Book Title: Jain Nibandh Ratnakar
Author(s): Kasturchand J Gadiya
Publisher: Kasturchand J Gadiya
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी र मन्य मास का पचम पुष्प 15 PAN M ल ओम्म पी परतरगच्चीय गान गन्दिर, पापुर जैन निवन्ध रमाकर EMAIJAVAN है कस्तुरचन् जरिवद गाटिया सम्पादक दिलीप A সাপিত চিয়া मम १९१२ प्रथमाति १०० AHAM H Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - यह पुस्तक चन्दूलाल छगनलाल ने अपने सिटी प्रिन्टिग प्रेस डालगरवाड़ा अहमदाबाद में छापा. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्मोपदेशक न्यायाचार्य श्री१००८ yamannaahar Raman TOS, AKI BEAT MAY Main THAN M vi POS M RA MAN AN Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥श्री ॥ प्रस्ताविक विज्ञप्ति। ___ हमारे जैन समुदायमें परस्पर स्वबन्धु क्या कार्य करते है, "उनके दिलका क्या अभिप्राय है, कौन सुसी है, कौन दुनी है, किस देशमे किस व्यापारमै हानि है, किस मलाम, किस तीर्थकी च्यवस्था ठीक, किसकी सराब इत्यादि बातें जानने के लिये गुजरात प्रात के सिवाय अन्य प्रातोंमें एक ऐस हिन्दी भाषा के पत्रको कितनी आवश्यकता थी, यह स्वय पाठकही सोच सत्ते हैं। इस आवश्यकता को मिटाने के लिये सेवक कितने ही समय से उत्सुकथा पर द्रव्य के अभावके कारण हो क्या सकता था । जन योगायोग आता है तभी किसी भी कार्यके होनेमें उछविलम्बनहीं नगवा । उसी प्रकार चालक हिन्दी जैनके जन्म लेनेके लिये योग आगया। वस शीघ्रही हमारी मनो कामना साफल्य होगइ और तत्काल हमारी जातिकी सेवा बजाने को यह बानक पालनेसे कूबपड़ा । जो प्रति गुरुवार को सैफडों हजारों माईल की मुसाफिरी कर सन मोरके समाचार ले आपकी सेवा म दौडता हुआ आ उपस्थित होता है। जब यह बालक जैन कामका समा जाने लगा तो इसने यह भी विचार कर लिया कि मेरे परम प्रिय पाठकों को और भी नाना भाति की पुस्तक पढने को दूं और उना मारजन करूानिस मे मेरे दयालु पाठक मुझे अच्छी तरह से पाले पांसें और जाति को सेवा पजाने के लिये मेरा उत्साह बहावे । धारक (हिन्दीजन) का विचार देग्य हमसे भी यही उत्कठा हुई की अवश्यमेव जन साहित्य की पुस्तकें वयार करवा करके पाठकों अर्पण करें, उसी उद्देश्य से विद्वजाना से विनय कर Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस जैन निबन्ध रत्नाकर की तैयारी मे लगा। मेरे परम पूज्य मुनिजनों ने व श्रावक भाइयोने हमारी प्रार्थना स्वीकार कर अपनी रसीली लेखनी से निबन्ध भेजना आरंभ किया, बस सामग्री तैयार कर पुस्तक के छपाने का कार्य प्रारंभ किया। हां इस स्थानपर मुझे यह कह देना होगा कि हिन्दी जैन का कार्यशुरू हुआ तभीसे यह सेवक अकेलाही काम करने वालाथा। सभी कामका भार मेरेपर था तथापि पेपर को टाइमपर निकाल कर पुस्तक की तैयारी मे भी लगा रहा। इसी कारणसे पुस्तक में अशुद्धियां रहगई हैं। इसका एक कारण यह भी है कि पुस्तक की छपाई का काम अहमदाबाद में होने से इधर उधर प्रूफ आनेजाने में भी कई गल्तियां प्रेसवालो की तरफ से रहगई वास्ते पाठकों से क्षमाका प्रार्थी हूं। उपहार की पुस्तकके छपने में देरी होने का यह कारण हुआ कि दो चार लेख बहुत देर से मिले । कितने ही लेखोका और भी आना सम्भव था पर अधिक विलम्ब होने के कारण उनकी आशा छोड़ इतने ही छाप कर यह पुस्तक आप की सेवामे हाजिर की है । हां जो लेख इस मेन लिये गये वे यथा साध्य द्वितीय भाग में प्रका-- शित करने का प्रयास करूंगा। ___“जिन २ महाशयोंने निवन्ध भेज कर मेरे उत्साह को बढ़ाया उनको मैं हार्दिक धन्यवाद देता हूं। आशा है कि इसी प्रकार सर्व जैन बन्धु मदत दे कृतार्थ करेंगे। श्रीसंघ का दास, कस्तरचन्द जवरचन्द गादिया । सम्पादक हिन्दी जैन.. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री। अनुक्रमणिका न० नाम विषय सत्तत्व भीमासा - गणिजी केवलचन्दजीका मक्षिप्त ११८ जीवन चरिन मृत्युके बाद नुकता करने का १४७ हानिकारक रिवाज मृत्यु के पश्चात् रोना पीटना हानिकार का निपेध मनानिमह २०१ जैन श का महत्व शिक्षा सुधार ईश्वर भत्ति २५९ देव गुरु और धर्मका स्वरूप २९१ श्रीमद हारविजय मूरीजी महाराज का जीवन धारत्र ०३ चित्र परिचय १ श्रामद आचाय विजयानन्द मूरी-आत्मारामजी महाराज २ ओमान दानवीर सेठ राय सा० पसरी सिंहजी (फोटाबाळे) रतलाम Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ श्रीमद जैन धर्मो पदेष्टा मुनि लब्धि विजय जी महाराज ४ गणिजी केवलचन्द्रजी महाराज ५ गणिजी बालचन्दजी खामगांव ६ श्रीयुत् सेठ सा० लक्ष्मीचन्दजी घीया प्राविनशियल सेक्रेटरी श्री जैन श्वेताम्बर कानफरन्स-परतापगढ़ निवासी ७ श्रीयुत सेठ सा० रतनलालजाजी सूराना रतलाम निवासी ८ श्रीयुत शेरसिंहजी कोठारी सैलाना निवासी भूते पूर्व उपदेशक श्री जैन श्वेताम्बर कानफरन्स ९ श्रीमद हीरविजय सूरीजी महाराज और बादशाह अकबर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय सा० सेठ केसरी सिंहजी Ja ANA Scene - - - - - ه مه شهيه EARN CY ARPRAM T - ( कोरवाले ) ग्नाम निवामी Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री ॥ समर्पण पत्रिका। श्रीमान् दानवीर राय साहब केसरीसिहजी (कोटावाला ) रतलाम की सुसेवा में मान्यवर महोदयनी । आप हमारी ज्ञाति के अग्रसर, धर्म धुरन्धर हैं। श्रीमान सदैव धार्मिक कार्योम तन, मन, धन से मन्त कर जातिवधर्म की उनति करते रहते हैं । आप की कीर्ति पर प्रसन्न हो हमारे प्रजाप्रिय सम्राट पचम जार्ज ने अपने सिंहासनामद होने के समय राय साहब का खिताब वक्षा है । मस हम भी वीर पर मात्मा से यही प्रार्थना करते है कि उत्तरोत्तर आपको सन्मान मिलते रहें, जिससे हमारी जाति उमरल अवस्था को प्राप्त हो । मैं भी आपको हार्दिक धन्यवाद दे कर, आपके खुशाली की मार गारी के लिये यह जैन निनन्धरत्नाकर नाम की छोटी सी पुस्तक अर्पण करता है। प्रागा है कि आप सहर्ष स्वीकार करगे। भवदीय कस्तूरचन्द गादिया Page #12 --------------------------------------------------------------------------  Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्मोपदेशक श्री श्री १०८ X । M M , 11 - - मुनि श्री लब्धि विनयजी महाराज Page #14 --------------------------------------------------------------------------  Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सत्तत्त्व मीमांसा ॥ लेखक श्रीमविजय कमलसूरिश्वर चरणोपासक मुनि लब्धिविजय ।। worrorman प्रिय पाठकगण ! इस दुनियामें मुख्यतया दो तरह के धर्म मचलित है । एक सम्यक्त्व धर्म और दुसरा मिथ्यात्व धर्म। इस जगतमें अनादि कालसे यह दोनों ही धर्म उपलब्ध होते है। और यह आपसमें ऐसे विमुख रहते है कि यदि एक धर्मावलची जीर (मनुप्यो दूसरेसे एकही समयमें और एकही जगहपर मिले तो वे आपसमें शान्ति पूर्वक विना कुछ उपद्रव किये नहीं रह सक्ते। और ऐसेमें जिस धर्मावलम्बीकी शक्ति दूसरेसे अधिक लपान होती है वह अपनी सत्ता दूसरोंपर स्थापित कर देता है। सम्यक्त्व के उदयम जीव अपने दिनों को बडे मुससे • व्यतीत करताहै और मरनेपरभी अच्छी गतिको माप्त होता है, और उस धर्म को हरदम यम रसनेवाला प्राणी थोडे ही समयमें गोक्ष नटपर भवरों के घोचमें पड़ी हुइ अपनी टूटी फूटी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कस्तीको पहुंचा देता है ! दूसरेका स्वभाव इससे विरुद्ध रहता है । इसलिये वह अति नीच गतिमें भ्रमण करता फिरता है, दुःख पाता है और आखिरकार नरक गतिका मेहमान बनाता है; कहांतक लिखा जाचे दुनियाके तमाम दुःख इसे ईमेलते हैं । इसकी ऐसी प्रबलता है कि अगर कोइ जीव इसके उदयम नर्क गतिके आयुप्यका बंधन कर लेवे और बादमें सम्यक्त्व आकर चाहे अपना शक्तिभर जोर लगावे, मगर उस दालतमें भी मिथ्याखका अभाव होने पर भी, जीव के साथ सम्यक्त्वको उस गतिकी सैर अवश्यमेव करनी पड़ती है। अतः इस दुराचारी मिथ्यात्वको छोडकर सम्यक्त्वको धारण करना चाहिये देखिये ! फिर आत्मिकताका गुल (फूल) कैसा खिलता है ? सर्वज्ञ वीतराग जिन देवके वचनोंपर चलनेसे सम्यक्त्व धर्म हासिल होताहै; और सर्वज्ञसे विपरीत होकर अल्पज्ञ पुरुषोंके मन घडित वचनोंपर चलनेसे मिथ्यात्व धर्म हासिल होता है। मम्यक्त्वं धर्मधारी प्राणियोंकी रायमें फर्क नहीं होता । इनके अंदर धर्मके बारेमें अनेकता कभी भी नहीं पाई जाती । किन्तु पिथ्यात्वियोमही अनेक भेद पाये जाते हैं। क्योंकि इनके चानी मुवानी (मत प्रवर्तक) अल्पज्ञ हुए हैं । इस लिये कोई ) कुछ कह देता है और कोई कुछ । देखिये ! इसी लिये सिद्धसेन दिवाकर महाराज सम्मति तर्कमें लिखते है कि: Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) जावइया वयणपहा तावइया चेवहुति नयवाया || जावइया नयवाया तावइया चेवहुति परसमया ||१|| इस बात के पढने से आप लोगोंको यह भली मकारसे मालुम होगया होगाकि जैन धर्म मवर्त्तक सर्वप्रथे । इस लिये उन्होने किसी जगहपर भूल नहीं की, और जितनी वात प्रतिपादन की है ये सर निष्पक्षपात तथा विरोध रहिन प्रतिपादन की है। इस बात के सबूतमें एक जैनाचार्यजीका छोर गुनाता है | जरा व्यान लगाकर सुनले : वन्धुर्नन स भगवान् रिपवोपिनान्ये साक्षाच दृष्टचर एक तरोपि चैपाम् || श्रुत्वापच सुचरित च पृथग् विशेष । वीरगुणातिशय लोल तयोश्रिता स्म ॥ मतलन - श्री महावीर स्वामी हमारे भाइ नहीं है और ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा बुद्धादिक कोई हमारे दुश्मन नहीं है, और नहीं मच्छ कर्म आदि अवतारोंमेंसे किसी एकको देखा है । मगर तत् तत् प्रणीत सिद्धात वचनोंका श्रवण मनन और निदीयासन कर और उनके चरित्रमें जमीन आस्मानका फर्क देखकर, अधिक गुणानुरागसे हमने महावीर स्वामीका Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रय लिया है । देखिये ! कैसी निष्पक्षता जाहिर कीगई. है। अब जैनकी उत्तमता दिखलानेके लिये कई एक प्राचीन शाखाओंका खंडनकर अतीव प्राचीन जैन मतका मंडन करनेको कलम उठाताहूं; मगर यहांपर प्रथम नास्तिकका खंडन करना योग्य समझताहूं, क्योंकि इनके सिवाय प्रत्येक मतवाले आत्माको मानते हैं, मगर नास्तिक सर्वथा इन बातोंसे विरुद्ध रहता है; और हमारे यहां जैन मतमें आत्मिक शक्तिको मुख्य मानकर देश विरति व सर्व विरति रूप साधन द्वारा प्रकट करना लिखा है । जब जीव घाती कर्मसे अलाहिदा होता है तव अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र और अनंत वीर्य मय अपने स्वाभाविक स्वरुपको प्राप्तकर जीवन मुक्त दशाको माप्त होताहै, शेष आयुष्यको पूर्णकर अघाती कर्मका नाश करतेही साथ २ विदेह मुक्त होजाता है । वगैरः वगैरः बयान हमारे जैन शास्त्रोमें है । इस लिये हमें आत्म सिद्धिपर ज्यादः जोर लगानेकी जरुरत है, क्योंकि " विनामूलं कुतः शाखा" अर्थात् वगेर मूलके शाखा नहीं होसकती है । इसलिये जबतक मात्माकी सिद्धि न होगी वहांतक हमारे यहां रुहानी तालीमपर आत्मोन्नतिपर ) गणधर महाराजके रचेहुए शास्त्र सर्वधा निष्फल होजायगे । अतः नास्तिकोंके मतका खंडन किया जानाही चाहिये। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) अतः इस सम्बन्धम में कुछ वार्तालाप नीचे लिखता है। __ सर्व सज्जन भ्यान देकर पढे और लाभ उठावें । नास्तिक-"शरीराफार परिणत भूतोकोही आत्माका उत्पादक कारण मानना मुनासिब है. पाणीमें जैसे वाले उठतेहै और उसमें ही फिर लय हो जाते हैं इसी तरहसे भूतोंमें ही आत्मसत्ता पैदा होती है और भूनों के अभावमें उसका अभार होता है । परलोकमें जानेवाला आत्मा नामका कोई पदार्थ नहीं है, अगर आप भूतोंसे अलाहिदा परलोक गत आत्म नामके पदार्थको मानते हे तो बतलाइए? आप प्रत्यक्ष प्रमाणसे मानते हे चा अनुमान प्रमाणसे ? प्रथम यात यह है कि प्रत्यक्ष प्रमाणसे सावित होही नहीं सक्ता है, क्योंकि नेनादिक इद्रियोंसे पार्थका साक्षात्कार होनेका नाम प्रत्यक्ष प्रमाण है, सो किसीने भी नेनद्वारा आजतक आत्माको नहीं देखा । इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्ध नहा हो सक्ता । अगर प्रत्यक्ष प्रमाणसे देगा जाता तो घट पट मठ वगेरेको तरह आत्मा भी नेनके समीप आकर मालूम होता। जाम्तिक-"स्ऽलोह" "कशोह " अर्थात् में स्थूला, __ में जगह इस भावनासे आत्मा प्रत्यक्ष है । वरना ऐसा __कैसे मतीत होता कि म मोटा १ मे पतला हु ? इत्यादि Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) नास्तिक-आत्मामें स्थूलता (मोटापन) वा कृशता (पनलापन) नहीं होती। क्योंकि यह वात शरीरमें देखी जाती है । इसलिये इस शारीरिक भावनाको आत्मिक भावना समझना आपकी वडी भारी भूल है। आस्तिक-" याद रखना !-इस व्रतका जवाब मैं आगे जाकर दूंगा क्योंकि अभी में प्रसंग नहीं समझता । आगे जाकर मुझे आपके तोडे हुए प्रमाणोंकी सिद्धि करना है इसलिये आपको मौका दिया जाता है । वोलना हो उतना बोल लेवे; विना प्रसंगके आप वोल नहीं सकेंगे ऐसी जगहपर __ में खडा हो जाउंगा। नास्तिक-"घट महं वेद्मि" याने घडेको मैं जानता हूं। इससे आत्माकी सिद्धि होती है ऐसी प्रतीति आत्माके होने परे ही होगी। क्योंकि वगेर ज्ञानके यह प्रतीति नहीं हो सकती है और आत्माहीका ज्ञान गुण है इसलिये ज्ञान की सिद्धि आत्माके अभावमें नहीं हो सकती है । ऐसा मत कहना । क्योंकि यह प्रतीति भी शरीरमें होती है सिवाय शरीरके आत्माका साक्षाकार नहीं होता है। अगर अनहुइ वातको मानोगे तो कल्पनाका पारावार नहीं रहेगा और प्रतिनियत वस्तुका अभाव होजायगा।' आस्तिक-मित्रवरं आपका यह कहना बिलकुल वृथा है। RAN । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ क्योंकि चेतनाके विना जड शरीरमें "अह प्रत्यय" (मै हु ऐसा सयाल) नहीं होसकता । जैसे एक जड पदार्थहै तो इसमें अहं प्रत्यय अर्थात् मै हू ऐसा खयाल कभी नहीं होसकता है । नास्तिक-आपकी समझमे भूल है हम का कहते हैं कि शरीर जड है, हमारा यह मानना है कि चैतन्यताके योगसे शरीर चेतनायुक्त होता है। जैसे आपलोग गरीरसे अलग आत्माको मानकर उसमें चेतनाको मानते है । दम बगेर आस्माकेही शरीरके कार्य ज्ञानको मानते हैं । इसलिये आपका शरीरको जड समझकर परहेजकर आत्माको मानना ठीक नहीं है । आस्तिक-चतलाइये। जरा शरीरका कार्यज्ञान से होसक्ता है ? क्योंकि चेतना जीवका धर्म है न कि शरीरका । नास्तिक-चेनना जीवका धर्म आपा यह कथन वृथाहै, क्योंकि इसमें कोई प्रमाण नहीं है । बगेर प्रमाणके कोइ वात नही मानी जाती अगर बगेर ममाणकेही आत्मा मानोगे तो तो आकाश कुममकोभी सिद्ध मानना पडेगा। अत गरीरकाही अन्वय व्यतिरेकसे ज्ञान कार्य हो सकता है। देग्विये ? अब सिद्धार दिखलाता है। अन्वय उसे कहतेहे कि हेतु के होनेपर हेतु मदया होना पाया जाता है । मसलने आके होनेपर आगका होना पाया जाता है । सा यके अभावमें साधनके अभावफा विचार करना इसे व्यतिरेफ फहतेहैं । मसग्न भागके Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) अभावसे धुंआका अभाव मालुम करना । तथाहि साध्य साधन भावोहि भावयोर्या दृगिष्यते तयोरभावयोस्तमादिपरीतः प्रतीयते ॥१॥ ___ मतलब उपरकी इवारतमें हल है । गौर करें ! अन्वय व्यतिरेकके स्वरूपको समझाकर अव अन्दय व्यतिरेकसे ज्ञानको शरीरका कार्य सिद्धकर दिखलाता हूं। आस्तिक-अच्छा सुना दीजिये ? मैं चाहताहूं कि आप कुछ सुनावें ताकि आगे जाकर आपके मंतव्यको मैं अच्छी बरहसे खंडन करूं। नास्तिक-हमारे ध्रुव मंतव्यका खंडन आप कभी नहीं कर सकते। आस्तिक-इस वातसे क्या लेना लोग खुदही हमारी तुमारी युक्तियोंसे जान लेंगेकि किसकी युक्ति प्रवल है। इस लिये अव प्रस्तुत विषयको श्रवण कीजिये ! ___ नास्तिक-हम शरीरके कार्य ज्ञानको इस लिये मानते हैं कि जबतक शरीर है तब तकही ज्ञान है । शरीरके नाश होने पर ज्ञानका भी नाश हो सकता है। इसका प्रमाण इस प्रकार हैयत्खलु यस्यान्वयव्यतिरेकावनुरोति तत्तस्य कार्य। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथाघटो मृतपिडस्य शरीरस्यान्वयव्यतिरेकावनुकरोति चचैतन्यं तस्मात् तत्कर्तृत्व । इत्यादि अर्थ:-जो पदार्थ जिसके साथ अन्वय व्यतिरेक रप उभयतया समन्व रखताहे वो उसका कार्य होता है । मसलन मिट्टीका कार्य घडा कहलाताहै क्योंकि वगेर मिट्टीके घडा नहा बन सकता। अत मिट्टीके होनेपर घडा होताहै और घट विवत्ति मृत्तिाके अभाव होनेपर घटकाभी अभाव होताहै । इससे सावित हुआकि घट मृत्तिका के साथ अन्वय व्यतिरेकका, और मृत्तिकाका कार्य है । ऐसेही चैतन्यभी शरीरका अनुकरण करता है। क्योंकि शरीरके अतिस्तत्वमें ज्ञानका अस्तित्व होता है और शरीरका अभाव होनेपर चैतन्यकाभी, अभा व होताहै । इसलिये चैतन्य गरीरका कार्य है । अन्धय व्यति रेकसे कार्य कारण भाव जाना जाता है। जैसे आगका कारण लकडी है और आग उसका कार्य है । इसलिये लकडी के होनेपरही भाग पैदा होती है और रसडीके अभावसे आगकाभी अभाव होता है। इससे यही साबित हुआ कि अन्वय व्यतिरे का कार्य आग लकडीके कार्यके समान है । लकडाके होनेपरही आगके होनेको अन्वय कहते है, इसका मतत्य यह हुआकि किसी जगहपर कोईभी आदमी क्यों नचला जावे काष्ट प्रमुख साधनके पिना आग कभी नहीं पैदाहो सकती । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) ये अन्वय हुआ और व्यतिरेक उस्का नाम है कि काष्ट प्रमुख साधन न हो तो कहदेना कि आगभी नहीं हो सकती । इसी तरहसे शरीर ज्ञानका कारण है और ज्ञान कार्य है। क्योंकि शरीरके होनेपर चैतन्यकी उपलब्धि होती है और इसके अभावो ज्ञानाभाव मालूम होता है। " अतःसिद्धं शरीरस्य काव्य जानमिति" वस इससे ज्ञान शरीरका कार्य सिद्ध होगया। आस्तिक-आपका यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि मुडदे के शरीरकी हस्ति होनेपरभी चैतन्यका अभाव मालूम पड़ता है। अतः अन्वय व्यतिरेकपणे शरीरका कार्य ज्ञान नहीं हो सकता। नास्तिक-आपका कथन बिलकुल अनुचित है क्योंकि वायु और तेज दो पदार्थोंका मुडदेके शरीरमें अभाव होनेसे उस्को हम शरीरही नहीं मानते हैं। वो तो थोथ मालूम पड़ता है। इसलिये चैतन्योपलब्धि नहीं होती । विशिष्टभूत संयोगकोही हम शरीर मानते हैं। क्योंकि अगर सिरफ शरीराकार मात्रमें ही चैतन्यता मानी जावे तो फिर दिवारपर चित्रे हुए घोडे हाथी वेल मनुष्य वगेरेके चित्रोंमेंभी चैतन्यताका प्रसंग आवेगा, इससे शरीरकाही कार्य चैतन्य ठीकहै । अतः चेतना संयुक्त शरीरमेंही " अहं प्रत्यय " ( मैं हूं ऐसा खयाल ) पैदा होता है, इस लिये प्रत्यक्ष प्रमाणसे आत्मा सिद्ध नहीं होता है। अनुमान नीचे मुजब समझें ! तथाहि Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) नास्त्यात्मा अयन्ता प्रत्यक्षत्वात् । यदत्यन्ता प्रत्यक्षं तनास्ति, यथा खपुष्प । यच्चास्ति तत् प्रत्यक्षेण गृह्यते एव यथाघट' ।मतला-अत्यन्त अप्रत्यक्ष होनेसे आत्मा नहीं है। क्योंकिजोअमत्यक्ष है वो चीजही नहीं है। जैसे आकाशका फूल। जो चीज प्रत्यक्ष है वो दिखलाइभी देती है जैसे घडा । परमाणुभी अप्रत्यक्ष है लेकिन वे जर घटादिक कार्यमें परिणत होते है तर दिखलाइ देते है। मगर आत्मा किसी सूरतमें प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिये अत्यता प्रत्यक्ष यह विशेषण दिया गया है । इससे परमाणु व्यभिचार नहीं आता है। ____ अनुमानसेभी आत्मा सिद्ध नहीं होता ! क्योंकि " लिङ्ग लिहि सरन्य स्मरण पूर्वक हनुमान " मतप साध्य साधनके सधया स्मरण ज्ञान जर होता है ताही अनुमान होता है। जैसे पेश्तर महानस (ग्सोडा) में आग और बुआमा सपथ अन्य व्यतिरेकनाली व्याप्निसे प्रत्यक्ष देखेगा कि ठीक है। नहा धूम होता है वहा आग जरुर होती है, और जहा आग नहीं होती वहा धुआ व्याप्ति ज्ञान होनेके बाद किसी उपरनमे या पहाडसी कदरामें आकाशको अवलपन करती हुइ धृम लेखाको देखकर पूर्व ह (पहले देखा हुआ) आग प्रभाके सरथको याद करता है, कि जहां जहा मैंने धूमाको देखाया वहा वहा आगभी होती थी जैसे कि रसोडेमें। यहापर भी धुआ मालूम होता है इस लिये आग जरुर होगी। इस तरह Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) से हेतुका ग्रहण करना और संबंधका स्मरण करना इन दो बातोंसे अनुमान पैदा होताहै । हेतुके व्याप्ति ज्ञानके प्रत्यक्ष होनेपर अनुमान होता है । इसलिये मंत्यकी इल्मदानोंने अनुमानका एक हिस्सा प्रत्यक्ष मानाहै । जव कोइभी हिस्सा जिप्त वातका प्रत्यक्ष नहीं होगा वो बात अनुमान पयमें कभी नहीं आ सकेगी । इसलिये आत्माका कोइ हिस्सा प्रत्यक्ष न होनेकी वजहसे अनुमानसेभी आत्माकी सिद्धि नहीं होसक्ती है। .. आस्तिक-सामान्य तो दृष्टानुमानसे (साधारण तोरपर देखे हुए अनुमान) सूर्यकी गतिकी तरह क्या आत्माकी सिद्धि नहीं हो सक्ति है ? यथा ॥ गति मानादित्यो, देशान्तर प्राप्ति दर्शनात् । देवदत्तवत् इति यतोहन्त देवदत्ते दृष्टान्त धमिणि सामान्येन देशान्तर माप्तिर्गति पूर्विका प्रत्यक्षेणैव निश्चिता सूर्योपि तत् तथैव प्रमाता साधयति-इति युक्तं ॥ देवदत्तकी तरह देशान्तरमें प्राप्ति होनेसे जैसे मूर्य गतिवाला है। यहांपर देवदत्तका दृष्टांत ठीक है। क्योंकि देवदत्तकी दूसरे देश प्राप्ति प्रत्यक्ष चलनेसे निश्चित है इससे सूर्यको गतिका अनुमान होता है, ऐसे सामान्य दृष्टानुमानसे आत्माकी सिद्धि हो जावे तो क्या हरकत है ? नास्तिक-क्यों नहीं हरकतें जरूर है । क्योंकि देवदत्तकी गति तो प्रत्यक्ष प्रमाणसे निश्चित है । आत्माकी सिद्धि में कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) आस्तिक-आगम प्रमाणसे तो आत्माकी सिद्धि जरुर हो सक्ती है। क्योंकि अविवादास्पद वचन कहनेवाले आप्त पुरुषने शास्त्र रचे हैं । इस लिये आपको चाहिये कि आगम प्रमाणका सादर स्त्रीकार करें। नास्तिक-नहीं जी नहीं, हम इस यातको कभी न स्वीकारेंगे। क्योंकि ऐसा कोइभी पुरुष नजर नहीं आताहै कि निस्के तमाम वचन अविसवादी होसके, और आगम परस्पर विरुद्ध होतेहैं। एक __ आगम कुछ कहताहै, तो दूसरा कुछ कहताहै, झटभरम पड जाता है कि कोनसा आगम सचाहै और फौनसा झूठा। इस तरहके सदेह रुप अग्नि जालासे आगम ज्ञानके दग्ध होनेसे आगम ज्ञानसे भी आत्मसिद्धि बतलाना पिलकुल हिमाकत (मूर्खता) में दाखिल है, और अपने दिल्में आप यहभी घमड न रखें कि उपमान प्रमाणसे आत्मसिद्धि हो सकेगी। क्योंकि उपमान उ__ स्का नाम है कि जैसे किसी शरसने किसीसे पूछा क्यों जी! रोय कैमा होता है ? उस्ने जवाब दियाकि मानिंदगो (बैल) के मालूम होता है । इस उमाको श्ररण कर वोही __ आदमी किसी दिन जगलमें गया। आगे चलकर देखता है तो रोझ आ रहाथा उस्ने इस प्राणीको कभी नहीं देखाथा मगर फिरभी उसे इस्म हासिल हुआ। क्योंकि उस्ने उरका आकार गोसदृश देखा तो झट मुनी हुइ च त या आ' फि "गोम Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (. १४) दृशोगवयः" अर्थात् मानिंद गोके गवय ( रोझ ) होता है । इससे समझ लिया यह रोझ है। जीवके लिये इस तरहका उपमान प्रमाण तीन जगत्में नहीं है कि जिससे जीव उपमित हो सके। अगर कहा जावे कि कालाकाश दिगादिक जीव तु. ल्य हैं तो यहभी ठीक नहीं। क्योंकि इन पदार्याकाभी निश्चय नहानेसे इन्हेंभी तद्वत् समझें, और अर्थापत्तिसेभी आत्मा सिछ नहीं हो सका है । क्योंकि अर्थापत्तिका स्वरूप ऐसे लिखा है कि, जैसे किसीने कहा कि " पीनादेवदत्तः दिवान भुङ्क्ते ( सुंक्ते)" अर्थात् लष्टपुष्ट देवदत्त दिवसमें नहीं खाता है; तो इससे सावित होता है कि रात्रि को खाता होगा। क्यों कि वगेर खानेके लष्टपुष्ट नहीं हो सकता है। यहांपर पीन (ल. __ष्टपुष्ट ) इस विशेषणने जवरदस्ती रात्रिको खाना साविन किया, तो आत्मसिद्धिके बारेमें कोइ अापत्तिरूप प्रमाणभी नही है कि जिस्के वलसे आत्माकी सिद्धि की जावे । पूर्वोक्त पांच प्रमाणोंसे रहित होनेसे आकाशके फूलकी तरह आत्मा नामकाभी कोइ पदार्थ मौजूद नहीं है। अगर है तो प्रमाणद्वारा वतलाइये ?.. .. आस्तिक-बडी खुशीका वक्त है जो आपने मुजको सर्वधा बोलनेके लिये मौका दिया । अब जरा अच्छी तरहसे कानोंका मैल निकालकर एकाग्र चित्तकर श्रवण करें । मगर इतना याद हे जिस तरहसे मैं आपकी तहरीरको बढानेको हरदम अपनी Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) चातको कमजोर रखकर मौका देता रहा इसी तरहसे आपभी प्रसगोपात खडे हो जाया करिये और मुझे मौका दीजिये। मगर आप अपने पक्षको कमजोर न रखें जितना जोर लगाना हो उतना वेशक लगा दीजिये । कमजोरी नहीं दिखलानी । नास्तिक-प्रिय मित्र । आप पेशक जोर लगावें हमने तो अच्छी तरहमे आपका मतव्य खडित कर दियाहै । अब आप अपने मतव्यका मडन कर मसग पारर मैं वीचमें सवालो जगात्र करनेको हरदम तयारहू । ___ आम्तिम्-प्रत्यक्ष प्रमाणसेही आत्मामी सिद्धि हो सक्तीहै इस लिये मम यहाथा कि पचभूतोंके सिवाय आत्म नामका पदार्थ नही, जापका यह स्थन सर्वथा असत्य है । देखिये ! "मुसमहमनुभवामि" इसका मतलब यह है, मैं मुखका अनु. भर कर रहाह। यहापर हरएक समज सक्ताहै कि मुख ज्ञेयहै और में ज्ञाता ह यानि मुग्व जाणने गयफ है और मैं जाननेवालाह। मुख अलाहिदा पदार्थ है और जाणनेवाला अलाहिदा पदार्थ है। पत• मुराको जानना चैतन्य गुण विशिष्ट आत्माकाही कामहै। यह प्रत्यय (विश्वास ) मिथ्याहै ऐसा न समझें । यत इस्का कोइ बाधा नहीं है । जो स पातको मुखालफ बनकर न झूठी सिद्ध पर सफे, और न इस्में किसी तरहका सदेहहै । क्योंकि सशय दोकोटीके मिलनेसे बनताहै। इसी तरहका लक्षण वादि Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) देवरि महाराजने प्रमाणनयतत्त्वलोकालंकारमें वयान कियाहै । तथाहिः-- साधक वाधक प्रमाणाभावाद नव स्थितानेक कोटि संस्पर्शि ज्ञानं संशयः मतलव जिस ज्ञानको साधक व वाधक इन दोनों प्रमाणामेंसे कोइभी लागु न पड सके, ऐसा अवस्थाहीन अनेक कोटी ( दोकोटी ) को अवलंवन न करनेवाला ज्ञानहो उस्को संशय कहतहैं । जैसे दूरसे ढूंठको देखकर भ्रांति पडती है कि यह क्या पुरुषहै। अथवा ढूंठहै । इस अवस्थामें उभय कोटी रहती है और उसवक्त कोइ नियामक प्रमाण नहीं होता । सो यहांपर "अहं सुख मतुभवामि" इस जगहपर उभय कोटीका अभाव होनेसे संदेहभी नहींहै, और इस प्रकारके प्रत्ययको अनालंवन माननाभी ठीक नहीं । क्योंकि इसको अनालंबन मानोगे नो फिर रूप ज्ञानरस ज्ञान वगेरेको भी अनालंबन मानना पडेगा। नास्तिक-" अहं सुख मनुभवामि " इस किस्मके प्रत्यय (ज्ञान)का आलम्बन करके हम शरीरको मान लेवें तो क्या हर्जहै ? आस्तिक-हर्ज क्यों नहीं ! शरीर किसी सूरतभी आलंबन नहीं होसत्ता । क्योंकि इस प्रकारके अनुभवकी पैदायश वहारके कारणोंकी अपेक्षा वगेर आन्तरिक वृत्तिके व्यापारसे Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) होती है । इस लिये शरीरसे अलाहिदा इसके आलानभूत पोइ ज्ञानपान पदार्थ स्वीकारना चाहिये | जो जाता न सके सो बस ऐसा आत्माही होसका है और यहभी याद रह। जिस चीनका गुण मत्यभ होता है वो चीज तो स्वत प्रत्यक्ष होजायगी । मसन घटका रप प्रत्यक्ष होताहै तो घटका मत्यक्ष तो आपही माना जाता है । इसी तरहसे आत्माका गुण ज्ञान जन प्रत्यक्ष तो आत्मा तो आपही प्रत्यक्ष मानना पडेगा । उस इससे सारिन हुआ कि आत्मा प्रत्यक्ष है । नास्तिक - म पूर्व शरीरको चेतना के योगसे सचेतन सिद्ध कर चूत है, इसलिये सकाम शरीरसेही में मानता हू । आस्तिक - देवना मिय' तेरा यह कहना ठीक नहीं है । क्योंकि चेतना योग होनेपरभी स्वय चेतन होगा उसेलिये ही अद प्रत्यय मानना योग्य है नकि अचेतन के लिये । मसलन घडेपर हजारों चिरायोंकी रोगनी गिरने परभी स्त्रय अमकाकभी माफ नहीवन सक्ता । लेकिन दीपपद्दी माशक कहायगा । इसीतरह चेतनाका योग होनेपरमी गुढ अचेतन शरीर ज्ञाता सिद्ध नहीं होमक्ता । किन्तु आत्माही ज्ञाता (जानेवा) कायगा । इसलिये अह मन्ययसेदी आत्या सिद्धि दी। इये, अनमी अमान रही। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८) नास्तिक-प्रथम मैंने कहाया कि "अहं स्थला" "अहं कृशः" यह प्रत्यय शरीरमं होताहै नकि आत्माम । इस्का क्या जवाब है ? ____ आस्तिक-देखिये ! मैं स्थुल हूं, मैं कृश हूं इसवातकी अतीतिभी आत्मासेही होगी। हां वेशक आत्मा स्थूल व कृश नहीं होता मगर पतले व मोटे शरीरको जानने वाला होताहै । अगर वगेर आत्माकेही यह विचार पैदा होतातो फिर मुडदा भी इसी तरह विचारता कि मैं स्थूल हूं या कृश हूं, जिंदा हुँ या मरा हूं? मगर मुडदेमें यह खयाल कभी नहीं आता। इसलिये सर्व कार्य गमना गमनादिक चेटाका कर्ता आत्माकोही मानना पडेगा। ___नास्तिक-ठीकहै, आपकी दलीलको मैं मानता हूं मगर माप हमारी पीछेकी दलीलोंको भूलाये हो ऐसे मालुम देता है। क्योंकि हमने पेश्तर सावित कर दिखलायाहै कि अन्वय व्यतिरेकसे शरीर चैतन्यका कारण है फिर झगडा किस वानका करते हो? आस्तिक-महापंडितजी ! जरा विचार देखते तो आपको साफ मालुम पड़ता कि अन्य व्यतिरेकसे शरीर ज्ञानका कारण कभी नहीं हो सकताहै । इसलिये कि शरीर के साथ चेतनाका अन्य व्यतिरेकवाला ताल्लुक नहीं है । देखिये ! इसी Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९) वातको जतगते है। प्रिय पाठकगण । नास्तिकने कहाया कि "शरीर होताहै तो चैतन्य होताहै और शरीरका अभाव होता? तो उधर चैतन्यकाभी अभाव उपलब्ध होताहै" इस अफलसे ग्विलाफ वातको कौन मजूर करेगा । क्योंकि अगर चैतन्यका सारण शरीरहै तो फिर मन्याले मूगाले और सोये हुए मागिम पाच भूत करसे युक्त (वायु तेज सहित) शरीरके होनेपरभी चेमा चैतन्य क्या नहीं मालुम देता है ? कई गोटे शरीरपाले पक्रफ होते हैं और कई पतले गरीरवाले अकल मट होते है । इसलिये अवय व्यतिरेक तथा चैतन्य गरीरका वाग्य नहीं होसक्ता है। क्योंकि जरा देख लेवें । आग लकडीका कार्य है तो जहा लफडीये पहोतसी पाइजाती है । पहां आग ज्यादा भडक उठतो है और जहा उकडी थोडी इकहो को होती है पहा आगभी गोडीही पैदा होती है। मतलय घोडी लाडी मिल्नेपर पोडी और बहोत मीय मिटनेपर होन भाग होती है। पांकि भाग र कडीयोरा कार्य है। इसी तरहसे मामानको आप शारीरका कार्य मानने हो तो निस्सा शरीर पर (मोटा) है उम्पो ज्यादान होना चाहिये । और निका शरीर का उम्शे कम शान होना चाहिये, मगर इससे वि. परीत भी कहा जगहपर देयने है । इसलिये नास्निग कहना विलकुल स्याहै। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) नास्तिक-आपने प्रिय पाठकगणको जो सुनाया सो मुन लिया। आपने प्रिय पाठकगणको क्यों याद किया ? क्या मध्यस्थ टोलतेहो ? कोई जरुरत नहीं मुझेही आप मध्यस्थ समड़ी। मैं तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति करनेको उपस्थित हं नकि वितंडा वाद करनेको । इसलिये आप मुझे यह बतलायें कि भृताका चुनन्य कार्य नहीं है किंतु आत्याकाही गुण चैतन्य है। इस बातको किस प्रमाणसे सावित करते हो सो जरा मुना दीजिये। __ आस्तिक-प्रथम भूतोंका कार्य चैतन्य किसी सूरत नहीं होसक्ता । बतलाइये ! किस प्रमाणसे सावित करते है । अवल प्रथम प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो होही नहीं। अब रहा. सा व्यवहारिक प्रत्यक्ष (इंद्रिय जन्य प्रत्यक्ष ज्ञानका नामहै ) सो इस्की अतीद्रिय विषय में प्रवृत्तिही नहीं होसक्ती है, और चैतन्य अरपी होनेसे अतींद्रिय ( इंद्रियों के विषयमें न आसके ऐसा) है । फिर आप कैसा कह सकते हैं कि चैतन्य प्रत्यक्ष प्रमाणसे भूतोंका कार्य है। क्योंकि सां व्यवहारिक प्रत्यक्ष स्वयोग्य सनिहित और रुपी पदार्थको ग्रहण करता है सो चैतन्य अमूर्त्त ( अरुपी) पदार्थ है। इसलिये इस्को ग्रहण योग्य नहीं होसकता है। ___ नास्तिक-" भुता ना महं काय " अर्थात् भूतोंका मैं कार्य हूं इस प्रकारसे भूतोंका कार्य चैतन्य प्रत्यक्ष ग्राह्य है । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१) पवाकि आपनेभी " अह मुख मनुभवामि " में सुखरा अनुकर रहाह, इस पातका प्रमाण देकर आत्माकी प्रत्यक्ष प्रमाणसे सिद्धि कीथी । हमभी इसी तरहसे कह सकते है । यतलाइये । नया हर्ज हे? आम्तिर--हमारी तरह आप " नानामह कार्य" भूतोका में कार्य ह, ऐसा नहीं कह सकते है । क्योकि कार्य कारण भाव अन्य व्यतिरेकसे जाना जाता है। सो आपके मतम भूत और उम्के कार्य चैतन्यसे अतिरिक्त (अलाहिदा) कोइ नाता (जाननेवाला) पदार्थ नहीं है। जिससे जाना जाने कि ठीक चैतन्य भृताका कार्यहै। अगर इन दोनोसे तीसरा अलाहिदा कोइ ज्ञाता मानलिया जाये तो पो जात्माही सिद्ध हो गया! फिर मगन सोग मिस पातकी करते हो" इसलिये आपके मतम कार्य कारणको पहिचान करने वाले तीसरे पदार्थक न होने की वनहमे प्रत्यक्ष प्रमाणसे भतोंका कार्य चैतन्य कभी सिद्ध नहीं होसक्ता । ननुमानसेभी नेतन्य भृत्तांका कार्य सिद्ध नही होसक्ता । यत आप अनुमानका स्वीकारही नहीं कर सकते है "प्रत्यक्षमेवेक ममाण नान्यदिति वचनात् " यानि प्रत्यक्षही एक प्रमाण है जन्य नही ऐसा स्थन करनेसे अगर फर्जी तोरपर आप अ नुमानको मानभी लेब तोभी आपका मनोरय सिद्ध नहा हो सक्ता । देखिये। नापका कहना है कि " ननुकायाकार परिणनेभ्यो भूतेभ्यश्चत य समुत्पयते तदारएव चेतय भा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२) वात् । मांगेभ्यो मद शक्तिवत् " भावार्थः-कायाकार परिणत भृतासे चैतन्य पैदा होता है तद्भावसेंही चैतन्यका सद्भाव होनेसे __ मयके अंगमें मदशत्तिकी तरह इस अनुमानसे भूतका कार्य __ चैतन्यको सिद्ध करते हो मगर यह अनुमान ठीक नहीं है। क्योंकि "सद्भाव एव चैतन्य भावात्" याने मृताका अस्तित्व होनेपरही चैतन्य होनेसे यह हेतु (सबब) अनेकान्तिक है। यतः मृत अवस्थामें शरीराकार भूतोंके होने परभी चैनन्यका अभाव होनेसे हेतु सिद्ध है। नास्तिक-पृथ्वी, पानी, आग, हवा, इन चार भृतोंके इकठे होनेपर चैतन्य पैदा होता है; सो मृत शरीरमें आग हवाके न होनेसे चैतन्य मालूम नहीं होता। ___आस्तिक-यहभी एक आपका गलत खयाल है । क्योंकि मृत शरीरमें पोलाड होनेसे वायुकी संभावना जरूर होती है, अगर वहां वायुकी विकलतासे चैतन्य नहीं मालूम होता है तो वस्त्यादिकके जरीये वायुका संचार करनेपर चैतन्य मालूम होना चाहिये मगर होता नहीं। इससे सिद्ध है कि भूतोंसे चैतन्य नहीं हो सक्ता है। नास्तिक-और किस्मके वायुके संचारसे कुछ नहीं हो सक्ता। प्राणापान (श्वासोश्वास ) रूप वायुकी जरुरत है । सो ऐसे वायुके अभावसे चैतन्योपलब्धि नहीं होसक्ती । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ आस्तिक-यह भी पात अघटित है । क्योंकि जन्यय व्य. तिरेकताका अभाव होनेसे प्राणापान (श्वासो वासादि) भी चैतन्यका कारण नहा होमत्ता । इसलिये कि जन मरण अवस्था नजी जाती है ता अतिदी भाणापान (थासोश्वास) के होनेपर मी चैतन्गकी न्यूनताही देवी जाती है, और मन, वचन, कायाके योग रोक्कर प्राणापानमा निरोध करनेवाले योगीयोंग माणापानके अस्प हो जानेपरभी चैतन्यकी दि देगी जाती है । इससे साबित होता हैक्मिाण और अपानभी चेतन्ररे कारण नहीं हो सक्ते है । नाम्नि-मुडदेंमें आगका अभाव होनेसे वायुके सचार करनेपरभी चैतन्य नही हो सक्ता । ___ जास्तिक-वाह ! सुन मुनाया, आपरे दिल्म तो यह उतर्क रडी पहाट जैसी मालम होती होगी मगर याद रहे, हमारे पास तो एक जरा (परमाणु) रप मालूम देती है। गुन लीजिये ! अगर आगके अभापसे चैतन्य प्रकट नहीं होता तो जिस वक्त गुडदेको चितामें डालते है, महाकि आग घस घस करती उरती हे उस वक्त फौरन चैतन्य पैदा होजाना चाहिये, और चितासे उदार भागना चाहिये । मगर भागे फहसि! जीवात्मा तो परलोकमें पहुच गया फिर भागेगा फौन ? इससे आपको अन्जी तरहसे मालूम होगया होगाकि आपके Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) समान धर्मी भाई यूंही अपनी गप्पे शप्पे मारकर काम चलाते हैं। नास्तिक-यह तो ठीक कहा मगर औरभी कोइ दलील पेश करें। ___ आस्तिक-लो सुन लो । प्रथम वायु तेजके अभावसे चैतन्य नहीं मालुम होताहै । इस बातपर बहोतसे प्रमाण देकर आ को झूठे सिद्ध किया और मरनेपरभी पांच भृतोशा एकी भाव हो सक्ता है यह बतलाया । मगर अब फर्ण करोकि आप सचे हैं और वायु तेजके अभाव होनेसे चैतन्य नहीं पैदा होता । इस वातको सची मान ली जावे तोभी आपकी बात सिद्ध नहीं हो सक्ति । ___ क्योंकि कुछ कालके बाद उसी मृत शरीरमें कीडे पैदा होते हैं, बतलाइये ? उनमें कैसे चैतन्य पैदा होता है ? अगर उनमें हवा और तेज तत्वके प्रकट होनेसेही चैतन्य पैदा होता है तो यह कैसे सिद्ध हुआकि शरीरमें तेज हवाके न होनेसे चैतन्य नष्ट होता है । क्योंकि तुम्हारे मतके मुताविक शरीरान्तगंव कीटोंका पैदा होना तवही माना जायगा जवकि हवा और तेज तत्व मिलेंगे। ____ जब हवा और तेज तत्व का शरीरमें संचार मानोगे तो कीटोंके साथ मानुषी शरीरके अंदरभी गमनागमनादिक Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) चेप्टाय वढी होनी चाहिये । मगर होती नहीं । बस इससे आपकी तमाम आनताको लोग वखपी समझ सकते है तो में क्या समझाउगा। पाद भूतमानको चैतन्यका कारण माननाभी एक हमाकत ( पेवकूफी) है। क्यों कि कारणमें कुछ फर्क न होनेकी वजहसे जहा भूत होगा वहा चैतन्य मानना पडेगा । क्या कि चेतन्य जन्य हे और भूत जनक है । इस लिये हमेशह घटादिकमें भी पुरुपकी तरह व्यक्त चैतन्य की पैदायश होनी चाहिये, और ऐसा होनेपर घट और पुरुपमे कोइ विशेषता नहीं रहेगी। नास्तिक-माणापान सहित शरीराकार भूतीको हम चेतन्यका जनक मानते है, इसलिये पूर्वोक्त दोप नहीं आता है। __ आस्तिक-नापका यह कथनभी भस्म में घी डालनेकी तरह निष्फल है । यतः आपके मतमे भूतोका शरीराकार परिणामही नहीं हो सक्ता है । देखिये । सोही बतलाते है । उस कायाकार परिणामका कारण कहिये । पृथ्वी आदिक भूतोंको मानते हैं ? या कोई अलगहिदा निमित्त मानते है ? अथवा तो अहेतुक मानते है प्रथम पक्षको तो ग्रहणही नहीं करसक्त हो । क्योंकि पृधिव्यादिक भूत हरएक जगहपर मालुम होते हैं। इससे सर्वत्र कायाकार परिणाम उपलब्ध होना चाहिये । अगर कहोगे पृथ्वी आदि भूतासे अलाहिदा कोई कारण है, जिससे शरीरा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) कार भृतोका परिणाम होताहै तोभी ठीक नहीं। क्यों कि ऐसा स्वीकारने पर आत्माही रवीकार लिया गया और इससे आत्मसिद्धि रूप पाश फिर आपके गली आनिरा ! जिने बद्ध होकर भागना मुश्किल हो गया अहाहाहा!!! इस दूसरे विकल्पने तो खूब आपको जकड लिये जरा आंखें खोलकर पाँवकी तरफतो निगाह करेंकि किस कल्पकी कला पड़ी है । नास्तिक-नहीं गं दूसरे विकल्पको नहीं मानता गलतीसे मुख खुल गया ! और झट यह विकल्प निकल गया ! इस लिये अब में इससे इनकारी हूँ और अहेनुक रूप तीसरे विकल्पका स्वीकार करता है। बतलाइये! इसमें दया दोष है ? आस्तिक-शरीराकार परिणामको अहेतुक माननाभी ठीक नहीं है। क्योंकि अगर अहेतुक मानोगे तो आकाश कुमुम, बंध्यापुत्र, गर्दभ शृङ्ग आदिके सद्भावकाभी मसंग आनेगा। इसलिये मेरी इस नसीहतको याद रखेकि अकलमंद लोग वगेर दलीलके किसीभी वातको मंजूर नहीं कर सक्ते ? और अहेतुक पदार्थके माननेसे "सदा भावादिकां" प्रसंग आवेगा। "नित्यं सत्त्व मसत्त्वं वाहेतोरन्यानपेक्षणादिति वचनात्" - इसलिये तुम्हारे मानने मुजब भूतोंका शरीराकार परि- णाम होनाही असंभवित है । इससे आपकी अच्छी तरहसे तसल्ली होगइ होगी कि ठीक भूत चैतन्य जनक नहीं होसक्ता Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) किंतु जीवात्माका गुण है। नास्तिक-आपका कहना ठीक है आपने हमारे मतव्यका परापर राडन कर दिया। मगर जितना जोर हमारे मतव्यके सदन राणया उता व-उससे अधिक अपने मनव्यके मडनमे लगाइये और जात्माको अन्छी तरहसे प्रत्यक्षादि प्रमाणसे सिद्ध कीनिये। आस्तिक-लीजिये, आत्मा प्रत्यक्ष है इस्के गुण चैतन्यके प्रत्यक्ष होनेसे जिस्का गुण प्रत्यक्ष है वो गुणीभी प्रत्यक्ष होता है। प्रयोग ऐसे है-"प्रत्यक्ष आत्मा स्मृति जिज्ञासादि तहणाना स्वसवेदन प्रत्यक्षत्वात् । इह यस्य गुणा प्रत्यक्षा समत्यक्षः दृष्ट' यथावट इति प्रत्यक्ष गुणश्च जीपस्तस्मात् प्रत्यदाः "॥ मतला-स्मरण ज्ञान र जिज्ञासादि (जाननेकी इच्छा) आत्मारे गुणाके प्रत्यक्ष होनेसे आत्माभी प्रत्यक्ष है । क्यों कि जगत्मे यह एक साधारण नियम है कि जिसका गुण मन्यक्ष है उस गुणका धी गुणीभी प्रत्यक्षही होताहै । यत गैर गुणीके गुण नहा रहसक्ता-" यत्रेव योदृष्टगुण, सतत्र, कुभादि वनिप्पतिपक्षमेतदिति वचनात् " जैसे घटको जिस जगहपर देखते है उस्को रुपादि गुणभी उसी जगहपर होते है। इसलिये जर गुण मत्यक्ष होताहै तो घटभी मत्यक्ष होता है। इसी तरहसे स्मरण ज्ञान हमें प्रत्यक्ष होता है कि इस वक्त मैं Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . फलानेको याद कर रहाई। इसीतरह जिज्ञासादि अनुभवभी साक्षात् होता है तो इन गुणों का आधार आत्मा अप्रत्यक्ष कैसे होसक्ता है। जैसे आकाशका गुण शब्द मगर आकाश प्रत्यक्ष नहीं है। ___नास्तिक-हम इस वातको मानते हैं कि स्मरण ज्ञान दगेरा आत्माके गुण प्रत्यक्ष है मगर आत्मा प्रत्यक्ष नहीं होसता है। क्यों कि यह कोई नियम नहीं है कि जिस्का गुण प्रत्यक्षहो उस्का गुणीभी प्रत्यक्ष होसके ! ___ आस्तिक-कौन कहता है ? नियम नहीं है यह बराबर नियमहै कि जिसका गुण प्रत्यक्ष है उसका शुगी अवश्यमेव प्रत्यक्ष रहेगा। आपने आकाशमें व्यभिचार दिखलाया सो आपकी समझका फर्क है । कौन कहता है आकाशका गुण शब्द है ? शब्द पुद्गलका गुण है इंद्रियका विषय होनेसे रुपकी तरह अगर इस वातका अच्छी तरहसे निरूपण करना चाहे तो इस निबंधके वरावरका निबंध तैयार हो सक्ताहै । इस लिये यहांपर इस वातको लंबायमान करना ठीक नहीं मालूम होता । जिस्को देखनेकी (इच्छा) हो स्याद्वादमंजरी-पट्दर्शन समुच्चय -रत्नाकरावतारिका-सम्मतितर्क-आदि ग्रंथों को देख लेवें । नास्तिक-अच्छाजी गुण के प्रत्यक्ष होनेसे गुंगीका प्रत्यक्ष होना तो मान लिया गया; मगर शरीरमेंही ज्ञानादि गुण पैदा होते हैं इसलिये शरीरको ही उनका गुणी मानलिया Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९) जावे तो क्या हरकत है ? आस्तिर-किस तरहसे मानलिया जावे कोड सबूत दो अगर सची वात हुइ तो हमभी मान लेंगे । क्या फिकर है । नास्तिक देखिये दलील यह है तथाहि । ज्ञानोदयो देह गुणा एव, तत्रैवोपलभ्य मानत्वात् । गौरकृश स्थूलत्वादि वत् । भावार्थ-नानादि गुण शरीरमेहि पैदा होते है । ऐसा माग पडनेसे शरीरके हि गुण है । गौरापन अपघा मोटापन च पतलापन आदि धर्म गरीरमे मालुम होते हैं । इसलिये अफल मद उन्हें शरीरकेही गुण मानते हैं । इसी तरहसे यहापर भी आप समझ लेों। नास्तिक-आपका यह अनुमान मिलकुल झूठा है। क्या कि जापके अनुमानान्तर्गत हेतु नहीं है, किन्तु प्रत्यनुमान घावित होनेमे हे वाभास है । तथादि देहस्य गुणा ज्ञानादयो न भवन्ति, तस्य मुत्तेलाचाक्षुप वादा घटवत । अर्थ-शानादिक गरीरके गुण नहीं हो सक्त है। क्यों कि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरीर रुपी है और नेत्रसे देखा जाता है। नान अरुपी है और नेत्रसे देखा नहीं जाता। इस प्रकारका ज्ञानादि गुणाम वैपरि त्य होनेसे शरीरके गुण नहीं हो सक्ते । ___ जैसे घटरुपी और चाक्षुप (देखनेमें आवे) है तो उस्का गुण ज्ञान नहीं बन सक्ता । इससे साबित हुआ कि अमृत आत्माकाही अमूर्त ज्ञान गुण हो सकता है । जब आत्माकाही गुण ज्ञान सिद्ध हुआ तो इस्के प्रत्यतसे आत्माभी प्रत्यक्ष सिद्ध हो चूका । इसलिये अत्यन्त अप्रत्यक्ष होनेसे आत्म कोइ पदार्थ नहीं है, आपका जो कहना था सो वाल भापित था। क्योंकि अनेक युक्ति द्वारा हम आत्माको प्रत्यक्ष सिद्ध कर चूके हैं । नास्तिक-भला प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो आपने आत्माको सिद्ध करदिया। मगर अब अनुमानसे तो जग दिखलावे किस तरहसे सिद्ध होता है ? आरितक-लो अब अनुमानसे देख लेखें । इस्की सिद्धि क. रनेको किनने अनुमान खडे हो जाते हैं यहभी ख्याल रखना। 'अनुमान' प्रयत्नवाले कर अधिष्ठित शरीर जीव वाला है। क्योंकि यह शरीर खाने पीने आने जाने रुप किया तवही करता है। जब भीतरके प्रेरककी इच्छा होती है । अगर भितरके प्रेरककी इच्छा नहो तो कुछभी नहीं कर सक्ता। इससे सिद्ध Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१) हुआ कि करने वाला आत्मा है। जैसे रथ बाहरको जाता है या शहेरम जाता है तो उस वक्त हम जानते हैं कि इसके अ दर चलानेवाला जर है-इसी तरहसे शरीरभी मानिंद रथ के है । इस्लोभी चलाने वाला जरुर होना चाहिये । वस वोही आन्मा है। दूसरा अनुमान यह है कि हमारे शरीरकी आदि और प्रतिनियताकारता (लमापन व चौडापन निम्मा हटवालाहो ) होनेसे इसका बनानेवाला कोई जरुर होना चाहिये। जैसे घटा खाम दिन पैदा होनेसे आदि वालाभी है चोर हदवालाभी है । तो इस्ता बनानेवाला कुमार जरर है। इस इसी तरहसे उपग्ली दोगने यानि प्रतिनियताकार और आदि येह दोना रातें गरीरम पाई जाती है । इसलिये इस शरीरका भी द रनाने वाला होना चाहिये । पस सोही जीव है, इस जनुमानसे आपसोभी चोट वनानेवाला मानना पडेगा । इससे आपको जीवकाही शरण लेना पड़ेगा जिस वास्ते परहेज करनेय पोती गम उनाना हुआ। अब च्यातरेक देखिये, जिस्का कोड की नहीं हे वो पार्थ आदि आर मनिनियताकार इन दो पातासे गन्य होता है जैसे आकाश । नाम्निफ-आपके अनुमानम न्यनिचार है । क्याकि मेर पतिमा निनिया आशार (हद वाला)। मगर आप इमो नमाति ( शाम्या ) मानते ६ यान इम्का कोई Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) कर्ता नहीं है। - आस्तिक-आपका कथन सर्वथा असत्यहै । क्योंकि मेरु प्रतिनियताकारवाला है मगर आदिवाला नहीं है । इस लिये आदिमत् विशेषणकी तरफ खयाल करते तो फोरनही समझ जाते कि व्यभिचार नहीं आता है। तृतीय अनुमान यह है कि हमारा यह शरीर भोग्य है, ( भोगमें लाने लायक है ) जो चीन भोगमें ली जाती है; उस्का भोक्ता (भोगनेवाला) जरूर होता है। मसलन चांवल भोग्य है, तो उस्के भोगनेवाले मनुष्य वगेरा जरूर होते हैं । इसीतरह जब शरीर योग्य है, तो उस्के योगनेवाले मनुष्य __ वगेरा जरुर होते हैं । इसी तरह जब शरीर भोग्य है; तो इस्का भोगनेवालाभी होना चाहिये । बस इस्का जो भोक्ता है, वोही हमारा माना हुआ आत्मा है । इससेभी जीवकी सिद्धि हो चुकी । वतलाइये ! अब शंका किस वातनी है? ... नास्तिक-आपके दिये हुए हेतु साध्यसे विरुद्ध पदार्थके सिद्ध करनेवाले होनेसे साध्य विरुद्ध हैं। क्योंकि घटादिक पदार्थके रचनेवाले कुलालादिक रुपी और अनित्य है । अतः आत्माभी रुपी और अनित्य सिद्ध हो जायगा; और आपके मतमें आत्माको नित्य और अमूर्त माना है । इसलिये दिये हुए हेतु व मिसालोंसे आपने अपनेही मंतव्यको तोड लिया Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) है । वाह ! अच्छा मडन किया। आस्तिक-आप हमारे मतव्यका रेशभी नहीं समा सक्त है। अगर समझाते नो नास्तिकही क्यों बने रहने । याद रहे ! हमारे दिये हुए हतु च मिसाले कभी साभ्य विरुद्ध सिद्ध नहीं होसक्ती । क्योंकि जीवके साथ आउ र्यके लोलीभत होनेसे कथचित् हम इस्को मूत्तिमानभी मानते है, और पर्यायार्षिक नयके मतसे हम इसे अनित्यभी स्वीकारते हैं । इसलिये पूर्वोक्त दूपण आपकी ये समझीको सिद्धि करता है । याद रसना: जैन मतके मतव्यको वोही अच्छी तरह समय सत्ता है, जो स्याद्वाद स्प गजद्रकी सवारी करना जानता है। ___ चतुर्य अनुमान यह है कि स्प और रस नगेर गुणोंकी तरह इनका ज्ञाभी किसी जगहपर आश्रित है । (जिस्मे आश्रित हरो आश्रयतदाता आत्माही सिद्ध है।) इस्का मतरम यह है कि जैसे पट रूप घटाश्रित है, और शकरका सादिष्ट रस शहरके आश्रित है। इससे यह मतलप निकलाकि जिस तरहसे रप व रस इद्रिय ज्ञानके विषय अपने अपने योग्य गुणामें आश्रित है । इसी तरहसे इनका अनुभव का ज्ञानमी विपयवत् मिसोजगहपर आश्रित होना चाहिये। इम्के मुताविक आश्रयदाता सिपाय आत्माके ओर घट नहीं सक्ता, अगर घटता है तो बता दीजिये ' देखिये ! एक और बात सुनाता है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ ( ३४ ) ज्ञान सुख वगेरः पैदा होते नजर आते हैं, इससे हम इनको कार्य कह सकते हैं । (जो पैदा होने वाली चीज है वो कार्यमही शामिल है,) कार्यका उपादान कारण जरूर होना चाहिये । बिना उपादानके कार्य नहीं बन सक्ता । जैसे विना मृत्तिकाके घट रुप कार्य नहीं बन सत्ता है। इससे ज्ञान सुख वगेरःका उपादान कोई जरूर होना चाहिये । जो उनका उपादान है. वोही हमारा आत्मा है। क्योंकि शरीर तो इनका आश्रयी वन सक्ता है । न कि उपादान | अगर किसीको इस वातमें शक हो तो भूत पीछेकी इबारत देख लेवें। शक नष्ट हो जायगा । यतः हम अनेक , युक्ति प्रयुक्ति द्वारा इसवातको स्पष्ट कर चुके हैं कि ठीक शरीर ज्ञानादिकका कारणं नहीं बन सकता। नास्तिक-अच्छा, हम इस बातको मंजूर करते हैं कि मापके अनुमान सच्चै हैं। मगर आपने प्रत्यक्ष प्रमाणसे आमाको सिद्ध करते वक्त स्व संदेदन प्रत्यक्ष प्रमाणका स्वरूप बतलाया। इससे देशक अपने आत्माकी पहिचान हो जाएगी। मगर दीगर शख्समें आत्मा है; या नहीं ? बतलाइये ! इस बातकी सिद्ध करनेवाला कोइ प्रमाण है या नहीं ? ___ आस्तिक-क्यों नहो, वैतराग देवके अछूट ज्ञान खजामें किस बातका टोटा है ? जो मागोगे सो मिलेगा। ली Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३५) निये, अब दीगरके जिस्म रहकी सिद्धि करते हैं । जरा व्यान लगाकर पढीयेगा । सामान्य दृष्टानुमानसे दूसरे लोगोम इष्टम प्रवृत्ति और अनिष्टसे निवृत्ति रूप आदतके देसनसे हम जान सक्ते है कि दूसरे प्राणियोंका शरीरभी सान्गि कहै । अगर आत्मा न होता तो इप्टा निष्ट, पत्तिय निरत्ति कभी नहीं होती । मसलन घटमें जीवात्मा नहीं हैं, तो इस्में प्रवृत्ति व निवृत्ति इन दोनों से फोडभी धर्म नहीं पाया जाता । इससे दूसरके शरीरम भी आत्मा है यह बात अच्छी तरहसे सिद्ध हो चुकी। अत नास्तिकने पेश्तर लिखाधाकि सामान्य तो नानुमानसेभी आत्मासिद्ध नहीं हो सक्ता यह पान बिलकुल गलनथी । देखिये । हमने नास्तिकके सामनेही दूसरेके शरीरमे सामान्य तो दृष्टानुमानसे जीवकी सिद्धि कर दिखलाई । अब कहानक लिखें । प्रिय सज्जनो! मयम नास्तिकके कथनपर खयाल पिया जाये तोभी जीवकीही सिद्धि होती है । मगर लगइल्मीयतमर्न दनमो भूतकी तरह इस कदर चिमडी है कि शायद इनका पीछा छोटे। नाम्निक-पनाइये । हमारा कौनसा यथन जीकी सिद्धि कर रहा है। आस्तिक-देखिये ! आप कहन हेकि जीव नहीं है, यद Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपका निषेध करनाही जीवके अस्तित्वको सावित करता है। क्योंकि जिस चीजका निषेध किया जाता है वो चीज कहीं तो जरुर होती है । मसलन कहा जाना हैकि यहाँपर घटा नहीं है, तो इससे साबित होता है कि और जगहपर घट अवश्यमेव होगा। इतना कहने मात्रसेही भी नहीं बल्के और जगह पर हम प्रत्यक्षतः देखते हैं । इस्में अनुमान यह है: ॥ इह यस्य निषेधः क्रियते, तत् स्वचिदरत्येव, यथाघटादिकं । मतलब उपरकी इबारतसे हल है । देखिये । अब आप समझ गये होंगे। क्योंकि आपने निषेध तो कियाही था, इससे सावित हो गयाकि जीव नामका पदार्थ वस्तुतः है। वरना निषेध कैसे किया जाता ? यतः इस दुनिया में जो सर्वथा नहीं होता है; उस्का निषेधभी कोई नहीं करता । जैसे पांच भूतोंके अलावा छठे भूतकी न तो विधि है और नहीं निषेध है। नास्तिक-आपका यह कथन अन्यथा है । क्योकि गर्दभशृंग-वंध्यापुत्र, वगेरः पदार्थ अभाव रुप हैं । मगर फिरभी इनका निषेध किया जाता है । इसलिये आपका कथन दुरुस्त नहीं है। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) आस्तिक-प्रियवर ! जरा मेरी तरफ अपनी तवजह रजु करें । म आपको दुरस्त कर दिखलाता है । देविये । गर्दभशृङ्ग अथवा व यापुत्र नहीं है । मगर इनका निषेध पाया जाता है, इस्का यह सच है कि जैसे हम कहते इकि देवदत्त परम नही है। इससे जतलाया गयामि देवदत्तका सयोग घरके साथ नहीं है। मगर गीचेमे जानेकी वजहसे आरामके साथ है। इसीतरह गर्दभशृग नहीं है। इससे यह मालूम होता है कि ऋगका गधेके साथ समपाय योग नहीं है, किन्तु भैस, गौ पैल बगेर पशुओंके साथ है। इससे सर्वथा शूग निपेध नहीं किया गया। किन्तु सास जगहपर निपेध है । इम लिये हमारा कहना इसी तरहसे सायम रहाकि जो चीज होगी उसीश निषेध किया जायगा। अनलाइये ! अब जीवो किस जगहपर मानने हो जिधर मान लोगे उपरही सिदि कायम रहेगी। नाम्निम-म रही क्सिी गरससे मिलानो उस्ने मेरेमे पा आप की इ १ गो जवाब दिया "ईश्वरो ऽह " में ई'वर , उस्ने निपेर कियाकि तुम ईश्वर नहीं हो सक्ते हो। यन गरये ' अब जाप माननेके मुतारिफ तो में ईश्वर परापर हो चूमा। क्यामि नापका कहना है । निम्का निषेध किया जाये वो जगर होता है । मलाइये। आप मुझे ईश्वर मानोगे या नहीं? Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३८) आस्तिक-सर्वथा ईश्वर आप नहीं बन सक्ते हो । इसलिये हम क्या इल्के हरएक कह देगाकि आप ईश्वर नहीं है । मगर इससे हमारा अनुमान झूठा नहीं हो सकता । क्योंकि आप ईश्वर नहीं हैं, इन शब्दोमेही ऐसा सामर्थ्य है कि ईश्वर सिद्ध कर सके । जैसेकि आप ईश्वर नहीं हैं, इससे सावित हुआकि द्वादश गुण युक्त और ईश्वर जस्र है; अगर न होला तो निषेधभी नहोता । यतः कोइ ऐसे नहीं कहता हैकि आप वंध्या पुत्र नहीं हैं। और आपमें ईश्वरताका निषेधभी तीन जगत्की अपेक्षासे समझें । अन्यथा अल्प ईश्वरता तो आपमें भी पाइ जायगी। क्योंकि अपने संतानके व अपनी भार्थ्यांके ईश्वर तो आपभी है । बाद आत्म सिद्धि औरभी एक प्रमाण है । तथाहिः ॥ अस्तिदेहे इंद्रियातिरिक्त आत्मा, इंद्रियोपरमेपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात् । पंचवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्तृ देवदत्तवत् ।-मतलव इंद्रियोंसे जिन पदार्थोंका हमें ज्ञान होता है । इंद्रियों के उपर होने परभी हमें उस्का अनुस्मरण होता है। इससे सिद्ध होता है कि अंतरंगमें देखने वाला कोई ओर है। वस, समझ लेवें वोही आत्मा है । वरना ( अन्यथा ) पदार्थ के साथ इंद्रिय संयोगके अभावकी हालतमें अनुस्मरण कैसे हो सक्ता था व पंचवातायनस्य देवदत्तकी मिसाल कैसे देते ? ' Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलामा मार परमिटियोंकी नारस ममी में सी कानको प्राण परनेणी । नाफे मार दिपोती पनि ना होनी । अब पहना मनगर यह कि नरम गापि देशोर नो फीरायसो नाता कि यह पट, मगर रटो र रोमानेपरभी हमारे दिग्में पपी पशि जमीप. नामें परमाने परभी पाग दोनो। मासक्त, विनिपा मगरा पारे मनु म्मरण पसरा माग पोपार्थ गई। एस, घोही आमा! प्रिय गानन जय गोगनेशा र नागिर गि पर ART, नो पपने मुगौ माया शोभमान मामी ला कि नियम माम गिर हो गरे । रिगी, पर अनुमा सर शिगनी अनुमान पो बिराये । मगर पिरभी दाना यि सीमोनाको शासन मना मगर ATRAPF पापी RER G नील नाधिपाटा | मान मो अनुमान #FREE मामा, र माग :मग मी गार गारनामा गिरा । गनिए- IT रिटी । म पापमा मार गिा. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आस्तिक-सिवाय तुम्हारे मतके आत्माके अस्तित्व में कोइ मत विरुद्ध नहीं । याने हरएक मतके आगम आत्माको स्वीकारते हैं । अगर कहोगे हमारे मतमें आत्माका अस्तित्व नहीं माना है, इस लिये आत्मा नहीं है । तो यहभी ठीक नहीं। चयोंकि आपका मत अतीव अरात्य होनेके सबबसे हमारी सत्य युक्तिद्वारा खंडित होगयाहै । इस लिये अप्रमाणिक मतके शरणसे आप छूट नहीं सक्ते ? और परलोककी सिद्धिका पुख्ता प्रमाण जगत्की विचित्रताही है । एक राजा, एक रंक, एक भोगी, एक शोकी, एक निरोगी, एक रोगी, बगेरः बातें पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य पापके वगेर, नहीं बन सकती है; और एक यहभी अनुमान है कि जब कोई वालक पैदा होताहै तो उसी वक्त अपनी माताके स्तनको मुंहमें लेकर स्तन पान करता है। (दूध पीता है) यहांपर उसी वक्तके जन्मे हुए चालकका दूध पान करना पूर्वके अभ्याससे समझा जायगा । क्योंकि अगर उसमें खाने पीनेका अभ्यास पूर्व जन्ममें न होता नो अभ्यासके वगेर खाने पीनेका काम कभी न करता । - इससे भी परलोककी सिद्धि होजाती है। यहांपर अनेक प्रमाण आयत होसक्ते हैं। मगर निबंध वढ जानेके भयसे हम इतनेसेही संतोष करते हैं । क्योंकि अकलमंदोंके लिये इशाराही काफीहै । प्रिय मित्रो ! आत्माकी सिद्धि होनेसेही हम कृत कार्य होगये । ऐसा मत समझें, किन्तु अब आत्म कल्याणकी Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४१) तरफ तवजह रजु करनी चाहिये । आत्म कल्याणका मुग्य कायदा सची शुद्ध श्रद्धा है । जब तक शुद्ध धर्मकी प्राप्ति नहो चाहे गिरि कदराम बैठकर तपश्चर्याद्वारा शरीरको सुकादिया क्यों न जाने ? आम कल्याण हरगिज न होगा। इस लिये सच्चे धर्मकी प्राप्तिके लिये कोशीश करना जरूरी बात है । और दुनिया अनेक मतमतान्तर खडे हुए है, कौन जाने, कौन सच्चा और कौन झठा है । इस बात के निर्णयार्थ कुछ एक शाखाका खडन पर्षक जैनमतका महन कर दिखलाताहू । जाप व्यान लगाकर पढे और लाभ उठाव । प्रिय सज्जनो! प्रथम चौद्ध मतपर विचार करते हैं । तो इनका मतव्यमी विलकुल भासा मालूम होता है। क्योंकि प्रश्म ये लोग तमाम पदार्थोंको क्षण विनश्वर मानते हैं, सो पहीद क्यास है। कोई पदार्थ हम ऐसा नहीं देखते है कि वगेर निमित्त के हमारे देखते देखते निर्मल (जडमूल ) सेनाश हो जाने, और हम पता न लगे । देग्निये, जैसे निर्मल (जडमूल) से घटका नाश होता है तो " घटोवस्त." अर्थात् घडा फूट गया, ऐसा ज्ञान हम अश्यमेव होता है । इसीतरह अगर बौद्धोंका क्षण विनश्वर (क्षणक्षणम पदार्थका नाश होता है ) मत सत्य होता तो प्रत्येक क्षणमें हम मतीति होती कि ठीक है । क्षणमें घटका नाश होता है, और उस्की जगह ओर घट पैदा होना है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) चौद्ध-आखरी समयपर कोई पदार्थ क्यों नहो ? अगर रुपी होगा तो उस्के नाशकी मतीति जरुर ोगी। मगर क्षण विनश्वर स्वभावसे नष्ट होता पदार्थ दिखलाइ नहीं देना। कारण कि उस्में स्वभावही ऐसा है तो फिर तर्क दिल वालवा करते हो ? ___ जैन-अच्छा, जाने दीजिये । इस वानके पेडनर यह मुनाइयेकि अगर आप क्षणभंगुर पदार्थके स्वरूपको न स्वीकारते; और हमारी तरह पदार्थ स्वरुपकी अवस्थिति मानते तो क्या हर्जकी वातथी ? चौद्ध-हमारा यह मानना है कि जब पदार्थ पैदा होता है, उसी वक्त उस्में क्षणभंगुर स्वभाव पड़ जाता है । यानि उत्पत्ति कालसेही पदार्थमें यह स्वभाष पाया जाता है । युक्तिकी तरफ निगाह करें ! अगर इनमें क्षणभंगुर (क्षणमात्रमें नष्ट होजाना) स्वभाष पहिलेसे न माना जाये तो मुद्गरादिकके पतन कालमेंभी नाश होनेका स्वभाव नहीं हो सक्तां । क्योंकि अगर घडा पैदायश कालमें अविनम्वर स्वभाव था तो विनश्वर स्वभावधाला कैसे हो सकेगा ? इसलिये प्रथमसेही विनश्वर पैदा होता है, ऐसाही मानना ठीक है। जैन-अब हम आपसे पूछते हैं । बतलाश्ये प्रथम निर्मूलसे नाश होते हुएभी लोगोंको निर्मूलसे नाशकी Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) मतीति नहीं करानेके स्वभाववालेमें अखीरके नाश वक्त प्रतीति करानेका स्वभार फहाँसे आया ? क्योंकि आपके मतम जैसे प्रथम क्षणमें "घटोवस्त क्षणभगुरत्वात" अर्थात् क्षणभहगुर होनेसे घटका नाश हुआ ऐसे मामुली तोरपर इत्म होता है । वैसेही जखीरके क्षणभी मामुली तोरपर इत्म होना चाहिये था ? साफ तोरपर मनीति पयों होती है ? हमारे इस समारनेही आपके मुचकुरापाले सवालको नष्ट कररिया। इससे आप नववी समझ गये होंगे कि पैदा होते वक्तका विनश्वर-अविनश्वरवाला सवाल विपुल फजूल है । और देखिये, आपके मानोके मुतारिक वहांपर ठीकरी नहीं होनी चाहिरे थी। परन्तु घटके फूट जाने पर ठीकरीयें अवश्यमय होती है, और हम तुम प्रत्यक्ष देखते हैं। तो यह सवाल आपपर जरुर आयद होगा कि वहांपर ठीकरीयें अवशिष्ट क्यों मालग होती है ? यत' नर हुए घटके म्यानमें दूसरा घट पैदा होजाना चाहिये । इसलिये कि आप का यह मानना है कि प्रथम क्षणम घडा नष्ट होजाता है। दूसरे क्षणमे उस्की जगह और पैदा होता है । तीसरे क्षणमें और इत्यादिक। बौद्ध-यह आप क्यन अविचारित है। क्योंकि दूसरे क्षणमें पैदा होनेवालेका प्रथम क्षण विवर्ति घट कारण है । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) __जव उस्का कारणही घट सर्वथा नष्ट होगया तो कार्य रूप घट कैसे हो सकेगा ? जैन-जरा विचार तो करना था कि मेरी दलील कहाँ ___ तक चलेगी। बगैर विचारे कथन करने वाले शालार्थमें कभी कामयाव नहीं होते । क्या आपके मतम कार्य कारण भाव भाव ठहर सकता है। जो मिसाल देते हो कि उस्का कारण नष्ट होगया। यादरहे, आपके मतमें पदार्थोका क्षणभंगुर __ माननेकी वजहसे कार्य कारण भाव कभी नहीं होसक्ता। क्योंकि जब प्रथमके क्षणमें प्रथम घट नष्ट होगा, तबही दूसरे क्षणमें दूसरा पैदा होगा। एक क्षणमें दोनोंके अस्तित्वको तो आप कबूलही नहीं रखते । कहिये, अब दूसरे क्षणमें पैदा होनेवाले घटका प्रथम क्षणवाला घट कारण कैसे बन सक्ता है ? अगर ऐसे वैसेही कारण मानलोगे तो मृतपति से भी खीयोंमें संतान उत्पत्ति होना चाहिये, मगर होती नहीं । इमसे साफ मालूम होता है कि आपका कथन अकलसे वहीद है। वौद्ध-हम वासनाको मानते हैं, इसलिये घटके नष्ट होजानेपरभी वासना रहती है । इस सबसे उत्तर कालीन घट पैदा होताहै । बतलाइये, इस बातमें क्या शक है ? जैन-वतलाइये, वो वासना घटसे भिन्न है या अभिन्न ? अगर कहोगे भिन्न है तो वोभी पदार्थ स्वरुपमें आजायगी । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जर पदार्थ सिद्धि हुइतो फिर घटवत् वोभी क्षणभगुर हो जायगी । इसलिये घटकी वासना घटके साथही पूर्व क्षणमें विलय होजायगी । बतलाइये, फिर उत्तर क्षणको कैसे पैदा कर सकेगी, अगर कायम रहनाभी माना जावे तोभी घटसे भिन्न वासना घटको पैदा नहीं करसक्ती है । जैसे पटपर रखे हुए घटके फूट जानेपर पट घटोत्पादक नहीं बनसक्ता । इसी तरहसे पटके नष्ट होजानेपर अवशिष्ट वासना घटसे भिन्न होनेके सबसे घटोत्पादक नहीं बन सक्ती । अगर कहोगे अभिन है तो फिर कहनाही क्या वो तो घटके साथही नाश हो जायगी। क्योंकि वो उससे अभिन्न है। इसलिये आपका क्षणभगुर मत किसी तरह साबित नहीं हो सकता है । चौद्ध-हमने आपको क्षणभगुरकी सिद्धिमें एक युक्ति ताई थी कि पैदा होता हुआ घट विनश्वर पैदा होता है या अविनश्वर ? इस्या क्या जवाब है ? जैन-हम आपको इस बातके जवामें प्रथमभी एक युक्ति पता चूके है । अगर इससे आपकी तसल्ली नहीं हुइ तो लीजिये । अव दूसरी युक्ति देता हू । ध्यान लगाकर श्रवण करें । साणमें रदी हुइ मिट्टीमें घट पैदा करनेका स्वभाव है या नहीं ? अगर है तो फिर कुलाल आदि निमित्तकी क्या जरुरत ? खुर वखुद घट क्यों नहीं बनजाते ? Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) अगर कहोगे उस्में घट उत्पन्न करनेका स्वभाव तो है, मगर विना निमित्त के घट नहीं बन सक्ता । तो हमारी तरफसे . भी यही जवाव समजें, कि घटमें नाश होनेका स्वभाव तो पेश्तरसेही होता है। मगर जबतक मुद्रादिक निमित्त नहीं मिलते, घट फूट नहीं सत्ता । हां वेशक, पोयें तो जरूर पलटती रहेगी । मगर बिना निमित्त के सर्वथा नाश नहीं होता। बौद्ध-अच्छाजी, यह तो बात मान ली । मगर और भी क्षणिकवादके खंडनकी युक्तिये सुना दीजिये । अगर मुझे ठीक मालुम हुइ तो मान लूंगा। जैन-देखिये ! आपके क्षणिक बादकी अश्लीलताको दिखलानेके लिये कलिकाल सर्व श्री हेमचंद्राचार्यजी महाराज स्याद्वादमंजरीमें क्या फरमाते हैं । जरा श्रवण कीजिये । कृत प्रणाशा कृत कर्म भोग, भव प्रमोक्ष स्मृति भङ्गदोपान् ॥ .. उपेक्ष्य साक्षात् क्षण भङ्ग मिच्छ ॥ नहो महा साहसिकः परस्ते ॥ १॥ __ मतलब-किये हुए कर्मका नाश और विना किये हुएका भोग २ भवभंग ३ मोक्षभंग ४ स्मातभंग-५ इन साक्षात् अ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) नुभव सिद्ध दोपोंका अनादर करके क्षणिक वादको चाहता हुआ, हे भगवन् । यद्विपरीत युद्ध अहो । पैसा साहसिकहै ? साहसिक उसे कहते है कि जो काम करते वक्त यह नही विचारता कि इस काम करनेसे आयदेश हमे कैसी घोर वेदना सहन करनी पडेगी।सो बुद्धनेभी यह नहीं सोचाकि विचारगील मानव मेरे इस लेखको पढकर मुझे वैसा समझगे। बस, इस मुवसर मतरबका बयान कर अप मुफस्सल हाल वयान दिया जाता है। गौर पढ़ें। मिय पाठको! प्रथम वौद्ध लोग हमारी तरह आत्माको नहीं मानते । किन्तु बगेर आत्म गुणीके बुद्धि गुण __मानते हैं । उसीभी स्थिति क्षणमात्र मानते हैं। अर्थात् उन या वहना हैकि प्रथम क्षणमें जो बुद्धि क्षण पैदा होता है, वो उस सणके अन्तमें नाश होता है । तर उस्की जगहपर दूसरे क्षण पुदिका दूसरा क्षण पैदा होता है, और दूसरेपी जगह तृतीय क्षणमें तीसरा पैग होता है । इसी तरह चुदि क्षण परपग चली जाती है । जिस्को ये लोग आत्मा मानते हैं इससे मध्यस्थ गण अच्छी तरहसे समझ गये होंगे, कि इस तरह मासे आमा क्षणिक सिद्ध हुआ । क्योंकि वृद्धिही इसके पास जाता है, और युदि क्षण उपरात ठहर नही सक्ती । इस लिये इस क्षणिक वादो मानने से नीचे लिखे Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) हुए दूषण इनके मत रुप दीवारको दीमककी तरह खा रहेहैं। देखिये, प्रथम दृपण यह बडा भारी है कि, इनके मतमें किये हुए शुभाशुभ कर्मका फल नहीं मिलता। क्योंकि प्रथम क्षण अपने कालमें शुभाशुभ कर्म करता है । जब उरके भोगनेका समय आता है, तो वो अण विचारा नष्ट हो जाता है। कहिये, अब क्षण कालमें बंधन किया हुआ कर्म कहाँ भोगेगा ? इस लिये कृत कर्म नाश नामका प्रथम दूषण है। बौद्ध-अगर हम उसी क्षणमें उस्ने कर्मका बंध और भोग दोनोंही कर लिये गानेंगे तो फिर आप क्या कहेंगे. ? जैन-सन् मित्र ! यह बात नहीं बनसक्ती कि एक. क्षणमें बंध और भोग दोनोंही करलें । अगर आप इस बातको मान लेवें तोभी आपकी इच्छा पूर्ण नहीं होसक्ती । क्योंकि एक बुद्धिका क्षण अपने अन्त होनेके वक्तपर तरवार लेकर किसीका गला काट देवे और उस आदमीके साथही बो नष्ट होजावे । बतलाइये, ऐसे मौकेपर आदीर में किये हुए बुरे कर्मका फल वो क्षण कहाँ भोगेगा ? और ऐसा तो आप कहही नहीं सक्ते कि, अखीरी रक्तपर को शुभाशुभ काम नहीं करताहै । अगर कहोगे सूक्ष्यकाल होनेके सबसे शुरु आखिर वगेरः व्यवहार नहीं होता, तो क्स, फिर हमाराही कथन सिद्ध हुआ कि वो अल्पकाल होनेके सववसे कर्म बंध Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) नहीं करसक्ता । रतलाइये, भोगेगा कहाँ ? मेरे मित्रो । देखिये ! प्रथम दूषण इसी नरहसे कायम रहा । क्या ? श्रीमद् हेमचद्राचार्यनी जैसे महर्पियोंका वचनभी अ यया होसकता है ? हरगिज नहीं । हरगिज नहीं। दूसरा यह दूषण है कि दिना कियेही कर्मका भोग मिल जाता है । जैसे दूसरे क्षणमें पैदा होने वालेने कोड कर्म नहीं कियाया । मगर भोक्ता बनता है । क्योंकि उन कुटनो शुभाशुभका अनुभव जरूर करेगा। यतः ऐमी कोई क्षण नहीं है, जिम्में भोक्तृत्व न हो। इससे साबित हुआ कि दूसरे क्षणम पैदा होनेवालेको कर्मके बगैरदी किये-कर्मका भोग मिला । इसठिये अकृत कर्म नामका दूसरा दूपणभी लिष्ट फर्मसी तरह अति बलिप्ट इनके पीछे लगा है, मरनी चाहे वहाँ भागें छूट नहीं सकते। तीसरा भवभग नामका दूपण है। जैसे कि बौदाश मानना है कि क्षण सण पदार्थ नष्ट हो जाता है। यहापर कहोका तात्पर्य यह है कि जर पूर्व क्षण कर्म फर्ता नष्ट हो गया तो भोगेगा कौन ? और एक जन्ममे दुसरे जन्ममें पैदा होना पर्मिके उदयसे होता । मो कर्म कर्त्ता तो क्षणसे याद ठहरही नही सक्ता । पताइये? अब परलोकमें कौन नायगा 'इम लिये भरभग नामका तीमरा दाणभी इनसे परम परिचय रखता है । अत्र चौथा दपण मोसमग नापका है, यह भी पफ अनिवार्य है। मनलप इसके मामें मोतो व्य. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) वस्थाभी ठीक तोरपर नहीं चल सकती । क्योंकि मोक्षनाम छूट जानेका है । जो वह होगा वही जब छूटजायगा तव मोक्ष शब्दकी प्रवृत्ती होगी । सो इनके मतमें यह चात बनही नहीं सकती। क्योंकि पूर्वक्षण तो बद्धदशाही नष्ट होजायगा । तो मोक्ष किस्का रहा ? ऐसा तो होही नहीं सकता कि, पूर्व क्षण पद्धदशामें जावे और उत्तर क्षणका मोक्ष माना जावे । क्योंकि दुनिया भी ऐसा नहीं हो सकता कि जमाल गोटेका ( नेपालेका) जुलाब भतीजा लेवे और दस्त चचेको लग जावें । इस लिये मोक्ष भङ्ग नामका दुषणभी इनसे परम मैत्री भाव रखता है । इस तरहसे बुद्धिको क्षण विनाशिनी माननेसे स्मरण ज्ञानभी इनके मतमें नहीं हो सकता है । इस लिये स्मृतिभंग नामका पांचमा दूपणभी बुद्ध निरूपित मन्तव्यमें बडे आनन्दसे निवास करता है । स्मृति नाम स्मरणका है सो-स्मरण ज्ञान उसे कहते है, जो पूर्व झालय देखीहुइ चीजका उत्तर कालमें याद करना । मसलन हमने किसी आदमीको देखा है, और कई दिनोंके बाद हम अपने भवनमें बैठे हैं । उस वक्त हमें उपयोग देनेसे उस पुरुएका स्वरूप तादृश्य याद आताहै, उस्को स्मरण कहते हैं। बादि देवसूरि महाराज स्मरणका लक्षण नीचे सुजय लिखते हैं। तथादिः Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) ___॥ संस्कार प्रबोध संभूत मनुभूतार्थ विषय तदित्याकार सवेदनं स्मरणम् ॥ इस लक्षणमें तीन बातोंका समावेश किया गया है। एक तो स्मरण ज्ञान किससे पैदा होताहै, और उस्का विषय कौन है, तथा उसका कैसा आकार है । सो तीनोंही बातोंका निर्णय सूनकारने इसी मूनमें कियाहै। सस्कार ज्ञानसे यह पैदा है । अनुभवित अर्थ इसका विषय है, और वो ऐसा इस्का आकार है । इससे यह मतलब निकलता है कि पूर्व कालम जो चीज देखी गइ है उत्तर कालम उस चीजको याद करने पर स्मरण ज्ञान होता है । इस लिये चौद्ध मतमं इस ज्ञानका होना अशक्य है । क्योंकि पूर्व कालम जिसने प्रत्यक्ष तया पदार्थ को देखा था वेतो नष्ट होगया । बतलाइये, फिर स्मरमज्ञान कौन करेगा? ऐसा तो होही नहीं सस्ता कि पूर्व कालम जोया उस्ने प्रत्यक्ष किया और उत्तर कालम जो होगा सो म्मरण करेगा । यत. देवदत्तो कोड प्रत्यक्षपणे पदार्थ देख लिया, उस्का स्मरण देवदत्चही कर सकेगा नकि यज्ञदत्त । अगर एक की देसीहुइ पातका दूसरा स्मरण कर सकता तो फिर हमारे गुरु श्रीमद्विजयमल मुरीश्वरजी ने सिद्धाचलजीको प्रत्यक्ष देसाई, में स्मरण क्यों नहीं कर सत्ता क्योंकि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) एकके देखनेसे दूसरा स्मरण कर सकता है तो फिर मुझेभी उस परम पवित्र गिरिराजका स्मरण होना चाहिये । तथा हमारा स्वामी सेवक भाव संबंध है फिरभी उनकी देखी हुई वातका में अनुभव-स्मरण नहीं कर सकता । तो फिर बुद्ध का कहना कैसे सत्य हो सकता है। इसलिये पांचया दूपणभी इनके मतमें जवर दस्त पडा है। चाहे, जितनी कोशिश क्यों न करें हट नहीं सकता। प्रिय सज्जनो ! यहांपर मैं बहोत विस्तार करना चाहता था और इनकी मानी हुई बासनाकीभी कलइ खोल देता था। मगर क्या करें निबंध बढजानेके भयसे इसवातको मैं यहां परही छोडता हूं। किंबहुना । विज्ञेषु। ___अब जरा नैयायिक मतपर खयाल कर देखते हैं, तो इनके मन्तव्यभी ऐसे वैसेही मालूम पडते हैं । प्रथम ये लोग जगत्का कर्ता ईश्वरको मानते हैं। इनका यह कथन युक्ति प्रमाणसे नहीं ठहर सक्ता और कर्तृत्वोपाधिमें ईश्वरको डालनेसे वो कलडिन्त होजाता है । इस वातपर युक्ति प्रयुक्ति द्वारा कई जैनाचार्योंने तथा जैन मुनियोंने खंडन किया है । यहाँपर मैं इस मन्तव्यका खंडन जरुर करता, लेकिन मुझे निबंध बढ जानेका भय है । इसलिये मैं इस विषयमें नहीं उतरता। देखनेकी स्वाहीश वालोंने न्यायांभोनिधि श्रीमति Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५३) जयानद सूरीश्वरजी महाराजका बनाया हुआ "चिकागो प्रश्नोत्तर" तथा मेरी वनाई हुइ " दयानद कुतर्फ तिमिरतरणि "नामा कितार जिस्को कि लाला नथुराम जैनी मुजीरा जिला फिरोजपुरने उ में लिखी और लाला बिहारीलाल एल एल पी पाउने बडी प्रीतिके सोब लाहोरमें छपवाइ है। पता• उपर लिखा हुआही समझें । प्रिय सज्जनो ! देखिये, इनके लिये श्रीमद् हेमचद्रचार्यजी महाराज स्याद्वादमनरीके दशम श्लोकमें क्या लिखते है:स्वयं विवाद अहिले वितण्डा, पाण्डित्य कण्डूल मुखेजनेऽस्मिन् ॥ मोयोपदेशात् परमर्मभिन्द, नहो विरक्तो मुनिरन्यदीय ॥१०॥ मतलव-इस दुनियाके लोगमे स्वाभाविकही यह मत्ति पाई जाती है कि अपने मतको सिद्ध करने के लिये झूठे इतराज देकर दूसरेके पक्षको गिराना चाहते है, और अपने झूठे मन्तव्यकी सिद्धि के लिये विस्तृत वक्तृत्व कला विना गुरुके खुद बखुदही सीख रखी है। ऐसे लोगांको मायोपदेश देनेवाले गौतमकी विरक्तताको शागास है। विरक्तता हो तो ऐसी हो! इस श्लोकके चतुर्थ पादमे हेमचद्राचार्यजी महाराजने अहो ये पद Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५४) हास्य गर्भित रखा है, सो ठीक है । ऐसे पुरुष आत्मार्थि विद्वान् पुरुषोंके पास हास्यास्पदही होते हैं । अब आपके पास जरा इनकी अज्ञानताका नमूना दिखलाते हैं। ध्यान लगाकर पढ़ें और मनन करें। . नैयायिक मतमें एक "गौतमसूत्र " नायका वडा प्रमाणिक ग्रन्थ है । जिस्को आर्यसमाजीभी बडे आदरसे स्वीकारते हैं । । स्वीकार क्यो नहीं ? छल जातिका स्वरूप तो इस्मेंसेही निकलता है । ) इस्के प्रथम सूत्रपरही कुछ विचार करतहैं । देखिये सूत्र यह है:____ " प्रमाण प्रमेय संशय प्रयोजन दृष्टान्ता' सिद्धांन्ता वय वतर्क निर्णय चाद जल्प वितण्डा हेत्वाभास छल जाति निःशह स्थानानां तत्त्व ज्ञानान्निः श्रेयसाधिगदः” न्या० द. स-१ मतलब-सूत्रमें गिनाये हुए सोलह पदार्थों के तत्त्वज्ञानसे जीव मोक्ष हासिल कर सका है। इनका ये मन्तव्य युक्ति प्रयाणसे ठहर नहीं सक्ता । सत्शास्त्रो में क्यान है कि "सन्यज्ञान क्रिया भ्यां मोक्षः" मतलव-ज्ञान और क्रिया दोनों कर मोक्ष मिलता है; ओर दलीलसेभी यही साबित होता है कि ज्ञान और क्रिया दोनों मिलकर मोक्ष पद हो सका है । चाहे ऐसे P Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) अच्छे कारीगरने उमदासे उमदा रय क्या न बनाया हो य गर एक पैयसे (चक्र) कभी नहीं चल सक्ता । मतलब जैसे स्थके लिये दो चक्र (पैये भी जरूरत है, इसी तरह मोक्ष माप्ति भी इन दोनो निमित्तोंकी जरूरत है । देखिये किसीएक गहन वनम चराचर पदार्थके साथ वनको भस्मसात् करता हुआ अनि इस कदर मजवित हुआकि आसपासके तमाम लोगोंने भयभ्रान्त होकर भागना शुरु किया । उस वक्त उस वनमें एक अपा और एक पगु दा शख्म मौजूद है । उनममे अपा भागतो सक्ता है, मगर देख नहीं सताकि, आगरा जोर फिवरसी तरफ है, ओर मुझे क्सि दिशाका आशय लेना चाहिये ।इसलिये वो गभरा रहा है। इधर पगु साफ तोरपर देख रहा है कि आगका इन दिशाआमं पडा जोर है, और फलॉ दिशाम हो जाउ तो मै बच सक्ता हु। मगर क्या करे वो विचारा भाग नहीं सक्ता । अब अलग रहनेसे इन दोनोका नाश होता है । लेकिन इन्फाफसे दोनाही पच सक्ते हे । क्योंकि अगर अपा पगुको अपने स्मथ (खभा,पर उठा लेगे और पगु दर्शित मार्गपर चले तो दोनोंही बच सक्ते है। इसी तरहसे ज्ञात रहित क्रिया मानिंद अध पुरुपके है । जो मोक्ष में जाना चाहती है, और उद्यमभी जानेका फरती है, मगर मोक्षका रस्ता नहीं जानती । किया रहित ज्ञान मा Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) निंद पंगुके मोक्षके रास्तेको देख सक्ता है, मगर चल नहीं सक्ता । बस, इससे सावित हुआकि जब चलन खभाव क्रिया और दर्शक ज्ञान दोनों पदार्थ इकठे होंगें तवही मोक्ष दे सकेंगे। इसलिये अकेले ज्ञानसे मुक्तिका मानना दुरुस्त नहीं । प्रथम पदार्थ इन लोगोंने ममाणको माना है। अतः इम कह सक्ते हैं कि ऐसे रद्दीसदी ज्ञानके साथ अगर क्रिया मिलभी जावे तो फिरभी कुछ नहीं बन सकता। क्योंकि सम्यग् वानके साथ सम्यक् प्रकारसे क्रिया की जायगी तवही मोक्ष हाँसिल हो सकेगा अन्यथा नहीं । देखिये, न्याय दर्शनमें प्रमाणका लक्षण नीचे मुजब लिखा है। __" अर्थोपलब्धिहेतुःप्रमाणं " __ बतलाइये, इस सूत्रमें लिखे हुए हेतु शबसे आप क्या लेते हैं। अगर हेतु शइसे निमित्त कारण ऐसा अर्थ करोगे तो ये बात सब कारकोंमें साधारण रहेगी। जिससे कर्ता कर्म वगैरा सब कारकोंको प्रमाण स्वरूप मानने पडेंगे। अगर हेतु शबसे असाधारण कारण (कारण का अर्थ स्वीकारोगे, तो वैसा ज्ञानही सिद्ध होता है । नकि इद्रियार्थ समिकर्षः । यतः इंद्रिय और पदार्थ इन दोनोंके जड संवन्धको करण माननेसे घृतादिकोंकोभी करण मानना पडेंगे । इसलिये सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके ये करण हैं, नकि कारण । यतः Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) साधक्तम अव्यवहित फलोपेत कोही कारण मानना कहै । अत: "स्वपर व्यवसायि ज्ञान प्रमाण" ऐसा जैनाचार्य कृत लक्षणही निर्दोषहै । प्रमाणके बाद इनका दूसरा पदार्थ प्रमेय है । इरके गरह भेद नीचे मुजब मानते हैं । तथाहिसुत्रं-" आत्म' शरीरें द्रियार्थ बुद्धि मनं प्रत्तिदोषपेत्य भाव फलेंदु सोऽपर्वर्ग भेदात् द्वादशविधं " देखिये ! इन बारह भेदोंको प्रमेयमें दाखिल करना एक इमाकत दाखिल है। क्योंकि प्रमेयमें इन बारह भेदोंका समावेश नहीं हो सकता है, यत. प्रथम शरीर, इद्रिय, बुद्धि, मन, पत्ति, दोप, फल और दुख. इन आठ पदार्योंका आत्मामही समावेश हो सकता है । क्योंकि ससारी आत्मा कथाचित इससे अभिन्न है। इसलिये आत्मा ही अन्तर्भाव करना योग्य है। देखिये, अब जिन आठ पदार्थोंका आत्मामें अन्तर्भाव दिया जाता है मधम वो आत्माही ममेय नहीं बन सकता है। तो चाकी कैसे बन सकेग ? प्रिय सज्जनो ! इस जगतमें प्रथम तीन चीजोंको मानते हैं । एक प्रमेय, दूसरा ममाण और तीसरा प्रमाना । प्रमेय उस्का नाम है, जो प्रत्यक्ष व परोक्ष इन दोनों प्रमाण द्वारा निस्का अनुभव किया जावे । जैसे Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५८) प्रत्यक्ष प्रमाणसे हम देखते हैं कि यह घट है व यह पट (वन) है, अथवा मठ ( मकानकी जानी ) है नगैरा । परोक्षसे जैसे शास्त्र प्रमाणसे स्वर्ग नरकादि और धूभाके देखनेसे आगका ज्ञान करना इत्यादिक । स्वर्ग, नरक, घट, पट, आग वगैरा जिनने पदार्थाको हम जान द्वारा देखते हैं, इनको प्रमेय कहते हैं और जिस प्रत्यक्ष व परोन ज्ञान द्वारा ये देखे जाते हैं, उस ज्ञानको प्रमाण कहते हैं। और इनको जानने वाला जो है, उस्को नयाता कहते हैं । अब सोचनेका मौका है कि इन पदाथों को जानने वाला आल्या लाभात् प्रमाता है । उस्को प्रमेय कहना, किलनी वेलमाली बात है ? देखिये, आपके देखते २ आठ पदार्थको साथ लेकर आत्मा प्रमेयसे बाहर होगया । वतलाइये, अब नैयायिक माने हुए प्रमेयके बारह भेद कहां उड गये ? प्रियमित्रो ! गभराइये नहीं अभी बहोत बाकी है। लीजिये, अब वाकीका जबाव । इसके बाद इंद्रिय बुद्धि और मन ये तीन करण है। इस लिये प्रमेय नहीं बन सके। किन्तु वंचित् नमाणके अंग मानना चाहे तो मान सकते हैं। बाद रागद्वेष और मोह इनको नैयायिक लोग ___ दोप कहते हैं । इस लिय इन तीनोंको प्रवृत्ति में शामिल कर नाही योग्य है । क्यों कि शुभाशुभ फलवाला मन, वचन, कायाके व्यापारकोही आप प्रवृति कहते हैं । राग द्वेष और Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५९) मोहकी प्रवृत्ति मन, वचन, कायाके व्यापारसे कोई अलग नहीं पाई जाती । अतः इन तीनोंका मत्तिमें समावेश करनाही ठीक रहेगा, और दुस तथा शहादिक विषयोंका (वारह भेदमें अर्थ शद्रका अर्ध विषय है ।) फलमेंही समावेश करना ठीक रहेगा ! " सुख दु खात्मा मुख्य फल तत् सारन तुगौणमिति जयन्त वचनात् " प्रेत्यभार (परलोक) तथा अपवर्ग (मोक्ष) इन दोनों कामी आत्मही समावेश करना ठीक है। क्योंकि आत्मामा परिणामान्तर हानेकाही नाग परलोक या मोक्ष ह । इसलिये इन दो पदाधीका आत्मासे पृथक् भाव करना ठीक नहीं है । ममेयके बारह भेद माननाभी फेवल अमानता है । अत " द्रव्यपर्यायात्मक वस्तुममेयम्" यही लक्षण ठीक है। क्योंकि ये लक्षग सर्व सग्राहक है। इसलिये इम्म विस्तारसी जरूरत रहती नहीं है, और न इस्का कोई खडन कर सक्ता है। बाद तीसरा पदार्थ इन्होंने सशयको माना है। इसको कौन सच कह सकता है ? यहतो एक तत्वा भासहै। सशय नाग भ्रान्ति झानका है । इसलिये भ्रान्ति ज्ञानको तत्त्व समझने वागेकोही हग भ्रान्त समझते है । बस, एव याकीके पदार्थोंकोभी इनकी तरह विद्वान् पुम्पोने तत्वाभास समझ लेने अगर हम यहापर सोलह पदार्थोराही वर्णन करना धारे तो एक वडा भारी ग्रन्थ बनानेकी जरूरत है। इसलिये Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) इस छोटेसे निवन्धमें इन तमामका स्वरूप लिखना अति दुःशक्य है । मगर फिरभी सोलह पदार्थों में एक छल पदार्थकोभी बडे आदरसे स्वीकारा है । इस्का खंडन करना मैं जरुरी समझता हूं। क्योंकि छल करना बिलकुल बुरा है। इस चातको हरएक मतवाले मंजूर करते हैं। ऐसे छलको भी नैयायिक मतके आचार्य गोतमजीने स्वीकृत रखा और अपने शिष्योंकोभी कह दियाकि, अगर छलका तत्व ज्ञान करोगे तो तुम मोक्षके अधिकारी हो जाओगे । ऐसी अकल मंदीपर रोना चाहिये नकि खुश होना । देखिये, छलके तीन भेद बयान किये हैं। वाद्छल, सामान्य छल और उपचारछल । वाक्छल उस्को कहते हैं कि किसी शख्सने साधारण शद्रका प्रयोगकिया (साधारण शद उस्को कहते हैं जिस्के कई अर्थ होसके। ) है । वहाँपर कथन करने वालेके अपेक्षित अर्थको गुम करके रोला पानेके लिये दूसरा अर्थ निकालकर उस कथन कर्त्तापर दवाव डालनेको धमकीकी तोरपर कह देनाकि ऐसा कैसे हो सक्ता है ? मसलन किसीने कहाकि "नवकम्बलोयं माणवकः" मतलब नवीन है कम्बल जिस्के पास ऐसा यह बालक है। यहाँपर "शब्दसे कथन करने वालेने नवीन अर्थका द्योतन कियाथा, इस बातको श्रवण कर्ता अच्छी तरहसे जानता है। मगर फिरभी नव शब्दका अर्थ नौ ऐसी -संख्याको वाच्य रख कर " लुताऽस्य नव कम्बलाः " याने Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१) कहा इस्के पास नौ कम्बलें है ? ऐसा दुपण देकर कहता है कि इस्के पास तो एकही कम्पल है। देग्विये, कैसा ज्ञान सिखा रखा है । उस विचारने कब कहा था कि इस्के पास गो कम्बलीय है। उस्ने तो एकही नूतन (नई ) कम्बल है ऐसा कहाथा । उस्का खडन कर डाला इस सरह का झूठा और खुश्कवादके तत्व ज्ञानसे अगर मोक्षकी प्राप्ति हो तो ऐसी मुक्ति गौतमनीकोही मुबारक हो । इतिवाक छल । सभावनासे निस्का अति प्रसगभी होसक्ता है। ऐसे सामान्य वाश्यका किसीने प्रयोग किया है । वहापर उस विचारेकी अपेक्षाको छोडकर उस्के चाक्यका निपेष करनेका नाम सामान्य छल है । जैसे "अहोनुख-ल्वसौ ग्रामणो पियाचरण संपन्न इति ब्राह्मण स्तुति प्रसगे कश्चिद्वदति सभरित ब्राह्मणे विद्याऽचरण सपदिति " मतलब-किसीने ब्रामणकी स्तुतिके प्रसगमें कहाकि ब्राह्मण विद्या और आचरण करके सपन्न होता है । यहाँपरभी हेतु द्वारा झट दृषण दे देगाकि यदि बामणमें विद्या और आचरण रहते हैं तो जिस भूद्रमें ये दो वातें पाई जायगी वो शुद्रमी ब्राह्मणही कह लायगा । इस तरह अति प्रसग दे देना इसका नाम सामान्य छल है। देखिये, दूसरेके अभिमायको गुमकर डालनेकी इद्रनालभी पदपिनी अपने शिष्योंको सिखा गये हैं । इति सामान्य छल। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६२) किसीने उपचारसे वाक्यका प्रयोग किया है। वहांपर उस्के उपचारकी अपेक्षा को छोडकर मुख्य वृतिसे उस्का खहन कर देना । इस्को उपचार छल कहते हैं । मसलन किसी शख्सने कहा कि "मञ्चाः क्रोशन्ति " अर्थात् मंजे वोल रहे हैं। यह लाक्षणिक प्रयोग है । इस लिये यहांपर प्रयोग ऐसेही किया जाता है । मगर लक्षणसे अर्थ यह लिया जाता है कि मंचे पर बैठे हुए पुरुप शब्द कर रहे हैं । यहांपर कथन करने वाले का खंडन करनेके लिये यह कह देना कि मंजे जड हैं, वे कैसे वोल सकते हैं। बस, ऐसे लाक्षणिक पदोंके अर्थको समझते हुएभी अपने कुतर्क द्वारा असली मतबलको गुम्म करना इस्को उपचार छल कहते हैं। प्रिय पाठकगणो ! अव आपको बखूबी मालुम होगया होगा कि ऐसे ऐसे तत्वाभासोंको (जुझसरमें समझ लेवेकि झूठे तत्त्वको तत्त्वाभास कहते हैं ) तत्त्व समझने वाले यदि क्रियाका स्वीकार करले तोभी इनका कल्याण होना मुश्किल है। क्योंकि जब तक सत्य ज्ञानकी प्राप्ति नहो वहांतक क्रिया विचारी क्या करसकती है ? प्रिय जैनो! आपको इनकी उल्ट पुल्ट बातोंके श्रवण करनेसे जिनेश्वर देवके कथन किये हुए वचनोंपर खूबदृढ निश्चय होगया होगा। देखिये, उस परम कृपालुने हमें सदागमकी विद्या अगर न दी होती तो हममी Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) इनके झूठे मतव्योमें गोते खाते रहते मगर समझोकि हमारे वहे __ भारी पुण्यका उदयथा जो हम इनके मतव्योंसे बच गये हैं, और वीतराग वचनामृतका पान कर रहे हैं । खयाल कीजिये हमारे सिरताज जिनेश्वर देवने मोक्षका तरीका कैसा उ मदा बयान किया है वे वयान करते हैं कि-" सम्यग् ज्ञान दर्शन चारिनागि मोक्षमार्ग " इसका मतलब यह है कि सम्यम् ज्ञान ( सच्चा ज्ञान) सम्यग् दर्शन (मुश्रद्धा) याने एतकाद और सम्यग् चारिन (नेक और दुरुस्त चालचलन) यही मोक्षका मार्ग है। अर्थात् सत् ज्ञानकी गाप्ति और एतकाद कारखना और नेक मचि रसनी इन तीनों वातोंके मिलनेपर मोक्ष हॉसिल होता है। देखिये, कैसी निष्पक्षपातता जाहेर फिइ है । नफिसी मतका नाम पाया जाता है, और नकिसी लिंगका । तीन बात जरूर होनी चाहिये । इन तीन बातोंकर युक्त शख्स चाहे कही क्यों नहो अपश्यमेव तरेगा । मगर वो जैन जरूर कह लायगा । क्योंकि जननाम उस्का है जो रागद्वेष रहित व्यक्तिम सेवक हो, सो पूर्वोक्त तीन चीजोंको जो पारेगा गोभी रागद्वेपरहित व्यक्तिकोही देव मानने लग जायगा। प्रिय मिनो । इन तीन चीजों में भी सम्यक् दर्शन यानि एतमादका मुम्य दर्गा रगा है। क्योंकि गैर एतमदके चाहे इतनी क्रिया क्यों न र, य चाहे उतने भापण क्यों न देवें, अथवा चाहे उतने प्रतादिक कष्ट सहकर अ'यात्मी क्यों न कहलायें, Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) मोक्षगति कभी नहीं पासक्ता । इसी वातकी खामीसे कई हमारे जैन भाइ नयी रोशनीके भवसमुद्र में रुलानेवाली सोसायटीयोंमें दाखिल होते चले जाते हैं। उनको प्रथम सोचना चाहिये कि हमारे परमें किस वातकी खामी है ? प्यारों वीतराग देवके अलूट खजानेये खामी तो किसीभी वातकी नहीं है. हाँ ! देशक उनके ए सकादकी खामी तो जरूर मानी जायगी; जो कि अपने सद्शालोंके बगैरही मनन किये झट दूसरे पंधमें होजाते हैं। मगर उनको चाहिये कि प्रथम एतकाद रखें। क्योंकि बगैर एतकादके धार्मिक इल्म नहीं पासक्ताहै। धार्मिक इल्मकी बात तो दूर रही मगर संसारिक इल्मभी नहीं पासक्ताहै । मसलन देखिये एक लडकेको मदरसेमें बैठाया है, मास्टर उस्को सिखा रहाहै कि देख,लडके ! क ऐसा होताहै इसके बाद दूसरा अक्षर ख ऐसा होताहै। यहांपर अगर वो लडका एतकादको छोड कर मास्टरसे झघडा करने लग जावे कि मास्टर साहिब ! जिस्को आप ख मानते हैं उस्को में क मान लूं और पेश्तरके ककोंमें पीछेका ख मानलं तो क्या हरकतहै ? मतलब उस्ने कहाकि ख-की आकृतिवाला-क-बनाया जाये और ककी आकृति जैसा-ख-बनाया जाये तो क्या हर्ज मर्जकी बातहै ? देखिये, यहांपर क-ख-के मामले में हि एतकात रहित होकर Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६५) मास्टरसे झगडा करने लग जायगा तो सपूर्ण फितारका ज्ञान होना तो दररहा मगर -ख-ग-इत्यादि बत्तीस अक्षरका ज्ञानभी सारी उमरके लिये दु'शस्य रहेगा । इसलिये वगैर एतकादके ससारीक इल्मभी नहीं प्राप्त होता है तो धामिफ इल्म कैसे हाँसिल होसक्ता है । नेक रडके जैसे मास्टरके वचनाने आत वचनवत मानते हैं। बाद जन पांच सात स्तिावोंका ज्ञान होजाताहै तो यह काविल वयसके होजाते हैं। फिर वे चाहे जितने जवाब सवाल करें मास्टर समझा सक्ताहै, और वे समझ सक्ते है । इसी तरह हमारे जैन भाइयोंको शुरआतसे हि हुनत बाजी करनी न चाहिये । किन्तु पाच पञ्चीश मत्रों को अवणकर अच्छी तरह जैन सूनोंका ज्ञान मिलाना चाहिये वाद किसी बातका सदेह हो तो पूछे । अगर एक गुरु उस वातका अच्छी तरहसे समाधान न कर सके तो दूसरे गुरुसे दरिया__ पत करें, समाधान न हुआ तो गीतार्थसे दरियाफ्त करों इस तर हसे कोई गीतार्थ अगर समाधान न कर सके तो दूसरे मतके शास्त्र देसे अपने पड़े हुए या सुने हुए शास्त्रमें जितना तचमान भरा है अगर उननादि तत्वज्ञान उनके उतने मूलशासमिसे निकल आवे और उस मतके पठित लोग तमाम सदेहोंको निवृत्त कर सके तो फिर पेशक अपने मतको छोड देवें । मगर फिरभी अपने गीतार्थ गुरुओंके साथ उनको वयस फरवाय लेना चाहिये। अगर इतनी कोशिश करें तो फिर धर्म भ्रष्टही क्यों होन! भाग Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६) कल तो वगैर विचारेही विचारे अपने चिंतामणि रत्नको छोड कर झट बडे खुश होकर काचको ग्रहण कर लेते हैं । जरा पांच सात अंग्रेजी कितावें पड़ी और लेक्चरर हो गयेकि अट आर्यसमाजी व ब्रह्मसमाजी वन बैठनेहैं क्या करें ? उन विचारोंकाभी कोइ दोष नहीं है । कुसंगके वशसे जब उनकी संसारमें रुलनेकीहि भवितव्यता हुइ तो फिर कौन हटा सक्ता है १ हाँ ? अगर पूछनेपर जैन मुनि उनको उत्तर न देव और अल्पज्ञान होनेकी वजहसे उस्का नास्तिक वगैरा शब्दोंसे तिरस्कार करें मगर यह साफ बात न बतलायें कि हमारे में अमुक अमुक पुरुप गीतार्थ हैं तो मुनिजनोंका दोष कहलायगा। अगर वतलानेपर उस्को धारण न करें और अपनीही कुतकें चलाये जावे, मुनिजनोंके वचनका अच्छी तरहसे मनन न करे वो उस्के भाग्यकाहि दोप समझा जायगा, नकि दूसरेका । प्रिय सज्जनो! यह नहीं समझनाकि मैं अपने मजसनको छोड बैठाहूं। किन्तु यहांपर एतकादके मौकेपर मुताविक जमाना हालके इतना लिखनाही वेहेत्तर था इसलिये लिखागया । अव कहनेका तात्पर्य यहहैकि आपने नैयायिककाभी सारांश अच्छी तरहसे देख लियाहै । इसी तरहसे वैशेषिककाभी समझ लेना। इन दोनों मतमें प्रायः समानता होनेके सबबसे नैयायिकके खंडनसेही वैशेषिकका समझ लेना । क्योंकि इनसोलह पदार्थोंमें वैशेषिककाभी अनुमतहै इनके छ पदार्थाकाभी खंडन विचारते मगर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६७) निवध बढ न जावे अतः इस्मेंहि समावेश समझ लेवे । पल्ल पितेन विद्वद्वर्येषु जनेषु । मिय सनमित्रो! अब इधर साख्य मतकी तरफ निगाह करते हैं, तो इनकी तत्त्व सरया कुछ अनोखाही ज्ञान देरही है । प्यारों ! इनके मन्तव्योंको देखकर मुझे अतीव आश्चर्य पैदा होता है, और विचार आता है कि नामालुम क्या बात है । क्या उस परम कृपालु वीरभगवत् के वचन इनके कानातक गति नहीं कर सकते' या उनके वचनोका ईपालु होकर इन पामरोंने मनन नहीं किया ? अथवा इनकी भवितव्यताने इनको इस फदेसे निकरने नहीं दिया जो साक्षात् विरुद्ध वातोका बयान करते हुएभी जरा शर्म नहीं खाते हैं । सारय-क्यों ? मुफतमें मगजमारी करनी शुरुकी है कुछ जानतेभी हो कि युदि रोला पाना शुरु किया है ? अगर कुच्छ इल्म है तो बतलाइये। हमारा कौनसा मन्तव्य ठीक नही है ? जैन-देखिये, आप आत्माको भोक्ता समयनेपरभी कर्ता नहीं मानते हो यह कितनी बडीमारी भूल है । साग्य-कहिये साहिन इसमें क्या भूल है' सो जरा दलीलसे समझाइये। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) जैन-देखिये दलील यह है । तथाहिःकर्त्तात्मा, स्वकर्मफल भोक्तृत्वात् । • यः स्वकर्मफल भोक्तासकर्त्तापिदृष्टः । 'यथाकृषीवलः। भावार्थ-अपने किये हुए कर्मफलका भोगनेवाला होनेसे आत्मा कर्ताभी जरूर है । क्योंकि जोजो अपने कर्मोंका फल भोगते हैं वो कर्त्ताभी जरूर होते हैं । मसलन किसान लोग अनाजको खाते हैं तो उस्को उत्पन्नभी करते हैं । __सांख्य-अहा हा ! ! खूब कहा देखिये, आपकी किसानवाली मिसाल विलकुलहि हमारे मतको, सही कररही है। यतः आपने कहाकि किसान अनाजको खाता है तो पैदाभी करता है सो ठीका किसानके लिये तो कर्तृत्त्व और भोक्तृत्त्व ये दोनों वातें पाइ गइ मगर बाकीके लोक वगैरही खेती किये किसानके पैदा किये हुए अन्नको खाते हैं । वतलाइये, दोनों वातें कैसे पाइ जायगी ? बस इसीतरह किसानकी जगह प्रकृति की है और पुरुष (आत्मा) भोक्ता है । बतलाइये, इस्में __ कौनसी वडी भारी भूल किई ? जैन-वाह जी वाह ! ! आप बडे अकलमंद मालुम होते हो ? जो ऐसा वयान करते हो याद रहे ? यह वात कभी नहीं Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन सक्ती । क्योंकि वाकीके लोगोमभी कर्तृत्व मानोगे तबही भोक्तृत्व लिया जायगा । यतः वाकीके लोगोंनेभी उद्यमद्वारा धन मिलाया या तनही अनाज खा सके, उनके पास पैसे नहोते तो अनाज कैसे खाते ' इसलिये इनमें धनोत्पन्न कर्तृत्व पातो भोक्तत्व पाया गया। पतलाइये, आत्मामें आप फिसनातफा कर्तृत्व मानते हो? जब किसी एक वातकाभी इस्को का मानोगे तर किसान पाली मिसालसे आप अपना इष्ट साध सक्ते है । अन्यथा नहीं और एफ यहभी बात हैकि अगर आप आस्माको को नहीं मानोगे तो आपका आत्मा कुछ चीनही नहीं रहेगा। साख्य-वतलाइये, किस तरहसे ? लीजिये, यहां क्या देर है। भात् करिपत पुरुषो वस्तु न भवति, अकत्तृत्वात्, खपुष्पवत् । मतलर-नापका कल्पा हुआ पुरुष कुच्छ चीज नहीं है। जकर्ता होनेसे जैसे आकाशका फूल दर असलही कोई चीमनहीं है। तोवो क भी नहीं माना जाता। हो जो दुनियामें है कुछन । गोतो पुछ जरुरहि करेगा अवहम आपसे यह बात पूछते हैं कि ___आपका माना हुआ आत्मा भुजी क्रिया (भौग) करता है ? या Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७०) नहीं ? अगर कहोगे करता है तो और क्रियाओंने आपका क्या विगाडा । है अगर कहोगे भुजी क्रियाकोभी नहीं कर्ता है तो फिर भोक्ता किस मकारसे मानते हो ? __सांख्य-हम आत्माको साधारण तोरपर भोक्ता मानते हैं नकि साक्षात् । मसलन स्फटिक रत्नके पास लाल-पीलानीला वगैरा जैसे रंगका फूल रखा जावे वैसाहि रंग उस स्फटिक रलपर प्रतिविम्वितहो जाता है। मतलब उसवक्त उस स्फटिक रत्नका मूलरंग नहीं पहिचाना जाता है, मगर असल स्फटिक रत्नका जो रंग होगा सोहि लिया जायगा नकि उपा. वि जन्य । इसी तरहसे वस्तुतः आत्मा भोक्ता नहीं है; मगर चित्के सानिध्यसे जन पदार्थ बुद्धिमें प्रतिविम्बित होते हैं, तब वेहि पदार्थ जाकर आत्मामें प्रतिविम्बित होते हैं, उस वक्त आस्मा भ्रांतिसे यह समझने लग जाता है कि "अहं भोक्ता" यानि मैं सुख दुःखोका भोगने वाला हूँ । वस, इस रीत्यानुसार हम आत्माको भोक्ता समझते हैं नकि वस्तुतः । जैन-जब आप आत्माको वस्तुतः भोक्ताहि नहीं मानते हो तो उसे भोक्ता कहना आपका वृथा हठवाद है । वाद आपने साधारण तोरपर इसे भोक्तासिद्ध करनेके लिये स्फटिक रत्नकी मिसाल दी मगर यहभी आपका इष्ट साध नहीं सक्ती है। क्योंकि स्फटिकमेंभी एक किस्मका परिणाम रहता है तो फूलका पति Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) विम्ब हो सकता है वरना कभी नहोता । देखिये, अघ पथ्थरके पास मरजी चाहे वैसा फल क्या रखा जाने उस्में प्रतिम्यि हरगिज न पडेगा, इससे सावित होता है कि स्फटिकमेंभी इस किस्मके परिणामकी हस्ति होने परहि फूल प्रतिविम्बित हुआ परना कैसे होता' बस, इसी तरह आत्माकोभी परिणामसे भोक्ता मानना पडेगा, जो भोक्ता है वो कर्ताभी जरूर रहोगा। सारय-किसी कदर भोक्ता हो सकता है, मगर कर्ता नहीं बन सकता। जैन-याद रखना सन् मित्र । जो कर्ता नहीं होगा वो भोक्ताभी कभी न हो सकेगा। देखिये, दलील यह है ससारी आत्मा मुक्तात्माकी नरह कर्ता नहीं होनेसे भोक्ताभी नहीं हो सक्ता है। तथाहि मसार्यात्मा, भोक्तान भाति, अकतृत्वात् । मुक्तात्मवत् । मतव्य-उसी इमारतमें हलहो चुका है। अगर अफर्ता कोहि भोक्ता मानोगे तो तुम्हारे मतमें कृतनागा ताभ्यागम रुपदोपमा प्रसग आगा। (मतन्य किये हए कमाका नाश और नहीं किये हुएका आगमन होगा) Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) सांख्य-किस तरहसे होगा जरा दिखलाइये तो सही । जैन-देखिये, प्रकृति कर्मको करती है मगर प्रकृतिके साथ कर्मफलका संयोग नहीं होता है और आत्मा कर्मका कर्ता नहीं है, मगर कर्म फलके साथ अभी संबन्ध रखती है। प्रकृतिके लिये किये हुएका नाश यह विकल्प खडा हुआ और आत्माके लिये वगैर कियेका आगमन खडा हुआ । देखिये, आपने एक कर्तृत्त्वके छोडनेसे कितनी तकलीफें उठाइ हैं। क्योंकि यहएक अनादि नियम है कि जो जैसा करता है उस्का फलभी वोही पाता है । मगर आपके मतमें अकर्तृत्त्व रूप उपाधिने इस नियमका सादर स्वीकार नहीं किया जिससे अनेक विद्वानोंने आपकी हांसी उडाई और अनेक उडांयगे। इसलिये अब आपको लाजीम है कि भोक्तृत्त्ववत् कर्तृत्त्वकाभी स्वीकार करें; और महेरवानी करमरा वतलावेंकि आपके और मन्तव्य कौनसे हैं । ताके उनपरभी लेखनी उठाइ जावे । सांख्य-हमारे यहां पच्चीस तत्त्व माने हैं सो नीचे दिखाये जाते हैं। आप ध्यान लगाकर पढे ! प्रथम तत्व प्रकृति है। __ अब यहाँपर आपको समझना चाहियेकि प्रकृति किस्को कहते . हैं । देखिये, प्रथम हमारे यहां तीन गुण माने जाते हैं सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इनमेंसे सत्व गुण सुख लक्षण है। __ और रजोगुण दुःख लक्षण है। तथा तमोगुण मोह लक्षण है । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३ ) इनके तीनही अलाहिदा अलाहिदा लिंग (चिन्ह) ह। ___ ताप रजोगुणका चिह्न है, और दैन्यता तमोगुणका लिंग (चिह्न) है । इनद्वारा हम जान सक्ते हैं। कि इसवक्त हमारे अदर फलाना गुण मौजूद है । इन तीन गुण करके जगत् व्याप्त है । मगर उर्घ लोग अक्सर देवोंमें सत्वगुणकी अधिकता है और अधो लोगमें रहने वाले तिर्यञ्च तथा नर्कमें तमो गुणकी अधिकता है। मनुष्योंमें रजोगुणकी अधिकता है । देखिये, सोहि वात सारय सूनकी कारिका-५४ में पयान है। ऊर्ध्व सत्वविशालस्तमो विशालश्च मूलत सर्ग ॥ मध्येरजोविशालो ब्रह्मादिस्तम्ब पर्यन्त ॥१॥ मतलप उपर कह चुके है । जब इन तीन गुणांकी समावस्था हो जाती है प्रकृति नामा तत्त्र कहलाता है । इसके बाद तेईस पार्थ पैदा होतेहैं इनका क्रम तथा नाम नीचेवमूजन समझें । प्रकृतेमहास्ततोऽहंकारस्तस्माद्णश्च पोडशक ।। तस्मादपिपोडशकात् पञ्चभ्य पञ्चभूतानि ॥ १॥ यह साख्य मूनको तेतीसमी फारिका है। अर्थ-प्रथम प्रकृतिका स्वरूप लिखा गया है उस प्रकृतिसे जडसुद्धि पैदा होती है । जिस्का दूसरा नाम महान्भी है। यु Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) द्धिसे "सचाहं सुभगः" " अहं दर्शनीयः" इत्याद्य अभिमानरूपः अर्थात् में बडे सौभाग्य कर्मवाला हूं। मैं अत्यन्त रुपवाला (दर्शनीक ) हूं ऐसा अभिमान होता है उस्को अहंकार कहते हैं, सो पैदा होता है । वाद अहंकारसे नीचेकी सोलह चीजें पैदा होती है ॥ ___चक्षु-श्रोत्र (कान) घाण (नासिका) रसन (जवान ) त्वक् (स्पर्श) ये पांच बुद्धेन्द्रिय पैदा होती है । उनसे ज्ञान पैदा होता है इसलिये इनको ज्ञानेन्द्रिय व बुद्धेन्द्रिय कहते हैं । और वाक्-पाणि (हाथ) पाद (पाँव) अपायुः (गुदा) और-उपस्थ (लिंग व योनि ) ये पांच कर्मेंद्रिय है । क्योंकि इनसे कथन-ग्रहण-विहरण आदि कर्म होते हैं, इसलिये इनको कर्मेंद्रिय कहते हैं। पांच बुद्धि-इंद्रिये और पांच कर्मेंद्रिय ये मिलकर दश हुये ग्यारहवा मन और शब्द-रूप-रस-गंध और स्पर्श ये पांच तन्मात्रा सर्व मिलकर ये सोलह चीजें अहंकारसे पैदा होती हैं । इन सोलहमेंसे पांच तन्मात्रासे पांच भूत पैदा होते हैं। जैसे शब्द तन्मात्रासे आकाश-रूप तन्मात्रासे अग्निः-रस तन्मात्रासे जल-गंधतमात्रासे पृथ्वी-और स्पशे तन्मात्रासे वायुः इस रीत्यानुसार पांच. तन्मात्राओंसे पांच भूत पैदा होते हैं। ___ प्रथमके सोलह पदार्थके साथ इन पांचोका मेलाप करनेसे इक्कीश हुए इनके साथ पूर्वके प्रकृति बुद्धि और अहंकार Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) इन तीन पदार्थक मिलानेसे चोइस तत्त्व धनते हैं, और पच्चीसमा पुरुप ( आत्मा ) ये पच्चीस तत्व हमारे सारय मतमें माने हुए हैं। जिनमें से आत्माको हम नीचे मूजन स्वरूप वाला मानते है। अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्य सर्वगतोऽक्रिय ॥ अफर्ता निर्गुण सूक्ष्म आत्मा कापिल दर्शने ॥१॥ मतला-हमारे यहा कापिल दर्शनमें आत्माको अमूर्त, चेतन, भोगी, नित्य-सर्व व्यापक-अकर्ता-निर्गुण और सूक्ष्म माना है । देखिये, कैसे तव सुनाये । ___जैन-चाहनी ! वाह ! खूप तत्र सुनाये । क्या ये तत्व है ? या जतच ? आप जरा हमारे नर तत्त्व पढते तो जांखें सुलजाती और मालुम होजाता कि ठीक तत्व येही है। मिय सारयमतावलम्बी भाइयो ! प्रथम आपको सोचना चाहियेथा कि जड उद्धि पदार्थ ज्ञान कैसे कर सकेगी ! प्रत्यक्षत या घुद्धि एक किस्मकी चैतन्य स्वरूप है, उस्को जड कहना कितनी भूल है ? अगर योजड है तो आप उसमें पदापोंके आक्रमणसे पदार्थ परिच्छेदक कर्मी ( पदार्थोंकोजाननेवाली ) उस्को कैसे कहते है। सारय-हम चिन् (चेतना) के सानिध्यसे बुद्धिको पदार्प Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७६) जाननेवाली मानते हैं इसलिये इस्में कोई दूपण नहीं है। । जैन-चित्के सानिध्यसेभी जड बुद्धि पदार्थ ज्ञानको नहीं करसक्ती। यतः अगर हम घडेको हाथमे लेलेवे तो क्या वो घट चैतन्य हो जायगा ? हरगिज नहीं ! हरगिज नहीं ! ! ऐसा कभी नहीं होसकता है कि चैतन्यके योगसे अचैतन्य चैतन्य हो जावे । क्योंकि इन दोनोंके परस्पर अपरावृत्ति स्वभावको ब्रह्माभी अन्यथा नहीं करसकता, इसलिये आत्मिक धर्म बुद्धि को जड मानना यह आपकी कल्पना बिलकुल थाहै । वाद अइंकारको बुद्धिसे पैदा हुआ माननामी ठीक नहीं है। क्योंकि मैं सुभग हूं अथवा मैं दर्शनीक हूं इस किस्मके अभीमानको आपकी नडबुद्धि पैदा नहीं करसकती है। यतः ऐसा विचारभी कर्माहत चैतन्यसेही होसकता है नकि जडसे । अगर जडसे हो वा तो घटादिक जड पदार्थोमेंभी यह इरादा पाया जाता; इस से सिद्ध हुआकि यहभी विचार चैतन्यसेही होता है। वाद अइंकारसे सोलह चीजोंकी उत्पत्ति मानतेहो सोभी अनुचित वात है । क्योंकि अगर अहंकार ( अभिमान ) से पूर्वोक्त पांच बुद्धेन्द्रिय आदि षोडश करण पैदा होता हैं, तो फिर लूले__ अंधे-बहिर (बहेरा) कुणि (टुंटे ) आदि रोगियोंको रोना किस लिये चाहिये ? फौरन अपने मनमें अभिमान ले आना __ चाहिये कि हम ऐसे जबरदस्त है, हम ऐसे सौभाग्यवान् हैं, हम ऐसे रुपवान् हैं। बस, उस अभिमान द्वारा झट उनको ज्ञानेंद्रियें Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७७) व कमेद्रिये मिलजायगी और उनकी मजकुरा खामीये पूरी हो जायगी। देखिये, यह एक आश्चर्यकारी औषध मिलाहै न किसी डापटरके पास जाना पडेगा और न किसी हकीमके पास। ____ सारय-यह आप क्या कहरहे है ? ऐसा कभी नहीं होसक्ता । क्या यह फिलॉसफी आपने अपने घरसे तो नहीं निकाली है ? जैन-नहींनी ! नहीं ! ! हमने अपने घरसे नहीं निकाली है किन्तु इस नराली दवाको आपके घरमें निगाह फरनेपरहि निहाली (देखी) है। भाइसाय ! !! जरा गुस्सा नहीं करना । आप वढे पक्षपातम पडेहो वरना 'ऐसा कभी नहीं हो सकता' ऐसा कभी न कहते । क्योंकि जा आप मान चुकेहो कि अ. भिमानसे सोलह चीजे पैदा होती हैं तो फिर अभिमान करनेसे मजकुरा चीजें क्यो न मिलेगी? क्योंकि मचकुरा चीजोंका सोलह चीजों में नाम है । अत' आपके मानने मुताविक तो घराघर मिलनी चाहिये । देखिये, घटकी पैदायश मिट्टीसे है तो एक घटके फूट जानेपर दूसरा घट पैदा करना होतो मृत्तिका द्वारा हो सकता है। वस, इसी तरह जब अहकारसे इद्रिय आदिफी पैदायश मानते हो तो निसवक्त जिस किसी इद्रियकी न्यूनता को हम देखेंगे अभिमान द्वारा फौरन बनायलेंगे । बनावेंगे क्या Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) खाक ? कुच्छ इस बातमें सत्यताभी होती जो बनाते । ख्वाब के पदार्थोंसेभी कोई संतोपित हुआ है जो होवें। अफसोस है ऐसे तत्त्वों-पर। या इनके वानी मुवानीपर जोऐसी ऐसी बातोंके पेश करते हुए जराभी लज्जित नहीं हुआ । इंद्रियको तो अब वाजुपर रखदेवें मगर बडेबडे पहाड-शहेर-नगर-दीप-समुद्रवेट वगैरा सब चीजें अभिमानसेही पैदा हुई है ऐसा सांख्य मानते हैं। क्योंकि पृथ्वी-पाणी-आग-हवा-और आकाश इन पांचके होनेसे दुनिया है अगर येह पांच न होवे तो दुनियाही नहीं होसक्ती । देखिये, अव यह पांचहि भूत अहंकारसे पैदा होनेवाली पांच तन्मात्रासे पैदा हुए हैं। इसलिये मेरा यह कथनकि मचकुरा तमाम चीजें अहंकारसे पैदा हुइ है असत्य नहीं है किन्तु सत्य है । देखिये सांख्योंका यह मानना कितना भलभरा है ? मगर स्वामी दयानंदजी ऐसी मोटी बुद्धिवाले आदमीथे कि जैन मतमें तो बडी वडी वारीकी छांटने लग गयेथे । लेकिन आपने सत्यार्थ प्रकाशमें सांख्य मतकी ऐसी वातोंकोभी स्वीकृत रखी है और अपने शिष्योंको ज्ञान कराने के लिये इनबातोंका उल्लेख कर गये हैं। शायद स्वामीजीका यह खयाल होगाकि समाजी अगर समुद्रमें डूवता होगा उस वक्त अपने दिलमें अभिमान लाकर पेट बना लेगा कि झट बच जायमा । प्रिय सज्जनो! इस वक्त मेरी ले. खनी द्वेषसे चल रही है ऐसा नहीं समझना । किन्तु दया भाव Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) से यह कह रही है कि अफसोस है सामीजीकी ल्याकतपर कि निस्ने परम पवित्र वीतराग देवके कयन किये हुए मार्गको तो दुए कर्म सागरमें डुबोने वाला लिखा है। मगर न मालूम ऐसी ऐसी वाद्यात वातोंके पाते हुए उस्की अकल कहाँ फिरने गइथी ? शायद नियोगमें नियोजित हुइ होगी जो इन बातोंकी तरफ बिलकुल लक्ष नहीं दिया है। ___ प्यारों ! इसपातके करनेसे में प्रकरण यहार होगया हू ऐसाभी आप न समझें । किन्तु आपको यह समझा रहा है कि दयानदीय लोगभी इन बातोंको मानते है । वाद पाच कर्मेंद्रिय माननेकीभी कोई जरूरत नहीं है । क्योंकि इन पांचोंके सिवाय याकीके अगोंमें यदि क्रिया नहोती तो ऐसेभी मान लेते मगर वाकीके अगभी क्रिया करते है । जैसे विग्रही महिप (भैसा) किसी पुरुष व अपनी जातीके साथ लडनेका काम लेता है तो शूग शिरसेही लेता है । इसलिये कमंद्रियवाली कल्पनाभी वृया है। बाद शन्दसे आकाशकी उत्पत्ति मानते है यहभी सिद्ध नहीं होसत्ता । यत प्रथम तो प्राय हरएक मतका आकाशको नित्य मानते हैं । जव पैदायश मानी जायगी तो तमामका निस्याका सिद्धान्त उड जायगा, और यक्तिभी इसवातको सिद्ध नहीं होने देती। क्योंकि इनके मम सबसे पेश्तर प्रकृति होती है, उससे पुद्धि होती है, बुद्धिसे और नहफारसे सोलह चीजें पैदा होती है, ये सब मिलकर उन्नीस पदार्थ होते हैं, और वीसमा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) पुरुप इन यीस पदाथाके बादमें जाकर आकाश पैदा होता है। बतलाइये, विना आकाशके ये वीस पदार्थ कहां ठहरेथे ? कयोंकि आकाश नामही अवकाश देने वालेका है। अब सोचना चाहियेकि जब अवकाश (पोलाद) देनेवालीही कोई चीज नहीं थी तो फिर प्रथमकी प्रकृति आदि वीस चीजें किस्में र. हीथी ? बस, इससे सिद्ध हुआकि आस्मानकी पैदायश माननेवाले सांख्य मतसें पोला पोल है। बाद रूप, रस, गन्ध और स्पर्श इनसे अग्नि आदि चार तत्वोंकी पैदायश मानते हैं, यहभी वात ठीक नहीं है। क्योंकि रूपादिक गुण हैं वह गुणीको कभी नहीं पैदा कर सक्ते हैं ! क्या ? ऐसाभी हो सक्ता है कि पुत्र पिताको पैदा कर सके । हरगिज नहीं । याद रहे गुणीमें गुणोंकी परावृत्ति तो वेशक हो सकेगी मगर आधेय गुण अपने आधार गुणीको कभी नहीं पैदा कर सक्ता । प्रिय सांख्यो ! देखिये, आपके माने हुए चोईस पदाथीका तो खंडन कर दिया गया । अबरहा आत्मा सो इस्की व्यवस्थाभी ठीक नहीं है । क्योंकि आप आत्माको पूर्व-अवस्थामें निर्मल मानते हैं और वादमें उस्के साथ प्रकृतिका संयोग मानते हो; और जव आत्मामें विवेक पैदा होता है तो उस्का मोक्ष मानते हो मगर देखिये, यह बात ठीक नहीं है। यतः बतलाइये, जिस निर्मल आत्माके साथ प्रकृतिका लगना मानते हो वो आत्मा खुद प्रकृतिको चाहता है ? या प्रकृति Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) अपनी जबरदस्तीसे लग जाती है ? प्रथम पक्षको तो आप स्वीकारही नहीं सक्ते क्योंकि उसमक्त बगैर मनके उस जात्मा में इच्छा नहीं होती अगर दुसरे पक्षको मानोगे तो पूर्वावस्थामें भी उस निर्मलात्मारो प्रकृतिका लग जाना मानना पडेगा फिरतो मोक्षावस्थामें आप आत्मारा बन्धन होना नहीं मानते हो, आपसा यह सिद्धान्त कायम नहीं रहेगा। देखिये, कैसा घ्याघ्रतटिनी न्याय समुपस्थित हुआ है ? अवतो इस पन्धनसे निकल नाही मुश्कील होगया। अगर जिनेद्रके वचनाको स्वीकार करते तो ऐसा हाल क्यों ? होता। शायद सारख्योगी इस जापत्को देसकरही दयानदजीने एक रास्ता सुला रस दिया होगा। मिय मित्रो । नवतच जानने वालो ! आप 1. सूरी समझ गये हागेकि इनके माने हुए पचीसके पचीसटि तचाभास है । इत्यलफिमधिकेन इति सारय ।। मिय सज्जनो ! अब जमिनिके मन्तव्योंको दृष्टी गोचर करते है तो इनॉमी सत्र मतोंके मन्तव्यसे अधिक तरगिरी हुइ हालत मालुम होती है । क्योंकि ये लोक हिंसामें धर्म मानते हैं । मातला जर दीगर लोग " आईसा परमो धर्म " इस परको याद कर ससारी मामले में किचिन हिसाये सेवन करने वालेभी धामिर मामलेमें हिसाशे वाजुपर रखकर निरवय काम करते है। तब इधर वेदोक्त विधिपर चरने वाले जैमिनीय लोक यज्ञानिके बहार Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) मांसभक्षका व जीव हिंसाका त्याग करना चाहिये। ऐसा बयान करते हुए भी धार्मिक समजी हुइ अपनी यज्ञ विधिमें मांस भक्षण तथा जीव वधको स्वीकृत रखते हैं। अफसोस है ! ऐसे मंतव्योंपर । जैमिनि क्यों ? अफसोस करना शुरु किया है ? अगर हमारी युक्तिको श्रवण करते तो इस तरह कभी न गभराते । देखिये, प्रथम आपको खयाल करना चाहिये कि कौनसी हिंसा बुरी और पालन जनक है. जरा खयाल दीजिये ! मेरी बातपर ? ___ कसाइ व शिकारीयोंकी तरह द्विभाव या व्यनसे किड हुइ हिंसा जुरी और पाप हेतु है परंतु जी यसमें जीव हिंसा कि जाती है इसमें कोई पाप नहीं है क्यों कि हमारा यह मान ना है कि " वेद विहिता हिंसा, अधर्म जनिका नभवति, धर्म हेतुत्वात्-यानि धर्म हेतु होनेसे वेदोक्त विधिसे किइ हुइ हिंसा अधर्मको पैदा करनेवाली नहीं होती है. वल्के धर्म हेतु है. क्योंकि वेद विहित हिंसासे देवता अतिथि तथा पितृ__ गंगोंको प्रीति पैदा होती है मेरा यहकथन व्यभिचार ग्रस्त नहीं है किन्तु अव्यभिचारी है क्योंकि कारीरी आदि यज्ञोंके करनेसे फौरन वृष्टि आती है इससे हम साफ कह सक्ते हैं कि यासे संतुष्ट हुए देवोका यह काम है बस इससे देवताओंको गीतिका होना खूब सावित होता है. बाद मधुपर्कके खिलाने Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८३) से (मासमधु बगेरा समिलित वस्तु ) अतिथिके चित्तकी प्रसनता तो प्रत्यक्षसेहि देखी जाती है. और पितृगणकोभी वेदोक्त कथन पूर्वक श्राद्ध, मांस दिया जाता है जिससे वे भी वढे प्रसन्न होत हैं और इस प्रसन्नताके बदलेमें वे हमारे सतानकी रद्धि करते हैं यहयातभी साक्षात् देखनेमें आती है। वैसेहि देवताओंको सतुछ करने के लिये अश्वमेध-नरमेध (घोडा गौ और मनुप्यका मारना) आदि करनेकी विधि-जगह जगह पर मारे आगम शास्त्रों में देखी जाती है अतिथि के लिये जीवोंफो मारनेकाभी विधान " महोस वा महाजवा श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत् " इयादिक अतिवाक्योंसे जाना है. पितृगणोंको सन्तुष्ट करनेके लियेभी नीचे मूत्र पाठ है. द्वौमासौ मत्स्यमांसेन, त्रीन मासान हारिणेनतु । औरप्रेणाणचतुर , शाकुनेनैवपञ्चतु ॥१॥ मतलप-मत्स्यके मांससे दो महिनेतक हिरणके, माससे तीन महिनेतक, मेढे मांससे चार महिनेतक, और पक्षीपोंके मांससे पांच महिनतक पिठगणको दृप्ति रहती है. जैन-वाइजी ! वाह ! ! खूब ! धर्मका रहस्य समन गये हो ! क्या हिंसाभी धर्महेतु वन सक्ती है । देखिरे ! अब मैं सुनाता हू जरा तवज्जह रजकरें ! आपको याद रहें ! हिसाकभी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८४ ) धर्महेतु नहीं होसक्ती ! क्योंकि इसबातमें प्रत्यक्षतया वचना विराधे पाया जाता है. यतः हिंसा है तो फिर धर्म कैसे ? __ और धर्म है तो फिर हिंसा कैसे ? क्या ऐसाभी कमी होसक्ता है और वंध्यांभी है नहीं ! नहीं !! माता क्या और बंध्या क्यो-यह वात कवी नहीं वनसक्ती ! आपके माननेके मुताबिक हिंसा कारण है और धर्म उस्का कार्य है यहबातभी पाल भापितवत् संगति नहीं खाती है क्योंकि जो निस्के साथ अन्धयव्यतिरेक पणे अनुकरण कर्ता है वो उस्का कार्य हो सका है जैसे मृत् पिंडादिकका घटादिक कार्य होता है एसे धर्मशा अहिंसा कारण नहीं होसक्ती घटके लिये तो यह निश्चय हो चुका है कि मृत्तिकाके सिवाय और किसी पदार्थसे घट नहीं बन सकता. हिंसाके लिये यह नियम नहीं है यहीं धर्मका कारण बन सके ! क्योंकि एसा कहनेसे आपकेही शास्त्रमें माने हुए तपजप संयम नियमादिकोंको धर्मप्रति अकारणताका प्रसं. ग आवेगा! इसलिये हिंसाको छोडकर तपजप संयम नियमादिकोंकोहि धर्मका कारण मानना ठीक है, जौमिनि-दुसरेके मन्तव्योंको वगैरही समझे कुद पडना अकल मंदीमें दाखिल नहीं है हमकव कहते हैं कि सामान्य हिंसाधर्म हेतु है हमारा तो यह कहना है कि वेदविहित विशिहिंसा धर्मजनिका है नाकि तमाम हिंसा ! Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८५) जैन-जरा अब अकलको जगह देकर मेरे सवालोंकी तर__फ खयाल कर ' जिन जीवोंको आप मारते हों । क्या में जीव मरते नहीं है ? ___इसलिये धर्म हेतु मानते हों ? या मरते वक्त उन जीवोंको आध्यान ( सक्ट्रिपरिणाम ) नहीं आताहै ? अथवा तो व मरकर अच्छी गतिको प्राप्त होते हैं ' प्रथम पक्षको तो जाप स्वीकारहि नहीं सक्ते । क्योकि प्रत्यक्ष हम उनको मरते हुए देखते ह. अगर कहोगें उनको आत यान नहीं होता है तो यहभी पात फजुल है यतः उनके मतको तो हम नहीं देखसक्ते है मगर वचनसे आराटी मारते हुए देखते है. और उनकी आँखा आँसुकी धारा छूटती है विचारे तरल नेत्रसे चारा ओर देखते हैं कि कोड धर्मात्मा पुरुप इस दु खदायिनी __ अवस्थासे हमें मुक्त करें । इत्यादि महिष्ट परिणामके चिह्न प्रत्यक्ष तया देखे जाते हैं इसलिये दुमरा विकल्पभी आपके लिये अनुपादेय है जैमिनि-जैसे लोहेका गोला भारा होनेकी वजहसे पा णिम डुरता है मगर फिरभी अगर उस्के अतीव पारीक पर्ने बनाये जाये तो तरते है. मारने के स्वभाववारी विपभी दवानाने प्रयोगसे अथवा मत्रसस्कार करनेसे गुण हेतु होता है जलानेके स्वभाववाली आगभी सत्यादिके प्रभारसे हमें Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्त करें ! इत्यादि संक्लिष्ट परिणामके चिह्न प्रत्यक्ष तया देखे जाते हैं इसलिये दुसरा विकल्पभी आपके लिये अनुपादेय है. जैमिनि-जैसे लोहेका गोला भारा होनेकी वजहसे पाणिम इवता है, मगर फिरभी अगर उनके अतीव वारीक पत्रं बनाये जायें तो वे तरते हैं. मारनेके स्वभाववाला विपभी दवाओंके प्रयोगसे अथवा मंत्रसंस्कार करनेसे गुणहेतु होता है. जलानेके स्वभाववाली आगभी सत्यादिके नभादसे प्रतिहत शक्ति होकर जला नहीं सक्तीतरह वेद पंत्रद्वारा किइ हुइ हिंसा पायहेतु नहीं है प्रत्युत (वल्के) धर्महेनु है अतःइससे न करत करना ठीक नहीं ! क्योंकि इरके करनेवाले यानिकोंकी पूजा होती लोकमें प्रत्यक्ष तया देखी जानी है. अगर यहकाम न फरत लायक होता ? तो पूजा कैसे होती ? । जैन-आपके तमाम दृष्टान्त विषम हैं इसलिये इसवातके साधक नहीं बन सक्ते ! देखिये ! लोहका गोला विप और अग्नि भावान्तर (परिणामान्तरव पदार्थान्तर ) होकर अपनी मज्जनादि (डुबना वगेरा) क्रियाको छोडते हैं और सलिल तरणादि (पानीमें तैरना वगेरा) क्रियायें करते हैं मगर आपके वैदिक मंत्रोंके संस्कारसे मारे हुए जीवोमे किसी तरहका भावान्तर नहीं देखा जाता! जैमिनि-क्यों ! नहीं ? वरावर परिणामान्तर मानते हैं ! Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८७) यत वे मर कर देवगतिको जाते हैं बतलाइये । यह परिणामान्तर नहीं तो क्या हुआ? जैन-यहमि एक आपका खामग्वयाल है क्योंकि वातको मिड करनेगा कोई प्रमाण नहीं है देखिये । प्रथम प्रत्यक्ष प्रमाणसे तो यह सावितही नहीं होसक्ता क्योकि मत्यक्ष नाम नेत्रद्वारा साक्षात् देग्वनेका है सो नहि तुम देग्व सक्ते हों और नाहि दिसा सक्ता हा दुसरा अनुमानभी नहीं हो सक्ता ! क्योंकि लिङ्ग लिगके समन्यसे अनुमान होता है सो ऐसा कोई लिङ्ग (हेतु) नहा है जिसे द्वारा आप इसरातको सिद्ध करना चाहो तो ठीक नहीं है क्योकि आगमभी युघडेमेंहि पडा है (प्रस्तुत प्रकरण आगमके प्रमाण्य नहीं होने देता) अर्थापत्ति और उपमानमेंहि समावेश है अत यहभी गये । इसलिये आपका कहना लात है कि मरकर स्वर्ग में जाने है। अगर यनात मची होती तो पपने पुनादिको कोहि पूर्ण वर्गम पहुचाते । तो अन्य लोकभी समझ जाते कि ठीक येह रोग इम यानको नि सह तया स्वीकारते है बाद मापने कहाथाकि वेदविहित हिंसासे 7 फरत करनी ठीक नहीं है आपका यह कथाभी च्या है यत. हिमासे हमेशह न फरत ती चाहिये ! देखिये । जाप बेटान्तिाहि इसातसे न फरत करते हुए कह रहे है Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८८) अन्धे तमसि मज्जाम पशुभिर्ये यजामहे हिंसानामभवेदी नभूतोनभविष्यति १ सुगमः इस्के वाद आपने कहाथाकि अगर वैदिकी हिंसा नफरत करने लायक होती तो उस हिंसाके करने वाले याहोकोंकी लोकमें पूजा कैसे होती ? प्रियमित्र ! यहां परभी आप शुन्य चित्त मालूम होते हो ! यतः उनलोकी पूजा भूख लोक करते हैं न कि विद्वान इसलिये मूखाँकी पूजासे कोई उत्तमता नहीं पाइ जाती चुके । वेह लोगतो कुत्तेकी भीसेवा कत्तै है इससे क्या कुत्तेका दर्जा वह जायगा ? हरगिज नहीं ! वाद जजा आपने कहाथाकि देवता अतिथि और पितृ आदिको प्रीति संपादिका होनेसे वेदविहित हिंसा अधर्म हेतु नहीं होसक्ती ! यहभी एक प्रलाप मात्र है क्योंकि प्रथम देवताओंका वैक्रीय शरीर है इसलिये येह कवलाहारी नहीं होते किन्तुलो साहारी होते हैं अतः इनका यह आहार नहीं होता है तो बतलाइये ! आपके किस ग्रन्थमें लिखा है कि " मांसभक्षीहि देवास्यात् " ताके उस्काभी खंडन किया जावें वस जब देवता__ ओंका यह आहारहि नहीं तो वे सन्तुष्ट होकर दृष्टि करते हैं यह कैसे सावित हुआ ? अगर कथंचित् घुणाक्षर न्यायसे ह. ष्टि होवि गइ नो इससे हम अव्यभिचार नहीं कह सक्ते हैं. अबरहा अतिथिगण, सो इस्को संतुष्ट करनेकेभी घृतदुग्ध मिष्टा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) नादि बहुधापकार है. इसके बाद आपने कहाथाकि पितृओंको श्राद्धम मारे हुए जीवके मास भक्षणसे प्रसन्नता होती है येहवातभी प्रत्यक्ष है क्योंकि सन्तुष्ट हुए एवं अपने सन्तानकी द्धि करते है मिय जैमिनीयो । यहभी आपका गलत खयाल है क्योंकि अगर यह सत्य बात होती तो कई विचारे श्राद्ध कराते अपनी उमर इसकाममे ग्क्तम करदेते है मगर बिना सतानके मुह देसेहि मरजाते है और वगेर श्राद्ध क्रियेहि सूअर अकड वगैरेके यहोत रचे देखनेगे जाते है इससे आपका यह कथनभी सर्वथा स्था है मिय मित्रो ! हमेशह याद रखनाकि हिंसा कभीभी धर्म हेतु नहीं होसक्ती! वल्के पाप हतु है इसघातको खयालमें उतारसर याप्रधान जैनमार्गका आश्रयलो । और इस जहालतका नाशरो! क्या ? अपिया अधकारमे पड़े ठोकर साते हो ? इसदुनिया के तमाम मतोंमें दयाका ऐसा स्वरूप नही है जैसाकि जैन मतम पाया जाता है मसलन एकेन्द्रिया दिक र सम्यारादिक अथवा मूक्ष्म बादरादिफ जीवोंका स्वरूप जैसा जमतमें बयान है आ जगत किसी मतमें नदेखा! प्रिय मित्रो ! इससेहि आपविचार सक्ते होकि इसमतमे दयाको प्रधानपर दिया गया है अन्यथा इसकदर भिन्न भिन्न जीवके प्रकार फयन करने की क्या जरूरतधी १ वस यही जरूरतथी Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) कि इनके भेदानुभेदको जानकर दयाभावसे इनकी रक्षा करें! यतः तमाम जीवोंके भेदानुभेदके वगैर समझे दया कभी नहीं पल सक्ती है. इसीलिये एक दयावान् पुरुषने कहाभी है कि दया दया मुखसे कहें ! दयानहाट विकाय जाति न जाणी जीवकी कहो ! दया किम थाय ? प्रिय मित्रो ! इससे आप बखूबी समझ गये होगें कि दया प्रधान अगर इस दुनिया में कोई माहै तो जैन मतही इत्यलं विस्तरेणविज्ञेषु इति जैमिनी यमतं नोट-जैमिनिसे वैदिक मतका एक आचार्य राममें यह यज्ञादिक कर्म काण्डको प्रधान समझताथा यएबदोषाःकिलनित्यवादे विनाशवादेऽपि समस्तान परस्परध्वं सिषु कण्टकेषु जयत्यदुष्यंजिनशासनं ते ॥१॥ प्रिय पाठक गणो ! सब दर्शनोंका किंचित् रहस्य आपके सन्मुख रजु करदिया गया है. इनके साथ अब इस जैन मतके रहस्यका मुकाबला कर देखियेकि किसतरह पक्षपात रहित हमारे जिनेश्वर देवने अपने केवल्य रत्नद्वारा तत्वप्रकाशकि Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९१ ) याहै ? देखनेसहि आपको इसमतकी फजीलतका इल्म होजायगा। इसलिये मैं अपने मुहसे ज्यादा तारीफ करना ठीक नहीं समझता हु. प्रथम आपको जैन मतके तत्त्व सुनने चाहिये। क्योंकि जिसमतके तत्व युक्तिसे अमआय और गनन करने लायक होते हैं उसमतको पारोटिमें दासिल करना चाहिये । टेन्विये मथम जैनमतम सोपत• दोहितत्त्व माने जाते हे एक जीव और दुसरा अजीव. विस्तारसे विचार करनेसे नतत्व होते है इTका सरूप नीचे गृजन समझ. जोवाऽजीवी तथापुण्यं पापमाश्रव संवरौ । वन्योविनिर्जरामोशी नवतत्तानितन्मते ॥१॥ भावार्थ: जीव-अजीव-पुण्य-पाप-आस्वव-सवर बन्धनिर्जरा-और मोक्ष येह ना तत्त्व जैन मतम माने जाते है इनमें जीयका लक्षण नीचे मूजन लिखा है यकर्ताकर्मभेदाना भोक्ता कर्मफलस्यच संसर्तापरिनिर्वातासह्यामानान्यलक्षण ॥१॥ भावार्थ-कमीको करनेवाला, कर्मके फल भोगनेवाला किये हुए फेरो (कमी) के मुताविक अच्छी धुरी गतिमें जाने वाला और ज्ञानदर्शन चारिनद्वारा तमाम कमाका नाश करने वालाहि जीवहै । इससे अलगदा इसका कोइ स्वस्प नहीं है मत Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९२ ) लव इनकार्याको वोहि कर सकता है जिसमें चैतन्य होगा. इसलिये " चेतना लक्षणो जीवा" यानि जीवका लक्षण - तन्य है, सो चैतन्य आत्मासे भिन्नाभिन्न समझा जाता है, देखिये! वैशेपिक लोगोने धर्मका धर्मी के साथ सर्वथा भेद स्वीकारा है और वौद्धोने एकान्त अभेद स्वीकारा है इसरोत्यनुसार वै. शेषिक लोग आत्मासे ज्ञानको भिन्न समझते हैं. और बौद्ध एकान्त अभिन्न समझते हैं, ऐसे माननेसे इन दोनोंका मन्तव्य उड जाता है । अतःसर्वज्ञ जिनेन्द्रदेवने इनदोनों विकल्पाको स्वीकृत रखकर अपनी सर्वज्ञताका परम परिचय दिखलाया है. तथाहि अगर ज्ञानका आत्मासे सर्वथा भेद माना जाँय तो वादि प्रतिवादीके दरम्यान कवी जय पराजय नहोना चाहिये ! क्योंकि जिसबुद्धि प्र.गलभ्यसे वादी प्रतिवादीका पराजय करेगा उसी प्रागलभ्यद्वारा प्रतिवादी छूट जायगा क्योंकि जैसाहि पागलभ्य वादिम है ऐसाहि प्रतिवादीमें मानना पडेगा. इसलियेकि वादीमें रहे हुए पागलभ्यका वादीकेही साथ संवन्ध नहीं उसी नागपर एककाहि हक नहीं होसक्ता जैसे वाजारके रस्तेके साथ हमारे एकीलेका ताल्लुक नहीं है तो हरएक पुरुष उसपर चल सक्ता है मगर अपने घरके साथ अपनाहि ताल्लुक होता है इसलिये मरजी मुताविक काम कर सक्ते है मरजी चाहे किसीको वैठने उठने व फिरने देवें न मरजी चाहे तो नहीं, इसलिये ज्ञानका सर्वथा भेद स्वीकारने वालोंके मतमें Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३ ) यह नहीं कहाजासत्ताकि अपने ज्ञानद्वारा मैने अमुकका पराजय पिया क्योंकि पराजित पुरुप कहसता ह कि यह ज्ञान मेराहि याकि जिसद्वारा आप मेरा पराजय समझते है अथवा ऐसा मानने पर अमुक अल्पर है अमुक विशेषज्ञ यह बुद्धि कभी न पैदा होसकेगी पहिये? अब गैर ऐसा गुद्धिके हम जय पराजय विस्ता कह सक्तं हे 'सर्वथा भेदके इस्तमाल करनेसे मेरा ज्ञान ऐसी प्रतीति कपी नहो सकेगी ! जैसे वा जारके रास्ताको मेग रास्ता नहीं कइसक्तेहे अगर बौद्धोंकी , तरह एकान्त अभेद मानाजावे तोभी ठीक नहीं ! क्योंकि ऐसा मानने परभी मेराज्ञान यह व्यवहार नहीं चरसस्ता । फिरतो मइ में रहेगा मेरा नहीं आसक्ता । क्योंकि जहाँपर भिन्न कल्पना होगी वहापरही यह कहा जायगी कि मेरी फला चीज है दुनियामभी देखाजाता है जिसके सामने खूब पदार्थ पडे होते है वोहि मेरा मेरा पुकारता रहता है मगर त्यागी फकीराके पास्ते मैहि में होता है मेरा कम निकलता है इससेभी सावित होता है कि भेद बुद्धि समझ करहि मम (मेरा) शनका प्रयोग होता है इस लिये सर्व महाराजके स्वीकार किसी तरहका दुपण नहीं है प्रिय मित्रो मत प. तक तो हरएक उनसक्ते है इसमें कोइ मुश्कील नहीं मगर सर्वन अल्पज्ञोंका यही फर्क है कि सर्वज्ञका युक्ति युक्त अपावचन होता है और अल्पशका युक्तिसे राहत और पा य होना Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) है । अव चेतना लक्षण जीवके पृथ्वी-पाणी-आग-हवा-नवातात-(वनस्पति) द्वीन्द्रिय-( त्रीन्द्रिय-चतुरीन्द्रिय और पञ्चे. न्द्रिय-येह नव भेद हैं इनमें जीवतत्वका विचार विशेपावश्यकी टीकामें बडे विस्तारसे किया है देख लेना इति रोय ( जानने लायक) । चल जीवतत्त्वं । इरके वाद दुसरा अजीवतत्त्व है इस्का लक्षण जीवतत्त्वसे विपरीत होता है याने कर्म भेदोंका नहीं करनेवाला है और नाहिं कर्म फलका भोक्ता वन सक्ता है. ऐसा जड स्वरूप अजीव तत्त्व होता है. इसतत्त्वकोभी रुपरस गन्ध स्पर्श आदि धर्मोंसे भिन्नाभिन्न समझना चाहिये! इसके धर्मारितकाय-अधर्मास्तिकाय-आकाशास्तिकायकाल और पुद्गलास्तिकाय-येह पांच भेद हैं इनमें धर्मास्तिकाय अरुपी पदार्थ है जो जीव और पुद्गल इनदोनोंकी गतिमें सहायक है. जीव और पुद्गलमें चलनेकी ताकत तो जरूर रहती है मगर विना धर्मास्तिकायके चल नहीं सक्ते ! जैसे मछलीमें ताकत तो जरुर होती है मगर विना जलके नहीं चल सक्ती। यहद्रव्यलोक व्यापी है. थम शब्दके पीछे अस्तिकाय लगा हुआ है इस्का माइना असंख्य प्रदेशोंका सनह समझाता है धर्मास्तिकायके स्कन्ध-देश-और प्रदेश येह तीन भेद माने जाते है स्कंध ऐक समहात्मक पदार्थको कहते हैं देश इस्के छोटे छोटे हिस्ताको कहते हैं और प्रदेश उसे कहते हैं कि Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसे फिर विभाग न होसके एसा एक सूक्ष्म भाग ! अनी वतत्त्वका दुसरा भेद अधर्मास्तिकाय है यहभी एक अरूपी द्रव्य है जो जीव और पुलह के स्थिर रहनेमें सहायक है जैसे मछलीको जलके निचेका स्थल अथवा मुसाफिरको दरख्त कीन्छाया मददगार होती है ईस्कभी स्कन्ध देश और प्रदेश येह तीन भेद लिये जाते है और यहभी लोक व्यापी है आकाशास्तिकाय लोकालोक व्यापी और पुद्गलको अवकाश देनेवाला तीसरा भेद माना जाता है जिसमें जीव-धर्म-अधर्म आकाश-काल-गौर पुद्गल येह छीद्रव्य होते है अलोकमें सिरफ आकाशहि है धर्मा धर्मके न होनेसे इस्में जीव और पुद्गलगी हरक्त व कायम रहना नहीं होसक्ता है इसीलिगे कर्मों से मुक्त हुआ आत्मा ऊर्वगमन स्वभावसे उडता हुआ लोरके अन्तमें जा ठहरता है आग नही जासक्ता चुके चलनेमें मददगार धर्मास्तिकाय नामका पदार्थ इससे उपरफे भागमें नहीं होता अगर ऐसा नहीं माना जाता तो फिर मोक्षगामी की कहीं भी स्थिति नरहती ! और आजतक हमें यही कहना रहताफि मोक्षगामी जीव चलही जारहे है. कई आचार्य का लको द्रव्य नहीं मानते हैं किन्तु एसा कहते है कि जीवास्तिपाय धर्मास्तिकायादिक नवपुराण आदि पर्यायोंफोहि फाल कहना चाहिये ! इनके मतम पांच द्रव्यात्महि लोक है मगर जो काल द्रव्यको मानते हैं उनके मतमें छद्रयात्मक लोक है Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) येह तीनो पदार्थ चलते फिरते या स्थित हुए पुरुषों के लिये सहायक है. ऐसा नहीं समझनाकि मजकुरकामोंके नहीं चा. हने वालोपर इनकी कोइ जबरदस्ती है मसलन जो मच्छली चलना चाहती है उसीके लिये पाणी सहायक है न कि हरएकके लिये. अब चोथा द्रव्यकाल कहलाता है यह ढाइ द्वीपके अन्तवर्ति परमसूक्ष्म निर्विभाग (जिस्का हिस्सा न हो सके) एक समयात्मक होता है. इसलिये इस्के पीच्छे अस्तिकाय शब्द नहीं लगाया जाता है. यतः एक समयरूप होनसे समूहात्मक नहीं होता. देखिये ! इसीवातको प्रतिपादन करनेवाला . एक आत्तिच्चन्द सुनाया जाता है. तस्मान् मानुष्यलोक व्यापीकालोऽस्ति समयएकइहा एकत्वाश्चसकायोनभवति कायोहिसमुदायः ॥ १॥ जहाँ सूर्य चंद्रादि हमेशह घूमते रहते हैं वहाँ कालद्रव्य होता है मनुष्य लोकके वहार चंद्रसूर्यका चूमना वन्ध है तो वहाँ कालभी नहीं होता. इस द्रव्य के तीन भेद है अतीत अ नागत और वर्तमान " नटोघटः" घडेका नाश हुआ यह __ अतीतकाल कहलाता है “ सूर्यपश्यामि " मैं सूर्यको देखता हूं यह वाक्य वर्तमान कालका द्योतक है " दृष्टिभविष्यति" 'वर्षांद होगा इस वाक्यसे अनागतका स्वरूप दिखलाया है Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) इस्के उत्सर्पिणी अवसपिणी आदिभेट सिद्धान्तमे जान लेना. ___ इम्के वाट पाचमा भेद पदयास्तिकाय है दुनिया के तमाम स्पी जड पदार्थोफो इस द्रव्यमें सामिल करते है इस्के कन्ध देश-प्रदेश और परमाणुये चारभेद होते हैं प्रदेश और परमाणु सिरफ इतनाहि फर्क है कि पारीसे गारीफ हिमेश साथ मिले रहना इसे प्रदेश कहते है और वोहि हिस्सागव अराना हो जाता है तर परमाणु के व्यवहारम जाता है हमारे प्रियपाठकगणोयादरहे । कि जो पुहलात्मक चीज होगी उस्मै स्पर्ण रस गन्य और वर्ण (प) येह चार गुण जर होगें ! सारयादिकी तरह यह नहीं समयनादि हवामें सिरफ शर (यह पुद्गल यहा जाता है इसोभी गुण मानने है) और रपर्ण ये दोहि गुण रहते हैं नागमें शद्ध म्पर्श और रूप ये तीनहि गुण रहते है पाणिमें इनके साथ एक रसगुणके यह गानेसे चार हो जाते हे इनको गन्धयुक्त बनानेपर पृथ्वीमें पांच गुण रहते है किन्तु शहको छोडपर पुग़ल मात्र चार गुण रहने हैं ऐसा समझना चाहिये ! देग्विये देखिये तत्वार्थ स्नो पाचौं अध्यायके तेइममें सूत्रमें यदिलिखा है "स्पर्श रसगन्ध वर्णवन्तः पुद्गरा" यहॉपर मथम म्पर्श के ग्रहण करनेका मतल्य यह पतलानेका है कि महा प होगा बहा रसगन्ध वर्ण जरुर होगें मसलन वायुमें स्पर्श गुण मुख्यतया Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९८ ) मालूम होता है तो इसमें वाकीके तीनगुण जरूर होने चाहिये ! अनुमान यह है " अबादीनि, चतुर्गुणानि, स्पर्शिवाद, पृथ्वीरन् । जलादि, चारो गुणवाले हैं स्पर्शवाले होनेसे जैसे पृथ्वीमें स्पर्श गुण देखा जाता है तो वाकीके तीन गुणभी वादि पतिचादी उभयके मतमें निर्विवाद माने जाते हैं वस इसतरह हरएक रुपी पदार्यमें खयाल कर लीजियेगा ! पुद्गलके परम सूक्ष्म हिस्सेको परमाणु कहते हैं उस्मेंभी रूप रसमन्ध और सर्श येह चारों गुण रहतेहैं, परमाणुका लक्षण नीचे यूजब समझें ! कारणमेवतदन्यं, सुक्ष्मो निभ्यश्चभवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो, विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥१॥ ___मतलब तमाम भेदोंके अन्तमें रहने वाला होनेके सबसे उस्को अन्त्य कहते है. और वोहि सर्व जड पदार्थोंका कारण है. और वो सूक्ष्म अर्थात् शास्त्रममाण व अनुमानसे जाना जाता है. क्योंकि इन्द्रियद्वारा हम उसे देख नहीं सक्ते हैं द्रच्यार्णिक नयके मतसे वो नित्य है (पर्यायार्थिक नयके मतके रूपादिका परिवर्तन होनेसे अनित्यभी है ) और इससे दुसरा कोइ छोटा नहीं है इसलिये इसे परमाणु कहते हैं. (यतः परमणीयो द्रव्यं नस्यात् सपरमाणु रुच्यते इतिवचनात् ) परमाणुमें पांच रसोयेंसें एकरस पांच वर्षों मेंसे एक वर्ण तथा दो गधोंमेंसे एक गन्ध होता हैं. और स्पोंमें परमाणु समु Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दायकी रूसे स्निग्ध-रुस शीत भौर उष्ण यह चारों सर्श होते हैं मगर एक परमाणुकी बनिष्यत इनमेंसे दोहि होते हैं पातो स्निग्र और उष्ण होगे या स्निग्ध और शीत होगें या रूस और शीत होगें या रूक्ष ओर ऊप्ण होगें. और दयणुकसे लगाकर महास्कन्ध तक गितने जद कार्य है सबका यह हेतु है इन छी द्रव्योम धर्मा धर्म आकाश और काल येह चार द्रव्य एक कहलाते है और जीव तथा पुद्गल यह दो अनेक द्रव्य कहलाते हैं इन छी द्रव्योमें पुद्गलको छोडकर पांच द्रव्य अमृत कहलाते हैं और पुद्गल मूर्च है। पाठक गण-आपकी हमारेपर घढी कृपा है जो इसकदर तत्त्वज्ञानको तालीम दे रहे हों मगर इनमें एक शक रहता है अगर आप इजाजत देवें तो मैं अपने दिलकी तसल्ली फरल' लेखक-शा आप अपनी तसल्ली फरले लेखकसरी तरफसे आपको सुल्ली इजाजत है। जो पूच्छना चाहे सोपूछ सक्ते हैं। क्योंकि यह रुपी है और जीव द्रव्य ययपि अस्पी है मगर उपयोग स्वसवेदन सवेद्य ( अपने अनुभद्वारा जानने योग्य) हानेसे इस्मे अस्तित्व भी हमें कोई सटेह नहीं है म. गर धर्माधर्म पायोग अतन हानेके सबसे ससपणा नहीं पाया जाता और भरुणी हानेकी पनाम नाही परसवेदन माता सरेर होसक्ता है पर पतलाये । उन धर्मा पां. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदीय दादागिर, नाम (१००) दि पदार्थों को हम कैसे जान सके ... . . लेखक-अब आप जरा अपना ध्यान दीजिये ! और मेरेसे जवाध लीजिये ! प्रिय मित्र वरो! ऐसा कभी अपने दिलमें नहीं लानाफि जिस पदार्थको हम नहीं देख सक्त वो शश (खरगोष) के झंगकी तरह सर्वथा नहीं होना क्योंकि इसदुनियामे दो तरहकी अनुपलब्धि (पदार्थके नहीं देखे जानेकी किस्में) होती हैं एकतो सर्वथा पदार्थको न होनेसे पदार्थकी अनुपलब्धि होती है जैसे गर्धम शृंग अथवा अन्वग ( गधेव घोडेके झंग) येह पदार्थ नहीं है इसलिये नहीं देखे जाते । दुसरी अनुपलब्धि (पदार्थका नहीं गालग होना) पदार्थके होनेपरभी हो जाती है. इस अनुपलब्धिके जाट भेद हैं (अर्थात् पदार्थ के होनेपरभी आठ सवयसे पदार्थ नहीं जाने जाते ) पदार्थक बहोत दूर होने के सववसे ॥१॥ या बहोत नजदीक होनेसे ॥२॥ इंद्रिय जानके नष्ट हो जानेसे ॥३॥ मनके अनवरुण होनेसे ॥४॥ अतिसूक्ष्म होनेकी वजहसे ॥५॥ आव- रण (ढका जाना )से ॥६॥ अभिभव (एककी प्रबलतासे दुसरेका दखजाना)से ||७|| समानाभिहार (बराबर) मिल जाना से ॥८॥ देखिये इन आठोंकी अब अनुक्रनसे मिसालें दिइ जाती हैं. प्रथम अनुपलब्धिके तीन भेद हैं एक देशविन कर्ष (दुरकी चीजका न देखा जाना) दुसरा कालविमकर्ण Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१) (माजी मुस्तक पीलकी चीनका नहीं देखा जाना ) तीसरा सभावविमर्प (चीजका स्वभावही नहीं दिखलाइ देनेका है) देशरिम र्प इसका नाम है जैसे समुद्रका परला फिनारा ग. धदा मेरु या अपनेहि नगरका दुसरे नगरमें गया हुआ पुरुष देखनेमें नहीं आो। इससे हम ऐसा नहा फह सक्तफि येह चीही नहीं हे फार विमर्पको मिसाल जैसे हमारे गुजरे हुए पजगाको हम नहीं देख सक्ते इससे क्या वे हुएहि नहीं धे ? और होने वाले पद्नामादि तीर्थंकरोंको इम नहीं देव सक्ते हैं तो क्या वे होवेगें नाहि ? क्यो नहीं जरुरयें । और जरुर होगें मगर कालका अन्तर होनेसेही हम देख नहीं सक्ते । सभार विमार्मकी मिसाल भूतपिशाच आत्मा आस्मान ईश्वरइन चीजाको पास आनेपरभी हम नहीं देख सक्ते इससे क्या येह चीनेही नहीं है ? चीजें तो जर है मगर इनमा सभार नहीं दिसलाद देनेका है। पतलाइये फिर हम कैसे दिख मक्ते है ? ॥१॥ पदार्थके न दिखगइ देनेका दुमरा सर चीजका बहोत नजदीक होना है मसलन नेत्राम डाग हुआ सुरमा अपने सूद टेग्यनेमें नहीं आता रसमे क्या उसीवक्त डाले हुए मुररसा नास्तित्व स्वीग जायगा ? हरगिज नहीं । यहापर यहि कहना होगाकि रहत नजदीक होनेसे हम देख नहा सके मगर अखीयेमें जरुर होना है वरना दुसरे लोग कैसे देख सक्ते ? तीसरा सम्म इद्रियोंके नष्ट Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२) होनेसे होनेसे होता है. जैसे अंधा आदमी रूपको नहीं देख सकता हे ओर बहरा शब्दको नहीं सुन सक्ता है तो इसे क्या रूपव शब्दका अभाव हो जायगा? या अन्धा कहे कि दुनियाकी तमाम चीजें अरूपी हैं तो क्या अरूपी चीजें सिद्ध हो जायंगी कभी नहीं । यही कहा जायगाकि इनकी इंद्रियोंका दोष है. चोथा सवव पदार्थके नहीं दिखलाइ देनेका अनवस्थ होना है जैसे किसी जगहपर एक शख्स तीर बना रहाथा उसवक्त उस्के पास होकर सेना सहित राजा निकल गया मगर विलकूल मालूम नहीं हुआकि मेरे पाससे कौन चला गया ? तो क्या अब इस्के नहीं देखनेसे और देखने वालोंका कथन अन्यथा हो जायगा ? हरगिज नहीं । देखिये एक श्लोकमभी इसीतरहका वयान है. इषुकारनरकश्चिद्राजानंसपरिच्छदम् । नजानाति पुरोयान्तं यथाध्यानसमाचरेत् ॥१॥ पांचमा कारण पदार्थके सूक्ष्म होनेसे पदार्थ नहीं देखा जाता जैसे परमाणु त्रसरेणु निगोद वगैरा नहीं देखे जाते है इससे क्या इनका नास्तित्व स्वीकारा जायगा ? नही ! नहीं ! यही कहना पड़ेगा कि सूक्ष्म होनेसे नजर नहीं आते । छठा सवव आवरण कहा गयाथा सो आवरण नाम ढकणेका है मसलन दीवारके पीछे रइ हुइ वस्तुओंको व्यवधान होनेके स Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०३ ) वनसे हम नही देख सक्ते है तो क्या दीवारके पीछे कोई वस्तु नहीं है ? अथवा हम अपने मस्तक कान पीठ आदि शरीरके आयचों को नहीं देख शक्ते तो क्या हमारे शरीरमें मचकुरा हिस्से नहीं है ? नही क्यों बराबर है मगर इम आवरणसे नही देख सक्ते है इसी ज्ञानावरणसे हमे का वक्त सम्यक्रमफारसे अभ्यसित शास्त्रोंका अर्थभी भूल जाता है। सातवा सवर अभिभर ( एककी प्रबलतासे दुसरेका दवजाना) कहा गयाथा इस्की मिसाल यह है की जैसे दिन के वक्त सूर्यके. प्रयागसे महत हुए ग्रह नक्षत्र तारा वगैरे नही देखे जाते तो क्या इससे वे नष्ट हो गये ऐसा मानेगें कभी नही वे इसी तरह रहते है मगर उनका अभिभव होनेमे नजर नहीं आते है पदार्थके नहीं दिखलाइ टेनेका आठवा सर समानाभिक्षा रहै मसलनमुगोफे देरमें मुगोंकी मुठी व तिलोफे देरमें तिलोंकी मुठी डासरी जाये तो परापर मिलनानसे डाली हुइ मुठी पृथगतया मालम नही पड़ती है इससे हम येह नहीं कह सक्ते कि हमारी डाली हुइ मुठी इसमें नहीं है अथवा पाणिमें लुण डाला जावे तो कुन्छ काल के बाद वो पानीमें बिलकूल नजर नहीं आता तो इससे हम इसमें रिलकल लण नहीं है ऐसा कह सक्ते है ? कभी नहीं, यही कहेगें कि समानाभिहार ( यराघर मिलनाना) से हम नहीं देख सक्त है मगर पदार्थ जरुर होता है देखीये साव्य सूत्रकी सप्तमी फारिकामें भी इसी Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) तरहके आठ प्रकार लिख है तथाहि अतिदुरात्सामी यादिन्द्रियधातान्मनोनवस्थानात् । सौम्यात्-व्यवधानादभिभवात्समानाभिहाराच ॥१॥ ___मनलब उपरकी बातोसे बिलकुल साफ हो चुका है प्रिय पाठक गणो ! धर्मादि पदार्थ इन आठ भेदोगेसे प्रय भेदके तीसरे स्वभाव विप्रकपनामा भदमें दाखिल किये जाते है। अतः इनका स्वभावही नही दिखलाइ देना है नो 3 दिखलाइ कैसे देगें ? इसलिये इन पदायाकामी अस्तित्व कायालुमानसे अवश्यमेव स्वीकारना पडेगा । जैसे अप्रत्यक्ष परमाणुकोभी कार्यानुमेय होनेसे मानना पडता है इसी तरह नति स्थितिआदि कार्यकी अन्यथा अनुपपनि होनेसे धर्माधर्मादि पदार्थोकीभी अनुमानसे सिद्धि बखूबी हो सक्ती है सो चुद्धिमानोको स्वयं विचार लेना ! इति ।। २ ॥ सेय अजीवतत्त्वं. इसके बाद तीसरा तत्त्व पुण्यको माना है " पुण्यं सत्क__ में पुद्गलाः" अर्थात् तीर्थकरत्व देवत्व मनुष्यत्व आदिकी प्राप्ति कराने वाली जीवके साथ लगी हुई शुभ कर्मोकी वर्गणाको नाम पुण्य है यह सुख देनेवाला है, और इससे विपरीत नर्कादि अशुभ स्थानकी प्राप्ति करानेवाली जीवके साथ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५॥ लगी हुइ अशुभ कर्म वर्गणाको पाप कहते हैं यह जीवको दुःख देने वाला है पाठकगण-सारयादि मतके तत्वोंको एक्के पिच एकको मिलाने के लिये अट तैयार होगये थे और उनके तत्वोंको एक दम तोडडालेथे अब अपने मन्तव्योंकी तरफ खयाल क्यों नहीं करते ? आपने अलादा अलादा पुण्य पापको दो तत्व माने है इनका समावेश बन्ध तत्वम बाबूगी होसक्ता है फिर उनको अलगदा तल मानकर मुफत दो तत्व बढानेकी क्या जरुरत थी? लेखक-मिय पाठकगण ! आपका कथन ठीक है पेगक चन्न तत्वमें इनका समावेश हो सका था मगर फिरभी इनको जलादा गिने दस्में सास सबर है. पाठकगण-पतलाइये क्या सवा है ? लेग्यक-लीजिये ! सपर यह है कि इस दुनियाम कडएक सरस सिरफ पुण्यको हि मानते है तो दूसरी तरफ का एक सिरफ पापको हि मानते है और कई एक पुण्य पापको जापस आपसमें मिले हुए मानते है और कहते है कि वो मित्र मुख दु ग्वसा कारण होताहै कई एकीका यह मन्तव्य है कि इस दुनिया फर्मही नहीं है और जगत्की रचनाको यो स्त्रा. भाविषी मानते है इन लोकोंका मन्तव्य ठीकनहीं है क्यों कि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख दुःखका अनुभव अलादा अलादा हरएक शख्सको होता है इसलिये इनके कारण पुण्य पापकोभी अलादा अलादा मानने चाहिये ! इस बातका ध्यान करानेके लिये अलादा उल्लेख किया गया है कर्मको नहीं मानने वाले नास्तिक और वेदान्तिकोंका कहना है कि आकाशके फूलकी तरह पुण्य पाप नामकेभी कोइ पदार्थ इस दुनियामें नहीं है. वेदान्तिक सिदाय एक ब्रह्मके और किसीको नहीं मानते ! नास्तिक सिवाय भूतोंके किसीको नहीं मानते हैं इस लिये येह दोनों मतवाले परलोक पुण्य पाप आदि पदार्थोंको नहीं मानते हैं. मगर इनका यह कथन विलकुल असत्य है क्योंकि मनुष्यत्व जातिकी समानता होने परभी एक राजा एक प्रजा एक शोकी एक भोगी एक हजारोंका पालन कर्ता है एक अपने भेट भरनेको भी असमर्थ होताहै एक निरोग शरीर और एक रोग ग्रहस्त होताहै इत्यादि विचित्र रचना क्यों हो रही हैं वस इसीसे सावित है कि इन सुख दुःखोंका कारणभूत पुण्य पापभी जरूर होने चाहिये ! और पुण्य पापके भोगस्थान मुख दु___ खात्माक स्वर्ग नर्क गति प्रमुखभी जरूर होने चाहिये पुण्य पापकी सिद्धिमें अनुमान नीचे मूजव समझें ! सुख दुःखे कारण पुर्वके, कार्यत्वात् , अङ्कुरवत् । येचतयोः कारणे.ते पुण्य पापेमन्तव्ये, यथाङ्करस्य बीज। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) मतलव-कार्य होनेके सबबसे सुख दुःखोंका कारणभी __ कोइ जरूर होना चाहिये जैसे अकुर कार्य है तो इस्का कारण बीजभी जरूर होता है इसी तरह मुख दुःख रुप कार्यके कारण पुण्य पापभी जरूर मानने पड़ेंगे। पाठकगण-जैसे स्वपति भासि अमूर्त ज्ञान रूपी निलादिक वस्तु कारण हैं इसी तरह अरुपी सुखके उमदा उमदा भोजन फूलोंकी मालायें और चन्दन वगेरा कारण माने जावें और दु खके सर्परिपकटक वगैरा कारण समझे जावें और पुण्य पापको न मान तो क्या हर्ज है ? क्यों कि आपका अनुमान कारणको सिद्ध कर्ता है न कि पुण्य पापको ___ लेखक-विज्ञ वर्ग : आपका यह कहना ठीकनहीं है, क्यों कि एफहि किस्मके भोजन करनेसे एकको आनन्द होता है दुसरेका नहीं होता । जिस भोजनके स्वादसे एक पुरुष प्रसन्न चित्त होकर बार बार उस्का अनुस्मरण की है दुसरेको उसी भोजनसे कोलेग (हैजा) हो जाता है पतलाइये अब इनको कारण कैसे समझ सकते हैं ? इससे वहेतर यही है कि आप पुण्य पापको मान लेवें । यतः शास्त्रमें कहा है और युक्ति इस पातको स्वीकार करती है कि तुल्य साधन के मिलनेपर भी जहापर फलमें विशेषता पाई जाती है वो निर्हेतुक कभी नहीं हो सकती वल्के उस्का कोइ न कोइ सब जरूर होना Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८); चाहिये ! देखिये ! इसी बातका प्रति पादन करने वाली एक गाथाभी सुनाता हूं। जो तुल्लसाहणेणं फलेविसेसो नसो विणाहेऊं । कजत्तण ओ गोयम घडोबहेउ असोकामं ॥१॥ __ और एक यहभी वात देखी जाती है कि इस दुनियामें सुखी कम देखे जाते हैं और दुःखी ज्यादा देखे जाते हैं इस्का भी यही कारण मालूम कियाजाता है कि सुखको देने वाले धर्मका सेवन करनेवाले वहोत थोडे हैं और दुःखमद पापके सेवन करनेवाले बहोत ज्यादह हैं, इससेभी पुण्य पापकी सिद्धि होती है. येह दोनोहि तत्व हेय ( त्यागने लायक ) हैं मगर इनमें पुण्यके कइएक अंग मोक्षके साधन भूत होनेसे पुण्यको कथंचित् उपादेयमें ( ग्रहण करने लायक चीजको उपादेय कहते हैं ) भी समार कर सक्ते हैं. इस्केवाद पांचया तत्त्व आश्रवमाना जाताहै. आश्रव नाम कर्मोके आनेका है इस्के पांच हेतु हैं १ मिथ्यात्व २ अविरति ३ प्रमाद ४ कपाय और ५ योग । इनमें कुदेव कुगुरु और कुधर्मको 'सुदेव सुगुरु और सुधर्म समझनेका नाम मिथ्या त्व है, हिंसा असत्य चोरी मैथुन और परिग्रह इनसे अनित्त होनेका नाम अविरति है, तमाम किस्मके नसोंमें व इन्द्रियों के विषयोमें लगे रहना इसे प्रमाद कहते है. और क्रोध मान Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (( १०९ ), माया लोभ इन चारको कपाय करते है तथा मन वचन और कायाके व्यापारको योग कहते हैं यह पाच कर्म बन्धन के हेतु ( सस) है, इन्हें जैन शास्त्रमें आनवतच कहते है इनोके जरीये ज्ञानायरणीय आदि अष्टकमाँ का बन्धन होता है जात्रामा पूर्व पन्यकी अपेक्षासे कार्य और उत्तर नमकी अपेक्षासे कारण समझना चाहिये ! और नाय तथा आत्रका परस्पर कार्य कारण भार माननाही दुरुस्त है, क्योंकि विना बन्यो आश्रा नहीं हो सकता और पिना आश्रके बन्ध नहीं हो सकता. जैसे विना अकुरके वीन, व विना बीनकै अकुर नहीं हो सकना । पुण्य पापके बन्धन हेतु होनेसे आत्रके दो भेद लिये जाते है, शुभ कर्मका हेतु व अशुभ कर्मका हेतु मिथ्याल आगिको अपेक्षा इस्के अनेक भेदभी हो सक्ते है मन वचन कायाके व्यापार रुप आसवकी सिद्धि अपने आपकी अपेक्षा स्व सवदन संबंध है, और परपुरुपोंकी अपेक्षा कहीक प्रत्यक्षमे कहींक कार्यानुमानसे तो कहींक आगम प्रमाणसे जानी जाती है इति हे य आयतल ॥ अम छहा तत्व सार है। पूर्व फथित सख्याराले आस्रवोंका रोकना इस्को सवर कहते है। जैसे सम्पम् दर्शनद्वारा मिथ्यात्व रक जाता है, और चिरतिके द्वारा अविरति रूक जाती है। और प्रमाद परिहार तया प्रमाद दुर हो सका है। और क्षमा-पार्दर (निरामिमानपणा) आर्जव (सरलता) और निलमिता इनके द्वारा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) क्रोध, मान, माया, लोभ, इन चारोंको रोक सक्ते हैं, तथा मन गुप्ति, वचन गुप्ति और कार्य गुप्तिद्वारा, मन, वचन, कायाके शुभाशुभ व्यापारको रोक सक्ते हैं। मतलब-कर्मोको ग्रहण करनेवाले हेतुओंके परिणामका अभाव करनेवाले तरीकोंका नाम संवर हैं । संक्षेपतः-इस्के देश और सर्व येह दो भेद है, मगर यति धर्म वाइस परिष हे आदिकी अपेक्षा इस्केभी अने. क प्रकार हो जाते हैं। सो अन्य शास्त्रोंसे जान लेने ! इति उपादेय संवर तत्वं ।। इस्के वाद सातमा तत्व बंध है “ बन्यो जीवस्य कर्मणः" यानि कर्म पुद्गलोका क्षीरनीरकी तरह जीव के साथ संवन्ध होना इस्को वन्ध कहते हैं अथवा बंधा जाता है। आत्मा जिसकर उसे वन्ध कहते हैं, इस्का ग्रहण कर्ता सं. सारी जीव है पाठकगण-हाथ वगैरा सामग्रीसे रहित आत्मा कर्मोको कैसे ग्रहण करसकेगा ! क्योंकि वो अमूर्त है. लेखक-आपका शक करना बिलकुल फजुल है. यतः हम कब कहते हैं कि संसारी जीव अमुर्त है ? संसारी जीवके साथ क्षीर नीरकी तरह कर्मों के मेलाप होनेसे हम कथांचित् इस्को मुर्त मानते हैं और कर्म हाथसे पकडने लायक चीजही नहीं है इस लिये इस्के ग्रहण करनेकी विधी नीचे मुजव समझे । जैसे कोइ पुरुष अपने शरीरपर स्निग्य वस्तु ( तैलादिक ) लगा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १११) कर खुल्ले बदन वनार व गली कुचोंमें फिरता है तो उस्के - शेरपर रज उठकर चीमटती है. इसी तरह राग देष मोह आदि मानिंद स्निग्य वस्तुके है, इनके द्वारा आत्मापर कर्म रुप-रज घहती है क्योंकि आठ रुचक प्रदेशके सिवाय आत्माके असख्य प्रदेशोमेहि मोहादि भावना उठती है इस लिये आठ रुचक प्रदेशोंके सिवाय सबके सर प्रदेशोंपर कर्म पुद्गल सपन्न कर लेते है इस वन्य तत्त्वके मुख्यतया दो भेद होते है एक शुभ चव और दुसरा अशुभ बन्ध, अगर प्रकृति स्थिति अनुभाग और प्रदेशके हिसारसे लिये जायतो चारभेद होते है, प्रकृति नाम सभावका है, जैसे ज्ञानावर्णीय कर्मका स्वभाव ज्ञानको रोकनेका है, दर्शनावरणीयका दर्शनको इत्यादि. और स्थिति नाम कार मर्यादाका है, अमुक कर्मक वन्यकी इतनी स्थिति है और जमुकमी इतनी इत्यादि अनुभाग नाम रसका है तिनति तर एकठाणीया दोठाणीया आदि समझना और मदेशनामकर्मदलोंके सचयका है इस्का विस्तार कम ग्रन्य व कर्मयडीसे समझ सक्ते हो । इति हे यवन्ध तत्त्व ।। अप आठवा तत्व निजरा है । इम्मा स्वरुप ऐसे है "वद्वस्य कर्मण साटोयस्तु सा. निर्जरामता" यानि जीकेसाथ ताल्लुक वाले फेलों (मी) का बारह तरहकी तपश्चर्या के जरीय जीमें अलादा करना इसे निर्जरा तच त है इसके दो भेद है, एक समाम निरा दुसरी जगाम निर्जग, इनमें प्रथम भेद चारिसके पालन रने Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) वाले तथा लोचादि काय क्लेश करने वाले महात्माओंमें पाया जाता है । और दुसरा भेद हजारों कप्टोको वगैर धर्म बुद्धिके परतंत्र भावसे वरदास करनेवाले दीगर लोगामें पाया जाता. है। इति उपादेय निर्जरा तत्वे ।। इसके बाद नवमा तल मोक्ष माना जाता है. "आत्यन्तिको वियोगस्तु दे हा दे मोक्ष उच्यते __ यानि पांच शरीर तमाम इंद्रिये आयुष्यादि दश बाह्य प्राण पुण्य पाप वर्ण गन्ध रस स्पर्श पुनर्जन्मका ग्रहण करना तीनवेद कपायादि संग अज्ञान और असिद्धत्व इनसे आत्यन्तिक वियोग (फिर इन चीजों के साथ कभीभी संयोगका न होना इस आत्यन्तिक वियोग कहते है) का होना इरका नाम मोक्ष है.' पाठकगण-अजी! साहब ? शरीरके साथ तो आत्यन्तिक वियोग होना मान लि जायगा क्योंकि शरीरकी आदिहै मगर अनादि रागद्वेष रुप वासनाका नाश कैसे सकेगा ? चुके अनादि चीजका नाश कभी नहीं होसक्ता । अनुमान यह है . यदनादिमत्, नतद्विनाशमाविशति, यथाकाशं । अनादिमन्तश्वरागादय इति ॥ __ मतलव-जो चीज अनादिसे चली आतीहै वो नाश भावको प्राप्त नहीं होती । जैसे आकाश अनादिहै तो नष्ट भी नहीं होता । इसी तरह रागद्वेषका नाश भी नहीं होसकेग क्यों कि येहभी अनादिहै. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३ ) लेखस-पाठकवर्ग ! आपका कथन असत्यहै, चुके प्रवाह स्पसे रागद्वेप ठीक अनादिह मगर आजागी तर अनादि नहीं है क्योकि हमेशा के लिये आश एपही रहेगा लेकिन रागद्वेप हमेशहके लिये एक किस्मना नहीं रहताहै, कमी किसी चीजपर राग होताहै और कभी किसी चीजपर इस कदर तगदियर तपद्दल (परिवर्तन ) होती रहतीहै इसी तरह द्वेपको भी आप समझ सक्तेहैं । इस लिये आकाशकी मिसाल ठीक नहीं है, मगर फिरभी फर्जी तौरपर आपकी मिसालको मानकर जवाब दिया जाताहै वों ? पढे । और फायदा हाँसिल कर जैसे किसी पुरुपको स्त्रीने शरीरादि वस्तुका यथार्थ तत्त्वज्ञान होनेसे या उस्की विरप चेटासे भर्तहरिजीकी तरह उससे एस्तम निस्पृहता पैदा होजाती है तो उस पुरुपमें प्रतिक्षण रागनी अती अती व हानि देखी जाती है हत्ताने सहा तानि निस्के सिवाय एक सण गुजारना मुश्कील होता था उस्को क्षण मात्र त्याग कर विरक्त बन जाते हैं, यहापर साफ तोरपर रागका अपचय (थोडे क्षयका नाम अपचय है) देखा जाता है इससे हम कह सक्ते है कि किसी दिन सपर्ण सामग्रीके मिल जानेपर निर्मूल नाम भी होजायगा । अगर निर्मूल नाश आपको समत् नहीं है तो अपचर भी सिद्ध नहीं होसकेगा । देखिये किसी पुरुषको इतनी शरदी लगी कि उस्के तमाम अग कॉप रहे है उस पुरुपको अगर थोडी Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११४ ) आग मिलतीहै तो उस्की थोडीसी ठंड दूर होजाती है मतलव अग्निकी मंदता होनेपर सर्वथा शरदी नहीं उड सक्ती मगर कुच्छ आराम जरूर हो जाताहै अगर अच्छी तरहसे आग मिल जाती है तो इस्की तमाम शरदी दूर होजाती है तो इससे हम कह सक्ते हैं कि अल्प सामग्रीके सद्भावमें जिस्का कुच्छ नाश होताहै तो संपूर्ण सामग्रीके सद्भावमें उस्का निर्मूल नाश भी जरूर होना चाहिये. वाद आपने कहा थाकि जो अनादि है उस्का नाश नहीं होता यह भी आपका कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रागभाव अनादि है मगर फिर भी इसका नाश निर्विवाद स्वीकारा जाताहै और आपका हेतु स्वर्ण गृत्तिकाके संयोगमें अनेकान्निकभीहै चुंके स्वर्ण और मट्टीका संयोग अनादिहै मगर सामग्रीद्वारा मृत्तिकासे अलादा होसक्ता है, इसी तरह तपआदि सामग्रीसे रागद्वेप रुपमृत्तिकाके दुरहो जाने से आत्ततत्व रुपस्वर्ण बखूबी साफ होसक्ताहै; अनादिकी चीजका नाश नहीं होता इस मजमूनपर मैंने बहोत कुच्छ लिखनाया मगर इस वक्त अल्प समय होनेसे मैं लिख नहीं सक्ता विशेधार्थी पुरुषोंको नंदीमूत्रकी पीठिका देख लेनीः वहांपर अपचयके वारेमें ज्ञानावरणीकी मिसाल देकर व्यभिचार दिखला कर वादीने खूब जोर लगायाहै तथा आत्माका रागादिसे भिन्नत्वाभिन्नत्वपर अच्छा विचार कियाहै, आचार्य महाराजने खूव युक्ति प्रयुक्तिद्वारा वादीको फटकाराहै देख लेवें ? मित्र Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणो । मचकुरा मोक्षपदमें मजाकी कोइ इन्तहा नहींहै क्योंकि चहापर हमारा आत्मा जम जरा मरण रोग सोग वगैरा सव उपाधियोंसे अपाय रहताहै, देखिये योगशास्त्रके कर्ता हेगचद्रमरि योगशास्त्रमें मोक्षरा फितना सुख श्यान करतेहै ? देखनेसे साफ मालूम होजायगा किह दो हिसारसे वहारह चे फरमाते है। सुरासुर नरेन्द्राणां यत्सुख भुवनत्रये। तत्स्यादनन्त भागेपि नमोक्ष सुखसपद ॥१॥ स्वस्वभार जमत्यक्ष यस्मिन् वै शास्वत सुख । चतुर्वर्गाग्रणीवेन ते न मोक्ष प्रकीर्तित ॥२॥ भावार्थ-गुरासुर नरेन्द्रोंको इस दुनियाम जितना सुख है वो तमामका तमाम मिसरभी मोल मुखके अनन्तम हिस्से नहीं होसक्ता ॥ ॥ मोक्षमें स्वाभाविक अतींद्रिय (इद्रियोद्वारा न देग्वा जासके) और शाश्वत (हमेशह कायम ) सृग्य होते है इस लिये चार पुरपार्थों में मोक्षको अवल दर्जा दिया गया ॥२॥ इति उपादेय मोक्ष तव ॥ ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) मेरे मध्यस्थ ara ! अवी मैंने नां तत्त्वकी सिरफ नाम मात्र व्याख्या कि है इनके भेदाभेदका मैंने बिलकूल खयाल नही किया है, क्योंकि मात्र इतने स्वरूपसेहि निबन्ध अपनी हदको उल्लंघन करने लगा हैं, तो फिर इनका विस्तार में किस तरह लिख सक्ता हूं ? प्रिय मित्रो ! मैं एक मन्दमति पुरुष हूं, फिरभी अगर नव तत्त्वका स्वरूप लिखने लगूं तो तीनस पृष्टकी एक किताब बनानेकी मुझे दरकार रहती है, अगर कोइ गीतार्थ महाराज अपनी लेखनीद्वारा इन विषयोंको परिस्फूट करना चाहे तो मैं नहीं कह सक्ताकि सहस्त्र पृष्ट तकभी उनकी लेखनी रूक सके ! बतलाइए ! अब इतने स्वरूपको इस छोटीसी इवारत में मैं कैसे लासक्ता हूं ? इस लिये अकलमंदोको इसाराही काफी है इस वातको याद कर सिरफ एक इसाराहि किया है कि बाकी मतों में जैन मत जितना तत्त्व ज्ञान नहीं है. इस लिये दीगर मजहबवालोंकों अपने शास्त्रोंकी तरह जैन शास्त्रोंकोभी बडे शोख से देखने चाहिये ! ताके काच हीरेकी अच्छी तरह से परिक्षा हो सके ! देखिये ! एक आर्य महाशयने खंडनकी बुद्धिसे जैन शास्त्रोंका अवलोकन करना शुरु कियाथा मगर ज्युं ज्युं पराकोटिके ग्रन्थ देखते गये त्युं त्युं छिन्न संदेह होते गये, अखीरमें एसे परम श्रद्धालु जैन वन गये हैं कि जिनोने आर्य मत खंडनके लिये कई ट्रेक्ट जारी किये हैं, मिय मित्रो ! इस तरहसे आपभी उत्तम शा १ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७ ) साके अवलोकनसे परम लाभ उठाओगें। जैसे हम लोग आप तमाम महजर वालोंके ग्रथाको देखते है इसी तरह आ पको देखने चाहिये । जन शात्रामा यही कथन है कि हरएक मतकी युक्तियांफो श्रवण करो। अगाय हो उस मानो । और माध्यसे हटो देखिये कैसी उमदा पात कही है ? परपातो नमे वीरे, न वेप कपिलादिषु । युक्ति मदचनं यस्य तस्य कार्य परिग्रह ॥१॥ ___ इत्यल पलवितेन विर वर्गपु ओम् शान्ति गान्ति शानि ॥द मुनि लब्धिविनय-दृशीयारपुर-देश पनान. Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) अहम् । पूज्यवर्य गणिजी श्री केवलचंद्रजी महाराजका संक्षिप्त,-जीवन-चरित। AARI उदय-च्छन्द. नहिं जपे परदोप, अल्प परगुन बहु मानहीं, हृदय धरही संतोप, दीन लखी करुना ठानही, उचित रीति आदरहीं, विमल नय नीति न छंडही, निज जसलहन परहरहीं, रामाचि विपय विहंडही, मंडही न कोप दुर्वचन मुनी, सहज मधुर ध्वनी उच्चरही, कहिं कवरपाल जगजाल यश, ए चरित्र सज्जन करही. ? परोपकारी, उदार चरित महान् पुरुषोंकी जीवनी पढ़नेस मनुप्यको जैसा मनुष्य कर्तव्यका ज्ञान प्राप्त होता है, वैसा जान अन्यान्य किसीभी साधनद्वारा नहीं हो सकता । जैसा २ मनुष्य उत्तम पुरुषोंके चरित पढ़ते चले जाता है तैसार उसके मनामे उच्च श्रेणीके विचार बंधते चले जाते हैं । व्यसनी एवं अश्रेष्ट पुरुपभी यदि महात्माओंकी दिनचर्या एवं जीवनीका अवलोकन करनेका सतत प्रयत्न करता रहे तो वह अवश्यमेव श्रेष्ठता प्राप्त कर सकता है। और अन्तमें मुज्ञ जनभी र Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् स्वर्गीय यति केवलचन्द्रजी - - 3e Mamta RMA - Forse T - T - Anda PAN . . CRICT YAM var47 J. TIPS गणिजी महाराज जन्म मृत्यु माद्रपद कृष्ण १० स० १८८५ मार्ग शीर्ष कृष्ण ९ स० १९६७ Page #134 --------------------------------------------------------------------------  Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११९ ) सकी प्रशसा किये बिना नहीं रह सक्ते ऐसे उच्च गुणोको सम्पादन कर सकता है। उत्तम पुरुपोंकी जीवनिया इतिहास स्तभक समाग है और इसीमेही विद्यानुरागी प्रेमस जीवनीया लिखते पढ़ते हैं। __ मेरे परोपकारी स्थविर-महात्मा-साक्षरवर्दी-पज्यपाद श्रीमन् महाराज केवलचद्रजी गणिजीका जीवन चरित्र-हिन्दी जन पनो सम्पादक महाशयके अनुरोबसे लिखनेका विचार किया है इसमें जल्लीके कारण कुछ जुटी रही विदित होतो पाठक क्षमा कर! गणिजीश्री केरलचजी महाराजा जन्म विक्रम संवत् १८८० के भाद्र पद कृष्ण १० ददामी गुरवारसी रातको उद पटी ०८ पर ४३ पुनर्गनु नसमे हुआ जमम्थान शहर वालीयर, ज्ञाति गौड ब्राह्मण, माताका नाम सुशील और पिताका नाम शिवानन्दजी था गणिजीके पिता सालियरमें श्रीमान् मेघराजजी मुराणके यहापर नोकरी करतेथे चरित्र नायर निस समय नऊ वर्षकी क्यो र उसी अर्शमें श्वेताम्बर जैनाचार्य श्रीमान् ताराचमूरीजी महाराज देशान्तरोम विचरने हुने, जनेक यति-महात्माओके साथ सात १८९३ मे ग्वालियर पधारे । भारकाने नगर प्रवेशमा सराहनीय उत्सक फिया । श्रीताराबद्रमूरि आनो श्रीपूजाकी तरह द्रव्य लोभसे कही नदी विचर, वे जहा जातये वहाएर व्यारयान हमेशाह Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) करतेथें, और मानसीक इच्छा उनकी यही रहा करतीथीकी कीसीभी रीत्या जैन धर्म उन्नत दशाम पहुचे ! आचार्याका क्या कर्त्तव्य हैं यह वे पूरी तौरसे जानतेथे, इतनाही नही बरन् वे. कर्त्तव्यका यथोउचित पालन भी करनथे । आचार्यजीके गुणोका उल्लेख करनेका यह समय नहीं हैं इस लिये अधिक लिखना अयुक्त समझता हूं। एकदिन मेघराजजी सुराणन आचार्यजीसें यह विनतीकी, मेरे घरको पधारकर पावन करनेकी कृपा फरमा । श्रीजी महाराजनें मुराणनीकी भक्तिवश यह कहना स्वीकार करलिया और दूसरही दिन सुराणेजीके घरको आचार्यनी महाराज पधारे, पथरामणीका जलसा सुराणीजीने बहुतही प्रगंसनीय किया सुराणेजीने आचार्य महाराजकी केसरचंदन और सुवर्ण मुद्राआसे नवअङ्गि पुजन कर अपना आनन्द सभासमक्ष व्यक्त किया. उस समय हमारे चारित्र नायक आचार्य महाराजके चरण कमलोंमें आकर लैटगये माता व पिता प्रभ्रतिने नोट १ कई लोगोंके मन में यह वहेम भरा है कि-विरक्त आचार्य-मुनि प्रभ्रतिने-सुवर्णमुद्रा ( मोहोरो) आसे पुजन नहीं करना चाहिये परंतु यह उनकी भूल है । अकबर वादशाहको प्रतिबोध देनेवाले-जैनाचार्य हिराविजयमूरि महाराज सरीखे महात्माओंनेभी मुवर्णमुद्राओंसे पूजन करवाई है । यह उनके जीवन चरित्रसे विदित होता है. Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१) वहासे उठानका बहुतकुछ प्रयत्न किया किन्तु आचर्य श्रीके चरणोंको त्यागना आपने ठिकुल नहीचहा । यह आचार्य जना दृश्य देखकर आपके माता पिताने और सुराणेजीने आचार्यजीस यह गिनती की, कि, इस घालाकि भक्ति-एव प्रीति-आपहीपर अधिक विदितहो रही है अतएव हम लोगोंकाभी अत करण इस समय यही कहरहा है कि, इस बालकको हमेशाहके लिये आपको सेवाम अर्पण करदेना । आचा यजीनेभी उत्तम लक्षणयुक्त बालकको देख इसमातका लोकार कररिया और उपाश्रयको लेकर आये । चरितनायक पियाके पडेही अनुरागीथे, एकबार देखने परहीसे आपसे लोर-काव्य-कठहोजाताथा-पढाहुआ भूल जानातो आप स्वप्नमेंभी नही जानतेथे किसीभी विषयका किसीभी स्थलका-प्रमाण आपसे किसीभी समय क्यों ! न पूछलियाजाय, झट कहदेतथे आपकी स्मरणशक्ति ऐसी परलथीकी पृष्ट-पदिक्त तकभी आप नहीं भूलतेथे ब्रह्मचर्य प्रत मेंतो आप इतने दृढथेकि म्पप्नमेंभी कभी विषय भोगकी इच्छा नहीकी । वर्तमानके ब्रह्मचारीयोंमें आपमा प्रधानपद कहदियाजायतो कोई अत्युक्ति नहीं है । विनयगुण तो आपमें इतना भराया कि, वृद्धौंका अविनय करनातो आप जानतेभी नहीये अलाया इसके यदि कोई अन्यान्यभी सनन आपसे मिलनेको आताया तो उसके वचनोसे ऐसा शान्त और सतुष्ट करदेतेथे, कि,-उसके दयमें यही भावना उत्पन्न होजातीथी कि, ऐसे Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) महात्माओंकी सेवा और सत्संगत बनी रहेतो अच्छा । उक्त गुणों के कारणसे आचार्यजी महाराजका सभी शिप्यासे अधिक प्रेम आपके उपरथा. विक्रम संवत् १९०३ में आचार्य जी माहाराजने अपने हायसे आपको दीक्षा दी, दीक्षाका नाम " केवलचंद्र " मुनि रक्खा । दीक्षाके समय आएकी कोइ अठराह वर्षकी वयथी. व्याकरण, काव्य, कोश, न्याय, अलंङ्कारादि शास्त्रोंका अध्ययन आप भलीभांनी करसकेथे. ज्योतीच, वैद्यक, उन्द, प्रभृति शास्त्रोंका अवलोकन आपका भलीभां ती होगयाधा. जैनदर्शनके मुख्य सिद्धान्त ग्रंथोंका पठन आप आचार्यजी महाराजके समीप करतेये, आचार्यश्रीके साथ ग्रामामुग्राम विचरनेसे यद्यपि शास्त्राध्ययनमें क्षति पहुचतीथी, तथापि सूरिजीस्वतः विद्वान् और पठन करवाते रहनेसे विशेष हानी पहुचनेका संभव नहींथा. जैनदर्शनके सिद्धान्तोका सुबोध होनेपर पट्दर्शनके मुख्य ग्रंथोंका अवलोकन सूरीनीने करवा दिया. विद्यामें आपकी प्रशंसनीय प्रगति और सद्गुणोंद्वारा प्रसन्न होकर-सरिजीनें आपको युवराजपद ( प्रधानपद) पर निमतकर दिये. आचार्यजी महाराजके शिष्य सम्प्रदायमें-सूर्यमलजी, मुलतानचंद्रजी, कपूरचंद्रजी ओर ब्रह्मचारी 'रविदत्तजी १ नोट-आपने आचार्यजीसे मंत्रोपदेश लेकर केवल ब्रह्मचर्य व्रतही ग्रहण कियाथा और यह प्रतिज्ञाकी भीथी, आपका शिष्यका स्वीकारकर इसी अवस्थामें आत्मसाधन करूंगा. Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२३ ) प्रभृति सभी शिष्योगसे आपपर प्रेम अधिकया. सूर्यमलजी भोलेभाले और बडेही सरल परिणामीथे विक्रम संवत् १९१५ मार शुक्र अहमी के दिन आचार्यजी महाराजका देहान्त पहोकरण ग्राम हुआ प्राय सभी शिप्य उस समय आचार्यश्रीके समीपथे जाचार्यश्रीने देहत्यागके योडेक पहरे यह सढाको कहानि-मेरे शिष्यों में सर्वोत्कृष्ट गुणधारक, मुशील, श्रम सहिष्णु आर कर्त य परायण केरलचद्र मुनिहें, और इसीको मृरिपट देना, तुम सभी इसीके आज्ञामें रहो तो तुमारे लिये अच्छाहे. और मूर्यमलगीसे कहा यशापि तू रडाहै किन्तु भोलाएव पठित न होनेसे अन्य तुमे सम्हार नहीं सकेगे इस लिये तु फेवलचद्रकी रक्षामें रहना और लघुभ्राताको शिप्यके समान समझकर सेवा सुश्रुपा करना आर चरिन नायकसे यह कहाकि-जहा तक बनसके पहा तर सूर्यमर को तु निभाना दुपि मत करना वाट आचार्य महाराजन परमेटी ब्यान करते दरे इस नया देहका त्याग कर दिया. सगारोहण क्रिया जनगामानुसारकी गई. गुरुपहाराज के पियोगसे दुखित हुने हमारे चरिन नायरने कुम्नी सरतका जो गौकथा वह उमी गिनसे त्याग कर दिया आपको जैमा चियामा अनुरागया वसाही दण्ड मुद्दा फारानका एम कसरतका भी रडाही मंमया आपकी मानसिक शक्ति के साथ शारीरीक भक्तिभी एसी प्रपल थी कि रावरीके दम पीस व्यक्तिको कुछ चीज नहीं Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४) समझतेथे. शहर वीकानेरमें कइ प्रवल पहलवानोंका मानमर्दन आपनें कर दियाथा. आपके देहान्तके थोडे दिन प्रथम एक शत्रु युवकसे वल संबंधी वार्तालाप करते उसका हाथ पकड लियाथा तो वह उसे छुटवाना मुश्किल होपडा ! वृद्ध वयमें भी आपमें ऐसी शारीरीक शक्ति विद्यमानथी. ताराचंद्रसूरिजी महाराजके देहोत्सर्गके वाद-गच्छकी वडीही शौचनीय दशा होगई-कइ विघ्नसंतोपी यतियोंने वीकानेरमें मपंच जाल वीजाकर सरिजीके शिप्योंमें मतस्य उत्पन्न करदिया. सुरुतानचंद्रजी तो अपनी ढाइपा अलगही पकाने लगे. अने आचार्य होजानेकी कोशीश करने लगे. कपूरचंद्रजी दोचार यतियोंकी सम्मति सूरि बनकर ठगये आपने सभीको बहुत समाझाए परंतु जब यह स्पष्ट विदित होगया कि यह लोक दुराग्रह नहीं छोड़ते है तब मध्यस्थ वृत्तिको त्याग तटस्थ वृत्ति स्वीकार करली. और-स्वर्गवासी गुरु आचार्य महाराजका आराधन करनेका पीछे पोहोकरन लौट कर चले आये. आपकी गुरुभक्ति सराहनीयकी क्यानहो ? कहा: " गुरुके प्रसाद सब विद्याको बोध होत, गुरुके प्रसाद तें प्रकाश उरछायोंहै । गुरुके प्रसाद शुद्ध आनंदरूप होत. गुरूके प्रसाद शिव कालकूट खायोहै । गुरुके प्रसाद वाल्मीकी व्यास कविभये, गुरुके प्रसादही ते रामगुण गायोहै । गुरुहीके कृपासें आनंद होत सालिग्राम-गुरुपदकी कृपासे पूर्णपद Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) पार्योंहै ।' गुरुपदके आप पूर्ण भक्तथे सवत् १९१६-१९१७ के दो चातुर्मास पोहोकरण किये। वहा गुरमहाराजने स्वप्नमे आपको वह प्रगन किवा कि “जा-देव-गुरु और धर्मके प्रसादसे __ तुझे नपण्ड मुख रहेगा, तेरे हायसें अन्छे २ धर्मोन्नति के कार्य होगे, और तेरा नेज-पूज और गिप्य प्रशिप्यकी रद्धि होगी, __ और जो जो मेरे कुशिष्यहैं जो कदाग्रह कररहे है उनका अतम नाम निशानतक नहीं रहेगा अर्थात् निर्वश होजावेगे" इस स्वप्नके योडो दिनोके बाद और आपके सद्गुणोंके पश पहोकरणाधिपति श्रीमान् ठाकुर सहार भभुतसिंहजीने आपण आदर सत्कार मशसनीय दिया और एक पटा लिख दिया उममी नकल हम यहापर उद्धृत करते है । पट्टेकी-नकल श्रीपरमेश्वरजी MARALA ठाकुर साहेबके कचेरीफी महोर यहा AAAAA सवतश्री टाकुरा रानश्री वभुतसिंहनी लिखापत वाने Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६ ) -जरा गायरां जागीरदारारा, कामेतीया, चोधरीया, भोमियांदिसे, गुरां केवलचंद्रजी बीकानेर जावे छ सो रात रहे जीगरी चोकी पोरो जावतो राखजो हर वीदा हुवे जठे आगलै गाम पुगाय दीजो. संवत १९१७ का मिती पोह वदी १२. श्रीमान् ठाकुर सहावने यहां तक कहाकि,-आप बीकानेरसे शीघ्र लौट आयें और यही आपकी सेवा भक्ति होती रहेगी वीराजे रहै और सहावणे श्रावकोंनेभी आपसे यही कहा की महाराज! आप हमारे यहांपर विराजे रहै हमारे तो अब आपही आचार्य हैं। किन्तु आपकी इछा बीकानेर जाने की होनेसें आप रवाना हो चूके. बीकानेरमेंभी आपका बहुत कुछ सत्कार हुआ, क्यों नहो , कहा है “ विद्वान् सर्वत्र पूज्यते" परस्परमें लडनेवाले दोनों पक्षके भातृगणभी आपसे सदा संतुष्ट रहतेथे इसका कारण तटस्थ दृत्तिही समझें । __शहर बीकानेरमेंभी कइ व्यक्ति आपके उपदेशरों धर्ममें पावंद हुए. आपके सदुपदेशसे श्रीमान् धर्मचंद्रजी सुराणेजीकी धर्म पत्निने शत्रुजयादि तीर्थोकी यात्रा निमित संघ निकाल. नेका निश्चय किया और माघ सुदीमें संघ वीकानेरसे रवाना हुआ. उक्त संघके मुख्याधिष्टाता आपही थे उन दिनोंमें रे वे न होनेसे खुशकी रास्तेही संघ रवाना होनेसे गाडी ५०० ऊंट ४००, घोडेस्वार रक्षाके लिये १०० और मनुष्य सं Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) रया करिव ५००० थी, यति-साधु-स्वाध्वी-गणभी करीम सोनी सग्यामेथे, आलारा इसके सर रक्षार्थ बीकानेर नरे शकी ओरसेंभी कई घोडेस्वार दिये गयेथे. दर्शन पूजनके लिये पक देहरासरभी साथमें था देरासर वगेराकी देखरेग्व आपही क तेथे नागोर, फलोधी-पार्श्वनाथ, कापरडी, पाली, वरकाणा, नाडोल नाडोलाद, राणपुर, मुन्छाला महावीर, पचतीथी सिरोही, आतुराज, पालणपुर, सखेश्वर, राधनपुर, वडनगर, वीसनगर, सिद्धपुर-पाटण-(हेमचन्द्राचार्यकी ) प्रभृति स्यले की याना करता हुआ सघ शनुजयकी तराटी शहर पालिताणा पहचा और सहप सबने सिद्धगिरिमी यात्रामरी, और अपनी आत्माओंफों सभीने धन्य माना. एक मास पर्यन्त शहर पालितागर्ने सरका मुकाम रहा, तदनतर वहासे साना होकर शत्रुजय निकटवर्ति पचतीथी और गोगा-नवखडा पा. वनाथजीकी यात्रा करके गिरनार पर्वतसी तराठी शहर जुनागढको सघ पहुचा रेवतगिरि पर्वतपरके मदिर जुहारे और अरिष्ट नेमी भगवान्की यात्रा करके सरनें अपने कृतकृत्य हुवे माना जुनागढसे अमदावादके मदिरोकी यात्रा करके सर वीरानेर लौट आया, इस यात्रामें करीब ६ मास लगे, ऐसा गौरवशाली सघ बीकानेरसे आजतक नहीं निकला, शहर पालीताणामें उक्त सघनें हमारे चरित्र नायक महाराजको गण एव-आचार्य पद-दिया, आपने अभय पद स्वीकार क Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२८ ) रने समय पाट गन्दाग व्यक्त कर दियाथा वि.-" गेरी इच्छा ___ यह कभी नहीकी में किसी प्रकारकी पदवीय विभूपिन कोकर फिर और नमरी उच्छा पदवी लनेकीची विन्तु जब आप लोग देते है नो आपका मान रखने के लिये में खीकार कर लेताई। बातभी यही हुई, आपने अपने जीवन में सादगीको कभी नही त्यागी और न कभी किमीको अपने मासे यह का या लिखाकी में अमूक पदवि विभूपित है! बस : कोई पुछना जो उत्तरमें दमेगाह यही कहां करनेकि में भी एक जैन भिक्षुक हं. सब मुनियोका दास हूं, आपक साथ जिन्होंने वातीलाप किये है वे इस बातको टीम सत्य समझ सकते हैं। वि० सं० १९१८ चातुर्मास आपका शहर बीतानेरमही हुआ. भाईयोंके वैर विरोध ( कदाग्रह) को देख आपके बीकानेर में रहना आत्माका श्रेयनही समझा, चातुर्मास समाप्त होने पर तुरंत वहांसे विहारकर शहर इंदोर पधारगये और संवत १९१९ का चातुर्मास शहर इंदोरम बड़े उत्साह के साथहुआ. इंदोर नरेश श्रीमान् होलकर सरकार श्रीयुत तकुजीराव बढेही गुणज्ञ और साधुसंतके प्रेमीथे इससे महारे चरित्र नायकसे कईबार मिले, इन्दोर सरकारने आपसे कईबार कहा, ग्रामादि जिसवस्तुपर आपकी इच्छाहो और जो आप मांगे मै देको तैयारहूं किन्तु हमारे चरित्र नायकतो यही कहतेरहे कि हमें सबकुछ आनंदहै, किसीवातकी हमें इच्छा नही हैं । मनुष्यों Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२९ ) निर्लोभताका गुण आना सहन नहीं है जिन्तु हम जोरशोरके साथ कह सकते हैं कि महाराज केवलचद्रजी सदाके लिये निर्लोभीथे, उन्होंने अपने जीवनकालम किसी तरहसें धनसचय करनेका प्रयत्न नहीं किया उननोमें एक एक अलौकिक गुण ऐसा रहा हुआथा कि-वे-धारतेतो लाखों नही, पर करोडोंही रूपये मालेते, परतु माना किसेया | उनकी ससारयात्रा जितनी पवित्र-विशुद्ध-और निर्दोप-समाप्त हुइ है वैसी ससारयाना उनके समान वयके आचार्य और यतियों भाग्येही स्यात् विसीसी हुइहो ! अस्तु चातुर्मासके बाद शहर इदोरसे साना होकर शहर बुरहानपुर पधारे वहापर वीरचदजी कोठारीने आपशे विनतीकी, कि, आप एक मास पर्यन्त अवश्य टहरें क्योंकि मेरे नवपद ओलीरा उद्यापनहै । यह उत्सव आप सरीग्ये महानुभावोही कथनानुसार यथाविरि होना में मेरा सौभाग्य समझता हु । आपर्नेभी धर्मकार्य जानकर एक महातक ठहरेरहे। उधापन समाप्तिके बाद, मल्मायु, खामगाम, बालापुर, पातुर, मीडशी होते हुये शिरपुर अन्तरीक्ष पार्थनाथजीकी यात्रा की, और वहासे लौटकर गहर बाइको पधार गये सरत १९२० का चातुर्मास आपका वनइमें पठे समारोहके साथ हुआ गणेगदास कृष्णजीके दुकानके मुनिम आवक केरलचद्रनी मुराणेनें बहोत बडा उत्साह किया, भक्तिपूर्वक रसे, वहासे आप पुना (दक्षण) पधारे वि. स. १९२१ चातुर्मास Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) आपके पुनाकाही हुआ. पुनेसे आप लौटकर खामगांव पधारे __ इन दिनोंमें ब्रह्मचारी रविदत्तजी जो कि आचार्य श्रीताराचंद्र रिजीसें मंत्रोपदेश लियाथा और ब्रह्मचारी हुवेथे वेभी अकस्मात् खामगांवमें आगये, दोनोंका मिलाप होनेसे संतुष्ट हुवे. ___ और कइ वर्ष साथ विचरे. इस स्थलका जल, वायु अच्छा मालूम होनेसे नव चातुर्मास खामगांवमेंही किये. यह स्थान निरुपद्रवी और एकान्त होनेके कारण इन नववर्षोंमें आपनें वधर्मान विद्या आदि अनेक विद्याओंकी साधना की। आपके सत्यशीलादि गुणोंसे वराड प्रान्तके स्वपरधर्मी सबकोई आपके दर्शनोंके अभिलाषी रहतेथे और प्रस्तुतभी अनेक विशेष व्यक्तियां आपके सद्गुणोंसे परिचित है. इन नव वर्षो में ब्रह्मचारी श्रीरवीदत्तजीभी आपके साथ रहे और दोनोंने मिलकर विद्याओंका साधन किया. सं १९३० में आपके शहर चीका नेरसे भ्राताओंके कई पत्र ऐसे आये कि, जिससे आपने मार_ वाडको जाना उचित समझा और रेल्वेद्वारा खण्डवा, जबलपुर, प्रयाग, दिल्ली और खुशकी रास्ता, भीयाणी, विसाउ, रामगढ, आदि शहरों में होतेहुवे शहर बीकानेर पधारे. विसाउके ठाकुर साहब श्रीमान् चंद्रसिंहजीने आपकी बहुत कुछ सेवा भक्ति की ठाकुर साहवको पुत्र नहीथा, इससे पुत्रके लिये क्या उपाय कियाजाय इस विषयमें आपसे पूछागया, आपने प्रसन्न होकर चरदिया कि-" इसी वर्ष आपको पुत्र होगा" वास्तवमें हु Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१) आभी वेसाही-ठाकुर साहबने पुत्रोत्पत्तिके वाद आपको कईवार आमत्रणश्येि, परतु आप फिर गयेही नही. धन्य है विरक्तता तूझे ? सवत १९३० में आचार्य गच्छीय उपाश्रयमें एक वि__राट सभा भरीथी, सभापति हेमचद्रमरिथे. इस सभामें आपने अपने मतव्योंया पूर्ण समर्थन किया. किसीभी विद्वानकी यह सामर्थ्य हुइ की आपके कोटीका कोटीका कोई खण्डन कर सका हो, सारे पडित चूप होगये, आपका इस सभामें पूर्ण विजय एव सन्मान हुआ और पडितोंने आपको विद्यावाचस्पति पद दिया. सवत १९३१ से १९५८ अठराह वर्ष प. र्यन्त आप मारवाड मातमही विचरते रहे माय. बहुतसे चातुमसि पीकानेरमेही हुए। ___ सवत १९४१ चोमासा आपका शहर डगरगढ (मान चीकानेर ) में हुआ, गरगढके हाकिम साहरने आपके गुणों से प्रसन्न होपर एफ उटकी अंगारका परवाना दे दिया, उमकी नकल म यहापर उद्धृत करते हैं। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) परवानेकी नकल. १ श्री रामजी. AAAAAAM डूंगरगढके कचेरीके सिक्के छाप. AA MAAAAAA शहरश्री डूंगरगढरा हाकमा देसरंगे वरोभोमीयां चोधरीयां जोग ५ तीछा गुरां केवलचंद्रजी अठेमुं श्रीवीकानेर जावे छे सो इयारे साथे ऊंट १ वेगाररो छे सो मारगमें गांवदरगांव ऊंट १ वेगाररो दियां जावजो, फोटा मती घालजो. संवन १९४१ मीनि भादवा मुदी ७।। आपका सविस्तर पत्रव्यवहार यहाँपर नही दर्शा सकते परंतु वडेर धनी श्रीमान् शेट साहुकार जागीरदार वगैरा उच्च कोटीके लोक आपको बहुत बहातेथे और आप अपनी सादगीमही मग्न रहनेथे, गौचरीके अन्नको अमृत समझतेथे प्रायः गौचरीके लिये आपही उठा करतेथे. जब बहुनही वृद्ध Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३३ ) होगयेथे तोभी शिष्य समदायको यही उपदेश करते रहतेये फि,-मुझ गौचरीकाही अन्न ला दो। सरत १९३६ में आपके वृहतशिष्यकी माताने अपना वालक आपके समर्पण कर दिया और ४ वर्ष तक लालन पालन करके विक्रम सवत १९४० आपके सुपुर्द कर दिया इन अठराह वर्पोम गच्छकी ऐसी हानि हुई, ऐसा ग्रिह और लेग हुआ कि लिखते हमारी लेसिनी काप उठती हे और वह उक्त घटना अमासगीक होनेसे एव सार रहित होनेसे हम यहापर लिखना युक्तही नही समझाते __ पाचोराके निकट एक बनोटी नामक एक छोटा खेडा है उसमें जैन श्रारक धूलचद्र वगारीया रहताया उसके क्षयका रोगया और घरमें पिशाच वाधापी, वह कई यत्न करनेपरभी रोग शात नहींहुए दैवयोगसे ब्रह्मचारी श्रीयुत रविदत्तजी वहापर चलेगये उनसे धृलचद्रजीने विनती की कि, महाराज ? यह मेरा रोग कैसे जाय? तर ब्रह्मचारोनीने उत्तरदिया कि जिनआचार्यका मे शिष्यहु उन्ही आचार्य महाराजफे मुख्य शिप फेवलचद्रजी गणि बीकानेरमें विराजमान हैं यदि वे तेरे भाग्यसे यहाँपर आजाय तो तेरे यह दु ख दूरहोना कोइ फठीन बात नही. यहनात सुनकर बनोटीसे धूलचद्रजी वगारीयाने कई पत्र लिखे और अन्नमें एकसो १०० रूपयोंका मीओर्डर Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेजकर विनति की " मेरा धर अवश्य पावन करें" आपनेभी दक्षण जाना श्रेय समझकर शिष्योंके साथ रेलवे द्वारा रवाना होकर पांचोरा पधारगये और ब्रह्मचारी रविदत्तजीसे मिले. रविदत्तजीने गच्छ सबंधी वार्ता पूछी, उत्तरमें आपने फरमाया कि सूरीजी महाराजके वचनानुसार दोनोमाता लडते २ परलोक पास सिधारगये और थोडे दिनों में उनका वंशही भृष्ट होजायगा ऐसा अनुमान है. बातही वहीहुई वि० सं० १९५२ तक दोनोमाता (मुलतानचंद्रजी-कपूरचंद्रजी ) ओंके अनेक शिष्योंमेंसे एकभी नाम मात्रके लिये नहीं रहा-कई दीक्षा त्यागकर चलेगये और कई मरगये. जो लोक गुरुकी आज्ञा न माने उनका यही हाल होताहै. कहा है " गुरुराज्ञागरियसि" बनोटी निवासी श्रावक धूलचंद्रका रोग एवं पिशाच वाधा आपकी कृपासे दूर होगई और वह दृढ भावक होगया. पांचोरेमें कई दिनोंतक ठहरकर वहांसे स शिष्यपरिवार और ब्रह्मचारीजीके साथ आप खामगांव पधारे, खामगांमको बहुत रौजसे आना होने के कारण नगरवासियोंने इसवर्षके चातुर्मासमें याने सं. १९४९ में बडाभारी जलसा किया और रा १९५० के आषाढ शुक्लादशमीको आपके हाथसे वृहत् शिष्यकी दीक्षा हुई. दीक्षाकानाम आपने "वालचंद्र" मुनि रक्खा, सं. १९५२ का चातुर्मास आपका आकोले हुआ, इसी चातुर्मासके बाद शिष्य परिवार सहित आप शत्रुजय-गिरनार प्रभृति गुजरात Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १३५ ) देशके जैन तीर्थोकी यात्रा करनेको पधारे, यानाकरके पीछे खामगामको लौट आये ततः पश्चात् (स० १९५३ से १९६७ तक ) आजतकके १८ चातुर्मास आपके खामगाममेंही हुए थे ययपि भाप शेप कालमें विचरतेभी ये फिन्तु चातुर्मामके दिनोंमे लौटकर सामगामको आजातेथे स १९५६ में पाचोरेके सपके साथ केसरीयानीकी और मक्षी पार्श्वनाथजीकी याना स स १९५९ पीसनेर और फलोधी पार्श्वनाथजीसी यात्रा की स १९६० में सम्मेतगिसर प्रभृति पर्व देशके तीर्थोसी यानाको पधारे, जबलपुरंग आपरे उपदेशसे एक जैन पाठशालारथापित हुई स १९६३ में आपने अपने रघुशिष्यको शहर धलियमें दीक्षादी दीक्षामहोत्सवका कुल खर्ची श्रीमान् श्रापक कनीरामजी गुलामचद्रजी खीवमराने दिया इनदिनोंमें विद्यासागर, न्यायरत्न, श्रीमान् शान्तिविशयनी महाराज भी हर धुलियेमें थे. दीक्षाकी सपर्ण विपि मुनिराज शान्तिविजयजी महाराज के हस्तसे हुई, आपका और मुनिमहा राजका परस्पर वडाही प्रेमथा दीक्षाउत्सरका जलसा प्रशसनीय हुमा कुल श्रापक श्राविका इस उत्सव में सामिलये कई यति देशदेशान्तरोमे आयेथे इस दीलाके थोडेही दिनोंके पश्चात वेदनीय फोदयसे चरिननायक रियेके उपाथरी सिढीयोंसे उतरतेहुरे, पगचुकजानेसें गिरपडे, और पाये पायको चोट जोरसे लगनेसे हड्डीने स्थान छोडटीया पग मूज गया Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) और बहोत वेदना होने लगी. तथापि आप नहीं घबडाये और सभीको धैर्य देतेरहे. कई डाक्टरो-वैद्योका इलाज करने पर वेदना वेशक आराम होगई किन्तु हड्डी फिर पीछे स्थानपर न आनेके कारण चलना फिरना बंध होगया था, वह वसाही रक्षा " वृद्ध क्यके कारण रक्त कमजोर होजानेसें पग शक्ति नहीं पकडता इससे यह हड्डी ऐसीधी रहेगी और चलना ईफरना होना दुसवार है " बडे २ विद्वान डाक्टरोका यह अभिप्राय होनेसे उपाय करना बंधकरदिया. तीनमासके पश्चात् भूलियेसे खायगामको लेकर आये. चलना फिरना बंध होजानेके कारण शेष कालमें विचरना बंध करादिया गया. सं. १९६५ में आकोलेके संघकी विनंतिसे अपने बड़े शिष्यके पास रेल्वेद्वारा थोडेदिनोके लिये आकोले पधारे, आपके प्रभावसे आकोलेके जैनावकोंने एक जैनपाठशाला स्थापन की है वह आजतक बरावर चलरही है, वहांसे थोडे दिनके पश्चात् लौटकर पीछे खामगामकोही पधारगये. तदनंतर आपका यह दृढ निश्चय होचुकाथा कि, अब हमारा आयु थोडा शेष रहा है अब हम कहींभी नही फिरेंगे और आत्मध्यानमें विशेष लीन रहेंगे, आपके स्वभावके बारेमें हमको एक काव्यका स्मरण हुआ, वह यहहैन ब्रूते परदूषणं परगुणं वक्त्यल्पमप्यन्वहम् । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३७ ) सनोप वहते परर्दिपु परानाधासु धत्ते शुचम् ।। स्व लाघान करोति नोअतिनय नौचित्यमुल्लघययुक्तोप्य प्रियमक्षमा न रचयत्येतचरित्र सताम् ।। __ (मिन्दुग्मकरण) ___ भाचार्य -सज्जन-अर्थात् सत्पुस्प पगयेके दोष नही रहाकरने, और अयोके अल्प-तुच्छ गुणोकोभी निम्तर कहनेही रहते है । पुन परसम्पतिम आभिलाप-लमत्सरताको म्वीकारते हैं, परसाधा-परपीडा परको दुय देनेम शोक-सता पो धारण करते है । पुन' आत्मसाधा-आत्ममामा नही करते पुन नीति (न्याय) मार्ग त्याग नहीं करते, पुन औचित्यता-योग्यताका उल्यन नहीं करते, पुनः अपिय अदित करने परभी नक्षमा (कोष) की रचना नही करते अर्यान् श्रोध नहीं करते , इस प्रकार सम्जनांका चरित्र है, सपुरपोप यह उपरोक्त गुण हुआ करते है । मोम प्रभागर्यनीने उक्त काव्यमें मपुरपाफे जो भग फरे है वे हमारे परिधनायक अक्षरा मत्स मिरने ये आपका देहो सर्ग कोई ८३ वर्षकी श्यमें हुमा. आप नका तेन मरण पपन मायामा नेत्रोका नहो येमाही था. मापसे गाय लिखनेका पहुनही अधिक प्रेमया एक दिनमें Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३८ ) करिव तीनसो श्लोक वृद्ध वयमेंभी लिख सक्तेथे. अक्षर आपके मोतीयोंके दाणोंके समान मुंदरथे. लिखनेका इतना प्रेम होनेपरभी एक अक्षर तक विक्रय नहीं किया. आपके कर कमलों द्वारा लिखीहुई कई पुस्तकें इस समय हमारे पास मौजूद है । मंथावलोकनकाभी आपको कम प्रेम नहीथा. एकनएक ग्रंथका अवलोकन करतेही रहनेथे. आपकी संस्कृतके सभी विषयोंमें अच्छी गतिथी. क्लिष्टसे बिलट काव्य क्यों न हो-आप वरावर उसका अर्थ कर बतलातेथे. योग विषयमें आप ऐसे प्रवलथे कि-यम-नियमादि अष्टांग योग क्रिया उनकी स्पर्धा करनेवाला हमारे देखनेमें आजतक कोई नहीं आया. आप हमेशा योगमेंही तल्लीन रहतेधे. नमाद तो आपके निकट तक नहीं आताथा. आपका देहपात वि० सं० १९६७ के मार्गशिर्ष वदी ८ प्रमी गुरुवार को दिनके तीन बजेहुआ. आपने अपने वृहल्शिष्य बालचंद्रको कईमास प्रथमही यह कह दियाथा कि, अब हमारा यह शरीर थोडेही दिनोंका है. उक्त शिप्यने आपकी चिरायुकी आशा करके कहा कि, महाराज ! आपके शरीरमें किसी प्रकारकी आधि व्याधि नहीं हैं, अतएव आपके शरीरका पांच वर्ष कुछबी नहीं बिगडेगा. शिष्यको धैर्य रखवाने के कारण आपने कहा, तो अच्छा है ! परंतु वेटा कभी तो जानाही है, इसका क्या हर्ष और क्या शोक ! वात वही हुई, थोडेही महीनोंके पश्चात् इस लोकको Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३९ ) त्यागकर आप परलोक पधारगये मृत्युके चार दिन प्रथम केल हिका (हिचकी) की व्याधी रही, शिप्यपरिवार औपयोपचार करनेल्गे, आपने कहदिया क्यों उपाय करतहो, अब हम नही चैगे। तथापि शिप्योने कहा, नही महाराजा यह तुच्छ व्याधी अभि मिटजायगी और आप अच्छे होजावोगे, दवा लेनी चाहिये, आप शिष्योंके आग्रहसे दवा ले लेते थे दुष्ट हिका क्रमशः बढती हुईही चलीगई, कोई दरा काराजामह न हुई जब सभी वैध डास्टर हताश हो चुरे और सभीने यह कह दिया कि, इस हिकाकै वाग्में हमारी समझमें कुछभी नहीं आसक्ता आर यह अच्छी होना पठीन है, तर सभीको यह नि-बय होगया अब गुरुमहाराजका शरीर रहना नितान्त असभव है। आपने शिप्यासे कहाकि, "मै तुमको प्रथमसे ही कहचुकार अब मेरा आयुष्य अधिक नहीं है, तुम नाहक मोहजालमं पदेहो, महावीर सरीव तीर्थंकर महागनाओंकोभी इस नश्वर देहका त्यागकरना पड़ा है, तुम धर्म यान करते रहो,-परमेष्टी मत्रका जाप हमेशाह करते रहना म परमेष्टीहीका व्यान करनाह मुगे यकीन है कि मेरा पण्डित मरण होगा और अगले भवमें मेरी सद्गति एवमर्गगति होगी मेरेको तुमने अपने उदयमें समझना मैने जो जो माग्न अक्षर पहाये ह ये सभी मनवत है ससारके जारसे सदा दररहना आत्मा अफेला आया है अकेलाही नायगा, कोई किसीका Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) साथी नहीं है, संसार मोहजालसे बंधाहुआ है, तुम लोक जैन धर्मकी दृढ श्रद्धा रखना, मैं तुमसे दूर नहीं हूं, जब मुझे याद करोगे और वह कार्य उचित समझुंगा तो अवश्य मै आकर तुमारा कार्य कर दूंगा. उस समय वृहत शिष्यने कहा आपका यह अन्तिम उपदेश हमारे लिये रत्नोसेभी अधिक मूल्यवान् है, हम यह कभी नही भूलैगे, आपके मुखसे आपकी सद्गतिका वृत्तान्त सुनकर हमको वहोत आनंदहुआ. आप ज्योतिपी देवता होगे यह योग्यही है, आपनें फरमाया, इसका प्रमाण तुमको शीघ्र मिलजायगा, फिर आपने यह कहा कि, तुमको जो जो बात पूछना हो तो पूछ लो. अब समय थोडा शेष रहा है, अब में मौन स्वीकार करके आत्मध्यान एवं परमेष्टी ध्यानमेंही स्थिर रहना श्रेय समझता हूं, फिर आप किसीसे नही बोले. आराधना विधि एवं क्षामणा विधि तो आप प्रथम करही चुके थे. शिप्यपरिवारभी परमेष्टी महामंत्रकी ध्वनी करते समीप वैठेरहे । करीव ३ वजे दिनके श्वासोश्वास लेना बंध होगया-सभीकी यह समझ हुई की देह त्याग दीया; परंतु संध्याके ६ वजेतक आपका शरीर ऐसाही उष्ण एवं तेजश्वी था. तीन वजेहीसें काष्टकी वैकुंठी-देवविमान बनवानेको कारीगर विठवादियेथे, सामको ५॥ साढे पांचवजे-विमान तयार होगयाथा. रेसमी वस्त्रोंसे विमानको सुशोभित कियागया था. चांदीकी ध्वजा पताकाओंकी शोभा अद्वितीयथी, उक्त विमा Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१) नमें विराजमान करके-गणीजी महाराजको विराजमान करके बढे समारोहके साथ, स्मशान यात्राका जुलुश निकाला गयाथा खामगामके मायः सभी श्रावक साथमेंथे-ससारकी अशारता के सूचक गानेगाते हुवे एव जय २ शब्दोंकी ध्वनीके साथ गुरु महाराजको स्मशानमें पहुचाये जिस स्मशानमें पहुंचे उस समय सध्यारे ५॥ साडेपाच वजनेका समय था गुरुमहाराजका शरीर उष्ण रहनेसे सभीके मनमें यह शका रहीथी कि आप योगनिष्ट है सायद समाधिस्थ होंगे तो। या जीवात्माके कुछ प्रदेश शेष रहे होंगे तो ! इस विचारमे सभी सन्देह युक्त होकर देख रहेथे, इतनेमेही आकाशमें एक आश्चर्य जनक दृश्य देखनेम आया, गुरुमहाराजको जहापर विराजमान कियेथे उस स्थानके ठीक उर्द्ध दिशासें एक प्रकाशमय गोला नीचे उतरा, और ठीक उत्तर दिशामें जाकर थोडीदेर तक टहरगया इधर देखते है तो गुरुमहाराजका शरीर ठहा गार होगया! बस तुरतही आपकोंने आपकी चितायो अग्नि दर्शन करवादिया उक्त उक्त शुभ्र गोलाकार जो पदार्थ उत्तर दिशामें ठहरा हुआया वह पोडै समयके पश्चात् दण्डाकार (शुभवर्ण) होकर दो घटेतक परापर रहा. उस समय ऐसा विदित हो रहाया मानो यह गुरुजीके स्वर्गगमनकी यह सीही तयार हुइ है । स्मशानयानामें जो लोक सायमें थे उनको और खामगाम निवासी अन्यान्य सभी लोकोको यह विश्वास Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४२ ) हो गया कि यह दृश्य गुरुमहाराजका देहान्तके कारण हुआहै यह दृश्य खामगाममेंही नहीं किन्तु सैकडो कोशोमें देखनेमें आयाथा. गुरुमहाराजकी मृत्युके और उक्त चमत्कारिक घटनाके संबंध नागपुरके मारवाडी सप्ताहिक पत्रमें और बंबई जैनपत्रमें-सविस्तर वृतान्त प्रकाशित होचुकाहै, प्रसिद्ध २ विद्वानोंने और कई पत्रकारोंने गणीजीके मृत्युके संबंध शोक प्रकट कियाथा. गणीजीके शिष्योंपर कई महाशयोके सैकडो पत्र-शोक दर्शाने वाले आयेथे. उन पत्रोके उत्तर उन महाशर्योको उसी समय मिलचुके हैं। आप सरीखे उच्च कोटीके महात्मा यतिसम्पदायमें होना कठीन है । जिन २ महाशयोंने आपके दर्शन किये है वे इसमें लिखी हुई बातोंको अक्षरशः सत्य समझ सकते हैं। आपने अपने वृहत् शिष्यको तीसरे दिनकी रात्रीको स्वप्न में दर्शन दिये और कहा, जिस गतिके वारेमे तुझसे कहाथा वही गति मेरी हुई है, और तुमको मै वर देताहूं-तुम सुख शान्तिसे धर्मध्यान करते रहो और मुझे तुम दुःखमें निकट समझो । आपके स्वर्गगमनके बाद कई लोगोकी मानता सफल होजानेसें विधर्मी भी आपको अपने गुरु मानते हैं और भेट पूजा भेजते हैं. आपके दहन-स्थानपर स्थूभ (देहरी) बनाया गया है । एक कविने आपकी योग्य स्तुनि की है यह इस मकार है। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४३ ) दीपक ज्या उपोत कारी जैन धर्म वीच दीपे शास्त्र अनेक जान ओ ध्यान विधि नीकी है। ताराचंद मूरि गादीते तपस्या तेज दीपे शत्रुन सिंह सम सज्जन उपकारी ॥ काव्य कोश न्याय व्याकरणादिकके समुद्र अच्छे है नि कलर धर्म वुद्धि पारी है। केरल मुनिद्रचद्र भक्ति ल्य लीनकारी कविवर ! दु खहारी महिमा अपारी है ॥१॥ निर्मल परिणाम सच्चे निर्वाहक नेकीके सरकी भलाइ स्याद्वाद चित चायो है । जानकार जिनमतके ओ मरूपक सचे दिल के दलेल रस गात मन लाये है। पूज्य ताराचन्द्र मूरिपदके उद्योत कारी शीतल सभार वचनसिद्धि कहाहे है । उष्टके अखण्ड श्री केवलचन्दनी मुनीद्र पडे २ कामाम सवाई फते पाये है ।।।। धन्य । शिप्प पारचद्र पियामें पडे प्रविण धर्मधुरघर गुणिजन मन चाये है। अमृत नगान पडिताई चतुराई चित्त ओवजन समूहको वोध अति लगाये है । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) केवल गणिके शिष्य दोनों धर्मके स्वरूप दृगनते देखते दिल प्रफुल्लाये है। वल्लभ प्रभाकर तनु सुन्दर अनंग ज्यों माणककी मुलीला चिमनको मुहाई है ॥ ३॥ (कवि चिमनलाल.) Amand इस कवि भी आपके गुण कथनमें स्वल्पभी अत्युक्ति नहीं की। आपकी जीवनीसे संबंध रखने वाले कई कागद-पत्र मारवाडमें रइजातेके कारण (जल्दीवश) से यहां वे प्रकाशित नहीं करसका, अतएव किसी समय अवसर मिला तो अवश्य विस्तार पूर्वक जीवन चरित्र लिखनेका साहस करूंगा, हालमें इतना लिखकर विश्रान्ति लेना उचित समझता हूं। खामगाव ( बराड) . ता. २३-११-१९११ ई. जैनधर्माऽभ्युदय चिन्तक, वालचन्द्र मुनि । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् यति बालचन्द्रजी Page #162 --------------------------------------------------------------------------  Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) मंगलाचरण नम श्री वीतरागाय पीत दोपाय चाईते । शोर मताप सतप्त जन समीणनंदवे ।। तोटक वृत जय आदिजिनेश्वर शोकहरा, जय मांति जिने पर शातिवरा जय नेमिनिनेंद्र कृपानिधि, जय पार्थ जिनेंद्र विग्यात अति जय पीर प्रशु निठारतनी, जस नामथकी जय याय ही गुरु गौतम मगल्यारि स्मरो, सह शोक निवारि अशोक परो. यली जनु मुनिश्पर शील शुचि, गुण गान करोतस घागि रचि फरि मगर ए विविधी निरतु, मृतगेदन रोपन योध रयु. विवेक सा सौख्यानां मूर शास्त्रे निस्पित । ततो पिरेक मागण वर्तनीय विपक्षणे ॥ अर्थ -सर्व गायोंमें आचार विचार (पिक) यही सपस्त मुगमा मूल पहलाताई वास्ने विचक्षण पुरपोने विवेक मार्गसेही परना चाहिये (जिगसे सर मुग्य मिले.) अधिक समुत्पना या या सन्नीद म्यः । पारपर परंपा ता परिहार्या पिपरिभि Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) अविवेक ( अज्ञान ) पनेसे जो जो खराव चाल अपनेमें वर्तते हैं और उन चालोंसे परधर्मी (अंग्रेज वगैरः ) अपनी हंसी करते हैं ऐसी खराब चालोंको विवेकी पुरूपोंकों दूरसे ही स्याग करनी चाहिये। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) मृत्युके बाद नुकता करनेका हानिकारक रिवाज, पापाधिस्यपरा रुदि त्यक्त्वा पुण्यविवृद्धिदा । कुरंतु सज्जना मर्व येन मौस्यमवाप्नुयात् ॥११॥ - अर्थ-निसमें पाप विशेष हो ऐसी दुष्ट रुटियो निकाल पर, निमसे गुग्प (मोक्ष) प्राप्त हो ऐसी पुण्यको पढानेवाली महिरा सर्व सज्जनगनो प्रचार करो आधुनिक समयमें फिननेक प्रचलित हानिशरस रिवान दमि निगसे अपनी जन कामकी मानीन माहोजलानी शिल. गुर नष्ट होगई है, सामानिक स्थिति शोचनीय होती नानी और मानतिके मीन उगने गे१-उन सिनाम मात्र पाद नुक्ताभी पर है पद रिन मैन कोपमें परमें मारे, इमा दि. पार परोस वारद पो भागोरस आधार न निपलता, पेसी पारस मोग गर्म करने कि इसका प्रमाण भीभी प्रय मिल्नानी, परन्तु यह मान पिग्द मा मन्या Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) पुरावा देने में आता है, कि जिसका अस्वीकार किसीसे होता नहीं। सिद्धांतकार श्रीसय्यभवरि श्रीदशवकालिक मूत्रमें साधुने कैसी भाषा बोलना उसका ज्ञान कराने के वारते उस सबके सातमें अध्ययनकी ३६ मी गाथामें इस मुजब कहा है। तहेव संखडि नच्चा, किचं कजति नोवए । श्री हरिभद्रसूरिकृत वृत्तिःतथैव संखडि ज्ञात्वा संखड्यन्ते प्राणिनामापूंषि यो प्रकरण क्रियायां सा संखडी । तां ज्ञात्वा करणीयेति पिनादि निमित्तं कृत्यै वैपोति नो वदेत् । मिथ्यात्वोपबृंहण दोपात् ।। मुनिको कैसी भाषा बोलना उसका यहाँपर प्रस्तुत प्रसंग है, उस प्रसंगमें मूल सूत्रकारने पहिले दूसरी बात कही और बादमें वे कहते हैं कि, संखडिन समझ कर वह करने योग्य है ऐसा मुनि नहीं बोले " इसका टीकाकार स्पष्टार्थ इस मुजब करने है कि वैसेहि संखडिन समझकर (माणीयों कि मनुष्यकी जो क्रिया करने में खंडित होते हैं उसका नाम संखडि अर्थात् जुत्ता) पित्रादिके निमित्तपर करनेके योग्य है ऐसा मुनि नहीं बोलते कारण कि ऐसा कहने में मिथ्यात्वरूपी वृद्धि होनेका दोपलगता है। . सिद्धांतकार मुनियोंको, नुकता या मृतभोजन करने योग्य Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४९) है उसमें प्रसग बताते है कि पित्रादिके निमित्त अर्थात् माता, पिता, पितामहादि, द्ध मृत्यु पावें तो पीछेसे नुकता करनेके सम्बन्धमें मुनिको पूछकर या पिना पूछे गरना योग्य है, ऐसा नहीं रहते क्यों नहीं कहते ? उसके खुलासेमें मुनिराजको विविध प्राणातिपातादिका त्याग है वो हेतु बताते तो कभीसे श्रावकमाई उसमेंसे निकलनेका रास्ता तलाश करलेते, मुनिरानको तो निविध २ हिंसादिके परखान होनेसे वो घरने योग्य ह ऐसा नहीं चाहते, परतु अपने भावकको त्रिविधका त्याग नहीं, उससे अपनको फरनेमें या कहनेमे कुछ अन्जान नहीं परन्तु धुरन्धर युगमधान १४४४ ग्रन्धोंके धनानेवाले जैन शासनके स्तभभूत श्रीमान् हरिभद्रमरि महाराज कहते हैं किमिथ्यात्वकी वृद्धि हो उस बारद मुनि ऐसा नहीं कहते अब मिथ्यात्वका त्याग तो मुनि और श्रापक दोनोंको है-इसमें श्रावक साधुसे अलग हो जाये ऐसा नहीं, जितनी आवश्यकता मुनिराजको मिव्यात्वसे वचने की है उतनी आवककोभी है इसमें न्यूनाधिक नहीं-इससे मुनिराज जर मिथ्यात्वका हेतु समझकर उसको कर्नच्य कह नही सक्ते तर श्रावकभी उसको कर्तव्य नहीं बहसक्ते, मानसके वैसेही आचरण होते है । इस परसे इतना तो सिद्ध होता है कि यह रिवाज परमपरा या बहुस यपासें जारी हुआ मालम नहीं देता-परन्तु मध्यमें जन अन्न धी वगैर• रसादि पदार्थ पिसी समय सस्ते हुएहोंगे Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५०) उस समय विलकुल रंज न हो ऐसी वृद्ध मृत्युके समय उसके बहुतसे सगेसोई इकठे होनेसे अन्य दीके देखादेखीके वास्ते जिस किसीकी इच्छा हुई होगी ऐसे लोगोंने नुसता (जीमन) किया होगा, उसके बाद दिनोदिन वृद्धि पाकर यह रियाण ऐसी कंडी जडसे जम गया कि जिमको निकालन्यं अब बड़ी भारी मिहनत उठानी पड़ती है, और उस जडको देखकर मुग्ध होनेवाले लोग जब वह जरा सिसी कि फिर उसको म. जबूत करनेको तय्यार होने हैं-इसी कारण यह रिवाज अभी मचलित होगया है। यह नुक्ता (जीमनवार ) करनेकी रीति सब दूर एकशाह प्रचलित ऐसा नही परन्त कितनेक स्थलएर फलाने दिनको करनेका और कितनेक स्थलपर वर्ष २ में या जब दिलमें आवे तय इच्छा मुजब करनका रिवाज है । यह रिवाज निर्दयता, निःशूकता, निर्लज्जता, निर्धनता और निघता, अर्पन करता है वोह नीचेकी हकीकत परसें ज्ञात होगा निर्दयता-किननेक मृत्यु के जीमनवारको शकुन समझते हैं बहुत दिनोंसे बीमारीके आराम हुएलेके वास्ते ऐसे जीमनवारका दिन देखते हैं, मृत्युके वक्त वृद्ध मृत्युमें लोग विरुद्धका विचार न करते दिलासेके बदलेमे तीन दिनका स्मशानमेंही Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५१ ) नधी करदेते हैं, और फितनेक भोजनभह तो ऐसी मृत्युका रस्ताही देखते है, जहां ऐसी मृत्यु हुई कि बहुत खुशी होते हैं स्तुशी होते हैं इतनादी नहीं पर ऐसा मौका किसी महिनेमें न मिले तो यह महिना तो खाली गया ! इस महिनेमें तो कुछ मालताल उडानेको न मिला ऐसा विचारते हैं कहो इससे ज्यादा और कोनसी निर्दगता होती है। नियूक्ता-देवपूजादि धर्म कृत्योंको त्यागकर-सूतकसें सूसकी बनकर भोजन करनेमें दुगच्छा करते नहीं ___ निरज्जता-जा कुटुम्बमें कोई मृत्यु होती है ता सगेसोइयोको चिट्ठी लिखकर नुफतेके दिन युलाते हैं और शोकको देशपटा देकर आनन्दसे नुक्ता करते है-थोडे दिनोंके पहिले स्वर्गम्थके स्नेही रदन शोक करतेथे वेही आज लो लडडू, लो जलेबी, पहते है और क्षणिक सुग्व तथा मोटाउके वास्ते हजारों रपियेकी लधानी करडालने है कोई गाल अथवा युवा मृत्युभी ऐसा खर्च करनेमें आता है और उस समय युवा व वृद्ध पुरप और चिया खाने को आती हैं-एक तर्फ मृत्युवालेफे यही चाहिरके लोग आनेसे उसके घरवालोंका रजकेमारे हृदय फट रहाई, दूसरी तर्फ मिशन उडा रहे है यह फितना जमरामाट आने लायक दीखता है-धिकारहै ऐसे मृत्युपाये हुए के पिछे मिष्टान्न उहोवाले निर्जनोंको । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२ ) निर्धनता-गांवके अग्रेसर सेठ लोगोंकी खेदकारीके वास्ते जवलग इस रिवाजको देशयटा देनेमें न आदेगा वहांतक इन्यस्थितिबाले या विना द्रव्य संपत्तिवाले, होशवाले या लगन गिननेवाले, सुखसं आजीविका चलानेवाले हो या आजीक्षिका वाले दुःखदायकों के वास्ते यह रिवाज एक फर्न रूप शेता है उससे असंपत्तिवान संपत्तिवानकी देखा देखीसे इजत रखनेके वास्ते अज्ञानके गाढ अन्धकारमें पडकर नुकता करने में पीछे नहीं पड़ते, पैसे न हो तो घरवार या खेतीवाड़ी __ को कुछ मिलकत हो वो गिरवी रखते हैं या वेचडालते हैं अगर ऐसा नहीं तो कुटुब्बियोंसे पैसे उधार लेकर या बहुत व्याजपर कर्ज लेकर अपने यहां आये हुवे औसरको पार पाइदेते हैं, ऐसी बड़ाई पीछेसे विलबुल साधन रहित होजा ची है. थोड़ी मुद्दतके बाद मांगने वाले जव पैसे लेनेको आते हैं, __ और विलम्ब होनेसें खराव शब्द कहते हैं तब उसको घरआदि वस्तुए वेचनी पड़ती हैं. वह न हो तो धर आदि मांगने वालेको देना पड़ताहै. वहभी न हो तो वस्तपर कारागृहकी मुसाफिरी __ करनेको जाना पड़ताहै, इस तरह उसका बिलकुल नाश हो जाताहै और वाल बच्चे झूखे मरने लगते हैं, तथा जनसमाजमें औगुनका पात्र होता है. _ निंद्यता-कानफरन्सोंमें, मंडलोंमें, सभाओंमें घडे बड़े विधमान लोग भाषण द्वारा और गुनिराज व्याख्यान द्वारा Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५३) इस घोर सत्यका तिरस्कार करते है___पृतभोजा- [ तुक्ते ] गावद इतनी सामान्य हकीकत कहनमें आइहे अब उसपर अधिक विवेचन किया जाता है___ मृत्युफे वाद-जीगनबार [नातीभोजन करना या उसमें गानेको जाना यह मुश जनाका योग्य है ! ____ यह माल सिर्फ जैन कामके लियेही है, ऐसा नही परन्तु सर्व जनसमूहको लाग होता है। इस समारका निर्णय करनेमें प्रथम तो लाभालाभका विचार करना चाहिये, ऐसा करनेसे लाभका फोई एकभी अश शात नहीं होता, परन्तु नुकसान अत्यन्त मा ठम होताहै ! इसके बारेम जितना वर्णन किया जाये उतनाही योदा है ! मनुष्य और पशुमें फर्क इतनाही है कि मनुष्यम शानहै पशुमें ज्ञान नहीं, इससे मनुष्य विचार पूर्वक धर्म अर्थ और काम यह निवर्गको साध सक्ताहै और पशुमें मानका अभाव होनेसे उसका इस साधनपर विचारही नही होता. भर यह निसर्ग धर्म, अर्थ और याम मितने बजे उपयोगी और उसके मायनेगे यह रिवाज [ मृतभोगन] कितना विघ्नभा होता है उसका यत् किंचित् विचार करना अमामगिक असार्थक न होगा। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) धर्मकी मुख्यता और त्रिवर्ग साधनकी कितनी अगत्यताहै उस बावद सोममभाचार्य सिन्दूरसकरनये ननाते हैं कि । त्रिवर्ग संसाधनमन्तरेण, पशोखिायुर्विकलं नरस्य । तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति, नतविनायद् भवतीर्थकाम।। ___(धर्म, अर्थ और कामरूप ) तीन वर्गके साधन बिना मनुष्यका आयुष्य पशुके आयुष्य सा निष्फल है. इन तीनों के घावद धर्मको श्रेष्ठ कहते हैं कारण कि उस (धर्म) विना अर्थ और काम नहीं हो सका। धर्म:-इस शब्दका अर्थ बहुत विस्तारवाला है तोभी " यतो अभ्युदयनिः श्रेयस सिद्धिः स धर्मः" इतनाही नही, अभ्युदय और मोक्षकी प्राप्ती हो वह धर्मविन्दु ग्रंथकी टीका कहाहै, धर्मका मूल दयाहै. शोककारक बनावके समूहमें मृत्यु समान दूसरा कोई वनाव शोकप्रद नहीं, एक तो मनुप्यका मनुष्य जाता और फिर जहाँ शोकाग्निमें डुवे उसके स्नेहीयों की छाती फाटती है, रुदन करते हैं, उनका हृदय भेदक विलाप सुनके पत्थर सरीखा हृदय पिघले विन। नही रहता उस समय औसारीमें बैठकर मिष्टान्न वगैरः उडाना यह कितनी वडी दयाकी लगनी कहलाती है ! मृत्युके बाद जीमनेको जाना यह मार्गानुसरीके साधारण गुणोंको मलीन करता है, कारण कि खानेके लोभी शोकजनक और शरमसे भरे हुए मृत्युके बादका जीमनवार Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५) खानेको जाते हैं उनमें दयाल लज्जालु इन्द्रियोको वश करने पाले आदि मार्गानुसारीके गुण कहा रहे ? वैसेही हाल के प्रचलित निदनीय रिवान देवकर मृत्युके वाद (जीमनवार-नुकता) मार्गानुसारीफे रिन्दनीय काममे न मरतने के गुण कहां रहे ? सर्व मियजनो। साधक धनका निम्म्मा व्यय होता हे इसम मार्गावसारीयोंकी दीर्घ दृष्टि कहा रहो ? इसका प्रमाण योगशास्त्रमें बताये हुए मार्गानुसारी गुणोंमसे कितनेक नाश होते है, तो फिर गोर रपी वृक्षका मूल जो सम्यकत्व उसका उसमें सभरही कहासे हो। और जर सम्यक्त्व न हो तर मोक्षके साधनभूत शाल, दर्शन, चारित्र रूप रत्नोका अभार स्वय सिद्धहै तो फिर धर्म कहा रहा ' पास्ते धर्मफे विनभूत ऐसे रिवाजाका नाश करनेको, सूरि जनाने तन मन और धनसे तत्पर रहना इसीहीमें श्रेयहै-ज्ञातिका उदय है और आगे क्रम • से धर्मकी साधनाको पायगा । ___ अर्थ आर कामका विनाश इन हानिकारक रिवाजासे होताहै यह जाहिर है-कारण कि अर्थ यानि द्रव्य जो कि खर्चनेसे विनाश पाताई और पैदा करने के साधन नाश पातेहैं वैसेही कामका इस कार्यसे विनाश होताहै कारण कि काम जो सासारिक सुख भोग उसका कारण अर्थ है अर्थसेही उसकी सिद्धि हो मक्ती है अर्थक विनाशसे कामका पिनाश होताहै । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६ ) इस मुजब तीनो वर्गोका विनाश होनेसे प्राणी महा मिहनतसे मिला हुआ मनुष्यभव हार जाते हैं, वास्ते जिसमें किसी तरह के लाभका कारण नहीं ऐसे रिवाजोंको देखनेसे अपन कैसी अधम स्थिति आ पड़है, अपने खुदको तथा अपने वान्धवोंको कितने दुःख उठाने पड़ते हैं, अपन आंखोसे देखते हैं तोभी मिथ्याभिमान रूपी गाढ अंधकारमय भइ हुई अपनी आंख खुलती नहीं सो कितना शोककारक प्रकारहै ? और हमेशाः व्योपारमें नफे टोटेका विचार करने वाले व्योपारी पूत्रों ! इस व्योपारमें अपनेको कितना नुकसानहै और कितना नफाहे यह क्यों देखते नहीं ! लोगों कहनावत है कि, आगिल बुद्धि वनिया-सो क्या अपनी दिव्य दृष्टि बिलकुल नष्ट होगई है ? देश और कालका विचार कहां गया ? अपने खुदके लडकेको उच्च शिक्षा देनेके लिये तो पैसे नहीं मिलते परन्तु मृत्युके बाद खर्चनेके वास्ते तो पैसे मिलेही मिले, जिसकी विमारीमें दया वगैरः में खर्चनेके वास्ते २०, २५ रुपये चाहिये वह तो खर्चनेमें आंखे ऊंडी बैठती हैं परन्तु मृत्सुके बाद तो ५०० या ७०० या (१०००)हजारोंको उमंगके साथ खर्चकर नुकता करते हो ओ हो यह तो कितनी बड़ी अज्ञानता है !!! इस उपरांत धर्मादा जीमनेवाले अपन खुद होते हैं कारण कि जिसके यहां मृत्यु हो उसके पास नुकता करनेका विलकुल साधन न हो तोभी अपने सगेसोई मिजवानसे लेकर बने उस तरह Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७ ) यह कार्य करनेकी आवश्यकता बतलाते ह इससे जब वह साधनहीन पैसा मिलानेको हरएक तरहसे निष्फल होता है तब उसे याचकपना करनेका मौका आता है और वाहिरगाम जा. फर लोगोंके सामने अपना दुख रोकें महान परिश्रमसे धर्मादा तरीके पैसे निकलवाता है, इस मुजर पैसे लाकर यह नुकता करता है, और उसको खानेवाले अपन होते है यह मकार अपन को फितना शर्माने लायक है ? धर्मादा खानेको जाना इससे और क्या ज्यादा हलका है। श्रेष्ठ ज्ञाती जैन कोमके वीरपुत्रो। आपफी विवेक बुद्धि कहां गई ? उसका योडा बहुत सद्उपयोग करो और ऐसे हानिकारक रिवाजोंको जडमूलसे नाश करनेको अपने पवित्र सनातन धर्मको मान देते सीखो। इसीसे आपका श्रेय होगा और जैन कोमका श्रेय करनेको सावनभूत हो सकोगे। ___अब एक सामान्य स्थितिका मनुष्य कि जिसपर उसके सारे कुटुम्पका आधार होता है, जब वह मृत्यु पाता है तब उ. सकी विधवा अथवा छोकरोंको उसका नुकता करनेमें वैसा दुख उठाना पडता होगा उसका ख्याल नीचेकी हकीकतसें ज्ञात होगा? जव कुटुम्बमें इस प्रकारसे वेढव बात हो गई हो तो पांच सात दिन बाद मृत्युवालेके सगेसम्बन्धी उसका नुकता करने को पात चलाते हैं और घरमें उसकी विधवा खी तो उसका Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८) रुदन कियाही करती है उस वक्तमें बिलकुल मरजी न हो तोभी सगे सम्बन्धी उसको जबरदस्तीसे कहते हैं कि मृत्यु पायाहुआ मनुष्य विना नुकते रहता है, यह कितना इलकापन है, वगैरः शब्द कहकर उसकी विना मरजीसेही, यदि उसके पास पैसा न होतो घरवार या मिलकत विकवाके नुकता करवाते हैं, तीन दिन मिष्टान्न उड़ाकर सगे सम्बन्धी तो अपने घर जाते हैं, तब विधवा वाईको अपना तथा अपने बालबच्चोंका गुजारा किस प्रकार चलाना तथा वच्चोंको विद्या किस तरह पढानी यह मुशकिल पड़जाता है, साधन रहित उस बाईको मजूरी ___ करनी पड़ती है उस वक्त गुजरान जितने पैसे मिलते हैं, वक्त पर नहीं मिले तो उसके निराधार बच्चे भूखे रहते हैं, उसके सगोंको तो उसकी कुछभी फिकर होतीही नहीं, उनको तो तीन दिन तक माल पानी उड़ानाथा वहां तक सिखावन देनेको आतेथे और इस वक्त उसके सामने तक नहीं देखते, इस दशामें उस विधवा स्त्रीको आना पड़ता है, यह कितना बड़ा जुल्म कहलाता है ?! इस वावद नीचेकी गुजराती कविता ज्यादा समझमें आवेगा इससे हरेक वान्धवोंको वह वांचनेकी प्रार्थना है । दाडा (नुकता) ना दुखडां वेनी कहुं केटलां, एज दुखे हुं रही रखडती रोज जो, * * * * * Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५९) (जैन ता. ४-१०-८) मृत्युके बाद चुक्ता जैनोके वास्ते निषेध है इतनाही नहीं परन्तु अन्य दर्शनीय जो मृत्युके बाद प्रेतावस्थाको मानते हैं और मेतका श्राद्ध करनेसे उद्धार हो ऐसा मानते हैं उनके भागभी मृत्युके पीछे ज्ञातिभोजन करने करानेकी खास विधि नहीं है मनुस्मृति, फहाहै किदौ देवे पितृकार्ये त्रीनेकैकमुभयत्र वा। भोजयेत् सुसमृद्धोपि न प्रसेज्जेत विस्तरे ॥१॥ सक्कियां देशकालौच शौच ब्राह्मणसपद । पचैतान वित्तरोहन्ति तस्मान्ने हेत विस्तरम् ॥२॥ न श्राद्धे भोजयन्मित्र धनै कार्योऽस्य संग्रह । नारि न मित्र यविद्या त्त श्राद्धे भोजयेद दिजम्॥शा य सगतानि कुरुते मोहाच्छा न मानव । सस्वर्गाच्च्यवते लोकाच्छामित्रो दिजाधमा ॥४॥ ___ अच्छी समृद्विवाला हो उसको देवनिमिच दो और पित कार्य जाह्मण जिमाना अथवा ऊपर कहेहुवे दोनो निमित्तम एक२ ब्रामण जिमाना, विस्तारमें अशक्त होना चाहिये (अर्थात् ब्रह्मभोगनको इससे ज्यादा बहाना नहीं), Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) (मृत्युके पीछे) सत् क्रिया, देश, काल, शौच और ब्राह्मणकी संपदा, इन पांच वस्तुका (ब्रह्मभोजनके ) विस्तारसं नाग होता है, तथा उसमें विस्तारको नही इच्छना चाहिये. (अर्थात् जो अधिकाधिक ब्राह्मणोंको जिमानेकी खटपट पड़े तो वि. धि मुजब मरनहारकी उतरक्रिया हो नहीं शती, इससे सतक्रियाका नाश होता है. जितनी स्वच्छ जगा चाहिये उतनी नहीं मिलती, वक्तपर खरावभी नहीं मिलती और शास्त्रोक्त चोखाई नहीं रह सक्ती इत्यादि.)२ श्राद्धमें मित्रको न जिमाना चाहिये, धनादिक तथा दूसरे उपायो द्वारा उसकी मित्रता संपादन कीजियें. जो ब्राह्मण वैरीके मुताविक या मित्रकी तरह न मालूम हो उसी उदासीन वृत्तिवनको श्राद्धमें जिमाना (जव श्राद्धमें भोजनका निषेध करने में आता है तव ज्ञातिका निपेध तो स्वयमेव सम्मभावित हे.)३ शास्त्रके अज्ञानसे श्राद्ध भोजन कराके जो मनुष्य मित्रता सम्पादन करता है वह श्राद्ध निमित्तपर मित्र करनेवाला अधम मनुष्य स्वर्गलोकसें नीचे पडता है)४ श्राद्ध में जीमनेसे ब्राह्मणकोभी प्रायश्चित लेना पड़ता है तभी वह शुद्ध होता है. हारितमुनिने कहाहै किचांद्रायणं नवश्राद्धे प्राजापत्यं तु मिश्रके । एका हस्तु पुराणेपु प्राजपत्यं विधियते ।। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "गरोटारेके पोतु नः ("पितराद्ध) जिमा चासो चद्रायण न II, मिश्रक (गमा गाननिक गाल) जिमनेागमाजापन्य ना करना, और पुगण । माग दिसा गा) जिमनमानगे ग म पागा. १ नागा" नाद करनेसे मेतका हार होता सा पानिमाले गीयांसो पाद जीमनग दोष पर परना , पार कि गाद यह मरनेशारके पीछे कानेग गाा है और मोनार जीगनेवाको पायक्तिरेना पडता नीरमायग्मित तो हमेशा टोपी होता इससे मरनेदार पी जीपनमार गरना गा रिपेपरी-सपर कितना अन्य दर्शनीर मयुके शानी या ऐनगम जीमना जाता ही मी मागे माटम पर उनमें गन्दी पर नोकागदा उनी रापरता यर गानोना 'एमा माती पर-7 मपो सो मति पा मातरिम न पागा, माय, दहा त्याग परके तुगगरी मर्ग मारण पत्ता : उस पांडे नुसता गा दुपा पणा यह मा पि पांगी होता म मार्गक गरजा पूर्ण गरे । तिमिम मा पोन नगीमानो Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) मृत्यु पीछे नुकता करनेका रिवाज कोई २ ठिकाने रुपान्तर भया हुवा देखनेमें आता है, मृत्यु के बाद उसका कारज तुरत न करे तो वादमें उस निमित्तसें संघ या और कोई नामसे जीमनवार करने में आताहै; परन्तु दीर्घ दृष्टिसे विचार करनेसे मरनेहारेके पीछे संघ या और कोई नामसे जीमन किरना यहभी निषेधही है, साधर्मि भाईयोंको भोजन खिलाना हो तो इसरे कई प्रसंग मिलते हैं, परन्तु जहाँपर मृत्यु और जीगन इन दोनों शब्दोकी घटना होही नही सक्ती वहां मृत्युके पीछे भोजन कैसा शोभे ? वास्ते मृत्यु पीछे संघ या नौकारसीके नामसे भोजन न करते उसमें जितने रुपै खर्च हो उतने रुपै दुःखीपडे हुवे स्थितिके जातिबन्धु या धर्मवन्धुकी सहायतामें लगाकर उच्च स्थिति पर लानेके काममें तथा निर्धनताके कारण विद्योन्नति करनेमें अटके हुओ वालको विद्योन्नति करानेके काममें खर्चकर उसका सद उपयोग करनेमें आवे तो जैन कोम जो अधम स्थितिको पहुंचती जाती है उससे बचे ' और जैन कोमको लक्ष्मीने वरा है, यह प्राचीन कहनावत अज्ञान रूपीगाढ निद्रा वश नाश पाई है, वह फिर जन्म धारन करेगी। शास्त्रविरुद्ध और सांसारिक अधम स्थितिका मूल बहुत समयसे जड जमाकर बैठनेवाला मृत्युके बाद जीमनवार करना ऐसे दुष्ट रिवाजोंको जडमूलसे नाश करनमें अपना श्रेय है यह Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) __ अपन अब्बलही समझ चुके है सो जिसकेलिये धनवानका धन __ अयोग रीतिसे खरचाताहै, और गरीब अधम स्थितिको पाते है, ऐसे रिवाजोंकोही बन्ध करनेसे परोपकार मिलता है इस पातये मै शामिल हु तथा मिरताह ऐमा कहार अपने आगे वानोको बैठा रहना इसमें कुच्छ फायदा न होगा इसलिये तमाम आगेवानोकों इकठे करके समझनान ज्ञानवान अग्रेसगेंकों चाहिये कि दूसराको समझाये और ऐसा सक्त ठहराम करे कि जिसके यहा मृत्यु हो तो उसके (मरनेहार) पीछे बिलकुल नुकता करना नहीं, वैसेही उसके साथमें उस उहरायका उल्धन करनेवाला पेसावालाहो कि गरीर उसको ऐसी शिक्षा देनी चाहिये कि दूसरे उल्लघन न करें और मजस्त जड जमजाय, और यह नुकता करना आगेवान लो. गांके यहासेही बन्ध हो तो कियाहुआ ठहराव जल्दही अमरमें आवे. इस लिये इस विषयमें आगेवान लोग तन मन और उनसे परिश्रम करे तो इस दुष्ट रिवाजको देशवटा देना कोई मुशकिल नहीं है। इस दुष्ट रिवाजको बन्ध करने वायद सुपरहुवे विद्यमान जैन बाधनों जो इम दुष्ट रिवानके विरुद्ध है वो अपनी शक्ति व विद्वत्ताका उपयोग कर भाषन अथवा अन्य कोई उपायसे इससे कितना नुकसान है वगैरः फुल हकीकत विस्तारपूर्वक आगेवानोके दिलमें जमानेका प्रयत्न करे तो उससे विषेश अ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) ___ सर होनेका संभव है। _ विपेश करके यह रिवाज अटकाने संबंधों अपने मुनिराजोंको खास आग्रहपूर्वक विनंति करनी जरत है यह इसी लिये है कि उनके उपदेशले अग्रेसर अपने कर्तव्यको करना सीखेगे. ___ अपनी जैन कोयमे बहोतो ती दुरुप ज्ञान नहीं परन्तु श्रद्धारो मेमके साथ मानते हैं । वह उपदेन सुनिहारान एक शहरमें मृत्यु के बाद जीमनवार कम करनेका उपदेश देंगे तो पहिले तो चितोक ( श्रावक ) आगवान सिडकमें कि यह दया सुनिगज ऐसा उपदेश देते है चोरः शब्दोरो निदा ने. तोभी उनके भी आगेबान और समरते हुने शावक का उपदेश ग्रहण करेंगे, और फिर दुसरो वक्त जब दूसरे अनि राज ऐसाही उपदेश देकर समायो, तर आमेसे मुनिराज को अवगणना करनेवाले आवानो समझेगे के पहिले सुनिताक जो बात करनये वह सत्य ज्ञात होती है. अपनमें दूसरोकी तरह ___ उपदेश न माना इसमें भूलकी है, इसी तरह मुनिराजोंने जैन्द कोमकी दुःखदाई स्थिति अपने अन्तःकरनमें लाकर इस दुष्ठ रिवाजसे गरीबों के घरबार विकाते हैं, विधवाओंकी जीवनदोरी तूट जाती है, इदय खेदित होतेवक्त लड्डु जलेबी पापडं सेव चबा चब खाने वालोंकी बुद्धि मलिन होती है, पेटभरुओंके Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६५) कलेजा ठण्डे करने, ओर रोटीके साथ घीको पानीक मुआफिक करते है और अपनी निर्दयता बनाते है,शोकका वेश पहिनकर हर्पका जीमन नीमकर दयाजनक हास्यपान होकर मूर्खता बताते है । नुकता करनेवाले और खानेवाले धर्म की अज्ञानता बताते है, आर धर्मविरुद्ध अनाचार सहकर विद्वान् वर्ग में धर्मको हलका करते है । उम रिवाजकोअटकानेका आप मयल करें, ओरउसके साथ इतनी सचना करनेकी है कि एक शहरमें एक मुनिरान उनके रहने के वक्त थोडा बहुत सुधारा करगये हों तो, उस सुधारा रूपी वीजको उनके पीछे आनेवाले मुनिमहाराज अपने उपदेशसे जल सींचा करें तो जैनाचार विरुद्ध इस दुष्ट रिवानसे जैन कोमको मुक्त करनेको वे शक्तिमान होंगे और तभी वे पूरे कर्तव्यनिष्ठ माने जावेंगे। ___ अतमें आगेवान, तथा विद्यमान जेनवन्यु मुनिमहा राजा, यह हानिकारक रिवाज बन्द करने में कर्तव्यपरायण होकर अपने कर्तव्यको पूरा करेंगे ऐमी आशासे इस लघुलेखकी समाप्ति करने में आती है । इत्यलम्, मुज्ञेषु किंबहुना । श्री सघका दास कस्तुरचन्द गादिया Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६६) मृत्युके पश्चात रोना पीटना। हानिकारक रिवाज का निषेध प्रियपाठको ! अपनी जैन कौम जो कि एक समय आचार और विचार दोनोंमें उन्नतिके उच्च शिखर पर चढ़ी हुईथी, वही जैन कौम अभी बहुत कुचाल, कुसंप, अज्ञान वगैरः राक्षसी शक्तियोंके नीचे दवाकर चिगदागई है। जिस जैन कौममें संस्कार शुद्ध व्योहार नीति वगैरः में एक समय शांति रखतेथे उस कौममें हाल हानिकारक आचरण दाखिल हुए हैं और बहुत गहरी जड जमाकर बैठे हैं। जिससे अपनी सामाजिक स्थिति विगडी हुई है, वैसाही व्योहारिक दृष्टिमें लोग अपनी निन्दा करते हैं. अपनी जैन कोममें फिलहाल जो हानिकारक रिवाज प्रचलित हैं उनमें से नीचेके मुख्य हैं१ कन्याविक्रय. २ वाललग्न. ३ वृद्धविवाह. ४ एक स्त्रीकी हयातीमें दसरी स्त्रीसे व्याह करनेका रिवाज. ५ लग्नादि प्रसंगमें वैश्याका नाच आतसवाजी छोडना और गालीगाना६ मृत्युके वाद जीमनवार ( नुकता) ७ मृत्युके वक्त रोना पीटना. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७ ) ८ फर्नियात खराव खर्च० देखादेखी सोतसे हुताशनि ( होली ) आदि धर्म विरुद्ध पर्व तथा आपरण वगैर ऐसे दुष्ट रिवाजोंसे, अपनी जैन कोमकी सामाजिक, रिथति बहोत शोधनीयहे ऐसा कहनेमें कदापि असत्य नही है. __ अपनी गुनीति, सदाचार, धन वगैर वीरे २ नष्ट होता जाता है और अवनतिके घोर अन्धकारम अपन पडते है ऐसे हानिमारक रिवानाको नाद करनेका अपनी कोन्फ्रेन्स ६-६वर्षोंसे ठहराव पास करती है, और उससे कुछ सुपारेकी भाशा पैदा हुई है पर अभितक सभ्य जेनरधुभो कृपालु निटिश राज्यके इन्साफी जगलके नीचे इस आर्यावर्त्तअपन लोग विद्या पीके चरण सेवन करने लगे हैं इससे विद्या रहती है, सत्यासत्य तथा सारासार मालुम होता है, विद्याके अभारमें इस समय भनकालकी जपेभा पनी स्थिति होत पिगडी हुई गाटम होती है, विद्वान आचार्य और साधु जो पुर्वकालमें धे पैसे आज नहीं है ? इससे ऐसा हुआ कि लोगोकी नित्य प्रति समय रटनी चली और उससे अपनेमे अनेक कुरिवाज जारी होगये कि जिनकी शास्त्रोंमे साफ मनाहै ऐसा होना विग्रामा अभार कहा जावे नहीं तो क्या, कारण कि विया जो है सो मनुष्यको उत्तमोउत्तम गुण देती है पर अविद्या तो Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८) उलटे रस्ते भेजकर मनुष्यको भ्रष्ट काती है. इसीर जैन बांधव उलटे रस्ते चले और अन्य लोगोंके देखे देवी उनके अनुसार कार्य करने लगे. एक समय ऐसाथा शि अपना चीन अवलोकन कर अन्यधनी अनुकरण करतेथे. और आज ऐसा आया कि अपने जैनक्षी बांधत्र अन्न धाराशा अनुकरण करते हैं यह कितने अफनोएकी बात किलोगोंकि. इतनी असमय हानेका कारण क्या !! अपन अपने पांव होने घरभी दूसरों के पैराले चलने लो इसका मतन्त्र क्या है ? यही हैं कि विद्याका अभाव ____ मान्यवरो! अब उस समयके जानेका वक्त आया है, अपिघाने भागनेकी तक साथी है और वहम आदि अधकारके नाश होनेकी तय्यारी है. प्रधानकी विद्या, शक्ति और नीति निलाने का समय नजदीक आया है. इस लिये छुदय दाबको ! ऐसे नुसमयका लाभ लेने के लिये एक मतसे उठो ! ऐसे एक नहीं परन्तु अनेक दुष्ट रीतियोंको नावुद करने के लिये निबन्ध लिखनेकी अत्यन्त आवश्यकता है इसलिये मै आशा रखना हुँ कि मेरे स्वधी भाई इस विषयमें परिश्रम कर मुझे आमारी करें. ___ शोक, रुदन और छाती कूटना-ये तीन आर्स ध्यानवाली जैनोकी प्रवृतियां हैं-गोक यह मानसिक प्रवृत्तिहै-याने चिन्ता Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९) करना इसरा नाम शोक और शोकको अरती भी कहते हैयानि हरक मिस वस्तुका दियोग और अप्रिय वस्तका सयोग और पगिय वस्तुका सयोग के लिये सताप करना उमश नाम गोर-- रन (गेना ) ये गोर बताने वाली पहारकी चाचिक महती ह यानि चित्तरे अदर जो शोक पैदा हुआ उसको लन करते -स्टन [21] यह गोकरी अत्यन्न अधिक ता मा पास्ते जपने गुदके [शरीर ] मस्तक, छाती, पेटमो टने इस नाम काया प्रति याने क.न है इस रीतिम तीनो जाती व्यारया करके पर उसका स्वरूप बनानेग माता वरूपाख्यान __ शोक, सम (रोना ) और पुट्टन (न्दना ) यह कोड वरन अन्त करन भावमे होता है और कोई वक्त मात्र टू सर लागोको रजित करनेको या सुदके अति स्नेहका दग बताने वास्ते बढी तरी होता है-जैसा कि पुनके मरने पर मा नाप, मरतारके मरनेपर उसकी स्त्री आदि अति स्नेही बहोत करके जन्त करणसे गोक रदन आदि करते हैं परन्तु थोडा स्नेह रखने वाले या अन्दरसे अभाव रखने वाले सगे सोई तथा मित्र वगैर बहोत करके स्तन करने है यह Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म ( १७० ) दूसरोंको अति स्नेह बतानेके लिये रूढी तरीकेसे करते हैं___शोक करना, रोना कृटना, इसके शब्दार्य और स्वरूप बताने के पीछे इन प्रतिओस क्या क्या बुरे फल, होते हैं इ. सका अब विचार कीजिये. दोप विवेचन आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, शुक्लथ्यान, इन चार ध्यानों मेंसे आत्तध्यान मेंही शोक, रुदन, वगेरे प्रहनियों रही हुई हैं ऐसा श्री चतुर्दश पुर्वधर भगवान श्री भद्रबाहु रवामीनीने आवश्यक नियुक्तिके ध्यान शतकमे कहा हुआ है. तस्लय कंदणसोयण परिदेवणताडणांई लिगाई. इणिविओगा विओग वेअण निमित्ताइ १५ अर्थ-यह ध्यानके आक्रंदन. शोक, सदन, और ऋटना ये लिंग हैं और यह लिंग इप्ट ( अच्छी ) वस्तुका वियोग अनिष्ट ( खराब ) वस्तुका संयोग और वेदना इन तीन हेतुओस होता है. और आध्यान ये तिर्यच गतिका चूल है. कहा है कि. अदममाणं संसार वढणं तिरिय गई मूलं. याने आर्त ध्यानसे जीवको कुच्छ भी लाभ नहीं मिल Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१) ता नाहक कर्म बधाताहै और उससे दूसरे भवमें तिर्यगादि गति प्राप्त होती है इसलिये इस आर्त ध्यानको त्यागनेकी तमवीनमें सत्पुरपोंको प्रयत्न करना चाहिये ऐसा शास्त्रकार सबन्यमायमूल बज्जेय पयतेण १८ अर्थात् आर्त भ्यान सर्व दु साका मल , इस लिये प्रय न्नसे उसरा त्याग ही करना चाहीये नहोत पिचार फरासे मालूम होता है कि गर्द वस्तुका शोर रना यह मूर्मनाके लक्षण है एक वक्त भोज राजाको कारिदास करिने फटाया कि गत न शोचामि कुन न मन्ये खाद नगच्छामि हस न्न जल्ये द्वाभ्या तृतीयो न भवामि राजन कि कारण भोज भवामि मूर्ख ॥ अर्थ-मै गई नस्तुका पाक नहीं बरता, रि हुई पातका विचार नहीं करता, खाते खाते नहीं चलता, इसते २ नही बोलना, दो मनुष्य इमान्तमे पात करते हो तो मै तीसरा यहा शामिल नहीं होता, तो भोगराग' आपने मुझे मूर्व कहकर Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२) क्यों बुलाया? इसी मुताविक मनुष्य से मरने वाद अनिलय रोना कुटना यहभी यूर्खलाड़ी है. अपने रोने कूटनेरौ मराहुआ पीछा आता नहीं. प्राणीमात्र अपनी जानुपूर्ण होने से याने दे बैतेही अपनभी अपनी आयुके अंतसे मरंग. ऐसे देनाधीन कार्यमें अतिशय रोना कुटना ये धीरजकी खाली बतलान है और पीना धीरजके मनुष्यसे होई बड़ा झार्य पार पहला नहीं यह तो सय कोई जानने हैं. ___ अनिलय रोने कटनेसे क्या २ गैरझायदे हैं उसका वर्णन करनेके पहिले-मनुप्यके मरनेक अन्बल उपके लागे सोई और मित्रोंकी क्या फर्म है यह बताने की आवश्यकता है __ अंतकाल समय सगे व स्नेहीयोंका धर्म अकस्मात मृत्युसे मनुष्य मात्र निरुपाय है ( और इसी लिग शाहकारोंने कहाभी है कि हिलते चलते हरएका काम करते मनुष्यको अपना चित्त बहोतही निर्मल रखना ) इससे जब कोई मनुष्य थोड़े दिनतक बीमारीयां भुगतार बरता है कि उसवाले उसके सगे सोइ मित्र इत्यादिका कर्तव्य है कि उसकी दवा वगैरः करें और उसकी चाकरी करना चाहिये उसका ध्यान दुष्ट ध्यान तर्फ नहीं जाने देना. धर्मकया वीरः चालु रखकर उसका दिल निर्मल रखना, आड़ी टेडी बातें न करना Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) चाहिये कितनेक मूर्ख उसके दुखका कुच्छ न कग्ने रोना पटना गुरु करते हैं और वेर्यको छोड़ देते हैं इससे स्वर्गस्थका चित पिलाट डोलता हुआ जाता है उसकी मनोति ससारी माम माती जाती है और उसका पता जाता है बहोतसे तोगस्थ गरनेके अव्वल उसको स्नान करवाने हैं इससे उसदा जीवा बहोत पाता है स्नान कराते हैं इतनाही नहीं परन्तु माणी जीप कठमें रहता हे और उसे एक गीली (लीपीहुई) जगण मृगत है, इससे प्राण लेने वाले सबमे पहिले उसके स्नेही ही होते ह-सचगुर इनको उसके स्नेही नहीं परन्तु पन समजणा जगर उस प्राणीके शरीरमें वोडी बहोत जक्ति हो तो उत्तीत इसरे स्नेहीया ऐसे घातली कामरे लिये दीर पारे ऐसे स्नेही उसके हित चहाने वाले नहीं पाहे दुगन है गचे महीयोमा धर्म ससे अरगही होगा वो अपलो आखिरतर उसको सद्गति होय ऐसा उपाय करने है, दबावगैर से उसकी अच्छी तरह सेवा करते हैं राने पीटनका गाद उसके सनम जाने नारा देते. जबतक सरे बम प्राण रहना है वहातक उसकी पथारी बदरने नहाने रोजा वगैरकर उसरा दिल होरडोर नई माने देते उल्टे मित्रानीमे उसमा चिन निर्मर करते है ऐसे मोहोमोही उगो स्नहीं, बाकी दृारे तो नाम मान स्नेही। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) मरने के बाद स्मशानमें जाते वक्त दिखाव. वर्तमान समयमें मरे हुवे मनुष्यको स्मशानमे ले जाते वक्तका दिखाव सुधरी हुई प्रजाको बहोत हांसीपात्र होजाता है. घरमसे मुर्देको बहार निकाला कि उसीवक्त बीयें धडा घड कटती हुई लम्बे अवाजसे रोती हैं और शरीरका किसी प्रकार भान न रखते सुसरे भरतारकी लानको मदेश रख देती हैं. पुरुषभी रोने कूटनेमें कोइ वाकी रखते नही और वम मारकर इस प्रकार जोरसे रोते हैं कि उत्तम विचार वाले सद्गृहस्थ उसका रोना देखकर हंसते हैं. कोई तो कमरको हाथ लगा कर ऐसे चिल्लाते हैं कि उस वक्त उसकी आकृति डरावनी होजाती है. वहोत वूम देवाजारमें रोनेसे मरे हुए प्राणी का चित्त भंग होता है. जरासा उंडा विचार करके देखा जावे तो मालुम होता है कि मरे हुओ मनुष्यके पीछे जाने वाला समुदाय यह एक शोकराजाकी वरात है. वरानमें मनुष्यको रीतिसर चलना चाहिये. गम्भीरता बताना चाहिये, उस बदले में उल्टे दूसरे लोग मशकरी करते हैं. दुनियाका स्वाभाविक नियम है कि मुर्देको देखकर मनुप्यके दिलमें वैराग रस प्रगटे तो ऐसे मौकेपर लोगोंको ऐसी रीतसे वर्तना चाहिये कि उसके वर्तावसे दूसरे लोगों के दिलमें वैराग्य पैदा हो. वैसा न करते हालकी वक्त में अलग वर्ताव होता है. कितनेक तो मात्र दूसरोंको बतानेके लिये ढोंग करके रोते हैं. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५) और कितनेक गावके अन्दर सन होते है वहातक रोते है आर दरवज्जे वहार गये कि सब चुप रहनाते है और मरजीमें आवे वैसी आडी टेढी बातें करते २ स्मशानमें पहोंचते है उनको शरम नहीं आती कि मरण जैसे गम्भीर अवसरपर आडी टेली वातें करते है। स्मशान स्मशानम पहोंचे कि शोक रज तो सर दूर होजाता है ऐसा माम देता है-पाद वहा कोइ कुच्छ बात करता है कोई कुच्छ मात करता है कोई इसी और गप्पे मारते है तो कोई साने बगैर की बात करते है तो कोद मौसरकी-इस मुतारिक स्मशानमे जुटी • टोलीय होकर अलग २ बैठते हे कोई अनजान मनुष्य साया तो वो ऐसाही धारता है कि यह लोग गम्मत करनेको यहा आये है अफसोस अफसोस है कि ये कैसी विधारने योग्य रीति है मृत्युमें गप्पे क्या मारना चाहिये ? नहीं यह वक्त गम्भीरतामा है मगर उस वक्त हसी माखरी करते हैं ऐसे मौकेपर होतही गम्भीरता रखना चाहिये और मरेहुयेका व अपनी जातिका मानमग नहीं करना चाहिये मुर्दको जलाये याद सब अलग २ निखर जाते है और कई कहां आगे जाकर बैठता है तो कोई और आगेवान सर Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८) इसमेंसे उत्तमोत्तम पुरुष धर्ममेही प्रत रहते हैं. उत्तम पुरुप भावि भाव विचारकर विकार पाते नही. मध्यम पुरुप अश्रुपात करके शोक दूर करते. हैं परन्तु अधम मनुष्य ही कूटते हैं. ओमिति पंडिता कुर्युरश्रुपातंच मध्यमाः अधमाश्च शिरोघातं शोके धर्म विवेकिनः अर्थ-पंडित पुरुष शोकमें यह समझते हैं कि जो होनेका है सो तो होगाही, फिर चिन्ता करनेकी क्या जरूरत ? मध्यम पुरुष अश्रुपात करते हैं और अधम पुरुष शिर कूटते हैं परन्तु विवेकी पुरुष शोकमें धर्मही करते हैं हालकी रूढी. पाठक गण! यह तो अवश्यही कबूल करेंगे कि हिन्दुस्थान भरमें मालवी, मारवाड़ी, गुजराती स्त्री जैसे अमर्यादा रीतिसे कूटची है और रोती हैं ऐसा आज दिनतक सुननेमें नहीं आया, जो कोई चालके वास्ते. अपने जैनवांधवोंको शर्म हो, और दूसरी सुधरी हुई कोमके आंखको आवरुका कलंक लगता हो तो मरनेके वाद रोने कूटनेका बहोत बुरा रिवाज है. कदाचित कोई ऐसा प्रश्न करे कि बहोत दिनोंसे जड़ मूल फैला कर धूल धानो करने वाला जैन प्रजामें कायम होकर उनको रुला २ कर दुःख देता है तो हो ? हम कहेंगे के वो Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७९) रिवाज मरनेके पीछे रोना कूटना हमारेमें अबतक विद्यमान है. __ अपनी कोमकी औरतों के रोने कूटनेका अलग ही रिवाज है कि मुर्दा घरसे बहार हुआ के जैसे ज्वालामुखी पर्वत धधकता • बहार निकलता है उस प्रकार शिर और छाती कूटने लगती गरम लाज सर छोडके खुढे वारो सहित मुटती हैं यदि रोना कूटना सिखाने वाली अपनी कोम की स्त्रीयों को शिक्षक कहीजावे तो भी कोई हर्ज नहीं. जिस घरमें कोई मर जावे तो उस घरकी स्त्रीका तो मरण हुआ, क्या मि दूसरी स्वीया रोनेके लिये आती है वो तो एकही दिन रोरो कर चली जाती परतु उस घरकी वीको नित्यही रोना पडता है, फिर वह घर कुलबान हो कि कुल हीन, घरकी स्त्रीके रोनेमें खामी पडे तो परस्त्रिया उसकी जातिम निन्दा करती है कि इसको तो रोना कूटना याद नहीं ऐसी छाप लगाती है ___अहा। रूहि कैसी बलवान है । यह रूढी ऐसी जमी है कि उसके सेवम अपने शरीरकी दरकार न रखते, परजातिमें जो निन्दा होती है उससे दरते नही, (काठियावाडमें यह रीति इतनी प्रचलित ह कि औरतें बदुत कटती है। वो उपदेश द्वारा चन्द की जारही है) और परलोकमें होनेवाली अवगतीका भजन महासे हो । ? धिकार है एसी नदीको। रोना कटना यो दिनतक नहीं चलता, बहोतसी जगे Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८० ) महिनोंके महिने तक दिनये २-४ चार २ वार रोना शुरू रहता है. सालमन तक उसके सगे सोई उसके यहां जाने आते हैं और वेचारे पर खर्चका भार डालते हैं, फिर चाहे वह धनवान हो कि धनहीन, पर सगेसोई तो उसके घरवालोंको रुला कूटाके खा पी कर चले जाते हैं, धन्य है रूढी! वर्तमान कालमें रोने कूटनेकी चाल तो बहोत ही जरूर वान होगई है. जोर २ से रोना और हृदयको कूटते वक्त औरताको शोकसे ज्यादा यह विचार होता है कि ठीकतोरसे रोती कूटती हूं कि नहीं? मुझे कोई मूर्ख नो न कहेगा. इस परसे स्पष्ट ज्ञात होता है कि हालका रोना कूटना फक्त लोगोंको दिखानेके वास्ते ही. ___ मनुप्यपर रोने कूटनेमें भाग लेते हैं, कितनेक पुरुष सुर्दे पिछे जोरसे रोते चले जाते हैं और दूसरे लोग उनकी हँसी करते हैं, स्त्रियोंसे पुरुष ज्यादा ज्ञान रखते हैं और स्त्रियोंसे रह होनेपरभी ऐसे रिवाज चलाते हैं यह बहोत शरम की बात है. है परमेश्वर ! वह दिन कब आवेगा कि रोने कूटनेसे जो गैरफायदे होते हैं वो मेरे जैन वन्धु जान ले. रोने पीटनेसे होनेवाले गैरफायदे. शोक याने चिन्ता और चिन्ताको शाहमें राक्षसकी उप___ मासे बुलाते हैं. नीति शास्त्रमें कहा है कि Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१ ) चितया नश्यते रूप चितया नश्यते क्लम् । चितया हर्य ते ज्ञानं व्याधिर्भवति चितया ।। __ अर्थ-चिन्ता करनेसे रूपका नाश होता है, चिन्तासे बल नष्ट होता है, चितासे ज्ञान मद होता है और अनेक मकारकी व्याधि उत्पन्न करने वाली यह चिन्ता है। चिन्ता बडी अभागनी, पडी कालजा खाय । रती २ भर सवरे, तोला भर २ जाय ॥१॥ चिन्तासे चतुराई घटे, चिन्ता बुरी अथाग।। मोनर जीवित भृतही है, ज्या घट चिन्ताआग ।।२।। शरीरका नुकसान-शरीरका बयान इस प्रकार है कि अहार तथा विहार बरावर रहा वहातक तनदुरुस्ती ठीक रहती है परन्तु इसमें जरा फेरफार हुआ कि तुरन्तही शरीरमें रोग पैदा होगा जितना विकार अपने बीमार शरीरमसे निकलता है उससे ज्यादा जो निकाल लें तो रोगीका शरीर क्षीण और दुर्वल होजाता है. वैद्यकशास्त्र कहता है कि कान और अखि के बीच रहेहुवे भागमें (कनपटीमें) दो पुका होते है उसमें लोहीमके पानीका भाग कितनीक पार जुदा पडता है वह खारा पानी आखफे रस्ते बहार निकलता है उसको अपन आम कहते हैं भय, शोक, क्रोध, प्रीति, शूर वगैर. मनोर Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) तिसे लोहके फिग्नेकी गतिमें बहोत फेरफार होता है, लोहू जव एका एक उकलता है और गति बहोत उतावली होती है जब पहिले पुलकेसे बहोत पानी अलग होजाता है और परिनाम ऐसा आता है कि आंसू बहोत बहार आते हैं. जिस लोहूका वीर्य होता है वह लोह मुक्त पानी होकर आंसूरूपमें वहार निकल जाता है उससे आंखको वहोत नुकसान होकर तेज घट जाता है. ___ कूटनेसे अनेक गैरफायदे हैं-छानी तथा आंख लाल. सूर्ख हो जाती है, छातीमें चांदिों पड़ जाती है, खून निकल आता है, पेटों अनेक प्रकारके रोग पैदा होते है, स्वीका कमल उधा होजाता है, सूत्राशयमें विगाड़ होनेसे पिशाव बन्ध हो जाता है, छाती कूटनेसे आस पासकी नसे चगदा जाती है उससे सोजा चड़आता है, और उससे गांठ गुमड़की भी व्याधी होती है, स्त्रीके स्तनके अन्दर रोग पैदा होता है उससे दूध विगड़ता है इससे धवनेवाला वालक रोगी होता है और वच्चा पीला पडता है उसका अङ्गवल घटकर वीर्य खराव हो जाता है इतना ही नहीं परन्तु वालक न्यून वयमें मरजाता है. अपनी संतति निपल होनेका यही रोने कूटनेका हानि कारक कारण है! रोने कूटनेसे गर्भवती स्त्रीको बहोत नुकसान होता है. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) बहोत शोक करनेसे वालक रोगी जन्मता है तथा अधुरा पड़ जाता है-श्री कल्पसूत्रकी कल्पलता नामकी टीका ___ कहा है कि ___ कामसेवा-भस्खलन पतन प्रपीडन प्रघावनाभिपात विपम शयन विपमासन-अति रागातिशोक-आदिभिर्गर्भपातो भवेव अर्थ-कामसेवासे, ठेश रगनेसे, पडनसे पीडा होनेसे, दौ. हनेसे, धका लगनेसे, वरार नहीं सोनेसे, वरापर नहीवैठनेसे अति प्रीति घतानेसे अति शोक करनेसे गर्भ पड़ जाता है पडान्से पेटमें गठान उत्पन्न होती है और उससे जवान सीका वधा तट जाता है और भर जमानीमें मरीसी दिखता है, छोरीयोंको जान वृझकर गेना कूटना सिखलाती है इस से ऐमा करनेहारे लोग जान तुझकर छोकरीयोंके शरीरमें ___ रोग पेदा करते है। शोकसे मनपर होनेवाली अमर शरीर और मनका उत्तना सम्पन्न है कि शरीरके रोगसे मन रिगहता है, गरीर अन्डा होता है तभी मन अच्छा होता है और मन अच्छा होता है तभी शरीर निरोगी रहता हे चिन्ता फरनेवाले, दसरेका मुग्य देवकर जलनेवाले, नाहर फिरर करनेवाले शरस कैसे निर्बल होते है यह पाठकों भठी भाति Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) . ज्ञात है-तेज मिजाजवाले, घड़ी २ में गरम होनेवाले, उकल ते लोहीयाले मनुष्यों की काया कैसी विना ताकतकी होती है वो पाठको को समझानेकी कोई आवश्यकता नहीं स्वयंही समझ सकते हैं. वैद्यक शास्त्र कहता है कि-मनको हदसे ज्यादा परिश्रम देनेसे तनकी शक्ति घटती है, पाचन शक्ति न्यून होती जाती है, काम करनेका उत्साह रहता नही ज्ञानतंतु निर्बल हो जाते हैं, क्षय रोग उत्पन्न होता है और आखिरको अकाल मृत्यु होती है. तब कुच्छ कार्य होता नही. शरीर क्षीण होजाता है तब बुद्धि घटतो है, स्मरणशक्ति मंद हो जाती है ! ___ शरीरके रोगके उपाय सहल मिल सक्ते हैं परन्तु मनके रोगके उपाय मिलने कठिन हैं. वियोगके लिये बहोत स्वी पुरुष मा वाप लड़के इत्यादि दुःखी होते हैं परन्तु लगातार शोक करनेसे रोने कूटनेसे कई व्याधियां पैदा होती हैं और उसका परिनाम भयंकर होता है ! हमेशाः रुदन ( शोक ) कर नेसे दिल बिगड़ जाता है, घरका कार्य नहीं सूझाता, शरीर ___ क्षीण होजाताहै, कोईका मुंह नहीं देखते, बाल बच्चोंको सम्भा ला नहीं जाता, अंतको शरीर और दिल क्षीण होनेसे मृत्यु होजाती है। चित्तायत्तं धातुबद्धं शरीरं । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५) नछे चित्ते पातमो यान्ति नाशम् ।। तस्माचित्तं सर्वदा रमणीय । स्वस्ये चित्ते बुद्धय समपन्ति ।। अर्थ-पातुसे बधाहुआ यह शरीर मनके आधीन है-चित्त नाश पानेसे धातुकाभी नाग होता है इससे चित्तका सदा रक्षन करना चाहिय-चित्त अन्डा होता है तभी बुद्धि पैदा होती है। दूसरे लोगोके विचार मुधरे हुए लोग जर अपनी आरतोंको रोती कूटती देखते है तब वे लोग अपने दस दुष्ट रिवाजकी हमी करते है और उनके दिलमें ऐसे विचार पंग होते हैं कि (इन लोगों) की ओरतें मुर्ख हैं और निर्लज, पिनादयावाली, ढोंगी और असल्प है ससारमा स्वाभाविक नियम यह है कि घरको गोभाना स्त्रीरा काम है परन्तु ( अपनरो) अपने घरकी शोभा कितनी है जो कोई अपनी स्वीयोंकी इस रीतिको देखपर मन करता भाइयो । अपन क्या जवार दंग? उस वक्त अपन सिद्ध हो जायेंगे इमलिये स्त्रीयाम से इस निर्लन पालका नाश हो ऐसा उपाय करनेके वास्ते नसर हो जाभो । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६ ) उपदेश. माता-पिता-भाइ वहन-जमाई-लड़की-पुत्र-प्रिय मित्र प्यारी भार्या वगैरः मरजाते हैं तब रंज पैदा होता है और रोना जरूर आता है, यह सही; परन्तु यह सब हद वहार न होना चाहिये. उस समय क्या करना चाहिये-बहोतसे लोग दुःखसे वाचले हो जाते है, आंखमेसे चौधारा आंसु बरसाने को छाती और माथा कूटते हैं, तथा जमीन पर पछाड़ मारते हैं, क्या इससे तुम्हारा शोक दूर होजाता है ! ऐसा करनेसे तुम्हारे शरीरका बल कम होता है, दिल निर्वल होजाता है और बुद्धि घट जाती है, अलवते यह तो सही है कि मरनेके वरावर दूसरी कोई आपत्ति नहीं ! धनगुमा हो तो परिश्रमसे पीछा मिलासक्ते हैं, गई हुई विद्या फिर अभ्यास करनेसे मिल सक्ती है, रोगकी आफत औपधिसे दूर होती है। परन्तु मनुष्य रूपी रत्नकी सब विपत्तियोंसे बड़ी विपत्ति है. एक मनुष्यकी साधारन वस्तु जाय या उसका नाश होजाय तो दिलमें खेद अवश्य होता है, तो अपने बहुत स्नेही मनुप्यके जानेका खेद क्यों न होगा ! अपने स्नेहीके मरते वक्त शोकसे हृदय बिलकुल व्याकुल हो जाता है पर यह असर ज्ञानवान पुरुष को नहीं होती! घृष्टं धृष्टं पुनरपि पुनश्चंदनं चारुगंघ, .. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७ ) छिन्नं छिन्न पुनरपि पुन स्वादु चैवेक्षुकांडम् । दग्धं दग्ध पुनरपि पुन कांचनं कांतवर्ण । न प्राणान्ते प्रकृतिविकृतिर्जायते चोत्तमानाम् ॥ अर्थ -बारवार चन्दनको घिसो तोभी वह सुगधीही मुगधी देता है, इसु (साठे) को चार • काटो तो भी वह स्वादिष्टता देती है, सोनेको कितनीही वार तपाओ तो भी उसका रंग शोभायमानही दीखाता है-ऐसेंही उत्तम पुरुषोंकी प्रकृतिमें माणत होनेपर भी फेराफार नहीं होताहरएक मारके दुःख वह सहन करते है. ऐसे समय धैर्य रखना यहही मुरय साधन है पैदा होता उसका नाशमी होता है यह पाठकगण समझतेही हैं तो मृयुके वक्त आप गहिले वन जाते हे यह मूर्खताकाही चिन्ह है। नष्ट मृतमतिकातं नानुशोचति पडित । पडितानां च मूर्खाणां विरोपोय यत स्मृत ॥ अर्थ -जिस वस्तुका नाश हुआ, जो मनुष्य मरगया और जो पात होगई उसका गोर पडितजन नहीं करते-पडित और मूर्स में इतनाही फर्क है। ना प्राप्यमभिवांछति नष्टं नेच्छातिशोचितु । आपत्स्वपि न मुह्यतिनरा पडितबुद्धय ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८ ) अर्थः-जो बस्तु नहीं मिलसक्ती उसकी इच्छा पंडित लोक नहीं करते और जिस वस्तुका नाश होगया हो उसका रंज नहीं करते, आपत्तिम मोहके आधीन नहीं होते; कारन कि वह अच्छी तरह जानते हैं कि जिसका जन्म उसका मरनभी है, जिसका नाम है उसका नाश होता है ! जिसका बड़ा सम्बन्ध था व राजा, महर्षि और रिद्धिवंत थे वेभी चलेगये तो अपन किस बुनियादमें ? वो अच्छी तरह जानते हैं कि ( The virtune of adversity is fortituded ) विपत्तिका सद्गुण धीरज है (यानि विपत्तिकी मुख्य औषधि धैर्य है ) शोकके लिये दीन होने और धैर्यको छोड़ देनेसे उसके ज्ञानको निन्दा होति है. पंडित पुरुष ऐसे वक्त धैर्य, उत्साह और शौर्यका त्याग कदापि नहीं करते. वो शोक रूपी विकराल सैन्यके सामने धीरज रूपी तपके मारसे फतहमन्द होते हैं, उसमें ही धीरपुरु का धैर्य मालुम हो जाता है और उसी वक्त उनकी कसोटी निकलती है, कहा है कि आपत्स्वेव हि महतां शक्तिरभिव्यज्यते न संपत्सु अगुरोस्तथा न गंधः प्रागस्ति यथाग्निपतितस्य ___ अर्थ-महान् पुरुषोंकी संपत्ति में नहीं परन्तु विपत्ति मेंही शक्तिकी परीक्षा होती है जैसे कि अगर चदनकी सुगंध अग्नि में पड़े पीछेही मालुम होति है. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८९) __ और सच्च कहा जाये तो ऐसी घातकी चाल सज्जन लोक कढापि करते नही, माणात होते पर भी विरुद्धाचरण उन्होंसे होता ही नहीं, कारन कि विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधिविक्रम । यससि चाभिरुचिर्व्यसनंश्रुते प्रकृति सिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥ अर्थ-विपत्ति में धैर्य, क्रोधमें क्षमा, सभा वाणी की प्रत्री णता, युदमें पराक्रम, कीर्तीकी इच्छा, शास्त्राभ्यासका व्यसन यह महान पुरुपोंकी एक स्वाभाविक वस्तु है । परन्तु अपनेमें इससे उल्टा रिवाज है " रोतेथे और पीहरसाले मिले " एक तो अज्ञानपना और उसमें ऐसे सरान रिवाज आ मिले. ज्यादा मदवाड हुई कि उसकी सेवा करना तो अलग रहा और चिल्हा २ के रोना शुरु करते हैं जिससे बीमार आदमी थरडा जाता है और उसका अतकाल शीघ्र हो जाये, यही तो अपनी सूवी ' मनुष्य मृत्यु पाया कि धांधल मचाते पुन्प शर्माते नहीं, चैसे हो खिया अमर्याद रीतिसे रोनी फटती है, जराभी रजा नहीं रखती, ज्ञातिमें कोई मरा कि पतनीक औरतोंकी रोने कृटनेकी होस पूरी होती है, धिकार Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९०) है ऐसी नीच स्वीओंको! इस दुष्ट रिवाजने लोगोंकी मति कैसी बदल डाली है कि मरा सो छूटा, उसको तो कुच्छ देखते नहीं परन्तु पीछे रहे हुए मिथ्या शोकमें पड़कर अपने आप दुःखी होते हैं यह कितनी मूर्खाई है! अपना प्यारा मस्नानेसे रंज तो होताहै परन्तु क्या वह रंज लोकोंको बतलानेके लिये? तुम्हारी अंतरकी लगनी बाह्य वृत्तिसे दूसरोंको बताओ. अलचत सही है! शास्त्रभी कहते हैं कि शोक रुदनसे करम वंधते हैं. श्रीमद् यशोविजयजी उपाध्याय उनके अध्यात्म सार ग्रंथमें कहते हैं कि अंदनं रूदनं प्रोचेः शोचनं परिदेवनम् । ताडनं लुचनं वेति लिंगान्यस्य विदुषधाः॥ अर्थः-आक्रंदन-उचेस्वरसे रोना, शोक करना, नाम ले कर रोना, सिरकूटना वगैरः को पंडित आर्त ध्यानके लक्षन कहते हैं श्रीनेमिचन्द्र रचित घष्टिशतकमें कहा है कितिहुअण जणं मरंतं दुछुणानि अंतिजे नअप्पाणं । विरमंति न पावाओ विद्धिद्धिद्वत्तणं ताणं ॥ ____ अर्थ-त्रिभुवनके जनको मरण वश होते देखकर प्रमादसे व अभिनिवेशसे अपनी होनेवाली मृत्युको नहीं देखते और पापसे नहीं डरते उनकी धृष्टताको धिक्कारहै; कारण कि Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९१ ) नरेंद्रचंद्रदुदिवाकरेसु तिर्यग्मनुष्यामरनायकेसु । मुनिद्रविद्या धरकिन्नरेसु स्वच्छंदलीला चरितोहि मृत्यु अर्थ:-नरेंद्र, चन्द्र, सूर्य, तियेच, मनुष्य, देवता, इन्द्र, मुनिंद्र, रियाधर और किनरो मरण यह तो अपनी मरजी मुना रीला करते है। फिर पष्टिशतकमें कहा है किसोएण कदिउण कुट्टऊणे सिरचउअरच । अप्प खिरति नरए तपिहु धिद्धि कुतेहतम् ।। अर्थ --अपने प्यारेके वियोगसे जो शोक पैदा होता है ___ उसरे वास्ते छाती माया टूटते हैं ऐसे कुस्नेहीको धिकार' रिकार' विमारहै, पारण कि शोचंति स्वजनानतं नियमानान् स्वकर्ममि नेप्य माण तु शोचति नात्मान मूढ बुद्धय ॥ अर्थ - युदि वाले मनुप्प अपने पारेकी मृत्यु नो रि सार्मस हुई है उसरा शोक करते हैं परन्तु सुद एक नि खिंचा जायगा उत्तरा शाक नही परते फिर नागे पष्टिधतकमें कहते हैं कि, Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९२ ) एग पिअ मरण दुहं अन्न अप्पांवि सिपए नए । एगच माल पडणं अन्नं लुगडेण सिरिधाओ। अर्थः-एक तो प्यारे स्वजनके मरनेका दुःख, दूसरा उसके वास्ते रोकूटकर आत्माको नरकादि दुर्गतिमें डालना यह कोनसा न्याय कि एक तो मेडी परसे गिरना फिर और उसपर लकड़ीका मार अर्थात् कोई ऊपरसे गिरा और उसके हाथ पाव टा और उसके साथ उसपर लकडीकी मार पडे तबह कैसा कष्ट उठाता है ? ऐसेही मूर्खलोग अपने मुटुम्बीके मरनेके दुःखके साथ २ रो कूटकर आत्माको नरकादि दुर्गतिम डालते हैं! ऐसे खुल्ले शब्दोंसे रोने कूटनको निषेध ठहराया है तो ऐसी चाल किसलिये जारी रखतेहो ? ऐसा घातकी रिवाज जारी रखनेसे अपनने अपना मान घटाया है, दूसरे लोगों में हाथसें करके हँसी करवाई है, समझवान व असमझवान, चतुर और मूर्ख, पढेहुए और अपन, सर्व जने घातकी जुल्मी निलज्ज और दुःखदाई रूढीके ताने होकर अपने सर्व प्रकारके सुखमें एक बड़ा भारी भएका सिलगा रख्खा है, सुशील जैन वान्धवों ! आप उत्तम विधा सम्पादन कर सच्चा क्या है और झूठा क्या है यह समझने लगे हो, रोने कूटनेकी निर्लज्ज चाल रूपी वेडीके बन्धनमें आकर आपका दिल तो जलता होगा, Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३) आपको ज्ञातिका भला करनेकी इच्छा होनी चाहिये, आपको आपके पवित्र शान पर तो पूरी श्रद्धा हेही, टोटा रसकर नफा मिलाना यह तो आपका खास गुण हैही, तो वेहमी और अज्ञान मनुष्योंके हसीके पान होकर ऐसी अज्ञान सूचक नफट और निर्लन चालका नाश करके आपके ज्ञातिभाइयों को क्या सुखी न करोगे ? अवश्य करोगे। __रोने कूटनका रिवाज हानिकारकही नहीं, पर शमावे ऐसा और धिकारपान है! हरएक चतुर मनुष्यका कतव्य है कि अपने घरमेसे और जाति तथा देशमसे एसे नफट चाल जड मूल्से निकाल देना चाहिये. आप विचार कीजिये कि इस चालको निकाल देनेमे आपको कोई तरहका गैरफायदा होगा क्या ? बिलकुलनहीं ! उलटे अनेक जातके राम मिलेंगे. दूसरे लोगोंमें आपकी आपर बढेगी आपके वास्ते अच्छे विचार पैदा होंगे, आपके धर्मका मूल दयाही है ऐसा अन्यदर्शनीय लोग घरावर समदोंगे, सासारिक सुधारा करनेमें आप अग्रेसर होनेमे नामाकित होजाओग कदाचित् आप पूछेगे कि कुटुम्बीके मृत्युके वक्त रोना स्टना नहीं तो क्या करना ? उसके जवानमें मृत्युके समय ऐसा गहेलापन न बताते प्रभुका स्मरण करना चाहिये-और मृत्युके बाद अपने सगे सोई आकर रोने कूटने लगे तो Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९४) उनको ऐसा करते हुए अटका कर नोकरवाली (माला) 'उन्हें देकर कहना चाहिये कि प्रभुका नाम ले कर अवतार सफल करो. बडोदेमें एक अच्छे घरमें मृत्यु होगईथी तब उसके घर रोने कूटनेको आई हुई स्त्रियों को इसी मुजव नो. करवाली देनेमें आईथी, उसी मुताविक हरएक जगह ऐसा रिवाज होना चाहिये. इसलिये ज्ञातिके सर्व अग्रेसर महाशयोस मेरी नम्रता पूर्वक प्रार्थना है कि वोह अपनी ज्ञातिको इकही करके सर्वानुमतसे इस चालका सुधारा करके अपनी शातिके कलंकको नष्ट करें-और यह करना हरएक ज्ञातिके अग्रेसरों का कर्तव्य है ! कदाचित् कोई कहेंगे कि वहोत दिनोसे होती आई चालको नष्ट करने की खटपटमें कौन पड़े और लोकोका अपयश कौन सिरपर ले ! भाईयो ! रोने कूटनेकी चालसे बड़ा भारी नुकसान अपनेको सहन करना पड़ता है यह अपनको ज्ञात हो तो ऐसी सराव रीतिको मार्गमें ले जाना और उस रस्ते आपनकों चलना. वान्धवों ! इस रस्ते चलनेकी होंस न करना चाहिये क्यो कि यह पाप है और स्वाभाविक नियमसे उलटा है. मनुष्य लदाका कर्तव्य यह है कि कोई खराव रूढीका अपनमें प्रचलित होना ज्ञात हो जाये तो उसको निकालनेका उपाय करना चाहिये, इसमें आपको कोई द्रव्य व्यय न होगा सिर्फ जवान हिलानेका काम है. . Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९५) ऐसी हानिकारक घातकी चालको आपके हाथ से ही बन्द करना यही सबसे उत्तम है । अपने महान दयालु बृटिश सरकारने राजपूताने में वालहत्या होनेका अटकाया, सती होनेकी चाल बन्द की इत्यादि हिन्द लोगोंके कुरिवाजों में बहुत कुछ सुधारा किया गयाहै, वैसेही जाहिर रास्ते में दिलकाप उठ आवे ऐसा शरीर पर घातकीपना करनेवालों को सरकार मना कर सकती है। परन्तु हरएक सामारिक मुधारे आप अपने हायसे ही करेउसीमें ज्यादा मान और शोमा है। इसमे आपकी जगह जगह प्रशसा होगी, और लोग वस परपरा तक आशीर्वाद देंगे। ऐसे पुण्यके काम करनेसे आपकी आत्मा सदगति भोगेगी। मृत्यु के बाद मे जीमना. ----KIKAH--- मृत्युके बाद रोने कूटनके साथ ' जीमनारका बहुत निकट सबध है । इसमे मृत्युके बाद जीमनगारके विषयमें दो वोल वोले जावें तो अनुचित नहीं है। जगतका स्वाभारिक नियम है कि हरएक मनुष्य आनन्द यश और समागमकी आकाक्षा रखते हैं। उमके हरएक काममें और उसके हरएक सम्बन्धमें और उसके हरएक तरगर्म हरएक मनुष्य ऐसी इच्छा रखते हैं कि मुझे फलाना काम करनेमें आनन्द मिलता है इमलिये वह काम करना चाहिये, फलाने काममें यश मिगह इसलिये दुसरे काम करनेको Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आशा न रखते वही काम करना, और आखिरमें प्रतिष्ठित मनुष्यका समागम होनेसे मुझे शोभा मिलेगी इस लिये उन (प्रतिष्ठित मनुष्य ) का समागम करना चाहिये। इसी हेतुमे जीमनेकी परिपाटी प्रचलित हुई होगी ऐसा ज्ञात होता है। यह परिपाटी मंसार व्योहारका आनन्द देने वाली है यह तो सब कबूल करेंगे, परन्तु इतना ध्यान में आवेगा कि जीमना, जिमाना यह लग्नं अथवा उसके जैसे दुसरे प्रसंगमें आनन्द देने वाली है। परन्तु मृत्युके समय जिस वक्त प्रिय स्नेहीके अकाल मृत्युसे आपके दृदयमें एक जंगी चोट लगी ऐसा हो जाता है और उमके जनमके मारे आप रोते हैं तो ऐसे प्रसंगमें जातिके लोगाको मिष्ठान्न खिलाना यह कौनसे मकारके आनन्दका कारण है सो ज्ञात नहीं होता। _ मृत्यु यह कोई छोटी बड़ी वात नहीं है । मनुष्य मरगया और लकड़ीका टुकड़ा टूट गया यह वरावर नहीं, तोभी मृत्युके वाद जीमनवार इतना जरूरतका हो गया है, कि दूसरे शुभ अवसर पर न होतो नहीं सही, परन्तु मृत्युके बाद जीमनवार तो करना ही चाहिये, स्वर्गस्थके कुटुम्बको एक मनुष्य रत्नकी खामी पड़ी उसका तो कुछ नहीं, परन्तु उसकी जानका भोग देना ही चाहिये. खर्चकी शक्ति हो या न हो, भविष्यम पालन पोषणके सांसे हो तो भलही हो, परन्तु स्वर्गस्थका नुकता तो करना ही चाहिये । यह कहांका शानपन ? स्त्रीकी अघरनी और मा वापका Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७) करियापर यह फिर से वारवार आते नहीं, ऐसी कहावत है। इससे ऐसा प्रसग आये तो घरवार और घरकी वस्तु वगैर वेचकर जातिको जिमाने के लिये लोग तैयार होते हैं । मौसर करना यह एक जातिका हकही होगया है, यदि सरकारके करमेंसे माफ कराना हो तो अर्ज करके माफ करा सकते है, परन्तु इस रिवाजने तो इतनी जड जमादी है कि दुटताही नहीं धिक्कार हे ऐसे रिवाजके । शक्ति हो न हो परन्तु जाति वालोंको तो जिमानाही चाहिये यह कितनी दु खदाई पात है । पतिके मृत्युके बाद उसकी विधवा स्त्रीका घरवार रेचकर नुकता करना यह जुल्म नहीं ? ___ मरनेहारेके परवालोंकी आखोंमेंसे चौधारे आम बहरहे हैं वे दूसरों के सामने ऊचा मुंहकरके देख नहीं सकते ऐसे समप जाति वाले मिष्ठान उडाते है । क्या यह आपको कमशीने लायक याप्त है। जिस जगह लोग शोकम निमग्न हो रहे है वहां जातिवाले इर्प मानते है यह क्या कम अपमान दायक वात है ' परन्तु कितनेक मनुष्य करते है कि हम कर कहने को जाते है कि तुम नुकता करो और यदि नुकता न करे तो जाति उसे सजा थोडीही देता है । यह पात सत्य है कि जाति सजा नहीं देती परन्तु जातिके कितनेक लोग उसे दृष्टात देदे कर गमी दोट कर देते है, तो इमसे ज्यादा क्या रम । जाति पाळे तो नहीं भटका सकते परन्तु लोगोंके दृष्टांतोंसे नुकता करना पडता है । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) इससे ज्ञातिके सर्व मनुप्योंका कर्तव्य है ऐसे हीनकारक रिवाजोंको विलकुल उत्तेजन नहीं देना चाहिये, इतनाही नहीं परन्तु इस दुष्ट रूढीका अपने प्यारोमें पैरही नहीं रखने देना, यदि प्रवश हुई हो तो उसको निकाल देना चाहिये और इस रीतिसे वेचारे गरीब लोगोकोपड़ते हुए वोझ से मुक्त करने चाहिये। मृत्युके बाद नुकतेका रिवाज दर करना यह गरीब लोगोंका काम नहीं है, सेठिये तथा अग्रेसरोंको इकट्ठे होकर ठहराव करना चाहिये, कि कोई घरको मृत्यु हो तो नुकता (जीमनवार) विलकुल करना नहीं, और यह पहिले पसवालोंने निकालनी चाहिये. कितनीक वक्त ऐसा होता है कि जातिके बन्धेहुये धारेको कोई उल्लंघन करे तो उसको सजा होती नहीं परन्तु ऐसी बावतोंमें अग्रेसराको ध्यान रखना चाहिये कि जिससे धारा तोड़ने वाला पैसेवाला या गरीब हो उसे योग्य शिक्षा देकर ऐसे ऐसे दुष्ट रिवाजोंको निकालना चाहिये। लोगोंको यह रिवाज वन्द पड़नेसे वेचैनी तो होगी, परन्तु ऐसा करनेका कोई कारण नहीं, जब वो कई बार जीम २ कर कलेजा ठंडा करलेते हैं परन्तु जब उनके खुदके घर ऐसा मौका आवेगा तब मालूम होगा कि जातिको जीमाते आंखें खुलती हैं, ऐसे लोगोंको समझना चाहिये कि वेचारे गरीब घरमें घकिा छीटा नही देखते, खानेंको आज मिला तो कल नहीं, रात दिन परिश्रमकर पैसा कमाकर Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९) अपना गुजरान करते हैं, उसके घरमें मृत्यु होनेसे जीमा रूपी देही पावमे पडनेसें जो दुःख सहन करना पड़ता है वह तो एक परमेश्वरही जानता होंगा।। इममें जातिके अग्रसरोंसे नम्रता पूर्वक मेरी प्रार्थना है कि, जो अपनी जाति मे निकम्में पैमे उडाते हो, और आपकी जातिके गरीबोंकी दया हो तो कृपाकर मृत्युके बाद नुकता ( यह रजके ममय हर्प) तुरन्तही बन्द करना चाहिये इसमे आपको हजारों गरीव जाति वालोंको निभा लेनेकी आशीस मिलेगी। श्री सरका दाम कस्तुरचन्द गादिया Page #216 --------------------------------------------------------------------------  Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HSANAT -- PAN AN - PM RUN WTSA Seth Chandanmalji Nagori, Esq NI INE RAPHAAR ANIMNY maanlunARMAN. %3D Sta INE IN.MN - PLY श्रीयुत् शेठ साहेब चदनमलनी नागोरी म डोटीसादडी (मेवाड ) HYSISEASY AMITY 1 . . V..2-1V IVOL. - - 4 १LIP . . HAVEIVEVM . Page #218 --------------------------------------------------------------------------  Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१) मनोनिग्रह. । लेखक-चदनमल नागोरी छोटी सादडी-मेवाड. प्रिय पाठक ? "मन एव मनुष्याण कारण वध मोक्षयो" यह शास्त्रका खास वचन है मनुष्यको वधनमें डालनेके लिये और मोक्ष प्राप्तिके लिये मन प्रधान तुल्य है मनोनिग्रहका विपय अल्त गहन है इसकी व्याख्या सविस्तार करनेकी च लिखेनेकी शक्ति लेखकमें नहीं है मगर पाठकोंको अनु भव होगा कि, यह मन कोई चरुत ऐसी कुविकल्प जाल फेला देता है कि माणीको कृत्याकृत्यका विचारही नहीं आ नेदेता और मनको दश रखना भी आवश्यकीय है-ओर यह वशीभूत होना भी मुगविल है क्यों कि दुविम्ल्प जालोंसे नित होना सन्ज नहीं है, जैसे पारपीकी जारमें आया हुआ मच्छ नीकल नहीं सक्ता इसी तरह मनरूपी पारधीकी कुपिल्प जालमें आया हुआ जीव निकलनेको असमर्थ होता है और जिस कदर पारवी जालम आई हुइ मन्छीको मारनेका प्रयत्न परता हे इस तरह यह मन नर्कम लेनानका प्रयत्न करता है ओर अनेक विचारोंकी श्रेणी विचारशील होकर तैने जो मुकृत्य किया है तो उन्हें क्षणभरमें नष्ट करने वाला और दु Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) गति लेजाने वाला यह एक मन है इस लिये शाखमें वयान है कि मनका विश्वास नहीं करना, मनक विश्वाससे दुःख उत्पन्न होता है जैसे विश्वाससे जालमें आया हुआ मच्छ निवृत्त हो नहीं सकता इसी तरह मनका विश्वास कर कुविकल्प जालॉमें आया हुआ प्राणी निवृत्त होनेमें अशक्त होता है. आपको मालूम होगा कि, देवपूजा, अशुभक्ति, सुकृत्य और नित्यानुष्टान आदि करते वख्त मन दूर देशामें मुसाफरी कर आता है और मुसाफरी भी ऐसी जबरदस्त करता है कि एक मिनीटमें क्या सेकेन्डमें तमाम हिन्दुस्तान आदि सुल्कॉम घूम आता है, जब अपने मनको स्थिर कर दो घड़ी के लिये सामायिकादि क्रियामें प्रवृत्त होते हैं उस वख्तका हाल जरा दीर्घ द्रष्टीसे विस्तार कर विचार करो कि प्रथम शुद्ध स्थलमे स्वच्छ आसन ऊपर पवित्र मुनिराजकी समक्ष दो घड़ी स्थिर रहनेका नियम लेनेपर भी यह पापी मन वशमें नहीं आता. और लेखक अनुभवसे लिखता है कि पडिकमणादि क्रिया करते वख्त जो कृत्य करनेका व सनझनेका और पश्चाताप करनेका है उसे भूल कर घरके धंधोसे जा लगता है. हे परमात्मा ? पडिकमणादि अवस्था. चौराशी लक्ष योनि व यढार पाप स्थान, अभ्युठीयो, आयरिय उवञ्जाये, अहाजेमु और वंदित्तु आदिका सारांश और रहस्य समझनेका खास कृतव्य होने पर भी मन इधर उधर भगता फिरता है. और Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३) पूर्वाचार्योंके जीवनचरित्र ( सझाय ) का अनुकरण करनेके लिये जो समाय कही जाती उस पर व्यान नही देकर पडिक्कमणा जल्दी खतम हो जानेकी इच्छामें लगा रहता है इस तरह मनकी कुविकल्प जारों में फसा हुवा मनुष्य आधे घटे= में पडिकमणा खलास करके अपनी आत्मासा उद्धार हुवा माने वह भूल करता है। पडिमणेका खास उमेश यह है कि पिये हुरे पाप पर निरीक्षण करना अत करणसे पश्चाताप कर पुन ऐसे दुष्कृत्य नही करनेका विचार कर निरधार करना यह खास आवश्यक क्रियाका हेतु है वाचक वृद ? खास हेतु समझनेके शिवाय ऐसा मत गौचना कि शुद्ध भावसे और मनकी एराप्रतासे क्रिया न हो तो पिलमुल करना ही नही चलो उल्लत टी मगर गाखानुकल और शुद्ध करनेका अभ्यास करते जाना है मुशो। जिस परत धमनियामें व्यानारूड होते हैं उस परत यह मन अनेक स्थल व्यापारमे घरमें पुन परिवार में और दुम्मन सेगा भरा उरा करनेमें लग जाता है हाथमें मारा मुहसे रामराम और पेटमें लरी करनेकी दानत ऐसी धर्मानुष्ठानकी क्रियाके परत रखनेको समय हो जाता है ऐसे दुराचारी पाखडीग विश्वास करना अनुचित है प्रिय आत्मवधुवर्य ? ॐमार आदि जाप करो, तपश्चर्या Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०४ ) करो, ध्यान करो, आश्रव रोको, इंद्रीय दमन करो, मौनव्रत स्त्रीकारो, आसन स्थिर रहो, ध्यानारूढ रहो, गुफामें बैठो या हिमालय पवर्त पर जाओ, जनसमूहके मव्यमे रहो या जंगलके बीचमें जाओ, निवृत्ति स्थलमे जागोया मत्ति स्थलमै रहो सगर जहांतक मन वश न होगा सर्व अष्ट क्रिया निप्फल है. जहांतक स्थिर चित्तसे शाम नियमानुसार नहीं चलोगे और इर्पा निंदा राग द्वेशमें अहोनिश मग्न रहोगे वहांतक सर्व क्रिया अप्रमाणिक है वास्ते हे वीरनंदनो! मनको वश रख. नेके लिये पूर्वाचार्याक कर्तव्यको स्मरण कियाकगे. एकदा श्रीआनंदघननी महाराजने अपने मनको वश रखने के लिये , प्रार्थनाकी है और संगीतमें गा कर फरमाया है कि, राग अलच्या देलागल. जिया तोहे किस विध समझाऊं। मना तोहे किस विध समझाऊं ॥ हाथी होय तो पकड़ मंगाउं, जंजीर पांव नखाऊं। कर असवारी मावन हो वैठे, अंकुश दे समझाऊ॥१॥ मना तोहे किस विध समज्ञाऊं। घोड़ा होय तो पकड़ मंगाउं, करड़ी वाग देरा ॥ कर असवारी शहरमें फेलं, चाबुक दे समझा। मना तोहे किस विध समझाऊं ॥२॥ सोना होय तो सोहगी मंगाउं, करड़ा ताप देराऊं। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०५) ले फुकरणी फुकण लागु, पाणी ज्यु पिघलाऊ॥ मना तोहे फिस विध समझाऊ ॥३ ॥ रोहा होय तो एरण मगाउ, दोइ क्यण धमाऊ । मार चणाका घम घोर लगाउ, जनी तार कटाऊ। यना तोहे किस विध समझाऊ । ॥४॥ ज्ञानी होय तो ज्ञान सीखाउ, अतर बीन बजाऊ। 'आनदयन' कहे गुणभाई मनवा, ज्योतिसें ज्योत मिलाऊ। मना तोरे किस विध समझाऊ ॥५॥॥ श्रीमन् महात्मा आनदघनजी महाराज सारमाको मार्थनाके तुल्य यहते है कि हे मनवा (मन) ? जो तु हाथी होता तो में पकड कर तेरे पांवमें जजीर डालकर सारी करता और अश देकर तुने अच्छी तरह समझाता, मगर क्या किया जाय तु हाथीभी नही. हे मन । जो तु घोडा होता तो में पड कर काटेदार साम रगाके उपर बैठकर शहरमें फिराता और चाबुक दे पर समझाता, मगर तु घोराभी नहीं है. हे मन तु धातुओंमें सर्वोत्तम शिरोमणी मुवर्ण अर्थात् सोना होना तो में तेरे लिये सोहगी मगपाता और यूर करडा तार दिलाफर राण तापसे पानी जैसा पिरला कर समझाता मगर नु सोनाभी नहीं है. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ( २०८ ) वाको मन न ढ़के काहुं ठोर ॥ मना ऐसे ॥३॥ जुआरी मन जुआ वसेरे। कामीके मनकाम (मेरे मना कामीके मन काम)॥ आनंदघन प्रमु यु कहरे, (आनंदघन मना यु कहेरे) नित्य सेवो भगवान, मना ऐसे जिनचरना चित्तल्यारे॥५॥ चाचकटंद ? अनुभव विद्धन महात्मा योगीराज स्वात्मा को सदुपदेश देते हुवे फरमाते है कि हे मन ? ज्यों ज्यों दिन निकलते जाते हैं त्यों त्यों उमर कम हो रही है, जो क्षण गया वह पुनः आने का नही वास्ते अरिहंत प्रभुका स्मरणकरनेमें तत्पर हो. जैसे गाय उदरपोषण अर्थात् पेट भरनेके लिये बनखंडमें जाकर घास और पानीसे विवाह करती है मगर जो उसकी संतान (बछडा) साथ न होगा तो उसका मन छोटे बच्चेपर बना रहता है, इसी तरह हे मनवा ? तुंभी व्यवहारिक धार्मिक कार्य करते वख्त तरण तारण भव भयनिवारण परमात्माके चरनकमलमें ध्यान रखनेको प्रवृत्त हो. हे सुज्ञो ? जैसे पांच पांच सात सात स्त्रीयों-झुंडके झुंड पानी भरनेको दापिकाकी तरफ जाती हैं और मटका शिर पर लेकर सखी सहेलियोंके साथ हंसती हुइ स्मित वदनसे मशकरीमें व्याप्त होकर वसुंधरा पर चलती है। मगर उनका ध्यान पानीके मटकेसे अलग नहीं होता, इसी तरह हे मनवा ? तुंभी सुमति रूपी रंभापरी होकर शियल ? समता ? Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (००९) ब्रहमचर्य ? घोर तपश्चर्या ' तीर्थ यात्रा' देशपिरती । चैत्य प्रतिष्ठा ? जीर्णोद्धार ' सुपात्रदान ' ओर चतुविध सघनरी भक्ति रूप सहेलियोंके झुड साथ लेकर मुकृत्य रपी मटका शिरपर लेकर धर्म रूपी वापिकामें धृति ? क्षमा औदार्य : गाभिर्य ? निष्कपटता ' सरल्ला मृदुता ? विवेक ? सर? उपशम रूपी जल भरनेको जा और फिर राग, द्वेष, तज्जन्य, कपाय, मोह, क्रोध, लोभ, मान, माया, मिथ्यात्व, प्रमोट. और जो तेरे शत्रु है वह तेरे सिरपर रहा हुवा जो मुकृत्य स्पी मदना उसे गिरानेका प्रयत्न करेंगे, मगर हे मनदा हुँ व्यान भृष्ट मत होना पाटम पर्य' दीर्य द्रष्टीसे विचारने तुल्य है कि पेट भरनेको वीच चोकके मध्यमें नटवा हायसे वास पकड कर रस्सी अपर चलनेको समर्थ होता है और नीचे तमाशबीन लाखों मनुप्य शोर मचाते ह, मगर उस नटवेका ध्यान लोगोंके शोर कोरकी तरफ नहीं जाकर स्थिर रहता है, जो ध्यान भ्रष्ट होकर नीचे पडजाय तो नटवा मरण प्राप्त करेइसी तरह हे सुज्ञो" है मन ! तु भी मुकृत्य रूपा वास हायम पकडकर धर्म रूपी रस्सी पर चलनेकी हिम्मत कर और लाखों मनुष्योंके शोर रूपी अनेक प्रकारके विघ्न तुझे प्राप्त हो तोभी तु व्यान भ्रष्ट नहीं होकर प्रभुस्मरणम चित्त लगाकर अहंत ध्यानारूढ होना, और जो मनको वशमे नहीं रखकर Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) ध्यान भ्रष्ट होकर मुकृत्य रूपी डोरीसे गिरजायगा तो मरण प्राप्त कर नर्कादिमें उत्पन्न होना पड़ेगा. वास्ते जो तुझे योग्य मालुम हो वैसा करनेमें तत्पर हो. फिर श्री अनुभववेत्ता योगीराज फरमाते हैं कि हे मन ? जैसे जुआ. ( जुगार ) खेलनेवाले मनुष्यके व विपयानंदी मनुष्योंके ध्यानमें जुगार और विषय हरवख्त व्याप्त रहता है इसी तरह कुंभी ज्ञानरुपी जुगार खेलने में तेरे काठीयाओं को खो दे अर्थात् हार जा. और धमरूपी इश्क में मतृत होकर श्री महावीर परमात्माका स्मरण करनेमें तत्पर होजा. हे वाचकवृंद ? योगीराज के सुविचारोंकों हृदयतट पर माओ और मनको वश करनेके लिये विन महात्माका अनुकरण करो और शुरुसे मनवश रखनेका प्रयत्न किये जाओ और फिजूल विचारोंको देशनिकाला देदो. एक जगह एक विश्वरने फरमाया है कि, विन खाधां बिन भोगव्यांजी, फोre कर्म धाय ॥ आर्त्तध्यान मिटे नहींजी, कांजे कवण उपाय रे ॥ जिनजी || सुज पापीनेरे तार || इत्यादि ॥ भाई ! श्री आदीश्वर भगवान के स्तवन में श्रीमन् महात्मा Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२११) जिनहर्पजी महाराज उपरके फिररेमें बयान फरमाते हैं कि चिना खाये बिना भोग विदुन और विना किये ही मनुष्य वाती यातमें कर्म चीकने करलेता है और आर्च रौद्र व्यानमें मगन रहकर तत्त्वको स्मरण नहीं करता, वास्ते ग्निहर्पजी महाराज कहते हैं कि हे जिनजी? मनको वशमें रखनेलिये क्या उपाय करना चाहिए और जब हमसे कोई उपाय नहीं होगा तो भी हे परमात्मा' मुज पापीपर दबाकरके ससार रूपी समुद्रसे तिरादेना यही पारवार वीनती है हे सभ्यो ? महात्मा आनदधनजीकी तरह वा श्री जिन हर्षमुरिजीकी तरह आपनभी कभी अपने मनको समझानेका श्यन्न किया है ? या मन में नही रहनेकी हालतम विश्वोएकारक परमात्मासे सभी वीनती की हो तो स्मरण करो अरे पाठक । पूर्वाचा!का अनुकरण करनेकी तुम्हारी खास फर्ज है और तुम बडे बडे द्रष्टात सुनते हो मगर उनका अनुकरण नहीं करते यद्द तुम्हारे हक्में ठीक नहीं है हे मनुप्यो ' तुमने श्रीगुरुमहाराजकी अमृत-मय देशनासे श्रवण किया होगा कि मनको वशमें न करनेसे नटणीके साथ विपय भोगकी लालसासे पुल भ्रष्ट कराथा उसी नटवेकै स्वरूपमें नाचनेवाले एलायची कुमरने मनको वश किया तो नाचते नाचते केवलज्ञान प्रगट हो गया हेभाई नृत्यकलामें मनको एकाग्र नहीं कियाथा, मगर एलायची Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) कुमारने नाचते नाचते मुनिराजको देख कर अहर्त ध्यानाद्ध हुवा था और संसारकी वासना नष्ट होगइ थी जिससे केवल प्रगट हुआ. ____ और आपने सुना होगा कि आरिसेभुवनमें मनकी एकाग्रता करनेसे भरतेश्वर चक्रवर्तिने केवल प्राप्त कियाथा. इस तरह जैनशास्त्रोमें गजसुकमाल, मैतार्य मुनि स्कंधाचार्य आदिके ब. होतसे द्रष्टांत मोजुद हैं, ज्यादा जाननेकी खवाहीगवाले जिज्ञानुओंको मुनिराजोंसे दरियाफ्त करना. __ सभ्य पाठको? ऊपरका हाल सब समझमे आगया होगा. मगर तुम अपने मनको वशमें रखनेका प्रयत्न किये जाना और जब आपका मन आपसे प्रतिकूल हो तो वीतराग देवक समक्ष जाकर अर्ज किया करना कि जिससे आपकी प्रवृत्ति स्वच्छ हो. ___एकदा श्री आनंदघनजी महाराज मन बशमें न आनेते श्री कुंथुनाथ स्वामीसे वीनती करते हैं सो पाठकोंके समझानार्थ नीचे लिखता हुँ उसे पाठक ध्यान पूर्वक पहें. ॥राग गुर्जरी "अंवर देहो मुरारि"। यह देशी ॥ मनहुँ किम ही न वाजे हो कुंथु जिन, मनई किम ही न वाजे, जिम जिम जतन करीने राखू, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ) तिम तिम अलगु भाजे हो | कुथु जिन ॥ १ ॥ रजनी वासर नसती उजड, गयण पाया जाय, 1 साप खाये ने मुखड थोधु, एह उखाणी न्याय हो || कुथु जिन ॥ मुगति तणा अभिलापी तपिया, नान ने यान अभ्यासे ॥ यदि कइ एहनु चिंते, नाखु अपले पासे हो | कुथु जिन || ३ || आगम आगमरने हाथ, नाये क्णि विप आहे ॥ पिंटाकणे जो हट करी हटर, (तो) व्या नणी पर कु हो कुयु जिन ॥ ४ ॥ लोग कहु तो टगतो न देख, माहुकार पण नाहि || मी मा ने सहयी अलगु, ए अचरिज मन माही हो ॥ वृधु जिन ॥ ५ ॥ जे जे क्हु ते कान न धारे, जाप मने रहे काळ ॥ सुर नर पडित जन ममजावे, ममन न माह रोमाठु हो । कुबुजिन ॥ ६ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४ ) में जाण्यु ए लिंग नपुंसक, सकल मरढने ठेले ॥ वीजी वाते समरथ छे नर, एह ने कोइ न झेले. हो । कुंथु जिन ॥ ७ ॥ मन साध्युं तेणे सघलुं साव्यु, एह बात नही खोटी ॥ अमके साध्युं ते नवि मार्नु, एह वात छे मोटी हो ॥ कुंथु जिन ॥ ८॥ मनहुँ दुराराध्य तें वश आण्यु, ते आगम मत आएं॥ आनंदघन प्रभु माहरूं आणो, तो साचुं करी जाणुं हो ॥ कुंथु जिन ॥ इति ॥ प्रिय पाठक ? योगीराजका मन वश न हुवा हो ऐसी हालतमें आनंदघनजी महाराज श्री कुंथुनाथ स्वामी ( श्री सत्तरमें तीर्थकर ) से वीनती करते हैं कि हे विभो ? में अनेक ध्यान मौनादि कष्ट क्रिया करके मनको आपके चरणमें लगाना चाहता हुँः परंतु पापी मन अन्य स्थलमे लग कर आपके चरनमे नहीं लगता और ज्यों ज्यों मै इस मनको कब्जे करता हूं त्यौं त्यौं यह दूर भगता जाता है, हे नाथ ? रात्री दिवस (दिन ) उजाडमें वस्तीम, पातालमें और आकाशादि स्थलम मन चक्कर खाता फिरता है। मगर किसी स्थल पर इसकी गति Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) (धेग स्थिर नहीं होती, क्यों कि इसकी चचलता अत्यंत है और यह पापी जगह जगह दोडता है, मगर इसरो सर्पकी तरह सपूरी नहीं आती, जैसे व्यवहारमें कहते है कि मर्पने काट खाया, मगर असली वात सोरे तो खाया क्या। चारे के मुदमें एकभी पाल नहीं आता इस रिये कहा है कि साप ग्वाय ने मुग्वह योयु, सर्प ग्वाता है मगर उसका मुह तो खाली रहनाता है इसी मुवाफिक अत्यन्त पेग घपल मन भरता है मगर तप्णा पूरी नहीं होती ___ हे कुधनाय स्वामी ' आपके शासनमें अनेक मोक्ष अमिलापी ज्ञान ध्यान सहित तपयर्या करते हैं और मनको वश करने के लिये प्रयत्नभी फरते है मगर स्वात्माका म्वरूप प्रगटाने वाले महामुनिको यह पापी मन ऐसी दुशमनारसे प्रपच जाग्में डार देता है रि पिना प्रयाससे भाभ्रमण करते फिरो प्यारे वाचक ? आपो मालुम होगा कि मनापी दुसमनने श्री प्रसनचद्र रानपि पर फैसी जाल रचीथीयह दृष्टान पाठौर समानार्थ सोपसे नीचे दरज परता श्री क्षितिमतिष्ठिन नामक नगरमें विशाल भुजाल्वाले महागन शमनमें गुमर और न्यायके नमूने मिनी गोमा अन्तरिम्तीर्णरोमानयी ऐसे श्रीमसनद राजारातपरतये पया वीरभगवानको ममरसपं मुनकर मममनट गना बदन Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) करने पधारेथे. श्री भगवंत भी योग्य अवसर देखकर धर्मदेशना देने लगे और राजाको वैराग्य प्राप्त होनेसे अपने लघुवयके पुत्रको राज्य सौंपकर आप दिक्षा ग्रहण करते हुचे और अनेक परिश्रम करनेसे मुनिश्री राजी कहलाये. एकदा वह राजर्षी धर्मतत्त्वका चितवन करते हुवे शुक्ल ध्यानारुड शुभ भावना मय होकर राजग्रही नगरीके समीप कायोत्सर्ग ध्यानमें खडेथे, इस अवसरमै श्री वीरभगवान समो सय श्रवन कर जनसमूह झुंडके झंड दर्शनार्थको जारहे थे. उन मनुष्यामे दो पुरुष क्षितिप्रतिष्ठित नगरको भी जा रहे थे. उनमेंसे एक मनुष्य अपने पुराणे राजाको देखकर वोला कि हे भाइ ! इन राजर्षीको धन्य है कि जो राज्यलक्ष्मी वित्तवैभवादिको त्यागके चारित्र ग्रहणकर विषम मार्गमें चलनेको अच हुवे. इस तरह सुनकर दुसग मनुप्य बोला कि-अरे इन्हें धन्यवाद काहेका? यह तोधिःकारने तुल्य है क्योंकि इन्होंने कुछभी सोचे समझे बिना अपने लघुवयके पुत्रको राज्य सिपुर्द कर योगी होगये और अब इनके दुश्मन बेचारे बालकको सताते हैं और प्रजा सर्व तबाह होगइ है. तो इन्हें क्या धन्यवाद देना ! मिय पाठक ? दोनों पुरुष वात करते करते भूमि उलंघन करगये और इधर संसारसे निवृत्त होनेपर भी इतकी बात सुन Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०१७ ) पुरके मोहमें फसकर प्रसन्नचर राजर्षी व्यानभ्रष्ट हुवे और शरीरमें कोष व्याप्त हुआ मनही मनमें लडाइ करनी शुरुको और दुश्मनोको मारने लगे इतनेमें वीरमभुके दर्शनार्थ जाते हरेणीक राजा मुनिको देखकर वढना करने लगे-मगर मुनिने धर्मलाभ नहीं दिया जिससे श्रेणीक राजाने सोचा कि मुनि गुह यानमें लयलीन हैं ऐसा विचारकर वीरभगवानके ‘समीप पटुचकर श्रेणीक महाराज प्रश्न करते हुवे कि हे भगचान् ? मेने देखे उस हालतमें प्रसन्नचद्र राजपी आयुष्य पूर्ण करे तो कौनसी गतिम जाय ? प्रत्युत्तर प्रमु कहते हुवे कि-हे श्रेणीक ' सातमी नर्फमें उत्पन्न होवे ऐसा मुन श्रेणीक राजा विस्मय होकर पिचारमे प्रवेश हुवे. पाठको' श्रेणीफ राजा विचारमें है चलो अपन प्रसन्नचद राजपीकी तरफ चले हे भाइ। मुनि तो प्रचड युद्ध में लगे और मनही मनमें सर्व शत्रुओंका वध करने लगे और एक प्रगान पाकी रहा, मगर शस टूटजानेसे शिरपरके मुकुटसे मारने की तैयारी कर, मुकुट लेनेको शिरपर हाथडाला तो केश गुचित गिर हाथ आया और भ्रष्ट हो गये. वह महात्मा साव धान दुवे अपनी आत्माको घि कारने लगे, ज्ञान द्रष्टी जाग्रत हुइ, विपर्यास भार नाश हुवा और सोग प्राप्त कर ससार भ्रष्ट होने पाले मुनि कहने लगे कि-किसका राज्य, सिका परिवार, यह सर अस्थिर है और मैनें प्रथमसतरा भग किया Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२०) मात्मा! यह आपसे विमुख रहता है. वाचकटंद ! इस लिये मनको ठग कहा जाय तो क्या हर्ज है ? मगर प्रत्यक्षमे ठग मालुम नहीं होता और साहुकार भी मालूम नहीं होता; क्योंकि गुप्त रीतिसे पांचों इद्रीयमें मिल रहा है और इंद्रीयें अपना अपना विषय भोगती हैं तो यह वोचमेही प्रपंचजाल रचदेता है और सबके शामिल व सबसे अलग दोनो वातामें मुस्तेज यही एक आश्चर्य तुल्य है. ___ आनदयनजी महाराज कहते हैं कि हे विभो ! में जब इसे हितशिक्षा कहता हूं तो हृदय तटपर स्थिरही नहीं होनेदेता और स्वछंदाचर्णमें मग्न होकर आर्त रौद्र ध्यान में प्रवृत्त रहेता है वास्ते हे भगवान ! में इस मनको कैसे समझाउं? ! ___वाचकटूंद ? महात्माका फरमान सत्य है क्योंकि देवता जो सर्व शक्तिमान हैं-वहभी सर्व कार्यम समर्थ है. मनुष्य ऐसे होते हैं कि जिनसे सिंह अष्टापद जैसे जानवरोकोभी भय पैदा होता है. और पंडित जो वादविवाद करनेमें समर्थ है ऐसे मनुष्यसेभी वश होना दुप्वार है मगर अभ्याससे सब सहल होसक्ता. यह न्यायशास्त्रका वचन याद करके अभ्यास को मत छोडो, कहा है कि. अभ्यासेन क्रिया सर्वा । अभ्यासात्सकला कला॥ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२१) अभ्यासाद ध्यान मौनादि । किमभ्यासस दुष्करम् ॥ १॥ ____ अर्थ-अभ्याससे सर्व प्रकारकी क्रिया और सर तरहकी कला व यान मौनादि प्रत होसक्ते हैं और दु सा य कार्यभी अभ्याससे मुशमिल नहीं है हे विभो ? मन यह नपुसकलिंग है मगर पुरुपलिंग वारे मनुप्यभी इसको सा य नही कर सक्ते हैं पुरुपवर्ग तप जपमें, कष्टक्रियामें, जल तैरन विद्या, आकागमार्ग जानेमें विद्युत प्रगटानेमें, भूत पिशाच डाकिनीको वश सरनेमें नमर्थ है, मगर नपुसक लिंग मनको वश नही कर सक्ते. और जर मुगुर समझाते है तो यह मन ऐसा चतुर बन जाता है __ और नाटिके दुख सुनते वरत ऐसे उच्चार करता है कि __ करे उस धन्य है हमारे जैसे पापियोंकी गति न जाने कैसे होगी ऐसी मीठी मीठी बातेकर उपाश्रयमें तो दुनिया भरके समझदार बनजाते है और उपाश्रय बहार निकले कि अरे साधु महाराजका फरतव्य सदुपदेप देनेका है और अपना करतव्य अरण करनेका है ऐसी वास्य पटुता चलाने लगाता है और जन शाबानुरल भवर्तन करनेका समय आता है तो निलकुल चिमुस हो वैठता है. इस लिये योगीराजभी फरमाते हैं कि हे प्रभु' जिस क्टर आपने अपना मन वा किया वैसेही मेरा क Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) र दो तो में मन वश किया सच्चा समझुं. यद्यपि आगमसे में समझ गया हूं कि आपने मन वश किया मगर मेराभी मन वश कर दो तो में स्वतः अनुभव करु, हे इस लेखके वाचकटंद ? कृपादृष्टी कर उक्त लेखको दारवार पढकर आनंदघनजी महाराजका अनुकरण कर मनको वशमें करनेका प्रयत्न करना और जिनभक्तिमें लयलीन रहकर स्वात्माका उद्धार करना यह एक सज्जनके सेवक और दुर्जनके मित्रकी वीनति है, और जो कुछ अयोग्य लिखनेमें आया हो उसके लिये क्षमा प्रार्थी हुं-इत्यलं विस्तरेण, ____ता. क -इस लेखमें किसी वातका पुनरावर्तन करनेमें आया है यह खास पाठकोंके लाभार्थ समझना. - Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयुत् लक्ष्मचिदजी घीया AARI S प्राविन गियर सेक्रेटरी श्री जैन श्वेताम्बर कानमन्स ( परतापगढ-मालया निवासी) Page #238 --------------------------------------------------------------------------  Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) ॥ ॐ नम सिद्धेभ्य ॥ जैनशब्दका महत्व प्रथम पट __जैन" शब्द कहतेही चित्त कैसा प्रफुलित होजाता है पानो सूर्यके उदयसे कमर खिल गयाहो, अहा । यह सुदर और शुभ शब्द रिसने स्पन्न किया और इसका ऐसा म भाव क्यों हुआ' वास्तवमें आधुनिक समयके समान प्राचीन काल में मीठी वात और फीके पकवान नहीये, प्राचीन कालमें जिस रस्तुरा जैसा गुण होताथा वैसाहो उसका नाम रखा भाताया वर्तमान समयानुसार, जैसे नाम तो रखा दी नदयाल और क्षणभरमै निरापराधी पशुओंका माण लेडालते है, नाम रखा नयनाख और आखके अधे, अतएव आज इस शमा सञ्चा महल बताते हैं ___जैन । धर्मफे योग्य नौन व्यक्ति होसक्ति है और जो जगतमं सवा सर्वोत्तम मुक्तिदाता धर्म है, उसका नाम रिसन "जैन " धर्म रखा इस बातकी प्रथम आवश्यक्ताहै, जैन धर्मका प्रथम प्रचार. भरम जनमो अवर स ससारकों द्रव्यार्थि न्ययकि अपेका नानि न त यदि नित्य और पर्यायाधिक न्ययकि Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) अपेक्षा अनित्य अर्थात् परिवर्तित मानते हैं. इसी तरह अन न्ता कालचक्र व्यतीत हुवे और होते रहेंगे, इसी प्रकार प्रत्येक कालचक्रमें उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दो विभाग हुआ करते हैं, जिन प्रत्येक विभागोमें चौवीस २ तीर्थकर याने सच्चे स्याद्वाद दया धर्मके प्रवर्तक हुआ करते हैं यानि देवरचित समवसरणमें विराजकर द्वादशांगीका कथन करते हैं, जिसके द्वारा अनेक जीव मुक्तिको प्राप्त हुवे और होते रहेगे. __ इस उत्सर्पिणी कालमें पितामह युगादि देव प्रथम ती थंकर श्री ऋषभदेव स्वामीही इस (अद्भुत शब्द ) धर्मकी __ नीव रखनेवाले हुवे हैं, उन्हीके प्रभावसे अनेकानेक जीव इस " जैनधर्म " के प्रतिपालन करनेसे मुक्तिके भाजन हुबे है. इसी प्रकार सब तीर्थकर* इस महा प्रभावशाली धर्मका प्रचार करते हुवे अनेक जीवोंकों इस दुःखगाह भवार्णवसे पार उतार गये हैं. * ऋषभदेव १ अजीतनाथ २ संभवनाथ ३ आभिनंदन ४ सुमतिनाथ ५ पद्मप्रभु ६ सुपार्श्वनाथ ७ चंद्रप्रभु ८ पुष्पदन्त ९ शीतलनाथ १० श्रेयांसनाथ ११ वासुपूज्य १२ विमलनाथ १३ अनंतनाथ १४ धर्मनाथ १५ शान्तिनाथ १६ कुन्युनाथ १७ अरनाय १८ मल्लिनाथ १९ मुनिसुव्रत २० नमिनाथ २१ नेमनाथ २२ पार्श्वनाथ २३ महावीर ( वर्द्धमान) २४. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५) + अतिम तीर्थर वीरमगुने इस धर्मका पुर्ण उग्रोत पिया और उनके निर्माण-पत्र प्राप्त होने वा परोपीारी आघायर्याने अपने शान-पलसे जानीक ममयसरी स्थिति मान्टम पर भोरे व भव्य जीवारे हितार्य या यों कहिये फि हमको गगन नाणी बनाने के लिये मे शाग रिसे पिनभिनय "जेनर्ग" की पताका भारत वर्षमें उडरही है और चिपार तक उठती रहेगी अपयह पतलाना आवश्यकई फि. "जैनधर्म " यो प्रत्येक तीर्थकराने और उनके पाट पृज्य याचाोंने विसतरह स्वर्ता, और इस पवित्र धर्मका क्या उद्देशई नौर इस शुभ धर्मको अगीकार करनेवालो क्या होता है यह नगसे मनाया जाता है। प्रभारी अतिम तीर्थकर ना उनके बाद आचायॉन इस म एसा प्रचार किया यानि प्रथम तीर्थकरने जैसे तत्व फधन पियेथे सहि सर तीर्थगने प्रवर्ताये, गणघरान त्र रचे भार आवायाने पुस्तकाम्ट किये, उसमें रिसी तरहमा पसिना नदि हुआ, इसहीसे इस महत धर्म प्रचारफ पिता । यदि यो का परकि नर गैन धर्म परिवर्तन नहि हुमा तो वर्गमा को फिरके जैनोपोंके नगर माते है ये क्यों ? उपर-ताधारी पथनानुसार अर्थात् दायांगी अनुमार को अभीतर गच्चे धर्मरो प्रवर्तने ई यहाजनी ४, पाशी जगाभारा समपना पाहिये Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) मह आदिनाथ भगवान कहे जासक्ते हैं, प्राचीन समयमें शास्त्र पुस्तकारूद करनेकी आवश्यकता नहींथी क्यों कि उनकी विचारशक्ति (याददाश्त ) बहुत बड़ीथी. पूवाचार्योंने विचार किया कि भविष्य जीवोंकी वैसी वि. चारशक्ति नहीं होगी अतएव प्रथम ताड़पत्र व काग़जोपर शास्त्रोंका लिखा जाना आरंभ हुवा और उस समयके शास्त्र अभीतक बड़े २ भंडारोंमें उपस्थित हैं. ___ इन शास्त्रोंका पवित्र उद्देश भव्यजीव मुक्ति-मार्गकों सरलतापूर्वक प्राप्त कर सके यही है, अब यह बताया जाता है कि कर्म रूपी शत्रुओंको किन २ कर्त्तव्योसे जीतकर मुक्ति मार्ग प्राप्त हो सकता है. जैनशास्त्रोंके पवित्र सिद्धान्तकी समालोचना एक क्या अनेक जिव्हासेंभी सर्वज्ञ कथित होनेसें नहिं होसक्ती, और उनपर अपनी सम्मति प्रकाशकरनी एवम् टीका टिप्पणी करनी मानो सूर्यको दीपक बताना है, समकालिन तो क्या बड़े २ आचार्यभी पुर्ण रीतिसें इन पवित्र शासोंकि महिया वर्णन नहिं कर सक्ते, तो फिर हमारी स्वल्य बुद्धि तो इस महिमाको बतानेके लिये मानो उदधिके सामने विन्दु है, पवित्र जैनशाखोमे तीन मुख्य तत्व हैं जिन्होंके आलम्बनसे अटल मुक्तिका सुख प्राप्त हो सकता है, देव, गुरु, धर्म इन तीन Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) तत्वोंकि कुछ महिमा इस अवसर पर कही जाती है. देव-प्रथम तो यह बताना परमावश्यक है कि जेनी कैसे देव मानते हैं, जैनी उन्हीं देवको मानते हैं जिन्होंने प्रक्तिका __ अखड मुख राग द्वेपादिसे रहित होफर प्राप्त पर, तीर्थकर पदको सुशोभित किया है उनके उत्तम गुणकी विशेष महिमा पीछेके (व्याख्याको) खडमें प्रकाशित की जायगी. ___ गुर-सद्गुरु वही होते है जो जैनशास्त्रों के पवित्र सि द्धा तानुसार शुद्धसयम पचमहानत पालकर मुक्ति प्राप्त करनेका साधन करते हैं यह अवसर समझकर पहेले "जैनी योंके महामन "कि सक्षेप समालोचना की जाती है-महा __ मन जिसको नकार मनभी कहते हैं उसको सस्कृत भापामें इस तरहपर कहते है " नम अई सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुभ्य " यह पच परमेष्टी मोक्ष प्राप्त करनेके लिये मुख्या चार भूत है, इसका भावार्य यह है कि 'अईन् । जो तीर्थफर होने वाले है 'सिद्ध ' जो मोक्ष प्राप्न कर चुके ह 'आ. चार्य'' उपा याय ' 'साधु' यह वर्तमानमें भव्य जीवों को भोपिस पार उतारनेके लिये स्टीमरकै केप्टन समान है. इस आय देशम विचर रहे हैं, जनी रोग इन्हीको सद्गुर कहने है और उनम गावानुसार जर गुण देखे जाने है तो मर चिन गुणानुसार पवि देने हैं अर्थात् जिनमें छनीप्स Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ (२२८.), ___ गुण होते हैं वे आचार्य, व पच्चीस गुणवाले उपाध्याय व सत्ताईस गुणवाले साधु पदविसे सुशोभित होते हैं. इन समस्त गुंणोको इस स्थानपर बतानेसे लेख बड़ा होजानेका और दूसरी आवश्यक बात न लिखे जानेका भय है; अतएव साधु के सत्ताईस गुण संक्षेप्शः बताये जाते हैं (१) एक आत्म स्वरूप जानने वाले ( २) दुविध धर्मापसारक (३) रत्न त्रीकके बताने वाले (४) चार कसायनिवारक (५) पंच महाव्रत धारक (६) छ:काय पालने वाले (७) सप्तभय निवारक ( ८) अष्ट कमाको जीतने वाले (९) नव विध ब्रह्म गुप्त पालने वाले (१०) दशविध जति धर्मके धारक (११) ग्यारह श्रावककी पडिमा व्रत कराने वाले (१२) वारहव्रत श्रावकको उचराने वाले (१३ ) तेरह काठियाजीपक (१४) चौदह पुर्व विद्याके उपदेशक (१५) पन्द्रह भेदके ज्ञाता (१६) सोलह परिसह सहन करने वाले (१७) सतरह प्रकारके संयम पालने वाले (१८) अठारह दाप निवारक ( १९) उनीस काउस्सग्गके दोष निवारक (२०) वीस स्थानक आराधक (२१) इक्कीस श्रावकके गुण जानने वाले (२२) वाईस परिसह जीपक (२३) तेईस विषय निवारक (२४) चौविस जिन आणाधारी ( २५ ) पच्चीस भावना भावक (२६) छब्बिस दशकल्प व्यवहारके धारक (२७) सत्ताईस मुनिगुण संयुक्त ऐसें Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०९) करके ३६-२५-२७ गुण होते है वही सद्गुरु होते हैं. इनाक पुनः समालोचनाकी आवश्यक्ता नहीं. वाचकटद । ऊपर घतलाये हुने २७ गुणसे मालूम कर चुके होग कि "जैन " शास्त्रोफे कैसा पवित्र उदेश र नियम है ? यह तो सरको विदित है कि विना परिश्रम किये कोई वस्तुभी नहिं प्रास होती, केवल ईश्वर पर आवार रखने वाले वे स्वयम् परीक्षा कर सक्ते हे कि जर ईश्वर उनकी रक्षा करने वाला है तो उनको अपने हाथ पैरभी नहि हिलाने चाहिए-नहि, नहि, पाठकगण ! यह किसी जनभिज्ञका पताया हुआ मार्ग है और उसमो वेदी रोग मानते है जो निरे आलसी है और जगानका पर्दा जिनकि उद्धिके सामने लटका हुवा है आप इस छोटेसे दृष्टान्तसे समझ नायगे कि ईश्वर पर जापार रखना मान एक भूल नहि तो क्या है-यानि अपन गृह सके रियेभी एक नौरर रखते हैं उसको तनखा देते हुरेभी अनेक पार कहते है ता वह काम करता है, तो फिर ईश्वर पर अपना ऐसा क्या जोर है ? या ईश्वर अपना ऐसा दणी क्योंकर ह ? कि अपन तो बैठे २ गप गप चला रहे है और ईश्वर जापा मेनेजर (व्यपस्थापक) पनकर आपकी सेगा करे, उन्धुवर्ग ! यह एक मान योग्वेकी टट्टी है-निना परिश्रम मोर्डभी वस्तु प्राप्त नहि हो सक्ती (कईलोग ईश्वर Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) को कर्त्ता मानते हैं। मगर यह ठीक नहिं इसका विशेष वर्णन्* देखना हो तो जैनतत्वादर्श या अज्ञानतिमिर-भास्करमें देख लीजिये, तो फिर मुक्तिका अखंड सुख प्राप्त करना केवल वातोंसें नहीं हो सकता. जो मोक्षाभिलाषी हैं उनकों. उपरोक्त वातोंके सिवाय महान् कष्ट व उपसर्ग सहन करनेही पड़ते है और जब वे इन कष्ट कर्मोसे विजय प्राप्त करलेते हैं तवही वे मोक्षगामी होते हैं धर्म-धर्म दो प्रकारका होता है यानि निश्चय (आत्मिक) धर्म व व्यावहारिक धर्म. व्यावहारिक धर्म २ प्रकारका होता है १ लौकिक २ लोकोत्तर. लौकिक धर्म उसको कहते हैं जिसको कि नीति पूर्वक चारो वर्ण अपने २ कर्तव्योंमें प्रव त्तते हैं यानि क्षत्रियोंका धर्म नीति मार्ग व सत्य धर्मकी रक्षा कर अनीतिका दमन करना, वैश्यका धर्म सद् व्यवहार करना ( व्यापार ) करनेका इत्यादि. लोकोत्तर धर्म उसको कहते हैं कि देवगुरु आदिकी भक्ति व दान शील तप भावना यह चार प्रकारसे धर्म साधन करना अर्थात् परोपकार क्षमा इन्द्रियोंका * यदि तर्क किया जावे कि शुभाशुभका फल कर्मसे होता है तो इश्वरकी अपेक्षा क्यों करना चाहिए ? उत्तर-इश्वर के स्मरण व भक्तिसे पुण्यवंध व कर्मोकी निर्जरा होनेसे परम मुख प्राप्त होता है मूर्तिपूजाकाभी यह कारण है. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१) दमन, कपायका जीतना इत्यादि इनके वगैर. मोक्ष प्राप्त नहि हो सकता, अब इसका कुछ विवर्ण आपको भेट किया जाता है-धर्म उसहीको कहते है जिसमें दयाहो. यों तो सर्व धर्मावलम्मी अपने २ धर्मको दयामय बताते है जैसे इगलेंडमें प्राणी रक्षक मडली है (यहभी अपनेको दयामय बताती है) उसके दयाके दृश्यको देखिये, यह मडली प्रत्येक माणीयोंकी रक्षा का प्रयत्न करती है और जर देखती है कि इस माणीका बहुत उपाय करने परभी वचनेकी आशा नही है तो उसको गोली मारदी जाती है ताके उसके जीवको कष्ट नहो-भारत पीय देवी देवता तथा क्रिया अनुष्ठान यज्ञादिके बहानसे पर चमे धर्म मानते है-मोड हिसक जीरके मारनेमें धर्म मानते है इत्यादि कई प्रकारके लोक अन्यान्य स्वार्थ सायनमेंही धर्म मानते है, परन्तु सच्चा धर्म तो नही कहा जाता है जिसमें यथा नाम तथा गुण है.अनी उसीही पवित्र व सच्चे धर्म के अनुया यी है-और यह 'अहिंसा परमो धर्म । इस सन्दसें जगतमें विग्यात हो रहा है-इएक अन्यान्य विधर्मी इसरा ( अहिंसा परमो धर्म का) मन गढन्त अर्थ लगाकर भोले जीगेको भ्रममें डाल देते है परन्तु उसका सचा अर्थ तो यही है कि 'हिसा नहिं करना यही परम धर्म है' यानि दया वर्गरः धर्मही नहि ( या यों कहो कि दयामही धर्म है।) जैनधर्मम तो ठीक, अन्य धर्मीयोनेभी कहा है कि ' अहिसा लक्षणोपर्म: Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३२ ) अधर्मा प्रणिनां वधः । तस्मात् धर्माधिना वत्स कर्त्तव्या प्राणी नां दया ।" इस जगह थोड़ेसे जैनशास्त्रोके तथा जैनविब्रान पंडितांके वाक्योंके दृष्टान्तके स्थानमें अन्य मतावलम्बी विद्वानोंकी ( अहिंसा परमो धर्मः पर ) सम्मनि बतलानाही उचित होगी. श्री जैन श्वेताम्बर कान्फरंसका तीसरा अधिवेशन जब वडोदेमें हुआ उस वक्त ३० नवा सन् १९०४ १० को जगद्विख्यात भारतभूषण लोकमान्य पंडित बालगंगाधर तिलकने जो नरहटी भापामें व्याख्यान दियाधा उत्तमा तारांग बतल ते हैं: " जैन धर्मको प्राचीनता" जैन धर्म प्राचीन होनेका दावा करता है-जैन धर्म विशेष कर ब्राह्मण धर्मके साथ अत्यंत निकट संबंध रखता है, दोनो धौ प्राचीन और परस्पर संबंध रखने वाले हैं.जैन हिन्दूदी है. कितनेक लोगोने भेद बतलाया है पर वह यथार्थ नहिहै, जैन धर्म और ब्राह्मणधर्म हिन्दु धर्मही है, ग्रंथों तथा सामाजिक व्याख्यानोलें जाना जाता है कि जैनधर्म अनादि है-यह विषय निर्विवाद तथा मतभेद रहित है, और इस विषय में ऐतिहासिक अनेक प्रमाण हैं और निदान इरवी सनसे ५२६ चर्प पहलेका तो जैनधर्य सिद्ध है ही, जैन धर्मके महावीर Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) स्वामीका जो समत् चलता है उसको २४०० वर्ष हो चुके है गौतम बुद्ध महारम्बामीके शिष्यये यह ग्रयोंसे स्पष्ट विदित होता है जिससे माम होता है कि चौद्ध-धर्मकी म्थापना होने के पहले जेन वर्म चमक रहाथा, यह पात वि वासनीय है, गौतम और बौद्ध के इतिहासम २० वर्षका अन्तर है चोवीप्त नपिरोंम महावीरस्वामी अतिम तीर्पकरह. इससेभी जन धी प्राचीनता विदित होती है-चौद्ध धर्मके तत्व जैन धर्मके तत्वों का जनुकरण है। औरपा परमो धर्म इस उार मिद्रान्तने जामण धर्मपर स्मरणीय (मुहर ) आप मारी है-यज्ञार्थ पशुहिंसा आजकल नहिं हानी है यही पर भारी छाप अन्य पमियों पर जैन धर्मने मारी, पुर्व कामे यह रिये असरयोकी हिंसा गीरी इसा प्रमाग गोर ग्रयोंम है, परन्तु इस पोर दिमा पापण धर्मम पिनाइ रेजारा महापुण्य गैन धर्मम ही है " अगडेझी जड " नापण धर्म और जैन धर्म गेनोम झगदेखीन- हिंमापी * या ना मानसा रेग्म नहिं है क्योंकि गौतमम्वामी और गौनमीद्ध जुने जुटे हुरे है. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३४ ) वह प्रायः नष्ठ होगइ और इस रीतिसें ब्राह्मण धर्मको अथवा हिन्दुधर्मको जैनधर्मन अहिंसा धर्म बताया है, यदि जैन धर्म न होता तो आज 'अहिंसा परमो धर्मः की' पताका संसारमें खड़ी नहिं रह सक्ती. इसके अतिरिक्तभी अनेक दृष्टान्त उपस्थित है कइ अग्रेजों नेभी समय २ पर इस परम पवित्र धर्मपर अपने २ आशयको प्रकट कर अपनी बुद्धिका परिचय दिया है उन सवका वर्णन करना स्थान संकोचसे अनुचित है. ___ महाशय ! उपरोक्त वाक्योंसें आपका जैन धर्मका महत्व विदित होगया होगा, जिन सज्जनोको विशेष हाल सरलता पुर्वक समबनेकी इच्छा होवे जैनतत्वादर्श तत्वनिर्णयमासादादि ग्रंथोंसे मालुम करसक्ते हैं ॥ शम् ॥ !। प्रथम खंड समाप्त ।। जैन शब्दकी व्याख्या. द्वितीय खण्ड. स्याद्वादो वर्त्तते यस्मिन् पक्षपातो न विद्यते । नास्त्यन्य पीडनम् किंचित् जैन धर्म स उच्चते ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५) अब आपको सक्षिप्त जैन शब्दकी व्युत्पत्ति और उसकी व्यारया वतलाइजाती है 'आनदगिरिकृत । 'शारविजय ' में जैन शब्दकी व्युत्पत्ति इस प्रकार वताई है “ जीति पद वाच्यस्य नेति पदेन पुनर्भव तस्याजन्म शुन्य जैनः" अर्थात् मुक्तात्माका पुन र्जन्म नहीं होता, जैन शास्त्रोंमें ऐसी व्युत्पत्ति की गई है कि "राग द्वेपादि दोपान् वा कर्म शत्रुञ्जयतीति जिनः तस्यानुया यिनो जैन. " अर्थात् जिन्होंने काम क्रोधादि अठारह दोपोंको अया ज्ञानापणीय, दर्शनावर्णीय, मोहनीय, अन्तराय आदि कर्म गनुओरों जाते वे 'जिन' और उनके उपासक 'जेन' कहलाते हैं, यानि जो राग हेप क्रोध मान माया लोभ काम अज्ञान रति अरति गोर हास्य जुगुप्ता अर्थात् विणा मिथ्यात्व ( अष्टादश दूपण) ईत्यादि भावशत्रुआगो जीतते हैं उनको " जिन" कहते हैं, यह 'मन' शइका अर्थ है (ऐसे जिन इस उत्स पिणी कामे हुवे है जिनकी तीर्य पानसें तीर्थकर कहते हैं, ऐसे पुर्वोक्त 'जिन' की जो शिक्षा अर्थात् उत्सर्गा पाद सप्नभगी चार निक्षेप पट इन्य नश्तर नित्यानित्य आदि अने नयात्मक स्याद्वारा प मार्ग द्वारा हितकी मानि अहितका परिहार-अगितार और त्याग करना तिसका नाम 'निन गासन' हे और "निन शासन " कि आशानुसार Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३६ ) चलने वालोंको “जैन " कहते हैं. जो लोग जिनाज्ञा विरुद्ध ___ चलते हैं वे कदापि मोक्षगामि नहिं हो सक्ते हैं और जो मनुष्य जैनी होकर जैन शालोंके प्रमाण माफिक नहि चलते वे सच्चे जैनी नहिं कहे जासक्ते हैं. "जिन शासनका सार क्या है ?" जिन शासनका सार आचारंगादि द्वादशमी है, इसका सार यह है कि देशविरति (श्रावक धर्म) व सर्व विरति' (मुनि धर्म ) चान्त्रि अंगिकार करना अर्थात् प्राणीवध १ नृपावाद २ अदत्तादान ३ मैथुन ४ परित्रह ५ रात्रिभोजन ६ इनका त्याग करना, अथवा चरण सत्तरीके ७० भेद और १ यह स्यावाद सर्वज्ञ जैनधर्म पालन करनेका सर्वज्ञातिके मनुष्यही नहिं किन्तु पशु पक्षी आदिभी अधिकारी हैं यह वात शास्त्रों में प्रकट है. वैश्यादि ज्ञातिके लियेही इस धर्मको साहसकर कह बैठना अनभिज्ञता है. तात्पर्य यह कि चारोही वर्ण सर्व ज्ञातिमेसे कोईथी इस पवित्र धर्मको अंगिकार कर सकते हैं. २ स्थल नागातिपातनत १मृषावादनात २ अदत्तादानव्रत ३ मैथुनबत ४ परिग्रहवत ५ दिग्त्रत ६ भोगोपभोग ७ अनथेदण्ड ८ सानायिकात ९ दिशावकाश १० पोषदोपवास ११ अतिथि संविभाग १२ यह श्रावकके द्वादशवत हैं. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७ ) करण सत्तरीके ७० भेद ये एकसौ चालिस प्रकारके मूल गुण और उत्तर गुणको अगिकार करें उसको सर्वविरति चारीन हैं उस चारित्रका सार निर्वाण है अर्थात् सर्व कर्म जन्य उपाधिसे रहित होना उसको निर्वाण कहते है, उस निर्माणका अव्यागाध अर्थात् शारीरिक और मानसिक पीडासे रहित सा परमानन्द सरूपमे मग्न रहना यह क्ति जिन पासनका सार है. "जैनशास्त्र " यो तो जैन सिद्धान्नके अनेक ग्रंथ है, परन्तु मुरय ४५ आगमोंमे ११ अग, १० उपाग, १० प्रकीर्णक (पयन्ना) ६ छेद ८ मूलमूत्र और २ अन्नरगुन है (माचीन ग्रयोंके नाममी पारर अग चौदह पुर्व हैं परन्तु वे इतने बढेथे कि उनका ताइपर एवम् पागनोंपर लिखाजाना कठिनथा और वे अतफेवती मुनियों केही कठान रहते ) ये वर्तमानमेभी पूर्वका में अनेक अघमियों के आक्रमणसें पचार स्थित है। मिय पाठक गण! यहा केवल जैन दर्शनरा सार मात्र आपको भेट पिया जाता है इससे आता है कि आपकी रुचि जैन गानोंके Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३८) अवलोकन करने पर बढेगी; क्यों कि इस भवोदधिसे सुगम पुर्वक पार उतरनेमें नौका सदृश्य पवित्र जैनशास्त्रही हैं ।।शुभम्।। श्रीसंघका शुभेच्छु. मंगलवार ) घीया लक्ष्मीचंद. १० अक्टुवर १९११ इ०६मोविन्सीयल सेक्रेटरी श्रीजैन स्त्रे. प्रतापगढ-मालवा , कान्फरंस मालवा प्रान्त. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयुत् सेठ सा० रतनलालजी सूराना . " sasthan24 " ' " "-" - N ELHI+PANDHANTr+ma+rseart रतलाम (मालवा ) निवासी acretarctcracteracritera + 7 sw + + + विजयम प्रेस, पुरोसिटी Page #256 --------------------------------------------------------------------------  Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१९) ॥ श्रीजिनायनमः ॥ शिक्षा सुधार मङ्गलाचरणम् श्रीमदीर जिनस्य पद्मादय निर्गम्यते गौतमम् । गगावर्तन मेत्यया प्रविभिदे मिथ्यात्व वैताध्यकम् ।। उत्पत्तीस्थिति सहति त्रिपथगा ज्ञानाबुधा वृद्धीगा । सामे कर्म मलहरत्व विकलम् श्रीद्वादशागीनदी ॥ १ ॥ प्राणी मात्र इस ससारमें चउराशीलक्ष जीवायोनिके अदर अनादि कालमे कर्म वश पर्यटन कर रहे हैं तदनुसार अपनभी पर्यटन करते २ अनत पुण्यराशीके उदयसे इस महान् दुष्पाप्य चिन्तामणी सदश मनुष्य जन्मको प्राप्त हुवे हैं तो इस जन्मको सार्थक करना यह हमारा परम कर्तव्य है इसको मार्थक करनेके निमित्त धर्म • अर्थ और ३ काम इन तीनों पुरपायाको साधनेका ज्ञानी महात्माओंने फरमाया है अतएव हम दन तीना पुरपार्थोके सिद्ध करने के उपाय योजना अती आवश्यकीय है. इसका प्रथम उपाय ज्ञान सपादन करनेका शास्त्रकाराने फरमाया दै, कारण ज्ञान रिना मनुप्य मानको सर्व कार्य असा र है ज्ञाा यह एप मप्यके वास्ते परमोपयोगी अमुल्य Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४०) और अक्षय वस्तु है, इसका महात्म्य ज्ञानी पुरुषोंने पारावार अगम्य कथन किया है. ज्ञानके बलसे कठिनसे कठिन वस्तु भी सहजमें मिल सकती है और इसी लिये इंग्रेजी कहनावत " ( Knowledge is power ) ज्ञान. यह एक शक्तो है " प्रसिद्ध है. ___ज्ञान यह मनुप्यके रत्न त्रयमेका एक आत्मिक गुण है जो ज्ञालावर्णिय कर्मोके गाढ आवाँसे पूर्णत: आच्छादित होया हुआ हानेसे मनुप्यको अपने निजगुणका भाव नहीं करासक्ता क्रमशः इन आवोंको दूर करके विशुद्ध ज्ञान गुण (केवल ज्ञान) प्रगट करनेकी शक्तीभी केवल मनुष्य मात्रके अंदरही है; परन्तु इस महान कार्यको सिद्ध करनेके अनेक उपाय जैसे साधुव्रत, श्रावकवत, तपश्चर्या, सत्संगती, ज्ञानाभ्यासादि श्री कृपालु जिनेश्वर परमात्माने अपने आगमोमें कथन किये हैं उन्होंको शुद्धरोतिसे योजकर उन्हें अंगीकार करनेकी हमें पूर्ण आवश्यक्ता है ॥ ___ज्ञानाभ्या करना यहभी उपरोक्त उपायोंमेंका एक मुख्य है तो हमें प्रथम इसी उपायके ऊपर आरूढ होकर इसीके विषयमें यथामती लिखना आवश्यकीय हुवा है. सांप्रत समयमें जो ज्ञान हमारे बालकोंकों प्राप्त होता है वह यदि धार्मिक ज्ञान हो अथवा व्यवहारिकहो वो उन्ह Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४' ) ठित पुरुषार्थ सापनेमें कम उपयोगी होताहै, कारण उनोंकों विद्या ययन करते समय कई प्रकारकी चूटीय जिनका कि रिचा आगे आपके दृष्टीगोचर होगा रहजानसे सन्यज्ञान की माप्ती नहीं हो सक्ती और हमारे निवधका विषयमी इन त्रुटियोंके विपयमें वर्णन कर उनके उपाय गोधकर लिखनेका है। विद्याभ्यास करना यह जैसा पुरपको हितकारी है वैसाहो स्त्रीकोभी है यहा प्रथम हमें फिश्चित स्त्रीशिलाके विपयमें लिसना उपयोगी मालुम होता है, काग्ग पुरुप नातिकी उत्पत्ती स्त्री द्वाराही है अतएर वी भूमी रूप है वास्ते प्रथम भूमीशुद्धी की आवश्यकता है यहि भूमि शुद्ध है तो उसमें वोये हुवे थीजका दृसभी फलदायी उत्पन्न होने की सभावना है, पास्ते खी शिक्षानी प्रथमावश्यकता है. वो शिक्षाका प्रचार किसी प्रकार से नवीन नहीं है परन्तु इस अवमपिणी कालमें प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ भगाने अपनी पुत्री नामी और मुदरीको अठारह प्रकारसी रोपि और चोसट प्रकारकी कलाओंका अभ्यास करवाया तरसे प्रचलित है अपने जैन-समाजमें असख्य विदुपी सतीय होगई है जिनोंकी उय प्रकारको शिक्षाके विपपमें उनोंके चरित्रोंपरसे न सक्त है. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४२) उज्जयनीके राजा प्रजापालकी श्रीमयणासुंदरीकी कथा जो प्रति आश्विन चैत्रमें हम सुनते हैं उसमें राजाने अपनी दोनों पुत्रीयोंका किस प्रकारका उच्च अभ्यास कराकर उनोंकी कैसी २ फठिन समस्याओंसे परीक्षा ली है तो क्या अभीकी सीय शिक्षाके योग्य नहीं है ? एक कवीने कहा है:स्त्रीणामशिक्षित पटुत्वममानुषीषु । संदृश्यते किमुतया प्रति बोधवत्या ॥ प्रागन्तरिक्ष गमनात् स्वय पत्यजातम् । अन्य दिजै परभृतः खलुपोषयन्ति ॥ १॥ अर्थ:-मनुष्य जातिमें स्त्रीय अपठित अवस्थामेंभी बड़ी चतुर होती हैं तो शिक्षित हुवे पश्चात् तो उन्होंका कहनाही क्या ? __ दृष्टांत-तिर्यंच जातिकी कोकिला (स्त्री) अपने अंडोंकों अन्यपक्षीयोंके मालोंमें रखकर आकाशमें उड़ती है और उन मालोंके. मालिक पक्षियोंके आकाशसे उतरने पेश्तर आप आकर पीछे ‘अपने अंडोंको ले उड़ती है इसी तरह निरंतर उनौके शिशुओंका पोषण करती है-तिर्यच जातीकी स्त्रीभी ऐसा चातुर्यता है तो मनुष्य जातीकी स्त्रीयोंके विषयमें कहनाही Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ) घ्या है ? खामी मात्र उन्हें मुशिक्षित करनेकी है. ___ सामत कालमेंभी विलायतके अदर खीये वही विद्वान और निपुण हैं और वही बडी पदवीयें भोगती है. कईक डातर है, कईर वेरिष्टर हैं, कई वर्तमानपत्रोंकी सपादका हैं कईक बडी २ सस्थाओंकी कार्यवाहक है, कई वही २ ओफि सोंमें काम करती हैं, कईक पर कारखाने दुकाने चलाती हैं यहातक कि पालीमेन्टमें मेम्बर बनकर राज्य सबधी अधिकार प्राप्त करनेकी उम्मे करती हैं, वासी असरय गृहस्व स्त्रीय शिक्षित होने से अपनी गृहव्यवस्था करने में पूर्ण कुशल हैंकहिये। क्या हमारे भारतवर्षमै वा हमारे जैन-समाजमें ऐसी स्त्रीय कमी उत्पन्न होगी ? हमारी जननी-समाजके तरफ देखकर हमें वडामारी गोक होता है कि सेकडे दो तीन स्त्रीयभी गिक्षित नहीं है। क्या कियानाय स्वीयोंकी क्या परतु पुस्पाकी दशामी; अधिक शोचनीय है तो स्त्रीयोंकी हो उसमें क्या अधिकाइहै ! हे मिय माताओं । भगिनीयो । पिना आपकी शिक्षाके हमारी भविपकी मनाकी उन्नती जो हम इच्छते है अयवा उसके होनेके लिये मयत्न करते हैं वह होना अति फठिनहै कारण कि Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४४ ) मनुष्य बालक जवसें माताके उदरसे जन्म धारण करता है तबसें उसके अंदर पुर्वभव अभ्यासानुसार नकल करनेकी शक्ती " Power of Imitation " भी पैदा होजातीहै उसके द्वारा वालक ज्यों २ वढता है त्यौं २ हमारे चाल चलन वर्ताव भाषाका अनुकरण करने लगता है और बालकोको विशेषकर ४-५ वर्पतक अपनी माता, तथा अन्य गृहकी स्त्रीयाक संसर्गमें रहना पड़ता है तो इस अवस्थामें वो अपनी माताके वर्ताव चाल चलन बोलीका अनुकरण करता है और इसी लिये वालकों को प्राथमिक शिक्षाका आरंभ अपनी माताओं द्वाराही होता है. इस अवस्थाका सर्व भार उनोंकी माताओंके उपरही है, और अखिल जिन्दगीका मूल पाया यही अवस्था है; कारण जैसे मृत्तिकाके कुंभ ऊपर रेखादि चिन्ह अपक्व अवस्थामें करदिये जाते हैं वे पकजानेपर कदापिकाल दूर नहीं हो सक्ते, इसी तरह बालकोंका मगज इस आरंभी अवस्थामें बहुत कोमल . रहता है वास्ते इस प्रथम वयमें य अपक्व अवस्थामें जैसे भले बुरे संस्कार बालकोंके मस्तिष्क में जम जाते हैं वे युवावस्था होनेपर कठिनतासे नष्ट होते हैं .परन्तु शोक सह लिखना पड़ता है कि अपने समाजमं स्त्री शिक्षाके पूर्ण अभावसे यह हमारी जिन्दगीका पाया (Found ation of life ) दृढ और संगीन नहीं होने पाता, इसको Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४५) सजट करनेके वास्ते हमारे समाजकी स्वीयोंको मुशिक्षित कर नेकी आवश्यक्ता है और इसके प्रचारके लिये हमें अधिक प्राध करना चाहिये । __ अपठित माताए अपने कोमल बाउकोंको अज्ञान वश अयोग्य, अपटित और प्रतिकूल शिक्षाए देती हैं कि जिससे उनारे कामल दयामें अज्ञान, आलस्य, अनार, असत्य, बुसप, इप्या, तुन् उपन, अविनय, कोरतादि अनेक दुर्गुणोका वेश होता चला जाता है कि जिसका भयङ्कर दुष्ट परिणाम आज हमारे समाजमें दृष्ठीगोचर हो रहा है * वीय परके अदर अपने पतीकों, सामू मृसरे आदि समधीपासे निरतर अनेक प्रकारके कुवचन बोलती है, कोघमें आकर छाती माया कटती है, क क प्रकारकी कुचेष्टाएँ करती * इस लिये चीयाको अपश्य युक्तिपूर्वक शिक्षा देनी चाहिये मामतम जो गिक्षा हमारी पारिकाओं कन्यागालाम दी जाती है वो उनॉगरों भविष्य रामदायक कम होती है, कारण शुरपाठी शान उन्हें पिसी प्रकारसे उपयोगी नहीं होता है, म लिये आजकर जो रिवाज जहमदाबादकी पन्याशारामें हीराचदमी सफलभाटने निकाय है उसम पटारा पढावा सरके उसके अनुसार सर्व यलोंमें अभ्यास क्रम नियत किया जाना में ठीर समयताह - Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४६ ) हैं. ये सब उनोंके संतान देखते है वैसाही वर्ताव भविष्यमें वेभी करना सीखते हैं-और यह हम प्रत्यक्ष देखतेभी है कि कई वालक अपने माता पिताओंकों वात वातम धिःकारते हैं उनोंकी आज्ञाके विमुख चलते हुवे उनोंको हरएक प्रकारसे हानी पहुंचाते हैं। यहां तक कि कभी कभी उन्हें पीट देते हैं और जो स्त्रीय संतोषी शांत अमावंत लज्जालू विनयवंत सुशिक्षित आदि गुणवाली होती हैं उनोंके संतानभी उक्त गुणोंमे पूर्ण होते है जैसे एक कवीने कहा हैः कार्येषु मंत्री करणेसु दासी । भोज्येषु माता शयनेषु रंभा ।। मनोऽनुकूला क्षमयाधरित्री। एतद्गुणा वधू कुल मुद्धरति ॥ १॥ ___ यदि माताएं उपरोक्त गुणवाली शिक्षित हो तो वे उन्होंके वालकोंको अवश्य मधुर, प्रिय, नीतियुक्त वचन वोलना सिखलाती हैं. धर्म संबंधी छोटी कथाएं निरंतर सनाती रहती हैं, जिनसे उनोंके आचार विचार मुधरते हैं. नीति संबंधी छोटे २ वाक्य सिखलाती हैं-अंकबोलना दि सिखानेसे गणित संबंधिभी पाया दृढ करदेती हैं, देवगुरु धर्म विषयकी बातें करनेसे उनोंकी श्रद्धा परिपक्क होती जाती Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८७ ) है इस लिये अन्तमें मैं पुन पाठकोसे प्रार्थना करताह किसी शिक्षाका प्रचार वढाने प्रयल तन मन धनसे करें कि जिससे भविष्यकी प्रजा उन्नती दशाको प्राप्त होरे पुरुषकी शिक्षा पालक जर -५ उपकी क्या होता है तब उसे अपन माता पिता गालामें विधाययनके वास्ते भेजते ह तास वह मानादि गृहकी स्त्रीयोंके ससर्गसे छुटकर अपने समान उपके विद्यार्थी और शिक्षरसे परिचित होता है इस समय जो परम शिशुअगसेही अपनी विदुषी माता द्वारा उच्च सस्कार पापाहुया पार अपने गालाके अभ्यासमें द्वितीया चद्र सदश वृद्धींगत होताहुना उद्यमी, बुद्धिवान, नोतिन, और धमिष्ट उनना जाता है परंतु यह कर जर उसे प्रयमको मापनकी दुइ शिक्षा अनुसर शिक्षापिले तर प्र० आमाल जो शिक्षा सरकारी शाग ना मिलती है वो मतिरल है या अनुरल १ ३० स्तिनेर विषयों में प्रतिक्ल है और उमसे हमारे पालकोंफो धर्म मगधी और व्यवहार सपथी दोनो प्रकारसें हानि पहचती है Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४८ ) प्र. किन २ विषयोंमें किस २ नकारसे हानि पहुंचती है सो वतलाईये ? उ. आज कलकी चलती हुइ हिन्दी, गुजराती, और ___ इंग्रेजी पाठमालाओं ( Renders ) के अंदर कित नेक पाठ तो लाभदायक हैं; परंतु कितनेक पाठ जैसे किः(१) कुत्ते, वील्ली, गेंडे, घोडे, सूअर, सिंह, पक्षी आदि हिंसक पशुओंकी निरर्थक कहानिये. . (२) मांस मदिरा शिकारादिकी वातीऐं-हिंसक और जुल्मीराजाओंके इतिहास. (३) गायके आत्मा नहीं है-संसार इश्वर कृत हैं-सूर्य स्थिर है, पृथ्वी नारंगीके सहश गोल और आकाशमें घुमती है, चंद्रमा सूर्यकी रोशनी से चमकता है पृथ्वीसे वाहर क्रोड़ गुना बड़ा है-पूर्व जन्म है नहीं इत्यादि. (४) जैनधर्म बौद्धधर्मकी शाखा है-ओर हजार बारह__ सो वर्षसे उत्पन होया हुवा है इत्यादि इत्यादिप्र० क्या ऐसे पाठोंके पढनेसे धर्मसे भ्रष्ट हो जाता है ? उ. नही भ्रष्ट होना दूसरी बात है किन्तु बालकोंकी कोमल वयमें जो ये संस्कार दृढ जमजाता है उ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४९) ससे वे कठोर हृदयी वनकर धार्मिक वारतोंसे अपरिचित होनेसे-श्रद्धाहीन, अनाचारी, अभक्ष खानेवाले, दयाकी कम लगनी रखने वाले पनजाते ह जैसा कि हम ईक जैन युवकोंमें देखते हैं कि केवल नाम मात्र जैनी हैं, कारण कि वे अपनी घुद्धिके सामने अपने बुजुर्गोको बुद्धि तुच्छ समझते ह रौकिक कितनेक रीतरिवाजोंसे घृणा करते है दशन, पूजन, गुस्वदन, शाबाग, सामाइस, मतिरमण पदमूल, अमक्ष, रात्रिभोजनादिका त्याग जत पवाग्माण करना आदि अनेक पाते हैं इन बातोंमें तो समझतेही नहीं कोई कहता है तो इसी मजा कम उडार उल्टा उनका निपेप युक्ति पुर्वक करदेते हैंफेवल कमाना और सानापीना मोज मजा उडाना यही उनी का धर्म रहता है । चाहे वे भारतकी उनतीके पियम लेख लिये प्रयत्न करें परन्तु जबतक सुट मुघरे नहीं है तो दूसरोका मुधारा कभी नहीं करसकेंगे रेल फेशनही फेसन और यवनोकी सगतीम निरर्थक जाम खो देंगे और इसी प्रकारकी उन्नती करेंगे जैसा रि एक कविने कहा है' Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५० ) आगे खुल्यो अरुपीछे कटयो जिमि कोटकी शोभा कमीज बड़ाई, सुंदर टोपी घड़ी छड़ी गही वरननमें पतलून चडाई । गढेही मूतत हैं भुमि सुचुरट्ट धुवां फुकफुक उडाई, भारतके जन उन्नती कारण प्रातही बूटकी कर्त सफाई १ __ क्या वे ऐसी दशामें अपना धर्म रूपी पुरुषार्थ साध सकेंगे! चाहे वे खूब इंग्लिश पढकर वीए० एम ए० वेरिष्टर, डा. क्तर-प्रोफेसर-मेनेजर कुछवी बनकर हजार दो हजार रुपै माहावारी कमाकर ऐश करें; परंतु वे धर्मके संस्कार विना सर्व निरर्थक हैं-धर्मके ज्ञान विना परोपकार वृत्ति क्षमा शांतता, सहनशीलतादिक गुण प्राप्त नहीं होते हैं-और इनके विना मनुष्य जन्मकी सार्थकताभी होनी अति कटिन है. इस लिये धर्मदाताकी सेवा निरंतर वनती रहै ऐसी शिक्षा भी हमें ग्रहण करनेका प्रयत्न करना चाहिये. व्यवहारिक शिक्षा तो केवल एक भवकी सुखदायी है और धार्मिकशिक्षा भवो भवमें सुखदायी है-धर्मसे ही सर्व मुख, संपत्ति, बुद्धी वल, आरोग्यता, लक्ष्मी, कुटुंब मिलता है. इससे विमुख रहना कृतघ्नी पुरुपोंका काम है कहा है:धर्मेणाधिगतैश्वर्यो धर्म मेव निहतियः Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५१ ) कथं शुभायतीर्भावी सस्वामीद्रोह पातकी । धर्मसे सर्व ठकुराई प्राप्त हुई है तो इसको छोड़ने वाले स्वामीद्रोहीका कदापि काल भला नहीं हो सकता, अतएव धर्म सेवना अवश्य है प्र० साप्रतमें तो श्रीमती जैन कान्फरसके प्रतापसे जगह • जैन पाठशालाए स्थापित हो गई है तो हमारे बालकों को वहा पर धार्मिक शिक्षा मिलती रहेगी, इसमें उन्हों के यामिक सस्कारभी दृढ वन रहेंगे क्या फिरभी वे धर्मसे विमुस रहेंगे ? और यदि कहोगे कि रहेंगे तो फिर क्या उपाय है कि जिनसें वे पूर्ण धर्मीप्ट पनसकें । उ. आपका कथन योग्य है, जगह २ पाठशालाए स्थापित हुई है उनके द्वारा अवश्य हमारे बालकोंको धार्मिक शिक्षा मिलेगी, परतु आज कल जो बहुतसी शालाओंमे शिक्षा की पद्धती दृष्टींगोचर हो रही है उसस यथेच्छ सीमाको पहुचना कठिन है, कारण विद्यार्थीयोंको जैन-चर्मके तत्वो सनधी कुठभी ज्ञान नही मिलता हमारी पाठशालाओरी पार्मिक शिक्षा कुछ समय व्य. वहारिक शिक्षासे मिलता होना चाहिये वो नहीं है जैन गालाओंमें केवल शुक वाला राम गम कठाग्रपाठ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५२) सिखलाते हैं, चाहे वे दस बीस हजार श्लोकभी मुखपाट कर लेवे, निरर्थक है. सर्व शालाओंकी व्यवस्था एक धोरणसें होना वाहिये वैसी नहीं है. व्यवहारिक ज्ञानभी हमें यथायोग्य नहीं मिलता. अपनी कोम प्रायः सर्व व्यापारी वर्गमे हैं. हमें व्यवहारिक शिक्षाके अतिरिक्त, व्यापार संबंधी शिक्षा मिलनी चाहिये कि अमुक २ व्यापार अपने करने योग्य है अमुक २ व्यापारमें कम व्यवसाय और लाभ अधिक है, अमुक २ वस्तु अमुक देशोंमें पैदा होती हैं और अमुक देशोमे खपती है उनोंके व्यापार किस उंगसें किस २ मोसममें किये जाते हैं इत्यादि. ___ आजकल अन्यकोम जैसे कि खोजे, मेमन, बोहरे, पारसी, आदि व्यापार के कामोंये बहुत आगेवान हुइ हैं और हमारी कोम जो खास व्यापारी कोमके नामसे प्रसिद्ध है अविद्या और आलस्यके कारण पूर्ण पछात पड़रही है देशाटन करनेमें हमारी कोम सबसे पडात है इस लिये हमें सर्वसे प्रथम व्यापारी शिक्षाक तर्फ विशेष ध्यान देना चाहिये. प० इसके लिये दया नबंध करना उचित है ? उ० इसके लिये एक बड़ा भारी फंड करके एक जैन Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५३ ) युनिवर्सीटी (विश्वविद्यालय ) स्थापन करना चाहिये, उसके प्रवधके वास्ते विद्वान गृहस्थोंकी कमीटी नियत की जा कर व्यावहारिक और धार्मिक दोनों पिपयोंकी पाठमालाए बडी युक्ति और विचार पुर्वक तैयार करानी चाहिये-उन पाठ मालानोका क्रम सर्व जैन शालाओंमें दाखिल करवा कर उनकी योग्य इन्स्पेक्टरों द्वारा तपास करवाइ जाय तो कुछ लाभ होनेरी आशा है प्र. व्यवहारिक शिक्षारी पाठमाला किस प्रकारकी होनी चाहिये। ___उ० व्यवहारिक पाठमालाओमें व्याकरण, और गणित के विपाको छोडकर और सन उपयोगी विपयोके पाठ आने चाहिये जैसे नीति सबधी पाठ, पदार्यविज्ञान, भूगोल इतिहास, आरोग्यता, उद्यम, व्यापारी इतिहास, राज्यशासन तत्र इत्यादि अन्य • उपयोगी पुस्तको द्वारा सकलन करना चाहिये, परन्तु सर्प जैन धर्मकी शैली के अनुसार और मिलान करके लिखेटुचे होने चाहिये. ज्यापारिक शिक्षाफी पुस्तकें जुदी होनी चाहिये और वे युवान समर्थ विद्यार्थीयोंको ४ थी ५ वी कक्षामें सिखानी चाहिये. इन पुस्तकों मर्म प्रकारकै उचित व्यापारोंका वर्णन Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५४ ) अछी तरहसे होना चाहिये. ये पुस्तकें अनुभवी बड़े व्यापारियों की संमतीसें बड़ी २ व्यापार संबंधी डिरेक्टरीयोंसें शोधकर उपयोगी और प्रचलित व्यापारोका वर्णन पूर्ण रीतसे होना चाहिये. ऐसी पुस्तकोंकी शिक्षासें अवश्य उम्मेद है कि विद्यार्थीयोका व्यापारके कामों में साहस और उत्साह बढेगा और कुशलतासे व्यापार चला सकेगें. प्र० धार्मिक विपयकी पाठमाला कैसी होनी चाहिये ? उ० धार्मिक विपयकी पाठमालाओंमें प्रथम और द्वितीय भागमें तो केवल नीति संबंधि छोटे २ पाठ अथवा आचार विचार संबंधी सामान्य शिक्षा चैत्यवंदन, सामायकविधि, हेतु अर्थ युक्त जीव पदार्थकी सामान्य समझ, जैनधर्म संबंधी सामान्य समझ इत्यादि छोटी वयके वालकोंको सरल पड़े ऐसे उपयोगी पाठ. तृतीय चतुर्थ और पांचवी पाठमालाओमें निम्न लिखित विषय तो अवश्य आने चाहिये और वे इस रीतिसें होने चाहिये कि जैसे तीसरे भागमें सामान्य स्वरुपही या उसी विषयका चतुर्थ भागमे विशेष विवेचन और पंचममें उसमेंसे निकलते हुए वे तर्क वितर्कों के समाधान और उसका अनुभव सिद्ध होना चाहिये. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५५ ) विपयोंका वर्णन'तत्वज्ञान-देव गुर धर्मकास्वरूप, जीव अजीव पदार्थोका वर्णन, पडद्रन्यकी समझ, जीवों के विभाग, स्थान, आयु, शरीर, इद्रिय, प्राणादिकोका विवेचन, सूक्ष्म जीवोंकी उत्पत्ति, आधुनीक पद्धतीसें उनका विवेचन और सिद्ध करना कर्मोका वर्णन, उनके विभाग, स्थिति, जीवके साथ उनका सबध किस रीतिसें अरिहतादि पच परमेष्टीका स्वरूप, उनोके गुणोका वर्णन, गुणस्थानक वर्णन, नय, निक्षेप प्रमाणों का विवेचन इत्यादि २ भूगोल-काल चक्रका वर्णन, कालके विभाग, उनोंकी सख्या, स्वर्ग मृत्यु और पाताल याने देवलोक मनुष्यलोक और नर्कका वर्णन, उनके विभाग, नपती, वहाके रहने वाले जीवोका विवेचन, असरयद्वीप समुद्रोका विरेचन, इग्लीश भूगोल और जैन भूगोलका मिलान, पर्वत दह नदी कृट बनोका वर्णन इत्यादि सृष्टीकी उत्पत्तीकी भूल भरी समझका समाधान, सृष्टीका फर्ता कोई नहीं अनादि प्रवाह सिद्ध, मुख्य ? तीर्थ करोके चरित्र, उनोके समयसे पडे हुवे धर्म सबधी भेद, उनोफे वैभवका वर्णन, द्वादशांगीका वर्णन उनोकी पवित्र देशना. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ( २५६ ) इतिहास-महान् आचायाँके चरित्र, उनोंके प्रबोधित राजाओके चरित्र, अन्य जैनी राजाओंके चरित्र. उनोकी महान् कृतियें, मुख्य २ श्रावकोंके चरित्र, सतीयोंके चरित्र इत्यादि २ आचार-सामायक चैत्यवंदन प्रतिक्रमण नवस्मर्ण मूल अर्थ विधिहेतु युक्त दर्शन पूजन विधि भभ्याभक्ष्यविचार श्रावकाचारका वर्णन, बारह 'व्रतोही समन, चतुर्दश नियमविचार व्रतपञ्च खाणोंका विवेचन, उपयोगी स्तवन, चैत्यवंदन, सझाये, स्तुतियें, रास, छंद इत्यादि २ उपरोक्त विषयोंकी पाठयाळाएं पुर्ण उपयोग पूर्वक विद्वान मंडल तैयार करें और वे धार्मिक पाठशालाओंमें पढाये जावें. वे पाठमाला ऐसी सरल और साफ होनी चाहिये कि विद्यार्थियोंके मस्तिष्कमें कम परिश्रमसें ज्ञान ठस जावे और सामान्य परिचय वाला शिक्षकभी पनासकें. प्र. ऐसी पाठमालाओंके पढनेसें फिर लोक धर्मसे वि मुख नही रहेंगे ? उ० बेशक नहीं रहेंगे किन्तु पुर्ण धर्मिष्ट वनकर स्वपरका कल्याण कर सकेंगे और जो अन्य भाषाएं संसार निर्वाहके लिये सीखेंगे . जनोंमेंभी इस धार्मिक अ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५७ ) भ्याससें विशेष प्रकाश होता रहेगा बडी डिग्रीयेमी प्राप्त करेंगे और धामिक ज्ञानमेंभी कुशल रहेंगे ऐसे विद्वानोसें हमारे समाजकी उन्नती अवश्य बनी रहेगी ऐसे विद्वान चाहेंगे तो अन्य देशोभी हमारे धर्मका उपदेश दे सकेंगे इस लिये में सर्वश्रीमानों विद्वानों से प्रार्थना करताहु कि पाठमालए शिघ्र तैयार करवावें अन्तमें मै श्री कृपाल वीर परमात्माकी जय बोलता हुवा मेरे मित्र मि कस्तुरचदजी गादिया अधिपती " हिन्दी जैन कि " जिन्होने यह पत्र निकाल कर हिन्दी भाषा बोल्ने पढने वाली मालवा, मेवाड, पुर्व, वगाल, राजपूतान, पजावको प्रजाको जाग्रत किया है और आप खुद समाजकी उन्नतीके लिये कटिबद्ध हो रहे हैं उनोंका उपकार मानकर मेरे लेखको समाप्त करताहु __ अयोग्य और अनुचित लिखानकी सर्व पाठकोसे क्षमा इति शुभम् आपका शुभेच्छक मिश्रीमल खेमचंद १७ Page #276 --------------------------------------------------------------------------  Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५९ ) इश्वरभक्ति __ सारा ससार भली भाति जानता है कि यह भारतवर्ष कुछ ऐसा वैसा देश नहीं है । पूर्वमें, इसने अपनी विद्या, उदि और पराक्रमके परसें जो कुछ कर दिखलाया उसका ठीक भेद तक आज कलके सभ्य कहलाने वाले किसीभी देशने नहीं पाया है। केवल सासारिक वातों ही नहीं वरन पारलौ. किक रिपयों में भी अद्वितीय पुरुषार्थ बतलानेका यह जैसा दाना रखता है वैसा कोइभी अन्य देश साहस नहीं करसकता है। आहा वहभी एक समय था जब यही भारत, भू मडलके समस्त देशीका शिरोमणि माना जाता था । परन्तु कालकी गति विचित्र है, जिसके प्रभावसे पहिले जो इसें पुज्य गर जानकर सम्मान देते थे. वही आज उसे असभ्य रहकर आदेश करते है । शोचनेका स्थान है कि उसकी यह दशा कैसी पलट गई । इस दुर्दशाका सम्पूर्ण श्रेय हम केवल आलस्यही को दिये देते ह जो अपिधारे समान कई बातोंको अ पने पोछे २ लेकर आता है । ऐसा कोइमी देखने में नहीं आया जो थाल स्यके फदेमें पड़कर किसी जशीभी दुसी न हुाहो, तर फिर विचारे भारतकी इस समय ऐसी स्थितिहो तो टसमें आश्चर्य क्या है ? अभी तर आस्म, अविवादिके बढने जानेसे इस तह Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६० ) भाग्य देशका जो कुछ बिगाड़ हुआ है, वह वास्तवमे कुछ कम नहीं समझना चाहिये । यदि इतनेहीसे वस होता तोभी कुछ धीरज धर सक्ते थे परन्तु एक नई वात ऐसी हुइ है जिससे इस देशके प्राण नाश होनेकी शंका उत्पन्न होती है वह वात कौनसी ? यही कि अब अपनी हजारों वाँकी स्व__ भाव सिद्ध धर्मत्ति धीरे २ लोप होती जारही है, अपने स त्गास्त्रोंसे दिनों दिन कितनेही लोगोंकी श्रद्धा उठती जाती है। पुर्ण विचार किये विना जिस प्रकार कितनेक देशबंधु अपने धर्म सम्बंधी कामोंमें विपरीत वरतने लगे हैं, उसी प्रकार बहुतेरी वातोकों वे झुठीभी समझने लगे हैं, तिसपरभी इन सारी वातोंके ऊपर कलशके तुल्य एक भारी वात यह हुइ है कि आजकलके नव शिक्षितोंके अधिकांश भागमें ऐसे विचार प्रसारित होते हुए दिखाइ देते हैं कि "इश्वर कोई वस्तुही नहीं है, जो कुछ दृष्टि पड़ता है सो सर्व स्वभाव (नेचर) ही से होता है." उनलोगोंको पांच चार दिन जो खाने पीनेके लिये ठीक पदार्थ, पहिननेके लिये अच्छे वस्त्र, मिलने झुलनेके लिये मित्र, वांचनेके लिये पुस्तके वा समाचारपत्र, इत्यादि कई वातोंमेंसे एकाद बातभी न मिले तो वे बड़े दुःखी हो जातेहैं परन्तु विना इश्वरस्मरण किये कई दिन तो क्या पर अनेक वर्ष भी बीत जायें तो भी उनके चितमें कुछ खेद नहीं होता Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) और न वे यह समझते है कि ऐसी दशामें हमारे जीवनको कितनी हानि पहुच रही है उल्टे वे इस प्रकारके कुतर्क उठाया करते हैं कि सुबहमें उटते ही अपने काम धधे किंवा विद्याभ्यास डोडकर ईश्वर • करते रहना व्यर्थ झझट है। उनकी समझसे ईश्वरस्मरण एक प्रकारका भ्रातिकारक व्यवहार है । वे कहा करते है कि जो निकम्में हों वे भले ही ऐसे २ व्यर्थ वातें तथा कार्य किया करें, पर कामकाज वालोंके तो इनमें अपना समय न सोना चाहिये । उनकी इन सारी बातों परसे यही जान पडता है कि ईश्वरका मानना और उसकी भक्ति करना, वे अज्ञानी और मूर्ख लोगोंका काम समझते है | उन लोगों के, मनकी ऐसी विपरीत स्थिति देख कर ही इस विषय पर सक्षेपमे कुछ लिखनेका विचार हुआ है। निस प्रकार जल वायुके मिले पिना अपना एक क्षण मात्रभी जीना कठिन हो जाता है, उसी प्रकार ईश्वरके स्मरण किये बिना अपने को सच्चे मुखका अश मानभी अनुभर होना अशक्य है। जैसे बिना खाने पीने के अपनी देह निर्बल होती जाती है, वैसेही ईश्वर विमुख होनेसे अपनी अघोगति होती चली जाती है । यह स्मूल गरीर जेसे खाद्य पदार्थोके आश्रित हो रहा है, वैसेहो इसके अन्दर जो सूक्ष्म चैतन्यशक्तिजोगात्मा उमका आधार केवल अखड शक्ति स्वरूप ईश्वरकी Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६२) भक्ति ही है, जिस प्रकार देखनेके लिये नेत्रोंकी और चलने के लिये पांवोंकी आवश्यकता है उसी प्रकार यथार्थ सुख और ज्ञानकी किसी अंशमेंभी प्राप्ति करनेके लिये परमेश्वर की भक्ति करना अवश्य है । इन्हीं कारणोंसे सर्वोत्कृष्ट सुखके अभिलापी जनको, तथा उत्तमोत्तम जानकी आकांक्षा करने वाले पुरुषको अपनी इच्छाकी सफलताके लिये ईश्वरकी भक्ति करना ही एक मात्र उत्तम उपाय है । कितनेक लोग कहते हैं कि ईश्वर हो तो उसके स्मरण करनेकी लंबी चोड़ी बातेंभी कामकी हैं; परन्तु ईश्वरके होने विश्वास क्यों कर कियाजाय ! जब कि वृक्षका मूल ही नहीं तो फिर उसको डालियोंकी बातोसे क्या प्रयोजन ! विना आंखोंसे देखे, कैसे जाना जाय कि ईश्वर है ? यदि कोई इश्वरको प्रत्यक्ष वतादे तो हम माने और भक्ति करें. उन लोगोकी ये शंकाये एक प्रकारसे ठीक है। हम अपनी शक्तिके अनुसार प्रथम इनका ठीक समाधान करके यह बतलायेंगे कि केवल ईश्वरका होना ही मानना योग्य नही, बस उसकी भक्ति करनाभी मनुष्योंका परम कर्तव्य है । ईश्वर अपनी नजरसे दिखाई नहीं देता है इस लिये वह है नहीं । यह शंका उसी प्रकार होगी जैसे कोई कहे कि अपने शरीरमें जीवात्मा (चैतन्य शक्ति) अपनी नजरसे Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६३ ) प्रत्यक्ष दिखाई नहीं देता है, इसलिये यह हे ही नहीं । अपने दिखाई देने वाले जड शरीरमें चैतन्यके नहीं होने की बात अपनेको जिस प्रकार झूठी भासती है, उसी प्रकार ईश्वरके नहीं होनेकी बात भी असत्य क्यों न जानी जावे यह स्मरण रखने योग्य बात है कि प्रत्यक्षरे सिवाय अनुमानसेमी फितना ही बातें जानी जाती है, हेतुको देखकर हम पदार्थका नान कर सक्ते है जैसे किसीका पिता दादा या परदादा मरगया हो तोभी हम अनुमान पर सक्ते है कि टाढा पग्दाढा पिता विना मनुष्यकी उत्पत्ति नहीं हो सक्ति है इस पिपे इस पुरूपके पितादिथे इसी प्रकार ईश्वरके विपयमें भी हम अनुगान द्वारा सिद्ध करके आपको ईश्वरका ज्ञान कगय देते है जिससे फिर आप स्वय अनुभव कर सरगें फि ईश्वरभी अवश्य है अपन सब जानते है कि पानी फे एक दम हजारों सूक्ष्म जतु होते है, परन्तु वे अपनी सुही आग्यास लिई नहीं देने ? इस परमे अपन ऐमा नापि नहीं कह सम्ने कि के ही नहीं, क्या येही जतु सूक्ष्मदर्शक यत्रने तुरत दिखाई देते हैं । वाम असरय परमाणुारा प्रवाह निरन्तर यहा करता है, परन्तु वे अपन को दीगो नहीं है इससे ऐसा कोई नहीं कर सम्ना कि वे नहीं है। यह पान कैसे उचित ठहर Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६४ ) स्मकती है कि जो कुछ अपनेको प्रत्यक्ष न दिखाई दे, वह कोई वस्तु ही नहीं है ! ___ जब कि सूक्ष्म पदार्थ देखनेके लिये साधनोंकी आवस्यकता होती है, तो ईश्वर जैसे सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतत्वको देखनेके लिये कोई विशेष साधन क्यों कर अवश्य नहीं ? साधन होनाही चाहिये । जिसके पास मूक्ष्मदर्शक यंत्र हो वह जिप्त प्रकार पानीके जीवोंको देख सकता है, वैसेही शुद्ध हृदयसे मिले हुए ज्ञानचक्षु जिसके हो, वही ईश्वरके देखने में समर्थ हो सकता है । यदि अपने पास सूक्ष्मदर्शक न हो तो अपन पानीके जंतुओंको नहीं देख सकते हैं, ऐसेही यदि अपने पास शुद्ध हृदयसे मिले हुए ज्ञानचक्षु न हो तो __ अपन ईश्वरकोभी नहीं देख सकते हैं । मूक्ष्मदर्शक यंत्र द्वारा देखने वाले मनुष्य जब अपनेकों कहदें कि पानीमें जतु हैं, __ तो अपन विना अपनी आंखोंसे देखे उनकी बात मान लेते हैं, दुर्वीनसे प्रत्यक्ष देखे विना और गणित किये विना, सूर्य अपनी पृथ्वी से ९१ करोड़ मील दूरी पर है, चन्द्र के अन्दर __ मैदान, पर्वतादि हैं, मंगलके वीच वडी २ नहरें हैं, खगोल मंडलमें अमुक ग्रह ऐसा और अमुक वैसा है, इत्यादि सारी बातें अपन बिना जांच परतालके सच्ची मानते हैं तो फिर इस देशके हजारों अपार बुद्धिमान् ऋषि महर्षि और मुनि नथा अन्य देशोंके बड़े २ साधु महात्माओंने अपने ज्ञानचक्षु द्वारा अनुभव करके Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (०६५) ईश्वरके होनेकी जो सासी दी है, उसको हमें क्यों कर अगी कार न करना चाहिये ? सूक्ष्मदर्शकसे देखने वालोंका __ कथन तो अपन मान ले और ज्ञानचायुसे देखने वालोंका कथन नहीं माने तो इसे यदि अपना दुराग्रह नहीं तो क्या कहा जाय? दुर्भान या सूक्ष्मदर्शक यन पास न हो तो खटपट करके उसे कहींसे राना पडता है, अयरा परदेशसें मगाना पड़ता है, उसी प्रकार जो अपने ज्ञानचक्षु न हो तो उन्हें भी यथो. चित प्रयत्न द्वारा प्राप्त करलेना अत्यावश्यक है । दुर्वीन या सूक्ष्मदर्शक मौजुट होने परभी उससे देखनेका जिसे विलकुल अभ्यास ही नहीं है. उसे चन्द्रादि सम्बधी हाल कुछ भी दिखाई नहीं देता है । इसी प्रकार ईश्वरको देखनेके जो साधन शास्त्रोंमें प्रसिद्ध है उनका ठोक २ अभ्यास किये बिना ईश्वर सम्बधी पातोका अनुभव कदापि नहीं हो सकता है पुर्व पालसे सत्पुरुप उन साधनोरा बोध कराते आये है। उनमें कद्दन अनुसार कुछभी न करके ऐसे प्रश्न करना कि टेश्वर कहा है ? यदि ईश्वर हो तो हमें बताओ ' इत्यादि सब चाते जान बूझकर एक प्रकारके अजानपनेकी नहीं तो क्या कहना चाहिये ? सचमुच ये बातें ऐसी ही समझी जा सकती है जैसे एक गगार मनुष्य किसी कालेजमें आकर प्रोफेसर से कहे कि" मुझे दिया पटा कर अभी एक अच्छी पदवी Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६६) दे दो, और पदवीके प्रतापसे जो द्रव्य प्राप्त होता हो उसकी एक गंठडीभी बंधा दो ? " इस गँवारकी इन वातोंपर जो वह प्रोफेसर हंसे, तब वह गंवार उस प्रोफेसरको ढोंगी पाखंड़ी कहकर उसका तिरस्कार करे तो क्या उस गंवार मनुष्य की ये सारी बातें विक्षिप्तपनकी नहीं मानी जायगी ? जिन साधनों द्वारा परमेश्वरका प्रत्यक्ष अनुभव होता है उनके अनुसार कृति किये विना और उस कृतिमें जितना समय लगना चाहिये उसका सहस्रांश भागमी लगाये विना "अभी इसी घड़ी यहांके यहीं ईश्वरको यदि बताओ तो हम मानेगे" विना विचारसे ऐसे वाक्य बार २ बोलते समय और तो क्या पर पढ़े लिखे लोगभी शरमाते हैं !!! किसी राजासे मिलना हो तो उसके मिलने में कितने साधन चाहिये ? मान लिया जाय कि किसी बड़े राजासे एक ऐसा हलका आदमी मिलना चाहता है, जिसके सारे श. रीरमें रक्तपित्ती फैली हो और चाहिये वैसे वलादिमी पहिननको न हो तो क्या उसकी उस राजासे मुलाकात होसक्ती है ? जब कि राजाके पास जाने के लिये ठोक २ योग्यता और साधन प्राप्त हुए विना राजासे मिलना कठिन होजाता है; तब फिर करोडों राजाओंकामी राजा जो परमेश्वर है उसको देखनेकी इच्छा रखने वाले ऐसे मनुष्य किस प्रकार Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६७ ) लायक माने जा सकते हैं जिनका मन कई जन्मोंके पापकर्म रूपी रक्तपित्तीसे अत्यन्त दृपित हो रहा है और जिनका शरीर दुराचरणोंसे मानो ग्रसित हो रहा है। ऐसे महारोगियोसे राजाकी मुलाकात न होनेसे ऐसा कदापि नहीं कहा जा सकता है कि राजाही नहीं है उसी प्रकार निय विषयोंके भोगमें फसे हुए लोगोको ईश्वर दिखाई नहीं देनेसे उनका यह कयनभी है कि ईश्वर हैही नही, मी सत्य नहीं माना जा सकता है। अपनेसे जिनकी बुद्धि करोडो गुणी वदी थी, जिनका ज्ञान रूपी दुर्मीन मूद मसे मम पदार्थ यहातक कि मनकी गुप्त बातोकोभी जान जाताया ऐसे अपने पुर्व पुरप पहपियोंके निर्माण किये हुए ग्रथादिसे स्पष्ट जगना जाता है, और सर देगाके धर्म प्रवर्तकभी कहते ह कि इ पर है। अपनेसे अधिक बुद्धिमानांनी वातको जर फि व्यवहारिक विपयोंमें अपन अद्धा पुर्वर मानते है तो ईश्वरको नेसरी वातका भी मानना उचित है। तर्कसे विचार किया जाय तोरस विषयम असरय ममाण मिले बिना नहीं रहते है। ई-वर गका अर्थही ईग नियममें रग्बना, पर-श्रेष्ठ-होता है। इन दोनों पदासे सारे जगत्को निरमने रखने वाली किसी श्रेष्ठ मत्ताका होना Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६८ ) सिद्ध होता है । यदि ध्यान पुर्वक देखाजाय तो इन ब्रह्मांडमें असंख्य प्राणि पदाथाके विषयमे रहनसेभी किसी एक सत्ताका होना इष्ट जान पड़ता है। यदि किसी वर्गको नियममें रखने वाला शिक्षक न हो तो, उस वर्गमें कैसी अव्यवस्था मचजाती है तो फिर ब्रह्मांडको नियममें रखने वाली शिक्षा का देनेवाला जो कोई नहो तो, दस बन्नांडकी सम्पुर्ण बातें भी होना स्वाभाविकही है। परन्तु सम्पुर्ण वाने नियम पुर्वक होनेसे किसी नेताका होना स्पष्ट सिद्ध होता है । कितनेक लोग कहा करते हैं कि संसारकी व्यवस्था " नेचर हीसे हुआ करती है, ईश्वर का नहीं है । उनका यह कथन अंगिकार करनेके साथही हम उनसे यह पुंछते हैं कि "नेचर" क्या है? ऐसी दशामें वे लोग 'नेचर' शब्द के स्वरूपका स्पष्टीकरण यही करेंगे कि जिन नियमोंके बलसे जगत चलरहा है उन्हें "नेचर"कहते हैं। अपन कहते हैं कि जिन नियमोंके बल से जगत् चल रहाहै उन्हेही ईश्वर कहना चाहिये । अपन संस्कृत शब्दका उपयोग करते हैं और वे अंगरेजी शब्दको काममें लाते है। जगत " नेचर" से चलता है-यह बात जैसी वैसी-जगतका नेता ( मार्गदर्शक ) ईश्वर है-गह वात नहीं रुचतो है. यह ईश्वर जैसे मार्मिक शब्दपर कैसा हास्य जनक कटाक्ष ! इस बातको तो सभी स्वीकारते हैं कि जगतकी Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६९) व्यवस्था किसीसे तोभी होती है, फिर वे उसे ईश्वर, नेचर, स्वभाव, कुदरत, सुदा, गोड, चाहे सो नाम दें। कितनेक लोग निरीश्वरवादी और कितनेक ईश्वरवादी हैं । दोनोंके अलग २ कयनको सुनकर फिर तुलना की जाय, कि किसका क्थन विशेष सयुक्तिक है । एक पक्षकी समझमें ईश्वरको मानने वाले और उसकी भक्ति करने वाले जीरन भर ईश्वर सम्बधमें जो कुछ करते है, वह सब व्यर्य है, अर्थात् उनके जीवनका एक भाग निरर्थक जानेके सिबाय उन्हे अन्य कोई हानि नहीं है यदि यही पक्ष सही ठहरे, तो ईश्वरसे सम्बर रखने वाले इसी वातसे अपना समाधान करलेंगे कि जिनना समय हमारा इस विषयमें न्यतीत हुआ उससे यदि कोई लाभ न हुआ, तो उनके हायसे कोई धुरा कृत्य भी नहीं हुआ है । परन्तु जो दूसरा पक्ष सत्य निकल जाय, तो निरीश्वर यादी जन्मभर अपने परम कर्तव्यसे विमुख रहने के कारण महान् अपराधी ठहरते हैं। ऐसी दशामें ये लोग अपने अपराधके दढ से रिस प्रकार छूट सकते हैं ? इन दोनों पक्षकी प्रयक २ बातोसेमी ईश्वरको मानने वालेकी वात ही विशेष सयक्तिक मालम होती है। एक उदाहरण ऐसा है कि कोई ऐक मनुष्य कहीसें अपने गारी जाताधा। चलते • उसको उस गारमे कुछ दूरी Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७० ) पर एक भयानक सिंह पड़ा हुआ दिखाई दिया । उसने गोवमें पहुंचते ही उस सिंहमा हाल वहां निवासियोंको कह लुनाया । वास्तवमे उन लोगोने अपनी आंखोसे सिंह को देखा नहींथा; परन्तु उनमेंसे कितनेकने तो मनुप्यके अनुभव पर विश्वास करके यह शोचा कि कदाचित् जो सिंह शहरके अन्दर आ जाय, तो पहिले हीसे हथियार तैयार रख के सचेत रहना अच्छा है और कितने कोने उस वातको सुनी ना सुनी करके कुच्छ ध्यान न दिया । जो सिंह गांवमें नहीं जाता तो किसीको कुछ भी बात नथी, परन्तु कुछ सम यके वाद दैव योगसे वह एका एक गांवमें घुस गया । उस समय जो पहिलेसे सचेत हो रहेथे उन्होंने जो उसका सामना करके अपना बचाव कर लिया, पर जो उस मनुष्यको वात पर कुछभी विश्वास न करके अचेत रह गये थे, उनमें से कई एकोको सिंह मारने लगा, और वे सबके सब लोग घबड़ा उठे । ऐसी ही दशा ईश्वरके होनेमें विश्वास नहीं करने वालों की भी क्यों न समझनी चाहिये । __ जगत्म समस्त प्राणि मात्रकी स्थितिको और देखने से यही जान पड़ता है कि ये सब परतंत्र है ! रोगी होना कोई भी नहीं चाहता है; पर भिन्न २ प्रकारके रोग आ घेरते हैं; पैसेवाले वननेकी तो कई इच्छा करते हैं; परन्तु कोई २ तो Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७१ ) पासमें जो हो उसेभी खोकर निर्धनी होजाते हैं, बहुतेरे सौ अथवा दोसौ वर्ष पर्यत जीनेकी इच्छा करते हैं, पर अचिन्त्य समय उन्हें मौत घर दवाती है, मनुष्य हजारों पदार्थ मिलाने का प्रयत्न करने हैं परन्तु उनमसे बहुत ही थोडे प्राप्त होते हैं, इत्यादि सारी बातोंके निर्णयसे यही सिद्ध होता है कि अशुद्धता और अपनी अज्ञानता ही परतनताका कारण है कि अपन तत्र नहीं है अपन थोडे जानकार है इसलिये परतन, और वह, सब जानने वाले सर्वज्ञ होनेसे स्वतन होना चाहिये । अपन परतत्र होोसे दुखी है, और वह सतत होनेके कारण अत्यन्त सुखी होना चाहिये । अपन परतर होनेसे अज्ञानी है, और यह स्वतन होनेसे सम्पूर्ण नानके भडार होना चाहिये। अपन परतत होनसे जन्म मरन करते है और वह स्वतन होनेसे अजर अमर होना चाहिये। अपन परतत होनेसे परिडिन्न मर्यादा वाले ई-अर्थात् एक जगह है तो दूसरी जगद्दकी नहीं जान सक्ते और वह स्वतन होनेसे सर्वत्र व्यापक होना चाहिये। अपन परतन होनेसे एक काल में है तो दूसरे फारम नहीं, और वह स्वतन होनेसे भूत, वर्तमान और भविष्यत् सय साल्में होना चाहिये । जिस प्रकार अधकार है तो प्रमश पडता है, मैलापन है तो स्वच्छता होती है, वैसेही अपन परतत है तो फिर कोई स्वतन होनाही चाहिये । अपन दु ग्वी और अशक्त है तो कोई मुवी और सर्व शक्ति Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) मान होनाही चाहिये । वह स्वतंत्र वस्तु कोई अन्य नहीं है परन्तु वही है जिसे शास्त्र " ईश्वर" कहता है । वह अविनाशी पुरुष, वह सर्व व्यापी तत्व कोई अन्य नहीं है परन्तु वही परमेश्वर है जिसे हजारों योगी और साधु महात्माओने अनुभवसे जानकर निर्णय किया है । यदि कोई कहे कि अपन परतंत्र और दुःखी हैं परन्तु राजा तो ऐसे नहीं हैं, तब फिर स्वतंत्र और सुखी व्यक्ति राजाको समझनेकी अपेक्षा ईश्वरको क्यों समझना चाहिये ? थोड़े विचार करनेसे स्पष्ट जान पड़ेगा कि साधारण मनुप्यकी अपेक्षा राजा किसी विशेष वातमें कुछ स्वतंत्र और सुखी है, परन्तु जो वह ऐसी इच्छा करे कि मैं सदा जवान ही, वना रहुं, तो भी वुढा हो जाता है । वह अपनी स्त्री, पुत्र आदि किसीकाभी मरण नहीं चाहता है तो भी ऐसी घटनाएं होती ही हैं । ये सब बातें विचार पुर्वक देखी जाय तो यही मालुम होगा कि राजा तकभी परतंत्र और दुःखी हैं; क्यों कि पुर्णज्ञानी नहीं हैं अशुद्ध है इस लिये स्वतंत्र और सुखका निधि केवल परमात्माको ही कहना योग्य है जो सर्वोपरि है। ___ अपने स्वतःकी स्थिति जगत्का स्वरूप अपने पूर्वमें हो गये उन हजारों बुद्धिमान पुरुषोंके वचन देखनसे और योगियों तथा भक्त जनोका अनुभव देखनेसे ईश्वरके होनेका Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७२ ) पग • और क्षण २ में जप कि सामान्य बुद्धिवालेको स्पष्ट होता है, तो फिर शुद्ध अन्त करण पाले महा पुरुषोंगो वह प्रत्यक्ष हो जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है । हम ऊपर कह आये है कि जीव मान परतन, दुखी और अल्प ज्ञानी है | थोडी देरही यदि किसीफे तामें रहना पडे तो अपनी तवियत अकुलाय जाती है इस कारण कि अपनेको परतत्रता प्रिय नहीं है । सारा दिन पाठशाला किंवा कचहरीम रहना परतनता होनेसे, जब अपन वहासे छुटते है तब अपना मन कुछ प्रफुल्लित होजाता है । पक्षी पीजरेमें रखा हो और जर कभी पीजरेका द्वार खुला रहजाय तो यह उड जाता है । पशुभी जब खूटेसे छुटता है तो चौकडी भरता हुआ आनन्दसे मन चाहे उस तरफ दौडने लगता है ___इन सारी वातोंका कारण यही है कि स्वतनता सबहीको व हुत प्यारी लगती है। जिस प्रकार परतत्रता अनेक दु'सोंका कारण है, उसी प्रकार स्वतनता सम्पुर्ण सुखोंका हेतु होनेसे मत्येक प्राणी स्वतन होनेकी इच्छा करते हैं। जैसे अपनेको स्वतत्रता प्रिय है वैसेही मुखभी बडा मुहाता है । जन्म लेते है तबसे मरनेतक अपना सुख प्राप्तिका प्रयत्न रातोदिन चलता रहता है, कारण इसका यही है कि जपन दु ग्वी है इस लिये मुखी होनेका उद्योग करते हैं, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७४) रैकहो वा राजा, छोटाहो वा बड़ा सभीसुख मिलानेका प्रयत्न करते हुए दीख पड़ते है. क्यो कि सव कोइ किसी अंशमें दुःखी अवश्य हैं । इसी प्रकार छोटी उमरसेही लोग भांति २ का ज्ञान प्राप्त करनेका प्रयत्न करते हैं । वे एक विद्याका अभ्यास करके दूसरी विद्याका अभ्यास करते हैं । उसेभी जव पढ़ चुकते हैं तो तीसरीका औरभी पढना वाकी रहजाता है। जिन्होंने कई प्रकारकी विद्याएं सीखी हैं उन्हेभी इतनी विद्या औरभी पहनी शेप रहजाती है जिसका कि कुछ अन्त नहीं आ सकता है । अपन जिसको महान् विद्वान मानते हैं उन्हें जब पुंछते हैं तो वेभी यही कहते हैं कि अभी हमने 'विद्याका कुछभी पार नहीं पाया है. इन सब बातोंसे यही सिद्ध होता है कि मनुष्यों को पुर्ण ज्ञान नहीं होता है । जबतक सम्पुर्ण ज्ञानकी प्राप्ति न हो जाय तबतक ज्ञानसे तृप्ति नहीं होती अर्थात् नया २ जाननेकी इच्छा बनी रहती है। ___संसारमें जितने मात्र जीव है वे अशुद्ध यलीन है. मलीनता सवको अप्रिय है, सभी शुद्धता चाहते हैं, ऐसा कोईभी मनुष्य नहीं. जो कि अशुद्ध रहकर संसारिक जन्म मरणका दुःख भोगना पसन्द करे. इन सब बातोंका सारांश यही है कि मनुष्य मात्र सम्पुर्ण रीतिसे स्वतंत्र, सम्पुर्ण रीतिसे सुखी, सम्पुर्ण रीनिसे ज्ञानी और शुद्ध होनेकी इच्छा करते हैं और जबतक Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७५ ) ये सारी बातें प्राप्त न हो, उनको शान्ति होना सभवनीय नहीं है। ऊपर किये हुए वर्णनमें दो प्रकारको अवस्था चाली कस्तुए है । एक वह जिसमें परतनता, दुःख और अज्ञान हैजैसे जीवात्मा और दूसरी वह जिसमें स्वतनता, मुख और ज्ञान रहता है-जैसे ईश्वर, इसका मूल कारण यही है कि ससारी जीवात्मा अशुद्धात्माए हैं और इश्वर शुद्ध आत्मा है। जाडेमें जब अपनेको ठड लगती है तो अपन अग्निका सेवन करते है । जो शिर्षन होते हे वो किसी श्रीमान्के पास जाकर उसकी सेवा करते है, उसकी कई प्रकारसे ऐसी भक्ति करते है जिससे वह प्रसन्न हो । जिसके पास द्रव्य दो उसके पास गये पिना, और वहा जाकरकेभी उसमी ठीक मर्जी सम्पादन किये बिना पैसा नहीं मिलता है अर्थात् जिसको जिस व. स्तुकी इच्छा होती है वह उस वस्तुको प्राप्त करने के लिये जहा वह वस्तु हो वहा जाता है। इच्छित पदार्थको मिलानेका श्रद्वायुक्त प्रयत्न करनाही उस पदार्थकी भक्ति कहाती है । विद्यार्थी विधा माप्तकरनेमें सचे मनसे जो अम उठाते है उसे ही विद्यापी भक्ति कहते हैं । आन सतनताकी इच्छा करते है तो जिन उपायोंसे सातत्रता मिल सकती हो, उनका विचार करना अपश्य है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७६ ) जैसे धनकी इच्छा वाले घनकी भक्ति करते हैं, वैसेही स्वनंत्रताकी इच्छा वालोंकोभी स्वतंत्रताकी भक्ति करना चाहिये । ठंड उड़ानेके लिये यदि कोई दीपकका सेवन करे तो दीपक उसकी शक्तिके अनुसार किंचित् मात्रही ठंड उडा सकता है । सम्पुर्ण ठंड उड़ानेको तो अच्छी प्रज्वलित अग्निही आवश्यक है । इसी प्रकार स्वतंत्रता प्राप्त करनेके लिये अपन जगतकी अन्य वस्तुओंकी सेवा अर्थात् भक्ति करें, तो वे उनकी शक्ति के अनुसारही फल दे सकती हैं। वे स्वयम्ही परतंत्र हैं अर्थात् जब कि वेही पुर्ण स्वतंत्र नहीं हैं, तो फिर अपनेको स्वतंत्रता कैसे दे सकती हैं । जो पुर्ण रूपसे स्वतंत्र हो उसीकी सेवा अर्थात् भक्ति करनेसे सम्पुर्ण स्वतंत्रता मिलना शक्य है । हम इस वातको पहिलेही सिद्ध करचुके हैं कि पुर्ण स्वतंत्र तो केवल एक परमेश्वरही है । इस लिये अपनेको उस पुर्ण स्वतंत्र परमात्माकी भक्ति करनाही इष्ट है । अपन दुःखसे छुटनेकी इच्छा करते हैं तो फिर जिस स्थानमें सुख हो वहां जानेसे अपने दुःखकी निवृत्तिका उपाय हो सकता है। परन्तु कोई यह कहे कि अच्छा २ भोजन करनेसे, उत्तमोत्तम वस्त्रादि पहिननेसे, वड़ी २ इमारतों में निवास करनेसे, गाड़ी घोड़े दौड़ानेसे और ऐसे ही कई प्रकारके भोग विलास करनेसे जब सुख मिलता है तो फिर इन्हें Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७७ ) क्यों नहीं करना, और दु ख टालनेके लिये परमेश्वरकी भक्तिही क्यो करना चाहिये ' हा यह सत्य है कि इन बातोंसे अपनेको एक प्रकारका कुछ सुखसा मालुम होता है, परन्तु वह बहुतही थोडी देरतक रहने वाला अर्थात् क्षणिक है। अपनेको भोजन तीतक अच्छा लगता है जबतक कि अपनी भूस तृप्त न हो। वही भोजन जो अधिर हो जाय तो विप सरीखा उगता है। यदि भोजनमें मुख हो तो जैसे २ वह ज्यादा अभ्यास कियाजाय पैसे • अधिक • मुख होते जाना चाहिय । बीमारीकी दशामें किसीकी मृत्यु हो जाय उस समय या ऐसेही औरभी किसी प्रसगपर सान पान घर वार अपने पिराने कोइ नहीं भाते है यदि ये मुसके टेने वाले हाँ तो सभी समय इनसे इस प्रकार मुख मिलना चाहिये, जैसे अपन अग्निकों चाहे दु स्वमें मुखमें, सोते वा जागते, फिसो समयमें भी अपने हायसे स्पर्श करें तो अपन दाने विना नहीं रहते हैं, क्यों कि अग्निमें उप्णता सर घडी रहती है। यदि विषयों अन्दर प्रख हो तो जर कभी उनका सेवन किया जाय उसी समय उनसे मुखकी प्राप्ति हो सकती है, परन्तु जब ऐसा नहीं हो तो यही कहना पडता है कि पिय नुखदायर नही होते हैं। इसी लिये जिनको इच्छा दुग्य टारकी अर्यात सुख प्राप्त करने की हो उन्हें उचित है कि उस अखड मुग्यके देने वालेसे ही ठीक सम्बर रगसें Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ( २७८ ) . जिसे किसी क्षण मेंभी दुःख नहीं व्यापता है; और जिसको, चाहे वीमारीकी दशामें, चाहे आरोग्यता, चाहे विपत्तिमें चाहे शोकमें जब कभी सेवा अर्थात् भक्ति की जाय, अवश्य ही सुख प्राप्त होता है । यह पहिले ही. निश्चय हो चुका है कि वह अखंड सुख स्वरुप केवल परमेश्वर है ! इससे यही सारांश निकलता है कि सच्चे सुखके अर्थ परमेश्वरकी भक्ति करनाही आवश्यक है। ____ यदि अपन पूर्णज्ञानकी इच्छा करते हैं तो सम्पूर्ण ज्ञानवानकी भक्ति करना योग्य है । एक या दो विषयोंके ज्ञान वाले शिक्षक कि जो अपन सेवा करें तो अपनेको एक या दो विषयोंका ही ज्ञान प्राप्त हो सकता है, और बहुतसे छोटे बड़े विषयोंके जानने वालेकी सेवा करें तो वे बहुतसे विषय सीख सकते हैं, परन्तु सब विषयोंका यथार्थ ज्ञान तो केवल एक परमेश्वरही में हैं; इसलिये यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति के अर्थ इसीकी भक्ति करनेके सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है। इसी प्रकार यदि कोई निर्दोप होना चाहता है तो उसे चाहिये कि सर्व गुण युक्त ईस्वरके गुणानुवाद करके तिसके सदृश होनेकी इच्छा करता हुआ अपने दोषो को दूर करे तो वह एक दिन निर्दोष होकर सांसारिक जन्म मरणसें रहित अविनाशी हो सकता है इतना विवेचन करनेसे यही सिद्ध होता है कि सम्पूर्ण स्वतंत्रता, सच्चा सुख पूर्ण Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७९ ) ज्ञान और निर्दोषता प्राप्त करनेके लिये केवल ईश्वरसे सम्बध करना-इश्वरका सेवन करना-ईश्वरकी भक्ति करना ही उचित्त है। कितनेक आलसी मनुष्य यहभी कहा करते है कि ऐसी स्वतनता, ऐसे सुख और ऐसे ज्ञान, ऐसी निर्दोपतासे हमें क्या करना है जो हम ईश्वरकी भक्तिकी इतनी घटी भारी ग्वटपटमें पडे, जो थोडा बहुत सहजहीमें मिलजाय वही हमें तो वस है, लाख मिलार रखेश्वरी न घने तो न सही भाग्यसे जो कुछ समयपर मिले वही अच्छा है विचार करना चाहिये कि खुले मैदान किया जगली उत्तम हवासे शरीर की आरोग्यता बनी रहती है, शरीर प्रफुहित रहता है, मगजम तरास्ट बनी रहती है, कामकाजमें तरियत लगती है, इत्यादि नाना प्रकारके जो राम होते है उन्हें न मान फर यह कहना कि सन्छ और मैली हवामें क्या है ? कहीं भी स्वास लेनेसे मतस्य रस कर गदगीसे री हुई हमें यदि कोई पड़ा रहे तो क्या ऐसा मनुष्य कोई समझदार माना जायगा? कोई २ जो भक्तिके वास्तविक सम्पस अनभित होते हैं पहुचा पेसा भी कहा करते है कि भक्तिसे मुसादि मिलने का विवार क्यार करना चाहिये जब कि कई भक्ति करनेवाले उड दुखी हुए दीस पडते है । ऐसी गुफा करने पालोको Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८० ) जानना चाहिये कि कभी सूर्यके पुर्दमें उदय होनेकी अपेक्षा पश्चिममें उदय होनेकी वात भलेही संभव होजाय, पानीके नीचे जमीनपर वहनेकी अपेक्षा कदाचित् कभी ऊंची जगहोंमें बहना संभव हो जाय, परन्तु भक्ति करनेवाले मनुष्य स्वतंत्र सुखी सर्वज्ञ और निर्दोष हो सके, यह बात किसी काल भी संभव नहीं हो सकती है । जिस प्रकार काई अग्निको अपनी अंगुलीसे स्पर्श करके दाजे विना नहीं रहता है, जिस प्रकार कोई पानीमें डुबकी मारकर भीगे बिना नहीं रहता है, उसी भकार इश्वरकी भक्ति करने वालाभी सुखरूप हुए विना नहीं रह सकता है, क्योंकि जो वस्तु जिसके साथ यथार्थ और निरन्तर सम्बन्ध रखती है वह उसके गुण ग्रहण किये बिना नही रहती है । अग्निके सन्निकट आया हुआ लोहा अग्निसा लाल सुर्ख होजाता है। लोहचुंबकसे लगे रहनेवालेके साधारण टुकड़े टुकड़े भी कई दिनोंतक दूसरे लोहके छोटेसे टुकड़ेको आकर्पण करनेकी शक्ति आजाती है । विद्वानोका संग प्रीतिसे सेवन करनेवाले विद्वान् ओर मुल्के सहवाससे कई मूर्ख बन जाते हैं. सब जगह संगहीका महात्म्य दृष्टि आता है, तो ईश्वरके संग प्रीति पुर्वक रहने वालेमेंभी ईश्वरके गुण आ जाना स्वाभाविकही है। साधारण रूपसे जो देखाजाय तो मालूम होता है कि भक्ति तीन प्रकारकी है-नामकी भक्ति, कच्ची भक्ति और सच्ची Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८१ ) भक्ति । जो ऊपरसे तो भक्तका डौल रखते हैं पर मनमें कुछभी न हो वे नामपारी भक्त कहाते हैं । ये लोग अपना ऊपरी ढौरमी उदरपोपणके अर्थ किंवा ऐसेही दूसरे किसी पारणसे रखते हैं । इस प्रकारके भक्तोंको यदि दुःख व्यापे तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि भक्ति करने वाले दुसी __ होते हैं। जर भक्ति पुरी जमीही नहीं और ऐसी अवस्था यदि कोई विपत्ति आर्गई, तो किस प्रकार कहा जा सकता है कि भक्ति करने वालोंको विपत्ति आ पैरती है । नर कोई विद्याभ्याम करता है उस समय वह एक पाईभी नहीं कमाता परन उल्टा प्रनिरर्प दोसौ, चारसौ रूपये खर्च किये चग जाता है, ऐसा देखकर कोई पढे फि पिचाभ्यास करने वाले निर्धनी होनाते है, तो क्या यह क्यन चुदिमानोंको मान्य होगा? किमान वेती करता है उस समय सेतमेसे पक दानाभी ग्या नेको नहीं मिलना है, तो इसपरमे क्या ऐसा तात्पर्य निकालना चाहिये कि सेतीमे पानेको अनका दानाभी नहीं मिठता है? पी मनुष्य परमेश्वरसे संग चिन्नयनकी और तो ध्यान नहीं देते, और भय कोई समष्ट आजाता है तो भक्ति दोप देने १, ये पैसी दास्यननर यात है। स्मिी रिदानने कहा है कि - प्रभुताको मरही चहें, प्रभुको चहें न कोय, जो कोई प्रभुको चहें, तो सहजहि प्रभुताहोय ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८२ ) अर्थात् परमेश्वरकी भक्ति कोई नहीं करते हैं, परन्तु __ भक्तिसे मिलने वाला जो परमेश्वरका ऐश्वर्य है उसकी भक्ति सब कोई करते हैं। जो ऐश्वर्यकी इच्छा न करके परमेश्वरही की सच्चे मनसे भक्ति करें तो उन्हें ऐश्वर्य आदि जो कुछ चाहिये आपही मिलजाता है । सांसारिक पदार्थोंकी औरसे लालसा छोड़कर शुद्ध अन्तःकरणसे परमेश्वरकी भक्ति करनेके उपरान्त, जो उसका फल प्राप्त न हो तो फिर सारे ज गतमे ऐसा ढंढेरा फेर देना ठीक होगा कि ईश्वरका मानना __ और उसकी भक्ति करना वृथा है । परन्तु कुछ भी करके देखे विना योंही कुतर्क करते वेठना केवल अनुचितही नहीं पर लां छनरपद है। वास्तवमें परमेश्वरकी भक्ति करना ऐसा सर्वोस्कृष्ट उपाय है कि जो आजतक किसीकोभी निष्फल हुआ सुनाई नहीं दिया है । जो मनुष्य ऐसे उपायके साधनोमें तन मनसे तत्पर बने रहते है, वही इस जगतमे धन्य हैं ! ___ कई ऐसेभी कोते विचारके मनुष्य हैं जो यही कहा करते है कि मनुष्यकी बाल्यावस्था विद्याभ्यासके, युवावस्था सांसारिक कामोंके और केवल वृद्धावस्था परमेश्वरकी भक्ति कर नेके लिये है । जरा सोचनेसे यह बात ध्यानमे आजावेगो कि उनका यह कथन कितना कुछ सत्य है । यदि मनुष्यको मुख सभी अवस्थाओंमें आवश्यक है तो ईश्वरकी भक्तिभी सब अवस्थाओंमें आवश्यक होसकती है। क्या बाल्यावस्था और Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८३) जवानी दुख भोगनेके लिये और केरल वृद्धावस्थाही सुख भोगनेके लिये है ? सच पूछा जाय तो निसने अपनी छोटी उमर तथा जवानीमें एक पडी भरभी परमेश्वरका ठीक स्मरण नहीं किया, ऐसे हद मनुष्य अपन देसते हैं कि उसके मनकी प्रति एक क्षणभी ईश्वरको और नहीं झुकती है। इसलिये इस विषयका शुद्ध सम्कार बाल्यावस्था ही में हो जानेसे पडे होनपर उत्तम फल होता है। ___ चाहे कोर्ट बालक हो वृद्ध, चाहे कोई पुरप हो वा स्त्री, चाहे कोई पठित हो पा अपढ, चाहे पोई श्रीमान् हो या कगार, चाहे कोई उची जातिका हो पानीची, चाहे कोई देगी हो पा पिटेगी, सर फोई परमेश्वरकी भक्तिके सो रहम्पको जाननेके अधिकारी ६, इतना ही नहीं परन्तु परम कर्तव्य है कि उस सर गतिमानसी भक्ति करने हुए अपने जीवन सफल करें। ____ हम इम पातशे पदिदी सिद्ध करनुफे है कि ईश्वर की भक्ति करने से मनुप्य मुग्वी होते हैं । यह यान भी किसी मपी नहीं ६ रि भारतवर्पमें क्या हिद, या मुसल्मान, क्या जेन, श पासी, रया ईसाई और क्या अन्य माप मभी भरसो मारने पार । ये रोग “घर है ऐमा काल मानते हो नहीं, परन उसका म्मरण, चिन्नान, प्रार्थना, उपामना और भतिभी उरते हैं । ऐसी टगामें Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८४) एक महत्वका प्रश्न उपस्थित होता है कि इस समय पृथ्वीपर कई ऐसे देश हैं, जहांके अधिकांश लोगोंकी ईश्वरकी भक्ति करनी तो दूर रही; पर उसके होनेहीमें चाहिये वैसा विश्वास नहीं है, और भारतवासी हजारों वरपासे उसके साथ सम्बंध रखते हुए चले आये हैं, तो फिर इस देशकी वर्तमान स्थिति उन देशोंकी स्थितिसे अच्छी होनेकी अपेक्षा खराव क्यों दिखाई देती है ? विचार करनेसें इस प्रश्नका ठीक उत्तर समझमें आ सकता है । अपन किसीभी कामका आरंभ करते हैं तो जैसे २ उस कामके सम्बंध अपना प्रयत्न होता जाता है वैसे २ अपन उस नयत्नके सारासारकी और दृष्टि रखते हैं. यदि अपने काम करनेका ढंग चाहिये वैसा न हुआ तो किया हुआ सब परिश्रम निरर्थक जाता है । कार्यके पूरे होनेका सारा आधार प्रयत्नकी सार्थकता ही पर रहता है। इस लिये कोईभी कार्य क्यों नहो, पहिले उसे सब प्रकारसे भली भांति समझ लेना और फिर आरंभ करना उचित है । अब सोचना चाहिये कि अपन कोट्यावधि भक्ति करनेवाले भारतवासियों में ऐसे कितने क निकलेंगे जो ईश्वरके गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरूप को यथोचित समझकर उसकी भक्ति करनेकी और लगे हो ? इन कोट्यावधियोंमेंसे ऐसे कितनेक होंगे जो ईश्वरके सम्बधर्म कई दिनो अथवा वरषोंसे नित्य जो कुछ तो भी खटपट Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८५) करते हैं उसके सारासारका योग्य विचार रखकर जहां कहीं उनकी कृतिमें कोई दोप आ गया हो तो उसे सुधारकर उस कार्यकी यथार्थ उन्नति करते चले आये हों ? सैकडों और हजारोका तो क्या कहना पर लाखोंमेंभी ऐसे थोडे बहुतही मिलने कठिन है । जिस समय इस भारतवर्षके प्रत्येक भक्ति करनेवालेका इश्वरके साथ सचा सम्बध था उस समय इसका सब देशोंमें शिरोमणि गिना जाना सर्वथा सभनीय जान पडता है. और आज अपनेमेसे सत्यताका इस प्रकार अभाव होनेसेही यदि इस देशकी यह दशा हो तो आश्चर्यही क्या है। ___अपनेमेंसे कइ लोग तो ईश्वर माप्तिके साधनहीको ईश्वर मानते चले है, कितनेक भलतेही पदार्यको ईश्वर कहते है । कोई • तो ईचरके साध जैसा ठीक जानते है वैसाभी कर नही देखते है । ऐसेभी बहुतेरे लोग है जो फेवल लोक-निन्दाके डरसे, अथवा व्यवहार रूपसे बतलानेके लिये ईश्वर सम्बन्धी यातोंको जैसे बने तैसे मानते हैं । इस विपयकी कई पाते बहुतही प्राचीन कालसे प्रचलित है, और बडेही कालान्तरके कारण किसीभी प्रणालीके स्वरूपमें किसी अगमें तोभी, फेर बदल होनाना स्वाभाविकही है। धर्मविरोधियोंहीने नहीं पर अपर्नेमसेभी पई स्वार्थी लोगोने, उनके थोडसे हिनके लिये अथवा किसी पक्ष विपको समर्य Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८६ ) न करनेके अर्थ, अथवा अन्य और अत्यन्त विचार पुर्वक ठहराइ हुइ ईश्वर सम्बन्धी व्यवस्थामें कांटे विखेरकर, बहुत कुछ हानि पहुंचाई है। ___ भक्ति शब्दका अर्थही श्रद्धा अर्थात् प्रोनि है । मनुष्य मात्रकी श्रद्धा सुखरूप वस्तुमें रहती है, और इस वातका पहिलेही निर्णय हो चुका है कि पुर्ण सुख रूप केवल एक ___ ईश्वर है. इस लिये मनुष्य मात्रकी श्रद्धा इश्वर पर होना इष्ट है। यथोचित् नियम और श्रद्धा पूर्वक अभ्यास करनेवाले मनुष्य कम मिलते हैं और जो इस प्रकार करते हैं वेहो अपने कार्यमें सफलता प्राप्त करते हैं । ___ सर्व साधारण मनुष्योंको चाहिये कि सबसे पहिले किसी अनुभविक और परोपकारी सज्जनसे ईश्वर सम्बन्धी वातोंका इस प्रकार श्रवण करें जिससे उनके अन्तः करणमें सबी रूचि उत्पन्न हो । फिर उसकी भक्ति करनेकी कितनी कुछ आवश्यकता है और जिन मागासे उसकी भलि होती है उन्हेंभी ठीक २ जानलें । तिस पीछे अपनी रुचिके अनुकूल जो मार्ग अपने लिये उत्तम ठहरताहो उसे उत्साह बुद्धिसे धारण करें, और नियम वांधकर उसके अनुसार अभ्यास किया करे । इस प्रकार अभ्यास करते रहनेसे उसका व्यसन हो जाता है। आत दृढ व्यसनके परिणामही को स्वभाव Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८७) कहते