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श्री रुपचन्द्र सुशीलाबाई दि जैन ग्रंथमाला, विदिशा
(षष्ठम् पुष्प)
जैनपूजांजलि
AAAAAAAmarwa
चतुर्विंशति तीर्थकर विधान चतुर्विंशति तीर्थकर निर्वाण क्षेत्र विधान
रचयिता कविवर-राजमल पवैया, भोपाल
सकलन कर्ता उमेशचन्द्र, भोपाल-आलोक कुमार, विदिशा
प्रकाशक श्री रुपचन्द्र सुशीलाबाई दि जैन ग्रंथमाला, विदिशा
श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु मंडल, भोपाल नौवों संस्करण
न्योछावर १३ रुपया भोपाल ३१ मई ९२
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पुस्तक प्राप्ति स्थान * श्री दि जैन मुमुक्ष मडल
श्री जैन मन्दिर चौक भोपाल * श्री राजमल जैन मे एम रतनलाल क्लाथ मर्चेट चौक बाजार, भोपाल
पुस्तक प्राप्ति हेतु पत्र व्यवहार का पता
सजीव कुमार राजीव कुमार जैन १७ चौक बाजार, ललवानी गली
भोपाल (म प्र) पिन- ४६२००१
जैन पूजान्जलि के प्रकाशन के सर्वाधिकार सबको समर्पित
जेन पूजान्जलि प्रकाशन * प्रथम सस्करण - ४००० श्री दि जैन म्वाध्याय पद्दल महारनपुर ( यू पी ) * द्वितीय सस्करण - . ००० श्री दि जैन मुमुक्ष मडल भोपाल (म प्र ) * तृतीय मस्करण - ७००० श्री दि जैन मुमुक्ष पहल भोपाल (म प्र ) * चतुर्थ सम्करण - १००० श्री दि जैन महिलाशास्त्र दरयागज दिल्ली * पचमसस्करण - २००० श्री रूपचन्द मुशालाबाई दि जैन ग्रन्थमाला विदिशा * पष्ठम सस्करण - ३००० श्री दि जैन मुमुक्ष पडल भोपाल * सप्तम सस्करण - ५००० श्री दि जैन मुमुक्ष मडल भापाल (मई ८७) * आठवाँ सकरण - १००० श्री लक्ष्मणप्रसाद देवन्द्रकुमार जैन भापाल
२७५ ९२ * नौवाँ सस्करण - १००० श्री रूपचन्द्र मुशीलाबाई दि जैन ग्रन्थमाला विदिशा
३१ ५ ९२ * दशवा सस्करण - १००० श्री बदामोलाल सुहागबाई दि जेन ग्रन्थमाला भोपाल * ग्यारहवाँ सस्करण- २००० श्री दि जैन मुमुक्षु मडल भोपाल (५ ६९२)
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प्राक्कथन अध्यात्म रस के प्रेमी कविवर श्री राजमल जी पवैया भोपाल द्वारा रचित "जैन पूजान्जलि' का यह ११ वो सस्करण प्रस्तुत करते हुये हमें हार्दिक प्रसन्नता हो रही है । अभी तक विभिन्न सस्थाओं द्वारा जैसे सहारनपुर- दिल्ली विदिशा बम्बई एवं भोपाल से- ३१००० प्रकाशित हुई है समाज में इसका जिस द्रुतगति से प्रचार हुआ है वह अवर्णनीय है ।
श्री पवैया जी ने तत्व प्रचार की भावना से ओतप्रोत आध्यात्मिक तत्व को आधार बनाकर भक्ति रस पूर्ण पूजनों की रचना की है । इन पूजनों के माध्यम से प्रतिदिन लाखो श्रद्धालु व्यक्ति जिनेन्द्र अर्चना का पुण्य लाभ लेते हैं ।
चारो अनुयोग-प्रथमानुयोग चरणानुयोग करणानुयोग एव द्रव्यानुयोग के भावों से गर्भित ये रचनाये समाज में मर्वाधिक प्रचलित है तथा जिन पूजन में तो समर्थ हैं ही किन्तु एकान्तमेंचिन्तन मनन करने के अदभुत सामर्थ से भरी है । वैसे तो पवैया जी ने तत्कान से ओतप्रोत अनेको विधान पूजन गीत भजन रचे हैं । अब तक उनके द्वारा १५० से अधिक पूजनों ५०० स्तुति, गीत २५०० आध्यात्मिक गीतों व २० विधानों की रचनायें की गई है । इस युग की उनकी मर्वश्रेष्ठ कृनि इन्द्रध्वज मडल विधान है । जो करणानुयोग एव द्रव्यानुयोग से परिपूर्ण है।अभी हाल ही मे आपका शान्ति विधान, ऋषि मडल विधान, चौसठ ऋद्धि विधान एवं श्रुतस्कंध विधान प्रकाशित हुये है । जो वीतरागता से ओत प्रोत है ।
___ आचार्य कुन्द कुन्द देव द्वारा रचित ग्रन्थाधिराज समयसार में आत्मा की अनेक शक्तियों का वर्णन आता है । उनमें से अमृत चन्द्राचार्य ने मुख्य ४७ शक्तियों का वर्णन किया है । यह कथन अत्यन्त क्लिष्ट एव दुरुह होने के कारण सर्वसाधारण इनका लाभ नहीं ले पाता है किन्तु श्री पवैया जी ने ४७ शक्ति विधान की रचना कर इस दुरुह विषय को अत्यन्त सरल बनाकर अनन्त सिद्धा का भक्ति, अभिषेक कर दिया है । यह रचना अभूत पूर्व है । इसके प्रकाशन की भी याजना है।
इम रचना के प्रकाशन में जिन दान दाताओ ने दान देकर इसके मूल्य कम करने में जो आर्थिक सहयोग दिया है वह सब धन्यवाद के पात्र है ।
इसके अतिरिक्त इसके प्रकाशन में जिन मुमुक्षु बधुओ ने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जो सहयोग एव प्रोत्साहन दिया है वे सब धन्यवाद के पात्र है ।
इसके सुन्दर प्रकाशन में बाक्स कारूगेटर्स एण्ड आफसेट प्रिन्टर्स मी धन्यवाद के पात्र है । आशा है कि यह “जैन पूजान्जालि आप सब के मोक्ष मार्ग प्रशस्त करने में निमित बने
सौभाग्यमल जैन स्वतत्रता संग्राम सेनानी
सरक्षक
राजमल जैन अध्यक्ष
श्री दिगम्बर जैन मुमुक्षु मडल भोपाल
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"जैन पूजान्जलि की कीमत कम करने हेतु राशि
देने वाले दान दाताओ का नाम .. श्रीमति सुहागबाई ध प श्री बदामीलाल जी जैन भोपाल १०.१०. श्रीमति तुलसाबाई ध प श्री नवलचन्द्र जी जैन भोपाल १००... श्रीमति स्व लक्ष्मीबाई ध प स्व श्री बशीलाल जी जैन भोपाल ह श्री चन्दनमल
जी सर्राफ एव श्री बांगमलजी १०१.. श्री दि जैन महिला मडल चौक मन्दिर, भोपाल ५०१.००
श्री श्रीमति कुसुमलता पाटनी ध प श्री शान्ति कुमार पाटनी छिदवाडा -०१० श्रीमति रतनबाई ध प स्व श्री सुगनचन्द्र जी जैन भोपाल ५०१०० श्री चन्दनमल जी जैन सर्राफ भोपाल २५१०० श्री रूपचन्द्र सुशीला बाई दि जैन ग्रन्थमाला माधवगज विदिशा २५१ ०० श्री देवेन्द्र कुमार जी जैन (अरबिन्द कटपीस) भोपाल २५१०० श्रीमति बसन्तीदेवी ध प स्व डा देवेन्द्रकुमार जी भिण्ड ह श्री शैलेन्द्र कुमार जी २०१०० श्री सोगानी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला भोपाल २०१०० श्री श्रीचन्द्र जी जैन (सुभाष कटपीस) भोपाल २०१०० श्री कोमल चन्द्र जी जैन (माडर्न कटपीस) भोपाल २०१०० श्री सजीवकुमार उमेशचन्द्र जी जैन (जैन स्टेशनरी) भोपाल २०१०० श्री राजीव कुमार उमेशचन्द्र जी जैन (जैन स्टेशनरी) भोपाल २०१०० श्रीमति चन्द्रा धप श्री उमेशचन्द्र जी जैन (जैन स्टेशनरी) भोपाल २०१०० श्रीमति नवल सोगानी ध प म्व श्री बाबूलाल जी जैन मोगानी भोपाल २०१०० श्रीमति शुकुन्तला सोगानी ध प रतनलाल जी जैन सोगानी भोपाल २०१०० श्री सन्दीप कुमार जी जैन सोगानी भोपाल २०१०० श्री मति मजु पाटनी ध प सन्तोषकुमार जी जैन पाटनी वाशिम २०१०० श्रीमति सुधा ध प श्री प्रवीणकुमार जी जैन लुहाड़िया दिल्ली २०१ ०० श्रीमति सुशीलाबाई ध प स्व श्री गुटुलाल जी जेन भोपाल २०१०० श्रीमति मोना भारिल्ल ध प डा राजेन्द्रकुमार जी जैन भारिल्ल भापाल २०१ल्ल श्री राजमल जी जैन (में एस रतनलाल) भोपाल
श्रीमति सुखवती ध प स्व श्री बाबूलाल जी जैन भोपाल २.१०० गुप्तदान हे श्री प्रमोदकुमार जैन भोपाल २०१०० श्री साहागमल ऋषभ कुमार जी जैन भोपाल २०१०० श्री मुभाषचन्द्र जी जैन पिपरई गाँव वाले भोपाल २०१०. श्री कोमलचन्द्र जी जैन गोधा जयपुर २०१०० श्रीमति मा इन्द्राणी ध प श्री बागमल जी जैन पवैया भोपाल २०१०० श्रीमति निर्मला देवी ध प भरतकुमार जी जैन पवैया भोपाल २०१०० श्रीमति स्नेहलता ध प चन्द्रप्रकाश जी जैन मोनी भोपाल २०१०० श्रीमति रेशम बाई कास्टिया भोपाल २०१०० श्री लालचन्द्र जी जैन टेक्सीवाले भोपाल २०१०० श्रा हजारीलाल फूलचन्द्र जी जैन गोयल नेहरु नगर भोपाल २०१०० श्रीमति मक्खनबाई ध प श्री पन्ना लालजी जैन भोपाल
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१०२०० श्रामात
२०१०० श्री बाबूलाल जी जैन पुजारी भोपाल २०१०० श्रीमति सरोज घप श्री देवेन्द्रकुमार जी जैन भोपाल २०१०० कु सुप्रिया सुपुत्री श्री धीरेन्द्र कुमार जी जैन-तुलसा स्ट्रोन क्रेसर - भोपाल २०१०० श्रीमति आशा प. श्री अशोक कुमार जी जैन केसलीवाले भोपाल २०१०० श्रीमति शन्तिदेवी ध प श्री श्रीकमल जी जैन एडवोकेर भोपाल २०१०० श्री मदनलाल गोपालमल जी जैन भोपाल २०१०० श्रीमती प्रेमश्री ध प हुकमचन्द्र जी जैन भोपाल २०१०० श्री राजेश कुमार अशोक कुमार स्वपुत्र स्व श्री बागमल जी जैन भोपाल २०१०० श्रीमति मीना देवी ध प महेन्द्र कुमार जी इन्जीनियर भोपाल २०१०० श्री मति तारादेवी पवैया दि जैन ग्रन्थमाला भोपाल २०१०० श्रीमति ज्ञानमति अजित कुमार जैन ट्रस्ट भोपाल २०१०० सौ प्यारी बाई प प बाबूलाल जी जैन "विनोद भोपाल २०१०० श्री देवेन्द्रकुमार (लाल) राज क्लाथ स्टोर्स बरखेडा भोपाल २०१०० श्री मगनलाल राजेन्द्रकुमार जी जैन भोपाल २०१०० श्री राजमल मगनलाल जी जैन भोपाल १५१ ०० श्रीमति कमल श्री बाई ध प स्व श्री डालचन्द्र जी जैन सर्राफ १५१०० श्री मांगीलाल पूनमचन्द्र जी जैन भोपाल १११ ०० श्री मुस्तान चन्द्र मुकेश कुमार जी जैन भोपाल १०२०० श्री अनन्त कमार महावीर प्रसाद जी जेन कानपर
श्रीमति माधुरी जैन ग्वालियर १०१०० श्रीमति शान्ति देवी ध प स्व श्री प्रेमचन्द्र जी जैन झाँसी १०१ ०० श्रीमति माधुरी ध प श्री महेन्द्र कुमार जी जैन झाँसी १०१ ०० श्री सन्तोषकुमार लालचन्द्र जी जैन ओडेर वाले भोपाल १०१०० श्री प राजमल जी जैन भोपाल १०१ ०० श्री सन्तोषकुमार जी (श्री कुन्दनलाल राजमल) भोपाल १०१०० श्रीमति शकुन्तला देवी ललितपुर १०१०० ब्र किरण लता जैन तारण आदर्श किराना स्टोर्स सिलवानी १०१०० श्री सौभाग्य मल जी जैन भोपाल १०१०० श्री केशरीमल जी जैन भोपाल १०१ ०० श्री कस्तूरचन्द्र जी जैन सिलवानी १०१०० श्री लक्ष्मीचन्द्र कारेलाल जी जैन गोनावाले भोपाल १०१०० श्री नेमीचन्द्र जी जैन छतरपुर १०१०० श्रीमति मेंदीवाई भोपाल १०१ ०० श्री दादा नत्रूमल जी जैन भोपाल १०१०० श्री सूरजमल शरदकुमार जी जैन भोपाल १०१०० श्री धन्यकुमार जी एडवोकेट भोपाल १०१०० श्रीमति कमल श्री ध प श्री मोहनलाल जी जैन भोपाल १०१०० श्री बाबूलाल जी जैन मालबाबू भोपाल
१०१०० श्री के सी जैन - विदिशा - १०१०० श्रीमती रेखा भारिल्ल विदिशा
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५१००
५१००
१०१०० श्रीमती लक्ष्मी ध प श्री विमल कुमार जी जैन भारिल्ल १०१०० श्री रमेशचन्द्र जी जेन पोपाल १०१०० श्री कालूराम जी जैन भोपाल १०१००
श्री उमेशचन्द्र सुपुत्र स्व श्री चन्द्रकुमार जी जैन १०१०० श्रीमती प्रभावती मातेश्वरी उमेशचन्द्र जी जैन १०१०० श्री कस्तूरचन्द्र आजाद कुमार जी जैन भोपाल १०१०० श्री मतिगेदी बाई गुना १०१०० कु विनीता जैन सुपुत्री श्री उमेशचन्द्र जी जैन भोपाल १०१०० श्री चौधरी लखमीचन्द्र महेन्द्रकुमार जी जैन भोपाल १०१०० श्रीमति शैलादेवी ध प स्व श्री जमना प्रसाद जी जैन एडवोकेट गुना १०१०० श्रीमति अजु जैन सौगानी भोपाल ५१०० श्रीमति कुसुम पण्ड्या भोपाल
श्री राजकुमार रतनलाल जी जैन भोपाल ५१०० श्री कोमल चन्द्र जी जैन भोपाल ५१०० श्रीमति सुशीला बाई ध प श्री श्रीचन्द्र जी जैन भोपाल
श्रीमति चतरो बाई जैन भोपाल ५१०० गुप्तदान ह हेमचन्द्र जी जैन भोपाल ५१००
गुप्तदान ४१ ०० गुप्तदान ह श्री अशोक कुमार जी जैन एव अन्य ५१ ०० श्री अभिषेक सुपुत्र श्री डा राजेन्द्र कुमार भारिल्ल ५१०० डॉ रश्मि सुपुत्री डा राजेन्द्रकुमार जो भारिल्ल १८८५८ %D00
जय हो जय हो जिनवाणी की
जय हो जय हो जिनवाणी की बज उठी सरस प्रवचन वीणा श्री वीतराग जिनवाणी की । शुभ अशुभ बध-निज ध्यान मोक्ष जय हो वाणी कल्याणी की ।। जय हो ।।१।। अन्तर मे हुई झनझनाहट निज मे निज की प्रतीति जागी । गगो से मोह ममत्व भागा मिथ्या भ्रम इति भिति भागी जडता के घन चकचूर हुये जय जिन श्रुत वीणा पाणी की ।।जय हो ।।२।। रस गध-स्पर्श रूपादिक सब यह पुद्गल की छाया है, यह देह भिन्न है चेतन से पगल की गदी काया है । जग के सारे पदार्थ पर है ध्वनि गुजो केवलज्ञानी की ।। जय हो ।।३।। चेतन का है चैतन्य रूप इसमे है ज्योति अनत भरी सुख ज्ञान वीर्य आनन्द अतुल हैं आत्म शक्ति गुणवत खरी । परमात्म परम पद पाती है चैतन्य शक्ति ही प्राणी की ।।जय हो ।।४।।
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गर्भ
४
चतुर्विंशति-तीर्थकर पचकल्याणक तिथि दर्पण तीर्थकर कल्याणक तिथि तीर्थकर कल्याणक तिथि कातिक कृष्ण
धर्मनाथ १५ ज्ञान अनन्तनाथ १ गर्भ
माघ कृष्ण सभवनाथ ४
गर्भ पदमप्रभु ज्ञान
6 पदमप्रभु १३ जन्म तप
शीतलनाथ १२ जन्म तप महावीर ३० निर्वाण
ऋषभनाथ १४ निर्वाण
श्रेयासनाथ ३० कार्तिक शुक्ल पुष्पदन्त
माघ शुक्ल नेमिनाथ
वासुपूज्य अरहनाथ
जन्म तप १२
विमलनाथ ज्ञान
विमलनाथ पदमप्रभु १३ तप सम्भवनाथ १५ जन्म
अजितनाथ
जन्म तप अभिनदन
जन्म तप मगसिर कृष्ण
धर्मनाथ
जन्म तप महावीर १० तप मगसिर शुक्ल
फागुन कृष्ण
पदमप्रभु ४ निर्वाण पुष्पदन्त जन्म तप
सुपार्श्वनाथ 6 निर्वाण अरनाथ
सुपार्श्वनाथ ७ ज्ञान मल्लिनाथ जन्म तप चद्रप्रभ
ज्ञान नेमिनाथ
पुष्पदत अरहनाथ १४ जन्म
ऋषभनाथ ११ सभवनाथ तप
श्रेयासनाथ ११ जन्म तप पौष कृष्ण
मुनिसुव्रत १२ निर्वाण मल्लिनाथ
वासुपूज्य १४ जन्म तप चन्द्रप्रभु जन्म तप
फागुन शुक्ल पार्श्वनाथ ११ जन्म तप
अरहनाथ
गर्भ शीतलनाथ १४ ज्ञान
मल्लिनाथ
निर्वाण पौष शुक्ल
चद्रप्रभु
निर्वाण शातिनाथ
सभवनाथ
गर्भ अजितनाथ ११ ज्ञान अभिनदन १४ ज्ञान
::::::
तप
०११०
ज्ञान
ज्ञान
१२.८ :
ज्ञान
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गर्भ
तीर्थकर कल्याणक तिथि तीर्थकर
कल्याणक तिथि चैत्र कृष्ण
निर्वाण अनन्तनाथ निर्वाण
अजितनाथ ३० गर्भ पार्श्वनाथ ज्ञान
ज्येष्ठ शुक्ल शीतलनाथ गम
धर्मनाथ ४ निर्वाण ऋषभनाथ
जन्म तप
मुपार्श्वनाथ १ २ जन्म तप अनन्तनाथ ज्ञान मोक्ष
अषाढ कृष्ण अरहनाथ ३० निर्वाण
ऋषभनाथ २ गर्भ चैत्र शुक्ल
वासुपूज्य ६ गर्भ मल्लिनाथ
गर्भ
विमलनाथ ८ निर्वाण कुन्थुनाथ
नमिनाथ १० जन्म तप अजितनाथ निर्वाण
अषाढ शुक्ल गभवनाथ निर्वाण
महावीर सुमतिनाथ ११ जन्म निर्वाण ज्ञान | नमिनाथ
निर्वाण महावीर १३ जन्म
श्रावन कृष्ण पदमप्रभ
मुनिसुव्रत २ गर्भ बैशाख कृष्ण
मर्भ पार्श्वनाथ २ गर्भ
श्रावण शुक्ल मुनिसुव्रत ९ ज्ञान
मुमतिनाथ १ गर्भ मुनिसुव्रत ०० जन्म तप नेमिनाथ ६ जन्मनप नेमिनाथ १४ निर्वाण
पार्श्वनाथ ८ निर्वाण बैशाख शुक्ल
श्रेयासनाथ १५ निर्वाण कुन्थुनाथ १ जय तप निर्वाण
भाद्र कृष्ण अभिनन्दन ६ गर्भ निर्वाण
शानिनाथ ७ गर्भ मुमतिनाथ ९ नप
भाद्र शुक्ल महावीर
मुपार्श्वनाथ ६ गर्भ धर्मनाथ
पुष्पदन्त ८ निर्वाण ज्येष्ठ कृष्ण
वासुपूज्य १४ निर्वाण श्रेयासनाय गभ
अश्विन कृष्ण विमलनाथ
नमिनाथ
गर्भ अनन्तनाथ
जन्म तप शातिनाथ
अश्विन शुक्ल जन्म तप
नेमिनाथ शीतलनाथ
निर्वाण
कुन्थुनाथ
ज्ञान
ज्ञान
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क्रमांक नाम
पृष्ठ
क्रमांक नाम
९८
१३३
M
२१
१ अभिषेक पाठ
जिनेन्द्र अभिषेक स्तुति
करलो जिनवर की पूजन ४ पूजा पीठिका
मगल विधान स्वस्ति मगल श्री नित्य नियम पूजन श्री देवशास्त्र गुरु जिन पूजन श्री विद्यमान बीम नीर्थकर पूजन
श्री सिद्ध पूजन ११ श्री मोमन्धर पूजन १२ श्री कृत्रिम अकृत्रिम जिन
चेत्यालय पूजन १३ श्री समस्त सिद्धक्षेत्र पूजन
अनादि निधन पूजन १४ श्री नन्दीश्वर द्वीप पूजन १५ श्री पचमेर पूजन १६ श्री पोडशकारण पृजन १७ श्री दशलक्षण धर्म पूजन १८ श्री रत्नत्रय धर्म पूजन
विशेष पूजन १९ श्री जिनेन्द्र पचकल्याणक
पृजन णमोकार मन्त्र पूजन
श्री आदिनाथ भरत बाहुबलि २२ श्री पच बालयति पूजन २३ श्री शान्ति कुन्थु अरनाथ
२८ श्री कुन्द कुन्द आचार्य पूजन ९३ २९ श्री जिनवाणी पूजन ३० श्री समयसार पूजन ३१ श्री भक्तामर स्तोत्र पूजन ३२ श्री इन्द्रध्वज पूजन १०९ ३३ श्री कल्पद्रुम पूजन ३४ श्री सर्वतोभद्र पूजन ३५ श्री नित्यमह पूजन १२२
विशेष पर्व पूजन ३६ श्री क्षमावाणी पूजन १२८ ३७ श्री दीप मालिका पूजन ३८ श्री ऋषभ जयन्ती पूजन १३८ ३९ श्री महावीर जयन्ती पूजन १४१ ४० श्री अक्षय तृतीय पूजन १४५ ४१ श्री श्रुत पचमी पूजन १४९ ४२ श्री वीर शासन जयन्ती पूजन १५२ ४३ श्री रक्षा बन्धन पर्व पूजन १५६ श्री चतुर्विंशति तीर्थकर
विधान ४४ श्री चतुर्विंशति तीर्थकर १६१
स्तुति ४५ श्री पचपरमेष्ठी पूजन १६२ ४६ श्री नवदेव पूजन
१६५ ४७ श्री वर्तमान चौबीस तीर्थंकर १६८
पूजन ४८ श्री ऋषभदेव जिन पूजन । १७१ ४९ श्री अजितनाथ जिन पूजन ५० श्री सभवनाथ जिन पूजन १७९ ५१ श्री अभिनन्दननाथ जिन
१८३
२४
२४ श्री समवशरण पूजन २५ श्री बाहुबलि पूजन
२६ श्री गौतमस्वामी पूजन • २७ श्री सप्तऋषि पूजन
५२ श्री सुमतिनाथ जिन पूजन १८७ ५३ श्री पद्यनाथ जिन पूजन १९१ ५४ श्री सुपार्श्वनाथ जिन पूजन १९५ ५५ श्री चन्द्रप्रभ जिन पूजन १९९
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-
न
सख्या -
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क्रमाक नाम
पृष्ठ पृष्ठ क्रमांक नाम
सख्या ५६ श्री पुष्पदन्त जिन पूजन २०२
७२ श्री तीर्थकर गणाधर वलय २७३
पूजन ५७ श्री शीतलनाथ जिन पूजन २०७
७३ श्री तीर्थकर निर्वाण श्रेत्र २७७ ५८ श्री श्रेयासनाथ जिन पूजन २११ ५९ श्री वासुपूज्य नाथ जिन पूजन २१५ ७४ श्री त्रिकाल चौबीस जिन २८० ६. श्री विमलनाथ जिन पूजन २१९ पूजन ६१ श्री अनन्तनाथ जिन पूजन २२३
श्री तीर्थकर निर्वाण क्षेत्र ६२ श्री धर्मनाथ जिन पूजन २२८ ६३ श्री शान्तिनाथ जिन पूजन २३४
पूजन विधान ६४ श्री कुन्थुनाथ जिन पूजन २३८
७५ श्री अष्टापद कैलाश सिद्ध २८४
क्षेत्र पूजन ६५ श्री अरनाथ जिन पूजन । २४२
७६ श्री सम्मेदशिखर सिद्ध क्षेत्र २८७ ६६ श्री मल्लिनाथ जिन पूजन २४६ पूजन ६७ श्री मुनिसुव्रतनाथ जिन पूजन २५० ७७ श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र पूजन २९१ ६८ श्री नमिनाथ जिन पूजन २५४ ७८ श्री गिरनारसिद्ध क्षेत्र पूजन २९४ ६९ श्री नेमिनाथ जिन पूजन २५८ ७९ श्री पावापुरसिद्ध क्षेत्र पूजन २९७ ७० श्री पार्श्वनाथ जिन पूजन २६२ । ८० महाअर्ध्य, शान्तिपाठ ३०१ ७१ श्री महावीर जिन पूजन
क्षमापना पाठ, भजन
भजन बड़े भाग्य से आऐ हैं हम जिनवर के दरबार में बड़े भाग्य से आये हैं हम जिनवर के दरबार में, हम अनादि से दुखिया व्याकुल चारो गति में भटक रहे निज स्वरूप समझे बिन स्वामी भव अटवी मे अटक रहे भेद ज्ञान बिन पडे हुये हैं पर के सोच विचार में ।। बड़े भाग्य ।।१।। महा पुण्य सयोग मिला तो शरण आपकी पाई है। आज आपके दर्शन करके निज की महिमा आई है भव सागर से पार करो प्रभु हमको अब की बार मे ।। बड़े भाग्य ।।२।। दर्शन ज्ञान चरित्र शील तप के आभूषण पहिनादा चार अनन्त चतुष्टय की शोभा से स्वामी मजवा दो । अष्ट स्वगुण प्रगटाऊस्वामी फिर न बहू मझधार मे ।। बड़े भाग्य ।।३।।
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गगन मण्डल में उड़ जाऊं तीन लोक के तीर्थ क्षेत्र सब बदन कर आऊँ ।गगन ॥१॥ प्रथम श्री सम्मेद शिखर पर्वत पर मैं जाऊँ। बीस टोंक पर बीस जिनेश्वर घरण पूज ध्याऊँ गगन ।।२।। अजित आदि श्री पार्श्वनाथ प्रभु की महिमा गाऊँ। शाश्वत तीर्थराज के दर्शन करके हऊँ गगन ।।३।। फिर पदारगिरि पावापुर वासुपूज्य ध्याऊँ। हुए पंच कल्याणक प्रभु के पूजन कर आऊँ गगन ।।४।। उर्जयत गिरनार शिखर पर्वत पर फिर जाऊँ। नेपिनाथ निर्वाण क्षेत्र को बन्दूँ सुख पाऊँ गगन ।।५।। फिर पावापुर महावीर निर्वाण पुरी जाऊँ। जल मंदिर में चरण पूजकर नाचूं हर्षाऊ गगन ।।६।। फिर कैलाश शिखर अष्टापद आदिनाथ ध्याऊँ।। ऋषभदेव निर्वाण धरा पर शुद्ध भाव लाऊँ गगन ।।७।। पच महातीर्थों की यात्रा करके हाऊ। सिद्ध क्षेत्र अतिशय क्षेत्रों पर भी मैं हो आऊँ गगन ।।८।। तीन लोक की तीर्थ वदना कर निज घर आऊँ । शुद्धातष से कर प्रतीति मैं समकित उपजाऊँ । गगन ।।९।। फिर रत्नत्रय धारण करके जिन मुनि बन जाऊँ। निज स्वभाव साधन से स्वामी शिव पद प्रगटाऊँ गगन ।।१०।।
सिद्धों के दरबार में हमको भी बुलवालो, स्वामी, सिदो के दरबार में ।। जीवादिक सातों तत्वों की, सच्ची श्रद्धा हो जाए। भेद ज्ञान से हमको भी प्रभु, सम्यक्दर्शन हो जाए । मिथ्यातप के कारण स्वापी, हप डूबे ससार में ।।
हमको भी बुलावालो स्वामी ॥१॥ आत्म द्रव्य का ज्ञान करें हम, निज स्वभाव में आ जाएँ । रत्नत्रय की नाव बैठकर, मोक्ष भवन को पा जाएं । पर्यायों की चकाचौंध से, बहते हैं मझधार में ।।
हमको भी बुलवालों स्वामी ॥२॥
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चलो रे भाई मोक्षपुरी गाड़ी खड़ी रे खड़ी रे तैयार चलो रे भाई मोक्षपुरी ।। सम्यक दर्शन टिकट कटाओ, सम्यक ज्ञान संवारो। सम्यक चारित की महिमा से आठों धर्म निवारों चलो रे ।।१।। अगर बीच में अटके तो सर्वार्थसिद्धि जाओगे । तैतीस सागर एक कोटि पूरव वियोग पाओगे ॥चलो रे ।।२।। फिर नर भव से ही यह गाडी तुपको ले जाएगी । मुक्ति वधू से मिलन तुम्हारा निश्चित करवाएगी ।।चलो रे ।।३।। भव सागर का सेतु लापकर यह गाडी जाती है। जिसने अपना ध्यान लगाया उसको पहुचाती है चलो रे ।।४।। यदि चूके तो फिर अनत भव धर-धर पछताओगे । मोक्षपुरी के दर्शन से तुम वचित रह जाओगे ॥चलो रे ।।५।।
चलो रे भाई सिद्धपुरी देखो खडा है विमान महान, चलो रे भाई सिद्धपुरी । वायुयान आया है सीट सुरक्षित अभी करालो । सम्यक दर्शन ज्ञान चरित के तीनो पास मगालो ।।देखो।।१।। नरभव से ही यह विमान सीधा शिवपुर जाता है । जो चूका वह फिर अनन्त कालो तक पछताता है। देखो।।२।। रत्नत्रय की बर्थ सभालो शुद्धभाव में जीलो ।। निज स्वभाव का भोजन लेकर ज्ञानामृत जल पीलो देखो ।।३।। निज म्वरुप मे जागरुक जो उनको पहुचाएगा । सिद्ध शिला सिहासन तक जा तुमको बिठलाएगा देखो ।।४।। मुक्ति भवन मे मोक्ष वधू वरमाला पहनाएगी । मादि अनत समाधि मिलेगी जगती गुण गाएगी ।।देखो।।५।।
करलो जिनवर का गुणगान करलो जिनवर का गुणगान, आई मगल घड़ी । आई मगल घडी, देखो मगल घडी ।।करलो ।।१।। वीतराग का दर्शन पूजन भव-भव को सुखकारी । जिन प्रतिमा की प्यारी छविलख मैं जाऊ बलिहारी करलो ।।२।।
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तीर्थकर सर्वज्ञ हितका महा मोक्ष के दाता । जो भी शरण आपकी आता, तुम सम ही बन जाता करलो।।३।। प्रभु दर्शन से आर्त सैद्र परिणाम नाश हो जाते । धर्म ध्यान में मन लगता है, शुक्ल ध्यान भी पाते करलो।।४।। सम्यक दर्शन हो जाता है मिथ्यातम मिट जाता । रत्नत्रय को दिव्य शाक्ति से कर्म नाश हो जाता करलो।।५।। निज स्वरुप का दर्शन होता, निज की महिमा आती ।। निज स्वभाव साधन के द्वारा सिद्ध स्वगति मिल जाती ॥करलो।।६।।
मैंने तेरे ही भरोसे मैंने तेरे ही भरोसे महावीर, भंवर में नैया डार दई ।। जनम जनम का मैं दुखियारा, भव-भव में दुख पाया । सारी दुनिया से निराश हो, शरण तुम्हारी आया ।।मैंने. ।।१।। चारों गतियो मे भरमाया, कष्ट अनन्तों भोगे । आज पुझे विश्वास हो गया, मेरी भी सुधि लोगे ।मैने ।।२।। नाम तुम्हारा सुनकर आया, मेरे संकट हर लो । आत्म ज्ञान का दीपक दे दो, मुझको निज सम करलो ।।मैने ।।३।। बडे भाग्य से तुमको पाया, अब न कहीं जा । मुझे मोक्ष पहुचा दो स्वामी, फिर न कभी आमा ||मैंने ।।४।।
आत्म ज्ञानी श्री सिद्ध चक्र का पाठ,करो दिन आठ,ठाठ से प्राणी ।
फल पायो आतम ध्यानी ॥१॥ जिसने सिद्धो का ध्यान किया, उसने अपना कल्याण किया ।
समकित पाकर हो जाता सम्यक ज्ञानी फल पायो ।।२।। पापों का क्षय हो जाता है, पर से ममत्व हट जाता है ।
भव भावों से वेराग्य होय सुख दानी फल पायो ।।३।। पुण्यों को धारा बहती है, माता जिनवाणी कहती है,
__घर पच महाव्रत हो जाता मुनि ज्ञानी फल पायो ।।४।।
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फिर तेरह विधि चारित्र धार, निज रूप निरखता बार-बार,
श्रेणी चढ कर हो जाता केवलज्ञानी फल पायो. ।।५।। निज के स्वरूप की मस्ती में, रहता स्वभाव की बस्ती में,
निश्चित पाता है सिद्धों की रजधानी फल पायो ।।६।। जिसने भी मन से पाठ किया, उसने ही मगल ठाठ किया । क्रम-क्रम से पाता मोक्ष लक्ष्मी रानी फल पायो.।।७।।
नरभव को सफल बनाओ तुम करो आत्म कल्याण, धरो निज ध्यान,
मोक्ष मे जाओ । नर भव को सफल बनाओ ।। मिथ्यात्व अधेरा छाया है, रागों ने सदा रूलाया है । अज्ञान तिमिर को हरो, ज्ञान प्रगटाओ ।।
नर भव को सफल बनाओ। पर्याय मूढता में पड़कर, रहते विभाव में ही अड़ कर । अब द्रव्य दृष्टि बन,निज का दर्शन पाओ ।। नर भव को सफल बनाओ
।।२।। सातो तत्वों का ज्ञान करो, अपने स्वभाव का मान करो । अब सम्यक दर्शन, निज अतर मे लाओ ।। नर भव को सफल बनाओ
॥३ ॥ लो भेद ज्ञान का अवलम्बन, है मुक्ति वधू का आमत्रण । शिव पुर में जाकर, अविनश्वर सुख पायो । ।
नर भव को सफल बनाओ
मैं तो सर्वज्ञ स्वरुपी हूँ मैं अपने भावों का कर्ता, अपने वैभव का स्वामी हूँ । शुभ अशुभ विभाव नही मुझमे, निर्मल अनत गुणधामी हूँ ।। में ज्योति पुज चित्चमत्कार, चैतन्य पूर्ण सुखरुपी हूँ ।।
मैं तो सर्वज्ञ स्वरूपी हूँ मैं ज्ञानानदी ज्ञान मात्र अविचल दर्शन बलधारी हैं। मैं शाश्वत चेतन मगलमय अविनाशी हूँ अविकारी हूँ। मैं परम सत्य शिव सुन्दर हूँ, मै एक अखड अरूपी हूँ ।।
मैं तो सर्वज्ञ स्वरूपी हूं
।।१।।
।।२।।
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जय बोलोसम्यक दर्शन की जय बोलो सम्यक दर्शन की । रत्नत्रय के पावनधन की । यह मोह ममत्व भगाता है शिव पथ में सहज लगाता है।
जय निज स्वभाव आनद धन की ।।जय बोलो ।।१।। परिणाम सरल हो जाते हैं, सारे सकट टल जाते हैं।
जय सम्यक ज्ञान परम धन की ।। जय बोलो ।।२।। जप तप सयम फल देते हैं, भव की बाधा हर लेते हैं।
जय सम्यक चारित पावन की ।। जय बोलो ।।३।। निज परिणति रूचि जुड़ जाती है, कमों की रज उड़ जाती है।
जय जय जय मोक्ष निकेतन की ।। जय बोलो ।।४।।
तो से लाग्यो नेहरे तोसे लाग्यो नेह रे त्रिशलानदन वीर कुमार । नोसे लाग्यो नेह रे, कुन्डलपुर के राजकुमार ।।तोसे ।।१।। गर्भकाल रलो की वर्षा, सोलह स्वप्न विचार ।। त्रिशला माता हुई प्रफुल्लित, घर-घर पगलाचार तोसे ।।२।। जन्म समय सुरपति सुमेरु पर, करें पुण्य अभिषेक । तप कल्याणक लौकान्तिक आ करे हर्ष अतिरेक तोमे ||३|| चार घातिया क्षय करते ही पायो केवल ज्ञान । ममवशरण मे खिरी दिव्यध्वनि, हुआ विश्व कल्याण तोसे ।।४।। पावापुर से कर्मनाश सब पाया पद निर्वाण । यही विनय है दे दो स्वामी हमको सम्यक ज्ञान तोसे ।।५।। भेदज्ञान की ज्योति जगा दो अधकार कर क्षार ।। तुम सपान में भी बन जाऊँ हो जाऊँ भव पार ।।तोसे ।।६।।
सुनी जब मैंने जिनवाणी भ्रम तम पटल चीर, दरसायो चेतन रवि ज्ञानी ॥सुनी काम क्रोध गज शिथिल भए, पीवत समरस पानी । प्रगट्यो भेद विज्ञान निजतर, निज आतम जानी ॥सुनी ॥१॥
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५ वस्वभाव की रुचि अब जागी, छोड़ी मन मानी । निज परिणित की अनुपम छवि, अब मैंने पहचानी ॥सुनी. ।।२।।
अब प्रभु चरण छोड़ कित जाऊँ ऐसी निर्मल बुद्धि प्रभु दो शुद्धातम को ध्याऊँ ।।अब. ।।१।। सुर नर पशु नारक दुख भोगे कब तक तुम्हें सुनाऊँ । बैरी मोह पहा दुख देवे कैसे याहि भगाऊं अब।।१।। सम्यक दर्शन की निधि दे दो तो भव भ्रमण पिटाऊँ। सिद्ध स्वपद की प्राप्ति करूं मै परम शान्त रस पाऊँ ।अब ।।२।। भेद ज्ञान का वेभव पाऊँ निज के ही गुण गाऊँ। तुव प्रसाद से वीताराग प्रभु भव सागर तर जाऊँ ।।अब ।।३।।
___ मैं तो परमात्म स्वरूपी हूँ। मैं तो परमात्म स्वरूपी हूँ। मै तो शुद्धात्म स्वरूपी हूँ। मै इन्द्रिय विषय कषाय रहित, पुदगल से भिन्न अरूपी हूँ ।।१।। मै पुण्य पाप रज से विहीन,पर से निरपेक्ष अनूपी हूँ। मै निष्क्ल क निर्दोष अटल, निर्मल अनत गुणभूपी हूँ ।।२।। मै परम पारिणामिक स्वभावमय केवल ज्ञान स्वरूपी हूँ।
मैं तो परमात्म स्वरूपी हूँ ।।३।।
अब तो ऋषभनाथ लौ लागी वीतराग मुद्रा दर्शन कर ज्ञानज्योति उर जागी । अब ज्ञानानदी शुद्ध स्वभावी निज परिणति अनुरागी । भव भोगन से ममता त्यागी भये नाथ बैरागी । अब ।।१।। अष्टापद कैलाश शिखर से कर्म धूल सब त्यागी । अनुपम मुख निर्वाण प्राप्ति से भव बाधा सब भागी । अब ॥२।। मेरो रोग मिटा दो स्वामी मैं अनादि को रागी । वीतरागता जागे उर मे बन जाऊँ बड़ भागी ।।अब ।।३।।
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जैन पूजान्जलि
एवं चतुर्विशति तीर्थंकर विधान
ॐ नम सिद्धेभ्य
अभिषेक पाठ
मैं परम पुज्य जिनेन्द्र प्रभु को भाव से वन्दन करूँ। मन वचन काय, त्रियोग पूर्वक शीश चरणो मे धरूँ ॥१॥ सर्वज्ञ केवलज्ञानधारी की सुछवि उर मे धरूँ। निग्रन्र्थ पावन वीतराग महान की जय उच्च ॥२॥ उज्जवल दिगम्बर वेश दर्शन कर ह्रदय आनन्द भरूं। अति विनय पूर्व नमन करके सफल यह नरभव करूँ।।३।। मै शद्ध जल के कलश प्रभु के पूज्य मस्तक पर करूँ। जल धार देकर हर्ष से अभिषेक प्रभु जी का करूँ।।४।। मैं न्हवन प्रभु का भाव से कर सकल भवपातक हरूँ। प्रभु चरणकमल पखारकर सम्यक्त्व की सम्पत्ति वरूँ ।।५।।
जिनेन्द्र-अभिषेक-स्तुति मैने प्रभु के चरण पखारे । जनम, जनम के सचित पातक तत्क्षण ही निरवारे ।।१।। प्रासुक जल के कलश श्री जिन प्रतिमा ऊपर ढारे । वीतराग अरिहत देव के गूजे, जय जयकारे ॥२॥ चरणाम्बुज स्पर्श करत ही छाये हर्ष अपारे। पावन तन, मन, नयन भये सब दूर भये अधियारे ॥३॥
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जैन पूजान्जलि कृत्रिम अकृत्रिम जिन भवन भाव सहित उर धार । मन-वच तन जो पूजते वे होते भव पार ।।
करलो जिनवर की पूजन करलो जिनवर की पूजन, आई पावन घड़ी । आई पावन घडी मन भावन घड़ी ॥१॥ दुर्लभ यह मानव तन पाकर, करलो जिन गुणगान ।। गुण अनन्त सिद्धों का सुमिरण, करके बनो महान।। करलो ॥२॥ ज्ञानावरण, दर्शनावरणी, मोहनीय अतराय । आयु नाम अरु गोत्र वेदनीय, आठों कर्म नशाय ।।करलो ॥३॥ धन्य धन्य सिद्धो की महिमा, नाश किया ससार । निजस्वभाव से शिवपद पाया, अनुपम अगम अपार।।करलो ॥४॥ जड़ से भिन्न सदा तुम चेतन करो भेद विज्ञान । सम्यक दर्शन अगीकृत कर निज को लो पहचान करलो ॥५॥ रत्नत्रय की तरणी चढकर चलो मोक्ष के द्वार । शुद्धातम का ध्यान लगाओ हो जाओ भवपार ||करलो ॥६॥
पूजा पाठिका ॐ जय जय जय नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु अरिहतो को नमस्कार है, सिद्धो को सादर वदन । आचार्यों को नमस्कार है, उपाध्याय को है वन्दन ।।१।। और लोक के सर्वसाधुओ को है विनय सहित वन्दन। पच परम परमेष्ठी प्रभु को बार बार मेरा वन्दन ॥२।। ॐ ह्री श्री अनादि मूलमत्रेभ्यो नम पुष्पाजलि क्षिपामि ।। मगल चार, चार हैं उत्तम चार शरण मे जाऊँ मै । मन वच काय नियोग पूर्वक, शुद्ध भावना भाऊँ मै ॥३।। श्री अरिहत देव मगल है, श्री सिद्ध प्रभु हैं मगल। श्री साधु मुनि मगलहैं, है केवलि कथित धर्म मंगल।। श्री अरिहत लोक मे उत्तम, सिद्ध लोक में हैं उत्तम । साधु लोक मे उत्तम हैं, है केवलि कथित धर्म उत्तम ।।४।।
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मगल विधान तीन लोक का नाथ ज्ञान सम्राट सिद्ध पद का स्वामी ।
ज्ञानानद स्वभावी ज्ञायक तू ही है अन्तर्यामी ।। श्री अरिहंत शरण मे जाऊँ सिद्ध शरण मे मैं जाऊँ । साधु शरण मे जाऊ केवलि कथित धर्मशरणा जाऊँ।।५।। ॐ ह्रीं नमो अर्हते स्वाहा पुष्पांजलि क्षिपामि ।
मंगल विधान णमोकार का मन्त्र शाश्वत इसकी महिमा अपरम्पार । पाप ताप सताप क्लेश हर्ता भवभय नाशक सुखकार ॥१॥ सर्व अमगल का हर्ता है सर्वश्रेष्ठ है मन्त्र पवित्र । पाप पुण्य आश्रव का नाशक सवरमय निर्जरा विचित्र ॥२॥ बन्ध विनाशक मोक्ष प्रकाशक वीतरागपद दाता पित्र । श्री पचपरमेष्ठी प्रभु के झलक रहे हैं इसमे चित्र ॥३॥ इसके उच्चारण से होता विषय कषायो का परिहार । इसके उच्चारण से होता अन्तर मन निर्मल अविकार ।।४।। इसके ध्यान मात्र से होता अतर द्वन्दों का प्रतिकार । इसके ध्यान मात्र से होता बाह्यान्तर आनन्द अपार ॥५।। णमोकार है मन्त्र श्रेष्ठतम सर्व पाप नाशनहारी । सर्व मंगलो में पहला मगल पढते ही सुखकारी ॥६॥ यह पवित्र अपवित्र दशा सुस्थिति दुस्थिति मे हितकारी ।। निमिष मात्र मे जपते ही होते विलीन पातक भारी ॥७॥ सर्व विघ्न बाधा नाशक है सर्व सकटो का हर्ता ।। अजर अमर अविकल अविकारी अविनाशी सुख का कर्ता ॥८॥ कर्माष्टक का चक्र मिटाता, मोक्ष लक्ष्मी का दाता । धर्मचक्र से सिद्धचक्र पाता जो ओम् नम ध्याता ।।९।। ओम् शब्द मे गर्भित पाँचों परमेष्ठी निज गुण धारी । जो भी ध्याते बन जाते परमात्मा पूर्ण ज्ञान धारी ।।१०॥ जय जय जयति पंच परमेष्ठी जय जय णमोकार जिन मन । भव बन्धन से छुटकारे का यही एक है मन्त्र स्वतत्र।।११॥
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जैन पूजान्जलि तन पर्वत पर गिरे न जब तक वन अरे यमराज का ।
तब तक कर्म नाश करने को ले शरणा जिनराज का ।। इसकी अनुपम महिमा का शब्दों से कैसे हो वर्णन । जो अनुभव करते हैं वे ही पा लेते हैं मुक्ति गगन ॥१२॥
अर्घ्य जल गधाक्षत पुष्प सुचरु ले दीप धूप फल अर्घ्य धरूँ। जिन गृह मे जिनराज पच कल्याणक पाँचोंनमन करूँ॥१॥ ॐ ह्री श्री जिनेन्द्र पच कल्याणकेयो अब निर्वपामीति स्वाहा । जल गधाक्षत पुष्प सुचरु ले दीप धूप फल अर्घ्य धरूँ। जिन गृह मे पॉचों परमेष्ठी के चरणों मे नमन करूँ।।२।। ॐ ह्रीं श्री अरहतादि पच परमेष्ठिभ्यो अर्य निर्वपामीति स्वाहा । जल गधाक्षत पुष्प सुचरु ले दीप धूप फल अर्ध्य धरूँ। जिन गृह मे जिनप्रतिमा सम्मुख सहस्त्रनाम को नमन करूँ।।३।। ॐ ही श्री भगवज्जिनसहस्त्रनामेभ्यो अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
स्वस्ति मंगल मगलमय भगवान वीर प्रभु मगलमय गौतम गणधर । मगलमय श्री कुन्दकुन्द मुनि मगल जैन धर्म सुखकर ॥१॥ मगलमय श्री ऋषभदेवप्रभु मगलमय श्री अजित जिनेश ।। मगलमय श्री सम्भव जिनवर, मगल अभिनदन परमेश ।।२।। मगलमय श्री सुमति जिनोत्तम मगल पद्मनाथ सर्वेश ।। मगलमय सुपार्श्व जिन स्वामी मगल चन्द्राप्रभु चन्द्रेश।।३।। मगलमय श्री पुष्पदत प्रभु, मगल शीतलनाथ सुरेश । मगलमय श्रेयासनाथ जिन मगल वासुपूज्य पूज्येश।।४।। मगलमय श्री विमलनाथ विभु, मगल अनन्तनाथ महेश । मगलमय श्री धर्मनाथ प्रभु, मगल शातिनाथ चक्रेश।।५।। मगलमय श्री कुन्थुनाथ जिन मगल श्री अरनाथ गुणेश ।। मगलमय श्री मल्लिनाथ प्रभु मगल मुनिसुव्रत सत्येश ॥६॥
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श्री नित्य नियम पूजन रुचि अनुयायी वीर्य काम करता है जैसी मति होती ।।
पर भावों की रुचि स्यागे तो उरमें निज परिणति होती । । मंगलमय नमिनाथ जिनेश्वर मंगल नेमिनाथ योगेश । मंगलमय श्री पार्श्वनाथ प्रभु, मगल वर्धमान तीर्थेश ॥७॥ मगलमय अरिहंत महाप्रभु, मंगल सर्व सिद्ध लोकेश । मगलमय आचार्य श्री जय मगल उपाध्याय ज्ञानेश।।८।। मगलमय श्री सर्वसाधुगण, मंगल जिनवाणी उपदेश । मगलमय सीमन्धर आदिक, विद्यमान जिन बीस परेश ।।९।। मगलमय त्रैलोक्य जिनालय, मंगल जिन प्रतिमा भव्येश । मगलमय त्रिकाल चौबीसी, मगल समवशरण सविशेष ।।१०।। मगल पचमेरु जिन मन्दिर, मगल नन्दीश्वर द्वीपेश । मंगल सोलह कारण दशलक्षण, रत्नत्रय व्रत भव्येशा॥११॥ मंगल सहस्त्र कूट चैत्यालय मगल मानस्तम्भ हमेश । मगलमय केवलि श्रुतकेवलि मगल ऋद्धिधारि विद्येश ।।१२।। पगलमय पाँचों कल्याणक, मगल जिन शासन उद्देश । मगलमय निर्वाण भूमि, मगलमय अतिशय क्षेत्र विशेष।।१३।। सर्व सिद्धि मगल के दाता हरो अमगल हे विश्वेश । जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊँ तब तक पूर्जे हे ब्रह्मेश ।।१४।।
श्री नित्य नियम पूजन जय जय देव शास्त्र गुरु तीनो, मगलदाता प्रभु वन्दन । पच परम परमेष्ठी प्रभु के चरणो को मैं करूँ नमन ।। विद्यमान 'तीर्थंकर बीस विदेह क्षेत्र के करूँ नमन । तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालय को वदन ।। परमोत्कृष्ट अनत गुण सहित सर्व सिद्ध प्रभु को वन्दन । वृषभादिक श्री वीर जिनेश्वर तीर्थंकर सब करूँ नमन ।। निज भावों की अष्ट द्रव्य ले सविनय नाथ करूँ पूजन । श्रद्धा पूर्वक भक्तिभाव से करता हूँ जिनपद अर्चन ॥ ॐ ह्रीं श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु पुष्पाजलि क्षिपामि ।
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जैन पूजान्जलि बाहा विषय तो मृग जलवत है उनमें स्त्रोत न शान्ति का ।
अन्तर्नभ में क्यों छाया है बादल मिथ्या प्रान्ति का ।। अनन्तानुबधी कषाय का नाश करूँ दो यह आशीष । मोहरूप मिथ्यात्व नष्ट कर दूं मैं समकित जल से ईश ।। देव शास्त्र गुरु पाँचो परमेष्ठी प्रभु विद्यमान जिन बीस । कृत्रिम अकृत्रिम जिनगृह वन्दू सर्व सिद्ध जिनवर चौबीस ।।१।। ॐ ह्रीं श्री सर्वजिनचरणोगेषु जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । अप्रत्यख्यानावरणी कषाय का नाश करूँ तत्काल । अविरति हर अणुव्रत लें समकित चदन से चमके निज भालादेव ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । मैं कषाय प्रत्यख्यानावरणी हर करूँ प्रमाद अभाव । पच महाव्रत ले समकित अक्षत से पाऊँशुद्ध स्वभाव ।।देव ॥३॥ ॐ हीं श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । प्रभु कषाय सज्वलन नाश कर पाऊँ मैं निज मे विश्राम । समकित पुष्प खिले अन्तर मे मैं अरहत बनें निष्काम ।।४।। ॐ ह्रीं श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । पाप पुण्य शुभ अशुभ आश्रव का निरोध करतू सवर । समकित चरु से कर्म निर्जराकर मैं बध हरूँ सत्वर देव ।।५।। ॐ ह्री श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु सुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । राग द्वेष सबका अभाव कर नो कषाय का करूँविनाश। सम्यकज्ञान दीप से स्वामी पाऊँ केवलज्ञान प्रकाश देव ।।६।। ॐ ह्री श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि ।। ज्ञानावरणादिक आठो कमों का नाश करूँ भगवन्त । समकित धूपसुवासित हो उर भवसागर का कर दूं अन्त ।।देव ॥७॥ ॐ ही श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु अनर्घ्य पद प्राप्ताय अयं नि । गुणस्थान चौदहवों पाकर योग अभाव करूँ स्वामी । समकित का फल महामोक्ष पद पाऊँ हे अन्तर्यामी देव. ॥८॥ ॐही श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु महामोक्ष फल प्राप्ताय फल नि ।
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श्री नित्य नियम पूजन निज परिणति को किया बहिष्कृत तूने अपनी भूल से ।
पर परिणति से राग कर रहा खेल रहा है धूल से । । बन्ध हेतु मिथ्यात्व असयम और प्रमाद कषाय त्रियोग। समकित का अयं सजा अन्तर मे पाऊँपद अनर्घ अवियोग ।।देव ।।९।। ॐ ही श्री सीजनचरणाग्रेषु अनर्थ्य पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला जिनवर पद पूजन करूँनित्य नियम से नाथ ।
शुद्धातम से प्रीत कर मै भी बन सनाथ ॥१॥ तीन लोक के सारे प्राणी हैं कषाय आतप से तप्त ।। इन्द्रिय विषय रोग से मूर्छित भव सागर दुख से सतप्त ।।२।। इष्ट वियोग अनिष्ट योग से खेद खिन्न जग के प्राणी । उनको है सम्यक्त्व परम हितकारी औषधि सुखदानी ॥३॥ सर्व दुखो की परमौषधि पीते ही होता रोग विनष्ट । भवनाशक जिन धर्म शरण पाते ही मिट जाना भवकष्ट।।४।। है मिथ्यात्व असयम और कषाय पाप की क्रिया विचित्र । पाप क्रियाओ से निवृत्त हो तो होता सम्यक्चारित्र ॥५॥ घाति कर्म बन्धन करने वाली शुभ अशुभ क्रिया सब पाप । महा पाप मिथ्यात्व सदा ही देता है भव भव सताप । इसके नष्ट हुए बिन होता दर असयम कभी नहीं । इसके सम दुखकारी जग मे और पाप है कहीं नहीं ॥७॥ मुनिव्रत धारण कर ग्रैवेयक मे अहमिन्द्र हुआ बहुबार। सम्यकदर्शन बिन भटका प्रभु पाए जग मे दुक्ख अपार ।।८।। क्रोधादिक कषाय अनुरजित हो भवसागर मे डूबा । साता के चक्कर में पड़कर नहीं असाता से ऊबा ।।९।। पाप पुण्य दुखमयी जानकर यदि मैं शुद्ध दृष्टि होता । नष्ट विभाव भाव कर लेता यदि में द्रव्य दृष्टि होता ॥१०॥ मिथ्यातम के गए बिना प्रभु नहीं असयम जाता है । जप तप व्रत पूजन अर्चन से जिय सम्यक्त्व न पाता है ॥११॥
॥६
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जैन पूजान्जलि तू विभाव के तरुओ की छाया में कब तक सोएगा ।
अप तप व्रत का श्रम करके भी बीज दुखों के बोएगा ।। इसीलिए मैं शरण आपकी आया हूँ जिन देव महान । सम्यकदर्शन मुझे प्राप्त हो, पाऊँस्वपर भेद विज्ञान ।।१२।। नित्य नियम पूजन करके प्रभु निजस्वरुप का ज्ञान करूँ। पर्यायो से दृष्टि हटा, बन द्रव्य दृष्टि निज ध्यान धरूँ ॥१३॥ ॐ ह्री श्री सर्वजिनचरणाग्रेषु पूर्णाय॑ नि स्वाहा ।।
नित्य नियम पूजन करूँजिनवर पद उर धार । आत्म ज्ञान की शक्ति से हो जाऊँभव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्य मन्त्र - ॐ ह्री श्री सर्वजिनेन्द्रेभ्यो नम ।
श्री देवशास्त्रगुरु जिन पूजन वीतराग अरिहत देव के पावन चरणो मे बन्दन । द्वादशाग श्रुत श्री जिनवाणी जग कल्याणी का अर्चन ।। द्रव्य भाव सयममय मुनिवर श्री गुरु को मैं करूँ नमन । देव शास्त्र गुरु के चरणो का बारम्बार करूँ पूजन ॥ ॐ ही श्री देव शास्त्र समूह अत्र अवतर अवतर सवौषट्, ॐ ही श्री देव शास्त्र गुरु समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ह्री श्री देव शास्त्र गुरु समूह अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । आवरण ज्ञान पर मेरे है, हे जन्म मरण से सदा दखी । जब तक मिथ्यात्व हृदय मे है यह चेतन होगा नही सुखी ।। ज्ञानावरणी के नाश हेतु चरणो मे जल करता अर्पण । देव शास्त्र गुरु के चरणो का बारम्बार करूँ पूजन ॥१॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो ज्ञानावरणकर्मविनाशनाय जल नि । दर्शन पर जब तक छाया है ससार ताप तब तक ही है । जब तक तत्त्वो का ज्ञान नहीं मिथ्यात्व पाप तबतक ही है ।। सम्यक श्रद्धा के चदन से मिट जायेगा दर्शनावरण देव. ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो दर्शनावरणकर्म विनाशनाय चन्दन नि ।
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श्री देवशास्त्रगुरु जिन पूजन जब सम्यक्त्व पल्लवित होता तो पविवृता आती हैं ।
ज्ञानांकुर की कार्य प्रणाली में विचित्रता आती है ।। निज स्वभाव चैतन्य प्राप्ति हित जागे उर में अन्तरबल । अव्याबाधित सुख का घाता वेदनीय है कर्म प्रबल ।। अक्षत चरण चढाकर प्रभुवर वेदनीय का करूँदमन देव ॥३॥ ॐ ही श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो वेदनीयकर्म विनाशनाय अक्षत नि । मोहनीय के कारण यह चेतन अनादि से भटक रहा । निज स्वभाव तज पर द्रव्यो की ममता मे ही अटक रहा । भेदभाव की खड़ग उठाकर मोहनीय का करूँ हनन देव ।।४।। ॐ ह्री श्री देव शास्त्रगुरुभ्यो मोहनीय कर्म विनाशनाय पुष्प नि । आयु कर्म के बध उदय मे सदा उलझता आया हूँ। चारो गतियो मे डोला हूँ निज को जान न पाया हूँ । अजरअमर अविनाशी पदहित आयुकर्म का करूँशमन ।।देव ॥५॥ ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरुभ्यो आयुकर्म विनाशनाय नैवेद्य नि । नाम कर्म के कारण मैंने जैसा भी शरीर पाया । उस शरीर को अपना समझा निज चेतन को विसराया । ज्ञानदीप के चिर प्रकाश से नामकर्म का करूँ दमन देव ।।६।। ॐ ही श्री देवशास्त्र गुरुभ्यो नामकर्म विनाशनाय दीप नि । उच्च नीच कुल मिला बहुत पर निजकल जान नहीं पाया । शुद्ध बुद्ध चैतन्य निरजन सिद्ध स्वरुप न उर भाया ।। गोत्र कर्म का धूम उडाऊनिज परिणति मे करूँनमन देिव ।७।। ॐ ह्री श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो गोत्र कर्म विनाशनाय धूप नि । दान लाभ भोगोपभोग बल मिलने मे जो बाधक है । अन्तराय के सर्वनाश का आत्मज्ञान ही साधक है । दर्शन ज्ञान अनन्त वीर्य सुख पाऊँ निज आराधक बना देव ॥८॥ ॐ ही श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो अन्तराय कर्म विनाशनाय फल नि । कमोदय मे मोह रोष से करता है शुभ अशुभ विभाव । पर मे इष्ट अनिष्ट कल्पना राग द्वेष विकारी भाव ॥ भाव कर्म करता जाता है जीव भूल निज आत्मस्वभाव । द्रव्य कर्म बधते है तत्क्षण शाश्वत सुख का करे अभाव ॥
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जैन पूजान्जलि आत्म क्षितिज की प्राची में सम्यक् दर्शन का सूर्य महान |
जिसे प्रगट करने में तू सक्षम चैतन्य नाथ भगवान ।। चार घातिया चउ अघातिया अष्ट कर्म का करूँ हननादेव.।।९।। ॐ ह्री श्री देव शास्त्र गुरुभ्यो सम्पूर्ण अष्टकर्म विनाशनाय अर्घ्य नि ।
जयमाला हे जगबन्धु जिनेश्वर तुमको अब तक कभी नहीं ध्याया । श्री जिनवाणी बहुत सुनी पर कभी नहीं श्रद्धा लाया ।।१।। परम वीतरागी सन्तो का भी उपदेश न मन भाया । नरक तिर्यंच देव नरगति मे भ्रमण किया बहु दुख पाया ॥२॥ पाप पुण्य मे लीन हुआ निज शुद्ध भाव को बिसराया । इसीलिये प्रभुवर अनादि से भव अटवी मे भरमाया।।३।। आज तुम्हारे दर्शन कर प्रभु मैने निज दर्शन पाया । परम शुद्ध चैतन्य ज्ञानघन का बहुमान ह्रदय आया ।।४।। दो आशीष मुझे हे जिनवर जिनवाणी गुरुदेव महान । मोह महातम शीघ्र नष्ट हो जाये करूँ आत्म कल्याण ।।५।। स्वपर विवेक जगे अन्तर में दो सम्यक श्रद्धा का दान । क्षायक हो उपशम हो हे प्रभु क्षयोपशम सद्दर्शन ज्ञान ।।६।। सात तत्व पर श्रद्धा करके देव शास्त्र गुरु को मार्ने । निज पर भेद जानकर केवल निज मे ही प्रतीत ठानूं ॥७॥ पर द्रव्यो से मै ममत्व तज आत्म द्रव्य को पहचानें । आत्म द्रव्य को इस शरीर से पृथक भिन्न निर्मल जानें ।।८।। समकित रवि की किरणे मेरे उर अन्तर मे करे प्रकाश । सम्यकज्ञान प्राप्तकर स्वामी पर भावो का करूं विनाश ।।९।। सम्यकचारित को धारण कर निज स्वरुप का करूँविकास । रत्नत्रय के अवलम्बन से मिले मुक्ति निर्वाण निवास ।।१०।। जय जय जय अरहन्त देव जय, जिनवाणी जग कल्याणी । जय निर्ग्रन्थ महान सुगुरु जय जय शाश्वत शिवसुखदानी ।।११।। ॐ हीं श्री देवशास्त्र गुरुभ्यो अनर्ण्य पद प्राप्तये पूर्णाय नि स्वाहा ।
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श्री विद्यमान बीसतीर्थकर पूजन अरे विकल्पातीत अवस्था निर्विकल्प होकर पाले । निज अतर में भीतर जाकर पूर्ण अतीन्द्रिय सुख पाले ।। देव शास्त्र गुरु के वचन भाव सहित उरधार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्य मत्र-ॐ हो श्री देवशास्त्र गुरुम्यो नम
श्री विद्यमान बीसतीर्थकर पूजन सीमथर, युगमधर, बाहु, सुबाहु, सुजात स्वयप्रभु देव । ऋषभानन, अनन्तवीर्य, सौरीप्रभु विशाल कोर्ति सुदेव ।। श्री वज्रधर, चन्द्रानन प्रभु चन्द्रबाहु, भुजगम ईश । जयति ईश्वर जयतिनेम प्रभु वीरसेन महाभद्र महोश ।। पूज्य देवयश अजितवीर्य जिन बीस जिनेश्वर परम महान । विचरण करते है विदेह मे शाश्वत तीर्थंकर भगवान ।। नहीं शक्ति जाने की स्वामी यहीं वन्दना करूँ प्रभो । स्तुति पूजन अर्चन करके शुद्ध भाव उर भरूं प्रभो ।। ॐ ही श्री विदेहक्षेत्रस्थित विद्यमानबीसतीर्थंकर जिन समूह अत्र अवतर अवतर सवौषट ॐ ह्री श्री विदेहक्षेत्रस्थित विद्यमानबीसतीर्थकर जिन समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ॐ ह्री श्री विदेहक्षेत्रस्थित विद्यमान बीसतीर्थकर जिन समूह अत्र मम अनिहितो भव भव वषट् । निर्मल सरिता का प्रासुक जल लेकर चरणो मे आऊँ। जन्म जरादिक क्षय करने को श्री जिनवर के गुण गाऊँ ।। सीमधर, युगमधर आदिक, अजितवीर्य को नित ध्याऊँ। विद्यमान बीसों तीर्थंकर की पूजन कर हर्षाऊँ।।१।। ॐ ही श्री विद्यमानबीसतीर्थकराय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि । शीतल चन्दन दाह निकन्दन लेकर चरणो मे आऊँ। भव सन्ताप दाह हरने को श्री जिनवर के गुण गाऊँ ।सीम ।।२।। ॐ ही श्री विद्यमान बीसतीर्थकराय भवताप विनाशनाय चदन नि । स्वच्छ अखण्डित उज्जवल तदुल लेकर चरणो मे आऊँ। अनुपम अक्षय पद पाने को श्री जिनवर के गुण गाऊँ ।।सीम.॥३॥
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जैन पूजान्जलि पुण्यमयी शुभ पावों से होता है देव आयु का बष ।
मिश्रित भाव शुभाशुभ से होता है मनुज आयु का बष ।। ॐ ह्री श्री विद्यमान बीसतीर्थकराम अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं नि. । शुभ शील के पुष्प मनोहर लेकर चरणो मे आऊँ। काम शत्रु का दर्प नशाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ । सीमं ।।४।। ॐ ह्रीं श्री विद्यमान बीसतीर्थकराय कामबाण विध्वंसनाय पुष्प नि । परम शुद्ध नैवेद्य भाव उर लेकर चरणों मे आऊँ। क्षुधा रोग का मूल मिटाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ सीमं ।।५।। ॐ ह्रीं श्री विद्यमान बीसतीर्थकराय भुधारोगविनाशनाय नैवेचं नि । जगमग अंतर दीप प्रज्ज्वलित लेकर चरणों में आऊँ। मोह तिमिर अज्ञान हटाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ सीम. ।।६।। ॐ ह्री श्री विद्यमान बीसतीर्थकराय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि कर्म प्रकृतियों का ईधन अब लेकर चरणो मे आऊँ। ध्यान अग्नि मे इसे जलाने श्री जिनवर के गुण गाऊँ।सीम।।७।।
ॐ ही श्री विद्यमान बीसतीर्थकराय अष्टकर्म दहनाय धूप नि । निर्मल सरस विशद्ध भाव फल लेकर चरणो मे आऊँ। परममोक्ष फल शिवसुख पाने श्रीजिनवर के गुण गाऊँ ।।सीम ।।८।। ॐ ही श्री विद्यमान बीसतीर्थकराय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । अर्घ पुज वैराग्य भाव का लेकर चरणो मे आऊँ। निज अनर्घ पदवी पाने को श्री जिनवर के गण गाऊँ।सीम ।।९।। ॐ ह्री श्री विद्यमान बीसतीर्थकराय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला मध्य लोक मे असख्यात सागर अरु असख्यात है द्वीप। जम्बूद्वीप धातकीखण्ड अरु पुष्करार्ध यह ढाई द्वीप ।।१।। ढाई द्वीप मे पचमेरु हैं तीनो लोको मे अति विख्यात। मेरु सुदर्शन, विजय, अचल, मदर विद्युन्माली विख्यात ।।२।। एक एक मे हैं बत्तीस विदेह क्षेत्र अतिशय सुन्दर। एक शतक अरु साठ क्षेत्र है, चौथा काल जहाँ सुखकर ॥३॥
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श्री विद्यमान बीसतीर्थकर पूजन निश्चय रत्नत्रय के बिन तो कभी न होगा मोश त्रिकाल ।
केवल शुद्ध भाव से ही तो होगा पूर्ण अबंध निहाल ।। पांच भरत अरु पंच ऐरावत कर्मभूमियों दस गिनकर। एक साथ हो सकते है तीर्थकर एक शतक सत्तर ॥४॥ किन्तु न्यूनतम बीस तीर्थंकर विदेह में होते हैं । सदा शाश्वत विद्यमान सर्वज्ञ जिनेश्वर होते हैं ।।५।। एक मेरु के चार विदेहों मे रहते तीर्थकर चार । बीस विदेहों मे तीर्थकर बीस सदा ही मगलकार ॥६॥ कोटि पूर्व की आयु पूर्ण कर होते पूर्ण सिद्ध भगवान । तभी दूसरे इसी नाम के होते हैं अरहर महान ।।७।। श्री जिनदेव महा मंगलमय वीतराग सर्वज्ञ प्रधान । भक्ति भाव से पूजन करके मैं चाहूँ अपना कल्याण ॥८॥ विरहमान श्री बीस जिनेश्वर भाव सहित गुणगान करूँ। जो विदेह मे विद्यमान हैं उनका जय जय गान करूँ ॥९॥ सीमन्धर को वन्दन करके मै अनादि मिथ्यात्व हरूँ। जुगमन्दर की पूजन करके समकित अगीकार करूँ॥१०॥ श्री बाहु को सुमिरण करके अविरत हर व्रत ग्रहण करूँ। श्री सुबाहु पद अर्चन करके तेरह विधि चारित्र धरूँ ॥११॥ प्रभु सुजात के चरण पूजकर पच प्रमाद अभाव करूँ। देव स्वयप्रभ को प्रणाम कर दुखमय सर्व विभाव हरूँ।।१२।। ऋषभानन की स्तुति करके योग कषाय निवृत्ति करूँ। पूज्य अनन्तवीर्य पद वन्, पथ निर्ग्रन्थ प्रवृत्ति करूँ।।१३।। देव सौरप्रभ चरणाम्बुज दर्शन कर पाँचो बन्ध हरूँ। परम विशालकीर्ति की जय हो निज को पूर्ण अबध करूँ।।१४।। श्री वज्रधर सर्व दोष हर सब संकल्प विकल्प हरूँ। चन्द्रानन के चरण चित्त घर निर्विकल्पता प्राप्त करूँ ॥१५॥ चन्द्रबाहु को नमस्कार कर पाप पुण्य सब नाश करूँ। श्री भुजग पद मस्तक धर कर निज चिद्रूप प्रकाश करूँ ॥१६॥
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जैन पूजान्जलि अब व्यवहार दृष्टि को तज दे दृष्टि त्याग सयोगाधीन ।
दृष्टि निमित्ताधीन छोड़ दे हो जा निश्चय दृष्टि प्रवीण ।। ईश्वर प्रभु की महिमा गाऊ आत्म द्रव्य का भान भरूँ। श्री नेमि प्रभु के चरणों मे चिदानन्द का ध्यान धरूँ॥१७॥ वीरसेन के पद कमलों मे उर चचलता दूर करूँ। महाभद्र की भव्य सुछवि लख कर्मघातिया चूर करूँ ॥१८॥ श्री देवयश सुयश गान कर शुद्ध भावना हृदय धरूँ। अजितवीर्य का ध्यान लगाकर गुरा अनन्त निज प्रगट करूँ।।१९।। बीस जिनेश्वर समवशरण लख मोहमयी ससार हरूँ निज स्वभाव साधन के द्वारा शीघ्र भवार्णव पार करूँ।।२०।। स्वगुण अनन्त चतुष्टय धारी वीतराग को नमन करूँ। सकल सिद्ध मगल के दाता पूर्ण अर्घ के सुमन धरूँ।।२१।। ॐ ह्री श्री विद्यमान बीस तीर्थकरेभ्यो पूर्णायँ नि । जो विदेह के बीस जिनेश्वर की महिमा उर मे धरते । भाव सहित प्रभु पूजन करते मोक्ष लक्ष्मी को वरते ।।
इत्याशीर्वाद जाप्य मन्त्र-ॐ ह्री श्री विद्यमान बीस तीर्थकरेभ्यो नम ।
श्री सिद्ध पूजन हे सिद्ध तुम्हारे वन्दन से उर मे निर्मलता आती है । भव भव के पातक कटते है पुण्यावलि शीश झुकाती है ।। तुम गुण चिन्तन से सहज देव होता स्वभाव का भान मुझे । है सिद्ध समान स्वपद मेरा हो जाता निर्मल ज्ञान मुझे ॥ इसलिए नाथ पूजन करता, कब तुम समान में बन जाऊँ। जिस पथ पर चल तुम सिद्ध हुए, मै भी चल सिद्ध स्वपदपाऊँ ।। ज्ञानावरणादिक अष्टकर्म को नष्ट करूँ ऐसा बल दो । निज अष्ट स्वगुण प्रगटे मुझमे, सम्यक पूजन का यह फल हो । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर सवौषट, ॐ ही णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिन् अत्र मम् सनिहितो भव भव वषट् ।
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श्री सिद्ध पूजन निश्चयनय के आश्रय से जो जीव प्रर्वतन करते हैं ।
वे ही कमों का क्षय करके भव बंधन को हरते हैं ।। कर्म मलिन हू जन्म जरा मृतु को कैसे कर पाऊँ क्षय । निर्मल आत्म ज्ञान जल दो प्रभु जन्म मृत्यु पर पाऊँजय ।। अजर, अमर, अविकल, अविकारी, अविनाशी अनत गुणधाम। नित्य निरजन भव दुख भजन ज्ञानस्वभावी सिद्ध प्रणाम ॥१॥ ॐ ह्री णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि । शीतल चदन ताप मिटाता, किन्तु नहीं मिटता भव ताप । निजस्वभाव का चदन दो प्रभु मिटे राग का सब सताप। अजर ॥२॥
ही णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिने संसारताप विनाशनाय चदन नि । उलझा हू ससार चक्र मे कैसे इससे हो उद्धार । अक्षय तन्दुल रत्नत्रय दो हो जाऊँभव सागर पार ।।अजर।।३।। ॐ ह्री णमो सिद्धाण मिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । काम व्यथा से मै घायल ह कैसे करु काम मद नाश । विमलदृष्टि दो ज्ञानपुष्प दो कामभाव हो पूर्ण विनाश।।अजर ||४|| ॐ ह्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने कामबाणविध्वसनाय पुष्प नि । क्षुधा रोग के कारण मेरा तप्त नहीं हो पाया मन । शुद्ध भाव नैवेद्य मुझे दो सफल करूँप्रभु यह जीवन ॥अजर ॥५॥ ॐ ही णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । मोह रूप मिथ्यात्व महातम अन्तर मे छाया घनघोर । ज्ञानद्वीप प्रज्वलित करो प्रभुप्रकटे समकितरवि का भोर ॥अजर ।।६।। ॐ ही णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । कर्म शत्रु निज सुख के पाता इनको कैसे नष्ट करूं। शुद्ध धूप दो ध्यान अग्नि मे इन्हे जला भवकष्ट हरूँ ।।अजर. ।।७।। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्म विध्वशनाय धूप नि । निज चैतन्य स्वरूप न जाना कैसे निज में आऊँगा । भेद ज्ञान फल दो हे स्वामी स्वय मोक्षफल पा ॥अजर ॥८॥ ॐ हीं णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने महामोक्षफल प्राप्तये फल नि ।
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१E
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जैन पूजान्जलि पुण्यभाव से ही हित होगा जिनकी है मान्यता सदा ।
वे ससार भाव में रत रह मुक्त न होंगे अरे कदा । । अष्ट द्रव्य का अर्थ चढाऊँ अष्टकर्म का हो सहार । निज अनर्घ पद पाऊँभगवन् सादि अनत परमसुखकार ।।अजर ।।९।। ॐ ही णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिने अनर्षपद प्राप्तये अयं नि ।
जयमाला मुक्तिकन्त भगवन्त सिद्ध को मनवच काया सहित प्रणाम । अर्ध चन्द्र सम सिद्ध शिला पर आप विराजे आठो याम ।।१।। ज्ञानावरण दर्शनावरणी, मोहनीय अन्तराय मिटा । चार घातिया नष्ट हुए तो फिर अरहन्त रूप प्रगटा ।।२।। वेदनीय अरु आयु नाम अरु गोत्र कर्म का नाश किया ।। चऊ अघातिया नाश किये तो स्वय स्वरूप प्रकाश किया ।।३।। अष्टकर्म पर विजय प्राप्त कर अष्ट स्वगुण तुमने पाये । जन्म मृत्यु का नाश किया निज सिद्ध स्वरूप स्वगुण भाये।।४।। निज स्वभाव मे लीन विमल चैतन्य स्वरुप अरूपी हो । पूर्ण ज्ञान हो पूर्ण सुखी हो पूर्ण बली चिद्रूपी हो।।५।। वीतराग हो सर्व हितैषी राग द्वेष का नाम नहीं । चिदानन्द चैतन्य स्वभावी कृतकृत्य कुछ काम नहीं।।६।। स्वय सिद्ध हो स्वय बुद्ध हो स्वय श्रेष्ठ समकित आगार । गुण अनन्त दर्शन के स्वामी तुम अनत गुण के भडार ॥७॥ तुम अनन्त बल के हो धारी ज्ञान अनन्तानन्त अपार । बाधा रहित सूक्ष्म हो भगवन् अगुरुलघु अवगाह उदार ।।८।। सिद्ध स्वगुण के वर्णन तक की मुझ मे प्रभुवर शक्ति नहीं । चलू तुम्हारा पथ पर स्वामी ऐसी भी तो भक्ति नहीं ॥९॥ देव तुम्हारी पूजन करके हृदय कमल मुस्काया है। भक्ति भाव उर मे जागा है मेरा मन हर्षाया है ॥१०॥ तुम गुण का चिन्तवन करे जो स्वयं सिद्ध बन जाता है। हो निजात्म में लीन दुखों से छुटकारा पा जाता है।।११।।
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श्री सीमा पूजन तु विभाव में ही तन्मय है बस कमवत को छोड़ ।
निय चैतन्य तत्व की निर्मला से है अब नाक मोड़ ।। अविनश्वर अविकारी सुखमय सिद्ध स्वरूप विपल पेश । मुझमें है मुझसे ही प्रगटेगा स्वरूप अविकल पेस ॥१२॥ ॐ ही गमो सिमा सिर परमेष्टिने पूर्ण मि. स्वाहा । शुद्ध स्वधावी आत्मा निश्चय सिद्ध स्वरूप । गुण अनन्तयुत ज्ञानमय है त्रिकाल शिवभूप ।
इत्याशीर्वादः जाप्यमंत्र-ॐ ह्रीं श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो नमः
श्री सीमंधर पूजन जय जयति जय श्रेयांश नप सुत सत्यदेवी नन्दनम् । चऊ घाति कर्म विनष्ट कर्ता ज्ञान सूर्य निरन्जनम् ।। जय जय विदेहीनाथ जय जय धन्य प्रभु सीमन्धरम् । सर्वज्ञ केवलज्ञानधारी जयति जिन तीर्थकरम् ॥ ॐ ही श्री सीमन्धर जिन अत्र अवतर अवतर संवौषट् ॐ ह्रीं श्री सीपन्धर जिन अत्र तिष्ठ तिष्ठ । *ही श्री सोमन्धर बिन अब मम् सनिहितो भव भव वषट् । यह जन्म मरण का रोग, हे प्रभु नाश करूँ। दो सम रस निर्मल नीर, आत्म प्रकाश करूं।। शाश्वत जिनवर भगवन्त, सीमन्धर स्वामी । सर्वज्ञ देव अरहंत, प्रभु अन्तरयामी । ॐ ही श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं नि । चन्दन हरता तन ताप, तुम भव ताप हरो । निज समशीतल हे नाथ मुझको आप करो शाश्वत.॥२॥ ॐही मी सोमन्धर जिनेन्द्राय संसारताप विनासनाव बदन नि । इस भव समुद्र से नाथ, मुझको पार करो। अक्षय पद दे जिनराज, अब उद्धार करो शाश्वत.॥३॥
श्री सीमन्मर जिनेन्द्राय अवयपद प्रापा मम नि ।
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१८
जैन पूजान्जलि ___धन वैभव तो चलती फिरती छाया है पर वस्तु है ।
उसका गुण पर्याय द्रव्य सब जड है तुझे अवस्तु है ।। कन्दर्प दर्प हो चूर, शील स्वभाव जगे । भवसागर के उस पार, मेरी नाव लगे शाश्वत ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्प नि । यह क्षुधा ज्वाल विकराल, हे प्रभु शांत करूँ। चरु चरण चढाऊँ देव मिथ्या भ्रांति हरूँ शाश्वत ।।५।। ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । मद मोह कुटिल विष रूप, छाया अधियारा । दो सम्यकज्ञान प्रकाश, फैले उजियारा ॥शाश्वत ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि । कर्मों की शक्ति विनष्ट, अब प्रभुवर कर दो । मैं धूप चढाऊँ नाथ, भव बाधा हर दो शाश्वत ।।७।। ॐ हौ श्री सीमघर जिनेन्द्राय अष्टकर्म विनाशनाय धूम नि । फल चरण चढाऊँ नाथ, फल निर्वाण मिले । अन्तर मे केवलज्ञान, सूर्य महान खिले शाश्वत ॥८॥ ॐ ह्री श्री सीमधर जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । जब तक अनर्घ पद प्राप्त, हो न मुझे सत्वर । मैं अर्घ चढाऊँ नित्य, चरणों में प्रभुवर ।।शाश्वत ।।९।। *ही श्री सीमंधर जिनेन्द्राय अनर्घ्यपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री कल्याणक अर्ध्यावलि जम्बू द्वीप सुमेरु सुदर्शन पूर्व दिशा में क्षेत्र विदेह । देश पुष्कलावती राजधानी है पुण्डरीकिणी गेह ।। रानी सत्यवती माता के उर में स्वर्ग त्याग आये । सोलह स्वप्न लखे माता ने रल सरो ने वर्षाये ॥१॥ ॐ हीं गर्भमंगलमण्डिताय श्री सीमंधर जिनेन्द्राय अयं नि नृप श्रेयांसराय के गृह में तुमने स्वामी जन्म लिया । इन्द्रसरो ने जन्ममहोत्सव कर निज जीवन धन्य किया ।
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श्री सीमेवर पूजन मागम के मभ्यास पूर्वक प्रवाहान चरित्र संवार ।
निज में ही सकल भाव लाकर अपना रूप निहार ॥ गिरि सुमेरु पर पांडुक बन में रत्नशिला सुविराजित कर । क्षीरोदधि से न्हवन किया प्रम दशदिशा अनुरंजित कर IR॥
ही जन्ममगलमण्डिताय श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अब नि ।। एक दिवस नभ में देखे बादल क्षणभर में हुए विलीन । बस अनित्य संसार जान वैराग्य भाव में हुए सलीन ।। लौकान्तिक देवर्षि सुरों ने आकर जय जयकार किया । अतुलित वैभव त्याग आपने वन में जा तप धार लिया ॥३॥ ॐ ही तपोमगल मण्डिताय श्री सीमन्धर जिनेन्द्राय अब नि । आत्म ध्यानमय शुक्ल ध्यान घर कर्मघातिया नाश किया ।
सठ कर्म प्रकृतियाँ नाशी केवलज्ञान प्रकाश लिया । समवशरण मे गध कुटी में अन्तरीक्ष प्रभु रहे विराज । मोक्षमार्ग सन्देश दे रहे भव्य प्राणियों को • जिनराज ।।५।। ॐ ही श्री केवलज्ञान मण्डिताय श्री सीमन्धरजिनेन्द्राय अयं नि ।
जयमाला शाश्वत विद्यमान तीर्थकर सीमन्धर प्रभु दया निधान । दे उपदेश भव्य जीवों को करते सदा आप कल्याण ॥१॥ कोटि पूर्व की आयु पाँच सौ धनुष स्वर्ण सम काया है। सकल ज्ञेय ज्ञाता होकर भी निज स्वरुप ही भाया है ॥२॥ देव तुम्हारे दर्शन पाकर जागा है उर मे उल्लास । चरण कमल में नाथ शरण दो सुनो प्रभो मेरा इतिहास ॥३॥ मैं अनादि से था निगोद में प्रति पल जन्म मरण पाया । अग्नि, भूमि, जल, वायु, वनस्पति कायक थावर तन पाया ॥४॥ दो इन्दिय स हुआ भाग्य से पार न कष्टों कर पाया । जन्म तीन इन्द्रिय भी धारा दुख का अन्त नहीं आया ॥५॥ चौ इन्द्रियधारी बनकर मैं विकलत्रय में भरमाया । पंचेन्द्रिय पश सैनी और असैनी हो बहु दुख पाया ।।६।।
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वस्तु स्वभाव कभी न पलटता गुण अभाव होता न कमी ।
है विकार पर्याय मात्र में वस्तु विकार सहित न कमी ।। बड़े भाग्य से प्रबल पुण्य से फिर मानव पर्याय मिली । मोह महामद के कारण ही नहीं ज्ञान की कली खिली ।।७।। अशुभ पाप आश्रव के रा नर्क आयु का बन्ध गहा । नारकीय बन नरकों में रह ऊष्ण शीत दुख द्वन्द सहा ॥ शुभ पुण्याश्रव के कारण मैं स्वर्ग लोक तक हो आया । ग्रेवेयक तक गया किन्तु शाश्वत सुख चैन नहीं पाया ।९॥ देख दूसरों के वैभव को आर्त रौद्र परिणाम किया । देव आयु क्षय होने पर एकेन्द्रिय तक में जन्म लिया ॥१०॥ इस प्रकार घर धर अनन्त भव चारों गतियों में भटका । तीव्र मोह मिथ्यात्व पाप के कारण इस जग में अटका ।।११।। महापुण्य के शुभ संयोग से फिर यह तन मन पाया है । देव आपके चरणों को पाकर यह मन हर्षाया है॥१२॥ जनम जनम तक भक्ति तुम्हारी रहे हृदय में है जिनदेव । वीतराग सम्यक पथ पर चल पाऊँ सिद्ध स्वपद स्वयंमेव ॥१३॥ भरत क्षेत्र से कुन्द कुन्द मुनि ने विदेह को किया प्रयाण । प्रभो तुम्हारा समवशरण मे दर्शन कर हो गये महान ॥१४॥ आठ दिवस चरणो मे रहकर ओकार ध्वनि सुनी प्रधान । भरत क्षेत्र मे लौटे मुनिवर सुनकर वीतराग विज्ञान ॥१५॥ करुणा जागी जीवों के प्रति रचा शास्त्र श्री प्रवचनसार । समयसार पचास्तिकाय भूत नियमसार प्राभूत सुखकार ॥१६॥ रचे देव चौरासी पाहुड़ प्रभु वाणी का ले आधार । निश्चयनय भूतार्थ बताया अभूतार्थ सारा व्यवहार ॥१७॥ पाप पुण्य दोनों बंधन हैंग में भ्रमण कराते हैं। रागमात्र को हेय जान ज्ञानी निज ध्यान लगाते हैं ॥१८॥ निज का ध्यान लगाया जिसने उसकाप्रगटा केवलज्ञान । परम समाधि महासुखकारी निश्चय पाता पद निर्वाण १९॥
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श्री कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय पूजन
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विकार से मिन मारमा पूर्णतया अविकार । इस प्रकार इस भरत क्षेत्र के जीवों पर अनन्त उपकार । हे सीमन्धर नाथ आपके, करो देव मेरा उद्धार ॥२०॥ समकित ज्योति जगे अन्तर में होजाऊँ मैं आप समान । पूर्ण करो मेरी अभिलाषा हे प्रभु सीमन्धर भगवान।२१॥ *ही श्री सीमन्धा जिनेन्द्राय पूर्णाष्य नि स्वाहा ।
सीमन्धर प्रभु के चरण भाव सहित उरचार । मन बच तन जो पूजते वे होते भवपार ॥
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ हो श्री सोमन्धर जिनेन्द्राय नमः ।
श्री कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय पूजन तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालय को वन्दन । उर्ध्व मध्य पाताल लोक के जिन भवनों को करूँ नमन ।। हैं अकृत्रिम आठ कोटि अरु छप्पन लाख परम पावन । संतानवे सहस्त्र चार सौ इक्यासी गृह मन भावन ।। कृत्रिम अकृत्रिम जो असंख्य चैत्यालय हैं उनको वन्दन । विनय भाव से भक्ति पूर्वक नित्य करूँ मैं पूजन ।। ॐ ह्रीं श्री तीन लोक सबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्ब समूह अत्र अवतर अवतर सौपट | *ही श्री तीन लोक सबधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्ब समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ हाँ श्री तीन लोक सबधी कृत्रिम अकृत्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्ब समूह अत्र मम सन्निहितो भव भव
सम्यक, जल की निपल उज्जवलता जन्म जरा हरवू । मूल धर्म का सम्यक्दर्शन हे प्रभु हृदयंगम कर लें। तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय वंदन कर लें। ज्ञान सूर्य की परम ज्योति पाभव सागर के दुख हर लूँ
ही तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम दिन चैत्यालयस्थ जिन विम्बेग्यो जन्मजामत्त विनाशनाय जलं नि ।
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जैन पूजान्चालि अति मासन मय जीवों को होता निश्चय प्रत्याख्यान ।
जीवों को हित रूप वही है इससे ही होता निर्वाण ॥ सम्यक पावन की शीतलता से भव भय हरवू । वस्तु स्वभाव धर्म है सम्यक ज्ञान आत्मा में भरलें तीन. ॥२॥ *ही श्री तीन लोक संबधी कृत्रिम मात्रिम जिन चैत्यालयस्थ जिन विम्यो संसारतापविनाशनाय चन्दनं नि । सम्यक्चारित्र की अखंडता से अक्षय पद आदर लें। साम्यभाव चारित्र धर्म पा वीतरागता को वरल तीन ॥३॥ ऊहाँ श्री तीन लोक समधी कृत्रिम अकृत्रिम जिनचैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षत नि । शील स्वभावी पुष्प प्राप्त कर काम शत्रु को क्षय करलें । अणुव्रत शिक्षावत गुणवत धर पंच महाव्रत आचरलूँ तीन. ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री तीन लोक सबधी कृत्रिम अकृत्रिम जिनचैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो कामबाणविष्वशनाय पुष्प नि । संतोषामृत के चरु लेकर क्षधा व्याधि को जय करलूँ । सत्य शौचतप त्याग क्षमा से भाव शुभाशुभ सब हरलूँ तीन ।५।। ॐ ही श्री तीन लोक सबधी कृत्रिम अकृत्रिम जिनचैत्यालयस्थ जिन बिम्बम्यो सवारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । ज्ञान दीप के चिर प्रकाश से मोह ममत्व तिमिर हरलूँ । रत्नत्रय का साधन लेकर यह संसार पार करलूँ तीन ॥६॥ ॐ ह्री श्री तीन लोक सबधी कृत्रिम अकृत्रिम जिनचैत्यालयस्थ जिन विम्बेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि ।। ध्यान अग्नि मे कर्म धूप धर अष्टकर्म अघ को हरलें । धर्म श्रेष्ठ मगल को पा शिवमय सिद्धत्व प्राप्त करतूं तीन ॥७॥ ॐ ही श्री तीन लोक सबधी कृत्रिम अकृत्रिम जिनवेत्यालयस्थ जिन बिम्बम्यों अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । भेद ज्ञान विज्ञान ज्ञान से केवलज्ञान प्राप्त करलें । परम भाव सम्पदा सहजशिव महामोक्षफल को वरलूँ तीन. ८॥ ॐही श्री तीन लोक सबधी कृत्रिम अकृत्रिम जिनचैत्यालयस्य बिन बिम्बयों मोक्षफल प्राप्त फल नि।
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श्री कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय पूजन । २३ बाहर में संयोग दुखों के, अंतर में सुख का सागर ।
संयोगों पर दृष्टिन देते, पीते मुनि निज रस गागर ।। छादश विधितप अर्थ संजोकर जिनवर पद अनर्थ पालें। मिथ्या अविरति पंच प्रमाद कषाय योग बन्ध हरल तीन. ॥९॥
*ही श्री तीन लोक संबंधी कृत्रिम अकृत्रिम जिनचैत्यालयस्थ जिन किम्बोम्यो अनर्थ पद प्राप्तये अस्य नि।
जयमाला इस अनन्त आकाश बीच में तीन लोक हैं पुरुषाकार । तीनो वातवलय से वेष्टित, सिंधु बीच ज्यों बिन्दु प्रसार ।।१।। उर्ध्व सात हैं, अधो सात हैं, मध्य एक राजू विस्तार । चौदह राजु उतग लोक है, उस नाड़ी त्रस का आधार ॥२॥ तीन लोक मे भवन अकृत्रिम आठ कोटि अरुछप्पन लाख। सतानवे सहस्त्र चार सौ इक्यासी जिन आगम साख ॥३॥ उर्ध्व लोक मे कल्पवासियों के जिन गृह चौरासी लक्ष । सतानवे सहस्त्र तेईस जिनालय हैं शाश्वत प्रत्यक्ष ॥४॥ अधो लोक में भवनवासि के लाख बहोत्तर, करोड सात । मध्यलोक के चार शतक अट्ठावन चैत्यालय विख्यात ॥५॥ जम्बूधातकी पुष्करा मे पंचमेरु के जिनगृह विख्यात । जम्बूवृक्ष शाल्मलितरु अरु विजयारध के अति विख्यात ।।६।। वक्षारों गजदतों इष्वाकारो के पावन जिनगेह । सर्व कुलाचल मानुषोत्तर पर्वत के वन्दै घर नेह ॥७॥ नन्दीश्वर कुण्डलवर द्वीप रुचकवर के जिन चैत्यालय । ज्योतिष व्यंतर स्वर्गलोक अरु भवनवासि के जिनआलय ॥८॥ एक एक मे एक शतक अरु आठ आठ जिन मूर्ति प्रधान । अष्ट प्रातिहायों वसु मंगल द्रव्यों से अति शोभावान ।।९।। कुल प्रतिमा नौ सौ पच्चीस करोड़ तिरेपन लाख महान । सत्ताइस सहस्त्र अरु नौ सौ अड़तालिस अकृत्रिम जान ।।१०।।
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जैन पूजावलि शुवधाम ध्येय की धुन में पुष ध्यान धैर्यधरम्याऊँ।
सुतात्मधर्म ध्याता बन परमात्म परम पद पाऊँ ।। उन्नत धनुष पांच सौ पचासन है रत्नमयी प्रतिमा । वीतराग अर्हन्त मूर्ति की है पावन अचिन्त्य महिमा ।।११॥ असंख्यात संख्यात जिन भवन तीन लोक में शोभित हैं। इन्द्रादिक सुन ना विद्याधर मुनि वन्दन कर मोहित हैं।१२।। देव रचित या अनुज रचित, हैं भव्य जनों द्वारा वंदित । कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय को पूजन कर मैं हूँ हर्षित ॥१३॥ बाईप मे भूत भविष्यत वर्तमान के तीर्थकर । पंचवर्ण के मुझे शक्ति दें मैं निज पद पाऊँ जिनवर ॥१४॥ जिनगुण संपत्ति मुझे प्राप्त हो परम सपाधिमरण हो नाथ । सकल कर्म क्षय हो प्रभु परे बोधिलाभ हो हे जिननाथ ॥१५॥ ॐ ही प्रीतीनलोकसम्बन्धी कृत्रिम अकृत्रिम जिनचैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो पूर्णाध्य नि ।
श्री समस्त सिद्धक्षेत्र पूजन मध्य लोक में आईप के सिद्धक्षेत्रों को वन्दन । जम्बूद्वीप सभरत क्षेत्र के तीर्थक्षेत्रों को वन्दन । श्री कैलाश आदि निर्वाण भूमियों को मैं करूं नमन । श्रद्धा भक्ति विनयपूर्वक हर्षित हो करता हूँ पूजन ॥ शुद्ध भावना यही हृदय में मैं भी सिद्ध बनें भगवन । रत्नत्रय पथ पर चलकर मैं नारों चहुँगति का क्रन्दन ।। ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्धक्षेत्र अत्र अवतर अवतर संवौषट, हाँ श्री समस्त सिद्धक्षेत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ 3:3ः, ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्धक्षेत्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वष्ट । ज्ञान स्वभावी निर्मल जल का सागर उर में लहराता । फिर भी भव सागर भंवरों में जन्म मरण के दुख पाता ।। श्री सिद्धक्षेत्रों का दर्शन पूजन वन्दन सुखकारी । जो स्वभाव का आश्रय लेता उसको हेभव दुखहारी ॥ *ही श्री समस्त सिक्कयो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं नि ।
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श्री समस्त सिरक्षेत्र पूजन पुण्य पाप आदिक विकार की रुचि से गोरहले भयभीत ।
