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________________ (90) ujsagonala की आज्ञा होयतो मेरा मनोर्थ सुफल होय तत्र सब लोगों ने आज्ञा दी इस रीतिसे इस चौमाशे की व्यवस्था किंचित वर्णन या परंतु सुनिये सुनिये एक बात और भी सुनिये आजतक न पाई हमने सब लोगों को नई खबर सुनाई पंच माहा वृत्तधारियों की ऐसी महिमा पाई इसलिये हमने सर्व जैनीयों को खबर पहुंचाई कि जिस वक्त ढूंढनी और ढूंढिया जी विहार करने को कहा कि आज एकम के दिन तीसरे पहर विहार करेंगे ऐसा अपने श्रावगों को सुनाया तब उनके धोरी श्रावग सेवक को बुलायकर कहा कि कुल आसवार पोरवारों में कहआवो कि आज दुपहर के बाद भारजांजी और साधुजी विहार करेंगे उनके पहुंचाने के वास्ते मरद और लुगाई सर्व आओ दया धर्म की महिमा को दिखाओ.ये क्या की निशानी साधुओं के विहार में बुलौवा की किस सूत्र में बखानी उत्कृष्टेपने की बात आनी अब दूसरी सुनो कि दंडिया मत के दो चार श्रावगों ने माहाराज साहब से कहा था कि एकम मंगसर बद को नंदराम जीआवेगा और आपसे शास्त्रा करेगा हमारे साधुवों में बड़ा भारी पंडित है इस कारण / माहाराज साहब एकम को विहार न किया और पंचमी तर नंदराम ढूंढिया की राह देखी उसके पाने का पता नपार तब ग्यारह बजे विहार किया और किसी को खबर न प गाम के दरवाजे कि तरफ जाने देख किसान लोगों ने हल मचाया सुनकर लोगों के हृदय में प्रेम हुलसाया जिसने सुः वही माहाराज के दर्शन को धाया दरवाजे के बाहर पच कदम पर दर्शन पाया अंधारिया बड़के नीचे हिंदू मुसला सर्व सज्जन पुरुषों ने चरण में शीश नवाया माहाराज स का साथ छोड़न में सबका जीव घबराया आखिर को माहा साहब ने कदम आगे को बढ़ाया इत्यादि समाचार /
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________________ (12) सर्व साजन पुरुषों को सुनाया इसमें जो कुछ शुद्ध अशुद्ध होय तो सर्व सज्जन पुरुष नाथूराम वैरागी घरबारी बडे मंदिर जीका कारवारी तितको माफ करें इस भुमिका और ग्रंथ को पक्षपात छोड़कर बुद्धि पूर्वक विचार करो शुद्ध जिन धर्म को अंगीकार करो जिससे संसार समुद्र को तरो। अलंविस्तरेण॥ आपका कृपाभिलाषी नाथूराम वैरागी बडा मन्दिर जीरण-जिला नीमच // प
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________________ ॥इश्तिहार // ददतु ददतुगालिंगालिमन्तो भवन्तु अहमपि तदभावे गालिदाने समर्थः // जैनी वैष्णव सर्व सज्जन पुरुषों को विदित हो कि जैन शास्त्र के अनुसार जोकि वर्तमान काल में अंगउपांग णादि शास्त्र हैं उनमें जिन मूर्ति का पूजन और मुखपत्ती मुख पर अष्ठ पहर बाधना साधु व श्रावक के वास्ते शास्त्र ने निकले अर्थात् सिद्ध हो जाय सूत्रों के पाठ से तब तो पूजन नहीं करने वाले तो पूजन को अंगिकार करें और मुख पर मुंहपत्ती न बांधे जो यह बात सिद्ध अर्थात् जिन प्रतिमा का पूजन न ठहरेगा और मुख बांधना अष्ट पहर ठहर जायगा तो हम मुख बांधने लगेंगे और जिन प्रतिमा का निषेध करेंगे इस शास्त्रार्थ में इस बमुजिब मध्यस्थ भी होना चाहिये दो तो पंडित जोकि व्याकरण न्याय काव्य कोष आदि के जानने वाले कोषों के बीच में जिनकी विद्वत्ता प्रसिद्ध हो और इसे बमुजिब दो संन्यामी और दो आर्य समाजी क्योंकि वे लोग वेद की रीति से मूर्ती को नहीं मानते हैं और दो पंडित दिगंवरी आमनाके और दो ईसाई जोकि संस्कृत के अच्छे जानने वाले हों ऐसे उपर लिखे बमुजिब मध्यस्थ कपनी विद्वलांस पक्षपात को छोड़कर सूत्र का अर्थ करें स्पष्ट अर्थ को दोनो जने अंगिकार करें और जो उन लोगों का खर्चा पड़े वो हारनेवाला दे अर्थात उस की पक्ष का गृहस्थी देवे और इस कागज की नकल एक सरकार की नकल में दीजाय और और एक नकल प्रति बादियोके पास रहै और एक नकल अपने प.समें रेखा तिथि
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________________ (17) वार मुकर्रर करके इसका नियम किया जाय जिसके बमुजिब हमारा लेख है इसके बमुजिब प्रतिपक्षी भी लिखकर हमको दे इसमें जोकोई देरी करेगा वह श्री सिंह के बाहर जिन धर्म से विमुख चौबीस भगवान का नहीं माननेवाला है जब प्रतिपक्षी इस बात को अंगिकार करेगा तब अपने हायसे और भी लिख देंगे // इति // सम्बत 1655 कार्तिक शक्कर) / द चिदानन्दजीका मुकाम जीरन जि नीमच र बकलम नाथूराम वैरागी मुकाम जीरन जिम्नीमच.
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________________ - पता पुस्तकें मिलने का। भैरूलाल खूबचन्द पोरवाल / जीरन जिला नीमच कापी लिखने वाले की अज्ञानता से अशुद्धियां रहगई हैं पाठक गण क्षमा करें द्वितीया वृत्ति शुद्धता पूर्वक छापी जायगी॥
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________________ भी तत्सत् श्री वीतरागायनमः * कुमतोच्छेदन भास्कर * / भर्थात् // जैन लिंग निर्णय // -~000 दोहा॥ प्रथम नम श्री वीरजन शासनपति महाराज। जैन लिंग निर्णय करूं भव्यजीव हितकाज // बिन निर्णय जिन लिंगके किस को कहवो साधु / मन कल्पित करे भेषजो साध नहीं वो बाध // 2 // गौतम स्वामी मुमिर कर सुधर्म स्वामी सिरनाउं / गुरु चरणन को नमन कर श्रुत देवी मन लाउं // 3 // वर्तमान काल में जो जैन धर्म की व्यवस्था होरही है उस को देख कर मेरे को खेद उत्पन्न होता है कि अत्यत्तम चिन्ता मणिरत्न के समान जिन धर्म वीतराग सर्वज्ञ देव का कहा हुवा तरण तारण भव दुःख निवारण था जिस में हुंडा सरपनी काल और पंचम आरा और दश अछेरा में असंजती की पूजा कुछ उसका सहारा दुःख गर्वित, मोह गर्वित वैराग्य वालों ने धर्म को बिगाड़ा इसलिये जैन लिंग निर्णय करना है हमारा भव्य जीव आत्मार्थ करे चाहोतो करो बुद्धि का विचारा
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________________ [2] जैन लिंग निर्णय // मनुष्य जन्म फिर मिलना है दुशवारा, सत्य बिन झूठ से नहीं होगा निस्तारा हम्तो कहते हैं मानना न मानना इख्तियार है तुम्हारा, खैर अब व्यवस्था सुनों कि इस जैन मत में दो आमना अनमान साढे अठारह सौ वर्ष दिगम्बर और श्वेताम्बर चलरहै थे परंतु मूर्ति विषय में किसी का द्वेष न था फिर इस श्वेताम्बर आमना में गच्छादिक के अनेक भेद व झगड़े टंटे मचे परन्तु जिन प्रतिमा से द्वेष और लिंग में भेद किसीका भी नहीं पड़ा परन्तु अनुमान पंद्रह सो इक तीस स के साल से प्रतिमा का द्वेषी लोंका लैया उत्पन्न हुआ सो उस लोंका ने भी प्रतिमा की पूजन और तीर्थ निषेध किया परंतु लिंग का भेद न किया सो इसका हाल तो हम नीचे लिखेंगे परंतु अनुमान सतरहसे के ही के साल में ढूंढक मत चला जिससे लोंके की परंपरा निषेध कर जिन प्रतिमा से विशष द्वेष और लिंग में भेद अर्थात् जिन आगम से विरुद्ध रूप धारण करके जैनी नाम से अपने को प्रसिद्ध कर विचरने लगा जाती कुल के जैनियों को बहकाने लगा समझानहीं दया। दया का नाम ले झगडा मचाने लगा औरोको करात त्याग आप रंगनादि खाने लगा ढाल चौपाई दोह! गायकर गाल बजाने लगा स्त्री बाल जीवोंको रिझाने लगा इसमें भी कुछ दिन के बाद भीकम पंथी कुछ लोगों को भ्रमाने लगा कहते हैं। हम त्यागी परन्तु अभक्ष वस्तु खाने लगा इत्यादि अनेक व्यवस्था होने से जो इस श्वेताम्बर आमनामें ओसवाल पोरवाड वगैरः जाति धर्म से बह के फिरते हैं तिनके वास्ते जैन शास्त्रों के अनसार साधू के जो उपगरन हैं उन्हीं को प्रथम लिखते हैं क्यों कि उन उपगरनो को जती समेगी, ढूंढिया, अर्थात बाईस टोला, तेरह पंथी सब कोई मानते हैं और उन्ही उपगरणों के नाम से मानते हैं और रखते भी हैं परन्तु बाईस टोला और तेरह पंथी ... जैन शास्त्र के अनुसार अभक्ष न तु मद्य मांस -
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [3] नाम तो लेते हैं और रखते नहीं हैं इसलिये जो भव्य जीव आत्मार्थी मत पक्ष को छोड कर अपनी आत्मा का कल्यान करना चाहे तो जो हम चोदह उपरगनों का नाम और प्रयोजन लिखवाते हैं वह जो कोई बाईस टोला तेरह पंथियों से पूछेगा और इनके पास में न देखेगा तो उस भव्य जीव को उसी वक्त इनके जाल का फंद खल जायगा तो सत्यं जैन धर्म मिल जायगा मिथ्यात तिमिर भी कट जायगा इसलिये प्रथम साध मनिराज के वास्ते चोदह उपगरण श्री प्रश्नव्याकर सूत्र के पांचवें संवर द्वार में कहा है सोई दिखाते हैं।:__भायण भंडोवहि ओवगरणं पडिगहो 1 पायबंधणं 2 पाएके सरीया 3 पायठवणंच 4 पडलाइतिन्नेवय 5 रयताणंच 6 गोछ उ 7 तिणियपछागा 10 रउहरणं 11 चोलपट्टग 12 मुहणंतक 13 मादिय पायपुरणा 14 एयंपियसंजमस्त उव बहणठायवीययव दंसमसगसिय परिरखणठयाए उबगरण राग दोष रहियं परीहरिव्यं संजएणणिच्चं पडिलेहण पफोडण पमज्जणाए अहोराउयअप्पमत्तेणहोइ संयतं निखवियध्वं गिएहयवं भायण भंडोवाहि ओवगरणं. ____ अर्थ भावार्थ भाजन मट्टी काष्ट और फलादिक का भाः भंडो अर्थात उपधि वस्त्रादिक ओः उपगरण अर्थात् जिससे साध का चारित्र पले सो अब उपगरणों के नाम लिखाते हैं पडिगाहो // 1 // कहतां पात्रा. पायबंधनं // 2 // कहता पात्र रखने की झोली पाय केसरिया // 3 // कहतां पात्र की पडिलेहना अर्थात् प्रमाजन ( पुंजनी ) पायठवणंच // 4 // कहतां पात्र के नीचे आहार करती दफे बिछावे. पडलाइतिन्नबेया // 5 // कहतां तीन पत कपडा के उनियालेमें चौमासे में पांच प्रत पात्राकं ढांकने के वास्ते जिससे सचित वस्तु का आहारादिक से संघटा न हो रयंताणंत्र // 6 // कहतां पात्रका वीटना गोला // 7 // कहतां वस्त्र खंड कम्मल - -
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________________ अन लिंग निर्माय॥ बनात का ऊपर के वास्ते तिणिय पछागा // 6 // कहतां तीन चद्दर अर्थात् ओढ़ने की पिछोड़ी // 10 ॥रउहरणं // 11 // कहतां रजो हरण अर्थात् काजा दूर करने के वास्ते और जीव की रक्षा करने के लिये जिसको साँकत में ओघा कहते हैं // चोलपहा // 12 // कहता वस्त्र जिसको वर्तमान काल में ढुंगा के ऊपर बांधते हैं। महणतक // 13 // कहतां मंहपत्ती अर्थात् प्रमाण मजब वस्त्र बोलने के समय मुख को ढकने के वास्ते हाथ में रक्खे पादिय पाय पछणा ॥१४॥कहतां मात्रिया अथवा पाय पूछणा यह चौदह पारन के नाम जुदे जुदे कहे यह ऊपर लिखित उपगरण श्री वीतराग सरवज्ञ देवने साधू के संजम पालने के वास्त कहे और इनका प्रमाण अर्थात् कितना लंबा चौड़ा रक्खना सोतो भाष्य चर्णि निर्जक्ति टीका आदि में कये हैं और प्रयोजन भी उन्ही जगह कहेहैं सो हम इस जगह नहीं लिखते क्योंकि जो मूल के गानने वाले हैं उन शरूमों को मूलही से समझाना ठीक है कारण कि जिसको जो मानता ही नहीं है उस चीज का कथन करना जसा अंधे को आरसी का दिखाना है इसलिये अब हम जोकि ओसवाल पारवाड़ वगैरह जाती कुल के जैनी बाजते हैं उन सर्व सज्जन पुरुषों से कहना है कि ऊपर लिखित उपगरणों को पेश्तर तलाश करे और ऊपर लिखे मुजिब उपगरण जिसके पास पावे वोही जैन का साधु और भगवत आज्ञा में है और जो ऊपर लिखित उपगरणों से विपरीत होगा वो असाधू वा भगवत आज्ञा विरोधक और मिथ्या दृष्टि है इसलिये इन बातों का निरणय करना चाहिये नाहक कदाग्रहमें न पडना चाहिये इन के जाल में फंसके आत्मा न डुबाना चाहिये वर // 1 // अब जो हम ऊपर लिख आये हैं कि इनकी उत्पत्ती नीचे लिखेंगे सो यहां लिखते हैं कि गुजरात देशमें अमदाबाद नगरहै वहां एक लोंका नामे लिखारि (लहिया) रहता था वो ज्ञानजी जती के उपासरे में रह | कर पस्तक लिख कर आजिविका करता था एकदफे उसके मनमें |
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________________ कमताच्छेदन भास्कर // [5] बेईमानी आई तब उसने एक पुस्तक के बीचमें सात 7 पृष्ठा लिखना छोड दिया जिस पुस्तक के लिखवाने वालेने पुस्तक अधूरी देखी उसने लोंका लहिया की बहुत बुरी फजीती करी उपासरे में से निकाल दिया और सर्व श्रावकों को कह दिया कि इम गेका पासने कोई कुछ भी पुस्तक लिखानी नहीं इस प्रमाण होने | मे लोंका की आजीविका बंध होगई बहुत दुःख पाया इस कारण से वो जैनमत का द्वेषी बनगया जब अहमदाबाद में लोका का जोर चला नहीं तब वहांगे आसरे (4.) चालीस कोस दूर (लीबडी) नाम करके एक गांवहै वहां उसका ( लखमसी) करके कोई परम मित्र था उसकी तरफसे कुछ आश्रय मिलजाय ऐसा विचार के लखमसी यहां के राजा का कारबारी है इसलिये वो विचारेगा तो सफल होजावेगा उममें कोई तरह का शक नहीं। पीछे लोंका लीबडी गया वहां जाकर लखमसी से कहा कि भगवान का मार्ग लोप होगया है लोग उलटे रस्ते चलते हैं मैंने अमदाबाद में बहुत लोगों को सांचा उपदेश कह्या परंतु मेरा कहना न माना उल्टा मुझे वहांसे मार पीटके निकाल दिया अब मैं तुम्हारी तरफसे सहारा मिलेगा तो ऐसा विचार करके तुम्हारे पास आयाहूं इसलिये जो तुम मेरे को सहारा दोतो मैं सच्चा दया धर्म की परूपणा करूं इस माफक हलाहल बोलके बिचारे मूढमति लखमसी को समझाया तब उसने उनकी बात सच्ची मानकर लोंका से कहा कि तुं खशी से इम राजके अंदर परूपणा कर मैं तेरे खाने पीने की खबर रखंगा इस रीतिसे सहाय मिलनेसे लोकाने संवत् (15.8) में जैनमार्ग की निंद्या करनी शुरू की आसरे (26) छब्बीस वर्स तक तो उसका मार्ग किसीने अंगीकार किया नहीं आखिर संवत् (1534) में एक अकल का अंधा महाजन उसको मिला उस भणाने महा मिथ्यातके उदयसे उसका मंठा उपदेश मानलिया और लोंकाके कहने से गुरू बिना कपडे पहन कर मुढ अज्ञानी जीवों को जैन मार्गसे भ्रष्ट करना शुरू किया लोंकाने एकत्तीस सूत्र सच्चे माने
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________________ जैन लिंग निर्णय // और व्यवहार सत्र सच्चा मानना नहीं और जिमरजगह मूल सूत्र का पाठ जैन प्रतिमा का अधिकार था वहां मन कल्पित अर्थ जोड़ कर लोगों को समझाने लगा भुणा का शिष्य रूपजी संवत्(१५६८) में हुवा उसका शिष्य संवत् ( 1578) की महाशद 5 के दिन जीवाजी नामे हुवा संवत् ( 1587) चैत्र बदी 4 उसका शिष्य वृद्धवरसिंह नामे हुवा संवत् (1606) में उसका शिष्यवरसिंहजी हुआ उसका शिष्य मंवत् (1646) में जमवंत नामे हवा उसके पीछे संवत् (1709 ) में वजरंगजी नामका लपकाचार्य हुआ श्रीसूरत का रहनेवाला घोरावीर जी की लड़की फुलांबाई का दत्तक पुत्र ( लवजी) बजरंगजी के पास से दिक्षा ली दिक्षा लेने के बाद दावर्ष के पीछे श्री दशवैकालिक सूत्र कटवा बांच्या बांच के गुरू से कहने लगा कि तुमतो साधू के आचार से भ्रष्टहो ऐसे कहने से उसी वक्त गुरू के साथ लडाई कर के उसी वक्त लवजीने लंपकमत और गुरू छोड़ के थोभण रिष वगेरह को साथ लेकर स्वमेव दिक्षा ली और मुख ऊपर पाटा बांधा उस लवजी का शिष्य सोमजी तथा कानजी हुवा उसके पास गुजरात का छींपा धरमदास दिक्षा लेने को आया वो कानजी का आचार भ्रष्ट जान कर स्वमेव साध बनगया और मुंह पत्नी मुंढे वांधी धरमदास को रहने का मकान ढूंढा अर्यात् फटा हुवा ( उजाड़) होने से लोगों ने उसका ढूंढक ऐसा नाम दिया लंपकमती कुंवरजी का चेला धरमसी, श्रीपाल और अमीपाल, ये तीन हुये उन्होंने भी गुरू को छोड कर खुद दिक्षा ली उस वक्त धरमतीने आठ कोटी पचखाण का पंथ चलाया वो गजरात देश प्रासेद्ध है धर्मदास छोरा का चेला धन्नाजी हवा उसका चेला भदरजी के चेले रधुनाथा, जेमल, और गुमानजी ये तीन हुवे उसका परिवार मारवाड़ तथा मालवा तथा गुजरात में विचरता है रघुनाथ का चेला भीकम तेरापंथी मुःख बंधा का पंथ चलाया है इसरीति से इनकी कुल उत्पत्ती श्री आत्मारामजी का बनाया हुया समगतसत्या उद्धार ग्रंथ में विशेष लिखी हुई है वाही
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [7] से देखो हमको तो इतनाही प्रयोजन था सो सज्जन पुरुषों को लिख दिखाया इसलिये सज्जन पुरुष आत्मार्थी निर्णय करके धर्म को अंगीकार करे किसीके मत जाल में न पड़े शुद्ध जिन धर्म को अंगीकार करे जिससे आपसमें न लडे मुंहपत्ती बांधने की इच्छा भी न करे क्यों कि लोक विरुद्ध बात को हृदयसे पर हरे इसलिये हमारा कहना है कि लोंकाते तो मंदरकी पूजा आदिक निषेध का मार्ग चला परंतु मुंहपत्ती मुख पर अष्टपहर बांधने का मार्ग उसने भी न चलाया अष्टपहर मुहपत्ती बांधने का मार्ग (17.6) के साल लवजी और धर्मदास छीपाने चलाया है और गुरूके बिना चारित्र भी इनहीं ने लिया है आगम के देखने से जिन आज्ञा विरुद्धभी इन्होंनेही कीया है इसलिये आत्मार्थी इन पुरुषों का संग न करे गा तो ठीक होगा। अब इस जगह प्रश्न उत्तर उठाते हैं / / मुंपत्ती बांधने वाले का भर्म खलासा दीखता है कि यह ढुंढक लोक भोले जीवों को बहकाते हैं जैन धर्म का उड्डाह कराते हैं अन्य मती लोगोंको हंसाते हैं आप डबे और भोले जीवोंको डुबातेहैं (प्रश्न) अजी मुहपत्ती तो गौतम स्वामी आदि गणघरोंने बांधी है फिर तुम्हारा निषेध करना क्यों कर बनेगा ( उत्तर ) भोदेवानु प्रिय गणचरादिक को महपत्ती बांधना कहतेहो इसलिये तुम्हारे को मृषा वाद आताहै क्योंकि देखो श्री बिपाक सूत्र अध्येन 9 में ऐसा लिखाहै सो पाठ दिखाते हैं / ___ तत्तेणसे भगवं गोयमे मीयंदेवीय पीठ उसणु गच्छति तत्तेणं सामीया देवीतंकठ सगडीयं अणं कठमाणी 3 जेणे व भूमी घरतणेव ओवा गच्छइ २त्ता॥ चउप्पडेणं वथ्थेणं मुंहबंध माणी भगवं गोयमे ऐवं वयासी तुभ्भे विणं भंते मुहपोनीयाय मूह बंधह तत्तेग सेभगवं गोयमे मीयादेवीय एवं वृत्ते समाणे मोहपोतीयाए मुह बंधई 2 त्ता अर्थ तिसपीछे भगवंत श्री गोतम स्वामी मगादेवी राणीके - -- -
