Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
THE FREE INDOLOGICAL
COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC
FAIR USE DECLARATION
This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website.
Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility.
If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately.
-The TFIC Team.
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
जेन हिन्दी पूजा काव्य
परम्परा और आलोचना
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन शोध अकादमी, अलीगढ़
सम्पर्क सूत्र : मंगल कलश, ३६४, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-२०२००१
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन हिन्दी पूजा काव्य
परम्परा और आलोचना
[मागरा विश्वविद्यालय द्वारा १९७८० में पी-एच०डी० उपाधि हेतु
स्वीकृत शोधप्रबन्ध]
लेखक :
डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' [ एम० ए० (स्वर्णपदक प्राप्त), पी-एच० डी० ]
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
डॉ० आदित्य प्रचण्डिया 'वोति' प्रथम संस्करण । महावीर जयन्ती, अप्रेल, १६८७
जैन शोध अकादमी, अलीगढ़ सम्पर्क सूत्र : मंगलकलश
३६४, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, अलीगढ़-२०२००१ (उ०प्र०)
प्रकाशक
अकादमी की सदस्यता
| बी प्रिण्टर्स हाउस, आगरा
Jain Hindi Pooja Kavya : Parampara Aur Alochana by the Dr. Aditya Prachandia Deeti; Published by the Jain Sodh Academy, Mangal Kalash, 394, Sarvodaya Nagar, Agra Road, Aligarh-202001. (U.P.)
Price--Membership of Academy
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
मातृ देवो भव
समर्पण
जिनका सारा जीवन पूजामय था और जिनकी वात्सल्य सिक्त सीख मुझे आज भी सम्बोधती-साधती है, उन्ही ऋजुमना, धर्मपरायणा, महिलामणि, पूज्या मातेश्वरी स्वर्गीया मनोरजनी प्रचण्डिया 'देवीजी' की पावन पुण्य स्मृति में
--आदित्य प्रचणिमा 'बीति'
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
जैन शोध अकादमी, अलीगढ़
विशिष्ट संरक्षक स्व० श्री नौरंगराय जैन (स्व० आनंदप्रकाश जैन, श्री वेद प्रकाश जैन, श्री कैलाशचन्द्र जैन, श्री सुरेशचन्द्र जैन, श्री सुभाषचन्द्र जैन) नौरंग भवन, जी. टी. रोड, अलीगढ़
संरक्षक मण्डल श्रीमान सेठ उम्मेदमल जी पाण्डया, दिल्ली श्रीमान लाला प्रेमचन्द्र जी जैन, दिल्ली श्रीमान बाबू महताबसिंह जी जैन, दिल्ली श्रीमान सेठ रविचन्द्र जो जैन, कानपुर श्रीमान सेठ सौभाग्यमल जी जैन, लखनऊ श्रीमान सेठ ताराचन्द्र जी गंगवाल, जयपुर श्रीमान सेठ चन्द्रकुमार जी जैन, फीरोजाबाद श्रीमान बाबू शिखरचन्द्र जी जैन, देहरादून श्रीमान महेन्द्रकुमार जी जैन, कानपुर श्रीमती रूपरानी जी जैन, अलीगढ़ श्रीमती अलका प्रचण्डिया, अलीगढ़
निदेशक एवं सम्पादक विद्यावारिधि डॉ. महेन्द्रसागर प्रचण्डिया, डी. लिट.
सम्पर्क सूत्र : मंगल कलश
३९४, सर्वोदय नगर, आगरा रोड, ___ अलीगढ़-२०२००१ (उ० प्र०)
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
१- मेरो समस्या : मेरा समाधान
२- वचनशुभ
३. भूमिका
४. अपनी बात
५- उद्भव तथा विकास
६- ज्ञान
७- भक्ति
८. विधि-विधान
६- साहित्यिक
(i) रसयोजना (ii) प्रकृतिचित्रण
(iii) अलंकारयोजना
(iv) छन्दोयोजना
(v) प्रतीक योजना
(vi) भाषा १०- मनोवैज्ञानिक
११- सांस्कृतिक
विषय क्रम
(i) नगर वर्णन
(ii) वेशभूषा, आभूषण और सौन्दर्य प्रसाधन
(iii) वाद्ययन्त्र
(iv) मानवेतर प्रकृति - पुष्पवर्णन
(v) फलवर्णन
(vi) पशुवर्णन
(vii) पक्षीaja
१२- उपसंहार
(i) पूजा काव्यकारों का संक्षिप्त परिचय
(ii) पूषा शब्दकोश
।।।।
IV-V
VIXI
XII - XIII
१- १४
१५- ६६
६७-१०६
११० -१५६
१६०-२७१
१६०-१६६
१७०-१७६
१७७-१६६
१९७-२२७
२२८-२३३
२३४ - २७१
२७२-२६४
२८५ - ३६१ २८६-२६२
२६३ – ३०६
३१-३२१
३२२-३३३
३३४-- ३४६
३४७-- ३५५
३५६-३६१
३६२-३८४
३६२.३६४
३६५-३८४
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
मेरी समस्या : मेरा समाधान
अनभ्यासे विष विद्या अर्थात् अभ्यास के अभाव में विद्या भी विष हो जाती है । शास्त्र विद्या का वैज्ञानिक अध्ययन अनुशीलन जब मौलिकता का उद्घाटन करता है वस्तुतः तभी वह अनुसंधान की वस्तु बन जाती है । अतीत कालीन शास्त्र-वाणी का अभिप्राय विशेष व्याख्या - विधि की अपेक्षा रखता है क्योंकि भाषा विज्ञान के स्वभाव की दृष्टि से शब्द का अर्थ कालान्तर में स्वचालित होता जाता है ।
शास्त्र-परम्परा का प्राचीनतम रूप भारतीय शास्त्र भाण्डारों में विद्यमान है । इस दृष्टि से जिनवाणी की सम्पदा जैन भाण्डारों में सुरक्षित है । हस्तलिखित जैन शास्त्रो की भाषा तथा लिपि विज्ञान एक विशेष विधि-बोध की अपेक्षा रखता है । इस दृष्टि से प्राचीन हस्तलिखित साहित्य का पाठानुसंधान और अर्थ - अभिप्राय आधुनिक प्राचीन लिपि में आबद्ध करना आवश्यक हो गया है ।
आधुनिक अनुसंधित्सु के समक्ष अनेक कठिनाइयाँ उसे जैन विषयों पर गवेषणात्मक अध्ययन-अनुशीलन करने पर आती हैं। सर्वप्रथम उसे विषय का विद्वान निर्देशक ही नही मिल पाता है। जो देश में विषय के विद्वान हैं वे प्रायः शोध तकनीक से अनभिज्ञ होते हैं, साथ ही विश्व विद्यालयी निकष पर खरे नहीं उतरते। जो विश्व विद्यालय अधिनियम के अन्तर्गत समर्थ शोध-निर्देशक है उन्हें जैन शास्त्र तथा वाणी का सम्यक् ज्ञान नहीं होता । इसी क्रम में विषय का art और तत्सम्बन्धित सामग्री संकलन अनुसंधित्सु के लिए शिर-शूल बन जाता है । जैन भाण्डारों में लुप्त-विलुप्त शास्त्रों की खोज लिपि - विज्ञान को न समझ पाने की बीज वस्तुत उसे नैतिक स्खलन तथा सत्य हनन करने-कराने के लिए विवश करता है । जो स्तरीय शोध प्रबन्ध तैयार हैं, जिनकी विधिवत परीक्षा हो चुकी है और जिन्हें उत्तीर्ण घोषित किया जा चुका है, किन्तु उनके प्रकाशन की समस्या है। इन सभी समस्याओ ने एक ऐसे संस्थान की स्थापना करने के लिए मुझे प्रेरित किया जहाँ उपलब्ध हों शोध विषयक सभी समस्याओं
I
( } )
toutes sesuatu.
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
के समाधान । और मूल्यवान ग्रन्थों को प्रकाशित कर देश-विदेश के अनुसंधान केन्द्रों तक सुलभ कराया जा सके, फलस्वरूप विद्या के विविध ज्ञानविज्ञान का सम्यक् मूल्यांकन हो सके। जैन शोध अकादमी इसी का शुभ परिणाम है।
इसके तत्वावधान में लगभग दो दर्जन शोध प्रबन्ध तैयार हो चुके हैं और अनेक शोधार्थियों को दुर्लभ सामग्री, शोध-प्रबन्धों की रूप रेखायें, लघु निबन्धों की रचना तथा पाठानुसंधान विषयक नाना कठिनाइयों का हल सुलभ है। प्रसन्नता का विषय है कि अकादमी के तत्वावधान में यह शोध-प्रबन्ध उसकी प्रकाशन परम्परा की पहल करता है स्थापि इसके सम्पादन तथा प्रकाशन में कितने पापड बेलने पड़े हैं, यह वस्तुत. आत्म-कथा का विषय है ।
अकादमी की योजना को सफल बनाने मे अनेक सामाजिक जिनवाणी प्रेमियों का सहयोग प्राप्त है जिनमें सर्वश्री लाला प्रेमचन्द्रजी जैन (जैना वाच कम्पनी), बाबू इन्द्रजीत जैन, एडवोकेट, कानपुर, पं शीलचन्द्र जी शास्त्री, मवाना श्रीमान् जयनरायण जी जैन, मेरठ, श्रीमान कैलाशचन्द्र जी जैन, मुजफ्फरनगर, श्रीमान् हजारीमल्ल जी बांठिया, कानपुर, श्रीमान् रमेशचन्द्र जी गंगवाल, जयपुर तथा श्री जवाहरलाल जी जैन, सिकन्द्राबाद आदि भाइयों के शुभ नाम उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त महामनीषी पं० कैलाशचन्द्र जी शास्त्री, पंडितवर श्री जगमोहन लाल जी शास्त्री, ५० पन्नालाल जी साहित्याचार्य, पं० राजकुमार जी शास्त्री निबाई, पं० नाथूलाल जी शास्त्री, पं० लाल बहादुर जी शास्त्री, पं० भंवरलाल जी न्यायतीर्थ, डॉ० कस्तूर चन्द्र जी कासलीवाल, बाबू लक्ष्मी चन्द्र जी जैन (भारतीय ज्ञानपीठ) तथा इतिहासमनीषी पं० नीरज जैन, सतना के शुभ नामों का उल्लेख वस्तुत: अकादमी की शक्ति और शोभा है जिनसे हमें समय-समय पर सारस्वत सहयोग प्रा८, होता रहा है। ग्रन्थ के मुद्रण में श्री गोस्वामी जी, मुख पृष्ठ आवरण जैन सेवा समिति, सिकन्द्राबाद तथा ग्रन्थ-प्रबन्धनात्मक सहयोग श्रीमान् श्रीचन्द्र जी सुराना की देख-रेख में सम्पन्न हुआ है, अतः अकादमी परिवार इनका अत्यन्त आभारी है।
इस प्रबन्ध के शोध का चिरंजीवी डॉ. आदित्य प्रचंडिया 'दीति' है जिनका गवेषणात्मक स्वाध्याय और श्रम तथा सूझ-बूझ उल्लेखनीय है । मागरा विश्वविद्यालय के महामनीषी विद्वानों ने इस प्रबन्ध की भूरि-भूरि अनुशंसा कर पी-एच. डी. उपाधि के लिए संस्तुति की है ।
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
उन सभी विद्या-प्रेमियों का योगदान जिनकी सक्रियता के बिना यह प्रकाशन कार्य चलना सम्भव नहीं था, सर्वथा श्लाघनीय है । श्रीमान् उम्मेदमल जी पाण्डया, श्री रविचन्द्र जी जैन, श्री ताराचन्द्र जी गंगवाल, बाबू शिखर चन्द्र जी जन तथा श्रीमान् सौभाग्यमल जी जैन ने अकादमी के संरक्षक बनने की महान कृपा की है। अकादमी की स्थापना में प्रेरणा स्रोत रहे हैं उमके परम संरक्षक श्रीमान कैलाशचन्द्र जी जैन, नौरंग भवन, अलीगढ़।
अंत में उन मभी जैन विद्याप्रेमियों, दानवीरों तथा विद्वान-बन्धुओं का आत्मिक शुभ-भाव तथा सहयोग-सुझाव सादर प्रार्थित है । इत्यलम् ।
महेन्द्र सागर प्रचंडिया निदेशक तथा सम्पादक
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
वचन-शुभ
जैन तत्त्व दर्शन में बात्मा और परमात्मा में इतनी भिन्नता नहीं है कि भजन-स्तवन, पूजा-उपासना का अवकाश हो। पर मनवादका शासन जीवन पर नहीं चलता। भक्ति-उपासना हर मानव की अंतनिहित आवश्यकता है। परमात्मा उस अर्थ में न सही, जैनों के पास उपास्य रूप में परम्परागत पंचपरमेष्ठी की धारणा रहती आई है।
जिन जीतने वाले को कहते हैं और जिन अनुयायी कहलाते हैं जन । जय-विजय कोई बाहरी नही वरन् अपने भीतर के विकार-वासनाओं की। ऐसे विजेताओं की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। इनके गुणों को पूजने की पद्धति भी आज की नहीं है । पूजा विषयक हिन्दी में भी काफ़ी काव्य रचा गया है। इसी काव्य को आधार बनाकर श्री आदित्य प्रचण्डिया ने गवेषणात्मक प्रबन्ध की रचना की है जिस पर आगरा विश्वविद्यालय, द्वारा, इन्हें पी-एच० डी० उपाधि से विभूषित किया गया है।
प्रस्तुत प्रबन्ध में लेखक ने स्पष्ट किया है कि जैन पूजा का रूप-स्वरूप अन्य धर्मावलम्बियों की पूजा पद्धति से भिन्न है। पूजनीय गहां व्यक्ति नहीं, गुण हैं। सिद्ध, अरिहंत, आचार्य, उपाध्याय और साधु-मुनि यह पंच परमेष्ठि प्रतीक हैं। संयम साधना और तपश्चरण से ये राग-द्वेष जन्य कर्म कषायों को जीतने और अन्त में सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते है। लेखक ने स्पष्ट किया है कि पंचपरमेष्ठि व्यक्ति नही, गुणधाम है । गुणों का स्मरण, उनकी वंदना करना वस्तुतः जैनपूजा है। अन्यथा वीतराग की पूजा करने में लाभ ही क्या है ? वे अपने पुजारी का भला-बुरा कुछ कर तो सकते नहीं। लेखक ने स्पष्ट किया है कि इन आत्मिक गुणों का स्मरण कर, उनकी वंदना कर पूजक अपनी आत्मा में निहित प्रच्छन्न गुणों को जगाता है, उजागर करता है । इस प्रकार आत्म-जागरण ही वस्तुत: जैन पूजा का प्रयोजन है।
हिन्दी पूजा-काव्य-रूप रस वैविध्य के अतिरिक्त अनेक छन्दों में, शैलियों में रचा गया है। इस काव्य-अभिव्यञ्जना में नाना प्रतीकों, अलंकारों तथा शब्द शक्तियों का प्रयोग-उपयोग हम है। लेखक ने इन तमाम काव्यशास्त्रीय
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंगों का अध्ययन किया है। भाषागत अनेक रूप स्पष्ट किये गये हैं जिसमें अनेक शब्द पारिभाषिक अर्थ-अभिप्राय रखते हैं। इससे हिन्दी भाषा समन होती है।
पूजा काध्य में व्यजित सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक स्वरूप का विश्लेषण भी किया गया है। भारतीय संस्कृति के विकास क्रम में जैन संस्कृति का आरम्भ से ही स्थान है, रचना से यह स्पष्ट हो जाता है। वैदिर. बोट और जैनधाराएँ मिलकर ही भारतीय संस्कृति के रूप का स्वरूप स्थिर करती है। आरम्भ में जैन संस्कृति को श्रमण संस्कृति के नाम से अभिहित किया जाता था।
पूजा काव्य में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावलि देकर लेखक ने प्रबन्ध के महत्व का संवद्धन किया है। साथ ही इस काव्य के पाठियों को उसके अर्ष-अभिप्राय को समझने में इससे पर्याप्त मदद मिलेगी। हिन्दी के अन्यान्य संत कवियों की नाई इन कवियों की भाषा भी विशेष अर्थ की व्यञ्जना करती है। भाषा के विकास अपवा हास क्रम से इस अध्ययन की सहायता असंदिग्ध है।
प्रस्तुत प्रबन्ध अपनी भाव तथा कला सम्पदा से जहां एक ओर विद्वत् समाज को लाभान्वित करता है वहां भक्त्यात्मक समुदाय को भी शानालोक विकीर्ण करता है । मुझे भरोसा है इस उपयोगी प्रकाशन के लिए जनशोध अकादमी, अलीगढ़ के शुभ निर्णय का सुधी समाज यथेष्ट स्वागत करेगा।
जैनेन्द्र कुमार
१६-२-८६ दरियागंज, दिल्ली
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
भूमिका
देश की सभी प्रमुख भाषाओं में निबद्ध होने के कारण जैन साहित्य की विशालता का अनुमान लगाना सहज कार्य नही है उसका अधिकांश भाग अप्रकाशित है, अनदेखा है साथ में अचचत भी है । जब हम राजस्थान के ग्रंथालयों को देखते हैं तो उनमें सैकड़ों हजारो पाण्डुलिपियों के दर्शन होते हैं । अभी तक तो पचासों ग्रंथालय ऐसे भी हैं जिनका सूचीकरण भी नहीं हो पाया है इसलिए इन शास्त्र भण्डारों में कितने अमूल्य ग्रंथ बिखरे पड़े हैं इसके बारे में कौन क्या कह सकता है ? इसके अतिरिक्त जैनाचार्यो एवं विद्वानों ने सभी विषयों पर लेखनी चलाई है। उन्होंने अपने गम्भीर ज्ञान को अपनी कृतियों में उड़ेल कर रख दिया है इसलिए जैन साहित्य की गहनता के बारे में 'नेति नेति' कहने के अतिरिक्त और कहा भी क्या जा सकता है ?
जैन धर्म निवृत्ति प्रधान धर्म है । सर्वथा निष्परिग्रही बने बिना जीवन ar अन्तिम लक्ष्य 'निर्वाण' को प्राप्त ही किया जा सकता है । उसका दर्शन चिन्तन, आचार एवं व्यवहार सभी मानव मात्र को त्याग की दिशा में मोड़ने वाले हैं इसलिए जो निष्परिग्रही बनकर निर्वाण प्राप्त करता है अथवा निष्परिग्रही जीवन में प्रवृत होकर मोक्ष मार्ग का पथिक बन जाता है उनका जीवन स्तुत्य है । उनका दर्शन, स्तवन, अर्चन आदि सभी हमारे लिए अभीष्ट है । अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु ये पंचपरमेष्ठी कहलाते हैं क्योंकि ये सभी निवृतिपरक जीवन अपना चुके हैं । जगत से उन्हें कोई लेना देना नहीं है । उनमें भी सिद्ध परमेष्ठी मोक्ष प्राप्त कर चुके हैं, अर्हत् परमेष्ठी को मोक्ष की उपलब्धि होने वाली है तथा आचार्य, उपाध्याय एवं साधु मोक्ष मार्ग के पथिक बन चुके हैं वे अपने वर्तमान भव से वापिस गृहस्थी में बाने वा नहीं हैं। उन्होंने मोक्ष मार्ग अपना लिया है इसलिए जो मोक्ष चले गए हैं, जो जाने वाले हैं और जिन्होंने यात्रा आरम्भ कर दी है वे सभी हमारे लिए वन्दनीय हैं, पूजनीय हैं ।
गृहस्थ अवस्था जिन्हें जैनधर्म में श्रावक की संज्ञा दी है उनके जीवन के लिए अपने नियम हैं, विधि है तथा दिशानिर्देश हैं इन सब का उद्देश्य जीवन को शुद्ध, सात्विक एवं सरल बनाना है। उसे मोक्ष पथ का पथिक बनाना है
(
vi)
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
( vii )
और अन्त में जीवन का चरम लक्ष्य निर्वाण प्राप्त करना है, इसलिए भावकों के लिए प्रतिदिन किए जाने वाले छह कर्मों का स्पष्ट विधान किया गया है । देवपूजा, साधुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और त्याग इन षट् कर्मों को प्रतिदिन करने को आवश्यक माना गया है । इन षट् कर्मों में देव पूजा को प्रथम स्थान प्राप्त है। पूजा का उद्देश्य आत्म विकास का करना है । आध्यात्मिकता को पूर्णतया विकसित करना ही पूजा का फल माना जाता है ।
पूजा दो तरह से की जा सकती है। एक भावों के द्वारा तथा दूसरे द्रव्य को आलम्बन बनाकर । प्रथम पूजा भाव पूजा कहलाती है तथा दूसरी पूजा द्रव्य पूजा के नाम से जानी जाती है । द्रव्यों के उपयोग किए बिना मन ही मन पूजा करना भाव पूजा है। इसमें मन, वचन और काय तीनों का जिनेन्द्र की भक्ति में तादात्म्य करना होता है । द्रव्य पूजा अष्टद्रव्य पूजा कहलाती है जिसमें आठ द्रव्यों-जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप एवं फल का उपयोग होता है । लेकिन द्रव्यपूजा का उद्देश्य भी निर्विकार दशा की और अपने आप को संजोना है। दोनों ही प्रकार की पूजाएँ अनादि है । जब से अरिहंत सिद्ध आचार्य परम्परा है तब से श्रावक परम्परा है तो पूजा की परम्परा अनादि है । उसका छोर पाना सम्भव नहीं है। तिलोयपण्णत्ती आदि ग्रन्थों में अष्टद्रव्य से पूजा करने का वर्णन आता है। आचार्य वीरसेन ने षट् खण्डागम की धवला टीका में पूजाओं का उल्लेख किया है । आचार्य रामन्तभद्र ने पूजा करने को श्रावक का महान कर्तव्य बतलाते हुए उसे इच्छित फलमापक सर्व दुःख विनाशक एवं कामवासना दाहक कहा है। महापण्डित आशाघर ने अष्टद्रव्यों से पूजा करने का स्पष्ट उल्लेख करते हुए प्रत्येक द्रव्य के चढ़ाने का फल भी निर्दिष्ट किया है । इसी प्रकार आचार्य जिनसेन, अमृत चन्द्र, सोमदेव, अमितगति, पं. मेधावी, पं. राजमल्ल भट्टारक, सकलकीर्ति एवं पद्मनन्दि सभी ने पूजा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए उसे श्रावक के आवश्यक कर्त्तव्यों में गिनाया है । स्वयं महापंडित टोडरमल जी जिन्हें तेरह पंथ आम्नाय का प्रमुख प्रचारक माना जाता है, इन्द्रध्वज विधान के आयोजन में प्रमुख योगदान देकर अष्टद्रव्य पूजा की प्राचीनतम परम्परा को स्वीकारा है ।
पूजा साहित्य जैन साहित्य का प्रमुख अंग है । यद्यपि पूजा साहित्य धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत आता है लेकिन इस साहित्य में भी जैनाचार्यों एवं कवियों ने एकदम नया रूप दिया है और इस साहित्य में वो उन सभी तत्वों
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
( viii ) का समावेश कर दिया है जो किसी काव्य पुराण, इतिहास, संगीत, छन्द, बसंकार एवं अन्य प्रकार के साहित्य में मिलते हैं। कहने का तात्पर्य है कि जैन विद्वानों ने उन सभी गुणों का समावेश कर दिया है जिससे पूजा विषयक साहित्य धार्मिक साहित्य के साथ-साथ लौकिक साहित्य भी बन गया है । ___ यह पूजा साहित्य प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत, हिन्दी आदि सभी भाषाओं में उपलब्ध होता है । जैनाचार्यों की यह विशेषता रही है कि उन्होंने जो भी जन भाषा ही उसी में अपनी लेखनी तथा देश एवं समाज को भाषा विशेष के कारण साहित्य से वंचित नहीं किया। राजस्थान के जैनशास्त्र भण्डारों की ग्रंथ सूचियों के जो पांच भाग प्रकाशित हुए है उनको हम देखें तो हमें देश की सभी भाषाओं में निबद्ध साहित्य का सहज ही पता चल सकता है । पूजा साहित्य की सैकड़ों पाण्डुलिपियों का परिचय इन ग्रंथ सूचियों में उपलब्ध होता है जिनको देखकर हमारा हृदय गद्गद हो उठता है और इन पूजाओं के निर्माताओं के प्रति हमारी सहज श्रद्धा उमड़ पड़ती है।
जैन पूजा साहित्य किसी तीर्थकर विशेष और चौबीस तीर्थंकरों तक ही सीमित नहीं रहा किन्तु विद्वानों ने बीसों विषयों पर पूजाएँ लिखकर समाज में पूजाओं के प्रति सहज आकर्षण पैदा कर दिया । पूजा साहित्य का इतिहास अभी तक क्रमबद्ध रूप से नहीं लिखा गया। यद्यपि प्राचीन आचार्यों ने पूजा के महत्व को स्वीकारा है और उसमे अष्टद्रव्य पूजा का विधान किया है लेकिन महापडित आशाधर के पश्चात् जैन सन्तों का पूजा साहित्य की ओर अधिक ध्यान गया और अकेले भट्टारक सकलकीति परम्परा के भट्टारक शुभचन्द्र ने संस्कृत भाषा में २५ से भी अधिक पूजाओं को निबद्ध करने का एक नया कीर्तिमान स्थापित किया। इनके पश्चात् तो पूजा साहित्य लिखने को विद्वत्ता पाण्डित्य एवं प्रभावना की कसौटी माना जाने लगा इसीलिए साहित्यिक रुचि वाले अधिकांश भट्टारकों एवं विद्वानों ने अपनी लेखनी चलाकर अपने पाण्डित्य का परिचय दिया।
हिन्दी में पूजा साहित्य लिखना १७वीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ। इस शताब्दी में होने वाले रूपचन्द्र कवि ने पंचकल्याणक पूजा की रचना समाप्त की और हिन्दी कवियों के लिए पूजा साहित्य लिखने के एक नये मार्ग को जन्म दिया । इस शताब्दी में और भी पवियों ने छोटी-छोटी पूजायें लिखी लेकिन १८वीं शताब्दी आते-आते हिन्दी में पूजायें लिखने को भी पाण्डित्य की निशानी समझा जाने लगा यही कारण है कि इस शताब्दी के दो प्रमुख
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ix )
कवियों भूधरदास एवं द्यानतराय दोनों ने पूजा साहित्य को भी अन्य साहित्य के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया। इन दोनों कवियों की पूजाओं ने जब लोकप्रियता प्राप्त की तथा घर-घर में उनका प्रचार हो गया तो १६वीं एवं २०वीं शताब्दियों में तो हिन्दी में इतना अधिक पूजा साहित्य लिखा गया कि उसकी गिनती करना कठिन है । ऐसे पूजा साहित्य निर्माता कवियों में डालूराम, टेकचन्द्र, सेवाराम माह, रामचन्द्र, बख्तावरलाल, नेमिचन्द्र पाटनी के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं । २०वीं शताब्दी में प्रसिद्ध पूजाकवियों में सदासुखजी कासलीवाल, स्वरूपचन्द्र विलाला, पन्नालाल दूनीवाले, मनरंगलाल के नाम विशेषतः उल्लेखनीय हैं। इन कवियों ने पूजा साहित्य को इतना अधिक लोकप्रिय बनाया कि चारों ओर पूजा साहित्य ही दृष्टिगोचर होने लगा । अढ़ाई द्वीप पूजा, तीन लोक पूजा, समव रणपूजा, चारित्र शुद्धि विधान पूजा, सोलहकारण पूजा, दशलक्षणपूजा, अष्टान्हिका पूजा, पंचमेरु पूजा जैसी महत्वपूर्ण एवं पुराण सम्मत प्रजाओं को छंदोबद्ध करके समाज को एक सूत्र में बाँध दिया और देश के हिन्दी भाषी एवं अहिन्दी भाषी प्रदेशो में समान रूप से उमी तन्मयता के साथ पूजाये की जाने लगीं। हजारों व्यक्तियों को तो पूजा बोलने के लिए हिन्दी भाषा सीखनी पड़ी और आज तक की हिन्दी पूजा की यही परम्परा चल रही है। वर्तमान शताब्दी मे भी पचासों विद्वानों ने विभिन्न प्रकार की पूजाएं निबद्ध की हैं उनमें कुछ पूजायें तो बहुत ही लोकप्रिय बन गई हैं ।
पूजा साहित्य हमारी भावनात्मक एकता का प्रतीक है क्योंकि देश के विभिन्न प्रदेशों में वे समान रूप से पढ़ी एवं बोली जाती हैं। आसाम, बंगाल, तमिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र में पूजा करने वालों के लिए
ही हिन्दी पूजायें हैं जो राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश एवं देहली मे उपलब्ध हैं । पूजा करने वालों के लिए प्रदेश एवं भाषा का कोई अवरोध नहीं है ।
डॉ० आदित्य प्रefuser ने 'हिन्दी जैन पूजा साहित्य का आलोचनात्मक अध्ययन' प्रस्तुत करके इस दिशा में एक नया एवं खोजपूर्ण कार्य किया है । यह उनका शोधप्रबन्ध है जिस पर सन् १९७८ ई० में उन्हें आगरा विश्वविद्यालय से पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त हुई है । डॉ० आदित्य ने हिन्दी पूजाओं का सम्यक् अध्ययन किया है और उसके उद्भव एवं विकास, ज्ञान,
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
=)
भक्ति, विधि-विधान, भावपूजा, द्रव्यपूजा, जैसे पक्षों का बहुत ही सुन्दर विश्लेषण प्रस्तुत किया है तथा पूजा साहित्य की रसयोजना, प्रकृति-चित्रण, अलंकारयोजना, छंदोयोजना, प्रतीक योजना, भाषा, मनोविज्ञान, संस्कृति, नगरवर्णन, वेशभूषा, आभूषण एवं सौन्दर्य प्रसाधन, वाद्ययंत्र जैसे विषयों का जो वर्णन इन जैन पूजाओं में मिलता है उन सबका सविस्तार अध्ययन प्रस्तुत करके जैनपूजा साहित्य को काव्य की धरातल पर ला बिठाया है । डॉ० आदित्य प्रचण्डिया के अनुसार जैन हिन्दी पूजाएं सभी दृष्टियों से उल्लेखनीय हैं। वे धार्मिक साहित्य के साथ-साथ लोबिक वर्णन से भी ओतउप्रोत हैं।
डॉ० आदित्य प्रचण्डिया ने स्वीकारा है कि पूजा काव्यों में यद्यपि शांत रस का परिपाक हुआ है लेकिन उनमे शोभा शृंगार, उत्साह-वीर एवं करुण रस के अभिदर्शन होते हैं । जैन पूजा साहित्य की भाषा आलंकारिक होती है । शब्दालंकार एव अर्थालंकार दोनो से ही वे ओतप्रोत हैं। डॉ० आदित्य ने इन अलंकारों से युक्त पद्यों का सविस्तार वर्णन किया है। छदशास्त्र की दृष्टि से भी इन पूजाओं में महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध होती है । वास्तव में जैन कवियों ने इन पूजाओं में विविध छन्दों का प्रयोग किया है तथा उसे वर्णत: गेय बना दिया है ।
भाषागत अध्ययन के लिए हिन्दी जैन पूजाएं किसी भी शोधार्थी के लिए महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध कराती हैं। पूजा साहित्य की भाषा अपने समय की समस्त भाषाओं, विभाषाओं एवं बोलियों के मधुर सम्मिश्रण से प्रभावी रही है। डॉ० आदित्य प्रचण्डिया ने इन सबका विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है जिससे उनका यह शोधप्रबन्ध बहुत ही उपयोगी बन गया है। गत तीन शताब्दियों में विभिन्न क्रियापदों की मात्रा किस प्रकार आगे बढ़ती रही इसका जैन पूजायें मनोविज्ञान के गुण से भी करते समय एक भिन्न प्रकार का मनोउसमें विभिन्न अवस्थाओं के भाव भर
भी उन्होंने अच्छा अध्ययन किया है। बोनप्रोत है तथा पूजक को पूजा वैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है और वे देती हैं।
डॉ० मादित्य प्रचण्डिया डॉ० महेन्द्र सागर प्रचण्डिया के सुपुत्र हैं। डॉ० महेन्द्र सागर जी समाज एवं साहित्यिक जगत में अपने चिन्तन, मनन एवं सेजन के लिए ख्याति प्राप्त विद्वान हैं और वे ही गुण डॉ० जावित्य में वर
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
(xi)
माये हैं। डॉ० आदित्य द्वारा हिन्दी जन पूजा साहित्य का जो नये आयामों के बाधार पर विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया गया है इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। पूजा साहित्य के प्रति अब तक जो नाम पाठक की धारणा रही है उनसे भिन्न हटकर डॉ० आदित्य ने उसे नए परिधानों से अलंकृत किया है । उनका यह अध्ययन स्तुत्य एवं प्रशंसनीय है तथा हिन्दी जगत में इसका surve स्वागत होगा, ऐसी मेरी मंगलकामना है ।
१ अप्रैल, १९८६
४६७, अमृतकलश, बरकतनगर
किसान मार्ग, टोंक फाटक
जयपुर (राज0)
डॉ०
० कस्तूरचन्द कासलीवाल
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
अपनी बात
जिज्ञासा मनुष्य की स्वयंभू मनोवृत्ति है। ज्ञानार्जन का मूलाधार यही जिज्ञासा प्रवृत्ति होती है। मनुष्य अजित शान की अभिव्यक्ति भारम्भ से करता आया है। सत्यं शिवं सुन्दरं से समन्वित अभिव्यञ्जना साहित्य है। जैन हिन्दी काव्य में प्रयुक्त काव्य रूपों को मूलतया दो वर्गों में विभक्त कर सकते हैं.बर और मुक्त । बद्ध वर्ग में वर्णनात्मक काव्यरूपों में पूजाकाव्य रूप का स्थान अपनी स्वतंत्र उपयोगिता के कारणवश सुरक्षित है। पूजा वस्तुतः एक भक्त्यात्मक लोक काव्य रूप है । लोक कण्ठ से होता हुआ यह काव्य रूप मनीषी साहित्य में समाहत हुआ है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश से होता हुमा यह काव्य रूप हिन्दी में अवतरित हुआ है । इतनी महत्वपूर्ण काव्यधारा का अभी तक वैज्ञानिक तथा सैद्धान्तिक रूप से अध्ययन नहीं हुआ था। इसी अभाव ने मुझे इस ओर प्रवृत्त होने के लिए प्रेरित किया। आगरा विश्वविद्यालय ने सन् १९७८ ई० में इस शोध प्रबन्ध पर मुझे पी-एच डी० की उपाधि प्रदान की है । आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ० सत्येन्द्र, डॉ. रामसिंह जी तोमर, डॉ० अम्बाप्रसाद जी 'सुमन', डॉ० श्रीकृष्णजी वाष्र्णेय आदि विद्वानों की इस प्रबन्ध पर प्रदत्त आशंसा मेरे श्रम का परिहार करती है।
पूज्य पिता श्री डॉ. महेन्द्र सागरजी प्रचण्डिया की सतत प्रेरणा प्रोत्साहन और विद्वता ने मुझे इस अशात पथ पर अग्रसर होने का साहस प्रदान किया है। उनके इस ऋणत्व से विमुक्त होना असम्भव है। बय म. विद्यानिवास जी मिश्र, कुलपति, काशी विद्यापीठ, वाराणसी के लिए क्या कहूं जिनका स्नेहाशीष मुझे अन्त तक मिलता रहा है। उन्हें धन्यवाद देकर अपने सम्बन्धों की अभिनता को मैं कम नही करना चाहता । डॉ. कस्तुरचन्द्र जी कासलीवाल का किन शब्दों में स्मरण करू' जिन्होंने प्रस्तुत प्रबन्ध की भूमिका लिवकर मुझे उपकृत किया है। श्रद्धेय श्री जैनेन्द्र जी का तो
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
(xili )
मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ कि उन्होंने इस ग्रन्थ को अपने शुभ वचनों से समलंकृत किया है ।
डॉ० एस० सी० गुप्ता, श्री जगवीर किशोर जैन, डॉ० चन्द्रवीर जैन को कैसे विस्मरण किया जा सकता जिनकी प्रेरणा मेरा सम्बल रही है । मेरे अनु श्री राजीव प्रचण्डिया, एडवोकेट ने इस ग्रन्थ की प्रूफ रीडिंग का दुरूह दावि बड़ी सफलता से निर्वाह किया है । प्रिय संजीव प्रचण्डिया 'सोमेन्द्र', एम० काम० एल० एलके और कुवर परितोष प्रचण्डिया, एम० काम० का ग्रन्थ की पाण्डुलिपि व्यवस्थित करने का परिश्रम प्रशंस्य है। मैं इन त्रय अनुजों के बज्ज्वल भविष्य की मंगल कामना करता हूँ । सहधर्मिणी श्रीमती अलका मी, एम० ए० (य), रिसर्च स्कॉलर धन्यवाद की अधिकारिणी हैं जिन्होने मेरे इस कार्य को अपने सहयोग से गति प्रदान की है। चि० मनुराजा एवं दुलारी कनुप्रिया की बाल लीलाओं ने शोध की नीरसता में सरसता का संचार किया है । ग्रन्थ के मुद्रक श्री योगेन्द्र गोस्वामी की तत्परता के लिए आभारी हूँ ।
보고
अन्त में इस ग्रन्थ के प्रणयन में परोक्ष-अपरोक्ष जिनसे सहायता मुझे मिली है उनके प्रति में आभार व्यक्त करता हूँ । शुभम् ।
२० दिसम्बर, १९८६
आदित्य प्रचण्डिया 'दीति'
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
उद्भव तथा विकास
i
जैन-धर्म के अनुसार मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल नामक मन के पाँच मे विख्यात हैं । इन्हें स्वार्थ और परार्थ नामक दो भेदों में विभाजित किया गया है। मति, अवधि, मन:पर्यय और केवल ज्ञान स्वार्थसिद्ध हैं, जबकि परार्थज्ञान केवल एक है और वह भी भुत । भुत का प्रयोग शास्त्र के अर्थ में होता है। भारतीय धर्म-साधना में वैदिक, बौस और जैन धर्म समाहित हैं। वैदिक-शास्त्रों को वेद, बौद्ध-शास्त्रों को पिटक तथा जैनशास्त्रों को आगम कहा जाता है ।"
यथा
आगमयति हिताहितं बोधयति इति आगमः अर्थात् जो हित और अहित का ज्ञान कराते हैं, वे आगम हैं। शुद्ध-निष्पाप आत्मा में आगम विद्या का संचार होता है। इसलिए केवल ज्ञान प्राप्त तीर्थकरों की वाणी को ही भागम कहा गया है । आगम का मौलिक अभिप्राय प्राचीनतर प्राग्वैदिक काल से आती हुई वैतिर धार्मिक या सांस्कृतिक परम्परा से है । "
जैनशास्त्रों का वर्गीकरण चार अनुयोगों के रूप में किया गया है',
१. प्रथमानुयोग २. करणानुयोग ३. चरणानुयोग ४. द्रव्यानुयोग
१. दसवें आलियं, सम्पादक - मुनि नथमल जैन, विश्वभारती, लाडनू ं, राजस्थान, द्वितीय संस्करण १६७४ ई०, भूमिका लेखक आचार्य श्री तुलसी, पृष्ठ १५ ।
२. वैदिक संस्कृति के तत्त्व - डा० मंगलदेव शास्त्री, पृष्ठ ७; भारत में संस्कृति एवं धर्म- डा० एम० एल० शर्मा, रामा पब्लिशिंग हाउस, बड़ौत (मेरठ) प्रथम संस्करण १९६६, पृष्ठ ८३ ।
३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार - स्वामी समन्तभद्राचार्य, वीर सेवा मंदिर, सस्तों ग्रन्थमाला, दरियागंज, दिल्ली, प्रथम संस्करण, वी० नि० सं० २४७६, पृष्ठ १३५ से १३७ तक ।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिन शास्त्रों में महापुरुषों के परित्र द्वारा पुष्प-पाप के फल का वर्णन होता है और अन्त में वीतरागता को हितकर निरूपित किया जाता है, न शास्त्रों को प्रथमानुयोग कहते हैं।' करणानुयोग के शास्त्रों में गुणल्यान, मार्णणास्थान आदि रूप से जीव का वर्णन होता है, इसमें गणित का प्राधान्य है, क्योंकि गणना और नाम का यहाँ व्यापक वर्णन होता है। गृहस्थ भोर मुनियों के माधरण-नियमों का वर्णन चरणानुयोग के शास्त्रों में होता है। इनमें सुभाषित, नीति-शास्त्रों की पति मुख्य है, जीवों को पाप से मुक्त कर धर्म में प्रवृत्त करना इनका मूल प्रयोजन है । इनमें प्रायः म्यबहारभय की मुख्यता से कयन किया जाता है। बाद्याचार का समस्त विधान परमानुयोग का मूल वयं विषय है।' प्रम्यानुयोग में षट्दव्य, सप्ततत्व और स्व-परमेव विज्ञान का वर्णन होता है। इस अनुयोग का प्रयोजन
१. प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यं ।
बोधिसमाधिनिधानं बोधाति बोधः समीचीनः ।। -रत्नकरण्ड श्रावकाचार--स्वामी समंतभद्राचार्य, वीरसेवा मंदिर, सस्ती ग्रन्थमाला, दरियागंज, देहली, प्रथम संस्करण, वीर निर्वाण सं० २४७६,
श्लोक संख्या ४३ । २. लोकालोकविभक्तेयुगपरिवृतेश्चतुर्गतीनां च ।
आदर्शमित्र तथा मतिरबति करणानुयोगं च ॥
-रत्नकरण्ड श्रावकाचार- स्वामी समन्तभद्राचार्य, श्लोक संख्या ४४ । ३. गृहमेध्यनगाराणं चारित्रोत्पतिवृद्धिरक्षाङ्गम् ।
चरणानुयोग समयं सम्यग्ज्ञानं विजानाति ॥ -रत्नकरण्ड श्रावकाचार-स्वामी समन्तभद्र, वीरसेवा मंदिर, सस्ती. ग्रंथमाला, दरियागंज, देहली, प्रथम संस्करण, वी. नि० सं० २४७६, श्लोक संख्या ४५। जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आया । तच्चत्था इदि मणिदा णाणा गुणपज्जएहिं संजुता ॥ नियमसार, आचार्य कुदकुद, जीवअधिकार, गाया संख्या ६, श्री दिगम्बर. जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र), द्वितीय आवृति वीर
सं० २४६२, पृष्ठ २२। ५. जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षस्तत्त्वम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय १, सूत्र ४, उमास्वामि, श्री अखिल विश्व जैन मिशन, अलीगज-एटा,सन् १९५७, पृष्ठ ३ ।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
( @)
वस्तुस्वरूप का सच्चा भडान तथा स्वपर-मेव-विज्ञान उत्पन्न कर वीतरागता प्राप्त करने की प्रेरणा देना है ।"
चरणानुयोग के समान व्रज्यानुयोग में बुद्धियोवर कथन होता है, परन्तु चरणानुयोग में बाह्य किया की मुख्यता रहती है और द्रव्यानुयोग में आत्मा - परिणामों को मुख्यता से कथन होता है। जैनधर्म के अनुसार तो वह परिपाटी है कि पहले द्रव्यानुयोगानुसार सम्यग्दृष्टि हो, फिर चरणानुयोगानुसार व्रतादि धारणकर व्रती हो। पूजा-अर्चना का सम्बन्ध इन्हीं अनुयोगों से होता हुआ चरणानुयोग के शास्त्रों में पल्लवित हुआ है ।
प्रावि तथा वैदिक परम्परा द्वारा निर्दिष्ट सम्मार्ग पर भारतीय जन समाज आरम्भ से ही प्रवहमान है । द्राविड़ संस्कृति से चलकर व्रत - साधना भ्रमण कहलाई और वैदिक परम्परा को संजीवित करने वाली पद्धति वस्तुतः ब्राह्मण ।" अपने आराध्य के श्री चरणों में भक्ति-भावना व्यक्त करने के लिए ब्राह्मण शैली यज्ञ का आयोजन करती है ।" भ्रमण समाज में पूजा का विधान व्यवस्थित हुआ, जिसमें पुष्प का क्षेपण उल्लेखनीय है ।"
भारतीय संस्कृति में भ्रमण संस्कृति का प्रमुख स्थान है । जो संयमपूर्वक श्रम करे, उसे भ्रमण कहते हैं ।" इस परम्परा की प्राचीनता ऋग्वेद में धमन शब्द के व्यवहार से भी प्रमाणित है । भ्रमण-संस्कृति के दर्शन, सिद्धान्त, धर्म
१. जीवा जीवसुत्तत्वे पुण्यापुण्यं च बन्ध मोक्षौ च ।
द्रव्यानुयोग दीपः श्रुत विद्यालोक मालनुते ॥
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार, स्वामी समन्तभद्र, श्लोक संख्या ४६, वही । २. भारतवाणी, तृतीय जिल्द, प्रबंध संपादक श्री विश्वम्भरनाथ पांडे । पृष्ठ ५६८ ।
३. बृहत हिन्दी कोश सम्पा० कालिकाप्रसाद आदि, ज्ञान मण्डल लिमिटेड, वाराणसी - १, तृतीय संस्करण संवत् २०२०, पृष्ठ १११२ ।
४. भारतवाणी, तृतीय जिल्द, प्रबन्ध सम्पादक श्री विश्वम्भरनाथ पांडे, लेखहिन्दी जैन पूजाकाव्य - डा० महेन्द्र सागर प्रचंडिया द्वारा उद्धृत इण्डो एशियन कल्चर, डा० सुनीति कुमार चाटुर्ज्या, इन्दिरा गान्धी अभिनन्दन समिति सन् १९७५, पृष्ठ ५६८ ।
५. दसवेआलियं, सम्पादक मुनि नथमल, आमुख, जैन विश्वभारती प्रकाशन, लाडनू', द्वितीय संस्करण १९७४, पृष्ठ १७ ।
६. तुदिला अतृदिलासो अद्रयोऽश्रमणाअशुषिता अमृत्यवः ।
मनातुरा अजरा: श्थामविष्णवः सुपीवसो अतृषिता अतृष्णजः ॥ ऋग्वेद, मण्डल १०, सूत्र संख्या १४, ऋचासंख्या ११, सम्पादक श्रीरामशर्मा आचार्य, गायत्री तपोभूमि, मथुरा, प्रथम संस्करण १९६० ई० पू० १६९५
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
उसके प्रवर्तकों-तीर्थकरों तथा उनकी परम्परा का महत्त्वपूर्ण अवसान है। भावितीयंकर ऋषभदेव से लेकर अन्तिम अर्थात् चौबीसवें तीर्थकर महावीर और उनके उत्तरवर्ती आचार्यों ने आध्यात्मिक विद्या का प्रसार किया है, जिसे उपनिषद् साहित्य में परा-विद्या अर्थात् उत्कृष्ट विद्या कहा गया है।'
तीर्थकर महावीर के सिद्धान्तों और वामय का अवधारण एवं संरक्षण उनके उत्तरवर्ती बमणों और उपासकों ने किया है। तीर्थक्षेत्र, मन्दिर, मतियां ग्रंथागार, स्मारक आदि सांस्कृतिक विभव उन्हीं के अटूट प्रयत्नों से आज संरक्षित हैं। इस उपलब्ध सामग्री का श्रुतधराचार्य, सारस्वताचार्य, प्रबुवाचार्य और परम्परा पोषकाचार्यों द्वारा संबढन होता रहा है। यहां श्रुतधराचार्यो से तात्पर्य उन आचार्यों से है, जिन्होंने सिद्धान्त-साहित्य, कर्मसाहित्य तथा अध्यात्म-साहित्य की रचना की है । जैनागम में ऐसे आचार्यो में गणधर, धरसेन, भूतबलि, यतिवृषभ, कुंद कुंक आचार्य आदि उल्लेखनीय हैं । सारस्वताचार्य का संकेत उन आचार्यों से है, जिन्होंने भूत परम्परा द्वारा प्रणीत मौलिक साहित्य तथा टोका साहित्य द्वारा धर्म-सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया है। इन आचार्यों में स्वामी समंतभद्र, देवनंदि, पूज्यपाद, नेमीचंद्र सिद्धान्ताचार्य, जोइन्दु, अमृतचन्द्र सूरि आदि उल्लेखनीय हैं। प्रबुद्धाचार्य से अभिप्राय उन आचार्यों से है, जिन्होंने अपनी प्रतिमा द्वारा ग्रंथ-प्रणयन के साथ विवृतियां तथा भाष्य रखे हैं। इन आचार्यों में गुणभद्र, प्रभाचंद्र, हरिषेण, सोमदेव, पदमचंद आदि उल्लेखनीय हैं। परम्परापोषकाचार्य से भभिप्राय उन आचार्यों से हैं, जिन्होंने दिगम्बर परम्परा को रक्षा के लिए प्राचीन आचार्यों द्वारा निमित ग्रंथों के आधार पर अपने नए प्रय रथे और शास्त्रागम परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा है। इस श्रेणी में आचार्य सकलकीति, ब्रह्म जिनकास, ज्ञानभूषण, विद्यानंद, यसकीति तथा मल्लिभूषण भाषि उल्लेखनीय हैं।
१. तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा-डा० नेमीचन्द्र शास्त्री,
भाग १, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद्, सागर
प्रथम संस्करण, सन् १९७४, आमुख पृष्ठ १३ । २. तीथंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा-डा० नेमिचन्द्र शास्त्री,
भाग १, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद्, सागर, प्रथम संस्करण सन् १९७४, आमुख पृष्ठ १८, १६ तया २० ।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५ )
evergयोग के शास्त्रों में बाहू याचार का विधान व्यंजित है। जिनवाणी का तात्पर्य वीतरागता है । यह परमधर्म है, जिसकी अनुयोगों में परिपुष्टि हुई
| आत्म-स्वरूप में रमण करना वस्तुतः चारित्र है । मोह, राग, द्वेव से रहित आत्मा का परिणाम साम्य भाव है, जिसे प्राप्त करना चारित्र का मूलोद्देश्य है ।"
erfer साधना गृहस्थ से प्रारम्भ होती हैं । विवेकवान विरक्त चित्त अणुव्रती गृहस्थ को श्रावक कहा गया है ।" जैन परम्परा के अनुसार श्रावक को तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है', यथा
१. पाक्षिक
२. नैष्ठिक
३. साधक
पाक्षिक श्रावक देव-शास्त्र-गुरु का स्तवन करता है, साथ ही उसे रत्नत्रय का पालन कर सप्त व्यसनों से विरक्त होकर अष्टमूल
१. चारित खलु धम्मो धम्मो जो समोत्तिणिद्दिट्ठो । मोहक्खहविहीण परिणामो अप्पणो हु समो ॥
प्रवचनसार - कुंदकुदाचार्य, प्रथम अध्याय, गाथांक ७, श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़, सौराष्ट्र, द्वितीय संस्करण १९६४, पृष्ठ ८ ।
२.
❤
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश. -क्ष० जिनेन्द्रवर्णी, भाग ४, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १६७३, पृष्ठ ४६ !
३. बृहद् जैन शब्दार्णव- मास्टर बिहारीलाल जैन, भाग २, अमरोहा, मूलचन्द्र किसनदास कापड़िया, पुस्तकालय, सूरत, पृष्ठ ६२५ ।
४. 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीन गुणों को रत्नत्रय कहते हैं ।'
- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश — क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी, भाग ३, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण सन् १९७२, पृष्ठ ४०४ ।
५. द्यूतमांससुरा वेश्याखेट चौर्य पराङ्गना ।
महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद्बुधः ॥
-- पंचविशतिका--आचायं पद्मनन्दि, अधिकार संख्या १, श्लोक संख्या १६, जीवराज ग्रन्थमाला, सोलापुर, प्रथम संस्करण, सन् १९३२ ई० ।
:
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
वों का स्थूल रूप से अनुपालन करना चाहिए। जो ग्यारह प्रतिमा को धारण कर बारिश का पालन करता है, वह वस्तुतः नैष्ठिक पावक कहलाता है और
१. (म) मद्य मासं क्षौद्र पंचोदुम्बरफलानि यत्नेन ।
हिंसा व्युपरतिः कामे क्तव्यानि प्रथममेव ।।
-पुरुषार्थसिनोपाय, अमृतचन्द्र सूरि, सैन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, अजिताश्रम, लखनऊ, प्रथम संस्करण सन् १९३३, श्लोक संख्या ६१, पृष्ठ ३४ । बड़ का फल, पीपल का फल, ऊमर, कठूमर (गूलर) तथा पाकरफल ये पाँच उदुम्बर फल कहलाते हैं । मधु, मांस, मदिरा इन सभी का त्याग अष्टूमल गुण कहलाता है।
बालबोध पाठमाला, भाग ३, डा० हुकुमचन्द्र भारिल्ल, श्री टोडरमल स्मारक भवन, ए-४, बापू नगर, जयपुर-४,
पृष्ठ १२-१३। २. (अ) संयम अंश जग्यो जहाँ, भोग अरुचि परिणाम ।
उदै प्रतिग्या को भयो, प्रतिमा ताका नाम ॥
-सयमसार नाटक, बनारसीदास, चतुर्दशगुणस्थानाधिकार, छंद संख्या ५८, श्री दिन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र),
प्रपम संस्करण वि० सं० २०२७, पृष्ठ ३८६ । (ब) दर्सन विसुटकारी बारह विरतधारी,
सामाइकचारी पर्वोषध विधि वहै । सचित को परहारी दिवा अपरस नारी,
आठो जाम ब्रह्मचारी निरारंभी ह वै रहै । पाप परिग्रह छंदे पाप कीन शिक्षा मंडे,
कोऊ याके मिमित कर सो वस्तु न गहै। ऐमे देसवत के घरया समकिती जीव,
ग्यारह प्रतिमा तिन्हें भगवंत जी कहै ॥ अर्थात् १. सम्यग्दर्शन में विशुद्धि उत्पन्न करने वाली दर्शन प्रतिमा अर्थात कक्षा या श्रेणी है । २. बारहवतों का आचरण व्रत प्रतिमा है। ३. सामायिक की प्रवृत्ति सामायिक प्रतिमा है । ४. पर्व में उपवास-विधि करना प्रोषध प्रतिमा है । ५. सचित त्याग सचितविरत प्रतिमा है । ६. दिन में स्त्री स्पर्श का त्याग दिवा मैथुन व्रत प्रतिमा है । ७. आठों पहर स्त्रीमात्र का त्याग ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। ८. सर्व बारम्भ का त्याग निरारम्भ प्रतिमा है। १. पाप के कारणभूत परिग्रह का त्याग परिग्रह त्याग प्रतिमा है । १०. पाप की शिक्षा का त्याग अनुमति त्याग प्रतिमा है । ११. अपने बनाए हुए भोजनादि का त्याग उद्देश्य विनिमतिमा है।
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
जिसमें बतपालन कर मन्त में समाधिमरण' को प्रवृत्ति विद्यमान रहती है उसे साधक भावक कहा जाता है।
संसार के समस्त प्राणी सुख चाहते हैं और दुःख से भयभीत रहते हैं। कुखों से बचने के लिए आत्मा को समझ कर उसमें लीन होना सच्चा उपाय करते हैं। मुनिराज अपने पुष्ट पुरुषार्थ द्वारा मात्मा का सुख विशेष प्राप्त कर लेते हैं और गृहस्थ अपनी भूमिकानुसार अंशतः सुख प्राप्त कर पाते हैं । उक्त मार्ग में चलने वाले सम्यक् दृष्टि धावक के आंशिक शुबरूप निश्चय आवश्यक के साथ-साथ शुभ विकल्प भी आते हैं, उन्हें व्यवहार आवश्यक कहते हैं।' भावक के आवश्यक व्यवहार छह प्रकार के बतलाए गए हैं, यथा
१. सामायिक २. स्तवन ३. वंदना ____४. प्रतिक्रमण ५. प्रत्याख्यान ६. उत्सर्ग
ये ग्यारह प्रतिमा देश व्रतधारी सम्यग्दृष्टी जीवों को जिनराज ने कही हैं। -समयसार नाटक, बनारसीदास, चतुर्दशगुणस्थानाधिकार, छंद संख्या ५७, श्री दि० जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ़ (सौराष्ट्र), प्रपम
संस्करण वि० सं० २०२७, पृष्ठ ३८५।। १. सम्यक्काय कषाय लेखना-सल्लेखना। कायस्य बाह्यस्याभ्यन्तराणां च
कषायाणां तत्कारणहापन क्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना । अर्थात् अच्छे प्रकार से काय और कषाय का लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है, समाधि मरण है अर्थात् बाहरी शरीर का और भीतरी कषायों का उत्तरोत्तर काय और कषाय को पुष्ट करने वाले कारणों को घटाते हुए भले प्रकार से लेखन करना अर्थात् कृश करना सल्लेखना है। -सर्वार्थसिद्धि, आचार्य पूज्यपाद, अध्याय ७, सूत्र सं० २२, भारतीय
ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस-५, प्रथम संस्करण १९५५, पृष्ठ ३६३ । २. वीतराग विज्ञान पाठमाला, भाग १, डॉ. हुकुमचन्द्र भारिल्ल, श्री
टोडरमल स्मारक भवन, ए-४ बापू नगर, जयपुर-४, द्वितीय संस्करण
१९७०, पृष्ठ १७। ३. (म) सामायिकं स्तवः प्राज वंदना सप्रतिक्रमा ।
प्रत्याख्यानं सनूत्सर्गः षोडावायक मोरितम ॥ भावकाचार, आचार्य अमितमति, अधिकार संख्या., . श्लोक संख्या २६, सं०प० वशीधर, जीवराज माला, शोलापुर . प्रथम संस्करण वि० सं० १९७६ ।
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
८
इस प्रकार श्रावक अर्थात् सद्गृहस्थ के लिए दान, पूजा आदि मुख्य कार्य है । इनके अभाव में कोई भी मनुष्य सद्गृहस्थ नहीं बन पाता । सुनिधर्म में ध्यान और अध्ययन करना मुख्य है । इनके बिना मुनिधर्म का पालन करना व्यर्थ है ।" याग, यज्ञ, ऋतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मल और मह ये सब पूजाविधि के पर्यायवाची शब्द हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से छह प्रकार की पूजा का विधान है।" अरहतादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्प क्षेपण किए जाते हैं, वह नाम पूजा कहलाती है । वस्तु विशेष में अरहन्तादि के गुणों का आरोपण करना वस्तुत: स्थापना कहलाती है । यह दो प्रकार से उल्लिखित है, यथा
१. सद्भाव स्थापना
२. असद्भाव स्थापना
२.
)
पिछले पृष्ठ का शेष
(ब) देव पूजा गुरूपास्तिः स्वाध्याय संयमस्तपः । दानं चेतिगृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ।
- पंचविंशतिका, आचार्य पद्मनंदि, अधिकार संख्या ६, श्लोक संख्या ७, जीवराज ग्रंथमाला, शोलापुर, प्रथम संस्करण, सन् १९३२ ।
१. दाणं पूयामुक्खं सावयवम्मेण सावया तेण विणा । झणझणं मुक्खं जइ धम्मे तं विणा तहा सोबि ॥
--- रयणसार, कुन्दकुदाचार्य, कुन्दकुन्द भारती, श्री वीर - निर्वाण ग्रन्थ प्रकाशन समिति, इन्दौर, वीर निर्वाण संवत् २५००, गाथांक १०, पृष्ठ ५६ ।
यागोयज्ञ:
कृतुः पूजा सपर्येज्याध्वरोमखः ।
मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः ||
- महापुराण, जिनसेनाचार्य, सर्ग संख्या ६७, श्लोक संख्या १९३, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण सन् १९५१ ई० ।
३. णाम - टूवणा दव्वे - खिते काले वियाणा भावे य । छवि पूया भणिया समासओ जिणवरिदेहि ||
-- श्रावकाचार, आचार्य वसुनंदि, गाथा संख्या ३८१, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण वि० सं० २००७ ।
४. उच्चारि ऊण णामं अरूहाईणं विसुद्ध देसम्मि । पुष्काणि जं विविज्जंति वष्णिया णाम पूया सा ॥
-
- श्रावकाचार, आचार्य वसुनंदि, गाथांक ३८२, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण, वि० सं० २००७ ।
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
(€)
नाकार वस्तु में अरहन्तादि के गुणों का जो आरोपण किया जाता है, उसे सद्भाव स्थापना पूजा कहा जाता है और अक्षत वराटक अर्थात् कौड़ी या कमलगट्टा आदि में अपनी बुद्धि से यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना तो यह असद्भाव स्थापना पूजा कहलाती है । जलादि द्रव्य से प्रतिमादि द्रव्य की जो पूजा की जाती है, उसे द्रव्य पूजा कहते हैं । द्रव्य पूजा सचित, अचित तथा मिश्र मेद से तीन प्रकार की कही गई है। प्रत्यक्ष उपस्थित जिनेन्द्र भगवान और गुरु आदि का यथायोग्य पूजन करमा सचित पूजा कहलाता है। तीर्थंकर आदि के शरीर की और फागन आदि पर लिपिबद्ध शास्त्र की जो पूजा की जाती है, वह अचित पूजा है और जो दानों की पूजा की जाती है, वह मिश्र पूजा कहलाती है।
जिनेन्द्र भगवान को जन्म कल्याणक भूमि, निष्क्रमण कल्याणक भूमि, केवल ज्ञानोत्पत्ति स्थान, तीथंचिह्न स्थान और निधिका अर्थात् निर्वाण भूमियों में पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना वस्तुतः क्षेत्रपूजा कहलाती है। जिस far तीर्थंकरों के पंचकल्याणक - गर्म, जन्म, तप, ज्ञान तथा निर्वाण-हुए हैं,
१. सम्भावासम्भावादुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता | सायारवं तवत्थुम्मि जं गुणारोवणं पढ़मा ॥ अक्खय - वराडओ वा अमुगो, एसोति णियवुद्धीए । संकप्पिऊण वयणं एसा विइया असवभावा ॥
२.
- श्रावकाचार - आचार्य वसुनंदि, गाथांक ३८३-३८४, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण, वि० सं० २००७ ।
दव्वेण य दव्वस्स य जापूजा जाण दव्वपूजा सा । दव्वेण गंध-सलिलाइ पुन्वभणिएण कायध्वा ॥ तिविहा दव्वे पूजा सच्चिता चितमिस्सभेएण । पच्चखजिणाईण सचित पूजा जहा जोग्गं ॥ तेसि च सरीराणं दव्बसुदस्सवि अचित पूजा सा ॥ जा पुण दोण्ह कीरइ णायव्वा मिस्स पूजा सा ॥
- श्रावकाचार, आचार्य वसुनंदि, गाथांक ४४८, ४४६, ४५०, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण वि० सं० २००७ ।
३. जिण जम्मण - जिक्खमणे णाणुप्पतीए तित्थ चिन्हेसु ।
णिसिहीसु खेतपूजा पुव विहाणेण कायव्वा ॥
--- श्रावकाचार, आचार्य वसुनंदि, गायांक ४५२, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण, वि० सं० २००७ ।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १० )
errera का अभिषेक कर नंदीश्वर पर्व आदि पर्वो पर जिन महिमा करना काल पूजा कहलाती है ।' मन से अर्हन्तादि के गुणों का चितवन करना भावपूजा कहलाती है। भावपूजा में जो परमात्मा है, वह ही मैं हूं तथा जो स्वानुभवगम्य मैं हूँ, वही परमात्मा है, इसलिए में ही मेरे द्वारा उपासना किया जाने योग्य हैं, दूसरा कोई अन्य नहीं। इस प्रकार ही आराज्यAries are ft व्यवस्था है ।"
आगम-शास्त्र परम्परा के आधार पर पूजा का प्रचलन श्रमण-संस्कृति के मारम्भ से ही रहा है। श्रमण संस्कृति सिन्धु, मिश्र, बेबीलोन तथा रोम की संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है। भागवतकार ने आद्यममु स्वायम्भुव के प्रपौत्र नाभि के पुत्र ऋषभ को दिगम्बर भ्रमण और ऊर्ध्वगामी सुनियों के 'धर्म का आदि प्रतिष्ठाता माना है। उनके सौ पुत्रों में से नौ पुत्र श्रमण सुनि बने ।
मोहन जोदड़ो की खुदाई में कुछ ऐसी मोहरें प्राप्त हुई हैं, जिन पर
१. गव्भावयार-जम्मा हिसेय गिक्खमण णाण- निव्वाणं । जम्हि दिणे संजादं जिणण्ह वणं तहिणे कुज्जा |
दीसरट्ठवसे तहा अण्णेसु उचिय पव्वेसु ।
जं कीरइ जिणमहिमा विष्णेया काल पूजा सा ॥
- श्रावकाचार, आचार्य वसुनंदि, गाथांक ४५३, ४५५, वहाँ ।
भावपूजा मनसा तद्गुणानुस्मरणं ।
- भगवती आराधना, आचार्य अमितगति, गाथा ४७, पंक्ति संख्या २२; सखारामदोसी, शोलापुर, प्रथम सं०, सन् १९३५ ई०, पृष्ठांक १५६ ।
३. यः परात्मा स एवाहं योऽहं स परमस्ततः ।
महमेव मयोपास्यी नान्यः कश्चिदिति स्थितिः ॥
समाधिशतक, वीरसेवा मंदिर, देहली, प्रथम संस्करण १९५८ ई०, श्लोक संख्या ३१ ।
४. भारत में संस्कृति एवं धर्म- डा० एम० एल० शर्मा, रामा पब्लिशिंग हाउस, बड़ौत (मेरठ), प्रथम संस्करण, १६६६, पृष्ठ ७७ ।
५. नवाभवन् महाभागाः मुनयोर्थशंसिनः ।
श्रमणाः वातरशनाः मात्म विद्याविशारदाः ॥
- श्रीमद्भागवत, महर्षि वेदव्यास, एकादश स्कन्ध, मध्याय द्वितीय, श्लोक बीस, पो० गीता प्रेस, गोरखपुर, पंचम संस्करण संवत् २००६ पृष्ठ ६६९ ।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११ )
योग मुद्रा में कुछ जैन मूर्तियां अंकित है। वही पर एक मोहर ऐसी भी मिली है, जिस पर भगवान ऋषभदेव का चित्र बड़ी मुद्रा अर्थात् कामोत्सर्व योगासन में चित्रित है । कायोत्सर्ग योगासन का उल्लेख बुथम के सम्बन्ध में किया गया है। ये मूर्तियाँ पाँच हजार वर्ष पुरानी हैं। इससे प्रकट होता है कि सिन्धु घाटी के निवासी ऋषभदेव को भी पूजा करते थे और उस समय लोक में जैनधर्म भी प्रचलित था ।'
फलक १२ और ११८ आकृति ७ मार्शल कृत मोहनजोदड़ो कायोत्सर्ग नामक योगासन में खड़े हुए देवताओं को सूचित करती है। यह मुद्रा जैन योगियों की तपश्चर्या में विशेष रूप से मिलती है, जैसे मथुरा संग्रहालय में स्थापित तीर्थंकर श्री ऋषभ देवता की मूर्ति में । ऋषभ का अर्थ है बैल, जो आदिनाथ का लक्षण है। मुहर संख्या एफ-जी० एच० फलक वो पर अंकित वेवमूर्ति में एक बैल ही बना है, सम्भव है कि यह वन ही का पूर्व रूप हो । यदि ऐसा हो तो शैव धर्म की तरह जंनधर्म का मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता तक चला जाता है । '
इस प्रकार आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व भगवान ऋषभदेवादि की पूजा - करने का उल्लेख मिलता है। श्रमण संस्कृति में नमस्कारमंत्र अनादिकालीन - माना जाता है। इस मंत्र में पंच परमेष्ठियों की वंदना की गई है। पूजा का आदिम रूप णमो अर्थात् नमन, नमस्कार रूप में मिलता है । mer कुक्कुर ने 'समयसार' में 'बंबितु' शब्द द्वारा सिद्धों को नमस्कार किया है।"
नमन और बंदनापरक पूजनीय भावना के लिए किसी अभिव्यंजना रूप
१. भारत में संस्कृति एवं धर्म, डा० एम० एल० शर्मा, रामा पब्लिशिंग हाउस, बड़ौत (मेरठ), प्रथम संस्करण १६६६, पृष्ठ १६ ।
२. हिन्दू सभ्यता, डा० राधाकुमुद मुकर्जी, अनुवादक - श्री वासुदेवशरण अग्रवाल, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली-६, सन् १९५५, पृष्ठ २३-२४ ।
३. वंदितु सम्यसिद्धे धुवमचलमणोवमं गदि पत्ते ।
वोच्छामि समय पाहुड मिणमोसुद केवली भणिदं ॥
t'
-समयसार, आचार्य कुंदकुंद, मायांक १: कुचकुंद भारती, ७ एरामपुर रोड, दिल्ली- ११० १ प्रथम आवृति, मई १९७८, पृष्ठ १ ।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १२ )
की आवश्यकता होती है। रूप किसी वस्तु के आकार पर निर्भर करता है ।" बिना आकार या रूप ग्रहण किए कोई भी अभिव्यक्ति न तो हो सकती है और न अभिव्यक्ति की संज्ञा ही पा सकती है। अभिव्यक्ति जिस रूप में सम्पन्न होती है वह रूप कालान्तर में काव्यरूप बन जाता है। पूजा एक सशक्त काव्यरूप है ।
-हिन्दी काव्य में प्रयुक्त काव्य रूपों को मूलत: दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है, यथा
१. बच
२. मुक्त
aari में वर्णनात्मक तथा प्रबन्धात्मक काव्यरूप और मुक्त वर्ग में संख्या, छंद तथा विविध रूप में काव्यरूप रखे जा सकते हैं। जैन हिन्दी etail में प्रयुक्त छत्तीस वर्णनात्मक काव्य रूपों में पूजा काव्यरूप का स्थान सुरक्षित है। पूजा एक भक्त्यात्मक काव्यरूप है । इसके प्रथम प्रयोग का श्रेय जैन आचार्यों, मुनियों तथा कवियों को प्राप्त है। संस्कृत - प्राकृत तथा अप - भाषा साहित्य से होता हुआ यह काव्यरूप हिम्दी में अवतरित हुआ ।विशेष वर्ग और सम्प्रदाय में मौखिक और लिखित परम्परा में पूजाकाव्य रूप सुरक्षित रहा है, फलस्वरूप भाव-भाषा तथा कलात्मक समृद्धि के होते हुए. भी यह काव्यरूप काव्यशास्त्र के आचार्यों द्वारा उपेक्षित रहा है।
पूजाकाव्य के लिखित रूप का विकासात्मक संक्षिप्त अध्ययन निम्न प्रकार से किया जा सकता है। विवेच्य काव्यरूप का व्यवस्थित स्वरूप पांचवीं शती में उपलब्ध होता है । माचार्य पूज्यपाद विरचित 'जैनाभिषेक' नामक काव्य में इस काव्य रूप के प्रथम दर्शन होते हैं। दशवीं शती के अभयनंदि कृतः योवधान तथा पूजाकल्प, आचार्य इन्द्रनंवि कृत अंकुरारोपण, ग्यारहवाँ शती के आचार्य मल्लिषेण विरचित वज्रपंजर विधान, पद्मावती कल्पःबारहवीं शती के पं० आशाधर कृत जिनयज्ञ कल्प, नित्य महोघोत, तेरहवीं
१. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पादक डा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस, प्रथम संस्करण, संवत् २०१५, पृष्ठ ८४८६ २. जैन कवियों के हिन्दी काव्य का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन, आगरा विश्व-विद्यालय की १६७८ में डी० लिट्० उपाधि के लिए स्वीकृत शोध प्रबन्ध डा० महेन्द्र सागर प्रचंडिया, द्वितीय अध्याय, पृष्ठ ११-१२ ।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
बती के माता पमनावि त कुलहुन पानाच बि वा अपमा नामक महत्वपूर्ण कृतियां हैं। पन्द्रहवीं सती के भाचार्य श्रुतसागर त सिब बकाष्टक पूजा तवा श्रुतस्कन्ध पूजा उल्लेखनीय पूजाकाव्य है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य का मूलाधार आचार्य पमणि विरचित उपासनास्मक कृतियों में विद्यमान है। यहाँ यह काव्यरूप व्यवस्थित रूप से अठारहवीं शती में उपलब्ध होता है । अठारहवीं शती के समर्ष कविर्मनीची पानतराब विरचित ग्यारह पूजा काव्य प्राप्त है। उन्नीसवीं शती में अनेक जन-हिन्दी कवियों द्वारा यह समर्थ काव्य रूप उपासनात्मक अभिव्यंजना के लिए गृहीत हुआ है। इस दृष्टि से कषिवर रामचन्द्र कृत सत्ताईस पूजाएं, कविवर वृन्दावन कुत पांच पूजा काट्य, श्री मनरंगलाल कृत छबीस पूणा-काव्यफुतियों, श्री बख्तावररस्न रचित पच्चीस पूजाएं, श्री कमलनयन तथा श्री मल्लजी कृत एक-एक पूजाकाय विभिन्न भाराय शक्तियों पर आधारित रचे गये हैं।
बीसवीं शती में पूजाकाध्य प्रचुर परिमाण में रखा गया है। कविवर रविमल कृत तीस चौबीसी पूजा, श्री सेवक कृत तीन पूजाएँ, श्री भविलाल जू कृत सिरपूजा, श्री जिनेश्वरदास कृत तीन, श्री दौलतराम कृत दो, श्री
जोलाल विरचित तीन, श्री हेमराज कृत गुरुपूजा, श्री जवाहरलाल कृत वो, श्री आशाराम कृत श्री सोनागिर सिद्ध क्षेत्रपूजा, श्री हीराचन्द्र कृत दो, श्री मेम जी रचित अकृत्रिम चैत्यालय पूजा, श्री रघुतत कृत दो, बी वीपचन्द्र कृत श्री बाहुबली पूजा, श्री पूरणमल कृत मी चांदनपुर महावीर स्वामी पूजा, श्री भगवानबास कृत श्री तत्त्वार्थ सूत्र पूजा, श्री मुन्नालाल कृत भी खण्डगिरि क्षेत्र पूजा, श्री सच्चिदानंद कृत श्री पंचपरमेष्ठी पूजा, श्री युगलकिशोर जैन 'युगल' कृत देवशारत्र गुरपूजा और श्री राजमल पर्वया कृत श्री पंचपरमेष्ठी पूजा अधिक उल्लेखनीय हैं।
पूजा एक समर्थ काव्यरूप है। यह काव्यरूप संस्कृत, प्राकृत तथा अपनश से होता हुआ हिन्दी में अवतरित हुआ है। मठारहवीं शती से पूर्व संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा में प्रणीत पूजाकाव्य का प्रयोग भक्त्यात्मक समुदाय और समाज में होता रहा है। अठारहवीं शती से जन हिन्दी काव्य में यह काव्यरूप व्यवस्थित रूप से रचा गया और यह परम्परा बीसवीं शती तक, माज तक निरन्तर चलती आ रही है।
इस काव्यरूप के माध्यम से जहाँ एक मोर कल्याणकारी धानिक अमि
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४ )
ना हुई है जिसमें धर्म, ज्ञान तथा मनस्यात्मक सत्य का अतिशय उद्घाटन हुआ है, वहीं दूसरी ओर काव्यरूप अलंकार, छंद, रस, प्रतीक-योजना, भाषा तथा शैली विषयक साहित्यिक तत्वों की भी सशक्त अभिव्यक्ति हुई है । शैली ताविक दृष्टि से पूजाकाव्य रूप का अपना निजी महत्व है। माह्वान, स्थापना, सनिधिकरम, पूजन-अष्टाव्य द्वारा अष्टकमों के क्षयार्थ शुभसंकल्पपूर्वक अघर्यक्षेपण, पंच कल्याणक, जयमाला तथा विसर्जन जैन पूजाकाव्य के शैली विषयक उल्लेखनीय अंग हैं ।
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैन-हिन्दी-पूजा-काव्य की एक सुवीर्ष परम्परा रही है। हिन्दी के मध्य काल से इस काव्य रूप का निर्वाध प्रयोग हिन्दी में हुआ है। देव, साल, गुरु के अतिरिक्त विविध मुखी शान-शक्तियों पर आधृत जैन हिन्दी-पूजा-काव्य रचा गया है। विवेच्य काम्य में जैनधर्म से सम्बन्धित अनेक उपयोगी तयों एवं विचारों को सफल अभियंजना हुई है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य ज्ञान का एक गम्भीर सागर है । उसको गम्मोरता का किनारा राज-पाठ से तो पाया जा सकता है, किन्तु भाव को गहराई में तल को स्पर्श करना सुगम तथा सरल नहीं है। ऊपर-ऊपर तैर जाना एक बात है और चिन्तन का गम्भीर अवगाहन कर अन्तस्तल को स्पर्श करना दूसरी बात है। मत दुबकी पर सुबकी लगाता हो आ रहा है और उसका यह सातत्य क्रम आज मो जारी है।
धर्म क्या है ? इस सम्बन्ध में दो मौलिक किन्तु बहुप्रचलित व्याख्याएं हैं। एक महर्षि वेदव्यास को-'धारणादम:' अर्थात् जो धारण किया करता है, उयार करता है अथवा जो धारण करने योग्य है, उसे ही वस्तुतः धर्म कहा जाता है। दूसरी व्याख्या है जैन परम्परानुमोक्ति- 'वत्पुसहावो' धम्मो अर्थात् वस्तु का अपना स्वरूप-स्वभाव ही उसका धर्म है। ___ मानव-जीवन के विकास का मूलाधार धर्म है। उससे उसका परिशोधन भी होता है। संसार में धर्म-तत्व के अतिरिक्त अन्य कोई तस्व अधिक पवित्र नहीं है। धर्म और सम्प्रदाय बोनों एक नहीं हैं। सम्प्रदाय धर्म का सोल है, धर्म नहीं है, पर जब भी धर्म को व्यावहारिक रूप से रहना होगा, तब वह किसी न किसी सम्प्रदाय में ही रहेगा। बैविक, जैन और बौर ये तीनों धर्म के आधारभूत सम्प्रदाय विशेष हैं। .