पुण्य पाप के भाव जान विषतुल्य स्वयं से करते पीत ।। ज्ञान स्वभावी शीतलतामय चंदन निज में भरा अपार । . फिर भी भव दावानल मे जलजल दुख पाया बारम्बार श्री. २॥ ॐ ही श्री समस्त सिद्धक्षेत्रे यो संसारताप विनाशनाय चदन नि । ज्ञान स्वभावी उज्ज्वल अक्षत पुन्ज हदय में भरे अटूट । फिर भी अविनाशी अखंड होकर भी पा न सका निजकटाश्री. ॥३॥ ॐही श्री समस्त सिद्धक्षेत्रेभ्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि ज्ञान स्वभावी दिव्य सुगधित पुष्पों का निज में उपवन । फिर भी भव माया मे पड निष्काम न बन पाया भगवन् । श्री. ४॥ ॐ ह्री श्री समस्त सिद्धक्षेत्रेभ्यो कामबाण विष्वसनाय पुष्पं नि । ज्ञान स्वभावी सरस मनोरम तृप्ति पूर्ण नैवेद्य स्वयम् । फिर भी क्षुधारोग से व्याकुल तृष्णा हुई न तिलभर कम ॥श्री ५|| ॐ ह्री श्री समस्त सिद्धक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । ज्ञान स्वभावी स्वपर प्रकाशी केवलरवि निज मे अनुपम । फिर भी अघ मय अधियारे मे भटका मिटा न मिध्यातम || श्री ।।६।। ॐ ह्री श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि ज्ञान स्वभावी सहजानदी विमल धूप से हैं परिपूर्ण । फिर भी प्रभो नहीं कर पाया अब तक अष्टकर्म अरिचूर्ण ॥श्री ॥७॥ ॐ ह्री श्री समस्त सिद्धक्षेत्रेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूप नि । ज्ञान स्वभावी शिवफलधारी अविकारी हूँ सिद्ध स्वरूप । फिर भी भव अटवी मे अटका होकर मै त्रिभुवन का भूप ॥श्री ॥८॥ ॐ ह्री श्री समस्त सिद्धक्षेत्रेभ्यो महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । ज्ञान स्वभावी चिदानन्द चैतन्य अनन्त गुणो से पूर । फिर भी पद अनर्घ ना पाया रह कर निज परिणति से दूर ।।श्री ।।९।। ॐ ह्री श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रे यो अनर्यपद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला तीर्थकर ऋषि आदि मुनि गए जहाँ निर्वाण। उन क्षेत्रों को व बकर करूँ आत्म कल्याण ।।१।।
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जैन पूजाँजलि सम्यक दर्शन अगर तुझे पाना है तो कर तत्वाभ्यास ।
निजस्वरुप का निर्णय करले आत्म तत्व का कर विश्वास । । जम्बूद्वीप धातकी खण्ड अरु पुष्करार्द्ध में क्षेत्र विदेह। पचभरत अरु पंच ऐरावत तीर्थक्षेत्र बन्दै घर नेह २॥ तीन लोक के सकल तीर्थ निर्वाण क्षेत्र सविनय वन्दूँ। सिद्ध अनन्तानन्त विराजित सिद्धशिला नित प्रति वर्दू ।।३।। अष्टापद कैलाशशिखर पर ऋषभदेव के पद वन्,। बालि महाबालि मुनि नागकुमार आदि मुनिवर वन्, ॥४॥ श्री सम्मेदशिखर पर्वत पर बीस तीर्थकर वन्,। अजितनाथ सभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्म प्रभु को वन्दूँ।।५।। श्री सुपार्श्व चन्द्रप्रभु स्वामी, पुष्पदन्त, शीतल वन्यूँ । प्रभु श्रेयास, विमल, अनन्त जिन, धर्म, शान्ति, कुन्थु वन्दूँ।।६।। श्री अर,मल्लि, मुनिसुव्रत, नभिजिन, पार्श्वनाथ, प्रभु को वन्दै। मुनि अनत निर्वाण गये जो, उनके चरणाम्बुज वन्दूँ।७।। चम्पापुर मे वासुपूज्य तीर्थकर को सादर वन्दै। श्री मदारगिरि से मुक्त हुए मुनियों के पद वन्, ।।८।। श्री गिरनार नेमि प्रभु शबु प्रदुम्न अनिरुद्ध आदि वन्दूँ । कोटि बहात्तर सात शतक मुनि मुक्त हुए उनको वन्दूँ ॥९॥ पावापुर मे महावीर अन्तिम तीर्थंकर को वन्दूँ। क्षेत्र गुणावा गौतमस्वामी के पद कमलो को वन्दू ॥१०॥ तुन्गीगिरि श्री रामचन्द्र, हनुमान गवय, गवाक्ष वन्दूँ। महानील, सुग्रीव, नील मुनि निन्यानवे कोटि वन्दूँ।।११।। शत्रु न्जय पर आठ कोटि मुनियों के चरणाम्बुज वन्दूँ। भीम युधिष्ठिर अर्जुन पाडव और द्रविड राजा वन्दूँ ॥१२॥ श्री गजपथ शैल पर मैं बलभद्र सप्त के पद वर्दै । आठ कोटि मुनि मुक्ति गए हैं भाव सहित उनको वन्दै ।।१३।। सोनागिरि पर नंग अनग कुमार आदि मुनि को वन्दूँ । साढे पाँच कोटि ऋषियों की यह निर्वाण भूपि वन्, ।।१४।।
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श्री समस्त सिरक्षेत्र पूजन ज्ञानी को स्वामित्व राग का लेश नहीं है अंतर में।,
पूर्ण अखण्ड स्वभाव साधने का उत्साह भरा उर में।। रेवा तट पर रावण के सुत आदि मुनीश्वर को वन्दै । साढ़े पांच कोटि मुनियों को सादर सविनय अभिनन्,।।१५।। पावागढ पर साढ़े पांच कोटि मुनियों के पद बन्दै । रामचन्द्र सुत लव, पदनांकुश, लाडदेव के नृप वन्दै ॥१६॥ तारंगागिरि साढ़े तीन कोटि मुनियों को मैं वन्दें । श्री वरदत्तराय मुनिसागरदत्त आदि पद अभिनन्, १७॥ श्री सिद्धवरकूट सनत, मघवा चक्री दोनों वन्दै । कामदेव दस आदि ऋषीश्वर साढे तीन कोटि वन्दै ॥१८॥ मुक्तागिरि से साढे तीन कोटि मुनि मोक्ष गए वन्दूँ। पावागिरि पर सुवर्णभद्र आदिक चारो मुनि को वन्दूँ ॥१९॥ कोटि शिला से एक कोटि मुनि सिद्ध हुए उनको वन्, ।। देश कलिंग यशोधर नृप के पाँच शतक सुत मुनि वन्, ॥२०॥ श्री चलगिरि इन्द्रजीत अरु कुम्भकरण ऋषिवर वन्दै। कुन्थलगिरि पर श्री देशभूषण कुलभूषण मुनि वन्दै ॥२१॥ रेशदीगिरि वरदत्तादि पंच ऋषियो को मैं वन्दै । द्रोणागिरि पर गुरुदत्तादिक मुनियो को सविनय वन्दूँ ॥२२॥ पच पहाड़ी राजगृही से मुक्त हुए मुनिवर वन्दूँ। चरम केवली जम्बूस्वामी मथुरा मुक्ति भूमि वढूँ ।।२३।। पटना से श्री सेठ सुदर्शन मुक्त हुए उनको वन्, । कुण्डलपुर से मोक्ष गए श्रीधर स्वामी के पद वन्दूँ ॥२४॥ पोदनपुर से सिद्ध हुए श्री बाहुबली स्वामी वन्दूँ । भरत आदि चक्रेश्वर मुनियों की निर्वाण धरा वन्, ।।२५।। श्रवण, द्रोण, वैभार, बलाहक, विध्य, सह्म, पर्वत वन्यूँ । प्रवर कुण्डली, विपुलाचल, हिमवान क्षेत्रों को वन्दै ॥२६॥ तीर्थकर के सभी गणधरों की निर्वाण भूमि वन्दूँ। वृषभसेन आदिक गौतम, चौदह सौ उन्सठ ऋषि व ॥२७॥
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जैन पूजांजलि शानी को अस्थिरता के कारण है विद्यमान कुछ राग ।
किन्तु राग के प्रति एकत्व ममत्व नहीं, है पूर्ण विराम।। कामदेव बलभद्र वकि जो मुक्त हुए उनको बन्दै जल थल नभ से सिद्ध हुए उपसर्ग केवली सब वन्दं ॥२८॥ ज्ञात और अज्ञात समी निर्वाण भूमियों को वन्दै । भूत भविष्यत वर्तमान की सिद्ध भूमियों को वन्, ।।२९।। मन वच काय त्रियोग पूर्वक सर्व सिद्ध भगवन वन्,। सिद्ध स्वपद की प्राप्ति हेतु मैं पांचो परमेष्ठी वन्, ॥३०॥ सिद्ध क्षेत्रों के दर्शन कर निज स्वरूप दर्शन कर लूँ। शुद्ध चेतना सिंधु नीर पी मोक्ष लक्ष्मी को वर लूँ॥३१॥ सब तीर्थों की यात्रा करके आत्मतीर्थ की ओर चलें । अजरअमर अविकल अविनाशी सिद्धस्वपद की ओर ढले ॥३२॥ भाव शुभाशुभ का अभावकर शुद्धआत्म का ध्यान करूँ। रागद्वषे का सर्वनाश कर मगलमय निर्वाण वरूँ ॥३३॥ ॐही भी समस्त सिरक्षेत्रेभ्यो अनर्धपद प्राप्ताय पूर्णाय नि । श्री निर्वाण क्षेत्र का पूजन वंदन जो जन करते हैं । समकित का पावन वैभव पा मुक्ति वधू को वरते हैं ।
इत्याशीर्वाद जाप्यपत्र -ॐ ही श्री सर्व सिद्धक्षेत्रेभ्यो नम । माता तो जिनवाणी और कोई नहीं । भव सागर पार करे साँची मों सोई ॥१॥ ज्ञान का प्रकाश करे मिथ्याश्रम खोई । जीव और पुद्गल भित्र भित्र दोई ॥२॥ भेद ज्ञान की महान ज्योति देत जोई। स्याद्वाद् नय प्रमाण बादशाग होई ॥३॥ भव्यों के प्रति पालक मोक्ष सुख संजोई। सकित को बीज देत अन्तर में बोई ।।४।।
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श्री नन्दीरवर तीपासष्टान्हिका ) पूजन पर का मामय लेने वाला मर्कनिमोदादिक जाता।। निज का आश्रय लेने वाला महामोष फल को पाता ।।
अनादिनिधन पर्व पूजायें जैन आगम में नैमितिक पर्व पूजनों का विशेष महत्व है । ये पांचो पर्व अष्टान्हिका, सोलहकारण-पचपेरु दशलक्षण एव रत्नत्रय अनादि निधन पर्व हैं तथा वर्ष में तीन बार आते हैं । अष्टान्हिका पर्व कार्तिक, फाल्गुन एवं आषाढ माह में आते है। अष्टान्हिका पर्व ने आठ दिनो तक इन्द्रादिक सपरिवार आठवे नदीश्वर द्वीप मे जाकर अकृत्रिम जिन चैत्यालयो में स्थित जिनेन्द्र देव की अहर्निश अति उल्लास पूर्वक पूजन भक्ति करते हैं। अन्य चार पर्व माघ, चैत्र एव भाद्र माह में आते हैं। इसमे से भाद्र पद में पड़ने वाले इन पर्यों को विशेष उल्लास पूर्वक मनाने की परम्परा है. ये धर्म आराधना के पर्व है और प्रत्येक मुमुक्षु को स्वपर कल्याणार्थ की भावना से वर्ष में पड़ने वाले तीनो बार के पवों को अति उल्लास पूर्वक मनाया जाना श्रेयस्कर है।
श्री नन्दीश्वर द्वीप [अष्टान्हिका] पूजन अष्टम द्वीप श्री नन्दीश्वर आगम में वर्णित पावन । चार दिशा मे तेरह-तेरह जिन चैत्यालय हैं बावन ।। एक-एक मे बिम्ब एक सौ आठ रतनमय हैं अति भव्य । प्रातिहार्य हैं अष्ट मनोहर आठ-आठ है मंगल द्रव्य ।। पांच सहस्त्र अरु छ सौ सोलह प्रतिमाओ को करूंप्रणाम । धनुष पाच सौ फ्यासन अरिहन्त देव मुद्रा अभिराम ।। अष्टान्हिका पर्व मे इन्द्रादिक सुर जा करते पूजन । भाव सहित जिन प्रतिमा दर्शन से होता सम्यक्दर्शन ।।
ही श्री नन्दीश्वर द्रोपे द्वि पंचाश जिनालयस्थ जिन प्रतिमासमूह अब अबतर अवतर सौषट, *ही श्री नन्दीश्वर दीपे दिपचाश जिनालयस्थ जिन प्रतिमा समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ 13, ही श्री नन्दीश्वर द्वीपे हि पंचाश जिनालयस्थ जिन प्रतिमा समूह अब मम सन्निहितो अवमव वषट् समकित जल की पावन धारा निज उर अन्तर में लाऊँ। मिथ्याप्रम की पल हटाऊँ निज स्वरूप को चमका॥
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जैन पूजांजलि ज्ञान शान में जब सुस्विर होतब होता है सम्यक ज्ञान ।
सतत पावना सुद्धातम की करते करते केवल ज्ञान ।। नन्दीश्वर के बावन जिन चैत्यालय वन्द हर्षा ऊँ। अष्टमीप मनोरम जिन प्रतिमायें पूर्ण सुख पाऊँ १॥ *ही श्री नन्दीश्वर दीपे पूर्वपश्चिमोतर दक्षिणदिशासुदिपचाराजिनालयस्थ जिनमतिमा यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जल नि. ।। क्षमा भाव का शुचिमय चन्दन उर अन्तर में भर लाऊँ। क्रोध कषाय नष्ट करके मैं शांति सिंधु प्रभुबन जाऊँ नंदी. ॥२॥ * ही श्री नन्दीश्वरद्वीपे दि पंचाग्जिनालयस्थ जिनप्रतिमा यो भवताप विनाशनाय बन्दनं नि । मार्दव भाव परम उपकारी भाव पूर्ण अक्षत लाऊँ। मान कषाय नष्ट करके मैं शुद्धातम के गुण गाऊँ नदी ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे दि पचाशजिनालयस्थ जिनप्रतिमा यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । शुद्ध आर्जव भाव पुष्प से सजा हदय को मैं आऊँ। सर्वनाश माया कषाय का करूँ सरलता को पाऊँ निंदी ।।४।। ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे द्वि पचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्यो कामबाण विध्वसनाय पुष्पं नि । सत्य शौच मय भाव भक्तिनैवेद्य हृदय मे भर लाऊँ। लोभ कषाय नाश करने को सन्तोषामृत पी जाऊँ ।नंदी ।।५।। ॐ ही श्री नन्दीश्वरद्वीपे दि पचाराजिनालयस्थ जिनप्रतिमा यो सुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । द्रव्य भाव सयम तप ज्योति जगा आतम मे रम जाऊँ । मैं अनादि अज्ञान नाश कर सम्यवज्ञान रत्न पाऊँ ।। नदी ।।६।। ॐ ही श्री नन्दीश्वरद्वीपे द्वि पचाशजिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । त्याग भाव आकिंचन पाऊँ शुद्ध स्वभाव धूप लाऊँ। पर विभाव परणति को क्षयकर निजपरणति वैभव पाऊँ नदी. ॥७॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे द्वि पंचाशजिनालयस्थ जिनप्रतिमाम्यो अष्टकर्म विध्वशनाय धूप नि ।
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श्री नन्दीश्वर द्वीप [अष्टान्हिका ] पूजन बहुआरंभ परिग्रह भावों से है घोर नरक गतिबंध । ।
मायामयी अशुभ भावों से होता गति त्रियंच का बध ।। ब्रह्मचर्य का फल पाने को रत्नत्रय पथ पर आऊँ। निज स्वरूप मे चर्या करके महामोक्ष फल को पाऊँ नदी ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वर द्वीपे द्विपमजिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्यो महामोक्षफल प्राप्ताया फल नि । सवर और निर्जरा द्वारा कर्म रहित मैं हो जाऊँ। आश्रव बंध नाश कर स्वामी मैं अनर्घ पदवी पाऊँ ।। नदी ॥९॥ ॐ ही श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणदिशासु द्वि पचाश जिनालयस्थ जिनप्रतिमा यो अनर्घपद प्राप्तये अयं नि ।
जयमाला पध्य लोक मे एक लाख योजन का जम्बूद्वीप प्रथम । द्वीप धातकी खण्ड दूसरा तीजा पुष्करवर अनुपम ॥१॥ चौथा द्वीप वारुणीवर है द्वीप क्षीरवर है पचम । षष्टम् घृतवर द्वीप मनोहर द्वीप अक्षवर है सप्तम ॥२॥ अष्टम् द्वीप श्री नन्दीश्वर अद्वितीय शोभा धारी । योजन कोटि एक सौ त्रेसठ लख चौरासी विस्तारी ॥३॥ पूरब, पश्चिम, उत्तर दक्षिण दिशि मे है अजनगिरिचार । इनके भव्य शिखर पर जिन चैत्यालय चारो हैं सुखकार ।।४।। चहु दिशि चार चार वापी हैं लाख-लाख योजन जलमय । इनमें सोलह दधिमुख पर्वत जिन पर सोलह चैत्यालय ।।५।। सोलह वापी के दो कोणो पर इक इक रतिकर पर्वत । इन पर हैं बत्तीस जिनालय जिनकी है शोभा शाश्वत ॥६॥ कृष्ण वर्ण अंजनगिरि चौरासी सहस्त्र योजन ऊँचे । श्वेत वर्ण के दधिमुख पर्वत दस सहस्त्र योजन ऊँचे ।।७।। लाल वर्ण के रतिकर पर्वत एक सहस्त्र योजन ऊँचे। सभी डोल सप गोल मनोहर पर्वत हैं सुन्दर ऊँचे ॥४॥
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जैन पूजांजलि यह जीवन दीपक निस्तेज अवश्य एक दिन होगा ही।
तन यौवन पन परिजन सबसे ही वियोग क्षण होगा ही ।। चारों दिशि में महा मनोरम कुल जिन चैत्यालय बावन । सभी अकृत्रिम अति विशाल हैं उन्नत परम पूज्य पावन ॥१॥ जिन भवनों का एक शतक योजन लम्बाई का आकार । अर्थ शतक चौडाई पचहतर योजन ऊँचा विस्तार ॥१०॥ चौसठ वन की सुषमा से शोभित है अनुपम नन्दीश्वर। है अशोक सप्तछद चम्पक आम नाम के वन सुन्दर ॥११॥ इन सबमें अवतंश आदि रहते हैं चौंसठ देव प्रबल। गाते नन्दीश्वर की पहिमा अरिहंतों का यश उज्ज्वल ।।१२।। देव देवियों नृत्य वाद्य गीतों से करते जिन पूजन। जय ध्वनि से आकाश गुजाते थिरक-थिरक करते नर्तन ॥१३॥ कार्तिक फागुन अरु अषाढ में इन्द्रादिक सुर आते हैं । अन्तिम आठ दिवस पूजन कर मन मे अति हर्षाते हैं ।।१४।। दो दो पहर एक इक दिशि मे आठ पहर करते पूजन। धन्य धन्य नन्दीश्वर रचना धन्य धन्य पूजन अर्चन ।।१५।। ढाई द्वीप तक मनुज क्षेत्र है आगे होता नहीं गमन। ढाई द्वीप से आगे तो जा सकते है केवल सुरगण ॥१६॥ शक्तिहीन हम इसीलिए करते हैं यहीं भाव पूजन। नन्दीश्वर की सब प्रतिमाओ को है भाव सहित बन्दन ॥१७॥ भव-भव के अघ मिटे हमारे आत्म प्रतीत जगे मन में। शुद्धभाव अभिवृद्धि सहज हो समकित पाये जीवन में ॥१८॥ यही विनय है यही प्रार्थना यही भावना है भगवान । नन्दीश्वर की पूजन करके करे आत्मा का ही ध्यान ॥१९॥ आत्म ध्यान की महा शक्ति से वीतराग अरिहन्त बनें । घाति अधाति कर्म सब क्षयकर मुक्तिक्त भगवत बने ॥२०॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरीद्वीपे पूर्वपश्चिमोतरदक्षिणदिशा द्विपंचाशज्जिनालयस्थ पांच हजार छ सौ सोलह जिनप्रतिमाभ्यो जिन पूर्णाध्य नि स्वाहा ।
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श्री पंचमेक पूजन पुण्य पुण्य पाप पाप है कहते सब कर्मात्मा । ।
पुण्य कर्म भी पाप कर्म है कहते है धर्मात्मा ।। भाव सहित नन्दीश्वर की पूजन में होता है कल्याण । स्वर्ग मोक्ष पद मिल जाता है धर्म ध्यान से सहज महान ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र ॐ ही श्री नन्दीश्वर सज्ञाय नम
श्री पंचमेरु पूजन मध्यलोक मे हाई बीप के पचमेरु को करूँ प्रणाम । मेरु सुदर्शन, विजय, अचल, मदिर, विद्युन्माली अभिराम ॥ मेरु सुदर्शन एक लाख योजन ऊँचा है महिमावान ।। शेष मेरु योजन चौरासी सहस्त्र उच्च हैं दिव्य महान ॥ पाँचों मेरु अनादि निधन हैं स्वर्णमयी सुन्दर सुविशाल । इन पर अस्सी जिन चैत्यालय वन्दू सदा झुकाऊँ भाल ।। इनका पूजन वन्दन करके मैं अनादि अघ तिमिर हरूँ। मन वच काया शुद्धिपूर्वक श्री जिनवर को नमन करूँ॥ ॐ ह्रीं श्री सुदर्शन, विजय, अचल, मन्दिर, विधुन्माली पचमेरु सबधी जिन चैत्यालयस्थ जिनप्रतिमा समूह अत्र अवतर अवतर सर्वोषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ अत्र मम् सनिहितो भव भव वषट् । यह अथाह भव सागर जल पीकर भी तृषा न शात हुई। जन्म मरण के चक्कर में पड़कर मेरी मति भ्रान्त हुई । पंचमेरु के अस्सी जिन चैत्यालय को वन्दन कर लें। भक्ति भाव से पूजन करके मैं भवसागर दुख हर लूँ ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री पचमेरु सम्बन्धि जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो जल नि । भव दावानल की भीषण ज्वाला मे जल जल दुख पाया। ताप निक्दन निजगुण चन्दन शीतलता पाने आया।पिचपेरू।।२।। ॐ ह्रीं श्री पचमेरु सम्बन्धि जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो चन्दन नि । भव समुद्र की चारों गतिमय भंवरो मे गोता खाया । अक्षय पद पाने को हे प्रभु कभी न अक्षत गुण भाया ।।पत्रमेरु. ॥३॥ *ही श्री पंचमेरु सम्बन्धि जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो अक्षत नि ।
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जैन पूजांजलि जब तक नहीं स्वसन्मुख है तू तेरा शास्त्र शान भी व्यर्थ ।
ग्यारह अंग पूर्व नौ तक का अगम ज्ञान सभी है व्यर्थ । । काम भाव से भव दुख को अखंला बढाता ही आया । महाशील के समन प्राप्त करने को देवशरण आया पंचमेरु, ४॥ ॐ ह्री श्री पचमेरु सम्बन्धि जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्मेभ्यो पुष्प नि । जग के अनगिनती द्रव्यो को पाकर तृप्त न हो पाया । इसीलिए निलोभ वृत्ति नैवेद्य प्राप्त करने आया ।।पंचमेरु ।।५।। ॐ ह्रीं श्री पचमेरु सम्बन्धि जिनवैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो नैवेद्य नि । अधकार मे मार्ग भूलकर भटक भटक अति दुख पाया। सम्यक्ज्ञान प्रकाश प्राप्त करने को यह दीपक लाया ।। पचमेरु ।।६।। ॐ ही श्री पंचमेरु सम्बन्धि जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो दीपं नि । विकट जगत जजाल कर्ममय इसको तोड़ नहीं पाया । आत्म ध्यान की ध्यान अग्नि में कर्मजलाने मैं आया पचमेरु।७।। ॐ ही श्री पचमेरू सम्बन्धि जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्योधूप नि । भव अटवी मे अटका अब तक नहीं धर्म का फल पाया । चिदानद चैतन्य स्वभावी मोक्ष प्राप्त करने आया पचमेरु ।।८।। ॐ ही श्री पचमेरु सम्बन्धि जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो फल नि । क्षमा शील संयम व्रत तप शुचि विनयसत्य उर मे लाया ।। निज अनतसुख पाने को प्रभु मैं वसुद्रव्य अर्घलाया ।पिचमेरु ॥९॥ ॐ ह्री श्री पचमेरु सम्बन्धि जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो आर्य नि । जम्बूद्वीप सुमेरु सुदर्शन परम पूज्य अति मन भावन। भू पर भद्रशाल वन, पाँच शतक योजन पर नन्दन वन।। साढे बासठ सहस्त्र योजन ऊँचा है सौमनस सुवन। फिर छत्तीस सहस्त्र योजन की ऊंचाई पर पाडुक वन।। चारो वन की चार दिशा में एक एक जिन चैत्यालय। सोलह चैत्यालय हैं अनुपम विनय सहित बन्दू जय जय ।।१।। ॐ ह्री श्री जम्बूद्वीपसुदर्शनमेरु सम्बन्धि षोडशजिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बम्यो अयं नि स्वाहा । खण्ड धातकी पूर्व दिशा में विजय मेरु पर्वत पावन । धू पर भद्रशाल वन पाँच शतक योजन पर नदन वन ।।
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श्रीपंचमेक पूजन परम सत्व का सार समझा पति-गति में करता नर्तन ।
शुष्क शान की चादर ओढ़े करता विषयों में बर्तन ।। साढ़े पचपन सहस्त्र योजन ऊंचा है सौमनस सुवन । अट्ठाईस सहस्त्र योजन की उचाई पर पाडूक वनाचारों.।।२।। ॐही श्री पातकीखण्डद्वीप पूर्वदिसा विजयमेरु सम्बन्धी बोडस जिन चैत्यालयस्थ बिनविम्येभ्यो अश्य नि. स्वाहा । खण्ड धातकी पश्चिम दिशि मे अचल मेरु पर्वत सुन्दर । विजय मेरु सम इस पर भी हैं सोलह चैत्यालय मन हर ।। प्रातिहार्य आठों वसुमगल द्रव्यों से जिन गृह शोभित । देव इन्द्र विद्याधर चक्री दर्शन कर होते हर्षित चारों ॥३॥ ॐ ही श्री धातकीखण्डद्वीप पश्चिमदिशा अचलमेरु सम्बन्धि षोडश जिनचैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो अयं नि स्वाहा । पुष्करार्थ की पूर्व दिशा में मंदिर मेरु महासुखमय । विजय मेरु सम इसकी रचना सोलह चैत्यालय जय जय।। चन्द्र सूर्य सम कान्ति सहित हैं रत्नमयी प्रतिमा से युक्त । दस प्रकार के कल्पवृक्ष की मालाओ से हैं संयुक्त चारो।।४।। ॐ हीं श्री पुष्करार्धद्वीप पूर्वदिशा मन्दिरमेरुन्धि षोडश जिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो अर्घ्य नि स्वाहा ।। पुष्करार्थ की पश्चिम दिशि मे विद्युन्माली मेरु महान । विजय मेरु सम ही रचना है सोलह चैत्यालय छविमान । सुर विद्याधर असुर सदा ही पूजन करने आते है । चारण ऋद्धि धारिमुनि भी दर्शन को आतेजाते हैं ।।चारो ।।५।। ॐ ही श्री पुष्करार्धदीप पश्चिमदिशा विद्युन्मालीमेरु सम्बन्धि जिन चैत्यालयस्थ जिन बिम्बेभ्यो अयं नि स्वाहा ।
जयमाला एक लाख योजन का जम्बूद्वीप लोक के मध्य प्रधान । चार लाख योजन का सुन्दर द्वीप धातकी खण्ड महान ॥१॥ सोलह लाख सुयोजन का है पुष्कर द्वीप अपूर्व ललाम । इनमे पंचमेरु हैं अनुपम परम सुहावन हैं शुभ नाम ॥२॥
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जैन पूजांजलि सिब समान परम पद अपना, यह निश्चय का लाओगे ।
द्रव्यदृष्टि बन निज स्वरूप को, कब तक अरे सजाओगे ।। सूर्य चन्द्र देते प्रदक्षिणा करते निशदिन सतत प्रणाम । एक पेरु सम्बन्धी सोलह पंचमेरु अस्सी जिन धाम ।।३।। एक शतक अर अर्ध शतक योजन लम्बे चौड़े जिन धाम । पौन शतक योजन ऊचे हैं बने अकृत्रिम भव्य ललाम ॥४॥ एक एक में बिम्ब एक सौ आठ विराजित हैं मनहर । आठ सहस्त्र छ सौ चालीस हैं श्री अरहंत मूर्ति सुन्दर ।।५।। धनुष पाच सौ पद्मासन हैं गूंज रहा है जय जय गान । नृत्य वाद्य गीतों से झंकृत दशों दिशायें महिमावान ।।६।। तीर्थंकर के जन्मोत्सव की सदा गूजती जय जयकार । धन्य धन्य श्री जिन शासन की महिमा जग मे अपरम्पार ॥७॥ नहीं शक्ति हममे जाने की यहीं भाव पूजन करते । पुष्पाजलि व्रत की महिमा से भव-भव के पातक हरते ।।८।। पंचमेरु की पूजा करके निज स्वभाव मे आ जाऊँ। भेद ज्ञान की नवल ज्योति से सम्यक्दर्शन प्रगटाऊँ॥९॥ सम्यक्ज्ञान चरित्र धार मुनि बन स्वरूप मे रम जाऊँ। वसु कर्मों का सर्वनाश कर सिद्ध शिला पर जम जाऊँ।।१०।। पचमेरु जिन धाम की महिमा अगम अपार। पुष्पाजलि व्रत जो करें हो जाये भव पार ।।११।। ॐ ही श्री ढाईद्वीपसम्बन्धी सुदर्शन, विजय, अवल, मन्दिर, विद्युन्याली पचमेरुसम्बन्धी अस्सीजिन चैत्यालयस्थ जिनबिम्बेभ्यो पूर्णाऱ्या ।
श्री षोडशकारण पूजन षोडशकारण पर्व धर्म का करू धर्म आराधना । मुक्ति सुनिश्चित यदि इस व्रत की हो निजात्म में साधना ॥ दुखी जगत के जीव मात्र का हित हो निज कल्याण हो ।' अविनश्वर लक्ष्मी से परिणय मोक्ष प्रकाश महान हो ।
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श्री षोडशकारण पूजन मात्म स्वरुपवलंबन मावों, से विभाव परिहर करो ।।
रत्नत्रय का वैभव पाकर, पव दुख सागर पार करो ।। पूर्ण ज्ञान कैवल्य अनन्तानत गुणों का वास हो । तीर्थकर पर दाता सोलहकारण धर्म विकास हो । ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो षोडश कारणानि धर्म अत्र अवतर अवतर संवौषट् *ही श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणे यो घोड़श कारणानि धर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ही श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो षोड़श कारणानि धर्म अत्र मम् सनिहितो भव भव वषट । जल की उज्जवल निर्मलता से मिथ्यामैल न धो सका । आकुलतामय जन्म मरण से रहित न अब तक हो सका ।। निर्विकल्प अविकल सुखदायक सोलहकारण भावना । जय जय तीर्थंकरपद दायक सोलहकारण भावना ॥१॥ ॐ ही श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो जल नि स्वाहा । भाव मरण प्रति समय किया है मैंने काल अनादि से । भव सताप बढाया चलकर उल्टी चाल अनादि से । निर्वि ॥२॥ ॐ ही दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो चन्दन नि स्वाहा । मुक्त नहीं हो पाया अब तक पर भावो के जाल से । यह ससार चक्र मिट जाये धर्म चक्र की चाल से निर्वि ।।३।। ॐ ह्री श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो अक्षत नि स्वाहा । काम वेदना भव पीडामय पर परणति दुखदायिनी । काम विनाशक निज चेतन पद निज परणति सुखदायिनी निर्वि।।४।। ॐ ही श्री दर्शनविशुस्यादि षोडशकारणेभ्योपुष्पं नि स्वाहा । जग तृष्णा की व्याधि हजारों आकुल करती है मुझे ।। क्षथा रोग की माया नागिन भव भव डसती हैं मुझे।ानिर्वि ।।५।। ॐ ही श्री दर्शनविमुत्यादि षोडशकारणेभ्यो नैवेद्य नि स्वाहा आत्मज्ञान रवि ज्योति प्रकाशित हो अब स्वपर प्रकाशिनी । शुद्ध परमपद प्राप्ति भावना तम नाशक भव नाशिनी निवि.॥६॥ ॐही श्री दर्शनविशुद्धयादि गोडसकारणेभ्यो दीपं नि. स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि संकरभाव जगायोगे तो, आस्त्रव बध रुकेगा ही।
भाव निर्जरा अपनायी तो, कर्म निजरित होगा ही 41 एक भूल कयों की संगति भव वन में उलझा रही । अग्नि लोह की सगति करके धन की चोटें खा रही निर्वि. ॥७॥ ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुब्यादि षोडशकारणेभ्यो धुप नि. स्वाहा । निज स्वभाव बिन हुई सदा ही अष्टकर्म की जीत ही । महामोक्ष फल पाने का पुरुषार्थ किया विपरीत ही निर्वि ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो फल नि स्वाहा । जल फलादि वसु द्रव्य अर्थ का अर्थ कभी आया नहीं । अविचल अविनश्वर अनर्थ पद इसीलिए पाया नहीं।।निर्वि।।९।। ॐ ही श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो अयं नि स्वाहा ।
जयमाला भव्य भावना षोडशकारण विमल मुक्ति निर्वाण पथ। तीर्थकर पदवी पाने का द्रुत गतिवान प्रयाणरथ ॥१॥ रागादिक मिथ्यात्व रहित समकिन हो निज की प्रीतिमय । दोष रहित दर्शनविशुद्धि भावना मुक्ति संगीतमय ॥२॥ मन वच काया शुद्धि पूर्वक रत्नत्रय आराध ले । तप का आदर परम विनय सम्पन्न भावना साध ले॥३॥ पचव्रत सहित शील स्वगुण परिपूर्ण शीलमय आचरण । निरतिचार भावना शीलवत दोषहीन अशरण शरणा॥४॥ शास्त्र पठन गुरु नमन पाठ उपदेश स्तवन ध्यानमय । हो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना हृदय मे ज्ञानमय ।।५।। मित्र भ्रात पत्नी सुत आदिक और विषय ससार के । इनमे पूर्ण विरक्ति रखे सवेग भावना धार के ॥६॥ हम उत्तम मध्यम जघन्य सत पात्रों को पहिचान लें। चार दान दे नित्य शक्तितपस्त्याग भावना जान लें।।७।। मुक्ति प्राप्ति हित आत्म आचरण शक्ति भक्ति अनुरूप हो । द्वादश विधि से तपश्चरण भावना शक्ति तप रूप हो ॥८॥
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श्री षोडशकारण पूजन शुद्धतक ही परमज्ञान है, शुद्धातम पवित्र दर्शन ।।
यही एक चारित्र परम है यही एक निर्मल तप धन ।। इष्ट वियोग अनिष्ट योग उपसर्ग मरण या रोग हो । साधु समाधि भावना अनुपम कभी न दुखमय योग हो ॥९॥ रोगी मुनि की भक्ति पूर्वक सेवा सुश्रुषा करे । भव्य भावना वैयावृत्यकरण मन मजूषा भरे।।१०।। मन वच काया से विजयी हो करे भक्ति अरहन्त की । निर्मल अर्हद भक्ति भावना शुद्ध रूप भगवन्त की।।११।। गुरु निर्गन्थ चरण वन्दन पूजन नित विनय प्रणाम हो ।। नमस्कार आचार्य भक्ति भावना हदय वसु याम हो।।१२।। लोकालोक प्रकाशक जिन श्रुत व्याख्यान अनुरूप हो । बहु भूत भक्तिभावना मन मे उपाध्याय मुनि रूप हो ।।१३।। सप्त तत्व पचास्तिकाय छह द्रव्य आदि सत् जान लें । जिन आगम का पढ़ना प्रवचन भक्ति भावना मान ले ॥१४॥ कार्योत्सर्ग प्रतिक्रमण समता स्वाध्याय वन्दन विमल। देव स्तुतिषट कृत्य भावना आवश्यक निर्मल सरल।।१५।। जिन अभिषेक नृत्य गीतो वाद्यों से पूजन अर्चना । श्रुत प्रवचन मार्गप्रभावना जिनालयो की चर्चना ॥१६॥ शीलवान चारित्रवान जिन मुनियों का आदर करे । मृदुल भावना प्रवचनवत्सल मुनिचरणो मे शिर धरे।।१७।। इनके बाह्म आचरण ही से स्वर्ग सम्पदा झिल मिले । आभ्यन्तर आचरण किया तो मोक्ष लक्ष्मी फल मिले।।१८॥ जितना अश शुद्धि का होगा उतनी आत्म विशुद्धि रे । सतत जाग्रत हो निजात्म मे मुक्ति प्राप्ति की बुद्धि रे ॥१९॥ पूर्ण शुद्धि होगी निजात्म में तब होगा निर्वाण रे । ज्ञानानन्दी गुण अनन्तपय स्वयं सिद्ध भगवान रे॥२०॥ ॐ ह्रीं श्री दर्सनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो पूर्णायं नि स्वाहा ।
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जैन पूजाँजलि दर्शनीय श्रवणीय आत्मा, बदनीय मननीय महान । शान्ति सिन्धु सुख सागर अनुपम, नव तत्वों में श्रेष्ठ प्रधान ।।
सोलह कारण भावना हरे जगत दुख द्वन्द । तीर्थकर पद प्राप्त कर करो सदा आनन्द ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमंत्र - ॐ ही श्री दर्शन विशुद्धयादि षोडशकारण भावनाम्यो नम
श्री दशलक्षणधर्म पूजन उत्तम क्षमा आत्मा का गुण उत्तम मार्दव विनय स्वरूप। उत्तम आर्जव माया नाशक उत्तम शौच लोभहर भूप।। उत्तम सत्य स्वभाव ज्ञानमय उत्तम सयम सवर रूप। उत्तम तप निर्जरा कर्म की उत्तम त्याग स्वरूप अनूप।। उत्तम आकिं चन विरागमय उत्तम ब्रह्मचर्य चिद्वप। धन्य धन्य दशधर्म परम पद दाता सुखमय मोक्ष स्वरूप।। ॐ ही उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य शौच, सयम, तप त्याग, आकिचन ब्रम्हचर्य दशलक्षण धर्म अत्र अवतर अवतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ अत्र मम सनिहितो भव भव वषट । जल स्वभाव शीतल निर्मल पीकर भी प्यास न बुझ पाई। जन्म मरण का चक्र मिटाने आज धर्म की सुधि आई ।। उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव शौच सत्य सयम तप त्याग। आकिंचन ब्रह्मचर्य धर्म के दशलक्षण से हो अनुराग।। ॐ ही श्री उत्तमक्षमादि दशधर्मागाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि दाह निक्दन चन्दन पाकर भी तो दाह न मिट पाई । राग आग की ज्वाल बुझाने आज धर्म की सुधि आई ।। उत्तम ॥२॥ ॐ ही श्री उत्तमक्षमादिदशधर्मागाय ससारतापविनाशनाय चदन नि । शुभ्र अखण्डित तन्दुल पाकर भी निज रुचि न सुहा पाई। अजर अमर अक्षय पद पाने आज धर्म को सुधि आई ।। उत्तम. ॥३॥ ॐ ही श्री उत्तमक्षमादि दशधागाय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि ।
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श्री दशलक्षणधर्म पूजन भव बीजांकुर पैदा करने वाला, राग देव हरलू ।।
वीतरागबन ससम्यभाव से, इस भव का अभाव करलू ।। अगणित पुष्प सुवासित पाकर काम व्याधि न मिट पाई। अब कन्दर्प दर्प हरने को आज धर्म की सुधि आई ।। उत्तम ।।४।। ॐ ही श्री उतमक्षमादि दशधर्मागाय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि जड़ की रुचि के कारण अब तक निज की तृप्ति न हो पाई। सहज तप्त चेतन पद पाने आज धर्म की सुधि आई ।। उत्तम ।।५।। ॐ ही श्री उत्तमक्षमादि दशर्मागाय क्षुषारोगविनाशनाय नैवेच नि मिथ्या भ्रम की चकाचौंध मे दुष्टि शुद्ध न हो पाई। मोह तिमिर का अन्त कराने आजधर्म की सुधि आई ।। उत्तम. ।।६।। *ही श्री उत्तमक्षमादि दशधर्मागाय मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि । आर्त रौद्र ध्यानों में रहकर धर्म ध्यान छवि ना भाई । अष्ट कर्म विध्वंस कराने आज धर्म की सुधि आई ।। उत्तम ।।७।। ॐ ही श्री उत्तमक्षादि दशधर्मागाय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि ।। राग हेय परिणति फल पाकर निजपरिणति ना मिल पाई। फल निर्वाण प्राप्त करने को आज धर्म की सुधि आई ।।उत्तम ॥८॥ ॐ ही श्री उत्तमक्षमादि दशधापाय महा मोक्षफल प्राप्ताय फलं नि । चौरासी के क्रूर चक्र में उलझा शान्ति न मिल पाई। निज अमरत्व प्राप्त करने को आज धर्म की सुधि आई उत्तम. ॥९॥ ही श्री उत्तमक्षमादि दशधांगाय अनर्य पद प्राप्ताय अयं नि ।
उत्तम क्षमा उत्तम क्षमा धर्म है सुख का सागर तीन लोक में सार । जन्म मरण दुख का अभाव कर शीघ्र नाश करता संसार ।। क्रोधकषाय विनाशक दुर्गति नाशक पुनियो द्वारा पूज्य । व्रत सयम को सफल बनाता सुगति प्रदाता है अतिपूज्य ।। जहाँ क्षमा है वहीं धर्म है स्वपर दया का मूल महान । जय जय उत्तम क्षमा धर्म की जो है जग मे श्रेष्ठ प्रधान।।।
ही श्री उत्तम क्षमा मांगाव अन्य नि स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि पापों की जड पर प्रहार कर, पुण्य मूल भी छेद करो । मोक्ष हेतु सवर के द्वारा, आश्रव का उच्छेद करो ।।
उत्तम मार्दव उत्तम मार्दव धर्म ज्ञानमय वसु मद रहित परम सुखकार । मानकषाय नष्ट करता है विनय गुणो का है भण्डार ।। विनय बिना तत्वों का हो सकता न कभी सम्यक श्रद्धान । दर्शन ज्ञान चरित्र विनय तप बिना न होता सम्यक्ज्ञान ।। जहाँ मार्दव वहीं धर्म है वहीं मोक्ष नगरी का बर। उत्तम मार्दव धर्म हमारा विनय भाव की जय जयकथार ॥२॥ ॐ ह्री श्री उत्तमार्दव धर्मागाय अयं नि स्वाहा ।
उत्तम आर्जव उत्तम आर्जव धर्म कुटिलता से विरहित ऋजुता से पूर्ण । निज आतम का परम मित्र है करता माया शल्य विचूर्ण । लेशमात्र भी मायाचारी कुगति प्रदायक अति दुख कार । सरल भाव चेतन गुण धारी टंकोत्कीर्ण महा सख कार ।। शिवमय शाश्वत मोक्ष प्रदाता मगलमय अनमोल परम । उत्तव आर्जव धर्म आत्म का अभय रूप निश्चल अनुपमा॥३॥ ॐ ह्री श्री उत्तम आर्जवधर्मागाय अयं नि स्वाहा ।
उत्तम शौच उत्तम शौच धर्म सुखकारी मन वच काया करता शुद्ध । लोभ कषाय नाश कर देता समकित होता परम विशुद्ध । ऋद्धि सिद्धि का लोभ न किन्चित इसके कारण हो पाता । जो सन्तोषामृत पीता है वही आत्मा को ध्याता ।। शौच धर्म पावन मगलमय से हो जाता है निर्वाण । उत्तम शौच धर्म ही जग मे करता है सबका कल्याणा।४।। ॐ ही श्री उत्तमशौचधर्मागाय अर्घ्य नि स्वाहा ।
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श्री दशलक्षणधर्म पूजन बार बार तूहब रहा है बैठ उपल की नावों में । शिव सुख सुषा समुद्र स्वय में, खोज रहा पर भावों में । ।
उत्तम सत्य उत्तम सत्य धर्म हितकारी निज स्वभाव शीतल पावन। वचन गुप्ति के धारी मुनिवर ही पाते हैं मुक्ति सदन।। सब धमों में यह प्रधान है भव तम नाशक सूर्य समान। सुगति प्रदायक भव सागर से पार उतरने को जलयान।। सत्य धर्म से अणवत और महावत होते हैं निर्दोष। जय जय उत्तम सत्य धर्म त्रिभुवन मे गूंज रहा जयघोष ।।५।। ॐ ह्री श्री उत्तमसत्यधर्मागाय अयं नि स्वाहा ।
उत्तम संयम उत्तम सयम तीन लोक मे दुर्लभ, सहज मनुज गति में । दो क्षण को पाने की क्षमता, देवों मे न सुरपति मे ।। पंचेन्द्रिय मन वश मे करना, उस थावर रक्षा करना । अनुकम्पा आस्तिक्य प्रशम सवेगधार मुनिपद धरना ॥ धन्य धन्य सयम की महिमा तीर्थकर तक अपनाते । उत्तम संयम धर्म जयति जय हम पूजन कर हर्षाते॥६॥ ॐ ह्री श्री उत्तमसयमधर्मागाय अयं नि स्वाहा ।
उत्तम तप उत्तम तप है धर्म परम पावन स्वरूप का मनन जहाँ । यही सुतप है अष्ट कर्म की होती है निर्जरा यहाँ ।। पचेन्द्रिय का दमन सर्व इच्छाओ का निरोध करना । सम्यक तप धर निज स्वभाव से भाव शुभाशुभ को हरना । ' धन्य धन्य बाह्यन्तर बादश तप विध धन्य धन्य मुनिराज । उत्तम तप जो धारण करते हो जाते हैं श्री जिनराज।।७।। ॐही श्री उसमतपयांगाय अयं नि स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि ज्ञानी स्वगुण चिन्तवन करता, अज्ञानी पर का चिन्तन । ज्ञानी आत्म मनन करता है, अज्ञानी विभाव मंधन ।।
उत्तम त्याग उत्तम त्याग धर्म है अनुपम पर पदार्थ का निश्चय त्याग । अभय शास्त्र औषधि अहार हैं चारों दान सरल शुभ राग।। सरल भाव से प्रेम पूर्वक करते है जो चारो दान। एक दिवस गृह त्याग साधु हो करते हैं निज का कल्याण।। अहो दान की महिमा तीर्थकर प्रभु तक लेते हैं आहार । उत्तम त्याग धर्म की जय जय जो है स्वर्ग मोक्ष दातार ॥८॥ ॐ ह्री श्री उत्तमत्यागधमांगाय अयं नि स्वाहा ।
उत्तम आकिंचन उत्तम आकिंचन है धर्म स्वरूप ममत्व भाव से दूर । चौदह अतरग दश बाहर के हैं जहाँ परिग्रह चूर।। तृष्णाओ को जीता पर द्रव्यों से राग नही किंचित। सर्व परिग्रह त्याग मुनीश्वर विचरें वन मे आत्माश्रित।। परम ज्ञानमय परमध्यानमय सिद्धस्वपद का दाता है । उत्तम आकिंचन व्रत जग मे श्रेष्ठ धर्म विख्याता है।।९।। ॐ ह्रीं श्री उत्तम आकिंचनधर्मागाय अयं नि स्वाहा ।
उत्तम ब्रह्मचर्य उत्तम ब्रह्मचर्य दुर्धर व्रत है सर्वोत्कृष्ट जग में । काम वासना नष्ट किये बिन नहीं सफलता शिवमग मे।। विषय भोग अभिलाषा तज जो आत्मध्यान में रम जाते। शील स्वभाव सजा दुर्मतिहर काम शत्रु पर जय पाते।। परमशील की पवित्र महिमा ऋषि गणधर वर्णन करते। उत्तम ब्रह्मचर्य के धारी ही भव सागर से तिरते ॥०॥ ॐ हीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यघांगाय अयं नि स्वाहा ।
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श्री दशलबणधर्म पूजन मिथ्यातम के जाए बिन, सच्ची सुख शान्ति नहीं होती । सम्यक दर्शन हो जाने पर, फिर पव प्रान्ति नहीं होती । ।
जयमाला उत्तम क्षमा धर्म को थारु क्रोध कषाय विनाश करूँ पर पदार्थ को इष्ट अनिष्ट न मानें आत्म प्रकाश कसै॥ उत्तम मार्दव धर्म ग्रहण कर विनय स्वरूप विकास करूँ। पर कर्तत्व मान्यता त्यागें अहकार का नाश करूँ ॥२॥ उत्तम आर्जव धर्मधार माया कषाय सहार करूँ। कपट भाव से रहित शुद्ध आतम का सदा विचार करूँ॥३॥ उत्तम शौच धर्म धारण कर लोभ कषाय विनष्ट करूँ शुचिमय चेतन से अशुद्ध ये चार घातिया कर्म हीं III उत्तम सत्य धर्म से निर्मल निज स्वरूप को सत्य करूँ हितमित प्रिय सचबोलूँ नित निज परिणति के सग नृत्य करूँ।।५।। उत्तम सयम धर्म सभी जीवो के प्रति करूणा धारूँ समितिगुप्ति व्रत पालन करके निज आतम गुण विस्तारु।।६।। उत्तम तप धर शुक्ल ध्यान से आठों कों को जारूँ। अन्तरग बहिरग तपों से निज आतम को उजियारूँ।।७।। उत्तम त्याग पाच पापों का सर्वदेश में त्याग करूँ। योग्य पात्र को योग्य दान दे उर मे सहज विराग भरूँ।।८॥ उत्तम आकिंचन रागादिक भावों का परिहार करूँ सर्व परिग्रह से विमुक्त हो मुनिपद अगीकार करूँ ॥९॥ उत्तम ब्रह्मचर्य उर थारूँ आत्म ब्रह्म में लीन रहूँ। कामवाण विध्वंस करूँ मैं शील स्वभावीधीन रहूँ ।।१०।। दशलक्षणवत की महिमा का नित प्रति जयजयगान करूँ । दश धयों का पालन करके महामोक्ष निर्वाण व ॥११॥ *ही श्री उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जब, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य दशम यो पूर्णाय नि स्वाहा ।
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जैन पूजांजलि सह अस्तित्व समन्वय होगा, संयममय अनुशासन से । सत्य अहिंसा अपरिग्रह अस्तेय शील के शासन से ।। श्री दशलक्षण धर्म की महिमा अगम अपार । जो भी इसको धारते होते भव पार।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र- ॐ ही श्री उत्तम क्षमा मार्दव आर्जव शौच सत्य सयम तप, त्याग,
आकिचन्य, ब्रह्मचर्य धर्मागाय नम ।
श्री रत्नत्रयधर्म पूजन जय जय सम्यक दर्शन पावन मिथ्या प्रम नाशक श्रद्धान । जय जय सम्यक ज्ञान तिमिर हर जय जय वीतराग विज्ञान ।। जय जय सम्यक चारित निर्मल मोह क्षोभ हर महिमावान । अनुपम रत्नत्रय धारण कर मोक्ष मार्ग पर करूँप्रयाण ॥ ॐ ह्री श्री सम्यकत्लत्रय धर्म अत्र अवतर अवतर सौषट, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । सम्यक सरिता सलिल जल खरा मिध्याभ्रम प्रभु दूर हटाव । जन्म मरण का क्षय कर डालूँ साम्य भाव रस मुझे पिलाव ॥ दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन करके राग द्वेष का करूँ अभाव ॥१॥ ॐ ह्री श्री सम्यकरत्नत्रय धर्माय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जल नि शुभ भावो का चदन घिस-घिस निज से किया सदा अलगाव । भव ज्वाला शीतल हो जाये ऐसी आत्म प्रतीत जगाव ।।दर्शन ॥२॥ ॐ ही श्री सम्यकरत्नत्रय धर्माय ससारताप विनाशनाय चंदन नि । भव समुद्र की भवरो मे फ्स टूटी अब तक मेरी नाव । पुण्योदय से तुमसा नाविक पाया मुझको पार लगाव ।।दर्शन ॥३॥ ॐ ही श्री सम्यकरत्नत्रय धर्माप अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । काम क्रोध मद मोह लोभ से मोहित हो करता पर भाव । दृष्टि बदलजाये तो सृष्टि बदलजाये यह सुमतिजगावदर्शन ।।४।। ॐ ही श्री सम्यक्ररत्नत्रयधर्माय कामबाण विष्वसनाय पुष्प नि ।
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श्री रत्नत्रयधर्म पूजन कष्टरों से भरपूर सर्वथा यह ससार असार है।
निज स्वभाव के द्वारा मिलता शिव सुख अपस्पार है ।। पुण्य भाव की रुचि में रहता इच्छाओ का सदा कुभाव । क्षुधारोग हरनेको केवल निज की रुचि ही श्रेष्ठ उपाव दिर्शन ।।५।। ॐ हीं श्री सम्यकरलत्रयधर्माय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि । ज्ञान ज्योति बिन अधकार में किये अनेकों विविध विभाव ।। आत्मज्ञान की दिव्यविभा से मोहतिमिर का कांअभाव।। दर्शन ॥६॥ ॐ हीं श्री सम्यकरत्नत्रयधर्माय मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि ।। घाति कर्म ज्ञानावरणादि निज स्वरूप घातक दुर्भाव। ध्रव स्वभावमय शुद्ध दृष्टि दो अष्टकर्म से मुझे बचावीदर्शन ।।७।। ॐ ही श्री सम्यकत्लत्रयधर्माय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । निज श्रद्धानज्ञान चारित्रमय निजपरिणति से पा निज ठॉव। महामोक्ष फल देने वाले धर्म वृक्ष की पाऊँ छाँव।।दर्शन ।।८।। ॐ ह्री श्री सम्यकरत्नत्रयधर्माय महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । दुर्लभ नर तन फिर पाया है चूक न जाऊँ अन्तिम दाव । निज अनर्घ पद पाकर नाश करूँगा मै अनादि का घाव।। दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव। रत्नत्रय की पूजन करके राग द्वेष का करूँ अभाव ।। दर्शन ।।९।। ॐ ह्री श्री सम्यकलत्रयधर्माय अनर्थ पद प्राप्ताय अयं नि ।
सम्यक दर्शन आत्मतत्व की प्रतीत निश्चय सप्ततत्व श्रद्धा व्यवहार । सम्यक दर्शन से हो जाते भव्य जीव भव सागर पार ॥१॥ विपरीताभिनिवेश रहित अधिगमज निसर्गज समकित सार। औपशमिक क्षायिक क्षयोपशम होता है यह तीन प्रकार ॥२॥ आर्ष, मार्ग, बीज, उपदेश, सूत्र, सक्षेप अर्थ विस्तार। समकित है अवगाड़ और परमावगाड़ दश भेद प्रकार ॥३॥ जिन वर्णित तत्त्वों में श का लेश नहीं, निशकित अग। सुरपद या लौकिकसुख बाँछा लेश नहीं, निःकांक्षित अग ।।४।।
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जैन पूजांजलि भावलिंग बिन द्रव्यलिंग का तनिक नहीं कुछ मूल्य है।
अविरत चौथा गुणस्थान भी शिव पथ में बहुमूल्य है ।। अशुचिपदार्थों में न ग्लानि हो शुचिमय निर्विचिकित्सा अंगा देव शास्त्र गुरु धर्मात्माओ में रूचि अमूडद्रष्टि सुअंग ॥ पर दोषो को ढकना स्वगुण वृद्धि करना उपगृहन अंग । धर्म मार्ग से विचलित को थिर रखना स्थितिकरणसुअंग॥६॥ साधर्मी मे गौ बच्स सम पूर्ण प्रीति वात्सल्य सुअंग। जिन पूजा तप दया दान मन से करना प्रभावनम अंग।७॥ आठ अग पालन से होता है सम्यक दर्शन निर्मला सम्यक ज्ञान चरित्र उसी के कारण होता है उज्ज्वल ॥८॥ शका कांक्षा विचिकित्सा अरु मूढदृष्टि अनउपगूहन । अस्थितिकरण अवात्सल्य अप्रभावना वसु दोष सघन ।।९।। कुगुरुकुदेव कुशास्त्र और इनके सेवक छ अनायतन । देव पूढता गुरुमूढता लोक पूढता तीन जघन।।१०।। जाति रूपकुल ऋद्धि तपस्या पूजा और ज्ञान मद आठ । मूल दोष सम्यक दर्शन के यह पच्चीस तजो मद आठ ॥११॥ जय जय सम्यक दर्शन आठों अंग सहित अनुपम सुखकार । यही धर्म का सुदृढ मूल है इसकी महिमा अपरम्पार ॥१२॥ ॐ ही श्री अष्टाग सम्यक् दर्शनाय अनर्घपदप्राप्तये अयं नि ।
सम्यक ज्ञान निज अभेद का ज्ञान सुनिश्चिय आठ भेद सब हैं व्यवहार । सम्यक ज्ञान परम हितकारी शिव सखदाता मंगलकार।।॥ अक्षर पद वाक्यो का शुद्धोच्चारण है व्यंजनाचार । शब्दो के यथार्थ अर्थ का अवधारण है अर्थाचार ।।२।। शब्द अर्थ दोनो का सम्यक जानपना है उभयाचार । योग्यकाल मे जिनश्रुत का स्वाध्याय कहाता कालाचार ।।३।। नम्र रूप रह लेशन कुद्धत होना ही है विनयाचार । सदा ज्ञान का आराधन, स्मरण सहित उपध्यानाचार।।४।।
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श्री रत्नत्रयधर्म पूजन दान अपक्षा मे ता सम्यक दृष्टि सदा ही मुक्त है ।
शुद्ध त्रिकान्नी ध्रुव स्वरूप निज गुण अनत से युक्त है ।। शास्त्रो के पाठी अफ श्रुत का आदर है बहुमानाचार । नहीं छुपाना शास्त्र और गुरु नाम अनिन्हव है आचार ।।५।। आठ अग है यही ज्ञान के इनमे दूढ हो सम्यक जान । पाच भेद है पति श्रुत अवधि मन पर्यय अरु केवलज्ञान।।६।। मति होता है इन्द्रिय मन से तीन शतक अरु छत्तीसभेद । श्रुत के प्रथम करण चरण द्रव्य उअनुयोग सु भेद ।।७।। द्वादशाग चौदह पूरब परिकर्म चूलिका प्रकीर्णक। अक्षर और अनक्षरात्मक भेद अनेको है सम्यक ॥८॥ अवधि ज्ञान त्रय देशावधि परपावधि सर्वावधि जानो । भवप्रत्यय के तीन और गुणप्रत्यय के छह पहिबानो।।९।। मन पर्यय ऋजुमति विपुलमति उपचार अपेक्षा से जानो । नय प्रमाण से जान ज्ञान प्रत्यक्ष परोक्ष पृथक मानो ॥१०॥ जय जय सम्यक ज्ञान अप्ट अगो से युक्त मोक्ष सुखकार । तीन लोक मे विमल ज्ञान की गूजरही हैं जय जयकार ।।११।। ॐ ह्री श्री अष्टविध सम्यक् ज्ञानाय अनर्घपदप्राप्तये अर्घ्य नि ।
सम्यक चारित्र निजस्वरूप मे रमण सुनिश्चिय दो प्रकारचारित व्यवहार । श्रावक त्रेपन क्रिया साधु का तेरह विधि चारित्र अपार ।।१।। पच उदम्बर जय मकार तज, जीवदया, निशि भोजन न्याग । देववन्दना जल गालन निशिभोजन त्यागी श्रावक जान ।।२।। दर्शन ज्ञान चरित्रमयी ये त्रेपन क्रिया सरल पहिचान । पाक्षिक नष्ठिक साधक तीनो श्रावक के है भेद प्रधान ॥३॥ परम अहिंसा घटकायक के जीवो की रक्षा करना । परमसत्य है हितमित प्रिय वच सरलसत्य उर मे धरना ।।४।। परम अचौर्य, बिना पूछे तृण तक भी नहीं ग्रहण करना । पच महाव्रत यही साधु के पूर्ण देश पालन करना ।।५।।
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जैन पूजाँजलि केवल निज परमात्म तत्व की श्रद्धा ही कर्तव्य है ।
आत्म तत्व श्रद्धानी का ही तो उज्ज्वल भवितव्य है ।। ईर्या समिति सु प्रासुक भू पर चार हाथ भू लख चलना । भाषा समिति चार विकथाओ से विहीन भाषण करना ।।६।। श्रेष्ठ ऐषणा समिति अनु देषिक आहार शुद्धि करना । है आदान निक्षेपण मयम के उपकरण देख धरना ।।७।। प्रतिष्ठापना समिति देह के मल भू देख त्याग करना । पच समिति पालन कर अपने राग द्वेष को क्षय करना ।।८।। मनोगुप्ति है सब विभाव भावो का हो मन से परिहार ।। वचनगुप्ति है आत्म चितवन ध्यान अध्ययन मौन सवार।।९।। काय गुप्ति है काय चेष्टा रहित भाव पय कायोत्सर्ग । तीन गुप्ति धर साधु मुनीश्वर पाते है शिवमय अपवर्ग ।।१०।। षट आवश्यक द्वादश तप पचेन्द्रिय का निरोध अनुपम । पचाचार विनय आराधन द्वादश व्रत आदिक सुखतम ।।११।। अट्ठाईस मूलगुण धारण सप्त भयो से रहना दूर । निजस्वभाव आश्रय से करना पर विभाव को चकनाचूर ।।१२।। निरतिचार तेरह प्रकार का है चारित्र महान प्रधान । इसके पालन से होता है सिद्ध स्वपद पावन निर्वाण।।१३।। श्रेष्ठधर्म हे श्रेष्ठमार्ग है श्रेष्ठ साधु पट शिव सुखकार । मम्यक्चारित्र बिना न कोई हो सकता भव सागर पार।।१४।। ॐ ह्री श्री त्रयोदशविधि सम्यक चारित्राय अनर्यपद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला अष्ट अगयुत निर्मल सम्यक दर्शन मै धारण कर लूँ । आठ अगयुत निर्मल सम्यक ज्ञान आत्म मे वरच्।।१।। तेरह विधि सम्यक चारित्र के मुक्ति भवन में पग धरनू । श्री अरहत सिद्ध पद पाऊँ सादि अनत सौख्य भरलूँ ।।२।। निज स्वभाव का साधन लेकर मोक्ष मार्ग पर आ जाऊँ। निजस्वभाव धर भाव शुभाशुभा परिणामो पर जयपाऊँ ।।३।।
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श्री रत्नत्रयधर्म पूजन वस्तु त्रिकाली निरावरण निदोप सिद्ध सम शुद्ध है ।
द्रव्य दृष्टि बनने वाला ही होता परम विशुद्ध हे ।। एक शुद्ध निज चेतन शाश्वत दर्शन ज्ञान स्वरूपी जान । ध्रुव टकोत्कीर्ण चिन्मय चित्चमत्कार विद्वपी मान ।।४।। इसका ही आश्रय लेकर मै मदा इसी के गुण गाऊँ। द्रव्यदृष्टि बन निजस्वरूप की महिमा से शिवसुखपाऊँ ।।५।। रत्नत्रय को वन्दन करके शुद्धात्मा का ध्यान करूं। मम्यक दर्शन ज्ञान चम्ति से परम स्वपद निर्वाण वरूँ।।६।। ॐ ही सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारित्रमयी रत्नत्रय धर्म यो अर्घ्य निर्वपामांति स्वाहा ।
रत्नत्रय व्रत श्रेष्ठ की महिमा अगम अपार । जो व्रत को धारण करे हो जाये भव पार ।।
इत्याशीर्वाद आाग्यमन्त्र ॐ ह्री श्री सम्यक दर्शनज्ञानचारित्रभ्यो नम
जय बोलो सम्यक दर्शन की जय बोलो सम्यक दर्शन की रन्नत्रय के पावनधन की, यह मोह ममत्व भगाता है, शिवपथ मे सहज लगाता है । जय निज स्वभाव आनन्द धन जी जय बोलो ।।१।। परिणाम सरल हो जाते हे. सार मकट टल जाते है ।। जय सम्यक ज्ञान परमधन की जय बोलो ।।२।। जय तप सयम फल देते है भव की बाधा हर लेते है । जय सम्यक चारित्र पावन की ॥ जय बोलो ।।३।। निज परिणति रुचि जुड़ जाती है कर्मों की रज उड जाती है । जय जय जय मोक्ष निकेतन की ॥ जय बोलो।।४।।
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जैन पूजांजलि जो चारित्र भ्रष्ट है वह तो एक दिवस तर सकता है । पर श्रद्धा से प्रष्टकभी भव पार नही कर सकता है।।
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विशेष - पूजायें जिनागम मे "जिनेन्द्र पूजन” पाँच प्रकार को बतायी है । इन्द्रो द्वारा की जाने वाली “इन्द्रध्वज पूजन" अष्टमद्धीप नन्दीश्वर मे इन्द्रो व देवो द्वारा की जाने वाली “अष्टान्हिका पूजन" चक्रवर्ती सम्राटो के द्वारा की जाने वाली "कल्पद्रुम पूजन", मुकुटबद्ध गजाओ द्वारा की जाने वाली “सर्वतोभद्र पूजन" व श्रावको द्वारा की जाने वाली “नित्यमह पूजन" है । इन पूजनो के अतिरिक्त इस सग्रह में श्री तीर्थकर पचकल्याणक वाहुबली, गौतम-स्वामी, कुन्दकुन्दाचार्य, समयसार, जिनवाणी, जैसी उत्कृष्ट पूजने भी सम्मिलित है । इन पूजनो के माध्यम से सभी आत्मार्थी बन्धु मोक्षमार्ग के पथिक बनकर अजर अमर अविनाशी पद को प्राप्त करे । यही भावना है।
श्री जिनेन्द्र पंचकल्याणक पूजन चोबीसो जिन के पाँचो कल्याणक शुभ मगलदायी । गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष कल्याणक पूजूं सुखदायी ।। ऋषभ अजित सभव अभिनदन सुमतिपय सुपार्श्व भगवत । चद्र सुविधि शीतलश्रेयाश जिन वासुपूज्यप्रभु विमल अनत ।। धर्म शाति कुन्थुअग्हजिन पल्लि मुनिसुव्रत नाम गुणवत । नेमि पार्श्व प्रभु महावीर के पाँचो मगल जय जयवन्त ।। ॐ ह्री श्री जिनेन्द्रपचकल्याणक समूह अत्र अवतर अवतर सवौषट्। ॐ ह्री श्री जिनेन्द्रपचकल्याणक समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ही श्री जिनेन्द्रपचकल्याणक समूह अत्रमम सन्निहितो भव भव वषट् । शुभ्र नीर की तीन धार दे जन्म जरा मृतु हरण करूँ । सम्यक दर्शन की विभूति पा मोक्ष मार्ग को ग्रहण करूँ ।। जिन तीर्थकर के बतलाये रत्नत्रय को वरण करूँ। गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष पाचो कल्याणक नमन करूँ ।।१।। ॐ ही श्री जिनेन्द्र पचकल्याणकेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि ।
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५३
श्री जिनेन्द्र पंचकल्याणक पूजन चौरासी के चक्कर से बचना है तो निज ध्यान करो ।
नव तत्वो की श्रद्धापूर्वक स्वपर भेद विज्ञान करो ।। मलयागिरि चंदन अर्पित कर भव का आतप हरण करूँ। सम्यक ज्ञान प्राप्त कर मैं भी मोक्ष मार्ग को ग्रहण करूँ ।। जिन ।।२।। ॐ ह्री श्री जिनेन्द्रपचकल्याणकेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन नि अक्षत से अक्षय पद पाऊँभव सागर दुख हरण करूँ। सम्यक चारित्र के प्रभाव से मोक्ष मार्ग को गृहण करूँ ॥ जिन ॥३॥ ॐ ह्री श्री जिनेन्द्र पचकल्याणकेभ्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । सुन्दर पुष्प सुगन्धित लाकर काम शत्रु मद हरण करूँ। सम्यक तप की महाशक्ति से मोक्षमार्ग को ग्रहण करूँ ।। जिन ।।४।। ॐ ह्री श्री जिनेन्द्र पचकल्याणकेभ्यो कामबाणविध्वशनाय पुष्प नि । शुभ नैवेद्य भेटकर स्वामी क्षुधा व्याधि को हरण करूँ। शुद्ध ध्यान निज के प्रताप से मोक्ष मार्ग को ग्रहण करूँ जिन ॥५॥ ऊँही श्री जिनेन्द्र पचकल्याणके यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । तमका नाशक दीप जलाकर मोह तिमिर को हरण करूँ। निज अतर आलोकित करके मोक्ष मार्ग को ग्रहण करूँ।। जिन ।।६।। ॐ ह्री श्री जिनेन्द्र पचकल्याणकेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि । ध्यान अग्नि मे धूप डालकर अष्ट कर्म को गृहण करूँ ॥ - शक्ल ध्यान की प्राप्ति हेतु मै मोक्षमार्ग को गृहण करूँ ।। जिन ।।७।।
ॐ ह्री श्री जिनेन्द्र पचक्ल्याणकेभ्यो अष्टकर्मविर्वसनाय धूप नि । शुद्ध भाव फल लेकर स्वामी पाप पुण्य को हरण करूँ। परम मोक्षपद पाने को मै मोक्ष मार्ग को ग्रहण करूँ ।। जिन ।।८।। ॐ ह्री श्री जिनेन्द्र पचकल्याणकेभ्यो मोक्षफलप्राप्ताय फल नि । वसु विधि अर्घ चढ़ाकर मैं अष्टम वसुधा को वरण करूँ। निज अनर्थ पद प्राप्ति हेतु मैं मोक्षमार्ग को ग्रहण करूँ जिन ॥९॥ ॐ ह्री श्री जिनेन्द्र पचकल्याणकेभ्यो अनर्धपद प्राप्ताय अयं नि ।
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जैन पूजाँजलि भेदज्ञान के बिना न मिलता मिथ्या भ्रम का अत रे । घेदज्ञान में सिद्ध हुए है जीव अनतानत रे ।।
श्री गर्भकल्याणकअर्घ श्री जिन गर्भ कल्याण की महिमा अपरम्पार ।
रत्नो को बोछार हो घर घर मगलचार ।। गर्भ पूर्व छह मास जन्म तक नित नूतन मगल होते । नव बारह योजन नगरी रच इन्द्र महा हर्षित होते ।। गर्भ दिवस जिन माता को दिखते है सोलह स्वप्न महान । बैल, सिह, माला, लक्ष्मी, गज, रवि, शशि, सिहासन, छविमान ।। मीन युगल, दोकलश, सरोवर, सुरविमान, नागेन्द्र विमान । रत्न राशि, निधूमअग्नि मागर लहराता अतुल महान ।। स्वप्न फलो को सुनकर हर्षित, होता है अनुपम आनन्द । धन्य गर्भ कल्याण टेवियाँ सेवा करती है सानन्द ।।१।। ॐ ह्री श्री तीधकरगर्भ कल्याणके यो अर्घ्य नि स्वाहा ।
श्री जन्म कल्याणकअर्घ श्री जिन जन्म कल्याण की महिमा अपरम्पार।
तीनो लोको मे हुआ प्रभु का जय जयकार।। जन्म समय तीनो लोको मे होता है आनन्द अपार । सभी जीव अन्तमुहूर्त को पाने अनि माना मुखकार ।। इन्द्रशची ऐगवत पर चढ धूम मचाने आते है । जिन प्रभु का अभिषेक मेम पर्वत के शिखर रचाते है ।। क्षीरोदधि से एक सहरत्र अरु अष्ट कलश सुर भरते हैं । म्वर्ण कलश शुभ इन्द्रभाव मे प्रभ मस्तक पर करते है ।। मात पिता को सोप इन्द्र करता है नाटक नृत्य महान । परम जन्म कल्याण महोत्सव पर होता है जय जयगान ॐ ही श्री तीर्थंकरजन्मकल्याणकभ्यो अयं नि ।
॥२॥
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श्री जिनेन्द्र पचकल्याणक पूजन निज मे जागरुक रह पंच प्रमादों पर तुम जय पाओ । अप्रमन बन निज वैभव से सहज पूर्णता को लाओ ।।
श्री तप कल्याणकअर्घ श्री जिन तप कल्याण की महिमा अपरम्पार ।
तप सयम की हो रही पावन जय जयकार ।। कुछ निमित्त पा जब प्रभु के मन मे आता वैराग्य अपार । भव्य भावना द्वादश भाते तजते राजपाट ससार । लोकान्तिक ब्रह्मर्षि एक भव अवतारी होते पुलकित । प्रभु वेराग्य सुदृढ करने को कहते धन्य धन्य हर्षित ।। इन्द्रादिक प्रभु को शिविका पर ले जाते बाहर वन मे । महाव्रती हो केश लोचकर लय होते निज चितन मे ।। इन केशो को इन्द्र प्रवाहित क्षीरोदधि मे करता है । तप कल्याण महोत्सव तप की विमल भावना भरता है ॥३॥ ॐ ही श्री तीर्थकर तपकल्याणकभ्यो अर्घ्य नि स्वाहा ।
श्री ज्ञान कल्याणकअर्घ परम ज्ञान कल्याण की महिमा अपरम्पार ।
स्वपर प्रकाशक आत्म मे झलक रहा ससार ।। क्षपक श्रेणी चढ शुक्ल ध्यान से गुणस्थान बारहवाँ पा । चार घातिया कर्म नाशकर गुणस्थान तेरहवा पा ।। केवलज्ञान प्रकट होते ही होती परमादारिक देह । अष्टादश दोषो मे विरहित छयालीस गुण मडित नेह ।। समवशरण की रचना होती होते अतिशय देवोपम । शत इन्द्रो के द्वारा वदित प्रभु की छवि अति सुन्दरतम ।। दिव्य ध्वनि खिरती है सब जीवो का होता है कल्याण । ~ परम ज्ञान कल्याण महोत्सव पर जिन प्रभु का ही यश गान ।।४।।
ॐ ही श्री तीर्थकर ज्ञानकल्याणकेभ्यो अयं नि स्वाहा ।
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जैन पूजॉजलि जो निवृत्ति की परम भक्ति में रहते हैं तल्लीन सदा । सिद्ध वधू के दिव्य मुकुट पर होते हैं आमीन सदा ।।
श्री मोक्ष कल्याणकअर्घ परम मोक्षकल्याण की महिमा अपरम्पार ।
अष्टकर्म को नाश कर नाथ हुए भवपार ।। गुणस्थान चौदहवाँ पाकर योगो का निरोध करते । अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वारा कर्म अघातिया भी हरते ।। अ,इ,उ,ऋ,ल उच्चारण मे लगता है जितना काल । तीन लोक के शीश विराजित ही जाते है प्रभु तत्काल ।। तन कपूर वत उड जाता है नख अरु केश शेष रहते । मायामयी शरीर देव रच अन्तिम क्रिया अग्नि दहते ॥ मगल गीत नृत्य वाद्यो की ध्वनि से होता हर्ष अपार । भव्य मोक्ष कल्याण मनाते सब जीवो को मगलकार।।५।। ॐ ही श्री तीर्थकर मोक्षकल्याणकेभ्यो आयं नि स्वाहा ।
जयमाला जिनवर पच कल्याणक की महिमा अगम अपार । गर्भ जन्म तप ज्ञान सह महामोक्ष शिवकार।।१।। वृषभादिक चोबीस जिनेश्वर के मगल कल्याण महान । गर्भ जन्म तप ज्ञान मोक्ष पाचो कल्याणक महिमावान ।।२।। श्री पचकल्याणक पूजन करके निज वैभव पाऊँ । सोलहकारण भव्य भावना मैं भी हे जिनवर भाऊँ ।३।। जिनध्वनि सुनकर मेरे मन मे रहा नहीं प्रभु भय का लेश । पूर्ण शुद्ध ज्ञायक स्वरुप मय एक मात्र है उज्ज्वल वेश ।।४।। सयोगी भावों के कारण भटक रहा भव सागर मे । जिन प्रभु का उपदेश सुना पर झिला नहीं निज गागर मे ।।५।। अवसर आज अपूर्व मिल गया प्रभु चरणों की पूजन का । सम्यकदर्शन आज मिला है फल पाया नर जीवन का ॥६॥
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श्री णमोकारमत्र पूजन संयम तप बैराग्य न जागा तो फिर तत्व मनन कैसा ।।
निज आतम का भानु न जागा तो फिर निज चितन कैसा ।। हे प्रभु मुझे मार्ग दर्शन दो अब मैं आगे बढ़ जाऊँ । अणुव्रत धार महाव्रत धाऊँ गुणस्थान भी चढ जाऊँ ।।७।। परम पचकल्याण विभूषित जिन प्रभु की महिमा गाऊँ। घाति अघाति कर्म सब क्षयकर शाश्वत सिद्ध स्वपद पाऊँ।।८।। ॐ ही श्री तीर्थकर गभ जन्म तप ज्ञान मोक्ष पचकल्याणकेभ्यो पूर्णाऱ्या नि ।
तीर्थंकर जिन देव के पूज्य पत्र कल्याण । भाव सहित जो पूजते पाते शाति महान ।।
इत्याशीर्वाद जाग्यमन्त्र ॐ ह्री श्री जिन पचकल्याणकेभ्यो नम ।
श्री णमोकारमंत्र पूजन ॐ णमो अरिहताण जप अरिहतो का ध्यान करूँ। णमो सिद्धाण जप कर सिद्धो का गुणगान करूँ।। ॐ णमो आयरियाण जप आचार्यों को नमन करूँ। ॐ णमो उवज्झायाण जप उपाध्याय को नमन करूँ।। णमो लोए सव्वसाहूण जप सर्व साधुओ को वन्दन । णमोकार का महा मन्त्र जप मिथ्यातम को करूं वमन।। ऐसो पच णमोयारो जप सर्व पाप अवसान करूँ । सर्व मगलो मे पहिला मगल पढ मगल गान करूँ ।। णमोकार का मन्त्र जपू मै णमोकार का ध्यान करूँ। णमोकार की महाशक्ति से निज आतम कल्याण करूँ ।। ॐ ह्री श्री पंचनमस्कारमन्त्र अत्र अवतर अवतर सवौषट ॐ ही श्री पच नमस्कार मन्त्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ॐ ह्री श्री पच नमस्कार मन्त्र अत्र मम सनिहिता भवभव वषट्। ज्ञानावरणी कर्मनाश हित मिथ्यातम का करूँ अभाव। जन्म मरण दुख क्षयकर डालूँ प्राप्तकरूँ निज शुद्धस्वभाव।। मनीकार कर मन्त्र जपे मैं णमोकार का ध्यान करूँ। णमोकार की महाशक्ति से नाथ आत्म कल्याण करूँ ।।
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जैन पूजाँजलि निज स्वरुप में थिर होना ही है सम्यक चारित्र प्रधान ।
परम ज्योति आनद पूर्णत है सम्यक चरित्र महान ।। ॐ ह्री श्री पचनमस्कार मत्राय ज्ञानावरणीकर्मविनाशनाय जल नि । दर्शनावरणी क्षय करने चिर अविरति का करूँ अभाव । यह ससारताप क्षय करने प्राप्त करूं निज शुद्ध स्वभाव। णमो ।।२।। ॐ ह्री श्री पचनमस्कारमत्राय दर्शनावरणी कौवनाशनाय चन्दन नि । वेदनीय की पीडा हरने करवू पच प्रमाद अभाव। अक्षय पद पाने को स्वामी प्राप्त करूँ निजशुद्ध स्वभाव।। णमो ।।३।। ॐ ह्री श्री पचनमस्कार मत्राय वदनीयकर्मविनाशनाय अक्षत नि । मोहनीय का दर्प कुचल, कर पूर्ण कषाय अभाव । कामबाण की व्याधि मिटाऊँग्राप्त करूँनिज शद्ध स्वभाव ।।णमो ।।४।। ॐ ह्री श्री पचनमस्कार मत्राय मोहनीयकर्म विनाशनाय पुष्प नि । आयु कर्म के सर्वनाश हित शीघ्र करूं त्रय योग अभाव । क्षुधा व्याधि का नाशकरूँमै प्राप्तकरूँ निज शुद्धस्वभाव णमो ।।५।। ॐ ह्री श्री पचनमस्कारमत्राय आयुकर्म विनाशनाय नैवेद्य नि नाम कर्म का मूल मिटाटू नष्ट करूंमै मब विभाव । भ्रम अज्ञान विनाश करूँमै प्राप्त करूँनिज शुद्धस्वभाव ।।णमो ।।६।। ॐ ह्री श्री पचनमस्कारमत्राय नामकर्म विनाशनाय दीप नि । गोत्रकर्म को दग्ध कमै कर्म प्रकृति सब करूंअभाव । अष्टकर्म विध्वस करूँमै प्राप्त करूँनिज शुद्ध स्वभाव।। णमो ।।७।। ॐ ह्री श्री पचनमस्कारमत्राय गोत्रकर्म विनाशनाय धूप नि अन्तगय मूलोच्दोद कर सर्व बध का करूँअभाव । परममोक्ष फल पाऊँस्वामी प्राप्त करूँनिज शुद्धस्वभाव ।।णमो ।।८।। ॐ ह्री श्री पचनमस्कारमत्राय अन्तरायकर्म विनाशनाय फल नि परमभेद विज्ञान प्राप्त कर करनँ मै समार अभाव । पद अनर्घ पाने को स्वामी प्राप्त करूँनिज शुद्ध स्वभाव ॥णमो ९० ॐ ह्री श्री पचनमस्कारमत्राय अनयंपदप्राप्ताय अर्घ्य नि
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श्री णमोकारमत्र पूजन जीव स्वय ही कर्म बाधता कर्म स्वय फल देता है । जीव म्वय पुरुषार्थ शक्ति से कर्म बध हर लेता है ।।
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जयमाला णमोकार जिन मत्र का जाप करूँदिन रात ।
पाप पुण्य को नाश कर पाऊँमोक्ष प्रभात ।। छयालीस गुणधारी स्वामी नमस्कार अरिहतो को । अष्ट स्वगुणधारी अनन्तगुण मडित बन्दू सिद्धो को।।१।। है छत्तीम गुणो से भूषित नमस्कार आचार्यों को । है पच्चीस गुणो से शोभित नमस्कार उपाध्यायो को।।२।। अट्ठाईस मूल गुणधारी नमस्कार सब मुनियो को । ॐ शब्द मे गर्भित पाँचो परमेष्ठी प्रभु गुणियो को।।३।। सर्व मगलो मे सर्वोत्तम सर्वश्रेष्ठ मगलदाना । ही शब्द मे गर्भित चौबीसो तीर्थकर विख्याता ।।४।। णमोकार पैतीस अक्षा का मत्र पवित्र ध्यान कर लूँ ।। यह नवकार मत्र अडसठ अक्षर से युक्त ज्ञान कर लूँ |५|| "अर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधु नम" भज लूँ। सोलह अक्षर का यह पावन पत्र जपूँ दुप्कृत तज लूँ।।६।। छह अक्षर का मत्र जपू “अरहत सिद्ध" को नमन करूँ। "अ मि आ उ सा" पचाक्षर का मत्र जपू अघशमन करूँ ।।७।। अक्षर चार पत्र जप लु “अरहत" देव का ध्यान करूं। “अर्हम्' अक्षर तीन, मत्र जप स्वपर भेद विज्ञान करूँ ।।८।। दो अक्षर का "सिद्ध मत्र जप सर्व सिद्धिया प्रकट करूं। अक्षर एक "ॐ" ही जपकर सब पापो को विघट करूँ।९।। सप्ताक्षर का मत्र “णमो अरहताण" का मै जाप करूँ । छह अक्षर का मत्र “णमो सिद्धाण' जप भवताप हरूँ।।१०।। सप्ताक्षर का मन “णमो आइरियाणं"जप हर्षाऊँ । सप्ताक्षर का “णमो उवज्झायाण" जप कर मुस्काऊँ ॥११॥
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जैन पूजाँजलि पण्य मार्ग तो सदा बहिर्मुख धर्म मार्ग अतर्मुख है ।
पुण्यों का फल जगत भ्रमण दुख और धर्म फल शिव मुख है ।। नौ अक्षर का मत्र “णमो लोए सव्वसाहूण" ध्याऊँ । "ऐसो पच णमोयारो" जप सर्व पाप हर सुख पाऊँ ।।१२।। नव पद या नवकार पाँच पद का मै णमोकार ध्याऊँ। एक शतक सत्ताईस अक्षर का चत्तारि पाऊँ गाऊँ ॥१३॥ "चत्तारि मगलम् श्रेष्ठ मगल है जग मे परम प्रधान । “अरिहता मगलम्" पाठ कर गाऊँ निज आतम के गान।।१४।। "सिद्धामगलम' “साह मगलम' का मै भाव हदय भरलें । "केवलि पण्णत्तो धम्मो मगलम् स्वधर्म प्राप्त करवू ।।१५।। "चत्तारि लोगोत्तमा" ही सर्वोत्तम है परम शरण । "अरिहता लोगोत्तमा" ही से होगा भव कष्ट हरण ।।१६।। “सिद्धा लोगोत्तमा" सु “साहू लोगोत्तमा" परम पावन । "केवलि पण्णतो धम्मो लोगोत्तमा" मोक्ष साधन ।।१७।। "चत्तारि शरण पव्वज्जामि" का गूजे जय जय गान। “अरिहतेशरण पव्वज्जामि का हो प्रभु लक्ष्य महान!१८!! "सिद्धेशरण पव्वज्जामि" मोक्ष सिद्ध को मै पाऊँ । “साहूशरण पव्वज्जामि" शुद्ध भावना ही भाऊँ।।१९।। "केवलि पण्णत्तो धम्मो शरण पठवज्जामि" है ध्येय। पहामोक्ष मगल शिवदाना पाँचो परमेष्ठी प्रभु श्रेय ।।२०।। महामन्त्र नि काक्षित होकर शुद्ध भाव से नित ध्याऊँ । पच परम परमेष्ठी का सम्यक स्वरूप उर मे लाऊँ ।।२१। णमो कार का मन्त्र जपू मै णमोकार का ध्यान करूँ। महामन्त्र की महाशक्ति पा नाथ आत्म कल्याण करूँ॥२२।। अर्ह अहँ अहँ जपकर निज शुद्धातम करवू भान । नम सर्व सिद्धेभ्य जपकर मोक्ष मार्ग पर करूँ प्रयाण ।।२३।। ॐ ही श्री पचनमस्कारमत्राय अयं नि स्वाहा ।
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श्री आदिनाथ भरत बाहुबलिजिन पूजन मम्यक दर्शन में विहीन है ता प्रत पालन में है कष्ट । गज पर चढ ईधन ढोने जैसा दुर्मति होता मति पृष्ट ।। णमोकार के मन्त्र की महिमा अगम अपार । भाव सहित जो ध्यावते हो जाते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जायपत्र -* हो श्री णमो अग्हताण, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाण
णमो उवज्झायाण णमो लोएमन्त्रमाण । श्री आदिनाथ भरत बाहुबलिजिन पूजन
स्थापना आदिनाथ प्रभु भरत बाहुबलि स्वामी को सादर वन्दन । पिता पुत्र शिवपुरगामी तीनो को सविनय अभिनन्दन ।। शुद्धज्ञान का आश्रय लेकर निजस्वभाव को किया नमरे । केवल्झान प्रगट कर पाया सहज भाव मे मुक्ति सदन ।। निज चैतन्य राज को ध्याया पापो का परिहार किया । निज स्वभाव से मुक्त हुए प्रभु सबने जयजयकार किया ।।
आदिनाथ प्रभु भरत बाहुबलि की पूजन कर हर्षाऊँ। निजस्वरुप की प्राप्ति करूं मै नित नूतन मगल गाऊँ ।। ॐ ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबलि जिनेन्द्र अत्र अवतर सवौषट आहवाहन ॐ ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबलि जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ उठ स्थापनम् ॐ ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबलिजिनेन्द्र अत्र मम मत्रि हितो भवभव वषट् मन्त्रि धिकरणम। भेद ज्ञान की प्राप्ति हेतु मे करूँ आत्मा का निर्णय । सम्यक जल की भेट चढाऊँ हो जाऊँ मै अमर अभय ।। आदिनाथ प्रभु भरत बाहुबलि की पूजन कर हर्षाऊँ। नित स्वरूप की प्राप्ति करूँ मै नित नूतन मगल गाऊँ ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ भरत बाहुबलि जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जल नि ।
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जैन पूजांजलि ज्ञानानन्द स्वरूप स्वरस ही पीने का करना पुरुषार्थ । मनि पद पाने का उद्यम करता है सफल सकल परमार्थ ।।
निज स्वभाव रस प्राप्ति हेतु मैं भेदज्ञान का लें आधार । सम्यक चन्दन भेट चढाऊभव आताप सकल निर वार आदिनाथ।।२।। ॐ ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबली जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । स्वपर विवेक जगा अन्तर मे अक्षय पद को प्राप्त करूँ। सम्यक अक्षत भेट चढाऊँवेदनीय दुखत्वरित हरूँ ।।आदिनाथ ।।३।। ॐ ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबली जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षत नि । कामभाव विध्वस हेतु मै शील स्वभाव महान धरूं। सम्यक पुष्प भेट कर स्वामी पर विभाव अवसार करूँ ।।आदिनाथ ।।४।। ॐ ह्री श्री आदिनाथ परत बाहुबली जिनेन्द्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । क्षधारहित मेरा स्वभाव है इसे नहीं जाना जिनराज । सम्यक चरु की भेट चढाऊँपाऊँस्वामी निजपद राज ||आदिनाथ ।।५।। ॐ ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबली जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवध नि । मोहभान्ति के महा शत्रु ने घेरा है मुझको दिनगत । सम्यक दीप चढाकर स्वामी पाऊँमै सम्यक्त्व प्रभात ॥आदिनाथ ॥६॥ ॐ ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबली जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । अष्टकर्म के बधन मे पड चारो गति मे भरमाया । सम्यक धूप चढाऊँइनके क्षय का अब अवसर आया ।।आदिनाथ ।।७।। ॐ ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबली जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूप नि । भवविषतरु फल खाए अब तक शाश्वत निज स्वभाव को भूल । सम्यक फल अर्पित करके प्रभु हो जाऊनिज के अनुकूल। आदिनाथ ।।८।। ॐ ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबली जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । सम्यक अयं चढा कर स्वामी पद अनर्घ्य निश्चित पाऊँ ।, मेरी यही प्रार्थना है प्रभु फिर न लौट भव मे आऊँ ।आदिनाथ ।।९।। ॐ ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबली जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अयं नि ।
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श्री आदिनाथ भरत बाहुबलिजिन पूजन भव का भार बढ़ाने वाला निश्चय बिन है यह व्यवहार । कितना भी सयम अगीकृत करले होगा कभी न पार ।।
अर्ध्यावलि आदिनाथ को नमन कर बन्दूँ भरत महेश । चरण बाहुबलि पूजकर वन्दूँ त्रय परमेश ।। प्रथक प्रथक त्रय अयं विनय सहित अर्पण करूँ। सकल विकारीभावना करूँ शुद्ध स्वभाव से ।।
श्री आदिनाथजी ऋषभदेव को नमन करूँ मै नाभिरायनृप के नदन । मरु देवी के राजदुलारे बारबार तुम्हे वन्दन ॥१॥ तुम सर्वार्थ सिद्धि से आए नगर अयोध्या जन्म लिया । इन्द्रादिक सुरनर सबने मिल जन्मोत्सव सानद किया ॥२॥ नदा आर सुनदा से परिणय कर लोकिक सुख पाया ।। नदा के सो पुत्र मुनदा ने सुत बाहुबली जाया नीलान्जना मरण लख तुमने वन मे जा वैराग्य लिया । ज्येष्ठ पुत्र थे भरत जिन्हे प्रभु तुमने राज्य प्रदान किया ॥४॥
ओपाधिक सारे विकार हर कर्म घाति अवसान किया । एक सहस्त्र वर्ष तप करके तुमने केवल्मान लिया ॥५॥ भरत क्षेत्र के भव्य प्राणियो को निश्चय सदेश दिया । खुला मोक्ष पथ जो कि बन्द था आत्म तत्त्व उपदेश दिया ।।६।। अखिल विश्व मे जल थल नभ मे प्रभु का जय जयकार हुआ । कोटि कोटि जीवो का प्रभु के द्वारा परमोपकार हुआ ॥७॥ मुक्त हुए कैलाश शिखर से प्रतिमा योग किया धारण । अष्टकर्म हर शिवपुर पहुचे जग के हुए तरणतारण ॥८॥ बार बार वन्दन करता हूँ बार बार मैं करूँ नमन । बार बार वन्दन करता हूँ तुमकों मैं आदिनाथ भगवान ॥९॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अयं नि ।
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जैन पूजांजलि मुनिपद ता निग्रन्थ भावना का प्रतीक है शिव सुखकार । अंतरग में तथा बाहा में नही परिग्रह का कुछ मार ।।
श्रीभरत जी भरत चक्रवर्ती की महिमा तीन लोक मे है न्यारी । छह खण्डो के स्वामी होकर भी प्रभु रहे निर्विकारी ॥१॥ दर्श मोह तो जीत चुके थे पूर्व भवो मे ही कर यत्न । पर चरित्र मोह जय करने का ही किया महान प्रयत्न ॥२॥ अनुज बाहुबलि से हारे पर मन मे आया नही कुभाव । वस्तुस्वरूप विचारा प्रभु ने मेग नो हे ज्ञान स्वभाव ।। नीरक्षीर का था विवेक जल कमल भाति वे रहते थे । नेल तोय मम प्रथक प्रथक वे पर भावो से रहते थे ॥४॥ गगद्वषे को जय करने का सदा यत्न वे करते थे । सम भावो से हर्ष विषादो को वे पल मे हरते थे ।५।। लाख तिरासी पूर्व आयु तक भोगे भोग ध्रौव्यविशाल । किन्तु लक्ष्य में शुद्ध आत्मा थी जो शाश्वत अटूट त्रिकाल ॥६॥ इसीलिए तो भग्न चक्रवर्ती के मन मे था उत्साह । पर मे रहकर पर से भिन्न रहे ऐमा था ज्ञान अथाह ।।७।। पूर्व भवो मे भेद ज्ञान की कला रही थी उनके पास ।। ज्ञाता द्रप्टा बनकर भोगे भोग रहे स्वभाव के पास ।।८।। निज स्वभाव मे आते आते ही वेगग्य महान हुआ ।। ज्ञानपयो निधि रस पीते पीते ही केवल ज्ञान हुआ ।।९।। यह सब कुछ अन्तमुहर्त मे हुआ भरत जी को तत्काल । आत्मज्ञान वैभव का महिमा दिया राग सब त्वरित निकाल ।।१०।। उनकी ऐसी उत्तम परिणति के पीछे था ज्ञान महान । इसीलिए अन्तमुहुर्त मे किए घातिया अरि अवसान ॥११॥ दे उपदेश भव्य जीवो को किया सर्व जग का कल्याण । धन्य धन्य हे भरत महाप्रभु इन्द्रादिक गाते गुणगान ।।१२।। निजानद ग्सलीन हुए फिर शेष कर्म भी कर अवसान ।
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श्री आदिनाथ भरत बाहुबलिजिन पूजन ऐसे मुनियों के दर्शन कर हृदय कमल खिल जाता है ।