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________________ [8] जैन लिंग निर्णय // पीछे 2 चले तब मृगादेवी राणी जहां / भूमि घरथा वहां आती हुई और च उपडेणं कहता चारपूर्त करके ( चारतह ) मुःख को बंध मानी कहता बांधती हुई और भगवंत श्री गौतम स्वामी से कहती हुई कि हे भदंत अर्थात् हे पूज्य तुमे विणकहता आपभी मोहपत्ती याऐ कहतां मुंहपर्ता से मुंह बंधेक आप मुख को बांधो तत्तेणंक तिसरी ते भगवत गोनम स्वामी प्रीया देविक० मृगादेवी के कहने मे मोहपत्तीयाऐ कहता मुःख वस्त्र कासे मुंहबंधई 2 चाःक. मुख को बांधते हुवे ॥इस बिपाक सूत्र के पाठ सेतो श्रीगौतम स्वामी के मुखसे मुखपत्ती बंधीहुई नहींथी किन्तु हाथमें थी क्यों कि जो मुःखसे बांधी हुई होती तो मगादेवी रानी का कहना ऐसा कदापि न बनता कि है भगवंत आप मुंपत्ती से मुःखको बांधोक्यों कि चोदह उपगरणों में तो मःख पत्ती एकही गिनाई है तो फिर दूसरी मुंहपत्ती कहांसे आई जिसके वास्ते मगा देवीने कहा दूसरा और भी सुनो कि मगादेवी के कहने बाद जो गोतम स्वामी के मुंहपत्ती बंधी हुईथी तो गोतम स्वामी ने दूसरी कौनसी मुंहपत्ती से मुःख बांधा क्योंकि ऐसा पाठहै कि मृगादेवी के कहने के बाद मुंहपत्ती यो मोहबंधई 2 त्ता कहनेसे पीछे मुंहपत्ती से मुःख बांधा इस रीतिसे तो श्रीगोलम स्वामी के हाथ में मुःखपत्तीथी न तू मुःखके ऊपर बंधी हुईथी अब इस जगह मुंहपत्ती बंधने वाले एसा कहते है कि श्री गोतमस्वामी के मुंहपत्ती तोमुःख से बांधी हुईथी परन्तु मृगादेवीने नाक को बांधना कहा था क्योंकि दुर्गधनासिका को आती है मुःख को | नहीं इस हेतु से मगा देवी का कहना और गोतम स्वामी का बांधना हुवा इसलिये मुखपत्ती मुंह पर वांधनाही ठीक है जो ऐसा कहने वाले हैं उनको उत्तर देना चाहिये कि भोदेवानु प्रिय इस तुम्हारे कहने से तो श्री गोतम स्वामी गणधर सूत्र बनाने में भूल गये क्योंकि मगादेवीने नासिका बांधने को कहा और उन्हों ने मुंहपत्ती से मुःख बांधना लिख दिया तो सूत्र गलत ठहरे तोगण. धर आदिक के वाक्य को छोड़ कर तुम्हारे मनो कल्पित अर्थको
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________________ कुमताच्छेदन भास्कर // [9] कौन बद्धिमान अंगीकार करेगा सोतो नहीं किन्तु तुम सरीका | होगा सोई मानेगा अपनी पक्षपात को तानेगा सच्च झंठ को न छानेगा इसलिये जो तुमको आत्मा का अर्थ करना है तो गणधरों के वाक्य को मानो मत पक्षकोमत तानो गरूके ज्ञान को पहिचानो छोडो मत पक्ष जिससे होय तुम्हारो कल्यानो खैर अब देखो सूत्र आचारंग श्रुतस्कंद 1 अध्येन 8 उदेशा 7 सोपाठ दिखाते हैं: जेभीखू अचेले परिवसीए तस्तणं भिखस्त एयंभवति चाएमिश्रहंतणफासं अहियासित्तए सीयंफासं अहियासीत्तए तेउफासंअहियासीत्तएएवं समग्गफासं अहियासीत्तए एगंतरे भनेरे विरुवरुवेफासेपहियासीत्तए हिरी पडीछादणंच अहंगो संघाएमि भहियासीत्तए एवंसेकपइ कडिबंधणं धारित्तए / ___अर्थ-जो कोई साधू प्रतिमा प्रत्पन्न अवग्रह विशेष अचेल कहता वस्त्र रहित तिस साधू के ऐसा आभप्राय होय सो कहते हैं कि त्रणसुपर्स से जो उपजे दुःख तिसके सहने को समर्थ क्योंकि जो मोटे कार्य करने के ताई सावधान हुए हैं उन पुरुषों को तरण सुपर्स का परीसा किंचित्त मात्र भी ना प्रतिभासे तथा नाम तैसेही सीत अर्थात् सियाले का परीक्षा तथा नाम तैसेही ग्रीष्म काल का परीसा तथा नाम तैसेही चौमासे में इन्स मन्स आदिक का परीसा सहने में और भी अनुकूल प्रतिकूल उप्सर्ग आदि नाना प्रकार के सहने को मैं समर्थ हूं परंतु लज्जा करके जो गह्यप्रदेश है उसके दिखाने को नहीं समर्थ अर्थात् गुह्यप्रदेश उघाडा रखने में मेरेको लज्जा होती है इस रीतिका अद्धवसाय जिस साधू के होय उस साधू के वास्ते काट बंधन अर्थात् चोल पट्टा एक हाथ चार अंगल प्रमाण चोड़ा और कटि प्रमाण लंबा एक कले अर्थात धारण करे दूसरा नहीं रक्खे इस गतिसे इस पाठ में चोल पहा अर्थात् कटि बंधन कहा परन्तु मुख वस्त्र कासे मुख बांधना तो कहा नहीं क्यो कि बांधने की चीज बांधने -
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________________ [10] जैन लिंग निर्णय // को कहाँहै और नहीं बांधने की को नहीं बांधना कहा क्यों कि देखो कटि पर बांधनेका था तो बांधना कहा जो मुःखपत्तीका बांध ना होतातो मंहपत्ती को ही बांधना कहते इसलिये मुंह पत्ती को बांधना नहीं चाहिये गुरू ज्ञानको समझना चाहिये अज्ञान को छोड़ना चाहिये कहीं मख बांधने का पाठ हमको भी बताना चाहिये केवल मन कल्पित माल न बजाना चाहिये जैन का नाम ले जैन मतको न लजाना चाहिये अन्य मति लिंगको मिटाना चाहिये सत्य जिन आज्ञा को उठाना चाहिये नाहक मिथ्यात् को न बढाना चाहिये सद्गुरूका उपदेश हृदय में धरना चाहिये खेर अब मुख बांधने वाले कहते हैं कि इसको मोहपत्ती क्यों कहा / इसलिये मालूम होता है कि मुंहपत्ती बांधनी ठीकहै ( उत्तर) भोदेवान् प्रिय! हठको छोड कर कुछ बुद्धि का विचार करो कि मुंहपत्ती कहनेसे मुखका बांधना सिद्ध नहिं होसक्ता क्यों कि जो बांधना होता तो प्रथम अंग श्री आचारंग सूत्रके श्रुत स्कंध 2 दूसरा अध्येन२ उद्देशा 3 तीसरेमें एसा पाठ कदापि न होता सो पाठ दिखाते हैं: सेभिखूवाभीषणीवा उसासमाणेवा निसासमाणेवा कासमाणेवा छियमाणेवा जंभाय माणेवा उडुवाएवा वाय णि सग्गेवा करे माणेवा पुवामेव आसयंवा पोसयंवा पाणिणा परि पहित्ता ततोसंजयामेव ओसासज्जा जाव वायाग सग्गेवा करंज्जा // . ___अर्थ-सेकहता तेभित्र अर्थात् साधु अथवा साधवी उसा समाणेवा कहता ऊपरको उसास लेवे ॐथवा नीचेका उसास लेवे अथवा खासेतो वा छींकेतो अथवा जंभाई लेवतो डकार लेवेतो अथवा वाय कहता जो अधोद्वार से हवाका निकलना अर्थात् जिसको ( पाद ) बोलतेहैं इतनी चीजोंके करने के वक्त (पाणिणा परिपेहिता ) कहता हाथसे ढके तिसके बाद ऊपर लिखे कामों -
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________________ - कुमतोच्छेदन भास्कर // [11] को करे अब देखो इस पाठ में खासना वा छीकना वा जंभाइका लेना अथवा डकार का लेना ये सब चीज मुख से होती है तो जब मुख बांधा हुवाथा तो फिर ढकना क्यों कहा इसलिये हे भोले भाईयो इस मनकल्पित जालको छोडो क्या अर्थको मरोडो जिन आज्ञाको क्यों तोडो हम तो तुम्हारी करुणा कर के तुम्हारे को समझाते हैं जो तुम को अपना कल्यान करना होयतो अंगी. कार करो परभव से डरो क्यों नाहक झगड़ा करो राग द्वेषको परिहरो वीतरागके धर्मको अंगीकार करो जिनराजके शुद्धलिंग को अंगीकार करो मुंहसे मुखपत्ती को परिहरो जिनसे संसारमें जन्म मरण न करो क्योंकि विना लिंग निर्णयके जो जातिकुल के जैनी हैं वे लोग अथवा अन्यमत के लोग हाथमें मुखपत्ती रखने वाले को जैनका साध माने अथवा मुंह बांधने वाले को जनका साधू माने क्योंकि दोनोंका भेष जदार मालम होताहै इसलिये प्रथम जो चिन्ह साधका है उसका निर्णय अवश्य होना चाहिये क्योंकि देखो श्री महावीर स्वामीके वक्त में श्रीपार्श्वनाथ स्वामीके साध विचरते थे सो उन श्री पार्श्वनाथ के साधुओंका भेष श्रीमहा. धीरस्वामी के साधुओंसे भिन्न चिन्हथा और मोक्ष मार्ग साधने में दोनों की प्रवृतीथी सो उन दोनोंका जदार भेष देखनेसे लोगोकुं शंका हतीथी कि इन दोनोंमें जैनी कोन है इस विपरीत लिंग होने से जैनी और वैष्णव मत वाले दोनोंका भर्म मिटाने के वास्ते श्रीगोतमस्वामी और श्रीकेशीकुमार दोनोंजने मिलकर भिन्न लिंगको दूरकर एक लिंग रक्खा सो श्री उत्तराध्येनजी के 23 वें अध्येन में जो पाठहै उसको लिखकर दिखाते हैं:-- अचेत गोयजो धम्मो जोइमो सतरुत्तरो देसीउबद्ध माणेणं पासेणयमाहामुणी 26 एगज्जपवणाणं विसेसकिन्तु कारणं लिंगे दुविहे मेहावी कहविप्प चउनते 30 केसीएवंवुवा गंतु गोयमोइणमव्वबी विन्नांणेण समागम्म धम्मसाह -
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________________ [12] जैन लिंग निर्णय // णमछयं३१पच्चयथ्थवलोयरहनाणविहविगप्पणांजतथ्थगहण ध्यंच लोगेलिंगप ओपणं 32 सहभवेपइन्नाउ मोक्षसभुय. साहणेनाणं व सणंचव चरित चवनिथ्थए 33 साहुगोयम पन्नाते // 34 // अर्थ- अचेन्त कहता मानोपेत मफेद वस्त्र जीर्ण अभिप्राय ऐसा श्री बईमान स्वामीने कहा अर्थात् उपदेश दिया और इस अचेल धर्म को श्री पार्श्वनाथ स्वामीने पांच वरन के मानोपेत रहित अर्थात् प्रमाणनहीं एसा उपदेश दिया और मोक्ष पहुंचाना अथवा उपार्जन करना ये एक सरीखा कार्य पडिवज्जा अर्थात् उपदेश दिया तो फिर आचारमें फरक क्यों पड़ा इसका कारण क्या हुवा इस रीतिका बिचार उत्पन्न हुवा क्योंकि यती अर्थात् साधुका लिंग दो प्रकार का होनेसे मे कहे पुद्धिवंत किसवारते अविश्वास तुम्हारेको उत्पन्न न हुवा ऐसा श्रीकेशीकुमार बोले तिस पीछे श्रीगोतमस्वामी आगे दिखांत हैं सो कहते हुवे कि विशेष ज्ञान जोके बल ज्ञान तिस ज्ञान करके सम्यक प्रकारे सच्च प्रकारसे जान करके तिथंकरदेव धर्म साधन के वास्ते उपगरण वस्त्र आदिक रखने की आज्ञा दीनी है क्योंकि यती का भेष तिससे मालूम पडे कि यह जती है इस प्रतीति के अर्थ लोगों के विषय संजम मात्र के निवने के अर्थ वस्त्र आदिक उपगरण रखने की आज्ञा तिर्थकरदेव साधू को दीनी है शान के अर्थ वरुणादिक उपगरण रखना जिससे यती का भेष होय तो ऐमा ज्ञान आवे और यती का भेष मुजिब भेप होयतो लोग प्रतीति को नहींतो लोगों को अनाचरण मालग पड़े इसलिये यथावत लिंग धारन करना चाहिये जिससे लोग साधू और पज्य जाने क्योंकि प्रतीत होय वोही यती का भेष होय तब लिंग ऐसा जाने कि जैसा तिर्थंकरों ने यती का आचार कहा है उसी मजिब में रक्खं तो खरा और मोक्ष का सद्भुत अर्थात् सच्चा साधन तो ज्ञान, दर्शन, और चारित्र निश्चय नय
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [13 भेष कहा है क्योंकि जैसे भरतादिक ने जतीके भेष बिना गहस्थ पने में ज्ञान दर्शन, चारित्र करके मोक्ष का साधन किया है गोतम प्रतिज्ञा से तुम्हारी यहां इस रीति से केशी और गोतमस्वामी के शिष्यों को दो प्रकार का भेष देख रक संशय उत्पन्न हुवा सो किसवास्ते संशय उत्पन्न हुवा कि वे लोग आत्मार्थी थे उनका संदेह मिटाने के वास्ते श्रीकेशीकुमार और श्रीगोतमस्वामी यह दोनों आचार्य महाराज आत्माअर्थी और दूसरे के उपकार करने में था चित्त जिनका एक रात्पुरुष दोनों जने मिलकर संशय के दूर करने के वास्ते जिन धर्म की एक्यता करी और पहिली आचरणा को छोड़ श्री माहावीर स्वामी की आचरणा को अंगीकार किया और अपने दोनोंतरफ के शिष्यों का सन्देह दूर करके जिनधर्म में एक भेष अर्थात् एक लिंगही रहेगा लोगों का संशय दूर हुआ इसी कारणसे इस अध्येन में यही कथन लिक्खा है इसलिये इस पञ्चमें कालमें भी जो आत्मार्थी है उन पुरुषों को तो मुख बांधने वाले को देख कर और हाथमें रखने वाले को देख कर अवश्यमेव संशय उत्पन्न होगा कि इन दोनों में जैन का साधु कौन है जब ऐसा संदेह जिन पुरुषों को होगा वे पुरुष तो अवश्यमेव निर्णय करने की इच्छा करेंगे कि जैन के साधू मुख बांधने वाले हैं कि हाथम मुहपत्ती रखने वाले हैं उन्ही आत्माअर्थी सत्पुरुषों के वास्ते हमने इस लिंग निर्णय करने के वास्तेही उद्यम किया है न तु जातिकुल के ओसवाल पोरवाड़ वगेरःजोकि अपने में एसा आभिमानसे समझते हैं कि जैनधर्म हमारेही लारे चलता है और हमारे सिवाय दूसरा इस जैनधर्म को कोई नहीं मानता मो हमारी खशी आवे जिसको साधू माने और उससे बिपरीत को असाध माने और जिसको हमने पकडलिया | उसको कौन छुड़ाने वाला है क्योंकि जैन धर्म में तो हम लोगों की मुख्यता है इसलिये हमारी खुशी होवे जैसा धर्म चलावें ऐसा जिन पुरुषों को अपनी जितिकुल और धन खर्चने का अभिमान | है और आत्माअर्थ धर्म करना परभव को सुधारना असत्य को
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________________ [1] जैन लिंग निर्णय // छोड़ना सत्य को ग्रहण काना और सूत्र किसकी जबान से सुनना और किससे न सुनना कौन सच्चा अर्थ कहता है कौन झूठा अर्थ कहता है इत्यादि बातों का तो कुछ ख्याल है नहीं केवल अपनी पकडी हुई पंछडी में लिपटकर विवाद करते हैं उन पुरुषों को कदापि संशय न उत्पन्न होगा इसलिये उनके वास्ते यह ग्रंथ भी उपकारी न होगा इसलिये अब जो कोई भव्यजीव आत्मार्थी दृष्टि राग मिमत मत पक्षको छोड़ कर शास्त्रानुसार निश्चय करके श्रीवीतराग सर्वज्ञ देव के धर्म को अंगीकार करें जिससे संसार समुद्र से तरै फिर जन्म मरण भी न करै सत्य उपदेश को हृदय में धरे जालियों की जालमें न पड़े इस वास्ते हमारा कहना है कि जैसा इम उत्तराध्येनजी के तेईसवें अध्येन में जो जिन धर्म की एकता और एक लिंग अर्थात् भेष निश्चय हुआ वैसाही इस जगह आत्माअर्थी निश्चय करके अंगीकार करे अब इस जगह मुंहपत्ती बांधने वाले कहते हैं कि मुंहपत्ती तो हमेशा से बांधते हैं तो यह बात कोई नवीन थोड़ी है // उत्तर // भोदेवानु प्रिय जो तुम कहते हो कि हमेशा से बांधते हैं यह तुम्हारा कहना अनपमझ और कदाग्रह रूप मष वादहै क्योंकि देखो जो साधुओं का हमेशा से मुख बंधा होता तो दांत होट आदि किसी को देखने में नहीं आते जब दांत आदि देखने में न आवेगा तो फिर उन दांत आदिक को बुरा भला कौन कह सकता है इसलिये देखो हम तुमको दिखाते है कि अगाडी के साधुओं का मुंह खुला हुवा था उत्तराध्येनजी के 12 में अध्येन में 6 ठी गाथा देखो // कयरेआगछई दित्तस्बे कालेविगराले फोक्कनासे उमञ्चल एपंसुपिसायभूए संकर दूसंपरीहरीयकंटे // अर्थ-हरि केशीमुनि जज्ञ करने वाले ब्राह्मणों के पास में गया उम वक्तमें जो बाह्मणों ने निंदाकारी बचन बोला सोही दिखाते हैं कि | अरे यह कौन आता है अत्यन्त कुरूप अर्थात् भंडा है रूप जिसका - - -
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________________ - कुमतोच्छेदन भास्कर // [15] काला वर्ण मोटे दांत बिक्राल रूप बांकी नासिका असार वस्त्रधारी पिशाच रूप उकरडी अर्थात् गलियों के पडेहए वस्त्र पहरे हुवे दलिद्री सरीखा इत्यादि अनेक वाक्य निंदारूप हरि केशीमनि को ब्राह्मणों ने कहे और मुख बांधने की निन्दा ती न करी इस से प्रत्यक्ष मालुम होता है कि साधू का मुख बंधा हुआ नहीं जो हरिकेशी मुनिका मुख बंधा हुवा होता तो ब्राह्मण प्रथम यही कहते कि यह मुख बंधा कालावरण पिशाचरूप कौन आया है सोतो न कहा क्योंकि देखो वर्तमान काल में जो मुख बांधते हैं उनको लोग यही कहते हैं कि यह मुख बंधा है ऐसी लौकिक में प्रत्यक्ष बात चलती है इसलिये साधको मुख बांधना ठीक नहीं दूसग और भी सुनो कि नसीय सूत्र उद्देशा 6 में ऐसा लिखा हुवा है कि दांत की बत्तीसी को दांतन आदिक से मले तो प्राश्चित आदिक आवे सोही सत्र दिखाते हैं: जेभिखमाउग्गासम्ममेहुणवडीयाए अप्पणोदन्तेआघसेज्जवाअघसेतंवा साइज्जइ 67 जेभिखुमाउग्गामस्स मेहुण बडीयाए भप्पणोदन्तेसीओदगवीयडेणवा उछोलेज्जवा पधो क्षेज्जवा उछोलतंवा पधोलंतंवा साइज्जइ // 18 // अर्थ-जो कोई साधू साधवी जिस स्त्री की जैसे माता जैसी इन्द्री है उस स्त्रीसे मैथुन के निमित्त अपने अचित दांत करके एक दिन घिसे हररोज घिसे उसको अनुमोदे अर्थात् अच्छा जाने जो कोई साधू साधवी माता जैसी इन्द्री है उससे मैथुन अर्थ अपने दांतको शीतल पाणी (जल) अर्थात् आचित से लेकर एक वार धोवे वारंवार घोवे अथवा एकदफे धोते को बहुदफे धोतेको अनुमोदे अर्थात् अच्छा जाने अब विचारना चाहिये कि जब मुख बांधा हुवा होता तो दांत घिसना अर्थात् धोना ये शृंगार देखकर स्त्री आदिक क्यों खुशी होती इसलिये मुंह बांधना हमेशा से नहीं चला जो मुंह | बांधना हमेशा से चला होता तो ऐसा पाठ कदापि न लिखते | - -
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________________ [16] जैन लिंग निर्णय // इसलिये तुम्हारी शंका का करना अनसमझ कदाग्रह रूप मृषावाद है खैर अब सत्य असत्य को बिचारो असत्य को छोड सत्य को धारो कदाग्रह रूप मृषावाद को छोड़ो सर्वज्ञ वचन को जोड़ो कुलिगका उतारो शुद्ध लिंग को धारो जरा आंख मीचकर विचारो और आतम गुण प्रगट करो अब फिरभी इसी नसीथ सूत्र के १५वें उद्देशेमें इसी मूजब पाठ दातके रंगने के ऊपर कहाह सोभी दिखाते है:__ जेभीख माउग्गामस्स मेहुणवडीयाउ अपणो दंते फूमे जधारयज्जवा फुमंतवारयंतंवा साइज्जई 62 नी० उ० 6 जे भिखुविभूमावडियाए अप्पणोदन्ते आघसेज्जवा पघले ज्जत्रा अवसंतवा पघसंतवा साइज्जइ 136 जेभिखु विभू सावडियाए अप्पणोदंते सीउदगवीयडेणवा असीणोगद वीय डेणा उछोलेज्जत्रा पधोयज्जवा उछोलतंवा पधो लंतंवा साइज्जह 40 जेभिखुविभूतावाहियाए अप्पणो दंते फौजवारएज्जवा मखज्जका फूतथा रयतवा मखंतवा साइज्जइ॥४१॥ ___ अर्थ-जो कोइ साधु साध्वी माता जैसी इन्द्रीहै उस स्त्रीसे मैथुनके अर्थ अपने दांतोंको खटाईका रस लगाकर सुंदर करे अथवा अलतादिकका रंगकरके खटाईका रस लगाकर सुंदरकरने वाले को अथवा रंगने वालेको अनुमोदे अर्थात् सुंदर न करे जो अगर मुखबंधा हुआ होतातो दांत रंगना ऐसा क्योंकर दांत दीखते तथा होठो बाबत सूत्र 30 / 31 / 32 / 33 / 34 में खूब अधिकार लिखा है इसलिये इस प्रमाण से मुनिको मुख बंध्या हुआ नहींथा जोकोई साधू साध्वी शोभाके कारन अपने दांतोंको शीतल (ठंडा पानी (जल ) से अचित करके उष्णजल अचित करके एकवार धोवे वारंवार धोवे एकवार धोतेको वारंवार धोतोंको अनुमोदे जो कोई साधू साध्वी शोभाके अर्थ अपने दांतोंको खटाई का रस लगाकर | सुंदरकरे अलतादिक रंग करके रंगे अथवा मसले खटाई का रस
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [7] लगाते को रंगते को मसलते को अनुमोदे अर्थात् अच्छा जाने जो अगर मुख बांध्या हुआ होता तो दांत घिसे तथा धोवे तथा रंगे वो कैसे दीखता तथा स्त्री आदिक देखके कैसे राजी होती है इस प्रमाण से यह निश्चय हुया कि मुनी के मुखको मोहपत्ती बंधी हुई न थी यह स्पष्ट मालम पडता है बद्धिवंत होगा सो बिचार करेगा मतपक्षी तो मतपक्ष में खुशी हैं उसको जोग्य अजोग्य बस्तु नहीं दीखती है उसका कुछ दोष नहीं उसको मतपक्ष रूपी भंग चढी हुई है बिचार क्या करें परवश हो रहा है मिथ्यात रूपी नशे में सोरहा है कुगरुओं के बहकाने से मगन हो रहा है चिंतामणि रत्नको हाथ से खो रहा है इस बात को सुनकर मुंह बांधने वाले कहते हैं कि आपने सूत्रों की साक्षी दी सो तो ठीक है परंतु कुच्छ बुद्धि का विचार करो कि श्री वीतराग सर्वज्ञ देव ने इसका नाम मुखपत्ती कहा तो बांधना अवश्यही सिद्ध हो गया क्यों कि मुखपत्ती तो फिर खुला मुख क्यों कर रहेगा इसलिये मुख पर महपत्ती बांधनाही चाहिये (उत्तर) भो देवानु प्रिय ! इस तेरे प्रश्न से हमको मालुम हुआ कि तेरेको न्याय व्याकरण की धातु प्रत्यय अव्यय लिंग बचन आदिका किंचित भी बोध नहीं क्यों कि तेरे कहनेसेही स्पष्ट मालुम होता है क्यों कि जो तेरे को शब्द का बोध यथावत होता तो सूत्र का भी अर्थ यथावत मालुम हो जाता तो फिर इस विपरीत लिंग कुं क्यों धारण कर ता खैर अब तेरेको जो तेरा मन कल्पित मुखपत्ती से मुंह बांधना सिद्ध करता है तो हम तेरेको तेरी बद्धि कल्पित अर्थ को पछते हैं सो तेरे मनोकल्पित माफक उस अर्थ को भी अंगीकार कर सो हमारा पूछना ऐसा है कि जैसे तू मुखपत्ती कहने से मुख बांधना सिद्ध करता है तैसेही चोलपट्टा इसकाभी अर्थ चले पे रखना अथवा चोली से बांधना ऐसा अर्थ होगा लूंगा के ऊपर लगाई की तरह घाघरा सरीखा पटली मार कर पहरना न बनेगा कों कि ढुंगा पहा कहते जबतो तुम्हारा घाघरा के बतौर पटली मार
