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THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION
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-The TFIC Team.
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स्वर्गीय सनत् कुमार जी छावड़ा
( निधन २८ अप्रैल १९८८ )
की पुण्य स्मृति मे सादर समर्पित
माह
पृष्ठ- हमजि शिल
बह
प्रकाश चन्द नवीन कुमार मुकाम मिर्जापुर, पोस्ट गनकर जिला मुर्शिदाबाद ( प बगाल )
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विषय
णमोकार मन्त्र
दर्शन पाठ सस्कृत
दर्शन पाठ भाषा
पञ्च मङ्गल
लघु अभिषेक पाठ
विनय पाठ दोहावली
श्री शान्तिनाथ स्तुति
पूजा प्रारम्भ
पश्च कल्याणक अर्घ
पञ्च परमेष्ठी अर्ध
जिन सहस्रनाम अर्ध
विषय - सूची
स्वस्ति मङ्गल
देव शास्त्र गुरु पूजा ( भाषा) श्री पार्श्वनाथ स्तुति
श्री देव शास्त्र गुरु विद्यमान विदेह क्षेत्र तथा अनन्तानन्त सिद्धपूजा देव शास्त्र गुरु पूजा ( युगल ) बीस तीर्थकर पूजा ( भाषा) विद्यमान बीस तीर्थङ्कर अर्ध अकृत्रिम चैत्यालयों का अर्घ सिद्धपूजा भाषा ( स्वयसिद्ध )
सिद्धपूजा (संस्कृत)
सिद्धपूजा का भावाष्टक तीस चौबीसी का अर्ध
सोलह कारण का अर्घ
पचमे का अ
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विषय
नन्दीश्वर द्वीप का अर्घ
दशलक्षण धर्म का अर्ध
रत्नत्रय का अर्ध
पचमेस पूजा
नन्दीश्वर द्वीप पूजा
सोलह कारण पूजा
दशलक्षण धर्म
पूजा
रत्नत्रय पूजा
स्वयम्भू स्तोत्र भाषा
समुच्चय चौबीसी पूजा
सप्त ऋषि का अ
व्रतों का अघ
समुच्चय अर्घ शान्ति पाठ भाषा
भजन (नाथ तेरी )
भाषा स्तुति (तुम तरणतारण )
विसर्जन
आशिका लेने का मन्त्र
श्री वर्द्धमान स्तुति
निर्वाण क्षेत्र पूजा
श्री आदिनाथ जिन पूजा
श्री चन्द्रप्रभु के पूर्वभव
श्री चन्द्रप्रभु जिन पूजा
श्री शान्तिनाथ जिन पूजा
श्री नेमिनाथ जिन पूजा
श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा
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૬.
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विषय
श्री महावीर स्वामी पूजा श्री मेशियर सिसक्षेत्र पूजा
श्री चम्पापुर दिक्षेत्र पूजा
श्री गिरनार मिसक्षेत्र पूजा
श्री पानापुर मिसक्षेत्र पूजा श्री मोनागिर क्षेत्र पूजा
श्री मकामर स्तोत्र पूजा
श्री मगर स्तोत्रम्
थी ततार्थ सूत्रम्
तो
१५३
१५६
थोर मिसक्षेत्र पूजा
१६१
श्री
प्रभु जिन पूजा
१६५
श्री बाहुबली स्वामी पूजा
१६९
१०३ དཔཔ
श्री विष्णु कुमार महामुनि पूजा रविमत पूजा टोपावली पूजा ( नपामा ) १८१ निपाणी माता को भारती
१८३
૧૮૪
१९.
२०१
२१६
श्री चोदनगर महावीर पूजा वृहत् अभिषेक पाठ
अभिषेक पूजा नव तिलक
देव-शास्त्र-गुरु पूजा (संस्कृत) प्रदत् मिजनक पूजा ( भाषा)
तोम चौबीसी पूजा
पुष्ट
१२६
१३१
अकृत्रिम चयालय पूजा
क्षमावणी पूजा
सरस्वती पूजा
१४४
१४७
२१७
१२३
ܕܕ
विषय
सप्त ऋषि पूजा
अनन्त मत पूजा
शान्ति पाठ ( खरकृत )
२७५
२७६
स्तुति ( मस्कृन ) विगर्जन (संस्कृत)
२७७
श्री पार्श्वनाथ स्तोत्र ( यानत ) २७८
जिनवाणी माता का भजन
( जिनवाणी माता) २७९
जिवाणी माता की स्तुति ( पोर हिमाचल ) भूधरा स्तुति (घन्दों दिगम्बर)
भूधर कृत स्तुति ( ते गुरु )
संकट हरण विनती होनहार बलवान ( भजन )
श्री नेमिनाथ की विनती
पृष्ठ
२६९
२७२
सुप्रभात स्तोत्रम्
अद्याष्टक स्तोत्रम्
मङ्गलाष्टक
दृष्टाष्टक स्तोत्रम्
| एकीभाव स्तोत्रम
शास्त्र - भक्ति ( अकेला )
१९०
भूधर गुन स्तुति ( अहो जगत ) १९२
मङ्गलाष्टक (वृन्दावन )
२९३
२९५
१९७
२९८
३००
२७९
२८०
२८१
श्री जिन सहस्रनाम स्तोत्रम्
२८३
२८८
२८९
૩૩
२३४
३०२
૪
कल्याण मन्दिर स्तोत्र ( भाषा) ३०७
२५१
विपापहार स्तोत्र ( भाषा)
३१५
२५७
जिन चतुविशतिका
३१९
२६२ भावना द्वित्रिशतिका
३२४
२६६
३२८
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पृष्ठ
४..
मालोचना पा
૩૮૬
विषय
विपर श्री महावीराष्टक स्तोत्रम् ३४० आराधना पाठ निर्वाणकाण्ड ( गाथा) ३४४ अठाईरामा भक्तामर स्तोत्र (भाषा) ३४६ बारह भावना ( मगतराय कन) कल्याण मन्दिर स्तोत्र (भाषा) ३५३ तत्वार्थ सूत्र पूजा एकोभाव स्तोत्र (भाषा) 3५८ श्री कपभर के पूर्वभर नेमीनाय के पूर्वभव
३६३ सुगन्य दगमी मत स्था १८ विपापहार स्तोत्र भापा ३६४ | रविवत स्था
४३१ श्री पाश्र्वनाथ स्तोत्र (भाषा) ३७३ श्री वासुपूज्य जिन पूग निर्वाणकाण्ड (भाषा) ३७५ भरतामर भाषा
(हजारीलाल, मुन्द्रल्सडी काका) 20 सामायिक पाठ (भाषा) ३८० ममावि मरण भाषा भूधर कृत स्तुति ( पुलकन्त) शान्तिनाथ पूजा (रामचद्र ) ८५३ स्तुति ( तव विलम्ब ) ३८७ पोडशसारण व्रत जाप स्तुति ( सकलज्ञेय)
शिखरजी का भजन दुखहरण स्तुति ३९१ आरती
४०८ दौलत पद (भपनी सुध ) ३९३ चौनीसों भगवान को भारती समाधिमरण भापा (गौतमस्वामी) ३९४ महावीर स्वामी की आरती वैराग्य भावना
३९६ | पार्श्वनाथ की भारती ४ . मेरी भावना ३९९ | शातिमत्र प्रारभ्यते
४६१ भजन (सिद्धचक्र ) ४०१ चौबीस तीर्थरों के कि
विशेष जानने योग्य बाते जैन व्रत और त्यौहार आवश्यक नियम दिशाशूल विचार
पदार्थों की मर्यादा भारत के प्रमुख जैन तीर्थक्षेत्र | बारह भावना वन्दना
| सक्षिप्त सूतक विधि मुद्रक श्री जवाहर प्रिंटिग वर्क्स, ८० रबिन्द्र सरणी, कलकत्ता-७
३८९
४५८
४६३
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प्रमुख जैन तीर्थक्षेत्र
[विहार प्रान्त ] सम्मेद शिखर-इस क्षेत्र से २० तीर्थकर एव असख्यात मुनि मोक्ष गये है। पारसनाथ स्टेशन से एव गिरिडीह से शिखरजी जाने के लिये मोटर मिलती है।
गुणावा-नवादा स्टेशन से डेढ़ मील । यहाँ से गौतम स्वामी मोक्ष गये है।
पावापुरी-नवादा से मोटर जाती है। यहीं से महावीर स्वामी कार्तिक कृष्णा ३० को मोक्ष गये है। जल-मन्दिर दर्शनीय है।
राजगृही-विपुलाचल, सोनागिरि, रत्नागिरि, उदयगिरि, वैभारगिरि-ये पञ्च पहाड़ियां प्रसिद्ध है। इन पर २३ तीर्थरो का समवशरण पाया था।
कुण्डलपुर-नालन्दा स्टेशन से ३ मील दूर-भगवान महावीर का जन्मस्थान है। चम्पापुरी-भागलपुर स्टेशन । यहाँ से वासुपूज्य स्वामी मोक्ष गये है। गुलजार याग-(पटना ) यहीं से सेठ सुदर्शन मुक्ति गये हैं।
[उडीसा प्रान्त] खण्डगिरि-उदयगिरि-भुवनेश्वर स्टेशन से ४ मील पर दो पहाडियां है। यहाँ से कलिंग देश के ५०० मुनि मोक्ष गये है।
[उत्तर प्रदेश) सिंहपुरी-बनारस से ७ मील । यहाँ श्रेयांसनाथ भगवान के गर्म, जन्म, तपये तीन कल्याणक हुए थे । वर्तमान मै सारनाथ के नाम से प्रख्यात है।
चन्द्रपुरी-बनारस से १३ मील अथवा 'सारनाथ' से ६ मील गगा के किनारे पर है। यहाँ पर चन्द्रप्रभु भगवान का जन्म हुआ था। ___ अयोध्या-आदिनाथजी, अजितनाथजी, जमिनन्दननाथजी, सुमतिनाथजी, अनन्तनाथजी का जन्मस्थान ।। ___ अहिक्षेत्र-बरेली-अलीगढ़ लाइन पर मामला स्टेशन से ८ मील । यहाँ भगवान पार्श्वनाथ के ऊपर कमठ ने घोर उपसर्ग किया था और उन्हे केवलज्ञान प्राप्ति हुआ था।
हस्तिनापुर-शान्तिनाथ, कुन्थनाथ, और अरहनाथ तीर्थरो के गर्भ, जन्म, तप जोर ज्ञान कल्याणक हुए थे।
चौरासी-मथुरा शहर से | मील । यहाँ से जम्बू स्वामी मोक्ष गए थे।
शौरीपुर-शिकोहाबाद से १० मील पर बटेश्वर ग्राम है। यहाँ पर नेमिनाथ स्वामी के गर्भ और जन्म-ये दो कल्याणक हुए थे।
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इर
नांगिरा = 2 ट्र DERS OR 13 Ter da fær & c
1
[ मध्य प्रान्त: बुन्देलखण्ड
देवगढ़-खो स्वहै।
-
१२ हैदर है
पर मे २६ है वर
है हैं है। अद्दार —–जनितपुर स्टेशन है= क्षेत्र स्थित है।
चलेगे–टावरी
भारतवर्ष में मन्दि है । मन
23
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गाडी
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मे बाहर नहीं बनती योगेन्दर है ि
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३९ वि० उन मन्दिर हैं। हाँ है।
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नगर है । यहीं
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बीनाजी अतिशय क्षेत्र
१०
यहाँ भगवान शान्ति की नैनागिरिन्द्र के
उतर जाती है, वहाँ है = कुण्डन्द्रपुर-नेन्द्रको २१ | यहा पर भी सम्बन्ध में अनेक किंव् कागिरि
हैं।
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है । यहाँका तीन करोड मुनि मोक्ष गये हैं ।
है।
2
मूर्ती है। टर हैं
→
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मन्दिर है ।
स्टेशन में ३२ मील पर पहाडी ईगल के
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रामटेक-स्टेशन में तीन मील की दूरी पर धर्मशाला है। दस बडे-बड़े मन्दिर है। इसमें १ मन्दिर में एक प्रतिमा १४ फुट की दर्शनीय है।
[मध्य भारत • मालवा ] . मक्ती-पाश्चनाप-सेन्ट्रल रेसवे को भोपात - उज्जैन शाखा मै इस नाम का स्टेशन है। वहीं से १ मोर पर एक प्राचीन जैन मदिर है। उसमे पार्श्वनाथ की बड़ी मनोर प्रतिमा।
सिदवरफूट-दौर से सण्डया लाईन पर गोकारेश्वर स्टेशन से होते हुए अथवा मनामद ने भीन पर है। यहाँ २ चक्रवर्ती. १० कामदेव एव साढे तीन करोड़ मुनि मोक्ष गये है।
पडयानी-वामी स्टेशन से ५ मीन पर चूसिगिरि पहाड है. जिसकी तनहटी में दादनगजा (म्मर्ण) को प्रसिद्ध खड्गासन पतिमा है। पौष मे यहाँ मेना रगता है। बाले इ-द्रजीत जोर कुम्भकर्ण जादि मुनि मोक्ष गये है।।
ऊन-यह पाचन क्षेत्र पावागिरि के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। यहीं पर बहुत मे मन्दिर और मूर्तिी जमीन से निक्ती है तथा दर्शन करने योग्य है।
[राजस्थान प्रान्त ] श्रीमहावीरजी-पश्चिम रेलवे की नागदा - मथुरा लाईन पर श्री महावीरजी स्टेशन है, यहाँ से ४ मोम पर क्षेत्र है। भगवान महावीर स्वामी की प्रति मनोज्ञ प्रतिमा पाम के ही एकटील के अन्दर से निकली थी।
पनपुरी-स्टेशन योदासपुरा। भगवान पदाप्रभु की अतिशयपूर्ण, भव्य और मनाश प्रतिमा के अतिशय के कारण इस क्षेत्र का नाम पदापुरी पड़ा है।
फेशरियानाथ-उदयपुर स्टेशन से ४० मील पर । यहाँ ऋषभदेव स्वामी का बहुत विशान मन्दिर है। यहीं भारत के सभी तीर्थों से अधिक केशर भगवान को चढ़ती है. इमी म इम्का नाम फैशरियानाथ पड़ा है।
तिजारा भतवर एव दिहो स वस द्वारा । चन्द्रप्रभु भगवान की अतिशय युक्त मूति दर्शनीय है।
[वम्बई प्रदेश] नारंगा-स्टेशन तारगा-हिस से ३ मील दूर पहाड़ पर यह क्षेत्र है। यहाँ से वरदत्तादि साढ़े तीन करोड़ मुनि मोक्ष गये है।
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गिरनार — काठियावाड मे जूनागढ़ स्टेशन से ४-५ मील की दूरी पर गिरनार पर्वत की तलहटी है । पहाड पर ७००० सीढ़ियो को चढ़ाई है । यहाँ स नेमिनाथ स्वामी तथा ७२ करोड सात सौ मुनि मोक्ष गये है ।
शत्रुञ्जय - पालिताना स्टेशन से २ मोल पर है । यहीं न युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन तथा ८ करोड मुनि मोक्ष गये है ।
पावागढ - बडौदा से २८ मील की दूरी पर यह क्षेत्र है । यह स न्व, कुश आदि पाँच करोड मुनि मोक्ष गये है ।
मागीतुंगी - मनमाड स्टेशन से ७० मील पर घन जगल मे पहाड़ पर यह क्षेत्र है । यहाँ से रामचन्द्र, सुग्रोव, गवय गवाक्ष, नील आदि ६६ करोड मुनि मोक्ष गये है। गजपन्था - नासिक रोड स्टेशन से ६ मोल नसरुल ग्राम के पास । यहाँ से बलभद्र आदि आठ करोड मुनि मोक्ष गये है ।
कुन्थलगिरि - वार्सी टाऊन रेलवे स्टेशन से २१ मील दूरी पर । यहाँ से देशभूषण, कुलभूषण मुनि मोक्ष गये है ।
[ मैसूर प्रान्त ]
मूडवी - कारकल से दस मील पर यह एक अच्छा कस्बा है । यहाँ १८ मन्दिर है । यहाँ के मन्दिरो मे होरा, पत्रा, पुखराज, मूंगा, नीलम की मूर्तिर्या है ।
जैनवद्री - (श्रवणबेलगोला ) हसन जिले के अन्तर्गत यह क्षेत्र है । हसन से मोटर जाती है । श्रवणबेलगोला मे चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि नाम को दो पहाडिया पास-पास है । पहाड पर ५७ फीट ऊंची बाहुबली की मनोज्ञ प्रतिमा है । १२ वर्ष बाद महामस्तकाभिषेक होता है ।
बैणूर - गोम्मट स्वामी की ६० फोट ऊंची एक प्रतिमा है तथा अन्य हजारो मनोज्ञ मूर्तियाँ यहाँ पर है - मन्दिर दर्शनीय है ।
हडवेरी - यहाँ एक मन्दिर पूरा कसौटी पत्थर का बना हुआ है।
कारकल - यहाँ प्राचीन और मनोज्ञ १२ मन्दिर लाखो रुपयो की लागत से बने है । पर्वत पर श्री बाहुबली स्वामी की विशाल मूर्ति कायोत्सर्ग अवस्था मे देखने योग्य है ।
बारंग - यहाँ एक मन्दिर तालाव के मध्य भाग में है। किश्ती मे बैठ कर जाने से दर्शन होते है ।
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वन्दना
रचयिता - स्व० कवि भगवत् जैन, एत्मादपुर ( जागरा ) शिवपुर पथ परिचायक जय हे, सन्मति युग निर्माता । गङ्गा फल - फल स्वर में गाती, तव गुण गौरव गाथा । सुर नर किन्नर तव पद युग में, नित नत करते माथा ॥ दम भी तव यश गाते, सादर शीश झुकाते । हे सद्
बुद्धि प्रदाता || दु.पहारक सुप दायक जय हे, सन्मति युग निर्माता ।
जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ॥ सन्मति युग निर्माता ॥१॥
मंगल कारक दया प्रचारक, बग पशु नर उपकारी । भविजन तारक कर्म विदारक, सब जग तव आभारी ॥
जब तक रवि शशि तारे, तब तक गीत तुम्हारे । विश्व रहेगा गाथा ॥ त्रिर सुख शान्ति विधायक जय हे, सन्मति युग निर्माता । जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे ॥ सन्मति युग निर्माता ||२|| नात् भावना भुला परस्पर, लडते हैं जो प्राणी । उनके उर में विश्व प्रेम, फिर भरे तुम्हारी चाणी ॥ सब में करुणा जागे, जग से हिंसा भागे । पायें सब सुख साता ॥
निर्माता ।
हे दुर्जय दुख दायक जय हे, सन्मति युग जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय
जय हे ॥ निर्माता ||३||
सन्मति युग
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आवश्यक नियम इनके पालन से आत्म-कल्याण के साथ-साथ
__ जीवनचर्या मे भी उत्थान होता है । (१) प्रतिदिन देव-पूजन, शास्त्र-स्वाध्याय व गुरु-भक्ति करें। (२) रात्रि भोजन व अभक्ष्य पदार्थों का भक्षण नही करें। (३) २४ घण्टे मे कम से कम १५ मिनिट स्व-चिन्तन करें । (४) चिन्तन द्वारा दिन भर मे हुई गलतियो का पश्चाताप करें। (५) चमडे की वस्तुओ का प्रयोग न करें। (६) अफीम, भाग, तम्बाखू आदि मादक द्रव्यो का प्रयोग न करें। (७) अनैतिक कार्य न करे व हित-मित-प्रिय वचन बोले । (८) नगदी, सोना, चांदी, जायदाद आदि की मर्यादा निश्चित
करें। (९) विकथाओ ( स्त्री, राज्य, चोरी, भोजन ) मे अपना समय
नष्ट नही करे। (१०) अपनी आय का कम से कम १/१० हिस्सा दान के कार्यों
मे लगाये। (११) अष्टमी, चतुर्दशी या महीने में कम से कम १ उपवास या
एकाशन करें। (१२) आहार के लिये हरी सब्जी, अनाज, फल आदि की गिनती
कर नियम ले लें।
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पदार्थों की मर्यादा
वर्ग दिन
२४ घण्ट
२४ घण्टे ४८ मि०
छाल
शीत ग्राम पूरा (र में पनाया) १मा १५ दिन दूध ( दुइने के पश्चान) ४८ मि. ४८ मि० दूध ( उगलने के याद) २४ घण्टे ददी (गर्म दूध का)
४ घण्टे २४ घण्टे
४८ मि. ४८ मि. घा, तेल घ गुन ~ जय तक म्याद न रिगडे आटा (मय तद फा)
दिग ५ दिन (पिसे हुए ) ममाले
७ दिन ममा (पिमा हुना) ४८ मि. ४८ मि० नमफ ( मनाला मिला देने पर) घण्टे ६ घण्टे निचढी, गयता, फही, तरकारी घण्टे घण्टे रोटी, पूती,लया (जन्याले पदार्थ) १२ घण्टे १२ घण्टे मोन मिले पदार्थ
२४ घण्टे २४ घण्टे पफयान (पानी रदिन) दिन ५ दिन ददी ( मीठे पटा महिन) ४८ मि० ४८ मि०
गुट मिला दही या छाछ सर्वथा अभक्ष्य है।
३ दिन ३ दिन ४८ मि० ६ घण्टे ६ घण्टे १२ घण्टे २४ घण्टे ३ दिन ४८ मि.
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-1022 243
232 S
दुई
Per
स्वर
बारह भावना
- रात्रपति हाि
जिस उत
SEFER
लवल देवी पिता परिवार
—
―
-दिल ।
३
दरियाईखहरराश
पर व भरे हुँद। पपई
कर सम्पति पर सर पर है
डिमार नहीं
भीतर या नम उऔर
-
विधिदेहि
पच महान संचरण लमि
-
-चौदह राहु बहु
प
मोह तोह के और
रूम और कई कारे होrer मदपुर डेय
तद छुई उपाय
ज्ञानी होरे ।
१
पद्रिय विजय घार विर
देह । दे रहे है ।
४८
।
१०८
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बोधिदुर्लभ भावना-धनकनकञ्चन राज सुख, सहि सुलभ करि जान ।
दुर्लभ है संसार में, एक जथारथ ज्ञान ॥११॥ धर्म भावना -जाचे सुरतरु देय सुख, चिन्तन चिन्ता रैन ।
विन जाचे विन चिन्तये, धर्म सकल सुख दैन ॥१२॥
संक्षिप्त सूतकविधि। सूतकमें देव शास्त्र गुरुका पूजन प्रक्षालादिक फरना, तथा मंदिरजीको जाजम वस्त्रादिको स्पर्श नहीं करना चाहिये । सूतफ का समय पूर्ण हुये याद पूजनादि करके पात्रदानादि फरना चाहिये। १-जन्मफा सूतक दश दिन तक माना जाता है। २-यदि स्त्रीका गर्भपात (पाचवें छठे महीनेमें) हो तो जितने महीनेका गर्भपात हो उतने दिनका सूतक माना जाता है। ३-प्रसूति स्त्रीको ४५ दिनका सूतक होता है, फहीं फहीं घालीस दिनका भी माना जाता है। प्रसूतिस्थान एक मास तक अशुद्ध ४-रजस्वला स्त्री चौथे दिन पतिके भोजनादिफके लिये शुद्ध होती है परन्तु देव पूजन, पात्रदानके लिये पाचवें दिन शुद्ध होती है। व्यभिचारिणी स्त्रीके सदा ही सूतक रहता है। ५मृत्युका सूतक तीन पीढी तक १२ दिनका माना जाता है। पौथी पीढीमें छह दिनका, पाचवीं छठी पीढी तक चार दिनका, सातवीं पीढीमें तीन, आठवीं पीढीमें एक दिन रात, नवमी पीटी में स्नानमात्रमें शुद्धता हो जाती है।
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-जन्म तथा मृत्युका सुतक गोत्रके मनुष्यको पाच दिनका होता है। तीन दिनके बालककी मृत्युका एक दिनका आठ वर्षके बालफकी मृत्युका तीन दिन तकका माना जाता है । इस मागे बारह दिनका ।
9 अपने कुलके किसी गृहत्यागीका सन्यास मरण, वा किसी कुटुम्बीका ग्राम में मरण हो जाय तो एकदिनका सुतक माना माता है ।
८--यदि अपने कुलका कोई देशातरमें मरण करें और १२ दिन पहले खबर सुने तो शेष दिनोंका ही सूतक मानना चाहिये । यदि १२ दिन पूर्ण हो गये हों तो स्नानमात्र सुतक जानो ।
E
६ - गौ, भैंस, घोडी आदि पशु अपने घरमें जने तो एक दिनफा सूतक और घरके बाहर जनै तो सुतक नहीं होता । दासी सद तथा पुत्रीके घरमें प्रसूति होय तो एक दिन, मरण हो तो तीन दिनका सुतक होता है। यदि घरसे बाहर हो तो सूतक नहीं । जो कोई अपनेको अग्नि आदिकमें जलाकर वा विष, शस्त्रादिले मात्महत्या करे तो छह महीनेतकका सूतक होता है । इली प्रकार और भी विचार है सो आदिपुराणसे जानना ।
१० - बच्चा हुये बाद भैंसका दूध १५ दिन तक, गायका दूध १० दिन तक, वकरीका ८ दिन तक अभक्ष्य ( अशुद्ध ) होता है । वैशभेदसे सूतक विधानमें कुछ न्यूनाधिक भी होता है परन्तु की पद्धति मिलाकर ही सूतक मानना चाहिये । समात
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* श्री जिनाय नम *
णमोकार मन्त्र णमो अरिहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहणं ॥१॥
दर्शन पाठ दर्शनं देव देवस्य, दर्शनं पापनाशनं ।
दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षलाधनं । दर्शनेन जिनेन्द्राणां, साधूनां वन्दनेन च ।
न चिरं तिष्ठते पापं,छिद्रहस्ते यथोदकम् ॥ वीतरागमुखं दृष्ट्वा , पद्मरागसमप्रभ ।
अनेक जन्मकृतं पापं, दर्शनेन विनश्यति॥ दर्शनं जिन सूर्यस्य, संसारध्वान्तनाशनं ।
बोधनं चित्तपास्य, समस्तार्थप्रकाशनं ॥ दर्शनं जिन चन्द्रस्य, सद्धर्मामृतवर्षणं ।
जन्मदाहविनाशाय, वर्धनं सुखवारिधेः॥
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जीवादितत्वप्रतिपादकाय. लल्यक्त्वमुख्याष्टगुणार्णवाय । प्रशान्तरूपाय दिगम्बराय. देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥ चिदानन्दैकरूपाय जिनाय परमात्मने ।
परमात्मप्रकाशाय, नित्यं सिद्धात्मने नमः॥ अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम ।
तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ! ॥ नहि त्राता नहि त्राता नहि त्राता जगत्त्रये ।
वीतरागात्परो देगे.न भूतो न भविष्यति॥ जिनेभक्तिजिनेभक्तिजिनेभक्तिदिनेदिने ।
सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु भवे-भवे ॥ जिनधर्मविनिर्मुक्तो, मा भवचक्रवर्त्यपि ।
स्थाच्चेटोऽपि दरिद्रोऽपि.जिनधर्मानुवासितः॥ जन्मजन्मकृतपापं जन्मकोटिभिरजितं ।
जन्ममृत्युजरारोगं हन्यते जिनदर्शनात् ।। अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य,
देव । त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलक तिभाषते में,
संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणम् ॥
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पूजा पाठ संद
भाषा दर्शन पाळ प्रभु पतितपावन में अपावन, चरण आयो शरणजी। यो विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन सरणजी॥ तुम ना पिछान्यो आन मान्यो, देव विविध प्रकारजी। या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रमगिन्योहितकारजी। सव विकट वनमें करम वेरी, ज्ञान धन मेरो हस्यो। तव इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ट गति धरतो फियो। धन घड़ीयो धन दिवसयो हो, धन जनम मेरो भयो। अव भाग मेरो उदय आयो, दरश प्रभुको लख लयो। छवि वीतरागी नगन मुद्रा, दृष्टि नासा धरै। वसुप्रातिहार्य अनन्त गुण जुत, कोटि रवि छविको हरैं। मिटगयो तिमिर-मिथ्यात मेरो, उदय रवि आतम भयो। मो उर हरप ऐसो भयो, मनु रङ्ग चिंतामणि लयो। Tथ जोड़ नवाय मस्तक, वीनऊँ तुव चरणजी। .८ त्रिलोकपति जिन, सुनहु तारण तरणजी। नहीं सुरवास पुनि, नर राज परिजन साथजी । जाचहूँ तुव भक्ति भव-भव, दीजिये शिवनाथजी ।।
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पंच मंगल (अभिषेक) पाठ पणविवि पञ्च परमगुरु गुरु जिन शासनो। सकलसिद्धिदातार सु विधनविनाशनो॥ शारद अरु गुरु गौतम सुमति प्रकाशनो । महल कर चउ-संघहि पापपणासनो ॥ १ ॥ पापहिपणासन गुणहि गरुवा, दोष अष्टादश रहिउ। धरिध्यान करमविनाश केवल, ज्ञान अविचल जिन लहिउ। प्रमु पञ्च कल्याणक विराजित, सकल सुर नर ध्यावहीं। त्रैलोकनाथ सु देव जिनवर जगत मङ्गल गावहीं ॥१॥
१-गर्भ कल्याणक जाके गर्भ कल्याणक धनपति आइयो। अवधिज्ञान-परवान सु इन्द्र पठाइयो। रचि नव बारह जोजन, नयरि सुहावनी । कनकरयणमणिमण्डित, मन्दिर अति बनी ॥२॥ अति बनी पौरि पगारि परिखा, सुवन उपवन सोहये । नर-नारि सुन्दर चतुर भेष सु देख जनमन मोहये ।। तहं जनकगृह छ मास प्रथमहिं. रतनधारा बरसियो। पुनि रुचिकवासिनि जननि-सेवा करहि सब विधि हरषियो ॥२॥ सुरकुअरसन कुञ्जर धवल धुरन्धरो। केहरि-केशरशोभित, नख शिख सुन्दरो॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
कमलाकलश-न्हवन, दुइ दाम सुहावनी | रविशशि मण्डल मधुर, मीन जुग पावनी ॥३॥
पावनि कनक घट जुगमपूरण कमलकलित सरोवरो । कल्लोलमाला कुलित सागर सिहपोठ मनोहरो ॥ रमणीक अमर विमान फणपति-भुवन रविछवि छाजहीं । रुचि रतनराशि दिपन्त दहन सु तेजपुञ्ज विराजहीं ॥ ३ ॥ ये सखि सोलह सुपने सूती शयनहीं । देखे माय मनोहर, पश्चिम रयनहीं ॥ उठि प्रभात पिय पूछियो, अवधि प्रकाशियो । त्रिभुवनपति सुत होसी, फल तिहं भासियो ॥४॥
भासियो फल तिहि चिन्ति दम्पति, परम आनन्दित भये । छ मास परि नव मास पुनि तहं रैन दिन सुखसों गये । गर्भावतार महन्त महिमा सुनत सब सुख पावहीं। भणि 'रूपचन्द' सुदैव जिनवर जगत मङ्गल गावहीं ॥ ४ ॥
२- जन्म कल्याणक
मतिश्रुत अवधि विराजित, जिन जब जनमियो । तिहुँ लोक भयो छोभित, सुरगन भरमियो ॥ कल्पवासि घर घण्ट, अनाहद वज्जियो । ज्योतिष घर हरिनाद, सहज गल गज्जियो ॥५॥
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५०
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जेन पूजा पाठ मह
गज्जियो सहजहि सख भावन, भवन शब्द सुहावने । विन्तरनिलय पटु पटह वज्जहि, कहत महिमा क्यों बने ।। कम्पित सुरासन अवधिबल, जिन-जनम निहचें जानियो । धनराज तब गजराज मायामयी निरमय आनियो ॥ ५॥
जोजन लाख गयन्द नदन सौ निरमये । वदन वदन वसुदन्त, दन्त सर संठये ॥ सर- सरसौ पनवीस, कमलिनी छाजहीं । कमलिनि कमलिनि, कमल पच्चीस विराजहीं ॥६॥
राजही कमलिनी कमलठोतर सौ मनोहर दल बने । दल दलहि अपछर नटहिं नवरस, हाव भाव सुहावने ॥ मणि कनक किकणि वर विचित्र सु अमरमण्डप सोहये । घन घण्ट चंवर धुजा पताका, देखि त्रिभुवन मोहये ॥ ६ ॥ तिहिं करि हरि चढ़ि आयउ सुर परिवारियो । पुरहि प्रदच्छिण दे त्रय, जिन जयकारियो ॥ गुप्त जाय जिन- जननिहिं, सुखनिद्रा रची । मायामयि शिशु राखि तौ, जिन आन्यो सची ॥७॥ आन्यो सची जिनरूप निरखत, नयन तृपति न हूजिये । तब परम हरषित हृदय हरि ने, सहस लोचन कीजिये ॥ पुनि करि प्रणाम जु प्रथम इन्द्र, उछन धरि प्रभु लीनऊ । ईशान इन्द्र सु चन्द्र छवि, शिर छत्र प्रभु के दीनऊ ॥ ७ ॥ सनतकुमार माहेन्द्र चमर दुई ढारहीं । शेष शक जयकार, शब्द उच्चारहीं ॥
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जन पूजा पाठ सप्रह
उच्छवसहित चतुरविधि, सुर हरषित भये । जोजन सहस निन्यानवै, गगन उलंधिगये ॥८॥ लघि गये सुरगिरि जहा पाण्डुक, वन विचित्र विराजहीं। पाण्डुक-शिला तह अर्द्धचन्द्र समान, मणि छवि छाजहीं।। जोजन पचास विशाल दुगुणायाम, वसु ऊंचों गनी। वर अष्ट-मङ्गल कनक कलशनि, सिंहपीठ सुहावनी॥८॥ रचि मणिमण्डप शोभित, मध्य सिंहासनो। थाप्यो पूरव-मुख तह, प्रभु कमलासनो ।। बाजहिं ताल मृदङ्ग, वेणु वीणा घने । दुन्दुभि प्रमुख मधुर धुनि, अवर जुबाजने ॥६॥ बाजने वाजहिं शची सव मिलि, धवल माल गावही । पुनि करहिं नृत्य सुराङ्गना सब, देव कौतुक घावहीं॥ मरि क्षीर-सागर जल जु हाथहि, हाथ सुरगिरि ल्यावहीं। सौधर्म अरु ईशान इन्द्र सु कलश ले प्रभु न्हावहीं ॥९॥ वदन उदर अवगाह, कलशगत जानिये । एक चार वसु योजन, मान प्रमानिये ॥
सहस-अठोतर कलशा, प्रभु के शिर ढरै। , पुनि श्रङ्गार प्रमुख, आचार सबै करें ॥१०॥
करि प्रगट प्रभु महिमा महोच्छव, आनि पुनि मातहिं दयो। धनपतिहि सेवा राखि सुरपति, आप सुरलोकहिं गयो।। जनमामिषेक महन्त महिमा, सुनत सब सुख पावहीं। मणि 'रूपचन्द्र' सुदेव जिनवर, जगत मङ्गल गावहीं ॥१०॥
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लघु-अभिषेकपाठः श्रीन निन्द्रननिन्छ जगत्त्रयगं
__ यहाद-नाम्जनन-क्नुटगहम् । श्रीमनं शां. नुकतेनहेतु
जैनन्द्र गिरी नायवापि ॥१॥ [ोन्निं पनि जिन्दरणणे पुगलि भनिन् ] श्रीनन्नन्दसन्दरं शनिचलेत. सदान्तः पटे मुक्ति निगय नविन वन्पाद-पन्दनः । इन्द्रोई निज-मृणाम् यज्ञोपवीतं दधे जान जखगरिया जैनाभिनन ॥२॥
[इति गठन्दा बापनलिधारण] सोपन्ध्य-संगल-नयुक्तमान
ननि गन्धननिन्धनाना। आरोग्यानि ठिा -ल-बन्छ
पानादिन्छि जिनोत्तन्ननाम् ॥ इति पनि न निलजन्या-] ये सन्ति केचिन्हि दिय-जुलता
नागाः प्रभृत-लवर्पता विदोषाः । नरक्षणार्थमन्टनेन शुनेन नेपा
मालगामि पुरतः न्वग्नन्य निम् ॥१॥ [इति पठित्वा नागननन भूमिगीन च]
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क्षीरार्णवस्य पयसा शुचिभिः प्रवाहः
प्रक्षालितं सुरवरैर्यदनेकवारम् । अत्युद्घमुद्यतमहं जिनपादपीठं
प्रक्षालयामि भव-संभव-तापहारि ॥५॥।
[इति पठित्वा पीठप्रक्षाल्नम् ] श्रीशारदा-सुमुख-निर्गत-बीजवर्ण
श्रीमङ्गलीक-वर-सर्वजनस्य नित्यम् । श्रीमत्स्वयं क्षयति तस्य विनाशविनं
श्रीकार-वर्ण-लिखितं जिन-भद्रपीठे (1)॥६॥ [इति पठित्वा पीठे श्रीकारलेखनम् ] इन्द्रामि-दण्डधर-नैऋत-पाशपाणि
वायूत्तरेश-शशिमौलि-फणीन्द्र-चन्द्राः। आगत्य य॒यमिह सानुचराः सचिह्नाः ।
स्वं स्वं प्रतीच्छत वलि जिन्नपाभिषेके ॥७॥ [पुरोलिखितान्मन्त्रानुच्चार्य क्रमशोदशदिक्पालकेभ्योऽय॑समर्पणम्] १ ॐ आं को ही इन्द्र आगच्छ आगच्छ इन्द्राय स्वाहा । २ ॐ आं को ही अपने आगच्छ आगच्छ अमये स्वाहा । ३ ॐ आं क्रौं ही यम आगच्छ आगच्छ यमाय स्वाहा। ४ ॐ आं क्रौं ही नैऋत आगच्छ आगच्छ नैऋताय स्वाहा। ५ ॐ आं को ही वरुण आगच्छ आगच्छ वरुणाय स्वाहा । ६ ॐ आं क्रौं ही पवन आगच्छ आगच्छ पवनाय स्वाहा।
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जेन पूजा पाठ सप्रह
७ ॐ आं क्रौं ह्रीं कुवेर आगच्छ आगच्छ कुबेराय स्वाहा । ८ ॐआं क्रौं ह्रीं ऐशान आगच्छ आगच्छ ऐशानाय स्वाहा। ६ ॐआं क्रौं हीधरणीन्द्र आगच्छ आ० धरणीन्द्राय स्वाहा।। १० ॐ आं क्रौं ही सोम आगच्छ आगच्छ सोमाय स्वाहा ।
इति टिक्पालमन्त्रा. दध्युज्ज्वलाक्षत-मनोहर-पुष्प-दीपैः
पात्रार्पितं प्रतिदिनं महतादरेण । त्रैलोक्य-मङ्गल-सुखालय-कामदाह
मारार्तिकं तव विभोरवतारयामि । [पात्रापितैर्दघितण्डलपुष्पदीपैर्जिनत्यारार्तिकावतरणम् ]
यं पाण्डुकामल-शिलागतमादिदेव
मस्नापयन्सुरवराः सुरशैलमूर्ति । कल्याणमीप्सुरहमक्षत-तोय-पुष्पैः
संभावयामि पुर एव तदीय-विम्बम् ॥ [जलाक्षतपुष्पाणि निक्षिप्य श्रीवर्णे प्रतिमास्थापनम् ] सत्पल्लवार्चित-मुखान्कलधौतरौप्य
ताम्रारकूट-घटितान्पयसा सुपूर्णान् । संवाह्यतामिव गतांश्चतुरः समुद्रान्
संस्थापयामि कलशाजिनवेदिकान्ते ॥१०॥ [आम्रादिपल्लवशोभितमुखाश्चतु कलशान् पीठचतुःकोणेषु स्थापयेत् ।
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गामा 1o
आमिः पुण्याभिरद्भिः परिमल-बहुलेनामुना चन्दनेन श्रीपेयग्मीभिः शुचि-सदकचयरुद्गमैरेभिरुधैः । हृद्यरेभिनिवेद्यैर्मख-भवनमिमैर्दीपयद्धिः प्रदीपैः धूपैःप्रायोभिरेभिः पृथुभिरपि फलैरेभिरीशं यजामि ॥११॥ ही श्रीपरमदेवाय श्रीमहत्परमेष्टिने निर्वपामीति स्वाहा।। दृगवनम्र-सुरनाय-किरीट-कोटी
संलग्न-रत्न-किरण-च्छवि-धूसराधिम् । प्रस्वेद-ताप-मल-मुक्तमपि प्रकट
भक्त्या जलैर्जिनपति बहुधाभिपिञ्चे ॥१२॥ [ॐ ह्रीं श्रीमन्तं भगवन्तं कृपालसन्तं वृपमादिमहावीरपर्यन्तचतुर्विशतितीर्थकरपरमदेवं आधानां आये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे • .. नाम्नि नगरे मासानामुत्तमे मासे ... "मासे . • पक्षे .. शुभदिने मुन्यायिका-श्रावकश्राविकाणां मकलकर्मक्षयार्थ जलेनाभिपिञ्चे नम ।] [इति पठित्वा जिनस्य जलाभिषेक कृत्वा उदकचन्दनेति श्लोकं
पठित्वा अध्यं समर्पयेत् ] उत्कृष्ट-वर्ण-नव-हेम-रसाभिगम
देह-प्रभा-वलय-संगम-लुप्त-दीप्तिम् । धागं घृतस्य शुभ-गन्ध-गुणानुमेयां
वन्देऽर्हतां मुरभि-संस्नपनोपयुक्ताम् ॥१३॥ [ॐ ह्रीं श्रीमन्तं भगवन्त इत्यादिमन्त्रं पठित्वा घृतेनाभिषिञ्चे
इति पठित्वा घृताभिपेकं कुर्यात् । ]
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१२
जैन पूजा पाठ सग्रह
संपूर्ण-शारद-शशाङ्क- मरीचि -जालस्यन्दैरिवात्मयशसामिव सुप्रवाहैः ।
चीरैर्जिनाः शुचितरैरभिषिच्यमानाः
संपादयन्तु मम चिर - समीहितानि ॥ १४ ॥
[ उपरितन मन्त्र पठित्वा जलेनाभिपिचे इत्यस्मिन्स्थाने तीरेणाभिपिल्वे इत्युच्चार्य,क्षीराभिषेक कुर्यात् । ] दुग्धान्धि-वीचि पयसाचित-फेनराशिपाण्डुत्व - कान्तिमवधीरयतामतीव ।
दनां गता जिनपतेः प्रतिमा सुधारा
संपद्यतां सपदि वाञ्छित-सिद्धये नः ॥१५॥ [ उपरितन मन्त्र पठित्वा जलेनाभिपिवे इत्यस्मिन्स्थाने दध्नाभिषिचे इति पठित्वा दध्यभिषेक कुर्यात् । ] भक्त्या ललाट-तटदेश- निवेशितोच्चै
र्हस्तैश्च्युता सुरवरासुर मर्त्यनाथैः । तत्काल-पीलित- महेतु-रसस्य धारा
सद्यः पुनातु जिन- विम्ब - गतैव युष्मान् ॥ १६ ॥ [ उपरितन मन्त्र पठित्वा जलेनाभिपि इत्यस्मिन्स्थाने इतुरसेनाभिपिञ्चे इति पठित्वा इक्षुरसाभिषेक कुर्यात् । ] संस्नापितस्य धृत-दुग्ध-दधीक्षुवा है:
सर्वाभिरौपधिभिरर्हत उज्ज्वलाभिः ।
उद्वर्तितस्य विदधाम्यभिषेकमेला
कालेय-कुंकुम-रसोत्कट-वारि- पूरैः ॥ १७॥
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मन पूजा पाठ सप्रह
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[उपरितनमन्त्रमुच्चार्य जलेनाभिषिञ्चे इत्यस्मिन्स्थाने सवौषधिषि
रभिपिरचे इति पठित्वा सवौषधिभिरभिषेकं कुर्यात् ।] द्रव्यैरनल्प-धनसार-चतु:समायै
रामोद-वासित-समस्त-दिगन्तरालैः । मिश्रीकृतेन पयसा जिनपुङ गवानां
__त्रैलोक्य-पावनमहं स्नपनं करोमि ॥१८॥ [जलेनाभिषिच्चे इति स्थाने सुगन्धजलेनेति पठित्वा स्नपन कुर्यात् ] इष्टैमनोरथ-शतैरिव भव्यपुंसां
पूर्णैः सुवर्ण-कलशैनिखिलैर्वसानैः । संसार-सागर-विलंघन हेतु-सेतु
माप्लावये त्रिभुवनैकपतिं जिनेन्द्रम् ॥१६॥ [ उपरितनमन्त्रेणैव समस्तकलशैरभिषेक कुर्यात् ] मुक्ति-श्री-वनिता-करोदकमिदं पुण्याङ्कुरोत्पादक
नागेन्द्र-त्रिदशेन्द्र-चक्र-पदवी-राज्याभिषेकोदकम् । सम्यग्ज्ञान-चरित्र-दर्शनलता-संवृद्धि-संपादक कीर्ति-श्री-जय-साधकं तव जिन स्नानस्य गन्धोदकम् ॥२०॥ [लोकमिमं पठित्वा गन्धोदक गृह्णीयात् ] इति श्रीलञ्चमिपेकविधि समाप्त ।
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१४
जैन पूजा पाठ म्रप्रद
विनय पाठ दोहावली
जो पाठ ।
इह विधि ठाड़ो होयके, प्रथम पढ़ें धन्य जिनेश्वर देव तुम, नाशे कर्म जु आठ ॥ १ ॥ अनन्त चतुष्टयके धनी, तुम ही हो सिरताज । मुक्ति वधूके कन्त तुम, तीन भुवन के राज ॥ २ ॥ तिहुँ जगकी पीड़ा हरण, भवदधि शोषणहार । ज्ञायक हो तुम विश्वके, शिव सुखके करतार ॥ ३ ॥ हरता अघ अधियार के, करता धर्म प्रकाश । थिरतापद दातार हो, धरता निजगुण राश ॥ ४ ॥ धर्मामृत उर जलधिसों, ज्ञानभानु तुम रूप । तुमरे चरण सरोज को, नावत तिहुँजग भूप ॥ ५ ॥ मैं वन्दों जिनदेव को, कर अति निर्मल भाव । कर्मबन्ध के छेदने, और न कछू उपाव ॥ ६ ॥ भविजनकों भवकूपतें, तुमही काढनहार । दीनदयाल अनाथपति, आतम गुण भण्डार ॥ ७ ॥ चिदानन्द निर्मल कियो, धोय कर्मरज मैल सरल करी या जगत में, भविजनको शिवगैल ॥ ८ ॥
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तुम पदपराज पूजत, विन्न रोग टर जाय । शत्रु मित्रता को धर. विष निरविपता थाय ॥६॥ चक्री खगधर इन्द्र पद, मिल आपत आप । अनुकम ने शिवपद लहें, नेम सकलहनि पाप ॥१०॥ तुम बिन में व्याकुल भयो, जैसे जल चिन मीन । जन्म जरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन ॥११॥ पसिन बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव । अमन से तारे प्रभू, जय जय जय जिनदेव ॥१२॥ थकी नाय भवदधि विष, तुम प्रभु पार करेव । चटिया तुम हो प्रभु, जय जय जय जिनदेव ॥१३॥ रागसहित जगमें रुल्यो, मिले सरागी देव । वीतगग भेट्यो अब, मेटो राग कुटेव ॥१४॥ कित निगोद कित्त नारकी, किन तिर्यञ्च अज्ञान । आज धन्य मानुप भयो, पायो जिनवर धान ॥१५॥ नुमको पूजे सुरपति, अहिपति नरपति देव । धन्य भाग्य मेरो भयो, करन लग्यो तुम सेव ॥१६॥ अशरणके तुम शरण हो, निराधार आधार । में इवत भवसिन्धु में, खेय लगाओ पार ॥१७॥
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जैन पूजा पाठ मण्ड
इन्द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान । अपनो विरद निहारिक, कीजै आप समान ॥१८॥ तुमरी नेक सुदृष्टित, जग उतरत है पार । हाहा हन्यो जात हों, लेक निहार निकार ॥१६॥ जो में कहहूँ औरसों, तो न सिट उरभार । मेरी तो तोलों बनी, तातें करों पुकार ॥२०॥ वन्दौं पांचो परमगुरु, सुर गुरु वन्दत जास। विधन हरण महल करण, पूरण परम प्रकाश ॥२१॥ चौबीसों जिनपद लमों, लमों शारदा माय । शिवमग साधक लाधु नसि, रच्यो पाठ सुखदाय ॥२२॥
पुप्पाजलि विपेत।
श्री शान्तिनाथ स्तुति
मत्तगयन्द ( सवैया ) शांतिजिनेश जयौ जगतेश, हरै अघताप निशेशकी नाई। सेवत पाय सुरासुरराय, नमै शिरनाय महोतलताई ॥ मौलि लगे मनिनील दिपे, प्रभुके चरणो झलके वह झांई। सूघन पाय-सरोज-सुगन्धिकिधौ चलि ये अलिपङ्कति आई ॥
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पर पूरा पालन
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पूजा प्रारम्भ ॐ जय जय जय । नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु । णमो अरिहन्ताणं. नमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उपस्मायाणं. णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ १ ॥
PARTIAमो नम (SHREE मेन) चत्तारि महलं. अरिहन्ता मङ्गलं, सिद्धा मगलं, साह महल कंवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारिलोगुत्तमा-अरिहन्तालोगुत्तमा,सिद्धालोगुत्तमा, साहलोगुत्तमा, केलिपण्णनो धम्मोलोमुत्तमा । पत्तारिसरणं पत्राजामि-अरिहन्ते सरणं पवज्जामि, सिले सरणं पक्जामि, साहसरणं पवज्जामि। केलिपपणतं धम्मसरणं पयरजामि।। नमोऽहतेस्वाहा
मागीis Slete पेर।। अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। ध्यायेत्वंचनमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १॥ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्यां गतोऽपि वा। यः स्मरेत्परमात्मानं स वायाभ्यन्तरे शुचिः ॥ २ ॥ अपराजित मन्त्रोऽयं सर्वविघ्न विनाशनः । रंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ॥ ३ ॥ एसो पञ्च गमोयारो सबपावप्पणासणो।
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मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं अर्हमित्यक्षर ब्रह्मवाचकं सिद्धचकस्य सद्वीजं सर्वतः
जैन पूजा पाठ सग्रह
होइ मंगलं ॥ ४ ॥ परमेष्ठिनः ।
प्रणमाम्यहं ॥ ५ ॥
मोक्षलक्ष्मीनिकेतनं ।
कर्माष्टकविनिर्मुक्तं सम्यक्त्वादिगुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहं ॥ ६ ॥ विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति शाकिनी - भूत - पन्नगाः । विषो निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥ ७ ॥
इत्याशीर्वाद पुष्पाजलि क्षिपेत । पंचकल्याणक अर्थ
उदकचन्दनसन्दुल पुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूप फलार्धकैः । धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥
हो भगवान के गर्भजन्मतपज्ञान निर्वाण पक्ष कल्याणकेभ्यो अर्ध्य निर्वपामीति स्वाहा । पंच परमेष्ठी का अर्ध
उदकचन्दनतन्दुल पुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूप फलार्धकः । धवलमंगलगान रवाकुले जिनगृहे जिन इष्टमहं यजे ॥
ॐ ह्रीं श्री अरहन्त सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यो अर्ध्य निर्वपामीति स्वाश । सहस्रनाम का अर्थ उदकचन्दनतन्दुल पुष्पकैश्वरुसुदीपसुधूप फलार्धकैः । धवल मंगलगान रवाकुले जिनगृहे जिननाम अहं यजे ॥
ॐ ही श्री भगपज्जिनसहस्रनामेभ्यो अर्ध्य निर्वपामीति स्वाहा
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स्वस्ति मंगल श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवन्द्य जगत्त्रयेशं, स्याद्वादनायकमनन्तचतुष्टयाह । श्रीमूलसंघ सुदृशां सुकृतक हेतु नेन्द्रवज्ञविधिरेष मयाऽभ्यधायि ॥१॥ स्वस्तित्रिलोकगुरवे जिन पंगवाय.स्वस्ति स्वभाव. महिमोदय सुस्थिताय । स्वस्ति प्रकाशलहजोजितहडमवाच. स्वस्ति प्रसन्नललिता तवेभवाय ॥२॥ रसग्न्युच्छल तिमलबोधसुधाप्लवाय, स्वस्ति स्व. भावपरभावविभालकाय ।स्वस्ति निलोकविततेकचिदुद्दगमाय स्वस्ति निकालसकलायतविस्तृताय ॥३॥ द्रव्यन्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरूपं, भावस्य शुद्धिनविकासधिगन्तुकामः। आलम्बनानि विविधान्यचलंब्यकलगन्, मृतार्थयलपुरूपस्य करोमि यज्ञं ॥ अहत्पुराण पुरुपोत्तमपावनानि. वस्तून्यनूननखिलान्यवर्मक एव । अरिमन् ज्वलद्विमलकेवलबोध वही, पुण्यं समप्रमहमेकारना जुहोमि ॥५॥
freeति मानाय नमतिमा परिपुप्पामलिं क्षिपेन ।
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जेन पूजा पाठ सग्रह
श्रीवृषभो नः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअजितः । श्रीसम्भवः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअभिनन्दनः ॥ श्रीसमतिः स्वस्ति. स्वस्ति श्रीपद्मप्रभः । श्रीसुपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीचन्द्रप्रभः ।। श्रीपुष्पदन्तः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशीतल ः। श्रीश्रेयांसः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवासुपूज्यः ।। श्रीविमलः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअनन्तः । श्रीधर्मः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीशान्तिः ॥ श्रीकुन्थुः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीअरहनाथः । श्रीमलिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीमुनिसुव्रतः॥ श्रीनमिः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीनेमिनाथः ।। श्रीपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्रीवर्द्धमानः ॥
इति जिनेन्द्र रवस्तिमङ्गलविधानम् । (पुष्पाजलि क्षेपण ) नित्याप्रकंपादभुतकेवलौघाः स्फुरन्मनःपर्ययशुद्धबोधाः । दिव्यावधिज्ञानबलप्रबोधाः स्वस्तिक्रियासुःपरमर्षयोनः ।।
यहा से प्रत्येक श्लोक के अन्त में पुष्पाजलि क्षेपण करना चाहिये ।
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कोष्ठत्थधान्योपममेकवीजं सम्भिन्नसंश्रोतृपदानुसारि । चतुर्विधं वुद्धिवलं दधानाः स्वस्ति कियासुः परमर्पयोनः॥ संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादनघ्राणविलोकतानि । दिव्यान्मतिज्ञानवलादहन्तःस्वस्तिक्रियासुःपरमर्पयो नः॥ प्रज्ञाप्रधानाः श्रमणासमृद्धाः प्रत्येकवुद्धा दशलवपूर्वैः। प्रवादिनोऽष्टांगनिमित्तविज्ञाःस्वस्ति क्रियासु.परमर्षयोनगर जज्ञावलिश्रेणिफलांबुतन्तु प्रसूनवीजांकुरचारणाहाः । नमोऽङ्गाणस्वरविहारिणश्च स्वस्तिक्रियासुःपरमर्पयो नः।। अणिम्निदक्षा कुशलामहिम्निलघिम्निशक्ताकृतिनोगरिम्णि मनोवपुर्वाग्वलिनश्च नित्यं, स्वस्ति क्रियासुःपरमर्पयो नः॥ सकामरूपित्ववशित्वमैश्यं प्राकाम्य मन्तद्धिमथाप्तिमाताः। तथाऽप्रतीघातगुणप्रधानाःस्वस्ति क्रियासुः परमर्पयो नः॥ दीप्तं च तप्तं च तथा महोगं घोरं तपो घोरपराक्रमस्थाः। ब्रह्मापरंघोरगुणाश्चरन्तःस्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः॥ आमर्प सर्वोपधयस्तथाशीविपं विपादृष्टि विषविपाश्च । सखिल विड्जल्लमलापधीशाः स्वस्ति क्रियासुःपरमर्पयो नः क्षीरंवदन्तोऽत्र घृतं सवन्तो मधुस्रवन्तोऽप्यमृतस्त्रवन्तः। अक्षोणसंवासमहानसाश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः॥
इति स्यस्ति माल विधान ।
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२२
जैन पूजा पाठ संग्रह
देव-शास्त्र-गुरु पूजा भाषा
अलि छन्द |
प्रथम देव अरहन्त सुश्रुत सिद्धान्त जू । गुरु निरयन्ध महन्त सुकतिपुरपंथ जू ॥ तीन रतन जग माहिं सो ये भवि ध्याइये । तिनकी भक्तिप्रसाद परमपद पाइये ॥ दोहा-पूजों पद अरहन्त के, पूजों गुरुपद सार | पूजों देवी सरस्वती, नितप्रति अष्ट प्रकार ॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र अवतर अवतर सर्वोौपट आह्वानन । ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन ।
'ही देवशास्त्रगुरुसमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । गीता छन्द ।
सुरपति उरगनरनाथ तिनकर, बंदनीक सुपदप्रभा । अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल, देखि छवि मोहित सभा ॥ वर नीर क्षीरसमुद्रघट भरि अग्र तसु बहुविधि नं अरहंत श्रुतसिद्धांत गुरु निरग्रन्थ नित पूजा रचूं | दोहा - मलिन वस्तु हरलेत सब, जल स्वभाव मलछीन
जासों पूजों परमपद, देवशास्त्र गुरु तीन ॥१॥
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रद
२३
जे त्रिजग उदर मंमार प्राणी तपत अतिदुद्धर खरे । तिन अहितहरन सुवचन जिनके, परम शीतलता भरे॥ तसु भ्रमर लोभित घ्राणपावन सरसचंदन घसि सचूँ । अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ । दोहा- चन्दन शीतलता करे, तपत वस्तु परवीन ।
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥२॥ ही देशासगुरुभ्यो समारगपपिनागनाय चन्दन निर्दपामीति र गाहा ॥ २ ॥ 'यह भवसमुद्र अपार तारण, के निमित्त सुविधि ठई।
अति हद परमपावन जथारथ भक्ति वर नौका सही ।। उज्जल अखंडित सालि तंदुल पुञ्ज धरि त्रयगुण जचँ । अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ । दोहा-तंदुल सालि सुगन्ध अति, परम अखंडित वीन।
जासों पूजों परमपद देवशास्त्र गुरु तीन ॥३॥ *ही देवगावगुरुभ्योऽशयपदपालये अक्षतान् निर्मपाीति स्वाहा ॥ ३ ॥ जे विनयवंत सुभव्य-उर-अम्बुजप्रकाशन भान हैं। जे एक मुख चारित्र भापत त्रिजगलाहिं प्रधान हैं ।। लहि कुंदकमलादिक पहुप, भव भव कुवेदनसों बचें। अरहन्त श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ।।
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२४
जन पूजा पाठ सप्रह
दोहा-विविध भाँति परिमलसुमन, भ्रमरजाल आधीन ।
जासों पूजौं परलपद, देव शास्त्र गुरु तीन !!!! ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्य. कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ अति सबल सदकंदर्प जाको क्षुधा-उरग असान है। दुल्लह सयानक तासु नाशनको सुगरुड़समान है। उत्तम छहों रसयुक्त नित, नैवेद्य करि घृतमें पधैं । अरहन्त श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचें ॥ दोहा-नानाविधि संयुक्तरस, व्यञ्जन सरस नवीन ।
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तील ॥५॥ ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्य क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५॥ जे त्रिजग-उद्यम नाश कीने, मोह-तिमिर महावली । तिहि कर्मघाती ज्ञानदीपप्रकाशजोति प्रभावली ॥ इह भाँति दीप प्रजाल कंचन के सुभाजनमें खचूँ। अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ।। दोहा-स्वपर प्रकाशक जोति अति,दीपक तमकर हीन ।
जालों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥६॥ *ही देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वामीति स्वाहा ॥६॥
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जन पूजा पाठ संग्रह
जो कर्म-इंधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसै। वर धूप तासु सुगन्धताकरि, सकलपरिमलता हंसै ॥ इह भॉति धूप चढ़ाय नित भव-ज्वलनमांहि नहीं पचूँ । अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ।। दोहा-अग्निमाहिं परिमलदहन, चंदनादि गुणलीन ।
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥७॥ ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ लोचन सुरसना प्रान उर उत्साह के करतार हैं । मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फलगुणसार हैं । सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूँ। अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ।। दोहा-जे प्रधान फल फलवि पंचकरण रस लीन ।
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥८॥ ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरूँ। वर धूप निरमल फल विविध, बहुजनमके पातक हरूँ । इह भाँति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिव-पंकति मयूँ । अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचूँ ।।
जा
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जैन पूजा पाठ संग्रह
दोहा-वसुविधि अर्घ संजोयकै, अति उछाह मन कीन। .
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन 8 ' ॐ ही देवशास्त्रगुरुभ्योऽनर्धपदप्राप्तये अर्थ निर्बपानीति स्वाहा ॥ ९ ॥
जयमाला, दोहा देव शास्त्र गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार । भिन्न भिन्न कहुँ आरती, अल्प सुगुणविस्तार ।।
पद्धरी छन्द। चउ कर्मसु त्रेसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोपराशि। जे परम सुगुण हैं अनन्त धीर, कहवतके छयालिस गुण गंभीर ॥ शुभ समवशरण शोभा अपार, शतइन्द्र नमत कर शीस धार । देवाधिदेव अरहंत देव, बन्दों मन वच तन करि सु सेव ॥ जिनकी वनि है ओंकाररूप, निरअक्षरमय महिमा अनूप । दश-अष्ट महाभापा समेत, लघुभाषा सात शतक मुचत ॥ सो स्याद्वादमय सप्तभंग, गणधर गूंथे बारह सुअंग। रवि शशि न हरै सो तम हराय, सो शास्त्र नमों बहु प्रीति ल्याय ॥ गुरु आचारज उवझाय साधु, तन नगन रतनत्रयनिवि अगोध । संसार-देह वैराग धार, निरवांछि तपै शिवपद निहार ।' गुण छत्तिस पच्चिस आठवीस, भवतारन तरन जिहाज ईश । गुरु की महिमा वरनी न जाय, गुरु नाम जपों मन वचन काय ॥
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धन पूजा पाठ स
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सोरठा - की शक्ति प्रमान, शक्ति विना सरधा धरै । 'द्यानत' सरधावान, अजर अमरपद भोगव 11
होला ।
१७
दोहा - श्री जिनके परसाद तें, सुखी रहें सब जीव । यातें तन मन वचन तँ, सेवो भव्य सदीव ॥ याची दुपार क्षिपेत् ।
श्रीपार्श्वनाथ स्तुति
छप्पय ( सिहावलोकन )
7
जनम - जलधि - जलजान जान जनहंस मान सर । सरव इन्द्र मिलि आन, आन जिस धरहिं शीसपर ||
कुनय गन ।' पर उपकारी चान, चान उत्थपर घनसरोजवर भान, भान मम मोह तिमिर घन ॥ धनवरन देह दुख-दाह हर, हरसत हेरि मयूर - मन मनमथ - मतङ्ग - हरि पासजिन जिन विसरहु छिन जगत जन ॥
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૨૮
जैन पूजा पाठ सग्रह
श्री देव शास्त्र गुरु, विदेह क्षेत्र विद्यमान वीस तीर्थकर तथा
अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठी पूजा दोहा—देवशास्त्र गुरु नमनकरि, बीस तीर्थङ्कर ध्याय ।
सिद्ध शुद्ध राजत सदा, नमूं चित्त हुलसाय ॥ ___ॐ ह्री श्री देवशास्त्रगुरु समूह । श्री विद्यमान विंशति तीर्थकर समूह । श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठि समूह । अत्रावतरावतर सवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । अत्र मम सत्रिहितो भव भव वषट् सत्रिधीकरणम् ।
अष्टक चाल-करले-करले तू नित प्राणी श्री जिन पूजन करले रे । अनादिकाल से जग मे स्वामिन् जलसे शुचिता को माना। शुद्धनिजातम सम्यक् रत्नत्रयनिधि को नहि पहिचाना ॥ अब निर्मल रत्नत्रय जल ले देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ।
ॐ ही श्रीदवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थकरेभ्य, श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिम्यो, जन्ममृत्युविनाशनाय जल निर्वपामोति स्वाहा ।। २।। भव आताप मिटावन की निज मे ही क्षमता समता है। अनजाने अबतक मैंने पर में की झूठी ममता है। चन्दन सम शीतलता पाने श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ। विद्यमान श्री वीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ॥
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जन पूजा पाठ
१७
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ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥ अक्षय पदके बिना फिरा जगत की लख चौरासी योनि में । अष्ट कर्म के नाश करन को अक्षत तुम ढिग लाया मैं ॥ अक्षयनिधि निज की पाने अब देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ॥
ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेम्य, श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो अक्षयपद प्राप्तये पक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
पुष्प सुगन्धी से प्रतम ने शील स्वभाव नशाया है । मन्मथ वाणों से विध करके चहुॅ गति दुःख उपजाया है ॥ स्थिरता निजमे पाने को श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ॥
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ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
षट्स मिश्रित भोजन से ये भूख न मेरी शान्त हुईं। आतम रस अनुपम चखने से इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुई ॥ सर्वथा भूख के मेटन को श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याॐ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विंशति तीर्थङ्करेभ्य, सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
श्री मनन्तानन्त
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जैन पूजा पाठ सग्रह
जड दीप विनश्वर को अबतक समझा था मैने उजियारा । निज गुण दरशायक ज्ञान दीपसे मिटा मोह का अंधियारा ॥ ये दीप समर्पित करके मै श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य, श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
३०
ये धूप नल मे खेने से कर्मों को नहीं जलायेगी ! निज मे निज की शक्ती ज्वाला जो राग द्वेष नशायेगी ॥ उस शक्ति दहन प्रगटानेको श्री देव शास्त्र गुरुको ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थंङ्करेभ्य, श्री अनन्तानन्त 'सिद्ध परमेष्ठिभ्यो, अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा || ७ ||
पिस्ता बदाम श्री फल लवग चरणन तुम ढिग मै ले आया । श्रातमरस भीने निजगुण फल मम मन अब उनमे ललचाया ॥8 अब मोक्ष महा फल पानेको श्री देव शास्त्र गुरुको ध्याॐ विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥ ॐ ह्री श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य, श्री विद्यमान विशति तीर्थङ्करेभ्य, श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेष्ठियो, मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
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।।७५
२०
अष्टम वसुधा पाने को कर में ये आठों द्रव्य लिये । सहज शुद्ध स्वाभाविकतासे निजमे निज गुण प्रकट किये ॥ ये अर्ध समर्पण करके मैं श्री देव शास्त्र गुरु को ध्याऊँ । विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर सिद्ध प्रभु के गुण गाऊ ॥ ही पोवस्त्रगुरुम्भ, श्री विद्यमान विशति तीर्थंकरेभ्य, श्री अनन्तानन्त मि परियो, मनपाये श्रयं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
जयमाला
नसे घातिया कर्म अर्हन्त देवा, करें सुर असुर नर मुनि नित्य सेवा दरम ज्ञान मुख वल अनन्तके स्वामी, छियालीस गुण युक्त महा ईश नामी ॥ तेरी दिव्य वाणी सदा भव्य मानी, महा मोह विध्वसिनी मोक्ष दानी । अनेकान्तमय द्वादशांगो वखानी, नमो लोक माता श्री जैन वाणी ॥ विरागी अचारज उवज्झाय साधू, दरश ज्ञान भण्डार समता भराधू । नगन वेदधारी नुएका विहारी, निजानन्द मंडित मुकति पथ प्रचारी ॥ विदेह क्षेत्र में तोर्यजुर वीस राजे, विहरमान वन्दु सभी पाप भाजें । नमू सिद्ध निर्भय निरामय सुधामी, अनाकुल समाधान सहजाभिरामी ॥
छन्द
देव शास्त्र गुरु बीस तीर्थकर सिद्ध हृदय बिच धरले रे । पूजन ध्यान गान गुरण कर के भवसागर जिय तरले रे ॥ ॐ ही श्रीदेवशास्त्रगुरुभ्य श्री विद्यमान विंशति तीर्थंकरेभ्य श्री अनन्तानन्त सिद्ध परमेटियो पदप्राप्तये श्रयं निर्वपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजा पाठ मग्रह
३२
भूत भविष्यत् वर्तमान की, तीस चौबीसी मैं ध्याऊँ । चैत्य चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम, तीन लोक के मन लाऊँ ॥
די
ही त्रिकाल सम्बन्धी तीस चौबीसी त्रिलोक सम्बन्ची कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालयेभ्यो श्रर्घ • चैत्य भक्ति आलोचना चाहूँ कायोत्सर्ग अघनाशन हेत । कृतिमाकृत्रिम तीन लोक मे राजत है जिनबिम्ब अनेक चतुर निकाय के देव जजें ले प्रष्ट द्रव्य निज भक्ति समेत । निज शक्ति अनुसार जजूं मैं कर समाधि पाऊँ शिव खेत ॥ पुष्पाजलि क्षिपेत् ।
पूर्व मध्य अपराह्न की वेला पूर्वाचार्यो के अनुसार । ' देव बन्दना करूँ भाव से सकल कर्म की नाशन हार ॥
पञ्च महा गुरु सुमिरन करके कायोत्सर्ग करू सुख कार । सहज स्वभाव शुद्ध लख, अपना जाऊँगा अब मै भव पार ॥ ( कायोत्सर्ग पूर्वक है बार णमोकार मन्त्र जपें ) शोडष कारण भावना भाऊ, दशलक्षण हिरदय धारू । सम्यक् रत्नत्रय गहि करके भ्रष्ट कर्म बन को जारू ॥
ॐ ह्री षोडश कारण भावना दशलक्षण धर्म सम्यक् रत्नत्रयेभ्यो अर्घ० ।
श्री कैलाशपुरी पावा चम्पा गिरिनार सम्मेद जज । तीरथ सिद्ध क्षेत्र अतिशय श्री चौबीसों जिनराज भजू ॥ ॐ ह्री श्रीचतुर्विंशति तीर्थंकरेभ्य तथा सिद्धक्षेत्रातिशयक्षेत्रेभ्यो अघ० ।
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पूजापाठ
३३
देव-शास्त्र-गुरु- पूजा युगल किशोर जैन 'गुगल' विरचित
# स्थापना
केवल रवि किरणोसे जिसका सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर । उस श्री जिनवाणी में होता. तत्वों का सुन्दरतम दर्शन ॥ सदर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण । उनदेव. परम आगमगुरुको शत-शतवन्दन शत-शतवंदन ॥
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NA WAT ATT BÚne vera i Ama frame
याप
3- HENTIE!
इन्द्रिय के भोग मधुर विप सम. लावण्यमयी कञ्चन काया । यह सब कुछ जड़की कोड़ा है, में अब तक जान नहीं पाया ॥ मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर ममता में अटकाया हूं । अब निर्मल सम्यक-नीर लिये, मिध्या मल धोने आया हूं ॥
ग्रामीमा निलामीति नाटा ॥ १ ॥
जड़ चेननकी सब परिणति प्रभु । अपने अपनेमें होती है। अनुकूल कहें प्रतिकूल कह. यह झूठी मन को वृत्ति है !! प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित होकर संसार बढ़ाया है । सन्तप्त हृदय प्रभु ! चंदन सम, शीतलता पाने आया है ।
ॐ हो रयोजनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
2
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जैन पूजा पाठ सग्रह
3
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उज्ज्वल हूं कुन्द धवल हूँ प्रभु ! पर से न लगा हूं किंचित्भी । फिर भी अनुकूल लगे उनपर करता अभियान निरंतर ही ॥ जड़ पर झुक झुक जाता चेतन, की मार्दव की खंडित काया । निज शाश्वत अक्षत निधिपाने, अब दासचरणरजमें आया ॥
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ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ यह पुष्प सुकोमल कितना है, तन में माया कुछ शेष नहीं । निज अन्तरका प्रभु ! भेद कहूं, उसमें ऋजुता का लेश नहीं ॥ चिंतन कुछ, फिर सम्भाषण कुछ, वृत्ति कुछ की कुछ होती है । स्थिरता निज में प्रभु पाऊं जो, अन्तर का कालुष धोती है ।
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्य, कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
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अबतक अगणित जड़ द्रव्योंसे, प्रभु ! भूख न मेरी शांत तृष्णा की खाई खूब भरी, पर रिक्त रही वह रिक्त रही ॥ युग युग से इच्छा सागर में, प्रभु ! गोते खाता आया हूं । पंचेन्द्रिय मन के षट-रस तज, अनुपम रस पीने आया हूं ॥ .
ॐ ह्रींदेषशास्त्रगुरुभ्य क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥ to के जड़ दीपक को अब तक, समझा था मैंने उजियारा | कंभा के एक कोरे में जो बनता घोर तिमिर कारा ॥ अतएव प्रभो यह नश्वर दीप, समर्पण करने आया हूं । तेरी अन्तर लौ, से निज अन्तर, दीप जलाने आया ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
३५
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ही देवशास्त्रगुरुभ्यो मोहान्धकारपिनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ जड़कर्म घुमाता है मुझको यह मिथ्या भ्रांति रही मेरी। मैं रागीद्वेषी हो लेता, जव परिणति होती है जड़ की। यों भाव-करम या भाव-मरण, सदियों से करता आया हूँ। निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, पर-गंध जलाने आया हूँ।
ही देवगावगुरुभ्योऽष्टर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ जगमें जिसको निजकहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है। मेंआकुलव्याकुल होलेता,व्याकुलका फल व्याकुलता है। में शान्त निराकुल चेतन हूँ, है मुक्तिरमा सहचर मेरी। यह मोह तड़प कर टूट पड़े,प्रभुसार्थक फल पूजा तेरी ॥ ॐ ही देवशास्त्रमुग्भ्यो मोक्ष फलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ क्षण भर निजरसको पी चेतन,मिथ्या मलको धो देता है। काषायिक भाव विनष्ट किये, निज आनंद अमृत पीता है। अनुपम सुख तव विलसित होता,केवल रवि जगमग करता है दर्शन वल पूर्ण प्रगट होता, येही अर्हन्त अवस्था है। यह अर्घ समर्पण करके प्रभु, निजगुनका अर्घ बनाऊंगा। और निश्चित तेरे सशप्रभु! अर्हन्त अवस्था पाऊंगा ॥ ही देवमानारुभ्योऽनयंपदप्राप्तये भ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९॥
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जैन पूजा पाठ मप्रह
जयमाला भववनमें जीभर घूमचुका, कण-मणको जीभर-भर देखा। सृग-लम-मृग-तृष्णाके पीछे,सुझकोनमिली सुखकी रेखा॥ झूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशाये। तन-जीवन-यौरन अस्थिर है, क्षण भंगुर पल में मुरझाए । सम्राट महावल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या? अशरण मृत कायाले हर्षित,निज जीवन डाल सकेगाक्या ।। संसार महा दुख लागरके प्रभु दुख मय सुख-आभासों में। सुझकोन लिला सुख क्षणभर भी,कंचनकामिनि-शासादों में। मैं एकाकी एकत्व लिये, एकत्व लिये सब ही आते । तन धन को लाथी समझा था, पर ये भी छोड़ चले जाते॥ सेरेन हुये थे मैं इनसे, अति भिन्न अखंड निराला हूँ। निज में पर ले अन्यत्व लिये, निज सम रस पीनेवाला हूँ। जिसके शृंगारों में मेरा, यह महंगा जीवन घुल जाता।
अत्यन्त अशुदि जड़ काया ले, इस चेतल का कैसा नाता॥ दिन रात शुभाशुभ भावों से, मेरा व्यापार चला करता। , मानर वाणी और काया ले, आस्रव का द्वार खुला रहता। शुभ और अशुभ की नाला ले, झुलसा है मेरा अन्तःस्थल।
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जन पूजा पाठ साह
शीतल समकित किरणें फटें, संवर से जागे अन्त-बल ।। फिर तप की शोधक वह्नि जगे, कर्मों की कड़ियाँ टूट पड़े, सर्वाङ्ग निजाल प्रदेशों से, अमृत के निर्भर फूट पड़ें। हम छोड़ चलें यह लोक तसी,लौकान्त विराजे क्षणमें जा। निज लोक हमारा वाला हो, शोकांत बने फिर हमको क्या॥ जागे मम दुर्लभ बोधि प्रभो, दुर्नय तम सत्वर टल जावे। बस ज्ञाता दृष्टा रह जाऊं, मद-मत्सर-मोह विनश जावे॥ चिर रक्षक धर्म हमारा हो, हो धर्म हमारा चिर साथी। जगमें न हमारा कोई था, हम भी न रहें जग के साथी॥ चरणों में आया हूँ प्रभुवर! शीतलता मुझको मिल जावे। मुर्काई ज्ञान-लता मेरी, निज अन्तर्वल से खिल जावे ॥ सोचा करता हूँ भोगों से, बुझ जावेगी इच्छा ज्वाला । परिणाम निकलता है लेकिन, मानों पावक में घी डाला। तेरे चरणों की पूजा से, इन्द्रिय सुख की ही अभिलाषा। अबतक ही समझनपायाप्रभु! सच्चे सुखकी भी परिभाषा तुम तो अधिकारी हो प्रभुवर! जग में रहते जग से न्यारे; अतएव झुके तव चरणों में, जगके माणिक मोती सारे॥ स्यावाद मयी तेरी वाणी, शुभनय के झरने भरते हैं। .
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जैन पूजा पाठ सप्रह
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उस पावन नौका पर लाखों, प्राणी भव-वारिधि तिरते हैं। हे गुरुवर ! शाश्वत सुख-दर्शक यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है, जग की नश्वरता का सच्चा, दिग्दर्शन करने वाला है। जब जग विषयोंमें रच पचकर, गाफिल निद्रामें सोता हो। अथवा वह शिव के निष्कंटक, पथ में विष-कंटक बोता हो। हो अर्द्ध निशा का सन्नाटा, वन में वनचारी चरते हों। तब शान्त निराकुल मानस, तत्वों का चिन्तन करते हों। करते तपशैल नदी तट पर, तरु तल वर्षा की झड़ियों में। समता रसपान किया करते, सुख-दुख दोनों की घड़ियोंमें । अन्तर ज्वाला हरती वाणी, मानों झड़ती हों फुलझड़ियाँ। भवबन्धन तड़-तड़ टूट पड़े, खिल जावें अन्तर की कलिया। तुमसादानी क्या कोई हो, जगको दे दी जगकी निधियाँ ॥ दिन रात लुटाया करते हो, सम-शम की अविनश्वर मणियॉ॥ हे निर्मल देव ! तुम्हें प्रणाम, हेज्ञान दीप आगम!प्रणाम ! हेशान्ति त्यागके मूर्तिमान,शिव पथ-पंथी गुरुवर!प्रणाम। ॐ ही देवशास्त्रगुरु योऽनर्धपदप्राप्तये अर्घ निपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजा पाठ संग्रह
३९
बीस तीर्थकर पूजा-भाषा दीप अढ़ाई मेरु पन, अब तीर्थंकर बीस । तिन सबकी पूजा करूँ, मन वच तन धरि शीस ॥
ही विद्यमानविंशतितीर्थकरा ! अत्र अवतर अवतर सवौषट् आदाननम् । ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरा ! अब तिष्ठत तिष्ठतठ ४ स्थापन ।
ही विद्यमानविंशतितीर्थकरा. ! अत्र मम सन्निहितो भवतभवत वषट् सन्निधिकरणम् । इन्द्र-फणींद्र-नरेन्द्र-वंद्य, पद निर्मल धारी। शोभनीक संसार, सारगुण हैं अविकारी ॥ क्षोरोदधि सम नीरसों (हो), पूजौं तृषा निवार । सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मंझार ॥ श्रीजिनराज हो, भवतारण तरण जिहाज ॥१॥ ॐ'ही विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल० ॥ १॥ तीन लोकके जीव, पाप आताप सताये। तिनकों साता दाता, शीतल वचन सुहाये ॥ बावन चंदन लौं जजू (हो) भ्रमन तपन निरवार ॥ती. ॐ हीं विद्यमानविंशतितीर्थकरेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन० ॥ २॥ यह संसार अपार महासागर जिनस्वामी । तातें तारे बड़ी भक्ति-नौका जगनामी ॥ तंदुल अमल सुगंधसों (हो) पूजों तुम गुणसार ॥ लीक
ही विद्यमानविंशतितीर्थ करेभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्० ॥ ३ ॥
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४०
जैन पूजा पाठ संग्रह
भविक-सरोज-विकाश, निंद्य-तमहर रविले हो । जति श्रावक आचार, कथनको, तुम ही बड़े हो ॥ (हो) पूजों मदन प्रहार || सी०
फूल - सुवास अनेकसों
ॐ ह्रीं विद्यमानविशतितीर्थ करेभ्य कामवाणविध्वानाच पुष्प० ॥ ४ ॥
काम-नाग विषधाम
नाशको गरुड़ कहे हो । क्षुधा महादवञ्चाल. तासुको मेघ लहे हो ॥ नेवज बहु घृत मिष्टसों (हो) पूजों भूखविडार ॥ सी०
ॐ ह्रीं विद्यमानविगतिनीर्थंकरेभ्व क्षुधारो विनाशनाय नैवेद्य० ॥ ५ ॥
उद्यम होन न देत सर्व जगमांहि भयो है । मोह-महातम घोर, नाश परकाश करयो है ॥
पूजों दीप प्रकाशसों (हो) ज्ञानज्योति करतार ॥ सी०
ॐ ह्रीं विद्यमान विंशतितीर्थ करेम्य. मोहान्धकारविनाशनाय दीप० ॥ ६ ॥
कर्म आठ सब काठ, भार विस्तार निहारा ।
ध्यान अगनिकर प्रकट, सरव कीनों निरवारा || धूप अनूपम खेवतै (हो) दुःख जलै निरधार || सी०
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्योऽष्टकर्नदहनाय धूप० ॥ ७ ॥
मिथ्यावादी दुष्ट, लोभऽहंकार भरे है |
सबको छिनमें जीत जैनके मेरु खड़े हैं ॥
फल अति उत्तमसों जजों (हो) वांछित फलदातार || सी०
ॐ ह्रीं विद्यमान विंशतितीर्थ करेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फलं० ॥ ८॥
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जैन पूजा पाठ रामद
जल फल आठों दर्व, अरघ कर प्रीति थरी है। गणधर इन्द्रनहूते, थति पूरी न करी है। 'धानत' सेवक जानके (हो) जगत लेह निकार ।। सी० विध मानगिनिनी यो योऽनर्षपदप्राप्तये अ० ॥ ९ ॥
जयमाला सोरठा-ज्ञान-सुधा-कर चंद, भविक-खेतहित मेघ हो। भ्रम-तम भान अमंद, तीर्थकर वीसों नमों ।।
चौपाई १६ माना। मीमंधर सीमंधर म्वामी, जुगमन्धर जुगमन्धर नामी। बाहुबाहु जिन जगजन तारे, करम सुवाह वाहुवल दारे ॥१॥ जान सुजातं केवलज्ञान, म्वयंप्रभू प्रभु म्बय प्रधानं । अपमानन ऋषभानन ढोप, अनन्त चीरज वीरज कोपं ॥२॥ मांगेप्रभ सौरीगुणमालं, मुगुण विशाल विशाल दयालं। वस्त्रधार भव गिरिवज्जर है, चन्द्रानन चन्द्रानन पर हैं।।३।। भद्रबाहु भद्रनिके करता, श्रीमुजंग भुजंगम भरता। ईश्वर मबके ईश्वर छाज, नेमिप्रभु जस नेमि विराजै ।।४।। वोरसेन वीरं जगजान, महाभद्र महाभद्र वखाने । नमो जमोधर जमघरकारी, नमों अजितवीरज क्लधारी ॥५॥ धनुप पांचसै काय विराज, आयु कोडि पूरव सब छाजे । समवशरण शोभित जिनराजा, भवजल तारन तरन जहाजा ॥६॥
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૪૨
न्न पूजा पाठ प्रह
सम्यक रत्न- त्रयनिधि दानी, लोकालोक प्रकाशक ज्ञानी । शतइन्द्रनिकरि वंदित सोहैं, सुरनर पशु सबके मन मोहें ॥ ७ ॥ दोहा - तुमको पूर्जे वंदना, करै धन्य नर सोच । 'द्यानत' सरधा सन धरै सो भी धरमी होय ||
ॐ ह्रीं विद्यमानविग्रतितीचं को नहापं निर्वणनीति स्वाहा । विद्यमान बीस तीर्थंकरोंका अर्ध उदकचंदनतंदुलपुप्पर्क - श्चस्सुदीपसुधूपफलार्घकैः । धवलमङ्गलगानरवाकुले जिनगृहे जिनराजमहं यजे ॥
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ॐ ही श्रीसीम घर-चुग्नघरबाहु सुबाहु जत स्वयंन माननीय सूत्रम विद्यालकीर्ति-वज्रघर-चन्द्रानन चद्रबाहुभुज्न घर-नेनित्रम-वीरपेण महानद्र- देवरगोऽचितचीति विगतिविद्यमानतीर्थवरेभ्योऽर्थं निर्वपानीति स्वाहा ।
अकृत्रिम चैत्यालयों का अर्ध
कृत्याकृत्रिम-चारु-चैत्यनिलयान् नित्यं त्रिलोकीगतान् । वंदे भावन-व्यंतरान् युतिवरान् स्वर्गामरावालगान् । सद्गन्धाक्षत - पुष्प - दाम - चरुकैः सद्दीपधूपैः फलैद्रव्येनीरसुखैर्यजामि सततं दुष्कर्मणांशांतये ॥ १ ॥
सवैया
सात किरोड़ बहत्तर लाख पताल विषै जिन मन्दिर जानो । मध्यहि लोक में चारसो ठावन, व्यंतर ज्योतिष के अधिधानो ||
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न पूजा पाठ सग्रह
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लाख चौरासी हजार सत्यानवें तेइस ऊरध लोक बखानो । एकेक में प्रतिमा शत आठ नमीं तिहुं जोग त्रिकाल सयानो || ॐ हो रुत्रिमाकृत्रिमचैत्यालय सब घिजिनबिम्बे योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।
वर्षे वर्षान्तर- पर्वते । नन्दीश्वरे यानि च मन्दरेषु । यावति चत्यायतनानि लोके सर्वाणि वंदे जिन पुगवानां ॥२॥ अवनि-तल-गतानां कृत्रिमाकृत्रिमाणां वन-भवन गतानां दिव्य- वैमानिकानां ॥ इह मनुज - कृतानां देवराजार्चितानां । जिनवर - निलयानां भावतोऽहं स्मरामि ॥ ३ ॥ जंबू- धातकि- पुष्करार्ध-वसुधा क्षेत्र-त्रये ये भवाश्चन्द्रांभोज - शिखंडिकण्ठ-कनक प्रावृङ्घनाभाजिनाः ॥ सम्यज्ञान- चरित्रलक्षण धरा दग्धाष्टकर्मेन्धनाः । भूतानागत- वर्तमानसमये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ॥ ४ ॥ श्रीमन्मेरौ कुलाद्रौ रजतगिरि बरे शाल्मली जंववृक्षे । वक्षारे चैत्यवृक्षे रतिकर - रुचिके कुण्डले मानुषांके । इष्वाकारेऽञ्जनाद्रौ दधिमुख शिखरे व्यंतरे स्वर्गलोके ज्योतिर्लोकेऽभिवंदे भवन - महितले यानि चैत्यालयानि ॥ ५ ॥ द्वौ कुंदेंदु - तुषार-हार-धवलौ द्वाविंद्रनील प्रभौ द्वौ वंधूक - समप्रभौ जिनवृषौ द्वौ च प्रियंगुप्रभो । शेषाः षोड़श जन्म-मृत्यु-रहिताः संतप्त - हेमप्रभा-स्ते संज्ञान - दिवाकराः सुर-नुताः सिद्धिं प्रयच्छंतु नः ॥ ६ ॥
ॐ ह्रीं त्रिलोकसवधि कृत्याकृत्रिमचैत्यालयेभ्योऽर्घ निर्वपामीति स्वाहा । इच्छामि भंते । चेहयभक्ति- काउसग्गो कओ तस्सालोचेउं अहलोय - तिरियलोय- उड्ढलोयम्मि किट्टिमा किट्टिमाणि जाणि जिणचेइयाणि ताणि सव्वाणि, तीसु बि लोपसु भवणवासिय
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जैन पूजा पाठ मग्रह
वाणवितरजोइसियकप्पवासियत्ति चउविहा देवाः सपरिवारा दिवेणगंधेण दिव्वेण पुफ्फेण दिव्वेण धुन्वेण दिन्वेण चुण्णेण दिव्वेण वासेण दिन्वेण राणेण णिच्चकालं अच्चंति पुज्जंति वंदंति णमस्संति । अहमवि इह सन्तो तत्थसंताइ णिच्चकालं अच्चेमि पुज्जेमि चन्दामि णमस्सामि। दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसम्पत्ती होउ मज्झं ।। अथ पौलिक-माध्याह्निक-आपराह्निक देववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थ भावपूजावंदनास्तवससेतं श्रीपंचमहागुरुभक्ति कायोत्सर्ग करोम्यहम् ।
इत्याशीर्वाद पुष्पाजलि क्षिपेत् । ताव कायं पावकम्मं दुचरियं वोस्लरामि । णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णलो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहणं । (यहाँ पर नौ बार णमोकार मत्र जपना चाहिये)
आत्मशक्ति - जो कुछ है सो आत्मा में, यदि वहा नहीं तो कहीं नहीं। - आत्मा अनन्त ज्ञान का पात्र है और अनन्त सुख का धारी है
परन्तु हम अपनी अज्ञानतावश दुर्दशा के पात्र बन रहे हैं। - आत्मा ही आत्मा का गुरू है और आत्मा ही उसका शत्रु है । - अन्तरग की बलवता हो श्रेयोमार्ग की जननी है।
-'वर्णी वाणी' से
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सिद्ध पूजा भाषा PLE नमामि विरा। नाव र कर स
कता ला ॥ चार 45. Or मा िोग बताये।
महमद जवनमारकी मिना
मिय।
।
r" .. : 1 :'-try : .... - ! 72*1 3. नत लायन गाव । मा मिशन को सुनाय, दात ॥ समय सुनयका आन, या गुन गावत ।। प. प्रोमिल, निराशन ॥२॥ Pt. ! ! - r Ansar.' : ' ? ....... ।
का न दर मार, चन्टन सुखकारी। पाशीसिन्द किार. मानन्द मनधारी॥ म लोमालीका प्रकारा, वयल शान लग्यो । यान सुगण मनमास, निजरस माहि पायो ।॥ २॥ । Arrarter
:
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जेन पूजा पाठ सह
धोय
धरे ।
भरे ॥
मुक्ताफल की उनहार, अक्षत अक्षय पद प्रापति जान, पुण्य भण्डार जग में सु पदारथ सार, ते सब दरसावै । सो सम्यग्दर्शन सार, यह गुण मन भावै ॥ ३ ॥ हो णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ सुन्दर सु गुलाब अनूप, फूल अनेक कहे । श्री सिद्धन पूजत भूप, बहुविधि पुण्य लहे ॥ तहां वीर्य अनन्तो सार, यह गुण मनमानी । ससार समुद्रतै पार, तारक प्रभु जानो ॥ ४ ॥ ॐ ह्री रामो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥ फेनी गोजा पकवान, मोदक सरस बने । पूजौ श्री सिद्ध महानू, भूखविथा जु हने ॥ झलके सब एक हिवार, ज्ञेय कहे जितने । यह सूक्षमता गुण सार, सिद्धन के सु तने ॥ ५ ॥ * ही गमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठि यो सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥
दीपक की ज्योति जगाय, सिद्धन को पूजो । करि आत सनमुख जाय, निरमल पद हूजो ॥ कुछ घाटि न वाढि प्रमाण, गुरुलघु गुण राख्यो । हम शोस नवावत आय, तुम गुण मुख भाखो ॥ ६ ॥ हो गमो सिद्धाण सिद्वपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकार विनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥६
૪
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Armer
वरधूप सु दाविधि ल्याय, दश विधि गन्ध धरै। वसु कम लावत जाय, मानो नत्य करें। इक सिद्ध में सिद्ध अनन्त, सता पब पावै।
यह अवगाहन गुरा सन्त, सिस्न के गावै ॥ ७ ॥ 21 hat arrairy farmik aron
ले फल उत्कृष्ट हान, पिद्धन को पूजौ । लहि मोक्ष परम गुरा धाम, प्रभुसम नहिं दूजों ।। यह गुण वाधाकरि होन, बाधा नाश भई। सुख अव्यावाध चीन, शिव सुन्दरी सु लई॥८॥
rrir m an fruit Farmins जल फल मार कश्चन थाल, परचन कर जोरी। प्रभु सुनियो दीनदयाल, विनती है मोगे॥ कामादिक दुष्ट मान. इनको दूर करो।
तुम सिद्धसदा सुवदान, ५व भव दुःख हरो॥६॥ PR-1- Man Entय मति स्यारा॥
जयमालदार नमो सिद्ध परमात्मा, अन्दुत परम रसाल । तिन गुण महिमा अगम है, सरस रची जयमाल ।
परि छन्। जय जय श्री सिद्धन का प्रणाम, जय गिव मुग्प सागर के सुधान । जय अलि बलि जात सुरेग जान, जय पूजत तन मन हर्प ठान ।।
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जैन पूजा पाठ मह
जय क्षायिक गुण सम्यक्त्व लीन, जय केवलज्ञान सुगुण नवीन । जय लोकालोक प्रकाशवान, यह केवल अतिशय हिये जान ॥ जय सर्व तत्त्व दरसे महान, सो दर्शन गुण तोजो महान । जय वीर्य अनन्तो है अपार, जाकी पटतर दूजो न सार ॥ जय सूक्षमता गुण हिये धार, सव ज्ञेय लल्यो एकहि तुवार | इक सिद्ध मे सिद्ध अनन्त जान, अपनी-अपनी सत्ता प्रमाण ॥ अवगाहन गुण अतिशय विशाल, तिनके पद वन्दे नमित भाल | कछु घाटि न बाधि हे प्रमाण, गुण अगुरु लघु धारै महान || जय वाघा रहित विराजमान, सो अव्यावाघ को बखान | ये वसुगुण है व्यवहार सन्त, निश्चय जिनवर भाषे अनन्त ॥ सब सिद्धति के गुण कहे गाय, इन गुणकरि शोभित है जिनाय । तिनको भविजन मनवचन काय, पूजत वसु विधि अति हर्ष लाय ॥ सुरपति फणति चकी महान, बलि हरि प्रतिहरि मनमथ सुजान । गणपति मुनिति मिल धरत ध्यान, जय सिद्ध विरोगनिगन्धान ॥ सोरा ।
ऐसे सिद्ध महान तुम गुण नहिमा अगम है । वरण कर्यो बखान, तुच्छ बुद्धि भवि लाल ॥
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ॐ ह्री रामा सिद्धान विपरमेष्ठिभ्यो महार्घं निर्वपामीति स्वाहा । नेह
करता की यह विनती, सुनो सिद्ध भगवान । मोहि बुलाओ आप ढिग, यही अरज उर आन ॥ इत्याशीर्वाद ।
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मन पूरा पाठ या
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सिद्ध पूजा ऊनांधोरयुतं सबिंदु सपरं नहास्यरावेष्टितं वर्गापूरित-दिग्गतांचज-दलं नलंधि-तच्चान्वितं । अन्तःपन - वटंबनाहतयुतं होकार - संवेष्टितं
देवं पायति यः न मुक्ति-सुभगो बैगभ-कंठीरवः । *ainme: rkcEETIR मीन् । Pौशिक्षuri ar!ि
: ineera :RATRA नि मर गय यपढ़ । निरस्त कर्म-संबंधं, सूक्ष्म निन्यं निरामयम् । चन्देऽहं परमात्मानममूर्तमनुपद्रवम् ॥१॥
(मिस यम म्यापनम् )
द्रव्याप्टफ। सिदी निवानमनुगं परमात्मगम्यं हान्यादि-भाव-रहितं भव-धीत-कायं। रेवापगा-पर-सरो-यमुनांद्रयानां, नीरयंजकलगगर-सिद्ध-चक्रं ॥२॥
ही निकाभिनय मिस मेष्टिन समारामाणिनागनाय जला। आनंद-फंद-जनकंघन-कम-मुक्त, सम्यक्त्व-शर्म-गरिमंजननार्ति-वीत। सौरम्प-वामित-भुवं हरि-चंदनानां, गंधर्यज परिमलबर-सिद्धचकम् ॥२॥
ही सिमाभिपतये मिपग्मेटिने समारनापपिनागनाय चन्दनम् ।। मर्वारगाहन-गुणं सुसमाधि-निष्ठं, सिद्ध स्वरूप-निपुणं कमलं विशालं। मौगंध्य-शालि-बनशालि-बराक्षतानांपंजर्य शशिनिभरसिद्धचक्रम्॥३
ही मिलसमाधिरन गिझपरमेष्टिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षनान् ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
नित्य स्वदेह-परिमाणमनादिसंश, द्रव्यानपेक्षममृतं मरणाद्यतीतम् । मन्दारकुन्दकमलादिवनस्पतीनां, पुष्पैर्यजे शुभतमैत्ररसिद्धचक्रम् ॥४॥ ॐ ही सिद्धचकाधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामवाणविध्वसनाय पुप्प० । ऊर्ध्वस्वभावगमनं सुमनोव्यपेतं । ब्रनादिवीजसहित गगनावभासम् ।। क्षीरान्नसाज्यवटकै रसपूर्णगर्भनित्यं यजे चरुवर्वर सिद्धचक्रम् ।। ॐ हीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य । आतंक-शोक-भय-रोग-मद-प्रशांतं - निभावधरणं महिलानिदेशं । कर्पूरवर्तिबहुभिः कनकावदातैदीपैर्यजे रुचिवरैर्वरसिद्धचक्रम् ॥६॥ ॐ ही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहान्धकारविनाशनाय दीप । पश्यन्समस्तभुवनं युगपन्नितांतं । त्रैकाल्यवस्तुविषये निविड़-प्रदीपम् । सद्रव्यगंधधनसारविमिश्रितानां । धूपैर्यजे परिमलैर्वरसिद्धचक्रम् ॥७॥ ॐ हीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिनेऽष्टकर्मदहनाय धूप। सिद्धासुराधिपतियक्षनरेंद्रचक्र ध्येयं शिवं सकलभन्यजनैः सुवंद्य । नारगिपूंगकदलीफलनारिकेलैः सोऽहं यजे वरफलैर्वरसिद्धचक्रम् ॥८॥ ॐ हीं सिद्धचकाधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फल । गन्धाब्यं सुपयो मधुव्रतगणैः संगं वरं चन्दनं ।
पुष्पौधं विमलं सदक्षतचयं रम्यं चरुं दीपकं ।। धूपं गंधयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये ।
सिद्धानां युगपत्नमाय विमलं सेनोचरं वांछितं ॥ ॐ हीं सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिनेऽर्ष निर्वपामीति स्वाहा ।
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चन पूजा पाठ सह
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जयमाला।
ज्ञानोपयोगविमलं विशदात्मरूपं । सूक्ष्मस्वभावपरमं यदनंतवीर्य । कर्मीषकक्षदहनं मुखशस्यवीजं । वन्दे सदा निरुपमं वरसिद्धचक्रम् ॥१०॥
छमाष्टर विनिर्मुकं मोहालक्ष्मी-निकेतनम् ।
___ सम्यस्त्यादि-गुणोपेत सिसबक नमाम्यहम् ॥ ही निशनकाधिपतये मिलपरमेष्टिने महापं निपंपामोति स्वाहा । त्रैलोक्येश्वर-वन्दनीय-चरणाः प्रापुः श्रियं शाश्वती
यानाराध्य निरुद्ध-चण्ड-मनसः संतोऽपि तीर्थकराः। मत्सम्यक्त्व-वियोध-वीर्य-विशदाऽज्यावाधताय गणयुक्तां स्तानिह तोप्टवीमि सतत सिद्धान्धिशुद्धोदयान।।
पुष्पांजलि सिपेन। विराग मनातन शांतनिरंश निरामय निर्भय निर्मल हंस । सुधाम वियोध-निधान विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥१॥ विद्रित-समृति-भाव निरंग, समामृत पूरित देव विसंग। अवध कपाय-विहीन विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुमिद्धसमूह ॥२॥ निवारित दुष्कृत कर्म विपाश, सदामल-केवल-केलि-निवास । भवोदधिपारग शांत विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध समूह ॥३॥ अनन्तसुखामृतसागर धीर, कलंकरजोमलभूरिसमीर । विखंडितकाम विराम विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥४॥ विकार विवर्जित तर्जित शोक, विवोध सुनेत्रविलोकित लोक । विहार विराव विरग विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥२॥ रजोमलवंदविमुक्त विगात्र, निरन्तर नित्य सुखामृतपात्र । मुदर्शनराजित नाथ विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥६॥
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५२
जैन पूजा पाठ सप्रह
नरामरवंदित निर्मल भाव, अनन्तमुनीश्वरपूज्य विहार । सदोदय विश्वमहेश विमोह, प्रसीद, विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥७॥ चिदंभ वितृष्ण विदोष विनिद्र, परापर शंकरसार वितिंद्र । विकोप विरूप विशंक विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥८॥ जरामरणोज्झित वीतविहार विचिंतित निर्मल निरहंकार । अचिंत्यचरित्र विदर्प विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥६॥ विवर्ण विगंध विमान विलोभ, विमाप विकाय विशब्द विशोभ । अनाकुल केवल सर्व विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह ॥१०॥ पत्ता- असमयसमयसारं चारुचैतन्यचिन्हं,
परपरणतिमुक्तं पद्मनंदीन्द्रवंद्य । निखिलगुणनिकेतं सिद्धचक्रं विशुद्ध,
स्मरति नमति यो वा स्तौति सोऽभ्येति मुक्तिं ॥ ॐ ही सिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने महाघु निर्वपामीति स्वाहा ।
अडिल्ल छन्द। अविनाशी अविकार परमरसधाम हो ।
__समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो। शुद्धबुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत हो।
जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो ॥१॥ ध्यान अगनिकर कर्म कलंक सबै दहे,
नित्य निरञ्जनदेव सरूपी हैरहे।
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सेन पूजा पाठ सप्रह
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ज्ञायकके आकार ममत्व निवारिक,
सो परमातम सिद्ध नमूं शिरनायकै ॥२॥
सवैया ध्यान हुताशनमें अरि ईधन झोंक दियो रिपु रोक निवारी। शोक हस्यो भविलोकनको वर केवलज्ञान मयूख उपारी॥ लोक अलोक विलोक भये शिव जन्म जरामृत पक्ष पखारी। सिद्धन थोक बस शिव लोक तिन्हें पग धोक त्रिकाल हमारी॥. तीरय नाथ प्रनाम करें तिनके गुण वर्णन मैं युधि हारी। मोम गयो गलि मूसमझार रखो तहं व्योम तदाकृति धारी। लोक गहीर नदीपति नीर गये तरि तीर भये अविकारी। सिद्धन थोक बस शिव लोक तिन्हें पगधोक त्रिकाल हमारी ॥ दोहा-अविचलज्ञान प्रकाशतें, गुण अनन्तकी खान ।
ध्यान धरै सो पाइये, परमसिद्ध भगवान ॥ अविनाशी आनन्दमय, गुण पूरण भगवान । शक्ति हिये परमात्मा, सकल पदारथ ज्ञान ।। चारों करम विनाशिके, उपज्यो केवल ज्ञान । इन्द्र आय स्तुति करी, पहुँचे शिवपुर थान ॥
इत्याशीर्वाद पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
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जेन पूजा पाठ सग्रह
सिद्ध पूजा का भावाष्टक निजमनोमणिभाजनभारया, समरसैकसुधारसधारया।
सकल वोधकलारमणीयकं सहजसिद्धमहं परिपूजये ।। मोय तृषा दुःख देत, लो तुमने जीती प्रभू ।
जलसे पूजूं मैं तोय,मेरो रोग निवारियो । ॐ ही णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिने ( सम्पत्त, णाग दसण वीर्यत्व, मुहमक्त भवगाहनत्व, अगुरुलघुत्व, अव्यावाधत्व अष्टगुण सहिताय ) जन्मजरामृत्यु पिनारानाय पल निर्वपामीति स्वाहा । सहजकर्मकलंकविनाशनै रमलभावसुवासितचन्दनः ।
__अनुपमानगुणावलिनायक, सहजसिद्धमह परिपूजये ।। हम अव आतप मांहि, तुम न्यारे संसारतूं। कोज्यो शीतल छांह, चन्दनसे पूजा करूं ॥ चन्दनं ॥ सहजभावसुनिर्मलतंदुलैः सकल दोषविशालविशोधनैः।
अनुपरोध सुबोध निधानलं, सहजसिद्धमह परिपूजये । हल अवगुण लमुदाय, तुम अक्षय गुणके भरे। पूजू अक्षत लाय, दोष नाश गुण कीजिये ॥ अक्षतं ॥ समयसारसुपुष्पसुमालया, सहजकर्मकरेण विशोधया।
__ परमयोगवलेन वशीकृतं, सहजसिद्धमहं परिपूजये ॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
काम अभि है मोहि, निश्चय शील स्वभाव तुम । फूल चढ़ाऊँ तोहि, मेरो रोग निवारियो ॥ पुष्पं० ॥ अकृतबोधसुदिव्यनैवेद्यकैर्विहितजातिजरामरणांतकैः ।
निरवधिप्रचुरात्मगुणालय, सहज सिद्धमह परिपूजये | मोहि क्षुधा दुख भूरि ध्यान खड्ग करि तुम हती । मेरी वाधा चूर, नेवज से पूजा करूं ॥ नैवेद्य ० ॥ सहजरत्त्ररुचिप्रतिदीपकैः, रुचिविभूतितमः प्रविनाशनैः ।
निरवधिस्त्र विकाशप्रकाशनैः, सहजसिद्धमहं परिपूजये ॥ मोह तिमिर हम पास, तुम पै चेतन ज्योति है । पूजों दीप प्रकाश, मेरो तम निरवारियो ॥ दीपं० ॥ निजगुणाक्षयरूपसुधूपनैः स्वगुणघातिमलप्रविनाशनैः ।
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विशदबोधसुदीर्घसुखात्मक, सहजसिद्ध मह परिपूजये ॥ अष्टकर्मवन जार, मुक्ति मांहि तुम सुख करो । खेऊँ धूप रसाल, अष्ट कर्म निरवारियो ॥ धूपं० ॥ परमभावफलावलिसम्पदा, सहजभावकुभावविशोधया ।
निजगुणास्फुरणात्मनिरजन, सहजसिद्धमह परिपूजये ॥ अन्तराय दुःख टाल, तुम अनन्त थिरता लही । पूजूं फल दरशाय, विघ्न टाल शिवफल करो ॥ फलं० ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
नेत्रोन्मीलिविकाशभावनिवहैरत्यन्तवोधाय वै।
वार्गधाक्षतपुष्पदामचरुकैः सद्दीपधूपः फलैः॥ यश्चितामणिशुद्धभावपरमज्ञानात्मकरर्चयेत् ।
सिद्ध स्वादुमगाधबोधमचल सञ्चर्चयामोवयम् ॥६॥ हममें आठों दोष, जजहुं अर्थ ले सिद्धजी। दीज्यो वसु गुण मोय, कर जोड़े सेवक खड़ो ॥ अर्घ० ॥
तीस चोबीसका अर्घ द्रव्य आठों जु लीना है, अर्घ करने नवीना है। पूजते पाप छीना है, भालुमल जोर कीना है। दीप अढाई लरस राजै, क्षेत्र दश ता विषै छाजै । सात शत बीस जिन राजै, पूजतां पाप सब आजै॥ ॐ ही पाच भरत पांच ऐरावत दश क्षेत्रके विर्षे तीस चौवीमीके सातमी वीस जिन विम्वेभ्योऽर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
सोलह कारण का अर्घ जल फल आठोंद्रव्य चढ़ाय,'धानत' बरत करो मनलाय ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो॥ दरश विशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थकर पद पाय ।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो॥१॥ ॐ ही दर्शनविशुद्धि, पिनयसम्पन्नता, शीलवतेष्वनतीचार, अभीक्ष्ण्णज्ञानोपयोग, स वेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अरहतभक्ति, भाचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यकापरिहाणि, मार्गप्रभावना, प्रवचन वात्सल्य पोइस. कारणेभ्यो अनपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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ना पाठ छठ
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पंचमेरू का अघ
आठ दरवमय अर्घ बनाय. यानत पूजों श्रीजिनराय । महा सुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥ पांचों मेरु असी जिन धाम, सत्र प्रतिमाको करों प्रणाम । महासुख होय. देखे नाथ परम सुख होय ॥
हो पंचमी निवैयात्यन्य-निकिन्यो भयं । नन्दीश्वरद्वीप का अर्घ
यह अरघ कियो निज हेतु तुमको अरपतु हों । यानत कोनों शिव खेत भूमि समरपतु हों ॥ नन्दीश्वर श्रीजिनधाम घावन पुंज करों । वसु दिन प्रतिमा अभिराम आनन्दभाव घरों ॥ ३ ॥
ही भी पूर्ण दक्षिणपश्चिमोत्तरं दिवचानजिनालयस्थ जिनप्रतिमाम्यो अननिरानीति स्वाहा ।
दशलक्षण धर्म का अर्ध आठों द्रव्य संवार, द्यानत अधिक उछाह सों । भव आताप निवार, दशलक्षण पूजों सदा ॥ ४ ॥
टीम माव, भार्जव, मल, शौच, सयम, तप, त्याग, आकिंचन, ब्रह्मचर्य यो निर्वपामीति स्वाहा। स्त्वत्रय का अर्थ
आठ दरव निरधार, उत्तमसों उत्तम लिये | जन्म रोग निरवार, सम्यकरतनत्रय भजों ॥ ५ ॥ ॐ अष्टांग सम्यग्दर्शनाय अष्टविभसम्यग्ज्ञानाय, श्रयोदशप्रकारसम्यक चारित्रायऽपं ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
___ पंचमेरु पूजा तीर्थंकरोंके न्हवन-जलतें, भये तीरथ शर्मदा । तातै प्रदच्छन देत सुरगन, पंचमेरुन की सदा ।।
दो जलधि ढाई द्वीपमें, सब गनत-मूल विराजहीं। पूजौ अली जिनधाम-प्रतिसा, होहिं सुखदुख भाजहीं । ॐ हीं पचमेरुसम्वन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐ हीं पचमेरुसम्बन्धिजिनचेत्यालयस्यजिनप्रतिमासमूह ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ हीं पचमेस्सन्धिजिनदैत्यालयस्थजिनप्रतिमासमूह ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
अथाष्टक । चौपाई आंचलीवद्ध (१५ मात्रा) शीतलमिष्ट सुवाल मिलाय, जलसौं पूजौं श्रीजिनराय। महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों मेरु असी जिनधाम, सब प्रतिमाको करों प्रणाम । महासुख होय, देखे नाथ परम सुख होय ॥१॥ ॐ हीं पचमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्यजिनबिम्बेभ्यो जल निर्वपामीति स्वाहा ।। जल केशर करपूर मिलाय, गंधसों पूजौं श्रीजिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों॥२॥ ॐ ही पचमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनविम्वेभ्यो चन्दन निर्वपामीति स्वाहा । अमल अखंड सुगंध सुहाय, अच्छतसौं पूजौं जिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों॥३॥ ॐ हीं पचमेन्मन्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनविम्बेभ्यो अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
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जन पूजा पाठ साह
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बरन अनेक रहे महकाय, फूलनसौं पूजौं जिनराय । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचों॥४॥ ॐ ही पचमेस्सम्बन्धिजिनचैत्यालयस्यजिननिभ्वेभ्यो पुष्प निर्वपामीति स्वाहा। मनवांछित बहु तुरत बनाय, चरुसौं पूजौं श्रीजिनराया महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥पांचों ॥५॥ ॐ ही पंचमेश्मन्सन्धिजिनचैत्यालयस्यजिनविम्बेभ्यो नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा । तमहर उज्ज्वल ज्योति जगाय,दीपसौं पूजौं श्रीजिनराया महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥पांचों ॥६॥ ॐ हीं पचमेरुसम्यन्विधिनयंत्यालयस्पजिनयिम्वेभ्यो दीप निर्वपामीति स्वाहा । खेऊ अगर अमल अधिकाय, धूपसौ पूजौं श्रीजिनराया । महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥पांचों०॥७॥
ही पचमेरुसम्बन्धिजिनचैन्यालयस्यजिनविन्येभ्यो धूप निर्वपामीति स्वाहा । सुरस सुवर्ण सुगंध लुभाय, फलसौं पूजौं श्रीजिनराय ।। महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय ॥ पांचो० ॥ ॐ ही पचमेरुसम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थजिनयिम्वेभ्यो फल निर्वपामोति म्याहा । आठ दरवमय अरघ बनाय, 'द्यानत' पूजौं श्रीजिनराय। महासुख होय, देखे नाथ परमसुख होय॥पांचों०॥ ही पंचमेलम्पन्धिजिनचैत्यालयस्यजिमविम्वेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजा पाठ संग्रह
प्रथम सुदर्शन-स्वामि, विजय अचल मंदर कहा। विद्युन्माली नाम, पंचमेरु जगमें प्रगट ॥१॥
वेसरी छन्द। प्रथम सुदर्शन मेरु विराजे, भद्रशालवन भूपर छाजें
चैत्यालय चारों सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥२॥ ऊपर पांच शतक पर सोहै, नंदनवन देखत मन मोहै ।। चैत्या ॥३॥ साढे बासठ सहस ऊंचाई, वनसुमनस शोभे अधिकाई ।। चैत्या०॥४॥ ऊँचा जोजन सहस छचीसं, पांडुकवन सोहै गिरिसीसं ॥ चैत्या०॥शा चारों मेरु समान वखानो, भूपर भद्रसाल चहुँ जानो। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन चंदना हमारी ॥६॥ ऊंचे पांच शतक पर भाखे, चारों नन्दनवन अभिलाखे । चैत्यालय सोलह सुखकारी, मनवचतन वदना हमारी ॥७॥ साढे पचपन सहस उतगा, वन सौमनस चार बहुरगा। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन बन्दना हमारी ||८|| उच्च अट्ठाइस सहस बताये, पांडुक चारों चन शुभ गाये। चैत्यालय सोलह सुखकारी, मन वच तन बन्दना हमारी ॥६॥ सुर नर चारन वन्दन आर्वे, सो शोभा हम किह मुख गा। चैत्यालय अस्सी सुखकारी, मन वच तन वन्दना हमारी ॥१०॥ दोहा-पञ्चमेरुकी आरती पढ़े सुनै जो कोय।। यानत' फल जानें प्रभू, तुरत महासुख होय ॥ ११ ॥ ॐ हीं पचमेस्सम्बन्धिजिनचैत्यालयस्थगिनबिम्बेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।
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मेर पुजा पाठ
नन्दीश्वरद्वीप पूजा अडिल्ल-सरव पर्वमें बड़ो अठाई परव है।
नन्दीश्वर सुर जांहिं लिये वसु दरक है। हमैं सकति सो नाहि इहां करि थापना ।
पूजौं जिन गृह प्रतिमा है हित आपना ॥१॥ ही धी नदीमा पिग्निानागमसिंगा मसूल ! अन अवतार भातर सो समिन्निहितो भय भप गपट् ।
कंचन-मणि-मय-भृतार, तीरथ नीर भरा। तिहुँ धार दई निरवार, जामन मरन जरा ॥ नन्दीश्वर-श्रीजिन-धाम, वावन पुंज करों।
वसुदिन प्रतिमा अभिराम, आनंद-भाव धरों ।। जही नदीप पदगिरिमोतरे द्विपंचागजिनालयस्यजिन प्रतिमाभ्यो गन्ननगर उधिनागनाय नपानानि ग्यादा । ॥ १॥ भव तप हर शीतल वास, लो चन्दन नाहीं। प्रभु यह गुन कीजे सांच, आयो तुम ठाहीं ॥ नंदी०॥२॥
श्री नन्दीपर ही पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे निपचाराग्जिनालयस्यजिनप्रतिमाभ्यो संसारनापमिन्नगलाय चन्दनं निर्यपामीति स्पा ॥२॥
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६.