जा अनादि से कभी न पाया वह शिव पथ मिल जाता है ।। पहंचे सिद्ध शिला पर म्वामी पाया सिद्ध स्वपद निर्वाण ।।१३।। यही कला यदि आ जाए प्रभु इस जीवन मे अब मेरे ।। फिर न लगाना मुझे पडेगा इस जग के अनन्त फेरे ॥१४॥ ॐ ह्री श्री भरत जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अर्घ्य नि ।
श्री बाहुबलि जी बाहुबली प्रभु के चरणो मे नमन करूँ मै बार बार । राज्य सपदा को तज तप का अवसर पाया भली प्रकार ॥१॥ छह खण्डो के विजयी भरत चक्रवर्ती जीते क्षण मे । राज्य अखड साधना करने जूझे कर्म रिसे रण मे ॥२।। घोर तपस्या का व्रत लेकर निश्चय सयम उर मे धार । एक वर्ष तप करके तुमने किया निर्जरा का व्यापार ॥३॥ पहिलेघाति कर्म जय कर के केवलज्ञान लब्धि पाई । फिर अघातिया जीते प्रभु ने मुक्तिरमा भी हाई ॥४।। पोदनपुर से मुक्त हुए प्रभु पाया शाश्वत पद निर्वाण । इन्द्रादिक देवो ने आकर गाए प्रभु के जय जय गान ।। हे प्रभु मेरे मकट हरलो मे अनादि से हूँ दुख युक्त । निज स्वभाव माधन की निधि दो हो जाऊंभव दुख से मुक्त ।।६।। ॐ ही श्री बाहुबली जिनन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला जिन गुण वर्णन कर सकूँ शक्ति नही भगवान । जिन गण मपत्ति प्राप्ति हित कीं स्वय का ध्यान ।।
छदताटक ऋषभदेव जिनवर को वन्दू बार बार मै हर्षाकर । ज्ञानभाव की प्राप्ति करूं मै भेद ज्ञान रस वर्षा कर ।। भरत मोक्ष गामी को बन्दू पूजन करके अष्ट प्रकार ।
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जैन पूजाँजलि पंच महाव्रत पच समिति त्रय गुप्ति सहित विचरण करते ।
अटाईम मूल गुण पूरे निरतिचार धारण करते ।। भाव वन्दना द्रव्य वन्दना दोनो से कर लें सत्कार ।। श्री बाहुबलि को मै बन्दु पर भावो का करूँ विनाश । अथक अडिग तप करूं निरतर ऐसा दो प्रभु ज्ञान प्रकाश ।। भव नन भोगो से विरक्त हो चलूँ आपके पथ पर नाथ । मैं अनाथ भी एक दिवस बन जाऊँगा तुव कृपा सनाथ ।। दृष्टि बदल जाते ही दिशा बदल जाती है सहज स्वयम् । हो जाता पुरुषार्थ मफल मिट जाता है मिथ्या भ्रमतम ।। जब तक दृष्टि नहीं बदलेगी तब तक ही भव दुख होगा । दृष्टि बदल जाएगी तो फिर अन्तर मे शिव मुख होगा ।। अब तक नो पर्याय दृष्टि रह यह समार बढाया है । द्रव्य दृष्टि से सदा दूर यह बध मार्ग अपनाया है ।। अब तो द्रव्य दृष्टि बन हरलें यह अनादि का मिथ्यातम । निज स्वभाव साधन से पाऊँअविचल मिद्ध स्वपद क्रमक्रम ।। नाथ आपको भव्य मूर्ति के दर्शन से होकर पावन । दो आशीर्वाद हे स्वामी पाऊँ निज स्वभाव साधन ।। जय तप व्रत सयम का वैभव मुझे प्राप्त हो जाए देव । सम्यक दर्शन ज्ञान चरिनमय पाऊँ मुक्ति मार्ग स्वयमेव ।। निज चेतन्य राज पद पाऊँ ऐसी कृपा कोर करदो। सम्यक दर्शन प्रगटाऊँ में ऐसी भव्य भोर कर दो ।। निश्चय सयम के प्रभाव से अप्ट कर्म अवसान करूं। शक्ल ध्यान का सबल पाकर महा मोक्ष निर्वाण वरूँ ।। ॐ ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबली जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अयं नि
ऋषभ भरत श्री बाहुबलि चरण कमल उर धार । मनवच तन जो पूजते हो जाते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाग्य मत्र-30 ह्री श्री आदिनाथ भरत बाहुबली जिनेन्द्राय नमः |
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श्री पच बालयति जिन पृजन मुर्छा भाव नहीं है मुझ में सर्व शल्य स ह नि शल्या । आत्म भावना के अतिरिक्त नही है मुझमें कोई शल्य ।।
श्री पंच बालयति जिन पूजन जय प्रभु वासुपूज्य तीर्थकर मल्लिनाथ प्रभु नेमि जिनेश । जय श्री पार्श्वनाथ परमेश्वर जय जय महावीर योगेश ।। राग द्वषे हर मोह क्षोभहर मगलमय हे जिन तीर्थश । पच बालयति परम पूज्य प्रभु बाल ब्रहाचारी ब्रोश ।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य मल्लिनाथ, नेमिनाथ पाश्वनाथ महावीर पच बालयनि जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट् आवाहन | ॐ ही श्री वासुपूज्य मल्लिनाथ, नेमिनाथ पार्श्वनाथ महाबार पच बालयति जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ पार्श्वनाथ, महावीर पच बालयति जिनेन्द्र अत्र मम मन्निहितो भव भव वपट पुष्पाजलि क्षिपामि । इस जल मे इतनी शक्ति नही जो अतरमल को धो डाले । शुद्धातम का जो अनुभव ले वह पूर्ण शुद्धता को पा ले ।। वासुपूज्य श्री मल्लि नेमि प्रभु पारस महावीर भगवान । पाप ताप सताप विनाशक पच बालयति पूज्य महान ॥१॥ ॐ ह्री श्री पच बालयति जिनेन्द्रभ्या जम जरा मृत्यु विनाशनाय जल नि । चन्दन में इतनी शक्ति नही जो अन्तर ज्वाला शान्त करे । शुद्धानम का जो अनुभव ले वह भव की पीडा शान्त करे ।।वामु ॥२॥ 3. ही श्री पच बालयनि जिनन्द्रध्या भवताप विनाशनाय चन्दन नि । तन्दुल में इतनी शक्ति नहीं जो निज अखण्ड पद प्रगटाये । शुद्धातम का जो अनुभव ले वह निश्चित अक्षय पद पाय वासु ।।३।। ॐ ह्री श्री पच बालयनि जिनन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षत नि । पुष्पो मे इतनी शक्ति नहीं जो शील ग्वभाव प्रकाश करे । शुद्धातम का जो अनुभव ले वह काम भाव नाश करे । । वासु ॥४॥ ॐ ही श्री पच बालयति जिनेन्द्राय कामबाण विध्वन्सनाय पुष्प नि । ऐसा नेवेद्य नही जग मे जो तृष्णा व्याधि मिटा डाले । शुद्धातम का जो अनुभव ले तो क्षुधा अनादि हटा डाले ।।वासु ।।५।। ॐ हीं श्री पच बालयति जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाम नैवेद्य नि ।
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जैन पूजओजलि जिनके मन में अभिलाषा है होती उनको सिद्धि नही ।
अभिलाषा वाले को होती शुद्ध भाव की बुद्धि नही ।। ऐसा दीपक न कही जग मे जो अन्तर के तम को हर ले। शुद्धातम का जो अनुभव ले वह अन्तर आलोकित कर ले वासु ॥६॥ ॐ ही श्री पच बालयति जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । जड रूप धूप मे शक्ति नही जो कर्म शक्ति का हरण करे । शुद्धातम का जो अनुभव ले वह निज स्वरूप का वरण करे वास ।।७।। ॐ ह्री श्री पच बालयति जिनेन्द्राय अष्ट कर्म दहनाय धूप नि । तरु फल मे ऐसी शक्ति नहीं जो अन्तर पूर्ण शान्ति छाये । शुद्धातम का जो अनुभव ले वह महा मोक्ष फल को पाये ।। वासु ।।८।। ॐ ह्री श्री पच बालर्यान जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्ताय फल नि । यह अर्घ्य न ऐमा शक्तिवान् जो सिद्ध लोक तक पहुँचाये । शुद्धातम का जो अनुभव ले वह निज अनर्घ पद को पाये ।। वासु ।।९।। ॐ ह्री श्री पच बालयति जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्तये अयं नि ।
अर्घावलि-श्री वासुपूज्य स्वामी चम्पापुर राजा वसुपूज्य मुमाता विजया के नन्दन । पन्द्रह मास रतन बरसाये सुरपति ने माँ के ऑगन ।।१।। दिक्कुमारियो ने सेवा कर मां का किया मनोरजन । सोलह स्वप्न लखे माता ने निद्रा मे सोते इक दिन ।।२।। जन्म लिया तुमने कुमार वय मे ही की दीक्षा धारण । चार घातिया कर्म नाश कर केवलज्ञान लिया पावन ।।३।। भादव शुक्ला चतुर्दशी को चम्पापुर से मुक्त हुए । परम पूज्य प्रभु हर अघातिया, मुक्ति रमा से युक्त हुए ।।४।। महिष चिह्न चरणो मे शोभित वासुपूज्य को करूं नमन । शुद्ध आत्मा की प्रतीति कर मै भी पाऊँ मुक्ति सदन ।।५।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय गर्भजन्मतपज्ञानमोक्ष कल्याण प्राप्ताय अयं नि ।
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श्री पंच बालयति जिन पूजन
६९ इच्छा से चिन्ता होती है चिन्ता से होता है क्लेश । मुझे न कोई भी चिन्ता है मुझमें चिन्ता कही न लेश ।।
श्री मल्लिनाथ स्वामी मिथिलापुर नगरी के अधिपति कुम्भराज गृह जन्म लिया । माता प्रभावती हर्षायी देवो ने आनन्द किया ॥१॥ ऐरावत गज पर ले जाकर गिरि सुमेरु अभिषेक किया । मात-पिता को सौप इन्द्र ने हर्षित नाटक नृत्य किया ॥२॥ लघु वय मे ही दीक्षा धारी पच मुष्ठि कच-लोच किया । छह दिन ही छग्रस्थ रहे फिर तुमने केवलज्ञान लिया ॥३।। सवल कूट शिखर सम्मेदाचल पर जय जय गान हुआ । फागुन शुक्ल पचमी के दिन महा मोक्ष कल्याण हुआ ।।४।। कलश चिह्न चरणो मे शोभित मल्लिनाथ को करूं नमन । मन, वच, तन प्रभु के गुण गाऊ मै भी पाऊ सिद्ध सदन ।।५।। ॐ ही श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय गर्भजन्मतमानमोक्ष पचकल्याणक प्राप्ताय अयं नि ।
श्री नेमिनाथ स्वामी नृपति समुद्र विजय हर्षाये शिव देवी उर धन्य किया । नेमिनाथ तीर्थकर तुमने शोर्यपुरी मे जन्म लिया ॥१॥ नगर द्वारिका से विवाह हित जूनागढ को किया प्रयाण । पशुओ की करुणा पुकार सुन उर छाया वैराग्य महान ।।२।। भव तन भोगो से विरक्त हो पत्र महाव्रत ग्रहण किया । शीघ्र अनन्त चतुष्टय प्रगटा, पर विभाव सब हरण किया ।।३।। ले कैवल्य मोक्ष सुख पाया, पाया शिवपद अविकारी । शुभ आषाढ शुक्ल अष्टम को धन्य हो गई गिरनारी ।।४।। शख चिह चरणो मे शोभित नेमिनाथ को करूं नमन । निज स्वभाव के साधन द्वारा मैं भी पाऊँ मुक्ति सदन ।।५।। ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय गर्भजन्मतपज्ञानमोक्ष पच कल्याणक प्राप्ताय अर्घ्य नि ।
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जैन पूजौंजलि पर से प्रथाभूत होने पर ज्ञान भावना जाती है । निज स्वभाव से मजी माधना देख कलुषता मगती है ।।
श्री पार्श्वनाथ स्वामी वाराणसी नगर अति सुन्दर अश्वसेन नृप के नन्दन । माता वामादेवी के सुत पार्श्वनाथ प्रभु जग वन्दन ।।१।। तुम कुमार वय मे ही दीक्षित होकर निज मे हए मगन । कमठ शत्रु कर मकान कुछ भी यदपि किया उपसर्ग सघन ॥२॥ केवलज्ञान प्राप्त होते ही रचा इन्द्र ने ममवशरण । दे उपदेश भव्य जीवो को मुक्ति वधू का किया वरण ।।३।। श्रावण शुक्ल मप्तमी के दिन अष्ट कर्म का किया हनन । कूट स्वर्णभद्र सम्मेद शिखर से पाया सिद्ध सदन ॥४॥ सर्प चिन्ह चरणो में शंभित पार्श्वनाथ को करूं नमन ।
कालिक ज्ञायक स्वभाव से मै भी पाऊँ मोक्ष भवन ।।५।। ॐ ह्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय गर्भजन्मतपज्ञानमोक्ष पच कल्याणक प्राप्ताय अर्घ्य नि ।
श्री महावीर स्वामी कुण्डलपुर वेशाली नृप सिद्धार्थ पुत्र श्री वीर जिनेश । प्रिय कारिणी मात त्रिशला के उर से जन्मे महा महेश ।।१।।
अविवाहित रह राजपाट मब ठुकराया मुनिव्रत धारे । द्वादश वर्ष तपस्या करके कर्म शिथिल सब कर डारे ।।२।। केवल लब्धि प्रगट कर स्वामी जगती को उपदेश दिया । तीस वर्ष तक कर विहार प्रभु मोक्ष मार्ग सदेश दिया ॥३॥ कार्तिक कृष्ण अमावस्या को अष्ट कर्म अवसान किया । पावापुर के महोद्यान से सिद्ध स्वपद निर्वाण लिया ।।४।। सिंह चिन्ह चरणों मे शोभित वर्धमान को करूँ नमन । ध्रुव चैतन्य स्वरुप लक्ष्य मे ले मैं भी पाऊँ मुक्ति भवन ॥५॥ ॐ ही श्री महावीर जिनेन्द्राय गर्भजन्मतपज्ञानमोक्ष पच कल्याणक प्राप्ताय अयं नि ।
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श्री पच बालयति जिन पूजन भ्रम से क्षुब्ध हुआ मन होता व्यग्र सदा पर भावों से । अनुभव बिना भ्रमित होना है जुडता नहीं विभावों से ।।
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जयमाला जय प्रभु वासुपूज्य जिन स्वामी मल्लिनाथ जय नेमि महान । जय श्री पार्श्वनाथ प्रभु जिनवर जय जय महावीर भगवान ॥१॥ पर परिणति तज निज परिणति से चारो गति हर हुए महान । पांचो तीर्थंकर प्रभु तुमने पाई पचम गति निर्वाण ॥२॥ अब वेराग्य जगे मन मेरे भव भोगो मे र नही । भाव शुभाशुभ के प्रपत्र मे ओर अधिक अब थम नही ।।३।। भक्ति भाव से यही विनय है निज अटूट बल दो स्वामी । चितामणि रत्नत्रय पाकर बन जाऊँ शिव पथ गामी ॥४।। में पाचो ममवाय प्राप्त कर निज पाचो स्वाध्याय करूं । पचम करण लब्धि को पाकर भेदज्ञान पुरुषार्थ करूँ ॥५।। वर्ण पच रस पत्र गध दो, स्पर्श अष्ट मुझमे न कही । पाच वर्गणा पुद्गल की पर्यायो से सबध नही ।।६।। पत्रभेद मिथ्यात्व त्यागकर समकित अगीकार करूँ। पत्र पाप तज एकदेश पाचो अणुव्रत स्वीकार करूँ ।।७।। पचेन्द्रिय के पच विषय तज पच प्रमाद विनाश करूं। पच महाव्रत पच समितिधर पचाचार प्रकाश करूँ ।।८।। पत्र प्रकार भाव आश्रव का बध नही होने पाए । पचोनर के वैभव का भी लोभ नही उर मे आए ॥९॥ सयम पाँच प्रकार ग्रहण कर मैं पात्रो चारित्र धर्में। पचम यथाख्यात चारित पा कर्मघातिया नाश करूँ ।।१०।। पचम भाव पारिणामिक से पाऊँ स्वामी पचम ज्ञान । पच परावर्तन अभाव कर पाऊँ पचम गति भगवान।।११।। पच बालयति तुम चरणो मे यही विनय है बारम्बार । सादि अनत सिद्ध पद पाऊँ नित्य निरजन शिवसुखकार ।।१२।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य मल्लिनाथ नमिनाथ पार्श्वनाथ महावीर पच बालयति जिनेन्द्राय पूर्णाध्यं नि ।
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जैन पूजॉजलि निज अनुभव अभ्यास अध्ययन से होता है ज्ञान यथार्थ । पर का अध्यवसान दुख मयी चारों गति दुख मयो परार्थ ।। पच बालयति प्रभु चरण भाव सहित उर धार । मन वच तज जो पूजते वे होते भव पार ।।
इत्याशीवाद जाग्यमन्त्र-ॐ ही श्री पच बालयति जिनन्द्राय नम ।
श्री शान्ति कुन्थु अरनाथ जिन पूजन जय शान्तिनाथ हे शान्तिमूर्ति जय कुन्थुनाथ आनन्द रूप । जय अरहनाथ अरि कर्मजयी तीनो तीर्थंकर विश्वभूप ।। तुम कामदेव अतिशय महान सम्राट चक्रवर्ती अनूप । भव भोग देह से हो विरक्त पाया निज सिद्ध स्वपद स्वरूप । ॐ ही श्री शातिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सवोषट । ॐ ह्री श्री शातिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ह्री श्री शातिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट । पावन निर्मल नीर समुज्ज्वल श्री चरणो अर्पित है । जन्म मरण नाशो हे स्वामी सादर ह्रदय समर्पित है ।। शान्ति कुन्थु अरनाथ जिनेश्वर तीर्थकर मगलकारी । कामदेव सम्राट चक्रवर्ती पद त्यागी बलिहारी ॥१॥ ॐ ह्री श्री शाति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जल नि । तन का ताप विनाशक चन्दन श्री चरणो मे अर्पित है । भव आताप मिटाओ स्वामी सादर ह्रदय समर्पित है । शान्ति ॥२॥ ॐ ही श्री शातिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय ससार ताप विनाशनाथ वदन नि । अक्षय तन्दुल पुज मनोहर श्री चरणो मे अर्पित है । अनुपम अक्षय निज पद दो प्रभु सादर ह्रदय समर्पित है ।। शान्ति ।।३॥ ॐ ह्री श्री शातिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि । अतिशय सुन्दर भाव पुष्प शुभ श्री चरणो मे अर्पित है । कामरोग विध्वस करो प्रभु सादर ह्रदय समर्पित है । शान्ति ॥४॥ ॐ ही शातिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विश्वसनाय पुष्प नि ।
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श्री शान्ति कुन्थु अरनाथ जिन पूजन जन्म जरा मरणादि व्याधि से रहित आत्मा ही अद्वैत । परम भाव परिणामों से भी विरहत कहीं इसमें द्वैत ।।
मन भावन नैवेद्य सुहावन श्री चरणों में अर्पित है । क्षधा व्याधि नाशो हे स्वामी सादर ह्रदय समर्पित है ।। शान्ति ।।५।। ॐ श्री शातिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्य नि अन्धकार नाशक जडदीपक श्री चरणो मे अर्पित है । मोह तिमिर हरलो हे स्वामी सादर ह्रदय समर्पित है । शान्ति ॥६॥ ॐ ही श्री शातिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय महिाधकार विनाशनाय दीप नि । महा सुगन्धित धूप निशकित श्री चरणों मे अर्पित है । अष्ट कर्म अरि ध्वस करो प्रभु सादर ह्रदय समर्पित है । शान्ति ।।७।। ॐ ह्री श्री शातिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय अष्ट कर्म विध्वशनाय धूप नि । पुण्य भाव का सारा शुभफल श्री चरणो मे अर्पित है । परम मोक्ष फल दो हे स्वामी सादर ह्रदय समर्पित है । शान्ति ॥८॥ ॐ ह्री श्री शातिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । अष्ट द्रव्य का अर्घ अष्ट विधि श्री चरणो मे अर्पित है । निज अनर्घ पद दो हे स्वामी मादर ह्रदय समर्पित है । शान्ति ॥९॥ ॐ ही श्री शातिकुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्तये अयं नि ।
श्री शान्तिनाथ जी नगर हस्तिनापुर के अधिपति विश्वसेन नृप परम उदार । माता ऐरा देवी के सुत शान्तिनाथ मगल दातार ॥१॥ कामदेव बारहवे पचम चक्री सोलहवे तीर्थश । भरत क्षेत्र को पूर्ण विजयकर स्वामी आप हुए चक्रेश।।२।। नभ मे नाशवान बादल लख उर मे जागा ज्ञान विशेष । भव भोगों से उदासीन हो ले वैराग्य हुये परमेश ।।३।। निज आत्मानुभूति के द्वारा वीतराग अर्हन्त हुए । मुक्त हुए सम्मेद शिखर से परम सिद्ध भगवन्त हुए ॥४॥
ॐ ही श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय गर्भजन्मताज्ञाननिर्वाण पचकल्याण प्राप्ताय अध्य निर्वामीति ।
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जैन पूजाँजलि नए वर्ष का प्रथम दिवस ही नूतन दिन कहलाता है । पर नूतन दिन वही कि जिस दिन तत्व बोध हो जाता है ।।
श्री कुन्थुनाथ जी नगर हस्तिनापुर के राजा सूर्य सेन के प्रिय नन्दन । राजदुलारे श्रीमती देवी रानी के सुत वन्दन ।।१।। कामदेव तेरहवे तीर्थकर मतरहवे कुन्थु महान । छठे चक्रवर्ती बन • पाई षट खण्डो पर विजय प्रधान २।। भोतिक वैभव त्याग मुनीश्वर बन स्वरूप में लीन हुए । भाव शुभाशुभ का अभाव कर शुक्ल ध्यान तल्लीन हुए ॥३।। ध्यान अग्नि से कर्म दग्ध कर केवलज्ञान स्वरूप हुए । सिद्ध हुए सम्मेद शिखर से तीन लोक के भूप हुए ॥४।। ॐ ही श्री कुन्थुनाथ जिनेन्द्राय गर्भजन्मतपज्ञाननिर्वाण पचकल्याणप्राप्ताय अयं नि ।
श्री अरनाथ जी नगर हस्तिनापुर के पति नृपराज सुदर्शन पिता महान । माता मित्रा देवी की आखो के तारे हे भगवान ।।१।। कामदेव चौदहवे मप्तम चक्री श्री अरनाथ जिनेश । अप्टादशम तीर्थकर जिन परम पूज्य जिनराज महेश ।।२।। छहखडो पर शासन करते करते जग अनित्य पाया । भव तन भोगो से विरक्तिमय उर वैराग्य उमड आया ।।3।। पत्र महाव्रत धारण करके निज स्वभाव मे हुए मगन । पा केवल्य श्री सम्मेद शिखर से पाया मुक्ति गगन ।।४।। ॐ ही श्री अरनाथ जिनेन्द्राय गर्भ जन्मतपज्ञाननिर्वाण पचकल्याण प्राप्ताय अर्घ्य नि ।
जयमाला शान्ति कथ अरनाथ जिनेश्वर के चरणो मे नित वन्दन । विमल ज्ञान आशीर्वाद दो काट सकू मै भव बन्धन ॥१॥
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श्री समवशरण पूजन धीर वीर गंभीर शल्य मे रहित सयमी साधु महान ।
इनके पद चिन्हों पर चल कर तू भी अपने का पहचान ।। सम्यक दर्शन ज्ञान चरितमय लिया पथ निर्ग्रन्थ महान । सोलह वर्ष रहे छग्रस्थ अवस्था मे तीनो भगवान ।।२।। परम तपस्वी परम सयमी मौनी महाव्रती निजराज । निज स्वभाव के साधन द्वरा पाया तुमने निज पद राज ।।३।। शुक्ल ध्यान के द्वारा स्वामी पाया तुमने केवलज्ञान । दे उपदेश भव्य जीवो को किया सकल जग का कल्याण ।।४।। मै अनादि से दखिया व्याकल मेरे सकट दूर करो । पाप ताप सताप लोभ भय मोह क्षोभ चकचर कगे ।।५।। सम्यक दर्शन प्राप्त करूँ मै निज परिणति मे रमण करूँ। रत्नत्रय का अवलम्बन ले मोक्ष मार्ग का ग्रहया करूँ।।६।। वीतराग विज्ञान ज्ञान की महिमा उर मे छा जाए । भेद ज्ञान हो निज आश्रय मे शुद्ध आत्मा दर्शाए ।।७।। यही विनय हे यही भावना विषय कषाय अभाव करूँ । तुम समान मुनि बन हे स्वामी निज चेतन्य स्वभाव वरूं ।।८।। ॐ ह्री श्री शाति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय अयं नि स्वाहा । मृग अज, मीन चिन्ह चरणो मे प्रभु प्रतिमा जो करे नमन । जन्म जन्म के पातक क्षय हो मिट जाना भव दुख क्रन्दन । । रोग शोक दारिद्र आदि पापो का होता शीघ्र शमन । भव समुद्र से पार उतरते जो नित करने प्रभु पूजन ।।
इत्याशीर्वाद जाग्य मत्र - ॐ ह्री श्री शाति कुन्थु अरनाथ जिनेन्द्राय नम ।
श्री समवशरण पूजन । तीर्थंकर प्रभु मोह क्षीणकर जब प्रगटाते केवलज्ञान । इन्द्र आज्ञा से कुबेर रचना करता स्वर्गों से आन ।। बारह सभा जहाँ जुडती है होता है प्रभु का उपदेश । ओकारमय दिव्य ध्वनि से पाते सभी जीव संदेश ।।
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जैन पूजॉजलि पर कतृत्व विकल्प त्याग कर, सकल्पों को दे तु त्याग ।
सागर की चचल तरंग सम तुझे डुबो देगी तू भाग ।। पुण्योदय से समवशरण अरू जिन मदिर मैंने पाया । अष्ट द्रव्य ले विनय भाव से पूजन करने को आया ।। श्री जिनवर के समवशरण को भाव सहित मै करूँ प्रणाम । वीतराग पावन मुद्रा दर्शनकर ध्याऊँ आठों याम ।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्यविराजमान जिनेन्द्रदेव अत्र अवतर अवतर सवौषट । ॐ ही श्री समवशरण मध्यविराजमान जिनेन्द्रदेव अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ।ॐ ही श्री समवशरण मध्यविराजमान जिनेन्द्रदेव अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । अष्टादश दोषो से विरहित अरहतों को नमन करूँ। अनुभव रस अमृत जल पीकर त्रिविधताप को शमन करूँ। जिन तीर्थंकर समवशरण को भाव सहित मै नमन करूँ। पूर्ण शुद्ध ज्ञायक स्वरूप मैं मोक्षमार्ग अनुसरण करूँ।।१।। ॐ ह्री श्री समवशरणमध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि। छयालीस गुण मडित प्रभुवर अहंतो को नमन करूँ। अनुभव रस चदन शीतल पा भवआतप का हरण करूँ ।। जिन ।।२।। ॐ ह्री श्री समवशरणमध्यविराजमान जिनेन्द्रदेवाय ससारतापविनाशनाय चदन नि । चार अनत चतुष्टय धारी अर्हतो को नमन करूँ। अनुभव रस मय अक्षत पाकर भवसमुद्र हरण करूँ ।। जिन ॥३॥ ॐ ही श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि जन्म समयदश ज्ञानसमय दश अतिशययुत प्रभु नमन करूँ। अनुभव रस के पुष्प प्राप्तकर कामबाण का हनन करूँ ।। निज ।।४।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । देवोपम चौदह अतिशय सयुक्त देव को नमन करूँ। अनुभव रस नैवेद्य प्राप्तकर क्षुधारोग का हरण करूँ ।। जिन ॥५॥ ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । अष्ट प्रातिहार्यों से शोभित अर्हतो को नमन करूँ। अनुभव रसमय दीपज्योति पा मोहतिमिर को हननकरूँ ।। जिन ।।६।।
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श्री समवशरण पूजन जो अकषय भाव के द्वारा सर्व कषायें लेगा त् जीत ।
मुक्ति वधू उसका वरने आएगी उर में घर कर प्रीत ।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय मोहाधकार विनाशनाय दीप नि। नव क्षायिक लब्धियों प्राप्तजिनवर देवो को नमन करूँ। अनुभव रसकी धूप बनाकर अष्टकर्म को हरण करूँ ।। जिन ।।७।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । वस मगल द्रव्यो से शोभित गध कटी को नमन करूँ। अनुभव रस के फल मैं पाऊमोक्षस्वपद का वरण करूँ || जिन ।।८।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय मोक्षफल प्राप्ताय फर्ल नि । परमोदारिक देह प्राप्त श्री अर्हतो को नमन करूँ। अनभव रम के अर्घ बनाऊ मै अनर्घ पदवरण करूँ जिन ।।९।। ॐ ह्री श्री समवशरण मध्य विराजमान जिनेन्द्रदेवाय अनर्य पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला समवशरण जिनराज का महापूज्य द्युतिवान । भव्य जीव उपदेश सुन करते निज कल्याण ॥१॥ ऋषभ देव के समवशरण का बारह योजन का विस्तार । अर्द्ध अर्द्ध घटते सन्मति तक रहा एक योजन विस्तार ।।२।। शन इन्द्रो से वदित श्री जिनवर का समवशरण सुन्दर । तीन लोक का सारा वैभव प्रभुचरणो मे न्यौछावर ॥३॥ सौ योजन तक नही कही दुर्भिक्ष दृष्टि मे आता । भूमि स्वच्छ दर्पणवत होती गधोदक बरसाता ॥४॥ गोलाकार समवस्त रचना होती है उन्नत आकाश । चारों दिशि मे बीस सहस्त्र सीढियाँ होती भू आकाश ।।५।। चार कोट अरू पाँच वेदि के बीच भूमि होती है आठ । चारों ओर वीथियाँ होती गधकुटी तक अनुपम ठाठ ।।६।। पार्श्व पीथियो मे दो दो वेदी होती है रत्नमयी । सभी भूमियों के पथ होते सुन्दर तोरण द्वार मयी ॥७॥
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जैन पूजाँजलि अवरग बहिरग परिग्रह तजने का ही कर अभ्यास । इगक बिना नहीं तू हागा साधु कभी भी कर विश्वास ।।
द्वारो पर नवनिधि व धुप घट मंगल द्रव्य सजे होते । साढे बारह कोटि वाद्य देवो द्वारा बजते होते ||८|| द्वार द्वार के दोनो बाजू एक एक नाटक शाला । जहाँ देव कन्याएँ करती नृत्य हृदय हरने वाला ॥९॥ प्रथम कोट की चारो दिशि मे धर्म चक्र होते है चार । धूलि शाल है नाम मनोहर मानस्तभ बने हे चार ।।१०।। प्रथम भूमि चेन्यालय की है मन्दिर चारो ओर बने । फिर वापिका बनी शुभ सुन्दर जो जल से परिपूर्ण घने ॥११॥ द्विनिय कोट फिर पुष्प वाटिकाओ की पक्ति महान विशाल । फिर वन भूमि अशोक आम चपक अम सप्त पर्ण तरू पाल ।।१२।। तृतिय कोटि मे कल्पभूमि वेदी अरु बनी नृत्यशाला । भवन भूमि स्तृप मनोहर ध्वजा पक्तियो की माला ॥१३॥ यही महोदय मडप अनुपम श्रुत केवलि करते व्याख्यान ।। केवलज्ञानलधि के धारी भी देने उपदेश महान ।।१४।। बोथा कोटि शाल अतिमुन्दर कल्पवासि द्वारा रक्षित । आगे चलकर श्री मडप हे महाविभूतियो मे भूषित ॥१५।। भूमि आठवी गधकुटी है तीन पीठ पर सिहासन ।
रु अशोक शिर तीन छत्र है भामडल द्युतिमय दर्पण ।।१६।। चारो टिशि मे जिनप्रभु के मुख दिखने मानो मुख हो चार । अतरीक्ष जिनदेव विगजे खिरे दिव्य ध्वनि मगलकार ॥१७॥ तीन लोक की सकल सपदा चरणो मे करती वदन । इन्द्रादिक मुर नर मुनि पशु भी चरणो मे होते अर्पण ॥१८॥ द्वादश सभा महान बनी हे दिव्य ध्वनि का मोद अपार । नभ से पुष्प वृष्टि मुर करने होना जय ध्वनि का उच्चार ।।१९।। द्वादश कोठे है पहिले मे गणधर ऋषिमुनि रहे विराज । दूजे कल्पवासि देवियों तीजे रही आर्यिका साज ।।२०।।
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श्री समवशरण पूजन सर्व चेष्टा रहित पूर्णा निष्क्रिम हो तु कर निज का ध्यान ।
दश्य जगत के भ्रम को तज दें पाऐगा उत्तम निर्वाण ।। चौथे मे ज्योतिषी देवियाँ पचम व्यतर देवि अमेव । षष्टम भवनवासि की देवी सप्तम भवनवासि के देव।।२१।। अष्टम व्यतर देव बैठते नवम ज्योतिषी देव प्रसिद्ध । दसवे कल्पवासि सुर होते ग्यारहवे मे मनुज प्रसिद्ध ।।२२।। बारहवे कोठे मे बैठे हैं तिर्यंच जीव चपचाप । तीर्थकर की ध्वनि सुन सब हर लेते है मन का सताप ।।२३।। प्रभु महात्म्य से रोग मरण आपत्ति बेर तृष्णा न कही । काम क्षुधा मय पीडा दुख आतक यहाँ पर कही नहीं ।।२४।। पचमेस के क्षेत्र विदेहो मे है समवशरण प्रख्यात । विद्यमान तीर्थकर बीस विराजित है शाश्वत विख्यात ।।२५।। प्रभु की अमृत वाणी सुनकर कर्ण तृप्त हो जाते है । जन्म जन्म के पातक क्षण मे शीघ्र विलय हो जाते है ।।२६।। जब बिहार होता है प्रभु का सुर रचते है स्वर्ण कमल । जहाँ जहाँ प्रभु जाते होती समवशरण रचना अविकल २७।। ममवशरण रचना का वर्णन करने की प्रभु शक्ति नही । सोलहकारण भव्यभावना भाए बिन प्रभु भक्ति नही ।।२८।। ऐसी निर्मल बुद्धि मुझे दो निज आतम का ज्ञान करूँ । समवशरण की पूजन करके शुद्धातम का ध्यान करूं ।।२९।। पाप पुण्य आश्रव विनाशकर रागद्वेष पर जय पाऊँ।। कर्म प्रकृतियो पर जयपाकर सिद्धलोक मे आजाऊँ।।३०।। 30 ही श्री समवशरण मध्यविराजमान जिनेन्ददेवाय अनयंपदप्राप्तयेअर्घ्य
समवशरण दर्शन करूँगाऊमगल चार । भेदज्ञान की शक्ति से हो जाऊँभवपार । ।
इत्याशीवाद जाप्यमन्त्र - ॐ ही श्री समवशरण मध्यविगजमान अर्हन्तदेवाय नम ।
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जैन पूजांजलि घौठय तत्व का निर्विकल्प बहुमान हो गया उसी समय । भव वन में रहते रहते भी मुक्त हो गया उसी समय 41
पुण्यों की जब तक मिठास है पुण्यों की जब तक मिठास है वीतरागता नहीं सुहाती । जड़ की रुचि मे चिन्मूरति की रुचि कभी न भाती ।। चेतन के प्रति अकर्मण्य है और अचेतन के प्रति कर्मठ । निजभावों से है विरक्त परभावों की चिरपरिचित हठ ।। इन्द्रिय सुख मे अरे अतीन्द्रिय मुख की व्यर्थ कल्पना करता । अनुभव गोचर वस्तु सहज है रागातीत विराग न वरता ।। सहजभाव सपदायुक्त है तो भी इस पर दृष्टि न जाती । पुण्यो की जब तक पिठास है परममत्व की मादकता से तत्वाभ्यास नहीं हो पाता । पर में जागरुक रहता है निज में स्वय नहीं खो पाता ।। ज्ञायक होकर ज्ञान न जाना और ज्ञेय मे ही उलझा हे । ध्याना ध्यान ध्येय ना सपझा अत न अब तक यह सुलझा है ।। तर्क कुतर्क मान्यता मिथ्या भव भव में है इसे रुलाती । पुण्यो की जब तक मिठास है. महावीर का अनुयायी हे महावीर को कभी न माना । रागवीर ने हेय बताया इसने उपादेय ही जाना ।। पाप हेय है यह तो कहता किन्तु पुण्य में लाभ मानता । मोक्षमार्ग में दोनो बाधक यह सम्यक निर्णय न जानता ।। भूल भूल ही इम चेतन को भव अटवी में हे अटकाती । पुण्यो की जब तक मिठाम है साधक साध्य साधना साधन का विपरीत रूप है माना । स्वय साध्य साधन सब कुछ है इसे भूल भटका अनजाना ।। चिदानद निर्द्वट निजातम का आश्रय ले अगर बढे यह । तो निश्चय पुरुषार्थ सफल हो मुक्ति भवन सोपान चढे यह ।। ज्ञान पृथक है राग पृथक है ऐसी निर्मल सुमति न आती । पुण्यो की जब नक मिठास है वीतराग विज्ञान ज्ञान का अनुभव ज्ञान चेतना लाता । कर्म चेतना उड जाती है निज चैतन्य परम पद पाता ।। वीतराग निजमार्ग यही है केवल लो अपना अवलबन । रागपात्र को हेय जान निज भावों से काटो भवबंधन ।। तत्वों की सम्यक श्रद्धा से मोक्ष सपदा है मिल जाती । पुण्यों की जब तक मिठास है.
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श्री बाहुबली स्वामी पूजन भौतिक सुख की चकाचौंध में जीवन बीत रहा है । भावमरण प्रति समय हो रहा जीवन रीत रहा है । ।
श्री बाहुबली स्वामी पूजन जयति बाहुबलि स्वामी जय जय, करूँ वन्दना बारम्बार । निज स्वरूप का आश्रय लेकर आप हुये भवसागर पार ।। हे त्रैलोक्यनाथ, त्रिभुवन में छाई महिमा अपरम्पार । सिद्धस्वपद की प्राप्ति हो गई हआ जगत मे जय जयकार ।। पूजन करने में आया है अष्ट द्रव्य का ले आधार । यही विनय है चारों गति के दुख से मेरा हो उद्धार ।। ॐ ह्री श्री जिन बाहुबलीस्वामिन् अत्र अबतर अवतर सवौषट्, ॐ ह्रीं श्री बाहुबलि जिन अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ॐ ह्री श्री बाहुबलि जिन अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । उज्जवल निर्मल जल प्रभु पद पकज मे आज चढाता हूँ। जन्म मरण का नाश करु आनन्दकन्द गुण गाता हूँ। श्री बाहुबलिस्वामी प्रभु चरणो मे शीश झकाता हूँ। अविनश्वर शिव सुख पाने को नाथ शरण मे आता हूँ ।।१।। ॐ ह्री श्री जिनबाहुबलिस्वामिन जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलनि । शीतल मलय सुगन्धित पावन चन्दन भेट चढाता हूँ। भव आताप नाश हो मेरा ध्यान आपका ध्याता हूँ ॥श्री बाहु ।२।। ॐ ह्री श्री जिनबाहुबलीस्वामिने ससारताप विनाशनाय चन्दन नि । उत्तम शुभ्र अखडित तन्दुल हर्षित चरण चढाता हूँ। अक्षयपद की सहजप्राप्ति हो यही भावना भाता हूँ ॥श्री बाहु ॥३॥ ॐ ह्री श्री जिनबाहुबलीस्वामिने अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि । काम शत्रु को कारण अपना शील स्वभाव न पाता हूँ। काम भाव का नाश करूँ मैं सुन्दर पुष्पचढाता हूँ ॥श्री बाहु ॥४॥ ॐ ही श्री जिनबाहुबलीस्वामिने कामबाण विध्वंसनाय पुष्प नि । तष्णा की भीषण ज्वाला से प्रति पल जलता जाता हैं। क्षधारोग से रहित बनें मैं शुभ नैवेद्य चढाता हूँ ॥श्री बाहु, १॥५॥ ॐ ह्री श्री जिनबाहुबलीस्वामिने क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि. ।
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जैन पूजांजलि अचेतन द्रव्य जड़ संयोग सुख दुख के नहीं दाता ।
सयोगी भाव करके तु स्वय दुखवान होता है ।। मोह ममत्व आदि के कारण सम्यकमार्ग न पाता हूँ। यह मिथ्यात्वतिमिर मिट जाये मैं प्रभुवर दीप चड़ाता हूँ ॥श्री बाहु.॥६॥ *ही श्री जिनबाहुबलीस्वामिने मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि. । है अनादि से कर्मबन्ध दुखमय न पृथक कर पाता हैं। अष्टकर्म विध्वस करूँ अतएव सु धूप चबाता हूँ श्री बाहु. ॥७॥ ॐ ही श्री जिनबाहुबलीस्वामिने अष्टकर्म विनाशनाय धूपं नि । सहज सम्पदा युक्त स्वय होकर भी भव दुख पाता हूँ। परम मोक्षपद शीघ्रमिले उत्तमफल चरणचढ़ाता हूँ। श्री बाहु ॥८॥ ॐ ही श्री जिनबाहुबलीस्वामिने महामोक्षफल प्राप्तये फलं नि ।। पुण्यभाव से स्वर्गादिक पद बार बार पा जाता हूँ । निज अनर्घपद मिला न अबतक इससे अर्घचढाता हूँ ॥श्री बाहु ॥९॥ ॐ ह्रीं श्री जिनबाहुबलीस्वामिने अनर्ग्यपद प्राप्तये अयं नि ।
जयमाला आदिनाथ सुत बाहुबली प्रभु माता सुनन्दा के नन्दन । चरम शरीरी कामदेव तुम पोदनपुर पति अभिनन्दन ॥१॥ छह खण्डो पर विजय प्राप्तकर भरत चढे वृषभाचल पर । अगणितचक्री हुए नामलिखने को मिला न थल तिलभर ॥२॥ मैं ही चक्री हुआ अहं का मान धूल हो गया तभी । एक प्रशस्ति मिटाकर अपनी लिखी प्रशस्ति स्वहस्त जभी ॥३॥ चले अयोध्या किन्तु नगर मे चक्र प्रवेश न कर पाया । ज्ञात हुआ लघु भात बाहुबलि सेवा मे न अभी आया ॥४॥ भरत चक्रवर्ती ने चाहा बाहुबली आधीन रहे । ठुकराया आदेश भरत का तुम स्वतन्त्र स्वाधीन रहे ॥५॥ भीषण युद्ध छिड़ा दोनो भाई के मन में संताप हुए । दृष्टि, मल्ल, जल, युद्ध, भरत से करके विजयी आप हुए ॥१६॥
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श्री बाहुबली स्वामी पूजन जिस पड़ी निव भारम की अनुभूति होती है।
उस घड़ी सम्यक्त की सविभूति होती है ।। क्रोधित होकर भरत चक्रवर्ती ने चक्र चलाया है। तीन प्रदक्षिण देकर कर में चक्र आपके आया है ।।७।। विजय चक्रवर्ती पर पाकर उ वैराग्य जगा तत्क्षण । राजपाट तज ऋषभदेव के समवशरण को किया गमन ॥४॥ धिक धिक, यह ससार और इसकी असारता को धिक्कार । तृष्णा की अनन्त ज्वाला मे जलता आया है संसार IR॥ जग की नश्वरता का तुमने किया चितवन बारम्बार । देह भोग ससार आदि से हुई विरक्ति पूर्ण साकार ॥१०॥ आदिनाथ प्रभु से दीक्षा ले व्रत संयम को किया ग्रहण । चले तपस्या करने वन में रत्नत्रय को कर धारण ॥११॥ एक वर्ष तक किया कठिन तप कायोत्सर्ग मौन पावन । किंतु खटक थी एक हृदय में भरत भूमि पर है आसन २॥ केवलज्ञान नहीं हो पाया अल्पराग ही के कारण । परिषह शीत ग्रीष्म वर्षादिक जय करके भी अटका मन ॥१३॥ भरत चक्रवर्ती ने आकर श्री चरणों मे किया नमन । कहा कि वसुधा नहीं किसी की मानत्याग दो हे भगवन् ॥१४॥ तत्क्षण राग विलीन हुआ तुम शुक्ल ध्यान में लीन हुए । फिर अन्तरमुहूर्त मे स्वामी मोह क्षीण स्वाधीन हुए ॥१५॥ चार घातिया कर्म नष्ट कर आप हुए केवलज्ञानी । जय जयकार विश्व में गूजा जगती सारी मुस्कानी ॥१६॥ झलका लोकालोक ज्ञान में सर्व द्रव्य गुण पर्याये । एक समय मे भूत भविष्यत् वर्तमान सब दर्शायें ।।१७।। फिर अघातिया कर्म विनाशे सिद्ध लोक में गमन किया । पोदनपुर से मुक्ति हई तीनों लोको ने नमन किया ॥१८॥ महामोक्ष फल पाया तुपने ले स्वभाव का अवलम्बन । हे भगवान् बाहुबलि स्वामी कोटि कोटि शत् शत् वंदन ॥१९॥
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जैन पूजाँजलि जब तक मिथ्यात्व हदय में है ससार न पल भर कम होगा ।
जब तक पर द्रव्यों से प्रतीति भव भार न तिल भर कम होगा । । आज आपका दर्शन करने चरणो मे आया हूँ। शुद्ध स्वभाव प्राप्त हो मुझको यही भाव भर लाया हूँ ॥२०॥ भाव शुभाशुभ भव निर्माता शुद्ध भाव का दो प्रभु दान । निज परणति मे रमणकरूँ प्रभु हो जाऊँ मै आप समान ॥२१॥ समक्ति दीप जले अन्तर मे तो अनादि मिथ्यात्व गले । रागद्वष परणति हट जाये पुण्य पाप सन्ताप टले ॥२२।।
कालिक ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर बढ जाऊँ। शुद्धात्मानुभूति के द्वारा मुक्ति शिखर पर चढ़ जाऊँ ॥२३।। मोक्ष लक्ष्मी को पाकर भी निजानन्द रसलीन रहूँ। सादि अनन्त सिद्ध पद पाऊँ सदा सुखी स्वाधीन रहूँ ॥२४।। आज आपका रूप निरखकर निज स्वरुप का भान हुआ । तुम सम बने भविष्यत् मेरा यह दृढ निश्चय ज्ञान हुआ॥२५।। हर्ष विभोर भक्ति से पुलकित होकर की है यह पूजन । प्रभु पूजन का सम्यक फल हो कटे हमारे भव बन्धन ।।२६।। चक्रवर्ति इन्द्रादिक पद की नही कामना है स्वामी । शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम पद पाये हे अन्तरयामी ।।२७।। ॐ ही जिनबाहुबलीस्वामिने अनर्घपद प्राप्ताय अयं नि ।
घर घर मगल छाये जग मे वस्तु स्वभाव धर्म जाने । वीतराग विज्ञान ज्ञान से शुद्धातम को पहिचाने । ।
___ इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ह्री श्री बाहुवली जिनाय नप ।
श्री गौतमस्वामी पूजन जय जय इन्द्रभूमि गौतम गणधर स्वामी मुनिवर जय जय । तीर्थकर श्री महावीर के प्रथम मुख्य गणधर जय जय ।। द्वादशाग श्रुत पूर्ण ज्ञानधारी गौतमस्वामी जय जय । वीरप्रभु को दिव्यध्वनि जिनवाणी को सुन हुए अभय ।
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श्री गौतमस्वामी पूजन बिन समकित प्रत पूजन अर्चन जब तप सब तेरे निष्फल है ।
संसार बम के प्रतीक भवसागर के हैं ही दल दल है ।। ऋद्धि सिद्धि मंगल के दाता मोक्ष प्रदाता गणधादेव । मंगलमय शिव पथ पर चलकर मैं भी सिद्ध बन स्वयमेव ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिन् अत्र अवतर अवतर संदोषद, * ही श्री गौतमगणधरस्वामिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ . ॐ हीं श्री गौतमगणधरस्वामिन् अवमम् सनिहितो भव भव वषट्। मै मिथ्यात्व नष्ट करने को निर्मल जल की धार करूँ। सम्यक दर्शन पाऊ जन्म मरण क्षय कर भव रोग हरूँ।। गौतमगणधर स्वामी चरणो की मैं करता पूजन । देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥१॥ ॐ ही श्री गौतमगणधरस्वामिने जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । पच पाप अविरत को त्यागू शीतल चदन चरण धरूँ। भव आताप नाश करके प्रभु मै अनादि भव रोग हरूँ। गौतम ।।२।। ॐ ही श्री गौतमगणधरस्वामिने ससारताप विनाशनाय चन्दन नि । पच प्रमाद नष्ट करने को उज्ज्वल अक्षत भेट करूँ। अक्षयपद की प्राप्त हेतु प्रभु मै अनादि भव रोग हमें । गौतम ।।३।। ॐ ही श्री गौतमगणधरस्वामिने अक्षयपद प्राप्तय अक्षत नि ।। चार कषाय अभाव हेतु मै पुष्प मनोरम भेट करूँ। कामवाण विध्वन्स करूं प्रभु मै अनादि भव रोग हरूँ गौतम ।।४।। ॐ ही श्री गौतमगणधरस्वामिने कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । मन वच काया योग सर्व हरने को प्रभु नैवेद्य धरूँ। क्षुधा व्याधि का नाम मिटाऊमै अनादि भव रोग हरु गौतम. ।।५।। ॐ ही श्री गौतमगणधर स्वामिने क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्यं नि । सम्यकज्ञान प्राप्त करने को अन्तर दीप प्रकाश करूँ। चिर अज्ञान तिमिर को नाशू मैं अनादि भव रोग हाँ गौतम ॥६॥
ॐ हीं श्री गौतमगणधरस्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि । मैं सम्यक चारित्र ग्रहण कर अन्तर तप की धूप वरूँ। अष्टकर्म विध्वंस करुं प्रभु मैं अनादि भव रोग हसें ॥७॥ ॐ ह्रौं श्री गौतमगणधरस्वामिने अष्टकमविध्वंसनाय धूप नि ।
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जैन पूजांजलि वैराग्य घटा घिर आई चमकी निजत्व की बिजली ।
अब जिय को नहीं सुहाती पर के ममत्व की कजली ।। रत्नत्रय का परम मोक्षफल पाने को फल भेट करूँ। शुद्ध स्वपद निर्वाण प्राप्तकर मैं अनादि भव रोग हरु गौतम.॥४॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ चरणों मे सविनय भेट करूँ। पद अनर्घ सिद्धत्व प्राप्त कर मैं अनादि भव रोग हरूँ।।गौतम ॥९॥ ॐ ही श्री गौतमगणधरस्वामिने अनर्षपद प्राप्ताय आय नि । श्रावण कृष्णा एकम् के दिन समवशरण मे तुम आये । मानस्तम्भ देखते ही तो मान, मोह अघ गल पाये । महावीर के दर्शन करते ही मिथ्यात्व हुया चकचूर । रत्नत्रय पाते ही दिव्यध्वनि का लाभ लिया भरपूर ॥१०॥ ॐ ह्री श्री गौतमगणधरस्वामिने दिव्यध्वनि प्राप्ताय अयं नि । कार्तिककृष्ण अमावश्या को कर्म घातिया करके क्षय । सायकाल समय मे पाई केवलज्ञान लक्ष्मी जय । ज्ञानावरण दर्शनावरणी मोहनीय का करके अन्त । अन्तराय का सर्वनाश कर तुमने पाया पद भगवन्त ।।११।। ॐ ही श्री गौतमगणधरस्वामिने केवलज्ञान प्राप्ताय अयं नि । विचरण करके दुखी जगत के जीवों का कल्याण किया । अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वारा योगों का अवसान किया । देव वानबे वर्ष अवस्था मे तुमने निर्वाण लिया । क्षेत्र गुणावा करके पावन सिद्ध स्वरुप महान् किया ॥१२॥ ॐ ही श्री गौतमगणधरस्वामिने महा मोक्षपदप्राप्ताय अर्घ्य नि. ।
जयमाला मगध देश के गौतमपुर वासी वसुभूति ब्राम्हण पुत्र । माँ पृथ्वी के लाल लाड़ले इन्द्रभूति तुम ज्येष्ठ सुपुत्र ॥१॥ अग्निभूति अरु वायुभूति लघु भात द्वय उत्तम विद्धन । शिष्य पाच सौ साथ आपके चौदह विद्या ज्ञान निधान ॥२॥
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श्री गौतमस्वामी पूजन समाकत का सावन माया समरस की सगीहडीरे ।
अंतस की रोती सरिता राई उमड़ पड़ो रे ।। शुभ वैशाख शुक्ल दशमी को हुआ वीर को केवलज्ञान । समवशरण की रचना करके हुआ इन्द्र को हर्ष महान ॥३॥ बारह सभा बनी अति सुन्दर गन्मकुटी के बीच प्रधान । अन्तरीक्ष में महावीर प्रभु बैठे पचमासन निज भ्यान I४॥ छयासठ दिन हो गये दिव्य ध्वनि खिरीनहीं प्रभु की यह जान । अवधिज्ञान से लखा इन्द्र ने 'गणभर की है कमी प्रधान ॥५॥ इन्द्रभूति गौतम पहले गणधर होंगे यह जान लिया । वृद्ध ब्राम्हण बेश बना, गौतम के घर प्रस्थान किया ॥६॥ पहुंच इन्द्र ने नमस्कार कर किया निवेदन विनयम । मेरे गुरु श्लोक सुनाकर, मौन हो गये ज्ञानमयी ॥७॥ अर्थ भाव वे बता न पाये वही जानने आया हूँ। आप श्रेष्ठ विजन जगत में शरण आपकी आया हूँ ॥४॥ इन्द्रभूति गौतम श्लोक श्रवण कर मन में चकराये । झूठा अर्थ बताने के भी भाव नहीं उर मे आये ॥९॥ मन में सोचा तीन काल, छै द्रव्य, जीव, षट लेश्या क्या? नव पदार्थ, पचास्तिकाय, गति, समिति, ज्ञान, व्रत, चारित्रक्या १०॥ बोले गुरु के पास चलो मैं वहीं अर्थ बतलाऊंगा। अगर हुआ तो शास्त्रार्थ कर उन पर भी जय पाऊंगा ११॥ अति हर्षित हो इन्द्र हृदय मे बोला स्वामी अभी चले । शंकाओ का समाधान कर मेरे मन की शल्य दलें ॥१२॥ अग्निभूति अरु वायुभूति दोनों भाता संग लिए जभी । शिष्य पांच सौ संग ले गौतम साभिमान चल दिये तभी ॥१३॥ समवशरण की सीमा में जाते ही हुआ गलित अभिमान । प्रभु दर्शन करते ही पाया सम्यकदर्शन सम्यकज्ञान ॥१४॥ तत्क्षण सम्यकचारित धारा मुनि बन गणधर पद पाया । अष्ट• ऋद्धियाँ प्रगट हो गई ज्ञान मनापर्यय पाया IR५॥
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जैन पूजाँजलि जब तक निज पर भेद न जाना तब तक ही अज्ञानी ।
जिस क्षण निज पर भेद जान ले उस क्षण ही तू ज्ञानी ।। खिरने लगी दिव्य ध्वनि प्रभु की परमहर्ष उर मे छाया । कर्म नाशकर मोक्ष प्राप्ति का यह अपूर्व अवसर पाया ॥१६॥
ओ कार ध्वनि मेघ गर्जना सम होती है गुणशाली । द्वादशाग वाणी तुमने अन्तर्मुहर्त में रच डाली ॥१७॥ दोनो भ्राता शिष्य पाच सौ ने मिथ्यात्व तभी हरकर ।। हर्षित हो जिन दीक्षा ले ली दोनों भात हुए गणधर ॥१८॥ राजगृही के विपुलाचल पर प्रथम देशना मगलमय । महावीर सन्देश विश्व ने सुना शाश्वत शिव सुखमय ॥१९॥ इन्द्रभूति, श्री अग्निभूति, श्री वायुभूति, शुचिदत्त महान । श्री सुधर्म, मान्डव्य, मौर्यसुत, श्री अकम्प अति ही विद्वान ।।२०।। अचल और मेदार्य, प्रभास यही ग्यारह गणधर गुणवान । महावीर के प्रथम शिष्य तुम हुए मुख्य गणधर भगवान् ॥२१॥ छह छह घडी दिव्यध्वनिखिरती चारसमय नितमगलमय । वस्तु तत्त्व उपदेश प्राप्तकर भव्य जीव होते निजमय ॥२२।। तीस वर्ष रह समवशरण मे गूथा श्री जिनवाणी को । देश देश मे कर विहार फैलाया श्री जिनवाणी को ।।२३।। कार्तिक कृष्ण अमावस प्रात महावीर निर्वाण हुआ । सन्ध्याकाल तुम्हे भी पावापुर मे केवलज्ञान हुआ ॥२४॥ ज्ञान लक्ष्मी तुमने पाई और वीरप्रभु ने निर्वाण । दीपमालिका पर्व विश्व मे तभी हुआ प्रारम्भ महान् ॥२५॥ आयु पूर्ण जब हुई आपको योग नाश निर्वाण लिया । धन्य हो गया क्षेत्र गुणावा देवो ने जयगान किया ॥२६।। आज तुम्हारे चरण कमल के दर्शन पाकर हर्षाया । रोम-रोम पुलकित है मेरे भव का अन्त निकट आया ॥२७॥ मुझको भी प्रज्ञा छैनी दो मै निज पर मे भेद करूँ। भेद ज्ञान की महाशक्ति से दुखदायी भव खेद हरूँ ॥२८॥
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८९
श्री सप्त ऋषि पूजन पुण्यों की अब तक मिठास है वीतरागता नहीं सुहाती ।
जड की रुचि में विन्मूरति चिन्मूरति की रुचि कभी न पाती । । पद सिद्धत्व प्राप्त करके मैं पास तुम्हारे आ जाऊँ । तुम समान बन शिव पद पाकर सदा-सदा को मुस्काऊँ ॥२९॥ जय जय गौतम गणधरस्वामी अभिरामी अन्तर्यामी । पाप पुण्य परभाव विनाशी मुक्ति निवासी सुखधामी ॥३०॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अनर्धपद प्राप्तये अर्घ्य नि ।
गौतम स्वामी के वचन भाव सहित उर धार । मन, वच, तन, जो पूजते वे होते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाग्यपत्र-ॐ ह्री श्री गौतमगणधराय नम ।
श्री सप्त ऋषि पूजन जय जयति जय सुरमन्यु, जय श्रीमन्यु, निचय, मुनिश्वरम् । जय सर्वसुन्दर, पूज्य श्री जयवान, परम यतिश्वरम् ॥ जय विनयलालस और श्री जयमित्र, मुनि ऋषीश्वरम् । जय ध्यानिपति, जय ज्ञान मति जिन साधु सप्त ऋषीश्वरम् ।। जय ऋद्धि सिद्धि महान धारी, महामुनि जगदीश्वरम् । जय सकल जग कल्याणकारी, दयानिधि अवनिश्वरम् ॥ ॐ ह्री श्री सुरमन्यु, श्रीमन्यु निचय सर्व सुन्दर, जयवान, विनय लालस, जय मित्र, सप्त ऋषिश्वरा अत्र अवतर अवतर संवौषट, ॐ ही श्री सुरमन्य, श्रीमन्यु निचय, सर्व सुन्दर, जयवान, विनयलालस जयमित्र, सप्त ऋषिश्वरा अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठठ, ॐ ह्री श्री सुर मन्यु, श्रीमन्यु निचय, सर्व सुन्दर, जयवान, विनयलालस, जयमित्र, सप्त ऋषिश्वरा अत्र मम् सनिहितो भव भव वषट् । सप्त तत्व श्रद्धान पूर्वक आत्म प्रतीत वरूँ स्वामी । सप्त भयो से रहित बनू मैं जन्म मरण नाशें स्वामी ।। सुरमन्यु, श्रीमन्यु आदि जयमित्र सप्त ऋषीश्वर बन्दन । श्रद्धा ज्ञान चरित्र शक्ति से काटूं भव भव के बन्धन ॥१॥ ॐही श्री सुरमन्यु, श्रीमन्यु, निचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस, जयमित्र, सप्त शषिश्वर जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जल नि ।
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बैन पूजांजलि वीतराग विज्ञान शान का अनुभव ज्ञान चेतना लाता ।
कर्म चेतना उड जाती निज चेतन्य परम पद पाता ।। सप्त दश नियम नित पालन कर सप्ताक्षरी मन्त्र ध्याऊँ। सप्त नरक, सुर, पशु, नर गतिमय भव आताप नशाऊँगासुरमन्य।।२।। ॐ हीं श्री सुरमन्यु, श्रीमन्यु, निचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस, जयमित्र, सप्त ऋषिश्वर ससारताप विनाशनाय चन्दन नि ।। सप्त सुगुण दाता के पाऊँ सप्त स्थान दान दूं नित्य । सप्त व्यसन तज निज आतम भज अक्षय पद पाऊँनिश्चयासुरमन्यु ॥३॥ ॐ ही श्री सुरमन्यु, श्रीमन्यु, निचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस, जयमित्र, सप्त ऋषिश्वर अक्षय पद प्राप्तये अक्षत नि । सप्त शुद्धिपूर्वक सामायिक करूँत्रिकाल शुद्ध मन से । सप्त शील को पाल काम अरि नाश करूँनिज चिन्तन से।सुरमन्यु ।।४।। ॐ ह्रीं श्री सुरमन्यु, श्रीमन्यु, अदि सप्त ऋषिश्वर कामबाण विध्वंसनाय पुष्प नि । सप्त कुम्भ व्रत चार शतक छयानवे महा उपवास करूँ। इनमे इकसठ करूंपारणा क्षुधा रोग फिर नाश करूँ ।।सुरपन्यु ॥५॥ ॐ ही श्री सुरमन्यु, श्रीमन्यु, आदिसप्तऋषिश्वर क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । सप्त नयो के द्वारा स्वामी वस्तु तत्व का करूँ विचार । मोहनाश हित सात प्रतिक्रमण करके पार्ले ज्ञानाचार ।।सुरमन्यु।।६।। ॐ ही श्री सुरमन्यु, श्रीमन्यु, आदि सप्त ऋषिश्वर मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । सातभगस्यादूवाद मयी जिनवाणी की छाया पाऊँ । केवल्लान लब्धि को पाकर अष्ट कर्म पर जय पाऊँ ।।सुरमन्यु ॥७॥ ॐ ही श्रीसुरमन्यु, श्रीमन्यु, आदि सप्तऋषिश्वरेभ्यो अष्टकर्म विश्वसनाय धूप नि । सप्त समुद्घातो मे स्वामी केवलि समुद्घात पाऊँ । आठ समय पश्चात् मोक्ष पा पूर्ण शाश्वत सुख पाऊँ ।सुरमन्यु ॥४॥ ॐ ह्री श्री सुरमन्यु, श्रीमन्यु, आदि सप्त ऋषिश्वरेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फल नि । सप्त परम स्थानो मे निर्वाण स्थान शिवपुर जाऊँ। पद अनर्थ से सादि अनन्त सिद्ध सुख पाऊँहर्षा सरमन्यु ॥९॥ ॐ ह्रीं श्री सुरमन्यु, श्रीमन्यु, आदि सप्त ऋषिश्वरेभ्यो अनर्थ पद प्राप्तये अन्य नि. ।
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श्री सप्त ऋषि पूजन यदि भव सागर दुख से भय है तो तज दो पर भाव को ।। करो चिन्तवन शदातम का पालो सहज स्वभाव को ।।
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जयमाला महा पूज्य पावन परम श्री सात ऋषीराज । आत्म धर्म रथ सारथी तारण तरण जहाज ॥१॥ तीर्थकर मुनि सुव्रत प्रभु का जब था शासन काल महान । रामचन्द्र बलभद्र नृपति के गजे थे जग में यश गान ॥२॥ धर्म भावना से करते थे अगणित जीव आत्म कल्याण ।। चारण आदि ऋद्धियों पाकर पा लेते थे मुक्ति विहान ॥३॥ नगर प्रभापुर के अधिपति थे श्री नन्दन नृप वैभववान । उनके सात सुपुत्र हुए धरणी रानी से अति विद्वान ।।४।। सुरमन्यु, श्रीमन्यु, निश्चय, जयमित्र, सर्व सुन्दर जयवान । श्री विनयलालस गुणधारी, सत्य शील से शोभावान।।५।। लाड प्यार मे सर्व भौतिक सुख से भूषित सुकुमार । राजकाज भी देखा करते थे सातों ही राजकुमार ।।६।। नृप प्रीतिंकर मुनि बन घोर तपस्या में रत हुए महान । शुक्ल ध्यान धर घाति कर्म हर पाया अनुपम केवलज्ञान ॥७॥ अगणित देवों ने स्वर्गों से आकर गाया जय जय गान । पिता सहित सातों पुत्रों को भी आया निजआतम भान ॥८॥ प्रतिबोधित हो दीक्षा मुनि पद अंगीकार किया । अट्ठाइस मूल गुण धारे मोक्ष मार्ग स्वीकार किया ।।९।। श्री नन्दन ने केवल ज्ञान प्राप्त कर सिद्धालय पाया । सातों पुत्रों ने भी तप करके सप्त ऋषि नाम पाया॥१०॥ ये सातों ही एक साथ तप करते थे भव भयहारी । महाशील का पालन करते अनुपम दान ब्रह्मचारी ॥११॥ कुछ दिन में इन चारणादि ऋद्धियों के स्वामी । महा तपस्वी परम यशस्वी ऋद्धीश्वर जग में नामी ॥१२॥
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जैन पूजाँजलि परिणाम बंध का कारण है ।
परिणाम मोक्ष का कारण है ।। रामचन्द्र जी के लघु भ्राता करते थे मथुरा मे राज । न्यायपूर्वक प्रजा पालते थे शत्रुघ्र नृपति महाराजा ।।१३।। मधु राजा को जीत राज मथुरा का इनने पाया था । मधुक का मित्र असुरपति एक चमरेन्द्र यक्ष तब आया था ॥१४॥ अति क्रोधित हो रोद्र भावमय उसके मन मे बैर जगा । किया प्रकोप महामारी का मथुरा का सौभाग्य भगा ॥१५॥ ईति भीति फैलाई इतनी नगरी सूनी हुई अरे । जहाँ गीत मगल होते थे वहाँ शोक के मेघ घिरे ॥१६॥ हाहाकार मचा नगरी मे शून्य हुए गृह मानवो से । पाप उदय हो तो क्या कोई पार पा सका दानवो से ।।१७।। पुण्योदय से इक दिन श्री सप्त ऋषि मथुरा मे आये । गगन विहारी नभ से उतरे जन जन ने दर्शन पाये ॥१८॥ तत्क्षण रोग महामारी का नष्ट हुआ सब हर्षाये ।। राजा प्रजा सभी ने अति हर्षित होकर मगल गाये ॥१९॥ मुनि चरणो के शुभ प्रताप से सारी नगरी धन्य हुई । सात महा ऋषियो के दर्शन करके पुरी अनन्य हुई ।।२०।। जल थल नभ से पुत्र सप्त ऋषियो की गुज्जी जय जयकार । धन्य तपस्या धन्य महामुनि धन्य हुआ तुमसे ससार।।२१।। सीता जी ने नगर अयोध्या मे इनको आहार दिया । विनय भाव से वन्दन करके अक्षय पुण्य अपार किया ।।२२।। श्री सप्त ऋषि परम ध्यान धर हुए भवार्णव के उस पार । परम मोक्ष मगल के स्वामी सकल लोक को मंगलकार ।।२३।। महा ऋद्धि धारी ऋषियो को सादर शीश झुकाऊँ मैं । मन वच काय त्रियोगपूर्वक चरण शरण में आऊँ मैं ॥२४॥ ऐसा दिन कब आयेगा प्रभु जब जिन मुनि बन जाऊँगा । जिन स्वरूप का अवलम्बन ले आठों कर्म नशा IR५॥
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श्री कुन्द कुन्दाचार्य पूजन जीव शुबहै किन्तु विकारी है अजीव के संग पर्याय ।
जड़ पुदगल कर्मों की छाया में पाता भव दुख समुदाय । । सप्त भूमि अथवा निगोद आदि भव व्यथा मिटाऊँगा । जिन गुण सम्पत्ति हेतु महाव्रत धार सब राग नशाऊँग २६॥ सप्ताहार दोष मैं टालूँ सात विषय करो नित नाश । तर्जे सप्त पक्षामासो को पाऊँ सम्यक ज्ञान प्रकाश ॥२७॥ सप्त रत्ल का लोभ ना जागे ना चौदह रत्नो का राग । सप्तविंशति अधिक शताक्षरि मन्त्र जपूँ कर निज अनुराग ।।२८॥ मनुज देव पशु नर्क निगोदादिक मे दुख ही दुःख पाया । भव सन्ताप मिटाने का प्रभु आज स्वर्ण अवसर आया ।।२९।। सप्त तपो ऋद्धियाँ प्राप्त कर वीतरागता उर लाऊँ। पाप पुण्य पर भाव नाश हित श्री सप्त ऋषि को ध्याऊँ ॥३०॥ द्वादश तप की महिमा पाऊँ शुद्धातम के गुण गाऊँ । ग्रीष्म शीत वर्षा ऋतु मे भी निज आत्म लख मुस्काऊँ ।।३१।। विविध भाँति के व्रत मैं पार्ले निरतिचार हो शल्य रहित । प्रभो सिंह निष्क्रीडित आदिक तप व्रत परिसख्यान सहित ॥३२॥ केवलज्ञान प्रगट कर स्वामी चार घातिया नाश करूँ। सिद्ध सिला पर सदा विराजू आदिकाल मोक्ष प्रकाश वरूँ ॥३३॥ सप्त ईति और भीतिया पल मे हो जाये अवसान । अखिल विश्व मे मगल छाये सभी सुखी हो समतावान।।३४।। ॐ ही श्री सुरमन्यु, श्रीमन्यु आदि सप्त ऋषीश्वरेभ्यो पूर्णर्य नि ।
श्री सप्त ऋषीश्वर चरण जो लेते उर धार । अष्ट ऋद्धियाँ प्राप्त कर हो जाते भव पार ॥३५॥
इत्याशीर्वाद. जाप्यपत्र -ॐ ह्री श्री सुरमन्यु, श्रीमन्यु आदि सप्त ऋषोश्वरेभ्यो नमः।
श्री कुन्दकुन्द आचार्य पूजन कुन्द-कुन्द आचार्य देव के कमल चरण में कर नमन । कुन्द-कुन्द आचार्य देव की वाणी के उर धरूं सुमन ।।
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जैन पूजांजलि यह निकृष्ट पर परिर्णात तुझको, नर्क निगोद बताएगी ।
सर्वोत्कृष्ट स्वय की परिणति तुझे मोक्ष ले जाएगी ।। कुन्द -कुन्द आचार्य देव की भाव सहित करके पूजन । निजस्वभाव के साधन द्वरा मोक्षप्राप्ति का करूँयतन ।। १“परिणामों बधो परिणामो मोक्खों करूँ आत्मदर्शन । सिद्ध स्वपद की प्राप्ति हतु मैं निज स्वरूप में करमन ।
ॐ ह्रीं श्री कुन्द कुन्द आचार्यदेव चरणाग्रेषु पुष्पाजलि सिपामि ।। समयसार वैभव के जल से उर मे उज्ज्व लता लाऊँ। २“दसण मूलोधम्मो सम्यकदर्शन निज में प्रगटाऊँ ।। कुन्द-कुन्द आचार्य देव के चरण पूज निज को ध्याऊँ। सब सिद्धो को वदनकर ध्रुव अचल सु अनुपमगति पाऊँ ॥१॥ ॐ ह्री श्री कुन्द-कुन्द आचार्यदेवाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि । समयसार वैभव चन्दन से निज सुगन्ध को विकसाऊँ । ३“वत्थु सहावो धम्मो” सम्यकज्ञान सूर्य को प्रगटाऊँ। (कुन्द ।।२।। ॐ ह्रीं श्री कुन्द-कुन्द आचार्यदेवाय ससारतापविनाशनाय चन्दन नि । समयसार वैभव के उत्तम अक्षत गुण निज मे लाऊँ । ४"चारित्त खलु धम्मो” सम्यकचारित रथ पर चढ जाऊँ ।।कुन्द ॥३॥ ॐ ही श्री कुन्द-कुन्दचार्यदेवाय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि समयसार वैभव के पावन पुष्पों में मैं रम जाऊँ। ५“दाण पूजा मुख्खयसावयधम्मों" शीलस्वगुण पाऊ । ।कुन्द ॥४॥ ॐ ह्री श्री कुन्द-कुन्द आचार्यदेवाय काम बाण विध्वंसनाय पुष्प नि समयसार वैभव के मनभावन नैवेद्य हृदय लाऊँ। ६"जो जाणदि अरिहत" निजज्ञायक स्वभावआश्रय पाऊँ ।। कुन्द ।।५।। ॐ हीं श्री कुन्द-कुन्द आचार्यदेवाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि (१) परिणामों से वध और परिणामों से मोक्ष होता है । (२) अष्ट पा हुड २-धर्म का मूल सम्यकदर्शन है । (३) वस्तु स्वभाव ही धर्म है। (४) प्रवचन सार ७-चरित ही धर्म है । (५) रयण सार १०-श्रावक धर्म में दान पूजा मुख्य है । (६) प्रवचन सार ८०-जो अरहंत को जानता है।
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श्री कुन्दकुन्दाचार्य पूजन में निर्विकल्प हसबबुर, इतना खो मगीकार को ।।
रापयोग मय परम पारिथामिक स्वभाव स्वीकार करो ।। समयसार वैभव के न्योतिर्मय दीपक डर में लाऊँ। *दसण पल्टा-पटा मिथ्या मोह तिपिर हर सुख पाऊँ । कुन्द. In *ही श्री कुन्द कुन्दचार्य देवाय-मोहान्धकाय विनाशनाय दीप नि. समयसार वैभव का शुचिपय ध्यान धूप अ में ध्याऊँ। ८"ववहारोभ्भूयत्थों" निश्चय आश्रित हो शिव पद पाऊँ ।कुन्द ।।७।। ॐ ही श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय अष्टकर्मविष्वंसनाय पनि । समयसार वैभव के भव्य अपूर्व पनोरम फल पाऊँ। ९"णियम मोक्ख उवायों द्वारा महामोक्ष पद प्रगटाऊँ। ।कुन्द ॥४॥ ॐ ही श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवाय महामोक्षफलं प्राप्ताय अयं नि । समयसार वैभव का निर्मल भाव अर्घ उर में लाऊँ। १०"अहमिक्कोखलुसखों चिंतनकर अनपद को पाऊँ।।कुन्द ॥९॥ ॐ ही श्री कुन्दकुन्दआचार्यदेवाय अनर्यपद प्राप्ताय फल नि ।
जयमाला मगलमय भगवान् वीर प्रभु मगलमय गौतम गणधर । मगलमय श्री कुन्द-कुन्द मुनि, मगल जैन धर्म सुखकर ॥१॥ कन्नड प्रांत बड़ा दक्षिण मे कोण्ड कुण्ड था ग्राम अपूर्व । कुन्दकुन्द ने जन्म लिया था दो सहस्त्र वर्षों के पूर्व पार॥ ग्यारह वर्ष आयु थी जब तुपने स्वामी वैराग्य लिया । श्रेष्ठ महावत धारण करके पुनिपद का सौभाग्य लिया ॥३॥ एक दिवस जंगल में बैठे घोर तपस्या मे थे लीन । कवन सी काया तपती थी आत्म ध्यान में थे तल्लीन ॥४॥ उसी समय इक पूर्व जन्म का मित्र देव व्यन्तर आया । देख तपस्या रत भू पर आ श्रख से मस्तक नाया ।।५।। (७) अष्ट.पाहुड़-जो पुरुष दर्शन से प्रष्ट है, वे प्रष्ट है। (८) समय सार १५ व्यवहार नब अभूतार्थ है । (९) नियम सार४-लद्रयरुप) नियम मानका उपाय (१०) समय सार १८,७३ में निश्चय से एक हूँ, शुरहूं।
२५) नियम मोड का उपाय है।
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जैन पूजांजलि जो स्वरुप वेत्ता होता है, वही भाव श्रुत जल पीता है ।
सर्व द्रव्य गुण पर्यायों को, जान अमर जीवन जीता है ।। ध्यान पूर्ण होने पर मुनि ने जब अपनी आखे खोली । देखा देव पास बैठा है बोले तब हित मित बोली ॥६॥ धर्म वृद्धि हो, धर्म वृद्धि हो, धर्म वृद्धि हो तुम हो कौन । हर्षित पुलकित गद् गद् होकर तोडा तब व्यंतर ने मौन ॥७॥ नमस्कार कर भक्ति भाव से पूर्व जन्म का दे परिचय ।। पिछले भव मे परम मित्र थे क्षमा करे मेरी अविनय ॥८॥ सीमधर स्वामी के दर्शन को विदेह भू जाता हैं। यही प्रार्थना चले आप भी नम्र विनय मन लाता हूँ ॥९॥ चिर इच्छा साकार हुई मुनिवर ने स्वर्ण समय जाना । बोले श्री जिनवाणी सुनकर मुझे लौट भारत आना ॥१०॥ मुनि को साथ लिया उसने आकाश मार्ग से गमन किया । तीर्थकर सर्वज्ञ देव को जा विदेह मे नमन किया ॥११॥ सीमधर के समवशरण को देखा मन मे हर्षाये । जन्म जन्म के पातक क्षय कर अनुपम ज्ञान रत्न पाये ।।१२।। सीमधर प्रभु के चरणो मे झुककर किया विनय वन्दन । प्रभु की शातमधुर छवि लखकर धन्य हुए भारत नन्दन ॥१३॥ प्रभु से प्रश्न हुआ लघु मुनिवर कौन कहा से आये हैं । खिरी दिव्य ध्वनि कुन्द कुन्द मुनि भरत क्षेत्र से आये हैं ॥१४॥ सीमधर ने दिव्य ध्वनि मे कुन्दकुन्द का नाम लिया । भव भव के अघ नष्ट हो गये मुनि ने विनय प्रणाम किया ॥१५॥ विनयी होकर कुन्द कुन्द ने जिनवाणी का पान किया ।
अष्ट दिवस रह समवशरण मे द्वादशाग का ज्ञान लिया ॥१६॥ अक्षय ज्ञान उदधि मन मे भर और ह्रदय मे प्रभु का नाम । सीमधर तीर्थंकर प्रभु को करके बारम्बार प्रणाम ।।१७।। फिर विदेह से चले और नभ पथ से भारत मे आये । तीर्थंकर वाणी का सागर मन मन्दिर में लहराये ॥१८॥
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श्री कुन्द कुन्दाचार्य पूजन धर्मध्यान का क्रिया आचरण, अपर प्रससा के हिल है ।
तो अज्ञानी जन को ठगने, में तू हुआ दत्त चित है ।। जो सुनकर आये जिनवाणी फिर उसको लिपि रुप दिया। जगत जीव कल्याण करे निज, ऐसा शास्त्र स्वरूप दिया ॥१९॥ राग मात्र को हेय बताया उपादेय निज शुद्धतम भाव शुभाशुभ का अभाव कर होता चेतन परमातम ॥२०॥ समयसार मे निश्चय नय का पावन मय सदेश भरा । श्री पचास्तिकाय को रचकर द्रव्य तत्व उपदेश भरा ॥२१॥ प्रवचनसार बनाया तुमने भेदज्ञान को बतलाया । मूलाचार लिखा मुनिजन हित साधु मार्ग को दर्शाया ।।२२।। नियमसार की रचना अनुपम रयणसार गूथा चितलाय । लघु सामायिक पाठ बनाया लिखा सिद्धप्रामृत सुखदाय ।।२३।। श्री अष्टपाहुड षट्प्राभृत द्वादशानुप्रेक्षा के बोल । चौरासी पाहुड लिक्खे जो अज्ञात नहीं हमको अनमोल ।।२४।। ताड़ पत्र पर लिखे प्रथ तब सफल हई चिर अभिलाषा । जन जन की वाणी कल्याणी धन्य हुई प्राकृत भाषा २५।। जीवो के प्रति करुणा जागी मोक्ष मार्ग उपदेश दिया । ओर तपस्या भूमि बनाकर गिरि कुन्द्रादि पकि किया ॥२६।। अमृतचन्द्राचार्य देव को टीका आत्मख्याति विख्यात । पाप्रभ मलधारि देव की टीका नियमसार प्रख्यात ॥२७॥ श्री जयसेनाचार्य रचित तात्पर्यवृति टीका पावन । श्री कानजीस्वामी के भी अनुपम समयसर प्रवचन ॥२८॥ फानन्दि गुरु बक्रग्रीव । मुनि एलाचार्य आपके नाम । गृद्धपृच्छ आचार्य यतीश्वर कुन्द कुन्द हे गुण के धाम ।।२९।। हे आचार्य आपके गुण वर्णन करने की शक्ति नही । पथ पर चले आपके ऐसी भी तो अभी विरक्ति नहीं ॥३०॥ भक्ति विनय के सुमन आपके चरणो में अर्पित हैं देव । भव्य भावना यही एक दिन मैं सर्वज्ञ बनूँ स्वयमेव ॥३१॥
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जैन पूजांजलि जीवन दृश्य बदल जाएगा, जब देखेगा निज की ओर ।
अप के बादल विघट जाएगे हो जाएगी समकित भोर । । १९“जीवादी सदहण सम्पत्तपाऊँ प्रभु कसै प्रणाम । इन चरणो की पूजन का फल पाऊँ सिद्धपुरी का धाम ॥३२॥ ॐ ह्री श्री कुन्दकुन्दआचार्यदेवाय अवर्षपद प्राप्तये अयं नि. स्वाहा ।।
कुन्द कुन्द मुनि के वचन भाव सहित उरधार । निज आतम जो ध्यावते पाते ज्ञान अपार ।।
___ इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र-ॐ ह्री श्री कुन्दकुन्दाचार्य देवाय नम
श्री जिनवाणी पूजन जय जय श्री जिनवाणी जय जग कल्याणी जय जय जय । तीर्थंकर की दिव्यध्वनि जय, गुरु गणधर गुम्फित जय जय ।। स्याद्वाद पीयूषमयी जय लोकालोक प्रकाशमयी । द्वादशाग श्रुत ज्ञानमयी जय वीतराग ज्ञानमयी । । श्री जिनवाणी के प्रताप से मै अनादि मिथ्यात्वहरूँ । श्री जिनवाणी मस्तक धाउँ बारम्बार प्रणाम करूँ।। ॐ ह्री श्री जिनमुखोद्भव सरस्वती वाग्वादिनि अव अवतर अवतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अत्रमम् सन्निहितो भव भव वषट् । मिथ्यात्वकलुषता के कारण पाया ना बिन्दु समताजल का । अपने ज्ञायकस्वभाव का भी अब तक प्रतिभास नहीं झलका ।। मै श्री जिनवाणी चरणो मे मिथ्यातम हरने आया हूँ। श्री महावीर की दिव्यध्वनि ह्रदयगम करने आया हूँ। मैं श्री ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री जिन मुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै जन्म जरा मृत्यु विनाशनाए जलं नि । श्रद्धा विपरीत रहो मेरी निज पर का ज्ञान नहीं भाया । चन्दन सम शीतलता मय ह इतना भी ध्यान नहीं आया में श्री ॥२॥ ॐ ही श्री जिन मुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै ससार ताप विनाशनाए चन्दनं नि । (११) समय सार - १५५ जीवादि पदार्थों का श्रद्धान सम्यकदर्शन है।
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श्री जिनवाणी पूजन जिस दिन तू मिथ्यात्व भाव को कर देगा पुरा विध्वंस ।
प्रकट स्वरूपाचरण करेगा पाकर पूर्ण ज्ञान का अंश ।। यह आधि व्याधि पर की उपाधि भव प्रमण बढ़ाती आई है । अक्षय अखड निज की समाधि अबतक न कभी भी पाई है ।मैं श्री।३।। ॐ होश्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै अक्षय पद प्राप्ताय अक्षत नि । एकत्व बुद्धि करके पर मे कापन का अभिमान किया । मैं निज का कर्ता भोक्ता हु ऐसा न कभी भी मान किया । मैं श्री ।।४।। ॐ हीं श्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै कामबाण विश्वसनाय पुष्प नि । यह माया अनन्तानुबन्धी प्रति समय जाल उलझाती है । चारों कषाय की यह तृष्णा उलझन न कभी सुलझती है । मैं श्री ।।५।। ॐ ह्री श्री जिनमुखोद् भव सरस्वतीदेव्यै क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । तत्वों के सम्यक निर्णय बिन श्रद्धा को ज्योति न जल पाई । अज्ञान अधेरा हटा नहीं सन्मार्ग न देता दिखलाई । मैं श्री ॥६॥ ॐ ही श्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि । होकर अनन्त गुण का स्वामी, पर का ही दास रहा अबतक । निजगुण की सुरभि नहीं भाई भवदधि मे कष्टसहा अबतक।मैं श्री ॥७॥ ॐ ह्री श्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै अष्टकर्म विध्वन्सनाय धूप नि । मैं तीन लोक का नाथ पुण्य धूल के पीछे पागल हूँ । चिन्तामणि रत्न छोड़कर मैं रागों मे आकुल-व्याकुल हूँ मैं श्री ॥४॥ ॐ ही श्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै महा मोजकतमासकस नि । अब तक का जितना पुण्य शेष हर्षित हो अर्पण करता। अनुपम अनर्घ पद पा जाऊमै यही भावना भरता हू । ।मैं श्री ॥९॥ ॐ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भव सरस्वतीदेव्यै अनर्षपद प्राप्तये अध्यं नि ।
जयमाला जय जय जय ओकार दिव्यध्वनि योगीजननित करते ध्यान । मोहतिमिर मिथ्यात्व विनाशक ज्ञान प्रकाशक सूर्य समान ॥१॥ वस्तु स्वरूप प्रकाशक निज पर भेद ज्ञान की ज्योति महान । सप्तभंग, स्याद नयाश्रित बदशांग श्रुत ज्ञान प्रमाण ॥२॥
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जैन पूजांजलि जिनमत की परिपाटी में पहले सम्यक्दर्शन होता ।
फिर स्वशक्ति अनुसार जीवको व्रत सयम तप धन होता । । द्वादश अग पूर्व चौदह परिकर्म सूत्र से शोभित है । पच चूलिका चौ अनुयोग प्रकीर्णक चौदह भूषित है ॥३॥ जय जय आचाराग प्रथम जय सूत्रकृताग द्वितीय नमन । स्थानाग तृतीय नमन जय चौथा समवायाग नमन ॥४॥ जय व्याख्याप्रज्ञाप्ति पाचवा षष्टम् ज्ञातृधर्मकथाग । उपासकाध्ययनाग सातवा अष्टम् अन्त कृतदशाग ।।५।। अनुत्तरोत्पादकदशाग नौ प्रश्न व्याकरणअग दशम् । जय विपाकसूत्राग ग्यारहवाँ दूष्टिवाद द्वादशम् परम् ॥६॥ दृष्टिवाद के चौदह भेट रुप है चौदह पूर्व महान । ग्यारह अगपूर्व नौ तक का द्रव्यलिंगि कर सकता ज्ञान ।।७।। पहला है उत्पाद पूर्व दूजा अग्रायणीय जानो । तीजा है वीर्यानुवाद चौथा है अस्तिनास्ति मानो ॥८॥ पचम ज्ञानप्रवाद कि षष्टम सत्यप्रवाद पूर्व जानो । सप्तम् आत्मप्रवाद, आठवा कर्मप्रवाद पूर्व मानो ॥९॥ नवमा प्रन्याख्यानप्रवाद सु दशवा विद्यानुवाद जान । ग्यारहवा कल्याणवाद बारहवा प्राणानुवाद महान ॥१०॥ तेरहवा क्रियाविशाल चौदहवा लोकबिन्दु है सार ।। अग प्रविष्ट अरु अग बाह्य के भेद प्रभेद सदा सुखकार ॥११।। दृष्टिवाद का भेद पाँचवा पच चूलिका नाम यथा । जलगत थलगत मायागत अरु रुपगता आकाशगता ॥१२॥ पाच भेद परिकर्म उपाग के प्रथम चन्द्र प्रज्ञप्ति महान । दूजा सूर्यप्रज्ञप्ति तीसरा जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति प्रधान ॥१३॥ चौथा द्वीप-समूह प्रज्ञप्ति पचम व्याख्या प्रज्ञप्ति जान । सूत्र आदि अनुयोग अनेकों है उपाग धन धन शुस ज्ञान ॥१४॥ तत्त्वो के सम्यक निर्णय से होता शुद्धातम का ज्ञान । सरस्वती माँ के आश्रय से होता है शाश्वत कल्याण ॥१५॥
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श्री समयसार पूजन दिध्य ध्वनि की अविच्छिन्न धारा में आती है यह बात ।
व स्वभाव आत्रय से होता है प्रारम्भ नवीन प्रभात ।। इसीलिए जिनवाणी का अध्ययन चितवन मैं कर लूँ । काल लब्धि पाकर अनादि अज्ञान निविडतम को हरलूँ ॥१६॥ नव पदार्थ छह द्रव्य काल वय सात तत्व को मैं जाने । तीन लोक पंचास्तिकाय छह लेश्याओ को पहचानें ।।१७।। षट् कायक का दया पालकर समिति गुप्तिव्रत को पानू । द्रव्यभाव चारित्र धार कर तप सयम को अपना लूँ ।।१८।। निज स्वभाव मे लीन रहू मैं निज स्वरुप मे मुस्काऊं। क्रम-क्रम से मैं चार घातिया नाश करूँ निज पद पाऊँ ॥१९॥ प्राप्त चतुर्दश गुणस्थान कर पूर्ण अयोगी बन जाऊँ।। निज सिद्धत्व प्रगट कर सिद्धशिला पर सिद्धस्वपद पाऊँ ॥२०॥ यह मानव पर्याय धन्य हो जाये मों ऐसा बल दो । सम्यकदर्शन ज्ञान चरित रत्नत्रय पावन निर्मल दो ॥२१॥ भव्य भावना जगा ह्रदय मे जीवन मगलमय कर दो । हे जिनवाणी माता मेरा अन्तर ज्योतिर्मय कर दो ॥२२॥ ॐ ह्री श्री जिनमुखोद् भव सरस्वतीदेव्यै पूर्णायं नि ।
जिनवाणी का सार है भेद-ज्ञान सुखकार । जो अन्तर मे धारते हो जाते भवपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्ययन्त्र ॐ ह्री श्री जिनमुखोद्भूत श्रुतज्ञानाय नम ।
श्री समयसार पूजन जय जय जय ग्रन्थाधिराज श्री समयसार जिन श्रुत बन्दन । कुन्दकुन्द आचार्य रचित परमागम को सादर वन्दन ।। बादशाग जिनवाणी का है इसमें सार परम पावन । आत्म तत्व की सहज प्राप्ति का है अपूर्व अनुपम साधन ।। सीमंधर प्रभु को दिव्य ध्वनि इसमे गूज रही प्रतिक्षण । इसको हृदयंगम करते ही हो जाता सम्यकदर्शन ।।
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जैन पूजांजलि जीवन तर तो आयु कर्म के बल पर ही हरियाता है।
जब यह आयु पूर्ण होती है तो पल में मुरझाता है ।। समयसार का सार प्राप्त कर सफल करूँ मानव जीवन । सब सिद्धों का वन्दन करके करता विनय सहित पूजन ॥ ॐ ही श्री परमागमसमयसाराय पुष्पाजलि क्षिपामि ।। निज स्वरूप को भूल आजतक चारोगति में किया प्रमण । जन्म मरण क्षय करने को अब निज मे करूँ रमण ।। समयसार का करूँ अध्ययन समयसार का करूँ मनन । • कारण समयसार को ध्याऊँ समयसार को करूं नमन ॥१॥
ॐ ह्रीं श्री परमागमसमयसार जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि ।। भव ज्वाला मे प्रतिफल जलजल करता रहा करुण क्रन्दन । निज स्वभाव ध्रुवका आश्रय लेकाटूगा जग के बधन । समय ।।२।। ॐ ह्री श्री परमागमसमयसाराय ससारतापविनाशनाय चन्दन नि । पुण्य पाप के मोह जाल मे बढी सदाभव की उलझन ।। सवरभाव जगा उर मे तो, भव समुद्र का हुआ पतन । समय ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री परमागमसमयसाराय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि । कामभोग बन्धन की कथनी सुनी अनन्तो बार सघन । चिर परिचित जिनभुत अनुभूति न जागी मेरेअतर्मन समय ।।४।। ॐ ह्री श्री परमागमसमयसाराय कामबाणविध्वशनाय पुष्प नि । क्षुधा रोग की औषधि पाने का न किया है कभी जतन । आत्मभान करते ही महका वीतरागता का उपवन । समय ॥५॥ ॐ ह्री श्री परमागमसमयसाराय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । भ्रम अज्ञान तिमिर के कारण पर मे माना अपनापन । सत्य बोध होते ही पाई ज्ञान सूर्य की दिव्य किरण । समय ॥६॥ ॐ ह्री श्री परमागमसमयसाराय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । आर्त रौद्रध्यानो मे पडकर पर भावो मे रहा मगन । शुचिमय ध्यान धूप देखी तो धर्मध्यान की लगी लगन। समय. ॥७॥ ॐ ही श्री परमागमसमयसाराय अष्टकर्म विनाशनाय धूप नि
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श्री समयसार पूजन जब निज स्वभाव परिणित की धारा अबत्र बहती है।
अन्तर्मन में सिदों की पावन गरिमा रहती है ।। धव तरु के विषय फल खाकर करता आया भाव परण । सिद्ध स्वपद की चाहजगी तो यह पर्याय हुई धन धन । समय ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री परमागमसमयसाराम महा मोक्षफल प्राप्तये फलं नि । आश्रव बघभाव का कारण मिटा राग का एक न कण । द्रव्य दृष्टि बनते ही पाया निज अनर्ष पद का दर्शन । समय. ॥९॥ ॐ ही श्री परमागमसमयसाराय अनर्षपद प्राप्तये अभ्य नि स्वाहा ।
जयमाला समयसार के ग्रन्थ की महिमा अगम अपार ।
निश्चय नय भूतार्थ है अभूतार्थ व्यवहार ॥१॥ दुर्नय तिमिर निवारण कारण समयसार को करुं प्रणाम । हू अबद्धस्पृष्ट नियत अविशेष अनन्य मुक्ति का धाम ॥२॥ सप्त तत्त्व अझै नव पदार्थ का इसमे सुन्दर वर्णन है । जो भूतार्थ आश्रय लेता पाता सम्यकदर्शन है ॥३॥ जीव अजीव अधिकार प्रथम मे भेदज्ञान की ज्योति प्रधान । १“जो पस्सदि अप्पाण णियदं", हो जाता सर्वज्ञ महान ॥४॥ कर्ता कर्म अधिकार समझकर कर्ता बुद्धि विनाश करूँ। २“सम्पदसण णाण एसो' निज शुद्धात्म प्रकाश करूँ ।।५।। पुण्य पाप अधिकार जान दोनो मे भेद नहीं मान । ये विभाव परिणति से हैं उत्पन्न बधमय ही जानू ।।६।। ३"रत्तो बधदि कम्म', जानू उर विराग ले कर्म हरूँ। राग शुभाशुभ का निषेध कर निज स्वरूप को प्राप्त करूँ ॥७॥ मैं आश्रव अधिकार जानकर राग द्वष अरु मोह हरु। भिन्न द्रव्य आश्रव से होकर भावाश्रव को नष्ट करूँ ॥८॥ (१) ससा १५ अपनी आत्मा को. नियत दखता है, (२) ससा १४ दर्शन शान ऐसी संज्ञा मिलती है. (३) समयसार १५०-रागी जीव कर्म बांधता है.