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________________ [18] जैन लिंग निर्णय // कर बांधना ठीक होतो दसरा और भीसुनोकि चदर इस शब्द के कहने से चांद पर ( सिर ) पे रखना चाहिये भीलो की तरह गाती. न मारना चाहिये क्यों कि चद्दर ऐसा शब्द कहा गाती मारनी नहीं कहा तीसरा और भी सुनो कि पात्रा इस शब्द के कहने से पांव ( पग) में रखना चाहिये आहार क्यों लाते हो क्योंकि आहार आत्रा तो कहा नहीं इत्यादि तुम्हारे शब्दार्थ के मूजब तो कुल शब्दार्थ बिपरीत हो जायगा इसलिये यथार्थ शब्दार्थ मानो मूर्खता की बातको मत तानो छोडदो अभिमानो जिन आगम के रहस्य को पहिचानो यह उपदेश हमारा मानो जिससे होय तुम्हारो कल्यानो जिससे मिले तुमको उत्तम ठिकानो इस जगह फिर मुख बांधने वाले सूत्र के प्रमाण बिदन मनोकाल्पत प्रश्न करते हैं सो यह प्रश्न है कि नागसरि ब्राह्मणी के यहां कोई साधुजी गोचरी लेनेकुं गये उस वक्त इस ब्राह्मणी ने कडुवे तूंबे का आहार बहराय दिया उस कारणसे अनंत भव भुगतके एक साहुकारके यहां जन्म लिया कुछ बरससे उसका विवाह हुआ तो उस के अगले जन्म का बैर होनेसे अनबनत रहतीथी सो कुछ दिन से कोई साधू मुनिराज गोचरी लेने आए उस वक्त में उसने अर्ज की कि महाराज साहिब मेरे पति के और मेरेमें अनबनत रहती है सो आप मुझे कोई इलाज याने जंत्र मंत्र तंत्र बताओ उस वक्त में मुनिराज ने दोनों कानों में उंगली लगाकर कहने लगे कि हमतो इस बातको कानसे भी नहीं सुनते इस अनुमान से सिद्ध हुआ कि मुंहपत्ती मुंह बंधी हुई थी (उत्तर) भोदेवानु प्रिय! यह तुम्हारा प्रश्न विवेक शून्य बुद्धि विचक्षणता मतपक्ष हटग्राहीपने का है क्योंकि जिन शास्त्रों को तुम मानते हो उस में तो यह जिकरही नहीं और जो जिकर होता तो तुमको पाठ बोलना था खैर अब हम तुमको समझाते हैं कि जो साधु उसके मकान में गयाथा उसको जातेही पूछा था अथवा आहारादि | बहरायकर पूछाथा जो तुम कहो कि जातेही पूछाथा तो साधु
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________________ - कुमतोच्छेदन भास्कर // [16] कान में उंगली देकर इस बात को क्यों सुनता रहा क्योंकि जहाँ स्वार्थ अर्थात् संसारी वात कोई कहे तो साधु खडा न रहे इसलिये कान में उंगली देना नहीं बनता क्योंकि साधुके जातेही गृहस्थी सपने मतलब की बात करे तो साधु न ठहरे इसलिये यह तुम्हारा कहना असंभव है जो तुम कहो कि आहार बहराने के बाद कहाथा तो यह भी बात संभव नहीं होती है क्योंकि आहार लेने के बाद साधु गृहस्थी के घरमें ठेरेही नहीं कदाचित तीसरे तम ऐसा कहो कि वह आहार वहराती जातीधी और कहनी जातीथी तो यह भी वात संभव नहीं होती क्योंकि जब साधु आहार पात्रामें लेरहा था और झोली पात्राको संभालताथा के कान में उंगली लगाताथा कदाचित ऐसा कहो कि पात्रा जमीन पै रखाथा तो यह बात भी असंभव है क्योंकि अव्वल ता साधु गहस्थ के घरमें झोली खोलकर पात्रा जुदा 2 फैलावे नहीं कदाचित तुम अपनी बहरने की रीतिको अंगीकार करो तोभी असं. भव हो जायगा क्योंकि उस बहराने वाले पात्रासे उपयोग रखोगे तो अन्य पात्रा में मक्खी आदिक आयकर बैठेगी अथवा बिल्ली आदिक आकर खाने लगेगी तो उनको उडाने से या हटानसे अंतराय कर्म होगा और उधर भी बहाने के पात्रा में उपयोग न रहेगा तब गृहस्थी भी वैसी बहराय देगा तो फिर साधु के अन खपत होने से परठनापडेगा सो इस रीति से लाय कर परठने की भगवत आज्ञा है नहीं इसीलिये हे भव्य ! भगवत ने चौदे उपगरणो में सात उपगरण पात्र के गिनाये हैं उस रीति से जो गोचरी करने वाले साधु हैं उनको न तो मक्खी आदिक उड़ाने की अन्तराय कर्म बन्धे और न गृहस्थ के घरमें दुकान अर्थात् जुदे 2 पात्रा फेलाने पड़े इसलिये यह शंका तुम्हारी न बनी दुमरा औरभी सुनों कि लौकिक में भी ऐमा कहते हैं कि जिस जगह अपने आचरण से विरुद्ध आचरण की बात हो तो उस जगह वो मनुष्य न ठहरे किन्तु चला जाय कदाचित जाने
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________________ [20] जैन लिंग निर्णय // का अवकाश न मिले तो कानों में उंगली देले जिससे वो शब्द नसने क्योंकि यह अनभव सब को बैठा हवा है कि कानों में उंगली देने से शब्द नहीं सुनाई देता है तो फिर साधुजीने दोनों कानों में उंगली डाल लीनीतो फिर उस स्त्री का पति को बसी कराने में मंत्र जंत्र तंत्र की विधि पूछने से क्योंकर सुनी क्योंकि वह शब्द भी उस स्त्री ने जोर से तो कहा ही नहीं होगा क्योंकि ऐसी बातें तो धीरज से कही जाती है तो जोर की बात कानों में उंगली देने से नहीं सुनाई देती है तो धीरज की बात क्यों कर सुनाई देगी इसलिये यह तुम्हारा प्रश्न करना बुद्धि बिकल जिन लिंग बिरुद्ध आचरण कदापि शुद्ध न होगा खेर जो तुम्हारा ऐसाही आग्रह है तो भी फिर तुम को बताते हैं कि जिसवक्त उस स्त्री ने पती वसी करण का शब्द उच्चारण किया और साधू ने कानों में उंगली लगाई जब वो कहकर चुप हो चुकी जब साधु ने कानों से हाथ हठाय कर मुख को मुंहपत्नी से (आच्छादन ) कर के कहने लगा कि हम इन बातों को कान से भी नहीं सुनते तो बताने का जिकर ही क्याहै क्योंकि देखो जो शख्स कोई किसी से कोई बात पछता हैं तो जब वो शख्स संपर्ण कह चुकेगा तब दूसरा बुद्धिमान उसका उत्तर देगा और जो पूरी बात सुनेहीगा नहीं और बीच से उत्तर देगा उसे लोग मुर्ख कहेंगे इसलिये शास्त्र में कहाहै कि ( एक समय नत्थी दोउपयोग ) इसलिये हे भव्य! मुख बांधना सिद्ध न हुवा और तेरी शंका के माफिक एक शंका तेरी तरफ से उठाय के दिखाते हैं सूत्र का प्रमाण भी बता ते हैं तेरे अज्ञान को दिखाते हैं पहिले उसको लिख कर पीछे तेरे को यथावत समझातेहैं भगवतीजी सतक 2 उ० 2 में देखो तुम्हारी जैसे बुद्धि बिकल इस जगह भी इस सूत्र में शंका करते हैं पा सूत्र यह है ( गाथा) तहारुहेही कडाइहि थेरेहिं संद्धिं विपलं पव्वयंसणियं 2
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [21] दुरुह मेहघण सन्निगासं देवसन्निवायं पुढवीसीला पट्टयं यडिलेहइत्ता 2 उच्चारपासवण भूमी पडिलेहइ 5 त्ताः दभ्भसंथारयं संथरइ 2 ता पुरथ्थाभि मुहे संपलियकणिसन्ने करयल परिग्गाहियं दसनहमिरिसावत्तं मथ्थय अंजलीकटु एवं वयासी नमोथ्थुणं अहिंताणं भगवंताणं जाव संपताणं // अर्थ-अब श्री भगवान तथा रूप शक्तीवंत थीवरों का साथ लेकर विसतीरणी पर्वत ऊपर सहज 2 में चढकर सजल मेघ जैसी स्याम देवतों रमणे योग्य पुहुवी शिला अर्थात् (पाखरशाला ) पडिलेहकर बडनी तले धनी तपास की भूमि कापडी लेहकर फेर पादोगमन अनसणथी पहिले उच्ता आदिक की भूमि अर्थात् जमीन को पूजना अर्थात् पडिलेहना ऐसाहै आचार जिनका फिर डाभका संथारा अर्थात् बिछौना करके पूरब सामो अर्थात् पूरव मुख करकं पद्मास्न लगाय कर हाथ दोनों जोड़कर अर्थात् दसों नख इकट्ठा मिलाकर मस्तक के विषय आवरतन अर्थात् माथे (लिलाट ) के चढायकर ऐसा कहते हुवे कि नमस्कार हो अरिहँतको भगवंतको जाव संपत्ताणं कहता मुक्ती स्थान पावे जहां तक इस पाठ को देख करके मुख बांधने वाले ऐसा प्रश्न करते हैं कि दोनों हाथ जोड़ कर माथे को लगावे तो मुख खुला रहता है और जो मुख ढकेतो माथे अंजली क्यों कर कर सके ऐसी कुयक्ति लगाय कर मुख बांधनेको साबित करतेहैं इस कुयक्ति का उत्तर जिनआज्ञा धारने वाले देतेहैं कि हे भोले भाई उचार वड़नीती भूमिका देखकर पीछे संथाराकरा फिर अनुक्रम करके एक एक रीति कर के दूसरी रीति कर के सभी क्रिया इकट्ठी ही करी तब विवेक शून्य बुद्धि विचक्षण कहने लगा कि एक काम को करके पीछे दूसरा काम करेगा तो है भव्य तूं इस जगह भी बुद्धि का विचार कर मिथ्यात को परि हर कुगुरु की बात हृदय में मत धर अपने कल्याण की इच्छा कर क्योंकि देख जैसे तू कहताहै
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________________ - [22] जैन लिंग निर्णय // कि एक काम को करके पीछे दूसरे काम को करेगा ऐसेही इसजगह भी समझ पश्तर हाथ जोड़ कर मस्तक अंजली करके पीछे हाथ से मुख अबादन करके नमत्थुगणं कहा इसी बात को नेत्र मींच कर बुद्धि से विचार कुगुरु का संग निवार सत गुरु कुं धार जिन आज्ञा को समार जिस से होवे तेरा निस्तार इस गतिम साध का मुख बंधा हुवा नहीं क्योंकि प्रदेशी राजा चित्त स्वार्थी की मंगमें बगीचामें गया और उस बगीचेके बीचमें श्री कैशी कुमार आचार्य को देसना देता हुआ देखा और देखकर जो विकल्प उसके चितमें उठे सो विकल्प चित स्वार्थी से कहे उसी पाठ को श्रीराय पसणी सत्र से दिखात हैं तुम्हारे मुख बांधने को उड़ाते हैं सूत्र की साक्षी बताते हैं मानो तो खुशी तुम्हारी हमतो जिन आज्ञा को जताते हैं ( पाठ) ___ तणणसेपदेसीराया रहातोपचारुहइ चित्तणसारहिणासी खं आसाणसमंकिलाम पीण माणेपासइजथ्थ केसीकुमारेसम महितिमहालियाएमा सपरिसाएमझगएमहिया 2 सदेणं धम्नमाइख पाणपसित्ता इमेयारुवे अझथियएसकप्पेसमुपज्ज थ्थाजडाखलु भोजडंपजुपजुवासंति मुंडाखलु भोमुडंपजुवासंति मुढाखलु भोमुहं यजुवासंति अपंडियाखलु भो अपंडियापजु वासंति निविणाणाखलु भोनिविणाणं पजुवासंतिसकेसणंएस पुरीसे जडेमुंडे मुढे अपडिएनिव्वणाणे मीरी एहिरिएओवगएओ त्तप्पसिरिए एसणंपुरीसेकिमाहारतिकिखायइ किंपयइकिपय थ्थतिजणंएसपुरिस महातिम हालीयाएमणुस्सपरिसाएमझ गते महियाए 2 सदेणवुयाई एवंसपेहिइ 2 ना चितसारहिं एवं वयासी चित्ता जडाखलु भोजड पजूवा संतिजाववुयाइ / अर्थ-तिसपीछे ते प्रदेसी राजा रथसे उतरकर के चित्त स्वार्थी के साथ घोडों को किलामना अर्थात् टहलाते हुए | फिरते 2 देखते 2 जहां श्री केशीकुमार समोसरण अर्थात् मोटी
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________________ - कुमताच्छेदन भास्कर // [ 23 ] महा विस्तारकरके मनुष्यों की परखदामें बैठे हुए मोटे अर्थात् ऊंचे शब्द करके धर्म देमना देते हुए उस परखदा को देखकरक ऐसा कह सो हम आगे कहते हैं आत्मा के विषय संकल्प उपजा यह मूर्खपनसे निश्चय करके मूर्खकी सेवा करते हैं मुंडक मस्तक मुंडाहुयातों मुंड प्रत्ये निश्चय सेवन करहै ते मुंड अर्थात् मुर्व हैं अपंडित क. अपंडित प्रत्यय से है यह पुरुष जडको सेरहे हैं मस्तक मंडत अपंडित ने सेवे हैं निविज्ञान रहित शोभा करी सहित देदीप्यमान शरीर यह पुरुष कैसा है कहांसे आहार कर है कैसी चीज खाय है कहांसे पीवे है सेवकको खर्च कहांसे देता है जिसकरके यह पुरुष मोटा महा वीरता मनुष्यों की पर खदा मांही बैठा है और मोटे 2 शब्द करके बोले है ऐमा बिचार मनमें चिंतवन कर के चितस्वार्थी से ऐसा कहता हुवा कि हे चित्र जड़ पुरुष घणा निश्चय अहो एक जड़ मूर्ख प्रते सेवे है यह सभा में बैठा हवा देसना दे रहा है तिस रीति के पूर्व मनमें विकल्प सो सर्व बिकल्प चित्त स्वार्थी से कहता हुवा परंतु उन बिकल्लों में ऐसा बिकल्प उस प्रदेसी राजा को न उठा कि यह मुख बंधा मुख बांधे हुवे कथा करता है अथवा चित्त स्वार्थी से भी ऐसे वचन से कहा कि हे चितस्वार्थी यह मुख बंधा बेठा हुवा क्या कर रहा है ऐसा भी न कहा और श्री केशी कुमार ने भी प्रदेशी राजा से न कहा कि तुमने ऐसा चितव्या कि यह कौन है मुख बंधा क्योंकि प्रदेशी राजा ने मुख बांधने का बिकल्प अपने चित्त में न किया इसलिये श्री केशी कुमार ने भी न कहा क्योंकि देखो जिन का मुख बंधा होता है उनको प्रत्यक्ष अजान लोग कहते हैं कि यह मुख बंधा कौन है इसलिये मालूम होता है कि मुख बांधना जैन धर्म का लिंग नहीं किन्तु अन्य लिंग है इस रीति से श्री उत्तराध्येनजी के 20 वें अध्येन राजा श्रेणिक अनाथी मुनि को देखकर उनके रूप का वर्णन करताहुआ आचार्य को पाया सो वर्णन चौथी पांचवी छठी
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________________ - [24] जैन लिंग निर्णय // गाथा में देखो हमने तो ग्रंथ बढजाने के भय से नाम मात्र लिखा है जो उस जगह मख बंधा हुआ होता तो राजा श्रेणिक येही विचारता कि इम रूपवान पुरुष ने मुख क्यों बांधा है सो ऐसा बिचार उन गाथों के अर्थ में नहीं इसलिये जैन के साधु को मुख बांधना असंभव है और भी देखो इस उतराध्येनजी के 18 वें अध्येन में पाठ है सोभी दिखाते हैं (पाठ)। - मयछुभी ताहयगओ किपिल्लु जाणकेसरे भीएसते मिएतथ्य वहइरसमुछिउं 3 अहकेसरंमी उज्जणे, अणगा रेतबोधणे सझाय झाणसंजुते धम्मझाणं झियाएइ 4 अफो वमंडवंमी झायइझवियासवे तस्तगएमिएपासं वह इसे नराहिवे 5 भह आगसओराया खिप्पमागम सोताह हएमीए उपाप्तित्ता अणगारं तथ्थपालइ 6 अहरायातथ्थसं भंतो अणगारोमणाहओमएओमंदपुन्नेणं रसगिद्धेण घिथ्थुणा ___अर्थ-मृगको देखकर घोड़े चढ कर कांपील पुर नगर संबंधी केसरी उध्यान के अंदर जाता हुवा कितनेक मगों को वहां मारते हैं मांस की लोलपता से अब केसरी तो ध्यान के अंदर अणगार मुनि तथा तप उद्यम सहीत स्वाध्याय धर्म ध्यानादिक ध्यान सहित धर्म ध्यान ध्याय रहे हैं एकागहचित करके रुंखेकरी व्याप्पु अर्थात् दरखतों से ढका हुवा नागर बेल का मंडप है धर्म ध्यान होवे है आश्चर्य खपायाहै ऐसे मुनी पास मृग आया मग बंधा हुवा था वो मग मुनि के पास आया वो राजा अब घोडे पर चढा हुवा जल्दी आकर उस राजा ने वह मरा हुआ मृग अणगार मुनि के वहां देखा अब राजा वहां जाता हुवा ऐसे जानता हुवा अणगार मुनि थोडा साहना है ये मग मुनि का होगा वो देख कर मैं थोडा पुन्य का धनी हूं मांस के लोलपी पने से जीव घात किये यहां संजती मिथ्या दृष्टि था उसको अणगार मुनि
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [25] कह कर बुलाया है उसने ऐसे नहीं पहचाना कि यह साधु जैन का है जो मुनि का मुख बंधा हुआ होता तो राजा ऐसा जानता कि यह तो जैनका साधु है जैन के साधु मृग नहीं रखते ऐसा जानकर चला जाता इस प्रमाणसे भी मुख बंधा हुआ संभव नहीं होता इस सूत्रके अर्थको बिचारो क्यों हट कदाग्रह धारो इस तोबरे को उतारो जिससे होय तुम्हारो निस्तारो इस वाक्यको सुनकर मुख बांधने वाले कहते हुए कि तोवरा तो असली घोडे के बंधता है कुछ गधेके नहीं बिना मुख बांधे वायुकाय की हिंसा क्योंकर साधु बचावेगा इसलिये मुख बांधनाही ठीक है ( उत्तर ) भोदेवानप्रिय ! तैंने जो कहा कि तोबरा असली घोडे के बंधता है कुछ गधेके नहीं सो तेरा कहना ठीक है परंतु इस तेरे वाक्य को सुनकर हमको करुणा उत्पन्न होती है कि मनुष्य जाति में उत्पन्न होकर भी उत्तम कुल ओसवाल पोरवाड आदिक कुलको पायकर जैनी नाम धरायकर क्यों तिरियं चपशु जातिमें मिलते हो लज्याभी नहीं पाते हो क्यों अपने कदाग्रहको जमाते हो खोटी कुतर्कों को चलाते हो हमतो जानते हैं कि तुम मनुष्य हो परंतु तुम अपने आपही पशु बनजातहो क्योंकर हम तुम्हारी बुद्धि विचक्षण को समझा और जो तुमने कहा कि मुख बांधे बिदून वायुकाय की हिंसा क्योंकर बचेगी यह तुम्हारा कहना भी अज्ञान सूचक कदाग्रही मालम देता है क्योंकि जिस रीतिसे वायुकाय की हिंसा शास्त्रों में कही है सो रीति दिखाते हैं प्रथम अंग श्री आचारांगसूत्र श्रुतस्कंद 2 अध्येन 1 में देखो सोही दिखाते हैं पाठःसेभिखवा 2 जावपविठेसमाणे सेज्ज पुणे जाणेज्जा असणंवा 4 अच्युसिणवा असंज्जए भिख्युपडियाए सुवेणवाविहुयणे णवा तालियंटेणघा पत्तणवा पत्तभंगणवा साहाएवा साहा भंगणवा पिहुणेणवा पिहुणहथ्थेणवा चेलेणवा चेलकन्नेणवा
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________________ [26] जेन लिंग निर्णय // हथ्थेणवा मुहेणवा फुमेजवा वीएज्जवासेपुवामेव आलोएजवा आउसंतिवा भगणीशिवा माएतंतुमं असणंवा 4 अच्चुसिणं सूएणवा जावफूमाहिवा अभिकखसीमेदातु एमेवादन याहि सेसेवंवदंतस्स परोसुवेणवा जाववीपीत्ता आहटुदल एज्जा तहप्पगारं असणंवा 4 अफामयं जावणोपडि गाहिजा अर्थः- से भीखुवा कहतां साधु साध्वी गृहस्थ के घर में प्रवेश करे उसवक्त जो साधु अशणादिक चतुरविधि आहार देने के वास्ते अतिउत्कृष्ठ शीतल करने के अर्थ गृहस्थी साधुके लिये सुप करके (सूपड़ा वा छाजला) अथवा वीजना (पंखा ) अथवा खजरपत्रादिक करके अथवा पत्ता करके अथवा पत्साके टुकड़ा कर के अथवा शाखा ( डाली) करके अथवा शाखा का एक भाग लेकर अथवा मोर के पंख की बीच की मीजी अर्थात् चंदोया अथवा वस्त्र करके अथवा वस्त्र के पल्ले से अथवा हाथ से अथवा मखसे अथवा फूंकसे इत्यादिक रीति कर के शीतल करे तो साधु पहिले ( आलोक ) देखे सावधानीसे देखे तब गृहस्थ ने ऐसा कहा सो दिखाते हैं आयुष्मान् अथवा भगिनी (बहिन ) अशणादिक अति उष्ण जान कर जो वीजना से आदि लेकर जो पाठ कह आये हैं कि मुखसे फंक लगाकर जो हमको देना बांचेहो सो वायुकाय उदारिक बिना दे अर्थत् वायुकाय की हिंसा होने से जाव सुप से लेकर मुख से फंक लगाय कर इस रीतिसे शीतल करके अशणादि चतुर्बिध अपासुक यावत न कल्पे अर्थात् इस रीति से साधको आहार न लेना इस पाठ के देखने से तो श्री वीतगग देव वायु काय की दया कही गृहस्थी मुनि को बीजना आदि से लेकर मुख से फूंक लगाय कर मुनि को देवेतो साधु को नहीं कल्पे कदाचित कोई खुले मुख से कोई बोलकर मुनि को अक्षणाधिक चतुर्विधि आहार देवेतो सुख करके ले अब जो कोई ऐसा कहते हैं कि खुले मुख से बोले तो वायुकाय की हिंसा