जैन पूजा पाठ सग्रह
उत्तम अक्षत जिनराज, पुंज धरे सोहै। सब जीते अक्ष-समाज, तुम सम अरुको है।। नंदी०॥३॥ ॐ हीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमानोअक्षय पदप्राप्तये अक्षत निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ तुम काम विनाशक देव, ध्याऊं फूलन सौं। लहि शील लक्ष्मी एव, छद्रं सूलन सौं । नंदी०॥४॥' ॐ ही श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ नेवज इन्द्रिय-बलकार, सो तुमने चूरा । चरु तुम ढिग सोहै सार, अचरज है पूरा ॥नंदी०॥५॥ ॐ हीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निवपामीति स्वाहा ॥ ५॥ दीपक की ज्योति-प्रकाश, तुम तन मांहिं लसै। टूटै करमनकी राश, ज्ञानकणी दरसै ।। नंदी० ॥६॥ ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपै पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाराजिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपानीति स्वाहा ॥ ६ ॥ कृष्णागरु-धूप-सुवाल, दश-दिशि नारि वरै। अति हरष-भाव परकाश, मानो नृत्य करै ।। नंदी० ॥७॥ ॐ हीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाशज्जिनालयस्थजिनप्रतिमाग्यो अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
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जैन पूजापाठ
वहुविधिफल ले तिहुँकाल, आनन्द रावत हैं । तुम शिवफल देहु दयाल, तुहि हम जाचत है ॥ नंदी० ॥८॥
ॐ ही श्री नन्दोपको पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाश ज्जिनालयस्य जिनप्रतिमाभ्यो गोपनिपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
यह अर्ध कियो निज-हेत, तुमको अरपतु हों । 'धानत' कीजो शिवखेत, भूमि समरपतु हों ॥ नंदी० ॥ ॥
દર્
ॐ ही भी नन्दीश्वर द्वीपे पूर्वदक्षिणपश्मिनां द्विवाज्जिनानयम्य जिनप्रतिमाभ्यो निर्वपामीति ।
जयमाला.
दोहा - कार्तिक फागुन साढ़के, अन्त आठ दिनमाहिं । नन्दीश्वर सुर जात हैं, हम पूजें इह ठाहिं ॥१॥
छन्द
एक मौसठ फोडि जोजन महा । लाख चौरासिया एक दिशमे लहा ॥ आठ द्वीप नन्दीश्वर भारवर । भौन यावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं ॥ चारदिशि चारअल गिरि राजही । महम चौरासिया एक दिश छाजहीं ॥ ढोलनम गोल ऊपर तले सुन्दर । भौन चावन्न प्रतिमा नमों सुखकरं || एक इक चारदिशि चार शुभ बावरी । एक इक लाग जोजन अमल जल भरी ॥, चहुँ दिशा चार वन लास लोजन वर । भौन बावन्न प्रतिमा नमो सुसकर || मोल वापीन मधि मोलगिरि दधिमुस । सहस दश महा जोजन लगत ही सुख ॥ बावरी दोन दोमांहि दो रतिकर । भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकर || शैल बत्तीस एक सहस जोजन कहे। चार सोलें मिलें सर्व बावन लहे || एक इक सीस पर एक जिनमंदिर। भौन वावन्न प्रतिमा नमों सुखकर ॥
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नेन पूजा पाठ सह
बिंब अठ एक सौ रतनमयि सोहही । देव देवी सरव नयन मन मोहही ॥ पाचसै धनुष तन पद्मआसन परं । भौन बावन्न प्रतिमा नमों सुखकर ॥ लालनख मुख नयन श्याम अरु श्वेत हैं। श्याम रंग मोह सिर केश छवि देत हैं । बचन बोलत मनो हसत कालुष हर । भौन बावन्न प्रतिमा नमो सुखकरं ॥ कोटिशशि भानुदुति तेज छिप जात है । महावैराग परिणाम ठहरात है ॥ वयन नहिं क लखि होत सम्यक् धरं । भौन बाचन्न प्रतिमा नमों सुखकर ॥ सोरठा - नंदीश्वर जिनधाम, प्रतिमा महिमा को कहै । 'धानत' लीनो नाम, यह भगति शिव सुखकरै ॥ १०॥
ॐ ह्रीं श्री नन्दीश्वरद्वीपे पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरे द्विपचाराज्जिनालय स्यदिनप्रतिमान्वो पूर्णाघं निर्वपामीति स्वाहा ।
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आत्म-विश्वास
■ "मुझ से क्या हो सकता है ? मैं क्या कर सकता हूँ ? मैं असमर्थ हूँ, दीन-हीन हूँ ऐसे कुत्सित विचारवाले मनुष्य आत्म-विश्वास के अभाव में कदापि सफल नहीं हो सकते ।
■ जिस मनुष्य में आत्म-विश्वास नहीं, वह 'मनुष्य' कहलाने का अधिकारी नहीं ।
■ जिन्हें अपने आत्मबल पर विश्वास नहीं, उन्हें ससार सागर की तो बात जाने दो, गाँव की मेंढ़क तरण-तलैया भी भारी है ।
-'वर्णी वाणी' से
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सोलहकारण पूजा अडिल्ल-सोलहकारण भाय तीर्थकर जे भये।
हरपे इन्द्र अपार मेरुपे ले गये। पृजा करि निज धन्य लख्योबहु चावसों।
हम पोड़श कारण भावें भावसौं ॥१॥ ॐtatinAmATA पोपट । B rgदिपोटगार! Ifm3. स्थापन ।
पोटार MRP REritreat मा नत पाट् । कंचन-झारी निरसल नीर. पूजों जिनवर गुण गंभीर । परम गुरु हो. जय जय नाथ परम गुरु हो॥ दरश विशुद्धि भावना भाय. सोलह तीर्थकर पददाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥१॥
नधि पापियो गुभिनागनाय .. ॥१॥ चंदन घसों कपूर मिलाय, पूर्जी श्रीजिनवरके पाय । परम गुम हो, जय जय नाथ परम गुरु हो दरश॥२॥ तदन
न्यौगार विनय चन्दन ॥२॥ तंदल धवल सुगंध अनृप, पूजों जिनवर तिहुँ जगभूप । परम गुरु हो. जय जय नाथ परम गुरु हो ॥दरश०॥३॥
ही नपियापागाणेभ्यो भायपरसाप्तय माग ३ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
फूल सुगंध मधुप-गुंजार, पूजौं जिनवर जग-आधार । पर गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो दरश०॥४॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो कानवाणविध्वसनाय पुष्प० ॥ ४ ॥ सद नेवज वहुविधि पकवान, पूजों श्रीजिनभर गुणलान । परम गुरु हो, जय जय लाथ परम गुरु हो गदरस॥५॥ * ही दर्शनविशुद्धयादिपोडगकारणेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य० ॥ ५ ॥ दीपक-ज्योति तिलिर क्षयकार, पजं श्रीजिनकेन्लधार । परम गुरु हो, जय जय नाय परम गुरु हो ॥दरश०॥६॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप० ॥६॥ अगर कपूर गंध शुभ लेय, श्रीजिनवर आगे महकेय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु होदिक्षा॥७॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिपोडगकारणेभ्यो अष्टम दहनाय धूप० ॥ ७ ॥ श्रीफल आदि बहुत फललार, पूजौं जिन वाँछित-दातार । परम गुरु हो, जय जय नाय परज शुरु हो ॥दरश०॥८॥ ॐ ह्रीं दनिविशुद्वयादिषोडशकारणेभ्यो मोक्ष फलप्राप्तये फल० ॥८॥ जलफल आठोंदव चढ़ाय, 'द्यालत' बरत करौं बनलाय । परन गुरु हो, जय जय नाथ परन गुरु होदरश०॥ ॐ ही दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो अनर्धपदप्राप्तये अब० ॥ ९ ॥
जयमाला
षोड़श कारण गुण करै, हरे चतुरगति-वाल । पाप पुण्य सब नासके, ज्ञान-सान परकाश ॥१॥
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लेन पूजा पाठ समय
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चौपाई १६ मात्रा |
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दरश विशुद्ध धरे जो कोई । ताको आवागमन न होई । विनय महा धारें जो प्रानी । शिव वनिता की ससी बखानी ॥२॥ शील सदा दिढ़ जो नर पालै । सो औरनकी आपद टालै ॥ ज्ञानाभ्यास करें मनमाही । ताके मोह महातम नाहीं ॥३॥ जो सवेग-भाव विस्तारै । सुरग-मुकति-पद आप निहारै । दान देय मन हरप विशेखं । इह भव जस परभव सुख देखे ॥४॥ जो तप तपै सपे अभिलाषा । चूरे करम-शिसर गुरुभाषा ॥ साधु-समाधि सदा मन लावे । तिहुँ जग भोग भोगि शिव जावै ॥५॥ निनि-दिन वैयावृत्य करेंया । सो निहचे भव-नीर तिरैया ॥ जो अहंत भगति मन आने । सोजन विषय कषाय न जाने ॥६॥ जो आचारज- भगति करै है । सो निर्मल आचार घर है ॥ बहुश्रुतत भगति जो करई । सो नर संपूरन श्रुत धरई ॥७॥ - नगति करै जो ज्ञाता । लहै ज्ञान परमानन्द-दाता ॥ पट आवश्य काल जो साधै । सो ही रत-त्रय आराधे ॥८॥ eta-प्रभाव करें जो ज्ञानी । तिन शिव मारग रीति पिछानी || चलल अड्न सदा जो ध्यावै । सो तिर्थकर पदवी पावै ॥६॥
"
ॐ दर्शनविशुद्धया टिपोटशकरणेभ्य. पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा - एही सोहल भावना, सहित धरै व्रत जोय । देव- इन्द्र-नर- वंद्य-पद, 'द्यानत' शिवपद होय ॥ १० ॥ [ आशीर्वाद ]
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जैन पूजा पाठ सप्रह
दशलक्षण धर्म पूजा अडिल्ल-उत्तम छिया भारदन आरजव भाव हैं।
सत्य शौच संजम तप त्याग उपाय हैं। आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश लार हैं।
चहुँगति-दुखतें कादिसुकति करतार हैं ॥१॥ ॐ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! पत्र अवतर अवतर सौषट् । ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणर्म ! अत्र निष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
सोरठा। हेमाचलकी धार, मुनि-चित्त लल शीतल सुरक्षिा सव-आताप निवार, दस-लक्षण पूजौं सदा ॥१॥ ॐ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षण धर्माय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ चन्दन केशर गार, होय सुवास दशदिशा ॥ भद ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षण धर्माय वन्दन निर्वपानीति स्वाहा ॥ २ ॥ अमल अखंडित सार, तंदुल चन्द्रलमाल शुभ॥ भवः ॐ ही उत्तमक्षमादिदशलक्षण धर्माय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ फूल अनेक प्रकार, सहक अरधलोकलों॥ भवः ॐ हीं उत्तमक्षमादिदशलक्षण धर्माय पुष्प निर्वपामीति सवाहा ॥ ४ ॥
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न पूजा पाठ संग्रह
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नेवज विविध निहार, उत्तम पट-रस- संयुगत ॥ भव०
ॐ ह्रीं उत्तमक्षमादिगण धमाय नैवय निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
वाति कपूर सुधार, दीपक जोति-सुहावनी ॥ भव०
ॐ ही उत्तमक्षमा दिशलक्षण धर्माय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
अगर धूप विस्तार, फैले सर्व सुगन्धता ॥ भव०
ॐ ही उत्तमक्षमा दिवनलक्षण धर्माय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
फलकी जाति अपार, प्राण नयन मनमोहने ॥ भव०
ॐ ही उत्तमक्षमा दशलक्षण धर्माय फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
आठों दरव संवार, 'द्यानत' अधिक उछाहसों ॥ भव०
ही उनमक्षम दिदर लक्षण धर्नाय अपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
अंग पूजा
सोरठा ।
वीडें दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करें । धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजें पीतमा ॥१॥ चौपाई मिश्रित गीता छन्द ।
उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह भव जस, पर-भव सुखदाई । गाली सुनि मन बंद न आनो, कहि है अयानो वस्तु छीन, वर निकारै तन विदारे,
गुनको औगुन बांध मार वैर जोन
कहै अयानो ॥ बहुविधि करै । तहां धरै ॥
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जेन पूजा पाठ सग्रह
तैं करम पूरव किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा । अति क्रोध- अगनि बुझाय प्रानी, साम्यजल ले सीयरा ॥१॥ ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अघं निर्वपामीति स्वाहा ।
मान महाविषरूप, करहिं नीच-गति जगतमें । कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ॥२॥ उत्तम मार्दव-गुन मन माना, मान करनको कौन ठिकाना । बस्यो निगोदमाहितें आया, दमरी रूकन भाग विकाया ॥ रुकन विकाया भागवशर्तें, देव इकइन्द्री भया । उत्तम मुआ चांडाल हुवा, भूप कीड़ों में गया ॥ जीतव्य - जोवन - धन- गुमान, कहा करे नल - बुदबुदा । करि विनय बहु-गुन, बड़े जनकी, ज्ञानका पावै उदा ||२||
ॐ ह्रीं उत्तममादंवधर्माज्ञाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
कपट न कीजै कोय, चोरनके पुरु
सरल सुभावी होय, उत्तम आर्जव - रीति बखानी, मन में होय सो वचन उचरिये, करिये सरल तिहुँजोग अपने, सुख करै जैसा लखे तैसा, नहिं लहे लक्ष्मी अधिक छल करि, अय त्यागि दूध बिलाव पीवै, आपदा
2
ॐ ह्रीं उत्तम आर्जवधर्माङ्गाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
ू
ना बसे ।
घर बहु संपदा ॥३॥ रंचक दगा बहुत दुखदानी | वचन होय सो तनसौं करिये ॥ देख निरमल आरसी । कपट प्रीति अंगारसी ॥
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ताके
करम-बन्ध-विशेषता । नहिं देखता ॥ ३ ॥
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जेन पूजा पाठ सग्रह
कठिन बचन लतिबोल, पर-निन्दा अरु झूठ तज । सांच जवाहर खोल, सतवादी जगमें सुखी ॥३॥ उत्तम सत्य-चरत पालीजै, पर-विश्वासघात नहिं कीजै । सांचे झूठे मानुष देखो, आपन पूत स्वपास न पेखो। पेखो विहायत पुरुष सांचको, दरव सब दीजिये । मुनिराज - श्रावककी प्रतिष्ठा, सांचगुन लख लीजिये ॥ ऊंचे सिंहासन पैठ बसु नृप, घरमका भूपति भया । वस झूठ सेती नरक पहुँचा, सुरगों नारद गया ।। ४ ।। ॐ ही उत्तम सत्य धर्माशाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। धरि हिरदै सन्तोष, करहु तपस्या देहसों । शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में ॥५॥ उत्तम शौच सर्व जग जानो, लोभ पापको बाप बखानो। आशा-पाश महा दुखदानी, सुख पाचै सन्तोषी प्रानी ॥ प्रानी सदा शुचि शील जप तप, ज्ञानध्यान प्रभावत । नित गंग-जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष सुभावते ।। ऊपर अमल मल भयो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहै ।। बहु देह मैली सुगुन - थैली, शौच-गुन साधु लहै || ॐ हीं उतम शौच धर्माशाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा । काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्री सन वश करो। संजम-रतन संभाल, विषयं चोर बहु फिरत हैं ॥६॥
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___ जैन पूजा पाठ सप्रह उत्तम संजन गहु मन मेरे, भव-भक्के भाजें अघ तेरे । सुरग-नरक-पशुगतिमें नाहीं, आलस-हरन करन सुख ठाहीं॥ ठाही पृथ्वी जल आग मारुत, रूस स करुना धरो। सपरसन रसना घ्राण नैना, कान मन सब क्श करौ॥ जिस विना नहिं जिनराज सीझे, तू तलो जग - कीचमें। इक घरी मत सिरो करो नित, आयु जम-मुख पीचमें ॥६॥
ॐ ही उत्तम तयन धमांताप वर्ष निर्वपानीति स्वाहा । लए चाह सुरराय, करल-शिखरको बन हैं। बादश विधि सुखदार. क्यों न करें जिज शक्तिसन ॥७॥ उत्तम तप सव माहिं वखाना, करम-शैल को बज-समाना। दस्यो अनादि-निगोद-महारा, भू-विकलत्रय-पशु-तन धारा ॥ धारा मनुष तन महादुर्लभ, सुजल आव निरोगता। श्रीजैनवानी तत्वज्ञानी, भई विषय - पयोगता ।। अति महादुरलभ त्याग विषय. कषाय जो तप आदरै। नर-भव अनूपम कनक घरपर, मणिमयी कलसा धरै ॥७॥ ॐ ही उत्तम तपो दशलक्षण धर्मानाय पूर्घि निर्वपामीति स्वाहा। दान चार परकार, चार संघको दीजिये। धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिये। उत्तम त्याग करो जग सारा, औषधि शास्त्र अभय आहारा। निहचै राग-द्वष निरकार, ज्ञाता दोनों दान सम्भार ।
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লন খুলা যায় প্রম
दोनों संभारै कूप - जलसम,' दरव घरमें परिनया ।
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया। पनि साध शास्त्र अभय-दिवैया, त्याग राग विरोधकों।
विन दान श्रावक साधु दोनों, लहैं नाहीं वोधकों ॥८॥ ॐ ही उत्तम त्याग धर्माशाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा। परिग्रह चौबिस भेद, त्याग करें सुनिराजजी। तिसनाभाव उछेद, घटती जान घटाइए ॥६॥ उचम आकिंचन गुण जानो, परिग्रह-चिन्ता दुख ही मानो। ____फांस तनकसी तनमें सालै, चाह लंगोटी की दुख भाले। भाले न समता सुख कभी नर, चिना झुनि-मुद्रा धरै।
धनि नगनपर तन-नगन ठाई, सुर असुर पायनि परें । घरमांहि तिसना जो घटावै, रुचि नहीं संसारसौं।
बहु धन बुरा हू मला कहिये, लीन पर-उपगारसौं ॥६॥ ॐ ही उत्तम आदिवन्य धर्माशाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। शील-वाडि लौ राख ब्रह्म-भाव अन्तर लखो। करि दोनों अभिलाख, करहु सफल नर-भव सदा ॥१०॥ उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनौ, माता बहिन सुता पहिचानौ ।
सहैं वान-वर्षा वहु सूरै, टिक न नैन-बान लखि करे। कूरे तिया के अशुचितनमें, कामरोगी रति करे।
बहु मृतक सड़हिं मसान माहीं, काक ज्यों चोंचें भरै ॥
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जैन पूजा पाठ संग्रह
संसार में विषवेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा ।
'घानत' घरम दशपैडि चढिके, शिव-महलमें पगधरा ॥१०॥ ॐ ही उत्तम ब्रह्मचर्य धर्माशाय अनपद प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला दोहा-दश लच्छन वंदौं लदा, मन-बांछित फलदाय ।
लहों आरती भारती, हनपर होहु सहाय ॥१॥ उत्तम छिमा जहाँ मन होई, अन्तर-बाहर शत्रु न कोई। उत्तम मार्दव विनय प्रकासे, नाना भेद ज्ञान सब भास ।।२।। उत्तम आर्जव कपट मिटावै दुरगति त्यागि सुगति उपजायें । उत्तम सत्य-इच्न मुख वोलै, सो प्रानो संसार न डोलै ॥३॥ उत्तम शौच लोभ-परिहारी, संतोषी गुण-रतन-भण्डारी। उचम संयम पालै ज्ञाता, नर-भव सफल करै ले साता ॥ ४ ॥ उत्तम तप निरवांछित पालै, सो नर करम-शत्रुको टालै । उत्तम त्याग कर जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई ॥५॥ उचम आकिंचन व्रत धारै, परम समाधि दशा बिसतारे। उपम ब्रह्मचर्य मन लावै, नरसुर सहित मुकति-फल पावै ॥६॥ दोहा-रै करमकी निरजरा, भवपींजरा विनाशि।
अजर असर पदको लहै, 'घालत' सुखकी राशि ॥ ॐ ही उत्तम क्षमा, मादव, आर्जव, सत्य, शौच, सयम, तप, त्याग, आकिंचन्य ब्रह्मचर्यधर्मभ्य पूर्णा निवपामीति स्वाहा ।
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जैन पूजा पाठ संप्रह
रत्नत्रय पूजा
दोहा। चहुँगति-फणि-विष-हरन-मणि, दुख-पावंक-जल-धार । शिव-सुख-सुधा-सरोवरी, सम्यक-त्रयी निहार ॥१॥ ॐ ही मम्यकमात्रय धर्म ! अत्र अवतर अवतर सपौषट् । ॐ ही मम्पनत्रय धर्म । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ही सन्यकरमत्रय धर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
सोरठा। क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल अति सोहना। जनम-रोग निरवार, सम्यक-रल-त्रय भजू ॥१॥ ॐ हीं सम्यकरत्रयाय जन्मरोगविनाशनाय जल० ॥१॥ चंदन केशर गारि, परिमल-महा-सुगंध-मय ॥ जन्म ॐ ह्रीं सम्यकमात्रयाय भवातापविनाशनाय चन्दन ॥२॥ तंदुल असल चितार, वासमती-सुखदालके ॥ जन्म ॐ ही सम्यकन्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्० ॥ ३ ॥ महके फूल अपार, अलि गुंजै ज्यों थुति करें ॥ जन्मक ॐ ह्रीं सम्यकनत्रयाय कामवाणविभ्वसनाय पुष्पं० ॥ ४ ॥ लाडू बहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगंधयुत ॥ जन्म ॐ ह्रीं सम्यकरत्नत्रयाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं ॥ ५ ॥ दीप रतनमय सार, जोत प्रकाश जगतमें। जन्म * ही मम्यकरत्नत्रयाय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं० ॥ ६ ॥
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जैन पूजा पाठ सह
धूप सुवास विचार, चंदन अगर कपूर की ॥ जन्म०
ॐ ह्रीं सम्यन्नत्रयाय मोहान्धकार विनागनाथ दीप निदंपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ फल शोभा अधिकार, लोंग छुहारे जायफल ॥ जन्स०
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ॐ ह्रीं सम्यक्रनत्रवाय नोलपट प्राप्तये फल ॥ ८ ॥
आठ दरव निरधार, उत्तमसों उत्तम लिये ॥ जन्म• ॐ ह्रीं सन्यकरत्रत्रयाय अनपटप्राप्तये अव० ॥ ९ ॥
सम्यक दरशन ज्ञान, व्रत शिव-सग तीनों मयी । 'धानत' पूजों व्रतसहित ॥१०॥
पार उतारन यान,
ॐ ह्रीं सम्यरत्नत्रयाय पूर्णां निर्वपामीति स्वाहा ।
सम्यग्दर्शन पूजा
दोहा - सिद्ध अष्ट- गुनमय प्रगट, मुक्त जीव-सोपान । ज्ञान चरित जिहँ बिन अफल, सम्यकदर्श प्रधान ॥१॥
ॐ ह्रीं अष्टागन्यग्दर्शन । अत्र भवतर अवतर संवौषट् ।
ॐ ह्रीं अष्टागतम्यग्दर्शन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ |
ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शन । अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
सोरठा-नीर सुगन्ध अपार, त्रिषा हरै मल छय करै । सम्यकदर्शन सार, आठ अङ्ग पूजौं सदा ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं अष्टावसम्यग्दर्शनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
जल केशर घनसार, ताप हरै शीतल करै ॥ सम्य० ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
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जैन पूजा पाठ समह
अछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरे ॥ सम्य
ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय अक्षत निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
पुहुप सुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करे ॥ सम्य
ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
नेवज विविध प्रकार, क्षुधा हरै थिरता करें ॥ सम्य
ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
दीप- ज्योति तम हार, घट पट परकाशे महा ॥ सम्य
ॐ ही अष्टांगसम्यग्दर्शनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
धूप धान- सुखकार, रोग विधन जड़ता हरेरै ॥ सम्य०
ॐ ही अष्टांगमम्यग्दर्शनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
श्रीफल आदि विधार, निहचै सुर-शिव-फल करें ॥ सम्य
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ॐ ह्री अष्टागसम्यग्दर्शनाय फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल-फूल चरु ॥ सम्यक
ॐ ही अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
जयमाला दोहा ।
आप आप निचे लखै तत्व-प्रीति व्योहार | -रहित दोष पच्चीस हैं, सहित अष्ट गुनसार ॥ १ ॥ चौपाई मिश्रित गीता छन्द ।
|
सम्यकदरशन - रतन गहीजै । जिन बच में सन्देह न कीजै । इह भव विभव चाह दुखदानी । पर-भव भोग चहै मत प्रानी ॥
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जैन पूजा पाठ नग्रह
पानी गिलाद न नारि अनुचि ललि, धरम गुरु न परख्थेि । पर-झोप जिये धरम डिगते हो, लुधिर कर हरखिये ।। चर संघको वात्सल्य जीज, धरम की परमावना । गुण पाठसा गुन आठ लहिक, इहां फेर न आना ॥ २ ॥ ॐ ही सप्टान उहिमगितिटोपहितन्न्दर्शनाय पूार्च निपानीति साहा।
सम्पन्जान पूजा दोहा-भेद जाके उगट, शेय-प्रमानान-सान।
लोह-ताल-हर-चंद्रमा, लोई, सम्यकज्ञान ॥१॥ ॐ ही अष्टविव सन्चालान ! जन अव जर बौ। ॐ ही सप्टविध उन्यजान । बत्र दिन्टि । ॐ ही अष्टविध सन्यजान ! बन न्न सन्निहिलो व नव ज्ण्ट । लोरठा-तीर लुगंध सपार, त्रिपा हरे जल भरकरै।
लल्यज्ञान विकार, आठ-सेद पूजौं लक्षा॥१॥ ॐ ही अष्टविय सन्दजानाय जल निपानाति स्वाहा ॥ १ ॥ जलकेशर घनलार, ताप हरे शीतल कर ।। ल० ॥२॥
ही अष्टविध सन्दजानाय चन्दन निर्वपानीति स्वाहा ॥२॥ अक्षत अयूए निहार, दारिद नाशे सुख सरे । स० ॥३॥ ७ ही अप्टविव सन्दरज्ञानाय स्लतान दिपानीति स्वाहा ॥ ३ ॥ पुहुप सुवाल उदार, खेद हरै मन शुचि करै ॥ ॥४॥ ॐ ही अष्टविव सम्बनानाय पुष्प निर्वपानीति वाहा ॥ ४ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
नेवज विविध प्रकार, क्षुधा हरै थिरता करै ॥ स० ॥५॥ ॐ ही अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय नैवेद्य निर्वपामीति खाहा ॥ ५ ॥ दीप-जोति तम-हार, घटपट परकाशै महा॥ ल० ॥६॥ ॐ ही अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय दीप निर्वपामीति खाहा ॥ ६ ॥ धूप घान-सुखकार, रोग विघन जड़ता हरै ॥ स० ॥७॥ ॐ ही अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय धूप निर्वपामीति खाहा ॥ ७ ॥ श्रीफलआदि विथार, निहचै सुर-शिव-फल करै ।ला। ॐ ही अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय फल निर्वपामीति खाहा ॥ ८॥ जल गंधाक्षत चार, दीप धूप फलफूल चरु स०॥॥ ॐ ही अष्टविधसम्यग्नानाय अब निर्वपामीति स्वाहा ॥९॥
जयमाला दोहा आप आप जाने नियत; ग्रन्थपठन व्योहार । संशय विभ्रम मोह बिन, अष्ट अङ्ग गुनकार ॥१॥ सम्यकज्ञान-रतन मन भाया, आगम तीजा नैन बताया।
अच्छर शुद्ध अरथ पहिचानौ, अच्छर अरथ उभय सँग जानौ । जानौ सुकाल-पठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइये।
तप-रीति गहि वहु मौन देक, विनयगुन चित लाइये ।। ये आठ भेद करम उछेदक, ज्ञान दर्पन देखना ।
इस ज्ञानहीसों भरत सीझा, और सब पट पेखना ॥११॥ ॐ ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णाघ' निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
सम्यक्चारित्र पूजा दोहा-विषय रोग औषधि महा, देवकषाय जलधार ।
तीर्थकर जाकों धरै, सम्यकचारितसार ॥ १॥ ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ । ॐ ही प्रयोदशविधसम्यक्चारित्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट ।
___ सोरठा। नीर सुगन्ध अपार, त्रिषा हरै मल छय करै। सम्यकचारित सार, तेरह विध पूजौं सदा ॥१॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जल • ॥ १ ॥ जलकेशर घनसार, ताप हरै शीतल करें। स० ॥२॥ • ही प्रयोदशविधसम्यश्चारित्राय ससारतापविनाशनाय चन्दनम् ॥ २ ॥ अछत अनूप निहार दारिद नाशै सुख भरै । स० ॥३॥
ॐ ही त्रयोदशक्धिसम्यक्चारित्राय अक्षयपद प्राप्तये अक्षतान् ॥ ३ ॥ पुहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै। स०॥४॥ ॐही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्प० ॥ ४ ॥ नेवज विवध प्रकार, क्षुधा हरै थिरता करै । स०॥५॥ ॐ हीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य • ॥५॥ दीप-जोति तम-हार, घट पट परकाशै महा । स०॥६॥
ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप ॥६॥
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जैन
पूजा पाठ सग्रह
धूप धान-सुखकार, रोग विधन जड़ता हरे । स०॥७॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अष्टकर्मदहनाय धूप ० ॥ ७ ॥
श्रीफल आदि विधार, निहचै सुर-शिव-फल करें | स०॥८॥
ॐ ह्रीं त्रयोदश विघसम्यक्चारित्राय मोक्षफलप्राप्तये फल० ॥ ८ ॥
जल गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु | स०॥
ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अनर्घ्यपद प्राप्तये अध्यं ॥ ९ ॥
जयमाला दोहा ।
आप आप थिर नियत नय, तप संयम व्योहार | स्वपर दया दोनों लिये, तेरहविध दुख-हार ॥ १० ॥
चौपाई मिश्रित गीता छन्द ।
सम्यकचारित रतन सम्भालो, पंच पाप तजिके व्रत पालौ । पंचसमिति त्रय गुपति गहीजै, नर-भव सफल करहु तन छीजै ॥ छीजै सदा तन को जतन यह, एक संयम पालिये । बहु रुल्यो नरक - निगोद-माहीं, कपाय विषयनि टालिये || शुभ-करम-जोग सुघाट आयो, पार हो दिन जात है । 'द्यानत' धरमकी नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय महार्घ निर्वपामीति स्वाहा।
समुच्चय जयमाला दोहा सम्यकदरशन-ज्ञान-व्रत, इन बिन मुकति न होय । अन्ध पंगु अरु आलसी. जुदे जलें दव-लोय ॥ १ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
चौपाई १६ मात्रा जापै ध्यान सुथिर बन आवै, ताके करम-बन्ध कट जावै । तासौं शिव-तिय प्रीति बढ़ावै, जो सम्यक् रतन-त्रय ध्यावे ॥२॥ ताको चहुँगतिके दुख नाहीं, सो न पर भव-सागर माहीं। जनम-जरा-मृत दोप मिटावै, जो सम्यक् रतन-त्रय ध्याचें ॥३॥ सोई दशलच्छनको साथै, सो सोलह कारण आराधे । सो परमातम पद उपजावै, जो सम्यक रतन-त्रय ध्यावे ॥४॥ सोई शक्र-चक्रिपद लेई, तीन लोकके सुख विलसेई । सो रागादिक भाव वहावै, जो सम्यक् रतन-त्रय ध्याचे ॥शा सोई लोकालोक निहारै, परमानन्द दशा विस्तारै । आप तिरै औरन तिरवावै, जो सम्यक् रतन-त्रय ध्यावै ॥६॥ एक स्वरूप-प्रकाश निज, वचन कयो नहिं जाय । तीन भेद व्योहार सब, 'द्यानत' को सुखदाय ॥७॥ ॐ ह्रीं सम्यकनत्राय महाघ निर्वपामीति स्वाहा।
आत्म निर्मलता केवल शास्त्र का अध्ययन ससार बन्धन से मुक्त होने का मार्ग नहीं। तोता राम - राम रटता है परन्तु उसके मर्म से अनभिज्ञ ही रहता है। इसी तरह बहुत से शास्त्रों का बोध होने पर भी जिसने अपने हृदय को निर्मल नहीं बनाया उससे जगत का कोई कल्याण नहीं हो सकता।
-'वर्णी वाणी' से
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जैन पूजा पाठ सप्रह
८३
स्वयंभू सतोत्र भाषा राजविष जुगलनि सुख कियो, राज त्याग भवि शिव पद लियो। स्वयंबोध स्वयंभू भगवान, बंदौं आदिनाथ गुणखान ॥१॥ इन्द्र क्षीरसागर जल लाय, मेरु न्हवाये गाय बजाय । मदन-विनाशक सुख करतार, वंदौं अजित अजित पदकार ॥२॥ शुक्लध्यान करि करम विनाशि, घाति अघाति सकल दुखराशि । लह्यो मुकतिपद सुख अविकार, पदौं सम्भव भव दुखटार ।। ३ ।। माता पच्छिम रयन मंझार, सुपने सोलह देखे सार। भूप पूछि फल सुनि हरपाय, बदौं अभिनन्दन मनलाय ॥ ४ ॥ सब कुवाद वादी सरदार, जीते स्यादवाद-धुनि धार । जैन-धरम-परकाशक स्वाम, सुमतिदेव-पद करहु प्रणाम ॥ ५ ॥ गर्भ अगाऊ धनपति आय, करी नगर-शोभा अधिकाय । बरसे रतन पंचदश मास, नमों पदमप्रभु सुखकी रास ॥६॥ इन्द्र फनिन्द्र नरिंद्र त्रिकाल, वाणी सुनि सुनि होहिं खुस्याल। द्वादश सभा ज्ञान-दातार, नमों सुपारसनाथ निहार ॥ ७॥ मुगुन छियालिस हैं तुम माहि, दोष अठारह कोऊ नाहि । मोह-महातम-नाशक दीप, नमों चन्द्रप्रभ राख समीप ॥८॥ द्वादश विधि तप करम विनाश, तेरह भेद रचित परकाश । निज अनिच्छ भवि इच्छक दान, वदौं पुहुपदत मन आन ||811 भवि-सुखदाय सुरगत आय. दश विधि धरम कह्यो जिनराय ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
आप समान सवनि सुखदेह, बन्दौं शीतल धर्म-सनेह ॥१०॥ समता-सुधा कोप-विष - नाश, द्वादशांगवानी परकाश । चार सघ-आनन्द-दातार, नमों श्रेयास जिनेश्वर सार ॥११॥ रतनत्रय शिर मुकुट विशाल, शोभै कण्ठ सुगुण मणिमाल । युक्ति-नार-भरता भगवान, वासुपूज्य वन्दो धर ध्यान ॥१२॥ परम समाधि स्वरूप जिनेश, ज्ञानी ध्यानी हित-उपदेश । कर्मनाशि शिव-सुस-विलसन्त, बन्दी विमलनाथ भगवत ॥१३॥ अन्तर वाहिर परिग्रह डारि, परम दिगम्बर-व्रतको धारि । सर्व जीव-हित-राह दिखाय. नगों अनन्त वचन मन लाय ॥१४॥ सात तत्त्व पचासतिकाय, अरथ नवों छ दरव बहु भाय । लोक अलोक सकल परकारा, वन्दो धर्मनाथ अविनाश ॥१शा पंचम चक्रवर्ति निधिभोग, कामदेव द्वादशम मनोग । शांतिकरन सोलम जिनराय, शांति नाथ चन्दौं हरपाय ॥१६॥ वहु थुति करै हरप नहि होय, निदे दोष गहै नहिं कोय । शीलवान परब्रह्मस्वरूप, चन्दौ कुन्थुनाथ शिव - भूप ॥१७॥ द्वादशगण पूजै सुखदाय, थुति वन्दना करें अधिकाय । जाकी निज-थुति कबहुँ न होय, वदौं अर-जिनवर-पद दोय ॥१८॥ पर-भव रतनत्रय-अनुराग, इह-भव व्याह-समय वैराग । बाल-ब्रह्म - पूरन - व्रतधार, चन्दौं मल्लिनाथ जिनसार ॥१६॥ ' विन उपदेश स्वयं वैराग, थुति लौकान्त करें पगलाग । नमःसिद्ध कहि सब व्रत लेहि, बन्दौं मुनिसुव्रत व्रत देहिं ॥२०॥
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मैना पाठ
थापक विद्यावंत निहार, बरमी रतन राशि तत्काल
८५
भगति - मावसी दियो अहार । बन्द नमिप्रभु दीन दयाल ॥२१॥ राग-द्वेष दुबन्धन तोर |
सब जीवनी बन्दी
र
रजमति तजि शिव-नियमों मिले, नेमिनाथ चंदौ मुग निले ॥२२॥ दैत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयो फनिधार । गयो कमट ट कर श्याम, नमी मेरुमम पारसस्नाम ||२३|| भवसागर जी अपार, धरम-पोतमे धरे निहार । सूक्त का दया विचार, वर्द्धमान चन्द बहुवार ||२४|| दोहा -- चौबीसों पद कमल जुग, चंदों मन वच काय । 'धानत' पढ़े सुन सदा, सो प्रभु क्यों न सहाय ॥
मोक्षमार्ग
बनेगार पोर मोक्ष लाने हो में येग्रो, या राज्ञान तुम्हें चा देगा |
નર - १६
मामा मन्द में नहीं, ममजिद में नदी, गिरजाघर में नहीं, -पाद और तोर्पराज में नदी -इसका उदय तो आत्मा में दे । -'पणी पाणी' से
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समुच्चय चौबीसी पूजा
वृषभ अजित संभव अभिनन्दन, सुमतिपदम सुपास जिनराय चंद्र पुहुप शीतल श्रेयांस नमि, वासुपूज्य पूजित सुरराय ॥ विमल अनंत धर्म जस उज्ज्वल, शांति कुंधु अर मल्लि मनाय मुनिसुव्रत नमिनेमि णर्श्वप्रभु, वर्द्धमान पद पुष्प वढाय ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरातचतुविशति जिनसमूह । ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहापीगंत चतुविशतिजिनममूह । ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिमहावीरातचतुविशतिजिनसमूह । अत्र मम तन्निहितो भव भव वषट् ॥
अत्र अवतर अवतर तवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ट ठ
मुनि-मन-सम उज्ज्वल नीर, प्रासुक गंध भरा ।
भरि कनक कटोरी धीर दीनी धार धरा ॥ चौबीसों श्रीजिनचन्द, आनन्द कन्द सही । पद जजत हरत भवफंद, पावत मोक्ष-मही ॥ ॐ ह्रीं श्रीवृपभादिवीगतेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
गोशीर कपूर मिलाय, केशर - रंग भरी । जिन चरनन देत चढ़ाय, भव- आताप हरी ॥ चौबीसों० ॥
V
जैन पूजा पाठ सग्रह
·
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरातेभ्यो भवतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
तन्दुल सित सोम-समान, सुन्दर अनियारे ।
मुक्ता फलकी उनहार, पुञ्ज धरों प्यारे ॥ चौबीसों० ॥ .
ॐ ह्रीं श्रीवृषभा दिवीरातेभ्यो क्षयपदप्राप्तये अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
वर-कअ कदंब कुरंड सुमन सुगन्ध भरे । जिन अग्रधरों गुन-मंड, काम-कलंक हरे ॥ चौबीसों० ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभादिवीरांतेभ्य. कामवाणविध्वंसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
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मन मोहन मोदक आदि, सुन्दर सय घने । रस-पूरित प्रासुक स्वाद. जजत कुधादि हने || चौबीसों०॥
ही मादिपोते भारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥ तम खंडन दीप जगाय, धारों तुम आगे ।
सब तिमिर मोह क्षय जाय, ज्ञान कला जागे ॥ चौवीसों ० ॥
ॐ मोहासकारविनागनाथ दीपं निर्वपामीति स्याहा ॥ ६ ॥
दश गन्ध हुताशन- मांहि, हे प्रभु खेवत हों । मिस धूम करम जरिजाहिं, तुम पद सेवतहों ॥ चोवीस ०
ॐ श्रीरादिना निपानीति स्वाहा ॥ ७ ॥
शुचि पक सुरस फल सार. सब पातुके ल्यायो । देखत हग-मनको प्यार, पूजत सुख पायो ॥ चौबीसों ०
भी की नामीति ॥ ८ ॥
जल-फल आठों शुचि-सार, ताको अर्घ करों । तुमको अरपों भवतार, भवतरि मोच्छ वरों ॥ चौवीसों०
ॐ ही श्रीकृपादित अर्थ पानीति स्वाहा ॥ ९ ॥ जयमाला दोहा ।
श्रीमत तीरथनाथ- पद, माथ नाय हित हेत । गाऊं गुणमाला अवे, अजर अमर पद देत ॥ १ ॥
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जैन पूजा पाठ मप्रह
घत्ता । जय भवतमभञ्जन जनमनकान,रञ्जन दिनमनिस्वच्छ करा। शिवमगपरकाशक अरिगननाशक, चौबीसों जिनराज वरा॥
पद्धरी छन्द। जय ऋषभदेव ऋपिगण नमन्त, जय अजित जीत वसुअरि तुरन्त । जप सम्भव भव-भय करत चर, जय अभिनन्दन आनन्द-पूर ॥१॥ जय सुमति सुमति-दायक दयाल, जय पद्मपबदुतितन-रसाल । जय जय सुपास भवपासनाश, जय चंद चंद तन दुति प्रकाश ॥२॥ जय पुष्पदन्त दुतिदन्त-सेत, जय शीतल शीतल-गुण-निकेत । जय श्रेयनाथ नुत-सहसभुञ्ज, जय वासव-पूजित वासुपुज्य ॥३॥ जय विमल विमल पद-देनहार, जय जय अनन्त गुणगण अपार । ; जय धर्म-धर्म शिव-शर्म देत, जय शान्ति शान्ति-पुष्टी करेत ॥४॥ जय कुंथु कुंथु-आदिक रखेय, जय अर जिन वसु अरि-क्षय करेय । जय मल्लि मल्ल हतमोह-मल्ल, जय मुनिसुव्रत व्रत-शल्ल-दल्ल ॥शा जय नमि नित वासव-नुत सपेम, जय नेसिनाथ वृष-चक्र-नेम । जय पारसनाथ अनाथ-नाथ, जय वर्द्ध मान शिव-नगर साथ ॥६॥ ।
घत्ता। चौबीस जिनन्दा आनन्द-कन्दा, पाप-निकन्दासुखकारी। तिनपद-जुग-चन्दा उदय अमन्दा,वासव-वन्दा हितकारी॥ ॐ ही श्रीवृषभादिचतुर्विशति जिनेभ्यो महाष्य निर्वपामीति स्वाहा। सोरठा-भुक्ति-मुक्ति-दातार, चौबीसों जिनराज वर ।
तिन पद मन वचधार, जो पूजै सो शिव लहै।
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पाह
८९
सप्तऋषि का अर्थ
जल गन्ध अक्षत पुष्प चरुवर, दीप धूप सु लावना । फल ललित आठों द्रव्य मिश्रित अर्ध कीजे पावना | मन्वादिचारणवद्विधारक, मुनिन की पूजा करूँ । ताकरें पातक हरें सारे, सकळ आनन्द विस्तरूँ ॥
* श्री श्रीमदार व सहाय अयं विपामीति स्वादा ॥ १ ॥ व्रत का अर्थ उदक चन्दन तन्दुल पुष्पकेश्चरुसुदीप सुधूपफलार्धकैः । धवल मंगल गानरवाकुले जिनगृहे जिनवत महंयजे ॥
ॐ श्रीपाद भास निर्वपामीति स्यादा।
ममुच्चय अर्ध
प्रभुजी अष्ट द्रव्यजु ल्यायो भावसों । प्रभु थांका हर्ष हर्प गुण गाऊँ महाराज ॥ यो मन हग्यो प्रभु की पूजाजी रे कारणे । त्रभुजी थांकी तो पूजा भविजन नित करें ॥ जाका अशुभ कर्म कट जाय महाराज यो मन० ॥ प्रभुजी थांकी तो पूजा भवि जीव जो करें ।
सो तो मुरग मुकतिपट पात्रे महाराज | यो मन० ॥
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जैन पूजा पाठ सह
प्रभुजी इन्द्र धरणेन्द्रजी सब मिल गाय । प्रभु का गुणों को पार न पाइया ॥ प्रभुजी थे छो जी अनन्ताजी गुणवान । थाने तो सुमऱ्यां संकट परिहरे || प्रभुजी थे छो जी साहिव तीनों लोकका । जिनराय में छू जी निपट अज्ञानी महाराज ॥ यो मन० ॥ प्रभुजी थांका तो रूपजु निरखन कारणे ।
सुरपति रचिया है नयन हजार महाराज ॥ यो मन० ॥ प्रभुजी नरक निगोदमें भव भव में रुल्यो । जिनराज सहिया के दुःख अपार महाराज ॥ यो मन० ॥ प्रभुजी अब तो शरणोजी थारो में लियो । किस विधि कर पार लगावो महाराज || यो मन० ॥ प्रभुजी म्हारौ तो मनड़ो थांमे घुल रह्यो । ज्यों चकरी विच रेशम डोरी महाराज | यो मन० ॥ प्रभुजी तीन लोक में है जिन विम्ब । कृत्रिम अकृत्रिम चैत्यालय पूजस्यां ॥ प्रभुजी जल चन्दन अक्षत पुष्प नैवेद | दीप धूप फल अर्ध चढ़ाऊँ महाराज ॥
९०
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जिन चैत्यालय महाराज. सब त्या० जिनराज ॥ यो० प्रभुजी अट द्रव्य जु ल्यायो बनाय । पूजा स्वाऊँ श्री भगवान की ।।
*tra form for की भाषा गार । H it
पण मking पपरमेष्टियो नमः । Firriginो म । न स्यादि योग म ,
म नाmfre प नग । गम्मत Prem Rोनम ITER REET कि गुफामे फिर
TH MeanIE THEगिमान निग wrnNEPानीना । ( नान भीम गीएफरेभ्यो नम meanirinोष गम्भीगीगागात मी बोलियेभ्यो नमHARERArmfotपयो नगा। पंग सम्बन्धि अस्मी दियो म । सम्र
पनापुर पापापुर गिरनार आदि निमोदी नटी रामदी गनुभए तारगा नगकार मदापीर स्यामी पानी ke पो मः। धींगाल दिपारी या परगाभ्यो नमः ।
हो भोगी मायामाने पीना महापौर पर्पना गाबिगी तीगपर पागदेर सानो भा रही भलो भागले ...." नाम्नि नगरे माणानानुपीनामे ... “मागे नो .... पक्षे शुग ... • तिथी... . যান নি সাবিহা শঙ্ক আবিষ্কার g গুটিয়ে যা বলা (সত) सनसन निमामि म्यादा।
माग पू गमाग मा पीपंपमहानगपाणिमायोत्सर्ग पगेम्पदम् । यदा पर हायोगापूड पार गांचार मन्त्र जपना पाहिगे ।
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जन पूजा पाठ सग्रह
शान्ति पाठ भाषा
चौपाई। शांतिनाथ मुख शशि उनहारी, शील-गुणवत-संयमधारी। लखन एक सौ आठविराजे,निरखत नयन कमलदल लाजै॥ पञ्चन चक्रवर्तिपद धारी, सोलन तीर्थंकर सुखकारी। इन्द्र नरेन्द्र पूज्य जिननायक.नमोशांनिहितशांति विधायक ॥ दिव्य विटपपहुपनकी वरपा, दुन्दुभि आसन वाणी सरसा। छन चमर सामण्डल भारी, ये तुव प्रातिहार्य मनहारी ।। शांति जिनेश शांति सुखदाई, जगत्पूज्य पूजौं शिर नाई । परम शांति दीजै हम सबको, पढ़े तिन्हें पुनि चार संघको ।।
वसन्ततिलका। पूजें जिन्हें मुकुट हार किरीट लाके ।
इन्द्रादि देव अरु पूज्य पदाज जाके ।। सो शान्तिनाथ वरवंश जगत्प्रदीप ।।
मेरे लिये करहिं शान्ति सदा अनूप ।।
इन्द्रवज्रा। संपूजकों को प्रतिपालकोंको यतीनको औयतिनायकोंको। राजा प्रजाराष्ट्र सुदेशको ले,कीजै सुखी हे जिनशांतिको दे॥
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न पूजा पाठ सह
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मन्दामान्ता।
मग्धरा छन् । हो सारी प्रजाको सुख बलयुत हो धर्मधारी नरेशा। हो। वर्षा समैप तिल भर न रहै व्याधियों का अन्देशा॥ हो। चौरी न जारी सुसमय वरतै हो न दुष्काल भारी ।
सारे ही देश धार जिनवर-वृपको जो सदा सौख्यकारी ।। • दोहा-घातिकर्म जिन नाश करि, पायो केवलराज ।
शांति करो सब जगतमें, वृषभादिक जिनराज ॥ शास्त्रों का हो पठन सुखदा लाभ सत्संगती का। __ सवृत्तों का सुजस कहके, दोप ढांकं सभी का ॥ बोलूं प्यारे वचन हितके, आप का रूप ध्याऊँ।
सोलों सेॐ चरण जिनके मोक्ष जोलौं न पाऊँ । तव पद मेरे हिय में, मम हिय तेरे पुनीत चरणों में। तवलों लीन रहीं प्रभु.जबलों पाया न मुक्ति पद मैने । अक्षर पद मात्रासे दूपित जो कुछ कहा गया मुझसे। क्षमा करो प्रभुसोसव,करुणाकरि पुनिछड़ाहुभव दुखसे।। हे जगवन्धु जिनेश्वर ! पाऊँ,तव चरण शरण लिहारी। मरण समाधि सुदुर्लभ, कर्मोंका क्षय सुवोध सुखकारी ॥
पुप्पाजलि क्षेपण ।
आया।
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जेन पूजा पाठ सप्रह
भजन
नाथ ! तोरी पूजाको फल पायो, मेरे यो निश्चय अब आयो ।टेका मेढ़क कमल पाखडी मुखम, वीर जिनवर धायो। श्रेणिक गजके पगतल मूहो, तुरत स्वर्गपद पायो । नाथ० ॥१॥ मैना सुन्दरी शुभ मन सेती, सिद्धचक्र गुण गायो। अपने पतिको कोट गमायो, गंधोदक फल पायो । नाथ० ॥२॥ अष्टापट में मरत नरेग्घर, आदिनाथ मन लायो । अष्टदन्य से पूजा प्रभुजी, अवधिज्ञान दरशायो । नाथ० ॥३॥ अञ्जनसे सब पापी तारे, मेरो मन हुलसायो । महिमा मोटी नाथ तमारी, मुक्तिपुरी सुख पायो । नाथ० ॥४॥ यकी थकी हारसुर नर पति, आगम सीख जितायो। 'देवकीर्ति गुरु ज्ञान मनोहर, पूजा ज्ञान बतायो ।। नाय० ॥ ५ ॥
भाषा स्तुति
तुम तरण-तारण भव-निवारण, भविकमन आनन्दनो।
श्रीनाभिनन्दन जगतवन्दन, आदिनाथ निरञ्जनो ॥ १ ॥ तुम आदिनाथ अनादि सेऊं, सेय पद पूजा करूँ ।
कैलाश गिरिपर ऋषभ जिनवर, पद कमल हिरदै धरूं ॥२॥ तुम अजितनाथ अजीत जीते, अष्ट कर्म महावली।
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ये एक हुन्छ
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परविन्द सुनकर ग्राम आयो, कृपा कीज्यो नाथजी ॥ ३ ॥ तुम चन्द्रसदन में पलन, चन्द्रपुरि परमेश्वरी ।
महासेननन्दन जगन्दन, चन्द्रनाथ जिनेश्वरो ॥ ४ ॥ तुम शान्ति पांघरून्याप पूजा, शुरुगन वन काय तू ।
,
दुर्मिस पांगे पानायन, रिपन पलाय ज् ॥ ५ ॥ तुम वनवन किया भव्य-कान विकाशनी । श्रीनगिनाम पवित्र दिनकर पाप-तिमिर विनाशनो ॥ ६ ॥ जिन गया काम पण करी | नाप शिव-गणी वरी ॥ ७॥ निर्भद कियो ।
ये
वर्ष, नन्दनगतन्न संघ मंगल कियां ॥ ८ ॥ दिनानक दीक्षा, फस्ट मान विहार । क. मैं नमीं शिर धारक ॥ ६ ॥ गा, दीन जानि दया करो |
festaree ander महावीर विनेगे ॥ १० ॥ नवीन गुरनर मोह, चीनी अप धारिये ।
करोड की प्रन आवागमन निवारिये ॥ ११ ॥ यो भव्यामि मेरे में गदा सेवक हो ।
·
करजी कनगांगू, गोक्षफल जापन को ॥ १२ ॥ वो एक माही एक राज, एक मांहि अनकनी । ट्रक अनेक की नहि संख्या न मिद निरानी ॥ १३ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
मैं तुम चरण कमल गुणगाय, बहुविधि भक्ति करी मनलाय | जनम जनम प्रभु पाऊ तोहि, यह सेवा - फल ढीजें मोहि ॥ १४ ॥ कृपा तिहारी ऐसी होय, जामन मरण मिटावी मोय | बार-बार मैं विनती करूं, तुम सेवा भवसागर तरूं ।। १५ ।। नाम लेत सब दुःख मिट जाय, तुम दर्शन देख्यो प्रभु आय । तुम हो प्रभु देवन के देव, में तो करूं चरण तव सेव ॥ १६ ॥ जिन पूजा तँ सब सुख होय, जिन पूजा सम अवर न कोय । जिन पूजा तैं स्वर्ग विमान, अनुक्रम तैं पावै निर्वाण ॥ १७ ॥ मैं आयो पूजन के कान, मेरो जन्म सफल भयो आज । पूजा करके नवाऊं शीश, मुझ अपराध क्षमहु जगदीश ॥ १८ ॥ दोहा - सुख देना दुःख मेटना, यही तुम्हारी चान । मुन लीज्यो भगवान ॥ १६ ॥ आदि मध्य अवमान |
मो गरीब की वीनती, पूजन करते देव की, सुरगन के सुख भोग कर, जैमी महिमा तुम विषै, जो सूरज मे जोति है, नाथ तिहारे नामतें, ज्यों दिनकर परकाशर्तें, बहुत प्रशसा क्या करू,
पायें मोक्ष निदान ॥ २० ॥ और घरै नहि कोय | नहिं तारागण सोय ॥ २१ ॥ अघ छिनमांहि पलाय | अन्धकार विनशाय ॥ २२ ॥ मैं प्रभु बहुत अजान | पूजाविधि जानू नही, शरण राखि भगवान ॥ २३ ॥
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शिसजन विन जाने वा जान भी जो कोय । तुम ममा ने परम पर रोय ॥१॥ पृजनशिधि जानी नगी सामान । और पिलगंन नहीं, साग , नगवान ॥२॥ मन्त्रहीन धमीन: न जित समा कार; गर, मु. देकर ने ॥ आये जो- जगत. Y
E ने नवजाः परामर, अपने अपने ना
नं पान श्री जिनमपी आशिका. लीजे7 पार। भव भर केपाना पाट दुर र सजाय ॥ १ ॥
rmiri हद-मांचल दल पनि भत्रित कशन वि का जोर कवि. नमत
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पूण राठ ग्रह
निर्वाणक्षेत्र पूजा
परमपूज्य चौबीस, जिहँ जिहॅ धानक शिव गये । सिद्धभूमि निशदीस, मन वच तन पूजा करों ॥
ॐ हो श्रीचतुर्विगनितीनिर्वाणक्षेत्राणि । त्रवत अवतरन षट् । ॐ ह्रीं श्रीरंगतिनीलवणक्षेत्राणि । ि ॐ ह्रीं श्रीरंगवितो
व न्न लिहिन्निव ट गीता छन् ।
शुचि छीर - दधि-तम नीर निरमल, कनक भारीमें भरौं । संसार पार उतार स्वामी, जोर कर विनती करों ॥ सम्मेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुरि कैलाशकों । पूजौं सदा चौबीस जिन, निर्वाणभूमि-निवासकों ॥
ॐ श्रीगितिक निर्वाणभ्यो पल निनोति ॥ १ ॥
केशर कपूर सुगन्ध चन्दन. सलिल शीतल विस्तरौ । भव- तापको सन्ताप मेटो, जोर कर विनती करौ ॥ स० ॐ ही श्रीविगवितोयंकर निर्वाणक्षेत्रेभ्यो चन्द्र निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
मोती- लमान अखण्ड तन्दुल, अमल आनन्द धरि तरौं । औगुन हरौ गुण करौ हमको, जोर कर विनती करों । स० ॐ ही श्रीच्तुर्विगतिले निर्वाणक्षेत्रेभ्यो मतान् निपानीति स्वाहा ॥ s n
शुभ फूल - रास सुवास - वासित, खेद सब मन की हरौं ।
}
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मैन पूजा पाठ सग्रह
दुख-धाम-काम विनाश मेरो, जोर कर विनती करौं ।स. ॐ ही श्रीचतुर्विंशतितीर्थकर निवाणक्षेत्रेभ्यो पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ नेवज अनेकप्रकार जोग, मनोग धरि भय परिहरौं । यह भूख-दुखन टार प्रभुजी, जोर कर विनती करौं ।स० ॐ ही श्रीचतुविंशतितीर्थंकर निर्वाणक्षेत्रेभ्यो नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा॥५॥ दीपक-प्रकाश उजास उज्ज्वल, तिमिरसेती नहिं डरौं । संशय-विमोह-विभरम-तम-हर, जोरकर विनती करौं।स० ॐ ही श्रीचतुविशतितीर्थकर निर्वाक्षेत्रेभ्यो दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ शुभ-धूप परम-अनूप पावन, भाव पावन आचरौं । सब करम-पुञ्ज जलाय दीज्यो, जोरकर विनतीकरौं।स० ॐ ही धीचतुर्विंशतितीर्थकर निर्वाणक्षेत्रेभ्यो धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ बहु फल मंगाय चढ़ाय उत्तम, चार गतिसों निरवरौं । निहचैमुकति-फल देहमोको,जोरकर विनती करौं।स० ॐ ही श्रीचविंशतितीयंकर निर्वाणक्षेत्रेभ्यो फल निर्वपामोति स्वाहा ॥ ८॥ जल गन्ध अक्षत पुष्प चरु फल, दीप धूपायन धरौं । "द्यानत' करो निरभय जगतसों,जोर कर विनती करौं सः ॐ हीं श्रीचतुर्विशतिनीयंकर निर्वाणक्षेत्रेभ्यो अब निर्षपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
जयमाला दोहा श्रीचौबीस जिनेश, गिरि कैलाशादिक नमों। नीरथ महाप्रदेश, महापुरुष निरवाणते ॥ ,
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पाठमद
चौपई ११ नात्रा नमों ऋषभ कैलाशपहारं. नेमिना गिन्नार निहा। वासुपूज्य चम्पापुर बन्दी, सन्मति पगापुर अभिनन्दौं ॥शा चन्दौं अजित अजित-पढ-दाता. वन्दी नम्मर भव-दुःख-शता । चन्दौं अभिनन्दन गण-नायक, वन्दी नुमति ननतिक दायक २॥ चन्दौं पढम मुकति-पदमाग, वन्दी लगन गया-पामा ! वन्दी चन्द्रप्रभु प्रभुचन्दा, बन्दी नुनिधि लगिय-निधि-न्दा ॥२॥ पन्दौं शील अघ-तप-शीतल, पन्नी यात गंन महीतल । बन्दौं रिमा विमत उपयोगी, इन्दौं अनंत अनंत-मुखभोगी ॥४॥ चन्दौं धर्म धर्म-विम्नारा, चन्दौं शान्ति गान्ति-मन-धारा । दन्दों कंधु संयु-रवालं. रन्दों पर अरि-हर गुणमालं ॥५॥ इन्दौं मल्लि काम-मल-चूरन. पन्दी मुनिसुत्रत नव-पूरन । वन्दौं नरि-जिन नमित-तुरासुर. वहौं पाळणर्मनस-जग-हर ॥६॥ वीसों सिद्धभूमि ना ऊपर. गिखरसम्मेव-महागिरि भूपर । एकडार है जो कोई, ताहि नरक-पशु-गति नहिं होई ॥७॥ नरपतिनृप सुर शक कहावे. तिहुं जग-भोग भोगि शिव पात्र। दिवन-विनाशन मंगलकारी, गुण-विलास बन्दों भक्तारी ॥८॥ एचा-जो तीरथ जावं पाप मिटावै, ध्याचे गाई भगति कर ।
___ताको जस कहिये संपति लहिये, गिरित गुण को बुध उच।। ॐ ही श्रीचनुर्विगतिःकर निपापक्षेत्रेभ्यो पूर्ण निर्वानीति स्वाहा।
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इन पूजा पाठ सह
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श्री शादिनाजिन पूजा नाभिराय मरुदेविके नन्दन, आदिनाथ स्वामी महाराज। सर्वार्थसिद्धिते आप पधारे, मध्यलोकमांही जिनराज ॥ इन्द्रदेव सब मिलकर आये, जन्म महोत्सव करने काज । आह्वानन सब विधि मिल करके, अपने कर पूजे प्रभुआज।।
मायग्नेिन्ट | आभक्तर अवत्तर मापट बालानन । तभीपादिनाय जिनेन्द्र ! अन तिष्ठ तिष्ठ ४ स्थापन ।
धादिनाय निन्द्र' षय मम गन्निहि नो मा मनपाट सनकरणम् ।
अप्टका
क्षीरोदधिका उज्ज्वल जल ले, श्रीजिनवरपद पूजन जाय । जन्म-जरादुःख मेटन कारन, ल्याय चढ़ाऊं प्रसुकेपाय ॥ श्रीआदिनाथके चरण-कमलपर,वलि-पलिजाउँमनवचकाय! हो करुणानिधि भव दुःश्व मेटो. याते में पूजों प्रमुपाय॥
ही प्रामादिनाथ जिनेन्द्राय जन्मगृत्युविनागनाय जल पिपामोति पाT || १ ॥ मलयागिरि चंदन दाह निकंदन, कञ्चन भारीभर ल्याय। श्रीजीकेचरणचढ़ावोविजनभवआतापतुरतमिटिजायाश्री.
ही भोआदिनाथ ग्नेिन्द्राय गमनापविनाशनाय चन्दन निपामीनिम्बाहा॥ ॥ शुभशालिअखंडित सौरभिमंडित,प्रासुक जलसोधोकर ल्याय। श्रीजीकेचरण चढावोभविजन अक्षयपदको तुरतउपाय ॥श्री.
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ला 10 नए
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपढप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ कमल केतकी वेल चमेली, श्रीगुलावके पुष्प मंगाय । श्रीजीकेचरणचढावोभविजन,कामवाणतुरत नसिजायाश्री. ॐ हीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ नेवज लीना षट् रस भीना, श्रीजिनवर आगे धरवाय । थाल भराऊँ क्षुधा नशाऊँ, ल्याऊँ प्रभुके मंगल गाय ॥श्री०
ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्दाय क्षुधारो विनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ।। ५ ॥ जगमग-जगमग होत दशोंदिशि,ज्योति रही मन्दिरमें छाय। श्रीजीकेसन्मुखकरत आरती, मोहतिमिरनासैदुखदाय॥श्री० ॐ हीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामोति स्वाहा । ॥ ६ ॥ अगर कपूर सुगन्ध मनोहर, तगर कपूर सुद्रव्य मिलाय। श्रीजीकेसन्मुखखेयधुपायन,कर्मजरेचहुँगतिमिटिजाय॥श्री० ॐ हो श्रीआदिनाथ जिनेन्दाय अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ श्रीफल और बदाम सुपारी, केला आदि छुहारा ल्याय । महामोक्षफल पावन कारण, ल्याय चढ़ाऊँ प्रभुके पाय ॥श्री० ॐ ही श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामोति स्वाहा ॥ ८ ॥ शुचि निरमल नीरं गंध सुअक्षत, पुष्प चरू ले मन हर्षाय ! दीप धूप फल अर्घसु लेकर, नाचत ताल मृदङ्ग बजाय॥श्री० ॐ ह्रीं श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्तये अघ' निर्षपामीति म्वाहा ॥ ९ ॥
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और पूरा
पसवाल्याणक । सर्वार्थसिद्धित चये, मरुदेवी उर आय ।
दोज असित आपादकी, जजू तिहारे पाय ।। attargeta mitruRIRE Aदिनाभिनन्दाय भव्य निर्भपागीतिक
चत वदी नीमी दिना, जन्म्या श्रीभगवान ।
मुरपति उत्सव अति करया. में पूजी धर ध्यान॥ and termsaret REATRETre Engi: Twith. Hf निर्धपामीति- ।
तृणवत प्रद्धि सबछोड़िके, नप धान्यो वन जाय।
नामी चैत्र अमेन की, जजू तिहारे पाय ।। 12.74 tere interाय मा निमोनि. ।
फाल्गुण वदि एकादशी, उपज्यो केवलज्ञान ।
इन्द्र आय पूजा करी, में पूजों इह थान ॥ on greater : REETITI infeatuff in srl. ।
माय चतुर्दगि कृष्णकी. मोक्ष गये भगवान ।
भवि जीवोंको घोधिके. पहुंचे शिवपुर धान ।। Gmaratrina THEIR RExtranufaizाय अयं ।
माला। आदीवर महागज में गिनती तुममा कर।
चारों गतिक माह में दःपायो मो मुनो।
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जैन पूजा पाठ मप्रद
अष्टकरम मैं एकलौ, ये दुष्ट महादुःख देत हो।
कहूं इतर निगोदमें मोकं पटकत करत अचत हो।
___ म्हारी दीनतनी सुन बीनती ॥ प्रभु कबहुँक पटक्या नरकमें, जठे जीव महादुःस पाय हो। नित उठि निरदई नारकी, जठे करत परस्पर घात हो ॥म्हारी॥ प्रभु नरकतणा दुःख अब कहूं, जठे कर परस्पर घात हो। कोइयक वांध्यो संभसों, पापी दे मुद्गरकी मार हो ॥म्हारी॥ कोइयक काटें करोतसों, पापी अद्भुतणी दोय फाड़ हो । प्रभु इह विधि दुःख भुगत्या घणा, फिर गति पाई तिर्यञ्च हो । म्हारी॥ हिरणा बकरा बाछड़ा पशु दीन गरीब अनाथ हो। प्रभु मैं ऊट बलद भैसा भयो, ज्यांप लदियो भार अपार हो ॥म्हारी॥ नहिं चाल्यो जठे गिर पस्यो, पापी दे सोटन की मार हो । प्रभु कोइयक पुण्य संजोगसू, मैं पायो स्वर्ग निवास हो॥ म्हारी०॥ देवांगना संग रमि रह्यो, जठं भोगनिको परिताप हो। प्रभु सग अप्सरा रमि रह्यो, कर कर अति अनुराग हो ॥ म्हारी॥ कवहुँक नन्दन-वन विप प्रभु, कबहुँक वन-गृह मांहि हो। प्रभु इह विधि काल गमायकै, फिर माला गई मुरझाय हो । म्हारी. देव तिथी सब घट गई, फिर उपज्यो सोच अपार हो। सोच करत तन खिर पड्यो, फिर उपज्योगर्भमे जाय हो।।म्हारी॥ प्रशु गर्भतणा दुःख अब कह, जाठे सकडाई की ठौर हो। हलन-चलन नहि कर सक्यो, जठै सघन कीच घनघोर हो। म्हारी॥
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जैन पूजा पाठ संप्रह
माता खावै चरपरौ, फिर लागे तन सन्ताप हो । प्रभु ज्यों जननी तातो भखै, फिर उपजै तन सन्ताप हो || म्हारी || औंधे मुख झुल्यो रह्यो, फेर निक्सन कौन उपाय हो । कठिन कठिन कर नीसरस्यो, जैसे निसरै जंती में तार हो ॥ ग्हारी ० प्रभु फिर निकसत धरत्यां पब्यो, फिर लागी भूख अपार हो । रोय रोय विलख्यो घणो, दुख वेदनको नहिं पार हो || म्हारी ० प्रभु दुख मेटन समरथ धनी, यातें लागू तिहारे पांय हो । सेवक अरज करै प्रभु ! मोकू भवोदधि पार उतार हो || म्हारी ० दोहा - श्रीजीकी महिमा अगम है, कोई न पावें पार | मैं मति अल्प अज्ञान हो, कौन करें विस्तार ॥
ॐ ह्री श्रीआदिनाथ जिनेन्द्राय महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री चन्द्रप्रभके पूर्वभव गीत ।
श्रीवर्मा भूपति पालि पुहमी, स्वर्ग पहले सुरभयौ । पुनि अजित सैन छखन्डनायक, इन्द्र अच्युत में थयौ ॥ चर परम नाभिनरेश निर्जर, वैजयंति विमानमें । चन्द्राभस्वामी सातवें भव, भये पुरुष पुरानमें ||
१०५
दोहा - विनती ऋषभ जिनेशकी, जो पढ़सी मनलाय । स्वर्गो में संशय नहीं, निश्चय शिवपुर जाय ॥
इत्याशीर्वाद ।
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१०६
जैन पूजा पाठ मह
श्री चन्द्रप्रभु पूजा
चारित चंद्र चतुष्टय मंडित चारि प्रचंड अरी चकचूरे । चन्द्र विराजित वर्णविषै यह चंद्रप्रभा सम है अनुपूरं । चारु चरित चकोरनके चित चोरन चंद्रकला बहु सूरे । सो प्रभुचंद्र समंतगुरुचित चिंतत ही सुख होय हुजूरे ॥
ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र । अत्र अवतर अवतर सवौपट
ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेद्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ |
ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्र । अत्र मम नन्निहितो भव भव वाट् ।
पद्मद्रह सम उज्जल जल ले शीतलता अधिकाई । जन्म जरा दुःख दूर करनको जिनवर पूज रचाई ॥ चञ्चल चितको रोकि चतुर्गति चक्रभ्रमण निवारो । चारु चरण आचरण चतुर नर चंद्रप्रभू चित धारो ॥
ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
मलिया - गिरवर बावन चंदन केशरि संग घसाओ । भव आताप निवारन कारण श्रीजिन चरणचढ़ाओ ॥ चं०
ॐ ह्री श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
चन्द्र किरण सम श्वेत मनोहर खंड विवर्जित सोहै । ऐसे अक्षतसों प्रभु पूजौं जग जीवन मन मोहे ॥ चं०
ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
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बन पूजा पाठ माछ
सुरतरुके शुचि पुष्प मनोहर बरन २ के लावो । काम दाह निरवारन कारण श्रीजिनचरण चढ़ावो ॥चंग ॐ ही पीचन्दप्रभगिनन्दार कामगाणविष्यगनाय पुम नियंपामीति स्याहा ॥ ४ ॥ नाना विधिके व्यञ्जन ताजे स्वच्छ अदोष वनावो । रोग क्षुधा दुःख दूर करनको श्रीजिनचरण चढ़ावो ॥oin
ही भीनन्दप्रगजिनेन्द्राय पधारोगपिनागनाय नैवेश नियंपामीनि म्याहा ॥ ५ ॥ कनक रतनमय दीप मनोहर उज्ज्वल ज्योति जगावो। मोहमहातम नाश करनको जिनवर चरण चढ़ावो ॥ चं०
ही धीचन्दप्रजिनेन्दाव मोहान्धमापनागनाय दीप नियंपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ दशविधि धूप हुताशन माहीं खेय सुगंध बढ़ावो। अष्ट करमके नाश करनको श्रीजिनचरण चढ़ावो॥ चं
ही धीचन्दम्भनिनेन्दाय अटस्मंदनाय धूप निर्मपामीति स्यादा ॥ ७ ॥ नाना विधिके उत्तम फल ले तनमनको सुखदाई । दुम्व निवारण शिक्फल कारण पूजों श्रीजिनराई ॥
श्रीनन्द्रप्रभजिनेन्दाय मोक्षपदप्रातये फन नियंपामीति स्याहा ॥ ८ ॥ वसुविधि अर्थ धनाय मनोहर श्रीजिनमंदिर जावो। अष्टकर्मके नाश करनको श्रीजिनचरण चढ़ावो ॥ चं०॥ ॐ ही श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय भनयंपदमाप्तये मध्ये निर्वपामीति स्याहा ॥ ९ ॥
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जन पूजा पाठ सप्रह
पचकल्याणक, कुसुमलता छन्द । चैत्र प्रथम पंचम दिन जालों, गर्भागम मंगल गुणखान । मात लक्ष्मणाके उर आए,तजि विलोक चन्द्र भगवान ॥ बट नवसाल रतन वरषाए, इन्द्र- हुकुमतें धनद नहान । तिनके चरण कमल मैं पूज, अर्घ चढ़ाय करूं नित ध्यान। ॐ ही कैष्णपचन्या गर्भनगलप्राप्ताय श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्थे । पौष वदी ग्यारसको जन्मे, चंद्रपुरी जिनचन्द्र महान । महासेल. राजाले प्यारे, लकल सुरासुर मानें आन । सुरगिरिपर अभिषेककियोहरि, चतुरनिकायदेव सवआन सोजिनचंद्र जयो जगमांही, अर्घचताय करूँनित ध्यान।। ॐ ही गैषष्णैकादश्या जन्ननगलप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अब । पौष बदीप्यारस तप लीनों, जानों जगत अथिर दुखदान। राजत्यागि दैराग धरो, वन जाय कियौ आतम कल्यान॥ सुरनर खगमिलि पूज रचाई, मनमें अतिही आनंद मान । ऐसे चंद्रनाथ जिनवरको अर्घ चढ़ाय करूं नित ध्यान ॥ ॐ ही पौषकृष्णैकादश्या तपोमगलप्राप्ताय श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्ध । फाल्गुन वदी सप्तमी जानों, चार घातिया घाति महान । सकल सुरासुर पूजि जगतपति,पायोतिहि दिन केवलज्ञान॥ ।
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जैन पूजा सम
समवशरन महिमा हरि कोनी दीनी दृष्टि चरण निजआन । ऐसे चंद्रनाथ जिनवरको, अर्ध चढ़ाय करूँ नित ध्यान ॥
ही फाल्गुनमन्य केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीचन्द्रमजिनेन्द्राय अघ 1
सातें बदि फाल्गुनके महिना, संमेदाचल शृग महान । ललितकूट ऊपर जगपतिने, पायौ आतम शिव कल्यान ॥ सुरसुरेश मिलि पूज रचाई, गायो गुण हर्षित जिय ठान । सुगुरु समन्तभद्र के स्वामी. देहु जिनेश्वर को सतज्ञान ॥
ॐ ही फाल्गुन्या नाकन्यापकता श्रीचन्द्रपर्णान्द्राय अनं ।
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जननाला
दोहा - अष्टम क्षितिपति तुम धनी, अष्टम तीरथराय । अष्टम पृथ्वी कारने, न अङ्ग वसु नाय ॥ १ ॥ चाल - अहो जगतगुरु' को ।
अहो चन्द्र जिनदेव तुम जगनायक स्वामी ।
अष्टम तीरथगज, हो तुम अन्तरयामी ॥ १ ॥ ठोकालोक मझार, जड चेतन गुणधारी ।
द्रव्य छन् अनिवार पर्यय शक्ति अपारी ॥ २ ॥
तिहि सबको इकबार जाने ज्ञान अनन्ता ।
ऐसो ही सुखकार दर्शन हे भगवन्ता ॥ ३ ॥
तीनलोक तिहुँकाल ज्ञायक देव कहावो ।
निरवाधा मुखमार तिर्हि शिवथान रहावौ ॥ ४ ॥
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जन पूजा पाठ मप्रह
है प्रभु ! या जगमाहि मैं बहुते दुःख पायौ।
___ कहन जरूर त नाहिं तुम सवही लखि पायौ ।। ५ ।। कबहूँ नित्य निगोद कवहूं नर्क मंझारी ।
सुरनर पशुगति माहि दुक्ख सहे अति भारी ॥ ६ ॥ पशुगतिके दुःख देव ! कहत बड़े दुःख भारी ।
छेदन भेदन त्रास शीत उष्ण अधिकारी ॥ ७ ॥ भूख प्यासके जोर सवल पशु हनि मारै।
तहां वेदना घोर हे प्रभु कौन सम्हार ॥ ८ ॥ मानुष गतिके मांहि यद्यपि है कछु साता ।
तोहू दुःख अधिकाय क्षणक्षण होत असावा ॥६॥ धन जोवन सुत नारि सम्पति ओर घनेरी ।
मिलत हरप अनिवार विछुरत विपत धनेरी ॥१०॥ सुरगति इष्ट वियोग पर सम्पति लखि झुरै।
मरण चिन्ह संयोग उर विकलप बहु पूरै ॥११॥ यों चारों गति मांहि दुःख भरपूर भरौ है।।
ध्यान धरौ मनमांहि याते काज सरौ है ॥१२॥ कर्म महादुःख साज याको नाश करौ जी।
___ बड़े गरीव निवान मेरी आश भरौजी ॥१३॥ समन्तभद्र गुरुदेव ध्यान तुम्हारो कीनों!
प्रगट भयो जिनवीर जिनवर दर्शन कीनों ॥१४॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
जब तक जगमें वास तबतक हिरदे मेरे।
कहत जिनेश्वरदास शरण गहों मैं तेरे ॥१५॥ दोहा-जग जयवन्ते होहु जिन, भरौ हमारी आस ।
जय लक्ष्मी जिन दीजिये, कहत जिनेश्वर दास। हो श्रीचन्द्रप्रभ जिनेन्दाय पूर्णा निर्वपामीति रवाहा ।
अडिल्ल छन्द । वर्तमान जिनराय भरत के जानिये ।
पञ्चकल्याणक मानि गये शिवथानिये ॥ जो नर मन वच काय प्रभू पूजै सही।
सो नर दिव सुख पाय लहै अष्टम मही।
इत्याशीर्वाद पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
घद्धा • जो मनुष्य युद्धिपूर्वक श्रद्धागुण को अपनायेगा, उसे कोई भी शक्ति संसार
में नहीं रोक सकती। कुछ भी करो श्रद्धा न छोड़ो। श्रद्धा ही संसारातीत अवस्था की प्राप्ति में सहायक होती है। श्रद्धा बिना मारमतत्व की उपलब्धि नहीं होती। - जिन जीवों को सम्यग्दर्शन हो गया है, उन्हें माता - असाता कर्म का
उदय चल नहीं करता।
-'वर्णी वाणी' से
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जैन पूजा पाठ समह
श्रीशान्तिनाथ जिन-पूजा
मत्तगयद छद । (यमकालकार )
या भव-कानन में चतुरानन, पाप-पनानन घरि हमेरी । आम जान न मान न ठान न, वान न होन दई सठ मेरी || तामद-भानन आपहि हो यह, छान न आन न आन्न टेरी । आन गही शरनागतको, अब श्रीपतजी पत राखहु मेरी ॥ १ ॥६ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाय जिनेन्द्राय । अत्र अवतर अवतर सवौषट् ।
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ ।
ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । छद त्रिभगी। अनुप्रयासक । (मात्रा ३२ जगणवर्जित ) |
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हिमगिरि - गत- गंगा धार अभंगा, प्रासुक संगा भरि भृङ्गा । जर मरन मृतंगा नाशि अधंगा, पूजि पदंगा मृदुहिगा || श्री शान्ति जिनेशं, नुत शक्रेशं वृपचक्रेशं, चक्रेशं । हनि अरि - चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयामृतेशं, मक्रेशं ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा । वर बावन- चंदन, कदली-नंदन, घन- आनदन, सहित घसों । भव-ताप-निकंदन, ऐरा-नंदन, वंदि अमंदन, चरन बसों ॥ श्री० ॐ ह्री श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय भवतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा । हिमकर करि लज्जत, मलय सुसज्जत, अच्छत जज्जत, भरिथारी । दुख-दारिद - गज्जत, सद-पद- सज्जत, भव-भय-भज्जत, अतिभारी ॥ श्री० ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।
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मेन पूजा पाठ सद
मंदार सरोज, कदली जोजं, पुञ्ज भरोजं, मलयमरं । भरि कंचन-धारी, तुम हिंग धारी, मदन-विदारी, धीर-धरं ।। श्री. - ही गीगान्तिनापरिनन्याय कामपाणयिध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा। पकवान नवीने. पावन कीने, पट रस भीने, सुखदाई । मन-मोदन-हारे, शुधा चिदारे, आगे धारे, गुन गाई ।। श्री.
ही योगामिनापजिन्य भारागपिनाशनाय नवे निर्वपामीति स्पाहा। तुम ज्ञान प्रकाशे, भ्रम-तम नाशे, शेय विकाशे, सुसरासे । दीपक उजियाग, यात धाग, मोह निवारा, निज भासे ॥ श्री०
धीमान्दिनापारिनेत्राय मादायकारपिनारानाय दीप निपामीति म्याटा। चन्दन करपूर, करि वर चुरं, पापक भूरं, माहि जुरं। तमु धूम उडाव, नाचत आवं, अलि गुंजावे, मधुर सुरं ॥ श्री.
ही श्रीगान्निनान्निन्द्राय आरमदटनाय धूप निर्षपामीति स्याहार वादाम सनरं, दाडिम पूरं, निवुक भूरं, ल आयो । तासों पद जज्जों, शिवफल मजों, निज-रस-रज्जों, उमगायो॥ श्री.
श्रीगान्तिनापजिननाय मोक्षफलप्राय फल नियंपामीति स्पाया। बसु द्रव्य संवारी, तुम दिग धारी, आनंदकारी, दृग-प्यारी। तुम हो मवतारी, करुना-धारी, यात थारी, शरनारी | श्री. ही श्रीगान्तिनापजिननाय भर पामीति स्याहा ।
पंचकल्याणक
सुन्दरी तथा द्रुतविलम्वित छद । असित मातय भादव जानिये, गरम-मंगल ता दिन मानिये । सचि कियो जननी-पद चर्चनं, हम करें इत ये पद अर्चनं ।।
ही मापदणसप्तम्यां गर्गमगर मष्टिताय श्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्राय अघ' ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
जनम जेठ चतुर्दशि श्याम है, सकल इन्द्र सु आगत धाम है । गजपुरै गज साजि सवै तबै, गिरि जजे इत मैं जजि हों अवै । ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्या जन्ममगलप्राप्ताय श्रीशान्तिनायजिनेन्द्राय अर्थ . । भन शरीर सुभोग असार हैं, इमि विचार तबै तप धार हैं। भ्रमर चौदश जेठ सुहावनी, धरम-हेत जजों गुन-पावनी । ॐ ही ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्या निष्क्रमणमहोत्सवमण्डिताय श्रीशान्तिजिनेन्द्राय अर्घ . । शुकल पौष दरौं सुख-राश है, परम केवल-ज्ञान प्रकाश है । भव-समुद्र-उधारन देवकी, हम करें नित मंगल सेवक्री ॥ ॐ ही पौषशुक्लदशम्या केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्थ । असित चौदश जेठ हने अरी, गिरि समेद थकी शिव-ती वरी। सकल-इन्द्र जर्जे तित आइक, हम जर्जे इत मस्तक नाइकैं। ॐ ही ज्येष्ठकृष्णचतुर्दश्या मोक्षमगलप्राप्ताय श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय अर्घ ० ।
जयमाला शान्ति शान्ति-गुन-मंडिते सदा, जाहि ध्यावतं सुपंडिते सदा । मैं तिन्हें भगत-मंडिते सदा, पूजि हो कलुष-हडिते सदा ।। मोक्ष-हेत तुम ही दयाल हो, हे जिनेश गुन-रत्न-माल हो । मैं अवै सुगुन-दाम ही धरों, ध्यावते तुरित मुक्ति-ती वरों ।।
पद्धरि छन्द । जय शान्तिनाथ चिद्रू पराज, भव-सागरमें अद्भुत जहाज । तुम तजि सरवारथसिद्ध थान, सरवारथ-जुत गजपुर महान । तित जनम लियौ आनंद धार, हरि ततछिन आयो राज-द्वार । इन्द्रानी जाय प्रस्त-थान. तमको करमें ले हरष मान ।।
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छेन पूजा पाठ मह
हरि चोद देय सो मोद धार, सिर चमर अमर ढारत अपार । गिरिराज जाय तित शिला पांड, ताप धाप्यौ अभिषेक मांड ॥ तित पंचम उदधितनों सुवार, सुरकर कर करि ल्याये उदार । तब इद्र सहस कर करि अनंद, तुम सिर-धारा ढारी सुनंद ॥ जय वव घघघघ धुनि होत घोर, भभभमभभ वध कलश शोर । हम रम व्म कम बाजत मृदंग, झन नननन नननन नू पुरंग ॥ वन नन नन नन नन वनन तान, घन नन नन घटा करत ध्वान |
तायेह ह ह ह ह सुचाल, जुत नाचत नावत तुमहिं भाल || चट चट चट अटपट नटन नाट, सट ट ट हट नट शट विराट । इमि नाचत राचत भगत रंग, सुर लेत वहाँ आनंद मग ॥ इत्यादि अतुल मंगल गुठाट, तित बन्यो जहाँ सुरगिरि विराट । पुनि करि नियोग पितु, सदन आय, हरि साँप्यों तुम तित वृद्ध थाय ॥ पुनि राजमाहि लहि चक्र-ग्त, भोग्यौ छ सड करि धरम जत । पुनि तप धरि केवल ऋद्धि पाय, भवि जीवनको शिव- मग चताय ॥ शिवपुर पहुँच तुम हे जिनेश, गुन- मंडित अतुल अनन्त भेष । में ध्यावत हों नित शीश नाय, हमरी भव बाधा हरि जिनाय ॥ सेवक अपनों निज जान जान, करुना करि भौ भय भान भान । यह विघन-मूल-तरु संड संड, चित चिन्तित - आनंद मंड मंड ॥
धत्तानन्द छन्द ( मात्रा ३१ )
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श्रीशांतिमहंता, शिवतियकंता, सुगुनअनंता भगवंता । भवभ्रमन हनंता, सौख्य अनंता दातारं तारनवंता ॥ उन्हीं श्रीशा तिनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
छन्द रूपक सवैयां शान्तिनाथ-जिनके पद-पंकज, जो भवि पूजै मन वच काय । बनम जनमके पातक ताके, ततछिन तजिकै जाय पलाय ॥ मनवांछित सुख पावै सो नर, वांचें भगति-भाव अति लाय। ताते 'वृन्दावन' नित बंदै, जाते शिवपुर-राज कराय ॥१॥
इत्याशीर्वाद. पुष्पाजलि क्षिपामि।
रत्नत्रय
- यदि रत्नत्रय की कुशलता हो जावे तब यह सब व्यवहार अनायास
छट जावे। - जो जीव दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हो रहा है उसी को तुम
'स्व - समय' जानो और इसके विपरीत जो पुद्गल कर्म प्रदेशों में स्थित है उसे 'पर - समय' जानो। जिसके ये अवस्थायें हैं उसे
अनादि, अनन्त, सामान्य जीव समझो। केवल राग - द्वेष की निवृत्ति के अर्थ चारित्र की उपयोगिता है। सम्यकदृष्टि जोव का अभिप्राय इतना निर्मल है कि वह अपराधी जीव का अभिप्राय से बुरा नहीं चाहता। उसके उपभोग क्रिया होती है। इसका कारण यह है कि चारित्र मोह के उदय से बलात् उसे उपभोग क्रिया करनी पड़ती है। एतावता उसके विरागता नहीं है, ऐसा नहीं कह सकते।
-'वर्णी वाणी' से
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भी
श्री नेमिनाथ जिन पूजा श्रीहरिवंश उजागर नागर, नेमीश्वर जिनराई । बालनारी जननारी. श्याम शरीर सुहाई ॥ यादववंश महानभ प्राण. चन्द्रा सुम्बदाइ । अत्र विराजन शिरख वो जिनराई ॥
Sente
yeng
कुछ न हुई विद
sahyang सेफ है
की र मनोल कथन कारी माहि परो । जनमजय दुकानको, श्रीजिन सन्मुख धार करो ॥ चारी वर्गवारी, नेमीश्वर जिनराज महान । में नित प्यान प्रभु मेरा मोकूं दीजो अविचल धान ॥
(221
हुए जोकि उन्ह
मलयागिरि कपूर मिलाया. वंशर रंग अनोपम जान । भर आनापरहित जिन चरणकमलको पूज आन ॥वा
१७१
sary
चन्द्रकिरण मउल लीजे, अक्षत स्वरलगुणसान । अक्षय नायक प्रभुको पूजें हर्षसहित हितमान ॥ घाल
141
भांति-भांति कृप मंगाये. कृसुमायुध अरिजीतन कान । कुलमा विजयी जिनके चरण कमलको पूजें आज ॥ घा
मनमोहन पचान बनाना एमहित प्रभुकं गुण गाय । अधारोग नाश करन को श्रीजिन चरणन देत चढ़ाय | घाल
समितिया
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जैन पूजा पाठ सग्रह
मणिमय दीप अमोलक लेके, रतन रकेवी मे धर लाय । मोहमहातस नाशक प्रभुके, चरणाम्बुजसे देत चढ़ाय॥वाल
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथ जिनेन्द्राय मोहधिकारपिनाशनाय दीप निवरानीनिम्बा ॥ ६॥ कृष्णागरु कपूर मिलाकर, धूप सुगन्ध मनोहर आन! कर्मकलंक निवारक प्रभुके,चरणकमलको पूजो सारवाल ___ ही श्रीनेमिनायजिनेन्द्राय अष्टकमदहनाय धूप निर्वपामीति म्वाहा ॥ ७ ॥ श्रीफल लौंग सुपारी पिस्ता, एला केला आदि महान । मुक्तिश्रीफलदायकप्रभुके, चरणाम्बुज पूजैगुणवान रानाल __ॐ ही श्रीनेमिनायजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निवपामीति स्वाहा ॥ ८॥ जलफल द्रव्य मिलाय गाय गुण, रत्नथार भरिये सुखदाल। अष्टकर्म के नाशक प्रभुको पूजौं निजगुण दायक जान॥वाल ___ ही धोनेमिनायजिनेन्द्राय अनध्यपदप्राप्तये यष्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९॥
पंचकल्याणक, चाल छन् । छठि कार्तिक सित सुखदाई, गर्भागम मंगल गाई । इन्द्रादिक पूज रचाई, हम पूर्णा अर्घ चढ़ाई।
ही कातिशुलषष्ठ्या गर्भमालप्राप्ताय श्रीनेमिनायजिनेन्द्राय,अध्यं ।। लित श्रावण छठि शुभ जानौं, जन्मे जिनराज लहानो। पितु समुदविजय सुख पायो, जिनको हम शीश नवायो।
ॐ ही प्रावण शुक्लषष्ठ्या जन्ममालप्राप्ताय श्रीनेमिनापजिनेन्द्रायाअध्यं ।। श्रावण सुदि छठि शुभ जानों, तजि राज महामत ठानों। शिव नारि हर्ष बहु कीनों, हम तिनके पद चित दीनों।
ही श्रावण शुक्लषष्ठ्या तपोमङ्गलमामायश्रीनेमिनायजिनेन्द्राय अध्यं । । लित एके आश्विन भाई, चउघाति हने दुःखदाई। वर केवलज्ञान सुलीनों, जिनके पद में चित दीनों।
ॐही आश्विन शुरूप्रतिपदायां ज्ञानकल्याणप्राप्ताय श्रीनेमिनायजिनेन्द्रायभयं
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SHERE
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सिनपाद नतमी जानो. जय जोग निरोध प्रमाना। गिरिनार शिवर शिर पाई. बन्दों में शीश नवाई।
mareekrrishiarx.re.me.
