवतत्त्वप्रदीपिका टीकाके अवलोकनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उसके रचयिताने मन्द प्रवोधिका टीकाका पूरा अनुसरण किया है । उसके बहुतसे विवरण मन्दप्रबोधिका अनुसार है । मन्द प्रवोधिका अधिकाश परिभाषिक विवरोको जी० प्रदीपिका में पूरी तरहसे अपना लिया गया है । जी० प्रदीपिकाके प्रत्येक अध्यायके आरम्भमे जो सस्कृत पद्य दिये गये है वे भी मन्द प्रवोधिका में पाये जाने वाले पद्योकी अनुकृति है । जी० १ प्रदी० में अभयचन्द्रका नामोल्लेख भी किया गया है ।
जी०का०गा० ३८३ की मन्दर प्रबोधिका टीकामें गाथाका व्याख्यान न करके केवल इतना लिखा है कि श्रीमदभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती कृत व्याख्यान यहाँ समाप्त हो जाता है । अत यह कर्णाटवृत्तिके अनुसार कहता है । यदि यह वाक्य जी० प्रदीपिका में होता तो उससे यह स्पष्ट था कि वह बात जी० प्रदीपिकाके कर्ता कही है । किन्तु टोडरमलजीको टीका जी० प्रदीपिकाका ही अनुवाद है । और उसमें उक्त वाक्यका अनुवाद नही है । अत जी० प्रदी० के कर्ताका तो यह वचन हो नही सकता और मन्दप्रवोधिकाका कर्ता ऐसी बात लिख नही सकता । अत उक्त कथन किसका है यह स्पष्ट नही होता । और उसके आधार पर यह निष्कर्ष नही निकाला जा सकता कि जी० प्रदी० के कर्ता को भी यही तक टीका प्राप्त हुई थी ।
इसके सिवाय कर्मकाण्डके कलकत्ता सस्करणमें दी हुई सपादकीय टिप्पणोसे वह प्रकट होता है कि सभवतया उनके सामने कर्मकाण्ड पर अभयचन्द्र रचित मन्द प्रबीधिका टीका वर्तमान थी क्योकि उन्होने अपने टिप्पणोमें यह वतलाया है कि जी० प्र० के मन्द प्र० में इतना पाठ अधिक है और उस पाठको उद्धृत भी किया है | अत मन्द प्रबोधिका टीकाकी प्रतियोकी खोज किये बिना यह कहना शक्य नही है हि अभयचन्द्रने अपनी मन्द प्रबोधिका टीका गोमट्टसार जीवकाण्डके अमुक भाग तक बनाई थी ।
१ ' इति श्रीमदभयचन्द्रसूरिसिद्धान्तचक्रवर्त्य भिप्राय ।
जी०का ०टी०, गा० १३ ।
२ 'म० प्र०—- 'श्रीमदभयचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तीविहितव्याख्याना विश्रान्तमिति - कर्णाटवृत्यनुरूपमयमनुवदति ।
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४६६ : जैन साहित्यका इतिहास
१ मन्दप्रबोधिका टीका
मन्द प्रवोधिकाका नाम सार्थक है । टीकाकारने ययासभव सक्षेपमें प्रत्येक गाथाका अर्थ दिया है और जहां स्पष्टीकरणके लिये विशेष कथनकी आवश्यकता प्रतीत हुई वहीं विशेष कथन किया है । सस्कृत भी मरल है विशेष कठिन नही है । प्रथम मंगल गाथाका व्याख्यान करते हुए चामुण्डरायके प्रश्नको इस ग्रन्थके निर्माणमें निमित्त वतलाया है । गुरु शिष्य परम्परासे प्रवर्तित उपदेशको हेतु चतलाया है | गाथा सूत्रोका परिमाण ७२५ बतलाया है और ग्रन्थका नाम जीवकाण्ड, जीवप्ररूपण अथवा जीवस्थान वतलाया है । कर्ताके तीन भेद किये है-— मूलतत्रकर्ता भगवान महावीर, उत्तर तथकर्ता गोतम गणधर और उतरोत्तर तत्रकर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीको कहा है ।
टीकाके अवलोकनसे टीकाकारके सिद्धान्त विषयक ज्ञानकी गम्भीरता प्रकट होती है । किन्तु उनके सिद्धान्त चक्रवर्तित्वमे सन्देह होता है । मगलके प्रकरणम उन्होने लिसा' है कि गौतम गणधरने वेदना सण्डके आदिमें 'णमो जिणाण आदि मगल किया है । किन्तु धवला ( पृ० ९, १०३ ) मे लिसा है कि गौतम गणधरने महाकर्म प्रकृति प्राभृतके आदिमे णगोजिणाण आदि मगल किया था और वहाँसे लाकर भूत बलि भट्टारकने उसे वेदना खण्डके आदिमें रखा । अभयचन्द्रजी या तो भूलसे वैसा लिख गये है या फिर उन्होने धवलाका पूरा अनुगम नही किया प्रतीत होता । किन्तु उनका सिद्धान्त विषयक ज्ञान परिपूर्ण था । इसमें सन्देह नही है ।
जीवतत्त्व प्रदीपिका में तो उनका अनुसरण किया ही गया है किन्तु जिस कर्णाटवृत्तिके आधार पर जीवतत्त्व प्रदीपिकाको रचनेकी प्रतिज्ञा टीकाकारने की है उस कर्णाटवृत्तिको रचना भी मन्द प्रबोधिकाके साहाय्यकी ऋणी है यह वात डा० ए० एन० उपाध्येने अपने लेखमें दोनो टीकाओंसे एक उद्धरण देकर स्पष्ट की है । वह उद्धरण जीवकाण्डकी गा० १३ की टीकाका है । कर्नाटकटीकावाले
१ 'श्रीमद् गौतम गणधरपादैरपिवेदनाखण्डस्यादो णमोजिणाणमित्यादिना' - गो० म० प्र० टी०, पृ० १४ । २ 'महाकम्मपर्याड पाहुडस्स कदियादि चउवीस अणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परुविदस्त भूदवलिभडारएण वेयणाखण्डस्स आदीए मगलट्ठ तत्तो आणेण ठविदस्स' । षट्खं, पु०, ९, पृ० १०३ ।
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३ गो० जी० प्र० टीका, उसका कर्तृत्व और समय - अनेकान्त, वर्ष ४,
कि०
१, पृ० ११३ ॥
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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य : ४६७
उद्धरणमें अभयचन्द्र सूरि सिद्धान्त चक्रवर्तीका नाम भी है जिससे किसी प्रकारका सन्देह नही रहता । अत गोमट्टसारकी उपलब्ध इन तीनो टीकाओमें मन्द प्रवोधिका आद्य टीका है | शेप दोनो टीकाए उसीके आधार पर वनी है । इस दृष्टि से उस टीका और उसके कर्ताका महत्व स्पष्ट है ।
कर्ता और रचनाकाल
मन्द प्रबोधिका कर्ताका नाम अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती है । उनकी टीकासे उनके तथा रचनाकालके सम्बन्धमें कोई सकेत तक नही मिलता । किन्तु चूकि कर्नाटक वृत्तिमे उनका उल्लेख है अत यह निश्चित है कि कर्णाटकवृत्तिसे पहले मन्द प्रबोधिकाकी रचना हो चुकी थी । कर्णाटकवृत्तिके रचयिता केशववर्णी अभयसूरि सिद्धान्त चक्रवर्तीके शिष्य थे और उन्होने अपनी वृत्ति धर्मभूषण भट्टारकके आदेशानुसार शक स० १२८१ या ईस्वी सन् १३५९ में लिखी थी । ऐसा डॉ० उपाध्येने अपने उक्त लेखमें लिखा है । मत निश्चय ही मन्द प्रवोधिकाकी रचना उससे पहले हुई है । किन्तु कितने समय पहले हुई है यह चिन्त्य है ।
अभयचन्द्रने जीवकाण्ड गा० ५६-५७की मन्दप्रवोधिका' टीकामें श्रीबालचन्द्र पण्डितदेवका निर्देश किया है | श्रवणबेलगोलाके एक शिलालेखमे जो ई० सन् १३१३ का है वालेन्दु पण्डितका उल्लेख है । डॉ० उपाध्येने अभयचन्दके द्वारा निर्दिष्ट बालचन्द्रको और श्रवणबेलगोलाके शिलालेखमें स्मृत बालेन्दु पण्डितको एक ही व्यक्ति माना है । उन्होने यह भी लिखा है कि 'इसके अतिरिक्त उनकी पदवियो- उपाधियो और छोटे-छोटे वर्णनोसे जो कि उनमें दिये हुए है, मुझे मालूम हुआ है कि हमारे अभयचन्द्र और बालचन्द्र, सभी सम्भावनाओको लेकर वे ही है जिनकी प्रशसा वेलूर शिलालेखो में की गई है और जो हमें बतलाते है कि अभयचन्द्रका स्वर्गवास ईस्वी सन् १२७९ में और वालचन्द्रका ईस्वी सन् १२७४ हुआ था ।'
में
इस तरह डॉ० ० उपाध्येने अभयचन्द्रकी मन्द प्रबोधिकाका समय ईस्वी सन्की तेरहवी शताब्दीका तीसरा चरण स्थिर किया है । जो अन्य प्रमाणसे भी समर्थित होता है ।
१ 'पुनरपि कथभूता ? विमलतरध्यानहुतवह शिखाभिनिर्दग्धकर्मवना प्रतिसमयमनन्तगुणविशुद्धिसामर्थ्येनायुवजितसप्तकर्मणां गुणश्रेणि गुण सक्रम स्थित्यनुभागकाण्डकघातै षोडशप्रकृतिक्षपणेन मोहनीयस्याष्टकपायादिक्षपणेन वादरसूक्ष्मकृष्टिविधानेन अन्यैश्चोपायै आत्मन श्रेयोमार्गभ्रान्तिहेतुं इति श्रीवालचन्द्र पण्डितदेवाना तात्पर्यार्थ । म प्रवो० ।
२ वही लेख अने० वर्ष ४, कि० १ ।
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४६८ · जैनसाहित्यका इतिहास
अभयचन्द्रने जी० का० की प्रथम गाथाकी मन्द प्रवोधिका टीकामें एक पद्य' उद्धृत किया है जो प० आशाधरके अनगार धर्मामृतके नौवें अध्यायका २६वा पद्य है। प० आगाधरने अपने अनगारधर्मामृतकी टीका वि० स० १३०० अर्थात् ई० सन् १२४३में समाप्त की थी। अत मन्दप्रवोधिककी रचना उसके बाद हुई यह निश्चित है । और चूँकि कर्णाटक वृत्तिकी समाप्ति ई० सन् १३५९ में हुई।' अत मन्द प्रवधिकाकी रचना सन् १२४३ और १३५९ के मध्यमें किसी समय हुई है । श्रवण बेलगोला और बेलूरके शिलालेखोमें निदिष्ट वालचन्द्र पण्डित और अभयचन्द पण्डित भी इसी समयमें हुए है । किन्तु श्रवणवेल गोलाके शिलालेखमें वालेन्दु पण्डितको अभयचन्द्रका शिष्य बतलाया है। और एक गुरु अपनी टीकामें अपने शिष्यके मतका उल्लेख 'इति वालचन्द्र पण्डित देवाना तात्पर्यार्थ' इस रूपमे नही कर सकता।
किन्तु उसमें अभयचन्द्रको 'सिद्धान्ताम्भोधि सीतद्युति' विशेपण दिया है जो बतलाता है कि अभयचन्द्र सिद्धान्तरूपी समुद्रके लिये चन्द्रमाके तुल्य थे । मत ई० सन् १३१३ के शिलालेखमें निर्दिष्ट अभयचन्द्र मन्द प्रबोधिकाके कर्ता होना चाहिये । प्रश्न केवल वालचन्द्र पण्डितदेवको उनका शिष्य बतलानेका रह जाता है ।
इस सम्बन्धमें परमागमसारके रचयिता श्रुतमुनिने जो अपनी प्रशस्ति उसके अन्तमें दी है वह भी यहाँ उल्लेखनीय है । परमागमसारकी समाप्ति शक स० १२६३ में हुई है । प्रशस्तिमें लिखा है-श्रुतमुनिके अणुव्रत गुरु बालेन्दु, महाव्रत १ 'उच्यते, 'नेष्ट वितुं शुभभावभग्नरसप्रकर्प प्रभुरन्तराय । तत्कामचारेण
गुणानुरागान्नुत्यादिरिष्टार्थकृदाहदादे ।" इति वचनेन ।-म० प्रवो० । 'तच्छिष्यश्चरुकीर्ति प्रथितगुणगण पण्डितस्तस्य शिष्य , ख्यात श्रीमाघनन्दिव्रतिपतिनुतभट्टारकस्तस्य शिष्य । सिद्धान्ताम्भोधिसीतद्युतिरभयशशी तस्य शिष्यो महीयान् बालेन्दु पण्डितस्तत्पदनुतिरमलो रामचन्द्रोऽमलाङ्ग ॥१६॥'
-शिला० स०, भा० १, पृ० ३२ । 'अणुवद गुरुबालेंदू महन्वदे अभयवद सिद्धति । सत्येऽभयसूरि पहा (भा) चदा खलु सुयमुणिस्स गुरु ।।२२५॥ सिरिमूलसघ-देसियगण-पुत्थयगच्छ कोडकुदाणं । परमण्ण-इंगलेसर बलिम्मि जादस्स मुणिपहाणस्स ॥२२६॥ सिद्धताहयचदस्स य सिस्सो वालचंद मुणिपवरो। सो भविय कुवलयाण आर्णदकरो सया जयउ ॥२२७॥
प्रश० सं० भा० १, पृ० १९१ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४६९ गुरु अभयचन्द्र सिद्धान्तिक, और शास्त्र गुरु अभयसूरि और प्रभाचन्द्र थे । आगे लिखा है-सैद्धान्तिक अभयचन्द्रके शिष्य बालचन्द्र मुनि जयवन्त हो । शब्दागम, परमागम, तांगमके वेत्ता तथा सकल अन्यवादियोके जेता अभयसूरि सिद्धान्ती जयवन्त हो।