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________________ - - कुमतोच्छदन भास्कर // [27] होती है तिसको बुद्धि पूर्वक विचार करना चाहिये कि जो दातार अर्थात् देने वाला पृथ्वी पानी आदिक जीवों के विराधना अर्थात् संघटा करले तो देने वाला असूजता होजाता है फिर उसके हाथ से साधु आहार आदिक नहीं लेतो खुले मुख बोलके मुनि को दान देवे तो दातार असूजता क्यों नहीं होय सोतो नहीं होता क्योंकि उघाड़े मुख बोलनेवाले के हाथसे भी साधु आहार लेते हैं कदाचित्त कोई हटवादी ऐसा कहे कि हम नहीं लेते यह बात कहना उसका असंभव है क्योंकि देखो एक हाथ में तो बरतन है और दूसरे हाथसे बहराता है अथवा दोनों ही हाथोंसे कोई चीज बहराता है और दूसरी चीज की निमंत्रणा करता है इसलिये यह जो तुम कहतेहो खुले मुख बोलनेसे वायुकाय की हिंसा होती है यह कहना ठीक नहीं जो उघाडा मुख बोलनेसे वायुकाय की हिंसा होती तो जिसे फंकमारकर आहार साधु को लेना मना किया वैसेही खले मुख बोलने वाले के हाथ से आहारादि लेना मना करते इस बातको बुद्धि पूर्वक देखो मिथ्यात को क्यों पेखो दूसरे देखो इसी रीतिसे श्रीदसर्वकालक अध्येन 8 में वायुकाय की हिंसाके वास्ते पाठ लिखा है सो भी दिखाते हैं पाठः टालियंटेणपत्तेणं साहाविहुणेणवा नवीएज्ज अप्पणो कार्य वाहिरंवाविपुग्गलं॥ ___ अर्थः-बीजना अर्थात् पंखा अथवा पत्र अथवा वृक्षकी शाखा अर्थात डाली करके ना बायरो करे अपनी काया अर्थात् शरीर को अथवा ऊना पाणी तथा दुध ऊपरकी लिखी बातोंसे ठंडा करके नहीं पीवे इस रीतिस वायकाय की दया अर्थात् हिंसा में श्रीवीतराग देव मने किया परंतु खुले मुख बोलनेसे तो वायुकाय की हिंसा कहीं नहीं तो फेर तुम्हारा कहना कोंकर बनेगा कि खुले मुख बोलने में वायकाय की हिंसा होती है इसलिये हे / - - - -
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________________ [28] जैन लिंग निर्णय // भोले भाईयो ! कुछ बुद्धि का बिचार करो और वायकायके मध्य देखना होय तो इसी दसबैकालक के चौथे अध्येन में देखो मिति को मत पेखो जिन आज्ञा का करो लेखो और भी हम तुमको दिखाते हैं कि जो तुम लोग कहतेहो कि उघाडे मुख बोज नेमें वायुकाय की हिंसा होती है जिनमें तीन पाठ तो हम तुम्हारे को दिखाय चुके कि खुले मुख बोलने में वायकाय की हिंसा नहीं फिरभी चौथ पाठ में दिखाते हैं श्रीनसीत सत्र अध्येन१७ उद्देशा प्रश्न 255 में दिखाते हैं:- जे भिक्षु अच्चुसिणं असणंवा मुखेणा घिहुणेणवा तालियंटेणवा पत्तेणवा पतभंगणवा सहाएणवा सहाभंगणवा इतादिमाहटु दिजमाणं पडिग्गाहोइपडिग्गाहंनंवा साइजइ॥ अर्थ- जो कोई साधू साध्वी अति उष्ण अर्थात गरम ( करके अशनादिक चार प्रकार का आहार अथवा पानी मुख ताता) फंक देवे अथवा पंखा करके अथवा कपडा करके अथवा पत्ता करके अथवा पत्ताके टुकडा करके अथवा शाखा करके अथवा शाखा का एक देश सेती शीतल करे अथवा मुख की फूंक देकर शीतल करे और शीतल करके अशनादिक लेवे अथवा लेनेवाले को मनमादे अर्थात् अच्छा जाने तो लन्धु चौमासी प्रायश्चित आवे इसी रीति से आचारांगजी मध्ये जो कोई वायुकाय की हिंसा निमित्त पंखा आदिक से अथवा मुख से फंक लगाय करके साधु को अशनादिक दे कदाचित माधुले तो साधू को सावीद लगे जो साधको सावीद लगे तो मुनि को प्रायश्चित आवे ऐसा नसीथ सत्र में कहा है इस बात को बिचारो कु गुरू का संग निवारो समगत सेली धारो जिससे होवे कल्याण तुम्हारो मोपत्ती बांधने की खेंच को हिदे से डारो क्योंकि देखो जो तुम मोपत्ती अष्ट पहर मुख पर बांधतेहो तो उसमें रखनेसे थक से आली मोपत्ती हरदम रहती है उम आलेपनों में छमोईम पंचेन्द्री मनष्य पैदा - - -
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________________ कमतोच्छेदन भास्कर // [21] असंख्यात होते हैं और अंतर मुहुर्त में मरजाते हैं उनकी हिंमा तुमको लगती है सोही दिग्वाते हैं कि पन्नयणासूत्र में पाहले पद में कहा है सोही दिखाते हैं: सेकिंतमनुस्सा मणुस्सादुविहा पणत्तासमुछिछ ममणु. स्साय गभकतियायमणुस्ताय सेकिंतंसमुछिछम मणुस्माकहिणं भंते समुछिछ मम्णुस्तासमुछितिगोयमाअंतोमणस्तखेत्तेपणया लिसायजोयणसहम्ससु अढाइजेसुदिवस्ससमुद्देसुपण रस कम भूमीसुतीसाय अकम्मभूमीसु छप्पणायअंतर दिवएस गमक कंतिय मणुस्साणं चेव उच्चारेसुवा 1 पासवणेसुवा 2 खेले / सुवा 3 संघाणेमुवा 4 वतेसुवा 5 पीत्तेसुवा 6 पूयसुवा 7 सोणीयसुवा 8 सुक्कसुवा / सुक्कपुग्गल परिसाडेसुवा 1. धीग यजीवकलेवरेसुवा 11 इथ्थिपुरीससंयोगेसुवा 12 नगरनिधव णेसुवा१३सव्वसुचेवअसूइठाणेसुवा१४४थ्यणं समुछिममणुस्सा समुथ्थंति अंगुलस्सअसखिज्जभागमित्तिए ओग्गहणाएअस न्निमीछादिठीसव्वाहिं पज्जतीहिं अपत्तगामंतोमहुत्त युया चेवकालं करेति सेतसमुछिछममणुस्सा // ___अर्थ-से कहता कैसा मनुष्य ? मनुष्य दो प्रकार के होते हैं छमोर्छम मनुष्य दूसरा गर्भज मनुष्य से कहता है पूज्य स्वामी छमाछम मनुष्य किसको कहना चाहिये और कहां उपजता है जब भगवत कहते हुवे कि हे गौतम मनुष्य क्षेत्र में पैंतालीस लाख जोजन अर्थात् अढाई द्वीप समुद्र में पंदरह क्रम भूमि तीस अक्रम भूमि छपन अंतर द्वीपके विषय जो गर्भज मनुष्य के मलमूत्र आदि में उपजते सोई देखते हैं 1 भष्टा 2 पेशाब (लघूत नाड़ाछोड़ ) में 3 मुख के मेल खंखार ( थूक ) 4 नासिका का मैल अर्थात सेडे में 5 बमन अर्थात् उलटी होने में 6 पितका लेपी लेपडते हैं * पसीना के विषय 8 लोही के विषय 9 वीर्य के 10 सखे मनुष्य के पुदगल में भीजने से जीव रहते अर्थात् मरे मनष्य के पुदगल में स्त्री और पुरुष के
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________________ [ 3.] जैन लिंग निर्णय // संयोग से दोनों के रुधिर और वीर्य भेला होने से नगर के रस्ते अर्थात् शहरोंको मोरीमें औरभी अनेक तरह के अपवित्र स्थान अर्थात् सर्व जगह मनुष्योंका अशुचि स्थान अपवित्र सर्व जानलेना ये चौदह बोलतो गिनाये हैं औरभी अशुचि स्थान सर्व जानलेना इन सब में छमोबम मनुष्य उत्पन्न होते हैं और उन मनुष्यों की देह अंगुल के असंख्यात 3 भाग प्रमाण होती है असनी अर्थात् मनकर के रहित मिथ्या दृष्टि होते हैं और उनका शरीर पर्याप्ता अंतर मुहर्त के आयुखावाले होते हैं ये छमालम मनुष्य पंचन्द्री होता है ऐमे सर्वज्ञ देव वीतरागने अपने केवल ज्ञान में देखातो इस पाठ के देखने से जो सदा मुखपत्ती मुख पर बांधे रहते हैं उनके थकादिक मुखके मैलसे भीजाती है सो उसमें पंचेद्रिया जीवकी हिंसा लगती है वोही बांधने वाले को लगती है इसलिये मुखका बंधन छोडो क्या जैन धर्म को भंडो कुमती को क्यों मंडो इस प्रमाण को सुन मुखबांधने वाले कहने लगे कि आपने प्रमाण दिया सोतो ठीक है परंतु मुख की भाफ गरम है. जिम्से जीवकी उत्पत्ति नहीं होती तब मिद्धांती साक्षी देने वाले कहते हैं कि भोदेवानप्रिय! मति कल्पना को छोडे। कु गुरुका संग तोडो सगरू की बाणीको हिदे में जोडो क्योंकि देखो श्री वीतराग सर्वज्ञ देवने तीन प्रकार की योनि कही है सोही दिखाते हैं पाठः समुछिममणुस्साणभंतीकसितजोणि ओसणाजोणी सीतो सीणाजोणी गोयमा तीवीहाजोणी सूत्रपन्नवणापदपहिले मध्ये देखो ____ अर्थः-श्री गोतम स्वामी पूछते हुए कि हे पूज्य छमोछम मनुष्य की शीत अर्थात् ठंडी जोनी है अथवा गरम जोनी है अथवा कुछ शीतल कुछ गरम जोनी है तब श्री महाबीर स्वामी कहते हुए कि हे गोतम तीनों जोनी के छमोछम उपजते हैं इस कहने से तीनों जोनी ठहरी तो हे मुखबांधनेवालो तुम्हारी महपत्ती का -
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________________ कुमताच्छेदन भास्कर // - बांधना और मुखकी भाफ लगना उनदोनोंका इकट्ठा होना इन तीनों जोनी के भीतर अथवा चौथी कोई और जोनी है जो वीतराग की कही हुई तीनों जोनी है तो तुम्हारे को तो पंवेन्द्री मनुष्य की हिंसा लगती है इसलिये इस मुख बांधने को तजो जिन आज्ञा को भजो लौकिक विरुधसे भी कुछ लजो क्योंकि मुख बांधना लोगों में अच्छा नहीं लगता क्योंकि बिहावना अच्छा नहीं लगता है इन बातों को सुनके मुखबांधने वाला चौंक कर बोला कि तुम मुखबांधना तोते की तरह टेंटें करते हो मुखतो अच्छी चीजका बंधता हे कछखोटी चीज का नहीं उत्तर- भोदेवा. नुप्रिय! इस्से मालूम होता है कि तेरेको विवेक शून्य बुद्धि विचक्षण प्रत्यक्ष अनुभव विरुद्ध अज्ञान भराहुआ बचन बोलता है क्योंकि देखो हम तेरेको लौकिक प्रत्यक्ष दिखाते हैं सो आंख मीचकर बुद्धिका विचार कर बाह्य नेत्रोंसे देख कि जो अच्छे अच्छे पकवान मिठाई आदि नानाप्रकार की वस्तु हलवाई लोग बाजार लगाकर थालों में जमाकर रखते हैं और जो निरस चीज है उसको दबा देते हैं इसरीतिस सराफ लोग भी रुपे पैसे सोना चांदी जवाहिरात आदि सर्व चीज उघाडी दुकान पर लगाते हैं और उन अच्छी अच्छी चीजों को देखकर ग्राहक लोग उनके पास जाते हैं इसी गति से बजाज भी अच्छे 2 कपडे चमकदार भडकदार बकचो में से खोलकर वायरा लगाते हैं इसी रीतिसे परचनी बिसायती दुकानदार आदि सर्ब कारवाले अच्छी 2 चीज खोलकर रखते हैं और जो निरस अथवा खोटी चीजों को सब कोई छिपाते हैं बांधते हैं सोही दिखाते हैं किसके मगज में कीडे आदिक पडे र और पीनस का रोग हो तो वह मनुष्य अपनी नाक को ढांके हुए रहता है क्योंके उसकी नासिका से दुर्गंध आती है इसलिये यह नासिका बांधता है अथवा किसीका होठ आदिक फल जावे अथवा दांतों में कीडा पडे मसूडे फुले अथवा होठ सुफेद होजाय | घाव होजाय वा कटजाय अर्थात लोगों को देखने से बुरा लगे वो
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________________ [32] जैन लिंग निर्णय // मनुष्य अपने ऐब दबाने के वास्ते बांधता है वा ढकता है इस / रीति से किसी के घाव फोडा फुन्सी गुमडा आदि होते हैं उसी जगह पट्टी बांधी जाती है क्योंकि उस खन राद होनेसे दुगंध निकलती है इसलिये उसको पट्टीसे बांधते हैं परंतु अच्छी जगह पर कोई नहीं पट्टी बांधता है तीसरा और भी सुनो कि जो मुर्दे आदि का शरीर है उसको हिंदू वा मुसलमान सबकोई ढांककर अर्थात् दबाकर लेजाते हैं और जब विवाह आदि होता है तब बींद बोंदणी वा लाडा लाडी वा दुल्हा दुलहिन उनको सबकोई अच्छे 2 कपडे व जेवर आदि पहराय कर बाजारों में व गलियों में हाथी घोडे पालखी तामजाम आदि अनेक सवारियों पै खुले हुवे लेजाते हैं कोई उनको ढककर नहीं लेजाते हैं चौथा और भी सुनो कि जो महतर भंगी आदिक पाखाना साफ कर मैला उठायकर ले जाते हैं वेभी उस मैले को कचरा चारा खोडी से ढांक कर ले जाते हैं अथवा गृहस्थी के बालक आदि झाडे जाते हैं उसको भी राख गेर कर ढांक देते हैं अथवा कोई म्लेच्छ आदि बुरी वस्तु को बाजार आदि में ले जाते हैं तो वोभी ढांक कर ले जाते हैं इसलिये हे भोले भाईयो जो तुम लोग कहते हो कि अच्छी चीज का मुख ढोका जाता है मो ऊपर लिखे प्रत्यक्ष प्रमाणों से अच्छी चीजका बंधना नहीं बने किंतु खोटी का ही बांधना बनता है इसलिये कुमति को निवारो सुगति को सम्मोरो मनुष्य जनम मत हारो संगत सेली को धारो ये मानो बचा हमारो छोड़ो कुगुरु कोचारो कुलिंग कू छोड़ कर सुलिंग कू धारो जिस से होय तुम्हारो निस्तारो इस बात को सुनकर मुंह बांधने वाला कहने लगा कि आप कहते हो सो ठीक है परन्तु वायुकाय की हिंसा नहीं होती तो मुपत्ती किस वास्ते कही है? उत्तर भोदेवानु प्रिय! हमने तुम्हारे को सूत्र का पाठ लिख कर दिखाया तो भी | तुम्हारी समझ में न आया नाहक झगड़े को मचाया तुम को | कुगुरू ने कैसा भरमाया हमने इतनी तुमको युक्ति और प्रमाण बत
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________________ कुमतौछंदन भास्कर // [33 ] परंतु तुम्हारी समझ में किंचित भी न आया हे भोले भाइयो शास्त्रों में आठ प्रकार की बर्गना कही है सोही दिखाते हैं 1 उदारिक वरगना 2 वेकीय वरगना 3 आहारिक वरगना 4 तेजस वरगना 5 भाषा वरगना 6 उसास वरगना 7 मन वरगना 8 कारमान वरगना ये आठ वरगना में से चार तो बादर अर्थात् मोटी है और चार अर्थात् भाषा , स्वास 2 मन 3 कारमान 4 ये शक्ष्म अर्थात् छोटी बरगना है पहले की चार बरगना में बीस गुणपाते हैं पांच बर्ण 5 रस 2 गंध 8 स्पर्श ये बीस गुण उदारीक विक्रये आहारीक 2 तेजस मेंपामे इसलिये इनकू बादर अर्थात् मोटी कही और पांच रस 5 वर्ण 2 गंध 4 स्पर्श ये सोलेगण भाषा 1 उश्वास 2 मन 3 और कारमान 4 सोले गुण पामे इसलिये इनकं सदन अर्थात् छोटी बरगना कया इस वास्ते बुद्धिमान आत्मार्थी विचार करना चाहिये कि वायकायका जीव उदारिक शरीर वाला है सो उदारिक वरगना से बनाया है सो उसमें आठ स्पर्श है और भाषा बरगना में चार स्पर्श है तो फेर भाषा से वायुकायकी हिंता होती है ये बात बुद्धिमानोंकी बुद्धि में असंभव है क्योंकि आठ बर्ष के बालकको चार बर्ष का बालक नहीं मार सके इमलिये कुछ बुद्धि का विचार करो पक्षपात को परिहरो मिथ्यात्व को पुष्ट मत करो जैन लिंग को धारण करो अन्य लिंग को परिहसे हम तो कहने वाले आगे मरजी तुम्हारी इसपर अख बांधने वाले कहते हैं कि भाषा बरगना चोफर्सी है परंतु होठों से बाहर शब्द अटफर्सी होजाता है इसलिये वायुकाय की हिंसा कहते हैं अरे भोले भाइयों होठों से निकलकर भाषा परगना का शब्द अठर्स होजायगा ऐसा किमी सत्र में लिखा है तो हमको भी बतलाइये क्यों नाहक बुद्धि विकल जतलाई है क्यों अपनी आपही हंसी कराई है सत्र के परमाण बिन अटफर्सी बताता तब महपत्ती बांध करके वायुकाय को हिंसा | क्योंकर बचाई कदाग्रह कू छोडो कुछ समझोरे भाई क्योंकि देखा।
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________________ [34] जैन लिंग निर्णय // | श्री उत्तराध्येनजी अध्येन 36 वामें गाथा 11 में लिखा है सो पाठ दिखाते हैं। .. जददुःखंभरेउजे होयबायस्सकोथले तहादुखकरे उजे कीवेणसमणतणं // 1 // अर्थः-जैसे दुख करके भरवोजो होय बायरे का वस्त्र की शैली अर्थात् कोथला में न भराय तैसेही संजम पालना भी मंद संघेन अर्थात् कायर पुरुषों से यतीपना पालना बहुत मुशकिल है इस कहने से मालुम होता है कि बादर वायु वस्त्रों के कोथले में नहीं भरी गई अर्थात् न रुको तो तुम्ह री मुहपत्ती एक तरफ बांधने से और तीन तरफ खुली रहने से क्योंकर स्कसक्ती है क्योंकि कोथला चारों तरफ से बंद है इसलिये तुम्हारे कहने से ही मालुम पड़ता है कि होठोंसे बाहर निकली अटफर्सी होजाती है तो वायुकाय की हिंसा क्योंकर बची जब मुहपती बांधना भी न जची लौकीक में विरुद्ध और जिन आज्ञा विपरीत मुख बांधनेसे भी वायुकयकी हिमा लगली रही ये तुम्हारी मनोकल्पित तरक सूत्र के परमाण से बहीं अरे भव्य जीवों मानो तो हमारी कहीं हमने कितनी देखाई सूत्रों की सही अनुमान ( 1712) वर्ष पीछे जैन धर्म से बिरुद्ध मुखपर मुहपती बांधना ये बात चली नहीं छोडो वा मत छोडो हमने तो करुणा कर इतनीशिना कही मानो तो होगा कल्याण समझो ये बात सही इतनी बात सुन कर मुहपत्ती बांधने वाले हटग्राही बालकों कीसी तरक करके कहते कि आप सब कहतेहो परंतु बुद्धी का विचार नहीं करते क्योंकि देखो जिसवक्त में गोतम स्वामी गोचरी को गयेथे उस वक्त यवन्ता कुमार ने गोतम स्वामीजी की उंगली पकड़ के अपने घर बहराने लेगया और वहां से लाडू बहराय कर श्री गोतम स्वामी के साथ उंगली पकड़े हुवे साथ में चला और रस्ते में कहने लगा कि हे स्वामी नाथ आप के पास झोली में बोझा बहुत है सो मेरे को दे /
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________________ कुमतोच्छे इन भास्कर // [35] दीजिये में ले चलूं उस वक्त में श्री गोतम स्वामी ने समझाया उस वक्त एक हाथ में झोली थी और दूसरे हाथ की उंगली देवता कुमार पकडे था तो फेर मुंहपती किम जगह थी क्या वे उघाडे बोलते थे इसलिये क्यों हम को खोटी बात समझाते हो अपनी बात को गमाते हो पकडी टेक हमारी को छुड़ाते हो इसी में हमारा मुख बांधना सिद्ध होगया उत्तर भोदेवान प्रिय! हम को मालम हुवा कि मिथ्यात्व रूप प्याले की तुमने घुटकी लीवी अरे भाई बाह का विचक्षण रणा छोड़ हृदय नेत्र को खोल मिथ्या वाक्य मत बोल सूत्र के अर्थ को तोल जिस से मिले तुझ को जैन धर्म अमोल क्यों कु गरु के बहकाने से होता है डावां डोल अब हम तेरे को समझाते हैं कि देखा अब्बल तो शास्त्रों में कहा है कि साधु रस्ते चलते बोले नहीं क्योंकि रस्ते चलते बात करे तो इरिया समती न बने क्योंकि एक समय नथी दो उपयोग इसलिये रस्ता की बात तो तुम्हारी सिद्ध न हुई अब दूसरी सूनो कि जिस रीति से ढूंढिया लोग गोचरी को जाते हैं और हाथ में झोली को पकड नीचे को लटकाते हैं गृहस्थियों के घर में पात्रों को बखेर अपनी दुकान को लगाते हैं साधु आहार गृहस्थी को दिखाना भगवत ने मने किया परंतु ये तो घर घरमें दिखाते हैं ऐसा श्रीगोतम स्वामी थोडाही करते थे क्योंकि वे तो आत्माअर्थे जिन आज्ञा आराधक प्रथम गणधर सब में प्रधान परवर जिस. रीति से साधु के चउदे उपगरण कहे हैं उसी रीति से रखते थे और झोली में पात्रा रख ढूंढियों की तरह नहीं लटकाते थे कोनी और पोच के बीच में झोली को अटकाते थे ऊपर से पटला पटकाते थे गहस्थियों को अपना आहार नहीं देखात थे इस रीति से गोचरी को जाते थे इसी रीति से जो यवंता कुमार ने एक हाथ की उंगली पकड़ी तो जिस हाथ में झोली लिये हुये थे उस हाथ में मोहपत्ती होगी क्योंकि अंगूठा और टंगली खाली रहती है क्योंकि साधुओं की झोली कोनी ओर पोंचे के बीच में रहती है तो तुम्हारे को क्योंकर संदेह
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________________ [36] जैन लिंग निर्णय // हवा कि मुहपत्ती किम जगह थी दूसरा और भी सुनो कि जिस हाथ की उंगली यवंता कुमार ने पकडी उस हाथ की उंगली में मुहपत्ती रखे तो क्या हरज है क्योकि जिस हाथ में मुहपती थी उस हाथ की उंगली यवंता कुमार पकडे रह्या और झोली वाले हाथ से मुख को आच्छादन करके उम को खड़ाहो जवाब दीना होगा इस लिये तुम्हारी तरफ न बनी तीसरा और भी हम तम को दिखाते हैं भगवती सूत्र शतक 2 उद्देशा५ बताते हैं तुम्हारी खोटी तरक को उडातेहैं श्री गोतमस्वामी के आचार को दिखाते हैं पाठः-तएणसेभगवंगोयमे छठखमणपारणंगास पढमाए पोरसीए सझायंकरेइ वीयाए पारसीए झाण झीयाएं ीयाए पोरसाए अतुरीय मचवलमसंभंते मोहपोतियं पडिलहि 2 त्ता भायणायं बथ्थाइ पडिलेहइत्ताभाइणायं पमज्जइ 2 त्ता भाषणाय ओग्गाहेइ२ ना जेणवसमणे भगवमहावीरे तेणेव अोवागछइ 2 तासमणंभगवमहावीर वंदइ नमसइ एवंवयासी अर्थ:-तिसके बाद भगवान श्री गोतमस्वामी बोले अर्थात दो उपास के पारने के दिन पहिली पोरसी में सझाय करते हुवे ओर दूसरी पोरसी में ध्यान कीया और तीसरी पोरसी में उतावल अत् चपल पणा रहेत समता करके सहेत मुख वस्त्र कापड लेह करके भाजन अर्थात् पात्रा प्रमुख और वस्त्र पडलेह अर्थात् प्रमार्जन करके जिस जगह श्रवण भगवान श्री माहावीर स्वामी थे जिस जगह जाय करके श्रवण भगवान श्री माहावीर स्वामी को बंदा नमस्कार करके ऐसा कहते हुवे इस पाठसे मुहपनी पूंजनी अर्थत पडीलहण करनी तो कही परंतु खोलनी बांदनी न कही और आठ पड़ बनाकर डोरा बीचमें घाल कर बांधना न कह्या फेर न मालम सत्र के बिना आठत करना और मंडे पै बांधना ऐम चलाया हमकुं इस बातपे आश्चर्य आया हमने तुम्हारा कुछ म बन पाया तुमने जाने क्या नफा उठाया नाहक क्यों जिन