पालमप्राचारी प्रभु, नेमीश्वर महाराज । मेरो नेम निमाइयो, यह अरजी सुनि धान ॥ हरि पार पानिले गुन गा गुग्नर जी टेक॥ पार भनुप दासी नरनि गमाहि ॥ ममुरलय गा सारे गा.वि गटाय।
भोप लाराम मन्त्रमा नेमीनार निगर। रानी . .mar गुर आई। भाग
पा., जाके पर आ निपजी।। मारिन मान पनामा सागर महार। हिननितीन गुन गा मुर नरी माम प्रति
, पत नधार। सान, मकर गरम मागे, राग में सिर । पनिरिर भर मना, फर पनि में मार ॥ पनी पानी गुग्गर गीगार पजापी। समानुपाप, पीपार न पाय गानाशाजी। पन र गुना पनि गररिग आंग।
पिन परी नगी जी। जिन ।। पाट प्रक्षनाग जगतारामनगगना।
दम बादाननिय जनजो दायप। साद मानामा नमिताभ दिगम्परा ॥ निहित में
नाजीरकी मोटी राजमती-सी नारी। सगालीनो गरमाग, जिनके हिदमें आई फरणा जीय फी ।।
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जन पूजा पाठ सप्रह
छप्पन दिन छदमस्थ रहे जिन चार घातिया चर ।
ज्ञान लहि सर्व लखायोजी जिनके ॥मुण०॥ समवशरण की महिमा राज श्रीमण्डप सुखकार । रतन सिंहासन ऊपर प्रभुजी पद्मासन निरधार । तीन छत्र सिर ऊपर राजे चौसठि चामर सार । जिनके सन्मुस ठाढ इन्द्र नरेन्द्रजी। नभ में दुन्दुभि की धनि भारी, वपे फूल सुगन्ध अपारी । जिनक सम्मुस ठाडे इन्द्र नरेन्द्रजी। वृक्ष अशोक गोक मब नार्श वाणी दिव्य प्रकाश ।
स्वहित वृष निज निधि पाजी ॥ जिनके० ॥ श्रीगिरिनार शिसरते म्वामी, पायो पद, निर्वाण । कर्मकलङ्क रहित अविनाशी सिद्ध भये भगवान । पञ्चकल्याणक पूजा कीनी सकल मुरासुर आन ॥ अपनो विरद निवाहो दीन दयालजी। मोकों दीजे निजकी माया, कारज कीजे मन ललचाया। अपनो विरद निवाहो दीन दयालजी ।। विनय जिनेश्वर की सुन स्वामी. नेर्माश्चर महाराज। हृदय मे तुम पद ध्याऊजी जिनके गुण गावे सुरनर शेपनी ॥ दोहा-चरणन शीश नवाय के, पूजा कर गुन गाय ।
अरज करूँ यह एक मैं, भव-भव होहु सहाय ॥ ॐ हीं श्रीनेमिनाथ जिनन्द्राय पूर्णाध्य निर्वपामीति स्वाहा।
अडिल छन्द । वर्तमान जिनराय भरतके जानिये,
पञ्चकल्याणक मानि गये शिवथानिये। जो नर मनवचकाय प्रमु पूजै सही,
"सो नर दिवसुख पायलहै अष्टम मही। इत्याशीर्वाद , परिपुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ।
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श्रीपाद नाथ जिन पूजा
गोवा छन्द।
वर स्वर्ग प्राणतको विहाय सुमात वामा-सुत भये । अश्वसेन पारस जिनेश्वर, चरण तिनके सुर नये ॥ नवहाथ उन्नत तन विराजे, उरग लच्छन अति लसें । थाएं तुम्हें जिन आय तिष्ठो, करम मेरे सब नसें ॥
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चामा छन्दा
क्षीर सोम के समान अम्ब-सार लाइये । हेम पात्र धारिक सु आपको चढ़ाइये ॥ पार्श्वनाथ देव सेव आपकी करूं सदा । दीजिये निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ॥ १ ॥
नागपागीविना ॥ १ ॥
चन्दनादि केशरादि स्वच्छ गन्ध लीजिये । आप चर्ण चर्च मोह-ताप को हनीजिये ॥ पार्श्व ० ॥२॥
हीनयानागदन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥
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दैन पूजा पाठ मप्रह
फेन चन्दके समान अक्षतं मंगायके । चरण के समीप सार पृज को रचायके ।। पाव० ॥३॥ ॐही श्रीपाइवनाय दिनन्टाय असयपदप्राप्तये अस्नान निपानाति स्वाहा ॥ ३ ॥ केवड़ा गुलाव और केतकी चुनाइये । धार चर्णके समीप काम को नसाइये ॥ पार्श्व०॥2॥ ॐ हीं श्रीपादवनाथ जिनेन्द्राय कामवार्गावचमनाय पुण्य निर्वपान र स्वाहा ॥ ८ ॥ घेवरादि वावरादि मिष्ट सपिमें सन । आप चर्ण अर्च ते अधादि रोग को हने ॥ पाच ॥५ ॐ ही श्रीपाइर्वनाथ जिनेन्द्राय सुधागेगविनागनार नैवद्य निर्वान दादा ॥ ५ ॥ लाय रत्न-दीप को सनेह-पूर के भरु । वातिका कपूर वार मोह ध्वांतकं हर ॥ पार्श्व० ॥३॥ ॐ ही श्रीपाश्र्वनाथ जिनेन्द्रप्य मोहान्यका विनाशनाय दीप निर्वणानि स्वाहा ॥ ६ ॥ धूप गन्ध लेयके सु अग्निसंग जारिये। तास धूप के सुसंग अष्टर्म वारिये ॥ पार्श्व०॥७॥ ॐ ही श्रीपाइवनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धृप नित्रपामीनिम्बाहा ॥ ७ ॥ खारकादि चिरभटादि रत्न-थालमें भरूँ। हर्षधारिके जजू सुमोक्ष सौख्य को दरूँ॥ पार्श्व ॥८॥ ॐ ही श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्ष फलप्राप्तये फल निर्वपानीति चाहा ॥ ८ ॥ नीरगन्ध अक्षतान पुष्प चारु लीजिये। दीप धूप श्रीफलादि अर्घतें जजीजिये ॥ पार्श्व III ॐ ही श्रीपावनाय जिनेन्द्राय अनपद प्राप्ताये अर्घ निर्बपामीति स्वाहा ॥ ९॥
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पनान्या छन्द चाल! शुभप्राणन स्वर्ग विहाये. वामा माता उर आये। बैशाखतनी दुतिकारी, हम पूर्ज विन निवारी॥ witter गर्म पापमय निकाय अर्ष । जनम त्रिभुवन सुखदाता, एकादशी पोप विख्याता । श्यामा तन अदभुत राजे, रवि-कोटिक-तेज सुलाजै ।।
का मान्दिार । कलि पौष इकादशी आई, तब पारह भावना भाई । अपने कर लोंच सुकीना, हम पूजे चरण जजीना ।। अहो पोranteen नायनाय अपं० । कलि चत चतुर्थी आई. प्रभु केवलज्ञान उपाई। तब प्रभु उपदेश जु कीना, भवि जीवनको सुख दीना ।। ॐ ही प्राप्त दिन गनार भोपादनागिनभार अर्घ ०। सित सात सावन आई, शिवनारि वरी जिनराई। सम्मेदाचल हरि माना, हम पूजें मोक्ष कल्याणा ।। ही प्रास्लम मोममगलमानाय श्रीपादगार निन्दाय अर्थ.।
जयमाला, छन्द। पारसनाथ जिनेन्द्र नने बन, पीनभवी जरतें सुन पाये।
करयो मरधान लयो पद आन मपो पद्यापति शेप कहाये । नाम प्रताप ट सन्ताप मु भव्यन को शिव-शर्म दियाये ।
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न पूजा पाठ माह
हो विश्वसेनके नन्द भले गुणगावत हैं तुमरे हरपाये ॥ १ ॥ दोहा-केको-कंठ समान छवि, वपु उतंग नव हाथ । लक्षण उरग निहारपग, बन्दों पारसनाथ ॥२॥
परि छन्द। रची नगरी छः मास अगार, पने पहुँगोपुर शोभ अपार । सुकोटतनी रचना छवि देत, कंगूरनपं लह बहुकेत ॥३॥ बनारसकी रचना जु अपार, करी बहुभांति धनेन तयार । तहां विश्वसेन नरेन्द्र उदार, करै सुख वाम मु दे पटनार ॥४॥ तज्यो तुम प्राणत नाम रिमान, भवे तिनके वर नन्दन आन । तर्व तुरइन्द्र नियोगन आय, गिन्दि करी विधि न्हौन तुजाय ॥१॥ पिता-घर नौपि गये निज धाम, कुवेर कर वतु जाम सुकाम । द जिन दोज मयंक समान, रमैं बहु दालक निर्जर आन ॥६॥ भरे जय अष्टम वर्ष कुमार, घरे अणुव्रत्त महासुखकार । पिता जब आन करी अरदास, करो तुम न्याह व मम आस ॥७॥ करी तव नाहि कहे जगचन्द, किये तुम काम पार जु मन्द । चढ़े गज राजकुमारन सग, सु देखत गंगवनी सु तरंग ||८|| लख्यो इक रंक कर तप घोर, चईदिशि अगनि वले अति जोर । कह जिननाय अरे सुन प्रात, करे बहु जीवनकी मत घात।॥ भयो तव कोप कई कित जीव, जले तर नाग दिखाय सजीव । लख्यो यह कारन भावन भाय, नये दिव ब्रह्म ऋषीसव आय ॥१०॥
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तवे सुर चार प्रकार नियोग, धरी शिविका निज कन्ध मनोग। कियो वनमांहि निवास जिनन्द,धरेव्रत चारित आनन्द कन्द ॥११॥ गहे तहं अप्टम के उपवास, गये धनदत्त तने जु अवास । दियों पयहान महामुणकार, भयी पनगृष्टि तहां तिहिवार ॥१२॥ गये तर काननमाहि दयाल, धरो तुम योग सये अघटाल । तये वह धम सुकेत अयान, भयो कमठाचर को मुर आन ॥१३॥ कर नभ गान लखे तुम धीर, जु पूरब बैर विचार गहीर । किया उपसग भयानक घार, चली वह तीक्षण पवन झकोर ॥१४॥ रमो दस दिशिम तम छाय, लगी वह यानि लसी नहिं जाय । मुरुण्डनके बिन मुण्ट दिसाय, पड जल मूसलधार अथाय ॥१॥ तव पदमापति-न्य घनिन्द, नये जुग आय तहां जिनचन्द । भग्यो तय रंकासु देखत हाल, लखो तब केवलनान विशाल ॥१६॥ दियो उपदेश महा हितकार, सुभयन चोधि समेद पधार । मुवर्णभद्र जह कूट प्रसिद्ध, परी शिव नारि लही वसुऋद्ध ॥१७॥ जल तुम चरण दुई कर जोर, प्रभृ लखिये अब ही मम ओर । कह 'यसनार रत्न' बनाय, जिनेश इमें भवपार लगाय ॥१८॥ जय पारस देवं सुरकृत सेवं वन्दत चरण सुनागपती। करुणाके धारी पर उपकारी, शिवसुखकारी कमहती ॥
गगिनेदाप पु निर्मपामाfi ram अडिल्ल-जो पूज मनलाय भव्य पारस प्रभु नितही। ताके दुःख सब जांय भीति व्यापं नहिं कितही।
सुग्व सम्पनि अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे । अनुक्रमसों शिव लहै, रतन' इस कहै पुकारे।।
दयागीयर्याद पुरिति क्षिपेत ।
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श्री महावीर स्वामी पूजा
मत्तगयन्दा श्रीसतवीर हर भवपीर, भरै सुख-सीर अनाजुलताई। केहरि-अक्ष अरी करदत, नये हरि-पऋति-सौलि सु आई।। संतुमको इतथापतु हाँप्रभु, भक्ति-लमेत हिय हरखाई। हे करुणाधन धारक देव, इहांअव तिष्ठहु शीघहि आई॥ ॐ ही श्रीमहकी जिन्द्राय 'न यर । ॐ ही श्रीन्हावार जिनेन्द्र 'न ।
हो न्हावी जिनेन्द्राय 'म हेनन् । क्षीरोदधिलम शुचि नीर, कञ्चन सृङ्ग भरों। प्रभु बेग हरो भव-पीर, यात चार करो ।। श्रीवीर महा अतिवीर. सन्मतिलायक हो। जय वळसाल गुण-धीरः सन्मति-नायक हो ॥१॥ * ही न्हावा, निन्द्रनगर बन्द - कहा। मलयागिरि - चन्दनसार, केशर-संग घलों। प्रभु भव-आताप निवार. पूजत हिय हुललो ॥श्रीवीर०॥ ॐ हर जिन्नत करनय चन्दनः ।।
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गपूजा 100४५
तन्दुलसित शशि-सम शुद्ध, लीनों थार भरी। तसुपुञ्जधरों अविरुद्ध, पावों शिव-नगरी ॥ श्रीवीर० ॥ उही श्रीगदापीर जिनेनाप जयपदप्राप्तय अवतान् निर्मपामीति स्वाहा ।। सुरतरुके सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे । सो मनमथ-भजन-हेत, पूजों एद थारे ।। श्रीवीर०॥ ॐi धीमहावीर जिन्दाप कामपाणिभ्यसनाय पुष्प नियंपामीति स्याहा ॥ रस-रज्जत सज्जत सद्य, सज्जत थार भरी। पद जज्जत रज्जत अय, भज्जत सूख-अरी।। श्रीवीर०॥
ही धीमहावीर गिनेमाप पारोगपिनाशनाय नए निर्दपामीति स्वाहा ॥ तम-खण्डित मण्डित-नेह, दीपक जोवत हों। तुम पदतर हे सुख-गेह, श्रम-तल खोवत हों ॥श्रीवीर०॥
i श्रीमापीर जिनेन्द्राय मौदान्धकार यिनारानाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ।। हरिचन्दन अगर कपूर, चूर सुगन्ध करा। तुस पदतर खेवत भूरि, आठों कर्स जरा ।। श्रीवीर०॥
ही श्रीमहावीर जिनंन्द्राय अप्टफर्म दहनाप धूप निर्वपामोति साहा ॥ ऋतु-फल कल-वजित लाय, कंचन-थार भरों। शिव-फल-हित हेजिनराय, तुढिगभेंट धरों॥श्रीवीर०
*ही श्रीमहावीर जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्यपामोति स्वाहा ॥ जल-फल वसुसजि हिम-थार, तन-मन-मोदधरों। गुण गाऊँ भव-दधितार, पूजत पाप हरों ॥श्रीवीर०॥ ही धोनहायार गिनेन्द्राय अनन्यपदप्राप्तय मर्म निरपामोति स्वाहा ॥
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राह
___ ण राग-उ-बाल मोहि राखो हो शरना श्रीमान जिनगयी । मो० गरभ साट सित छह लियो तिथि. त्रिशलाउर अपहरना। सुर सुरपति तितलेव करी नित. में पूजी भर-तरना। मोहि राखो हो शरना. श्रीवद्धमान जिनरायजी ।।
ल्या माग जनस चैततित तेरसके दिन, कुण्डलपुर कन-वरना । सुरगिरि लुरगुन पूज रबायो में पृजो सव-हरना ॥मो० ॐ ही कल्पना
नवर। मगसिर असित मनोहर दशनी. ता दिन तर आचरना। नुप कुमार घर पारन कोनों में पूजों तुल वरना ।। मो० को हो ना पहनन्दन श्री के अन्दर शुकल दशैं वैशाख दिवस अरि. घाति-चतुक छय करना। केवल लहि भवि भवसर तारे. जजौचरन सुखभरना मो० नही देगाल्गन्दा माइनर श्रीददार विन्द कार्तिक श्याम अमाश शिव तिय. पावापुरतै परना । गन-फनि-वृन्द जतित बहुविधि,मैं पूज्यों भगहरनामो० ओ हम कृष्णा नावऱ्या नाडिनर मोहाली मिन्द्र ।
_जयनाल, बन्द हरिणीता २८ मात्रा। गणर असनिधर. चक्रधर हलधर गदाधर वरवदा ।
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बन पूजा पाठ मत
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अरु चापधर विद्यासुधर, तिरसूलधर सेवहिं सदा ॥ दुस-हरन आनन्द-भरन तारन,तरन चरन रसाल हैं। सुकुमाल गुनमनिमाल, उन्नत भालकी जयमाल हैं।
चन्द पत्तानन्द। जय त्रिशलानंदन, हरिकृतवंदन, जगदानंदन चंदवरं । भवताप निकंदन. तनकनमंदन रहित सपंदन नयनधर।।
एन्द नोटफ। वय केवल-भानु कलासदनं, भविकोक-विकाशन-कंजवनं । जगजीत-महा-रिपु-मोहहरं, रज शानहगांवर चरकरं ॥१॥ गर्गादिक मंगल मण्डित हो, दुःसदारिदको नित खण्डित हो। जगमाहिं तुमी सतपंडित हो, तुमही भवभाव विहंडित हो ॥२॥ हरिवंश सरोजनको रवि हो, बलवन्त महन्त तुमी कवि हो। लहि केवल धर्म प्रकाश कियो अवलों सोई मारगराजतियो ॥३॥ पुनि आपतने गुणमाहिं सही, सुरमन रहैं नितने सवही । विनफी वनिता गुनगावत हैं, लयमाननिसों मन भावत हैं ॥ ४॥ पुनि नाचत रंग उसंग भरी तुव भक्ति विप पग एम धरी । सननं झननं झननं झननं, मुरलेत तहां तननं तननं ॥ ५ ॥ धननं घननं घन घण्ट बजे, दृमदं मदं मिरदंग सजे। गगनांगन-गर्भगता-सुगता, ततता ततता अतता पितता ॥ ६ ॥ घृगा धृगतां गति वाजत है, सुरताल रसाल जु छाजत है।
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उन पूजन पाठ सप्रह
सनन सननं सननं नभमैं, इक रूप अनेक जु धारि भर्मे ॥ ७॥ कई नारि सु बीन बजावति हैं, तुमरो जस उज्ज्वल गावति है। करतालविष करनाल धरै, सुरताल विशाल जु नाद करें ॥ ८ ॥ इन जादि अनेक उछाह भरी, सुरभक्ति करै प्रभुजी तुसरी । तुमही जगजीवनके पितु हो, तुमही विन कारणके हितु हो ॥ ६ ॥ तुमही सब विन-विनाशन हो, तुमही निज आनंद भासन हो । तुमही चित चिंतित दायक हो, जगमांहि तुम्ही सर लायक हो ॥१०॥ तुमरे पर मंगल मांहि सही, जिय उत्तम पुण्य लियो सवही । हमको तुमरी शरनागत है, तुमरे गुणमें मन पागव है ।। ११ ।। प्रभु मो हिय आप सदा बसिये, जब लौं वसु कम नहीं नसिये । त्व लौ तुम ध्यन हिये दरतो, तवलौं श्रुत चितन चित्तरतों ।। १२ ॥ तरलौं व्रत चारित गहतु हों, तबलौं शुभ भाव सुहागतु हों। तक्लों ममसंगति नित्त रह , तवलों मम संजम चित्त गह ॥ १३ ॥ जबलौं नहिं नाश करौं अरिको, शिव नारिवरों समता धरिको। यह घो तवलौं हमको जिन जी, हम जाचत हैं इतनी सुनजी ॥ १४ ॥
छत्ता श्रीवीर जिनेशा नमित सुरेशा नाग नरेशा भगतिभरा। 'वृन्दावन ध्यावै विघन नशावै, वांछित पा शर्मवरा ।। मों ही श्रीमहावीर जिनेन्द्राय महापं निर्वामीति स्वाहा । दोहा-श्री सनसतिके जुगलपद, जो पूजै धरि प्रीत ।
'वृन्दावन' सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत ।।
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जन पूजा पाठ सग्रह
तीर्थक्षेत्र पूजा-संग्रह
श्री सम्मेदशिखर पूजा दोहा-सिद्धक्षेत्र तीरथ परम, है उत्कृष्ट सुथान ।
शिखर सम्मेद सदा नम, होय पाप की हान ॥२॥ अगनित मुनि जहत गये, लोक शिखरके तीर । तिनके पद पङ्कज नमू, नाशें भव को पीर ॥२॥
अडिल्ल छन्द। है उज्ज्वल यह क्षेत्र सु अति निरमल सही। परम पुनीत सुठौर महागुण की मही ॥ सकल सिद्ध दातार, महा रमणीक है। बन्दू निज सुख हेत, अचल पद देत है ॥ ३॥
सोरठा। शिखर सम्मेद महान, जग में तीर्थ प्रधान है। महिमा अद्भुत जान, अल्पमती मैं किम कहूं ॥ ४॥
पाल, सुन्दरी छन्द । सरस उन्नत क्षेत्र प्रधान है. अति सु उज्ज्वल तीर्थ महान है। करहिं भक्तिसु जे गुण गायक, लहहि सुर शिवकै सुख जायकै ।
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जेन पूजा पाठ सप्रह अडिल्ल छन्द। सुर नर हरि इन आदि और वन्दन करै । भव सागर से तिरै नही भव में परे । जन्म जन्म के पाप सकल छिन मे टरे। सुफल होय तिन जन्म शिखर दरशन करै ॥ ६ ॥
स्थापना, अडिल छन्द । गिरि सम्मेद ते बीस जिनेश्वर शिव गये।
और असंख्ये मुनी तहां ते सिध भये ।। बन्दू मन वच काय नमू शिर नायक।
तिष्ठो श्रीमहाराज सबै इत आयकै ॥२॥ दोहा-श्रीसम्मेद शिखर सदा पूजू मन वच काय ।
हरत चतुरगति दुःखको मन वांछित फलदाय ॥ २॥ ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सैती श्री बीस तीर्थक्कर और असख्यात मुनि मुक्ति पधारे, तिनके चरणारविन्द की पूजा अत्रावतरावतर सवौषट् श्राह्मननं । मन तिः तिष्ठ ठ ठ स्थापन । अत्र मम सत्रिहितो भव भव वषट् सनिधापन ।
अथाष्टक, गीता छन्द । सोहन झारी रतन जड़िये मांहि गंगा जल भरो। जिनराज चरण चढ़ाय भविजन जन्म मृत्यु जरा हरौ ॥ संसार उदधि उबारने को लीजिये सुध भादसौ। सम्मेद मिरपर बीस जिन मुनि पूज हरष उछावसो ॥२॥
ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सैती वीस तीर्थकरादि असंख्यात मुनि मुक्ति पधारे, जन्ममृत्युरोगविनाशनाय जल० ॥ १॥
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जन पूजा पाठ साह
जाकी सुगन्ध थकी अहो अलि गुंजते आवे घने। सो मलय संग घसाय केसर पूज पद जिनवर तने ॥ भव आताप निवारने को लीजिये सुध भावसों ॥ सoli
ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेतो बीस तीर्थङ्करादि असंख्यात मुनि मुक्ति पधारे, भवप्रातापविनाशनाय चन्दन ॥२॥ अक्षत अखंडित अतिहि सुन्दर जोति शशि सम लीजिये। शुभ शालि उपज्वल तोय धोय सु पूज प्रभु पद कीजिये । पद अक्षय कारण लेय भविजन शुद्ध निरमल भावसों ॥ स०
ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सैतो बीस तीर्थतरादि असख्यात मुनि मुक्ति पधारे, अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं० ।। ३ ।। है मदन दुष्ट अत्यन्त दुर्जय हते सबके प्रान ही। ताके निवारण हेत कुसुम मंगाय रंजन घ्रान हो । जाको सुवास निहार षट्पद दौरि आवे चावसों ॥ सoll
ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सैती बीस तीर्थक्रादि असख्यात मुनि मुक्ति पधारे, कामवाणविध्वसनाय पुष्पं० ॥ ४ ॥ रस पूर रसना घ्रान रंजन चक्ष प्रिय अति मिष्ट ही। जिनराज चरण चढ़ाय उत्तम क्षुधा होवे नष्ट ही ॥ भरि थाल कञ्चन विविध व्यञ्जन लीजिये सुध भावसों ॥ स०॥
___ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती बीस तीर्थकरादि असंख्यात मुनि मुक्ति पधारे, क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य० ॥ ५॥ त्रैलोक्यगर्मित ज्ञान जाको मोह निजवश कर लियो । अज्ञान तममें पड्यो चेतन चतुरगति भरमन कियो ।
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जैन पूजा पाठ मह
छिनमाहि मोह विध्वस हौवं आरती कर चावसों ॥ स०॥
ही मोकाट निवर निजात परकन सनी - तीर्यदि असंख्यात मुनि नुक्तिमान, रविकान्ट टो० ॥ ६॥ शुभ अगर अम्बरवाल सुन्दर धूप प्रभु टिग खेवही। ए दुष्टकर्म प्रचण्ड तिनको होय तत छिन छेव्ही ॥ सो धूप दस विधि जरत कारण लीजिये सुध भावसो | स॥
ॐ नन्द रहित रवत तो दोन तोगदि सव्यात मुनि मुक्ति पार, भादव० ॥ ७॥ बादाम श्रीफल लोग पिस्ता लेय शुद्ध सम्हालही। सैकार दाख ग्रनार केला तुरत टूटे डालही ॥ भवि लेय उत्तन हेत शिव के छूट विधि के दावसों ॥ सoll
ॐ ही प्रीट केन्द्रित रक्त तो टीम तीरादि असख्यात मुनि मुक्ति पधार, मामलाइट ल८॥
चापय चाल।
जन्म मृत्यु जल हरे, गन्ध आताप निवारे । तन्दुल पदके अक्षय मदन कू सुमन विदारै ।। क्षुधा हरण नैवेद्य दीप ते ध्वान्त नसावै । धूप दहै वसु कम मोक्ष सुख फल दरसावें ॥ ए वसु द्रव्य मिलाएकै अर्घ रामचन्द्र कीजिये । करपूजा गिरिशिखरकी नरमव का फल लीजिये।
ॐ हो श्री सम्मैट शिवर सिद्धक्षेत्र परवत संतो वीस तीर्थक्रादि असख्यात मुनि मुक्ति पधार, अनर्यपदप्राप्तये अर्ध्य० ॥६॥
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प्रत्येक अर्घ
सोरठा। सकल कर्म हनि मोक्ष, परिवा सित बैशाख ही। जजौ चरण गुण धोख, गये सम्मेदाचल थकी ॥२॥
ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती ज्ञानधर कूट के दरशन फल एक कोड़ उपवास और श्री कुथुनाथ तीर्थंकररादि छानवें कोडा कोडी छानवे कोड बत्तीस सास छानवे हजार सात से यालिस मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ १॥ दोहा-जेठ शुकल चउदस दिवस मोक्ष गये भगवान।
जजौ मोक्ष जिनके चरण कर करि बहु गुणगान । ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सैती सुदतवर कूट के दरशन फल एक कोड़ उपवास श्री धरमनाथ तीर्थंकरादि गुरगतीस कोडा कोडी उनीस कोड नौ लाख नौ हजार सात से पचानवे मुनि मुक्ति पधारे, अर्ब० ॥ २॥
चैत शुकल एकादशी शिवपुर मे प्रभु जाय । लहि अनन्त सुख थिर भये आतमसू लवलाय ॥ ३॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती अविचल कूट के दरशन फल एक कोडि उपवास और श्री सुमतनाथ तीर्थकरादि एक कोडाकोडी चौरासी कोड़ बहत्तर तास इक्यासी हजार सातस मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ ३ ॥
जेठ शुकल चउदस दिना सकल कर्म क्षय कीन । सिद्ध भये सुखमय रहै हुए अष्टगुण लीन ॥ ४ ॥ ___ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती शान्तिप्रभ कूट के दरशन फल एक कोड उपवास जौर श्री शान्तिनाथ तीर्थंकरादि नौ कोडाकोडी नौ लाख नौ हजार नौ सौ निन्यानवे मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ ४ ॥
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जन पूजा पाठ सप्रह
बदि अषाढ़ अष्टमि दिवस मोक्ष गये मुनि ईश । जजू भक्तिते विमल प्रभु अर्घ लेय नमि शीश ॥ ५॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिरूर सिद्धक्षत्र परवत सेती सुवीर त कूट के दरशन पस एक कोड उपवास और विमलनाथ तीर्थकरादि सत्तर कोडाकोटी साठ लाख छ हजार सात से बयालिस मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ ५॥
फागुन शुकल सप्तमि दिना हनि अघातियाराय । जगत फास कू काटके मोक्ष गये जिनराय ॥ ६॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती प्रभास कूट के दरशन फत एक कोड उपवास और श्री सुपाश्वनाथ तीर्थकरादि उनचास कोडाकोडो चौरासी कोड़ बहत्तर लाख सात हजार सातसै क्यालिस मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥६॥
चैत शुकल पंचमि दिना हनि अघातिया राय । मोक्ष भये सुरपति जजै मैं जजहूं गुण गाय ॥ ७ ॥
ॐ ह्रीं श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सैती सिद्धवर कूट के दरशन फस बत्तीस कोड उपवास और श्री अजितनाथ तीर्थकरादि एक अरव प्रस्सी कोड चौफ्न ताख मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥७॥
जुगल नाग तारे प्रभु पार्श्वनाथ जिनराय । सावन शुकल साते दिवस लहे मुक्ति शिव जाय ॥८॥
ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेतो सुवरनभद्र कूट के दरशन फस सोलह कोड उपवास और श्री पार्श्वनाथ तीर्थकरादि वयासो करोड़ चौरासी सास पैतालिस हजार सातसै बयालिस मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ।। 5॥
सोरठा। हनि अघाति शिव थान, चतुर्दशी वैशाख बदि। जजु मोक्ष कल्यान, गये सम्मेदाचल थको ॥ ६॥
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मोक्ष कल्यान व सुर
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१३८
जेन पूजा पाठ सग्रह
हनि अघाति जिनराय, चौथ कृष्ण फागुन विषै।। जजू चरण गुणगाय, मोक्ष सम्मेदाचल थकी ॥ १४ ॥
ॐ ही श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती मोहन कूट के दरशन फल एक कोड उपवास और श्री पद्मप्रभ तीर्थकरादि निन्यानवे कोडि सत्यासी लाख तितालिस हजार सात सै सनाइस मुति मुक्ति पगरे, अर्घ० ॥ १४ ॥
हनि अघाति निरवान्न, फागुन द्वादशि कृष्ण ही। जजू मोक्ष कल्यान, गर सुरासुर पद जजो ॥ १५ ॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद गिरवर सिद्धक्षेत्र परक्त सेती निर्जर नामा कट के दरशन फल एक कोड उपवास पोर श्री मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकरादि निन्यानवे कौडा कोड सत्यानवे कोडि नौ लाख नौ सौ निन्यानवे मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ १५ ॥
शेषकर्म हनि मोक्ष, फागुन शुकल जु सप्तमी। जजू गुणनि के धोक, गये सम्मेदाचल थकी ॥ १६ ॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती ललित कूट के दरशन फल सोलह तास उपवास और श्री चन्द्रप्रभु तीर्थंकरादि नौ सौ चौरासी अरव बहत्तर कोडि अस्सी लाख चौरासी हजार पाच सो पचानवै मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ १६ ।। गये मोक्ष भगवान, अष्टमि सित आसौज की। देह देहु शिवथान, वसुविधि पदपङ्कज जजू ॥ २७॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती विद्यु तवर कूट के दरशन फल एक कोड उपवास और श्री शीतलनाथ तीर्थकरादि अठारह कोडा कोडि बयालिस कोड बत्तीस लाख बेयालिस हजार नौ सौ पांच मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ १७ ॥ दोहा-चैत कृष्ण पूनम दिवस, निज आतम को चीन ।
मुक्ति स्थानक जायके, हुए अष्ट गुण लीन ॥१८॥ ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती स्वयंभू कट के दरशन फल एक कोड उपवास और श्री अनन्तनाथ तीर्थकरादि छानवे कोडा कोड सत्तर कोड सत्तर ताख सत्तर हजार सात से मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ॥ १८॥
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सोरठा ।
शेष कर्म निरवान चैत शुक्ल षष्ठमि विषै । जजो गुणौघ उचार मोक्ष वरांगना पति भये ॥ २६ ॥
ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती धवल कूट के दर्शन फल बयालीस लाख उपवास और श्री सम्भवनाथ तीर्थङ्करादि न लोडा कोड बहत्तर लाख बयालीस, हजार पाच सौ मुनि मुक्ति पधारे, अ० ॥ १६ ॥
दोहा - अष्टमि सित बैशाख की गए मोक्ष हनि कर्म ।
जजू चरण उर भक्ति कर देहु देहु निज धर्म ॥२०॥ ॐ ह्री श्री सम्मेद शिखर सिद्धक्षेत्र परवत सेती श्रानन्द कूट के दर्शन फल एक लाख उपवास और अभिनन्दन तीर्थङ्करादि वहत्तर कोडा कोडि सत्तर कोड सत्तर लाख बयालीस हजार सात सै मुनि मुक्ति पधारे, अर्घं० ॥ २० ॥
चोपाई छन्द ।
माघ असित चउदश विधि सैन, हनि अघाति पाई शिव दैन । सुर नर खग कैलाश सुथान, पूर्जे मैं पूजू धर ध्यान ॥ दोहा -ऋषभ देव जिन सिध भये, गिर कैलाश
से
जोय ।
सोय ॥
श्री आदिनाथ
मन वच तन कर पूजहूँ शिखर नमू पद ॐ ह्री श्री कैलाश सिद्धक्षेत्र परवत सेती माघ सुदी १४ को तीर्थङ्करादि असख्य मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ।
दोहा - वासुपूज्य जिनकी छबी अरुन वरन अविकार । देहु सुमति विनती करूं ध्याऊं भवदधितार ॥ वासु पूज्य जिन सिध भये चम्पापुर से जेह ।
मनवचतन कर पूज हूँ शिखर सम्मेद यजेह ॥ ॐ ह्री श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र परवत सेती भादवा सुदी १४ श्री वासुपूज्य तीर्थङ्करादि असंख्य मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० ।
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जैन पूजा पाठ सण्ड
शुकल षाढ़ सप्तमि दिवस शेष कर्म हनि मोक्ष । शिव कल्याण सुरपति कियो जजू चरण गुण धोन्त ।। नेमनाथ जिन सिद्ध भये सिद्ध क्षेत्र गिरनार ।
मन वच तन कर पूज हूँ भवदधि पार उतार ॥ ॐ हो भी गिरनार सिद्धक्षेत्र परक्त सेतो अषाढ़ सुदी सातें को श्री नेमिनाय तीर्घरादि बहत्तर कोड़ सात से मुनि मुक्ति पधारे, पर्य० ।। दोहा-कार्तिक वदि मावस गये शेष कर्म हनि मोक्ष ।
पावापुरते वीर जिन जजू चरण गुण धोक ॥ महावीर जिन सिद्ध भये पावापुर से जोय । मन वच तन कर पूजहूं शिखर नमूं पद दोय ॥'
हो श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र परवत सेतो कार्तिक ब्दो मावत को श्री वर्द्धमान तीर्थरादि जसंख्य मुनि मुक्ति पधारे, अर्घ० । दोहा-सुधर्मादि गणेश गुरु अन्तिम गौतम नाम ।
तिन सबकू लै अर्घ तै पूजूं सब गुण धाम ॥ . • हो श्री सुधर्मादि गौतम गराधर देव गुरावा ग्राम के उद्यान आदि भित्र-भिन्न स्थानो से निरवास पधारे, अर्घ०। दोहा—या विधि तीर्थ जिनेश के बन्दू शिखर महान ।
और असंख्य मुनीश जे पहुंचे शिवपद थान ॥ सिद्ध क्षेत्र जे और हैं भरत क्षेत्र के मांहि । और जे अतिशय क्षेत्र हैं कहे जिनागम मांहि ॥
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जैन पूजा पाठ संप्रद
तिनके नाम सु लेत ही पाप दूर हो जाय । ते सब पूजू अर्घ ले भव भव को सुखदाय ।। ॐ हो श्री भरत क्षेत्र सम्बन्धी सिद्धक्षेत्र और अतिशय क्षेत्रेभ्यो अर्ध ।
सोरठा। दीप अढ़ाई मांहि सिद्धक्षेत्र जे और हैं। पूजू अर्घ चढ़ाय भव भव के अघ नाश हैं ।
अडिल्ल छन्द । पूजू तीस चौबीसी महासुख दाथ जू । भूत भविष्यत् वर्तमान गुण गाय जू ॥ कहे विदेह के बीस नमू सिरनाय जू ।
और जू अर्घ बनाय सु विघन पलाय ज ॥ ॐ ही श्री तीस चौवीसी और भूत भविष्यत् वर्तमान जोर विदेह क्षेत्र के वीस जिनेश्वर प्रर्प । दोहा-कृत्याकृत्यम जे कहे तीन लोक के मांहि ।
ते सब पूज अर्घ ले हाथ जोर सिरनाय ।। ॐ ही श्री ऊर्ध्वलोक मध्यलोक पाताललोक सम्बन्धी जिन मन्दिर जिन यालयेभ्यो नम अर्ध । दोहा-तोरथ परम सुहावनो शिखर सम्मेद विशाल । कहत अल्प बुधि युक्ति सै सुखदाई जयमाल ॥
अथ जयमाला, छन्द पद्धडी। जय प्रथम नमूं जिन कुन्थ देव, जय धर्म तनी नित करत सेव । जय सुमति सुमति सुधबुद्धि देत, जय शान्ति न नित शान्ति हेत ॥
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१४२
जैन पूजा पाठ सप्रह
जय विमल नर्मू आनन्द कन्द जय सुपार्स न, हनि पास मन्द। जय अजित गये शिव हानि कर्म, जय पाव करी जुग उरग सर्म ।। पश्चिम दिस जानू टोक एव, वन्दे चहुँगति को होय छेव । नर सुर पद की तो कौन बात, पूजे अनुक्रमते मुक्ति जात ॥ जय नेमि तनू नित धरू ध्यान, जय अरि हर लीनो मुक्ति थान । जय मल्लि मदन जय शील धार, श्रेयास गये भव उदधि पार ॥ जय सुमति सुमति दाता महेश, जय पद्म नमूं तम हर दिनेश । जय मुनि सुवृत गुण गण गरिष्ट, जय चन्द्र करे आताप नष्ट । जय शीतल जय भव के आताप, जय अनन्त नम नशि जात पाप । जय सम्भव भव की हरो पीर, जय अभय करो अभिनन्दन वीर ॥ पूरव दिश द्वादश कूट जान, पूजत होवत है अशुभ हान । फिर मूल मन्दिरकू करू प्रणाम, पावै शिव रमनी वेग धाम ।
घत्ता छन्द । श्री सिद्ध सु क्षेत्र अति सुख देतं तुरतं भव दधि पार करं। अरि कर्म बिनासन शिव सुख कारन जय गिरवर जगता तारं॥
चाल छप्पय । प्रथम कथ जिन धर्म सुमति अरु शान्ति जिनन्दा। बिमल सुपारस अजित पार्श्व मेटै भव फन्दा ॥ श्री नमि अरह जु मल्लि श्रेयांस सुविधि निधि कन्दा। पद्म प्रभु महाराज और मुनि सुवृत चन्दा ॥
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शीतलनाथ अनन्त जिन सम्भव जिन अभिनन्दजी। बीस टोंक पर बीस जिनेश्वर भाव सहित नित बन्दजी॥
ॐ हो पो सम्मेद शिखर सिद्धदेन परवत सेती वीस नाररादि असख्यात मुनि मुक्ति पधारे, अर्धम्।
कवित। शिखर सम्मेदजी के बीस टोक सब जान । तासों मोक्ष गये ताकी संख्या सब जानिये ॥ चउदासे कोड़ा कोडि पैसठ ता ऊपर । जोडि छियालिस अरब ताको ध्यान हिये निये ॥ बारा सै तिहत्तर कोड़ि लाख ग्यारा से बैथालीस।
और सात सै चौतीस सहस वखानिये ॥ सैकडा है सातसै सत्तर राते हुए सिद्ध ।
तिनकू सु नित्य पूज पाप कर्म हानिये ॥ दोहा-बीस टोंक के दरश फल, प्रोषध सख्या जान । एकसौ तेहत्तर मुनी, गुण सठ लाख महान ।।
पत्ता छन्द। ए बीस जिनेश्वर नमत सुरेसुर मघवा पूजन कू आवै। नरनारी ध्यावै सब सुख पावै रामचन्द्र नित सिर नावै॥
इति पुष्पांजलि क्षिपेत् ।
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१४४
जेन पूजा पाठ म
श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र पूजा दोहा
उत्सव किय पनवार जहॅ, सुरगणयुत हरि आय । जजों सुथल वसुपूज्य तसु, चम्पापुर हर्षाय ॥
ॐ ह्रीं श्री नगापुर पेत्र । अत्रावतरायतर सर्वोपट् ।
ॐ ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र । भय निष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धपेत्र । भत्र मन समिहतो भव भय यषड् । अष्टक चाल नन्दीश्वर पूजन की
सम अमिय विगतत्र वारि, लै हिम कुम्भ भरा । लख सुखद त्रिगदहरतार, दे प्रय धार धरा ॥ श्रीवासुपूज्य जिनराय, निर्वृतिथान प्रिया । चम्पापुर थल सुखदाय, पूजों हर्प हिया ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ||१| कश्मीरी केशर सार, अति ही पवित्र खरी ।
शीतल चन्दन संग सार ले भव तापहरी ॥ श्री० ॥ ॐ ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वष्टा ॥ २ ॥ मणिद्युतिसम खण्ड विहीन, तन्दुल लै नीके ।
सौरभ युत नव वर बीन, शालि महा नीके ॥ श्री०
॥
ॐ ह्रीं श्री चम्पापुर सिद्धतेनेभ्यो भक्षयपदप्राप्तये भक्षत निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
अलि लुभन सुभग हगघाण, सुमन जु सुरद्रुमके | लै वाहिम अर्जुन वाण, सुमन दमन झुमके ॥ श्री०
ॐ श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो कामवाणविध्वशनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
१४५
रस पूरित तुरि पकवान, पर यथोक घृती। क्षुधगदमदपदमन जान, लै विध युक्त कृती॥श्री०॥
ही श्री चम्पापुर सिद्धप्रेभ्यो पारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्याहा ॥ ५॥ तम अज्ञप्रनाशक सूर, शिवमग परकाशी। लै रत्तद्वीप (तिपूर, अनुपम सुखराशी ॥ श्री०॥ केही थी चम्पापुर सिद्धग्रेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ वर परिमल द्रव्य अनूप, सोध पवित्र करी । तस चूरण कर कर धूप: लै विधि कुञ्ज हरी ॥श्री० ॥ ॐ ही श्री चम्पापुर सिद्धपत्रेभ्यो अष्टकर्मपि वगनाय धूपं निर्वामीति स्वाहा ॥ ७॥ फल पक मधुर रस वान, प्रासुक बहु विधके । लखि सुखद रसनहगवान, ले शुभपद सिधके॥श्री०॥
ही श्री चम्पापुर मिग्रेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल नियंपामीति स्वाहा ॥८॥ जलफलवसु द्रव्य मिलाय, लै भर हिमथारी।। वसु अंग धरापर ल्याय, प्रमुदित चितधारी ॥ श्री०॥ ॐही श्री चम्पापुर सिद्धग्रेभ्यो भनयंपदभातये अयं निर्षपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥
जयमाला।
दोहा भये द्वादशम तीर्थपती, चम्पापुर निर्वान । तिन गुणकीजयमाल कछु,कोंश्रवणसुखदान।
पद्धडी छन्द। जय जय श्री चम्पापुर सुधाम, जहं राजत नृप वसुपूज नाम । जय पौन पल्यसै धर्म हीन, भव भ्रमण दुःखमय लख प्रवीन ॥ उर करुणाघर सो तम विडार, उपजे किरणावलि घर अपार ।
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जैरहद
श्री वासुमूल्य तिन जु पाल, दादरम तीर्षका विशाल ॥ भव मोग देने विरत होप, वय वाल्लाहि ही नाय सोय । सिड्न ननि नहान भार तीन, तप हान्न विध उप्रोष जीन ॥ तह मोन सत्रय आयु ह दन प्रति पूरे ही यह। अंगी अन आम होय, गुन नवन नाग नवनाहि सोय । सोलह र क इस षट् इन इक इक इम इन वन सहय। पुनि सनयान इन लोम टार, वाइनभ्यान सोलह द्विारा है अनन्तु ऋष्टय युन्ज स्वाल पायो र सुखद नयोग डान.! नह काल गिोचर नबग युमात हि सन्य इकनहि त्य
काल दुविधा अनिय कृय. जर पोषे भाव झवि धान्य नृपा इस मा आय की जान, जिन योगन की नुमति हान ।। ताही घत ते सिध्यान ण, सुकन्यान निमसे जिताय । ह कुबल नरय नारा इ बहचर विहि पनि । तेरह न3 वरन सनय न्मार, न श्री जगन्दर प्रहार ।
पनि अवनी इक जन्य नद्धि, निवसे पार निव चल ऋद्धिा युन गु ऋतु प्रमुर अमित गुर. है हे दा ही उनहि केन। नहीं हैं जो थाना पवित्र, लेप गायो विचित्र । मैं तुज निज नस्तन त्यावं. बन्दों पुनि-पुनि सविनाय। ताही पद वांडा उर धार. वर व वाह बुद्ध विहार
दोहा श्रीचन्पापुर जो पुल्प. पूजे सन बच काय ! वगि दौल तो पाय ही तुख सम्पति अधिनाय !!
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श्री गिरनार सिद्धक्षेत्र पूजा
दोहा - वन्दों नेमि जिनेश पद, नेमि-धर्म दातार । नेम धुरन्धर परम गुरु, भविजन सुख करतार ॥ जिनवाणी को प्रणमि कर गुरु गणधर उरधार । सिद्धक्षेत्र पूजा रचों, सब जीवन हितकार । ऊर्जयन्त गिरिनाम तस, ह्यो जगत विख्यात गिरिनारी तास कहत, देखत मन हर्पात ॥ सिधा सुन्दरी छन्द ! गिरि सु उन्नत सुभगाकार है, पञ्चकूट उत्तंग सुधार है । मनोहर शिला 'सुहावनी, लखत सुन्दर मनको भावनी ॥ अवर कूट अनेक घने तहां, सिद्ध थान सु अति सुन्दर जहाँ । देखि भरिजन मन हर्षावते. सकल जन वंदन को आवते ॥
छन्द ।
तह नेमकुलाग व्रत तप धारा, कर्म विदारा शिव पाई । मुनि कोटि बहत्तर सात शतक घर तागिरि ऊपर सुखदाई ॥ है शिवपुरवासी गुणके राशी विधि धिति नाशी ऋद्धिधरा । तिनके गुण गाई पूज रचाऊँ, मन हर्षाऊँ सिद्धि करा ॥ दोहा - ऐसो क्षेत्र महान तिहिं पूजों मन वच काय ।
त्रय वार जुकर थापना, तिष्ठ तिष्ठ इत आय ॥ *हीं भी गिरनार मित्र । ध अन्तर अवतर गपीपटू ।
ॐ श्री गिरवार मित्र । अत्र तिष्ठ तिष्ठत कन्ठः स्थापन । * गिरनार सिद्धक्षेत्र । अत्र मम सन्निहितानि भय भय पपटू
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जैन पूजा पाठ साह
अष्टक, कवित्त। लेकर नीर सु क्षीर समान महा सुखदान सु प्रासुक लाई। दे त्रय धार जजों चरणा हरना मम जन्म जरा दुःखदाई। मेमिपती तज राजमती भये वालयती तहत शिवपाई। कोडि बहत्तरि सातसौ सिद्ध मुनीश भये सुजजों हर्षाई॥ ॐ ही श्री गिरनार सिद्धपग्रेभ्यो जन्मजरानृत्युविनाशनाये जल निर्वामीति स्वाहा ॥१॥ चन्दनगारि मिलाय सुगन्ध सु, ल्याय कटोरी में धरना। मोहमहातम मेटनकाज सु चर्चतु हों तुम्हरे चरना। नेमि० ॐ ही श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति साहा ॥२॥ अक्षत उज्ज्वल ल्याय धरों, तह पुंज करो मनको हाई। देह अखयपदप्रभु करुणा कर,फेर नयाभववासकराईनेलिक
ॐ ही श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वामीति स्याहा ॥ ३ ॥ फूल गुलाब चमेली बेल कदंव सु चम्पक वीन सु ल्याई। प्राशुकपुष्पलवंगचंदाय सुगाय प्रभू गुण काम नसाईनेलि
ॐ ही श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वगामीति रवाहा ॥४॥ नेवज नव्य करों भर थाल सु कंचन भाजनमें धर साई। मिष्ट मनोहर क्षेपत हों यहरोगक्षुधा हरियो जिनराई।लिक 'ॐ ही श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेय निर्वपानीति खाहा ॥ ५॥ दीप बनाय धरों मणिका अथवा घृत वालि कपूर जलाई। नृत्य करोंकर आरति ले मममोहलहातमजाय नशाई। नेमिक ॐ ही श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकारपिनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ॥ धूप दशांग सुगन्धमई कर खेवहु अग्नि मझार लुहाई।
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शीघ्रहि अर्ज सुनो जिनजी मम कर्ममहावन देउजराई ॥ नेमि० ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धचेत्रेभ्यो भष्टकर्मविध्वसनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
ले फल सार सुगन्धमई, रसना हृद नेत्रनको सुखदाई । क्षेपत हों तुम्हरे चरणा प्रभु देहु हमें शिव की ठकुराई ॥ नेमि०
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
ले वसु द्रव्य सु अर्घ करों घर थाल सु मध्य महा हर्षाई । पूजत हों तुमरे चरणा हरिये वसु-कर्मबली दुःखदाई ॥ नेमि०
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धतेप्रेभ्यो अनर्धपदप्राप्तये अप्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९॥
दोहा - पूजत हों वसुद्रव्य ले, सिद्धक्षेत्र सुखदाय । निज हितहेतु सुहावनो, पूरण अर्घ चढ़ाय ॥
ॐ ह्रीं श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो पूर्णार्धम् निर्वपामीति स्वाहा । पचकल्याणक अर्थ, छन्द पाहता ।
कातिक शुक्ला की छठ जानों, गर्भागम ता दिन मानो । उत इन्द्र जर्ज उस थानी, इत पूजत हम हर्षानी ॥
ॐ ह्रीं कार्तिकशुलापय्यां गर्भमकुल प्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अध्ये० । श्रावण शुक्ल छठ सुखकारी, तब जन्म महोत्सव धारी। सुरराज सुमेर हवाई, हम पूजत इत सुखपाई ॥
ॐ ही भावनायां जन्ममलमण्डिताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अयं ० ।
सित श्रावणकी छट्टि प्यारी, ता दिन प्रभु दीक्षा धारी । रूप घोर वीर तह करना, हम पूजत तिनके चरणा ॥
ॐ ही श्रावणशुक्रमष्टी दिने दीक्षामङ्गलप्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अध्यं • •
कम शुक्ल आश्विन भाषा, तब केवल ज्ञान प्रकाशा |
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जैन पूजा पाठ समह
हरि समवशरण तब कीना, हम पूजत इत सुख लीना ॥
ॐ ह्रीं श्राश्विनशुक्राप्रतिपदि स्वलज्ञानप्राप्ताय श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अध्य• ।
लित अष्टमी मास अषाढ़ा, तब योग प्रभू ने छोड़ा | जिन लई मोक्ष ठकुराई, इत पूजत चरणा भाई ॥
ॐ ही भाषायां मोक्षमनलप्राप्ताय श्री नेमिनाथ विनेद्राय अघ० । अडिल्ल छन्द ।
कोडि बहत्तर सप्त सैकड़ा जानिये । सुनिवर मुक्ति गये ततै सु प्रमाणिये ॥ पूजौ तिनके चरण सु मनवचकाय । वसुविध द्रव्य मिलाय सुगाय वजाय कैं दोहा - सिद्धक्षेत्र गिरिनार शुभ. सव जीवन सुखदाय । कहीं तासु जयमालिका, सुनतहि पाप नशाय ॥१॥
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जयमाला ।
पद्धडी छन्द ! जय सिद्धक्षेत्र तीरथ महान, गिरिनारि सुगिरि उन्नत चखान । ह जूनागढ है नगर सार, सौराष्ट्र देश के मधि विधार ॥ २ ॥ तिस जूनागढ से चले सोइ, समभूमि कोस वर तीन होइ । दरवाजे से चल काल आघ, इक नदी वहत है जल अगाध ॥ ३ ॥ पर्वत उत्तर दक्षिण सुदोय, मधि बहत नदी उज्वल सु तोय | ता नदी मध्य इक कुण्ड जान, दोनों तट मन्दिर बने मान ॥ ४ ॥ वह वैरागी वैष्णव रहाय, भिक्षा कारण तीरथ कराय । इक कोस तहां यह मच्यो ख्याल, आगें इक वर नदी बहत नाल ॥ ५ ॥ वह श्रावकजन करते सनान, घो द्रव्य चलत आगें सु जान । फिर मृगीकुण्ड इक नाम जान, तहा वैरामिन के बने थान ॥ ६ ॥
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वैष्णव तीरथ जहा रच्यो सोह, चैष्णव पूजत आनन्द हो । जागे चल डेढ सु कोस जाव, फिर छोटे पर्वत को चढ़ाव ॥ ७ ॥ वहां तीन कुण्ड सोहे महान, श्रीजिन के युग मन्दिर चखान । मन्दिर दिगम्बरी दोय जान, श्वेतांबर के बहुते प्रमान ॥ ८ ॥ जहां पनी धर्मशाला सुजोय, जलकुण्ड तहां निर्मल सु तोय | श्वेताम्बर यात्री वहां जाय, ताकुण्ड माहिं निवही नहाय ॥ ६ ॥ फिर आगे पर्वत पर चढ़ाय, चढि प्रथम कूट को चले जाय । तहां दर्शन कर आर्गै सु जाय, तहां दृतिय टोंक के दर्श पाय ॥१०॥ वहां नेमनाथ के चरण जान, फिर है उतार भारी महान । वहा चढ कर पञ्चम टोंक जाय, अति कठिन चढ़ाव तहा लखाय ॥११॥ श्रीनेमनाथ का मुक्ति थान, देखत नयनों अति हर्ष मान । कवि चरणयुग तहा जान, भवि करत चन्दना हर्प ठान ॥ १२ ॥ कोउ करते जय जय भक्ति लाइ, कोऊ श्रुति पढते तहा सुनाय । तुम त्रिभुवनपति त्रैलोक्यपाल, मम दुःख दूर कीजें दयाल ॥१३॥ तुम राजमद्धि भुगती न कोई, यह अथिररूप संसार जोइ । तज मात पिता घर कुटुम् द्वार तज राजमती-सी सती नार ॥१४॥ द्वादशभावन भाई निदान, पशुवदि छोड दे अभय दान | शेसा वन में दीक्षा सुधार, तप करके कर्म किये सु छार ॥१५॥ वाही वन केवल ऋद्धि पाय, इन्द्रादिक पूजे चरण आय । वहां समवशरण रचियो विशाल, मणि पञ्चवर्ण कर अति रसाल ॥ १६ ॥ तहा वेदी कोट सभा अनूप, दरवाजे भूमि बनी सु रूप । वसुप्रातिहार्य छत्रादि सार, वर द्वादश सभा बनो अपार ॥१७॥ करके विहार देशों मझार, भवि जीव करे भव सिन्धु पार । पुन टोंक पञ्चमीको सु जाय, शिव नाथ लह्यो आनन्द पाय ॥ १८ ॥
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जेन पूजा पाठ सग्रह
सो पूजनीक वह थान जान, वन्दत जन तिनके पाप हान । तहत मु बहत्तर कोड और, मुनि सात शतक सब कहे जोर ॥१६॥ उस पर्वतसों सब मोक्ष पाय, सव भूमि सु पूजन योग्य थाय । तहां देश-देश के भव्य आय, वन्दन कर बहु आनन्द पाय ॥२०॥ पूजन कर कीने पाप नाश, बहु पुण्य बंध कीनो प्रकाश । यह ऐसो क्षेत्र महान जान, हम करी चन्दना हर्प ठान ॥२२॥ उनईस शतक उनतीस जान, सम्बत् अष्टमि मित फाग मान । सब सग सहित वन्दन कराय, पूजा कीनी आनन्द पाय ॥२२॥ अव दुःख दूर कीजै दयाल, कहै 'चन्द्र' कृपा की कृपाल । मैं अल्पबुद्धि जयमाल गाय, भवि जीव शुद्ध लीज्यो बनाय ।।२३॥
पत्ता। तुम दयाविशाला सब क्षितिपाला, तुमगुणमाला कण्ठ धरी। ते भव्य विशाला तज जगजाला, नावत भाला मुक्तिवरी॥
ॐ ही श्री गिरनार सिद्धक्षेत्रेभ्यो महापं निर्वामीनि स्वाहा ।
चारित्र आत्मा के स्वरूप में जो चर्या है उसी का नाम चारित्र है, वही वस्तु का स्वाभाविक धर्म है। . सयम का पालन करना कल्याण का प्रमुख साधन है। - ससार में वही जीव नीरोग रहता है, जो अपना जीवन चारित्र
पूर्वक बिताता है। - उपयोग की निर्मलता ही चारित्र है।
-'वी वाणी' से
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श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा
जिंहि पावापुर छित अघाति, हत सन्मति जगदीश । भये सिद्ध शुभधान सो, जजों नाय निज शीश ॥
'हो श्री दावापुर सिद्धक्षेत्र ! पत्र स्वतर भवतर संवोधट् श्राननं । ॐ ही प्रो दायापुर सिद्धक्षेत्र ! पति हि ठठ स्थापन ॐ ही श्री नवापुर निक्षेत्र ! मम सहितो भव भव वषट् सत्रिधापनं । अयाहरू, गोता छन्द |
शुचि सलिल शीतौ कलिलरीतौ, श्रमण चीतौ लै जिसो । भर कनक भारी त्रिगद हारी, दै त्रिधारी जित तृषो ॥ वर पदावर भर पद्म सरवर, वहिर पावा ग्राम ही । शिवधाम सन्मत स्वामी पायो, जजों सो सुखदा नही ||
1x
श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वनाथ जिनेन्द्राय ज्न्ममृत्युरोग विनाशनाथ जलं० ॥२॥
भव भ्रमत भ्रमत शर्मा तपकी, तपन कर तप ताइयो । तसु बलय-कन्दन मलय-चन्दन, उदक सग घिसाइयो || वर० हो प्रोपावर डिपो दोन नेिन्द्राय समारतापविनाशनाय चन्दनं० ॥२॥ तन्दुल नवीन अखण्ड लीने, ले महीने ऊजरे । मणिकुन्द इन्दु तुषार द्युति जित, कनक- रकाबी में धरे ॥ वर ॐ श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वीरनाथ निन्द्रा क्षयपदप्राप्तये अक्षत० ॥ ३ ॥
मकरन्दलोभन सुमन शोभन सुरभि चोभन लेय जी । मद समर हरवर अमर तरुके, प्रारण हग हरखेय जी ॥ वर० ह्रीं श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वीरनाथ जिनन्द्राय कामवाशविध्वसनाय पुष्प० ॥ ४ ॥ नैवेद्य पावन छुध मिटावन, सेव्य भावन युत किया ।
*
रस मिष्ट पूरित इष्ट सूरति, लेयकर प्रभु हित हिया ॥ वर० ॐ ही श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वोरनाथ जिनेन्द्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ० ॥ ५ ॥
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जंन पूजा पाठ सप्रह
तम अज्ञ नाशक स्वपरभाशक ज्ञेय परकाशक सही । हिमपात्रमे धर मौल्यबिन वर द्योतधर मपि दीपही ॥ वर० ॐ ही श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वोरनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीप० ॥६॥ आमोदकारी वस्तुसारी विध दुचारी - जारनी ।
तसु तूप कर कर धूप ले दशदिश- सुरभि - विस्तारनी ॥ वर०
ॐ ह्री श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वीरनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मविध्वसनाव धूप० ॥ ७ ॥
फल भक्क पक्व सुचक्य सोहन, सुक्क जनमन मोहने ।
वर सुरस पूरित त्वरित मधुरत लेय कर अति सोहने ॥ वर०
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हो श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वोरनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये प्लं० ॥ ८ ॥
जल गन्ध आदि मिलाय वसुविध धारस्वर्ण भरायकै । मन प्रमुद् भाव उपाय करले आय अर्ध बनायकै ॥ वर० ॐ ह्री श्री पावांपुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो वीरनाथ जिनेन्द्राय श्रनपदप्राप्तये ॥ १॥ जस्वाला ।
दोहा - चरम तीर्थ करतार, श्री वर्द्धमान जगपाल । कल मलदल विध विकल है, गाऊँ तिन जयमाल ॥
पद्धडी छन्द ।
जय जय सुवीर जिन मुक्ति धान, पावापुर वन सर शोभवान । जे सित असाढ छट स्वर्ग धाम, तज पुष्पोत्तर सुविमान ठान ॥ १ ॥ कुण्डलपुर सिद्धारथ नरेश, आये त्रिशला जननी उरेश । सित चैत त्रयोदशि युत त्रिज्ञान, जनमे तम अज्ञ-निवार भान । पूर्वाह्न धवल चउदिश दिनेश, किय नह्वन कनकगिरि-शिर सुरेश । वय वर्ष तीस पद कुमरकाल, सुख दिव्य भोग भुगते विशाल ॥ ३ ॥
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मगसिर अलि दशमी पवित, चट चन्द्रपभा शिविका विचित्र । बलि पुर सो सिद्धन शीरानाय, धार्यो सजम वर शर्मदाय ॥ ४ ॥ गत वर्ष दुदरा कर तप विधान, दिन शित वैशाख दशै महान । रिजुकुला सरिता तट स्व सोध, उपजायो जिनवर चमर बोध ॥ ५॥ तब ही हरिआज्ञा शिर चढाय, रवि समवशरण वर धनदगय । चउसंघ प्रति गौतम गणेन युत तीस वर्ष विहरे जिनेश ॥ ६॥ भविजीव देशना पिविध देश, आये वर पावानगर खेत । कार्तिक अलि अन्तिम दिवस ईस, कर गोग निरोध अघाति पीस ॥ ७ ॥ ह सिद्ध अमल इक समग माहिं, परम गति पाई श्री जिनाह । तव मुरपति जिनरवि भरत जान, माये तुरन्त चढि निज विमान ॥ ८ ॥ कर वपु अरचा थुति विविध भांत, ले विविध द्रव्य परिमल विरयात । तव ही अगणीन्द्र नवाय शीत, सस्कार देह की विजगदीश ॥ ९ ॥ कर भस्म वन्दना निज महीय, निवसे प्रभु गुण चितवन स्वहीय । पुनि नर मुनि गणपति आय-आय, वदी सो रज शिर नाय-नाय ॥१०॥ तवही सो सो दिन पूज्य मान, पूजत जिनगृह जन हर्प मान । मैं पुन-पुन तिस भुवि शीग चार, वन्दो तिन गुणधर उर मझार ॥११॥ तिनही का अब भी तीर्थ एह, बरतत दायक अति शर्म गेह । अरु दुःखमकाल अवसान ताहि, वर्तगो भव तिथि हर सदाहि ॥१२॥
ऊमुमलता छन्द। श्रीसन्मति जिन अघ्निपा युग जजै भव्य जो मन वच काय । ताके जन्म-जन्म संचित अघ जावहि इक छिन माहिं पलाय ॥ धन धान्यादिक शर्म इन्द्रपद लहै सो शर्म अतीन्द्री थाय । अजर अमर अविनाशी शिवथल वर्णी दौल रहै शिर नाय ॥
ॐ हीं श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रेभ्यो महाघम् निर्वपामोति स्वाहा ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा
अडिल्ल छन्द । जम्बूद्वीप मझार स भरत क्षेत्र कहो।
आर्य खण्ड सु जान भद्र देशे लहो॥ सवर्णगिरि अभिराम स पर्वत है तहां।
पञ्चकोडि अरु अर्द्ध गये मुनि शिव तहां ॥१॥ दोहा-सोनागिरिके शीश पर, बहुत जिनालय जान।
चन्द्रप्रभु जिन आदि दे, पूजों सब भगवान ॥ दी श्री पोनागिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो । अत्र अवतर अवतर सवौषट् बाहानन । ही श्री सानागिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो 1 अन तिष्ठ तिष्ठ ठ.ट' स्थापन । ही श्री मनागिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो ! मन मम सन्निहितो भव भव वषट् ।
अथाष्टक, सारङ्ग छन्द ।। पदमद्रह को नीर ल्याय गंगा से भरके।
कनक कटोरी मांहि हेम थारन में धरके ।। सोनागिरिके शीश भूमि निर्वाण सुहाई।।
पञ्चकोडि अरु अर्द्ध मुक्ति पहुंचे मुनिराई॥ चन्द्रप्रभु जिन आदि सकल जिनवर पद पूजो।
स्वर्ग मुक्ति फल पाय जाय अविचले पट हुजो।। दोहा -सोनागिरि के शीप पर, जेते सब जिनराज ।
तिनपद धारा तीन दे, तृषा हरण के काज ।। *ही श्री मोनागिरि निर्वाणो यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय अल निवपामीति स्वाहा ॥
केसर आदि कपूर मिले मलयागिरि चन्दन । परिमल अधिकी तास और सब दाह निकन्दन।
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बेन पूजा पाठ सद
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सोनागिरि के शीश पर, जेते सव जिनराज । ते सुगन्ध कर पूजिये, दाह निकन्दन काज ॥ ही थी सोनागिरि निर्माणग्रेभ्यो ससारतापपिनागनाय चन्दन निष्पामीति स्वाहा ॥ तन्दुल धवल सुगन्ध ल्याय जल धोय पखारो। अक्षय पद के हेतु पुञ्ज द्वादश तह धारो॥ सोनागिरि के शीश पर, जेते सब जिनराज । तिन पद पूजा कीजिये, अक्षय पद के काज ॥ ही सोनागिरि निपांगरेभ्यो अक्षयपदनामये अक्षतान् निर्षपामीति स्याहा ॥३॥ चेला और गुलाव मालती कमल मंगाये। पारिजात के पुष्प ल्याय जिन चरण चढ़ाये ॥ सोनागिरि के शीश पर, जेते सब जिनराज । ते सब पूजी पुप्प ले, मदन विनाशन काज॥ ही थी सोनागिरि निक्षत्रेभ्यो पामपाणपिध्वरानाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ विजन जो जगमांहि खांडत मांहि पकाये। मीठे तुरत बनाय हेम थारी भर ल्याये ।। सोनागिरि के शीश पर, जेते सब जिनराज । ते पूजों नैवेद्य ले, क्षुधा हरण के काज ।। ही श्री सोनागिरि निर्माणक्षेत्रेभ्यो पारोगपिनाशनाय नैवेयं निपंपामीति स्वाहा ॥५॥ मणिमय दीप प्रजाल धरौं पंकति भर थारी। जिन मन्दिर तम हार करहु दर्शन नर-नारी ॥ सोनागिरि के शीश पर, जेते सब जिनराज ।
करों दीप ले आरती, ज्ञान, प्रकाशन काज। ॐी श्री सोनागिरि निर्याणक्षेत्रेभ्यो मोदान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा net
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जेन पूज पाठ सग्रह
दशविध धूप अनूप अगनि भाजन मे डालो। जाकी धुप सुगन्ध रहे भर सवं दिशालों ।। सोनागिरि के शोश पर जेते लव जिनराज ।
धूप कुम्म आगे धरो, कम दहन के काज ॥ ॐ ह्रीं श्री सोनगिरि नेवाणक्षेत्रेभ्यो अष्टकमविध्वशनाय धूप निवपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
उत्तम फल जग माहि वहत मीठे अरु पाके । अमित अनार अवार आदि अमृत रस छाके। सोनागिरि के शीश पर, जेते सव जिनराज । उत्तम फल तिनको मिले, कर्म विनाशन काज ॥ ही श्री सानाति निवाणक्षेत्रभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल निवपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥ दोहा-जल आदिक वसु द्रव्य अर्घ करके धर नाचो।
वाजे बहुत वजाय पाठ पढ़ के सुख सांचो ।। सोनागिरि के शीश पर, जेते सब जिनराज ।
ते हम प्रजे अर्घ ले, मक्ति रमण के काज ॥ ॐ ही श्री सोनागिरि निवाणक्षेत्रेभ्यो अनर्थ्यपदप्राप्तये अध्यं निवणामीति स्वाहा ॥ ९॥
अडिल छन्द । श्री जिनवर की भक्ति सु जे नर करत है। फल वांछा कुछ नाहि प्रेम उर धरत है ।। ज्यों जगमाहिं किसान सु खेती को करें । नाज काज जिय जान सु शुभ आपहि झरें । ऐसे पूजादान भक्ति यश कीजिये।
सुख सम्पति गति मुक्ति सहज पा लीजिये। ॐ ही श्री सोनागिरि निर्वाणक्षेत्रेभ्यो पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा। .
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जैन पूजा पाठ सह
. अथ जयमाला। दोहा-सोनागिरिके शीश पर, जिन-मन्दिर अभिराम । तिन गुणकी जयमालिका, वर्णत 'आशाराम ॥१॥
पद्धही छन्द । गिरि नीचे जिन मन्दिर सुचार, वे यतिन रचे शोभा अपार । तिनके अति दीरघ चौक जान, तिनमे यात्री भेलें सु आन ।। २ ।। गुमटी छज्जे शोभित अनूप, ध्वज पढ्दति सोहे विविध रूप । चसु प्रातिहायें तहां घरे आन, सव मङ्गल द्रव्यन की सुखान ।।३।। दरवाजों पर कलशा निहार, करजोर सु जय जय ध्वनि उचार । इक मन्दिरमे यति राजमान, आचार्य विजय कीर्ति सुजान ॥४॥ तिन शिप्य भागीरथ विवुध नाम, जिनराज भक्ति नही और काम। अन पर्वत को चढ चलो जान, दरवाजो तहा इक शोभमान ।। ५॥ तिस ऊपर जिन प्रतिमा निहार, तिन वंदि पूज आगे सिधार । तहां दुःखित भुखित को देत दान, याचक जन जहां हैं अप्रमाण ॥६॥ आगे जिन मन्दिर दुई ओर, जिन मान होत वादित्र शोर ।। माली बहु ठाडे चौक पौर, ले हार कलगी तहां देत दौर ॥ ७ ॥ जिन यात्री तिनके हाथ मांहि, वखशीस रीझ तहां देत जाहिं।। दरवाजो तहा दजो विशाल, तहां क्षेत्रपाल दोउ ओर लाल ॥८॥ दरवाजे भीतर चौक मांहि जिन भवन रचे प्राचीन हिं। तिनकी महिमा चरणी न जाय, दो कुण्ड सुजलकर अति सुहाय ॥६॥ जिन मन्दिर की वेदी विशाल, दरवाजे तीनों बहु सु ढाल। ता दरवाजे पर द्वारपाल, ले मुकुट खड़े अरु हाथ माल ॥१०॥
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जैन पूरा गठ संग्रह
जे दुर्जन को नहीं जान देय ते निन्दक को ना दर देय | चल चन्द्र प्रभु के चौक माहि, दालाने वहां चौतर्फ आहि ॥ ११ ॥ वहां सभ्य सभा मण्डप निहार, तितकी रचना नाना प्रकार | तहां चन्द्रप्रभु के दरश पाय, फल जात ल्हो तर जन्म आय ॥ १२ ॥ प्रतिमा विशाल वहां हाथ सात. कायोत्सर्ग हा तुहात |
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बन्दे पूछें तहां देव दान, जननृत्य भजन कर मधुर पान ॥ १३ ॥ ता धेरै धेरै धेरै वाजत सितार, मृदङ्ग बीन मुहार । तिनकी ध्वनि तुनि भवि होत प्रेम, जयकार करत नाचत एव ॥ १४॥ ते स्तुति करके फिर नाय शीत, भवि चले तो कर कर्म खीत । इह सोनागिरि रचना अपार, वर्णन कर को कवि लहे पार ॥ १५ ॥ अति तनक बुद्धि 'आशा' तुपार. बस भक्ति कही इतनी दुगा । मैं मन्दबुद्धि किम लहों पार, बुद्धिवान चूक लीजे सुधार || १६ ||
ॐ ह्रीं श्री सोनागिरि णिक्षेत्रभ्यो नहायं निर्वस्वाहा ।
दोहा - सोनागिरि जयमालिका, लघुमति कहो नाय | प्रीतसे, तो नर शिवपुर जाय ॥
पढे सुने जो
इत्यादिः ।
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बन पूजा पाठ सग्रह
१६.