हैं । दृढ निश्चयसे अभ्यास चलता रहता है । अभ्यास करते • कुछ दिन बाद उस कार्यके सम्बन्धमें विशेष बोध होता है, और इस प्रकारके चोध होनेसे पूरा विश्वास जमता है । विश्वासहीसे मन आसक्त होजाता है और दृढ विश्वास सहित अभ्यास करनेसे मनकी एकाग्रता होती है । मनकी एकाग्रता होनेके उपरान्त निज भ्यासकी दशा माप्त होती है और निज याससे फिर इच्छित कार्य सफल होता है अर्थात ईश्वरका प्रत्यक्ष अनुभव, पुर्ण ज्ञानकी प्राप्ति, ब्रह्मादान्द जन्म मरणसे मुक्त, इत्यादि जो कुछ कहते हैं सो अवश्य होता है। उक्त पातका ही हम अब दूसरे प्रकारसे रिपेचन करते हैं। मनुष्य के मुख दुख, लाभ हानि, जय पर कुछ उसके विचारही पर आधार रग्वते हैं। जिसके जैसे विचार होते है पहुधा वैसेहो उसके काम हुआ करते हैं, और जिस प्रकारके संस्कार होते है उसी प्रकारके उसको विचार उत्पन होते है । मनुप्य अपनी बुद्धिसें उन सत्यासत्य विचारोंको जान सकता है इतना ही नहीं परन्तु उनके मूल कारण जो सरकार ह उन्हें भी सुधारनेमें समर्थ हो सकता है। शुद्ध विचारोंके सेवन करनेसे सारासार विवेक बुद्धि सदा बनी रहती है । आचरणके उल्म होनेकी पात भी विकारही आश्रित है । जिसके विचार शुद्ध हैं उसके Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८८ ) आचरण भी ठीक होने हैं, और जिसके विचार ही बुरे हैं तो उसके आचरणका क्या कहना ! पारमार्थिक विषय तो क्या, पर सांसारिक व्यवहार-कुशलता की भी तो जड़ सदाचरणही है । इसलिये प्रत्येक मनुष्यको उचित है कि सबसे पूर्व अपने विचारोंकी और योग्य ध्यान देवे ! बुरे २ विचा रोंके कारण बुद्धि जड़ होती जाती है और अन्तमें उसकी किसी भी बातमें ठीक भला बुरा जानने की ताकत जाती रहती है। ऐसेही दिन रात अच्छे विचारोंके सेवन करते रहने से बुद्धि तीव्र होती जाती है, और अभ्यासके बढ़नेसे केवल धारणाशक्ति ही नहीं किन्तु कल्पनाशक्ति भी बड़ी उत्कृष्ट हो जाया करती है। बुद्धिके ऐसे प्रवाहको फिर एकाग्रतासे धीरे २ वढानेका, प्रयत्त करनेसे थोड़े ही कालमें मनुष्य एक ऐसी दशाको प्राप्त हो जाता है, कि जिस विषय को वह श्रद्धा और निश्चय पूर्वक ग्रहण करे, इसके प्रवाहके वलसे वह उस विषय सम्बंधी कई नई २ बातोको स्वयं ही जानने लग जाता है। __ धर्मसे बढकर मनुष्यका सच्चा साथी कोई नहीं है। जिसने संसारमें आकार धर्मको समझकर उसके साथ सम्बंध कर लिया, उसने सव कुछ किया । जो सद्धर्मका पक्ष लेता है उसकी हो उन्नति होती है। ये बाते जैसे प्रत्येक व्यक्ति पर घटती हैं, वैसेही प्रत्येक जाति किंवा देश परभी Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२८९ ) जाना चाहिये । यह वात पहिलेही कही जा चुकी है कि भारतवर्षकी दशारे परिवर्तन होनेका मूल कारण धर्म ही है कहा तो रह पृथ्वी के बलुतेरे देगोका धर्ममवर्तक बनाया और पादोते २ धर्मसे ही मानो परतनताको प्राप्त होगया । यद्यपि उतनी ची श्रेणोसे ऐसी नीची दशा तक गई भारी २ आपत्तिया और सक्ष्ट यहातक भोगे कि अन्तमे तो वरुपी जिस हरे परे इसकी पुनर छाहर्म इमने विश्रान्ति की थी यह माय' सारा भूस गयाथा, तथापि उस वृक्षमा वीज दैवयोगसे चैसी दशामभी इसके हाथसे जान नहीं पाया, जोफिर इसकी दशाके कुछ पल्टा साने पर पीन पारित तथा पशि हुआ है यहही इन देशका सौभाग्य है कि समो वर्तमान रानाशयगे फिरसे धर्म विषयमे सतनता मिलगई जिससे वह अकुर पढता २ एक गेटेगे हरे रूपमें हो गया है, और भारतवासियोंजो भी आगा धगई कि भविप्यतमें यह जल्दी हो पहिरेकासा दियातिदायक वृक्ष बन जावेगा, अर्थात् प्राचीन कालंग इस देशके मनुप्य जैसे वामिष्ट और पराक्रमी और सुखी थे वैसेही अर हो जावेगे निर्दोष चौथा विशेपण ईश्वरसो देना चाहिये क्योंकि दोप याने अशुद्धताही जन्म मरणका कारण, मग स्वत्रता और सर्पक्षताका घातक है शुभ भूयार पन्देयाला. Page #308 --------------------------------------------------------------------------  Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयुत् पावू शेर सिंहजी कोठरी नसलमान MIRAL भृत परं उपटेगर श्री जैन श्वेताम्बर कानफरम्म BBBBBBBBBBBBBS Page #310 --------------------------------------------------------------------------  Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९१) देव गुरु, और धर्मका स्वरूप ले० शेरसिंह कोठारी सैलाना (मालवा) निवासी. __मात कालका समय है, स्वस्थचित हुवे • कोई लोग अपनी धर्मनियामें मग्न होरहे है तथा कई व्यवहारादिकमें निपुण पुस्पोंने अपना कार्य शुरु करदिया है. शरद् कालका वस्त होनेसे कितनेही आलसी दरिद्री लोग अवतक अपने विस्तरेमें सो रहे हैं ऐसा होना अनुचित्त जानकर सूर्य ययपि अपने हाथोंके जरिये उनको उठानेकी कोशीस ज्यादे ज्यादे कर रहा है, तदपि वे आलस्य वश उठना नहीं चहाते गरज जब कि एक महर भर दिन बरावर चडि आया उस वरतमें एक महात्मा, जिनका कि नाम सुखसागर सूरि था, अपनी सर्व क्रियासे निटत्त होकर शान्ततासे योद नवीन प्रय की रचना कर रहेथे चे सूरीश्वर ऐसे तेजस्वी और शान्त स्वभावीये कि जिनोन उनके दर्शन किये उनसे शायदही ऐसा कोई दौर्भागी निम्ला होगा जो म्वय शान्तताको प्राप्त न टुवा हो. अहा! जय कि उनोंने उस ग्रथको लिखनेको कलम उठाइ उसी वरनमें अपनी अनेक विदुपी शिष्याओंसे परवरित पुप्यशाली पुण्यश्रीजी महारान वहा सूरीश्वरजीफे दर्शनार्थ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९२ ). आन पहुंचे सूरी महाराजको आनंदमें मग्न देखकर श्रीपुण्य श्रीजी बोले- . हे गुरुवर्य ! आज आपने कौनसे ग्रंथकी रचना शुरुकी है और उसमें आप मुख्य क्या २ विषय लावेंगे ? सूरि-हे महानुभावा! सन्यक्त दर्शक नाना ग्रंथ लिख रहा हुं और विशेष करके इसमें देव गुरु और धर्मका वर्णन करूंगा. पुण्य-हे महाराज ! यदि आप इस ग्रंथ लिखने प्रथम इस विषयकों हमारे सामने चर्चग तो अत्यन्त लामका कारण होगा, यद्यपि इन राज्योंका वर्णन येरे पढदेमें और सुननेमें वहुतसी वख्त आया है; तदपि आपके मुखले इस वख्त औरभी सुनना चहातीहुं. ऐसे वचन श्री पुण्यश्रीजीके सुनकर उक्त सूरिमहाराजके अन्य शिष्य जो कि किसी पंडितके पास पह रहेथे एकदमसे उठखड़े हुवे और अत्यन्त हर्ष व विनयके साथ स्यूरिश्वरसे बोले हे दीनदयाल ! जो प्रश्न श्रीपुण्यश्रीजीने किया वह अत्यन्त अनुमोदनीय है, कृपाकरके उन तीन तत्वोंके विषयमें हमें भी समझाइयेगा. इन सर्व साहबोमें इस प्रकार बातें होतीहुई सुनकर एक विधर्मी जो कि वहारसे सुन रहाथा एकदम Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ — ( २९३ ) भीतर पाया और हहहहहहहहह इस प्रकार बहुत जोरसे हसना शुरकिया उसका हारय सुनकर सर्व लोग चक्ति होगये और थोडी टेरके बाद उसे पूड़ने लगे ज्यो भाई । तुझे इतनी हसी क्यो आई ? पि-अजी साहब ! वाह वा इहहहहहह मेरा तो पेट अभी तक ले जा रहा है, मला रेखो तो जैनी लोग केवल देव गुर धर्म देव गुरु धर्म पुकारा करते है, न माल्म उन्हे प्या मूझ पडा हे कि और वात सूझती ही नही न मारम उसके अन्दर ऐसा क्या पदार्थ रसा हुवा है । १ जन मने आप सो को उसी विषयमें मग्न देग्वे तब मुझे पडी भारी इसी आई अन्डा लो भर जाते हैं इतनेहीम एक श्रावक बोला, भाई । टहरो, जरा बैठकर मागे रि देव गुर और धर्म रिसे रहते है और जय तुमारी ये समझमें आ जायेंगे तब तुम ऐसे प्रस्नभी नही फरा करोगे उस पारको ऐसे शब्द मुनकर वह विधर्मी वेट गया जर कि उसका चित्त शान्त हुया तर नूरी पर पोरे - दे भाई । नुम कौन जात हो, पहासे आये हो और तुमारा क्या म ? Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९४) वि.-हे दीनानाथ ! में ब्राह्मण हुँ, इसी शहरमेंसे आया हुं और मेरा नाम यज्ञदत्त है. सूरि-अच्छा यज्ञदत्तजी ! जरा स्वस्थ चित्त करके मुनो तथा जहां २ तुम्हें शंकाएं पैदा हो जुरूर पूंछना. ( अपनी मंडलीकी तर्फ देखकर ) हे साधुओ तथा साविओं ! अब तुमभी एक चित्त होकर सुनना तथा जो २ संशय पैदा हो वरावर पूंछते जाना. सर्व-बहुत अच्छा साहब, अव कृपाकर फरमावें. मरि-हे श्रोतागणो ! देव गुरु और धर्म इनका स्वरूप __यद्यपि बहुत बड़ा है तदपि मैं अपनी तुच्छ बुध्यानुसार कहता हुं सो श्रवण करना. __हमारे जैन शास्त्रों में देव दो प्रकारके माने हैं, एक साकार दूसरे निराकार. दोनो ही देव अठारह दूषण करके रहित, अनंत ज्ञान दर्शन तथा चारित्रमयी होते हैं. ___ यज्ञदत्त-हे कृपानाथ! उन अठारह दूपणों के नाम कृपाकरके फरमावे ? सूरि-१ अज्ञान, २ मिथ्यात्व, ३ अविरति ४ राग, ५ द्वेष, ६ काम ७ हास्य, ८ रति, ९ अरति, १० भय, ११ शोक, १२ दुर्गच्छा, १३ निद्रा १४ दानांतराय, १५ लाभांतराय, १६ भोगांतराय, १७ उपभोगांतराय, १८ वीर्यातराय. Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९५) पु-हे गुरुवर्य ! साकार और निराकार देवका स्वरूप कृपा करके फरमा? सरि-हे महानुभावा! साकार ईश्वर अरिहत भगवानकों कहते हैं, वे प्रभु अष्ट महामातिहार्य, चौतीस अतिशय और पैतीस गुण युक्तवाणी उरके सहित होते हैं. उन प्रभुमें मुख्य चारह गुण पाये जाते हैं वि-मूरीश्वरजी। यदि आप कृपा फरमाकर बारह गुण तथा चौतीश अतिशयोंका परणन फरेंगे तो घडा उपकार समयुगा मूरि-भाई। इसमें उपारको क्या बात है हमने तो इसही लिये सयम लिया है, मुनो, प्रथम यारह गुण बताताहु. अष्टम महामातिहार्य तथा ४ अतिार ऐमे मिलकर निम्न लिखित तौरपर १२ गुण हो १ अगफ्टस, • पुप्पष्टि, ३ दिव्य शनि, ४ चामरयुग ५ वर्णसिंहासन, ६ मामडल, ७ दुदुभि८ छत्रप,शाना. निय, इसके ममावसे रेलरोकारको अपनो हयेगकी तरह देखते है ____१० पचनातिशय, इसके प्रभावसे उनकी याणी पारद पाए अपनी भाषामें समान लेने है Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९६ ) ; ११ पूजातिशय, इसके प्रभावसे तीन सुचनमें रहे हुवे देव तथा मनुष्य आपकी अर्चा करते हैं. १२ अपायवगमातिशय-इसके प्रभावसे जहां २ आप विचरते हैं, नहां २ एक २ जोजनतक, अतिष्टि, दौर्भिक्षादि नही होते. चौतीस अतिशय. ___ ? दिक्षा ग्रहण किये वाद प्रशुके रोम, केश, नखादि ऋद्धिको प्राप्त नहीं होते. २ प्रभुका शरीर निरोग रहता है. ३ खून गौदुग्ध सदृश होता है. ४ स्वासोस्वास कमलके पुप्प सहश सुगधित होता है. ५ प्रयुका अहार निहार कोई देख नही सक्ता. ६ प्रभुके आगे धर्मचक्र चलता है. ७ प्रभुके ऊपर छत्र त्रय रहते हैं. ८ प्रभुके ऊपर चामर युग उड़ते हैं. ९ प्रभुके विराजनेको स्वर्ण सिंहासन होता है. १० प्रभुके आगे इन्द्रध्वजा चलती रहती है. ११ प्र के साथ अशोक वृक्ष रहता है. १२ प्रभुके आगे भामण्डल रहता है. १३ प्रभु जहां २ विचरते है वहां एक २ जोजन तक __ भूमि समान होजाती है. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२९७ ) १४ प्रभु जहा विचरते है वहा एक २ जोजनता कांटे सीधेके ओंचे होजाते हैं १५ प्रभु जहा • विचरते हैं वहा २ एक जोजन तक ऋतु अनुकूल हो जाती है १६ प्रभु जहा - विचरते हैं वहा एक २ जोजन तक गीतल मद मुगरि वायुसे भूमि मुगधित हो जाती है. १७ प्रभु जहा २ पिचरते है वहा एक • जोगन तक जरसे भूमि शुद्ध हो जाती है १८ घुटने प्रमाण देवलोग पुष्पवृष्टि करते हे १९ अशुभ वर्ण गा रस और ा नष्ट हो जाते हैं २० शुभ वर्ण गघ रस और स्पर्श प्राप्त हो जाते हैं २१ एक योजन पर्यन्त वाणी सुनाई देती है २० नित्य पर्ष मागीमे देश निकरती है ०३ अपनी • भापामे बाराहों पर्पदा समझ जाती २८ सर्परा जाति परतफ छूट जाता है २७ परवादि शीत नमाते है २६ पाही जीत नही सक्ता, २७ इनो रोग ( टोडादिकमा गिरना नही होता ) २८ मरो गेग (प्लेग हैनादि ) नदी होना २९ सयरका भय नहीं होता Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९८) ३० परचक्रका भय नही होता. ३१ अति दृष्टि नही होती. ३२ अनादृष्टि नही होती. ३३ दौर्भिक्ष नही पड़ता. ३४ इनमेंसे अगर पहिले होंभी तो प्रभुके पधारनेसे _ नष्ट हो जाते हैं. ये बातें सर्व प्रभुके अतिशयसे अपने आप होती है. येही सर्वज्ञ भगवान साकार ईश्वर कहे जाते हैं तथा हे महानुभावों ! उन्हीके वचन अपने आप समझे जाते हैं. यज्ञ-हे भगवान् ! यह काय परसे कह सक्ते हैं कि जैनने जिनको देव मान रखे हैं उन्हीके वचन आप्त हैं औरके नही ? सूरि-हे भाई ! वे परमात्मा सर्वज्ञथे, उनको किसीसे सिखनेकी जरूरत नही रहतीथी, उन्हे तो स्वयमेव सर्व मआलुम पड़ जाताथा वास्ते उन्हीके वचन आप्त हो सक्ते हैं औरके नही. यज्ञ-गुरुवर्य ! यह काय परसे कह सक्ते हैं कि आपके ईस्वर ही सर्वज्ञथे और वाकी नही ? सरि-हे भाई ! हम पहिले ही कह चुके हैं कि जो १८ दूषण करके रहित होते हैं सोही ईस्वर हैं फिर चाहे वो कोई हो ईससे हमे मतलब नही. Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २९९) यन-मगर त्रिराज ! नैनी-लोग तो बडे ही अभिमान और पक्षपातके साथ कहते हैं कि हमारे तीर्थंकरोंके सिवाय अन्य ईश्वर हैही नही मूरि -हे भाई । इसमें पक्षपातकी क्या बात है, उनके चरिनोसें तया आकृतियोसे (प्रतिमाओंसे) ज्ञात हो जाता है देखो, श्री हरीभद्रमूरि महाराजने लोकतत्वनिर्णयमें कहा है - शोक बंधुनन सभगवान रिपनोपिनान्ये । सानान्नदृष्टचर एकतरोपिचेपाम् ।। श्रुत्वापच सुचरित च पृथर विशेष । वीरगुणातिशयलोलनयाश्रिता स्म ॥३॥ अर्थ- न अरिडत भगवान मेरे रधु है और न अन्य देर मेरे रिपु है, समय कि दोनोमस परफोभी आखोसे देखे नही, मगर वचन तथा मुचरित्र सुनकर गुणोके अन्दर लोटप्य होरर हमने वीर भगराना ही शरण लिया है औरभी ओर पक्षपातो नमेवीरे, नद्देप कपिलादिषु ।। युक्तिमदचनयस्य तस्यकार्य परिग्रह || Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०० ) अर्थ- न तो मुझे वीर परमाला से पक्षपात है और न कपिलादिकों द्वेष हैं किंतु जिसके वचन युक्ति करके सिद्ध हो जावें सौही ग्राह्य हैं. श्री हेमचन्द्रसूरिने वीरस्तुतिमें फरमाया है कि:श्लोक, नश्रद्धयैवत्व विपक्षपातो, नवमात्रादरुचिः परेषु । यथावदाप्ततत्वपरीक्षायातु, त्वामेववीरप्रभुमाश्रिताः स्मः॥ अर्थ - केवल श्रद्धा मात्र कहके तुझपर पक्षपात तथा द्वेष मात्र करके अन्य देवोंपर अरुचि नहीं है किंतु यथार्थ और आप्त वचनकी परीक्षा करके हे वीरन ! हमने आपही का आश्रय लिया है. ६ तो निश्चय हो गया के हमें किसीसे पक्षपात नहीं है, हे श्रोतागणों ! वे परमात्मा न अपने भक्तोपर खुरु होते हैं और न लिंकों पर नाराज होते हैं वल्के केवल मात्र सम परिणाम रहकर सर्व जीवोंपर सहरा उपकार करते हैं. यज्ञ - सूरिश्वरजी ! जब कि आपके प्रभु कुछभी नही कर सक्के तो उनको भजनाभी तो निरर्थक है. सूरि - हे यज्ञदत्तजी ! करना कराना यह राग द्वेषके तालुक है सो हम तो पहेले ही कह चुके कि सर्वज्ञ परमात्मा Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०१ ) को राग द्वेपे हैही नही, और जो राग द्वेपी होगा वो सर्वज्ञ पा हो नहीं सक्ता, जय सर्वज्ञ नही तो सर्वशक्तिमानभी नही, गरज कि जो इश्वर है वह कमी किसी काममें हानी या नफा नहीं करेगा अप रही यह पात किटनको भजनेसे क्या ___ फायदा' सो इसके उत्तरमे तो तुम सुदही ख्याल करलो कि यदि किसी गुणवान पुरुप (जो कि कालको प्राप्त हो गया हो उस) का नाम ले तो उसके गुण जरूर याद आवगे जा गुण याद आवेंगे तो उनका अनुप्तरणभी करना जरूर मोरा आवेगा वस तो जगत प्रभुका नामस्मरण करनेसे भला उनके गुणोका अनुसरण क्यो नही हो सकेगा ? अवश्य होगाही तो फिर निश्चय हुवा कि उनके नाममें ही अनत शक्तिया है तदतिरिक्त हमारा ध्यान निश्चल करनेके पारते प्रभु प्रतिमाभी मोजूद है। यज्ञ-हे सार क्या कहते हो, क्या प्रतिमासेंभी भागोंकी वृद्धि होसक्ती है ? मूरि-भाई यज्ञदत्त तुम तो अभीतक मूर्खी मूर्ख ही रहे. तुमनों इतनाभी मालुम नही फि बगैर प्रतिमाके इस ससार भरत कार्य नहीं चल सक्ता, देसो भत्यक्ष नीर पचा यदि सीम्पने लगे तो वगेर आकृतिके अक्षर सीग्व ही नहीं सक्ता. इतना ही नही बल्के इशियार होनेपर भी का Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०२ ) रादि अक्षरोंका आलंबन लेना ही होगा. हां अलबत्ता केवल ज्ञानी हो जावे तो उसे प्रतिमाकी जरूरत भी नही रहती. हे भाई! जैसे काम विकारवाली तस्वीरको देखकर कामी लोग विकारको प्राप्त हो जाते हैं तैसे ही धर्मप्रेमी पुरुष प्रभुप्रतिमा के दर्शन करके निरागीपनकी हालतको प्राप्त हो जाते हैं. यज्ञ - हे कृपानाथ ! इस शंकाशील हृदयमें कई शंकाएं उत्पन्न हो रही हैं. अब इस वख्त मुझे प्रश्न पैदा होता है कि कोई भी विधवा स्त्री अपने पतिकी फोटो अपने सामने रख कर नित्य प्रति कहा करे कि हे पति ! मुझसे विषयसुख भोग तो क्या वो भोग सक्ता है. सूरि-प्रिय यज्ञदत्तजी ! तुमारा यह प्रश्न अज्ञानता से भरा हुवा है, भला तुमही ख्याल करो कि हम तो पहिले ही कह चुके कि हमारा ईश्वर कुछभी नहीं करता. खेर तुम यह तो मानते हो न कि नाम तो ईश्वरका लेना चाहिये ? यज्ञ - जीहां, मूरि- अच्छा तो सोचो कि वही विधवा स्त्री यदि केवल अपने पतिका नाम रटन करे तो क्या वह उसकी ईच्छा पूर्ण कर सक्ता है ? कदापी नही ! तो बस सिद्ध हुवा कि जो नामके अन्दर गुण मानने वाले हैं उनको तो अवश्य स्थापना ' Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । माननी ही पढेगा और जो स्थापनाको नही मानते उन्हे नामभी छोडना होगा क्यों समझे न. यज्ञ-वाह दीनानाय ! खूप आनद वादिया, याज मैरी शङ्का विलकुल दूर हो गई. अहा क्या सज्ञ परमात्मा सभी अयथार्थ कह सकता है कभी नहीं ! तोयस अब जान लिया फि अवश्यमेव अरिहत भगवान ही साकार ईश्वर हो सक्ते हैं, अस्तु पु-हे गुरवयं ' अ कृपाकर निराकार ईश्वरका बयान फरमा सरि-हे आर्या निराकार ईश्वर सिद्ध भगवानकों कहते हैं जबकि अरिहत भगवान चौदमें गुणस्थानको पहुचने के बाद एक समय मानमें सिद्धशिलाके अग्र भागको पहुच जाते हे तर वे सिद्धात्मा क गते हैं वहा जानेके पश्चात् उनके अन्तिम शरीर मान आत्म मदेशरा तीसरा भाग सोच जाता है वै अनत ज्ञान, दर्शन, चारित करके सहित होते है तथा ससारमें उनका पुनरागमन नहीं होता। ___ सर्वभाली-हे कृपालु गुररान आपने जो ईश्वरका बयान फरमाया सो अत्यन्त प्रशसनीय तथा आदरणीय है, अवश्यमेव ऐसे ही दे को सुदेव कहना चाहिये. अप कृपाकर मुगुरुका बयान फरमारे, Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०४ ) सरि-( हर्पित होकर ) हे भव्य प्राणियों ! मुझे आनंद इस वख्त इस बातका होता है कि तुम लोग बड़े ही मुर्लभ वोधी हो, देखो, घोड़ेसे ही उपदेशसे किरा योन्यताको प्राप्त हो गये ? ( जरा मुशकरा कर ) क्यो जदत्तजी ! अबभीकुछ शंका है. ? . पज्ञ-कृपानाथ ! सूबके सामने संघरका क्या काम, आए जैसे गोन्य पुरुष मिले फिर शंकाकी जुरुरत ही क्या है. अब तो छपाकर सुगुरुका वरूप जल्दी ही सुना देये. सूरि-अच्छा तो अब एक चित्त होकर स्नोमै कहताहुं. सुगुरु ये हैं जिनोने गृहस्थावतको त्यागन करके पंच महाबत अंगीकार किये हैं, सर्वढा माथुफरी, तथा ४२ दोष रहित आहारले लेनेवाले हैं. सदा अमतिबंध विहार करते हैं. कोईभी तराहके पंचमें वे दखल नहीं देते. ज्ञानाभ्यास करके परोपकारके हेतु भव्यजनोको प्रतिवोध देते हैं, इस मुगुरु शब्दमें आचार्य, उपाध्याय और साधु तीनका ससावेश होता है. इनके क्रमले ३६-२५-और २७ गुण होते हैं। सो ग्रंथांतरसे जान लेना, आचार्य महाराज गच्छके यंभ भृत तथा पंचाचारके पूर्ण मालिक होते हैं. उपाध्याय महा राज अंगोपांगके पाठक होते हैं. तथा पवित्र साधु साधि अपना संयम निष्कलंक पालन करनेमें तत्पर रहते हैं, उनकों उनके पांचो महानतोका बड़ा भारी ख्याल रहता है. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०५ ) यन्न-डे मूरिराज । वे पच महाव्रत कौनसे हैं सो कृपा कर फरमात्र मूरि-हे ज्ञदत्त पाचो पहानतीका बयान मै व्यवहार निश्चय पर रहता हु सो मुन - प्रथम अहिसा त-व्यवहार फिसी स या स्थावर जीवकी हिंसा करे नही, करावे नहीं तथा परतेकों अनुमोदे नही मन वचन और काया करके निचय, राग द्वेष करके अपनी आत्माको नही हणे दुसरा सत्यरत व्यवहार-युठ बोले नही, गोलावे नही तथा बोल्तेरो अनुमोदे नहीं मन वचन और काया करके निश्य पौद्गलीक वस्तु जो पर गिनी जाती है उसको अपनी न कहने तीसरा अस्तेप गत व्यवहार-चारी करे नहीं, करा नहीं, फरतेको अनुमोदे नहीं मन वचन और काया करके नियय अकर्मकी वर्गणाको ग्रहण करने का उपाय न करे। चौधा ब्राह्मचर्यरत व्यवहार-स्वपर स्त्री भोगे नहीं भोगारे नहीं, तथा भोगतेको अनुमोदे नहीं. मन वचन और फाया करके निधय पुद्गलमें रमणता न करे ___ पाचया अपरिग्रहनत व्यवहार-समूळ परिग्रह सखे नहीं, रखावे नही, रखतेकों अनुमोद नही. मन वचन और किया करके चल्के एसा समझे कि Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्लोक द्रव्यानामर्जने दुःखं अर्जितानां च रक्षिते । आये दुःखं व्यये दुःख धिर्थो दुःख भाजनम् ॥५॥ अर्थ-प्रथम तो द्रव्यको पैदा करनेमैं केवल दुःख ही दुःख है, वादमें रक्षा करनमें बड़ा भय बना रहता है सोभी दुःख, आते दुःख, खर्चते दुःख; वास्ते ऐसे दुःखके भाजन रूप द्रव्यको धिक्कार होवो. निश्चय-निम्न लिलित व चार प्रकारका परिग्रह नहीं रखे अथवा हमेशा न्नयू करता रहै. ? मिथ्यात्व, २ क्रोध, ३ मान, ४ माया, ५ लोभ, ६ हाल्य, ७ रति, ८ अरति, ९ शोक, १० भय, ११ जुगुप्ता, १२ पुरुषवेद, १३ स्त्री वेद, १४ और नपुंसकवेद. हे भाई ! इन पंच महा व्रतोंके अतिरिक्त छठा व्रत रात्री मोजनका होता है. वह यह है कि कभी रात्रीमें खान पान करे नही, कराये नही तथा करतेको अनुमोदे नहीं. मन वचन __ और काया करके. हे भव्य प्राणियो ! वे मुनिराज तीर्थकर देवके कथनातुसार सत्य मरूपणाके करने वाले होते हैं. वे मुनिवर्य अष्ट प्रवचन माताके पालक होते है. हे भाई ! में उन आठौं माताका Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०७) चयान करता, मगर वरुत थोडा है और वयान बहुत है सबब कभी ज्ञानी गुरुका साथ मिले तो श्री उत्तराभ्ययन मूनके २४ वे अभ्ययनमेंसे मुनलेना हे महानुभागों तुम उन्हीको साधु साचि मानना कि जो फेरल स्त्र परोपकार करनेमें तत्पर हो, प्रपची, वेश धारियोंकों कभी साधु मत मानना क्यों साहब समझे न ' शिष्यवर्ग-हे कृपानिधे । आपने जो देव और गुरुका स्वरूप फरमाया सो रसुवी समझमें आ गया अब कृपाकर धर्मका स्वरूप समझाईयेगा सूरि-ई महानुभागे जिसमे अहिंसा परमो धर्म मुख्यता करके रहा हुरा हो उसीका नाम सचा धर्म है कई मता. बलबी हिंसा परमो धर्मके उद्गार तो जोर • से निकालते है मगर वास्तविक म देखा जाये तो जैसे जैनने उस सूत्रकी मुरयता मान रक्सो है वैसी ही अन्य धर्म वालोने उसकी गौणगरी है हे श्रोतागणों । तुम सुद जानते हो कि अपने अन्दर दयाका वर्णन कितनी मूक्ष्म तौरसे किया गया है ' म इस वख्त तुमको केरल मान सक्षेपसे दयारा वर्णन करता हु. अपने शास्त्रोमें दयाफे ४ भेद किये है. ? स्वदया २ परदया ३ द्रव्यदया ८ और भावदया. Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३०८ ) स्वदया उसे कहते हैं कि कपायादि परिणामोंसे जो अपनी आत्मा कर्मासे भार अत है सो न करे, जब अपने स्वयंकों ये ज्ञात हो जावेगा कि मैंने अपने आन्याको आत्म पनसे मलीन होते हुवे वश कर स्वदयाकी है तो अवश्य पर दयाकी तर्फ खयाल होवेगा और जिस सहनशीलतासे अपनोमें स्वयं अपनी आत्माको फंदमें नहीं फंसने दिया तैसे दूसरे जीवोंकोभी करनेको उपदेश देंगे. बस तो जब अन्य पुरुषोकों उपदेश देकर उसके आत्माका बचाव करावेंगे तो वह पर दया कही जावेगी. द्रव्य दया उसको कहते हैं कि चाहे अंतरंग परिणाम न भी हो मगर किसी जीवको आफतमें फसत मारे जाते वगैरः हालतमें देखकर उसकी रक्षा करना. ___ भावदया उसे कहते हैं कि चाहे वो किसी जीवको छुड़ानेको समर्थ हो वा नही, मगर उस प्राणीको दुःखी देखकर मनमें कोमल परिणामोंसे उसके छुड़ानेके भावला कर यथाशक्ति प्रयास करे. हे प्रियवरो ? इसका विवेचन तो वड़ा भारी है मगर समय अधिक न होनेसे कह नही सक्ता. __ यह जैन धर्म खास सर्वज्ञ कथित स्याद्वाद मयि नय निक्षेपो तथा प्रमाणो करके सिद्ध हुवा है. वास्ते यथावत् देखा जाये तो इसमे संशय जैसा मौका ही नही आता, हां Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३०९) अल्पत्ता कदाग्रही पुरपको तो वह मार्ग मिलना मुश्किल होगा मशल मशहूर है कि " पीलियेके रोग वाला जव वस्तु ओंको पीली ही देखता है तो विचारा प्रथक ? वयान करके निश्चय करनेको समर्थ हो ही कैसे सक्ता है " गरज कि कडाग्रहीको मिथ्यात्वरूप पोलियेका रोग ऐसा जबरदस्त लगा हुवा है अर्हत भापित उज्वल धर्मरूप धरल वस्तुभी उसको मिथ्यात्वरूप दिग्वती है मगर हा उसमें ज्यादेतर उसके दुप्फर्मोकी प्रबलता है. शिष्यवर्ग-हे कृपानाथ | कृपाया मिति मात्र स्वरूप स्थाद्वाद व नय निकाभी फरमाचे, कारण कि यह विपय गहन होनेसे वार २ मुननेकी आवश्यक्ता होती है मनि-हे धर्मप्रेमीयों ' तुम एक चित्तसे श्रवण करना में कहता हु मगर था, उस विषयको कथन करने के पेम्नर यह कह देना टीक समझता हु कि यह विपय अत्यन्त गहन है मोर पर्ण तोरमे चर्चनेको टाईमभी बहुत चाहिये सरर उपर पूछे दुवे विपयोंके केवल मात्र शहार्य छ । विशेषार्य कह मगा ज्यादे नहीं पिप्यरर्ग-जगी आपकी इन्द्रा मूरि-म्यादाटका अर्थ इस प्रकार होता है व्याया " स्पा स्थगित सर्व दर्शन समन सद्भुन यस्त्व शानामिय Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१०) सापेक्ष तया वदनं स्याद्वादः " अर्थ. सर्व दर्शन मान्य ऐसे जो वस्तुओंके सुप्टु अंश उनको परस्परमै अपेक्षा सहित कहना सो स्याद्वाद है. अपरच “ सदसन्नित्यानिन्य सामान्य विशेपाभिलाप्या नमिलाप्यों भवात्मानेकान्त इत्यर्थः अर्थ-सत् असत् नित्य, अनित्य, सामान्य, विशेष, अभिलाप्य, अनभिलाप्य, तथा हर दोनोंका जो वताना सो स्याद्वाद वा अनेकामवाद है. __ यज्ञ-हे मूरिवर्य ! ईस शंकाशीलदासको एक शंका पैदा हुई है वह यह है कि, आपने पहिले सर्व दर्शनोके मान्य • सद्भुत वस्त्वंश बताये तो ये कैसे संभव हो सकता है सब कि सर्व दर्शनीय आपसमें विरद्ध भाषि हैं और जो ऐसा ही होता तो हम आपके मतको स्याहार नहीं कह सकंग. सूति-हे भा! यानि सर्व दर्शन वाले अपने २ मा भेद करके आरममें विरोधी हैं, लेकिन जो उनके कान किये हुवे हैं सोभी अवश्य वस्त्वंश हैं. और इसीले आपसमें जब उनका मुकाबला करते हे तो सप्टु हो कहे जासकते हैं. जैसे वौद्धने अनित्यत्वको और सांख्यने नित्यत्वको माना है और हकीगतमे देखा जाये तो नित्यानित्य दोनो ही मानना ठीक है सवव नित्यत्व और अनित्यत्व ये दोनों अलग २ मानने वाले अलग २ मत वाले तथा एक दूसरे के विरुद्ध भापि है Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३११) मगर वे नित्यानित्यत्व जो है सो असत्य नही है. इति. क्यों भाई ! समझे न ___ यज्ञ-हे कृपानिधे । खूब समझ गया, अव कृपाकर आगे फरगावे मूरि-हे श्रोतागणों । स्याद्वाद्के मानने वाले शुद्ध तत्वज्ञ पुस्प रित्यानित्य सामान्य विशेष अस्तिनास्ति आदि सर्पको मान्य करते हैं एका त मिथ्यात्वता न कर नहीं बैठ रहते इस प्रकार क्थन जहा हो उसे स्यावाद कहते है शिवर्ग-हे गुस्वयं । अब इसी प्रकार कथचित नयाँका रणन फरमा मूर-हे महानुभावों श्री हन्त रथित धर्ममे रोगप, सगड, व्याहार, अनुसूत्र, गब्द, समभिरूढ और एभूत ऐसे सान नरमाने हैं नगमाय एक वेश ग्राहो होता है और उसक, मृत, भविष्य, और वर्तमान करके तीन भेद हाने हे - भूतने म अतीते वर्नमाना रोपणा यत्र सभूतनैगम अर्थ-भूतकासी पात वर्तमानम वापर कहना गे मन नैगम है या-मादीपगालिया अमावस्याया महारोगे महंगत आग दीवालीके अमावस्याको महावीर स्वामी मोक्ष गये. Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१२ ) यचपि महावीरस्वामि अतीतकाल आश्रयी दीवालीपर मोक्ष हुवेथे तथापि “ आज " ऐसा शब्द करके जो वर्तमानमें आरोपण करना सो भूतनैगम है. ___भाविनैगम-भाविकाले वर्तमाना रोपणं यत्र समाविनेगमःअर्थ भाधिकालकी बात वर्तमानमें आरोपण करना सो भाविनैगम है. यया अर्हन सिद्ध एव. अर्हन्तसिद्ध ही है. यद्यपि अर्हन्त भगवन्त सिद्ध नहीं हुवे है मगर होने वाले जुरूर है ऐसा समझकर नैगमने एक देश ग्राहक स्वभावसे सिद्ध मानकर भाविको वर्तमानमें वाया सो भाविनैगम है. ___ वर्तमाननेगम-कर्तुमारब्धं ईपन्निप्यन्नं अनियंनंवा वस्तु निष्पन्नवत् कथ्यते यत्रस वर्तमान नैगमः अर्थ. कोईभी कार्य फरना शुरु किया वह कुछ हुवा कुछ न हुवा मगर उसको होनेके तुल्य कह देना जैसे ओदनं पच्यते चावल एकाये जाते हैं; चाहे उसकी सामग्री पूर्ण इखट्टी हुई हो वा नही हुई हो मगर होते है ऐसा जो कहदेनासो वर्तमान नैगम है. संग्रह नयके दो भेद है. १ सामान्य संग्रह २ विशेष संग्रह. १ सामान्य संग्रह जैसे द्रव्यमात्र आपसमें अविरोधिहै. ___२ विशेप संग्रह जैसे जीव मात्र आपसमे अविरोधी है. जरजकी दूसराज राज्यो दवारी कीसे देखता है. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१३ ) व्यवहारनया-यह नय बहुत ही बाहय वस्तुओंपर बहुत ही सुक्ष्म दृष्टी डारता है इसके दो भेद है १ सामान्य सग्रह भेदक व्यवहार २ विशेष सग्रह भेदक व्यवहार १ सामान्य सग्रह भेदक व्यवहार जैसे जीवादि द्रव्य है २ विशेष सग्रह भेदक व्यवहार जीव दो प्रकारके होते है ससारी और मोक्षके ससारीके दो भेद-सजोगी और अजोगो-अजोगी १८ चे गुणस्थान वाले वाकी सर्व सजोगी सजोगीके दो भेद-केवली और छदमम्त-केवलीतो १३ वे गुण स्थान वाले वाकी सर उदमस्त उदमस्त के दो भेद-- उपशन्ति मोह-क्षीणमोह-क्षीण मोहतो चार गुणस्थान वाले वाकी सर उपशान्तमोह उपगात मोहके दो भेद सफाई सफाईके दो भेद-सूक्ष्मकवाई वादरम्वाई के दो भेद-श्रेणी प्रतिपन्न और श्रेणी रहित-श्रेणीपतिपन्न आट वे गुणस्थान वाले वाकी सर श्रेणी रहित-श्रेणी रहीतके दो भेद प्रमादी और अप्रमादी-अप्रमादी छ वे गुणस्थान वाले बाकी सब सप्रमाी -सममादीके २ भेद साधु और श्रावक-साधु छठे गुणम्यान वाले बाकी सब भारफके दो भेद वृत्ति और अत्ति वृत्ति तो पाच वे गुणस्थान वाले बासी सर अत्ति अत्तिके दो भेद-सम्यक्त्वी और मिथ्यात्वीके तीन भेद ? भव्य • अभव्य ३ और जातिभव्या भव्य उसे कहेते हैं जो जो भाषिकाल्मे सिद्ध होनेवाली है, अभव्य उसे कहते हैं Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१४ ) नो कालान्तरमेंभी मोल न जा सके. जाति भव्य वह हैं जो भव्य है मगर किसी कालमें मोक्षको न गया न जावेगा. ईस तरे जो बातोकी भीन्न २ करके बतावे तो व्यवहार __नय है. मूत्रनय-इसके दो भेदे हैं. १ सूक्ष्म ऋजुत्र जैसे पर्याग एक समया वस्थायी है. __ २ स्थूलजस्त्र जैसे मनुष्यादि पर्याय, वह उसके आयु प्रमाण रहती है. सब्द सम मिरुढ और एवं शून इनके एक २ भेद होते है. शब्दनग एकार्थ वाची शब्द काना, जैसे, दारा, भार्या, कलत्र इत्यादि समभिरुढ नयः-जैसे, गौषशु. एवंमतन्या-जैसे, "इदंती.त:२ः '-ईन्द्रकी विभूति करके सहिन होवे सो इन्द्र हे. इस नयोके औरभी बहुतसे भेद होते हैं. सो प्रसंगोपात किसी और समय क हे जायेंगे अच्छा अश्याडिले हणादि क्रियाका समय आया अब आज यह विषय यही बंध करके कल इसको आगे चलावेगे. ___ श्रीपुण्यश्रीजी-हे गुरुवर्य आज यह दासी बहुन कृतार्थ हुई है श्री मुखकी वानी सुनकर इतनी आनंदित हुई है कि Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३१५) जो प्रकट करनेसे बहार है हे दयानिधे कृपाकर कलभी इसी मकार उपदेश फरमायेंगे नो महत् कृपा होगी. ___एसी अर्ज करनेके पश्चात गुरुगीजी श्री पुण्यश्रीजी सर्व साधु मडलीको वदना करके अपने उपाश्रायपर पहुचे तथा साधु रोगभी अपनी क्रीयामें तत्पर हुवे ____ गौचरी व प्रतिक्रमादिक करनेके बाद साधुजन श्रावकों को तथा साधरिये श्रापिराओको सीवाने पडानेका उपम करने लगी तथा अपनी स्वा पाय करके गयन करनेके समय सथारा पारासि पी रानि चीन जानेपर प्रात कालमें अपनी क्रीयासे निवृत्त होकर श्री पुप्यत्रीजी अपनी सर्व शिष्याओं को लेकर मीश्वरके पास पहुचे जोर वग्ना करनके पश्चात मावि य रोने है त्यासि प्रा पार आप किंचिामान निक्षेपों का नगन फरमान___ इनके मुन्दसे एस गब्द सुनते नी सर्व शिष्यवर्ग अत्यन्त उत्तगस गुरुवयं के पास आन ८ठ और निक्षेपणन मुननको चित्त स्थिर किया यज्ञदत्तजीभी उसी पारत आ पहुचे और निक्षेपोंका वर्णन सुनाने के शरीर गुन्र्य से टुत आग्रह करन लगे Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१६ ) सर्व लोगोंकी अत्यन्त उत्कंठा देखकर गुरुवर्य बोले. हे महानुभावों एक चित्तसे मुनाना मैं निक्षेपीका वर्णन संक्षेप तौरपर कहताहु. निक्षेपे चार है. ? नाम, २ स्थापना, ३ द्रव्य, ४ और __ भाव. इनका वर्णन अनुयोगहादस्थानांगादि सुत्रोमे बहुत ही उम्दा तौरपर किया गया है. देखो श्री स्थानांग मूत्रमें अरिहंत भगवान्पर निक्षेपे इस प्रकारसे उतारे हैं: गाथा नाम जिणा निण नाना, ठवण जिणा जिण निगंद पडिमाओ; दव्प जिणाजिण जीवा, भाव जिणाजिण समवसरण त्या. अर्थ-नामजिन है सो गिनेश्वर भगवानका नाम जप्ते ऋषभ स्थापना जिनश्री अरिहंत भंगवंतकी प्रतिमा है, द्रव्य जिन वे हैं जो अविकालमे जो होनेवाले है. जैसे-श्रेणिक प्रमु खका जीव और भावजिन खुद प्रभु केवल ज्ञान सहित होकर समवशरणपर विराजते हैं तब कहेजाते हैं. इसी प्रकार सिद्ध भगवानपर निक्षेप इस प्रकार उत्तर सक्ते हैं. ? नाम-सिद्ध Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) • स्थापना-जितनी जगेमें आत्म प्रदेशका धन अवगा हर हो हेसो ___३ द्रव्य-अरिहत भगवानका ज्ञेय, भव्य तथा तदव्य तिरिक्त शरीर द्रव्य सिद्ध कहे जाते है ४ मार-मोक्षावस्था इस प्रसार हर चीजपर चारों निक्षेपे उत्तरसते हैं गरजकी अर्हन्त कथित धर्ममे बहुत सक्ष्मता रक्खी गइ है और यही प्रमाण उनके सर्वज्ञताका है इसके अतिरिक्त धर्म दो प्रकारकेभी फरमाये गये है जिन __ का बहुत सक्षपसे वर्णन करताहु साधु-सर्व विरति होते है उनके पचमहारत रुप उत्कृष्ट धम होता है व पचमहात पहिले गुरुके स्वरुपमे कयन किये गये है श्रावको पारादत्त होते है सो समयके सकोचसे अभी कह नही सक्ता हे श्रोतागणों इस प्रकार श्री अरिहत कथित धर्म सर्व भारसे सिद है क्यों यमदत्तनी क्या समझे. ___ यज्ञ-हे कृपानिधे, हे करुणा सागर आपके अमृतमय वच नोंसे मुझे अलानद उत्पन हुवा है. और इतना असर हुवा Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१८ ) है कि आजसे मैं मिथ्या धर्मको छोडकर जैन धर्म अंगीकार करता हुं. हे गुरुवर्य आपके सद्दश मुनिराजोके विचरनेसे यह भारत भूमि पवित्र होती है इतनाही नही बल्के श्री वीर सासनकी दिन प्रतिदिन उन्नती होती है. पुण्यश्रीजी-हे कृपालु आज आपके वचनोसे आनंद हुवा लो तो हुवा ही है मगर एक जीवकों आपने मिथ्यात्वसे नीकलकर शुद्ध समाहितधारी बनाया इसका मुझे अत्यन्त हर्ष है और वह हर्प कथन करनेको असमर्थ हे. शिप्यवर्ग-दीनदयाल, दीनानाथ, आपने आज इन शिप्योपर महत् उपगार किया है, है करुणासिन्धू तकलीफ माफ करे तथा औरभी कोई मौकेपर चर्चा करते रहेगें एसी उम्मेद हैं. ___ इतनी वार्तालाप हो जानेपर पुण्यके खजाने सदृश श्रीमत्ती परम उपगारीणी गुरुणीनी श्री पुग्यश्रीजी सर्व साधु मंडलीको वंदना करके अपने स्थानपर पधारे तथा अन्य साधु वर्गभी अपनी २ क्रियामें तत्पर हुरे. यज्ञदत्तजीभी चित्तमें उल्लास लाकर सादर गुरु गुरणीकों वंदना करके गृहपर चलेगये. Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१९ ) उपसंहार मियपाठकगणे - इस कम्पित कहानीके जरीये जो आपको तीन तत्वोका सक्षेपसे सार यतायासो आपने गुर समझ लीया होगा प्रिय शिरपुत्रों-जो मनुष्य इस समान नर दहको माप्त कर धर्म नहीं करता है व मृखो मुल्य है देखीये मुक्ति मुलापली कलाश्री सोममभाचार्यजी क्या फरमात है - शोक तधरतममन्त्रिमाने, प्रोन्मूल्यकल्पद्रमम् ॥ चिन्तारत्नमयाकावशाल स्विकुर्वते तेजडा ॥ विशियविरदगिरिन्छ, सहरा कीगति तेरामभ ।। चेलमपरिहत्यपर्मममा. बाति भोगाशया अप-यो म यस मान हुये वो छोटकर भोगरी आशाके वाले नौटते फिन है ये मानो अपने हमेंसे कम रसको उपासर घमा दरल बीते है, तया गिरी समान हस्तीमगार सलों सरीते हैं Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२० ) सवव जब कि यह मनुष्य जन्म मुश्किलसे योला हे तो क्यों प्रयन्त करके धर्म नही करते मैरे प्यारे भाइयों-यह अक्सर बार बार मीलनेका नही है यदि यह वख्त चुक गयेतो फिर चौरासीमें फीरते २ न मालुम ईस भवमें कब आना मीलेगा, ____ नमाद, आलस्यादिको छोडकर दृढ चित्तसे देवगुरु और धर्मका आराधन करो, वस इतनी वात ईस सज्जनके दास और दुर्जनके मित्रकी याद रखना-इति ॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Www Gwwwwwwwwwwwwwwwwww श्रीमद् हीर विजय सूरी 92 viegvuuuu 1 nh Horror Page #342 --------------------------------------------------------------------------  Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (30) ॥ अहम् ।। श्रीमान हीरविजय सूरी. तथा ॥ अकबरसाहके दमारमे जैन । यह सत्यहै कि, अकरम्गारफी नपिरतने मनपसी - जपर गाट अनाज पियार पहचायाथा ताहम ये दिल परत मातशि, स अर्ण व्यक्तिने किमतारपर इम जसरहरत पानी पिया। न केरल अपनी रियाया जो के गुलानिए मि पर वो धर्म र पनीयी, नगरसपा । रति मोइस नोरमे पसी मर मिराफिको उन्हें हरपक मरहमत अनुयायी नगर आताया ! नगागन निम्नियों जानत्ये दियो निम्ति या पाग्गी समातेथे कि नो पारसी था और उसे अपना गायनमा पिपात परतेरे । दरा मुतावित धर्मसी पॉरिमीपर बिहान तारिफपी frदेगा पाहिये। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२२ ) अकबरशाहका मजहब मुन्तखिव करनेवालाथा. जबकि वव सत्यका सच्चा ढूंढनेवालाथा इसलिये जहां उसे वो पाया चहांसे उसने हासिल किया। निन्न लिखितसे मालूम होगाकि ___ उसने प्राणियोंका वध न करना, प्राणीमात्रसे स्नेह रखना, और कुछ मर्यादातक मांसाहारको त्यागना, पूर्व जन्ममें यकीन करना, और कर्मके विधानको मानना जैनोयोंसे लि. याथा. और इसीलिये उसने उस धर्म (जैन) के पवित्र स्थान उस धर्मके अर्थात् जैन धर्मके अनुयायियोंको देकर और उक्त मजहबके आचार्योको इज्जत देकर प्रतिष्ठा बढ़ाई। ___ अकवरके दरवारमें विद्वानोंकी तादादकी तरफ अगर नजरकी जावे (जोके “आईने अकवरीमें दर्ज है) तो मालूम होगा कि हीरविजयसरि, विजयसेनमारे और भानचंद्रजी यति वगेराओं के नाम है । अकवरके दरवारमें विद्वानोंके पांच वर्ग थे. हीरविजयमरि अवल दर्जेमे और दूसरे दो व्यक्ति पांचवे दर्नेमें थे। ___ अकबरने बहुतसे दुश्मनोपर फतह पाई और तव कोई दुश्मन न रहाथा तब उसने अपना दिल धर्मकी वातोंपर डाला. कद्दर मुसलमान न होनेसे उसने तमाम धर्मके विद्वानोको अपने दरवारमें बुलाया और उनसे मजहबकी बातोंपर बहसकी जगद्गुरु काव्यमें लिखाहै कि, Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२३) " एव मालब मेटपाट धनिकान् श्री गुर्जरस्वामिनो जित्वाऽबर भूपतिर्निजपुरे सौरयात्समापेतिवान्, राज्य पालयति पचनिपुण पाइगुम्य सच्छक्तिमान, सम्यग्दर्शनपण्डिता दरकरस्तन्छाम्ब शुश्रूपया ।।१२१॥" " अन्येषु स ममस्त दर्शनयतीनाकार्य धर्मस्य सत्तत्त्व पृच्छति शुद्ध बुद्धिविभर स्माथों शिवस्यादराद ।" उक्त काव्योंका अर्थ उपर आही चूका बादशाह गुद विद्वानोंसे वादविवाद किया करताया. इसोसे उसको यह पुरा यकीन हो चूकाया कि हरएक धर्मके कुछ न कुछ म तत्व है । आलीवा श्रमण और ब्राह्मणोंसे बादशाइने हमेशा पहश (विवाद ) करनेका इन्तिजाम कियाया और वे दसरे विद्वानोंपर अपनी तसे नीतिसे हमेगा गालिग रहतेथे यहा तक के शाहके दिलपर इन्हींका परा असर हो चुमाथा सैर अरहमें हीरविनयमूरिजीके जीवन सरफ और उनसी शाहनेकी हुई प्रतिष्ठा की और नजर करना चाहिये। आप पालनपुर निवासी एमरजी नामक किसीच्यापारीके पुत्र थे आपरी माताका नाम नायर्यापाई या १३ सालकी १ अमण शब्द-जैन यति शल्या पर्यायवाची गद है. "मुमुयु. अमणो यति" इति हेमचन्द्र - - - - - Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२४ ) __उमरमेंही आपके माता पिता इन्नकाल कर गयेथे । आपके १ भाई और दो वहिनेभी थीं. मातापिताका देहांत हो जानेपर . चरित्र नायक अपनी वहीनके घर पटना मुकामपर रहे. और वहींपर उनको विजयदानमूरिजीने “ससार असार है" यह तत्व बतलाया और आपने संसारको त्यागनेका इरादा किया. हमशीराने बहुत कुछ विरोध किया लेकिन आप अपने दृढ निश्चयसे न टले. तब सभी संबंधियोंनेभी उन्हें गति हो जाने की आज्ञा देदी. इस मुताविक आपने १३ सालकी छोटी क्यमे ही विजयदान सूरिजीके पाससे यति दीक्षा लेली और उक्त सूरिजीनी मातेहतीमें तमाम गास्त्रोंका अव्ययन किया. उनकी बुद्धिमत्ता देखकर विजयदान सरिजीने उन्हें धर्मसागरजी उपाध्यायके साथ दक्षिणमे देवगिरी स्थानपर तर्कशाल्ल पडनेके लिये विद्वान ब्राह्मणों की तरफ भेजे. देवसी नामक एक व्यापारीने उनके सब खर्चका प्रबंध किया. और आप जल्द ही उक्त शास्त्रका अध्ययन करके पारंगत हुए । ईश्वीसन् १५६१ में आपको वाचक पदवी मिली. और दो वर्ष बाद आप सिरोहीमें सूरिके खिताबको प्राप्त हुए. इस मुताबिक आप जैन साधुओंमें अग्रणी-ब-नेता तथा सूरि एवं आचार्य हुए । आपके उपदेशसे कई अन्यान्य धर्मियों ने अपना हठ छोड आपका शिष्यत्व स्वीकार किया गुजराती लुपगच्छके अनु Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२५ ) यायी मेवनी ऋपिने भो आपका शिष्यत्व स्वीकार किया. प्रशस्तिकारने लिखा है कि," लुम्पाकाधिपमेवनीमापिमुखाहित्वा कुमत्यापहम्, " भेजुर्यचरणयीपनुदिन भृगा इवाभोजिनीम् " उल्लास नमिता यदीयवचनैर्वैराग्यरगोन्मुखै" जर्जाता स्वस्वमत विहाय बहवो लोकास्तपासज्ञकाः॥२३॥" और आपके उपदेशसे कई जिन सिम्म प्रतिष्ठाऐं तया सप्तक्षेनमें बनका व्यय और सघ सहित शनुनय प्रभृति कई तीर्थीको यात्राएं कराई । लिखाहै. आसीचैत्यविधानादिमुनक्षेत्र वितव्ययो । भूयान्यद्वचनेन गर्जरपरामुख्येषु देशेवऽलम् । यात्रा गुर्जर मालबादिकमहादेशोभरै रिभिः ।। सधै सार्धमृषीश्वरा विदधिरे, शत्रुजये ये गिरौ ॥२४॥ आपकी तारिफ अकारशाहके गौश मुगारकपर पहुंची और शाहने अपने दो दरसारियोंको वजायमौदी और काबलको फरमान देकर अहमदाबाद भेजा के साहिरखान हाकिम फोरन सूरिजीको दरवारमें भेजें। काव्यकार लिखते है कि, Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२६ ) देशात् गूर्जरतोऽर्थ सूरिषभा आकारिताः सादरं, श्रीमत्साहि अकवरेण विषयमेवातसंज्ञं शुभम् ।। साहिवखानने शाहोफरमान पातेही तमाम अहमदावादके जैनियोंको इकट्ठा किया और उससे आगाहीदी इसवक्त मू. रिजी गंधार नामक स्थानमें थे. और उन्हे शाही फरमानकी खबर दी गई. सूरिजीने देखा कि, शाहके मुलाकातले जैन धर्मकी तरकी होतो यह जानकर शाहके तरफ जाना मंजूर किया और अहमदाबाद तशरीफ लाये । साहवरखाल स्यूरिजीसे गुत्फगु करके निहायत खुश हुए और हाथी, घोडे, द्रव्य और कई चीजे नजर करने लगा मगर सूरिजीने स्वीकारनेसे इन्कार किया. स्मृरिजीने फतेपुरकी तरफ सिर्फदो आदमियों के साथ जाना आरंभ किया। रास्तेमें आप विजयसेनदारिजर्जासे पटना-मुकामपर मिले सिद्धपुरसे पाए भीलों के मुल्कमें आये. वहां उनका सरदार अर्जुनने आपकी बड़ी इज्जतकी: और हत्या करना बंद किया यह आपकेही उपदेशका नतिजा __ मेडतेमें भी मुगल स्वादारने मृरिजीका वडा सत्कार किया वहांसे सांगानेर पहुँचकर आपने विमल हपको पेशगीमें शाहको आपके आनेकी आगाही देनेको भेजा. शाहने सूरिजीके आनेकी खबर पातेही अपने अफसरानको बड़ी इज्जतसे सूरिजीका स्वागत करनेका हुक्म किया. शाहीरथ, हाथी, Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२७ ) घोडे वगैरा साथ लेकर मागानेरको आपकी पेश कदमीम आये आपके फतेपुर पहुंचकर जगमलकच्छवाहके महलमें मुकाम हुए और दूसरे रोज शाही दरवारमें दाखिल हुए लेक्नि वादगाह दिगरकारमे मशगुल होने के बने अशुलफजलको मुरिजी सागतमें भेजा मिजाज पुरसी वाद आलफजलने पुनर्जन्म और उद्धारके निसान सवाल पूछे सवत्र उसका इस वायतम कुरा गरीफपर एतेगार नधा मूरिनीने उक्त मन्नाके उत्तर दिये परमेश्वर किसीसे निसरत नहीं रखता मानिक मर्यके ऐच और तेजस्वी है खैर जर परमेश्वर प्रल्यमें इन्साफ देगा तर कौनमे इरासपर जल्वानुमा होगा और जीवों को स्वर्ग औ नर्कमें मोकर भेजेगा ? पर्वमें पदयानक क्येि मके अनुसार प्रा. णी गति पायेगारपा ? खैर खैर उसे कर्ना रयाल करो तो से पांकी क्या जरूरत है। इसपर अधुलफजल बोला इT बातोपर पैमपरके फरमान वडा एतराज है ! मुरिजीने कहा बमाण भुय प्रभुरतमतत्पृष्टा जगापूर्वमिन विधते । तत्केतुबत्वहरते स पवात्ततोऽस्ति, तस्यायसमभ्रमोऽसौlt ॥१४९॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२८ ) कर्त्ताचहर्ता निजकर्मजन्य,वैचैव्यविश्वस्यन कश्चिदास्ति । वन्ध्यात्मजन्मेव तदस्तिभावोऽसन्नेव चित्ते प्रतिभासतेतत् ॥ १५० ॥ परमेश्वर जगत् निर्माण करके क्षय करना है तब उसका बनानाही फुजूलहै. न कोई पैदा करनेवाला है न क्षय करनेवाला. मुजे यूं नजर आताहै बंध्या स्त्रीके पुत्रके मुताबिक इस दुनियाका वनानेवाला कोई नहीं है. इन कलामोंसे अबुल फजल बड़ा खुशी हुआ. बादशाही दरवारमें अकबरसे मुलाकात करने गये और कुशलक्षेम होनेपर शाहने पूछा आपने सफर घोड़ेपर या रथ, हाथीपर की. जवाब दिश, पा पियादा तब शाहको बडा ताआज्जुव मालूम हुआ वाद मूरिजीने तमाम धर्यतत्व शाहको समझाये जोकि सत्य और असत्यमें भेद नहीं करता और इन्द्रिय सुखोंमेंही आराम मानताहै वो धर्मरूपी कस्तूरीको छोडकर मिट्टी खरीद करता है। और धर्मरूपी अमृत छोडकर कातिल विष खाताहै कहा है:यदेव जन्तुविषयाभिलाषुको दधाति धर्मे न मनोमनागपि हीर सौभाग्यकाव्यसमें ॥१४॥ अर्थात् जो प्राणी विषयोंका अभिलाषी होताहै वह प्राणी मनको धर्ममें कभी धारण नहीं करता. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२९ ) वादशाहने ब्रह्म, सच्चागुरु, और सच्चे धर्मके बारे तहकीकात शुरुकी, सूरिजी वोले जो आईनें ( दर्पण) के मानिंद साफ दिलहै ओर तमाम दुनिया मनोविकारसे आजाद है और १८ पापोंसे रहितहै वही नमस्कार करनेके लायक और सचा ब्रह्महै । सचा गुरु वहीहै -जो सवपर समदृष्टि और भूत दया रक्खे और जन समाजको सचा मोक्षका मार्ग पतला और द्रव्य वगरा चीनोंसे नफरत रक्खे सत्य धर्म वही है.-जो सरको समदृष्टि मार्ग दर्शावे और आखिर युक्ति प्राप्त करदें। बादशाह इन सालोसे खुश होकर कुछ धर्मोरे पुस्तके लापको नजर करने लगा परतु आप इनकार करने लगे किन्तु अशुलफजल और थानासिंहके कहनसे रखलिये और लोटते वक्त आगरेके पुस्तकालयको भेट करदिये. शाहसे इजाजत लेबर आप लौटे और फिर ईस्वी सन् १५८० में फतेपुर आये और अबुलफजलके मकानपर शाहसे यार्मिर चर्चा हुई गरशाह निहायत सुगहुए और बहुत सा द्रव्य वगैरा देनेलगे परतु आपने नहीं लिया ओर यही Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३० ) चहाके बादशाह कैदियोंको और पक्षियोंको छोडदें. और पर्युपणोंके आठ रोज तमाम राज्यमे हत्यावंद रक्खें. शाइने आपके कहनेसे आठकी जगह वारा तथा अधिकदिन हिंसा बंध करनेका हुक्म जारी करदिया. लिखाहैःश्रीमत्पर्युषणादिना रविमिताः सर्वे खेासराः । सोकियानदिना अपीद दिवसाः संक्रांतिवस्त्राः पुनः ।। मासः स्वीयजनेर्दिनाश्च मिहिरस्यान्येऽपि-भूमीन्दुना । हिन्दूम्लेच्छमहीपु तेन विहिताः कारुण्य परण्यापणाः॥१७३।। तेन नवरोजदिवसास्तनुजजनू रजवमासदिवसाश्च । विहिता अमारिसहिताः सलतास्तरवो घनेनेर ॥२७४ ।। ___ हीरसौभाग्य काव्य. सर्ग १४ । कैदियोंको और पक्षियोको छोडदिये शाहनेभी शिकार खेलना बंदकिया और १२ योजनका डेवरका तालाव मूरिजीके सुपुर्द कियाकि उसमें कोही मछलीको न पकडे, अहिंसाके विषयमें लिखाहौकि,श्रीमान् शाहि अकब्बरो नरवरो देशेष्वशेषेष्वपि । पश्मासाभयदानपुष्टपटहोद्योषानघध्वंसिनः । कामं कारयतिस्म हटहृदयो-यदाकलारंजितः । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१) अर्थात् जिनकी वाक्कलासे खुश हुवा शाह-अक्षरी घोपणातक करता हुआ सरिजीके उपदेशसे मृतधन-अर्थात् शारीगमा धन अपने कोपागारमें लेना छोड दिया लिखा यदुपदेशवशेन मुट दधम् । निखिल मर वासिजने निजे । प्रतधन च करच सुजीनिआ। भिषम कबर भपति रत्यजत् ।। और पजापर जोजो उग्रकर (टेक्स ) बैठायेथे ये भी आपके उपदेशसे ओडटिया लिखा है कि नृपतिरेप तमुग्रकर त्यजन् ॥ अर्थात् गजा उग्र करतक छोडहिये । और मनुजय मभति जेन लीयार फरमान पर लिखदियोक पावत्चदिवा करौ पर्वत उन तीर्थोपर मो. दखल न करने पायेगा लिरवाह - दत्त साहस पीर हीरविनयश्रीमरि राजापुरा । यन्ट्रीशाहि अकररेण धरणीशक्रेण तत्पीतये ॥ तच्चकऽग्विलमपालमतिना यत्सा जगत्साधिक। तत्पर फरमाणसमनध मादिशोव्यानशे ॥ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३२) और ऐसाभी लिखाहै कि,जैनेभ्यः प्रददौ च तीर्थतिल्कं शत्रुजयो-धरम् ॥ इस प्रकार शाह मूरिजीको जैनती को मालिकी दी. और अलावा इसके जगद्गुरुकी पदवी समर्पण की. ई. स. १५८४ में फतेपुर छोडा और अलाहबाद (प्रयाग ) में चौमासा किया चातुर्मास पश्चात् गुजरातको लौट आये और १५८७ में पटना आये और १५८८ में पटनेके जैनमंदिरमें सुपार्श्व और अनंतनाथस्वामिकी मूर्तियां स्थापन एवं प्रतिष्टाकी शाह सर्वनिका तेजपालसे समर्पण कीगईथी. वाद तेजपालने मूरिजीके हाथसें शत्रुजय तीर्थपर आदेश्वर भगवानकी मूर्ति और देवस्थान जो बनायाया वह स्थापित एवं प्रतिष्टा अंजन शिलाका करवाई. ___इस सुत्राफिक शाही दरवारमें इज्जत-प्रतिष्ठा पाकर और __शाहसे कई पारमार्थिक सनदें नेक-कामें करवाकर आप स्वस्थानपर वापिस हुए. और वृद्धापकालमें पटनामेही रहे. और किसी कार्य वशदीव आना हुआ. और ई. स. १५९२ में वही स्वर्ग सिधाये. कई चमत्कार आपकी दहनभूमिपर दीखे. वहांपर एक स्तूप (देहरी ) बंधा हुआ है. आपक वाद विजयसेनसरि पद विराजे एवं नेता हुए. - - - Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठक महाशय / यद्यपि उक्त जीवनचरित्र चाहिये वैसा तो नहीं लिखा गयाहै तथापि वाचकटटको अवश्य रुचिकर होगा यह मुझे विश्वास हे यदि हीरमन, हीरसौभाग्य काव्य वगैरे मेरे समीय होते तो में अवश्य चरिन बहुत बडा और बहुत वृतान्त लिखाजाता किन्तु वह न होनेसे केवल जगद्गुरु काव्य तथा इग्रेजी लेखके आधारपरसे यह सक्षिप्त लिखागया है उसमें कुछ जुटी विदित हो तो पाठक क्षमा करें। परगन्क्षीय वान गन्दा