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
राग-देष के विजेता को जिन कहते हैं। जिन की वाणी में विश्वास रखने वाला ही जैन कहलाता है। जिनेन्द्र की वाणी को बन परम्परा में मागम कहा गया है । आगम के तत्व-ज्ञान पर आधृत पूजा-काव्य की रचना
जैन हिन्दी-पूजा-काव्य का व्यवस्थित रूप हमें अठारहवीं शती से प्राप्त होता है । ऐतिहासिक क्रम से विवेच्य काव्य में प्रयुक्त ज्ञान-राशि का अध्ययनमनुशीलन करना यहाँ मूल अभिप्रेत रहा है। जैन हिन्दी पूजा-काव्य का प्रमुख तथा प्रारम्भिक आलम्बन देव, शास्त्र तथा गुरु रूप रहा है। अस्तु, यहाँ इन्हीं शक्तियों के माध्यम से विवेच्य काध्य में प्रयुक्त मान-सम्पदा का विवेचन करेंगे।
विवेच्य काव्य में प्रयुक्त ज्ञान-तत्वों के विषय में अध्ययन करने से पूर्व यह आवश्यक है कि पूज्य, पूजा और पूजक के उद्देश्य विषयक ज्ञान पर संक्षेप में चर्चा हो जानी चाहिए।
इष्टदेव, शास्त्र और गुरु का गुण-स्तवन वस्तुतः पूजा कहलाता है। मिथ्यात्व, राग-द्वेष आदि का अभाव कर पूर्ण ज्ञान तथा सुखी होना ही इन्ट है। उसकी प्राप्ति जिसे हो गई वही वस्तुत: इष्ट-देव हो जाता है। अनन्त चतुष्टय के धनी अरहन्त और सिद्ध भगवान ही इष्ट देव है और ये हो परम पूज्य हैं।
शास्त्र तो सच्चे देव की वाणी होती है और इसीलिए उसमें मिथ्यात्व राग-द्वेष आदि का अभाव रहता है । वह सच्चे सुख का मार्गदर्शक होने से सर्वथा पूज्य है। नग्न-बिगम्बर मावलिंगी गुरु भी उसी पथ के पथिक, वीतरागी सन्त होने से पूज्य हैं । लौकिक दृष्टि से विद्या-गुरु, माता-पिता आदि भी यथायोग्य आवरणीय एवं सम्माननीय हैं, परन्तु उनके राग-द्वेष आदि का पूर्णतः अभाव न होने से मोक्षमार्ग की महिमा नहीं है, अस्तु उन्हें पूज्य
१. "भनेकजन्माटवीप्रापणहेतून् समस्तमोहरागद्वेषादीन् जयतीत जिनः ।"
अर्थात् अनेक जन्म रूप अटवी को प्राप्त कराने के हेतुभूत समस्त मोह रागद्वेषादिक को जो जीत लेता है, वह जिन है। -नियमसार, श्री कुन्दकुन्दाचार्य, जीव अधिकार, टीका श्री मगनलाल जैन, श्री सेठी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला बनर्जी स्ट्रीट, बम्बई-३, प्रथम संस्करण सन् १९६०, पृष्ठ ४।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १७ )
नहीं माना जा सकता । अष्टम से पूजनीय तो वीतराग सर्व श्रीरामो मार्ग के freee शास्त्र तथा नग्न-दिगम्बर भाव-लिंगी गुह ही हैं
ज्ञानी जीव लौकिक लाभ की दृष्टि से भगवान की आराधना नहीं करता है । उसमें तो सहज ही भगवान के प्रति भक्ति का भाव उत्पन्न होता है । जिस प्रकार धन चाहने वाले को धनवान की महिमा बाए बिना नहीं रहती, उसी प्रकार वीतरागता के सच्चे उपासक अर्थात् मुक्ति के पथिक को मुक्तामांओं के प्रति भक्ति का भाव आता ही है। शानो-मत सांसारिक सुख की कामना नहीं करते, पर शुभ भाव होने से उन्हें पुष्य-बन्ध अवश्य होता है और पुण्योदय के निमित्त से सांसारिक भोग सामग्री भी उन्हें प्राप्त होती है । पर उनकी दृष्टि में उसका कोई मूल्य नहीं । पूजा भक्ति का सच्चा लाभ तो विषय-काय से सर्वथा बचना है ।
इस प्रकार जैन- हिन्दी- पूजा-काव्य में पूज्य, पूजा और पूजक के उद्देश्य fears ज्ञान का स्पष्टीकरण हो जाने से अब विवेच्य काव्य में प्रयुक्त ज्ञानतत्व के विषय में विवेचना करना असंगत न होगा ।
"
मिथ्याभावों से इच्छाओं और आकांक्षाओं की उत्पति हुआ करती है । संसार के समस्त प्राणी इनकी पूर्ति के प्रयत्न में निरन्तर आकुल व्याकुल रहा करते हैं। इनकी पूर्ति में इन्हें सुख को सम्भावना हुआ करती है। पूजा काव्य में संसारी जीवन-यात्रा का मूलाधार-अष्टकर्मों की चर्चा हुई है।" ये सभी कर्म निमित्त बनकर आत्मा को तबनुसार विकारोन्मुख किया करते हैं । आत्मा का हित निराकुल सुख में हैं पर यह जीव अपने ज्ञान-स्वभावी आत्मा को भूलकर मोह-राग-द्वेष-रूप विकारी भावों को करता है अस्तु दुःखी हुआ करता है ।
कर्म के उदय में जब यह जीव मोह-राग-द्वेष-रूपी विकारी भावरूप होता है, उन्हें भावकर्म कहते हैं और उन मोह-राग-द्वेष-मानों का निमित्त पाकर
१. अष्टकरम बन जाल, मुकति माँहि तुम सुख करी ।
खेऊँ
धूप रसाल, मम निकाल वन जाल से ||
- श्री बृहत् सिद्धचक पूजा भाषा, द्यानतराय, जैन पूजा पाठ संग्रह, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकता ७, पृष्ठ २३७ ।
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८ )
कार्मा वा कर्मरूप परिणमित होकर आत्मा से सम्बद्ध हो जाती है, उन्हें द्रव्य कर्म कहते हैं ।"
जनदर्शन में आठ प्रकार के कर्मों का उल्लेख हुआ है। इन्हें दो भागों में विभाजित किया गया है। यथा
१. घातिया कर्म,
२. अघातिया कर्म ।
धातियाकर्म जीव के अनुजीवी कर्मों को घात करने में निमित्त होते हैं, मे वस्तुतः घातिया कर्म कहलाते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं; यथा
२. ज्ञानावरणी - वे कर्म परमाणु जिनसे आत्मा के ज्ञान स्वरूप पर आवरण हो जाता है अर्थात् आत्मा अज्ञानी दिखलाई देती है, उसे ज्ञानावरणी कर्म कहते हैं ।
२. दर्शनावरणी -- वे कर्म परमाणु जो आत्मा के अनन्त-दर्शन पर आवरण करते हैं, वर्शनावरणी कर्म कहलाते हैं ।
३. मोहनीय --- वे कर्म परमाणु जो आत्मा के शान्त आनन्दस्वरूप को विकृत करके उसमें क्रोध, अहंकार आदि कषाय तथा राग-द्वेष रूप परिणति
उत्पन्न कर देते है, मोहनीय कर्म कहलाते हैं ।
४. अन्तराय-वे कर्म परमाणु जो जीव के दान, लाभ, भोग, उपभोग और शक्ति में far उत्पन्न करते हैं, अन्तराय कर्म कहलाते हैं ।
अघातिया कर्म
के अनुजीवी गुणों के घात में निमित्त नहीं हुआ
करते हैं। ये भी चार प्रकार के होते हैं। यथा
१ वेदनीय-- जिनके कारण प्राणों को सुख या दुःख का बोध होता है, वेदनीय कर्म कहलाते हैं ।
२. आयु — जीव अपनी योग्यता से जब नारकी, तियंच, मनुष्य या देव शरीर में रुका रहे तब जिस कर्म का उदय हो उसे आयुकर्म कहते है ।
१. वीतराग-विज्ञान पाठमाला भाग १, पं० हुकुमचन्द भारिल्ल, श्री टोडरमल स्मारक भवन, ए-४, बापू नगर, जयपुर- ४, पृष्ठ २२ ।
२. 'आद्यो ज्ञान - दर्शनावरण- वेदनीय मोहनीयायुर्नाम गोत्रान्तरायाः ।”
-- तत्वार्थ सूत्र, आचार्य उमास्वाति, अध्याय ८, सूत्र ४, जैन संस्कृति संशोधन मंडल, हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस-५, द्वितीय संस्करण सन् १६५२, पृष्ठ २८४ ।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
३. नाम-सिरोर में बीब हो उस शरीरादि की रचना में जिस कर्ष का उदय हो जसमाम कर्म कहते हैं।
४. गोत्र-चोर को उच्च या नीच बाबरप बाले कुल में उत्पा होने में जिस कर्म का उदय हो, उसे गोत्र कर्म कहते हैं।'
अष्ट-कमों के पूर्णतः क्षय हो जाने पर प्राणी मावागमन परक भव-यक से मुक्ति प्राप्त करता है । धातिया-अधातिया सभी कर्म-कुल को तमाम करने के लिए पूजक विवेष्य काव्य में जिनेन्द्र भक्ति का माधव देता है। अठारहकों शती के बैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में इन कर्मा की कमशः पर्चाई है। धी बृहत् सिदचक पूजा काव्य में कविवर चानतराय ने स्पष्ट लिया है कि जिस प्रकार मूर्ति के ऊपर पट गलने से उसका रूप परिलक्षित नहीं होता उसी प्रकार जानावरणी कर्म से जीव अज्ञानी हो जाता है। मानावरणी कर्म नष्ट होने पर केवल ज्ञान प्रकट होता है, यहाँ केवल ज्ञानधारी सिद्ध भगवान को मनसा, वाचा, कर्मणा उपासना करने की संस्तुति की गई है।' जिस प्रकार दरवान भूपति के दर्शन नहीं करने देता, उसी प्रकार दर्शनाधरणीकर्म शानी को देखने में बाधा उपस्थित करता है। वर्शनावरणी कर्म क्षय होने पर केवल दर्शन रूप प्रकट होता है। दर्शनावरणी कर्म क्षय के लिए सिखोपासना आवश्यक है। कर्मवेदनी कर्मोदय से साता-असाता बेबनाएं
१. अभ्रंश वाङमय में व्यवहत पारिभाषिक शब्दावलि, आदित्य प्रचंडिया
'दोति', महावीर प्रकाशन, अलीगंज, एटा, सन् १९७७, पृष्ठ ३ । २. मूरति ऊपर पट करौ, रूप न जाने कोय ।
ज्ञानावरणी करमते, जीव अज्ञानी होय ॥ -श्री वृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, धानतराय, श्री जैन पूजापाठ संग्रह,
६२ नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ २३७ । ३. ज्ञानावरणी पंच हत, प्रकट्यो केवल ज्ञान
द्यानत मनवच काय सौं, नमो सिद्ध गुण खान
-श्री बहृत् सिद्ध चक्रपूजा भाषा, धानतराय, वही पृष्ठ २३७ । ४. जैसे भूपति दरश को, होन न दे दरवान ।
तेसे दरशन आवरण, देख न देई सुजान ॥
--श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, धानतराय, वही पृष्ठ २३८ । ५. दरशन आवरण, हत, केवल दर्शन रूप ।
द्यानत सिद्ध नमों सदा. अमन-अचल चिद्रप ॥ -श्री बृहत् सिद्ध पक्रपूजा भाषा, धानतराय, वही पृष्ठ २३८ ।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २० ) भोगनी होती हैं।' सिद्धोपासना से वेदनीय कर्म का नाश हो जाता है।' मोहनीय कर्म उबप से जीव का सम्यवस्व गुण प्रच्छन्न हो जाता है।' सिद्धभगवान की पूजा करने से मोहनीय कर्म नाश हो जाता है। आयुकर्म स्वभावतः जीव को पहुंगति में स्थिर कर देता है। भगवान सिर में आयुकर्म क्षय करने का गण विद्यमान है। नामकर्म के उक्य सेवेतन के नानारूप मुखर हो उठते हैं। गोत्र-कर्म के उत्पन्न होने से जीव को ऊंच-नीच कुल की प्राप्तिहमा करती है। भगवान सिड को शुख-भाव से पूजा करने पर गोत्र१. शहद मिली असिधार, सुख दुःख जीवन को करें ।
कर्म वेदनीय सार, साता-असाता देते हैं । -~~-श्री बृहत सिद्ध चक्र पूजा भाषा, धानत राय, श्री जन पूजा पाठ संग्रह,
६२ नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २३८ ।। २. पुण्य-पाप दोक डार, कर्म वेदनी वृक्ष के। सिद्ध जलावन हार, द्यानत निरबाधा करौ ।
--श्री बृहत् सिद्धचक्रपूजा भाषा, द्यानतराय, वही पृष्ठ २३६ । ३. ज्यों मदिरा के पानते, सुध-बुध सबै भुलाय ।
त्यो मोहनी-कर्म उदे, जीव गहिल हो जाय ।।
-~-श्री वृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, द्यानतराय, वही पृष्ठ २३६ । ४. अट्ठाईसो मोह की, तुम नाशक भगवान ।
अटल शुद्ध अबगाहना, नमो सिद्ध गुणवान ।।
- श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, धानतराय, वहो पृष्ठ २४० । ५ जैसे नर को पांव, दियो काठ मे पिर रहे।
तसे आयु स्वभाव, जिय को चहुंगति थिति करें ।
--श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, द्यानतराय, वही पृष्ठ २४० । ६. द्यानत चारों आयु के, तुम नाशक भगवान ।
अटल शुद्ध अवगाहना, नमो सिद्ध गुणखान ॥
-श्रो वृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, द्यानतराय, वही पृष्ठ २४१ । ७. चित्रकार जमे लिन्ने, नाना चित्र अनूप ।
नाम-कर्म तैसे करे, चेतन के बहु-रूप ।। -~-श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, घानतराय, श्री जैनपूजा पाठ संग्रह,
६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २४१ । ८ ज्यों कुम्हार छोटो बड़ो, भांडो घड़ा जनेय ।
गोत्र-कर्म त्यो जीव को, ऊँच नीच कुल देय ।। - श्री बृहत् सिरचक्र पूजा भाषा, द्यानतराय, बही पृष्ठ २४२ ।
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१ )
कर्म का नाश होता है ।' अन्तराय कर्मोदय से दान, लाभ, वीर्य आदि प्रसंगों में भी जीव इनसे प्रायः विहीन रहता है। उपासना द्वारा इस कर्म का नाश सहज में हो जाता है ।"
इसी प्रकार कर्म-विरत होने के लिए उत्तीसवीं शती के कविवर मनरंगलाल कृत श्री शीतलनाथ पूजा में तथा कविवर वृन्दावनदास विरचित श्री महावीर स्वामी पूजा में पूजोपासना का उल्लेख किया है। बीसवीं शती में कविवर पूरनमल द्वारा रचित श्री महावीर स्वामी पूजा में तथा कविवर मुन्नालाल कृत श्री खण्डगिरि क्षेत्रपूजा में अष्टकर्म नाश करने का उल्लेल हुआ है।
१. ऊँच-नीच दो गोत्र, नाश अगुरुलघु गुण भए । द्यानत आतम जोत, सिद्ध शुद्ध बदो सदा ॥
- श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, द्यानतराय, बड़ी पृष्ठ २४२ ।
२. भूप दिलाबे द्रव्य को, भण्डारी दे नाहि । होन देय नहिं सम्पदा, अन्तराय जगमाहिं ||
मोन, उपभोग, इस प्रकार सिद्ध
- श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, द्यानतराय, वही पृष्ठ २४३ ।
३. अन्तराय पांचौ हते, प्रगट्यो सुबल अनन्त । द्यानत सिद्ध नमीं सदा, ज्यों पाऊँ भव अन्त ॥
- श्री बृहत् सिद्ध पूजा भाषा, द्यानतराय, श्री जैन पूजापाठ संग्रह, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता ७, पृष्ठ २४३ ॥
४. जे अष्ट कर्म महान अतिबल घेरि, मो चेरा कियो । तिन केर नाश विचार के ले, धूप प्रभु ढिंग क्षेपियो ॥
- श्री शीतलनाथ पूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थ यज्ञ, जवाहरगंज, जबलपुर, म०प्र०, चतुर्थ संस्करण, सन् १९५०, पृष्ठ ७५ ।
५. हरिचन्दन अगर कूपर, चूर सुगंध करा ।
तुम पद तर खेंबत भूरि, आठों कर्म जरा ॥
श्री महावीर स्वामी पूजा, वृन्दावन, राजेश नित्यपूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटल बबर्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १९७६, पृष्ठ १३४ ।
६. अष्ट- कर्म के दहन को, पूजा रची विशाल ।
पढ़े सुनें जो भाव से छूटे
जग जंजाल ।।
- श्री महावीर स्वामी पूजा, पूरनमल, श्री जैन पूजापाठ संग्रह, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता- ७ पृष्ठ १६४ ।
७. अष्ट-कर्म कर नष्ट मोक्षगामी भए ।
तिनके पूजहुँ चरन सकल मंगल ठए ।
- श्री खण्डगिरि क्षेत्रपूजा, मुन्नालाल, श्री जैन पूजा पाठ संग्रह, ६२; नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता ७, पृष्ठ १५५ ।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २२ )
freeकाव्य में अठारहवीं शती से लेकर बीसवीं शती तक पूजक अष्ट कर्मों के क्षय होने की चर्चा करता है । पूजाकारों को विश्वास है कि इन receit का नाश पूजा के द्वारा सहज है ।
दोष का अर्थ है अवगुण । जैनदर्शन के अनुसार असातावेदनी कर्म के तीव्र तथा मंद उदय से चित्त में विभिन्न प्रकार के राग उत्पन्न होकर चारित्र में दोष उत्पन्न कर देते है।' ये अठारह प्रकार के उल्लिखित हैं। यथा-
datta के उदय से भूख का अनुभव करना ।
वेदनीय के उदय से प्यास का अनुभव करना ।
लोक-परलोक मरण-वेदना आदि का भय ।
शुभ-अशुभ दो प्रकार का है। धर्मादि में रहना
१. क्षुधा
२. तृषा
३. भय
४. राग
५. क्रोध
६. मोह
७. चिन्ता
८. रोग
मृत्यु
१०. पसीना
११. खेद
१२. जरा
१३. रति
१४. आश्चर्य
१५. निद्रा
१६. बन्ध
--
-
-
-
शुभराग है।
क्रोध कषाय का उत्पन्न होना ।
ऋषि, यति, पुत्रादि से वात्सल्य रखना । अशुभ विचारता ।
शरीर में पीड़ा आदि उत्पन्न होना । शरीर का नाश होना ।
श्रम से जलबिन्दुओं का प्रकट होना । जो वस्तु लाभ से खेद उत्पन्न करे ।
शरीर का जर्जर होना ।
मन की प्रिय वस्तु में प्रगाड़ प्रीति रति है ।
किसी अपूर्व वस्तु में विस्मय होना । दर्शtraरणी के उदय से ज्ञान ज्योति का अचेत होना निद्रा है ।
चारों गतियों में भ्रमण कर मनुष्य गति में शरीर को
प्राप्त करना ।
१. ' दोषाश्च रागादयः ।'
समाधि शतक, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, प्रथम संस्करण, सं० २०२८, पृष्ठांक ४५० ।
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २३ ) १७. भाकुलता-- चेतन-अचेतन पदार्थों से वियोग प्राप्त करने पर वित्त
में घबराना। १६. मद - ऐश्वर्य की प्राप्ति से आत्मा में अहंकार होना।'
आगम का अभिवक्ता जिनेन्द्र-देव समस्त दोषों रहित सर्वज्ञ, वीतराग, आत्मीक गुणों से विभूषित होता है।
विवेच्य-काव्य में अारह दोषों का उल्लेख आरम्भ से ही हुआ है। अठारहवीं शती के कविबर द्यानतराय प्रणीत 'श्री देवशास्त्र गुरुपूजा' में अठारह दोषों को जीतने के उपरान्त सिद्ध-शक्ति को प्राप्त करने का उल्लेख मिलताहै।' उन्नीसवीं शती के कविवर श्री बख्तावररत्न प्रणीत 'श्री चविंशति जिनपूजा' में अन्तर्यामी अरहन्त भगवान द्वारा अठारह दोषों को जीतने की अभिव्यंजना हुई है। कविवर मनरंगलाल कृत 'श्री मल्लिनाथ पूजा तथा कविरामचन्द्र
१. छुहतण्ह भीरुरोसो रागो मोहो चिंता जरारुजामिच्चू ।
स्वेदं खेदं मदो रइ विम्हियणिहा जणुव्वेगो।। ---नियमसार, जीव अधिकार, कुन्दकुन्दाचार्य, श्री सेठी दिगम्बर जैन
ग्रन्थमाला, धनजी स्ट्रीट, बम्बई-३, १९६०, पृष्ठांक १२ । २. णिस्सेसदोम रहिओ केवल णाणाइ परम विभव जुदो।
सो परमप्पा उच्चइ तविवरीओ ण परमप्पा ।। -नियमसार, जीव अधिकार, कुन्दकुन्दाचार्य, श्री सेठी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, धनजी स्ट्रोट, बम्बई-३, पृष्ठ १७ । "चउ कर्मकि वेसठ प्रकृति नाशि । जोते अष्टादश दोष राशि ॥"
-श्री देवशास्त्रगुरु पूजा, द्यानतराय, श्री जैनपूजा पाठ संग्रह, ६२;
नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २० । ४. वसु सहस नाम के धारी, तातें नित धोक हमारी ।
जो दोष अठारह नामी, तुम नाशे अन्तर्यामी ।। -श्री चतुर्विशति जिनपूजा, बख्तावररत्न, वीरपुस्तक भण्डार, मनिहारों
का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८, पृष्ठ ३ । ५. जय आनन चारि प्रसन्न नमों।
बरु दोष अठारह शून्य नमों ।। -श्री मल्लिनाथ पूजा, मनरंगलाल, पं० शिखरचन्द्र जैन, जवाहरगंज, जबलपुर, म०प्र०, चतुर्थ संस्करण सन् १९५०, पृष्ठ १३६ ।
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४ )
कृत 'श्रीं कुम्बुनाथ जिनपूजा" में अठारह दोष राहित्य जीवनोत्कर्ष की अभिव्यंजमा परिलक्षित है। इसी प्रकार बीसवीं शती में कविवर सच्चिदानन्द कृत 'श्रीपंचपरमेष्ठीपूजा' में, कविवर हीराचन्द्र कृत 'श्री चतुविंशतितीर्थंकरसमुच्चयपूजा' में', कवि श्री कुंजीलाल विरचित 'श्री देवशास्त्र गुरुपूजा' में अठारह दोषों का उल्लेख हुआ है ।
'
जैन हिन्दी पूजा काव्य में आत्मा के गुणों का घात करने वाले घाति कर्म-ज्ञानावरणी कर्म, दर्शनावरणी कर्म, अन्तरराय कर्म तथा मोहनीय कर्म हैं उनका निरवशेष रूप से प्रध्वंस कर देने के कारण जो निःशेष दोष रहित हैं अर्थात् अठारह महा दोषों से मुक्त हो चुके हैं, ऐसे परमात्मा अर्हत् परमेश्वर हैं ।
१. दोष अठारह यातें होवें, क्षुधा तृपति ना नित खाते । सद घेवर मोदक पूजन ल्यायो, हरो वेदना दुख यातें ॥
- श्री कुन्थुनाथ जिनपूजा, कवि रामचन्द्र, नेमीचन्द्र, वाकलीवाल जैन ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान, प्रथम संस्करण १६५१, पृष्ठ १४५ ।
२. जयी अष्टदश दोष अर्हतदेवा, करें नित्य शतइन्द्र चरणों की सेवा । दरश ज्ञान सुख नत वीरज के स्वामी, नसे घातिया कर्म सर्वज्ञ नामी ।
- श्री पंचपरमेष्ठी पूजा, सच्चिदानन्द, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारी बाग, सं० २४८७, पृष्ठ ३४ ।
३. घाति चतुष्टय नाशकर, केवल ज्ञान लहाय । दोष अठारह टार कर, अर्हत् पद प्रगटाय ॥
- श्री चतुविंशति तीर्थंकर समुच्चय पूजा, कविवर हीराचन्द्र दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारी बाग, सं० २४८७, पृ०७४ |
४. यह शान्ति रूप मुद्रा नैनों में आ समाई । अरहन जिनेन्द्र भगवन् तुम विश्व विजयराई || चारों करम विनाशे त्रेसठ प्रकृति नसाई । यह दोष अठारह को जीते तुम्हीं जिनराई ॥ -- श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, कुंजीलाल, वही पृष्ठ ११५ ।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५ ) पूर्वक ऐसे ही गुणधर महत्-सिड-शक्ति की इन दोषों को तय करने के लिए पूजा करते हैं।'
पूज्य आस्मन् में अनन्त गुणों का समुच्चय होता है। विवेच्य काव्य में पूज्य में अनन्त चतुष्टय का होना व्यंजित है। अनन्तचतुष्टय वस्तुतः यौगिकशब्द है। यहाँ अनन्त शम्द आत्मा का पर्याय है तथा चतुष्टय का अर्थ है चार तत्वों का समूह । जनदर्शन में आत्मा का स्वभाव अनन्तचतुष्टय बताया गया है । अनन्त वर्शन, अनन्त शान, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख का सम्म समीकरण वस्तुतः अनन्त चतुष्टय कहलाता है। अष्टकर्मों के बन्धन से मुक्त, निरूपमेय, अचल, क्षोभ रहित तथा जंगम रूप से विनिमित, सियालय में बिराजमान कायोत्सर्ग प्रतिमा निश्चय से सिद्ध परमेष्ठी को होता है। जीव आत्मा निज स्वभाव द्वारा चार धातिया-
वनावरणीय मानावरणीय, मोहनीय तथा आन्तराय-नामक कर्मों को क्षय कर अनन्तचतुष्टय गुणों को प्राप्ति कर अनन्तानन्द की अनुभूति करता है।'
जैन हिन्दी पूजा काव्य में अनन्त चतुष्टय का वर्णन अठारहवीं शती से ही हुआ है । कविवर बानतराय द्वारा रचित श्री देवपूजा में शानी का लक्षण स्पष्ट
१. जय दोष अठारा रहित देव,
मुझ देहु सदा तुम चरण सेठ । हूँ करू विनती जोरि हाथ, भव तारन तरन निहारि नाथ ॥ -श्री महावीर जिन पूजा, कविवर रामचन्द्र, नेमीचन्द्र वाकलीवाल जैन ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान , सन् १९५१, पृष्ठ २११ । दंसण अणंत णाणं अनंत वोरिय अणंत सुक्खा य । सासय सुक्खय देहा मुक्का कम्मट्ठबंधे हिं ।। णिरुवमममलमखोहा णिम्मविया जंगमेण रूवेण । सिद्धट्ठाणम्मि ठिया दोसरपडिमा धुवा सिद्धा ।। -बोध प्राभूत अधिकार, कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, आचार्य कुन्द कुन्द,
जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सन् १९६०, पृष्ठ ८७ । ३. बल सौख्य ज्ञान दर्शनानि चत्वारोऽपि प्रकटा गुणा भवति ।
नष्टे धाति चतुष्के लोका लोकं प्रकाशयति ॥ --भाव पाहुड, अष्ट पाहुड, कुन्द-कुन्दाचार्य, पाटनी दिगम्बर जैन प्रन्यमाला, मारोठ, राजस्थान, पृष्ठांक २६४ ।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६ ) करते हुए अनन्त चतुष्टय का प्रयोग किया गया है।' उन्नीसवीं शती के कविवर मनरंगलाल कृत 'श्री सुमतिनाथ पूजाकाव्य' में अनन्त चतुष्टय धारी देव के स्वरूप का चित्रण हमा है। इसी प्रकार बीसवीं शती के कवि सच्चिदानन्द द्वारा रचित श्री पंचपरमेष्ठी पूजा' में जीवन्मुक्त अहंत के गुणों की चर्चा में अनन्त चतुष्टय का प्रयोग हुआ है।' श्री चम्पापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा में कविवर बोलतराम द्वारा आराध्यदेव के अनन्त चतुष्टय का वर्णन हुआ है।
घातिया कर्मों के क्षय होने पर केवल ज्ञान के उदय होने की सम्भावना हुमा करती है । आचार्य अमृतचन्द्र सूरी केवल ज्ञान की चर्चा करते हुए स्पष्ट कहते है । जो किसी बाह्य पदार्थ की सहायता से रहित हो, आत्म-स्वरूप से उत्पन्न हो, आवरण से रहित हो, क्रम रहित हो, घातिया को के क्षय से उत्पन्न हुमा हो तथा समस्त पदार्थों को जानने वाला हो, वस्तुतः उसे केवल शान कहते हैं।
१. एक ज्ञान केवल जिनस्वामी । दो आगम अध्यातम नामी। तीन काल विधि परगत जानी । चार अनन्त चतुष्टय ज्ञानी ।।
-श्री देवपूजा, धानतराय, बृहज्जिनवाणी सग्रह, पृष्ठ ३०३ । २. करि चारिय घातिय घात जब,
लहि नंत चतुष्टय पट्ट तबै । दर्शन अरू ज्ञान सुसौख्य बलं, इन चारहु ते तुव देव अलं ॥ -श्री सुमति नाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, पं० शिखर चन्द्र शास्त्री,
जवाहर गज, जबलपुर, म० प्र० चतुर्थ संस्करण १६५०, पृष्ठ ४५ । ३. अनन्त चतुष्टय के धनी, छियालीस गुण युक्त।
नमहु त्रियोग सम्हार के अर्हन जीवन्मुक्त ।
-श्री पंचपरमेष्ठी पूजा, सच्चिदानन्द, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, दि.
जंन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारीबाग, वीर सं० २४८७, पृष्ठ ३१ । ४. हे अनन्त चतुष्टय युक्त स्वाम,
पायो सब सुखद सयोग ठाम ॥ -श्री चम्पापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम, श्री जैन पूजापाठ संग्रह, ६२
नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १४० । ५. असहायं स्वरूपोत्प निरावरणम क्रमम् ।
घाति कर्म क्षयोत्पन्न केवलं सर्वभावगम् ।। ~ तत्वार्थसार, प्रथम अधिकार, श्री अमृतचन्द्रसूरी, श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी ५, प्रथम संस्करण सन् १६७०, पृष्ठ १५।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २७ )
सिद्ध परमेष्ठी सम्पूर्ण द्रव्यों व उनकी पर्यायों से भरे हुए सम्पूर्ण जगत् को 'तीनों कालों में जानते हैं तो भी वे मोह रहित ही रहते हैं। स्वयं उत्पन्न हुए ज्ञान और दर्शन से यु भगवान् देवलोक और असुरलोक के साथ मनुष्य लोक की अनति, गति, चयन, उपपाद, बन्ध, मोक्ष, ऋद्धि, स्थिति, युति, अनुभाग, तर्क, कल, मन, मानसिक, भुक्त, कृत, प्रतिसेवित आदि कर्म, अरहः कर्म, सब लोकों, सब जीवों और सब भावों को सम्यक् प्रकार से युगपत् जानते हैं, देखते हैं और बिहार करते हैं ।"
जैन- हिन्दी-पूजा - काव्य में केवलज्ञान शब्द की विशद व्याख्या हुई है। केवल ज्ञान प्राप्त किये बिना किसी भी प्राणी को मोक्ष प्राप्त करना सुगम - सम्भव नहीं है । कविवर द्यानतराय 'श्री बृहत् सिद्धचक् पूजा भाषा' नामक काव्य में स्पष्ट करते हैं कि ज्ञानवरणी कर्म के पूर्णतः क्षय हो जाने पर ही केवलज्ञान प्रकट हो पाता है । पूजक केवल ज्ञानी सिद्ध भगवान की पूजा करता है ।"
मन, वचन, कर्म से
उन्नीसवीं शती के कविवर बख्तावररत्न ने 'श्री विमलनाथ जिनपूजा' नामक काव्य में भगवान द्वारा केवलज्ञान प्राप्त करने की चर्चा की है । केवल ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त ही भगवान् कल्याणकारी उपदेश देते हैं फलस्वरूप अनेक प्राणी कल्याण को प्राप्त हुए हैं।" इसी प्रकार कविकृत 'श्री कुन्थुनाथ जिनपूजा' में केवल ज्ञान प्राप्त करने पर ही प्रभु द्वारा जनकल्याणकारी उपदेश दिए जाने का उल्लेख है। कविवर रामचन्द्रकृत
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन. नई दिल्ली, प्रथम संस्करण सन् १९७१, पृष्ठ १४७ ।
२. ज्ञानावरणी पंच हत्, प्रकट्यो केवल ज्ञान ।
गुणखान ॥
द्यात मनवच काय सों, नमों सिद्ध -श्री वृहत सिद्धचक्र पूजा भाषा, द्यानतराय, श्री जैन पूजा पाठ संग्रह, ६२ नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २३७ ।
३. पायो केवल ज्ञान, दीनो उपदेश भव्य बहु तारे ।
शिखर समेद महानं, पाई शिव सिद्ध अष्ट गुण धारे ॥
- श्री विमलनाथ जिनपूजा बख्तावररत्न, वीर पुस्तक भण्डार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८, पृष्ठ ६३ ।
४ चैत उजियारी दुतिया जु हैं, जिन सुपायो केवल ज्ञान है । सभा द्वादश में वृष भाषियों, भव्य जन सुन के रस चाखियो ||
- श्री कुन्थुनाथ जिनपूजा, पंचकल्याणक बख्तावर रत्न, वीर पुस्तक भंडार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८, पृष्ठ ११४ ।
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २८ )
'श्री अजितनाथ जिनपूजा' में प्रभु द्वारा पोष शुक्ला एकादशी को केवल ज्ञान प्राप्त करने का उल्लेख मिलता है ।" 'श्री मुनि सुव्रतनाथ जिनपूजा' में कवि ने 'केवल धर्म' संज्ञा में केवल ज्ञान का उल्लेख किया है।' 'श्री महावीर जिन पूषा में कवि ने घातिया कर्म चूर करने के उपरान्त भगवान् द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की चर्चा की है।"
Area शती में कवि कुंजीलाल द्वारा प्रणीत 'श्री महावीर स्वामी पुजा' में चार घातिया कर्म नाश कर वैशाख शुक्ला दशमी को प्रभु ने केवल ज्ञान प्राप्त किया, ऐसा उल्लिखित है । कवि होराचन्द्र कृत 'श्री चतुर्विंशति तीर्थकर समुच्चय पूजा' में प्रभु द्वारा चार घातिया कर्म नष्ट कर केवल ज्ञान प्राप्त करने का उल्लेख हुआ है ।" कविवर सेवक द्वारा प्रणीत 'श्री आदिनाथ
१. पौह सुकल एकादसी, केवल ज्ञान उपाय |
कहो धर्म पद जुग जजे, महाभक्ति उर लाये ॥
- श्री अजितनाथ जी की पूजा, रामचन्द्र नेमीचन्द्र वाकलीवाल जैन ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान, प्रथम संस्करण, सन् १९५१, पृष्ठ २६ ।
२. नौमी वदि वैसाख हो, हने घाति दुखदाय ।
कयौ धर्म केवल भए जजू चरण गुनगाय ||
- श्री मुनि सुव्रत नाथ जिनपूजा, रामचन्द्र, नेमीचन्द्र बाकलीबाल जैन, ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान, प्रथम संस्करण, सन् १६५१, पृष्ठ १७४ ।
३. दसमी सित वैसाख ही, घाति कर्म चक चूर ।
केवल ज्ञान उपाइयों, जजू चरण गुण भूर ॥
- श्री महावीर जिनपूजा, रामचन्द्र नेमीचन्द्र वाकलीवाल जैन ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान, प्रथम संस्करण, सन् १६५१, पृष्ठ २०६ ।
४. वैशाख सुदी दशमी, ध्यानस्थ बखानी ।
चोकर्म नाशि नाथमए, केवल ज्ञानी ॥
- श्री महावीर स्वामी पूजा, कुंजीलाल, नित्य नियम विशेष पूजा संग्रह, दि० जैन उदासीम आश्रम, ईसरी बाजार, हजारी बाग, वीर संवत् २४८७, पृष्ठ ४३ ।
५. घाति चतुष्टय नाश कर, केवल ज्ञान लहाय ।
दोष अठारह टार कर, अर्हत् पद प्रगटाय ॥
- श्री चतुविंशति तीर्थंकर समुच्चय पूजा, हीराचन्द्र, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी वाजार, हजारी बाग, वीर सं० २४८७, पृष्ठ ७४ ।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६ )
'विनवूया' में फाल्गुण कृष्णा एकादशी को प्रभु केवलज्ञान से सम्पन हुए लिखित है। केवल ज्ञानोपलब्धि पर इन्द्र द्वारा पूजा-अर्जन का उमेद कवि द्वारा हुआ है।' 'श्री खण्डगिरि क्षेत्रपूजा' काव्य में कविवर मुलाबाल बुद्धर तपश्चरण करने के उपरान्त केवल ज्ञान प्राप्त करने की चर्चा करते हैं, केवल ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् इन्द्र द्वारा प्रभु-पूजा करने का प्रसंग काव्य क सफलतापूर्वक व्यंजित किया गया है।"
अन्य मनुष्यों तथा केवलियों की अपेक्षा तीर्थकरों में छियालीस गुणों का समावेश होता है । इन छियालीस गुणों को निम्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। यथा-
१. अनन्त चतुष्टय २. चौतीस अतिशय
३. आठ प्रातिहार्य
अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य तथा अनन्त सुख-विषयक विवेचन किया जा चुका है। चौंतीस अतिशयों का विवेचन करना अपेक्षित है । भगवान के चौंतीस अतिशयों को विषय-बोध के आधार पर तीन भागों में विभाजित किया गया है । यथा
१. जन्म के दश अतिशय ।
२.
३. देवकृत तेरह अतिशय ।
केवल ज्ञान के ग्यारह अतिशय ।
१. फाल्गुण वदि एकादशी, उपज्यों केवल ज्ञान ।
इन्द्र आय पूजा करी, मैं पूजों इह थान ॥
- श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, श्री जैन पूजा पाठ संग्रह, ६२, नलिनी सेठ रोड कलकत्ता-७, पृष्ठ ६७ ।
२. इस विधि तप दुद्धर करन्त जोय, सौ उपजे केवल ज्ञान सोय | सब इन्द्र आज अति भक्ति धार । पूजा कीनी आनन्द धार ।
- श्री खण्डगिरि क्षेत्रपूजा, मुन्नालाल, श्री जैन पूजापाठ संग्रह, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १५८ ।
३. बृहद् जैन शब्दार्णव, भाग २, मास्टर बिहारीलाल अमरोहा, मूलचन्द्र feature कापड़िया पुस्तकालय, सूरत, सं० २४६०, पृष्ठ ५६६ ।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन के वा मतियों का वर्णन 'तिलोषपत्ति में निम्न प्रकार से उल्लिक्षित है। बचा
१. र रहितता। २, निर्मल शरीरता। ३. बवषमनाराच संहनन अर्थात् उनके शरीर की हरी, हदिव्या.
के गोड़, जोड़ों को कोल बन के समान बुद्ध होती है। ४. समचतुरन सरीर संस्थान अर्थात् उनके शरीर का प्रत्येक अंग और.
उपांग ठीक आकार में सुडौल होता है। ५. दूध के समान धवल रुधिर । ६. अनुपम रूप। ७. नप चम्पक के समान उत्तम गन्ध को धारण करना। ८. १००८ उत्तम लक्षणों का धारण ।
९. अनन्त बल। १०. हित-मित एवं मधुर भाषण ।' केवल ज्ञान के ग्यारह अतिशयों का क्रम निम्न प्रकार है । यथा१. अपने पास से चारों दिशाओं में एक सौ योजन तथा सुभिक्षता
अर्थात् अकाल का अभाव । २. आकारागमन अर्थात् तीर्थकर केवल ज्ञानी पृथ्वी से ऊपर अधर
चलते है। ३. हिंसा का अभाव । ४ भोजन का अभाव, अर्थात् केवल ज्ञान हो जाने पर उनको न भख
लगती है न वे भोजन करते हैं, अनन्त बल के कारण उनका शरीर
दृढ़ बना रहता है। ५. उपसर्ग का अभाव । ६. सबकी ओर मुख करके स्थित होना । ७. छाया रहितता अर्थात् उनके शरीर की छाया नहीं पड़ती है। .. निनिमेष राष्टि।
१. विद्याओं को ईशता। १. तिलोयपण्णत्ति, यतिवृषभाचार्य, अधिकार संख्या ४ गाथा संख्या ८८६ से
८६८, जीवराज ग्रन्पमाला, शोलापुर, प्रथम संस्करण, वि. सं. १६६६ ।
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३१ )
१०. सजीव होते हुए भी नस और रोमों का समान रहना अर्थात् उनके न और केश बड़ा नहीं करते ।
११. अठारह महाभावा तथा सात सौ शुद्रभावा युक्त दिव्य-ध्वनि अर्थात् केवल ज्ञान हो जाने पर उनको समस्त प्रकार का पूर्ण ज्ञान होता है, कोई भी विद्या, ज्ञान अपरिचित नहीं रहता ।
देवकृत तेरह अतिशयों का क्रम निम्न प्रकार है, यथा
१. तीर्थकदों के महात्म्य से संख्यात योजनों तक असमय में ही पत्रफूल और फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है ।
२. कंटक और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने
लगती है ।
३. जीव पूर्व-बंर को छोड़कर मंत्री- भाव से रहने लगते हैं ।
४. उतनी भूमि दर्पण तल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है ।
५. सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघ कुमार देव सुगन्धित जल की वर्षा करते हैं ।
६. देव - विक्रिया से फलों के भार से नवीभूत शालि और जो आदि सस्य की रचना करते हैं ।
७.
सब जीवों को नित्य आनन्द उत्पन्न होता है ।
८. वायु कुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलता है ।
९. कूप और तालाब आदिक निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं ।
१०. आकाश ! उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है । सम्पूर्ण जीवों को रोग आदिक बाधाएं नहीं होती हैं ।
११.
१२. यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार fter धर्म चक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है ।
तीर्थकरों के चारों दिशाओं में छप्पन सुवर्ण कमल, एक पादपीठ और fear एवं विविध प्रकार के पूजन द्रव्य होते हैं ।"
१३.
१. निलोयपण्णत्ति, यतिवृषभाचार्य, अधिकार संख्या ४, गाथा संख्या ८ से, जीवराज ग्रन्थमाल, शोलापुर प्रथम संस्करण, वि० सं० १६६६ ।
२. तिलोयपण्णत्ति, यति वृषभाचार्य अधिकार संख्या ४, गाथांक ९०७ से ६१४. जीवराज ग्रन्थमाला शोलापुर, प्रतम संस्करण वि० सं० १९६६ ।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३२ ) प्रातिहार्य शम्य पारिभाषिक है। जनवर्शन में इसका अभिप्राय है विन्य महत्वशाली पदार्थ । भगवान के आठ प्रातिहार्य उल्लिखित हैं। यथा
१. अशोक वृक्ष । २. तीन छत्र। ३. रत्नखचित सिंहासन । ४. भक्तियुक्त गणों द्वारा वेष्ठित रहना अर्थात् मुख से विस्यवाणी प्रकट
होना।
५. बुन्दभि नाव। ६. पुरुष-वृष्टि। ७. प्रभामण्डल। ८. चौसठ चमरयुक्तता।'
जंन हिन्दी पूजाकाव्य में केवल ज्ञानी तोर्यकर-वन्दना प्रसंग में उनमें विधमान छियालीस गुणों को अभिव्यंजना हुई है। अठारहवीं शती से लेकर बीसवीं शती तक पूजा-काव्य में छियालीस गुणों की चर्चा हुई है। अठारहवीं शती के कविवर धानतराय प्रणीत 'श्री देवपूजा भाषा' के जयमाल अंश में जिनेन्द्र में छियालीस गुणों का उल्लेख किया गया है। उन्नीसवीं शती के कविवर बसतावर रत्न विरचित 'श्री धर्मनाथ जिनपूजा' में जयमाल प्रसंग में तोषंकर के गुणों में छियालीस गुणों की चर्चा बड़े महत्व की है। पूजक ऐसे दिव्यगुणधारी जिनेन्द्र की उपस्थिति को कल्याणकारी मानकर पूजा करता है।'
१. जंबूदीव पण्णत्ति संगहो, अधिकार संख्या १३, गाथा संख्या १२२-१३०
जैन संस्कृति संरक्षण संघ, शोलापुर, वि० सं० २०१४ । २. गुण अनंत को कहि सके छियालीस जिनराय ।
प्रगट सुगुन गिनती कहूं, तुम ही होहु सहाय ॥ --श्री देवपूजा भाषा, द्यानतराय, वृहत जिनवाणी संग्रह, पंचम अध्याय, सम्पादक-प्रकाशक-पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान सन् १९५६, पृष्ठ ३०२। गुण छालिस तुम मांहि विराजे देवजी, तितालिस गण ईश कर तुम सेव जी। भव्य जीव निस्तारन को तुमने सही, करो विहार महान आर्य देशन कही।
-श्री धर्मनाथ जिनपूजा, बख्तावरत्न, वीरपुस्तक भण्डार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८. पृष्ठ १०४ ।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३३ )
"श्री श्रेयांसनाथ जिन पूजा' में प्रभु का छियालीस गुणों से समलंकृत सम्मेद शिखर पर अपने पहुँचने का प्रसंग उल्लिखित है । '
arent शती के सच्चिदानन्द विरचित 'श्री पंचपरमेष्ठी पूजा' में सिद्धजिनेश्वर की चर्चा कर उनमें विद्यमान छियालीस गुणों का उल्लेख किया है।" कविवर हीराचन्द्र द्वारा रचित 'श्री चतुविंशति तोयंकर समुच्चय पूजा' में प्रभु के ज्ञान कल्याणक प्रसंग में छियालीस गुणों की चर्चा अभिव्यक्त है ।" जंनदर्शन के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश करके स्वयं परमात्मा बन जाता है । उस परमात्मा को दो अवस्थाएं हैं
१. शरीर सहित जीवन्मुक्त अवस्था ।
२. शरीर रहित देह-मुक्त अवस्था ।
पहली अवस्था को यहाँ अरहन्त और दूसरी अवस्था को सिद्ध कहा जाता 1 अर्हन्त भी दो प्रकार के होते हैं । यथा -
१. तीर्थंकर
२. सामान्य
विशेष पुष्य सहित अर्हन्त जिनके कि कल्याणक महोत्सव मनाए जाते हैं, तीर्थकर कहलाते हैं और शेष सर्वसामान्य अर्हन्त कहलाते हैं। केवल ज्ञान अर्थात् सर्वस्व युक्त होने के कारण उन्हें केवली भी कहते हैं। इन सभी शुभशक्तियों के छियालीस गुणों की चर्चा विवेच्य काव्य में आद्यन्त हुई है।
१. इस छियालीस गुण सहित ईश, विहरत आए सम्मेद शीश । तहाँ प्रकृति पिचासी छीन कीन, शिव जाए विराजे शर्म लीन || - श्री श्रेयांसनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, वीर पुस्तक भण्डार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८, पृष्ठ ८१ ।
२. अनन्त चतुष्टय के धनी छियालीस गुणयुक्त ।
नमहुँ त्रियोग सम्हार के अहं न जीवन्मुक्त ॥
- श्री पंचपरमेष्ठी पूजा, श्री सच्चिदानन्द, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारी बाग, पृष्ठ ३१ । ३. छियालीस गुण प्राप्त कर, सभा जुद्वादश माँहि ।
भव्य जीव उपदेश कर, पहुंचाये शिव ठाँहि ॥
- श्री चतुविशति तीर्थंकर समुच्चय पूजा, हीराचन्द्र, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारी बाग, पृष्ठ ७४ ।
४. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, क्षु० जिनेन्द्र वर्गों, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण सन् १६७०, पृष्ठ १४० ।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवष्यकाव्य में महन्त र छियालीस गुणों के उपरान्त महारावि तमा मतावित कम से धर्म के लक्षणों को प्रातत्य अभिव्यंजना हुई है। विश्व सभी धर्मों में धर्म के लक्षणों को पर्चा हुई है और उन्हें सर्वत्र बश-भागों में हो विमत किया गया है। जैन धर्म के अनुसार धर्म के बश-लक्षणों को निम्न रूप में विभाजित किया गया है। यहां प्रत्येक लक्षण से पूर्व उत्सम शब्द का व्यवहार हुमा है जिसका अर्थ है श्रेष्ठ मर्थात् भावों की उज्ज्वलता।'
१. उत्तम क्षमा २. उत्तम मार्दव ३. उत्तम मार्नच ४. उत्तम सोच ५. उत्तम सत्य ६. उसम संपन
८. उसम त्याग २. उत्तम आविन्य १०. उत्तम ब्रह्मचर्य। क्षमा - भावों में निर्मलता के साथ-साथ सहन-शोलता का होना वस्तुतः उत्तम क्षमा कहलाता है। १. क्षमा मुदवजुते शौचं ससत्यं संयमस्तपः । त्यागोऽकिंचनता ब्रह्म धर्मो दविधः स्मृतः ॥ -तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेश प्रसाद वर्णी प्रन्थमाला, डुमरावबाग, अस्सी, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण १९७०,
श्लोकांक १३, पृष्ठ १६३ ।। २. दशलक्षणधर्मः एक अनुचिन्तन, क्षु० शीतलसागर, ए० एम० डी० जैन
धर्म प्रचारिणी संस्था, अवागढ़, उ० प्र०, प्रथम संस्करण १६७८,
पृष्ठ २। ३. क्रोधोत्पत्ति निमित्तानामत्यन्तं सति संभवे ।
आक्रोश ताडनादीनां कालुष्योपरमः क्षमा । ---तत्त्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्रीगणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्धमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण १६७०, श्लोकांक १४, पृष्ठ १६४।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
मानिसय सम्बन्धन सहित होने वाले मामा के मा-कोमल परिमामों को उत्तम मार्दव कहते हैं। मान, पूजा, कुल, जाति, बल, तितप, शरीर इन मण्ड-मदों के द्वारा मान कवाय की प्रवृति उत्पन्न होती है। इसके अमाव से आत्मा में नम्रता जन्म लेती है, यही वस्तुतः मार्दव भाव कहलाता है।'
मानव-निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ होने वाले मध्य जीव के ऋण अर्थात् सरल परिणामों को उत्तम आजब कहते हैं । मन, बचन मोर काम इन तीन योगों की सरलताका होना अर्थात मन से जिस बात को विचार जाय यही वचन से कही जावे तथा पचन से कही गई बात आचरण में काली माय यह सब कुछ वस्तुतः आर्जव धर्म कहलाता है। इस धार्मिक लक्षण में माया नामक कषाप का पूर्णतः अभाव हो जाता है।
शौच-निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ होने वाले मात्मा के शुधि अर्थात् पवित्र, निर्मल, शुद्ध भावों को उत्तम सोच कहते हैं। प्राणी तथा इनिय सम्बन्धी परिभोग और उपभोग नामक चतुर्मुखो लोमवृत्ति का पूर्णतः अभाव होने पर शौच धर्म का प्रादुर्भाव होता है।
सत्य-निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ अपने मात्मा के सत् अर्थात् शुद्ध, स्वाभाविक एवं शाश्वत् भाव को देख जानकर उसमें तल्लीन होना वस्तुतः
१. अभावो योभिमानस्य परे: परिभवे कृते ।
जात्यादीनामनावेशान्मदानां मार्दवं हि तत् ।। --तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्लोकांक १५, श्रीमद् अमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५, प्रथम सस्करण १६७०, पृष्ठ १६४ । 'वाङ्मनः काययोगानामवक्रत्वं तदार्जवम् ।'
-तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण १९७०, पृष्ठ १६४। परिभोगोपभोगत्वं जीवितेन्द्रियभेदतः । चतुर्विधस्य लोभस्य निवृत्तिः शौचमुच्यते ॥
तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेश प्रसाद वर्णी प्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, बाराणसी-५, प्रथमसंस्करण १६७०, श्लोकांक १६, पृष्ठ १६४ ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३६ )
उतम सत्य कहलाता है । धर्मवृद्धि के प्रयोजन से जो निर्वाध वचन कहे जाते हैं वही सत्य धर्म होता है ।"
संयम - निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ अपने आत्मा के शुद्ध स्वभाव में निरत होना, संयत होना उत्तम संयम कहलाता है । प्राणि और इन्द्रिय अर्थात् प्राणी -घात और ऐन्द्रिक विषयों से विरक्ति-भावना को आत्मसात करना ही संयम होता है।"
तप - आत्म स्वभाव ज्ञान-दर्शन पर श्रद्धा न रख कर स्व-पर पदार्थों के शुद्ध ज्ञाता द्रष्टा रहना उत्तम तप धर्म है । कर्मों का क्षय करने के लिए जो तपा जाये वह वस्तुतः तप कहलाता है । स्वपर उपकार के लिए सत्पात्र को वान अभय, भोजन, औषधि तथा ज्ञान देने की भावना से त्याग धर्म प्रकाशित होता है ।"
आकिञ्चन्य - निश्चय सम्वग्दर्शन के साथ यह मेरा है इस प्रकार के अभिप्राय का जो अभाव है वह वस्तुत: आकिचग्य धर्म कहलाता है ।"
ब्रह्मचर्य - निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ ब्रह्म अर्थात् आत्मस्वभाव में टिकना
१. ज्ञान चारित्र शिक्षादी स धर्मः सुनिगद्यते ।
धर्मोप हणार्थं यत्साधु सत्यं तदुच्यते ।।
- तत्वार्थ सार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी- ५, प्रथमसंस्करण १६७०, लोकांक १७, पृष्ठ १६५ ।
२. इन्द्रियार्थेषु वैराग्यं प्राणिनां बधवर्जनम् ।
समिती वर्तमानस्य मुनेर्भवति संयमः ॥
-- तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार श्रीअमृतचन्द्र सूरि, श्रीगणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५, श्लोक संख्या १८, पृष्ठ १६५ ।
३. परं कर्मक्षयार्थ यत्तप्यते तपः स्मृत्तम् ।
तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्री अमृतचन्द्र सूरि, बही, पृष्ठ १६५ ।
४. ममेदमित्युपातेषु शरीरादिषु केषुचित् ।
अभिसन्धि निवृत्तिर्या तदाकिंचन्यमुच्यते ॥
---तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार श्रीअमृतजनासूरि, श्लोकांक २० वही, पृष्ठ १६५ ।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्थिर होना ही रहम बावर्य है। इस धर्म के उदय होने पर स्त्री-आसन, स्मरण तथा सम्बधित कथावार्ता का प्रसंग स्वतः समाप्त हो जाता है।'
इस प्रकार जब तक ये धर्म-लक्षण आत्मा में विकसित नहीं हो जाते, तब तक आत्मा आकुलित अर्थात् दुःखी रहती है।
जैन-हिन्दी-पूना-काव्य में बराधर्म का व्यवहार प्रत्येक शती में रचित पूजा रचनाओं में हुआ है । अठारहवीं शती के कविवर धानतराय विरचित 'श्री देवपूना' के जयमाल अंश में वशलमण धर्म को भविजनतारने का माध्यम अभिव्यक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त कविवर ने इन धार्मिक लक्षणों के महत्वको ध्यान में रखकर एक पूरा दशलक्षण धर्म-पूजा नामक काव्य हो रब गला है। कषि ने इन वश धमों के द्वारा बहुगति-जन्य बारूण-पुःखों से मुक्ति प्राप्त करने का संकेत व्यक्त किया है।'
उन्नीसवीं शती के कविवर बखताबर रत्न विरचित 'श्री अनन्तनाप जिन पूना' की जयमाल में दशधर्म का उल्लेख हुआ है। इसी प्रकार बीसवीं शती १. स्त्रीसंसक्तस्य शययादेरनुभूतांगनास्मृतेः ।
तत्कथायाः श्रुतेश्च स्याद्ब्रह्मचर्य हि वर्जनात् ॥ -तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्रीअमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेश प्रसाद वर्णी ग्रन्थ माला, डुमरावबाग, अस्सी, वाराणसी-५, श्लोकांक २१,
पृष्ठ १६६। २. नवतत्वन के भाखन हारे । दश लक्षन सों भविजन तारे ।
-श्री देवपूजा, द्यानतराय, बृहज्जिनवाणी संग्रह, पंचम अध्याय, संपादकप्रकाशक-पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगञ्ज, किशनगढ़, राजस्थान, सन्
१९५६, पृष्ठ ३०३, I ३, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव भाव हैं।
सत्य सोच संयम तप त्याग उपाव हैं। आकिंचन ब्रह्मचर्य धर्म दशसार हैं। चहुं गति दुःखतें काढ़ि मुति करतार हैं ।।
-श्री दशलक्षण धर्मपूजा, यानतराय, सत्यार्थ यज्ञ, जवाहरगंज, जबलपुर, म०प्र०, चतुर्ष संस्करण सन् १९५०, पृष्ठ २२० । ४. दशधर्म तमें सब भेद कहे,
अनुयोग सुने भव शर्म लहे। -श्री अनन्तनाथ जिनपूजा, बल्यावररत्न, वीरपुस्तकभंडार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८, पृष्ठ १८ ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३८ )
के कविवर होराचन्द्र कृत 'श्री चतुर्विंशति तीर्थकर समुन्वय पूजा' में तीर्थंकर धर्मनाथ को दश लक्षण धारी कहा है ।" कविवर भगवानदास कृत 'भी Heard पूजा में क्शधर्म द्वारा इस हस-प्राण का तिरजाना उल्लिखित है।" इस प्रकार इस दश लक्षण धर्म की उपयोगिता स्पष्ट हो जाती है ।
fader काव्य में अभिव्यक्त ज्ञान-सम्पदा में समवशरण को अभिव्यंजना वस्तुतः अद्वितीय है। समवशरण यौगिक शब्द है । समवस्थानं शरणं आश्रय स्थलं समवशरणम् अर्थात् सम्यक् प्रकार से बैठे हुए समस्त प्राणियों की आश्रय स्थलो ।
अहंत् भगवान् के उपदेश देने की सभा का नाम समवशरण कहलाता है, जहाँ बैठकर तिर्यच, मनुष्य व देव पुरुष व स्त्रियाँ सब उनकी अमृत वाणी से कर्ण तृप्त करते हैं। इसकी रचना विशेष प्रकार से देव-गण किया करते हैं। इसकी प्रथम सात भूमियों में बड़ी आकर्षक रचनाएँ, नाट्यशालाएँ, पुण्य-वाटिकाएँ वापियाँ, चैत्यवृक्ष आदि होते हैं । मिथ्या दृष्टि अभव्य जन अधिकतर इसकी शोभा देखने में उलझ जाते है । अत्यन्त भावुक व श्रद्धालु व्यक्ति ही अष्टम भूमि में प्रवेश कर साक्षात् भगवान् के दर्शन तथा उनकी अमृतवाणी से नेत्र, कान तथा जीवन सफल करते हैं ।'
समवशरण के माहात्म्य विषयक विवेचन करते हुए 'तिलोपपण्णति' नामक प्राकृत महाग्रन्थ में कहा गया है कि एक-एक समवशरण में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण विविध प्रकार के जीव जिनदेव की वन्दना में प्रवृत
उपकारी, धारी ।
१. धर्मनाथ हो जग
रत्नत्रय दशलक्षण
शान्तिनाथ शान्ति के करता,
दु:ख शोकमय आदिक हरता ॥
- श्री चतुर्विंशतितीर्थकर सम्मुच्चय पूजा, हीराचन्द्र, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, वि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारीबाग, वीर सं० २४८७, पृष्ठ ७६ ।
२. अति मानसरोवर झील बरा, करुणारस पूरित नीर भरा ।
दश धर्म बहे शुभ हंसतरा, प्रणमामि सूत्र जिनवानि वरा ॥
- श्री तत्वार्थ सूत्रपूजा, भगवानदास, श्री जैन पूजापाठ संग्रह, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ४१२ ।
३. जैनेन्द्र सिकान्त कोश, भाव ४, ३० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १९७३, पृष्ठ ३३० १
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३९ )
होते हुए स्थित रहते हैं। कोठों के क्षेत्र से यद्यपि जीवों का क्षेत्रफल असंख्यात गुण है, तथापि वे सब जीव जिनदेव के माहात्म्य से एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं। जिन भगवान् के माहात्म्य से बालक प्रभृति जीव प्रवेश करते अथवा निकलने में अन्तर्मुहूर्त काल के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ पर जिन भगवान के माहात्म्य से आतंक, रोग, सरण, उत्पत्ति, र, कामबाधा तथा तृष्णा और क्षुधा परक पीड़ाएँ नहीं होती हैं ।"
"
समवशरण नामक धर्म
अहंत भगवान को केवलज्ञान प्राप्त होने पर सभा की रचना देवों द्वारा सम्पन्न हुआ करती है। समवशरण का विवेच्य काव्य में अठारहवीं शती से ही प्रयोग हुआ है । कवि खानतराय कृत 'श्री बीस तीर्थंकर पूजा' के जयमाल अंश में भव-जनों के उद्धारार्थ जिनराज को समयशरण-सभा सुशोभित है। उन्नीसवीं शती के कविवर वृन्दावनदास बिरचित 'श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा' के जयमाल अंश में पाप और शोक-विमोचनी धर्मसभा समवशरण का विशद् उल्लेख हुआ है ।" बीसवीं शती के कवि भगवान दास कृत 'श्री तत्वार्थ सूत्र पूजा' में समवशरण सभा के माहात्म्य विषयक विशब्
१. जिणवंदणापयट्टा पल्ला संखेज्जभाग परिमाणा । चंट्ठति विविह जीवा एक्क्के समवसरणेस । कोट्ठाणं खेतादो जीवक्खेत फलं असंखगुणं । होण अट्ठ तिहु जिणमाहप्पेण गच्छति । संखेज्जजोयणाणि बालप्पहूदी पवेणिग्गणे । अंतोमुहुतकाले जिणमाहप्पेण गच्छति । आतंकरोग - मरणुपतीओ वेर कामबाधाओ । तव्हाछह पीडाओ जिणमाहेप्पपण हवंति । -तिलोयपण्णति, यति वृषभाचार्य, अधिकार संख्या ४, गाथा संख्या क्रमशः ६२६, ३०, ३१, ३२, ३३ जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, प्रथम संस्करण वि० सं० १६६६ ।
२. समवशरण शोभित जिनराजा, भवजन तारन तरन जिहाजा । सम्यक् रत्नत्रय निधि दानी, लोकालोक प्रकाशक ज्ञानी ।।
--श्री बीसतीर्थकर पूजा द्यानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटल वर्क्स, अलीगढ़, सन् १६७६, पृष्ठ ६० ।
३. लहि समवसरण रचना महान, जाके देखत सब पापन्हान । जहं तर अशोक शोभ उतंग, सब शोकवनो दूरं प्रसंग ||
- श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, वृन्दाबनदास, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १६५७, पृष्ठ ३३७ ।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४० ) व्याख्या हुई है। श्री महावीर स्वामी पूजा' में कविवर कुंजी लाल ने प्रभु द्वारा केवलज्ञान प्राप्त होने पर जन-कल्याणकारी उपदेश सभा-समवशरण की रचना का उल्लेख किया है। जन-हिन्दी-पूजा-काव्य के अतिरिक्त हिन्दी काव्य में समवशरण विषयक उल्लेख कुर्लभ हैं ।
विवेच्य काव्य में सप्तभंगो नामक उपयोगी कथन-शीली की महत्वपूर्ण अभिव्यंजना हुई है। प्रमाण वाक्य से अथवा नयवाक्य से एक ही वस्तु में अविरोध रूप से जो सत्-असत् आदि धर्म को कल्पना की जाती है, उसे सप्तमंगी कहते हैं। कहने के अधिक से अधिक सात भंग अर्थात् तरीके हो सकते हैं। प्रत्येक वस्तु अपने स्वध्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्वभाव की अपेक्षा से सत् है, वही वस्तु परतव्य, परक्षेत्र, परकाल व परभाव की अपेक्षा से असत् है। इस प्रकार सत् असत् या अस्ति, नास्ति दो विपरीत गुण प्रत्येक वस्तु में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं के कारण होते हैं। अस्ति व नास्ति दो पक्ष हुए। इन अस्ति व नास्ति दोनों पक्षों को एक साथ ले लेने से तीसरा पक्ष अस्ति-नास्ति हुमा । यदि कोई व्यक्ति बस्तु के अस्ति व नास्ति दोनों विरोधी गुणों को एक साथ कहना चाहे तो नहीं कह सकता । इसलिए अध्यक्तव्य चौथा भंग अर्थात्
१. विमल विमल वाणी, श्रीजिनवर बखानी,
सुन भए तत्वज्ञानी ध्यान-आत्म पाया है । सुरपति मनमानी, सुरगण सुखदानी, सुभव्य उर आना, मिथ्यात्व हटाया है ।। समाहिं सब नीके, जीव समवशरण के, निज-निज भाषा माहि, अतिशय दिखानी है। निरअक्षर-अक्षर के, अमरन सों शब्द के, शब्द सों पद बनें, जिन जु बखानी है । --श्री तत्वार्थसूत्र पूजा, भगवानदास, श्री जैन पूजापाठ संग्रह, ६२,
नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ४११ । २. बैसाख सुदी दशमी, ध्यानस्थ बखानी,
चोकर्म नाशि नाथ भए, केवल ज्ञानी। इन्द्रादि समोशर्ण की, रचना वहां ठानी, उपदेश दिया विश्व को जगतारनी बानी ।। -~-श्री महावीर स्वामी पूजा, कुंजीलाल, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारी बाग, पृष्ठ ४३-४४ । ३. जैनेन्द्र सिदान्त कोश, भाग ४, ९० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १६७३, पृष्ठ ३१५।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४१ )
इंग हुआ । इस प्रकार अस्ति, नास्ति, अस्तिनास्ति व अव्यक्तभ्य बार मंग निश्चित होते हैं। प्रत्येक के साथ अव्यक्तव्य लगा देने से अस्ति अव्यक्तव्य, नास्ति अव्यक्तव्य, अस्ति नास्ति अव्यक्तव्य तीन और मंत्र हो जाते हैं । इन्हें व्यवस्थित रूप से निम्न रूप में रख सकते हैं' यथा
१. स्यात् अस्ति ।
स्यात् नास्ति ।
स्याद् अस्ति नास्ति ।
स्यार् अव्यक्तव्य |
५.
स्यात् अस्ति अव्यक्तव्य ।
६. स्यात् नास्ति अव्यक्तब्य ।
७.
२.
३.
४.
स्यात् अस्ति नास्ति अव्यक्तव्य ।
केवल सात मंग ही होते हैं इससे अधिक मंगों का प्रयोग करने से पुनरुक्ति दोष होता है ।"
अठारहवीं शती के कविवर चान्तराय विरचित 'श्री देवपूजा' में जिनवाणी को सप्तमंग शैली में प्रकाशित किया गया है ।' 'श्री देव-शास्त्रगुरु पूजा' नामक काव्य में कवि द्यानतराय ने गणधर द्वारा द्वादशांग बाणी को
१. सिय अस्थि णत्थि उभयं भव्क्तव्यं पुणो य ततिदयं । दव्वं खु सतभंगं आदेसवसेण संभवदि ।
- पंचास्तिकाय, गाथांक १४, कुन्दकुन्द प्राभूते संग्रह, आचार्य कुन्दकुन्द, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण सन् १९६०, पृष्ठ २१ ।
२. अपभ्रंश वाङ्मय में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि, आदित्य प्रचंडिया', ' 'दीति', महावीर प्रकाशन, अलीगंज, एटा, उ०प्र०, १६७७, पृष्ठ ८-९ ।
३. छहों दरब गुन पर जय भासी ।
पंच
परावर्तन परकासी ॥
सात भंग बाणी - परकाशक । आठों कर्म महारिपु नाशक ।
श्री देवपूजा, खानतराय, बृहद जिनवाणी संग्रह, सम्पादक - प्रकाशक पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान, सन् १९५६, पृष्ठ ३०३ ।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४२ ) सप्तमंग सैली में बंजित किया है। उन्नीसवीं शती के कविवर बसावररल कृत 'श्री अरनाथ जिन पूजा' में जिनवाणी का सप्तर्मग शैली में लिरने का उल्लेख हुआ है। बीसौं शती में कवि हेमराज द्वारा रचित 'श्री गुरूपूजा' काव्य की जयमाल प्रसंग में मन में जिनवाणी को सप्तमम शैली में स्मरण किया गया, उल्लिखित है।'
इस प्रकार जिनवाणी का वैज्ञानिक विवेचन सप्तमंग शैली में ऽयक्त किया गया है। किसी भी सत्य की अभिव्यक्ति के लिए सप्तभंग के अतिरिक्त और अन्य कोई माध्यम उपलब्ध नहीं है। सप्तमंग शैली के विषय में जैन-हिन्दीपूजा-काव्य में प्रारम्भ से ही उल्लेख मिलता है। दैनिक जीवन में बैखरी का व्यापक और वैज्ञानिक साधन सप्तभंग के अतिरिक्त और अन्य दूसरा उपलब्ध नहीं है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में रत्नत्रय का प्रयोग हुआ है । सम्यक् रत्नत्रय को मोम मार्ग कहा गया है। ये रत्न तीन प्रकार के होते है । यथा
१. सम्यक् वर्शन २. सम्यक् ज्ञान
३. सम्यक् चारित्र १. सो स्याद्वादमय सप्त मंग।
गणधर गूथे बारह सुअंग ।। ---श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, धानतराय, श्री जैनपूजापाठ संग्रह, ६२,
नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २० । २. योजन साडे तीन हो, समवसरण रच देव । सप्तभंग वागी खिरे सुन-सुन नर शरघेव ।। -श्री अरनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, बीर पुस्तक भण्डार, मनिहारों
का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८, पृष्ठ १२२ । ३. पंच महाव्रत दुवर धारें, छहों दरब जानें सुहितं ।
सात भंग वानी मन लावें, पायें पाठ रिस उचितं ।
-श्री गुरुपूजा, हेमराज, बृहजिनवाणीसंग्रह, सम्पादक-प्रकाशक पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान, सन् १९५६, पृष्ठ ३१२ । सम्यग्दर्शन शान चारित्राणि मोक्षमार्गः। -तत्वार्यसूत्र, प्रथम अध्याय, प्रथम श्लोक, बार्य उमास्वामि, जैन संस्कृति संबोधक मंडल, हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस-५, द्वितीय संस्करण १९५२, पृष्ठ ९७।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४१ )
जीवादि तत्वार्थो का सच्चा बयान ही सम्यग्दर्शन है। इसमें सच्चे बेथ, शास्त्र और गुरु के प्रति श्रद्धान होता है ।"
जीवादि सप्त तत्वों का संशय, विपर्यय और अनव्यवसाय से रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है ।"
परस्पर faea अनेक कोटि को स्पर्श करने वाले ज्ञान को संशय कहते हैं । विपरीत एक कोटि के निश्चय करने वाले ज्ञान को विपर्यय कहते हैं । 'यह क्या है ?' अथवा 'कुछ है' केवल इतना अरुचि और अनिर्णय पूर्वक जानने को अनध्यवसाय कहते हैं।'
आत्मस्वरूप में रमण करना ही चारित्र है। मोह-राग-द्वेष से रहित आत्मा का परिणाम साम्यभाव है और साम्यभाव की प्राप्ति ही चारित्र है । इसमें पाँच व्रत---अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, पाँच समिति - ईर्ष्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप, प्रतिस्थापन तथा तीन गुप्ति-मनो, वचन, काय- का संयोग रहता है ।"
रत्नत्रय का उपयोग केवल अठारहवीं शती के कविवर द्यानतराय द्वारा रचित पूजा - काव्यों में हुआ है। यह प्रयोग उन्नीसवीं और बीसवीं शती में १. श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमपतोमृताम् ।
त्रिमूढापोढमष्टांगं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥
- श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार, स्वामी समन्तभद्राचार्य, वीर सेवा मंदिर, सस्ती ग्रन्थमाला, दरियागंज, प्रथम संस्करण, वि० नि० सं० २४७६, पृष्ठ ४
२ पंडित टोडरमल : व्यक्तित्व और कृतित्व, डा० हुकमचन्द्रभारिल्ल, पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४ बापूनगर, जयपुर, प्रथम संस्करण १६७३, पृष्ठ १५१ ।
सदनेकान्तात्मकेषु तत्वेषु । ine ferfaresयवसाय विविक्तकमात्मरूपं तत् ॥
३. कर्तव्यो व्यवसायः
-- पुरुषार्थ - सिद्धयोपाय, श्री अमृतचन्द्र सूरि, बी सेण्ट्रल जैन पब्लिसिंग हाउस, अजिताश्रम, लखनऊ, यू०पी०, प्रथम संस्करण १९३३, पृष्ठ २४ ।
४. असुहादो विणिविती सुहे पविती य जाण चारितं । मद समिदिगुत्तिरूवं जवहारणयायु जियमणियम् ||
हम संग्रह : श्री नेमीचन्द्राचार्य, श्रीमद् रामचन्द्र पन शास्त्र मामा, अमास, प्रथम संस्करण वि०सं० २०२२, लोकांक ४५, पृष्ठ १७५ ।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४४ )
नहीं हुआ है। अठारहवीं शती के कविवर खानतराय द्वारा रचित 'श्रीदेवपूजा" में रत्नत्रय का सफल प्रयोग हुआ है । इसी कवि ने रत्नत्रय पर आधारित श्रीदर्शन पूजा, श्रीज्ञानपूजा एवं श्रीचारित्र पूजा काव्य हो रथे हैं। 'श्रीदर्शनपूजा' में सम्यग्दर्शन सार रूप में व्यंजित है ।" 'श्रीज्ञान-पूजा' में सम्यग्ज्ञान को मोहher के लिए area foया है।' 'श्रीचारित्रपूजा' में तीर्थंकर द्वारा सम्यक् चारित्र को सार रूप मानकर ग्रहण करने की बात कही गई है। कवि ने 'श्री रत्नत्रयपूजा भाषा' में दर्शन, ज्ञान और चारित्र को मुक्ति प्राप्त्यर्थरत्नत्रय का उल्लेख किया है।" उन्नीसवों और बीसवीं शती में रचित जन हिन्दी - पूजा काव्य में सम्यक् रत्नत्रय का प्रयोग नहीं हुआ है ।
सिद्ध-पद पाने के लिए सोलह-कारण- भावनाओं का चितवन आवश्यक है। भावना - पुण्य-पाप, राग-विराग, संसार-मोक्ष का कारण है। कुत्सित भावनाओं का त्याग कर उत्तम भावनाओं का चिन्तवन करना श्रेयस्कर है ।
१. मिथ्यातपन निवारन चन्द समान हो । मोह तिमिर वारन को कारण भानु हो ।। काम कषाय मिटावन मेघ मुनीश हो । धानत सम्यक्रत्नत्रय गुनईश हो ||
- श्री देवपूजा, यानतराय, बृहद् जिनवाणी संग्रह, सम्पादक प्रकाशकपन्नालाल बाकलीवाल, मदन गंज, किशनगढ़, राजस्थान, सन् १६५६, पृष्ठ ३०५ ।
२. नीर सुगन्ध अपार, त्रिषा हर मल छय करें । सम्यग्दर्शन सार, आठ अंग पूजों सदा ॥
- श्री दर्शनपूजा, द्यानतराय, राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, अलीगढ़, सन् १९७६, पृष्ठ १६३ ।
३. पंचभेद जाके प्रकट, ज्ञेय प्रकाशन भान । मोह तपन हर चन्द्रमा, सोई सम्यग्ज्ञान ||
- श्री ज्ञानपूजा, धानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, वही, पृष्ठ १६५ ।
४. विषय रोग औषधि महा, देवकषाय जलधार ।
तीर्थंकर जाकों धरें, सम्यक् चारित्रसार ॥
- श्री चारित्र पूजा, द्यानतराय, राजेश नित्य नियम पूजा, वही, पृष्ठ १९७ ।
५. सम्यक् दर्शन, ज्ञान, व्रत शिव मग तीनों मयी ।
पार उतारण जान, 'द्यानत' पूजों व्रत सहित ॥
- श्री रत्नत्रय पूजाभाषा, खानतराय, राजेश नित्य नियम पूजा संग्रह राजेन्द्र मेटल वर्क्स, अलीगढ़, १९७६ पृष्ठ ११२ ।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४५ ) तत्वार्यवन में सोलह-भावनाओं का उल्लेख निम्न प्रकार से हुआ है।'
१. वन विधि २. विनय सम्पन्नता ३. शील ४. प्रतों का अतिचार रहित पालन करना ५. मान में सतत उपयोग ६. सतत संवेग
शक्ति के अनुसार त्याग ८. शक्ति के अनुसार तप ६. साधु-समाधि १०. वैयावत्य करना अर्थात् जैन सन्तों की सेवा-सुश्रुषा करना ११. अरहन्स-भक्ति १२. आचार्य-भक्ति १३. बहुभुत-भक्ति १४. प्रवचन-भक्ति १५. मावश्यक क्रियाओं को न छोड़ना अर्थात् देवपूजा, गुरु की
उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान करना। १६. मोक्षमार्ग को प्रभावना और प्रवचन वात्सल्य ।
अठारहवीं और बीसवीं शती में रचित पूजा-काव्य में ये सभी भावनाएं व्यबहत हैं । उन्नीसवीं शती में रचित पूजाओं में इन भावनाओं की अभिव्यक्ति नहीं हुई है। अठारहवीं शती के खानतराय कृत 'श्री देवपूजा' में प्रमाद निवारण कर सोलह भावनाओं के चिन्तवन का फल अविकारी होना चचित है।
१. दर्शन विशुद्धिविनय सम्पन्नता शीलवतेष्वनतीचारोऽभीषण शानोपयोग
संवेगो शक्तितस्त्याग तपसो साधु समाधियावृत्य करण मर्हदाचार्य बहुश्रुत प्रचवन भक्तिरावश्य का परिहाणिर्मार्ग प्रभावना प्रवचन वत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य । - तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय ६, सूत्र सं० २४, उमास्वामि, श्री अखिल विश्वजन मिशन, अलीगंज, एटा, १९५७ पृष्ठांक ८८ । २. पन्द्रह-भेद प्रमाद निवारी ।
सोलह भावन फल अविकारी ॥ -श्री देवपूजा, बानतराय, बृहद बिनवाणी संग्रह, सम्पादक-प्रकाशक पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, (राज.), सन् १९५६, पृष्ठ ३०३।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
ईल. मामाहात्मा पर मासारित कवि द्वारा सोलहकारण माग चितवन में सीर्थकर बनना होता है, जिनको सहर्ष इन्द्रादि पूजा कर पुज्यताम अजित करते हैं। पूजाकार का विश्वास है कि जो भक्त अपवा पूजक दर्शन विदि का चितवन करता है उसे मावागमन से मुक्ति मिल जाती है। विनय भावना के चितवन करने से शिव-वनिता-सौख्य उपलब्ध होता है। गोलभावना के द्वारा दूसरों की आपदा-हरण करने का यश प्राप्त होता है। ज्ञानभाषमा के चिन्तवन करने से मोहरूपी अंधकार का समापन हो जाता है।
१. सोलह कारण भाव तीर्थंकर जे भए ।
हर इन्द्र अपार मेरु पले गये । पूजा कवि निज धन्य लख्यो बहु चावसों, हमहूं षोडश कारन भावें भाव सों॥
-श्री सोलह कारण भावना पूजा, द्यानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह,
राजेन्द्र मेटिल बक्स, अलीगढ़, सन् १९७६, पृष्ठ १७४ । २. दरश विशुद्धि धरे जो कोई ।
ताको आवागमन न होई ॥ -~-श्री सोलह कारण पूजा, धानतराय, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह,
सन् १९७६, पृष्ठ १७४ । ३. विनय महा धारे जो प्रानी। शिव वनिता की सखी बखानी ॥
~ श्री सोलह कारण पूजा, यानतराय, राजश नित्यपूजापाठ संग्रह,
सन् १९७६ पृष्ठ १७६ ।। ४. शील सदादिड जो नरपालें ।
सो औरन की आपद टालें। -श्री सोलहकारण पूजा, धानतराय, राजेश नित्य पूजा पाठ सग्रह।
पृष्ठ १७६ ॥ ५. ज्ञान अभ्यास करें मनमाहीं।
जाके मोह महातम नाहीं ॥ -~श्री सोलहकारण पूजा, धानतराय, राजेशनित्यपूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ १७६ ॥
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४७ )
.