विचारणीय यह है कि श्रवणबेल गोलाके शिलोलेखमें निर्दिष्ट अभयचन्द्र और उनके शिष्य बालचन्द पण्डित तथा श्रुतमुनिकी प्रशस्तिमें स्मृत अभयचन्द्र और उनके शिष्य वालचन्द्र मुनि क्या एक ही व्यक्ति है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना उचित होगा कि उक्त शिलालेख मूलसघ देशीगण और पुस्तक गच्छके आचार्योसे सम्बद्ध है तथा श्रु तमुनिकी प्रशस्तिभी मूलसघ, देशीगण और पुस्तक गच्छकी इगलेश्वर शाखासे-सम्बद्ध है । अन्तर इतना ही है कि एक जगह बालचन्दको पण्डित लिखा है और एक जगह मुनि । हो सकता है कि मन्दप्रबोधिकाकी रचनाके समय वे केवल वालचन्द पण्डित हो और पीछे उन्होने मुनिपद धारण कर लिया हो।
किन्तु इन दोनो उल्लेखोके समन्वयमें सबसे बडी बाधा बेलूरके शिलालेख है जिनमें शक स० १२०१ मे अभयचन्दकी और उनसे ५ वर्ष पूर्व बालचन्दकी मृत्यु बतलाई है। क्योकि परमागमसारकी रचनाके समय यदि श्र तमुनिकी अवस्था ५० वर्ष भी मान ली जाये तो शक स० १२१३ में उनका जन्म हुआ होगा। उस समयसे बहुत पहले अभयचन्द और बालचन्दका स्वर्गवास हो चुका था।
किन्तु श्रवणवेलगोलाके जस शिलालेखमें अभयचन्द्र और उनके शिष्य बालचन्द्र पण्डितका नाम है वह शिलालेख शक स० १२३५ का है। शक स० १२३५ में शुभचन्द्र विद्यकी मृत्यु हुई और उनकी स्मृतिमें उनके शिष्योने उनकी निपद्या निर्माण कराई। शिलालेखके अनुसार शुभचन्द्रके शिष्य चारुकीर्ति थे, चारुकीतिके शिष्य माघनन्दि थे, माघनन्दिके शिष्य अभयचन्द्र और अभयचन्द्रके शिष्य बालचन्द्र पण्डित थे। ऐसी स्थितिसे अभयचन्द्र और वालचन्द्रकी मृत्यु शक स० १२०१ में या उससे पूर्व कैसे हो सकती है ? अधिक सम्भव यही प्रतीत होता है कि अपने दादा गुरु शुभचन्द्रकी मृत्युके समय अभयचन्द्र और उनके शिष्य वालचन्द्र जीवित थे और ऐसा होनेसे परमागमसारके रचयिता श्रुतमनिके वे दोनो व्रतगुरु हो सकते है। अत मन्दप्रबोधिकाकी रचनाका काल ईस्वी सन् की तेरहवी शताब्दीके तीसरे चरणकी अपेक्षा चौदहवी शताब्दीका प्रथम चरण होना चाहिये।
श्रु तमुनिके विद्यागुरु अभयसूरि सिद्धान्ती थे और गोमट्टसारकी कर्नाटक
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४७० · जैनसाहित्यका इतिहास . वृतिके रचयिता केशववर्णीके गुरु अभयसूरि सिद्धान्त चक्रवर्ती थे। परमागमसार शक स० १२६३ में पूर्ण हुआ और गो० कर्नाटक वृत्ति शक स० १२८१ में । दोनोमें केवल १८ वर्षका अन्तर है । अत ये दोनो अभयसूरि भी एक ही व्यक्ति प्रतीत होते है । इन्हे श्रु तमुनिने परमागम आदिका पूर्ण ज्ञाता बतलाया है । ऐसी स्थितिमें मन्दप्रवोधिकाके रचयिता अभयचन्द्र सिद्धान्तीका अभयसूरिके साथ साक्षात्कार हो सकता है और सम्भवतया उसीके फलस्वरूप मन्दप्रवोधिकाके आधार पर केशववर्णीके द्वारा कर्नाटक वृत्ति रची गई हो । अस्तु, जो कुछ हो पर इतना सुनिश्चित है कि अनगार धर्मामृतकी टीकाके समाप्तिकाल वि० स० १३०० के पश्चात् और कर्नाटक वृत्तिकी समाप्तिके समय शक० स० १२८१ (वि० स० १४१६)से पूर्व अर्थात् विक्रमकी चौदहवी शताब्दीमे मन्दप्रवोधिकाकी रचना हुई।
२ जीवतत्व प्रदीपिका
वर्तमानमें पूरे गोम्मटसार पर उपलब्ध होने वाली पूरी और सुविस्तृत सस्कृत टीका जीवतत्त्व प्रदीपिका ही है । गोम्मटसारके अध्ययनके यथेष्ट प्रचारका श्रेय जीवतत्त्व प्रदीपिकाको ही प्राप्त है। पं० श्री टोडरमल जीने उसीको न केवल आधार बनाकर, बल्कि अनुदित करके अपनी हिन्दी टीका सम्यग्ज्ञान चन्द्रिकाकी रचना की थी। उन्होने अपनी टीकाकी पीठिकामें लिखा है-'एस विचारि श्रीमद् गोम्मटसार द्वितीयनामा पञ्चसग्रह ग्रन्थकी जीवतत्त्व प्रदीपिका नामा सस्कृत टीका ताकै अनुसारि सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका नामा यहु देशभापामयी टीका करनेका निश्चय किया है ।' और गोम्मटसारके हिन्दी अर्णोजी और मराठीके सभी आधुनिक अनुवाद प० टोडरमल जीकी टीकाके आधार पर हुए है । अत इस सबका परम्पराश्रय जीवतत्त्व प्रदीपिका को ही है।
किन्तु इस टीकाके कर्तृत्वको लेकर कुछ भ्रम फैल गया था। पं० टोडरमल जी ने अपनी हिन्दी टीकामें इस टीकाको केशववर्णीकी बतलाया है। उसीके आधार पर गोम्मटसारके आधुनिक टीकाकारोने भी उसे केशववर्णीकी बतलाया। प० टोडरमल जीके उक्त उल्लेखका कारण जीवकाण्डकी जीवतत्त्व प्रदीपिकाके अन्तमें पाया जानेवाला एक श्लोक है जो इस प्रकार है
श्रित्वा कर्णाटिकी वृत्ति वर्णिश्रीकेशब कृति ।
कृतेयमन्यथा किंचिद् विशोध्यं तद्वहुश्रुत ॥१॥ इसका अनुवाद प० टोडरमलजी ने इस प्रकार किया है
केशववर्णी भव्यविचार । कर्णाटक टीका अनुसार । सस्कृत टीका कीनी एहु । जो अशुद्ध सो शुद्ध करेहु ॥१॥
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४७१ डा० उपाध्येके जिस लेख'का उल्लेख पहले किया गया है उस लेख में जीवतत्त्व प्रदीपिकाके कर्तृत्वके विपयमें फैले हुए इस भ्रमका निराकरण करते हुए डा० साहबने सुन्दर विचार प्रस्तुत किया है।
असलमें उक्त श्लोक जो इस भ्रम फैलानेका कारण बना, अशुद्ध है। श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन मरस्वती भवन वम्बईकी जीवतत्त्व प्रदीपिका सहित गोम्मटसारकी लिसित प्रतिमें उक्त श्लोक इस प्रकार पाया जाता है
"श्रित्वा कर्णाटिकी वृत्ति वणिश्रीकेशवै कृताम् ।
कृतेयमन्यथा किंचित्त द्विशोध्य बहुश्रुतै ॥' इसके साथ एक श्लोक और है जो इस प्रकार है
श्रीमत् केशवचन्द्रस्य कृतकर्णाटवृत्तित्त ।।
कृतेयमन्यथा किंचिच्चत्तच्छोध्य बहुश्रुत ॥' इन पद्योसे यह विल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि इन पद्योमें टीकाके कर्ताने अपना नाम नहीं दिया बल्कि यह लिखा है कि उसने अपनी टीका केशववर्णीकी कर्णाटवृत्ति परसे लिखी है और साथ ही यह आशा व्यक्त की है कि यदि उसकी टीकामें कुछ अशुद्धियाँ हो तो बहुश्रु त विद्वान् उन्हें शुद्ध करके पढनेकी कृपा करें।
जीवतत्त्व प्रदीपिकाको कर्णाटक वृत्तिके अनुसार रचनेकी प्रतिज्ञा टीकाकारने अपनी टीकाके प्रथम मगल श्लोकमे ही की है
'नेमिचन्द्र जिन नत्वा सिद्ध श्रीज्ञानभूषणम् ।
वृत्ति गोम्मटसारस्य कुर्वे कर्णाटवृत्तित ॥' केशववर्णीकी कर्नाटक वृत्तिकी लिखित प्रतिया आज भी उपलब्ध है। उस वृत्तिका नाम भी जीवतत्त्व प्रदीपिका है और वह स०जी०प्र० से कुछ बडी है । अत इसमें तो कोई सन्देह नही रहता कि स०जी०प्र०का के रचयिता केशववर्णी नही है। _____ तव प्रश्न होता है कि उसके रचयिता कौन है और कब उसकी रचना हुई है ? गोम्मटसारके कलकत्ता संस्करणके अन्तमें एक प्रशस्ति दी हुई है। उससे १ अनेकान्त, वर्ष ४, कि० १, पृ० ११३ आदि । २ 'यत्र रत्लैत्रिभिलब्ध्वार्हन्त्य पूज्य नरामर । निर्वान्ति मूलसघोऽय नंद्यादा
चन्द्र तारक ॥४॥ तत्र श्रीशारदागच्छे वलात्कारगणोऽन्वय । कुन्दकुन्द मुनीन्द्रस्य नद्याम्नायोऽपि नन्दतु ॥५॥ यो गुणगणभृद्गीतो भट्टारक शिरोमणि । भक्त्या नमामि त भूयो गुरुं श्रीज्ञानभूपणम् ॥६॥ कर्णाटप्रायदेशेशमल्लिभूपाल भक्तित । सिद्धान्त पाठितो येन मुनिचन्द्र नमामि तम् ॥७॥ योऽभ्यर्थ्य धर्मवृद्धयर्थं मह्य सूरिपद ददौ । भट्टारकशिरोरत्न प्रभेन्दु स
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४७२ · जैनसाहित्यका इतिहास
पता चलता है कि सस्कृत जी०प्र० टीकाके कर्ता मूलसघ, शारदागच्छ बलात्कार गण, कुन्दकुन्दान्वय और नन्दि आम्नायके नेमिचन्द्र है । वे ज्ञानभूपण भट्टारकके शिष्य थे। प्रभाचन्द्र भट्टारकने उन्हें सूरिपद प्रदान किया था। कर्णाटकके जैन राजा मल्लिभूपालकी भक्तिवश उन्हे मुनिचन्द्रने सिद्धान्त पढाया था । लाला वर्णीके आग्रहसे वे गुर्जर देशसे आकर चित्रकूटमें जिनदास शाह द्वारा निर्मापित चैत्यालयमें ठहरे । वहाँ उन्होने सूरि श्री धर्मचन्द्र, अभयचन्द भट्टारक और लाला वर्णी आदि भव्य जीवोंके लिये, खण्डेलवाल वशके साह सागा और साह सहेसकी प्रार्थना पर कर्णाट वृत्तिके अनुसार गोम्मटसारकी वृत्ति लिखी। उसकी रचनामें विविध विद्यामें विख्यात विशालकीति सूरिने सहायता की और उसे प्रथम वार हर्प पूर्वक पढा । विद्य चक्रवर्ती निर्ग्रन्थाचार्य अभयचन्द्रने उसका सशोधन करके उसकी प्रथम प्रति तैयार की थी।' ___ अत उक्त प्रशस्तिके अनुसार सस्कृत जीव तत्त्व प्रदीपिका टीकाके कर्ता नेमिचन्द है। गोम्मटसारके अन्तर्गत अध्यायोके अन्तमे जो सन्धि वाक्य है उनसे भी इस बातका समर्थन होता है । यथा-'इत्याचार्य श्री नेमिचन्द्रकृताया गोम्मटसारापरनामपञ्चमग्रहवृत्तौ' यहाँ नेमिचन्द्रकृताया पद 'वृत्तिका विशेषण है न कि गोम्मटसारका, क्योकि वृत्तिकी तरह वह भी स्त्रीलिंगमे प्रयुक्त हुआ है । किन्तु गोम्मटसारके रचयिताका नाम भी आचार्य नेमिचन्द्र था । अत किन्ही सन्धिवाक्योमें नेमिचन्द्र के साथ सिद्धान्तचक्रवर्ती पद जोड दिया गया है। यथा'इत्याचार्य श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीविरचिताया गोम्मटसारपरनामपचसग्रह वृत्ती जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्याया कर्मकाण्डे त्रिकरणचूलिका नाम अष्टमोऽधिकार ।' किन्तु यहाँ भी 'विरचिताया' पद जीवतत्त्व प्रदीपिका नामक वृत्तिका विशेषण है । अत ग्रन्थकार और टीकाकारके नाम साम्यके कारण उक्त प्रकारकी भूल हो गई है।
नमस्यते ॥८॥ विविधविद्याविख्यात विशालकीतिसूरिणा । सहायोऽस्या कृतौ चक्रऽधीता च प्रथम मुदा ॥९॥ सूरे श्री धर्मचन्द्रस्याभयचन्द्रगणेशिन । वणि लालादिभव्याना कृते कर्णाटवृत्तित ॥१०॥ रचिता चित्रकूट श्रीपार्श्वनाथालयेऽमुना । साधुसागासहेसाभ्या प्रार्थितेन मुमुक्षुणा ॥११॥ गोम्मटसारवृत्तिहि नद्याद् भव्य प्रवर्तिता। शोधयन्त्वागमात् किंचित् विरुद्ध चेद् बहुश्रुता ॥१२॥ निर्गन्थाचार्यवर्येण विद्यचक्रवर्तिना । सशोध्याभयचन्देणालेखि प्रथम पुस्तक ॥१३॥'-गो०क०का०, पु० २०९७-९८ ।