श्री खण्डगिरि क्षेत्र पूजा अंगवंग के पास है देश कलिंग विख्यात । तामें खण्डगिरि लसत है, दर्शन भव्य सुहात । दसरथ राजा के सुत अति गुणवान जी।
और मुनीश्वर पञ्च सैंकड़ा जान जी ॥ अष्ट-कर्म कर नष्ट मोक्षगामी भये।
तिनके पूजहुँ चरण सकल मंगल ठये॥ ॐ ही श्री कलिंगदेशमध्ये खण्डगिरि सिवरेत्र से सिद्धपद प्राप्त दशरय राजा के सुत सया पञ्चशतक मुनि ! अत्र अवतरभयतर संवौषट् आह्वानन । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन । भत्र मम सन्निहितो भव भव षषट् सनिघापनम् ।
अथाष्टका अति उत्तमशुचि जल ल्याय, कञ्चन कलश भरा। करूं धार सुमन वच काय, नाशत जन्म जरा॥ श्री खण्डगिरि के शीश जसरथ तनय कहे।
मुनि पञ्चशतक शिव लीन देश कलिंग दहे॥ . ही श्री खण्डगिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ केशर मलयागिरि सार, घिसके सुगन्ध किया। संसार ताप निरवार, तुम पद वसत हिया ॥ श्री०॥
ही श्री खण्डगिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ मुक्ताफल की उन्नलान, अक्षत शुद्ध लिया। मम सर्व दोष निरवार, निजगुण मोह दिया॥श्री०॥ ॐहाँ भी खण्डगिरि सिद्धक्षेत्रेम्पो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्याहा ॥३॥
ले सुमन कल्पतरु थार, बुन-चुन ल्याय धरूं। तुम पद ढिग धरसहि, थाण काम समूल हरूं। श्री०॥ ॐ श्री खण्डमिरि सिसक्षेत्रेम्यो कामवाणविध्यशनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥४॥
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जैन पूजा पाठ संग्रह
लाडू घेवर शुचि ल्याय, प्रभु पद प्रजन को । धरूं चरणन ढिग आय, मम क्षुधा नाशन को ॥ ॐ ह्रीं श्री खण्डगिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
श्री० ॥
ले मणिमय दीपक थार, दोय कर जोड धरो ।
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मम मोह अन्धेर निरवार, ज्ञान प्रकाश करों ॥ श्री० ॥
ॐ ह्रीं श्री खण्ड गिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥
ले दशविधि गन्ध कृटाय, अग्नि मकार घरों ।
मम अष्ट-कर्म जल जांय, यातें पांय परों ॥ श्री० ॥
ॐ ह्रीं श्री खण्ड गिरि सिद्धक्षत्रम्यो अष्टकर्म विनाशनाय धूप निवपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
श्रीफल पिस्ता सु बदाम, आम नारंगि धरूं ।
ले प्राक हिम के थार, भवतर मोक्ष वरूं ॥ श्री० ॥
ॐ ह्रीं श्री खण्डगिरि सिद्धक्षेत्रभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
जल फल वसु द्रव्य पुनीत, लेकर अर्ध करूं । नाचूं गाऊ इह भांत, भवतर मोक्ष वरूं ॥ श्री० ॥
ॐ ह्रीं श्रीखण्डगिरि सिद्धक्षेत्रेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अध्यं निवपामीति स्वाहा ॥ ९ जयमाला ।
दोहा - देश कलिंगके मध्य है, खण्डगिरि सुखधाम । उदयगिरि त पास है, गाऊँ जय जय धाम ॥ श्रीसिद्ध खण्डगिरि क्षेत्र जान, अति सरल चढाई तहा मान । अति सघन वृक्ष फल रहे आय, तिनकी सुगन्ध दशदिश जु जाय ॥ ताके सुमध्य में गुफा आय, नव मुनि सुनाम ताको कहाय । तामें प्रतिभा दशयोग धार, पद्मासन है हरि चवर डार ॥ ता दक्षिण दिश इक गुफा जान, तामें चौबीस भगवान मान ।
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जैन पूजा पाठ सम
नावहिं सु माघ ।
होते
निहाल ||
प्रति प्रतिमा इन्द्र सडे दुओर, कर वंवर घरें आजू बाजू खडी देवी द्वार, पद्मावती कर द्वादश भुवि हथियार धार, मानहुँ निन्दक नहिं आवें द्वार || ताके दक्षिण चली गुफा आय, सवबसरा हे ताको कहाय । तामें चौपीती वनी मार, अरु प्रय प्रतिमा सब योग धार ॥ सपमें हरि चमर सु घरहिं हाथ, नित आय भव्य चाके ऊपर मन्दिर विशाल, देखत भविजन ता दक्षिण हटी गुफा आय, तिनमें ग्यारह प्रतिमा 'पुनि पर्वत के ऊपर मु जाय, मन्दिर दीरप मन को चामे प्रतिमा भगवान जान, खड्गासन योग धरें ले अष्ट द्रव्य तमु पूज्य कीन, मन वच वन करि मम घोक दीन ॥ यो जन्म मफल अपनो सु भाय, दर्शन अनूप देसो जिनाय । जब अष्ट-कर्म होंगे जु चूर, जातें मुख पाहें पूग्य उत्तर द्वय निज सु धाम, प्रतिमा खड्गासन अति दर्शन करके मन शुद्ध होय, शुभ चन्ध होय निश्चय जु जोय ॥
सुहाय ।
लुभाय ॥ महान ।
पूर-पूर || महान ।
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प्रभु भक्ति जोर || चक्रेश्वरी सार ।
पुनि एक गुफा में विम्पसार, ताको पूजन कर फिर उतार । पुनि और गुफा साली अनेक, ते हैं मुनिजन के ध्यान हेत ॥ पुनि चल कर उदयगिरि मुजाय, मारी-भारी जु गुफा लखाय ।
क गुफा माहिं जिनराय जान, पद्मासन धर प्रभु करत ध्यान ॥ जो पूजत है मन वचन काय, सो भव भव के पातक नशाय । तिनमें इक हाथी गुफ़ा जान, प्राचीन लेस शोभे महान || महाराज खारवेल नाम जास, जिनने जिनमत का किया प्रकाश । बनवाई गुफा मन्दिर अनेक, अरु करी प्रतिष्ठा भी अनेक ||
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बेन पूजा पाठ
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इसका प्रमाण वह शिलालेस, बतलाता है जेनत एक। प्रारम्भ लेख में यह पसान, सिद्धों को वन्दन अरु प्रणाम ।। स्वस्तिकका चिव विराजमान, जो जन-धर्म का है महान । मधुरापति से उन युद्ध कीन, प्रतिमा आदीश्वर फेर तीन ॥ तालाब, कूप, वापी अनेक, खुदवाई उन कर्तव्य पेस। रानी भी दानी भी विशेप, बनवाई गुफा उनने अनेक।। पुनि और गुफा में लेख जान, पढते जिनमत मानत प्रधान । तहं जसरय नप के पुत्र आय, मुनि मंग पाप सो भी लहाय॥ उप पारह विधि का यह करन्त, वाईम परीपह वह सहन्त । पुनि समिति पञ्च युत चलें सार, छयालीस दोप टल कर अहार ॥ इस विधि तप दुद्धर करत जोय, सो उपजे केवलझान सोय। सब इन्द्र आज अति भक्ति घार, पूजा कीनी आनन्द घार ।। धर्मोपदेश दे भव्य तार, नाना देशन में कर विहार । पुनि आये याही शिखर थान, सो ध्यान योग्य माना महान ॥ भये सिद्ध अनन्ते गुणन ईश, तिनके युग पद पर धरत शीश। तिन सिड्न को पुनि-पुनि प्रणाम, जिन मुख अविचल माना सुधाम।। पन्दत भव दुःख जावे पलाय, सेवक अनुक्रम शिवपद लहाय । पूंजन करता हूँ मैं त्रिकाल, कर जोड़ नमत है "मुभाठाल" ॥ उदयानिरिक्षेत्र अतिसुख देतं, तुरतहि भवदधि पार कर। जो पूजे ध्यावे कर्म नसावे, वांछित पावे मुकि वरं ॥
ही थी खण्डगिरि सिमक्षेत्रेभ्यो जयमाला नियंपामोति स्वाहा । दोहा-श्री खण्डगिरि उदयगिरि, जो प्रजै काल। पुत्र पौत्र सम्पति लहे, पावे शिव सुख हाल॥
इत्याशीर्षाद ।
। घत्ता ।
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जैन पूजा पाठ संग्रह
ले तन्दुल अमल अखण्ड, थाली पूर्ण भरो ।
अक्षय पद पावन हेतु, हे प्रभु पाप हरो ॥ बाड़ा केο ॐ ह्री श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ ले कमल केतुकी बेल, पुष्प धरू आगे ।
प्रभु सुनिये हमारी टेर, काम कला भागे ॥ वाड़ा के०
ॐ ह्री श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ नैवेद्य तुरत बनवाय, सुन्दर थाल सजा ।
मम क्षुधा रोग नश जाय, गाऊँ वाद्य बजा ॥ बाडा के० ॐ ह्री श्री पद्मप्रभु जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
हो जगमग जगमग ज्योति, सुन्दर अनयारी ।
ले दीपक श्रीजिनचन्द, मोह नशे भारी ॥ बाडा के० ॐ ह्री श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
ले अगर कर्पूर सुगन्ध, चन्दन गन्ध महा |
खेवत हों प्रभु ढिग आज, आठों कर्म दहा ॥ बाड़ा के० ॐ ह्री श्री पद्मप्रभु जिनेन्द्राय श्रष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
हरे ।
श्रीफल बादाम सु लेय, केला आदि फल पाऊँ शिव पद नाथ, अरपूं मोद भरे ॥ बाडा कै० ॐ ह्री श्री पद्मप्रभु जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
जल चन्दन अक्षत पुष्प, नेवज आदि मिला ।
मैं अष्ट द्रव्य से पूज, पाऊँ सिद्ध शिला ॥ बाड़ा के० ह्री श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय श्रनपदप्राप्तये अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
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मानो का दोहा--नररा-छमत श्रीपाक. सन्दो मनववकाय ।
पर्ध चना भावसं. कर्म न हो जाय ॥ याड़ाके
गदानमान समयमा भर्ष धरती में श्री पर जी, पासन आकार । परम दिगम्बर शान्तिमय, प्रFि H यथार ॥ सौम्पान्त पति जातिमय, दिपिकार साकार । सप्टर का अचले. पन विविध प्रकार ॥ बाड़ाके०
श्रीपप्रमनिराजभी, मो रानी ही शरमा टेर ॥ माघ कृपया धद्धि में प्रमो, पाये गर्म मार । मान सीमा का जनम किण सफल कार ॥श्री पद्म०
कार्तिक मातरम निधी, प्रमो लियो अवतार । देवों ने पूजा करी, इया मंगलाचार ॥ श्री पदुमा FERTIFITERTatement t२॥ कार्तिक शुद्ध त्रयोदशी, तुगवत बन्धन तोड । तप धारा भगवान ने, मोह कर्म को मोड़ ॥ श्री पदम Arrireka
grाय ॥
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१६८
जेन पूजा पाठ मप्रह
चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा, उपज्यो केवलज्ञान । भवसागर से पार हो, दियो भव्य जन ज्ञान ॥ श्री पद्म० * ही चैत शुक्ल पूर्णिमा केवलज्ञान प्राप्ताय श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय अध्य० ॥ ४ ॥ फाल्गुन कृष्ण सु चौथ को, मोक्ष गये भगवान । इन्द्र आय पूजा करी, मैं पूजौ धर ध्यान ॥ श्री पद्म० ॐ ही फाल्गुन कृष्ण चौथ मोक्षमङ्गत प्राप्ताय श्री पद्म प्रभु जिनेन्द्राय अय० ॥ ५ ॥
जयमाला। दोहा-चौतीसो अतिशय सहित, बाडा के भगवान । जयमाला श्री पद्म की, गाऊ सुखद महान ॥
पद्धडी छन्द।। जय पद्मनाथ परमात्म देव, जिनकी करते सुर चरण सेव । जय पद्म-पद्म प्रभु तन रसाल, जय जय करते मुनिमन विशाल । कोशाम्बो मे तुम जन्म लीन, वाडा मे वह अतिशय करीन । एक जाट पुत्र ने जमी खोद, पाया तुमको होकर समोद ॥ सुर कर हर्षित हो भविक वृन्द, आकर पूजा की दुःख निकन्द । करते दुःखियो का दुःख दूर, हो नष्ट प्रेत बाधा जरूर ॥ डाकिन साकिन सब होय चूर्ण, अन्धे हो जाते नेत्र पूर्ण । श्रीपाल सेठ अञ्जन सु चोर, तारे तुमने उनको विभोर ॥ अरु नकुल सर्प सीता समेत, तारे तुमने निज भक्त हेत। हे सङ्कट मोचन भक्त पाल, हमको भो तारो गुण विशाल ॥ विनती करता हूँ बार-बार, होवे मेरा दुःख क्षार-क्षार । मीना गूजर सब जाट जैन, आकर पूजे कर तृप्त नैन । मन वच तन से पूजै सुजोय, पावे वे नर-शिव सुख जु सोय । ऐसी महिमा तेरी दयाल, अब हम पर भी होवो कृपाल । ॐ ही श्री पदम प्रभु जिनेन्द्राय पुर्णायं०1४॥
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चा110008
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श्री बाहुबली स्वामी की पूजा दोहा-कर्म अरिगण जीति के, दरशायो शिव पन्थ ।
प्रथम सिद्ध पद जिन लयो, भोगभूमि के अन्त ।। समर दृष्टि जल जीत तहि, मल्ल युद्ध जय पाय ।
वीर अग्रणी बाहुबली, वन्दौ मन वच काय ॥ ' ॐही श्रीमद् वाहदती। पत्रावतरावतर संवौषट् भाशानन ।
ही श्रीमद वाहवती। अत्र तिट तिट ठ ठ स्थापनं । ही प्रीमद् बार वली। अब मम सत्रिहितो भव भव वषट् सनिधापनं ।
अथ अष्टकं चाल जोगीरासा। जन्म जरा मरणादि तृषा कर, जगत जीव दुःख पावै। तिहि दुःख दूर करन जिनपद को पूजन जल ले आवै । परम पूज्य वीराधिवीर जिन बाहुबली बलधारी।' तिनके चरण-कमल को नित प्रति धोक त्रिकाल हमारी॥
हो श्री वर्तमानगवसपिगी समये प्रथम मुक्ति स्थान प्राप्ताय कर्मारि विजयी वोराधीवीर वीराग्री श्री बावली परम थोगोन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल ॥२॥ यह संसार मरुस्थल अटवी तृष्णा दाह भरी है। तिहि दुःख वारन चन्दन लेकै जिन पद पूज करी है । परम० ॐ ही
प्रे स सारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामोति स्वाहा ॥ २ ॥ स्वच्छ शालि शुचि नीरज रजसम गन्ध अखण्ड प्रचारी। अक्षय पद के पावन कारण पूजे भवि जगतारी ॥ परम०
ॐ ही श्री अक्षयपदप्राप्तये अक्षत निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
हरिहर चक्रपति सुर दानव मानव पशु बस याकै। तिहि मकरध्वज नाशक जिनको पूजो पुष्प चढ़ाकै ॥ परम०
ॐ ही श्री कामकारादिध्वसनाय पुष्प निर्वपामोति त्याहा ४ : दुःखद त्रिजग जीवन को अतिही दोष क्षुधा अनिवारी। तिहि दुःख दूर करन को चरुवर ले जिन पूज प्रचारी ॥ परम० __ ॐ ही
श्रीधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामोति स्वाहा । ५६ मोह महातम मे जग जीवन शिव मग नाहि लखावै । तिहि निरवारण दीपक करले जिनपद पूजन आवै ॥ परम०
ॐ हो ऐ मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामोति स्वाहा ६६ । उत्तम धूप सुगन्ध बना कर दश दिश मे महकावे । दश विधि बन्ध निवारण कारण जिनवर पूज रचावै ॥ परम०
ॐ ही प्रो अष्टकर्मदहनाय ५ निर्वपामोति स्वाहा ॥ ७ ॥ सरस सुवरण सुगन्ध अनूपम स्वच्छ महाशुचि लावै । शिवफल कारण जिनवर पद की फलसो पूज रचावै ॥ परम०
ॐ हो श्री मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामोति स्वाहा ॥ ८ ॥ वसु विधिके वश वसुधा सबही परवश अति दुःख पावै । तिहि दुःख दूर करन को भविजन अर्घ जिनान चढ़ावै ॥ परम० ॐ होश्रो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्मपामीति स्वाहा । । ।
जयमाला. दोहा। आठ कर्म हनि आठ गुण प्रगट करे जिन रूप । सो जयवन्तो भुजवली प्रथम भये शिव भूप ॥
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कन पूजा पाठ मह
कुसुमलता छन्द |
जे जे जे जगतार शिरोमणि क्षत्रिय वश अशस महान । जे जे जे जग जन हितकारी दीनों जिन उपदेश प्रमाण || जै जै पति मुरु जिनके शत सुत जेष्ठ भरत पहिचान । के जे जे श्री ऋषभदेव जिनसों जयवन्त सदा जगजान ॥ e it जिनके द्वितीय महादेवी शुचि नाम 'सुनन्दा' गुण की सान । रूप शो सम्पन्न मनोहर तिनके सुत मुजवली महान || सवापद्रा शत धनु उन्नत तनु हरितवरण शोभा असमान । बेहरमणि पर्वत मानो नील कुलाचल सम घिर जान ॥ २ ॥ तेजवन्त परमाणु जगत में तिन कर रघो शरीर प्रमाण । शत योरत्व गुणाकर जाको निरसत हरि हर उर आन ॥ धीरज अतुल वज्र सम नीरज सम वीरामणि अति बलवान । जिन विलम्वि मनु शशि छषि लाने कुसुमायुध लीनों सु पुमान ॥ ३ ॥ बाल समे जिन बाल चन्द्रमा शशि से अधिक घरे
दुतिसार ।
अपार ॥
तो गुरुदेव पढाई विद्या शस्त्र शास्त्र मन पढी ऋषभदेव ने पोदनपुर के नृप कीने
दई अयोध्या भरतेश्वर को आप वने 'राजकाल षट्खण्ड महीपति सव दल ले बाहुबलि भी मन्मुख आये मन्त्रिन तीन
युद्ध दिये थाप ॥
दृष्टि नीर अरु मल युद्ध मे दोनों नृप कोनो बल धाप ।
/
वृथा दानि रुक जाय सैन्य की यातें लडिये आपो-आप ॥ ५ ॥
भरत भुलवळी भूपति भाई उतरे समर भूमि में जाय ।
दृष्टि नीर रण थके चक्रपति मल्लयुद्ध तव करो अधाय ॥
4
1
भुजवली
प्रभुजी
१७१
कुमार ।
अनगार ॥ ४ ॥
चढि आये आप |
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जन पूजा पाठ मप्रह
पगतल चलत-चलत अचला तब कंपत अचल शिखर ठहराय। निपघ नील अचलाघर मानों भये चलाचल क्रोध बसाय ॥६॥ मुन विक्रमवलवाहुवलीने लये चक्रपति अधर उठाय । चक्र चलायो चक्रपति तब मो भी विफल भयो तिहि ठाय ॥ अति प्रचण्ट भुजदण्ड संड सम नृप शार्दुल वाहुबलि राय । सिंहासन मगवाय लासपै अग्रज को दीनों पधराय ॥७॥ राजरमा रामासुर धुन मे जोवन दमक दामिनी जान । भोग भुजग जन सम नग को जान त्याग कीनों तिहि थान ॥ अष्टापद पर जाय वीरनृप वीर व्रती घर कीनों ध्यान । अचल अन निरभग सद्ग तन सवतसरलों एक स्थान ॥८॥ विपघर वम्बी करी चरनतल उपर वेल चढी अनिवार। युगनड़ा कटि वाहवेढि कर पहुँची वक्षस्थल परसार ॥ शिर के केश वढे जिस माही नभचर पक्षी वसे अपार । धन्य-धन्य इस अचल ध्यान की महिमा सुर गावै उरधार ।।६।। कर्मनाशि शिव जाय वसे मभु ऋपभेश्वर से पहले जान । अष्ट गुणासित मिद्ध शिरोमणि जगदीश्वर पद लयो पुमान ।। वीरव्रती वीरायगन्य प्रभु वाहुवली जगधन्य महान । वीरवृत्ति के कान जिनेश्वर नर्म सदा जिन विम्ब प्रमान ॥१०॥ दोहा-श्रवणबेलगुल विध्य गिरि जिनवर बिब प्रधान ।
सन्तावन फुट उत्तनतनो खडगासन अमलान ॥२॥ अतिशयवन्त अनन्त बल धारक बिब अनूप ।
अर्घ चढ़ाय नमों सदा जै जै जिनवर भप ।। २॥ ॐ ही वर्तमानावसर्पिणी समये प्रथम मुक्तिस्थान प्राप्ताय कर्मारि विजयी वीराधिवीर वीराग्रणी श्री बाहुबलि स्वामिने अनपद प्राप्ताय महाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
इत्याशीर्वाद।
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श्री विष्णुकुमार महामुनि पूजा
छन्द
विष्णुकुमार महामुनि को ऋद्धि नाम विशिला तान सकल जानन्द
बीच
सी मुनि साये रथनापुर के मुनि बचाये रक्षा कर वन तहा भयो नानन्द सर्व जीवन जिगि चिन्तामणि त एक पायो सत्र पुर जे जे कार शब्द उचरत मुनि को देव आहार आप करते भये ॥ २ ॥ विपतिरवतर सर्वोषट् भाज्ञानन ।
मनो ।
भये ।
भई ।
ठाई ॥
बीच
मे ।
मे ॥ १ ॥
घनी ।
हीट ट स्थापन
ॐ हीलियम असतो भव मय ष्ट्र समिधोकर । चाल-सोलह कारण पूजा को अधाष्टक |
गाजल सम उज्ज्वल नोर, पुजो विष्णुकुमार सुधीर । दयानिधि होय, जय जगवन्धु दयानिधि होय ॥ सत सैकड़ा मुनिवर जान, रक्षा करी विष्णु भगवान । दयानिधि होय, जय जगवन्धु दयानिधि होय ॥
मुनिभ्यो ममृत्युविनाशनाथ उस निर्वपामीति स्वाहा मलयागिर चन्दन शुभसार, पूजो श्रीगुरुवर निर्धार । दयानिधि होय, जय जगवन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त० ॐ श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम भवजातापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा।
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श्वेत अखण्डित अक्षत लाय, पूजो श्रीमुनिवर के पाय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त. ॐ ही श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । कमल केतकी पुष्प चढाय, मेटो कामवाण दुःखदाय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त. ॐ ही श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामोति स्वाहा । लाडू फेनी घेवर लाय, सब मोदक मुनि चर्ण चढाय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ।। सप्त. ॐ ही श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा। घृत कपूर का दीपक जोय, मोहतिमर सब जावे खोय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त. ॐ ही श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामोति स्वाहा । अगर कपूर सुधूप बनाय, जारे अष्ट कर्म दुःखदाय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त० ॐ ही श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम अष्ट कर्मदहनाय धूप निर्वपामोति स्वाहा । लोग लायची श्रीफल सार, पूजो श्रीमुनि सुखदातार । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त. ॐ ह्री श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा । जल फल आठो द्रव्य संजोय, श्रीमुनिवर पद पूजो दोय । दयानिधि होय, जय जगबन्धु दयानिधि होय ॥ सप्त० ॐ ही श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो नम अनर्धपदप्राप्तयै अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
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अथ जयमाला। दोहा-श्रावण शुक्न सु पूर्णिमा, मुनि रक्षा दिन जान । रक्षक विष्णुकुमार मुनि, तिन जयमाल बखान ।।
चाल-धन्द मुजनप्रयात। मी विष्णु देवा रू चर्ण सेवा, हरो अन की बाधा सुनो टेर देवा । गजपुर पधारे महा मुस्तफारी, धरी रूप वामन मु मन में विचारी।। गये पाम लिये आयो प्रसन्ना. जो मांगो सो पावो दिया ये वचना। मुनि नीन सग मागी भरनी नुताप, दई ताने ततछिन सु नहि दील था। कर यिमिया मुनि न काया यढाई, जगह सारी लेली सु डग दोफे माही। धरी नोमरी उग बली पीट माहो. सु मांगी क्षमा तप यली ने बनाई ।। जल की मु पृष्टि परी सुवफारी, मरय अग्नि क्षण में भई भरम सारी। टरे सर्व उपमग श्री विष्णु जी से, भई जै जैकारा सरव नग्रही से ।
चौपाई। फिर राजा के हुक्म प्रमाण, रक्षाबन्धन वधी सुजान। मुनिवर घर-घर फियो विहार, श्रावक जन तिन दियो अहार ।। जा घर मुनि नहिं आये कोय, निज दरवाजे चित्र सु लोय । ग्यापन कर तिन दियो अहार, फिर सय भोजन कियो सम्हार ।। तव से नाम मटना मार, जैन-धर्म का है त्यौहार । शुद्ध बिया कर मानो जीव, जासों धर्म बढे सु अतीव ।। धर्म पदारय जग में मार, धर्म पिना झूठो ससार । भावण शुछ पूर्णिमा जब होय, यह दो पूजन कीजै लोय ।।
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सब भाइन को दो समझाय, रक्षाबन्धन कथा मुनि का निज घर करो अकार, मुनि समान तिन देहु सबके रक्षा बन्धन बाध, जैन मुनिन की रक्षा इस विधि से मानो त्यौहार, नाम
सुनाय । अहार ॥ जान ।
सलुना है ससार ॥
घत्ता ।
मुनि दीनदयाला सब दुःख टाला, आनन्द माला सुखकारी । 'रघु सुत' नित वन्दे आनन्द कन्दे, सुक्ख करन्दे हितकारी ॥ ॐ ह्रो श्री विष्णुकुमार मुनिभ्यो अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ।
दोहा - विष्णुकुमार मुनि के चरण, जो पूजे धर प्रीत । 'रघु सुत' पावे स्वर्गपद, लहे पुण्य नवनीत ॥ इत्याशीर्वाद. |
हमारा कर्त्तव्य
■ बाल विवाह, अनमेल विवाह, वृद्ध विवाह और कन्या विक्रय या वर विक्रय जैसी घातक दुष्ट प्रथाओं का बहिष्कार करना ।
■ माता-पिता का आदर्श प्रदाचारी गृहस्थ होना ।
■ अपने बालकों को सदाचारी बनाना ।
■ सन्तति को सुशिक्षित बनाना ।
■ बालकों में ऐसी भावना भरना जिससे वे बचपन से ही देश, जाति और धर्म की रक्षा करना अपना कर्तव्य मम
।
- 'वर्णो वाणी' से
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र
MERE
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रविप्रत पूजा यह भवजन हितकार, सुरवित्रत जिन मही। करहु भन्यजन लोग, लु मन देके लही ।। . पूजों पार्थ जिनेन्द्र, नियोग लगाय के। . मिट सकल सन्ताप. मिले निधि आय के।। मति सागर इक लेट, करा अन्धन कही। उन्हीं ने यह पूजा कर. आनन्द लही ॥ सुरव सम्पति सन्तान, अतुल निधि लीजिये।
तातं रवित्रत सार, लो भरिजन कीजिये ।। दोहा-प्रणमो पाव जिनेश को, हाथ जोड़ शिरनाय ।
परभव मुख के कारने, पूजा कहूँ बनाय ।। एक पार व्रत के दिना, एही पूजन ठान ।
नापल सुरव सम्पति लहै, निश्चय लीजे सान ।। C MR.Rafae! Truarपोपट मादानन । कधी पाना
स्थापन । GAभी पापा मम मरिदितो मप मप पपट्।
अथाष्टकं
उज्ज्वल जल भरके अति लायो, रतन कटोरन माहीं। धार देत अति हर्ष बढ़ावन. जन्म जरा मिट जाहीं॥ पारसनाय जिनेश्वर पूजों, रवित्रत के दिन भाई। सुरु साति बहु होय, तुरत ही आनन्द मंगलदाई ॥ Oधी पायनाप निहाय पन्मन्युपिनाशनार जत निपानीति रमादा ॥१॥
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जैन पूजा पाठ संग्रह
मलयागिर केशर अति सुन्दर, कुमकुम रंग वनाई । धार देत जिन चरणन आगे, सव आताप नसाई ॥ पा० ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥२॥ मोती साम अति उज्ज्वल, तन्दुल ल्यावो नीर पखारो। अक्षय पदके हेतु भावसों, श्रीजिलवर ढिग धारो ॥ पा० ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय रक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ बेला अर मचकुन्द चमेली, पारिजात के ल्यावो । चुन-चुन श्रीजिन अन चढ़ावो,सनवांछित फल पावो॥पा० ॐ हीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय कामवाणविव्यसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ वावर फेनी गोजा आदिक, घृत में लेत एकाई । कञ्चन गार ललोहर भरके, चरणन देत चदाई ॥ पा० ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निवपार्माति स्वाहा ॥ ५ ॥ मणिमय दीप रतनमय, लेकर जगमग जोत जगाई। जिलके आगे आरति करके, मोह तिलिर नस जाई॥पा० ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकारग्निामनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥ चूरलकर मलयागिरि चन्दन, धूप दशांग बनाई। तट णवक ने खेय भावसों, कर्मनाश हो जाई ॥ पा० ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपानीति स्वाहा ॥ ७ ॥ श्रीफल आदि बदाम सुपारी, भांति-भांतिके लायो । भीजिनचरण चढ़ाय हर्षकर, तातै शिवफल पावो ॥ पा० छ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
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जल गन्धादिक अष्ट दरव ले, अर्घ बनावो भाई। नाचत गावत हर्ष भावलों, कञ्चन थार सराई । पा० ॐ ही श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अनपंपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्याहा ॥ ९ ॥
__ गीति का छन्द । मन वचत काय विशुद्ध करिके पार्श्वनाथ सु पूजिये। जल आदि अर्घ पलाय भविजन भक्तिवन्त सु हूजिये। पूज पारसनाथ जिनवर सकल सुख दातारजी। ले करत है नर नार पूजा लहत सुक्ख अपारजी।
जयमाला, दोहा। यह जग में विख्यात है, पारसनाथ महान ।
जिनगुणकी जयमालिका, भाषां करों बखान ॥ जय जय प्रणमों श्रीपार्श्वदेव, इन्द्रादिक तिनकी करत सेव । जय जय सु बनारस जन्म लीन्ह, तिहुँ लोकविपै उद्योत कीन । जय जिनके पितु श्री विश्वसेन, तिनके घर भये सुख चैन एन । जय चामादेवी मातु जान, तिनके उपजे पारस महान ॥ जय तीन लोक आनन्द देन, भविजन के दाता भये ऐन। . जय जिनने प्रभुको शरण लीन, तिनकी सहाय प्रभुजी सो कीन ॥ जय नाग नागनी भये अधीन, प्रभु चरनन लाग रहे प्रवीन । तजके जु देह सो स्वर्ग जाय, धरणेन्द्र पद्मावती भये जाय । जे चोर अञ्जना अधम जान, चोरी तज प्रभु को धरो ध्यान । जे मतिसागर इक सेठ जान, जिन रविव्रत पूजा करी ठान ।
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जेन पूजा पाठ सग्रह
तिनके सुत थे परदेश मांहि, जिन अशुभ कर्म काटे सु ताहि । जे रविवत पूजन करी तेठ, तो फल कर सबसे भई भेंट || जिन-जिनने प्रभुकी शरण लीन, तिन ऋद्धि-सिद्धि पाई नवीन । जे रवित्रत पूजा करहि जेह, ते मुक्ख अनन्तानन्द लेय ॥ धरणेन्द्र पद्मावती हुए सहाय, प्रभु भक्ति जान तत्काल जाय । पूजा विधान हहि विधि रचाय, मन वचन काय तीनों लगाय ॥ जो भक्ति भाव जैमाल गाय, सो नर सुख सम्पति अतुल पाय । वाजत मृदङ्ग चीनादि सार, गावत-नाचत नाना प्रकार ॥ तन नन नन नन ताल देत, सन नन नन तन सुर भरसु देत । ताई येई थेई पग धरत जाय, छमछम छमछम घुघरू बजाय । जे करहिं निरति इहि भांति-भांति, ते लहहि सुख्य शिवपुर सुजात ॥ दोहा - रविव्रत पूजा पार्श्व की, करै भविक जन कोय | सुख संपति इहि भव लहै, तुरत महासुख होय ॥ अडिल -- रवित पार्श्व जिनेन्द्र पूज भवि मन धरै । भव भव के आताप सकल छिन में दरें ॥ होय सुरेन्द्र नरेन्द्र आदि पदवी लहैं । सुख-सम्पति सन्तान अटल लक्ष्मी लहैं ॥ फेर सर्व निधि पाय भक्ति अनुसरें । नाना विधि सुख भोग बहुरि शिव तियवरै ॥
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाधं निर्वपामीति स्वाहा ।
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जन पूजा पाठ सग्रह
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दीपावली पूजा
नया वसना दीपावली के दिन सन्ध्या की शुभ बेला व शुभ नक्षत्र मे नीचे लिखी रीति से पूजा करके नई बही का मुहूर्त तथा दीपों की ज्योति करें।
कुटुम्ब के अभिभावक या दुकान के मालिक को एकाग्र एवं प्रसन्न चित्त से घर या दुकान के पवित्र स्थान में पूर्व या उचर की ओर मुख करके पूजा प्रारम्भ करनी चाहिये, पूजा करनेवाले को अपने सामने एक चौकी पर पूजा की सामग्री रख लेना चाहिये और दूसरी चौकी पर सामग्री चढाने का थाल रख लेना चाहिये । इन दोनों चौकियों के आगे एक चौकी पर केशर से ॐ लिख कर शानजी को विराजमान करें।
पश्चात् व्यापार की वही मे सुन्दरतापूर्वक केशर से स्वस्तिक लिखै तथा दावात कलम के मौलि वाध कर सामने रखें।
पजा प्रारम्भ करने के पूर्व उपस्थित सज्जनों को नीचे लिखा श्लोक बोल कर केशर का तिलक कर लेना चाहिये। उपस्थित सजनों को भी पूजा वोलना चाहिये व शान्तिपूर्वक सुनना चाहिये।
तिलक मन्त्र मंगलम् भगवान वीरो, मगलम् गौतमो गणी। मगलम् कुन्दकुन्दाद्यौ, जैन धर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ १॥ उपस्थित सज्जनों को तिलक करना चाहिये।
मङ्गल कलश को स्थापना
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जैन पूजा पाठ सग्रह
कलश को जल से धोकर सुपारी, मूग, हल्दी की गाठ धनिया के दाने नवरत्न अक्षत, पुष्प आदि डाल कर जल से परिपरित कर, लाल कपड़े से मौली द्वारा वेष्ठित नारियल को कलश के मुख पर रखे पश्चात
ॐ अद्य भगवतो महापुरुषस्य श्री मदादि व्रणो मतेऽस्मिन् नूतन वसना मङ्गल कर्मणि होम मण्डप भूमि शुद्धयर्थं पात्र शुद्धयर्थं क्रिया शुद्ध्यर्थं शान्त्यर्थं पुण्याहवाचनार्थं नवरत्नगन्धपुष्पाक्षतादि वीज फत सहित शुद्ध प्रासुक तीर्थ जल पूरित मङ्गल कलश संस्थापन करोम्यह ।
भवी क्षवी ह स स्वाहा । श्रीमजिनेन्द्र चरणारविन्देष्वानन्द भक्ति सदास्तु । मन्त्रोच्चारण करके शास्रजी की चौकी पर चावलों के बनाये साथिये
पर मङ्गल कलश स्थापन करे।
साधारण नित्य नियम पूजा करके श्री महावीर स्वामी की और सरस्वती की पूजा करें-सरस्वती पूजा मे फल चढाने के बाद शास्त्रजी के लिये शुद्ध वस्त्र या वेस्टन चढावें। पूजा के पश्चात् कर्पूर प्रज्वलित कर श्रद्धापूर्वक खड़े होकर सब ललित-ध्वनि से नीचे लिखी आरती बोलें।
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जिनवाणी माता की आरती जय अम्बे वाणी, माता जय अम्बे वाणी। तुमको निशि दिन ध्यावत सुर नर मुनि ज्ञानी ।। टेर ॥ श्रीजिन गिरित निकसी, गुरु गौतम वाणी। जीयन भ्रम तम नाशन, दीपक दरशाणी ।। जय० ॥१॥ कुमत कुलाचल चूरण, वन सु सरधानी। नव नियोग निक्षेपण, देसन दरशाणी ॥ जय० ॥२॥ पातक पद पराानल, पुन्प परम पाणी । मोहमहार्णव इवत, वारण नौकाणी ।। जय० ॥३॥ लोकालोक निहारण, दिव्य नेत्र रथानी । निज पर मेद दिसापन, सूरज किरणानी !! जय० ॥४॥ श्रावक मुनिराण जननी, तुमही गुणहानी । सेवक लस सुखदायक, पाचन परमाणी ॥ जय० ॥५॥ पत्रात् नीचे लिखे अनुसार पहियो में स्वस्तिकादि लिख कर धीर संवत् , विक्रम संवत्, श्वी सन, मिती, वार, तारीख आदि लिखें।
श्री महावीराय नमः भी लाभ
श्री भी श्री श्री श्री
भी श्री भी सी "श्री अपाय नमश्री मी श्री गी श्री श्री वर्धमानाय नमः श्री गौतम भणधराय नम श्री जिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै नमः
श्री फेवलशानलक्ष्मीदेव्यै नमः
भी
श्री शुभ
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गा 110 पनर
श्री भक्तामर स्तोत्र पूजा ॐ जय जय जय । नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु ॥
अनुष्टुप्। परमज्ञान वाणासि , घाति-कर्म प्रघातिनम् । महा धर्म प्रकार, वन्देऽहमादि नायकम् ।। भक्तामर महास्तोत्रं, मन्त्रपूजां करोम्यहम् । सर्वजीव-हितागारं, आदिदेवं नमाम्यहम् ॥ ॐ ही श्री आदिदेव ! अत्र अवतर अवतर सपौषट् आह्वानन । ॐ ह्रीं श्री आदिदेव ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन । ॐ ह्रीं श्री आदिदेव । अत्र मम सनिहितो भव भव षषट् सनिधापण ।
अथाष्टक।
सुरसुरी नदसंभृत जीवनैः सकल ताप हरैः सुख कारणः। वृषभनाथ वृषांक समन्वितं शिवकरं प्रयजे हत किल्विषं । ।
ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय जन्ममृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ १ ॥ मलय चन्दन मिश्रित कुंकुमेःसुरभितागत षट्पद नंदनैः। वृ०
ॐ ही श्री घृषभनाथ जिनेन्द्राय ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ॥ २॥ कमल जाति समुद्भवतन्दुलैः परम पावन पञ्च सुपुञ्जकैः। वृ०
ॐ हीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥ ३ ॥ जलज चंपक जाति सुमालती,वकुलपाडलकुंद सुपुष्पकैः। वृ० । ॐ ही श्री घृषभनाथ जिनेन्द्राय कामवाणषिध्वसनाय पुष्प निर्चपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥ 'वटक खज्जक मंडुक पायसैविविध मोदकव्यञ्जनषट्रसैः।वृ०
ॐ ह्रीं श्री वृषभनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥
40
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जन पूजा पाठ उभ
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रविकर द्यतिसन्निभ दीपः प्रवलमोह घनांध निवारकैः । वृ०
ॐ अनेन्द्राय मोहन्यकार विनाशनाय दोष निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
स्वगुरु धूपभरे र्घटनिष्ठितः प्रतिदिशंमिलितालिसमूहकैः । वृ०
ॐी भी गृपमनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
सरस निचुकलांगलि दाड़िमैः कदलि पुङ्गकपित्थशुभैः फलैः । घृ०
G
जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तचे फल निर्वपामीति स्वाहा ॥ ८ ॥
सलिल गंध शुभाक्षत पुष्पकैश्चरु सुदीप सु धूप फलार्धकैः । जिनपतिं च यजे सुखकारकं, वदति मेरु सु चन्द्र यतीश्वरं । वृ०
ही थी नृपमनाय जिनेन्द्राय अनपदप्राप्तये अर्ध निषंपामीति स्थादा ॥ ९ ॥ प्रत्येक श्लोक पूजा
( भक्तामर स्तोत्र का एक एक श्लोक पढ कर नीचे लिखे क्रम से ॐ हीं घोल कर अर्ध चढाना चाहिये ।)
ही प्रणत देव समूह मुद्राममणि महा पापान्धकार विनाशकाय धी आदि परमेश्वराय अर्थ नियंपामीति स्पादा ॥ १ ॥
ॐ हो गणधर चारण समस्त रूपीन्द्रचन्दियसुरेन्द्रव्यन्तरेन्द्रनागेन्द्र चतुविध ! सुनीन्द्रस्वत चरणारविन्दाय श्री आदि परमेश्वराय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ॥ २ ॥ ॐ ही विगतबुद्धिगपारसहित श्री नानतुहाचार्य भक्तिसहिताय श्री आदि परमेश्वराय अयं निर्वणमीति स्वाहा ॥ ३ ॥
ॐ ही त्रिभुवनगुणसमुद्र चन्द्रकान्तमणितेजशरीरसमस्त सुरनाथ स्ववित श्री मादि परमेश्वराय अर्थ नियंपामीति स्वाहा ॥ ४ ॥
ॐ ही समन्त गणधरादि मुनिपर प्रतिपालक मृगवालवत श्री आदिनाथ परमेश्वराय सर्व निर्मपामीति स्वाहा ॥ ५ ॥
ॐ ही श्री नेिन्द्र चन्द्रभक्किसर्व सौख्य तुच्छमति बहु सुखदायकाय श्री दिनेन्द्राय आदि परमेश्वराय अपं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ६ ॥
ॐ श्री अनन्त भद पातक सर्व विघ्नविनाशकाय तय, स्तुतिसौख्यदायकाय श्री आदि परमेश्वराय अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र स्तवन सत्पुरुचित्त चमत्काराय श्री आदि परमेश्वराय अघ० । ॐ ह्रीं जिनपूजन स्तवन कथाश्रवणेन समस्त पाप विनाशकाय जगत्त्रय भव्यजीव विनाशसमर्थाय च श्री आदि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं त्रैलोक्य गुणमण्डितसमस्तोपमासहिताय श्री आदि परमेश्वराय अघं० ॥१०॥ ॐ ह्रीं श्री जिनेन्द्र दर्शनेन अनन्त भव सचित अघसमूह विनाशकाय श्री प्रथम जिनेन्द्राय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ११ ॥
ॐ ह्रीं त्रिभुवन शान्त स्वरूपाय त्रिभुवन तिलकाय मानाय श्री आदि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १२ ॥
ॐ ह्रीं त्रैलोक्यविजयरूप अतिशय अनन्तचन्द्र तेजजित सदातेज पूजमानाय श्री आदि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १३ ॥
ॐ ह्रीं शुभगुणातिशयरूप त्रिभुवनजीत जिनेन्द्र गुण बिराजमानाय श्री प्रथम जिनेन्द्राय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १४ ॥
ॐ ह्रीं मेरुचन्द्र अचलशील शिरोमणि व्रतोद्यराजमण्डित चतुषि धवनिता विरहित शीलसमुद्राय श्री आदि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १५ ॥
ॐ ह्रीं धूम्रस्नेह वातादि बिन्नर हिताय त्रैलोक्य परम केवल दीपकाय श्री प्रथम जिनेन्द्राय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १६ ॥
ॐ राहु चन्द्र पूजित कर्म प्रकृति क्षयति निवारण ज्योतिरूप लोकद्वयावलोकि सदोदयादि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १७ ॥
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ॐ ह्रीं नित्योदयादि रूप राहुना अग्रसिताय त्रिभुवन सर्व कला सहित - विराजमानाय श्री आदि परमेश्वराय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ॥ १८ ॥
ॐ ह्रीं चन्द्र सूर्योदयास्त रजनी दिवस रहित परम केबलोदय सदादीति विराजमानाय श्री आदि देवाय आदि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ १९ ॥
ॐ ह्रीं हरि हरादि ज्ञानसहिताय सर्वज्ञ परम ज्योति केवलज्ञान सहिताब " श्री आदि परमेश्वराय अघं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २० ॥
ॐ ह्रीं त्रिभुवन मनमोहन जिनेन्द्ररूप अन्य दृष्टान्त रहित परम बोध मण्डिताब श्री आदि जिनाय परमेश्वराय अक्षं निर्वपामीति स्वाहा ॥ २१ ॥
ॐ ह्रीं त्रिभुवन वनितोपमारहित श्री जिनवर माताजनित जिनेन्द्र पूर्व दिग् भास्कर केवलज्ञान भास्कराय श्री आदिब्रह्म जिनाय अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ॥ २२ ॥
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ऐन पूजा पाठ संप्रद
ही गेस्य पापनादिरूप परमाटोर रात लक्षण नगरात व्यसनसमुदाय एक कार मसाप श्री मादि मिनदार मनिपानीति स्वाहा ॥ २३ ॥
मापिप्णु धीय गणपति त्रिभुपादपप सेपिताप विकाय श्री भादि परमेश्वराय नमोतिराहा ॥४॥
ही पुनिराज पथर मध्यादि समस्तानन्तनामसरिताय धी आदि जिनेन्द्राय परम्परा निपामीति पादा ॥५॥
मधोम पो लोस्प्रय मतादौराधिनमस्कार ममस्तातिरोपिनाशक त्रिभुवनम्बर मोदधि तरण तारन ममाय धीमादि परमेश्वराय अपं० ॥ २६॥
जो परमगुजाधित एकादि मरगुपरदिवार श्री आदि परमेश्वराय अपं० ॥२॥ GRोक्ष प्राशिहा महिताय परमेदाराय पर्ष निर्वपानीति स्वाहा ॥२८॥
ही मामिला मदिसाय की प्रथम जिनेन्दार भ निपानीतिः ॥२९॥ ही पधि पामर मालिका सहिताय श्री प्रथम जिनेन्द्राय भ६० ॥३०॥ होम प्रातिका महितार धीमादि परमेश्वराय म नियंपागीति० ॥३१॥ FA मरोटि पादियातिदा सदिताय धी परमादि जिनाय भपं० ॥३२॥ ही ममम्न पुष्प पाति गटप्रानिदा अदिताय धी भादि जिनेन्द्राय अपं० ॥३३॥
ही शोटि माम्बर प्रभा गटित गामाल प्रातिदा सहिताय श्री परमादि बिनाम निपामीशिस्वाहा ॥४॥
ही मनिन बसपर पटनगरितम्यान योजन प्रमाण प्रातिकार्य सरिताय • श्री भादि परमेसराप नियंपामीति म्यादा ॥ ३५॥
ममतोपरि गमन सासिनय सदिताय श्री भादि परमेश्वराय पं० ॥३६॥
भोपग ममये समधारण विभूति मष्तिाय धीधादि परमेश्यराय अपं० ॥३॥ ही मनहनिमरण मुर गजेन्द्र मदासर मय पिनाशकाय श्रीजिनाय परमेश्वराप अपं. मादिष नाम प्रसादान्मदासिंद भय विनाशकाय श्रीयुगादिपरमेश्पराय अ॥३॥
ही मदापति पिषमक्षण समर्प सिननाम जल विनाशफाय धी आदि प्रमणे • परमेश्वराय अनियंपामीति स्वाहा ॥४॥
ही रकनयन सपं बिन नागदमन्यौपधि समस्त भय विनाशकाय धी जिनादि परमेश्पराय नियंपामीतिगादा ॥
महसमाम मय पिनाराकायसपरिक्षणाय धी प्रथम जिनेन्द्राय परमेश्वराय अपं० ॥४२॥१॥
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जन पूजा पाठ सप्रह
ॐ ही महारिपुयुद्धे जयदायकाय श्री आदि परमेश्वराय मधं निर्बपामीति स्वाहा ॥४३॥ ॐ हीं महासमुद्र चलित बातमहादुर्जय भय विनाशकाय श्री जिनादि परमेश्वराय अ० ॥४॥
ॐ ही दग प्रकार ताप जलधराष्टादश कुष्ट सनिपात महद्रोग विनाशकाय परमकामदेवरूप प्रकटाय श्री जिनेश्वराय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४५ ॥
ॐ ही महाबन्धन आपाद कण्ठ पर्यन्त वैरिकृतोपद्रव भय विनाशकाय श्री आदि परमेश्वराय अर्घ निर्वपामीति म्वाहा ॥ ४६॥
ॐ ह्री सिंह गजेन्द्र राक्षस भूत पिशाच शाकिनी रिपुपरमोपद्रव भय विनाशकाय श्री जिनादि परमेश्वराय अर्घ निर्धपामीति स्वाहा ॥ ४५ ॥
ॐ ही पठक पाठक श्रोता पा श्रद्धावान मानतुझाचार्यादि समस्त जीप कल्याणदायक श्री आदि परमेश्वराय अचं निर्वपामीति स्वाहा ॥ ४८॥ वन सुगंध सु तन्दुल पुष्पकैः प्रवर मोदक दीपक धूपकैः । फल वरैः परमात्म पदप्रदं, प्रवियजे श्रीआदि जिनेश्वरम् ॥ ॐ हीं अष्ट चत्वारिंशत्कमलेभ्य पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला। श्लोक-प्रमाणद्वय कर्तारं स्यादस्ति वाद वेदकं । द्रव्यतत्व नयागार मादिदेवं नमाम्यहम् ॥
छन्द। आदि जिनेश्वर भोगागारं, सर्व जीववर दया सुधारं । .. परमानन्द रमा सुखकन्दं, भव्य जीव हित करणममन्दं ॥२॥ : परम पवित्र वंशवर मण्डन, दुःख दारिद्र काम बल खण्डन ।
वेद-कर्म दुजेय बल दण्डन, उज्ज्वल ध्यान प्रप्ति शुभ मण्डन ॥३॥ चतु अस्सीलक्ष पूर्व जीवित पर, धनुष पञ्च शत मानस जिनवर। हेमवण रूपौध विमल कर, नगर अयोध्या स्थान व्रत धर ॥४॥
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पूर
१८९
नाभिराज परमान तु देवा, माता मरुदेवी गुण नेता । सोल पन पर मेर याता, त्रिभुवननायक पुन विधाता ॥ ५ ॥ गर्भकल्यानक सुरपति फोधा, जन्मवस्थापक मेरुशिर गीधा । दीघापारी, केवल पोध सु त्रिभुवन प्यारी ॥ ६ ॥ अष्ट गुणाकर मिल दिवाकर, परम धर्म विस्तारण लय भर । श्रीवतार रहितं भय दा, वर्षमान्य निरपम गुणधारी ॥ ७ ॥
पता ।
जय आदि सु मला, त्रिभुवन श्राह्मा ब्रह्मास्यात्म स्वरूप परं । जय चोप्रा. पं सुनाना, ब्रह्मा सुमति जलधिनिकरं ॥
द
देवोऽनेक भवार्जितो गत महा पापः प्रदीपा नलः । देवः सिद्ध व विशाल हृदयालंकार हारोपमः ॥ देवोऽष्टादश दोप सिन्दुर घटा दुर्भेद पञ्चाननो । भव्यानां विदधातु वांछित फलं श्री आदिनाथो जिनः ॥ श्लोक-लक्ष्मीचन्द्रगुरुजीतो मूलसंघ विदाग्रणी ।
पट्टाभवचन्द्रो देवो दयानन्द विदांवरः ||
कीर्ति कुमुदेन्दु सुमतिः सागरोदितः । भक्तामर महास्तोत्र प्रजा चक्रीगुणाधिका ॥
श्री रिक्तियोग पूजा गमता ।
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श्रीमानतुङ्गाचार्य विरचितं श्री भक्तामर स्तोत्रं ।
जैन पूजा पाठ सह
वसन्ततिलका छन्द
भकामरप्रणतगौलिमणिप्रभागा सुद्योतकं दलितपापतमोवितान सम्यक् प्रणम्य जिनपादयुगंयुगादा, वालम्बनं भजले पततां जनानाम् ॥१॥ यः संस्तुतः सकलवाङ्मयतत्त्ववोधादुदभूत बुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः । स्तो जगस्त्रितयचित्तहरे रुदारैः स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥ बुद्धा विनापि विबुधार्चितपादपीठ स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्र पोऽहम् बालं विहाय जलसंस्थितमिदुबिंब मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥ ३ ॥ वक्तुं गुणान्गुणसमुद्रशशाङ्ककांतान्, करते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्धया ।
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फत्तकालपरनोखतनकर, को वा तरीतुमलसंयुनिधिं भुजाभ्याम् ॥ ४ ॥ सोऽहं तथापि तव भतिकशान्युनीश, कर्त स्तवं विगतगतिररि प्रात्तः। प्रीत्यात्मीयमविग गी रगेन्द्र नाम्येति किं निशिशोः परिशलनार्थम् ॥५॥ अल्पभुतं श्रुतवतां परिहासधान, त्यदर्भातरेय मुखरीकुरुते पलान्साम् । परलोक्लिः रिलमधी मधुरं विरोति, तच्चानचास्तलिकानिकरें कहेतु ॥६॥ त्वत्तनियन सन्ततिसन्निया, पापं क्षणाक्षयमुपति मरीभाजाम् आमांतलोकाटिनीलमोपनाश स्यांश सिन्नति दासंघकारम् ॥७॥ मत नाय तो संस्तवनं सयेदमारभ्यते तनुधियापि तय प्रभावात् । चेतो हरियति सतां नलिनीदलेषु मुक्काफलघुतिमुपैति नतृदबिंदुः ॥८॥
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आग्ता नवरतवनमस्तलमग्न दोप, त्वत्स..थापि जगतां दरिनानि हन्ति । दूरे नहमकिरण कुम्ने प्रव पद्माकरेप जलजानि विकालभाति ॥६॥ नात्यदभुत भुवन भूषण उतनाय । धृतगण विभग्नमभी टुम्त , तुल्या सबंनि भवनो ननु तेन कि का भत्यापित प त नामल गेति ॥१०॥ हवामपन्तसनिलेपविलोसनीय नान्या तोयमुपयाति जनन । पीत्वापय शशिकल्य-निपनियो क्षारं जल जलनिधे रसिक इन्छेत् ॥११॥ ये. शानरागचित परमाणुसिम्त्व निर्मापित-त्रिभुवनक ललापस्त । तावन्त एव खलु तेऽप्रणवः पृथिगं. यत्ते समानमपरं न हि रुपमरित ॥२॥ वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहार निःशेषनिर्जितजगत्रितयो गाना
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अ घूम घाट
चित्रं कलंकमलिनं क निशाकरस्य, यद्वासरं भवति पांडुपलाशकल्पम् ॥ १३ ॥ सम्पूर्ण मण्डलशशांकला कलापशुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तय लक्ष्यन्ति । ये संश्रितारिजगदीश्वरनाथमंक. करता न्निनाम्यति सधरतो यथेष्टम् ॥ १४ ॥
चित्र किमत्र यदि ते त्रिदशानाभिनौनं मनागपि सनो न विकारमार्गम् कल्पांनकालना चलिताचलन. किं मन्दरादिशिवरं चलितं कदाचित् |१५| निर्धमवर्तिरपवर्जिततैलपूर.,
कृल्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटीकरोषि । गम्यो न जातु सरतां चलिताचलानां. दोपो ऽपवमसि नाथ जगत्प्रकाश. |१६| नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्यः स्पष्टीकरोपि सहसा युगपज्जगन्ति । नांभोधरोदरनिन्द्रमहाप्रभावः, सूर्यातिशायि महिमासि मुनीद्र लोके ॥१७॥
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जेन पूजा पाठ सप्रह
नित्योदयं दलितमोहमहांधकार, गम्यं न राहु वदनस्य न वारिदानां । वित्राजते तव मुखान्जमनल्पकांति, विद्योतयज्जगदपूर्वशशांकबिम् ॥१८॥ किं शर्वरीषु शशिनाह्नि विवस्वता वा, युष्मन्सुखेन्दुदलितेषु तमासु नाथ ! लिष्पन्न शालिवलशालिनि जीवलोले, कार्य कियज्जलधरैर्जलमारनन्नैः ॥१६॥ ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, नैवं तथा हरिहरादिषु नायव्हेपु।। तेजःस्फुरमणिषु थाति यथा महत्त्वं, नैवं तु काचशकले किरणाकुलेऽपि ॥२०॥ मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा, हष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषति । किं वीक्षितेन अवता झुवि येत नान्यः, कश्चिन्मनो हरति नाथ सवांतरेऽपि ॥२१॥ स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, नान्ग सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ।
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सर्वादिशो दधति भानि सहरएिल, प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदन्शुजालम् ॥२२॥ त्यामामनन्ति मुनयः परमं पुमांसमादित्यवर्णममलं तमसः पुरस्तात् । त्यामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्यं, नान्यः शिवः शिवपदत्य मुनींद्र पन्थाः ॥२३॥ खामव्ययं विभुमरियमसंख्यमाद्य, मात्राणमीश्वरमनन्तमनन क्षेतम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं, ज्ञानस्वरुपममलं प्रवदन्ति सन्तः ।२४) बुद्धत्वमेव विबुधार्चितबुद्धियोधात्, त्वं शहरोऽलि भुवनय शहरत्वात् । धातासि धीर शिवमार्गविधेविधानाद, व्यक्तं त्वमेव भगवत्पुरुपोत्तमोऽसि२५॥ तुभ्यं नमस्त्रिभुवनातिहराय नाथ, तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय । तुभ्यं नमन्त्रिजगतः परमेश्वराय, नभ्यं नमो जिनभवोदधिशोपणाय ॥२६॥
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जैन पूजा पा० प्रह
को वित्मयोऽत्र यदि नास गुणरशेषै. स्त्वं लंधितो निरवकाशतया सुनीश । दोषैत्पात्तविविधाश्रयजातगर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाविदपीक्षितोऽलि २७ उच्चरशोकतलभितसुन्मयख. माभाति रूपसललं भवतो नितांत। स्पष्टोल्लसत्किरणमस्ततमो ग्तिानं, विवं रबेरिवपयोधरपार्ववति ।२८। लिहालले मणिमयूखशिखाविचित्रे, विभ्राजते तव वपुः कनकावातम् विवं वियद्विलसदंशुलतावितानं, तुङ्गोइयाद्रिशिरसीवसहस्त्ररश्मः २६॥ कुन्दावनातचलचासरचाशोसं. विभाजते तव वपुः कलधौतकान्तम् उपशाकशुचिनिर्भरशरिधारमुच्चस्तटं सुरगिरेवि शानकौंभम् ॥३०॥
नत्रयं तव विभाति शशाङ्ककान्त सुन्चः स्थितं स्थगितभातुकरप्रतापम्
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बैन पूजा पाठ सप्रह
उल्लिद्रमनवपङ्कजपुञ्जकांती, पर्युल्लतल्लरूमयूखशिखाभिरामौ । पादौ पदानि तव यत्र जिनेंद्र ! पत्तः, पद्मानि तन विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥ इत्थं था तव विसूतिरभूजिनेंद्र, धर्मोपदेशलविधौ ल तथा परस्य । यादृक्प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा, लाहक कुतो ग्रहगणल्य विज्ञाशिनोऽपि ॥३७ श्वयोतन्मदादिलबिलोलकपोलसूलभत्तनमभ्रमरनादविवृद्धकोपं । ऐरावताभलिभमुद्धतमापतंतं, दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाभितानाम् ॥३८॥ भिन्लेशकुस्मगलदुज्वलशोणितात. मुक्ताफलप्रकरसूषितभूमिभागः । बद्धक्रमः कसगतं हरिणाधिपोऽपि, नाकामति कमयुगाचललंश्रितं ते ३६। कल्पांतकालपवनोद्धतवह्निकल्यं, दावानलंज्वलितसुज्ज्वलमुत्फुलिङ्गम्
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जैन पूजा पाठ सग्रह
उदभूत भीषण जलोदरभार भुग्नाः, शोच्यां दशासुपगताश्च्युतजीविताशाः । त्वत्पादपङ्कजरजोनृतदिग्धदेहा, मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥ आपादकण्ठ मुरुशृङ्खलवेष्टिताङ्गा, गाढ़ बृहन्निगड़कोटिनिघृष्टजंघाः । त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः, सद्यः स्वयं विगतबन्धभया भवन्ति ॥ ४६ ॥ मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहिसंग्रामवारिधि महोदरबन्धनोत्थम् तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव, यस्तावकं स्तवमिमं प्रतिमानधीते ॥४७॥ स्तोत्र खजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धां, भक्त्या मया विविधवर्णविचित्र पुष्पाम् धत्ते जनो य इह कण्ठगता - मजल, तं मानतुङ्गमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥
इति श्री मानवुङ्गाचाय विरचित भक्तामर स्तोत्रं समाप्तम् ।
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२०१
तत्त्वार्थसूत्रम्
[आचार्य गृपिन्छ] मोनमार्गस्य नेतार भेत्तार कर्मभूभृताम् ।
शातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ॥ त्रैकाल्यं द्रव्य-पटक नव-पद-सहितं जीव-घटकाय-लेश्या' पञ्चान्येचास्तिकाया व्रत-समिति-गति-शान चारित्र-भेदाः। इत्येतन्मोक्षमूल त्रिभुवन-महिते प्रोतमर्हगिरीशै.. प्रत्येति श्रद्दधाति स्पृशति च मतिमान् यः स वैशुद्धदृष्टिः॥१॥ सिद्ध जयापसिद्धे चउविहाराहणफलं पत्ते। चढित्ता अरहते चोच्छं आराहणा कमसो ॥२॥ उज्जोवणमुज्जवण णिचहणं साहण च णिच्छरण।। दमण-णाण-चरितं तवाणमाराहणा भणिया ॥३॥
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्ष-मार्गः ॥१॥ तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् ॥२॥ तन्निसर्गादधिगमाद्वा ॥३॥ जीवाजीवासव-वन्ध-संवर-निर्जरा-मोक्षास्तत्त्वम् ॥४॥ नामस्थापना-द्रव्य-सावतस्तन्न्यासाशा प्रमाण-नयैरधिगमः॥६॥ निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण - स्थिति-विधानतः ॥७॥ सत्संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तर-भावाल्पबहुत्वैश्व |८|| मतिश्रुतावधि-मनःपर्यय केवलानि ज्ञानम् ।।९।। तत्प्रमाणे ॥१०॥ आये परोक्षम् ॥११॥ प्रत्यक्षमन्यत्॥१२॥मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिवोध इत्यनान्तरम् ॥१३॥ तदिन्द्रियानिन्द्रिय
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जैन पूजा पाठ सग्रह निमित्तम् ॥१४॥ अवग्रहेहावाय-धारणाः॥१शा बहु-बहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्त-ध्रुवाणां सेतराणाम् ॥१६॥ अर्थस्य॥१७॥ व्यञ्जनस्यावग्रहः ॥१८॥ न चनुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥१६॥ श्रतं मति-पूर्व द्वयनेक-द्वादश-भेदमा२०। भव-प्रत्ययोऽवधिदेव-नारकाणाम्।२१शक्षयोपशम-निमित्तः षड्विकल्पः शेषाणाम्॥२२॥ ऋजु-विपुलमती मनःपर्ययः ॥२३॥ विशुद्धयप्रतिपाताच्या तद्विशेषः॥ २४ ॥ विशुद्धि-क्षेत्र-स्वामि-विषयेभ्योऽवधि-मनःपर्यययोः।।२५ामति श्रुतयोर्निवन्धोद्रव्येष्वसर्व-पर्याये ॥२६॥ रूपिष्वधेः॥२७॥तदनन्त-भागे मनःपर्ययस्य ॥२८॥ सर्व-द्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥२६॥ एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिनाचतुर्व्यः ॥ ३० ॥ मति-श्रुतावधयो विपर्ययश्च ॥ ३१ ॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेन्मत्तवत् ॥ ३२ ॥ नैगमसंग्रह-व्यवहारर्जु-सूत्र-शब्द-समभिरूढैवम्भूता नयाः॥३३॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्ने प्रथमोऽध्याय ॥१॥
औपशमिक-धायिकी भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक-पारिणामिकौ च ॥१॥ द्वि-नवाष्टादशैकविंशतित्रि-भेदा यथाक्रमम् ॥ २ ॥ सम्यक्त्व चारित्रे ॥ ३ ॥ ज्ञानदर्शन-दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणि च ॥४॥ ज्ञानाज्ञानदर्शन-लब्धयश्चतुस्त्रित्रि-पञ्च-मेदाः सम्यक्त्व-चारित्रसंयमासंयमाच ।। ५ ॥ गति-कषाय-लिङ्ग-मिथ्यादर्शनाज्ञानासंयतासिद्ध-लेश्याश्चतुश्चतुस्व्येकैकैकैक-षड्भेदाः ॥ ६ ॥ जीवभव्यामव्यत्वानि च ॥ ७॥ उपयोगो लक्षणम् ॥ ८॥स
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सिपियोग-गुभेदः ॥ ६ ॥ गंगारिणो मुक्ताश्च ॥ १० ॥ गमनागमनमा ॥११॥ गंगारिणसमस्यागः ॥२२॥ विगांजो वाय-बनम्पनयः धागः ॥१३॥ मीन्द्रियाव्य
रामाः ॥22॥ पोन्द्रियाणि ॥१५॥ निरिधानि ॥१६॥ निये इन्दिरम् ॥ १७॥ लग्गुपयोगी
मापन्नियमा पर्गन-गन-बाय-मतः-श्रोत्राणि ॥१६॥ म्पननगर-शनानाः ।। २० । धगम निन्द्रियम्य ॥२२॥ गनारमन्नानामेन्म ॥२२॥ कगि-पिपीलिका-श्रमर. मनुमानामा दानि ॥२३॥ संशिनः समनम्काः ॥२४॥ निनद-गली फम-योगः ।। २५ ॥ अनुश्रेणि गतिः ॥२६॥ परिग्रहा जीपम्प ॥ २७ ॥ विग्रहवनी २ गंसारिणः प्राक् गनुम्यः॥ २८एनमयाविग्रदा ॥ २९ ॥ एकता प्रान्यानाहार ॥३०॥ समृदन-भोपपाटा जन्म ॥ ३१ ॥ मचिगनीन-गंएता: सेनग मिश्रागन्तपोनयः ।। ३२ ॥ जनजाडज-पीनानां गर्भः ।। ३३ ॥ देवनारमाणामुपपादः ॥ ३४॥ पाणां मम्मन्नम् ।।३५ ॥ औदारिकवरिगयिकाहारमनजत-कार्मणानि शरीराणि ॥ ३६॥ परं परं समम् ॥३७॥ प्रदशनी-संग्ययगुणं प्राक्तजमात् ॥३०॥ अनन्त-गुणे परे ॥३६॥ अप्रतीयाने ॥ ४० ॥ अनादि-गम्बन्धं च ॥ ११॥ मवम्य ॥ १२ ॥ तदादीनि भाज्यानि युगपटकम्मिन्नानतुभ्यः ॥ ४३ ॥ निरुपमोग
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एन पूजा पाठ मग्रह
मन्त्यम् ॥ ४४ । गर्भसंमूर्च्छनजमाद्यम् ॥४५॥ औपपादिक वैक्रियिकम् ॥४६|| लब्धि-प्रत्यय च ॥४७॥ तैजसमपि ॥४॥ शुभं विशुद्धमव्याघाति चाहारकं प्रमत्तसंयतस्यैव ॥ ४ ॥ नारक-संमूछिनो नपुंसकानि ॥ ५० ॥ न देवाः ॥ ५१ ॥ शेपास्त्रिवेदाः ॥ ५२ ॥ औपपादिक-चरमोत्तमदेहाऽसव्येयवर्षायुपोऽनपवायुपः ॥ ५३ ॥ ।
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोनशाने द्वितीयोऽध्याय ॥ २ ॥
रत्न-शर्कग-वालुका-पक-धूम-तमो-महातमः-प्रभा-भूमयो घनाम्वुवाताकाश-प्रतिष्ठाः सप्ताऽधोऽघः ॥ १॥ तासु त्रिंशपंचविंशति-पंचदश-दश-त्रि-पञ्चोनैक नरक-शतसहस्राणि पञ्च चैव यथाक्रमम् ||२|| नारका नित्याशुभतर-लेश्या परिणामदेह-वेदना-विक्रियाः ॥ ३॥ परस्परोदीरित-दुःखाः ॥ ४ ॥ सक्लिप्टाऽसुरोदीरित-दुखाश्च प्राक् चतुर्थ्याः ॥ ५ ॥ तेष्वेक-त्रि-सप्त-दश-सप्तदश-द्वाविशति - त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमा सचाना परा स्थितिः ॥ ६ ॥ जंबूद्वीप-लवणोदादयः शुभनामानो द्वीप-समुद्राः||७|द्विर्द्विविष्कम्भाः पूर्व-पूर्व-परिक्षेपिणो वलयाकृतयः॥८॥ तन्मध्ये मेरु नाभिवृत्तो योजन-शतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वापः ॥ 8 ॥ भरत-हैमवत-हरि-विदेह रम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि ॥१०॥ तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवनिषध-नील-रुक्मि-शिखरिणो वर्षधरपर्वताः ॥११॥ हेमार्जुन-तपनीय-वैद्भर्य-रजत-हेममया ॥१२॥
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पर
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मणिनित्रि-पावां उपरिमुळे च तुल्य-विस्ताराः ॥ १३ ॥ प-महापत्र - निधि केशरि महापुण्डरीक- पुण्डरीका हदास्तेयामुपरि ॥ १४ ॥ प्रथमो योजन-साम्रायामस्तदर्द्धविष्कम्भो हृदः || १५ || दश-योजनानगाः ॥ १६ ॥ तन्मध्ये योजनं पुष्परम् ||१७|| द्विगुण-हिगुणा हटाः पुष्कराणि च ॥१८॥ तन्निवासिन्यो देव्यः श्री-की-पुनि-कीर्ति - बुद्धि-लक्ष्म्यः पल्योपम्पितयः सामानिक-परिपत्काः ॥ १३ ॥ गङ्गा-सिन्धुरोहिद्रोहितास्या - रिहरिकान्ना-गीता-मीनांदा-नारी नरकान्तासुवणरूप्पला रक्ता-रक्तोद्राः सरितस्तन्मध्यगाः ॥ २० ॥ ट्र्यायो पूर्ण पूर्वगाः ॥ २१ ॥ पारगाः ॥ २२ ॥ चतुर्दश-नदी-सह-परिवृता गंगा-सिम्पादयी नद्यः ॥ २३ ॥ भरतः पशति-पयोजनशत- विस्तार पट् कोनविंशतिभागा योजनम्य ||२४|| नदद्विगुण-द्विगुण-विस्तारा वर्षभर वर्षा विना|२५|| उत्तर दत्तिण- तुल्याः॥ २६ ॥ भरतेगवतयोािनी पद्माभ्यामुत्सपिण्यचनर्पिणीभ्याम् ॥ २७ ॥ भ्रमयन्थिताः ॥ २८ ॥ एक-द्वि-त्रिपन्यापम स्थितयो मतक-हारिक देवकाः ॥ २६ ॥ तथोत्तगः ॥ ३० ॥ विदेहेषु संग्येय-कालाः ||३१|| भरतस्य निकम्मी जम्बूद्वीपस्य नवनि- शत-भागः ॥ ३२ ॥ द्वितीयण्डे ||३३|| पुष्करार्द्ध च ॥३४॥ प्रामानुषोतरान्मनुष्याः || ३५ || आर्या म्लेच्छारच ॥ ३६ ॥
ताभ्यामपरा
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जन पूजा पाठ गग्रह
अन्तगरत-दकाः कर्ममयोऽन्यत्र दबकुछ ना कुरुरयः||३७|| नृम्गिनी पगारे त्रिपल्यापमान्ते ॥ ३ ॥ तियग्योनिजाना च ॥ ३९ ॥
इनि तत्त्वाापिगम गोवणानं शनायोऽया7 |३||
देगयतुर्णितयाः||१||आदितनिष पानान्त-लेण्या.।।२।। टशाट-पञ्च-द्वादश-विकल्पाः पल्पोपपन्न-पयन्ताः ॥३॥ इन्द्र-मामानिक - बायस्त्रिश-पानिपटान्मरन-लोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्य-फिल्विपिकामशः ॥४॥ त्रायलिश-लोकपाल-वा व्यन्तर-ज्योतिप्काः ॥ ५ ॥ पृवंयोन्द्राः ॥ ६॥ काय-प्रवीचारा आ ऐगाना ||७|| शेपाः पर्श-रूप-शब्दमनः-प्रवीचागः ||८|| परेऽजवीचागः॥६॥ मननवामिनासुरनाग-वियन्सुपर्णाग्नि-बान-रननितोदवि-द्वीप-दिक्युमागः ॥१० व्यन्तग किन-किपुस्प-महोरग-गन्धर्व-यच-गनस-भूतपिशाचाः ।। ११ ।। ज्योतिकाः सर्याचन्द्रमसौ ग्रह-नक्षत्रप्रकीर्णक-तारकाच॥१२॥ मेरु-प्रदक्षिणा नित्य-गतयां नृ-लोके ॥१३॥ तत्कृतः काल-विभागः ॥१४|| पहिग्वस्थिताः ॥१५॥ वैमानिकाः ॥१६॥ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च ॥१७॥ उपयुपरि ॥१८॥ मौधर्मशान-सानत्कुमार-माहेन्द्र -ब्रह्म-बलोत्तरलान्तव-कापिष्ठ-शुक्र-महाशुक्र-शतार-सहस्रारेप्यानत-प्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु ग्रैवेयकेषु विजय-वैजयन्त-जयन्तापराजितेपु सर्वार्थसिद्धौ च ॥१६॥ स्थिति-प्रभाव-सुख-द्युति-लेश्या
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জন ফুল বাঃ মঃ
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विशुद्धीन्द्रियावधि-विपयतोऽधिकाः ॥२०॥ गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाःरशा पीत-पद्म-शुक्रलेश्या द्वि-त्रिशेषेषु ।।२२।। प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥२॥ ब्रह्म-लोकालया लागान्तिकाः ।। २४ ॥ सारस्वतादित्य - वह्नयरुण - गदेतोयतुपिनाच्यागधारिष्टाच॥२५॥ विजयादिपु द्वि-चरमाः ॥२६॥ औपपादिक-सनुप्येभ्यः शेपास्तियन्योनयः ॥२७॥ स्थितिरसुर-नाग-सुपर्ण-डोप-शेषाणां सागरोपम-त्रिपल्योपमार्ध-हीनमिताः ॥२८॥ सौधर्मेशानयोः सागरोपमेऽधिके ॥२६॥ सान कुमार-माहेन्द्रयोः सप्त॥३०॥त्रि-सप्त-नकादश-त्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि तु ॥३१|| आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु ग्रेवेयनेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥३२॥ अपरा पल्योपममधिकम्।।३३||परतःपरतःपूर्वा पूर्वाऽनन्तरा॥३४॥नारकाणां चद्वितीयादिपु॥३५॥ दश-वर्ष-सहस्राणि प्रथमायाम् ॥३६॥ भग्नेए च ॥३७॥ व्यन्तराणां च ॥३८॥ परा पल्योपममधिकर॥३वाज्योतिप्काणांच॥४०॥तदष्ट-भागोऽपरा॥४॥ लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेपाम् ॥४२॥
रति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्र चतुर्थोऽध्याय ॥४॥
अजीव-काया धर्माधर्माकाश-पुद्गलाः ||१|| द्रव्याणि ॥ २ ॥ जीवाच ॥ ३ ॥ नित्यावस्थितान्यस्पाणि ॥ ४ ॥ रूपिणः पुद्गलाः ॥ ५ ॥ आ आकाशादकद्रव्याणि ॥६॥ निष्क्रियाणि च ॥ ७॥ असंग्व्येयाः प्रदेशा धर्माधमैक
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',
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जैन पूजा पाठ सह
、
जीवानाम् ||८|| आकाशस्यानन्ताः||६|| संख्येयासंख्येयारच पुद्गलानाम् ॥१०॥ नाणोः ||११|| लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥ धर्माधर्मयोः कृत्स्ने ॥ १३ ॥ एकप्रदेशादिषु भाज्य: पुद्गलानाम् ॥ १४ ॥ असंख्येय-भागादिषु जीवानाम् ||१५|| प्रदेश- संहार - विसर्पीभ्यां प्रदीपवत् ॥१६॥ गति - स्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकारः ||१७|| आकाशस्यावगाहः॥ १८ ॥ शरीर- चाड - मनः- प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥ १६ सुख-दुःख-जीवित-मरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ २१ ॥ वर्तना - परिणाम - क्रिया - परत्वापरत्वे च कालस्य ।। २२ ।। स्पर्श-रस-गन्ध-वर्णवन्तः पुद्गलाः ॥२३॥ शब्द-बन्ध - सौम्य स्थौल्य संस्थान भेट तमश्छायातपोद्योतवन्तश्च ॥ २४ ॥ अणवः स्कन्धाश्च ॥ २५ ॥ भेटसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते ॥२६॥ भेदादणुः ॥२७॥ भेद-संघाताभ्यां चाक्षुषः || २८ || सद् द्रव्य-लक्षणम् ॥ २६ ॥ उत्पादव्यय-ध्रौव्य-युक्तं सत् ॥ ३० ॥ तद्भावाव्ययं नित्यम् ||३१|| अर्पितानर्पितसिद्धेः ॥ ३२ ॥ स्निग्ध- रूक्षत्वाद्वन्धः ॥ ३३ ॥ न जघन्य-गुणानाम् ||३४|| गुण - साम्ये सदृशानाम् ||३५|| द्वधिकादि-गुणानां तु ॥ ३६ ॥ बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च ॥३७॥ गुण-पर्ययवद् द्रव्यम् || ३८ ॥ कालश्च ॥ ३६ ॥ सोऽनन्तसमयः ||४०|| द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः || ४१ ॥ तद्भावः परिणामः ॥ ४२ ॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे पञ्चमोऽध्याय ॥ ५ ॥
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मन
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२.४
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काय-बाड-मनः-कम योगः ॥१॥ स आसवा२।। शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥३॥ मकपायाकपाययोः साम्पगयिकर्यापथयोः ॥४॥ इन्द्रिय-कपायावत-क्रियाः पञ्च-चतुःपन्न-पञ्चविंशति-संख्याः पृवम्य भेदाः ॥शा तीव-मन्द-ज्ञाताबात-भावाधिकरण-बीय-विशेपेभ्यम्नविशेषः ॥६॥ अधिकरणं जीवांजीवाः ||७|| आद्यं मंगम्भ-समारम्भारम्भ-योग-कृत-कारितानुमन-कपाय-विशेषतिविनिश्चतुश्चकशः ॥८॥ निवतनानिचंप-संयोग-निसर्गा द्वि-चतुढ़ि-त्रि-भेटाः परम्।।६।।तत्प्रदोपनिव-मात्सर्यान्तरायामादनांपघातानान-दर्शनावरणयोः।।१० दुःख-शोक-नापाक्रन्दन-वध-परिदेवनान्यान्म-पगेभय-स्थानान्यमइवेद्यम्य ॥११॥ भून-व्रत्यनुकम्पाटान-सरागसंयमादियोगः तांतिः शौचमिति मद्यस्य ॥१२॥ केवलि-श्रुत-संवधर्म-देवावर्णवाटो दर्शनमोहस्य ॥ १३ ॥ कपायोदयात्तीवपरिणामश्चारित्रमोहम्य ॥१४॥ बह्रारम्भ-परिग्रहत्वं नारफम्यायुपः ॥१५॥ माया तैर्यग्योनस्य ॥१६|| अल्पारम्भपरिग्रहन्धमानुपस्य ।।१७॥म्वभाव-मार्दवं च॥१८॥ निःशीलव्रतत्वंच मर्वेपाम् ॥१६॥ मरागसंयम-संयमासंयमाकामनिर्जरावालतपांसि देवस्य ॥२०॥ सम्यक्त्वं च ॥२१॥ योगवक्रता विसंवादनं चाशुभम्य नाम्नः॥२२॥ तद्विपरीतं शुभस्य ॥२३॥ दर्शनविशुद्विविनयसम्पन्नता शोल-व्रतेष्वनतोचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोग-संवेगी शक्तितस्त्याग-नपसी साधु-समाधिया
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२१०
जन पूजा पाठ सप्रह
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वृत्यकरणमर्हदाचार्य-वहुश्रुत-प्रवचन-भक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्ग-प्रभावना प्रवचन-वत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥२४॥ परात्म-निन्दा-प्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैगर्गोत्रस्या॥२५॥ तद्विपर्ययो नीचैवृत्त्यनुत्सेको चोत्तरस्या॥२६॥ विघ्नकरणमन्तरायस्य ||२७||
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशाने पष्टोऽध्याय ॥ ६ ॥
हिंसाऽनृत-स्तेयानह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ देशसर्वतोऽणु-महती।।२।तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥३॥वाडमनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपण-समित्यालोकित-पानभोजनानि पञ्च
क्रोध-लोभ भीरुत्व-हास्य-प्रत्याख्यानान्यनुवीची-भाषणंच पञ्च||५||शून्यागार-विमोचितावास-परोपरोधाकरण-भैत्यशुद्धिसाविसंवादाः गश्च ॥६॥ श्रीरागकथाश्रवण-तन्मनोहरांगनिरीक्षण-पूर्वरतानुस्मरण-वृष्येष्टरस-स्वशरीरसंस्कार-त्गगाः पञ्च ॥७॥ मनोज्ञामनोशेन्द्रिय-विषय-राग-द्वेष-वर्जनानि पञ्च ॥८॥ हिंसादिविहानुत्रापायावद्यदर्शनम् ॥६॥ दुःखमेव वा ॥१०॥ मैत्री प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थानि च सत्त्व-गुणाधिल-क्लिश्यमानापिनेयेषु॥११॥ जगत्काय-स्वभावौ वा संवेग-वैराग्यार्थम् ॥ १२॥ प्रमत्तयोगात्प्राण-व्यपरोपणं हिंसा ॥ १३ ॥ असद्विधानमनृतम् ॥१४॥ अदत्तादानं स्तेयम् ॥१५॥ मैथुनमनन ॥१६॥ मूर्छा परिग्रहः ॥१७॥ निःशल्यो व्रती ॥१८॥ अगार्यनगारश्च।।१६।। अणुव्रतोऽगारी॥२०॥ दिग्देशानर्थदण्ड
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विरति-मामायिक - प्रोषधोपवासोपभोग- परिभोग - परिमाणातिथि विभाग- व्रत सम्पन्नश्च ॥ २१ ॥ मारणान्तिकीं सल्लेखनां जोपिता ॥ २२ ॥ शंका-कांचा विचिकित्सान्यदृष्टि-प्रशंसासंस्तवा: सम्यग्दृष्टेरतीचागः ||२३|| व्रत-शीलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥ २४ ॥ बन्ध-वध-च्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः ||२५|| मिथ्योपदेश रहोभ्याख्यान-कटलेख क्रियान्यागापहार-माकारमन्त्रभेदाः ||२६|| स्तेनप्रयोग- तदाहतादान- विरुद्रराज्यातिक्रम-हीनाधिकमानोन्मान-प्रतिरूपकव्यवद्वारा: ॥ २७ ॥ परविचाहकर णत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतामानक्रीटा कामतीत्राभिनिवेशाः ॥ २८ ॥ चत्रवास्तुहिरण्यवर्ण धनवान्यामीदाम- कुप्य प्रमाणातिक्रमाः ॥ २६ ॥ अतिर्यग्व्यतिक्रम-तत्रवृद्वि- स्मृत्यन्तराधानानि ||३०|| आनयन-शयप्रयोग-शब्द-स्पानुपात - पुद्गलन पाः ॥ ३१ ॥ चन्द्रको मौसममीच्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्याति ॥ ३२ ॥ योग-दुःप्रणिधानानादर-स्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३३ ॥ अन्यचेचिताममा जिनोत्सर्गादान-संस्तरोपक्रमणानादर- स्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४ ॥ सचित्त-सम्बन्ध-सम्मिश्राभिपत्र - दुःपक्वाहाराः ||३५|| सचित्तनित पापिधान-परव्यपदेश- मात्सय्य-कालातिक्रमः ||३६|| जीवित-मरणाशंसामित्रानुराग-सुखानुबन्ध-निदानानि ॥ ३७ ॥ अनुग्रहार्थ स्वस्यानिमगो दानम् ||३८|| विधिद्रव्य-दातृ-पात्र विशेपा
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२१२
जैन पूजा पाठ संग्रह नद्विशेषः ॥३६॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे सप्तमोऽध्याय ||७||
मिथ्यादर्शनाविरति-प्रमाद-कषाय-योगा वन्धहेतवः ।। सकपायत्वाञ्जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते सवन्धः।।२।। प्रकृति-स्थित्यनुभव-प्रदेशास्तद्विधयः ॥ ३ ॥ आयो ज्ञानदर्शनावरण-वेदनीय-मोहनीयायुर्नाम-गोत्रान्तरायाः ॥ ४ ॥ पञ्च-नव-द्वयष्टाविशति-चतुर्द्विचत्वारिंशद्-द्वि-पञ्च-भेदा यथाक्रमम् ।।शामति-श्रुतावधि-मनःपर्यय-केवलानाम् ॥६॥ चक्षुरचक्षुरवधि-केवलानां निद्रा-निद्रानिद्रा-प्रचला-प्रचलाप्रचला. स्त्यानगृद्धयश्च ।।७॥ सदसद्वद्य।।८॥ दर्शन-चारित्र-मोहनीयाकषाय-कषायवेदनीयाख्यात्रि-द्वि-नव-पोडशभेदाः सम्यक्त्वमिथ्यात्व-तदुभयान्यकपाय-कषायौ हास्य-रत्यरति-शोक-भयजुगुप्सा-स्त्री-पुन्नपुंसक-वेदा अनन्तानुवन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलन-विकल्पाश्चैकशःक्रोध-मान-माया-लोभा:|| नारक-तैर्यग्योन-मानुप-दैवानि ॥१०॥ गति-जाति-शरीराङ्गोपाङ्ग-निर्माण-बन्धन-संघात-संस्थान-संहनन-स्पर्श-रसगन्ध-वर्णानुपूर्व्यगुरुलघूपघात - परघातातपोद्योतोच्छ्वासविहायोगतयःप्रत्येकशरीर-त्रस-सुभग-सुस्वर-शुभ-सूक्ष्म-पर्याप्तिस्थिरादेय-यश कीर्ति-सेतराणितीर्थकरत्वंच॥११॥ उच्चैर्नीचैश्व ॥ १२॥ दान - लाभ-भोगोपभोग-वोर्याणम् ॥ १३ ॥ आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम-कोटीकोट्यः
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बेन पूषा पाठ सह
२१३
परा स्थितिः ॥१४॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१शा विंशतिनामगोत्रयोः ॥१६॥ त्रयविंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥१७॥ अपरा द्वादश-मुहर्ता वेदनीयस्य ॥१८॥ नाम-गोत्रयोरष्टौ ॥१६॥ शेषाणामन्तर्मुहर्ता॥२०॥विपाकोऽनुभवः।।२१॥स यथानाम।।२२ ततश्व निर्जरा ॥२३॥ नाम-प्रत्ययाः सर्वतो योग-विशेषात्सूक्ष्मैक-क्षेत्रावगाह-स्थिताः सर्वात्म-प्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥२४॥ सद्वेद्य-शुभायुर्नाम-गोत्राणि पुण्यम् ॥२॥ अतोऽन्यत्पापम् ॥२६॥
इति तत्त्वार्धाधिगमे मोक्षशास्त्रेऽष्टमोऽध्यायः ॥८॥
आसव-निरोधः संवरसा१।। सगुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षापरीपहजय-चारित्रैः।।२।। तपसा निर्जरा च ॥३॥ सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥ ४॥ ईया-भाषेपणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः॥॥ उत्तम-क्षमा-मार्दवार्जव-शौच-सत्य-संयम-तपस्त्यागाकिञ्च न्य-ब्रह्मचर्याणि धर्मः॥६॥ अनित्याशरण-संसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रवसंवरनिर्जरा- लोक-बोधिदुर्लभ-धर्मस्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥ ७॥ मार्गाच्यवन-निर्जरार्थ परिपोढव्याः परीपहाः ।।८॥ नुत्पिपासा-शीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारति-स्त्री-वा-निपधा-शय्याक्रोश-वध-याचनालामरोग-तृणस्पर्श-मल-सत्कारपुरस्कार-प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि ll सूक्ष्ममाम्पराय-च्छास्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥१०॥ एकादश जिने ॥११॥ वादरसाम्पराये सर्वे ॥१२॥ ज्ञानावरणे प्रज्ञा
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द
जाना इनान्गनगनाला त्रिगं नान्या वा निगमग याचनासकाल: 1.! , न का. १६कडगं नमन यानिमितः । नागकि-की
मान्ना-महाड़ि-मनार - यथाल्य-निनि वाचिन ।। अन्गगनगंड निमिंन्याननकपरिया-
नियमन-मालगा x mall प्रचन-निय गाय सामन्यन्सग-भानन्यनन्द
२.न-मन--हि- ययाव्यात अलोचनाचिन-न-रि-नगरछंद-मीहागरन्यात नान्गन-त्रिवान. ३॥ आगगेंगगार- गन-
गन-सर-- मनोहानामा वाचना-नानुन्नर-मादेगा।
धान्यन्तनगमः ।। २६.. उननननन् चिन्तानिगी आननननंद.२६ मन-सम्य-शुन्नानि He ' . ' अननोनय गंगे नहिरगंगार नि-समन्वहार. १३0 किगन ननांत्रस्य 1133 नगगत ३२ निनानं च ३३ बरिरतदेगविन्तयनमग्नानाना हितारतेय-विषयमन्नो न्यो रौठनविन्ट-देशान्तियोः ॥ ३ गाण-विरास संस्थान-वित्रयाय म् गुन्ले बाचे पूर्वन्दि.॥३७!
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बेन पूजा पाठ सग्रह
परे केवलिनः।।३८॥ पृथक्त्वैकत्ववितर्क सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि ॥३६ ॥ ज्येकयोग-काययोगायोगानाम्॥४०॥ एकाश्रये सवितर्क-वीचारे पूर्वे ॥४१॥ अवीचारं द्वितीयम्॥४२॥ वितर्कः श्रुतम्।।४३॥ वीचारोऽर्थ-व्यञ्जनयोग-संक्रान्तिः ॥४४॥ सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त-मोहक्षपक- क्षीणमोह-जिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुण-निर्जराः ॥ ४५ ॥ पुलाक-वकुश-कुशीलनिर्ग्रन्थ-स्नातका निर्ग्रन्था॥४६॥ संयम-श्रुत-प्रतिसेवना-तीर्थलिङ्ग-लेश्योपपाद-स्थान-विकल्पतः साध्याः ॥४७|| ___ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशाने नवमोऽध्याय ||
मोहक्षयाज्ज्ञान-दर्शनावरणान्तराय-नयाच केवलम्॥१॥ वन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्न-कर्म-विप्रमोक्षो मोक्षः ॥२॥ औपशमिकादि-भव्यत्वानां च ॥३।। अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञान-दर्शन-सिद्धत्वेभ्यः ॥४॥ तदनन्तरमूचं गच्छत्या लोकान्तात् ॥ ५॥ पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाद् बन्धच्छेदात्तथागतिपरिणामाचा॥६॥ आविद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालावुवदेरण्डपीजवदमिशिखावच्च ||७|| धर्मास्तिकायाभावात् ॥८॥ क्षेत्रकाल-गति-लिङ्ग-तीर्थ-चारित्र-प्रत्येकबुद्ध -बोधित-ज्ञानावगाहनान्तर-मंख्याल्पवहुत्वतः साध्याः ॥६॥
इति तत्वार्याधिगमे मोक्षशास्त्रे दशमोऽध्याय ॥१०॥ कोटीशत द्वादश चैव कोटयो लनाण्यशीतित्यधिकानि चैव । पञ्चाशदष्टौ च सहस्रसख्यामेतत् श्रुतं पञ्चपद नमामि ॥१॥
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५६
जेन पूजा पाठ सग्रह
अरहंत भासियन्यं गणहरदेवेहि गथियं सच । पणमामि भत्तिजुत्तो, मुद्रणाणमहोवयं सिरसा ॥२॥ अन्तर-मात्र-पठ-स्वर-हीन व्यजन-सन्धि-विवर्जित-रेफम् । साधुभिरत्र मम तमितन्यं को न चिमुह्यति शास्त्र-समुद्रेश दशाध्याये परिच्छिन्ने तत्त्वार्थ पटिते सति । फलं स्यादुपवासस्य भापितं मुनिपुगवै ॥ ४॥ तत्त्वार्थसूत्रकतारं गृद्धपिच्छोपलनिनम् । वन्दे गणीन्द्रसजातमुमास्वामिमुनीश्वरम् ॥ ५॥ जं सक्कड नं कोरड जं पुण सक्कड तहेव सहहणं । सहहमाणो जीवो पावड अजरामरं ठाणं ॥al तवयरणं वयधरणं संजमसरणं च जीवव्याकरणम् । अते समाहिमरणं चटविहढुक्खं णिवारेड ॥ ७ ॥
इति तत्त्वार्थसूत्रं समाप्तम्।
चौवीम तीर्थकरोंके चिन्ह
छप्पय । गऊपुत्र गजराज, बाज बानर मनमोहै ।
कोक कमल साथिया, सोम सफरीपति सोहै ।। सुरतरु गैड़ा महिप, कोल पुनि सेही जानौं ।
वज्र हिरन अज मीन, कलश कच्छप उर आनौं । शतपत्र शंख अहिराज हरि ऋपभदेव जिन आदिले ।
वर्द्धमानली जानिये, चिन्ह चारु चौवीस ये ।।
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को चोर h ale प्रकट गोपाय कर। frar Ti दिर नाच कर ॥ दो
नरसि. तिसो र यो। नाना नोमित देश को ।।
सरन्द्र विसामान बागेस को। PRETA नाली मार दीक्षा को ।। r e ... !: -- t-et • +7 .... inrrin ht¢ =1... . . . . . .
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सारादास मारनौर जयन के व तुम चररानि देत बढ़ाय पायागमन ना ॥ दिनपुर के महावीर तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव माताप निवार तम पद वलिहारी॥ rat marrierfere wer मनपागिरि और कपूर केशर ले हरपी। प्रा भय प्रताप मिटाय तम चरणनि परसों ॥ चदिन० htr ari Ke HEERITATErri०१२॥
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२१८
जिन पूजा पाठ सग्रह
तन्दुल उज्ज्वल प्रति धोय थारा में तुम सन्मुख पुञ्ज चढ़ाय अक्षय पढ़ ॐ ह्री श्री चंदनपुर महावीर स्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षत० वेला केतुकी गुलाब चम्पा गुलाब चम्पा कमल जे कामवाण करि नाश तुम्हरे चरण
ॐ ह्री श्री चाँदनपुर महावीर स्वामिनं कामवाणविध्वसनाथ पुष्प० ॥ ४ ॥
फैनी गुञ्ज अरु स्वार मोदक ले लीजे | करि क्षुधा रोग निरवार तुम सन्मुख कीजे ॥ चॉदन० ॐ ह्री श्री चाँदनपुर महावीर स्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ० ॥ ५ ॥ घृत में कर्पूर मिलाय दीपक मे जारो । करि मोह तिमिर को दूर तुम सन्मुख बारो ॥ चॉदन० ॐ हो श्री चंदनपुर महावीर स्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपं० ॥ ६ ॥ दश विधि ले धूप बनाय तामें गन्ध मिला ।
तुम सन्मुख खेऊ आय आठों कर्म जला || चाँदन० ॐ ह्री श्री चाँदनपुर महावीर स्वामिने श्रष्टकर्मदहनाय धूप० ॥ ७ ॥ पिस्ता किसमिस बादाम श्रीफल लौग सजा । श्री वर्द्धमान पद राख
'
-
पाऊ मोक्ष पदा || चॉदन०
ॐ ह्री श्री चाँदनपुर महावीर स्वामिने मोक्षफल प्राप्तये फल० ॥ ॥
लाऊँ ।
पाऊँ । चाँदन० ||
॥ ३ ॥
लऊँ ।
दऊँ ॥ चॉदन०
जल गन्ध सु अक्षत पुष्प चरुवर जोर करों ।
ले दीप धूप फल मेलि आगे अर्ध करों ॥ चॉदन०
ॐ ह्री श्री चाँदनपुर महावीर स्वामिने अनर्घपदप्राप्तये अर्ध० ॥ ६ ॥
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न पूजा
२१९
___टोक के चरणो का अर्थ जहां कामधेनु नित आय दुग्ध जु बरसावै। तुम वरणनि दरशन होत आकुलता जावै ॥ जहां छतरी बनी विशाल तहां अतिशय बहु भारी। हम पूजत मन वच काय तजि सशय सारी ।। चांदनपुर के महावीर तोरी छवि प्यारी। प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ॥ टक में स्थापित की मायोर पररेभ्यो म निर्वामीति स्वाहा ।
टीले के अन्दर विराजमान समय का अर्घ टीले के अन्दर आप सोहें पदमासन । जहां चतुर निकाई देव आवे जिन शासन । नित पूजन करत तुम्हार कर मे ले झारी। हम हू वसु द्रव्य वनाय पूजे भरि थारी॥ चांदनपुर के महावीर तोरी छवि प्यारी ।
प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ॥ ॐही श्री दिनपुर महावीर जिनेन्द्राय टीते के पन्दर विराजमान समय का अर्ध।
कल्याणक । । कुण्डलपुर नगर मझार त्रिशला उर आयो। • शुक्ल छट्टि अषाढ़ सुर आई रतन जु बरसायो | चांदन ...हीदी मावीर जिनेन्द्राय अपार शुक्रएदि गर्भमत प्राप्ताय अर्घ० १ ॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
जनमत अनहद भई घोर,आये चतुर निकाई। तेरस शुक्ल को चैत्र सुर गिरि ले जाई ॥ चांदन० ॐ ह्री श्री महावीर जिनेन्द्राय चैत शुक्ल तेरस जन्ममङ्गल प्राप्ताय अर्घ ॥ २ ॥ कृष्णा मंगसिर दश जान लौकान्तिक आये। करि केश लौच ततकाल मट दन को धाये ॥ चादन० ॐ ही श्री महावीर जिनेन्द्राय मगसिर कृष्ण दशमी तपमङ्गल प्राप्ताय अर्घ० ॥ ३ ॥ वैशाख शुक्ल दश मांहि घाती क्षय करना। पायौ तुम केवलज्ञान इन्द्रनि की रचना ॥ चादन० ॐ ही श्री महावीर जिनेन्द्राय वैशाख शुक दशमी केवलज्ञान प्राप्ताय अर्घ० ॥ ४ ॥ कार्तिक जु अमावस कृष्ण पावापुर ठाहीं। भयो तीनलोक में हर्ष पहुँचे शिव माहीं ॥ चांदन० ॐ ही श्री महावीर जिनेन्द्राय कार्तिक कृष्ण अमावस मोक्षमङ्गल प्राप्ताय अर्घ० ॥ ५ ॥
जयमाला। दोहा-मङ्गलमय तुम हो सदा श्रीसन्मति सुखदाय । चांदनपुर महावीर की कहूँ आरती गाय ॥
पद्धड़ी छन्द। जय जय चॉटनपुर महावीर, तुम भक्तजनो की हरत पीर । जड़ चेतन जग के लखत आप, दई द्वादशांग वाणी अलाप ॥ अब पञ्चम काल मझार आय, चाँदनपुर अतिशय दई दिखाय । टीले के अन्दर बैठि वीर, नित हरा गाय का आप क्षीर ॥
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ग्वाला को फिर मागाह कीन, जब दर्शन अपना आप दीन । सूरत देखी अति ही अनूप, हैं नम दिगम्बर शान्ति रूप ॥ तहां धावफ जन बह गये आय, पिये दर्शन करि मनवचनकाय । है चिह गैर का ठोफ जान, निश्चय है ये श्री वर्द्धमान । सब देगन में श्रावक जु आय. जिन भवन अनूपम दियो बनाय । फिर शुद्ध दई वेदी काय, तुरतहि गजन्य फिर लयो सजाय ॥ ये देख ग्वाल मन में अधीर, मम ग्रह को त्यागो नही वीर । तेरे दर्शन विग तप प्राण, सुनि टेर मेरी किरपा निधान । कीने रप में प्रभु विराजमान, रय हुआ अनल गिरि के समान । तब तह-तरह के पिये पोर, बहनर ग्य गाडी दिये तोड़॥ निगिमाहिराचियहि दिवात, ग्थ चले ग्वाल का लगत हाथ । भोरहि भट चरण दियो बनाय, नन्तोष दियो ग्वालहि कराय॥ फरि जय जय प्रभु में कारी टेर, रथ चल्यो फेर लागी न देर । वहु नृत्य कन्त वाले बजाई, स्थापन कीने तह भवन जाई ।। इक दिन नृप को गगा दोष, धरि तीप काही नृप खाई रोष। तुमको जव ध्याया वहा गर, गोला से झट वच गया वजीर ॥ मन्त्री नृप चांदनगांव आय, दर्शन फरि पूजा की वनाय । करितीन शिखर नन्दिर रचाय, कान कलगा दीने धराय ॥ वह हुक्म कियो जयपुर नरेश, सालाना मेला हो हमेश । अब जुडन लगै नर और नार, तिथि चैत शुम पूनी मझार ॥ मीना गूजर आवै विचिन. सब वरण जुटे करि मन पवित्र । बहु निरत करत गावे सुहाय, कोई-कोई घृत दीपक रह्यो चढाय ॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
कोई जय जय शब्द कर गम्भीर, जय जय जय हे श्री महावीर । जैनी जन पूजा रचत आन, कोई छन्न दवर के करत दान ।। जिसकी जो मन इच्छा करन्त, मन वाहित फल पावे तुरन्त । जो करै वन्दना एक बार, सुख पुत्र सम्पदा हो अपार ॥ जो तुम चरणो मे रखे प्रोत, ताको जग मे को सके जीत । है शुद्ध यहा का पवन नीर, जहा अति विचित्र सरिता गम्भीर ॥ 'पूरणमल पूना रची सार, होल लेउ सज्जन सुधार । मेरा है शमशावाद ग्राम, नयकाल करूँ प्रभु को प्रणाम ।।
घत्ता ।
श्रीवर्द्धमान तुम गुण निधान, उपना न बनी तुम चरण की। है चाह यही नित बनी रहै, अभिलाण तुम्हारे दर्शन की। ___ ॐ ही श्री दिनगाव महावीर जिनेन्द्राय जयमाला निर्वपामोति स्वाहा । दोहा—अष्ट-कर्म के दहन को पूजा श्चो विशाल ।
घढे सुने जो भाव से छूटे जग जाल ॥ सम्वत् जिन चौबीस सौ है वासठ की साल । एकादश कार्तिक बदी पूजा रची सम्हाल ॥
इत्याशीर्वाद ।
सदाचार - मानव जीवन राज्य है, मन उसका राजा है, इन्द्रियाँ उसकी मेना हैं, कषाय शत्रु है। यदि मन विवेकशील है तो इन्द्रियाँ मदा सचेत रह कर कषाय शत्रुओं को पराजित करती रहेंगी।
---'वर्णी वाणी' से
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वृहत् अभिषेक पाठ श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवंद्य जगत्त्रयेशं, स्याद्वादनायकमनन्तचतुष्टयाहम् । श्रीमूल संघ सुदृशाम् सुकृतैकहेतुजैनेन्द्रयज्ञविधिरेष मयाभ्यधायि ॥ १ ॥
पुष्पाञ्जलिं क्षेपण |
सौगन्ध्य संगत मधुव्रत संकृतेन, सौवर्ण्यमानमिव गन्धमनिंद्यमादौ । आरोपयामि विबुधेश्वरवृन्दवन्य, पादारविन्दमभिवन्द्य जिनोत्तमानाम् ॥ २ ॥
अभिषेक करनेवालो को अन मे चन्दन लगाना चाहिये । नोट- अभिषेक पाठ करने के पहले गर्भ और जन्म के दो मगल बोलना नाहिये ।
प्रोत्फुल्लनीलकुलिशोत्पलपद्मराग, निर्जत्करप्रकरबंधसुरेन्द्रचापं । जैनाभिषेक समयेऽगुलिपर्वमूले, रत्लांगुलीयकमहं विनिवेशयामि ॥ ३ ॥
अभिषेक करनेवालों को मुद्रिका धारण करना चाहिये । सम्यक पिलर निर्मल रक्तपंक्तिः, रोचिद्वहहलयजातबहुप्रकारं । कल्याणनिर्मितमहं कटकं जिनेशं, पूजाविधान ललिते स्वकरे करोमि ॥ ४ ॥
अभिषेक करनेवालो को हाथ में ककण धारण करना चाहिये ।
पूर्व पवित्रतरसूत्र विनिर्मितं यत्, प्रीतः प्रजापतिरकल्पयदंगसंगं । सद्भूषणं जिनमहे निजकण्ठधार्य्ययज्ञोपवीतमहमेप तदा तनोमि ॥ ५ ॥
अभिषेक करनेवालों को यज्ञोपवीत धारण करना चाहिये । पुन्नागचम्पकपयोरुह किंकरांत, जातीप्रसून नव केसर
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जैन पूजा पाठ संग्रह
कुन्ददग्धम् । देव ! त्वदीयपदपंकजसत्प्रसादात्, मूदुनि प्रणाममतिशेषकरं दधेऽहं ॥ ६ ॥
अभिषेक करनेवालों को शिर पर मुकुट धारण करना चाहिये । कटकं च सूत्रत्रयकुण्डलानि, केयूरहारगजमुद्रितमुद्रिकां च । प्रालेयपार्ट मुकुटस्वरूपं, स्वस्ति क्रियामेखलकर्णपूर्ण ॥ ७ ॥
२२४
अभिषेक करनेवालों को कुण्डल धारण करना चाहिये । ये सन्ति केचिदिह दिव्यकुलप्रसूता, नागाः प्रभूत वलदर्पयुता विवोधाः । संरक्षणार्थमभृतेन शुभेन तेषां, प्रक्षालयामि पुरतः स्नपनस्य भूमिम् ॥ ८ ॥
ॐ क्ष क्ष क्ष क्ष क्ष इसको पढ कर अभिषेक के लिये भूमि या चौकी का प्रक्षालन करे ।
क्षीरार्णवस्य पयसां शुचिभिः प्रवाहः, प्रक्षालितं सुरवरैर्यदनेकवारम् । अत्युद्धमुद्यतमहं जिनपादपीठं, प्रक्षालयामि भवसम्भवतापहारि ॥ & ॥
सिंहासन प्रक्षालन करें, जिस पर भगवान विराजते है ।
श्रीशारदा सुमुख निर्गत बीजवणं, श्रीमंगलीकवर सर्वजनस्य नित्यं । श्रीमत्स्वयंक्षयित तस्य विनाश विघ्नं श्रीकारवर्ण लिखितं जिन भद्रपीठे ॥ १० ॥ यह श्लोक पढ कर सिंहासन पर श्री लिखना चाहिये | इन्द्राग्निदण्डधरनैऋतपाशपाणि, वायुत्तरेशशशि मौलिफणीन्द्रचन्द्राः । आगत्य यूयमिह सानुचराः सचिन्हाः स्वं स्वं प्रतीच्छत बलिं जिनपाभिषेके ॥११॥
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दश दिक्पालों के लिये अर्ध चढाने की विधि
२२५
१ ॐ आं की ही इन्द्र आगच्छ आगच्छ इन्द्राय स्वाहा । ॐ अन्ने भागच्छ आगच्छ अग्नये स्वाहा ।
३ ॐभा की हीं यन आगच्छ आगच्छ बनाव स्वाहा ।
४ ॐ आं की ही नैऋत आगच्छ आगच्छ नैतृताय स्वाहा ।
६
५ ॐ आं ही वाण आगच्छ आगच्छ वरुणाय स्वाहा । भ की ही पवन आगच्छ आगच्छ पवनाय स्वाहा । ॐ आ की ही पुर आगच्छ गच्छ पुत्रेराय स्वाहा । ८ आ की ही ऐमान भागच्छ भागच्छ पेशानाय स्वाहा । ॐ आं की चरणीन्द्र आगच्छ आगच्छ धरणीन्द्राय स्वाहा । १०ॐॐॐ आ की हीं नोन आगच्छ आगच्छ सोमाय स्वाहा । इति दश दिक्पाल मन्त्रा ।
अत्युग्रतार मौक्तिक चूर्णवर्णे गारनाल मुखनिर्गतचारु धारैः । शीतैः सुगन्धिभिरतीव जलैजिनेन्द्रविवोत्सवस्नपनमेष समारभेऽहम् ॥ १२ ॥
पुप्पासलि क्षेपण |
दध्युज्ज्वलाक्षतमनोहरपुष्पदीपैः, पात्रार्पितैः प्रतिदिनं महतादरेण । त्रैलोक्य मंगल सुखालय कामदाहमारातिकं तंत्र विभोरवतारयांमि ॥ १३ ॥
दवि, अक्षत, पुप्प और दीप पात्र में लेकर मंगल पाठ तथा अनेक वादित्रों के साथ भगवान की आरती उतारनी चाहिये ।
पुण्याहमद्य सुमहान्ति च मंगलानि, सर्वे प्रहृष्टमनसश्च भवन्ति भव्याः । पुण्योदकेन भगवन्तमनन्तकान्तिमहं तिमुज्ज्वलतनुं परिवर्तयामि ॥ १४ ॥
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२२६
जैन पूजा पाठ संग्रह
. नाथ ! त्रिलोकमहिताय दशप्रकाराः धर्माबुष्टिपरिषिक्तजगत्त्रयाय । अर्घ महाघगुणरत्नमहार्णवाय, तुभ्यं ददामि कुसुमै विशदाक्षतश्च ॥ १५ ॥ (जहाँ भगवान विराजमान हों, वहाँ जाकर अर्घ चढाना चाहिये ।)
जन्मोत्सवादिसमयेषु यदीयकीर्तिः, सेन्द्राः सुराः प्रमदभारलताः स्तुवन्ति । तस्याग्रतो जिनपतेः परया विशुद्धया, पुष्पांजलि मलयजातमुपाक्षपेहम् ॥ १६ ॥
पुपाजलि क्षिपेन् । नीचे लिखा श्लोक वोल कर सिंहासन पर जिनविम्ब की स्थापना।
यं पाण्डुकाललशिलागतमादिदेवसस्नापयन् सुरवराः सुरशैलमूनि। कल्याणमीप्सुरहनक्षततोय पुष्पैः, संभावयामि पुर एव तदीय विस्त्रम् ।। १७ ॥ ॐ ह्री अरहन्तन्त्र । अत्र अवतर अवतर मबापट आह्वानन । ॐ ह्री अरहन्तदेव । अत्र तिऽ तिठठ ८ स्थापन । ॐ हीं अग्हन्तदेव ! अत्र मम मनिहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम ।
सत्पल्लवाचितमुखान्क लधौतरौप्य, ताम्रारकूटिटि तान्पयसा सुपूर्णान् । संवाह्यतामिव गतांश्चतुरः समुद्रान्, संस्थापयामि कलशान् जिनवेदिकान्ते ॥१८॥ चार दिशाओं में जल से पूर्ण म्वस्तिक लगे हुए कलश स्थापन
आभिः पुण्याभिरद्भिः परिमल बहुलेनामुना चन्दनेन, श्रीहक पेयैरमीभिः शुचिसदकचयैरुद्गमै रेभिरुद्धैः । हृद्यै रेभिनिवेद्यै मख भवनमिमैर्दीपयद्भिः प्रदीप, धूपैः
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जन पूजा पाठ समह
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प्रायोभिरेभिः पृथुभिरपि फलै रेभिरीशर्यजामि ॥ १६ ॥
ॐ ह्रीं श्री परमदेवाय श्रोअहं परमेष्ठिने अध्यं निर्वपामीति स्वाहा |
दूरावनम्रसुरनाथ किरीटकोटी संलग्नरत्नकिरणच्छविधसरांघ्रिम् । प्रस्वेदतापमलमुक्तमपि प्रकृष्टैर्भक्त्या जलै जिनपतिं बहुधाभिषिंचे ॥ २० ॥
ॐ श्री भगवन्त रूपालसन्त श्रीवृषभादि वीर पर्यन्त चतुर्विशति तीर्थंकर परमदेव जिनाभिषेक नमये आये आये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे नाम्नि नगरे माने मानान। नासोसमे पक्षे पर्वणि शुभ तिथौ वासरे मुन्द्रि यानि काणा श्रावक श्राविकाणा मन्कर्मक्षयार्थं जलेनाभिसिचेति स्वाहा। यह जन्त्र पड़कर भगवान के ऊपर शुद्ध जल की धारा देनी चाहिये । उदकचन्दन तन्दुलपुष्पकैश्चरुसुदीपसुधूपफलार्घकैः । धवलमंगलगानरवाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥
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ॐ ह्रीं श्री पभादिवीरान्तेभ्योऽनपदप्राप्तये अन्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
उत्कृष्ट वर्णन व हेमरसाभिराम, देहप्रभावलयसंग मलुप्तदीप्तिम् । धारां घृतस्य शुभगन्धगुणानुमेयां, वन्देऽर्हतां सुरभिसंस्नपनोपयुक्ताम् ॥
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गाथा - जो घियचणवण्णदुइ जिणण्हावे धरि भाव | सो दुग्गयगइ अवहर जम्मनदुक्कड़पाइ ॥
अभिषेक मन्त्र में 'जलेनाभिपिचे' की जगह 'घृतेनाभिपिचे' पढें । इति घृत कलशाभिषेक | पीछे 'उदकचन्दनादि' बोल कर अर्ध चढाना चाहिये । लम्पूर्णशारदशशांकमरीचिजालस्यन्दैरिवात्मयशसामिव सुप्रवाहैः क्षीरैजिनाः शुचितरैरभिषिच्यमानाः, सम्पाद यन्तु मम चित्तसमीहितानि ॥
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जैन पूजा पाठ मह
गाथा - दुद्धहि जिणवर जो पहवई मुत्ताहलधवलेण । सो संसार न संभवइ मुच्चइ पावमलेण ॥
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अभिषेक मन्त्र मे 'जलेनाभिपिचे' की जगह 'क्षरिणाभिपिचे' पढें । इति दुग्ध कलशाभिषेक' | पीछे 'उदकचन्दनादि' बोल कर अर्ध चढावे ।
दुग्धान्धिवीचिपय संचितफेनराशिपाण्डुत्वकान्तिमत्रधारयतामतीव । दध्ना गता जिनपतेः प्रतिमा सुधारा, सम्पाद्यतां सपदि वांछित सिद्धये नः । गाथा - दुद्धझडाझड उत्तरइ दडवडदहीपडन्त । भवियह मुच्चइ कलिमलह जिणदिट्ठ उवीसन्त ॥
मन्त्र में 'जलेनाभिपिंचे' की जगह 'दध्ना' पढें । इति दधिकलशाभिषेक । पीछे 'उदकचन्दनादि' बोल कर अर्घ चटाना चाहिये ।
भक्त्याललाट तट देशनिवेशितोच्चैः, हस्तैश्च्युता सुरवराऽसुरमर्त्यनाथैः । तत्कालपीलितमहेक्षुरसस्य धारा. सद्यः पुनातु जिलविम्वगतैव युष्मान् ॥
मन्त्र में 'जलेनाभिपिंचे' की जगह 'इक्षुरसेनाभिर्पिचे' पढें । पीछे "उदकचन्दन” बोल कर अर्घ चढाना चाहिये ।
संस्नापितस्य घृतदुग्धदधीक्षुवाहैः सर्वाभिरौषधि - भिरर्हतमुज्ज्वलाभिः । उद्वर्तितस्य विदधाम्यभिषेकमेलाका लेय कुंकुमरसोत्कटवारिपूरैः ॥
गाथा - रसदुद्धदही पाणीय जो जिनवर पहावे । rainल तोडे विकरि अचल सुक्ख पावइ ॥ मन्त्र में 'जलेनाभिषिंचे' को जगह 'सर्वोषधेनाभिषिचे' पढें । इति सर्वोषधिकलशाभिषेक । पीछे 'उदकचन्दनादि' वोल कर अर्घ चढाना ।
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जैन पूजा पाठ सह
द्रव्यैरनल्प घनसारचतुः समाद्यै रामोदवासितसमस्तदिगन्तरालैः । मिश्रीकृतेन पयसा जिनपुंगवानां, त्रैलोक्यपावनमहं स्नपनं करोमि ॥
मन्त्रमें 'जलेनाभिपिचे' की जगह 'सुगन्धजलेन' पढ़ें । केशर कर्पूरादि सुगन्धित पूर्ण कलशाभिषेक । पीछे 'उदकचन्दनाटि' वोल कर अर्घ चढ़ाना | इष्टैर्मनोरथशतैरिव भव्य पुंसां, पूणैः सुवर्णकलशैनिखिलैवसानैः । संसारसागरविलंघन हेतुसेतुमाप्लावये त्रिभुवनैकपतिं जिनेन्द्रम् ॥
श्लोक - श्रीमन्नीलोत्पलामोदेराहूता भ्रमरोत्कटैः । गन्धोदकैजिनेन्द्रस्य पादाभ्यर्चनमारंभे ||
॥
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पूरा अभिषेक मन्त्र वोल कर बाकी बचे हुए समस्त कलशोंसे भगवान का अभिषेक करना चाहिये ।
अथ गन्धोदक धारण
मुक्ति श्री वनिताकरोदकमिदं पुण्यांकुरोत्पादकं । नागेन्द्रत्रिदशेन्द्रचक्रपदवी राज्याभिषेकोदकं ॥ सम्यग्ज्ञानचरित्रदर्शनलता संवृद्धि सम्पादकं । कीर्तिश्री जयसाधकं तव जिन । स्नानस्य गन्धोदकं श्लोक - निर्मलं निर्मलीकरणं पावनं पापनाशनम् । जिनगन्धोदकं वन्दे अष्टकर्मविनाशकम् ॥
इसको पढ कर गन्धोदक अपने मस्तक पर लगाना चाहिये ।
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जेन पूजा पाठ संग्रह
अभिषेक पूजा
अथाष्टकम् सद्गन्धतोयः परिपूरितेन, श्रीखण्डमाल्यादिविभूषितेन । पादाभिषेकं प्रकरोमिभूत्यै,भृङ्गारनालेनजिनस्यभक्त्या ॥१॥ ॐ ही चतुर्वियतिजिनवृषभादिवीरान्तेभ्यो जन्ममृत्युविनागनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ।
काश्मीरपंकहरिचन्दनसारसांद्र निस्पंदनादिरचितेल विलेपनेन । अभ्याजसौरभतनौ प्रतिमा जिनस्य, संचर्चयामि भवदुःखविनाशनाय ॥२॥ ॐ हीं बतुर्विंशतिजिनवृषभादिवारान्तेभ्यो समान्तापविनाशनाय चन्दन निर्वामीतिस्वाहा ।
तत्कालभक्तिसमुपाजितलौख्यवीज, पुण्यात्मरेणुनिकरिव संगलब्धिः। पुंजीकृतःप्रतिदिनं कमलाक्षतोषैः, पूजा करोति रचयामि जिनाधिपानाम् ॥ ३ ॥ ॐ ही चतुर्विशििजनवृषभादिवीरान्तेभ्यो अक्षयपटप्राप्तचे अक्षन निर्वपामीति स्वाहा । __अम्भोजकुन्दवकुलोत्पलपारिजात, मन्दारजातविदलं नवमल्लिकाभिः । देवेन्द्र मौलिविरजीकृतपादपीठं, भस्त्या जिनेश्वरमहं परिपूजयामि ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं चतुर्विंशतिजिनवृषभादिवीरान्तेभ्यो कामवाणविध्वशनाय पुष्प निर्वपामीति वाहा ।
अत्युज्ज्वलं सकललोचनचारुहार, नानाविधौ कृतनिवेद्यमनिन्छगन्धं । आघायमाण रमणीयसि हेमपात्रे संस्थापितं जिनवराय निवेदयामि ॥ ५ ॥ ॐ ही चतुर्विशतिजिनवृषभादिवीरान्तेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ।
निःकज्ज्वलस्थिरशिवाकलिकाकलापः, माणिक्यरश्मि शिखराणिविडंवद्भि. । सर्वाभिरुज्ज्वलविशालतरा
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वलोकै दीप जिनेन्द्रभवनानि यजे त्रिसन्ध्यम् ॥ ६ ॥
ॐ ह्रीं चविंशतिजिनगृषभादिषीरान्तेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा
कर्पूरचन्दनतरुप्क सुरेन्द्रदारुकृष्णागरुप्रभृतिचूर्णविधानसिद्धि । नासाक्षिकण्ठमनसां प्रियधूमवर्तिधूपैर्जिनेन्द्र, मभितो बहुभीः क्षपेऽहम् ॥ ७ ॥
ॐ ही वारान्तेभ्यो अकविमनाय धूप निर्वपामीति स्वादा
वर्णेन जातिनयनोत्सवमावहन्ति, यानी प्रियाणि मनसो रससंपदा च । गन्धेन सुष्ठु रमयन्ति च यान्ति नाशं तैस्तैः फलेजिन पतेर्विदधामि पूजाम् ॥ ८ ॥ ॐ चतुतिनिनादिधीरान्तेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा ।
एवं यथाविधिमनागपि यः सपर्यामर्हस्तव स्तवपुरस्सरमातनोति । कामं सुरेन्द्रनरनाथसुखानि भक्त्या, मोक्षं तमप्यभयनन्दि पदं स याति ॥ ६ ॥
ॐ ही नितिनिवृषभादिपोरान्तेभ्यो अनप्यं पराप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा । जयमाला
!