संग-भावना का मन्यास करने पर । स्वर्ग-मुक्ति के पर्व सुलभ हो जाते हैं। स्वाम-भावना अति दान देने से मन हपित सपा मग सम्बन झोता है तथा भविष्य सुखी होता है। तप-भावना द्वारा कर्मक्षय हो जाते हैं। साधु-समाधि-भावना का चितवन करने से मि-गग के भोगभोगने का अवसर सुलभ होता है और शिवत्व की प्राप्ति होती है। वैया त्य-भावना के चिन्तवन द्वारा सांसारिकता से मुक्ति मिलती है। अरहन्स-भक्ति भावना द्वारा समस्त कषायों का परिहार हो जाता है। आचार्य-भक्ति के परिणामस्वरूप निर्मल आचार धारण करने का सुअवसर १. जो सवेगभाव विस्तार ।
सुरग-मुकति पद आप निहारं ।। -श्री सोलहकारण पूजा, बानतराय, राजेश नित्यपूजा पाठ संग्रह,
पृष्ठ १७६ । २. दान देय मन हरष विशेषे ।
इह भव जस, पर-भव सुख देखे । -श्री सोलह कारण पूजा, यानतराय, राजेश नित्य नियम पूजापाठ
सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वसं, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १७६ । ३. जो तप तपे खिप अभिलाषा ।
चूरै करम शिखर गुरू भाषा ।। -श्री सोलह कारण पूजा, द्यानतराय, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह,
राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, अलीगढ़, १६७६, पुष्ठ १७६ । ४. साधु-समाधि सदा मन लावै । तिहूं जग भोग भोगि शिव जावै ।। ---श्री सोलह कारण पूजा, धानतराय, राजेश नित्यपूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ
१७६ ॥ ५. निशि-दिन वयावृत्ति करैया।
सो निहचे भव नीर तिरंया ।। -श्री सोलह कारण पूजा, धानतराय, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह,
पृष्ठ १७६ । ६. जो अरहन्त-भगति मन आने ।
सो जन विषय कषाय न जाने ।। -श्री सोलहकारणपूजा, धानतराय, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ १७७ ।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४८ )
मिलता है ।" भुत भक्ति के माध्यम से सम्पूर्ण भूत-सम्पदा उपलब्ध होती है। " प्रवचन-मक्ति के चितवन द्वारा परमानन्द की प्राप्ति होती है ।' षट् आवश्यक भावना के चिन्तवन करने से रत्नत्रय का सुफल योग प्राप्त होता है ।" धर्म-प्रभावना करने पर शिव-मार्ग का सम्यक परिचय हो जाता है।* वात्सल्य भावना के चिन्तवन द्वारा तोयंकर पश्वी प्राप्त होती है ।"
after का कहना है कि सोलह भावनाओं का व्रतपूर्वक शुभ चिन्तवन करने पर इन्द्र-नरेन्द्र द्वारा समादर तथा पूजक को अन्ततोगत्वा शिव-पद की
१. जो आचारज भगति करें हैं।
सो निरमल आचार धरे हैं ||
- श्री सोलह कारण पूजा, द्यानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह पृष्ठ १७७ ।
२. बहु श्रुतवत भगति जो करई ।
सो नर सम्पूरन श्रुति धरई ॥
-श्री सोलह कारण पूजा, द्यानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटल वर्क्स, अलीगढ़, पृष्ठ १७७ 1
३. प्रवचन भगति करे जो ज्ञाता ।
लहे शान परमानन्द दाता ||
श्री सोलह कारण पूजा, द्यानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १७६ ।
४. षट् आवश्यककार्य जो साधे ।
सो ही रत्नत्रय आराधे ||
-- श्री सोलह कारण पूजा, धानतराय, राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १७७ ।
५. धरम प्रभाव करे जो ज्ञानी ।
सिन शिव मारग रीति पिछानी ||
- श्री सोलह कारण पूजा, यानतराय, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ १७७ ।
६. वत्सल अंग सदा जो ध्यावं ।
सो तीर्थंकर पदवी पार्व ॥
- श्री सोलह कारण पूजा, पानतराय, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ १७७ ।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ४ ) प्राप्ति होती है। इस प्रकार इन सोलह कारणों से जीप तोहार भाम-गोत्र कर्म को बांधते हैं।'
लौकिक जीवन की सफलता उसके अलौकिक पक्ष को प्रभावित किया करती है। जीवन को निष्कंटक तथा सफल बनाने के लिए विवेच्य काव्य में 'समिति' का प्रयोग हुआ है। जैन दर्शन के अनुसार प्राणि-पीड़ा के परिहार के लिए सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति कहलाता है।'
संयम-शुद्धि के लिए मिनेन्द्र भगवान ने पांच प्रकार के समिति-भेद किए हैं। यया
(१) ईर्या समिति (२) भाषा समिति (३) एषणा समिति (४) आदान-निक्षेपण समिति (५) प्रतिष्ठापन समिति
ईर्या समिति की व्याख्या करते हुए नियमसार' में स्पष्ट कहा गया है कि जो श्रमण प्रासुक मार्ग पर दिन में चार हाथ प्रमाण आगे देखकर अपने कार्य
१. एही सोलह भावना, सहित धरे व्रत जोय ।
देव इन्द्र नरवंद्य पद, द्यानत शिव पद होय ।। -श्री सोलह कारण पूजा, धानतगय, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह,
राजेन्द्र मेटल वर्स, अलीगढ, पृष्ठ १७७ । २. महाबन्ध पुस्तक सं० १, प्रकरण संख्या ३४-३५, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
काशी, प्रथम सस्करण १९५१, पृष्ठांक १६ । ३. प्राणि पीडा परिहारार्थ सम्यगयन समितिः ।
- सर्वार्थ सिद्धि, देवसेनाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम सस्करण,
१६५५, पृष्ठ ७॥ ४. इरिया-भासा-एसण जा मा आदाण चेव णिकोवो ।
सजम सोहिणि मितेखति जिणा पच समिदी ओ ॥ -कुदकुद प्राभूत संग्रह, कुन्दकुन्दाचार्य, चारित्र अधिकार, जन सस्कृति संरक्षक संत्र, शोलापुर, प्रथर स. १६६०, पृष्टाक ६४ ।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
के लिए प्राणियों को पीड़ा से बचाते हुए गमन करता है, वस्तुतः ई-समिति कहलाती है।'
भाषा समिति-पशुन्य बचन अर्थात् बुगल बोर के मुख से निकले हुए बबन, हास्य बचन, कर्कश बचन, पर-निन्या, आत्म-प्रशंसात्मक वचनों को छोड़कर अपने और दूसरों के हितल्प बचन बोलना वस्तुतः भावा-समिति कहलाती है।
एषणा समिति-कृत, कारित तथा अनुमोदना दोष से रहित प्रातुक और प्रशस्त तथा अन्य के द्वारा प्रदत्त भोजन को समभाव से ग्रहण करना वस्तुतः एषणा समिति कहलाती है।'
आदान-निक्षेपण-समिति-पुस्तक, कमण्डलु आदि पदार्थों के उठाने-धरने में सावधानता रूप परिणाम को आदान-निक्षेपण समिति कहा है।
प्रतिष्ठापन समिति-छिपे हुए और निष्कण्टक प्रासक भूमि-स्थान में मल-मूत्र आदि का त्याग करना वस्तुतः प्रतिष्ठापन समिति का लक्षण है। १. पासुग मग्गेण दिवा अवलोगंतो जुगप्पमाणंहि ।
गच्छइ पुरदो समणो इरिया समिदी हवे तस्स ।। -नियम सार, व्यवहार चारित्र अधिकार, गाथांक ६१, कुन्दकुन्दाचार्य, श्री सेठी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, धन जी स्ट्रीट, बम्बई-३, प्रथम संस्करण १६६०, पृष्ठ ११८ । पेसुण्ण हास कक्कस परणिदप्पप्पसंसियं वयणं । परिचता सपरहिंद भाषा समिदी वदंतस्स ।। —नियमसार, व्यवहार चारित्र अधिकार, गाथांक ६२, कुन्दकुन्दाचार्य, श्री सेठी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, धनजी स्ट्रीट, बम्बई-३, प्रथम सस्करण १६६०, पृष्ठ १२१ । कदकारिदाणु मोदणरहिदं तह पासुगं पसत्यं च । दिण्ण परेण भतं समभुती एसणा समिदी। - नियमसार, व्यवहार चारित्र अधिकार, गाथांक ६३, कुन्दकुन्दाचार्य श्री सेटी दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, धनजी स्ट्रीट, बम्बई-३, प्रथम
सस्करण १६६० पृष्ठ १२३ । ४. पोथइ कमंडलाइं गहण विसग्गेसु पयतपरिणामो।
आदावणणिक्खेवण समिदी होदित्ति णिहिट्ठा ।।
नियमसार, व्यवहार चारित्र अधिकार, गाथाक ६४, वही, पृष्ठ १२६ । ५. पासुग भूमि पदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण ।
उच्चारादिच्चागो पइट्ठा समिदी हवे तस्स ।। -नियमसार, व्यवहार चारित्र अधिकार, गाथांक ६५, वही, पृष्ठ १२८ ।
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५१ )
इस प्रकार पंच-समिति पूर्वक प्रवृत्तिकर्ता के असंयम के निमित्त से आने वाले कर्मों का अब अर्थात् प्रवेश बन्ध नहीं होता है ।"
aorrnal और उझोनों शती में रचित जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में समिति का सफलतापूर्वक प्रयोग हुआ है । अठारहवीं शती के कविवर धानतराय कृत 'श्री चारित्र पूजा' में पंचसमिति का व्यवहार हुआ है।" उन्नोसबों शती के कविवर रामचन्द्र द्वारा रचित 'श्री पुष्पदन्त जिनपूजा' काव्य में पंचसमिति का प्रयोग उल्लिखित है।' 'श्री अजितनाथ जिनपूजा' काव्य के जयमाल प्रसंग में पंचसमिति के पालक प्रभु जिनेन्द्र देव को वन्दना व्यक्त हुई है।" बीसवीं शती के जैन- हिन्दी- पूजा- काव्य में समिति का प्रयोग प्रायः नहीं मिलता है ।
आत्मशुद्धि तथा निर्मल जीवनचर्या के लिए समिति की भाँति कषाय का ज्ञानपूर्वक व्यवहार परमावश्यक है। जैन दर्शनानुसार जो आत्मा के क्षमा आदि गुणों का घात करे, उसे कषाय कहते हैं। कवाय भेद की दृष्टि से चार प्रकार की कषाय उल्लिखित है। यथा -
१ इत्यं प्रवर्तमानस्य न कर्माण्यास्रवन्ति हि ।
असंयम निमित्तानि ततो भवति संवरः. ॥
-- तत्वार्थसार, षष्ठाधिकार, श्रीमद् अमृतचन्द्र सूरि, श्री गणेशप्रसाद वर्णी ग्रन्थमाला, डुमराव बाग, अस्सी, वाराणसी ५, प्र० सं० १६७०, पृष्ठ १६३ ।
२. पच समिति त्रय गुपतिग हीजै ।
नरभव सफल करहु तन छीजे ॥
श्री चारित्र पूजा, द्यानतराय, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटल वर्क्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १९७६, पृष्ठ १६६ /
३. तीन गुपति व्रत पंच महापन समिति ही ।
द्वादश तप उपदेश सुधारे सन्त ही ॥
-श्री पुष्पदन्त जिनपूजा, रामचन्द्र जैन ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज, किशनगढ़, सं० १९५१, पृष्ठ ७५ ।
४. जय पंच समिति पालक जिनन्द ।
त्रय गुप्ति करन वसि धरम कन्द ॥
-श्री अजितनाथ जिनपूजा, रामचन्द्र, पृष्ठ २८, वही ।
५. तत्त्वसार, द्वितीयाधिकार, श्रीमंत अमृतचन्द्र सूरी, श्रीगणेशचन्द वर्णी ग्रन्थमाला, डुमराबबाग अस्सी, वाराणसी ५, प्रथम संस्करण १६७० ई० ; पृष्ठांक. ३२ ।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५२ ) १. कोर २. मान ३. माया
४. लोम मात्र अठारहवीं शती के कविवर खानसराय विरचित 'श्री देवपूजा' में कवाय का प्रयोग द्रष्टव्य है।'
भनेक ऐसे शान-तत्वों की अभिव्यक्ति विवेच्य काव्य में द्रष्टव्य है जिमका उल्लेख अठारहवीं शती में उपलब्ध नहीं है। विकास की दृष्टि से ये सभी तत्व विशुद्ध जीवनोत्कर्ष के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं। यहां हम उनका क्रमशः अध्ययन करेंगे।
अनुप्रेमा का अपर नाम भावना है। सुदीर्घ संसार से मुक्त होने के लिए जैन दर्शन में द्वादश- अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन करने की व्यवस्था है।
आनन्यवायक द्वादश अनुप्रेक्षाओं का विभाजन निम्न रूप से किया गया है।' यथा--
१. अध्रुव २. अशरण ३. एकत्व
-
१. नाश पचीस कषाय करी है।
देश घाति छब्बीस हरी है ।
-श्री देवपूजा, धानतराय, बृहद् जिनवाणी संग्रह, सम्पादक, प्रकाशक पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगज, किशनगढ, राजस्थान, सन् १६५६, पृष्ठ ३०३ । णमिऊण सम्व सिद्ध झाणत्तम खविद दीह संसारे । दस-दस दो दो य निणे दस दो अणपेहणं वोच्छे ।। -कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक १, कुन्द-कुन्दाचार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण १६६०, पृष्ठ १३६ । अर्धवम सरण मेगत्तमण्ण संसार लोगम सुचित्त । आसव-संवर-णिज्जर धम्म बोहिं च बितेज्यो ।।
कुन्द -कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गायांक २, कुन्दकुन्दाचार्य जैन संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण, १६६०, पृष्ठ १३६ ।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५३ )
४. अन्य ५. संसार ६. लोक ७. अशुचिता ८. मानव १. संवर १०. निर्जरा ११. धर्म
१२. बोधि अध्रुव-भावना-द्वादश अनुप्रेक्षा नामक अन्य में स्वामी कातिकेय ने अध्रुव-भावना के विषय में चर्चा करते समय कहा है कि जो कुछ उत्पन्न हुआ है, उसका नियम से विनाश होता है। परिणामस्वरूप होने से कुछ भी शाश्वत नहीं है।' जन्म-मरण सहित है, यौवन-जरा सहित है, लक्ष्मी विनाश सहित है, इस प्रकार सब पदार्थ क्षणभंगुर सुनकर, महामोह को छोड़ना अपेक्षित है। विषयों के प्रति विरक्ति-भावना वस्तुतः उत्तम-सुख को प्रदायिनी शक्ति है।
अशरण भावना-मरण काल आने पर तीनों लोकों में मणि, मंत्र, औषधि, रक्षक, हाथी, घोड़े, रथ और समस्त विधाएं जीवों को मृत्यु से बचाने में समर्थ नहीं हैं ।' आस्मा ही जन्म, जरा, मरण, रोग और मप से १. जंकि पि वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेइ णियमेण ।
परिणाम सरूवेण विणय कि पि वि सासयं अस्थि ।। जम्मं मरणेण समं संपज्जइ जुब्बण जरासहियं ।। लच्छी विणास सहिया इस सव्वं भंगुरं मुणह । -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, तत्वसमुच्चय, डा. हीरालाल जैन, भारत जैन
महामंडल, वर्धा, प्रपम सं० १९५२, गायांक ४, ५, पृष्ठ २६ । २. पाऊण महामोहं विसये सुणिऊण भंगुरे सम्बे। णिव्विसयं कुणह मणं जेण सुहं उत्तम लहर।।
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा, तत्वसमुच्चय, डा.हीरालाल जन , गाांक ८, पृष्ठ
२६, वही। ३. मणि-मंतोसह-रखा इय-य-रहमो य सयल विज्ञानो। जीवाणं हि सरण तिलोए मरण समबम्हि ।।
कुन्दकुन्द प्राभूत संबह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गावांक ८, कुन्दकुन्दाचार्य जैन संस्कृति संरक्षक, संघ, सोलापुर, प्रथम सं० १९६०, पृष्ठ १३८ ।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५४ )
मात्मा की रक्षा करता है इसलिए कर्मों के बन्ध उदय और सत्ता से रहित शुर मात्मा ही शरण है।'
एकत्व भावना-जीव अकेला कर्म करता है, अकेला ही सुवीर्ष संसार में भ्रमण करता है, अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है और अकेला ही अपने किए हुए कर्म का फल भोगता है। जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट अर्थात् रहित हैं, वे ही भ्रष्ट हैं। सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट जीव को मोक्ष नहीं होता जो चारित्र से भ्रष्ट हैं वे चारित्र धारण कर लेने पर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं किन्तु जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है वे मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते ।'
अन्यत्व-भावना-माता-पिता, सहोदर धाता, पुत्र, कलत्र आदि परिजनों का समूह जीव के साथ सम्बद्ध नहीं है, ये सब अपने-अपने कार्यवश होते हैं । यह शरीर आदि जो बाह्य द्रव्य है वह सब मुझसे भिन्न है। आत्मज्ञान दर्शन रूप हैं, इस प्रकार सधी धावक अन्यत्व का चिन्तवन करता है। १. जाइ-जर-मरण-रोग-भय दो रखेदि अप्पणो अप्पा ।
तम्हा आदा सरण बधोदय सत् कम्मवदिरित्तो ।। -कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथाक ११, कुन्दकुन्दाचार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्र.स. १६६०, पृष्ठ १३८ । एक्को करेदि कम्मं एक्को हिंडदि य दीह संसारे । एक्को जायदि मरदि य तस्स फलं भुजदे एक्को ।। -- कुन्द-कुन्द प्राभृत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गायांक १४, पृष्ठ १३६,
वही। ३. दसणभट्ठा भट्ठा दंसणभट्ठस्स गत्थि णिव्वाणं ।
सिज्झंति चरियभट्ठा दसणभट्ठा ण सिज्झंति ॥
---कुन्द-कुन्द प्राभृत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक १६, वही । ४. माद्रा-पिदर-सहोदर-पुत्त-कलतादि बन्धु सदोहो।
जीवस्य ण संबंधो णियकज्जवसेण वट्टति ॥
~-कुन्द-कुद प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथा २१, वही। ५. अण्णं इमं सरीरादिगं पि होज्ज बाहिरं दव्वं ।
णाणं दंसण मादा एवं चितेहि अण्णत्तं ॥ -कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गायांक २३, कुन्दकुन्दाचार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्र० सं० १९६०, पृष्ठ
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५५ ) संसार-भावना-संसार का अर्थ है भटकना। जीव एक शरीर को त्यागकर दूसरा ग्रहण करता है। इसी प्रकार नया ग्रहण कर पुनः उसे त्यागता है। यह प्रण-स्याग का क्रम निरन्तर चल रहा है। मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत व एकान्ताविक रूप से वस्तु का बयान तथा कषाय अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ से युक्त इस जीव का अनेक बेहों अर्थात् योनियों में भटकन होता है। वस्तुतः यही संसार है।' सांसारिक स्वरूप को समझकर मोहत्याग कर आत्म-स्वभाव में ध्यान करना संसार-भटकन से मुक्ति प्राप्त करना है। ___ लोकभावना-जीव आदि पदार्थों के समवाय को लोक कहते हैं। लोक के तीन भेद हैं। अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्व लोक ।' अशुभ उपयोग से नरक तथा तिर्यच गति प्राप्त होती है, शुभ उपयोग से देवगति और मनुष्य गति का सुख प्राप्त होता है, तथा शुद्ध उपयोग से मुक्ति की प्राप्ति होती है। इस प्रकार लोक-भावना का विन्तवन करना श्रेयस्कर है। ___ अशुचि भावना-यह शरीर अस्थियों से बना है, मांस से लिपटा हुआ है और चर्म से ढका हुआ है तथा कीट-समूहों से भरा है अतः सदा गन्दा १. एक्कं च जति सरीर अण्णं गिण्हेदि णवणव जीवो।
पुणु पुणु अण्ण अण्ण गिण्हदि मुचेदि बहुवारं ॥ एक ज संसरण णाणदेहेसु हदि जीवस्स । सो संसारो भण्णदि मिच्छकसायेहिं जुतस्स ।। --तत्व समुच्चय, अध्याय ७, गाथांक १२, १३, डा. हीरालाल जैन, भारत जैन महामण्डल, वर्धा, प्रथम संस्करण १६५२, पृष्ठ २७ । इव संसारं जाणिय मोहं सव्वायरेण चइऊण । तं झायह ससहावं संसरणं जेण णासेह ।। -तत्व समुच्चय, अध्याय ७, गाथांक १४, डा. हीरालाल जैन, वही, पृष्ठ २७ । जीवादिपयट्ठाणं समवाओ सो णिरुच्चए लोगो। तिविहो हवेइ लोगो अहमझिम उड्ढभेएण ॥ --कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गापांक ३६, कुन्दकुन्दाचार्य, जैनसंस्कृति संघ, शोलापुर, प्र० सं० १९६०, पृष्ठ
१४४। ४. असुहेण णिरय-तिरियं सुह उबजोगेण दिविजणरसोक्खं ।
सुखण लहइ सिद्धि एवं लोयं विचितिज्जो । -कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, भाषांक ४२, बही, पृष्ठ १४४।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५६ )
रहता है ।" देह से भिन्न, कर्मों से रहित और अनन्त सुख का भण्डार आत्मा ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार सदा उसका ही चिन्तवन करना श्रेयस्कर हैं । *
आलम - भावना - एकान्त मिध्यात्व, विनय मिध्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व, संशय मिथ्यात्व और अज्ञान नामक पांच मिय्यात्वों हिंसा, झुंड, चोरी, कुशील और परिग्रह नामक पाँच प्रकार की अविरति क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चार कषायों तथा तीन प्रकार का योग-मन, वचन और काय आश्रय के कारण हैं।' कर्मों के आस्रव रूप क्रिया से नहीं होता । आलब संसार में भटकने का कारण है, जब तक आस्रव है तब तक मोक्ष नहीं मिल सकता रोकना ही हितकर है।"
परम्परा से भी मोक्ष
अस्तु वह निद्य है । फलस्वरूप आलव को
संवर- भावना - आलव का निरोध संवर है । सम्यक्त्व के चल मलिन और अगाढ़ दोषों को छोड़कर सम्यग्दर्शन रूपी दृढ़ कपाटों के द्वारा मिथ्यात्व रूप आलव द्वार रुक जाता है। निर्दोष सम्यग दर्शन के धारण करने से आलव का प्रथम मुख्य द्वार मिथ्यात्व बन्द हो जाता है और उसके द्वारा
१. दुग्गधं बीभछं कलिम लभरिदं अचेयणं मुत्तं । asणप्पडण सहावं देहं इदि चितये णिच्च ॥
- कुन्दकुन्द प्राभृत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक ४४, पृष्ठ १४५, वहो ।
२. देहादो वदिरितो कम्म विरहिओ अणंत सुहणिलओ ।
चोक्खो हवे अप्पा इदि णिवच भावणं कुज्जा ॥
- कुन्दकुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक ४६, वही, पृष्ठ १४५ ।
३. मिच्छचं अविरमणं कसाय जोगा यआसवा होति ।
पण पण चउ-तियभेदा, सम्मं परिकित्तिदा समए ॥
- कुन्दकुन्द प्राभृत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक ४७, कुन्दकुन्दाचार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, १९६०, पृष्ठ १४५ ।
४. पारंपजाएण दु आसव किरियाए णत्थि णिव्वाणं । संसार गमण कारणमिदि णिदं आसवो जाण ॥
- कुन्दकुन्द प्राभृत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गायांक ५६. वही ।
५. ' मन्त्रव निरोधः संवरः, तत्वार्यसूत्र, अध्याय ६, सूत्र १, उमास्वामी, अखिल विश्व जैन मिशन, अलीगंज, एटा, १६५७, पृष्ठ १२० ।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५७ )
आने वाले कर्म कमाते हैं। इस सत्य का चिन्लवन वस्तुतः संवर भावना कहलाती है ।"
निर्जरा- भावना - बंधे हुए कर्मों के प्रदेशों के क्षय होने को ही निर्जरा कहते हैं। जिन कारणों से संबर होता है उन्हीं से निर्जरा भी होती है ।" निर्जरा भी दो प्रकार की कही गई है, यथा
१. उदयकाल आने पर कर्मों का स्वयं पककर झड़ जाना ।
९. तप के द्वारा उदपावली बाहय कर्मों को बलात् उदय में लाकर
12
खिराना ।
चारों गति के जीवों के पहली निर्जरा होती है और व्रती पुरुषों के दूसरे क्रम की निर्जरा होती है ।"
धर्म - भावना - सर्वज्ञ देव का स्वरूप ज्ञानमय है। सर्वज्ञता प्राप्त करने के साधनों का चिन्तवन करना बस्तुतः धर्म-भावना है। मुनि और गृहस्थ भेद से धर्म क्रमशः दशभेव क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य तथा ग्यारह भेव वर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित त्याग, रात्रिभुक्त व्रत, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग का मूल्य सम्यग्दर्शन पूर्वक होने पर ही निर्भर करता है ।" इसका चिन्तवन करना श्रेयस्कर है।
१. चल - मलिणमगाढं च वज्जिय सम्मतदिढकवाडेण । मिच्छता तवदारणिरोहो होदित्ति जिणेहि गिदिट्ठ ||
- कुन्दकुन्द प्राभुत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक ६१, कुन्दकुन्दाचार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, मोलापुर, १९६०, पृष्ठ १४८ ॥
२. बंध पदेस सग्गलणं णिज्जरणं इदि जिणेहि पण्णत्तं ।
जेण हवे संवरणं तेण दु णिज्जरणमिंदि जाण ॥
- कुन्दकुन्द प्राभृत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गामांक ६६, पृष्ठ १४६, वही ।
३. सा पुण दुविहा या सकालपक्का तवेण कयमाणा । चदुग दियाणं पढमा वयजुताणं हवे बिदिया ॥
--कुन्द - कुन्द प्राभुत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक ६७, नही ।
४. एयारस - सदभेयं धम्मं सम्मत पुव्वयं भणियं ।
सागारणगाराणं उत्तम सुहसंपजुतहिं ॥
- कुन्दकुन्द प्राभुत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गावांक ६८, कुन्दकुन्दाचार्य, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, प्र० सं० १९६०, पृष्ठ १४९
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५८ ) बोधि भावना दुर्लभ मनुष्यजन्म पाकर मोक्ष प्राप्त करने के लिए रत्नत्रय में मादर माद रखना ही बोधि दुर्लभ भावना है इस प्रकार इस मनुष्य गति को दुर्लभ से भी दुर्लभ जानकर और उसी प्रकार दर्शन, ज्ञान तथा चरित्र को भी दुर्लम से दुर्लभ समझकर वर्शन, ज्ञान, चारित्र का मादरपूर्वक चिन्तवन करना अपेक्षित है।' इन द्वादश अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन की उपयोगिता प्रायः असंदिग्ध है। स्वामी कुन्दकुन्द के अनुसार इन भावनाओं के चितवन करने से चिन्तक निर्वाण को प्राप्त कर सकता है।'
उन्नीसवीं शती के कविवर श्री वृन्दावन विरचित 'श्री चन्द्रप्रभ जिन पूजा' की जयमाल में अनुप्रेक्षा के चिन्तवन का उल्लेख हुआ है ।' 'श्री ऋषभनाथ जिन पूजा' काव्य में कविवर बख्तावररत्न ने अनुप्रेक्षा के अनुचिन्तवन से पुण्यराशि प्राप्त होने की चर्चा की है। कविवर मनरंग लाल कृत 'श्री श्रेयांसनाथ जिन पूजा की जयमाल में द्वादश-भावना के चिन्तवन का उल्लेख
१. इय सव्व दुलह दुलहं दंसण-णाण तहा चरित्तं च ।
मुणि ऊण य ससारे महायरं कुणह तिण्हं वि ।। -~-तत्व समुच्चय, अध्याय ७. गायांक ४३, डा. हीरालाल जैन, भारत जैन महामण्डल, वर्धा, सन् १६५२, पृष्ठ २६ । इदि णिच्छय ववहारं ज मणियं कु'द कुद मुणिणाहे । जो भावइ सुद्ध मणो सो पावइ परमणिव्वाणं ॥ --कुद-कुन्द प्राभूत संग्रह, अनुप्रेक्षा अधिकार, गाथांक ६१, प्रथम संस्करण
१६६०, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, पृष्ठ १५३ । ३. लखि कारण हवे जगते उदास ।
चिन्त्यो अनुप्रेक्षा सुख निवास ।। -~-श्री चन्द्रप्रभजिनपूजा, वृन्दावन, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ
काशी, प्रथम संस्करण, १६५७, पृष्ठ ३३७ । ४. इह कारन लख जग ते उदास ।
भाई अनुप्रेक्षा पुण्य रास ॥ -श्री ऋषभनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, वीर पुस्तक भण्डार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८, पृष्ठ १३ ।
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ५६ )
हुआ है। कविवर रामचन्द्र प्रणीत 'श्रीमहावीर जिनपूजा' में सांसारिकमय से मुक्ति पाने के लिए अनुप्रेक्षा का चितवन आवश्यक चित्रित किया है ।
atest शती के कविवर जिनेश्वरदास कृत 'श्री नेमिनाथ जिनपूजा' में बारह भावना का उल्लेख हुआ है ।" कविवर युगल किशोर जैन 'युगल' द्वारा प्रणीत 'श्री देव शास्त्र-गुरु पूजा' में सम्पूर्ण बारह भावनाओं का पृथक्-पृथक् रूप से चित्रण हुआ है ।"
इस प्रकार आत्मा में वैराग्य-भावना उत्पन्न करने के लिए द्वादशअनुप्रेक्षाओं का चितवन आवश्यक है । वैराग्योत्पत्ति काल में बारह भावनाओं का चितवन व्यवहार नय की अपेक्षा निश्चय नय पूर्वक करना मोक्ष मार्ग को प्रशस्त करता है ।
द्रव्य की दृष्टि से विचार किया जाए तो सारा जगत स्थिर प्रतीत होता है परन्तु पर्याय दृष्टि से कोई भी स्थिर नहीं हैं । विश्व में दो ही शरण हैं । निश्चय से तो निज शुद्धात्मा ही शरण हैं और व्यवहार नय से पंचपरमेष्ठी । पर-मोह के कारण यह जीव अन्य पदार्थों को शरण मानता है । निश्चय से पर-पदार्थों के प्रति मोह राग-द्वेष भाव हो संसार को जन्म देता है । इसलिए जीव चारों गतियों में दुःख भोगता है। आत्मा एक ज्ञान स्वभावी ही है । कर्म के निमित्त को अपेक्षा कथन करने से अनेक विकल्पमय भी उसे कहा
1
१. द्वादश भावन भाई महान ।
अध्रुव को आदिक भेद जान ।।
- श्री श्रेयासनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थ-यज्ञ, जवाहरगंज, जबलपुर, चतुर्थ संस्करण सं० १६५०, पृष्ठ ८४ ।
२. लखि पूरव भव अनुप्रेक्ष चिन्त ।
भयभीत भये भवते अत्यन्त ||
- श्री महावीर जिनपूजा, रामचन्द्र नेमीचन्द्र बाकलीवाल, जैन ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज, किशनगढ़, प्रथम संस्करण १९५१, पृष्ठ २१० ।
३. व्याह समय पशुदीन निरखिकें राज तजो दुःख कूप ।
बारह भावना भावे नेमि जी भए दिगम्बर रूप ||
श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास, जैनपूजा पाठ संग्रह, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ११३ ।
४. श्रीदेव शास्त्र गुरु पूजा, युगल, जैनपूजापाठ संग्रह, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ३०-३१ ।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६० )
इनके नाश होने पर मुक्ति प्राप्त होती है। प्रत्येक पदार्थ अपनी-अपनी सत्ता में ही विकास कर रहा है, कोई किसी का कर्ता हर्ता नहीं है । जब जीव ऐसा चिन्तयन करता है तो फिर पर से ममत्व नहीं होता है ।
अशुचि भावना से प्रेरित होकर शरीर आसक्ति भी निरर्थक प्रतीत हो उठती है । निश्चय दृष्टि से देखा जाय तो आत्मा केवल ज्ञानमय हैं । विभाव भावरूप परिणाम तो आलव भाव हैं जो कि नष्ट होना चाहिए ।
fare से आमस्वरूप में लीन हो जाना ही संदर है । उसका कथन समिति, गुप्ति और संयम रूप से किया जाता है जिसे धारण करने से पापों का शमन होता है । ज्ञानस्वभावी आत्मा ही संवर मय है। उसके आश्रय से हो पूर्वोपार्जित कर्मों का नाश होता है और यह आत्मा अपने स्वभाव को प्राप्त करता है ।
लोक अर्थात् षट् ब्रव्य का स्वरूप विचार करके अपनी आत्मा में लीन होना चाहिए । निश्चय और व्यवहार को अच्छी तरह जानकर मिथ्यात्व भावों को दूर करना चाहिए। आत्मा का स्वभाव ज्ञानमय है अतः वह निश्वय से दुर्लभ नहीं है। संसार में आत्मज्ञान को 'दुर्लभ' तो व्यवहार नय से कहा गया है । आत्मा का स्वभाव ज्ञानदर्शन मय है । क्या, क्षमा आदि दश धर्म और रत्नत्रय सब इसमें हो गर्भित हो जाते हैं ।
विवेच्य काव्य में इन बारह भावनाओं की विशद व्याख्या हुई है । कोई मी पूजक यदि इस काव्य का नित्य सुपाठ करे तो उत्तरोतर उत्कर्ष को प्राप्त कर सकता है।
संसार में समस्त प्राणी दु:खी दिखलाई पड़ते हैं । फलस्वरूप वे सभी दु:ख से बचने का उपाय भी करते हैं। प्रयोजनभूत तत्वों का जिस वस्तु का जो स्वभाव है वह तत्व है। जैन दर्शन में तत्व-भेद करते हुए उन्हें निम्न सात भागों में विभाजित किया गया है।" यथा
१. 'तद् भावस्तत्वमा'
- सर्वार्थसिद्धि, देवसेनाचार्य, अध्याय संख्या २, सूत्रसंख्या ४२, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण, सन् १९५५, पृष्ठ ५ ।
१. जीवा जीवास्रव बंध संवर निर्जरा मोक्षस्तत्वम् ।
- तत्वार्थ सूत्र, उमास्वामी, प्रथम अध्याय, सूत्रांक ४, अखिल विश्व जैन मिशन, अलीगंज, एटा, सन् १९५७, पृष्ठ ३ ।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
१. श्रीब-कोना अथवा मानोपयोग, वनोपयोग से 'सहित हो बसे
२. मजीव-जो चेतना अथवा बानोपयोग और दर्शनोपयोग से रहित हो,
उसे अजीब कहते हैं। ३. मानव-आत्मा में नवीन कर्मों के प्रवेश को बाबा कहते हैं। ४. बन्ध-आत्मा के प्रदेशों के साप कर्म परमाणमों का नीर-क्षीर के
समान एक क्षेत्रावगाह रूप होकर रहना बन्ध है। ५. संबर-आलब का रुक जाना संबर कहलाता है। ६. निर्जरा-पूर्वबद्ध कर्मों का एक बेश क्षय होना निर्जरा है। ७. मोक्ष-समस्त कर्मों का आत्मा से सदा के लिए पथर हो जाना मोक्ष
कहलाता है। जोब और अजीब ये दो मूल तत्व हैं । इनमें जीव उपादेय है और अजीव छोड़ने योग्य है । जीव, अजीव का ग्रहण क्यों करता है, इसका कारण बतलाने के लिए आस्त्रब तत्व का कपन किया गया है । अजोय का ग्रहण करने से जोष की क्या अवस्था होती है यह बतलाने के लिए बन्धतत्व का निर्देश है। जीव अजीव का सम्बन्ध कैसे छोड़ सकता है, यह समझने के लिए संबर और निर्जर फा कथन है और अजीव का सम्बन्ध छूट जाने पर जीव को क्या अवस्था होती है, यह बतलाने के लिए मोक्ष का वर्णन किया गया है। सात तत्वों में जीव और अजीव ये दो मूल तत्व हैं और शेष पाँच तत्व उन दो तत्वों के संयोग तथा वियोग से होने वाली अवस्था विशेष है।'
विवेच्य काव्य में इतने उपयोगी तत्वों का उल्लेख उन्नीसवीं और बीसवीं शती में उपलब्ध है। उन्नीसवीं शती के कविवर बख्तावररत्न द्वारा प्रणीत 'श्री ऋषभनाथ जिनपूजा' की जयमाला में सप्त तत्वों का प्रयोग हुआ १. उपादेय तथा जीवोऽजीवो हेयतयोदितः ।
हेयस्यास्मिन्नपादान हेतत्वेनास्रवः स्मृतः ।। हेयस्यादान रूपेण बन्धः स परिकीतितः । सवरो निर्जरा हेयहानहेतुतयोदितो । हेय प्रहाण रूपेण मोक्षो जीवस्य दर्शितः ।। -तत्वार्थ सार, प्रथम अधिकार, श्रीमदअमृतचन्द्र सूरि, श्रीगणेश प्रसाद वर्गी ग्रन्थमाला, इमराव बाग, अस्सी, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण, सन् १९७०, पृष्ठ ३।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६२ )
है । अठारहवीं शती के कवि भगवानदास कृत 'श्री तत्वार्थ सूत्र पूना' नामक काव्य में सप्ततत्वों की चर्चा हुई है ।"
विवेष्य पूजा काव्य में पंचपरमेष्ठी भक्ति का महत्वपूर्ण स्थान है । इनके विषय में भक्ति - सन्दर्भ में चर्चा हुई है। यहां साधु-परमेष्ठी के चारित्रिक गुणों में अट्ठाइस मूल गुणों का अध्ययन करना अभीप्सित है। बीसवीं शती में रचित पूजा काव्य में अट्ठाइस मूल गुणों का उल्लेख हुआ है। पूजा-काव्य में व्यंजित इस ज्ञान-सम्पदा के विषय में विचार करना असंगत न होगा ।
जो दर्शन और ज्ञान से पूर्ण मोक्ष के मार्गभूत सदा शुद्ध चारित्र को प्रकट रूप से साधते हैं वे वस्तुतः मुनि साधु-परमेष्ठी हैं, उन्हें नमस्कार किया गया है ।"
मुनि साधु परमेष्ठी के चारित्रिक गुणों में अट्ठाइस मूल गुणों का उल्लेखनीय स्थान है | अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच महाव्रत, ईर्ष्या, भाषा, एबना, आवना निक्ष पण और उत्सर्ग ये पांच समितियाँ; स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, धोत्र, इन पंच इन्द्रिय-निग्रहः सामायिक, स्तवन बन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, कायोत्सर्ग ये षट् आवश्यक; पृथ्वी शयन, स्नान न करना, दिगम्बर रहना, केश लोच करना, खड़े होकर भोजन करना,
१. ताको वरनत सुर थकाय, सो मोपे किमबरनो सुजाय । तहाँ सप्त तत्व परकाश सार, इकलाख पूर्व कीनो बिहार ॥
-श्री ऋषभनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, वीर पुस्तक भण्डार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, सं० २०१८ पृष्ठ १४ ।
२ षट् द्रव्य को जानें कहयो जिनराज वाक्य प्रमाण सो । किय तत्व सातों का कथन जिन आप्त-आगम मानसो || तत्वार्थ सूत्रहि शास्त्र सो पूजो भविक मन धारि के । लहि ज्ञान तत्व विचार भवि शिव जा भवोदधि पार के ||
- श्री तत्वार्थ सूत्र पूजा, भगवानदास, ६२, नलिनी रोड, कलकत्ता -- ७ पृष्ठ ४१० ।
३. दसण णाण समग्गं मग्ग मोक्खस्स जो ह चारित ।
साधयदि णिच्च सुद्ध साहू स मुणी णमो तस्स ॥
- बृहद्रव्यसंग्रहः, श्री नेमीचन्द्राचार्य, तृतीय अध्याय, गाथा संख्या ५४, श्री रायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, अगास, तृतीय संस्करण, सन् १६६६, पृष्ठ २०० ।
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
बत धावन न करना तवा दिन में एक बार भोजन करना, ये साप के माइस मूल नग हैं। इनका परिपालन मुनि चारित्र्य का स्वभाव है।
बोसवीं शताम्बि के कविवर श्री हेमराज विरचित 'श्री गुरुपूजा' नामक काय की जयमाल-अंग में साधु की चारित्रिक चर्या का यशगान करते हुए कवि ने अठ्ठाइस मूल गुणों का उल्लेख किया है। इन गुणों के नित्य चिन्सबन करने से कल्याण-मार्ग प्रशस्त होता है।'
विवेच्य जन हिन्दी पूजा काव्य में अभिव्यक्त ज्ञान विषयक सम्पदा का अनुचितन करने से लगता है कि जीव अथवा आत्मा एक अत्यन्त परोक पदार्थ हैं । संसार के सभी वार्शनिकों ने इसे तक से सिद्ध करने की चेष्टा को है। स्वर्ग, नरक, मुक्ति आदि अति परोक्ष पदार्थों का मानना भी आत्मा के अस्तित्व पर ही आधारित है । आत्मा न हो तो इन पदार्थों के मानने का कोई प्रयोजन नहीं है यही कारण है कि जीव के स्वतन्त्र अस्तित्व का निषेध करने वाला चार्वाक इन पदार्थों के अस्तित्व को पूर्णतः अस्वीकार करता है। आत्मा का निषेध सारे शान-काण्ड और क्रिया-काण्ड के निषेध का एक अघ्रान्त प्रमाण पत्र है । पारलौकिक जीवन से निरपेक्ष लौकिक जीवन को समुन्नत और सुखकर बनाने के लिये भी यद्यपि ज्ञानाचार और क्रियाचार को
१. अहिसा दीणि उत्ताणि महब्वयाणि पंच य ।
समिदीओ तदो पंच-पंच इंदियणिग्ग हो। छन्भेयावास भूसिज्जा अण्हाणत्त चेल दा । लोयतं ठिदि भुत्ति च अदंत धावणमेव य ।।
-कुन्द-कुन्द-प्राभूत संग्रह, भक्ति अधिकार, कुन्दकुन्दाचार्य जनसंस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण, सन १६६०, गाथांक ५
तथा ६, पृष्ठांक १६१ । २. पच्चीसों भावन नित भावें, छब्बिस अंग-उपंग पढे ।
सत्ताईसों विषय विनाशें, अट्ठाईसो गुण सूपढे ॥ शीत समय सर चोहटवासी, ग्रीषमगिरि शिर जोग धर । वर्षा वृक्ष तरें थिर ठाढे, आठ करम हनि सिद्ध वरं ।।
-श्री गुरुपूजा, हेमराज, बृहद् जिनवाणी संग्रह, पंचम अध्याय, सम्पादकप्रकाशक-पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगज, किशनगढ़, राजस्थान, सन् १६५६, पृष्ठ ३१३ ।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६४ )
आवश्यकता तो है और इसे किसी न किसी रूप में चार्वाक भी स्वीकार करता है तो भी परलोकाभित कियाओं का आत्मादि पदार्थो का अस्तित्व नहीं मानने वालों के मत में कोई मूल्य नहीं है ।
जैन दर्शन एक आस्तिक दर्शन है। वह आत्मा और उससे सम्बन्धित स्वर्ग, नरक और मुक्ति आदि का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकारता है । आत्मा के सम्बन्ध में उसके समन्वयात्मक विचार है। जैन दर्शन अनेकान्तवादी है अस्तु आत्मा को भी विभिन्न दृष्टिकोणों से देखता है। आत्मा का वर्णन करने के लिये जैन दर्शन में नौ विशेषताएं व्यक्त की हैं। यहाँ जेन हिन्दी पूजा-काव्य में व्यवहृत आत्मा की सभी विशेषताओं का संक्षेप में मूल्यांकन करना असंगत न होगा ।
जीब सदा जीता रहता है, वह अमर है । उसका वास्तविक प्राण चेतना है जो उसकी तरह हो अनादि और अनन्त है । उसके कुछ व्यावहारिक प्राण भी होते हैं जो विभिन्न योनियों के अनुसार बदलते रहते हैं। आत्मा नागा योनियों में विभिन्न शरीरों को प्राप्त करता हुआ कर्मानुसार अपने व्यावहाfre प्राणों को बदलता रहता है किन्तु चेतना की दृष्टि से न वह मरता है और न जन्म धारण करता है । शरीर की अपेक्षा वह भौतिक होने पर भी आत्मा की अपेक्षा वह अभौतिक है । जीव की व्यवहार नय और निश्चय की अपेक्षा कथंचित भौतिकता और कथंचित अभौतिकता मानकर जैनदर्शन इस विशेषण के द्वारा चार्वाक आदि के साथ समन्वय करने की क्षमता रखता है । यही इसके सप्तभंग-स्याद्वाद तत्व की विशेषता है ।
1
आत्मा का दूसरा विशेषण उपयोगमय है । अर्थात् ज्ञान, दर्शनात्मक है। यह नैयायिक और वैशेषिक दर्शनों से समता रखता है । ये दोनों दर्शन भी आत्मा को ज्ञान का आधार मानते हैं। जैन दर्शन भी आत्मा को आधार और ज्ञान को उसका आधेय मानता है। अन्य दृष्टि से आत्मा को ज्ञानाधिकरण की अपेक्षा ज्ञानात्मक भी माना गया है । आत्मा और ज्ञान जब किसी भी अवस्था में भिन्न नहीं हो सकते तब उसे ज्ञान का आश्रय मानने का आधार क्या है ? इस दृष्टि से तो आत्मा ज्ञान का आधार नहीं अपितु उपयोगमय अर्थात् ज्ञान दर्शनात्मक ही है ।
आत्मा का तीसरा विशेषण है अमूर्त । चार्वाक आदि जीव को अमूर्त नहीं मानते । जंग दर्शन में स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध विषयक पौद्गलिक गुणों से
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६१ )
मंचित होने से आत्मा हो अमूर्त माना गया है तथापि अनादिकाल से कमों से बंधा हुआ होने से उसे मूर्त भी कहा जा सकता है। शुद्ध-स्वरूप की अपेक्षा से वह अमूर्त है और कर्मबन्ध रूप पर्याय को अपेक्षा से वह मूर्त मी है ।
आत्मा का चौथा विशेषण हं कर्त्ता । सांख्य दर्शन आत्मा को कर्ता नहीं मानता । वहाँ वह मात्र भोक्ता है | कर्तृत्व तो केवल प्रकृति में हैं किन्तु जनदर्शन में आत्मा व्यवहार नय से पुद्गल कर्मों का अशुद्ध निश्चय नय से चेतन कर्मों अर्थात् राग, द्वेषादि का और शुद्ध निश्चय नय से अपने ज्ञान, वर्शन आदि शुद्ध भावों का कर्त्ता है ।
आत्मा का fear विशेषण है भोला । बोद्ध-दर्शन क्षणिकवादी होने के कारण कर्ता और भोक्ता का ऐक्य मानने की स्थिति में नहीं है। जनदर्शन के अनुसार आत्मा सुख-दुःख रूप पुद्गल कर्मों का व्यवहार नय से भोक्ता है और निश्चय नव से वह अपने कर्मफल की अपेक्षा चेतन भावों का ही भोक्ता है ।
स्वदेह परिणाम आत्मा का छठा विशेषण है। इसके अर्थ हैं आत्मा को जितना बड़ा शरीर मिलता है उसी के अनुसार उसका परिमाण हो जाता है । नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक और सांख्य दर्शन आत्मा को व्यापक मानते हैं । जनदर्शन में व्यवहार नय के अनुसार आत्मा के प्रवेशों का संकोच और विस्तार होता है। निश्चय नय के अनुसार वह लोकाकाश की तरह असंख्यात प्रदेशी अर्थात् लोक के बराबर बड़ा है। इस प्रकार इसका इन चारों दर्शनों के साथ समन्वय हो जाता है ।
संसारस्य आत्मा का सातवाँ विशेषण है । सदा- शिव दर्शन मान्यता के अनुसार आत्मा कभी संसारी नहीं होता, कर्म-परिणामों से वह अछूता सर्वदा शुद्ध बना रहता है । जंनदर्शन के व्यवहार नय की अपेक्षा से संसारी जीव अर्थात् अशुद्ध जीव सुबल ध्यान में अपने कर्मों को क्षय कर मुक्त होता है, निश्चय नय को अपेक्षा से वह शुद्ध है।
संवर- निर्जरा परक पूर्ण
आत्मा का आठवां विशेषण है सिद्ध । यह पारिभाषिक शब्द है, इसका अर्थ है ज्ञानावरणावि आठ कर्मों से रहित होना । आचार्य मइट और चार्वाक के अनुसार आत्मा का आदर्श स्वर्ग है। यहाँ मोक्ष की कल्पना नहीं है। चार्वाक तो जीव की eer को ही स्वीकार नहीं करते । जैन दर्श
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६६ )
के अनुसार आत्मा अपने कर्मबन्ध काटकर सिद्ध हो जाता है । अभव्य जीव सिद्धत्व को प्राप्त नहीं कर सकते ।
आत्मा का नवम विशेषण है- स्वभाव से कर्ध्वं गमन। यह भी दार्शनिक शब्द है जिसके अर्थ हैं आत्मा का वास्तविक स्वभाव ऊर्ध्वगमन है । यदि इसके विपरीत उसका गमन होता है तो उसका कारण कर्म परिपाक है । कर्म-विरत होने पर मात्मा जहाँ तक धर्मद्रव्य उपलब्ध रहता है, उर्ध्वगमन करता है। मांडलिक प्रत्यकार की मान्यता है कि जीव सतत गतिशील है ।
इस प्रकार विवेच्य काव्य में जीव आत्मा से सम्बन्धित अनेक ऐसे ज्ञान तत्वों का प्रयोग हुआ है जिनके व्यवहार से जीव उत्तरोत्तर उत्कर्ष प्राप्त करता है। जीवन के लिए अनिवार्य है धर्म किन्तु उसका रूप एकान्त बाह्याचार कभी नहीं है । आचारः प्रथमो धर्मः अर्थात् आचार ही सर्वप्रथम धर्म है । आचार में मनुष्य के उन क्षेमकर प्रयत्नों की गणना है जो अन्तर्मुख हों । सदाचारी का हृदय अहंकार से रहित शुद्ध, समभाषी तथा सहानुभूति, क्षमा, शान्ति आदि धार्मिक तत्वों से सम्पन्न रहता है ।
सदाचार और धर्म में कोई भेद नहीं है । सदाचार से जीवन भौतिकता से हटकर आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होता है । सदाचार स्वयं हो आध्यात्मिकता है । इससे जीवन में स्फूर्ति और चैतन्य जाता है ।"
१. अर्हत् प्रवचन, उपोदघात, सम्पादक पं० चैनसुखदास, न्यायतीर्थ, आत्मोदय ग्रन्थमाला, जयपुर, प्रथम संस्करण, १६६२, पृष्ठ १६ ।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
भक्ति
बाबक अथवा सुधी सामाजिक अर्थात् सद्गहस्थ की दैनिक जीवनचर्या आवश्यक षट्कर्मों से अनुप्राणित हुआ करती है।' इन षटकों में देव-पूजा, गुरु-सेवा, स्वाध्याय, संयम तथा तप धावक के दैनिक आवश्यक कर्तव्य में देवपूजा का स्थान सर्वोपरि है। राग प्रचुर होने से गृहस्थों के लिए जिनपूजा वस्तुतः प्रधान धर्म है। भया और प्रेम तस्व के समीकरण से भक्ति का जन्म होता है । अक्षा-भक्ति एवं अनुराग अथवा जन्म-मरण भय के मिश्रण से पूजा को उत्पत्ति होती है।' जिन, जिनागम, तप तथा श्रुत में पारायण आचार्य में सद्भात विशुद्धि से सम्पन्न अनुराग वस्तुतः भक्ति कहलाता है। पूजा के अन्तरंग में भक्ति की भूमिका प्रायः महत्वपूर्ण है । जन-हिन्दी-पूजाकाव्य में प्रयुक्त भक्ति-भावना पर विचार करने से पूर्व जैन धर्म की भक्तिभावना विषयक संक्षिप्त चर्चा करना यहां असमीचीन न होगा।
जैन धर्म का मेरुदण्ड ज्ञान है। ज्ञान प्राप्त करने के लिए भक्ति एक आवश्यक साधन है । भक्ति मन की वह निर्मल वशा है जिसमें देव तत्व का
१. देव पूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः ।
दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने । --पंचविंशतिका, पद्मनंदि, ६/७, जीवराज ग्रंथमाला, प्रथम संस्करण
सन् १९६२ । २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, क्षुल्लक जिनेन्द्र वर्गी, भारतीय ज्ञान पीठ,
नई दिल्ली, प्रथम संस्करण, वि० सं० २०२६, पृष्ठ ७३ । ३. साद शताब्दी स्मृति ग्रंथ, जिन पूजा का महत्त्व, लेखक श्री मोहनलाल
पारसान, श्री जैन श्वेताम्बर पंचायती मंदिर, साई शतान्दी महोत्सव समिति, १३६ काटन स्ट्रीट, कलकत्ता ७, प्रथम संस्करण १६६५ ।
पृष्ठ ५३ । ४. जिने जिनागमे सूरो तपः श्रुतपरायणे । सद्भाव शुदि सम्पन्नोऽनुरागो भक्ति रुच्यते ।।
ज्यशस्तिलक और इंडियन कल्चर, प्रो. के. के. हेण्डीकी, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण १६४६, पृष्ठ २६२ ।
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६८ )
माधुर्य मम को अपनी ओर आकृष्ट करता है ।' जब अनुराग स्त्री विशेष के लिए न रहकर, प्रेम, रूप और तृप्ति की समष्टि किसी दिव्य तत्त्व या राम के लिए हो जाये तो वही भक्ति की सर्वोतम मनोदशा है। भक्ति वस्तुतः अनुभव-सिद्ध स्थिति का अपर नाम है। भक्त में जब इस स्थिति का प्रादुर्भाव होता है तब उसके जीवन, विचार तथा आचार पद्धति में प्रायः परिवर्तन परिलक्षित हो उठते हैं।" ज्ञान प्राप्त्यर्थं पूजक भगवान जिनेन्द्र की पूजा करता है। जैन भक्ति में श्रद्धा तत्व की भूमिका उल्लेखनीय है । जिनेन्द्र भगवान में श्रद्धा रखने का अर्थ है अपनी आत्मा में अनुराग उत्पन्न करना । यही वस्तुतः सिद्धत्व की स्थिति है। इसी को दार्शनिक शब्दावलि में मोक्ष कहा गया है।" जैन- हिन्दी- पूजा- काव्य में राग को कर्मबन्ध का प्रमुख कारण स्थिर किया गया है किन्तु जिनेन्द्र भक्ति में अनुराग रखने का आग्रह उसमें तादात्म्य स्थिर करना है ।" जिनेन्द्र और आत्मस्वरूप में कोई अन्तर नहीं है। भक्त जिनेन्द्र भक्ति में मूलतः तन्मय हो जाना चाहता है ।
जैन धर्म में साधुओं और सुधी आवकों की नित्य की पर्या-प्रयोग में आने वाली भक्ति भावना को वश अनुमानों में विभाजित किया गया है। यथा
१. हिन्दी जैन काव्य में व्यवहृत दार्शनिक शब्दावलि और उसकी अर्थ व्यञ्जना, कु० अरुणलता जैन, पी-एच० डी० उपाधि हेतु आगरा विश्व विद्यालय द्वारा स्वीकृत शोधप्रबन्ध, सन् १९७७, पृष्ठ ५४३ ।
२. कल्याण, भक्ति अंक, वर्ष ३२, अंक १ जनवरी १६५८, गोरखपुर, भक्ति का स्वाद, लेखक डॉ० वासुदेव शरण अग्रवाल, पृष्ठ १४४ ।
३. हिन्दी जैन काव्य में व्यवहृत दर्शनिक शब्दावलि और उसकी अर्थ व्यञ्जना, कु० अरुणलता जैन, पी-एच० डी० उपाधि के लिए आगरा विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत शोधप्रबन्ध; सन् १९७७, पृष्ठ ५४३ ।
४. हिन्दी जैन काव्य में व्यवहृत दार्शनिक शब्दावलि और उसकी अर्थ व्यञ्जना, कु० अरुणलता जैन, पी-एच० डी० उपाधि के लिए आगरा विश्वविद्यालय द्वारा स्वीकृत शोधप्रबन्ध, सन् १९७७, पृष्ठ ५४४ ।
५. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेम सागर जैन, भारतीय ज्ञान पीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १६५३, पृष्ठ ६४ ।
६. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण वि० सं० २०२६, पृष्ठ २०८
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
-सिद्ध-भक्ति
भूत-भक्ति
३ चारित्र भक्ति -योगि-भक्ति
५- आचार्य - भक्ति
६- पंच परमेष्ठि भक्ति
- तीर्थकर - भक्ति
19
( ६ )
८ चैत्य -- भक्ति
E -- समाधि - भक्ति
१० - वीर - भक्ति
इसके अतिरिक्त निर्वाणभक्ति, नंदीश्वर भक्ति और शांति भक्ति का भी उल्लेख मिलता है, जैन- हिन्दी-पूजा काव्य में ये सभी भक्तियां प्रयुक्त हैं यहाँ केवल वीर भक्ति का उल्लेख नहीं है । इन भक्तियों के अतिरिक्त जैन काव्य में नवधा भक्ति का भी विवरण उपलब्ध है। यह साधु-जनों के आहार दान के समय व्यवहार में प्रचलित है।'
भारतीय सभी धार्मिक मान्यताओं में ब्रह्म के रूप में निर्गुण और सगुण नामक दो प्रकार की भक्त्यात्मक स्थितियों का उल्लेख मिलता है। जैन भक्ति में निराकार आत्मा और वीतराग भगवान के स्वरूप में जो तादात्म्य विद्यमान है वह अन्यत्र प्रायः सुलभ नहीं है । सामान्यत निर्गुण और सगुन के पारस्परिक खण्डनात्मक उल्लेख मिलते हैं किन्तु जैन धर्म में सिद्ध भक्ति के रूप में निष्कल ब्रह्म एवं तीर्थंकर भक्ति में सकल ब्रह्म का केवल विवेचन हेतु पृथक उल्लेख अवश्य मिलता है अन्यथा दोनों मे समानता है । जैन भक्ति में निर्गुण और सगुण भक्ति की कोई पृथक-पृथक व्यवस्था नहीं है ।" आठ कर्मों से रहित और अनन्त चतुष्टय गुणों का धारी मोक्ष में विराजमान जीव वस्तुतः परमात्मा कहलाता है।*
१. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्ची भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण सन् १९७२, पृष्ठ २१० ।
२. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण सन् १९५२, पृष्ठ १२ १
३ अष्ट पाहुड, कुंद कुशवार्य, श्री पाटनी दि० जैन ग्रंथमाला, मारोठ, प्रथम संस्करण सन् १९५०, गाथांक १५०-१५१ ।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७० ) परमात्मा अथवा सिब प्रायः निराकार होते हैं। जैन हिन्दी काय्य में सर्वप्रसिद्ध की महिमा का प्रतिपादन परिलक्षित है। भक्त अथवा पूजक की मान्यता है कि उनकी वंदना अथवा भक्ति से परम शुद्धि तथा सम्यक् ज्ञान प्राप्त होता है। केवल ज्ञान प्राप्त होने पर अमित आनंद की अनुभूति हुआ करती है।
जैनधर्म निवृत्ति मूलक है । यहाँ अशुभोपयोग, शुभोपयोग तथा शुखोपयोग मामक तीन श्रेणियों में प्राणी का पुरुषार्थ विभाजित किया गया है। पर-पदार्थ के प्रति ममत्व-भाव रखते हुए पर को कष्ट देने का विचार तज्जन्य व्यवहार कर्ता का अशुभोपयोग कहलाता है। यह जघन्य कोटि का कर्म है। सांसारिक पदार्थों के प्रति ममत्व रखते हुए पर-प्राणियों को किसी प्रकार से हानि न पहुंचाना वस्तुतः शुमोपयोग के अन्तर्गत आता है। किन्तु सांसारिक-पार्यो के प्रति पूर्णतः अनासक्त होफर स्व-पर कल्याणार्थ कर्म विरत होने के लिए तपश्चरण शोल होना वस्तुतः शुद्धोपयोग कहलाता है। जैन भक्ति में भक्त के सम्मुख निवृत्तिभूलक शुखोपयोग का उच्चादर्श विद्यमान रहता है। वह निरर्थक आवागमन से मुक्ति पाने के लिए अरहन्तदेव के दिव्य गुणों का चिन्तवन करता है और पूजापाठ के द्वारा अष्ट द्रव्यों से वस-कर्मो के अयार्थ १. सब इष्ट अभीष्ट विशिष्ट हितू,
उत्कृष्ट वरिष्ट गरिष्ट मितू । शिव तिष्ठत सर्व सहायक हो, सब सिद्ध नमों सुखदायक हों ।। "-श्री सिद्ध पूजा, हीरानंद, ज्ञानपीठ पुष्पाञ्जलि, भारतीय ज्ञानपीठ,
नई दिल्ली, प्रथम संस्करण सन् १९३६, पृष्ठ १२१ । २. 'यत्र तु मोहद्वेषाव प्रशस्तरागश्च ताशुभ इति ।'
--बहद नय चक्र, श्री देव सेनाचार्य माणिकचन्द्र ग्रंथमाला, बम्बई, प्रथम
संस्करण, वि० स० १९७७, पृष्ठ ३०६ । ३. जो जाणदि जिणिदे पेच्छदि सिदे तहेव अणंगारे । जीवेसु साणुकपो उवओगो सो महोतस्स ।।
-बहद् नयचक्र, श्री देवसेनाचार्य, माणिकचन्द्र ग्रंथमाला, बम्बई, प्रथम
सस्करण वि० सं० १९७७, पृष्ठ ३११ । ४. सुविदितपयस्वसुतो संजम तव संजुदो विगदरागो।
समणो सम सुहदुक्यो भणिदो मुडोगओगोत्ति ॥. --प्रवचनसार, गाथा १४, श्री मत्कुन्दकुदाचार्य, श्री सहजानन्द शास्त्रमाला १८५-ए, रणजीतपुरी, सदर, मेरठ, सन् १९७६, पृष्ठ २३ ।
---
-
-
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
शुभ संकल्प करता है। इसके द्वारा क्रमशः अष्टद्रव्य का क्षेपण कर अमुकअमुक कर्म त्यागने का संकल्प किया जाता है। इस प्रकार जैन-पूजा-काव्य में भक्ति का अभिप्राय भगवान से किसी प्रकार की सांसारिक मनोकामना पूर्ण करने-कराने की अपेक्षा नहीं की जाती। यहां पूजक अथवा भक्त अपने मिथ्यात्व का सर्वथा त्याग करने हेतु प्रभु के समक्ष शुभ संकल्पशील होता है। साथ ही वह प्रभु-गुणों का चिन्तवन कर तप बनने की भावना का . चार चिन्तवन करता है।
उपर्यकित भक्ति विषयक चर्चा का प्रयोग जैन हिन्दी-पूजा-काव्य में विविध पूजाओं के संदर्भ में हुआ है। यहां उन सभी प्रकार की भक्तियों का कमशः इस प्रकार विवेचन करेंगे फलस्वरूप जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में प्रयुक्त भक्ति का स्वरूप स्पष्ट हो सके। सिद्ध भक्ति
सिद्ध भक्ति पर विचार करने से पूर्व सिद्ध भक्ति के विषय में विश्लेषण करना असंगत न होगा। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र सहित अष्टकर्मकुल से रहित, सम्यक्त्वादि अष्टगुणों से संयुक्त है। नय, संयम, चारित्र, भत, वर्तमान तथा भविष्यतकाल में आत्मस्वभाव में स्थित मोक्ष प्राप्त है, ऐसे जीव वस्तुतः सिद्ध कहलाते हैं। सिद्ध निष्कल निराकार होते हैं। उनमें औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और फार्माण शारीरिक
१. ओ३म् ह्रीं श्री जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु विनाशनाय जलं निर्बपामीति
स्वाहा ।' -श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वृन्दावन, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह,
राजेन्द्र मेटिल वर्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १६७६, पृष्ठ ११० । २. अठविहकम्ममुक्के अठ्ठगुणढ्ढे अणोवमे सिद्ध । अठ्ठमपुढविणिविछे णिळियकज्जे य बंदिमो णिचं ॥ . -सिद्ध भक्ति, गाथा १, दशभक्त्यादि संग्रह, सम्पादक श्री सिद्धसेन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल सावर कांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण वीर निर्वाण सं० २४८१, पृष्ठ ११३ ।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७२ )
व्यवस्था नहीं होती है। वे निराकार परमात्मा कहलाते हैं ।" विचारपूर्वक देखें तो लगता है कि सिद्ध साकार और निराकार दोनों ही हैं। साकार से अभिप्राय अनन्त गुणों से युक्त और निराकार से तात्पर्य स्पर्श, पन्ध, वर्ण और रस से रहित । जैनधर्म में सिद्ध के अनन्त गुणों को सम्यक्त्व,
1
१. (अ) औदारिक शब्द का अर्थ है पेटवाला । बौदारिक शरीर तियंच एवं मनुष्य गति के जीवों के हुआ करता है ।
- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण वि० सं० २०२७, पृष्ठ ५०० । (ब) विक्रया का अर्थ है शरीर के स्वाभाविक आकार के अतिरिक्त विभिन्न आकार का बनाना वैक्रियक कहलाता है ।
- तत्वार्थ सूत्र, अध्याय २, सूत्र ४६, उमास्वामि, अखिल विश्व जैन मिशन प्रकाशन, अलीगंज, एटा, प्रथम संस्करण सन् १६५७, पृष्ठ ३२ ।
( स ) जिस शरीर में प्रतिक्षण आगमन तथा निर्गमन की क्रिया चलती रहती है वह शरीर आहारक कहलाता है ।
- जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग १, क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण २०२७, पृष्ठ ३०८ ॥
(द) तेज और प्रभा से उत्पन्न होता है उसे तेजस शरीर कहते है । -- राजवार्तिक, अध्याय २, सूत्र ३६, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण वि० सं० २००८ ।
(य) कर्मों का समुदाय ही कार्याण शरीर है। जीव के प्रदेशों के साथ बँधे अष्ट कर्मों के सूक्ष्म पुद्गल स्कन्धों के संग्रह का नाम कार्माण शरीर है।
- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, क्षु० जिनेन्द्र वर्णों, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण २००८, पृष्ठ ७५ ।
२. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण १६६३, पृष्ठ ६७ ।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७३ ) वसन, मान, बीर्य, समता, अवगाहन, मगुरुलघु और मध्यावाध नामक इन अष्टभागों में विभाजित किया गया है।'
सिड और अरहन्त में अन्तर स्पष्ट करते हुए अनशास्त्रों में स्पष्ट उल्लेख है। आठ कर्म-कुल का नाश होने पर सिख-पत्र प्राप्त होता है जबकि चार घातिया कर्मों का भय करने से ही महत्त्व उपलब्ध हो जाता है।' अर्हन्त सफल परमात्मा कहलाते हैं। वे शरीरधारी होते हैं जबकि सिट निराकार होते हैं। सिद्ध अरहन्तों के लिए पूज्य होते हैं।
सिडों की भक्ति से परम शुद्ध सम्यमान प्राप्त होता है। सिखों को बंदना करने वाला उनके अनन्त गुणों को सहज में ही पा लेता है। उनकी भक्ति मात्र से ही भक्त उनके पक्ष को सहज में प्राप्त कर सकता है।' सिडों को भक्ति से सम्यक् दर्शन, सम्यक् शान और सम्यक् चारित्र रूप तीन प्रकार के कल्याणकारी रस्न उपलब्ध होते हैं।
जन-हिन्दी-पूजा-काव्य में सिड की महिमा का प्रतिपादन हुआ है। उनकी बन्दना में अनेक काव्य रचे गए हैं। इन काव्यों में सिडों की भक्ति करने से परम शुद्धि तथा सम्यक ज्ञान की प्राप्ति का उल्लेख मिलता है। केवल मान
१. संमत्त गाण दसण वीरियसुहुमं तहेव अवगहणं ।
अगुरुलहुमव्वाबाहं अट्ठगुणा होति सिद्धाणं । -सिद्धमक्ति, गाथा ८, दशाभक्त्यादिसंग्रह, सिख सेन गोयलीय, अखिल
विश्व जैन मिशन, सलाल (साबर मांठा), गुजरात, पृष्ट ११४ । २. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेमसागर जैन, भारतीय मानपीठ
काशी, प्रथम संस्करण १९५३, पृष्ठ ६६ ।। ३. कृत्वा कायोत्सर्ग चतुरष्टदोषविरहित सुपरिशुद्धम ।
अतिभक्ति संप्रयुक्तो यो वंदते स लघु लभते परमसुखम् । -सिबभक्ति, दशभक्त्यादिसंग्रह, सम्पा. श्री सिद्धसेन जैन गोवलीय,
अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, पृष्ठ ११२ । ४. कामेषु त्रिपुमुक्ति संगमजुषः स्तुत्यास्त्रिविष्टपेस्ते रलत्रय मंबनानि
बचतां भव्येषु रत्नकराः। -~~-यमस्तिलक ऐड इंडियन कल्बर, प्रो० के० के० हेण्डीकी, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, प्रथम संस्करण १६४६, पृष्ठ ३११ ।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७४ )
के साथ ही अनन्त सुख की भी उपलब्धि होती है। भक्त अथवा पूजक सिद्ध भक्ति में इतना तन्मय हो जाता है कि वह उनके गुणों का गान करता हुआ स्वयं उनके निकट पहुँचने की कामना कर उठता है । #
श्रति भक्ति
भूत का अर्थ है- सुना हुआ । गुरु शिष्य परम्परा से सुना हुआ समूचा ज्ञान ज्ञान कहलाता है। शास्त्रों में शवित होने के पश्चात भी वह श्रुतज्ञान ही कहा जाता रहा। जैनाचार्यो के अनुसार वे समप्रशास्त्र वस्तुतः भुत कहलाते हैं जिनमें भगवान को दिव्य-ध्वनि व्यंजित है ।" आगम वाणी का संकलन ही भुत कहलाता है । आत्मा ज्ञानस्वरूप है। श्रुत भी एक प्रकार से ज्ञान है। श्रुतज्ञान आत्मज्ञान में सहायक होता है। श्रुतज्ञान और केवलज्ञान में पदार्थ विषय की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। हाँ प्रत्यक्ष और परोक्ष भेद से अवश्य अन्तर परिलक्षित है ।
आचार्य सोमदेव श्रुत भक्ति को सामायिक कहते है। श्रुत भक्ति की उपासना अष्टद्रव्य से करने की स्वीकृति दी है। सरस्वती की भक्ति से अन्तरंग में व्याप्त अज्ञानान्धकार का पूर्णतया विसर्जन होता है।*
श्रुत के
१. सब इष्ट अभीष्ट विशिष्ट हितू । उत् किष्ट वरिष्ट गरिष्ट मितू ।। शिव तिष्ठत सर्व सहायक हो । सब सिद्ध नमों सुख दायक हों ॥।
- श्री सिद्धपूजा, हीराचन्द, भारतीय ज्ञानपीठ पुष्पाजलि, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, वाराणसी प्रथम सस्करण १६५७, पृष्ठ १२१ । २. ऐसे सिद्ध महान, तिन गुण महिमा अगम है ।
वरनन को बखान, तुच्छ बुद्धि भविलालजू ॥ करता की यह बिनती सुनो सिद्ध भगवान । मोहि बुलालो आप foग यही अरज उर आन ॥
श्री सिद्ध पूजा, भविलालजू, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल र्क्स, अलीगढ़. प्रथम संस्करण १९७६, पृष्ठ ७६ ।
३. आप्तोपज्ञमनुल्लंघ्यमदृष्टेष्ट - विरोधकम ।
तत्वोपदेशकृत् सार्व शास्त्र का पथ चट्टनम् ।।
- समीचीन धर्मशास्त्र, आचार्य समन्तभद्र, सं० जुगलकिशोर मुख्तार, वीर सेवा मंदिर, दिल्ली, प्रथम संस्करण १९५५, पृष्ठ ४३ ।
४. स्याद्वाद भूधरभवा मुनिमाननीया देवेरनन्य शरणैः समुपासनीया । स्वान्ताश्रिताखिलकंलकहर प्रवाहा वागापगास्तु मम बोध गजावगाहा || - यशस्तिलक, आचार्य सोमदेव, काव्यमाला ७० बम्बई, प्रथम संस्करण सन् १६०१, पृष्ठ ४०१ ।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७५ )
दो भेद किए गए हैं---यथा- (१) द्रव्यभूत, (२) मावश्रुत। शास्त्रों को अव्यभूत में परिगणित किया गया है। जैन धर्म में शास्त्र-पूजन को अविस द्रव्यपूजन की कोटि में रखा है ।' भगवान जिनेन्द्र को मूर्ति के समान हो शास्त्रों को भी प्रतिष्ठा होने लगी और तारण-पंथ ने तो अहंत की मूर्ति को न पूजकर शास्त्रों की पूजा में अपने विश्वास की स्थापना की है।"
मावत को ज्ञान कहते हैं। वह शास्त्रीय अध्ययन के अतिरिक्त प्रत्यक्ष रूपी भी है। जिनेन्द्र भगवान के कहे गए गणधरों के रचित अंग और अंग बाह्य सहित तथा अनन्त पदार्थों को विषय करने वाले श्रुतज्ञान को नमस्कार 'किया गया है।"
जैन - हिन्दी- पूजा-काव्य में सरस्वती पूजन का अतिशय महत्त्व है । यह तीर्थकर की ध्वनि है जिसे गणधरों द्वारा श्रवणकर शब्दाधित किया गया है। इसकी पूजा करने से जन्म-जरा तथा मरण को व्यथा से मुक्ति मिला करती है।
१. तेसि च सरीराणं दव्वसुदस्स वि अचित पूजा सा ।
- वसुनद श्रावकाचार, आचार्य वसुनदि, सम्पादक पं० हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण १६५२, गाथा ४५०, पृष्ठ १३० ।
२.
जन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेम सागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण १९५३, पृष्ठ ८१ ।
३. श्रुतमपि जिनवर विहितं गणधररचितं द्वयनेक भेदस्थम् ।
अङ्गाग बाह्य भावित मनन्त विषय नमस्यामि ॥
- श्रुतभक्ति, गाथा ४, आचार्य पूज्यपाद, दशभक्त्यादि सग्रह, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण वी० नि० स ं० २४८१, पृष्ठ ११८ ।
४. छीरोदधिगंगा विमल तरंगा, सलिल अभगा सुख संगा । भरि कंचन झारी, धार निकारी, तृषा निवारी, हित चंगा ॥ तीर्थकर की धुनि, गणधर ने स ुनि, अंग रचे चुनि, ज्ञान मई । सो जिनवर वानी, शिव स खदानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई ॥ जनम जरा मृत छय करें, हर कुंनय जड़रीति । भवसागर सों ने तिरं, पूजं जिनवच प्रीति ॥
-
-श्री सरस्वती पूजा, यानतराय, राजेशनित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र
मेटल वक्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १९७५, पृष्ठ ३७५ ।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७६ )
इस प्रकार श्रुतभक्ति का फल स्पष्ट करते हुए कविवर योगीम्बु ने स्पष्ट feer है कि जो परमात्म प्रकाश नामक जिनवाणी का नित्य नाम लेते हैं, उनका मोह दूर हो जाता है और अन्ततोगत्वा वे त्रिभुवन के साथ बन जाते हैं।"
जैनधर्म में भुतज्ञान की अर्चना, पूजा वन्दना और नमस्कार करने से सब दुःखों और कर्मों का क्षय हो जाना उल्लिखित हैं। इतना ही नहीं मतभक्ति के द्वारा व्यक्ति को बोधिलाभ, सुगति गमन, समाधिमरण तथा जिनगुण सम्पदा भी उपलब्ध होती है।" सरस्वती पूजन के फल की चर्चा करते हुए कहा गया है कि इससे केवल ज्ञान की उपलब्धि होती है । फलस्वरूप अनन्तदर्शन और अनन्त वीर्य जैसी अमोघ शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।' कविवर खानतराय ने श्रुतिभवित करते हुए स्पष्ट कहा है कि जिस वाणी की कृपा से लोक-परलोक को प्रभुता प्रभावित हुआ करती है । उन जनबंध जिनवाणी को नित्य नमस्कार करना वस्तुतः श्रुतभक्ति है ।
१ जे परमप्प - पयासयहं अणुदिण णाउयति ।
तुट्टइ मोहु तउत्ति तहं तिहुयण णाह हबति ।
- परमात्मप्रकाश, योगीन्दु, सम्पादक - श्री आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, श्री मद्रायचन्द्र जैन ग्रन्थमाला, श्री परमश्रुत प्रभाबक मण्डल, बम्बई, प्रथम संस्करण १६३७, पृष्ठ ३४२ ।
२. सुदत्ति काउस्सग्गो कओ तस्स आलोचेउ अगोवंगपद्दण्णए पाहुडयपरियम्मसुतपढमा णिओगपुव्वगय चूलिया चेव सुत्तत्थथुइ धम्मक हाइय freenri अंधेमि, पूजेसि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ बोहिलाहो, सगइ गमण, समाहिमरणं जिणगुण संपत्ति होउ मज्झं । - श्रुतभक्ति, आचार्य कुन्दकुन्द, दशभक्त्यादि संग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, सावर कांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण बी० नि० सं० २४८१, पृष्ठ १३६ ।
३. एवमभिष्टुबतो मे ज्ञानानि समस्त लोक चक्षूंषि ।
लघु भवताज्ज्ञानद्धि ज्ञानफलं सौरव्यमख्यवनम् ॥
श्रुतभक्ति, गाया ३०, दशभक्त्यादि संग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण बी० नि० सं० २४८१, पृष्ठ १३७ ।
४. ओंकार घुनिसार, द्वादशांग बाणी विमल ।
नमो भमित उरधार, ज्ञान करें जा वानी के ज्ञान ते, सूझे लोक धानत जग जयवंत हो, सदा देत हो धोक ॥
जड़ता हरे || आलोक ।
- श्री सरस्वती पूजा, जयमाला, ज्ञानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रहराजेन्द्र मेटिल वक्र्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १९७६ ई०, पृष्ठ ३६६ ।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७७ ) हिन्दी-जन-पूजा-काव्य में जैन भागम के अनुसार भूतभक्ति का प्रतिपादन
पारित भक्ति
आचरण का अपरनाम चारित्र है। अच्छा और बुरा विषयक इसके दो र किए गए हैं। चारित्र भक्ति में श्रेष्ठ चारित्र का चिन्तवन होता है। संसार-बन्ध के कारणों को दूर करने की अभिलाषा करने वाले भानी पुरुष को को निमित्त मृत किया से विरत हो जाते हैं, इसी को बस्तुतः सम्बक चारित्र कहते हैं। चारित्र मशानपूर्वक न हो अतः सम्यक् विशेषण जोड़ा गया है। जो जाने सो मान और जो बेले सो दर्शन तथा इन दोनों के समायोग को चारित्र कहते हैं।
ज्ञान विहीन क्रिया कर्मकाण्ड कहलाती है। इसीलिए इसे सम्बक चारित्र नहीं कहा जा सकता। इसके लिए सच्चा भाव अपेक्षित है अर्थात् इसे आभ्यन्तर चारित्र भी कहा गया है। चारित्र भक्ति के सम्पर्म में आचार के पांच प्रमेव जिनवाणी में उल्लिखित है यथा-(१) मावाचार, (२) वर्णनाचार (३) तपाचार (४) बीर्याचार (५) चारित्राचार बारित्रपरक महिमा वर्णन वस्तुतः चारित्रमक्ति कहलाती है। संयम, यम और ध्यानादि से संयुक्त चारित्र भक्ति की महिमा अक्षितीय है, इसके अभाव में मुनि-तप भी व्यर्थ है।'
१. संसार कारण निवृत्ति प्रत्यापूर्णस्य ज्ञानवतः कर्मादान निमित कियोपरमः
सम्यक् चारित्रम् । -सर्वार्थसिद्धि, भाचार्य पूज्यपाद, भारतीय ज्ञानपीठ, कामी, प्रथम संस्क
रण, वि. सं. २०१२, पृष्ठ ५। २. जं जाणइ तं गाणं जं पिच्छह तं पदसणं भणियं ।
माणस्स पिच्छयस्स य समवण्णा होइ पारितं ।। -अष्टपार,बाचार्यकुदकुद, श्रीपाटनी दि० जैन ग्रंपमाला, मारोठ, मारवाड़, गाथांक ३।। ३. ज्ञानं दुर्मग देह मण्डनमिव स्यात् स्वस्य खेदावहं ।
धत्तं साधु न तत्फल-श्रियमयं सम्यक्त्वरत्नांकुर ॥ -यशस्तिलक, आचार्य सोमदेव, यशस्तिलक एण्ड इम्पिन कल्चर, प्रो.के. के. हण्डीकी, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण १९४६, पृष्ठ ३०६।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७८ )
हिम्दी जैन-पूजा-काव्य परम्परा में चारित्र भक्ति का उल्लेख 'रत्नत्रय पूजा' में उपलब्ध है। बड़ा और ज्ञान पूर्वक चारित्र, चतुगंतियों में व्याप्त forरूपी दु:खाग्नि को प्रशान्त करने के लिए सुधा-सरोवरी के समान सुखद होता है ।' कविवर यानतराय का कथन है कि सम्यक् चारित्र पूजा में चारित्र भक्ति का सुन्दर निरुपण हुआ है । कषाय शान्ति के लिए उत्तम चारित्र - भक्ति परमधि है। इसी को तीर्थंकर धारण कर कल्याण को प्राप्त होते हैं ।" सम्यक् चारित्र भक्ति की महिमा का उल्लेख करते हुए कविर्मनीषी छानतराय का विश्वास है कि सम्यक् चारित्र रूपी रतन को संभालने से नरक - निगोद के दुःखों से प्राण प्राप्त होता है साथ ही शुभ कर्मयोग की घाटिका पर धर्म की नाव में बैठकर शिवपुरी अर्थात् मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है ।" योगभक्ति
अष्टांग योग का धारी वस्तुतः योगी कहा जाता है।" योगी संज्ञा गणधरों
१. चहुगति फणि विषहरन मणि, दुःख पावक जलधार ।
शिवसुख सुधासरोवरी, सम्यक्त्रयी निहार ॥
--
- श्री रत्नत्रय पूजा भाषा, खानतराय, राजेशनित्यपूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटल वर्क्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १६७६, पृष्ठ १६१ ।
२. विषय रोग औषधि महा,
देव कषाय जलधार । तीर्थंकर जाको धरें, सम्यक् चारितसार ||
- श्री सम्यक् चारित्र पूजा, यानतराय, श्री जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ ७४ ।
३. सम्यक् चारित रतन सम्भालो, पंच पाप तजिके व्रत पालो । पंचसमिति श्रयगुपति गही जं, नरभव सफल करहु तर छीजें ॥ छीजं सदा तन को जतन यह, एक सयम पालिये । बहुरूoयो नरक- निगोद-माहीं, कषाय-विषयनि टालिये । शुभ - करम-जोग सुघाट आयो, पार हो दिन जात है । 'द्यानत' धरम की नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ॥
- श्री सम्यक्चारित्रपूजा, बानतराय, श्री जैन पूजा पाठ संग्रह, श्री भागचन्द्र पाटनी, ६२ नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ७५ ।
४. योगोध्यान सामग्री अष्टांगानि,
विधन्ते यस्स सः योगी ।
- जिनसहस्रनाम, पं. आशाधर, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण १६५४, पृष्ठ ६० ।
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७६ ) के लिए जनधर्म में प्रयुक्त है । बुधि-विधारी होने से उनमें संसार संरक्षण शक्ति विद्यमान रहती है फलस्वरूप उनकी पूजा-अर्चा किये जाने का उल्लेख 'महापुराण' में उपलब्ध है।
जैनधर्म में मुनिचर्या में योगिभक्ति के शुभवर्शन सहज में किए जा सकते हैं। योगीजन जन्म, जरा उर-रोग शोक आदि पर योग साधना द्वारा विजय प्राप्त करते हैं। राग-द्वेष को शान्त कर शान्ति स्थापनार्थ वन-स्थलों में जाकर योग साधना करते हैं। हिन्दी-जैन-पूजा-काव्य परम्परा में मुनियों, तीर्थकरों पर आधृत अनेक पूजा-कृतियों में उपसर्ग जीतने के प्रसंगों में योगिभक्ति के सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। 'मुनि विष्णुकुमार महामुनि नामक पूजा' में हुए उपसर्ग पर विजय वर्णन का विशद विवेचन हुआ है । अपनी योगि भक्ति के द्वारा उन्होंने मुनि को आहार सुलभ कराया तथा स्वयं भी आहार ग्रहण किया था। इन योगियो की पूजा करने पर योगि-भक्ति मुखर हो उठी है। आचार्य भक्ति___ 'चर' धातु अङ उपसर्ग तथा णायत प्रत्यय के योग से आचार्य राम्व को निष्पत्ति होती है। इस भक्ति में ज्ञान, संयम, वीतराग प्रियता तथा मुनि जनों को कर्मक्षयार्थ शिक्षा-दीक्षा देने की सामर्थ्य विद्यमान
१. महायोगिन् नमस्तुभ्य महाप्रज्ञ नमो स्तुते ।
नमो महात्मने तुभ्यं नमः स्तोते महद्धये ॥ -महापुराण, भाग १, जिनसेनाचार्य, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण वि. सं. २००७, पृष्ठ ३५ । २. विष्णु कुमार महामुनि को ऋद्धि भई ।
नाम विक्रया तास सकल आनन्द ठई ।। सो मुनि आए हथनापुर के बीच में । मुनि बचाए रक्षा कर वन बीच में । तहाँ भयोमानन्द सर्व जीवन धनों। जिमि चिन्तामणि रत्न एक पायो मनो॥ सब पुर जै जै कार शब्दउचरत भए। मुनि को देय आहार आप करते भए ।
-श्री विष्णुकुमार महामुनि पूजा, रघुसुत, श्री जैनपूजा पाठ संग्रह, श्री भागचन्द्र पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १७३ ।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
रहती है।' आचार्य पूज्यपाल ने आचार्य को व्याख्या करते हुए कहा है कि उनमें स्वयं यतों का माचरण करने की भावना होती है और दूसरों को प्रत साधना के लिए प्रेरणा देते हैं।
प्राचार्य में अनुराग अर्थात् उनके गुणों में अनुराग करना वस्तुतः आचार्य भक्ति कहलाती है।' आचार्य भक्ति में भक्त के द्वारा उन्हें उपकरण शान के साथ ही शुभ भावना पूर्वक उनके पैरों का पूजन किया जाता है। आचार्य भक्ति के फल का उल्लेख करते हुए जनधर्म में स्पष्ट कहा गया है कि माचार्यों की भक्ति करने वाला अपने अष्टकर्मों को क्षय करके संसार-सागर से पार हो जाता है।
जन-हिन्दी पूजा-काव्य परम्परा में आचार्य भक्ति के अनेक प्रसंग उल्लिखित हैं। बीसवीं शती के कविवर सुधेश जन विरचित 'श्री आचार्य शान्ति सागर का पूजन' नामक काव्यकृति में इस भक्ति के अभिदर्शन होते हैं। कवि के मास्म निवेदन में कितना सार अभिव्यज्जित है। आपने अपने तपश्चरण द्वारा हे आचार्यबर सम्पूर्ण रति मनोरथों को जीत लिया है अस्तु १. जिण बिम्बणाणमयं संजम सुदं सुदीय राय च। जंदेड दिक्ख सिक्खा कम्मक्खय कारणे सदा ।।
-अष्टपाहुड़, आचार्य कुन्द कुन्द, गाथांक १६, श्री पाटनी दि० जन
ग्रंथमाला, मारोठ, मारवाड़, प्रथम संस्करण १६५० । २. तत्र आचारन्ति तस्माद् व्रतानि इति आचार्यः ।
-सर्वार्थसिदि. आचार्य पूज्यपाद, सम्पादक प० फूलचन्द्र, सिद्धान्त शास्त्री
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथमसंस्करण वि. सं. २०१२, पृष्ठ ४४२ । ३. अर्हयदाचार्येषु बहु श्रुतेषु प्रवचने च भाव विशुद्धि युक्तोऽनुरागो भक्तिः ।
-सर्वार्थसिद्धि, आचार्य पूज्यपाद, पं० फूलचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री,
भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण वि. सं. २०१२, पृष्ठ ३३६ । ४. पाद पूजनं दान सम्मानादि विधानं मनः शुद्धि युक्तोऽनुरागश्चार्य भक्ति
रुच्यते। -~-तत्वार्य वृत्ति, आचार्य श्रुतसागर, सम्पादक पं० महेन्द्र कुमार, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, वि० सं० २००५, प्रथम संस्करण, पृष्ठ २२८-२२६ । गुरु भक्ति संजमेण य तरंति संसार सायरं घोरं। छिति अट्टकम्म जम्मण मरणं ण पावंति।।
--आचार्य भक्ति, दशभक्त्यादि संग्रह, सिखसेन जैन मोखलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण बी०नि० सं० २४८१, पृष्ठ १६४ ।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १ )
सम्यक ज्ञान प्राप्त करने के लिए आपकी पूजा करता हूँ । कवि का विश्वास है कि उसे आचार्य भक्ति द्वारा सम्यक ज्ञान की प्राप्ति हो सकेगी ।"
पंचपरमेष्ठि भक्ति---अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्व साधुजनों का समीकरण वस्तुतः पंचपरमेष्ठि कहा जाता है। साधु से अरहन्त तक उत्तरोतर गुणों की अभिवृद्धि के कारण यह क्रम उल्लिखित है । यद्यपि सिद्ध ष्ठ हैं तथा उनके द्वारा लोकोपकार की सम्भावना नहीं रहती है । अस्तु अरहन्त का क्रम प्रथम रखा गया है ।" यहां संक्षेप में इन गुणधारियों की शक्ति स्वरूप की चर्चा करना असंगत न होगा
अर्हन्त --- अहं पूजयामि धातु से अर्हन्त शब्द का गठन हुआ है। इसके अर्थ पूज्यभाव के लिए पूजाकाव्य में प्रयुक्त हैं। चार घातिया कर्मों का नाश कर अनन्त चतुष्टय को प्राप्त कर जो केवल ज्ञानो परम आत्मा अपने स्वरूप में स्थिर है, वह वस्तुतः जरा, व्याधि, जन्म-मरण चतुर्गति विर्षगमन, पुण्यपाप इन दोषों को उत्पन्न कराने वाले कर्मों का शमन कर केवल ज्ञान प्राप्त करना बस्तुतः अर्हन्त के प्रमुख लक्षण हैं।"
अर्हन्त के दो भेद किए गए हैं - यथा- (१) तीर्थकर (२) सामान्य । विसे पुण्य सहित अर्हन्त जिनके कल्याणक महोत्सव मनाए जाते हैं और
१. तुमने पड़ने दी न हृदय पर सुख भोगों की छाया भी ।
अतः तुम्हारी विरति देखकर रतिपति पास न आया भी ।। और विकृति का हेतु न जब बन सकी दिगम्बर काया भी । तो रति ने भी मान पराजय तुम्हें अजेय बताया ही ॥ तथा वासना ने हो असफल निज मुख मुद्राम्लान की । पुष्पों से मैं पूजन करता, दो निधि सम्यक् ज्ञान की ॥
- श्री आचार्य शान्ति सागर पूजन, सुधेश जैन, सुधेश साहित्य सदन, नागौद, म० प्र०, प्रथम संस्करण १९५८, पृष्ठ ३ ।
२. अनन्त चतुष्टय के धनी छियालीस गुणयुक्त ।
नहुँ त्रियोग सम्हार के अर्हन जीवन्मुक्त ।।
- श्री पंचपरमेष्ठि पूजा, सच्चिदानंद, नित्यनियम विशेष पूजन संग्रह, ब्र० पतासी बाई, श्री दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारीबाग, प्रथम संस्करण वि० सं० २०१७, पृष्ठ ३१ ।
३. जरबाहि जम्ममरणं चउ गए गमणं च पुण्ण पावंच ।
हम दो सकम्मे हुड णाण मयं च बरहंतो ॥
- अष्टपाहुड, कुंदकुन्दाचार्य, गाथांक ३०, श्री पाटनी दि० जैन ग्रन्थ माला, मारोठ, मारवाड़, पृष्ठ १२८ ।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२) जिनके कल्याणक नहीं मनाए जाते वे सामान्य अर्हन्त कहलाते हैं । ये सभी सनत्व युक्त होते हैं अतः उन्हें केवली कहा गया है।'