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________________ - - - - कुमतोच्छेदन भास्कर // [3] धर्म को लजाया अभी जिन धर्म का असल भर्म न पाया जेन लिंगसे अनलिंग को बनाया अजान स्त्री और बालकों को डराया गांव में घुसते वक्त कुत्तों को भुसाया जैन आचार्यों के किये हुवे ओसवाल पोरवाड़ जैनियों को जाल में फँसाया तुमतो डुबे और उन्हों को क्यों डुबाया अनुमान ढाईसे वर्ष से पाखंड मचाया जैमी तुम्हारी क्रिया थी तैसाही ढूंढक नाम पाया मिलना जैन धर्म इससे ढूंढ्या कहलाया इसलिय हे भोले भाई इस हट कदाग्रह को छोड मिथ्यात्व से मन मोड़ शुद्ध जैन धर्म को अंगीकार कर के अपने कल्याण को करो जैन धर्म में मुख बांधना नहीं किन्तु साँख्य मत के भेदमें बीटा मत के संन्यासी लोग काष्ट की मोहपत्ती से मुख बांधते थे सो उन्हीं के मत में बनारसी नगरी का सोमल ब्राह्मण पेश्तर सोमल ब्राह्मण ने श्रीपार्श्वनाथ स्वामी के पास, पांच अनुवात्ति और सात सिक्षावृति लेकर श्रावक वनाथा सो कितनेही दिनके बाद अनुवृतिदी छोडकर मिथ्यात में भमण कर संन्यासपणा लिया फिर रात्रि के समय मनमें बिचारा और सवेरे सर्व संन्यासियों से पछ कर काष्टकी मोहपत्ती बांधकर उत्तर दिशा को गया भौर रात्रि के समय देवताने दुष्ट प्रविर्जा अर्थात् खोटी प्रवृत्ति कही फिर समझाकर मोहपत्ती दूर कराय कर श्रावक का व्रत धराय कर देवता पीछा गया सो पाठ निरीयावल का सूत्र में दिखाते हैं परंतु जब मोहपत्ती बांध कर उत्तर दिशा में गया वहांमे दिखाते है ग्रंथ वढजाने के भयसे पहिले का पाठ नहीं लिखते हैं तुम्हारे कल्याण होने के वास्ते हमतो तुम्हारे के। बहुत समझाते हैं। पाठः कल्लंजावजलंते बहवेतावसेय दिहाभट्ठयपुत्वसंगति एय तंजाव कठमुद्दाए मुहबंधितिरत्ता अयमेयारुवे अभिग अभिगिणहति जथ्थेष अम्हंजलसिया एवंथलंसिवा एवंदुग्गं निपव्वयंविसमंसिवा इगझाएवा दरिएवा पखलिज्जएवा पविडिजवा नोखलु मेखप्पति एउचुहित एतिकडु अयमेयारुवे आभिगई अभिगिण्हेति उत्तरायदिसाय उत्तराभिमुहपथ्थाणं |
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________________ [38] जैन लिंग निर्णय // तएणंसेसोमिलेमाहणरिसी पव्वावरणहकालसमयांस जेणेव असोगवरयायवे तेणेवउवागए असोगवरपायवस्स प्रहकहिणं संकाइयंहवेतिर वेदिवेढेए२ उबलेवणंसमजणंक रेति 2 दभ्भ कलस्सहथ्थगए जेणेवगंगामहानह जहांसीवोजावगंगाउमहा नइ पच्चुत्तरति जेणेवअसोगवयपायवे तेणेव उवागए दभ्भे हियकृसेहिय वालुयाए वेतिरति वेदितित्ता सरगंकरेतिरजाव वलिंवंतिस्सदविकरतिर कढमुदाए मुहबंधनि तुसणीयसंचिहाइ तत्तेणंतस्ससोमिलस्त माहणरिसीस्स पृथ्वरत्तावरतकालसम यंति एगेदेवेअंतिए पाउभए तत्तेणंतससोमिलरीसिस्स एवं वयासी हंभोसोमिलमाहणपवइया दुपवइतए तत्तेणंसोमिले तस्तदेवस्सदोच्चंपितच्चपि एयमहनोअढायतीनोपरि जाणति जावतुसिणीएसंचीहति तत्तेणसेदेवेसोमिलणं माहणरीतीणा आणाढायमाजमाणे जामेवदिसिभामोभूए तामेवदिसंपडि गए / तत्तेणं सोमिलोकल्लं जावजलंते वागलवथ्थ नियथ्थेकढि णसंकाइयं गहियगहिताहथ्थे भंडोव करणे कमुहाएमुहबंधतिर उत्तराभिमहेसंपश्थिति तत्तणंसेसोमिलेवितीयदिवससि पूना वरणहकालप्समयंसि जेणेव सत्तिवन्न अहेकढिणसंकाइयं हवेतिर वेदिवढेति जहाअसोगवरपायवे जावअग्गिहुणति कट्ठमुद्दाए मुहबंधितिरतुसणिएसचिटइत्ता तत्तेणंतस्ससोमिलस्स पूवर ताविरतकाले एगेदेव अंतिलिखपडिवन्ने जहाअसोगवरपायवे जावपडिगयेरततेणंसोमिलेकल्लंजावजलंते वागलवथ्थानिय कढिणसंकाइयं गेण्हति रकमदाए मुहबंधतिरत्ता उत्तरदिसाए उत्तराभिमुहेसंपथिते ततेसोमिले ततियदिवसंसि पुठवावर णकालसमयंसि जेणेवअसोगवरपायवे तेणेव उवागछइस्त्ता अहे काढणमंकाइयंठवेति वेढइजावगंगामहानइय पच्चुत्तरंति त्ता२ जेणेव असोगरपायवे तेणेव उवागछइरत्ता वेदिरयतित्ता जावक मुद्दाए मुहबंधतिरत्ता तुसणिएसचिठंतिरत्ता / ततेणं सोमिलस्लपूवरत्ता वरत्तकाले एगेदेवेअंतंतंचेवभणति जावप
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [39] डिगएततेणंसोमिलेजावजलंते वागलवथ्थकिढिण संकाइयं जाव कमदाए मुहबंधइ उत्तराएपथिए ततेणंसोमिले.च उथे दिवसे पल्वावरणहकानसमयास जेणेवबडपायवेरतेणेव उवाग छह२ त्ता वडपायवस्सअहे काढणसंकाइयंटवेति वेहिवेहति उवलंवणंसमज्जणं करोति जावकमुदाए मुहबंधतिरत्ता तुप्तीणीयसंचिहइ ततेणसेस मिलस्स पुठवरत्तावरतकाले एगेदेवे अतियंपाओभएतंचेवभणंति जावपडिगएततेणंसोमिलेजाव जलंतेवागलवथ्थनियथ्ये कढिणसंकाइयं जावकहमदाए मह बंधइरत्ता उत्तरापदिसाए उत्तराभीमुहेसंपथितिरत्ता ततेसो मिले पंचमदिवसंसि पुत्वावरणहकालसमयंसि जेणेव उवरपाय वस्त अहेकठिणसंकाइयं ठवेति वेदिवेदेति कमुद्दाएमुहवंधति जावतुसीणीए चिट्ठति ततेणं तस्ससोमिलस्समाहणस्त पुवर त्तावरत्तकालसमयसि एगेदेवेजावएवंवयासी // हंभोसोमिला पवाए दुपवइएतेजहापढमभणतितहेवतुसीणीए संचिद्वंति देवोवोच्चपि तिच्चपिसोमिलापव्वइया दुपवइया ततेणंतस्त सोमिलस्स तेणंदेवेणं दोच्चंपितिच्चपि एवंवृत्तासमाणे तेदेवे एवंवयासी कहणंदेवाणुपिया ममंदुव्वइया ततेणसेदेवे सोमिलं माहणं एवंवयासि एवंखलुदेवाणुपीया तुमेयासम्स माहोपुरु सादाणियस्स अंतियपंचाणबइते सत्तसिखावए दुवालस्सविह स्त सावगधम्मे पडिवन्ने ततेणंतस्स अन्नयाकयाइ असाहूदं सणेणं जावपडिवजइ पुवरतंकुटुंबजावपुलवचिंततो देवो उ च्चारेति जावजेणेवअसोगवरपायवे तेणेव उवागए कठिणसं काइयं जावतुसिणिएचिट्ठति ततेपुठवरत्ता वरत्तकालेतवअं तियंपाउभ्भावामिहंभोसोमिला पव्वइया दुरवठवइते तहेचेव देवाणियभणति जावपंचमदिवसंसि पुवावरणहकालसमयसि जेणेव उवरपायवे तेणेव उवागते कहिणसंकायंवेति जाववे दें वेदेति उवलेवणंसंमज्जणंकरोतिरत्ता कहमदाएमहबंधइबंधित्ता तसीणीयसचिठंतितं एवंखलदेवाणपीया तवदपवियं ततेणदेवे
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________________ [4.] जैन लिंग निर्णय // सोमिल एवंवयासि जहणं तुम्मदेवाणुप्पिया इयाणिपुठवपडि पाइ पंच अणुव्वया सत्तसिखावयाई दुवालस्सविहं गीहंधम्म सयमेव उवसंपज्जिनाणं विहरतितोणतुम्हंइंदाणि सुपवाइयं भविज्जा // ततण सलोमिलेमाहणारिसि तेणं देवेणं अतियंएय महं सच्चापव्वेषडिवन्नाइं पंचाणुव्वयाई जावसयमेव उवसंप जिजताणं विहरति ततणसेदेवेसाठवइयं पडिपन्नेजाणित्ता तंदेवेप्लोमिलाइनमसति जामेवदिसंपाओभया तामेवदिसंप डिगया ततेणंसोमिलं माहणरिसि तेणं देवेणं एवंवृत्तासमाणे पुविपडिवन्नाइ पंचअणुवयाइ सयमेव उवसंपज्जित्ताणविह रति ततेणसोमिने बहुहि च उधमजावमासद्धमासखमणे हिंविचतेहिं तबोवाहाणेहिंविचतेहिंअप्पाणंभावेमाणे वहूहिवा साहि समोवासगपरियाई अद्धमासियाए सलेहणाए अत्ताण भसतिरतीसंभत्ताइ अणसणाएछदित्ता तस्सहाणस्स अणालो इए अपडिक तेवीराहिये सम्मतेकालमासेकालेंकिच्चासकपर्डि सए विमाणे उववाएसभाए देवसयणिज्जसिजावतो उगाह ण ए सुक्के महागाहत्ताए उववणेततेणं सेसुकेमहाग्गहे अहणाव वन्नेसमाणे जावभासामणपज्जतिए एवंखलुगे हागणंसादिव्याजावअभिसमणागता एगंपलिमोवमंदिइस केणंभंते महाग्गहे ताउ देवलोगाउआउखएणकएणंकहिं गए गोयमा महाविदेहेवाससिझहिति एवंखलुजंबुसमणेणं निखे वेतनरयावलका सत्र मध्ये अध्येनजोइ ले जो॥ अर्थः- प्रभात समय जिस समय में सूर्य उदय हुवे के बाद बहुत तापसी अर्थात् संन्यासी लोगों की अनुमति अर्थात् आज्ञा लीनी बीटा मत के संन्यासी थे उनकी और अपनी निश्चय करके काष्ठकी मुंहपत्ती से अपना मुख बांधकर इस रीति का अवगह लेता हुवा कि जल के विष थल के विषे अथवा पहाड का चढ़ना अथवा पहाड़ से नीचे उतरणा अथवा बिसन अर्थात् खाड़ा आदि अथवा | गुफा आदि के विषे फिसलना अर्थात् डिगमगाकर पगादिक से
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________________ meo कुमतौच्छेदन भास्कर // [41] . पड़जाऊं तो निश्चय करके मेरे को उठना न कल्पे अर्थात् फिर वहां से नहीं उतूं ऐसा अपने मनको दृढ़ करके अवगह लेकरके उत्तर दिशा के सन्मुख चला फिर चलता 2 सोमल महर्षि सायंकाल के वक्त जिस जगह अशोक वृक्ष के नीचे अर्थात् हेटे आय करके काष्ठ की कुराड़ी थापी फिर वेदिका चार पादु करके गोबर से लीपी फिर बुआरीफेर करके दाभ (दर्भा) और कलश हाथ मे लेकर के जिस जगह गंगा मोटी नदी है तहां जाय करके प्रवेश किया और अपना सर्वकृत्य करके पीछा जिस जगह अशोक वृक्ष था उस जगह आता हुआ फिर उस जगह वेदी बांधी उस वेदी में शक्कर आदि सामग्री से होम किया और देव पूजन करके बाद काष्ठ की मुद्रा अर्थात् मुहपत्ती से मुख को बांध के चप होकर बैठा रहा तिसके बाद सोमल सन्यासी के समीप अर्ध रात्रि के समय एक देवता आय कर प्रगट हुवा और सोमल सन्यासी से कहने लगा कि भो सोमल ब्राह्मण तू प्रवज्या करके दुष्ट प्रवज्या खोटी है इस रीति से सोमल ब्राह्मणने उस देवता का दो तीन बार बचन सुना और उस देवता के बचन को अनजाना और चप होकर बैठा रहा कुछ जवाब न दिया तब वो देवता सोमल सन्यासी के उत्तर न आने से जिस तरफ़ से आया था उसी तरफको चलागया तिसके बाद सोमल प्रभात सूर्य उगने के बाद बल्कल का वस्त्र पहर काठकी कुराडी लेके और हायमें गड़ा आदि उपगरण लेकर काष्ट की मुद्रा से मुख बांधके उत्तर दिशा मुख करके चलता हुवा जिसके बाद सोमल ब्राह्मण महर्षि दूसरे दिन संध्या काल के समय जिस जगह से पुपानी वृक्ष के नीचे ठरहता हवा ओर उगरन आदि रख कर जिस रीतिसे पहिले दिन अशोकवृक्ष के नीचे आग्निहोत्रादि क्रिया करके काष्ट मुद्रा से मुख बांधके चुर होकर बैठता हुवा तिस के बाद सोमल महर्षि आधीरात के समय एक देवता आकाश के विषे खड़ा होके जिस रीतिसे अशोकवक्ष के नीचे कहा था उसी | रीतिसे दो तीन वार कहा कि हे सोमल तेरी प्रवज्या खोटी है।
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________________ - [12] जैन लिंग निर्णय / तोभी सोमल ने उसके बचन को न सुना तब देवता फिर पीछा चला गया तिसके बाद सोमल प्रभात समय सूर्य उगे के बाद बल्कल का वस्त्र पहन के काष्ट कुराडा आदि उपगरनों को हाथ में ले और काष्ठकी मुद्रा से मुख को बांधके उत्तर दिशाके सन्मुख चला तिसके बाद सोमल ब्राह्मण तीजे दिन संध्या के विष अशोक वृक्ष के नीचे आयकर ठहरा और जो क्रिया बेदी आदिक करके गंगा में स्नान किया फिर पहिले की तरह सर्व किया करके काष्ट मद्रा से मुख को बांध कर चप होकर बैठा तिसके बाद सोमल सन्यासी के पासमें आधीरात के विषे एक देवता आकाश में खड़ा रहा पीछे गया तिसके बाद सोमल प्रभातमें जब सूर्य उगा तिसके बाद बल्कल का वस्त्र पहर कर और भंड उपगरनादि लेकर काष्ट की मुद्रा सूं मुख बांधकर उत्तर दिशा को चला तिसके बाद सोमलऋषि चौथेदिन संध्याकाल के समय जिस जगह बड़ का वृक्ष था उस जगह आकर ठहरा और उपगरनादि रख कर जो क्रिया पूर्व करीथी सो क्रिया कर काष्टकी मुहपत्ती से मुख को बांधकर के चुपचाप होकर बैठमया तिसके बाद आधी रातके समय एक देवता पास आयकर प्रगटहुवा और पूर्व की तरह कहने लगा कि भो सोमल तेरी खोटी प्रवज्या है ऐसा कहकर पीछा चलागया तिसके बाद सोमल जब गर्य उदयहुवा के बाद बल्कलका वस्त्र पहरकर सर्व उपगरन लेकर काष्टकी मुद्रासे मुख बांधकर उत्तर दिशाके सन्मुख चला तिसके बाद सोमन सन्यासी पाचवें दिन संध्या काल के समय उंबर नाम दरखत उम जगह आयकर उस उंबर दरख्त के नीचे ठहरा और बेदी आदिक सर्व किया करके बाद काष्टकी मुद्रासे मुख बांध चूर होकर के रहा तिसके बाद उस सोमल सन्यासी के पासमें पहेली आधीरात बीतगई और पिछली आधीरात के समय एक देवता प्रगट हुवा और कहने लगा कि अंर सोमल तेरी प्रवृज्या खोटीहै इसी रीतिसे कहा तोभी चुप होरहा तिसके बाद उस देवता ने दो तीन वार कहा कि अरे सोमल तरी प्रवृज्या दुष्ट अर्थात्
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________________ - M कुमतीच्छेदन भास्कर // [43 ] खेटीहै इसरीति से कई दफै सुननेसे उस देवतासे सोमल कहने लगा कि भो देवोंके प्यारे किस वास्ते मेरी दुष्ट प्रवृज्या है तब देवता सोमलऋषि से कहने लगा कि निश्वय हे देवताके प्यारे तुमने श्री पारश्वनाथ जी अरिहंतदेव पुरुषों में उत्तम पुरुषहँ तिसके पास पांच भनवत्ति सात सिक्षा वृत्ति दोनो बारह प्रकारका श्रावक धर्म आंगिकार किया था तिसके बाद तैंने एकदा समय में असाधु के दर्शन कर के एक समय कुटुंबका विचार किया और बाग लगाया तथा मूंड मुंडाया अथवा मुख बांधा इत्यादिक पिछली सर्व बातें कहीं और अशोक वृक्ष के नीचे ठहरा तावत् मौन करके ठहरा तिसके बाद पहली आधीरात के समय तेरे पास में आया और प्रगट होकर के और सोमल तेरी प्रवज्या दुष्ट अर्थात् खोटी है ऐसा निश्चय देवता अपना बचन कहै यावत् पांचवें दिन मायंकाल के समय उंबर नाम दरखत के नीचे यावत् काष्ट मुद्रासे मुखपर बांधकर के तू मौन में रहा तिस कारण से ये निश्चय हे देवता के प्यारे दुष्ट प्रवृज्याहे ऐसा देवता सोमल से कहने लगा जो तेरे को हे देवताके प्यारे अभी पूर्व में जैसे वत अंगीकार कराथा तैसेही पांच अनुवत और सात दोनों बारह प्रकारका श्रावकका अंगिकार करके जो तू बिचरेतो तेरी फिरकर के भली प्रवृज्या होय ऐसा सुन के बाद उस सोमल ब्राह्मण ऋषिने उस देवताके समीप अथ सुनके पहिलीतरह अंगीकार किये क्या पांच अनुक्त सात शिक्षा व्रत आपही। अंगिकार कर बिचरने लगा तिसके बाद उस देवताने भली प्रवृज्या अर्थात् अच्छी जान करके उस देवताने सोमल को बंदना नमस्कार करके जिस दिशा से आया था उसी दिशा पीछा गया तिसके बाद उस सोमल ब्राह्मण अर्थात ऋषिने उस देवता के कहने से पिछली तरह से अंगिकार किये तिसके बाद को सोमल नाम ब्राह्मण बहुत वत बेला तेला यावत मास अथवा अर्ध मास आदि नाना प्रकार की तपस्या करता हुवा अपनी आत्मा को भावतो हुवा इस गीते लेबिचरता हुवा साधु का उपासक अर्थात् सेवक हुवा श्रवनोपासक aareemadAairahanaiamerammarAhearthamariawarseur विन
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________________ [4] जैन लिंग निर्णय // भयोत् साधु के व्रत समान श्रावक का व्रत पालता हुवा अर्धमास की संलेहणा सहित अपनी आत्मा बश करके दीक्षा पालता प्रमादादिक अन्न आलोइ अर्थात पहिले अयोगकिया था तिसको गुरु के पास आलोया नहीं अथीत् पाप से निवृत्ति नहीं काल करके शुक्रावंत शुक्रविमान के उपायान सभामें देवता संबंधी संध्या के विषे यावत् उंगल नो असंख्यातमो भाग शुक्र नाम देवता मोटा ग्रहपण उपजा तिसके बाद शक नाम मोटा ग्रह तत्काल निश्चय उप मने पर्याप्ता एक समय उपजे हैं गोतम इसलिये देवता पांच पजतीया कहा यह निश्चय. हे गोतम शुक्र नाम ग्रह ते देवता यारत् सन्मुख हुवा एक पल्यापम की स्थिति जिसकी उस वक्तश्री गोतम स्वामी पूछने लगे कि हे पज्य यह मोटा ग्रह देवलोक से आयु आयकर के कहां जायगा इस रीतिसे हे जंबू जिस रीति से श्रवण भगवान् कहा तिस रीति से मैं तेरेको कहता हुआ अब इस जगह भी सूत्र में अनुमति अर्थात् बीटामत वाले का मुख बंधन कहा परंतु किसी सत्र में जैन का साधु वा श्रावक मुख धांधके बिचरे ऐसा न कहा इसलिये हे भव्यप्राणियो! इस मोह निद्रा को छोड़ कर बुद्धि का विचार करो कुमति कदाग्रह को परिहरो अन्य लिंग को क्यों अंगिकार करो मुख बांधनेही से तुम्हारा प्रेम है तो जैनी नाम क्यों धरो क्योंकि जिस मत में जो आचारना होगी उस आचारनाकू तो आज्ञा देंगे परंतु अपने मत वाला दूसरे मत की आचारना को न अंगीकार करेगा और उस दूसरे की आचारना की आज्ञा कदापि न देगा किन्तु खोटी कह कर निरादर करैगा इसलिये जो जेन मत में मख बांधना होता तो वो तापसी अर्थात् संन्यासी लोग आज्ञा न देते और सोमल संन्यासी को उलटा बहकादेते इसलिये उन संन्यासियों का मुख चांधना अच्छा था इसलिये सामल संन्यासी को मुख बांधने की आज्ञा दी और वो सामल संन्यासी मुख बांधका उनर दिशा को चना तब उसका मुख बांधना खोटा जान कर बारह वत अंगिकार कराया उसका मुख वांधना
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [15] छुड़ाया हमने तुमको यह पाठ सूत्रका दिखाया पाया ना जैनधर्म | जब ढूंढिया कहलाया आपतो डबा कितनेही जैनी जातके को डबाया धारा कुलिंग जैन धर्म क्यों लजाया तुम्हारे समझावने के लिये जैन लिंग ग्रंथको बनाया हमारी करुणा रूपी तीरने तुम्हारे पाखंडको उड़ाया इस बातको सुनकर मुंहपत्ती बांधने वाला कहने लगा कि सोमल संन्यासी ने काष्ट की मोहपत्ती बांधी इसलिये उसको खोटी प्रवृज्या कही सो हमतो काष्ट की मोहपत्ती नहीं बांधते किन्तु वस्त्र की मुंह पत्ति बांधतेहैं इसलिये सोमल संन्यासीका दृष्टांत देकर हमको कुलिंगी बतलाते हो तुम हमकू कहने में कभी नहीं शरमातेहो हमकू बुरा बतातेहो नाहक झगड़ा मचातेहो अपनी विद्वत्तामें नहीं समातेहो इसलिये बुद्धिका विचार कर बोलो हम कहते हैं मुंहपत्ती है इसको भी बुद्धि में तोलो उत्तर भोदेवानु प्रिय हम शास्त्र अनुसार विचारकर कहते हैं कि उस सोमल संन्यासी के काष्ट की मोहपत्ती बारबार मुंह से बांधी बांधीने ऐसा पाठ कह्या परन्तु तुम्हारी वस्त्रकी मोहपत्ती के वास्ते डोरा डालकर बांधी वा खोली ऐसा पाठ सत्र में कहीं नहीं आया इसलिये हमने तुमको जिनधर्म के बाहर अन्य लिंग बताया सो हमकं ऐसा पाठ कहीं बतलाइये कान मेंसे डोराखोल कर मोहपत्ती पड़ी लेहीरत्ता कहतां मुंहपत्ती की पडि लहेणा करी क्योंकि श्री उत्तरा ध्येनजी अध्येन 26 में गाथा२३ देखो मूलको मुहपोत्तीयंपडि लेहिता पडिलहिज्जा गोचगं गोछंगं लयं गुलिउ पथ्थाइ पडिले हइ अर्थः- मुख वस्त्र का की पच्चीस पडिलेहण कर पडित हणा करके बाद गुच्छाकी पडिलेहणा करे सो उंगली करके प्रतिलेखे पीछे झोली पटला आदि वस्त्रकी पाडलेहणा करे इस सूत्र में तथा अर्थम मंहपत्ती की पडिलहणा तो कही परंतु पडिलेहण करेके बाद आठ तह करके तागा लगाय पीछे गद्दीमें बांधना अर्थात् कानमें