इसके नीचे गद्य प्रशस्ति है जिसमें सक्षेप में वही वात प्राय कही है जो पद्योमें कही गई है।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४७३ तथा टीकाका आद्य मगलाचरण भी इसी वातका समर्थक है । उसका पूर्वार्द्ध 'नेमिचन्द्र जिन नत्वा सिद्ध श्रीज्ञानभूपण' में जिनके विशेषण रूपसे प्रयुक्त नेमिचन्द्र और ज्ञानभूपण पद द्वयर्थक है । इन दो पदोके द्वारा टीकाकारने अपना और अपने गुरु ज्ञानभूपणका निर्देश किया है। ज्ञानभूपण और उनकी परम्परामें होने वाले ग्रन्थकारोने प्राय मगल पद्योमें अपना और अपने गुरुका नाम विशेपण रूपसे प्रयुक्त किया है । उदाहरणके लिये भ० ज्ञानभूपणने सिद्धान्तसार भाष्यके आदिमें जो मंगलाचरण किया है उसमें उन्होने अपना और अपने गुरू लक्ष्मीचन्द्र और वीरचन्द्रका नाम विशेपण रूपसे दिया है । यथा
श्री सर्वज्ञ प्रणम्यादी लक्ष्मी-वीरेन्दु-सेवितम् ।
भाष्य सिद्धान्तसारस्य वक्ष्ये ज्ञानसुभूपणम् ॥ इस तरहके उदाहरण बहुत मिलते है । अत यह निर्विविवाद है कि जीवतत्त्व प्रदीपिकाके रचयिताका नाम नेमिचन्द्र था और वह ज्ञानभूपणके शिष्य थे।
अब विचारणीय यह है कि वे हुए कब है ? समय विचार
नेमिचन्द्रने अपनी प्रशस्तिमें जीवतत्त्व प्रदीपिकाकी रचनाके समयका निर्देश नही किया है । किन्तु केशववर्णीने अपनी कर्णाटवृत्तिको शक सम्वत् १२८१ में समाप्त किया था और चूकि नेमिचन्द्रकी जीवतत्त्वप्रदीपिका उसीका अनुसरण करते हुए रची गई है अत यह निश्चित है कि उसकी रचना शक स० १२८१ (वि० स० १४१६) के पश्चात् किसी समयमें हुई है। और प० टोडरमलजीने सं०जी०प्र० का के आधार पर हिन्दी टीकाका निर्माण वि० स० १८१८ या शक स० १६८३ में किया था अत जीव० प्र० उससे पहलेकी है यह भी निश्चित है। अब देखना यह है कि वि० सं० १४१६ से लेकर १८१८ तकके चार सौ वर्पोके अन्दर कव उसका निर्माण हुआ।
उक्त प्रशस्तिमें कर्णाट प्राय देशके स्वामी मल्लिभूपालका नाम आया है। डा० उपाध्येने उसीके आधार पर सस्कृत जी०प्र० की रचनाका समय ईसाकी १६ वी शताब्दीका प्रारम्भ ठहराया है। उन्होंने लिखा है 'जैन साहित्यके उद्धरणो पर दृष्टि डालनेसे मुझे मालूम होता है कि मल्लि नामक एक शासक कुछ जैन लेखकोके साथ प्राय सम्पर्कको प्राप्त है । शुभचन्द्र गुर्वावलीके अनुसार विजय कीर्ति (ई० सन् की १६ वी शताब्दीके प्रारम्भमें) मल्लिभूपालके द्वारा सम्मानित हुआ था। विजयकोतिका समकालीन होनेसे उस मल्लिभूपालको १६ वी शताब्दी के प्रारम्भमें रखा जा सकता है। उसके स्थान और धर्म विषयका हमें परिचय १ अनेकान्त, वर्ष ४, वि० १, पृ० १२० ।
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४७४ - जैनसाहित्यका इतिहास
नही दिया गया। दूसरे विशालकीतिके शिप्य विद्यानन्द स्वामी के विपयमें कहा जाता है कि ये मल्लिरायके द्वारा पूजे गये थे । और ये विद्यानन्द ई० सन् १५४१ में दिवगत हुए है । इममे भी मालूम होता है कि १६ वी शताब्दीके प्रारम्भमें एक मल्लिभृपाल था। हुमचका शिलालेस इस विपयको और भी अधिक स्पष्ट कर देता है। वह बतलाता है कि यह राजा जो विद्यानन्दके सम्पर्कमें था सालुव मल्लिराय कहलाता है, यह उल्लेख हमे मात्र परम्परागत किंवदन्तियोसे हटाकर ऐतिहासिक आधार पर ले आता है । सालुव नरेगोने कनारा जिलेके एक भाग पर राज्य किया है और वे जैनधर्मको मानते थे। मल्लिभूपाल मल्लिरायका सस्कृत किया हुआ रूप है। और मुझे इसमें कोई सन्देह नहीं है कि नेमिचन्द्र सालुव मल्लिरायका उल्लेस कर रहे है । यद्यपि उन्होने उनके वशका उल्लेस नहीं किया है। १५३० ई० के लेखमें उल्लिसित होनेमे हम सालुव मल्लिरायको १६ वी शताब्दीके प्रथम चरणमें रस सकते है । और यह उसके विद्यानन्द तथा विजयकीर्ति विपया सम्पर्कके साथ भी अच्छी तरह सगत जान पडता है । इस तरह नेमिचन्द्र के सालुव मल्लिरायके समकालीन होनेसे हम स० जीव० प्रदीपिकाकी रचनाको ईसाकी १६ वी शताब्दीके प्रारम्भकी ठहरा सहते है।
श्रीयुत नाथूरामजी प्रेमीने 'जिनचन्द्र ज्ञानभूपण और शुभचन्द्र' शीर्पक अपने लेखके टिप्पणीमे लिखा है कि २६ अगस्त १९१५के जैन मित्रमे गोम्मटसार टीकाकी प्रशस्ति प्रकाशित हुई थी। उसके अनुसार यह टीका वीरनिर्वाण सम्वत् २१७७ में समाप्त हुई । प्रेमीजीने उस प्रशस्तिका जो आशय दिया है उससे यही ज्ञात होता है कि वह प्रशस्ति वही है जो गोम्मटसारके कलकत्ता सस्करणके अन्तमें प्रकाशित हुई है। किन्तु उसमें उमका रचनाकाल नही दिया, जबकि जैनमित्रमें प्रकाशित प्रशस्तिमें रचनाकाल दिया हुआ है। किन्तु वह वीर निर्वाण सम्वत्के रुणमें है । प्रेमीजी ने लिखा है-'गोम्मटसारके कर्ताके मतसे २१७७में विक्रम संवत् (२१७७ - ६०५ = १५७२ + १३५) १७०७ पडता है अतएव उक्त नेमिचन्द्रके गुरु ज्ञानभूषण कोई दूसरे ही ज्ञानभूपण है जो सिद्धान्त सारके कर्तासे सौ सवा सौ वर्ष वाद हुए है।'
उसका उल्लेख करते हुए डॉ० उपाध्येने लिखा है यह समय (अर्थात् वि० सं० १७०७ या ईस्वी सन् १६५०) मल्लिभूपाल और नेमिचन्द्रको समकालीन नही ठहरा सकता । चूँ कि असली प्रशस्ति उद्धृत नही की गई है अत इस उल्लेखकी विशेषताओका निर्णय करना कठिन है। हर हालतमें ई० सन् १६५० जी० १ 'विशालकीर्ते ' श्रीविद्यानन्द स्वामीति शब्दत । अभवत्तनय साधुमल्लिरायनृपार्चित ॥'
-प्रश० स० [आरा], पृ० १२५ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४७५ प्रदीपिकाकी वादकी प्रतिलिपिकी समाप्तिका समय है, न कि स्वयं जी० प्रदीपिका रचनाकी समाप्तिका समय।
अर्थात् डॉ० उपाध्येके लेखके अनुसार वि० स० १७०७ से पहले ही टीकाकी रचना हो चुकी थी । ऐसी स्थितिमें इस समस्याको सुलझानेके दो साधन हो सकते है, प्रथम, प्रशस्तिमें निर्दिष्ट वीर नि० सम्वत् की समीक्षा और दूसरा नेमिचन्द्रके द्वारा उल्लिखित अपने समकालीन व्यक्तियोकी छानवीन, जिनकी ओर डॉ० उपाध्येने इसलिये ध्यान देना उचित नही समझा कि चूंकि इन नामोके अनेक आचार्य और साधू जैन परम्परामे हो गये है। अत केवल नामोकी समानताके आधार पर कोई निर्णय करना खतरनाक हो सकता है।' किन्तु जब हम अन्य किसी आधारसे किसी निर्णय पर पहुँच जाते है तब यदि उसको आधार बना कर इस वातकी खोज की जाये कि उस समय पर इस नामके व्यक्ति हुए है या नही तो उससे निर्णयकी सारता या निस्सारता पर प्रकाश पडे विना नहीं रह सकता । अत हम उक्त दोनो साधनोसे प्रकृत समस्याको सुलझानेका प्रयत्न करते है
दक्षिणमें प्रचलित वीर निर्वाण सम्वत्के सम्बन्धमें मतभेद है । और उस मतभेदका कारण है 'विक्रमाक शक' को विक्रम सम्वत् या शक सम्वत् समझा जाना, क्योकि त्रिलोकसारकी गाथा ८५० की टीकामे लिखा है कि वीर निर्वाणसे ६०५ वर्प ५ मास पश्चात् विक्रमाक शक राजा होगा। और विक्रम सम्वत् तथा शालिवाहन शक सम्वत्के वीचमें १३५ वर्षका अन्तर है। उत्तर भारतमें जो वीर नि० स० वर्तमानमें प्रचलित है वह उक्त कालको शालिवाहन शकका सूचक मानकर ही प्रचलित है और अनेक शास्त्रीय उल्लेख उसके पक्षमें है यहाँ उनकी चर्चासे प्रयोजन नही है । यहाँ तो यह बतलानेका प्रयोजन इतना ही है कि प्रेमीजी ने जो २१७७ वी० नि० स०में ६०५ वर्प घटाकर जो १३५ जोडे है यदि वे दक्षिणके मतभेदको दृष्टिमें रखकर न जोडे जायें, और उसे ६०५ घटानेसे जो शेप रहता है उसे विक्रम सम्वत् मान लिया जाये तो डॉ० उपाध्येके द्वारा निर्णीत और प्रशस्तिमें उल्लिखित कालमें जो सौ सवा सौ वर्षका अन्तर पडता है वह नही पडेगा । अथ त् २१७७ - ६०५ = १५७२ विक्रम सम्वत्में और १५७२ - ५७ = १५१५ ई० में नेमिचन्द्रने गोम्मट्टसारकी टीका समाप्त की। डॉ० उपाध्येने यही काल उसका निर्णीत किया है ।
अब हम दूसरे साधनको देखेंगेमूलसंध, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगणके भट्टारक श्रीज्ञानभूषण सागवाडे
१ अनेकान्त, वर्ष ४, कि० १, पृ० १२० ।
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४७६ : जैनसाहित्यका इतिहास की गद्दीके भट्टारक थे। नन्दिसघ की पट्टावलीमे उनका विस्तारसे परिचय दिया है। उनके द्वारा रचित तत्त्वज्ञानतरगिणीको प्रशस्तिमे उसका रचनाकाल विक्रम सवत् १५६० दिया है । नेमिचन्द्रकी गोमटसार टीकाका जो रचनाकाल ऊपर दिया है उसके साथ इसका वरावर मेल साता है । तत्त्व ज्ञान तरगिणीसे गो० टीकाकी रचना वारह वर्पके पश्चात् हुई है। यह ज्ञानभूषण गुजरातके रहनेवाले थे और दक्षिण तथा उत्तरके प्रदेशो सम्मान्य थे। नेमिचन्द्र भी गुजरातसे ही चित्रकूट गये थे।
नेमिचन्द्रको सूरिपद भट्टारक प्रभाचन्द्रने प्रदान किया था । वादिचन्द्रने वि० स० १६४० में अपना पार्श्व पुराण रचा था और वि० स० १६४८ में ज्ञान सूर्योदय नाटक रचा था, उन्होने अपने गुरुका नाम भट्टारक प्रभाचन्द्र लिखा है। तथा अपनेको ज्ञानभूपणका प्रशिण्य और प्रभाचन्द्रका शिष्य बतलाया है । इन्होने स्व रचित श्रीपालाख्यान नामके गुजराती ग्रन्थमें अपनी गुरु परम्परा इस प्रकार दी है-विद्यानन्दिके पट्टपर मल्लिभूपण, उनके पद पर लक्ष्मीचन्द्र, फिर वीरचन्द्र, ज्ञानभूपण, प्रभाचन्द्र और उनके पद पर वादिचन्द्र । ज्ञानभूपणके शिष्य सुमतिकीर्तिने अपनी पचसग्रह वृत्तिमे भी एक पद्यके द्वारा यही गुरु परम्परा दी है। तथा प्रेमीजीने लिखा है कि इस थीपालाख्यानकी प्रशस्तिमें जो लक्ष्मीचन्द और वीरचन्द है वे वही है जिनका उल्लेख ज्ञानभूपणने अपने सिद्धान्तसार भाष्यके मगलाचरणमें 'लक्ष्मीवीरेन्दु सेवित' पदसे किया है । अर्थात् तत्त्व ज्ञान तरंगिणीके रचयिता उक्त भट्टरक ज्ञनभूपणके शिष्य प्रभाचन्द्र भट्टारक थे और इन्ही प्रभाचन्द्र भट्टारकने नेमिचन्द्रको सूरि पद दिया था। अत इनकी सगति भी उक्त कालके साथ ठीक बैठ जाती है।
इस तरहसे प्रेमीजीके द्वारा निर्दिष्ट प्रशस्तिमें जो गोमट्टसार टीकाका रचना काल वीर निर्वाण स० २१७७ दिया है उसमें ६०५ वर्ष कम करनेसे १५७२ को शक सम्वत् न लेकर वि० स० लेनेसे, वह टीकाका रचनाकाल उचित ठहरता है और उसकी सगति नेमिचन्द्रके द्वारा निर्दिष्ट समकालीन व्यक्तियोके साथ भी