सिर-शरीर रहित अर्थात् देह मुक्त महन्त वस्तुतः सिड कहलाते हैं।
आचार्य-१०८ गुणों का धारी निर्मन्य दिगम्बर साधु जो अनुभवी तथा जिसमें अन्य साधुओं को दीक्षित करने की सामर्थ्य होती है वस्तुतः भाचार्य कहलाते हैं।
उपाध्याय-पंच परमेण्ठियों में उपाध्याय का क्रम चतुर्य है। जीवन का परम लक्ष्य-मोक्ष प्राप्त्यर्ष उपाध्याय के संरक्षण में जिनवाणी का स्वाध्याय करना होता है।
साधु-जिन दीक्षा में प्रवजित प्राणी वस्तुतः साधु कहलाता है।' अवधि मानी, मनः पर्ययमानी और केवल ज्ञानियों को साधु अथवा मुनि कहते हैं।' मनन मात्र भाव स्वरूप होने से मुनि होता है। १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, ९० जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली,
प्रथम संस्करण सं० २०२७, पृष्ठांक १४०।। २ अपभ्रंश वाइमय में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि, आदित्य प्रचण्डिया
दीति, महावीर प्रकाशन, अलीगंज (एटा) उ० प्र०, १६७७, पृष्ठ ६ । ३. हिन्दी जैन काव्य में व्यवहृत दार्शनिक शब्दावलि और उसकी अर्थव्यञ्जना
कु० अरुणलता जैन, पी-एच. डी. उपाधि के लिए आगरा विश्वविद्यालय
द्वारा स्वीकृत शोधप्रबन्ध, १९७७, पृष्ठ ६१३ । ४. अरूहा सिदायरिया उज्माया साह पंच परमेठी।
ते बिहु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हुमे सरणं ॥ -मोक्ष पाहुड, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, क्षु० जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय
ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्र० सं० २०२६, पृष्ठांक २३ । ५. देत धरम उपदेश नित रत्नत्रय गुणवान ।
पच्चीस गुणधारी महा उपाध्याय सुखखान । श्री पंचपरमेष्ठी पूजा, सच्चिदानन्द, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, ७० पतासीबाई, दि० जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारीबाग,
प्रथम संस्करण २४८७, पृष्ठ ३२ ।। ६. अपभ्रंश वाङ्मय में म्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि, आदित्य प्रचण्डिया
दीति, महावीर प्रकाशन, अलीगंज (एटा) उ० प्र०, १६७७, पृष्ठ ६ । ममन मात्र भाव तया मुनिः। -~-समय सार, आचार्यकुन्दकुन्द, प्रकाशक-श्री कुन्दकुन्द भारती, ७-ए, राजपुर रोड, दिल्ली-११०००६, प्रथम आवृति, मई १९७८, पृष्ठ ११२।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस प्रकार पंच परमेष्ठी परम पद सुखात्मा है। अरहन्त, सिख, बाचार्य, उपाध्याय और साधु मेरी आत्मा में ही प्रकट हो रहे हैं, मस्तु मात्मा ही मुझे शरण है।' पंच परमेष्ठी की भक्ति -आराधना करने से आध्यात्मिक, माधिमीतिक और आदि विक तीनों ही प्रकार की शक्तियों का शुभ चिन्तबन हो जाता है। इनके द्वारा मोह का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।
जैन हिन्दी पूजा काव्य परम्परा में पंच परमेष्ठि के अनेक पूजा-काव्य प्रणीत हुए हैं। कविवर सच्चिदानंद कृत पूजा में पूजक मंगल कामना करता है कि मैं परमेष्ठि की पूजाकर, अपने कर्म-अरि बल का नाश कर सबूप पद प्राप्त कर पाऊँ । जीवन्मुक्त सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय मुनिराज की बंदना की गई है। फलस्वरूप सहज स्वमाव का विकास सम्भव है।'
इस प्रकार पंच परमेष्ठि भक्ति के द्वारा पूजक को कर्मों का नाश रत्नत्रय की प्राप्ति तथा शुभ गति की प्राप्ति होती है। समाधिमरण को प्राप्त कर भगवान जिनेन्द्र देव के गुणों को सम्पत्ति प्राप्त करने की सम्भावना होती है।
१. अरूहा सिद्धायरिया उज्झाया साहु पंच परमेट्ठी । ते विहु चिट्ठहि आधे तम्हा आदा हुमे सरण ।। -अष्टपाहुड, आचार्य कुन्दकुन्द, गाथा १०४, श्री पाटनी दि० जैन
ग्रन्थमाला, मारोठ, मारवाड़। २ स्तम्भं दुर्गमन प्रति प्रयततो मोहस्य सम्मोहनम् ।
पापात्यच नमस्क्रियाक्षर मयी साराधना देवता ।। -~~~-धर्मध्यानदीपक, मागीलाल हुकुमचन्द पांड्या, कलकत्ता, प्रथम
संस्करण, पृष्ठ २। ३. जल फल आठों द्रव्य मनोहर शिव सुख कारन में लाया ।
अरिदल नाशक तुव स्वरूप लख पद पूजूचित हुलसाया । जीवन्मुक्त सिद्ध आचारज उपाध्याय मुनिराज नमू। सहज स्वभाव विकास भयो अब आप आप में थाप रमू॥ -श्री पंचपरमेष्टि पूजा, सच्चिदानन्द, नित्यनियम विशेष पूजन संग्रह, ब्र० पतासीबाई, दि. जैन उदासीन आश्रम, ईसरी बाजार, हजारीबाग,
पृष्ठ ३४ । ४. दशभक्त्यादि संग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन,
सलाल, साबरकाठा, गुजरात, प्रथम संस्करण वी०नि० सं० २४८१, पृष्ठ १६६।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६४ )
तीर्थ करमक्ति - तीर्थ की स्थापना करने वाला तीर्थंकर कहलाता है ।' संसार रूपी सागर जिस निमित्त से तिरा जाता है उसे वस्तुतः तीर्थ कहते हैं।" इस भक्ति की प्रमुख विशेषता है कि पूजक में लघुता, शरण तथा गुण कीर्तन, नाम-कीर्तन तथा दास्य भाव का होना आवश्यक है ।"
तीर्थकर गर्म, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष, नामक पाँच महा कल्याणकों से सुशोभित हैं जो आठ महा प्रातिहार्यो सहित विराजमान हैं, जो चौंतीस विशेष अतिशयों से सुशोभित हैं, जो देवों के बत्तीस इन्द्रों के मणिमय मुकुट लगे हुए मस्तकों से पूज्य हैं जिनको समस्त इन्द्र आकर नमस्कार करते हैं, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती, ऋषि, मुनि, यति, अनगार आदि सब जिनकी सभा में आकर धर्मोपदेश सुनते हैं और जिनके लिए स्तुति की जाती है ऐसे श्री ऋषभदेव से लेकर श्री महावीर पर्यंत चौबीसों महापुरुष तीर्थङ्कर परमदेव की अर्धा, पूजा, बन्दना की जाती है। तीर्थंकर भक्ति से बुःखों का नाश, कर्मों का नाश, रत्नत्रय की प्राप्ति आदि कल्याणकारी गुणों की उपलब्धि होती है । "
तीर्थंकर भक्ति पर आधृत पूजा काव्य की एक सुदीर्घ परम्परा रही है । प्रत्येक शताब्दि में इन तीर्थंकरों की पूजाएं रची गई हैं जिनका पारायण जैन
१. जिनसहस्रनाम, पं० आशाधर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी, प्रथम संस्करण सन् १६५४, पृष्ठ ७८ ।
२. तीर्यते संसार सागरो येन तत्तीर्थम् ।
- जिन सहस्रनाम, पं० आशाधर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी, प्रथम संस्करण सन् १९५४, पृष्ठ ७८ ।
३. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण सन् १९६३, पृष्ठ ११०-१११ ।
४. चउवीस तित्थयर भक्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं । पंचमहा कल्लाण संपणा, अट्ठमहापाडिहेर सहियाणं, चउतीस अतिसयविसेस संजुताणं, वत्तीसदेबिद मणिमउड मत्थयमहियाणं, बलदेववासुदेव चक्क हरिसि मुणि जर अणगारोवगूढाणं, थुइसय सहस्सणिलयाणं, उसहाइवीरपच्छिम मङ्गल महापुरिसाणं णिच्चकाल अंचेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, satar बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण संपत्ति होउ मज्झं ।
- तीर्थङ्कर भक्ति, दशभक्त्यादि संग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकाठा, गुजरात, प्रथम संस्करण, वीर निर्वाण संवत २४८१, पृष्ठ १७३-१७४ ।
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिवारों में नित्य नियम के साथ किया जाता है । अठारहवीं शती में करियर ग्रामतराप द्वारा प्रणीत 'श्री बीस तीर्थकर पूजा' उल्लेखनीय काव्यकृति है। इसमें विवेह-क्षेत्र में विद्यमान बीस तीथंकरों की भक्ति भवसागर से मुक्त होने के लिए की गई है।' उन्नीसवीं शती में चौबीस तीर्थंकरों की. अनेक कवियों द्वारा पूजाएं रची गई हैं। भ० ऋषभदेव से लेकर म. महावीर तक रची गई पूजाओं में तीर्थकर भक्ति का सुन्दर प्रतिपादन हुआ है । चौबीस तीपंकरों में तेइसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ विषयक कविवर बख्तावररत्न की पूजा रचना जन-समाज में प्रचलित है। इसमें म. पार्वनाम के गुणगान के साथ तीर्थकर भक्ति का सुन्दर चित्रण हुआ है। कवि ने पूजक की कामना व्यक्त करते हुए स्पष्ट कहा कि तीयंकर पाश्र्वनाथ की भक्ति करने से जीवन के सारे क्लेश दुःख नष्ट हो जाते हैं साथ ही सांसारिक सुख सम्पतिके साथ शिव-मार्ग की मंगल प्रेरणा प्राप्त होती है।' इसी परम्परा १. इन्द्र फणीन्द्र नरेन्द्र वंद्य, पद निर्मलधारी ।
शोभनीक संसार सार गुण, हैं अधिकारी ।। क्षीरोदधि सम नीर सों पूजों तषा निवार । सीमन्धर जिन आदि दे बीस विदेह मंझार ।। श्री जिनराज हो भव, तारण तरण जिहाज हो। ॐ हीं सीमन्धर, जुगमन्धर, बाहु, सुबाहु, संजातक, स्वयंप्रभ, ऋषभानन, अनन्तवीर्य, सूरप्रभ, विशाल कीति, बजधर, चन्द्रानन, भद्रबाहु, भुजंगम, ईश्वर, नेमिप्रभ, वीरसेन, महाभद्र, देवयशोडतया, अजितवार्य विंशति विद्यमाम तीर्थकरेभ्यो जन्म, मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
-~श्री बीस तीर्थकर जिन पूजा, धानतराय, नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र
मेटिल वर्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १६७६, पृष्ठ ५६-५७ । २. दियो उपदेश महाहितकार, सुभव्यन बोवि समेद पधार ।
सुवर्ण भद्र जहाँ कूट प्रसिद्ध, वरी शिवनारि लही वसुरिख । जजू तुम चरन दुह कर जोर, प्रभु लखिये अब ही मम ओर । कहे बस्तार रन बनार, जिनेश हमे भव पार लगाय ।। ----श्री पार्वनाथ पूजा, बख्तावररत्न, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह,
राजेन्द्र मेठल वर्क्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १६७६, पृष्ठ १२४ । ३. जो पूजे मनलाय भव्य पारस प्रभु नित हो।
ताके दुःख सब जाय भीत व्यापं नहिं कित ही ।। सुख सम्पति अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे। अनुक्रम सों शिव लहें रतन' इम कहें पुकारे । -श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा, बरतावररत्न, राजेशनित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वसं, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १९७६, पृष्ठ १२४ ॥
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
में कविवर पदावनवास विरचित म० महावीर पूजा का भी अतिशय व्यवहार प्रचलित है। तीर्थंकर भक्ति में देव-राजा-रंक सभी कोटि के पूजक भक्ति भाव से पूजा करते हैं और भवताप को नष्ट कर अतीन्द्रिय आनन्द को प्राप्त करते हैं।'
शान्ति भक्ति-आकुलता का अन्त शान्ति को जन्म देता है । परपदार्थों के प्रति ममत्व भाव रखने पर अशान्ति की उत्पत्ति हुआ करती है। वीतराग प्रभु का चिन्तवन करने से वीतराग भाव उत्पन्न होता है फलस्वरूप चित्त को निराकुलता मुखरित होती है । शान्ति को दो भागों में विभाजित किया गया है, यथा-१-क्षणिक शान्ति २-- शाश्वत शान्ति । क्षणिक अथवा शाश्वत शान्ति प्राप्त करने के लिए की गई भक्ति वस्तुतः शान्ति भक्ति कहलाती है। जिनेन्द्र देव की भक्ति करने से अचिन्त्य माहात्म्य, अतुल तथा अनुपम सुखशान्ति प्राप्त होती है। तीर्थकर शान्ति के प्रतीक हैं। उनके गुणों का चिन्तवन करने से शान्ति को प्राप्ति होती है। पूजक चौबीस तीर्थकरों से शांति के लिए प्रार्थना करता है। इतना ही नहीं जैन धर्म में शान्ति कामना की
१. जय त्रिशलानंदन हरिकृत वंदन, जगदानन्दन चन्दवर ।
भवताप निकन्दन तनमन वंदन, रहित सपंदन नयनधरं ।। - श्री महावीर स्वामी पूजा, वृदावन, राजेश नित्य पूजा पाठ सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, अलीगढ़, प्र० सं० १६७६, पृष्ठ १३६ । अव्याबाधमचिन्त्य सारमतुलं त्यक्तोपमं शाश्वतं । सोरव्यं त्वच्चरणारविंद युगलस्तुत्यैव संप्राप्यते ।।
-शान्ति भक्ति, आचार्य पूज्यपाद, श्लोक ६, दशभक्त्यादि संग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, मलाल, सावर कांठा,
गुजरात, पृष्ठ १७७ । ३. येऽस्यचिता मुकुट कुंडलहार रत्नः ।
शक्रादिभिः सुरगणः स्तुत पादपद्माः ।। ते में जिनाः प्रवरवंश जगत्प्रदीपाः । तीर्थकराः सतत शांति करा भवन्तु ।।
-शान्तिभक्ति, आचार्य पूज्यपाद, श्लोक १३, दशभक्त्यादि संग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, पृष्ठ १८०-१८१।
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ८७ ) उदारता वस्तुतः उस्लेखनीय है। यहां पूमक द्वारा चैत्यालय तथा धर्म-रमा, आचार्य, उपाध्याय तथा साधु के लिए, राष्ट्र के लिए, नगर के लिए तथा राषा के लिए शान्ति-कामना की गई है।'
हिन्दी अन-प्रणा-काव्य में तोपकर को माध्यम मानकर पूजक शान्ति भक्ति के मर्जन की बात करता है। विशेषकर शान्तिनाथ भगवान की पूजा के द्वारा अपूर्व शान्ति भक्ति की गई है। इस एष्टि से कविवर वृन्दावनवास विरचित 'श्री शान्तिनाथ पूजा' उल्लेखनीय है। पूजक कवि मन, वचन और कार्य पूर्वक शान्ति नाथ प्रभु की पूजा करता है और कामना करता है कि उसके जन्मगत पातक शान्त हो जाये तथा मन-वांछित सुख प्राप्त हो। इतना ही नहीं वह अन्ततोगत्वा शिवपुर की सता प्राप्त करने की मंगल कामना करता है। शान्ति स्थापना के लिए शान्ति यंत्र की पूजा का भी विधान है।' शान्ति भक्ति को आवश्यकता असंदिग्ध है । जागतिक जीवनचर्या के लिए भी शान्ति की आवश्यकता अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है और आध्यात्मिक
१. संपूजकानां प्रतिपालकाना यतीन्द्र सामान्य तपोधनानाम ।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शांति भगवान जिनेन्द्रः ।। शान्ति भक्ति, आचार्य पूज्यपाद, श्लोक १४, दशभक्त्यादिस ग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबर कांठा गुजरात, पृष्ठ १८१ । शांतिनाथ जिनके पद पंकज, जो भवि पूजें मन, वच, काय । जन्म-जन्म के पातक ताके, ततछिन तजि के जाय पलाय ॥ मन वांछित सो सख पार्वनर, बाँचे भगति भाव अतिलाय । ताते वृदावन नित वन्दे, जातें शिवपुर राज कराय ।।। -श्री शांतिनाथ जिनपूजा, दावन दास, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह,
राजेन्द्र मेटल वक्स, अलीगढ़, प्र० स० १९७६, पृष्ठ ११७ । ३. श्री जैन स्तोत्र संदोह, भाम २, श्री सागरचन्द्र सूरि, अहमदाबाद, प्रथम
संस्करण १६३६, श्लोकांक ३३ ।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
( 55 )
उत्कर्ष में शान्ति को भूमिका बड़े महत्त्व की है। अस्तु शान्ति भक्ति में स्व-पर कल्यार्थं मंगल कामना की गई है।'
समाधि भक्ति - चित्त के समाधान को हो समाधि कहते हैं ।" सविकल्पक और निविकल्पक नामक दो प्रकार की समाधि होती हैं। मंत्र अथवा पंच परमेष्ठी के गुणों पर चिन का टिकाना सविकल्पक समाधि में होता है ।' rafe भगवान सिद्ध अथवा निराकार शुद्धात्मा में चित्त का केन्द्रित करना वस्तुतः निर्विकल्पक समाधि का विषय है। समाधिधारण कर मोक्ष प्राप्त कर्त्ता से समाधिमरण की याचना करना वस्तुतः समाधि भक्ति कहलाती है ।" समाधि पूर्वक प्राणान्त करना समाधिमरण की संज्ञा प्राप्त करना होता है । अन्त समय में चित्त को पंचपरमेष्ठी में स्थिर करना सरल नहीं है तब चित्त को स्तुति स्तोत्र पाठ तथा समाधि स्थल के प्रति आदरभाव व्यक्त करने में लीन
१. पूजे जिन्हें मुकुट हार - किरीट लाके, इन्द्रादिदेव अरु पूज्य पदाब्ज जाके । सो शांतिनाथ वरवश जगत्प्रदीप । मेरे लिए करहिं शांति सदा अनूप ॥
संपूजकों को प्रतिपालकों को, यतीन को औ यतिनायकों को । राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले, कीजे सखी है जिन शांति को दे || हो सारी प्रजा को सुख, बलयुत हो धर्मधारी नरेशा ।
हो वर्षा समयपर तिल भर न रहे व्याधियो का अन्देशा ||
होव चोरी न जारी, सुसमय वरते हो न दुष्काल भारी । सारे ही देश धारें जिनवर वृष को जो सदा सौख्यकारी ॥ घातिकर्म जिननाशकरि, पायो केवल राज ।
शांति करो सब जगत में, वृषभादिक जिनराज ॥
- शांतिपाठ राजेशनित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स अलीगढ़, प्रथम संस्करण १६७६, पृष्ठ २०३ ।
२. धनंजय नाममाला, धनंजय, सम्पादक पं० शम्भूनाथ त्रिपाठी, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण वि० सं० २००६, पृष्ठ १०५ ।
३. परमात्म प्रकाश, योगीन्दु, दूहा १६२, सम्पादक डॉ० ए० एन० उपाध्ये, परमश्रुत प्रभावक मण्डल, बम्बई, प्रथम संस्करण सन् १६३७ पृष्ठ ६ । ४. वही, पृष्ठ ६ ।
५. समीचीन धर्मशास्त्र, आचार्य समन्तभद्र, वीर सेवा मन्दिर, सरसांवा, प्रथम संस्करण सन् १९५५, पृष्ठ १६३ ।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
करना होता है। यह प्रक्रिया वस्तुतः समाधि भक्ति कहलाती है। इस समाधि भक्ति में रत्नत्रय को निरुपण करने वाले शुद्ध परमात्मा के ध्यान स्वरूप शुद्ध आत्मा की सदा अर्चा करता है, पूजा करता हूं, बंदना करता हूँ और नमस्कार करता हूँ। फलस्वरूप दुख और कर्म-कुल का कटना होगा। रत्नत्रय को प्राप्त कर सत्गति प्राप्त होगी।
जैम-हिन्दी-पूजा काब्य परम्परा में आचार्य श्री शांतिसागर विषयक पूजा काव्यकृति में कविवर सुधेश ने उसके जयमाल अंश में समाधिभक्ति का सन्दर विवेचन किया है। पूजक भक्त समाधिभक्ति के संदर्भ में अपने में शक्ति अर्जन करने की बात करता है। निर्वाण भक्ति
जैन आगम में निर्वाणभक्ति और मोक्ष परस्पर में पर्याय वाची
१. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ,
काशी, प्रथम संस्करण १६६३, पृष्ठ १२१ । २. रयणत्तय परुव परमप्पज्झाणलक्खणं समाहि भत्तीये णिच्चकाल अंचेमि,
पूजेमि, वंदामि, णमसामि, दुक्खक्खयो, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं समाहि मरण, जिणगुण संपति होउ मज्झ । - समाधिभक्ति, दशभक्त्यादि संग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण वी०नि०
स० २४८१, पृष्ठ १८८। ३. होने नही पाया तुम्हें शैथिल्य का अभ्यास ।
समता सहित पूरे किए छत्तीस दिन उपवास ॥ फिर 'ओउम् नमः सिद्धः' कह दी त्याग अंतिमश्वास । तुम धन्य हुए, धन्य वे जो थे तुम्हारे पास ।। जो धन्य, भादव शुक्ल-द्वितीया का सुप्रातः काल ! हे शांतिसागर ! मै तुम्हारी गा रहा जयमाल । यो इगिनी समाधि की जिन शास्त्र के अनुकूल । होंगे अवश्य सात भव में कर्म अब निर्मूल ।। तुम सी मुझे भी शक्ति दे तब पदकमल की धूल ॥ जिससे भवोदधि पार कर पाऊँ स्वयं वह फूल ।।। आया नहीं करते जहाँ पर कर्म के भूचाल । हे शांति सागर मैं तुम्हारी गा रहा जयमाल || --आचार्य शांति सागर पूजन, सधेश जैन, सुधेश साहित्य-सदन, नागौर म०प्र०, प्रथम संस्करण १६५८, पृष्ठ ७॥
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
(..) माने गए हैं।' समूचे कर्म-कुल भय होने पर वस्तुतः मोक-वशा प्राप्त होती है। जब सम्पूर्ण कर्मों का बुझना होता है तभी निर्वाण अवस्था कहलाती है। जैन धर्म के अनुसार जितने भी निर्वाण प्राप्त कर्ता है उनकी भक्ति वस्तुतः निर्वाण भक्ति कहलाती है। इस भक्ति का माहात्म्य संसार-सागर से पार कराने की शक्ति-सामर्थ्य में निहित है। इसीलिए इसे तीर्थ भी कहा गया है। चौबीस तीर्थकर पांच क्षेत्रों से निर्वाण को प्राप्त हुए। आध तीर्थकर अषमनाव कैलाश, भ० वासपूज्य चम्पापुर, ० नेमिनाय गिरिनार, म. महावीर पावापुर क्षेत्र से निर्वाण को प्राप्त हुए और शेष सभी तीर्थंकर श्री सम्मेद शिखर से मोक्ष को गए अस्तु ये सभी निर्वाण-क्षेत्र बंदनीय हैं।
जन-हिन्दी-पूजा काव्य परम्परा में कविवर द्यानतराय विरचित निर्वाण क्षेत्र-पूजा काव्य में चौबीस तीर्थंकरों के निर्वाण स्थलों को सिख भूमि कहा
१. जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ. प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ
काशी, प्रथम संस्करण सन् १९६३, पृष्ठ १२४ । २. 'कृत्स्य कर्म विप्रमोक्षो मोक्षः।'
-तत्त्वार्यसूत्र, उमास्वामी, सम्पादक पं. कलाशचन्द्र जैन, भारतीय दिगम्बर जैन संघ, चौरासी, मथुरा, प्रथम सस्करण वि० सं० २४७७,
पृष्ठ २३१ । ३. निर्वात स्म निर्वाण, सुखीभूत अनन्त सुखं प्राप्तः ।
-जिन सहस्रनाम, पं० आशाधर, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी
प्रथम संस्करण, सन् १९५४, पृष्ठ ६८ । ४. 'तीर्यते संसार-सागरो येन तत्तीर्थम्'
-सहस्रनाम, पं आशाधर, सम्पादक पं० हीरालाल जैन, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण, वि० सं० २०१० पृष्ठ ७८ । अछावयमि उसहो चपाये वासुपूज्य जिणणाहो। उज्जते मिजिणो पावाए णिव्वुदो महावीरो॥ वीसं तु जिणवरिंदा अमरासुरवदिदा धुदकिलेसा । सम्मेदे गिरिसिहरे णिवाणगया णमो तेसि ।। -निर्वाण भक्ति, आचार्य कुन्दकुद, दशभक्त्यादि संग्रह, पं० सिद्धसेन जैन गोयलीय, सलाल, सावरकांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण वी० नि० सं० २४८१, पृष्ठ २०२।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६१ )
गया है। उस भूमि की मन, वचन तथा काय से पूजा निर्वाण क्षेत्र की महिमा को नमस्कार कर निर्वाण जाता है । इस भक्ति के करने से समस्त पापों का सम्पत्ति की प्राप्ति होती है ।"
चैत्यभक्ति
चित् धातु में 'त्य' प्रत्यय होने से चैत्य शब्द का गठन हुआ है । चित् का अर्थ है fear | चिता पर बने स्मृति चिन्हों को वैश्य कहते हैं। जैन परम्परा अनादिकाल से चैत्य-वृक्षों को पूज्य मानती आ रही है। तीर्थकरों के समवशरण की संरचना में चैत्यवृक्षों की मुख्यतः रचना होती रही है। संत्य शब्द में आलय शब्द - सन्धि करने पर चैत्यालय शब्द की रचना हुई । इस प्रकार चैत्यालय वस्तुतः दो प्रकार के होते है- यथा - १. अकृत्रिम चंत्यालय, २. कृत्रिम चैत्यालय । ये चैत्यालय चारों प्रकार के देवों के भवन, प्रासादोंविमानों तथा स्थल स्थल पर अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक में स्थित
करने का निवेश है ।" भक्ति को सम्पन्न किया
शमन होता है और सुख
१ - परम पूज्य चौबीस जिहँ जिहँ थानक शिव गए।
सिद्धभूमि निश दीस, मन, वचतन पूजा करो ||
- श्री निर्वाण क्षेत्र पूजा, द्यानतराय, ज्ञान पीठ पूजाञ्जलि, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, प्रथम संस्करण सन् १९५७, पृष्ठ ३६७ । २- बीसो सिद्धभूमि जा ऊपर, शिखर सम्मेद महागिरि भूपर ।
एक बार बदे जो कोई, ताहि नरक- पशु गति नहि होई ॥ जो तीरथ जावै पाप मिटावे, ध्यावे गावे भगति करें । ताको जस कहिये, संपत्ति लहिये, गिरि के गुण को बुध उचरं ॥
-श्रो निर्वाण क्षेत्र पूजा, द्यानतराय, श्री जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, ६२ नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता ७, पृष्ठ ६४ ॥
३ -- जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी, संस्करण १६६३, पृष्ठ १३५ ।
४- तिलोयपण्णति, प्रथमभाग, ३/३६/३७, यतिवृषभ, सम्पादक डॉ० ए० एन० उपाध्ये एवं डॉ० हीरालाल जैन, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण, सन् १९४३, पृष्ठ ३७ ।
५ - जैन भक्ति काव्य की पृष्ठभूमि, डॉ० प्रेमसागर जैन, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी, प्रथम संस्करण १६६३, पृष्ठ १३७ ।
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२) है। ज्योतिष्क और व्यंतर देवों के असंख्याता संख्यात चैत्यालय स्थित है।' कृत्रिम चैत्यालय मनुष्य कृत है तथा वे मनुष्य लोक में व्यवस्थित हैं।
त्यवृक्ष, चैत्य सदन, प्रतिमा, विम्ब और मंदिरों की पूजा-अर्चा चैत्यमक्ति कहलाती है। चैत्यभक्ति के द्वारा परस्पर बैरभाव सौहार्द-विश्वास में परिणत हो जाते हैं।
बस्य भक्ति का महाफल विषयक उल्लेख जैन हिन्दी पूजा काव्य में किया गया है। धन-धान्य, सम्पत्ति, पुत्र, पौत्रादिक सुखोपलब्धि होती है, साथ ही कर्म-नाशकर शिवपुर का सुख भी प्राप्त होता है।' नंदीश्वर भक्ति___ मध्यलोक में आठवा द्वीप जम्बूद्वीप है। यह लवणसागर से घिरा हुमा है।' इस द्वीप में १६ वापियां, ४ अंजन गिरि, १६ वधिमुख और ३२ रतिकर नाम के कुल ५२ पर्वत हैं। प्रत्येक पर्वत पर एक-एक चैत्यालय है।" १-कृत्याकृत्रिमचारूचंत्यनिलयान नित्यं त्रिलोकीगतान् ।
वन्दे भावनव्यन्तरान् द्युतिवान् स्वर्गामरावासगान् ।। -कृत्रिमचंत्यालय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ काशी, प्रथम संस्करण १६५७, सं० डॉ० ए० एन० उपाध्ये, पृष्ठ १२४ । २-जयति भगवानहेमाम्भोज प्रचार विज़म्भिता
वमर मुकुटच्छायोद्गीर्ण प्रभापरिचुम्बितो। कलुष हृदया मानोदभान्ताः परस्पर वैरिण. । विगत कलुषाः पादौ यस्य प्रपद्यविशश्वसुः ।।
-चत्य भक्ति, आचार्य पूज्यपाद, दशभक्त्यादि संग्रह, पं० सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकांठा, गुजरात,
पृष्ठ २२६ । । ३-तिहूँ जग भीतर श्री जिनमन्दिर, बने अकीर्तम अति सुखदाय ।
नरसुर खगकर वन्दनीक, जे तिनको भविजन पाठ कराय ।। धनधान्यादिक संपति तिनके, पुत्रपौत्र सुख होत भलाय । चक्री सुर खग इन्द्र होय के, करमनाश शिवपुर सुख थाय ॥ -श्री अकृत्रिम चैत्यालय पूजा, कविवर नेम, जैन पूजा पाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, ६२ नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २५५ । ४- जम्बूद्वीप लवणादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः ।।
-तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वामि, अध्याय ३, श्लोक ७, सम्पादक पं० सुखलाल
संघवी, भारत जैन महामण्डल वर्धा, प्रथम संस्करण १६५२, पृष्ठ १२७ । ५-जनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग २, क्ष. जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ
प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १९७१, पृष्ठ ५०३ ।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
( et )
प्रत्येक अष्टान्हिका पर्व में अर्थात् कार्तिक, फाल्गुन आषाढ़ मास के अन्तिम आठ-आठ दिनों में वेष लोग उस द्वीप में जाकर तथा मनुष्य लोग अपने मंदिरों व चैत्यालयों में उस द्वीप की स्थापना करके खूब भक्ति भाव से इन बावन थालयों की पूजा करते हैं। यही नंदीश्वर भक्ति कहलाती है ।"
नंदीश्वर भक्ति माहात्म्य को चर्चा करते हुए जैन धर्म में स्पष्ट लिखा है जो प्रातः, मध्यान्ह और सन्ध्या तोनों हो काल नन्दीश्वर की भक्ति में स्तोत्र पाठ करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है ।" हिन्दी जैन पूजा काव्य परम्परा में नन्दीश्वर द्वीप पूजा में नन्दीश्वर भक्ति का विशद विवेचन हुआ है । अष्टका पर्व सर्व पर्वो में श्रेष्ठ माना जाता है । इस अनुष्ठान पर नम्बीश्वर द्वीप की स्थापना कर पूजा की जाती है।' कविवर यानतराय के अनुसार कार्तिक, फाल्गुन तथा आषाढ़ मास के अन्तिम आठ दिनों में नन्दीश्वर द्वीप की पूजा की जाती है ।" पूजा काव्य में नन्वोश्वर भक्ति
१ -- आषाढ़ कार्तिकाव्ये फाल्गुन मासे च शुक्लपक्षेष्टम्याः । आरश्याष्टदिनेषु च सोधर्म प्रमुख विवधु पतयो भक्त्या ॥ तेषु महामहमुचितं प्रचुराक्षत गंधपुष्पधूपं दिव्येः । सर्वेश प्रतिमानाम प्रतिमानां प्रकुर्वते सर्वहितम् ॥
- नंदीश्वरभक्ति, दशभक्त्यादि सग्रह, श्री सिद्धसेन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण वी० नि० सं० २४८१ पृष्ठ २०६ ।
२ -- संध्यासु तिसृषुनित्यं पठेद्यदि स्तोत्रमेतदुत्तम यशसाम् ।
सर्वज्ञाना सार्व लघु लभते श्रुतधरेडितं पदममितम् ॥
- नंदीश्वर भक्ति, आचार्य पूज्यपाद, दश भक्त्यिादिसंग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल सावर कांठा, गुजरात वी० नि० स० २४८१, पृष्ठ २१६ ।
३ - सरब पर्व में बड़ो अठाई परब है ।
नंदीश्वर सुर जाहिं लिए वसुंदरब है || हमें सकति सो नाहि इहाँ करि थापना । पूजों जिन गृह प्रतिमा है हित आपना ||
- श्री नंदीश्वर द्वीप पूजा, द्यानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ५५ ।
४ - कार्तिक फागुन साढ़के, अन्त आठ दिनमाहि ।
नंदीश्वर सुरजात हैं, हम पूजें इह ठाहि ||
- श्री नंदीश्वर द्वीप पूजा, यानतराय, जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता--७, पृष्ठ ५७ ।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
की महिमा स्थिर करते हुए उसे शिवसुख प्राप्ति का प्रमुख आधार माना है।'
उपयंकित विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैन कवियों ने भक्ति के विभिन्न स्वरूपों का प्रवर्तन कर स्व-पर कल्याण की मंगल कामना की है। जैन धर्म में पूजा की परम्परा संस्कृत-प्राकृत से होकर हिन्दी में अवतरित हुई है। अठारहवीं शती से बीसवीं शती तक पूजा-काव्य की यह सुदीर्घ परम्परा हिन्दी काव्य को समृद्ध बनाती है।
मैनधर्म ज्ञान प्रधान होते हुए भी भक्ति को अंगीकार करता है। यहां उल्लेखनीय बात यह है कि ज्ञान को भी भक्ति की गई है ज्ञान प्राप्त्यर्थ भक्त अथवा पूजक जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता है। पूजा में आराध्य के गुणों में बवान का होना आवश्यक बताया गया है। जैन दर्शन में मूलतः गुणों की पूजा की गई है।
पर-पदार्थों के कार्य-व्यापार को प्रयोगशाला वस्तुतः संसार है। यहाँ इन पदार्थों के प्रति राग रखने से कर्मबन्ध होने की बात कही गई है। उल्लेखनीय बात यह है कि जिनेन्द्र भक्ति में अनुराग रखने से कर्मबन्ध की छूट है। भक्त अथवा पूजक जिनेन्द्र देव के गुणों का चिन्तवन कर उन्हीं में तन्मय हो जाता है फलस्वरूप उसके बन्ध मुक्त होते है, नए कर्म-बन्ध के लिए प्राय: अवकाश ही नहीं मिलता।
जैनागम में उल्लिखित भक्तियों के सभी स्वरूपों का प्रयोग हिन्दीजैन-पूजा-काव्य में परिलक्षित है । देवशास्त्र गरू की पूजा का अतिशय महत्त्व है क्योंकि इस पूजा में अधिकांश रूप में भक्ति-मेदों का समन्वय मुखरित है। निर्गुण तथा सगुण ब्रह्म के रूप में दो प्रकार की भक्ति सभीधर्मों में मानी गई है किन्तु जैनधर्म में इनके पृथक् अस्तित्व होते हुए भी इनका अन्तरंग एक ही बताया गया है । निराकार आस्मा में और वीतराग साकार भगवान में समानता का विधान एक मात्र जैन पूजा की नवीन उभावना है, यह अन्यत्र कहीं सम्भव नहीं है। सिद्धभक्ति में निष्कल ब्रह्म तथा तीर्थकर भक्ति में
१- नदीश्वर जिनधाम, प्रतिमा महिमा को कहै।
द्यानत लीनो नाम, यहे भगति शिव सुखकरें ।
-श्री नदीश्वर द्वीप पूजा, धानतराय, जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ५८ ।
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
सकल म का उल्लेख मवरय हुभा है तथापि दोनों के मूल में कोई भेद नहीं है । भेरक तत्व है राग और यहां दोनों शक्तियां बीतराग-गुण से सम्पन्न है सिड और अरहंत देव भक्ति परक पूजाकाव्य में व्यजित है। पूजा इन शक्तियों की भक्ति करने पर परम शुद्धि और सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करता है। जैनधर्म के अनुसार केवल ज्ञान वस्तुतः अनन्त सुख की प्राप्ति का मूलाधार है।
तमक्ति मूलतः जिनेन्द्रवाणी पर आधृत है । जिनवाणी का लिखित रूप जनशास्त्र हैं। प्रसिद्ध पूजाकाव्य प्रणेता ग्रानतराय द्वारा मत मलतः दो भागों में विभक्त की गई है-प्रथमभाव त अर्थात् शान और दूसरी प्रख्यात अर्थात् शब्यायित जिनवाणी । शास्त्र पूजा अथवा श्रुतभक्ति करने से पूमक की जड़ता का विसर्जन होता है और ज्ञानोपलग्धि होती है । शान ही मुक्ति के लिए प्रमुख सोपान है।
गुरु भक्ति में आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को पूजा सम्मिलित है। मुनियों और आचार्यों द्वारा योगि-भक्ति का उपयोग हुआ करता है। सल्लेखना अथवा मृत्यु महोत्सव समाधिभक्ति का उल्लेखनीय प्रयोग है। अनित्य-भावना के मर्म को जानकर साधक इस शरीर को क्षण भंगुरता को समझकर उसे ज्ञानपूर्वक क्रमशः त्यागता है। शरीर त्याग ही वस्तुतः सांसारिक मृत्यु कहलाती है। मृत्यु का यह मांगलिक प्रयोग नभक्ति की अपनी उल्लेखनीय विशेषता है। इस भक्ति के द्वारा जीवन के समप्र काषायिक कर्मकुल शान्त हो जाते हैं।
जैनाचार्यों ने निर्वाण भक्ति की मौलिक किन्तु महत्वपूर्ण व्यवस्था की है। इस भक्ति में तीर्थंकरों के पंचकल्याणकों-गर्म, जन्म, तप, मान, मोक्ष-की स्तुति तथा निर्वाण-स्थलों की वंदना की जाती है। निर्वाण भक्ति के द्वारा पूजक अथवा साधक का चित्त राग से विमुख होकर वीतराग की और प्रशस्त होता है। वीतरागता माने पर ही मोक्ष दशा को पाया जा सकता है।
चैत्य और चंत्यालय भक्ति के साथ जैन भक्ति में नंदीश्वर भक्ति का प्रयोग उल्लेखनीय तथा अभिनव है। इस भक्ति के द्वारा वर्तमान संसार का स्वरूप विस्तार को प्राप्त करता है। मध्य लोक में नंबोरवर दीप की स्थिति आज भी भोगोलिक-विज्ञान के लिए गवेषना का विषय है।
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ६६ "
इन सभी भक्तियों के साथ शान्ति भक्ति का स्थान बड़े महत्व का है । जैन कवियों द्वारा शान्ति भक्ति पर आधूत अनेक पूजा-काव्य रचे गए हैं। तीर्थकरों की देशनाएं सर्वथा शान्तिमुखी हैं फिर तीर्थकर शांतिनाथ fare पूजा इस भक्ति का मुख्याधार है ।
इस प्रकार हिन्दी जंन पूजा काव्य में शती तक विवेच्य भक्ति और उसके सभी यहाँ इन सभी पूजाओं के माध्यम से करेंगे ।
कालक्रम से पूजाओं के माध्यम से भक्तिभावना का विकासात्मक
अध्ययन-
आत्मा विषयक सद्गुणों में अनुराग-भाव को भक्ति कहा गया है ।" इन गणों की विकासात्मक श्र ेष्ठ परिणति पंचपरमेष्ठी अपने गुणोत्कर्ष के कारण प्रमुख उपास्य शक्तियाँ हैं । अरहन्त और सिद्ध वस्तुतः देव की कोटि में आते हैं और आचार्य, उपाध्याय तथा साधु-गुरुओं के क्रम में आते हैं । अरहन्तarit को जिनवाणी कहा जाता है ।" कालासर में इसी को जिनागम अथवा शास्त्र जो की संज्ञा दी गई। इस प्रकार पूजा का मुख्य आधार-आराध्य - देवशास्त्र गुरु है । इनके प्रति अनुराग करना वस्तुतः भक्ति को जन्म देता है ।
जैन धर्म में भक्ति मावना को मूलतः दश भागों में विभाजित किया
अठारहवीं शती से लेकर बीसव प्रभेदों का उपयोग हुआ है । अब भक्ति - विकास सम्बन्धी अध्ययन
१. पंडित टोडरमल व्यक्तित्व और कृत्तित्व, डॉ० हुकुमचन्द्र भारिल्ल, पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए–४, बापूनगर, जयपुर, प्रथम संस्करण १६७३, पृष्ठ १७६ ।
२. णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं ।
णमो उवज्झायाण णमो लोए सव्व साहूणं ||
- मंगल मंत्र णमोकार एक अनुचिन्तन, डॉ० नेमीचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दुर्गाकुण्ड, वाराणसी- ५, प्रथम संस्करण १६६७, पृष्ठ १ ।
३. जम्मुमहद्दहाओ दुवालसगी महानई बूढ़ा । ते गणहर कुल गिरिणो सधे वंदामि भावेण ॥
- चेहयवंदण महाभासं श्री शान्तिसूरि, सम्पादक पं० बेचरदास, श्री जैन आत्मानन्द समा, भावनगर, प्रथम संस्करण, वि० सं० १९७७, पृष्ठ १ ।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ७ )
गया है । कालान्तर में शान्ति, निर्वान और मंजेश्वरी हो गई। इन सभी भक्तियों का हिन्दी जैन-पूजा काव्य में उपयोग हुआ है ।
मैं हिन्दी-पूजा काव्य मूलतः संस्कृत-प्राकृत भाषाओं से अनुमति रहा है। आरम्भ में भारतीय जैन समुदाय और समाज में इन्ही बाबी पाठ करने का प्रचलन रहा है। आज भी अनेक अनुष्ठानों पर 'संस्कृत तया प्राकृत पूजाओं का प्रयोग किया जाता है और इससे भक्ति at an परिणति मानी जाती है । पन्द्रहवीं शती से हिन्दी मावा में आचायो, 'सुनिय तथा मनोवियों द्वारा अनेक काव्य रचे गए हैं। अठारहवीं शती में हिन्दी में मक्त्वात्मक अभिव्यञ्जना के लिए पूजाकाव्य रूप को गृहीत किया गया ।
जैन आगम में वर्णित भक्ति भावना और उसके विविध अंगो को आधार मानकर जंन हिन्दी कवियों द्वारा प्रजोत विविध पूजा काव्य कृतियों में इनकी विशव व्याख्या हुई है। यहाँ विवेच्य काव्य में जेन भक्ति के विकासात्मक पक्ष पर संक्ष ेप मे अनुशीलन कर, भक्त्यात्मक विकास में इन कवियों योगवान परक अध्ययन करेंगे ।
जैन हिन्दी काव्य-पूजा का प्रारम्भ अठारहवीं शती से हो जाता है ।" इस शताब्दि के सशक्त पूजाकाव्य प्रणेता कविवर खानतराय द्वारा विविध विषयों पर अनेक पूजा काव्य रचे गए हैं। इनमें देव, शास्त्र और गुरु विषयक पूजा काव्य का महत्वपूर्ण स्थान है । क्योंकि इसमें एक साथ ही सिद्ध-भक्ति तीर्थङ्कर afia, तथा गुरु भक्ति तथा भक्ति का सम्यक् प्रतिपादन हो जाता है /
१ - वंश भक्त्यादिसंग्रह, सिद्धसेन जैन गोयलीय, अखिल विश्व जैन मिशन, सलाल, साबरकांठा, गुजरात, प्रथम संस्करण, वी० नि० सं० २४८१, पृष्ठ ९६ से २२६ ।
२- जैन कवियों के हिन्दी काव्य का काव्यशास्त्रीय मूल्याङ्कन, डॉ० महेन्द्र सागर प्रचण्डिया, गागरा विश्वविद्यालय द्वारा १९७५ में स्वीकृत डी० सिं० उपाधि के लिए शोध प्रबन्ध, पृष्ठ ४४ ।
1
३- श्री देवशास्त्र गुरु पूजा, खानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ पाणसी, प्रथम संस्करण १९५७, पृष्ठ १०६ ।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
भीमा तमा भी सरस्वती पूजा' विषयक पृथक-पृषक पूनाएं रखो
श्री नंदीश्वर पूजा के माध्यम से नंदीश्वर भक्ति का प्रतिपादन मा।' निर्माणमति के लिए भी निर्वाण क्षेत्र पूजा' की भी रचना हुई है। जैनधर्म के अनुसार विवेह क्षेत्र में बीस तीर्थकर को विद्यमानता उल्लिखित है। कविवर पानतराय द्वारा इन तीर्थङ्करों की भक्तिपरक पूजाकाव्य की रचना
इसके अतिरिक्त इस शतादि में रची गई पूजाओं में श्री सिडक पूजा, मी रत्नाप पूजा, श्री पंचमेरू पूजा, सोलहकारण पूजाएँ उल्लेखनीय है। भी सिडक पूजा में सिड भक्ति का ही प्रतिपादन हुआ है। सम्यक् दर्शन, १-श्री देवपूजा, चानतराय, बृहजिनवाणी संग्रह, सम्पादक-पं० पन्नालाल
बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, प्रथम संस्करण १९५६, पृष्ठ ३०० । २-श्री सरस्वती पूजा, बानतराय, राजेशनित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल
बर्क्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १६७६, पृष्ठ ३७५ । ३-श्री नंदीश्वर द्वीप पूजा, धानतराय, श्री जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र
पादनी, नं. ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ५५ । ४-श्री निर्वाण क्षेत्र पूजा पाठ, धानतराय, सत्यार्थ यज्ञ, सम्पादक प्रकाशक
पं० शिखरचन्द्र जैनशास्त्री, जवाहर गंज जबलपुर (म०प्र०), अगस्त
१९५०ई०, पृष्ठ २३६ । ५-जनेन्द्र सिद्धान्तकोश, भाग ३, क्षु० जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ,
नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १६७२, पृष्ठ ५५१ ।। -ओउम् ह्रीं सीमन्धर, जुगमन्धर, बाहु-सुवाह, संजातक, स्वयंप्रभ, ऋषभानन, अनन्तवीर्य, सूरप्रम, विशालकीति, बजघर, चन्द्रानन, भद्रवाह, भुजंगम, ईश्वर, नेमप्रभ, वीरसेण, महाभद्र, देवयशो, अजितबीति विशति विद्यमान तीर्थकरेभ्यो जन्म मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
-श्री बीस तीर्थकर पूजा, धानतराय, धार्मिक पूजापाठ संग्रह, सम्पादक तपा संकलयिता-१० श्री शीतल सागर जी महाराज, बजाज किला
रोड, अवागढ़ (एटा) (उ०प्र०), श्री वीर नि० सं० २५०४, पृष्ठ २५ । ७-श्री बीस तीर्थकर पूजा, थानतराय, धार्मिक पूजापाठ संग्रह, सम्पादक
तथा संकलयिता-अ. श्री शीतल सागर, बजाज फिला रोड, भवानड़ (एटा) (उ० प्र०), श्री वीर नि० सं० २५०४, पृष्ठ २५ । -श्री सिद्ध चक्र पूजा, हीरानंद, शानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, वाराणसी, प्रथम संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ११६ ।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
( * )
सम्पज्ञान और सम्यक् चारित्र वस्तुतः रत्नत्रय कहलाते हैं। जैनधर्म के मनुसार यह मोठा का मार्ग है।' इसमें दर्शन, ' शान' और चारित्र चितवन कर पूजा-पाठ किया गया है। इस भक्ति से मोक्षमार्ग प्रशस्त होतो है। श्री पंचमेरूपूजा का आधार विदेह क्षेत्र के मध्यभाग में स्थित सुमेरूपर्वत है। यह पर्वत तीर्थंकरों के अभिषेक का आसन रूप माना जाता है ।" कविवर द्यानतराय ने श्री पंचमेह पूजा में तीर्थङ्करों के अभिषेक अनुष्ठान का स्मरण कर भक्ति की है फलस्वरूप दुखों का मोचन और सुख-सम्पति का विमोचन होता है ।"
१. सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः ।
- तत्त्वार्थ सूत्र, प्रथम अध्याय, प्रथम श्लोक सूत्र, आचार्य उमास्वामी, सम्पादक पं० सुखलाल संघवी, भारत जैन महामंडल, वर्धा, प्रथम संस्करण १६५२, पृष्ठ ६७ ।
२. दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्म परिज्ञानमिष्यते बोधः ।
स्थितिरात्मनि चरित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्धः ॥
-- पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, श्री अमृत चन्द्रसूरि दी सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, अजिताश्रम, लखनऊ, प्रथम संस्करण १६३३, पृष्ठ ८१ ।
३. सम्यग्ज्ञानं पुनः स्वार्थ व्यवसायतमकं विदुः ।
मतिबुतावधिज्ञानं मनः पर्यय केवलम् ॥
- तत्वार्थसार, श्री अमृत चन्द्रसूरि, संपादक पंडित पन्नालाल साहित्या -चार्य, श्री गणेश प्रसाद वर्णी ग्रंथमाला, डुमराव बाग, अस्सो, वाराणसी५, प्रथम संस्करण सन् १९७०, पृष्ठांक ६-७ ।
४. असुहादो विणि वित्ती सुहे पवित्ती य जाण चारितं ।
वद समिदि गुत्तिरूवं ववहारणयादु जिणभणियम् ॥
- बृहद् द्रव्य संग्रह, श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव, श्रीपरमश्रुत प्रभावक मंडल श्रीमदरायचन्द्र जैन शास्त्रमाला, अगास, बोरीआ, गुजरात, प्रथम संस्करण श्रीवीर निर्वाण संवत् २४६२, पृष्ठ १७५ ।
५ - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, क्षु० जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण १९७२, पृष्ठ ४६४ । ६- तीर्थंकरों के न्हवन जलतें भये तीरथ शर्मदा,
सातै प्रवन्छन देत सुर-मन पंचमेरून की सदा । वो जलधि ढाई द्वीप में सब गनत मूल बिराजहीं, पूज असी जिनधाम- प्रतिमा होहि सुख दुख भाजहीं ॥
- श्री पंचमेरुपूजा, खानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण, १६५७, पृष्ठ ३०२ ।
-
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १०० )
इस शताब्दि में रचित 'भी दशलक्षणधर्म पूजा' के द्वारा
की सत्ता को चरितार्थ करता है। धर्म के दस लक्षण धर्म में अकार किए गए हैं' बवा
१---सम क्षमा २-- उत्तम मार्दव -उत्तम आर्जव
४--उत्तम शौच
५--- सत्य - उत्तम संयम
--उस सम
८--उसम त्याग
-उत्तम आकिंचन्य उत्तम ब्रह्मचर्य
१०
कविवर यानतराय ने इस पूजा के माध्यम से धर्म के इन तत्वों कर चितवन करते हुए भक्ति करने की संस्तुति की है फलस्वरूप चतुर्गतियों में व्याप्य दुःखों से मुक्ति प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।"
इसी क्रम में सोलह कारण पूजा का स्थान बड़े महत्व का है। पूजाकार ने सोलह भावनाओं का जिल्लवन करने से मोक्ष का कारण बताया है
२ - उत्तमः क्षमा मादंवार्जव शौचसत्य संयमतपस्त्यागाकिञ्चन्य ब्रह्मचर्याणि धर्मः ।
-तत्त्वार्थ सूत्र, अध्याय नवम्, श्लोक संख्या ६, उमास्वामी, सम्पादकपं० सुखलाल संघवी, भारत जैन मण्डल वर्धा, प्रयमसंस्करण १९५२ ई०, पृष्ठ ३०३ ।
२ उत्तम क्षिमा मारदेव आरजब भाव हैं । सत्य कोच संयम तप त्याग उपाय है ||
किचन ब्रह्मचरन धरम दशसार हैं ।
गति-दुख तें कामुकति करतार हैं ।।
-श्री वलक्षण धर्म पूजा, धानतराय, ज्ञानपीठ पूजांचमि, भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी, प्रथम संस्करण १९५७ ई०, पृष्ठ ३०६ ।
३ - दर्शन विशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णं ज्ञानोपयोग संवेग शक्तितत्यागतप्रसी संघ साधु समाधि वैयावृत्यकरण मद्राचार्य बहुभुतप्रवचनभक्ति रावश्यकापरिहाणिर्मार्ग प्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकृत्वस्य ।
,
तत्वार्थ सूत्र अध्याय षष्ठ, तेइस श्लोक संख्या, उमास्वामी, जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, हिन्दू विश्वविद्यालय, बनारस-५, द्वितीय संस्करण १९५२, पृष्ठ २२६ ।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
{ let )
-१-मविशुद्धि
२ --- विनयसम्पन्नर,
तिचार, ४ - अमोक्ण ज्ञानोपयोग, ५-संवेग, ६- शक्तितत्स्वाग
समाधि
मात्र मर्हतुभक्ति/ १०
?
११
१२- प्रवचन भक्ति, १३- आवश्यक
१४- सावन १५ - शक्तितराम, १६ --प्रवचन वत्सलत्य ये ह वीर प्रकृति के आभव के लिये हैं अर्थात् इनसे तीर्थंकर हरे जाता है।
इन सोलह भावनाओं में से दर्शन विशुद्धि का होना अत्यन्त सावरक अन्य सभी भावनायें हों अथवा कम भी हों फिर भी तीर्थकर प्रकृति का हो सकता है । अथवा किन्हीं एक वो आदि भावनाओं के साथ सभी भावनायें हैं तथा अपायविचैव धर्मध्यान भी विशेष रूप से तीर्थकर प्रकृति बन्ध के लिए कारण माना गया है। यह ध्यान तपोभावना में ही मन्त हो जाता है।'
'सोलह' शब्द संख्या परक है। इसमें 'कारण' शब्द भी सार्थक है जिसका अर्थ है मोक्ष में कारण । इन सभी भावनाओं के चितवन से तीर्थकर प्रकृति का बन्ध होता है । अर्थात् संसार से मुक्त होकर सिद्ध गति प्राप्त करना । efear खानतरrय की धारणा है कि जो भी पूजक अथवा भक्त व्रत सोलह कारण पूजा करता है उसे शिव-पद की प्राप्ति होती है ।"
इस प्रकार जैन मक्ति-भावना के प्रमुख उपादानों की उपयोगिता मठार. हवी शती के पूजाकारों द्वारा अपने काव्य में सफलतापूर्वक अभिव्यक्त हुई है।
१- सम्यग्ज्ञान, हिन्दी मासिक, सोलहकारण अंक, सम्पादक पंडित मोतीलाल सेन शास्त्री, दि० जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर (मेरठ) वर्ष ५, अंक २, १६७८ ई०, पृष्ठ २ ।
२ - तत्वार्थ सूत्र, विवेचन कर्ता पं० सुखलाल संघवी, जैन संस्कृति संशोधन मंडल, हिन्दू fara fविद्यालय, बनारस-५, द्वितीय संस्करण १६५२, पृष्ठ २२० ।
सहीह भावना, सहित बरे कत जो
देव-इन्द्र न च पय, यानत शिव पद होय ॥
- श्री सोलह कारण पूजा, च. नतरायः ज्ञानपीठ पूजपनि सारतीय व्रणपीठ, वाराणसी, प्रथमसंस्करण १९५७ ६०, पृष्ठ २०१
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १०२ )
इस भक्ति भावना का शुभ परिणाम दुःख से निवृत्ति और सिंथ पद में प्रवृति उत्पन करना है।
तीसवीं शताब्दि में पूजा-काव्य रूप को अवस्थात्मक अभिव्यञ्जना केलिए अपेक्षाकृत अधिक अपनाया गया है । इस शती में अठारहवीं शती में प्रणीत 'पूजा में अभिव्यक्त भक्ति सुरक्षित रही है। विशेषता यह है कि इस सती के कवियों द्वारा बीबीस तीर्थंकर पूजा का प्रणयन हुआ है।' समवेत रूप से water fried की पूजा के अतिरिक्त वैयक्तिक रूप से भी प्रत्येक तीर्थंकर के नाम पर आधृत अनेक कवियों द्वारा तीर्थंकर पूजाएं रची गई हैं किनमें तीर्थंकर भक्ति का सम्यक् विवेचन हुआ है । जैन भक्त समाज में 'कर नेमिनाथ, पार्श्वनाथ,' तथा महावीर' विषयक पूजाओं का प्रचलन सर्वाधिक है। जिस मंदिर की मूल प्रतिमा जिस तीर्थंकर की होती है, उस मंदिर में उसी तीर्थंकर की पूजा का माहात्म्य बढ़ जाता है। नित्य पूजा विधान के लिए चौबीस तीर्थकर की समवेत पूजा का क्रम प्रायः अपनाया गया है ।
तीर्थकरों के जीवन की प्रमुख पाँच घटनाएँ वस्तुतः कल्याणक कहलाती हैं। गर्म, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष इन पाँच कल्याणकों पर आवृत पूजा१- बुषभ, अजित, संभव, अभिनंदन,
सुमति, पदम, सुपार्श्व जिनराय । चन्द्र पहुप, शीतल, श्रेयांस, नमि,
बासु पूज्य पूजित सुर राय ॥
बिमल अनन्त घरम जस उज्ज्वल,
शान्ति कुंथु भर मल्लि मनाय । मुनि सुव्रत नमि नेमि पार्श्व प्रभु,
वर्तमान पद पुष्प चढ़ाय ॥
-- श्री समुच्चय चौबोसी जिन पूजा, सेवक, बृहजिनवाणी संग्रह, मदनगंज, feetगढ़, प्रथम संस्करण १६५६, पृष्ठ ३३४ ।
.२ - श्री नेमिनाथजिन पूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, सम्पादक व प्रकाशकपंडित शिखरचन्द्र जैन शास्त्री, जवाहरगंज, जबलपुर ( म०प्र०), १६५० ई०, पृष्ठ १५३ ।
३- श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बब्तावररत्न, ज्ञानपीठ पूजांजसि, भारतीय ज्ञानपीठ, बनारस, प्रथम संस्करण १९५७ ई०, पृष्ठ ३६५ । ४- श्री महावीर स्वामी पूजा, वृंदावनदास, राजेशनित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण १९७६ ई०, पृष्ठ ११२ ।
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
काम्यप्रणयन इस शतानि की अभिनव देन मानी जाएगी। एमएस कल्याणक पर पूजा का पुरा तंत्र व्यवहत है अर्थात् स्थापना से लेकर मनाला मौर विसर्जन तक चौबीस तीर्थंकरों के प्रत्येक कल्याणक पर मात पूना का मन हमा है। मर्म कल्याणक पूजा माहात्म्य की पर्चा करते हुए कविका कपन है कि उस पूजा को पई, सुने वह व्यक्ति शिव पर को अवश्य प्राप्त करेणा'जन्म कल्याणक-का मल्यांकन करते हए पजाकारने लिखा कि सरपति प्रमके जन्म पर ताण्डव करते है और क्षेत्र में अपार हनिम्न मनाने है।'तप कल्याणक की पूजा करते समय कवि प्रम से प्रार्थना करता है कि भापके गुणों की व्याख्या इन्द्र, धणेन्द्र तथा नरेन्द्र भी नहीं कर सके फिर यह सामान्य कवि पूजक किस प्रकार कर सकता है । मानहीन समझकर शिवपुर का मार्ग प्रशस्त कीजिये. इस बंश में अथवा पजक का प्रमप्रति अनुग्रहात्मक संकेत परिलक्षित होता है। मानकल्याणक पूजा में तपत्थरणारा धातिया कर्मों का नाश कर प्रभु द्वारा ज्ञानार्जन करना हुआ है फलस्वरूप शान-प्रकाश से सारा लोक आलोकित हो उठा है। मोक्ष कल्यानक पूना में
१-धी पंचकल्याणक पूजा, कमलनयन, हस्तलिखित ग्रन्थ, जैन शोध बादमी,
अलीगढ़ में सुरक्षित। २-यह विधि गर्भ कल्याण की पूजा करो विशाल ।
पड़े सुने जे नारि-नर पावें शिव दर हाल ॥ ~श्री पंच कल्याणक पूजा, कमलनयन, हस्तलिखित पंच, जन गोष
अकादमी, आगरा रोड, अलीगढ़ में सुरक्षित । ३-तब सुरपति अति चाव सों, तांडव नृत्य करान। जिन मुख-चन्द्र विलोकि के हरष्यों हिय न समान ।। --श्री पंचकल्याणक पूजा, कमलनबन, हस्तलिखित ग्रंथ, जैन सोग
अकादमी, आगरा रोड अलीगढ़ में सुरक्षित । ४-तुम गुणमाल विशाल बरनि कवि को कहै,
इन्द्र धनेन्द्र नरेन्द्र पार कोऊ ना लहै। मैं यति हीन अयान शान बिन जानिए, दो शिवपुर थान अरज मेरी मानिए। -~श्री पंचकल्याणक पूजा, कमलनयन, हस्तलिखित ग्रंथ, जनशोध कारवी,
आगरा रोड, अलीगढ़ में सुरक्षित । ५-ये तीर्थकर सत मत तप करि घातिया ।
घोत चारि करम रिपु रहे हैं अषातिया ॥ तिन के नाशन कारन उबमवान है। प्रकट्यो केवल ज्ञान सुमान समान है । -श्री शान कल्याणक पूजा, कमलनयन, हस्तलिखित प, नसोच मकादमी, बागरा रोड, अलीगढ़ में सुरक्षित ।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१
)
करता है के सांसारिक सम्पदा तो प्राप्त होती ही कला शिक्षा की भी प्राप्ति होती है।
सकार अठारहवीं शती में तीर्थक्ति का विकासात्मक सोली में संचित तीर्थकर पूजाकाम्य में परिलक्षित होता है। जी स्वक पूजास युग की अभिनय देन है मस्तु इस कि काम मी मुभरही है साधारण जन-कुल में भी तीर्थकर भक्ति की महिला
सास्वचार हुमा है फलस्वरूप उसमें समाचार की प्रेरणा अपनाई है। तबाही नहीं इसी के पूजा प्रणेतानों ने सिख क्षेत्रों अर्थात् मन पवित्र स्थान पर आपत पूनाएं रखी हैं जिनसे तीर्थराव मुक्ति को प्राप्त हुए हैं। सटिभी किरिनार सिवक्षेत्र पूजा तथा श्री सम्मेद शिखर पूजा विशेष
--
-
.गुरुमक्ति का सम्पादन श्री सप्तषिपुजा के माध्यम से सम्पन्न हुमा है। कपिपर मनरंगलाल विरचित 'भी सप्तर्षि पूजा' इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
कविवर मल्ल द्वारा क्षमावाणी पूजा का प्रणयन भक्त्यात्मक परम्परा में अपना विशेष महत्व रखती है । अठारहवीं शती में श्री मालक्षण धर्मपूजा के अन्तर्गत ममा विषयक अवश्य चर्चा हुई थी किन्तु यहाँ कवि ने 'श्री सामावाणी पूजा' में सम, धर्म की महिमा का प्रवर्तन किया है। इससे जीवन में रलत्रय को मध्य भावना उत्पन्न होती है जो मोल-मार्ग में साधक हैं।' १-पूजा जिन चौबीस सुपूज्य कल्याण की।
पड़े सुनै दै कान सुरम शिवदान की। सुत-बारा धन-धान्य पायसम्पत्ति भली। नार-सुर के सुख भोसि करें शिवपुर रली ।। -श्री मोक्ष कल्याणक पूजा, कमलनयन, हस्तलिखित ग्रंथ, जनशोध
अकादमी, आगरा रोड, अलीगढ़ में सुरक्षित । २-श्री सप्तऋषि पूजा, मनरंगलाल, राजेम नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र
मेटिल वर्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण सन् १९७६, पृष्ठ १४० । ३-अंग मा जिनधर्म तनों दृढमूल बखानों ।
सम्यक् रतन संभाल हृदय में निश्चय जानों । तज मिथ्या विष-मूल और चित्त निर्मल ठानो। जिन धर्मी सो प्रीत करो सब पातक मानों॥ रतनत्रय गह भविक जन जिम आशा सम बालिए। निश्चय कर माराधना करम रास को जालिए। -बी क्षमावाणी पूजा, कविमल्लजी, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय भानपीठ, काराणसी, प्रथम संस्करण १९५७ ६०, पृष्ठ ४०३ ॥
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १०५ )
इस प्रकार अठारहवीं शती में प्रणीत पूजा काव्य में भक्ति भावना की को स्थापना हुई है उसका विकास हमें १२ वीं शती में रचित हिम्दी जैन-युका
म में परिलक्षित होता है। इस शताब्दि में पूजा के अनेक नवीन भावार मुखर हो उठे हैं। इन सभी पूजाओं का मन्तव्य लौकिक उमन और reater अध्यात्मिक उत्कर्ष की स्थापना करना है । दूसरी विशेषता यह है कि इस काल के कवियों द्वारा विविध-सुखी भक्ति को आधार मूलक शक्तियों के अतरंग का सूक्ष्म उद्घाटन भी हुआ है । इस दृष्टि से कयामक और अतिशय तथा सिद्धक्षेत्र को पूजाएँ उल्लेखनीय हैं !
जैन हिन्दी पूजा काव्य धारा का उत्तरोत्तर उत्कर्ष हुआ है। बीसवीं शती मैं प्रस्ताविक भक्त भावना का पोषण तो हुआ ही है साथ ही अनेक नवीन तत्वों पर भी पूजाएं रची गई हैं। उन्नीसवीं शती की भाँति सिद्ध क्षेत्रों पर भात पूजा, श्री सम्मेदाचल पूजा, श्री लण्डगिरि पूजा, श्री चम्पापुर पूजा, श्री पावापुर पूजा तथा श्री सोनागिरि पूजा इस काल की अभिनव कृतियाँ हैं जिनके द्वारा तीर्थंकर भक्ति का पोषण हुआ है। शास्त्र भक्ति के मन्तात इस काल में 'श्री तस्वार्थ सूत्र पूजा' कवि को सर्वथा मौलिक उभावना है।
क्षेत्र भक्ति के अन्तर्गत श्री सम्मेद शिखर पूजा का बड़ा महत्व है। यह क्षेत्र हजारी बाग, पारसनाथ हिल, ईशरी में स्थित है ।" इस क्षेत्र में अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनवन नाथ, सुमति नाथ, पद्माम, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, पुष्पवन्त, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ शांतिनाथ, कुम्यनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, सुनिसुव्रतनाथ, नमिनाथ तथा पार्श्वनाथ नामक बीस तीर्थंकर मुक्ति को प्राप्त हुए हैं।" तीर्थकरों के साथ अन्य व्यासी करोड़ चौरासी लाख पंतालीस हजार सात सौ विद्यालीस मुनिजन सिद्ध पद प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त हुए हैं।' यह सिद्ध क्षेत्रों में सबसे बड़ा
-जैन तीर्थ और उनकी यात्रा, श्री कामता प्रसाद जैन, भारतीय दिगम्बर जैन परिषद् दिल्ली, प्रथम संस्करण १९६२ ई०, पृष्ठ १६ ।
1
13- श्री सम्मेबाचल पूजा, जवाहरलाल, बृहजिनवाणी संग्रह, सम्पादक- पंडित पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, प्रथम संस्करण १६५६ ई०, पृष्ठ ४७२ से ४८५ ।
3
३- श्री सम्मेदाचल पूजा, जवाहरलास, बृहजिनवाणी संग्रह, सम्पादक पंडित पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, प्रथम संस्करण १६५६ ई० पृष्ठ ४८५ ।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
और महत्वपूर्ण है। इसके दर्शन को महिमा अनन्त है।' भी सम्बगिरि पूजा में सम्मागिरि क्षेत्र की भक्ति की गई है। यह क्षेत्र बंग-मंग के पास कलिग देश वर्तमान में उड़ीसा में स्थित है। इस क्षेत्र से राजा दशरथ सुत तथा पंच शतक मुनियों ने अष्ट कर्म क्षय कर मोक्ष प्राप्त किया था।' इस क्षेत्र पूजा की महिना जागतिक मति प्रदान करने के माय हो शिवपर प्राप्त कराने पर निर्भर करती है। श्री पावापुर सिख क्षेत्र पूजा में पावापुर क्षेत्र की वंदना की गई है। यह क्षेत्र आधुनिक पटना में स्थित है। यहां से चौबीसवें तीर्थंकर म. महावीर निर्वाण-पद को प्राप्त हुए। इस क्षेत्र की बंदना करने से धन-धान्याधिक सुखद पक्षाओं को प्राप्ति तो होती ही है साथ
१-जे नर परम सुभावन ते पूजा करें।
हरिहलि चक्री होय राज्य षटखंड करें। फेरि होंय धरणेन्द्र इन्द्र पदवी घरें। नाना विधि सुख भोगि बहुरि शिवतिय वरें।
-श्री सम्मेदाचल पूजा, जवाहर लाल, बहजिनवाणी संग्रह, सम्पादक-प. पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, प्रथमसंस्करण १९५६ ई.,
पृष्ठ ४८६ । २-जैन तीर्थ और उनकी यात्रा, श्री कामता प्रसाद जैन, श्री दिगम्बर जैन
परिषद् प्रकाशन, दिल्ली, तृतीय संस्करण १६६२, पृष्ठ १०३ । ३-दशरथ राजा के सुत अति गुणवान जी।
और मुनीश्वर पंच संकड़ा जान जी ।। ---श्री खण्डगिरि क्षेत्र पूजा, मुन्नालाल, जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र
पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १५५ ।। ४-श्री खण्डगिरि उदयगिरि जो पूजे काल ।
पुत्र-पौत्र सम्पति लहें पावै शिव सुख हाल । -~-श्री खण्डगिरि क्षेत्र पूजा, मुन्ना माल, जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र
पाटनी ६२, नलिनी सेठरोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १५८ ।। ५-जैन तीर्थ और उनकी यात्रा, श्री कामता प्रसाद जैन, दि० जैन परिषद्
प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ ४० । ६-जिहिं पावापुर छित अघाति, हत सन्मति जगदीश ।
भए सिद्ध शुभयान सो, जजोनाथ निज शीश ॥ -श्री पावापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम, जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द पाटनी, ६२, नलिनीसेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १४७ ।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
हो शिव के लिए प्रेरणा भी मिलती है। इसी परम्परा में श्री सोमागिरि पूका भी सोनागिरि क्षेत्र की बंदना करने के लिए प्रेरणा देती है। सोना. गिरि दतिया स्टेशन से प.वं रेलवे स्टेशन पर स्थित है। यहां से पांच करोड़ से अधिक मुनि मुक्त हैए साथ ही तीर्थकर चन्द्र प्रभु भी निर्वाण को प्राप्त (ए। इस क्षेत्र को बन्दनात्मक महिमा इस पूजा के पठन तथा भवन करने मात्र से प्राणी को शिवपुर का मार्ग प्रशस्त होता है।
सरस्वती पूजा-भक्ति में तत्त्वार्थ सूत्र की पूजा का बड़ा महत्व है। तत्वार्य सूत्र में अध्याय है, जिनमें जैन धर्म का पूर्ण तात्विक विवेचन को सूत्रात्मक शैली में अभिव्यक्त किया है। इसी मौलिक परम्परा में बत१-धन्य धान्यादिक शर्म इन्द्रपद लहे सो शर्म अतीन्द्री बाय ।
अजर अमर अविनाशी शिवथल वर्णी दौल रहे शिर नाय ।।
-श्री पावापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम, जैन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १४६ ।। २-जैन तीर्थ और उनकी यात्रा, श्री कामता प्रसाद जैन, परिषद् प्रकाशन,
दिल्ली, तृतीय संस्करण सन् १९६२, पृष्ठ १०३। .३-पदमद्रह को नीर ल्याय गंगा से भरके ।
कनक कटोरी माहि हेम थारन में धरके ॥ सोनागिरि के शीश भूमि निर्वाण सुहाई। पंच कोडि अरू अर्द्ध मुक्ति पहचे मुनिराई । चन्द्र प्रभु जिन आदि सकल जिनवर पद पूजो। स्वर्ग मुक्ति फल पाय जाय अविचल पद हजो॥
-श्री सोनागिरि सिद्ध क्षेष पूजा, आशाराम, जन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, ६२, नलिनीसेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १५० । ४-सोनागिरि जयमालिका, लघुमति कहो बनाय । पढ़े सुने जो प्रीति से, सो नर शिवपुर जाय ।
-श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा, आशाराम, जंन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्सा-७, पृष्ठ १५४ ।। ५-तत्त्वायंसूत्र , उमास्वामी, भारत जैन महामण्डल, वर्धा, द्वितीय संस्करण
१९५२ ई०। ६-पदव्य को जामें कहो जिनराज वाक्य प्रमाण सों।
किय तत्त्व सातों का कथन जिन आप्त आगम मानसों ॥ तत्त्वार्थ सूत्रहि शास्त्र सो पूजो भविक मन घारि के। लहि भान तत्त्व विचार भवि शिव बा भवोदधि पार के ॥ -श्री तत्वार्थसूत्र पूजा, भगवानदास, जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, ६२, नलिनीसेठ. रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ४१० ।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १०० )
Rug का भी
LIN
agrat पर भी पूजाओं की रचना हुई है। इस ि असल पूछा, रमत द्वारा विरचित भी रक्षा पूजा का अतिशय महत्व है। श्री रक्षाबन्धन पूजा में अनंतनाथ गुणों का विस्तer कर केवलज्ञान प्राप्ति होने की चर्चा की गई ture के उपरान्त अनन्वसूत्र बाँधने की परिपाटी भी है ।" इसी र श्री रक्षा बन्धन पूजा का आधार मुनियों की सुरक्षा-कावना रही है। amenterर्य आदि सात सौ मुनियों ने भयंकर उप को सहन कर neteen की कीति स्थापित की है।" इस पूजा पाठ से पूजक को की प्राप्ति होती है ।"
साधु भक्ति के लिए इस शताब्दि में भी बेवशास्त्र गुरु पूजा के अति श्री बावली पूजा का प्रणयन अपना अतिशय महत्व रखता है । इस पूजा में श्री बाहुबली को के गुणों का न्तिवन कर मन काम से सक्ति को गई है। भक्ति के लिए भी इलिस त्यालय पूजा, शक की रचना मूल्यवान है ।"
१ - जय अनंतनाथ करि अनंतवीर्य । हरि घाति कर्म धरि अनंतत्रीयं ॥ उपजायो केवल ज्ञान भान ।
प्रभु लखे चचार सब सु जान ।।
- श्री अनंतवत पूजा, सेवक, जन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २६८
२ - श्री अकम्पन मुनि वादि सब सात से । कर विहार हस्थनापुर आए सात से ।। तहां भयो उपसर्ग बड़ो दु काज जू । शान्तभाव से सहन कियो मुनिराज जू ॥
- श्री रक्षाबन्धन पूजा, रघुसुत, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटल वर्क्स, अलीगढ़, प्रथम संस्करण, १९७६ ई०, पृष्ठ ३६२ ।
३ - श्री रक्षाबन्धन पूजा, रघुसुत, वही, पृष्ठ ३६७ ।
४- श्री बाहुबली पूजा, दीपचन्द, नित्यनियम विशेष पूजा पाठ सह सम्पादक व प्रकाशक - ० पतासीबाई जैन, ईसरी बाजार (हजारी बाग पृष्ठ ६२ ।
·
४ - श्री मत्रिम संस्थालय पूजा, नेम, जैन पूजामम् संग्रह भगवन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
२५१ ।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस प्रकार -हिन्दी-पूजा-काव्य के द्वारा जन भक्ति का प्रतिपादन हुमा है ताम्बिकम से बम्पयन करने पर यह सहन में स्पष्ट हो जाता है कि देव साथ गुरु पूजा-काव्य का प्राणतत्व है। यह तस्व पूजा परम्परा में माहिते मात तक बहता है। इस दृष्टि से विभिन्न मतानियों में माना पूजामों के महा भक्ति के विविध प स्थिर हुए हैं। विवष्य काय द्वारा भक्ति के विविध मों का विकासात्मक संक्षिप्त अध्ययन किया गया है।
पूजाकाव्यधारा में कबिर्मनीषो बानतराय, मनरंगलाल, रामचनो बानपास का स्थान बड़े महत्त्व का है। पूजाकाव्यकारों मे हम्ही कवियों द्वारा स्थापित मावत का अनुकरण किया है।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
विधि-विधान
बेवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप तथा दान मे षट् कर्म air are a free aर्या के आवश्यक अंग माने गए हैं ।" यहाँ पूजा तज्जन्य सुफल free संक्षेप में चर्चा कर पूजा-विधि-विधान का विवेचन करना हमें अभिप्रेत है ।
पूज्य का आदर करना बस्तुतः पूजा है। रागद्वेष विहीन वीतराम बस्तुतः आप्त पुरुष तथा पूज्य है। इस भौतिकवादी युग में व्यक्ति लोकरंजना के कार्यों में इतने अधिक प्रसित रहते हैं कि वे जिन पूजन के मंगल कार्य के लिए समय ही नहीं निकाल पाते। मोहनीय कर्मोदय' से जीवन में इतनी कुष्ठा व्याप्त रहती है कि कल्याणमार्ग में प्रवृत ही नहीं हो पाते। जिनेन्द्र पूजा यह संजीवनी रसायन है जो अमंगल में भी मंगल का सूत्रपात कर देती है । जीवन में जागरूकता ला देती है। वीतराग भगवान जिनेन्द्र की जब पूजक पूजा करता है तब वह भगवान जिनदेव के गुगों का चितवन करता हुआ उनका वाचन-कीर्तन करता है। वह जितनी देर पूजा करता है उतनी ही देर बोतराग भगवान् के संसर्ग अथवा प्रसंग से अशुभ गतिविधि को शुभ किंवा प्रशस्त मार्ग में परिणत कर देता है। यह है भगवान जिनेन्द्र देव की पूजा का
सफल ।
पूजा करने का मुख्य हेतु आत्मशुद्धि है। इसलिए यह विधि सम्पन्न करते समय उन्हीं का आलम्बन लिया जाता है, जिन्होंने आत्मशुद्धि करके या तो
१. देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः सयमस्तपः ।
दानचेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ||
- पंचविशतका, आचार्य पद्मनदि, अधिकार संख्या ६, श्लोक ७, जीवराज प्रथमाला शोलापुर, प्रथम संस्करण १६३२ ।
२. वे कर्म परमाणु जो आत्मा के शान्त आनद स्वरूप को विकृत करके, उसमें क्रोध, अहंकार आदि कषाय तथा राग द्वेष रूप परिणति उत्पन्न कर देते हैं। मोहनीय कर्म कहलाते हैं ।
अपभ्रंश वाङ्मय में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि, आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', महावीर प्रकाशन, अलीगंज (एटा), उ० प्र०, १९७७, पृष्ठ ३ ।
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
मोक्ष प्राप्त कर लिया है या जो अरहन्त अवस्था को प्राप्त हो गए हैं। भाचार्ष, उपाध्याय और साधु तथा जिन-प्रतिमा और जिन गाणी ये भी माम
धि में प्रयोजक होने से उसके आलम्बन माने गए हैं। यहां यह प्रश्न होता है कि देवपूजा आदि कार्य बिना राग के नहीं होते और राग संसार का कारण है, इसलिए पूजाकर्म को आत्मशुद्धि में प्रयोजक कैसे माना जा सकता है। समाधान यह है कि जब तर सराग अवस्था है तब तक जीव के राग की उत्पत्ति होती ही है । यदि वह लौकिक प्रयोजन को सिद्धि के लिए होता है तो उससे संसार की वृद्धि होती है किन्तु मरहन्त आदि स्वयं राग और द्वेष से रहित होते हैं। लौकिक प्रयोजन से उनकी पूजा की भी नहीं जाती है, इस लिए उनमें पूजा आदि के निमित्त से होने वाला राग मोक्ष मार्ग का प्रयोगक होने से प्रशस्त माना गया है।
भगवान जिनेन्द्र देव की भक्ति करने से पूर्व संचित सभी कमों का क्षय होता है। आचार्य के प्रसाद से विद्या और मंत्र सिख होते हैं। ये संसार से तारने के लिए नौका के समान है । अरहन्त, वीतराग-धर्म, द्वादशांग वाणी, आचार्य, उपाध्याय और साध इनमें जो अनुराग करते हैं उनका वह अनुराग प्रशस्त होता है । इनके अभिमुख होकर विनय और भक्ति करने से सब अर्थों की सिद्धि होती है । इसलिए भक्ति राग पूर्वक मानी गई है, किन्तु यह निदान नहीं है क्योंकि निवान सकाम होता है और भक्ति निष्काम यही वस्तुतः दोनों में अन्तर है।
इस प्रकार पूजा-कर्म की उपयोगिता असंदिग्ध है। प्रश्न है पूजा करने की विधि क्या है ? अब यहां इतने उपयोगी नैत्यिक कर्म के विधि-तंत्र तथा विधान-विज्ञान सम्बन्धी संक्षेप में विवेचन करेंगे।
किसी भी अनुष्ठान का अपना विशेष विधान होता है। जन पूजा-विधान की भी अपनी विधान पति है। यह पूजा-प्रकृति के अनुसार ही अनुप्राणित हमा करती है।
बनदर्शन भाव प्रधान है। किसी भी कार्य सम्पादन के मूल में भाव और उसकी प्रक्रिया विषयक भूमिका वस्तुतः महत्वपूर्ण होती है। वास्तविकता यह है कि बिना भावना के किसी कार्य सम्पावन की सम्भावना नहीं की जा सकती। इसी बाधार पर पूजा करने से पूर्व पूजा करने का भाव-संकल्प स्थिर करना परमावश्यक है। इसीलिए शौचादि से निवृत्त होकर भक्त अपवा
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुजारी को मंदिर के लिए प्रस्थान करने से पूर्व अपने हरष में बिन पूर्णन की शुभ भाव स्थित करना होता है। पूजन का संकल्प लेकर मत द्वारा तीन बार 'ममीकार मंत्र का उच्चारण किया जाता है और तब उसका देवालय माना आवश्यक होता है। जिनमविर में प्रवेश करते हो पुनः तीन बार 'नमोकार मंत्र का उच्चारण करना आवश्यक होता है और यदि घर पर स्नान न किया हो तो उसे मंदिर स्थित स्नानागार में जाकर शरीर-गुखि करना अपेक्षित है। छने हुए स्वच्छ जल से स्नान कर भक्त को मंदिर जी में धुले हुए पवित्र वस्त्रों को धारण कर सामग्री कक्ष में प्रवेश करना चाहिए । पूजा-विधान सामान्य रूप से दो भागों में विभानित किया गया है, पमा
(१) भावपूजा
(२) द्रव्यपूजा भावपूजा भमण-साधुजनों अथवा जामवंत श्रेष्ठ बावक द्वारा ही सम्पन्न किया जाना होता है। सरागी धावक के लिए द्रव्य पूजा करना भावश्यक होता है । द्रव्य-पूजा करने के लिए पूजक को सामग्री संजोनी पड़ती है। सामग्री तैयार करने की विधि : ___ असत्, फलादि सामग्री को स्वच्छ जल में पखारना चाहिए । केशर तथा चंदन को घिसकर एक पात्र में एकत्र कर लेना चाहिए । माघे अमत् और नवेच (खोपड़े की टुकड़ियाँ या शकले) को केशर चंदन में रंग लेना आवश्यक है। यदि केशर का अभाव हो तो 'हरसिंगार' के पुष्प-पराग को चंदन के साथ घिस कर तैयार करना चाहिए। अष्टद्रष्य का स्वरूप--
अष्ट कर्मों को अय करने के लिए जिन पूजन में अष्ट व्यों का ही विधान है। इन सभी द्रव्यों को एक बड़े थाल में क्रमशः व्यवस्थित करना चाहिए, यथा
(१) जल -स्वच्छ जल को जलपाश में भर लेना चाहिए। (२) चन्दन--स्वच्छ जल में चन्दन केशर मिलाकर एक पात्र में भर
वि
.
(३) असत-श्वेत पसारे हुए पूर्ण चावलों को पाल में रखना चाहिए। (४) पुष्प -वेत पहारे हुए चावलों को बन्दन बार में बकर
अमात् को रखना होता है।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११३
(५) नैबेद्य - गिरी की पिटे अथवा टुकड़ियों को पareer अथवा शुद्ध खांड में पाग कर रखना चाहिए।
(६) दीपगिरी की चि अथवा दुकड़ियों को केशर चंदन में रंगकर अथवा यदि सम्भव हो तो घृत और कपूर का जला हुआ दीप रखा जाता है ।
(७) धूप- चंदन चूरा तथा धूप धूरा,
कभी-कभी यदि चंदन चूरा पर्याप्त न हो तो अक्षत में उसे ही मिलाकर व्यवस्थित कर लिया जाता है ।
(८) फल-बादाम, लोग, बड़ी इलायची, काली मिर्च, कमल-घटक, कवी आदि शुष्क फलों का प्रक्षालन कर पाल में रखना चाहिए ।
महार्थ
पाल के बीच में इन अष्ट द्रव्यों का मिश्रण महार्थ का रूप ग्रहण करता है । इन अष्ट द्रव्यों को थाल में सजो कर उनका क्रम निम्म फलक के अनुसार होना चाहिए
महार्ष
पूजन पात्रों की संख्या
पूजन में काम आने वाले पात्रों के प्रकार और संख्या निम्न प्रकार से आवश्यक होती है, यथा
१. थाल नग २
२. तरतरी नग २
३. कलश नग २ ( छोटे आकार के जल, चंदन के लिए)
४. चम्मच नग २
५. स्थापना पात्र ठोना-नग १
६. जल-चन्दन चढ़ाने का पात्र नग १
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
८. छन्ना नग ५ (१ छमा सामग्री को अपने के लिए, तीन प्रा
प्रक्षालन लिए तथा १ मा विकाको बोपर पोली ६. काष्ठ की चौकियां मम २, मालभारिखनेमाकार की सामान्य
प्रवेरिका में प्रवेश करने की विधि
बेनी, महाँ प्रभु-मतिमाएं प्रतिष्ठित है, में पूनम को जोश करते समय तीन बार-निःसहीः, निःसहीः, नि:सही:, का उच्चारण करना चाहिए । उच्चारण में मूल बात यह है कि यदि प्रम-वेरिका में किसी भी बोनि के जीवनम-व्यस्तर-देव मारि उपासना पहले से उपस्थित हों तो उनसे व्यर्ष में टकराहट न हो जाये और इस प्रयोचारण को सुनकर स्वयं बच जावें तथा राग-द्वेष अन्य समा व्यवधान हो जाये। पूजन सामग्री तथा उपकरणों को यथास्थान पर रखने केसचात् पूचक को प्रत्येक वेदी पर प्रभु बिम्ब के सम्मुख नतमस्तक हो कोबार मंत्र पढ़ना चाहिए। प्रतिमा-अभिषेक
अभिषेक (जल से नहलाना) करने से पहिले श्वेत स्वच्छ तीन छम्मों को क्रमशः एक छन्ना प्रभु चरणों में बिछा देना चाहिये। एक छमा से कलरा होने से पूर्व प्रमु प्रतिमा को शुक प्रक्षालन कर लेना मावश्यक है। फलस होकर प्रतिमा रूप-स्वरूप का प्रक्षालन करना परमावश्यक है अन्त में दूसरे छन्ने से प्रतिमा का परिपोछन करना होता है ताकि प्रतिमा पर किसी भी बंश में जल कण शेष न रहें। इस प्रकार के शुभ काम के करते समय अत्यन्त प्रसन मुद्रा में निम्न मंगल पाठ करना आवश्यक है, पथापंचमंगल पाठ
पणविवि पंच परमगुरु, गुरु जिन शासनो। सकल सिदि बातार तु विधन विनासनो॥ शार अरु गुरु भौतम सुमति प्रकाशनो।
मंगल कर पज-संधहि पाप मानो।' १. पंचमंगलपाठ, कविवर रूपचंद, सहीतग्रंथ-बानपीठ, पूजा प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण रोड, बनारस-५, प्रथम संस्करण, १६.., पृष्ठ ६४।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
गर्भ कल्याणक
जाके गर्म कल्याणक, धनपति महो। भवधिमान परमान, सुइना पासमो.॥ रवि नब बारह जोजन, नए सहावनी । कनक रयण मणि मणित, मंदिर अति बनी।'
मति-अत-अवधि विराजित जिम जब जनमियो । तिहं लोक भयो छोमित सुरगन भरमियो । कल्पवासि-घर घंट अनाहर रन्जियो ।
जोतिषधर हरिनाद, सहज गलगनियो । तप कल्याणक
भम जल रहित सरीर, सका सब मन-रहिन । छीर-चरन पर रुधिर प्रथम आकृति साहिन ।। प्रथमसार संहनन, सरूप विराजहीं।
सहज सुगन्ध सुलच्छन मंरित छानहीं।' शान कल्याणक
तेरहवें गुणस्थान, संयोगि जिनेसुरो। अनंत चतुष्टय-मंडिय भयो परमेसुरो॥ समवसरन तब धनपति बहुविधि निरमयो।
आगम मुगति प्रमान मगन सल परि भयो । निर्वाण कल्याणक
केवल दृष्टि बराबर देख्यो मारितो। भव्यनि प्रति उपदेस्यो, जिमबर तारिसो॥
१. पंचमंगल पाठ, रूपचन्द, ज्ञानपीट पूजांजलि, पृष्ठ १४-१५ । २. वही, पृष्ठ ९५-९८ । ३. वही, पृष्ठ १८.१००। ४. वही, पृष्ठ १००.१०२ ।
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११५ )
भवभय भीत भविकजन सरणे आइया । रत्नत्रय - लच्छन सिव पंथ लगाइया ॥'
थाल में स्थापना - संरचना -
छन्मे से पूजा के पात्रों को साफ करना चाहिए। सबसे पहिले स्थापनापात्र ( ढोना) पर स्वास्तिक चिह्न ( 5 ) चन्दन अथवा केशर से लगाना चाहिये । जल चन्दन चढ़ाने वाले कलश पात्र पर स्वास्तिक चिह्न लगाना चाहिये । महाघं को थालिका के अतिरिक्त दूसरी पालिका ( रकेबी) में स्वास्तिक चिह्न लगाना चाहिये तथा बड़े थाल में क्रमशः बीच में तीन स्वास्तिक चिह्न देव, शास्त्र और गुरु के प्रतीकार्य रचना चाहिये । बीच वाले स्वास्तिक बिहन के ऊपर तीन बिन्दुओं को संरचना सम्यक् वर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र्य के लिए करनी होती है । ate के स्वास्तिक चिह्न के चारों ओर दश बिन्दुओं की रचना करनी चाहिये जो दिक्पालों के प्रतीक रूप होते हैं। वर्शन, ज्ञान, चारित्र बिन्दुओं के ऊपर एक अर्द्ध चन्द्रिका की रचना करनी चाहिये जो मोक्ष-स्थली का प्रतीक है। शास्त्र जी नामक स्वास्तिक चिह्न के नीचे एक स्वास्तिक चिह्न बनाना चाहिये जो बीस तीर्थकरों की पीठिका का प्रतीक है। इस स्वास्तिक चिन और देव स्वस्तिका के मध्य एक अर्धचन्द्रिका की संरचना होनी चाहिये जो अकृत्रिम चैत्यालयों की प्रतीक है। देव स्वस्तिका और मोक्षस्थली के बीच में एक अर्द्धचन्द्रिका बनानी चाहिये जो सिद्धालय को प्रतीक है । इसी प्रकार गुरु और मोक्ष स्थलों के मध्य एक अर्द्धचन्द्रिका बनानी आवश्यक है जो चोबीस तीर्थंकरों को पीठिका का प्रतीक है और अन्त में गुरु और नीचे बने स्वस्तिक चिह्न के बीच में अर्द्धचन्द्रिका की रचना आवश्यक है जो पूजन करने वाली वेदी पर विराजमान प्रभु स्थलो का प्रतीक है । बड़े
१ पंचमंगलपाठ, कविवर रूपचंद, सगृहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशकभारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम संस्करण, १६५७ ई०, पृष्ठ १०२-१०४ ।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११७ )
बाल में इन स्थापनाओं को बड़ी सावधानी से रखना करनी चाहिये इसे सुविधानुसार हम निम्न फलक में निम्न प्रकार व्यक्त कर सकते हैं, यथा
सिद्ध स्थली
筑
२०
दर्शन ज्ञान चारित्र्य
५०
ব
१०
मोक्ष स्थली
४ 和
अकृत्रिम चैत्यालय
(२)
६०
蛋
26
(शास्त्र) १०.