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जैन पूजाँजलि इस मनुष्य भव रुपी नन वन में रत्नत्रय के फूल ।
पर अज्ञानी चुनता रहता है अधर्म के दुखमय शूल । । मै सवर अधिकार समझकर सवरमय ही भाव करूँ। ४ अप्पाण झायतो" दर्शन ज्ञानमयी निज भाव करूँ ॥९॥ मैं अधिकार निर्जरा जानू पूर्ण निर्जरावन्त वर्नु । पूर्व उदय मे सम रहकर मैं चेतन ज्ञायक मात्र वमू ।।१०।। ५ अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो" सारे कर्म झरामा । मै रतिवन्त ज्ञान मे होकर शाश्वत शिव सुख पा ॥११॥ बन्ध अधिकार बन्ध की हो तो सकल प्रक्रिया बतलाता । बिन सपकित जप तप व्रत सयम बध मार्ग है कहलाता ॥१२।। राग द्वेष भावो से विरहित जीव बन्ध से रहता दर ।। ६"णिच्छय णया सिदापुणमुणिणों" अष्टकर्म करता चकचूर ।।१३।। जान मोक्ष अधिकार शीघ्र ही नष्ट करुवि षकुम्भवि भाव । आत्म स्वरूप प्रकाशित करके प्रकटाऊ परिपूर्ण स्वभाव ॥१४॥ शुद्ध आत्मा ग्रहण करूँ मैं सर्व बध का कर छेदन । निशकित हो कर पाऊगा मुक्ति शिला का सिंहासन ॥१५॥ पर्व विशुद्ध ज्ञान का है अधिकार अपूर्व अमूल्य महान ।। पर कर्तृत्व नष्ट हो जाता होता शिव पथ पर अभियान ।।१६।। कर्म फलो को मृ ढ भोगता ज्ञानी उनका ज्ञाता है । इसीलिए अज्ञानी दुख पाता ज्ञानी सुख पाता है ।।१७।। भाव वासना नो अधिकारो से कर निज मे वास करूँ । ७ “मिच्छत्त अविरमण कसाय जोग" की सत्ता नाशक ॥१८॥ कुन्दकुन्द ने समयसार मन्दिर का किया दिव्य निर्वाण । वीतराग सर्वज्ञ देव की दिव्य ध्वनि का इसमे ज्ञान ॥१९॥ (४) स सा १८६-आत्मा को ध्याता हुआ (५) स सा २१०-११-१२-१३ अनिच्छुक को अपरिगृही कहा है (६) स मा २७२-निश्चय नयाश्रित मुनि मोक्ष प्राप्त करते है (७) स सा १६४- मिथ्यात्वव अविरति कषाय योग ये आश्रव है ।
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श्री समयसार पूजन एक दिन भी जी मगर त ज्ञान बनकर जी ।।
तू स्वय भगवान है भगवान बनकर जी ।। सर्व चार सौ पन्द्रह गाथाए प्राकृत भाषा मे जान । सारभूत निज समयसार काही अनुभव लू भव्य महान ॥२०॥ अमृतचन्द्राचार्य देव ने आत्मख्याति टीका लिखकर । कलश चढाये दो सौ अठहत्तर स्वर्णिम अनुपम सुन्दर ।।२१।। श्री जयसेनाचार्य स्वामी की तात्पर्यवृत्ति टीका । ऋषि मुनि विद्वानो ने लिक्खा वर्णन समयसार जी का ॥२२॥ ज्ञानी ध्यानी मुनियों ने भी तोरण द्वार सजाये हैं । समयसार के मधुर गीत गा वन्दनवार चढाये हैं ।।२३।। भिन्न भिन्न भाषाओ में इसके अनुवाद हुए सुन्दर । काव्य अनेको लिखे गये हैं समयसार जी पर मनहर ॥२४।। श्री कानजीस्वामी ने भी करके समयसार प्रवचन । समयसार मन्दिर पर सविनय हर्षित किया ध्वजारोहण ।।२५।। समयसार पढ सम्यकदर्शन ज्ञान चरित्र प्रगटाऊँगा । ८ "तिब्ब मद सहाव" क्षयकर- वीतराग पद पाऊँगा ॥२६।। पच परावर्तन अभाव कर सिद्ध लोक मे जा । काल लब्धि आई है मेरी परम मोक्ष पद पा ||२७।। भक्ति भाव से समयसार की पैने पूजन की है देव । कारण समयसार की महिमा उरमे जाग उठी स्वयमेव ।।२८।। नम समयसाराय स्वानुभव ज्ञान चेतनामयी परम । एक शुद्ध टकोत्कीर्ण, चिन्मात्र पूर्ण चिद्रप स्वयम् ।।२९।। नय पक्षों से रहित आत्मा ही है समयसार भगवान । समयसार ही सम्यकदर्शन समयसार ही सम्यकज्ञान ॥३०॥ ॐ ह्री श्री परमागम समयसाराय पूर्णाऱ्या नि । (८) स सा २८८-बन्धन के तीन मन्द स्वभाव को
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जैन पूजाँजलि धर्म को आज तक हमने जाना नहीं । राग की रागिनी हम बजाते रहे । अपनी शुद्धात्मा को तो माना नहीं । । पुण्य के गीत ही गुनगुनाते रहे ।।
समयसार के भाव को जो लेते उर धार । निज अनुभव को प्राप्तकर हो जाते भवपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ह्रीं श्री परमागम समयसाराय नमः ।
श्रीभक्तामरस्तोत्र पूजन जय जयति जय स्तोत्र भक्तामर परम सुख कारणम । जय ऋषभदेव जिनेन्द्र जय जय जय भवोदधितारणम् ।। जय वीतराग महान जिनपति विश्वबंध महेश्वरम् । जय आदिदेव सु महादेव सुपूज्य प्रभु परमेश्वरम् ॥ जय ज्ञान सूर्य अनन्त गुणपति आदिनाथ जिनेश्वरम् । जय मानतु ग मुनीश पूजित प्रथम जिन तीर्थेश्वरम् ॥ मैं भावपूर्वक करूँ पूजन स्वपद ज्ञान प्रकाशकम् । दो भेदज्ञान महान अनुपम अष्टकर्म विनाशनम् ।। ॐ ह्री श्री वृषभनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ। अवमम सन्निहितो भव भव वषट् । जन्म मरण भयहारी स्वामी, आदिनाथ प्रभु को वंदन । त्रिविध दोष ज्वर हरने को, चरणो मे जल करता अर्पण । ऋषभदवे के चरणकमल मे, मन वच काया सहित प्रणाम । भक्तामर स्तोत्र पाठकर, मैं पाऊँ निज मे विश्राम ।।।। ॐ ह्री श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि भव आताप विनाशक स्वामी आदिनाथ प्रभु को वन्दन । भवदावानल शीतल करने चन्दन करता हूँअर्पण । ऋिषभ ॥२॥ ॐ ही श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चन्दनं नि ।। भव समुद्र उद्धारक स्वामी आदिनाथ प्रभु को वन्दन । अक्षय पद की प्राप्ति हेतु प्रभु अक्षत करता हूँ अर्पण। ऋषभ. ॥३॥ ॐ ही श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि ।
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श्री भक्तामरस्तोत्र पूजन तन प्रमाण अपचार कथन है लोकप्रमाण कथल भूतार्थ ।
जो भूतार्थ माश्रय लेता वह पाता शिवमय परमार्थ ।। काम व्यथा संहारक स्वामी आदिनाथ प्रभु को वन्दन । ' मैं कन्दर्प दर्पहरने को सहज पुण्य करता अर्पण । ऋषभ. I४| ॐ हीं श्री वातावजिनेन्द्राय कामवाण विश्वसनाय पुष्पं नि । क्षुधा रोग के नाशक स्वामी आदिनाथ प्रभु को वन्दन । अब अनादि क्षुधा मिटाऊँ प्रभु नैवेद्य करूँ अर्पण ऋषभ. ।।५।। ॐ हीं भी वृषभनायजिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि. । स्वपर प्रकाशक ज्ञान ज्योतिमय आदिनाथ प्रभु को बदन । मोह तिमिर अज्ञान हटाने दीपक चरणों मे अर्पण । ऋषभ ॥६॥ * ही श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि । कर्म व्यथा के नाशक स्वामी आदिनाथ प्रभु को वदन । अष्ट कर्म विध्वस हेतु भावों की धूप करूँ अर्पण । ऋषभ ।७।। ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप नि । नित्य निरंजन महामोक्ष पति आदिनाथ प्रभु को क्दन । मोक्ष सुफल पाने को स्वामी चरणों मे फल है अर्पण ऋिषभ ॥८॥ ॐ ही श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय महा मोक्षफल प्राप्तये फल नि । जल गधाक्षत पुष्प सचरु दीप धूप फल अर्घ समन । पद अनर्घ पाने को स्वामी चरणो सादर अर्पण ऋषभ ।।९।। ॐ ह्री श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय अनर्धपद प्राप्तये अय नि ।
जयमाला वृषभाकित जिनराज पद वन्दू बारम्बार ।
वृषभदेव परमात्मा परम सौख्य आधार ॥१॥ भक्तामर की यशोपताका फहराते हैं साधु भक्त जन । भाव पूर्वक पाठ मात्र से कट जाते सब सकट तत्क्षण ॥२॥ भक्तामर रच मानतुंग ने निजपरका कल्याण किया था । अड़तालीस काव्यरचनाकर शुभअमरत्व प्रदान किया था ॥३॥ नृपकारा से मुक्त हुए मुनि श्रुतउपदेश महान दिया था। आदिनाथ की स्तुतिकरके निजस्वरूप का ध्यान किया था |
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जैन पूजांजलि क्रिया शुद्ध स्वानुभव की हो तो प्रगटित होता सिद्ध स्वरुप ।
दया दान पूजादि भाव की क्रिया मात्र 'ससार स्वरुप ।। मै भी प्रभु की महिमा गाकर भावपुष्प करता हूँ अर्पण । बैलोक्येश्वर महादेव जिन आदिदेव को सविनय वन्दन ॥५॥ नाभिराय मरुदेवी के सुत आदिनाथ तीर्थकर नामी । आज आपकी शरण प्राप्त कर अति हर्षित हूँ अन्तर्यामी ॥६॥ मैने कष्ट अनतानन्त उठाये हैं अनादि से स्वामी । आत्मज्ञान बिन भटक रहा हूँ चारो गति मे त्रिभुवननामी ७ नर सुर नारक पशुपर्यायो मे प्रभु मैने अति दुख पाये । जड पुद्गल तन अपना माना निजचैतन्य गीत ना गाये ।।८॥ कभी नर्क मे कभी स्वर्ग मे कभी निगोद आदि मे भटका । सुखाभास की आकाक्षा ले चार कषायो मे ही अटका ॥९॥ एक बार भी कभीभूलकर निजस्वरुप का किया न दर्शन । द्रव्यलिग भी धारा मैने किन्तु न भाया आत्म चितवन ॥१०॥ आज सुअवसर मिला भाग्य से भक्तामर का पाठ सुनलिया । शब्दअर्थ भावो को जाना निज चैतन्य स्वरुप गुन लिया ॥११।। अब मुझको विश्वास हो गया भव का अन्त निकटआया है ।। भक्तामर का भाव ह्रदय मे मेरे नाथ उमड आया है ॥१२॥ भेद ज्ञान की निधि पाा स्वपर भेद विज्ञान करूँगा । शुद्धात्मानुभूति के द्वारा अष्टकर्म अवसान करुंगा ॥१३॥ इस पूजन का सम्यकफल प्रभु मुझको आप प्रदान करो अब । केवलज्ञान सूर्य की पावन किरणो का प्रभु दान करो अब ॥१४।। क्रोधमान माया लोभादिक सर्व कषाय विनष्ट करूँ मै । वीतराग निज पद प्रगटाऊ भव बन्धन के कष्ट हरूँ मै ॥१५॥ स्वर्गादिक की नही कामना भौतिक सुख से नही प्रयोजन । एक मात्र ज्ञायकस्वभाव निजका ही आश्रयलू हे भगवान ॥१६॥ विषय भोग की अभिलाषाएँ पलक मारते चूर करूँ मैं । शाश्वत निज अखड पद पाऊ पर भावों को दर करूँ मैं ।७।।
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श्री इन्द्रध्वज पूजन तुममें शुद्ध होना है तो फिर मात्र आत्मा को जानों ।
केवल ज्ञान परम निधि प्रगटित होगी यह निश्चयमान ।। मिथ्यात्वादिक पाप नष्ट कर सम्यकदर्शन को प्रगटाऊँ। सम्यकज्ञान चरित्र शक्ति से घाति अघाति कर्म विघटाऊँ ॥१८॥ ॐ हीं श्री वृषभदेवजिनेन्द्राय अनपदप्राप्तये पूर्णाम्य नि स्वाहा ।
भक्तामर स्तोत्र की महिमा अगम अपार । भाव भासना जो करे हो जाएँ भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र ॐ ह्री श्री क्लौं अर्ह श्री वृषभनाथजिनेन्द्राय नम
श्री इन्द्रध्वज पूजन मध्य लोक मे चार शतक अट्ठावन जिन चैत्यालय है । तेरह द्वीपो मे अकृत्रिम पावन पूज्य जिनालय है ।। सर्व इन्द्र, इन्द्रध्वज पूजन करते बहु वैभव के साथ ।। हर मन्दिर पर ध्वजा चढाते झका त्रियोग पूर्वक माथ ।। में भी अष्ट द्रव्य ले स्वामी भक्ति सहित करता पूजन ।। निज भावो का ध्वजा चढाऊँ मिटे पच परावर्तन ।।
ॐ ही मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौ अटठावन जिनालयस्थ शाश्वत् जिनबिम्ब समूह अत्र अवतर अवतर सवौषट् । अवतिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अवमम् सनिहितो भव भव वषट् ।। रत्न जडित कचन झारी मे क्षीरोदधि का जल लाऊँ। जन्म मरण भव रोग नशाऊ निज स्वभाव मे रमजाऊँ ।। तेरह द्वीप चार सौ अट्ठावन जिन चैत्यालय बन्दै । इन्द्रध्वज पूजन करके प्रभु शुद्धातम को अभिनन्, ।।१।। ॐ ही मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौ अट्ठावन जिनालयस्य शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि स्वाहा । मलयागिरि का बावन चंदन रजत कटोरी मे लाऊँ। भव बाधा आताप नाश हित निज स्वभाव मे रमजाऊँ। तेरह ॥२॥ ॐ ही श्री मध्यलोक तेरह द्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बम्यो संसारताप विनाशनाय चन्दनं नि स्वाहा ।
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जैन पूजाँजलि कर्म विपाकोदय निमित्त पा होते रागद्वेष विभाव ।
अज्ञानी उनमें रत होता मूल वीतरागी निज भाव ।। उत्तम उज्ज्वल धवल अखण्डित तदुल चरणो में लाऊ । अक्षय पद की प्राप्ति हेतु मैं निज स्वभाव में रमजाऊं। तेरह. ॥३॥ ॐ ही श्री मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि स्वाहा । महा सुगन्धित शोभनीय बहु पीत पुष्य लेकर आऊ । काम भाव पर जय पाने को जिन स्वभाव मे रमजाऊ । तेरह ॥४॥ ॐ हीं मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्याो कामबाण विष्वसनाय पुष्प नि स्वाहा ।। विविध भाँति के भाव पूर्ण नैवेद्य रम्य लेकर आऊ । क्षुधा रोग का दोष मिटाने निज स्वभाव मे रमजाऊ ।।तेरह ।।५।। ॐ ही मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्या क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि स्वाहा । मोह तिमिर अज्ञान नाश करने को ज्ञान दीप लाऊँ । मै अनादि मिथ्वात्व नष्टकर निज स्वभाव मे रमजाऊँ तिरह ॥६॥ ॐ ही मध्यलोक तेरह द्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि स्वाहा । प्रकृति एक सौ अडतालीस कर्म की धूप बना लाऊ । अष्टकर्म अरिक्षयकरने को निज स्वभाव मे रमजाऊ । ।तेरह ।।७।। ॐ ही मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौअगवन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्या अष्टकर्म दहनाय धूप नि स्वाहा । रागर परिणति अभाव कर निजपरिणति के फलपाऊ। भव्य मोक्ष कल्याणक पाने निज स्वभाव मे रमजाक ।।तेरह ॥८॥ ॐ ही मध्यलोक तेरह दीपसम्बन्धी चारसीअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्या मोक्षफल प्राप्तये फल नि स्वाहा । द्रव्यकर्म नोकर्म भावकों को जीत अर्घ लाऊ । देह मुक्त निज पद अनर्घ हित निज स्वभाव में रम जाऊ तेरह ।।९।। * ही मध्यलोक तेरहद्वीप सम्बन्धी चार सौ अट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो अनर्षपद प्राप्तये अयं नि ।
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श्री इन्द्रध्वज पूजन पुण्य मूल के लिए बाबरे हीरा जनम गंवाना। रल राख के लिए जलाता फिर भवभय पछतासा ।।
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जयमाला तेरह डीप महान के श्री जिन बिम्ब महान । इन्द्रध्वज पूजन काँ पाउँ सुख निर्वाणा॥ मेरु सुदर्शन, विजय, अचल, मंदिर, विद्यन्माली अभिराम । भद्रशाल, सौमनस, पांडुक, नंदनवन शोभित सुललामा॥२॥ हाई द्वीप में पंचमेरु के बंदू अस्सी चैत्यालय । विजयारथ के एक शतक सतर बन्दू में जिन आलय ।।३।। जम्बू वक्ष पांच मैं बन्दू शाल्मलि तरु के पाँच महान । मानुषोत्तर चार और इष्वाकारों के चार प्रधान ४॥ वक्षारों के अस्सी बन्दू गजदन्तो के बन्, बीस । तीस कुलाचल के मैं बन्दू श्रद्धा भाव सहित जगदीश ।।५।। मनुज लोक के चार शतक मे दो कम चैत्यालय वर्दै । डाई द्वीप से आगे के द्वीपों मे साठ भवन वन्यूँ ॥६॥ इक शत शठ कोटिलाख चौरासी योजन नन्दीश्वर । अष्टम द्वीप दिशा चारों में हैं कुल बावन जिन मन्दिर ।।७।। चारों दिशि मे अजनगिरि, दधिमुख, रतिकर, पर्वत सुन्दर । देव सुरेन्द्र सदा पूजन बंदन करने आते सुखकर ॥८॥ कुण्डलगिरि हैं बीप तेरहवां चार चैत्यालय बन्दूँ। झेप रुचकवर तेरहवें के चार जिनालय मैं बन्दै ॥ मध्यलोक तेरह ीपों मे गर शतक अट्ठावन गृह । एक-एक मे एक शतक अरु आठ आठ प्रतिमा विग्रहा॥१०॥ अष्ट प्रतिहार्यों से शोभित रत्नमयी जिन बिम्ब प्रवर । अष्ट-अष्ट मंगल द्रव्यों से हैं शोभायमान मनहर ॥११॥ उनन्चास सहस्त्र चार सौ चौसठ जिन प्रतिमा पावन । सभी अकृत्रिम हैं अनादि हैं परम पूज्य अति मन भावन १२॥
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जैन पूजाजलि देह अपावन जड पुदगल है तू चेतन चिद्रूपी ।
शुबुद्ध अविरुद्ध निरजन नित्य अनूप अरुपी ।। एक शतक अरु अर्ध शतक योजन लम्बे चौड़े जिन धाम । पौन शतक योजन ऊँचे हैं भव्य गगनचुम्बी सुललाम ॥१३॥ उत्तम से आधे मध्यम इनसे आधे जघन्य विस्तार । इन्द्र चढाते ध्वजा सुपूजन इन्द्रध्वज करते सुखकार ।।१४।। उच्च शिखर पर दश चिन्हो के ध्वज फहराते हैं हर्षित । अष्ट द्रव्य. : देवोपम चरण चढाते हैं कर मस्तक नत ।।१५।। माला, सिह, कमल, गज, अकुश, गरुड, मयूर, वृषभ के चित्र । चकवा चकवी,हसचिन्ह शोभित बहुरगी ध्वजापवित्र ॥१६॥ मेरु मन्दिरो पर माला का चिन्ह ध्वजाओ में होता । विजयारध की सर्वध्वजाओ मे तो वृषभ चिन्ह होता ॥१७॥ जबूशाल्मलितरु के ध्वज पर अकुश चिन्ह सरल होत । मानुषोत्तर इष्वाकारो के ध्वज गज शोभित होते ॥१८॥ वक्षारो के जिन मन्दिर पर गरुड चिन्ह के ध्वज होते । गजदतो के चैत्यालय पर सिह विभूषित ध्वज होते ।।१९।। सर्वकुलाचल के जिन गृह पर कमल चिह के ध्वज होते । नदीश्वर मे चकवा चकवी चिन्ह सुशोभित ध्वज होते ।।२०।। कुण्डलवर गिरि मे मयूर के चिन्ह विभूषित ध्वज होते । द्वीप रुचकवर गिरि मन्दिर पर हसचिन्ह के ध्वज होते।।२१।। महाध्वजा अरू क्षुद्र ध्वजाये पचवर्ण की होती है । जिन पूजन करने वालो के सर्व पाय मल धोती है।॥२२॥ सुर मुरागना इन्द्र शची प्रभु गुण गाते हर्षाते हैं । नाच नाचकर अरिहतो के यश की गाथा गाते हैं।।२३।। गीत नृत्य वाद्यो से झकृत हो जाते है तीनो लोक । जय जयकार गृजता नभ मे पुलकित हो जाता सुरलोक ।।२४।।
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सम्बक दर्शन शान परित रलत्रय अपना लो ।
अष्टम वसुधा पंचम गति में सिद्ध स्वपद पालो ।। इसीलिए इसको इन्द्रध्वज पूजन कहता है आगम । पुण्य उदय जिनका हो वे ही प्रभु पूजन करते अनुपम ।।२५।। इन्द्र महापूजा रचता है मध्यलोक मे हितकारी । अब मिथ्यात्व तिमिर हरने को मेरी है प्रभु तैयारी ॥२६॥ प्रभु दर्शन से निज आतम का जब दर्शन होगा स्वामी ।। इस पूजा का सम्यक फल तबमुझको भी होगा स्वामी ॥२७॥ एक दिवस ऐसा आयेगा शुद्ध भाव ही होगा पास । । पाप पुण्य परभाव नाश कर सिद्ध तोक में होगा बास ।।२८॥ ॐ ही मध्यलोक तेरहद्वीपसम्बन्धी चारसौअट्ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो पूर्णाय नि स्वाहा ।
भाव सहित जो इन्द्रध्वज की पूजन कर हर्षाते है । निमिष पात्र मे उनके सकट सारे ही मिट जाते हैं ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ हो श्री मध्यलोक तेरह द्वीप सम्बन्धी चार मौ अन्ठावन जिनालयस्थ
शाश्वत जिन बिम्बेम्यो नम
श्री कल्पद्रुम पूजन चक्रवर्ति सम्राट महा कल्पद्रुम पूजन करते हैं। घटखण्डो के अधिपति श्री जिनवर का दर्शन करते ।। रत्नपुज प्रभु चरणाम्बुज मे न्यौछावर करते हैं । दान किमिच्छक देकर जन-जन के कष्टों को हरते हैं ।। वीतराग सर्वज्ञ जिनेश्वर के पद अर्चन करते हैं। अनुपम पुण्य सातिशय का भडार हदय में भरते हैं ।। साम्राज्य भर में देते याचक जन को मुँह मांगा दान । जिन शासन की प्रभावना कर होता मन में हर्ष महान ।।
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जैन पूजाजलि इस भव वन में उलझे रहते तो जिनवर अरहत न होते।
ज्ञाता दृष्टा शुद्ध स्वरुपी मुक्तिक्त भगवंत न होते ।। मैं भी कल्पद्रम पूजन करने चरणों में आया हूँ। शुभ भावो की अष्ट द्रव्य अति हर्षित हे प्रभु लाया हूँ॥ यही याचना है जिन स्वामी मेरे सकट नाश करो । मोह तिमिर का सर्वनाश कर मुझमे ज्ञान प्रकाश भरो ।। ॐ ही श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वर अत्र अवतर अवतर संवौषट्, अत्र तिष्ठ ठठ, अत्रमा सनिहितो भव भव वषट् । सुस्थिर रूप सरोवर जल में पड़ा रत्न ज्यों दिखलाता । मन के मान सरोवर जल मे निज आतम त्यों दर्शाता ।। जन्म मरण दुख सडन गलनमय जड़पुद्गल का बना शारीर । पच शरीरो से विमुक्त हो योगी हो जाता अशरीर ।। कल्पद्रुप पूजन करके प्रभु जन्म मृत्यु का करूँ विनाश । शुद्धभाव का अवलम्बन ले निज स्वभाव का करूँ प्रकाश ॥१॥ ॐ ह्री श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुप जिनेश्वराय जन्मजरा मृत्यु विनाशनाय जल नि । रागद्वे च से मलिन सलिल मन जब जब होता डावाडोल । कर्माश्रव की इसमे उठती है तब-तब अगणित कल्लोल ॥ पाप कर्म मल रहित हदय मे निस्तरग निश्चल निर्धान्त । परम अतीन्द्रिय शुद्ध आत्मा अनुभव मे आता अतिशात ।। कल्पद्रुप पूजन करके प्रभु भव आतप का करूँविनाश ।। शुद्ध ।।२।। ॐ ह्री श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वराय ससारतापविनाशनाय चन्दनं नि । वर्ण गध रस स्पर्श शब्द बिन इन्द्रिय विषयो से विरहित । विमल स्वरूपी सहजानन्दी निर्मल दर्शन ज्ञान सहित ॥ पूर्वोपार्जित कर्म उदय मे साम्यभाव जिय जब धरता । सचित कर्म विलय हो जाते, नूतन बन्ध नहीं करता ।। कल्पद्रुप पूजन करके प्रभु पाऊँपद अखण्ड अविनाश || शुद्ध ।।३।। ॐ ही श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वराय अक्षयपद प्राप्तय अक्षत नि ।
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श्री कल्पदुम पूजन जिनवाणी में निश्चय नये प्रतार्थ बताया ।
अभूतार्थ व्यवहार कथन उपवार जताया। नहीं मार्गणा नहीं गुणस्थान है जीवस्थान नहीं इसमें । क्रोध मान माया लोभादिक, लेश्यादिक न कहीं इसमें ॥ बध कला संस्थान संहनन शुद्धजीव को कभी नहीं । ये सब कर्म जनित हैं इनसे रंच मात्र सम्बन्ध नहीं ।। कल्पद्रुप पूजन करके प्रभु काम भाव का कसै विनाश । शुद्ध. ४|| ॐ ह्री श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वराय कामवाणविध्वंसनाय पुष्प नि । सम्यक दर्शन ज्ञान चरित्री आत्म स्वरुप परम पावन । इसकी दृढ़ प्रतीति होते ही हो जाता सम्यक्दर्शन ॥ अणुभर भी यदि राग शेष तो परमानन्द नहीं होता । कर्माश्रव का द्वार पूर्णत तब तक बन्द नहीं होता ।। कल्पद्रुम पूजन करके प्रभु क्षधारोग का कसै विनाश शुद्ध ॥५॥ ॐ ही श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वराय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । यह क्षयोपशम लब्धि विशुद्धि देशना अरु प्रायोग्य सुधार । भव्य अभव्यो को समान है पाई सदा अनन्तोवार ।। करणलब्धि भव्यों को होती इसके बिन चारों बेकार । पचम लब्धि मिले तो होता समकित ज्ञान चरित्र अपार ॥ कल्पद्रुम पूजनकरके प्रभु मोह तिमिर का कसै विनाशाशुद्ध ॥६॥ ॐ ही श्री धीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुप जिनेश्वराय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । शुद्ध आत्मा निश्चयनय से उपादेय है सर्व प्रकार । देवशास्त्र गुरु पंच परमपरमेष्ठी की श्रद्धा व्यवहार ।। द्रव्यकर्म ज्ञानावरणादिक भाषकर्म रागादिक विभाव । देहादिकनोकर्म रहित है शुद्ध जीव का नित्य स्वभाव ।। कल्पद्रुम पूजन करके प्रभु अष्ट कर्म का करु विनाश || शुद्ध ॥७॥ ॐ ही श्री वीतराग कल्पद्रुम जिनेश्वराव अष्टकर्म विश्वसनाय धूप नि. ।
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जैन पूजांजलि निश्चयनय भूतार्थ आश्रय उपादेय है ।
अभूतार्थ व्यवहार कथन तो अरे हेय है ।। निजस्वभाव से कट जाता है कर्मघातिया का जंजाल । केवलज्ञानादि नवलब्धि प्रकट हो जाती है तत्काल । फिर अघातिया स्वय भागते देख जीव की अतुलित शक्ति। यहाँ पूर्ण हो जाती है प्रभु निश्चय रत्नत्रय की भक्ति ।। कल्पगुम पूजन करके प्रभु पाऊँ मोक्ष सुफल अविनाश । शुद्धभाव का अवलंबन ले निजस्वभाव का करूँ प्रकाश।। शुद्ध ।।८।। ॐ ही श्री वीतराग सर्वज्ञकल्पटु मजिनेश्वराय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । ज्यो डठल से फल झड जाता फिर न कभी जुड़ सकता है । कर्म प्रथक होते ही भव की ओर न जिय मुड सकता है ।। परम शुक्लमय ध्यान अग्नि मे कर्मदग्ध करके अमलान । होता महाविशुद्ध ज्ञान यति परम ध्यानपति सिद्ध महान ।। कल्पद्रुम पूजन करके प्रभु पाऊँपद अनयू अविनाश ।। शुद्ध ।।९।। ॐ ही श्री वीतरागसर्वज्ञकल्पद्रुम जिनेश्वराय अनर्षपद प्राप्तये अयं नि
जयमाला कल्पद्रुम पूजन करूँविनय भक्ति से आज ।
शुद्ध भाव की शक्ति से बन जाऊँजिनराज ।। वीतराग सर्वज्ञ देव का शरण भाग्य से अब पाया । इस ससार समुद्र तीर के मैं समीपवर्ती आया।।१।। अभ्ररहित नभ से प्रदीप्त ज्यों किरणो वाला रवि ज्योतित । घातिकर्म हर रत्नत्रय के दिव्य तेज से प्रभु शोभित ।।२।। मनुज प्रकृति का किया अतिक्रमण देवों के भी देव हुए । रागद्वष का कर सर्वनाश अरहत देव स्वयमेव हुए।।३।। महा विषम मसार उदधि को तुमने पार किया भगवान । नय पक्षातिक्रान्त हो स्वामी तुमने पाया पद निर्वाणा४॥
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श्री कल्पद्रुम पूजन मिथ्यात्व जगत में भ्रमण कराता है।
सम्यक्त्व मुक्ति से रमण कराता है ।।... मणि रत्नों से दिव्य आरती मैंने की है बारम्बार । कल्पवृक्ष के पुष्पों से भी पूजन की है अगणित बार ।।५।। पर सत्यार्थ स्वभाव द्रव्य को मैंने किया नहीं स्वीकार । कभी नहीं भूतार्थ सुहाया, भाया अभूतार्थ व्यवहार ।।६।। कर्म काड शुभ राग भाव से सदा बढाया है संसार । ज्ञान कांड का लक्ष्य न साधा क्रियाकांड का कर व्यवहार ।।७।। मिथ्यादर्शन ज्ञान चरित इनके आराधक अनायतन । इनमे ही रत रहकर मैंने नष्ट किये अनन्त जीवन ॥८॥ देव मूढता साधु मूढता लोक मूढता, वसु अभिमान। जाति ज्ञान कुल रुप ऋद्धि बल पूजा तप मदहों अवसान।।९।। मिथ्यादर्शन अविरत पच प्रमाद कषाय योग दुर्बन्ध । सम्यक दर्शन हो जाये तो मै भी हो जाऊँ निर्बन्ध ॥१०॥ परमानन्द स्वरुप अतीन्द्रित सुख का धाम एक चिन्मात्र । ज्ञानानद स्वभावी चिद्धन जलहलज्योति मुक्त का पात्र ॥११॥ परम ज्योति अतिशय प्रकाशमय, कर्मों से है आच्छादित । पूर्ण त्रिकाली ध्रुव के आश्रय से होता है कर्म रहित।।१२।। श्रद्धा ज्ञान सिद्वि होते ही होता है चारित्र विकास । तभी सर्व संकल्प विकल्पों का होता है पूर्ण विनाश।।१३।। पर्यायो से दूष्टि हटाकर निज अखड पर ही हूँ दुष्टि । परम शुद्ध पर्याय प्रगट हो सिद्ध स्वपद की होगी सृष्टि ॥१४॥ भव्य जीव भी जब तक पर द्रव्यो मे ही रहता आशक्त । तब तक मोक्ष नहीं पाता है चाहे जितना रहे विरक्त ॥१५॥ साम्य समाधि योग अथवा शुद्धोपयोग या चिन्त निरोध । आर्तरौद्र दुर्ध्यान छोड हो धर्म शुक्ल भावना प्रमोद ।।१६।।
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जैन पूजांजलि आत्म ज्ञान वैभव यदि झे तो सदाचार शोभा पाता है ।
पचारावर्तन अभाव कर चेतन मुक्ति गीत गाता है ।। जीवकर्म संबध दूध अरु पानी के समान सहजात । दोनों प्रथक प्रथक पहचानू भेद ज्ञान का पाऊँ प्रात ॥१७॥ सेना स्वय नष्ट हो जाती जब राजा मारा जाता । मोह राज का नाश हुआ तो घातिकर्म भी क्षय पाता ॥१८॥ परगत ध्यान पंचपरमेष्ठी स्वगत ध्यान निज आतम का । यह रूपस्थ ध्यान है उत्तम वीतराग परमातम का ॥१९॥ परगत तत्व पचपरमेष्ठी प्रभु का ध्यान देव सविकल्प । स्वगत तत्व निज शुद्ध आत्मा रुपातीतध्यान अविकल्प ॥२०॥ जब तक योगी पर द्रव्यो मे रहता है संलग्न विकल्प । उग्र तपस्या करके भी पा सकता नहीं मोक्ष अविकल ।।२१।। अगर राग परमाणु मात्र भी विद्यमान है अन्तर मे । जिन आगम का वेत्ता होकर भी बहता भवसागर मे।।२२।। दर्शन ज्ञान चरित्र सदा ही है सेवन करने के योग्य । सर्व शुभाशुभ भाव अचेतन तो सेवन के सदा अयोग्य ॥२३॥ मनवच काया की प्रवृत्ति रुकने पर होता है सवर । आश्रव रुकता कर्म निर्जरित होते चिर सचित जर्जर।२४।। नाथ अचेतन पुदगल ही तो सदा दिखाई देता है। जीव चेतनामयी अदृश है नहीं दिखाई देता है।।२५।। प्रकट स्व सवेदन से होता देह प्रमाण विनाश रहित । लोकालोक देखने वाला दर्श ज्ञान सुख वीर्य सहित ॥२६॥ राग द्वष की कल्लोलो से न हो मनोबल डॉवाडोल । आत्मतत्व को ही मैं देखू बना रहू प्रभु पूर्ण अडोल ।।२७।। बाह्यन्तर द्वादश प्रकार का दुर्धरतपोभार स्वीकार । मोक्ष मार्ग पर बढू निरतर करूँ सिद्ध पद आविष्कार ॥२८॥
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श्री सर्वतोभद्र पूजन देह तो अपनी नहीं है देह से फिर मोह कसा ।
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लोक प्रमाण असंख्यात् संकल्प विकल्पात्यक पर भाव । इनका तिरस्कार कर स्वामी राग द्वेष का करूँ अभाव ॥२९॥ मैं अटूट वैभव का स्वामी हू चैतन्य चक्रवर्ती । निज अखंड साधना न साधी ध्यान किया प्रभु परवर्ती ॥३०॥ पुण्यों के समग्र वैभव को होम आज मैं करता हूँ। जिन पूजन के महा यज्ञ में सर्वस्य अर्पण करता हूँ ॥३१॥ मुक्ति प्राप्ति की जगी भावना भव वाछा का नाम नहीं ।। ज्ञाता दृष्टा होऊँ सयोगी भावों का काम नहीं ॥३२॥ तुम प्रभु साक्षात् कल्पगुम देते मुँह माँगा वरदान । महामोक्ष मगल के दाता वीतराग अर्हन्त महान ॥३३॥ कल्पद्रुम पूजन महान का है उद्देश्य यही भगवान । पर भावो का सर्वनाश कर पाऊँ सिद्ध स्वपद निर्वाण ॥३४॥ ॐ ह्री श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वरायपूर्णाष्य नि. स्वाहा । शुद्ध भाव से कल्पगुम पूजन जो करते सुख पाते । निज स्वरूप का आश्रय लेकर सिद्धलोक मे ही जाते॥३५॥
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र- ॐ ह्री श्री वीतराग सर्वज्ञ कल्पद्रुम जिनेश्वराय नमः ।
श्री सर्वतोभद्र पूजन सर्वतोभद्र पूजन करने का भाव हदय मे आया है । चारो दिशि मे जिनराज चतुर्मुख दर्शनकर सुख पाया है । यह पूजन मुकुटबद्ध राजाओ के द्वारा की जाती है । अत्यन्त महावैभव पूर्वक वसुद्रव्य चडाई जाती है ।। अतिभव्य चर्तु मुख पडप का करते निर्माण भक्ति पूर्वक । अरहन्त चतुमुख जिन प्रतिमा पथराते परम विनयपूर्वक ।।
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जैन पूजाबलि राग आग में जल जल तूने कष्ट अनत उठाए हैं ।
पाव शुभाशुभ के बंधन में आस् सदा बहाए है ।। मैं मुकुटबद्ध तो नहीं किन्तु शुभ भावबद्ध हूँ याचक हूँ । शिव सुख की आकाक्षा मन मे भोगों से दूर अमाचक हूँ । मैं यथा शक्ति निज भावो की वसुद्रव्य सजाकर लाया हूँ। सर्वतोभद्र पूजन करने जिन देव शरण में आया हूँ ॥ ॐ ही सर्वतोभद्र चतुर्मुखजिन अत्र अवतर अवतर सवौषट अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अत्रमम् सन्निहितो भव भव वषद् । मै एक शुद्ध हूँ चेतन हूँ सवीज्यमान गुणशाली हूँ। प्रभु जन्म मरण के नाश हेतु लाया पूजन की थाली हूँ । सर्वतोभद्र पूजन करके यह जीवन सफल बनाआ । जिनराज चतुर्मुख दर्शन कर मैं सम्यक्दर्शन पाऊँग ।।१।।
ॐ ही श्री सर्वतोभद्रचतुर्मुखजिनेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि मैं निर्विकल्प हूँ शीतल हूँ मैं परम शात गुणाशाली हूँ। ससार ताप क्षय करने को लाया पूजन की थाली हूँ।।सर्वतोभद्र ॥२॥ ॐ ही श्री सर्वतोभद्र चतुर्मुखजिनेभ्यो ससारतापविनाशनायचन्दन नि मै अविनश्वर हूँ अविकल हूँ अक्षय अनन्त गुण शाली हूँ। अक्षय पद प्राप्ति हेतु स्वामी लाया पूजन की थाली हूँ॥सर्वतोभद्र।।३।। ॐ ही श्री सर्वतोभद्र चतुर्मुखजिनेभ्यो अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि मै हू स्वतन्त्र निष्काम पूर्ण सिद्धो सम वैभवशाली हैं। इस काम शत्रु के नाश हेतु लाया पूजन की थाली हूँ ।।सर्वतोभद्र ।।४।। ॐ ह्रीं श्री सर्वतोभद्र चयतुर्मुखजिनेभ्यो काम बाण विध्वसनाय पुष्प नि मै परम तृप्त पै परम शक्ति सम्पन्न परम गुणशाली हूँ। अब क्षुधारोग के नाश हेतु लाया पूजन की थाली हूँ ॥सर्वतोभद्र ।।५।। ॐ ही श्री सर्वतोभद्र चतुर्मुखजिनेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि मैं स्वपर प्रकाशक ज्योति पुज मैं परमज्ञान गुणशाली हूँ। मोहाधकार भ्रमनाश हेतु लाया पूजन की थाली हूँ ।।सर्वतोभद्र ।।६।। ॐ ह्री श्री सर्वतोभद्र चतुर्मुखजिनेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपनि
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श्री सर्वतोभद्र पूजन आत्म स्वरूप अनुप भन्ठा इसकी महिमा अपरम्पार ।
इसका अवलंबन लेते ही मिट जाता अनंत संसार ।। मैं नित्य निरन्जन चिन्मय हूँ चिप चन्द्र गुणकारी हैं। मै अष्ट कर्म के नाश हेतु लाया पूजन की थाली हूँ सर्वतोभद्र ॥७॥ ॐ ह्रीं श्री सर्वतोभद्र चतुर्मुखजिनेभ्यो अष्टकर्मविश्वसनाय धूप नि । मैं चित्स्वरुप चिच्चमत्कार चैतन्यसूर्य गुणशाली हूँ। मै महामोक्ष फल पाने को लाया पूजन की थाली हूँ ॥सर्वतोभद्र. ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री सर्वतोभद्र चतुर्मुख जिने यो मोक्षफलप्राप्तये फल नि । मैं द्रव्य कर्म अरु भाव कर्म नोकर्म रहित गुण शाली हूँ। अनुपम अनर्थ्य पद पाने को लाया पूजन की थाली हूँ सर्वतोभद्र.।।९।। ॐ ह्री श्री सर्वतोभद्र चतुर्मुखजिनेभ्यो अनर्ष पद प्राप्तये आयं नि ।
जयमाला सर्वतोभद्र पूजन करके जिन प्रभु की महिमा गाता हूँ। चारों दिशि में अरहत चतुर्मुख वदन कर हर्षाता है॥१॥ प्रभु समवशरण में अतरीक्ष हैं रत्नमयी सिंहासन पर । त्रयछत्रशीश अतिशुभ धवल भामण्डल द्युति रवि से बढकर ॥२॥ है तरु अशोक शोभायमान हर लेता सर्व शोक गिन गिन। देवोपम दुन्दुभिया बजती सुर पुष्प वृष्टि होती छिन छिन ।।३।। मिलयक्षचमर चौसठ ढोरे प्रभु द्रिव्य ध्वनि खिरती अनुपम । वसु 'प्रातिहार्यों से भूषित जिनवर छवि सुन्दर पावनतम।।४।। वसु मगल द्रव्यों की शोभा जन जन का मन करती हर्षित । सम्यक्त्व उन्हे मिलता जिनके मन मे होती जिन छवि अकित ।।५।। है परमौदारिक देह अनन्त चतुष्टय से तुम भूषित हो । सर्वज्ञ वीतरागी महान निजध्यानलीन प्रभु शोभित हो ।।६।। जिन मन्दिर समवशरण का ही पावन प्रतीक कहलाता है । वेदी पर गधकुटी का ही उत्तम स्वरूप झलकाता है।।७।।
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जैन पूजांजलि मोह कर्म का जब उपशम हो भेद ज्ञान कर लो ।
भाव शुभाशुभ हेय जानकर सबर आदर लो ।। मैं यही कल्पना कर मन मे जिनवर को बदन करता हूँ। भावों की भेट चढा करके भव-भव के पातक हरता हूँ॥४॥ जो मुकुटबद्ध नृप होते वे, यह पूजन महा रचाते हैं । अपने राज्यो मे दान किमिच्छिक देते अति हर्षाते हैं ॥१॥ इसीलिए आजनिज वैभव से हे प्रभु मैने की है पूजन । शुभ-अशुभ विभाव नाशहो प्रभु कटजाये सभी कर्म बंधन ।।१०।। सर्वतोभद्र तप मुनि करते उपवास पिछत्तर होते हैं। बेला तेला चौला पचौला, उपवासादिक होते हैं ।।११।। पारणा बीच मे होती है पच्चीस पुण्य बहु होते है । सर्वतोभद्र निज आतम के ही गीत हदय मे होते है।।१२।। प्रभु मैं ऐसा दिन कब पाऊँ मुनि बनकर निज आतमध्याऊँ। ज्ञानावरणादिक अष्ट कर्म हर नित्य निरन्जन पद पाऊँ ।।१३।। घनघाति कर्मको क्षय करके अब निज स्वरुप मे जागा । सर्वतोभद्र पूजन का फल अरहत देव बन जाऊँगा ।।१४।। फिर मै अघातिया कर्म नाश प्रभु सिद्ध लोक मे जागा । परिपूर्ण शुद्ध सिद्धत्व प्रगट कर सदा-सदा मुस्काऊँगा ॥१५॥ ॐ ही श्री सर्वतोभद्र चतुमुखजिनेभ्यो पूर्णाष्य नि ।
सर्वतोभद्र पूजन महान जो करते है निज भावों से । भव सागर पार उतरते हैं बचते है सदा विभावो से । ।
इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र ॐ ह्री श्री सर्वतोभद्र चतुर्मखजिनाय नम
श्री नित्यमह पूजन अरिहंतो को नमस्कार कर सब सिद्धों को नमन करूँ। आचार्यों को नमस्कार कर उपाध्याय को नमन करूँ।।
अरिहंतो को न
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श्री नित्यमह पूजन निज तत्वोपलब्धि के बिन सम्यक्त्व नहीं होता ।
सम्यक्त्वोपलब्धि के बिन सिदत्व नहीं होता ।। और लोक के सर्व साधुओ को मैं सविनय नमन करूँ। नित प्रातः सामायिक करके तत्व ज्ञान का यतन करूँ।। भाव द्रव्य ले भक्तिभाव से मैं श्री जिन मन्दिर जाऊँ। जिन प्रभु का प्रक्षाल करूँ मैं श्री जिनवर के गुण गाऊँ ।। शुद्ध भाव से णमोकार जप सहस्त्रनाम पढ हर्षा। श्री जिनदेव नित्यमह पूजन करके नायूँ सुख पाऊँ । शाति पाठ पढ क्षमा याचना कर शुद्धातम को ध्याऊँ। वीतराग जिन चरणों मे निज प्रभु की परम शरण पाऊँ ।। ॐ ह्रीं श्री नित्यमह समुच्चयजिन अत्र अवतर अवतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठठ, अनमम समिहितो भव भव वषट् । निज भावो का प्रभु जल ले, पाँचों परमेष्ठी उर लाऊँ। जन्म मरण का नाश करूँ मैं देव शास्त्र गुरु गुण गाऊँ ।। तीस चौबीसी बीस जिनेश्वर कृत्रिम - अकृत्रिम जिनध्याऊँ। सर्व सिद्ध प्रभु पचमेरू नन्दीश्वर गणधर ऋषि भाऊँ ।। सोलहकारण दशलक्षण रत्नत्रय नव सुदेव ध्याऊँ । चौबीसो जिन ढाई द्वीप अतिशय निर्वाण क्षेत्र ध्याऊँ।।१।। ॐ ह्री श्री नित्यमहसमुच्चयजिनेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि निज भावो का चन्दन लेपाचो परमेष्ठी उर लाऊँ। भव ज्वाला की तपन मिटाऊँदेव शास्त्र गुण गाऊँ तीसचौबीसी ॥२॥ ॐ ह्री श्री नित्यमह समुच्यजिनेभ्यों ससारतापविनाशनाय चन्दन नि निज भावों के अक्षत ले पाचों परमेष्ठी उर लाऊँ। पद अखड अक्षय प्रगटाऊँदेव शास्त्र गुरु गुण गाऊँ ।।तीसचौबीसी. ।।३।। ॐ ह्रीं श्री नित्यमह समुच्चयजिनेभ्यो अक्षयपद प्राप्तय अक्षतं नि । निज भावो के पुष्प सजा पाँचो परमेष्ठी उर लाऊँ। काम क्रोध लोभादि मिटाऊँदेवशास्त्र गुरु गुण गाऊँ। तीसचौबीसी ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री नित्यमह समुच्चयजिनेभ्यो कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि ।
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जैन पूजाजलि जड को जड समझे बिन चेतन ज्ञान नहीं होता ।
पूर्ण शुद्धता हुए बिना कल्याण नहीं होता ।। जिन भावों के प्रभु चरु ले पांचों परमेष्ठी उर लाऊँ। क्षुधा रोग की ज्वाल बुझाऊँदेवशास्त्र गुरु गुणगाऊँ ।।तीसचौबीसी. 1५।।
ॐ ह्री श्री नित्यमह समुच्चयजिनेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि निज भावो के दीप उजा पाँचो परमेष्ठी उर लाऊँ। मोह तिमिर अज्ञान नशाऊँदेव शास्त्र गुरु गुणगाऊँ । तीसचौबीसी ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री नित्यमह समुच्चयजिनेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । निज भावो की धूप चढा पाँचो परमेष्ठी उर लाऊँ । अष्ट कर्म को नष्टकमै देव शास्त्र गुरु गुण गाऊँ तीसचौबीसी ।।७।। ॐ ह्री श्री नित्यमह समुच्चयजिनेभ्यो अष्टकर्मविध्वन्सनायधूप नि । निज भावो के फल लेकर पाचो परमेष्ठी उर लाऊँ । उत्तम महामोक्ष फल पाऊँदेवशास्त्र गुरु गुण गाऊँ । तीसचौबीसी ॥८॥ ॐ ह्री श्री नित्यमह समुच्चयजिनेभ्यो महा मोक्षफलप्राप्ताय फल नि । निज भावो के अर्घ बना पाचो परमेष्ठी उर लाऊँ। अविनाशी अनर्घ पद पाऊँदेव शास्त्र गुरु गुण गाऊँ। तीसचौबीसी ।।९।। ॐ ह्रीं श्री नित्यमह समुच्चयजिनेभ्यो अनर्घपद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला प्रभु पूजन जिन देव की नित नव मगल होय । तीन लोक की सपदा भी चरणों को धोय ।।९।। श्री अरिहत सिद्ध आचार्योपाध्याय मुनिवर वदन । देवशास्त्र गुरु के चरणो मे सविनय बार-बार नमन ॥२॥ भरतैरावत ढाई द्वीप की तीस चौबीसी का अर्चन । विद्यमान जिन बीस विदेही सीमंधर आदिक वन्दन ॥३॥ तीन लोक के कृत्रिम अकृत्रिम जिनगृह असंख्यात वंदन । सर्व सिद्धि मंगल के दाता सब सिखें को करूं नमन
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श्री लिस्यमह पूजन शायक स्वभाव के सन्मुख हो पुरुषार्थ जीव जब करता है ।
जड़ कमों की बाबा तक को असमुहुर्त में हरता है ।। श्रीजिन सहस्त्रनाम को ध्याऊँ जिनवाणी को करूं नमन । पंचमेरु के अस्सी जिन चैत्यालय को सादर वन्दन ।।५।। अष्टम अप श्री नन्दीश्वर बावन चैत्यालय वन्दन । भव्यभावना सोलहकारण भाऊ ऐसा करूँ यतन ॥६॥ उत्तम क्षमा आदि दशलक्षणधर्म सदा ही करूँ नमन । सम्यक दर्शन ज्ञान चरितमय रत्नत्रय व्रत करूँ ग्रहण ।।७।। वृषभादिक श्री वीरजिनेश्वर के चरणों का नित अर्चन । गणधर वृषभसेन गौतम को विघ्नविनाश हेतु बन्दन ॥८॥ बाहुबली जी भरत चक्रवर्ती अनन्तवीर्य बन्दन । पंच बालयति शान्ति कुन्थु अर चक्रेश्वर जिनवरवदन ॥९॥ भूत भविष्यत वर्तमान की तीनो चौबीसी वन्दन । सहस्त्रकूट चैत्यालय वन्दे मानस्तम्भ जिन समवशरण १०॥ गर्भजन्मतप ज्ञान मोक्ष पाचों कल्याणक को बदन । तीर्थंकर की जन्म भूमियों को मैं सादर करूँ नमन ।।११।। तीर्थ अयोध्या श्रावस्ती कौशाम्बीपुर काशी वन्दन । चन्द्रपुरी काकदी पहिलपुर हस्तिनापुरी वन्दन ॥१२॥ सिंहपुरी कपिला रत्नपुरि मिथिला शौर्यपुरी वन्दन । राजगृही चम्पापुर कुण्डलपुर वैशाली करूँ नमन ।।१३।। जिन प्रभु समवशरण, पच कल्याणक, अतिशय क्षेत्रनमन । वीतराग निम्रन्थ मुनीश्वर श्री जिनवाणी को वंदन ॥१४॥ तीर्थकर निर्वाण क्षेत्र अरु सिद्ध क्षेत्र को बन्दन । चम्पा पावा उर्जयंत सम्मेदशिखर कैलाश नमन ॥१५॥ शत्रुजय पावागढ़ सरंगागिरि तुंगीगिरि वन्दन । कुन्धलगिरि गजपंथ चूलगिरि सोनागिरि को कस्बयन ॥१६॥
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जैन पूजांजलि कर्म बंध का रुप जानकर शुद्धतम का ज्ञान करो ।
पाप पुण्य की प्रकृति विनाशो निज स्वरूप का ध्यान करो ।। कोटिशिला रेवातट पावागिरि द्रोणागिरि को वन्दन । रेशंदीगिरि कुण्डलगिरि मंदारगिरि पटना वन्दन ॥१७॥ श्री सिद्धवरकूट गुणावा मथुरा राजगृही वन्दन । मुक्तागिरि पोदनपुर आदि सिद्ध क्षेत्रों को वन्दन १८॥ चिपुलाचल वैभार स्वर्णगिरि उदयरत्नगिरि को वन्दन । अहिच्छेन की ज्ञान भूमि को ज्ञानप्राप्ति हित करनमन ॥१९॥ ढाई द्वीप के सिद्ध क्षेत्र अरु अतिशय क्षेत्रो को वन्दन । मन वचन काया शुद्धि पूर्वक सब तीर्थों को करूँ नमन।।२०।। कल्पद्रुम सर्वतोभद्र इन्द्रध्वज नित्यमह महापूजन । अष्टान्हिका, आदिपवों पर विविध विधान महा पूजन ।।२१।। मध्य लोक के चार शतक अट्ठावन जिन मन्दिर वदन । अधो लोक के सात करोड़ बहात्तर लाख भवन वन्दन ॥२२॥ ऊर्ध्व लाख चौरासी, सतानवै सहस तेईस वन्दन । ज्योतिष व्यतर भवन असंख्यो जिन प्रतिमाये करूँ नमन ॥२३॥ गौतम गणधर स्वामि सुधर्मा जम्बूस्वामी श्रीधर थन । श्री देशभूषण कुलभूषण इन्द्रजीत अरु कुम्भकरण ।॥२४॥ रामचन्द्र हनुमान नील महानील गवय गवाक्ष्य वन्दन । मुनि सुडील सुग्रीव आदि रावण के सुत मुनिवर वन्दन।।२५।। वरदत्तराय अरु सागरदत्त श्री गुरदत्तादि वन्दन । अर्जुन भीम युधिष्ठिर पाडव द्रविड देश के नृप वन्दन ।।२६।। पचमहा ऋषिवरदत्तादि नग अनगकुमार नमन । स्वर्णभद्र आदिक मुनि चारो सेठ सुदर्शन को वन्दन ।।२७।। शम्बु प्रद्युम्नकुमार और अनिरुद्धकुमार आदि वन्दन । रामचन्द्र सुत लव मदनाकुश लाड देश के नृप वदन ॥२८॥
वन भीम युधिष्ठिा नग अनगको वन्दन
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श्री नित्यमा पूजन नाक विवंच देवानर पति के काटे प संती चार ।
रहा सदा पर्याय दृष्टि ही एव का किला नहीं सतकार ।। पंचशतक सुत दशरथ अप के देश कलिंग नृपति वंदन । बालि महाबलि मुनिस्वामी नामकुमार आदि वन्दन ॥२९॥ कामदेव बलभद्र चक्रवर्ती जो मोक्ष गए वन्दन । भरत क्षेत्र से मुनि अनंत निर्वाण गए सबको वन्दन।।३०।। नव देवो को बन्दन कर शुद्धातम को करूँ नमन । मोह राग रुष का अभाव कर वीतरागता करूँ ग्रहण।।३१।। प्रभो नित्यमह पूजन करके निज स्वभाव में आ जाऊँ। तीन समय सामायिक साधू निज स्वरूप में रम जाऊँ।।३२।। श्री जिन पूजन का उत्तम फल सम्यक दर्शन प्रगटाऊँ । ग्यारह प्रतिमा पाल साधु पद लेकर निजआतप ध्याऊँ ॥३३॥ प्रायश्चित विनय वैय्यावृत आलोचना हदय लाऊँ। प्रतिक्रमणव्युत्सर्ग करूँ मैं दोष नाश शिवपद पाऊँ ।।३४।। उपसगों से ही नहीं डिगू परिषह जय कर समता लाऊँ। गुणस्थान आरोहण क्रम से श्रेणी चहूँ मोक्ष पाऊँ ।।३५।। निज स्वभाव साधन के द्वारा वीतराग निज पद पाऊँ । श्री जिन शासन के प्रभुत्व से मोक्ष मार्ग पर चढूँ जाऊँ ॥३६।। ॐही श्री नित्यमह समुच्चय जिनेभ्यो अनर्घपदप्राप्तये पूर्णाऱ्या नि ।
अनुपम पूजा नित्यमह, स्वर्ग मोक्ष दातार । निज आतम जो ध्यावते, हो जाते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र - ॐ ही श्री नित्यमह समुच्चय सर्व जिनेभ्यो नम
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जैन, पूजांजलि रुचि विपरीत नाश करने को अब प्रतिकुल दृष्टि से ऊब । निज अखण्ड ज्ञायक स्वभाव समशिव सुख सागर में ही दूब ।।
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विशेष पर्व पूजन जैन आगम में इन पर्यों का विशेष महत्व है। इन पदों के महत्व को दशनि वाली पौराणिक कथायें इनसे जुड़ी हुई है। ये पर्व हमें सांसारिक प्रयोजनो से हटाकर धर्य आराधना के लिए प्रेरणा देते है । इन पूजनो मे महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रत्येक पूजनो मे चारो अनुयोगो के सारभूत तत्त्व गर्मित हैं । अतः प्रत्येक आत्मार्थी बन्धु इन पदों पर इन पूजनो के माध्यम से धर्म आराधना करके अनत सुख को प्राप्त करे। यही कामना है।
श्री क्षमावाणी पूजन क्षमावाणी का पर्व सुपावन देता जीवों को संदेश । उत्तम क्षमाधर्म को थारों जो अतिभव्य जीव का वेश ।। मोह नींद से जागो चेतन अब त्यागो मिथ्याभिवेश । द्रव्य दृष्टि बन निजस्वभाव से चलो शीघ्र सिद्धोंके देश।। क्षमा, मार्दव, आर्जव, सयम, शौच, सत्य को अपनाओ । त्याग, तपस्या, आकिंचन, व्रत ब्रह्मचर्य मय हो जाओं ।। एक धर्म का सार यही है समता पय ही बन जाओं । सब जीवों पर क्षमा भाव रख स्वय क्षमा मय हो जाओं ॥ क्षमा धर्म की महिमा अनुपम क्षमा धर्म ही जग मे सार । तीन लोक मे गूज रही है क्षमावाणी की जय जयकार ॥ ज्ञाता दुष्टा हो समग्र को देखो उत्तम निर्मल भेष । रागों से विरक्त हो जाओ रहे न दुख का किंचित लेश ।। ॐ ही श्री उत्तमक्षमा धर्म अत्र अवतर-अवतर सवौषट, अत्र तिष्ठ- तिष्ठ ठ ठ, अत्रमम् सनिहितो भव भव वषट् । जीवादिक नव तत्वो का श्रद्धान यही सम्यक्त्व प्रथम । इनका ज्ञान ज्ञान है, रागादिक का त्याग चरित्र परम ।।
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श्री क्षमावाणी पूजन
१२९ जिसे सम्यक्त्व होता है उसे होशान होता है।
उसे चारित्र होता है उसे निर्वाण होता है। १"संते पुवणिवद्ध जाणादि वह अबंध का ज्ञाता है । सम्यक दृष्टि सुजीव आश्रव बंध रहित हो जाता है उत्तम क्षमा धर्म उर धारूँजन्म मरण क्षय कर मान । पर द्रव्यों से दृष्टि हटाऊँ निज स्वभाव को पहचानें ॥१॥ ॐही श्री उत्तमक्षमा धर्मागाय जन्मजरामृत्यु'विनाशनाय जल नि. सप्त भयों से रहित निशकित निजस्वभाव में सम्यक दृष्टि । मिथ्यात्वादिक भावों में जो रहता वह है मिथ्यादृष्टि ।। तीन मुढता छह अनायतन तीन शल्य का नाम नहीं । आठ दोष समकित के अरु आठोंमद का कुछकाम नहीं ॥ उत्तम ।।२।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमा धर्मागाय संसारताप विनाशनाय चन्दन नि अशुभ कर्म जाना कुशील शुभ को सुशील मानता अरे । जो ससार बंध का कारण वह कुशील जानता नरे । कर्म फलों के प्रति जिनका आकाक्षा उर में रही नहीं । वह निकांक्षित सम्यक दृष्टि भव की बाछा रही नहीं ॥ उत्तम ।।३।। ॐ ही श्री उत्तमाक्षमा धमागाय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । राग शुभाशुभ दोनों ही ससार भ्रमण का कारण है । शुद्ध भाव ही एकमात्र परमार्थ भवोदधि तारण हैं । वस्तु स्वभाव धर्म के प्रति जो लेश जुगुप्सा करे नहीं । निर्विचिकित्सक जीव वही है निश्चय सम्यक दष्टिवही।उत्तम. ॥४॥ ॐ ही श्री उत्तमक्षमा धर्मागाय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । शुद्ध आत्मा जो ध्याता वह पूर्ण शुद्धता पाता है । जो अशुद्ध को ध्याता है वह ही अशुद्धता पाता है । पर भावों मे जो न मूढ है दृष्टि यथार्थ सदा जिसकी । वह मूष्टि का धारी सम्यक दृष्टि सदा उसकी उत्तम. ।।५।। (१) स.सा १६६-(सम्यक दृष्टि) सत्ता में रहे हुए पूर्वबद्ध कमोंकोजानता है ।
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जैन पूजाजलि पराए द्रष्य को अपना समझ कर दुख उठाता है ।
जगत की मोह ममता में स्वय को भूल जाता है ।। उत्तम क्षमा धर्म उर था जन्म मरण क्षय कर मानूँ । पर द्रव्यों से दृष्टि हटाऊँ निज स्वरुप को पहचानें । ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्मागाय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । राग द्वष मोहादि आश्रव ज्ञानी को होते न कभी । ज्ञाता दूष्टा को ही होते उत्तम सवर भाव सभी ।। शुद्धातम की भक्ति सहित जो पर भावो से नहीं जुडा । उपगूहन का अधिकारी है सम्यक दृष्टि महान बडा ।। उत्तम ॥६॥ ऊही श्री उत्तमक्षमाधर्माग्डाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि । कर्म बन्ध के चारो कारण मिथ्या अविरति योग कषाय । चेतयिता इनका छेदन कर, करता है निर्वाण उपाय ।। जोउन्मार्ग छोडकर निज को निज मे सुस्थापित करता । स्थिति करणयुक्त होता वहसम्यक दृष्टिस्वहित करता ।।उत्तम ।।७।। ॐ ह्री श्री उत्तमक्षमाधांगाय अष्टकर्मविध्वसनाय धूप नि । पुण्यपाप मय सभी शुभाशुभ योगो से रहता दूर । सर्व सग से रहित हुआ वह दर्शन ज्ञानमयी सुख पूर ॥ सम्यक दर्शन ज्ञान चरितधारी के प्रति गौ वत्सल भाव। वात्सल्य का धारी सम्यक द्रष्टि मिटाता पूर्ण विभाव ||उत्तम ।।८।। ॐ ह्री श्री उत्तमक्षमाधर्मागाय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । ज्ञान विहीन कभी भी पलभर ज्ञान स्वरूप नहीं होता । बिना ज्ञान के ग्रहण किए कर्मों से मुक्त नहीं होता ।। विद्यारुपी रथ पर चढ जो ज्ञान रूप रथ चल वाता । वह जिन शासन की प्रभावना करता शिवपथदर्शाता ।। उत्तम ॥९॥ ॐ ह्री श्री उत्तमक्षमाधर्मागाय अनर्ध पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला उत्तम क्षमा स्वधर्म को वन्दन काँ त्रिकाल । नाश दोष पच्चीस कर का, भव जजाल ॥१॥
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श्री क्षमावाणी पूजन पुण्य से ही निर्जरा होती अगर तो ।
हो गया होता अभी तक मोक्ष काका सोलहकारण पुष्पांजलि दशलक्षण रत्नत्रय व्रतपूर्ण । इनके सम्यक पालन से हो जाते हैं वसुकर्म विचूर्ण।।२।। भाद्रमास मे सोलहकारण तीस दिवस तक होते हैं । शुक्ल पक्ष में दशलक्षण पचम से दस दिन होते हैं ॥३॥ पुष्पांजलि दिन पाँच पंचमी से नवमी तक होते हैं । पावन रत्नत्रय व्रत अन्तिम तीन दिवस के होते हैं।।४।। आश्विन कृष्णा एकम् उत्सव क्षमावाणी का होता है । उत्तमक्षमा धार उर श्रावक मोक्ष मार्ग को जोता है।।५।। भाद्रमास अरु माघ मास अरु चैत्र मास में आते हैं । तीन बार आ पर्वराज जिनवर सदेश सुनाते हैं ॥६॥ १"जीवे कम्म बद्ध पुट्ठ" यह तो है व्यवहार कथन । है अबद्ध अस्पृष्ट कर्म से निश्चय नय का यही कथन ।।७।। जीव देह को एक बताना यह है नय व्यवहार अरे । जीव देह तो पृथक पृथक हैं निश्चय नय कह रहा अरे ॥८॥ निश्चय नय का विषय छोड व्यवहार मॉहि करते वर्तन । उनको मोक्ष नहीं हो सकता और न ही सम्यक दर्शन ।।९।। २“दोण्हविणयाण भणिय जाणई जो पक्षातिकात होता । चित्स्वरूप का अनुभव करता सकलकर्म मल को खोता ।।१०।। ज्ञानी ज्ञानस्वरूप छोड़कर जब अज्ञान रूप होता । तब अज्ञानी कहलाता है पुद्गल बन्ध रूप होता।।११।। ३“जह विस भुव भुज्जतोवेज्जो" मरण नहीं पा सकता है । ज्ञानी पुद्गल कर्म उदय को भोगे बन्ध न करता है।।१२।।
समयसार १४१-जीव कर्म से बंधा है तथा स्पर्शित है । (२) समयसार १४३-दोनों ही नयों के कथन को मात्र जानता है । (३) समयसार १९५- जिस प्रकार वैद्य पुरुष विष को भोगता, खाता हुआ भी
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जैन पूनाजलि पुण्य से संवर अगर होता तनिक भी ।
तो भ्रमण का कष्ट फिर मिलता न भव का ।। मुनि अथवा गृहस्थ कोई भी मोक्ष मार्ग है कभी नहीं । सम्यक दर्शन ज्ञान चरित ही मोक्ष मार्ग है सही-सही ।।१३।। मुनि अथवा गृहस्थ के लिंगों मे जो ममता करता है । मोक्ष मार्ग तो बहुत दूर भव अटवी मे ही भ्रमता है।।१४।। प्रतिक्रमण प्रतिसरण आदि आठोप्रकार के हैं विष कुम्भ । इनसे जो विपरीत वही हे मोक्षमार्ग के अमृत कुम्भ।।१५।। पुण्य भाव की भी तो इच्छा ज्ञानी कभी नहीं करता । परभावो से अरति सदा है निज का ही कर्ता धर्ता॥१६॥ कोईकर्म किसी का भी नहीं सुख-दुख का निर्माता है स्वय समर्थ । जीव स्वय ही अपने सुख-दुख का निर्माता स्वय समर्थ ।।१७।। क्रोध, मान, माया, लोभादिक नहीं जीव के किचित पात्र । रुप, गध, रस, स्पर्श शब्द भी नहीं जीव के किंचित मात्र॥१८॥ देह सहनन सस्थान भी नही जीव के किंचित मात्र । राग द्वष मोहादि भाव भी नही जीव के किंचित मात्रा ।१९।। सर्वभाव से भिन्न निकाली पूर्ण ज्ञानमय ज्ञायक मात्र । नित्य, धोव्य, चिद्रूप, निरजन, दर्शनज्ञानमयी चिन्मात्र ॥२०॥ वाक, जाल मे जो उलझे वह कभी सुलझ न पायेगे । निज अनुभव रस पान किये बिन नहीं मोक्ष मे जायेगे॥२१॥ अनुभव ही तो शिवसमुद्र है अनुभव शाश्वत सुख का स्त्रोत । अनुभव परमसत्य शिव सुन्दर अनुभवशिव से ओतप्रोत ।।२२।। निज स्वभाव के सम्मुख होजा पर से दृष्टिहटा भगवान । पूर्ण सिद्ध पर्याय प्रकट कर आज अभी पा ले निर्वाण।२३॥ ज्ञान चेतना सिंधु स्वय तू स्वय अनन्त गुणों का भूप । त्रिभुवन पति सर्वज्ञ ज्योतिमय वितामणि चेतन चिप ॥२४॥ यह उपदेश श्रवण कर हे प्रभु मैत्री भाव हृदय था । जो विपरीत वृत्तिवाले हैं उन पर मैं समता पारूँ॥२५॥
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श्री दीपमालिका पूजन समकित का दीप जला अधिवारा दूर हुआ ।
अज्ञान तिमिर नाशा धम तम चकचूर हुआ । धीरे धीरे पाप, पुण्य शुभ अशुभ आश्रव संहारूँ। भव तन भोगों से विरक्त हो निजस्वभाव को स्वीकारूँ ॥२६॥ दशधमों को पढ़ सुनकर अन्तर में आये परिवर्तन । व्रत उपवास तपादिक द्वारा करूँ सदा ही निज चिंतन ॥२७॥ राग द्वष अभिमान पाप हर काम क्रोध को चर करूँ। जो सकल्प विकल्प उठे प्रभु उनको क्षण-क्षण दूर कसं।२८॥ अणु भर भी यदि गग रहेगा नहीं मोक्ष पद पाऊँगा । तीन लोक मे काल अनता राग लिए भरमाउँगा।।२९।। राग शुभाशुभ के विनाश से वीतराग बन जाऊँगा । शुद्धात्मानुभूति के बरा स्वय सिद्ध पद पाऊँगा ॥३०॥ प!षण मे दूषण त्यागू बाह्य क्रिया मे रमे न मन । शिव पथ का अनुसरण करूँ में बन के नाथ सिद्ध नन्दन ॥३१॥ जीव मात्र पर क्षमा भाव रख मैं व्यवहार धर्म पालूँ । निज शुद्धातम पर करुणा कर निश्चय धर्म सहज पालूँ ॥३२॥ ॐ ही उत्तमक्षमाधर्मागाय पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा ।
मोक्ष मार्ग दर्शा रहा क्षमावणी का पर्व । क्षमाभाव धारण करो राग द्वेष हर सर्व ।।
___ इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र - ॐ ही श्री उत्तम क्षमा धर्मागाय नमः
श्री दीपमालिका पूजन महावीर निर्वाण दिवस पर महावीर पूजन कर लूँ। वर्धमान अतिवीर वीर सन्मति प्रभु को वन्दन कर लें ॥ पावापुर से मोक्ष गये प्रभु जिनवर पद अर्चन कर लें। जगमग जगमग दिव्यज्योति से धन्य मनुज जीवन कर लें।
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जैन पूजाजलि
जिय कब तक उलझेगा संसार विजल्पो में 1 कितने भव बीत चुके सकल्प विकल्पों में । ।
कार्तिक कृष्ण आमावस्या को शुद्ध भाव मन से भर लूँ । दीपमालिका पर्व मनाऊँ भव भव के बन्धन हर लूँ ॥ ज्ञान सूर्य का चिर प्रकाश ले रत्नत्रय पथ पर बढ लूँ । पर भावो का राग तोड़कर निज स्वभाव मे मै अड़लूँ || ॐ ह्रीं कार्तिककृष्ण अमावस्याया मोक्ष मंगल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ अत्रमम् सन्निहितो भव भव वषट् । चिदानन्द चैतन्य अनाकुल निज स्वभाव मय जल भरलूँ । जन्म मरण का चक्र मिटाऊ भव भव की पीडा हरलूँ || दीपावलि के पुण्य दिवस पर वर्धमान पूजना कर लूँ । महावीर अतिवीर वीर सन्मति प्रभु को वन्दन कर लूँ ।। १ ।। ॐ ह्री कार्तिक कृष्ण अमावश्या मोक्ष मगल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्र जन्मजरा मृत्युविनाशनाय जल।
अमल अखड अतुल अविनाशी निज चन्दन उर में धरलूँ ।
चारो गति का ताप मिटाऊं निज पचमगति आदर लूँ ।। दीपा ॥२॥ ॐ ही कार्तिक कृष्ण अमावस्या मोक्ष मगल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चन्दन |
अजर अमर अक्षय अविकल अनुपम अक्षत पद उरमे धरलूँ । भवसागर तर मुक्तिवधू से मै पावन परिणय कर लूँ ॥ दीपा ॥३॥ ॐ ही कार्तिक कृष्ण अमावस्या मोक्ष मगल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि ।
रूप गध रस स्पर्श रहित निज शुद्ध पुष्प मन मे भर लूँ । कामवाण की व्यथा नाशकर मै निष्काम रूप धरलूँ || दीपा ||४|| ॐ ह्री कार्तिक कृष्ण अमावस्या मोक्ष मगल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि
आत्म शक्ति परिपूर्ण शुद्ध नैवेद्य भाव उर मे धर लूँ ।
चिर अतृप्ति का रागनाशकरसहल तृप्तनिजपदवरलूँ || दीपा ॥५॥ ॐ ह्री कार्तिक कृष्ण अमावस्याया मोक्षमगल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि ।
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श्री दीपमालिका पूजन पर द्रव्यों में कहीं न सुख है तब इनमें सुख की आशा ।
पान शरीर परिवार में सब हो ख परिमापा ।। पूर्ण ज्ञान कैवल्य प्राप्ति हित ज्ञान दीप ज्योतित कर लूँ। मिथ्या प्रमतम मोह नाश कर निजसम्यक्त्व प्राप्त करा दीपा ॥६॥ * ही कार्तिक कृष्ण अमावस्याया मोक्षमगल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय मोहन्धकार विनाशनाय दीप नि। पुण्य भाव को धूप जलाकर घाति अघाति कर्म हर लें । क्रोधमान माया लोभादिक मोहदोष सब क्षय कर लूँ ॥दीपा ॥७॥ ॐ ही कार्तिक कृष्ण अमावस्याया मोक्षमगल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अष्टकर्म विनाशनाय धूप नि। अमिट अनन्त अचल अविनश्वर श्रेष्ठ मोक्षपद उर धर लूँ । अष्ट स्वगुण से युक्त सिद्ध गति पा सिद्धत्व प्राप्त कर लूँ ।। दीपा ॥८॥ ॐ ह्री कार्तिक कृष्ण अमावस्याया मोक्षमगल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि। गुण अनन्त प्रगटाऊँ अपने निज अनर्घ पद को वरलूँ । शुद्ध स्वभावी ज्ञान प्रभावी निज सौन्दर्य प्रगट कर लूँ ॥दीपा ।।९।। ॐ ही कार्तिक कृष्ण अमावस्याया महा मोक्षमगल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अनर्षपद प्राप्तये अयं नि।
श्री पंचकल्याणक शुभ अषाढ़ शुक्ल षष्ठी को पुष्पोत्तर तज प्रभु आये । माता त्रिशला धन्य हो गई सोलह सपने दरशाये ।। पन्द्रह मास रत्न बरसे कुण्डलपुर मे आनन्द हुआ । वर्धमान के गोत्सव पर दूर शोक दुख द्वन्द हआ ।।। ॐ ही आषाढ शुक्ल षष्ठया गर्भमगलप्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अयं नि । चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी को सारी जगती धन्य हुई। नृप सिद्धार्थसज हर्षाये कुण्डलपुरी अनन्य हुई । मेरु सुदर्शन पाण्डुक वन में सुरपति ने कर प्रभु अभिषेक । नृत्य वाद्य मंगल गीतो के बस किया हर्ष अतिक ॥२॥ ॐ चैत्र शुक्ल त्रयोदश्या जन्ममगल प्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अयं नि ।
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जैन पूजांजलि पूर्णा नन्द स्वरूप स्वयं तु निज स्वरुप का कर विश्वास ।
ज्ञान चेतना में ही बसजा कर्म चेतना का कर नाश ।। मगसिर कृष्णा दशमी को उर में छाया वैराग्य अपार । लौकान्तिक देवों के द्वारा किया धन्य धन्य प्रभु जय जयकार ।। बाल ब्रम्हचारी गुणधारी वीर प्रभु ने किया प्रयाण । बन मे जाकर दीक्षाधारी निज मे लीन हुये भगवान ॥३॥ ॐ ही मगसिर कृष्ण दशम्या तपोमंगल श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अयं नि । द्वादश वर्ष तपस्या करके पाया तुमने केवलज्ञान । कर वैशाख शुक्ल दशमी को वेसठ कर्म प्रकृति अवसान ।। सर्व द्रव्य गुण पर्यायो को युगपत एक समय मे जान । वर्धमान सर्वज्ञ हुए प्रभु वीतराग अरिहन्त महान ॥४॥ ॐ ही वैशाख शुक्ल दशम्या केवलज्ञान प्राप्त श्रीवर्धमान जिनेन्द्राय अयं नि । कार्तिक कृष्ण अमावस्या को वर्धमान प्रभु मुक्त हुए । सादि अनन्त समाधि प्राप्त कर मुक्ति रमा से युक्त हुए । अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वरा कर अघातिया का अवसान । शेष प्रकृति पच्चासी को भी क्षय करके पाया निर्वाण ।।५।। ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्याया मोक्ष मगलप्राप्त श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अयं नि।
जयमाला महावीर ने पावापुर से मोक्ष लक्ष्मी पाई थी । इन्द्रसुरो ने हर्षित होकर दीपावली मनाई थी ॥१॥ केवलज्ञात प्राप्त होने पर तीस वर्ष तक किया विहार ।। कोटि कोटि जीवो का प्रभु ने दे उपदेश किया उपकार ॥२॥ पावापुर उद्यान पधारे योग निरोध किया साकार । गुणस्थान चौदह को तज कर पहुचे भव समुद्र के पार ॥३॥ सिद्धशिला पर हुए विराजित मिली मोक्षलक्ष्मी सुखकार । जल थल नभ मे देवो द्वारा गूज उठी प्रभु की जयकार ।।४।।
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श्री दीपमालिका पूजन पाप पुण्य तज जो निजात्मा को ध्याता है ।
वही जीव परिपूर्ण मोक्ष सुख विलसाता है । इन्द्राद्रिक सुर आये हर्षित मन मे धारे मोद अपार । महामोक्ष कल्याण मनाया अखिल विश्व ने मंगलकार ॥५॥ अष्टादश गणराज्यों के राजाओ ने जयगान किया । नत मस्तक होकर जन जन ने महावीर का गुणगान किया ॥६॥ तन कपूरवत उद्धा शेष नख केश रहे इस भूतल पर । मायामयी शरीर रचादेवों ने क्षण भर के भीतर ॥७॥ अग्निकुमार सुरो ने झुक मुकुटानल से तन भस्म किया । सर्व' उपस्थित जन समूह सुरगण ने पुण्य अपार लिया ॥८॥ कार्तिक कृष्ण अमावस्या का दिवस मनोहर सुखकर था । उषाकाल का उजियारा कुछ तम मिश्रित अति मनहर था ॥९॥ रत्न ज्योतियों का प्रकाश कर देवो ने मगल गाये । रत्नदीप की आवलियों से पर्व दीपमाला लाये ॥१०॥ सबने शीश चढाई भस्मी पा सरोवर बना वहाँ।। वही भूमि है अनुपम सुन्दर जल मन्दिर है बना जहाँ ।।११।। इसी दिवस गौतमस्वामी को सन्ध्या केवलज्ञान हुआ । केवलज्ञान लक्ष्मी पाई पद सर्वज्ञ महान हुआ ।।१२।। प्रभु के ग्यारह गणधर मे थे प्रमुख श्री गौतमस्वामी । क्षपक श्रेणि चढ शुक्ल ध्यान से हुए देव अन्तर्यामी ।।१३।। दवे ने अति हर्षित होकर रत्न ज्योति का किया प्रकाश ।। हुई दीपमाला द्विगुणित आनन्द हुआ छाया उल्लास ।।१४।। प्रभु के चरणाम्बुज दर्शन कर हो जाता मन अति पावन । परम पूज्य निर्वाण भूमि शुभ पावापुर है मन भावन ॥१५॥ अखिल जगत में दीपावलि त्यौहार मनाया जाता है । महावीर निर्वाण महोत्सव धूम मचाता आता है ॥१६॥ हे प्रभु महावीर जिन स्वामी गुण अनन्त के हो धामी । भरत क्षेत्र के अन्तिम तीर्थकर जिनराज विश्वनामी ॥१७॥
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जैन पूजांजलि अन्तर्जल्पों में जो उलझा निज पद न प्राप्त कर पाता है ।
सकल्प विकल्प रहित चेतन निज सिद्ध स्वपद पा जाता है ।। मेरी केवल एक विनय है मोक्ष लक्ष्मी मुझे मिले । भौतिक लक्ष्मी के चक्कर में मेरी श्रद्धा नहीं हिले २८॥ भव भव जन्म मरण के चक्कर मैंने पाये हैं इतने । जितने रजकण इस भूतल पर, पाये हैं प्रभु दुख उतने ॥१९॥ अवसर आज अपूर्व मिला है शरण आपकी पाई है। भेद ज्ञान की बात सुनी है तो निज की सुधि आई है ॥२०॥ अब मैं कहीं नहीं जाऊँगा जब तक मोक्ष नहीं पाऊँ। दो आशीर्वाद हे स्वामी नित्य मगल गाउँ ॥२१॥ ॐ ह्रीं कार्तिक कृष्ण अमावस्या निर्वाण कल्याणक प्राप्ताय श्री वर्धमान जिनेन्द्राय अयं नि
दीपमालिका पर्व पर महावीर उर धार । भार सहित जो पूजते पाते सोख्य अपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ही श्री वर्धमान जिनेन्द्राय नम ।
श्री ऋषभजयन्ती पूजन जम्बूद्वीप सुभरत क्षेत्र मे है उत्तरप्रदेश शुभ नाम । सरयूतट पर नगर अयोध्या प्रभु की जन्मभूमि अभिराम ।। कर्मभूमि के प्रथम जिनेश्वर आदिनाथ मगलदाता । जो भी शरण आपकी आता सम्यकदर्शन प्रगटाता ।। वर्तमान चौबीसी के तीर्थकर आदीश्वर भगवान । विनयसहित पूजनकरता हें निजस्वभाव को लूँ पहचान ।। ऋषभदेव के जन्मदिवस पर वृषभनाथ प्रभु को ध्याऊँ । आदिब्रहा वृषभेश्वर जिनप्रभु महादेव के गुण गाऊँ। ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सवौषट् अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ ठ, अत्र मम सनिहितो भव-भव वषट् । शुद्धनीर प्रभु चरण चढाऊ जन्म जरादिक विनशाऊँ। वीतराग विज्ञान ज्ञानधन निजस्वभाव में आ जाऊँ ऋषभ ।
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श्री अमजयन्ती पूजन अपने स्वरूप में रहता तो यह प्राणी परमेश्वर झोता ।
ज्ञापक स्वाभाव के आश्रय से यह जीव स्वभावेश्वर होता ।। ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं नि । सहज सुगन्धित चंदन लाकं भवाताप सब विनशाऊँ। वीतराग विज्ञान ज्ञानधन निजस्वभाव में आजाऊँ।ऋषभ ।२।। ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चन्दनं नि ।। सर्वोतम भावों के अक्षत लाऊँ अक्षय पद पाऊँ। वीतराग विज्ञान ज्ञानघन निजस्वभाव में आजाऊँ ।। ऋषभ. ॥३॥ ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं नि । सुरतरु पुष्प सुवासित लाऊँ कामव्याधि सब विनशाऊँ। वीतराग विज्ञान ज्ञानधन निजस्वभाव मे आजाऊँ । ऋषभ ।।४।। ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्प नि । पुण्यभाव नैवद्य त्याग कर क्षधारोग पर जय पाऊँ। वीतराग विज्ञान ज्ञानधन निज स्वभाव मे आ जाऊँ।। ऋषभ ॥५॥ ॐ ही श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । अन्तरतम के नाश हेत हे नाथ ज्ञान दीपक लाऊँ। वीतराग विज्ञान ज्ञानघन निजस्वभाव मे आ जाऊँ ।। ऋषभ ॥६॥ ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि । अष्टकर्म की धूप जलाऊ शुक्ल ध्यान अनुपम ध्याऊँ। वीतराग विज्ञान ज्ञानघन निजस्वभाव मे आ जाऊँ ।ऋषभ ॥७॥ ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वसनाय धूप नि । महामोक्ष फल प्राप्त करें निश्चय रत्नत्रय उर लाऊँ। वीतराग विज्ञान ज्ञानधन निज स्वभाव में आ जाऊँ । ऋषभ ॥८॥ ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय महा मोक्षफलप्राप्तये फल नि । शुद्धभाव का अर्थ्य बनाऊँ पद अनर्थ्य अविचल पाऊँ। वीतराग विज्ञान ज्ञानधन निजस्वभाव में आ जाऊँ ।। ऋषभ ॥९॥ ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय अनर्ष पद प्राप्ताय अयं नि. ।
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जैन पूजांजलि जो निश्चय को भूले भटके भी न कभी अपनाते हैं। मोह, राग, द्वेषादि भाव से निज को जान न पाते हैं ।।
जयमाला ऋषभ देव जिनराज को नित प्रति करूँ प्रणाम । भाव सहित पूजन करु पाऊ निज ध्रुवधाम ॥१॥ भोग भूमि का अन्त हुआ जब कल्पवृक्ष सब हुए विलीन । ज्योति मद होते ही नभ मे दष्टित रवि शशि हए प्रवीण ।।। चौदह कुलकर हुए जिन्हो से कर्म भूमि प्रारम्भ हुई । अन्तिम कुलकर नाभिराय से नई दिशा आरम्भ हुई ॥३॥ तृतीय काल के अन्त समय मे भरत क्षेत्र को धन्य किया । सर्वार्थसिद्धि से चयकर तुमने मरुदेवी उरवास लिया ॥४।। चैत्र कृष्ण नवमी को प्रात नगर अयोध्या जन्म लिया । तब स्वर्गों में बजी बधाई जग ने जय जय गान किया ।।५।। सुरपति ने स्वर्णिम सुमेरु पर क्षीरोदधि अभिषेक किया । पग मे वृषभ चिन्ह लखते ही वृषभनाथ यह नाम दिया ।।६।। लक्ष चुरासी वर्षों का होता पूर्वाग एक जानो । लक्ष चुरासी पूर्वांग का होता एक पूर्व जानो ।।७।। लाख चुरासी पूर्व आयु थी धनुष पांच सौ पाया तन । लाख तिरासी पूर्व राज्य कर हुए जगत से उदास मन ॥८॥ नीलाजना मरण लखते ही भव तन भोग उदास हुए । कर चिन्तवन भावना द्वादश निज स्वभाव के पास हुए ॥९॥ मात पिता से आज्ञा लेकर पुत्र भरत को राज्य दिया । बाहुबली ने प्रभु आज्ञा से पोदनपुर का राज्य लिया ॥१०॥ लौकातिक सुर माधुवाद देने प्रभु चरणो मे आये । तपकल्याण मनाने को इन्द्रादिक सुर आ हर्षाये ।।११।। अन्य नृपति भी दीक्षित होने प्रभु के साथ गए वनवास । वन में जाकर प्रभु ने दीक्षाधारी निज मे कियानिवास ॥१२॥
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श्री महावीरजयन्ती पूजन दर्शन शान चरित्र नियम है, जो कि नियम से करने योग्य ।
कारण नियम त्रिकाल गुरव, सहज स्वभाव आश्रय योग्य ।। एक सहस्त्र वर्ष तप करके निज स्वभाव का ध्यान किया। पाप पुण्य परभाव नाशकर अद्भुत केवलज्ञान लिया ॥१३॥ समवशरण रच इन्द्रसुरो ने किया अपूर्व ज्ञानकल्याण । मोक्ष मार्ग सदेश आपने दिया जगत को श्रेष्ठ प्रधान १४॥ भरत क्षेत्र में बन्द मोक्ष का मार्ग पुन प्रारम्भ किया । पत्र अनन्तवीर्य ने शिव पद पा यह क्रम आरम्भ किया ॥१५॥ प्रभु ने एक लाख पूरब तक भरत क्षेत्र मे किया विहार । अष्टापद कैलाश शिखर से आप हुए भव सागर पार ॥१६॥ योग निरोध पूर्ण करके प्रभु ने पाया पद निर्वाण । सिद्ध स्वपद सिंहासन पाया वसु कर्मों का कर अवसान ।।१७।। वृषभसेन गणधर चौरासी गणधर मे थे मुख्य प्रधान । कर रचना अन्तमुहुर्त मे द्वादशाग की हुए महान ॥१८॥ नाथ तत्व उपदेश आपका हम भी हदयगम कर लें ।। आत्मतत्त्व निज की प्रनीति कर हम सब मिथ्यातम हरले ॥१९॥ तज पर्याय दृष्टि दुखदायी द्रव्य दृष्टि ही बन जाये । ध्रुव स्वरूप का अवलबन ले सादि अनन स्वपद पाये ॥२०॥ अपने अपने परिणामो के द्वारा पाये आत्म प्रकाश । वीतराग निर्ग्रन्थ मार्ग का जागा है उर में विश्वास ॥२१॥ ॐ ह्री श्री ऋषभनाथ जिनेन्द्राय पूर्णायँ नि । ऋषभ जयन्ती पर्व की गूज रही जयकार । वीतराग जिनमार्ग ही एक जगत मे सार ॥२२॥
इत्याशीर्वाद जाप्ययन्त्र-ॐ हीं श्री ऋषभनाथ जिनेन्द्राय नम
श्री महावीरजयन्ती पूजन महावीर की जन्म जयन्ती का दिन जग में है विख्यात । चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी को हुआ विश्व में नवल प्रभात ।।
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जैन पूजाँजलि
भावना भवनाशिनी ।
मोह प्रम अज्ञान वश यह आत्मा भव वासिनी । । कुण्डलपुर वैशाली नृप सिद्धार्थराज गृह जन्म लिया । माता त्रिशला धन्य हो गई वर्धमान रवि उदय हुआ । इन्द्रादिक ने मगल गाये गिरि सुमेरु पर कर नर्तन । एक सहस्त्र आठ कलशों से क्षीरोदधि से किया न्हवन ॥ तीन लोक मे आनन्द छाया घर-घर मगलाचार हुआ । दशो दिशाये हुई सुगन्धित प्रभु का जय जयकार हुआ ।। दुखी जगत के जीवो का प्रभु के द्वारा उपकार हुआ । निज स्वभाव जप मोक्ष गये प्रभु सिद्ध स्वपद साकार हआ ॥ मैं भी प्रभु के जन्म महोत्सव पर पुलकित हो गुण गाऊँ। अष्ट द्रव्य से प्रभु चरणो की पूजन करके हर्षाऊँ ।। ॐ ह्री चैत्र शक्ल त्रयोदश्या जन्ममगलप्राप्त श्री महावीर जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् । क्षीरोदधि का क्षीर वर्ण सम भाव नीर लेकर आऊँ। प्रभु चरणो मे भेट चढाऊँपरम शात जीवन पाऊँ।। महावीर के जन्म दिवस पर महावीर प्रभु को ध्याऊँ। महावीर के पथ पर चल कर महावीर सम बन जाऊँ ॥१॥ ॐ ह्री चैत्र शुक्ल त्रयोदश्यो जन्ममगलप्राप्त श्री महावीर जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । मलयागिरि चन्दन से उत्तम गध स्वय की प्रगटाऊँ। निज स्वभाव साधन से स्वामी शाश्वत शीतलता पाऊँ ।। महा ॥२॥ ॐ ह्री श्री चैत्र शुक्ल त्रयोदश्या जन्ममगलप्राप्त श्रीमहावीर जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चन्दन नि । शुभ्र अखण्डित धवलाक्षत ले भावसहित प्रभु गुणगाऊँ । निज स्वरुप की महिमा गाऊअनुपम अक्षय पद पाऊँ । महा ॥३॥ ॐ ह्री श्री चैत्र शुक्ल त्रयोदश्या जन्ममगलप्राप्त श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्त ये अक्षत नि स्वाहा। कल्पवृक्ष के पुष्प मनोहर भावमयी लेकर आऊँ। पर परणति से विमुख बनू निष्काम नाथ मैं बन जाऊँ ॥ महा ॥४॥
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श्री महावीर जयन्ती पूजन सग पर का छुट जार जब स्वयं का भान हो ।
धूब अचल अनुपम स्वमसि पा स्वयं ही भगवान हो ।। ॐ ह्री श्री चैत्र शुक्ल त्रयोदश्या जन्ममंगलमाप्त श्रीमहावीर जिनेन्द्राम कामबाण विश्वसनाय पुष्प घट रस नैवेद्य अनूठे भाव पूर्ण लेकर आऊँ। निज परणति मे रमण करूँ मैं पूर्णतृप्त प्रभु बन जाऊँ ।। महा. ।।५।। ॐ ह्री श्री चैत्र शुक्ल प्रयोदश्या जन्ममंगलप्राप्त श्रीमाहवीर जिनेन्द्राय सुधारोग विनाशनाय नैवेचं नि। स्वर्ण थाल मे रत्नदीप निज भावों को लेकर आऊँ। केवलज्ञान प्रकाश सूर्य को ज्योति किरण निजप्रगटाऊँ महा ॥६॥ ॐ ह्री श्री चैत्रशुक्ल त्रयोदश्या जन्ममगलप्राप्त श्रीमहावीर जिनेन्द्राय मोहाधकार विनाशनाय दीपं नि । दशगन्धों की दिव्य धूप मै शुद्ध भाव की ही लाऊँ । दश धर्मों की परम शक्ति से अष्ट कर्म रज विघटाऊँ। । महा ।।७।। ॐ ह्री श्री चैत्र शुक्ल त्रयोदश्या जन्ममंगलप्राप्त श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अष्ट कर्म दहनाय धूप नि स्वाहा। विविध भाति के सुर फल प्रभु परम भावना मय लाऊँ। महामोक्ष फल पाऊँ स्वामी फिर न लौट भव मे आऊँ। । महा ॥८॥ ॐ ह्री श्री चैत्र शुक्ल प्रयोदश्या जन्ममगलप्राप्त श्रीमहावीर जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फल नि । जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ शुभ ज्ञानभाव का ही लाऊँ। साम्य भाव चारित्र धर्म पा निज अनर्थ पदवी पाऊँ। । महा ॥९॥
जयमाला जन्म दिवस श्री वीर का ओ मगल गान ।
आत्म ज्ञान की शक्ति से होता निज कल्याण ॥१॥ इस अखिल विश्व मे जब प्रभु हिंसा का राज्य रहा था । तब सत्य शाति सुख विलय कर पापों का स्रोत बहा था ॥२॥ ले ओट धर्म की पापी अन्याय पाप करते अति ।। वे धर्म बताते थे "वैदिक हिंसा हिंसा न भवति ॥३॥
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जैन पूजांजलि अगर जगत में सुख होता तो तीर्थकर क्यों इसको तजते ।
पुण्यों का आनन्द छोडकर निज स्वभाव चेतन क्यों भजते ।। पशु बलि, जन बलि, यज्ञों में होती थी जब अति भारी । "स्त्री शौद्रनाधीयताम्' का आधिपत्य था भारी || जगती तल पर होता था हिंसा का ताडव नर्तन । उत्पीडित विश्व हुआ लख पापों का भीषण गर्जन ५॥ जब-जग ने त्राहि त्राहि की अरु पृथ्वी काँपी थर थर ।। तब दिव्य ज्योति दिखलाई आशा के नभ मण्डल पर ।।६।। भारत के स्वर्ण सदन में अवतरित हुए करुणामय ।। श्री वीर दिवाकर प्रगटे तब विश्व हुआ ज्योतिर्मय ।।७।। आगमन वीर का लखकर सन्तुष्ट हुआ जग सारा । अन्यायी हुए प्रकम्पित पायो का तजा सहारा ॥८॥ पतितो दलितो दीनो को तब प्रभु ने शीघ्र उठाया । अरु दिव्य अलौकिक अनुपम जग को सन्देश सुनाया ।।९।। पापी को गले लगाना पर घृणा पाप से करना ।। प्रभु ने शुभ धर्म बताया दुख कष्ट विश्व के हरना ।।१०।। ये पुण्य पाप की छाया ही जग मे सदा भ्रमाती । पर द्रव्यो की ममता ही चारो गति मे अटकाती ॥११॥ अब मोह ममत्व विनाशो समकित निज उर मे लाओ । तप सयम धारण करके निर्वाण परम पद पाओ ॥१२॥ हे धर्म अहिंसामय ही रागादिक भाव है हिंसा । रत्नत्रय सफल तभी है उर मे हो पूर्ण अहिंसा ।।१३।। निज के स्वरूप को देखो निज का ही लो अवलम्बन । निज के स्वभाव से निश्चित कट जायेगे भव बन्धन ।।१४।। है जीव समान सभी ही एकेन्द्रिय या पंचेन्द्रिय । हैं शुद्ध सिद्ध निश्चय से चैतन्य स्वरुप अनिन्द्रिय ॥१५॥ "केवलि पण्णतं धम्मं शरण पव्वज्जामी' से। जग हा मधुर गुजारित प्रभु की निर्मल वाणी से ॥१६॥
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श्री क्षमतृतीया पूजन तत्वों के सम्यक निर्णय का वह स्वर्णिम अवसर भाया है ।