१ २
जै० सि० भा० की कि० ४, पृ० ४३-४५ । जै० सा० इ०, पृ० ३८७ । 'विद्यानन्दि गुरुयंतीश्वर महान् श्री मूलसघेऽनघे, श्रीभट्टारक मल्लिभूषणमुनिर्लक्ष्मीन्दुवीरेन्दुको । तत्प? भुवि भास्करो यतिवति श्रीज्ञानभूषो गणी तत्पाद द्वयपकजे मधुकर श्रीमत्प्रभेन्दुर्यति ॥१॥'
-५० सं० वृत्ति० पृ० १२४ ।
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उत्तरकालीन कर्म साहित्य · ४७७ ठीक बैठती है। अत वि० स० १५७२ या ई० सन् १५१५ टीका समाप्तिका काल जानना चाहिये। टीकाका परिचय
इसमें तो सन्देह ही नही कि जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका एक महत्त्वपूर्ण टीका ग्रन्थ है । गोम्मटसारके गहन विषयोंको उसमें बहुत सरल रीतिसे स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया गया है। सैद्धान्तिक विषयोकी चर्चाके साथ ही साथ गोमटसारमें जो अलौकिक गणित-सख्यात, असख्यात, अनन्त, श्रेणि, जगत्प्रतर, धनलोक आदि राशियोका कथन है, उसे सहनानियोके द्वारा अकसदृष्टिके रूपमे स्पष्ट किया गया है । और अपने जानतेमें टीकाकारने किसी विषयको गूढरूपमें नही रहने दिया है। जीव विषयक और कर्मविषयक प्रत्येक चर्चित विषयका सैद्धान्तिक रूपमें सुन्दर विश्लेषण किया गया है। जिससे प्रतीत होता है कि टीकाकार श्री नेमिचन्द्राचार्यको जैन सिद्धान्तका गम्भीरज्ञान था। उनकी टीकामें प्रसङ्गवश चर्चित विषयोकी यदि तालिका बनाई जाये तो एक लम्बी सूची तैयार हो सकती है। ___ उनकी शैली स्पष्ट और सस्कृत परिमार्जित है । उसमें दुरूहता और सदिग्धता नही है। साथ ही साथ न अनावश्यक विस्तार है और न आवश्यक विस्तारका सकोच है। सक्षेपमें गोम्मटसार ग्रन्थके हृद्यके समझनेके लिये जिस ढगकी टीका आवश्यक हो सकती है, जी० प्रदीपिका तदनुरूप ही है।
उसके देखनेसे टीकाकारके बहुश्रु तत्वका भी परिचय मिलता है। उसमें सस्कृत और प्राकृतके लगभग एक सौ पद्य उद्धृत है । जो समन्तभद्राचार्यकी आप्तमीमासा, विद्यानन्दकी आप्तपरीक्षा, सोमदेवके यशस्तिलक, नेमिचन्द्रके त्रिलोकसार और आशाधरके अनगार धर्मामत आदि ग्रन्थोसे लिये गये है । तथा टीकामें यतिवृषभ, भूतबली, भट्टाकलक, नेमिचन्द्र, माधवचन्द्र, अभयचन्द्र और केशववर्णी आदि ग्रन्थकारोका नामोल्लेख है ।
किन्तु यह टीका केशववर्णीकी कर्नाटवृत्तिके आधार रची गई है । अत दोनोका मिलान किये बिना यह कहना शक्य नही है कि उक्त विशेषताओंका श्रेय केवल नेमिचन्द्रको ही है, केशववर्णीको नही । सभव है केशववर्णीकी कर्नाटवृत्तिमें भी वे सव विशेषताएँ हो। फिर भी नेमिचन्द्रकी वृत्तिका जो रूप हमारे सामहे है वह एक प्रशसनीय टीकाके सर्वथा अनुरूप है । सुमतिकोर्तिको पञ्चसग्रह वृत्ति
प्राकृत पचसग्रह पर एक वृत्ति सुमतिकीतिकी रची हुई है। इसकी एक प्रति देहलीके पचायती जैन मन्दिरमें वर्तमान है। यह प्रति सवत् १७११की
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४७८ जैनसाहित्यका इतिहास लिखी हुई है। टीकाकी प्रगस्तिमे उसके रचयिताने अपनी गुरुपरम्पराके साथ उसका रचनाकाल भी दिया है। तदनुसार 'सवत् १६२० में टीकाकी रचना हुई थी। अत उक्त प्रति टीकाकी रचनासे ९० वर्ष पश्चात् की लिखी हुई है। रचयिताका परिचय
टीकाको अन्तिम प्रगस्तिसे ज्ञात होता है कि सुमतिकीर्ति मूलसघके अन्तर्गत नन्दिसघ, बलात्कारगण और सरस्वती गच्छके भट्टारक ज्ञानभूपणके शिष्य थे। प्रशस्तिमें ज्ञानभूपणकी गुरुपरम्परा इस प्रकार दी है-पानन्दी, देवेन्द्रकीति, विद्यानन्दी, मल्लिभूपण, लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र फिर ज्ञानभूपण । लक्ष्मीचन्द और वीरचन्दने तथा ज्ञानभूपणने सुमतिकीतिको दीक्षा और शिक्षा दी थी। ज्ञानभूपणके कहनेसे ही सुमतिकोतिने पञ्चसग्रहकी यह वृत्ति रची थी और ज्ञानभूपणने उमे शुद्ध किया था । अत यह ज्ञानभूपण भी वही है जिन्होने मिद्धान्तसार भाष्य और कर्मप्रकृति टीका रची है । तथा सुमतिकीति भी उन्हीके शिष्य है।
जैसा कि ऊपर लिग्वा है विक्रम सं० १६२०में भाद्रपद शुक्ला दगमीके दिन ईलग्न (?) स्थानमें वृपभालय (ऋपभदेव मन्दिर)में टीकाकी समाप्ति हुई थी। प० परमानन्द जीने 'ईलख' को गुजरातका ईडर नामक स्थान बतलाया है । और लिखा है फि सुमतिकीति भी ईडरकी गद्दीके भट्टारक थे। इन्होने अपने गुरु ज्ञानभूपणके साथ कर्मकाण्ड (कर्मप्रकृति) की भी टीका रची थी, जैसा कि पहले लिखा जा चुका है। ___भ० सकलभूपणने वि०स० १६२७में अपनी उपदेश रत्नमाला समाप्त की थी। उसकी प्रशस्तिमें अपनी गुर्वावली देते हुए उन्होंने भट्टारक शुभचन्द्रका उत्तराधिकारी सुमतिकीतिको वतलाया है और अपनेको सुमतिकीतिका गुरुभाई कहा है । यह सकलभूपण शुभचन्द्रके शिष्य थे।
१ 'दीक्षा शिक्षापद दत्त लक्ष्मीवीरेन्द्र (न्दु) सूरिणा। येन में ज्ञानभूषेण तस्मै
श्री गुरवे नम ॥९॥ आगमेन विरुद्धं यद् व्याकरणेन दूपितम् । शुद्धीकृतं च
तत्सर्वं गुरुभिर्ज्ञानभूपण ॥१०॥-जै०प्र०स०, पृ० १५६ । २ 'श्रीमद् विक्रम भूपते परिमिते वर्षे शते पोडशे, विंशत्यग्रगते सिते शुभतरे F भाद्रे दशभ्या तिथौ । 'ईला' वृपभालये वृषकरे सुश्रावके धार्मिके, सूरि
श्रीसुमतीशकीतिविहिता टीका सदा नन्दतु ॥१३॥-जै०प्र०स०, पृ० १५६ । ३ जै०प्र०स०, प्रस्ता० पृ० ७५ ।
'तदन्वये दयाम्भोधिर्ज्ञानभूषो गुणाकर । टीका हि कर्मकाण्डस्य चक्र सुमतिकीर्तियुक् ॥२॥'-०प्र०स०, पृ० १५३ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य : ४७९
पचसंग्रह वृत्ति ___इस वृत्तिकी जो प्रति हमें देखनेको प्राप्त हुई उसके प्रारम्भके ४८ पत्र नही है और उनके स्थानमें पचसग्रह मूलके ४९ पत्र रख दिये गये है। अत टीकाके प्रारम्भके विपयमें कुछ कहना शक्य नही है । टीकाके अन्तका सन्धिवाक्य इस प्रकार है
"इति श्री पचसग्रहापरनाम-लघुगोम्मटसार सिद्धान्तग्रन्थटीकाया कर्मकाण्डे सप्तति नाम सप्तमोऽधिकार । इति श्री लघुगोम्मटसारटीका समाप्ता।'
सर्वत्र सन्धि वाक्योमे ग्रन्थको लघु गोम्मटसार कहा गया है और उसका दूसरा नाम पचसग्रह बतलाया है । गोम्मटसारकी टीकाकी प्रशस्तिमें भी गोम्मटसारका अपर नाम पचसंग्रह वतलाया गया है। यथा-'इत्याचार्य श्री नेमिचन्द्रविरचिताया गोम्मटसारपरनामपचसग्रहवृत्तौ जीवतत्त्वप्रदीपिकाया।'
शायद पचसग्रहके टीकाकारने पचसग्रहको लघु गोम्मटसार समझा है । किन्तु अपनी टीकामें उन्होने पचसग्रहका निर्देश पंचसग्रह नामसे ही किया है । यथा'इदमुपशमविधान गोम्मटसारे प्रीक्तमस्ति । पचसग्रहोक्त भावोऽय कथ्यते ।'
फिर भी उक्त सन्धिवाक्य इस वातका साक्षी है कि उस समय भी गोम्मटसारको कितना ऊँचा स्थान प्राप्त था। शायद लोग इस वातकी कल्पना ही नही कर सकते थे कि गोम्मटसारसे भी कोई महान सिद्धान्त ग्रन्थ हो सकता है जिसपरसे गोम्मटसार सग्रहीत किया गया है । अस्तु,
धर्मपुरा दिल्लीके नये मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें सम्बत् १७९९ की लिखी हुई इसकी एक प्रति हमें देखनेको मिली । इस प्रतिमें उसकी अन्तिम प्रशस्ति नही है। किन्तु प० परमानन्दजीने अपने प्रशस्ति सग्रहमें उसकी प्रशस्ति दी है । प्रशस्ति के पश्चात् अन्तिम सन्धिवाक्य इस प्रकार दिया है-'इति श्री भट्टारक श्री ज्ञान भूपणविरचिता कर्मकाण्डग्रन्थटीका समाप्ता।'
नीचे टिप्पणमें लिखा है कि जयपुर और देहलीकी कितनी ही प्रतियोमें ज्ञान भूषणनामाकिता सूरिसुमतिकीर्ति विरचिता' ऐसा पाठ पाया जाता है जो ग्रन्थकी दोनो भट्टारको द्वारा सयुक्त रचना होनेका परिणाम जान पडता है (जै० प्र० पृ० १५६)।
ऐ० ५० सरस्वती भवन झालरापाटनकी ग्रन्थ नामावलिमें भी कर्म प्रकृति टीका 'सुमति कीर्ति युग् ज्ञानभूपणकृता' ऐसा लिखा हुआ है। ज्ञानभूपणके साथ 'सुमतिकीतियुक्' विशेपण लगानेका कारण यह है कि टीकाके आदिवाक्य और प्रशस्तिमें यही पद पाया जाता है
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४८० : जनसाहित्यका इतिहास
यथा
विद्यानन्दि सुमत्यादि भूप लक्ष्मीन्दुराद् गुरुन् ।
वीरेन्दु-शानभूपं हि वन्दे सुमतिकोतियुक् ॥२॥ इसमें विद्यानन्दि, मल्लिभूपण, लक्ष्मी चन्द्र, वीरचन्द्र, शानभूपण और सुमति कीतिको नमस्कार किया है। प्रगस्तिमे लिसा है
मूलगघे महासाघुर्लक्ष्मीपन्नो यतीग्यर । तम्य पट्टे च वीरेन्द्र विवुधो विश्ववन्दित ॥१॥ तदन्वये दयाम्भोधि निभूणे गुणाकर ।
टीका हि कर्मकाण्डसा चक्रे मुमतिकीतियुक् ।।२।। __ अर्थात् मूलसघमे महागाधु लक्ष्मी चन्द्र यतीश्वर हुए । उनके पट्ट पर विश्ववन्ध वीरनन्द्र हुए । उनके वगमें दयालु गुणागार मानभूषण हुए। उन्होंने मुमति कीतिके साथ कर्मकाण्डकी टीका रची। ___ इममे स्पष्ट है कि टीका रचयिता ज्ञानभूषण और मुमतिर्कीति दोनो है । यह जानभूपण ईडरकी गद्दी वाले ज्ञानभूगण नहीं है किन्तु सूरत की गद्दीवाले ज्ञान भूपण है । उन्हीके गिज्यका नाम सुमतिकोति था।
टीकाके आदि और अन्तिम श्लोकोमे इसे कर्मकाण्डगी टीका कहा है और इसी लिये मूल ग्रन्यका कर्ता सिद्धान्तपरिज्ञानचक्रवर्ती श्रीनेमिचन्द्र कविको बतलाया है। सिद्धान्त और चक्रवर्तीके वीचमें जो परिमान पद डाल दिया गया है वह सिद्धान्त चक्रवर्तीका अर्थ स्पष्ट करने के लिये ही डाला गया जान पड़ता है। किन्तु वास्तवमें यह कर्मकाण्डके आधार पर संकलित कर्मप्रकृतिको टीका है।
यह टीका गोम्मटसारकी टीकाको देखकर बनाई गई है क्योंकि प्रशस्तिमें इस वातको स्वीकार किया है । यथा
टीका गोमट्टसारस्य विलोक्य विहित ध्रुव ।
पठन्तु सज्जना सर्वे भाज्यमेतन्मनोहरम् ॥३॥ अर्थात् गोम्मट्टसारको टीकाको देखकर रचे गये इस मनोहर भाज्यको सब सज्जन पढे ।
गोमट्टसारकी नेमिचन्द्र कृत जीवतत्त्व प्रदीपिका टीकाके साथ मिलान करनेसे यह बरावर स्पष्ट हो जाता है कि एकको देखकर दूसरीकी रचनाकी गई है। उदाहरणके लिये यहाँ केवल दूसरी गाथाकी दोनो टीकाएं देते है.