चौबीस तीर्थकर
अ
( बीस तीर्थंकर पीठिका) (१)
(गुरु)
(५)
(पूजा वाली वेदी पर विराजमान प्रभु पीठिका)
पुजारी पर चन्दन- चर्चन -
पूजा करने वाले भक्तपुजारी को अपने शारीरिक अवयवों पर थालिका में स्वस्तिक चिह्नों की संरचना के पश्चात् चन्दन का चर्चन करना चाहिये । सबसे पहिले कलाई स्थल पर चन्दन धारो, भुजाकेन्द्र पर चन्दन-बिन्दु, कर्णaafeet पर चम्वन-बिन्दु, कण्ठ-प्रदेश पर वम्बन-बिन्दु, वक्ष स्थल पर arat - बिन्दु तथा नाभि-प्रदेश में चन्दन-बिन्दु का लेपन करना चाहिये । यदि पुजारी जनेऊधारी है तो उसे जनेऊ पर भी चन्दन का चर्चन करना अपेक्षित है । अन्त में पुजारी अपने ललाट पर चन्द्राकार तिलक चर्चित करता है। पूजन का समारम्भ
प्रथमतः पुजारी को लगासन में सावधानपूर्वक नौ बार णमोकार मंत्र का शुद्ध उच्चारण कर दर्शन, ज्ञान और चारित्र की तीन बिन्दु स्थलियों पर नौ-नौ पुरुषों को क्रमश: इस प्रकार चढ़ाना चाहिये कि वे एक दूसरे से सम्मिलित न होने पाये ।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
विनवपाठका प्रवाचनसस्वर विनयपाठ का पाचन करना होता है, यथा
बह विधि जागे होयके, प्रथम पड़े को पाठ। धन्य जिनेश्वर देव तुम नारी कर्म माठ॥ मनन्त चतुष्टय के धन्गे, तुमही हो सिरताज ।
मुक्तिधू के कंत तुम, तीन भुवन के राज॥' मध्यस्थ चिहित स्वास्तिक पर पुष्पों को बढ़ाना चाहिए तथा इसके पश्चात् निम्नाटक का शुट उच्चारण करना चाहिये
जय जय जय । नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु । णमोअरिहन्ताणं, णमोसिवाणं, नमो आइरियाणं,
जमो उवमायागं, जमो लोए सम्बसाहणं ॥ 'ॐ ह्रीं अनादि मूलमन्त्रेभ्यो नमः' ऐसा कहकर पुष्पों का क्षेपण करना
चत्तारिमंगल-अरिहन्ता मंगल, सिवा मंगलं, साहू मंगलं केवलपणतो धम्मोमंगलं । चत्तारिलोगुतमा-अरिहन्तालोगुत्तमा, सिजालोगुत्तमा, साहू लोगुतमा, केवलियननो धम्मोलोगुत्तमो।
तारिसरणं पबज्जामि, अरिहन्ते सरणं पवग्जामि, सिसरणं पवजासि साहू सरणं पवजामि ।
केवलि पन्णत धम्म सरणं पबन्जामि॥ ओं नमोहंत स्वाहा कहकर पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिए।'
अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुःस्थितोऽपि वा। ध्यायेत्पंच-नमस्कारं सर्व-पापः प्रमुच्यते ॥ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा। यः स्मरेत्परमात्मानं सबाहयाभ्यन्तरे शुचिः।।
-
१ राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ़,
प्रपम संस्करण १६७६, पृष्ठ ३०-३२ । बनपूजापाठ संग्रह, प्रकाशक-मागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड,
कलकत्ता-७, पृष्ठ ११ । ३. रावेज नित्यपूजापाठ संग्रह, प्रकाशक राजेन्द्र मेटिल पसं, हरिनगर,
बलीगढ़, प्रथम संस्करण १९७६, पृष्ठ ३३ ।
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११८ )
अपराजितमन्त्रोऽयं सर्व-विघ्न विनाशनः । ed प्रथमं मंगलं मतः ॥ देवो पंच-मोयारो सब्द-पाव-व्यवासको मंगला च सन्देस पडलं हवाइ मंगल |" अर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचर्क परमेष्ठिनः । सिद्धचक्रस्य सद्बीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् ॥ कर्माष्टक - विनिसुपतं मोक्ष-लक्ष्मी-निकेतनम् । सम्यक्त्वादिगुणोपेतं सिद्धचक्रं नमाम्यहम् || विनोषाः प्रलयं यान्ति शाकिनी - भूत- पन्नगाः ।
विषं निर्विषतां याति स्तूयमाने जिनेश्वरे ॥'
इसके पश्चात् चन्द्राकार बने स्थापना पर क्रमशः पहले केन्द्र पर निम्न अर्ध चढ़ाना चाहिये, यथा
पंचकल्याणक का अर्थ
-eng
उवक म्हनतेबुल पुष्पकेश् वरसुदीपसुधूपफलार्थकं
।
धवलमंगलशांनरवाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे ॥
ॐ ह्रीं भगवान के गर्भ जन्म-तप-ज्ञान-निर्वाणपंचकल्याण केम्यो अर्ध्य :
निर्वपामीति स्वाहा । "
पंचपरमेष्ठि का अर्थ
उवकन्धम्बन संदलपुष्यर्कश्च सुदीप धूपपालार्धकैः
I
धवल मंगलगान रवाकुले जिनगृहे जिन मिष्टमहं यजे ||
ॐ ह्रीं भी अरहन्त सिद्धाचार्योपाध्याय सर्व साधुस्यो अर्ध्य निर्वपामीति
स्वाहा।"
२. शॉनपीठ पूर्णाजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ. दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस-५, १६५७ ई०, पृष्ठ २७-२६ ।
जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, मं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलको
१२ ॥
जापाठ संग्रह, 'मावन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १२ ।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १२० )
AM
सहस्रनाम का अर्थ
उदक चन्दन तंबुल पुष्पकैश्च सुदीपसुधूप फलार्थकः । धवल मंगलगान रवाकुले, जिनगृहे जिननाथ महं यजे ॥ ॐ ह्रीं श्री भगवज्जिनसहस्रनामेभ्योऽष्यं निर्वपामीति स्वाहा ।"
स्वस्तिमंगल वाचन
श्री मज्जिनेन्द्रमभिद्यजगत्त्रयेशं,
स्याद्वावनायकमनन्त चतुष्टयाई ।
श्रीमूल संधसुदृशां सुकृतं कहेतु
जैनेन्द्र-यज्ञ - विधिरेष भयाभ्यधायि ॥ "
( यह मध्य में चिन्हित स्वास्तिक पर पुष्पांजलि क्षेपण किया जायगा ) जिनेन्द्र स्वस्ति मंगल
"
श्री वृषभो नः स्वस्ति, स्वस्ति श्री अजित:, भी सम्भव: स्वस्ति, स्वस्ति श्री अभिनन्दनः ॥ श्री सुमतिः स्वस्ति, स्वस्ति श्री पद्मप्रभः श्री सुपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्री चन्द्रप्रभः ॥ भी पुष्पवन्तः स्वस्ति, स्वस्ति श्री शीतलः, श्री श्रेयांसः स्वस्ति, स्वस्ति श्री वासुपूज्यः । श्री विमल: स्वस्ति, स्वस्ति श्री अनन्तः भी धर्मः स्वस्ति, स्वस्ति भी शान्तिः ॥ श्री कुंभुः स्वस्ति, स्वस्ति श्री अरनाथः, श्री मल्लिः स्वस्ति, स्वस्ति भी मुनिसुव्रतः । श्री नमिः स्वस्ति, स्वस्ति श्री नेमिनाथः, श्री पार्श्व: स्वस्नि, स्वस्ति श्री व मानः ॥
"
1
मध्य चिह्नित स्वस्तिक पर पुष्पांजलि का क्षेपण कीजिये ।
१. राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६ ६०, पृष्ठ ३४ ।
२. स्वस्तिमंगल, राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, प्रकाशक - राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६ ई०, प्रथम संस्करण, पृष्ठ ३५-३६ ।
३. जैन पूजापाठ संग्रह, प्रकाशक- भागवन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १४ ।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
दशदिक्पालों के अर्ध
( ११ )
frentप्रपाद्भुतकेबलौघाः स्फुरन्ममः पर्ययशुद्धबोधाः । विध्यावधिज्ञानबलप्रबोधाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयोनः ॥
( यहां से प्रत्येक श्लोक के अन्त में पुष्पांजलि मध्यस्थ चिहि नत स्वस्तिक के चारों मोर क्षेपण करना चाहिए।) क्रमश: १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ६, ६, १०. बिन्दुओं पर क्षपण करना चाहिये ।
कोष्ठस्थ धान्योपममेक बीजं संभिन्न संधी-पदानुसारी । agविधं बुद्धि बलं दधानाः स्वस्ति कियासुः परमर्षयोनः ॥ संस्पर्शनं संभवर्ण च दूरादास्वादन - प्राण-विलोकनानि । दिव्यान्मतिज्ञानबलाद्वहन्तः स्वस्ति किमासुः परमर्षयो नः ॥ ( मध्यस्थ चिह्नित स्वस्तिक पर पुष्पांजलि क्षेपण कीजिए ) देवशास्त्रगुरू की पूजन -
देव-शास्त्र-गुरुपूजा का विधिवत पूजन करना चाहिए ।" टिप्पणी- यदि पुजारी- भक्त के पास समयाभाव है तो पूर्ण पूजन करने की अपेक्षा उनके निम्न अर्धी को बढ़ाना चाहिये ये अर्ध श्लोक तथा मंत्र निम्न प्रकार हैं ।
(१) बीस तीर्थ कर के अर्ध
उदक चंदन तंडुल पुष्प कैश्चरसुदीपसुधूप फलार्थकः । धवल मंगल गान रवाकुले जिनगृहे जिनराज महं यजे ॥
ॐ ह्रीं श्री समंधर-युग्मंधर- बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋवमानन अनन्त वीर्यसूर्यप्रभ विशालकीर्ति-वज्रधर- चन्द्रानन-चंद्र बाहु-मुजंगम-ईश्वर-मेमिप्रभवीरवेण - महाभव-देवयशो जितनोति विशतिविद्यमान तीर्थ करेभ्योअधं निर्वपामीति स्वाहा।*
(नीचे वाले स्वस्तिक चिह्न पर ही अर्ध चढ़ाना चाहिये)
१. जैन पूजापाठ सग्रह, प्रकाशक - भागचन्द पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ १४ ।
२. जैन पूजापाठ संग्रह, भागबन्द पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १५ ।
३. द्यानतराय, श्री देवशास्त्र गुरूपूजा, संगृहीत ग्रंथ, जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ १६-२१ । ४ जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ३६ ।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१२) (२) अकृत्रिम त्यालयों के मर्ष
हत्याकृत्रिम चार-पाल्पनिसमान् नित्वं विलोमासान् । की पावन ध्यंतरान पतिवरान् स्वानरामासान् । समन्वागत-पुष्प-नाम-परका सहीपः --
पनीरमुबंजामि सततं दुष्कर्मनाशांतये ॥१॥ ॐहीं कुशिमारुशिमचत्यालय सम्बधि बिन विवेन्यो
मात
(परिका की जोर हितीयांक बनाकार मंडित चिन्ह पर बढ़ाये सा कि कलक कमांक २ पर लिखा हुआ है।)
नौ बार ममोकार मंत्र का पाठकर पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिए। सिवपूजा अर्ष
अध्यापोरवतं सबिन्दुसपर महास्वरचित
पूरित-विग्नताम्युनर तत्सन्धि-सत्यापितम् अन्तः पत्र-तटेडवनाहतयतं ह्रींकार-संवेष्ठित देवं व्ययाति यः स मुक्ति-सुभयो बीम-कण्ठीरुः। 'गमा उपयो मतगणः संग बरं चन्दन, पुष्पोध विमलं सपातच रम्यं पर बोषकम् । पूर्व गवतं स्वामि विविध घळ फलं लगे,
सिवानां पुगपरताय विमल सेनोतरं वांछितम्।' ॐही सिट बाधिपलपे सिर परमेष्ठिने मर्ष निर्वपानीस महा।
तीसरे कम के बने धम्हाकार पर भर्ष क्षेपण करना चाहिए। चौबीसी तीर्थकर पूजा
वृक्षम अमित संभव मभिनंदन,
सुमतिपदमसुपास जिमराम। १. जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी से रोट,
कलकत्ता-७, पृष्ठ ३६-३८ । २. भान पीठ पूजांजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय मानपीठ
दुर्गाकुण्ड, रोड, बनारस, प्रथम संस्करण १९५७ ई०, पृष्ठ ३. वही, पृष्ठ ७५।
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
ब पहप शीतल पानी भासमय पूषित तुरराव ॥ विमल मनंत धर्म बस उपल, शातिर मस्ति गाय। मुनि मुक्त गमि मि का र
'जल-फल नाठों शुचितार, साको काँ। तुमको अरपों ममतार, भक्तरि । चोचीतों भी शिन, यही
पर जबत हरत अवकंद, पाबत मोकामनाही ॥' ॐ ह्रीं श्री वृषमाविषीरान्तेभ्यो महासन निर्णयामीति स्वाहा। (चौथे क्रमांक पर बने चनाकार पर गर्व वाला है।) नेमिनाय नियूना
बाइसवें तीर्थकर श्री मेनिनाव निपूजा करने का है।'
यदि विराजमान प्रम-वेविका पर तीर्थकर आदिलायाराममान है तो पुजारी प्रत्येक तीर्थकर की पूजा करने का म ह । पति वहाँ पर महावीर स्वामी की स्थापना है तो फिर
की पूजा बाद में नहीं करनी चाहिए। इन तीकरों की स्थापना MPाना) में ही की जाती है किन्तु विराजमान तीकर की स्थापना मना नहीं की जाती। उनकी स्थापना चन्द्राकार मांक ५ पर ही सम्मान की जाती है।
भी पारवनाथ पूजा-इसके उपरान्त 'श्री'पामा विनाकारली चाहिए।
१. जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं. ६२, नलिनी के रोग,
कलकत्ता-७, पृष्ठ ८०। २. जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं. ६२, नलिनी रेठ रोड,
कलकत्ता-७, पृष्ठ ८१ ३. मनरंगलाल, श्री नेमिनाथ पूषा, भींगीत संस्थाका
सम्पादक-पं० शिखरचन्द्र जैन, जवाहरगंक, बसपुर..., वस्त
१९५० ई., पृष्ठ १५३-१५६ ।। ४. मनरंगलाल, श्री पार्श्वनाथ जिन पूजा, वही, पृष्ठ Awrter
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १२४ )
श्री महावीरस्वामी पूजा - अन्त में तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी की
पूजा की जानी चाहिए ।'
शांतिपाठ -
मैं देव श्री अर्हन्त पूजूं सिद्ध पूजूं चाव सों, आचार्य श्री उवज्ञाय पूजूं साधु पूजूं भाव सों। अर्हन्त-भाषित वेन पूजूं द्वादशांग रचे गनी, पूजूं दिगम्बर गुरुचरन शिव हेत सब आशाहनी ॥।'
के पश्चात महार्थ मोक्ष स्थली स्थान से आरम्भ कर पूरी परिक्रमा तक समाप्त कर देना चाहिए । अघं बार-बार नहीं लेना चाहिए ।
"
शांतिनाथ मुख शशि उनहारी । शील- गुणव्रत-संयमधारी । लखन एक सौ आठ विराजे । निरखत नयन कमल दल लाजे ॥ पंचमewafaa धारी। सोलम तीर्थकर सुखकारी । इन्द्र नरेद्र पूज्य जिन नायक । नमो शांतिहित शांति विधायक ॥। for face पहुचन को बरवा। दुदुभि आसनवाणी सरसा । छत्र चमर पामंडल भारी । ये तुव प्रातिहार्य मनहारी ॥
शांति जिनेश शांति सुखदाई । जगत्पूज्यपूजों शिर नाई ।
परम शांति ही हम सबको पढ़ें तिम्हें पुनि चार संघ को ॥
पूजें जिन्हें मुकुट हार किरीट लाके ।
इंद्रादि देव अरु पूज्य पदाज जाके ॥
सो शांतिनाथ वरवंश जगत्प्रदीप ।
मेरे लिए कहिं शांति सदा अनूप ॥
संपूजकों को प्रतिपालकों को यतीन को और यतिनायकों को ।
राजा प्रजा राष्ट्र सुदेश को ले कीजं सुखी है जिन शांति को दे ॥
हो सारी प्रजा को सुख बलयुत हो धर्मधारी नरेशा ।
होवे वर्षा समं पे तिलभर न रहे व्याधियों का अंदेशा || हो चोरी न जारी सुसमय बरते हो न दुष्काल भारी ।
१. मनरंगलाल, श्री महावीरस्वामीपूजा, संगृहीतग्रंथ-सत्यार्थयज्ञ, प्रकाशक व सम्पादक -- पं० शिखर चन्द्र जैन, जवाहरगंज, जबलपुर, म० प्र० अगस्त १६५० ई०, पृष्: १६६-१७४ ।
२. ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १६५७ ई० पृष्ठ १२६ ।
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १२५ )
सारे ही देश घारें जिनवर वृषको जो सदा सौख्यकारी ॥'
यहाँ तक पाठ करने पर पुष्पों को समाप्त कर लेना चाहिए
- यथा
धातिकर्म जिन नाश करि पायो केवलराज । शांति करो सब जगत में वृवभाविक जिनराज || "
तब जल और चन्दन को उठाकर पात्र में दोनों की धार मिलाकर तीन बार में समाप्त कर देना चाहिए और अन्त में
1
शास्त्रों का हो पठन सुखदा लाभ सत्संगतीका । सबूतों का सुजस कहके दोष ढाकू सभी का || बोलू प्यारे वचन हित के आपका रूप ध्याऊं । तो लों सेऊं चरण जिनके मोक्ष जो लों न पाऊं ॥ तब पक्ष मेरे हिय में ममहिय तेरे पुनीत चरणों में । सब लों लीन रहो प्रभु जब लों पाया न मुक्तिपद मैंने ॥
अक्षर पद मात्रा से दूषित जो कुछ कहा गया मुझसे । क्षमा करो प्रभु सो सब करुणा करि पुनि छुड़ाह भव दुखसे ।।
हे जगबन्धु जिनेश्वर । पार्क तब चरण शरण बलिहारी । मरण समाधि सुदुर्लभ कर्मों का क्षय सुबोध सुखकारी ॥
पढ़कर पुष्प चढ़ाना चाहिए, तत्पश्चात नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ना
चाहिए ।
विसर्जन पाठ
बिन जाने वा जानके, रही टूट जो कोय । तुव प्रसाद तें परमगुरु, सो सब पूरण होय ॥ पूजनविधि जानों नहीं, नहि जानों आह्वान | और बिसर्जन हू नहीं, क्षमा करहु भगवान |
4-2
१. ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ १२७-१२८ ।
२. वही, पृष्ठ १२५ ।
३. वही, पृष्ठ १२८ ।
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
कहीन धनहीन हूँ, किमाहीन मिनदेव । जमा कर मुझेबबरम को सेव॥ माने बोबो हेवाण, पूजे भक्ति प्रमाक।
है या मार कर, अपने-अपने पाच॥' am-m साबित पुष्ों को तीन बार में कुल नौ पुष्प स्थापना पात्र में पाना चाहिए।
भी मिनबर की माशिका, सीज शोश बढ़ाय।
भव-मब के पातक कटे, दुःख दूर हो जाय ॥ तीन बार मावि बेनी चाहिए और उन सभी पुष्पों को धूप दान में भस्म कर नाहिसमा स्मापनापात्र में बने स्वास्तिक चिहन को जल से ने TREसाकर देना चाहिए।
परिमा-दी की परिक्रमा कम से कम तीन बार अवश्य देना चाहिए
प्रा पतितपावन में पावन, परन माबो सरन जी। पो विजय माप, निहार स्वामी, मे जामन भरन को॥ तुम ना पिछाया मान मान्या, देव विविध प्रकार जी।
या पुदि सेती निज न जाग्यो, भ्रम गिण्यो हितकार जी॥' परिकमा समाप्त होने के साथ ही तीर्थकर को एक बार नमस्कार करके मंदिर से बाहर होना चाहिए।
१. बन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड,
कलकत्ता ७, पृष्ठ ६१। २. जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड,
कलकत्ता-७, पृष्ठ ६१ ३. पाविनवाणी संग्रह, पं. पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़,
१९५६६०, पृष्ठ ४१-४२॥
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
'
}
विज्ञानविवयक चर्चा करने के उपरान्त यहीं उनके स्वरूप तथा अभिप्राय सम्बन्धी सक्षेप में विवेचन करना वहाँ
+
पूजनं इति पूजा । पूजा शब्द 'पूज्' धातु से बना है जिसका अर्थ है- अर्थ करना । जैन शास्त्रों में सेवा-सत्कार को वैयावृत्य कहा है तथा पूजा को यावृत्य माना है । देवाधिदेव चरणों की बम्बना ही पूजा है।"
मैनधर्मानुसार पूजा-विधान दो रूपों में विभाजित किया जा सकता है',
मपा-
१. भावपूजा २. ब्रव्यपूजा
मूल में भावपूजा का ही प्रचलन रहा है । कालान्तर में द्रव्यरूपा का प्रचलन हुआ है । व्यरूपा में आरभ्य के स्थापन की परिकल्पना की जाती है और उसकी उपासना भी प्रम्यरूप में हुआ करती है। मैनदर्शन कान है। समग्र कर्म-कुल को यहाँ आठ भागों में विभाजित किया गया है। इन्हीं आधार पर अष्टद्रव्यों की कल्पना स्थिर हुई है।
जैनधर्म में पूजा की सामग्री को अर्ध्या कहा गया है। वस्तुतः पूजा-प के सम्मिश्रण को अर्ध्य कहते हैं। जेनेतर लोक में इसे प्रभु के लिए भोग लखना कहते हैं । भोग्य सामग्री का प्रसाद रूप में सेवन किया जाता है पर भिवानी में इसका मिन अभिप्राय है। जैनपूजा में अयं निर्माल्य होता है । वह तो जन्म जरावि कमों का क्षय करके मोक्ष प्राप्ति के लिए शुभ संक
१. राजेन्द्र अभिधान कोच, भाग ४, पृष्ठ १०७३ ।
२. देवानिदेश बरने परिचरणं सर्व दुःख निर्हरणम् । हि कामदहिनि परिचितुमादाहृतो नित्यम् ॥
समीचीन धर्मशास्त्र, सम्पा० आचार्य समन्तभद्र, वीरसेवा मंदिर, संवत् २०१२, श्लोक संख्या ५/२६, पृष्ठ १५५ ।
३ हिन्दी का जैनपूजा काव्य, डा० महेन्द्रसागर प्रचडिया, संग्रहीत ग्रंथचावाची, तृतीय विल्य, प्रकाशक- एशिया पम्बिलिंग हाउस व १२०, पृष्ठ ५६
म्बूबार्क,
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १२५ )
का प्रतीक होता है ।' अतएव अध्ये सर्वथा अखाद्य होता है । जन-हिन्दी-पूजाकाव्य में इस कल्पना का मौलिक रूप सुरक्षित है ।
जैनमक्ति में पूजा का विधान अष्ट-द्रव्यों से किया गया है। पूजा-काव्य में प्रयुक्त अष्ट-द्रव्य अग्रांकित हैं, यथा---
१. जल
२. चन्दन
३. अक्षत
४. पुष्प
५. नंबेच
६. वीप
७. धूप
८. फल
इन द्रव्यों का क्षेपण अलग-अलग अष्ट फलों की प्राप्ति के लिए शुभ संकल्प रूप है। यहाँ पर इन्हीं अष्ट द्रव्यों का विवेचन करना हमारा मूलाभिप्रेत है ।
जल - 'जायते' इति 'ज', जीयते' इति 'ज' तथा 'लीयते' इति 'ल' | ज का अर्थ 'जन्म', ल का अर्थ 'लीन' । इस प्रकार 'ज' तथा 'ल' के योग से जल शब्द निष्पन्न हुआ जिसका अर्थ है- जन्ममरण ।
लौकिक जगत में 'जल' का अर्थ पानी है तथा ऐहिक तृषा की तृप्ति हेतु व्यवहुत है। जैन दर्शन में 'जल' का अर्थ महत्वपूर्ण है तथा उसका प्रयोग
१. वार्धारा रजसः शमाय पदयोः सम्यक्प्रयुक्तार्हतः सद्गंधस्तनुसोरभाय विभवाच्छेदाय संत्यक्षता: । यष्टुः स्रग्दिविजस्रजेचरु रुमाम्याम्यायदीप स्विषे धूपो विश्व गत्सवाय फलमिष्टार्थाय वार्घाय सः ।
अर्थात अरहंत भगवान के चरणकमलों में विधिपूर्वक चढ़ाई गई जल की धारा पूजक के पापों के नाश करने के लिए उत्तम चन्दन शरीर में सुगंधित के लिए अक्षत, विभूति की स्थिरता के लिए पुष्पमाला, नैवेद्य लक्ष्मी पतित्व के लिए, दीपकान्ति के लिए तथा अर्घ्य अनर्घ्य पद की प्राप्ति के लिए होता है ।
-- सागारधर्मामृत, आशाक्षर, प्रकाशक- मूलचंद किसनदास कापड़िया, सूरत, प्रथम संस्करण बीर सं० २४४१, श्लोक संख्या ३०, पृष्ठ १०१ ।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
(fre)
-
एक विशेष अभिप्राय के लिए किया जाता है। पूजा प्रसंग में जन्म, मृत्यु के विनाशार्थं प्रासुक जल का अध्र्य आवश्यक है। जैन-हिन्दी-पूजासंत ज्ञानी तथा जनंत शक्तिशाली, जम्म जरा मृत्यु से परे, स्वयं मुक्त तथा मुक्तिमार्ग के निर्देशक महान परमात्मा को अपने आत्मा पर लगे कर्ममल को साक करने के लिए पूजा में जल का उपयोग किया जाता है ।"
जैन- हिन्दी-पूजा-काव्य में इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ व्यंजना में हुआ है। अठारहवीं शती के पूजा कवि धानतराय ने 'श्री देवशास्त्रपुरु पूजा' नामक रचना में 'जल' शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में सफलतापूर्वक किया है।"
उन्नीसवीं शती के कविवर वृन्दावन द्वारा रचित 'श्री वासुपूज्य जितपूजा' नामक कृति में जल शब्द का प्रयोग द्रष्टव्य है ।"
बीसवीं शती के पूजाकार राजमल पर्वया विरचित 'श्री पंचपरमेष्ठी
१. ॐ ह्रीं परम परमात्मने अनन्तानन्त ज्ञान शक्तये जन्म जरा मृत्यु निवारणाय श्री मज्जिनेन्द्राय जलं यजामहे स्वाहा ।
- जिनपूजा का महत्व, श्री मोहनलाल पारसान, सार्द्धं शताब्दि स्मृति ग्रंथ, सार्द्ध शताब्दी महोत्सव समिति, १३६, काटन स्ट्रीट, कलकत्ता-७, सन् १६६५, पृष्ठ ५४ ।
२. मलिन वस्तु हर लेत सब, जल स्वभावमल छीन । जासों पूजों परमपद, देवशास्त्रगुरु
तीन ||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो जन्म जरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
-श्री देवशास्त्रगुरु पूजा, यानतराम, संगृहीतग्र थ राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, सन् १९७६, पृष्ठ ४० ।
C
३. गंगाजल भरि कनक कुम्भ में प्रासुक गंध मिलाई ।
करम कलंक विनाशन कारन, धार देत हरवाई ॥
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य जिनेन्द्राय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।
- श्री वासुपूज्य जिनपूजा, वृंदावन, संगृहीतग्रंथ-ज्ञानपीठ - पूजांजलि ruber प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्डरोड, वाराणसी, प्रथम संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ३४६ ।
? 5
S
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रवन नामक काय कृति में 'मल शब्द इसी वर्ष की स्थापना
चन्दन-दिवाल्हाधने' धातु से चन्वयति अह लादयति इति सम्बनम । सफिक जगत में चन्दन एक वृक्ष है जिसकी लकड़ी के लेपन का प्रयोग ऐहिक शीतलता के लिए किया जाता है । जैनदर्शन में 'चन्दन' शम्ब प्रतीकार्ष है। वह सांसारिक ताप को शीतल करने के अर्थ में प्रयुक्त है।' बैन-हिन्दी पूजा में सम्पूर्ण मोह रूपी अंधकार को दूर करने के लिए परम शान्त वीतराग स्वभावयुक्त जिनेन्द्र भगवान को केशर-चन्दन से पूजा की जाती है। परिणामस्वरूप हार्दिक कठोरता, कोमलता और विनय प्रियता में परिवर्तित होकर प्रकट हो। ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर भक्त के लिए सम्मपर्शन का सन्मार्ग प्रशस्त हो सकेगा।'
जैन-हिन्दी-पूजा-काम्य में चन्दन शब्द का प्रयोग उक्त अर्थ में हमा है।
१. मैं तो अनादि से रोगी है, उपचार कराने आया है।
तुम सम उज्ज्वलता पाने को उज्ज्वल जल भर लाया हूँ।
-श्री पंचपरमेष्ठी पूजन, राजमल पवैया, संगृहीतग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम संस्करण १६६६, पृष्ठ १२७ ।
२. सागार धर्मामृत, आशाधर, प्रकाशक-मूलचन्द किशनदास कापड़िया,
सूरत, प्रथम संस्करण, वीर सं० २४४१, श्लोक स० ३०-३१, पृष्ठ
१०१-१०५। ३. सकल मोह तमिन विनाशनं,
परम पीतम भावयुतं जिन विनय कुम्कुम चन्दन दर्शनेः सहज तत्व विकाश कृतेऽचंये।
-जिनपूजा का महत्व, श्री मोहनलाल पारसान, शताब्दी स्मृति प्रथ, साई शताब्दी महोत्सव समिति, १३६, काटन स्ट्रीट, पालकता-७ अन् १९६५, पृष्ठ ५४ ।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १३१ )
१ सती के कवि बानतराय रचित 'श्री नन्दीश्वरसीप पूना' नामक स्वना चलन सम का व्यवहार परिलक्षित है।'
उन्नीसवीं शती के पूजा कवि रामचन्द्र प्रणीत 'श्री अनन्तनाथ जिन पूजा' मामक पूजा कृति में 'चन्दन' शब्द उल्लिखित है। बीसौं शती के पूजा काम के रचयिता सेवक ने 'चन्दन' सम्ब का प्रयोग 'श्री माविनाशिन पूजा' मानक पूचा रचना में इसी अभिप्राय से सफलतापूर्वक किया है।'
अक्षत-नक्षतं असतं । अक्षत् शब्द अक्षय पद अर्थात मोक्ष पदका प्रतीक है। अगत् का शाब्दिक अर्थ है वह तत्व जिसकी क्षति न हो। महात् का क्षेपण कर भक्त अक्षय पद की प्राप्ति कर सकता है।
जिस प्रकार अक्षत या चावल में उत्पाव-व्यय रूप समाप्त हो जाता
१. भव तप हर सीतलवास, सो चंदन नाही।
प्रभु यह गुन की सांच आयो तुम ठाही ।। नंदीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पुंज करो। वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरो॥ ___ॐ ह्रीं श्री नंदीश्वरद्वीपे पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण दिशसम्बधि एक अंजन गिरिचारदधि मुख आठ रतिकरेभ्यो चंदन निर्वपामीतिस्वाहा । - श्री नंदीश्वरद्वीपपूजा, द्यानतराय, संगृहीतग्रंथ-राजेश ,नित्यपूजा
पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृ० १७१ . २. कुंकुमादि चन्दनादिगंधशीत कारया । संभवेन अन्तकेन भूरिताप हारया ॥
ॐ ह्रीं श्री अनंतनाथ जिनेन्द्राय मोहताप विनाशनाय चंदन निर्वपामीति स्वाहा। -श्री अनंतनाथ जिनपूजा, रामचन्द्र , संग्रहीत ग्रंप-रावेश नित्यपूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बस, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ- १०४ । ३, मलयागिरि चंदनदाह निकन्दन, कंचन झारी में भर ल्याय ।' श्री जी के घरण बढ़ावी भविमन भवताप तुरत मिटिजाय ।
ॐ ह्रीं श्री मादिनाप जिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चंदन निर्वपा. मीति स्वाहा। --श्री वादिनाथ जिनपूजा, सेवक, संगृहीत मंच, अन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोग, कलकत्ता ७, पृ ५।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
1 १२ )
हैसी प्रकार बीवात्मा भी रत्नत्रय' का पालन करताना अक्षत व्य का शेपण कर मावागमन से मुक्तिपा अक्षय पद की प्राप्ति का शुभ संकल्प
प्राकृत प्रब "तिलोयपन्नति में ममत सम्म का प्रयोग नहीं करके लप का प्रयोग किया है तथा उसी भाषा का अम्मच 'बसविभावकाचार' में ममत शम्ब का व्यवहार इसी वर्ष व्यंजना में पंचित है।'
न हिन्दी पूना में मात्मा को पूर्ण आनन्द का बिहार केन्द्र बनाने के लिए परम मंगल नावयुक्त जिनेन्द्र के सामने अक्षत से स्वस्तिक बनाकर भव्यखन चार पतियों (मनुष्य, देव, तिपंच, नरकगति) का बोध कराते हैं। स्वस्तिक के पर तीन बिन्दुओं से सम्यग् शंन बान चारित्र का, ऊपर चन्द्र से सिख गिता का तथा बिन्दु से सिडों का बोध कराते हैं। इस प्रकार सम्यग् पर्सन, मान, चारित्र ही भव्य जीव को मोक्ष प्राप्त कराते हैं। जैन वाममय मेमबत से पूजा करने वाले भक्त का मोक्ष प्राप्त हो जाने का कथन प्राप्त
१. रलत्रय-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः।
तत्वाचे सूत्र, प्रथम अध्याय, प्रथम श्लोक, उमास्वामि । 2. तिलोयपणति २२४, जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, जिनेन्द्र वर्णी,
भारतीय ज्ञानपीठ, २०२६, पृ० ७८ । ३. सुनंदि श्रावकाचार ३२१, जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, जिनेन्द्र
वी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२६, पृष्ठ ७८ ।
४. सकल मंगल केलि निकेतनं,
परम मंगल भाव मयं जिनं । भवति भम्पजनाइति दर्शयन पधतुनाप पुरोऽमत स्वस्तिकं ॥ -बिनपूषा का महत्व, श्री मोहनलाल पारसान, सावं शताब्दी स्मृतिबंध प्रकाशक-साई शताब्दी महोत्सव समिति, १३६, काटन स्ट्रीट, कलकत्ता-७
सन् १९६५, पृष्ठ ५५ । ५. बसुनदि भावकाचार, २२१, जनेन्द्र सिवान्त कोश, भाग ३, जिनेन्द्र वर्णी,
भारतीय ज्ञानपीठ, २०२६, पृष्ठ ।
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ११३ )
अपभ्रंश से होता हुआ 'अक्षत' शब्द अपना यही अर्थ समेटे हुए हिन्दी में मी गृहीत है। जैम- हिन्दी-पूजा- काव्य में १८ वीं शती के कवि बाग प्रणीत 'श्री जयचमेव पूजा' नामक कृति में अक्षत शब्द उल्लेखनीय है ।" उन्नीसवीं शती के पूजाकार मनरंगलाल बिरचित 'श्री नेमिनाथ बिनपूर्णा' नामक रचना में अक्षत शब्द का प्रयोग हृष्टव्य है।" बीसवीं शती के पूजाकाव्य के प्रणेता कुंजीलाल विरचित 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा' नामक कृति में अक्षत राज्य का व्यवहार इसी अभिप्राय से हुआ है ।"
पुष्प - पुष्यति विकसित इह पुष्पः । पुष्प कामदेव का प्रतीक है । लोक में इसका प्रचुर प्रयोग देखा जाता है। जैन काव्य में पुरुष प्रतीकार्य है । पुष्प समग्र ऐहिक वासनाओं के विसर्जन का प्रतीक है। म
१. अमल अखंड सुगन्ध समुदाय, अच्छत सों पूजों जिनराय । महासुख होय, देखे नाम परम सुख होय ॥
ॐ ह्रीं आदि सुदर्शन मेरु, विजयमेरु, अचलमेर, मंदिरमेरु विद्यमाली मेरुभ्यो अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री अथ पंचमेरू पूजा, धानतराय, संग्रहीत ग्रन्थसंग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़,
-
- राजेश नित्य पूजापाठ
१६७६, पृष्ठ १६८ ।
२. नहि खंड एको सब अखंडित ल्याय अक्षत पावने । दिशि विदिशि जिनकी महक करि महके लगे मन भावने ।
ॐ ह्रीं श्री नेमिनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री नेमिनाथ जिन पूजा, मनरंगलाल, संग्रहीत ग्रन्थ- ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, सन् १९५७, पृष्ठ ३६६ ।
३. अक्षत अखंडित सुगंधित बनायके, पुंज लायके । अक्षत पद पूजत है मन में हुलसायके हुलसायके ||
ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, कुं जिलाल, संगृहीत ग्रन्थ - नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह प्रकाशिका व सम्पादिका ह० पतासी बाई, नवा (बिहार), भाद्रपद वीर, सं० २४८७, पृष्ठ ३६ ।
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १३४ ),
से पूजा करने वाला कामदेव सदृश देहवाला होता है तथा इसके क्षेपण में सुन्दर देह तथा पुष्पमाला की प्राप्ति का उल्लेख मिलता है ।"
संस्कृत, प्राकृत वाङमय में पुष्प शब्द के प्रतीकार्य की परम्परा हिन् जैन काव्य में भी सुरक्षित है। यहां पुष्प कामनाओं के विसर्जन के लिए पूजाकाव्य में गृहीत है।
जैन - हिन्दी-पूजा में निरुपित है कि खिले हुए सुन्दर सुगन्ध युक्त पुष्पों से केवल ज्ञानी जिनेन्द्र भगवान की पूजा कर मन मन्दिर को प्रसन्नता से खिला दो । मत पवित्र-निर्मल बन जाने से ज्ञान चक्षु खुल जायेंगे व विशुद्ध चेतन स्वभाव प्रकट होगा जिससे अनुभव रूपी पुष्पों से आत्मा सुबासित हो जायेगा ।",
जैन - हिन्दी-पूजा-काव्य में १८वीं शती के पूजाकवि द्यानतराय प्रणीत 'श्री चारित्रपूजा' नामक रचना में पुष्प शब्द इसी अयंध्यंजना में व्यवहृत है।' उन्नीसवी शतों के पूजा- कवि बख्तावररत्न प्रणीत 'श्री पार्श्वनाथ
४. वसुनंदि श्रावकाचार, ४६५, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२६, पृष्ठ ७८ ।
२. विकच विर्मल शुद्ध मनोरमः
विशद चेतन भाव समुद्भवैः । सुपरिणाम प्रसून धनैर्नवः परम तत्वमयं हियजाम्यहं ॥
- जिनपूजा का महत्व, श्री मोहनलाल पारसान, सार्द्धं शताब्दी स्मृति ग्रंथ, प्रकाशक -- सार्द्धं शताब्दी महोत्सव समिति, १३६, काटन स्ट्रीट, कलकत्ता-७, सन् १९६५, पृष्ठ ५५ ।
३ पुहुप सुवास उदार, खेद हरं मन सुचि करें । सम्यक चारितसार, तेरहविध पूजों सदा ।
ॐ ही त्रयोदशविधसम्यकचारित्राय काम बाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री रत्नत्रयपूजा द्यानतराय, संगृहीत ग्रंथ - जैनपूजापाठ संग्रह, भाग चन्द पाटनी, ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ ७४ 1
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १३५ A
जिम्मुला' नामक पूजा कृति में पुष्प भब्य उक्त अर्थ में प्रयुक्त है " शती के पूजा रचयिता हीराचन्य रचित 'श्री चतुविंशति तीर्थका पूजा में पुष्प शब्द का प्रयोग द्रष्टव्य है । "
नैवेद्य - निश्चयेन बेद्य गृठ्ठीयम क्षुधा निवारणाय । मैल पदार्थ है जो देवता पर चढ़ाया जाता है। किन्तु जैन बाहलय में विशेष रूप से प्रतीकार्य रूप में प्रचलित है। वहीं आर्ष ग्रन्थों में कान्ति लेख, सम्पलता के लिए यह शब्द व्यवहृत है। जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में क्षुधारोग को शान्त करने के लिए चढ़ाया गया मिष्ठान्न वस्तुतः ने कहलाता है।"
जैन- हिन्दी- पूजा में उल्लिखित है कि समस्त पुद्गल भोग एवं संगोष से मुक्त होने के लिए अपने सहज आमत्स्वभाव का स्वाद लेते रहने के लिए है
१. केवड़ा गुलाब और केतकी चुनायकें ।
areef के समीप काम को नसाइकें ॥
ॐ ह्री श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय गर्भजन्मतपोज्ञान निर्वाणपंचकल्याणक प्राप्ताय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
- श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, संग्रहीत ग्रंथ - ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १६५७ ई० पू० ३७२ ।
२. चँप चमेली है जूही ताजा, लायो प्रभु तुम पूजन काजा । भेंट धरूं मैं तुम जिनराई । कामबाण विध्वंस कराई ॥
ॐ ह्रीं ऋषभादि महावीर पर्यन्त चतुविशति तीर्थंकरेभ्यो पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री चतुविशति तीर्थंकर समुच्चयपूजा, हीराचन्द संग्रहीत नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, प्रकाशक- ब्र० पतासीबाई जैन, गया (बिहार), पृष्ठ ७२ ।
३. सागार धर्मामृत, आशाधर, प्रकाशक- मूलचंद किशनदास कापड़िया, सूरत, प्रथम संस्करण, बीर सं० २४४१, श्लोकांक ३०-३१, पृ० १०१-१०५ । ४. वसुनंदि श्रावकाचार, ४८६, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२६, पृष्ठ ७६
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १ )
rain ! हम सरस भोजन आपके सामने बढ़ाते हैं फलस्वरूप हमें समस्त विषय वासनाओं भोग की इच्छा से निवृति प्राप्त हो ।'
वेध शब्द अपने इसी अभिप्राय को लेकर जैन- हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती के पूजाकवि ध्यानतराय प्रणीत 'श्री जीसतीशंकर पूजा' नामक पंचना में व्यवहुत है।" उन्नीसवीं शती के पूजाकवि बख्तावरत्न विरचित 'श्री कुयुनाथ जिनपूजा' नामक कृति में मैबेद्य शब्द परिलक्षित है।' atestent के पूजाकवि बोलतराम विरचित 'भी पावापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा' मानक रचना में नवे शब्द इसी अभिप्राय से व्यवहृत है।
दीप - बीप्यते प्रकाश्यते मोहान्धकारं विनश्यति इति बोपः । बोध का अर्थ: लोक में 'दिया' प्रकाश का उपकरण विशेष के लिए व्यवहुत है ।
१. सकल पुद्गल संग विवज्र्ज्जनं, सहज वेतनभाव विलासकं । सरस भोजन नव्य निवेदनात् परम निवृत्ति भाव महं स्पृहे ॥
- जिन पूजा का महत्व, मोहनलाल पारसान, सार्द्धं शताब्दी स्मृति ग्रंथ प्रकाशक- सार्द्धं शताब्दी महोत्सव समिति, १३६, काटन स्ट्रीट, कलकत्ता-७ ६. सन् १६६५, पृष्ठ ५५ ।
२. काम नाग विषधाम नाश को गरुड कह हो ।
छुवा महादव ज्वाल तासु को मेघ लहे हो ||
ॐ ह्रीं विद्यमान विशतितीर्थंकरेभ्यः क्ष ुधारोग विनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ।
- श्री बीसतीर्थ करपूजा, बान्तराय, संगृहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १९५७ ई०, पृष्ठ ११३ । ३. पकवान सुकीने तुरत नवीने सितरस भीने मिष्ट महा ।
तुम पद तल धारे नेवज सारे क्ष ुधा निवारे शर्म लहा ॥
श्री कुंथुनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, संगृहीत - ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १९५७ ई०, पृष्ठ ५४३ ।
४. नैवेद्य पावन छुधा मिटावन, सेव्य भावन युक्त किया ।
रस मिष्ट पूरित इष्ट सूरित लेयकर प्रभु हित हिया ॥
ॐ ह्रीं श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र भ्यो वीरनाथ जिनेन्द्राय अधारोय विनाशनाय नैवेद्य निर्वपामीति स्वाहा ।
"
- श्री पावापुर सिद्धक्ष ेत्र पूजा, दौलतराम, संग्रहीत ग्रंथ जैन पूजापाठ 'संग्रह, प्रकाशक- भागचन्दपाटनी, नं० ६२, मलिनी सेठ रोड, कलकत्ता ७, पृष्ठ १४७ ।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
*न-हिन्दी पूमा काम में इस सब का प्रयोग प्रतीकार्य में हुआ है। मोहा
कार को मात करने लिए दीप रूपी जान का अर्थ भावायक है। भाषि बीच मिल यात्मबोध के विकास के लिए जिनमनिर में घुस बीपक मलाये, पलवल उनके मन मभिर में सद्गुण (महिला, संयम, इच्छारोध, तर),सीबी का प्रकाश फैल जाय।' पूजा में भावावक सामग्री में मोले (नारिवल) केत-पाकल 'बीप' का प्रतीकार्ष लेकर दीप शब्द प्रयोग में माता है।
अठारहवीं सती पूजाकार पानतराय में भी निर्वाणक्षेत्रपूजा' नामक पूजाति में 'बीप' शब्द का उक्त अर्थ के लिए व्यवहार किया है।' उन्नीसवीं शती के पूमा रचयिता मल्लगी रचित 'बी समावाणी पूजा' मामक रचना में 'बीप' शम्ब इसी अभिप्राय से ग्रहीत है। बीसवीं शती
१. भविक निर्मल बोध विकाशकं, जिनगृहे शुभ दीपक दीपनं ।
सुगुण राग विशुद्ध समम्वितं, दधतुभाव विकाशकृते जन्यः ।। -जिनपूजा का महत्व, श्री मोहनलाल पारसान, सावं सताब्दी स्मृति पंच, प्रकाशक-श्री जैन श्वेताम्बर पंचायती मंदिर, १३६, काटन स्ट्रीट,.
कलकत्ता-७, संस्करण १९६५, पृष्ठ ५५ । २. सागार धर्मामृत, ३०-३१, आशाधर, प्रकाशक-मूलचन्द किशनदास
कापटिया, सूरत, प्रथम संस्करण, वीर सं० २४४१. श्लोकांक ३०-३१,
पृष्ठ १०१.१०५। ३. दीपक प्रकाश उजास उज्ज्वल, तिमिर सेती नहि डरों।
संशय विमोह विभरम तमहर, जोरकर विनती करों। ॐ ह्रीं श्री चतुर्विशति तीर्य कर निर्वाण संभ्यो धूपं निपामीति
स्वाहा।
-श्री निर्वाणक्षेत्र पूजा, दयानतराय; संग्रहीत प्रप-शानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १९५७ १०,
पृष्ठ ३६६। ४. हाटकमय दीपक रची, वाति कपूर सुधार ।
शोधित वृत कर पूजिये मोह-तिमिर निरवार । ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय अष्टविषसम्यग्ज्ञानायत्रयोवा विध सम्पद पारिवाय रलयाय मोहान्धकार विनायनाय दीपं निवपामोति स्वाहा। -श्री क्षमावाणी पूजा, मल्लजी, संग्रहीत प्रष-मानपीठ पूजापलि, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुमा रोड, बनारस, १९५७१०, पृष्ठ ४.४।
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________ पूजाकार भबिलाल कृत 'भी सिरपूषा भावा' नामक रचना में '' शख व्यजित है।' धूप-धूप्यते अष्ट मर्माणां विनाशोभवति अनेन अतोधूमः / धूप नाम प्रमों से मिषित एक अन्य विशेष है जो मात्र सुगंधि के लिए अपवा देवपूजन के लिए जलाया जाता है। जनदर्शन में यह सुगन्धित ब्रम्य 'धूम' शब प्रतीक्षा है तथा पूजा-प्रसंग में अष्ट कर्मों का विनाशक' मानां गया है। जन-हिन्दी-पूजा में अशुभ पाप के संग से बचने के लिए समस्त कर्मरूपी (धन) को जलाने के लिए, प्रफुल्लित हवय से जिनेन्द्र भगवान की सुगन्धित धूप पूजा की जाती है ताकि शुध संबर रूप आत्मिक शक्ति का विकास हो जिससे कर्मबन्ध रुक जायें। जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती के पूजाकार बानतराय प्रणीत भी रत्नत्रयपूजा नामक रचना में 'धूप' शब्द का उल्लेख मिलता है।' 1. दीपक की जोति जगाय, सिवन कों पूजों। कर भारति सन्मुख जाय निर्भय पद पूजों // ॐ ह्रीं णमोसिदाणं सिद्ध परमेष्ठिन मोहान्धकार विनाशाय दीपं निर्वामीति स्वाहा। --श्री सिवपूजाभाषा, भविलालजू, संग्रहीतमन्य-राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, सन् 1976 पृष्ठ 73 / :. सकल कर्म महेंधन वाहन, विमल संवर भाव सुधूपनं / अशुभ पुद्गल संग विवजितं, जिनपतेः पुरतोऽस्तु सुहषितः // -~जिनपूजा का महत्व, श्री मोहनलाल पारसान, सार्च शताब्दी स्मृति प्रय, प्रकाशक-श्री जैन श्वेताम्बर पंचायती मंदिर, 136, काटन स्ट्रीट, कलकत्ता-७, सन् 1665, पृष्ठ 55 / / 36 धूप सुवास विधार, चंदन अगर कपूर की। जनम रोग निखार, सम्यक रत्नत्रय पूजं / / ॐ ह्री अहिंसा व्रताय, सत्यवताय, ब्रह्मचर्यव्रताय, अपरिग्रह महाव्रताप मनोगुप्तये, वचन गुप्तये, कायगुप्तये, ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा . समिति, आदान निक्षेपण समिति, प्रतिष्ठापन समिति, त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय नमः धूपं निर्वपामीति स्वाहा / - श्री रत्नत्रयपूजा, धानतराय, संग्रहीत प्रथ-राजेश नित्यपूजाणठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वस, हरिनगर, बसीमा, 1956, पृष्ठ 192 /
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________ test सती प्रथाकवि कमलनयन प्रयत भीपंचकल्याणक पूज्य मात में बन ब्यबहार टिगोचर होता है। बीसवी सती के पूजा पिता जिवावास विरचित 'भो नाममपूजा' नामक रचना में एप इसी आशय के गृहीत है। फल-कलं मोक्ष प्रापयति इति फलम् / फल का लौकिक मर्थ परि. नाम है। न धर्म में फल शम्द का प्रयोग विशेष मर्य में हमा है। पूजा प्रसंग में मोक्ष पद को प्राप्त करने के लिए आपण किया गया द्रव्य वस्तुतः फल, कहलाता है।' बन-हिन्दी-पूना में कुलवाई कर्म के फल को नाश करने के लिए मोबा का बोष देने वाले वीतराग प्रमो के मार्ग सरस, पके फल जाते है फलस्वरूप माल को आत्मसिदि म मोम फल प्राप्त हो। मैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में मठारहवीं शती के पूजा कवि दयानतराप ने 1. एपी कृष्णागर कपूरले, अरू दश विधिधूप सम्हारि हो। जिनणी के आगे खेचते वसु कर्म होय परि छारि हो॥ -श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित / 2. दशविधि धूप हुताशन माहीं खेय सुगंध बड़झवी। बष्टकरम के नाश करन को श्री जिनाचरण चढ़ावो।। ॐ ह्रीं श्री चन्द्रप्रभजिनेन्द्राय, अष्टकर्मदहनाय धूपं नियंपामीवि स्वाहा / -श्री चन्द्रप्रभुपूजा, जिनेश्वरबास, संग्रहीत प-जन पूजापाठ संग्रह, प्रकाशक-भागचन्द पाटनी, नं० 62, नलिनी सेठ रोग, कनकना-७, पृष्ठ 101 / 3. वसुनंदि श्रावकाचार, 458, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोग, भाग 3, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, 2026, पृष्ठ 76 / 4. कटुक कर्म विपाक विनाशनं सरस पक्वफल बज डौंकनं / बहति. मोमफलस्य प्रभोः पुर, कुरुत सिटि फलाय महाजना // -जिमपूजा का महत्व, श्री मोहनलाल पारसान, सावं सताम्बी स्मृति पंच, प्रकाशक-श्री जैन श्वेताम्बर पंचायती मंदिर, 136, कादन स्ट्रीट, कलकत्ता-७, संस्करण 1965 ई०, पृष्ठ 55 /
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४ )
फल शब्द का व्यवहार 'भी सोलहकारण पूजा' नामक रचना में किया है ।" arotest att के पूजाकार मल्ल रचित 'श्री क्षमावाणी पूजा' नामक रचना में फल शब्द उक्त अभिप्राय से अभिव्यक्त है ।"
बीसवीं शती के पूजा प्रणेता युगल 'श्री देवशास्त्र गुरुपूजा' नामक रचना में व्यंजना में हुआ है।"
किशोर 'युगल' द्वारा विरचित फल शब्द का प्रयोग इसी अर्थ
उपर्य' कित विवेचन से स्पष्ट है कि जैन भक्त्यात्मक प्रसंग में पूजा का महत्वपूर्ण स्थान है। द्रव्यपूजा में अष्टद्रव्यों का उपयोग असंदिग्ध है। यहाँ इन सभी द्रव्यों में जिस अर्थ अभिप्राय को व्यक्त किया गया है। हिन्दी-जैनपूजा-काव्य में वह विभिन्न शताब्दियों के रचयिताओं द्वारा सफलतापूर्वक व्यवहृत है। जैन- हिन्दी-पूजा-काव्य मूल रूप में प्रवृत्ति से निवृत्ति का संदेश देता है साथ ही मत में सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा का भाव भरता है।
१. श्री फल आदि बहुत फल सारपूजों जिनवांछित दातार । परम गुरु हो जय जय नाथ परमगुरु हो ।
ॐ ह्रीं दर्शन विशुद्धयादिषोडकारणेभ्यो मोक्षफल प्राप्तायः फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
- श्री सोलहकारण पूजा, धानतराय, संगृहीतग्र च-राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १७६ ।
२. केला अंब अनार ही नारिकेल ले दाख ।
अग्रधरो जिन पदतने, मोक्ष होय जिन भाख ॥
ॐ ह्रीं अष्टांग सम्यग्दर्शनाय अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय रत्नत्रयाय मोक्षफल प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।
श्री क्षमावाणी पूजा, मल्लजी, संगृहीतग्रन्थ- ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक - अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १९५७, पृष्ठ ४०४ ।
३. जग में जिसको निज कहता मैं, वह छोड़ मुझे चल देता है । मैं आकुल व्याकुल हो लेता, व्याकुल का फल व्याकुलता है ॥
ॐ ह्रीं श्री देवशास्त्रगुरुभ्याय मोक्षफल प्राप्तये फेल निर्वपामीति स्वाहा श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगलकिशोर जैन 'युगल' संग्रहीत ग्रन्थ - राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर अलीगढ़, सन् १९७६, पृष्ठ ४६ ॥
1
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४१ )
पूजाकाव्य में उपास्य-शक्तियाँ
जैन धर्म में गुणों की पूजा की गई है। गुणों के ब्याज से ही व्यक्ति को मी स्मरण किया गया है क्योंकि किसी कार्य का कर्ता यहाँ परकीय शक्ति को नहीं माना गया है। अपने अपने कर्मानुसार प्रत्येक प्राणी स्वयं कर्ता और भोक्ता होता है । गुणों की दृष्टि से जो गुणधारी शक्तियां विवेच्य काव्य में प्रय क्त हैं यहाँ उनके रूप-स्वरूप पर संक्षेप में चर्चा करेंगे ।
देव ( श्री देवपूजा भावा ।'
दिव्यति क्योततिः इति देवः । 'दिव' धातु वय ति धातु से 'अर्थ' प्रत्यय earer देव शब्द froपन्न हुआ जिसका अर्थ फोड़ा करना है अथवा जय की इच्छा करना अथवा स्वर्गीय है ।" इस प्रकार देव शब्द का अर्थ विव्य-दृष्टि को प्राप्त करना है । जो दिव्य भाव से युक्त आठ सिद्धियों सहित क्रीडा करते हैं, जिनका शरीर दिव्यमान है, जो लोकालोक को प्रत्यक्ष जानते हैं यह सर्व देव कहलाते हैं।"
सच्चादेव वही है जो वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हो । जो किसी से द तो राग हो करता है और न द्वेष वही वीतरागी कहलाता है । वीतरागी के जन्म-मरण नादि १५ दोष नहीं होते, उसे भूख-प्यास भी नहीं लगती, समझ लो उसने समस्त इच्छाओं पर ही विजय प्राप्त करली है ।
१. श्री देवपूजाभाषा, धानतराय, संग्रहीत ग्रन्थ-- - बृहजिनवाणी संग्रह, प्रकाशक व सम्पादक - पं० पन्नालाल बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, सितम्बर १९५६, पृष्ठ ३०० ।
२. क्रीडति जदो णिभ्यं गुणेहिं महठहिं दिव्वभावेहिं ।
भासंत दिव्यकाया तम्हाते वणियां देवा ॥
पंच संग्रह प्राकृत | ११६३, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२८, पृष्ठांक ४४० ।
३. जो जागदि पच्यवचं तिपालगुणपञ्चएहि सुजन | लोयालोयं सयलं सो सव्वष्हने देवो ॥
कार्तिकेयानुप्रक्षा, स्वामिकुमाराचार्य, राजचन्द्र जैन शास्त्र माला, जामास, २०१६, गाथा संख्या ३०२, पृष्ठ २१२ ।
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
वस्तुतः राग-व (पक्षपात) रहित हो और पूर्ण ज्ञानी हो, वहीं सपा
शास्त्र ( श्री देवशास्त्र गुरुपूजा )२
शास्' धातु से 'क्ट्रम' प्रत्यय करने पर 'शास्त्र' शब्द बनता है जिसका अर्थ पूज्य अन्य है। जिनवाणी जिसमें समाहित हो उसे शास्त्र को संज्ञा से अभिहित किया जाता है । 'शास्त्र' जिनवाणी का गाविक रूप है, जो प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण से वाधा रहित वस्तु स्वभावका क्वार्थ बोस कराने बाला, कुमार्ग से हटाकर सर्वप्राणी मात्र का हितकारी होता है । अपनी इसी गुण-परिमा के कारण पूज्य है। जैन धर्म में 'देवशास्त्र-गुरु' को रत्न रूप स्वीकार किया गया है । शास्त्र भडान ही सम्यक् बर्मन माना गया है।' शास्त्र में कथित देवत्व विद्यमान है फलस्वरूप रत्नत्रय को पूर्णता प्राप्त होती है।
माप्तेनोछिन्न दोषण, सर्वनागमेधिमा । भवितव्यं नियोगेन, नान्यथा हयाप्तता भवेत् ।। म त्पिपासा जरातंक जन्मान्तक भय स्मयाः । न राग द्वेष मोहाश्य यस्याप्त. स प्रकीर्त्यते ।।
-रलकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र, प्रकाशक-माणिक चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, हीराबाग, बम्बई, वि० सं० १९८२, छंदांक
५.६, पृष्ठ ४। २. श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, कुणिलाल, संगृहीतमय-नित्य नियम विशेष पूजन
संग्रह, सम्पादिका पतासीबाई, गया (बिहार), भाद्रपदवीर सं.
२४८७, पृ० ११३ । ३. श्रद्धानं परमार्था नामाप्तागमत पो मृताम । त्रिमूढापोढ़यष्टांम सम्यक दर्शनं समयम् ।।
- रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४, जैनेन्द्र सिदान्त कोश, भाग ४, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०३०, पृष्ठांक ३५७ । ४. अरहंत सिद्धसाहू तिदयं जिणधम्मवयण परिमाहू जिण निसया इशिएण
वदेवता दितु में बोहि । -रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ११६, १६८, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग-२ जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०३०, पृष्ठ ४३३ ।
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
मैन बागमय में शास्त्र के कई भेद-प्रमेव किये गये है१. कल्पनास्त्र -विसमें अपराध के अनुरूप बम विधान
कहा गया हो। २. निमित शास्त्र ___- इसमें स्त्री-पुरुष के लक्षणों का वर्णन
किया गया हो। ३. बाध्य शास्त्र
ज्योतिर्मान, छन्दः शास्त्र, अर्थशास्त्र
बाज्य शास्त्र है। ४. लौकिक शास्त्र - व्याकरण गणितादि। ५. वैदिक शास्त्र - सिद्धान्त शास्त्र । ६. सामयिक शास्त्र - स्याद्वाद, न्याय शास्त्र ।
वस्तुतः देव की वाणी को शास्त्र कहते हैं। वह वीतराग है मतः उनकी वाणी भी वीतरागता की पोषक होती है। राग को धर्म बताये वह वीतराग वाणी नहीं है । वीतराग वाणी का आधार है तत्त्व-चितन । उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें कहीं भी तत्व का विरोध परिलक्षित नहीं होता। गुरु (धी गुरु पूजा)
“ग्रहणाति उपविशति सम्यकदर्शन, सम्यक् दर्शन, सम्यक ज्ञान, सम्यक चारत्र सः गृह । 'गह' धातु से गुरु शम्य बना है। लोक में गुरु का अर्थ 'बड़ा' है। जैनदर्शन में पंच परमेष्ठियों यथा अर्हन्त, सिर, माचार्य, उपाध्याय १. (अ) स्त्रीपुरुष लक्षणं निमितं, ज्योतिर्ज्ञानं, छन्दः अर्थशास्त्र वैद्यं, लौकिक
वैदिक समयाश्च बाध्य शास्त्राण । -- भगवती आराधना, ६१२८१२।७, जैनेन्द्र सिवान्त कोश,
भाग ४, जिनेन्द्र वर्गी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०३०, पृष्ठांक २८ । (ब) व्याकरण गणित लौकिक शास्त्र है सिद्धान्त शास्त्र वैदिक शास्त्र
है, स्याद्वादन्यायशास्त्र व अध्यात्मक सामाजिक शास्त्र है। - मूलाचार भाषा, १४४, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, जिनेन्द्र
वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०३०, पृष्ठांक २८ । २. आप्तोपत्रमनुल्लध्य, महष्टेष्ट विरोधकम् ।।
तत्वोपदेशकृत-सार्व, शास्त्र कापथ-पट्टनम् ।। -~~ रत्नकरण्डश्रावकाचार, बाबार्य समन्तभद्र, प्रकाशक- माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, हीराबाग, बंबई, वि० सं० १६८२, छंदाक,
पृष्ठ । ३. श्री गुरुपूजा, हेमराज, संग्रहीत प्रप-बहजिनवाणी संग्रह, सम्पा.
प्रकाशक-पं० पलालाल बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, सितम्बर १९५६, पृष्ठ ३०६।
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४४ )
तथा साधु में से एक परमेष्ठी विशेष होता है । ये गुरु रत्नत्रय के धारक जीवन-कल्याणक तथा प्रदर्शक होते हैं।" अपने इन्हीं गुणों के कारण भक्त्यात्मक प्रसंगों में गुरु की वंदना की गई है।
वस्तुत: नग्न दिगम्बर साधु को गुरु कहते हैं । गुरु सदा ममयान, स्वाध्याय में लीन रहते हैं। सर्वप्रकार के आरम्भ-परिग्रह से सर्वदा रहित होते हैं। विषय-भोगों की लालसा उनमें लेशमात्र भी नहीं होती। ऐसे तपस्वी साधुओं को गुरु कहते हैं ।"
पंचपरमेष्ठी (श्री पंच परमेष्ठी पूजन)*
परमश्चासोहष्टी परमेष्ठी । परमेष्ठिन शब्द सेग्रीषु प्रत्यय लगाकर परमेष्ठी शब्द बना । परमेव्योम्नि चिवाकोशे ब्रह्मपदेव तिष्ठतीति अर्थात् आकाश में स्थिति ब्रह्मपद पदाधिष्ठित ब्रह्म विशेष | तीस अक्षरों से युक्त परमइष्ट समाहार समुदाय ही परमेष्ठी है।" परमेकियों को नमस्कार करने की प्रथा है। इसे जैन साहित्य में नवकार मन्त्र १. 'सुस्सूसया गुरुणं सम्यक्-दर्शनज्ञान चारित्र गुरुतया मुख इत्युचयन्ते आचार्योपाध्याय साधव' ।
- भगवती आराधना । ३०० | ५११ । १३, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२८, पृष्ठांक २५१ । २ पंचमहाव्रतकलिका मद मचनः क्रोधः लोभ भय व्यक्त ।
एय गुरुं रिति भव्यते तस्माज्जानीहि उपदेशं ॥
ज्ञानसागर । ५ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२८, पृष्ठांक २५१ ।
३. विषयाशावशातीतो, निरारंभी उपरिग्रह. ।
ज्ञानध्यानतपो रक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥
--रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र, प्रकाशक- माणिक चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथमाला, हीराबाग, बंबई, वि० सं० १९८२, छंदांक १०, पृष्ठ ८ ।
४. श्री पचपरमेष्ठी पूजन, राजमल पर्वया, संगृहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक- भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस-१, संस्करण १९६९ पृष्ठ १२७ ।
५. पणतीस सोल छप्पण चउदुगमेगं च जबह भाषणु ।
परमेठिटवाचयाणं अण्णं च गुरुवएसेण ॥
- बृहद्रव्य संग्रह, नेमिचन्द्राचार्य, श्री मदराचन्द्र जैन शास्त्र माला, आगास, २०२२, श्लोक संख्या ४९, पृष्ठांक १८७ ।
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
को संज्ञा प्रदान की गई है। परमेष्ठी के उपदेश उनका चिन्तबन मोक्षमार्ग का प्रदायक है।' जनवर्शन में परमेष्ठी पाँच प्रकार के कहे गए हैं यथा
१. अहंन्त २. सिड ३. आचार्य ४. उपाध्याय
५. साधु अरहंत-'अहं पूजयामि' धातु में अर्हन्त शब्द बनता है । अहं से 'अर्थ' प्रत्यय करने पर अर्हत शब्द निष्पन्न हुआ। अर्हन्त पूज्य अर्थ में व्यवहत है। जो गृह स्थापना त्यागकर मुनिधर्म अंगीकार कर, निज स्वभाव साधन द्वारा चार घाति कर्मों-ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय तथा अन्तरायका भय करके अनंत चतुष्टय-अनंत दर्शन, अनन्त मान, अनन्स सुख, अनन्त वीर्य-रूप विराजमान हुये वे वस्तुतः अरहंत हैं।
१. तिहि खणि चवई जीवघो सेठिहउआराहउ निरू परमेठि ।
-जिनदस चरित्र, कविराजसिंह, माताप्रसाद गुप्त, एम. ए., डी. लिट. गेंदोलाल एडवोकेट, मंत्री, प्रबंधकारिणो कमटी, महावीर जी, वी० स०
२४७५, छंदांक ५२, पृष्ठांक २३ ।। २. णमो अरिहताणं, णमोसिद्धाण, णमो आइरियाणं ।
णमो उवमायाणं, णमो लोय सव्व साहण ॥ -षट् खण्डागम ।। १,१११।८, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ३, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, २०२६, पृष्ठांक २५८ । ३. अरहंति णमोकारं अरिहा पूजा सरुत्मा लोय ।
अरिहंति वंदण णमंसणाणि अरिहति पूय सवकारं । अरिहन्त सिध्द गमण अरहता तेण उच्चेति ।।
-मूलाचार । ५०५-५६२ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, संवत् २०२७, पृष्ठांक १४० । ४. जरवाहि जम्म मरणं चउगएगमणं च पुण्ण पावंच ।
हतूण दो सकम्मे हउ णाणमयं च अरहंतों।
-बोधपाहड, अष्टपाइड, कुन्दकुन्दाचार्य, श्री पाटनी दिगम्बर जैन ग्रन्थ माला, स.२४७६, पृष्ठांक १२८. श्लोक संख्या ३० ।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४६ )
जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति अपने कर्मों का विनाश करके स्वयं परमाहमा बन जाता है । उस परमात्मा की को कोटियाँ होती हैं। यथा
(१) शरीर सहित जीवन्मुक्त अवस्था - यह अवस्था अर्हते की कहलाती है।
(२) शरीर रहित बेह मुक्त अवस्था
- यह अवस्था सिद्ध की कहलाती है ।
महंत भी दो प्रकार के होते हैं
(१) तोषंकर -- विशेष पुष्य सहित महंत जिनके पाँच कल्याणक - गर्म, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष-महोत्सव मनाए जाते हैं, तीयंकर कहलाते हैं ।
(२) सामान्य- इनके कल्याणक नहीं मनाए जाते हैं ।
ये सभी सर्वज्ञत्व युक्त होते हैं अतएब उन्हें केवली भी कहते हैं । जैन धर्म में अर्हन्त शब्द का बड़ा महत्व है। सिद्धावस्था की यह प्रथम श्रेणी है । अर्हम्स सशरीर होते हैं इसलिए आर्य खण्ड में बिहार करते हुए धर्मोपदेश करते हैं। तो कर अरहन्त के समवशरण होता है शेष अरहंत के गंधकुटी होती है ।
सिद्ध- 'सिघ' धातु से 'वत्त' प्रत्यय करने पर सिद्ध शब्द निष्पन्न होता है जिसका अर्थ मुक्तात्मा है। जैन वाङ्मय में सिद्ध अष्टकर्मो से मुक्त आत्मा विशेष है। शुक्ल ध्यान में कर्मों का क्षय करके जो मुक्त होता है उसे सिद्ध कहा गया है।" यह आत्मालोक के ऊर्ध्वं भाग में विराजमान रहती है ।" पर ब्रव्यों से सम्बन्ध टूटने पर मुक्तावस्था की सिद्धि होने से १. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, स० २०२७, पृष्ठांक १४० ।
२. झाणे कम्मकख करिवि मुक्कउ होइ अनंतु ।
जिणवर देव हू सो जिविय पामणिउ सिद्ध महेतु ॥
-- परमात्मप्रकाश, योगीन्द्रदेव, राजचन्द्र जैनशास्त्रमाला, बनास, २०२६, दोहा २०, पृष्ठांक ३०४ ।
३. जटुकम्म वेहो लोया लोयस्स जाणबोवट्ठा ।
पुरिसायारो अप्पासिद्धो झाएह लोयसिहरस्यो ।।
- बृहदद्रव्य संग्रह, नेमिचन्द्राचार्य, राजचन्द्र जैन शास्त्रमाया, बागाड, ४० २०२६, श्लोक संख्या ५१, पृष्ठांक १९५ ।
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १४७ )
सिद्ध कहलाता है। सिद्ध तीनों लोक के प्राणियों का हित करने वाले कहे गए हैं।"
वस्तुतः जो गृहस्थ अवस्था का त्यागकर मुनि धर्म साधन द्वारा बार घाति कर्मों का नाश होने पर अनन्त चतुष्टय प्रकट करके कुछ समय बाद मधाति कर्मों के नाश होने पर समस्त अन्य द्रव्यों का सम्बन्ध छूट जाने पर पूर्ण मुक्त हो गये हैं, लोक के अग्रभाग में किंचित न्यून पुरुषाकार बिराजमान होगये हैं, जिनके द्रव्य कर्म, भावकर्म और नोकर्म का अभाव होने से समस्त आत्मिक गुण प्रकट हो गये हैं वे वस्तुतः सिद्ध कहलाते हैं ।
आचार्य - 'अड़' उपसर्ग 'चार' धातु 'जयत' प्रत्यय् होने पर आचार्य na की निष्पत्ति हुई है। इसका प्रयोग अधिकतर रहस्य के साथ ज्ञानोपदेश देने वाले विद्वानों के लिए किया जाता है। आचार्य में छतीस गुण विद्यमान होते हैं। वह बारह प्रकार का अन्तरंग तथा बहिरंग लप, वशधर्म, पंचाचार, पट्कर्म तथा तीन गुप्तियों का आचरण करने वाले होते हैं।" माचार्य पर मुनि संघ की व्यवस्था तथा नए मुनियों को दीक्षा दिलाने का दायित्व भी विद्यमान रहता है ।"
वस्तुतः जो सम्यग्दर्शन, सम्यक् चारित्र को अधिकता से प्रधान पद प्राप्त करके मुनि संघ के नायक हुए हैं तथा जो मुख्यत: निविकल्प स्वरूपाचरण में ही मग्न रहते हैं, पर कभी-कभी रागांश के उदय से करुणा बुद्धि हो तो धर्म के लोभी अन्य जीवों को धर्मोपदेश देते हैं, दीक्षा लेने वाले को योग्य जानकर
१. अण्णुविवधुवि तिहुयणहं सासय सुक्खसहाउ ।
तित्यु जिसबलु विकाल जिय विवसई लब्ध सहाउ ।
-- परमात्म प्रकाश, योगींदुदेव, राजचन्द्र जैन शास्त्र माला, अगास स० २०२९, दोहा छंदांक २०२, पृष्ठांक ३०५ ।
२. 'ज्ञान दर्शन चारित्र तपो वीर्याचार युक्तत्वात्संभावित परम शुद्धोपयोगभूमिकाना चार्योपाध्यायसाधुत्व विशिष्टान श्रमणांश्च प्रणमामि ।'
- प्रवचनसार, तात्पर्य वृत्ति । २, जनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, सं० २०३०, पृष्ठांक ४११
३. सदाचार विहहू सदा आायरियं चरं ।
बायार मायारवतो नारियोतेज उम्मदे ||
- मूलाचार, गाया संख्या ५०६, जैनेन्द्रसिद्धान्त कोश, भाग १, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, स० २०२७, पृष्ठांक २५२ ।
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १४८ ) गरीक्षा देते हैं, अपने दोष प्रकट करने वाले को प्रायश्चित विधि से हर करते है-ऐसे पवित्र माचरण करने और कराने वाले पूज्य आत्मन वस्तुतः माचार्य
उपाध्याय--'उप' उपसर्ग तथा 'अधि' उपसर्ग में 'ई' धातु 'घर' प्रत्यय के योग से उपाध्याय शब्द निष्पन्न है जिसका अर्थ रत्नत्रय तथा धर्मोपदेश को योग्यता रखने वाला है। लोक में प्रचलित 'उपाध्याय' शब्द जाति विशेष का बोध करता है किन्तु जैनधर्म में इसका भिन्न अर्थ है। रत्नत्रय सपा धर्मोपदेश की पोग्यता रखने वाले मुनि को भाचार्य द्वारा पर प्रदान किया जाता है। उपाध्याय मुनि सघ में कर्मोपदेश देते हुए भी निर्विकार रहकर आत्मध्यानादि कार्य करते रहते हैं।'
नशास्त्रों के ज्ञाता होकर संघ में पठन-पाठन के अधिकारी हुए हैं तथा जो ससस्त शास्त्रों का सार आत्मस्वरूप में एकाग्रता है अधिकतर तो उसमें लीन रहते हैं, कभी-कभी कषायांश के उदय से यदि उपयोग वहाँ स्थिर न रहे तो उन शास्त्रों को स्वयं पढ़ते हैं और दूसरों को पढ़ाते हैंउपाध्याय कहलाते हैं। ये मुख्यतः द्वादशांग अर्थात् जिनवाणी के पाठी होते है।
साधु-सातनोति परकार्यम् इति साधु अर्थात् साधना करने वाला साधु कहा जाता है। जैन वाङमय में जो सम्यगदर्शन, ज्ञान से परिपूर्ण शुरुचारित्र्य को साधते हैं, सर्वजीवों में 'समभाव को प्राप्त हों' के साधु कहलाते हैं।'
१. जो रयपत्तयजुत्तोणिच्च धम्मोवदेसणेणिर दो।
सोउबज्मामों अप्पाजविवरवसहो णमो तस्स ।। ग्रहदवव्यसग्रह, नेमिचन्द्राचार्य, श्रीमदराजचन्द्र जंन शास्त्रमाला, अगास, स. २०२२, माथा ५३, पृष्ठांक १६६ ।
२. णिवाण साधए जोगे सदा जुजति साधवो।
सभा सम्वेसु भूदेस तम्हा ते सब साधयो ।' मूलाचा', ५१२। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, स० २०३०, पृष्ठांक ४०४ ।
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१४) ऐसा साधु विरकाल से प्रवजित होता है।' साधु में मट्ठाइस गुण होना मावश्यक है।
वस्तुत: आचार्य, उपाध्याय को छोड़कर अन्य समस्त जो मुनि धर्म के धारक हैं मोर आत्म स्वभाव को चाहते है बाह्य २८ मूल गुणों को मरित पालते हैं, समस्त आरम्भ और अन्तरंग बहिरंग परिग्रह से रहित होते हैं, सवा शानध्यान में लवलीन रहते हैं, सांसारिक प्रपंचों से सगा दूर रहते हैं, उन्हें साधु परमेष्ठी कहते हैं। चैत्यालय (श्री अकृत्रिमचेत्यालयपूजा)'
'चित' धातु में 'त्य' प्रत्यय होने पर 'चैत्य' सम्म निष्पन्न हुमा, प्रत्य' शब्ब में 'मालय' शब्द सन्धि करने पर 'चैत्यालय' शम्ब बना। पल्प का बर्ष प्रतिमा है-आलय स्थान को कहते हैं। इस प्रकार महाँ प्रतिमा विराजमान हों वह चैत्यालय कहलाता है। चैत्यालय दो प्रकार से कहे गये है, यथा१. चिर प्रवजितः साधुः ।
- सर्वार्थसिद्धि, ६।२४।४४२११०, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग ४,
जिनेन्द्र वर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, स० २०३०, पृष्ठांक ४०४। २. पांच महाव्रत, पांच समिति, पांच इन्द्रियों का रोध, केशलोंच, षट्
आवश्यक, अचेलकत्व, अस्नान, भूमिशयन, अदंतधावन, बड़े-बड़े भोजन, एक बार आहार ये वास्तव में श्रमणों के अट्ठाईस मूल गुण जिनवर ने --प्रवचनचार, कुदकुदाचार्य, प्रकाशक-- मंत्री श्री सहजानंद शास्त्रमाला, १८५-ए. रणजीतपुरी, सदर, मेरठ, सन् १९७६, श्लोकांक
२०८-२०६, पृष्ठ ३६४ । ३. श्री अकृत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम, संगृहीत मंथ-जन पूजापाठ संग्रह,
प्रकाशक-भागचन्द पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
पृष्ठ २५१ । ४. श्रीमद्भगवत् सर्ववीतराग प्रतिमाथिष्ठित चैत्यगृहं ।
-बोधपाहुड टीका । ८७६।१३, जैनेन्द्र सिदान्त कोश, भाग २
जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, वि० स० २०२८, पृष्ठ ३०२ । ५. कृत्याकृत्रिम-चारु चैत्यनिलयान नित्यं त्रिलोकीगतान् ।
बंदे भावन-व्यन्तरद्य तिवरान् बनीमरावास गान ।। कृत्रिमाकृत्रिमजिनचत्य पूजाध्यं ।
ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ, सन् १९६६, छंदांक १, • पृष्ठांक ५।
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १५० )
(१) अकृत्रिम चैत्यालय - ये चंस्यालय चारों प्रकार के देवों के भवन, प्रासादों व विमानों तथा स्थल-स्थल पर मध्यलोक में विराजमान है ।
(२) कृत्रिम चैत्यालय -ये मनुष्यकृत हैं तथा मनुष्य लोक में निर्मित किए गए हैं।
अकृत्रिम त्यालय - चैत्यालय पवित्र स्थान हैं। यहाँ मध्यलोक के जीव नहीं पहुँच सकते । किन्तु इन्द्रादि देव यहाँ आकर इन संस्थालयों में विराजमान जिन प्रतिमा का स्तवन करते हैं। ये चैत्यालय नंदीश्वरद्वीप में हैं। ये सभी स्थान तीर्थ है अतएव इनकी वंदना की गई है । श्रनंदीश्वरद्वीप की पूजा ' तथा श्री अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजा नामक रचनायें इसी तीर्थ भाव का परिणाम है ।
आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि- कैलासपर्वत से ऋषभनाथ, चम्पापुर से वासुपूज्य, गिरनार से नेमिनाथ, पावापुर से महावीर तथा शेष बोस तीर्थंकर सम्मेदशिखर से मोक्ष गए हैं उन सभी को नमस्कार किया है।" पूजाकार ने सिद्धक्षेत्र की पूजा नामक काव्य रचकर तीर्थ क्षेत्रों की वंदना की है। भी निर्वाणपूजा इसी से सम्बन्धित है ।"
चौबीस तीर्थंकर (श्री चतुर्विंशति तीर्थ कर समुच्चय पूजा ) *
४
तरति पापाविक यस्मात तत् तीर्थ । 'ति' धातु से उणादि प्रत्यय १. श्री नंदीश्वरद्वीपपूजा, यानतराय, संगृहीत ग्रंथ - राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, सन् १९७६, पृष्ठ १७१ । २. कैलासे वृषभस्य, निवृति महावीरस्य पावापुरं - चम्पायां वसुपूज्य तुम जिनपतेः सम्मेद शेले हंताम । शेषाणामपि चौर्जयन्त शिखरे नेमीश्वर स्थार्हत्य निर्वाणावनयः प्रसिद्ध विभवाः कुर्वन्तु तें मंगलम् |
- मंगलाष्टक, ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ, १९६९ ई०, छंदांक ६, पृष्ठांक ५ ।
३. श्री निर्वाणक्षेत्र पूजा, खानतराय, संगृहीतबंध -- राजेश नित्यपूजापाठ सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६ ई०, पृष्ठ ३७३ । ४. हीराचंद, श्री चतुविशति तीर्थकर समुच्चयपूजा, संगृहीत ग्रंथ-नित्य नियम विशेषपूजन संग्रह, सम्पा० व प्रकाशिका -० पतासीबाई जैन, गया (बिहार), पृष्ठ ७१
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
करने पर सामनता है जिसका अर्थ है पापों से तरना तथा हि' बारी 'कर' सम्ममा मयति करोतीति करः । इस प्रकार तीर्थस्य कर: तौकर। इस प्रकार तीर्थकर का अर्थ स्वयं अर्थात् दूसरों को पार करने वाला है। बनदर्शन में संसार-सागर को स्वयं पार करने तथा कराने वाले महापुस्ख को तीर्थकर कहा गया है। ऐसी आस्मा तीर्थकर नाम कर्म के उदय तीर्थकर होती है। तीबंकर बनने के संस्कार षोड्स कारक रूप अत्यन्त विसर भावनामों हारा उत्पन्न होते हैं। उनके पांच कल्याणक सम्पन्न होते हैं।'
जैनधर्म में चौबीस तीर्थंकरों का उल्लेख है।' मनलिखित लेखनी में प्रत्येक का परिचय प्रस्तुत करना हमें अभीप्सित है। (१) ऋषभनाथ (श्री ऋषभदेवपूजा)
भगवान ऋषभनाय प्रथम तीर्थकर हैं अस्तु इन्हें आदिनाथ भी कहते हैं। इनके पिता का नाम नाभिराय और माता का माम मदेवी था। मापका
१. 'तीर्थकृतः संसारोत्तरणहेत भूत्वात्तीर्थमिवतीर्थमागमः ।
तस्कृतवतः। समाधिशतक ।२।२२२।२४, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, जिनेन्द्रवर्णी,
भारतीय ज्ञानपीठ, स० २०२८, पृष्ठांक ३७२।। २. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ, स.
२०२८, पृष्ठांक ३७१ । ३ ऋषभ अजित संभव अभिनंदन,
सुमति पदम सुपार्श्व जिनराय । चन्द पुहुप शीतल श्रेयांस जिन,
वासुपूज्य पूजित सुरराय ।। विमल अनन्त धर्म जस उज्ज्वल,
शांति कुषु अर मल्लि मनाय । मुनि सुव्रत नमि नेमि पार्य प्रभु,
वर्द्धमान पद पुष्प चढ़ाय ।। -बालबोध पाठमाला, भाग १, पं० रतनचन्द भारिल्ल, प्रकाशकपंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापू नगर, जयपुर, श्रुतपंचमी २९
मई, १९७४, पृष्ठ १०। ४. श्री ऋषभदेवपूजा, मनरंगलाल, संगृहीत ग्रंथ-सत्यार्पयश, प्रकाशक
• शिखरचन्द्र जैन शास्त्री, जवाहरगंज, जबलपुर, म.प्र., चतुर्व
रण, अगस्त १९५० ई०, पृष्ठ ५।
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १५२ )
जन्म अयोध्या नगरी में हुआ था । तीर्थंकर परम्परा में प्रभु आदिनाथ के अंगूठे में प्रतिबिम्बित होने वाला चिन्ह 'वृषभ' था। आपके शरीर का रंग हेम वर्ण था ।
(२) अजितनाथ (श्री अजितनाथ जिनपूजा) '
तीर्थंकर क्रम में अजित नाथ जो दूसरे तीर्थंकर हैं। जितशत्रु और माता का नाम विजयादेवी। आपका चिन्ह पीत । जन्मस्थान साकेत ।
पिता का नाम
'गज' तथा वर्ण
(३) सम्भवनाथ (श्री सम्भव नाथजिनपूजा)
भ० सम्भवनाथ जो तीसरे क्रम के तीर्थकर हैं। आपके माता-पिता का नाम क्रमशः सुसेना और जितारि है । चिन्ह है अश्व । वर्ण है पोत और जन्मस्थान है श्रावस्ती ।
(४) अभिनंदननाथ (श्री अभिनन्दननाथ पूजा ) "
ate क्रम में अभिनंदन नाथ का नाम आता है। आपके पिता भी संवर और मातुश्री का नाम सिद्धार्था । जन्मस्थली है साकेतपुरी । सुवर्ण के समान वर्ण वाले विभु अभिनंदन का चिन्ह बन्दर है ।
(५) सुमतिनाथ (श्री सुमतिनाथ जिनपूजा)
far तीकर सुमतिनाथ जी हैं। पिता का नाम है मेघप्रम और मातुश्री हैं- मंगला । जन्मस्थल है साकेत । चिन्ह है चकवा |
१. श्री अजितनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, सगृहीत ग्रंथ- चतुविशति जिनपूजा संग्रह, प्रकाशक - वीर पुस्तक भंडार, मनिहारो का रास्ता, जयपुर, पौष सं० २०१८, पृष्ठ १५ ।
२. श्री संभवनाथ जिनपूजा, रामचन्द्र, संगृहीत ग्रंथ - चतुर्विंशति जिनपूजा, संग्रह प्रकाशक -- नेमीचन्द बाकलीवाल, जैनग्रंथ कार्यालय, मदनगंज (किशनगढ ) राजस्थान, अगस्त १६५१, पृष्ठ ३० ।
३. श्री अभिनंदननाथपूजा, मनरंगलाल, संगृहीत ग्रथ - सत्यार्थयज्ञ, प्रकाशक --- पं० शिखरचन्द्र जैन शास्त्री, जवाहरगंज, जबलपुर, म० प्र०, चतुर्थ संस्करण, अगस्त १६५० ई०, पृष्ठ ३२ ।
४. श्री सुमतिनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न संगृहीत ग्रंथ - चतुविशति जिनपूजा संग्रह, वीर पुस्तक भंडार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, पौष सं० २०१८ पृष्ठ ३६ ।
לי
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
( . १५३ )
(६) पद्मप्रभ ( श्री पद्मप्रभ जिनपूजा) '
कौशाम्बी में जन्मे प्रभु पद्मप्रभ के माता-पिता का नाम क्रमशः सुसीमा तथा धरण है। मूंग के समान रक्त वर्णीय पद्मप्रभ का चिन्ह 'कमल' है । (७) सुपार्श्वनाथ (श्री सुपार्श्वनाथ जिनपूजा ) *
हरितवर्णीय सुपार्श्वनाथ का जन्म वाराणसी में हुआ है। माता का नाम पृथिवी और पिता सुप्रतिष्ठ । आपका चिन्ह 'नंद्यावर्त' (सांगिया) है। (८) चन्द्रप्रभ ( श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा) '
आठवें क्रम में चन्द्रप्रभ तीर्थंकर का नाम आता है। चम्रपुरी नगरी में माता लक्ष्मणा और पिता महासेन के घर आपने जन्म लिया । कुन्द पुष्य के समान रंग वाले चन्द्रप्रभ का चिन्ह 'अर्द्धचन्द्र' है ।
(६) पुष्पदंत (श्री पुष्पदंतपूजा) ४
terest नगरी में जन्मे प्रभु पुष्पदंत के माता-पिता का नाम है क्रमशः रामा और सुग्रीव । कुन्दपुष्प सदृश रगवाले विभु का चिन्ह 'मगर' है । सुविधिनाथ आपका दूसरा नाम है।
(१०) शीतलनाथ (श्री शीतलनाथ जिनपूजा)
far itaetre जी के पिता का नाम दृढरथ और माता का नाम
१. श्री पद्मप्रभ जिनपूजा, वृन्दावन संगृहीत ग्रंथ - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, सन् १९७६, पृष्ठ ८२ । २. श्री सुपार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, सगृहीत प्रथ- चतुविशति जिनपूजा, संग्रह, वीर पुस्तक भण्डार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, पौष सं० २०१८, पृष्ठ ५१ ।
३. श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, वृन्दावन, सगृहीत ग्रंथ -- ज्ञानपीठ पूजांजलि, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम संस्करण १९५७ ई०, पृष्ठ ३३३ ।
४. श्री पुष्पदंत पूजा, मनरंगलाल, संगृहीत ग्रंथ - सत्यार्थयज्ञ, पं० शिखरचन्द्र जैन शास्त्री, जवाहरगंज, जबलपुर, म० प्र०, चतुर्थ संस्करण, जगस्त १५०, पृ० ६८ ।
ww
५. श्री शीतलनाथ जिनपूजा, रामचन्द्र, संगृहीत ग्रंथ - चतुविशति जिनपूजा संग्रह नेमीचन्द बाकलीवाल, जैन ग्रंथ कार्यालय, मदनगंज (किशनगंज ) राजस्थान, अगस्त १९५१, पृष्ठ ६५ ।
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
मन्दा है । आपने महलपुर में जन्म लिया। सुवरणीय शीतलनामा चिन्ह
(१५) श्रेयांसनाथ (श्री श्रेयांसनाय जिनपूजा)
मारहवें कम के तीर्थकर भेयांसनाथ ने सिंहपुरी में माता विष्णुदेवी के उपर से जन्म लिया। पीतवर्णीय अपांसमाप के पिता का नाम विष्णु है।मापका चिन्ह गंग' है। (१२) वासुपूज्य (श्री वासुपूज्य जिनपूजा)२
तीर्थकर परम्परा में बारहवें तीर्थकर वासुपूज्य । भापके पिता वसपूज्य तथा मातुश्री विजया है। जन्मस्थल है चम्पानगरी । मंगके समान रक्त वर्णीय वासुपूज्य का चिन्ह "भैसा है। (१३) विमलनाथ (श्री विमलनाथ पूजा)'
तेरहवें तीर्थ कर विमलनाप के पिता कृतवर्मा है और मातुश्री जयश्यामा। जन्मस्थान है-कम्पिलनगरी । स्वर्ण सदृश्य पोतरंगीय शरीर वाले विमलनाथ
(१४) अनंतनाथ (श्री अनंतनाथ पूजा)
पोतरंगीय अनंतनाप का जन्म स्थान अयोध्यापुरी है। आपके पिताश्री सिंहसेम और माता का नाम है सर्बयणा । आपका चिन्ह 'सेही' है।
१. श्री श्रेयांसनाथ जिमपूजा, रामचन्द्र, संगृहीत ग्रंथ--चतुर्विधति जिनपूजा
संग्रह नेमीचन्द बाकलीवाल, जैन ग्रंथ कार्यालय, मदनगंज (किशनगढ़),
राजस्थान, अगस्त १९५१, पृष्ठ ६५ २. श्री वासुपूज्य जिनपूजा, वृन्दावन, संग्रहीत ग्रंथ - ज्ञानपीठ पूजाअलि,
अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
प्रथम संस्करण १९५७ ई०, पृष्ठ ३४५ । ३. श्री विमलनाथ पूजा, मनरंगलाल, संगृहीत अंघ-सत्यार्थयश, पं. शिवरचन्द्र जैन, शास्त्री, जवाहरगंज, जबलपुर, म०प्र०, चतुर्ष संस्करण,
अगस्त १९५० ई०, पृष्ठ ६१ । ४. भी अनंतनावपूजा, मनरंगलाल, संगृहीत प-सत्यार्षवा, पं.