संसार सुखों का सागर के दिन दो दिन नश्वर काया है ।। पर हाय सदा हम भूले उपदेश वीर के अनुपम । जाते अधर्म के पथ पर छाया अज्ञान निविड़तम १७॥ हम विवाद के बन्यन में जकड़े हुए खड़े हैं। अवनति के गहरे गड्ढे में बेसुध हुए पड़े हैं ॥२८॥ इससे अब तो हम चेतें श्री वीर जयन्ती आयी। भूमण्डल के जीवों को नूतन सन्देशा लायी ॥१९॥ चेतो चेतो हे वीरों अब नहीं समय सोने का । आलस्य मोह निद्रा में अवसर है न खोने का ॥२०॥ कर्तव्य धर्ममय पालों अरु त्यागो कर्म निरर्थक । तब वीर जयन्ति मनाना होगा अनुपम सार्थक ॥२१॥ श्री वर्धमान सन्मति को अतिवीर वीर को वन्दन । है महावीरस्वामी का अति विनय भाव से अर्चन ।।२२।। आशीर्वाद दो हे प्रभु हम द्रव्य दृष्टि बन जायें । रागादि भाव को जयकर परमात्म परमपद पायें ॥२३॥ ॐ ही श्री चैत्रशुक्लत्रयो दश्या जन्ममगलप्राप्त श्री महावीराय अयं नि
वीर जयन्ती दे रही शुभ संदेश महान । प्राणिमात्र में प्रेमकर करो आत्म कल्याण ॥
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र- ॐ हो श्री महावीर जिनेन्द्राय नमः ।
श्री अक्षयतृतीया पूजन अक्षय तृतीया पर्व दान का ऋषभदेव ने दान लिया । नृप श्रेयांस दान दाता थे,जगती ने यशगान किया । । - अहो दान की महिमा, तीर्थकर भी लेते हाथ पसार । होते पंचाश्चर्य पुण्य का भरता है अपूर्व भण्झर ।। मोक्ष मार्ग के महाव्रती को, भाव सहित जो देते दान । निज स्वरूप जप वह पाते हैं निश्चित शाश्वत पद निर्वाण ।।
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जैन पूजांजलि अद्धा की बदनवारे जिनमे विवेक की लड़िया ।
संशय का लेश न किन्चित आई अनुभव की अड़िया ।। दान तीर्थ के कर्ता नप श्रेयास हुए प्रभु के गणधर । मोक्ष प्राप्त कर सिद्ध लोक मे पाया शिवपद अविनश्वर ॥ प्रथम जिनेश्वर आदिनाथ प्रभु तुम्हे नमन है बारम्बार । गिरिकैलाशशिखर से तुमने लिया सिद्धपद मगलकार ।। नाथ आपके चरणाम्बुज मे श्रद्धा सहित प्रणाम करूँ। त्याग धर्म की महिमा गाऊ मैं सिद्धो का धाम वरूँ।। शुभ बैशाख शुक्ल तृतीया का दिवस पवित्र महान हुआ । दान धर्म की जय जय गजी अक्षय पर्व प्रधान हुआ ।। ॐ ही श्री आदिनाथजिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ अत्रमम सन्निहितो भव भव वषट् । कमोदय से प्रेरित होकर विषयो का व्यापार किया । उपादेय को भूल हेय तत्वो से मैंने प्यार किया ।। जन्म मरण दुख नाश हेतु में आदिनाथ प्रभु को ध्याऊँ। अक्षय तृतीया पर्व दान का नृप श्रेयास सुयश गाऊँ ॥१॥ ॐ ह्री श्री आदिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि । मन वच काया की चचलता कर्म आश्रव करती है । चार कषायो की छलना ही भव सागर दुख भरती है ।। भवाताप के नाश हेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ध्याऊँ । । अक्षय ॥२॥ ॐ ही श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय ससारतापविनाशनायचन्दन नि इन्द्रिय विषयो के सुख क्षण भगुर विद्युतसम चमकअथिर । पुण्य क्षीण होते ही आते महा असाता के दिन फिर ।। पद अखड की प्राप्तिहेतु मैं आदिनाथप्रभु को ध्याऊं। । अक्षय ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि । शील विनय व्रत तप धारण करके भी यदि परमार्थ नहीं । बह्य क्रियाओ में ही उलझे वह सच्चा पुरुषार्थ नहीं । काम वाण के नाश हेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ध्याऊं । । अक्षय ।।४।। ॐ हीं श्री आदिनाजिनेन्द्राय कामबाण विश्वसनाब पुष्पं नि ।
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श्री मलय तृतीया पूजन मिथ्यात्व बंध गति मति के करता है।
सम्यक्त्व बंध गति माति के हरता है। विषय लोलुपी घोगों की ज्वाला में जल जलदुख पाता । मृग तृष्णा के पीछे पागल नर्क निगोदादिक जाता ।। क्षधा व्याधि के नाश हेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ध्याऊं । अक्षय. ।।५।। *ही श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय बुबा रोग विनाशनाय नवे नि । ज्ञान स्वरूप आत्मा का जिनको अडान नहीं होता । भव वन मे ही भटका करता है निर्वाण नहीं होता ।। मोह तिमिर के नाशहेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ध्याऊ ।। अक्षय. ।।६।। ॐ ही श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपनि । कर्म फलो को वेदन करके सुखी दुखी जो होता है। अष्ट प्रकार कर्म का बन्धन सदा उसी को होता है ।। कर्म शत्रु के नाश हेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ध्याऊ । । अक्षय. ॥७॥ ॐ ही श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूप नि । जो बन्धो से विरक्त होकर बन्धन का अभाव करता । प्रज्ञाछैनी ले बन्धन को पृथक शीघ्र निज से करता । । महामोक्ष फल प्राप्ति हेतु मैं आदिनाथ प्रभुको ध्याऊँ। अक्षय ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय महा मोक्षफल प्राप्तये फल नि. । पर मेरा क्या कर सकता है मैं पर का क्या कर सकता । यह निश्चय करने वाला ही भव अटवी के दुख हरता ।। पद अनर्थ की प्राप्ति हेतु मैं आदिनाथ प्रभु को ध्याऊ ।। अक्षय ।।९।। ॐ ही श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अवर्ष पद प्राप्तये अयं नि ।
जयमाला चार दान दो जगत मे जो चाहो कल्याण ।
औषधि भोजन अभय अरु सद्शास्त्रो का ज्ञान ॥५॥ पुण्य पर्व अक्षयतृतीया का हमे दे रहा है ये ज्ञान । दान धर्म की महिमा अनुपम श्रेष्ठ दान दे बनो महान ।।२।।
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जैन पूजांजलि मिथ्यात्व मोह श्रम स्यागी रे प्राणी ।
सम्यक्त्व सूर्य आगोरे प्राणी । । दानधर्म की गौरव गाथा का प्रतीक है यह त्यौहार । दान धर्म का शुभ प्रेरक है सदा दान की जय जयकार ३
आदिनाथ ने अर्थ वर्ष तक किये तपस्य मय उपवास । मिली न विधि फिर अन्तराय होते होते बीते छ: मास ४॥ मुनि आहार दान देने की विधि थी नहीं किसी को ज्ञात । मौन साधना मे तन्मय हो प्रभु विहार करते प्रख्यात ॥५॥ नगर हस्तिनापुर के अधिपति सोम और श्रेयास सुभात । ऋषभदवे के दर्शन कर कृत कृत्य हए पुलकित अभिजात ।। श्रेयास को पूर्व जन्म का स्मरण हुआ तत्क्षण विधिकार ।। विधिपूर्वक पड़गाहा प्रभु को दिया इा रस का आहार ॥७॥ पचाश्चर्य हुए प्रागण मे हुआ गगन में जय जयकार । धन्य धन्य श्रेयास दान का तीर्थ चलाया मगलकार ॥८॥ दान पुण्य की यह परम्परा हुई जगत में शुभ प्रारम्भ । हो निष्काम भावना सुन्दर मन से लेश न हो कुछ दम्भ ॥९॥ चार भेद हैं दान धर्म के औषधि शास्त्र अभय आहार । हम सुपात्र को योग्य दान दे बने जगत मे परम उदार ॥१०॥ धन वैभव तो नाशवान है अत करे जी भरके दान । इस जीवन मे दान कार्यकर करें स्वयं अपना कल्याण ॥११॥ अक्षयतृतीया के महत्व को यदि निज मे प्रगटायेगे । निश्चित ऐसा दिन आयेगा हम अक्षयफल पायेंगे ॥१२॥ हे प्रभु आदिनाथ मंगलमय हमको भी ऐसा वर दो । सम्यक्ज्ञान महान सूर्य का अन्तर में प्रकाश कर दो ॥१३॥ ॐ ही श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्थ पद प्राप्ताय पूर्णाभ्यं नि ।
अक्षयतृतीया पर्व की महिमा अपरम्पार । त्याग धर्म जो साधते हो जाते भवपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ही श्री आदिनाथ जिनेन्द्राय नमः ।
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श्री भुत पंचमी पूजन पाहांतर में मुनि मुद्रा होगी निर्गन्ध दिगम्बर । चरणों में एक जाएगा सादर विनीव भूभबर।
श्रीभुत पंचमी पूजन स्यादवाद मय ब्रदशांग युत माँ जिनवाणी कल्याणी । जो भी शरण हृदय से लेता हो जाता केवलज्ञानी ।। जय जय जय हिसकारी शिव सुखकारीमाता जय जयजय । कृपा तुम्हारी से ही होता भेद ज्ञान का सूर्य उदय । । श्री धरसेनाचार्य कृपा से मिला परम जिनचुत का ज्ञान । भूतबली मुनि पुष्पदन्त ने षट्खडागम रचा महान ।। अकलेश्वर में यह ग्रंथ हुआ था पूर्ण आज के दिन । जिनवाणी लिपिबद्ध हुई थी पावन परम आज के दिन ।। ज्येष्ठ शुक्लपचमी दिवस जिनश्रुत का जय जयकार हुआ । भूत पचमी पर्व पर श्री जिनवाणी का अवतार हुआ ।। ॐही श्री परमश्रुत षट् खण्डागम अत्र अवतर-अवतर संवाषट् अत्र तिष्ठ-तिष्ठ 8 अत्रमम् समिहितो भव भव वषट् । शुद्ध स्वानुभव जल थारा से यह जीवन पवित्र करा । साम्य भाव पीयूष पान कर जन्म जरामय दुख हरलें ।। श्रुत पंचमी पर्व शुभ उत्तम जिन भुत को बदन करलें । षट् खण्डागम धवल जयधवल महाधवल पूजन करा ।। ॐ ही श्री परमश्चत घट्खण्डगमाय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं नि । शुद्ध स्वानुभव का उत्तम पावन चन्दन चर्चित करलें । भव दावानल के ज्वालामय अघसताप ताप हरलें ॥ भुत ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री परमश्रुत षट् खण्डागमाय संसारतापविनाशनायचंदनं नि । शुद्ध स्वानुभव के परमोत्तम अक्षत हृदय घर लें । परम शुद्ध चिद्रूप शक्ति से अनुपमअक्षय पद वरलूँ । ।भुत ॥३॥ ॐ हीं श्री परमत बट् खण्डागमाय अक्षयपद प्राप्तये अमतं नि । शुद्ध स्वानुभव के पुष्पों से निज अन्तर सुरभित करलें । महाशील गुण के प्रताप से मैं कंदर्प दर्प हरवू ॥ भुत. I४।।
ही श्री परमबुत पट खण्डागमाय कामवाणविष्वसनाय पुष्पं नि ।
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जैन पूजांजलि नर से अर्हन्त सिद्ध हो त्रलोक्य पूज्य अविनाशी ।
ससार विजेता होगा जिसने निज ज्योति प्रकाशी ।। शुद्ध स्वानुभव के अति उत्तम प्रभु नैवेद्यप्राप्त करतूं । अमलअतीन्द्रियनिज स्वभाव सेदुखमय क्षुधाव्याधिहरा ॥ श्रुत ।।५।। ॐ ह्रीं श्री परमात बट् खण्डागमाय सुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । शुद्ध स्वानुभव के प्रकाशमय दीप प्रज्वलित मैं करलें । पोहतिमिर अज्ञान नाश करनिज कैवल्य ज्योति वरलें ॥श्रत. ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री परमश्रुत षट् खण्डगमाय अज्ञानाधकारविनाशनाय दीपंनि ।। शुद्ध स्वानुभव गन्ध सुरभिमय ध्यान धूप उर में भरा । सवर सहित निर्जरा बरा मैं वसु कर्म नष्ट करा श्रुत. ॥७॥ ॐ ही श्री परमश्रुत षट्खण्डागमाय अष्टकर्म दहनाय धूप नि । शुद्ध स्वानुभव का फल पाऊ मैं लोकाग्र शिखर वर लें । अजर अमर अविकल अविनाशी पदनिर्वाण प्राप्त करनू ।। श्रुत ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री परमश्रुत षट् खण्डागमाय महा मोक्षफल प्राप्तये फल नि । शुद्ध स्वानुभव दिव्य अर्घ ले रत्नत्रय सुपूर्ण करलें । भव समुद्र को पार करुं प्रभु निज अनर्थ पद मैं वरलूँ । । श्रुत ॥९॥ ॐ ह्री श्री परमश्रुत षट् खण्डागमाय अनर्धपदप्राप्तये अयं नि ।
जयमाला श्रत पचमी पर्व अति पावन है भूत के अवतार का । गूजा जय जयकार जगत् मे जिन श्रुत जय जयकार का ॥१॥ ऋषभदेव की दिव्य ध्वनि का लाभ पूर्ण मिलता रहा । महावीर तक जिनवाणी का विमल वृक्ष खिलता रहा ॥२॥ हुए केवली अरु श्रुतकेवलि ज्ञान अमर फलता रहा । फिर आचार्यों के द्वारा यह ज्ञान दीप जलता रहा ॥३॥ भव्यो मे अनुराग जगाता मुक्ति वधू के प्यार का । श्रुत पचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का । गुरु परम्परा से जिनवाणी निर्झर सी झरती रही । मुमुक्षओं को परम मोक्ष का पथ प्रशस्त करती रही ॥५॥
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श्री श्रुत कमी पूजन जिया तुम निज का ध्यान करो।
आर्त रौद्र दुर्ध्यान छोड़कर धर्मध्यान करो । । किन्तु काल की घड़ी मनुज की स्मरण शक्ति हरती रही । श्री घरसेनाचार्य हृदय में करुणा टीस भरती रही ॥६॥ द्वादशांग का लोप हुआ तो क्या होगा संसार का । श्रुत पंचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का ७॥ शिष्य भूतवलि पुष्पदन्त की हुई परीक्षा ज्ञान की । जिनवाणी लिपिबद्ध हेतु भुत विद्या विमल प्रदान की | ताड़ पत्र पर हुई अवतरित वाणी जन कल्याण की ।। षट्खण्डागम महाग्रन्थ करुणानुयोग जय ज्ञान की ॥९॥ ज्येष्ठ शुक्ल पचमी दिवस था सुरनर मगलचार का । श्रत पचमी पर्व अति पावन है श्रुत अवतार का ॥१०॥ धन्य भूतवलि पुष्पदन्त जय श्री धरसेनाचार्य की । लिपि परम्परा स्थापित करके नई क्राति साकार की ॥११॥ देवो ने पुष्पों को वर्षा नभ से अगणित बार की । धन्य धन्य जिनवाणी माता निज पर भेद विचार की ॥१२॥ ऋणी रहेगा विश्व तुम्हारे निश्चय का व्यवहार का । श्रुत पचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का ॥१३।। धवला टीका वीरसेन कृत बहत्तर हजार श्लोक । जय धवला जिनसेन वीरकृत उत्तम साठ हजार श्लोक ॥१४॥ महाधवल है देवसेन कृत है चालीस हजार श्लोक । विजयधवल अरु अतिशय धवल नहीं उपलब्ध एक श्लोक ।।१५।। षट्खण्डागम टीकाएं पढ मन होता भव पार का । श्रुत पचमी पर्व अति पावन है श्रुत के अवतार का १६॥ फिर तो ग्रन्थ हजारो लिक्खे ऋषि मुनियों ने ज्ञानप्रधान । चारों ही अनुयोग रचे जीवों पर करके करुणा दान ॥१७॥ पुण्य कथा प्रथमानुयोग द्रव्यानुयोग है तत्व प्रधान । ऐक्सरे करुणानुयोग चरणानुयोग कैमरा महान १८॥
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जैन पूजांजलि वस्त्र पुराने सदा बदलते नए वस्त्र द्वारा ।
उसी भांति यह देह बदलती जन्म मृत्यु द्वारा ।। यह परिणाम नापता है वह बाह्य चरित्र विचार का । श्रत पचमी पर्व अति पावन है भूत के अवतार का R९|| जिनवाणी की भक्ति करे हम जिनश्रत की महिमा गायें । सम्यग्दर्शन का वैभव ले भेद ज्ञान निधि को पायें ॥२०॥ रत्नत्रय का अवलम्बन ले निज स्वरुप में रम जायें । मोक्ष मार्गपर चलें निरन्तर फिर न जगत में भरमायें ॥२१॥ धन्य धन्य अवसर आया है अब निज के उद्धार का । श्रत पचमी पर्व अति पावन है भूत के अवतार का ॥२२॥ गूजा जय जय नाद जगत् मे जिन श्रुत जय जयकार का । ॐ हीं श्री परमश्रुत षटखण्डागमाय पूर्णाष्य निर्वपामीति स्वाहा ।
श्रुत पचमी सुपर्व पर करो तत्व का ज्ञान । आत्म तत्व का ध्यान कर पाओ पद निर्वाण ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ह्री श्री परमश्रुतेभ्यो नम ।
श्री वीरशासन जयन्ती पूजन वर्धमान अतिवीर वीर प्रभु सन्मति महावीर स्वामी । वीतराग सर्वज जिनेश्वर अन्तिम तीर्थकर नामी ।। श्री अरिहतदेव मगलमय स्वपर प्रकाशक गुणधामी । सकल लोक के ज्ञाता दृष्टा महापूज्य अन्तर्यामी ।। महावीर शासन का पहला दिन श्रावण कृष्णा एकम । शासन वीर जयन्ती आती है प्रतिवर्ष सुपावनतम ।। विपुलाचल पर्वत पर प्रभु के समवशरण मे मंगलकार । खिरी दिव्य ध्वनि शासन वीर जयन्ती पर्व हुआ साकार ॥ प्रभु चरणाम्बुज पूजन करने का आया उर में शुभ भाव । सम्यकज्ञान प्रकाश मुझे दो, राग द्वेष का करूँ अभाव ।।
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श्री वीरशासन जयन्ती पूजन
जिया तुम निज को पहचानो ।
निज स्वरुप को पर स्वस्थ से सदा भित्र जानो ।। *ही श्री सन्मति वीर जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवाफ्ट अब तिष्ठ सिष्ठ उ., अब मम सनिहितो पक-पव वषट् । भाग्यहीन नर रत्न स्वर्ण को जैसे प्राप्त नहीं करता । ध्यानहीनमुनि निजआतम का त्योअनुभवन नहीं करता ।। शासन वीर जयन्ती पर जल चढ़ा वीर का ध्यान करूँ। खिरी दिव्य ध्वनि प्रथम देशना सुन अपना कल्याणकरूँ ।। ॐ ह्रीं श्री संमतिवीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि । अतरंग बहिरग परिग्रह त्याग में निग्रन्थ बनें । जीवन मरण, मित्र अरि सुख दुख लाभ हानि मे साम्यबन् ।। शासन वीर जयन्ती पर, कर अक्षत भेट स्वध्यानकरूँ ।। खिरी.।।२।। ॐ हो श्री संमतिवीरजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं नि । विविध कल्पना उठती मन में, वे विकल्प कहलाते हैं। बाह्य पदार्थों मे ममत्व मन के संकल्प रुलाते हैं ।। शासन वीर जयन्ती पर चंदन अर्पित कर ध्यान करूँ ॥खिरी ॥३॥ ॐ ही श्री समतिवीरजिनेन्द्राय भवताप विनाशनाय चदन नि । शुद्ध सिद्ध ज्ञानादि गुणों से मैं समृद्ध हू देह प्रमाण । नित्य असंख्यप्रदेशी निर्मल है अमूर्तिक महिमावान ।। : शासन वीर जयन्ती पर, कर भेंट पुष्य निज ध्यान करूँ ॥खिरी ॥४॥
ॐ ह्रीं श्री सन्मतिवीरजिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्प नि । परम तेज हूँ परम ज्ञान हूँ परम पूर्ण हूँ बाह्य स्वरूप । निरालम्ब हूँ निर्विकार हैं निश्चय से में परम अनूप ।। शासन वीर जयन्ती पर नैवेद्य चढा निज ध्यान करूँ ।।खिरी ।।५।। ॐ ही श्री सन्मतिवीरजिनेन्द्राय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्य नि । स्वपर प्रकाशक केवलज्ञानमयी, निज मर्ति अमर्ति महान । चिदानन्द टंकोत्कीर्ण हूँ ज्ञान ज्ञेय ज्ञाता भगवान ।। शासन वीर जयन्ती पर मैं दीप चढ़ा निज ध्यान करूँ।। खिरी ।। ॐही श्री सन्मतिवीर जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि ।
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जैन पूजांजलि प्राण मेरे तरसते हैं कब मुझे समकित मिलेगा ।
कब स्वय से प्रीत होगी कम मुझे निज पद मिलेगा ।। द्रव्य कर्म ज्ञानावरणादिक देहादिक नोकर्म विहीन । भाव कर्म रागादिक से मैं पृथक आत्मा ज्ञान प्रवीण । । शासन वीर जयन्ती पर मैं धूप चढा निजध्यान कसें । खिरी. ॥७॥ ॐही श्री सन्मतिवीर जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वंसनाय धूप नि. । कर्म मल रहित शुद्ध ज्ञानमय, परममोक्ष है मेरा धाम । भेद ज्ञान को महाशक्ति, से पागा अनन्त विश्राम ।। शासन वीरजयन्ती पर फला चढा निजध्यान करूं । । खिरी ॥८॥ ॐ ही श्री सन्मतिवीर जिनेन्द्राय मोक्ष फल प्राप्तये फल नि ।। मात्र वासनाजन्य कल्पना है पर द्रव्यो में सख बद्धि । इन्द्रियजन्य सुखो के पीछे पाई किंचित नहीं विशुद्धि । शासन वीर जयन्ती पर मैं अर्घ चढा निजध्यान करूँ ॥खिरी ।।९।। ॐ ह्री श्री सन्मतिवीर जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला विपुलाचल के गगन को वन्दू बारम्बार ।
सन्मति प्रभु की दिव्यध्वनि जहाँ हुई साकार ॥१॥ महावीर प्रभु दीक्षा लेकर मौन हुए तप सयम धार । परिषह उपसगों को जय कर देश-देश मे किया विहार ॥२॥ द्वादश वर्ष तपस्या करके ऋजु कूला सरि तट आये । क्षपक श्रेणि चढ शुक्ल ध्यान से कर्मघातिया बिनसाये ॥३।। स्व पर प्रकाशक परम ज्योतिमय प्रभु को केवलज्ञान हुआ । इन्द्रादिक को समवशरण रच मन मे हर्ष महान हुआ ॥४॥ बारह सभा जुडी अतिसुन्दर, सबके मन का कमल खिला । जन मानस को प्रभु की दिव्य ध्वनि का, किन्तु न लाभ मिला ।।५।। छ्यासठ दिन तक रहे मौन प्रभु, दिव्यध्वनि का मिला न योग ।। अपने आप स्वय मिलता है, निमित्त नैमित्तिक सयोग ।।६।।
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जन जन में जवानदी का जीवन ज जीव
श्री वीरसासन जयन्ती पूजन मैं ज्ञाता दृष्टा चेतन बिपी है।
गुण जात अनंत सहित मैं सिद्ध स्वरूपी ।। राजगही के विपुलाचल पर प्रभु का समवशरण आया । अवधि ज्ञान से जान इन्द्र ने गणधर का अभाव पाया ॥७॥ बड़ी युक्ति से इन्द्रभूति गौतम ब्राह्मण को वह साया । गौतम ने दीक्षा लेते ही ऋषि गणधर का पद पाया ॥८॥ तत्क्षण खिरी दिव्यध्वनि प्रभु की दशांग मय कल्याणी । रच डाली अन्तर मुहूर्त में, गौतम ने श्री जिनवाणी ।।। सात शतक लघु और महाभाषा अष्टादश विविध प्रकार । सब जीवों ने सनी दिव्य ध्वनि अपने उपादान अनुसार ॥१०॥ विपुलाचल पर समवशरण का हुआ आज के दिन विस्तार । प्रभु की पावन वाणी सुनकर गंजी नभ मे जय जयकार ।।११।। जन जन मे नव जागति जागी मिटा जगत का हाहाकार । जियो और जीने दो का जीवन संदेश हुआ साकार ॥१२॥ धर्म अहिंसा सत्य और अस्तेय मनुज जीवन का सार । ब्रह्मचर्य अपरिग्रह से ही होगा जीव मात्र से प्यार ॥१३॥ प्रणा पाप से करो सदा ही किन्तु नहीं पापी से द्वषे । जीव मात्र को निज सम समझो यही वीर का था उपदेश ॥१४॥ इन्द्रभूति गौतम ने गणधर बनकर गूंथी जिनवाणी । इसके द्वारा परमात्मा बन सकता कोई भी प्राणी ॥१५॥ मेघ गर्जना करती श्री जिनवाणी का बह चला प्रवाह । पाप ताप सताप नष्ट हो गये मोक्ष की जागी चाह ॥१६॥ प्रथम, करणं, चरण, द्रव्य ये अनुयोग बताये चार । निश्चय नय सत्यार्थ बताया, असत्यार्थ सारा व्यवहार ॥१७॥ तीन लोक षद द्रव्यमई है सात तत्व की श्रद्धा सार । नव पदार्थ छह लेश्या जानो, पंच महावत उत्तम धार ॥१८॥ समिति गुप्ति चारित्र पालकर तप संयम धारो अविकार । परम शुद्ध निज आत्म तत्व, आश्रय से हो जाओ भव पार ॥१९॥
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जैन पूजांजलि पुण्याश्रव के द्वारा स्वर्गों के सुख भोगे ।
माला जब मुरझाई तो कितने दुख भोगे ।। उस वाणी को मेरा वंदन उसकी महिमा अपरम्पार । सदा वीर शासन की पावन, परम जयन्ती जय जयकार ॥२०॥ वर्धमान अतिवीर वीर की पूजन का है हर्ष अपार ।। काल लब्धि प्रभु मेरी आई, शेष रहा थोड़ा ससार ।।२१।।
दिव्य ध्वनि प्रभु वीर की देती सौख्य अपार । आत्म ज्ञान की शक्ति से, खुले मोक्ष का द्वार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र - ॐ ह्री श्री सम्पूर्ण द्वादशागाय नम
श्री रक्षाबन्धनपर्व पूजन जय अकम्पनाचार्य आदि सात सौ साध मनिव्रत धारी । बलि ने कर नरमेध यज्ञ उपसर्ग किया भीषण भारी ।। जय जय विष्णुकुमार महामुनि ऋद्धि विक्रिया के धारी । किया शीघ्र उपसर्ग निवारण वात्सल्य करुणा धारी । । रक्षा-बन्धन पर्व मना मुनियो को जय जयकार हुआ । श्रावण शुक्ल पूर्णिमा के दिन घर घर मगलाचारहुआ ।। श्री मुनि चरण कमल मै वन्दू पाऊ प्रभु सम्यकदर्शन । भक्ति भाव से पूजन करके निज स्वरुप मे रहे मगन ।। ॐ ही श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्य आदि सप्तशतकमुनि अत्र अवतर अवतर सवौषट, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ अत्र मम सनिहितो भव-भव वषट् । जन्म मरण के नाश हेतु प्रासुक जल करता हूँ अर्पण । रागद्वषे परणति अभावकर निज परणति मे करूँ रमण ।। श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सप्तशतक को कहें नमन । मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महा मुनि को वन्दन।।१।। ॐ ह्री श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादि सप्तशतकमुनिभ्य जल नि भव सन्ताप मिटाने को मैं चन्दन करता हूँ अर्पण । देह भोग भवसे विरक्त हो निज परणति मे करूँ रमण श्री ॥२॥
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श्री रक्षाबन्धमपर्व पूजन अंतरंग बहिरंग मानव से विरक्ति ही संबम है।
सम्यक्दर्शन ज्ञान पूर्वक जो संवर हे सयम है ।। ही मी विष्णुकुमार एवं अकम्पनामादि सप्तसतक मुकिय सन्दर्भ नि । अक्षयपद अखंड पाने को अक्षत धवल करूँ अर्पण । हिंसादिक पापों को क्षय कर निजपरणति में करूँ रमण | श्री.॥३॥ ॐ ह्री श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्या दिसप्तसतक मुनिभ्य अक्षतं नि । कामवाण विध्वस हेतु मैं सहज पुष्य करता अर्पण । क्रोधादिक चारों कषाय हर निज परणति में करूँ रमण ॥ श्री. Iml ॐ ही की विष्णुकुमार एव अकम्पनाचादिसप्तशतकमुनिभ्य पुष्प नि । क्षुधारोग के नाश हेतु नैवेद्य सरस करता अर्पण । विषयभोग की आकाक्षा हर निज परणति में करूँ रमण श्री. ।।५।।
ॐ ही श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिश्य, नैवेद्य नि । चिर मिथ्यात्व तिमिर हरने को दीपज्योति करता अर्पण । सम्यक्दर्शन का प्रकाश पा निज परणति मे करूँ रमण ||श्री ॥६॥ ॐ ह्री श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्य नि दीपं । अष्ट कर्म के नाश हेतु यह धूप सुगन्धित है अर्पण । सम्यक्ज्ञान हृदय प्रगटाऊनिज परणति मे करूँ रमण । श्री ॥७॥ ॐ ही श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्य नि धूप । मुक्ति प्राप्ति हतु उत्तम फल चरणों मे करता हूँ अर्पण । मै सम्यक चारित्र प्राप्तकर निज परणति मे करूँ रमण श्री ॥८॥ ॐ ही श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्य फल नि । शाश्वत पद अनर्घ पाने को उत्तम अर्घ करूँ अर्पण । रत्नत्रय की तरणी खेऊनिज परणति मे करूँ रमण । श्री ॥९।। ॐ ही श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादिसप्तशतक मुनिभ्य अनर्षपद प्राप्ताय अयं नि
जयमाला वात्सल्य के अग की महिमा अपरम्पार । विष्णुकुमार मुनीन्द्र की गूंजी जय जयकार
॥१॥
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जैन पूजांजलि सयम के बिन भव से प्राणी हो सकता है मुक्त नहीं ।
संयम बिन कैवल्य लक्ष्मी से हो सकता युक्त नहीं ।। उज्जयनी नगरी के रूप श्रीवर्मा के मन्त्री थे चार । बलि, प्रहलाद, नमुचि वृहस्पति चारों अभिमानी सविकार ॥२॥ जब अकम्पनाचार्य सघ मुनियों का नगरी में आया । सात शतक मुनि के दर्शन कर नप श्री वर्मा हर्षाया ॥३॥ सब मुनि मौन ध्यान मे रत, लख बलि आदिक ने निंदा की । कहा कि मुनि सब मूर्ख इसी से नहीं तत्व की चर्चा की । किन्तु लौटते समय मार्ग मे, श्रुतसागर मुनि दिखलाये । वाद विवाद किया श्री मुनि से हारे, जीत नहीं पाये ॥५॥ अपमानित होकर निशि में मुनि पर प्रहार करने आये । खड्ग उठाते ही कीलित हो गये हृदय मे पछताये ।।६।। प्रात होते ही राजा ने आकर मुनि को किया नमन । देश निकाला दिया मन्त्रियों को तब राजा ने तत्क्षण ॥७॥ चारों मन्त्री अपमानित हो पहुचे नगर हस्तिनापुर । राजा पदमराय को अपनी सेवाओ से प्रसन्न कर ॥८॥ मुह मांगा वरदान नृपति ने बलि को दिया तभी तत्पर । जब चाहूगा तब ले लूगा, बलि ने कहा नम होकर ॥९॥ फिर अकम्पनावार्य सात सौ मुनियो सहित नगर आये । बलि के मन मे मुनियों की हत्या के भाव उदय आये ॥१०॥ कुटिल चाल चल बलि ने नृप से आठ दिवस काराज्यलिया ।। भीषण अग्नि जलाई चारों ओर द्वष से कार्य किया ॥११॥ हाहाकार मचा जगती में, मुनि स्व ध्यान में लीन हुए । नश्वर देह भिन्न चेतन से, यह विचार निज लीन हुए ॥१२॥ यह नरमेघ यज्ञ रच बलि ने किया दान का ढोंगविचित्र । दान किमिच्छक देता था, पर मन था अतिहिंसक अपवित्र ॥१३॥ पाराय नृप के लघु भाई, विष्णुकुमार महा मुनि । वात्सल्य का भाव जगा, मुनियों पर संकट का सुनकर ।।१४॥
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श्री रानपर्व पूजन बेतन अपन संबोलो डर में पावन दीपावलिया ।।
भेदज्ञान विज्ञान पूर्वक नाशो कर्मालियाँ ।। किया गमन भाकाश मार्ग से सीध हस्तिनापुर आये । ऋद्धि विक्रिया बरा याचक, वामन रूप बना लाये १५॥ बलि से मांगी तीन पाँव भ, बलिराजा हसकर बोला । जितनी चाहों उतनी ले लो, वामन मूर्ख बड़ा भोला ॥१६॥ हसकर मुनि ने एक पाँव में हो सारी पृथ्वी नापी । पग द्वितीय में मानुषोत्तर पर्वत की सीमा नापी १७॥ ठौर न मिला तीसरे पग को, बलि के मस्तक पर रक्खा । क्षमा क्षमा कह कर बलिने, मुनिचरणों में मस्तकरक्खा ॥१८॥ शीतल ज्वाला हुई अग्नि की श्री मुनियों की रक्षा की । जय जयकार धर्म का गूजा, वात्सल्य की शिक्षा दी ॥१९॥ नवधा भक्ति पूर्वक सबने मुनियों को आहार दिया । बलिआदिक का हुआ हृदयपरिवर्तन जय जयकार किया ॥२०॥ रक्षा सूत्र बांधकर तब जन जन ने मंगलाचार किये। साधर्मी वात्सल्य भाव से, आपस में व्यवहार किये ।।२१।। समक्ति के वात्सल्य अग की महिमा प्रगटी इस जग मे । रक्षा बन्धन पर्व इसी दिन से प्रारम्भ हुआ जग मे ॥२२॥ श्रावण शुक्ल पूर्णिमा का दिन था रक्षासूत्र बधा कर मे । वात्सल्य की प्रभावना का आया अवसर घर घर मे ॥२३।। प्रायश्चित ले विष्णुकुमार ने पुन व्रत ले तप ग्रहण किया । अष्ट कर्म बन्धन को हरकर इस भव से ही मोक्ष लिया २४|| सब मुनियों ने भी अपने अपने परिणामों के अनुसार । स्वर्ग मोक्ष पद पाया जग मे हुई धर्म की जय जयकार ॥२५।। धर्म भावना रहे हृदय मे, पापों के प्रतिकूल चलें । रहे शुद्ध आचरण सदा ही धर्म मार्ग अनुकूल चलें ॥२६॥ आत्म ज्ञान रुचि जगे हृदय मे, निज परको मैं पहिचानें । समकित के आठों अगों की, पावन महिमा को जानें ॥२७॥
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जैन पूजांजलि समकित रवि की ज्योति प्राप्तकर नासो पापावलियां ।
___मोह कर्म सर्वथा नासकर नाशो पुण्यावलियां । । तभी सार्थक जीवन होगा सार्थक होगी यह नर देह । अन्तर घट में जब बरसेगा पावन परम ज्ञान रस मेह ॥२८॥ पर से मोह नहीं होगा,होगा निजात्म से अति नेह । तब पायेंगे अखड अविनाशी निज सुखमय शिव गेह ॥२९॥ रक्षा-बधन पर्व धर्म का, रक्षा का त्यौहार महान । रक्षा-बंधन पर्व ज्ञान का, रक्षा का त्यौहार प्रधान ॥३०॥ रक्षा-बन्धन पर्व चरित का, रक्षा का त्यौहार महान । रक्षा-बन्धन पर्व आत्म का, रक्षा का त्यौहार प्रधान ॥३१॥ श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सात शतक को कसैलपन । मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महामुनि को वन्दन ॥३२॥
* ही श्री विष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यआदि सप्तशतक मुनिभ्यो पूर्णार्य निर्वामीति स्वाहा
रक्षा बन्धन पर्व पर श्री मुनि पद उर धार । मन वच तन जो पूजते, पाते सौख्य अपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्तमत्र -ॐ ह्री श्री विष्णुकुमार एव अकम्पनाचार्यादि सप्तशतक
परम ऋषीश्वरेम्यो नम
निजपुर में अमृत बरसेरी अनुभव रस को प्याला पोवत अग अग सुख सरसे री। शील विनय जप तप सपम व्रत पा मेरो जिया हरसे री ।। पर परिणति कुलटा दुखदायी देख देख के तरसे री । पर विभाव को सग छोड़ के आई मैं पर घर से री। चिदानन्द चेतन मन भाये निज शुद्धातम दरसे रो।।
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श्री चतुविशति सोचकर स्तुति पर परिणति दुर्मति से भाग विमा हुमा हूँ। निज परिणति के रथ पर मैं आरुढ मा ।।
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• श्री चतुर्विशति तीर्थकर विधान जैन आगम में पूजा विधान करने की परम्परा प्रचलित है । प्रत्येक श्रावक को छः आवश्यक क्रियाओ में जिनेन्द्र पूजा को प्रथम स्थान प्राप्त है । सच्ची पूजा से तात्पर्य पंचपरमेष्ठी भगवन्तो के गुणानुवाद के साथ ही पूजक की यह भावना रहती है कि वह भी पचपरमेष्ठी के समस्त गुणो को प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त करे। सांसारिक प्रयोजनो के लिए की गई पूजा कार्यकारी नहीं है परन्तु जिनेन्द्र पूजन के समय जीव के परिणाम तीव्र कषाय से हटकर मन्द कषाय रुप हो जाते हैं। अतः परिणामों के अनुसार उसे अवश्य ही पुण्य का बन्ध होता है जो परम्परा मोक्ष का कारण बन सकता है। विधान महोत्सव भी पूजन का एक बड़ा रूप है। वर्तमान में सिद्ध चक्र मडल, इन्द्रध्वज मडल विधान, गणधर वलय विधान, पचकल्याणक, सोलहकारण, पच परमेष्ठी, दशलक्षण-विधान आदि प्रचलित हैं । श्रावको द्वारा विभित्र अवसरो पर इस तरह का विधान करने की परम्परा प्रचलित है। इसी श्रृंखला में आध्यात्मिक दृष्टि से परिपूर्ण "नव-देव पूजन, “पचपरमेष्ठी पूजन" "वर्तमान चौबीस तीर्थंकरो की पूजन" के साथ "तीर्थकर निर्वाण क्षेत्र एव "चौबीस तीर्थंकरो के समस्त गणधरो की" "गणधर वलय" पूजनें भी हैं । इसे प्रत्येक श्रद्धालु श्रावक कभी भी अनवरत रुप से अथवा सुविधानुसार एक से अधिक दिवसो मे सम्पन्न कर सकते हैं। इसकी स्थापना विधि अन्य विधानो की तरह है । इस सग्रह के प्रारम्भ में सामान्य पूजन स्थापना विधि दी गई है वैसे ही विधान की स्थापना करना चाहिए एव विधान समाप्ति के बाद इस सग्रह के अन्त मे महाअर्घ एव शांति पाठ आदि दिया है उसे पढ़कर विधान पूर्ण करे । इसके अतिरिक्त अनेक बन्धओ, माताओ बहनो द्वारा चौबीस तीर्थकरो के पचकल्याणको की तिथियो में तीर्थकर की विशेष पूजन, व्रतउपवास आदि करने की परम्परा है । उनके लिए भी यह विधान अत्यन्त उपयोगी होगा। तीर्थकर पचकल्याणक तिथि दर्पण भी प्रारम्भ मे दिया गया है।
श्री चतुर्विशति तीर्थंकर स्तुति जय ऋषभदेव जिनेन्द्र जय, जय अजित प्रभु अभयंकरम् । जय नाथ सम्भव भव विनाशक, जयतु अभिनन्दन परम् ।।१।।
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जैन पूजांजलि देह तो अपनी नहीं है देह से फिर मोह कैसा ।
जड अचेतन रुप पुदगल द्रव्य से व्यामोह केसा ।। जय सुमतिनाथ सुमति प्रदायक, पदम प्रभु प्रणतेश्वरम् । जय जय सुपाश्र्वस्वपर प्रकाशक, चन्द्रप्रभु चन्द्रेश्वरम् ॥२॥ जय पुष्पदन्त पवित्र पावन जयति शीतल शीतलम् । जयश्रेष्ठ श्री श्रेयांस प्रभुवर, वासुपूज्य सु निर्मलम् ।।३।। जय अमल अविकल विमल प्रभु, जयजय अनन्त आनंदकम् । जय धर्मनाथ स्वधर्मरवि, जय शान्ति जग कल्याणकम् ।।४।। जय कुन्थुनाथ अनाथ रक्षक, अरहनाथ अरिंजयम् । जय मल्लि प्रभु हत दुर्नयम् जय सुनिसुव्रत मृत्यु जयम् ।।५।। जय मुक्तिदाता नमि जिनोत्तम्, नेमि प्रभु लोकेश्वरम् । जय पार्श्व विघ्नविनाशनम्, जय महावीर महेश्वरम् ।।६।। जय पाप पुण्य निरोधकम, ज्ञानेश्वरम् क्षेमकरम् ।। जय महामगल मूर्ति जय, चौबीस जिन तीर्थकरम् ।।७।।
श्री पंच परमेष्ठी पूजन अरहत, सिद्ध, आचार्य नमन, हे उपाध्याय हे साधु नमन । जय पच परम परमेष्ठी जय, भव सागर तारणहार नमन ।। मन वच काया पूर्वक करता हूँ शुद्ध ह्रदय से आह वानन । मम हृदय विराजो तिष्ठ तिष्ठ सन्निकट होउ मेरे भगवन ।। निज आत्म तत्व को प्राप्ति हेतु ले अष्ट द्रव्य करता पूजन । तुव चरणों की पूजन से प्रभु निज सिद्ध रूप का हो दर्शन ।। ॐ ह्री श्री अरहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु पच परमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ अत्रमम सनिहितो भव भव वषट् ।। मैं तो अनादि से रोगी हे. उपचार कराने आया . • हूँ। तुमसम उज्ज्वलता पाने को उज्ज्वल जल भरकर लाया हूँ ॥ मैं जन्म जरा मृत्यु नाश करूँ ऐसी दो शक्ति हृदय स्वामी । हे पच परम परमेष्ठी प्रभु भव दुख मेटो अन्तर्यामी IRAL ॐ ह्रीं श्री पचपरमेष्ठिम्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि ।
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श्री पंच परमेष्ठी पूजन चक्रवर्ती इन्द्र नारायण नहीं जीवित रहे हैं।
समय जिसका माणसा वे एक ही पल में बड़े हैं । संसार ताप से जल-जल कर मैंने अगणित दुख पाये हैं। निज शान्त स्वभाव नहीं भाया पर केही गीत समाये हैं। शीतल चन्दन है भेट तुम्हें संसार ताप नाशो स्वामी हे पंच IR॥ ॐ ह्रीं श्री पंचपरमष्ठिम्यो ससारताप बिनाशनाय चंदनं नि । दुखमय अथाह भव सागर में मेरी यह नौका भटक रही । शुभ अशुभ भाव की भंवरों में चैतन्य शक्ति निज अटक रही ।। तंदुल हैं धवल तुम्हे अर्पित अक्षयपद प्राप्तकरूं स्वामी हे पंच ॥३॥ ॐही श्री पचपरमेष्ठिम्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । मैं काम व्यथा से घायल हूँ सुखकी न मिली किंचित् छाया । चरणों मे पुष्प चढ़ाता हूँ तुमको पाकर मन हांया ।। मैं काम भाव विध्वंस करें ऐसा दो शीलहृदय स्वामी । हे पंच ।।४।। ॐ ह्रीं श्री पचपरमेष्ठिभ्यो कामबाण विध्वंसनाय पुष्प नि । मैं क्षुधा रोग से व्याकुल हू चारों गति में भरमाया हूँ। जग के सारे पदार्थ पाकर भी तृप्त नहीं हो पाया है।। नैवेद्य समर्पित करता है यह क्षुधारोग मेटो स्वामी । हे पंच. ॥५॥ ॐ ही श्री पचपरमेष्ठिभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । मोहान्ध महाअज्ञानी मैं निज को पर का कर्ता माना । मिथ्यातम के कारण मैने निज आत्म स्वरुप न पहचाना ।। मैं दीप समर्पण करता हूँ मोहान्धकार क्षय हो स्वामी ।हे पंच ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । कमों की ज्वाला धधक रही ससार बढ रहा है प्रतिपल । सवर से आश्रव को रोकू निर्जरा सुरमि महके पल-पल ।। मैं धूप चढ़ाकर अब आठोंकों का हनन करूँ स्वामी । हे पंच. ।।७।। ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिम्यो अष्टकर्म दहनाय धूप नि । निज आत्मतत्व का मनन करु चितवन क निजचेतन का । दो अद्ध, ज्ञान, चरित्र श्रेष्ठ सच्चा पथ मोक्ष निकेतन का उत्तमफल चरण चढ़ाता हूँ निर्वाण महाफल हो स्वामी । हे पंच.॥४॥
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जैन पूजांजलि शदात्मा में प्रवृत्ति का एक मार्ग है निज चिन्तन ।
दुश्चिन्ताओ से निवृत्ति का एक मार्ग है निज चिन्तन । । ॐ ह्रीं श्री पंचपरमेष्ठिभ्यो महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प दीप, नैवेद्य, धूप, फल लाया हूँ। अब तक के सचित कमों का मैं पुज जलाने आया हूँ ॥ यह अर्थ समर्पित करता हूँ अविचल अनर्घपद दो स्वामी हे पच. ।।९।। ॐ ही श्री पचपरमेष्ठिभ्यो अनय पद प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला जय वीतराग सर्वज्ञ प्रभो निज ध्यान लीन गुणमय अपार । अष्टादश दोष रहित जिनवर अरहत देव को नमस्कार ॥१॥ अविचल अविकारी अविनाशी निज रूप निरजन निराकार । जय अजर अमर हे मुक्तिक्त भगवन्त सिद्ध को नमस्कार।।२।। छत्तीस सुगुण से तुम मण्डित निश्चय रत्नत्रय ह्रदय धार । हे मुक्ति वधू के अनुरागी आचार्य सुगुरु को नमस्कार ।।३।। एकादश अग पूर्व चौदह के पाठी गुण पच्चीस धार । बाह्यान्तर मुनि मुद्रा महान श्री उपाध्याय को नमस्कार ।।४।। व्रत समिति गुप्ति चारित्र धर्म वैराग्य भावना हृदय धार । हे द्रव्य भाव सयममय मुनिवर सर्वसाधु को नमस्कार ॥५॥ बहुपुण्य सयोग मिला नरतन जिनश्चत जिनदेव चरणदर्शन । हो सम्यकदर्शन प्राप्त मुझे तो सफल बने मानव जीवन ।।६।। निज पर का भेद जानकर मै निज को ही निज मे लीन करूँ।
अब भेद ज्ञान के द्वारा मै निज आत्म स्वय स्वाधीन करूँ।।७।। निज मे रत्नत्रय धारण कर निज परिणति को ही पहचानें। पर परणति से हो विमुख सदा निजज्ञान तत्व को हीजा ८॥ जब ज्ञान ज्ञेयज्ञाता विकल्प तज शुक्ल ध्यान मैं ध्याआ । तब चार घातिया क्षय करके अरहंत महापद पाऊँगा ॥९॥ है निश्चित सिद्ध स्वपद मेरा हे प्रभु कब इसको पाऊँगा । सम्यक पूजा फल पाने को अब निजस्वभाव मे आमा ॥१०॥
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श्री नवदेव पूजन सहज र निष्काम भाव से भव समुद्र को तरोतसे ।
आत्मोज्ज्वलता में बाधक शुभ अशुभ राग को हरोहरो ।। अपने स्वरूप को प्राप्ति हेतु हे प्रभु मैने की है पूजन । . तबतक चरणों में ध्यान रह जबतक न प्राप्त हो मुक्तिसदन ॥११॥ ॐ ही श्री अर्हतादि पंच परमेष्ठिभ्यो अव्य निर्वपामीति स्वाहा ।। हे मगल रुप अमगल हर मंगलमय मंगल गान करूँ। मगल में प्रथम श्रेष्ठ मगल नवकारमन्त्र का ध्यान करूँ ।।१२।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र - ॐ ह्री श्री असि आ उ सा नम ।
श्री नवदेव पूजन श्री अरहत सिद्ध, आचायोपाध्याय, मुनि, साधु महान । जिनवाणी, जिनमदिर, जिनप्रतिमा, जिनधर्मदेव नव जान ।। ये नवदेव परम हितकारी रत्नत्रय के दाता हैं । विघ्न विनाशक सकटहर्ता तीन लोक विख्याता है । जल फलादि वस द्रव्य सजाकर हे प्रभु नित्य करूँ पूजन । मगलोत्तम शरण प्राप्त कर मैं गाऊ सम्यकदर्शन ।। आत्मतत्व का अवलम्बन ले पूर्ण अतीन्द्रिय सुख पाऊ । नवदेवो की पूजन करके फिर न लौट भव मे आऊ ।। ॐ ह्री श्री अहंत सिद्ध आचार्य उपाध्याय सर्वसाधु, जिनवाणी, जिन मदिर, जिनप्रतिमा, जिनधर्म नवदेव अत्र अवतर-अवतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ ठ, अत्रमम् सनिहितो भव भव वषट् । परम भाव जल की धारा से जन्म मरण का नाश करूँ। मिथ्यातम का गर्व चूर कर रवि सम्यक्त्व प्रकाश करूँ ॥१॥ ॐ ही श्री अर्हतसिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी, जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि स्वाहा । परम भाव चदन के बल से भव आतप का नाश करूँ। अन्धकार अज्ञान मिटाऊँ सम्यकज्ञान प्रकाश करूँ। पच. ॥२॥ ॐ ही श्री अहंत सिद्धआचार्योपाध्याय सर्व साधु, जिनवाणी, जिन मन्दिर जिनप्रतिमा, जिनधर्मनवदेवेभ्यो ससार तापविनाशनाय चन्दन नि स्वाहा
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जैन पूजांजलि क्षमा सत्य संतोष सरलता मृदुता लघुता नम्रता ।
अम्हचर्य तप गुप्ति त्याग समता उज्जवलता उच्चता । । परम भाव अक्षत के द्वारा अक्षय पद को प्राप्त करूँ। मोह क्षोभ से रहित बनूं मैं सम्यकचारित प्राप्त करूँ। पिंच ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिद्ध आचायोपाध्याय सर्व साधु, जिनवाणी, जिनमदिर जिनप्रतिमा, जिनधर्म, नवदेवेभ्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । परम भाव पुष्पों से दुर्धर काम भाव को नाश करूँ। तप सयम की महाशक्ति से निर्मल आत्म प्रकाश करूँ पिच ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री अर्हतसिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनमंदिर जिनप्रतिमा, जिनधर्म नवदेवेभ्यो कामवाण विध्वसनायपुष्पं नि। परम भाव नैवेद्य प्राप्तकर क्षुधा व्याधि का ह्रास करूँ। पचाचार आचरण करके परम तृप्त शिववास करूँ पिच. ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री अर्हतसिद्ध आचायोपाध्याय, सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनमंदिर, जिनप्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्योक्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि परम भाव मय दिव्य ज्योति से पूर्ण मोह का नाश करूँ। पाप पुण्य आश्रव विनाशकर केवलज्ञान प्रकाश करूँ। पिच ॥६॥ ॐ ह्री श्री अर्हतसिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु, जिनवाणी, जिन मंदिर जिनप्रतिमा, जिनधर्म नवदेवेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । परम भाव मय शुक्ल ध्यान से अष्ट कर्म का नाश करूँ। नित्य निरन्जन शिव पद पाऊ सिद्धस्वरुप विकास करूँ पिच ।।७।। ॐ ह्री श्री अहंतसिद्ध आचार्योपाध्याय, सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनमन्दिर जिनप्रतिमा, जिनधर्म नवदेवेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूप नि । परम भाव सपत्ति प्राप्त कर मोक्ष भवन मे वास करूँ। रत्नत्रय मुक्तिशिला पर सादि अनत निवास करूँ।। पच ॥८॥ ॐ ह्री श्री अर्हतसिद्ध आचार्योपाध्याय, सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनमदिर जिनप्रतिमा, जिनधर्म नवदेवेभ्यो महा मोक्षफल प्राप्ताय फलं नि । परम भाव के अर्घ चढ़ाऊं उर अनर्घ पद व्याप्त करूँ। भेद ज्ञान रवि ह्रदय जगाकर शाश्वत जीवन प्राप्त करूँ। पंच ।।९।। ॐ ह्रीं श्री आहेत सिद्धआचार्योपाध्याय सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनमंदिर जिनप्रतिमा, जिनधर्मनवदेवेभ्यो अनर्ष पद प्राप्ताय अयं नि ।
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श्री नवदेव पूजन पाप तिमिर का पुन्ब नाश कर ज्ञान ज्योति जयवंत हुई। नित्य शुर अविरुद्ध शक्ति के द्वारा महिमावत हुई ।।
जयमाला नवदेवों को नमन कर करूँ आत्म कल्याण । शाश्वत सुख की प्राप्ति, हित करूँ भेद विज्ञान ॥१॥ जय जय पच परम परमेष्ठी जिनवाणी जिन धर्म महान । जिनमंदिर जिनप्रतिमा नवदेवों को नित बन्दू धर ध्यान ॥२॥ श्री अरहंत देव मगलमय मोक्ष मार्ग के नेता हैं । सकल ज्ञेय के ज्ञातादृष्टा कर्म शिखर के भेत्ता हैं ॥३॥ हैं लोकाग्र शिखरपर सुस्थित सिद्धशिला पर सिद्धअनंत । अष्ट कर्म रज से विहीन प्रभु सकल सिद्धिदाता भगवत ॥४॥ हैं छत्तीस गुणो से शोभित श्री आचार्य देव भगवान । चार सघ के नायक ऋषिवर करते सबको शान्ति प्रदान ।।५।।
ग्यारह अग पूर्व चौदह के ज्ञाता उपाध्याय गुणवन्त । जिन आगम का पठन और पाठन करते हैं महिमावन्त ॥६॥ अट्ठाईस मूलगुण पालकऋषि मुनि साधु परमगुणवान । मोक्ष मार्ग के पथिक श्रमण करते जीवों को करुणादान ॥७॥ स्याद्वादमय द्वादशाग जिनवाणी है जग कल्याणी । जो भी शरण प्राप्त करता है हो जाता केवलज्ञानी ॥८॥ जिनमदिर जिन समवशरणसम इसकी महिमा अपरम्पार । गध कटी मे नाथ विराजे हैं अरहंतदेव साकार ॥९॥ जिनप्रतिमा अरहतों की नासाग्र दृष्टि निज ध्यानमयी । जिन दर्शन से निज दर्शन हो जाता तत्क्षण ज्ञानमयी ॥१०॥ श्री जिनधर्म महा मगलमय जीव मात्र को सुख दाता । इसकी छाया में जो आता ही जाता दूष्टा ज्ञाता ॥११॥ ये नवदेव परम उपकारी वीतरागता के सागर । सम्यकदर्शन ज्ञान चरित से भर देते सबकी गागर ।।१२।।
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जैन पूजांजलि निज स्वपाव का साधन लेकर लो शुक्षात्म शरण ।
गुण अनतपति बनो सिद्धयति करके मुक्ति वरण ।। मुझको भी रत्नत्रय निधि दो में कों का भार हरूँ। क्षीणमोह जितराग जितेन्द्रिय हो भव सागर पार करूँ॥१३॥ सदा-सदा नवदेव शरण पा मैं अपना कल्याण करूँ। जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊं हे प्रभु पूजन ध्यान करूँ।।१४।। ॐ ह्रीं श्री अर्हत सिखआचार्योपाध्याय सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनमंदिर जिनप्रतिमा, जिनधर्म नवदेवेभ्यो अनर्षपद प्राप्साय पूर्णायं नि स्वाहा
मगलोत्तम शरण हैं नव देवता महान । भाव पूर्ण जिन भक्ति से होता दुख अवसान ।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र -ॐ ह्री श्री नव जिनदेवेभ्यो नम
श्री वर्तमानचौबीसतीर्थकर पूजन भरतक्षेत्र की वर्तमान जिन चौबीसी को करूं नमन । वृषभादिक श्री वीर जिनेश्वर के पद पकज मे वन्दन ।। भक्ति भाव से नमस्कार कर विनय सहित करता पूजन । भव सागर से पार करो प्रभु यही प्रार्थना है भगवान ।। ॐ ही श्री वृषभादि महावीर पर्यन्त चतुर्विशति जिनसमूह अत्र अवतर-अवतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ-तिष्ठ, ठ ठ, अत्रमम् सनिहितो भव-भव वषट् । आत्मज्ञान वैभव के जल से यह भव तृषा बुझाऊँगा । जन्मजरा हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा ।। वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर के नित चरण पखारूँगा । पर द्रव्यो से दृष्टि हटाकर अपनी ओर निहारूँगा ॥१॥ ॐ ही श्री वृषभादि वीरातेभ्योजन्मजरा मृत्यु विनाशनायजल नि स्वाहा। आत्मज्ञान वैभव के चन्दन से भवताप नशाऊँगा । भव बाधा हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जलाऊँगा ।। वृष ।।२।। ॐ ह्रीं श्री वृषभादि वीरातेभ्यो ससारताप विनाशनाय चदनं नि. ।
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श्री वर्तमान चौबीसतीर्थकर पूजन
१६९ परम पूज्य भगवान मात्मा है अनंत गुण से परिपूर्ण ।
मंतरमुखाकार होते ही हो जाते सब कर्म विचूर्ण ।। आत्मज्ञान वैभव के अक्षत से अक्षय पद पाऊँगा।' भवसमुद्र तिर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जलाऊँगा ।। वृक्ष. ।।३।। ॐ ही श्री वृषभादि वीरांते यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं नि स्वाहा । आत्मज्ञान वैभव के पुष्पों से मैं काम नशाऊँगा । शीलोदधि पा चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा । वृष. ॥४॥ ॐ हीं श्री वृषमादि वीरातेभ्यो कामवाण विश्वसनाय पुष्प नि. । आत्मज्ञान वैभव के चरु ले क्षुधा व्याधि हर पाऊँगा । पूर्ण तृप्ति पा चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा ।वृष ।।५।। *ही श्री वृषभादि वीरातेभ्यो क्षुधा रोग विनाशना पनवेचं नि । आत्मज्ञान वैभव दीपक से भेद ज्ञान प्रगटाऊँगा । मोहतिमिर हर चिदानन्द चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा ॥वृष ॥६॥ ॐ ही श्री वृषभादि वीरातेभ्यो मोहन्धकार विनाशनाय दीप नि । आत्म ज्ञान वैभव को निज मे शुचिमय धूप चढाऊँगा । अष्ट कर्म हर चिदानद चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा ।वृष ॥७॥ ॐ ही श्री वृषभादि वीरानेभ्यो अष्ट कर्म विनाशनाय धूपं नि । आत्म ज्ञान वैभव के फल से शद्ध मोक्ष फल पाऊँगा। राग द्वेष हर चिदानद चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा । ।वृष ।।८।। ॐही श्री वृषभादि वीरातेभ्यो महा मोक्ष प्राप्ताय फलनि । आत्म ज्ञान वैभव का निर्मल अर्घ अपूर्व बनाऊँगा । पा अनर्घ पद चिदानद चिन्मय की ज्योति जगाऊँगा । वृष ॥९॥ ॐही श्री वृषमादि वीरातेभ्यो अनर्ष पद प्राप्ताय अर्घ्य नि ।
जयमाला भव्य दिगम्बर जिन प्रतिमा नासाग्र दृष्टि निज ध्यानमयी । जिन दर्शन पूजन अघ नाशक भव भव में कल्याणमयी ॥१॥ वृषभदेव के चरण पखा मिथ्या तिमिर विनाश करूं। अजितनाथ पद बन्दन करके पंच पाप मल नाश करूँ ॥२॥
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जैन पूजांजलि व्याकुल मत हो मेरे मनवा कट जाएगी दुख की रात ।
दिन के बाद रात आती है और रात के बाद प्रभात ।। सम्भवजिन का दर्शन करके सम्यकदर्शन प्राप्त करूँ। अभिनन्दन प्रभु पद अर्चन कर सम्यकज्ञान प्रकाश करूँ।।३।। सुमतिनाथ का सुमिरण करके सम्यकचारित हृदय धरूँ । श्री पदमप्रभु का पूजन कर रत्नत्रय का वरण करूँ।। श्री सुपार्श्व की स्तुति करके मोह ममत्व अभाव करूँ। चन्दाप्रभु के चरण चित्त घर चार कषाय अभाव करूँ ।।५।। पुष्पदन्त के पद कमलो मे बारम्बार प्रणाम करूँ। शीतल जिनका सुयशगान कर शाश्वत शीतल धाम वरूँ ।।६।। प्रभु श्रेयासनाथ को बन्दू श्रेयस पद की प्राप्ति करूँ।। वासुपूज्य के चरण पूज कर मैं अनादि की भांति हरूँ ॥७॥ विमल जिनेश मोक्ष पद दाता पच महाव्रत ग्रहण करूँ। श्री अनन्तप्रभु के पद बन्दू पर परणति का हरण करूँ ।।८।। धर्मनाथ पद मस्तक धर कर निज स्वरुप का ध्यान करूँ। शातिनाथ की शांत मूर्ति लख परमशांत रस पान करूं ॥९॥ कुथनाथ को नमस्कार कर शुद्ध स्वरुप प्रकाश करूँ। अरहनाथ प्रभु सर्वदोष हर अष्टकर्म अरि नाश करूँ।।१०।। मल्लिनाथ की महिमा गाऊ मोह मल्ल को चूर करूँ। मुनिसुव्रत को नित प्रति ध्याऊ दोष अठारह दूर करूँ ॥१९॥ नमि जिनेश को नमनकरूँ मैं निजपरिणति मे रमण करूँ। नेमिनाथ का नित्य ध्यान धर भाव शुभा-शुभ शमनकरूँ ।।१२।। पार्श्वनाथ प्रभु के चरणाम्बुज दर्शन कर भव भार हरूँ । महावीर के पथ पर चलकर मैं भवसागर पार करूँ ॥१३॥ चौबीसो तीर्थकर प्रभु का भाव सहित गुणगान करूँ । तुम समान निज पद पाने को शुद्धातम का ध्यान करूँ ।।१४।। ॐ ह्रीं श्री वृषभादिवीरातेभ्यो अनर्षपद प्राप्तये अय नि स्वाहा ।
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श्री ऋषणदेव जिन पूजन
१७१ पूर्ण अहिंसा व्रत संगम की जब निश्चय वासुरी बजेगी ।
मोह मोम की गति क्षम होगी सुब्बातम निज साज सेवेगी ।। श्री चौबीस जिनेश के चरण कमल उर धार । मन, वच, तन, जो पूजते वे होते भव पार १५॥
इत्याशीर्वाद जाप्यमंत्र - ॐ ह्रीं श्री चतुर्विशति तीर्थकरेभ्यो नमः
श्री ऋषभदेव जिन पूजन जय आदिनाथ जिनेन्द्र जय जय प्रथम जिन तीर्थकरम । जय नाभि सुत मरुदेवी नन्दन ऋषभप्रभु जगदीश्वरम ।। जय जयति त्रिभुवन तिलक चूडामणि वृषम विश्वेश्वरम । देवाधि देव जिनेश जय जय, महाप्रभु परमेश्वरम ।। ॐ ही श्री आदिनाथजिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर संवौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ, अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट् । समकित जल दो प्रभु आदि निर्मल भाव धरूं । दुख जन्म-मरण मिट जाये जल से धार करूँ।। जय ऋषभदेव जिनराज शिव सुख के दाता । तुम सम हो जाता है स्वय को जो ध्याता ॥१॥ ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्रायजन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि । समकित चदन दो नाथ भव सताप हरूँ। चरणो मे मलय सुगन्ध हे प्रभु भेट करूँ ।।जय ऋषभ देव ।।२।। ॐ ही श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चदनं नि । समकित तन्दुल की चाह मन मे मोद भरे । अक्षत से पूजू देव अक्षयपद सवरे जय ऋषभ देव ॥३॥ ॐ ही श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि । समकित के पुष्प सुरम्य दे दो हे स्वामी । यह काम भाव मिट जाय हे अन्तर्यामी जय ऋषभ देव ॥४॥ *ही श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसन्मय पुर्न नि. ।
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जैन पूजांजलि शवात्मसर्व प्रकास का निश्चय परम पुरुषार्थ है।
घनघाति कर्मे विनाश का आचरण ही परमार्थ है ।। समकित चरु करो प्रदान मेरी भूख मिटे । भव भव की तृष्णा ज्वाल उर से दूर हटे ।जय ऋषभ देव ।५।। ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि. । समकित दीपक की ज्योति मिथ्यातम भागे । देखं निज सहज स्वरुप निज परिणति जागे ।।जय ऋषभ देव ।।६।। ॐ हीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्रायमोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि । समकित की धूप अनूप कर्म विनाश करे । निज ध्यान अग्नि के बीच आठों कर्मजरे ।जय ऋषभदेव ॥७॥ ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वंसनाय धूप नि । समकित फल मोक्ष महान पाऊँ आदि प्रभो । हो जाऊसिद्ध समान सुखमय ऋषभ विभो ।जय ऋषभ देव ।।८।। ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय महा मोक्ष फल प्राप्तये फलं नि स्वाहा ।। वसु द्रव्य अर्घ जिनदेव चरणों में अर्पित । पाऊअनर्घ पद नाथ अविकल सुख गर्भित ।जय ऋषभ देव ॥९॥
श्री पंचकल्याणक शुभ अषाढ कृष्ण द्वितीया को मरदवी उर में आये । देवों ने छह मास पूर्व से रत्न अयोध्या बरसाये ।। कर्म भूमि के प्रथम जिनेश्वर तज सरवार्थसिद्ध आये । जय जय ऋषभनाथ तीर्थकर तीन लोक ने सुख पाये ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री अषाढकृष्णद्वितीया दिनेगर्भमगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अयं नि । चैत्र कृष्ण नवमी को राजा नाभिराय गृह जन्म लिया । इन्द्रादिक ने गिरि सुमेरु पर क्षीरोदधि अभिषेक किया ।। नरक त्रिर्यंच सभी जीवो ने सुख अन्तर्मुहुर्त पाया । जय जय ऋषभनाथ तीर्थकर जग में पूर्ण हर्ष छाया ॥२॥
ही श्री चैत्रकृष्णनवमीदिने जन्ममगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अयं नि.
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श्री ऋणदेव जिन पूजन अपनी देह नहीं अपनी तो पर पदार्थ भी सपना ।
मुराद चिप निकाली भूव स्वभाव ही अपना है ।। चैत्र कृष्ण नवमी को ही वैराग्य भाव उर छाया था। लौकान्तिक सर इन्द्रादिक ने तप कल्याण मनाया था ।। पंच महाव्रत धारणा करके पंच मुष्टि कच लोच किया । जय प्रभु ऋषपदवे तीर्थकर तुमने मुनि पद धार लिया ॥३॥ ॐ ही मी चैत्रकृष्णनवमीदिने तपमंगल प्राप्ताय प्रवरदेवाय अर्म नि एकादशी कृष्ण फागुन को कर्म यातिया नष्ट हुए । केवलज्ञान प्राप्त कर स्वामी वीतराग भगवन्त हुए । दर्शन, ज्ञान, अनन्तवीर्य, सुख पूर्ण चतुष्टय को पाया । जय प्रभु ऋषभदेव जगती ने समवशरण लख सुख पाया ।४।। ॐ ह्रीं श्री फागुनवदी एकादशदिनेशानमगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अयं नि । माघ वदी की चतुर्दशी को गिरि कैलाश हुआ पावन । आठों कर्म विनाशे पाया परम सिद्ध पद मन भावन । मोक्ष लक्ष्मी पाई गिरि कैलाश शिखर, निर्वाण हुआ । जय जय ऋषभदेव तीर्थकर भव्य मोक्ष कल्याण हुआ ।।५।। ॐ ही श्री माधवदी चतुर्दश्याम महामोक्षमंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अयं नि ।
जयमाला जम्बूदीप सु भरतक्षेत्र मे नगर अयोध्यापुरी विशाल । नाभिराय चौदहवे कुलकर के सुत मरुदेवी के लाल ।।१।। सोलह स्वप्न हुए माता को पन्द्रह मास रत्न बरसे । तुम आये सर्वार्थसिद्धि से माता उर मंगल सरसे ॥२॥ मति भुत अवधिज्ञान के थारी जन्मे हुए जन्म कल्याण । इन्द्रसरों ने हर्षित हो पाण्डुक शिला किया अभिषेक महान ॥३॥ राज्य अवस्था में तुमने जन जन के कष्ट मिटाए थे । असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्याषट्कर्मसिखाये थे ॥४॥ एक दिवस जब नृत्यलीन सुरि नीलांजना विलीन हुई। है पर्याय अनित्य आयु उसकी पल भर में क्षीण हुई ।।५।।
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जैन पूांजलि मैं एक शुर चैतन्य मूर्ति शाश्वत धुब शायक हू मनूप ।
निर्मलानद अधिकारी हूं अविचल मानानन्द रुप ।। तुमने वस्तु स्वरूप विचारा जागा उर वैराग्य अपार । कर चितवन भावना छादश त्यागा राज्य और परिवार ॥६॥ लौकान्तिक देवों ने आकर किया आपका जय जयकार । आश्रव हेय जानकर तुमने लिया ह्रदय मे सवर धार ॥७॥ वन सिद्धार्थ गये वट तरु नीचे वस्त्रो को त्याग दिया । ॐ नम सिद्धेभ्य कहकर मौन हुए तप ग्रहण किया ॥८॥ स्वय बुद्ध बन कर्मभूमि में प्रथम सुजिन दीक्षाधारी । ज्ञान मनपर्यय पाया घर पच महावत सुखकारी ॥९॥ धन्य हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने दान दिया । एक वर्ष पश्चात् इक्षरस से तुमने पारणा किया ॥१०॥ एक सहस्न वर्ष तप कर प्रभु शुक्ल ध्यान में हो तल्लीन । पाप पुण्य आश्रव विनाश कर हुए आत्मरस मेंलवलीन ॥११॥ चार घातिया कर्म विनाशे पाया अनुपम केवलज्ञान । दिव्य ध्वनि के द्वरा तुमने किया सकलजग का कल्याण ।।१२।। चौरासी गणधर थे प्रभु के पहले वृषभसेन गणधर । मुख्य आर्यिका श्री ब्राम्ही श्रोता मुख्य भरत नृपवर ॥१३।। भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड मे नाथ आपका हुआ विहार । धर्मचक्र का हुआ प्रवर्तन सुखी हुआ सारा ससार ॥१४॥ अष्टापद कैलाश धन्य हो गया तुम्हारा कर गुणगान ।। बने अयोगी कर्म अघातिया नाश किये पाया निर्वाण ।।१५।। आज तुम्हारे दर्शन करके मेरे मन आनन्द हुआ । जीवन सफल हुआ हे स्वामी नष्ट पाप दुख द्वन्द हुआ ।।१६।। यही प्रार्थना करता हु प्रभु उर में ज्ञान प्रकाश भरो । चारो गतियो के भव सकट का, हे जिनवर नाश करो ।।१७।। तुम सम पद पा जाऊं मैं भी यही भावना भाता हूँ। इसीलिए यह पूर्ण अर्घ चरणों मे नाथ चढ़ाता हूँ ॥१८॥
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श्री अजितनाथ जिन पूजन
२७५ सफल हुआ सम्यक्स्व पराक्रम छाया भेद ज्ञान अनुपम ।
अंतर इंदामष्ट होते ही क्षीण हो गया मिथ्याम ।। *ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय महाअयं नि. स्वाहा ।
वृषभ चिन्ह शोभित चरण ऋषभदेव उर धार ।। मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ।।
___ इत्याशीवाद जाप्यमत्र- ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय नम
श्री अजितनाथ जिन पूजन द्वितीय तीर्थकर जिनस्वामी अजितनाथ प्रभु को वन्दन । भाव द्रव्य सयममय मुनि बन किया आत्म का आराधन।। पच महाव्रत धारण करके निज स्वरुप मे लीन हुए । कर्म नाशकर वीतराग प्रभु स्वय सिद्ध स्वाधीन हुए।। ॐ ही श्री अजितनाथ जिनेंद्र अत्र अवतर अवतर, ॐ ही श्री अजितनाथ जिनेंद्र , अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ४,ॐ ही श्री अजितनाथ जिनेंद्र अत्रमम् सन्निहितो भव भव वषट् । परम पवित्र पुनीत शुद्ध भावना नीर उर मे लाऊँ। मैं मिथ्यात्व शल्य क्षय करके अजर अमर पद कोपाऊँ । अजितनाथ के चरणाम्बुज पर मैं न्योछावर हो जाऊँ। विषय कषाय रहित होकर मैं महामोक्ष पदवी पाऊँ ॥१॥
ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेंद्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । निर्मल शीतल भावपूर्ण शुचिमय चन्दन उर मे लाऊँ । माया शल्य नाश करके प्रभुभव आतप पर जय पाऊँ । अजित ॥३॥ ॐ ही श्री अजितनाथ जिनेंद्राय ससारताप विनाशनाय बदनं नि । धवल शुद्ध पावन स्वरूप निज भावों के अक्षत लाऊँ। शीघ्र निदान शल्य को हरकर निज अक्षय पद कोपाऊँ ||अजित ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेंद्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि. । आत्म ज्ञान के समयसार मय भाव पुष्प निज में लाऊँ। वीतराग सम्यक्त्व प्राप्त कर कामभावक्ष्य कर पाऊँ।अजित ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री अजितनाथ जिनेंद्राय कामवाण विश्वसनाय पुष्पं नि ।
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जैन पूजांजलि निज स्वभाव की महिमा भाए बिना जीव प्रमता जाता है।
पंच परावर्तन के द्वारा ही भवसमुद्र के दुख पाता है ।। समता के परिपूर्ण सहज नैवेद्य भाव उर में लाऊँ। भव भोगों की आकांक्षा हर क्षुधाव्याधि पर जयपाऊँ अजित ।।५।। ॐ ही श्री अजितनाथ जिनेंद्राय क्षुधारोग विनाशनाय नवेच नि । जगमग जगमग ज्ञान ज्योति पय भाव दीप उर में लाऊँ। निज कैवल्य प्रकाशित कर जग अधकार को हर पाऊँ ।अजित ।।६॥ *ही श्री अजितनाथ जिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि । शुद्धातम परिमल सुगंधमय भाव धूप उर में लाऊँ। बनू ध्यानपति निज स्वभाव से अष्टकर्म हर सुख पाऊँ। अजित ।।७।। ॐ ह्री श्री अजितनाथ जिनेंद्राय अष्टकर्म विध्वंसनाय धूपं नि । राग देष से रहित वीतरागी भावों के फल लाऊँ। निज चैतन्य सिद्ध पद पाकर परममुक्ति शिवमय पाऊँ।अजित ।।७।। ॐ ही श्री अजितनाथ जिनेंद्राय महामोक्षफल प्राप्तये फल नि । अष्ट अग सह रहित दोष पच्चीस ह्रदय समक्ति लाऊँ। सहज विशुद्ध अर्घ्य भावों का ले अनर्घ्य पद प्रगटाऊँ । अजित ॥८॥ ॐ ह्री श्री अजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्धपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक विजय विमान त्याग माता विजया देवी उर धन्य किया । कृष्ण अमावस ज्येष्ठ मास, साकेतपुरी ने नत्य किया।। देव देवियों ने रत्नो की वर्षा कर आनन्द लिया । अजितनाथ तीर्थंकर प्रभु को भाव भक्ति से नमनकिया ।।१।। ॐ हीं ज्येष्ठकृष्णअमावस्या श्री अजितनाथजिनेन्द्राय गर्भमंगलमण्डिताय अयं । माघ शुक्ल दशमी को स्वामी नगर अयोध्या जन्मलिया । नृप जितशत्रु हर्ष से पुलकित देवों ने आनन्द किया ।। देव क्षीरसागर जल लाये इन्द्रों ने अभिषेक किया । मात पिता को सौंप इन्द्र ने अजितनाथ प्रभु नाम दिया ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री माघशुक्लदशम्यां श्री अजितनाथ जिनेन्द्रामजन्ममंगलपाप्ताय अन्य।
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श्री मतिना जिव पूल
निय स्वोपली होते ही असा मयत्व सब बाप ।। माघशुक्ल दशमी को प्रभु तपधारण का किया विचार। लोकान्तिक सहर्षिसुरों ने किया आपका जय जयकार । वन में जाकर तरु सप्तच्छद नीचे जिन शायरी । जय जब अजितनाथ देवों ने तप कल्याण विल्या पारी ॥३॥
ही माघशुक्सदरम्यो श्री अजितनापजिनेनाव तपोमंगलमण्डिताय अन्य। मौन तपस्वी बारह वर्ष रहे दयाथ अजित भगवान । प्रतिमायोग धार कुछदिनमें घ्याया शुक्लध्यानमयभ्यान।। ब्रेसठ कर्म प्रकृतियां नाशी तुमने पाया केवलज्ञान । पौष शुक्ल एकादशी को दिया मुक्ति संदेश महान I४|| ॐ ही पौषशुक्लएकादश्यां श्री अजितनाथजिनेन्द्राय केवलज्ञान प्राप्ताय अध्य। अ,इ,उ.प्र.ल, उच्चारण मे लगता है जितना काल । उतने में ही कर्म प्रकृतिपिच्चासी का कर क्षय तत्काल । कूट सिद्धवर शिखर शैल से चैत्र शुक्ल पंचमी स्वकाल । अजितनाथ ने मोक्ष प्राप्त कर सम्मेदाचलकियानिहाल ।।५।। ॐ ही बैठशुक्लपचम्या श्री अजितनाथजिनेन्द्राय मोक्षमगल प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला • जयजय अजितनाथ अद्भुतनिधि, अजर अमर अतिसत्यंकर।
अमल अचल अतिकान्तिमान, अप्रेयात्मा अभयंकर ॥१॥ दीक्षधर सर्वज्ञ हए प्रभु जन जन का कल्याण किया । रत्नत्रयमय पोक्षमार्ग का ही उपदेश महान दिया ॥२॥ नब्बे गणधर थे जिनमें थे कसरिसेन पुख्य गणधर । प्रमुख आर्यिका श्री "प्रकुना समवशरण सुन्दरसुखकर ॥३॥ बंध मार्ग केजी कारण है उन सबको प्रभु बतलाया। 'निज स्वभाव का आश्रय लेकर सिद्ध स्वपद को प्रगटाया ॥ मिथ्यातम अविरति प्रमाद कपाय योग बंध के हेतु। भव समुद्र से पार उतरने को है रत्नत्रय का सेतु ।।५।।
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जैन पूजांजलि जो विकल्प है आश्रय युत है निर्विकल्प ही आश्रय हीन ।
जो स्वरूप में थिर रहता है वही ज्ञान है ज्ञान प्रवीण 1 1 एकान्त विनय विपरीत और सशय अज्ञान भरा उर में । यह गृहीत अरु अगृहीत पाचों मिथ्यात्व भाव उर में || इनके नाश बिना सम्यकदर्शन हो सकता कभी नहीं । मोक्ष मार्ग प्रारम्भ, बिना, समकित के होता कभी नहीं ॥७॥ पृथ्वी वायु वनस्पति जल अरु अग्नि काय की दया नहीं । यस की हिंसा सदा हुई षटकायक रक्षा हुई नहीं ॥८॥ स्पर्शन रसना धान चक्षकर्णन्द्रिय वश में हुई नहीं । पचेन्द्रिय के वशीभूत हो मन को वश मे किया नहीं 18॥ पचेन्द्रिय अरु क्रोधमान माया लोभादिक चार कषाय । भोजन, राज्य, चोर, स्त्री की कथा, चार विकथा दुखदाय ॥१०॥ निद्रा नेह मिलाकर पद्रह होते आगे अस्सी भेद । हैं सैतीस हजार पाँच सौ इस प्रमाद के पूरे भेद ।।११।। क्रोधमान माया लोभादिक चार कषाय भेद सोलह । नो कषाय मिल भेद हुए पच्चीस बध के ही उपग्रह ।।१२।। इनके नाश बिना प्रभु चेतन इस भव वन मे अटका है। विषय कषाय प्रमादलीन हो चारो गति मे भटका है ॥१३॥ मन वच काया तीनयोग ये कर्मबध के कारण हैं । पद्रह भेद ज्ञान करलो जो भव भव मे दलदारुण हैं ॥१४॥ मनोयोग के चार भेद हैं वचनयोग के भी है चार । काय योग के सात भेद है ये सब योग बन्ध के बर।।१५।। सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, ये मनोयोग के चारो भेद । सत्य, असत्य, उभय, अनुभय, ये मनोयोग के चारों भेद ।।१६।। काय योग के सात भेद हैं औदारिक, औदारिकमिश्र । वैक्रियक, वैक्रियकमिश्र है, आहारक आहारकमिश्र ॥१७॥ कार्माण है भेद सातवाँ जो जन करते इनका नाश । अष्टम वसुधा, सिद्ध स्वपद वे पाते हैं, अविचल अविनाश IR८
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श्री सम्भवनाथ जिन पूजन शुदभाव ही मोक्ष मार्ग है इससे चलित नहीं होना ।
खलित हुए तो मुक्ति न होगी होगा कर्मचार होना ।। कर्मबध के ये सब कारण इनको करूं शीघ्र विध्वेस । परम मोक्ष की प्राप्ति करूँ शाश्वत सुख पाए चेतन हस ।१९।। विनय भाव से भक्ति पूर्वक मैंने प्रभु की की है पूजन । जब तक शुद्ध स्वरूप न पाऊँ रहें आपकी चरणशरण ।२०।। ॐही श्री अजितनाथ जिनेंद्राय पूर्णाय नि. स्वाहा ।
गजलक्षण युत अजित पद भाव सहित उरधार । मनवचतन जो पूजते वे होते भव पार ॥२१॥
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ हीं श्री अजितनाथ जिनेंद्राय नम
श्री सम्भवनाथ जिन पूजन वर्तमान हुडावसर्पिणी कर्मभूमि शुभ चौथा काल । हतिय तीर्थकर श्री सभवनाथ सुसेना मां के लाल।। मगधदेश श्रावस्ती नगरी के राजा जितारिनन्दन । मति श्रुत अवधि ज्ञान के धारी जन्मे स्वामी सभवजिन ॥ निज पुरुषार्थ स्वबल के द्वारा तुमने पाया केवलज्ञान । चारघातिया की सैतालीस प्रकृतियो का करके अवसान ।। चऊँ अघाति की सोलह कर प्रकृति नाशी अरहन्त हुए ।
सठ कर्म प्रकृतियाँ छयकर वीतराग भगवन्त हुए।। ॐही श्री सभवनाथजिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सौषट, श्री समवनाधजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, श्री सभवनाथजिनेन्द्र अव मम् सनिहितो भक-भव वषट् । स्वानुभूति वैभव का निर्मल सलिल सातिशय जल भरलूँ । निज स्वभाव की निर्मलता से मैं शुद्धत्व प्राप्त करतूं ॥ संभव जिनका संभवतः निज अन्तर में दर्शन करलें । तो भव भय हर कर हे स्वामी मुक्ति लक्ष्मी को वरलूँ ॥ ॐ हौं भी संभवनायजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं नि । स्वानुभूति वैभव का शीतल चंदन मैं चर्चित करा । निज स्वभाव की शीतलता से मैं सिद्धत्व प्राप्त करनू सिंभव.।।।।
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जैन पूजाँजलि भव पथ को हरने वाला सम्यक्दर्शन अति पावन ।
शिद सुख को करने वाला सम्यक्तर परम मन भावन ।। ॐ ह्रीं श्री संभवनायजिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चंदन नि । स्वानुभूति वैधव के उत्तम उम्ज्वल अक्षत वित घरा। निज स्वभाव की उज्ज्वलता से मैं आत्मत्वप्राप्त करलें संभव.।।३।। ॐ ह्री श्री संभवनायजिनेन्द्रायअक्षयपद प्राप्ताये अक्षत नि. । स्वानुभूति वैभव के कोमल नव प्रसून उर मे भरा । निज स्वभाव की मृदुसुवाससेनिज शीलत्व प्राप्तकरा संभव.।।४।।
ॐ ही श्री सभवनाथजिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि. । स्वानुभूति वैभव के पावन चरु पवित्र निज मे धरलूँ । निज स्वभाव की शुद्धवृत्ति से पर प्रवृत्तिका क्षयकरलूँ सभव ।।५।। कहीं श्री सभवनाथजिनेन्द्राय भुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । स्वानुभूति वैभव प्रकाश से अन्तर ज्योतिर्मय कर लूँ । निजस्वभाव के ज्ञानदीप से मैं अज्ञान तिमिर हर लें ॥सभव ॥६॥ ॐ ही श्री संभवनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि । स्वानुभूति वैभव की शुचिमय ध्यान धूप उर में घरलूँ निजस्वभाव के पूर्ण ध्यान से अष्टकर्म रिपु को हरा संभव ।।७।। ॐ ही श्री सभवनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म विनाशनाय धूप नि । स्वानुभूति वैभव के पावन शिवफल अन्तर मे भर लें । निज स्वभाव अवलबन द्वारा में मोक्षत्व प्राप्त करलँ । सभव ॥८॥
ॐ ह्री श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय महामोक्षफल प्राप्तये फल नि स्वाहा । स्वानुभूति वैभवमय दर्शन ज्ञान चरित्र हृदय घर ले । चित्स्वभावमय समयसारवैभव का स्वत्व प्राप्त कर सभव.।।९।। ॐ ही श्री सभवनाथजिनेन्द्राय अनर्ध पद प्राप्तये अयं नि ।
श्रीपंचकल्याणक नव बारह योजन की नगरी रचकर धनपति मग्न हुआ। गर्भ पूर्व छह मास रत्न बरसा कर इन्द्र प्रसन्न हुआ।
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श्री सम्भवनाथ जिन पूजन "अप्पा से परमप्पा" जिनके उर में पाव समाथा ।
पर पदार्थ से निमिष मात्र में उसने राग हटाया ।। अवेयक से आये मात सुसेना का उर धन्य हुआ । फागुन शुक्ल अष्टमी को संभव प्रभु का शुभ स्वप्न हुआ ।।१।। *ही फागुन शुक्ल अष्टम्यो गर्भ कल्याण प्रापतये श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय अयं नि. कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन श्रावस्ती मे जन्म हुआ । नप जितारि मन में हर्षाये तिहुँ जग में आनन्द हुआ । मेंरु सुदर्शन पांडुकवन में संभव प्रभु का नव्हन हुआ । एक सहस्त्र अष्ट कलशों में क्षीरोदधि आगमन हुआ।।२।। ॐ ही कार्तिक शुक्ल पूर्णिमाया जन्मकल्याण प्राप्तये श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय आय नि। मगसिर शुक्ल पूर्णिमा को ही जब उर मे वैराग्य हुआ । राज्य सम्पदा को ठुकराया वस्त्राभूषण त्याग हुआ।। सभव प्रभु को लौकान्तिक देवों का शत शत नमन हुआ । गये सहेतुक वन पे हर्षित पंच महावत ग्रहण हुआ ॥३॥ ॐ हीं मगसिरशुक्ल पूर्णिमायो सपोमंगलप्राप्ताय श्री संभवनाथजिनेन्द्राय अयं नि । कार्तिक कृष्ण चतुर्थी तक प्रभु चौदह वर्ष रहे छदमस्थ । केवलज्ञान लक्ष्मी पाई चार धानिया करके ध्वस्त।। समवशरण मे जग जीवों के अन्धकार का नाश हुआ । संभव जिनकी दिव्य प्रभा से सम्यज्ञान प्रकाश हुआ ।।४।। ॐहीं कार्तिक कृष्ण चतुथदिने ज्ञानकल्याणप्राप्ताय श्री संभवनाथ जिनेन्द्राय अन्य नि। अवलदत्त शुभ कूट शिखरजी अन्तिमशुक्ल स्वघ्यान किया । • संभवजिन ने हो अयोगकेवली परम निर्वाण लिया ।
शेष अपाति कर्म सब क्षय कर पदसिद्धत्व महान लिया । जय जय संभवनाथ सरों ने मंगल मोक्षकल्याण किया ।
रामलक्ष्टीदिने मोक्षकल्याणप्राप्ताय संभवनायजिनेंद्राय अन्य नि.
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जैन पूजांजलि अंतर्मन निग्रथ नहीं तो फिर सच्चा निराध नहीं । बाहा क्रिया काडों से होता इस भव दुख का अंत नहीं ।।।
जयमाला सर्व लोक जित सर्व दोषहर सदानद सागर सर्वेश । संभवनाथसुधी सवरमय स्वय बुद्ध सौभागी स्वेश ॥१॥ इक्ष्वाकुकुल भूषण स्वामी न्यायवान अति परम उदार । अश्व चिन्ह चरणों मे शोभित स्वों से आता शुगार ॥२॥ भव तन भोग भोगते स्वामी पूरी यौवन वय बीती । एक दिवस नभ मे देखी छाया बदली की छवि रीती ॥३॥ मेघ विनाश देखकर उरमे नश्वरता का भान हुआ । राज्य, पाट, पुर, वैभव त्यागा वन की ओर प्रयाणहुआ ॥४॥ एक सहस्त्र नृपो के सग मे तुमने जिन दीक्षाधारी ।। पच मुष्टि कच लोच किया प्रभु लिए महावत सुखकारी ।।५।। नृप सुरेन्द्र गृह किया पारणा पचाश्चर्य हुए तत्क्षण । मौन तपस्या वर्ष चतुर्दश मे जा पूर्ण हुई भगवन ।।६।। समवशरण मे द्वादश सभाभरी जग का कल्याण किया । सकल जगत ने देव आपका उपदेशामृत पान किया ।।७।। शक्ति रूप से सभी जीव है ज्ञान स्वभावी सिद्ध समान । व्यक्त रूप से जो हो जाता वही कहाता सिद्ध महान ८॥ जो निजात्म को ध्याता आया वह बन जाता है भगवान । जो विभाव मे रत रहता है वह दुखिया ससारी प्राण ॥९॥ पुण्य पाप दोनो विभाव हैं इनको जानो ज्ञाता बन । पुण्य पाप के खेल जगत में दखै केवल दष्टा बन IR०|| इनमे राग द्वेष मत करना समता भाव हृदय धरना । मोह ममत्व नाश कर प्राणी अघमिथ्यात्व तिमिर हरना ।।११॥ यह उपदेश हृदय मे धारूँ निज अनुभव महिमा आये । अनुभव की हरियाली सावन भादों सी उर में छाये ।।१२।।
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श्री अभिनन्दननाथ जिन पूजन देवालय में देव नहीं है मनमंदिर में देव।
अतमुखका दख स्वयं तु महादेव स्वयमेव है ।। पाँचों इन्द्रिय वश में करके चार कषायें मंद करु।' मन कपि की चंचलता रोकूँ उर में निज आनंद भर १३॥ सम्यक दर्शन को धारण कर ग्यारह प्रतिमाएँ थारु। क्रमक्रम से इनका पालन कर श्रेष्ठ महावत स्वीकारूँ ॥१४॥ इस प्रकार प्रभु पथपर चलकर निज स्वरुप पाजाऊँगा । निज स्वभाव के अनुभव से ही महामोक्ष पद पाऊँगा ॥१५॥ ॐही श्री समवनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाऱ्या नि ।
संभव प्रभ के पद कमलभाव सहित उर धार। मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-श्री सभवनाथ जिनेन्द्राय नमः ।
श्री अभिनन्दननाथ जिन पूजन अभिनन्दन अभ्यध्न अयोगी अविनश्वर अध्यात्म स्वरूप । अमित ज्योति अभ्यर्च आत्मन् अविकारी अतिशुद्ध अनूप ।। रत्नत्रय की नौका पर चढ़ आप हुए भवसागर पार । सकल कर्म मल रहित आप की गंज रही है जयकार ॥ ॐ ही श्री अभिनन्दनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर संघौषट, * ही श्री अभिनन्दननाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ ठ, *ही श्री अभिनन्दनाथ जिनेन्द्र अनमम सन्निहितो भव भव वषट् । क्षीरोदधि का धवल दुग्धसम अति निर्मल जल मलहारी । जन्म जरा मृतरोग नशाक पाऊ शिवपद अविकारी ॥ हे अभिनन्दननाथ जगत्पति भव भय भजन दुखहारी । जन मन रजन नित्य निरजन जगदानन्दन सुखकारी ॥॥ *ही श्री अभिनन्दनायजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि । मलयागिर कर बावन चन्दन लाऊँ शीतलताकारी । भव भव का आताप मिटाऊपाशिवपद अविकारी हे अमि. ॥२॥ ॐ हीं की अभिवन्दनाय जिनेन्द्राय संसार साप विनाशकाय चन्दन मि.