नेमि० टी०-प्रकृति शील स्वभाव इत्यर्थ । सोऽपि कारणान्तरनिरपेक्षता अग्निवायु जलाना उर्वतिर्यग्निम्नगमनवत् । सहि स्वभाववन्तपेक्षते इति । कयो
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उत्तरकालीन कर्म - साहित्य ४८१
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स । जीवागयो जीव कर्मणो । तत्र रागादिपरिणमनमात्मन स्वभाव रागाद्युत्पादकत्व तु कर्मण । तदेतरेतराश्रयदोप तत्परिहारार्थं तयो जीवकर्मणो सम्बन्ध अनादिरित्युक्त । क इव । कनकोपले मलमिव स्वर्णपाषाणे स्वर्णपापाणयो सम्बन्धस्य अनादिरिव । अनेन अमूर्तो जीव मूर्तेन कर्मणा कथ बध्यते इत्यपास्त । तयोरस्तित्वं कुत सिद्ध । स्वत सिद्ध । अह प्रत्ययवेद्यत्वेन आत्मन दरिद्र श्रीमदादिविचित्रपरिणामात् कर्मणश्च तत्सिद्धे ॥२॥
ज्ञान० टी० - प्रकृति शील स्वभाव इति प्रकृतिपर्यायनामानि । स्वभावस्य लक्षण किं । इति चेत् कारणान्तरनिरपेक्षत्व स्वभाव । यथा अग्नेरूर्द्धगमन स्वभाव वायो तिर्यग्गमन स्वभाव जलस्य च निम्नगमन स्वभाव । स च स्वभाववन्तं अपेक्षते । स स्वभाव कयो जीवागयो जीवकर्मणो इत्यर्थ । तत्र जीवकर्मणोमध्ये आत्मन रागादि परिणमन स्वभाव कर्मण रागाद्युत्पादकत्व स्वभाव । स्वभावो हि स्वभाववन्तमन्तरेण न भवति, स्वभाववान् स्वभाव विना न भवति इत्युच्यमाने इतरेतराश्रयदोषप्रसग स्यात् । तत्परिहारार्थंअनयो जीवकर्मणोरनादि सम्बन्ध । कयोरिव कनकोपलयोर्मलमिव । यथा कनकपापाणे मलसम्बन्ध अनादि तथा जीव कर्मणोरनादिसम्बन्ध । तयो जीर्वकर्मणोरस्तित्व कथसिद्ध ? स्वत सिद्धं । कथमिति चेत् अह प्रत्ययवेद्यत्वेन आत्मनोऽस्तित्व एको दरिद्र एक श्रीमान् एक सुखी एको दुखी इति विचित्र परिणमनात् कर्मणोऽस्तित्व सिद्धमिति ।
चू कि कर्मप्रकृति टीकाके रचयिता ज्ञानभूषण और मुमतिकीर्ति है अत उसका रचनाकाल विक्रमकी सोलहवी शताब्दीका अन्तिम चरण और १७ वी का प्रथम चरण है ।
इस तरह दूसरी टीका पहली टीकाका अनुकरण मात्र है ।
यह हम पहले लिख आये है कि कर्म प्रकृतिमें जीवकाण्डकी भी गाथाए सकलित है । कर्म प्रकृतिके टीकाकारने उन गाथाओकी टीका भी जीवकाण्डकी जीवतत्व प्रदीपिका टीकाके अनुसार ही की है । यहाँ एक उदाहरण दे देना पर्याप्त होगा -
ज सामण्ण गहण भावाण णेव कट्टमायार ।
अविसेसिदूण अट्टे दसणमिदि भण्णदे समए ॥ ४३ ॥ - जीवका० गा०४८२ जी० प्र० - भावाना सामान्यविशेषात्मकबाह्यपदार्थाना आकार भेदग्रहण अकृत्वा यत्सामान्य ग्रहण- स्वरूपमात्रावभासन तत् दर्शनमिति परमागमे भण्यते । वस्तु स्वरूपमात्रग्रहण कथ । अर्थान् बाह्यपदार्थान् अविशेष्य- जाति क्रियाग्रहणविकारैरविकल्प्य स्वपरसत्तावभासन दर्शनमित्यर्थ ।
क० प्र०टी० - भावाना पदार्थाना सामान्यविशेषात्मकवाह्य वस्तूना आकार
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४८२ . जनगाहित्यका इतिहास
भेद गहण (अ) कृत्वा यत् गागान्गगणं ग्यरुपमागावभागन तदर्शनमिति परमागगे भण्यते । घग्नुम्बम्पमामगहण कर अन् वाहपदार्यान् अविरोग्य जातिव्यगुणक्रिया कारपिय ग्यपगतानभागन पणनमित्यर्थः । वामदेवका सस्तात' भावराग्रह
प्राकृत भाव गगहो गगत अनुयार माग गाव नग्रही रनना हुई है। दोनो गन्गोको आगने गागर्न गार पानेगे गाठ नान गष्ट हो जाती है। यहाँ दोनोगे गुछ उलग्ण देना उनित होगा।
परिग गुग्नेणणग गणिगणानविय महावीर । गोन्द्रामि भावनगमिणमी भन्यपयोग ॥१॥ श्रीमार्गर गिनाभोग गली दिदगानिनम् । नया भयप्रयोग व गन्नं भागगग ॥१॥
जीवन्न तानि भावा जीवा पण दुविहभेगमत्ता । मता गुण गमागे गत्ता मिसा गिललेगा ॥२॥ भावा जीवपरीणामा जीवा भैयाश्रिता । माता गमारिणना मुगना मिला निरत्यया ॥२॥
लोयग्गगिहरवागी फेगलणाण गणिगनलोया। अरारोग गारहिगा गुणिन्चला गुन्नावट्टा ॥३॥ कर्माष्टपरिनिर्गगता गुणाष्टकविराजिता ।
लोकानवागिनो नित्या प्रौव्योत्पत्तिन्यगान्विता ॥३॥ यह शब्दश अनुवाद नहीं है, भावानुवाद है जो प्राकृत भाव राग्रहको सन्मुष रखकर मस्कृत भापाम अनुष्टुप् श्लोसोके द्वारा किया गया है । रचयिताने प्राकृत भावसग्रहका अक्षरश अनुकरण नहीं किया है, जगह जगह उममें परिवर्तन, परिवर्धन और सगोधन आदि भी किये है। उसके भी यहां कुछ उदाहरण दे देना उचित होगा।
१ प्रा० भा० स० मे (गा० १६) मिथ्यात्वके पांच भेद इस प्रकार बतलाये है-एकान्त, विनय, सशय, अज्ञान और विपरीत । ये ही पाच भेद जैन परम्परामें प्रसिद्ध है। किन्तु स० भा० स० में (श्लो० ३२) उनके नाम इस प्रकार दिये है-वेदान्त, क्षणिकत्व, शून्यत्व, विनय और अज्ञान । प्रा० भा० स० में ब्राह्मण१ सस्कृत भाव सग्रह भी प्राकृतभावसग्रहके साथ श्रीमाणिकचन्द दि० जैन
ग्रन्थमाला वम्बईके २०वे ग्रंथ भावसग्रहादिमे प्रकाशित हो चुका है।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य ४८३ को विपरीत मिथ्यात्वी बतलाया है। स० भा० सं० में वेदवादीको वेदान्तमिथ्यावी कहा है और ब्राह्मणकी तरह ही तीर्थस्न्तान, मासभक्षण आदिकी बुराईया बतलाई हैं । अन्तमें लिखा है 'इति वेदान्तोक्त विपरीत मिथ्यात्वम्' । सभवतया ग्रन्थकार वेद और वेदान्तके भेदसे परिचित नही थे ऐसा लगता है। प्रा० भा० स० में सशय मिथ्यात्वका निरूपण करते हुए श्वेताम्बर मतकी उत्पत्तिका कथन किया है किन्तु स० भा० स० में चूँकि इस नामका कोई मिथ्यात्व नही है
और उसके स्थानमें जो एक शून्य मिथ्यात्व नाम गिनाया है उसकी उसमें कोई चर्चा नही की गई है। अत शेप मिथ्यात्वोका कथन प्रा० भा० सं० की ही तरह करनेके बाद पृथकरूप रूपसे श्वेताम्बर मतकी लत्पत्तिका कथन किया है और उसे स्वमतोद्भूत' (अपने मतमें उत्पन्न हुआ) मिथ्यात्व कहा है ।
प्रा० भा० स० में स्थविर कल्पका कथन करते हुए वर्तमान कालके मुनियोके सम्बन्धमें कहा गया है कि पहलेके मुनि उक्त सहननसे एक हजार वर्षमें जितनी कर्मनिर्जरा करते थे, आजकल हीन सहननमें उतनी कर्मनिर्जरा एक वर्षमें कर लेते है । स० भा० स० में इस गाथाका अनुवाद नही किया गया और यह उचित ही किया गया क्योकि इस प्रकारका कथन पूर्वशास्त्र सम्मत नही है ।
इसी तरह प्रा० भा० स० में काष्ठा सघ आदिके विरोधमें एक भी शब्द नही कहा गया है किन्तु स० भा० स०३ में एक श्लोकके द्वारा उन्हे मिथ्यात्वका प्रवर्तक कहा है।
प्रा० भा० स० (गा० २८० आदि) में सम्यग्दर्शनके आठो अगोमें प्रसिद्ध व्यक्तियोके नाम गिनाये है । किन्तु स० भा० स० में आठों अगोका स्वरूप रत्नकरड श्रावकाचारके अनुसार उसीके शब्दोमे कहा है (श्लो० ४१०-४१७) अन्य भी कई विशेप कथन सम्यक्त्वके सम्बन्ध है ।
पचम गुणस्थानका कथन करते हुए स० भा० स० में ग्यारह प्रतिमाओका कथन है यह कथन प्रा० भा० स० में नही है। उसमें तो केवल बारह व्रतोके नाम गिनाये है प्रतिमाओके तो नाम तक भी नहीं गिनाये ।
स० भा० स०में दूसरी व्रत प्रतिमाका कथन करते हुए पूज्य पूजक और पूजा १ 'अयोध्वं स्वमतोद्भूत मिथ्यात्व तन्निगद्यते । विहित जिनचन्द्रेण श्वेताम्वर
मताभिधम् ॥१८७।।'-स० भा० स० । २ 'वरिससहस्सेण पुरा ज कम्म हणइ तेण काएण । त सपइ वरिसेण हु णिज्ज
रयइ हीणसहणणे ॥१३१॥'-प्रा० भा० सं०। ३ येचान्ये काष्ठसघाद्या मिथ्यात्वत्त्य प्रवर्तनात् । आयत्या प्राप्नुयु१ख चतुर्गतिषु
सन्ततम् ॥२८५।।-स० भा० स० ।
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४८४ जनसाहित्यका इतिहास
पर प्रकाश डालते हुए लिखा है-पूज्य तो निर्दोप केवली जिन है । और पूजक' वेश्या आदि व्यसनोका त्यागी ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शीलवान शूद्र होता है । अपने इस कथनकी पुष्टिमें ग्रथकारने जिनसहिताका प्रमाण भी उद्धृत किया है । यह कथन प्रा० भा० स० में नही है।
प्रा० भा० स० की तरह स० भा० स० में भी प्राभातिक विधिमें शौच आचमनका निर्देश है और नागतर्पण, क्षेत्रपालतर्पण गण अष्ट दिग्पालोकी स्थापनाका भी कथन है किन्तु प्रा० भा० स० में जो शस्त्रसहित यानसहित और प्रियासहित आह्वान करनेका विधान किया है । वह यहाँ नही है । इसी तरह प्रा० भा० स० में जिन चरणोमे चन्दनलेपनका जो कथन है वह भी स० भा० स० में नहीं है।