शिखरबन्द्र जैन, शास्त्री, जवाहरगंज, जबलपुर, म०प्र०, चतुर्थ संस्करण, अगस्त १९५०ई०, पृष्ठ ६९
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १५५ )
(१५) धर्मनाथ (श्री धर्मनाथ जिनपूजा) '
रनपुर में जन्मे धर्मनाथ के माता-पिता का नाम क्रमशः सुवता और भानु नरेा है। आपके तन का रंग सोने के समान था । बबू आपका चिन्ह है । (१६) शांतिनाथ (श्री शांतिना पजिमपूजा ) *
शान्तिनाथ का जन्मस्थान है हस्तिनापुर । ऐरा आपकी मातुभी और पिताभी हैं विश्वसेन । पीतवर्ण के शांतिनाथ का चिन्ह 'हरिण' है । (१७) कुंथुनाथ (श्री कंथुनाथ जिनपूजा)
कुंपनाथ तीर्थंकर परम्परा में सत्रहवें क्रम पर हैं। आपके पिता का नाम सूर्यसेन और माता का नाम है श्रीमती देवी । जन्मस्थान है हस्तिनापुर । वर्ण है स्वर्ण । आपका चिन्ह 'बकरा' है ।
(१८) भरनाथ (श्री अरनाथ जिनपूजा) '
अठारहवें क्रम के तीर्थंकर अरनाथ है। आपके पिता हूँ सुदर्शन और मामी हैं मित्रा । जन्मस्थान है हस्तिनापुर । वर्ण है पीत और चिन्ह है 'मत्स्य' ।
(१६) मल्लिनाथ (श्री मल्लिनाथपूजा) ४
मल्लिनाथ का जन्मस्थान हैं मिथलापुरी। आपके पिता है फुरुष और माधी प्रभावती । वर्ण है पीत । 'कलश' आपका चिन्ह है।
१. श्री धर्मनाथ जिनपूजा, रामचन्द्र, संगृहीत ग्रंथ -- चतुविशति जिन पूजा संग्रह, नेमीचन्द बाकलीवाल, जैन ग्रंथ कार्यालय, मदनगंज (किशनगढ़) राजस्थान, अगस्त १६५१, पृष्ठ १३० ।
२. श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रंथ - राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, सन् १९७६, पृष्ठ ११० ।
३. श्री कुंथुनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, संगृहीत ग्रंथ - चतुविशति जिनपूजा संग्रह, वीर पुस्तक भंडार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, पोष सं० २०१८, पृष्ठ १११ ।
४. श्री अरनाथजिनपूजा, रामचन्द्र, संगृहीतग्रन्थ-चतुर्विंशति जिनपूजा संग्रह नेमीचन्द बाकलीवाल, जैन ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज (किसनगद) राजस्थान, अगस्त १९५१, पृष्ठ १५४ ।
५. श्री मल्लिनाथ जिनपूजा, रामचन्द्र, संगृहीत ग्रंथ-चतुर्विंशति जिमपूजा, संग्रह नेमीचन्द्र बाकलीवाल, जैन ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज (किशनगढ़) राजस्थान, अगस्त १६५१, पृष्ठ १५७ ।
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १५६..) (२०) मुनिसुव्रत (श्री मुनिसुव्रतनाथपूजा)'
सुमित्र के सुपुत्र मुनिसुव्रत का जन्म माता पदमा के उबर से राजगृह नगरी में हुआ। आपका वर्ण है नील और चिन्ह है-'कछवा' । (२१) नमिनाथ (श्री नमिनाथजनपूजा)२
हस्कीसवें तीर्थकर नमिनाथ के पिता श्रीविजयनरेन्द्र तथा मातुश्री है वमिला। जन्मस्थान है मिथलापुरी। वर्ण है सुवर्ण । 'नीलकमल' आपका
(२२) नेमिनाथ (श्री नेमिनाथ जिनपूजा)'
तीर्थकर परम्परा में बाइसवें तीर्थकर नेमिनाथ है। आपके चचेरे भाई हैं भगवान कृष्ण । आपके पिताश्री का नाम है समुद्रविजय तथा मातुश्री हैं शिवदेवी। जन्मस्थान है शौरीपुर । वर्ण है नील । 'शंख' आपका चिन्ह है। (२३) पाश्र्धनाथ (श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा)
तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ हैं । इनके पिता का नाम है अश्वसेन और मातुश्री हैं दामादेवी । जन्मस्थान है-वाराणसी। वर्ण है हरित । चिन्ह
(२४) महावीर (श्री महावीर जिनपूजा)
तीर्थकर परम्परा में चौबीसवें और अन्तिम तीर्थ कर भगवान महावीर हैं। आपके पिता हैं श्री सिद्धार्थ और मातुश्री का नाम है त्रिशला । जन्मस्थान १. श्री मुनिसुव्रतनाथपूजा, मनरंगलाल सगृहीतग्रन्थ- सत्यार्थयज्ञ, प० शिखर
चन्द्र जैन, शास्त्री, जवाहरगज, जबलपुर, म०प्र०, चतुथं संस्करण,
अगस्त १६५० ई०, पृष्ठ १४० । २. श्री नमिनाथ जिनपूजा, रामचन्द्र, सगृहीतग्रन्थ-चतुर्विशतिजिनपूजा,
नेमीचन्द बाकलीवाल, जैनग्रन्थ कार्यालय, मदनगज (किशनगढ), राज
स्थान, अगस्त १९४१, पृ० १७६ । ३. श्री नेमिनाथजिनपूजा, जिनेश्वरदास, संगृहीत ग्रन्थ-जैनपूजापाठ
सग्रह, भागचन्द्र पाटनी, ६२ नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १११ । ४. श्री पाश्र्वनाथ जिनपूजा, कुंजिलाल, संग्रहीत ग्रन्थ-नित्य नियम विशेष
पूजन संग्रह, ब० पतासीबाई जैन, गया (बिहार), पृष्ठ ३५ । ५ श्री महावीर स्वामी पूजा, संगृहीत ग्रन्थ-नेमीचन्द बाकलीवाल, जैन
अन्य कार्यालय, मदनगंज (किशनगढ़) राजस्थान, अगस्त १९५१, पृष्ठ २०४।
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १५७ )
है कुमलपुर । वर्ण है पीत और आपका चिन्ह है 'सिंह'। महावीर के दूसरे नाम बर्षमान, सन्मति, धीर, अतिवीर हैं।
बीसतीर्थकर (श्री बोस तीर्थकर पूजा भाषा)-विदेह देश में बीसतोर्यकर हये हैं । अपांकित उनका संक्षिप्त परिचय प्रष्टथ्य है--- (१) सोमन्धर- विदेह क्षेत्र के पुजारीकणी नगरी के सोमन्धर
स्वामी के पिताश्री का नाम है बीहंस । (२) युगमन्धर- आपके पिता का नाम श्रीव्ह है। (३) बाहु- सुसीमा नगरी के बाहु माता विनया की कुक्षि
से जन्मे। आपके पिता का नाम सुग्रीव है।
हरिण आपका चिन्ह है। १. सीमन्धर सीमन्धर स्वामी, जुगमन्धर जुगमन्धर नामी ।
बाहु बाहु जिन जग जनतारे, करम सुबाहु बाहुबल दारे ।। जात सुजात सु केवल ज्ञान, स्वयं प्रभ प्रभु स्वयं प्रधानं । ऋषभानन ऋषिभानन दोष, अनन्तवीरज कोषं । सोरीप्रम सोरीगुणमालं, सुगुण विशाल विशाल दयालं । वजूधार भवगिरि वज्जर हैं, चन्द्रानन चन्द्रानन वर हैं । भद्रबाहु भद्रनि के करता, श्री भुजंग भुजंगम हरता। ईश्वर सबके ईश्वर छाजे, नेमिप्रभुजस नेमि विराजे ।। वीरसेन वीर जग जानें, महाभद्र महाभद्र बखाने । नमो जसोधर जसधरकारी, नमों अजित वीरत बलकारी । --- श्री बीसतीर्थकर पूजाभाषा, धानतराय, संगृहीतग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ़, सन् १९७६,
पृष्ठ ५६ । २. सित्यवसयल चक्की सट्ठिसयं पुहवरेण अवरेण ।
बीसवी सयले खेते सत्तरिसयं वर दो। तीर्थकर पृथक्-पृथक् एक-एक विदेह देश विषे एक-एक होई सब उत्कृष्ट पने करि एक सौ साठि होइ । बहुरि जघन्य पने करि सीता सीतोदाका दक्षिण उत्तर तट विषे एक-एक होई ऐसे एक मेरु अपेक्षा च्यारि होहि । सब मिलि करि पंचमेरु के विदेह अपेक्षा करि बीस होहै। --त्रिलोकसार, गाथासंख्या ६८१, प्रकाशक-जैन साहित्य, बम्बई, प्रथम संस्करण ई० १६१८, संगृहीत ग्रंथ- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, इ. जिनेन्द्रवर्णी, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण, सन् १९७१, पृष्ठ ३९१ ।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
( e) मवध्यदेश अवस्थित सुबाहु की माता का नाम
सुनंदा है। . (५) संबात- मलकापुरी के स्वामी संजात के पितापी का
का नाम देवसेन है। भापका चिन्ह सूर्य है। (६) स्वयंप्रम- मंगला नगरी के स्वयंप्रभ का बिम्ह चन्द्रमा है। (७) ऋषमानन- सुसीमानगरी में स्थित ऋषमानन की मातुभी
वीरसेना है। (5) अनन्तवीर्य- ये विदेह क्षेत्र के आठवें तीर्थकर हैं। (e) रिप्रम- सूरिश्रम का चिन्ह बैल है। (१०) विशालप्रम- पुपरीकनी नगरी के विशालप्रम के माता-पिता
का नाम क्रमशः विनया और वीर्य है। (११) बचधर- आपका चिन्ह संख है । आपके पितामी पम
रव और माता सरस्वती हैं। (१२) चन्द्रानन- पुगारीकणी के चन्द्रानन की माता का नाम
बयावती और चिन्ह है-गो। (१३) चन्द्रबाहु- माता रेणुका के उदर से जन्मे चन्द्रबाह का
चिन्ह कमल है। (१४) भुजंगम- आपके पिता का नाम महाबल और चिन्ह
चनमा है। (१५) ईश्वर- सुसीमानगरी में अवस्थित ईश्वर के पिता का
नाम गलसेन और माता का नाम ज्वाला है। (१६) नेमिप्रम- आपका चिन्ह सूर्य है। (१७) बोरसेन- आपकी नगरी पुनरीकमी है । भूमिपाल मापके
पिता जी तथा बीससेना आपकी माता जी का
(१८) महाभा
विजया नगरी के महामन पिता देवराज और माता उमा के पुत्र हैं। स्तवनति के सुपुत्र देवयश की माता का नाम गंगा है। मापकी नगरी सुतीमा है।
(१९) देवयश
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१५९ ) (२०) अजितवीर्ष- कनक मापके पिताबी का नाम है और मापका
बाहुबली (श्री बाहुबलीपूजा)-आदितीर्थकर ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र का नाम बाहुबली है। बाहुबली की माता का नाम सुनंदा है। तपाचरण करते हुये मापने कर्म-कुल मय कर केवल मान को प्राप्त किया। इस प्रकार माप मुक्त हए।
इस प्रकार जैन-हिन्दी-पूजाकाव्य में उपर्य कित पूज्य शक्तियों का संक्षिप्त परिचय अभिव्यक्त है।
१. श्री बाहुबलीपूजा, दीपचंद, संग्रहीत ग्रंथ-नित्य नियम विशेष पूजन
संग्रह पतासीवाई जैन, गया (बिहार), भावपद वीर सं० २४८७ पृष्ठ १२॥
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
साहित्यिक
रस-योजना जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में रस की स्थिति पर विचार करने से पूर्व यहाँ अन काय को ध्यान में रखकर रस-विषयक संवान्तिक चर्चा करना आवश्यक है। हिन्दी-साहित्य में रस-विषयक को मान्यतायें प्रचलित रही हैं, यथा
१. लौकिक आचार्यों को दृष्टि से २. जैन आचार्यों की दृष्टि से ।
जैन आचार्यों की रस-विषयक मान्यता रही है- अनुभव । अनुभव ही रस का आधार है। यह अन्तर्मुखी प्रवृत्तियों पर निर्भर करता है। आत्मानुभूति होने पर ही रसमयता की स्थिति उत्पन्न हुआ करती है। विभाव, अनुभाव और संचारी भाव जीव के मानसिक, कायिक तथा वाचिक विकार हैं, वे वस्तुतः स्वभाव नहीं है । इन विकारों से पृथक होने पर ही रसों की बास्तविक स्थिति उत्पन्न हुआ करती है । आत्मानुभूति में कषाय-क्रोध, मान, माया और लोभ-बाधक है। क्रोध, मान, माया और लोम नामक कषायों से उत्पन्न विकारी मनोभाव रागद्वेष के जनक है जिनके कारण चित्त की शुभअशम विषयक परिस्थितियां उत्पन्न हुआ करती हैं। आस्मा इन कषायों से कसी रहती है और ऐसी स्थिति में व्यक्ति को आत्मानुमति प्रायः नहीं हो पाती । आत्मा जब यह अनुभव करता है कि परपदार्थ सुख प्रदान करते हैं
और अवस्था विशेष में इन्हीं से दुख भी होता है तब उनके प्रति इष्ट-अनिष्ट विषयक भावना राग-द्वेष की मुख्य रूप से उत्पादक है।' इन शुभ-अशुभ परिणतियों के विनाश होने पर शुद्ध आत्मानुभूति से रसोद्रेक होने लगता है।
'वत्यु सहावो धम्मो' अर्थात् वस्तु का स्वभाव ही धर्म है। बस्तु का प्रभाव उसका व्यक्तित्व है जो अस्तित्व पर निर्भर करता है। वस्तु के प्रभावा१. मोक्षमार्ग प्रकाशक, पं. टोडरमल, सम्तीग्रन्थमाला, वीरसेवा मंदिर,
वरियागंज, दिल्ली, वी. स. २४७६, पृष्ठ ३३६ । । . .
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १९१ ) बासक्ति होने पर व्यक्ति को सुख-दुःख की अनुभूति हुआ करती है। वास्तविकता यह है कि जब हृदय में विवेक यथार्थज्ञान का उदय होता है तब प्रभाव जन्य विरसता और विषमता का पूर्णतः विसर्जन हो जाता है और इस प्रकार निरन्तर आत्मानुभूति होने लगती है।'
जैन आचार्यों को रसों की परिसंख्या में किसी प्रकार का विवाद नहीं रहा । उन्होंने परम्परागत नवरसों को ही स्वीकृति दी है। बाल कवियों की भांति जैन आचार्यों ने शान्तरस को रसराज कहा है। इन कवियों को रस और उनके स्थायी भावों में परम्परानुमोक्ति व्यवस्था में यत्किषित परिवर्तन भी करना पड़ा है जिसका मूलाधार आध्यात्मिक विचारधारा ही रही है।'
१. हिन्दी-जन-साहित्य-परिशीलन, (भाग १), श्री नेमिचन्द्र जैन ज्योति
षाचार्य, प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोष, बनारस, प्रथम
संस्करण १६५६ ई०, पृष्ठ २२५ । २. प्रथम सिंगार वीर दूजो रस,
तीजो रस करुणा सुखदायक । हास्य चतुर्थ रूद्र रस पंचम,
छट्ठम रस बीभच्छ विभायक ॥ सप्तमभय अट्ठमरस अद्भुत,
नवमौ शात रसनि को नायक । ए नव रस एई नव नाटक,
जो जहं मगन सोइ तिहि लायक ।। --सर्वविशुद्धि द्वार, नाटकसमयसार, रचयिता-कविवर बनारसी दास, प्रकाशक- श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मदिर ट्रस्ट, सोनगड़ ( सौराष्ट्र),
प्रथम संस्करण वीर संवत् २४६७, पृष्ठ ३०७ । ३. सोभा में सिंगार बसे वीर पुरुषारथ में,
___कोमल हिए में करना रस बखानिये। आनंद में हास्य रूडमंड में विराजे रुद्र,
बीभत्स तहाँ जहाँ पिलानि मन भानिये ।। चिंता में भयानक अथाहता में अद्भुत,
माया की यरुचि ताम सांत रस मानिये । - एई नवरस भवरूप एई भावरूप,
इनिको विलेछिन सुद्रिष्टि जागे जानिये ।। -सर्वविशुद्धिद्वार, नाटक समयसार, रचयिता-बनारसीदास, प्रामकश्री दिगम्बर जैन स्वाध्यायमदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र ), अषम संस्करण वीर संबद २४६७, पृष्ठ ३०७-३०८।
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
इनकी वृष्टि में रस और उनके स्थायी भावों को निम्न फनक में एकस्वस्त किया जा सकता है, यथा
स्थायीभाव
१. शृंगार
१. शोमा २. वीर
२. पुरुषार्ष ३. करण
३. कोमलता ४. हास्य
४. आनंद ५. भयानक
५. चिन्ता
६. उमस्ता ७. बीभत्स
७. ग्लानि ८. अद्भुत
८. अचाहता ६. शान्त
है. माया की अवचिता मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से इन रसों को दो भागों में विभाजित किया गया है,' था
रागकोटि में रति, हास, उत्साह और विस्मय नामक स्थायी भावों को सम्मिलित किया गया है जिनके द्वारा क्रमशः शृंगार, हास्य, बीर और मदभुत रसों का जन्म होता है। इसी प्रकार देष कोटि में शोक, कोष, भय और जाप्ता जिनके द्वारा कमशः, करुण रोख, भयानक और बीभत्स रसों का निरूपण हुमा करता है।
रागोषोनों का परिमान होने पर वैराग्य-निर्वेद भाव का जन्म होता है।यह अहंभाव की समरसता की अवस्था है। इस अवस्था में स्वोन्मुख रूप से प्रतिभासित होने लगती है।
शान्तरस को वेषमूलक मानने पर आपत्ति हो सकती है क्योंकि रसानुभूति के समय व्यक्ति राण-व बिहीन माना जाता है। इस रस में मिसिक्त प्राणी सुन- चिन्तादि से विमुक्त हो जाता है अतः शान्तको वेषमूलक भाव १. जैन कषियों के हिन्दी काव्य का काव्यशास्त्रीय मूल्यांकन, पंचम अध्याय,
० महेन्द्र सागर प्रचंडिया, मागरा विश्वविद्यालय वापी .सिद उपाधि हेतु स्वीकृत शोध प्रबन्ध, सन १६७४, पृष्ठ ३१४ ।
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १६३ )
वगत
कहना संगत नहीं लगता है। शान्त रस के आश्रय से मन का निर्वेद, के सुख और वैभव के प्रति उसे उदासीन बना देता है । व्यक्ति परलोक सुख की आकांक्षा से इस लोक के सुखों से मुँह मोड़ लेता है । जगत के प्रति यह तटस्थता, उदासीनता और विषय-वैभव की उपेक्षा यदि द्वेष नहीं तो राम भी नहीं, इसे तो वस्तुतः इन दोनों के बीच की अवस्था हो मानना होगा । ये द्वेषमूलक प्रवृतियाँ रागमूलक प्रवृतियों से सर्वथा भिन्न हैं । किसी भी कृति में इन दोनों का संकर अथवा मिला-जुला वर्णन दोष ही कहलाता है न कि गुण ।" इस प्रकार जैन आचार्यों ने इन रसों के अन्तरंग में जिन भावनाओं की व्यापकता पर बल दिया है। वह स्व-पर-कल्याण में सर्वा सहायक प्रमाणित होती है। आत्मा को ज्ञान गुण से विभूषित करने का विचार श्रृंगार, कर्म निर्जरा का उद्यम वीर, सभी प्राणियों को अपने समान समझने के लिए करुण, हृक्य में उत्साह एवं सुख की अनुभूति के लिए हास्य, अष्टकों को नष्ट करना रौद्र, शरीर को अशुचिता का चिन्तवन बीभत्स, जन्ममरण के दुःख का चिन्तवन भयानक, आत्मा की अनन्त शक्ति को प्राप्त कर विस्मय करना अद्भुत तथा दृढ़ वंराग्य धारण कर आत्मानुभव में लोन होगा शान्तरस कहलाता है ।
उपर्यंत विवेचन के आधार पर यह सहज में कहा जा सकता है कि शान्तरस में सभी रसों का समाहार हो जाता है तथा व्यक्तिशः प्रत्येक रस का क्षेत्र और इसकी विराटता असंदिग्ध प्रमाणित हो जाती है । उल्लिखित स्थायी भावों में रौद्र, अद्भुत, वीभत्स और शान्तरस के स्थायीभाव तो परम्परानुमोदित स्थायी भावों में पर्याप्त साम्य रखते हैं, किन्तु शेष रसों के स्थायी भावों की उद्भावना सर्वथा नवीन और मौलिक है । आचार्य विश्व नाथ के अनुसार अविरूद्ध अथवा विरूद्धभाव जिसे प्रच्छन्न नहीं किया जा सके, वह वस्तुतः आस्वाद का मूलभूत भाव ही स्थायीभाव है ।"
१. हिन्दी काव्यशास्त्र में शृंगार रस विवेचन, डा० रामलाल वर्मा, पृष्ठ ४१-४२ ।
२. aftear विरुद्धा वा यं तिरोधातुमक्षमाः ।
आस्वादाङ् कुरकन्दोsaौ भावः स्थायीति संमतः ॥ ४ ॥
-साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद, आचार्य विश्वनाथ, प्रकाशक- चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी-१, तृतीय संस्करण, वि० सं० २०२३, श्लोक संख्या १७४, पृष्ठ १८१ ।
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १६४ )
चैन माचायों की स्थायी भावों से सम्बन्धित नवीन उद्भावना विषय में संक्षेप में चर्चा करना यहां असंगत नहीं होगा ।
श्रृंगार रस का स्थायी भाव जैन आचार्यों ने परम्परागत स्थायीभाव 'रति' के स्थान पर शोभा माना है। श्रृंगार का मूलतः अर्थ शोभा ही है । उसमें अर्थगतगूढ़ता और व्यापकता दोनों ही है। कोई अविरूद्ध या विरूद्ध भाव उसे छिपा नहीं सकता । रति को श्रृंगार का स्थायी भाव मान लेने में सबसे बड़ी आपति तो यह है कि एक ही विषय भोग सम्बन्धी चित्र विभिन्न व्यक्तियों-साधु, कामुक एवं चित्रकार या कवि के मन में एक ही भाव की उद्भावना नहीं करता ।
इसी प्रकार हास्यरस का स्थायी भाव परम्परानुमोदित 'हास' के स्थान पर आनंद माना गया है। किसी वृत्ति को पढ़ने या सुनने या किसी दृश्य को देखने पर आनन्द की उत्पति में ही हास्य रस की निष्पत्ति समीचीन लगती है। हंसी कभी-कभी तो दुःख या खोक्ष की अवस्था में भी आ जाती है। परम्परानुमोदित करुण रस का स्थायी भाव 'शोक' के स्थान पर कोमलता माना है । मनोवैज्ञानिक तथ्यों के अनुसार भी शोक में अन्तर्द्वन्द जन्य चिन्ता का मिश्रण है, शोक का जन्म किसी प्रकार की हानि पर निर्भर करता है फिर उसमें कोमलता कहाँ स्थान पाती है। इस प्रकार स्पष्ट है कि करुणरस का स्थायी आधार कोमलता, सहानुभूति और सरलता है न कि शोक |
वीर रस का स्थायीभाव उत्साह के स्थान पर पुरुषार्थ माना है । उत्साह तो कभी विपरीत कारण मिलने पर ठंडा भी पड़ सकता है, जबकि पुरुषार्थ में तो आगे बढ़ने की प्रवृत्ति हो अन्तनिहित है । पुरुषार्थ का क्षेत्र भी 'उत्साह' की अपेक्षा अधिक व्यापक है, उसमें उत्साह के साथ-साथ लगन और क्रियाशीलता भी है। उत्साह में जहाँ आवेश है वहाँ वीरता में गाम्भीर्य, उत्साह तो रणवाद्य बजाकर भी उत्पन्न किया जा सकता है, जबकि बोरता आत्मगत होती है ।
इसी प्रकार भयानक रस का स्थायीभाव भी कवि ने 'भय' के बजाय 'चिन्ता' माना है । चिन्ता में भय से अधिक व्यापकता है । चिन्ता उत्पन्न होने पर ही भय उत्पन्न होगा । भय के मूल में चिन्ता होगी ही । प्रत्येक भयामक दृश्य सभी को भयभीत करते हैं, यह सर्वथा सम्भव नहीं । हम भयभीत
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
तमी होते हैं, जब हमें यह माशंका हो कि उसका कारण हमसे सम्बर।। जब हम अपने प्रिय पात्र को विपत्ति में फंसा देखते हैं तो हमें चिन्ता होने लगती है कि अब क्या होगा ? परिस्थितियां ज्यों ज्यों भयानक होती जाती हैं क्यों त्यों हम चिन्ता में डूबते जाते हैं और धीरे-धीरे स्थिति यहां तक आ जाती है कि हम भय से सिहर उठते हैं । चिन्ता का कारण स्पष्ट ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हम से सम्बद्ध होने के कारण हम भयभीत होते हैं। कहने का मंतव्य यह है कि चिन्ता उत्पन्न होने पर ही भय की भावना सम्भव है।
यह सहज में कहा जा सकता है कि रस विषयक प्राचीन प्राचार्य परम्परा के अनुसार ही पूजा कवयिताओं ने पूजा प्रणयन में किया है। पूजाकाव्य में प्रधान रस शान्त और अन्य रस अंगीय है । अठारहवीं शती से लेकर बोसवीं शती तक रचे गए पूजा रचनाओं में रसोदक की क्या स्थिति रही है? अब यहां उसी नथ्य और सत्य का संक्षेप में उद्घाटन करेंगे।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य परम्परा में 'देवशास्त्र गुरु नामक पूजा' का स्थान महत्वपूर्ण है । इन सभी उपास्य शक्तियों की गण-गरिमा विषयक अभिव्यंजना में निवें व तज्जन्य शान्तरस का उद्रेक हमा है। जैन पूजा काव्य में रस-निष्पत्ति विषयक यह उल्लेखनीय बात रही है कि इसमें रस की सीधी स्थिति परिलक्षित नहीं होती । आरम्भ में सांसारिकभक्त अपनी दोनदुःखी अवस्था से मुक्त होने के लिए प्रभु की वन्दना करता है और उसकी भक्ति भाषना में उत्तरोत्तर प्रवृत्ति से निवृत्ति की ओर विकास-विकर्ष परिलक्षित होने लगता है और अन्ततोगत्वा पूजा काव्य के उत्तर पक्ष में यह पूर्णतः निवृत्तिमुखी हो जाता है। दरअसल विवेच्य काम्य में यहीं पर रस की स्थिति अपना पूर्णरूप ग्रहण कर पाती है । रस की यह पूर्ण विस्था बस्तुतः शान्त रसमय होती है।
पूजा के जयमाल अंश में उपास्य के दिव्यगुणों का उत्साहपूर्वक जयगान किया जाता है । आरम्भ में इस संगायन में रस की स्थिति उत्साहमयी मनुमूत हो उठती है। किन्तु कालान्तर में यही उत्साहजन्य मनोभावना निर तजन्य शान्तरस में परिवर्तित हो जाती है।
अठारहवीं शती में देव-शास्त्र-गह पूजा में आराध्य देव की प्रतिमा. बिम्ब में सुखद भूगार का सुन्दर चित्रण परिलक्षित है यह संयोग भगार
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________
उत्तरोत्तर शान्तरस में परिणत हो जाता है। इसी पूजा के जयमाला मंग में उपास्य का तुम-गान करने में भक्त अथवा पूजक का मन उत्साह तम्जन्यपुरकार्य और वीरोचित उदात्त भावना से आप्लावित हो उठता है । अन्त में यह उत्साह परम पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष सुख की स्थिति की अनुमोबना में शान्तरस रूप में परिणत हो जाता है।
उपास्य देव के जन्म कल्याणक पर भक्त का हृदय उल्लास तथा
१. सुरपति उरग नरनाथ तिनकरि वन्दनीक सुपदप्रभा ।
अतिशोभनीक सुबरण उज्जल देख छवि मोहित सभा ॥ पर नीर क्षीर समुद्र घट भरि अग्र तसु बहुविधि नचू। बरहंत श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निरपथ नित पूजा रचू । -श्री देवशास्त्र गुरुपूजा,द्यानतराय, संगृहीत प्रथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक-अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, सन् १९५७, पृष्ठ १०७ ।
२. बउ कर्म किसठ प्रकृति नाशि, जीते अष्टादश दोषराशि ।
जे परम सूगुण हैं अनंत धीर, कहबत के छयालीस गूण गंभीर ॥ शुभ समवशरण शोभा अपार, शत इन्द्र नमनकर सीस धार । देवाधिदेव अरहंत देव, बंदो मन वच तन करि सुसेव ॥ जिनकी धुनि हवे ओंकार रूप, निर अक्षरमय महिमा अनूप । दश-अष्ट महाभाषा समेत, लधुभाषा सात शतक सुचेन । सो स्यावादमय सप्तभंग, गणधर गूथे बारह सु अंग । रवि शशि न हरे सो तम हराय, सो शास्त्र नमो बहु प्रीतिल्याय ।। गुरु बाचारज उवझाय साध, तन नगन रतनय निधि अगाध । संसार-देह वैराग धार, निरवांछि तपे शिवपद निहार ॥ गुण छतिस पच्चिस आठ बीस भवतारनतरन जिहाजईस । गुरु की महिमा बरनी न जाय, गुरु नाम जपों मन वचन काय।।
___
कीजे शक्ति प्रमान शक्ति बिना सरधा धरे । 'चानत' सरधावान अजर अमर पद भोगवे ।।
-श्री देवशास्त्र गुरुवा, धानतराय, संगृहीत ग्रंय-ज्ञानपीठ पुजांजलि, प्रकाशक -अयोध्यात्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, सन् १९५७, पृष्ठ ११०-१११ ।
Page #189
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १९७ ) विस्मयकारी भावनामों के बोतप्रोत हो जाता है। प्रमु-प्रभुता का पित बन करता वा उसका यह मनोभाव शान्तरस में मग्न होता
उन्नीसवीं शती में तीर्थकर महावीर स्वामी पूजा के 'अपनाता' बंग में उत्साह से युक्त पुश्वार्थ भाव तन्नन्य बोर रस का उनके हुमा है । बन्ततोगस्था प्रजक के हरप में यह वीर रसात्मक अनुभूति शान्तरस में परिणत हो जाती है।
'बी ऋषमनाथ जिनपूजा' में पूजक भगवान के गर्म कल्याणक के अबसर पर छप्पन कुमारियों और इन्द्राणी के द्वारा हर्षोल्लास अनुष्ठान पर बानब
१. सोलह कारण भाय तीर्थकर जे भये ।
हरष इन्द्र अपार मेरु पे ले गये ॥ पुजा करि निज धन्य लख्यो बह चाव सों। हमहू षोड़श कारण भावें भावसों ।।
-श्री सोलहकारण पूजा, धानतराय, संग्रहीत ग्रंथ-जैन पूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक-भागचन्द्र पाटनी, नं०६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ५६ ।
२. पुनि नाचत रंग उमंग भरी, तुम भक्ति विषे पगएम धरी ।
मननं अननं शननं झननं, सुरलेत तहाँ तननं सननं ॥ घनन घननं धन घंट बजे, हमदं दमदं मिरदंग सजे । गगनांगन गर्भगता सुगता, ततता ततता अतता वितता ।। धगतां गतां गति बाजत हैं, सुरताल रसाल जु छाजत है । सननं सनम सननं नभ में, इक रूप अनेक जुधार भ्रमे ।। कई नारि सुबीन बजावति है, तुमरो जसि उज्वल गावति हैं। करताल विषे कर ताल धरें, सुरताल विशाल जु नाद करें। इन आदि अनेक उछाह भरी, सुर भक्ति करें प्रमुजी तुमरी । . तुम ही जग जीवन के पितु हो, तुम ही बिन कारन ते हित हो ।।
-श्री महावीर स्वामी पूजा, वृन्दावन, संग्रहीत पंप-राजेश नित्य पूषा पाठ संग्रह प्रकाशक-राजेन्द्र मेटिल बक्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १३७-१३८ ।
Page #190
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १६८ )
तजन्य हास्य रस की निष्पति हुई है।' इसी प्रकार 'श्री सुमति नाथ जिनपूजा' मैं कवि हृदय हर्षानुभूति कर उठता है ।"
3
मठारहवीं जन्मीसवीं शती की भाँति बोसवीं शती में प्रणीत पूजा• काव्य में रसो के को स्थिति में कोई अन्तर परिलक्षित नहीं होता । पूजा की सम्पूर्ण भावना निवें दजन्य शान्तरस में निष्पन्न होती है। इस शती में 'श्री महावीर स्वामी जिनपूजा' के 'अष्ट द्रव्य अघर्य' प्रसंग में संयोग श्रृंगार का उद्र ेक निवृत्ति मूलक हुआ है ।"
१. तज के सर्वारथ सिद्ध थान, मरु देव्या माता कूख आन । तब देवी छप्पन जे कुमारि, ते आई अति आनंद धारि ॥ ते बहुविध ऊंचा सेवठान, इन्द्राणी ध्यावत हर्षमान ||
में काम प्रधान
- श्री ऋषभनाथ जिन पूजा, वख्तावररत्न, संगृहीतग्रंथ - चतुर्विज्ञति जिनपूजा, प्रकाशक -- बीर पुस्तक भंडार, मनिहारो का रास्ता, जयपुर पौष० सं० २०१६, पृष्ठ १२ ।
२. बाय के शची जिनंद गोद में लिये तबै । जान के सुरेन्द्र देख मोद में भये जब ॥ नाग में सवार कीन्ह स्वर्णशैल पे गये । न्हौन को उछाह ठान हर्ष चित में भये ।। देख रूप आपको अनंग बीनती लही । इन्द्र चंद्र वृन्द आन शरण चर्ण की गही ||
-श्री सुमतिनाथ जिनपूजा, संगृहीत ग्रंथ - चतुर्विंशति जिनपूजा, प्रकाशकवीर पुस्तक भंडार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, पौष सं० २०१८, पृष्ठ ४१-४२ ।
३. क्षीरोदधि से भरि नीर कंचन के कलशा । तुम चरणनि देत चढ़ाय आवागमन नशा || चांदनपुर के महावीर तोरी छवि प्यारी । प्रभु भव आताप निवार तुम पद बलिहारी ||
---श्री चांदनगांव महावीरस्वामी पूजा, पूरणमल, संग्रहीत ग्रंथ जैन पूजापाठ संग्रह, प्रकाशक - भागचन्द पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोहकलकत्ता-७, पृष्ठ १५१ ।
Page #191
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी देवशास्त्र गुणा' के 'मयमाला' अंश में जीवन को अस्थिरता को व्यक्त करते हुए उपासना के अतिरिक्त जोवन-बम को निस्सारता व्यक्त की है। इस अभिव्यक्ति में करुणरस का कहना है जो कालांतर में निवेंदरूप में परिणत हो जाता है।' . इस प्रकार पूजाकाव्य में पूर्णतः शान्सरस का परिपाक हुआ है। रस की इस पाकविकता में सोमा-श्रृंगार, उत्साह-पोर, तवा करण आदि रसों के अभिवशंन होते हैं।
-
-
-
भववन में जीमर घूम चुका, कण-कण को जी भर देखा। मृग-सम मुग-तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ॥ . मूठे जग के सपने सारे, झूठी मन की सब आशायें। तब-जीवन-यौवन अस्थिर है, मण भंगुरपल में मुरझाए । -श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर जैन 'युगल', संग्रहीतग्रंथ-जन पूजा पाठ संग्रह, प्रकाणक-भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी ठेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ३०।
Page #192
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १७८ )
विवेच्य पूजा-काव्य-कृतियों में व्यवहृत अर्थालंकारों की तालिका
(१) अतिशयोक्ति (२) उपमा (३) उत्प्रेक्षा (४) उदाहरण
(६) व्यतिरेक अब यहाँ व्यवहत मलंकारों की स्थिति का इस प्रकार अध्ययन करेंगे कि मालंकारिक प्रतिमा पूजा-काव्य के कवियों को सहज में प्रकट हो जावे । शब्दालंकार
शम्दालंकारों में सर्वप्रथम हम अप्रास पर विचार करेंगे यथा-- अनप्रास
काव्याभिव्यक्ति में शब्दालंकार का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है और शब्दालंकार में अनुप्रास अलंकार का उल्लेखनीय महत्व है। जन-हिन्दी-पूजाकाव्य में विभिन्न भेवों के साथ अनुप्रास अलंकार अठारहवीं शती से व्यवहत है। अठारहवीं शती के कवि धानतराय विरचित 'श्रीबहत सिद्धचक्र पूजाभाषा', 'श्री रत्नत्रयपूजा' और 'श्रीमथपंचमेरु पूजा' नामक पूजा रचनाओं में छेकानुप्रास और 'श्री सरस्वती पूजा में वत्यनुप्रास का
१. परमब्रह्म परमातमा परमजोति परमीश ।।
-श्री बृहत सिद्ध चक्र पूजा भाषा, द्यानतराय, संगृहीतग्रंथ-जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७
पृष्ठ २३६ । २. शिव सुख सुधा सरोवरी सम्यकत्रयी निहार ।
-श्री रत्नत्रयपूजा, द्यानतराय, संगृहीतपथ, राजेश नित्य पूजापाठ
सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ, १९७६, पृष्ठ ११ । ३. सुरस सुवर्ण सुगध सुहाय, फलसों पूजो श्री जिनराय।
श्री अथपचमेरू पूजा, दद्यानतराय, संगृहीतरीय-राजेश नित्यपूजा पाठ
संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १६६ । ४. छीरोदधि गंगा, विमल तरंगा, सलिल अमंगा, सुख संमा।
-श्री सरस्वती पूजा, यानतराय, संगृहीतग्रंथ-राजेश नित्यपूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बर्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ३७५ ।
Page #193
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १७६ )
तथा 'श्री अथदेवशास्त्रगुरु की भाषा पूजा" में अत्यानुप्रास का प्रयोग द्रष्टव्य है ।
उatest शती के पूजाकार बुम्बावन अनुप्रास विशेषज्ञ हैं उन्होंने एक ही छंद में अनुप्रास के विभिन्न भेदों छेका, वृत्य, अन्त्य - को 'श्रीमहावीर स्वामी पूजा' नामक कृति में व्यंजित किया है । इस शती की 'श्रीचन्द्रप्रभुजिनपूजा" 'श्रीपंचकल्याणक पूजा पाठ४, 'श्री नेमिनाथजिनपूजा" नामक पूजाकृतियों में छेकानुप्रास का, 'श्रीकु थुनाथ जिनपूजा', 'श्री अनंतनाथ
१. प्रथम देव अरहत सुश्रुत सिद्धान्त जू । गुरू निरग्रन्थ महंत सुकतिपुर पंथजू ॥ - श्री अथदेव शास्त्र गुरू की भाषा पूजा, जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, न० कलकत्ता-७, पृष्ठ १६ ।
द्यानतराय, सगृहीतग्रंथ६२, नलिनी सेठ रोड,
२. झनन झनन झनन झनन । सुरलेत तहाँ तननं तननं ॥
--
-श्री महावीर स्वामीपूजा, वृन्दावन, सगृहीत ग्रंथ राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १३७ । ३. चारु चरन आचरन, चरन चित-हरन चिह्न चर ।
- श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, वृन्दावन, सगृहीतग्रथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १६५७, पृष्ठ ३३३ ।
४. कमल केवरी कुन्द केतकी चपा मरूआ सार ।
- श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित, जैन शोध अकादमी, अलीगढ़ मे सुरक्षित ।
५. करि चित चातक चतुर चर्चित जगत हूँ हित धारिके ।
- श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सगृहीतग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १६५७, पृष्ठ ३६६ ।
६. श्री फल सहकार, लौंग अनारं, अमल अपारं, सब रितके ।
-
-श्री कुम्बुनाथ जिनपूजा, बस्तावररत्न, संग्रहीत ग्रंथ, ज्ञानपीठ पूजांजलि अयोध्याप्रसाद गोवलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस १६५७, पृष्ठ ५४४
Page #194
--------------------------------------------------------------------------
________________
बिनपूना' नामक पूनाओं में वृत्यनुप्रास का व्यवहार उल्लेखनीय है। उकष्ट पूजारपिता वृन्दावन विरचित 'श्री शांतिनाथ बिनपूजा" में अस्यानुप्रास और 'श्रीपवमान जिनपूना" में श्रुत्यानुप्रास का प्रयोग परिलक्षित है।
बीसवीं शती के पूजाकषि विनेश्वरवास कृत 'श्री चन्द्रप्रभ पूजा" में, बोलतराम रचित 'श्री पावापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा और नेम प्रणीत 'श्री अकृत्रिम चेस्यालय पूजा में छेकानुप्रास के अभिवर्शन होते हैं। इस शती के मन्य पूजा प्रणेता हीराचंद ने बृत्यनुप्रास का प्रयोग सफलतापूर्वक किया है।' १. दशांग धूप धूम्रपन्ध भगवन्द धावही ।
श्री अनन्तनाथ जिनपूजा, रामचन्द्र, संगृहीत य-राजेश नित्य पूजा
पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्ग, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १०५। २. यह विघ्न मूल-तह खंड खंड, चित चिन्तित आनन्द मंड मंड ।
-श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीतग्रन्थ-राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ
३. शतक बण्डमच खण्ड, सकल सुर सेवत आई।
श्री पदमप्रभु जिनपूजा, वृन्दावन संग्रहीत ग्रंप-राजेश नित्य पूजा पा
संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ८२ । ४ चारू चरित चकोरन के चित पोरन चन्द्रकला बहुसूरे।
-श्री चन्द्रप्रभु जिन पूजा, जिनेश्वरदास , संगृहीतग्रंथ-जंन पूजापाठ संग्रह, भागचना पाटनी, नं. ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७
पृष्ठ १००। ५. अजर अमर अविनाशी शिव बल वर्णी 'दौल' रहे सिर नाय ।
-श्री पावापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम, संगृहीतग्रन्थ-जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ १४६ । जय अमल अनादि अनन्त जान, अनिमित जु अकीर्तम अचल पान । ---श्री अकृत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम, संग्रहीतमय जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २५३ । आनिय सुरसंगा, सलिल सुरंगा, करिमन चंगा, भरि भगा।
-श्री सिद्ध चक्र पूजा, हीराचन्द, मंगृहीत प्रप-बृहजिनवाणी संग्रह, सम्पादक व रचयिता-पं० पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, सितम्बर १९५६, पृष्ठ ३२८ ।
Page #195
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८१ )
इस प्रकार अठारहवीं शती से लेकर बौंसी शसो तक प्रजातियों में अनुप्रास अपने प्रमेवों-छेका, बृत्य, श्रुत्य और अन्य के साथ व्यवहत हुमा है। विशेष रूप से पूजा काव्य में छेकानुप्रास की बहुलता दृष्टगोचर होती है। पूजाकाव्य के रचयिताओं के लिए काव्यसृजन का लक्ष्य स्वान्तः सुखाय नहीं अपितु सम्यक बर्शन, शान और चारित्र्य विषयक कल्याणकारी भावनाओं को जनसाधारण तक पहुँचाना अभीष्ट रहा है। यही कारण है कि पूजा काव्य के रचयिताओं ने तत्कालीन काव्याभिव्यक्ति के प्रमुख प्रसाधनों को गहीत कर अभीष्ट उपलब्धि में यथेष्ट सफलता अजित की है। इस दृष्टि से उन्नीसवीं शती में गिरचित पूजाकाव्य कृतियों में अनुप्रासिक अभिव्यक्ति उल्लेखनीय है। पुनरुक्ति प्रकाश__ कथन में पुष्टता उत्पन्न करने के लिए कवियों द्वारा पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का व्यवहार हुआ है । भक्त्यात्मक भावनाओं में पुनरुक्ति कथन से ही शोभा की प्राप्ति हुई है । जैन-हिन्दी-पूजा-काश्य में पुनरूवित प्रकाश अलंकार अठारहवी शती के कवि दयानतराय विरचित 'श्री बीस तीर्थकर पूजा', 'श्री सोलह कारण पूजा,' 'श्री निर्वाण क्षेत्रपूजा" और 'श्री बृहत सिद्ध चक्र पूजा भाषा' नामक पूजाओं में पुनरुक्ति प्रकाश के प्रयोग से अद्भुत ध्वन्यात्मकता और लयप्रियता का संचार हुआ है। १ सीमधर सीमधर स्वामी, जुगमन्धर जुगमन्धर नामी ।
-श्री बीस तीर्ष कर पूजा, दयानतराय, संगृहीत प्रत्य-राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बस, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ५६ । २-परम गुरू हो जय जय नाथ परम गुरू हो।
श्री गोलहकारण पूजा, वानसराय, संग्रहीताग्य--राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ, १६७६, पृष्ठ
१७५ । ३-परमपूज्य चौबीस, जिहं जिहं पानक शिव पये।
श्री निर्वाम क्षेत्र पूजा, दबानतराय, सगृहीत अन्य, राजेश नित्य पूजा पाठ
संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ३७३ । ४-प्रचला प्रचला उदे कहावं, मारबहे मुखमंग चला।
-श्री बृहत सिख पक पूजा भाषा, पानतराम, संग्रहीतष-बनपूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, मं० ६२, नलिनी सेठ रोग, कलकत्ता-७, पृष्ठ २३८ ।
Page #196
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८२ )
उन्नीसवीं शताग्दि में पूजा काट्य के कवियों ने पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का व्यवहार काव्य में भावोत्कर्ष के अतिरिक्त उसमें स्वन्यात्मकता का सफलतापूर्वक संचार किया है। कविवर साधन कृत काव्य में पुनरुक्ति प्रकाश का प्रयोग अपेक्षा कृत अधिक हुआ है । लय और ध्वन्यात्मकता उत्पन्न करने के लिए कवि ने इस अलंकार को गृहीत किया है। भावोत्कर्ष में इस प्रकार के प्रयोग वस्तुत: उल्लेखनीय हैं। 'श्री महावीर स्वामी पूजा में कवि ने 'मननं', 'सननं' इत्यादि शब्दों को आवृत्ति में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार के अभिनव प्रयोग में दर्शन होते हैं । इसके अतिरिक्त वृदावन की अन्य कृति 'श्री शांतिनाथ जिनपूजा'२ में, कमलनयन की 'श्री पंचकल्याणक पूजापाठ" में, मनरंगलाल की 'श्री शीतलनाय जिनपूजा' नामक पूजा रचनाओं में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का व्यवहार द्रष्टव्य है ।
बीसवीं शती के कवि सेवक की 'श्री आदिनाथ जिनपूजा,५ , दौलत
१-सननं सनन सननं नभ मे, एक रूप अनेक जु धार भ्रमै ।
-श्री महावीर स्वामी पूजा, बृन्दावन, संगृहीत ग्रय - राजेश नित्य पूजा
पाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ, १९७६, पृष्ठ १३८ । २. सेवक अपनी निज आन जान, कहना करि भी भय भान भान ।
--श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वदावन, सग्रहीत मथ-राजे नित्य पूजा
पाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९८६, पृष्ठ ११६ । ३. जुगपद नमि नमि जय जय उचारि ।
-~श्री पंचकल्याणक पूजा पाठ, कमल नयन, हस्तलिखित । ४. धन्य तू धन्य तू धन्य तू मैं नहा ।
-~-श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रन्थ-राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६०६, पृष्ठ १०२। जगमग जगमग होत दशों दिशि ज्योति रही मंदिर में छाय । श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, संगृहीत प्रथ-जन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं. ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ १४० ।
Page #197
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८३ ) राम को 'श्री चम्पापुर सिद्ध क्षेत्रपूजा", कुबिलाल को 'भो देवमास्थ गुल्जा " और युगल किशोर 'युगल की 'श्री देवशास्त्र गुरुपूजा' नामक पूजा काव्य कृतियों में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार के अभिदर्शन
इस प्रकार यह सहज में कहा जा सकता है कि इन जैन-हिन्दी-पूजाकाव्य के रचयिताओं को पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार को गहीत करने में वस्तुतः दो तथ्यों की अपेक्षा रहा, यथा
(१) काच्याभिव्यक्ति में अधिक प्रभावना उत्पन्न करने की दृष्टि से । (२) काव्य में संगीत और लयप्रियता के सफल संचरण के उद्देश्य से
इस अलकार का पूजा काव्यों में व्यवहार हुआ है। इस दृष्टि से कविवर व्यानतराय और कविवर वृदावन द्वारा रचित पूजा काध्य कृतियों में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का व्यवहार वस्तुतः उल्लेखनीय
यमक
जन-हिन्दी-पूजा काव्य में यमक अलंकार का व्यवहार उन्नीसवीं शती
।
१. मोलह वसु इक इक षट इकेय,
इक इक इक इम इन क्रम सहेय ।
-श्री चम्पापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम, संगृहीतग्रंथ-जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १४०। भर भर के थाल चढ़ाऊँ चरणन में, मेरा क्षुधा रोग मिटाले । श्रीदेवशास्त्र गुरु पूजा, कुजिलाल, संगृहीतग्रथ-नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, सम्पादक व प्रकाशक-७० पतासी बाई जैन, ईसरी बाजार,
(हजारी बाग), पृष्ठ ११४ । ३. युग-युग से इच्छा मागर में, प्रभु गोते खाता आया हूँ।
-श्री देवशास्त्र गुरु पूजा, युगल किशोर 'युगल' संगृहीत प्रथ-राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, प्रकाशक-राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरि नगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ४८ ।
Page #198
--------------------------------------------------------------------------
________________
i pa j
व्यवहार का कोई विशेष उद्देश्य नहीं रहा है। अभिव्यक्ति में इन अलंकारों के सहज प्रयोग से अर्थ में जो उत्कर्ष उत्पन्न हुआ है, इन कवियों को यही इष्ट रहा है।
वास्तविकता यह है कि पूजा काव्य में अलंकारों के अतिशय उपयोग से aroorfroofक्त को बोझिल नहीं होने दिया है। यहाँ हम कथित पूजा- काव्यकृतियों में अर्थालंकारों का अकारादि कम से इस प्रकार अध्ययन करेंगे कि प्रत्येक अलंकार के रूप-स्वरूप का सम्यक् उद्घाटन हो सकें। इस क्रम में अतिशयोक्ति अलंकार का सर्वप्रथम अध्ययन करेंगे ।
अतिशयोक्ति-
जैन - हिन्दी -पूज. काव्य में उन्नीसवीं शती के पूजाकाव्य के रचयिता वृंदावन ने 'श्रीचन्द्रप्रभु जिनपूजा' नामक पूजाकाव्य कृति में अतिशयोषित अलंकार का सफल प्रयोग किया है। इस शती के अन्य कवि मनरंगलाल रचित श्री अनंतनाथ जिनपूजा' और 'श्रीनेमिनाथ जिनपूजा" नामक पूजा काव्य कृतियों में अतिशयोक्ति अलंकार प्रयुक्त है ।
१. ताको वरणत नहि लहत पार ।
तो अंतरंग को कहे सार ।
- श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रन्थ -- ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस १६५७, पृष्ठ ३३८ ।
२. जय जय अपार पारा न बार ।
गुथ कfथहारे जिह्वा हजार ।
- श्री
अनन्तनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रन्थ- ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १९५७ ई०, पृष्ठ ३५६ ।
३. तुम देखत पाप-पहार बिले ।
तुम देखत सज्जन कंज खिले ॥
- श्री नेमिनाथ जिनपूजा,
मनरंगलाल,
संगृहीतग्रन्थ- ज्ञानपीठ पूजाजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १६५७ पृष्ठ ३७० ।
Page #199
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८७ )
बीसवीं शती में जिनेश्वरदास कृत 'श्री बाहुबली स्वामी पूजा' नामक Aurator कृति में अतिशयोक्ति अलंकार व्यवहृत है ।"
इस प्रकार जैन - हिन्दी-पूजा- काव्य कृतियों में उन्नीसवीं शती के कवियों द्वारा अतिशयोक्ति अलंकार का उपवहार सर्वाधिक हुआ है ।
उपमा
जैन- हिन्दी- पूजा- काव्य में उपमालंकार का व्यवहार अठारहवीं शती से हुआ है। इस शती के पूजा प्रणेता द्यानतराय द्वारा प्रणीत 'श्री देवशास्त्र गुरुपूजा भाषा' और 'श्री निर्माण क्षेत्रपूजा' नामक पूजाओं में लुप्तोपमालंकार के अभिवर्शन होते हैं। इस शती को अन्य कृतियाँ 'श्री बृहत सिद्ध चक्र पूजा भाषा'" ' श्रीदेवपूजा भाषा" में पूर्णोपमालकार के सफल प्रयोग व्रष्टव्य हैं ।
१. बाल समं जिन बाल चन्द्रमा ।
शशि से अधिक धरे दुतिसार ।
- श्री बाहुबली स्वामीपूजा, जिनेश्वरदास, संगृहीत ग्रन्थ-- जंन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड कलकत्ता- ७, पृष्ठ १७१ ।
२. दुस्सह भयानक तासु नाशन कोसु गरुड समान है ।
-श्री देवशास्त्र गुरुपूजा भाषा, द्यानतराय, सगृहीत प्रन्थ-- राजेश नित्य पूजा पाठ सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरि नगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ४२ ।
३. मोती समान अखड तंदुल,
अमल आनंद धरि तरों ।
-
- श्री निर्वाणक्षेत्र पूजा, द्यानतराय, संगृहीतग्रन्थ - राजेश नित्य पूजापाठ सप्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ३७३ ।
४. सुस्वर उदय कोकिला वानी, दुस्वर गर्दभ ध्वनि सम जानी ।
- श्री बृहत सिद्धचक्र पूजा भाषा, द्यानतराय, संगृहीतग्रन्थ जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २४२ ।
५ मिथ्यातवन निवारन चन्द्र समान हो ।
- श्री देवपजा भाषा, बानतराय, संगृहीतग्रंथ - गृहजिनवाणी संग्रह, सम्पा० व रचयिता - पं० पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, १६५६, पृष्ठ ३०४ ।
Page #200
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८० )
shina शती के पूजाकार 'बावन' और मल्लजी' ने लुप्तोपमालंकार तथा रामचन्द्र' और मनरंगलाल " ने पूर्णोपमालंकार का व्यवहार परम्परानुमोदित उपमानों के साथ सफलतापूर्वक किया है ।
बसों शती में श्री आदिनाथ जिनपूजा' और 'श्री देवशास्त्रगुरूपूजा' नामक पूजा कृतियों में लुप्तोपमालंकार तथा श्रीनेमिनाथ जिन
१. शांतिनाथ जिनके पद पंकज, । जो भवि पूजे मन वच काय ।
- श्री शांतिनाथ जिन पूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रंथ - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वक्र्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ११७ ।
२. श्री जिन चरण सरोजकू । पूज हर्ष चितचाव ।
- श्री क्षमावाणी पूजा, मल्लजी, सगृहीतग्रंथ - ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस १६५७, पृष्ठ ४०३ ।
३. अक्षत अखडित मतिहि सुन्दर जोति शशि सम लीजिए ।
- श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द, संगृहीत ग्रंथ --जैन पूजापाठ संग्रह भागचन्द पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता ७, पृष्ठ १२७ ।
४. पय समान अति निर्मल, दीसत सोहनो ।
- श्री अनन्तनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रंथ - ज्ञानपीठ, पूजाजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १९५७, पृष्ठ ३५१ ।
५. तृणवत ऋद्धि सब छोड़िके, तप धारयो वन जाय ।
- श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, संगृहीत ग्रंथ जैन पूजा पाठ संग्रह भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, मलिनो सेठ पृष्ठ २७ ।
रोड,
कलकला-७,
६. मृग सभ मृग तृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख को रेखा ।
-श्री देवशास्त्रगुरु पूजा, युगल नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र पृष्ठ ५०
किशोर 'युगल', संग्रहीत ग्रंथ -- राजेश मेटिल वमसं. हरिनगर, अलीगढ़ १९७६,.
Page #201
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१९)
पूजा और श्री चम्पापुर क्षेत्र पूजा मानक पूजा बनानों में प्र कार उल्लिखित है।
इस प्रकार जन-हिनी-पूजा-काम्ब में व्यबहत उपमानों के माधार पर मह निष्कर्ष कप में कहा जा सकता है कि अपनी भावाभिव्यक्ति में उत्कर्ष उत्पन्न करने के लिए पूजा कवियों ने उपमा अलंकार का सफलतापूर्वक व्यवहार किया है। उपमालकार के विविध प्रयोगों-पूोपमा, सुप्तोपमामें इन पूजाकवियों द्वारा परम्परानुमोक्ति एवं नवीन उपमानों के सफल प्रयोग द्रष्टव्य हैं । उपमालंकार का सर्वाधिक प्रयोग अठारहवीं शती के पूजाकाव्य रचयिता व्यानतराय की पूजा कृतियों में न्यबहुत है । भाव की उत्कृष्टता के अतिरिक्त भावाभिव्यंजना में कविवर दयानतराय को पेष्ट सफलता मिली है। उत्प्रेक्षा
जन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उत्यमा अलंकार का व्यवहार उन्नीसवीं शती से परिलक्षित है। इस शती के उस्कृष्ट पूजा काव्य के रचयिता बावन ने 'श्रीचन्द्रग्रम जिनपूजा' नामक पूजाकाव्य कृति में बस्तुरबालंकार को यजित किया है इस शती के अन्य कविवर मनरंगलाल की पूजाकृति
१. चन्द्र किरण सम उज्ज्वल लीजे,
ममत स्वच्छ सरल गुण खान ।
-श्री नेमिनाथ जिनपूजा, पिनेश्वरदास, संग्रहीत अंब-जंन पूजा पाठ मंग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं. ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकसा-७,
पृष्ठ १११। २. मणि ति सम खण्ड विहीन तंदुल लै नीके।
-श्री चम्पापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम, संग्रहातपंथ जनपूजा पाठ संग्रह, भागबन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ
३. सित कर में सो पय-धार देत,
मानो बांधत भव-सिंधु-सेत ।
-श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, ददावन, संगृहीतष-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोर, बनारस, १९५७ ई०, पृष्ठ ३३७।
Page #202
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १८० )
थी नेमिनाथ जिनपूजा में वस्तुत्प्रेक्षा अलंकार के अभिवसन होते
बीसवीं शती के पूजाकाध्य के कवि जिनेश्वरवास प्रणीत 'श्री बाहुबली स्वामी पूजा' नामक पूजाकृति में वस्तुत्प्रेक्षालकार व्यवहत है।
जन-हिन्दी-पूजा-काव्य के कवियों की हिन्दी-काव्य-कृतियों में उत्कर्ष उत्पन्न करने के उद्दश्य से इसका प्रयोग हुआ है यहाँ उत्प्रेक्षागत वस्तु, हेतु फल नामक प्रभेवों का कोई पृथक रूप से विवेचन करना इन कवियों का अभिप्रेत नहीं रहा है।
उन्नीसवीं शती के पूजाकाव्य के कवि वृन्दावन उत्प्रेक्षाओं के धनी हैं। असमय प्रसंगों को अभिव्यंजना में कवि वृन्दावन को उत्प्रेक्षा करने की अपेक्षा हुई है। इस प्रकार की अभिव्यंजना में कवि वदावन को पूर्ण सफलता प्राप्त हुई है। उदाहरण
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती के कविवर यानतराय पूजा विरचित 'श्री दशलक्षणधर्म" 'श्री बहत् सिद्धचक्र पूजाभाषा' नामक पूजा काव्य कृतियों में उदाहरणालंकार के अपिदर्शन होते हैं। १. मातशिवाहरषी मन में जनु आज प्रसूति जनी महतारी । ___ --श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरगलाल, सगृहीत नथ-ज्ञानपीठ पूजालि,
अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
१६५७, पृष्ठ ३२७ । २. वेडूर जमणि पर्वत मानो नील कुलाचल मथिर जान ।
-श्री बाहुबली स्वामी पूजा, जिनेश्वरदास, सगृहीत नथ, जैनपूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
पृष्ठ १७१। ३. बहुमतक सडहि मसान माहीं,
काग ज्यों चोंचे भरें। -श्री दश लक्षण धर्मपूजा, द्यानतराय, संगृहीतग्रथ-राजेश नित्यपूजा पाठ सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, ष्ठ १८४ । जा पद मांहि सर्व पद छाजे, ज्यो दर्पण प्रतिबिंब विराजे । -श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, द्यानतराय, संग्रहीतग्रंथ, जम पूजा पाठ संग्रह, भागबन्द्र पाटनी, नं. ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकता७, पृष्ठ २४ ।
Page #203
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १९१ )
atest शती के कविवर सेवक प्रणीत 'श्री आदिनाथ जिनपूजा' नामक पूजाकाव्य कृति में उदाहरण अलंकार व्यवहृत है ।"
इस प्रकार जैन- हिन्दी- पूजा- काव्य में उदाहरण अलंकार का सर्वाधिक, प्रयोग अठारहवीं शती के कवि यानतराय की पूजाकाव्य कृतियों में दृष्टिगोचर होता है ।
---
जन- हिन्दी-पूजा काव्य में रूपक अलंकार अपने निरंग रूप में प्रयुक्त है । रूपक में गृहीत उपमानों में इन कवियों द्वारा स्वतंत्रता रखी गई है। रूढ़िवच, रूढ़िमुक्त उपमानों के साथ-साथ अनेक नवीन उपमान भी गृहीत हैं । यहाँ इस वृष्टि से निम्न रूप में अध्ययन किया जा सकता है ।
ય
अठारहवीं शती में विरचित जन- हिन्दी-पूजाओं में मोह, भव तथा ज्ञान उपमेय के लिए क्रमश : तम, सागर' और दीप' नामक रूढ़िबद्ध उपमान रूपक अलंकार में व्यवह त है ।
इसी शती में सम्यक् चारित्र, मुक्ति और शील उपमेय के लिए क्रमशः
१. कठिन कठिन कर नीसर्यो, जैसे निसरं जती मे तार हो ।
- श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, सगृहीतग्रथ - जैनपूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ६६ ।
२. ज्ञानाभ्यास करे मन माही, ताके मोह महातम नाही ॥
- श्री सोलह कारण पूजा, यानतराय, सगृहीतयथ - राजेश नित्य, पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६ पृष्ठ १७६ ।
३. भवसागर सों ले तिरे, पूजें जिन वच प्रीति ।
- श्री सरस्वती
--
पूजा द्यानतराय, संगृहीतग्रंथ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वक्सं, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ३७५ ।
४. तिहि कर्मघाती ज्ञान दीप प्रकाश जोति प्रभावती ।
- श्री अथ देवशास्त्र गुरु की भाषा पूजा, दयानतराय, संग्रहीत पंथजैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, मलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १८ ।
Page #204
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १९२ )
पान', फर' और ममी' नामक कविमुक्त उपमान रूपक अलंकार में परिलक्षित है।
इसके अतिरिक्त इस शताब्दि में भव, धर्म तथा चेतन उपमेय के लिए प्रमशः पीजरा', नाव, और ज्योति नामक नवीन उपमान रूपकालंकारामतर्गत प्रष्टव्य हैं।
उन्नीसवीं शताग्दि के पूजा-काम्य कृतियों में अभिव्यक्ति के लिए हदिवड, रूढ़िमुक्त और नबीन उपमानों पर आधारित निरंग रूपकों का मूल्यवान स्थान है। इस शती के उत्कृष्ट पूजाकार वृन्दावन ने भव और
-
१. सम्यक्चारित्र रतन समालो, पांच पाप तजि के द्रत पालो।
-श्री चारित्रपूजा, द्यानतराय, सगृहीत ग्रंथ, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह,
राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १६६ । २. निहवेमुकतिफल देहू मोकों, जोर कर विनती करों ।
-श्री निर्वाण क्षेत्र पूजा, दयानतराय, संग्रहीत ग्रंथ - राजेश नित्य पूजा
पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृ० ३७४ । ३. सहुंशील-लच्छमी एव, छूटों फूलन सो।
-श्री नन्दीश्वरद्वीप पूजा, यानतराय, संगृहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ
१७२। ४. करै करम की निरजरा, भव पीजरा विनाशि ।
-श्री दशलक्षण धर्मपूजा, धानतराय, सगृहीतग्रंथ-राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वसं, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६ पृष्ठ
१८६। ५. चानत धरम की नाव बैठो, शिवपुरी किशलात है ।
-श्री रत्नत्रय पूजा, द्यानतराय, संगृहीतपथ - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ
१६६ । ६. मोह तिमिर हम पास, तुम पं चेतन जोत है।
-श्री बहत सिद्ध चक पूजा भाषा, धानतराय, संगृहीत ग्रंथ-जैनपूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक-भागचन्द्र पाटनी, नं० १२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २३६ ।
Page #205
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१६३ ) मोह उपमेव के लिए कमरा : सागर' और सिमिर नामक उपनाव का प्रयोन रूपक अलंकार में संदिग्ध रूप से किया है । कविवर मालजी त बी समावाणी पूना' में मुक्ति उपमेय के लिए श्रीफल नामक रूढ़िमुक्त उपमान उल्लिखित है । मन मुक्ति और मन उपमेय के लिए कमश : जाल', रमणी और सुमेरपर्वतनामक नवीन उपमान इस काल के पूजाकाव्य में वृष्टिगोबर होते हैं। ___ सबों शती की पूजा-काव्य-कृतियों में परम्परागत उपमानों के अतिरिक्त कतिपय नवीन उपमानों के साथ निरंगरूपकालंकार का व्यवहार परिलक्षित है। इस काल के पूजाप्रणेताओं ने भव, मोह और बान उपमेय के
१. जय शान्तिनाथ चिदू पराज, भवसागर में अदभुत जहाज।
-श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वृदावन, संग्रहीतग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बर्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ
२. मम तिमिर मोह निरवार, यह गुन धातु हो। ...
-श्री चन्द्रप्रमु जिनपूजा, बन्दावन, संगृहीतग्रंथ-मानपीठ पूजांजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोग, बनारस,
१९५७, पृष्ठ ३३४।. ३. कह मल्ल सरधा करी, मुक्तिबोफल होय.
-श्री' अमावाणी पूजा मल्लजो, सग्रहीतग्रंथ-जौनपीक प्रांजलि अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
१६५७, पृष्ठ ४०७ । ४. श्री कुपदयाल जग-रिजाल.हन भव-जाल युगमाल। ....
-श्री पुनीष जिनपूजा, बसतावररल, सहतिय-मानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय. मंत्री भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड
रोड, बनारस, १६५७, पृष्ठ ५४२ ॥ ५. पाय जरी मरमादि नाधिकार मुक्ति रमनि भरतार। .
-श्री पवे कल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । ६. जय तृषा परोषह करत जेर ।
कह रब चलत नहिं मन सुमेर।। -श्री सप्तबिपूजी, मनरमलाल, संग्रहीतबंध-रोप नित्य पूजा पाठ संग्रह, गजेन्द्र मेटिल बस, हरिनगर, अलीगढ़, १९६६, पृष्ठ
Page #206
--------------------------------------------------------------------------
________________
इस प्रकार व्यतिरेक मसंकार का व्यवहार उन्नीसवी सती पूजा-कायों केहीमा । व्यतिरेक अलंकार का व्यवहार कवि ने अबरस माता की पल-परिमा अपवा सौन्दयाभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध उपमानों को हॉन आहाराकर ही सम्पन्न किया है । इस प्रकार की अभिव्यक्ति में इन कवियों को आशातीत सफलता प्राप्त हुई है।
उपयंकित विवेचन से यह स्पष्ट है कि जन-हिन्दी-पूजा-काव्य में किनकिन अलंकारों का किस विधि प्रयोग हुआ है । इन अलंकारों के प्रयोग द्वारा इन कषियों को अपने आचार्यत्व पदर्शन करने का लक्ष्य नहीं रहा है। उन्हें मूलत : अभिप्रेत रहा है अपनी भक्त्यात्मक भावना को सरल विधि से अमित करना । इस वृष्टि से इन कवियों के द्वारा अलंकारों का प्रयोग समसफल ही माना जायेगा। विविध अलंकारों के व्यवहार से कवियों की मायात्मक-मावनाको उत्कर्ष प्राप्त हुआ है।
Page #207
--------------------------------------------------------------------------
________________
छन्दोयोजना
छन्द काव्य की नैसर्गिक आवश्यकता है। छन्द और भाव का प्रगाड़ सम्बन्ध है। भाव को अधिक संप्रेषणीय बनाने की शक्ति छन्द में निहित है। छन्द कयिता और सामाजिक दोनों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। छन्द को अवतारणा रचयिता के भावावेग को संयमित और नियंत्रित करके उसका परिष्कार करती है सो सामाजिक के व्यक्तित्व को कोमल और ससंस्कृत बना कर मंगल का सूत्रपात करती है । लयात्मक अभिव्यक्ति से पवि एफ को अभीप्सित आनंदोपलब्धि होती है, तो दूसरों को भी लयबद अभिव्यक्ति के श्रवण, उच्चारण सथा अर्थ-ग्रहण से लोकोतर आनंद की प्राप्ति होती है।
काव्याभिव्यक्ति में बहमुखी उपयोगिताओं का सामंजस्य छन्द प्रयोग पर निर्भर करता है। हिन्दी काव्य-धारा में रसानुसार विविध प्रसंगों में छन्दों के प्रयोग में वैविध्य के दर्शन होते हैं। जहां तक जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में प्रयुक्त छन्दों के अध्ययन का प्रश्न है यहाँ उस पर संक्षेप में विचार करना हमारा मूलाभिप्रेत रहा है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में बत्ती: छन्दों का व्यवहार हुआ है। प्रयुक्त इन छन्दों को हम दो भागों में विभाजित कर सकते हैं, यथा
१. मात्रिक छन्द २ णिक छन्द
पूजाकाव्य में मात्रिक छन्दों की संख्या तेईस है जिसे लक्षण के आधार पर तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है यपा
१. मात्रिक सम छन्द २. मात्रिक अर्व समछन्द ३. मात्रिक विषम छन्द
-
१. जैन-हिन्दी-काव्य में छन्दोयोजना, आदित्य प्रचण्डिया दौति, प्रकाशक-जैन
शोध अकादमी, आगरा रोड, अलीगढ़, प्रथमसंस्करण सन १६७६, पृष्ठ १०॥
Page #208
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १९८ )
विवेच्य काव्य में मात्रिक समछन्दों की संख्या उन्नीस है, असम मात्रिक छन्दों की संख्या केवल दो है तथा मात्रिक विषम छन्दों की संख्या मात्र को है। जहाँ तक णिक वृतों का प्रश्न है समग्र पूजा-काव्य में उनके प्रयोग की संख्या मात्र नौ है । इस प्रकार पूजा-काव्य के प्रणेताओं को वणिक वृतों की अपेक्षा मात्रिक छन्दों का प्रयोग अधिक आनकल्य रहा है यहां हम इन छन्दों का अध्ययन मात्रा-विकास को दृष्टि से पहले मात्रिक छन्दों का करेंगे और उसके उपरान्त अकारावि क्रम से वर्णिक वृतों को अपने विवेचन का विषय बनायेंगे। मात्रिक समछन्द चोबोला
बोबोला मात्रिक समछन्द का एक भेद है। हिन्दी में यह छन्द वीर तथा श्रृंगार रसोद्र के के लिए उल्लिखित है। जन-हिन्वी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के पूजाकार वृन्दावन ने 'प्राकृत पैंगलम' के लक्षणों के आधार पर घोबोला छन्द का प्रयोग 'श्रीचन्द्रप्रभु जिन पूजा' नामक कृति में शांत रस के परिपाक के लिए किया है। अडिल्ल
मात्रिक समछन्द का एक भेद अडिल्ल छन्द है।' सामान्यतः हिन्दी में वीररसात्मक अभिव्यक्ति के लिए अडिल्ल छन्द का प्रयोग हुआ है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य के रचयिताओं ने हिन्दी कवियों की नाई अडिल्ल छन्द के नियमों में पर्याप्त परिर्तन किया है। अठारहवीं शती के कविवर १. जगन्नाथ प्रसाद भानु', छन्दः प्रभाकर, प्रकाशिका-पूर्णिमा देवी, धर्मपत्नि
स्व० बाबू जुगल किशोर, जगन्नाथप्रिंटिंग प्रेस, विलासपुर, संस्करण १६६० ई०, पृष्ठ ४६ ।। आठों दरब मिलाय गाय गुण, जो भविजन जिन चंद जजें। ताके भव-भव के अघभाजें, मुक्तिसार सुख ताहिं सजें॥
-श्रीचन्द्रप्रभु जिनपूजा, वृन्दावन, संगहीतग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक, -अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्रो, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ३३८ । हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशकज्ञानमंडल लिमिटेड, बनारस, संस्करण संवत् २०१५. पृष्ठ १०।
Page #209
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १६ )
पानसराय ने उनीसवीं शती के कविवर रामचन्द्र और बसावररत्न' ने तथा बीसवीं शती के कविवर जवाहरलाल, आशाराम' हीराचन्द और
१. प्रथम देव बरहंत सुश्रुत सिद्धांत जू।
गुरु निरग्रंथ महंत मुकतिपुर पथ जू ॥ तोन रतन जग मांहि सो ये भविध्याइये। तिनकी भक्ति प्रसाद परमपद पाइये ।। -श्री देवशास्त्रगुरुकीपूजाभाषा, दयानतराय, संगृहीतग्रन्थ जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता
७, पृष्ठ १६ । २. श्री सम्मेदशिखर पूना, रामचन्द्र, संग्रहीत य-जन पूजा पाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १२५ । ३. जो पूजे मनलाय भव्य पारस प्रभु नितही,
ताके दुःख सब जाय भीत क्यापै नहि कितही। मुख सम्पति अधिकाय पुत्र मित्रादिक सारे, अनुक्रमसों शिव लहे, 'रतन' इमि कहे पुकारे ।। -~~-श्री पार्वनाथ जिन पूजा, बख्तावररत्न, संगहीतग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड,
बनारस, संस्क० १६५७ ई०, पृष्ठ ३७७ । ४. है उज्ज्वल वह क्षेत्र सुअति निरमल सही।
परम पुनीत सुठौर महागुण की मही ।। सकल सिद्धि दातार महा रमणीक है। बंदो निज सुख हेत अचल पद देत है। -~~ श्री सम्मेद शिखर पूजा, जवाहरलाल, संग्रहीतग्रंथ-बहजिनवाणी संग्रह, सम्पा० व रचयिता-पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़,
सितम्बर १९५६, पृष्ठ ४६८ । ५. श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा, आशाराम, संगृहीतग्रंथ-जन पूजापाठ
संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ
१५०। ६. श्री सिद्धचक्रपूजा, हीराचंद, संगृहीत ग्रंथ - वृहजिनवाणी संग्रह, सम्पा.
व रचयिता पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, सितम्बर १६५६, पृष्ठ ३२८।
Page #210
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २०० )
बीमचन्द' ने भी इस छन्द को पर्याप्त परिवर्तन के साथ अपनी पूजा काव्यकृतियों में व्यवहार किया है। इन सभी पूजारचयिताओं ने इस एंव को शांतरस के परिपाक में प्रयोग किया है ।
चौपाई
•
चौपाई मात्रिक समछत्व का एक भेद है ।" अपभ्रंश में पद्धरिया छन्द में चोपाई का आदिम रूप विद्यमान है ।" अपभ्रंश की कड़बक शैली जब हिन्दी में अवतरित हुई तो पद्धरिया छंद के स्थान पर चौपाई छंद गृहीत हुआ है। चौपाई छंद सामान्यत: वर्णनात्मक है अतः इस छंद में सभी रसों का निर्वाह सहज रूप में हो जाता है । कथाकाव्यों में इस छंद की लोकप्रियता का मुख्य कारण यही है ।
जैन - हिन्दी-पूजा - काव्य में इस छंत्र के दर्शन अठारहवीं शती से होते हैं । अठारहवीं शती के कविवर धानतराय ने 'श्री निर्वाणक्षेत्र पूजा' नामक कृति में इस छंद का व्यवहार सफलतापूर्वक किया है। *
१. श्री बाहुबलि पूजा, दीपचन्द, संगृहीतग्रंथ - नित्य नियम विशेष पूजन सग्रह, सम्पा० व प्रकाशिका -० पतासीबाई जैन, गया (बिहार), संवत २४८७, पृष्ठ ६२ ।
२. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशकज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस, संस्क० संवत् २०१५, पृष्ठ २९० ।
३. अपभ्रंश के महाकाव्य, अपभ्रंश भाषा और साहित्य डा० हीरालाल, लेख प्रकाशित नागरी प्रचारिणी पत्रिका, हिन्दी जैन भक्तिकाव्य और कवि, डा० प्रेम सागर जी जैन, प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, वाराणसी-५, पृष्ठ ४३६ ।
४. जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य को देव, डा० रामसिंह तोमर, प्रेमी अभिनदन ग्रथ, प्रकाशक- यशपाल जैन, मंत्री, प्रेमी अभिनंदन ग्रंथ समिति, टीकमगढ़ ( सी० आई० ), संस्क० अक्टूबर १९४६, पृष्ठ ४६८ ।
५. नमों ऋषभकैलास पहारं,
नेमिनाथ गिरनार निहारं । वासुपूज्य चंपापुर बंदी, सन्मति पावापुर अभिनदो ||
द्यानतराय, सगृहीत ग्रथ - राजेश नित्य राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़,
- श्री निर्वाण क्षेत्र पूजा, पूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक सहकरण १९७६, पृष्ठ ३७३
।
Page #211
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २०१ )
उatest शती में रामचन्द्र', बस्तावररत्न', कमलनयन' और मल्लजी * विरचित पूजा कृतियों में भी यह छंद व्यवहत है ।
बीसवीं शती
रबिमल, होराचंद नेम रघुतन
कूष मात श्रीकांता आइयो । धनद देव आय बरषा करी, हम जजें धन मान वही घरी ॥
१. श्री सम्मेदशिखर पूजा, रामचन्द्र, गृहीतग्रंथ -जैन पूजापाठ, संग्रह,
प्रकाशक - भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १२५ ।
२. भ्रमर सावन दशमी गाइयो,
"
- श्री कुंथुनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, संगृहीतग्रंथ पूजांजलि, प्रकाशक -अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मत्री, ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ५४४ :
३. श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित |
५. खण्डधातु गिरि अचल जु मेरा,
जान,
दक्षिण तास भरत बहु घेरु । तामे चोबीसी त्रय आगत नागत अरु वर्तमान ||
ज्ञानपीठ भारतीय
४. श्री क्षमावाणी पूजा, मल्लजी, सगृहीतग्रंथ -- ज्ञानपीठ पूजांजलि, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, संस्करण १६५ ई०, पृष्ठ ४०२ ।
श्री तीस चोबीसी पूजा, रविमल, सगृहीतग्रंथ जैन पूजापाठ संग्रह, प्रकाशक - भागचन्द्र पाटनी, न०६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २४७ ।
७. श्री अकृत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम प्रकाशक - भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, पृष्ठ २५१ :
६. श्री चतुविंशति तीर्थंकर समुच्चय पूजा, हीराचंद, संगृहीतग्रंथ-मित्य नियम विशेष पूजन सग्रह, सम्पा० व प्रकाशिका ब्र० पतासीबाई जैन, गया ( बिहार ), पृष्ठ ७१ ।
संगृहीतग्रंथ जैन पूजा पाठ संग्रह, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
•
८. श्री विष्णु कुमार महाराज पूजा, रघुसुत, संगृहीतग्रंथ - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेडिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, संस्क० १६७६, पृष्ठ ३६७ ।
Page #212
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २०२ )
दीपचंद' और मुन्नालाल' ने अपनी पूजाकाव्य कृतियों में इस छन्द का प्रयोग किया है ।
जैम- हिन्दी- पूजा - काव्य में चौपाई का सर्वाधिक प्रयोग अठारहवीं शती के कविवर दयानतराय ने शांतरस के परिपाक के लिए किया है।
परि
arfreera का एक विशेष भेद पद्धरि है। अपभ्रंश के रससिद्ध कवि पुष्पवंस द्वारा रचित नख-शिख वर्णन में परि छंद का प्रयोग श्रृंगार रसानुभूति के लिए व्यवहुत है । "
हिन्दी के आरम्भ में पद्धरि छंद वीर रसात्मक अभिव्यक्ति के लिए व्यवहृत है । भक्तिकाल में यही छंद भक्त्यात्मक प्रसंग में शान्त तथा श्रृंगार रसानुभूति के लिए हिन्दी कवियों द्वारा प्रयुक्त हुआ है ।
हिन्दी के जंन कवियों ने इस छंद का व्यवहार अधिकतर धार्मिक अभिव्यक्ति में किया है जहाँ मक्त्यात्मक और सिद्धात विषयक बातों की चर्चा हुई है। अठारहवीं शती के कविवर व्यानतराय ने 'श्री अन्य देवशास्त्र गुरु की भाषा पूजा' में इस छंद का सफलता पूर्वक व्यवहार किया है । *
१. श्री बाहुबलि पूजा, दीपचंद संग्रह, सम्पा० व प्रकाशिका ब्र० पृष्ठ ६२ ।
संगृहीतग्रंथ - नित्य नियम विशेष पूजा पतासीबाई जैन, गया ( बिहार )
२. श्री खण्डगिरिक्षेत्र पूजा, मुन्नालाल,
संगृहीतग्रंथ जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १५५
३. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा०-धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशकज्ञानमंडल लिमिटेड बनारस, संस्क० सं० २०१५, पृष्ठ ४३७ ।
४. जैन- हिन्दी-काव्य में छन्दोयोजना, आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', प्रकाशकजैन शोध अकादमी, आगरा रोड, अलीगढ, १६७६, पृष्ठ १६ ।
५. शुभ समवशरण शोभा अपार,
शत इन्द्र नमत कर शीश धार । देवाधिदेव अरहंत देव,
बंदी मन वच तन करि सू सेव ।।
- श्री अथदेवशास्त्र गुरु की भाषा पूजा, दयानतराय, संगृहीतग्रंथ राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, प्रकाशक - राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, संस्क० १६७६, पृष्ठ ३६ ।
Page #213
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २०३ )
उन्नीसवीं शती के कविवर वृंदावन', ममरंगलाल, रामचन्द्र', बख्तावररत्न' और कमलनयन द्वारा प्रणीत पूजा काव्य में इस छन्द का प्रयोग हुआ है।
atest शर्तों के मक्तकवि दौलतराम, भविलालजू", जवाहरलाल", आशाराम, नेम" और पूरणमल" की पूजा-रचनाओं में भी यह छंद प्रयुक्त है । १. जय चन्द्र जिनेन्द्र दयानिधान,
भवकानन-हानन दव प्रमान । जय गरभ-जनम - मंगल दिनंद, भवि जीव विकाशन शर्म-कद ||
-
- श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, वृंदावन, सगृहीतग्रथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशक - अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ३३६ ।
- श्री अथ सप्तर्षिपूजा, मनरंगलाल, संगृहीत ग्रंथ - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक - राजेन्द्र मेटिल वक्सं, हरिनगर, अलीगढ़, संस्करण १७६, पृष्ठ १४० ।
३. - श्री गिरनार सिद्ध क्षेत्रपूजा, रामचन्द्र, संगृहीतमय जैन पूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक- भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ १४१ ।
४. श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, संगृहीत ग्रंथ - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, गजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ११८ । ५. श्री पंचकल्याणक पूजा पाठ, कमलनयन, हस्तलिखित ।
६. श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा, दौलतराम सगृहीतग्रंथ जैन पूजापाठ संग्रह, प्रकाशक- भागचन्द्र पाटनी, नं०६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १४७ । - श्री सिद्ध पूजा भाषा, भविलालजू, संगृही ग्रंथ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़ संस्करण १६७६, पृष्ठ ७१ । ८. श्री सम्मेद शिखर पूजा, जवाहरलाल, संगृहीतग्र प- बृहजिनवाणी सग्रह, सम्फा० व रचयिता स्व० पं० पन्नालाल वाकलोवाल, मदनगंज, किशनगढ़, सितम्बर १९५६, पृष्ठ ४६८ ।
९. श्री सोनागिरि सिद्ध क्षेत्र पूजा, आशाराम संगृहीत प्रथ जैन पूजापाठ संग्रह, प्रकाशक - भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १५३ ।
७.