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और पूजांजलि आत्मिक रच ही तो अनत सुख की पावन सायना ।
परम शुद्ध चैतन्य बहा की सहज जगाठी भावना ।। उत्तम पुज अखण्डित तदुल लाऊँ उज्ववलता पाते । भवसागर से पार उतर कर पाऊँ शिवपद अतिकारी अधि ॥३॥ ॐ ही श्री अभिनन्दननाथजिनदाय अक्षयपद प्राप्ताय मतं R | परम पारिणामिक भावों के सहज पुष्प प्रभु भवहाले । शीलस्वगुण से कामभाव हर पाऊँशिवपद अधिकारी हे अधि. Iml
ही श्री अभिनंदननायजिनेंदाय कामवाण विध्वसनाय पुष्पं नि. परद्रव्यो की भूख न मिट पाई है सुधारोग धारी । पच महावत के चरुलाऊपाऊँशिवपद अविकारी हे अभि ।।५।। ॐ ही श्री अभिननदननाथजिनेंद्राय सुधारोग विनाशनाय नवे नि । मिथ्याभ्रम के कारण अब तक छाई भीषण अंधियारी । स्वपर प्रकाशक ज्योति प्रकाश पाऊँशिवपद अविकारी हे अभि ॥६॥ *ही श्री अभिनदननाथ जिनेद्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि । अष्टकर्म बधन मे पडा चहुँ गति में पाया दुखभारी । ध्यान धूप से कर्म जलाऊँ पाऊँ शिवपद अविकारी हे अभि ॥७॥ ॐ ह्री श्री अभिनदननाथ जिनेंद्राय अष्ट कर्म विष्वसनाय धूपं नि । निजपरिणति रसपान करूँप्रभु पर परिणति तजभयकारी । परममोक्ष फलसिद्ध स्वगति ले पाऊँ शिवपद अविकारी हे अभि ।।८।। ॐ ह्रीं श्री अभिनदननाथजिनेद्राय महामोक्ष फल प्राप्तय फलं नि । सम्यकदर्शन ज्ञानचरितमय बन रत्नत्रय गुणधारी । निज अनर्घ पदवी को धारूँपाऊँ शिवपद अविकारी हे अभि ॥९॥ ॐ ही श्री अभिनदननाथ जिनेन्द्राय अनर्ष पद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक शुभ बैशाख शुक्लषष्ठी को विजय विमान स्यागआये । धन्य हुई माता सिद्धार्था रत्नसुरों ने बरसाये ॥ छप्पन दिककुमारियों ने माँ की सेवा कर सुखपाए। हे अभिनन्दन स्वामी जय जय देवों ने मंगलगाए ।
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अलमाल की गहराई में माकर निज दर्शन पाओं ।। ही मीसाखतष्ठीदिने मी अभिनन्दनाय जिनेन्द्राय गर्भमंगल प्राप्तान
माघ शुक्ल दश को स्वामी नगर अयोध्या जन्म हुआ। नपति स्वयंवर के प्रांगण में हर्ष हुआ आनन्द हुआ।। एक सहल अष्ट कलशों से गिरि सुमेरु अभिषेक हुआ। हे अभिनन्दन पांडुकवन मे इन्द्रशचीसुर नृत्य हुआ ।।२।। ॐ ह्रीं माषशुक्ल द्वादरया जन्म मगल प्राप्ताय श्रीअभिनंदननाथ जिनेंद्राय अयं नि । नश्वर मेघों का परिवर्तन लखकर प्रभु वैराग्य हुआ । अग्रोद्यान सरस तरु नीचे वस्त्राभूषण त्याग हुआ । माघ शुक्ल द्वादश लौकातिक देवों का जयनाद हुआ । हे अभिनन्दन पंचमहाव्रत धारे दूर प्रमाद हुआ ॥३॥ ॐ हीं माघशुक्लद्वादश्या तपोमगलम प्राप्ताय श्री अभिनंदननाथजिनेन्द्राय अयं नि । पौष शुक्ल चतुदर्शी को निर्मल केवलज्ञान हुआ । समवशरण की रचनाकर धनपति को अतिबहमान हुआ । द्वादश सभा बीच दिव्यध्वनि खिरी दिव्य उपदेश हुआ । हे अभिनन्दन भव्यजनों को प्राप्त मुक्ति सदेश हुआ I४ ॐ हीं पौषशुक्ल चतुर्दश्या केवलज्ञानप्राप्ताय अभिनदननाधजिनेंद्राय अयं नि । प्रतिमायोग किया जब धारण पावन गिरिसम्मेद हुआ । शुभ बैशाख शुक्ल षष्टम आनन्दकूट से मोक्ष हुआ ।। चार प्रकार देव सब आये हर्षित इन्द्र महान हुआ । हे अभिनन्दननाथ जिनेश्वर परम मोक्ष कल्याण हुआ ॥५॥ ॐ ही बैशाख शुक्ल पट्या मोक्षमंगल प्राप्ताय अभिनंदननायजिनेन्द्राय अन्य नि.
जयमाला । कर्म भूमि के चौथे तीर्थकर जिनपति अभिनन्दन नाथ । देव आपकी पूजन करके मैं अनाथ भी हुआ सनाथ
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जैन पूजांजलि ज्ञानदीप की शिखा प्रज्ज्वलित होते ही प्रम दूर हुआ ।
सम्यक दर्शन की महिमा से गिरि मिथ्यातम चूर हुमा ।। हुए एक सौ तीन सुगणधर पहिले वज्रनाभि गणधर । मुख्य आर्यिका श्री मेरुषेणा, श्रोता थे सुर मुनिवर ।।२।। नाथ कर्म सिद्धान्त आपका है अकाट्य अनुपम आगम । कर्म शुभाशुभ भव निर्माता कर्ता भोक्ता जीव स्वयम् ॥३॥ प्रकृति कर्म की मूल आठ हैं सभी अचेतन जड़ पुद्गल । इनमे सयोगी भावो से होता आया जीव विकल ।।४।। यदि पुरुषार्थ करे यह चेतन निज स्वरूप का लक्ष करे ।। ज्ञाता दृष्टा बनकर इनका सर्वनाश प्रत्यक्ष करे ॥५॥ प्रकृति द्रव्य पुण्यों की अडसठ द्रव्य पाप की एक शतक । प्रकृति एक सौ अडतालीस कर्म की बीस उभय सूचक ॥६॥ कर्म घाति की सैंतालिस हैं एक शतक इक अघाति की । ये सब है कार्माण वर्गणा महामोक्ष के घातकी ॥७॥ ज्ञानावरणी की पाँच प्रकृति हैं दर्शनआवरणी की नो । मोहनीय की अट्ठाइस हैं अन्तराय की पाँच गिनों ॥८॥ घाति कर्म की ये सैंतालिस निज स्वभाव का घात करे । इन चारो का नाश करे जो वही ज्ञान कैवल्य वरें ।।९।। वेदनीय दो, आयु चार हैं, गोत्र कर्म की तो हैं दो । नामकर्म की तिरानवे हैं एक शतक अरु एक गिनों ।।१०।। इनमे से सोलह अघाति की घाति कर्म सग जाती है। शेष रही पच्चासी पर वे अति निर्बल हो जाती है ।।११।। इनका होता नाश चतुर्दश गुणस्थान में है सम्पूर्ण । शुद्ध सिद्ध पर्याय प्रकट हो सादि अनन्त सुखों से पूर्ण ॥१२॥ मुझको प्रभु आशीर्वाद दो मैं अब भव का नाश करूँ। सम्यक पूजन का फल पाऊ कर्मनाश शिव वास करूँ ॥१३॥ कर्म प्रकृतियाँ एक शतक अरु अड़तालीस अभाव करें। मैं लोकाग्र शिखर पर जाकर सिद्ध स्वरुप स्वभाव करूँ In४||
Hitit 1!
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श्री सुमतिनाथ जिनपूजन
१८७ अब प्रभु चरण कोड कित जाऊ ।
ऐसी निर्मल बुद्धि प्रभो दो शुखातम को ध्याऊ ।। नाथ आपकी पूजन करके मुझको अति आनन्द हुआ । जन्म जन्म के पातक नाशे दूर शोक दुख बंद हुआ R५॥ ॐ ह्रीं श्री अभिनंदन जिनेद्राय अनर्षपद प्राप्ताय पूर्णाय नि
कपि लक्षण प्रमु पद निरख अभिनन्दन चित् धार । मन वच तन जो पूजते हो जाते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ह्रीं श्री अभिनदन जिनेंद्राय नमः
श्री सुमतिनाथ जिनपूजन जय जय सुमतिनाथ पचय तीर्थकर प्रभु मगलदाता । कुमतिविनाशक समतिप्रकाशक परमशात जगविख्यात ।। सहज स्वरूपी सर्वशरण सर्वार्थ सिद्ध सकट हर्ता । सत्य तीर्थंकर सर्वगुणाश्रित सूर्य कोटि प्रभु सुख कर्ता ।। मैं अनादि से दुखिया व्याकुल शरण आपकी आया हूँ । सत्य मार्ग सत्यार्थ प्राप्ति हित भाव सुमन प्रभु लाया हूँ।। ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेंद्र अत्र अवतर अवतरसवौषट्, ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेंद्र अत्रतिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ह्रीं श्री सुमतिनाथ जिनेंद्र अत्रमा सनिहितों भव भव वषट्। जल की निर्मलता नाथ मुझको भाई है। शुद्धातम को महिमा नहीं कर पाई है ।। हे सुमतिनाथ जिनदेव सुमति प्रदान करो । ससार भ्रमण का मूल भ्रम अज्ञान हरो ॥१॥ ॐ ह्री श्री सुमतिनाथ जिनेंद्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं नि चदन की शीतलता सदा ही भाई है। शुद्धातम की महिमा नहीं कर पाई है । हे सुमति. ॥२॥ ॐ ही श्री सुमतिनाथ जिनेंद्राय संसारताप विनाशनाय चंदन नि । तंदुल की उज्ज्वलता हृदय को भाई है। शुद्धातम की महिमा नहीं कर पाई है ।हे सुमति. ॥३॥
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जैन पूजांजलि द्रव्य पर अणुमात्र भी तेरा नहीं इसलिए पर द्रव्य से मस राग कर । द्रव्य तेरा शुद्ध चेतन आत्म है इसलिए निज आत्म से अनुराम राग कर ।। ॐ ही श्री सुमतिनाथ जिनेंद्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षतं नि. ।। पुष्पों की सरस सुवास मन को भायी है। शुद्धातप की महिमा नहीं कर पाई है। हे सुमति. ॥४॥ ॐहीं श्री सुमतिनाथ जिनेंद्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि । नित खाकर भी नैवेद्य दृप्ति न पाई है। शुद्धातम की महिमा नहीं कर पाई है । हे सुमति ॥५॥ ॐ ही श्री सुमतिनाथ जिनेंद्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । रत्नो की दीपक ज्योति तो दिखलाई है। शुद्धातम की महिमा नहीं कर पाई है । हे सुमति ॥६॥ ॐ ही श्री सुमतिनाथ जिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । पन महा सुगन्धित धूप सुरभि सुहाई है। शुद्धातम की महिमा नहीं कर पाई है । हे सुमति ॥७॥ ॐ ह्री श्री सुमतिनाथ जिनेंद्राय अष्टकर्म विध्वंसनाय धूप नि । अनुकूल पुण्य फल राग की रुचि भाई है। शुद्धातम की महिमा नहीं कर पाई है । हे सुमति. ।।८।। ॐ ह्री श्री सुमतिनाथ जिनेद्राय महामोक्ष फल प्राप्ताये फल नि ।। जग के द्रव्यो को चाह, नित ही भायी है। शुद्धातम की महिमा नहीं कर पाई है । ।हे सुपति ॥९॥ ॐ ह्री श्री सुमतिनाथ जिनेंद्राय अनर्थ पद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक स्वर्ग जयन्त विमान त्यागकर मात पगला उर आए। नगर अयोध्या धन्य हो गया रत्न सुरों ने बरसाए ।। सोलह स्वप्न लखे माता ने श्रावण शुक्ल दूज भाए । जय जय सुमतिनाथ तीर्थकर इन्द्रादिक सुर मुस्काए ॥९॥ ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ल द्वितीया गर्भ कल्याण प्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेंद्राय अयं नि।
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श्री सुमतिनाव लिनपूजन सीना राय को दुखमय समक्षा मंदस को सुखमय जाला । ......पाप पुण्य दोनों बंधन बोवराम का कमान ने माना ।। चैत्र शुक्ल एकादशी को प्रभु भारत भू पर आए । नृपति मेघ के आंगन में देवी ने मंगल माए ।। ऐरावत पर सुरपति तुमको गोदी में ले हाए । जय जय सुमतिनाथ जन्मोत्सव पर जग ने बहुसुख पाए।।२।। ॐ हीं चैत्रशुक्लएकादश्या जन्मकल्याण प्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेंद्राय अयं नि. शुभ बैशाख शुक्ल नवमी को जगा हृदय वैराग्य महान । लौकातिक ब्रम्हर्षि सुरो ने किया स्वर्ग से आ गुणगान ।। दीक्षित हुए सहेतुक वन मे तरु प्रियंगु के नीचे आन । जय जय सुमतिनाथ तीर्थकर हुआ आपका तप कल्याण ॥३॥ ॐ ही बैशाखशुक्लनवम्या तपकल्याण प्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेंद्राय अयं नि । बीसवर्ष छदमस्थ रहे प्रभु धारा प्रतिमा योग प्रधान । चैत सुदी ग्यारस को पाया शुक्ल ध्यान घर केवलज्ञान | समवशरण की अनुपम रचना हुई हुआ उपदेश महान । जय जय समतिनाथ तीर्थकर अद्भुत हुआ ज्ञानकल्याण ।।४।। ॐ ह्री चैत्रसुदीएकादश्या ज्ञान कल्याण प्राप्ताय श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । चैत्र शुक्ल एकादशी को अष्ट कर्म का कर अवसान । अविचल कूट शिखर सम्मेदाचल से पाया पद निर्वाण ॥ मुक्ति धरा तक गूज उठे देवो के सुन्दर मजुल गान । जय जय सुपतिनाथ परमेश्वर अनुपम हुआ मोक्षकल्याण ।।५।। ॐ ही चैत्रशुक्लएकादश्या मोक्ष कल्याण प्राप्ताय श्री सुमतिनायजिनेंद्राय अयं नि।
जयमाला सुमतिनाथ प्रभु मुझे सुमति दो उर में निर्मल भाव जगे। धर्म भाव से ही मेरी नैया भव सागर पार लगे ॥१॥
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जैन पूजांजलि निज में निज पुरुषार्थ कर तो भव बंधन सब कट जायेंगे ।
निज स्वभाव में लीन रहूँ तो कमों के दुख मिट जायेगे । । एक शतक सोलह गणधर थे मुख्य वज्र गणधर स्वामी । प्रमुख आर्यिका अनंतमति थी द्वादश सभा विश्वनामी ॥२॥ अहिंसादि पाँचो व्रत की पच्चीस भावनाए भाऊँ। पच पाप के पूर्ण त्याग की पाँच भावनाऐ ध्याऊँ ॥३॥ ध्याऊ मैत्री आदि चार, प्रशमादि भावना चार प्रवीण । शल्य त्याग की तीन भावना, भवतनभोग त्याग की तीन ।।४।। दर्शन विशद्धि भावना सोलह अतर मन से मैं ध्याऊँ। क्षमा आदि दशलक्षण की दश धर्म भावनाएं पाऊँ ।।५।। अनशन आदि तपो की बारह दिव्य भावनाए ध्याऊँ। अनित्य अशरण आदि भावना द्वादश नित ही में भाऊँ ॥६॥ ध्यान भावना सोलह ध्याऊँतत्त्व भावना भाऊँसात । रत्नत्रय की तीन भावना अनेकात की एक विख्यात ॥७॥ श्रुत भावना एक नित ध्याऊँ अरु शुद्धात्म भावना एक । कब निर्ग्रन्थ बनू यह भाऊँ द्रव्य आदि भावना अनेक ॥८॥ एक शतक पच्चीस भावनाएं मैं नित प्रति प्रभु भाऊँ । मनवचकाय त्रियोग सवारूँ शुद्ध भावना प्रगटाऊँ ॥९॥ इस प्रकार हो मोक्षमार्ग मेरा प्रशस्त निज ध्यान करूँ।। देव आपकी भाति धार सयम निज का कल्याण करूँ ॥१०॥ चार औदयिक औपशमिक क्षायोपशमिक क्षायिक परभाव । इन चारो के आश्रय से ही होती है अशुद्ध पर्याय ॥११॥ इन चारो से रहित जीव का एक पारिणामिक निजभाव । पचमभाव आश्रय से ही होती प्रकट सिद्ध पर्याय ।।१२।। पच महावत पच समिति प्रयगुप्ति व्रयोदश विधिचारित्र । अष्टकर्म विषवृक्ष मूल को नष्ट करूँ घर ध्यान पवित्र ॥१३॥ पचाचारयुक्त, परके प्रपच से रहित ध्यान ध्याऊँ। निरुपराग निदोषनिरजन निज परमात्म तत्त्व पाऊँ ॥१४॥
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श्री साप जिनयूजन मोक्ष मार्ग पर चले निरंतर जग में समाप्रमण वही है ।
ज्ञानवान है ध्यानवान है निज स्वस्म अतिक्रमण नहीं है ।। पचम परम परिणामिक से पंचमगति शिवमय पाऊँ। , द्रव्य कर्म अरु भाव कर्म से हो विमुक्त निजगुण गाऊँ ५॥ सुमतिनाथ पंचम तीर्थकर के पद पंकज नित ध्याऊँ। पंच परावर्तन अभावकर सुखमय सिद्ध स्वगति पाऊँ ।२६॥ ही श्री सुमतिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाय नि ।
चकवा शोभित प्रभु चरण सुमतिनाथ उर धार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ।।
इत्याशीर्वादः
जाप्यमत्र" ॐ ह्री श्री सुपतिनाथ जिनेन्द्राय नमः
श्री पद्मप्रभ जिनपूजन जय जय पद्य जिनेश पद्मप्रभ पावन पाकर परमेश । वीतराग सर्वज्ञ हितकर पानाथ प्रभु पूज्य महेश ।। भवदुख हर्ता मगलकर्ता षष्टम तीर्थकर पड़ोश । हरो अमगल प्रभु अनादि का पूजन का है यह उद्देश्य ।। ॐ ह्रीं श्री पाभ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सोषट्, ॐ ह्रीं श्री पराजप्रभजिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ह्री श्री पचप्रभजिनेन्द्र अत्र मम सनिहितो प्रव-भव वषट् । शुद्ध भाव का धवलनीर लेकर जिन चरणों मे आऊँ। जन्म मरण की व्याधि मिटाऊँ नार्चे गाऊँ हर्षाऊँ।। परम पूज्य पावन परमेश्वर पदमनाथ प्रभु को ध्याऊँ। रोग शोक सताप क्लेश हर मगलमय शिवपद पाऊँ ॥१॥ ॐहीं श्री पाम जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि शुद्ध भाव का शीतल चदन ले प्रभु चरणों मे आऊँ। भव आताप व्याधि को नाशें नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ परम पूज्य ।।२।। *ही श्री प्रभ जिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दन नि ।
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बैन पूजॉजलि अग में नहीं किसी का कोई जग मतलब का मील है।
भीतर तो है मावाचारी ऊपर हठी प्रीत ।। शुद्ध भाव के उज्ज्वल अक्षत ले जिन घरों में आऊँ। अक्षय पद अखंड में पाऊँ नाचे गाऊँ हाँऊँपरम पूज्य ॥'
ही श्री पाय जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतं नि । शुद्ध भाव के पुष्प सुरभिपय ले प्रभु चरणों में आऊँ। कामवाण की व्यघि नशाऊँ नाचें गाऊँ हाऊँ।परम पूज्य ।।४।। ॐ ही श्री पाभ जिनेन्द्राय कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । शुद्ध भाव के पावन चरु लेकर प्रभु चरणो मे आऊँ। क्षुधा व्याधि का बीज मिटाऊँ नायूँ गाऊँ हर्षाऊँ ।परम पूज्य ॥५॥ ॐ हीं श्री पाभ जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । शुद्ध भाव की ज्ञान ज्योति लेकर प्रभु चरणो में आऊँ। मोहनीय भ्रम तिमिर नशाऊँ नाचें गाऊँ हपाऊँ।परम पूज्य ।।६।। ॐ ह्रीं श्री पाभ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि ।। शुद्ध भाव को धूप सुगन्धित ले प्रभु चरणों मे आऊँ। अष्टकर्म विध्वस करें मैं नाचूँ गाऊँ हाँऊँ । परम पूज्य ॥७॥ ॐ ही श्री पाप्रपा जिनेन्द्राय अष्ट कर्म विनाशनाय धूपं नि । शुद्ध भाव सम्यक्त्व सुफल पाने प्रभु चरणों मे आऊँ। शिवमय महामोक्ष फल पाऊँ नायूँ गाऊँ हर्षांऊँ ।।परम पूज्य ॥८॥ ॐ ही श्री पयप्रभ जिनेन्द्राय महामोक्षफल प्राप्ताय फल नि स्वाहा । शुद्ध भाव का अर्घ अष्टविध ले प्रभु चरणो मे आऊँ । शाश्वत निज अनर्घपद पाऊँ नाचूँ गाऊँ हर्षाऊँ परम पूज्य ।।९।। ॐ हीं श्री पाप जिनेन्द्राय अनर्ध पद प्राप्ताय अयं नि ।
पंचकल्याणक शुभदिन माघ कृष्ण षष्ठी को मात सुसीमा -हाए । उपरिम वेयक विमान प्रीतिकर तज उर में आए । नव बारह योजन नगरी रच रत्न इन्द्र ने बरसाये ।। जय श्री पानाथ तीर्थकर जगती ने मगल गाए ।२॥
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श्री जिनपूजन सदेस मेयम का भारी कालाता है देशब्ती ।
प्रदेश संयम का धारी कहलाता है मालती ।। मीभाषचदिने मंगलकाताय प्रोफामाजनेत्राय अम्ब नि. । कार्तिक कृष्ण प्रयोदशी को कौशाम्बी में जन्म लिया । गरि सुमेरु पर इदिक ने खरोदय ने नहन किया ।। राजा धरणराज आंगन में सुर सुरपति ने इत्य किया । जय जय पानाथ तीर्थकर जग ने जय जय नाद किया ॥३॥ * हो श्री कार्तिककष्णत्रयोदश्या जन्ममंगलप्रापायी पदमप्रम जिनेंद्राय अभ्य नि। कार्तिक कृष्ण प्रयोदशी को तुमको जाति स्मरण हुआ । जागा उर वैराग्य तभी लौकान्तिक सुर आगमन हुआ ।। तरु प्रियगु मनहर वन मे दीक्षाधारी तप ग्रहण हुआ । जय जय पानाथ तीर्थकर अनुपम नप कल्याण हुआ ।।४।। ॐ ही श्री कार्तिककृष्णप्रयोदश्या तपोमगलमाप्ताय श्री पदमप्रभ जिनेन्द्राय अष्य नि । चैत्र शुक्ल पुर्णिमा मनोहर कर्म घाति अवसान किया । कौशाम्बी वन शुक्ल ध्यान धर निर्मल केवलज्ञान लिया ।। समवशरण में बदश सभा जुडी अनुपम उपदेश दिया । जय जय पानाथ तीर्थकर जग को शिव सन्देश दिया ।।५।। ॐ ही श्रीचैत्रशुक्लपूर्णिमाया ज्ञानमगल प्राप्ताय श्री पदमप्रम जिनेन्द्राय अयं नि । मोहन कूट शिखर सम्मेदाचल से योग विनाश किया । फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी को प्रभु भवबन्धन का नाश किया । अष्टकर्म हर ऊर्ध्व गमन कर सिद्ध लोक आवास लिया । जयति पाप्रभु जिनतीर्थेश्वर शाश्वत आत्मविकाश किया ॥६॥
ही श्रीफल्गुनकृष्णचतुथ्यो मोजमयलगातार पीपदममयजिनेन्द्राय अष्य नि!
परम श्रेष्ठ पावन परमेष्ठी पुरुषोत्तम प्रभु परमानन्द । परमध्यानरत परमामय प्रशान्तास्मा मानन्द Int
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जैन पूजांजलि ससार महासागर से समकिती पार हो जाता ।
मिथ्यामति सदा भटकता भवसागर में खो जाता ।। जय जय पानाथ तीर्थंकर जय जय जय कल्याणमयी । नित्य निरंजन जनमन रंजन प्रभु अनन्त गुण ज्ञानमयी ॥२॥ राजपाट अतुलित वैभव को तुमने क्षण मे ठुकराया । निज स्वभाव का अवलम्बन ले परम शुद्ध पद को पाया ॥३॥ भव्य जनो को समवशरण में वस्तुतत्त्व विज्ञान दिया । चिदानन्द चैतन्य आत्मा परमात्मा का ज्ञान दिया ।।४।। गणधर एक शतक ग्यारह थे मुख्य वज्रचामर ऋषिवर । प्रमुख रात्रिषेणा सुआर्या श्रोता पशु नर सुर मुनिवर ।।५।। सात तत्त्व छह द्रव्य बताए मोक्ष मार्ग संदेश दिया । तीन लोक के भूले भटके जीवो को उपदेश दिया ।।६।। नि शकादिक अष्ट अग सम्यकदर्शन के बतलाये । अष्ट प्रकार ज्ञान सम्यक बिन मोक्षमार्ग ना मिल पाए ।।७।। तेरह विधि सम्यक चारित का सत्स्वरुप है दिखलाया । रत्नत्रय ही पावन शिव पथ सिद्ध स्वपद को दर्शाया ॥८॥ हे प्रभु यह उपदशे ग्रहण कर मैं जो निजका कल्याण करूँ। निज स्वरुप की सहज प्राप्ति कर पद र्निग्रन्थ महानवरूँ।९।। इष्ट अनिष्ट सयोगो मे मैं कभी न हर्ष विषाद करूँ। साम्यभाव धर उर अन्तप्रभव का वाद विवाद हरूँ॥१०॥ तीन लोक मे सार स्वय के आत्म द्रव्य का भान करूँ। पर पदार्थ की महिमा त्यागू सुखमय भेद विज्ञान करूँ ॥११॥ द्रव्य भाव पूजन करके मैं आत्म चितवन मनन करूँ।। नित्य भावना द्वादश भाऊँ राग द्वेष का हनन करूँ ।।१२।। तुम पूजन से पुण्यसातिशय हो भव-भव तुमको पाऊँ। जब तक मुक्ति स्वपद ना पाऊं तब तक चरणों मे आऊँ ।।१३।। सवर और निर्जरा द्वारा पाप पुण्य सब नाश करूँ। प्रभु नव केवल लब्धि रमा पा आठो कर्म विनाश करूँ ॥१४॥
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श्री सुपारवनाथ जिनपूजन बड से प्रीत न की होती तो वेसर अगणित दुख न उठाता ।
पव पोडा कब की कट जाती मुक्ति वा मिलती हाता ।। तुम प्रसाद से मोक्ष लक्ष्मी पार्क निज कल्याण करूँ। सादि अनन्त सिद्ध पद पाऊं परम शुद्ध निर्वाण वरूँ ।।१५॥
ही श्री सय मिनेन्द्राय गर्मजन्मतमानमोक्ष, पंचकल्याण प्राप्ताय
कमल चिन्ह शोभित चरण, पद्नाथ उरथार । मन वचतन जो पूजते, वे होते भवपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ह्रीं श्री परप्रभ जिनेंद्राय नम
श्री सुपार्श्वनाथ जिनपूजन जय सुपार्श्व प्रभु सुप्रतिष्ठ राजा के नन्दन महाविशाल । मों पृथ्वी देवी के प्रिय सुत सहज स्वरूपी सदा निकाल ।। सुखदाता सुखपुज सर्वदर्शी सुखसागर हे सत्येश । सकलवस्तु विज्ञाता स्वामी सिद्धानन्द सत्य विधेश । आत्म शक्ति का आश्रय लेकर केवलज्ञानी आपहुए । वीतराग सर्वज्ञ महाप्रभु निष्कषाय निष्पाप हुए ।। ॐ ह्री श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट्, ॐ ह्री श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ-तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्र अम्मम् सन्निहितो भव भव वषट् । सिंधु गगानीर निर्मल स्वर्ण झारी मे भरूँ। जन्म मरण विनाश कर मैं चार गति के दुख हरूँ।। श्री सुपार्श्व जिनेन्द्र चरणाम्बुज ह्रदय धारण करूँ। निज आत्मा का आश्रय ले ज्ञान लक्ष्मी को वरूँ॥१॥
ॐ ही श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्रायजन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि । मलय चदन दाहनाशक स्वर्ण भाजन मे धरूँ। भव भ्रमण का ताप हर मैं चार गति के दुख हरु ।श्री सुपार्श्व ॥२॥ *ही श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चंदन नि ।
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जैन पूजांजलि निज स्वभाव चेतन स्वरुप भय ।
पर विपाव अज्ञान रुपमय ।। धवल तदुल पुंज उज्जवल शुभ, चरणो मे धरूं। अक्षय अखड अनंत पद पा चार गति के दुख हरूँ॥श्री सुपार्श्व ॥३॥ *ही श्री सुपार्श्वनाथ जिनेंद्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि. । पुष्पनन्दन वन सुरभिपय देव चरणों मे धरूँ। काम ज्वर संताप हर मैं चार गति के दुख हरूँ श्री सुपार्श्व | ॐ ह्री श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । सरस पावन सोहने नैवेद्य चरणों मे धरूं । चिर अतृप्ति सुतृप्त कर मैं चार गति के दुख हरु ।श्री सुपार्श्व ।।५।। ॐ ही श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेष नि । ज्ञान दीपक ज्योति जगमग निज प्रकाशित मैं करूँ। मोहतम को सर्वथा हर चार गति के दुख हरु । श्री सुपार्श्व ॥६॥ ॐ ह्री श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहायकार विनाशनायदीप नि । धर्म की दश अग मय निज धूप अन्तर में धरूँ। कर्म अष्ट विनष्ट कर मै चार मति के दुख हरूँ ॥श्री सुपार्श्व ॥७॥ ॐ ह्री श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूप नि । पुण्य फल के राग की रुचि अब नहीं किंचित करूँ। मोक्षफल परमात्म पद पा चार मति के दुख हरूँ श्री सुपार्श्व ।।८।।
ॐ ह्री श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । सिद्ध प्रभु के अष्ट गुण का रात दिन सुमिरण करूँ । भाव अर्घ चरण चढाऊचार गति के दुख हसैं । श्रिी सुपार्श्व ॥९॥ ॐ ह्री श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्धपद प्राप्ताय नि ।
श्री पंचकल्याणक मध्यम प्रैवेयक विमान तज मात गर्भ अवतार लिया । मा पृथ्ती देवी के सोलह स्वप्नों को साकार किया ।। हुई नगर की सुन्दरन रचना रत्नों की बौछार हुई। श्री सुपार्श्व को भादव शुक्ला षष्ठी को जयकार हुई R॥
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श्री सुपारवनाथ जिनपूजन निज स्वभाव शिव मुख का दावा .
पर विभाव निज सब का माता ॐ हौ भाद्रपदशुक्लामष्टयां गर्भमंगल माताब की सुपार्श्वनाम जिनेन्द्राम आर्य नि. । वाराणसी नगर में राज सुप्रतिष्ठ गृह जन्म हुआ। ऐरावत पर सुरपति प्रभु को गोदी मे ले धन्य हुआ। लोचन किए सहस्त्र किन्तु फिर भी लखतप्त न हो पाया । ज्येष्ठशक्ल बादश को जन्मोत्सव सुपार्श्व प्रभु का भाया ॥२॥ ॐ ही ज्येष्ठशुक्लदादश्यां जन्ममंगल प्राप्तय श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय आर्य नि । ज्येष्ठ शुक्ल द्वादश को भाई शुद्ध भावनाएं द्वादश । उमड़ पड़ा वैराग्य हृदय में निज भावों में आया रस ।। श्रीष वृक्ष के तले त्यागमय तप कल्याण हुआ भारी । श्री सुपार्श्व ने पच महाव्रत धारण कर दीक्षा धारी ॥३॥ ॐ हीं ज्येष्ठशुक्लद्वादश्यो तपोमगल प्राप्ताय श्री सुपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अयं नि. । फागुन कृष्ण सप्तमी को प्रभु ज्ञान सूर्य का हुआप्रकाश । केवलज्ञान लक्ष्मी पाई घाति कर्म का किया विनाश ।। पूरा लोकालोक ज्ञान में युगपत दर्पणवत झलके । प्रभु सुपार्श्व सर्वज्ञ हए तुम वीतराग पथ पर चलके ॥४॥ ॐ ही फल्गुनकृष्णसप्तम्या ज्ञान मगलप्राप्ताय श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । फागुन कृष्णा षष्टी के दिन हुए अयोगी हे भगवान । एक समय मे सिद्ध शिला पर पहुचे पा सिद्धत्व महान ।। गिरि सम्मेद प्रभास कूट देवो ने किया मोक्ष कल्याण । जयसुपाश्र्व जिनराज सिद्धपद पाया स्वामीधर निजध्यान ।।५।। ॐ ही फाल्गुनकृष्ण षष्ठयां मोक्षमगल प्राप्ताय श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अयं नि ।
जयमाला जय सुपार्श्व सप्तम तीर्थकर सगुण विभूति सर्वदर्शी । स्वस्तिकचिन्ह विभूषित चरणाम्बुज अनुपम हृदयस्पर्शी ॥१॥ निज स्वरूप अवलंबन लेकर हए ज्ञान भावों में लीन । भीषण उपसों को जयकर प्रभु अरहन्त हुए स्वाधीन ॥२॥
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जैन पूजांजलि ज्ञान ज्योति क्रीडा करती है प्रति पल केवलज्ञान से ।
ज्ञान कला विकसित होती है सहज स्वयं के भाव से ।। पचानवे नाथगणधर थे श्री "बलदत्त प्रमुख गणधर । मुख्य आर्यिका “मीनार्या थी श्रोतासुरनर ऋषिमुनिवर ॥३॥ केवलज्ञान प्राप्त कर तुमने आत्मतत्त्व का किया प्रचार । विषय कषायों के कारण जीवों का बढ़ता है संसार ॥४॥ पच विषय स्पर्शन रसना प्राण चक्षु कर्णेन्द्रिय के । इनमे लीन नहीं पा सकता सुख आनन्द अतीन्द्रिय के ॥५॥ क्रोधमान माया लोभादिक चार कषाय मूल जानो । तीव्र मद के भेद जानकर इनकी गति को पहचानों ॥६॥ अनतानुबधी की चउ, अप्रत्यख्यानावरणी चार । प्रत्यख्यानावरणी चारो और सज्वलन की है चार ॥७॥ हास्य, अरति, रति, शोक, जुगुप्सा, भय, स्त्री, पुरुष, नपुसकवेद । नो कषाय मिल हो जाते पच्चीस कषाय बघ के भेद ॥८॥ सम्यकदर्शन होते ही इनका अभाव होता प्रारम्भ । धीरे धीरे क्रमक्रम से इनका मिट जाता है सब दंभ ॥९॥ चोथै गुणस्थान मे जाती अनन्तानुबन्धी की चार । पचम गुणस्थान में जाती अप्रत्यखानावरणी चार ॥१०॥ षष्टम गुणस्थान में जाती प्रत्यख्यानावरणी चार । द्वादश गुणस्थान मे जाती शेष सज्वलन की भी चार ॥११।। नो कषाय भी इनके क्षय से हो जाती हैं स्वय विनाश । सर्व कषायो के अभाव से होता निर्मल आत्म प्रकाश ॥१२।। निष्कषाय जो हो जाता वह वीतराग जिन पद पाता । पूर्ण अनन्त अमूर्त अतीन्द्रिय अविनाशी पद प्रकटाता ॥१३॥ पूजूचरण सुपार्श्वनाथ प्रभु नित्य आपका ध्यान करूँ। विषय कषाय अभाव करूँ मैं मुक्ति वधू अविराम वरूँ॥१४॥ ॐ ह्रीं श्री सुपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय पूर्णायं नि स्वाहा ।
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- श्री चन्द्रप्रय बिनपूजन रागद्वेष कमों का रस है यह तो मेरा नहीं स्वरुष । शान मात्र शुद्धोपयोग ही एक मात्र है मेरा रूप । । श्री सुपार्श्व के युगल पद भाव सहित उरधार । मन वच तन जो पूजते वे होते भवपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमंत्र-ॐ ह्रीं श्री सुपाश्र्वनाथ जिनेन्द्राय नमः ।
श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजन महासेन नृपनंद चद्र प्रभ चंद्रनाथ जिनवर स्वामी । मात लक्षमणा के प्रियनन्दन जगउद्धारक प्रभु नामी ।। निज आत्मानुभूति से पाई मोक्ष लक्ष्मी सुखधामी । वीतराग सर्वज्ञ हितैषी करूँगामय शिव पुरगामी ।। ॐ ह्रीं श्री चंद्रप्रभ जिनेंद्र अन अवतर अवतर सवाषद, ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभ जिनेंद्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही श्री चद्रप्रभ जिनेंद्र अत्रमम् सनिहितो भव भव वषट् । तन की प्यास बुझाने वाला यह निर्मल जल लाया हूँ। आत्मज्ञान की प्यास बुझाने प्रभु चरणो मे आया हूँ।। चद्र जिनेश्वर चद्र नाथ चन्द्रेश्वर चन्दा प्रभु स्वामी । राग द्वेष परिणति के नाशक मगलमय अन्तर्यामी ॥१॥ ॐ ह्री श्री चद्रप्रभ जिनेंद्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय चंदन नि । तन का ताप मिटाने वाला शीतल चदन लाया हूँ। राग आग की दाह मिटाने प्रभु चरणो मे आया हूँचन्द्र. ।।२।। ॐ ह्री श्री चद्रप्रभ जिनेंद्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । परम शुद्ध अक्षय पद पाने उज्ज्वल अक्षत लाया हूँ। भव समुद्र से पार उतरने प्रभु चरणो मे आया है । चन्द्र. ॥३॥ ॐ ही श्री चद्रप्रभ जिनेंद्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । कामबाण से घायल होकर पुष्प मनोहर लाया हूँ। महाशील शीलेश्वर बनने प्रभु चरणो में आया हूँ। चिन्द्र. ॥४॥ *हीं चंद्रप्रभ जिनेन्द्रायकामबाण विध्वसनाय पुष्पं नि. ।
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जैन पूजाँजाल जब तक दृष्टि निमितों पर है पर दुख कभी न आएमा ।
उपादान आग्रत होते ही सब सकर रल जाएगा। षट् द्रव्यों से भूख न पिट पाई तो प्रभु च लाया है। आत्म तत्व की भूख मिटाने प्रभुचरणों में आया है। चिन. १५॥ ॐही श्री चंद्रप्रभ जिनेंद्राय सुधारोग विनाशनाय नवे नि । अन्धकार तम हरने वाला दीप प्रभामय लाया हूँ। आत्मदीप की ज्योति जलाने प्रभु चरणों में आया हैं चन्द्र. ६।। *ही श्री चंद्रप्रभा जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । पर परिणति का धुआ उड़ाने धूप सुगन्धित लाया हूँ। अष्ट कर्मअरि पर जय पाने प्रभु चरणों में आया हूँ । चन्द्र ।।७।। ॐ ही श्री चद्रप्रभ जिनेन्द्राय अष्टकर्म विष्वसनाय धूप नि । पर विभाव फल से पीडित होकर नूतन फल लाया हैं। अपना सिद्ध स्वपद पाने को प्रभु चरणों में आया हूँ। चन्द्र ॥८॥ ॐ हीं श्री चद्रप्रभ जिनेन्द्राय महामोक्ष फल प्राप्ताय फल नि स्वाहा । अप्ट द्रव्य का अर्थ मनोरम हर्षित होकर लाया हूँ। चिदानन्द चिन्मय पद पाने प्रभु चरणों में आया हूँ। चिन्द्र ।।९।। ॐ ह्री श्री चद्रप्रभ जिनेन्द्राय अनर्थपद प्राप्तये अयं नि ।
श्रीपंचकल्याणक के कृष्ण पचमी मात उर वैजयत तज कर आए। सोलह स्वप्न हुए माता को रत्न सुरों ने बरसाये ।। मात लक्ष्मणा स्वप्न फलो को जान हृदय में हर्षाये । हा गर्भ कल्याण महोत्सव घर घर में आनन्द छाये ॥ ॐ ही श्री चैत्रकृष्णपंचम्यो गर्भमगलप्राप्ताय श्री चंद्रप्रभजिनेन्द्राय अन्य नि । पौष कृष्ण एकादशम् को चन्द्रनाथ का जन्म हुआ । मेरु सुदर्शन पर मंगल उत्सव कर सुरपति धन्य हुआ ।। चन्द्रपुरी में बजी बधाई तीन लोक में सुख छाया। महासेन राजा के गृह में देवों ने मंगल गाया ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री पौषकृष्णएकादश्या जन्ममंगलमाप्ताय श्री चन्द्रप्रमजिनेन्द्राय अयं नि.।
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समरांगण में आए म माव पर यह बरपाया ।। पौष कृष्ण एकादशी की राज्य आदि सब छोड़ दिया । ' यह संसार असार जालकर सप से नाता जोड़ दिया ।। पंच महावत धारण करके वस्त्राभूषण स्वाय दिवे । तप कल्याण मनाया देवों में जिनवर अनुराग लिए ॥३॥ * ही पौषकृष्ण एकादरको तप कल्याण प्राप्तायी चन्द्रप्रय जिनेनाम अनि । तीन मास छस्थ रहे प्रभु उन तपस्या में हो लीन । प्रतिमा योग धार चंदा प्रभु शुक्ल ध्यान में हुए स्वलीन । ध्यान अग्नि से लैसठ कर्म प्रकृतियों का बल नाशकिया । फाल्गुन कृष्ण सप्तमी के दिन केवलज्ञान प्रकाश लिया ॥४॥ *ही श्री फाल्गुन कृष्णसप्तम्या केवल प्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अष्य नि । शेष प्रकति पिच्चासी का भी अन्त समय अवसान किया । फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन प्रभु ने पद निर्वाणलिया ।। ललितकूट सम्मेदशिखर से चन्दा प्रभु जिन मुक्त हुए ।
र्च गमन कर सिद्ध लोक मे मुक्ति रमा से युक्त हुए।॥५॥ ॐ ही श्री फाल्गुनशुक्स सप्तम्यां मोक्षमगलप्राप्ताय श्री चंद्रप्रभाजिन्द्राय अवं नि स्वाहा।
जयमाला चन्द्र विन्ह चित्रित वरण चन्द्रनाथ चित धार ।
चिन्तामणि श्री चन्द्रप्रभ चन्द्रामस दातार ॥१॥ चन्द्रपुरी के न्यायवान श्री महासेन राजा बलवान ।। देवि लक्ष्मण रानी उर से जन्मे चन्द्रनाथ भगवान ॥२॥ इन्द्र शची सुर किन्नर यक्ष सपी ने गाये मंगलगान । तीर्थकर का जन्म जानकर धरती में भी आए प्राण ॥३॥ बड़े हुए प्रभु राजकाज में न्याय पूर्वक लीन हुए। जग के भौतिक भोग भोगते सिंहासन आसीन हुए ॥४॥
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जैन पूजांजलि परम महा ई परम ज्योतिमय परम स्वरूप ।
परम ध्यापमय परम ज्ञानमय परम शांतिमय परम अनूप ।। इकदिन नभ में बिजली चमकी, नष्ट हुई तो किया विचार । नाशवान पर्याय जान छाया. तत्क्षण वैराग्य अपार ।।५।। वन सर्वार्थ नागतरु नीचे परिजन परिकर धन सब त्याग । पंच मुष्टि से केश लोंचकर किया महाव्रत से अनुराग ॥६॥ हए तपस्या लीन आत्मा का ही प्रतिफल करते ध्यान ।। शाश्वत निजस्वरुप आश्रय ले पाया तुमने केवलज्ञान ७॥ थे तिरानवे गणधर जिनमे प्रमुख दत्तस्वामी ऋषिवर । मुख्य आर्थिका वरुणा, श्रोता दानवीर्य आदिक सुरनर ॥८॥ समवशरण में तुमने प्रभुवर वस्तु तत्त्व उपदेश दिया । उपादेय है एक आत्मा यह अनुपम सन्देश दिया ।।९।। ज्ञाता दृष्टा बने जीव तो राग-द्वष मिट जाता है । जो निजात्मा मे रहता है वही परम पद पाता है।।१०।। हो अयोग केवली आपने हे स्वामी पाया निर्वाण । अर्धचन्द्र शोभित चरणों मे अष्टम तीर्थकर स्वामी । जन्म मरण का चक्र मिटाने आया हू अन्तर्यामी ॥१२॥ ॐ ही श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्राय पूर्णाय नि ।
चन्दा प्रभु के पद कमल भाव सहित उर धार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ हो श्री चन्द्रप्रभ जिनेद्राय नम ।
श्री पुष्पदन्त जिनपूजन जय जय पुष्पदन पुरुषोत्तम परम पवित्र पुनीत प्रधान । नवम तीर्थकर हे स्वामी सुविधिनाथ सर्वज्ञ महान ।। अनुपम महिमावत मुक्ति के क्त पतित, पावन भगवान । पूर्ण प्रतिष्ठित शाश्वत शिवमय परमोत्तम अनंत गुणवान ।।
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श्री पुष्पदन्त जिनपूजन समकित रूपी जलप्रवाह अब बहता है मध्यतर में ।
कर्मधुल आवरण नहीं रहता है लेश मात्र उर में ।। सिद्धवधू से परिणयकरके प्राप्त किया सिझे का धाम । नित्य निरन्जन भवभय भंजन भाव पूर्वक तुम्हें प्रणाम ।। ॐ हीं श्री पुष्पदंत जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सोफ्ट, हामी पुष्पदंत जिनेंद्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, होश्री पुष्पदंत जिनेंद्रअनमम सनिहितो भव भव वषट् । निज स्वभावमय सलिल नीर की धारा अन्तर में लाऊँ। जन्म जरा अघ दोषनाशकर अविनश्वर पद को पाऊँ।। परम ध्यानरत पुष्पदंत प्रभुसी पवित्रता उर लाऊँ। चिदानन्द चैतन्य शुद्ध परिपूर्ण ज्ञान रवि प्रगटाऊँ ॥१॥
ॐ ही श्री पुष्पदत जिनेंद्रायजन्मजरामृत्यु विनाशनायजल नि । निज स्वभावमय शीतलचदन निज अतस्तल मे लाऊँ। भव आताप दोष को हरकर अविनश्वर पद को पाऊँपिरम ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री पुष्पदत जिनेन्द्राय कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि जिन स्वभावमय अक्षय तदुल निज अभेद उर में लाऊँ। अमल अखड अतुल अविकारी अविनश्वर पद को पाऊँगापरम ॥३॥ ॐ ह्री श्री पुष्पदत जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्ताय अक्षत नि । निजस्वभाव मय पुष्प सुवासित निज अन्तर मन मे लाऊँ। काम कलक कालिमा हरकर अविनश्वर पद को पाऊँ ।परम ।।४।। ॐ ह्रीं श्री पुष्पदत जिनेंद्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि निज स्वभावमय सवर के चरु निज गागर में भर लाऊँ। पुण्य फलों की भूख नाशकर अविनश्वर पद को पाऊँपरम ।।५।। ॐ ह्रीं श्री पुष्पदत जिनेंद्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । निज स्वभावमय ज्ञानदीप प्रज्ज्वलित करूँ उर में लाऊँ। मोह तिमिर अज्ञान नाशकर अविनश्वर पद को पाऊँ परम ॥६॥ ॐही श्री पुष्पदंत जिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि । निज स्वभावमय धूप निर्जरातपमय अन्तर मे लाऊँ। अरिरज हस विहीन बनूं मै अविनश्वर पद को पाऊँ ।परम ॥७॥
ही पुष्पदंत जितेंद्राय अष्टकर्म विश्वसनाव पूपं नि. ।
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जैन पूजांजलि जाग जाग रे जाग अभी सुमिज मातम का करले भान ।
धर्म नहीं दुखरुप धर्म तो परमानंद स्वरुप महान ।। निजस्वभावमय शुक्लध्यान फल परमोसम उर में लाऊँ। शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध मोक्ष पा अविनश्वर पदको पाऊँपरम. ॥८॥ ॐ ही श्री पुष्पदंत जिनेन्द्राय महामोक्षफल प्राप्ताय फल नि. । निज स्वभावमय शुक्लध्यानफल परमोत्तम उर में लाकैं। निश्चर रत्नत्रय की महिमा से अनर्थ पदको पाऊंपरम. ॥९॥ ॐ ही श्री पुष्पदंत जिनेन्द्राय अनपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक फागुन कृष्णा नवमी को प्रभु आरण स्वर्ग त्याग आए । रानी जयरामा उर मे अवतार लिया सब हाए । पन्द्रहमास रत्न वर्षाकर धनपति मन मे मुसकाए । पुष्पदत के गोत्सव पर सरागना मगल गाए ॥१॥ ॐ ही श्रीफागुनकृष्णनवम्या गर्भमगलप्राप्ताय पुष्पदंत जिनेंद्राय अयं नि । मगसिर शुक्ला एकम को काकदीपुर अति धन्य हुआ । नृप सुग्रीवराज प्रागण मे सुख का ही साम्राज्य हुआ ।। मेरु सुदर्शन पाडुकवन मे क्षीरोदधि से नव्हन हुआ । देवो द्वारा पुष्पदंत का दिव्य जन्म कल्याण हुआ ॥२॥ ॐ ह्री मगसिर शुक्ला प्रतिपदादिनेजन्ममगलप्राप्ताय पुष्पदतजिनेंद्राय अयं नि । मगसिर शुक्ला एकम के दिन अन्तर मे वैराग्य हुआ । मेघविलय लख वैभव त्यागा वन की ओर प्रयाणकिया । पंच महाव्रत धारे लौकातिक देवों का गान हुआ । जय जय पुष्पदत परमेश्वर अनुपम तप कल्याण हुआ ॥३॥ ॐ ही मगसिरशीर्ष शुक्लामतिपदादिने तपोमंगलप्राप्ताय पुष्पदंत जिनेन्द्राय आय नि। कार्तिक शुक्ल द्वितीया के दिन तुमने पाया केवलज्ञान । चार घातिया, वेसठ कर्म प्रकृतियों का करके अवसान ।।
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श्री पुष्पदन्त जिनपूजन
गमन मण्डल में उसका
तीन लोक के तीर्थ क्षेत्र बंदन करमाऊं।।. समवशरण की रचना करके हुआ इन्द्र को हर्ष महान । खिरी दिव्य ध्वनि जनकल्याणी जय जय पुष्पदंत भगवान I४॥ ॐ ही कार्तिक शुक्लादितियायां ज्ञानमंगल प्राप्तापपुष्पदंतजिनेन्द्राय अयं नि
भादों शुक्ल अष्टमी के दिन सम्मेदाचल पर जयगान । शेष प्रकृति पच्चासी को हर सुप्रभ कूट लिया निर्वाण ।। सिद्धशिला लोकाग्रशिखर पर आप विराजे हे गुणधाम । महामोक्ष मगल के स्वामी पुष्पदत को कर प्रणाम ॥५॥ ॐ हीं माद्रशुक्लअष्टम्या मोक्षमगलाप्ताय पुष्पदन्त जिनेन्द्राय अयं नि स्वाहा।
जयमाला जय जय पुष्पदंत परमेश्वर परम धर्म सारथी प्रमाण । पुण्या पुण्य निरोधक पुष्कल प्रथमोंकार रूप विभुवान ॥१॥ निजस्वभाव साधन से तुमने परविभाव का हरण किया । शुद्ध बुद्ध चैतन्य स्वपद भज महामोक्ष का वरण किया ॥२॥ अट्ठासी गणधर थे प्रभु के प्रमुख श्री विदर्भ गणधर । प्रमुख आर्यिका श्री घोषा थीं समवशरण पवित्र मनहर ॥३॥ तुमने चौदह गुणस्थान गुणवृद्धि रूप हैं बतलाए । जीवों के परिणामों की इनसे पहचान सहज आए ।।४।। पहिला है मिथ्यात्व दूसरा सासादन कहलाता है। मिश्र तीसरा चौथा अविरत सम्यकद्रष्टि कहाता है ।।५।। पंचम देश विरत छठवाँ सुप्रमत्त विरत कहलाता है। सप्तम अप्रमत है अष्टम अपूर्व करण कहलाता है ।।६।। नवमा है अनिवृत्ति करण दशम सूक्षम सांपराय होता । ग्यारहवा उपशांतमोह बारहवां क्षीणमोह होता ॥७॥ तेरहवां सयोग चौदहवां है अयोग केवलि गुणथान । निज परिणामों से श्रेणी चढ़ जीव स्वयं पाता निर्वाण ॥
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जैन पूजांजलि कर्म जनित सुख के समूह का जो भी करता है परिहार ।
वही भव्य निष्कर्म अवस्था को पाकर होता भव पार । । दर्श मोह के उदय आत्म परिणाम सदा मिथ्या होता । हैं अतत्त्व श्रद्धान जहा वह पहिल गुणस्थान होता ॥९॥ दुजा है पिथ्यात्व और सम्यक्त्व अपेक्षा अनुदय रूप । समकित नहीं मिथ्यात्व उदय भी नहीं यही सासादनरूप।।१०।। तीजा सम्यक मिथ्या दर्शन मोहोदय से होता है । अनतानुबधी कषाय परिणाम जीव का होता है ॥११॥ चौथादर्शमोह के क्षय, उपशम, क्षमोपशम से होता । सम्यकदर्शन गुण का इसमे प्रादुर्भाव सहज होता ॥१२।। चरित मोह के क्षयोपशम से पचम से दशवाँ तक है । सम्यकचारित गुण को क्रम से वृद्धि रूप छह थानक है ।।१३।। चरितमोह के उपशम से ग्यारहवा गुणस्थान होता । सूक्ष्म लोभ सद्भाव यहाँ अन्तमुहर्त रहना होता ।।१४।। मोहनीय के उदय निमित्त से जिय निश्चित गिर जाता । यदि परिणाम सभाल न पाये तो पहिले तक आ जाता ।।१५।। चरित मोह के क्षय से तो बारहवा क्षीणमोह होता । पूर्ण अभाव कषायो का हो, यथाख्यातचारित होता ।।१६।। केवलज्ञान प्राप्त कर तेरहवा सयोग केलि होता । सम्यकज्ञान प्राप्त हो जाता चारित गुण न पूर्ण होता ।।१७।। योगो के अभाव से चौदहवाँ अयोग केवलि होता । हो जाता चारित्र पूर्ण रत्नत्रय शुद्ध मोक्ष होता ।।१८।। क्षपक श्रेणि चढ अष्टम से जब चौदहवे तक जाता है । गुणस्थान से हो अतीत निज सिद्ध स्वपद पा जाता है ॥१९॥ मोहफ्द मे पडकर मैंने पर परणति मे रमण किया । परद्रव्यो की चिंता में रह चहुगति में परिभ्रमण किया ॥२०॥ निजस्वरूप का ध्यान न आया कभी न निजस्मरण किया । चिदानद चिद्रूप आत्मा का अब तक विस्मरण किया ।।२१।।
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श्री शीतलनाथ जिनपूजन सिद्ध दशा को चलो साधने सब सिखों को वदन कर ।
सम्यक दर्शन की महिमा से आत्म तत्व का दर्शनकर । । निज कल्याण भावना से प्रभु आज आपका शरण लिया । बिना आपकी शरण अनतान्त भवो मे भ्रमण किया ॥२२॥ निजस्वरूप की ओर निहारूँ शुभ अरू अशुभ विकार तर्ने । पद पदार्थ से मैं ममत्व तज परम शुद्ध चिद्रूप भजे ॥२३॥ ॐ ही पुष्पदत जिनेन्द्राय पूर्णाय नि स्वाहा ।
मगर चिन्ह शोभित चरण पुष्पदत उरधार । मन वचतन जो पूजते वे होते भवपार।।
इत्याशीर्वाद जाप्यपत्र- ॐ ह्री श्री पुष्पदत जिनेन्द्राय नम ।
__ श्री शीतलनाथ जिनपूजन जय प्रभु शीतलनाथ शील के सागर शील सिधु शीलेश । कर्मजाल के शीतलकर्ता केवलज्ञानी महा महेश । ।
कालिक ज्ञायक स्वभाव ध्रुव के आश्रय से हुए जिनेश । मुझको भी निज समशीतल करदो हे विनय यहीपरमेश ।। ॐ ही श्री शीतलनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट, ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ॐ ही श्री शीतलनाथ जिनेन्द्र अत्र मम् सन्निहितो भव-भव वषट्। निर्मल उज्ज्वल जलधार चरणो मे सोहे । यह जन्म रोग मिट जाय निज मे मन मोहे । । हे शीतलनाथ जिनेश शीतलता धारी । हे शील सिन्धु शीलेश सब सकट हारी ॥१॥ ॐ ही श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । चन्दन सी सरस सुगन्ध मुझमे भी आये । भव ताप दूर हो जाय शीतलता छाये हे शीतल नाथ ॥२।। ॐ ही श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चंदन नि । निज अक्षय पद का भान करने आया हूँ। हर्षित हो शुभ अखण्ड तन्दुल लाया हूँ ॥ हे शीतल नाथ ॥३॥
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जैन पूजांजलि भवावर्त में कमौन पायीं ऐसी माओ भावना ।
भव अभाव के लिए मात्र निज शायक की हो साधना । । ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि । कन्दर्प काम के पुष्प अब मैं दूर कसें । पर परिणति का व्यापार प्रभु चकचूर करूँ ।ह शीतल नाथ।।४।। ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विष्वंसनाय पुष्प नि । चरु सेवन रुचि दुखकार भव पीडा दायक । है क्षुधा रहित निज रूप सुखमय शिवनायक ॥ ह शीतल नाथ ।।५।। ॐ ही श्री शीतलनाथ जिनेद्राय सुधारोग विनाशनाय नेवैद्य नि । अज्ञान तिमिर घनघोर उर मे छाया है । रवि सम्यकज्ञान प्रकाश मुझको भाया है ।हे शीतल नाथ ।।६।। ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । चारो कषायो का सघ हे प्रभु हट जाये । हो कर्म चक्र का ध्वस भव टूख मिट जाये॥हे शीतल नाथ ।।७।। ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेद्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । निर्वाण महाफल हेतु चरणो मे आया । दुख रूप राग को जान अब निजगुण गाया ।।हे शीतल नाथ ।।८।। ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेद्राय महामोक्षफल प्राप्ताय फल नि आत्मानुभूति की प्रीति निज मे है जागी । पाऊ अनर्घ पद नाथ मिथ्या मति भागी ॥ हे शीतल नाथ ।।९।। ॐ ही श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अनर्षपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंच कल्याणक चैत्र कृष्ण अष्टमी स्वर्ग अच्युत को तजकर तुम आये । दिक्कुमारियो ने हर्षित हो मात सुनन्दा गुण गाये । । इन्द्र आज्ञा से कुबेर नगरी रचना कर हर्षाये । शीतल जिन के गर्भोत्सव पर रत्न सरों ने बरसाये ॥॥ * ही चैत्रकृष्णअष्टम्या गर्भकल्याणप्राप्ताय अयं श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय नि । भदिलपुर मे राजा दूढरथ के गृह तुमने जन्म लिया । माघ कृष्ण द्वादशी इन्द्रसुरो ने निज जीवन धन्य किया ।
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श्री शीतलनाथ जिनपूजन परम शुद्ध निश्चय नय का जो विषय भूत है शुदातम ।
परम भाव ग्राही द्रव्यार्थिक नयको विषय वस्तु आतम । । गिरिसुमेरु पर पांडुकवन मे क्षीरोदधि से नव्हनकिया । एक सहस्त्र अष्ट कलशों से हर्षित हो अभिषेक किया ॥२॥ ॐ ही माघकृष्ण द्वादश्या जन्ममगल प्राप्ताय श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । शरद मेघ परिवर्तन लख कर उर छाया वैराग्य महान । लौकातिक देवो ने आकर किया आपका तप कल्याण ।। सकल परिगृह त्याग तपस्या करने वन को किया प्रयाँण । माघ कृष्ण द्वादशी सहेतुक वन मे गूजा जय जय गान ॥३॥ ॐ ही माधकृष्ण द्वादश्या तप कल्याणक प्राप्ताय श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि स्वाहा। पौष कृष्ण की चतुदर्शी को पाया स्वामी केवलज्ञान । समवशरण की रचना कर देवो ने गाये मगल गान ।। सकल विश्व को वस्तु तत्त्व उपदेश आपने दिया महान । भद्दिलपुर मे गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान हुए चारो कल्याण ।।४।। ॐ ही पौषकृष्णचतुर्दश्या ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्री शीतलनाथजिनेन्द्राय अयं नि । आश्विन शुक्ल अष्टमी को हर अष्ट कर्म पायानिर्वाण । विद्युत कूट श्री सम्मेदशिखर पर हुआ मोक्ष कल्याण ।। शेष प्रकृति पच्चासी हरकर कर्म अघाति अभाव किया । निज स्वभाव के साधन द्वारामोक्ष स्वरुप स्वभावलिया ।।५।। ॐ ही आश्विन शुक्लअष्टम्या मोक्ष कल्याण प्राप्ताय श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि ।
जयमाला जय जय शीतलनाथ शीलमय शील पुज शीतल सागर । शुद्ध रूप जिन शुचिमय शीतलशील निकेतन गुण आगर ।।१।। दशम तीर्थंकर हे जिनवर परम पूज्य शीतलस्वामी । तुम समान मै भी बन जाऊ विनय सुनो त्रिभुवन नामी ।।२।।
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जैन पूजांजलि ज्ञान चक्षु को खोल देख तेरा स्वभाव दुख रूप नहीं ।
तान काल में एक समय भी राग भाव सुख रुप नहीं । । साम्य भाव के द्वारा तुमने निज स्वरूप का वरण किया । पच महाव्रत धारण कर प्रभु पर विभाव का हरण किया ॥३॥ पुरी अरिष्ट पुनर्वसु नृप ने विधिपूर्व आहार दिया । प्रभु कर मे पय थारा दे भव सिंधु सेतु निर्माण किया ॥४॥ तीन वर्ष छास्थ मौन रह आत्म ध्यान मे लीन हुए । चार घातिया का विनाशकर केवलज्ञान प्रवीण हुए।।५।। ज्ञानावरणी दर्शनावरणी अन्तराय अरु मोह रहित । दोष अठारह रहित हुए तुम छयालीस गुण से मण्डित ॥६॥ क्षुधा तृषा, रति, खेद, स्वेद, अरु जन्म जरा चिंताविस्मय । राग, द्वषे, मद, मोह, रोग, निन्द्रा, विषाद अरु मरण न भय ।।७।। शुद्ध, बुद्ध अरहन्त अवस्था पाई तुम सर्वज्ञ हए । देव अनन्त चतुष्टय प्रगटा निज मे निज मर्मज्ञ हुए ॥८॥ इक्यासी गणधर थे प्रभु के प्रमुख कुन्थुज्ञानी गणधर ।। मुख्य आर्यिका श्रेष्ठ धारिणी श्रोता थे नृप सीमधर ।।९।। तुम दर्शन करके हे स्वामी आज मुझे निज भान हुआ । सिद्ध समान सदा पद मेरा अनुपम निर्मल ज्ञान हुआ ।।१०।। भक्ति भाव से पूजा करके यही कामना करता हूँ। राग द्वषे परणति मिट जाये यही भावना करता हूँ ॥११॥ निर्विकल्प आनन्द प्राप्ति की आज ह्रदय मे लगी लगन । सम्यक पूजन फल पाने को तुम चरणो मे हुआ मगन ।।१२।। निज चैतन्य सिह अब जागे मोह कर्म पर जय पाऊँ। निज स्वरूप अवलम्बन द्वारा शाश्वत शीतलता पाऊँ ।।१३।। ॐ ही श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय पूर्णायं नि । कल्पवृक्ष शोभित चरण शीतल जिन उर धार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद ॐ ह्री श्री शीतलनाथ जिनेन्द्राय नम ।
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श्री श्रेयासनाथ जिनपूजन जब तक नहीं स्वभाव भाव है तब तक है संयोगी भाव । जब संयोगी भाव त्याग देगा तो होगा शुद्ध स्वभाव । ।
श्री श्रेयांसनाथ जिनपूजन श्रेष्ठ श्रेय सभव श्रुतात्मा श्रेष्ठसुमतिदाता श्रेयान । श्रेयनाथ श्रेयस श्रुतिसागर श्रीमत श्रीपति श्रीमान ।। विपत्ति विदारक विपुलप्रभामय वीतरागविज्ञान निधान । विश्वसूर्य विख्यात कीर्ति विभु जय श्रेयासनाथ भगवान ।। मैं श्रेयासनाथ चरणो की भाव सहित करता पूजन । मन वच काय त्रियोग जीतकर हे प्रभु पाऊ मोक्षसदन ।।
ॐ ही श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट्, ॐ ही श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्र अन तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ह्री श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्र अव मम सन्निहितो भव भव वषट। उत्तम निर्मल सवरमय निर्जरानीर प्रभु लाऊँ । क्षायिक ज्ञान प्राप्त करने को अन्तरज्योति जगाऊँ ।। श्री श्रेयासनाथ चरणो मे सविनय शीश झकाऊँ। क्षायिक लब्धि प्राप्त करने को निज का ध्यानलगाऊँ ॥१॥ ॐ ही श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । पावन चदन सवरमय निर्जरा भाव के लाऊँ । क्षायिक दर्शन पाने को प्रभु अतर ज्योति जगाऊँ ।।श्री श्रेयास ॥२॥ ॐ ही श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्राय समारताप विनाशनाय चदन नि । उज्ज्वल अक्षत सवरमय निर्जराभाव के लाऊँ। क्षायिकदान प्राप्त करने को अतर ज्योति जगाऊँ ।।श्री श्रेयास ॥३॥ ॐ ही श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । पुष्प सुवासित सवरमय निर्जरा भाव के लाऊँ। क्षायिक लाभ प्राप्त करने को अतरज्योति जगाऊँ ।।श्री श्रेयास ॥४॥ ॐ ही श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । शुद्ध विमल चरु सवरमय निर्जरा भाव के लाऊँ। क्षायिक भोग प्राप्तकरने को अतरज्योति जगाऊँ।।श्री श्रेयास ।।५।। ॐ ह्री श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि ।
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जैन पूजांजलि ज्ञान चक्षुओ को खोलों अब देखो निज चैतन्य निधान ।
देह ओर वाणी मन से भी पार विराजित निज भगवान । । दिव्य दीप निज सवरमय निर्जरा भाव का लाऊँ। निज क्षायिक उपयोग प्राप्ति हित अन्तर ज्योतिजगाऊँ श्री श्रेयांस ।।६।। ॐ ही श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्राय मोहाधकार विनाशनायदीप नि ।। धूप सुगन्धित सवरमय निर्जरा भाव की लाऊँ। क्षायिक वीर्य प्राप्त करने को अन्तर ज्योति जगाऊँ ।।श्री श्रेयास ।।७।। ॐ ही श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि ।। धर्ममयी फल सवरमय निर्जरा भाव के लाऊँ। निज क्षायिक सम्यक्त्वप्राप्तिहित अन्तरज्योतिजगाऊँ । श्री श्रेयास ॥८॥ ॐ ही श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । अर्घ अष्ट गुण सवर मय निर्जरा भाव के लाऊँ । निजक्षायिक चारित्र प्राप्तिहित अतरज्योति जगाऊँ ।।श्री श्रेयास ।।९।। ॐ ह्रीं श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्राय अनर्षपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी को तुमने पुष्पोत्तर से गमन किया । माता विमला गर्भ पधारे देव लोक ने नमन किया ।। सोलह स्वप्न सुफल को सुनकर प्रभु माता ने हर्ष किया । जय श्रेयासनाथ कमलासन नहीं गर्भ स्पर्श किया ।।१।। ॐ ही ज्येष्ठकृष्ण षष्ठ या गर्भमगल प्राप्ताय श्रेयासनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । फागुन कृष्णा एकादशी सिहपुरी मे जन्म लिया । राजा विष्णुनाथ गृह, सुर, सुरपति ने मनहरनृत्य किया ।। पाडुक शिला विराजित करके क्षीरोदधि से नीर लिया । एक सहस्त्र अष्ट कलशो से इन्द्रो ने अभिषेक किया ।।२।। ॐ ही फाल्गुन कृष्णएकादश्या जन्ममगल प्राप्ताय श्रेयासनाधजिनेन्द्राय अर्घ्य नि । फागुन कृष्णा एकादशी भोगो से मन दूर भगा । राजपाट तज वन मे पहुचे विन्दकु तरु का भाग्य जगा । ।
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श्री श्रेयासनाथ जिनपूजन उषा काल में प्रात समय निज का चितन करलो चेतन ।
घडी दो घडी जितना भी हो तत्व मनन करलो चेतन । । नग्न दिगम्बर मुद्रा धर तप सयम से अनुराग जगा । श्रेयास तप कल्याणक देख लगा वैराग्य सगा ॥३॥ ॐ ह्री फाल्गुनकृष्ण एकादश्या तपोमगल प्राप्ताय श्रेयासनाथजिनेंद्राय अयं नि । माघ कृष्ण की अम्मावस को पूर्ण ज्ञान का सूर्य उगा । तीन लोक सर्व दर्शाता केवलज्ञान प्रकाश जगा । । दिव्यध्वनि से समवशरण मे जीवो का उपकार हुआ । जयश्रेयास नाथ तीर्थकर दशदिशि जय जयकार हुआ ॥४॥ ॐ ह्री माघकृष्णाअमावस्या केवलज्ञान प्राप्ताय श्रेयासनाधजिनेन्द्राय अयं नि । शुक्ल पूर्णिमा सावन की मन भावन अमर पवित्र हुई । मकुलकूट श्री सम्मेदाचल की शिखर पवित्र हई ।। तुमसे प्रभु निर्वाण लक्ष्मी परिणय करके धन्य हुई। प्रभ श्रेयास मोक्ष मगल से पावन धरा अनन्य हुई ।।५।। ॐ ही श्रावण शुक्ल पूर्णिमाया मोक्षमगल प्राप्ताय अनर्घ पद प्राप्ताय अयं नि स्वाहा।
जयमाला एकादशम तीर्थकर श्रेयासनाथ को करूं प्रणाम । श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओ का उपदेश दिया अभिराम ॥१।। गणधरदेव सतत्तर प्रभु के प्रमुख धर्मस्वामी गणधर । मुख्य आर्यिका श्री चरणा श्रोता थे त्रिपृष्ठ नृपवर ।।२।। हे प्रभु मै भी ग्यारह प्रतिमाए था ऐसा बल दो । मोक्षमार्ग पर चलूँ निरन्तर निज स्वभाव का सबल दो ॥३।। दहे भोग ससार विरत हो अष्ट मूलगुण का पालन । पहिली दर्शन प्रतिमा है धारण करना सम्यकदर्शन ।।४।। धाउँ अणुव्रत पाँच तीन गुणव्रत धाउँ शिक्षाव्रत चार । श्रावक के बारह व्रत धारण करना व्रत प्रतिमा है सार ।।५।।
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जैन पूजाँजलि तू अनत धर्मों का पिंड अखडपूर्ण परमातम है ।
स्वयं सिद्ध भगवान आत्मा सदा शूद्ध सिद्धातम है । । सात प्रकार शुद्धता पूर्वक छह प्रकार का सामायिक । तीन काल सामायिक प्रतिदिन तीजी प्रतिमा सामायिक।।६।। पर्व अष्टमी अरु चतुर्दशी को प्रोषध उपवास कर। धर्म ध्यान में समय बितावे प्रोषधप्रतिमा ह्रदय घर।।७।। दष्टि जीव रक्षा की हो जिव्हा की लोलुपता न हो । हरित वनस्पति जब अचित्तले, सचित्तत्याग शुभप्रतिमा हो ॥८॥ खाद्य, स्वाद अर लेय पेय चारो आहार रात्रिमे त्याग । कृत कारित अनुमोदन से हो यह प्रतिमा निशिभोजनत्याग ।।९।। सादा रहन सहन भोजन हो पूर्ण शील भय राग रहित । सप्तम ब्रहाचर्य प्रतिमा हो नव प्रकार की वाड सहित ॥१०॥ घर व्यापार आदि सबन्धी सब प्रकार आरम्भ तजे । आत्म शुद्धि हो दयाभाव हो प्रतिमा आरम्भत्याग भजे ।।११।। आकुलता का कारण गृह सपति परिग्रह सब त्यागे । धार “परिग्रह त्याग" सुप्रतिमा हो विरक्त निजमे जागे ।।१२।। गृह व्यापारिक किसी कार्य की अनुमति कभी नहीद हम । अनुमति त्याग सुदशमी प्रतिमा उदासीन हो जगसे हम ॥१३॥ ग्यारहवी उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा के है दो भेद प्रमुख । खड वस्त्र सह क्षुल्लक होते एक लगोटी से ऐलक ।।१४।। उद्दिष्ठी भोजन के त्यागी विधि पूर्वक भोजन करते । एक कमडुल एक पिछी रख वृत्ति गोचरी को धरते ।।१५।। इनके पालन करने वाले सच्चे श्रावक श्रेष्ठ व्रती ।। एक देशव्रत के धारी ये पचम गुणस्थान वर्ती ॥१६।। जब इन ग्यारह प्रतिमाओ का पालन होता निरतिचार । पूर्ण सकल चारित्र ग्रहण कर करते मुनिव्रत अगीकार ।।१७।। दृढता आए श्रेणी चढकर शुक्ल ध्यानमय ध्यान गहे । त्रेसठ प्रकृति विनाश कर्म की अनुपम केवलज्ञान लहे ।।१८।।
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श्री वासुपूज्य नाथ जिन पूजन दृष्टि विकार याकि भेद को कभी नही करती स्वीकार ।
किन्तु अभेद अखड द्रव्य निज ध्रुव को ही करती स्वीकार ।। जो इस पथ पर दर्द हो चलता पा जाता है मोक्ष महान । जो विभाव मे अटका वह शिव पद से भटकामूढ अजान ।। ॐ ह्री श्री श्रेयासनाथ जिनेन्द्राय पूर्णायं नि स्वाहा । शोभित गेडा चिन्ह चरण में प्रभु श्रेयासनाथ उरथार । मन वच तन जो भक्तिभाव से पूजे वे होते भवभार ।।
इत्याशीर्वादः जापयमत्र -ॐ ह्री श्री श्रेयासनाथ जिनेद्राय नम ।
श्री वासुपूज्य नाथ जिन पूजन जय श्री वासुपूज्य तीर्थकर सुर नर मुनि पूजित जिनदेव । ध्रुव स्वभावनिज का अवलबन लेकर सिद्ध हुए स्वयमेव ।। घाति अघानि कर्म सब नाशे तीर्थकर द्वादशम् सदेव । पूजन करता है. अनादि की मेटो प्रभु मिथ्यात्व कुटेव ।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्यदेव जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट् । ॐ ही श्री वासुपूज्यदेव जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ ठ ठ । ॐ ह्री श्री वासुपूज्यदेव जिनेन्द्र अत्र मम सनिहितो भव भव वषट्। जल से तन बार-बार धोया पर शुचिता कभी नहीं आई। इस हाड़-मास मयचर्मदेह का जन्म-मरण अति दुखदाई ॥ त्रिभुवन पति वासुपूज्य स्वामी प्रभु मेरी भव बाधा हरलो । चारो गतियो के सकट हर ह प्रभु मुझको निज सम करलो॥१॥ ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । गुण शीतलता पाने को मैं चन्दन चर्चित करता आया । भव चक्र एक भी घटानहीं सताप न कुछ कम होपाया । त्रिभु ॥२॥ ॐ ह्री की वासुपूज्यदेव जिनेंद्राय ससारताप विनाशनाय चदनं नि । मुक्ता सम उज्ज्वल तदल से नित देह पुष्ट करता आया । तन की जर्जरता रुकी नहीं भवकष्ट व्यर्थ भरता आया । त्रिभु ॥३॥ ॐ ही की वासुपूज्यदेव जिनेंद्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि ।
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जैन पूजांजलि जो बीत गई सो बीत गई जो शेष रही उसको सभाल ।
भव भाग देह से हो उदास पाले सम्यक्तत् परम विशाल । । पुष्पो की सुरभि सुहाई प्रभु पर निज की सुरभि नहीं भाई । कदर्प दर्प की चिरपीडा अबतक न शमन प्रभु हो पाई ॥त्रिभु ॥४॥ ॐ ही श्री वासुपूज्यदेव जिनेद्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्प नि । षट् रस मय विविध विविध व्यजन जी भर-भर कर मैंनेखाये । पर भूख तृप्त न हो पाई दुख क्षुधा रोग के नित पाये । त्रिभु ।।५।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेद्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । दीपक नित ही प्रज्जवलित किये अन्तरतम अबतक मिटानहीं । मोहान्धकार भी गया नही अज्ञान तिमिर भी हटा नहीं । त्रिभु ।।६।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेद्राय मोहाधकार विनाशनाय दीप नि । शुभ अशुभ कर्म बन्धन भाया सवर का तत्त्व कभी न मिला । निर्जरित कर्म कैसे हो जब दुखमय आश्रव का द्वारखुला ।।त्रिभु ।।७।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेद्राय अष्टकर्म विश्वसनाय धूप नि । भौतिक सुख की इच्छाओ का मैने अब तक सम्मान किया । निर्वाण मुक्ति फलपाने को मैने न कभी निज ध्यानकिया ।त्रिभु ।।८।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेंद्राय महामोक्षफल प्राप्ताय फल नि ।। जब तक अनर्घ पद मिले नही तब तक मै अर्घ चढा । निजपद मिलते ही हे स्वामी फिर कभी नही मै आआ त्रिभु ॥९॥ ॐ ही श्री वासुपूज्य जिनेद्राय अनर्धपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक त्यागा महा शुक्र का वैभव, मॉ विजया उर मे आये । शुभ अषाढ कृष्ण षष्ठी को देवो ने मगल गाये ।। चम्पापुर नगरी की कर रचना, नव बारह योजन विस्तृत । वासुपूज्य के गर्भोत्सव पर हुए नगरवासी हर्षित ।।१।। ॐ ही श्री अषाढकृष्णषष्ठया गर्भमगलप्राप्ताय श्रीवासुपूज्य जिनेद्राय अर्घ्य नि । फागुन कृष्णा चतुर्दशी को नाथ आपने जन्म लिया । नृप वसुपूज्य पिता हर्षाये भरत क्षेत्र को धन्य किया ।
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श्री वासुपूज्यजिन पूजन क्षण क्षण क्यों भाव मरण करता मिथ्यात्व मोह के चक्कर में ।
दिनरात भयकर दुख पाता फिर भी रहता है पर घर में । । गिरि सुमेरु पर पाण्डुक वन मे हुआ जन्म कल्याणमहान । वासुपूज्य का क्षीरोदधि से हुआ दिव्य अभिषेक प्रधान ।।२।। ॐ ही श्री फाल्गुन कृष्णचतुर्दश्या जन्ममलगप्राप्ताय श्रीवासुपूज्य जिनेंद्राय अर्घ्य नि स्वाहा। फागुन कृष्ण चतुर्दशी को वन की ओर प्रयाण किया । लौकातिक देवर्षि सुरो ने आकर तप कल्याण किया । । तब नम सिद्धेभ्य कहकर प्रभु ने इच्छाओ का दमन किया वासुपूज्य ने ध्यान लीन हो इच्छाओ का दमन किया ॥३॥ ॐ ह्री श्री फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्या तपोमगल प्राप्ताय श्री वासुपूज्य जिनेद्राय अर्घ्य नि। माघ शुक्ल की दोज मनोरम वासुपूज्य को ज्ञान हुआ । समवशरण मे खिरी दिव्यध्वनि जीवो का कल्याण हुआ । । नाश किये घन घाति कर्म सव केवलज्ञान प्रकाश हुआ । भव्यजनो के हृदय कमल का प्रभु से पूर्ण विकाश हुआ ।।४।। ॐ ह्री श्री माघशुक्लद्वितीयाया केवलज्ञान प्राप्ताय श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय अयं नि । अतिम शुक्ल ध्यानधर प्रभु ने कर्म अघाति कि एचकचूर । मुक्ति वधू के क्त हो गये योग मात्र कर निज से दर ।। भादव शुक्ला चतुर्दशी चम्पापुर से निर्वाण हुआ । मोक्ष लक्ष्मी वासुपूज्य ने पाई जय जय गान हुआ ।।५।। ॐ ह्री श्रीभाद्रपदशुक्लचतुर्दश्या मोक्षमगलप्राप्ताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अयं नि स्वाहा ।
जयमाला वासुपूज्य विद्या निधि विध्न विनाशक वागीश्वर विश्वेश । विश्वविजेता विश्वज्योति विज्ञानी विश्वदेव विविधेश।।१।। चम्पापुर के महाराज वसुपूज्य पिता विजया माता । तुमको पाकर धन्य हुए हे वासुपूज्य मगल दाता।।२।।
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जैन पूजाजलि निज का अभिनन्दन करते ही मिथ्यात्व मूल से हिलता है ।
निज प्रभु का वदन करते ही आनद अतीन्द्रिय मिलता है । । अष्ट वर्ष की अल्प आयु मे तुमने अणुव्रत धार लिया । यौवन वय मे ब्रह्मचर्य आजीवन अगीकार किया ।।३।। पच मुष्टि कचलोच किया सब वस्त्राभूषण त्याग दिये । विमल भावना द्वादश भाई पच महाव्रत ग्रहण किये।।४।। स्वय बुद्ध हो नम सिद्ध कह पावन सयम अपनाया । पति, श्रुति, अवधि जन्म से था अब ज्ञान मन पर्यय पाया ।।५।। एक वर्ष छास्थ मौन रह आत्म साधना की तुमने । उग्र तपस्या के द्वारा ही कर्म निर्जरा की तुमने ।।६।। श्रेणीक्षपक चढे तुम स्वामी मोहनीय का नाश किया । पूर्ण अनन्त चतुष्टय पाया पद अरहत महान लिया ।।७।। विचरण करके देश देश मे मोक्ष मार्ग उपदेश दिया । जो स्वभाव का साधन साधे, सिद्ध बने, सदेश दिया ।।८।। प्रभु के छयासठ गणधर जिनमे प्रमुख श्रीमदिर ऋषिवर । मुख्य आर्यिका वरसेना थी नृपति स्वयभू श्रोतावर ।।९।। प्रायश्चित व्युत्सर्ग, विनय, वैरुयावृत्त स्वाध्याय अरुध्यान । अन्तरग तप छह प्रकार का तुमने बतलाया भगवान ।।१०।। कहा वाह्य तप छ प्रकार उनोदर कायक्लेश अनशन । रस परित्यागसुव्रत परिसख्या, विविक्त शय्यासन पावन ।।११।। ये द्वादश तप जिन मुनियो को पालन करना बतलाया । अणुव्रत शिक्षाप्रत गुणवत द्वादशवत श्रावक का गाया ।।१२।। चम्पापुर मे हुए पचकल्याण आपके मगलमय । गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष, कल्याण भव्यजन को सुखमया।१३।। परमपूज्य चम्पापुर की पावन भू को शत्-शत् वन्दन।। वर्तमान चौबीसी के द्वादशम् जिनेश्वर नित्य नमन ।।१४।। मैं अनादि से दुखी, मुझे भी निज बल दो भववास हरूँ। निज स्वरूप का अवलम्बन ले अष्टकर्म अरि नाश करूँ।।
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श्री विमलनाथ जिन पूजन निज निराकार से जुड़ जाओ साकार रुप का छोड ज्यान ।
आनद अतीन्द्रिय सागर में बहते जाओ ले भेद ज्ञान ।। ॐ ह्री श्री वासुपूज्य जिनेंद्राय गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्षकल्याणप्राप्ताय पूर्णाऱ्या नि ।
महिष चिंह शोभित चरण, वासुपूज्य उर धार । मन वच तन जो पूजते वे होते भव पार।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र - ॐ ही श्री वासुपूज्य जिनेंद्राय नम ।
श्री विमलनाथ जिन पूजन जय जय विमलनाथ विमलेश्वरविमल ज्ञानधारी भगवान । छयालीसगुण सहित, दोषअष्टादश रहित वृहत विद्वान ।। विश्वदेव विश्वेश्वर स्वामी विगतदोष विक्रमी महान । मोक्षमार्ग के नेता प्रभुवर तुमने किया विश्व कल्याण ।। ॐ ही श्री विमलनाथ जिनेद अत्र अवतर-अवतर सौषट ॐ ह्री श्री विमलनाथ जिनेन्द्र अत्रतिष्ठ तिष्ट ठ ठ । ॐ ह्री श्री विमलनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सनिहितो भव-भववषट विमलज्ञान जल की निर्मल पावनता अन्तर मे भरा। जन्ममरण की व्यथा नाशहित प्रभु सम्यक्त्व प्राप्तकरलू।। विमलनाथ को मन वच काया पूर्वक नमस्कार करलूँ । शुद्धआत्मा को प्रतीति कर यह ससार भार हरलूँ ॥१॥ ॐ ह्री श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय जन्म जरामृत्यु विनाशनाय जल नि । विमलज्ञान का शीतल पावन चदन अन्तर मे भरलूँ । भव सताप हरने को प्रभु विनयत्व प्राप्त करलूँ ॥ विमल ।।२।। ॐ ह्री श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय ससारतापविनानाय चदन नि । विमलज्ञान के अति उज्ज्वल अक्षत निज अन्तर मे भरले । निजअक्षय अखड पद पाने प्रभु सरलत्व प्राप्तकरलें ॥ विमल ॥३॥
ॐ ही श्री विमलनाथ अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि विमलज्ञान के परम शुद्ध पुष्यों को अन्तर में भरलूँ । कामदर्प को चूर करूँ प्रभु निष्कामत्व प्राप्त करलें ॥विमल ।।४।।
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जैन पूजाजलि आत्म भूत लक्षण सम्यक दर्शन का स्वपर भेद विज्ञान ।
समकित होते ही होती है निर्विकल्प अनुभूति महान ।। ॐ ह्री श्री विमलनाथ जिनेंद्राय कामवाण विध्वरानाय पुष्प नि । विमलज्ञान नैवेद्य सुहावन शुचिमय अन्तर मे भरलूँ । अब अनादि का क्षुधारोगहर प्रभुविमलत्व प्राप्त करवू ।।विमल ।।५।। ॐ ह्री श्री विमलनाथ क्षुधागेग विनाशनाय नैवेद्य नि । विमलज्ञान का जगमग दीप जला अन्तरतम को हरलें । मिथ्यातम का तिमिर नाशकर सर्वज्ञत्व प्राप्त करलूँ । विमल ।।६।।
ॐ ह्रीं श्री विमलनाथ जिनेद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । विमलज्ञान की चिन्मय धूप सुगन्धित अन्तर मे भरलें । कर्मशत्रु की सर्व शक्ति हर प्रभु अमरत्वप्राप्त करनू ।। विमल ॥७॥ ॐ ह्री श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । विमलजान फल महामोक्ष पद दाना अन्तर मे भरलूँ । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध स्वपद पा पूर्णशिवत्य प्राप्तकरलूँ विमल ।।८।। ॐ ह्री श्री विमलनाथ जिनेद्राय महा मोक्ष फल प्राप्ताय फल नि । विमलज्ञान का निज परिणतिमय पद अनर्घ उरमे भरलूँ । अचल अतुलअविनाशी पद पा सर्व प्रभुत्व प्राप्तकरलू ।। विमल ।।९।। ॐ ह्री श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अनर्धपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक पुरी कम्पिला धन्य हो गई सहस्त्रार तज तुम आए । ज्येष्ठ कृष्ण दशमी को माता जयदेवी ने सुख पाए । षटनवमास रत्न वर्षा के दृश्य मनोरम दर्शाये । दिक्कुमारियो ने सेवाकर विमलनाथे मगल गाए ।।१।। ॐ ही ज्येष्ठ कृष्ण दशम्या गर्भ मगल प्राप्ताय श्रीविमलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । कापिल्य नृप श्री कृतवर्मा के शुभ गृह मे जन्म हुआ । राजभवन मे सुरपति का अनुपम नाटक नृत्य हुआ । माघ मास की शुक्ल चतुर्थी गिरि सुमेरु अभिषेक हुआ । जय जय विमलनाथ जन्मोत्सव परमहर्ष अतिरेक हुआ ॥२॥
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श्री विमलनाथ जिन पूजन
२२१ ज्ञानी जड स्वरुप को अपना कभी मानता नहीं त्रिकाल ।
अज्ञानी तन से ममत्व कर पाता है पव कष्ट विशाल । । ॐ हीं माघ शुक्ल चतुथ्यां जन्म मंगल प्राप्ताय श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । माघ मास की शुक्ल चतुर्थी उरवैराग्य जगा अनुपम । लौकातिक सुर साधु साधु कह प्रभुविराग करते दृढतम ॥ जम्बू वृक्षतले वस्त्राभूषण का त्याग किया सुखतम । जय जय विमलनाथ प्रभुतप कल्याण हुआ जगमे अनुपम ॥३॥ ॐ ह्री माघ शुक्ल चतुर्थ्यां तपो मगल प्राप्ताय श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि तीनवर्ष छदमस्थ रहै प्रभु पाया पावन केवल ज्ञान। माघ शुक्ल षष्ठम को मगल उत्सव जग मे हुआ महान ।। समवशरण मे वस्तु तत्व का हुआ परम सुन्दर उपदेश।। जय जय विमलनाथ तीर्थकर जय जय त्रयोदशमतीर्थेश।।४॥ ॐ ह्री माघ शुक्ल षष्ठया ज्ञान कल्याणा प्राप्ताय श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि शुभ अषाढ शुक्ल अष्टम को चउ अघातिया करके नाश। . गिरि सम्मेदशिखर सुवीरकुल कूट हुआ निर्वाण प्रकाश।। ऊर्ध्वलोक मे गमन किया प्रभु पाया सिद्धलोक आवास । जय जय विमलनाथ तीर्थकर हुआ मोक्षकल्याणक रास।।५।। ॐ ही अषाढ शुक्ल अष्ट्या मोक्ष मगल प्राप्ताय श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय अयं नि
जयमाला विमलनाथ विमलेश विमलप्रभ विमलविवेक विमुक्तात्मा । विचारज्ञ विद्यासागर विद्यापति विविक्त विद्यात्मा ॥१॥ तेरहवे तीर्थकर प्रभु त्रैलोक्यनाथ जिनवर स्वामी । तेरहविधि चारित्र बताया तुमने हे शिव सुख धामी ।।२।। पचपन गणधर से शोभित प्रभु मुख्य हुए मदिर गणधर । मुख्य आर्यिका पद्मा, श्रोता पुरुषोत्तम, सुरनर मुनिवर ॥३॥ पचमहावत पचसमिति त्रय गुप्ति श्रमण मुनिकाचारित । है व्यवहार चारित्र श्रेष्ठनिश्चय स्वरूप आचरण पवित्र ॥४॥
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जैन पूजाजलि पाप पुण्य दोनों से वर्जित पूर्ण शुद्ध है आत्मा ।
भव्य अलौकिक पथ पर चल कर होता है सिद्धात्मा ।। हिसा, झूठ, कुशील परिग्रह, चोरी पाच पाप का त्याग । मन, वच, काया, कृत, कारित, अनुमोदन से कषाय सबत्याग।।५।। योनि, जीव, मार्गणा स्थान, कुल, भेद जान रक्षा करना । तज आरम्भ, अहिंसावत परिणाम सदा पालन करना ।।६।। राग, द्वेष, मद, मोह आदि से हो न मृषा परिणाम कभी । सदा सर्वदा सत्य महाव्रत का पालन है पूर्ण तभी ।।७।। ग्राम नगर वन आदिक ही पर वस्तुग्रहण का भाव न हो । यही तीसरा है अचौर्यव्रत परपदार्थ मे राग न हो ॥८॥ देख रुप रमणी का उसके प्रति वाछा का भाव न हो । मैथुन सज्ञा रहित शुद्धवत ब्रह्मचर्य का पालन हो ।।९।। पर पदार्थ परद्रव्यो मे मूर्छा ममत्व न किचित हो । त्याग, भेद चौबीस परिग्रह के अपरिग्रह शुभ व्रत हो ।।१०।। पचमहावत दोष रहिन अतिचार रहित हो अतिशुचिमय। पूर्ण देश पालन करना आसन्न भव्य को मगलमय ।।११।। ईर्या भाषा समिति एषणा अरु आदान निक्षेषण जान । प्रतिष्ठापना समिति पाच का पालन करते माधुमहान।।१२।। केवल दिन मे चार हाथ लख प्रासुक पथपर जो जाता । त्रस थावर प्राणी रक्षाकर ईर्या समिति पाल पाता ।।१३।। परनिन्दा, पेशून्य, हास्य, कर्कश, भाषा, स्वप्रशसा तज। हितमितप्रियही वचनबोलना भाषासमिति स्वय को भज ।।१४।। सयम हित नवकोटि रूप से प्रासुक शुद्ध भोजन करना । यही एषणा समिति कहाती विधि पूर्वक आहार करना ।।१५।। शास्त्र कमडुल पीछी आदिक सयम के उपकरण सभी । यत्ना पूर्वक रखना है आदान निक्षेपण समिति सभी ।।१६।। पर उपरोध जतु विरहित प्रासुक भूपर मल को त्यागे । प्रतिष्ठापना समिति सहज हो जागरुक निज में जागे ।।१७।।
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श्री अनन्तनाथ जिन पूजन
२२३ जायक तो केवल झाषक है तीन लोक से न्यारा है ।
अविनाशी आनंद बंद है पूर्ण ज्ञान सुखकारा है 11. पचसमिति व्यवहार समिति निश्चय से निज सम्यक पाणति । सत्वलीन जयगुप्ति सहित ज्ञानादिक थर्मों की संहति ॥१८॥ कालुष सज्ञा मोहराग द्वयादि अशुभ भावों को तज । परमागम का चिंतन करना मनोगुप्ति व्यवहार सहज ॥१९॥ पाप हेतु विकथाए तज करना असत्य की निवृत्ति सदा । वचन गुप्ति अन्तर वचनो अरु बहिर्वचन मे नहीं कदा ॥२०॥ बंधन छेदन मारण आकुचन व प्रसारण इत्यादिक । कायक्रियाओ से निवृत्ति है कायगुप्ति निज सुखदायिका॥२१॥ तेरह विधि चारित्रपाल जो करना कायोत्सर्ग स्वय । त्याग शुभाशुभ, ध्यानमयी निजभजता जो शुद्धात्मपरम ।।२२।। घाति कर्म से रहित परम केवलज्ञानादि गुणो से युत । हो जाते अरिहतदेव चौंतीस अतिशयो से भूषित ।।२३।। अष्टकर्म के बधन को कर नष्ट अष्टगुण पाता है । वह लोकाग्र शिखर पर स्थिर हो सिद्धस्वपद प्रगटाता है।।२४।। मै भी बन सपूर्ण सिद्ध निज पद पाऊँ ऐसा बल दो । हे प्रभु विमलनाथ जिनस्वामी पूजन का शिवमयफल हो ।॥२५॥ ॐ ह्री श्री विमलनाथ जिनेन्द्राय पूर्णायं नि स्वाहा ।
शूकर चिन्ह चरण मे शोभित विमल जिनेश्वर का पूजन । मन वच तन से जो करते हैं वे पाते है मुक्तिसदन ।।२६।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र - ॐ ही श्री विमलनाथ जिनेंद्राय नम ।
श्री अनन्तनाथ जिन पूजन जय जय जयति अनन्तनाथ प्रभु शुद्ध ज्ञानधारी भगवान् । परम पूज्य मंगलमय प्रभुवर गुण अनन्तधारी भगवान् ।। केवलज्ञान लक्ष्मी के पति भव भय दुखहारी भगवान् । पाम शुद्ध अव्यक्त अगोचर भव भव सुखकारी भगवान् ।।
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जैन पूजाजलि आत्म गगन मडल में ज्ञानामृत रस पीते हैं ज्ञानी ।
बहिर्भाव में रहने वाले प्यासे रहते अज्ञानी ।। जय अनन्त प्रभु अष्टकर्म विध्वसक शिवकारी भगवान् । महामोक्षपति परम वीतरागी जग हितकारी भगवान ।। ॐ ह्री श्री अनतनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट् ॐ ही श्रीअनतनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ह्री श्री अनतनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव
वष्ट
मैं अनादि से जन्म मरण की ज्वाला मे जलता आया । सागरजल से बझी न ज्वाला तो में सम्यक जल लाया ।। जय जिनराज अनन्तनाथ प्रभु तुम दर्शन कर हर्षाया । गुण अनन्त पाने को पूजन करने चरणो मे आया ।।१।। ॐ ह्रीं श्री अनतनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । भव पीडा के दुष्कर बन्धन से न मुक्त प्रभु हो पाया । भवा ताप की दाह मिटाने मलयागिरि चदन लाया ।।जय ।।२।। ॐ ह्री श्री अनतनाय जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । पर भावो के महाचक्र मे पस कर नित गोता खाया ।। भव समुद्र से पार उतरने निज अखण्ड तदुल लाया ।। जय ।।३।। ॐ ही श्री अनतनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि । कामवाण की महा व्याधि से पीडित हो अति दुख पाया । सुदृढ भक्ति नौका मे चढकर शील पुष्प पाने आया । जय ।।४।। ॐ ह्री श्री अनतनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । विविध भाँति के षटरस व्यजन खाकर तृप्त न हो पाया । क्षुधा रोग से विनिमुक्ति होने नैवेद्य भेट लाया ।।जय ।।५।। ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथ जिनेंद्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । पर परिणति के रूप जाल मे पढ निज रूप न लखपाया । मिथ्या भ्रम हर ज्ञान ज्योति पाने को नवलदीप लाया ॥जय ॥६॥ ॐ हीं श्री अनन्तनाथ जिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । परक तिर्यंच देव नर गति मे भव अनन्त घर पछताया । चहुगति का अभाव करने को निर्मल शुद्ध धूप लाया ।जय ॥७॥