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________________ जैन लिंग निर्णय // घांधना वा कपालमें बांधना इत्यादि अर्थात् किसी में न आया तो फिर साधु को मुख बांधकर विचरना वा ग्रहस्थियों को मुख बांधना और इस मुख बांधने की थापना करना जिन आज्ञासे विरुद्ध इसलिये इस अज्ञानको छड़ो कुमतको क्यों मंडो जैन मतको क्यों भंडो हम तुमको देते हैं प्रमाण मुंहपत्ती बांधना येही तुम्हारा अज्ञान आत्माका हित करना होयतो कहना हमारा मान समझ ले गुरूज्ञान जिसमें होवे तेरा कल्याण इतना कहने से फिर मुंहपत्ती बांधने वाले कहते है कि जिस वक्त में भरत राजा को आरसी महल में केवलज्ञान उत्पन्न हुवा था उस वक्त देवताने ओघा मोहपत्ती दीनी थी उस वक्त मोहपत्ती बांधकर रानियों के महल में होकर निकसा उस वक्त में मुंह की मोहपत्ती देख कर अनार्य देश की राणी हंसने लगी कि आज राजा क्या स्वांग लाया है और आयदेश की राणी रोने लगी कि हाय राजातो साधु होगया इसलिये ऐकांत मत तानो कुछ हमारी भी बात मानो उत्तर भोदेवानु प्रिय! ये तेरा मनोकल्पित गाल बजाना है क्योंकि देखो जंबूद्वीप पन्नोती में भरत के अलावेसे पाठ दिखाते हैं तुम्हारे कल्याल के वास्ते बारंवार समझाते हैं तुम्हारा मिथ्यात्व गमाते हैं तुम अपने आपही नाहक क्यों उलझाते हो। ___पाठः-तएणंतस्स भरहसरणो सुभेणपरिणामेणं पसथ्थे हिंअझवसाणेहि ले साहिवसुझमाणाहिं इहापोहमगण गवेसण करेमाणस्त तयाविरणीजाणकम्माणंखएणं कम्मरयविकरणं करिअप्पुवकरणंपविठस्स भणतेअणुत्तरे निव्वाघाए तिरावर णेकप्तणे पडिपुन्ने केवलवरणाणदंसणेसमुपन्ने तएणसेभरहे केवमी सयमेव अभरणाअलंकारं मुययइश्त्ता सयमेवपंचमुठि यंलोयंकरीतिरत्ता आदंसघराउ पडिनिखमइरत्ता अंतेउरम झं मझेणं निगच्छइयत्ता दससहिरायवरसहसेहि सद्धिंसंपरिबुडे विणीयंरायहाणि मझमझणं निगछ्छइरत्ता मझदेसेसुहंसुहेणं विहरइरत्ना॥
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________________ कुमतोच्छदन भास्कर // [47] अर्थ:-तिसके बाद भरत राजाने शुभ शरीर का असारपना जानकर शुद्ध रूप शुद्धप्रणाम करके भले अदब साय से लेस्या उत्तर 2 परिणाम में भी शुड, मन करके निर्णय शरीर यहां अपाय करके गवेसना करता हुआ केवलज्ञान केवल दरशण आभरन भत चार गातीयां कर्मको क्षय करके जीव प्रदेसं सर्वघाती पुद्गल टाल करके आठ कर्म रूपी रजको विकरण अर्थात क्षय करणा ऐसा अनादि काल संसार के विषे पूर्व कदापि परिणाम नहीं आया इस अपूर्व करण शुक्ल ध्यान का दुसरापाया ध्यावता हुवा ऐसा अनुत्तर सर्व ज्ञान उत्तकृष्टा नीर व्याघात अंतर करके रहित समगपरमें प्रति पूर्ण सर्व आत्मक केवल नाम कहता प्रधान विशेष करके देखना सोतो ज्ञान और सामान प्रकार करके देखना सो दर्शन ऐसा केवल ज्ञान केदल दर्शन उतपन्न हुवा तिसके बाद भरत केवलीने अपना आभरण अर्थात् मुकुट कुंडल हारादिक अलंकार उतारता हुवा और अपना आपही पंच मुष्टी लोच करके आरसी अर्थात् काचका महल से निकलके अन्तः पुर के मध्यभाग अर्थात् रानियों के बीच में होके निकला फेर 1.... दम हजार मोटे राजाके संग परिवार सहित वनीता राजधानी के मध्यभाग होकरके निकला फिर मध्यदेश के विषे सुख पर्वक विचरते हुवे इस जगह सत्र के पाठ वा अर्थ में मुंह बांधने का नाम भी नहीं इसलिये शास्त्रों में कहा है कि जैनी को प्रथम विचार करके बोलना योग्य है आधिक ओछा बोलना योग्य नहीं जैनी नाम धरावे और मनोकल्पित बात करें जैनी नहीं वो फेनी है इसलिये तुमसे हमारा यही कहना है कि कुलिंग कू मिटायो सलिंग को धारण करो नहीं तो मोहपसी में डोरे का हाल बतलाइये क्यों नाहक झगडा मचाइये नाहक मिथ्यानुमति क्यों फैलाई है इस डोरे के पूछने से इन लोगों को उत्तर तो न बना परंतु अपनी धींगामस्ती करके कहने लगे कि आप मोहपत्ती के डोरा की बार बार पूछते हो परंतु आपभी तो बतलाइये कि ओघा | के ऊपर डोरा किस जगह है सो डोरा तो ओघा में तुमभी बांधते /
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________________ [48] जैन लिंग निर्णय // हो सो औरों के गुण कू न देखना केवल मिथ्यात्व करना अच्छा नहीं उत्तर भादेवान प्रिय हमारी मिथ्यातर्क नहीं है छोड़ आभिमान समझ गुरु ज्ञान सूत्र का तुझे देते हैं प्रमाण श्रीनसीथ सूत्र उद्देशा 5 में प्रश्न 73 का में देखो इस प्रमाण को परखो अपनी मनो. कल्पित को ही मत टेको / पाठः-जेभिखरयहरणस्स परंती ऐहंबंधणं देइ देयंतं वातातिज्जइ // अर्थः-जो भिक्षुककहता माधु रजो हरण को तीन बंधन से उपरांत बंधन बांधे अथवा बांधता को भला जाने उमकू लघुमासिक प्रायश्चित्त भावे इस पाठ के अनुसार रजोहरण अर्थात् ओघाकू डोरा सिद्ध होगया परंतु मुंहपत्ती का डोरा कितने तागा का या कितना लंबा गेरना चाहिये इसलिये मालुम होता है कि जैन का साधु कू मुख बांधना नहीं तो सत्रमें डोरे की मर्यादाही क्योंकर लिखे इसलिये हे भोले भाइयो इस कदाग्रह को छोडो और बुद्धि का विचार करो मोहपत्ती मुख बांधने से मुख मोड़ो तब कोई मुख बांधने वाला कहने लगा कि ओघा के डोरा का आपने प्रमाण दिया परंतु चद्दर में डोरा किस जगह कह्या सो बतलाइये नाहक झगड़ा मत मचाइये हमारी पकड़ी बातको क्यों गमाइये हमने भी मुख बांधने की हृदय में हठ अमाइये उत्तर भोदेवान प्रिय ! ये मिथ्या तेरी तर्क हम निकासते हैं तेरे हृदय का फरक जिन आज्ञा न मानेगा तो मिलेगा तेरेको नरक। सूत्र नसीथ उद्देशा१प्रश्न ३२में लिखा है सोही दिखाते हैं व जेभीखुअप्पणोएग्गस अठाएसइज्जाइत्ता अणमणस्स अणुपदेह अणुपदेइतवासाइजइ 28 जेभीखपडिहारिय सुइ जाइत्ता वछसीवीसामी पायंसीवत्ती सीवंतवा साइज्जइ॥ / अर्थः-जो कोई साधु साध्वी अपने वास्ते अथवा दुसरे कोई | साधू के वास्ते सई मांगकर लावे अपने वा दूसरे के वास्ते गह- | -
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [4] स्थी से कहकर लावे उसके उपरान्त अन्य साधु साध्वी को आप दे अथवा कोई दूसरा ऊपर लिखी रीति से विपरीत अर्थात कहे कि उपरान्त अन्य को देते हुएको भला जाने इस उद्देशा के २८वें प्रश्न में लघप्रायश्चित आवे फिर भी जो कोई साध साध्वी पढिहारी (सूई) लाने वस्त्र सीने के वास्ते गृहस्थी से कहे कि में वस्त्र सीऊंगा ऐसा कहकर लाव फिर उम सई से वस्त्र सीने के बाद अथवा पहिले पात्र पर मुख मीचे अथवा सीवते को भला जाने तो लघुप्रायाश्चत आये गुरू मुख से वा सूत्र के अभिप्राय से मालम होता है कि चद्दर सीवने वास्ते सूई मांगे और चोलपटा सीवे वा चोलपटा के वास्ते मांगे और चदर सीधे तो प्रायश्चित आवे क्योंकि सर्वज्ञ की आज्ञा यही है कि जिस काम के वास्ते गृहस्थी से चीज मांग लावे उसी काम को कर उससे वैसाही करे तो उसको झूट लांग इसी वास्ते प्रायश्चित कहा है इसलिये हे भोले भाईयो! जब वस्त्र पात्र मीवने को कहा तो डोरा आप से आपही आगया तुम्हारा प्रश्न चादर में डोरे का था सो हो गया इसलिये हे भोले भाइयो ! हट को छोड़कर जिन आज्ञा को साधो अष्ट पहर मुंहपत्ती मुख पर मत बांधो इसके ऊपर मुख बांधने वाला फिर भी अपनी तर्क को उठाता है जरा भी नहीं शरमाता है अपनी बात गुमाता है और कहता है कि जब अष्ट पहर न बांधे तो इसको मुंह पत्ती क्यों कहा है इस. लिये हम कहते हैं कि महरत्तो कहने मे अष्ट पहर मुंह पर ही बांधना चाहिये उनर भा देवान प्रिय शास्त्र के बिदून किम बुद्धि रूप खाड़ में सुशब्दार्च निकाला मिथगत्व रूप भग के नशे में होरहा मतवामा अरे कुछ तो बुद्धि का विचार कर मुंहपत्ती कहने से अष्ठ पहा मुख पर बांधना अगिकार कंग्गा तो रजोहरण कहने से अष्ट पह! रज अर्थात धूला कचरा ही अष्ठ पहर निकालना चाहिय गनी गची में मकानों में मेहतरों की तरह हरदम कचरे को हरना चाहिये बैन जैसा लंबा पंछड़ा बगल में
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________________ [ 50] जैन लिंग निर्णय // लेकर चलना न चाहिये इसलिये बुद्धि का विचार कर बचनको निकालो जिन आज्ञा को पालो तब मुख बाधने वाले कहने लगे कि रजोहरण से जब रज दूर करने का काम पड़ता है जब रज दूर कर लेते हैं नहीं काम पड़े तो पास में रक्खारहता है इसलिये ऊट प्रहर निकालने का कुछ काम नहीं उत्तर भोदेवानप्रिय यहां भी अकल का विचार कर बाद्ध के बोझा से मत दब अरे अकल के दुश्मन जैसे रजोहरण से काम पड़ जब रजको दूर करता है नैसही मुख से बोलने का काम पड़े जवही मुहपत्ती से मुख को आच्छादन करना अंगिकार करो अष्ट प्रहर का मुख बांधना परिहरी नाहक क्यों कदाग्रह करो जिन आज्ञा को सिरपर धरो जिससे तुम्हारा कल्याण होय इसपर भी फिर मुहपत्ती बांधने वाला कहता है कि मुख बांधना क्या सहज है क्योंकि मुख बांधने से जीव भीतर से व्याकुल होता है उमव्याकुलता से कष्ट होता हे उस कष्ट को सहना बहुत मुश्किल है इसलिये हम मुख बांधते हैं परिश्रम को सद्दकर परीसा को सहेते हैं आप लोग खुले मुख रहते हो परीसा नहीं सहते हो क्यों वार 2 हमसे कहते हो हम तम्हारी कदापि न मानेंगे उत्तर भी देवानप्रिय तुम हमारी न मानो सों तो तुम्हारी खुशी परंतु जो तुम जैनी नाम धराय कर जैन के साधु बात हो और जातिकुल के नियों को बहकात हो जैन का उढाह कराते हो इसलिये हम तुमको बार बार कहते हैं कि हे भोले भाई कष्ट उठाने ही से मुहपत्ती बांधते हो तो वस्त्र की मुहपत्ती से काट की मुहत्ती मे कष्ट अधिक होगा कोंकि कपड़ा नरम होताहै आर काष्ठ कठिन होता है इसलिये कष्ट का सहना ये तुम्हारा कहना अज्ञान रूप भंग का नशा है जो कष्ट उठाने सेही धर्म होता तो मरादेवी भग्तादि अनेक सत पुरुष मोव में गये और उन्होंने कुछ कष्ट न उठाया जिन आज्ञाको अराध कर केवल ज्ञान पाया दूसरा और भी मनो कि मंह की बाफ अर्थात हवा से वायकायकी हिंगा होती हे तो देखा मुंह बांधने से नाक का स्वांस अर्थात् हवा |
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________________ कुमतोच्छदन भास्कर // [51, विशेष निकलैगी तो उससे वायकायकी हिंसा होगी क्योंकि देखो जिस जगह दो मार्गनिकलने के हैं उस जगह निकलने में कम जोर पड़ता है जब एक को बंद करे तब एक के निकलने में विशेष जोर पड़ता है इस दृष्टांत से जानो कदाग्रह को मत तानो जो तुम कहो कि हम परीसा सहते हैं यह कहनाभी तुमारा शास्त्रों का अनजानपणा दर्शाता है क्योंकि देखो उत्तराध्यनजी के दूसरा अर्थात परीसा अध्येन में बाइस परीसा के नाम कहे जिससे मेल परीसा त्रण परीमा आदि बाइस नाम कहे पंतु मुख बांधने में जी अमूजे ऐसा तेइसमा परोसा तो न कह्या इसलिये तुमारे कहने मुजब अरिहंतदेव सर्वज्ञ भी न ठहरा इसलिये तुमने कलिंग भेष को पहरा जभी तुम्हाग भंडा दाखे चेहरा जैन शास्त्र में मुख बांधना न ठहरा क्योंकि देखा परपरा से भी मुंहपत्ती बांधना नहीं देखाता है सोइ दिखाते हैं कि श्रीमाहापौर स्वामी के पाठ श्रीसुधर्मा रकामी बैठे और उनके परंपरामें अनेक अाचार्य हुवे उनके नाम वा गुण से अनेक गच्छादि भेद हवे उन गच्छों में भी अनेकगादी आदि भेद और कई तरह की परपना आदि में भेद होगया परंतु मुंह किसीने न बांधा दम। श्रीपारश्वनाथ के सन्तानी या श्रीकशीकुमार पहली परंपरा को छोडकर जनमत के भेद मिटाने के वास्ते और भव्यजीवों के वास्ते वा कल्याण के वास्ते शामनाति श्रीमहावीर स्वामी को आचरना को अंगिकार किया और उनकी परंपरामें श्री रत्नप्रभुसुरोजी हुवे जीन्होंने नये रजपूतों को उपदेश दे ओसवाल जानबनाइ और उसी ओसानगरी में श्रीमहावीर स्वामी के बिंब की प्रतिष्ठा कराई उनकी परंपरा में मौज़द है परंतु मुंह न बांधा रे भाइ लोकालहिया ने मूर्ति पूजन का निषेध किया परंतु मुख बांधने की राह उसने भी न चलाई बिना गुरु भोले भाइयों लोकाने लोका का उपदेश सुनलीनारे भाई लोका के कहने से गुरु बिना भेष परह जिन प्रतिमा को निदा उठाई उसमें भी मादी आदिक कई भदे | हुवे अष्टप्रहर मुंहपत्ती न लगाई कुछ दिन के बाद लबजीये -
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________________ [ 52] जैन लिंग निणर्य // बजरंगजी के पास सूरत में दीक्षा लिराई उसने गुरुको बोसराय अष्टप्रहर मुखपर मुहपती बांधना चलाई इसलिये बीचमें कुन्निंग चला दुखदाई भव्यजीवों के हृदय से जैन धर्म की श्रद्धा उठाई शुभ गती छड़ाय कर दुर्गति की राह बताई हमारी करुणा ने भव्य जीवों के कल्याण हेत सत्र की शाखा दिखाई आतमा का हित करनेवाला भव्यजीव निर्णय करेगा तो होगा उसको सुखदाई मत पक्षी होगा तो अपनी क्यों कर करेगा भाताई इतना सुनकर कुमति मंडन समति खंडन मख बांधने वाले ढिया कहते है कि भगवान महावीर स्वामी के निण समय भस्म ग्रह 2000 वर्ष का आया था सो भस्म ग्रह ऊत्तर क बाद लोकानें दया धर्म प्रगट किया उत्तर भोदेवानप्रिय ये तेरा वहना महा मषाबाद अनंत मंसार का हत है क्योंक देखो जब कुछ दिन के बाद साधु साध्वी विच्छेद गये तो फिर तीर्थकरके दिन माघ साक्षी की थापना जैन शास्त्र क अन मार दूसरा कोई नहिं करसक्ता तब कोइ एक ढूंढिया ऐसा कहते हैं कि नहिं जी भस्म ग्रह के जोरम उदे उद माधु साध्वी की पूजा कम होती जायगी फिर भस्मग्रह के उतरने से माधु साध्वी की एजा विशेष होगी इस हतुप लोकांमें दया धर्म चलाया और गुण को प्रतिबोध कर साधु बनाया लेकिन उपदेश दिग पण सिर न मुंडाया साधु मार्ग उसने चलाया उत्तर भोदेवानुप्रिय अभी तेरे को शास्त्रों की यथावत् खबर नहीं क्योंकि देख भस्म ग्रह उत्तरा और हाली तीनसो तेतीस 333 वर्ष का धुमकेतु नाम ग्रह है शासन के ऊपर आया जिसके जोरसे कुमति पंथ चलाया इस कुमति पंथ का शास्त्रों में लेख भी पाया सोही दिखातेहैं कि बंगलिया सूत्र में कहा है कि बावीस गोटीला पुरुषकाल करके संसार में नीच गति तथा बहुत नीच कुलों में परिभ्रमण करे बाद मनुष्य भव पावगे और बनियों के घरमें जन्म लेकर श्रावग कुल पायकर जुहीरजगह उपजेंगे और बालअवस्था छोड़ के बाद दुष्ट कशील बुग आचरण अंगिकार करके जिन आगम सं विरुद्ध
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________________ कुमतीच्छेदन भास्कर // [53 ] उन्मार्ग चलायेंगे जिन प्रतिमा का पूजना उठावेंगे जती के भेष को भंडा बताने बाज क्रिया करतागा में दुकान जमावगे हजारों स्त्री पुरुष को इकट्ठा कर मन कल्पित गाल बजाय कर लोगों को रिझायेंगे ढाल चे पाई ख्याल मांच की तरह दोहा छप्यय गीत वगैरह बखानों में सावेंगे सत्र का नाम नहीं ऊपर लीखी चीजों को दो चार मिलाकर रागनो बनावेंगे लगाइयों को भ्रमाय गृहस्थियों के माल खाय दुनियों में जावेंग इम रातिसे उस बगचलिया में मूल पाठ में लिखा है परंतु हमने ग्रंथ बढ़ जाने के भय से न लिखा इसी सूत्र की साक्षी देकर जीतमल तरह पथी ढूंढिया ने बाईस टोला के मध्य लिखा है और बाईन गोटीला पुरुषामें ही उतपत्ति बताई है सो उसकी बनाई हुई चरचा में देखा, दूसरे श्री आत्मारामजी सभेगीजी का किया हुवा सम्यकत्वसत्याहार ग्रंथ में देखा इसलिये है भाल भाइयों नबजी और धर्मदास छीपा आदि बिना गुरु के भेष लेकर इस मुख बांधने का मत चलाया जैन मत को लजा ग्राम गलियों में कुत्तों को भुसाया यह कुलिंग तुम्हारे मन क्यों कर भाया इतनी सुनकर ढुंढिया फिर कहने लगा की अजी पासता आदि पर ग्रह के रखने वाले छकाय के कुटा करने वाले होने से हमने शुद्ध मार्ग चलाया उत्तर भोदेवानुप्रिय पासता आदिक का होना तो हमभी अंगिकार करते हैं और शास्त्रकार ने भी उनकं बुरा कह्या साहो दिखाते हैं श्री उत्तराध्येनजी अध्येन 20 गाथा 43 // पाठः-कुसील लिंगंइहधारइसाइ सीज्जयं जीवीयबुह इत्ता असंजय संजयलप्यमाणाविणीधायमागवइसेचिरंपी // अर्थः-पासता कालिंग लोगों के विषे रजोहरण आदिक जती का चिन्ह लेकर आजीव का रूप पेट भगई करेंगे और असंजती पणे से फिरेंगे और कहेंगे हम जती हैं ऐसा कहते हुवे प्रवृत्तेंगे और अनेक विधिकरके पंडापावेगए ने द्रव्यागीपने कान्तक रजो -
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________________ [ 54 ] जैन लिंग निर्णय // हरण दिकजाँका भेष लेकर फिरेंगे अब इस सूत्रक पाठसे अनेक तरह की विटम्बना और व्यवस्था बताई परंतु ऐसा सूत्र में किसी जगह न आया कि पासता आदि को मुख बंधन करके फिरना तो न कया भव तो शङ, मनि का और पासते का एकसा कह्या हां अलबत्ता क्रिया में वा श्रद्धा में फरक किया है दूसरा श्री दसवय कालिक जो के तीसरे अध्येन में 52 बावन अनाचार कहे परंतु खने मुख को अनाचार न कह्या तीमरा और भी सुनो कि श्री उतराध्येन जी के पाप श्रषण अध्धन में पाप श्राण का वर्णन किया कि अफना साधू विवरे तो पाच श्रवण सीझा तस्वीड ने तो पार श्रवण यरीया सुमति न सोधे अपवा संयन आदि न पाले इम रीति से अनेक बातें न पानने से पाप श्रवण कहा इस जगह ग्रंय बढ जाने के भय से हम ने सूत्र का पाठ आर अर्थ न लिखाया किंचित मतलब दिखाया बुद्धिमान विचार कर लेंग अब यहां आत्माअर्थीयो को विचारना चाहिये कि ऊपर लिखी बातों में तो पाप श्रवण कह्या परंतु मुख न बांधो भी पाप श्रवण है ऐसा सूत्र में नहीं बतायाहै भव्यप्राणियों तुम ने मिथ्यात्व को क्यों फैलाया तब फिर मुख बांधने वाले कहने लगे कि भवतीजी में शकाई के मध्ये लिखा है कि उघाड़े मुख बोले तो लबद्ध भाषा मुख ढांककर बोले तो निर्वद्ध भाषा इसी लिये क्यों झगड़ा मचात हो नाहक हम को बहकाते हो. उत्तर भोदेवानु प्रिय! भगवती शतक 16 उद्देश 3 में तुम्हारे कहने मुजब पाठ है परंतु ग्रंथ बढ जाने के भय से मूल और अर्थ नहीं लिखाते हैं किंचित् वहां का भावार्थ दर्शाते हैं तुम्हारे हृदय में कुगुरु का अर्थ बैठा उसे भगाते हैं क्योंकि देखो श्री गौतम स्वामी ने प्रश्न किया कि हे भगवान् शक्रइंद्र सबद्ध भाषा बोले कि निर्वद्ध भाषा बोले तब श्रीमहाबीर स्वामी ने उत्तर दिया कि हे गोतम शक इंद्र हाथ मे मुख ढांक वा वस्त्र से मुख ढांक कर बोले तो निर्वद्ध भाषा और उघाडे मुख बोले तो सबद्ध भाषा इस रीति से कहकर फिर टीकाकार ऐमा कहते w ww .