पूजनके कथनमें स० भा० सं० के कर्ताने आशाधरके सागरधर्मामृतका अनुकरण विशेपरूपसे किया है। प्रतिमाओके कथनमें भी यत्रतत्र उसकी छाया है। वैसे रत्न करडको मुख्य रूपसे अपनाया गया है ।
पूजा, गुरुपासना, स्वाध्याय, सयम, तप और दान इन श्रावकके पट्कर्मोका भी कथन है वो प्रा० भा० स० में नही है ।
छठे और तेरहवे गुणस्थानके कथनमें भी प्रा० भा० स० से विशेषता है। इस तरह स० भा० स० प्रा० भा० स० का छापानुवाद होते हुए भी अपनी कुछ विशेषताओको लिये हुए है । रचना सरल और स्पष्ट है । श्लोक सख्या ७८२ है । रचयिता और समय __संस्कृत भावसग्रहके अन्तमें उसके रचयिता ने अपना नाम वामदेव और अपने गुरुका नाम लक्ष्मीचन्द्र बतलाया है । लक्ष्मीचन्द्र के गुरुका नाम त्रैलोक्यकीति था और त्रैलोक्यकीतिके गुरुका नाम विनयेन्दु या विनयचन्द्र था। वे मूलसपी थे । तथा ग्रन्थकार वामदेव का जन्म 'शशिविशदकुले नैगम श्री विशाले' में हुआ था। प्रेमीजीने लिखा है कि 'निगप कायस्थ जातिका एक भेद है । आश्चर्य
१ 'भव्यात्मा पूजक शान्त वेश्यादिव्यसनोभित । ब्राह्मण क्षत्रियो वैश्य स
शुद्रो वा सुशीलवान् ।।४६५।।—स० भा० म०।। 'श्रीमत्सर्वज्ञपूजाकरणपरिणतस्तत्त्वचिन्तारसालो, लक्ष्मीचन्द्राह्रिपद्य मधुकर श्रीवामदेव सुधी । उत्पतिर्यस्य जाता शशिविशदकुले नैगमश्रीविशाले सोऽय
जीयात् प्रकम जगतिहसलसद्भावशास्त्रप्रणेता ॥७८१॥-स०भा०सं० । ___३ भावसंग्रहादिके प्रारम्भमें ग्रंथ परिचय, पृ० ३ ।
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उत्तरकालीन कर्म-साहित्य • ४८५ नही जो प० वामदेवजी कायस्थ ही हों। दिगम्बर सम्प्रदायमें महाकवि हरिचन्द्र, दयासुन्दर आदि और भी अनेक विद्वान् कायस्थ जातिके हो चुके है।'
इस प्रकार वामदेवने अपने लोक्य दीपक नामक ग्रन्थके अन्तमें भी अपना उक्त परिचय दिया है। उसमें उन्होंने अपनेको जैन प्रतिष्ठा विधिका आचार्य बतलाया है । यह ग्रन्थ उन्होने पुरवाडवशके कामदेवके पौत्र तथा जोमनके पुत्र नेमिदेवकी प्रेरणासे बनाया था। इस तरह अपने ग्रन्थोमें वामदेवने अपना सामान्य परिचय देकर भी उसके समयके विषयमें कोई निर्देश नहीं किया
परन्तु लोक्य दीपक ग्रन्थकी एक हस्तलिखित प्रति श्रीमहावीरजी के शास्त्र भण्डारमें है। उसमें उसका लेखनकाल सं० १४३६ और लेखन स्थान योगिनीपुर दिया है। तथा लेखकने फिरोजशाह तुगलकके शासनकालका भी उल्लेख किया है । अत यह निश्चित है कि वामदेवका समय 'स० १४३६ के वाद का नही हो सकता।'
द्विसन्धानकान्यकी नेमिचन्द रचित टीकाकी प्रशस्तिमें नेमिचन्द्रने अपनेको विनयचन्दका प्रशिष्य और देवनन्दिका शिष्य बतलाया है। तथा त्रैलोक्यकीतिक चरण कमलोको भी नमस्कार किया है। वामदेवने भी अपने गुरु लक्ष्मीचन्द्रके गुरुका नाम त्रैलोक्यकीर्ति और त्रैलोक्यकोतिके गुरुका नाम विनयचन्द बतलाया है। अत नेमिचन्दके गुरुके गुरु विनयचन्द और वामदेवके दादा गुरु विनयचन्द एक ही व्यक्ति प्रतीत होते है। उन्हीके शिष्य त्रैलोक्यकीर्ति थे । किन्तु वे कव हुए इसका कोई पता नही चलता क्योकि द्विसन्धान टीकामें भी उनके समयका निर्देश नहीं है और न अन्यत्रसे ही उनके सम्बन्धमे कोई ऐसी जानकारी प्राप्त हो सकी जिससे उनके समय पर प्रकाश पड़ सकता हो।
१ ज०म० प्र०स०, भा० १, पृ० २०३-२०५ । २ 'आमेर शास्त्र भण्डारकी ग्रन्थ सूची'-पृ० २१८ ।
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नाम सूची अकोटक २५५
अमृतचन्द्र ३७४ अंकलेश्वर ७, ४४, ५०
अमितगति ३४७, ३५०, ३७२ आदि अगपण्णत्ति २४४
३८०, ३९५ अगुत्तर निकाय ७७
अमितगति श्रावकाचार ३८१ अकलक भट्टा० ५२, २४४, २४७, अमोघवर्ष २१५, २४५, २४९, २५५, २७६, ३५०, ३५१, ३७३, ४७७
२९१, २९२ अकलक चरित्र २४७
अर्हद्वलि २१, २३ अग्गल कवि ३८७
अवणि २० अग्रायणी पूर्व १२, ४८, ६१, ६३,
अवधेशनारायण सिंह २२४ १००, २९५, ३०५, ३५८
अश्वघोष २४५ अजितनाथ पुराण ३९४
अष्टपाहुड २४४, २६४ अजितसेनाचार्य ३८९
अष्टसहस्री २७८ अणहिल्लपुर ३२४
अष्टाग महानिमित्त २३ अत्तिमव्वे ३९४
असूत्र गाथा ३२ अनगार धमामृत ४२६, ४२८, ४६८, आचाराग नियुक्ति २४४
४७०, ४७७ आप्त परीक्षा ४७७ अनुयोगद्वारसूत्र ९१, ९२, १०२, आप्त मीमासा २४४, २७८,४७७
१०३, १८४, १९५, २००, २४४ आराधना कथाकोश २०४ अनेकान्तवाद प्रवेश २४३
आराधना भगवती २०४, २४३, २४४, अपवाइज्जमाण उपदेश ९, १४, १५, ३१६, ३२६, ३३२, ३३४,
१७, २०१ ३४७, ३६३, ३८१, ४४५ अपराजित सूरि २०५
आराधनासार ४२०, ४२१, ४२६ अभयचन्द्र ३९२, ४४४, ४६५, ४६७, आर्यदिन्न १९
४६९, ४७०, ४७२, ४७७ आर्यधर्म १९ अभयदेव सूरि ३६६, ३७०
आर्यनन्दि २४०, २४१ अभयनन्दि ३८२, ३८३, ३८५, ३८७ आर्यनन्दिल १२, १३ अभिधम्मपिटक ३५
आर्यमक्षु ९, १४-१८, २०-२५, ३४, अभिन्नदसपूर्वी ३१
३५, १७८, २००, २०१, अमरकीर्ति ३८०
२४१
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नाम सूची ४८७
आर्यमंगु ९, १०, १२-१४, १८, १९,
२०
आर्यरक्षित ४, १२, १३, १९, २०० आर्यवज्र ४ आवश्यक चूणि ३१० आवश्यक टीका २० आवश्यक दीपिका २० , नियुक्ति १०, १२, १८१, २४४,
३१९ आवश्मक सूत्र ६८ आशाघर २०५, ३२६, ३४७, ४२६,
४६२, ४६८, ४७७, ४८४, आस्रव त्रिभगी ४४३, ४६०-६२, इन्द्रदिन्न १९ इन्द्रनन्दि ७-९, १४, २१-२५, ३३,
३४,४४-४६, ५०, ५१, ५३, ५९, १५२, २१५, २३४, २६२२६४, २७३, २७४ २७६, २७७
२७९, २८०, २८२, २८३ इन्द्रराज २५५ ईडर ४५८, ४५९, ४७७ उच्चारणाचार्य १७८, २४४, २६२ उच्चारणावृत्ति १७९, २४४, २५०,
२५४, २८३ उत्तरपुराण २४६, २५०, २५५, २६१
२९१ उदय त्रिभंगी ४४१ उपदेश रत्नमाला ४५५, ४५९, ४७८ उपाध्ये ए० एन० २७३, ३९१, ४४५
४६४,४६६,४६७,४७१.४७३
४७५ उपमिति भवप्रपञ्चकथा ३६१, ४३२
उमास्वामी २७६ एलाचार्य २१५, २४२, ओघनियुक्ति २४४ कनक नन्दि ३८३-३८५,४०८,४४२ करहाट ४५ करणानुयोग ४ कर्कराज २५५ कर्नाटक कवि चरिते २७७, ४५१ कर्नाटक वृत्ति ४६६-४६९, ४७१.
४७३, ४७७ कर्नाटक शब्दानुशासन २७५, २७६,
२७७ कर्मकाण्ड गो० ५३, २८९, ३०७,
३८२, ३८४, ३८५, ३८८ ३९५ ३९७, ३९९ आदि, ४०५ आदि
४११, ४३७,४३९,४४३, ४६४ कर्म प्रकृति २९४, २९५, २९७-२९९
३०१,३०३-३०६, ३०८, ३१० ३११, ३२१, ३२२, ३२४, ३२५ ३४५, ३५२, ३६८, ४०९, ४३६
४३७, ४३९, कर्म प्रकृति प्राभृत १०, १२, १३, १५
१६, २२, २३, ४५, ४८, ५०, ६३, ७८, ११३, १४९, १५१,
३०५, कर्म प्रकृतिचूणि २०९, ३०१, ३०४,
३०६, ३०७, ३०९-३११ ३१६
-
-
३२४,
कर्म प्रकृति टीका ४५४ कर्म प्रकृति सग्रहणी १६, १५१, २०९
२९३, ३१६ कर्म ग्रन्थ नव्य १३०, २९४, ३०३,
३२४
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________________
४८८ : जैनसाहित्यका इतिहास
कर्मविपाक २९४, ३६१, ३६२, ३६६ खण्डसिद्धान्त ५१, ५२
४२९ आदि, ४३४ खारवेल ६८ कर्म प्रवाद ३२०
खुद्दावन्ध ५१, ५२, ५८, ५९, ६१, कर्म स्तव ३२२, ३२४, ३२५, ३३४, ६२, ९२, १९९, २४४, २८६
३३६, ३५२, ३५४,४३४, गगराज २७७ कर्मस्तव टीका ३०७
गणधर वश १०, १२, १८ कल्पसूत्र १८, १९
गणितानुयोग ४ कल्पसूत्र स्थविरावली ३०३
गन्धहस्ति (सिद्धसेन) ३६५ कल्याण विजय मुनि १३, १४ गन्धहस्ति महाभाष्य २७८ कसायपाहुड कषायप्राभृत ६-८, १४- गर्षि ३०७, ३६१, ३६६, ४२९,
१७, २२-२५, २७-३१, ३४- गृद्धपिच्छाचार्य २४४ ३६, ४२, ५३-५५, १४५ आदि, गिरिनगर ६, ४४, ५० १७०, १७१, १७८, १८२, गुणकीर्ति ४५६, ४६० १९५, १९९, २०१, २११, गुणधर ६, ८, ९, १४, १५, १७, २१६, २४३, २५०, २५६, २०-२५, २८-३१, ३४, ३६, २६४, २९०, २९७-२९९,३०१, ३७, ४२, १४६, १७४ आदि ३०६, ३१७, ३३४, ३६८, १८१, २०५, २१०, २४४
गुणभद्र २४२, २५०, २५५, २६१, कामताप्रसाद ४५७
२९१ कामराज व० ४५५
गुण सुन्दर १९ कारजा ४५४
गुर्वावली ४३६ कृति अनुयोग ४९, ५१, ६०, ६३, ६८, गोविन्द १९
१००, १०२, ३२२ गोविन्द पै० २७६ कालकाचार्य ११, १९
गोविन्दराज २५५ कुण्डकुन्दपुर २६४
गोविन्दाचार्य ३२४, ४३२ कुन्दकुन्द २१५, २४४, २६३, २६४, गोम्मटसार २७६ ३९०, ३९१, ३९३, २७३, ३१०, ४२४
३९५, ४६३, ४६७, ४६९, कुमारपाल ४३१
४७०, ४७४, ४७७, ४७९ कुमारिल भट्ट २४५
गोम्मटसार जीवकाण्ड १३१, ३७३, केशववर्णी ४४५, ४६४, ४६७, ४७०, ३७४, ३८९, ३९२, ३९६,
४७१, ४७३, ४७७ ३९८, ४२३, ४२४, ४२७, कौलिकमत ४१८
४३३, ४६५, ४६६, ४८१ क्षपणासार ४४१
गोम्मटेश्वर ३९४
३७०
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________________
नाम सूची • ४८९