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श्री अनन्तनाथ जिन पूजन शुद्ध आत्म अनुभव होते ही द्वैत नहीं भासित होता ।
चिन्मय एकाकार एक चिन्मात्र रुप दर्शित होता । । ॐ ही श्री अनन्तनाथ जिनेद्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । भाव शुभाशुभ दुख के कारण इनसे कभी न सुख पाया । सवर सहित निर्जरा द्वारा मोक्ष सुफल पाने आया ।।जय ॥८॥ ॐ ह्री श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । देह भोग ससार राग मे रहा विराग नही भाया । सिद्ध शिला सिंहासन पाने अर्घ सुमन लेकर आया ।जय ॥९॥ ॐ ह्री श्री अनन्तनाथ जिनेन्द्राय अनर्घपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंच कल्याणक कार्तिक कृष्णा एकम् के दिन हुआ गर्भ कल्याण महान । माता जय श्यामा उर आये पुष्पोत्तर का त्याग विमान । नव बारह योजन की नगरी रची अयोध्या श्रेष्ठ महान । जय अनन्त प्रभु मणि वर्षा की पन्द्रह मास सुरो ने आन ॥१॥ ॐ ह्री श्री कार्तिककृष्ण प्रतिप्रदाया गर्भकल्याण प्राप्ताय श्रीअनतनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । नगर अयोध्या सिंहसेन नृप के गृह गूजी शहनाई। ज्येष्ठ कृष्ण द्वादश को जन्मे सारी जगती हर्षायी ।। ऐरावत पर गिरि सुमेरु ले जा सुरपति नेन्हवन किया । जय अनन्त प्रभु सुर मुरागनाओ ने मगल नृत्य किया ।।२।। ॐ ही श्री ज्येष्ठ कृष्ण द्वादश्या जन्मकल्याण प्राप्ताय श्रीअनन्तनाथ जिनेन्द्राय अयं नि उल्कापात देखकर तुमको एक दिवस वैराग्य हुआ । ज्येष्ठ कृष्ण द्वादश को स्वामी राज्यपाट का त्याग हुआ । गये सहेतुक वन मे तरु अश्वस्थ निकट दीक्षा धारी । जय अनन्तप्रभु नग्न दिगम्बर वीतराग मुद्रा धारी ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री ज्येष्ठ कृष्णद्वादश्या तपकल्याण प्राप्ताय श्रीअनन्तनाथ जिनेन्द्राय अयं
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जैन पूजाजलि त व्रतादि में धर्म मान कर करता रहता है शुभ भाव ।
कैसे हो मिथ्यात्व मंद अरु कैसे पाए आत्म स्वभाव । । एक मास तक प्रतिमायोग धार कर शक्ल ध्यान किया । चार घातिया कर्म नाशकर तुमने केवल ज्ञान लिया । चैत्र मास की कृष्ण अमावस्या को शिव सदेश दिया । जय अनन्तजिन भव्यजनो को परम श्रेष्ठ उपदेशदिया ॥४॥ ॐ ही श्री चैत्रकृष्णअमावस्याया मोक्षमगल प्राप्ताय श्री अनन्तनाय जिनेन्द्राय अयं नि
जयमाला चतुर्दशम् तीर्थकर स्वामी पूज्य अनन्तनाथ भगवान। दिव्यध्वनि के द्वारा तुमने किया भव्य जन का कल्याण ॥१॥ थे पचास गणधर जिनमे पहले गणधर थे जय मुनिवर । सर्व श्री थी मुख्य आर्यिका श्रोता भव्य जीव सुर नर ।।२।। चौदह जीवसमास मार्गणा चौदह तुमने बतलाये । चौदह गुणस्थान जीवो के परिणामो के दर्शाये।।३।। बादर सूक्ष्म जीव एकेन्द्रिय पर्याप्तक व अपर्याप्तक । दो इन्द्रिय त्रय इन्द्रिय चतुइन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्तका ।४।। सज्ञी और असज्ञी पचेन्द्रिय पर्याप्त अपर्याप्तक । ये ही चौदह जीवसमास जीव के जग मे परिचायका ।५।। गति इन्द्रिय कषाय अरु लेश्या वेद योग सयम सम्यक्त्व । काय अहार ज्ञान दर्शन अरु है सज्ञीत्व और भव्यत्व ।।६।। यह चौदह मार्गणा जीव की होती है इनसे पहचान । पचानवे भेद है इनके जीव सदा है सिद्ध समान ।।७।। गति है चार पाच इन्द्रिय छह लेश्याएँ पच्चीस कषाय । वेद तीन सम्यक्त्व भेद छह पन्द्रह योग और षटकाया।८।। दो आहार चार दर्शन हैं, सयम सात अष्ट हैं ज्ञान । दो सज्ञीत्व और है दो भव्यत्व मार्गणा भेद प्रधान।।९।। गुणस्थान मार्गणा व जीवसमास सभी व्यवहार कथन । निश्चय से ये नहीं जीव के इन सबसे अतीत चेतन १०॥
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श्री अनन्तनाथ जिन पूजन
२२७ वस्तु स्वभाव यथार्थ जानने का जब तक पुरुषार्थ नही ।
भाव भासना बिन तत्वों की श्रद्धा भी सत्यार्थ नहीं ।। मूल प्रकृतियाँ कर्म आठ ज्ञानावरणादिक होती है । उत्तर प्रकृति एक सौ अडतालीस कर्म की होती है ॥११॥ गुणस्थान मिथ्यात्व प्रथम मे एक शतक सत्रह का बध ।। दूजे सासादन मे होता एक शतक एक का बन्ध ।।१२।। मिश्र तीसरे गुणस्थान में प्रकृति चौहत्तर का हो बन्ध । चौथे अविरति गुस्थान मे प्रकृति सतत्तर का हो बन्ध।।१३।। पचम देशविरति मे होता उनसठ कर्म प्रकृति का बन्ध । गुणस्थान षष्टम् प्रमत्त मे त्रेसठ कर्म प्रकृति का बन्ध ।।१४।। सप्तम् अप्रमत्त मे होता उनसठ कर्म प्रकृति का बन्ध । अष्ट अपूर्वकरण मे हो 'अट्ठावन कर्म प्रकृति का बन्ध।।१५।। नौ मे अनिवृत्तिकरण मे होता है बाईस प्रकृति का बन्ध । दमवे सूक्ष्मसाम्पराय मे सत्ररह कर्म प्रकृति का बन्ध ।।१६।। ग्यारहवे उपशातमोह मे एक प्रकृति माता का बन्ध । क्षीणमोह बारहवे मे है एक प्रकृति साता का बन्ध ।।१७।। है सयोग केवली त्रयोदश एक प्रकृति माता का बन्ध । है अयोग केवली चतुर्दश किसीप्रकृति का कोई न बन्ध ।।१८।। अष्टम गुणस्थान से उपशम क्षपक श्रेणी होती प्रारम्भ । उपशम तो, दस, ग्यारहतक है नवदस बारह क्षायक रम्य ।।१९।। अविरत गुणस्थान चोथे मे होता सात प्रकृति का क्षय । पचम षष्टम् सप्तम मे होता है तीन प्रकृति का क्षय।।२०।। नवमे गुणस्थान में होती है छत्तीस प्रकृति का क्षय । दसवे गुणस्थान मे होता केवल एक प्रकृति का क्षय।।२१।। क्षीणमोह बारहवे मे हो सोलह कर्म प्रकृति का क्षय । इस प्रकार चौथे से बारहवे तक सठ प्रकृति विलय ।।२२।। गुणस्थान तेरहवे मे सर्व अनन्त चतुष्टयवान । जीवन मुक्त परम औदारिक सकल ज्ञेय ज्ञायक भगवान ॥२३॥
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२२८
जैन पूजाजलि शुद्ध बुद्ध हू ज्ञायक हु ये सब विधि के विकल्प भी छोड । राग नहीं मैं बध नही मैं ये निषेध के विकल्प तोड़ । ।
चौदहवे मे शेष प्रकृति पिच्चासी का होता है क्षय । प्रकृति एक सौ अड़तालीस कर्म की होती पूर्ण विलय।।२४।। ऊर्ध्व गमनकर देहमुक्त हो सिद्ध शिला लोकाग्र निवास । पूर्ण सिद्ध पर्याय प्रगट, होता है सादि अनन्त प्रकाश ।।२५।। काल अनन्त व्यर्थ ही खोये दुख अनन्त अब तक पाये । द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव-भव परिवर्तन पाचो पाये।।२६।। पर भावो मे मग्न रहा तो रही विकारी ही पर्याय । निजस्वभाव का आश्रय लेता होती प्रगट शुद्ध पर्याय।२७।। अष्ट कर्म से रहित अवस्था पाऊँ परम शुद्ध हे देव । शुद्ध त्रिकाली ध्रुव स्वभाव से मैं भी सिद्ध बनूँ स्वयमेव ।।२८।। इसीलिए हे स्वामी मैने अष्ट द्रव्य से की पूजन । तुम समान मै भी बनजाऊँ ले निज ध्रुव का अवलब ।। ॐ ह्री श्री अनतनाथ जिनेन्द्राय गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण कल्याण प्राप्ताय पूर्णाऱ्या नि
सेही चिन्ह चरण मे शोभित श्री अनतप्रभु पद उर धार । मन वच तन जो ध्यान लगाते हो जाते भव सागर पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र- ॐ ह्री श्री अनननाथ जिनेंद्राय नम
श्री धर्मनाथ जिन पूजन धर्म धर्मपति धर्म तीर्थयुत ध्यान धुरन्धर प्रभु ध्रुववान । धर्म प्रबोधन धर्म विनायक ध्यान ध्येय ध्याता धीमान । पच दशम तीर्थकर धर्मी धर्म तीर्थकर्ता धर्मेन्द्र । धर्म प्रचारक धर्मनाथ प्रभु जयति धर्मगुरु धर्म जिनेन्द्र ।। ॐ ह्री श्री धमनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट् ॐ ह्री श्री धमनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ह्री श्री धर्मनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सन्निहितो भव भव
वषट ।
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श्री धर्मनाथ जिन पूजन
२२९ तीर्थ यात्रा जप तप करना मात्र नग्नता धर्म नही ।
वीतराग निज धर्म प्रगट होते ही रहता कर्म नही ।। धर्म भावना का जल लेकर क्षमाधर्म उर लाऊँ । जन्मरोग का नाशकरूँ मै आत्म ध्यान चित लाऊँ ।। धर्म धुरन्धर धर्मनाथ प्रभु धर्म चक्र के धारी । हे धर्मेश धर्म तीर्थकर शुद्ध धर्म अवतारी ॥१॥ ॐ ह्री श्री धर्मनाथ जिनेन्द्र जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । धर्म भावना का चन्दन ले धर्म मार्दव ध्याऊँ । भव भव की पीडा नाशें आत्म धर्म गुण गाऊँ ॥धर्म धुर ।।२।। ॐ ही श्री धर्मनाथ जिनेद्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि ।। धर्म भावना के अक्षत ले धर्म आर्जव ध्याऊँ। निज अखडपद प्राप्तकरूँमै आत्मधर्म चित लाऊँ ।। धर्म धुरधर ॥३॥
ॐ ही श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि । धर्म भावना पुष्प सजोऊँ सत्य धर्म मन भाऊँ । कामवाण की शल्य मिटाऊँआत्म धर्मगुण गाऊँ ।।धर्म धुरधर ॥४।। 3. ही श्री धर्मनाथ जिनेद्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । धर्म भावना के चरू लाऊ शौच धर्म उर लाऊँ। क्षुधा रोग का नाश करूँ मै आत्म धर्म चितलाऊँ ।।धर्म धुरधर ।।५।। ॐ हो श्री धर्मनाथ जिनेद्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । धर्म भावना दीप जलाऊँ सयम धर्म जगाऊँ। मोह तिमिर अज्ञान हटाऊँ आत्म धर्म गुण गाऊँ ।। धर्म धुरधर ।।६।। ॐ ही श्री धर्मनाथ जिनेद्राय मोहाधकार विनाशनाय दीप नि । धर्म भावना धूप चढाऊँ मै तप धर्म बढाऊँ । अष्टकर्म निर्जरा करूँमै आत्म धर्म चित लाऊँ ।। धर्म धुरधर।।७।। ॐ ह्री श्री धर्मनाथ जिनेद्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । धर्म भावना का फल पाऊँ त्याग धर्म मन लाऊँ । मोक्षस्वपद की प्राप्ति करूँमै आत्मधर्म गुण गाऊँ ।। धर्म धुरधर।।८।। ॐ ह्री श्री धर्मनाथ जिनेनद्राय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि ।
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जैन पूजाजलि सम्यक दर्शन तो स्व लक्ष से ही हो सकता है तत्काल ।
जब तक पर का लक्ष तभी तक मिथ्या दर्शन का जजाल ।। धर्म भावना अर्घ चढाऊँ आकिंचन मन लाऊँ। ब्रहाचर्य निजशील पयोनिधि आत्मधर्म चितलाऊँ ॥धर्म धुरधर ।।९।। ॐ ही श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय अनर्धपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंच कल्याणक त्रयोदशी बैशाख शुक्ल की सुरबाला पगल गाए । तज सर्वार्थ सिद्धि का वैभव देवि सुव्रता उर आए । स्वप्न फलो को जान मुदित माता मन ही मन मुसकाए। जय जय धर्मनाथ तीर्थकर रत्न वृष्टि अनुपम छाए ॥१।। ॐ ही बैशाख शुक्ल त्रयोदश्या गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । माघ शुक्ल की त्रयोदशी को रत्नपुरी मे जन्म हुआ । राजा भानुगज हर्षाये इन्द्रो का आगमन हुआ ।। पाडुक शिला विराजित करके क्षीरोदधि से नव्हन हुआ । जय जय धर्मनाथ त्रिभुवनपति तीन लोक आनद हुआ ।।२।। ॐ ह्री श्री माघशुक्लत्रयोदश्या जन्मकल्याणक प्राप्ताय धर्मनाथ जिनेंद्राय अयं नि । शुक्लमाघ की त्रयोदशी को प्रभु का तप कल्याण हुआ । भवतन भोगो से विरक्त हो उर मे धर्म ध्यान हुआ । राज्यपाट सब त्याग पालकी मे विराज वन मे आए । तरु दधिपर्ण तले दीक्षा धर धर्मनाथ प्रभु हर्षाए ॥३॥ ॐ ह्री माघशुक्ल त्रयोदश्या तप कल्याण प्राप्ताय श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । पोष शुक्ल पूर्णिमा मनोहर जब छास्थ काल बीता । केवलज्ञान लक्ष्मी पाई चार घाति अरि को जीता ।। हुए विराजि समवशरण मे अन्तरीक्ष प्यासन धार । जय जय धर्मनाथ जिनवर शाश्वर उपदेश हुआ सुन्दरा।४।। ॐ ही पौषशुक्ल पूर्णिमायाँ ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय अयं नि ।
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श्री धर्मनाथ जिन पूजन रागादिक से मित्र आत्मा का अनुभव ही श्रेष्ठ महान ।
निज की परसे भिन्न जानने की प्रक्रिया भेद विज्ञान ।। ज्येष्ठ शुक्ल की दिव्य चतुर्थी गिरि सम्मेद हुआ पावन । प्राप्त अयोगी गुणस्थान चौदहवाँ कर जा मुक्ति सदन । सिद्धशिला पर आप विराजे गूजीमुक्ति जग मे जच जयधुन । मोक्ष सुदत्तकूट से पाया धर्मनाथ प्रभु ने शुभ दिन ॥५॥ ॐ हीं ज्येष्ठ शुक्ल मोक्षकल्याणक प्राप्ताय श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय अयं नि ।
जयमाला जय जय धर्मनाथ तीर्थकर जिनवर वृषभ सौख्यकारी । केवलज्ञान प्राप्त होते ही खिरी दिव्य ध्वनि हितकारी ॥१॥ गणधर तिरतालिस प्रमुख ऋषिराज अरिष्टसेन गणधर ।। श्रीसुव्रता मुख्य आर्यिका अगणित श्रोता सुर मुनि नर ॥२॥ वीतराग प्रभु परमध्यानपति भेद ध्यान के दरशाए । आर्तरौद्र अरु धर्म,शुक्ल ये चार ध्यान है बतलाए ।।३।। चिन्ता का निरोध करके एकाग्र जिसविषय मे हो मन । रहता है अन्त मुहूर्त तक यही ध्यान का है लक्षणा।४।। आत, रौद्र तो अप्रशस्त है धर्म शुक्ल है प्रशस्त ध्यान । इन चारो के चार चार है भेद, अनेक प्रभेद सुजान ।।५।। आर्तध्यान के चार भेद है इष्ट वियोग, अनिष्ट सयोग । पीडा जनित भेद है तीजा चौथा है निदान का रोग ।।६।। रौद्रध्यान के चार भेद हिंसानदी व मृषानदी । चौर्यानन्दी भेद तीसरा चौथा परिग्रहानन्दी ॥७॥ हिंसा मे आनन्द मानना हिंसानन्दी ध्यान कुध्यान । झूठ माहि आनन्द मानना ध्यान मृषानन्दी दुखखान ।।८।। चोरी मे आनन्द मानना चौर्यानन्दी ध्यान कुध्यान । परिग्रह मे आनन्द मानना परिग्रहानन्दी दुर्ध्यान ।।९।। आर्त ध्यान अरु रौद्र ध्यान तो खोटी गति के कारण हैं । पहिले गुणस्थान में तो यह भव भव का दुखदारुण हैं ॥१०॥
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जैन पूजाजलि ज्ञान रहित वैराग्य नहीं है मोक्ष मार्ग में काम का ।
ज्ञान सहित वैराग्य भावही सम्यक पथ शिव घाम का । । चौथे पचम छठवे तक यह आर्त ध्यान हो जाता है । रौद्रध्यान चौथे पचम से आगे कभी न जाता है।।११।। धर्म ध्यान के चार भेद हैं आज्ञाविचय अपायविचय । तृतिय विपाकविचय कहलाता चौथा है सस्थानविषय ॥१२॥ जिन आज्ञा से वस्तु चितवन आज्ञाविचय ध्यान सुखमय । कर्मनाश के उपाय का ही चिंतन ध्यान अपायविचय ।।१३।। कर्म विपाक उदय उदीरणादिक चितवन विपाकविचय ।। तीन लोक के स्वरूप का चितवन ध्यान सस्थानविचय।।१४।। इनमे से सस्थानविचय के चार भेद पिडस्थ पदस्थ । तीजा है रूपस्थ ध्यान चौथा है रूपातीत प्रशस्त ।।१५।। है पिडस्थ निजात्म चितवन श्री अर्हत आकति का ध्यान । वर्ण मातृका मत्र ॐ आदिक मे सुस्थिति पदस्थ ध्यान।।१६।। श्री अरहत स्वरूप चितवन निज चिद्रूप ध्यान रूपस्थ । ध्यान त्रिकाली शुद्धात्मा का रूपातीत महान प्रशस्त ।।१७।। पाच धारणाए पिडस्थ ध्यान की ध्याते परम यती । पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारूणी, तत्व रूपमती ॥१८॥ धर्मध्यान का फल सवर निर्जरा मोक्ष का हेतु महान । चौथे गुणस्थान से सप्तम तक होता है धर्म-ध्यान ।।१९।। अष्टम गुणस्थान से लेकर चौदहवे तक शुक्ल ध्यान । शुक्लध्यान का फल साक्षात शाश्वत सिद्धस्वपद भगवान ॥२०॥ ग्यारह अग पूर्व चौदह के ज्ञानी जो पूर्वज्ञ महान । वज्रवृषभनाराचसहनन चरम शरीरी को यह जान ।।२१।। शुक्लध्यान के चार भेद है इनकी महिमा अमित महान । इनके द्वारा ही होता है आठो कमों का अवसान ।।२२।। पृथक्त्व वितर्क विचार और एकत्व वितर्क अविचार पहान । सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाति अरु व्युपरत क्रिया निवर्ति प्रधान।।२३।।
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तीन घातिया का योगी रहता पहिला शक्ल वितर्क विद्या
श्री धर्मनाथ जिन पूजन
२३३ सौ सौ बार नमन कर निज को निज के ही भीतर जारे ।
मिट जाएगे पलक मारते ही पव भ्रम के अधियारे ।। श्रुतवीचार सक्रमण होना ध्यान पृथक्त्व वितर्क विचार । मोहनीय घातिया विनाशक पहिला शुक्लध्यान सुखकार ।।२४।। एक योग मे योगी रहता वह एकत्व वितर्क अविचार । तीन घातिया का नाश करे जो दूजा शुक्ल ध्यान शिवकार ।।२५।। अष्टम से लेकर बारहवे गुणस्थान तक ये होते । त्रेसठ कर्म प्रक्रति क्षय होती तब अरहन्त देव होते।।२६।। कायक्रिया जब सूक्ष्म रहे तब होता सूक्ष्मक्रि याप्रतिपाति ।। तेरहवे मे होता जब अन्तमुहूर्त आयु रहती ॥२७।। योग अभाव अधातिकर्म क्षय करता व्युपरत क्रिया निवति । चौदहवे मे लघु पचाक्षर समय मात्र इसकी स्थिति ॥२८॥ चौदहवे के प्रथम समय में प्रकृति बहात्तर का होनाश । अन्न समय मे तेरह कर्म प्रकृति का होता पूर्ण विनाश।।२९।। ऊर्ध्व गमन कर सिद्धशिला पर सिद्ध स्वपद पाते भगवन्त । हो लोकाग्र भाग मे सुस्थित शुद्ध निरजन सादि अनत ||३०।। धर्मध्यान को सर्व परिग्रह तजकर जो जन ध्याते हैं । स्वर्गादिक सर्वार्थसिद्धि को सहज योगि जन पाते है।।३१।। क्षपकश्रेणि चढ शुक्ल ध्यान जो ध्याते पाते केवलज्ञान । अतिम शुक्ल ध्यान के द्वारा वे ही पाते है निर्वाण ||३२।। आर्त रौद्र मे कृष्ण, नील, कापोत अशुभ लेश्या होती । धर्मध्यान मे पीत, या अरु शुक्ल लेश्या ही होती ।।३३।। पहिले दूजे शुक्लध्यान मे शुक्ल लेश्या ही होती । तीजे चौथे शक्लध्यान में परम शुक्ल लेश्या होती ॥३४।। चार ध्यान को जानूं समझू अप्रशस्त का त्याग करूँ। आलबन लेकर प्रशस्त का रागातीत विराग वरूँ ।।३५।। रहित, परिग्रह, तत्वज्ञान, परिषहजय, साम्यभाव, वैराग्य । धर्म ध्यान के पाँचो कारण निज मे पाऊँ जागेभाग्य।।३६।।
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जैन पूजाजलि जन्म मरण करते करते तू ऊबा नही विभाव से ।
अब तो निज पुरुषार्थ जगाले मिलजा अरे स्वभाव से ।। हे प्रभु मैं भी निज आश्रय ले निजस्वरुप कोही ध्याऊँ। धर्मशक्ल ध्या अष्टकर्म क्षयकर निज सिद्धस्वपदपाऊँ ॥३७।। ॐ ही श्री धर्मनाथ जिनेनद्राय पूर्णायं नि स्वाहा ।
वज्र चिन्ह शोभित चरण भाव सहित उरधार । मन वच तन जो ध्यावते वे होते भवपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्तमन्त्र - ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय नम
श्री शांतिनाथ जिन पूजन शाति जिनेश्वर हे परमेश्वर परमशान्त मुद्रा अभिराम । पचम चक्री शान्ति सिन्धु सोलहवे तीर्थकर सुख धाम ।। निजानन्द मे लीन शाति नायक जग गुरु निश्चल निष्काम । श्री जिन दर्शन पूजन अर्चन वदन नित प्रति करूँ प्रणाम ।। ॐ ह्री श्री शातिनाथ जिनेंद्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट् ॐ ह्री श्री शातिनाथ जिनेन्द्र अत्रतिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ह्री श्री अत्र मम सन्निहितो भव-भव वषट जल स्वभाव शीतल मलहारी आत्म स्वभाव शुद्ध निर्मल । जन्म मरण मिट जाये प्रभु जब जागे निजस्वभाव का बल ।। परम शातिसुखदाय शातिविधायक शातिनाथ भगवान । शाश्वत सुख को मुझेप्राप्ति हो श्री जिनवर दो यह वरदान।।१।। ॐ ह्री श्री शातिनाथ जिनेद्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । शीतल चदन गुण सुगधमय निज स्वभाव अति ही शीतल । पर विभाव का ताप मिटाता निज स्वरुप का अतर्बल ।। परम ॥२।। ॐ ह्री श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । भव अटवी से निकल न पाया पर पदार्थ मे अटका मन । यह ससार पार करने का निज स्वभाव ही है साधन ।। परम ।।३।। ॐ ह्री श्री शातिनाथ जिनेन्दाय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । कोमल पुष्प मनोरम जिनमे राग आग की दाह प्रबल । निज स्वरूप की महाशक्ति से काम व्यथा होती निर्बल परम ।।४।।
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श्री शातिनाथ जिन पूजन
२३५ वर्तमान स्थूल दृष्टि से तेरा काम नहीं होगा ।
बिना पराश्रित दृष्टि तजे निज में विश्राम नही होगा ।। ॐ ह्री श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विध्वसनाय पुष्पं नि । उर की क्षधा मिटाने वाला यह चरु तो दुखदायक है । इच्छाओ की भूख मिटाता निज स्वभाव सुखदायक है ।परम ।।५।। ॐ ह्री श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । अन्धकार मे भ्रमते-भ्रमते भव-भव मे दुख पाया है । निजस्वरूप के ज्ञान भानु का उदय न अबतक आया है ।। परम ।।६।। ॐ ही श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि । इष्ट अनिष्ट सयोगो मे ही अब तक सुख दुख माना है । पूर्णत्रिकाली ध्रुवस्वभाव का बल न कभी पहचाना है ।परम ॥७॥ ॐ ह्री श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । शुद्ध भाव पीयूष त्यागकर पर को अपना मान लिया । पुण्य फलो मे रूचि करके अबतक मैने विष पानकिया ।।परम ।।८।। ॐ ही श्री शातिनाथ जिनेद्राय महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । अविनश्वर अनुपम अनर्घपद सिद्ध स्वरूप महा सुखकार । मोक्ष भवन निर्माता निज चैतन्य राग नाशकअघहार ।। परम ॥९॥ ॐ ही श्री शातिनाथ जिनेद्राय अनर्घपद प्राप्तायअर्घ्य नि ।
श्री पंच कल्याणक भादव कृष्ण सप्तमी के दिन तज सर्वार्थ सिद्धि आये । माता ऐरा धन्य हो गयी विश्वसेन नृप हरषाये ।। छप्पन दिक्कुमारियो ने नित नवल गीत मगल गाये । शातिनाथ के गोत्सव पर रत्न इन्द्र ने बरसाये।।१।। ॐ ही श्री भाद्रपद कृष्ण सप्तम्या गर्भमगल प्राप्ताय श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । नगर हस्तिनापुर में जन्मे त्रिभुवन मे आनन्द हुआ । ज्येष्ठ कृष्ण की चतुर्दशी को सुरगिरि पर अभिषेक हुआ । मगल वाद्य नृत्य गीतो से गूज उठा था पाण्डुक वन । हुआ जन्म कल्याण महोत्सव शातिनाथप्रभु का शुभदिन ।।२।।
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जैन पूजाजलि अतर दृष्टि बदल कर अपनी हेय राग तद्रा को छोड ।
निज स्वरुप में जाग्रत हा जा त्वरित भाव निद्रा को छोड । । ॐ ह्री श्री ज्येष्ठकृष्ण चतुर्दश्या जन्ममगल प्राप्ताय श्रीशातिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि मेघ विलय लख इमजग की अनित्यता का प्रभुभानलिया । लौकातिक लोगो ने आकर धन्य धन्य जयगान किया । कृष्ण चतुर्दशि ज्येष्ठ मास की अतुलित वैभवत्याग दिया । शातिनाथ ने मुनिव्रत धारा शुद्धातम अनुराग किया ।।३।। ॐ ह्री ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्या तपोमगल प्राप्ताय श्री शातिनाथ जिनेद्राय अयं नि पोष शुक्ल दशमी को चारो घातिकर्म चकचूर किया । पाया केवलज्ञान जगत के सारे सकट दर किये ।। समवशरण रचकर देवो ने किया ज्ञानकल्याण महान । शातिनाथ प्रभु की महिमा का गूजा जगमे जयजयगान ।।४।। ॐ श्री पौषशुक्लदशम्याकेवलज्ञान प्राप्ताय श्री शातिनाथजिनेन्द्राय अयं नि ज्येष्ठ कृष्ण की चतुर्दशी को प्राप्त किया मिद्धत्वमहान । कूट कुन्दप्रभु गिरि सम्मेदशिखर से पाया पद निर्वाण ।। सादिअनन्त सिद्ध पद को प्रगटाया प्रभु ने धरनिजध्यान । जयजय शातिनाथ जगदीश्वर अनुपम हुआमोक्षकल्याण ।।५।। ॐ ही ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दश्या मोक्षमगल प्राप्ताय श्रीशातिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि
जयमाला शातिनाथ शिवनायक शाति विधायक शुचिमयशुद्धात्या । शुभ्र मूर्ति शरणागत वत्सल शीलस्वभावी शातात्मा ।।१।। नगर हस्तिनापुर के अधिपति विश्वसेन नृप के नन्दन । मा ऐरा के राज दुलारे सुर नर मुनि करते वन्दन।।२।। कामदेव बारहवे पचम चक्री तीन ज्ञान धारी । बचपन मे अणुव्रत धर योवन मे पाया वैभव भारी ।।३।। भरतक्षेत्र के षट खण्डो को जय कर हुए चक्रवर्ती । नव निधि चोदह रत्न प्राप्त कर शासक हुए न्यायवर्ती ।।४।।
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श्री शान्तिनाथ जिनपूजन मैं स्वय सिद्ध परिपूर्ण द्रव्य किचित भी नही अधूरा हू । ..
चिन्मय चैतन्य धातु निर्मित मैं गुण अनत से पूरा हू ।। इस जग के उत्कृष्ट भोग भोगते बहुत जीवन बीता । एक दिवस नभ मे धन का परिवर्तनलख निजमन रीता ।।५।। यह ससार असार जानकर तपधारण का किया विचार । लौकातिक देवर्षि सुरो ने किया हर्ष से जय जयकार ।।६।। वन मे जाकर दीक्षाधारी पच मुष्टि कचलोच किया । चक्रवर्ति की अतुलसम्पदा क्षण मे त्याग विराग लिया ।।७।। मन्दिरपुर के नृप सुमित्र ने भक्तिपूर्वक दान दिया । प्रभुकर मे पय धारा दे भव सिधु सेतु निर्माण किया ॥८॥ उच्च तपस्या मे तुमने कर्मों की कर निर्जरा महान । सोलह वर्ष मौन नप करके ध्याया शुद्धातम का ध्यान ।।९।। श्रेणी क्षपक चढे स्वामी केवलज्ञानी सर्वज्ञ हुए । दिव्य ध्वनि से जीवो को उपदेश दिया विश्वज्ञ हुए।१०।। गणधर थे छत्तीस आपके चक्रायुद्ध पहले गणधर । मुख्य आर्यिका हरिषेणाथी श्रोता पशु नर सुर मुनिवर ॥११॥ कर विहार जग मे जगती के जीवो का कल्याण किया ।। उपादेय है शुद्ध आत्मा यह सदेश महान दिया ।।१२।। पाप-पुण्य शुभ-अशुभ आश्रव जग मे भ्रमण कराते हैं । जो सवर धारण करते है परम मोक्ष पद पाते हैं॥१३॥ सात तत्व की श्रद्धा करके जो भी समकित धरते है । रत्नत्रय का अवलम्बन ले मुक्ति वधू को वरते है ।।१४।। सम्मेदाचल के पावन पर्वत पर आप हए आसीन । कूट कुन्दप्रभ से अघातिया कर्मों से भी हुए विहीन ।।१५।। महामोक्ष निर्वाण प्राप्तकर गुण अनन्त से युक्त हुए । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध सिद्ध पद पाया भव से मुक्त हुए ।।१६।। हे प्रभु शातिनाथ मगलमय मुझको भी ऐसा वर दो । शुद्ध आत्मा की प्रतीति मेरे उर मे जाग्रत कर दो ॥१७॥
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जैन पूजाजलि दृषि ज्ञप्ति वृत्तिमय जीवन हो शुखातम तत्व में हो प्रवृत्ति ।
परिणाम शुद्ध हो अन्तर मैं पर परिणामों से हो निवृत्ति ।। पाप ताप सताप नष्ट हो जाये सिद्ध स्वपद पाऊँ । पूर्ण शातिमयशिव सुखपाकर फिर न लौट भव मे आऊँ ॥१८॥ ॐ ह्रीं श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णायं नि ।
चरणो मे मृग चिन्ह सुशोभित शाति जिनेश्वर का पूजन । भक्ति भाव से जो करते हैं वे पाते है मुक्ति गगन।।
इत्याशीर्वाद जाप्यपत्र - ॐ ही श्री शातिनाथ जिनेद्राय नम ।
श्री कुन्थुनाथ जिनपूजन श्री कुथुनाथ जिनेश प्रभु तुम ज्ञान मूर्ति महान हो । अग्हन्त हो भगवत हो गुणवत हो भगवान हो ।। तुम वीतरागी तीर्थकर हितकर सर्वज्ञ हो । जानते युगपत सकल जग इसलिए विश्वज्ञ हो । नाथ में आया शरण मे राग द्वष विनाश हो । दो मुझे आशीष उर मे पूर्ण ज्ञान प्रकाश हो ।। ॐ ह्री श्री कुथुनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर मवौष्ट् ॐ ह्री श्री कुथुनाथ जिनेद्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ॐ ही श्री कुथुनाथ जिनेद्र अत्र मम सनिहितो भव भव वषट नव तत्व के श्रद्धान का जल स्वच्छ अन्नर मे भरूं। समवाय पाचो प्राप्त कर मिथ्यात्व के मल को हरूँ ।। श्री कुन्थुनाथ अनाथ रक्षक पद कमल मस्तक धरूँ । आनद कन्द जिनेन्द्र के पद पूज सब कल्मष हरूँ ।।१।। ॐ ह्री श्री कु थनाथ जिनेद्राय जन्मजरामत्यु विनाशनाय जल नि । है सार जग मे आत्मा निज तत्व चदन आदरूँ। प्रभुशात मुद्रा निरखकर मिथ्यात्व के मल को हरूँ ।। श्री कुन्थु ।।२।। ॐ ह्री श्री कु थुनाथ जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । मैं जान तत्त्व अजीव को अक्षत स्वचेतन पद धरूँ। अक्षय अरूपी ज्ञान से मिथ्यात्त्व के पल को हरूँ ॥ श्री कुन्थु ॥३॥
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श्री कुन्थुनाथ जिनपूजन राग द्वेष शुभ अशुभ भाव से होते पुण्य पाप के बध ।
साम्य भाव पीयाषामृत पीने वाला ही है निर्बन्ध । । ॐ ह्रीं श्री कुथुनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि इस आश्रव को जान दुखमय पाय पुण्याश्रव हरूँ। प्रभु कामवाण विनाशहित मिथ्यात्त्व के मलको हरूँ श्री कुन्थु ।।४।। ॐ ही श्री कुथुनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि मैं बन्ध तत्त्व स्वरुप समझू आत्मचरू ले परिहरूँ। प्रभु क्षुधारोग विनष्टहित मिथ्यात्त्व के मल को हरूँ ।। श्री कुन्थु ।।५।। ॐ ह्रीं श्री कु थुनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि ।। अब तत्त्व सवर जानकर निज ज्ञान का दीपक धरूँ। कज्ञान कुमति विनाशकर मिथ्यात्त्व के मल को हरूँ ॥श्री कुन्थु ।।६।। ॐ ह्री श्री कु थुनाथ जिनेंद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि ।। मे निर्जरा का तत्त्व समझें ध्यान धूप हृदय धरूँ । सब बद्धकर्म अभावहित मिथ्यात्त्व के मल को हरूँ ।। श्री कुन्थु ।।७।। ॐ ही श्री कु थुनाथ जिनेद्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि ।। मै मोक्ष तत्व महान निश्चय रूप अन्तर मे धरूँ। सम्यक स्वरूप प्रकाशफल सम्यक्त्व को दृढतर करूँ॥श्री कुन्थु ।।८।। ॐ ही श्री कुथुनाथ जिनेद्राय महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । मै ज्ञान दर्शन चरितमय निज अर्थ रत्नत्रय धरूं । सम्यक प्रकार अनर्घपद पा शाश्वत सुख को करूं ।।श्री कुन्थु ।।९।। ॐ ह्री श्री कुथुनाथ जिनेन्द्राय अनर्धपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक श्रावण कृष्णा दशमी के दिन तज सर्वार्थसिद्धि आये । कुन्थुनाथ आगमन जानकर श्रीमती मा हर्षाये । गर्भ पूर्व छह मास जन्म तक शुभरत्नो की धार गिरी । नगर हस्तिनापुर शोभा लख लज्जित होती इन्द्रपुरी।।१।। ॐ ही श्री श्रावण कृष्णदश्याम् गर्भमगल प्राप्ताय श्री कुथुनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । सूर्यसेन राजा के गृह मे कुन्थुनाथ ने जन्म लिया । शुभ बैशाख शुक्ल एकम का तुमने दिवस पवित्र किया ।
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जैन पूजाजलि तेज पुज शुद्धातम तस्व जब निज अनुभव में होता मस्त ।
नय प्रमाण निक्षेप आदि का भी समूह हो जाता अस्त ।। सर्व प्रथम इन्द्राणी ने दर्शन कर जीवन धन्य किया । पाडुकशिला विगजित कर सुरपति ने प्रभु अभिषेक किया ॥२॥ ॐ ह्री श्री बैशाख शुक्ला प्रतिपदाया जन्ममगल प्राप्ताय श्री कुंथुनाथ जिनेंद्राय अयं नि शुभ बैशाख शुक्ल एकम को उरछाया वैराग्य अपार । यह ससार अनित्य जानकर जिनदीक्षा का किया विचार।। तिलक वृक्ष के नीचे दीक्षा लेकर धार लिया निजध्यान । कुन्थुनाथ प्रभु का तप कल्याणक इन्द्रो ने किया महान ।।३।। ॐ ह्री श्री बैशाख शुक्ला प्रतिपदाया तपोमगलप्राप्ताय श्रीकुथुनाथ जिनेन्द्राय
अर्घ्य नि।
मोह नाशकर चैत्र शुक्ल तृतीया को पाया केवलज्ञान । समवशरण की रचना करके हुआ इन्द्र को हर्ष महान ।। खिरी दिव्यध्वनि जगजीवो को आपने किया ज्ञानप्रदान । कन्थनाथ ने मोक्ष मार्ग दर्शाकर किया विश्व कल्याण ।।४।। ॐ ह्री श्री चैत्र शुक्लातृतीया ज्ञानमगल प्राप्ताय श्री कुथनाथ जिनेद्राय अर्घ्य नि । श्री सम्मेदशिखर पर आकर प्रतिमा योग किया धारण । अन्तिम शुक्लध्यान को धर कर स्वामीहुए तरण तारण ।। प्रभु बैशाख शुक्ल एकम को शेष कर्म का कर अवसान । कूट ज्ञानधर से है पाया कुथुनाथ प्रभु ने निर्वाण।।५।। ॐ ही श्री बैशाख शुक्ल प्रतिपदाया मोक्षमगलप्राप्ताय श्री कुथुनाथ जिनेन्द्राय अध्य नि
जयमाला कु थुनाथ करुणा के सागर करणादानी कृपा निधान । कुमति निकन्दन कल्मष भजन को छेदी कृती महान ॥१।। षष्टम् चक्की दीना नाथ दया के सागर दया निधान। भरत क्षेत्र के षटखण्डो पर राज्य किया बहुतकाल बीता ।।२।।
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श्री कुन्थुनाथ जिन पूजन आत्म द्रव्य तो है त्रिकाल अधिकारी गुण अनत का पिंड ।
स्वय सिद्ध है वस्तु शाश्वत प्रभुता से सम्पन्न अखड ।। सप्तदशम् तीर्थकर जिन तेरहवे कामदेव गुणवान । पूर्वजाति स्मरण हुआ इक दिन, वैराग्य हुआ तत्काल ॥३॥ राज्यपाट तज गए सहेतुक वन मे जिन दीक्षा धारी । पच मुष्टि कचलोच किया प्रभु हुए महाव्रत के धारी ।।४।। सोलह वर्ष रहे छास्थ कि राग द्वष को दूर किया । क्षपक श्रेणी चढ कर्मघातिया चारो को चकचूर किया ।।५।। भाव शुभाशुभ नाश हेतु प्रभु निज स्वभाव मे लीन हए । पाप पुण्य आश्रव विनाशकर स्वयसिद्ध स्वाधीन हुए।।६।। गणधर थे पैतीस आपके मुख्य स्वयभू गणधर थे । मुख्य आर्यिका श्रीभाविता, श्रोता सुर नर मुनिवर थे ।।७।। वीतराग सर्वज्ञदेव अरहत हुए केवल ज्ञानी । सादि अनन्त सिद्ध पद पाया कर अघातिया की हानी।।८।। नाथ आपके पद पकज मे मनवच काया सहित प्रणाम । भक्तिभाव से यही विनय है सुनो जिनेश्वर हे गुणधाम ।।९।। सम्यक दर्शन को धारण कर श्रावक के व्रत ग्रहण करूँ। पच पाप को एक देश तज चार कषाये मन्द करूँ।।१०।। पच विषय से रागभाव तज पच प्रमाद अभाव करूँ।। ग्यारह प्रतिमाएँ पालन कर पच महाव्रत भाव धरूँ।।११।। मनवचकाय त्रियोग सवा तीन गुप्तियो को पालूँ ।। बाह्यान्तर निर्गन्थ दिगम्बर मुनिषन द्वादश व्रत पानू ॥१२॥ पचाचार समिति पाचो हो तेरह विधि चारित्र धरूँ। दश धर्मों का निरतिचार पालन कर स्वय स्वरूप वरूँ।।१३।। छठे सातवे गुणस्थान मे झूलूँ श्रेणी क्षपक चहूँ । चार घातिया को विनष्टकर मोक्षभवन की ओर बहूँ ।।१४।। इस प्रकार निज पद को पाऊ यही भावना है स्वामी । पूर्ण करो मेरी अभिलाषा कुन्थुनाथ त्रिभुवननामी ।।१५।।
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जैन पूजाजलि सम्यक दृष्टि जीव के होते भोग निर्जरा के कारण ।
मिथ्या दृष्टि जीव के होते भोग बध ही के कारण ।। ॐ ह्री श्री कुन्थुनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाष्य नि स्वाहा । चरणो मे अजचिन्ह सुशोभित कुन्थुनाथ प्रतिमा अभिराम । जो जन मन वचतन से पूजे जन पाते हैं शिवधाम ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र - ॐ ह्री श्री कुन्थुनाथ जिनेन्दाय नम
श्री अरनाथ जिन पूजन जय जय श्री अरनाथ जिनेश्वर परमेश्वर अरि कर्मजयी । अमल अतुल अविकल अविनाशी प्रभु अनत गुणधर्ममयी ॥ अष्टा-दशम तीर्थंकर जिन वीतराग विज्ञानमयी । सकल लोक के ज्ञाता दृष्टा निजानन्द रस ध्यानमयी । ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट ॐ हो श्री अरनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ 1ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सत्रिहितो भव भव वषट । परम अहिंसामयी धर्म शुचिमय पावन जल लाऊँ । षटकायक की दया पालकर निज की दया निभाऊँ।। श्री अरनाथ चरण चिन्हो पर चलकर शिवपद पाऊँ । सुदृढ भक्ति नोका पर चढकर भवसागर तर जाऊँ ॥१॥ ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । परम सत्यमय धर्म ग्रहणकर शीतल चन्दन लाऊँ। परद्रव्यो से राग तोडकर निज की प्रीति जगाऊँ ।।श्री अरनाथ ।।२।। ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय ससारनापविनाशनायचदन नि । परम अचौर्यमयी म्वधर्म के उज्ज्वल अक्षत लाऊँ। पर पदार्थ से ममता छोई निज से ममत बढाऊँ ।श्रीअरनाथ ॥३॥ ॐ ही श्री अरनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपट प्राप्तये अक्षत नि । परमशील निज ब्रह्मचर्य मय धर्म कुसुन उरलाऊँ। शुद्ध स्वरूपाचरण भव्य चारित्र किरण प्रगटाऊँ।श्री अरनाथ ॥४॥
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श्री अरनाथ जिन पूजन व्रत सयम बाहयोपचार है ज्ञान क्रिया अन्तर उपचार ।
मान और सम्मान हलाहल विष सम इसे न कर स्वीकार ।। ॐ ही श्री अनाथ जिनेन्द्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । परमधर्म अपरिग्रह मय आकिंचन चरू लाऊँ। परद्रव्यो से मूर्छा त्यागूं निज स्वभाव मे आऊँ।श्री अरनाथ।।५।। ॐ ही श्री अरनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय, नैवेद्य नि । परम धर्म सम्यक्त्व मयी दीपक की ज्योति जलाऊँ। स्वपर प्रकाशक भेदज्ञान से चिर मिथ्यात्त्व भगाऊँ ।।श्री अरनाथा६।। ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । परम ज्ञानमय धर्म धूप ले शुक्ल ध्यान कब ध्याऊँ। अष्टम गुणस्थान पा श्रेणी चढ घातियानशाऊँ ।।श्री अग्नाथ ॥७॥ ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । यथाख्यात चारित्र प्राप्तकर मोहक्षीण थल पाऊँ । सकल निकल परमातम बनकर परम मोक्ष फलपाऊँ ।।श्री अग्नाथ ।।८।। ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि परम धर्ममय रत्नत्रय पथ पाऊँ अर्घ चढाऊँ। निज स्वरूप सौन्दर्य प्रगटकर अनर्घपद पाऊँ ॥श्री अरनाथा।९।। ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय अनर्घपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंच कल्याणक फागुन शुक्ला तृतिया के दिन अपराजित तजकर आए । मगल सोलह स्वप्न मात मित्रादेवी को दर्शाए ।। नगर हस्तिनापुर के अधिपति नृपति सुदर्शन हर्षाए । धनपति रत्नो की वर्षाकर अरहनाथ के गुण गाए ॥१॥ ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय फाल्गुन शुक्ल तृतीया गर्भ कल्याणक प्राप्ताय अयं नि । पगसिर शुक्ला चतुर्दशी को अरनाथ जग मे आए । मेरु सुदर्शन पाडुक वन मे पाडुक शिला, देव भाए ।
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जैन पूजाजलि ध्रुव की महिमा जाग्रत हो तो धुव धाम दृष्टि में आता है ।
ध्रुव की धुन होते ही प्रचड यह जीव सिद्ध पद पाता है । । एक चार वसुयोजन स्वर्णकलश इकसहस्त्र आठ लाए । क्षीरोदधि सागर के जल से इन्द्र नव्हन कर हर्षाए ।२।। ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय मगसिर शुक्ल चतुय्था जन्म कल्याण प्राप्ताय अयं नि । मगसिर शुक्ला दशमी के दिन तप कल्याण हुआ अनुपम । लौकातिक देवो ने आ प्रभु का वैराग्य किया दृढतम ।। चक्रवर्ति पद त्याग श्री अरनाथ स्वय दीक्षा धारी । सब सिद्धों को वन्दन करके मौन तपस्या स्वीकारी ॥३॥ ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय मगसिर शुक्लादश्या तप कल्याणक प्राप्ताय अयं नि । कार्तिक शुक्ल द्वादशी प्रभु ने केवलज्ञान लब्धि पाई। छयालीस गुण सहित पूज्य अरहत स्वपदवी प्रगटाई ।। समवशरण की ऋद्धि हुई तीर्थकर प्रकृति उदय आई । अष्ट प्रातिहार्यों की छवि लख जग ने प्रभु महिमा गाई ॥४॥ ॐ ह्री श्री अरनाथ जिनेन्द्राय कार्तिकशुक्लद्वादश्या ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय अयं नि । चैत्र मास की कृष्ण अमावस्या को योग अभाव किया । अष्ट कर्म से रहित अवस्था पा निज पूर्ण स्वभाव लिया ।। नाटक कूट शैल सम्मेदाचल से पद निर्वाण लिया । इन्द्रादिक ने श्री अरजिन का भव्य मोक्ष कल्याण किया ।।५।। ॐ ह्री श्री आनाथ जिनेन्द्राय चैत्र कृष्ण अमावस्याया मोक्षकल्याण प्राप्ताय अयं नि ।
जयमाला अष्टादशम तीर्थकर प्रभु अरहनाथ को करूं नमन ।। सप्तम चक्री कामदेव चौदहवे अधिपति को वन्दन।।१।। मेघ विलय लख तुमको स्वामी पलभर मे वैराग्य हुआ । गए सहेतुक वन मे प्रभुवर दीक्षा से अनुराग हुआ।२।।
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श्री अरनाथ जिनपूजन हानि लाप यश अपयश दुख सुख में समता का गीत सुहाए ।
राग द्वेष से विमुख बने तो नर पर्याय सफल हो जाए । सोलह वर्ष रहे छदमस्थ और फिर पाया केवलज्ञान । दिव्यध्वनि द्वारा जग के जीवो का किया परम कल्याण।३।। गणधर थे प्रभु तीस मुख्य जिनमे थे श्री कुन्थु गणधर । प्रमुख आर्यिका श्री कुन्थुसेना थी समवशरण सुन्दरा।४।। मैं भी प्रभु उपदेश आपका निज अन्तर मे ग्रहण करूँ। तत्त्व प्रतीति जगे मन मेरे आत्मरुप चितवन करूँ।५।। अनन्तानुबन्धी अभाव कर दर्शन मोह अभाव करूँ। . चौथे गुणस्थान को पाऊँ समकित अगीकार करूँ।।६।। अप्रत्याख्यानावरणी हर एकदेश व्रत ग्रहण करूँ। पचम गुणस्थान को पाकर विशुद्धि की वृद्धि "कलें।७।। प्रत्याख्यानावरण विनाशु मैं मुनिपद को स्वीकार करूँ। छठा सातवाँ गुणस्थान पा पच महाव्रत को धारूँ।८।। अष्टम गुणस्थान श्रेणीचढ शुक्ल ध्यानमय ध्यान धरूं । तीव्र निर्जरा द्वारा मै प्रभु घातिकर्म अवसान करूँ ।।९।। करु सज्वलन का अभाव चारित्र मोह का नाश करूँ। यथाख्यात चारित्र प्राप्तकर निज कैवल्य प्रकाश करूँ ।।१०।। हो सयोग केवली अनन्त चतुष्टय का वैभव पाऊँ। लोकालोक ज्ञान मे झलके निज सर्वज्ञ स्वपद पाऊँ ।।११।। हो अयोग केवली प्रकृति पच्चीसी का भी नाश करूँ। उर्ध्वलोक मे गमन करूँ निज सिद्धस्वरुप प्रकाश करूँ ॥१२।। सादि अनत स्वपद को पाकर सिद्धालय मे वास करूँ। इसप्रकार क्रमक्रम से अपना मोक्षस्वरुप विकास करूँ।१३।। जिस प्रकार अरनाथ देव तुम तीन लोक के भूप हुए । निज स्वभाव के साधन द्वारा मुक्ति भूप चिट्ठप हुए।१४।। उस प्रकार मैं भी अपना पुरुषार्थ जगाऊँ वह बल दो । रत्नत्रय पथ पर आ जाऊँ इस पूजन का यह फल हो ॥१५॥ ॐ ही श्री अरनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाय नि स्वाहा ।
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जैन पूजाजलि भोगों को परिसीमित करने अनासक्ति के भाव जगा । वीतरागता का फल पाने को विराग के बीज उगा ।। मीन चिन्ह शोभित चरण अरहनाथ उरघार। मन वच तन जो पूजते हो जाते भव पार।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ह्री श्री अरहनाथ तीर्थकरेभ्यो नम
श्री मल्लिनाथ जिनपूजन मल्लिनाथ के चरण कमल को नित प्रति बारम्बार प्रणाम । बालब्रहाचारी योगीश्वर महामगलात्मक गुणधाम ।। अष्टकर्म विध्वसक मिथ्यातिमिर विनाशक प्रभु निष्काम । महाध्यानपति शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध वीतरागी अभिराम । आज आपकी पूजन करके रो रागादिक परिणाम । ज्ञानावरणादि कर्मों की सतति को नारों अविराम ।। ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवोषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । परम पारिणामिक भावो का जल पवित्र कब पाआ । जन्म मरण दुख का विनाशकर वीत दोष बन जागा ।। ॐ ह्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि । परम पारिणामिक भावो का शिवचन्दन कब पाआ । इस समारतापको क्षयकर वीतक्षोभ बन जागा ।। मल्लिनाथ ।।२।। ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । परम पारिणामिक भावो के निज अक्षत कब पाआ । भवसमुद्र से पार उतरकर वीतद्वेष बन जागा ।। मल्लिनाथ ।।३।। ॐ ही श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । परम पारिणामिक भावो के नव प्रसून कब पागा । महाशीलकी सुरभि प्राप्तकर वीतकाम बनजाऊँगा ।।मल्लिनाथ ।।४।। ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेंद्राय काम बाण विध्वसनाय पुष्प नि । परम पारिणामिक भावो के उत्तम चकब पाङा । क्षधा रोग सपूर्णा नाशकर वीतलोभ बन जाग ।।मल्लिनाथा।५।। ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेद्राय क्षुधा विनाशनाय नैवेद्य नि ।
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श्री मल्लिनाथ जिनपूजन
२४७ साम्यभाव रस की धारा से अतर को प्रक्षालित कर ।
तम को हर ज्योतिर्मय बन अमरत्व शक्ति संचालित कर ।। परम पारिणामिक भावों की ज्ञान ज्योति कब पाऊँगा । स्वपर प्रकाशक ज्ञान प्राप्तकर वीत मोह बनजागा मल्लिनाथ ॥६॥ ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । परम पारिणामिक भावो की शुद्ध धूप कब पाऊँगा । अष्टकर्म अरि का विनाशकर वीत कर्म बन जागा मल्लिनाथ ॥७॥ ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । परम पारिणामिक भावो का उत्तम फल कब पागा । महामोक्ष फल प्राप्त करूँगा वीतराग बन जाआ मल्लिनाथ ।।८।। ॐ ही श्री मल्लिनाथ जिनेंद्राय महा मोक्ष फल प्राप्ताय फल नि । परम परिणामिक भावो का विमल अर्घ्य कब पाऊँगा । निज अनर्थ्य पदवी को पाकर स्वय सिद्धबन जाग मल्लिनाथ ॥९॥ ॐ ह्री श्री मल्लिनाथ जिनेद्राय अनर्घपद प्राप्ताय अयं ।
श्री पचकल्याणक मिथलापुरी नगर के राजा कुम्भराज भूपति गुणधाम । रानी प्रभावती माता ने देखे सोलह स्वप्न ललाम ।। चैत्र शुक्ल एकम को त्याग अपराजित स्वर्ग विमान । मल्लिनाथ आगमन जान सुर रत्नवृष्टि करते नित आन॥१॥ ॐ ह्री चैत्रशुक्ल प्रतिपदाया गर्भमगलप्राप्ताय श्रीमल्लिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । मगसिर शक्ला एकादशमी कुम्भराज नृप धन्य हुए । जिनके आगन मे सुर सुरपति इन्द्राणी के नृत्य हुए ।। जन्मोत्सव के मगल उत्सव गिरि सुमेरु पर धन्य हुए । जय जय मल्लिनाथ जिन स्वामी पूजन कर सब धन्य हुए।।२।।
ॐ ह्री मगसिर शुक्लएकादश्या जन्ममगल प्राप्ताय श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । एकादशी शुक्ल पगसिर के दिन उरमे वैराग्य जगा । जग का वैभव भोग नाशमय क्षण भगुर निस्सार लगा ॥
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जैन पूजाजलि नैसर्गिक अधिकार जीव का पूर्ण निराकुल सुख की प्राप्ति ।
एक शुद्ध चैतन्य ज्ञान धन सुख सागर में दुख की नास्ति ।। तरु अशोक के निकट महाव्रत धारण कर दीक्षाधारी । पचमुष्टि कचलोच किया प्रभु मल्लिनाथ कीबलिहारी ॥३॥ ॐ ह्री श्री मगसिरशुक्ला एकादशम्या तपोमंगल प्राप्ताय श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य नि छह दिन ही छहमस्थ रहे प्रभु, आत्मध्यान मे हो तल्लीन । कर्मघाति चारो को क्षयकर पाया केवलज्ञान प्रवीण ।। समवशरण मे पौष कृष्ण द्वितीया को शुभ उपदेश दिया । मल्लिनाथ तीर्थंकर प्रभु ने मोक्ष मार्ग सदेश दिया ॥४॥ ॐ ह्री श्री पौषवदी द्वितीया ज्ञानमगल प्राप्ताय अयं श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य नि । फाल्गुन शुक्ल पचमी को अपरान्ह समय पाया निर्वाण । सबलकूट शिखर सम्मेदाचल से हुए सिद्ध भगवान ।। महामोक्ष कल्याण महोत्सव इन्द्रादिक ने किया महान । जयजय मल्लिजिनेश्वर सिद्धपति चहुदिशि मे गूजा जयगान ।।५।। ॐ ह्री श्री फागुन शुक्ल पचमीदिने मोक्षमगल प्राप्ताय श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि ।
जयमाला महाकारुणिक महागुणाकर महाशिष्ट मोहारि जयी । मल्लिनाथ मुनि ज्येष्ठ मुक्ति प्रियमुक्ति प्ररूपक मृत्युजयी ॥१॥ तुम कुमार वय मे दीक्षा घर वीतराग भगवान हुए । शत इन्द्रो से वन्दनीक प्रभु केवलज्ञान निधान हुए।।२।। अट्ठाईस हुए गणधर प्रभु मुख्य हुए विशाख गणधर । मुख्यार्यिका बधुसेना थी, श्रोता सार्वभौम नृपवर ॥३॥ भव्य दिव्य उपदेश आपने दिया सकलजग को तत्काल । जो निजात्म की शरण प्राप्तकरता हो जाता स्वयनिहाल ॥४॥ क्रोधमान दोनो कषाय है द्वेषरूप अतिक्रूर विभाव ।। दोनो का जब क्षय होता है तो होता है द्वेष अभाव।।५।।
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श्री मल्लिनाथ जिनपूजन
२४९ व्यसन मुक्त होते ही तेरा अतरंग उज्ज्वल होगा ।
स्वपर दृष्टि होते ही तेरा अतरमन निर्मल होगा ।। मायालोभ कषाय राग की वृद्धि नित्य करती जाती । इनके क्षय होने पर ही तो वीतरागता है आती ।।६।। इनकी चार चौकडी के चक्कर मे चहुगति दुख भरता । द्रव्य क्षेत्र अरु कालभाव भव परिवर्तन पाँचो करता ॥७॥ अनन्तानुबन्धी कषाय तो घात स्वरूपाचरण करे ।। घात देशसयम का यह अप्रत्याख्यानीवरण करे ।।८।। घात सकल सयम का करती प्रत्यख्यानावरण कषाय । यथाख्यात चारित्र घात करती है यह सज्वलन कषाय ॥९॥ नरक त्रिर्यन्च देव नरगति की पाई आयु अनतीबार । सम्यक ज्ञान बिना यह प्राणी अबतक भटका है ससार ।।१०।। मनुज ओर त्रिर्यच आयु उत्कृष्ट तीन पल्यो की है ।। मनुज त्रिर्यच जघन्य आयु केवल अन्तमुहूर्त की है।।११।। देव नरक गति की उत्कृष्ट आयु सागर तैतिस की है । देव नरक की जघन्य आयु दस महस्त्र वर्षों की है ।।१२।। पचेन्द्रिय के पचविषय अरु चार कषाय चार विकथा । निद्रा नेह प्रमाद भेद पदरह के क्षय से मिटे व्यथा ।।१३।। जो प्रमाद का नाश करेगा अप्रमत्त बन जायेगा । सप्तम गुणस्थान पायेगा श्रेणी चढ सुख पायेगा ॥१४॥ यह उपदेश ह्रदय मे धाः सर्व कषाय विनाश करूँ। मोहमल्ल को जीतूं रवामी सम्यक ज्ञान प्रकाश करूँ॥१५॥ मै मिथ्यात्त्वतिमिर को हरकर अविरत को भी दूरकरूँ। क्रम क्रम से योगो को हरकर अष्टकर्म चकचूर करूँ ।।१६।। यही भावना है अन्तर मे कब प्रभु पद निर्ग्रन्थ वरूँ। पद निर्ग्रन्थ पथ पर चलकर मै अनत भव अन्त करूँ।।१७।। ॐ ही श्री मल्लिनाथ जिनेद्राय गर्भ जन्मतप ज्ञानमोक्ष कल्याणक प्राप्ताय पूर्णायँ नि ।
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२५०
जैन पूजाजलि सभी जीव हों सुखी जगत के सभी निरोगी हो सानन्द ।
सबका हो कल्याण पूर्णत सब ही पाएं पर मानन्द ।। मल्लिनाथपद कलशचिन्ह लख चरणकमल जो ले उरधार । मन वच तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते हैं भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र - ॐ ही श्री मल्लिनाथ जिनेन्द्राय नम ।
श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनपूजन हे मुनिसुव्रत भगवान तुमने कर्म घाति स्वय हने । कैवल्यज्ञान प्रकाशकर पाया परम पद आपने ।। निज पर विवेक जगा हृदय मे पूर्ण शुद्धात्मा बने । ससार को सन्मार्ग दिखला सिद्ध परमात्मा बने ।। भव सिंधु की मझधार मे डूबा मुझे तारो प्रभो । दो भेद ज्ञान प्रकाश मुझको शीघ्र उद्धारो प्रभो ।। ॐही श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सवौषट्, ॐ ही मुनिसुव्रतनाथ जिनेंद्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेंद्र अत्र मम सनिहितो भव भव वषट् । अब आत्म जल की सलिल धारा शुद्ध अन्तर मे धः । यह जन्म मरण अभाव करके स्वपद अजरामर वरूँ।। मै मुनिसुवत भगवान का पूजन करूँ अर्चन करूँ। निज आत्मा मे आपके ही रूप का दर्शन करूँ ॥१।। ॐ ही श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि अब आत्म चन्दन दुख निक्दन शुद्ध अन्तर मे धरूँ। भव भ्रमण ताप अभाव करके स्वपद अजरामर वरूँ मै मुनि ॥२॥ ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । अब आत्म अक्षत धवल उज्ज्वल शुद्ध अन्तर मे धरूँ। अक्षय अनत स्वरूप पाकर स्वपद अजरामर वरूँ ।। मै मुनि ॥३॥ ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि अब आत्म पुष्प सुवासशिवमय शुद्ध अन्तर मे धरूँ। दुष्काम हर निष्काम बनकर स्वपद अजरामर वर्क में मुनि ॥४।।
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श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनपूजन
२५१ आत्म सस्थित होना ही है मानव जीवन का उद्देश्य ।
अनुसंधाता बनो सत्य के उसके भीतर करो प्रवेश ।। ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेद्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । अब आत्ममय नैवेद्य पावन शुद्ध अन्तर मे धरूँ । यह क्षुधाव्याधि अभाव करके स्वप अजरामर वरूँ मैं मुनि ॥५॥ ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेंद्राय क्षुधारोगाशनाय नैवेद्य नि । अब आत्म दीपक ज्योति झिलमिल शुद्धअन्तर मे धरूँ। मिथ्यात्वमोह अभाव करके स्वपद अजरामर वरूँ। में मुनि ।।६।। ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय मोहाधार विनाशनाय दीप नि । अब आत्म धूप अनूप अविकल शुद्ध अन्तर मे धरूँ। घनघाति कर्म अभाव करके स्वपद अजरामर वरूँ ।। मैं मुनि ॥७॥ ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । निजआत्म की अनुभूति का फल शुद्ध अन्तर मे धरूं। सर्वोत्कृष्ट सुमोक्षफल ले स्वपद अजरामर वरूँ ।। मैं मुनि ॥८॥ ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तय फल नि । वमु गुणमयी शुद्धात्मा का अर्घ अन्तर मे धरूँ। सब परविभाव अभाव करके स्वपद अजरामर वरूँ मैं मुनि ॥९॥ ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अनर्धपद प्राप्ताय अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक आनत स्वर्ग त्यागकर आए माता सोमा के उर मे । श्रावण कृष्णा दूज हुआ गर्मोत्सव मगल घर घर मे ।। छप्पन देवी माता की सेवा करती अत पुर मे । सुव्रतनाथ प्रभु बजी बधाई मधुर राजगृह के पुर मे ॥१॥ ॐ ह्री श्री श्रावण कृष्ण द्वितीयाया गर्भमगल प्राप्ताय श्री मुनिसव्रतनाथ जिनेन्द्राय
अयं नि
शुभ वैशाख कृष्ण दशमी को जन्ममहोत्सव हआ महान । नृपति सुमित्र हर्ष से पुलकित देते है मुह मागा दान ।। सुरपति प्रभु को शीश विराजित कर पाडकवन ले जाते । सुव्रतनाथ अभिषेक क्षीरसागर जल से कर हर्षाते ॥२॥
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२५२
जैन पूजाजलि यदि अमरत्व प्राप्त करना है मृत्युन्जयो बनो सत्वर ।
__ इन्द्रिय निग्रह सहित मनोनिग्रह से लो पापों को हर ।। ॐ बैशाख कृष्णदशाम्या जन्म मगल प्राप्ताय श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अयं नि प्रभु बैशाख कृष्ण दशमी को भव भोगो से हुए विरक्त । यह ससार असार जानकर त्यागगृह परिवार समस्त ।। स्वयबुद्ध हो चपकतरू के नीचे जिन दीक्षा धारी । नाथ मुनिसवत व्रत के स्वामी साधुहो गए अनगारी ॥३॥ ॐ ही श्री बैशाख कृष्णदशम्या तपोमगल प्राप्ताय श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अयं नि ग्यारह मास रहे छास्थ तपस्वी मौन, सुव्रत भगवान । त्रेसठ कर्म प्रकृति क्षय करके प्रभु ने पाया केवलज्ञान ।। गुगस्थान तेरहवा पाकर देव हुए सर्वज्ञ महान । वैशाख कृष्णनवमी को गूजा समवशरण मे जयजयगान ॥४॥ ॐ ह्री श्री बैशाखवदी नवम्या 'ज्ञानमगल प्राप्ताय श्रीमनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य नि फाल्गुन कृष्ण द्वादशी को प्रभु गिरि सम्मेद पवित्र हुआ । मुनिसुव्रत निर्वाण महोत्सव सवलकूट सचित्र हुआ ।। तन परमाणु उडे कपूरवत सब जग ने मगल गाये । ऊर्ध्वलोक मे गमन कर गए सिद्धशिला भी मुस्काए ।।५।। ॐ ह्रीं श्री फाल्गुन कृष्ण द्वादश्या मोक्षमगल प्राप्ताय मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय अर्घ्य नि
जयमाला जय मुनिसुव्रत तीर्थकर बीसवे जिनेश पूर्ण परमेश । महातात्विक महाधार्मिक महापूज्य मुनि महामहेश ।।१।। राजगृही मे गर्भ जन्म तप ज्ञात हुए चारो कल्याण । जय थल नभ मे दशोदिशा मे गूजा प्रभु का जयजयगान।।२।। अष्टादश गणधर थे प्रभु के प्रमुख मल्लिगणधर विद्वान । मख्यार्यिका पुष्पदत्ता थी श्रोता अजितजय गुणवान ॥३॥
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२५३
श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनपूजन शौर्य प्रदर्शन करना है तो क्रोष त्याग कर हो जा शात ।
विनय भाव से मान विजय कर ऋजुता से माया कर ध्वात ।। समवशरण में नाथ आपकी खिरी दिव्य ध्वनि कल्याणी । द्रव्यदृष्टि ही ज्ञानी हैं, पर्याय दृष्टि है अज्ञानी ।।४।। गुण पर्यायो सहित द्रव्य है लक्षण जिसका शाश्वत सत् । द्रव्य ध्रौव्य उत्पाद व्यय सहित है स्वतत्र सत्ता निश्चित।५।। द्रव्य स्वतत्र सदा अपने मे कोई लेश नहीं परतत्र । गुण स्वतन्त्र प्रत्येक द्रव्य के पर्यायें भी सदा स्वतत्र ।।६।। कोई नहीं परिणमाता, परिणमन शील है द्रव्य स्वय । पर परिणमन कराने का जो भाव वही मिथ्यात्व स्वय ।।७।। अपनी अपनी मर्यादा, स्वचतुष्टय मे है द्रव्य सभी । सदा परिणमित होते रहते बिना परिणमन नहीं कभी ॥८॥ जीव द्रव्य तो है अनन्त अरु पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त ।। धर्म अधर्म आकाश एक इक, काल असख्य स्वमहिमावत ।।९॥ है परिपूर्ण छहो द्रव्यो से पुरालोक अनादि अनत । जो स्वद्रव्य का आश्रय लेता वही जीव होता भगवत ।।१०।। जीव समास मार्गणा चौदह चौदह गुणस्थान जानो । यह व्यवहार, जीव की सत्ता निश्चय से अतीत मानो ॥११॥ सभी जीव द्रव्यार्थिकनय से मदाशुद्ध है सिद्धसमान । पर्यायर्थिकनय से देखो तो है जग जीव अशुद्ध महान ।।१२।। आत्म द्रव्य है परमशुद्ध त्रैकालिक ध्रुव अनतगुणवान । दर्शन ज्ञानवीर्य सुखगुण से पूरित है त्रिकाल भगवान ।।१३।। जो पर्यायो मे उलझा है वही जीव है मूढअजान । द्रव्यदृष्टि ही निजस्वद्रव्य का आश्रय ले होता भगवान ।।१४।। अब तक प्रभु पर्यायदृष्टि रह मैंने जग मे दुख पाया । द्रव्यदृष्टि बनने का स्वामी अब अपूर्व अवसर आया ।।१५।। यह अवसर यदि चूका तो प्रभु पुन जगत मे भटकूगा । भवसागर की भवरो में ही दुख पाा अटका ॥१६॥
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२५४
जैन पूजांजलि लोभ जीत सतोष शक्ति से तू फिर होगा कभी न क्लॉत ।
मोह क्षोभ के क्षय होते ही कर्मों का होगा प्राणात ।। मै भी स्वामी द्रव्यदृष्टि बन निजस्वभाव को प्रगटाऊँ। अष्टकर्म अरि पर जयपाकर सादिअनत स्वपद पाऊँ ॥१७।। मैं अनादि मिथ्यात्व पापहर द्रव्यदष्टि बन करूं प्रकाश । ध्रुव ध्रुव ध्रुव चैतन्यद्रव्य मै, परभावों का करूँ विनाश ।।१८।। पर्यायों से दूष्टि हटाकर निज स्वभाव मे आ जाऊँ। तुम चरणो की पूजन का फल द्रव्यदृष्टि अब बन जाऊँ ।।१९।। महापुण्य सयोग मिला तो शरण आपकी आया हूँ। मैं अनादि से पर्यायो मे मूढ बना भरमाया हूँ ॥२०॥ पाप ताप सन्ताप नष्ट हो मेरे हे मानिसव्रतनाथ । तुम चरणो की महाकृपा आशीर्वाद से बनें सनाथ ।।२१।। सकटहरण मुनिसुव्रत स्वामी मेरे सकट दूर करो । द्रव्यदृष्टि दो प्रभु मेरी पर्याय दूष्टि चकचूर करो।।२२।। ॐ ह्रीं श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाऱ्या नि ।।
कछुवा चिन्ह सुशोभित मुनिसुव्रतके चरणाम्बुज उरधार । भाव सहित जो पूजन करते वे हो जाते है भवपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यपत्र -ॐ ह्री श्री मुनिसुव्रतनाथ जिनेन्द्राय नम
श्री नमिनाथ जिनपूजन जय नमिनाथ निरायुध निर्गत निष्कषाय निर्भय निर्द्वद । निष्कलक निश्चल निष्कामी नित्य नमस्कृत नित्यानद ।। मिथ्यातम अविरति प्रमाद कषाय योग बध कर नाश । कर्म प्रकृतियों पूर्ण नष्टकर लिया सूर्य शुद्धात्म प्रकाश ॥ मै चौरासी के चक्कर में पड़ चहुगति भरमाया हूँ । भव का चक्र मिटाने को मै पूजन करने आया हूँ ।। यह विचित्र ससार और इसकी माया का करूँ अभाव । आत्म ज्ञान की दिव्य प्रभा से हे प्रभु पाऊँ शुद्ध स्वभाव ।।
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२५५
श्री नमिनाथ जिनपूजन भाव शुभाशुभ रहित हृदय को गहन शान्ति होती है प्राप्त ।
निर्मलता बढती जाती है हो जाता उर सुख से व्याप्त ।। ॐ ह्रीं श्री नमिनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर अवतर सौष्ट, ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही श्री नमिनाथ जिनेन्द्र अत्र मम सनिहितो भव भव । निज की उज्ज्वलता का मुझे कुछ ज्ञान नही । इस जन्म मरण के रोग की पहचान नहीं ।। नमिनाथ जिनेन्द्र महान त्रिभुवन के स्वामी । दो मुझे भेद विज्ञान हे अन्तर्यामी
॥१ ॥ ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । निज की शीतलता का मुझे कुछ ध्यान नहीं । इस भव आतप के ताप की पहचान नही निमिनाथ जिनेन्द्र ॥२॥ ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेद्राय ससारताप विनाशनाय चदन नि । निज की अखडता का मुझे प्रभु भान नहीं । अक्षय पद की भी तो मुझे पहचान नहीं ॥ नमिनाथ जिनेन्द्र ॥३॥ ॐ ही श्री नमिनाथ जिनेद्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि निज शील स्वभावी द्रव्य का भी ज्ञान नही । इस काम व्याधि विकराल की पहचान नही निमिनाथ जिनेन्द्र ॥४॥ ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेद्राय कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । निज आत्मतत्व परिपूर्ण का भी ध्यान नहीं । इस क्षुधारोग दुखपूर्ण की पहचान नहीं ।। नमिनाथजिनेन्द्र ॥५॥ ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेद्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । निज ज्ञान प्रकाशक सूर्य का भी ज्ञान नही ।। मिथ्यात्व मोह के व्योम की पहचान नही निमिनाथजिनेन्द्र ।।६।।
ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेद्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । निर्दोष निरजन रूप का भी भान नहीं । यह कर्म कलक अनादि की पहचान नहीं ।। नमिनाथजिनेन्द्र ।।७।। ॐ ही श्री नमिनाथ जिनेद्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । निज अनुभव मोक्षस्वरूप का प्रभु ध्यान नहीं । निज द्रव्य अनादि अनत की पहचान नहीं ॥नमिनाथजिनेन्द्र ॥८॥ ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेंद्राय महा मोक्षफल प्राप्ताय फल नि ।
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जैन पूजाजलि जो चलता है वह समीप है जो न चला वह तो है दूर ।
आत्मा के साक्षात्कार की विधि है ज्ञान कला भरपूर ।। निज चिदानन्द चैतन्य पद का ज्ञान नहीं । अकलक अडोल अनर्घ की पहचान नहीं ।। नमिनाथजिनेन्द्र ॥९॥ ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेद्रायअनर्धपद प्राप्तायअर्घ्य नि ।
श्री पंचकल्याणक हुआ आगमन पात महादेवी उर मे अपराजित त्याग । स्वप्नफलो को जानजगा नृप विजयराज को अतिअनुराग ।। आश्विन कृष्णा द्वितीया के दिन हुआ गर्भ मगल विख्यात । जय नमि जिनवर रत्न वृष्टि से होता नित आनन्दप्रभात ॥१॥ ॐ ह्री श्री आश्विन कृष्णद्वितीयागर्भमगलप्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य नि । चार प्रकार सुरो के गृह मे आनन्द वाद्य हुए झकृत । मिहासन हिल उठा इन्द्र का तीनो लोक हए क्षोभित ।। नमिजिन जन्म पुरीमिथिला मे जान हुए सुरगण पुलकित । शुभ अषाढ कृष्ण दशमी को जिन अभिषेक किया हर्षित ॥२॥ ॐ ही श्री अषाढकृष्णदशम्याजन्ममगलप्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अयं नि शुभ आषाढ कृष्ण दशमी को नमिजिन उर वैराग्य जगा । उल्कापात देखकर प्रभु के मन से भव का राग भगा ।।। लौकान्तिक ने अभिनन्दनकर प्रभु का जय जयकार किया । वन जा मौलश्री तरु नीचे सयम अगीकार किया ॥३॥ ॐ ह्री श्री अषाढ कृष्ण दशम्याया तपोमगलप्राप्ताय श्रीनमिनायजिनेन्द्राय अयं नि मगसिर सुदि एकादशी प्रभु ने शुक्ल ध्यानध्याया । वीतराग सर्वज्ञ हुए प्रभु केवल ज्ञान पूर्ण पाया ।। समवशरण मे सतरह गणधरप्रमुख सुप्रभ गणधर गुणवान । मख्यार्यिका मार्गिणी, नमिजिनवर का सब गाते जयगान ।।४।। ॐ ही श्री मगसिरसुदीएकादशी दिने ज्ञानमगलप्राप्ताय श्री नमिनाथजिनेन्द्राय अयं नि चतुर्दशी वैशाख कृष्ण की धारा प्रतिमायोग महान । सर्व कर्म क्षयकर नमिजिन ने पाया मोक्ष स्वपद निर्माण ॥
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श्री नमिनाथ जिनपूजन धर्मात्मा को जग में अपना केवल शुद्धातम प्रिय है ।
निज स्वभाव ही उपादेय है और सभी कुछ अप्रिय है ।। गिरि सम्मेदशिखर पर गूजा इन्द्रादिक सुर का जयकार । कूट मित्रधर से पद पाया अविनाशी अनन्त अविकार ।।५।। ॐ ह्री श्री वैशाखकृष्णचतुर्दश्या मोक्षमगलप्राप्ताय श्रीनमिनाथजिनेन्द्राय अयं नि ।
जयमाला इक्कीसवे तीर्थकर नमिनाथ देव हैं आप महान । मतिश्रुत अवधिज्ञान के धारीजन्मे जय जय दयानिधान ।।१।। गृह परिवार राज्य सुख से वैगग्य जगा अतस्तल मे । शुद्ध भावना द्वादश भा सब कुछ त्यागा प्रभु दो पल मे ।।२।। वस्त्राभूषण त्याग आपने पचमुष्टि कचलोच किया । उन केशो को क्षीरोदधि मे सुरपति ने जा क्षेप दिया ॥३॥ नगर वीरपुर दत्तराज नृप ने प्रभु को आहार दिया । प्रभु कर मे पयधारा दे सारा पातक सहार किया ।।४।। ज्ञान मन पर्यय को पाया प्रभु छास्थ रहे नवमास । केवलज्ञान लब्धि को पाया शुक्ल ध्यानधर कियाविकास ।।१५।। दे उपदेश भव्य जीवो को मोक्षमार्ग प्रभु दिख लाया ।। शेष अघाति कर्म भी नाशे सिद्ध स्वपद को प्रगटाया ।।६।। यह ससार भ्रमण का चक्कर सदासदा है अतिदखदाय ।। अशुभ कर्म परिणामो से ही मिलती है नारक पर्याय ।।७।। किचित शुभ मिश्रित माया परिणामो से होता तिर्यन्च । शुभपरिणामो से सुर होता उसमे भी सुख कही न रच ॥८॥ मिश्र शुभाशुभ परिणामो से होती है मनुष्य पर्याय । शुद्ध आत्म परिणामो से होती है प्रकट सिद्ध पर्याय ॥९॥ मै अपने परिणाम सुधारूँ पच महाव्रत ग्रहण करूँ। उग्रतपस्या सवरमय कर कर्म निर्जरा शीघ्र करूँ ।।१०।। धर्म ध्यान चारो प्रकार का अन्तर मे प्रत्यक्ष धरूँ।। चौसठ ऋद्धि सहजमिल जाती किन्तु न उनका लक्ष्यकरूँ ।।११।।
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जैन पूजाजलि इन्द्रिय सुख दुखमयी जानकर चलो अतीन्द्रिय सुख के देश ।
पूर्ण अतीन्द्रिय शुद्ध आत्मा के भीतर अब करो प्रवेश ।। बुद्धि ऋद्धि अष्टादश होती क्रिया ऋद्धि नव मिल जाती । ऋद्धि विक्रिया ग्यारह होती तीन ऋद्धि बल की आती ॥१२॥ सात ऋद्धिया-तप की मिलती अष्टऋद्धि औषधिहोती । छहरस क्रिद्धि शीघ्र मिल जाती दो अक्षीण क्रिद्धि होती ।।१३।। क्रिद्धि सिद्धियो मे ना अटकू शुक्लध्यानमय ध्यान धरूँ। दोष अठारह रहित बनूँ मै चार घाति अवसान करूँ ।।१४।। पा नव केवल लन्धि रमा प्रभु वीतराग अरहन्त बने । बनू पूर्ण सर्वज्ञ व मै मुक्तिक्त भगवत बनूँ ।।१५।। यही विनय है यही भावना यही लक्षय है अब मेरा । निज सिद्धत्वरुप प्रगटाऊँगा जो है त्रिकाल मेरा ।।१६।।
ॐ ह्री श्री नमिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्य नि स्वाहा । उत्पलनील कमल शोभित हैं चरणचिह नमिनाथ ललाम । निज स्वभाव का जो आश्रय लेते वे पाते शिव सुखधाम ।।
इत्याशीर्वाद जाग्यपत्र - ॐ ह्री श्री नपिनाथ जिनेन्द्राय नम ।
श्री नेमिनाथ जिनपूजन जय श्री नेमिनाथ तीर्थंकर बाल ब्रह्मचारी भगवान । हे जिनराज परम उपकारी करूणा सागर दया निधान ।। दिव्यध्वनि के द्वारा हे प्रभु तुमने किया जगतकल्याण । श्री गिरनार शिखर से पाया तुमने सिद्धस्वपद निर्वाण ।। आज तुम्हारे दर्शन करके निज स्वरूप का आया ध्यान । मेरा सिद्ध समान सदा पद यह दृढ निश्चय हुआ महान ।। ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अत्र अवतर-अवतर सवौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । समकित जल की धारा से तो मिथ्याभम धुलजाता है। तत्त्वो का श्रद्धान स्वय को शाश्वत मगल दाता है ।।
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श्री नेमिनाथ जिनपूजन
२५९ घर में तेरे आग लगी है शीघ्र बुझा अब तो मतिमद ।
विषय कषायों की ज्वाला में अब तो जलना करदे बद ।। नेमिनाथ स्वामी तुम पद पकज की करता है पूजन । वीतराग तीर्थंकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ॥१॥ ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मिथ्यात्वमल विनाशनाय जल नि । सम्यक श्रद्धा का पावन चन्दन भव ताप मिटाता है । क्रोध कषाय नष्ट होती है निज की अरुचि हटाता है ।। नेमि ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय क्रोधकषाय विनाशनाय बदन नि । भाव शुभाशुभ का अभिमानी मान कषाय बढाता है । वस्तु स्वभाव जान जाता तो मान कषाय मिटाता है ।। नेमि ॥३।। ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मानकषाय विनाशनाय अक्षत नि । चेतन छल से परभावो का माया जाल बिछाता है । भव भव की माया कषाय को समकित पुष्प मिटाता है ।।नेमि ॥४॥ ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेंद्राय मायाकषाय विनाशनाय पुष्प नि । तृष्णा की ज्वाला से लोभी नहीं सुख पाता है । सम्यक चरु से लोभ नाशकर यह शुचिमय हो जाता है निमि ।।५।। ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेद्राय लोभकषाय विनाशनाय नैवेद्य नि । अन्धकार अज्ञान जगत मे भव भव भ्रमण कराता है। समकित दीप प्रकाशित हो तो ज्ञाननेत्र खुल जाता है ।।नेमि ।।६।। ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । पर विभाव परिणति मे फसकर निज काधुआ उडाता है । निज स्वरुप की गध मिले तो पर की गध जलाता है ।। नेमि ।।७।।
ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेद्राय विभाव परिणति विनाशनाय धूप नि । निज स्वभाव फल पाकर चेतन महामोक्ष फल पाता है । चहुगति के बधन कटते हैं सिद्ध स्वपद पा जाता है ।। नेमि ॥८॥ ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय महा महामोक्षफल प्राप्ताय फल नि । जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ से लाभ न कुछ हो पाता । जब तक निज स्वभाव मे चेतन मग्न नहीं हो जाता । नेमि. ॥९॥ ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेद्राय अनये पद प्राप्ताय अयं नि ।
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जैन पूजाजलि टाल अरे तू पचाव को पाल अरे तू पवाचार । परम अहिंसा तप सयमधारी बन कर तज विषय विकार ।।
श्री पंचकल्याणक कार्तिक शुक्ला षष्ठी के दिन शिव देवी उर धन्य हुआ । अपराजित विमान से चयकर आये मोद अनन्य हुआ । स्वप्न फलो को जान सभी के मन में अति आनन्द हुआ । नेमिनाथ स्वामी का गोत्सव मगल सम्पन्न हुआ ॥१॥ ॐ ह्री श्री कार्तिकशुक्ल षष्ठया गर्भमगल प्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन शौर्यपुरी मे जन्म हुआ । नृपति समुद्रविजय ऑगन मे सुर सुरपति का नृत्य हुआ ।। मेरु सुदर्शन पर क्षीरोदधि जल से शुभ अभिषेक हुआ । जन्म महोत्सव नेमिनाथ का परम हर्ष अतिरेक हुआ ।।२।। ॐ ह्री श्री श्रावणशुक्लषण्ठया जन्ममगल प्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । श्रावण शुक्ल षष्टमी को प्रभु पशुओ पर करुणा आई । राजमती तज सहस्त्राम्र वन मे जा जिन दीक्षा पाई ।। इन्द्रादिक ने उठा पालिकी हर्षित मगलचार किया । नेमिनाथ प्रभु के तप कल्याणक पर जय जयकार किया ।।३।। ॐ ही श्रावणशुक्लषष्ठया तपोमगल प्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि आश्विन शुक्ला एकम को प्रभु हुआ ज्ञान कल्याण महान । उर्जयत पर समवशरण मे दिया भव्य उपदेश प्रधान ।। ज्ञानावरण, दर्शनावरणी मोहनीय का नाश किया । नेपिनाथ ने अन्तराय क्षयकर कैवल्य प्रकाश लिया ।।४।। ॐ ह्री श्री आश्विन शुक्ल प्रतिपदाया ज्ञानमगलप्राप्ताय श्रीनेमिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य नि । श्री गिरनार क्षेत्र पर्वत से महामोक्ष पद को पाया । जगती ने आषाढ शुक्ल सप्तमी दिवस मगल गाया ।। वेदनीय अरु आयु नाम अरु गोत्र कर्म अवसान किया । अष्टकर्म हर नेमिनाथ ने परम पूर्ण निर्वाण लिया ॥५॥ ॐ ही अषाढशुक्लसप्तम्या मोक्षमगल प्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अयं नि
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श्री नेमिनाथ जिनपूजन नरक और पशु गति के दुख की सही वेदना सदा अपार । स्वों के नश्वर सुख पाकर भूला निज शिव सुख आगार ||
जयमाला जय नेमिनाथ नित्योदित जिन, जयनित्यानन्द नित्य चिन्मय । जय निर्विकल्प निश्चल निर्मल, जय निर्विकार नीरज निर्मय।।१।। नृपराज समुद्र विजय के सुत पाता शिव देवी के नन्दन । आनन्द शौर्यपुरी में छाया जय-जय से गूजा पाण्डुक वन।।२।। बालकपन मे क्रीड़ा करते तुमने धारे अणुव्रत सुखमय । द्वारिकापुरी मे रहे अवस्था पाई सुन्दर यौवन वय ।।३।। आमोद-प्रमोद तुम्हारे लख पूरा यादव कुल हर्षाता । तब श्री कृष्ण नारायण ने जूनागढ से जोडा नाता ॥४॥ राजुल से परिणय करने को जूनागढ़ पहुचे वर बनकर । जीवो की करुणा पुकार सुनी जागा उर मे वैराग्य प्रखर।।५।। पशुओ को बन्धन मुक्ति किया कगन विवाह का तोड दिया । राजुल के द्वारे आकर भी स्वर्णिम रथ पीछे मोड लिया ।।६।। रथत्याग चढे गिरनारी पर जा पहुचे सहस्त्राम वन मे । वस्त्राभूषण सब त्याग दिये जिन दीक्षाधारी तनपन मे ।।७।। फिर उग्र तपस्या के द्वारा निश्चय स्वरुप मर्मज्ञ हए । घातिया कर्म चारो नाशे छप्पन दिन मे सर्वज्ञ हुए ।।८।। तीर्थकर प्रकृतिउदय आई सुरहर्षित समवशरण रचकर । प्रभु गधकुटी मे अतरीक्ष आसीन हुए पद्मासन धर ।।९।। ग्यारह गणधर मे थे पहले गणधर वरदत्त महाऋिषिवर । थी मुख्य आर्यिका राजमती श्रोता थे अगणित भव्यप्रवर ।।१०।। दिव्यध्वनि खिरने लगी शाश्वत ओकार घन गर्जन सी । शुभ बारहसभा बनी अनुपम सौदर्यप्रभा मणि कचनसी ।।११।। जगजीवो का उपकारकिया भूलों को शिव पथ बतलाया । निश्चय रत्नत्रय की महिमा का परम मोक्षफलदर्शाया ॥१२॥ कर प्राप्त चतुर्दश गुणस्थान योगो का पूर्णअभाव किया ।
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जैन पूजाजलि आकिंचन्य दृष्टि होते ही, सुख का सागर लहराता,
सब धर्मों का सहज समन्वय, यहाँ पूर्णा है हो जाता । । कर उर्ध्वगमन सिद्धत्व प्राप्तकर सिद्धलोक आवास लिया ।।१३।। गिरनार शैल से मुक्त हुए तन के परमाणु उडे सारे । पावन मगल निर्वाण हुआ सुरगण के गूजे जयकारे ।।१४।। नख केश शेष थे देवो ने माया मय तन निर्वाण किया । फिर अग्निकुमार सुरोने आकर मुकुटानल से तन भस्म किया ।।१५।। पावनभस्मी का निज-निज के मस्तकपर सबनेतिलक किया । मगल वाद्यो की ध्वनि गूजी निर्वाणमहोत्सव पूर्णकिया ।।१६।। कर्मों के बधन टूट गये पूर्णत्व प्राप्त कर सुखी हुए । हम तो अनादि से हे स्वामी भवदुख बधन से दुखीहुए ।।१७।। ऐसा अन्तरबल दो स्वामी हम भी सिद्धत्व प्राप्तकरले । तुम पदचिहो पर चल प्रभुवर शुभ-अशुभ विभावो को हर ले ।।१८।। परिणाम शुद्ध का अर्चनकर हम अन्तरध्यानी बन जावे । घातिया चार कर्मों को हर हम केवलज्ञानी बन जावे ॥१९॥ शाश्वत शिवपद पाने स्वामी हम पास तुम्हारे आजाये । अपने स्वभाव के साधन से हम तीनलोक पर जयपाये ।।२०।। निज सिद्धस्वपद पाने को प्रभुहर्षित चरणो मे आयाहूँ । वसु द्रव्य सजाकर नेमीश्वर प्रभु पूर्ण अर्घ मै लाया हूँ ।।२१।। ॐ डी श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाय॑ नि स्वाहा । शख चिह चरणो मे शोभित जयजय नेमि जिनेश महान । मन वच तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते सिद्ध समान ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र - ॐ ह्री श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय नम
श्री पार्श्वनाथजिन पूजन तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ प्रभु के चरणो मे करूँ नमन । अश्वसेन के राजदुलारे वामादेवी के नन्दन ।। बाल ब्रहाचारी भवतारी योगीश्वर जिनवर वन्दन ।
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श्री पार्श्वनाथजिन पूजन
२६३ शाश्वत भगवान विराजित है आनद क्द तेरे भीतर ।
पुद्गल तन में अपनत्व मान देखा न कभी निज रुप प्रखर । । श्रद्धा भाव विनय से करता श्री चरणो का मै अर्चन ।। ॐ ह्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट्, ॐ ह्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्र अब मम सत्रिहितो भव भव वषट् । समकित जल से तो अनादि की मिथ्याभ्राति हटाऊँ मै । निज अनुभव से जन्ममरण का अन्त सहज पाजाऊँ मै ।। चिन्तामणि प्रभु पार्श्वनाथ की पूजन कर हर्षाऊँ मैं । सकटहारी मगलकारी श्री जिनवर गण गाऊँ मै ॥१॥ ॐ ह्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । तन की तपन मिटाने वाला चन्दन भेट चढाऊँ मै । भव आताप मिटाने वाला समकित चन्दन पाऊँमै चिन्ता ॥२॥ ॐ हो श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय ससारताप विनाशनाय वदन नि । अक्षत चरण समर्पित करके निजस्वभाव मे आऊँमै । अनुपम शान्त निराकुल अक्षय अविनश्वर पद पाऊँमै चिन्ता ।।३।। ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेनद्राय अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । अष्ट अगयुत सम्यक दर्शन पाऊँ पुष्प चढाऊँ मै । कामवाण विध्वस करूँ निजशील स्वभाव सजाऊँ।। चिन्ता ॥४।। ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि इच्छाओ की भूख मिटाने सम्यक पथ पर आऊँमै । समकित का नैवेद्य मिले तो क्षुधारोग हर पाऊँमै ।। चिन्ता ।।५।। ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि मिथ्यातम के नाश हेतु यह दीपक तुम्हे चढाऊँ मै । समकित दीप जले अन्तर मे ज्ञानज्योति प्रगटाऊँमै चिन्ता ।।६।। ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि समकित धूप मिले तो भगवन् शुद्ध भाव मे आऊँमै । भाव शुभाशुभ धूम्र बने उड़ जाये धूप चढाऊँमै चिन्ता ॥७॥ ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि उत्तमफल चरणों मे अर्पित आत्मध्यान ही ध्याऊँ मैं ।
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२६४
जैन पूजाजलि छह द्रव्यों से भी श्रेष्ठ द्रव्य, नव तत्वों से भी परम तत्व ।
सच्चिदानद आनद बद सर्वोत्कृष्ट निज आत्म तत्व ।। समकित का फल महामोक्षफल प्रभुअवश्य पा जाऊँ।।चिन्ता ।।८।। ॐ ह्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि अष्ट कर्म क्षय हेतु अष्ट द्रव्यो का अर्घ बनाऊँ मै । अविनाशी अविकारी अष्टम वसुधापति बन जाऊँ मै चिन्ता ।।९।। ॐ ह्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ पद प्राप्तये अयं नि ।