१०. श्री अकृत्रिम चैत्यालयपूजा, नेम
संगृहीत - जैन पूजापाठ संग्रह, प्रकाशक- भागचन्द्र पाटनी, नं. ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २५१ ।
११. श्री चांदनपुर महावीर स्वामी पूजा, पूरणमल, संगृहीत ग्रंथ जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ १५६ ।
Page #214
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २०४ }
उल्लेखनीय बात यह है कि जैन कवियों की हिम्बी-पूजा- कव्य कृतियों में प्रद्धरि छंद शांतरस के निरूपण में ही व्यवहृत है। इस दृष्टि से इस छन् का सर्वाधिक प्रयोग १६ वीं शती में परिलक्षित है ।
पादाकुलक
afts समन्व का एक भेव पावाकुलक छन्द है । पादाकुलक को एक छंद विशेष के रूप में अपभ्रंश के सशक्त महाकवि स्वयंभू और प्राकृत-मंगलम् - कार के द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त हुई किन्तु चार चोकल वाले पादाकुलक के चरण की व्यवस्था संभवत: सर्वप्रथम भानु ने सम्पन्न की है ।"
जैन - हिन्दी- पूजा-काव्य में पावाकुलक छंद का व्यवहार बीसवीं शती के afe waaraare रचित 'श्री तत्वार्थ सूत्रपूजा' नामक पूजाकाव्यकृति में शान्तरस के परिपाक के लिए परिलक्षित है।'
चान्द्रायण
erator मात्रिक समछेद का एक मेव है ।
जंन हिन्दी - पूजा काव्य में अठारहवीं शती के कविवर व्यानतराय ने 'श्री सोलहकारण पूजा' नामक पूजा रचना में इस छंद का प्रयोग किया है। *
१. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशकज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस, संस्क० सवत् २०१५, पृष्ठ ४४८ ।
२. सूर साहित्य का छन्द: शास्त्रीय अध्ययन, डॉ० गौरीशंकर मिश्र 'द्विजेन्द्र', परिमल प्रकाशन, १९४, सोहबतिया बाग, इलाहाबाद-६, अगस्त १९६९ ई०, पृष्ठ६०-६१ ।
३. अति मान सरोवर झील खरा,
करुणा रस पूरित नीर भरा ।
वशधर्म बहे शुभ हंस तग प्रणनामि सूत्र जिनवाणि भरा ||
- श्रीतत्वार्थ सूत्रपूजा, भगवानदास, समृहीतग्रंथ, जैन पूजापाठ संग्रह, प्रकाशक- भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ४१० ।
४. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञानमंडल लिमिटेड, बनारस, संस्करण सं० २०१५, पृष्ठ २५७ ।
५. सोलह कारण भाय, तीर्थ कर जे भये ।
हरषे इन्द्र अपार, मेरु पे ले गये ।।
पूजा करि निज धन्य, लख्यो बहु चावसों ।
हमहू षोडश कारन, भावें भाव सों ॥
- श्री सोलह कारण पूजा, दयानतराब, संगृहीतग्रंथ, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १७४ ।
Page #215
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २०५ )
उन्नीसवीं शती के कविवर मनरंगलाल' और बक्तावररत्न' की पूजाओं में भी चान्द्रायण छंद के अभिवर्शन होते हैं।
atnai शती के अन्य कविवर जिनेश्वर कृत 'श्री नेमिनाथ जिनपूजा' नामक पूजा में चान्द्रायण छन्द प्रयुक्त है ।"
प्रेम-पूजा - काव्य में चान्द्रायण छंद मक्त्यात्मक अभिव्यक्ति के लिए व्यवहत है ।
अवतार
अवतार छन्द मात्रिक समछन्द है । जन-हिन्दी-पूजा-काव्य में इस छंद के अभिदर्शन उम्मीस शती से होते हैं । कविवर वृंदावन मे अपनी पूजा
१ श्री अनंतनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल संग्रहीतम-ज्ञानपीठ पूर्णाजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीक, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, कृष्ण रोड, बनारस, १२५७, पृष्ठ ३१
२ श्री कुंथुनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, संग्रहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठं पूतंजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, कुण्ड रोड, बनारस, १२५७ पृष्ठ १४१ ।
३. वर्तमान विनय भरत के जानिये ।
पंचकल्याणक मानि' गये शिव थानिये ॥
जो नर मन वच काय प्रभु पूजे सही ।
सो नर दिव सुख पाव सह अष्टम मही ।
४
श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास, संगृहीतग्रंथ जैन पूजा पाठ संग्रह प्रकाशक- भागचन्द्र पाटनी, नं० १२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ११४ ।
छन्दः प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसा
स्वचायुपरि जयम
६०, पृष्ठ ६० १
माधर्मनि
१६०
Page #216
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्य कृतियों 'श्रीचन्द्रप्रभ जिनपूजा" और 'श्री महावीर स्वामी पूजा में अवतार छन्द का सफलतापूर्वक व्यवहार किया है ।
बीसवीं शती के भविलालजू रचित 'श्री सिद्ध पूजा भावा' में भी यह छर उल्लिखित है।'
जन-हिन्दी-पूजा-काव्य में अवतार छन्द शान्तरस की अभिव्यक्ति में ज्यबहत है। उपमान
मात्रिक सम छन्द का एक भेव उपमान छंव है ।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में बीसवीं शती के कविवर पूरणमल द्वारा प्रणीत 'भी चांदनपुर स्वामी पूजा' नामक कृति में उपमान छन्द व्यवहृत है। इसके
१. गंगा हृद-निरमल नीर, हाटक भगभरा।
तुम चरन जजों वरवीर, मेटो जनम जरा ।। श्री चंदनाप दुतिचन्द, चरनन चंद लगे । मन वच तनः जजत अमंद, आतम जोति जमे ।।
-श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, संगृहीतग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजाजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १६५७ ई०,
पृष्ठ ३३३ । २. श्री महावीर स्वामी पूजा, धन्दावन, संगृटोतमथ-राजेश नित्य पूजा पाठ
संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ, १६७६, पृष्ठ १३२ । ३. श्री सिद्ध पूजा भाषा, भविलालजू, संगृहीत अंध-राजेश नित्य पूजापाठ
सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वसं, हरिनगर, अलीगढ़, सस्करण १६७६,
पृष्ठ ७१। ४, छन्दः प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', प्रकाशिका-पूर्णिमादेवी धर्मपत्नि
स्व. बाबू जगलकिशोर, अगन्नाथ प्रिंटिंग प्रेस, बिलासपुर, संस्करण
१६६० ई०, पृष्ठ ५६ । ५. क्षीरोदधि, से भरि नीर, कंचन के कलशा।
तुम चरणनि देत चढ़ाय, आवागमन नशा ॥ चांदनपुर के महावीर, तोरी छवि प्यारी।
प्रभु भव माता निवार, तुम पद बलिहारी॥ , -श्री पावनपुर स्वामी. पूजा, पूरणमल, संग्रहीतमन्य-जनपूजापाठ संग्रह
भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कसकता-७, पृष्ठ १५९ ।
Page #217
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २०७ )
अतिरिक्त कविवर मुम्नालाल विरचित 'श्रीखण्ड गिरि क्षेत्र पूजा' नामक काव्य मैं भी यह छन्द प्रयुक्त है "
जैन- हिन्दी- पूजा - काव्य में उपमान छन्द का प्रयोग शांतरस के उम्र के में हुआ है । हीरक
हीरक मात्रिक समछेद का एक भेव है। जैन- हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के कविवर बख्तावर रत्न ने 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा' नामक कृति में हीरक छंद का व्यवहार शांतरस के परिपाक में किया है ।"
रोला
रोला मात्रिक समछंद का एक भेद है। जैन- हिन्दी-पूजा-काव्य में उझीसवीं शती के कविवर वृन्दावन' और मनरंगलाल तथा बीसवीं
१. श्री खण्ड गिरिक्षेत्र पूजा, मुन्नालाल, संगृहीतग्रथ जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं ६२, नलिनी सठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १५५ । २. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशकज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस, संस्करण सं० २०१५, पृष्ठ ८६६ ।
३. क्षीर सोम के समान अबुमार लाइने ।
हेमपात्र धारिके सु आपको चढाइये || पार्श्वनाथ देवसेव, आपकी करु सदा । दीजिए निवास मोक्ष, भूलिये नही कदा ||
- श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, सगृहीतग्रथ राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, संस्क० १६७६, पृष्ठ ११८ ।
४. हिन्दी साहित्य कीश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशकज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस, संस्क० संवत् २०१५, पृष्ठ ६७६ ।
५. पदमराग मनिवरन धरन, तन तंग अढ़ाई ।
शतक दण्ड अध खण्ड, सकल सुर सेवन छाई ॥ धरनि तास विख्यात, सुसीमाजू के नंदन । पदम चरन धरि राग, सुथापो इति करि बंदन ॥.
-श्री पदम प्रभु जिनपूजा, वृंदावन, संगुहीतग्रंथ-राजेश नित्यपूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ८२ ।
६. श्री अथ सप्तष पूजा, मनरंगलाल
संग्रह, राजेन्द्र मेटल बक्सं, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १४० ।
संग्रहीतग्रंथ- राजेश नित्य पूजापाठ
Page #218
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
२०८ )
सती के कविवर माशाराम' को पूमानों में इस छंद का व्यवहार
कामरूप
कामरूप मात्रिक समछर है। जन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के कविवर मनरंगलात कृत्त 'श्री अनंतनाथ जिनपूजा नामक पूजाकाव्य में कामरूप छंह के अभिवर्शन होते है।'
कविवर मनरंगलाल ने कामरूप छंद का व्यवहार भक्त्यात्मक अभिव्यक्ति में शान्तरसोद्रेक के लिए किया है। गीतिका
गीतिका मात्रिक समछंद का एक भेद है। जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में बीसबों सती के कविवर जवाहरलाल कृत 'श्री सम्मेदशिखर पूजा' नामक पूर्णा-काव्य में गौतिकी के ऑमवर्शन होत है ।।
१. श्री सोनागिरे सिसि क्षेत्र पूजा, मागाराम, संग्रहीतग्रंप जैनपूजा पाठ
संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
पृष्ठ १५० २. छन्दः प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', प्रकाधिका-पूणिमादेवी धर्मपलि
स्व. बाद जुगलकिशोर, जगन्नाथ प्रिटिंग प्रेस, बिलासपुर, संस्क. १९६०
ई०, पृष्ठ ६५॥ ३. शुभ जेठ महिना, बदी द्वादश के दिना जिनराज ।
जन्मत भयो सुख जगत के पढ़ि, नाग सहित समाज । शचिनाप बाय भीय पूजा, जनम दिन को कीन । मैं जत युगपद, भरपं सौ प्रभु, करहु संकट छीन । -श्री बनतनाप जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रंए जानपीठ पूजांजलि अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय मानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड,
बनारस, संस्करण १९५७ १०, पृष्ठ ३५४।। ४. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाष, सम्पा-धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञान ____ मल लिमिटर, बनारस, संस्करण सर्बत् २०३५, पृष्ट २६ ।
सितम्बर १, पृष्ठ
Page #219
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२०६ ) इस प्रकार जन-हिन्दी पूजा-काव्य में शांत रस को निष्पत्ति के लिए गीतिका छंद को अपनाया गया है। गीता
मात्रिक समछंद का एक भेद गीता छंद है। जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती के प्रसिद्ध कविवर यानतराय ने 'श्री देवशास्त्र गुरु की पूनाभाषा' में गीताछंद का प्रयोग किया है।
उन्नीसवीं शती के पूजाकाव्य के रससिद कविवर मनरंगलाल की 'श्री अनन्तनाथ जिनपूजा" और 'श्री शीतलनाथ जिनपूजा में गीता छंद व्यवहत है। इसके अतिरिक्त इसी शती के अन्य उत्कृष्ट कवि बखतावररत्न को 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा" में भी गीता छंद परिलक्षित है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में भक्त्यात्मक प्रसंग में गीता छंद को गहीत किया गया है जिसका परिष्कृत रूप हरिगीतिका जैसा है।
१. छन्दः प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद 'भानु', प्रकाशिका-पूर्णिमादेवी, धर्म
पलि स्व० बाबू जुगल किशोर, जगन्नाथ प्रिंटिंग प्रेस, विलासपुर, संस्क.
१६६० ई०, पृष्ठ ६५ । २. लोचन सु रसना ब्रान उर, उत्साह के करतार हैं।
मोपे न उपमा जाय वरणी सकल फल गुणसार हैं ।। सो फल चढावत अर्थ पूरन, परम अमृत रस सचू। अरहत श्रुत सिद्धान्त गुरू-निरग्रंथ नित पूजा रचू॥
-श्री देवशास्त्र गुरु की पूजाभाषा, द्यानतराय, संग्रहीत ग्रंथ जैन पूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक-भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड,
कलकत्ता-७, पृष्ठ १६।। ३. श्री अनंतनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि,
प्रकाशक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड,
बनारस, संस्क० १६५७ ई०, पृष्ठ ३५१ । ४. श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीत प्रथ- राजेश नित्य पूजा
पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ
६७ । ५. वर स्वर्ग प्राणत को विहाय, सुमात वामा सुत भये ।
अश्वसेन के पारस जिनेश्वर, चरन जिनके सुर नये ॥ नव हाथ उन्नत तन विराजे, उरग लच्छन पद लसें। थापू तुम्हें जिन आय तिष्ठों, करम मेरे सब नसें ।। ---श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, संगृहीतग्रंथ- राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वसं, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ११८ ।
Page #220
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
२१.)
सरती
सरसी छंद मात्रिक समछंदों का एक भेद है।' जैन-हिन्दी-पूना-काव्य में सरसो छंद का व्यवहार उन्नीसवीं शती के कविवर वृंदावन की 'बी पद्मप्रभु बिनपूणा' नामक पूजाकाव्य कृति में हुआ है।
बीसवीं शती के कविवर हीराचंद की 'श्री चतुर्विशति तीर्य कर समुच्चय पूजा' नामक पूना रचना में इस छन्द के अभिवर्शन होते हैं।'
सरसी छन्द का प्रयोग शान्तरस के परिपाक में जैन पूजाओं में उल्लिखित है। सार___सार मात्रिक सम छंद का एक भेद है। जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के कविवर वदावन की 'श्री महावीर स्वामी पूजा नामक' पूजा रचना में इस छंद का व्यवहार हुआ है।
१. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशक
ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारम, संस्क० स० २०१५, पृष्ठ ८१८ । २. गंगाजल अति प्रासुक लीनो सौरभ सकल मिलाय । - मन बच तन त्रय धार देत हो, जनम जरामृत जाय ।।
-श्री पद्मप्रभु जिनपूजा, वृदावन, स गृहीत प्रथ- राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्स, हग्निगर, अलीगढ़, संस्क० १९७६ पृष्ठ ८२ । ३. अष्ट द्रव्य भर थाल में जी, लीनो अर्घ बनाय । पंचमगतिमोहि दोर्जे जी, पूजू अंग नमाय ॥
-श्री चतुर्विशति तीर्थकर समुच्चयपूजा, हीराचन्द, संगृहीतय-नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, सम्पा. व प्रकाशिका-ब पतासीबाई जैन, ' (बिहार), पृष्ठ ७३ । ४. हिन्दी साहित्य कोण, प्रथम भाग, सम्प.. धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशक
शानमण्डल लिमिटेड, बनारस, सस्करण सं० २०१५, पृष्ठ ८४१ । ५. जनम चेत सित तेरस के दिन, कुण्डलपुर कन-वरना।
सुरगिरि सुरगुरु पूज रचायो, मैं पूजों भव-हरना ।। -श्री महावीर स्वामी पूजा, वृन्दावन, संग्रहीतग्रन्थ-राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, संस्करण १९७६, पृष्ठ १३५।
Page #221
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २११ )
बीसवीं सती के हीराचंद ने 'श्री चतुर्विशति तीर्ष कर समुन्वय पूजा' में सार छंब का प्रयोग सफलतापूर्वक किया है । इसके अतिरिक्त इस गाती के अन्य कविवर जिनेश्वरदास कृत 'श्री नेमिनाथ जिनपूजा' और 'बी बाहबलि स्वामी पूजा' नामक पूजाओं में सार छंब का प्रयोग हुमा है। इस प्रकार जैन-पूजाओं में यह छन्द शान्त रसोद्रेक के लिए प्रयुक्त हना है। हरिगीतिका
हरिगीतिका मात्रिक सम छन्द का एक भेद है।
जहाँ तक रस-परिपाक का प्रश्न है यह छन्द हिन्दी में सभी प्रकार की भावानुमतियों की अभिव्यंजना के अनुकूल रहता है। अपनी मध्यविसंबित गति के कारण इसमें कथा का सुन्दर निकाह होता है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काध्य में अठारहवीं शती से इस छन्द का प्रयोग मिलता
१. पावन चन्दन कदली नन्दन, घसि प्यालो भर लायो।
भव माताप निवारण कारण, तुम ढिंग आन बढ़ायो ।
-श्रीचतुर्विशति तीर्थ कर समुच्चय पूजा, हीराचन्द, संगृहीतब-नित्य नियमविशेष पूजन संग्रह, सम्पा० व प्रकाशिका-ब. पतासीबाई जैन,
गया (बिहार), पृष्ठ ७२। २. श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास, संगृहीतनथ-जनपूजा पाठ संग्रह,
प्रकाशक-भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२ नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
पृष्ठ १११। ३. श्री बाहुबलि स्वामीपूजा, जिनेश्वरदास, संगृहीतग्रय-जनपूजा पाठ संग्रह,
प्रकाशक-भागचन्द्र पाटनी, नं. ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
पृष्ठ १६६। ४. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशक
ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस, संस्क० सवत् २०१५, पृष्ठ ८८१ । ५. हिन्दी कवियों का छंदशास्त्र को योगदान, स्व. डा० जानकी नाप सिंह _ 'मनोज', विश्वविद्यालय हिन्दी प्रकाशन, लखनऊ विश्वविद्यालय, सखनऊ,
सस्क० सवत् २०२४ वि०, पृष्ठ ७७ । ६. जैन हिन्दी काव्य में छन्दोयोजना, आदित्य प्रचंडिया 'दीति', प्रकाशक-चैन
मोध अकादमी, आगरा रोड, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ३२ ।
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१२ )
है। इस शती के उत्कृष्ट पूजाकवि वानतराय की पूजा-काव्य-कृतियों में हरिगीतिका छंद प्रयुक्त है ।"
उन्नीसवीं शती के कविवर वृंदावन', मनरंगलाल', बख्तावररत्न* और कमलनयन की पूजा रचनाओं में इस छंद का व्यवहार परिलक्षित है । बीसवीं शती के कवि दौलतराम और भगवानदास को पूजाकृतियों में हरिगीतिका छंद का सफल प्रयोग हुआ है ।
अठारहवीं शती में रचित पूजाकाव्य में शान्तरस निरूपण के लिए यह छंद सर्वाधिक व्यवहृत है ।
१. शुचि क्षीर दधि समनीर निरमल, ससार पार उतार स्वामी, जोर संमेदगढ़ गिरनार चम्पा, पावापुर पूजो सदा चोबीस जिन निर्वाण भूमि निवास को ।।
कनक झारी में भरों । कर विनती करों । कैलास को ।
-श्री निर्वाण क्षेत्रपूजा, दयानतराय, संगृहीतग्र थ राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक - राजेन्द्र मैटिल वक्स, हरिनगर, अलीगढ़, संस्करण १९७६, पृष्ठ ३७३ ।
२. श्री महावीर स्वामीपूजा,
वृन्दावन,
संगृहीत'थ-ज्ञानपीठपूजांजलि, प्रकाशक - अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, सस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ३३३ ।
३. है नगर भद्दिल भूप द्रढ़रथ, सुष्टु नंदा ता त्रिया | शोतलनाथ सुत ताके प्रिया ॥ हेम-वरण शरीर है ।
तजि अचुत दिवि अभिराम starकुवंशी अंक श्री तरु,
धनु नवे उन्नत पूर्वलख इक, आय सुभग परी रहे ||
- श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजा पाठ सग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, संस्करण १९७६ पृष्ठ ६७ ।
४. श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, संगृहीतग्रंथ -ज्ञानपीठ पूजांजलि, प्रकाशकअयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ २७१ ।
५. श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित ।
६. श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा, दौलतराम, संगृहीतग्रंथ जैन पूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक- भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १४७ ।
७. श्री तत्वार्थ सूत्र पूजा, भगवानदास, संगृहीतग्रंथ-जैन पूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक - भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ४१० ।
Page #223
--------------------------------------------------------------------------
________________
गापा छंद मात्रिक समछंद है।' गायाछंक प्राकृत के प्रमुख छंच 'गाहा' का हिन्दी रूपान्तर है। जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के कविवर मनरंगलाल रचित 'श्री शीतलनाथ जिनपूजा' नामक पूजा रचना में गाथा छंद का प्रयोग भक्त्यात्मक प्रसंग में शांतरस के परिपाक के लिए परि. लक्षित है।
दुर्मिल
दुर्मिल मात्रिक समछंद है । जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं गाती के कविवर बख्तावररत्न ने 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा' नामक पूजा-काम्य कृति में भक्त्यात्मक प्रसंग में शांतरस के परिपाक के लिए मिल छंद का सफल व्यवहार किया है। त्रिभंगी
यह मात्रिक समछंद का एक भेद है ।६ हिन्दी में त्रिभंगी छंद शृंगार,
१. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशक
शानमण्डल लिमिटेड, बनारस, संस्करण संदत् ०१५, पृष्ठ २५६ । २. जैन-हिन्दी-काव्य में छन्दोयोजना, आदित्य प्रचण्डिया 'दीति', प्रकाशक
जैन शोध अकादमी, आगरा रोड, अलीगढ, १९७६, पृष्ट ३३ । ३. चैत वदी दिन बाठे, गर्भावतार लेत भये स्वामी ।
सुर नर असुरन जानी, जजहुँ शीतल प्रभु नामी ।।
-श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरगलाल, संग्रहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वक्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १४० । ४. छन्दः प्रभाकर, जगन्नाथप्रसाद 'भानु', प्रकाशिका-पूर्णिमादेवी धर्म-पत्नि
स्व. बाबू जुगल किशोर, जगन्नाथ प्रिंटिंग प्रेस, विलासपुर, संस्करण
१९६० ई०, पृष्ठ ७५। ५. जय पारस देवं सुरकृत सेवं, वंदत चर्न सुनागपती ।
करुणा के धारी, पर उपगारी, शिव सुखकारी कर्महती॥ ~ श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, संग्रहीतग्रंथ-राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्म, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ११८ । छन्दः प्रभाकर, जगन्नाथ प्रसाद भानु, प्रकाशिका-पूणिमादेवी, धर्मपत्नी स्व० बाबू जुगलकिशोर, जगन्नाथ प्रिंटिंग प्रेस, विलासपुर, १६६०, पृष्ठ ७२।
Page #224
--------------------------------------------------------------------------
________________
-
वीर, और शांत रसों के परिपाक के लिए व्यवहृत है। जैन हिन्दी-पूणाकाव्य में मठारहवीं शती से इस छंद का व्यवहार परिलक्षित है। इस शती के सरात पूजाकाव्य के रचयिता बानतराय द्वारा प्रणीत 'श्री सरस्वती पूजा' में त्रिभंगी छंद प्रयुक्त है।
उन्नीसवीं शती के उत्कृष्ट पूजाकार वदावन', मनरंगलाल', रामचन्द्र, बस्तावररत्न और कमलनयन ने भी त्रिभंगी छन्द का प्रयोग अपनी पूजाकाव्य कृतियों में किया है।
बीसौं शती के युगल किशोर 'युगल', होर।चंद और नेम कषियों द्वारा भी पूजा काव्य में त्रिभंगी छंद व्यवहत है। १. श्री सरस्वती पूजा, द्यानतराय, संग्रहीतग्रन्य राजेश नित्य पूजा पाठ
सग्रह. राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, सस्करण सन् १९७६,
पृष्ठ ३०५। २. वर बावन चन्दन, कदलीनंदन, धन आनंदन, सहित घसो ।
भवताप निकन्दन, ऐरा नंदन, बंदि अमंदन, चरन बसो॥ - श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वदावन, संगृहीतग्रंथ-राजेश नित्यपूजा पाठ संग्रह, प्रकाशक राजेन्द्र मेटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ़ संस्करण १६७६,
पृष्ठ ११०। ३. श्री अनंतनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रथ-ज्ञानपीठ पूजाजलि,
अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ३५१ । ४ श्री सम्मेदशिखर पूजा, रामचन्द्र, संगृहीतग्रंथ जैन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १२५। ५. श्री कुथुनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न संगृहीत ग्रंथ-~-ज्ञानपीठ पूजांजलि, __ . अयोध्याप्रसाद गोयलोय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीट, दुर्गाकुण्ड रोड,
बनारस, संस्करण १६५७, पृष्ठ ५४१ ।। ६. श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । ७ थी देवशास्त्र गुरुपूजा, युगलकिशोर 'युगल', संगृहीतमय-जैनपूजा पाठ
संग्रह, भागचन्द पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २७। श्री सिद्धचक्र पूजा, हीराचन्द, संगहीतमय-बहजिनवाणी संग्रह, सम्पा० व रचयिता स्व. पंडित पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़,
सितम्बर १६५६, पृष्ठ ३२८ । ९. श्री अकृत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम, संग्रहीतमय-जन पूजापाठ संग्रह,
प्रकाशक-मागचन्द्र पाटनी, न०६, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
Page #225
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१५ )
उनीसवीं शती के कविवर वृंदावन द्वारा प्रणीत पूजाओं में त्रिषंगी छंद का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है जिसमें शान्तररू का उनके उल्लेखनीय है ।
मात्रिक अ समछन्द
दोहा
मात्रिक असम छंदों में दोहा का बड़ा महत्व है।' अठारहवीं शती से जैन- हिन्दी-पूजा - काव्य-कृतियों में इस छंद के व्यवहार का शुभारम्भ हुआ है। कविवर धानतराय ने अपनी पूजाकाव्य कृति में इसे भलीभांति अपनाया है।
उझीसवीं शती में वृंदावन' मनरंग, रामचन्द्र, अख्तावररत्न',
१. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशकज्ञान मण्डल लिमिटेड, बनारस, सस्करण सवत २०१५, पृष्ठ ३४२ ।
२. श्री नंदीश्वरद्वीप पूजा- अष्टान्हिका पूजा द्यानतराय, संगृहीतग्रंथ - राजेश नित्य पूजापाठ सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, संस्करण १७६, पृष्ठ १७१ ।
३. धनुष डेढ सौ तुंग तन, महासेन नृप नंद । मातु लक्ष्मन उर जये, थापो चद-जिनंद ||
- श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, वृंदावन, सगृहीतप्रय ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम सहकरण १९५७ ई०, पृष्ठ ३३३ ।
४. श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय. मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ३६५ ।
५. श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र, संगृहीतग्रंथ ज्ञानपीठ पूजांजलि, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १२५ । ६. केकी कंठ समान छवि, वपु उतग नव हाथ ।
लक्षण उरग निहारपग, बन्दों पारसनाथ
- श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बस्तावररत्न, सगुहीत ग्रथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ५४१ ।
Page #226
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
२१६ )
कमलनयन' और महल जी कवियों ने अपनी पूजा-कास्य-कृतियों में इस छंद का व्यवहार सफलता पूर्वक किया है।
बीसवीं शती के कविवर रविमल', सेवक , भविलालबू, मित्रपवरवास', दौलतराम, जिलाल, हेमराज, आशाराम,
१. गर्भ स्थिति जिनपूजि करि बहुरि सारदा माय ।
ता पीछे मुनिराज के, चरनकमल चित लाय ॥
-~श्री पंचकल्याणक पूजा पाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । २. श्री क्षमावाणी पूजा, मल्लजी, मंगृहीतग्रथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या
प्रसाद गोयलीय, मनी, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, प्रथम
संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ४०२ । ३ श्री तोस चौबीसी पूजा, रविमल, सगृहीतग्रय-जन-पूजा-पाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नं०६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ २४५ । ४. श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, संगृहीतग्रंथ जैन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ पृष्ठ ६५ । ५. श्री सिद्धपूजा भाषा, भविलालजू, संगृहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ
साग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्म, हरिनगर, अलीगढ़, सस्करण १६७६,
पृष्ठ ७१ । ६. श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास, संगहीत ग्रंथ-जन पूजापाठ सग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नं. ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १११ । श्री चम्पापुर क्षेत्र पूजा, दौलतराम, मंगृहीतग्रंथ-जैन पूजापाठ सग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १३८ । ८. श्री देवशास्त्र गुरु पूजा, कुजिलाल, संगृहीतग्रंथ-नित्य नियम विशेष
पूजन संग्रह, सम्पा० प्रकाशिका ७० पतासीबाई जैन, गया (बिहार),
पृष्ठ ११३। ६. चहुं गति दुःख सागर विर्ष, तारन तरन जिहाज ।
रतनत्रय निधि नगन तन, धन्य महा मुनिराज ॥ -श्री गुरुपूजा, हेमराज, संगृहीतमय-बृहजिनवाणी संग्रह, सम्पा० व रचयिता स्व. पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगज, किशनगढ़, सितम्बर १६५६, पृष्ठ ३०६ । श्री सोनागिरि सिद्ध क्षेत्र पूजा, आशाराम, संगृहीतग्रंथ-जनपूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड , कलकत्ता-७, पृष्ठ १५०।
Page #227
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१७ )
हीराचं', नेम', रघुसुत', बीपचंद, पूरणमल', भगवानदास, और मुन्नालाल' कवियों की पूजा रचनाओं में इस छंद के अभिवान होते हैं।
अठारहवीं शती के कवि बानतराय विरचित पूजाकाव्यों में वोहा छंद का सर्वाधिक प्रयोग परिलक्षित है जिसमें भक्त्यात्मक अभिव्यंजना में शांतरस का उद्रेक हुआ है। सोरठा
मात्रिक असम छंदों का एक भेद सोरठा है। अपभ्रंश के आचार्यकवि स्वयंम तथा पुष्पदन्त ने भी सोरठे छंद को अपनाया है। हिन्दी
१. श्री चतुर्विशति तीर्थ कर समुच्चय पूजा, हीराचन्द, सगृहीतग्रंथ-नित्य
नियम विशेष पूजन संग्रह, सम्पा० व प्रकाशिका-ब पतासीवाई जैन,
गया (विहार), पृष्ठ ७१ । २ श्री अकृत्रिम चैत्यालय, पूजा, नेम, सगहीत अथ-जन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, न. ६२. नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २५१ । श्री विष्णुकुमार महामुनि पूजा, रघुसुत, संगहीतग्रन्थ-राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, सस्करण १६७६,
पृष्ठ ३६७ । ४. श्री बाहुबलि पूजा, दीपचन्द, सगृहीत ग्रंथ - नित्यनियम विशेष पूजन संग्रह
सम्पा० व प्रकाशिका-७० पतासीबाई जैन, गया (बिहार), संस्करण
२४८७, पृष्ठ ११३ । ५. श्री चादनपुर स्वामी पूजा, पूरणमल, सगृहीत ग्रंथ-जैन पूजापाठ संग्रह
भागचन्द पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १५६ । ६. श्री तत्वार्थसूत्र पूजा, भगवानदास, संग्रहीतग्रंथ-जन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता -७, पृष्ठ ४१० । ७. श्री खण्डगिरि क्षेत्र पूजा, मुन्नालाल, संगृहीतग्रंथ-जैन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड कलकत्ता-७, पृष्ठ १५५ । ८. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञानमण्डल
लिमिटेड, बनारस, संस्करण संवत् २०१५, पृष्ठ ८६३ । ६. सूर साहित्य का छदशास्त्रीय अध्ययन, डा० श्री गौरीशंकर मिश्र 'द्विजेन्द्र',
परिमल प्रकाशन, १९४, सोहबतिया बाय, इलाहाबाद-६, संस्करण १६६६ ईसवी, पृष्ठ ३३५ ।
Page #228
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१८ )
में यह छंद बोहे की भांति अधिक लोकप्रिय रहा है। यह सामान्यतः दोहे के साथ ही व्यवहत है। कथात्मक प्रसंगों में सोरठा के द्वारा कथा के नबीन सूत्रों का संकेत प्राप्त हुआ करता है।
जैन कवियों की पूजा काव्य-कृतियों में यह छंद अठारहवीं शती से परिलक्षित है । अठारहवीं शती के कविवर द्यानतराय को 'श्री रत्नत्रयपूजा' नामक काव्यकृति में यह छन्द व्यवहत है।'
उन्नीसवीं शती के कविवर मनरंगलाल', रामचन्द्र', कमलनयन और मल्लजी ने अपनी पूजाओं में इस छंद का भलीभांति प्रयोग किया है।
बीसवीं शती के भविलाल और होराचंद की पूजा रचनाओं में इस पद का व्यवहार द्रष्टव्य है।
शान्तरस के प्रकरण में अठारहवीं शती के धानतराय ने सोरठा छंद को बहुलतापूर्वक प्रयोग किया है।
१. क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल अति सोहना ।
जनमरोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजू। --श्री रत्नत्रय पूजा, धानतराय, मंगृहीतमथ-राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्म, हरिनगर, अलीगढ, संस्करण १९६६,
पृष्ठ १६१ । २. श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरगलाल, सग्रहीत ग्रथ-ज्ञानपीठ पूजाजलि,
प्रकाशक अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीट, दुर्गाकुण्ड
रोड, बनारस, सस्करण १६५७ ई०, पृष्ट ::५।। ३. श्री सम्मेदशिखर पूजा, रामचन्द्र, संगृहीत अथ- जैन पूजापाठ सग्रह, भाग
चन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १२५।। ४. श्री पंचकल्याणक पूजा पाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । ५. श्री क्षमावाणी पूजा, मल्लजी, संगृहीत ग्रन्थ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या
प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
संस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ४०२ । ६. श्री सिद्धपूजा भाषा, भविलालज, संग्रहीतमथ-राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मैटिल बस, अलीगढ़, सस्करण १६७६, पृष्ठ ७१ । ७. श्री चतुर्विशति तीर्थकर समुच्चय पूजा, हीराचन्द, संगृहीतग्रंथ-नित्य
नियम विशेष पूजन संग्रह, सम्या व प्रकाशिका- पतासी बाई जैन, गया (बिहार), संस्करण २४८७, पृष्ठ ७१ ।
Page #229
--------------------------------------------------------------------------
________________
मात्रिक विषम छंद :
कुण्डलिया
("Re')
कुण्डलिया मात्रिक विषम छंद है।' इस छंद का मूल उद्यम अपभ्रंश में हुआ और हिन्दी में इसका प्रयोग भक्त्यात्मक तथा वीररसात्मक काय्यामिव्यक्ति में हुआ है। जैन - हिन्दी-पूजा - काव्य में यह छंद बीसवीं शती के कविवर रविमल की 'श्री तीस चौबीसी पूजा' नामक पूजा-रचना में व्यवहृत है ।'
जैन - हिन्दी-पूजा - काव्य में कुण्डलिया छद शांतरस के परिपाक में प्रयुक्त है ।
छप्पय
यह षट् चारणों वाला एक मात्रिक विषम छन्द है ।" हिन्दी में बोर, शृंगार और शान्त आदि रसों में छप्पय छंद का व्यवहार हुआ है ।
जैन - हिन्दी- पूजा काव्य में उन्नीसवीं शती के कविवर वृन्दावन ने इस छंद का प्रयोग अपनी पूजा काव्य कृति 'श्री चन्द्र प्रभु जिनपूजा में किया है ।"
१. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा लिमिटेड, बनारस, प्रथम संस्करण, संवत्
धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञानमण्डल २०१५, पृष्ठ २१६ ।
२ द्वीप अढ़ाई के विषं पांच मेरु हितदाय । दक्षिण उत्तरतासु के, भरत ऐरावत भाय ॥ भरत ऐरावत भाय, एक क्षेत्र के मांही। चौबीसी है तीन तीन दशहीं के दशो क्षेत्र के तीस, अर्ध लेय कर जोर,
मांही ॥
सात सौ बीस जिनेश्वर । जजों 'रविमल' मन शुद्ध कर ॥
- श्री तीस चौबीसी पूजा - रविमल, संगृहीतग्रंथ जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेड रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २४८ ।
३. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञान- मण्डल लिमिटेड वनारस, प्रथम संस्करण स० २०१५, पृष्ठ २६२ ।
४. श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, बृन्दावन, संगृहीतग्र प० ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस संस्करण १९५७ ई०, पृष्ठ ३३३ ।
Page #230
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २३० )
इस शती के अन्य कवि मनरंगलाल', रामचन्द्र" और मल्ली' ने पद का व्यवहार अपनी पूजा काव्य-कृतियों में सफलतापूर्वक किया है ।
ana शती के पूजाकार भविलग्लन की 'श्री सिद्धपूजा भाषा' नामक पूजा रचना में इस छव के अभिवर्शन होते हैं । "
उन्नीसवीं शती के जैन कवियों की हिन्दी-पूजाओं में छप्पय छंद कासर्वाधिक प्रयोग शांतरस के लिए हुआ है ।
वर्णिक वृत्त :
अनंगशेखर
समान वर्ण वाले ause छन्द का एक भेद अनंगशेखर वृत्त है। "
हिन्दी में उत्साह, वीरता और स्तुति आदि के लिए अनंगशेखर वृत्त का व्यवहार दृष्टिगोचर होता है ।
१. श्री अथ सप्तर्षि पूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रथ राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वक्सं, हरिनगर, अलीगढ, संस्करण १६७६, पृष्ठ १४० ।
२. श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र, संगृहीतग्रथ जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी नं० ६२, नलिनी सेठ रोड कलकत्ता-७ पृष्ठ १२८ ।
३. अंगक्षमा जिनधर्म, तनो दृढ़-मूल बखानो । सम्यक रतन संभाल, हृदय मे निश्चय जातो ॥ तज मिथ्या विष मूल और चित निर्मल ठानो । जिनधर्मी सो प्रीति करो, सब पातक मानो || रत्नत्रय गह भविक जन जिन आशा सम चालिये । निश्चयकर आराधना, करम- रास को जालिये ||
-श्री क्षमावाणी पूजा, महलजी, संगृहीत ग्रथ-ज्ञानपीठ पूजाजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, संस्करण १९५७ ई०, पृष्ठ ४०२ ।
४. श्री सिद्धपूजा भाषा, भविलालजू, संगृहीतग्रंथ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६०६ ई०, पृष्ठ ७१ ।
५. हिन्दी साहित्य कोश. प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, बनारस, प्रथम संस्करण संवत् २०१५, पृष्ठ २८३ ।
Page #231
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४ )
जैन-हिन्दी-पूजा -काव्य में अनंनसेवर वृत्त का व्यबहार बीसवीं शती के कविवर कुजिनाल द्वारा भक्त्यात्मक प्रसंग में शांतरस के परिवाक के लिए किया है।"
कवित्त
मुक्तक दण्डक का एक मेद कवित्त वृल होता है ।" हिन्दी में विभिन्न रसों में सफलता पूर्वक प्रयुक्त होने परभी शृंगार और वीर रसात्मक काव्यामिव्यक्ति के लिए यह विशिष्ट वृत्त है ।
जैन - हिन्दी-पूजा - काव्य में उन्नीसवीं शती के कविवर रामचन्द्र ने कवित वृत्त का व्यवहार किया है।"
९. अलोक लोक की कथा विशेष रूप जानते ।
तिनेहि 'कु जिलाल' घ्यावते सुबुद्धिवान है ।। अनंत ज्ञान भूप वे अखण्ड चण्ड रूप वे । अनूप हैं अरूप सो जिनेन्द्र वर्धमान है ||
-श्री भगवान महावीर स्वामी पूजा, कु जिलाल, संगृहीतग्रंथ - नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, सम्पा० व प्रकाशिका - ब्र० पतासीबाई जैन, गया (बिहार), संस्करण २४८७, पृष्ठ ४६ ।
२. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र बर्मा, ज्ञान मण्डल लिमिटेड, बनारस, संस्करण सं० २०१५, पृष्ठ २८३ ।
३. शिखर सम्मेद जी के बीस टोंक सब जान,
तास मोक्ष गये ताकी संख्या सब जानिये ।
asari कोडा कोडि पैसठ ता ऊपर, जोडि छियालीस अरब ताकौ ध्यान हिये आनिये । बारा से तिहत्तर कोड़ि लाख ग्यारा से वैयालिस, और सात से बोतीस सहस बखानिए । संकड़ा है सात से सत्तर एते हुये सिद्ध, तिनकू सु. नित्य पूज पाप कर्म हानिये ||
-धो सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र, संगृहीत ग्रंथ जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२. नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १३७ ।
Page #232
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २२२ )
बौंसवीं शती के कविवर भगवानदास बारा रचित 'श्री सत्यार्थपून पूषा' नामक पूजाकाव्य कृति में कवित्त वृत्त के अभिदर्शन होते हैं।'
जन-हिन्दी-पूजा-कायों में यह वृत्त शान्तरस के उनक मे सफलतापूर्वक हुआ है। चामर
चामर वणिक छन्दों में समवृत का एक भेद है। हिन्दी में यह वृत्त अधिकांशत: मुड-वर्णनों में वीररसात्मक अभिव्यक्ति में व्यवहत है । जैनहिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के कवि बसावररत्न ने चामर वृत्त को शान्तरस के प्रकरण में प्रयुक्त किया है।' तोटक
वणिक छन्दों में समवृत्त का एक भेद तोटक वृत्त है । जैन-हिन्दी-पूजा
विमल विमल वाणी श्री जिनवर बखानी, सुन भये तत्व ज्ञानी ध्यान-आत्म पाया है। सुरपति मन मानी सुर गण सुख दानी, सुमव्य उर आना, मिथ्यात्व हटाया है । समझहिं सब नीके, जीव समवशरण के, निज निज भाषा मांहि अतिशय दिखानी है। निरअक्षर अक्षर के, अक्षरन सों शब्द के शब्द सों पद बने, जिन जु बखानी है । -श्री तत्त्वार्थ सूत्र पूजा, भगवानदास, सगृहीत ग्रंथ-जैन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ४११ । २. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञान मण्डल
लिमिटेड, बनारस, प्रथम संस्करण, संवत् २०१५, पृष्ठ २८८ । ३. केवड़ा गुलाब और केतकी चुनायकें।
धार चर्न के समीप काम को नस इके ।। पार्श्वनाय देव सेव आपकी करू सदा । दीजिए निवास मोक्ष भूलिये नहीं कदा ।। -श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, सगहीतनयराजेश नित्य
पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ११८ । ४. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा. धीरेन्द्र वर्मा आदि, प्रकाशक
ज्ञान मण्डल लिमिटेड, बनारस, संस्करण २०१५, पृष्ठ ३३० ।
Page #233
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २२३
शाक्य में उन्हीसवी सती के कवि दावन ने 'धी चनाप्रभुजिनपूजा" और
श्री महावीर स्वामीपूजा नामक पूजा रचनामों में तोटक वृत्त का व्यवहार किया है । इस शती के अन्य कवि मनरंगलाल की पूजा काव्यकृति 'श्री नेमिनाय जिनपूजा' में यह वृत्त उल्लिखित है ।'
बीसवीं शती के हीराचन्द की पूजा-काव्य-कृति श्री सिद्धचक पूजा' में यह वृत प्रयुक्त है।
जन-हिन्दी-पूजा-काव्य के कवियों ने भक्त्यात्मक प्रसंगों में शांतरसके लिए इस वृत्त का उपयोग किया है । द्रुत विलम्बत:
बणिक छन्दों में समवृत्त का एक भेद दुतविलम्बित वृत्त है। जैन-हिन्दी
-
-
-
-
१. कलि पंचम चैत सुहात अली,
गरभागम-मंगल मोदभली । हरि हर्षित पूजत मातु पिता, हम ध्यावत पावत शर्म सिता ।।
-श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, वृदावन, मंगृहीत प्रथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
सस्करण १६५७ ई०, पृष्ठ ३३५।। २. श्री महावीर स्वामी पूजा, वदावन संग्रहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजा
पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, सस्करण १६७६,
पृष्ठ १३२। ३. जय नेमि सदा गुण-वास नमो,
जय पुरह मो मन आश नमो । जय दीन-हितो मम दीन पनो, करि दूरि प्रभु पद दे अपनो ॥ - श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरगलाल, संगृहीतग्रंप-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड,
बनारस, संस्करण १९५७ ई०, पृष्ठ ३६६ । ४. श्री सिद्ध पक्रयूजा, हीराचन्द, संगृहीत अच-बहजिनवाणी संग्रह, सम्पा०
व रचयिता-स्व. पडित पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़,
सितम्बर १६५६, पृष्ठ ३२८ । ५. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, शान मण्डल
लिमिटेड, बनारस, संस्करण २०१५, पृष्ठ ३४३ ।
Page #234
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २२४ )
पूजा - काव्य में इस वृत्त का व्यवहार उन्नीसवीं शती के सशक्त पूजा कवि वृंदावन की पूजा काव्यकृति 'श्री शांतिनाथ जिनपूजा" एवं श्री 'पद्मप्रभु जिनपूजा" में परिलक्षित है ।
atna शती के कवि भगवानदास विरचित पूजा 'श्री तत्वार्थ सूत्र पूजा' में इस वृत के अभिदर्शन होते हैं ।'
जैन - हिन्दी पूजा काव्य में व्रतविलम्बित वृत्त का प्रयोग भक्तमात्मक प्रसंग में हुआ है ।
मत्तगयन्द
तेइस वर्षो के छन्द विशेष का नाम मत्तगयन्द वृन्न है। हिन्दी में यह श्रृंगार, शान्त तथा करुणरसों की अभिव्यक्ति के लिए अधिक प्रचलित रहा है।
जैन-हिन्दी पूजा- काव्यों में इस वृत्त का व्यबहार उन्नीसवीं शती
१. असित सातय भादव जानिये, गरभ-मंगल ता दिन मानिये । सचिकियो जननी-पद चर्चन, हम करे इत ये पद अर्चनं ।
-- श्री शान्तिनाथ जिनपूजा, वृन्दावन, सगृहीत ग्रन्थ- राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ, १९७६, पृष्ठ ११२ ।
२. श्री पद्मप्रभु जिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रन्थ राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल व, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ८२ ।
३. सुरसरी कर नीर सु लायके, करि सु प्रासु कुम्भ भराय के । जजन सूत्रहि शास्त्रहिं को करो, लहि सुनत्व ज्ञानहिं शिव वरो ।
- श्री तत्वार्थ सूत्र पूजा, भावानदास, संगृहीन ग्रंथ -जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ४१० ।
४. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञान मण्डल लिमिटेड, बनारस, प्रथम संस्करण, सवत् २०१५, पृष्ठ ८२३ ।
Page #235
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २२५ )
के वृदावन को शांतिनाथ जिनयज्ञा' और श्री महावीर स पूजा' नामक पूजा काव्य कृतियों में परिलक्षित है। इस शती के कवि समरंग लाल', रामचन्द्र और कमलनयन' की पूजा रचनाओं में मतबबन्द चूत उल्लिखित है ।
atest mit के कु जिलाल ने 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा' नामक काव्य कृति में इस वृत को भलीभाँति अपनाया है ।"
शांतरस की अभिव्यक्ति में १६ वीं शती के कवि 'बावन को दू काव्यकृतियों में प्रचुरता के साथ यह वृत प्रयुक्त है ।
मोतियदाम
atfarera affe छन्दों में समबूत का एक भेद है।" हिन्दी काव्य में
१. या भव कानन में चतुरानन, पाप पनानन घेरि हमेरी । आतम जान न मान न ठानन, वानन हो न दई सठ मेरी ॥ ता मद भामन आपहि हो यह, छान न आनन आमन टेरी । आन गही शरनागत को, अब श्रीपति जी पत राखहु मेरी ॥
- श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रन्थ - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, संस्करण १६७६, पृष्ठ ११० ।
२. श्री महावीर स्वामी पूजा, वृन्दावन, संगृहीतग्रन्थ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिमगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १३२ ।
३. श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरगलाल, संगृहीतग्रंथ - ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस प्रथम संस्करण, १६५७ ई०, पृष्ठ ३६५ ।
४. श्री गिरिनार सिद्धक्षेत्र पूजा, रामचन्द्र, संगृहीतग्रंथ --जैन पूजापाठसंग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १४१ ।
५. श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित ।
६. श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, कुँ जिलाल संग्रहीत ग्रंथ - नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, सम्पा० व प्रकाशिका - प्र० पतासीबाई जैन, गया (बिहार), संस्करण २४८७, पृष्ठ ४० ।
७: हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि ज्ञान मण्डल लिमिटेड, बनारस, संस्करण संवत् २०१५, पृष्ठ २०६
Page #236
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २२६ )
काली सति के कारण और रसात्मक अभिव्यंजना के लिए यह अपरता
जन-हिन्दी-जा-काव्य में बीसवीं शती के कपि जवाहरलाल को भी सम्मेशितरपूजा' नामक पूजा रचना में मोतियवाम वृत का प्रयोग भक्त्या. सामाणिजना में शांतरसो के लिए हमा है।'
बाणिक छन्दों में समवृत का एक मेव पोखता है। मैन-हिन्दीपूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के कविवर वृन्दावन द्वारा रचित 'श्री शांतिमाव जिनपूजा'- नामक पूजा रचना में इस वृत का शान्त रस के प्रकरण में प्रयोग हुमा है।' सम्बिणी
मग्विणी वर्षिक छन्दों में समवृत का एक भेद है । जैन-हिन्दी-पूजा
१. टरें गति बंदत नकं त्रियंच।
कबहुं दुखको नहिं पा रंच । यही शिव की जग में है द्वार । बरे नर बंदी कहत 'जवार'
-श्री सम्मेद शिखर पूजा, जवाहरलाल, संगृहीतग्रंथ-बृह पिनवाणी संग्रह, सम्पा. व रचयिता-५० पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज,
किशनगढ़, सितम्बर १६५६, पृष्ठ ४६५। २. हिन्दी साहित्य कोश, प्रपम भाग, सम्पा० धीरेन्द्र वर्मा आदि, ज्ञान मण्डल
लिमिटेड, बनारस, संस्करण सं० २०१५, पृष्ठ ६१४ । शान्ति शान्ति गुन मंग्तेि सदा, जाहि ध्यावत सुपंडिते सदा । मैं तिन्हें भगत मंडिते सदा, पूजिहों कलुष-खडितें सदा ।। मोक्ष हेत तुम ही दयाल हो, हे जिनेश गुन-रन-माल हो। में अब सुगुन दाम ही घरों, व्यावते तुरित मुक्ति तीयवरो॥ --श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजा .पाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ़, सस्करण १९७६,
पृष्ठ ११४। ४. हिन्दी साहित्य कोश, प्रथम भाम, सम्पा. धीरेन्द्र वर्मा मावि, मान मण्डल
लिमिटेड, बनारस, संस्करण सं० २०१५, पृष्ठ ८७२।
Page #237
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २२७ )
काव्य में उम्मीसवीं शती के रससिद्ध कवि मनरंगलाल ने अपनी पूजाकाव्य कृति 'श्री शीतलनाथ जिन पूजा' में अग्विणी वृत्त का प्रचुर प्रयोग किया है ।" पूजा काव्य के जयमाल प्रसंग में इस वृत्त के सफल प्रयोग द्वारा शान्तरस को धारा प्रवाहित हो उठी है ।
विवेच्य काव्य में इन विविध छंदों के सफल प्रयोग से अभिव्यंजनासौम्बर्य लयात्मकता तथा ध्वन्यात्मकता का अपूर्व सामंजस्य परिलक्षित है पूजाकाव्य में छन्दों के उपयोग वैविध्य के कारण आज भी भक्त-परम्परा नित्य उपासनाकाल में विभोर तथा तन्मय होकर पूजाकाव्य को मौखिक गाया और दुहराया जाता है ।
हिन्दी काव्याभिव्यक्ति में इन छंदों का प्रयोग विभिन्न संबधों भाव व्यापार की अभिव्यंजना में विविध रसनिरूपण के लिए हुआ है किन्तु जैन - हिन्दी-पूजा - काव्यकारों ने इन सभी छंदों का प्रयोग भवत्यात्मक प्रसंगों में शांतरस-निरूपण के लिए ही सफलतापूर्वक किया है ।
१. द्रोपदी चीर बाढ़ो तिहारी सही, देव जानी सबों में सुलज्जा रही । कुष्ठ राखो न श्री पाल को जो महा, अfor से काढ़ लीनों सिताबी तहाँ ॥
- श्री सीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रंथ - राजेश मित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मंटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ६७ ।
}
Page #238
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रतीक-योजना
भावाभिव्यक्ति में सरलता, सरसता तवा स्पष्टता उत्पन्न करने के लिए रस सिद्ध कवि प्रायः प्रतीक-योजना का प्रयोग करते हैं। विस्तार की व्यवस्था में प्रतीकों का सहयोग उल्लेखनीय है क्योंकि प्रतीक भाव की गहता में और संक्षिप्तता में सहायक हुमा करते हैं।
बन-हिन्दी-पूजा कवियों के समक्ष काव्य-सृजन का लक्ष्य अपने भावों तबाबासनिक विचारों के प्रचार प्रसार का प्रवर्तन करना ही प्रधान रूप से या है। धार्मिक साहित्य की भांति जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में प्रयुक्त प्रतीकों को हम निम्न रूपों में विभाजित कर सकते हैं
(१) आत्मबोधक प्रतीक (२) शरीरबोधक प्रतीक (३) विकार और दुःस विवेचक प्रतीक
(४) गुण और सर्वसुख बोधक प्रतीक माध्यात्मिक अनुचिन्तन तथा तत्त्व निरूपण करते समय इन कवियों द्वारा भनेक ऐसे प्रतीकों का भी प्रयोग हुआ है जिन्हें उक्त वर्गीकरण में प्रायः संख्यायित नहीं किया जा सकता। यहां हम जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य कृतियों में ब्यबहत प्रतीकों की स्थिति का अध्ययन शताब्दि कम से करेंगे ताकि उनके विकासात्मक रूप का सहज में उद्घाटन हो सके।
भावान्त मैन-हिन्दी-पूमा-काव्य में अनलिखित आठ प्रतीकों का सातत्य प्रयोगमा है :प्रतीक
प्रतीकार्य जन्म-जरा-मृत्यु-धिनाश के अप में संसारताप के विनाश के अर्थ में
-
-
१. हिन्दी, जन साहित्य परिशीलन, भाग २, डा० नेमी चन्द्र शास्त्री, भारतीय
मानपीठ काशो, प्रथम संस्करण, पृष्ठ १९३ ।
Page #239
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१९ )
अक्षय पर की प्राप्ति के वर्ष में कामबाण के विध्वंस के मई में सुधारोग के विनाश के वर्ष में मोहाधिकार के विनाश के अर्थ में अष्टकर्म के विध्वंस के अर्थ में
मोक्ष की प्राप्ति के अर्थ में इन प्रतीकों के मर्च-विज्ञान का कारण रहा है-दार्शनिक अभिप्राय । जैनधर्म में आठ कर्मों का कोतक चचित है। इन्हीं अष्टकर्मों को प्रतीक रूप में पूजाकाव्य कृतियों में कषियों द्वारा गृहीत किया गया है।
___अठारहवीं शती के जैन-हिन्दी-पूजा कवियों द्वारा भत्त्यात्मक मणिव्यक्ति को सरल तथा सरस बनाने के लिए लोक में प्रचलित प्रतीकों का सकलता पूर्वक प्रयोग हुमा है । अठारहवीं शती में प्रयुक्त प्रतीकात्मक शम्मावलि को निम्न फलक द्वारा प्रस्तुत किया जा सकता है, यथाप्रतीक शब्द
प्रतीकार्य कोच
अग ( संसार ) के अर्थ में • मोह, संशय, विद्यम के ममें
१. अपभ्रंश वाड्मय में व्यवहृत पारिभाषिक शब्दावलि, आदित्य प्रपण्डिया
'दीति', महावीर प्रकाशन, अलीगंज (एटा), प्रथम संस्करण १६७७,
पृष्ठ ३। २. जिस बिना नहिं जिनराज सीझे,
तू रुल्यो जग कोष मे।
-श्री दशलक्षण धर्मपूजा, द्यानतराय, संगृहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजा ___ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १८२ । ३. दीपक प्रकाश उजास उज्ज्वल, तिमिरसेती नहिं डरों ।
संशय विमोह विभरम तम हर, जोर कर विनती करो ।। -श्री निर्वाण क्षेत्र पूजा, धानतराय, संगृहीतग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वसं, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ३७४ ।
Page #240
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २१. )
काम के अर्थ में पीचरा'
भव के अर्थ में विषबेल'
विषयामिलाषा के अर्थ में शिवपुरी
मुक्तिस्थल के अर्थ में उन्नीसवीं शती में व्यवहत प्रतीक शम्दावलिः प्रतीक शब्द
प्रतीकार्य
सुख-गाम्भीर्य के अर्थ में केहरि
काल के अर्थ में काम-नाग विषधाम नाम को गरुड कहे हो। छुधा महादव बाल तासु को मेष लहे हो । -श्री बीम तीर्थ कर पूजा, द्यानतराय, संगृहीतग्रंथ-राजेश नित्य
पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ५६ । २. कर करम की निर जरा,
भव पीजरा विनाश । -श्री दशलक्षण धर्मपूजा, द्यानत राय, संगृहीत ग्रंप-राजेश नित्य पूजा संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १६६ । संसार में विषबेल नारी, तजि गये जोगीश्वरा। -श्री दशलक्षण धर्मपूजा, द्यानतराय, संग्रहीत अंध- राजेश नित्य पूजा
संबहः राजेन्द्र मैटिल वसं, हरिनगर ,अलीगढ़, १६४६, पृष्ठ १७८ । ४. पानत धर्म की नाव बैठो, :शिवपुरी कुशलात है।
-~-श्री चारित्रपूजा, यानतराय, संग्रहीतग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, असीमढ़, १६७६, पृष्ठ १६६ । ५ पय चंदन नर तदुल सुमना सूप ले ।
दीप धूप फल अर्घ महापुख-कूप ले ॥
-श्री अनंतनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सगृहीत ग्रंथ-शानपीठ पूजांजलि, । प्रकाशक-अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड
रोड, बनारस, प्रथम संस्करण, पृष्ठ ३५१ ।। ६. श्री मतवीर हरे भवपीर, भरे सुखसीर अनाकुलताई।
केहरि बंक अरीकरदक, नये हरि-पंकति मौलि सुआई ।। ~ श्री महावीर स्वामी पूजा, बन्दावन, संगृहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल बक्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १३२।
Page #241
--------------------------------------------------------------------------
________________
1 २१ )
मोह के वर्ष में चित चित
मायावाल के अर्थ में तिमिर
मोह के मर्ष में नवनीत
मुक्ति के वर्ष में शिवपुर
मोलस्थान के वर्ष में १. जय भव्य हृदय आनंदकार ।
जय मोह महागज दलनहार ॥ -श्री पंच कल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । श्रीकरि चित-चातक चतुर चचित । जजत है हित धारिके ॥ -श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संग्रहीत ग्रंथ-मानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोग,
बनारस, पृष्ठ ३६५। ३. जिन चंद चरन घरच्यो चहत । चित चकोर नचि रच्चि रुचि।। -श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा वृन्दावन, संगृहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
पृष्ठ ३३३ । ४. जय जयहिं सर्वसुन्दर दयाल ।
लखि इन्द्र जालवन जगतजाल ॥
--श्री अप सप्तर्षिपूजा, मनरंगलाल, संगहीत ग्रंथ-वही, पृष्ठ ३९२ ५. तिमिर मोह नाशन के कारन ।
जजों चरन गुन धाम || -श्री पदम प्रभु जिनपूजा, वृन्दावन, संग्रहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वक्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ८२। ६. 'वृन्दावन' सो चतुर नर,
लहै मुक्तिः नवनीत ।
- श्री महावीर सामी पूजा, वृन्दावन, संगृहीत अंथ-वही पृष्ठ १३२ । ७. तुम चरण चढ़ाऊं दाह नसाऊं, शिवपुर पार्क हित धारी । -श्री भुनाथ जिन पूजा, बख्तावररस्न, संगृहीत अंध-भानपीठ पूरीजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्वाप रोग, बनारस, पृष्ठ ५४।।
Page #242
--------------------------------------------------------------------------
________________
। २२ ।
जिनेद्रदेव की माध्यामिक समा
के अर्थ में। बीसी शती में प्रयुक्त प्रतीक शब्दावलिः प्रतीक
प्रतीकेय बनवाण
अचूक लक्ष्य का प्रतीक
मनोवांछित फल प्राप्ति के अर्थ में तम
मोह के अर्थ में शिवपुर
मोन स्थल का प्रतीक
कल्पतक'
१. जय जय समबसरन धनधारी।
जय जय वीतराग हितकारी ॥ -श्री पद्म प्रभुजिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ, संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ८६ । २. ले बाहिम अर्जुन बाण,
सुमन दमन झुमके। - ~श्री पम्पापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम, संग्रहीत ग्रंथ जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनो, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १३८ । कल्पदम के लम जानतरा, रलत्रय के शुभ पुष्टवरा ।
-श्री तस्वार्थ सूत्र पूजा, भगवानदास, संगृहीत ग्रंथ-जैन पूजापाठ संग्रह,
वही, पृष्ठ ४१२ । ४. मोह महातम नामक प्रभु के ,
परणाम्बुज में देत चढ़ाय।
-श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास, संगृहीत ग्रंथ, वही, पृष्ठ ११२ । ५. विनती ऋषभ जिनेश को, जो पढ़सी मन लाय ।
स्वर्गों में संशय नही, निश्चय शिवपुर जाय ॥ -~ी मादिनाथ जिनपूजा, सेवक, संगृहीत -जैनपूजा पाठ संग्रह भागधन पाटनी नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ , पृष्ठ ११ ।
Page #243
--------------------------------------------------------------------------
________________
समवशरण'
( २३३ )
जिनेन्द्रदेव की आध्यात्मिक समा का प्रतीक
आत्मा का प्रतीक
हंस
उपर्य किस विवेचन से जैन- हिन्दी- पूजा-काव्य में व्यवहृत प्रतीक योजना का शताब्दी कम से परिचय सहज में हो जाता है । अठारहवीं शती के पूजाकाव्य में प्रतीकात्मक शब्दावलि का यत्र तत्र व्यवहार हुआ है जिनके प्रयोग से काव्याभिव्यक्ति में उत्कर्ष के परिवर्शन होते हैं ।
उन्नीसवीं शती में बिरचित जैन हिन्दी - पूजा-काव्य में बहुप्रचलित प्रतीक प्रयोग उल्लेखनीय है जिससे पूजाकाव्य का यथेच्छ प्रवर्तन परिलक्षित होता है ।
बीसवीं शती में पूजा कृतियों में परम्परानुमोदित प्रतीकों के व्यवहार के साथ अनेक नवीन प्रतीकात्मक शब्दावलि के दर्शन होते हैं। प्रतीकों का सफल प्रयोग इस काल के पूजा कवियों की काव्यकलात्मक क्षमता का परिचायक है ।
१. तब ही हरि आशा शिर चढ़ाय । रचि समवशरण वर धमद राय ||
- श्री पावापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम, वही, पृष्ठ ११४ ।
२. दशधर्म बहे शुभ हंस तरा ।
प्रणमामि सूत्र जिनवाणि करा ॥
- श्री तत्वार्थ सूत्रपूजा, भगवानदास, वही, पृष्ठ ४१२।
Page #244
--------------------------------------------------------------------------
________________
काव्य का अस्तित्व भाव-भाषा तथा अभिव्यक्ति पर निर्भर करता है। उत्तम काव्य के लिए अभिव्यक्ति का प्रमुख उपकरण भाषा का सम्यक शान होना आवश्यक है । शब्द और उससे उत्पन्न होने वाले ध्वनि-विज्ञान का बोध जितना भी अधिक होगा अभिव्यक्ति उतनी ही सशक्त और सप्राण होगी। सुन्दर शब्दयोजना सफल काव्याभिव्यक्ति के लिए आवश्यक उपकरण है । अनुपयुक्त शब्दावलि से काव्य को कमनीयता खंडित हो जाती है जबकि उपयुक्त शब्दों का प्रयोग उत्तम काव्य का सृजन करते हैं।
पूजा कवियों की भाषा अपने समय की समस्त भाषाओं, विभाषामो और बोलियों के मधुर सम्मिश्रण से प्रभावित रही है। पूजा रचयिताओं ने अपनी अभिव्यक्ति में व्याकरणिक नियमों और साहित्य के शुद्ध रूप को ग्रहण करने की अपेक्षा उसको प्रषणीयता को अधिक अपनाया है।
पूजाकाव्य में अनेक हिन्धोतर गमों का प्रयोग हुआ है। तत्सम शम्बावलि की भांति पूजाकाव्य की भाषा में समय शब्दों का प्रचर प्रयोग परिलक्षित है। यहां हम इन कवियों की भाषा पर संक्षेप में अध्ययन करेंगे । यथाअठारहवीं शती तभव शम्ब ( प्रयुक्त ) संस्कृत शब्द पूजा पवित छय
क्षय दीपक बोति तिमर छयकार' छिन
सब को छिन में जीत' छोरोवधि
क्षीरोधि छोरोवधि गंगा विमल तरंगा' १. श्री सोलहकारण पूजा, दद्यानतराय. सगृहीत अंध-राजेश नित्य पूजा.
संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्स, हरिनगर, बलीयत, १९७६, पृष्ठ १५५ । २. श्री बीस तीर्थ कर पूजा, यामतराय, संगृहीत ग्रंथ, राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मैटिल बर्स, हरिनगर, मलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ५६ । ३. श्री सरस्वती पूजा, यानतराम, संगृहीतग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मैटिस वार्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ३७५ ।
क्षण
Page #245
--------------------------------------------------------------------------
________________
जोति
तिसमा
बिजुली
सरधा
उन्नीसवीं शताब्दि
तद्भव शब्द ( प्रयुक्त)
काज
छिन
नेवज
पुस
मानुष
( २१५ )
ज्योति
तृष्णा
विद्यत
भवा
संस्कृतशब्द
कार्य
ण
नैवेद्य
पोष
मनुष्य
प्रकाश जोति प्रभावली' तिसमा भाव उछ
धन बिजुरी उपहार'
दयानत सरक्षामन परे
प्रजापंक्ति
निल पर देखन काज
Refer न विसारी नेवेज नाना परकार "
etafi geet
मानुष गति कुल मोच
१. श्री देवशास्त्र गुरुपूजा भाषा दयानतराय, संगृहीतग्रन्थ — जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १५ ।
२. श्री दशलक्षण धर्मपूजा, दयानतराय संगृहीत ग्रंथ -- राजेश नित्य पूजापाठ संगृह, राजेन्द्र मैटिल वक्सं, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १८४ । ३. श्री दशलक्षण धर्मपूजा, यानतराय, संगृहीत ग्रंथ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटल वनर्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १८३ । ४. श्री बीस तीर्थ कर पूजा, द्यानतराय, सगृहीत ग्रंथ - राजेश नित्य पूजापाठ सग्रह, राजेन्द्र मैटिल वक्सं, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ६० । ५. श्री अनन्तनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीत ग्रन्थ -- ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस १६५७ ई०, पृष्ठ ३५२ ।
श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, रामचन्द्र, संगृहीतग्रंथ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मंटिल क्क्सं, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ६० । ७. श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीतग्रन्थ- ज्ञानपीठ पूजांजलि, retserrere areata, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, १६५७, पृष्ठ ३३४ ।
८. श्री शीतलनाथ बिनपुजा, मनरंगलाल समुहीतमंच राजेश नित्थ पूजापाठ सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ
१००।
६.
श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, रामचन्द्र, संगीत ग्रंथ- राजेश मित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिमगर, बलीगढ़, १९७६, पृष्ठ २५
1
Page #246
--------------------------------------------------------------------------
________________
FEEEEEE
( १६ ) भंगार सब ही सिंगार श्रोत मानंद सोत'
हिरवधरि भाल्हाद' बीसवीं शतीतवमव शम्ब (प्रयुक्त) संस्कृत शम्ब पूजा पंक्ति
कार्य मन वांछित कारज करो पूर नेवण
नंबच कुसमरू नेवार नियम मेरो मेम निभाइयो
मानुष गति के
जय ऋति हिरवे
हृदय हिरवे मेरे १. श्री कुन्थुनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, संगृहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठ, पूजांजलि,
अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस
पृष्ठ ५४६ । २. श्री अनंतनाथ जिनपूजा मनरंगलाल, संग्रहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि,
अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
१९५१, पृष्ठ ३५४ । ३. श्री क्षमावाणी पूजा, मल्लजी, संग्रहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या
प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
१९५७, पृष्ठ ४०४ । ४. श्री तीस चौबीसी पूजा, रविमल, संग्रहीतग्रंथ-जंन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २५० । ५. श्री कृत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम, संगृहीत ग्रंथ-जैन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २५१ । ६. श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास, संगृहीत प्रप-जैन पूजापाठ
संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
पृष्ठ ११३ । ७. श्री चन्द्र प्रभु पूजा, जिनेश्वरदास, संगहीत प्रप-जन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १०४ । ८. श्री सिवपूजा, हीराचन्द्र, संगहीत अन्ध- बहजिनवाणी संग्रह, सम्पादक
व रचयिता पं. पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, १९५६,
पृष्ठ ३३३ । ६. श्री चनप्रभु पूजा, जिनेश्वरदास, संग्रहीत ब-जनपूजापाठ सग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १०५ ।
Page #247
--------------------------------------------------------------------------
________________
(
स० )
प्रत्येक सती में इसी प्रकार के और भी अनेक शब्दों का प्रयोग हवा है जिनका मूल उत्स संस्कृत में है किन्तु वे घिस घिस कर अपने प्रकृत स्वरूप पर्याप्त निम्न हो गए हैं।
पूजा-काव्य में शुद्ध संस्कृत के शब्दों का व्यवहार भी उल्लेखनीय है, यथासंस्कृत शब्द
पूजा पक्ति अक्षत
अमत अनूप निहार' भति
अति धई तंदुल
तंबुल धवल सुगंध यावृत्य
मावृत्यकरया
षट् आवश्यकाल जो सा पोग्श
हमूह पोग्श कारन उन्नीसवों शताबि
पद जम्मत रज अध
पद
अब
१ श्री चारित्र पूजा, द्यानतराय, संग्रहीत ग्रंप-राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वक्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १९५ । २. श्री सोलह कारण पूजा, संग्रहीत प्रथ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह,
राजेन्द्र मैटिल वर्क्स, हरिनगर, भलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १७७ । ३. श्री सोलह कारण पूजा, धानतराय, संग्रहीत प्रथ-राजेश नित्य पूजा
पाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल बर्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ
१७५ । ४. श्री सोलहकारण पूजा, द्यानतराय, सगृहीत मंच-राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वस', हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १७६ । ५. श्री सोलहकारण पूजा, दयानतराय, संग्रहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजा
पाठ संग्रह, राजेन्द्र मैटिल बस, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ
१७७ । ६. श्री सोलहकारण पूजा, दयानतराय, संगृहीत मंच-राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मैटिम वर्क्स, हरिनगर, मलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १७४ । ७. श्री महावीर स्वामी पूषा, बन्दावन, संगृहीत ध-राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मैटिल वस, हरिनगर, अलीगढ़, .१९७६, पृष्ठ १३४ ।
Page #248
--------------------------------------------------------------------------
________________
Terrie
घुस
पंचम
हस्त बीसवीं शती
एकादश
जय
( २३८ ).
पूजों नष्टम जिन मीत'
में किम कंहू
गोत सार सों
चक्षु प्रिय अति मिष्ट हो कलि पंचम चेत*
नित जोड़ हस्त
एकादश कार्तिक बको पूजा रची * वार त्रय गायके
१. श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १६५७, पृष्ठ ३३५ ।
२. श्री सम्मेदशिखर पूजा, रामचन्द्र, सगृहीत ग्रंथ - जैम पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२. नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १२५ ।
३. श्री अथ सप्तर्षि पूजा, मनरंगलाल, संगृहीत ग्रंथ --- राजेश नित्य पूजापाठ सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १४१ ।
४. श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र, सगृहीत ग्रंथ- जंन पूजापाठ सग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं०:२, नलिनी सेठ रोड, कलकता - ७, पृष्ठ १२७ । ५. श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, बृन्दावन, संगृहीतग्रथ - ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १९५७, पृष्ठ ३३५ ।
६. श्री अय सप्तर्षि पूजा, मनरंगलाल, संग्रहीत ग्रंथ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १४३ |
७. श्री चांदनपुर महावीर स्वामी पूजा, पूरणमल, संग्रहीत ग्रंथ - जन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १६४ ।
८. श्री तीस चौबीसी पूजा, रविमल, संगृहीतबंध-जैन पूजापाठ संग्रह, भाग चन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २४५ ।
Page #249
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २
).
संस्कृत शब
पूजा पंक्ति .
.
हताशन
धरि हुताशन धूम' पूजाकषियों द्वारा प्रयुक्त अरबी तथा फारसी शब्दों की तालिका सतानिकम से इष्टव्य है, यथामगरहवीं शती
प्रयुक्त शन भाषा पूजा पंक्ति अरब
अरबी जहाज
अरबी मवतारणतरण महाब अरबी पुन्नी हुकुम जगत पर हो अरबी अशुभ उदे अमाग हजरा
रुख त्रस कल्ला घरों
यह अरज सनी
फारसी
१. श्री तत्वार्थ सूत्र पूजा, भगवानदास, संगृहीतग्रन्थ-जैन पूजा पाठ __संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं. ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
पृष्ठ ४१०। २. श्री तत्वार्थ सूत्र पूजा, भगवानदास, संगृहीतग्रन्थ-जन पूजा पाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२ नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ
३. श्री देवपूजा भाषा, धानतराय, संगृहीतग्रन्थ-बृहजिनवाणो संग्रह. सम्पा०
व प्रकाशक-पं० पन्नालाल वाकलोवाल, मदनगंज, किशनगढ़, १९५६,
पृष्ठ ३००। ४. बी बीस तीर्थकर पूजा, थानतराय, संग्रहीतग्रन्थ - राजेश मित्य
पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बस, हरिनगर, अलीगढ़, १९७,
पृष्ठ ५६ । ५. श्री बृहत् सिर चक्र पूजा भाषा, चामतगय, सहीत ग्रन्थ - जैन पूजापाठ
संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२ नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
पृष्ठ २३६ । ६. श्री बहद सिद्ध चक्र पूजा भाषा, खानत राय, संग्रहीत प्रन्थ - जन पूजा
पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता ७,
पृष्ठ २४५। ७. श्री वलक्षण धर्मपूजा, चामतराय, संग्रहीत अन्य -राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बासे, हरिनगर, अलीयद, १६७६, पृष्ठ १०२।
Page #250
--------------------------------------------------------------------------
________________
उन्नीसवीं शती
मरण
रोज
सिताबी
चूवी
दरवाजे
बीसवीं शती
अरण
गाफिल
सूरत
( 700 )`
अरबी
अरबी
अरबी
फारसी
फारसी
अरबी
अरबी
अरबी
यह भरज हमारी' बलिहारी जेयत रोज रोज ' सिताबी तहाँ
इह खूबी का पर* दरवाजे भूमि बनी सुरू
अरज मेरी
गाफिल निद्रा
सूरत देखी
१. श्री पदमप्रभु जिनपूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रन्थ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ८९ ।
२. श्री अनन्तनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संग्रहीत ग्रन्थ- ज्ञानपीठ पूजजलि, अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १९५७, पृष्ठ ३५७ ।
३. श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रन्थ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १०२ ।
४. श्री अनन्तनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीत ग्रन्थ ज्ञानपीठ पूजाजलि अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १६५७, पृष्ठ ३५६ ।
-
५. श्री गिरिनार सिद्धक्ष ेत्र पूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रन्थ-जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता – ७, पृष्ठ १४५ ।
६. श्री बाहुबलि पूजा, दीपचन्द्र, सगृहीतग्रन्थ - नित्य नियम विशेष पूजन सग्रह, सम्पा० ब० पतासी बाई, गया (बिहार), पृष्ठ ६३ ।
७. श्री देवशास्त्रगुरु पूजा, युगल किशोर 'युगल', संगुहीत ग्रन्थ - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ५४ ।
८. श्री चांदनपुर महावीर स्वामी पूजा, पूरणमल, संगृहीत ग्रन्थ- - जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, मलिनी सेठ रोड, कलकत्ता- ७, पृष्ठ १६३ ।
Page #251
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४१ )
फारसी
शाले गुलजारी
प्रयक्त शब्द भाषा पूजा पंक्ति
होत खुशाले फारसी प्यारी मुलजारी'
फारसी ध्यान हरदम' परवाजों
फारसी बरवाजों पर कलसा पूजा रचनाओं में 'ण' कार के स्थान पर 'न' कार का प्रयोग परिलक्षित होता है, यथाअठारहवीं शती
प्रयुक्त शब्द मल शब्द पूजा पंक्ति करना
কা । हम पे करना होहि दशलक्षन दशलक्षण वशलमन को साध
सहे वान-धरम
बान
वाण
१. श्री देवशास्त्र गुरुपजा, कुंजीलाल, संगृहीत प्रथ-नित्य नियम विशेष
पूजन संग्रह, ब० पतासीबाई, गया (बिहार), पृष्ठ ११५ । २. श्री सिद्धपूजा, हीराचंद, संगृहीत ग्रंथ-बृहजिनवाणी संग्रह, सम्मान
प्रकाशक-५० पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगज, किशनगढ़, १६५६,
पृष्ठ ३२६ । ३. श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, कुजिलाल, संग्रहीत प्रथ- नित्य नियम विशेष
पूजन संग्रह, ७० पतासीबाई, गया (बिहार), पृष्ठ ११६ । ४. श्री सोनागिरि सिद्ध क्षेत्र पूजा आशाराम, संग्रहीतग्रंथ-जन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १५३ । ५. श्री देवपूजा भाषा, दयानतराय, संग्रहीतग्रंप-बहजिनवाणीसंग्रह, पं०
पन्नालाल वोकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, १९५६, पृष्ठ ३००1। ६. श्री चारित्रपूजा, दयानतराय, संग्रहीतग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह,
राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ २०० । ७. श्री दशलक्षण धर्मपूजा, धानतराय, संगृहीतमय-राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बक्स, हरिमगर अलीगढ़, १९७७, पृष्ठ १५४।
Page #252
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रयुक्त शब्द
दानी
समजसरन
उन्नीसवीं शती
इन्द्रानी
भान
कल्यान
कामचान
मनधर
तोरन
ान
पानि
( २४२ )
मूल शब्द
पाणी
समवशरण
इन्द्राणी
श्रावण
कल्याण
कामवाण
गणधर
तोरण
प्राण
पाणि
पूजा पंक्ति जिनवर बानी'
शुभ समवसरन शोभा
इन्द्रानोजाय'
भवन सुबि
मोक्ष कल्यान *
कामवान निरवा
गनधर असनिधर
तोरन घने
सबके प्रान हो जोरिजुग पानि "
१. श्री सरस्वती पूजा, द्यानतराय संगृहीतग्रन्थ- राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ३७५ । २. श्री अथ देवशास्त्र गुरुपूजा भाषा, द्यानतराय, संगृहीतग्रन्थ- जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २० ।
३. शांतिनाथ जिनपूजा, वृन्दावन,
संगृहीतग्रन्थ- राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मेटिज वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ११५ । ४. श्री पंचकल्वाणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित ।
५. श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीतग्रंथ - ज्ञानपीठ पूजांजलि, weisयाप्रसाद गोपलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १९५७, पृष्ठ ३६८ ।
६. श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित |
७. श्री महावीर स्वामी पूजा, वृन्दावन, संगृहीतग्रंथ --- राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बक्सं हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १३६ ।
'
८. श्री पंचकल्याण पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित ।
६. श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र, सगृहीत - जैनपूजापाठ संग्रह, areचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १२७ ।
१०. श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलमयन, हस्तलिखित ।
Page #253
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४३ )
प्रयुक्त शब्द फलपति रमनी
मूल शब फणपति रमणी वाणी सुलक्षणा
फनपति करत से पायें शिव रमनी पानी जिनमुन सो'
पानी
सलमना अवतरे . .
कल्याण
बीसवीं शती
कल्यान कारन दर्पन निवारन
वर्षण निवारण प्रवीण
आतम कल्यान मेटन कारन वर्पन समान. भव आताप निवारन पूजों प्रवीन
Gha
१. श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमल नयन, हस्तलिखित । २. श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र, संगृहीतग्रंथ-जन पूजापाठ संग्रह,
भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड. कलकत्ता.७, पृष्ठ १३६ । ३. श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, वृन्दावन, संग्रहीतमय-ज्ञानपीठ पूजांजलि,
अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड,
बनारस, १६५७, पृष्ठ ३३७ । ४. श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, रामचन्द्र, संगृहीतग्रन्थ-राजेश नित्यपूजा पाठ
संग्रह, राजेन्द्र मैटिल बस, हरिनगर, अलीगढ १९७६, पृष्ठ ।। ५. श्री चन्द्रप्रभु पूजा, जिनेश्वरदास, संगृहीतग्रन्थ-पीनयुका पाठ
संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं. ६२, नलिनी सेठ रोड, कसत्ता-७,
पृष्ठ १०२। ६. श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, सगृहीतग्रन्थ जैनपूजा पाठ संग्रह,
भामचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ६५ ७. श्री भ० महावीर स्वामी पूजा, कुजिलाल. संग्रहीतग्रन्थ-नित्य नियम
विशेष पूजन सग्रह, ब्र० पतासीबाई, गया (बिहार), पृष्ठ ४५ । ८. श्री चन्द्रप्रभु पूजा, जिनेश्वरदास, संगृहीत ग्रन्थ - जैन पूजा पाठ
संग्रह. भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड कलकत्ता-७, पृष्ठ १००, श्री तीस चौबीसी पूजा, रविमल, संग्रहीतबन्य-जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोग कलकत्ता-७, पृष्ठ २४८,।
Page #254
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रयुक्त शब्द
फाल्गुन
बान
( २४४ )
मल शब्द
फाल्गुण
वाण
पूजाकाव्य में अर्द्ध वर्ण को पूर्ण करके रखा गया है, यथा
अठारहवीं शती
अरघ
करम
वरव
दरशन
धरम
निरभय
अर्ध
कर्म
पूजा पंक्ति
फाल्गुन वदी'
मनवान
द्रव्य
दर्शन
धर्म
निर्भय
यह अरघ कियो निज हेत'
शुभ करम*
वसुवर है
सम्यग् दरशन
खानत धरम की नाव "
द्यानत करो निरभय
परकार
प्रकार
दान चार परकार
१. श्री चन्द्र प्रभु पूजा, जिनेश्वरदास, संगृहीतग्रन्थ - जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १०२ । संगृहीत ग्रन्थ-- नित्य नियम विशेष पूजा (बिहार), पृष्ठ ६३ ।
२. श्री बाहुबलि पूजा, दीपचन्द संग्रह, ब्र० पतासीबाई, गया 4. श्री नन्दीश्वर द्वीप पूजा, पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र पृष्ठ १७२ ।
४. श्री चारित्र पूजा, द्यानतराय, संगृहीत ग्रन्थ - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १६८ ।
द्यानतराय, संगृहीतग्रन्थ- राजेश नित्य मेटिल वक्सं, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६,
५. श्री नन्दीश्वर द्वीप पूजा, द्यानतराय संगृहीतग्रन्थ - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १७१ । ६. श्री चारित्र पूजा, ग्रानतराय, संगृहीत ग्रन्थ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९५६, पृष्ठ १६६ । ७ वही, पृष्ठ १६६
८. श्री निर्वाण क्षेत्र पूजा, बानतराय, संगृहीतग्रन्थ- राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ
३७४ |
६. श्री दशलक्षण धर्मपूजा, ज्ञानतराय, संगृहीतग्रन्थ - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १८३ ।
Page #255
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४५ )
परमातम
परमात्म
मुकति
मुक्ति
सो परमालमा उपचा मुकति पर आप निहार हरव विखे
हरष
अर्च
.
उन्नीसवीं शती
अरय प्रीषम धरम निरमल परसूति मारण
प्रोम धर्म निर्मल प्रसूति मार्ग
सम्बर अरघ कीन्हों . जय श्रीषम ऋतु परम धरम धर निरमल बढ़त परसूति गेह जोग मारण में
१. श्री चारित्र पूजा, धानतराय, संगृहीतग्रन्थ - राजेश नित्य पूजा पाठ
संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ २००। २. श्री सोलह कारण पूजा, धानतराय, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र
मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ १७६ । ३. वही। ४. श्री शीतलनाथजिनपूजा, मनरगलाल, संग्रहीत ग्रन्थ-ज्ञानपीठ पूजान्जलि,
अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड,
बनारस, १६५७, पृष्ठ ३४१ ।। ५. श्री अथसप्तर्षि पूजा, मनरंगलाल, सगृहीत ग्रन्थ-ज्ञानपीठ पूजांजलि,
अयोध्या प्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीयज्ञानपीठ, दुर्गावुण्ड रोड,
बनारस, १६५७, पृष्ठ ३६६ । ६. श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संग्रहीत प्रय-ज्ञानपीठ पूजांजलि, ___ अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
१६५७, पृ. ३४३ । ७. श्री अनंतनाथ जिनपूजा, मनरगवाल, संग्रहीत ग्रंथ-शानपीठ पूजांजलि,
अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
१९५७, पृ० ३५४ । ८. श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । ६. श्री अनंतनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, संगृहीत प-ज्ञानपीठ पूजांजलि,
अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड गोड, बनारस, १९५७, पृष्ठ ३५५।
Page #256
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्ष
-
मूल शब्द पूजा पंक्ति मिरवण
मृदंग मिरवंग सर्ज
हेम वरण शरीर है विधन
विन विधन नशावतु हो'
सन्मुख सनमुख आवत बीसवीं शती-- अरष
पूजों अरघ उतार गीयम
ग्रीष्म ग्रीषम गिरि शिर जोगधर ततकाल
करिकेश लोंच ततकाल तीक्षण
भ्रम भंजन तीक्षण सम्यक हो नगन
नगन तन १. श्री महावीर स्वामी पूजा, वृन्दावन, संगृहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मटिल वक्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६.६, पृष्ठ १३७ । २. श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सग्रहीत ग्रंथ--ज्ञानपीठ पूजांजलि,
अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, (६५७, पृष्ठ ३३६ । श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, वृदावन, सगृहीत अथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस,
१९५७, पृष्ठ ३३५ । ४. श्री अनंतनाथ जिन पूजा, मनरंगलाल, सगृहीत प्रथ-- ज्ञानपीठ पूजांजलि,
अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मत्री भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, .१६५७, पृष्ठ ३५७ । .. श्री प्रकृतिम चैत्यालय पूजा, नेम, संगृहीतग्रन्थ- जैन पूजापाठ संग्रह,
भाग चन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृ० २५५ । ६. श्री गुरु पूजा, हेमराज, संग्रहीत ग्रंथ- बृहजिनवाणी संग्रह, पं० पन्नालाल
वाकलीवाल, मदनगंज, विशनगढ़, १९५६, पृष्ठ ३१३ । ७. श्री चादमपुर महावीर स्वामीपूजा, पूरणमल, संगृहीत प्रथ-जैन पूजापाठ
संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७,
पृष्ठ १६२ ।
२. श्री सिद्धपूजा, हीराचन्द, संग्रहीत ग्रंथ-- बहजिनवाणी संग्रह, पं० पन्नालाल
बाकलीवाल, मदनगज, किशनगढ़, पृष्ठ ३३२ । ६. श्री गुरु पूजा, हेमराज, संगृहीत ग्रंथ-बहजिनवाणी संग्रह, पं० पन्नालास
बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, १६५६, पृष्ठ ३०६ ।
Page #257
--------------------------------------------------------------------------
________________
निरमल
पदारथ
परकाशक
मुकति
समरण
गया, यथा
अठारहवीं शती
औगुन
धुनि
( २४७ )
निर्मल
पदार्थ
प्रकाशक
मुक्ति
समर्थ
शय परकाशक सही'
मुकति मशार*
समरथ बनी
सुकम
अगुरु लघु सूक्षम वीर्य महा
हरव
जब पूज्जत तन मन हरव आन"
पूजा कृतियों में 'ब' वर्ण का कार्य 'ओ' और 'उ' की मात्रा से निकाला
सूक्ष्म
हर्ष
शुचि निरमल मीर मंच'
धर्म पदारथ जग में सार
अवगुण
ध्वनि
औगुन ह तीर्थंकर की धुन
१. श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, सगृहीतग्रंथ जैन पूजापाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ६६ । २. श्री विष्णुकुमार महामुनि पूजा, रघुसु, सगृहीतग्रंथ - राजेश निस्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मंटिल, वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ
३७० ।
३.