गोशालक ७७, ४१८
जगच्चन्द्रसूरि ४३६ गौतम गणधर १, ५, ३५, ६१, ६३, जगतुगदेव २४८, २४९, २९१,
६४, ७८, २२२, ४४६, ४६६ जम्बूद्वीपपण्णत्ति २४४, ४४९ चक्रवर्ती प्रो० २७३
जम्बू स्वामी ५, १७ चन्द्रगिरि ३९१, ४४५
जम्बूस्वामी चरित्र ४५३
जयतिलक सूरि ४३६ चन्द्रगुफा ६, ४४, ५० चन्द्रप्रभचरित ३८२, ३८३, ३८८, ।
जयधवला ७-९, १५-१७, २०, २३चन्द्रर्षि महत्तर २८४, २८९, ३१०, २५, २८, ३१, ३५, ५२, ५३,
३१२, ३१८, ३२२, ३२४ ३२५ ५८, १७२, १९६, २०३, २०५, ३२७, ३४९, ३५६, जादि ३६१ २१६, २४३, २४५, २४६, ३६६
२५४, २६१, ३७० चन्द्रसेन २४१
जयधवलाकार १४, १५, २९-३२, चरणकरणानुयोग ४
१७०, १७९, १८१ आदि, १९३, चरणानुयोग ४
२०२, २५६, २८७, ३०५ चामुण्डराय २७७, ३९०-३९२, ४२६, जयपुर (भण्डार) ४७९
__ ४६३, ४६४ जयपुराण ४५२, ४५४ चामुण्डपुराण २७७, ३९३-३९५, जयसिंहदेव ३२४ चारित्रसार ४२६
जयसेन आचार्य ३७४ चित्रकूट २१३, ४७२, ४७६ जिनचन्द्र ४५१ चिरन्तनाचार्य १७८
जिनदासन० ४५२, ४५६ चूडामणि टीका २६३, २७४, ३७७, जिनदास शाह ४७२
२८३ जिनपालित ७, २३, ४४-४६, ५०, चूणिसूत्र ९, १४, १६, १७, २२, २४,
२५, २९, ३५, १४९, १७०, जिनभद्रगणि १२, ३११, ३२० ३२५ आदि, १८१, १९५, २०३, जिनरल कोश ४३६, ४४२ २४४, २५०, २५४, २८३, जिनवल्लभ गणि ४३३
३०४, ३०७, ३७०, ४१५ जिनेश्वर सूरि ४३३ चूणिसूत्रकार ३३-३५, ३७, १४८, जिनसेन २१६, २४२, २४५, २४६,
१७९, १८७, २०२, २१०, २५६ २५४, २६१, २६२, २९१ चूलिकाअधिकार ४८, ४९, ५२, ८४, जीवतत्त्व प्रदीपिका टीका ४६३-४६६ १४७, २९६, ३३५, ४०५
४७०, ४७१ ४७३, ४८० छक्कमोवएस ३८०
जीवसमासप्रकरण ३३३, ३५४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४७७
४९० जैनसाहित्यका इतिहास जीवस्थान जीवट्ठाण ४७-५०, ५२, तत्त्वार्थसूत्र ९८, ११४, २४४, २७६,
५८, ५९, ६२, ६७, ६८, ७६, २७८, ३०२, ३१२, ३३२, ७७, ७९, ८४, ९१, ९३, ९४, ४५१ ९६, १००, १४०, १४७, १९६, तत्त्वोपप्लव २४३ १९८, २१८, २४४, २६५, तपागच्छ ११, १९, ४३६ २६८, २७२, ३३५, ३५०, तुम्बूलराचार्य २१५, २६३, २६४, ४०९
२७४, २७६, २७८, २८३ जुगलकिशोर मुख्तार २०८, २७५, त्रिपिटक ४१८
३२७, ३९३, ४००, ४०२, त्रिभगीसार ४४२ ४४०
त्रिभगीसारटीका ४६०, ४६१ जैनधातु प्रतिमालेख सग्रह ४५५, ४५७ त्रिलोकप्रज्ञप्ति तिलोपण्णत्ति ८, १४, जैनेन्द्रमहावृत्ति ३८५, ३८७
२०, १३१, १७२, २०३, २०६, जैनेन्द्रव्याकरण
२०८, २२१, २२८, २४४ जोणिपाहुड योनिप्राभृत २१, ४३, ४४, त्रिलोकसार २४७, ३८२, ३९२, ४७५,
१००, २४४ ज्योतिप्रसाद डा० २४८
त्रिवर्णाचार ४६३ ज्वालामालिनी ४८३
त्रैलोक्यकीति ४८४, ४८५ ज्ञाताधर्मकथा ९८
त्रैलोक्यदीपक ४८५ ज्ञानप्रवाद २४, २५, २५६
दण्डी कवि २७७ ज्ञानभूषणभट्टारक ४४०, ४५१, ४५३- दर्शनविजय १०, १९ ४५९, ४७२-४७६, ४७८, दर्शनसार ३८०
दशवकालिक २४४ ज्ञानसूर्योदयनाटक ४७६
दसकरणीसग्रह ४०९ टोडरमल्लपण्डित ४०५, ४१६, ४६४, दसपूर्वी २१
४६५, ४७०, ४७३ दिगम्बर २, ४, १०, १३, १५-१८, डड्ढा (लक्ष्मणसुत ) ३५०, ३५१, ४३, ११३, १३१, १७०, २२०,
३७२ आदि ३०२, ३०८, ३१८, ३५५, तत्त्वज्ञानतरङ्गिणी ४५५, ४७६
४८५ तत्त्वसार ४२०, ४२१
दृष्टिवाद १३, १६, १८, ६१, १५१, तत्त्वार्थमहाशास्त्र २७५, २७६, २७७ ३०३, ३०४, ३२०, ३५८ तत्त्वार्थवार्तिक ५२, २४४, २४७, दिल्ली (भण्डार) ४६०, ४६१, ४७७, ३४९, ३५०, ३८७
४७९ तत्त्वार्थसार ३७४
दीघनिकाय ७७
४८०
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________________
दूष्यगणि १९
देवगण १३, १८, १९, ३०३ देवसेन ३०८, ४१७, ४२०, ४२१ देवेन्द्रकीर्ति ४५८, ४७८ देवेन्द्रसूरि २९४, २९५, ३०३, ३०४, ३१५, ४३३, ४३४, ४३६
द्रमिलदेश ७, ४४, ४५
द्रव्य प्रमाणानुगम ४८
द्रव्यसंग्रह ३१७, ३६२, ४२५, ४२६ द्रव्यानुयोग ४८
द्वादशाग १, ४, ३१, ७८, १०१,
द्विसधानकाव्य टीका ४८५ धनेश्वर सूरि ४३३
धनञ्जय २४४, २४७
धन्यकुमार चरित्र ४५३
धरसेन ६–८, १३, १७, २० - २४,
४३-४५, ५०, ६३, १००, २८०
धर्मकथानुयोग ४
धर्मचन्द्रसूरि ४७२
धर्मकीर्ति वो० ७८, २४५ धर्मप्रश्नोत्तर श्रावकाचार ४५३
धर्मभूषण भट्टारक ४६७
धर्मरत्नाकर ३७४, ३७५
धर्मसूरि १९
धर्मसग्रह श्रावकाचार ४५१
नाम सूची . ४९१
२४५, २४६, २६४, २६५, २८०, २८४, २९१, ३२५, ३७३, ४४६
घवला ७, १०, १७, २०, २१, २३, ४६~४८, ५०–५९, ६२, ७७, ७८, ८०, ८१, ८३, ९२, ९५, ९६, १००–१०२, १२४, १३०, १३७, १३८, १४०, १४४, १७२, १९५, २१५, २४३,
धवलाकार ५९, ७८, ८४, १००, २७३, २८७, ३२७
ध्रुवराज २५५
नन्दिल १८, १९, २७ नन्दिवृत्ति १३
नन्दिसघ २०, ४५६, ४७६
१९८ नन्दिसूत्र ९ - २०, १३०, १३१, २००, २४४, ३०३, ३१०
नन्दिसंघ पट्टावली २१, २२, ४३, २७३, ३०३, ३०६
नन्दिसूत्र चूर्णि १३ नयचक्रवृत्ति २४३
नरसिंहाचार्य ४६४
नव्यकर्म ग्रन्थ ४३३
नागहस्ति ९-२०, २२- ३०, ३४, ३५,
१७८, २००, २०१, ३०६
नागार्जुन १०, १३, १९ नाथारग गान्धी ३९७
नाममाला २४४
नियमसार २६४, २७३ नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य ३९४ नेमिचन्द्रटीकाकार ४७२-४७७, ४८०
नेमिचन्द्रसिद्धान्त चक्रवर्ती ५३, १७४, २७६, २८९, ३८१ आदि, ३८८, ३९०, ३९२, ४०८, ४४२, ४६०, ४७७
नेमिचन्द्रसैद्धान्ति ४३७, ४४० - ४४२ न्यायकुमुदचन्द्र ३८८ न्यायदीपिका २७६
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________________
४९२ • जैनसाहित्यका इतिहास
४७९
पट्टावली ९-११, १७, १९, २१, ४४, परिकर्म २४४, २६३ आदि, २७३,
२८३ पट्टावली समुच्चय २०
पवाइज्जमाण ९, १४, १५, १७, पट्टावली सारोद्धार ११
२०१ पञ्जिका २८५
परमानन्द पण्डित ३२६, ३२७, ३४३, पञ्चस्तूयान्वय २४१
४००, ४२१, ४२२, ४२९, पञ्चसग्रह (दि०) २४०, २९०, ३१७, ४५२, ४५६, ४६३, ४७८,
३२२-३२८, ३४६, ३४७, ३४९, ३५०, ३६२, ३७२, ३७६,
परमानन्दसूरि ४३१ ३९५, ४०५, ४०८, ४१०,
परमागमसार ४४४, ४६२, ४६८, ४११, ४२२, ४४७, ४५३
४७० पञ्चस० प्रा०टी० ४४५
पाटलिपुत्र २ पञ्चस० वृत्ति ४५७, ४५९, ४७६, पृच्छासूत्र ३३-३५, १८५
४८० पाण्डवपुराण ४५१, पञ्चसग्रह ( श्वे०) २८४, २८९,
पार्श्वनाथपुराण ४५१, ४७६ ३०९, ३११, ३१२, ३२२,
पार्श्वनाथवसदि २७७ ३४१, ३४९, ३१६, ३५३,
पाश्र्वाभ्युदय २४६, २९१ ३५५, ३५६, ३५८ आदि ३६६
पुन्नाटसघ २४२, २४६
पुण्यविजयमुनि ३१८, ३५७ पञ्चस० स्वोपज्ञवृत्ति ३२२, ३२४,
पुराणसार ४५३ ३२८, ३५१, ३५३, ३६०
पुरातनवाक्य सूची ४०२ पञ्चस० ( अमित० ) ३४०, ३४७,
पुष्पदन्त ७, १२, १७, २०, २१, २२, ३५०, ३९५, ३९६
२३, २४, ४३-५५, ५९-६१, पञ्चसंग्रह ( डड्ढा ) ३७२ आदि
६३, ६४, ६८,७८, ८४, १००, पञ्चवस्तुटीका ३८७
१३१, १४०, १४४, १५२, पञ्चास्तिकाय २४४, २६४, २७३,
२३४, २७९, २८०, ४७७ ४२५
पूज्यपाद देवनन्दि ३७३, ३८७ पञ्चास्तिकाय टीका ३७८
पूरणकाश्यप ७७, ४१८ पतञ्जलि भाष्यकार ३०, १८२ पेज्जपाहुड ६, ८, ९, २५, ३५, १८८, पद्मनन्दिमुनि २६४, २७३, ४४९
२११ पद्मनन्दि भट्टा० ४५४-४५६, ४७८ प्रज्ञाश्रमण ४४ पद्धति टीका २६३, २७४
प्रज्ञापनासूत्र ११, १३४, १३९, १४९, पन्नालाल सोनी ४५०
। १५०, २८२,,३१८, ३५४ आदि
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________________
नाम सूची ४९३
प्रथमानुयोग ४
भद्रगुप्त १९ प्रभावक चरिन १२
भद्रवाहुश्रुतकेवली २, ४, ६, १७, १८ प्रत्येकवुद्ध ३१
भावविभगी ४४२, ४४३ प्रभाचन्द्र ३८८,४२९
भावसग्रह प्रा० ४१७, ४२०, आदि प्रभाचन्द्र भ० ४७२, ४७६
४२५, ४२७ आदि, ४८२, ४८३ प्रमाणवातिक २४५
भावगग्रह (मं०) ४२९, ४८२, ४८३ प्रमेयकमलमार्तण्ड ३८८, ४२९ भाज्यगाथा ३६ प्रवचनसार २४४, २६४, २७३ भास्करनन्दि ३७४, ४५१ प्राचीनजनलेससग्रह ४५७
भुजवलिगता ३९५ प्रेमी नाश्राम २०४, ३८८, ३९३, भुवनकीर्ति ४५४-४५७
३९५, ४२१, ४५१, ४५३- भूतदिन १९ ४५५, ४७४-४७६, ४८४
भूतवली ६, ७, १३, १७, २०-२४, फिरोजशाह तुगलक ४८५
४३-४६, ४८-५१, ५३-५५, फूलचन्द्र सिद्धातशास्त्री ३४५
५९-६४, ६८, ७८, ८४, १००, वघेरवाल ४६२
१३१, १४०, १४४, १५२, वडोदा २५४, २५५
२३४, २७९, २८०, ४७७ वन्धविभगी ४४१
मर शास्त्र २१ वन्वस्वामित्व ३२४, ४३४
मथुरा २ वन्धस्वामित्व टीका ३२४
मन्दप्रवोधिकाटीका ३९२, ४६४-४७० वन्धस्वामित्व विचय ५८, ६० ६२, मलयगिरि १०-१२, २०, २९३, ६३, ९५, ९८, ९९
३०३, ३०७, ३०९, ३११, वालचन्द्रमुनि ४४४, ४४५,
३१५, ३१६, ३१८, ३१९, वालचन्द्र पडितदेव ४६७, ४६८