श्रीमत्श्रीजिनराजजन्मसमये इन्द्रोऽतिहर्षायमान् । इन्द्राणी परिवार भृत्यसहितो देवांगनां नृत्यवान् ॥ नानागीतविनोद मंगलविधौ पूजार्थमादाय सः । जलगन्धाक्षतपुष्पचारुचरुभिर्दीर्पश्च धूपैः फलैः ॥
छन्द ।
जन्म जिनराज को जवहिं जिन जानियो । इन्द्र धरणिन्द्र सुर सकल अकुलानियो ॥
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जन पूजा पाठ सप्रह
देवदेवांगना चलियउ जयकारती । सचिय सुरपति सहित करहिं जिन आरती ॥ २ ॥ साजि गजराज हरि लक्ष योजन तनौ । चदन शतबदनप्रतिदन्तवसु सोहनौ । सजल भरिपूर प्रतिदन्त सर सोहती ॥ सचिय० ॥३॥ सरहि सर पञ्च द्वै इक कमलिनी बनी। तामु प्रति कमल पच्चीस शोभा बनी ॥ कमल दल एक सौ आठ विस्तारती । सचिय० ॥४॥ दलहि दल अपछरा नाचही भावसौं । करहिं मंगीत जयकार सुर रागसौ ॥ ताग्र तत थेड थेड करति पगढारती । सचिय० ॥५॥ तासु करि बठि हरि मकल परिवारसों। देहिं परदिछना जिनहि जयकारसो ॥ आनि कर सचिय जिननाथ उद्धारती । सचिय०॥६॥ आनि पाण्डकशिला पूर्वमुख थापि जिन । करहिं अभिषेक जो इन्द्र उत्साहसों॥ अधिक निनदेखि प्रभु कोटि छवि वारती । सचिय० ॥७॥ योजना आठ गम्भीर कलसा वनौ । चारि चौड़ाई मुख एक जोजन तनौ । सहस्र अठोतरसौ कलश शिर ढारती ॥ सचिय० ॥ ८ ॥ छत्र मणि खचित ईशान शिर ढारती। सनतमाहेन्द्र दोऊ चमर गिर ढारती ।। देव-देवी सुपुष्पाञ्जलि डारती ॥ सचिय० ॥ ६ ॥
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जल सुचन्दन अक्षत पुष्प वरु ले धर । दीप अरु धूप फल अर्घ पूजा करें ।। पाण्डका और नीराजना वारती ॥ मचिय० ॥१०॥ कियो सिंगार सप अंग सम्मानको । आनि मातहि दियौ फेरि जिनराजको।। तृप्त नहि होतंग रूप को नीहारती ॥ सचिय० ॥११॥ ताल मृदग-धनि नप्त स्वर वाजहीं। नत्य ताण्डव करत इन्द्र अति छाजहीं। करन उत्साह सौं जिन सुपग ढारती ॥ सचिय० ॥१२॥ भव्यजन लोक जन्ममहोत्सव करें। आगिले जन्म के सकल पातक हरै ॥ भक्ति जिनराज की पार उत्तारती।
मचिय सुरपति सहित करहिं जिन आरती ॥१३॥ घत्ता-जिनवर वर माता, माननीया सुरेन्द्रेः।
स जयति जिनराजा "लालचन्द्र" विनोदी।. ॐ ही चर्षिगनिदिनगृपमाटितीर्धहरेभ्यो अनपदप्राप्तये भयं इत्याशीर्वाद ।
नव तिलक पूगा फरनेपाले को प्रथम नय तिलक फरना चाहिये। शिखा शीश की जानि, ललाट सु लीजिये। कण्ठ, हृदय अरु कान, भुजा गनि लीजिये। कुंख, हाथ अरु नाभि, सरस शुभ कीजिये। तव जिनवर को जजो, तिलक नव कीजिये ॥१॥
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जे पूजा पाठ प्रह
देव-शास्त्र-गुरु पूजा संस्कृत सा प्रारम्भ सत पनर दिन्यः पढ़ने ६ कर को उन दुझा जिन सहस्र नाम पर कर दम कर ना काहये। ६८ में बना दो र देव-शाख-गुरु पूला प्रारम्भ कला का हे। सावः सवजनाथ सकल-तनुभृता पाप-संताप-हर्ता त्रैलोक्याक्रान्त-कीति नत-मदनरिपुर्घातिकर्म-प्रणाश। श्रीमान्निर्माणमपट्टग्युवति-कगलीढ-कप्ठे. मुकण्ठ देवेन्द्रवन्ध-पाही जयति जिनपतिः प्राप्त-कल्याण-पूज ॥१॥
जय जय जय श्रीमत्कान्ति-प्रभो जगता पते । जय जय भवानेव स्वामी भवाम्भसि मजताम् ।। जय जय महामोह-ध्वान्त-प्रभातकृतेऽचनम् ।
जय जय जिनेश त्व नाथ प्रसीद करोम्यहम् ॥२॥ ॐ ह्री भगजितेन्द्र अअवतर नवौषट् आह्वाननम् । अत्र तिष्ट तिट ७ । स्त्र नम ननिहितो भव भव अष्ट देवि श्रीधृतदेवते भगवति त्वत्पाद-पङ्कतह
द्वन्द्वे यामि शिलीमुखत्वमपर भक्त्या मया प्राध्यते। मातश्चंतनि तिष्ठ मे जिन-मुखोते मदा त्राहि मा
इन्दानेन मयि प्रमीद भवती मजयामोधुना ॥३॥ ॐ हो जिननुलोद्भूतद्वादशातज्ञान स्त्र अवतर स्वतर नवौषट् । अत्र तिष्ट तिष्ट । अत्र नन नानाहतो भव भव वषट् ।
संपूजयामि पूज्यम्य पादपमयुग गुरो ।
तपःप्राप्त-प्रतिष्ठस्य गरिष्ठम्य महात्मनः॥४॥ ॐ हीं आचार्योपाध्यायलर्वसाधुसमूह ' अत्र अवतर अवतर सौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठठ। अत्र नम सन्निहितो भव भव वषट् ।
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अक्षय अक्षय
क्यूँ, सो अक्षय पद नाय ।
महा अक्षय पद तुम लियो, यातं पूजू राय ॥ ॐ ह्री अनयपदप्राप्रये अनतान् निर्वपामीति स्वाहा । विनीत-भव्याब्ज-विबोधसूर्यान्वर्यान् सुचर्या कथनैक-धुर्यान् । कुन्दारविन्द-प्रमुखैः प्रसूनैजिनेन्द्र-सिद्धान्त यतीन् यजेऽहम्||८|| पुष्प चाप धर पुष्प सर, वारी मनमथ वीर ।
न पूजा पाठ सग्रह
यातें पूजा पुष्प की, हरै मदन की पीर ॥
कामवाण पुष्पे हरो, सो तुम जीते राय ।
यातें मैं पायन पडू, मदन काम नशि जाय ॥ ही कामवाणविध्वलनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा । कुदर्प- कन्दर्प - विसर्प - सर्प-प्रसह्य-निर्णाशन-चैनतेयान् । प्राज्याज्यसारैश्चरुभी रसात्यैजिनेन्द्र - सिद्धान्त - यतीन् यजेऽहम्॥६॥ परम अन्न नैवेद्य विधि, क्षुधाहरण तन पोप ।
जे पूजैं नेवेद्य सों, मिटे क्षुधादिक दोष ॥
भोजन नाना विधिकियो, मूल क्षुधा नहिं जाय ।
क्षुधा रोग प्रभु तुम हरो, यातें पूजू पाच ॥ ॐ ह्रीं "तुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । ध्वस्तोद्यमान्घीकृत- विश्व विश्वमोहान्धकार-प्रतिघात-दीपान् । दीपैः कनकांचन - भाजनस्थैर्जिनेन्द्र- सिद्धान्त यतीन् यजेऽहम् ॥ १० आपा पर देखे 'सकल, निशि मे दीपक जोत ।
दीपक सों जिन पूजिये, निर्मल ज्ञान उद्योत ॥
दीप शिखा घट में वसै, ज्ञान घटा घट माय ।
ढूंढ़त डोलें करम को, कृत कलंक मिट जाय ॥ ॐ ह्रीं मोहान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ।
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दुष्टार कमेन्वन-पुट-जाल-मंधपने भासुर-धमकेतन् । धूपर्पिभूतान्य गुगन्ध-गन्धाजनन्द्र-निद्धान्त यतीन् यजेऽहम्॥११॥ पाय मुगन्ध . प पार्य सांग ।
न धूप जिin को, अष्ट पर्म अप होय । नय प्रम पापन गे: मान पिर पौर।
पहिने, जिनपन पनि गम्भीर।। - निदान निपानीति घुम्पडिलम्पन्मनमानगम्या नादि-बादाम्मलित प्रभावान। फना मांस-पन्नाभिनाजगन्द्र मिळाल-पनीन बजेऽहम्॥१२॥ सो ममी परनी पर, मोगमा फाले।
फरगा नारा पी, निम्पग शिरपल देय । पल पल गाने परत ये फल ये पल नाय ।
महानोर पल तुम रियो, तानं पजू पांय ॥ ____ो गोगना पल निर्मपामारि स्या।। सहारिनगन्धासन-पृषजानन चैप-दीपामन-धूप मनः । पलबिचिचन-पुण्य-योगासिनन्द्र-सिद्धान्न-यनीन यजन्हम्॥१३॥ पारा पन्दन पमों, पक्ष पुष्प नपेदा ।
___ोप धूप फल अर्प युग, ये पूजा यसु भेव ! ये गिन पना जप्ट पिथि, कोने पर शुधि ।
प्रमि पूना सलधार मो, दी धार अभग ॥ दी जनयंपाम अर्थ नियंपामानि मा । ये पूजा जिननाय-शास्त्र-पमिना भन्या मटा कुर्वते घमन्ध्यं मविचित्रकान्परचनामुशाग्यन्तो नराः।
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जन पूजा 410सह
पुण्यात्या मुनिराज-कीर्ति सहिता भृत्वा तपोभूपणास्ते भव्याः मकलावबोध-रुचिग सिद्धि लभन्ते पराम् ॥१४॥
[इत्याशीर्वाद , पुप्पाञ्जलि तिपामि ।] वृपभोऽजितनामा च सम्भवश्वाभिनन्दनः । मुमतिः पद्मभासश्च मुपाश्चों जिनमत्तम. ॥१॥ चन्द्राभः पुप्पटन्तश्च शीतलो भगवान्मुनिः । श्रेयांश्च वासुपूज्यश्च विमलो विमल-द्युतिः ॥१६॥ अनन्तो धर्मनामा च शान्तिः कुन्थुर्जिनोत्तमः । अग्श्च मल्लिनाथश्च सुत्रतो नमि-तीर्थकृत् ॥१७॥ हरिवंश-समुद्भुनारिष्टनेमिर्जिनेश्वरः । ध्वस्तोपसर्ग-दैत्यारिः पारो नागेन्द्र-पजितः ॥१८॥ कर्मान्तकृन्महावीरः सिद्धार्थ-कुल-सम्भवः । एते सुगमुगैषेण पृजिता विमलत्विपः ॥१९।। पृजिता भरतायैश्च भूपेन्द्र रि-भूतिभिः । चतुर्विधस्य संवम्य शान्ति कुर्वन्तु शाश्वतीम् ॥२०॥ जिने भक्तिजिने भक्तिजिने भक्तिः मटाऽन्तु मे । मम्या त्वमेव समार-वारणं मोक्ष-कारणम् ॥२१॥
[पुग्पाञ्जलिं तिपामि ] अते भक्ति श्रुते भक्तिः श्रुने भक्ति सदाऽस्तु मे । मज्जानमेव मंमार-बारण मोक्ष-कारणम ॥२२॥
[पुष्पालि निपामि । गुगे भक्तिगुग भक्तिगुरी भक्ति महास्तु में । चारित्रमेव संसार-वारण मोत-कारणम ||२३||
[ पुष्पालि निपामि]
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देव-जयमाला वत्ताणुहाणे जणु घणदाणे पई पोसिउ तुहूं खत्तधरु । तवचरणविहाणे केवलणाणे तुहुँ परमप्पउ परमपरु ॥१॥ जय रिसह रिसीसर-णविय-पाय । जय अजिय जियंगय-रोस-राय॥ . जय संभव संभव-कय-विओय ।जय अहिणंदण णंदिय-पूओय ॥२॥ जय सुराइ सुमइ-सम्भय-पयास जय पउमप्पह पउमा-णिवास ॥ जय जयहि सुपास सुपास-गत्त । जय चंदप्पह चंदाहवत्त ॥३॥ जय पुष्पयंत दंततरंग । जय सीयल सीयल-वयण-भंग। जय सेय सेय-किरणोह-सुज । जय वासुपुञ्ज पुजाणुपुज ॥४॥ जय विमल विमल गुणसेढि-ठाण । जय जयहि अणंताणंत-णाण ।। जय ६म्म धम्म-तित्थयर संत । जय संति संति-विहियायवत्त ॥शा जय कुंथु कुंथु-पहुअगि सदय । जय अर-अर-मा-हर विहिय-समय ॥ जय मल्लि नल्लिआ-दाम-गंध । जय मुणिसुव्वय सुव्वय-णिबंध ॥६॥ जय णमि मियामर-णियर-सामि । जय मि धम्म-रह-चक्क-णेमि ॥ जय पास पास-छिंदण-किवाण | जय वड्डमाण जस-वड्डमाण ||७॥
घत्ता इह जाणिय-णामहिं दुरिय-विरामहिं परहि वि णमिय-सुरावलिहिं । अणिहणहि अणाइहिं समिय-झुवाहहिं पणविवि अरहंतादलिहिं ॥ ॐ ह्रीं वृषभादिमहावीरान्तचतुर्विंशतिजिनेभ्यो अर्धे
शास्त्र-जयमाला संपइ-सुह-कारण कम्म-वियारण भव-समुह-तारणतरणं ।। जिणवाणि णमस्समि सत्ति पयासमि सग्ग-मोक्ख-संगम-करणं ॥१॥ जिणिंद-मुहाओ विणिग्गय-सार । गणिद-विगुंफिय गंथ-पयार ॥ तिलोयहि संडण धम्मह खाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ॥२॥ अवग्गह-ईह-अवायजुएहिं । सुधारणमेयहि तिण्णिसएहि ॥
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जेन पूजा पाठ प्रह
मई छत्तीस बहु-प्पमुहाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ॥३॥ सुदं पुण दोणि अणेय-पयार । मुबारह-भेय जगत्तय-मार ॥ सुरिंदणरिद-समुच्चिय जाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि || जिणिंद-गणिद-णरिंदह रिद्वि । पयामड पुण्ण पुग किउ लद्वि ॥ णिउग्गु पहिल्लउ एहु वियाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ॥५॥ जु लोय-अलोयह जुत्ति जणेइ । जु निणि वि काल सम्ब भणेड ॥ चउग्गइ-लम्सण दुजउ जाणि । सया पणमामि जिणिढह वाणि ॥६॥ जिणिंद-चरित्त विचित्त मुण्ड । मुसावहि धम्मह जुत्ति जोड । णिउग्गु वि तिज्जउ इत्यु वियाणि । मया पणमामि जिणिदह वाणि ||७|| सुजीव-अजीयह तच्चह चक्सु । सुपुण्णु वि पाव वि नध वि मुम्बु ॥ चउत्यु णिउग्गु विभासिय जाणि।सया पणमामि जिणिवह वाणि || तिमेयहि जोहि वि णाणु विचित्तु । चउत्प रिज़ विउल मड उत्तु ।। सुखाडय केवलणाण पियाणि । सया पणमागि जिणिवह वाणि III जिणिदह णाणु जग-त्तय-याणु । महातम णासिय सुस्स-णिहाणु ॥ पयञ्चउ भत्तिभरेण वियाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ॥१०॥ पयाणि सुवारह कोडि सयेण । मुलक्स तिरासिय जुत्ति-भरेण ॥ सहस असावण पच चियाणि । सया पणमामि जिणिदह वाणि ॥११॥ इकावण कोडिउ लाल अठेव । सहस चुलसीदिय सा छक्केव ॥ सढाइगवीसह गन्थ-पयाणि । सया पणगामि जिणिदह वाणि ।।१२।। पत्ता- इह जिणवर-वाणि पियुद्धभई। जो भवियण णिय-मण धरई ॥
सो सुर-णरिद संपइ लाई। मेजरणाण वि उत्तरई ॥१३॥ ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोदभूतस्याहादायगर्भितद्वादशागश्रुता शानाया।
गुरु-जयमाला भवियह भव-तारण सोलह-कारण अजवि तित्थयरतणहं। तवकम्म असगइ दयधम्मंगइ पालवि पंच महन्दयहं ॥१॥ वंदामि महारिसि सीलवत. पंचिदिय-संजम जोगजुल । जे ग्यारह अंगह अणुसरंति,जे चउदह पुवह मुणि थुर्णति।२॥
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पादाणुसारि-वरकुतुबुद्धि, उप्पण्णु जाह आयासरिद्धि । जे पाणाहारी तोरणीय, जे रुक्ख-मूल आतावणीय ॥३॥ जे मोणिधाय चन्दाहणीय, जे जत्थत्थ वणि णिवासणीय । जे पंच-महव्यय धरणधीर,जे समिदि-गुत्ति पालणहि वीर ॥४॥ जे वड्डहि देह विरत्तचित्त, जे राय-रोस-भय-मोह-चित्त । जे कुगइहि संवरु विगयलोह, जे दुरियविणासणकामकोह ॥शा जे जल्लमल्लतणगत्तलित्त, आरंभ-परिग्गह जे विरत्त । जे तिण्णकाल बाहर गमंति, छहम-दसमउ तउ चरंति।।६।। जे इकगास दुइगास लिंति, जे णीरस-भोयण रइ करंति । ते मुणिवर वंदउंठियमसाण. जे कम्म डहइ वर सुक्कझाण।।७। बारहविह संजम जे धगति, जे चारिउ विकहा परिहरंति । वावीस परीपह जे सहति, संसार-महण्णउ ते तरंति ॥८॥ जे धम्मबुद्धि महियलि थुणंति, जे काउस्सग्गे णिसिगमंति। जे मिद्धि-विलासणि अहिलसंति,जे पक्स-मास आहार लिति॥६॥ गोहण जे वीगसणीय, जे धणुह-सेज-वजासणीय । जे तव-बलेण आयास अंति,जे गिरि-गुह-कंदर-विवर थति॥१०॥ जे सत्तु-मित्त ममभाव चित्त, ते मुणिवर बंदउ दिढ-चरित्त । चउवीसह गंथह जे विरत्त, ते मुणिवर बंदउ जग-पवित्त ॥११॥ जे सुज्झाणिज्झा एकचित्त, वंदामि महारिसि मोक्खपत्त । रयण-तय रंजिय सुद्ध-भाव, ते मुणिवर वंदउ ठिदि-सहाव ।।१२।। जे तप-सुरा संजम-धीरा सिद्ध-वधू अणुराईया। रयण-त्तय रंजिय कम्मह-गंजिय ते ऋसिवर मय झाईया॥१३॥ [ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनशानचारित्रादिगुणविराजमानाचार्यो
पाध्यायसर्वसाधुभ्यो महाघे निर्वपामीति स्वाहा ।]
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जन पूजा पाठ संग्रह
वृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा
दोहा - परम ब्रह्म परमातमा, परमजोति परमीश।
परमनिरञ्जन परमपद, नमों सिद्ध जगदीश ॥ ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिन । अत्र अवतर अवतर सवौषट् आह्वानन । ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण सिद्ध परमेष्ठिन ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्यापन । ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण मिद्ध परमेष्ठिन । अत्र मम मन्निहितो भवभव वषट् सन्निधिकरणम
अथाष्टक, सोरठा। मोहि तृषा दुःख देत, लो तुमने जीती प्रभू।
जलतौं पूजों तोहि, मेरो रोग सिटाइयो ॥ १। ॐ हीं श्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामोति स्वाहा।
हम भव आतप माहि, तुम न्यारे संलार तें।
कीजे शीतल छांह, चन्दन सों पूजा करौं ॥२॥ ॐ ही श्री णमो सिद्वाण सिद्धपरमेष्टिभ्यो समारतापविनाशनाय चन्दन निवपामीपि स्वाहा
हम औगुण समुदाय, तुम अक्षय सब गुण भरे । पूजौं अक्षत ल्याय, दोष नाश गुण कीजिये ।। ३॥. ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्टिभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अलत निर्वपामीति स्वाहा
काम अग्नि है मोहि,निश्चैय शील सुभाव तुम । फूल चढ़ाऊँ तोहि, लेवक की बाधा हरो ॥ ४॥ ॐ हीं श्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा । हमें क्षुधा दुःख सूर, ध्यान खड्ग सौं तुम हती। मेरी बाधा चर, नेवजसौं पूजा करौं ।। ५॥ ॐ श्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा।
मोहतिमिर हम पास, तुम पै चेतन जोत है। पूजौं दीप प्रकाश, मेरो तम निरवारियो ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप मिर्वपामीति स्वाद
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अष्ट करम बनजाल, मुकति मांहि तुम सुख करौ। खेॐ धूप रसाल. मम निकाल वनजाल से ॥ ७॥ ॐ धी जमा मिना मिस्परमेष्टिभ्यो अष्टपमंदिवानार धूम निपामीति स्वाहा ।
अन्तराय दुःखटार, तुम अनन्त थिरता लिये। पूजों फल दरशाय, विघनटार शिव फल करो ॥८॥ ॐ तो धो गमो सिनाग सिमपरष्टिभ्यो मोक्ष प्रामये फल निर्भपामीति म्वाहा । हममें आठों दोष. जजों अरघलों सिद्धजी। दीजे वसु गुण मोहि, कर जोरे द्यानत खड़े ॥६॥ ही श्री पनो तिनाग मिमारनेटिभ्यो अनपदनाम अयं निपामीति स्वाहा । ज्ञानावरणीकर्मनाशक सिद्ध जयमाला।
दोहा मूरति ऊपर पट करी, रूप न जाने कोय ।
ज्ञानावरणी करमते, जीव अज्ञानी होय ॥१॥ तियसै छतिम विधि मति वरणी, ताहि ढक मति ज्ञानावरणी। द्वादश विधि श्रुत ज्ञान न होवे, श्रत ज्ञानावरणी सो हो ॥२॥ तिय विधि पद विधि अधि छिपान,अवधि ज्ञानावरण कहावे । जो विधि मनःपय्येय नहि हो है, मनःपर्याय आवरणी सो है ॥३॥ केवलज्ञान अनन्तानन्ता, केवल ज्ञानावरणी हन्ता। उदय अनुदय मृरख ठान, मुमति कुश्रुत कुअवधि पहिचान ॥ ४ ॥ श्रय उपगम करि सम्यधारी, चारों ज्ञान लहै अविकारी । ज्ञानावरणी सर्व विनाश, केवल ज्ञान रूप परकाशे ॥ ५ ॥
दोहा जानावरणी पञ्च हत, प्रगट्यो केवलज्ञान ।
द्यानत मनवचकायसी, ना सिद्ध गुणखान ।। ॐहो श्री णमो सिताण सिद्धपरमेष्टिभ्यो ज्ञानावरणी कर्मविनाशनाय अव्यं० ।
चौपाई
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जैन पूजा पाठ मग्रह दर्शनावरणीकमनागक मिट्ट जयमाला।
दोहा जैसे भूपति दरश को, होन न दे दरवान । तेसे दरशन आवरण, देख न देई सुनान ॥१॥
. चौपाई। जाके उदै आस नहि होई, चक्ष दर्शनावरी मोई। नहिं मुख नाक फरम मुख करणं, उढे अचक्षु दर्शनावरण ॥ २ ॥ अवधि दर्श प्रमाण विलोके, अवधि दर्शनावरणी रोक। केवल लोकालोक निहार, केवल दर्शनावरण निवारं ॥ ३ ॥ निद्रा उद सर्व तन सोचे, थोरी नीट सुरत कछु हो । प्रचला बलसौ आंख खुली है, अई मुदी-मो अई खुली है ॥ ४ ॥ निद्रा-निद्रा उदै वखानी, पलक उवार सके नहि प्राणी। प्रचला-प्रचला उद कहाव, लार वह मुख अग चलावे ॥ ५ ॥ उठे चले बोल सुध नाही, जोर विशेष बढ़े तन माही। काम प्रचण्ड तास ते होव, स्त्यानगृद्धि निद्रा जो मात्र ॥ ६ ॥ दरशन आवरणी हतै, केवल दर्शन रूप ।
द्यानत सिद्ध नमी सदा, अमल अचल चिद्रूप॥ ॐ हीं श्री णमो निद्वाण निद्धपरमेष्टिभ्यो दर्गनावरणी नविनागनाय अर्य० ।
वेदनीयकर्मनाशक सिद्ध जयमाला शहद मिली असिधार, सुख दुःख जीवनको करै । कर्मवेदनीय सार, साताअसाता देत हैं ॥ १ ॥
. ...चोपाई बन्द । पुन्नी कनक महल मे सोचे, पापी राह परौ दुःख रोवै । पुन्नी वांछित भोजन खावे, पापी मांग टूक न पावै ॥ २ ॥
दाहा
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पुन्नी गं जा शोभ. पापी फाटे फपर ओढ़े। पुन्नी कथन धार कांग, पापी के फर पाला फोग ॥३॥ पुन्नी ग ट गानन्ना. पापी नंग पग धापन्ता । इन्नी रेशिम फिर पापी भी मोसले धाये ॥४॥ पन्नी अगन पर हो. पापी यात मुर्न नहिं कोई । इन्नी भान दर नित आर्य, पापी धन दंग्यन नहिं पाप ॥ ५ ॥ पुन्नी की नगन बा, पाणंबन की मुरा न लगाये। पुन्नी कर गंग न पार्ष, पापी को नित पापि मनापं ॥६॥ इन्नी नाप नाग, पापी नहै न फानी फार्ग। पुन्नी के मुन कर मा. पापी तरी दुमदाई ॥ ७॥ पुन्नी पगकिरा. पापी के फर से गिर जाय । पुन्नी पान के मुत भाग, पापी महादःमो अनि रोच ॥ ८॥
पुण्य पाप दोऊ डार, कमवदनी वृक्ष के। सिर जलावन हार, शानन निरचाधा करी ।। Cir reet Ralert Attar wri।
मोहनापकमनामक मिट जयमाला। ज्यों मदिगक पान नं. मुधबुध सवे भुलाय । त्यो मोहनी कम उढे, जीव गहिल हो जाय ।
पापा दरमन मोर नान परमार, नान कर सम्पक गुण साई। मिपा जुर्ग उदे जप आच, धम मधुर रम भूल न आव ॥२॥ मिश्र भार निपनिनि मनग्यातं, एक मग मम्मकमिध्या।। मम्पक प्रशानि मिथ्यान मताच, नाल मल मिधिल दीप उपजावे ॥३॥ चारित्र मोह पनीम प्रकार, जो मेट गम्पक आचारं।
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जन पूजा पाठ सप्रह
क्रोध मान माया अर लोभ, चारौ चार-चार विधि शोभं ।। ४ ॥ अनन्तानुबन्धी चौकड़िया, जिनने निरमल समकित हरिया। अप्रत्याख्यानी चऊ भाखै, श्रावक व्रत विधि वश कर राखे ॥ ५॥ प्रत्याख्यान चौकड़ी मोई, जाके उदय न मुनि व्रत होई । सो संज्वलन चतुष्क बखानी, यथाख्यात पावै नहीं प्राणी ॥ ६॥ हास्य उदै रौं हांसी ठाने, रतिके उदै जीव रति माने । अरति उदय तें कछु न सुहावै, शोक उदै सेती विललावै ।। ७ ।। भयतें डरे जुगुप्स गिलान, पुरुष भाव तिन पावक जानं । गोठे की पावक समनारी, पंढापा जावे अगनि निहारी ॥ ८ ॥
अदाईसों मोह की, "तुम नाशक भगवान । ___ अटल शुद्ध अवगाहना, नमों सिद्ध गुणखान । ॐ हीं श्री णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिभ्यो मोहनीयकर्म विनाशनाय अर्घ्य ।
आयुकर्मनाशक मिद्ध जयमाला । जैसे नरको पांव. दियो काठमें थिर रहै।
तैसे आयुस्वभाव, जियको चहुँगति थिति करें। नरक आयुतै नरक लहे हैं, तेतिस सागर तहां रहे हैं। गाढ़ा कर आरेसों चीरे, कोल्हू मांहि डारकै पेरें ॥२॥ वैतरणी दुर्गन्ध नहावे, पुतरी अगनी मांहि गलावे । सूली देहि कड़ाई तावै, शाल्मली तल मांहि सुवावै ॥ ३॥ शीश तलै कर गिरिसैं डारे, नीचे वज्र मुष्टि सौं मारे। भूख प्यास तप शीत सहारी, पञ्च प्रकार सहै दुःख भारी॥४॥ पशु की आयु करै पशु काया, विना विवेक मदा विललाया। जन्म बैर जिय ते दुःख पावं, बाधमारकी कौन चलावै ॥ ५ ॥
सोरठा
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I
प्रभ
२४७
मानुष आयु धरै नर देही, इष्ट वियोग लहै दुःख तेही । धन संपत्तिको सदा भिखारी, प्रभुता मांहि पचै ससारी ॥ ६ ॥ देव आयुतें देव कहाया, परको विभव देख खुनसाया । मरण चिह्न लख अति दुःख दानी, इम चारों गतिभटकै प्राणी ॥ दोहा
द्यानत चारों आयुके, तुम नाशक भगवान | अटल शुद्ध अवगाहना, नमों सिद्ध गुणखान ॥ 3 ह्रीं श्री णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठियो आयुकमै विनाशनाय अध्यं० । नामकर्मनाशक सिद्ध जयमाला । दोहा
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चित्रकार जैसे लिखे, नाना चित्र अनूप । नाम-कर्म तैसे करे, चेतन के बहु रूप ॥ १ ॥ चौपाई | गतिके उदय चहूं गति जानी, जाति पंचइन्द्री सव प्राणी । आनुपूरची गति ले जाई, दो विहाय दो चाल बताई ॥ २ ॥ वन्धन पञ्च पञ्च विधि काया, तन बन्धान पश्च दृढ़ लाया । वन्ध सघन सो पञ्च संघातं अंग उपंग तीन ही गातं ॥३॥ चरण पंचतन रंग वखाने, पांचों ही तन के रस जाने । गन्ध दोय तन मांहि कहे हैं, आठ फरस तन मांहि लहे हैं ॥४॥ पट संठान देह आकारं, हाड छह भेद संहनन धारं । उड़े पड़े न अगुरु लघु काया, स्वास उस्वास नाक सुर गाया ||५|| निज दुःख दे उपघात शरीरं, तन पर घात करें पर पीरं । चन्द्र विजय देह उद्योतं, भानुविंब जिय आतप होत ॥६॥ थावर उठे सुथिर न चले है, त्रस के उदैतै चलै लै है । पस्यापत पूरी जब होई, खिरे बीच अपरयापति सोई ॥७॥ थिरके उदै सुथिर तन गाया, अथिर उदैतैं कंपै काया | तन प्रत्येक जिय एक भनन्तं, साधारण तन जीव अनन्त ॥८॥
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नग पूजा 10
मारै मरे रहे आधारं, दीसै अर लोकनि मे मारं । वादर जीया चहूं पसरंतं, सूक्ष्म जीव इन ते विपरीत IIT शुभ के उ? होय शुभ काया, अशुभ उदे तन अशुभ बताया। शुभग उद भाग का पूरा, अशुभ उठें जभाग हजरा ॥१०॥ सुस्वर उदय कोकिला वानी, दुस्वर गदभ-ध्वनि सम जानी । आदर ते बहु आदर पावे, उदय अनादर ते न सुहावै ॥११॥ जसके उदय सुजस जग माही,अजस उदय अपजस जग माही। थान प्रमान दुविधि निर्मानं, तीर्थङ्कर है पुण्य प्रधानं ॥१२॥ व्यालीस और तिरानवै, तथा एकसौ तीन ।
द्यानत सो प्रकृति हरी, सिद्ध अमूरति लीन ॥ ॐ ह्रीं श्री णमो सिद्धाण सिद्धपरमेष्ठिभ्यो नामर्मविनाशनाय अर्य० ।
गोत्रकमेनाशक सिद्ध जयमाला । ज्यों कुम्हार छोटो बड़ौं, भांडी घड़ा जनेय । गोत्र-कर्म त्योंजीवको, ऊँच नीच कुल देय ॥१॥
चौपाई। नीच गोत्र पशु नर्क निहारं, ऊंच गोत्र सब देव कुमार । मनुप मांहि दो गोत्र वखाने, नीच गोत्र सब शूद्र प्रवान ॥ २ ॥ ब्राह्मण क्षत्री वैश्य मझारं, मद्य मांस जो करे अहारं ।। जो पंचनितें वाहिर होई, नीच गोत्र कहिये नर सोई ॥ ३ ॥ परगुणको औगुण करि भाख, निज औगुणको गुण अभिलाष । परको निन्दै आप बड़ाई, वांधै नीच गोत्र दु.खदाई ॥ ४ ॥ नीच गोत्रको मुनिव्रत नाही, क्योंकर जाय मुकतिके माही ।।
नीच काज तज ऊंच सम्हार, दया धरम कर आतम तारे ॥५॥ सोरठा ऊंच नीच दो गोत्र, नाश अगुरुलघु गुण भये ।
द्यानत आतम जोत, सिद्ध शुद्ध वंदौं सदा।। रही श्री णमो सिद्धार्ग सिद्धपरमेष्ठिभ्यो गोत्रकर्मविनाशनाय अय० ।
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जन पूजा
१३७
अन्तरायकर्मनाशक सिद्ध जयमाला ।
दोहा
भूप दिलावे दर्व को, भण्डारी दे नाहिं । होन देय नहि सम्पदा, अन्तराय जगमाहिं ॥१॥ चौपाई। छती वस्तु दे मकै न प्राणी, दान अन्तराय विधि जानी 1 उद्यम करें न होय कमाई, लाभ अन्तराय दुःखदाई ॥२॥ भोजन त्यार सान नहिं पावै, भोग अन्तराय जब आवे । पट भूषण है पहिरत नाहीं, उपभोग अन्तराय की छाही ॥३॥ तन वर पोखे बल नहि होई, नीर्य अन्तराय है सांई । इह विधि अन्तराय विवहारी, निश्चय बात सुनो मति धारी ||४|| मिध्याभाव त्याग सो दानं, समताभाव लाभ परधानं । आतमीक सुख भोग सजोगं, अनुभाऽभ्याम मदा उपभोग ||५|| भ्यान ठानके कर्म विनाम, सो धीरज निज भाव प्रकामै । पांचों भाव जहाँ नहि लहिये, निश्च अन्तराय मो कहिये ॥६॥ दोहा
:
अन्तराय पांचों हत, प्रगट्यो सुवल अनन्त । यात सिद्ध नमी सदा, ज्यों पाऊँ भव अन्त ॥१॥ श्री पनी द्वाणं पिष्टभ्यो अन्तराय कर्मविनाशनाय अध्यं । आठ कर्मनाशक सिद्ध जयमाला । सोरठा
आठ करन को नाश, आठों गुण परगट भये । सिद्ध सदा सुखरास, करों आरती भावसों ॥१॥
चौपाई। ज्ञानावरणी कर्म विनाश, लोकालोक ज्ञान परकाशै । दस्शन आवरणी छय कीनी, दुःस सुगुण परजय लसि लीनी ॥२॥
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जन पूजा पाठ मप्रह
कर्म वेदनी नारा गया है, निरवाधा गुण प्रगट भया है। मोह कर्म नाशा दुःखकारी, निर्मल छायक दरगन धारी ||२|| आयु-कर्म थिति मर्व विनाशी, अवगाह गुण अटल प्रकानी । नाम-कर्म जीता जग नामी, चेतन जोत अमूरति म्वामी ॥४॥ गोत्र-कर्म पाता वरवीरं, सिद्ध अगुरु लघु गुण गम्भीरं । अन्तराय दुःखदाय हरा है, बल अनन्त परकाश करा है ॥शा जा पद मांहि सर्वपद छाजै, ज्यों दर्पण प्रतिबिंब विराजे । राग न दोप मोह नहि भाटे, अजर अमर अब अचल सुहाये ॥६॥ जाके गुण सुर नर सब गावे, जाको जोगीवर नित ध्यावे ।। जाकी भगति मुकति पद पावै, सो शोभा किह भांति बतावै ॥७॥ ये गुण आठ थूल इम भाखे, गुण अनन्त निज मनमें राखे । सिद्धनकी थुतिको कर जाने, या मिस सो शुभ नाम खाने ।।८॥
सोरठा। वह विधि नाम बखान, परमेश्वर सवही भनें। ज्यों का त्यों सरधान, घानत से ते बड़े ॥६॥
ॐ हीं श्री णमो सिद्धाग सिद्धपरमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मविनाशनाय अन्यं ।
ज्ञान
- आँख वही है जिसमें देखने की शक्ति हो अन्यथा उसका होना न होने के तुल्य है। इसी तरह ज्ञान वही है जो 'स्व' और 'पर' का विवक करा देवे, अन्यथा उन ज्ञान का कोई मूल्य नहीं।
-वी वाणो'से
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पशि
तीस चौबीसी पूजा पाँच भरत शुभ क्षेत्र, पांच ऐरावते । आगत नागत वत्तमान जिन शाश्वते ॥ सो चोवीसी तीस जजो सन लायके ।
आह्वानन विधि कर बार प्रय गायके। marrगोमय mfota मा भर मयोपट । hers Rft: it . ma erintentia
l trilam 1 2.
अथाष्टक, रंसता। नीर दधि क्षीर सम लायो. कनकके भृङ्ग भरवायो। जरामृतु रोग सन्तायो, अब तुम चर्ण ढिग आयो । दीप ढ़ाई सरस राजें. क्षेत्र दश ना विपैं छाजे। सात शत वीस जिन राजे, पूजते पाप सब भाजै ॥ *
के सागो मोग गिरेगी जन्माल्य TTIATI . सुरभि जुन चन्दनं लायो. संग करपूर घसवायो। धार तुम चरण ढरवायो, भवोदधिताप नन्नवायो | डीप० PRArnal या सौ पोम मिनेटेभ्यो गसारतापविनाशनाय चन्दन ।
चन्द सम तन्दुलं सारं. किरण मुक्ता जु उनहारं । पुञ्ज तुम चरण ढिग धारं, अखै पद काजके कारं ॥ द्वीप० Jarma मासी पीरा जिनेन्द्र भ्यो अक्षयपEमय अक्षत । पुष्पशम गन्ध जुत सोहे, सुगन्धित तास मन मोहे । जजत तुम मदन छय होवे, मुक्तिपुर पलको जोवे ।। दोप० ॐ परमेयम्यनिधदगक्षेत्रके सातसी शीम जिन्दै न्यो यानाणयिव्यगनाय पुष्प.।
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सरस व्यञ्जन लिया ताजा, तुरत वनवाइया खाजा । चरण तुम जजोंमहाराजा,क्षुधादुःख पलकम भाजा।। द्वीप० ॐ हो परमेन्मन्बन्धमत्र मान बोन जिनेयो कुवारोगविनाशनाय नवेद्य . । दोप तम नाश कारी है, सरस शुभ ज्योतिधारी है। होय दशदिश उजारी है, धूम्र मिस पाप जारी है ।। द्वीप० * ही पन्द्रमेन्मन्बन्धिदगोत्रके मातौ वीन जिनेन्द्र या मोहान्धकारबिनाशनाय दीप० । सरस शुभ धृप दश अङ्गी, जराऊँ अग्नि के सङ्गी। कर्म की सेन चतुरङ्गी. चरण तुम पूजते अङ्गी ॥ द्वीप० ॐ ही पदनेनन्बन्धिदक्ष मानसी बीच जिनेन्द्र न्यो अष्टक विश्वसनाय धूप० । मिष्ट उत्कृष्ट फल ल्यायो, अष्ट अरिदुष्ट नसवायो। श्रीजिन भेंट करवायो, कार्य मनवांछित पायो । द्वीप०
ॐ हीं पञ्चमेल्लन्बन्धिदगक्षेत्रके मानसौ बीस जिनेन्द्र भ्यो नोक्षलप्राप्तये फल । द्रव्य आठों जु लीना है, अर्घ कर में नवीना है। पूजते पाप छीना है, 'भानुमल जोड़ि कीना है। द्वीप० ॐ ही पश्चनेत्सम्बन्धिक्षेत्रके साततौ बीस जिनेन्द्रेभ्यो अनपदप्राप्तये अर्ध ।
प्रत्येक अर्थ ( अडिट् छन्द ) आदि सुदर्शन मेरु तनी दक्षिण दिशा । भरत क्षेत्र सुखदाय सरस सुन्दर बसा ॥ तिहें चौवीसी तीन तने जिनरायजी। वहत्तरि जिन सर्वज्ञ नमों शिरनायजी ॥ १ ॥
ही मुदशनमक के दक्षिणदिगा के भग्तक्षेत्रसम्बन्धि तीनचौीनी के बहत्तरि जिनेन्द्रभ्यो अनिवपानीति स्वाहा ॥१॥
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ताहि मेरु उत्तर ऐरावत सोहनो। आगत नागत वर्तमान मनमोहनो ।। निहे चौवीसी तीन तने जिनरायजी। वहत्तरि जिन सर्वज्ञ नमो शिरनायजी ॥ २ ॥
लाममा तीनदोसी के यदत्तरि dिirtan
गुमलता एन्ट।
खण्ड धातुकी विजय मंरके दक्षिण दिशा भरत शभ जान। तहाँ चौबीसी तीन विगज आगत नागत अरु वर्नमान ॥ तिनके चरण कमलको निशिदिन अर्घ चढ़ाय करें उर ध्यान इस संसार भ्रमणत तारो अहो जिनेश्वर करणावान ॥
Thireditsमा Poran talatan i मायापी भीनमा मनिपान | ॥ इसी द्वीपकी प्रथम शिवरके उत्तर ऐरावत जो महान ।
आगत नागत पत्तमान जिन यहत्तरि सदा शास्वते जान ।। तिनके चरणमामलको निदिन अघ चढ़ाय करूं उर ध्यान। इस संसार भ्रमणतं तारो अही जिनेश्वर करुणावान ॥ ne. दिग feats एसपनोम गम्यन्धो तानमा ६ 4. 00ो , यिपानाla tar ॥४॥
चौपाई पन्त स्वण्ड धातु गिरि अचल जुमेरु, दक्षिण तास भरत वह घेरु । तामें चौवीसी त्रय जान, आगत नागत अरु वर्तमान ॥
TRINATी परिमादम बलमा दक्षिण दिश'मरतक्षत्र सम्बन्धी नौनीपानी दियो अनिपामानि रथारा ॥५॥ अचल मे उत्तर दिश जाय, ऐरावत शुभ क्षेत्र वताय । तामें चौवीसो त्रय जान, आगत नागत अरु वर्तमान ।
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___ॐ ही धातुकीखण्ड की पश्चिमदिश अचलमेरु के उत्तरदिश ऐरावततंत्र सम्बन्धी नचोवीसी के बहत्तरि जिनेन्द्र भ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥
__ सुन्दरी चन्द। द्वीप पुष्करकी पूरव दिशा, मन्दिर मेरुकी दक्षिण भरत-सा। ता विष चौबीसी तीन जू, अर्घ लेय जजों परवीन जू ॥
ॐ ही पुष्करद्वीप की पूर्वदिश मन्दिरमेरु की दक्षिणादेश भग्तक्षेत्र सम्बन्धी नौसचौबीसी के बहनरि जिनेन्द्र भ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ७ ॥ गिरि सुसन्दिर उत्तर जानियो, क्षेत्र ऐरावत सुबखानियो। ता विषै चौबीसी तीन ज़, अर्घ लेय पूजों परवीन ज़॥
ही पुष्करद्वीप की पूवदिश मदिरमेरु की ज्तरटिग ऐरावत्क्षत्र सम्बन्धी नीनचोबानो के ग्नरि जिनेन्द्र भ्यो अर्घ निर्वपार्मानि बह ॥ ८ ॥
पद्धडी छन्द । 'पश्चिल पुष्कर गिरि विद्यु तमाल,तादक्षिणभरतवन्योरसाल तामें चौवीसी है जु तीन, वसु द्रव्य लेय पूजों प्रवीन ॥
ॐ हों पुष्कराद्ध द्वीप की पश्चिमदिश विद्युन्मालीमेरु के दक्षिणदिग भरतक्षेत्र नम्वधी तीनचौवीसी के वहत्तरि जिनेन्द्र भ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ॥ ॥ याही गिरिके उत्तर जु ओर, ऐरावत क्षेत्र तनी सुठोर । ताले चौबीसी है जु तीन, वसु द्रव्य लेय पूजों प्रवीन ।
ॐ ही पुष्कराद्वीप की पश्चिगदिश विद्युन्मालोमेरु के उत्तरदिश ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी तीनचौवीसी के वहत्तरि जिनेन्द्र न्यो अर्घ निर्वपामीति खाहा ॥ १० ॥
कुण्डलिया। द्वीप अढाई के विषै, पांच मेरु हितदाय । दक्षिण उत्तर तासुके, भरतऐरावत भाय ॥ भरत ऐरावत भाय एक क्षेत्र के माहीं।
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चौबीसी है तीन तीन दशहीके माही ॥ दशो क्षेत्र के तीस, सात सौ बीस जिनेश्वर ।
अर्घलेय करजोर जजों 'रविमल' मन शुद्ध कर। ह रमनपी राक्षेत्र में विणे तीमचौधीमो के सातमो बीस जिनेन्दे भ्यो अप० ।
जयमाला। दोहा-चौबीसी तीसों तनी, पूजा परस रसाल। मन वच तनसा शुद्ध कर, अव वरणों जयमाल ।
पद्धडी छन्द । जय द्वीप अटाई में जु सार, गिरि पञ्चमेरु उन्नत अपार । ता गिरि पूरव पश्चिम जु और, शुभ क्षेत्र विदेह बसे ज ठौर ॥१॥ ता दक्षिण क्षेत्र भरत सुजान, है उत्तर ऐरावत महान । गिरि पांच तने दस क्षेत्र जोय, ताको वर्णन सुनि भव्य लोय ॥२॥ जो भरत तनी चरणन विशाल, तसो ही ऐरावत रसाल । इक क्षेत्र बीच विजयाद्ध एक, ता ऊपर विद्याधर अनेक ||शा इक क्षेत्र तने पट खण्ड जान, तहाँ छहों काल वरते समान । जो तीन काल में भोग भूमि, दश जाति कल्पतरु रहे झूमि ॥४॥ जब चौथो काल लग जु आय, तय कर्मभूमि वरते सु आय । जर तीर्थकरको जनम होय, सुर लेय जर्ज गिरि मेरु मोय ॥२॥ बहु भक्ति करें सब देव आय, ताई थई थई तान लाय। हरि ताडव नृत्य करे अपार, सब जीवन मन आनन्दकार ||६|| इत्यादि भक्ति करिके सुरिन्द, निज धान जाय युत देव वृन्द ।। या विधि पांचों कल्याण जोय, हरि भक्ति करे अति हर्प होय ॥७॥ या काल विप पुण्यवन्त जीव, नर जन्म धार शिव लहे अतीव । मर सठ पुरुप प्रवीण जोय, सब याही काल विप जु होय ॥८॥ जय पश्चम काल कर प्रवेश, मुनि धर्म तनों नहि रहे लेश।। विरले कोई दक्षिण देश माहि, जिनधर्मी जन बहुते जु नाहि ॥६॥
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मा गुना
जब आवत है षष्ठम जु काल, दुःखमादुःख प्रगटे अति कराल | तब मांसभक्षी नर सर्व होय, जहाँ धर्म नाम नहिं सुनें कोय ॥१०॥ याही विधि से पट्काल जोय, दश क्षेत्रन में इकसार होय । सब क्षेत्र में रचना समान, जिनवाणी भाख्यो सो प्रमान ॥ ११॥ चौबीसी है इक क्षेत्र तीन, दश क्षेत्र तीस जानों प्रवीन | आगत नागत जिन वर्त्तमान, सब सात सतक अरु बीस जान ॥ १२॥ सबही जिनराज नमीं त्रिकाल, मोहि भव वारिधिते ल्यो निकाल । यह वचन हिये में धारि लेव, मम रक्षा करो जिनेन्द्र देव ||१३|| "रविमल" की विनती सुनो नाथ, मैं पांय पडू जुग जोरि हाथ ! मन वांछित कारज करो पूर, यह अरज हिये में धरि हजूर ॥१४॥
घत्ता ।
शत सात जू बीसं श्रीजगदीशं आगत नागत बरततु है । मन वच तन पूजै शुद्ध मन हुजे सुरंग मुक्ति पद धारतु है |
ॐ ह्रीं पाच भरत पाच ऐरावत दश क्षेत्र के विर्षे तीमचौवीसी के सात सौ वीस जिनेन्द्रे यो अवं निर्वपामीति स्वाहा ।
पूजाकार की प्रार्थना । दोहा - संवत् शत उगनीस के,
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ता ऊपर पुनि आठ । पौष कृष्ण तृतीया गुरु, पूरण कोना पाठ ॥ अक्षर मात्रा की कसर, बुधजन शुद्ध करेहिं अल्प बुद्धि मो जानके, दोष नाहिं मम देहिं ॥ पढ्यो नहीं व्याकरण मैं, पिङ्गल देख्यो नाहिं | जिनवाणी परसादतै, उमग भई घट माहिं ॥ सात बड़ाई ना चहूं, चहूं धर्म को अंग । नितप्रति पूजा कीजियो. मनमें धार उमंग ॥
इत्याशीर्वाद
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अकृत्रिम चैत्यालय पूजा आठ कोड़ अरु छप्पन लाख, सहस सत्यानव चतुशतभाख। जोड़ इक्यासी जिनवर थान, तीन लोक आह्वान करान।
हो त्रैलोक्य सम्बन्ध्यष्टकोटिपटपसाराक्षसप्तनपतिराहन चतु-शतेकाशीति अनिमजिनचत्वालपानि ! मम अपतर भयतर सवौषट् । भन तिष्ठत तिष्ठत 8 , अन नम सलिहितो भप भय पछ्। क्षीरोदधिनीरं उज्ज्वल क्षीर, छान सुचीर भरि मारी। अति मधुरलखावन,परमसु पावन तृपावुझावन गुण भारी) वसुकोटिसुछप्पन लाख सत्तानव,सहसचारशतइक्यासी। जिनगेह अकीर्तिम तिहॅजग भीतर पूजत पद ले अविनाशी।
ओहीं तीन लोक सम्बन्धी आठ मोटि उप्पन लाख सत्यानवै हजार चार सौ इस्पासी अमिम जिन चैत्यालयेभ्यो जन्ममृत्युपिनागनाय जल निर्मपामीति रवाहा । मलयागिरि पावन,चन्दन वावन,ताप बुझावन धलि लीनो। धरि कनक कटोरी.द्वेकरजोरी तुमपद ओरी,चित दीनोविसुरु
ही ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपानीति रा ! वहुभांति अनोखे, तन्दुल चोखे, लखि निरदोखे, हम लीने। धरि कञ्चनथाली.तुम गुणमाली, पुँज विशालीकर दीवसु
ही यसपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपानीति रवाला। शुभ पुष्प सुजाती है, वहुभांति, अलि लिपटाती लेय वरं । धरि कनकरकेवी,करगह लेबी,तुम पद जुगकी भेट घरं वसुल
ॐही पानाविध्वशनाय पुष्प निर्यपाीति लाहा। खुरमाजु गिंदोडा, बरफी पेड़ा, घेवर मोदक भरि थारी। विधिपुर्वक कीने,घृतपय भीने,खण्ड में लीने,सुखकारी।वसु०
*ही सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्मपामीति स्वाहा ।
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मिथ्यात महाल,छाय रह्योषमालिजभव परणति लहि सूझै। इहलारण पाले दीए सजाके, थाल धरा, हल पूजै ॥वसु. । . ॐ ही मोहान्धकारविनाशनाय दीप निवपामीति स्वाहा । दशगन्ध कुटाकै, धू, बला, निजकर लेक, धरि ज्वाला। तसुधूम उड़ाई,दशदिश छाई.बहु महकाई.अति आला ॥वसु०
ॐ हीं अष्टमदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा।। धादान छुहारे, श्रीफल धारे, पिरता प्यारे. दाखवरं । इन आदि अनोखेलखि निरदोखे,थाल एजोले,सेटधावसु०
ी मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपानीति स्वाहा । जल चंदन तंदुलहसुल नेवन, दीप धूप फल बाल रचौं। जयघोष कराडबीनवजाऊँ,अर्घ चढ़ाऊँ, खूब नचौं॥ वसु० हो अनध्यपढप्राप्तने अभ्यं निवपानीति स्वाहा ।
प्रत्येक अर्घ चौपाई। अधोलोकजिन आगललाख, लात कोडि अरु बहत्तरि लाख। श्रीजिनभवन महा छवि देइते सब पूजौं क्लुविधि लेइ । ॐ ही अधोलोकनम्बन्धी सात कोटि वहत्तर लाख श्रीअकृत्रिम जिनचेत्यालयेभ्योऽ० । सध्यलोक जिन-सन्दिर ठाठ, साढ़े चार शतक अरु आठ। ते लब पूजौं अर्घ चढ़ाय, मनवचतन त्रयजोग मिलाय ।। ॐ हीं मध्यलोक सन्बन्धी चारसौ अगवन श्रीजिनचैत्यालयेभ्यो अर्थ निर्वपामीति स्वाहा ।
अडिल्ल छन्द। अवलोकके भाहिं भवन जिन जानिये । लाल चौराली लहस सत्यानव मानिये ॥
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तापै धरि तेईस जजौं शिर नायक।
कञ्चन थाल मझार जलादिक लायक ॥ ही योगसम्बन्धी सारासी लाख सत्तान हजार तेईस श्रीजिगचेत्यालयेभ्योson वसुकोटि छप्पन लाख ऊपर, सहस सत्यानवे मानिये । सत चारपै गिनले इक्यासी, भवन जिनवर जानिये ॥ तिलोक भीतर सासते, सुर असुर नर पूजा करें। तिन भवनको हम अर्घ लेक, पूजि जग दुःख हरें ।
हीनीला मान्या आठ कोटि उपन लाख सत्यानय हजार चारसो शम्वासी अनिमजिनदत्यालयेभ्यो अर्घ निर्यपग्मीनि स्वाहा। दोहा- अब वरणों जयमालिका, सुनो भव्य चितलाय । जिन-मन्दिर तिलोकके, देहुँ सकल दरशाय ॥१॥
पदडी छन्द ।। जय अमल अनादि अनन्त जान, अनिमित जु अकीर्तम अचल थान। जय अजय अखण्ड अरूप धार, पद्रव्य नहीं दीसै लगार ॥२॥ जय निराकार अविकार होय, राजत अनन्त परदेश सोय । जे शुद्र मुगुण अवगाह पाय, दश दिशा मांहि इहविधि लखाय ॥३॥ यह भेद अलीफाफाम जान, ता मध्य लोक नभ तीन मान । स्वयमेव बन्यो अविचल अनन्त, अविनाशि अनादिजु कहत सन्त ॥४॥ गुरुपायाकार ठाढो निहार. कटि हाथ धारि ? पग पसार । दक्षिण उत्तर दिशि सबै ठोर, राज जु सात माख्यो निचोर ॥५॥ जय पूर्व अपरदिश गट बाधि, सुने कथन कहूं ताको जु साधि । लसि पतले राजू जु सात, मधिलोक एक राजू रहात ॥६॥
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फिर ब्रह्मसुरग राजू जु पांचं, भूसिद्ध एक राजू जु साँच । दश चार ऊँच राजू गिनाय, षट द्रव्य लये चतुकोण पाय ॥७॥ तसु वातवलय लपटाय तीन, इह निराधार लखियो प्रवीन । वसनाड़ी तामधि जान खास, चतुकोन एक राज जु व्यास ॥८॥ राज उतंग चौदह प्रमान, लखि स्वयं सिद्ध रचना महान । तामध्य जीव नस आदि देय, निज थान पाय तिष्ठ भलेय ॥६॥ लखि अधोभाग में श्वभ्रथान, गिन सात कहे आगम प्रमान । पट थान माहिं नारकि बसेय, इक खम्रभाग फिर तीन भेय ॥१०॥ तसु अधोभाग नारकि रहाय, पुनि ऊर्ध्वभाग द्वय थान पाय । बस रहे भवन व्यन्तर जु देव, पुर हयं छजै रचना स्वमेव ॥११॥ सिंह थान गेह जिनराज भाख, गिन सात कोटि वहत्तरि जु लाख । ते भवन नमों मन वचन काय, गति सम्रहरण हारे लखाय ॥१२॥ पुनि मध्यलोक गोला अकार, लखि दीप उदधि रचना विचार। गिन असंख्यात भाखे जु सन्त, लखि संझुरमण सबके जु अन्त ॥१३ इक राजु व्यास में सर्व जान, मधिलोक तनों इह कथन मान । सब मध्य द्वीपजम्ब गिनेय, त्रयदशम रुचिकवर नाम लेय ॥१४॥ इन तेरह में जिन-धाम जान, शत चार अठावन हैं प्रमान । खग देव असुर नर आय-आर, पद पूज जाय शिर नाय-नाय ॥१॥ जय ऊर्बलोक सुर कल्पवास, तिहं थान छजै जिन-भवन खास । जय लाख चौरासी पर लखेय, जय सहससत्यानव और ठेय ॥१६॥ जय वीस तीन पुनि जोड देय, जिन-भवन अकीर्तम जान लेय । प्रतिभवन एक रुचना कहाय, जिनवि एक शत आठ पाय ॥१७॥
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शत पञ्च धनुप उन्नत लसाय, पदमासनयुत वर ध्यान लाय। शिर तीनछत्र शोभित विशाल, त्रय पादपीठ मणिजडित लाल ॥१८॥ भामण्डलकी छवि कौन गाय, पुनि चॅबर दरत चौसठि लखाय । जय दुन्दुभिरव अद्भत सुनाय, जय पुष्पवृष्टि गन्धोदकाय ॥१६॥ जय तरु अशोक शोभा भलेय, मंगल विभूति राजत अमेय । घट तूप छजै मणिमाल पाय, घट धूम्र धूम दिग सर्व छाय ॥२०॥ जय केतुपंक्ति सोहै महान, गन्धर्व देव गण करत गान । सुर जनम लेत लखि अवधिपाय, तिहं थान प्रथम पूजन कराय ॥२१॥ जिन गेह तणो वरणन अपार, हम तुच्छ बुद्धि किम लहत पार । जय देव जिनेसुर जगत भूप, नमि 'नेम' मंगै निज देहु रूप ॥२२॥ दोहा-तीनलोक में सासते, श्रीजिन भवन विचार ।
मनवचतन करि शुद्धता, पूजों अरघ उतार । ॐ ही तीन लोक सम्बन्धी आठ कोहि छप्पन लाख सत्यानवै हजारचारसौइक्यासी भकृत्रिमजिनचंत्यालयभ्योऽय निर्वपामीति स्वाहा।। तिहुँजग भीतर श्रीजिनमंदिर,वनेअकीर्तम अति सुखदाय। नरसुरखग कर वन्दनीक, जे तिनको भविजन पाठ कराय॥ धनधान्यादिक संपति तिनके, पुत्रपौत्र सुख होत भलाय। चक्री सुर खग इन्द्र होयके, करम नाश शिवपुर सुख थाय॥
इत्याशीर्वादः ।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
क्षमावणी-पूजा [ कवि मल्लजी ]
छप्पय अंग क्षमा जिन-धर्मतनो दृढ़-मूल वखानो । सम्यक रतन सँभाल हृदयमे निश्चय जानो ॥ तज मिथ्या विष- मूल और चित निर्मल ठानो । जिनधर्मीसो प्रीत करो सब पातक भानो ॥ रत्नत्रय गह भविक जन जिन-आज्ञा सम चालिये । निश्चय कर आराधना करम-रासको जालिये ॥ ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रय ' अत्र अवतर अवतर संवौपट् । ॐ ह्रीं सम्यक्रूरत्नत्रय । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ' ठ ।
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ॐ ह्रीं सम्यकूरत्नत्रय । अत्र मम सन्निहितं भव भव वपट् । नीर सुगंध सुहावनो, पदम-द्रहको लाय । जन्म-रोग निरवारिये, सम्यक्रूरतन लहाय ॥ क्षमा गहो उर जीवड़ा, जिनवरे - वचन गहाय | ॐ ह्रीं नि शंकितागाय नि काक्षितागाय निर्विचिकित्सतां - गाय निर्मू ढवांगाय उपगूहनागाय सुस्थितीकरणाङ्गाय वात्सल्यगाय प्रभावनाद्गाय जन्ममृत्युविनाशनाय सम्यग्दर्शनाय जलं
ॐ ह्रीं व्यंजनव्यजिताय अर्थसमग्राय तदुभयसमग्राय कालाध्ययनाय उपाध्यानोपहिताय विनयलब्धिप्रभावनाय गुरुबाधाह्नवाय बहुमानोन्मानाय अष्टाङ्गसम्यग्ज्ञानाय जल निर्वपामीति स्वाहा ।
ॐ ह्री अहिसामहाव्रताय सत्यमहाव्रताय अचौर्यमहाव्रताय ब्रह्मचर्यमहाव्रताय अपरिग्रह महात्रताय मनोगुप्तये वचनगुप्तये कायगुप्तये ईर्ष्यासमितये भाषा समितये ऐषणासमितये आदाननिक्षेपणसमितये प्रतिष्ठापनसमितये त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥
केसर चंदन लीजिये, संग कपूर घसाय | अलि पंकति आवत धनी, वास सुगंध सुहाय ॥ क्षमा
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ॐ ही अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविधसम्यक् चारित्राय रत्नत्रयाय भवातापविनाशनाय चन्दनं
शालि अखंडित लीजिये, कंचन थाल भराय | जिनपद पूजों भावसों, अक्षत पदको पाय || क्षमा ॐ ही अप्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविघसम्यक्चारित्राय रत्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान्
पारिजात अरु केतकी, पहुप सुगंध गुलाव / श्रीजिन-चरण सरोजकुं, पूज हर्ष चित चाव ॥ क्षमा ॐ ही अष्टाङ्गसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविधसम्यकूचारित्राय रत्नत्रयाय कामवाणविध्वसनाय पुष्प
शकर घृत मुरभीतना, व्यंजन पट्रस स्वाद | जिनके निकट बढायकर, हिरदे धरि आह्लाद ॥ क्षूमा ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविधसम्यक् चारित्राय रत्नत्रयाय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं
हाटकमय दीपक रचो, वाति कपूर सुधार ।
शोधित घृत कर पूजिये, मोह- तिमिर निरवार | क्षमा ॐ ह्रीं अांगसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यरज्ञानाय त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय रत्नत्रयाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं
कृष्णागर करपूर हो, अथवा दशविधि जान | जिन चरणन ढिग खेड़ये, अष्ट- कर्मकी हान | क्षमा ॐ ह्रीं अष्टांगसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविधमम्यकूचारित्राय रत्नत्रयाय अष्टकर्मदहनाय धूपं
केला अंब अनार ही नारिकेल दाख । अग्र धरो जिनपदतने, मोक्ष होय जिन भाख ॥ क्षमा ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविधसम्यक् चारित्राय रत्नत्रयाय मोक्षफलप्राप्तये फलं
जल फल आदि मिलायके, अरघ करो हरपाय । दुःख जलांजलि दीजिये, श्रीजिन होय सहाय ॥ क्षमा ॐ ह्रीं अष्टागसम्यग्दर्शनाय, अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय, त्रयोदशविधमम्यक्चारित्राय रत्नत्रयाय अनर्थपदप्राप्तये अर्घ
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परिग्रह देख न मृर्छित होई, पंच महाव्रत-धारक सोई। महावत ये पांचों खरे हैं, सब तीर्थकर इनको करे हैं। मनमें विकल्प रंच न होर्ड, मनोगुप्ति मुनि कहिये सोई। वचन अलीक रंच नहिं भारों, वचन गुप्ति सोमुनिवर राखें । कायोत्सर्ग परीपह सहि हैं, ता मुनि काय-गुप्ति जिन कहि हैं। पंच समिति अब सुनिये भाई, अर्थ सहित भाखों जिनराई। हाथ चार जब भूमि निहार, तब मुनि ईर्ष्यापथ पद धारें। मिष्ट वचन गुख योले सोई, भापा-समिति तास मुनि होई । भोजन छयालिस पण टारें, सो मुनि एपण शुद्ध विचार । देखकर पोथी ले अरु धर हैं, सो आदान-निक्षेपण वर हैं । मल-मूत्र एकांत जु डार, परतिष्ठापन समिति संभारे । यह सब अंग उनतीस कहे हैं, जिन भाखे गणधरने गहे हैं। आठ-आठ-तेरहविधि जानों, दर्शन-ज्ञान-चरित्र सु ठानों। तात शिवपुर पहुंचो जाई, रत्नत्रयकी यह विधि भाई॥ रत्नत्रय पूरण नव होई, क्षमा क्षमा करियो सब कोई । चैत माघ माटों त्रय बाग, क्षमा क्षमा हम उरगें धारा॥ दाहा यह क्षमावणी आरती, पढ़े सुनै जो कोय ।
कहे "मल्ल" सरधा करो, मुक्ति-श्री-फल होय ॥२२॥ 'ही मष्टागसम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदश विधसम्यक्चारित्राय रत्नत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये गहा। सोरठा दोष न गहियो कोय, गुण गह पढिये भावसौं।
भूल चूक जो होय, अर्थ विचारि जु शोधियो॥ [इत्याशीर्वादः । परिपुप्पान्जलिं क्षिपामि]
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जन पूजा पाठ सह
सरस्वती पूजा जनम जरा मृत्यु छ्य करै, हर कुनय जड़रीति । भवसागरसों ले तिरै, पूजै जिन वच प्रीति । ॐ हीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतिवाग्वादिनि । अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्गवसरस्वतिवाग्वादिनि ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ ।
ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्न्सरस्वतिवाग्यादिनि । अब मम मन्निहितानि भव वषट । छीरोदधिगंगा, बिमल सरंगा, ललिल अभंगा सुखसंगा। भरि कश्चन्त झारी, धार निकारी, तृषा निवारी हितचंगा। तीर्थकरकी धुनि, गणधरने सुनि, अंग रचे चुलि, ज्ञानमई। सोजिगर वाली, शिवसुखदानी.त्रिभुवन मानी पूज्य भई। ॐ हीं श्रीजिनमुन्वोद्बमरस्वतीदेव्यै जन्ममृत्युविनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ करपूर संगाया, चंदन आया, केशर लाया, रंग भरी। शारदपट लंदों. मन अभिनंदों, पापनिकदों, दाह हरीती० ॐ ही धीजिनमुखे द्रवसरस्वतीदेव्यै ससारतापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति लाहा ॥२॥ सुखदाल कमोद, धारकमोद, अति अनुमोद, चंदसनं। बहुभक्ति बढ़ाई, कीरति गाई, होहु सहाई, मात लाती ॐ ह्रीं श्रीजिनसुलोद्भवमरस्वतीदेव्यै अक्षयपदप्राप्तये अन्तान् निर्वपानीति स्वाहा ॥ ३ ॥ बहुकूल सुवाल, निमल प्रकाशं, आनंदरासं, लाय धरे। सम काम मिटायो, शीलवढायो.सुखउपजायो दोष हरे॥ती ॐ हीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै कामवाणविध्वसनाय पुष्प निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥ पकवान बनाया,बहुत लाया, सब विधि भाया,मिष्ट महा। पूजंथति गाऊँ, प्रीति बढ़ाऊँ, क्षधा नशाऊँ, हर्ष लहाती. ॐ ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ॥५॥
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करिदीपक जोतं, तमय होतं, ज्योति उदोतं, तुमहिं चढ़े। तुमहोपरकाशक,भरमविनाशक हमघटभासक,ज्ञानबढ़ोती
ॐ ही श्रीजिगमुखोस्वसरस्वतीदेव्य मोदान्धकारविनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ शुभगंध दशोंकर, पावकमै धर, धूप मनोहर, खेवत हैं। सब पाप जलावै, पुण्य कमावै, दास कहावै, सेवत हैं। सी
ॐ हीं श्रीजिनमुखोनपसरस्वतीदेव्य अष्टकर्मपिध्वसनाय धूप निपायीति रवाहा ॥ ७॥ वादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी, ल्यावत हैं। मनवांछित दाता,मेट असाता,तुम गुन माता, ध्यावत हैं। ती
ही श्रीजिनमुखोद्भवमरस्वतीदेव्यै मोक्षफलप्राप्तये फल निवपामीति स्वाहा ॥ ८॥ नयननसुखकारी, मृदुगुणधारी, उज्ज्वलारी, मोल धरै। शुभगंधलम्हारा, वसन निहारा, तुम तटधारा, ज्ञान करैती छ ही श्रीजिनमुखोद्भवसरम्वतीदेव्यै अनर्घपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्याहा ॥ ९ ॥ जलचंदन अच्छत, फूल चरू चत, दीप धूप अति फल लाई। पूजाकोठालत.जोतुम जानत,सोनर द्यानत.सुख पावै। ती ॐ हीं श्रीजिनमुखोद्भयसरस्वतीदेव्यै अध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जवमाला, सोरठा। ओंकार धुनिसार, द्वादशांगवाणी विमल ।
नमों भक्ति उर धार, ज्ञान करै जड़ता हरै॥ पहलो आचारांग बखानो, पद अष्टादश सहस प्रमानो। दूजो सूत्रकृतं अभिलाषं, पद छत्तीस सहस गुरु भापं ॥१॥ तीजो ठाना अगसु जानं, सहस वियालिस पद सरधानं । चौथो समवायांग निहारं, चौसठ सहस लाख इक धारं IRD पञ्चम व्याख्या प्रज्ञपति दरसं, दोय लाख अट्ठाइस सहस ।
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जेन पूजा पाठ साह
छट्ठो ज्ञातृकथा विसतारं, पांच लाख छप्पन हज्जारं ।। ३॥ सप्तम उपासकाध्यायनगं, सत्तर सहस ग्यारलख भंग। अष्टम अन्तकृतं दश ईसं, सहस अट्ठाइस लाख तेईसं ।। ४ ।। नवम अनुत्तरदश सुविशालं, लाख बान- सहस चवालं। दशम प्रश्न व्याकरण विचारं, लाख तिरान सोल हजारं ॥ ५ ॥ ग्यारम सूत्रविपाक सु भाखं, एक कोड़ चौरासी लाखे । चार कोडि अरु पन्द्रह लाखं, दो हजार सव पद गुरु शाखं ॥६॥ द्वादश दृष्टिवाद पनभेदं, इकसौ आठ कोडिपनवेदं । अडसठ लाख सहस छप्पन हैं, सहित पञ्चपद मिध्याहन हैं ।। ७ ।। इकसौ वारह कोड़ि वखानो, लाख तिरासी ऊपर जानो। ठावन सहस पञ्च अधिकाने, द्वादश अङ्ग सर्व पद माने ॥ ८॥ कोडि इकावन आठ हि लाखं, सहस चुरासी छह सौ भाखं । साढ़े इकीस शिलोक बताये, एक एक पद के ये गाये ॥६॥
दोहा जा वानी के ज्ञानमैं, सूझै लोक अलोक । 'द्यानत' जग जयवन्त हो,सदा देत हों धोक॥ ॐ ही श्रीजिनमुखोद्भवसरखतीदेव्यै महाघम् निर्बपामीति स्वाहा।
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सप्तर्षि-पूजा
[फविवर मनग्गलालजी] लमय - प्रथम नाम श्रीमन्य दुतिय स्वरमन्य ऋषीश्वर ।
तीमर मुनि श्रीनिचय सर्वसुदर चौथो वर ।। पंचम श्रीजयवान विनयलालस षष्ठम भनि । सप्तम जयमित्रारय सर्व चारित्र-धाम गनि ।। येसातों चारण-ऋद्धि-धर, कलंतास पद थापना। -
में पूजूमन वचन काय करि, जो मुस चाहूं आपना ।। *ही चारणधिरश्रीमतपसिरा 'अत्र अवतरत अरतरत संवौषट् । *हो चारणार्दिधरश्रीमश्विरा 'अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ ठ । *ही चारणधिरपीसनपरिवरा अन मम सन्निहिता भवत भवत वपत् ।
शुभ-तीर्थ-उद्भर-जल अनूपम, मिष्ट शीतल लाय। मर-नृपा-कट-निकंट-कारण, शुद्ध-घट भरवायके ।। मन्याहि चारण-ऋद्धि-धारक, मुनिनकी पूजा करूं।
ता कर पातक हरें सारे, सकल आनंद विस्तरूं । *ही श्रीयारणद्विधरमन्तश्वरमन्य-निचय-सर्वसुन्दर-जयवान-विनयलालस जयमितर्षि यो जल निपामानि म्वाहा।
श्रीसंट कदलीनंद केशर, मंद मंद विसायकै।
नसुगंध प्रसारित दिग-दिगंतर, भर कटोरी लायक ।मन्यादि. ॐ ह्रीं श्रीमन्नादिममर्षि न्य' चदन निर्वपामीति स्वाहा ।
अति धवल अक्षत सट-बजित, मिष्ट राजन-भोगके । ___ फलधौन-धागभगत मुदर, चुनित शुभ उपयोगके मन्वादि. ॐवी श्रीमन्यादिनप्तर्पियो अतन निर्वपामीति स्वाहा।।
बहु-वर्ण सुवरण-गुमन आछ, अमल कमल गुलायके ।
केनकी चंपा चार मरुआ, चुने निज-कर चारके ।। मन्वादि ॐ ही श्रीमन्यादिसमर्पिभ्य घुप्प नियंपामोति गहा।
पकवान नानाभाति चातुर, रचित शुद्ध नये नये ।
सदमिष्ट लाड आदि भर पहु, पुरटके थारा लये ॥ मन्वादि० ॐद्वी श्रीमन्वामितर्कियो नवेद्य निषेपामीति स्वाहा।
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जेन पूज पाठ सग्रह
कलधौन-दीपक जडित नाना, भूरित गोवृत-मासों !
अति ज्वलितजगमग-ज्योति जाकी, तिमिरनाशनहारसों म० * ही श्रीनन्दादिसप्तर्पियो दीप निर्बपामीति स्वाहा।
दिक्-चक्र गंधित होत जाकर, धूप दश-अंगी कही ।
सोलोय मन-यच-कायशुद्ध,लगाय का सेऊं सही ॥मन्त्राटि. - ह्रीं श्रीमन्वादिलमर्पियो धूप निपामीति स्वाहा।।
वर दाख सारक अमित प्यारे, मिष्ट त्रुष्ट चुनाय।
द्रावडी दाडिम चार पुगी, थाल मर भर लायक ।। मन्वादि. ॐ ही श्रीमन्वादिसमर्पिय फ्ल निर्वपानीति स्वाहा।।
जल गंध अन्त पुष्प चल्बर, दीप धूप सु लारना ।
फल ललित आठौं द्रव्य-मित्रित, अर्थ कीजे पावना।। ॐ ही श्रीनन्यादिनप्तर्पियो म निर्वपानीति स्वाहा।
.जयमाला वदृ मृपिराजा धर्म-जहाजा निज-पर-काजा करत भलें । करणाके धारी गगन-विहारी दुस-अपहारी भरम दले । काटन जम-म्हा भवि-जन-बंदा करत अनंदा वर्णनमें । जो पूने घरावे मंगल गान फेर न आवै भव-वनमें ॥१॥
छट पक्षरी जय श्रीमनु मुनिराजा महत, स-धावरकी रक्षा करत । जय मिथ्या-तम-नाशक तंग. कल्पा-रत्त-पृरित अग अंग। जय श्रील्दग्मनु अकलकरूप, पन-सेव करत नित अमर-भूप । जय पंच अन जीते महान, तप नपत दह कपन समाने । जय निचय नप्त तत्त्वाचे भान, तप-रमातनी तनमें प्रकाश । जय विषय-रोष ननोधमान, परणदिक नाशन अचल ध्यान जर जयहिं सर्वमुदर दयाल, लखि उद्रजालवत जगत-जाल । जप तप्काहारी रमण राम, निज पग्णतिनं पागो विगम । जय आनॅशन मल्याणहर, कल्याण करत सबको अनूप । जय मद-नाशन जयवान देवं, निग्मद विरचित सरकरत सेव । जर जाहि विनयलालस अमान, समशत्रु मित्र जानतनमान। जय कृशित-फाय तरके प्रभाव. छवि-छटो उड़ति आनद-दाय।
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जयमित्र सकल जगके सुमित्र, अनगिनत अधम् कीने पवित्र । जय चंद्र-वदन राजीव-नैन, कबहूं विकथा वोलत न चैन । जय सातौ मुनिवर एक संग, नित गगन-गमन करते अभंग। जय आये मथुरापुर मझार, तह मरी रोगको अति प्रचार। जय जय तिन चरणनि कोप्रसाद,सबमरी देवकृत भई वाद। जयलोक करे निर्भय समस्त,हमनमत सदा नित जोड़ हस्त। जय ग्रीषम-ऋतुपरवत मॅझार, नित करतअतापनयोगसार । जय तृषा-परीषह करत जेर, कहं रंच चलत नहिं मन-सुमेर।। जय मूल 'अठाइस गुणन धार, तप उग्र तपत आनंदकार । जय वर्षा-ऋतुमें वृक्ष-तीर, तह अति शीतल झेलत समीर।. जय शीत-काल चौपट मझार, कैनदी-सरोवर-तट विचार। जय निवसत ध्यानारूढ़ होय, रंचकनहिं मटकत रोम कोय।, जय मृतकासन वज्रासनीय, गोदूहन इत्यादिक गनीय । जय आसन नानाभांति धार, उपसर्ग सहत ममता निवार । जय जपत तिहारो नाम कोय, लख पुत्रपौत्र कुल-वृद्धि होय। जय मरे लक्ष अतिशय भंडार, दारिद्रतनो दुख होय छार ! जय चोर अग्नि डाकिन पिशाच,अरु ईति भीति सवनसतसांच। जय तुमसुमरत सुख लहत लोक, सुर असुरनवत पद देतधोक ।
ये सातों मुनिराज, महातप लछमी धारी। प्रम पूज्य पद धरौं, सकल जगके हितकारी ॥ जो मन वच तन शुद्ध, होय सेव औ ध्यावे । सो जन 'मनरंगलाल', अष्ट ऋद्धिनको पावै ॥ नमन करत चरनन परत, अहो गरीयनिवाज । पंच परावर्तननितें, निरवारो ऋषिराज || ॐ ह्रीं श्रीमन्वादिसप्तर्षिभ्यो पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा ॥
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जन पूजा पाठ सप्रह
अनन्तव्रत पूजा
अडिल्ल छन्दी श्रीजिनराज चतुर्दश जग जयकारजी। कर्म नाशि भवतार सु शिवसुख धारजी ।। सवौपट ठः ठ. सुवषट् यह उच्चरूं।
आह्वाननं स्थापन मम सन्निधि करूँ। ही श्रीवृषमाद्यनम्ननायपर्यन्तचतुर्दशजिनदा । अत्र अवतर अवतर मबीपट् । *ही श्रीयपमाद्यानन्तनाथपर्यन्नतुदशानिनन्दा । अत्र निष्ट निष्ठ स्थापन । ॐदी श्रीकृषभाद्यनन्ननाथपर्यन्तचतुदराजिनन्द्रा · अन मम सन्निहितो भव भव वपट।
गीता छन्द । गगादि तीर्थको सु जल भर कनकमय भृङ्गार में । चउदश जिनेश्वर चरणयुगपरि धार डारौ सार में ।। श्रीवृषभ आदि अनन्त जिन पर्यंत पूजों ध्यायके । करि अनन्तव्रत तप कर्म हनिके लहो शिव सुख जायके। » ही श्रीवृषभानन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजनने या तन्मजरामृत्युविनाशनाय जल । चन्दन अगर घनसार आदि सुगन्ध द्रव्य घसायके । सहजहि सुगन्ध जिनेन्द्रके पद चर्च हों सुखदायके॥श्रीवृषभ ॐ ही धापनाउन-नन पनिचतुर्दशजिनेन्द्र भ्या ममारतापविनाशनाय चन्दन० । तन्दुल अवण्डित अति सुगन्ध सुमिष्ट लेके कर धरों। राजत तुम चरणन निकटशिरनाय पूजों शुभ यरो॥श्रीवृषभ. ॐ ही पभाशन ननाथपर्यन्नचतुर्दशजिनेन्द्र यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षत.. चम्पा चमेली केतकी पुनि मोगरो शुभ लायके । केवड़ो कमल गुलाब गैंदा जुही माल बनायके ।। श्रीवृषभ
ही श्रीवृषभायनन्ननाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेतन्यो कामबाणविवसनाय पुष्प।
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लाडू कलाकन्द सेव घेवर और मोतीचूर ले। गूंजा सु पेड़ा क्षीर व्यञ्जन थाल में भरपूर ले ॥श्रीवृष०
ही श्रीगायनन्तनाथपयन्तयतुदराजिनेन्द्रेभ्यो धुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ।। ले रत्नजड़ित सु आरती तामांहि दीप संजोयके । जिनराज तमपद आरतीकरतिमिर मिथ्याखोय॥श्रीवष० ॐ ही धीयपमायनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दगजिनेन्द्रेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीप० । चन्दन अगरतर सिलारस कपुरकी करि धूपको। - तागंधतेमधु चकित सो खेऊनिकट जिनभूपको॥श्रीवृषभ०
ही धीमुफ्भावनन्तनाथपर्यन्तयनुदंशजिनेन्द्र भ्यो अष्टकर्मविध्यसनाय धूप० । नारंगि केला दाख दाडिम वीजपूर मंगायके । पुनि आन ओरबदाम खारिक कनक थारभरायके॥श्रीवृष० ॐही श्रीवृषभावनन्तनाथपर्यन्तचतुर्दशजिनेन्द्र भ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलः । जल सुचन्दन अखत पुष्प सुगन्धघहुविधि लावक । नैवेद्य दीपसुधूप फल इनको जु अर्घ वनायके ॥श्रीवृषभ० ही धीम्यभायनन्तनाथपर्यनाचतुदशजिनेन्द्र भ्यो अनर्यपदप्राप्तयेऽयं ।
जयमाला पद्धडी छन्द। जय पमनाथ धूप को प्रकाश, भविजन को वारे पाप नाश । नय अजितनाथ जीते सु कर्म, ले क्षमा खड्ग भेदे जु मर्म ॥१॥ जय सम्भव जग सुखके निधान, जग सुख करता तुम दियो ज्ञान । जय अभिनन्दन पद धरो ध्यान, तासों प्रगटे शुभ ज्ञान भान ||२|| जय सुमति सुमतिके देन हार, जासों उतरे भव उदधि पार । जय पद्म पद्म पदकमल तोहि, भविजन अति सेवे मगन होहिं ॥३॥ जय जय सुपार्श्व तुम नमत पाय, क्षय होत पाप बहु पुण्य थाय। जय चन्द्रप्रभ शशिकोट भान, जगका मिथ्यातम हरो जान ||
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खेन पूजा पाठ सप्रह
जय पुष्पदन्त जग मांहि सार, पुष्पकको मात्यो अति सुमार। करि धर्मभाव जगमें प्रकाश, हरि पाप तिमिर दियो मुक्तवास ॥शा जय शीतलजिन भक्हर प्रवीन, हरि पाप ताप जग सुखी कीन। श्रेयांस कियो जग को फल्यान, दे धर्म दुःखित तारे सुजान ॥६॥ जय वासुपूज्य जिन नमों तोहि, सुर नर मुनि पूजत गर्व खोहि । जय विमल विमल गुण लीन मेय, मवि करे आपसम सुगुण देय ॥णा | जय अनन्तनाथ करि अनन्तवीर्य, हरि घातिकर्म धरि नन्त धीर्य ।
उपजायो केवलज्ञान भान, प्रभु लखे चराचर सब सु जान ||८|| दोहा-यह चौदह जिनजगत में, मंगल करन प्रवीन।
पाप हरण बहु सुख करन, सेवक सुखमय कीन ॥ ॐ ही श्रीवृषभायनतनाथपर्यंतचतुर्दशजिनेन्द्रभ्योऽध्य० ।
__ अनन्त चतुर्दशी मन्त्र एकादशी- ह्रीं अई इस अनन्त फेवलिने नमः स्वाहा।।
द्वादशी-ॐ ह्रीं क्ष्वी ह्रीं ह्रीं ह्रौ इंस• अमृत वाहने नमः स्वाहा। त्रयोदशी-ॐ ह्रीं अनन्तनाथ तीर्थङ्कराय हो ही ह. हो असि
आउसा मम सर्व शान्ति कुरु-कुरु स्वाहा। चतुर्दशी-ॐ ह्रीं अई हसः। अनन्त केवलि भगवान अनन्त दान
लाभ भोगोपभोग वीर्याभिवृद्धि कुरु-कुरु स्वाहा।
अनन्त बदलने का मन्त्र ॐ ह्रीं अह हसः अनन्त केवलि भगवान सर्व कर्म विमुक्ताय अनन्तनाथ तीर्थङ्कराय अनन्त सुख प्राप्ताय पूर्व सूत्र बन्धन मोचन करोमि स्वाहा ।
अनन्त वांधने का मन्त्र ॐ ह्रीं अनन्त तीर्थङ्कराय सर्व शान्ति कुरु-कुरु सूत्र बन्धन करोमि स्वाहा।
यज्ञोपवीत मन्त्र ॐ ह्रीं नम परमशान्ताय परमशान्तिकराय पवित्रीकराह रमत्रय स्वरूप यज्ञोपवीत दधामि मम मात्रं पवित्र भवतु अहं नमः स्वाहा।
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शान्तिपाठः
दोधफयत्त । शान्तिजिनं शशि-निर्मल-बक्त्र शील-गुण-त-संयम-पात्रम् । अष्टशनाचिन-सत्तण-गान नौमि जिनोचममम्बुज-नेत्रम् ॥१॥ पशमगोप्सित-कधगणां पजितमिन्द्र-नरेन्द्र-गणन। गान्तिफरं गण-शान्निमभीप्नुः पोटश-नीधकरं प्रणमामि ॥२॥ टिन्य-ननः नर-पुष्प-मुष्टिदुन्दुभिरागन-योजन-घोपी । आतपवाणनामर-युग्म यम्य निभाति च मण्डलतेजः ॥३॥ नं जगदिन-शान्नि-जिनदं शान्तिकरं गिरसा प्रणमामि । मरंगणाय तु पन्चन शान्ति मायमरं पटते परमां च ॥४॥
पनन्ततिपादि। . येऽभ्यविना मुस्टन्टल-हारमन्न. शमादिभिः सुरगणः स्तुत-पाद-पमाः। ते मे जिनाःप्रवर-वंश-जगत्प्रटीपास्नीयवराःमतत-शान्तिकरा भरन्तु ॥शा
पन्दयसा। संपूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र-मामान्य-तपोधनानाम् । देशम्प राष्ट्रम्प पुरम्य गः करोतु शान्ति भगवाजिनेन्द्रः।६।।
सन्धरावृत्त । धेमं मन-प्रजानां प्रभपत पलयान्धामिको भूमिपाल: काले काले च मम्यानपतु मघा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुर्भित चौर-मार्ग क्षणमपि जगता मा म्म भूझीरलोक जैनन् धर्मचक्र प्रभवतु मतनं सर्व-नाल्य-प्रदायि ॥७॥
.. अनुष्टुप् अध्वस्त-घाति-कर्माणः केवलमान-भास्कराः । कुर्वन्तु जगतां शान्ति पृपभाचा जिनेश्वराः ।।८।।
अथेष्ट प्रार्थना . प्रथम करणं चरणं द्रव्यं नमः शाखाम्यासो जिनपति-नुतिः सङ्गतिः सर्वदाय:
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जैन पूजा पाठ सग्रह
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सवृत्तानां गुण-गण-कथा दोप-वादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रिय-हित-बचो भावना चात्मतत्त्वे सम्पद्यतां मम भव-भवे यावदेतेऽपवर्गः ॥६॥
आर्यावृत्त तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पद-द्वये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद्यावनिर्वाण-सम्प्राप्तिः ॥१०॥ अक्खर- पयत्थ-हीणं मत्ता-हीणं च जं मए भणियं । तं खमउ णाणदेव य मज्झ वि दुक्ख-क्खयं दितु ॥११॥ दुक्ख-खओ कम्म-खओ समाहिमरणं च बोहि-लाहो य । मम होउ जगढ-बंधव तव जिणवर चरण-सरणेण ॥१२॥
स्तुतिः त्रिभुवन-गुरो, जिनेश्वर परमानन्दैक-कारणं कुरुष्व । मयि किङ्करेऽत्र करुणां यथा तथा जायते मुक्तिः ॥१३॥ निर्विण्णोऽहं नितरामहन्वहु-दुःखया भवस्थित्या। अपुनर्भवाय भवहर, कुरु करुणामत्र मयि दीने ॥१४॥ उद्धर मां पतितमतो विषमाद्भवकूपतः कृपां कृत्वा । अर्हन्नलमुद्धरणे त्वमसीति पुनः पुनर्वच्मि ॥१शा त्वं कारुणिकः स्वामी त्वमेव शरणं जिनेश तेनाहम् । मोह-रिपु-दलित-मानं फूत्करणं तव पुरः कुर्वे ॥१६|| ग्रामपतेरपि करुणा परेण केनाप्युपद्रते पुंसि । जगतां प्रभो न कि तब जिन मयि खलु कर्मभिः प्रहते ॥१७॥ अपहर मम जन्म दयां कृत्वा चेत्येकवचसि वक्तव्यम् ।
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तब जिन चरणाज-युगं करुणामृत-शीतलं यावत् । संसार-ताप-तप्तः करोमि हदि तावदेव सुखी ॥१६॥ जगदेक-शरण भगवन् नौमि श्रीपदनन्दित-गुणौष । किं बहुना कुरु करुणामत्र जने शरणमापन्ने ॥२०॥
[परिपुष्पाञ्जलिं तिपामि]
विसर्जन संस्कृत
ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि शास्त्रोकं न कृतं मया। तत्सर्व पूर्णमेवास्तु त्वत्प्रसादाग्जिनेश्वर ! ॥१॥ आह्वानं नैव जानामि नेव जानामि पूजनं । विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ! ॥ २॥ मन्त्रहीन क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च । तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ! ॥३॥ आहृता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रमम् । ते मयाऽभ्यचिता भक्त्या सर्वे यांतु यथास्थितं ॥४॥ सर्वमंगल मांगल्यं सर्व कल्याणकारकम् । प्रधानं सर्वधर्माणां जैनं जयतु शासनम् ॥ ५॥
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जैन पूजा पाठ सह
पार्श्वनाथ स्तोत्र
भुजंगप्रयात छन्द । नरेन्द्र फणीन्द्र सुरेन्द्र अधीसं, शतेन्द्र सु पुजै भनें नाय शीशं । मुनीद्गणेन्द्र नमों जोडि हाथ, नमो देवदेवं मदा पार्श्वनाथं ॥१॥ गजेन्द्र मृगेन्द्र गयो तू छुड़ावै, महा आगरौं नाग” तू बचावै । महावीरतें युद्ध मैं तू जितावे, महा रोगरौं बंधते तू छुड़ावै ॥ २॥ दुःखी दुःखहर्ता सुखीसुक्खकर्ता, सदासेवकों को महानन्द भर्ता । हरे यक्षराक्षस्य भूतं पिशाचं, विषं डांकिनी विघ्नके भय अवाचं ॥३॥ दरिद्रीन को द्रव्यके दानदी ने, अपुत्रीन को तू भले पुत्र कीने । महासंकटोंसे निकारै विधाता, सबै सम्पदा सर्वको देहि दाता ITIE महाचोरको वज का भय निवारै, महापौनके पुञ्जलें तू उवारै । महाक्रोधकी अनिको मेघ धारा, महालोभ शैलेशको वज्रभारा ॥५॥ महामोह अन्धेरको ज्ञान मान, महाकर्मकांतारको दौं प्रधानं । किये नागनागिन अधोलोक स्वामी, हस्यो मान तूदैत्यको हो अकामी। तुही कल्पवृक्षं तुही कामधेनु, तुही दिव्य चिन्तामणी नाग एन । पशू नर्क के दुःखते तू छुड़ावै, महास्वर्गत मुक्ति मैं तू बसावै ॥७॥ कर लोहको हेमपाषाण नामी, रटै नाम सो क्यों न हो मोक्षगामी । कर सेव ताकी करें देव सेवा, सुनै वैन सोही लहैं ज्ञान मेवा ॥६॥ जपै जाप ताको नहीं पाप लागै, धरै ध्यान ताके सबै दोष भागे । विना तोहि जाने धरे भव घनेरे, तुम्हारी कृपारौं सरै काज मेरे ॥६॥ .दोहा-गणधर इन्द्र न कर सके, तुम विनती भगवान।
'द्यानत' प्रीति निहारकै, कीजै आप समान ॥
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श्री जिनवाणी भजन जिनराणो माता गंन गो बलिहारियां ॥ टेक ॥ प्रपम देव अग्हन्त मनाज, गणधरजी को ध्याऊ । कुन्दकुन्द आचारज स्वामी, नितप्रति गीग नवाज ॥ ए जिनवाणी० योनि लाग चौरासी मांही, घोर महा दुःख पायो । तेरी महिला नुन कर माता, गरण तिहारी आयो | ए जिनवाणी० जाने मागे शरणी लोनी, अष्ट-फर्म धय कीनो। जामन मरण मेट के माता, मोक्ष महाफल लोनो ॥ ए जिनवाणी. बार-बार मैं विनऊ माता, मिहरजु मोपर की। पावदास को अन्ज यही है, चरण शरण मोहि दीनं ॥ ए जिनवाणी०
जिनवाणी स्तुति वीर हिमाचलते निकासी गुरु गौतम के मुख गुण्ड ढरी है। मोह महाचल भेद चली जग की जडता तप दूर करी है। शान पयोनिधि माहि रती व भक्ति तरङ्गनि सौ उछरी है। ता शुचि शारद गगनदी प्रति मैं जजुरी निज शीश धरी है ॥ १ ॥ या जग मन्दिर मे अनिवार अज्ञान अन्धर छ्यो अति भारी। श्रीजिन की धुनि दीपशिसा सम जोनहि होत प्रकाशन हारी॥ तो किस भाति पदारथ पाति कहा लहते रहते अविचारी। या विधि सन्त कहें धनि है धनि हैं जिन वेन बडे उपगारी ॥ २ ॥
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८
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जन पूजा पाठसग्रह
अथ भूधरकृत गुरु स्तुति बन्दौ दिगम्बर गुरुचरण जग-तरण तारण जान । ने भरम भारी रोग को है, राजवैद्य महान ।। जिनके अनुग्रह बिन कभी नहिं, कट कर्म जजीर । ने साधु मेरे उर बसहु, मेरी हरहु पातक पीर ॥ १ ॥ यह तन अपावन अथिर है, ससार सकल असार । ये भोग विषपकवान से, इह भाति सोच विचार ॥ नप विरचि श्रीमुनि वन बसे, सब छाडि परिग्रह भीर । ते साधु०॥२॥ जे काच कञ्चनसम गिनहिं, अरि मित्र एक स्वरूप । निन्दा बडाई सारिखी, वनखण्ड शहर अनूप ॥ सुख दुःख जीवन मरन मे, नहिं खुशी नहि दिलगीर । ते साधु०॥३॥ जे वाह्य परवत वन बसै, गिरि गुफा महल मनोग। सिल सेज समता सहचरी, शशि किरन दीपक जोग ।। मृग मित्र भोजन तपमई, विज्ञान निरमल नीर । ते साधु०॥४॥ सूखहि सरोवर जल भरे, सूखहिं तरगिनि-तोय । बाटहि वटोही ना चलै, जहँ घाम गरमी होय ॥ तिहँकाल मुनिवर तपतपहिं, गिरि शिखर ठाडे धीर । ते साधु०॥५॥ घनघोर गरजहिं घनघटा, जलपरहिं पावसकाल । चहुँ ओर चमकहि बीजुरी, अति चलै सीरी व्याल ॥ तरुहेट तिष्ठहिं तब जती, एकान्त अचल शरीर । ते साधु०॥६॥
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जब शीतमास तुषारसो, दाहै सकल वनराय । जव जमै पानी पोखरां. थरहरे सबकी काय ॥ . . तब नगन निवसै चौहटै, अथवा नदी के तीर । ते साधु०॥७॥ करजोर 'भूधर' बीनवै, कब मिलहिं वे मुनिराज । यह आश मन की कब फल, मम सरहि सगरे काज ॥ ससार विषम विदेश मे, जे बिना कारण वीर । ते साधु०॥८॥
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अथ भूधरकृत दूसरी गुरु स्तुति
राग भरथरी-दोहा। ते गुरु मेरे मन बसो. जे भवजलधि जिहाज । ' ' . आप तिरहिं पर तारही, ऐसे श्रीऋषिराज ॥ ते गुरु० ॥ १ ॥ मोहमहारिपु जीतिक, छाड्यो सब घरबार । होय दिगम्बर वन बसे, आतम शुद्ध विचार ॥ ते गुरु० ॥ २ ॥ रोग उरग-विलवपु गिण्यो, भोग भुजंग समान । कदलोतरु ससार है, त्याग्यो सब यह जान ।। ते गुरु० ॥ ३ ॥ रत्नत्रयनिधि उर धरै, अरु निरग्रन्थ त्रिकाल । मार्यो कामखबीस को, स्वामी परम दयाल ॥ ते गुरु० ॥ ४ ॥ पञ्च महाव्रत आचर, पांचो समिति समेत । तीन गुपति पाल सदा, अजर अमर पदहेत ॥ ते गुरु० ॥ ५ ॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
धर्म धरै दशलाक्षणी, भावें भावना पार । सह परीषह बीस द्वे, चारित-रतन-भण्डार ॥ ते गुरु० ॥ ६ ॥ जेठ तपै रवि आकरो, सूखे सर वर नीर । शेल-शिखर मुनि तप तपै, दाझै नगन शरीर ॥ ते गुरु० ॥७॥ पावस रैन डरावनी, बरसै जलधर धार । तरुतल निवस तव यती, चाले झझा व्यार ॥ ते गुरु० ॥ ८ ॥ शीत पडे कपि-मद गले, दाहै सब वनराय । तालतरगनि के तटै, ठाडे ध्यान लगाय ।। ते गुरु० ।। ९॥ इहि विधि दुद्धर तप तप, तीनो काल मझार । लागे सहज सरूप में, तनसो ममत निवार ।। ते गुरु० ॥ १० ॥ पूरव भोग न चिन्तवै, आगम वाछै नाहिं ।। चहुँ गतिके दुःखसौ डरै, सुरति लगी शिवमाहिं । ते गुरु० ॥ ११ ॥ रङ्गमहल मे पौढते, कोमल सेज बिछाय।। ते पच्छिम निशि भूमि मे, सोवै सवरि काय ।। ते गुरु० ॥ १२ ॥ गज चढ़ि चलते गवंसो, सैना सजि चतुरङ्ग। निरखि-निरखि पग वे धरै, पालै करुणा अङ्ग ।। ते गुरु० ॥ १३ ॥ वे गुरु चरण जहा धरै, जग मे तीरथ जेह । सो रज मम मस्तक चढो, 'भूधर' मागे एह ॥ ते गुरु० ॥ १४ ॥
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संकट हरण विनती
हे दोन श्रीपति का निधान जी । अपने थाना ने चार दया लगी ॥ टेक ॥ मालिक हो दो बदन के मिनराज आप ही । ऐो हुनर मारा तुमने दिया नहीं ||
बेजान में गुनाह
मे छन गया मही ।
केही पार मारिये नानं ॥ हे दोन० ॥ e ॥ मदन आप जिसने यह नहीं ।
हमे
है बुआ नहीं ॥
और पुराना है
यहीं ।
भीजिनेन्द्र देव
वृद्दी ॥ ६ ० ॥ २ ॥
पी जानी थी सुचना
सती ।
दी
आनंद
हाथ
गहा में पहने हो
गती ॥
मय में पुकार दिया था तुम्हें नती । भार
लिया है कृपा पती || हे दोन० || ३ ||
पायक प्रचण्ड गुट में गण्ड य रहा। गीता में शपथ लेने दो जयराम ने पहा ॥ तुम ध्यान पम्फे ज्ञानको पग धारती तहो ।
था नहा ।
तत्काल ही मर यन्त्र हुआ फल लहलहा ॥ हे दीन० ॥ ४ ॥ जय परदुशानन ने नपरी सभा के लोग रहते थे उम यछ भोर पीर में तुमने फरी
हा-दहा ||
सहा ।
परदा का सती का सुयश लगत मे रहा ॥ हे दीन० ॥ ५ ॥
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श्रीपाल को सागर विपै जव सेठ गिराया। उसकी रमा से रमने को आया था वेहया ।। उस वक्त के सङ्कट मे सती तुमको जो घ्याया। दुःख द्वन्दफन्द मेट के आनन्द बढाया । हे दीन० ॥ ६ ॥ हरिपेण की माता को जहाँ सौत सताया। रथ जैन का तेरा चले पीछे से बताया ।। उस वक्तके अनशन मे सती तुमको जो ध्याया। चक्रेश हो सुत उसके ने रथ जैन चलाया। हे दीन०॥७॥ सम्यक्त शुद्ध शीलवन्त चन्दना सती। जिसके नजीक लगती थी जाहर रती-रती ।। वेडी मे पड़ी थी तुम्हें जब ध्यावती हुती। तव वीर धीर ने हरी दुःख द्वन्द की गती । हे दीन० ॥ ८॥ जब अञ्जना सती को हुआ गर्भ उजारा । तव सास ने कलङ्क लगा घर से निकारा ।। चन वर्ग के उपसर्ग मे सती तुमको चितारा। प्रभु भक्त व्यक्त नानि के भय देव निवारा ॥ हे दीन० ॥६॥ सोमा से कहा जो तू सती शील विशाला। तो कुम्भत निकाल भला नाग जु काला ।। उस वक्त तुम्हें ध्याय सती हाथ जो डाला। तत्काल ही वह नाग हुआ फूल की माला ॥ हे दीन० ॥१०॥ जब राज रोग था हुआ श्रीपाल राज को। मैना सती तब आपकी पूजा इलाज को। तत्काल ही सुन्दर किया श्रीपालराज को। वह राज रोग भोग गया मुक्तिराज को ।। हे दीन० ॥ ११ ॥
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जब सेठ सुदर्शन को मृषा दोष लगाया। रानी के कहे भूप ने शूली पै चढाया । उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज ध्यान मे ध्याया। शूली से उतार उसको सिंहासन पै बिठाया ।। हे दीन०॥ १२॥ जब सेठ सुर्धनाजी को वापी मे गिराया। ऊपर से दुष्ट था उसे वह मारने आया ।। उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज ध्यान में ध्याया। तत्काल ही जञ्जाल से तब उसको बचाया ।। हे दीन० ।। १३ ॥ इक सेठ के घर मे किया दारिद्र ने डेरा। भोजन का ठिकाना नहीं था साझ सवेरा ।। उस वक्त तुम्हें सेट ने जब ध्यान मे घेरा। घर उसके मे तब कर दिया लक्ष्मी का बसेरा ।। हे दीन० ॥१४॥ बलि वाद मे मुनिराज सो जव पार न पाया। तब रात को तलवार ले शठ मारने आया ।। मुनिराज ने निज ध्यान मे मन लीन लगाया। उस वक्त हो प्रत्यक्ष तहाँ देव बचाया ।। हे दीन० ।। १५ ।। जब राम ने हनुमन्त को गढ लङ्क पठाया। सीता की खबर लेने को सह सैन्य सिधाया ।। मग बीच दो मुनिराज की लख आग मे काया। झट वार मूसलधार से उपसर्ग वुझाया ।। हे दीन०॥१६॥ जिननाथ ही को माथ नवाता था उदारा । घेरे मे पडा था वो कुम्भकरण विचारा ।। उस वक्त तुम्हें प्रेम से सङ्कट मे उचारा। एघुवीर ने सब पीर तहा तुरत निवारा ।। हे दीन० ॥ १७ ॥
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। पाठसप्रद
रणपाल कॅवर के पड़ी थी पाँव मे वेरी। उस वक्त तुम्हें ध्यान मे ध्याया था मवेरी॥ तत्काल ही सुकुमाल की सब झड पडी बेरी। तुम राजकुंवर की सभी दुःख द्वन्द निवेरी ।। हे दीन० ॥ १८ ॥ जब सेठ के नन्दन को डसा नाग जु कारा । उस वक्त तुम्हे पीर में धर धीर पुकारा ॥ तत्काल ही उस वाल का विष भूरि उतारा। चह जाग उठा सोके मानो सेज सकारा ॥ हे दीन० ॥१६॥ मुनि मानतुग को दई जव भूप ने पीरा । ताले मे किया बन्द भरी लोह जजीरा ॥ मुनीश ने आदीश की थुति की है गम्भीरा। चक्रेश्वरी तव आन के झट दूर की पीरा ॥ हे दीन० ।।२०।। शिवकोटि ने हट था किया समन्तभद्र सों। शिवपिण्ड को बन्दन करो शङ्को अभद्र सों॥ उस वक्त स्वयम्भू रचा गुरु भाव भद्र सों। अतिमा जहा जिन चन्द्र की प्रगटी सुभद्र सों ।। हे दीन० ॥ २१ ॥ सूवे ने तुम्हें आन के फल आम चढाया। मेंढक ले चला फल भरा भक्ति का भाया। तुम दोनों को अभिराम स्वर्ग धाम वसाया। हम आपसे दातार को लख आज ही पाया । हे दीन० ॥ २२ ॥ कपि, श्वान, सिंह. नवल, अज, बैल विचारे। तिर्यञ्च जिन्हें रश्च न था बोध चितारे । इत्यादि को सुरधाम दे शिवधाम में धारे । प्रभु आपसे दातार को हम आज निहारे ॥ हे दीन० ॥ २३ ॥
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तुमही अनन्त जन्तु का भय भीर निवारा । वेदों-पुराण में गुरु गणधर ने हम आपकी शरणागति में आके तुम हो प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष ईक्षु
उच्चारा ॥
प्रमु-भक्त व्यक्त जक्त भुक्त मुक्त के आनन्द कन्द वृन्द को हो मुक्ति के मोहि दीन जान दीनबन्धु पातकी ससार विषम अन्तर
तार-तार
पुकारा ।
अहारा ॥ हे दीन० ॥ २४ ॥
दानी ।
दानी ॥
मानी ।
यामी ॥ हे दीन० ॥ २५ ॥
करुणानिधान दास को अब क्यों न निहारो । दानी अनन्त दान के दाता हो सम्भारो ॥ वृष चन्द नन्द वृन्द का उपसर्ग निवारो । ससार विषमक्षार से प्रभु पार उतारी ॥
हे दीनबन्धु श्रीपति करुणा
निधानजी ।
अब मेरी व्यथा क्यों न हरो वार क्या लगी || हे दीन० ॥ २६ ॥
वर्णी वाणी की डायरी से
"किसी को मत सताओ" यह परम कल्याण का मार्ग है। इसका यह तात्पर्य है कि जो पर को कष्ट देने का भाव है वह आत्मा का विभाव भाव है, उसके होते ही आत्मा विकृत अवस्था को प्राप्त हो जाती है और विकृत भाव के होते हो आत्मा स्वरूप से च्युत हो जाती है, स्वरूप से च्युत होते हो आत्मा नाना गतियों का आश्रय लेती है और वहाँ नाना प्रकार के दुःखों का अनुभव करती है; इसका नाम कर्म फल चेतना है । कर्मफल चेतना का कारण कर्म चेतना है, जब तक कर्म चेतना का सम्बन्ध न छूटेगा इस ससार चक्र से सुलझना कठिन ही नहीं, असम्भव है ।
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4८८
जैन पूजा पाठ प्रह
भजन-होनहार बलवान नर होनहार होतव्य, न तिल भर टरती।
भई जरदकुवर के हाथ मौत गिरिधर की । श्री नेमिनाथ जिन आगम यह उच्चारी।
भई बारह वर्ष विनाशि द्वारिका सारी ॥ बचे फकत श्री बलभद्र और गिरिधारी।
गये निकलि देश से कथ तृषा अधिकारी ॥ भये निद्रावश वन बीच निवृत्ति हरि की।
भई जरदकुवर के हाथ मौत गिरिधर को॥ बलभद्र भरन गये नीर न नियरे पाया।
धरि भेष शिकारी जरदकुंवर तह आया ॥ लखि पीताम्बर पट पीत पद्म हरषाया।
तब मृगा जानि यदुवंश ने वाण चलाया ॥ लागत ही तीर उठि वीर पीर तरकस की।
भई जरदकुंवर के हाथ मौत गिरिधर. को॥ चित चकित होत चहुँ ओर निहारे वन मे।
किन मारा बैरी वारण आय इस वन मे ॥ यह वचन सुनत यदुकुंवर बिलखते मन में ।
श्री नेमिनाथ जिन वचन लखे ग मन में ॥ होनी से शक्ति न होवे गणधर मुनि की।
भई जरदकुंवर के हाथ मौत गिरिधर की ॥
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जन पूजा पाठ संग्रह
ले आये नीर बलभद्र तीर नरपति के।
लखि हाल भये बेहाल देख भूपति के ॥ षट् मास फिरे बलभद्र मोहवश भ्रमते ।
दिया तुङ्गीगिरि पर दाह बोध चितधर के॥ कहेगुणीजन के सुन वाणी यह जिनवरकी।
भई जरदकंवर के हाथ मौत गिरिधर की ॥
श्री नेमिनाथजी की विनती सैयो म्हारी नेमीसुर वनडाने गिरनारी जातां राख लीजो ये ॥ टेक ।। समद विनयजी रा लाडला ये माय, सैयो म्हारी दोनू छ हरघर लार ।
पिताजी ने जाय कहिजो ये ॥ १ ॥ नेमीसुर बनडो चण्यो हे माय, सैयो म्हारी खुद वणी छै घरात ।
___झरोखा से माख लीजो ये ॥२॥ तोरन पर जव आईया ये माय, सेयो म्हारी पशुवन सुणी पुकार ।
पाछो रथ फेरियो ये माय ॥ ३ ॥ तोड्या के कांकण डोरडा ये माय, मैयो म्हारी तोड्या छ नवसर हार ।
दीक्षा उरधार लीनो हे माय ॥ ४ ॥ मंजम अय में धारस्यू ये माय, संयो म्हारी जास्या गढ गिरिनार ।
कर्म फन्द काटस्या ये माय ॥ ५ ॥ सेवक की ये विनती ये माय, सैयो म्हारी मागो छ शिवपुर वास ।
दया चित्त धार लीजो ये माय ॥ ६ ॥
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जैन पूजा पाठ मा
शास्त्र-भक्ति अकेला ही हूँ मै करम सब आये सिमटिके। लिया है मैं तेरा शरण अव माता सटकिके ॥ भ्रमावत है मोको-करम दुःख देता जनमका । करो भक्ती तेरी, हरो दुख माता भ्रमणका ॥२॥ दुखी हुआ भारी, भ्रमत फिरता हूँ जगतमे । सहा जाता नाही, अकल घबराई भ्रमणमे ॥ करो क्या मा मोरी, चलत का नाही मिटनका। करो भक्ती तेरी, हरो दु ख माता भ्रमणका ॥ २ ॥ सुनो नाता नोरी, अरज करता हूँ दरदमे । दु खो जानो मौको, डरप कर आयो शरणमे ॥ कृपा ऐसी कोजे, दरद मिट जावै मरणका । करो भक्ती तेरी, हरो दु ख माता भ्रमणका ॥ ३ ॥ पिलावै जो मोको, सुबुधिकर प्याला अमृतका। मिटावै जो मेरा, सरब दुःख सारा फिरनका ॥ पडू पावा तेरे, हसे दुख सारा फिकरका । करो भक्ती तेरी, हरो दुःख माता भ्रमणका ॥ ४ ॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
२९१
सवैया। मिथ्या-तम नाशवे को, ज्ञान के प्रकाशवे को। आपा-पर-भासवे को, भानुसी बखानी है। छहो द्रव्य जानवे को, वसुविधि भानवे को। स्वपर पिछानवे को, परम प्रमानी है। अनुभौ बताइवे को, जीव के जतायवे को। काहू न सतायवे को, भव्य उर आनी है ।। जहां तहां तारवे को, पार के उतारवे को।
सुख विस्तारवे को, ऐसी जिनवानी है ।। ५ ।। दोहा-जिनवाणी की स्तुति करै, अल्प बुद्धि परमान ।
पन्नालाल विनती करै, दे माता मोहि ज्ञान ॥ हे जिनवाणी भारती, तोहि जपू दिन रैन । जो तेरा शरणा गहै, सुख पावै दिन रैन । जा वानी के ज्ञानतै, सूझ लोकालोक । सो वानी मस्तक चढ़ो, सदा देत हों धोक ।।
वर्णी वाणी की डायरी से - ससार की दशा जो है यही रहेगो इसको देख कर उपेक्षा करनी चाहिये। फेवल स्वात्म गुण और दोषों को देखो। उन्हें देख कर गुणों को ग्रहण करो और दोपों को त्यागो।
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२९२
जैन पूजा पाठ सग्रह
पं० भूधरकृत दूसरी स्तुति अहो! जगतगुरु देव, सुनियो अरज हमारी। तुम हो दीनदयाल, मै दुःखिया संसारी॥ इस भव वन में वादि, काल अनादि गमायो। भ्रमत चहूँगति माहि, सुख नहि दुःख बहु पायो । कर्म महारिपु जोर, एक न कान करै जी। मन मान्या दुःख देहि, काहू सो नाहि डरै जी ।। कबहूँ इतर निगोद, कबहूँ नर्क दिखावें। सुरनर-पशुगति माहि, बहुविधि नाच नचावें । प्रभु इनके परसग, भव भव माहि बुरे जी। जे दुःख देखे देव । तुमसो नाहिं दुरे जी । एक जनम की बात, कहि न सको सुनि स्वामी। तुम अनन्त परजाय, जानत अन्तरयामी ।। मैं तो एक अनाथ, ये मिलि दुष्ट घनेरे। कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे ।। ज्ञान महानिधि लूटि, रङ्क निबल करि डारयो। इन ही तुम मुझ माहि, हे जिन ! अन्तर पार्यो । पाप पुण्य मिलि दोइ, पायनि बेडी डारी। तन कारागृह माहि, मोहि दिये दुःख भारी ॥
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इनको नेक विगार, मैं कछु नाहिं कियो। बिन कारन जगवधु ! बहुविधि बैर लियो । अब आयो तुम पास, सुनि कर सुजस तिहारो। नीति निपुन महाराज, कीजे न्याय हमारो । दुष्टन देहु निकार, साधुन को रख लीजै।' विनवै "भूधरदास" हे प्रभु ! ढील न कीजै ।।
मंगलाष्टक (पृन्दावन कृत भाषा) सप सहित श्रीकुन्दकुन्द गुरु, वन्दन हेत गये गिरनार । बाद परयो तह सशय मतिसों, साक्षी बदी अम्विकाकार ॥ 'सत्य' पथ निरमध दिगम्बर, कही सुरी तह प्रकट पुकार । सो गुरुदेव वसो उर मेरे, विधन हरण मद्गल करतार ॥ १ ॥ स्वामी ममन्तभद्र मुनिवरसों, शिवकोटी हट कियो अपार । चन्दन करो शम्भु पिण्डी को, तव गुरु रच्यो स्वयभू भार ।। चन्दन करत पिण्डिका फाटी प्रगट भये जिनचन्द उदार ।। सो०२ ॥ श्री अफलकदेव मुनिवरसों, वाद रच्यो जहं बौद्ध विचार । तारादेवी घट में थापी, पटके ओट करत उच्चार ।। जीत्यो स्यादवादबल मुनिवर, बौद्ध वोध तारामद टार ॥ सो०३॥ श्रीमत विद्यानन्दि जब, श्री देवागम थुति सुनी सुधार । अर्थ हेतु पहूँच्यो जिनमन्दिर, मिल्यो अर्थ तह सुख दातार ।। सब त परम दिगम्पर को घर, परमतको कीनों परिहार | सी०१॥
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न राह
श्रीनत मानतुङ्ग मुनिवर पर, मृप लोप जब च्यिो गंवार । बन्द फियो नालों में दवही. भज्ञानर गुरु रच्गे उदार ॥ चरी प्रगट तब हेरे, न्यन नट छियो जयकार | नो० ॥ श्रीमत वादिरा नुनिबरने कयो कुष्टि भूपति न्हिं दार । श्रावक सेठ कहो विहं ना, मेरे गुरु कञ्चन तन्धार ॥ त्वहीं एकीभाव रच्यो गुट, नन मुरण दुदि भयो पार ॥ नो०६ ॥ श्रीनत मुद्रचन्द्र मुन्तिरने बाद पयो जहं नमा ननार । तब हो श्रीजयाग धाननि. श्रीगुरु रचन्न रची अपार ॥ तव प्रतिमा श्रीपश्वनाय की प्रकट नयी त्रिनुवन जयकार | सो० ७ ॥ श्रीनन भयचन गुरुनों जय. निडीपति इनि कही पुकार । के तुन नोहि निन्दायहु विगर के पन्रोन्त तार II व गुरु प्रकट ब्लानित अतिशयनुन्त हरयो नानो पदभार । सो गुदेव इन्गे र नेरे, विग्न हरण नगरतार || सो०८ ॥ दोहा-यित्न हरण नाल करण, वाचित वातार ।
'वृन्दावन कष्टक रच्यो, करो कण्ठ नुखकार ॥
गी-वाणो (डायरी) से . को स्वच्छ मन में नारे, उसे कहने में नहोत्र न्त करो।
चिो के राग-द्वेष मत करो। . राग-द्वेष के वेग में लाकर अन्यण प्रसार मत करो, वही
भारमा के सुधार की मुख्य शिना है।
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सुप्रभात स्तोत्रम यत्स्वर्गावतरोत्सवे यद्भगवज्जन्माभिषेकोत्सवे, यदीक्षाग्रहणोत्सवे यदखिलज्ञानप्रकाशोत्सवे । यन्निर्वाणगमोत्सवे जिनपतेः पूजाद्भुतं तद्भवैः, संगीतस्तुतिमंगलैः प्रसरतान्मे सुप्रभातोत्सवः ॥ १ ॥ श्रीमन्नतामर किरीट मणिप्रभाभि रालीढपादयुग दुर्धरकर्मदूर । श्रीनाभिनंदनजिनाजितसंभवाख्य
त्वद्धयानतो ऽस्तु सततं मम सुप्रभातम् ॥ २ ॥ छत्रत्रयप्रचलचामरवीज्यमान, देवाभिनंदनमुने सुमते जिनेन्द्र | पद्मप्रभारुणमृणिद्य ुतिभासुरांग । त्व० ॥ ३ ॥ अर्हन् सुपार्श्व कदलीदलवर्णमात्र, प्रालेयतारगिरिमौक्तिकवर्णगौर ।
चन्द्रप्रभ, स्फटिकपाण्डुर पुष्पदन्त । त्व॥ ४ ॥ सन्तप्तकाञ्चनरुचे जिनशीतलाख्य, श्रेयन्विनष्टदुरिताष्टकलंकपक ।
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बन्धूकबन्धुररुचे जिनवासुपूज्य | स्व० ॥ ५ ॥ उद्दण्डदर्पकरिपो विमलामलांग स्थेमन्ननन्तजिदनन्त सुखाम्बुराशे दुष्कर्मकल्मषविवर्जित धर्मनाथ त्व० ॥ ६ ॥ देवामरीकुसुमसन्निभ शांतिनाथ कुन्धो दया गुणविभूषणभूषितांग ।
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२९६
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जैन पूजा पाठ सा
देवाधिदेव भगवन्नरतीर्थनाथ। त्व० ॥ ७ ॥ यन्मोहमलमदभञ्जनमल्लिनाथ क्षेमकगेऽवितथशासनसुव्रताव्य । यत्सम्पदाप्रशमितो नमिनामधेय। स्व० ॥८॥ तापिच्छगुच्छरुचिरोज्ज्वल नेमिनाथ घोरोपसर्गविजयिन् जिन पार्श्वनाथ स्याद्वादसूक्तिमणिदर्पणवर्द्धमान। त्व०॥६|| प्रालेयनीलहरितारुणपीतभासं. यन्मूर्तिमव्यय सुखावसथं मुनीन्द्राः । ध्यान्ति सप्ततिशतं जिनवल्लभानां। त्व०॥१०॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं मांगल्यं परिकीर्तितम् । चतुर्विंशतितीर्थानां सुप्रभातं दिने दिने ॥११॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं श्रेयः प्रत्यभिनन्दितम् । देवता ऋषयः सिद्धाः सुप्रभातं दिने दिने॥ १२॥ सुप्रभातं तवैकस्य वृषभस्य महात्मनः । येन प्रवर्तितं तीर्थं भव्यसत्त्वसुखावहम् ॥ १३ ॥ सुप्रभातं जिनेंद्राणां ज्ञानोन्मीलितचक्षुषाम् । अज्ञानतिमिरान्धानां नित्यमस्तमितो रविः ॥१४॥ सुप्रभातं जिनेन्द्रस्य, वीरः कमल लोचनः । येन कर्माटवी दग्धा, शुक्लध्यानोग्रवह्निना ॥१५॥ सुप्रभातं सुनक्षत्रं सुकल्याणं सुमंगलम् । त्रैलोक्यहितकर्तृणां जिनानामेव शासनम् ॥१६॥
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अद्याष्टकस्तोत्रम् अद्य मे सफलं जन्म नेत्रे च सफले मम । वामद्राक्षं यतो देव हेतुमक्षयसंपदः ॥१॥ अद्य संसार-गंभीर-पारावारः, सुदुस्तरः । सुतरोऽयं क्षणेनैव जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥२॥ अद्य मे क्षालितं गानं नेत्रे च विमले कृते । स्नातोऽहं धर्म-तीर्थेषु जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥३॥ अद्य मे सफलं जन्म प्रशस्तं सर्वमंगलम् । 'संसारार्णव-तीर्णोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥४॥ अद्य कर्माष्टक-ज्वालं विधूतं सकपायकम् । दुर्गते विनिवृत्तोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥ ५ ॥ अद्य सौम्या ग्रहाः सर्वे शुभाश्चैकादश-स्थिताः । नष्टानि विन-जालानि जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥६॥ अद्य नष्टो महावन्धः कर्मणां दुःखदायकः । सुख-सङ्ग समापनो जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥७॥ अद्य कर्माष्टकं नष्टं दुःखोत्पादन-कारकम् । सुखाम्भोधि-निमग्नोऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ।।८।। अद्य मिथ्यान्धकारस्य हन्ता ज्ञान-दिवाकरः। उदितो मच्छरीरेऽस्मिन् जिनेन्द्रतव दर्शनाव ॥६ अद्याहं सुकृती भूतो निर्धूताशेषकल्मषः । भुवन-त्रय-पूज्योऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥१०॥ अद्याष्टकं.. पठेद्यस्तु गुणानन्दित-मानसः । तम्य सर्वार्थसंसिद्धिर्जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥११॥
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२९८
जैन पूजा पाठ सप्रह
मङ्गलाष्टकम् श्रीमन्नन-सुरासुरेन्द्र-मुकुट प्रद्योत-रत्नप्रमा
भास्वत्पाद-नखेन्दवः प्रवचनाम्भोधीन्दवः स्थायिनः । ये सर्वे जिन-सिद्ध-सूर्यनुगतास्ते पाठकाः साधवः
स्तुत्या योगिजनैश्च पञ्चगुरवः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥१॥ सम्यग्दर्शन-घोष-वृत्तममलं रत्नत्रयं पावनं
मुक्ति-श्री-नगराधिनाथ-जिनपत्युक्तोऽपवर्गप्रदः। धर्मः सूक्तिसुधा च चैत्यमखिलं चैत्यालयं अयालयं
प्रोक्तं च त्रिविधं चतुर्विधममी कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥२॥ नामेयादि-जिनाधिपास्त्रिभुवनख्याताश्चतुर्विंशतिः
श्रीमन्तो भरतेश्वरप्रभृतयो ये चक्रिणो द्वादश । ये विष्णु-प्रतिविष्णु-लाङ्गलधराः सप्तोत्तरा विंशतिः
त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिपष्टिपुरुषाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥३॥ देव्योऽष्टौ च जयादिका द्विगुणिता विद्यादिका देवताः
श्रीतीर्थङ्करमाकाथ जनका यक्षाश्च यत्यस्तथा । द्वात्रिंशत्रिदशाधिपास्तिथिसुरा दिक्कन्यकाश्चाष्टधा
दिक्पाला दश चेत्यमी सुरगणाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम्॥४॥ ये सर्वोषधऋद्धयः सुतपसो वृद्धिंगताः पञ्च ये
ये चाष्टाङ्गमहानिमित्तकुशला येऽष्टाविधाश्चारणाः।
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पञ्चज्ञानधरास्त्रयोऽपि वलिनो ये बुद्धिऋद्धीश्वराः
सप्तते सकलाचिंता गणभृतः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥शा कैलासे वृषभस्य निर्वतिमही वीरस्य पावापुरे ___चम्पायां वसुपूज्यतुग्जिनपतेः सम्मेदशैलेऽर्हताम् । शेषाणामपि चोर्जयन्तशिखरे नेमीश्वरस्थाहतो
निर्वाणावनयः प्रसिद्ध विभवाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥६॥ ज्योतिय॑न्तर-भावनामरगृहे मेरौ कुलाद्री तथा
जम्बू-शाल्मलि-चैत्यशाखिषु तथा वक्षार-रूप्याद्रिपु । इष्वाकारगिरौ च कुण्डलनगे द्वीपे च नन्दीश्वरे
शैले ये मनुजोत्तरे जिनगृहाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् ॥७॥ यो गर्भावतरोत्सवी भगवतां जन्माभिषेकोत्सवो __ यो जातः परिनिष्क्रमेण विभवो यः केवलज्ञानभाक् । यः कैवल्यपुरप्रवेशमहिमा संभावितः स्वर्गिमिः
, कल्याणानि च तानि पञ्च सततं कुर्वन्तु ते मङ्गलम्।। इत्थं श्रीजिनमङ्गलाष्टकमिदं सौभाग्यसंपदं
कल्याणेषु महोत्सवेषु सुधियस्तीर्थकराणामुषः। ये शृण्वन्ति पठन्ति तैश्च सुजनैर्धर्मार्थकामान्विता । • लक्ष्मीराश्रयते व्यपायरहिता निर्वाणलक्ष्मीरपि III
इति मङ्गलाष्टकम्
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ज्न पूजा पाठ सप्रह
दृष्टाष्टकस्तोत्रम् दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि
भव्यात्मनां विभव-संभव-भूरिहेतु । दुग्धान्धि-फेन-धवलोज्ज्वल-कूटकोटी
नद्ध-ध्वज-प्रकर-राजि-विराजमानम् ॥१॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भुवनैकलक्ष्मी
धामर्द्धिवर्द्धित-महामुनि-सेव्यमानम् । विद्याधरामर-वधूजन-मुक्तदिव्य
पुष्पाजलि-प्रकर-शोभित-भूमिभागम् ॥२॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवनादिवास
विख्यात नाक-गणिका-गण-गीयमानम् । नानामणि-प्रचय-भासुर-रश्मिजाल
__ व्यालीढ-निर्मल-विशालगवाक्षजालम् ॥३॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं सुर-सिद्ध-यक्ष
___ गन्धर्व-किन्नर-करार्पित-वेणु-वीणा-। संगीत-मिश्रित-नमस्कृत-धारनादै
रापूरिताम्बर-तलोरु-दिगन्तरालम् ॥ ४ ॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं विलसद्विलोल
____मालाकुलालि-ललितालक-विभ्रमाणम् । माधुर्यवाद्य-लय-नृत्य-विलासिनीनां
लीला-चलद्वलय-नू पुर-नादनम्यम् ॥ ५ ॥
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दृष्टं जिनेन्द्रभवनं मणि-रत-हेम- .