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________________ - कुमतोच्छेदन भास्कर // [55 ] हैं कि जीव की रक्षा करने के अयं मख ढांककर बोल तो निर्वद्ध भाषा अन्यथा अर्थात मुख ढांक के भी जीव हिंसा का बचन बोलेतो सावद्धभाषा नतु मुख ढांकने से निर्वह भाषा होगी इस लिये भोले भाइयों इस जगह शक इद्र के उपयोग को लिया और यह कथन केवल शक इंद्र के आश्रय है नतु सब जीव आश्रय, कदाचित् सर्व जीके आश्रय मानोगे तो शक इदं के भाव सिद्ध आदिकछः बोल अच्छे कहेतो वे बोल सर्व जीवाश्रय मानन पडेंगे मो तुम मानोगे नहीं इस लिये यह कथन केवल शकइंद्र आश्रय नतु म जीवाश्रय इस लिये इस कदाग्रह को छोड़ो बात हमारी मानो तिस से हा तुम्हारा कल्यान, अब दूसरा सुनो प्रमाण कि उघाड़े मुख बोलने को तो हमभी नहीं कहते हैं क्योंकि देखो साध को तो हमेशा जब शब्द उच्चारण करे तर मख को ढक कर भाषा वर्गना निकाले और श्रावग लोग मंदिरजी में धर्म शाला में अथवा समायक प्रतिक्रमण पोसा दशाव गासी साधु के सनमख जो वचन उच्चारण करे सो मुख ढककर उपयोग सहित बोले उघाड़े मुख बोलने का उपदेश नहीं है कदाचित् जो तुम अपने हठ से मुख आच्छादन करके बोलने को न मानो और मुख बांधने से ही बोलने वाले की निर्वद्ध भाषाहै ऐसा मानोगे तो हम तुम को प्रत्यक्ष का प्रमाण देते हैं और उस की साक्षी विद्वज्जन दें उस का तो कहना ही क्या परंतु ग्रामीण लोग भी तुम्हार मुख बांधने को अच्छा न कहेंगे सोई दिखाते हैं कि एक मनुष्य तुम्हारे जैसा आठ पुरत के बदले 16 पुरत के कपड़े से मुख बांधे और किसी तम्हार श्रावक से कहे कि तु दुष्ट है और थाग बाप दुष्ट है और तरी मा व्यभिचारिणी है तेरी बहिन बेटी आदि दृष्टा हैं और तू बिन परिश्रम का द्रव्य ग्रहण करने की इच्छा रखता है इत्यादि अनेक रिति से कहे अथवा वह मुख बांधा हुवा शख्स कहै कि इस सर्प को मार डालो व कुत्त का मारडाला व बकरे को मण्डालो इत्यादिक मारने
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________________ . . - - - - [5 ] जैन लिंग निर्णय के शब्द आप खुशी तो हो बान तो फिर अब हम तुम्ही को मध्यस्थ करके पूछते हैं कि ऊर निम्वी बातें तुमारे सत्र सुनके उस मुख बांधने वाले से लड़ाई करेंग या नहीं तो तुमको कह नाही पड़ेगा कि उम ने बुरा बचन बोला इमस वो अवश्य लड़ेगा दुमरा मुख बांधने वाला जो ऊपर लिखे शब्द हिंसाकारी बोलेगा तो तुम उसका वचन हिंसा कहोग या नहीं तो तुम को कहना ही पड़ेगा कि उसको बचन की हिंमा लगी इस रीति से बद्धि का विचार करो खंचातान को परिहगे दूसरा दृष्टांत हमारा और भी श्रवण करो कोई शख्न तुगरे सवक को मिला और खुलही मुख से कहने लगा कि जैगापान साहब आप बहुत दिनों में मिले हो आपकी लायकी की हम शोभा नहीं करसक्त आप के पिताजी की बड़ी लायकी है मेरे को चाहते हैं परत बहुत दिन से मिले नहीं हैं सो अच्छे हैं एक दिना आप तो नहीं मिले में आप के घर गया था और छाछ की मेरे को दरकार थी सो छाछ भी अच्छी भरी और दूध दही की मनवार भी खूब करी और मासाहब कहने लगे कि बेटा लेजायाकर . चावे सो थारा घर है दिन चार की बात है कि मैं फलाने गाम गया था उस गांम मेशायद आपकी बहन परणाई है सो बाई साब मेरे को मिली थी सो मेरी इतनी खातिरकी कि मेरेको बिना जीमे नही आनेदिया इत्यादि अनेक अच्छी बातें कहकर आगे को चला और कोई सांपको मारता था उसको देख कर कहने लगाकि अरे भाइ क्यों मारतहो इसने तुमरा क्या बिगाडा स दृष्टांत से हम तुम ही को मध्यस्त करके पुरते हैं की उ7र लिखा बात तुमारे सेवक सुनकर खातर करेगः वा लडेगा तो तुम कहना ही पडेगा का खानर करेगा लडाई का तो कामही क्या दूनरा जो सरप को उसने बचाया तो तुनको कहनाही पडेगा की दयारूपी शब्दहै इसलिये इन दोन दृष्टांतो को विचारो कदाचित् तुम अपने आग्रह से इन दोनो दृष्टातो को मनमें सत जानकर उपरसे न बोलोतो - - -
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [57 ] इन दोनों दृष्टांतों में अच्छा और बुरा अर्थात् मुख बांधने वाले वा मुख खुलेवाले को भला और बुरा विद्वजन कहेंतो आश्चर्य क्या परंतु नाई,धोबी,कुम्हार,भील आदि पामर पुरुष भी तुच्छ बुद्धि वाले भला बुरा कह सकते हैं हा इति खेदे जैन धर्म में कैसी व्यवस्था होगई सूत्रों की बातें सब खोगई ममोकल्पित गतों में दुनिया मोहगई इसलिये हे भोले भाईयो सर्वज्ञवीतरागका कहना है कि बोलने में उपयोग राखो जैन धर्मका मजा चाखो मिथ्या मोह बंधने का उपदेश क्यों भाषो दूसरा औरभी सुनो कि श्रीदसवै कालक अध्येन 7 में भाषा बोलनेकी शद्धि कहीसो 57 वीं गाथा और अर्थ दिखातेहैं उसके अर्थ में किंचित पन्नवणा सूत्रका भी भावार्थ दर्शाते हैं तुम्हारे संदेहको भगातहैं आगे मरजी तुम्हारी / पाठः- परीसभासं सुसमाहिइंदिऐ चउकसायावगए भणीसीऐ सन्निधणेधुणेमलंपुरेकंडं आराहए लोगमिणताहा परंतवेमी॥ अर्थः- आलोची अर्थात विचार कर भाषा बोलने वाला जती समाथिवन्त जितेन्द्रो च्यारकषाय करके रहित व्यसूं भावसं ने सराथ अर्थात प्रतिबंध करके रहित ऐसे जती अर्थात मुनि अने गाम गाम में अपना पाप कर्म रूपी मेल पूर्व जन्म किया हुवा इस लोक परलोक को अराधे ऐसा अर्थ शिष्य को श्री संजय भवस्वामी ने कहा इस भाषा अध्येन में सर्व भाशु बोलने का रूपकहा परंतु इस अध्येनमें ऐसा न कहा जो साधु . मुख बांधके बोले सातो अराधक नहीं तो विराधक इस जगह तो सर्ब अध्येन में च रकषायक करके रहित भाषा बोलना कहा परमपरासे भी किसी गच्छमें साधु मुख बांधकर के फिर विचरे ऐसा देखना तो क्या परंतु सनाभी नहीं बल के लोंकाने जतियोंके देशके ऊपर जिन प्रतिमा वा जिन मंदिरका पूजना वा बनाना निषेध किया लेकिन मख बांधना न देखा वा सुनाभी नहीं क्योंकि नागोरी गुजराती लोगोंके
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________________ [5] जैन लिंग निर्णय / मत के जती फिरते हैं सिवाय ढूंढीयों के मुख बांधना किसीने न च नाया श्रीवीतराग सर्वज्ञ का बचन भी उठाया क्योंकि देखो श्रीपन्नवणां तत्र के भाषा पद में कहा है कि उपयोग अर्थात् विचार करक चारों भाषा बोलने वाला अराधक है और बिना उपयोग बोल तो विराधक है इम पाठके देखने से तो मख बांध ले और बिना उपयोग से बोले तो कदापि अराधक न होगा किंतु विगधकही होगा हमने तो इस जगह किंचित भावार्थ दिखाया है उस सत्र के भाषा पदमें भिन्न 2 दरसाया है उस जगह मुख बांधने का जिकर किंचित भी न आया है तुमने मुख. बांधने का कुपंथ कहां से चलाया है माधु का नाम धरा पशू अजान स्त्री बालकों को भय उपजाया है साध का भेष वीतराग ने सर्व जीवों को निर्भय बतलाया है हम तुमको उत्तराध्येन 26 उनतीसवां प्रश्न दूसरे में बतलाते हैं उसकू देख कर इस कुलिंग कू टतारो अपनी सद्गति को सम्हारो गुरु का उपदेश सुन मुखपत्ती हाथमेंही धारो जिससे जिन आज्ञा ले होवै तुम्हारो निस्तारो // पाठ:--पडिरुषया ऐणभंतेजीवेकिंजणयइ पडिरुवयाए लागवीयं जणयइलहू भूएणंजीवे अप्पमत्ते पागडलिंगेपसथ्थ लिंग विसुद्धसमत्ते सत्तलमीएसम्मेसठवपाणभूय जीवसत्तेसुविस सणी जरुव अप्पपडिलेहेजीडदिए विउओतवसमीइ समन्नागए ধাৰাৰ ___ अर्थ:... स्थिवरकल्पी प्रमुख माधु माया करके रहित जतिपने का भेष लेकर जो साधु माया करके रहित होय मी हे पूज्य वो जीव क्या उपार्जन करै हे गौतम माया करके रहित जो साधू होय वो द्रव्यसं अल्प उपगरण अर्थात् उपाधि और भावसं अप्रतिवस्था पना उपार्जन करे क्योंकि द्रव्य सं उपगरण का भार करके रहित अर्थातू हलका होय और भावसं प्रमाद करके रहित होय इस रीति / से स्थिवरकल्पी प्रमख प्रगट जती का भेष होय वो जीव दयाके inesam -
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________________ - - - - - कुमतोच्छनन भास्कर // [56) हेतु रजोहरणादिक करके प्रशस्थ अच्छा जती अर्थात् वा निर्मल समगत का धनी सत बल वीर्य से पंचसमति संपूर्ण है जिसके एसा हितकारी सर्व प्राण भून जीव सतके विषे पीडा न कर तिस वास्ते सर्वको विश्वास उपज ऐसा यती रूप भेष है जिसका थोड़ी है प्रति लेखना क्योंकि थोड़ा उपगरण होनेसे पडिलेहणा भी थोड़ो होती है और जितेन्द्री तप करके संयुक्त इंद्रियां आदिक संयुक्त होय इस पाठ से साधू का भेष सर्व प्राणी भूत जीवों के हितकारी विश्वास कराने वाला जिस में किसी को भय न उपजे ऐमा श्री वीतराग सर्वज्ञ देवने कह्या सोतो खरा परंतु मुख बंधे भेषको देख के प्रत्यक्ष जीवों को अहितकारी अर्थात् भयकारी दीखे है क्योंकि बालक डरते हैं गाय भैस आदि ढोर भी देखकर भागते हैं ग्राम में धूपते कुत्ताभी भुसते हैं और अनजान घरमें घुसने से स्त्री कहती है कि अरे ये कौन है मुख बंधा इस. लिये मालूम होताहै कि मुख बंधा भेष साधुका नहीं क्योंकि मुनि का भेषतो सर्व को सुहाता अर्थात् प्रीतिकारी होताहे मुख बंधा भेष तो प्रत्यक्ष भांड रूपहै ऐसा मुनीका भेष सर्वज्ञ देव कदापि न कहेगा इसा नेय मतपक्ष को छोड कर ज्ञान दृष्टि से देखो कमों कि साधु जगत का पूजनीक है और ऐमा श्री वर्धमान स्वामी श्री मुखमे मुनिको पूज्य कहाहै और पूज्य उसीको कहना चाहिये कि जिनको जगत पजे मुख बांधने वाले मोमन सन्याजी के लिंगको सम्यक्त दृष्टी देवता ने वारंवार निंद्या करी है सो पाठ हम पीछे लिख आये इमलिये हे भोले भाइयो मुख बांधने के कदागह से मुख मोडो करनी परूय्ये धर्ममे प्रति जोड़ो कुगरुका संग छोड़ो क्योंकि श्रीवतराग संवैज्ञदेव एक एक बानका बार बार करक दाशाई है परंतु साधु को मुख बाधने की किंचित भी सत्रमें बात नहीं आईह जिस जगह बांधने का काम पड़ताह उम जगह खुलासा मुख बाधना सूत्रों में आयाह मोभी तुम्हारी करुणा से भगवतीजीशतक 8 मा उद्देशा 33 में नाईका मुख बांधना कह्या
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________________ - - A जैन लिंग निर्णय सोभी दिखाते हैं: पाउ:-जमालिस्स खतियकुमारस्त पिउणाकोडविय पुरिसहिंसदावे माणाह हनुणहए कयंवलि.कम्माए जावशरीरे जेणेवजमालिस्स खतियकुमारस्सपिया तेणेवउवागछइ 2 त्ता करपल जमालिस्मखतिय कुमारस्सपियाएजइवधायेति 2 त्ता एवंययासीसंदिसणंदेवाणपियाए जमएकरणिजे तएणंसे जमालिस्सवतिय कुमारस्सपियाए तंकासवियं एवंवयासी तुमेदेवाणुप्पियाजमालिस्स खतिय कुमारस्त परेण जत्तेणंचर संगुलियं वजेनिखणपयोग अग्गकेसेकप्पेहितएणसे कासवे जमालिस्त खतिय कुमारस्स पिउणाएवंबुत्ते समणाहतुजाव करयल जावएवंसमीतह तीणएविणयवयणं पडिसुणेत्ता सुरभि णागंधोदयण हथ्थपादे पखालेइ सुरसुद्धाइ अठ्ठपडिलाए पोती ये मुह बंधइ 2 ताजमालिस्स खतिय कुमारस्स परेण जत्तणं चतुरं गुलबजे निखमण योगे अग्गकेसे कप्पेति सूत्र ज्ञाता अध्ये न 1 मेंदेखो // ततेणंसेकासवएहिं कोटुंबीयं पुरीमहि सदविएस माणेहद्वजावाहिय तरहए कयवलीकम्मेक यक ओय मंगल पहिते शद्ध पावे साइ पवपर रहीए अप्प महग्या भरणालंकीयसरीरे जेणे वसेणीएराया तेणेवउत्रा गछह २त्ता सेणी यंकरयल मंजली कट एवंया वयासी संदी सणं देवाण पिया जमएकरणी ऊंजतएणं सेसेणीयराया कासवयं एवं वयासी गछहीणं तुभ्भे देवाणु पिया सुर भीणं गंधो दयणंणाकहथ्थ पाय पखाले हिं सयाए चउ पुलाए पनिए मुह बंधी ता मेहस्स कुमारस्स चउरं गुल वज्जे निखम ण पाउगे अग्ग केसे कप्पेहितएणं सेकासवेइ सेणि एणं 2 रणाएवंनुत्तेसमागणे हतठ जावहियाए जावपडिसुणेति 2 सुरभिणागंधोदएणं हथ्थगएपखालेति 2 ता मुद्धवथ्थेणं मुह बंधई 2 ता परेण जंतणं मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवज्जे निखम पोउगो अगाकसे कप्पइतएणं तस्स मेहस्म कुमारस्त
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर / [1] माया महरिहेणं हंसलक्षणणं पडगमाइएणं अगाकेने पडि स्थति 2 सरीणां गंधो दएणं पखालेइ 2 सरसेणं गोसीस चंदणेणंचच्चा उदल यति 2 सेयाएबधति 2 रयण समुग्गायं सिपखिवेति। अर्थ:-ये दो पाठ में पहिला पाठतो भगवतीजी का और दूसरा पाठ ज्ञाताजी सूत्रका इन दोनों पाठों में मतलब एकसा है और जिसमें फरक है उस बात को हम खोल देंगे इसलिये ये बुद्धिमान एक पाठ के अर्थ से ही समझ जावेंगे इसलिये प्रथम भगवतीजी का पाठ दिखाया है सो अर्थ जमालीखेत्री कुमार के पिता ने अपने नौकरों के हाथ नापित को बुलाया और नौकर लोगों ने नापित को कहा कि तुमको बुलाते हैं जब नापित बहुन हर्षित हुवा और स्नान करके अपने घर देव की पूजा करी फिर अच्छे वस्त्र आभरण पहिन कर उन नौकरों के साथ जिस जगह जमाली खेत्री कुमार का पिता था उस जगह आय कर दोनों हाथ जोड़ कर जमालीखेत्रीकुमार के पिता को बधापा देकर कहता हुवा कि हे स्वामिन् जो आप मेरे को आज्ञा करो सो मैं करूं तब जमाली क्षेत्री कुमार का पिता नाई से कहने लगा कि भादेवान प्रिय! जमाली क्षेत्री कुमार के परमयत्न कर के चार उंगलचोटी के केश दिक्षा लेने के वास्ते बाकी के सर्व केश दूर करो जब जमाली क्षेत्री कुमार के पितासे ऐसा बचन सुना तब नाई खुशी होकर दोनों हाथ जोड़ कर कहने लगा कि स्वामी तेहत अर्थात् आप का फरमाना ठीक है विनय संयुक्त बचन सुन के सुगंधित पानी करके हाथ पग धोय करके केशर चंदन कपूर आदि सुगंध वा शीत वस्त्र के आठ : परत करके मुखको बांधा फिर जमाली क्षेत्री कुमार के अच्छो तरह से चार उंगल केश बजे के आगे के प्रधान सरीखे केश नाईने जमाली कुमार के केश बनाये तब नाई ने मुख बांधा नाई के मुख बांधने का वस्त्र कह्या और मगावती रानी के कहने से श्री गोतम स्वामी ने मुख बांधा उस जगह मुंहपत्ती कही मुखतो - -
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________________ - [6] जैन लिंग निर्णय // दोनों के सरीखा बांधा परन्तु नाई को वस्त्र कह्या और मृगावती / रानी के कहने से श्री गोतम स्वामी ने मुख बांधा उम जगह मुंहपत्ती कही मुख तो दोनों के सरीखा बांधा परन्तु नाई को वस्त्र कह्या और गोतम स्वामी को मुखपत्ती कहीं इसलिये विचार करना ज़रूर है बिना बिचारे जैन धर्म दूर है शास्त्र प्रमाण बिना मुख बांध कर जैन साधु बनों क्या तुम्हारा मगदूर है जिन आज्ञा विरुद्ध मुख बांधतेहो बुरा दीख रूपनहीं चहरेपरन रहे नूरहै अब दूसरे श्री ज्ञाताजी के पाठ में श्रेणिक राजा को उपदेश लेकर मेघ कुमार की दिक्षा का वर्णन जानो आगे पीछे की बात उसी तरह पहिचानो परन्तु उस पाठ में तो नाईने मुख बांधने का वस्त्र अर्थात् पोतिया के आठ पुर्त से मुख बांधना कह्या और इस ज्ञाता सत्र के पाठ में वस्त्र अर्थात् पातिया के चार पुड़ अर्थात् चार तेह करके मुख बांधा बाकी का सर्व मतलब पीछे लिखाते सो यह जान लेना अब इस जगह नाई के मुख धने को सर्वज्ञ देव पोतिया अर्थात् वस्त्र कह्या परन्तु मुंहपत्ती न कह्या इसका कारण क्या इसलिये हे भोले भाइयो गुरु कुल वास बिना इस सूत्र का रहस्य मिलना मुशकिल है क्योंकि देखो नाई उस वस्त्र को हरएक काम में ले आता है इसलिये उसको महपत्ती न कह्या और पतिया अर्थात् वस्त्र कह्या और श्री गोतम स्वामी की मुखपत्ती कह्या सो कारन क्या सोई दिखाते हैं कि गोतम स्वामी के पास मुख वस्त्र है तिस वस्त्र की एसी थापना प्रमाण सहित करी हुई है कि इस वस्त्र से मुख ढकने के सिवाय दूसरा कोई काम इस बस्त्र से न करना इस वास्ते श्री मोतम स्वामी के वस्त्र को मखवस्त्र का कह्या ओर इसी रीति से इस ज्ञाता सुत्र के आठवें नौवें अध्येन में जितशत्रु राजा वा श्री मल्लिनाथ स्वामी के अधिकार में मुख ढकने के वास्त पछेवड़ी दपट्टा मख ढकने के वास्त कह्या ग्रंथ बढ़ जाने के भय से न लिखाया इस लिये हे भोले भाइयो! बुद्धि | का विचार कर मन पक्ष को खंटी पर धर हमने तुम को इतना