श्री पंचकल्याणक प्राणत स्वर्ग त्याग आये माता वामा के उर श्रीमान । कृष्ण दूज वैशाख सलोनी सोलह स्वप्न दिखे छविमान । पन्द्रह मास रत्न बरसे नित .मगलमयी *गर्भ कल्याण । जय जय पार्श्वजिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जयजय दयानिधान ।।१।। ॐ ह्री वैशाखकृष्ण द्वितीया गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । पौष कृष्ण एकादशमी को जन्मे, हुआ जन्म कल्याण । ऐरावत गजेन्द्र पर आये तब सौधर्म इन्द्र ईशान । गिरि सुमेरु पर क्षीरोदधि से किया दिव्यअभिषेक महान । जय जय पार्वजिनेश्वरप्रभु परमेश्वर जय जय दयानिधान ।।२।। ॐ ही पौषकृष्णएकादश्या जन्मकल्याणकप्राप्त श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय प्राप्ताय अयं नि । बाल ब्रह्मचारी वतधारी उर छाया वैराग्य प्रधान । लौकातिक देवो ने आकर किया आपका जय जय गान ।। पौष कृष्ण एकादशमी को हुआ आपका तप कल्याण । जय जय पाश्र्व जिनेश्वरप्रभु परमेश्वर जय जय दयानिधान।।३।। ॐ ही पौषकृष्ण एकादश्या तप कल्याणकप्राप्ताय श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अर्घ्य नि । कमठ जीव ने अहिक्षेत्र पर किया घोर उपसर्ग महान । हए न विचलित शक्ल ध्यानधर श्रेणी चढे हुए भगवान ।। चैत्र कृष्ण की चौथ हो गई पावन प्रगट केवलज्ञान । जय जय पार्श्व जिनेश्वर प्रभु परमेश्वर जय जय दयानिधान ।।४।।
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श्री पार्श्वनाथजिन पूजन
२६५ ध्यान अवस्था की सीमा में आते ही होता आनन्द ।
रागातीत ध्यान होते ही होती सभी कषायें मद ।। ॐ ही चैत्रकृष्ण चतुर्थी दिवज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अयं नि । श्रावण शुक्ल सप्तमी के दिन बने अयोगी हे भगवान । अन्तिम शुक्ल ध्यानधर सम्मेदाचल से पाया पदनिर्वाण ॥ कूट सूवर्णभद्र पर इन्द्रादिक ने किया मोक्ष कल्याण । जय जय पाश्र्व जिनेश्वरप्रभु परमेश्वर जयजय दयानिधान ।।५।। ॐ ह्री श्री श्रावणशुक्ल सप्तम्या मोक्षकल्याणक प्राप्ताय श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अयं नि ।
जयमाला तेईसवे तीर्थंकर प्रभु परम ब्रह्ममय परम प्रधान । प्राप्त महा कल्याणपचक पाश्र्वनाथ प्रणतेश्वर प्राण ।।१।। वाराणसी नगर अति सुन्दर शिवसेन नृप परम उदार । ब्राह्मी देवी के घर जन्मे जग मे छाया हर्ष अपारा।२।। मति श्रुति अवधि ज्ञान के धारी बाल ब्रह्मचारी त्रिभुवान । अल्प आयु मे दीक्षाधर कर पच महाव्रत धरे महान ॥३॥ चार मास छास्थ पौन रह वीतराग अरहन्त हुए । आत्म ध्यान के द्वारा प्रभु सर्वज्ञ देव भगवन्त हुए।।४।। बैरी कमठ जीव ने तुमको नौ भव तक दुख पहुँचाया । इस भव मे भी सवर सुर हो महा विध्न करने आया ।।५।। किया अग्निमय घोर उपद्रव भीषण झझावात चला ।। जल प्लावित हो गई धरा पर ध्यान आपका नहीं हिला ।।६।। यक्षी पद्मावती यक्ष धरणेन्द्र विध्न हरने आये । पूर्व जन्म के उपकारो से हो कृतज्ञ तत्क्षण आये ।।७।। प्रभु उपसर्ग निवारण के हित शुभ परिणाम ह्रदय छाये । फण मण्डप अरु सिंहासन रच जय जय जयप्रभु गुणगाये ।।८।। देव आपने साम्य भाव धर निज स्वरूप को प्रगटाया ।
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२६६
जैन पूजाजलि बौद्धिकता होती परास्त है आध्यात्मिकता के आगे ।
निज सौंदयभाव जगते ही पाप पुण्य डर कर भागे ।। उपसों पर जय पाकर प्रभु निज कैवल्य स्वपद पाया ॥९।। कमठ जीव की माया विनशी वह भी चरणों मे आया । समवशरण रचकर देवो ने प्रभु का गौरव प्रगटाया॥१०॥ जगत जनो को ओ कार ध्वनिमय प्रभु ने उपदेश दिया । शुद्ध बुद्ध भगवान आत्मा सबकी है सदेश दिया ॥११।। दश गणधर थे जिनमे पहले मुख्य स्वयभू गणधर थे । मुख्य आर्यिका सुलोचना थी श्रोता महासेन वर थो।१२।। जीव, अजीव, आश्रव, सवर बन्ध निर्जरा मोक्ष महान । ज्यो का त्यो श्रद्धान तत्त्व का सम्यक दर्शन श्रेष्ठ प्रधान ॥१३॥ जीव तत्त्व तो उपादेय है, अरु अजीव तो है सब ज्ञेय ।। आश्रव बन्ध हेय है साधन सवर निर्जर मोक्ष उपाये ॥१४॥ सात तत्त्व ही पाप पुण्य मिल नव पदार्थ हो जाते हैं । तत्त्व ज्ञान बिन जग के प्राणी भव-भव मे दुख पाते है।।१५।। वस्तु तत्त्व को जान स्वय के आश्रय मे जो आते है । आत्म चितवन करके वे ही श्रेष्ठ मोक्ष पद पाते हैं ।।१६।। हे प्रभु। यह उपदेश आपका मै निज अन्तर मे लाऊँ। आत्मबोध की महाशक्ति से मै निर्वाण स्वपद पाऊँ ॥१७॥ अष्ट कर्म को नष्ट करूँ मै तुम समान प्रभु बन जाऊँ । सिद्ध शिला पर सदा विराजू निज स्वभाव मे मुस्काऊँ ॥१८॥ इसी भावना से प्रेरित हो हे प्रभु। की है यह पूजन । तुव प्रसाद से एक दिवस मै पा जाऊँगा मुक्ति सदन ॥१९॥ ॐ ही श्री गर्भजन्मतपज्ञाननिर्वाण कल्याणक प्राप्ताय श्री पार्श्वनाथ जिनेद्राय पूर्णाय॒ नि । सर्प चिन्ह शोभित चरण पार्श्वनाथ उर धार । मन, वच, तन जो पूजते वे होते भव पार ।।२०।।
___इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र -ॐ ह्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय नम ।
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श्री महावीर जिन पूजन जब स्वपर विवेक सूर्य जगता होता जीवत मनो मथन । समकित स्वर झकृत होते ही खिलखिल जाता है अतर्मन ।।
श्री महावीर जिन पूजन वर्धमान सुवीर वैशालिक श्री जिनवीर को । वीतरागी तीर्थंकर हितकर अतिवीर को ।। इन्द्र सुर नर देव वदित वीर सन्मति धीर को । अर्चना पूजा करूँ मै नमन कर महावीर को ।। नष्ट हो मिथ्यात्व प्रगटाऊँ स्वगुण गम्भीर को । नीर क्षीर विवेक पूर्वक हरूँ भव की पीर को ।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनन्द्राय अत्र अवतर-अवतर सवौषट् ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । जल से प्रभु प्यासबुझाने का झूठा अभिमानकिया अबतक । परआश पिपासा नही बुझी मिथ्या भ्रममानकिया अबतक ।। भावो का निर्मल जल लेकर चिर तृषा मिटाने आया हूँ । हे महावीर स्वामी। निज हित मे पूजन करने आया हूँ ।।१।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि ।। शीतलता हित चदनचर्चित निज करता आया था अबतक । निज शीलस्वभाव नहीं समझा परभाव सहाया था अबतक ।। निजभावो का चदन लेकर भवताप हटाने आया हूँ ।। हे महावीर ।।२।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय ससारतापविनाशनाय चदन नि । भौतिक वैभव की छाया मे निज द्रव्य भुलाया था अबतक । निजपद विस्मृतकर परपद का ही राग बढाया था अबतक ।। भावो के अक्षत लेकर मै अक्षय पद पाने आया हूँ।। हे महावीर ।।३।। ॐ ही श्री महावीर जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षत नि । पुष्पो को कोमल मादकता मे पडकर भरमाया अब तक । पीड़ा न काम की मिटी कभी निष्काम न बन पाया अबतक ।। भावो के पुष्प समर्पित कर मैं काम नशाने आया हूँ ।। हे महावीर ।।४।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि ।
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जैन पूजाजलि स्वाध्याय के स्वर्णिम रथ पर, चढकर चलो मुक्ति की ओर ।
स्वाध्याय से ही पाओगे, केवल ज्ञानचद्र की कोर ।। नैवेद्य विविध खाकर भी तो यह भूख न मिटपाई अबतक । तृष्णा का उदरन भरपाया, पर की महिमा गाई अबतक ।। भावों के चरु लेकर अब मैं तृष्णाग्निबुझाने आया हूँ।हे महावीर।।५।। ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि । मिथ्याभ्रम अन्धकारछाया सन्मार्ग न मिल पाया अबतक । अज्ञान अमावस के कारण निज ज्ञान न लख पाया अबतक । भावो का दीप जला अन्तर आलोक जगाने आया हूँ ॥हे महावीर।।६।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय मोहाधकार विनाशनाय दीपं नि । कमों की लीला मे पडकर भवभार बढाया है अब तक । ससार द्वद के पदे से निज धूम उडाया हे अब तक । भावो की धूप चढाकर मैं वसु कर्म जलाने आया हूँ ।।हे महावीर।।७।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूप नि । सयोगी भावो से भव ज्वाला मे जलता आया अब तक । शुभ के फल मे अनुकूल सयोगो को पा इतराया अब तक ।। भावो का फल ले निजस्वभाव काशिव पुलपाने आया हूँ ।।हे महावीर।।८।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि अपने स्वभाव के साधन का विश्वास नहीं आया अब तक । सिद्धत्व स्वय से आता है आभास नहीं पाया अब तक।। भावो का अयं चढ़ाकर मै अनुपमपद पाने आया हूँ ।। हे महावीर ।।९।। ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय अनर्घ्य पद प्राप्ताय अयं नि
श्री पंचकल्याणक धन्य तुम महावीरभगवान धन्य तुम वर्धमान भगवान । शुभ आषाढ शुक्ला षष्ठी को हुआ गर्भ कल्याण ॥ माँ त्रिशला के उर मे आये भव्य जनो के प्राण । धन्य तुम महावीर भगवान ॥१॥ ॐ ह्री श्री अषाढशुक्लाषष्ठया गर्भमगल प्राप्ताय महावीरजिनेंद्राय अर्घ्य नि ।
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श्री महावीर जिन पूजन निज से त अनभिज्ञ अपरिचित पर से क्यों संबंधित है ।
दुष्कर्मों में दत्त चित्त है भोगों से स्पंदित है ।। चैत्र शुक्ल शुभ त्रयोदशी का दिवस पवित्र महान । हुए अवतरित भारत भू पर जग को दुखमय जान || धन्य ।।२।। ॐही चैत्रशुक्लात्रयोदश्या जन्मकल्याणक प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अयं नि । जग को अथिर जान छाया मन मे वैराग्य महान । मगसिर कृष्णदशमी के दिन तप हित किया प्रयाण ॥धन्य ॥३॥ ॐ हीं श्री मगसिर कृष्णदशम्या तपकल्याणक प्राप्ताय श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अयं नि । शुक्ल ध्यान के द्वारा करके कर्म घाति अवसान । शुभ वैशाख शुक्ल दशमी को पाया केवलज्ञान ॥धन्य ॥४॥ ॐ ही बैशाखशुक्ल दशम्या ज्ञानकल्याण प्राप्ताय श्रीमहावीर जिनेन्द्राय अयं नि श्रावण कृष्ण एकम के दिन दे उपदेश महान । दिव्यध्वनि से समवशरण मे किया विश्व कल्याण ।। धन्य ।।५।। ॐ ह्री श्रावणकृष्णएकम् दिव्यध्वनि प्राप्ताय श्री महावीरजिनेन्द्राय अयं नि । कार्तिक कृष्ण अमावस्या को पाया पद निर्वाण। पूर्ण परम पद सिद्ध निरन्जन सादि अनन्त महान ॥धन्य ।।६।। ॐ ह्री कार्तिककृष्णअमावश्या मोक्षपदप्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्घ्य नि ।
जयमाला जय महावीर त्रिशला नन्दन जय सन्मति वीर सुवीर नमन । जय वर्धमान सिद्धार्थ तनय जय वैशालिक अतिवीर नमन ॥१॥ तुमने अनादि से नित निगोद के भीषण दुख को सहनकिया । जस हुए कई भव के पीछे पर्याय मनुज मे जन्म लिया ॥२॥ पुरुरवा भील के जीवन से प्रारम्भ कहानी होती है । अनगिनती भव धारे जैसी मति हो वैसी गति होती है ।।३।। पुरुषार्थ किया पुण्योदय से तुम भरत पुत्र मारीच हुए । मुनि बने और फिर भ्रमित हुए शुभ अशुभभाव के बीचहुए ।।४।।
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जैन पूजांजलि साक्षात अरहत देव का भी उपदेश न मगलमय ।
अपने को यदि नहीं जान पाया तो सभी उदगलमय । । फिर तुम त्रिपृष्ठ नारायण बन, हो गये अर्धचक्री प्रधान । फिर भी परिणाम नहीं सुधरे भवभ्रमण किया तुमने अजाना ।५।। फिर देव नरक त्रिर्यन्च मनुज चारोगतियो मे भरमाये । पर्याय सिंह की पुन मिली पाचो समवाय निकट आये ॥६॥ अजितजय और अमितगुण चारणमुनि नभ से भूपरआये । उपदेश मिला उनका तुमको नयनो मे आसू भर आये ।।७।। सम्यक्त्व हो गया प्राप्त तुम्हे, मिथ्यात्त्व गया, व्रतग्रहणकिया । फिर देव हुए तुम सिंहकेतु सौधर्म स्वर्ग मे रमणकिया ।।८।। फिर कनकोज्ज्वलविद्याधर हो मुनिव्रत से लातवस्वर्ग मिला । फिर हुए अयोध्या के राजा हरिषेण साधुपद ह्रदयखिला ।।९।। फिर महाशुक्र सुरलोक मिला चयकरचक्री प्रियपित्र हुए । फिर मुनिपद धारण करके प्रभु तुम सहस्त्रार मे देवहुए।।१०।। फिर हुए नन्दराजा मुनि बन तीर्थकर नाम प्रकृतिबाँधी । पुष्पोत्तर मे हो अच्युतेन्द्र भावना आत्मा की साधी ।।११।। तुम स्वर्गयान पुष्पोत्तर तज मा त्रिशला के उर मे आये । छह मास पूर्व से जन्मदिवस तक रत्न इन्द्र ने बरसाये ॥१२॥ वैशाली के कुण्डलपुर मे हे स्वामी तुमने जन्म लिया । मुरपति ने हर्षित गिरि सुमेरु पर क्षीरोदधि अभिषेककिया ।।१३।। शुभ नाम तुम्हारा वर्द्धमान रख प्रमुदित हुआ इन्द्रभारी । बालकपन मे क्रीडाकरते तुम मति श्रुतिअवधिज्ञानधारी ।।१४।। मजय अरु विजय महामुनियो को दर्शन का विचार आया । शिशु वर्द्धमान के दर्शन से शका का समाधानपाया ।।१५।। पुनिवर ने सन्मति नाम रखा वे नमस्कार कर चले गये । तुम आठवर्ष की अल्पआयु मेही अणुव्रत मे ढले गये ।।१६।। सगम नामक एक देव परीक्षा हेतु नाग बनकर आया । तुमने निशक उसके फणपर चढ नृत्यकिया वह हर्षाया।१७।।
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श्री महावीर जिन पूजन
२७१ ज्ञान ध्यान वैराग्य भावना ही तो है शिव सुख का मूल ।
पर का गृहणा त्याग तो सारा निज स्वभाव के है प्रतिकूल ।। तत्क्षण हो प्रगट झुकामस्तक बोला स्वामी शत शत वदन । अति वीरवीर हे महावीर अपराधक्षमा करदो भगवन् ।।१८।। गजराज एक ने पागल हों आनकित सबको कर डाला । निर्भय उस पर आरुढ हुए पल भर मे शान्त बनाडाला ।।१९।। भव भोगो से होकर विरक्त तुमने विवाह से मुख मोडा । बस बाल ब्रहाचारी रहकर क्दर्प शत्रु का मद तोडा ॥२०॥ जब तीस वर्ष के युवा हुए वैराग्य भाव जगा मन मे । लौकांतिक आये धन्यधन्य दीक्षा ली ज्ञातखण्ड वन मे।।२१।। नृपराज बकुल के गृहजाकर पारणा किया गौ दुग्धलिया । देवो ने पचाश्चर्य किये जन जन ने जय जयकार किया ।।२२।। उज्जयनी की शमशानभूमि मे जाकर तुमने ध्यानकिया । सात्यिकी तनय भव रुद्र कुपितहो गया महाव्यवधान किया ।।२३।। उपसर्ग रुद्र ने किया तुम आत्म ध्यान मे रहे अटल । नतमस्तक रुद्र हुआ तब ही उपसर्ग जयी हुए सफल ।।२४।। कोशाम्बी मे उस सती चन्दना दासी का उद्धार किया । हो गया अभिग्रह पूर्ण चन्दना के कर से आहारलिया ।।२५।। नभ से पुष्पो की वर्षा लख नृप शतानीक पुलकितआये । बैशाली नृप चेतक बिछुडी चन्दना सुता पा हर्षाये ॥२६।। सगमक देव तुमसे हारा जिसने भीषण उपसर्ग किए । तुम आत्मध्यान मे रहे अटल अन्तर मे समता भावलिए ।।२७।। जितनी भी बाधाये आई उन सब पर तुमने जय पाई। द्वादश वर्षों की मौन तपस्या और साधना फल लाई ।।२८।। मोहारि जयी श्रेणी चढकर तुम शुक्ल ध्यान मे लीनहुए । ऋजुकूला के तट पर पाया कैवल्यपूर्ण स्वाधीन हुए ॥२९।। अपने स्वरुप मे मग्न हुए लेकर स्वभाव का अवलम्बन । घातियाकर्म चारों नाशे प्रगटाया केवलज्ञान स्वधन ।।३०।।
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जैन पूजाजलि निज में ही सन्तुष्ट रहू मैं निज में ही रमण करु ।
फिर क्यो चारों गति में भटकू फिर क्यों भव में भ्रमण करु ।। अन्तर्यामी सर्वज्ञ हुए तुम वीतराग अरहन्त हुए । सुरनरमुनि इन्द्रादिक बन्दित त्रैलोक्यनाथ भगवत हुए।।३१।। विपुलाचल पर दिव्यध्वनि के द्वारा जग कोउपदेशदिया । जग की असारता बतलाकर फिर मोक्षमार्ग सदेशदिया ।।३२।। ग्यारह गणधर मे हेस्वामी। श्रीगौतम गणधर प्रमुखहुए । आर्यिका मुख्य चदना सती श्रोता श्रेणिक नृप प्रमुखहुए।।३३।। सोई मानवता जागउठी सुर नर पशु सबका ह्रदयखिला । उपदेशामृत के प्यासो को प्रभु निर्मल सम्यक ज्ञानमिला ।।३४।। निज आत्मतत्व के आश्रय से निजसिद्धस्वपदमिल जाता है । तत्त्वो के सम्यक निर्णय से निज आत्मबोध हो जाता है ।।३५।। यह अनतानुबधी कषाय निज पर विवेक से जाती है । बस भेदज्ञान के द्वारा ही रत्नत्रय निधि मिल जाती है ॥३६॥ इस भरतक्षेत मे विचरण कर जगजीवो का कल्याण किया । दर्शन ज्ञान चारित्रमयी रत्नत्रय पथ अभियान किया ।।३७।। तुम तीस वर्ष तक कर विहार पावापुर उपवन मे आये । फिर योग निरोध किया तुमने निर्वाण गीत सबनेगाये ॥३८॥ चारो अघातिया नष्ट हुए परिपूर्ण शुद्धता प्राप्त हुई । जा पहुचे सिद्धशिलापर तुम दीपावली जग विख्यात हुई ॥३९।। हे महावीर स्वामी! अब तो मेरा दुख से उद्धार करो ।। भवसागर में डूबा हूँ मैं हे प्रभु। इस भव का भार हरो ।।४०।। हे देव। तुम्हारे दर्शनकर निजरुप आज पहिचाना है। कल्याण स्वय से ही होगा यह वस्तुतत्व भी जाना है ।।४१।। निज पर विवेक जागा उरमे समकित की महिमा आई है। यह परम वीतरागी मुद्रा प्रभु मन में आज सुहाई है ।।४२।। तुमने जो सम्यक पथ सबको बतलाया उसको आचरल ।। आत्मानुभूति के द्वार मैं शाश्वत सिद्धत्व प्राप्तकरवू ।।४।।
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श्री तीर्थकर गणधरवलय पूजन
२७३ अगर देत पर दृष्टि रहेगी तो भव विभ्रम दूर नही ।
निज अद्वैत दृष्टि होगी तो फिर निज के प्रतिकूल नही ।। मै इसी भावना से प्रेरित होकर चरणो मे आया हूँ। श्रद्धायुत विनयभाव से मैं यह भक्ति सुमनप्रभु लाया हूँ ।।४४।। तुमको है कोटि कोटि सादर बन्दन स्वामी स्वीकार करो । हे मगल मूर्ति तरण तारण अब मेरा बेडा पार करो ॥४५।। ॐ ही श्री महावीर जिनेन्द्राय अनर्धपद प्राप्तायअयं नि ।
सिंह चिन्ह शोभित चरण महावीर उरधार । मन, वच, तन जो पूजते वे होते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र - ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय नम ।
श्री तीर्थकर गणधरवलय पूजन वृषभादिक श्री वीर जिनेश्वर तीर्थंकर चौबीस महान । इनके चौदह सौ उन्सठ गणधर को मै वन्दू धर ध्यान ।। ऋद्धि सिद्धि मंगल के दाना गणधर चार ज्ञान धारी । मति श्रुत अवधि मन पर्यय ज्ञानी भव ताप पाप हारी ।। पच महाव्रत पच समिति त्रय गप्ति सहित जग मे नामी। आठो पद अरु सप्त भयो से रहित महामुनि शिवगामी ।। बुद्धि बीज पादानुसारिणी आदि ऋद्धियो के स्वामी । द्वादशाग की रचना करते सर्व सिद्धियो के धामी ।। वृषभसेन आदिक गौतम गणधर को नितप्रति करप्रणाम । भक्तिभाव से चरण पूजकर मै पाऊँ सिद्धो का धाम ।। ॐ ही श्री सर्व गणधर देव समूह अत्र अवतर अवतर सवौषट अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अत्र मम सनिहितो भव भव वषट् । एकत्व विभक्त आत्मा प्रभु निज वैभव से परिपूर्ण स्वयम् । यह जन्ममरण से रहित धौव्यशाश्वत शिवशुद्धस्वरुपपरम ।। मै चौबीसो तीर्थंकर के गणधरो को करूँ नमन । श्री द्वादशाग जिनवाणी के हे रचनाकार तुम्हे वन्दन ।।१।।
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२७४
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जैन पूजाजलि सत्य स्वरूप आग्रह करके परम शान्त हो जामा ।
पर का आग्रह मानू गा तो पूर्णा भ्रान्त हो जा ।। ॐ ह्रीं श्री सर्वगणधरदेवाय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । है श्रुत परिचित अनुभूतभोग, बधन की कथा सुलभ जग मे । भवताप हार एकत्वरूप, निज अनुभव अति दुर्लभ जगमे।।मैं ॥२॥ ॐ ही श्री सर्वगणघरदेवाय ससारतापविनाशनाय चदन नि । निज ज्ञायक भाव नही प्रमत्त या अप्रमत्त है क्षण भर भी । अक्षयअखड निजनिधिस्वामी इसमे न राग है कणभर भी। मैं ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री सर्वगणधरदेवाय अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि। जड पुद्गल रागादिक विकार इनसे मेरा सम्बन्ध नहीं । निष्कामअतीन्द्रिय सुखसागर मुझमे पर का कुछ द्वद नही ।। मै ।।४।। ॐ ह्री श्री सर्वगणधरदेवाय कामबाण विध्वसनाय पुष्प नि । भूतार्थ आश्रित भव्य जीव ही सम्यक दृष्टि ज्ञानधारी । सम्यक चारित्र धार हरता है क्षधा व्याधि की बीमारी || मै ॥५॥ ॐ ह्री श्री सर्वगणधरदेवाय क्षुधारोगविनाशनाय, नैवेद्य नि । जिन वच मे जो रमते पल मे वे मोह वमन कर देते है । वे स्वपर प्रकाशक स्वय ज्योतिसुखधाम परम पद लेते हैं।। मै ।।६।। ॐ ह्री श्री सर्वगणधरदेवाय मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि । जीवादिक नवतत्त्वो मे भी निज की श्रद्धाप्रतीति समकित । मैं भेद ज्ञान पा हो जाऊप्रभु अष्टकर्म रज से विरहित ।। मै ७॥
ॐ ही श्री सर्वगणधरदेवाय अष्टकर्म दहनाय धूप नि । चित्चमत्कार उद्योतवान चैतन्य मूर्ति निज परम श्रेय । मै स्वय मोक्षमगलमय हू पर भाव सकल है सदा हेय ।।मैं ॥८॥ ॐ ह्री श्री सर्वगणधरदेवाय मोक्षफल प्राप्ताय फल नि । मैं हू अबद्ध अस्पृष्ट, नियत, अविशेष अनन्त गुण कार हूँ । मै हू अनर्घ पद का स्वामी प्रभु केवलज्ञान दिवाकर हूँ ।। मैं ।।९।। ॐ ही श्री सर्वगणधरदेवाय अनर्धपद प्राप्तये अयं नि ।
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श्री तीर्थकर गणधरवलय पूजन भोग-तृप्ति तृष्णा आशा अज्ञान विपति नहीं है लेश । बधन-से मैं सदा रहित हू मुक्त स्वरुपी मेरा वेश ।।
जयमाला चौबीसो जिनराज के श्री गणधर भगवान । विनय भाव से मै नमू पाऊँ सम्यकज्ञान ॥१॥ तीर्थकर गणधर की सख्या और मुख्य गणधर के नाम । भक्तिभाव से अर्घ चढाऊँ विनय सहित मैं करूँ प्रणाम ।।२।। ऋषभदेव के चौरासी गणधर मे वृषभसेन नामी ।। अजितनाथ के नब्बे मे थे केसरिसेन ज्ञानधामी ॥३॥ सम्भव के एक सौ पाँच मे चारुदत्त गणधर स्वामी । अभिनन्दन के एक सो तीन मे वज्रचमर ऋषि गुणधामी ।।४।। सुमतिनाथ के एक शतक सोलह मे, हुए वज्रस्वामी ।। पदमप्रभ के एक शतक ग्यारह मे प्रमुख चमर नामी ।।५।। श्री सपार्श्व के पचानवे प्रमुख बलदत्त महा विद्वान । चन्द्रप्रभ के तिरानवे मे मुख्य श्री वैदर्भ महान ।।६।। पुष्पदन्त के अट्ठासी मे मुख्य नाग ऋषि हुए प्रधान । शीतल जिनके सत्तासी मे हुए कुन्थु मुनि श्रेष्ठ महान ।।७।। प्रभु श्रेयासनाथ के गणधर हुए सतत्तर धर्म प्रधान । वासुपूज्य के छयासठ मे थे गणधर मन्दर महामहान ।।८।। विमलनाथ के पचपन गणधर मे थे जय ऋषिराज स्वरूप । श्री अनन्तजिन के पचास गणधर में मुख्य अरिष्ट अनूप ।।९।। धर्मनाथ के तिरतालीस गणधरो मे थे सेन महन्त । शातिनाथ के थे छत्तीस मुख्य चक्रायुध श्री भगवन्त ।।१०।। कुन्थुनाथ प्रभु के थे पैतिस मुख्य स्वयभू गणधर थे । अरहनाथ के तीस गणधरों में भी कुम्भ ऋषीश्वर थे ।।११।। मल्लिनाथ के अट्ठाइस गणधर मे मुख्य विशाख प्रधान । मुनिसुव्रत के अट्ठारह मे मुख्य हुए मुनि पल्लि महाना।१२।। श्री नमिनाथ जिनेश्वर के सतरह गणधरों मे सप्रम देव ।
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२७६
जैन पूजाजलि शुद्ध आत्मा की उपासना है विश्व कल्याणा मयी ।
यही मुक्ति का मार्ग शाश्वत यह शाश्वत निर्वाणामयी । । नेमिनाथ के ग्यारह गणधर मे वरदत्त हुए स्वयमेव ।।१३।। पाश्र्वनाथ प्रभु के दस गणधर मे थे मुख्य स्वयभू नाम । महावीर के ग्यारह गणधर, इन्द्रभूति गौतम गुणधाम ॥१४॥ ये चौदह सौ उन्सठ गणधर इनकी महिमा अपरम्पार । केवलज्ञान लब्धि को पाकर सभी हुए भवसागर पार ।।१५।। तीर्थंकर प्रभु शुक्ल ध्यान धर जब पाते हैं केवलज्ञान । देवो द्वारा समवशरण की रचना होती दिव्य महान।।१६।। द्वादश सभासहज जुड़ती है अन्तरीक्ष प्रभु फ्यासन । गणधर के आते ही होती प्रभ की दिव्य ध्वनि पावन ॥१७॥ मेघगर्जनासम जिनध्वनि का बहता है अतिसलिलप्रवाह ।।
ओकार ध्वनि सर्वागो से झरती देती ज्ञान अथाह ।।१८।। दिव्य ध्वनि खिरते ही गणधर तत्क्षण उसे झेलते हैं । छठे सातवे गुणस्थान मे बारम्बार खेलते है ।।१९।। छहछह घडी दिव्यध्वनि खिरतीचारसमय नितमगलमय । वस्तुतत्त्व उपदेश श्रवणकर भव्य जीव होते निज मय ॥२०॥ जिन जीवो की जो भाषा उसमे हो जाती परिवर्तित । मात शतक लघु और महाभाषा अष्टादशमयी अमित ॥२१॥ रच देते अतमुहूर्त मे द्वादशागमय जिनवाणी । दिव्यध्वनि बन्द होने पर व्याख्या करते जग कल्याणी ।।२२।। गणधर का अभाव हो तो दिव्यध्वनि रूप प्रवृत्ति नही । जिन ध्वनि अगर नहीं हो तो सशय की कभी निवृत्तिनहीं।।२३।। तीर्थकर की दिव्य ध्वनि गणधर होने पर ही खिरती । गणधर समुपस्थित न अगर हो वाणी कभी नहीं खिरती ।।२४।। इसीलिये तो महावीर प्रभु की दिव्य ध्वनि रुकी रही । छ्यासठदिन तक रहामौन सारी जगती अति चकित रही ।।२५।। इन्द्रभूति गौतम जब आए मुनि बन गणधर हुए स्वयम् । तभी दिव्यध्वनि गूजउठी जिन प्रभु की मेघगर्जना सम ॥२६॥
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२७७
श्री त्रिकाल चौबीसी जिन पूजन मुर्छा भाव नहीं है मुझ में सर्व शल्य से ह नि शल्य । आत्म भावना के अतिरिक्त नहीं है मुझमें कोई शल्य ।।
श्री तीर्थकर निर्वाण क्षेत्र पूजन अष्टापद कैलाश श्री सम्मेदाचल चम्पापुर धाम । उर्जयत गिरनार शिखर पावापुर सबको करुं प्रणाम ।। ऋषभादिक चौबीस जिनेश्वर मुक्ति वधु के कत हुए । पच तीथों से तीर्थकर परम सिद्ध भगवन्त हुए ।। ॐ ही श्री तीर्थकर निर्वाणक्षेत्राणि अत्र अवतर अवतर संवोषट् । ॐ ही श्री तीर्थकर निर्वाण क्षेत्राणि अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ॐ ही श्री तीर्थकर निर्वाण क्षेत्राणि अत्र मम सनिहितोभव भव वषट् । जन्म मरण से व्यथित हुआ हुँ भव अनादि अनादि से दुखपाया । परम पारिणामिक स्वभाव का निर्मल जल पाने आया ।। अष्टापद सम्मेदशिखर, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार । चौबीसो तीर्थंकर की निर्वाण भूमि वन्दू सुखकार ॥१॥ ॐ ही श्री तीर्थकर निर्वाणक्षेत्रेभ्योजन्मजरा मृत्यु विनाशनाय जल नि । भव आतप से दग्ध हुआ मैं प्रतिपल दुख अनन्त पाया । परम पारिणामिक स्वभाव का निज चदन पाने आया ।।अष्टा ।।२।। ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो ससार ताप विनाशनायचदन नि । भव समुद्र मे चहुँ गति की भवरो मे डूबा उतराया । परम पारिणामिक स्वभाव से अक्षयपद पाने आया । ।अष्टा ॥३॥ ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षत नि । काम भोग बन्धन मे पडकर शील स्वभाव नहीं पाया । परम पारिणामिक स्वभाव के सहज पुष्प पाने आया ।।अष्टा ।।४।। ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । तृष्णा की ज्वाला मे जल जल तृप्त नहीं मैं हो पाया । परम पारिणामिक स्वभाव के शुचिमय चरूपाने आया ||अष्टा || ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो सुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । सम्यक्तान बिना प्रभु अबतक निजस्वरुप ना लख पाया । परम पारिणामिक स्वभाव की दीप ज्योति पाने आया ||अष्टा ।।६।।
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२७८
जैन पूर्जाजलि जिनके मन में अभिलाषा है होती उनको सिद्धि नही ।
अभिलाषा वाले को होती शुद्ध भाव की बुद्धि नहीं । । ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनायदीप नि । अष्ट कर्म की क्रूर प्रकृतियों में ही निज को उलझाया । परम पारिणामिक स्वभाव की सजल धूप पाने आया ।।अष्टा ।।७।। ॐ ह्रीं तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो अष्ट कर्म दहनाय धूपं नि । मोक्ष प्राप्ति के बिना आज तक सुख का एक न कण पाया । परम पारिणामिक स्वभाव के शिवमय फल पाने आया ॥अष्टा ॥८॥ ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फल नि । शुद्ध त्रिकाली अपना ज्ञायक आत्म स्वभाव न दर्शाया । परम पारिणामिक स्वभाव से पद अनर्घ पाने आया । ।अष्टा ।।९।। ॐ ही तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्य नि ।
जयमाला श्री चौबीस जिनेश को वन्दन करूँत्रिकाल ।
तीर्थकर निर्वाण भू हरे कर्म जजाल ।।१।। अष्टापद कैलाश आदिप्रभु ऋषभदेव पद करूँ प्रणाम । चम्पापुर मे वासुपूज्य जिनवर के पद बन्दू अभिराम ।।२।। उजयन्त गिरनार शिखर पर नेमिनाथ पद मे वन्दन । पावापुर मे वर्धमान प्रभु के चरणों को करूं नमन ॥३॥ बीस तीर्थकर सम्मेदाचल के पर्वत पर वन्दू । बीस टोक पर बीस जिनेश्वर सिद्ध भूमि को अभिनन्दू ।।४।। कूटसिद्धवर अजितनाथ के चरण कमल को नमन करूँ। धवलकूट पर सम्भवजिन पद पूर्जे निज का मनन करूँ।।५।। मैं आनन्दकूट पर अभिनन्दन स्वामी को करूं नमन । अविचलकट समति जिनवर के पद कमलो मे है वदन ॥६॥ मोहनकूट प्रदम प्रभु के चरणो मे सादर करूँ नमन । कूट प्रभास सुपाश्र्वनाथ प्रभु के मैं पूर्जे भव्य चरण।७।।
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श्री भविष्यकाल चौबीसी
२७९ इच्छा से चिन्ता होती है चिन्ता से होता है क्लेश ।
मुझे न कोई भी चिन्ता है मुझमें चिन्ता कहीं न लेश । । ललितकूट पर चन्दा प्रभु को भाव सहित सादर वन्, । सुप्रभकूट सुविधि जिनवर श्री पुष्पदन्त पद अभिनन्, ॥८॥ विधुतकूट श्री शीतल जिनवर के चरण कमल पावन ।। सकुल कूट चरण श्रेयासनाथ के पूर्ने मन भावन ।।९।। श्री सुवीरकुल कूट भाव से विमलनाथ के पद बन्दू । चरण अनन्तनाथ स्वामी के कूट स्वयभू पर बन्दू ॥१०॥ कूट सुदत्त पूजता हूँ मैं धर्मनाथ के चरण कमल । न, कुन्दप्रभ कूट मनोहर शान्तिनाथ के चरण विमल ॥११॥ कुन्थुनाथ स्वामी को वन्दू कूट ज्ञानधर भव्य महान । नाटक कट श्री अरनाथ जिनेश्वर पद का ध्याऊँ ध्यान ॥१२॥ सबल कूट मल्लि जिनवर के चरणो की महिमा गाऊँ । निर्जरकूट श्री मुनिसुव्रत चरण पूजकर हर्षाऊँ ।।१३॥ कूट मित्रधर श्री नमिनाथ तीर्थंकर पद करूँ प्रणाम । स्वर्णभद्र श्री पार्श्वनाथ प्रभु को नित वन्दूँ आठो याम ॥१४॥ तीर्थंकर निर्वाण भूमियाँ तीर्थ क्षेत्र कहलाती हैं । मुनियो की निर्वाण भूमियाँ सिद्ध क्षेत्र कहलाती है ।।१५।। गर्भ जन्म तप ज्ञान भूमियाँ अतिशय क्षेत्र कहलाती हैं । इन सब तीर्थों की यात्रा से उर पवित्रता आती है ॥१६॥ अपना शुद्ध स्वभाव लक्ष्य मे लेकर जो निज ध्यान धरूँ।। सादि अनन्त समाधि प्राप्त कर परम मोक्ष निर्वाण वरूँ ॥१७॥ ॐ ही श्री तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो पूर्णार्घ्य नि स्वाहा ।
सिद्ध भूमि जिनराज की महिमा अगम अपार । निज स्वभाव जो साधते वे होते भव पार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र - ॐ ह्री श्री तीर्थकर निर्वाण क्षेत्रेभ्यो नम ।
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२८०
जैन पूजाँजलि पर से प्रथाभूत होने पर ज्ञान भावना जाती है । निज स्वभाव से सजी साधना देख कलुषता मगती है ।।
श्री त्रिकाल चौबीसी जिन पूजन श्री निर्वाण आदि तीर्थकर भूतकाल के तुम्हे नमन । श्री वृषभादिक वीर जिनेश्वर वर्तमान के तुम्हे नमन ।। महापा अनतवीर्य तीर्थंकर भावी तुम्हे नमन । भूत भविष्यत् वर्तमान की चौबीसी को करूं नमन । । ॐ ही भरत क्षेत्र सबधी भूत भविष्य वर्तमान जिन तीर्थकर समूह अत्र अवतर अवतर सवौषट । ॐ ह्री भूत भविष्य वर्तमान जिन तीर्थकर समूह अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ,। ॐ ह्री भूत भविष्य, वर्तमान जिन तीर्थकर समूह अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । सात तत्व श्रद्धा के जल से मिथ्या मल को दर करूँ। जन्म जरा भय परण नाश हित पर विभाव चकचूर करूँ ।। भूत भविष्यत् वर्तमान की चौबीसी को नमन करूँ। क्रोध लोभ मद माया हरकर मोह क्षोभ को शमन करूँ ।।१।। ॐ ह्रीं भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि नव पदार्थ को ज्यो का त्यो लख वस्तु तत्त्व पहचान करूँ। भव आताप नशाऊँ मै निज गुण चदन बहुमान करूँ भूत ।।२।। ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन नि षद्रव्यो से पूर्ण विश्व मे आत्म द्रव्य का ज्ञान करूँ । अक्षय पद पाने को अक्षत गुण से निज कल्याण करूँ भूत ॥३॥ ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षर्त नि जानें मै पचास्ति काय को पच महाव्रत शील धरूँ। काम व्याधि का नाश करूँनिज आत्म पुष्प की सुरभि वरूँ भूत ।।४।। ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प नि शुद्ध भाव नैवेद्य ग्रहण कर क्षुधा रोग को विजय करूँ । तीन लोक चौदह राजू ऊँचे मे मोहित अब न फिरूँ भूत. ।।५।। ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्य नि ज्ञान दीप की विमल ज्योति से मोह तिमिर क्षय कर मान । त्रिकालवर्ती सर्व द्रव्य गुण पर्याये युगपत जानें ।।भूत ॥६॥
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श्री अष्टापद कैलाश निर्वाण भ्रम से क्षुब्ध हुआ मन होता व्यग्र सदा पर भावों से ।।
अनुभव बिना भ्रमित होता है जुडता नही विभावों से । । ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनायदीप नि । निज समान सब जीव जानकर षट कायक रक्षा पालें । शुक्ल ध्यान की शुद्ध धूप से अष्ट कर्म क्षय कर डालूँ ।भूत ॥७॥ ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूप नि । पच समिति त्रय गुप्ति पच इन्द्रिय निरोध व्रत पचाचार । अट्ठाईस मूल गुण पाले पच लब्धि फल मोक्ष अपार ।भूत ॥८॥ ॐ ह्री भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फल नि .. छयालीस गुण सहित दोष अष्टादश रहित बने अरहत । गण अनत सिद्धो के पाकर लू अनर्घ पद हे भगवत ।भूत ॥९॥ ॐ ही भूत, भविष्य वर्तमान जिनतीर्थकरेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्ष नि ।
श्री भूतकाल चौबीसी जय निर्वाण, जयति सागर, जय महासाधु, जय विमल, प्रभो । जय शुद्धाभ, देव जय श्रीधर, श्री दत्त, सिद्धाभ, विभो ॥१॥ जयति अमल प्रभु, जय उद्धार, देव जय अग्नि देव सयम ।। जय शिवगण, पुष्पांजलि, जय उत्साह, जयति परमेश्वर नम ॥२॥ जय ज्ञानेश्वर, जय विमलेश्वर, जयति यशोधर, प्रभु जय जय ।। जयति कृष्णमति, जयति ज्ञानमति, जयति शुद्धमति जय जय जय ॥३॥ जय श्रीभद्र, अनतवीर्य जय भूतकाल चौबीसी जय । जबूद्वीप सुभरत क्षेत्र के जिन तीर्थंकर की जय जय ।।४।। ॐ ह्री भरत क्षेत्र सबधी भूतकाल चतुर्विशति जिनेन्द्राय अर्घ नि ।
श्री वर्तमान काल चौबीसी ऋषभदेव, जय अजितनाथ, प्रभु सभव स्वामी, अभिनदन । सुमतिनाथ, जय जयति पाप्रभु, जय सुपार्श्व, चदा प्रभु जिन ॥१॥ पुष्पदत, शीतल, जिन स्वामी जय श्रेयास नाथ भगवान । वासुपूज्य, प्रभु विमल, अनत, सु धर्मनाथ, जिन शाति महान ।।२।।
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२८२
जैन पूजांजलि निज अनुभव अभ्यास अध्ययन से होता है ज्ञान यथार्थ ।
पर का अध्यवसान दुख मयी चारों गति दुख मयी परार्थ ।। कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लि, प्रभु मुनिसुव्रत, नमिनाथ, जिनेश । नेमिनाथ, प्रभु पार्श्वनाथ, प्रभु महावीर, प्रभु महा महेश ॥३॥ पूज्य पंच कल्याण विभूषित वर्तमान चौबीसी जय । जबूद्वीप सुभरत क्षेत्र के तीर्थकरेभ्यो प्रभ की जय जय ।।४।। ॐ हीं भरत क्षेत्र सबधी वर्तमान चतुर्विशति जिनेन्द्राय अर्घ नि ।
श्री भविष्यकाल चौबीसी जय प्रभु महाफा सुरप्रभ, जय सुप्रभ, जयति स्वयप्रभु, नाथ । सर्वायुध, जयदेव, उदयप्रभ, प्रभादेव, जय उदक नाथ ।। प्रश्नकीर्ति, जयकीर्ति जयति जय पूर्णबुद्धि, निकषाय, जिनेश । जयति विमल प्रभु जयति बहुल प्रभु, निर्मल, चित्र गुप्ति, परमेश । जयति समाधि गुप्ति, जय स्वयभ, जय कर्दप, देव जयनाथ । जयति विमल, जय दिव्यवाद, जय जयति अनतवीर्य, जगन्नाथ ।। जबूद्वीप सु भरत क्षेत्र के तीर्थंकर प्रभु की जय जय ।। ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र सबधी भविष्यकाल चतुर्विशति जिनेन्द्राय अर्घ नि ।
जयमाला तीन काल त्रय चौबीसी के नरें बहात्तर तीर्थकर । विनय भक्ति से श्रद्धापूर्वक पाऊँ निज पद प्रभु सत्वर ॥१॥ मैने काल अनादि गवाया पर पदार्थ मे रच पचकर । पर भावो मे मग्न रहा मैं निज भावो से बच बचकर ॥२॥ इसीलिए चारो गतियो के कष्ट अनत सहे मैंने । धर्म मार्ग पर दृष्टि न डाली कर्म कुपथ गहे मैने ॥३॥ आज पुण्य संयोग मिला प्रभु शरण आपकी मैं आया । भव भव के अघ नष्ट हो गए मानो चिंतामणि पाया ।।४।। हे प्रभु मुझको विमल ज्ञान दो सम्यक पथ पर आ जाऊँ। रत्नत्रय की धर्मनाव चढ भव सागर से तर जाऊँ ।।५।।
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श्री अष्टापद कैलाश निर्वाण क्षेत्र पूजन जन्म जरा मरणादि व्याधि से रहित आत्मा ही अद्वैत ।
परम भाव परिणामों से भी विरहत कहीं इसमें दैत ।। सम्यक दर्शन अष्ट अगसह अष्ट भेद सह सम्यक ज्ञान । तेरह विध चारित्र धारलू द्वादश तप भावना प्रधान ॥६॥ हे जिनवर आशीर्वाद दो निज स्वरुप मे रमजाऊँ। निज स्वभाव अवलबन द्वारा शाश्वत निज पद प्रगटाऊ ॥७॥ ॐ हीं भूत, भविष्य, वर्तमान जिन तीर्थकरेभ्यो पूर्णाध्यं नि । तीन काल की त्रय चौबीसी की महिमा है अपरम्पार । मन वच तन जो ध्यान लगाते वे हो जाते भव से पार ॥८॥
इत्याशीर्वाद जाप्य- ॐ ह्री श्री भूत भविष्य वर्तमान तीर्थंकरेभ्यो नम ।
दर्शन पाठ
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देव आपके दर्शन पाकर उमगा है उर मे उल्लास । सम्यक पथ पर चलकर मै भी आऊनाथ आप के पास ॥१॥ भक्ति आपकी सदा ह्रदय मे रहे अडोल अक्म समत । तुम्हे जानकर निज को जानू यही भावना है भगवत ॥२॥ रागादिक विकार सब नारों दुष्प्रवृतियाँ कर सहार । मोक्ष मार्ग उपदेष्टा प्रभु तुम भव्य जनो के हो आधार ॥३॥ प्रभो आपके दर्शन का फल यही चाहता हूँ दिन रात । स्व पर भेद विज्ञान प्राप्त कर पाऊँमगलमयी प्रभात ॥४॥ जय हो जय हो जय हो जय हो परमदेव त्रिभुवन नामी । ध्रुव स्वभाव का आश्रय लेकर बन जाऊँशिव पथगामी ॥५॥
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जैन पूजांजलि नए वर्ष का प्रथम दिवस ही नूतन दिन कहलाता है । पर नूतन दिन वही कि जिस दिन तत्त्व बोध हो जाता है ।।
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चतुर्विशति तीर्थकर पंच- निर्वाण - क्षेत्र
पूजन-विधान जिनागम मे वर्तमान चतुर्विंशति तीर्थंकरो मे से प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव कैलाश पर्वत से अन्तिम तीर्थंकर भगवान महावीरस्वामी पावापुर से भगवान नेमिनाथ गिरनार पर्वत से भगवान वासुपूज्य चम्पापुर से तथा अन्य २० तीर्थंकर महान तीर्थराजसम्मेदशिखर जी से मोक्ष पधारे । इन तीर्थंकरो की पावन निर्वाण भूमिया बन्दनीय है । एक लधु विधान के रुप मे है । धर्मार्थी बधु इसे एक दिन मे सम्पन्न कर सकते हैं । सामान्य पूजन स्थापना एव विसर्जन की जो विधि इस सग्रह मे अन्यत्र दी गई है । उसका अनुसरण करके नित्य पूजन करके विधान किया जा सकता है। यदि हम प्रत्यक्ष मे वहा जाकर इन क्षेत्रो की पूजन अर्चन न कर सके तो यही से हो इन क्षेत्रो की पूजन विधान करके अपने आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करे । यही भावना है।
श्री अष्टापद कैलाश निर्वाण
क्षेत्र पूजन अष्टापद कैलाश शिखर पर्वत को बन्दु बारम्बार । ऋषभदेव निर्वाण धरा की गूज रही है जय जयकार ।। बाली महाबालि मुनि आदिक मोक्ष गये श्री नागकुमार । इस पर्वत की भाव वदना कर सुख पाऊँ अपरम्पार ।। वर्तमान के प्रथम तीर्थंकर को सविनय नमन करूँ । श्री कैलाश शिखर पूजन कर सम्यक दर्शन ग्रहण करूँ ।। ॐ ही श्री अष्टापद कैलाश तीर्थक्षेत्र अत्र अवतर अवतर सवोषट्, ॐ ही श्री अष्टापद कैलाश तीर्थक्षेत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही श्री अष्टापद कैलाश तीर्थक्षेत्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
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श्री अष्टापद कैलाश निर्वाण क्षेत्र पूजन धीर वीर गंभीर शल्य से रहित सयमी साधु महान ।
इनके पद चिन्हों पर चल कर तू भी अपने को पहचान । । ज्ञानानद स्वरूप आत्मा सम्यक जल से है परिपूर्ण । घुव चैतन्य त्रिकाली आश्रय से हो जन्म मरणसब चूर्ण । ऋषभदेव चरणाम्बुज पूजें वन्दू अष्टापद कैलाश । नागकुमार बालि आदिक ने पाया चिन्मय मोक्ष प्रकाश ॥१॥ ॐ ही श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनायजल नि ज्ञानानद स्वरूप आत्मा मे है चित्चमत्कार की गध । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होता कभी न बध । ऋिषभ ॥२॥ ॐ ह्री श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो ससारताप विनाशनाय चदन नि सजजानद स्वरूप आत्मा मे अक्षय गुण का भडार । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से मिट जाता ससार । ऋिषभ ।।३।। ॐ ही श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो अक्षयपद प्रापताय अक्षत नि सहजानद स्वरूप आत्मा मे हैं शिव सुख सुरभि अपार । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से जाती काम विकार ऋषभ ।।४।। ॐ ही श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प नि पुर्णानन्द स्वरूप आत्मा मे है परम भाव नैवेद्य । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से हो जाता निर्वेद । ऋषभ ।।५।। ॐ ही श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि पूर्णानन्द स्वरूप आत्मा पूर्ण ज्ञान का सिंधु महान । घुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होते कर्म विनाश । ऋषभ ।।६।। ॐ ह्री श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि नित्यानद स्वरूप आत्मा मे है ध्यान धूप की वास । ध्रुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होते कर्म विनाश । ऋषभ ।।७।। ॐ ही श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो दुष्टाष्टकर्मविध्वसनाय धूप नि सिद्धानद स्वरूप आत्मा मे तो शिव फल भरे अनन्त । घुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से होता मोक्ष तुरन्त । ।ऋषभ ॥८॥ ॐ ही श्री अष्टापदकैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो मोक्षफल प्राप्ताय फल नि
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जैन पूजांजलि पर कतृत्व विकल्प त्याग कर, सकल्पों को दे तू त्याग ।
सागर की चंचल तरग सम तुझे डुबो देगी तू भाग । । शुद्धानन्द स्वरूप आत्मा है अनर्घ्य पद का स्वामी । धुव चैतन्य त्रिकाली के आश्रय से हो त्रिभुवन नामी ।।ऋषभ ।।९॥ ॐ ही श्री अष्टापद कैलाशतीर्थक्षेत्रेभ्यो अनर्धपद प्राप्ताय पूर्णायं 5
जयमाला अष्टापद कैलाश से आदिनाथ भगवान । मुक्त हुए निज ध्यानधर हुआ मोक्ष कल्याण ॥१॥ श्री कैलाश शिखर अष्टापद तीन लोक मे है विख्यात । प्रथम तीर्थकर स्वामी ने पाया अनुपम मुक्ति प्रभात ॥२॥ इसी धरा पर ऋषभदेव को प्रगट हुआ था केवलज्ञान । समवशरण मे आदिनाथ की खिरीदिव्यध्वनि महामहान ।।३।। राग मात्र को हेय जान जो द्रव्य दृष्टि बन जायेगा । सिद्ध स्वपद की प्राप्ति करेगा शुद्ध मोक्ष पद पायेगा ।।४।। सम्यक्दर्शन की महिमा को जो अतर मे लायेगा । रत्नत्रय की नाव बैठकर भव सागर तर जायेगा ॥५॥ गुणस्थान चौदहवाँ पाकर तीजा शुक्ल ध्यान ध्याया । प्रकृति बहात्तर प्रथम समय मे हर का अनुपमपद पाया ।।६।। अतिम समयध्यान चौथा ध्या देह नाश कर मुक्त हुए । जा पहुचे लोकाग्र शीश पर मुक्ति वधू से युक्त हुए ।।७।। तन परमाणु खिरे कपूरवत शेष रहे नख केश प्रधान । मायामय तन रच देवो ने किया अग्नि सस्कार महान ।।८।। बालि महाबालि मुनियों ने तप कर यहाँ स्वपद पाया । नागकुमार आदि मुनियों ने सिद्ध स्वपद को प्रगटाया ॥९॥ यह निर्वाण भूमि अति पावन अति पवित्र अतिसुखदायी । जिसने द्रव्य दृष्टि पाई उसको ही निज महिमा आयी ।।१०।। भरत चक्रवर्ती के झरा बने बहात्तर जिन मन्दिर ।। भूत भविष्यत् वर्तमान भारत की चौबीसी सुन्दर ॥११॥
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श्री तीर्थराज सम्मेदशिखर निर्वाण क्षेत्र पूजन जो अक्षय भाव के द्वारा सर्व कषायें लेगा तू जीत ।
मुक्ति वधू उसका वरने आएगी उर में घर कर प्रीत ।। प्रतिनारायण रावण की दुष्टेच्छा हुई न किंचित पूर्ण । बाली मुनि के एक अंगूठे से हो गया गर्व सब चूर्ण ॥१२॥ मंदोदरी सहित रावण ने क्षमा प्रार्थना की तत्क्षण । जिन मुनियों के क्षमा भाव से हुआ प्रभावित अतर मन।।१३।। मै अब प्रभु चरणों की पूजन करके निज स्वभाव ध्याऊँ। आत्मज्ञान की प्रचुर शाक्ति पा निजस्वभाव मे मुस्काऊँ ॥१४॥ राग मात्र को हेय जानकर शद्ध भावना ही पाऊँ। एक दिवस ऐसा आए प्रभु तुम समान मैं बन जाऊँ ॥१५॥ अष्टापद कैलाश शिखर को बार बार मेरा बदन । भाव शुभाशुभ का अभाव कर नाशकरूँ भव दुख क्रन्दन ॥१६॥
आत्म तत्व का निर्णय करके प्राप्त करूं सम्यक दर्शन । रत्नत्रय की महिमा पाऊँ धन्य धन्य हो यह जीवन ॥१७॥ ॐ ही श्री अष्टापद कैलाशतीर्थ क्षेत्रेभ्यो पूर्गाय नि स्वाहा ।
अष्टापद कैलाश की महिमा अगम अपार । निज स्वरूप जो साधते हो जाते भवपार । ।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र - ॐ ह्री श्री अष्टापद कैलाशतीर्थ क्षेत्रेभ्यो नम ।
श्री तीर्थराज सम्मेदशिखर निर्वाण क्षेत्र पूजन तीर्थराज सम्मेदाचल जय शाश्वत तीर्थ क्षेत्र जय जय । मुनि अनत निर्वाण गये हैं पाया सिद्ध स्वपद शिवमय ।। अजितनाथ, सभव, अभिनन्दन, सुमति, पा, प्रभु मगलमय । श्री सुपार्श्व चन्दा प्रभु स्वामी पुष्पदन्त शीतल गुणमय ।। जय श्रेयास विमल, अन्त प्रभु धर्म, शान्ति जिन कुन्थसदय । अरह, मल्लि, मुनिसुव्रत स्वामी नमिजिन, पार्श्वनाथ जय जय ।। बीस जिनेश्वर मोक्ष पधारे इस पर्वत से जय जय जय । महिमा अपरम्पार विश्व मे निज स्वभाव की जय जय जय ॥
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जैन पूजॉजलि अतरग बहिरग परिग्रह तजने का ही कर अभ्यास ।
इसके बिना नही तू होगा साधु कभी भी कर विश्वास ।। ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र अत्र अवतर अवतर सवोषट्, ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र अत्र मम सनिहितो भवभव वषट् । अगणित सागर पी डाले पर प्यास न कभी बुझा पाया । अनुपम सुखमय निर्मल शीतल समता जल पीने आया । तीर्थराज सम्मेद शिखर की पूजन कर उर हर्षाया । बीस तीर्थकर की यह निर्वाण भूमि लख सुख पाया ।।। ॐ ह्री श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । पर भावो के सतापो मे उलझ उलझ अति दुख पाया । ज्ञानानन्दी शुद्ध स्वभावी निज चदन लेने आया । ।तीर्थराज ॥२।। ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो ससारताप विनाशनाय चदन नि । निज चैतन्य रुप को भूला पर ममत्व मे भरमाया । अक्षय चेतन पदपाने को चरण शरण मे मैं आया । ।तीर्थराज ।।३।। ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षत नि । पर द्रव्यो से राग हटाने का पुरुषार्थ न कर पाया । शील स्वभाव शान्तपाने को कामनाश करने आया । तीर्थराज ।।४।। ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । तीन लोक का अन प्राप्तकर भूख न कभी मिटा पाया । क्षुधाव्याधि का रोगनशाने निज स्वभाव पानेआया ।।तीर्थराज ।।५।। ॐ ह्री श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । मोह तिमिर के कारण अब तक सम्यक ज्ञान नहीं पाया । आत्म दीप की ज्योतिजगाने भेद ज्ञान करने आया । तीर्थराज ॥६॥ ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । आत्म ध्यान बिन भव की भीषण ज्वाला मे जल दु खपाया । अष्टकर्म सम्पूर्ण जलाने ध्यान अग्नि पाने आया । ।तीर्थराज ॥७॥ ॐ ह्री श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अष्टकर्म विनाशनाय धूप नि ।
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श्री तीर्थराज सम्मेदशिखर निर्वाण क्षेत्र पूजन सर्व चेष्टा रहित पूर्णा निष्क्रिम हो तू कर निज का ध्यान ।
दश्य जगत के भ्रम को तज दें पाऐगा उत्तम निर्वाण ।। पुण्य फलो मे तीव्र राग कर सदा पाप ही उपजाया । पाप पुण्य से रहित शुद्ध परमातम पद पाने आया । तीर्थराज ॥८॥ ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फल नि । है अनादि भव रोग न इसकी औषधि अब तक कर पाया । निज अनर्घ पद पाने का अब तो अपूर्व अवसर आया । तीर्थराज ।।९॥ ॐ ही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अनर्थ पद प्राप्तये अयं नि ।
जयमाला सम्मेदाचल शीश से तीर्थंकर मुनिराज । सिद्ध हुए सम श्रेणी मे ऊपर रहे विराज ॥१॥ प्रभु चरणाम्बुज पूज कर धन्य हुआ मै आज । भाव सहित बन्दन करूँ निज शिव सुख के काज ॥२॥ जय जय शाश्वत सम्मेदाचल तीर्थ विश्व मे श्रेष्ठ प्रधान । भूत भविष्यत् वर्तमान के तीर्थकर पाते निर्वाण ॥३।। परम तपस्या भूमि सुपावन है अनन्त मुनिराजो की । शुभ पवित्र निर्वाण धरा है यह महान जिनराजो की ॥४॥ लक्ष लक्ष वृक्षो की हरियाली से पर्वत शोभित है । वातावरण शान्तमय सुन्दर लख कर यह जग मोहित है ।।५।। शीतल अरु गन्धर्व सलिल निर्झर जल धाराये न्यारी । भॉति भॉति के पक्षीगण करते है कलरव मनहारी ॥६॥ पर्वत पारसनाथ मनोरम यह सम्मेदशिखर अनुपम । भाव सहित जो बन्दन करते उनका क्षय होता भ्रमतम ॥७॥ बीस टोक पर बीस तीर्थंकर के चरण चिन्ह अभिराम । शेष टोक पर चार जिनेश्वर श्री मुनियो के चरण ललाम ॥८॥ प्रथम टोंक है कुन्थनाथ की प्रात रवि बन्दन करता । अन्तिम पाश्र्वनाथ प्रभु की है सध्या सूर्य नमन करता ॥९॥
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जैन पूजाँजलि धौव्य तत्व का निर्विकल्प बहुमान हो गया उसी समय ।
भव वन में रहते रहते भी मुक्त हो गया उसी समय । । कूट सिद्धवर अजितनाथ का धवलकूट सुमतिजिन का । अभिनन्दन आनन्दकूट जय अविचलकूट सुमतिजिन का ॥१०॥ मोहनकूट पाप्रभु का है प्रभु सुपार्श्व का प्रभासकूट । ललितकूट चदाप्रभु स्वामी पुष्पदन्त जिन सुप्रभुकूट ।।११।। विद्युतकूट श्री शीतलजिन श्रेयास का संकुलकूट । श्री सुवीरकुलकूट विमलप्रभु नाथ अनन्त स्वयभूकूट ।।१२।। जय प्रभु धर्म सुदत्तकूट जय शाति जिनेश कुन्दप्रभुकूट । कुटज्ञानधर कुन्थनाथ का अरहनाथ का नाटक कूट ।।१३।। सवर कूट मल्लि जिनवर का, निर्जर कूटमुनि सुव्रतनाथ । कूट मित्रधर श्री नमि जिनका स्वर्णभद्र प्रभु पारसनाथ ।।१४।। सर्व सिद्धवर कूट आदिप्रभु वासुपूज्य मन्दारगिरि । उर्जयन्त है कूट नेमि प्रभु सन्मति का महावीर श्री ।।१५।। चोबीमो तीर्थंकर प्रभु के गणधर स्वामी सिद्ध भगवान । गणधरकूट भाव से पूर्जे मै भी पाऊँ पद निर्वाण ॥१६।। बीसकूट से बीस तीर्थकर ने पाया मोक्ष महान । इसी क्षेत्र मे तो असख्य मुनियो ने पाया है निर्वाण।।१७।। भव्य गीत सम्यक दर्शन का सहज सुनाई देता है । रत्नत्रय की महिमा का फल यहाँ दिखाई देता है ।।१८।। सिद्ध क्षेत्र है तीर्थ क्षेत्र है पुण्य क्षेत्र है अति पावन । भव्य दिव्य पर्वतमालाये ऊची नीची मन भावन ।।१९।। मधुवन मे मन्दिर अनेक है भव्य विशाल मनोहारी ।। वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर की प्रतिमाएँ सुखकारी ॥२०॥ नन्दीश्वर की सुन्दर रचना श्री बाहुबलि के दर्शन । ज्या मानस्तम्भ सुशोभित पार्श्वनाथ का समवशरण ॥२१ ।। पुण्योदय से इस पर्वत की सफल यात्रा हो जाये । नरक और पशुगति का निश्चित बध नहीं होने पाये ॥२२॥
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श्री चपापुर निर्वाण क्षेत्र पूजन सर्व विभाव भिन्न भासित होते ही प्रगटा सहज स्वरुप ।
गुरु अनन्त का पिंड आत्मा है आनन्द अमेद स्वरुप ।। मैं सम्यक्त्व ग्रहण कर प्रभु कब तेरह विधि चारित्र धरूँ। पच महाव्रत धार साधु बन इस भू पर निर्भय विचरूँ ॥२३॥ सम्यक दर्शन ज्ञान चारित्र तप आराधना चार चितधार । शुद्ध आत्मा अनुभव से नित प्रति हो स्वरुप साधना अपार ॥२४॥ नित द्वादश भावना चिन्तवन करके दृढ वैराग्य धरूँ। भेदज्ञान कर पर परणति तज निज परणति मे रमण करूँ ॥२५।। इसी क्षेत्र से महामोक्ष फल सिद्ध स्वपद को मैं पाऊँ । अष्ट कर्म को नष्ट करूं मैं परम शुद्ध प्रभु बन जाऊँ ॥२६॥ मन वच काया शुद्धि पूर्वक भाव सहित की है पूजन । यह ससार भ्रमण मिट जाए हे प्रभु! पाऊँ मुक्ति गगन ॥२७।। ऊही श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो पूर्णार्य नि स्वाहा ।
श्री सम्मेदशिखर का दर्शन पूजन जो मन करते है । मुक्तिकन्त भगवत सिद्ध बन भवसागर से तरते है ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र-ॐ ह्री श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्रेभ्यो नम ।
श्री चंपापुर निर्वाण क्षेत्र पूजन वासुपूज्य तीर्थंकर की निर्वाण भूमि चम्पापुर धाम । शुद्ध ह्रदय से बदन कर प्रभु चरणाम्बुज मे करूँ प्रणाम ।। जय थल नभ मे वासुपूज्य प्रभु का ही गुज रहा जयगान । जल फलादि वसु द्रव्य सजाकर पूजन करता हूँ भगवान ।। ॐ ह्रीं श्री चपापुर तीर्थक्षेत्र अत्र अवतर-अवतर सवौषट् तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, अब मम सनिहितों भव भव वषट् । पावन समता रस नीर चरणो मे लाया । मिथ्यात्व पाप का नाश करने में आया । । चपापुर क्षेत्र महान दर्शन सुखकारी । जय वासुपूज्य भगवान प्रभु मंगलकारी ॥१॥
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जैन पूजांजलि ___ द्रव्य अनदि अनत एक परिपूर्णा शुद्ध ज्ञायक गतिमान ।
स्वपर प्रकाशक ज्ञान स्वरुपी है सर्वाश अमित छविमान ।। ॐ ही श्री धपापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि । समता रस चदनसार अति शीतल लाया । क्रोधादि कषाऐ नाश करने में आया । ।चपापुर ॥२॥ ॐ ह्रीं श्री चपापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो ससारताप विनाशनाय चन्दन नि । त्रैकालिक ज्ञायक भाव निज अक्षत लाया । अक्षय निधि पाने नाथ चरणों मे आया । ।चंपापुर ॥३॥ ॐ ही श्री चपापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो अक्षयपद प्राप्तये अक्षत नि । निज अतररुप मनोज्ञ शील सुमन लाया । प्रभु विषय वासना नाश करने में आया ॥चपापुर ।।४।। ॐ ही श्री चपापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो कामवाण विध्वशनाय पुष्प नि । धुन जागीनिज प्रवधाम की तो चरु लाया । अष्टादश दोष विनाश करने मैं आया । ।चपापुर ।५।। ॐ ह्री श्री चपापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । निज आत्मज्ञान का दीप ज्योतिर्मय लाया । अज्ञान अधेरा नष्ट करने मै आया । । चपापुर ।।६।। ॐ ही श्री चपापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप नि । निज आत्म स्वरुप अनुप सुधूप अति शुचिमय लाया । वसु कर्मों को विध्वस करने मैं आया । ।चपापुर ।।७।। ॐ ही श्री चपापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो अष्ट कर्म दहनाय धूप नि । शिवमय अनुभव रस पूर्ण उत्तम फल लाया । निज शुद्ध त्रिकाली सिद्ध पद पाने आया । ।चपापुर ॥८॥ ॐ ही श्री चपापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो मोक्ष फल प्राप्तये फल नि ।। परिणाम शुद्ध का अर्घ्य चरणो मे लाया । . अष्टम वसुधा का राज्य पाने को आया । चिपापुर ॥९॥ ॐ ह्री श्री चपापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो अनर्घ पद प्राप्तये अर्घ्य नि ।
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श्री चपापुर निर्वाण क्षेत्र पूजन सतो की भाषा सतो का संबोधन कल्याण स्वरुप । सर्वाकुलता क्षय करने का साधन अद्भुत शान्त अनूप ।।
जयमाला सिद्ध क्षेत्र चपापुरी भरत क्षेत्र विख्यात । वासुपूज्य जिनराज ने किए कर्म वसु घात ॥१।।
और अनेको मुनि हुए इसी क्षेत्र से सिद्ध । विनय सहित वन्दनकरूँ चरणाम्बुज सुप्रसिद्ध ॥२॥ जय जय वासुपूज्य तीर्थंकर जय चपापुर तीर्थ महान । गर्भ जन्म तप ज्ञान भूमि निर्वाण क्षेत्र अतिश्रेष्ठ प्रधान।।३।। नृप वसुपूज्य सुमाता विजया के नदन ससार प्रसिद्ध । वासुपूज्य अभयकर नामी बाल ब्रम्हचारी सुप्रसिद्ध ।।४।। स्वर्ग त्याग माता उर आए हुई रत्न वर्षां पावन ।। जन्म समय सुरपति से नव्हनकिया सुमेरु पर मन भावन ।।५।। यह ससार असार जानकर लद्यवय मे दीक्षाधारी । लौकातिक ब्रम्हर्षिसुरो ने धन्य ध्वनि उच्चारी ॥६॥ सोलह वर्ष रहे छास्थ किया चपापुर वन मे ध्यान । निज स्वभाव से घातिकर्म विनशाये हुआ ज्ञान कल्याण।।७।। केवलज्ञान प्राप्त कर स्वामी वीतराग सर्वज्ञ हुए । दे उपदेश भव्य जीवो को पूर्ण देव विश्वज्ञ हुए ।।८।। समवशरण रचकर देवों ने प्रभु का जय जयकार किया । मुख्य सुगणधर मदर ऋषि ने बदशाग उद्धर किया ॥९॥ चपापुर के महोद्यान मे अतिम शुक्ल ध्यान ध्याया । चउ अघातिया भी विनाश से परम मोक्ष पद प्रगटाया ॥१०॥ जिन जिनपति जिन देव जगेष्ट परम पूज्य त्रिभुवननामी । मैं अनादि से भव समुद्र मे डूबा पार करो स्वामी ।।११।। चपापुर में हुए आप के पाचों कल्याणक सुखकार । चरण कमल वदन करता हैं जागा उन मे हर्ष अपार।।१२।।
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जैन पूजाँजलि ज्ञानमयी वैराग्य भाव उपयुक्त हो गया उसी समय ।
द्रव्य दृष्टि से सदा शुद्ध निज भाव हो गया उसी समय ।। यहा अनेको भव्य जिनालय प्रभु की महिमा गाते हैं । जो प्रभु का दर्शन करते उनके सकट टल जाते हैं ॥१३॥ चपापुर के तीर्थ क्षेत्र को बार बार मेरा बदन । सम्यक दर्शन पाऊँगा मै नाश करूँगा भव बधन ।।१४।। ॐ ह्रीं श्री चपापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो पूर्णाय नि स्वाहा ।।
चपापुर के तीर्थ की महिमा अपरम्पार । निज स्वभाव जो साधते हो जाते भवपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमत्र-ॐ ह्री श्री चपापुर तीर्थ क्षेत्रेभ्यो नम ।
श्री गिरनार निर्वाण क्षेत्र पूजन उर्जयत गिरनार शिखर निर्वाण क्षेत्र को करूं नमन । नेमिनाथ स्वामी ने पाया, सिद्ध शिला का सिंहासन ।। शबु प्रद्युम्न कुमार आदि अनिरुद्ध मुनीश्वर को वदन । कोटि बहात्तर सातशतक मुनियो ने पाया मुक्ति सदन ।। महा भाग्य से शुभ अवसर पा करता हूँ प्रभु पद पूजन । नेमिनाथ की महा कृपा से पाऊँ मै सम्यक दर्शन ।। ॐ ह्री श्री गिरनार तीर्थक्षेत्र अत्र अवतर अवतर सवौषट् ॐ ह्रीं श्री गिरनार तीर्थक्षेत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ॐ ह्री श्री गिरनार तीर्थक्षेत्र अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट। मै शुद्ध पावन नीर लाऊँ भव्य समकित उर धरूँ। मै शुभ अशुभ परभाव हर कर स्वय को उज्ज्वल करूँ ।। मै उर्जयन्त महान गिरि गिरनार की पूजा करूं । मैं नेमि प्रभु के चरण पकज युगल निज मस्तक धरूँ ॥१॥ ॐ ही श्री गिरनार तीर्थक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल नि मैं सरस चदन शुद्ध भावो का सहज अन्तर धरूँ। मैं शुभ अशुभ भवताप हर कर स्वय को शीतल करूँ मैं ॥२॥
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श्री गिरनार निर्वाण क्षेत्र पूजन जीव तत्व का आलबन सवर निर्जरा मोक्ष हित रूप ।
है आलबन अजीव तत्व का आस्त्रव बध अहित दुख रूप ।। ॐ ही श्री गिरनार तीर्थक्षेत्रेभ्यो ससारताप विनाशनाय चदन नि मैं धवल अक्षत भावमय ले आत्म का अनुभव करूँ। मै शुभ अशुभ भव राग हर कर स्वय अक्षयपद वरूँ।मैं ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री गिरनार तीर्थक्षेत्रेभ्यो अक्षयपद प्राप्ताय अक्षत नि । मैं चिदानद अनूप पावन सुमन मन भावन धरूँ। मैं लाख चौरासी गुणोत्तर शील की महिमा वरूँ। मैं ॥४॥ ॐ ही श्री गिरनार तीर्थक्षेत्रेभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प नि । मै सरल सहजानद मय नैवेद्य शुचिमय उर धरूँ। मै अमल अतुल अखड चिन्मय सहज अनुभव रस वरूँ। मैं ॥५॥ ॐ ह्री श्री गिरनार तीर्थक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । मै भेद ज्ञान प्रदीप से मिथ्यात्व के तम को हरूँ। मै पूर्ण ज्ञान प्रकाश केवल्झान ज्योति प्रभा व मि ॥६॥ ॐ ह्री श्री गिरनार तीर्थक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप नि । मैं भावना भवनाशिनी की धूप निज अन्तर धरूँ। वसु कर्मरज से मुक्त होकर निरजन पद आदरूँ। मैं ॥७॥ ॐ ह्री श्री गिरनार तीर्थक्षेत्रेभ्यो दुष्टाष्टकर्म विध्वसनाय धूप नि । मै शुद्ध भावो के अमृतफल प्राप्त कर शिव सुख भरूँ । मै अतीन्द्रिय आनन्द कद अनत गुणमय पट वरूँ। मै ।।८।। ॐ ही श्री गिरनार तीर्थक्षेत्रेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फल नि ।” मै पारिणामिक भाव का ले अर्घ निज आश्रय करूँ। मै शुद्ध सादि अनत शाश्वत परमसिद्ध स्वपद वरूँ ।।मैं ॥९॥ ॐ ही श्री गिरनार तीर्थक्षेत्रेभ्यो अनर्घपद प्राप्तये पूर्णाऱ्या नि ।
जयमाला उर्जयत गिरनार, को निशि दिन करूं प्रणाम । निज स्वभाव की शक्ति से लैं सिद्धों का धाम ॥१॥
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जैन पूजाँजलि हित का कारण त्वरित ग्रहण कर त्वरित अहित कारण का त्याग ।
आत्म तत्व से जो विरुद्ध है उसका कारण से धार विराग ।। प्रथम टोक पर नेमिनाथ प्रभु के जिन मन्दिर बने विशाल । स्वर्ण शिखर ध्वज दड आदि से है शोभायमान तिहुँकाल ।।२।। राजुल गुफा बनी अति सुन्दर सयम का पथ बतलाती । वीतराग निग्रंथ भावनामयी मोक्ष पथ दर्शाती ॥३॥ चरण चिन्ह ऋषियो के पावन देते वीतराग सदेश । नेमिनाथ ने भव्य जनो को दिया विरागमयी उपदेश ।।४।। द्वितीय टोकपर श्री मुनियो के चरण कमल है दिव्यललाम । भाव पूर्वक अर्थ्य चढाकर मै लू प्रभु निज मे विश्रम ॥५॥ तृतीय टोक पर ऋषि मुनियो केचरणाम्बुज अतिशोभित है । दर्शनार्थी दर्शन करके इन पर होते मोहित हैं ।।६।। चौथी टोक महान कठिन है इस पर चरण चिन्ह सुखकार । निज स्वभाव की पावन महिमा सुरनर मुनि गातेजयकार ।।७।। श्री कृष्ण रुकमणी पुत्र श्री कामदेव प्रद्युम्नकुमार । ले विराग सयम धर मुक्त हुए पहुंचे भव सागरपार ।।८।। शम्बुकुमार तथा अनिरुद्धकुमार आदि मुनि मुक्त हुए । निज स्वभाव की अमर साधना कर शिवपद सयुक्त हुए।।९।। पचम टोक नेमि प्रभु की परम तपस्या भूमि महान । निज स्वभाव साधन के द्वारा पाया सिद्ध स्वपद निर्वाण ।।१०।। इन्द्रादिक देवो ने हर्षित किया यहाँ पचम कल्याण । कोटि कोटि मुनियोने तप कर पाया सिद्ध स्वपद ॥११॥ एक शिला पर प्रभु की अनुपम मूर्ति यहाँ उत्कीर्ण प्रधान । चरण चिन्ह श्री नेमिनाथ प्रभु के हैं जग मे श्रेष्ठ महान ॥१२॥ इसी टोक से चउ अघातिया कर्मों का करके अवसान । एक समय मे सिद्ध शिला पर नाथ विराजे महा महान ॥१३॥ नेमिनाथ के दर्शन होते चढकर दस सहस्त्र सोपान । हो जाती है पूर्ण यात्रा होता उर मे हर्ष महान ॥१४॥
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मायादव वी आर हुए मनमा
श्री पावापुर निर्वाण क्षेत्र पूजन यह व्यवहार हेय है फिर भी स्वत मार्ग में आता है ।
एक मात्र निश्चय ही श्वाश्वत मुक्ति पुरी पहुचाता है ।। फिर जाते हैं सहस्त्राम वन जहाँ हुआ था तप कल्याण । नेमिनाथ के चरणाम्बुज में अर्थ्य चढाते यात्री आन ।।१५।। जिन दीक्षा लेकर प्रभु जी ने यहाँ घोर तप किया पहान । चार घातिया कर्म नष्ट कर पाया प्रभु ने केवलज्ञान ॥१६॥ राजुल ने भी यहीं दीक्षा लेकर किया आत्म कल्याण ।
और अनेको यादव वशी आदि हुए मुनि महा महान ।।१७।। मैं भी प्रभु के पद चिन्हों पर चलकर महामोक्ष पाऊँ।। भेद ज्ञान की ज्योति जलाकर सम्यकदर्शन प्रगटाऊँ।।१८।। सम्यकज्ञान चरित्र शक्ति का पूर्ण विकास करूँ स्वामी । निश्चय रत्नत्रय से मैं सर्वज्ञ बनें अन्तर्यामी ॥१९॥ चार घातिया कर्म नष्ट कर पद अरहत सहज पाऊँ। फिर अघातिया कर्म नाशकर स्वय सिद्ध प्रभु बन जाऊँ ।।२०।। पद अनर्थ्य पाने को स्वामी व्याकुल है यह अन्तर्मन । जल फलादि वस द्रव्य अर्घ्य चरणो मे करता है अर्पण ॥२१॥ नेमिनाथ स्वामी तुम पद पकज की करता हूँ पूजन । वीतराग तीर्थकर तुमको कोटि कोटि मेरा वन्दन ।।२२।। ॐ ही श्री गिरनार तीर्थक्षेत्रेभ्यो पूर्णाय॑ नि स्वाहा ।
नेमिनाथ निर्वाण भू बन्दै बारम्बार । उर्जयत गिरनार से हो जाऊँ भवपार । ।
इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र-ॐ ह्रीं श्री गिरनार तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम ।
श्री पावापुर निर्वाण क्षेत्र पूजन श्री पावापुर तीर्थक्षेत्र को भक्तिभाव से करूँ प्रणाम । जल मन्दिर मे महावीरस्वामी के चरणकमल अभिराम ।। इसी भूमि से मोक्ष प्राप्त कर परम सिद्धपुरी का धाम । विनयसहित पूजन करता हूँ पाऊँ निजस्वरुप विश्राम ।।
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जैन पूजांजलि निश्चय नाम अभेद वस्तु का और भेद का है व्यवहार ।
अज्ञानी व्यवहाराश्रित है ज्ञानी को निश्चय आधार । । ॐ ह्रीं श्री पावापुर तीर्थक्षेत्र अत्र अवतर अवतर सौषट् *ही श्री पावापुर तीर्थक्षेत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ॐ ही श्री पावापुर तीर्थक्षेत्र अत्र मम सनिहितो भव भव वषट् । प्रभु पा सरोवर नीर प्रासक लाया हैं। मिथ्यात्त्व दोष को क्षीण करने आया हूँ। पावापुर तीर्थं महान भारत में नामी । जय महावीर भगवान त्रिभुवन के स्वामी ॥१॥ ॐ ह्री श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो जन्मजरा मृत्यु विनाशनाय जल नि । बावन चदन तरु सार उत्तम लाया हूँ। निज शान्त स्वरूप अपार पाने आया हूँ पावापुर ॥२॥ ॐ ह्री श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो ससार ताप विनाशनाय चदन नि । धवलोज्ज्वल तदुल पुन्ज भगवन लाया हूँ। प्रभु निज शुद्धातम कुन्ज, पाने आया हूँ । (पावापुर ॥३।। ॐ ह्री श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षत नि । कल्पद्रुम सुमन मनोज्ञ सुरभित लाया हूँ। अतर का स्वपर विवेक पाने आया हूँ। पावापुर ।।४।। ॐ ह्री श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो कामवाण विध्वसनाय पुष्प नि । चरू विविध भॉति के दिव्य अनुपम लाया हूँ। चैतन्य स्वभाव सुभव्य पाने आया हूँ पावापुर ।।५।। ॐ ह्री श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य नि । ज्योतिर्मय दीप प्रकाश नूतन लाया हूँ। अज्ञान मोह का नाश करने आया हूँ । पावापुर ॥६।। ॐ ह्री श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो मोहाधकार विनाशनाय दीप नि । भावो की अनुपम धूप शुचिमय लाया हूँ। निज आतमरूप अनूप पाने आया हूँ ।। पावापुर ॥७॥ ॐ ह्री श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूप नि ।
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श्री पावापुरी निर्वाण क्षेत्र पूजन
२९९ पर्यायों के भवर जाल मे उलझा स्वय दुख पाता है ।
निज स्वरुप से सदा अपरिचित रह भव कष्ट उठाता है । । सुर कल्प वृक्ष फल आज पावन लाया है। शिवसुखमय मोक्ष स्वराज पाने आया हूँ ।।पावापुर ८॥
ॐ ही श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फल नि । निज अनर्घ अनूठा देव पावन लाया हूँ। निज सिद्ध स्वपद स्वयमेव पाने आया हूँ पावापुर ॥९॥ ॐ ही श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो अनर्ण्य पद प्राप्तये अर्घ्य नि ।
जयमाला पावापुर जिनतीर्थ को निज प्रति करू प्रणाम । महावीर निर्वाण भू सुन्दर सुखद ललाम ॥१॥ त्रिशलानदन नृप सिद्धार्थराज के पुत्र सुवीर जिनेश ।। कु डलपुर के राजकुवर वैशालिक सन्मति नाथ महेश ॥२॥ गर्भ जन्म कल्याण प्राप्तकर भी न बने भोगो के दास । बाल ब्रम्हचारी रहकर भवतन भोगो से हुए उदास ॥३।। तीस वर्ष मे दीक्षा लेली बारह वर्ष किया तप ध्यान । पाप पुण्य परभाव नाशकर प्रभु ने पाया केवलज्ञान ॥४॥ समवशरण रचकर इन्द्रो ने किया ज्ञान कल्याण महान । खिरी दिव्यध्वनि विपुलाचल पर सबनेकिया आत्मकल्याण ।।५।। तीस वर्ष तक कर विहार सन्मति पावापुर मे आये । शुक्ल ध्यानधर योग निरोध किया जगती मगल गाये ॥६॥ अ इ उ ऋ ल उच्चारण मे लगता है जितनाकाल ।। कर्मप्रकृति पच्चासीक्षयकर जा पहचे त्रिभुवन के भाल ।।७।। कार्तिक कृष्ण अमावस्या का ऊषाकाल महान हुआ । वर्धमान अतिवीर वीर श्री महावीर निर्वाण हुआ ॥८॥ धन्य हो गई पावानगरी धन्य हुआ यह भारत देश । अष्टादश गणराज्यो के राजों ने उत्सव किया विशेष ॥९॥
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जैन पूजांजलि लोकाकाश प्रमाण असख्य प्रदेशी जीव त्रिकाली है।
जो ऐसा मानता जीव वह अनुपम वैभवशाली है । । तन कपूरवत उड़ा शेष नख केश रहे शोभा शाली । इन्द्रादिक ने मायामय तन रचकर की थी दीवाली ॥१०॥ अग्निकुमार सुरो ने मुकुटानल से तन को भस्म किया । सभी उपस्थित लोगो ने भस्मी का सिर पर तिलक लिया ।।११।। फा सरोवर बना स्वय ही जल मदिर निर्माण हुआ । खिले कमल दल बीच सरोवर प्रभु का जय जयगान हुआ ॥१२॥ चतुनिकाय सुरों ने आकर किया मोक्ष कल्याण महान ।। वीतरागता की जय गूजी वीतरागता का बहुमान ॥१३॥ श्वेतभव्य जल मदिर अनुपम रक्तवर्ण का सेतु प्रसिद्ध । चरण चिन्ह श्री महावीर के अति प्राचीन परम सुप्रसिद्ध ॥१४॥ शुक्ल पक्ष मे धवल चद्रिका की किरणे नर्तन करती । भव्य जिनालय पद्य सरोवर की शोभा मनको हरती ॥१५॥ तट पर जिन मदिर अनेक हैं दिव्य भव्य शोभाशाली । महावीर की प्रतिमाए खडगासन पद्यासन वाली ॥१६॥ वृषभादिक चौबीस जिनेश्वर प्रभु की प्रतिमाए पावन । विनय सहित वदन करता हूँ भाव सहित दर्शन पूजन ॥१७॥ जीवादिक नव तत्वो पर प्रभु सम्यक श्रद्धा हो जाए । आत्म तत्व का निश्चय अनुभव इस नर भव मे हो जाए ॥१८॥ यही भावना यही कामना भी एक उद्देश्य प्रधान । पावापुर की पूजन का फल करूँ आत्मा का ही ध्यान ॥१९।। यह पवित्र भू परम पूज्य निर्वाण की जननी । जो भी निज काध्यान लगाए उसको भव सागर तरणी ॥२०॥ ॐ ह्री श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो पूर्णायं नि स्वाहा ।
पावापर के तीर्थ की महिमा अपरम्पार । निज स्वरुप जो जानते हो जाते भवपार ।।
इत्याशीर्वाद जाप्यमन्त्र-ॐ ह्री श्री पावापुर तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम ।
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महा अर्घ पाप पुण्य का फल बधन है शद्धभाव से होता मुक्त । शुद्ध भाव से जो सुदूर है वहीं जीव पर से सयुक्त ।।
महा अर्थ श्री अरहत देव को पूर्जे श्री सिद्ध प्रभु को पूर्जे । आचार्यों के चरणाम्बुज, श्री उपाध्याय के पद पूर्जे ॥१॥ सर्व साधु पद पूर्जे, श्री जिन द्वादशाग वाणी पूनँ । तीस चौबीसी बीस विदेही, जिनवर सीमधर पूर्जे ॥२॥ कृत्रिम अकृत्रिम तीन लोक के जिनगृह जिन प्रतिमा पूनँ । पचमेरु नन्दीश्वर पूजूं तेरह दीप चैत्य पूजें ।।३।। सोलहकारण दशलक्षण रत्नत्रय धर्म सदा पूजें । भत भविष्यत् वर्तमान की त्रय जिन चौबीसी पूनँ ।।४।। श्री वृषभादिक वीर जिनेश्वर ऋषि गणधा स्वामी पूर्जे । श्री जिनराज सहस्त्रनाम श्री मोक्ष शास्त्र आदि पूर्जे ॥५॥ श्री पच कल्याणक पू» विविध विधान महा पूनँ । गौतम स्वामी, कुन्दकुन्द आचार्य समयसार पूर्जे ॥६।। चम्पापुर पावापुर गिरनारी कैलाश शिखर पूनँ । श्री सम्मेद शिखर पर्वत जिनवर निर्वाण क्षेत्र पूर्जे ।।७।। तीर्थंकर की जन्म भूमि अतिशय अरु सिद्ध क्षेत्र पूनँ । श्री जिन धर्म श्रेष्ठ मगलमय महा अर्घ दे मै पूजें ।।८।। ॐ ही भावपूजा, भाव बन्दना त्रिकाल पूजा, त्रिकाल बन्दना, करवी करावी, भावना भाववी, श्री अरहत जी, सिद्ध जी, आचार्य जी, उपाध्याय जी, सर्व साधु जी पचपरमेष्ठिभ्यो नम । प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग, द्रव्यानुयोगेभ्यो नम । दर्शनविशुद्धयादि षोडसकारणेभ्यो नमः । उत्तमक्षमादि दशलक्षणधर्मेभ्यो नम । सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्र रत्नत्रयम्यो नम । जल विषे, थलविषे आकाशविषे गुफाविषे, पहाडविषे नगर नगरीविषे कृत्रिम अकृत्रिम जिन बिम्बेभ्यो नम । विदेशक्षेत्र स्थित विद्यमान बीस तीर्थकरेभ्यो नम । पाच भरत पाच एरावत दश क्षेत्र सम्बन्धी तीस चोबीसीना सात सौ बीस तीर्थकरेभ्यो नम । नन्दीश्वर द्वीप स्थित बावन जिन चैत्यालयेभ्यो नम । श्री सम्मेदशिखर कैलाशगिर, चपापुर पावापुर
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जैन पूजांजलि निन्दा करने वाले का उपकार मानता समभावी ।
निज में सावधान रहता है होता कभी न भव भावी ।। गिरनार तीर्थंकर सिद्ध क्षेत्रेभ्यो नमः । पावागढ, तु गीगिरी, गजपथ, मुक्तागिर सिद्धवर कूट, ऊन बडवानी पावागिरि कुण्डलपुर सोनागिर राजगृही मन्दारगिरी, द्रोणगिरी अहार जी आदि समस्त सिद्धक्षेत्रेभ्यो नम । जैनबिद्री मूलबद्री मक्सी, अयोध्या कम्पिलापुरी आदि अतिशय क्षेत्रेभ्यो नम । समस्त तीर्थकर पचकल्याणतीर्थक्षेत्रेभ्यो नम । श्री गौतम स्वामी, कुन्दुकुन्दाचार्य एव चारणऋद्धिधारी सात परम ऋषिभ्यो नम । इति उपर्युक्तेभ्य सर्वेभ्यो अर्घ्यं नि स्वाहा ।
शान्ति पाठ इन्द्र नरेन्द्र सुरो से पूजित वृषभादिक श्री वीर महान । साधु मुनीश्वर ऋषियो द्वारा वन्दित तीर्थंकर विभुवान ॥१॥ गणधर भी स्तुति कर हारे जिनवर महिमा महामहान । अष्ट प्रातिहार्यों से शोभित समवशरण मे विराजमान ॥२॥ चौतीसो अतिशय से शोभित छयालीस गुण के धारी । दोष अठारह रहित जिनेश्वर श्री अरहत देव भारी ॥३॥ तरु अशोक सिंहासन भामण्डल सुर पुष्पवृष्टि यछत्र । चौसठ चमर दिव्य ध्वनि पावन दुन्दुभि देवोपम सर्वत्र ।।४।। पति श्रुति अवधिज्ञान के धारी जन्म समय से हे तीर्थेश । निज स्वभाव साधन के द्वारा आप हुए सर्वज्ञ जिनेश ।।५।। केवलज्ञान लब्धि के धारी परम पूज्य सुख के सागर । महा पचकल्याण विभूषित गुण अनन्त के ही आगर ॥६॥ सकल जगत मे पूर्णशाति हो, शासन हो धार्मिक बलवान । देश राष्ट्रपुर ग्राम लोक मे शतत शाति हो हे भगवान ॥७॥ उचित समय पर वर्षा हो दुर्भिक्ष न चोरी मारी हो । सर्व जगत के जीव सुखी हो सभी धर्म के धारी हो ॥८॥ रोग शोक भय व्याधि न होवे ईति भीति का नाम नहीं । परम अहिंसा सत्य धर्म हो लेश पाप का काम नहीं ॥९॥
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क्षमापना पाठ
३०३ आगम के अभ्यास पूर्वक श्रद्धाज्ञान चरित्र सवार ।
निज में ही सकल भाव लाकर तू अपना रुप निहार ।। आत्म ज्ञान की महाशक्ति से परम शाति सुखकारी हो । ज्ञानी ध्यानी महा तपस्वी स्वामी मगलकारी हो ॥१०॥ धर्म ध्यान मे लीन रहूँ मैं प्रभु के पावन चरण गहूँ । जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊँ सदा आपकी शरण लहूँ ॥११॥ श्री जिनेन्द्र के धर्मचक्र से प्राणि मात्र का हो कल्याण । परम शान्ति हो, परम शाति हो, परमशाति हो हे भगवन ॥१२॥
शाति धारा नौबार णमोकार मत्र का जाप्य ।
क्षमापना पाठ जो भी भूल हुई प्रभु मुझ से उसकी क्षमा याचना है । द्रव्य भाव की भूल न हो अब ऐसी सदा कामना है ॥१॥ तुम प्रसाद से परम सौख्य हो ऐसी विनय भावना है। जिन गुण सम्पत्ति का स्वामी हो जाऊँ यही साधना है ॥२॥ शुद्धातम का आश्रय लेकर तुम समान प्रभु बन जाऊँ । सिद्ध स्वपद पाकर हे स्वामी फिर न लौट भव मे आऊँ ।३।। ज्ञान हीन हूँ क्रिया हीन हूँ द्रव्य हीन हूँ हे जिनदेव । भाव सुमन अर्पित है हे प्रभु पाऊँ परम शाति स्वयमेव ।।४।। पूजन शाति विसर्जन करके निज आतम का ध्यान धरूँ। जिन पूजन का यह फल पाऊँ मै शाश्वत कल्याण करूँ।।५।। मगलमय भगवान वीर प्रभु मंगलमय गौतम गणधर । मगलमय श्री कुन्द कुन्द मुनि मगल जिनवाणी सुखकर।।६।। सर्व प्रगलों में उत्तम है णमोकार का पत्र महान । श्री जिनधर्म श्रेष्ठ मगलमय अनुपम वीतराग विज्ञान ।।७।।
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जैन पूजांजलि यदि समता परिणाम नहीं है तो स्वभाव की प्राप्ति नही । यदि स्वभाव की प्राप्ति नहीं तो होती सुख की व्याप्ति नही ।।
जिनालय दर्शन पाठ श्री जिन मदिर झलक देखते ही होता है हर्ष महान । सर्व पाप मल क्षय हो जाते होता अतिशय पुण्य प्रधान ॥१॥ जिन मदिर के निकट पहुचते ही जगता उर मे उल्लास ।। धवल शिखर का नील गगन से बाते करता उच्च निवास ॥२॥ स्वर्ण कलश की छटा मनोरम सूर्य किरण आभासी पीत । उच्च गगन मे जिन ध्वज लहराता तीनो लोको को जीत ।।३।। तोरण द्वारो की शोभा लख पुलकित होते भव्य हृदय । सोपानो से चढ मदिर में करते है प्रवेश निर्भय ॥४|| नि सहि नि उच्चारण कर शीष झका गाते जयगान ।। जिन गुण सपति प्राप्ति हेतु मदिर मे आए है भगवान ।।५।।
जिन दर्शन पाठ धर्म चक्रपति जिन तीर्थंकर वीतराग जिनवर स्वामी । अष्टादश दोषो से विरहित परम पूज्य अतर्यामी ॥१॥ मोह मल्ल को जीता तुमने केवल ज्ञान लब्धि पायी । विमल कीर्ति की विजय पताका तीन लोक मे लहरायी ॥२॥ निज स्वभाव का अवलबन ले मोह नाश सर्वज्ञ हुए । इन्द्रिय विषय कषाय जीत कर निज स्वभाव मर्मज्ञ हुए ॥३।। भेद ज्ञान विज्ञान प्राप्त कर आत्म ध्यान तल्लीन हुए । निर्विकल्प परमात्म परम पद पाया परम प्रवीण हुए ।।४।। दर्शन ज्ञान वीर्य सुख मडित गुण अनत के पावन धाम । सर्व ज्ञेय ज्ञाता होकर भी करते निजानद विश्राम ॥५॥ महाभाग्य से जिनकुल जिनश्रुत जिन दर्शन मैने पाया । मिथ्यातम के नाश हेतु प्रभु चरण शरण मे मैं आया ॥६॥ तृष्णा रुपी अग्नि ज्वाल भव भव सतापित करती है । विषय भोग वासना हृदय मे पाप भाव ही भरती है ॥७॥ इस ससार महा दुख सागर से प्रभु मुझको पार करो । केवल यही विनय है मेरी अब मेरा उद्धार करो ।।८।।
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