__ सारोज्ज्वलैः कलश-चामर-दर्पणायैः । सन्मंगलैः सततंमष्टशत-प्रभेदै
विभाजितं विमल-मौक्तिक-दामशोभम् ॥६॥ दृष्टं जिनेन्द्रमवनं वरदेवदारु
कर्पूर-चन्दन-तरुष्क-सुगन्धिधूपैः। मेघायमानगगने पवनाभिवात
चञ्चचलद्विमल-केतन-तुङ्ग-शालम् ॥७॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं धवलातपत्र
, च्छाया-निमग्न-तनु-यक्षकुमार-वृन्दैः । दोधूयमान-सित-चामर-पंक्तिभासं
भामण्डल-द्युतियुत-प्रतिमाभिरामम् ॥८॥ दृष्टं जिनेन्द्रभवनं विविधप्रकार
. पुष्पोपहार-रमणीय-सुरत्नभूमिः। नित्यं वसन्ततिलकश्रियमादधानं
सन्मंगलं सकल-चन्द्रमुनीन्द्र-वन्धम् ।।६।। दृष्टं मयाध मणि-काश्चन-चित्र-तुङ्ग
सिंहासनादि-जिनबिम्ब-विभूतियुक्तम् । चैत्यालयं यदतुलं परिकीर्तितं मे
सन्मंगलं सकल-चन्द्रमुनीन्द्र-वन्धम् ॥१०॥.
इति दृष्टाष्टकम्
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और पूजा पा संघ
एकीभावस्तोत्रम्.
श्रीवादिराज एकोमा गत इव मया यः स्वयं कर्म-वन्धो
घोरं दुःखं भव-भव-गतो दुर्निवारः करोति । तस्याप्यस्य त्वयि जिनरचे भक्तिरु मुक्तये चेत्
जेतुं शक्यो भवति न तया कोऽपरस्तापहेतुः ॥१॥ ज्योतीरूपं दुरित-निवह-ध्वान्त-विध्वंस-हेतुं
त्वामेवाहुर्जिनवर चिरं तत्त्व-विद्याभियुक्ताः । चेतोबासे भवसि च मम स्फार-मुद्भासमान
स्तस्मिनंहः कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमीष्टे ॥२॥ आनन्दा -सपित-वदनं गद्गदं चाभिजल्पन्
यश्चायेत त्वयि दृढ-मनाः स्तोत्र-मन्त्रैर्भवन्तम् । तस्याभ्यस्तादपि च सुचिरं देह-वल्मीक-मध्यात्
निष्कास्यन्ते विविध-विषम-व्याधयः कान्वेयाः ॥३॥ प्रागेवेह त्रिदिव-भवनादेष्यता भव्य-पुण्यात्
पृथ्वी-चक्रं कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम् । ध्यान-द्वारं मम रुचिकर स्वान्त-गेहं प्रविष्टः
तल्कि चित्र जिन वपुरिदं यत्सुवीकरोषि ॥४॥ लोकस्यैकस्त्वमसि भगवन्निनिमित्तेन वन्धु
स्त्वय्येशसौ सकल-विषया शत्तिरप्रत्यनीका । भक्ति-स्फीता चिरमधिवतन्मामिकां चित्र-शव्यां मव्युत्पन्नं कथमिव ततः क्लेश युथं तहेधाः ॥५॥
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जन्माटव्यां कथमपि मया देव दीर्घ भ्रमित्या
प्राप्तवेयं तव नय-कथा स्फार-पीयुष-वापी । तस्या मध्ये हिमकर-हिम-व्यूह-शीते नितान्त
निर्मनं मां न जहति कथं दुःख-दावोपतापाः ॥६॥ पाद-न्यासादपि च पुनतो यात्रया ते त्रिलोकी
हेमाभासो भवति सुरभिः श्रीनिवासच पद्मः। सर्वाङ्गेण स्पृशति भगवंस्त्वय्यशेपं मनो मे
श्रेयः किं तत्स्वयमहरहर्यन्न मामभ्युपैति ॥७॥ पश्यन्तं त्वद्वचनममृतं भक्ति-पाच्या पिपन्तं
कारण्यात्पुरुषमसमानन्द-धाम प्रविष्टम् । त्वां दुर्वार-स्मर-मद-हरं त्वत्प्रसादैक-भूमि
क्रूराकाराः कथमिवरुजा-कण्टका नि ठन्ति ।।८।। पाषाणात्मा तदितरसमः केवलं रत्न-मूर्तिः
मानस्तम्भो भवति च परस्तादृशो रत्न-वर्गः । दृष्टि-प्राप्तो हरति स कथं मान-रोगं नराणां
प्रत्यासत्तिर्यदि न भवतस्तस्य तच्छक्ति-हेतुः ॥६॥ हृद्यः प्राप्तो मरुदपि भवन्मूर्ति-शैलोपवाही
सद्यः पुंसां निरवधि-रुजा-धूलिवन्धं धुनोति । ध्यानाहूतो हृदय-कमलं यस्य तु त्वं प्रविष्टः
तस्याशक्यः क इह भुवने देव लोकोपकारः ॥१०॥ जानासि त्वं मम भव-भवे यच्च यादृक्च दुःखं -
जातं यस्य स्मरणमपि मे शस्त्रवनिष्पिनष्टि ।
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जैन पूजा पाठ संग्रह
त्वं सर्वेशः सकृप इति च त्वामुपेतोऽस्मि भक्त्या
यत्कर्तव्यं तदिह विषये देव एव प्रमाणम् ॥११॥ प्रापद्देवं तव नुति-पढेजीवकेनोपदिष्टैः
पापाचारी मरण-समये सारमेयोऽपि सौख्यम् । कः सन्देहो यदुपलभते वासव-श्री-प्रभुत्वं
जल्पञ्जाप्यमणिभिरमलैस्त्वन्नमस्कार-चक्रम् ॥१२॥ शुद्ध ज्ञाने शुचिनि चरिते सत्यपि त्वय्यनीचा
भक्तिनोंचेदनवधि-सुखावञ्चिका कुचिकेयम् । शक्योद्घाटं भवति हि कथं मुक्ति-कामस्य पुंसो
मुक्ति-द्वारं परिदृढ-महामोह-मुद्रा-कवाटम् ॥१३॥ प्रच्छन्नः खल्वयमधमयैरन्धकारैः समन्तात्
पन्था मुक्तेः स्थपुटित-पदः क्वेश-गत रंगाधैः । तत्कस्तेन' व्रजति सुखतो देव तत्त्वावभासी
यद्यग्रेऽग्रे न भवति भवद्भारती-रत्न-दीपः ॥१४॥ आत्म-ज्योति निधिरनवधिष्टुगनन्द-हेतुः ।
कर्म-क्षोणी-पटल-पिहितोयोऽनवाप्यः परेषाम् । हस्ते कुर्वन्त्यनतिचिरतस्तं भवद्भक्तिभाजः
स्तोत्रर्बन्ध-प्रकृति-परुषोद्दाम-धात्री-सनित्रः॥१॥ प्रत्युत्पन्ना नय-हिमगिरेरायता चामृताब्धेः
या देव त्वत्पद-कमलयोः संगता भक्ति-गगा। चेतस्तस्या मम रुजि-वशादालत क्षालितांहः
कल्माष यद्भवति किमियं देव सन्देह-भूमिः ॥१६॥
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३०६
जैन पूजा पाठ म
आज्ञावश्यं
कोपावेशो न तर न तव क्वापि देव प्रसादो व्याप्तं चेतस्तव हि परमोपंत येवानपेतम् । तदपि भुवन संनिधिर्वैरहारी क्वैवंभूतं भुवन- तिलकं प्राभवं त्वत्परेषु ॥ २२ ॥ देव स्तोतुं त्रिदिव-गणिका-मण्डली-गीत-कीर्ति
तोति त्वा सकल-विषय-ज्ञान- मूर्तिं जनो यः । तस्य क्षेमं न पदभटतो जातु जोहूतिं पन्थाः तत्वग्रन्थ-स्मरण-विषये नॅप सोमूर्ति मर्त्यः ॥२३॥ कुर्वनिग्वधि-सुल-ज्ञान-दृग्वीर्य-रूपं
चित्ते
देव त्वा यः समय-नियमादाउरेण स्तवीति । श्रेयोगानं मुहती ताता पूरयित्वा
कल्याणानां स्वति विषयः पञ्चधा पश्चितानाम् ॥२४ भक्ति-ग्रह-महेन्द्र-जितने न क्षमाः
सूक्ष्म-ज्ञान-शोऽपि संयमतः के हन्त मन्दा वयम् । अस्माभिः स्वगन हलेप तु परस्त्वय्यादरस्तन्यते
स्वात्माधीन - सुखैषिणां स खलु नः कल्याण- कल्पद्रुमः ॥ वादिराजमनु शाब्दिक-लोको वादिराजमनु तार्किक - सिंहः । वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्य सहायः ॥
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ज्न पूजा पाठ ह
ये योगिनामपि न यान्ति गुणाम्नवेश वस्तु कथ भवति तेषु ममावकाशः । जाता तदेवमममीचित-कारितयं
जल्पन्ति वा निज-गिरा ननु पचिणोऽपि ॥६॥ आस्तामचिन्त्य -महिमा जिन संस्तवस्ते
नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति । तीव्रातपो पहत - पान्यजनान्निदाघे
प्रीणाति पद्म-सरमः सग्सोऽनिलोऽपि ॥७॥ द्वर्तिनि त्वयि विभो शिथिलीभवन्ति
जन्तोः चणेन निविडा अपि कर्म चन्धाः | भुजङ्गममया व मध्य-भागमभ्यागते वन - शिखण्डिनि चन्दनस्य || ||
मुच्यन्त एव मनुजाः सहसा जिनेन्द्र रौद्रैरुपद्रव-शतैस्त्वयि गोस्वामिनि स्फुरित- तेजसि दृष्टमात्रे
वीचितेऽपि ।
चौर रिवाशु पशवः ग्रपलायमानैः ॥६॥
त्वं तारको जिन कथ भविनां त एवं
त्वामुद्वहन्ति हृदयेन यदुत्तरन्तः । यद्वा दृतिस्तरति यज्जलमेय नून
मन्तर्गतस्य मरुतः स किलानुभावः ॥१०॥ यस्मिन्हर-प्रभृतयोऽपि हत - प्रभावाः
सोऽपि त्वया रति-पतिः क्षपितः क्षणेन । विध्यापिता हुतभुजः पयसाथ येन
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पीतं न कि नपि दुर्धर बाडवेन ॥११॥ सामिन्ननन्य-गरिमाणमपि प्रपत्राः
न्यां जन्तपः कथमहो ददये दधानाः । जन्मांदधि लघु तरन्त्यनिलाघवेन
निन्यो न इन्न मानां यदि वा प्रभावः ॥१२॥ जोधम्बया यदि पिमा प्रथमं निरस्नो
पम्नान्नदा बद फयं फिल कर्मचाराः। सोपन्यमुत्र पदि या शिशिगपि लोके
नौल-द्रुमाणि विपिनानि न कि हिमानो॥१३॥ न्या योगिनो जिन मदा परमात्म-प
मन्वेषपन्नि हुदयामृज-कोप-देश । पूनम्य निमन्गय टि रा किमन्य___टनम्य मम्भव-पर्ट ननु कर्णिकायाः ॥१४॥ पानानिश भरनो भगिनः चणेन
द विहाय परमात्म-दशां प्रजन्ति । नावानलादपल-भावमपाम्य लोके
नामीकरत्वमचिगदिव धातु-भेदाः ॥१५॥ अन्तः मंटर जिन यस्य विभाव्यमे न्वं
मयः कथं तदपि नाशयमे शरीरम् । गतम्यापम मध्य-विवतिनी हि
यद्विग्रहं प्रशमयन्ति महानुभावाः ॥१६॥ आन्मा मनापिभिरयं बदमेट-बुद्धया
ध्याना जिनेन्द्र भवतोह मवत्प्रमावः ।
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बेन पूजा पाठ संग्रह
पानीयमप्यमृतमित्यनुचिन्त्यमानं
किं नाम नो विप-विकारमपाकरोनि ॥१७॥ त्वामेव वीत-तमसं परमादिनोऽपि
नूनं विभो हरि-हरादि-धिया प्रपन्नाः । किं काच-कामलिभिरीश सितोऽपि शहो
नो गृह्यते विविध-वर्ण-विपर्यवेण ॥१८॥ धर्मोपदेश-समये सविधानुभावाट्
आस्तां जनो भवति ते तसरप्यशोकः । अभ्युद्गते दिनपतौ समहीरुहोऽपि
किं वा विवोधमुपयाति न जीव-लोकः ॥१॥ चित्रं विभो कथमवाड्मुख-वृन्तमेव
विष्वक्पतत्यविरला सुर-पुष्पवृष्टिः । त्वद्गोचरे सुमनसां यदि वा मुनीश
गच्छन्ति नूनमघ एव हि बन्धनानि ॥२०॥ स्थाने गभीर-हृदयोदधि-सम्भवायाः
पीयूपतां तव गिरः समुदीरयन्ति । पीत्वा यतः परम-सम्मद-सङ्ग-भाजो
भव्यो व्रजन्ति तरसाप्यजरामरत्वम् ।।२।। स्वामिन्सुदूरमवनम्य समुत्पतन्तो
मन्ये वदन्ति शुचयः सुर-चासरौघाः । येऽस्मै नति विदधते मुनि-पुङ्गवाय
ते नूनमूर्ध्व-गतयः खलु शुद्ध-भावाः ॥२२॥ श्यामं गभीर-गिरमुज्ज्वल-हेम-रत्न
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मिरासनयमिह मन्प-शिसन्टिनस्त्याम्। आलोस्पन्ति रमन नदन्तमुतैः
चामीकराद्रि-शिरसीर नवाम्बुवाहम् ॥२३॥ उगाहना तप शिति-पति-मण्टलेन
समन्द-यपिशोप-वल्र्वभूव मांनिष्पनापि यदि या तप वीतराग
नीरागत मननि को न सचेतनोऽपि ॥२४॥ मां मोः प्रमादमपभूप मजनमेन
मागन्य निमि-पूरी प्रति सार्थवारम् । एननिवेदयति देव जगत्त्रयाय
___ मन्ये नटलमिनमः गुरदुन्दुभिस्ते ।।२।। जर योषितः भरना भुपनेषु नाथ
नागन्वितो विधुरयं विहताधिकारः। मृत्ता-पलाप-फलितो-मितातपत्र
व्याजालिया नृत-तनुर्बु वमन्युपेतः ॥२६॥ म्वेन प्रपत्ति-जगत्त्रय-पिण्डितेन
कान्ति-प्रताप-यशसामिव संचयेन । माणिक्य-हम-रजत-प्रनिनिमिदेन
सालत्रयेण भगवनभितो विभासि ॥ २७ ।। दिव्य-जो जिन नमत्रिदशाधिपाना
मृत्सृज्य रत-रचितानपि मौलि-बन्धान । पाटी श्रयन्ति भरतो यदि वापरत्र
त्वत्सदमे सुमनसो न रमन्त एव ॥ २८॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
या
त्वं नाथ जन्म-जलधेर्विपराड्मुखोऽपि
यत्तारयस्यसुमतो निज-पृष्ठ-लग्नान् । युक्तं हि पार्थिव-निपस्य सतस्तवैव
चित्रं विभो यदसि कर्म-विपाक-शून्यः ॥२६॥ विश्वश्वरोऽपि जन-पालक दुर्गतस्त्वं
किं वाक्षर-प्रकृतिरप्यलिपिस्त्वमीश । अज्ञानवत्यपि सदैव कथञ्चिदेव
ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्व-विकास-हेतुः ॥३०॥ प्राग्भार-सम्भृत-नभांसि रजांसि रोषाद्
उत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापि तैस्तव न नाथ हता हताशो
ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥ ३१ ।। यद्गर्जदूर्जित-धनौघमदभ्र-भीम
भ्रश्यत्तडिन्मुसल-मासल-घोरधारम् । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तर-वारि दभ्रे
तेनैव तस्य जिन दुस्तर-वारि कृत्यम् ॥३२॥ ध्वस्तोर्ध्व-केश-विकृताकृति-मर्त्य-मुण्ड
प्रालम्बभृद्भयदवक्त्र-विनियंदग्निः । प्रेतव्रजः प्रति भवन्तमपीरितो यः
सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भव-दुःख-हेतुः ॥ ३३ ॥ धन्यास्त एव भवनाधिप ये त्रिसन्ध्य
माराधयन्ति विधिवद्विधुतान्य-कृत्याः। भक्त्योल्लसत्पुलक-पक्ष्मल-देह-देशा:
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पार-यं राव विभो भुवि जन्ममाजः ॥३४॥ अम्मिनपा-म-पारिनिधो मुनीश
मन्येन में शवण-गोचरलां गतोऽसि । आमलिते तु नप गोत्र-पवित्र-मन्न
किं या विपरिपधरी सपिधं समेति ॥ ३५॥ उन्मान्नरंप तप पाद-पुगं न देव
मन्ये मपा महिनमीहित-दान-टघम् । तेनंट जन्मनि मुनीश पगभवानां
जातो निक्तनमहं मथिताशयानाम् ॥ ३६ ॥ नन ने मोह-तिमिरात-लोचनन
पूर्व पिमा सादपि प्रपिलोकितोऽसि । ममाविधी विधुरपन्ति दि मामनः
मोपत्प्रपन्ध-गतपः कथमन्यते ।। ३७ ।। प्राकर्णितोपि महितोऽपि निरीचितोऽपि
नूनं न घेनसि मया विधुतोऽसि भक्त्या । बातोमि नेन जन-बान्धव दुःखपानं
यम्माक्रियाः प्रतिफलन्ति न भाव-शून्याः ॥३॥ वं माय दु:खि-जन-वत्सल हे शरण्य
कारण्य-पुण्य-वसते वशिनां चरेण्य । मात्या नते मयि महेश दयां विधाय
दुःसारोहलन-नन्परतां विधेहि ॥३६॥ निःसम्य-सार शरणं शरणं शरण्य.
मासाप मादित-रिपु प्रथितावदानम् ।
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त्वत्पाद-पङ्कजमपि प्रणिधान-वन्ध्यो
वन्ध्योऽस्मि चेद्भवन-पावन हाहतोऽस्मि ॥४०॥ देवेन्द्र-बन्ध विदिताखिल-वस्तुसार
संसार-तारक विमो भुवनाधिनाथ । त्रायस्व देव करुणा-हद मा पुनीहि
सीदन्तमय भयद-व्यसनाम्बु-गशे ॥४॥ यद्यस्ति नाथ भवदति-सरोरुहाणा
भक्तोः फलं किमपि मन्तत-सञ्चिताया। तन्मे त्वदेक-शरणस्य शरण्य भूया'
स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ॥४२॥ इत्थं समाहित-धियो विधिवजिनेन्द्र
सान्द्रोल्लसत्पुलक-कञ्चुकितागभागाः । त्वद्धिम्ब-निर्मल-मुखाम्बुज-बद्ध-लक्ष्या
ये संस्तवं तव विभो रचयन्ति भव्याः ॥४३॥ जन-नयन-'कुमुदचन्द्र'-प्रभास्वराः स्वर्ग-सम्पदो मुक्त्वा । ते विगलित-मल-निचया अचिरान्मोक्षं प्रपद्यन्ते ॥४४॥
स्वाध्याय - स्वाध्याय आत्मशान्ति के लिये है, केवल ज्ञानार्जन के लिये नहीं। ज्ञानार्जन के लिये तो विद्याध्ययन है। स्वाध्याय तप है। इससे संवर
और निर्जरा होती है। कल्याण के इच्छुक हो तो एक घण्टा नियम से स्वाध्याय में लगाओ।
-वर्णी वाणी' से
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विपापहारस्तोत्रम्
[श्रीधनक्षय] स्वात्म-म्धितः सर्व-गतः समस्त-व्यापार-वेदी विनिवृत्त-सङ्गः। प्रवृद्ध-कालोऽप्यजरो वरेण्यः पायादपायात्पुरुषः पुराणः ॥ परेचिन्यं युग-भारमेकः स्तोतुं वहन्योगिभिरप्यशक्यः । स्तुत्योऽध मेऽसौ वृपभो न भानोः किमप्रवेशे विशति प्रदीपः।। तत्याज शक्रः शकनाभिमानं नाहं त्यजामि स्तवनानुवन्धम् । स्वल्पेन बोधेन ततोऽधिकार्थ वातायनेनेव निरूपयामि ॥ त्वं विश्वश्वा सकलेरदृश्यो विद्वानशेपं निखिलैरवेद्यः । वक्तुं कियान्कीदृश इत्यशक्यःस्तुतिस्ततोऽशक्तिकथा तवास्तु॥ व्यापीडितं बालमिवात्म-टोपेरुल्लापता लोकमवापिपस्त्वम् । हिताहितान्वेपणमान्यभाजः सर्वस्य जन्तोरसि वाल-वैद्यः॥ दाता न हर्ता दिवसं विवस्वानद्यश्व इत्यच्युत दर्शिताशः । संव्याजमेवं गमयत्यशक्तः क्षणेन दत्सेभिमत नताय ॥६॥ उपति भक्त्या मुमुखःमुखानि त्वयि स्वभावाद्विमुखश्च दुःखम् ।। सदावदात-धुतिरेकरूपस्तयोस्त्वमादर्श इवावभासि ||७|| अगाधताब्धेः स यतः पयोधिर्मरोच तुङ्गा प्रकृतिः स यत्र । द्यावापृथिव्योः पृथुता तथैव व्याप त्वदीया भुवनान्तराणि ।। तवानवस्था परमार्थ-तत्त्वं त्वया न गीतः पुनरागमश्च । दृष्टं विहाय त्वमदृष्टमपीविरुद्ध-वृत्तोऽपि समन्जसस्त्वम् । स्मरः मुदग्धो भवतेव तस्मिन्नुभूलितात्मायदि नाम शम्भुः। अशेत वृन्दोपहतोऽपि विष्णुः कि गृह्यते येन भवानजागः ॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
स नीरजाः स्याटपरोऽघवान्वा तद्दोपकीत्यैव न ते गुणित्वम् । स्वतोऽम्बुराशेर्महिमा न देव स्तोकापवादेन जलाशयस्य ॥ कर्मस्थितिं जन्तुरनेक-भूमि नयत्यमु सा च परस्परस्य । त्वं नेतृ-भावं हि तयोर्भवाब्धौ जिनेन्द्र नौ नाविकयोरिवाख्यः।। सुखाय दुःखानि गुणायदोपान्धर्माय पापानि समाचरन्ति । तैलाय वालाः सिकता-समूहं निपीडयन्ति स्फुटमत्वदीयाः॥ विपापहारं मणिमौषधानि मन्त्रं समुद्दिश्य रसायनं च । भ्राम्यन्त्यहोन त्वमिति स्मरन्ति पर्याय-नामानि तवैव तानि।। चित्ते न किञ्चित्कृतवानसि त्वं देवः कृतश्चेतसि येन सर्वम् । हस्ते कृतं तेन जगद्विचित्रं सुखेन जीवत्यपि चित्तवाह्यः ।। त्रिकाल-तच त्वमवैत्रिलोकी-स्वामीति संख्या-नियतेरमीषाम् । बोधाधिपत्यं प्रति नाभविष्यंस्तेऽन्येऽपि चेद्व्याप्स्यदमूनपीदम्।। नाकस्य पत्युः परिकम रम्यं नागम्यरूपस्य तवोपकारि । तस्यैव हेतुः स्वसुखस्य भानोसद्विभ्रतच्छत्रमिवादरेण ॥ क्वोपेक्षकस्त्वं क सुखोपदेशःस चेत्किमिच्छा-प्रतिकूल-वादः । क्कासी व वा सर्वजगत्प्रियत्व तन्नो यथातथ्यमवेविचं ते ॥ तुङ्गात्फलं यत्तदकिञ्चनाच प्राप्यं समृद्धान धनेश्वरादेः । निरम्भसोऽप्युच्चतमादिवाद्र कापि निर्याति धुनी पयोधेः॥ त्रैलोक्य-सेवा-नियमाय दण्डं दः यदिन्द्रो विनयेन तस्य । तत्प्रातिहार्य भवतः कुतस्त्यं तत्कर्म-योगाद्यदि वा तवास्तु ॥ श्रिया परं पश्यति साधु निःस्वःश्रीमान्न कश्चित्कृपणं त्वदन्यः। यथा प्रकाश-स्थितमन्धकारम्थायीक्षतेऽसौ न तथा तमःस्थम्।।
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म्ववृद्धिनिःक्षाम-निमेषभाजि प्रत्यत्तमात्मानुभवेपि मृढः ।, कि चासिल गय-निवर्ति-योधस्वरूपमध्यक्षमवैति लोकः ॥ तम्यात्मजन्नम्य पितनि देव नांवेञ्चगायन्ति कुलप्रकाश्य । तेज्यापि नन्वाश्मनमिन्यपश्यं पाणो कृत हेम पुनम्न्यजन्ति। दनखिलोक्यां पटहोऽभिभृताः सुरासुरास्तस्य महान्स लाभः। मोहस्य मोहन्त्याय को विगद्धमुलस्य नाशो बलवद्विरोधः॥ मार्गस्चर्यको दरशे विगुक्तंभनुर्गनीनां गहनं परेण । सर्व मया मिति रमन रं मा कदाचिद्भुजमालुलोक ।। स्वर्भानुरम्य हरि जाम्भः म्यान्तवातोऽम्बुनिधेविधानः । मंसार-भोगग्य वियोग-भावो विपत्न-पूयुढयाम्त्वदन्ये ।। अजाननस्त्वां नमतः फल यनझानतोऽन्यं न तु देवतेति । हरिन्मणि काचधिया दधानम्नं नम्य बुद्धया वहतो न रिक्तः।। प्रगम्न-वाचनतराः कपायदग्धम्य देव-व्यवहारमाहुः । गनम्य दीपम्य हि नन्दिनत्यं दृष्टं कपालम्य च मगलत्वम् ।। नाना मेकार्थमदस्त्वदत्तं हिन बनस्ते निशमय्य वक्तः । निटोपनां के न विभावयन्ति ज्वरेण मुक्तः सुगमः स्वरेण ॥ नक्कापियाञ्छावने च वाक्तकाले कचिन्कोपि तथा नियोगः। न पश्याम्यम्युधिमित्युदंशुः स्वयं हि शीनद्युतिरभ्युदेति ।। गुणा गीराः परमाः प्रमन्ना बहु-प्रकारा वहवस्तवेति । दृष्टोऽयमन्तः स्तवने न तेषां गुणो गुणानां किमतः परोऽस्ति ।
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स्तुत्यापरं नाभिमत हि भक्त्या स्मृत्या प्रणत्याच ततो भजामि। स्मगमि देवं प्रणमामि नित्य केनाप्युपायेन फल हि माध्यम् ।। ततस्त्रिलोकी-नगराधिदेवं नित्यं पर ज्योतिरनन्त-शक्तिम् । अपुण्य-पापं पर-पुण्य-हेतु नमाम्यह बन्धमवन्दितारम् ।। अशव्दमस्पर्शमरूप-गन्ध त्वा नीरस तद्विपयाववोधम् । सर्वम्य मातारममेयमन्यजिनेन्द्रमस्मार्यमनुस्मरामि ॥ अगाधमन्यमनसायलद्धचं निष्किञ्चन प्रार्थितमर्थवद्भिः। विश्वस्य पार तमदृष्टपार पति जनाना शरणं व्रजामि ।। त्रैलोक्य-दीक्षा-गुरवे नमस्ते योवर्धमानोऽपि निजोन्नतोऽभूत् । आग्गण्डशैलः पुनरद्रि-कल्पः पश्चान्न मेरुः कुल-पर्वतोऽभूत् ।। स्वयंप्रकाशस्य दिवा निशा वानवाध्यता यस्य न वाधकत्वम्। न लाघवं गौरवमेकरूपं वन्दे विभुं कालकलामतीतम् ।। इति स्तुति देव विधाय दैन्यावरं न याचे त्वमुपेक्षकोऽसि । छायातलंसंश्रयतः स्वतः स्यात्करछायया याचितयात्मलाभः ।। अथास्ति दित्सा यदि वोपरोधस्त्वय्येव सक्तां दिशभक्ति-बुद्धिम् करिष्यते देव तथा कृपां मे को वात्मपोष्ये सुमुखो न सरिः ।। वितरति विहिता यथाकथञ्चिन्जिन विनताय मनीषितानि भक्तिः त्वयि नुति-विषयापुनर्विशेषाद्दिशति सुखातियशो'धनंजय'च।।
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जिनचतुर्विंशतिका
[श्री भूपाल कवि श्रीलीलायतनं मही-कुल-गृहं कीर्ति-प्रमोदास्पदं
वाग्देवी-रति-केतनं जयरमा-क्रीडा-निधानं महत् । स स्यान्सर्व-महोत्सवैक-भवनं यः प्रार्थितार्थ-प्रदं प्रातः पश्यति कल्प-पादप-दल-च्छायं जिनांघ्रि-द्वयम् ।। शान्तं वपुः श्रवण-हारि वचचरित्र
सर्वोपकारि तव देव ततः श्रुतज्ञाः । संमार-मारव-महास्थल-रुन्द-सान्द्र
छाया-महीरुह भवन्तमुपाश्रयन्ते ॥२॥ स्वामिन्नध विनिर्गतोऽस्मि जननी-गर्भान्ध-कपोदरा___ दयोद्घाटित-दृष्टिरस्मि फलवजन्मास्मि चाय स्फुटम् । त्वामद्राक्षमहं यदक्षय-पदानन्दाय लोकत्रयी.
नेत्रेन्दीवर-काननेन्दुममृत-स्य न्टि-प्रभा-चन्द्रिकम् ॥३॥ निःशेप-त्रिदशेन्द्र-शेखर-शिखानल-प्रदीपावली___ मान्द्रीभृत-मृगेन्द्र-विष्टर-तटी-माणिक्य-दीपावलिः । केयं श्रीः क च नि:स्पृहत्वमिदमित्यहातिगस्त्वादशः
मर्व-ज्ञान-दशश्चरित्र-महिमा लोकेश लोकोत्तर ||४|| राज्य शासनकारिनाकपति यत्यक्तं तृणावज्ञया
हेला-निर्दलित-त्रिलोक-महिमा यन्मोह-मल्लो जितः। लोकालोकमपि स्वबोध-मुकुरस्यान्तः कृत मैपाथर्य-परम्परा जिनवर
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दानं ज्ञान-धनाय दत्तमसकृत्पात्राय सद्वत्तये
चीर्णान्युग्र-तपांसि तेन सुचिरं पूजाश्च वह्वयः कृताः । शीलाना निचयः सहामलगुणः सर्वः समासादितो
दृष्टस्त्वं जिन येन दृष्टि-सुभगः श्रद्धा-परेण क्षणम् ॥६॥ प्रज्ञा-पारमितः स एव भगवान्पारं स एव श्रुत
स्कन्धाब्धेर्गुण-रत्न-भूपण इति श्लाघ्यः स एव ध्रुवम् । नीयन्ते जिन येन कर्ण-हृदयालङ्कारतां त्वद्गुणाः संसाराहि-विषापहार-मणयस्त्रैलोक्य-चूडामणे ||७|| जयति दिविज-वृन्दान्दोलितैरिन्दुरोचिः
___ निचय-रुचिभिरुच्चैश्चामरैर्वीज्यमानः । जिनपतिरनुरज्यन्मुक्ति-साम्राज्य लक्ष्मी
। युवति-नव-कटाक्ष-क्षेप-लीलां दधानः ॥८॥ देवः श्व'तातपत्र-त्रय-चमरिरहाशोक-भाश्चक्र-भाषा
पुष्पौघासार-सिंहासन-सुरपटहैरष्टभिः प्रातिहार्यैः । साश्चर्यैर्धाजमानः सुर-मनुज-सभाम्भोजिनी-भानुमाली
पायानः पादपीठीकृत-सकल-जगत्पाल-मौलिर्जिनेन्द्रः।। नृत्यत्स्वर्दन्ति-दन्ताम्बुरुह-वन-नटन्नाक-नारी-निकायः
सद्यस्त्रैलोक्य-यात्रोत्सव-कर-निनदातोद्यमाद्यन्निलिम्पः । हस्ताम्भोजात-लीला-विनिहित सुमनोदाम-रम्यामर-स्त्री
काम्यः कल्याण-पूजाविधिषु विजयते देव देवागमस्ते ।। चक्षुष्मानहमेव देव भुवने नेत्रामृत-स्यन्दिनं । त्वद्वक्वेन्दुमतिप्रसाद सुभगैस्तेजोभिरुद्भासितम् ।
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येनालोकयता मयानति-चिराञ्चक्षुः कृताथीकृतं
द्रष्टव्यावधि-वीक्षण-व्यतिकर-व्याजम्भमाणोत्सवम् ॥ कन्तोः सकान्तमपि मल्ल मनि कश्चिन्
मुग्धो मुकुन्दमरविन्दजमिन्दुमौलिम् । मोघीकृत-त्रिदश-योपिदपाङ्गपातः
तस्य त्वमेव विजयी जिनराज मल्लः ॥१२॥ किसलयितमनल्पं त्वद्विलोकाभिलापात्
कुसुमितमतिसान्द्रं त्वत्समीप-प्रयाणात् । मम फलितममन्दं त्वन्मुखेन्दोरिदानी
नयन-पथमवाप्तादेव पुण्यद्रुमेण ॥१३॥ त्रिभुवन-वन-पुप्प्यत्पुष्प-कोदण्ड-दर्प
प्रमर-दव-नवाम्भो-मुक्ति-सक्ति-प्रसूतिः । स जयति जिनराज-बात-जीमूत-संघः
शतमख-शिखि नृत्यारम्भ-निर्वन्ध-बन्धुः।।१४॥ भूपाल-स्वर्ग-पाल-प्रमुख-नर-सुर-श्रेणि नेत्रालिमाला'लीला-चैत्यम्य चैत्यालयमखिलजगत्कौमुदीन्दोर्जिनम्य । उत्तंसीभूत-सेवाञ्जलि-पुट-नलिनी-कुड्मलात्रिः परीत्य । श्रीपाद-च्छाययापस्थितभवदवथुः सश्रितोऽस्मीव मुक्तिम् ।। देव त्वदंघि-नख-मण्डल-दर्पणेऽस्मिन्
अध्ये निसर्ग-रुचिरे चिर-दृष्ट-वक्त्रः ।
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श्रीकीर्ति-कान्ति-वृति-सङ्गम-कारणानि
नव्यो न कानि लभते शुभ-मङ्गलानि ॥१६॥ जयति सुर-नरेन्द्र-श्रीमुधा-निरिण्याः
कुलधरणि-धरोऽयं जैन-चैत्याभिगमः । प्रनिपुल-फल-धर्मानोमहान-त्रवाल
प्रसर-शिखर-शुम्भत्केतनः श्रीनिकेतः ॥१७॥ विनमदमरकान्ता-कुन्तलाक्रान्त-कान्ति
स्फुरित-नख-मयूस-चोतिताशान्तरालः। दिविज-मनुज-राज-बात-पूज्य-क्रमाजो
जयति विजित-काराति-जालो जिनेन्द्रः॥१८॥ सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुसङ्गलाय
द्रष्टव्यमरित यदि मङ्गलमेव वस्तु । अन्येन किं तदिह नाथ तवैव वस्त्रं
त्रैलोक्य मङ्गल-निकेतनमीक्षणीयम् ॥१६॥ त्वं धमदिय-तापसाश्रम-शुकस्त्वं काव्य-यन्व-क्रम__क्रीडानन्दन-झोफिलस्त्वमुचितः श्रीमल्लिका-षट्पदः । त्वं पुन्नाग-कथारविन्द-सरसी-हंसस्त्वमुत्तंसकैः
कैपाल न धार्यसे गुण-मणि-सालिभिमौलिभिः ॥ शिव-सुखमजर-श्री-सङ्गमं चाभिलष्य
स्वमभिनियमयन्ति क्लेश-पाशेन केचित् । वयमिह तु वचस्ते भूपतेवियन्तः
तदुभयमपि शश्वल्लीलया निर्विशामः ॥२१॥
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Tanr:
वानर म.नानि मियाजना माला
संपदः गहिन्द-निमल यशो गन्धर-देवा जगुः ।। पाणि नमानियोगविना लेगा रामगिरे
तरिकदेय पर पिदम इनि नपिनं तु टोलायते ॥ वसनामिर नम गेमाच-सरकाः
होममनिनननषिधी लग-प्रभावः स्फुटम् । शिक्षामगर गुन्गनव-नट प्रान्तायनसोनम. .
कि-नाद मंगनमा नकन गंवर्णने ॥२३॥ देवानपिस लानणं पसनां
सागरमा मगर-नमो स्टेरियावाने । नागनानगीतिना कमाण-काले नदा शानामनिमारननया एनः न किवण्यते ॥२४॥
गाय arir निधीनां पदं
मिदगल्य मानं ६ र चिन्तामणेः। मियायधूनं ।
निशानन गा. जिन-श्री-गृहे ॥२५॥ जिनगजनन्द्र कमपन्द्र नत्रीपले म्नानं रजनि-दिमागमणि माहितगारोत्मने । नीनार निदा शान्ति नया गम्यते देशमगा गा मानो यात्पुनशनम् ॥२६॥
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भावनाद्वात्रिंशतिको सन्वेषु नैत्री गुणिषु प्रनो हिटले जीवेषु कृपापरत्वन् । मध्यस्थ नावं विपरीतनौ सदा ममाला विश्वातु देव ।। शरोरत्तः ऋतुननन्तशक्तिं विभिनमालाननपास्त दीपम् । जिनेन्द्र लोपानिव खाष्टिं तव प्रसादेन मनानु शक्तिः ।। दुरले रिणि बन्धु-वर्गे गोगे देयागे नुवने वने वा । निराचमाशाननत्व बुझे सनं ननो नग्नु ननारि नाय ।। उनीश तीनाभित्र नातिवावित्र
स्थिरी निखाताविर गिन्तिाश्चि । पाना कवीयौ नन निष्ठतां जना
___ लोधुनानौ हदि दीपमाधि ॥४॥ एनेनिगवा विदेर बेहिनः मानतः संता इतस्वनः। नागिरिनानित्तिा निपीडितास्तदनुनियादुरठिनंत। मुिजिनार्गविज्ञल-बर्दिनालयामायान-मोन दुर्षिण! चारित्र-शुद्धवचारिलोग्नं वदल्नु नियां नन दुष्कृतं बनी। चिनिन्दनालोन-राहणेहंन्ता काय-कपार-निर्मितन् । निहलिणमा-बुख-नारनं निपवियनत्र गुणैरिवाहिल।। अतिक्रम यहिननेव्यतिनं जिनानिगरं नुरित्र-कन्नणः । व्यगननागरनपि प्रनाइनः मनिकनं तस्य नानि शुद्धये ॥
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क्षतिं मनः-शुद्धि-विधेरतिक्रमं व्यतिक्रमं शील-वृतेविलंघनम् । प्रभोचितारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम् ।। यदर्थ-मात्रा-पदवाक्य-हीनं मया प्रमादाद्यदि किश्चनोक्तम् । तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी सरस्वती केवलयोध-लब्धिम् ।। वोधिः समाधिः परिणाम-शुद्धिः
स्वात्मोपलन्धिः शिव-सौख्य-सिद्धिः। चिन्तामणिं चिन्तित-वस्तु-दाने
त्वां वन्द्यमानस्य भमास्तु देवि ॥११॥ यः स्मर्यते सर्व-मुनीन्द्र-वृन्दैर्यः स्तूयते सर्वनरामरेन्द्रैः। यो गीयते वेद-पुराण-शास्त्रैः स देव-देवो हृदये ममास्ताम् ।। यो दर्शन-ज्ञान-सुख-स्वभावः समस्त-संसार-विकार-बाह्यः । समाधिगम्यः परमात्म-संज्ञः स देव-देवो हृदये ममास्ताम् ॥ निपूदते यो भव-दुस-जालं निरीक्षते यो जगदन्तरालम् । योऽन्तर्गतो योगि-निरीक्षणीयः स देव-देवो हृदये ममास्ताम् ॥ विमुक्ति-मार्गप्रतिपादको यो यो जन्म-मृत्यु-व्यसनाधतीतः। त्रिलोक-लोकी विकलोऽकलकः स देव-देवो हृदये ममास्ताम्॥ क्रोडीकृताशेप-शरीरि-वर्गा रागादयो यस्य न सन्ति दोषाः । निरिन्द्रियोज्ञानमयोऽनपायः स देव-देवो हृदये ममास्ताम् ।। यो व्यापको विश्व-जनीनवृत्तेः सिद्धो विबुद्धो धुत-कर्म-बन्धः । ध्यातो धुनीते सकलं विकारं स देव-देवो हृदये ममास्ताम् ॥
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और
पाठ मह
न दृश्यने कर्म-बलङ्गनापैः यो बान्त संवेग्विनिन्म-पश्मिः । निरञ्जनं नियमनकमकं नं देवमा शग्ण प्रपद्य ॥ विमानत यत्र नगरिमाला न विद्यमान अवनारभाति ! स्वान्म-चितं यायमय-प्रकाशं तं देवमाप्तं शरणं प्रपत्र । विलोक्यमाने सति यत्र विखं विलायते स्पष्टमिदं विविक्तम् । शुद्धं शिवं शान्तमनाउनन्तं देवमाप्नं शरणं प्रपद्ये ।। येन नता मन्नय-मान-मृच्छां-पिाठ-नित्रा-भय-शोक-चिन्ताः। नयोऽनलेनेव तुल्यपञ्चन्नं देवमानं शरणं प्रपद्ये ॥ नसंम्नगंऽश्मान पूर्णन मंदिनी विधानता नाफलका विनिर्मितः यतो निरस्तान-झपाय-विहिपः सुवाभिगमव मुनिर्मितो मतः।। न संम्लगे भन समाधि-साधनं न लोर-पूजा न च संब-मेलनम्। यतस्ततोऽध्यात्म-लोभवानिशं त्रिमुच्य सर्वामपि बाह्य-वासनाम् न सति गह्या मम केचना भवामि तेषां न कहाचनाहम् । इत्यं विनिश्चिन्य विमुच्य वार्य बन्यः सदा त्वं भद्र मुन्न्यै ।। आन्मानमान्मन्यवलोक्यमानस्त्वं दर्शन-ज्ञानमयो विशुद्धः । एकाग्रचित्तः खलु यत्र तत्र स्थितोऽपि साधुलभते ममाधिम् ।। एकः सदाशावतिको ममान्मा विनिर्मल साधिगम-स्वभावः बहिर्भवाः नन्त्यपरे नमन्तान शाश्वताः कर्म-भवाः म्बकीया।। यस्यास्ति नैन्यं वपुपापि सार्द्ध तम्यास्ति किं पुत्र-कलत्र-मित्रः। पृथक्छने चर्मणि रोम-कृपाः कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ।।
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॥ पूजा 10 मह
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संयोगतो दुःखमनेकमेदं यतोऽश्नुते जन्म-वने शरीरी । ततस्विधासौ परिवर्जनीयो यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम् ।। सर्व निराकृत्य विकल्प-जालं संसार कान्तार-निपात-हेतुम् । विविक्तमात्मानमवेक्ष्यमाणो निलीयसे त्वं परमात्म-तत्त्वे ।। स्वयंकृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम् । परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं स्वयंकृतं कर्म निरर्थकं तदा ॥ निजार्जितं कर्म विहाय देहिनोन कोऽपिकस्यापि ददातिकिञ्चन विचारयन्नेवमनन्यमानसः परो ददातीति विमुच्य शेमुषीम् ॥ यैः परमात्माऽमितगति-वन्धः सर्व-विविक्तो भृशमनवद्यः । शश्वदधोतो मनसि लभन्ते मुक्ति-निकेतं विभव-वरं ते ॥
इति द्वात्रिंशतिवृत्तः परमात्मानमीक्षते । योऽनन्यगत-चेतस्को यात्यसौ पदमव्ययम् ॥
कायबल - जिनका कायक्लष्ठ है, वे ही मोक्ष पथ के पथिक बन सकते हैं। इस
प्रकार जब मोक्षमार्ग में भी कायबल की श्रेष्ठता आवश्यक है, तब सांसारिक कार्य इसके बिना कैसे हो सकते हैं। प्राचीन महापुरुषों ने जो कठिन से कठिन भापत्तियां और उपसर्ग सहन किये, वे कायपल की श्रेष्ठता पर ही किये। अत शरीर को पुष्ट रखना आवश्यक है, किन्तु इसी के पोषण में सब समय न लगाया जावे। दूसरे की रक्षा स्वास्म रक्षा की ओर दृष्टि रख कर ही की जाती है, अपने माप को भूल कर नहीं।
-'वर्णी वाणी' से
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जैन पूजा पाठ सप्रह
श्रीजिनसहस्रनामस्तोत्रम्
[भगजिनसेनाचार्य] स्वयमुवे नमस्तुभ्यमुत्पाद्यात्मानमात्मनि । स्वात्मनैव तथोतवृत्तयेचिन्त्यवृत्तये ॥१॥ नमस्ते जगता पत्ये लक्ष्मीभत्रै नमोऽस्तु ते । विदावर नमस्तुभ्यं नमस्ते वदतांवर ॥२॥ कमेशत्रुहण देवमामनन्ति मनीषिणः । त्वामानमत्सुरेण्मौलि-भा-मालाभ्यर्चित-क्रमम् ॥३॥ ध्यान-दुर्घण-निर्भिन्न-घन-घाति-महातरुः । अनन्त-भव-सन्तान-जयादासीरनन्तजित् ॥ ४ ॥ त्रैलोक्य-निर्जयावाप्त-दुर्दर्पमतिदुर्जयम् । मृत्युराजं विजिन्यासीजिन मृत्युंजयो भवान् ।। ५ ॥ विधुताशेप-संसार-बन्धनो भव्य-बान्धवः । त्रिपुरारिस्त्वमीशासि जन्म-मृत्युजरान्तकृत् ॥ ६ ॥ त्रिकाल-विजयाशेप-तत्त्वमेदात् त्रिधोत्थितम् । केवलाख्य दधचक्षुत्रिनेत्रोऽसि त्वमीशिता ॥ ७ ॥ त्वामन्धकान्तक प्राहुर्मोहान्धासुर-महेनात् । अद्धं ते नाग्यो यस्मादर्धनारीश्वरोऽस्यतः ।। ८ ॥ शिवः शिव पढाध्यामाद् दुरितारि-हगे हरः । शङ्करः कृतशं लोके शम्भवस्त्वं भवन्सुरंग ॥ ६ ॥ वृपभोऽसि जगज्ज्येष्ठ. पुरु: पुरु-गुणोदयः । नामेयो नाभि-मम्भृनेरियाकु-कुल-नन्दनः ॥ १० ॥ त्वमेमः पुरुषम्कंघम्त्व द्वे लोकस्य लोचने । त्वं त्रिधा युद्ध-सन्मार्गसिन्नचिन्नान धारकः ॥११॥
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चतुःशरण-माङ्गल्यमूर्तिस्त्व चतुरस्रधी'। पञ्च-ब्रह्ममयो देव पावनस्त्व पुनीहि माम् ॥१२॥ स्वर्गावतरणे तुभ्यं सद्योजातात्मने नमः। जन्माभिषेक-वामाय वामदेव नमोऽस्तु ते ॥१३॥ मनिष्क्रान्तावघोराय पर प्रशममीयुषे । केवलज्ञान-संसिद्धावीशानाय नमोऽस्तु ते ॥१४॥ पुरस्तत्पुरषत्वेन विमुक्त-पद-भागिने । नमस्तत्पुरुषावस्थां भाविनी तेऽद्य विनते ॥१॥ ज्ञानावरणनिहोसान्नमस्तेऽनन्तचक्षुषे । दर्शनावरणोच्छेदान्नमस्ते विश्वदृश्वने ॥१६॥ नमो दर्शनमोहम्ने क्षायिकामलदृष्टये । नमश्चारित्रमोहघ्ने विरागाय महौजसे ॥१७॥ नमस्तेऽनन्त-वीर्याय नमोऽनन्त-सुखात्मने । नमस्तेऽनन्त-लोकाय लोकालोकावलोकिने ॥१८॥ नमस्तेऽनन्त-दानाय नमस्तेऽनन्त-लब्धये। नमस्तेऽनन्त-भोगाय नमोऽनन्तोपभोगिने ॥१६॥ नम' परम-योगाय नमस्तुभ्यमयोनये । नमः परम-पूताय नमस्ते परमर्षये ॥२०॥ नमः परम-विद्याय नमः पर-मत-च्छिदे । नम परम-तन्वाय नमस्ते परमात्मने ॥२१॥ नम परमरूपाय नमः परम-नेजसे । नम परम-मार्गाय नमस्ते परमेष्ठिने ॥२२॥ परमादिजुषे धाम्ने परम-ज्योतिषे नमः । नम पारतमःप्राप्तधाम्ने परतरात्मने ॥२३॥ नम क्षीण-कलङ्काय क्षीण-बन्ध नमोऽस्तु ते ।
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३३.
जन पूजा पाठ मप्रह
नमस्ते चीण-मोहाय मीण-टोपाय ते नमः ॥२४n नमः मुगतयं तुभ्य शोभना गतिमीयुपे । नमस्तेजीन्द्रिय-खान-सुसायानिन्द्रियात्मने ॥२५॥ काय-बन्धननिमोनाटकायाय नमोऽस्तु ते । नमस्तुभ्यमयोगाय योगिनामधियोगिने ॥२६|| अवेढाय नमस्तुभ्यमकपायाय ते नमः । नम. परम-योगीन्द्र-वन्दितानि-द्वयाय ते ॥२७॥ नम परम-विज्ञान नमः परम-सयम ।। नमः परमग्दृष्ट-परमार्थाय ते नमः ॥२८॥ नमस्तुभ्यमलेश्याय शुकलेश्याशक-स्पृशे । नमो भव्येतरावस्थाव्यतीताय विमोक्षणे ॥२६॥ सन्यसंजिदयावस्थाव्यतिरिक्तामलात्मने । नमस्ते बीतसंज्ञाय नमः क्षायिकदृष्टये ॥३०॥ अनाहाराय तृप्ताय नमः परमभाजुषे ।। व्यतीताशेपदोषाय भवाब्धेः पारमीयपे ॥३१॥ अजराय् नमस्तुभ्यं नमस्ते ऽतातजन्मन । अमृत्यवे नमस्तुभ्यमचलायातरात्मने ॥ ३२॥ अलमास्ता गुणस्तोत्रमनन्तास्तावका गुणाः । त्वं नामस्मृतिमात्रेण पर्युपासिसिषामहे ।। ३३ ।। एव स्तुत्वा जिन देव भक्त्या परमया सुधीः । पठेदष्टोत्तरं नाम्ना सहस्र पाप-शान्तये ॥३४॥
इति प्रस्तावना प्रसिद्धाष्ट-सहस्रद्धलक्षण त्वा गिरा पतिम् । नाम्नामष्टसहस्रण तोष्टमोऽभीष्टसिद्धये ॥१॥ श्रीमान्स्वयम्भूषभःशभव शभुरात्मभूः। स्वयंप्रभः प्रभुीक्ता विश्वभूरपुनर्भवः ॥ २ ॥
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विश्वात्मा विश्वलोकेशो विश्वतश्चनुरक्षर. । विश्वविद्विश्वविद्यशो विश्वयोनिरनीश्वर ॥ ३ ॥ विश्वदृश्वा विभर्घाता विश्वेशो विश्वलोचनः । विश्वव्यापी विधिधा. शाश्वतो विश्वतोमुखः ॥४॥ विश्वकर्मा जगज्ज्येष्ठो विश्वमूर्तिनिनेश्वर । विश्वदृक् विश्वभूतेशो विश्वज्योतिरनीश्वर ॥ ५ ॥ जिनो जिष्णुरमेयात्मा विश्वरीशो जगत्पतिः । अनन्तजिदचिन्त्यात्मा भव्यबन्धुरवन्धनः ॥ ६ ॥ युगादिपुरुषो ब्रह्मा पञ्चब्रह्ममयः शिवः ।। परः परतरः सूक्ष्मः परमेष्ठी सनातनः ॥ ७॥ स्वयंज्योतिरजोजन्मा ब्रह्मयोनिरयोनिजः । मोहारिविजयी जेता धर्मचक्री दयाध्वजः ॥ ८॥ प्रशान्तारिरनन्तात्मा योगी योगीश्वरार्चितः । ब्रह्मविद् ब्रह्मतत्त्वज्ञो ब्रह्मोद्याविद्यतीश्वरः ।।६।। शुद्धो बुद्धः प्रबुद्धात्मा सिद्धार्थः सिद्धशासनः। सिद्धः सिद्धान्तविद् ध्येयः सिद्धसाध्यो जगद्धितः॥१०॥ सहिष्णुरच्युतोऽनन्तः प्रभविष्णुर्भवोद्भवः । प्रभूष्णुरजरोऽजर्यो भ्राजिष्णु(श्वरोऽव्ययः ॥११॥ विभावसुरसम्भूष्णुः स्वयम्भूष्णुः पुरातनः। परमात्मा परंज्योतिस्त्रिजगत्परमेश्वरः ॥१२॥
इति श्रीमदादिशतम् ।। १॥ [प्रत्येक शतकके अन्तमे उदकचदनतदुल आटि श्लोक पढकर अर्घ चढाना चाहिये।] दिव्यभाषापतिर्दिव्यः पूतवाक्पूतशासन' ! पतात्मा परमज्योतिधर्माध्यक्षो दमीश्वरः ॥ १॥
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२२९
जन पूजा पाठ सह
श्रीपतिर्भगवानर्हन्नरजा विरजाः शुचिः । तीर्थकृत्केवलीशानः पूजार्हः स्नातकोऽमलः ॥ २ ॥ अनन्तदीप्तिर्ज्ञानात्मा स्वयम्बुद्धः प्रजापतिः । मुक्त. शक्तो निरावाघो निष्कलो भुवनेश्वरः || ३ || निरञ्जनो जगज्ज्योतिर्निरुक्तोक्तिरनामयः ।
अचलस्थितिरक्षोभ्यः कूटस्थः स्थाणुरक्षयः ॥ ४ ॥ अग्रणीग्रमिणीनेता प्रणेता न्यायशास्त्रकृत् । शास्ता धर्मपतिर्धम्यों धर्मात्मा धर्मतीर्थकृत् ॥ ५ ॥ वृपध्वजो वृषाधीशो वृषकेतुर्वृषायुधः । वृषो वृषपतिर्भर्ता वृषभाङ्को वृषोद्भवः ॥ ६ ॥ हिरण्यनाभिभूतात्मा भूतभृद् भूतभावनः ।
६ ॥
rai विभवो भास्वान् भवो भावो भवान्तकः ॥ ७ ॥ हिरण्यगर्भः श्रीगर्भः प्रभूतविभवोऽभवः । स्वयंप्रभः प्रभूतात्मा भूतनाथो जगत्पतिः ॥ ८ ॥ सर्वादिः सर्वदृक् सार्वः सर्वज्ञः सर्वदर्शनः । सर्वात्मा सर्वलोकेशः सर्ववित्सर्वलोकजित् ॥ सुगतिः सुश्रुतः सुश्रुत् सुवाक् सूरिर्वहुश्रुतः । विश्रुतः विश्वतः पादो विश्वशीर्षः शुचिश्रवाः ॥ १० ॥ सहस्रशीर्षः क्षेत्रज्ञः सहस्राक्षः सहस्रपात् । भूतभव्यभवद्भर्ता विश्वविद्यामहेश्वर ॥ ११ ॥ इति दिव्यादिशतम् ॥ २ ॥ अर्धम् । स्थविष्ठ' स्थविरो जेष्ठ' पृष्ठः श्रेष्ठो वरिष्ठी । स्थेष्ठो गरिष्ठो वहिष्ठ श्रेष्ठोऽमिठो गरिष्ठगी ॥१॥ विश्वभृद्विश्वसृट् बिश्वेट् विश्वविनायक विश्वाशीविश्वरूपात्मा विश्वजिद्विजितान्तकः ॥ २ ॥
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विभवो विभयो वीरो विशोको विजरो जरन् । विरागो विरतोऽसङ्गो विविक्तो वीतमत्सरः ॥ ३ ॥ विनयेजनताबन्धुर्विलीनाशेषकल्मषः ।। वियोगो योगविद्विद्वान्विधाता सुविधिः सुधीः ।।४।। क्षान्तिमाक्पृथिवीमूर्तिः शान्तिभाक् सलिलात्मकः । वायुमूर्तिरसङ्गात्मा वह्निमूर्तिरधर्मधुक् ॥ ५ ॥ सुयज्वा यजमानात्मा सुत्वा सुत्रामपूजितः । ऋत्विग्यज्ञपतिर्यज्ञो यज्ञाङ्गममृतं हविः ॥६॥ व्योममूर्तिरमूर्तात्मा निलेपो निर्मलोऽचलः । सोममूर्तिः सुसौम्यात्मा सूर्यमूनिमहाप्रभः ॥ ७ ॥ मन्त्रविन्मन्त्रकृन्मन्त्री मन्त्रमूर्तिरनन्तगः। स्वतन्त्रस्तन्त्रकृत्स्वन्तः कृतान्तान्तः कृतान्तकृत || कृती कृतार्थः सत्कृत्यः कृतकृत्यः कृतक्रतुः। नित्यो मृत्युञ्जयो मृत्युरमृतात्माऽमृतोद्भवः ॥६॥ ब्रह्मनिष्ठः परब्रह्म , ब्रह्मात्मा ब्रह्मसम्भवः । महाब्रह्मपतिब्रटेट महाब्रह्मपदेश्वरः ॥१०॥ सुप्रसनः प्रसन्नात्मा ज्ञानधर्मदमप्रभुः । प्रशमात्मा प्रशान्तात्मा पुराणपुरुषोत्तमः ॥११॥
इति स्थविष्ठादिशतम् ॥ ३॥ अर्घम् । महाशोकध्वजोऽशोकः कः स्रष्टा पद्मविष्टरः । पोशः पद्मसम्भूतिः पद्यनाभिरनुत्तरः॥१॥ पायोनिर्जगद्योनिरित्यः स्तुत्यः स्तुतीश्वरः। स्तवना) हषीकेशो जितजेयः कृतक्रियूः ॥२॥ गणाधिपोगणज्येष्ठो गण्यः पुण्योगणाग्रणीः । गुणाकरो गुणाम्भोधिर्गुणज्ञो गुणनायकः ॥ ३ ॥
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जन पूजा पाठ स
गुणादरी गुणोच्छेदी निर्गुणः पुण्यगीर्गुणः । शरण्यः पुण्यवाक्पूतो वरेण्यः पुण्यनायकः ॥ ४ ॥ अगण्यः पुण्यधीगुण्यः पुण्यकृत्पुण्यशासनः । धर्मारामो गुणग्रामः पुण्यापुण्यनिरोधकः ॥ ५ ॥ पापापतो विपापात्मा विपाप्मा वीतकल्मषः । निर्द्वन्द्वो निर्मदः शान्तो निर्मोही निरुपद्रवः ॥ ६ ॥ निर्निमेपो निराहारो निष्क्रियो निरुपप्लवः । निष्कलङ्को निरस्तैना निर्धूतांगो निरास्रवः ॥ ७ ॥ विशाल विपुलज्योतिरतुलोऽचिन्त्यवैभवः । सुसंवृतः सुगुप्तात्मा सुवृत् सुनयतत्त्ववित् ॥ ८ ॥ एकविद्यो महाविद्यो मुनिः परिवृढः पतिः ।
शो विद्यानिधिः साक्षी विनेता विहतान्तकः ॥६॥ पिता पितामहः पाता पवित्रः पावनो गतिः । श्राता भिषग्वरो वर्यो वरद्ः परमः पुमान् ॥ १० ॥ कविः पुराणपुरुपो वर्षीयान्वृषभः पुरुः । प्रतिष्ठाप्रसवो हेतु चकपितामहः ॥ ११ ॥
इति महाशोकध्वजादिशतम् ॥ ४ ॥ अर्धम् । श्रीवृक्षलक्षणः श्लक्ष्णो लक्षण्यः शुभलक्षणः । निरक्षः पुण्डरीकाक्षः पुष्कलः पुष्करेक्षणः ॥ १ ॥ सिद्धिदः सिद्धसङ्कल्प. सिद्धात्मा सिद्धसाधनः। वुद्धबोध्यो महावोधिर्वर्धमानो महर्द्धिकः || २ || वेदाङ्गो वेदविद्वेद्यो जातरूपो विदांवरः । वेदवेद्यः स्वसंवेद्यो विवेदो वदतांवरः ॥ ३ ॥ अनादिनिधनोऽव्यक्तो व्यक्तवाग्व्यक्तशासनः । युगादिकयुगाधारो युगादिर्जगदादिजः ॥ ४ ॥
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अतीन्द्रोऽतीन्द्रियो धीन्द्रो महेन्द्रोऽतीन्द्रियार्थदृक् अनिन्द्रियोऽहमिन्द्रायो महेन्द्रमहितो महान् ॥५॥ उद्भवः कारणं कर्ता पारगो भववारकः ।। अग्राह्यो गहनं गुह्यं परायः परमेश्वरः ।। ६ ॥ अनन्तर्द्धिरमेयर्द्धिरचिन्त्यर्द्धिः समग्रधीः । प्रापथः प्राग्रहरोऽभ्यतः प्रत्ययोऽग्रयोऽग्रिमोऽग्रजः ॥७॥ महातपा महातेजा महोदकर्को महोदयः । महायशा महाधामा महासत्त्वो महातिः ॥ ८ ॥ महाधैर्यो महावीर्यो महासम्पन्महाबलः । महाशक्तिर्महाज्योतिर्महाभूतिर्महाद्युतिः ॥ ६ ॥ महामतिर्महानीतिर्महाक्षान्तिर्महोदयः। महाप्राज्ञो महाभागो महानन्दो महाकविः ॥१०॥ महामहा महाकीर्तिमहाकान्तिर्महावपुः । महादानो महाज्ञानो महायोगो महागुणः ॥११॥ महामहपतिः प्राप्तमहाकल्याणपञ्चकः । महाप्रभुमहाप्रातिहार्याधीशो महेश्वरः ॥ १२ ॥
इति श्रीवृक्षादिशतम् ॥ ५ ।। अर्घम् । महामुनिर्महामौनी महाध्यानी महादमः । महाक्षयो महाशीलो महायज्ञो महामखः ॥११॥ महाव्रतपतिर्मह्यो महाकान्तिधरोऽधिपः । गहामैत्री महामेयो महोपायो महोदयः ॥२॥ महाकारुण्यको मन्ता महामन्त्री महायतिः। महानादो महाघोषो महेज्यो महसांपतिः ॥३॥ महाघ्वरधरो धुर्यों महौदार्यो महिष्ठवाक् । महात्मा महसांधाम महर्षिमहितोदयः ॥४॥
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का पाउन
महारलेशाश शगे महाभृनपनिगुमः । महापगनमोजन्ना , महानाधरिपुर्वणी ॥५॥ महाभवाब्धिमन्नाग्मिहामोहाद्रिसदन. । महागुणाकरः तान्नो महायोगीश्वरः गमी ॥६॥ महाध्यानपतिातामहाधमा महावत' । महाकाग्निाऽऽन्म.तो महादेवो महेगिना ||७|| मक्लेशापह' मा. गवदोपहगे हर. । अमन्ययो प्रमेयात्मा गमान्मा प्रशमानः ॥८॥ मवयोगी-वगचिन्य अनान्मा विष्टरश्रया । दान्तान्मा दमनीर्थगी योगान्मा ज्ञानमवगः ।।६।। प्रधानमात्मा प्रकांत परमः परमादयः । प्रवीणवन्धः कामारिः मन्मशाननः ॥१०॥ प्रणवः प्रणय' प्राण प्राणदः प्रणतवनः। प्रमाण प्रणिधिर्टचो दतिणोवर न्वर ॥११॥ आनन्दो नन्दनो नन्दो बन्योऽनिन्याडमिनन्दनः । कामहा कामदः काम्यः कामधेनुरग्जियः ॥१२॥
पति महागुन्याटिशनम् ॥ आम्। अमस्कृतमुभम्कार. प्राकृतो चकनान्तकम् । अन्तकृत्कान्तगुः कान्तश्चिन्तामणिग्भीष्टद.॥१॥ अजितो जितकामारिमितोऽमितशामनः । जितक्रोधो जितामित्रो जितकेशो जितान्तकः ॥२॥ जिनेन्द्र परमानन्दो मुनीन्द्रो दुन्दुभिम्वनः । महेन्द्रवन्या योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दनः ॥३॥ नाभेयो नाभिजोऽजात. मुत्रतो मनुरुत्तमः।। अभेद्योऽनत्ययोऽनाश्वानधिकोऽधिगुरु मुधीः ॥४॥
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सुमेधा विक्रमी स्वामी दुराधर्षों निरुत्सुफः । विशिष्टः शिष्टभक शिष्टः प्रत्ययः कामनोऽनघः॥शा क्षेमी क्षेमकराऽक्षय्यः क्षेमधर्मपतिः क्षमी। अग्राह्यो ज्ञाननिग्राह्यो ध्यानगम्यो निरुत्तरः ॥६॥ सुकृती धातुरिज्याहः सुनयश्चतुराननः । श्रीनिवासश्चतुर्वक्त्रश्चतुरास्यश्चतुर्मुखः ॥७॥ सत्यात्मा सत्यविज्ञानः सत्यवाक्सत्यशासनः । सत्याशीः सत्यसन्धानः सत्यः सत्यपरायणः ।।८।। स्थेयान्स्थवीयादीयान्दवीयान् दूरदर्शनः । अणोरणीयाननणुर्गुरुराधो गरीयसा ॥॥ सदायोगः सदाभोगः सदासप्तः सदाशिवः । सदागतिः सदासौख्यः सदाविद्यः सदोदयः ॥१०॥ सुघोषः सुमुखः सौम्यः सुखदः सुहितः सुहृत् । सुगुप्तो गुप्तिमृद् गोप्ता लोकाध्यक्षो दमीश्वरः ॥११॥
इति असस्कृतादिशतम् ॥७॥ अर्घम् । बृहवृहस्पतिर्वाग्मी वाचस्पतिरुदारधीः । मनीषी धिषणो धीमांञ्छेमुषीशो गिरांपतिः ॥१॥ नैकरूपो नयोतुङ्गो नैकात्मा नेकधर्मकृत् । अविज्ञेयोऽप्रतात्मा कृतज्ञः कृतलक्षणः ॥२॥ ज्ञानगर्भो दयांगों रत्नगर्भः प्रभास्वरः। पागों जगद्गर्भो हेमगर्भः सुदर्शनः ॥३॥ लक्ष्मीवांत्रिदशाध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता । मनोहरो मनोज्ञाङ्गो धीरो गम्भीरशासनः ॥४॥ धर्मयपो दयायागो धर्मनेमिर्मुनीश्वरः । धर्मचक्रायुधो देवः कर्महा धर्मघोषणः ॥शा
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जैन पूजा पाठ मह
अमाववागमोधात्री निर्मला यावशामनः । मुन्प. नुमगन्यागी समयन्त्रः ममाहिनः मुन्धिनान्बामामाक्वन्या नीरजको निन्द्धवः। अलंपा निष्कलङ्गान्मा पीतगगां गतम्पृहः ॥७॥ बोन्दिया विमुक्तान्मा निःमपन्नोजिनेन्द्रियः । प्रशान्नान्नन्नयामपिमङ्गलं मलहानवः || अनीगुपमामृतो दृष्टिबमगोवः । अमृनों मृनिमानको नको नानकतचटक अगमगन्यो गम्यान्मायोगतियागिवन्दिन. । नवगः महामार्ग त्रिकालविपयायहक् ॥१०॥ गदर वदो दान्ना दमी नान्तिपनयणः । अधिपः परमानन्दः पगत्मनः पगन्परः ॥१२| त्रिजगहल्लमोऽस्यच्यविजगन्मङ्गलोदयः। त्रिजगत्पनियानिखिलोकाप्रशिखामणिः ॥१२॥
शनि वृदादिगतम ।। ८ ।। अवन।। त्रिकालही लोकेगा लोकपाता दृढव्रतः । नवलोकानिगः पृत्यः सर्वलोकमाथिः ।।१।। पुगणः पुन्प. पृः कुनपूर्वाङ्गाविस्तरः । आदियः पुगणायः पुन्बोधिदेवता ||२|| युगमुच्या उगज्येष्ठो युगादिन्थितिदेशकः । कल्याणवणः कल्याणः कल्यः कल्याणलनणः ॥३॥ कल्याणप्रकृनिटांत त्राणान्मा विकल्मपः। विकलइ. कलातीतः कलिलनः कलाधरः ॥४॥ देववो जगन्नाया जगद्वन्धुर्जगद्विभुः। जगट्टितेपो लोक्तः सर्वगो जगदग्रजः ||५||
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चराचरगुरुर्गाप्यो गुढात्मा गुढगोचरः। सद्योजातः प्रकाशात्मा ज्वलज्ज्वलनसप्रभः ॥६॥ आदित्यवर्णो भर्मामः सुप्रभः कनकप्रभः । सुवर्णवणों रुक्माम. सूर्यकोटिसमप्रभः ॥७॥ तवनीयनिभस्तुङ्गो बालार्कामोऽनलप्रभः । सन्ध्याभ्रव हेमाभस्तप्तचामीकरच्छविः ॥ ८॥ निष्टप्लकनकच्छायः कनत्काञ्चनसन्निभः। हिरण्यवर्ण स्वर्णाभः शातकुम्भनिभानमः ॥ ६ ॥ धुम्नाभो जातरूपामस्तप्तजाम्बूनदद्युतिः ।। सुधौतकलधौतश्री: प्रदीसो हाटकघतिः ॥१०॥ शिप्टेष्टः प्रष्टिदः पुष्टः स्पष्टः स्पष्टाक्षरः क्षमः। शत्रुघ्नोऽप्रतियोऽमोघः प्रशास्ता शासिता स्वभूभाशा शान्तिनिष्ठो मुनिज्ज्येष्ठः शिवतातिः शिवप्रदः । शान्तिदःशान्तिकृच्छान्तिःकान्तिमान्कामितप्रदा१२॥ धेयोनिधिरधिष्ठानमप्रतिष्ठः प्रतिष्ठितः । सुस्थिरः स्थावरः स्थाणुः प्रथीयान्प्रथितः पृथुः ॥१॥
इति त्रिकालदर्यादिशतम् ॥ ४॥ अर्घम् । दिग्वासा वातरशनो निग्रन्थेशो निरम्परः । निष्किञ्चनो निराशंसो ज्ञानचक्षुरमोमुहः॥१॥ तेजोराशिरनन्तौजा ज्ञानाधिः शीलसागरः । तेजोमयोऽमितज्योतियोतिमूर्तिस्तमोपहः ॥ २ ॥ जगच्चूडामणिर्दीप्त. सर्वविघ्नविनायकः। कलिघ्नः कर्मशत्रुघ्नो लोकालोकप्रकाशकः ॥३॥ अनिद्रालुरतन्द्रालुर्जागरूका प्रसासयः। लक्ष्मीपतिर्जगज्ज्योतिधर्मराजः प्रजाहितः ॥ ४ ॥
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३४.