३२५, ३४१, ३५१-३५३ ३६०, वाहुबलि चरित ३९४, ३९५
३६६, ३६८, ३६९, ४३३ वृहत्कर्म चूर्णिका २९४
मल्लिनाथ पुराण ४५३ वृहत्कर्म प्रकृति २९४, २९५, ३०५ ।। मल्लिभूपाल ४७२-४७४ बृहट्टिप्पणिका २१, ४३
मल्लिभूपण ४५४, ४५८, ४७३, ४७६, बृहद्रव्य संग्रह ३७४, ३९४ वृहत् सग्रहणी ३६३
महाकर्मप्रकृति प्राभूत ७, १६, १७, बुद्धघोप ७७
२३, ४४, ५०, ५१, ५४-६४, ब्रह्मदेव सूरि ३७४ ।
६८, ९४, १००, १४९, १९९, भगवतीसूत्र ३५, ६८, १४९
२१६, २३४, २८०, २८४, भण्डारकर ५
२८६, ३८५ ४६६
४८०
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________________
४९४ . जैन साहित्यका इतिहास
महाखवण ९ महागिरि १८, १९ महापुराण २४२, २५१
महाबन्ध ५१, ५४, ५६-६१, १३१, १४४, १५२ आदि १९५, २३४२३६, २६४, २७९, २८४, २८६, ३८५, ३८६
महावाचक ९, १५, १६,
१८, २३,
२४० ११, १९,
,
३५, ६१, ७८, ७९, २२२, २२७, ४१९, ४४६
महावीर भ० १, २, ५,
महिमा नगरी ६, ४५
महीचन्द्र ४५९
महेन्द्र कुमार न्या० ३८८, ४२९
माघकवि ३८७
माधनन्दि २१, २३,
माधवचन्द त्रैविद्य २४७, ३९३, ४१६,
४४१, ४७०
मान्यखेट २५५ माथुरीवाचना १३
माथुर सघ ३८०
मीमासा श्लोक वार्तिक २४५
मुञ्जराज ३८०
मुनिचन्द्रसूरि ४३३
मूडविद्री २१८, २८४, ४०१, ४०३,
४६१
मूलगाथा ३३
मूलाचार १३१, २४४
मूलाचार प्रदीप ४५३
मूलाराधना दर्पण २०५, ३२६, ३४७
मेधावि पण्डित ४५१
मेरुतुग ११, १९
मोहेञ्जोदडो ७० यतिवृषभ ८, ९, १४, १६, १७, २०, २२, २४, २५, २९, ३३, ३५, १४९, १७० आदि, १७८, १८१, १८५, १९० आदि, २०१, २०५, २०६, २१०, २४४, २५०, २८३, २८९, ३०४, ३०५, ३०८, ३०९, ४१५, ४७७
यशस्तिलक ४२७, ४७७ यशोधर चरित्र ४५३ यशोभद्रसूरि ४३३
यशोविजय २९३, ३०३, ३०७, ३०९,
४३७
युधिष्ठिर मीमासक ३८८
योग दर्शन ७६ योगिनीपुर ४८५
योग वाशिष्ठ ७६
रतनलाल प० ४२८
रत्नकरण्ड ४८४
रन्न कवि ३९४
रवि नन्दि २६४, २७९
राजगृही १
राम पुराण ४६३
राय मल्ल गग ३९१, ३९३, ३९५
राष्ट्रकूट २५५
रेवती नक्षत्र १०
रेवती मित्र १९
लक्ष्मीचन्द भ० ४५३-४५५,
४५८,
४७६, ४७८,
४५९, ४७३, ४८०, ४८४
लघीयस्त्रय ३५१, ३७३
लघु समन्तभद्र २७८
लब्धिसार १७४, ३९२, ४१२, ४१३ लालावर्णी ४७२
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________________
नाम सूची ४९५ लोहाचार्य २०, २२, ४४६ विद्यानन्द २७५, ४७७ लोहित्य १९
विद्यानन्दि भ० ४५८, ४७४, ४७६, वज्रसेन १९
४७८, ४८० वज्रस्वामी १२, १९
विनयचन्द्र ४८४, ४८५ वटपद्रक २५५
विन्ध्यागिरि ३९१, ४४५ वट्टकेराचार्य २४४
विपुलाचल १ वनवास देश ७, ४४, ४५
विबुध श्रीधर ४४, ५१, २६४ वप्पदेव २१५, २३४, २६३, २६४,
विभापा १८१ २७९, २८०, २८२ ३८०
विमलसेन गणि ४२०, ४२१
विशालकीति ४७२, ४७४ वर्द्धदेव २७७
विशेषणवती ३२०, ३२५ वर्धमानपुराण ४५३
विशेषावश्यकभाष्य १२, १८१, १९५, वर्गणाखण्ड ५१, ५२, ५५, ५७, ५८,
२३२, ३१०, ३११, ३१७, ६०-६२, १३१, १४४, १४६,
___३२५, ३६१, ३६५ १४९, १५३, १९५, २३०,
विस्तरसत्त्वत्रिभगी ३८४, ३८५, ४०८, २४४, २८६, २९६
वीरचन्द्र ४५३-४५९, ४७३, ४७६, वलभी १३, ४१८
४७८,४८० वलिस्सह १८, १९
वीरनन्दि ३८२, ३८३, ३८५, ३८८ वसुनन्दि श्रावकाचार ४२५, ४२६, वीरनिर्वाण ५, ८, ११, १४, २०,
४२७ २१, २२, ४३, ४७४, ४७५ वाचक १०, २३
वीरसेन ७,८,१०,१७,२१-२४,२८, वाचकवश १०-१२, १६, १८
२९, ३१, ३५, ४६, ४८, ४९, वाटकग्राम २४५, २५४
५०, ५३, ५६, ५७, ५८, ६२, वामदेव ४२९, ४८२, ४८४, ४८५ ६३, ६७, ६८,७७, ८४, १००, वागरणसुत्त ३३, ३४, १८५
१२४, १३७, १४०, १४४, वादिचन्द्र ४५९, ४७६
१५२, १५३, १७३, २०५, वादिभूपण ४५६
२१५, २२२, २२५ आदि, २४१, वासुदेवशरण अग्रवाल १८२, ३८५ आदि, २५०, २६१, २६२, विंटरनिट्स ३, ४, ५, ३०
२६४, २७९, २८०, २८३, विक्रमाक शक ४७५
२९०, ३२७, ३४७, ३७३, विचारश्रेणि ११, १९
३८६ विजयकीति ४५५-४५७, ४७३
वृत्तिगाथा ३० विजयोदया टीका २४३, ४४६ वृत्तिसूत्र १७०, १७९
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________________
४७८
४६९
४९६ - जैनसाहित्यका इतिहास वृपभचरित्र ४५३
शीलाक ३६५, ४११ वेदनाखण्ड ५१, ५२, ५४. ५८, ५९- शुभचन्द्र ४५१, ४५५, ४५६, ४५९,
६४, १००, १०४, १२८, १३१, १४६, १५२, १५३, १९५, शुभनन्दि २६४, २७९ २३०, २४४, २८६, २९५, श्रवणबेलगोला २७७, ४४५, ४६७
३०२, ३२२, ३९९, ४६६ - वेबर डा० २०
श्रीकण्ठ शास्त्री ३९४ व्याख्यानाचार्य २६२
श्रीगुप्त १४ व्याख्याप्रज्ञप्ति २१५, २३४, २६३,
श्रीपालचरित ४५३
श्रीपालाख्यान ४७६ २६४, २७९, २८०, आदि, ३८६
श्रुतकीर्ति ३८७
श्रुतकेवली २१, ३१ शतक, वन्धशतक २९६, ३०३, ३११, श्रतमनि ४४२-४४५, ४६०-४६२, ३१२, ३१८, ३२०, ३२२,
४६८-४७० ३३८-३४१, ३४५, ३६७, ३६९
श्रु तावतार ७-९, १७, २१,२३, २४, शतकचूणि २०९, २९३, २९४, ३०४, ३३, ३४, ४४, ४५, ५०, ५२,
३१०, ३१५, ३४०, ३४८, ५९, १५२, २१५, २३४, २६२, ३४९, ३५७, ३५९, ३६३,
२६३, २७७, २७९, २८० । ३६६, ३६९
श्वेताम्बर २, ४, ५, ९, १०, १३शतकटीका ३१६
२०, २२, ६८, ९९, १०४ ११३,
१५०, १७०, १८५, २२०, शतक बृहच्चूणि ३१६, ३६६, ३६८
२३०, २३२, २८२, २८९, शतक नव्य ४३५
२९३, २९४, ३०२, ३०४, गन्दानुशासन २७६
३०८, ३१०, ४१८, ४३४, शब्दाम्भोज भास्कर ३८८
४४७ शान्तिराज शास्त्री ४५१
षट्करण स्वरूप २०८
षडशीति ४३२, ४३३ शाडिल्य १९ शामशास्त्री ३९४
षट्खण्डागम ७, १०, १३, १७, २२, शामकुण्ड २१५, २६३, २६४, २७४,
२४, २५, ४३-४५ ४९, ५०, ५२-५९, ६४, ७८, ७९, ९५,
९८, ९९, ११३, १३१, १४५ गालिवाहन शक ४७५
आदि, १७२ १९५, १९९, २१५, शिवशर्मसूरि १६, ३०३, ३०४, ३६८
२३४, २५०, २६३, २६४,
२७३, २७४, २७६, २८०, शिवार्य २४४, ३८१
२९५, २९६, ३०२, ३२२, शिशुपालवध ३८७
३५०, ३८६, ३९९, ४०८
२७८
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नाम सूची : ४९७ सकलकीर्ति ४५२, ४५५, ४५६, ४५८ सिद्धसेन गणि ३६३, ३६५, ३६६ सकलभूपण ४५५, ४५९, ४६०, ४७८ सिद्धपि ३६१, ४३२ सत्कर्मपजिका ५७, ५८, ६१, २८४ सिद्धान्तसार ४५०, ४५१, ४७४ सत्कर्मप्राभृत-रातकसापाहुड ५३-५९, सिद्धान्तसार भाष्य ४५३, ४५४,४५८ १९७, २४४, २७९, २८०,
४७३, ४७६, ४७८ २८६
सिद्धान्तसार दीपक ४५३ सत्प्ररूपणासून ७, २३, ४५-४७ ५०,
सिद्धि विनिश्चय २४४ ५४, ५९, ७८, १४०, २२२ सिद्धिभू पद्धति २५० सत्त्व विभगी ४४१
सिंह गणि २४३ सद्भापितावली ४५३
सिंह गिरि १९ सन्मति सूत्र २४४, ४११
सिंह सूर ३६५ सप्ततिका भाष्य ३७०
सुकुमाल चरित्र ४५३ सप्ततिका-सित्तरी २८४, ३१८-३२० सुखलाल पडित ३६५
३२१-३२५, ३४१, ३४५, सुख वोधिनी ३७४, ४५१ ३५२, ३५३, ३६६
सुत्तफास १८५ सभास गाहा-सभाज्यगाथा ३२, ३३ सुत्तगाहा ३०-३३, ३६ समवायाग १३, २२९
सुदर्शन चरित्र ४५३ समयसार २४४, २६४, ३१० सुधर्मा ५, ११, १८ समुद्र १८, १९
सुप्रवुद्ध १९ समन्तभद्र २१५, २६३, २७८, ४७७ सुभापित रत्न सन्दोह ३८० सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका ४६३, ४७० सुमतिकीर्ति ४४०, ४५३-४५५, सवार्थ सिद्धि ३७३
४५७, ४५९,४६०, ४७६ आदि सागार धर्मामृत ४२६-४२८, ४८४ सुलोचना चरित्र ४२१, ४२२ , सार चतुर्विशतिका ४५३
सुस्थित १९ सार सग्रह २४४
सुहस्ती १८, १९ सार्धशतक ४३३ ।
सूचनासूत्र ३४ साह सहेस ४७२
सूत्र ३०, ३१ साह सागा ४७२
सूत्रकृताग ४११ साख्यकारिका २४५
सूरत ४५७ आदि, सित्तरी चूणि १७, २०९, २९३, सोभदेव पं० ४३२
३१९, ३२१, ३२४, ३२५ सोमसेन भ० ४६३ ३६६, ३६८, ३७०
सोमदेव उपासकाध्ययन ४२७ सिद्धसेन २४४
सोमदेव ४७७
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४९८ : जेनसाहित्यका इतिहास
सौन्दरानन्द २४५ सौराष्ट्र ६ संभूतिविजय १८ संस्कृतकर्मग्रन्थ ४३६
संस्कृत व्याकरणका इतिहास ३८८
स्कन्दिलाचार्य १९
स्थविरावली ९, १३, १७, १८
1
हरिवशपुराण २४६, २४७, २९१ हरिषेण कथाकोश- २०५
हार्नले ७७
हिमवन्त १३, १९ हीरालाल प्रो० ५४,
५९, २४६,
२४८, २७६
हीरालाल सि० शा० २०९, ३०४,
३०९, ३७२
स्थानाग २४४
स्थूलभद्र १८, १९
स्वाति ११, १८, १९
हरिभद्र १३, २४३
11
( देवसूरिशिष्य ) ३२४, ४३२, हेमचन्द्र मलधारी १९५, २९४, २९५, ३१५, ३१६, ३६६, ३६७
४३३
हुमच ४७४ हेमचन्द्र ब्रह्म १५२
प्रती श्रुति-दर्शन केन्द्र
जयपुर
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भारतीय श्रुति-दर्शन केन्द्र
અયપુર
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