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // पाठ सूत्र का दिखाया साधु को मुख बांधना कहीं पर न आया क्यों तुम ने कुलिंग बनाया आप दुबे और श्रावक कू मुख बांध कर डुबाया जिन आगम के बीच गृहस्थी को मुख बांधना मेरे देखने में न आया न मालम जिन शास्त्र चिदन मुख बांधने का पंथ कहां से चलाया श्रावक का वर्णन श्री उपायकदिशा सत्र में पाया उस सूत्र बिना गहस्थियां का मुख तने क्योंकर बंधवाया इस लिये हे भोले भाइयो पक्षपात को छोड कर बुद्धि का विचार करे। सूत्रों पर आस्ता धरो जिससे तुम्हारा कल्याण हो क्योंकि देखो उपासकदिशा सत्र अध्येन 3 तीमरे में है मो पाठ दिखाते हैं। ... पाठः-जहा आणंदो जावसमस्स भगवउ महाबीरस्स अंतिय धम्मपन्नति उवसंपजिताणं विहरइतएणंतस्स काम देवस्स पूवरत्ता वरतकालसमयंसी एगेदेवमहामिछाविठ्ठी अंतियपाउभुऐ। .., अर्थ-जिस रीतिसे अनंद ने श्रवण भगवंत श्री महाबीर स्वामी के पास में धर्म की उपसमीप अर्थात् बारह व्रत अंगीकार किय थे तिस रीति से ही कामदेव ने श्रावक के 12 वत अंगीकार किये सो कामदेव दर्शन प्रतिमा का अवग्रह लेकर विचरता था सो एक दिन कामदेव के पास अर्ध रात्रि के समय एक मिथ्या दृष्टि देवता पिशाच का रूप करके अनेक तरह के वाक्य बोला परन्तु मोमल मन्यासी के काष्ट की महपत्ती बंधी हुई कही तिस रीति से कामदेव श्रावक के वस्त्र की मुखपत्ती बांधी हुई न कही इस पाठ से मालूम होता है कि श्रावक ने भी मुखपत्ती न बांधी क्योंकि देखो कामदेव श्रावक पडिमा विषे बैठा था तो इस जगह ऐसा पाठ होता कि ( नथ्थमुदाय मुहबंधेइ ) ऐसा पाठ सत्र में नहीं इस लिये बुद्धिमानों की बद्धि में साफ मालम होता है कि पडिमा के विषे श्रावक मुख नहीं बांधा तो फिर बखाण आदिक में मुख बांध कर बैठना क्योंकर बनेगा।
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________________ - [ 64] जैन लिंग निर्णय // इसलिये जिन आज्ञा को साधो मुख बांधने से भागो मुंहपत्ती को जल्दी तोड़ो तागो जिससे मिले जैन धर्म सागा दुसरा और भी चलिनीपिता श्रावक का पाठ दिखाते हैं सत्र की शाख बताते हैं पोषटशाला में बैठे हुवे श्रावक का पाठ सुनाते हैं / ___ पाठः-- जावपोसहसालाए पोसहिएबंभयागसमणस्स भगवउमहावीरस्स अंतिएधम्मपन्नति उवसंपज्जिताणविह रह तएणं सेचुलणीपीयस्स पूवरत्तावरतकाल समयसि एगेदेवे पाउभ्भए / उपासक दशासूत्रमध्ये अध्येन 3 // अर्थ:-जिस वक्त पौषधशालाके विषे पोशा करके सहित ब्रह्म चर्य व्रतका धारण करनेवाला शुद्ध सम्यक्त सहित श्रवण भगवंतश्री माहावीर स्वामी की उपसंपदा लेकर विचरता हुवा ऐसा कौन चलिनी पिता श्रावक उसके पास मध्य रात्रि के समय एक देवता प्रगट हुवा इस जगह भी श्रावक को पोशा में भी मुख बांधने का न आया हमने तुमको चलिनी पिता श्रावक का सूत्र अनुसार पाठ बताया सरतवाले लवजी धर्मदास छीपा आदिने मुख बांधना चलाया जातिकुल के श्रावकों में मिथ्यात्व फैलाया बाइ और भाया का मुख बांधकर चहरे का नर गमाया इसीलिये हमने लिंग निर्णय बनाया सुरादेव श्रावक का तीसा पाठ याद आया सोभी दिखाते हैं / पाठः-जहाआणंदोतहेवपडिवज्जए जहावसमणस्प्लभ गवउमहावीरस्स धम्मपन्नतिविहरइ तएणंतस्ससुरादेवस्स समणोवासगस्स पूव्वरत्तावरतकाल समयंसि ऐगदेवतिय पाउ भविश्था उपासकंदमासत्र अध्येन 4 अर्थ:-जिस रीतिसे आनंद श्रावक ने घारह वत अंगिकार किये थे उस रीतिसे श्रवण भगवंत श्रीमाहावीर स्वामी के पास सुरादेव ने अगिकार किये फिर उस सुरादेवन दर्शन प्रतिमा का अविग्रह लेकर बिचरने लगा सो उस सगदेव श्रावक के पास
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [65) आधीरात के समय एक देवता आया इस पाठ में भी मुख बांधने का जिक्र न आया इसी सूत्र के अध्येन 5 चल शतक श्रावक के पास भी देवता आया ग्रंथ बढजाने के भय से उस पाठ को न लिखाया तुमने फिर मुख बांधना कहांसे चलाया भांड का सा भेष जैनी नाम क्यों धराया मुग्ख बांधकर बैठने में तुमको लज्जा न आया क्यों तुमने पाखंड चलाया ओर भी इसी अध्यन में से कुंड कोलिया श्रावक का पाठ दिखाते हैं / तएणकंडकोलिए अणयाइ पुठवरत्तावरतकात मयंसि जेणेअसोगवाडिया जेणेवपुढवी सीलापट्टइ तेणेवउवागछइरता नामामुहगंच उत्तरिंगच पुढबीसीलापट्टए ठवेइरत्ता समणस्स भगवउमहावी रस्स अंतियंधम्मपन्नति उवसंपज्जित्ता तए. गंतस्तकंडकोलियस्स एगेदेवेअंतियंपाउभ्भविथ्था तरण सेदेवेनामुद्दगंच उत्तरिजवपुढवीसीलापट्टयउगणइ // अर्थः-कंडकोलिघू श्रावग एक दिन के समय मध्य रात्रि के विषे जहां तसागवाटी पृथ्वी में शिला रूप है इसजगह आय कर नाम अंकित मुद्रा और वस्त्र उतार कर पृथ्वी ऊपर रक्ख श्रवण भगवंत श्री महावीर स्वामी के पाम धर्म प्रजापति आंगिकार करक बिचरता हुवा तिप्त कुंड को लिये श्रावग के पास आया और उम देवताने नाम अकित मुद्रा और उतारे हुवे वस्त्र पथ्वी शिला पटसं लेकर घुघरा सहित वस्त्र पहिरेहुवे आकाश में खड़ा होकर कंडकोलिया से एमा कहने लगा कि अहो कुंड कोलिया गोशात के धर्म में बिना परिश्रम किये हुवे मोक्ष मिलती है इस रीति म कहा इसजगह श्रावग धर्म करनी में बैठाथा जो मुख बांध के बैठा होता तो सोमल सन्यामी के काष्ठ की मुंहपत्ती का सूत्र में पाठ था ऐमा इमजगह वस्त्र की मुखपत्ती का पाठ होता सो पाठ न आया तुमने मुख बांधना क्योंकर चलाया सूत्र के देखने से / गोशालेनेभी मुख बांधने का पंथ न चलाया इस सत्र के सातवें
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________________ [6] जैन लिंग निर्णय॥ / अध्येन में गोशाले के श्रावग का अधिकार आया तुम्हारे मिथ्यात्व को छुड़ाने के वास्ते उस पाठ को लिखाया। तएणसेसदालस्स आजीवउवासाए अन्नयाकंयाई पुष्वा वरत्तकालसमयंसि जेणेवअसोगबडिया तेणेवउवागछइ 2 त्ता गोसालस्समंखलिपुत्तस्स णंतियधम्मपन्नति उवसंपज्जित्ता. तएणतस्सलद्दालस्सयाजीविएकदेवे अंतियंपाउभ्भवित्ता तए.. णंसदेवेअतिलखपडिवणे संखंखिणयाई जावपरिहिए सदाल पुत्तं आजिविउवासएय एवंवयासिएहिणंदेवाणुप्पिया कल्लं इहमहामहाणे उपन्ननाणदंसणधरे तीयपडुणमणागयजाणए अरहाजिणे केवली सव्वन्नुसव्विदरसीण तिलोकहितमहिएपु. इएसदेवमणुयासुरस्सलोगस्स अच्चिणिज्जवंदणिज्जेपुयणिज्जे सक्कारणीज्जे समाणणिज्जे कक्लाणंमंगलदेवयंचइयं जावप ज्जुवासणिज्जे तच्चकम्मसंपयासंपत्ते तन्नतमवंदजाहि जाव पज्जवासज्जाहिं पाडिहारिएणं पीढपल गसिज्जासंरयणं उव निमज्जाहिंदोच्चंपि एवंवयासी जामेवदिसंपाउभूया तामे बंदिसंपडिगया तेणतस्मसदालपुत्तस्स आजिवउवासगस्स तेणे देवणं एवंवुत्तस्स इमेयारुवे अझथ्थिउ 4 समुपन्ने एवंखलु ममधमारिए धम्मोवएसएगोसालोमखलीपुत्तो सेणंमहामाहणे उपन्ननाणसणधरे जावतच्चकम्मसंपयासंपउत्ते सेणंकवलं इहंहब्वमागछसितएणतंअहंवंदिस्सामी जावपज्जुवासिस्सानी पाडिहारएणं जावउवनिमंतिस्सामी तएणंकल्लजावजलते समणेभगवं. जावसमोसरीए // अर्थः-तिसके बाद शादल पत्र आजीविका उपासक एक दिन के समय अर्ध रात्रि के विषे जिस जगह अशोक वन था उस जगह आया वह शार्दुल पुत्र गोशाला माखली पुत्र के पासमें धर्म अगिकार किया था सो उस शाल पुत्र आजीवक उपासक के पास एक देवता आया वो देवता आकाश में अधर रहा हुआ घुघरे पैरया हुआ सहित शार्दुल पुत्र आविक उपासक से कहने लगा - Lalaimarana... maan
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [67 ] कि हे देवानुप्रिय कल इस जगह एक मोटा ब्रह्मचर्य का धारण करने वाला उत्पन्न संपूर्ण ज्ञान दर्शन करके अतीत अनागत वर्तमान का जानने वाला सर्व का पूज्यनिक रागद्वेष जीतने वाला केवल ज्ञानी सर्वज्ञ सर्व को देखनेवाला त्रिभुवन का पजनीक सर्व देवता मनुष्य असुर भुवनपति का अर्चनीक वंद्यनीक पज्य नीक मत्कारणिक कल्याणकारी मंगलकारी चैत की तरह परो उपासनीक अर्थात् सेवा कर ने योग्य नाम कर्म की संपदा अतिशय कर के संयुक्त ऐसा पुरुष कल इस जगह आवेगा उसको तू बांधना अर्थात् सेवा करना प्रतीहारादिक फासु फलक सिजा संथारा पाट पाटलाडा वादी निमंत्रण करना ऐमा दो तीन बार कह कर जिस दिशा से आया था उसी दिशा को पीछा गया तिस के बाद शार्दल पुत्र आजीवक उपासक ने देवता का एसा पचन तुना तब मनमें अदबसाय उत्पन्न हुआ कि निश्चय करके मेरा धर्माचरण धर्मोपदेश का देनेवाला गोशाला मारवली पुत्र वह मोटा ब्रह्मचारी का धनी उतपन्न ज्ञान दर्शन यावत् नाम कर्म संपदा करके सहित कल यहां आवेगा तिसको में बाधूंगा और प्रतीहार फामु सिज्यादि निमंत्रण करूंगा तिसके बाद दूसरे दिन प्रभात समय श्रवणभगवंत श्री माहावीर स्वामी उस जगह समोसरा अर्थात आया तब शार्दल पुत्र को देवता पह ले कहगया था सो भगवंत आयगये सो उसके मनमें ऐना आया कि यह प्रभु तरण तारण तो नहीं परंतु प्रभु के पास में गया और धर्म का निर्णय करने लगा तब उसको केवली परुय्यत धर्म की प्राप्ती हुई लेकिन मत पक्ष को छोडकर विवेक सहित बुद्धि का विचार किया तो धर्म को पाया कदाचित विवेक सहित बुद्धि का विचार न करता और गोसाले के मत की पक्ष पकडता वा गोशाले से निर्णय करता तो आत्मधर्म की प्राप्ति कदापि न होती क्योंकि पक्षपात से धर्म नहीं मिलता यह तो चोथाकाल में भी मत पक्ष और अपने को सच्चा और दूसरे को झूठा कहते थे तो इस पंचम ATMLA
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________________ [6] जैन लिंग निर्णय // काल वर्तमान की व्यवस्था क्या कहैं क्योंकि देखो श्रीआनंदघन माहाराज कहते हैं कि आभिनंदन जिन दर्शन तरसीयो दर्शन दुर्लभ देवमत मत भेदे हो जो जाय पूछिये सोथापत अहीमेव इस रीति से सब कोई अपने को सच्चा और दूसरे को झंठा कहते हैं सो प्रत्यक्ष मालम होते हैं क्योंकि देखो मुख बांधनेवाले हँढिया कहते है कि जो श्रावग मख नहीं बांधे वो श्रावग नहीं हिंसा धर्मी मंदिरपर्जन वाला है इस कहने से प्रत्यक्ष माल्लम होता है कि उलटा चोर कृतवाल को डंडे किसलिये की जिन पूजन अनादि से शास्त्रानुसार आत्मार्थी करते चले आते हैं तिसको बरा कहकर शास्त्र बिदून मुख बांधना अच्छा बताते हैं कुलिंग थापने में जरा भी नहीं शरमाते हैं अपनी खींचातान मचाते हैं उत्तर तो देते नहीं केवल गाल बजाते हैं परभव से जरा भी डर नहिं लाते हैं आपतो डूबे जातिकुल के जैनियों को डुबाते हैं इस रीति से हे भोले भाईयों गोशाला भी जैनी बनता था परंतु अपने श्रावगों को मुख न बंधाया इस लिये हमने गोशाले के श्रावक का कथन सुनाया उपासक दिशा सत्र सातवां अध्यन का लेख लिखाया सूत्र के बिना मुख बांधने का कुलिंग किस रबाड से चलाया इसलिये हमने लिंगानर्णय ग्रंथ को बनाया सिद्धान्त बिदून क्यों कुलिंग को बनाया मुख बांधने से अपने चहरे का नूर गुमाया गांव में घुसते हुए कुत्ते को भुंकाया हमने तुम्हारे कल्याण के हेतु इतने सूत्रों का पाठ समझाया इतने पर भी न भानोनो दुर्गति को जाओरे भाईयो इतना सुनकर कुमात मंडन ढुंडक मुख बांधने वाला चोंककर बोला कि आप अपनीही कहते हो या किसी दूसरे की भी सुनते हो भला शास्त्रों के प्रमाण से निषेध किया परंतु हाथ में रखना तो हमको बतलाइये क्यों नाहक झपाड़ मचाई है तोते की तरह टेंटें लगाई है क्योंकि मुंह पत्ती कहने से मुख पर बांधते थे हाथ पत्ती नहीं जो हाथ में रखते हो और जो हाथ में रखते हो तो हमको ऐसा पाठ / /
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________________ कुमतोच्छेदन भास्कर // [6] बताओ (उत्तर) अंग चुलीए सुत्र मध्य देखोः__तऔसुरी हितदानुण एहि पट्टोवरी कुपरी विठिए हिर यहरणं ठावीतावामकरामीया एमुहयती लंवधरीतु // __ अर्थ:-तिसके बाद आचार्य की आज्ञा हुई कि कोनीके ऊपर रजोहरण रख दक्षिणदिशा रजोहरण की डोरी या रस्सी राखे हाथ विषे अनामिका उंगली ऊपर ला विमुख पत्ती धारण करे यह कहने से मुखपत्ती हाथ में रखनी कही है और मुख बांधने को तो किसी जगह नहीं कही क्योंकि देखो जब दिक्षा देने के समय गुरुने शिष्य के हाथ में मुखवस्त्रिकादि अर्थात् रखीतो फिर मुख बांधने की आज्ञा किसने दी आत्मार्थीयोंने सूत्र की बात चीनी इमलिये हे भाइयों जो भगवत का बचन जमालीने तनकसा उठाया तिसपर उमको निन्दक ठहराया डुबानडुबैया बताया जमालीने अनंत संसार अपना बधाया कुछ लिंग का भेद न चला या करे माने अकरे ऐसा शब्द सुनाया इसका वर्णन श्री भगवतीजी में आया तुमने तो भगवतके बचन को उठाकर मुख बांधने का पंथ चलाया अनंत संसार को बधाया इसके सिवाय मुख बांधने में कुछ सार न पाया इसके ऊपर हरको श्रीमहानशीध सूत्र की चूलिकाका पाठ याद आया सो हम भव्य जीवों को लिखकर दिखाते हैं: कोठीया एवामहणतगणवा विण इरियं पडिकमेमिछू कडंपूरी मठेवा // अर्थ मुखपत्ती कानमें थापन करे तथा मुखपत्ती आदिक सों मख को ढांके बिना जो इरीयावहि पडिक्केमे तो दंण्ड नहीं आवे इस जगह कान के विषे मुखपत्ती थापन करने से दण्ड कहा इस हेतु से हाथ में रखना सिद्ध हुया क्योंकि देखो मुखपै बंधी हुई होतीतो मुख ढकेविदून इरीयावइ पडिक्कमे तो दंण्ड आवे एसा कहना मत्रकारका | कदापिन बनता इसलिये मुख साधना अपनी इच्छा का चलानाहै इम /
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________________ Peautane indinelionhin . [7. जैन लिंग निर्णय // ... | को सुन मुख बांधने वालोंने कहाकि श्री गोतमस्वामी ने मृगा राणी के कहने मे मुख बांधतो श्री गोतमस्वामी आपनी इच्छासे सूत्र विना मुखको बांधातो यह दूषण उनमेंभी आया ( उत्तर ) भोदेवानुप्रिय अपना एब गणधर आदिकमें मत लगावो कुछ बुद्धि का विचार करो कि श्री गोतमस्वामीने रानीके कहने से व्यवहार निमित्त मुख बंधन किया कुछ लिंग थापन न किया अथवा साधुका भेष जानकर मुखको न बांधा अथवा डोरा घाल कर तुम्हारी तरह अष्ट प्रहर मुखपर मुखपत्ती न बांधी क्याकि देखो साधुका माथा दुखनेसे कपड़े से माथा बाधता है वा फोडा आदिक होयतो उस जगह पाटा आदिक बांधा जाताहै परंतु साधुका लिंग जानकर नहि बांधते इसालये बुद्धिका विचार करो जो वर्तमान कालमें मुख बाधतेहैं सोतो साधुका लिंग जानकर बांधतेहैं और अपने में मुख बांधने से साधु पना ठहरातेहैं हाथमे रखने वाले लिंगी भ्रष्टाचारी हिंमा धर्मी बतलाते हैं कारण से जो कोई बांधताहै वो कारण मिटने के बाद खोल देताहै और उसको थापन नहीं करता इसलिये मुखपत्ती को मुख से खोलो सूत्रके अर्थ को तोलो मिथ्यात्वको खोलो जिससे अनंत संसारमें न डोलोजिन वाणोको सुध करके बोलो क्यों खातहो जकजोलो जिससे जैन धर्म हाथ लगे अमोलो औरभी देखांकि आवश्यक निरयुक्ति अध्येन 5 में काउसग के समय मुखपती हाथमें रखना कहाहै सो पाठ दिखाते है॥ चउरं गुलमो हपोता एउज्जुए पह थिरय हरणं वोस दृचत दहो काउस गांकर जाहिः॥ टीका चत्यायंग लानी पाद पोरंतर कार्य उ• मुखपत्ती कादक्षिण हस्तेन ग्राह्या वाम हरतेन रजौहरणं कार्य एतेन विधिना व्युत्सृष्टय यक्तदह कायोत्सर्ग कुर्यात् दोष द्वारमाहें. ये अर्थ तथा अर्थ भाषामदोन पग से खडा हो कर चार अंगुल का बीच अर्थात जगह बखे और मुखपत्ती m -
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