जैन पूजा पाठ सग्रह
मुमुक्षुर्वन्धमोक्षज्ञो जिताक्षो जितमन्मथः । प्रशान्तरसशैलषो भव्यपेटकनायकः ॥ ५ ॥ मूलकर्ताऽखिलज्योतिर्मलघ्नो मूलकारणम् । आप्नो वागीश्वरः श्रेयाञ्छायसोक्तिनिरुक्तवाक् ॥६॥ प्रवक्ता वचसामीशो मारजिद्विश्वभाववित् । सुतनुस्तनुनिर्मुक्तः सुगतो हतदुर्नयः ॥ ७ ॥ श्रीशः श्रीश्रितपादाब्जो वीतशीरभयङ्करः । उत्सन्नदोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सलः ॥ ८॥ लोकोत्तरो लोकपतिर्लोकचक्षुरपारधीः । धीरधी द्धसन्मार्गः शुद्धः सूनृतपूतवाक् ।। ६ ।। प्रज्ञापारमितः प्राज्ञो यतिनियमितेन्द्रियः। भदन्तो भद्रकृद्रः कल्पवृक्षो वरप्रदः ॥ १० ॥ समुन्यूलितकर्मारिः कर्मकाष्ठाशुशुणिः । कर्मण्यः कर्मठः प्रांशुहेयादेयविचक्षणः ॥ ११ ।। अनन्तशक्तिरच्छेद्यस्त्रिपुरारित्रिलोचनः । त्रिनेत्रस्व्यम्बकाध्यक्षः केवलज्ञानवीक्षणः ||१२|| समन्तभद्रः शान्तारिर्धर्माचार्यो दयानिधिः । सूक्ष्मदर्शी जितानङ्गः कृपालुर्धर्मदेशकः ॥१३॥ शुभंयुः सुखसाद्भूतः पुण्यराशिरनामयः । धर्मपालो जगत्पालो धर्मसाम्राज्यनायकः ॥१४॥ इति दिग्वासाद्यष्टोत्तरशतम् ।। १० ।। अर्घम् । धाम्नां पते नवानि नामान्यागमकोविदः। समुचितान्यनुध्यायन्पुमान्यूतस्मृतिर्भवेत् ॥१॥ गोचरोऽपि गिरामासांत्वमवाग्गोचरो मतः। स्तोता नथाप्यसंदिग्धं त्वत्तोऽभीष्टफलं भजेत् ॥२॥
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स्वमतोऽसि जगबन्धुः त्वमतोऽसि जगद्भिषक् । त्वमतोऽसि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धितः ॥३॥ त्वमेक जगता ज्योतिस्त्वं द्विरूपोपयोगभाक् । त्वं त्रिरूपॅकमुक्त्यङ्गः स्वोत्थानन्तचतुष्टयः ॥४॥ त्वं पञ्चब्रह्मतत्त्वात्मा पञ्चकल्याणनायकः । पड्भेदभावतत्त्वज्ञस्त्वं सप्तनयसंग्रहः ॥शा दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्व नवकेवललब्धिकः । दशवतारनिधोर्यों मां पाहि परमेश्वर ॥६॥ युष्मन्नामावलीब्धविलसत्स्तोत्रमालया । भवन्तं परिवस्यामः प्रसीदानुगृहाण नः ॥७॥ इदं स्त्रोत्रमनुस्मृत्य पूतो भवति भाक्तिकः । यःस पाठं पठत्येन स स्यात्कल्याणभाजनम् ।।८॥ ततः सदेदं पुण्यार्थी पुमान्पठति पुण्यधीः । पौरुहूती श्रियं प्राप्तु परमामभिलाषुकः ||६|| स्तुत्वेति मघवा देवं चराचरजगद्गुरुम् । ततस्तीर्थविहारस्य व्यधात्प्रस्तावनामिमाम् ॥१०॥ स्तुतिः पुण्यगुणोत्कीर्तिः स्तोता भव्यः प्रसन्नधीः । निष्ठितार्थो भवांस्तुत्यः फलं नैश्रेयसं सुखम् ॥११॥ यः स्तुत्यो जगता त्रयस्य न पुनः स्तोता स्वयं कस्यचित् ध्येयो योगिजनस्य यश्च नितरां ध्याता स्वय कस्यचित् ॥ यो नेतन् नयते नमस्कृतिमल नन्तव्यपक्षणः स श्रीमान् जगतां त्रयस्य च गुरुर्देवः पुरुः पावनः ॥१२॥ तं देवं त्रिंदशाधिपार्चितपदं फौतिक्षयॉनन्तरप्रोत्थानन्तचतुष्टयं जिनमिमं भव्याब्जिनीनामिनम् । मानस्तम्भविलोकनानतजगन्मान्यं त्रिलोकीपति प्राप्ताचिन्त्यवहिर्विभूतिमनघं भक्त्या प्रवन्दामहे ॥१३॥
[पुष्पाजलि क्षिपामि ।]
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३४२
जैन पूजा पाठ संग्रह
महावीराष्टकस्तोत्रम् [फस्थिर भागधन्द]
शिखरिणी यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः
समं भान्ति धौव्य-व्यय-जनि-लसन्तोऽन्तरहिताः। जगत्साक्षी मार्ग-प्रकटन-परो भानुरिव यो
महावीरस्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ १ ॥ अतानं यच्चनुः कमल-युगलं स्पन्द-रहितं
जनान्कोपापायं प्रकटयति वाभ्यन्तरमपि । स्फुटं मूर्तिर्यस्य प्रशमितमयी वातिविमला
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥२॥ नमन्नाकेन्द्राली-मुकुट-मणि-मा-जाल-जटिलं
लसत्पादाम्भोज-यमिह यदीयं तनुभृताम् । भवज्ज्वाला-शान्त्यै प्रभवति जलं वा स्मृतमपि
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ३ ॥ यदर्चा-भावेन प्रमुदित-मना दईर इह ___ झणादातीत्स्वर्गी गुण-गण-समृद्धः सुख-निधिः । लभन्ते सहकाः शिव-सुख-समाजं किमु तदा
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ४ ॥ कनत्स्वर्णाभासोऽप्यपगत-ततुर्ज्ञान-निवहो
विचित्रात्माप्येको नृपति-वर-सिद्धार्थ-तनयः । अजन्मापि श्रीमान् विगत-भव-गोद्भुत-गतिः
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ५ ॥
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यदीया वामगङ्गा विविध नय-कल्लोल-विमला
हज्ज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्लपयति । दानीमप्येवा बुध-जन-मराले परिचिता
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ६ ॥ अनिरोद्रेकत्रिभुवन-जयी काम-सुभटः
कुमारावस्थायामपि निज-बलायेन विजितः । स्फुरन्नित्यानन्द-प्रशम-पदशाज्याय स जिनः
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ७ ॥ महामोहातक-प्रशमन-पराकस्मिक-भिषक्
निरापेक्षो पन्धुर्षिदित-महिमा मङ्गलकरः। शरण्यः साधूनां भव-भयभृतामुचमगुणो
महावीर स्वामी नयन-पथ-गामी भवतु मे ॥ ८॥ महावीराष्टकं स्तोत्रं मक्त्या भागेन्दु'ना कृतम् । यः पठेच्छ्याचापि स याति परमां गतिम् ॥ ६ ॥
वचन बल
- जिनमें वचन बल था उन्हीं के द्वारा आज तक मोक्ष-मार्ग की पद्धति का
सुप्रकाश हो रहा है और उन्हीं की अकाट्य युक्तियों और तकौ द्वारा बड़े-बड़े वादियों का गर्व दूर हुआ है। . वचन बल की ही ताक्त है कि एक वका व गायक अपने भाषण या गायन
से श्रोताओं को मुग्ध कर के अपनी ओर आकर्षित कर लेता है । जिसके वचन बल नहीं, वह मोक्षमार्ग को प्राप्त करने में अक्षम होता है।
-'वर्णी वाणी' से
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न पूजा पाट मन्द
निर्वाणकांड [ गाथा | अट्ठावर्याम्म उमही चपा यामपुञ्ज जिणणाहा। उज्जते णमि-जिणो पावाप णिवदा मागवांगे ॥२॥ चीम तु जिण-ग्दिा अमगनुर-पटिदा चट मिलमा । मम्मट गिरि-मिहरं णिवाग गया णमो नमि ॥ वरदत्तो य बरंगो मायग्दनो य नाग्बग्णयरे । आइट्ठयकोटीओ णिव्याण गया मो नेमिं ॥ णेमि-मामी पज्जुण्गो मधुकुमागे तहेव अणिन्दो। वाहत्तरि-कोडीओ उज्जत मत्त-मया बट ॥ गम-सुआ चिणि जणा लाट परिंदाण पत्र साडीगा। पावाए गिरि-मिहरे णिबाण गया णमो तेति ॥ पद-मुयातिणिजणा मिट-णन्टिाण अट्ठ कोटीओ। सत्तु जय-गिरिसिहरे णिच्याण गया णमो नेनिं । सत्तेन य बलभहा जव-णरिंदाण अट्ठ कोडीओ। गजपचे गिरि-सिहरे णिवाण गया णमो तेसिं ॥ गम-हण सुग्गीवो गवय गवक्सो य पील महणीलो। णवणवढी कोडीओ तुंगीगिरि-णिवढे वदे ॥ अंगाणंगकुमारा विक्खा-पचद्ध-कोडि-रिसिसहिया । सुवण्णगिरि-मत्थयत्ये णिव्वाण गया णमो तेसि ॥ दहमुह-रायस्स सुआ कोडी-पंचद्व-मुणिवर महिया। रेवा-उहयम्मि तीरे णिव्वाण गया णमो तेसिं॥ रेवा-णहए नीरे पच्छिम-मायम्मि सिद्धवर-कूडे । दो चको दह कप्पे आहुट्ठय-कोडि-णिन्बुदे वदे ।।
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वडवाणी-वर-णयरे दक्षिण-भायम्मि चूलगिरि-सिहरे । इंदजिय-कुंभयण्णो णिव्वाण गया णमो तेसि ॥ पावागिरि-वर-सिहरे सुवण्णभद्दाइ-मुणिवरा चउरो। चलणा-णई-तडग्गे णिन्वाण गया णमो तेसि ॥ फलहोडी-वर-गामे पच्छिम-भायम्मि दोणगिरि-सिहरे। गुरुदत्ताइ-मुणिंदा णिव्वाण गया णमो तेसि ॥ गायकुमार-मुणिंदो वालि महापालि चेव अज्झया। अट्ठावय-गिरि-सिहरे णिवाण गया गमो तेसिं । अचलपुर-वर-णयरे ईसाणभाए मेढगिरि-सिहरे । आहुट्ठय-कोडीओ णिव्वाण गया णमो तेसिं॥ । वंसत्थल-वण-णियरे पच्छिम-भायम्मि कुंथुगिरि-सिहरे । कुल-देसभूसण-मुणी णिव्वाण गया णमो तेसिं॥ . जसरह-रायस्स सुआ पंचसया कलिंग-देसम्मि। , , कोडिसिलाए कोडि-मुणी णिव्वाण गया णमो तेसिं ।। पासस्स ससवसरणे गुरुदत्त-वरदत्त-पंच-रिसिपमुहा। . रिरिंसदे गिरिसिहरे णिन्वाण गया - णमो तेसिं॥ जे जिणु जित्थु तत्था जे दु गया णिव्वुदि परमं । ते वंदामि य णिचं तिरयंण-सुद्धो णमंसामि ।। सेसाणं तु रिसीणं णिव्वाणं जम्मि जम्मि ठाणम्मि। . ते हैं वंदे सव्वे दुक्खक्खय-कारणहाए ।
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भक्तामरस्तोत्र [ भाषा ] [ हेमराज ]
जन पूजा पाठ सप्रह
आदिपुरुष आढीश जिन, आदि मुविधि करतार | धरम-धुरंधर परमगुरु, नमो आदि अवतार || सुर-नत-मुकुट रतन- छवि करें, अंतर पाप - तिमिर सब हरेँ । जिनपढ चंदों मन वच काय, भव-जल- पतित उधरन-सहाय ॥
श्रुत- पारग इंद्रादिक देव, जाकी श्रुति कीनी कर सेव । शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभुकी वरनों गुन- माल ॥ विबुध- वंद्य-पद मैं मति-हीन, हो निलज धुति- मनसा कीन । जल-प्रतिबिंब बुद्ध को है, शशि-मंडल बालक ही चहै ॥ गुन- समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावैं पार | प्रलय-पवन-उद्धृत जल-जंतु, जलधि तिरै को भुज बलवंतु ॥ सो मैं शक्तिहीन धुति करूं, भक्ति-भाव-वश कछु नहिं डरूं । ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ॥ मैं शठ सुघी हॅसनको घाम, मुझ तव भक्ति बुलावै राम । ज्यो पिक अंब-कली-परभाव, मधुऋतु मधुर करै आराव || तुम जस जंपत जन छिनमाहिं, जनम जनमके पाप नशाहिं । ज्यों रपि उगै फटै ततकाल, अलिवत नील निशा -तम-जाल ॥ तव प्रभावतै कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार | ज्यों जल-कमल पत्रपै परै, मुक्ताफलको दुति विस्तरै ॥ तुम गुन- महिमा हत - दुख-दीप, सो तो दूर रहो सुख-पोष । पाप - विनाशक है तुम नाम, कमल - विकाशी ज्यों रवि-धाम ॥
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नहिं अनंभ जो होहिं तु. तुमसे तुम गुण वग्णन संत । जो अधनीको आप नमान, करन ना निहित धनवान ।। इकटक जन नुमको अपिलीय, अवरपिप गति कर न माय । को फार लो जलधि जल पान, सार नीर परि मतिमान ।। प्रभु तुम चीनगग गुन लीन, जिन परमानु देह तुम कीन । है तितने ही ते परमानु, यानें तुम मम पि न आनु । कह तम मुब सनुपम अधिकार, मुर-नर-नाग-नयन-मनहार । कहां पंद्र-मंटल सपनप, दिनमे टाक-पन सम रक ।। पूरन-नंद-ज्योति चवित, तुम गुन तीन जगत लंघेत । एक नाय विपन आधार, तिन विचारत को कर निवार । जो सुर-निय विभ्रम प्रारम्ग, मन न डिग्यो तुम तो न अचंभ। अचल चलाव प्रलय नमार, मेरु-शिसर डगमग न धीर ।। धृमरहित चानी गत नेह, परमार्श विमुपन-घर एह । वान-गम्य नाही परचंट, पर दीप तुम चलो अयंड ।। छिप न लपलु गाफी छांहिं. जग-पगकाग हो छिनमाहिं । घन अनपर्न दाह गिनिवार, रविन अधिक धरो गुणसार ।। सदा उदित विदलित मनमो', पिटिन नेह राह अविरोह । तुम मुस-यमल अपच रंद, जगत-पिकाशी जोति अमंद ।। निश-टिन शशिरनिको नदि काम, तुम मुम्ब-नंद हर तम-घाम । जो स्वभावतं उपजे नाज, मजल गेप तो फौनदु काज || जो नुवोध मोहे तुममाहि, हरि नर आदिकम सो नाहि ।। जो दुति महानतन में होय, कांच-संड पावै नहिं मोय ॥
सराग देव देस में भला विशेष मानिया। स्वरूप जाहि देस वीतराग तू पिलानिया ।।
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जैन पूजा पाठ मह
कळू न तोहिं देखके जहाँ तुही विशेविया । मनोग चित्त-चोर और भूल हूँ न पेलिया ।। अनेक पुत्रवंतिनी नितविनी सपूत हैं। न तो समान पुत्र और माततै प्रसत हैं। दिशा धरत तारिला अनेक कोटिको गिनै । दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै ।। पुरान हो पुमान हो पुनीत पुन्यवान हो। कहें मुनीश अंधकार नाशको सुभान हो। महंत तोहि जानके न होय वश्य कालके। न और नोहि मोखपंथ देय वोहि टालके ॥ अनंत नित्य चित्तकी अगम्य रम्य आदि हो । असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो । महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो। अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो। तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धिके प्रमानते। तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रये विधानते। तुही विघात है सही सुमोखपंथ धारतें । नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थक विचारते ।। नमों करूं जिनेश तोहि आपदा निवार हो। नमो करूं सु भूरि भूमि-लोकके सिंगार हो॥ नमों करूं भवान्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो। नमो करूं महेश तोहि मोखपंथ देतु हो।
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चौपाई तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्वकरि तुम परिहरे।
और देव-गण आश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर आय ।। तरु अशोक तर किरन उदार, तुम तन शोभित है अविकार । मेघ निकट ज्यों तेज फुरत, दिनकर दिपै तिमिर निहनत ॥ सिंहासन मनि-किरन-विचित्र, तापर कंचन बरन पवित्र । तुमतनशोभित किरन-विथार, ज्यों उदयाचल रक्तिम-हार ।। कुंद-पुहुप-सित-चमर दुरंत, कनक-वरन तुम तन शोभंत । ज्यों सुमेरू-तट निर्मल मांति, झरना झरै नीर उमगांति ।। ऊँचे रहैं सूर दुति लोप, तीन छन तुम दिपै अगोप । तीन लोककी प्रभुता कहें, मोती-झालरसों छवि लहैं ।। दुंदुभि-शब्द गहर गंभीर, चहुँदिशि होय तुम्हारै धीर । त्रिभुवन-जन शिव-संगम करै, मानें जय जय रव उच्चरै ।। मंद पवन गंधोदक इए, विविध कल्पतरु पुहप-सुवृष्ट । देव करै विकसित दल सार, मानों द्विज-पकति अवतार ।। तुम तन-भामंडल जिनचंद, सब दुतिवंत करत है मंद । कोटि शंख रवि तेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करै अछाय ॥ स्वर्ग-मोख-मारग-संकेत, परम-धरम उपदेशन हेत । दिव्य वचन तुम खिरै अगाध, सब भाषागर्मित हित साध ।।
दोहा विकसित-सुवरन-कमल-दुति, नख-दुति मिलि चमकाहिं । तुम पद पदवी जहें धरो, तह सुर कमल रचाहि ॥ ऐसी महिमा तुम विषै, और धरै नहिं कोय । सूरजमें जो जोत है, नहिं तारा-गण होय ॥
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जेन पूजा पाठ सह
पट्पद
1
11
मद-अवलिप्त-कपोल-मूल अलि-कुल मकारें तिन सुन शब्द प्रचंड क्रोध उद्भुत अति धारै काल- वरन विकराल, कालवत सनमुख आवै । ऐरावत सो प्रवल सकल जन भय उपजावै ॥ देखि गयंद न जय करें तुम पद- महिमा छीन । विपतिरहित संपतिसहित वरतै भक्त अदीन ॥ अति मद-मत्तगयंद कुंभल नखन विदारै मोती रक्त समेत डारि भूतल सिंगारै ॥ बांकी दाढ विशाल वदनमें रसना लोलै । भीम भयानक रूप देखि जन थरहर डोलै ॥ ऐसे मृगपति पगतले जो नर आयो होय | शरण गये तुम चरणकी बाधा करै न सोय || प्रलय - पवनकर उठी आग जो तास पटंतर । चमै फुलिंग शिखा उतंग पर जल निरंतर ॥ जगत समस्त निगल्ल भस्मकर हैगी मानों । वडता दव- अनल जोर चहंदिशा उठानो ॥ सो इक छिनमें उपशमें नाम-नीर तुम लेत । होय सरोवर परिन मैं विकसित कमल समेत ॥ कोलिल - कंठ - समान श्यामतन क्रोध जलंता । रक्त-नयन फुंकार मार विप- कण उगलंता ॥ फणको ऊंचो करै वेग ही सन्मुख धाया । तव जन होय निशंक देख फणिपतिको आया ॥ जो चांपे निज पगतलै व्यापै विष न लगार
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आधार || तुरंगम ।
नाग-दमनि तुम नाम की है जिनके जिस रनमाहिं भयानक रव कर रहे घनसे जगजाहिं मत्त मानों गिरि जंगम || अति कोलाहलमाहिं बात जहॅ नाहिं सुनीजै । राजनको परचंड देख बल धीरज छीजै ॥ नाथ तिहारे नामतैं सो छिनमाहिं पलाय | ज्यों दिनकर परकाशतें अंधकार विनशाय ॥ मारै जहा गयंद कुंभ हथियार विदारै | उमगै रुधिर प्रवाह वेग जलसम विस्तारै ॥ होय तिरन असमर्थ महाजोधा वल पूरे । तिस रनमें जिन तोर भक्त जे हैं नर खरे ॥ दुर्जय अरिकुल जीतके जय पावैं निकलंक | तुम पद पंकज मन बसै ते नर सदा निशंक ॥ नक्र चक्र मगरादि मच्छकरि भय उपजावै । जामैं चडवा अग्नि दाहतें नीर जलावै ॥ पार न पा जास थाह नहिं लहिये जाकी | गरजै अतिगंभीर लहरिकी गिनति न ताकी || सुखसों तिरै समुद्रको जे तुम गुन सुमराहिं । लोलक - लोलनके शिखर पार यान ले जाहिं ॥ महा जलोदर रोग, भार पीड़ित नर जे हैं वात पित्त कफ कुष्ट आदि जो रोग है हैं || सोचत रहैं उदास नाहिं जीवनकी आशा अति घिनावनी देह धेरै दुर्गंधि-निवासा ॥ } तुम पद- पंकज-धूलको जो लावैं निज-अंग |
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जैन पूजा पाठ सह
ते नीरोग शरीर लहि छिनमे होय अनंग ॥ पांच कठते जकर बांध माफल अति भारी । गाढी बेड़ी पैरमाहि जिन जाघ निदारी ॥ भूख प्यास चिंता शरीर दुख जे विललाने । सरन नाहि जिन कोय सृपके बदीखाने । तुल सुमरत स्वयमेव ही गंधन सर खुल जाहि । इनमें ते संपति लहै चिंता भय दिनलाहिं ।। महामत्त गमराज गौर नगराज ददानल । फणपति रण परदंड वीर-निदि रोग महावल ।। बंधन ये भय आठ डरपतन मानों नाशे । तुम सुपरत छिनमाहिं अभय थानक परकाशै ॥ इस अपार संसारमे शरन नाहिं प्रशु कोय । यात तुम पद-भक्तको भक्ति सहाई होय ॥ यह गुनमाल विशाल नाथ तुम गुनन सँवारी । विविध-वर्णमय-पुड्डुप गूंथ मै सक्ति विधारी ॥ जे नर पहिरे कंठ भावना मनमे भावै । 'भानतुंग' ते निजाधीन शिव-लछमी पावै ॥ भाषा भक्तामर कियो 'हेमराज' हित हेत । जे नर पढे सुझावसों ते पाच शिव-खेत ॥
वर्णी-वाणो की डायरी से - मन को शुद्धि विना काय शुद्धि का कोई महत्व नहीं ।
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कल्याणमन्दिर स्तोत्र भाषा दोहा-परमज्योति परमात्मा, परमज्ञान परवीन।
बन्दू परमानन्दमय, घटघट अन्तर लोन ॥१॥ निर्भय करन परम परधान, भवसमुद्र जल तारण यान। शिवमंदिर अपहरण अनिन्द, बंदहुँ पासचरण अरविन्द। कमठमान भञ्जन वरवीर, गरिमा सागर गुण गम्भीर । सुरगुरु पार लहैं नहिं जास, मैं अजान जपहूं जस तास। प्रभुस्वरूप अति अगम अथाह, क्यों हमसेती होय निवाह । ज्यों दिन अन्ध उलूकोपोत,कहि न सकै रवि-किरण उदोत मोहहीन जानै मलमाहिं, तोह न तुम गुण वरणे जाहिं। प्रलय पयोधि करै जल बौन,प्रगटहिरतनगिनैतिहिंकौन। तुम असंख्य निर्मल गुणखान, मैं मतिहीन कहूं निज बान। ज्यों बालक निज बांह पसार, सागर परमित कहै विचार । 'जे जोगीन्द्र करहिं तपखेद, तऊ न जानहिं तुम गुणभेद।
भक्तिभाव मुझ मन अभिलाष,ज्यों पंछी बोलैं निजभाष ॥ 'तुमजस महिमा अगम अपार, नाम एक त्रिभुवन आधार ।
आवै पवन पदमसर होय, ग्रीषमतपत निवार सोय ॥ तुम आवत भविजन घटमाहि,कम निबंध शिथिल है जाहि।
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4- move
ज्यों चन्दनतरु बोलहि मोर, डरहिं भुजंग लगे चहुंओर ॥ तुम निरखत जन दीन दयाल, संकटतै छुटै तत्काल । ज्यों पशुघेर लेहिं निशि चोर, तेतज भागहिं देखत भोर॥ तू भविजन तारक किमिहोहि,ते चितधार तिरहिं ले तोहि। यह ऐसे कर जान स्वभाव,तिरहिं मसक ज्यों गर्भित वाव॥ जिह सब देव किये वश बाम, तैं छिनमें जीत्यो लोकाम। ज्यों जल करै अगनिकुल हान, बड़वानल पावै सो पान॥ तुम अनन्त गरवागुण लिये, क्योंकर भक्ति धरौं निजहिये। है लघुरूप तिरहिं संसार, यह प्रभु महिमा अगम अपार। क्रोध निवार कियो मन शांत, कर्मसुभट जीते किहि भांत। . यह पटतर देखहु संसार, नील विरछ ज्यों दहै तुषार ॥ मुनिजन हिये कमल निज टोहि,सिद्ध रूप समध्यावहिंतोहि कमलकरणिका बिन नहिं और,कमल बीज उपजनकी ठौर॥ जब तुव ध्यान धरै मुनि कोय, तब विदेह परमातम होय। जैसे धातु शिलातनु त्याग, कनकस्वरूप धवै जब आग ।।. जाकेमन तुम करहु निवास,विनशि जाय क्यों विग्रह तास। ज्यों महन्त बिच आवै कोय, विग्रहमूल निवारै सोय॥ करहिं विबुध जे आतमध्यान, तुम प्रभावतें होय निदान।
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जैसे नीर सुधा अनुमान, पीवत विषविकार की हान ॥ तुम भगवंत विमल गुण लीन, समलरूप मानहिं मति हीन । ज्यों पीलिया रोग हग गहै, वर्ण विवर्ण शंखसों कहै ॥ दोहा - निकट रहत उपदेश सुन तरुवर भयो अशोक ।
ज्यों रवि ऊगत जीव सव, प्रगट होत भुविलोक ॥ सुमनवृष्टि ज्यों सुर करहिं, हेठ बीठमुख सोहि । त्यों तुम सेवत सुमनजन बन्ध अधोमुख होहिं ॥ उपजी तुम होय उदधितें, वाणी सुधा समान । जिहं पीवत भविजन लहहि, अजर अमरपद थान । कहहिं सार तिहुँ लोक को, ये सुर चामर दोय । भावसहित जो जिन नमैं, तिहुँगति ऊरध होय ॥ सिंघासन गिरिमेरुसम, प्रभु धुनि गरजत घोर । श्याम सु तनु घनरूप लखि, नाचत भविजन मोर ॥ छविहत होत अशोक दल, तुम भामण्डल देख ॥। वीतराग के निकट रह, रहत न राग विशेष ॥ सीख कहै तिहुँ लोक को, ये सुरदुन्दुभिनाद । शिवपथसारथिवाह जिन, भजहु तजहु परमाद ॥ तीन छत्र त्रिभुवन उदित, मुक्तागण छविदेत । त्रिविधरूप धर मनहु शशि, सेवत नखत समेत ॥
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ਖੈਰ
पूजा पाठ सप्रह
पद्धडी छन्द ।
प्रभु तुम शरीर दुति रतन जेम, परतापपुञ्ज जिम शुद्ध हेम । अतिधवल सुजस रूपा समान, तिनके गढ़ तीन विराजमान ॥ सेवहिं सुरेन्द्र कर नमत भाल, तिन शीश मुकुट तज देहिं भाल । तुम चरणलगत लहलहैं प्रीति, नहिं रमहि और जन सुमन रीति ॥ प्रभु भोगविमुख तन गरमदाह, जन पार करत भवजल निवाह | ज्यों माटी कलश सुपक्क होय, ले भार अधोमुख तिरहि तोय || तुम महाराज निरधन निराश, तज विभव- विभव सब जग प्रकाश । अक्षर स्वभाव सुलिखै न कोय, महिमा भगवन्त अनन्त सोय || कर कोप कमठ निज वैर देख, तिन करो धूलि वर्षा विशेष । प्रभु तुम छाया नहि भई हीन, सो भयो पापि लंपट मलीन ॥ गरजन्त घोर घन अन्धकार, चमकन्त विज्जु जल मुसलधार । चरषन्त कमठ धर ध्यान रुद्र, दुस्तर करन्त निज भव समुद्र || वास्तु छन्द |
मेघमाली मेघमाली आप बल फोरि
1
भेजे तुरत पिशाचगण, नाथ पास उपसर्ग कारण । अग्नि जालू झलकन्त मुख, धुनि करत जिमि मत्तवारण ॥ कालरूप विकराल तन, मुण्डमाल हित कण्ठ | चौपाई |
जे तुम चरणकमल तिहुँकाल, सेवहिं तज माया जजाल । भाव भगतिमन हरष अपार, धन्य-धन्य जग तिन अवतार || भवसागर में फिरत अजान, मैं तुच सुजस सुन्यो नहिं काने । जो प्रभु नाम मन्त्र मन धरै, तास विपति भुजगम ड 18
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मनवांछित फल जिनपदमाहिं, मैं पूरव भव पूजे नाहि । मायामगन फिस्यो अज्ञान, करहि रंकजन मुझ अपमान ॥ मोहतिमिर छायो ग मोहि, जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि । तौ दुर्जन मुझ संगति गहैं, मरमछेद के कुवचन कहैं ।।। सुन्यो कान जम पूजे पाय, नैनन देख्यो रूप अघाय । भक्तिहेतु न भयो चित्त चाव, दुःखदायक किरिया विन भाव ॥ महाराज शरणागत पाल, पतित उधारण दीनदयाल सुमिरण करहुँ नाय निज शीश, मुझ दुःख दूर करहु जगदीश ।। कर्म निकन्दन महिमा सार, अशरणशरण सुजस विस्तार । नहिं सेये प्रभ तुमरे पाय, तो मुझ जन्म अकारथ जाय ॥ सुरगणवन्दित दयानिधान, जगतारण जगपति अनजान। दुःख सागरते मोहि निकासि, निर्भयथान देहु सुखरासि ।। मैं तुम चरणकमल गुणगाय, बहुविधि भक्ति करी मनलाया जनम-जनम प्रभु पाऊँ तोहि, यह सेवाफल दीजे मोहि ॥ - इह विधि श्रीभगवन्त, सुजस जे भविजन भावहिं। ते जिन पुण्य भण्डार, संचि चिरपाप प्रणाशहि ॥ रोम-रोम हुलसन्ति, अंग प्रभु गुणमन ध्यावहिं। स्वर्ग सम्पदा भुञ्ज वेग पञ्चमगति पावहिं॥ यह कल्याणमन्दिर कियो, कुमुदचन्द्र की बुद्धि । भाषा कहत 'बनारसी' कारण समकित शुद्धि ॥४४॥
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न पूजा पाठ सह
एकीभाव स्तोत्र भाषा दोहा-वादिराज सुनिराजके, चरणकमल चितलाय ।
भाषा एकीभाष की, करू स्वपरसुखदाय ॥१॥
पाल-"अहो जगत गुरुदेव सुनियो अर्ज हमारी" जो अति एकीभार भयो सानो अनिवारी।। लो सुरु कर्म प्रबन्ध करत भा भव दुःख भारी॥ ताहि तिहारी भक्ति जगतरवि जो निरवारै । तो अब और कलेश कौन लो नाहि विदारै ॥ १॥ तुम जिल जोतिस्वरूप दुरित अंधियारि निवारी। सो गणेश गुरु कहें तत्व विद्याधन धारी। मेरे चितघर माहि वलौ तेजोमय यावत । पापतिलिर अवकाश तहां तो क्योंकरि पावत ॥ २॥ आनन्द ऑसूबदन धोय तुमलों चित लाने । गदगद सुरतों सुघश मन्त्र पढ़ि पूजा ठाने । ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकाल निवासी । भाजै थाना छोड़ देह वनइ के वासी ॥३॥ दिविसे आवनहार भये भविभाग उदयबल । पहले ही सुर आय कनकमय कीय महीतल ।। मनगृह ध्यान दुवार आय निवसो जगनामी । जो सुवरण तन करो कौल यह अचरज स्वामी ॥४॥
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प्रभु सब जग के बिना हेतु बांधव उपकारी । निरावरण सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहारी ॥ भक्ति रचित ममचित्त सेज नित वास करोगे। मेरे दुःख सन्ताप देख किम धीर धरोगे ॥ ५ ॥ भववनमें चिरकाल भ्रम्यो कछु कहिय न जाई । तुम थुति कथा पियूषवापिका भागन पाई। शशि तुषार धन सार हार शीतल नहिं जा सम। करत न्हौन तामाहिं क्यों न भवताप बुझे मम ॥ ६ ॥ श्रीविहार परिवाह होत शुचि रूप सकल जग । कमलकनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत एग ॥ मेरो मन सवंग परस प्रभु को सुख पावै । अब लोकौन कल्याणजोनदिन दिन ढिग आवै ॥ ७॥ भवतज सुखपद बसे काममद सुभट संहारे । जो तुमको निरखन्त सदा प्रियदास तिहारे ॥ तुम वचनामृतपान भक्ति अंजुलिसों पी। तिन्हें भयानक रोगरिपु कैसे छीवै ॥ ८ ॥ मानथम्भ पाषाण आन पाषाण पटन्तर । ऐसे और अनेक रतन दीखें जग अन्तर ।। देखत दृष्टिप्रमाण नाममद तुरत मिटावे । जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्योंकर पावै ।। ६ ॥
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पाठ सग्रह
३६० प्रभुतन पर्वतपरस पवन उर में निवहै है। तासों ततछिन सकल रोगरज बाहिर है है। जाके ध्यानाहूत बसो उर अम्बुज माहीं। कौन जगत उपकार करन समरथ सो नाहीं॥ १०॥ जनम-जनम के दुःख सहे सब ते तुम जानो। याद किये मुझ हिये लग आयुध से मानो॥ तुम दयाल जगपाल स्वामि मैं शरण गही है । जो कछ करनो होय करो परमाण वही है ।। ११ ॥ मरन समय तुम नाम मन्त्र जीवकतै पायो। पापाचारी श्वान प्राण तज अमर कहायो । जो मणिमाला लेय जपै तुम नाम निरन्तर । इन्द्र सम्पदा लहै कौन संशय इस अन्तर ॥१२॥ जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै । अनवधि सुखकी सार भक्ति कूची नहिं लाधै ॥ सो शिववांछक पुरुष मोक्षपट केम उघारै। मोह मुहर दिढ करी मोक्ष मन्दिर के द्वारे ॥१३॥ शिवपुर केरो पंथ पापतमसों अति छायो। दुःखसरूप बहु कूप खाड सों विकट बतायो॥ स्वामी सुख सों तहां कौन जन मारग लागें । प्रभु प्रवचनमणिदीप जोन के आगें आगें ॥१४॥
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कर्मपटल भूमाहिं दुबी आतमनिधि भारी। देखत अतिसुख होय विमुख जन नाहिं उघारी ॥ तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धारै। थुति कुदालसों खोद बन्द भू कठिन विदारे ॥१५॥ स्यादवादगिरि उपज मोक्ष सागर लो धाई। तुम चरणांबुज परस भक्ति गंगा सुखदाई ॥ मो चित निर्मल थयो न्होन रुचिपूरव तामें । अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय यामैं ॥१६॥ तुम शिवसुखमय प्रगट प्रभु चिंतन तेरो। मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो॥ यद्यपि झूठ है तदपि तृप्ति निश्चल उपजावै । तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावै ॥१७॥ वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्यापै । भंग तरंगिनि विकथवादुमल मलिन उथापै ॥ मनसुमेरुसों मथै ताहि जे सम्यकज्ञानी । परमामृत सों तृपत होहिं ते चिरलों प्रानी ॥१८॥ जो कुदेव छवि हीन वसन भूषण अभिलाखै । वैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखे । तुम सुन्दर सर्वंग शत्रु समरथ नहिं कोई। भूषण वसन गदादि ग्रहण काहे को होई ॥१६॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह सुरपति सेवा करै कहा प्रभु प्रभुता तेरी। सो सलाघना लहै मिटै जगलों जगफेरी ।। तुम भवजलधि जिहाज तोहि शिवकन्त उचरिये। तही जगत-जनपाल नाथ थुति की थुति करिये ॥२०॥ वचन जाल जडरूप आप चिन्मूरति सांई। तातै थुति आलाप नाहिं पहुँचे तुम लाई । तो भी निष्फल नाहिं भक्तिरल भीने नायक । सन्तनको सुरतरु समान वांछित वर दायक ॥२१॥ कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहू नहिं धारों। अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहारो॥ तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये। यह प्रभुता जग तिलक कहाँ तुम बिन सरदहिये ॥२२॥ सुरतिय गावे सुरनि सर्वगति ज्ञान स्वरूपी । जो तुमको थिर होहिं नमैं भवि आनन्दरूपी॥ ताहि छेमपुर चलनवाट बाकी नहिं हो है। श्रुतके सुमरन माहि लोन कबहूँ नर मोहै ॥२३॥ अतुल चतुष्टयरूप तुमैं जो चित में धार । आदरसों तिहूंकाल माहिं जग थुति विस्तारै ॥ सो सुकत शिवपंथ भक्ति रचला कर पूरै। पञ्चकल्याणक ऋद्धि पाय लिहचै दुःख चूरै ॥२४॥
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अहो जगतपति पूज्य अवधिज्ञानी मुनि हारे। तुम गुणकीर्तन माहिं कौन हम मन्द विचारे ।। थुति छलसों तुम विषै देव आदर विस्तारे । शिवसुख पूरणहार कलपतरु यही हमारे ॥२५॥ वादिराज मुनिः अनु, वैय्याकरणी सारे। वादिराज मुनितें अनु तार्किक विद्यावारे ॥ वादिराज मुनित अनु हे काव्यन के ज्ञाता। वादिराज मुनिः अनु है अविजन के त्राता ॥२६॥ दोहा-मूल अर्थ वहुविधि कुसुम, भाषा सूत्र मंझार ।
भक्तिमाल भूधर' करी करो कण्ठ सुखकार ॥
श्री नेमिनार्थ के पूर्वभव-छप्पय पहले भव वन भील, दुतिय अभिकेतु सेठघर । तीजै सुर सौधर्म, चौम चिंतागति नभचर ।। पंचम चौथे वर्ग, छठें अपराजित राजा। अच्युतैन्द्र सातवें अमरकुलतिलक विराजा ।। सुप्रतिष्टराय आठम नबैं जन्म जयन्त विमान धर । फिर भये नेमिहरि वंशशशि थेदशभव सुधिकरहु नर।
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जैम पूजा पाठ सप्रह
विषापहार स्तोत्र भाषा. दोहा - नमो नाभिनन्दन बली, तत्त्वप्रकाशनहार । तुर्यकाल की आदि में, भये प्रथम अवतार ।।
रोला छन्द निज आतम में लीन ज्ञानकरि व्यापत सारे । जानत सव व्यापार संग नहिं कछु तिहारे । बहुत काल हो पुनि जरा न देह तिहारी । ऐसे पुरुष पुरान करहु रक्षा जु हमारी ॥ १ ॥ परकरिक जु अचिन्त्य भार जग को अतिभारो। सो एकाकी भयो वृषभ कीनों निसतारो॥ करि न सके जोगीन्द्र स्तवन मैं करिहों ताको । भानु प्रकाश न करै दीप तम हरे गुफा को ॥२॥ स्तवन करनको गर्व तज्यो शकी बहु ज्ञानी । में नहिं तजों कदापि स्वल्पज्ञानी शुभध्यानी ॥ अधिक अर्थको कहूँ यथा विधि बैठि झरोके ।। जालान्तर धरि अक्ष भूमिधर को जु विलोकै ॥ ३ ॥ सकल जगतकों देखत अर सबके तुम ज्ञायक । तुमकों देखत नाहि नाहि जानत सुखदायक ॥ हो किसाक तुम नाथ और कितनाक बखाने । लातै थुति नहि बनै अशक्ति भये सयानै ॥ ४॥
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बालकवत निजदोष थकी इहलोक दु वी अति । रोगरहित तुम कियो कृपाकरि देव भुवनपति ॥ हित अनहितकी समझि मांहि है मन्दमती हम । सब प्राणिन के हेत नाथ तुम बालवैद सम ॥ ५ ॥ दाता हरता नाहिं सानु सबको बहकावत । ओजकालके छलकरि नित प्रति दिवस गुमावत ॥ हे अच्युत जो भक्त नमैं तुम चरण कमलको। छिनक एकमैं आप देत मनवांछित फलको ॥ ६ ॥ तुमसों सन्मुख रहै भक्तिसौं सो सुख पावै । जो सुभावतें विमुख आपतै दुःखहि बढ़ावै ।। सदा नाथ अवदात एक 'द्युति रूप गुसांई। इन दोन्यों के हेत स्वच्छ दरपणवत झाइ ॥ ७ ॥ है अगाध जलनिधि समुदजल है जितनो ही। मेरु तुङ्गसुभाव शिखरलौं उच्च भन्यो ही॥ वसुधा अर सुरलोक एहु इस भांति सई है। तेरी प्रभुता देव ! भुवनिळू लंघि गई है ॥ ८ ॥ है अनवस्था में परम सो तत्त्व तुमारे। कह्यो न आवागमन प्रभू मतमांहिं तिहारे ॥ दृष्ट पदारथ छांडि आप इच्छति अष्टको। विरुध वृद्धि तव नाथ समंजस होय सृष्टकौ ॥ ६ ॥
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जैन पूजा पाठ संग्रह कामदेव को किया भस्म जगत्राता थे ही। लीनी भस्म लपेट नॉम शम्भू निजदेही। सूतो होय अचेत विष्णु वनिताकरि हारथी। तुमकौं काम न गहै आप घट सदा उजाडो ॥१०॥ पापवान वा पुण्यवान सो देव बताई। तिनके औरण कहै नाहिं तू गुणी कहावै ॥ निज सुभावतें अम्बुराशि निज महिमा पावै । स्तोक सरोवर कहे कहा उपमा बढ़ि जावै ॥ ११ ॥ कर्मन की थिति जन्तु अनेक करै दुःख कारी। सो थिति बहू परकार करे जीवन की ख्वारी॥ सवसमुद्र के मांहि देव दोन्यों के साखी। नाविक नाव समान आप वाणी मैं भाखी॥ १२ ॥ सुखकों तो दुःख कहै गुणन दोष विचारै। धर्मकरन के हेत पाप हिरदै बिच धारै।। तेल निकासन काज धुलिकों पेलै घानी। तेरे मतसों वाह्य इसे जे जीव अज्ञानी ॥ १३ ॥ विष मोचे ततकाल रोगकौं हरै ततच्छन । मणि औषधी रसाण मन्त्र जो होय सुलच्छन । ए सब तेरे नाम सुबुद्धी यों मन धरिहें । भ्रमत अपर जन वृथा नहीं तुम सुमिरन करिहैं ॥१४॥
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किंचित भी चितमाहिं आप कुछ करो न स्वामी। जे गर्दै जितमाहिं आपको शुभ परिणामी ॥ हस्तामलवत लखें जगत को परिणति जेती। तेरे चित के वाह्य तोउ जीवै सुखसेती ॥ १५ ॥ तीनलोक तिरकालमाहिं तुम जानत सारी। स्वामी इनकी संख्या थी तितनीहिं निहारी॥ जो लोकादिक हुते अनन्ते साहिब मेरा । तेऽपि झलकते आनि ज्ञान का ओर न तेरा ॥१६॥ है अगन्य तबरूप करै सुरपति प्रभु सेवा। ना कछु तुम उपकार हेत देवन के देवा ।। भक्ति तिहारी नाथ इन्द्र के तोषित मन को। ज्यों रवि सन्मुख छत्र करै छाया निज तन को ॥१७॥ वीतरागता कहां - कहां उपदेश सुखाकर । सो इच्छा प्रतिकूल वचन किम होय जिनेसर ॥ प्रतिकूली भी वचन जगतकं प्यारे अतिही। हम कछ जानी नाहिं तिहारी सत्यासतिही ॥१८॥ उच्च प्रकृति तुम नाथ संग किंचित न धरन । जो प्रापति तुम थकी नाहि सो धनेसुरनतें। उच्च प्रकृति जल बिना भूमिधर धुनी प्रकाशै। जलधि नीरत भयो नदी ना एक निकासै ॥१६॥
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4.10
तीनलोक के जीव करो जिनवर की सेवा । नियम थकी करदन्ड धस्यो देवन के देवा ।। प्रातिहार्य तौ वने इन्द्र के वनै न तेरे। अथवा तेरे वनै तिहारे निमित्त परेरे ॥ २० ॥ तेरे सेवक नाहिं इसे जे पुरुषहीन धन । धनवानों की ओर लखत वे नाहिं लखतपन ॥ जैसे तमथिति किये लखत परकास थितीकं । तैसैं सूझत नाहिं तमथिति मन्दमतीकू ॥२१॥ निज वृध स्वासोच्छास प्रगट लोचन टमकारा । तिनको वेदत नाहि लोकजन मूढ विचारा ॥ सकल ज्ञेय ज्ञायक जु अमूरति ज्ञान सुलच्छन । सो किमि जान्यो जाय देव रूप विचच्छन॥२२॥ नाभिराय के पुत्र पिता प्रभु भरततने हैं। कुलप्रकाशिक नाथ तिहारो स्तवन भनें हैं। ते लघु धी असमान गुणनकों नाहिं भजे हैं। सुवरण आयो हाथि जानि पाषाण तजै हैं ॥२॥ सुरासुरन को जीति मोहने ढोल • बजाया । तीनलोक में किये सकल वशि यों गरमाया । तुम अनन्त बलवन्त नाहिं ढिग आवन पाया। मरि विरोध तुम थकी मूलते नाश कराया ॥२४॥
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एक मुक्ति का मार्ग देव तुमने परकास्या । गहन चतुरगतिमार्ग अन्य देवनकं भास्या । हम सव देखन हार, इसी विधि भाव सुमिरिक। । भुज न विलोको नाथ कदाचित गर्भ जु धरिकै ॥२५॥ केतु विपक्षी अर्कतनो फनि अग्नितनो जल । अम्बुनिधि अरि प्रलय कालको पवन महावल । जगतमांहिं जे भोग वियोग विपक्षी है निति । तेरो उदयो है विपक्षतै रहित जगत्पति ॥२६॥ जाने विन हू नवत आपको शुभ फल पात्र । नमत अन्य को देव जानि सो हाथ न आवै । हरित मणीकं कांच, कांचकू मणी रटत हैं। ताकी बुधि में भूल, सूल सणि को न घटत हैं ॥२७॥ जे विवहारी जीव वचन मैं कुशल सयाने। ते कपायकरि दग्ध नरनकों देव वखाने ।। ज्यों दीपक वुझि जाय ताहि कह 'नन्दि भयो है। भन्न घड़े को कहैं कलश ए मंगल गयो है ॥२८॥ स्यादवाद संयुक्त अर्थ का प्रगट चखानत । हितकारी तुम वचन श्रवणकरिको नहिं जानत ।। दोषरहित ए देव शिरोमणि वक्ता जगगुर । जो ज्वरसेती मुक्त भयो सो कहत सरल सुर ॥२६॥
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३७.
विन वांछा ए वचन आपके विर कदाचित है नियोग एकोपि जगत को करत लहज हित । कर न वांछा इसी चन्द्रमा पृरो जलनिधि सीतरश्मित पाय उदधि जल बड़े स्वयं सिधि तेरे गुण गम्भीर परम पावन जगमाई बहु प्रकार प्रभु है अनन्त कछु पार न पाई। तिन गुणान को अन्न एक याही विधि दीस। ते गुण तुझ ही मांहि और में नाहिं जगी । केवल थुति ही नाहिं भक्तिपूर्वक हम ध्यावत । सुमरण प्रणमन तथा नजनकर तुम गुण गावत ।। चितवन पूजन ध्यान नमनहरि नित आराधे । को उपायकरि देव सिद्धि पल को हम साधे ।
लोकी नगराधि देव नित नान प्रकाशी। परम ज्योति परमातम शक्ति अनन्ती भाली । पुण्य पापत रहित पुण्य के कारण स्वासी। नमो नमों जगवन्ध अवन्धक नाथ अकामी । रस सपरस अर गन्ध रूप नहि शब्द तिहारे । इनके विषय विचित्र भेद सब जाननहारे । सब जीवन प्रतिपाल अन्य करि है अगम्यगन । -मरण गोचर नाहि करी जिन तेरो सुमिरन ।।
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गाला 110 ure
तुम अगाध जिनदेव चित्त के गोचर नाहीं। निःकिंचन भी प्रभू धनेश्वर जाचत सांई । भये विश्व के पार दृष्टिसों पार न पावै। जिनपति एम तिहारि जगजन शरणै आवै ॥३५॥ नमो नमौं जिनदेव जगतगुरु शिक्षादायक । निज गुण सेती भई उन्नति महिमा लायक ॥ पाहनखण्ड पहार पछै ज्यो होत और गिर । त्यो कुलपर्वत नाहिं सनातन दीर्घ भूमिधर ॥३६॥ स्वयं प्रकाशी देव रैन दिनकं नहिं वाधित । दिवस रात्रि भी छतें आपकी प्रभा प्रकाशित ।। लाघव गौरव नाहिं एकसो रूप तिहारो। कालकलाते रहित प्रभूसँ नमन हमारो ॥३७॥ इहविधि बहु परकार देव तव भक्ति करी हम । जानूं वरन कदापि दीन है रागसहित तव ॥ छाया बैठत सहज वृक्ष के नीचे है है। फिर छाया को जाचत यामें प्रापति है है ॥३८॥ जो कुछ इच्छा होय देन की तौ उपगारी। यो बुधि ऐसी करूं प्रीतिसौं भक्ति तिहारी ॥ करो कृपा जिनदेव हमारे परि है तोषित । सनमुख अपनो जानि कौन पण्डित नहिं पोषित ॥३६
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जैन पूजा पाठ सग्रह
यथा कथंचित भक्ति रचे विनयीजन केई। तिनकू श्रीजिलदेव मनोवांछित फल देही ॥ फुनि विशेष जो नमत सन्तजन तुमको ध्यावै । सो सुख जल 'धन-जय' प्रापति है शिवपद पावे ॥४॥ श्रावक माणिकचन्द सुबुद्धी अर्थ बताया। लो कवि 'शान्तिदास' सुगमकरि छन्द बनाया ॥ फिर फिरिक ऋषि रूपचन्द ने करी प्रेरणा । भाषा स्तोत्र 'विषापहार' की पढ़ो अविजना ॥४१॥
सुख
- हम ही अपनी शान्ति में वाधक है। जितने भी पदार्थ ससार में हैं उन में से एक भी पदार्थ शान्त स्वभाव का वाधक नहीं बर्तन में रक्खी हुई मदिरा अथवा डिब्बे में रक्खा हुआ पान पुरुषों में विकृति का कारण नहीं। पदार्थ हमें बलात् विकारी नहीं बनाता, हम स्वय मिथ्या विकल्पों से इष्टानिष्ट कल्पना कर सुखी और दुखी होते हैं। कोई भी पदार्थ न तो सुख देता है और न दुख देता है, इसलिये जहाँ तक बने आभ्यन्तर परिणामों की विशुद्धि पर सदैव ध्यान रखना चाहिए। - सुखी होने का सर्वोत्तम उपाय तो यह है कि पर पदार्थों में स्वत्व को त्याग दो।
- 'वर्णी वाणी' से
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पाश्र्वनाथ स्तोत्र ( भृधरकृत)
दोहा- -कर जिन पूजा अष्ट विधि, भाव भक्त जिन भाय । अब सुरेश परमेश श्रुति, करौ शीश निज नाय ।
चौपाई
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प्रभु इस जग समरथ ना कोय जामो तुम यश वर्णन होय । नार ज्ञानधारी मुनि थर्के, हमसे मन्द कहा कर सकें यह उर जानत निश्चय होन, जिन महिमा वर्णन हम कीन । पर तुम भक्ति थकी वाचाल. तिस वा होय कहूँ गुण माल ॥ जय तीर्थकर त्रिभुवन धनी, जय चन्द्रोपम चूडामणी जय जय परम धाम दातार, कमंकुलाचल चूरणहार | जय शिवकामिनि कन्त महन्त, अतुल अनन्त चतुष्टय वन्त । जय जय आशभरण बड़ भाग. तप लक्ष्मी के सुभंग सुहाय ॥ जय जय धर्मध्वजाधर धीर. स्वर्ग मोक्ष दाता वरवीर । जय रत्नत्रय रत्नकरण्ड, जय जिन तारण तरण तरण्ड ॥ जय जय समवशरण शृङ्गार, जय संशय वन दहून तुषार । जय जय निर्विकार निर्दोष, जय अनन्त गुण माणिक कोष ॥ जय जय ब्रह्मचर्यदल साज, काम सुभट विजयी भटराज । जय जय मोहमहातरु करी, जय जय मदकुञ्जर केहरी । क्रोधमहानल- मेघ प्रचण्ड, मान मोह घर दामिन दण्ड । माया बेल- धनञ्जय दाह. लोभ सलिल शोषण दिननाह ॥ तुम गुणसागर अगम अपार, ज्ञान जहाज न पहुँचे पार । लॅट ही तट पर डोले सोय, कारण सिद्ध यहा ही होय ॥ तुमरी कीर्तिबेल बहु बढ़ी, यत्न बिना जममण्डप चढी । अवर कृदेव सुयस निज चहैं, प्रभु अपने थल ही यश लहैं ॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
जगति जीव घमै विन ज्ञान, कीना मोह महाविष पान । तुम सेवा विषनाशक जरी,तिहुँमुनिजन मिल निश्चय करी॥ जन्म-जरा मिथ्या-मत मूल, जन्म मरण लागे तिहें फूल । सो कबहूँ विल भक्त कुठार, कट नहीं दुःख फल दातार ।। कल्प सरोवर चित्रा बेल, काम पोरवा नवनिधि मेल । चिन्तामणि पारल पाषान. पुण्य पदारथ और महान ॥
ये सब एक जन्म-संयोग, किंचित सुखदातार नियोग। त्रिभुवननाथ तुम्हारी लेव, जन्म-जन्म सुखदायक देव ।। तुम जग वांधव तुस जगतात,अशरणशरण विरद विख्यात। तुम सब जीवनके रखवाल, तुम दाता तुम परम दयाल । तुम पुनीत तुम पुरुष प्रमान, तुम समदर्शी तुम सब जान । जय मुनि-यज्ञ-पुरुष परमेश, तुम ब्रह्मा तुम विष्णु महेश ।। तुम जगभर्ता तुमजगजान, स्वामि स्वयम्भू तुम अमलान । तुम बिन तीनकाल तिहुँ लोय, नाहो शरण जीवका होय ।। यातें अब करुणानिधि नाथ, तुम सन्मुख हम जो हाथ । जबलों निकट होय निर्वान, जग निवाल छुटै दुःखदान ॥ तबलौं तुम चरणांवुज वास, हम उर होय यही अर दास ।
और न कछु बांछा भगवान, खै दयालु दीजै वरदान ।। दोहा-इहिविधि इन्द्रादिक अमर, कर वह भक्ति विधान।
निज कोठे बैठे सकल, प्रभु सन्मुख सुख मान । जीति कर्मरिपु जे भये, केवल लब्धि निवास । सो श्री पार्श्व प्रभु सदा, करो विघ्नधन नाश ।।
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निर्वाणकाण्ड भाषा दोहा- चीतगग बंदी सटा. भावमहित सिरनाय ।
कहें कांड निर्याणकी, भाषा सुगम बनाय ।। अष्टापट आदीवर स्वामि, वासुपूज्य चंपापुरि नामि ।। नेमिनाथ स्वामी गिरनार, चंदो भाव-भगति उर धार ॥ चरम नार्थर चरम-शरीर, पावापुरि स्वामी महावीर । शिसम्ममेट जिनेसुर बीस, भावसहित बंदी निश-दीस ॥ वन्दत्तराय क इंद मुनिंद, सायरदत्त आदि गुणवृंद । नगर तारवर मुनि उठकोडि, बंदी भावसहित कर जोड़ि | श्रीगिरनार शिखर विस्यात, कोडि बहत्तर अरु सौ सात । संप्रदम्न उमर द्वै भाय, अनिरुध आदि नमूतमुपाय ।। गमचंद्रक नुत है बीर. लाटनरिंद आदि गुणधीर । पाच कोटि मुनि मुक्ति मझार, पाचागिरि वटी निरधार ॥ पांटव तीन द्रविड-राजान, आट कोडि मुनि मुकति पयान । श्रीशत्रु जयगिग्केि शीन, भावमहित बंदी निश-दीस ।। जे बलभद्र, मुकतिम गये, आठ कोडि मुनि औरह भये । श्रीगजपंथ शिखर सुनिशाल, तिनके चरण नमृतिहुँ काल । राम हणू सुग्रीव मुडील, गव गवाख्य नील महानील । कोटि निन्याणव मुक्ति पयान, तुंगीगिरि वंटी धरि ध्यान ॥ नंग अनंग कुमार मुजान, पॉच कोडि अरु अर्धे प्रमान । मुक्ति गये सोनागिरि-शीश, ते बंदी त्रिभुवनपति ईस ॥' रावणक सुत आदिकुमार, मुक्ति गये रेवा-तट सार ।
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कोटि पंच अरु लाख पचाम, ते वढी धरि परम हुलास ।। रेवानढी सिद्धवर कूट, पश्चिम दिशा देह जहँ छूट | द्वै चक्री दश कामकुमार, ऊठकोडि वंदी भव पार ।। वडवानी वडनयर सुचंग, दनिण दिशि गिरि चूल उतंग ! इंद्रजीत अरु कुभ जु कर्ण, ते बंदो भव-सायर-नर्ण ॥ सुवरणभद्र आदि मुनि चार, पावागिरि-बर-शिखरमझार । चेलना-नदी-तीरके पास, मुक्ति गये वंदौ नित तास ॥ फलहोडी वड़गाम अनूप, पश्चिम दिशा द्रोणगिरि रूप । गुरुदत्तादि मुनीसुर जहाँ, मुक्ति गये दो नित तहों। वाल महावाल मुनि दोय, नागकुमार मिले त्रय होय । श्रीअष्टापद मुक्ति मॅझार, ते बंदी नित सुरत सॅभार ।। अचलापुरकी दिश ईसान, तहाँ भेदगिरि नाम प्रधान । साढे तीन कोडि मुनिराय, तिनके चरण नमूचित लाय || वंसस्थल वनके ढिग होय, पश्चिम दिशा कुंथुगिरि सोय । कुलभूषण दिशिभूषण नाम, तिनके चरणनि करूँ प्रणाम || जसरथ राजाके सुत कहे, देश कलिंग पॉचसौ लहे । कोटिशिला मुनि कोटि प्रमान, चंदन करूं जोर जुग पान ।। समवसरण श्रीपार्श्व-जिनंद, रेसिंदीगिरि नयनानंद । वरदत्तादि पंच ऋषिराज, ते बंदौ नित धरम-जिहाज ॥ मथुरापुर पवित्र उद्यान जम्बू स्वामी जी निरवान । चरम केवली पचमकाल, ते वदो नित दीन दयाल ॥ तीन लोकके तीरथ जहाँ, नित प्रति बंदन कीजै तहाँ। मन-वच-कायसहित सिर नाय, वंदन करहि भविक गुण गाय ।। संवत सतरहसौ इक्ताल, आश्विन सुदि दशमी सुविशाल । 'भैया' बंदन करहि त्रिकाल, जय निर्वाणकाड गुणमाल ||
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आलोचनापाठ
चा बंदों पांचों परम-गुरु, चौबीसों जिनराज । क शुद्ध आलोचना. शुद्धिकरनके काज ॥१॥ ससीनन्द सुनिये जिन अरज हमारी. हम दोष किये अति भारी । निनको अय निति काज, तुम सरन लही जिनराज ॥ इक वे एंट्री या मनरहित महित जे जीवा । faast aft Fit धारी, निरदह है घात विचारी ॥ समरभ समारंभ आरंभ. मन वच तन कोने प्रारंभ | कृन कारित मोदन करिकैं, क्रोधादि चतुष्टय धरिकै ॥ शन आठ इनि मेदनतें, अघ फीने परछेदनतें । तिनीक कोलों कहानी तुम जानत केवलज्ञानी ॥ विपरीत एकांत विनयके, मंशय अज्ञान कुनयके । यश होय पोर अप फीने. aad नहिं जाय कहीने ॥ गुरनकी सेवा कीनी केवल अदयाकरि भीनी । विधिमिध्यात श्रमायो, चहुँगति मधि दोष उपायो ॥ हिंसा पुनि झूठ ज चोरी, पर-वनितासों हग जोरी। आरभ परिग्रह भीनी. पन पाप जु या विधि कीनो ॥ सपरम रमना धाननको, चखु कान विपय सेवनको ।
करम किये मनमाने, कछु न्याय अन्याय न जाने || फलें पच उदंबर खाये, मधु मांस मद्य चित चाये । नहि अष्ट मूलगुण घारी, सेये कुविसन दुसकारी ॥ दुहवीम अभय जिन गाये, मो भी निम दिन भुंजाये । कछु दाद न पायो, ज्यों त्यां करि उदर भरायो ॥ अतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो । संज्वलन चौकी गुनिये, सच मेद जु पोटश मुनिये || परिहास अरति रति शोग भय ग्लानि त्रिवेद संयोग ।
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जैन पूजा पाठ सग्रह
पनवीस जु मेद भये इम, इनके वश पाप किये हम ।। निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई। फिर जागि विषय-वन घायो. नानाविध विष-फल खायो।। कियेऽहार निहार विहारा, इनमें नहिं जतन विचारा । विन देखी धरी उठाई, विन शोधी वस्तु जु खाई॥ तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकलप उपजायो। कछु सुधि बुषि नाहिं रही है, मिथ्या पति छाय गयी है।। मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहमें दोष जु कीनी। मिन भिन अब कैसे कहिये, तुम ज्ञानविष सब पहये ।। हा हा ! मैं दुठ अपराधी, त्रस-जीवन-राशि विराधी। थावरकी जतन न कीनी, उरमें करना नहिं लीनी ।। पृथिवी बहु खोद कराई, महलादिक जागां चिनाई। पुनि विन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातै पवन विलोल्यो । हा हा । मैं अदयाचारी. बहु हरितकाय जु विदारी । तामधि जीवनके खंदा, हम खाये धरि आनंदा । हा हा! परमाद वसाई, विन देखे अगनि जलाई। तामन्य जीव जे आये. ते ह परलोक सिधाये ।। वीध्यो अन रात पिसायो, ईधन बिन सोध जलायो। झाह ले जागां पहारी, चिंउटी आदिक जीव विदारी ।। जल छानि जिवानी कीनी, सोह पुनि डारि जु दीनी । नहिं जल-थानक पहुँचाई, किरिया विन पाप उपाई ॥ जल मल मोरिन गिरवायो, कृमि-शुल बहु घात करायो। नदियन बिच चीर धुवाये, कोसनके जीव मराये ॥ अमादिक शोध कराई, तामैं जु जीव निसराई ।
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तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धृप डगया । पुनि इन्य कमापन काजै, बहु आरंभ हिसा साजै। किये अप निमनावश भार्ग, फरुना नहिं रंच विचारी ।। इत्याटिक पाप अनंता, हम फीने श्री भगवंता। मंनि चिरकाल उपाई. वानी ते कहिय न जाई ।। ताफीजु उदय अब आयो, नानाविध मोहि सतायो । फल सुंजत जिय दुख पा. पर्चन फैले करि गावै ।। तुम जानन केवलगानी, दुर दुर कगे शिवथानी । हम ना तुम शरण लही है. जिन तान्न निन्द मही है । जा गावपना एक हावे. मां भी दुखिया दुर खो। तुम नीन भुइनके स्वामी, दुरा मेटह अंतरजामी ।। द्रोपटिको चीर बदायों, मीनाप्रति कमल रचायो। अंजनसे किये अकामी, दुरस मेटो अंतरजामी ।। मेरे अवगुन न चितागे, प्रभु अपनो विरद सम्हारो। मर दोपदित करि म्वामी, दस मेटह अंतरजामी । डादिक पदवी नहिं चाहे. विषयनिमें नाहि लुभाऊँ। गगाद्रिक दोष हगंज, . परमानम निज-पद दीजै ॥
टोपहित जिनदेवजी, निजपट दीज्यो मोय । नव जीवनके मुख वह, आनँद मगल होय ॥ अनुभव माणिकपारसी, 'जोहरि' आप जिनन्द । पही वर माहि दीजिये, चरन शरन आनन्द ||
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पाठ सप्रह
सामायिक पाठ भाषा
प्रथम प्रतिक्रमण कम काल अनन्त अभ्यो जग में सहिये दुःख भारी। जन्म मरण नित किये पाप को है अधिकारी । कोटि भवान्तर माहि मिलन दुर्लभ सामायिक । धन्य आज मैं भयो जोग मिलियो सुखदायिक ॥ १॥ हे सर्वज्ञ जिनेश ! किये जे पाप जु मैं अब । ते सब मनवचकाय योग की गुप्ति बिना लभ ॥ आप समीप हजर मांहि मैं खड़ो-खड़ो सब । दोष कहूँ सो सुनो करो नठ दुःख देहि जब ॥ २ ॥ क्रोध मान मद लोभ मोह मायावशि प्रानी। दुःख सहित जे किये दया तिनकी नहिं आनी ॥ बिना प्रयोजन एकेन्द्रिय बितिचउपंचेन्द्रिय । आप प्रसादहि मिटै दोष जो लग्यो मोहि जिय ॥३॥ आपस में इकठौर थाप करि जे दुःख दीने । पेलि दिए पगतले दावि करि प्राण हरीने ॥ आप जगतके जीव जिते तिन सबके नायक । अरज करूँ मैं सुनो दोष मेटो दुःखदायक ॥ ४॥ अञ्जन आदिक चोर महा घनघोर पाप मय । तिनके जै अपराध भये ते क्षमा-क्षमा किय ॥ मेरे जे अब दोष भये ते क्षमहु दयानिधि ।
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यह पडिकोणो कियोआदि षट्कर्म मांहि विधि ॥ ५ ॥ __ इसके आदि वा अन्त में आलोचना पाठ बोल कर फिर द्वितीय प्रत्याख्यान कर्म का पाठ करना चाहिये।
द्वितीय प्रत्याख्यान कर्म । जो प्रमादवशि होय विराधे जीव घनेरे । तिनको जो अपराध भयो मेरे अघ ढेरे ॥ सो सब झूठो होउ जगतपति के परसादै । जा प्रसाद तें मिलै सर्व सुख दुःख न लाधै ॥ ६ ॥ मैं पापी निर्लज्ज दया करि हीन महाशठ । किये पाप अघ ढेर पापमति होय चित्त दुठ॥ निन्दू हूं मैं बार-बार निज जिय को गरहूं। सब विधि धर्म उपाय पाय फिर पाप न करहूं ॥ ७ ॥ दुर्लभ है नर-जन्म तथा श्रावक कुल मारी। सतसंगति संयोग धर्म जिन श्रद्धा धारी ॥ जिन वचनामृत धार समावर्ते जिनवानी। तोह जीव संघारे धिक धिक धिक हम जानी ।। ८ इन्द्रिय लंपट होय खोय निज ज्ञान जमा सब्द । अज्ञानी जिमि कर तिसी विधि हिंसक है अब ॥ गमना गमन करन्तो जीव विराधे भोले । ते सब दोष किये निन्, अब मन वच तोले ॥६॥ आलोचन विधि थकी दोष लागे जु घनेरे । ते सव दोष विनाश होउ तुम तें जिन मेरे ॥ बार-बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता।
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जैन पूजा पाठ संग्रह
ईर्षादिकतै भये निंदिये जे भयभीता ॥१०॥
तृतीय सामायिक भाव-कर्म । सब जीवन में मेरे समता भाव जग्यो है। सब जिय मो सम समता राखो भाव लग्यो है ।। आर्त रौद्र द्वय ध्यान छांडि करिहूं सामायिक । संजम मो कब शुद्ध होय यह भाव बधायिक ॥११॥ पृथिवी जल अरु अनि वायु चउकाय वनस्पति । पंचहि थावर माहि तथा त्रस जीव बर्से जिति ॥ वे इन्द्रिय लिय चउ पंचेन्द्रिय माहि जीव सब । तिनत क्षमा कराऊँ मुझ पर क्षमा करौ अब ॥१२॥ इस अवसर में मेरे सब सम कञ्चन अरु तृण । महल मलान समान शत्रु अरु भित्रहिं समगण | जामन भरण समान जानि हम समता कीनी। सामायिक का काल जिते यह भाव नवीनी ॥१३॥ मेरो है इक आतम तामैं ममत जु कीनो।
और सबै मम भिन्न जानि समता रस भीनो॥ भात पिता सुत बन्धु मित्र तिय आदि सबै यह । मोते न्यारे जानि जथारथ रूप कयो गह ॥१४॥ मैं अनादि जगजाल मांहि फँसि रूप न जाण्यो। एकेन्द्रिय दे आदि जन्तु को प्राण हराण्यो। ते सब जीव समूह सुनो मेरी यह अरजी। भव-भव को अपराध छिमा कीज्यो कर मरजी ॥१५॥
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चतुर्थ स्तवन-कर्म नमों ऋषभ जिनदेव अजित जिन जीतिकर्मको। सम्भव भवदुःखहरण करण अभिनन्दन शर्मको॥ सुमति सुमति दातार तार भवसिंधु पार कर । पद्मप्रभ पद्माभ भानि भवभीति प्रीति धर ॥१६॥ श्रीसुपार्श्व कृतपाश नाश भव जाल शुद्ध कर । श्रीचन्द्रप्रभ चन्द्रकान्ति सम देह कान्तिधर ।। पुष्पदन्त दमि दोषकोश भविपोष रोषहर । शीतल शीतल करण हरण भवताप दोषकर ॥१७॥ श्रेय रूप जिन श्रेय ध्येय नित लेय सन्यजन । वासुपूज्य शतपूज्या वासवादिक भवभयहन ॥ विमल विसलमति देय अन्तगत है अनन्तजिन । धर्म-शर्म शिवकरण शान्तिजिन शान्तिविधायिन ॥१८॥ कुंथु कुंथुमुख जीवपाल अरनाथ जालहर । मल्लि मल्लसम मोहमल्लमारण प्रचार धर॥ मुनिसुव्रत व्रतकरण नमत सुरसंघहि नमिजिन । नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरत मांहि ज्ञानधन ॥१६॥ पार्श्वनाथ जिन पार्श्व उपलसम मोक्ष रमापति । वर्द्धमान जिन नमूं बमं अवदुःख कर्मकृत ॥ या विधि में जिन संघ रूप चउनीस संख्यधर । स्त नमूं हूँ बार-बार बंदू शिव सुखकर ॥२०॥
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जैन पूजा पाठ सप्रह
पचम वन्दना-कर्म वंद्र में जिननीर धीर महावीर सुसनलति । वर्द्धसान अतिवीर वंदि हूं मनवचतन कृत। त्रिशला तलुज महेश धीश विद्यापति बंदूं। बंदौं लित प्रति कलकरूप तनु पापनिकन्दू ॥२१॥ लिद्वारथ नृपनन्द द्वन्द दुःख दोष लिटारत । दुरितदवालल ज्वलित ज्वाल जगजीव उधारन !! कुण्डलपुर करि जन्म जगत जिय आनंद भारत । वर्ष कहत्तर आयु पाय सवहीं दुःख टारन ॥२२॥ सप्तहस्त तनु तुङ्ग भगकृत जन्म मरण भय। बालब्रहालय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञानलय ।। दे उपदेश उधारि तारि भवसिंघ जीवधन । आप बसे शिवमांहि ताहि वंदौं भन च तल ॥२६॥ जाके बन्दनथकी दोष दुःख दूरहि जादै । जाके बन्दनथकी मुक्ति तिय सन्मुख आई ।। जाके बन्दनथकी वंद्य होवै सुरगनके । ऐसे वीर जिनेश बंदि हूँ कमयुग तिलके ॥२४॥ सामायिक षटकर्मसांहि वन्दन यह पञ्चल । बन्दौं वीर जिनेन्द्र इन्दशत वंद्य वंद्य मम ॥ जन्मलरणभय हरो करो अपशान्ति शान्तिमय । में अघकोष सुपोष दोषको दोष विनाशय ॥२५॥ कायोत्सर्ग विधान करूँ अन्तिम सुखदाई।
शान्तिमय ।
कायोत्सर्गाष दोषको
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जैन पूजा पाठ सग्रह
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काय त्यजन मय होय काय सबको दुःखदाई ॥ पूरव दक्षिण नम दिशा पश्चिम उत्तर मैं । जिनगृह वन्दन करूँ हरूँ भवतापतिमिर मैं ॥२६॥ शिरोनती मैं करूँ नमूं मस्तक कर धरिकें। आवर्तादिक क्रिया करूँ मन वच मद हरिक॥ । तीनलोक जिनभवन मांहि जिन हैं जु अकृत्रिम । कृत्रिम हैं द्वय अर्ब द्वीप नाही बन्दों जिम ॥२७॥ आठकोडि परि छप्पन लाख जु सहस सत्यागें । च्यारि शतक पर असीएक जिनमन्दिर जाणू॥ व्यन्तर ज्योतिष सांहिं संख्य रहिते जिनमन्दिर । ते सव वन्दन करूं हरहुँ मम पाप संघकर ॥२८॥ सामायिक सम नाहि और कौऊ वैर मिटायक। सामायिक सम नाहिं और कोऊ मैत्रीदायक ॥ श्रावक अणुव्रत आदि अन्त सप्तम गुणथानक । यह आवश्यक किये होय निश्चय दुःखहानक ॥२६॥ जे भवि आतमकाज-करण उद्यम के धारी। ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी॥ राग रोष मदमोहक्रोध लोभादिक जे सव। बुध 'महाचन्द्र विलाय जाय ता कीज्यो अब ॥३०॥
इति सामायिक पाठ समाप्त ।
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न्न पूजा पाठ प्रह
पंत भूधरकृत स्तुति पुलकन्त नयन चकोर पक्षी, हँसत उर इन्दीवरो । दुर्बुद्धि चकवी विलख विछड़ी, निविड़ लिथ्यातम हरो॥ आनन्द अम्बुज उमगि उखस्यो, अखिल आतम लिरदले। जिन वहन पूरणचन्द्र निरखत, सकल मनवांछित फले ।। सम आज आतम भयो पावन, आज विधन विलाशिया । संसार सागर नीर निवव्यो, अखिल तत्व प्रकाशिया ॥ अब भई कमला किंकरी, मम उभय भव निर्सल ठये। दुःख जस्लो दुर्गति वास निवस्यो, आज नव मंगल भये ।। मन हरण सूरति हेरि प्रभु की, कौन उपना लाइये। माल लकल तनके रोल हुलले, हर्ष और न पाइये। कल्याण काल प्रत्यक्ष प्रभुको, लखे जो सुर नर घने । तिह लमयकी आनन्द महिमा, कहत क्यों मुखलों वने ।। भर नयन निरखे नाथ तुमको, और वांछा ना रही। मम सब मनोरथ भये पूरण, रंक मानो निधि लही ॥ अव होऊ भव-भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोर 'भूधरदास' विनवै, यही वर मोहि दीजिये।
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तद विलंब नहि कियो-स्तुति दोहा-जासु धर्म परभावसों, संकट कटत अनन्त ।
__मंगल मूरति देव सो, जैवन्तो अरहन्त । हे करुणानिधि सुजन को, कष्ट विर्षे लखि लेत। तजि विलंब दुःश्व नष्ट किय, अव विलंब किह हेत ॥ तव विलंब नहिं कियो, दियो नमिको रजता चल । तब विलंब नहिं कियो, मेघवाहन लका थल ।। तव विलंब नहिं कियो, सेठ सुत दारिद भजे । तब विलंब नहिं कियो, नागजुग सुरपद रंजै॥ इमिचूर भूरि दुःख भक्तके, सुख पूरे शिवतिय वरन । प्रभु मोर दुःख नाशनविप, अव विलंब कारण कवन । तव विलंब नहि कियो, सिया पावक जल कीन्हौं। तव विलंब नहिं कियो, चन्दना शृङ्खल छीन्हौं । तव विलंव नहिं कियो, चीर द्रौपदी को वाट्यो। तव विलंब नहिं कियो, सुलोचना गंगा काढ्यो ॥इमि तब विलंब नहि कियो, सांप कियो कुसुम सुमाला। तव विलंब नहिं कियो, उर्मिला सुरथ निकाला ॥ तव विलंब नहिं कियो, शीलवल फाटक खुल्ले । तव विलंब नहिं कियो, अञ्जना वन मन फुल्ले ॥ इमि तव विलंब नहिं कियो, सेठ सिंहासन दीन्हौं। तव विलंव नहिं कियो, सिंधु श्रीपाल कढ़ीन्हों।
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अन पूजा पाठसग्रह
तब विलंब नहिं कियो, प्रतिज्ञा वज्रकर्ण पल । तब विलंब नहिं कियो, सुधन्ना कादि वापि थल ॥ इमि० तब विलंब नहिं कियो, कंस भय त्रिजग उबारे । 'तब विलंब नहिं कियो, कृष्णसुत शिला उधारे ॥ तब विलंब नहिं कियो, खड्ग मुनिराज़ बचायो। तब विलंब नहिं कियो, नीर मातंग उचायो । इमि० तब विलंब नहिं कियो, लेठसुत निर विष कीन्हौं। तब विलंब नहिं कियो, मानतुंग बंध हरीन्हौं । लब विलंब नहि कियो, वादिमुनि कोढ़ मिटायो। तब विलंब नहिं कियो, कुमुद निज पास कटायो॥ इमि० तब विलंब नहिं कियो, अञ्जना चोर उवास्यो। तब विलंब नहिं कियो, पूरवा भील सुधास्यो । तब विलंब नहिं कियो, गृद्ध पक्षी सुन्दर तन । तब विलंब नहिं कियो, भेक दिय सुर अदभुत तनाइमि० इहविधि दुःख निरवार, सारसुख प्रापति कीन्हौं । अपनी दास निहारि, भक्तवत्सल गुण चीन्हौं । अब विलंब किहिं हेत. कृपा कर इहां लगाई। कहा सुनो अरदास नाहि, त्रिभुवन के राई॥ जनवृन्दसुमनवचतन अबै, गही नाथ तुम पदशरन । सुधि ले दयाल मम हाल पै, कर मंगल मंगलकरनाइमि०
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र
न पूजा पाठ BE
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स्तुति [कविवर दौलतरामजी]
दोहा सकल ज्ञेय नायक तदपि, निजानन्द-रस-लीन ।
सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि-रज-रहस-विहीन ॥१॥ . , जय वीतराग विज्ञान-पूर, जय मोह-तिमिरको हरन सर । जय ज्ञान अनंतानंत धार, दृग-सुख-वीरज-मण्डित अपार ।। जय परम शांत मुद्रा समेत, भवि-जनको निज अनुभूति हेत। भवि-भागनवश जोगेवशाय, तुम धुनि हैसुनि विभ्रम नशाय। तुम गुण चिंतत निज-पर-विवेक, प्रगट विघटै आपद अनेक । तुम जग-भूपण दूपण-वियुक्त, सब महिमायुक्त विकल्प-मुक्त। अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप । शुभअशुभविभाव अभाव कीन,स्वाभाविक परिणतिमय अछीन अष्टादश दोप विमुक्त धीर, स्व चतुष्टयमय राजत गभीर । मुनि गणधरादि सेवत महंत, नव केवल-लब्धि-रमा धरंत ।। तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैह सदीव । भव-सागरमें दुस छार वारि, तारनको अवर न आप टारि ॥ यह लखि निजदुख-गद-हरण-काज,तुमही निमित्त कारण इलाज जाने तात में शरण आय, उचरों निज दुख जो चिर लहाय ।। मैं भ्रम्यो अपनपो विसरि आप, अपनाये विधि-फल-पुण्य-पाप निजको परको करता पिछान, परमें अनिष्टता इष्ट ठान ।।
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जैन पूजा पाठ सप्रह
आकुलित भयोअज्ञान पारि, ज्यों मृग मृग-तृष्णा जानि वारि तन-परणतिम आपो चितार, काहूँ न अनुभवो स्व-पदसार । तुमको विन जाने जो कलेश, पाये सो तुम जानत जिनेश । फ्यु-नारक नर सुर-गति-मझार, भव पर घर मरयो अनंत बार।। अब काललब्धि बलतै दयाल, तुम दर्शन पाय भयो सुशाल। मन शांतभयो मिटि सफल द्वन्द,चाख्योस्वातमरस दुखनिकंद ।। तातें अब ऐसी करहु नाथ, विधुरै न कभी तुअ चरण साथ । तुम गुणगगको नहिं छेव देव, जगतारन को तुम विरद एव ।। आतमके अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय । मैं रहूँ आपमें जाप लीन, सो करो होउँ ज्यों निजाधीन ॥ मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय-निधि दीजै मुनीश । मुझ कारजके कारन सुआप, शिव करहु हरहु मम मोह-ताए । शशि शालिकरन तप हग्न हेत, स्वयमेव तथा तुम अशल देत। पीवत पियूप ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुमवत् भव नशाय॥ त्रिभुवन तिहुंकालमंझार कोय, नहि तुम चिन निजसुखदाय होय मोउर यह निश्चय भयो आज, दुसजलषि उतारनतुम जिहाज।
दोहा - तुम गुणगण-मणिगणपती, गणत न पावहिं पार । 'दौल' स्वल्प-मति किमि कहै, नमूत्रियोग संभार ॥
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दुखहरण स्तुति श्रीपति जिनवर करुणा यतनं, दुःसहरण तुम्हारा पाना है। मत मेरी बार बार करो, मोहि देहु विमल कल्याना है ॥ टेका!
कालिक वस्तु प्रत्यक्ष लसो, तुममा कछु बात न छाना है । मेरे उर आरत जो वरत, निह सब सो तुम जाना है ।। अबलोक विधा मत मौन गही, नही मेरा कही ठिकाना है । हो राजिरलोचन गांचविमोचन, मैं तुममौं हित ठाना है ॥ श्री. सर ग्रन्यान में निरग्रन्थनि ने, निरधार यही गणधार कही। जिननायक ही सब लायक है, सुखदायक क्षायक ज्ञानमही ॥ यह बात हमारे कान परी, तर आन तुमारी शरण गही। क्यों मेरी बार विलय करो, जिननाथ सुनो यह बात सही ।। श्री. काहू को भोग मनोग करो, काहू को स्वर्ग विमाना है। काह को नाग नरेशपति, काहू को ऋद्धि निधाना है। वर मो पर क्यों न कृपा करते, यह क्या अन्धेर जमाना है। इनसाफ करो मत देर करो, सुखपृन्द भजो भगवाना है ।। श्री. सल कर्म मुझे हैरान किया, तब तुम सो आन पुकारा है। तुम ही समग्ध नहीं न्याय करो, तब वन्देका क्या चारा है । सल घातक पालक बालक का, नृप नीति यही जगसारा है। तुम नीतिनिपुण लोकपती, तुमही लगि दौर हमारा है। श्री. जबसे तुमसे पहिचान भई, तवसे तुमही को माना है। तुमरे ही शासन का स्वामी, हमको सच्चा सरधाना है। जिनको तुमरी शरणागत है, तिनमा जमराज डराना है। यह सुजस तुम्हारे सांचे का, सब गावत वेद पुराना है ॥ श्री.
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जैन पूजा पाठ मप्रह
जिमने तुमसे दिलदर्द कहा, तिसका तुमने दुःख हाना है। अघ छोटा मोटा नाशि तुरत, सुख दिया तिन्हें मनमाना है । पावकसों शीतल नीर किया, और चीर बढ़ा असमाना है। भोजन था जिसके पास नहीं, सो किया कुवेर समाना है ।। श्री. चिंतामण पारम कल्पतरु, सुखदायक ये परधाना है। तब दासन के सब दास यही, हमरे मन में ठहराना है।। तुम भक्तन को सुरइन्द्रपदी, फिर चक्रवर्तिपद पाना है। क्या बात कहौं विस्तार बड़े, वे पा मुक्ति ठिकाना है ॥ श्री. गति चार चौरासी लाख विष, चिन्मूरत मेरा भटका है। हो दीनबन्धु करुणा-निधान, अवलौं न मिटा वह खटका है । जव जोग मिला शिव साधनका, तब विधन कर्मने हटका है। अब विघन हमारे दर सरो, सुख देहु निराकुल घटका है। श्री. गजग्राहग्रसित उद्धार लिया, ज्यों अजन तस्कर तारा है। ज्यों सागर भोपदरूप किया, मैना का संझट टारा है ।। ज्यों शूलीते सिंहासन, और वेडी को काट विडारा है। त्यों मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोकू आस तुम्हारा है ।। श्री. ज्यों फाटक टेकत पाय खुला, और साँप सुमन कर डारा है। ज्यों खड्ग कुसुमका माल किया, वालकका जहर उतारा है ।। ज्यों सेठ विपति चकचरपूर, घर लक्ष्मी सुख विस्तारा है। त्यों मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोकू आस तुम्हारा है ।। श्री. यद्यपि तुमरे रागादि नहीं, यह सत्य सर्वथा जाना है। चिन्मूरति आप अनन्तगुणी, नित शुद्ध दशा शिव थाना है ।। तहपि भक्तन की पीर हरो, सुख देत तिन्हें जु सुहाना है।
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चू *212 **
यह प्रति अन्ति तुम्हारी का क्या पापे पार सयाना है | श्री० दुःखन्दन भी टन का. तुमरा प्रण परम प्रमाणा है । वरदान दया जन कीरत का नि लोक धुजा फहराना है "1 कमली! मासजी, करिये कमला अमलाना है । अपने पिया अलोक मापति, न पार लगाना हूँ || श्रीο दीनानाथ अनाथ हिन्. जन दीन अनाथ पुकारी है। उदयगत कर्मरिक हाल मोह विधा विस्तारी है ॥ पाप और न जीवनकी, ततकाल निया निरवारी है। लोकर प्रभु जान हमारी बारी है ॥ श्री
दौलत पद
अपनी सुधि भूल आप, आप दुख उपायो, ज्यों शुरू नभचाल विसरि नलिनी लटकायो । अपनी चेतन विरुद्ध शुद्ध दरशोधमय विशुद्ध, तजि जङ-मपरल रूप, पुद्गल अपनायो | अपनी इन्द्रिय सुख-दुख में नित्त, पाग रागरुखमें चित्त, दायक भवविपतिवृन्द, घन्धको बढ़ायो । अपनी चारदाह दाहे, त्यागो न ताह चाहे, समाना न गाहे जिन, निकट जो बतायो । अपनी मानुपसव मुकुल पाय, जिनवरशासन लहाय 'दौल' निजस्वभाव भज अनादि जो न ध्यायौ | अपनीο
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जन पूजा पाठ सप्रह
समाधिमरण भाषा गौतम स्वामी बन्दौं नामी मरण समाधि भला है। में कब पाऊँ निशिदिन ध्याऊँ गाऊँ वचन कला है । देव धर्म गुरु प्रीति महा दृढ़ सप्तव्यसन नहिं जाने। त्यागि बाइस अभक्ष संयमीबारह व्रत नित ठाने ॥१॥ चकी उखरी चूलि बुहारी पानी त्रस न विराधै । बनिज करै पर द्रव्य हरै नहिं छहों करम इमिसाधै॥ पूजा शास्त्र गुरुन की सेवा संयम तप चहूँ दानी। पर उपकारी अल्प अहारी सामायक विधि ज्ञानी ॥ २ ॥ जाप जपै तिहुँ योग धरै दृढ़ तनकी ममता टारै । अन्त समय वैराग्य सम्हारै ध्यान समाधि विचारै ।। आग लगै अरु नाव डूबै जब धर्म विघन जब आवै। चार प्रकार आहार त्यागि के मन्त्र सुमनमें ध्यावै ॥३॥ रोग असाध्य जहां बहु देखै कारण और निहारै। बात बड़ी है जो बनि आवै भार भवनको टारै॥ जो न बने तो घरमें रह करि सबसों होय निराला। मात पिता सुत त्रियको सोंपै निज परिग्रह इहिकाला ॥४॥ कुछ चैत्यालय कुछ श्रावकजन कुछ दुःखिया धन देई। क्षमा क्षमा सबहीं सों कहिके मनकी शल्य हनेई॥ शत्रुन सों मिल निज कर जोरै मैं बहु करिहै बुराई।
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तुमसे प्रोतमको दुःख दीने ते सब छमियो भाई ॥५॥ धन धरती जो मुखसों मांगै सो सब दे सन्तोषै। छहों कायके प्राणी ऊपर करुणा भाव विशेष ।। ऊँच नीच घर बैठ जगह इक कुछ भोजन कुछ पयले। दूधाहारी क्रम क्रम तजिके छाछ आहार गहे ले ॥ ६ ॥ छाछ त्यागिके पानी राखै पानी तजि संथारा । भूमि मांहि थिर आसन मांडै साधी ढिग प्यारा ॥ जव तुम जानो यह न जपै है तब जिनवाणी पढ़िये। यों कहि मौन लियौसन्यासी पंच परम पद गहिये ॥ ७ ॥ चौ आराधन मनमें ध्यावै बारह भावन भावे । दशलक्षण मुनि धर्म विचारै रत्नत्रय मन ल्यावै ॥ पैंतीस सोलह षट् पनचारों दुइइक वरण विचारै। काया तेरी दुःख की ढेरी ज्ञानमयी तूं सारे ॥ ८ ॥ अजर अमर निज गुणसों पूरे परमानन्द सु भाई। आनन्दकन्द चिदानन्द साहब तीन जगपतिध्यावे। क्षुधा तृषादिक होय परीषह सहै भावसम राखे। अतीचार पांचों सब त्यागे ज्ञान सुधारस चाख 8th हाड़ मांस सब सूख जाय जब धर्मलीन तन त्यागे । अद्भत पुण्य उपाय स्वर्ग मेंसेज उठ ज्यों जागै॥ तहते आवै शिव पद पावै विलसै सुक्ख अनन्तो। 'द्यानत' यह गति होय हमारी जैन-धर्म जयवन्तो॥१०॥
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न पूजा पाठ प्रह
वैराग्य भावना दोहा-बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जगमांहिं । त्यो चक्री नृप लुख कर, धर्म विसारै नाहि ।।
.. योगीरासा छन्। इह विधि राज करै नरनायक, भोगै पुण्य विशालो। सुखसागर में रमत निरन्तर, जात न जान्यो कालो। एक दिवस शुभ कर्म संजोगे, क्षेसंकर मुनि बन्दे । देखे श्रीगुरु के पदपराज, लोचन अलि आनन्दे ॥ सील प्रदक्षिणा दे शिर लायो, करि पूजा थुति कीनी । साधु समीर विनय करि बैच्यो, चरणनमें दिठि दीनी ॥ शुरू उपदेश्यो धर्म-शिरोमणि, सुन राजा वैरागे। राजरमा वनितादिक जे रस, ते रस बरस लागे॥ सुनि सूरज कथनी किरणावलि, लगत भरम बुधिभागी। सवतन भोगस्वरूप विचारो, परम धरम अनुरागी । इह संसार महावन सीतर, नसते ओर न आवें । जासन मरण जरा दौं दाम, जीव महा दुःख पावे ॥ कबहूँ जाय नरक थिति झुंजै, छेदन भेदन भारी। कबहूँ पशु परजाय धरै तह, वध बन्धन भयकारी ॥ सुरगति में परलस्पति देखे, राग उदय दुःख होई । मानुष योलि अनेक विपतिमय, सर्व सुखी नहिं कोई ॥ कोई इष्ट वियोगी बिलखै, कोई अनिष्ट संरोगी। कोई दीन दरिद्री विगुचे. कोई तन के रोगी । किलही घर कलिहारी नारी के बैरी सम भाई।
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किसही के दुःख वाहिर दीसै, किसही उर दुचिताई।। कोई पुत्र विना नित झरे, होय मरे तब रोवै। खोटी संततिसो दुःख उपजै, क्यों प्राणी सुख सोवै ॥ पुण्य उदय जिनके तिनके भी, नाहिं सदा सुखसाता । यह जगवास जथारथ देखे, सब दीखै दुःखदाता ।। जो संसार विपै सुख होतो. तीथंकर क्यों त्यागे। काहे को शिव साधन करते, संजल लों अनुराग । देह अपावन अथिर घिनावन, यामैं लार न कोई। सागर के जलसो शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई ।। सात कुधातु भरी लल मूरति, चाल लपेटी सोहै। अन्तर देखत या सम जगमें, और अपावन को है। नवमलद्वार स्रव निशिवासर, नाम लिये घिन आवै । व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तह, कौन सुधी सुख पावै ।। पोषत तो दुःख दोष करै अति, सोषत सुख उपजावै । दुर्जन देह स्वभाव बराबर, सूरख प्रीति बढ़ावै॥ राचनजोग स्वरूप न याको, घिरचन जोग सही है। यह तन पाय महा तप कीजै, यामें सार यही है ।। भोग बुरे भव रोग बढ़ावै, वैरी है जग जीके । बेरस होय विपाक समय अति, सेवत लागै नीके। वज्र अग्नि विषसे विषधरले. ये अधिके दुःखदाई। धर्मरतन के चोर चपल अति, दुर्गति पंथ सहाई ॥ मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कञ्चन मान ।
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ज्यों-ज्यो भोग संयोग मनोहर, मनवांछित जन पावै। तृष्णा नागिन त्यो त्यों डंक, लहर जहर की आवै ।। मैं चक्रीपद पाय निरन्तर, भोगे भोग घनेरे। तौसी तनक भये नहिं पूरण, भोग मनोरथ मेरे। राज समाज महा अघकारण, वैर बढ़ावन हारा। वेश्यालम लछमी अति चञ्चल, याका कौन पत्यारा ॥ मोह महारिपु वैर विचास्यो, जगजिय सङ्कट डारे । घर कारागृह बनिता बेड़ी, परिजन जन रखवारे । सम्यकदर्शन ज्ञानवरण तप, ये जिय के हितकारी। येही लार असार और सव, यह चक्री चितधारी ॥ छोडेचौदह रत्न नवोनिधि अरु छोड़े संग साथी॥ कोड़ि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी । सहस छियानवे रानी छोडी, अरु छोडा घर बारा । सकल अवस्था ऐसे त्यागी, ज्यो जल बीच बतासा ॥ इत्यादिक सम्पति बहुतेरी, जीरणतृण सम त्यागी। नीति विचार नियोगी सुतकी, राज दियो बड़भागी॥ होय निःशल्य अनेक नृपति संग, भूषणवसन उतारे। श्रीगुरु चरण धरी जिन मुद्रा, पंच महाव्रत धारे॥ धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरज धारी। ऐसी सम्पति छोड़ बसे वन, तिनपद धोक हमारी ।। दोहा-परिग्रह पोट उतार सब, लीनों चारित पंथ ।
निज स्वभावमें थिर भये, बजनाभि निरग्रन्थ।
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मेरी भावना
करूँ ।
जिसने गग दोष कामादिक जीते सब जग जान लिया । सब जीवोंको मोक्षमार्गका निस्पृह हो उपदेश दिया ।। बुद्ध वीर जिन हरि हर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो । भक्ति भावसे प्रेरित हो यह चित्त उसीमें लीन रहो ॥ विपयोंकी आशा नहिं जिनके साम्यभाव धन रखते हैं । निज-परके हित साधनमें जो निश-दिन तत्पर रहते है | स्वार्थ त्यागकी कठिन तपस्या विना खेढ जो करते हैं । ऐसे ज्ञानी साधु जगत के दुख- समूहको हरते हैं ॥ रहे सदा सत्संग उन्हींका ध्यान उन्हीका नित्य रहै । उनहीं जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहै ॥ नहीं सताऊँ किसी जीवको भूठ कभी नहिं कहा परधन - वनितापर न लुभाऊँ, संतोषामृत पिया अहंकारका भाव न रक्खूँ नहीं किसीपर क्रोध देख दूसरोंकी बढतीको कभी न ईर्पा-भाव रहे भावना ऐसी मेरी सरल - सत्य व्यवहार चनै जहां तक इस जीवन में औरौका उपकार करूँ ॥ मैत्रीभाव जगतमें मेरा सब जीवोंसे नित्य रहे । दीन-दुखी जीवोंपर मेरे उरसे करुणा स्रोत बहे || दुर्जन- क्रूर- कुमार्गरतों पर क्षोभ नही मुझको आवै । साम्यभाव रक्खूँ मै उनपर ऐसी परिणति हो जाये || गुणी जनोंको देख हृदयमें मेरे प्रेम उमड आवै । पनै जहांतक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावै ॥
करूँ ||
करूँ ।
करूँ ।
धरूँ ॥
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पाठ
आन ।
।
होऊँ नहीं कभी में द्रोह न मेरे गुणग्रहणका मान रहे निष्टिन पर जाने ॥ कोई चुरा करो या जन्दा लक्ष्मी जाने या जाने | लाखो वर्षो तक जीऊ या मृत्यु आज ही ना जाने ॥ अथवा कोई का ही भय या लालच देने जाते। तो भी न्याय-नागने मेरा कभी न पत्र ठिगने पान ॥ होकर गुजमे मग्न न फुले दुप कमी न सर्व नदी रममान भगन असे नहारे ॥ रहे अटल-अप निरंतर यह मन इतर वन जाने । एटवियोग-जनिष्टयोगमे सहन-शीलता दिलाबै ॥ मुग्री व जीव जगत के कोई कभी न च बैर- पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मन् गावै घर-वर चर्चा र धर्मकी दुष्कृत दुष्कर हो जाये। ज्ञान-चरित उन्नत कर अपना मनुज-जन्म-फल नव पात्रे ॥ ईति भीति व्यापै नहि जगने दृष्टि समयपर हुआ की । धर्मनिष्ठ होकर राजा भी न्याय प्रजाका किया करें ॥ रोग मरी दुभिंन न फैले प्रजा शातिसे जिया करें । परम अहिंसा-धर्म जगतमें फैल सर्व-हित किया करें ॥ फैले प्रेम परस्पर जगमें मोह दूर ही रहा करै । अप्रिय कटुक कठोर शब्द नहिं कोई मुखसे कहा करै ॥ बनकर सब 'युगवीर' हृदयसे देशोन्नति रत रहा करें। वस्तु स्वरूप विचार खुशीसे सब दुख-संकट सहा करै ॥
1!
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भजन
1
श्रीसिद्धचक्र का पाठ करो दिन आठ, ठाटसेप्राणी, फलपायोमैना रानी ॥ टेक मैना सुन्दरि एक नारी थी, कोढ़ी पति लखि दुःखियारी थी । नहिं पडै चैन दिन रैन व्यथित अकुलानी, फल पायो मैना रानी ॥ जो पति का कष्ट मिटाऊंगी, तो उभय लोक सुख पाऊँगी । नहिं अजागलस्तनवत निष्फल जिन्दगानी, फल पायो मैना रानी ॥ इक दिवस गई जिन मन्दिर मे, दर्शन करि अति हर्पी उर मे । फिर लखे साधु निर्ग्रन्थ दिगम्बर ज्ञानी, फल पायो मैना रानी ॥ बैठी मुनि को कर नमस्कार, निज निन्दा करती बार-बार । भरि अश्रु नयन कहि मुनिसो दुःखद कहानी, फल पायो मैना रानी ॥ बोले मुनि पुत्री धैर्य धरो, श्री सिद्धचक्र का पाठ करो । नहि रहे कुष्ट की तन मे नाम निशानी, फल पायो मैना रानी ॥ सुनि साधु वचन हर्षी मैना, नहिं होय झूठ मुनि के वैना । करिके श्रद्धा श्री सिद्धचक्र की ठानी, फल पायो मैना रानी ॥ जव पर्व अठाई आया है, उत्सवयुक्त पाठ कराया है । सवके तन छिडका यन्त्र न्हवन का पानी, फल पायो मैना रानो ॥ गन्धोदक छिड़कत वसु दिन मे नहिं रहा कुष्ट किचित तन मे । भई सात शतक की काया स्वर्ण समानी, फल पायो मैना रानी ॥ भव भोगि भोगि योगेग भये, श्रीपाल कर्म हनि मोक्ष गये । दूजे भव' मैना पावें शिव रजधानी, फल पायो मैना रानी ॥ जो पाठ कर मन वच तन से, वे छूटि जाय भव बन्धन से । 'मक्खन' मत करो विकल्प कहा जिनवानी, फल पायो मैना रानी ॥
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२६
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चाहूँ,
आराधना पाठ
करौ । हिरदय धरौ ॥ रश्च ना । परपञ्च ना ॥ १ ॥
मै देव नित अरहन्त चाहूँ, सिद्ध का सुमिरण मैसूर गुरु मुनि तीन पद, में साधुपद मैं धर्म करुणामयो चाहूँ, जहा हिंसा में शास्त्र ज्ञान विराग चाहूँ, जासु मे चौबीस श्रीजिनदेव चाहूँ, और देव न मन वसे । जिन बीस क्षेत्र विदेह चाहूँ, वन्दिते पातिक नसे ॥ गिरिनार शिखर सम्मेद चाहूँ, चम्पापुरी पावापुरी । कैलाश श्रीजिन-धाम चाहूँ, भजत भाजे भ्रम जुरी ॥ २ ॥ नवतत्व का सरधान चाहूँ, और तत्व न मन धरौ । षट् द्रव्य गुण परिजाय चाहूँ, ठीक तासो भय हरौ ॥ पूजा परम जिनराज चाहूँ, और देव नही तिहुँकाल की मैं जाप चाहूँ, पाप नहि लागे
सदा ।
कदा ॥ ३ ॥
हर्ष
जैन
भावसो ।
सम्यक्त दरशन ज्ञान चारित, सदा दशलक्षणी में धर्म चाहूँ, महा सोलह जु कारण दुःख निवारण, सदा चाहूँ प्रीतिसो ।
उछावसो ॥
मै चित्त अठाई पर्व चाहूँ, महा मङ्गल
मै वेद चारो सदा चाहूँ, आदि अन्त पाए धरम के चार चाहूँ, अधिक चित्त मैं दान चारो सदा चाहूँ, भुवन आराधना मैं चारि चाहूँ, अन्त
पूजा पाठ सम्ह
वशि
मे
रीतिसो ॥ ४ ॥
निवाहसो ।
उछाहसो ॥
लाहो लहूँ ।
जेई
गहूँ ॥ ५ ॥
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बन पूजा पाठ सद
४.३
भावना बारह सदा माऊँ, भाव निर्मल होत है। में व्रत जु बारह सदा चाहूँ, त्याग भाव उद्योत हैं ।। प्रतिमा दिगम्बर सदा चाहूँ, ध्यान आसन सोहना । वसुफर्म तें मैं छुटा चाहूँ, शिव लहूँ जहं मोहना ॥ ६ ॥ में साधुजन को सग चाहूँ, प्रीति तिनही सौ करो। मैं पर्व के उपवास चाहूँ, सब भारम्भे परिहौं । दन दुग पामफाल माही, कुल प्रावक में लहो । अग महायन थरि सकौ नाही, निवल तन मैने गहो ॥ ७ ॥ आराधना उत्तम सदा चाहूँ, गुनो जिनरायजी । तुम कृपानाय अनाय 'द्यानत, दया करना नाथजी ।। बमुफर्म नाम विकाग ज्ञान, प्रकाग मोको कीजिये । गार गुगनि गमन समाधिमरण, सुभक्ति चरणन दीजिए॥८॥
मरण भय मानास प्राणों का नियोग हो जाना दी तो मरण है। पाच सन्दिप, तीन यल, ए भायु और एक सासोच्छवाग इनका पियोग होते ही मरण होता है। परन्तु पद समापनात, निरयोद्यत और मानस्वरूपी अपने को निन्तयन करता है। एक चेतना दो उमका प्राण है। तीन फाल में उसका पियोग नहीं होता। अतपेतनामयो हानात्मा के ध्यान से उसे मरण का भी मय पदी होता। इस प्रकार मात मयों में से यह किमी प्रकार भय नहीं करता। अतः गम्यष्टि पूर्णतया निर्भय है।
-'पर्णी पाणी' से
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जैन पूजा पाठ सप्रह
अठाईरासा प्राणी वरत अठाई जे करै, ते पावे भव पार ।। प्राणी० जम्बूद्वीप सुहावनो, लख योजन विस्तार । भरतक्षेत्र दक्षिण दिशा, पोदनपुर हित सार ॥ प्राणी० विद्यापति विद्या धरी, सोमा रानी राय । समकित श्रावक व्रत धरै, धर्म सुने अधिकाय ॥ प्राणी०, चारण मुनि तहा, पारणे आये राजा गेह । सोमा राणी आहार दे, पुण्य बढ़ो अति नेह ॥ प्राणी० तिस समय नभ मे देवता, चले जात विमान । जय जय शब्द भयो, घनो मुनिवर पूछो ज्ञान ॥ प्राणी० मुनिवर बोले राय सुनि, नन्दीश्वर सुर जात । जे नर करहि स्वभाव सो, ते होवे शिवकन्त ॥ प्राणी० यही वचन रानी सुने, मन मे भयो आनन्द । नन्दीश्वर पूजा करै, ध्यावै आदि जिनेन्द्र ॥ प्राणी० कार्तिक फाल्गुन षाढ़ मे, पालौ मन वच देह । बसु दिन बसु पूजा करे, तीन भवान्तर लेह ॥ प्राणी० विद्यापति सुनि चालियौ, रच्यो विमान अनूप । रानी वरजै राय को, तुम तो मानुष भूप ॥ प्राणी०
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कार छ
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मानुपोत्तर लपत नहीं, मानुप जाती जात । जिनवाती निन्य सही. तीन भुवन विख्यात ॥ प्राणी० सो विवाति ना रहो, चली गन्दीरवर द्वीप। माननर निरिगे मिली, पायो न जाय महीप ॥ प्रासी० मानगर में भेटत, परी धरणि सिर भार। विजापनि म चरियो, देव भयो सुरसार ॥ प्रासी० दीप नन्दीश्वर दिनक, मे, पूजा वसु विधि ठान । करीमन व बाय से, माला पहनी प्रान ॥ प्राणी० विद्यापति को मा धरि, परवन रानी वात । त्रानन्द सो घर आइयो, नन्दीश्वर करि जात ।। प्रागी० रानी बोले रायसी, यह ती कवाई न होय । जिनवाणी मिथ्या नक्षी, निश्चय मन में सोय ॥ प्राणी० नन्दीश्वर जयमाल को, राय दिखाई आरिण। अव सांचों मोहि जानियो, पूजा करी बहुमान ॥ पारगी० रानी फिर तासों कहे, यह भव परसें नाहिं। पश्चिम सूरज उगई, हो विष अमृत माहि ॥ प्राणी० चन्द अङ्गारा जो भरे, निशा कमल उपजन्त ।' रवि अन्धेरा जो करे, वाल घी निकलन्त ॥ प्राणी०
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जन पूजा पाठ सप्रह
पुनि रानी सो नृप कहे, बावन भवन जिनाल । तेरह चोका बन्दि कर, पूज करी तत्काल || प्राणी० ॥ जयमाला तहाँ मो मिली, आयो हूँ तुम पास । । अब तू मिथ्या मत कहे, पूज करी तज आस | प्राणी० ॥ पूरब दक्षिण वन्दि कर, पश्चिम उत्तर जान । मिथ्या भाषौ हूँ नही, मोहि जिनवर की आन ॥ प्राणो० ॥' सुन राजा तें सच कही, जिनवाणी शुभसार । ढाई दीप न लघई, मानुष गिरि विस्तार ॥ प्राणी० ॥ विद्यापति से सुर भयो, रूप धारि यह सोय । । रानी को तब स्तुति करी, निश्चय समकित तोय ॥ प्राणी० ॥ देव कहे रानो सुनो, मानुषोत्तर गिरि जाय । तह ते चय मैं सुर भयो, पूजि नन्दीश्वर आय ॥ प्राणी० ॥ एक भवान्तर मो रहो, जिन शासन परमाण। मिथ्याती माने नहीं, श्रावक निश्चय आण ॥ प्राणो० ॥ सुरचय तहाँ हथनापुरी, राज कियो भरपूर । । परिग्रह तज सयम लियो, कर्म महागिरि चूर ॥ प्राणी० ॥ केवलज्ञान उपाय कर, मोक्ष गयो मुनिराय । शाश्वत सुख विलसे सदा, जामन मरण मिटाय ॥ प्राणी० ॥ मब रानी की सुन कथा, सयम लीनो सार । तप करके वह सुर भई, विलसे सुख विस्तार ॥ प्राणी०॥
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बैन पूजा पाठ सप्रह
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गजपुर नगरी अवतरी, राज कर बहु भाय । सोलह कारण भाइयो, धर्म सुनो अधिकाय ॥ प्राणी० ॥ मुनि संघाटक आइयो, माली सार जनाय । राजा वन्दे भावसो, पुण्य बढ़ी अधिकाय ॥ प्राणी० ॥ राजा मन वैरागियो, संयम लीनो सार। । आठ सहस नृप साथ ले, यह ससार असार ।। प्राणी० ॥ केवलज्ञान उपाय के, दोय सहस निर्वाण । दोय सहस सुख स्वर्ग के, भोगे भोग सुथान ॥ प्राणी० ॥ चार सहस भूलोक मे भोगे बहु ससार । काल पाय शिव जायेंगे, उत्तम धर्म विचार ॥ प्राणी० ॥ याही मानुष लोक में, तीन जनम परमाण। । लोकालोक सुजान ही, सिद्धारथ कुल ठाण ॥ प्राणी० ॥ भव समुद्र के तरण को, बावन नौका जान । जे जिय करे स्वभावसो, जिनवर साच बखान ।। प्राणी० ॥ मन वच काया जे पढे, ते पावे भव पार । विनय कीर्ति सुख सो भणे, जनम सफल ससार । प्राणी बरत अठाई जे करे, ते पावें भव पार ॥ प्राणी०॥
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४०८
जेन पूजा पाठ सग्रह
वारहमावना मंगतराधकृत दोहा-पन्दू श्री अरहन्तपद, वीतराग विज्ञान ।
वरबारह भावना, जगतीवनहित जान ।।१।। हन्द-कहां गये चक्री जिन जीता, भरतखण्ड सारा।
कहां गये वह रामरु लछमन, जिन रावन मारा। कहां कृष्ण रुक्मिणि सतमामा, अरु संपति सगरी। कहां गये वह रङ्गमहल अरु, सुवरन की नगरी ॥२॥ नहीं रहे वह लोभी, कोरफ जूझ मरे रन में। गये राज तज पांडव वन को, अगनि लगी तन में ॥ मोहनींद से उठ रे चेतन, तुझे जगावन को। ' हो दयाल उपदेश कर गुरु, बारह भावन को ।।३।।
१ अथिर मावना। सूरज चाँद छिप निकलै ऋतु. फिर-फिर कर आवै। प्यारी आयू ऐसी वीत, पता नहीं पावै।। पर्वत पतित नदी सरिता, जल वहकर नहीं हटता। स्वास चलत यों घटै काठ ज्यों, आरेसों फटता ॥४॥
ओसवूद व्यों गलै धूप में, वा अजुलि पानी। छिन-छिन यौवन छीन होत है, क्या समझे प्रानी ॥ इन्द्रजाल आकाश नगर सम, बगसंपति सारी। अथिर रूप ससार विचारो, सब नर अरु नारी ॥५॥
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अन पूजा पाठ सग्रह
४०९
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। २ अशरण भावना। । कालसिंह ने मृगचेतन को, घेरा भव वन मे। नहीं बचावनहारा कोई, यो समझो मन मे ।। मन्त्र यन्त्र सेना धन सपति, राज पाट छूटे। वश नहिं चलता काल लुटेरा, काय नगरि लूटे ॥६॥ चकरतन हलधरसा भाई, काम नहीं आया। . एक तीर के लगत कृष्ण की, विनश गई काया ।। देव धर्म गुरु शरण जगत में, और नहीं कोई। भ्रम से फिर भटकता चेतन, युही उमर खोई ॥५॥
- ३ संसार भावना। - । ।' जनम मरन अरु जरा रोग से, सदा दुःखी रहता। । । द्रव्य क्षेत्र अरु कालभाव' भव, परिवर्तन सहता ।। छेदन भेदन नरक पशुगति, बध बन्धन ‘सहना । राग उदय से दुःख सुरंगति में, कहीं सुखी रहना ॥८॥ भोगि पुण्यफल हो इकइन्द्री, क्या इसमें लाली। - "कुंतवाली दिन चार वही फिर, खुरपा अरु जाली ॥ मानुप जन्म अनेक विपतिमय, कहीं न मुख देखा। पञ्चमगति सुख मिले शुभाशुभ को, मेटो लेखा ॥६॥
४ एकत्व भावना-1 - . . . . . जन्मै मरै अकेला चेतना सुख दुःख का भोगी। - । और किसीका क्या इक दिन यह,.देह जुदी होगी ।।, -
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४१.
जैन पूजा पाठ सह
कमला चलत न पड जाय, मरघट तक परिवारा। अपने-अपने सुख को रोवें, पिता पुत्र दारा ।।१०। ज्यों मेले में पीजन, मिलि नेह फिर धरते। ज्यों तरुवर प रेन बसेरा, पंछी आ करते ।। कोस कोई दो कोस कोई, उड फिर थक-थक हारै। नाय अकेला हंस सग में, कोई न पर मारै।। १९॥
५ मिन्न (अन्यत्व) मावना ।। मोहरूप मृगतृष्णा जग में, मिथ्या जल चमक। मृग चेतन नित भ्रम में उठ-उठ, दो? धक-धकके। जल नहिं पावै प्राण गमाव, भटक-मटक मरता। वस्तु पराई मान अपनी, भेद नहीं करता ॥ १२॥ तू चेतन अरु देह अचेवन, यह जड तूझानी। मिले अनादि यवन बिछुडे, ज्यों पय अरु पानी ॥ रूप तुम्हारा सबसों न्यारा, भेद ज्ञान करना। जोलों पौरुष धर्के न तोलों, उद्यमसों चरना ।।१३।।
६ अशुचि भावना। तू नित पोखै यह सूख ज्यों, घोर त्यो मैली। निश दिन करै उपाय देह का, रोगदशा फैली। मात-पिता रज वीरज मिल कर, बनी देह तेरी। मास हाड़ नश लहू राघकी, प्रगट व्याधि घेरी ॥१४॥
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बेन पूजा पाठ संग्रह
काना पोंडा पडा हाथ. यह, चूसै तौ रोवै। फले अनन्त जु धर्म ध्यान की, भूमिबिषे बोव ॥ केसर चन्दन पुष्प सुगन्धित, वस्तु देख सारी। देह परसते होय अपावन, निशदिन मल जारी ॥ १५ ॥
७ आस्रव भावना। ज्यों सरजल आवत मोरी यों, आस्रव कर्मन को। दवित जीव प्रदेश गहै जब, पुद्गल भरमन को। भावित आस्रव भाव शुभाशुभ, निशदिन चेतन को। पाप पुण्य के दोनों करता, कारण बन्धन की ॥ १६ ॥ पैन मिथ्यात योग पन्द्रह, द्वादश अविरत जानो। पंचरु बीस कषाय मिले सब, सत्तावन मानो। मोहभाव की ममता टारे, पर परणत खोते। कर मोक्ष का यतन निरासव, ज्ञानी जन होते ॥१७॥
८सवर भावना। ज्यों मोरी में डाट लगावै, तब जल रुक जाता। त्यों आस्रव को रोकै सवर, क्यों नहिं मन लाता। पञ्च महाव्रत समिति गुप्तिकर, वचन काय मन को। दश विध धर्म परीषह बाइस, बारह भावन को॥ १८॥ यह सब भाव सतावन मिलकर, आस्रव को खोते । सुपन दशा से जागो चेतन, कहा पड़े सोते ।। भाव शुभाशुभ रहित, शुद्ध भावन संवर पावै। डाट लगत ग्रह नाव पड़ी, मझधार पार जावै॥ १६॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
९निर्जरा भावना। ज्यों सरवर जल रुका सूखता, तपन पडै भारी। सवर रोकै कर्म निर्जरा, है सोखनहारी ।। उदय भोग सविपाक समय, पक जाय आम डाली। दूजी है अविपाक पकावै, पालविर्ष माली ।। २० ।। पहली सबके होय नहीं, कुछ सरै काम तेरा। दूजी करे जु उद्यम करके, मिटै जगत फेरा ॥ संवर सहित करो तप प्रानी, मिलै मुकत रानी। इस दुलहिन की यही सहेली, जानै सब ज्ञानी ॥ २१ ॥
१० लोक भावना। लोक अलोक आकाश माहि थिर, निराधार जानो। पुरुषरूप कर कटी भये षट्, द्रव्यनसो मानों ॥ इसका कोइ न करता हरता, अमिट अनादी है। जीवरु पुद्गल नाचै यामें, कर्म उपाधी है ॥ २२ ॥ पाप पुन्यसों जीव जगत में, नित सुख दुःख भरता । अपनी करनी आप भरै शिर, औरन के धरता ।। मोहकर्म को नाश मेटकर, सब जग की आसा। , निज पद मे थिर होय, लोक के, शीश फरो बासा ॥ २३ ॥
११ बोधिदुर्लभ भावना। दुर्लभ है निगोद से थावर, अरु त्रसगति प्रानी। नरकाया को सुरपति तरसै, सो दुर्लभ प्रानी ॥
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४१३
उत्तम देश सुसगति दुर्लभ, श्रावककुल पाना। दुर्लभ सम्यक दुर्लभ मंगम, पञम गुण ठाना ॥ २४॥ दुर्लभ रत्नत्रय आराधन दीक्षा का धरना । टुलंभ मुनिवर को प्रत पालन, गुल भाव परना । दुर्लभ में दुर्लभ है तन, बोधिज्ञान पावै। पाफर रेचरमान नहीं पिर, इस भव में आवं ॥ २५ ॥
१२ धर्म भावना। पट सरशन जन पोर नास्तिक ने, जग को लूटा। मृना ना और मुहम्मद का, मजहब झूठा ॥ होमुरा सय पाप पर सिर, फरता ऐ लाव। फोई दिनक कोई परता से, जग में भटकाये ॥२६ ।। वीतराग सा दोप नि, नीजिन की वानी। मम तत्य का वर्णन नाम, ननको सुखदानी॥ इनमा चितवन बार-बार पर. असा उर धरना। 'मगन' मी सतनत फदिन, भवसागर तरना ।। २७ ।। पति नुमत नपुर निवासी गगतरायजीत बारह भावना समाप्त ।
वर्णी-वाणो की डायरी से - गन को शुद्धि विना काय शुद्धि का कोई महत्व नहीं । . जो मनुष्य अपने मनुष्यपने को दुलगता की ओर देखता है, वही ससार
मे पार होने का उपाय अपने आप मोजता है।
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जैन्द्र
तत्वार्थसूत्र पूजा पट् द्रव्य को जामें कह्यो जिनराज-वाक्य प्रमाण सों। किय तत्व सातों का कथन जिन-आप्त-आगम मान लॉ॥ तत्वाथ-सूत्रहि शास्त्र सो पूजो भविक मन धारि के। लहि ज्ञान तत्व विचार भवि शिव जाभवोदधि पार के॥ दोहा-जामें षट् यहिं कह्यो, क्ह्यो तत्व पुनि सात ।
सो दश सूत्रहि थापि के. जर्ज कम कटि जात ॥ न्यांवल.
टा ॐ हन्द दर व !
न्बाट सुरसरी कर नीरसुलाय के. करि सुप्रासुक कुम्भ भराय के। जजन सूहिंशात्रहिको करो.लहि सुतत्व-ज्ञानहि शिववरो। ॐईन्दर नकद मलयदारू पवित्र मंगायके, पति कपरवरण मिलायकोजा केन्द्रमा चन्दे
रनर चन्दन। सुनवशालिसुगंधितलायके,खंड विवर्जित थाल भरायकोजा * ईन्क
न् । सुमन वेल चमेलिहिकेवरा,जिनसुगंधदशदिश विस्तरा।ज. होन्नाकरन
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मैन पूजा पाठ सप्रह
वरसुहाल सुफेनिहिं मोदका,रसगुलारसपूरित ओदका।ज. ॐ ही श्रीजिनमुखोद्भवद्वादशांगसारभूताय श्रीतत्वार्थसूत्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य । घृत कपूर मणीकर दीयरा, करि उद्योत हरौतम हीयरा।ज.
ॐ ही श्रीजिनमुखोद्भवादशांगसारभूताय श्रीतत्वासूत्राय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं. गहु सुगंधित धूप दशांगहीं, धरि हुताशन धूम उठावहीं। ज०
ॐ ही श्रीजिनमुखोद्भवद्वादशांगसारभूताय श्रीतत्वार्थसूत्राय अष्टकर्मदहनाय धूप । कमुकदाख बदामअनारला,नरंगनीबूहिं आमहिंश्रीफलाज.
ॐ हीं श्रीजिनमुखोद्रवद्वादशांगसारभूताय श्रीतत्वार्थसूत्राय मोक्षफलप्राप्तये फल । जल सुचंदन आदिक द्रव्यले,अरघके भरिथालहिलेभले।ज. ॐ हीं श्रीजिनमुखोद्भवद्वादशांगसारभूताय श्रीतत्वार्थसूत्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्ध । विमल विमल वाणी, श्री जिनवर बखानी। ।
सुन भये तत्वज्ञानी ध्यान-आत्म पाया है। सुरपति मनमानी, सुरगण सुखदानी। .
सुभव्य उर आना, मिथ्यात्व हटाया है। समझहिं सब नीके, जीव समवशरण के।
निज-निजभाषा मांहि, अतिशय दिखानी है। निरअक्षर अक्षर के, अक्षरन सों शब्द के। .
शब्द सों पद बने, जिन जु बखानी है।
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उन पूजा पाठ सह
पादाकुलक छन्दसंसार मोह में मोह तरा, प्रगटी जिनवाणी मोह हग । ऊद्धरत हो नम नाश कग, प्रणमामि हर जिनवाणि वग ॥ अति मानसरोवर झील खरा, कन्णाग्न पूरित नीर भरा। दश-धर्म वहे शुभ हम तरा, प्रणमामि सूत्र चिनवाणि वग ॥ कल्पद्रम के मम जानतरा, नत्रय के शुभ पुष्ट वग। गुण तन्य पदार्थन पात्र कग, प्रणमामि स्त्र जिनवाणि वरा ।। वमुकर्म महारिपु दुष्ट खरा, तसु उपजी फैली वेली बरा । तसु नागन वाहि कुठार करा, प्रणमामि सूत्र जिनवाणि वरा ।। मद मायर लोमस क्रोध धग, ए कषाय महादु.सदाय तरा। तिन नाशि भवोदधि पार करा, प्रणमामि मूत्र जिनवाणि वरा ॥ वर षोडग कारण भाव धरा, षट् कायन रक्षण नियम करा। मद आटहे मदि के गर्द कग, प्रणमामि सूत्र जिनवाणि वरा ।। जिनवाणि न जाने त्रिजगत फिरा, जड़ चेतन भाव न भिन्न वरा। नहिं पायो आतम बोध वरा, प्रणमामि सूत्र जिनवाणि वरा ॥ शुम-कर्म उद्योत कियो हियरा, जिनवाणिहि ज्ञान जग्यो जियरा। भवभर मणहर शिव मार्ग धरा, प्रणमामि सूत्र जिनवाणि वरा ॥ सुत कन्हैयालाल परणाम करा, भगवानदास जिहि नाम धरा। जिनवाणि वसो नित तिहि हियरा, प्रणमामित्र जिनवाणि वरा॥
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पूERur
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पत्ता।
जिनवाणी माता सब सुख दाता.भवभ्रमहर मुक्तिकरा। शुभसूत्रहिंशास्त्रहि,वारहि वारहि दासजोरिकरनमनकरा श्री
तार साताप अन निर्यपानाति । जे पजे ध्यावें भक्ति वढावै जिनवाणी सेती। ते पावहिं धन धान्य सम्पदा पुत्र पौत्र जेती ॥ निरोग शरीर लह कीरति जग हरे भ्रमण फेरी । अनुकम सेती लह मोक्षधल तहं के होय वसेरी ॥
इति श्रीमपाग पूमा समा श्रीपभदेवके पूर्वभव
कपित्त गनहर। बादि जययमा दूज महानलमप तीज,
__सुग्गईशान ललितांग देव थयौ है। चौवे ब्रजनंघ एक पांच जुगल देह
___मम्यश ले दूज देवलोक फिर गयो है ॥ सातवें वृद्धिराय आठवें अच्युतइन्द्र,
नवमे नगेन्द्र वज्रनाभ नाम भयो है। दर्श अहमिन्द्र जान ग्यारवें ऋषभ-भानु,
नाभिनंद-भूधरके, गीस जन्म लयो है ॥ ८२ ॥
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7 पूजा पाठ मप्रह
सुगन्ध दशमी प्रत कथा माढों मुदी दशमी के दिन मुगन्धित धूप गे चुनने के बाद श्री-पुरुषों को मुयोग्य वक्ता द्वारा सुगन्ध दशमी व्रत कथा का प्रवण करना चाहिये।
चौपाई। पञ्च परम गुरु वन्दन करू, ताकर मम अप बन्धन इस। सार मुगन्ध व्रत कथा, भापत है भापी जिन यथा ॥ १ ॥ अर गुरु शारट के परसादि, कहस्य भेद मार पूजादि। व भवि इह व्रत करिहै सही, तिन स्वर्गादिक पढवी लही ॥२॥ सन्मति जिन गौतम मुनिराय, तिनके पद नमि श्रेणिक राय । करत भयो इम थुति सुखकार, विन कारण जग बन्धु करार ॥३॥ भर कमल प्रतियोधन सूर्य, मुक्ति पन्य निरवाहन धूये । श्रुतिवारिधि को पोत समान, इन्द्रादिक तुम सेवक जान ॥ ४ ॥ बत मुगन्ध दशमीडह मार, कीन्हूं किनि किमि विधि विस्तार। अरु याको फल केमो होय, मोक उपदेशो मुनि सोय ॥ ५॥ गौतम बोले मुन भूपाल, पुण्य कथा यह व्रत की माल । भृप प्रश्न तुम उत्तम कस्यो, में भाप जो जिन उच्चत्यो ॥६॥ सुनत मात्र व्रत को विस्तार, पाप अनन्त हर तत्काल | ने कर्ता क्रमत शिव जाय, और कहा कहिये अधिकाय ॥७॥ दोहा-जम्बू द्वीप विप यहां, भरत क्षेत्र सु जान । तहां देश काशी लस, पुर वाराणमी मान ॥ ८॥
चौपाई। पद्मनाभ जाको भूपाल, कीन्हूं वसुमद को परिहार । सप्त व्यसन तजि गुण उपजाय, ऐसे राज करे सुखदाय ॥६॥
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S ममदह
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श्रीमती नाके पर नारि, निन पति अति ही मुसकारि । एक समय चन क्रीड़ा हेव, जात हतो निज सैन्य समेत ॥ १० ॥ निजपुर से जय हो गयो, नत्र मन माहीं आनन्द लयो ।
पी एक सुनीयर सार, मास वाम करिके भवतार ॥ ११ ॥ अमन काजि बाते मुनि जोग, राणीसां भासे नृप सोय । तुम जानो पो भोजन सार, कीजो मुनिकी भक्ति अपार ॥ १२ ॥ मणिगण मन यो, भोगों में मुनि अन्तर करतो ।
१४ ॥
१५ ।।
१६ ॥
पापीमुनि आग, मेरे सुमन दियो गमाय ॥ १३ ॥ मनी में दुःखी अति चणी, आना मान नली पति तर्णी । जायद भोजन तत्काल जाने और चुनी भूपाल ॥ सूरतही घर गयो, राणी वसन महानिन्द दयो । करीरी को जुहार, दिपी मुनीन्यू दुःखकार ।। भवन करिनाले सुनिशर, मारग मादि गद्दल अति आग | भूमि परत सुनिशन, कियो भाचकां देखि इलाज ॥ नटे एक जिनालय नार, नहीं ले गये करि उपचार । फेरि ऐसे पच कमी, राणी मोटी भोजन दयो ॥ वानी महा दुःख पाय, शून्य हो गये है अधिकाय । धिर-धिक है नाकी अति घणू, दुष्ट स्वभान अधिक जा तणू ॥ १८ ॥ aat aantar राय, गुणी बात राजा दुःख पाय । रानीगों मोटे चच कहे, वखाभरण खोसि करि लये ॥ काटि दई घर चाहरि जन, दुःखी भई अति ही सो त । ऋष्टातुर है भारत कियो, प्राण छोरि महिषी तन लियो ॥ २०
१७ ॥
१६ ॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
याकी मात भैंस मर गई, तब ये अति दुर्बलता लई । एक समय कर्दम मधि जाय, मग्न भई नाला दुःख पाय ।। २१ ॥ तहां थकी देख्यो मुनि कोय, सीग हलाये क्रोधित होय । तवही पफ वि गडि गई, प्राण छोरि खरणी उपजई ॥ २२ ॥ भई पाँगुरी पिछले पाय, तबही एक मुनीश्वर आय । पूरव वैर सु मन में ठयो, तहां कलुप परिणाम जु भयो ॥ २३ ॥ दोहा-कियो क्रोध मन में घणु, दई दुलाती जाय ।
प्राण छोरि निज पायतै, लई सूकरी काय ॥ २४ ॥ श्वानादिक के दुःखत, भृसी प्याली होय ।
मरिकर चण्डाली सुता, उपजी निन्दित सोय ॥ २५ ॥ चौपाई-गर्भ आवतां विनस्यो तास, उपजता तन त्यागो मात ।
पाले सुजन मरै फुनि सोय. अरु आवत तन में बदवोय ॥ इक योजनलो आवै वांस, ताहि थकी आवै नहिं मांस । पञ्च अभख फल साबो करै, ऐसी विधि वन में सो फिरै ।। यहां एक मुनि शिष्य जु देख, राग कैप तजि शुद्ध विशेष । ता वन में आये गुण भरे, लघु मुनि गुरुसों प्रश्न जु करै । वासनिन्ध आवे अधिकाय, स्वामी कारण मोहि बताय । मुनि भाष सुनि मनवचकाय, जो प्राणी ऋपि को दुःखदाय ॥ ते नाना दुःख पावै सही, मुनि निन्दा सम अघको नही। कन्या ईनि पूरव भवनाहि, मुनि दुःखायो थो अधिकाहिं ।। ता कंरि तिरजगमे दुःख पाय, भुई वधिक कन्या जाय । सो इह देखि फिरतु है वाल, मुनि सशय भागौ ततकाल II
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४२१
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दोग-नि गुरसेम सिपपई, लव फिनि इनि अपनाय ।
मुनि पोले निन-धर्म को, थारे पाप पलाय ॥३२॥ नौराई-गुरुविषयपन मुता म तुन्यो, उपशम भान मुसाकर गुन्यो।
पत्रा अमरस पर त्यागे जब, अमन मिल लागो शुभ तवे ।। शुरू भाषी छोरे प्रान, नगर उज्जनी श्रेणिक जान । वदा दरिही जि क रहे, पाप उद करि पशु दुःख लहै। वा द्विज के पद पुत्री गई, पिता मात जम के पसि धई। दप यह इ.खपती पति होय, पाप समान न बैरी कोय । फष्ट-फट फरि पृद्धि जु मई, एक समय सो पन में गई। तमा सुदर्शन चे मुनिराप, अजितसेन राजा निहिं जाय ।। धर्म सुन्यो भूपति गुवकार, इह पुनि गई वहां तिहि पार ।
अधिक लोक कन्या का जोर, पाप यकी ऐसी फल होय ॥ दोहा-जान समे दह पन्यका, पासपुज सिरपारि ।
सठी मुनि यच मुनत धी, पुनि निज भार उदारि ॥३८॥ चौपाई-मुनि मुसतं गुण कन्या माय, पूरव भव मुमरण जय घाय।
याद करी पिछली वेदना, मी खाय परी दुःस घना॥ नप गजा उपचार कराय, घेत करी मुनि पूछि पुलाय। पुनी तं ऐसे क्यू भई, गुणि कन्या तव यू परनई ॥ पूरब मा विरतन्त बताय, में जु दुःसायो थो मुनिराय । करीत विका को जु आहार, दियो मुनिक अति दुःखकार ।। सो अघ अपली पणि मुझ ढहै, हम सुनि नृप मुनिवर सों कहे। इद किन विधि मुख पाच अब, तर मुनिराज पखान्यू तवे ।।
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जैन पूजा पाठ माह
जब सुगन्ध दशमी व्रत धर, तब कन्या अघ सचय हर । कसी विधि याकी मुनिराय, तव ऋपि भादवमास वताय ॥ सुदि पञ्चमि दिनसों आचरे, यथाशक्ति नवमीलो करें। दशमी दिन कीजै उपवास, ता करि होय अधिक अवनास ॥ । शुक्ल पक्ष दशमी दिन सार, दश पूजा करि वसु परकार । दश स्तोत्र पढ़िये मनलाय, दश मुख का घटसार बनाय ॥ ता में पावक उत्तम धरै, धूप दशांग खेय अघ हरै। सप्त धान्य को साथ्यो सार, करि तापरि दश दीपक धार ॥ ऐसे पूज कर मनलाय, सुखकारी जिनराज वताय !
ताते डह विधि पूजा करै, सो भवि जीव भवोदघि तरै ॥ दोहा-जिनकी पूज समान फल, हुवो न हसी कोय ।
स्वर्गादिक पद को कर पुनि देहै शिव जोय ॥ ४८॥ । चौपाई-दश संवत्सरलों जो कर, ताही के जिन गुण अवतरै।
करें बहुरि उद्यापन राय, सुनहु सुविधि तुम मन वचकाय ॥ महाशान्तिक अभिषेक करेय, जिनवर आगे पुहुप घरेय । जो उपकरण धरे जिन थान, ताको भेद सुण चित आन ॥ दश जु वर्णको चन्दवो लाय, सो जिन विम्ब उपरि तणवाय।
और पताका दश घन सार, वाजै घण्टानाद अपार ।। मुक्ति माल की शोभा करै, चमर युगल छवि अनुपम धरै ।
और सुणं आगें मनलाय, प्रभु की भक्ति किये सुख थाय ।। धूपदहन दश आरति आनि, सिंह पीठि आदिक पहचानि । इत्यादिक उपकरण मंगाय, भक्ति भाव जुत भव्य चढ़ाय ॥
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जन पूजा पाठ सप्रह
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दान आहार आदि उच देय, ताकरि भविअधिकौ फल लेय । आर्याको अम्बर दीजिये, कुण्डी श्रुत नजरे कीजिये ।। यथा योग्य मुनि को दे दान, इत्यादिक उद्यापन जान । जो नहिं इतनी शक्ति लगार, थोरो ही कीजे हितधार ।। जो न सर्वथा घर में होय, तो दणु कीजे व्रत सोय ।
पणि व्रत तौ करिये मनलाय, जो सुर मोक्ष सुथानक दाय ।। दोहा-शाक पिण्ड के दानतें, रतन वृष्टि ह राय। • यहां द्रव्य लागो कहां, भावनिको अधिकाय ॥ ५७॥
तातें भक्ति उपायकै, स्वातम हित मनलाय ।
व्रत कीजै जिनवर कहो, इम सुणि करि तव राय ।। ५८ ॥ चौपाई-द्विज कन्या को भूप बुलाय, व्रत सुगन्ध दशमी वतलाय ।
राय सहाय थकी व्रत करयो, पूरव पाप सकल तब हरथो॥ उद्यापन करि गन वप काय, और सुण आगे मन लाय। एक कनकपुर जाणो सार, नाम कनकप्रभु तसु भूपाल ।।। नारि कनकमाला अभिराम, राजसेठ इक जिनदत्त जु नाम ।। जाकै जिनदत्ता पर नारि, तिहि ताकै लीन्हूं अवतारि ॥ तिलकमती नामा गुण भरी, रूप सुगन्ध महा सुन्दरी । क्यूं इक पाप उदै पुनि आय, प्राण तजे ताकी तब माय ॥ जननी विन दुःख पावै वाल, और सुणू श्रेणिक भूपाल । जिनदत्त यौवनमय थौ जबै, अपनो व्याह विचारो तवे ।। इक गौधनपुर नगर सुजान, वृषभदत्त वाणिज तिहिं थान ।। ताकै एक सुता शुभ भई, बन्धुमती वसु संज्ञा दई ।
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४२१
पाठसग्रह
तासों कीन्हूं सेठ विवाह, वाजा वाजे अधिक उछाह । परणि सुपर लायो सुख भार, आगे और सुणू विस्तार ॥ ' दोहा-भोग शर्म करती भई, कन्या इक लखि माय ।
नाम धरयो तब मोदते, तेजोमती सुभाय ॥६६॥ छन्द-प्यारी माताकू लाग, नहिं तिलकमती सों रागै।
नाना विधि करि दुःख द्यावे, ताकै मनसा नहीं भावें ॥६॥ तब तात सुतासु निहारी, कन्या इह दुःखित विचारी। तब दासी आदिक नारी, तिनसों इमि सेठ उचारी ॥६८॥ याकी सेवा सुख कारी, कीज्यो तुम भक्ति विथारी ।
ऐसे सुणि सो सुख पावै, तब नीकी भांति खिलावै ॥६६॥ चौपाई-एक समय कञ्चन प्रभ राय, दीपान्तर जिन दत्त पठाय ।
नारीसों तव भाखै जाय, हमकू राजा दीपि भिजाय ॥ तात एक सुनो तुम बात, इह दो परणाज्यो हरपात। अष्ट गुणां युत जो वर होय, इनको करि दीज्यो अव लोय ॥ इम कहि दीपि चल्यो तत्काल, और सुणू श्रेणिक भूपाल । आवै करन सगाई कोय, तिलकमती जाचै तव सोय ॥ बन्धुमती भाखै जब आय, यामें अवगुण हैं अधिकाय । मम पुत्री गुणवन्ती धणी, रूप आदि शुभ लक्षण भणी ॥ तातें मो कन्या शुभ जान, वर नक्षत्र व्याहौ तुम आन । इनकी माने नाही वात, तिलकमती जाचै शुभ गात ॥ च्याह समय कन्या मम सार, करदेस्यूं न्याहित जिहिवार । करी सगाई आनन्द होय, व्याह समै आये तब सोय ॥
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जन पूजा पाठ सप्रह
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बन्धुमती फेरांकी बार, तिलकमती बहु भांति सिंगार। घडी दोय रजनी जव गई, तिलकमतीकू निज संग लई ।। जयहि मसाण भूमि मधि जाय, पुत्री लिह धान बैठाय।. तहां दीप जोये शुभ चारि, पूरे तेल उद्योत अपारि ।। चौगिरधा दीपक चउधरे, मध्य तिलकमती थिरता करे। तिलकमतीसों भापी जहां, तौ भरता आवेगो यहां॥ ताहि विवाहि आवजे वाल, इमि कहि कर चाली तत्काल । आधी रात गये तब राय, महल थकी लखि वितरक लाय॥ नृप ने मन इम निश्चय कियो, अवशि देखिये जो कछु भयो । 'देवसुता वा यक्षिन कोय, ना जाने वा किन्नर होय ।। ' के इह नारी इहां को आय, ऐसी विधि चितवन करि राय ।
हस्त खड्गले चालो तहां, तिलकमती तिष्ठे थी जहाँ ॥ दोहा-जाय पूछियो रायजी, तूं कुण है इनि थान ।
विलकमती सुण के तवै, ऐसी भांति पखानि ।। ८२ ॥ भूपति मेरे तातक, स्तन सुदीप पठाय ।
मोकू मम माता इहां, थापि गई अब आय ॥ ८३ ॥ चौपाई-भाखि गई इनि थानिक कोय, आवेगो ते भरता सोय।
यातें तुम आये अब धीर, मैं नारी तुम नाथ गहीर।। 'सुणि राजा तव न्याहसु कर्यो, रैनि रखो तैठे सुख धर्यो।
राजा प्रात समै अव लोय, निज मन्दिरकू आवनि होय॥ तिलकमती ऐसे तब कही, अब तो तुम मेरे पति सही। सर्प जेमि डसि जावो कहां, सुनि इमि भा भूपति तहां ॥
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४२६
जैन पूजा पाठ सग्रह
मैं निशि-निशि आस्यू तुझि पास, तू तो महा शर्म की राशि । तिलकमती पूछ सिरनाय, कहा नाम तुम मोहि बताय ॥ राजा गोप को निज नाम, इम सुणि तिय पायो सुखधाम । यू कहि अपने थानिक गयो, तवसे ही परमात सु भयो । वन्धुमती कहि कपट विचार, तिलकमती है अति दुःखकार ।
व्याह समय उठि गई किनि थान, जन जनसे पूछे दुःखमान ।।. 'दोहा-देखो ऐसी पापिनी, गई कहां दुःखद्याय ।
ढढत-दढ़त कन्यका, लखी मसाणां जाय ॥३०॥ जाय कहै दुःखदा सुता, इनिथानिक किमि आय।
भूत प्रेत लागो कहां, ऐसी विधि बतलाय ॥११॥ चौपाई-तिलकमती भापै उमगाय, तैं भाख्यो सो कीन्हूं माय ।
पन्धुमती कहि त्वग पुकार, देखो तो इह असत्य उचार । जानं कहा को इह आय, व्याह समै दुःख दिया अघाय । तेजोमती विवाहित करी, सावा की समये नहिं टरी ॥ पुनि भाषी उठि चल घर अवै, ले आई अपने घर जौ । तिलकमती सों पूछ मात, तै कैसो वर पायो रात ।। सुता कह्यो परियो हम गोप, रैनि परणि परमात अलोप ।
बन्धमती भापी ततकाल, री ! तैं वर पायौ गोपाल । ' दोहा-घर इक गेह समीपथो, सो दीन्हों दुःखपाय ।
नित प्रति रजनी के विषै, आवै तहां सुराय ॥ ६६ ॥
दीप निमित्त नही तेल दे, तबही अन्धेरे मांहि । . . राजा तैठेही रहै, सुख पावै अधिकांहि ।। ६७ ॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
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चौपाई-फइक दिन पुनि ऐसे गये, वन्धुमती तब यूं व कहे।
तोहि गुवाल्या ते कहि जाय, दोय चुहारी तो दे लाय तिलकमती आरे करि लई, रात्रि भये निज पतिपै गई । करि क्रीड़ा सुख वचन उचार, नाथ सुणूं अरदास हमार " जुगल बुहारी मेरी माय, जाची हैं तुमपै हरपाय।
पाते ला दीज्यो तुम देव, अङ्गी कीन्हू भूप स्वमेव ।। । समा जाय बेख्यो तब राय, स्वर्णकार तब सार बुलाय। । तिनत कही बुहारी दोय, अब करो जो उत्तम होय।।
इम सुनि तवहीं कश्चनकार, लागि गये गढ़ने अधिकार ।
स्वर्णसींक सबके मन मोहि, रन जड़ित मूख्यो अति सोहि ।। । पोड़श भूषण और मंगाय, डापा में धरि चाल्यो गय।
एक वेश उत्तम करि लियो, रजनी समय नारि ढिग गयो ।
रतन जड़ित की कोर जु सार, शोभै सारी के अधिकार । । भूपण वेश दये नृप जाय, दोय बुहारी लखित सुहाय ॥ ' नारि चरण नृप के तब धोय, सिरकेशनि से पूछत धोय ।
क्रीड़ा करि बहुते सुख पाय, प्रात भये नृप तो परि जाय । । तिलकमती अति हर्पित होय, जाय दई सु बुहारी दोय। '. और दिखाये भूषण वेश, माहीं देख्यो सार जु वेश ।।, • मन में दुःखित वचन इमि कह्यो, तेरो भरता तस्कर भयो।
राजा के भूषण अरु वेश, लाय दये तोकू जु अशेष ।।
हम सरकू दुःखद्यासी सोय, इम काहि खोसि लये दुःखि होय । .: यह दलगीर भई अधिकाय, रात वि पति सों कहि जाय ।।
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जैत्र पूजा पाठ सप्रह
भूषण वैश खोसि लये माय, निज पासे राखे दुःख पाय । 'राय तपै सम्बोधी जोय, मन चिन्ता राखो मति कोय ॥ • और घणेही देहूं लाय, इम सुणि तिलकमती सुख पाय । दीप थकी जिनदत्त जु आय, बन्धुमती पतिसों बतलाय ॥ तिलकमती के अवगुण घणां, कहा कहूँ पति अब वा तणां। 'व्याह समै उठिगी किनि थान, परण्यो चोर तहां सुख ठान ॥
सो तस्कर भूपति के जाय, भूषण वेश चोर कर लाय। याकू वह दीन्हें तब राय, खोसि रखे मौ ढिग में लाय ॥'
सेठ देख कम्पित भन मांहि, तब ही राज स्थानक जाय ।। 'धरे जाय राजा के पाय, सब विरतन्त कह्यो सुणि राय ॥ . कडो वेश भूषण तौ आय, परि वह चोर आनिधौ लाय । इहि विधि सेठ सुणी नृप वात, चाल्यो निज घर कम्पित गात ।। साह सुतासों इह दच कह्यो, तू हमकू यह कुण दुःख दियो। पतिकू जाणे है अकि नाहिं, कयो द्वीप विन जाणूं काहि ॥ कवहूं दीपक हेति सनेह, मोकू मम माता नहिं देह । सेठ कहें किसही विधि जान, तिलकमती जब बहुरि बखान ॥ इक विधि कर मैं जान तात, सो इह सुण हमारी वात । जब पति आवे मो ढिग यहां, तब उनि पद धोक्त थी तहां ॥ धोवत चरण पिछ सही, और इलाज इहां अब नहीं। सेठ कही भूपतिसों जाय, कन्या तौ इस भांति वताय ॥ ऐसे सुणि तब वोल्यो भूप, इहतौ विधि तुम जाणि अनूप । तस्कर ठीक करण के काज, तुम घर आवेगे हम आज ॥ सेठ तबै अति प्रसन्न भयौ, जाय तैयारी करतो भयो। तब राजा परिवार वुलाय, तवही सेठ तणे घर जाय ॥
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रेन पूजा पाठ सत्रः
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प्रजा जु सकल इकट्ठी भई, तिलकमती बुलवाय सु लई । नेत्र मुदि पद धोयत जाय, यह भी नही नही पति आव ।। जब नृप के चरणाम्बुज धोय, कहती भई यही पति होय । राजा हंसि इम कहतो भयो, इनि हम तस्कर कर दियो। तिलकगती पुनि ऐसे कही, नृप हो वा अन्य होई सही। लोक हसन लागे निहि वार, भूप मने कीन्हे ततकार ॥ पृधा तास्य लोकां मति करो, में ही पति निश्चय मन घरो। लोक व कसे इह वणी, आदि अन्तलो भूपति भणी। तपही तोक सकल दमकती, कन्या धन्य भूप पति लयो। पूरब इन व्रत कीन्हू सार, ताको फल इह फल्यो अपार ॥ भोजन अन्तर कर उत्साह, सेठ कियो सब देखत व्याह । ताक पटराणी नृप करी, भूपति मन में साता धरी ॥ एक नमै पतियुत मों नार, गई सु जिनके गेह, मझार । वीतराग मुख देख्यो सार, पुन्य उपायो सुखदातार ॥ सभा विप अतिसागर सुली, बठे जान निधी बहुगुनी। तिनको प्रणाम परम सुख पाय, पूछे मुनिवर सों हमि राय।। पूरव भर मेरी पट नार, कहा सुगर कीन्ह विधि धार । जाकर रूपवती इह मई, अधिक सम्पदा शुभ करि लई ।। योगी पुरव सब विरतन्त, मुनि निन्दादिक सर्वे कहन्त । अरु सुगन्ध दशमी व्रत सार सो इनि कीन्हूं सुखदातार ॥ ताको फल इह नाणं सही, ऐसे मुनि श्रुति सागर कही। तरही आयो एक चिमान, जिन श्रुत गुरु वन्दे तजि मान॥ मुनि नमस्कार करि सार, फेर तहां नृप देवि निहार । हिन्मती के पांवा परयो, जरु ऐसे सु वचन उम्धरयो ।
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४३.
जन पूजा पाठ सप्रह
दोहा-स्वामिनी ! तुम परसाद तें मैं पायो फल सार ।
व्रत सुगन्ध दशमी कियो, पूरब विद्या धार ।। १३३॥ ता व्रत के परभावते, देव भयो मैं जाय । तुम मेरी साधर्मिणी, जुग क्रम देखनि आय ।। १३४॥ इमि कहि वस्राभरण तें, पूज करी मनलाय ।
अरु सुर पुनि ऐसे कहो, तुम मेरी वर माय ॥१३॥ चौपाई-थुतिकर सुर निजथानिक गयो,लोकाइह निश्चय लखि लियो।
धन्य सुगन्थ दशमी व्रत सार, ताको फल है अनन्त अपार ।। तव सवही जन यह व्रत धस्यो, अपनू कर्म महाफल हरयो। तिलकमती कञ्चन प्रभु राय, मुनिक नमि अपने घरि जाय । देती पात्रनि को शुभ दान, करती सज्जन जन सन्मान । नित प्रति पूजै श्री जिनराय, अरु उपवास करै मनलाय ॥ पति व्रत गुण की पालनहार, पुनि सुगन्ध दशमी व्रत धार । अन्त समाधि थकी तजि प्रान, जाय लयो ईशान सु थान ।। सागर दोय जहां थिति लई, शुभ नै भयो सुरोत्तम सही। नारी लिङ्ग निन्ध छेदियो, चय शिववासी जिनवर्णयो। जहां देव सेवा बहु करे, निरमल चमर तहां शिर ढर। और विभव अधिकौ जिहिं जान, पूरव पुन्य भये तिहि आन ॥ इह लखि सुगन्ध दशैं व्रत सार, कीजै हो! भवि शर्म विचार।
जे भवि नर-नारी व्रत करें, ते संसार समुद्र सों तिरै ॥ दोहा-श्रुतसागर ब्रह्मचारी को, ले पूरव अनुसार ।
भाषा सार बनाय के, सुखित 'खुशाल' अपार ॥१४३॥
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नमः
29
श्री
रविव्रत कथा पार्श्व जिनेश, गुमति सुगति दाता परमेश । सुमरी शारदपद अरविन्द, विनपर व्रत प्रगटी सानन्द ॥ १ ॥ यापास नगरी तु विशाल, प्रजापाल प्रगट्यो भूपाल | मतिमागर वह सेठ सु जान, ताकी भूष कर सन्मान ॥ २ ॥ तान ठिया गुण सुन्दरी नाव, नाव पुत्र ताके अभिराम । पर भोग करें परणीत, वाररूप गुणधर सु विनत ॥ ३ ॥ सहमफ्ट शोभित जिन धाम, आयविपति राष्टित काम सुनि मुनि गति भये, सर्व लोग चन्दन को गये ॥ ४ ॥ गुरु वाणी सुनि के गुणवती, सेटिन त कर विनती । प्रभो म बताय, जामों रोग शोक भय जाय ॥ ५ ॥ कलानिधि मार्गादि सुनिराय, गुनी भव्य तुम चित्त लगाय ।
जापार पर विचार, तब कीजें अन्तिम रविवार ॥ ६ ॥ अनशन अपना अन्न नहार, लवणादिक जु को परिवार । नव फल युत पचामृत धार, हु प्रकार पूजा भनहार ॥ ७ ॥ उमफी जान, नव श्रापक पर दीजे आन । या विधि कर नव वर्ष प्रमाण, जाते होय सर्व कल्याण ॥ ८ ॥ अपना एक उस नार, कोर्जे रविनत मनहि विचार । सुनि गाइन निज परको गई, नत निन्दा करि निन्दित भई ॥ ६ ॥ व्रत निन्द्रा निर्धन भये, मानहिं पुत्र अवधपुर गये । वहां जिनदस सेठ पर रहें, पूरव दुष्कृत का फल लई ॥ १०॥ मात-पिता गृह दःसित सदा, अवध महित मुनि पूछे तदा । दयान् नि ऐसे की, व्रत निन्दा से तुम दुःस लखो ॥ ११॥ मुनि गुरु वचन बहुरि न लयो, पुण्य थयो घरमें धन भयो । भविजन मुनो कथा सम्बन्ध, जहं रहते थे वे सच नन्द ॥ १२॥
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जन पूजा पाठ सग्रह
एक दिवस गुणधर सुकुमार, घास लेन आयो गृह द्वार । क्षुधावन्त भावज प गयो, दन्त बिना नहिं भोजन दयो ॥१३॥ बहुरि गयो जहाँ भूल्यो दन्त, देख्यो तासों अहि लिएटन्त । फणिपति की तहं विनती करी, पद्मावति प्रगटी तिहि घरी ॥१४॥ सुन्दर मणिमय पारसनाथ, प्रतिमा एक दई तिहिं हाथ ।। देकर कयो कुवर कर भोग, करो क्षणक पूला सपोल ॥१॥ आनर्विव निज घर मे धरयो, तिहंकर तिनको दारिद्र हत्यो । सुख विलास सेवे सब नन्द, नित प्रति पूजे पार जिनन्द ॥१६॥ साकेता नगरी अभिराम, सुन्दर बनवायो जिन-धाम | करी प्रतिष्ठा पुण्य संयोग, आये भविनन सग सु लोग ॥१७॥ सङ्घ चतुर्विधि का सनमान, कियो दियो मनवाछित दान । देख सेठ तिनकी सम्पदा, जाय कही भूपतितों तदा ॥१८॥ भूपति तन पूछ्यो विरतन्त, सत्य कह्यो गणधर गुणवन्त । देख सुलक्षण ताको रूप, अति आनन्द भयो सो भूप ॥१६॥ भूपति गृह तनुजा सुन्दरी, गुणधर को दीनों गुण भरी। कर विवाह मङ्गल सानन्द, हय गज पुरजन परमानन्द ॥२०॥ मनवांछित पाये सुख भोग, विस्मित भये सकल पुर लोग । सुखसों रहत बहुत दिन भये, तव सव वधु बनारस गये ॥२१॥ मात-पिता के परसे पाय, अति आनन्द हिरदे न समाय । विघट्यो सवको विषय वियोग, भयो सकल पुरजन संयोग ॥२२॥ आठ सात नोलह के अङ्क, रवित्रत कथा रची अकलङ्क। थोड़ो अर्थ ग्रन्थ विस्तार, कहै कवीश्वर ओ गुणसार ॥२३॥ यह व्रत जो नर-नारी करें, कबहूँ दुर्गति में नहिं परें। भाव सहित ते शिवसुख लहै, भानु कीर्ति मुनिवर इमि कहैं ॥२४॥
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श्री वासुपूज्य जिन-पूजा
(वृन्दावन कृत)
छन्द रूप कवित्त श्रीमत वासुपूज्य जिनवर -पद, पूजन हेतु हिये उमगाय । धारो मन-वच-तन सुचि करिके, जिनकी पाटल-देव्यामाय ।। महिप-चिह्न पढ़ से मनोहर, लाल-वरन-तन समता-दाय । सो करुना-निधि-कृपा-दृष्टि, करितिष्ठहु सुपरितिष्ठ यहँाय
ॐ ही थी वासुपूज्यजिनेन्द्र । अत्र अवतर अवतर सवौपट् । ॐ ही श्री वासुपूज्यजिनेन्द्र । अब तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन । *ही श्री वासुपूज्यजिनेन्द्र ! अब मम सग्निहितो भव भव वपट् सन्निधीकरण ।
अण्टक
छन्द जोगीराला गगा-जल भरि कनक-कुभ मे, प्रासुक गन्ध मिलाई , करम-कलक विनाशन कारन, धार देत हरपाई। वासुपूज्य वसु-पूज-तनुज-पद, वासव संपत आई ,
वाल ब्रह्मचारी लखि जिनको, शिव-तिय सनमुख धाई। * हों श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल निवंपामोति स्वाहा । कृष्णागरु मलयागिरि चदन, केशरसग घसाई,
भव आताप विनाशन कारन, पूजो पद चितलाई ॥ वासु० ॥ ॐ हीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दन निर्वपामीति स्वाहा ।
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४३४
जैन पूजा पाठ सग्रह
देवजीर सुखदास शुद्ध वर, सुवरन-यार भराई , पुज धरत तुम चरनन आगें, तुरित अखय-पद पाई। वासुपूज्य वसु-पूज-तनुज-पद, वासव सेवत आई , वाल ब्रह्मचारी लखि जिनको, शिव-तिय सनमुख धाई ॥ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतानि निर्वपामीति स्वाहा। पारिजात सतान कल्पतरु, जनित सुमन बहु लाई,
मीनकेतु-मत-भजन-कारन तुम पद-पद्म चढाई || वासु० ॥ ॐ ली श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय कामवाणविध्वसनाय पुष्पाणि निर्वपामीति स्वाहा । नव्य गव्य आदिक रस-पूरित, नेवज तुरित उपाई,
क्षुधा-रोग-निरवारन-कारन, तुम्हे जजों शिर-नाई ॥ वासु० ॥ ॐ हों श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा । दीपक-जोत उदोत होत वर, दश दिशमे छवि छाई । तिमिर-मोह-नाशक तुमको लखि, जजो चरन हरषाई ॥ वासु० ॥ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय माहान्धकार विनाशनाय दीप निर्वपामीति स्वाहा । दशविध गध मनोहर लेकर, वातहोत्र मे डाई । अष्ट करम ये दुष्ट जरतु हैं, धूम सु धूम उडाई ॥वासु०॥ ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूप निर्वपामीति स्वाहा । सुरस सुपक्व सुपावन फल ले, कञ्चन-थार भराई । मोक्ष-महाफल-दायक लखि प्रभु, भेंट धरों गुन गाई ॥ वासु० ॥ ॐ ह्रीं वासुपूज्य जिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फल निर्वपामीति स्वाहा।
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जैन पूजा पाठ साह
सित भादव चौदशि लीनो, निरवार सुथान प्रवीनों। पुर चपा थानकसेती, हम पूजत निज - हित हेती ॥ ५ ॥
ॐ ही घी भाद्रपदशुक्लचतुर्दश्या मोसमगलप्राप्ताय श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
दोहा-चपापुर मे पचवर, कल्याणक तुम पाय । सत्तर धनु तन शोभनो, जै जै जै जिनराय ॥ १ ॥
छन्द मोतियादाम वर्ण १२ महासुख-सागर आगर ज्ञान, अनत-सुखामृत-भुक्त महान् । महावल-मडित खडत-काम, रमा-शिव-संग सदा विसराम ॥ सुरिंद फनिंद खगिद नरिंद, मुनिंद जजे नित पादरविद । प्रभू तुव अन्तर-भाव विराग, सुबालहते व्रत-शीलसो राग । कियो नहिं राज उदास-सरूप, सुभावन भावत आतम-रूप । अनित्य शरीर प्रपच समस्त, चिदातम नित्य सुखाश्रित वस्त ॥ अशन नही कोउ शर्न सहाय, जहांजिय भोगत कर्म-विपाय । निजातमके परमेसुर शन, नहीं इनके विम आपद-हर्न । जगत्त जथा जलबुदबुद येव, सदा जिय एक लहै फलमेव । अनेक-प्रकार धरी यह देह, भ्रमें भव-कानन आन न नेह ।। अपावन सात कुधात भरीय, चिदातम शुद्ध -सुभाव धरोय । धरै इनसो जब नेह तबेव, सुआवत कर्म तबे वसुभेव ॥
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प्रे मराठ
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जवे तन-भोग जगत- उदास, घरे तव सवर - निर्जर - आस । करे जब फर्म फक विनाग, लहे तब मोक्ष महासुखराश ॥ तथा यह लोक नरापुन नित्त, विलोकिय ते पट द्रव्य-विचित्त । सुजातम-जानन-बोध-विहोन, घरे दिन तत्त्व-प्रतोत प्रवीन ॥ जिनागम-शान मजम भाय, सर्व-निज ज्ञान विना विसराव | दुई क्षेष शुकाल, सुभाव सर्वे जिहतें शिव हाल ॥
●
नयोजय जोग सुन्य वद्याय कहो किमि दीजिय ताहि गँवाय । विचारत व लवकांतिक नाय, नमे पद-पकज पुष्प चढाय ॥ को प्रभु धन्य कियो सुविचार, प्रयोधि सु येम कियो जु विहार । नवेग धर्म तनो हरि नाय, रच्यो विविका चढ़ि आप जिनाय ॥ घरे पायन-बोध, दियो उपदेश भव्य संबोध | लियो फिर मोल महाग-रात्र, नमें नित भक्त सोई सुख आश ॥
बता
निन यामव-वदत, पाप-निकदत, वासुपूज्य व्रत-ब्रह्म-पती । नव सकट दिन आनंद महित, जे जे जे जेवत जती ॥ *श्री श्री पानीति स्वाहा । वानुपूज- पद सार, जजो दरवविधि भावस । ना पायें सुखमार, गुक्ति मुक्ति को जो परम || mais afgratafa fermila ]
144140cm
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भक्तामर-भाषा (लेखक-हजारीलाल 'काका' धुन्देलखण्डी) वीरवाणी, पाक्षिक पत्र के वर्ष ३५, अक ८ एव ९ से सामार उद्धृत) देवों के मुकुटो की मणियाँ, जिन चरणो मैं जगमगा रही, जो पाप रूप अंधियारे को दिनकर बन कर के भगा रही, जो भव सागर में पड़े हुये जीवो के लिये सहारे हैं, मन-वच-तन से उन श्री जिन के चरणो में नमन हमार है ॥ ५ ॥
श्रुतज्ञानी सुरपति लोकपति जिनके गुण गाते हर प्रकार, स्तोत्र विनय पूजन द्वारा बन्दन करते हैं बार-बार, जाश्चर्य माज में मन्द बुद्धि उन जादिनाथ के गुण गाता,
उनको भक्ति में मक्तामर भाषा मै लिख कर हर्षाता ॥२॥ जो देवो द्वारा पूज्य प्रभु. मैं उनके गुण गाने माया, होकर अल्पज्ञ ढीठता ही, अपनी दिसलाने को लाया, मतिमद हूँ उस बातक समान जिसके कुछ हाथ न माता है, प्रतिविम्ब चन्द्र का जल में लख लेने को हाय डुाता है ॥ ३ ॥
जब प्रलयकाल की वायु से सागर लहराता जोरो से, तिस पर मी मगरमच्छ घमें मुंह बाये चारो मोरो से ऐसे सागर का पार भुजाजो से क्या कोई पा सकता,
बस इसी तरह मैं मन्द बुद्धि प्रभु के गुण के से गा सकता ।।४।। जिस तरह सिंह के पजे मै बच्चा लख हिरणो जाती है, ममता वश सिंह समान बलो को अपना रोष जताती है, बस इसी तरह से शक्ति मैरी मुनिनाथ न स्तुति करने को, जो कहा मक्तिवश ही स्वामी है शक्ति न मक्ति करने की ॥ ५ ॥
ज्यों मान मजरी को लख कर कोयल मधुराग सुनाती है, वैसे ही तेरी भक्ति प्रभु जबरन गुण गान कराती है, है जल्प ज्ञान विद्वानो के सन्मुख यह दास हंसी का है, तेरी भक्ति की शक्ति ने जो कहा ये काम उसी का है॥६॥
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जन प्र पाठ संप्रद
पव जग के ऊपर हा जाता भवरे-सा काला धकार, सूरज की एक किरस उसको पस में कर देती हार-धार, वैसे ही भव भव के पातक जो भी समय हो जाते हैं. तेरी स्तुति के द्वारा ही सब बरा में क्षय हो जाते है ।।
ज्यों कमत पत्र के ऊपर पड़ जल की वर्दै मन हरतीह मोती समान लामा पाकर जो जगमग-जगमग करती हैं, बस उसी तरह यह स्तुति मी तेरे घरखो का दल पाकर,
विद्वानों का मन हर सेगी मुझ अल्प युद्धि द्वारा गाकर 151 है बिनकर तेरो कथा हो पर हर ध्यथा दूर कर देती है. फिर स्तुति का कहना ही क्या जो कोटि पाप हर लेती है,
से सूरज को उपयाती मग का हर काम चलाती है, पर उससे पहिसे को हासी कमतो के अण्ड खिलाती है।
है भुवनरत । है त्रिभुवनपति को तेरी स्तुति गाते हैं, नाश्वर्य नही इसमें कुछ मी वो तुम से बन जाते हैं, पैसे उदार स्वामी पाकर सेवक धनवाते बन जाते.
है जन्म व्यर्थ पग में उनका मो पर के काम नही माते ॥१० पो चन्द्र किरण सम उज्ज्वत पत मोठा क्षीरोदधि पान करे, वह नवखोदधि का सारा जस पीने का कभी न ध्यान करे, वैसे ही तेरी वीतराग मुद्रा को नेत्र देख लेते, तो उन्हें सरागी देव कमी अन्तर में शान्ति नही देते । १५.
जितने परमाणु शुद्ध जग में उनसे निर्मित तेरी काया, इसलिये जाप सा सुन्दर दूजा न कोई नजर आया देवा की गति सन्दर कान्ति जो नेत्रो में गड़ जाती है
पर वही कान्ति तेरै सन्मुस जातै फोकी पड़ जाती है । १२६ है नाय जाप का मुख मण्डस सुर नर के नेत्र हरण करता, दुनिया को सुन्दर उपमायें कर सकें नही जिसको समता,
कान्तिहीन चन्दा दिन में बस टाक पत्र-सा सगता है. वह भी जिन के सन्दर मुख फी उपमा कसे पा सकता है। १३ ॥
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४४.
जेन पूजा पाट माह
है त्रिभुवनपति तुम में सब ही उत्तम गुरस दिये दिखाई हैं, हैं पूर्ण चन्द्र से कनावान जो त्रिभुवन को सुखदाई हैं, इसलिये उन्हे इच्छानुसार विचररा से कौन रोक सकता, जो त्रिभुवनपति के जाप्रय हैं उनको फिर कौन टोक सकता। १४ ।
जो प्रलयकाल को तेज वायु पर्वत करती कम्पायमान, वह पर्वतपति समेर राज कर सकती नही चलायमान, दस उसी तरह से जो देवी देवों का मन हर सकती है,
वह समो देवियों मिल प्रभुको विचतित न जरा कर सकती हैं।१५। हे नाव दीप जितने जग के जो नजर हमारी जाते हैं, जरते जो तेल दाति द्वारा वायु लगते बुझ जाते हैं, पर नाथ जाप वह दीपक हैं जो त्रिभुवन के प्रकाशक हो, नि म जला करते निशदिन त्रिभुवन के तमी उपासक हो । १६ ।
हैं स्तत् प्रकाशो सूर्य जाप ग्रस सके न राहू पाप रूप, इफ समय एक सग तीन तोक का प्रकाशित होता स्वरूण, यह सूर्य मेघ से माच्छादित होकर दिन में छिप जाता है,
पर है मुनीन्द्र वह सूर्य माप जो स्दा प्रकाश दिखाता है । १०॥ मुखवन्द्र जाप का हे स्वामी मोहान्धकार का नाश करे, राहू मैघो से दूर सदा नित त्रिभुवन में प्रकाश करे, पर यह साधारण चन्द्र प्रभु राहू मेघो से घिर जाता, इतने पर भी यह सिर्फ रात में ही प्रकाश कुछ दे पाता । १८।
जब धान्य खेत में पक जाता जल को रहती परवाह नही, जल भरे बादलों को जग की रहती फिर किंचित चाह नही, बस उसो तरह मुसचन्द्र तेरा मज्ञान तिमिर जब हर लेता,
तो सूर्य चन्द्रमा को पाने पर कोई ध्यान नही देता । १६ । मरिणयो पर पड़ने से प्रकाश की जामा जितनी बढ़ जाती, वह छटा कांच के टुकड़ों पर पड़ने से कभी न जा पाती, बस उसी तरह है देव भापका स्वपर प्रकाशक तत्व ज्ञान, वह अन्य देवतागो से है कितना उज्ज्वल कितना महान । २० ।
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मyिापा सक) नदो। २७॥
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जैन पूजा पाठ माह
उनत अशोक तर के नीचे निर्मल शरीर अतिशय कारी, पति कान्तिवान जगमगा रहा झाको नगती है नति प्यारी, यह हृदय देव लगता मानो तन ने उजियाला पाया हो, या फिर मेों को चोर सूर्य का दिम्ब निकल पाया हो ॥ २८॥
है प्रमु ये मणिमय सिंहासन जितकी किरणें जगमगा रही, सुवरण से ज्यादा कान्तिवान तन को शोमा जति बढ़ा रही, ऐसा लगता उदयाचल पर सोने का सूरज बना हुमा,
जिस पर किरणों का कातिवान सुन्दर चन्दोवा तना हुजा ।। २६ !! जव समोशररा मे मगवन के सोने समान अन्दर तन पर, दुरते हैं जति रमणोक चंदर जो कुन्द पुष्प जसे मनहर, तब ऐसा लगता है उमेर पर जल की धारा दहती हो, चन्द्रमा समान उज्ज्वल राशि मरमर मरनों से मरती हो ॥ ३० ॥
शशि के समान सुन्दर मन हर रवि ताप नाश करनेवाले, मोती मरियो से जड़े हूये शोमा महान देनेवाले, प्रभु के सर पर शोभायमान त्रय छत्र समो को बता रहे,
ये तोनसोक के स्वामी हैं जगमग कर जग को बता रहे ॥१॥ गम्भीर उच्च रुचिकर ध्वनि से जो चारो दिशा गुलाते हैं, सत्सग की महिमा तीनलोफ के जीवो को बतलाते हैं, जो तीयंटर की विजय घोषणा का यश गान सुनाते हैं, गुलायमान जो नम करते वह दुन्दुमि देव बजाते हैं ।। ३२॥
जो पारिजात के दिव्य पुष्य मन्दार पादि से लेकर के, करते हैं उरगरा पुष्पवृष्टि गन्दोदविन्दु को दे कर के, ठण्डो बयार में समात्ति जद कल्प वृक्ष से गिरती है,
तद लगता प्रभु को दिव्यध्वनि ही पुष्प रूप मै सिरती है ॥३३॥ जो त्रिभुवन में देदीप्यमान की दीप्ति जीतनेवाली है, जो कोटि सूर्य को मामा को मो लषित करनेवाली है, जो शशि समान हो शान्ति सुघा जग को वर्षानेवाती है, उस मामण्डल की दिव्य चाँदनी से मी छटा निराली है।। ३४॥
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है प्रभु जाप को दिव्य-ध्वनि जव समवशरण में खिरती है, तब समी मोक्ष प्रेमी जोवो का अनायास मन हरती है, परिसमन जाप को धाणो का खुद हो जाता हर बौती में, जो भी बाराी जाफर सुनता है समवशरण को टोली में ॥ ३५ ॥
जन कमलो सो कान्तिदान चरणो की शोभा प्यारी है, नख की किरणो का तेज स्वर्ण जैसा लगता मनहारी है, ऐसे मनहारी चरणो को जिस जगह प्रभुजी धरते हैं,
उस जगह देव उनके नीचे कमलो की रचना करते हैं ॥ ३६॥ है प्री जिनेन्द्र तेरी विभूति सचमुच ही अतिशयकारी है, धर्मोपदेश की समा जाप जैसी न और ने धारी है, जैसे सूरज का उजियाला सारा नम्बर चमकाता है, वैसे नक्षत्र अनेको पर सूरज को एक न पाता है ॥ ३७॥
मदमस्त कली के गण्डस्थल पर जब मौर मंडराते हैं, उस समय क्रोध से हाथी के दोउ नयन लाल हो जाते हैं, इतने विकराल रूपवाला हायो जय सन्मुख जाता है,
ऐसे सङ्कट के समय जाप का भक्त नही घबराता है ।। ३ ।। जो सिंह मदान्ध हाथियो के सिर को विदीर्ण कर देता है, शोणित से सथपथ गज मुक्ता पृथ्वी को पहिना देता है, ऐसा क्रूर धनराज शत्रुता छोड़ मित्रता धरता है, जव उसके पजे मे भगवन कोई मक्त जाप का पड़ता है ।। ३६ ।।
हे प्रभो प्रलय का पवन जिसे धू-धू कर के धधकाता हो, ऐसी विकराल अग्नि ज्वाला जो क्षण मै नाश कराती हो, उसको तेरे वचनामृत जल पल भर मै शान्ति प्रदान करे,
जो भक्तिभाव कीर्तन रूपी तेरा पवित्र जल पान करे ॥ ४०॥ है प्रभु नागदमनी से ज्यो सपों की एक न चल पाती, विषधर की डंसने की सारी शक्ति क्षण में क्षय हो जाती, बस उसी तरह प्रद्धा से जो तेरा गुण गान किया करते, वह डरते नही क्रुद्ध काले नागो पर कमी पैर धरते ।। ४१ ॥
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'जैसे सूरज की किरणो से अंधियारा नजर नही जाता, भीषण से भीषण अन्धकार का कोई पता नही पाता, बस उसी तरह से है जिनवर जो गाता तेरी गुण गाथा, उसको सशक्त हय गज वाले राजा टेका करते माथा ।। ४२ ॥
रण मे माले से जरियो का जब रुधिर वैग से बहता है, वह रुधिर धार कर पार वेग से हर योद्धा तत्पर रहता है, ऐसे दुर्जय शत्रु पर भी वह विजय पताका फहराते,
है प्रम माप के चरण कमल जिनके द्वारा पूजे जाते ॥४३॥ सागर की भीषण लहरो से जब नया डगमग करती है, या फिर प्रलयकारी स्वरूप अग्नि जब अपना धरती है, उस वक्त जापका ध्यान मात्र जो भक्त हृदय से करते हैं, इन आकस्मिक विपदामो में हर समय देव गण रहते हैं ।। ४४ ॥
हे प्रमो जलोदर से जिनको काया निर्बल हो जाती है, जीने को आशा छोड़ दशा जब शोचनीय हो जाती है, उस समय जापके चरणों की रज जो बीमार लगाते हैं,
वह फिर से कामदेव जैसा सुन्दर स्वरूप पा जाते हैं ॥ ४५ ॥ जो लौह श्रृङ्खलामो द्वारा पग से गर्दन तक जकड़ा हो, जकड़न से जवानों पर का चमड़ा भी कुछ-कुछ उखड़ा हो, ऐसा मानव भी बन्धन से पल मैं मुक्ति पा जाता है, 'जो तेरे नाम मन्त्र को प्रभु अपने अन्तर मै ध्याता है।॥ ४६॥
है प्रभु जाप को यह विनती जो भक्ति भाव से गाते हैं, दावानल सिंह सर्प हाथी हर विघ्न दूर हो जाते हैं, तिर जाते गहरे सागर से तन के बन्धन कट जाते हैं,
हर रोग दूर हो जाते जो भक्तामर पाठ रचाते हैं॥४७॥ यह शब्द सुमन से गथी है श्री जिनवर के गुण की माला, वह मोक्ष लक्ष्मी पाता है जिसने भी इसे गले डाला, श्री मानतुङ्ग मुनिवर ने यै स्तोत्र रचा सुखदाई है, कवि 'काका' ने माषा द्वारा हर कण्ठो तक पहुंचाई है ।। ४६॥
दोहाभक्तामर स्तोत्र का करे मव्य जो जाप,मनोकामना पूर्ण हो मिटे सभी सताप। विघ्न हरन मगल करन सभी सिद्धि दातार,'काका' मक्तामर नमो भव दधि तारनहार ।
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समाधिमरण भाषा बन्दों श्री मरहत परमगुरु, जो सबको सुखदाई ,
इस जग मे दुख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई। अव मैं अरज करू प्रभु तुमसे, कर समाधि उर माही। अन्त समय में यह वर मागू, सो दोज जग-राई।।१॥ मव भव में तनधार नया मैं. भव भव शुम सग पायो, भव भव में नृपरिद्धि सई में, मात पिता सत थायो। भव भव में तन पुरुषतनों धर. नारी हूँ तन लीनो , भव भव मे मैं भया नप सक, मातम गुण नहि चीन्हो ॥ २॥ भव भव मै सरपदवी पाई. ताके सुख अति भागे , भव मन मे गति नरकतनो धर, दुख पायो विधि योगे। भव मव में तिर्यश्च योनिधर, पायो दुख अति भारी, भव मन में साधर्षीजनको, सग मिल्यो हितकारी ॥३॥ भव भव मे जिनपूजन कोनी, दान सुपात्रहिं दीनो, भव भव में में समवसरण मे, देखो जिनगुण भीनो। एती वस्तु मिली भव भव में, सम्यकगुण नहिं पायो, नहिं समाधियुत मरण कियो मैं, तात जग भरमायो॥ ४ ॥ काल अनादि मयो जग भ्रमतें, सदा कुमरणहि कीनो, एकधार हूँ सम्यकयुत मैं, निज मातम नहिं चीनी । जो निज पर को ज्ञान होय तो, मरण समय दुख कोई . देह विनासी में निज भासी, ज्योति स्वरूप सदाई ॥ ५ ॥ विषय कपायन के वश होकर, देह जापनो जान्यो, कर मिव्या सरधान हिये विच, मातम नाहि पिछान्यो । यो कलश हियधार मरणकर, चारों गति भरमायो , सम्यकदर्शन-ज्ञान-चरन ये हिरदै मै नहिं लायो ।॥ ६ ॥ अव या अरज करू प्रभु सुनिये, मरण समय यह मांगो, रोगजनित पीडा मत होवे, अरु कषाय मत जागो। ये मुझ मरण समय दुखदाता, इन हर साता कीजै , जो समाधियुत मरण होय मुझ, जर मिथ्यामद छीजै ।। ७॥
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जैन पूजा पाठ सग्रह
यह सब मद मोह बढावनहारे, जिसकी दुर्गति दाता, इनसे ममत निवारो जियरा, जो चाहो सुख साता । मृत्यु कल्पद्रुम पाय सयाने, मोगो इच्छा जेती, समता धरकर मृत्यु करो तो, पावो सम्पत्ति तेती ॥ १५॥ चौमाराधन सहित प्राण तज, तो था पदवी पावो, हरि प्रतिहरि चक्रो तीर्थेश्वर, स्वर्गमुक्ति में जावो । मृत्युकल्पद्रुम सम नहिं दाता, तीनो लोक मझारे, ताकी पाय कलेश करो मत, जन्म जवाहर हारे || १६ ॥
इस तन मे क्या राचे जियरा, दिन दिन जीरन हो है, तेजति बल नित्य घटत है, था सम अथिर सु को है । पाचो इन्द्री शिथिल भई अब, स्वास शुद्ध नहिं आवै, तापर भी ममता नहि छोडे, समता उर नहि लावै ॥ १७ ॥ मृत्युराज उपकारी जियको तनस तोहि छुड़ावै, नातर या तन बन्दीगृह में, परयो परयो बिललावै । पुद्रन के परमाणु मिलके, पिण्डरूपतन भासी, याही मूरत मैं अमूरतो, ज्ञानजोति गुणवासी || १८ || रोगशोक आदिक जो वेदन, ते सब पुद्गल लारे, में तो चेतन व्याधि विना नित, है सो भाव हमारे । या तनस इस क्षेत्रसम्बन्धी, कारन जान बन्यो है, खान-पान दे थाको पोष्यो, जब सम भाव उन्यो है ॥ १६ ॥ मिथ्यादर्शन आत्मज्ञान बिन, यह तन अपनो मायो, इन्द्री भोग गिने सुख मैंने जापो नाहिं पिछान्यो । तन विनशनते नाश जानि निज, यह अथान दुखदाई, कुटुम्ब आदि को अपनी जान्यो, भूल अनादि छाई ||२०|| अब निज भेट् जथारथ समभयो, मैं हूं ज्योतिस्वरुपी,
उपजे विनसे सो यह पुद्गल, जान्यो इष्ट अनिष्ट जेते सुख-दुख हैं, सो मैं जब अपनी रूप विचारों, तब वे
याको रूपो । सब पुद्गल लागेँ, सब दुख भागें ॥ २२ ॥
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जे पूजा पाठ सद दिन ममता तनत ६२ : ति दुर सा.
स्वर र नन्त र म ग यानि । दर नर महिउर द्वाति - Eि ति दार. ना हुन्छ दिसा ॥२२॥ fea मा. ६ दु३ . - 2 उर मता ?. नृत्युार को 11 नहि ना, टेट न खदा। पतेदन.. दे. मग सत्य की,
मदिन 31+ F1 को हं . २३ । - मटा मा पदे. हमें में स्टे तरहीने मिर्गत बाम तर चित टे।
द: पनी समत. दिन कोड गहि नहाइ, मात पित त सन्द तिरिमा.स्द हैं दुदाई ॥२४॥ मन्यु नगर में मार रें. तने जगत हा है. भारत गति को पावे, ८ माहतया है।
और परिग्रह तै उ7, तिनो प्रोति न मे, पर व में 4 ग २ चा हक भारत कोज । २५॥ ७ दत्तु खन है त पर, दिनना ने निवारा, परगति ६ ताद न च रेसो भाव विचारो। जो परदने ना - तुम तिर प्रीति को, पच पाप तज समता भागे, दान चार विधि को ।।२६।। दश समय धर्म धरा उर, नुकम्मा उर नवो, पोडकारण नित्य चिन्तवा, द्वादश भावना माना। चारो परको प्रोषध कोजे, जसन रातको त्यागा, समता घर दुरमाद निटारो, सयमले जनुगो ।।२।। अन्त समय में ये शुम माहि. हो नानि तहाई स्वर्ग मोक्षफन ताहि दिखावे, रिडि देहि अधिकाई । स्रोटे भाव स्फत जिय त्यागो, उरमे समता के, जासेतो गति चार दूर कर, यसो मोक्षपर जकै ॥२८॥
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मैन पूजा पाठ सप्रह
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मन थिरता करके तुम चिन्तो, चौ माराधन भाई, वे ही ताको सुख की दाता. और हितू कोउ नाही। मागे बहु मुनिराज भये है. तिन गर्हि थिरता भारी, बहु उपसर्ग सहै शुम भावन, माराधन उर धारी ॥२६॥ तिनमे कछुइफ नाम कहूँ मै, सनो जिया चित लाके , भावसहित अनुमोदै तासे, दुर्गति होय न जाके । अरु समता निज उर में मावै, भाव अधीरज जावे , यो निशदिन जो उन मुनिवर को, ध्यान हिये बिच लावें ॥३०॥ धन्य-धन्य सुकुमाल महामुनि, कैसे धीरज धारी, एक श्यालनी युगबच्चायुत, पाय मख्यो दुखकारी। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, जाराधन चित धारी. तो तुमरे जिय कौन दुख है. मृत्यु महोत्सव बारी ।।३।। धन्य-धन्य जु सकौशल स्वामी, व्याघ्री ने तन खायो, तो भी प्रीमुनि नेक डिगो नहि, मातमसो हित लायो। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, अाराधन चित धारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है। मृत्यु महोत्सव बारी ॥३२॥ देखो गजमुनि के सिर ऊपर, विप्र अगिनि बहू बारी, शीश जले जिमि लकडी तनको, तो भी नाहि चिगारी। यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, अाराधन चित धारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है, मृत्यु महोत्सव बारी ॥३३॥ सनत्कुमार मुनि के तन मै, कुष्ठ वेदना व्यापी, छिन्नभित्र तन तासो हूवो, तब चित्यो गुण मापी । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है, मृत्यु महोत्सव बारी ॥३४।। श्रेणिकसुत गगा में डुब्यो, तब जिन नाम चितारयो, धर सलेखना परिग्रह छोड्यो, शुद्ध भाव उर धारयो । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, माराधन चितधारी, तो तुमरे जिये कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥३॥
२९
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जैन पूजा पाठ सप्रह
समन्तभद्र मुनिवर के तन मे क्षुधावेदना जाई , तो दुख मे मुनि नेक न डिगियो, चित्यो निजगुण माई । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, माराधन चितधारी, तौ तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारो॥३६॥ ललितघटादिक तीस दोय मुनि, कौशाम्बीतट जानो , नदी मे मुनि बहकर डूबे, सो दु ख उन नहि मानो। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥३७॥ धर्मकोष मुनि चम्पानगरी, बाह्म ध्यान धर ठाढ़ो, एक मास की कर मर्यादा, तृषा दुख सह गाढ़ो। यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, अाराधन चितधारी, तौ तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥३८।। श्रीदत्तमुनि के पूर्व जन्म को, बैरी देव सु जाके , विक्रिय कर दु ख शीततनो, सो सह्यो साधु मनलाके । यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, माराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ।।३६ ।। वृषमसेन मुनि उष्ण शिला पर, ध्यान धरयो मनलाई , सूर्य धाम अरु उष्ण पवन की, वेदन सहि अधिकाई। यह उपसर्ग सह्यो घर थिरता, माराधन चितधारी, तौ तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥४०॥ अभयघोष मुनि काकदीपुर, महावेदना पाई , बैरी चन्डने सब तन छेद्यो, दु ख दोनो अधिकाई । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, आराधन चितधारी, तौ तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारो॥४१॥ विद्यु त चर ने बहु दु ख पायो, तो मी धीर न त्यागी, शुम भावना से प्राण तजे निज, धन्य और बड़भागी। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, माराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ।। ४२॥
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पुत्र चिलाती नामा मुनि को, बैरी ने तन घातो, मोटे-मोटे कोट पडे तन, तापर निज गुण रातो । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, अाराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्युमहोत्सव बारी ॥४३॥ दण्डकनामा मुनि की देही, बाणन कर अति भेदी, तापर नैक डिगे नहि वै मुनि, कर्म महारिपु छेदी । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, अाराधन चितधारी, तो तुपरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ।।४४।। अभिनन्दन मुनि जादि पांच सौ, घानि पेलि जु मारे, तो भी श्रीमुनि समता धारो, पूरब कर्म विचारे । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, अाराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव वारी ॥४५॥ चाणक मुनि गौधर के माही, मन्द जननि पर जाल्यो, श्रीगुरु उर समभाव धारके, अपनो रूप सम्हाल्यो । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, माराधन चितधारी, तौ तुपरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी । ४६० सात शतक मुनिवर ने पायो, हस्तनापुर मे जानो, बलिब्राह्मण कृत घोर उपद्रव, सो मुनिवर नहि मानो। यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, माराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥४७॥ लोहमयी जाभूषण गढके, ताते कर पहराये , पांची पाण्डव मुनि के तन में, तो मो नाहि चिगाये । यह उपसर्ग सह्यो धर थिरता, अाराधन चितधारी, तो तुमरे जिय कौन दुख है ? मृत्यु महोत्सव बारी ॥४८॥
और अनेक मये इस जग मै, समता रस के स्वादी, वे ही हमको हो सुखदाता, हर हैं टेव प्रमादी। सम्यक्-दर्शन ज्ञान चरन तप, ये आराधन चारो, ये ही मोक सुख के दाता, इन्हे सदा उर धारो ॥ ४ ॥
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जैन पूजा पाठ सह
यो समाधि उरमाही तावा, अपनो हित जो चाहो , तज ममता अरु जाठी मदको, जोतिस्वरूपी ध्यावो । जो कोई नित करत पयानो, ग्रामान्तर के काजै. सो भी शकुन विचारै नीके, शुभ के कारण साजे । ५०॥ मातादिक जरु सर्व कुटुम्ब सौ, नीको शकुन वनावे , हतदी धनिया पुनो जात, व दही फल लावै । एक ग्राम के कारण एते. कर शुभाशुभ सारे, जब परगति को करत पयानो, तउ नहि सोचे प्यारे । ५११ सर्व कुटुम्ब जब रोवन लाग, तोहि रुलावे सारे , ये अपशकुन करें सुन तोको, तू यो क्यो न विचारे । जव परगति को चालत दिरिया, धर्मध्यान उर जाना , चारो माराधन माराधा, माहतनो दुस हानो । ५२ हे नि शल्य तजो सब दुविधा मातमराम सध्यावो , जब परगति को करहु पयानो, परम तत्व उर तावो । मोह जालको काट पियारे, अपनो रूप विचारो , मृत्यु मित्र उपकारी तरी, यो उर निश्चय धारो । ५३६ दोहा -मृत्युमहोत्सव पाठको पढौ सुनो बुधिवान ।
सरधा धर नित सुस लहो, सूरचन्द्र शिवथान । पञ्च उभव नव एक नम, सवत सो सुखदाय । माश्विन श्यामा सप्तमी, कह्यो पाठ मनलाय ।
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श्री शांतिनाथ जिन पूजा (कवि श्री रामचन्द्रजी कृत)
अडिल्ल शान्ति जिनेश्वर नमूं तीर्थ वस दुगुण ही,
पचमचक्री जनग दुविध षट् सगुण ही। तृणवत रिधि सब छारि धारि तप शिव वरी,
जाह्वाननविधि करू वारत्रय उच्चरी ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र । अत्र अवतर अवतर सवौषट् । ॐहीं थी शान्तिनाथ जिनेन्द्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ स्थापन । ही श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र ! अब मम सन्निहितो भव भव वपट् ।
नाराच छन्द शैल हेमतें पतत जापिका सन्यौमहो।
रत्नभृन्गधारि नीर सोत जग सो मही॥ रोग सोग माधि व्याधि पूजते नसाय हैं।
अनत सौख्यसार शातिनाथ सैय पाय है ॥२॥ ॐ हौं श्री शान्तिनाजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जल नि.
चदनादि कुकमादि गधसार ल्यावही
भृग वृद गुजत समोर सग ध्यावही ।। रोग सोग० ।।२।। ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय ममारतापविनाशनाय चन्दन निर्व०
इदु कुद हारतें अपार स्वेत साल ही।
दुति खडकार पुज धारियै विशाल ही ।। रोग सोग० ॥३॥ ॐ ह्रीं श्री शान्तिनाथभगवज्जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् ।
पचवरन पुष्पसार ल्याइये मनोग्य ही।
स्वर्न थाल धारिये मनोज नास जोग्यही ॥ रोग सोग० ॥४॥ ॐ ह्री श्री शान्तिनाथ भगवज्जिनेन्द्राय कामबाणविध्वसनाय पुष्प०
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में पूजा पार
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मोद EMOREIT Trti नदि . ' ' . स्वात.मगीरोग 11000
सिगाना Mir Time घाटकन पोर मया । जिगुनी
॥ 10॥८॥ SITIमातिापमान निर० घ५-२५ दम्म तोर्य उता ।
चन दास निकर सादिति ॥ सर तर के 47 सम मनम पवन रें।
दीप रतनमय पति पते मई कारें ॥ तह फन उत्तम नर फरिम 'रामचन्द्र' कन पान मरि । शीशान्तिनाय के चरण जुग वम वि मा परि ॥६॥ ही श्री TITमगजिनेतापानापरप्राप्नये अभ्यं नियं०
पच कल्याणक अर्य दोहा- सरिय सिधित जये, भाद्रव सप्तमो स्याम ।
ऐरादे उर अवतर, राज गर्म अमिराम ।। ५ ॥ ही थी भारतामप्तम्यां गमगलमण्डिताय धी शान्तिनाय जिनेन्द्राय अर्घ नियंपामोति स्वाहा ।
जेठ चतुरदास कृष्णहो, जनम प्रोमगवान ।
सनपन करि सुरपति ज्जे, मैं जज हूँ धरि ध्यान ॥२॥ ॐही श्री ज्येष्ठाणचतुर्दश्या जन्ममालमडिताय श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
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जेठ असित चउदसि धरयो, तप तजि राज महान । सुर नर खगपति पद जजैं, है जज हूँ भगवान ॥ ३॥ ॐ ह्रीं श्री ज्येष्ठ कृष्णचतुर्दश्या तपोमगलमडिताय श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्धं निर्वपामीति स्वाहा ।
पोस सुकल ग्यारस हने, घाति कर्म सुखदाय । केवल लहि वृष भाखियो, जजू शांति पद ध्याय ॥ ४ ॥ ॐ हो श्री पौषशुक्लंकादश्या ज्ञानमगलमडिताय श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा ।
कृष्ण चतुरदसि जेठकी, हनि अघाति सिवथान । गये समेदाचल थकी, जजू मोक्ष कल्यान ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं श्री ज्येष्ठकृष्णाचतुर्दश्या मोक्षमगलम डिताय श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्राय अर्थं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
सोरठा - शांति जिनेश्वर पाय, बदू मन बच कायते । देहु सुमति जिनराय, ज्यौ विनती रुचि करौ ॥ १ ॥
( चाल ससार सासरियो भाई दोहिलो)
शांति करम वसुहानिक, सिद्ध भये सिव जाय । शांति करो सब लोक मे, अरज यह सुखदाय || शांति करो जगशांतिजी ॥ १ ॥
धन्य नयरि हथनापुरी, धन्य पिता विश्वसेन । धन्य उदर जयरा सती, शांति भये सुख देन || शांति० ॥२॥ भादव सप्तमि स्यामहि, गर्भकल्याणक ठानि ।
रतन धनद वरषाइये, षट नव मास महान | शांति० ॥३॥
जेठ जसित चउजस विषै, जनम कल्याणक इद ।
मेरु करचौ अभिषेक, पूजि नचे सुरवृन्द ।। शांति० ॥४॥
हेम वरन तन सोहना, तुग धनुष चालीस । आयुवरसलख नरपति, सेवत सहस बतीस || शांति० ||५||
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जैन पूजा पाठ सग्रह
पटखड नवविधि तियसर्व, चउदहरतन भडार । कछुकारण लखिके तजे, पणचव मसिय जगार । शाति०॥६॥ देव रिपि सब मायक, पूजि चले जिन वोधि । लेय सुरा सिवका धरो, विरछ नदीश्वर सोधि । शांति०।७। कृष्ण चतुरदसि जेठकी, मनपरजे लहि ज्ञान । इद कल्याणक तप करले, ध्यान धरया भगवान । शांति० ॥ षष्ठम करि हित असनक, पुर सोमनस ममार । गये दयो पय मित्तजी, वरषे रतन अपार । शाति०1. मौनसहित वसु दुगुणही, बरस करे तप ध्यान । पौष सुकह ग्यारसि हने, घाति लह्यो प्रभु ज्ञान । शाति० ॥१०॥ समवसरन धनपति रच्यो, कमलासनपर देव । इन्द्र नरा षटद्रव्यकी, सुति थिति थुति करि एव । शांति० ॥११॥ धन्य जगलपद सो तनौ, मायौ तुम दरबार। धन्य उम चखि ये मथे, वदन जिनन्द निहारि । शाति० ॥१२॥ आज सफल कर ये मये, पूजत श्रीजिन पाय । सीस सफल अब ही मयो, धोक्यो तुम प्रभु जाय । शाति० ॥१३॥ माज सफल रसना मई, तुम गुणगान करन्त । धन्य भयौ हिय मो तनी, प्रभुपदध्यान धरन्त । शाति० ॥१४॥ साज सफल जग मो तनौ, श्रवन सुनत तुमवैन । धन्य मये वसु अग ये, नमत लयौ अति चैन । शांति० ॥२५॥ राम कहै तुम गुणतणा, इन्द लहै नहि पार । मैं मति अलप अजान हूँ, होय नही विसतार । शाति० ॥१६॥ बरस सहस पचीसही, षोडस कम उपदेश । देय समेद पधारिये, मास रहे इक सैस : शाति० ॥१७॥ जेठ मसित चउदसि गये, हनि मघाति सिवथान । सरपति उत्सव जति करे, मगल मोछि कल्यान । शांति०५
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जैन पूजा पाठ सप्रह
४५७
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सेवक मरज कर सुनो, हो करुणानिधि देव । दुखमय भवदधि तें मुझे, तारि करू तुम सेव । शांति० २६॥
घत्ता छन्द इति जिन गुणमाला ममल रसाला जो मविजन कठे धरई। हुय दिवि अमरेस्वर, पहामि नरेस्वर, शिवसुन्दरि ततछिन वरई ।। ॐ ही श्री शातिनाथ जिनेन्द्राय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
षोडशकारण व्रत जाप समुच्चय -ॐ ही श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारण भावनाभ्यो नम । (३) ॐ हो भी दर्शन विशुद्धये नम (२) ॐ ही श्री विनय सम्पन्नताथै नम (३) ॐ ही श्री शोलव्रतेष्वनतिचाराय नम (४) ॐ ही श्री भाभीक्ष्णज्ञानो पयोगाथ नम (५) ॐ ही श्री सवैगाय नम (६) ॐ ही श्री शक्तितस्त्यागाय नम (७) ॐ ही प्री शक्तितस्नपसे नम (८) ॐ ह्री श्री साधुसमाधये नम (६) ॐ ह्री श्री वैयाव्रत्य करणाय नम (१०) ॐ ही श्री अहंभक्त्यै नम (११) ॐ ह्री श्री भाचार्य मक्त्य नम (२२) ॐ ह्री श्री बहुश्रुतमक्त्यै नम (१३) ॐ ह्री श्री प्रवचनभक्त्य नम (२४) ॐ ही श्री मावश्यकापरिहाणये नम (१५) ॐ ह्री श्री मार्गप्रभावनाय नम - (३) ॐ ह्री श्री प्रवचन-वत्सलत्वाय नम ।
* मजन * सांवलिया पारसनाथ शिखर पर भले विराजे जी। भले विराजे, भले विराजे, भले विराजे जी ॥ साव० ॥१॥ टोंक टॉक पर ध्वजा विराजे झालर घंटा वाजे जी। झालर की झंकार सुनो जव अनदह बाजे बाजे जी ॥ साव० ॥२॥ दूर दूर से यात्री आवे मन में लेकर चाव । अष्ट द्रव्य से पूजा कोनी, पुष्प दिये चढाय ॥ सांप० ॥३॥ पैंड पैंड पर सिंह दहाडे जहाँ भीलों का वासा। जहां प्रभु तुम मोक्ष गये थे वहाँ लियो निरवासा ॥ साव० ॥४॥ दूर दूर से भील भी आये जिनकी मोटी चोटी। जिन के दया धर्म नहीं मन में उनकी किस्मत खोटी सांव०॥५॥
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४५८
जैन पूजा पाठ सप्रह
* आरती * इह विधि मंगल आरती कीजे, पच परमपदभज सुख लीजे । टेक। पहली आरती श्री जिनराजा, भवदधि पार उतार जिहाजा । यह । दूसरी आरती सिद्धन केरो, सुमरन, फरत मिटे भव फेरो । यह। तीजी आरती सूर मुनिन्दा, जनम मरण दुःख दूर करिन्दा । यह । चौथी आरती श्री उवज्झाया, दर्शन देखत पाप पलाया । यह । पाचवीं आरती साधु तिहारी, कुमति विनाशन शिव अधिकारी॥ छट्ठी ग्यारह प्रतिमा धारी, श्रावक बन्दौं आनन्दकारी । यह । सातवीं आरती श्री जिनवाणी, 'द्यानत' स्वर्ग मुक्ति सुखदानी । सध्या करके आरती कीजे, अपनो जनम सफल कर लीजे । जो कोई आरती करे करावे, सो नर नारी अमर पद पावे ।
* चौबीसों भगवान की आरती * ऋपभ अजित संभव अभिनन्दन, सुमति पदम सुपार्श्व की जय हो।
जिनराजा, दीनदयाला, श्री महाराज की आरती । टेक। चन्द्र पहुप शीतल श्रेयाशा, वासुपूज्य महाराज की जय हो । जिन बिमल अनन्त धर्म जस उज्ज्वल, शान्तिनाथ महाराज की जय हो । जिन कुंथुनाथ, अरि, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमिनाथ महाराज की जय हो। जिन नेमिनाथ प्रभु पार्श्व शिरोमणि, वर्धमान महाराज की जय हो । जिन जिन चौबीलों की आरती करो, म्हारो आवागमन, म्हारो जामण मरण मिटावो महाराज जी, जय हो जिनराजा,
दीनदयाला श्री महाराज की आरती।
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॥ श्री महावीर स्वामी की आरती ॥ जय महावीर प्रभो स्वामी जय महावीर प्रभो। कुण्डलपुर अवतारी, त्रिशलानन्द विभो॥
ओम जय महावीर प्रभो। सिद्धारथ घर जन्मे, घेभव था भारी स्वामी वैभव था भारी वाल ब्रह्मचारी, व्रत पाल्यो तपधारी। १ । ओम जय
मातम मान विरागी, सम दृष्टि धारी।
माया मोह विनाशक, शान ज्योति जारी । २ । ओम जय . जग में पाठ अहिंसा, आपही विस्तारयो। हिंसा पाप मिटा कर, सुधर्म परिचार्यो । ३ । ओम जय
यहि विधि चादनपुर में अतिशय दरशायौ । ग्वाल मनोरथ पुरयो दूध गाय पायौ । ४ । ओम जय अमरचन्द को स्वपना, तुमने प्रभु दीना। मन्दिर तीन शिखिर फा, निर्मित है कीना। ५। ओम जय .
जयपुर नृप भी तेरे, अतिशय के सेवी।
एक ग्राम तिन दिनों, सेवा हित यह भी । ६ । ओम जय जो कोई तेरे दर पर, इच्छा कर आवे। मनवाछित फल पावै, संकट मिट जावे । ७ । ओम जय ·
निशि दिन प्रभु मन्दिर में जगमग ज्योति जरे। सेवक प्रभु चरणों में, आनन्द मोद भरे । ८।
ओम जय महावीर प्रभो॥
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पार्श्वनाथ की आरती
रचयिता-जियालाल जैन जय पारस देवा प्रभु जय पारस देवा । सुर नर मुनि जन तव चरनन को करते नित सेवा ॥ टेक पौष वदो ग्यारसी, काशी मे आनन्द अति भारी । अश्वसेन घर वामा के उर लोनो अवतारी ॥ जय० ॥ १ ॥ श्याम वरण नव हाथ काय पग उरग लखन सोहै । सुरकृत अति अनुपम पट भूषण सबका मन मोहै ॥ जय० ॥ २॥ जलते देख नाग नागिनी को पच नवकार दिया। हरा कमठ का मान ज्ञान का भानु प्रकाश किया ॥ जय० ॥ ३ ॥ मात-पिता तुम स्वामो मेरे आश करूं किसकी। तुम बिन दूजा और न कोई शरण गहूँ जिसकी ॥ जय० ॥ ४ ॥ तुम परमातम तुम अध्यातम तुम अन्तर्यामी । स्वर्ग मोक्ष पदवी के दाता त्रिभुवन के स्वामी ॥ जय० ॥ ५॥ दीनबन्धु दुखहरण जिनेश्वर तुम ही हो मेरे । दो शिवपुर का वास दास हम द्वार खड़े तेरे ॥ जय० ॥ ६ ॥ विषय विकार मिटाओ मन का अर्ज सुनो दाता। 'जियालाल' कर जोड प्रभु के चरणो चित लाता ॥ जय० ॥ ७ ॥
जय० ॥४॥
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अथ शांति मंत्र प्रारम्यते ॐ नमः सिद्धन्यः । श्री वीतरागाय नमः । ॐ नमोऽर्हते भगवते, श्रीमते पार्वतीय राय द्वादशगणपरिवेष्टिताय, शुक्लध्यान पवित्राय, सर्वज्ञाय स्वयभुवे, सिद्धाय, बुद्धाय, परमात्मने, परमसुखाय,
लोकमहोव्याताय, अनन्तससारचक्रपरिमदंनाय, अनन्तदर्शनाय, अनन्तवीर्याय, अनन्तमुपाय, सिद्धाय, बुद्धाय, त्रैलोक्यवशङ्कराय, सत्यनानाय, सत्यनह्मणे, धरणेन्द्र फणामण्डलमण्डिताय, ऋष्यायिका श्रावक श्राविका प्रमुख चतुस्सङ्घोपसर्गविनाशनाय, घातिकर्म विनाशनाय, अघातिकर्म विनाशनाय । अपवाय छिधि-छिधि भिधि-भिघि । मृत्यु छिधि-छिधि मिधि-भिधि । अतिकामछिधि २ भिघि २ । रतिकाम छिधि-छिधि भिघि भिधि । क्रोध छिधि-छिधि मिधि-मिथि। अग्नि छिधि-छिधि भिधि-भिधि । सर्वशत्रु छिधि २ भिघि २ । सर्वोपसर्ग छिधि २ भिधि २। सर्वविघ्न छिधि २ भिधि २॥ सर्वभय छिघि भिघि २ । सर्वराजभय छिधि २ भिधि २। सर्वचौरभय रिधि २ भिघि २ । सर्वदुष्टभय छिधि २ भिधि २। सर्वमृगमय छिधि २ भिधि २ । सर्वमात्मचक्रभय छिधि २ भिधिर । सर्वपरमन्त्र चिन्धि २ भिन्धि २ । सर्वशूलरोग छिन्धि २ भिन्धि २ । सर्वक्षयरोग छिन्धि २ भिन्ध २ । सर्वकुष्ठरोग छिन्धि २ भिन्धि २। सर्वकररोग चिन्धि २ भिन्धि २। सर्वनरमारी छिन्धि २ भिन्धि २ । सर्वगजमारी छिन्धि २ भिन्धि २। सर्वाश्वमारी छिन्धि २ भिन्धि २॥ गर्वगौमारी छिन्धि २ भिन्धि २ । सर्वमहिपमारि छिन्धि २ भिधि२। सर्वधान्यमारि छिन्धि २ भिन्धि २। सर्ववृक्षमारि छिन्धि २
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जेन पूजा पाठ सग्रह भिन्धि २। सर्वगलमारि छिन्धि २ भिन्धि २। सर्वपत्रमारि छिन्धि २ भिन्धि २। सर्वपुप्पमारि छिन्धि २ भिन्धि २ सर्वफलमारि छिन्धि २ भिन्धि २ । सर्वराष्ट्रमारि छिन्धि : भिन्धि २। सर्वदेशमारि सिन्धि २ भिन्धि २ । सर्वविषमारि छिन्धि २ भिन्धि २ । वेतालगाकिनोभय छिन्धि २ भिन्धि २ सर्ववेदनीय छिन्धि २ भिन्धि २ । सर्वमोहनीय छिन्धि २ भिन्धि २ सर्वकर्माष्टक छिन्धि २ भिन्धि २ ।
ॐ सुदर्शन महाराज चक्र विक्रम तेजोवल गौर्यवीर्य गान्ति कुरुकुरु । सर्वजनानन्दन कुरुकुरु । सर्वभव्यानन्दन कुरुकुरु । सर्व गोकुलानन्दन कुत्कुरु । सर्वग्राम नगरखेट कर्वटमट वपत्तनद्रोण मुर सवाहानन्दन कुरुकुरु। सर्वलोकानन्दन कुरकुरु। सर्वदेगानन्दन कुकुरु सर्वजयमानानन्दन कुरुकुरु । सर्वदु ख हन हन, दह दह, पत्र कुट कुट, शीघ्र शीघ्र । यत्सुख त्रिषुलोकेषु व्याधिव्यसनवर्जित ।
अभय क्षेममारोग्य स्वतिरस्तुविधीयते। शिवमस्तु। कुलगोत्रधन धान्य सदास्तु । चन्द्रप्रभु वासुपूज्य मल्लिवद्धमान पुष्पदन्तशोतल मुनिसुव्रत नेमिनाथ पार्श्वनाथ इत्येभ्यो नमः ॥ इत्यनेन मन्त्रेण नवग्रहार्थ गन्दोध धारा वर्षणम् ॥
अष्टाह्निका व्रत जाप समुच्चय - ॐ ही प्री नन्दोश्वर द्रोपस्यद्रापचाशज्जिन चैत्यालयेभ्यो नम । (५) ॐ ह्री श्री नन्दीश्वर सज्ञाय नम (२) ॐ ह्री श्री नष्टमहादिभूति सज्ञाय नम (३) ॐ ह्री श्री त्रिलोकसार सज्ञाय नम (8) ॐ हो भी चतुर्मुस सज्ञाय नम (५) ॐ ह्री श्री स्वर्गसोपान सज्ञाय नम (६) ॐ हो श्री सिद्धचक्न सज्ञाय नम (७) ॐ हो श्री पञ्चमहालक्षण सज्ञाय नम (८) ॐ ह्री प्रो इन्द्रध्वज तज्ञाय नम
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स०
१
२
L
४
५
६
७
८
श्री चौबीस तीर्थङ्करों के पञ्च-कल्याणक तिथियां
श्रावकों को नीचे लिखे दिनों में पूजन और स्वाध्याय करना चाहिये, ऐसा करने से पुण्य वध होता है ।
콤
चैत्र वदी
माघ सुदी
कार्तिक सुदी
माघ वदी
चैत्र सुदी
नाम तीर्थकर
श्री आदिनाथ जी
श्री अजितनाथ जी
श्री सम्भवनाथ जी
श्री अभिनन्दननाथ जी
श्री सुमतिनाथ जी
श्री पद्मप्रभु जी
श्री मुपार्श्वनाथ जी
श्री चन्द्रप्रभु जी
श्री पुष्पदन्त जी
श्री शीतलनाथ जी
+ mk
९
१०
११ श्री श्रेयांसनाथ जी
१२
श्री वासुपूज्य
जी
गर्भ
आपाद कृष्ण
२
ज्येष्ठ वदी १५
फाल्गुन सुदी ८
वैसाख सुदी
६
श्रापण सुदी
२
भाष पदी
६
भादों सुदी
६
चैत्र वदी
जन्म
८
कार्तिक सुदी
ज्येष्ठ सुदी
पौष वदी
मगमिर सुर्द
माघ वदी
५
फाल्गुन वदी ९
चैत्र वद ८
ज्येष्ठ वदी फाल्गुन आषाढ़ वदी ६ फाल्गुन ६
९
१०
१५
१२
११
१३
१२
११
7
१२
११
११
तप
चैत्र वदी
माघ सुदी
मगसिर सुदी
माघ सुदी
चैत्र सुदी
कार्तिक सुदी
ज्येष्ठ सुदी
पौष वदी
मगसिर सुदी
माघ वदी
फाल्गुन वदी
फाल्गुन वदी
९
१०
१५
१२
११
१३
१२
११
१
१२
११
१४
ज्ञान
फाल्गुन वदी ११
पौष सुदी
४
कार्तिक वदी
४
पोप सुदी
चैत्र सुदी
चैत्र सुदी
१४
११
१५
फाल्गुन वदी ६
फाल्गुन वदी ७
कार्तिक सुदी
पौष वदी
माघ वदी
भादों वदो
२
१४
मोक्ष
भाष वदी १४
चैत्र सुदी
५
चैत्र सुदी
६
वैसाथ गुदी ६
चैत्र
११
फाल्गुन वदी ४
फाल्गुन वदी ७
फाल्गुन पुरी ७
आसोज सुदी ८
आसोज सुदी ८
१
● सुदी १५
२ भादों सुदी १४
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तप
स. नाम तीमार १३ श्री मिलनाथ जी १४ श्री अनन्तनाथ जी * श्री धर्मनाथ जी is श्री शान्तिनाथ जी १७ श्री कुन्थुनाथ जी
श्री अरहनाथ जी
श्री गणिनाथ जी * श्री गुनिसुव्रतनाथ जी
श्री नमिनाथ जी
श्री नेमिनाथ जी ३ श्री पार्श्वनाथ जी । श्री महावीर जी
गर्भ
शान ज्येष्ठ वदी १० गाघ सुदी १४ माप सुदी १० माघ सुदी सद जदी है। फातिक वदी १ ज्येष्ठ पदी १२ ज्येष्ठ यदी १० चैत्र वदी १६ चैत्र पदी- -|| वैसाख सुदी ८ माघ सुदी १३ गाघ सुदी १३ पोप सुनी १५ ज्येष्ठ सुदी भादो वदी ७ ज्येष्ठ वदी ४ ज्येष्ठ वदी १४ पोप सुवी १० श्येष्ठ पदी श्रावण पदी १० वैशाख सुदी १ पैसाख सुदी १ चैत्र सुदी ३ वैसाख सुदा १ फागुन सुदी ३ मगसिर सुदी १४ मगसिर सुदी १४ कातिफ सुदी १२ चा सुनी ११ चैत्र सुदी १ मगसिर सुदी ११ मगसिर सुदी ११ पौष वदी २ फाल्गुन सुदी ५ श्रावण वदी २ पैसारा वदी १० वैशाख वदी १० पैसाख गदी ९ फागुन पदी ११ मासोज वदी ३ मापाढ़ पदी १० भाषा वदी १० मगसिर सुदी ११ पैसाख पदी १५ फातिक सुदी ६ श्रायण मुदी ६ श्रायण सुदी ६ आसोज सुदी १ भाषाढ़ सुदी ८ वैसाख पदी २ पौष वदी ११ पोप यदी ११ चैत्र वदी ४ श्रापण सदी १ भाषाढ़ सुदी ६ चैत्र सुदी १३ मगसिर पदी १० वैसाख सुदी १० फातिक पदी १५
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