श्री पावापुर सिद्ध क्षेत्र पूजा, दौलतराम, संगृहीत ग्रंथ जैन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्रपाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ १४८ ।
-
४. श्री सिद्धपूजा, हीराचन्द, संगृहीत ग्रंथ- बृजिनवाणी संग्रह, पं० पालाम वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, १९५६, पृष्ठ ३३३ /
५. श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, संगृहीत ग्रंथ - जन पूजापाठ संग्रह, भाग चन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ ६६
६ श्री सिद्धपूजा, हीराचन्द संगृहीत ग्र ंथ - बृहजिनवाणी संग्रह, पं० पखालाल वाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, १६५६, पृ० ३३१ ।
७. श्री सिद्ध पूजा भाषा, भविलालजू संगृहीतग्रन्थ - राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ७४ । ८. श्री निर्वाण क्षेत्र पूजा द्यानतराय, संगृहीतग्रन्थ- राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ३७३ ।
६. श्री सरस्वती पूजा द्यानतराय, संगृहीत ग्रन्थ-- राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ३७५
Page #258
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४
)
ग्योहार
सुभाषी
व्यवहार स्वभावी स्वर्ग
तप संगम व्योहार' सरल सुभाषी होय सुरग मुकति पर
सुरंग उन्नीसवीं सवो
औगुण धुनि
नौमी बीसवीं सदी
अवगुण ध्यान नवमी
पर को औगुण देख धुनि होत घोर नौमी फाल्गुन मास
औगुन धुनि
अवगुण ध्वनि
औगुनहार स्वामी दुन्दुभि की ध्वनि भारी
१. श्री चारित्र पूजा, धानतराय, संगृहीतग्रन्थ-राजेश नित्य पूजा पाठ
संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ, १६७६, पृष्ठ १६८ । २. श्री दश क्षण धर्म पूजा, धानतराय, संगृहीतग्रन्थ - राजेश नित्य
पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६,
पृष्ठ १८०। ३. श्री सोलहकारण पूजा, द्यानतराय, संगृहीत ग्रन्थ - राजेश नित्य पूजा पाठ
सग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्स, हरिनगर, अलीगढ, १६७६, पृष्ठ १७६ । ४. श्री क्षमावाणी पूजा, मल्ल जी, संगृहीत ग्रन्थ-जान पीठ पूजान्जलि,
अयोध्याप्रसाद गोयलीय, मन्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड,
बनारस, १६५७, पृष्ठ ४०५ । ५. श्री शान्तिनाथ जिन पूजा, वृन्दावन, सगृहीतग्रन्थ- राजेश नित्य पूजा
पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्स, हरिनगर अलीगढ़, १६.६, पृष्ठ
६. श्री पंच कल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । ७. श्री गुरुपूजा, हेमराम, संग्रहीतग्रन्थ-बृहजिनवाणी संग्रह, १० पन्नालाल
बाकलीवाल, मदनगंज, किशनगढ़, १९५६, पृष्ठ ३१० । श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास, संगृहीतग्रन्थ-जन पूजा पाठ संग्रह, भागचन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता ७, पृष्ठ ११४ ।
Page #259
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४६ )
मूल शब्द
पूजा पंक्ति मुकति थान
प्रयुक्त शब्द
मूल शब्द पूजा पंक्ति नौमी
नवमी नौमी विमा समोशरन
समवशरन महिमा समोगरन की
स्वर्ग सुरग मुक्ति पद' पूजाकाव्य में भाषाविज्ञान के मुख सुख के सिद्धान्तानुसार कतिपय शब्दों में वर्गों का लोप कर दिया गया है, यथाअगरहवीं शतीप्रयुक्त शब्द
मल शब्द
पूजापंक्ति थान
स्थान
हारे थान' पिरता
स्थिरता अधाहरे थिरता करे श्रुति
स्तुति
श्रुति पूरी उन्नीसवीं शती
प्रयुक्त शब्द याम
स्थान थावर
स्थावर
वसथावर को रक्षा १. श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, संगृहीतन थ-जैन पूजापाठ संग्रह, भाग
चन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७ ,पृष्ठ ६७ । २ श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, कुजिलाल, संगहीतपथ- नित्य नियम विशेष
पूजन संग्रह, अ० पतासीबाई जैन, गया (बिहार), पृष्ठ ११५। ३. श्री तीस चौबीसी पूजा, रविमल, संग्रहीत ग्रंथ- जैन पूजापाठ संग्रह, भाग
चन्द्र पाटनी, न० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २५० । ४. श्री देव पूजाभाषा, दयानसराय, संगृहीतग्रंथ-बृहजिनवाणी संग्रह, पं०
पन्नालाल वाकलीवाल, मदनगज, किशनगढ़, १९५६, पृष्ठ ३०३ । ५. श्री चारित्र पूजा, यानतराय, सगृहीत प्रथ- राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह,
राजेन्द्र मेटिल बस, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ ११ । ६ श्री बीस तीर्थकर पूजा, दयानतराय, संग्रहीत प्रथ-राजेश मित्य पूजापाठ ____ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बस, हरिनगर, अलीगढ़, १६७६, पृष्ट । ७. श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, बदावन, संगहीत ग्रंथ-ज्ञानपीठ पूजांजलि, अयोध्या
प्रसाद गोयलीय, मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड, बनारस, १९५७,
पृष्ठ ३३८ । ८. श्री अब सप्तर्षि पूजा, मनरंगलाल, संग्रहीत ग्रंथ-राजेश नित्य पूजापाठ
संग्रह, राजेन्द्र मेटिल वर्क्स, हरिनगर, अलीगढ़, १९७६, पृष्ठ १४२ ।
Page #260
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५० )
बीसवीं शती
कालुष्य
अन्तर का कानुष
निज पान' अनाज
नाज काज जियवान' अव्यय
जन-हिन्दी-पूजा-काव्य की भाषा में निम्नलिखित अव्यय प्रयुक्त है जो वाक्य रचना में विभिन्न रूप से काम आते हैं। अव्ययों को विभिन्न वैयाकरणों ने विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत रखा है। विवेच्य काव्य में प्रयुक्त अव्ययों को निम्नलिखित शीर्षकों में रखा जा सकता है
(१) समयवाचक अव्यय (२) परिमाणवाचक अध्यय (३) स्थानवाचक अव्यय (४) गुणवाचक अध्यय (५) प्रश्नवाचक अध्यय (६) निषेधवाचक अव्यय (७) विस्मयवाचक अध्यय
() सामान्य अध्यय समयवाचक अव्यय
अबशताम्दि कम १५-राम न दोष मोहि नहि मावं, अजर अमर अब अवल सहाय ।
(भी बहत्सित व पूजा भाषा, धानतराय) १६-मान गही शरमागत फो, अब अंपति जी पत राखहु मेरो।
श्री शान्तिनाथ जिन पूजा, वृंदावन) १. श्री देवयास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर' 'युगल', संगहीत ग्रंथ-राजेश नित्य
पूजा पाठ संग्रह, राजेन्द्र मेटिल बस, हरिनार, अलीगढ़, १६७६, पृष्ठ ४८ । २. श्री तीस चौबीसी पूजा, रविमल, सगृहीत प्रथ-जन पूजा पाठ संग्रह, भाग
चन्द्र पाटनी, नं० ६२, नलिनी सेठ रोड, कलकत्ता-७, पृष्ठ २४६ । ३. श्री सोनागिरि सिख क्षेत्रपूजा, माशाराम, संगृहीत प्रथ-जनपूजापाठसग्रह,
मागचन्द्र पाटनी, नं०६२, नलिनी सेठरोड, कलकस्ता-७, पृष्ठ १५२ ।
Page #261
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५१ )
२०--मन व तम सों शुद्ध कर, अब वरणों जयमाल । ( भी तीस चोबीसी पूजा, रविमल )
जब
१८- मिथ्या जुरी उर्व अब आगे, धर्म मधुर रस मूल न आवे । ( श्री बृहत्सिद्ध वक्र पूजा भाषा, थानतराय)
१६ - हाथ चार जब भूमि निहारें ।
२० जब चौथी काल लगं जु आय ।
( श्री क्षमा वाणी पूजा, मल्लजी)
-
२०
(श्री तीस चोबीस पूजा, रविमल )
सवा
१८ -- खानत सिद्ध नमों सदा, अमल अचल चिडूप ।
(श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजाभाषा, धानसराय)
१६- शान्ति शान्ति गुन-मंडिते सदा, जाहि ध्यावते सुपंडिते सदा । ( श्री शान्तिनाथ जिन्पूजा, वृंदावन)
बाल ब्रह्मचारी जगतारी सदा विराग सरूप । (श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास)
तब
1
१६- पंचम अंग उपधान बतार्थ पाठ सहित तब बहु फल पावें । (श्री क्षमावाणी पूजा, मल्लजी)
२० - अतएव मुके तब चरणों में, जग के माणिक मोती सारे । (श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर 'युगल')
१६- जय चन्द्र वंदन राजीव नैन, कबहूँ विकथा बोलत न बैन । ( भी सप्तष पूजा, मनरंगलाल )
२०
- कबहूँ इतर निगोह में मोकू पटकत करत अचेत हो । (श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक )
परिणाम वाचक अव्यय --
बहुत
१६- आवर ते बहु आदर पाये, उदय अनश्वर ते न सुहावे । (श्री बृहत्सद्धचक्र पूजाभाचा, बानसराय )
Page #262
--------------------------------------------------------------------------
________________
१६ बन्दन कर बहु आनन्द पाम ।
( २५२ )
२० -- सोनागिरि के शीश पर बहुत जिनालय जान । (श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा, आशाराम )
( श्री गिरनार सिद्ध क्षेत्रपूजा, रामचन्द्र )
अति
१८- पुम्मी बट ऋतु के सुख भोगे, पापी महादुःखो अति रोवे । ( श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजाभाषा, खानतराय) १६-- अति धवल अक्षत खंड-वजित, मिष्ठ राजन भोग के । (श्री सप्तर्षि पूजा, मनरंगलाल )
२०- अति मधुर लखावन, परम सु पावन. तृषा बुझावन गुण भारी । ( श्री अकृत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम )
www.shop
अल्प
१८ -- भिन्न भिन्न कहूं आरती, अल्प सुगुण विस्तार | (श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, खानतराय)
१६- में अल्प बुद्धि जयमाल गाय, भवि जीव शुद्ध लोज्यो बनाय | (श्री गिरनार सिद्ध क्षेत्र पूजा, रामचन्द्र )
२०-- मैं मति अल्प अज्ञान हो, कौन करे विस्तार | (श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक )
अधिक
१८. आठों बरब संवार, बानत अधिक उछाहसों ।
-
२०. वणि 'बोल' सौ पाय हो, सुखसम्पति अधिकाय ।
स्थानवाचक अव्यय
तहाँ
१८. तेतिस सागर तहाँ रहे हैं।
(श्री दशलक्षण धर्मपूजा, द्यानतराय)
(श्री चम्पापुर सिद्धचक्र पूजा, दौलतराम )
(श्री बृहत् सिaas पूजा भाषा, खानतराय)
( भी शांतिनाथ जिनपूजा, वृन्दावन)
१६. सुर लेत तहाँ आनन्द संग ।
Page #263
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५३ )
२०. तहाँ चौबीसी तीन बिराजे आगत नागत अरु वर्तमान |
जहाँ
१८. पांचों भाव जहाँ नहि लहिये, निश्चै अन्तराव सो कहिये । (श्री बृहत् सिद्ध व पूजाभाषा, ज्ञानतराय)
१६. तित बन्यो जहाँ सुरगिरि विराट ।
२०. जहाँ धर्मनाम नह सुने कोय ।
(श्री तोस चौबीसी पूजा, रविमल)
( श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वृन्दावन)
ॐ चा
१८. ऊंचा जोजन सहस, छतींसं पांडुकवन सोहैं गिरिसीसं ।
(श्री तीस चोबोसो पूजा, रविमल )
२०. जैसे निसर जन्ती में तार हो ।
२०. श्याम शरीर धनुष दश ऊंचो शंख चिन्ह पनमांहि ।
(श्री पंचमेद पूजा, खानतराय)
२०. तेसो ही ऐरावत रसाल ।
( श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास)
गुणवाचक अव्यय - जैसा
१८. मुख करें जैसा लबं तैसा, कपट-प्रीति अंगारसी ।
(श्री दशलक्षणधर्मपूजा, द्यानतराय)
( श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक )
तैसा --
१८. तैसे वरशन आवरण, देख न देई सुजान -
( श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा, खानतराय)
(श्री तीस चोबीसी पूजा, रविमल)
ऐसे -
१६. ऐसो क्षेत्र महान तिहि, पूजों मन बच काय ।
( श्री गिरनार सिद्धक्षेत्र पूजा, रामचन्द्र )
२०. ऐसे अक्षत सौ प्रभु पूजों जगजीवन मन मोहे ।
( भी चन्द्रप्रभु पूजा, जिनेश्वर बास)
Page #264
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रश्नवाचक अव्यय
कौन
१८. जन्म बेर जिय तं दुःख पार्थ, बांध मारकी कौन चलाये । (श्री बृहत् सिद्धचक्रपूजाभाषा, बानसराब) १६. तर सुर पद की तो कौन जात, पूजे अनुक्रमतं मुक्ति जात । (श्री सम्मेदशिखर पूजा, रामचन्द्र )
२०. भामंडल की छवि कौन गाय ।
क्या
१६. अल्पमती में किम कहूँ ।
( २५४ )
underpenda
(श्री अकृत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम)
क्यों
१८. सहे क्यों नहि जीवरा ।
(श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र )
२०. सम्राट महाबल सेनानी, उस क्षण को टाल सकेगा क्या ?
(श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर जैन 'युगल')
( भी वशलक्षण धर्मपूजा, द्यानतराय)
कैसा - २०. अत्यन्त अशुचि जड़ काया से, इस चेतन का कैसा नाता । (श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगलकिशोर जैन 'युगल')
निषेध वाचक अव्यय - नाहीं -
१८. सुरंग नरक पशुगति में नाहीं ।
(श्री वशलक्षण धर्मपूजा, खानतराय)
१६. जप तप कर फंस बांछे नाहीं ।
(श्री क्षमावाणी पूजा, महलजी)
२०. कहन जहां तुम सबही लखि पायो ।
(श्री चन्द्रप्रभु पूजा, जिनेश्वरवास )
नह
१८. वयन नह कहें लखि होत सम्यक धरं ।
(श्री नन्दीश्वर द्वीप पूजा, खानतराय)
Page #265
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५५ ) १६. रंचक नहि मटकत रोम कोय ।
(श्री सप्तपिपूजा, मनरंगलाल) २०. मुनिधर्म तनों नहि रहे लेश ।
(श्री तीस बोबीसी पूजा, रविमल)
१८. उद्यम हो न देत सर्व जगमाहि भरयो है।
(भी बीस तीर्थकर पूजा, धानतराय) १९. पर को देख गिलानि न आने ।
(श्री क्षमावाणी पूजा, मल्लजी) २०. मुझको न मिला सुख क्षण भर भी, कंचन कामिनि-प्रसावों में ।
(श्री बेवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर जन 'युगल') विस्मय वाचक अव्यय
अहो१६. नमन करत चरनन परत, अहो गरीब निवाज ।
(श्री सप्तर्षि पूजा, मनरंगलाल) २०. उस संसार भ्रमणते तारो अहो जिनेश्वर करुणावान ।
(श्री तीस चौबीसी पूजा, रविमल)
सामान्य अव्यय
१८. केवल बर्शनाबरण निवार।
(श्री बृहत् सिर चक्र पूजाभाषा, बानतराय) १६. केबल सहि मविश्वसर तारे।
(श्री महावीर स्वामी पूजा, यानतराय) २०. केवल रवि-किरणों से जिसका सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर ।
(श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर जैन 'गुगल') और१६. इस कानहीं सो भरत सीमा, और सब पर पेशवा ।
(बी रत्नत्रय पूजा, चामतराय) १६. केवड़ा गलाब और केतकी नाइके ।
(श्री पार्वनाब बिनपूजा, बख्तावररल)
Page #266
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५६ )
२०. और निश्चित तेरे सड्या प्रम् । अर्हन्त अवस्था पाऊंगा।
(श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर जैन 'युगल') अथवा१६. कृष्णागर करपूर हो, अथवा दशविधि जान ।
(धी क्षमावाणी पूजा, मल्ल जी) २०. अथवा वह शिव के निष्कंटक, पप में विष-कंटक बोता हो।
(श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगलकिशोर जैन 'युगल') नाना प्रकार१८. मेवज विविध प्रकार, सुधा हरे थिरता करें।
(श्री रत्नत्रय पूजा, थानतराय) २०. सहा मध्य सभामंडप निहार, तिसको रचना नाना प्रकार ।
(श्री सोनागिरि सिद्ध क्षेत्र पूजा, आशाराम) अतएव१८. सहि शील लक्ष्मी एव, छुटू सूलन सों।
(श्री मन्दीश्वर द्वीप पूजा, चानतराय) १६. पश्चिम विस जानू टोंक एव ।।
(श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र) २०. अतएव प्रभो यह नश्वर दीप, समर्पण करने आया है।
(श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगलकिशोर जैन 'युगल') बिना१८. पशु की आयु करे पशु काया, बिना विवेक सदा बिललाया।
(श्री बहत् सिवचक्र पूजाभाषा, चानतराय) बचन
पूजाकार द्वारा शब्दान्त में 'न' वर्ण जोड़कर बहुवचन वाची शब्दों का निर्माण हुमा हैअठारहवीं शती कर्मन ('कर्म' का बहुवचन), कर्मन की प्रेसठ प्रकृति,
(श्री अपदेवशास्त्र गुरुपूजा, व्यानतराय) पोरन ('चोर' का बहुवचन), चोरन के पुर न बसे,
(श्री बरालक्षण धर्मपूजा, पालतराय)
Page #267
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५७ )
atan ('ute' का बहुवचन), दीनन निस्तारन, (श्री देवपूजा भाषा, व्यानतराय)
दोवन ( दोष' का बहुवचन), सब दोषन मांही,
(श्री देव पूजा भाषा, खानतराय)
नयनन ('नयन' का बहुवचन), नयनन सुलकारी,
(श्री बीस तीर्थ कर पूजा भाषा, यानतराय) पंचमेरून ('पंचमेद' का बहुवचन), पंचमेदन की सदा, (श्री भथपंचमेर पूजा, खानतराय) फूलन ( 'फूल' का बहुबबन ), फूलन सों पूर्जो जिनराय, ( श्री मथ पंचमेरपूजा, व्यानतराम ) विवयनि ( 'विजय' का बहुवचन ), कषाय विषयनि टालिये, ( श्री चारित्र पूजा, व्यानतराय ) सिद्धन ( 'सिद्ध' का बहुवचन), सिद्धन की स्तुति को कर जाने, ( श्री बृहत् सिद्धचक पूजाभाषा, व्यानतराय ) सूलन ( 'शूल' का बहुवचन), छूटों सूलम सों,
( श्री नंदीश्वर द्वीपपूजा, माणतराय )
उन्नीसवीं शती
अक्षतान ( 'अक्षत' का बहुवचन), अक्षतान लाइके
( श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न )
कमलन ( 'कमल' का बहुवचन), कमलन के क्ल
( श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन )
गुणन ( 'गुण' का बहुवचन ), तुम गुणन की
( श्री अनंतनाथ जिनपूजा, रामचन्द्र ) चरनन ( 'चरन' का बहुवचन), चरनन चंद लगे,
( श्री चन्द्रमम जिनपूजा, बंदाबन )
नमन ( 'नयन' का बहुवचन), नयनन बिहारि,
( श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन ) eferen ( 'विजन' का बहुवचन), भविचन देत,
( श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन )
Page #268
--------------------------------------------------------------------------
________________
भोपन (भोग' का बहुवचन ), मम मोपन वर्ष मये, . .
(भीमाय जिनपूजा, बख्तावररल) मंदिरन ('मंदिर' का बहुवचन ), पांच मंख्रिन बीच
(श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन) मुनिन ( 'मुनि' का बहुवचन ), मुनिन की पूजा कंक,
(श्री अथसप्तपिपूजा, मनरंगलाल ) रामन ('राजा' का बहुवचन ), मिष राजन भोग,
(श्री अब सप्तषिपूजा, मनरंगलाल ) सिडन ( "सिद्ध' का बहुवचन ), जयसिडन को,
(श्री कंचनाय जिनपूजा बख्तावररत्न ) ऋद्धिन (ऋषि' का बहुवचन), अष्ट ऋदिन कों,
(श्री अथ सप्तषिपूजा, मनरंगलाल ) बीसवीं शतीमरिन ( 'अरि' का बहुवचन ), कर्म मरिन को जीत,
(श्री चतुर्विशति तीर्थकर समुच्चयपूजा, होराचंब) मेनन (क्षेत्र' का बहुवचन ), वश क्षेत्रन में इकसार होय,
(ो तीस चौबीसी पूजा, रविमल ) गुथन ( 'गुण' का बहुवचन ), अनन्ते गुणन,
(भी सण्डगिरि क्षेत्रपूजा, मुन्नालाल) कोरन ( 'चकोर' का बहुवचन ), चार चरित चकोरन के,
(श्री चनाप्रभु जिनपूजा, जिनेश्वरवास ) चरणन ( 'परम' का बहुवचन ), धचरणन,
(भी बडगिरि क्षेत्रपूबा, मुन्नालाल) उन्धन ('अम्म' का बहुवचन ), मंगल द्रव्यन को सुखान,
(यो सोनागिरि सिखलेच पूजा, आशाराम) देवन ('देव' का बहुवचन ), देवनघर घंटा बाजे,
(भी महावीर स्वामी पूजा, जिलाल ) बेशन (देश का बहबबन ), सब देशन के,
(मी बाचनपुर महावीर स्वामी पूजा, पूरणमल ) गुपन ( 'नप' या बहुवचन ), पाविधिनुपन पान
(श्री बाहुबली पूजा; बीपर)
Page #269
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५६ )
बहुवचन), जैन मुनिन की
( श्री विष्णुकुमार महामुनि पूजा, रसुत )
सुमित ( ि
सूरम ('शूर' का बहुवचन), शूरन में सिरदार,
( श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरवास )
सिद्धन ( 'सिद्ध' का बहुवचन), far fear को,
( श्री खण्डगिरि क्षेत्रपूजा, मुन्नालाल )
सर्वनाम -
पूजा साहित्य में प्रयुक्त सर्वनामों का स्वरूप प्रायः ब्रजभाषा का है किन्तु कतिपय सर्वनाम शब्दों का स्वरूप आधुनिक खड़ी बोली का भी व्यबहुत है, यथा
---
अठारहवीं शती
में मैं ( सरब पर्व में बड़ो) (श्री नंदीश्वरद्वीप पूजा, हम-निज, ( एक स्वरूप प्रकाश निज ), ( भी
ध्यानतराव )
सोलहकारण पूजा,
दयानतराब ) तू-ता, (ताकों चंहुगति के दुख नाहीं ), ( भी सोलहकारण पूजा, व्यानतराय ! तुम आप, ( आप तिरें ओरन तिरवावे ), ( श्री सोलहकारण पूजा, दयानतराय ) वह सब ( तीन भेद व्योहार सब ), ( श्री चारित्र पूजा, व्यानतराय) बे-जिन ( इन बिन मुक्त न होय ), ( भी चारित्र पूजा, दयानतराय) बे-इन ( इन बिन मुक्त न होय ), ( श्री चारित्र पूजा, दयानतराय ) उन्नीसवीं शती
में-मो, मेरे ( मो काज सरसी ), ( श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल ), ( करम मेरे ), ( श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न ) हम-निज ( निज ध्यान बिये लवलीन मये ), ( भी चन्द्रग्रम विन पूजा, बृदावन ) तू ता (सानो मध्य इक कुण्डजान ), ( श्री विfरनार सिद्ध क्षेत्र पूजा, रामचन्द्र ) तुम-बाप (सरसो आप सौं), ( श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल )
Page #270
--------------------------------------------------------------------------
________________
। २६.)
ह-, सब (मेट कर्म महान ), (श्री शीतलनाथ जिन पूजा, मनरंगलाल), (सब शोक सनो पूरे प्रसंग), (धी बनाम जिनपूबा,
-संहा, तिन्हे (सुरलेत तहां तननं तननं), (भी महापौरस्वामी पूजा, दावन ), ( तिन्हें भमत मंरिते सदा ), (श्री शांतिनाव बिनपूजा,
बावन) -इन, यह ( इन मादि अनेक उछाह भरी), (श्री महावीर स्वामी पूजा, बावन ), ( यह मावाणी भारती पड़े), (श्री क्षमावाणी
पूजा, मल्लजी) बीसवीं शती
में-मो, मेरे, मेरी ( अल्पबुद्धि मो जान के ) ( श्री तीस चोबीसी पूजा, रविमल ), ( मेरे न हुये ये मैं इनसे ) (श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर जैन 'युगल' ), (प्रमु मूख न मेरी शांत हुई), (श्री देव
साब गुरुपूजा, युगल किशोर जैन 'गुगल' ) हम-अपने, निम, हमारा ( अपने अपने में होती है), (श्री देवशास्त्र गुरु
पूजा, युगल किशोर जैन 'युगल' ), ( निज अन्तर का प्रमु भेव कहूं) . (श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर जैन 'युगल' ), ( निज लोक हमारा बासा हो ) ( श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर जैन,
'युगल') तू-तेरा, ता, तेरी ( नित ध्यान ध प्रभु तेरा), (भी मेमिनाथ जिनपूजा
विनेश्वरवास), (ता बरवाजे पर द्वारपाल), (भी सोनागिरि सिरमेवपूजा, आशाराम), (तेरी अन्तर लो) (भी देवशास्त्रगुरुपूजा,
युगल किशोर जैन 'युगल') तुम-माप ( आप पधारो निकट ), (श्री देवशास्त्र मुल्यूमा, जिलाल) बह-सब, जे ( सब कुछ जड़ को कोसा है), (श्री देवगास्त्र गुरुपूना,
युगलकिशोर जन, 'युगल' ), (जे शुद्ध सगुण अवगाह पाय ), (भी
अकृत्रिम बस्यालय पूजा, रविमल) बे-तहां (तहां चौबीसी तीन विराजे ), (श्री तीस चौबीसी पूजा, रबिमल ) -स, यह, या, इन ( इस संसार भ्रमणते ), (श्री तीस चौबीसी पूजा, रविमल), (यह बचन हिये मे), (भी तीस चौबीसी पूजा, रविनल),
Page #271
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६१)
(या विधि पापों कल्यान बोय ) (मी तीस चौबीसी पूना, रविमल), (मेरे महबेये में इनसे), (श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर
जैन 'युगल' )। कारक और विभक्तियां
विवेच्य काव्य में नीचे लिखें अनुसार कारक बिहनों मोर वित्तियों के प्रयोग मिलते हैं -
फर्ताकारक-(क्रिया का करने वाला ) ने शताग्जिाम १८. तीर्थ कर की धुनि, गगधर ने सुनि।
(श्री सरस्वती पूजा, यानतराय) १६. जन्माभिषेक कियो उनने।
(श्री नेमिनाप जिनपूजा, मनरंगलाल ) २०. समझाया मेंने उजियारा ।
(श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर जैन 'युगल' ) कर्मकारक-(जिस पर क्रिया का प्रभाव पड़े) को १८. ताको जस कहिये।
(श्री निर्वानक्षत्र पूजा, यानतराय ) १६. माधवी द्वादश को जन्मे ।
(श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल) २०. क्षणभर निज रस को पी चेतन, मिथ्या मल को धो देता है।
(श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगलकिशोर जैन 'युगल') करणकारक-(जिससे क्रिया की जाय ) ते, सो, से, के द्वारा १८. श्री जिनके परसाव ते, सुखी रहे सब जीब।
(श्री देवशास्त्र गुस्पूना, यानतराय) १६. बो पर पड़ावे मन बबन सो निधार से बर हाल ।
(बी नेमिनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल) २०. नेवल रबि-किरणों से जिसका सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर ।
(श्री देवशास्त्र रुपूजा, युगल किशोरन 'युमल,) सम्प्रदायकारक-(जिसके लिए किया की भाव) को, के लिए
Page #272
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६२ )
१८. सह भयानक तासु नाशन को सुनुरूप समान है। ( श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, दयानतराव ) १६. हरिवंश सरोजन को रवि हो, बलवन्त महन्त तुमी कवि हो । ( श्री महावीर स्वामीपूजा, वृंदावन ) २०. मैं भूल स्वयं के वैभव को, पर ममता में अटकाया हूँ । ( श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगलकिशोर जैन 'मुगल' ) अपादान कारक - ( क्रिया जिसके कारण अलग होना प्रकट करें अबबा 'कारण से' अर्थ प्रस्तुत हो ) से, तें ( कारण से अर्थ में )
१८. तातें तारे बड़ी भक्ति - नौका-जग नामी ।
( श्री बीस तीर्थ कर पूजा, व्यानतराय )
१८. सागर से तिरे नहि भव में परे ।
( श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र ) २०. तुम तो अविकारी हो प्रभुवर । जग में रहते जग से न्यारे । ( भी देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर जैन 'युगल' )
सम्बन्ध कारक ( किया के अन्य कारकों के साथ सम्बन्ध प्रकट करने वाला )
का, की, के, रा, री, रे, ना, नी, ने
१८. गुरु की महिमा बरनी न जाय ।
( भी देवशास्त्र गुरुपूजा, ध्यानतराय) ९९. अश्वसेन के पारस जिनेश्वर, चरण तिनके सुर सये । ( श्री पार्श्वनाथ जिनपूजर असतावररत्न ) २०. यह सब कुछ लड़ को क्रीड़ा है, मैं अब तक जान नहीं पाया । ( श्री देवशास्त्र गुरुपूचा 'युगल' )
--
अधिकरण कारक - ( किया होने का आधार स्थान व समय ) में, पे, पर १८. सबको छिन में जो जंग के मेद हैं। ( श्री बीस तीर्थ कर पूजा, व्यानतराय ) १६. जयशान्तिनाथ चिह्न पराब, भवसागर में अद्भुत जहाज । ( भी शान्तिनाथ जिनपूर, बावन ) २० सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर, अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण । ( श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर जंन 'युगल' )
Page #273
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २९५ ) सम्बोधनकारक-(पिया के लिए जिसे सम्बोधित किया जाय) है,
१८. स्तम छिमा गहो रे भाई, इह भव नस पर भव सुखदाई।
(श्री दशलमणधर्म पूजा, यानतराय) १६. तुम पातर हे सुखगेह, भ्रमतम खोबत हो।
(श्री महावीर स्वामी पूजा, दावन) २०. हे निर्मल देव ! तुम्हें प्रणाम, हे मान बीप मागम ! प्रणाम ।
(श्री देवशास्त्र गुरुभूमा, 'युगल') क्रियापद__ 'धातु मूल रूप है, जो किसी भाषा की किया के विभिन्न रूपों में पाया जाता है। जा चुका है, जाता है, जायेगा इत्यादि उदाहरणों में जाना' समान तत्व है। धातु से काल, पुरुष और लकार से बनने वाले रूप क्रियापद हैं।
विवेव्य काव्य की भाषा में कियापदों की स्थिति स्पष्ट और सरल है। संस्कृत को साध्यमान (विकरण) क्रियाओ से बनने वाली कुछ क्रियाएँ शताब्दि क्रम से सोदाहरण नीचे दी जा रही हैं(१) ध्या (१८ वीं शती)-(१) ये भवि ध्याइये।
(यानसराय, श्री देवशास्त्र गुरुपूजा) (२) बत्सलअंग सदा जो ध्यावे।
(व्यानतराय, श्री सोलहकारण पूजा) (१६ वीं शती)-(१) भविजन नित ध्यायें।
(बख्तावररत्न, भी अप चणियति समुच्चय पूजा) (२) चरन संभव जिनके ध्याइये।
(बलावररस्म, भी सम्भवनाप जिनपूजा) (२० वो सती)-(१) सितम्यान ध्याय।
(बोलतराम, श्री चम्पापुर सिट क्षेत्र पूजा) (२) महानत ध्यायके, व्यायके।
(कृषिलाल, पी पार्षनाव पूना)
Page #274
--------------------------------------------------------------------------
________________
। २६४ ) (३) बाल परम पर ध्याया।
(जिलाल, श्री पार्वनाष पूजा) (४) जो पूजे ध्यावे कर्म।
(मुन्नालाल, श्री खण्डनिरिक्षेत्र पूजा) (२) पून (१८ वीं शती) (१) पूजों तुम गुणसार ।
(व्यानतराय, श्री देवशास्त्र गुरुपूजा) (१५ शती) (१) सुमति जिनेश्वर पूजते।
(बस्तावररत्न, भी सुमतिनाथ जिनपूजा) (२० वीं शती) (१) ते सुगन्धकर पूजिये।
(आशाराम, श्री सोनागिरि सिद्ध कर पूजा) (३) कर (१८ वीं शती) (१) चंदन शीतलता करे।
(व्यानसराय, भी देवशास्त्र गुरुपूजा) (२) उखम नाश कोने।
(व्यानतराय, श्री देवशास्त्र गुस्सूजा) (१) कोजे शक्ति प्रमान।
(यानतराय, श्री देवशास्त्र गुरुपूजा) (४) सबकी पूजा कर।
(व्यामतराय, भी बीस तीर्थकर पूजा) (५) सब प्रतिमा को करों प्रणाम ।
(यानतराय, भी पंचमेल पूजा) (६) परकाश करयो है।
(व्यानतराय, भी बीस तीर्थ कर पूजा) (७) सरव कोनों निवारा।
(व्यानतराण, बी बीस तीर्थ कर पूजा) (१५ वीं शती)-(१) जय अजितनाथ कीजे सनाय ।
(बलावररत्न, श्री चतुर्विशति निमपूना) (२) धनपति ने कोनी।
(बस्तावररत्म, बी मनाप बिनपूबा) (३) रुपा ऐसी कीजिये।
(आतापरल, बी अभिनंदन नाप बिना )
Page #275
--------------------------------------------------------------------------
________________
६
२
( २६५ ) (४) शुभ बिहार जिन कीजिहो।
(बस्तावररल, श्री वासुपूज्य जिनपूबा) (५) करो तुम व्याह ।
(बस्तावररत्न, श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा) (६) में नमन कह।
(बख्तावररत्न, श्री ऋषमनाप जिनपूजा) (७) सु प्रकाश करे।
(बस्तावररत्न: श्री ऋषभनाथ जिनपूजा) (२० वीं शती) (१) विनती तुमसों का।।
(युगल किशोर 'युगल', श्री देवशास्त्र गुरुपूजा) (२) तिन पर पूजा कीजिये।
(आशाराम, श्री सोनागिरि सिद्धोत्र पूजा) (३) ज्ञान रूपी मान से कोंना सुशोभित ।
(पूरणमल, श्री चांदन गांव, महावीर स्वामी पूजा) (४) कापायिक भाव विनष्ट किये।
(मुगल, श्री देवशास्त्र गुरुपूजा) (५) सोध पवित्र करी।
(ौलतराम, श्री चम्पापुर सिट क्षेत्रपूजा) (६) करता अभिमान निरंतर हो।
(युगल, श्री देवशास्त्र गुरुपूजा) (७) ध्यान तुम्हारों कोनौ।
(जिनेश्वरवास, श्री चन्नप्रभु पूजा) (४) रच (१८वीं शती)- (१) नित पूजा रचूं।
(यानतराप, श्री देवशास्त्र पुरुषमा) (१६ वीं शती)-(१) अक्षत पुंज रचाइये।
(बख्तावररत्न, श्री सुमतिनाथ जिनपूजा) (२) वहाँ पूज रची।
(बस्तावररत्न, श्री ऋषभनाथ जिनपूना) (२० को मती)-(१) जिनवर पूल रवाई।
(जिनेश्वरवास, भी बत्रभु पूजा)
Page #276
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५६ )
(५) घर (१८ वीं शती) - (१) प्रीति घरी है।
(दयानतराय, श्री बीस तीर्थ कर पूजा)
(दयानतराय, श्री वेदशास्त्र गुरुपूजा)
(दयानतराय, श्री गंदीश्वर द्वीप पूजा)
(२) पुष्प चरु दीपक धरू ।
(३) आनंव-भाव धरों ।
(१२ वीं शती) - (१) तुम भेंट धराऊ ।
(बस्तावररस्म, श्री चन्द्र प्रभु जिनपूजा)
(२) धरी शिविका मिजकंध मनोग
(वतावररत्न, श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा)
(३) धरो तुम जन्म बनारस आन ।
(ताररत्न श्री सुपार्श्वनाथ जिनपूजा) (२० वीं शती) - (१) श्री जिनवर आगे धरवाय ।
(सेवक, श्री आदिनाथ जिनपूजा)
(२) कनक- रकाबी धरे ।
(दौलतराम, श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा) (३) मणिमय दीप प्रजाल धरों ।
(आशाराम, श्री सोनागिरि सिद्ध क्षेत्र पूजा)
(४) प्रेम उर धरत है।
( आशाराम, श्री सोनागिरि सिद्धक्षत्र पूजा) (६) कह (१८ वीं शती) (१) गरुड़ कहे हो ।
( यानतराय, श्री बीस तीर्थ कर पूजा)
(२) भिन्न-भिन्न कडु आरती ।
(दयानतराय, श्री बीस तीर्थ कर पूजा)
(३) विजय अञ्चल मंदिर कहा ।
(ध्यानतराय, श्री पंचमेरु पूजा )
(१८ वीं शती) (१) भये पद्मावति शेष कहाये ।
(२) धर्म सारा कहा।
(बस्तावररत्न, श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा)
(वक्तावररत्न, श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा)
Page #277
--------------------------------------------------------------------------
________________
। २६७ )
(३) कहत बसता पर रतनवास ।
(बख्तावररत्न, श्री अजितनाथ जिनपूजा) (२० वीं शती)-११) शायक देव कहावो।
(बिनेश्वरवाल, श्री बमप्र पूजा) (२) अनुकूल कहें प्रतिकूल कहै।
(युगल, श्री देवशास्त्र गुरुपूजा) (३) जिसको निज कहता में।
(युगल, श्री रेवशास्त्र गुरुपूजा) (७) बलान (१८ वीं शती) (१) महामन महाभद्र बखाने ।
(दयानतराय, श्री बीस तोर्य कर पूजा) (२) चारों मेरु समान बखानों।
(व्यानतराय, श्री पंचमेरु पूजा) (१६ वीं शती) (१) तत्व संज्ञा बखानी।
(बखतावररत्न, श्री चन्द्रप्रम जिनपूना) (२) कहाँ लों बलाने।
(बख्तावररत्न, श्री शांतिनाथ जिनपूबा) (२० वीं शती) (१) तिन जयमाल बखान।
(रसुत, श्री विष्णुकुमार महामुनि पूना) (८) विराज (१८ वीं शती) (१) नेमि प्रभु जस नेमि विराज।
(ध्यानतराय, श्री बीस तीर्षकर पूजा) (२) सब गनत-मूल विराजहीं।
(धानतराय,धी पंचमेव पूना) (१६वीं पाती) (१) नौ हाथ उन्नत तन विराज।
(बख्तावररत्न, श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा) (२) तिनको कूल विराजा है।
(बस्तावररत्न, श्री अरहनाथ जिनपूना) (२० वीं शती) (१) लोकान्त विराज मन में जा।
(युगल, भी देवशास्त्र गुस्थूबा) (e) (१८ वीं शती) (१) तातें प्रबन्छन देत।
(पानतराय, श्री पंचमेव पूना)
Page #278
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६८ ) (२) पर निरवार।
(चानतराय, भी मंदीरवर हीपपूजा) (१९वीं शती) (१) मोक्ष श्रीफल बौजिये।
(बस्तावररत्न, श्री ऋषमनाप जिनपूजा) (२) राना धियांस दोनो महार।
(बखताबररत्न, भी ऋषभनाब जिमपूजा) (३) देत अब संघ को दान।
(बस्तावररत्म, श्री अजितनाथ जिनपूजा) (२० वीं शती) (१) जय लक्ष्मी जिन दीजिये।
(जिनेश्वरवास, श्री चन्द्रप्रभ पूजा) (२) ये दुष्ट महा दु:ख देत हो।
(युगल, श्री देवशास्त्र गुरुपूजा) (१०) शोभ (१८ वीं शती) (१) बन सुमनस शोभे अधिकाई।
(यानतराय, श्री पंचमेह पूना) (१९ वी शती) (१) वज़ चिन्ह शोभत ।
(बातावररस्न, श्रीधर्मनाथ जिमपूजा) (२० वीं शती (१) प्राचीन लेख शोभे महान ।
(मुन्नालाल, श्री नन्हगिरि सिडनेत्र पूजा) (११) पढ़ (१८ बों शती) (१) पंचमेरु को मारतो पड़े।
(चानतराय, श्री पंचमेरू पूजा) (१६ वो शती) (१) पढ़े पाठ चित लाम।।
(बस्तावररत्न, श्री मुनिसुव्रतनाब जिनपूजा) (२० वीं शती) (१) जो गुरुवेब पढ़ाई विद्या ।
(जिनेश्वरदास, श्री बाहुबली स्वामी पूजा) (२) पढ़ते जिनमत मानत प्रधान ।
(मुन्नालाल, श्रीखण्डगिरि सिरक्षेत्र पूना) (१२) सुन (१८ वीं शती) (१) सुने जो कोय ।
(जानतराय, श्री पंचमेव पूना) (२) नाली सुनि मनसेव न मानो।
(जानतराम, श्री बरालकल धर्मपूजा)
Page #279
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६६)
(१९ोगती) (९) बिनती मेरी सुनिये।
(खतावररत्न, श्री पुष्पदन्त चिनपूणा) (२) इन आदिक मेव सुनो।
(बख्तावररल, श्री अनन्तनाथ जिनपूजा) (३) पचन यों सुनाये।
(बस्तावररत्न, श्री नेमिनाप जिनपूजा) (२० वीं शती) (१) मन की बाधा सुनो।
__ (रघुसुत, श्री विष्णुकुमार महामुनि पूजा) (२) रविमल को विनती सुनो नाथ ।
- (रविमल, श्री तीस चौबीसी पूजा) (१३) मिल (१८ वीं शती) (१) जल केशर करपूर मिलाय।
(यानतराय, श्री पंचमेरुपूजा) (१६ वीं शती) (१) जल फल द्रव्य मिलाय।
(बस्तावररस्म, श्री सुमतिनाथ जिनपूजा) (२) बशगंध मिलावे।
(बख्तावररल, श्री कुंथुनाथ जिनपूजा) (२० वीं शती) (१) मुझको न मिली सुखको रेखा।
(युगल, श्री देवशास्त्र गुरुपूजा) (२) केसर भावि कपूर मिले मलयागिरि चन्दन ।
(आशाराम, श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा) (१४) सह (१८वीं शती) (१) सहे क्यों नहिं जीयरा ।
(यानतराय, श्री वशलक्षण धर्मपूजा) (१६वीं शती) (१) दुःख सहे।
(बस्तावररत्म, श्री अभिनंदमनाथ जिन पूजा) (२०वीं शती) (१) कुल सहे अतिभारी।
(विनेश्वरवास, पीचनप्रणपूणा) (२) बाइस परीवह वह सहन्त।
(गुमालाल, श्री सन्मगिरि क्षेत्रमा)
Page #280
--------------------------------------------------------------------------
________________
विवेच्य पूजा काव्य में देशी वियाओं के कतिपय रूप निम्नलिखित पाये
(१) जाम (१८ वीं शती) (१) चानत फल जानें प्रभू ।
(चानतराय, श्री पंचमेर पूजा) (२) बानत सेवक जानके।
(चानतराय, श्री बीस तीर्थ कर पूजा) (३) भूपर भासाल पहुं जानो।
(जानतराय, श्री पंचमेह पूजा) (१६ वी शती) (१) मुख दास अपनो जानिए।
(बस्तावररत्न, श्री अजितनाथ जिनपूजा) (२) चिन्ह मर्कट को उर जानके।
(बख्तावररत्न, श्री अभिनंदननाथ बिनयूना) (३) सुवर्ण नाम जानियो।
(असतावररत्न, श्री पुष्पदन्त जिनपूजा) (४) मात सुसोमा जानो।
(मखतावररत्न, श्रीपदमप्रभु जिनपूजा) (२० वीं शती) (१) वर्तमान जिनराय भरत के जानिये।
(जिनेश्वरवास, श्रीचन्द्र प्रमुपूजा) (२) हे चिन्ह शेर का ठीक जान ।
(पूरणमल, भी चांदनमांव महावीर स्वामी पूजा) (२) आना (१८ वीं शती) (१) माली सुनि मन खेद न आनो।
(बानसराय, श्री बालक्षण धर्मपूजा) (१६वीं शती) (२) सासु मन्ध पे मलिगण आवें।
(बस्तावररत्न, श्री शीतलनाथ जिनपूजा) (२० वो शती) (१) मिथ्या मल धोने आया हूँ।
(युगल, श्री देवशास्त्र, गुरुपूना) (३) देश (१८ वीं शती) (१) वेले नाथ परम सुख होष।।
(धानतराय, श्री पंचमेह पूजा) (१६वीं शती ) (१) अधि देख पर की।
(मलावररल, श्री अमिनमनाम जिनपूजा)
Page #281
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५
(२) कति नियपति को देखत।
(बख्तावररत्न, श्री धर्मनाथ जिनपूणा) (३) रूप देखो गुनासोर।
(बस्तावररत्न, श्री चन्द्रप्रभ जिमपूजा) (२० वीं शती) (१) दर्शन अनूप देखो जिनाय ।
(मुन्नालाल, भी पगिरि क्षेत्रपूजा) (२) कण-कण को जी भर-भर देखा।
(युगल, श्री देवशास्त्र गुरुपूजा) (४) बनाना (१८ वीं शती) (१) मनवांछित बहु तुरत बनाय ।
(बानतराय, श्री पंचमेर पूजा) (१६ वीं शती) (१) समोसरन ठाठ सुन्दर बनायो।
(बख्तावररत्न, श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा) (२) तिनके शुभ पुंज बनाऊ।
__ (बखतावररत्न, भी पुष्पदंत जिनपूजा) (३) हे जी व्यंजन तुरंत बनायो।
(बखतावररत्न श्री श्रेयांसनाथ जिनपूजा) (२० वीं शती) (१) निजगुन का अर्ष बनाऊंगा।
(युगल, श्री देवशास्त्र गुरुपूजा) (२) निजभवन अनुपम बियो बनाय।
(पूरणमल, श्री चांदन पांच महावीर स्वामी पूजा) (३) बनवाई गुफा उनने अनेक ।
(मुन्नालाल, भी पिरि सिहले पूजा)
Page #282
--------------------------------------------------------------------------
________________
मनोवैज्ञानिक
जैन धर्म में ही नहीं अपितु सभी भारतीय धर्मों में उपासना-विषयक स्वीकृति के परिदर्शन होते है। उपासना के विविधि-रूपों में पूजा का महत्वपूर्ण स्थान है। पूजा के स्वरूप उसके विधि-विधान तथा उद्देश्य-विषयक विभिन्नताएं होते हुए भी यह सर्वमान्य सत्य है कि संसार के दुःखी प्राणी अपने दु:ख-संपात समाप्त करने के लिए पूजा को एक आवश्यक बत-अनुष्ठान स्वीकारते हैं।
संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है। अभय क्षधा, औषधि तथा मान विषयक सुविधाओं का वह प्रारम्भ से ही आकांक्षी रहा है। आरम्भ में इन आवश्यक सुविधाओं के अभाव में उसे दुःखानुभूति हुआ करती है। दुःख का सीधा सम्बन्ध उसकी मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है । मनोनुकूलता में उसे सुख और प्रतिकूलता में दुःखानुभूति हुआ करती है । मास्थाबादी प्राणी अपनी इस दुःखद अवस्था से मुक्ति पाने के लिए सामान्यतः परोन्मुखी हो जाता है। ऐसी स्थिति में विवश होकर वह परकीय-सत्ता के सम्मुख अपने को समर्पित कर उसकी गुण-गरिमा गाने-बुहराने लगता है। यही वस्तुतः पूजा को प्रारम्भिक तथा आवश्यक भूमिका होती है। मन की विविध स्थितियों का विज्ञान वस्तुतः मनोविज्ञान कहलाता है। यहां हम हिन्दी जैन पूजा-काव्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन करेंगे।
सुखाकामी संसारी जीव ममता प्रिय होता है। पर-वस्तुओं के आश्रय मान बनाकर अपने ही गुणों के विकृत परिणमन में परिणत होने के कारण जगत के प्राणी सतत दुःखी हुमा करते हैं । दु.ख का कारण अज्ञान है। प्राणी की अनादिकालीन भूलों को यहाँ संक्षेप में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है।
शरीर है सो में इस प्रकार को मान्यता यह जीव अनादिकाल से मानता माया है शारीरिक सुख-सुविधाओं में मासक्ति रखकर बह निरन्तर प्रमात्मक गोवन जी नहीं है। शरीर की उत्पत्ति से वह जीव का बन्म और सरीर के
Page #283
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २७३ )
वियोग से जीव का are मानता है अर्थात् जीव को बीच मानकर अज्ञान का पोषण करता है। मिथ्यात्व रामादि प्रकट देने वाले हैं तथापि उनका सेवन करने में सुख मानता है । यह अवता की मूल है। वह शुभ को लामवादी तथा अशुभ को अनिष्ट अर्थात् हानिकारक मानता है किन्तु सस्यदृष्टि से वे दोनों अनिष्ट हैं वह ऐसा नहीं मानता । सम्यधान सहित वैराग्य जीव का सुखरूप है तथापि उन्हें वाक और समझ में भ आए ऐसा स्वीकारता है । शुभाशुभ इच्छाओं को न रोक कर इन्द्रिय विषयों की इच्छा करता रहता है। सम्यग्दर्शन पूर्वक ही पूर्ण निराकुलता मद होती है और वही सच्चा सुख है, ऐसा न मानकर यह जीव बाहय सुविधाओं में सुख मानता है ।
यह जीव मिय्यादर्शन', मिथ्याज्ञान' और मियाचारित्र' के वशीभूत होकर बार गतियों में परिभ्रमण करके प्रतिसमय अनन्त दुःख भोग रहा है । जब तक देहादि से भिन्न अपने आत्मा की सच्ची प्रतीति तथा रामावि का अभाव न करे तब तक सुख-शाक्ति और आत्मा का उद्धार नहीं हो सकता ।
आत्महित अर्थात् सुखी होने के लिए सच्चे देव गुरु और शास्त्र की teri प्रतोति, जोवादि सात तत्त्वों की यथार्थ प्रतीति, स्वाद के स्वरूप की अडा, निज शुद्धात्मा के प्रतिभास रूप आत्मा को श्रद्धादन बार लक्षणों के अविनाभाव सहित श्रद्धा जब तक जीव प्रकट न करे तब तक जीव का उद्धार नहीं हो सकता अर्थात् धर्म का प्रारम्भ भी नहीं हो सकता और तब तक आत्मा को अंशमात्र भी सुख प्रकट नहीं होता ।
कुबेव कुगुरु और कुशास्त्र और कुधर्म की बढा, पूजा सेवा तथा विलय करने की जो-तो प्रवृत्ति है वह अपने मिध्यात्वादि महान दोषों को पोषण देने वाली होने से दुःखदायक है, अनन्तः संसार-मन का कारण है। जो
१. मिथ्यादर्शन कर्मण उदद्यात्तत्शर्थाश्रद्धान परिणामो मिथ्यादर्शनम् । - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोण भाग ३, पृष्ठ ३११ ।
-
Ho
२. ण मुवाइ वत्सहावं अनिवरी जिलेक्सदो मुगइ ।
तं इह मिछणाणं विवरीयं सम्मरूवं तु ॥ -जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, भाग २, पृष्ठ २६३ ।
३. भगवदर्हत्परमेश्वरमार्ग प्रतिकूलमार्गाभास तन्माचर fromrafts च!''' अबवा स्वात्म अनुष्ठान रूपविमुखत्वमेवसिष्या चारिचं ।
- जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग २, ० विनेन्द्र वर्णी, पृष्ठ २०३ ।
5.00
Page #284
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २७४ ) बीब उसका सेवन करता है, उसे कर्तव्य समानता है, वह दुर्लभ मनुष्यजीवन को नष्ट करता है।
अग्रहीत मिथ्यावर्शन, मिच्याज्ञान और मिथ्याचारित्र जीव को अनादि काल से होते हैं फिर वह मनुष्य होने के पाचात् कुशास्त्र का अभ्यास करके अथवा कुगुरू का उपदेश स्वीकार करके गृहीत मिथ्या शान तथा मिष्या भडा धारण करता है तथा कुमति का अनुसरण करके मिथ्या किया करता है, वह गृहीत मिथ्या चारित्र है । इसलिए जीव को भली भांति सावधान होकर गृहीत तथा अगृहीत -दोनों प्रकार के मिथ्याभाव छोड़ने योग्य हैं और उनका यथार्थ निर्णय करके निश्चय सम्यग्दर्शन प्रकट करना चाहिए। मिथ्या भावों का सेवन करके, संसार में भटक करके, अनन्त जन्म धारण करके अनन्त काल गवां विया अस्तु अब सावधान होकर आत्मोद्धार करना चाहिए।
जीव का लक्षण उपयोग है और ज्ञानवर्शन से व्यापार अर्थात् कार्य को ही उपयोग कहते हैं। बैतन्य के साथ सम्बन्ध रखने वाले जीव के परिणाम को उपयोग कहते हैं और उपयोग को ही शान दर्शन भी कहते हैं । यह जान, दर्शन सब जीवों में हता है और जीव के अतिरिक्त अन्य किसी द्रष्य में नहीं होता, इसलिए यह नीव का लक्षण है । जीव उपयोग का स्वरूप है और जानने देखने कप को उपयोग कहा है । जीव का वह उपयोग शुभ और अराम को रूपों का होता है। यदि उपयोग शुभ होता है तो जीव के पुण्य कर्म का संचय होता है, और यदि उपयोग अशुभ होता है तो पाप कर्म का संचय होता है किन्तु शुभोपयोग और अरामोपयोग का अभाव होने पर न पुण्य कर्म का संचय होता है और न पाप कर्म का संचय होता। जो जिनेन्द्र देव
१. 'उपयोगो लक्षणं'
- मोलशास्त्र, द्वितीय अध्याय, श्लोक बाठ, बृहजिनवाणी सग्रह,
पृष्ठ २०६। २. अप्पा उवमोगप्पा उपभोगो माणसणं भणियो।
सोबि सुहो असुहो वा उपयोगो अप्पनो हवदि ।। -कुन्द-कुन्द प्राभूत संग्रह, सम्पा० पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन संस्कृति
संरक्षण संघ, शोलापुर, प्रथम संस्करण १९६०, पृष्ठ ३१ । ३. उबमोगो जदि हि मुही पुण्णं जीवस्स संचयं जादि ।
अनुहोवा तब पार्थ तेसिमभावेज पयमत्यि। -कुन्द कुन्द प्राभूत संग्रह, वही, पृष्ठ ३२ ।
Page #285
--------------------------------------------------------------------------
________________
के स्वरूप को जानता है । वह सिड परमेष्ठी का दर्शन करता है उसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय और साधुओं के स्वरूप मानता, देखता है तथा समस्त प्राणियों में क्याभाव रखता है, उस जीव के शुभ उपयोग होता है।' जिसका उपयोग विषय और कवाय में अत्यधिक अनुरक्त है, मिथ्या शास्त्रों को सुनने में, कुष्मान में और कुसंगति में रमा हुआ है, उप है और कुमार्ग में तत्पर है, उसका उपयोग अशुभ है।
असम से शम की और प्रवृत्त होने का भाव प्राणी की पवित्र ति का घोतक है। अब इस आत्मा में अपना स्वरूप और जागतिक बोष होता है तब पर- पदार्थ में जिनकी भावना छोड़कर विशुद्ध दर्शन-शान स्वभाव वाले निज मुख आत्म तत्व में रुचि करने लगता है । अन्तरास्मा को शान्ति के लिए जो प्रयत्न होता है वह है निर्मल विशुख दर्शनशान स्वभाव में परिणत परम आत्मा की दृष्टि और निज को कल्पना से रहित निज सहज स्वभाव को दृष्टि । इसी प्रेरणा से प्रेरित होकर शुभरागवश उभूत भगवद्भक्ति में अन्तरात्मा का प्रवास होता है । इसके फलस्वरूप व्यवहार में उस सद्गृहस्थ की देव-पूजा में प्रवृत्ति होती है। देव की स्थिति पूजक का उपादेय लक्ष्य है। अतः व्यवहार से अथवा उपचार से तो पूज्य-परमेष्ठी भगवान का प्रभय लिया जाता है और निश्चय से निज सहज-सिख-चैतन्य-प्रभु की दृष्टि रूप हो सहारा होता है। हमें सत्य-सहारा पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना चाहिए जिसके लिए व्यवहार और प्रयोजन पहिचानते हुए देवपूजा पर गम्भीर वृष्टिपात करना उचित है।
पूजा में निश्चय रूप भाव अर्थात् आध्यात्मिकता का रूप किस प्रकार का होता है, यह जानना भी आवश्यक है। पूजन में ऐसे आचार-विचार का होना आवश्यक है जिससे पूज्य देव और उनको स्थापित प्रतिमा को विवेकपूर्वक ध्यान में लाया जा सके। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि विषय कषाय
१. जो जाणादि जिणिंदे पेच्छदि सिद्ध तहेव अणगारे ।
जीवेसु साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स ॥
-कुन्दकुन्द प्राभूत संग्रह, वही, पृष्ठ ३२ । २. विसय कसाबों गाडगे दुस्सुदि दुश्चित दुगोठ्ठियुदो।
उग्गो उम्मग्गपरो उपमोगो जस्स सो बसुहो।। -कुन्द-कुन्द प्रामृत संग्रह, वही, पृष्ठ ३२ ।
Page #286
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २५६) मोर रेक पूजन दोनों का एक साल चलना समय नहीं हैं। भाराव्य पूजन के लिए अपने में पात्रता का उदय करना भी मावश्यक है । इसलिए प्रवकके आचार मैं सबसे पहिले सप्तम्बसन' का त्याग अनिवार्य है क्योंकि इसके बिना चित की चंचलता शान्त नहीं हो सकती । चंचल चित में वीतराम और वीतरागता के भावोग्य होना सम्भव नहीं।
यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि जो व्यक्ति पूजा करता है, अन्तरंग से पूजा का भाव मिसके होता है उसके गुभ-भाव मन्दिर में पहुंचकर ही उत्पन्न हों यह मात्र सत्य नहीं है। वास्तविकता यह है कि उसके अन्तर में पूजा सम्बन्धी संस्कार तो सातत्य विशुद्धि के कारण सर्वदा विद्यमान रहते हैं। पूजक जब शारीरिक क्रिया से निवृत्त होकर घर से मन्दिर जी को प्रस्थान करता है तब उसके परिणामों में और भी अधिक निर्मलता बढ़ती है। भावगाम्भीर्य, वचन में समिति, चलने में सावधानो और क्या को एति हमा करती है। मार्ग में बलते समय उसका मनोभाव तन्य की उत्सुकता से माप्लावित हो जाता है। मार्ग में विषय कवाय की बात न बह जानता है और न करता ही है। यदि धर्म सम्बन्धी कोई बात करना आवश्यक होती तो भाषा समिति पूर्वक वह संक्षेप में उसे समाप्त कर स्वयं लक्ष्योन्मुख हो जाता है। जिनालय में प्रवेश करते ही उसे निःसहिः, नि:सहिः, निःसहि, शम्द का उच्चारण करना चाहिए । इसका अभिप्राय यह है कि देव पूजन में राम वेषजन्य किसी प्रकार का व्यवधान अथवा संकट उत्पन्न न हो।
यदि पूजक का मन परकीय पदार्थों के प्रति आकृष्ट है तो उसका चित बोतरागमय नहीं हो सकता, अस्तु, पूज्य परमेष्ठियों के स्मरण और नमस्कार
१. अशुभ में हार शुभ में जीत यहै यूत कर्म,
देह की मगनताई, यह मांस भखियो। . मोह की महल सौं अजान यह सुरापान, कुमति की रीति गणिका की रस चखियो । मिर्दय ह प्राण घात करबो मह शिकार, पर-नारी संघ पर-बुद्धि को परखियो। प्यार सौं पराई सौंज गहिवे की चाह चोरी, एई सातों व्यसन विडारि ब्रह्म लबिबी ॥ --समयसारनाटक, बनारसीदास, श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याम मन्दिर ट्रस्ट, सोनगड़ (सौराष्ट्र), प्रथम स्करण.बि.सं.२०२७, पृष्ठ ३४७ ।
Page #287
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
२७०)
पूर्वक कायोत्सर्ग करने से माला का आत्मीय सम्बन्ध चैतन्य भागों की सन्निकटताका सम्बन्ध प्रकरण रूप में हो जाता है और भगवान की पूजा की भूमिका संचार हो जाती है। यह मनावमानिक सत्य है कि पूजक के मन में बहिर्षदा के व्यापार सम्बन्धी ममता का पूर्ण उत्सर्ग हुए बिना उसमें वास्तविक पूजा की क्षमता उत्पन्न नहीं हो सकती।
मतब भगवान में पूर्णतः तन्मय हो जाता है उस समय बचन-प्रवृत्ति मी प्रायः सहो जाती है। यद्यपि यह स्थिति सामान्य पूजक को क्षणिक ही हो पाती है तथापि उसका पुण्य-बन्ध हो जाता है और अपूर्व शान्ति को अनुभूति हुआ करती है । पूजा में अन्तर्भक्ति के साथ बाह्य मंत्रों, द्रव्य, वचन विषयक मालम्बन को भी सार्थकता है क्योंकि बच्चन के बिना न्यास लोकव्यवहार प्रवर्तन का कोई अन्य उपाय भी नहीं है।
ग्य और भाव मेद से नमस्कार भी दो प्रकार का होता है। हाथ-जोर शिरोमति करना वस्तुतः द्रव्य नमस्कार है और बाह्य किसी भी किया किए बिना मात्र अपने अन्तर्भाव पूज्य में लगाना वस्तुतः माव नमस्कार कहलाता है। भाव नमस्कार भी दो प्रकार का होता है, यथा
२. अदंत परमेष्ठी के गुण चितवन पूर्वक सम्मान करना देस नमस्कार है जब कि पूज्य और पूजक में चैतन्य स्वरूप को तब पता अर्थात् पूज्य और पूजक में एकतानता प्रकट हो जाती है उसे वस्तुतः अद्वैत भाव नमस्कार कहते हैं।
देवशास्त्र गुरु की पूजा शुभ उपयोग के लिए प्रमुख साधन है। भावश्यकता यह है कि लक्ष्य में शुद्ध उपयोग हो तभी पूजा की सार्थकता है। पूजा में बाह्य-क्रिया पर उतना बल न देकर शुद्ध-मावों पर पहुंचने का लक्ष्य होना सर्वथा हितकारी होता है। इसके लिए मादरूप परमेष्ठी का ध्यान जाना अत्यन्त स्वामाषिक है फलस्वरूप उनको आराधना अनिवार्य है। जिस समय परमेष्ठी का चिन्तन-मनन-पूजन और अनुभव होता है उस समय तो अति शुभ परिणामों के होने से पाप होता ही नहीं, इसके अतिरिक्त पूर्व संचित पापों की स्थिति और अनुमाग भी नीम होकर मल्ल रहमानी है। भविष्य के लिए भीपाका मन और बी स्थिति पूर्व सवय होने से बचाता है।
Page #288
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २७८ )
इस प्रकार पूजक अथवा भक्त पूज्य-पर-आत्माओं का आभण लेता हुआ मी स्वलक्ष्य में अति सावधान होता है। परमात्मा- आत्माओं की सम्मान वृति के साथ-साथ अपने स्वरूप को स्पष्ट करता रहता है। यदि पूजक को आत्म-स्वरूप का कदाचित भी मान नहीं होता तो उसे परमात्मा का भी प्रतिमास
नहीं हो पाता क्यों कि परमात्मा का स्वरूप स्व आत्मा के ही अनुरूप है तब afe आत्मा को न जाना गया तो परमात्मा को जानना किस प्रकार सम्भव हो सकता है । अस्तु वास्तविक पूजक आत्म-ज्ञानी और आत्मपूजक है । ऐसे ही पूजक की पूजा सार्थक है अर्थात् वह मोक्ष साधिका है अन्यथा सब क्रियाएं व्यवहार मात्र लोक व्यवहार साधिका मात्र है।
लोक में पूज्य, पूजा और पूजन भाव में पराश्रित भावना स्पष्टतः मुखरित है। यहां किसी भी कार्य का कर्ता, दाता परकीय शक्ति है और पूजक उसी का आश्रय लेकर अपने अभाव की पूर्ति के लिए पूजा-अर्चा करता है । वह स्वच्छ तथा हार्दिक भावना से परिपूर्ण लाव्य-सामग्री का अपने उपास्य के सम्मुख भोग लगाता है और अन्त में स्वयं उसका सेवन कर कल्याणकारी मानता है। जन-पूजा में इस प्रकार का कोई विधान नहीं है। यहाँ पूजक सर्वसिद्ध भगवान जो स्वयं सिद्ध हो चुके हैं, जो ध्रुव-स्वभाव को प्राप्त परमात्मा हैं तथा अपने ही सर्व प्रवेशों में स्वभाव सिद्ध परमात्मा हैं उसे पूजता है। यहाँ पूजक अपने को ही अपने आप में जो अनादि अनन्त अहेतुक है, शुद्ध अशुद्ध पर्यायों से रहित हैं, चित्तस्वभावमय है ऐसे सिद्ध परमात्मा की पूजा करता है। तीर्थंकर की वाणी तथा जिनवाणी को निज चारित्र में आत्मसात् करने वाले साधु श्रेष्ठि की पूजा करना बस्तुतः देव शास्त्र और गुरु की पूजा है।"
यहाँ अभय तो कर्म मुक्त भगवान को बनाते हैं किन्तु उनका जो विकल्पबनाया, ज्ञान-भगवान को हृदय में प्रतिष्ठित किया वस्तुतः उसी की पूजा
१. प्रथम देव अरहन्त सुश्रुत सिद्धान्त जू
गुरु निर्ग्रन्थ महन्त मुकति पुर-पंथ जू । तीन रतन जग मांहि सो ये जग ध्याइये, तिनकी भक्ति प्रसाद परम-पद पाइये ॥ पूजूं पद अरहन्त के पूजों गुरुपद सार । पूज देवी सरस्वती नित प्रति बष्ट प्रकार |
-श्री देवशास्त्रगुरुपूजा, चागतराम, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०६ ।
Page #289
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २७६ ) होती है । शब अर्थ और मानपूर्वक भगवान में बाल-भगवान की पूजा होने का भाग लेना और माय तो कर्म-मुक्त सिख अर्थ भगवान को बनाते हैं। वास्तव में अब भगवान की कल्पना से भी आगे बढ़कर भक्त बान-भगवान की पूजा करता है।
पूजा का निश्चय नय की दृष्टि से यही अभीष्ट रूप है तथापि भक्त की मन:स्थिति के अनुसार यह कहाँ तक इसके अनुरूप अपने को प्रस्तुत कर पाता है उपास्य को पूर्ण परकीय सत्ता स्वीकार कर उसके द्वारा जागतिक उपलब्धियों के लिए जो पूजक पूजा करता है उसका सारा उद्योग अशुभोपयोग को जन्म देता है। मानपूर्वक जो उतरोत्तर स्वयं में जितना तप बनाने का उद्योग करता है उसका उतना ही अधिक शभोपयोग होता है। शुभोपयोग पुण्यबन्ध का कारण होता है। स्वयं में तप गुणों की स्थापना कर स्वयं की उपासना करें, अपने ही समन कर्मकालुष्य को प्रक्षालन करने का उद्योग वस्तुत: शुद्धोपयोग कहलाता है।'
इस प्रकार पूजक पूजा-विधान में सबसे पहिले अपने आराध्य की स्थापना करता है। प्रत्येक पुजारी आराध्य के गुणों का स्तवन कर तीन बार
१. विसयक साबोगाढो दुस्सुदि दुन्चितदुट्ठगोट्ठिजुदो।
उग्गो उम्मग्गपरो उपओगे जस्स सो असुहो। -कुन्द-कुन्द प्राभूतसंग्रह, आचार्य कुन्दकुन्दाचार्य, प्रथमसंस्करण १६६०, जैन संस्कृति सरक्षक संघ, सोलापुर, पृष्ठ ३२ । २ जो जाणादि जिणिदे पेच्छदि सिद्ध तहेव मणगारे ।
जीवेसु साणुकंपो उपओगो सो सुहो तस्स ॥
-कुन्द कुन्द-प्राभूत संग्रह. पृष्ठ ३२ । ३. (क) शुद्धातम अनुभव जहाँ, सुमाचार तहाँ नाहि ।
करम करम मारग विषे,सिव मारम सिबमोहि। -मोक्षार, समयसार नाटक, बनारसीदास, बी दिमम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र), पृष्ठ २३३ । (ख) कम्मबन्धो हि णाम, सुहा सुह परिणाम हितो जाय दे।
शुद्ध परिणामें हितो तेखि दोणं पि जिम्मूलक्सको। -जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष, भाग १, पृष्क ४५६ ।
Page #290
--------------------------------------------------------------------------
________________
५ २० )
बार करताना सके सवापित होने की मनोकामना करता है। एकएकबोचार पर यह पूर्ण मावल का शोषण करता है।'
अपने में भाराव्य-स्थापना के परमात् अपने अध्यकों के भय करने का उपक्रम एक-एक मध्य के साथ भक्त प्रभु के गुणों का चिन्तबन गान कर सम्पन्न करता है। बसका स्वभाव तो निर्मल-शान्त तथा शीतल है थस्तु पूजक अपने सम्म खरा तथा मृत्य विनाम के लिए अल को बढ़ाकर शुभसंकल्प करता है। पूजा में संकल्पित सामग्री जैनधर्मानुसार सर्वथा निर्माल्य रूप अर्थात् त्यागने योग्य होती है।'
संसार-ताप को शान्त करने के लिए पूजक शीतल स्वभावी चन्दन का मेपण करता है। सिह प्रभु के द्वारा अपने समप्र ताप शान्त करने के लिए
अलय पर प्राप्त करने के लिए पूजक पूर्ण अमात् का क्षेपण करता है। इस अक्षत् में तीन मुगों का चितवन कर पूजक उसका संकल्प पूर्वक क्षेपण
-
१. (१) ओ३म ह्रीं देव शास्त्र गुरु समूह ! अत्र अवतार बतर संवोषट् ।
(२) ओ३म् ह्रीं देव शास्त्र गुरु समूह ! अत्र विण्ठ-तिष्ठ ठः ठः । (३) बो३म् ह्रीं देव शास्त्र गुरु समूह ! अब मम सन्निहितो भव-भव
वषट् ।
-श्री देव-शास्त्र-गुरुपूजा, धानतराय, सानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०६ । २. सुरपति उरग मरनाथ तिनकरि बन्दनीक सुपद प्रभा ।
अति शोभनीक सुबरण उज्ज्वल देख छवि मोहित सभा ॥ बह मीर बीर समुद्र पट भरि जय तसु बहु-विधि नचू। भरहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु-निर्गन्ध नित पूजा रचू।। मलिन बस्तु हरलेत सब बल-स्वभाव मलछीन । जासों पूजों परमपद देव मास्न गुरु तीन ॥ -श्री देवमास्थ पूजा, पानसराब, मानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०७ । जे विजय-उदर बझार प्रानी, जपत अति दुवर बरे । सिम बाहित र सुवचन जिनके परम शीतलता भरे ॥ तसु भ्रमर लोभित घाण पावन सरस चन्दन घिसिस। अरहन्त अप-सिवान्त गुरु-निर्गन्ध नित पूजा रचू॥
पन्दन भीतलताकरे, तपत बस्तु परवीन,
पासों पूजों परमपद, देव, बाम्ब, गुरु तीन ।। -जी देवशास्त्र गुरुमूणा, वागतराम, मानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०७ ।
Page #291
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २८१ )
करता है ।" विविध भांति परिमल सुमन में भ्रमर की कामवृति को विध्वंस करने की शक्ति विमान रहती है, उसी प्रकार देव-शास्त्र-गुरु में कामनाश की महिमा विद्यमान है, अस्तु पूजक उनके गुणों का संगान करता हुआ काम विध्वंस करने के लिए पुष्प का क्षेपण करता है।" क्षुधा-रोग शान्त करने के लिए बद-रस विनिर्मित मेख की अपेक्षा होती है, उसी प्रकार पूजा काव्य में सुधा रोग के शाश्वत- शमनार्थ देव-शास्त्र-गुरु के विव्य गुणों का पूजक द्वारा चिन्तवन करने का विधान है। ऐसा करने से भक्त की धारणा है कि वह इस रोग से मुक्त हो सकता है ।"
अज्ञान-कर्म-बन्ध का प्रमुख आधार है। अज्ञान तिमिर समाप्त करने के लिए पूजक स्व-पर- प्रकाशक दीपक का क्षेपण करता है और साथ ही देव-शास्त्र
१. यह भव-समुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई । अति दृढ़ परम पावन जबारथ भक्तिवर नौका सही ॥ उज्ज्वल अखण्डित सालि तन्दुल पुंज घरि त्रय गुणजचू । अरहन्त श्रुत सिद्धान्त गुरु निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
तंदुल सालि सुगंधि अति परम अखंडित बीन । जासों पूजों परम पद देव शास्त्र गुरु तीन ||
- श्री देवशास्त्रगुरुपूजा, खानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०७ ।
जे विनयवंत सुभभ्य उर-अम्बुज प्रकाशन भानु हैं । जे एक मुख चारित्र भाषत त्रिजग माहि प्रधान है ।। लहि कुन्द कमलादिक पहुप भव-भव कुवेवन सों बच्चू । अरहन्त श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्व्रन्थ नित पूजा रचूं ॥
fafas wife परिमल सुमन भ्रमर जास आधीन 1 जासों पूजों परम पद देवशास्त्र गुरु तीन |
B
- श्री देवशास्त्रगुरुपूजा, खानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०८ ।
३. अति सबल मद कंदर्प जाको शुभ्रा उरग अमान है। दुस्सह भवानक तासु नाशन को सुगरुड़ समान है ।। उत्तम छहों रसयुक्त तित नैवेद्य करि घृत में प अरहन्त भूत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रथ नित पूजा रचूं ॥ नाना विध संयुक्त रस, व्यंजन सरस नवीन
जासों पूजौं परम पद, देवशास्त्र गुरु तीन ||
--श्री देवशास्त्रगुरुपूजा, बानवस्य, ज्ञानपीठ पूजाजनि, पृष्ठ १०८ ।
Page #292
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २८२ )
गुरु के गुणों का गान किया जाता है ।" कर्म-ईंधन के क्लनार्थ चम्बनावि धूप पदार्थ को अग्नि में क्षेपण किया करते हैं यहां देव-शास्त्रगृह के गुणों का चिन्तन कर कर्मक्षय करने के शुभ संकल्प पूजा-कर्ता द्वारा किया जाता है। कर्म क्षय हो जाने पर मोक्ष की प्राप्ति हुआ करती है। उपास्य के गुणों का गान कर पूजक फल को शुभसंकल्प के साथ क्षेपण करता है।"
इस प्रकार जल, चन्दन, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप तथा फल नामक आठ द्रव्यों को शुभसंकल्प के साथ क्षपण कर पूजा- कर्ता अपने मन में यह भावना माता है कि देवशास्त्र गुरु की पूजा करने से जन्मभर के पातकों
१. जे त्रिजग उद्यम नाश कीने माह तिमिर महाबली । तिहि कर्मघाती ज्ञान दीप प्रकाश जोति प्रभावली ॥ इह भाँति दीप प्रजाल कंचन के सुभाजन में खच् । अरहन्त श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥ स्व पर प्रकाशक जोति अति दीपक तमकरि होन । जासो पूजों परम पद देव-शास्त्र-गुरु तीन ||
- श्री देव शास्त्र गुरु पूजा, द्यानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०६
२ जो कर्म - ईधन दहन अग्नि समूह सम उद्धत लसे । वर धूप तासु सुगधिताकरि मकल परिमलता हसे || इह भांति धूप चढाय नित भव-ज्वलन मोहि नही पचू । अरहन्त श्रुत-सिद्धान्त गुरु-निरग्रन्थ नित पूजा रचू ॥ अग्निमांहि परिमल दहन, चन्दनादि गुणलीन । जासों पूजौं परम पद देव शास्त्र गुरु तीन ||
-- श्री देवशास्त्र गुरु पूजी, धानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०६ ।
३. लोचन सुरसना घ्रान उर उत्साह के मीपे न उपमा जाय वरणी सकल फल मोफल चढ़ावत अर्थपूरन परम अमृत रस सच् । अरहंत श्रुत-सिद्धांत गुरू - निरग्रन्थ नित पूजा रचूं ॥ जे प्रधान फल फल विर्ष पंचकरण - रस- लीन । जासों पूजों परम पद देव शास्त्र गुरु तीन ||
करतार हैं । गुणसार हैं |
- श्री देवशास्त्रगुरुपूजा, बानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १०६ ।
Page #293
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २८३ )
को समाप्त किया जा सकता है। फलस्वरूप यह सोत्साह बसविधि मध्य का कोपण करता है।'
अष्ट कर्मों के संकल्प करने के पश्चात आराध्य के पंचकल्याणकों का स्मरण कर तप बनने को शुभ कामना भक्त द्वारा की जाती है । इसके उपरान्त प्रभु के व्यक्तित्व सथा कृतित्व विषयक समग्र गुणों की चर्चा, जयमाल नामक पूजांस में पूजक द्वारा सम्पन्न होती है।' अन्त में इत्याशीर्वाद परिपुष्पांजलि अपग करने के लिए पूजक समत्सुक होता है।
उपयुक्त पूजाकाव्य के मनोवैज्ञानिक अध्ययन से स्पष्ट है कि लोक में प्रचलित जैनेतर पूजा और अनपूजाके स्वरूप में पर्याप्त और स्पष्ट अन्तर है। लोकेषणा के वशीभूत होकर सामान्य पूजक जैनपूजा करने की पात्रता प्राप्त
१. जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत् पुष्प परु दीपक घई।
वर धुप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरू ॥ इह भांति अघर्य चढाय नितभदिकरत शिव-पंकति मच। अरहंत श्रत-सिद्धान्त गरु-निग्रन्थ नित पूजा रचू ॥ वसु विधि अषर्य संजोय के अति उछाय मनकीन । जासो पूजों परम पद देव शास्त्र गुरु तीन ॥
- श्री देवशास्त्रगुरुपूजा, धानतराय, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ११०। २. पंचकल्याणकों का स्वरूप और भगवान महावीर, श्री आदित्य प्रचंडिया
'दीति', महावीर स्मारिका, अषम बण्ड, सन् १९७७, राजस्थान जैन
सभा, जयपुर, पृष्ठ १६। ३. गनधर अशानिधर चक्रधर, हरधर गदाधर बरवदा ।
अरु चाप घर विद्यासुधर, त्रिशूल धर सेवहि सदा ॥ दुःख हरन आनन्द भरन, तारन-तरन चरन रसाल हैं। सुकुमाल गुणमनि माल उन्नत, भाल की जयमाल हैं । -- जयमाल, श्री बद्धमान जिनपूजा, वृन्दावनदास, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३८१। श्री बीर-जिनेशा नमितसुरेखा, नाग- नरेशा भगति भरा। वन्दावन ध्या विषन नशा, वांक्षित पावे शर्मवरा।। ओ३म् श्री वर्तमान जिनेनाय महार्घ निर्वपामीति स्वाहा । श्री सन्मति के जुगल पद, जो पूजे धरि प्रीति । 'इन्दावन' सो चतुर नर, मह मुक्ति-मवनीत ।। इत्याशीर्वाद, पुष्पांजलि क्षिपामि ।। -~श्री वर्षमान जिनपूजा, बन्दावनवास, मानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ १५३ ।
Page #294
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २०४ )
नहीं कर पाता । एवणाजन्य उपासना जंन धर्म में विश्वाला को कोटि परिगणित की गई हूं इस प्रकार जैन पूजाकाव्य का मनोविज्ञान इस बात पर निर्भर करता है कि यहां देव का स्वरूप क्या है । पूजक का लक्ष्य क्यों है और पूजा का तंत्र कैसा है ? क्या, क्यों और कैसे सम्बन्धी सभी बातों के सम्यक समाधान के लिए ज्ञान वस्तुतः एक महत्वपूर्ण तत्व है। ज्ञान के fear fanta की स्थिति सामान्यतः निरर्थक ही है। इस प्रकार जैन पूजा का मनोवैज्ञानिक अध्ययन इन सभी बातों की स्पष्ट स्थिति का पुष्ट प्रतिपावन करता है ।
Page #295
--------------------------------------------------------------------------
________________
सांस्कृतिक
संसति सम सम् उपसर्ग के साथ संस्कृत को (इ) 0 (ब) धातु से विनिर्मित है जिसका अर्थ है संस्करण परिमार्जन, शोधन, परिष्करण अर्थात एक ऐसा किया जो व्यक्ति में निर्मलता का संचार करे । संस्कृति समस्त सीले हुए व्यबहार अथवा उस व्यवहार का नाम है जो सामाजिक परम्परा से प्राप्त होता है। संस्कृति प्राय: उन गणों का समुदाय समझी जाती है जो व्यक्तित्व को परिष्कृत एवं समन बनाते हैं। वस्तुतः धर्म शास्त्रानुमोदित आचार और लोकानमोदित आचार, विश्वास तथा मास्थाएं आदि की समष्टि संस्कृति है। गणित की भाषा में संस्कृति को इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं- यथा
आचार+विचार+तालल्य-संस्कृति संस्कृति मानव व्यक्तित्व के विकास की प्रक्रिया है। मनुष्य के सुन्दर सूक्ष्म चिन्तन की अभिव्यक्ति है। संस्कृति मनुष्य की विविध साधनाओं की सर्वोत्तम परिणति है। सृजनात्मक अनुचिन्तन का नाम संस्कृति है । वह मानव जीवन के सर्वग्राह्य आत्मिक जीवन रूपों की सुष्टि है और है उसका उपभोग।' संस्कृति जिंदगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। मनुष्य के पास इन्द्रियां मन, बुद्धि और मामा इतनी शक्तियां हैं। प्रत्येक मनुष्य के पास ऐशक्षियों है। मानव की प्रत्येक शक्ति संदित हो सकती है। इस शक्तिसंवर्धन से और संस्कार सम्पनता से मानव का अतिमाम बनना यह संस्कृति १. हिन्दी साहित्य कोल, प्रपम भाग, डॉ. धीरेन्द्र वर्मा आदि, पृष्ठ ८०१ । २. अशोक के फूल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृष्ठ ६३ ॥ ३. संसाति का दार्शनिक विवेचन, डॉ. देवराज, पृष्ठ ३० । ४. संस्कृति के चार अध्याय, परिशिष्ट क, डॉ. रामधारी सिंह दिनकर,
पृष्ठ ६५३ ।
Page #296
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २८६ )
का ध्येय है। इसी को जीव का शिव, नर का नारायण और बुद्ध का सुक्त होना कहते हैं।"
धर्म मानव मात्र के अभ्युक्य और निःश्रयत का साधन है। संस्कृति उस धर्म का क्रियात्मक रूप है। संस्कृति शरीर और मन की शुद्धि के द्वारा मनुष्य को आध्यात्म में प्रतिष्ठित करती है ।" संस्कृति मानवता की प्रतिष्ठाबिका है। यह असत्य से सत्य की ओर, अन्धकार से ज्योति की ओर, मृत्यु से अमरत्व की ओर और अनैतिकता से नैतिकता को ओर अग्रसर करती है । भोजन-पान, आहार-बिहार, वस्त्राभूषण, क्रियाकलाप आदि को सुसंस्कृत कर जीवनयापन करना सांस्कृतिक प्रेरणा का प्रतिफल है । मानवता अपने आन्तरिक भाव तत्वों से ही निर्मित होती है और इन भाव तत्वों का विकास मनुष्य की मूलभूत चेष्टाओं द्वारा होता है ।"
संस्कृति अन्तकरण है, सभ्यता शरीर है। संस्कृति अपने को सभ्यता द्वारा व्यक्त करती है । संस्कृति सम्य बौद्धिक उन्नति का पर्यायवाची है तो सभ्यता naa मौतिक विकास का समानार्थक है । संस्कृति का सम्बन्ध मूल्यों के क्षेत्र से है तो सभ्यता का सम्बन्ध उपयोगिता के क्ष ेत्र से । संस्कृति वह साँचा है जिसमें समाज के विचार ढलते हैं। वह बिन्दु है जहाँ जीवन को समस्याएं देखी जाती हैं । वस्तुतः विचार, व्यवहार और आस्थाएं तस्य हैं।
संस्कृति के प्राण
संस्कृति है ।
जिस प्रकार
वैदिक, बौद्ध और जैन संस्कृतियों का समवाय भारतीय भारतीय संस्कृति 'कबलो दण्ड' (कदली काण्ड) के सबुश है। केले का तना एक नहीं होता उसका निर्माण अनेक पतों से होता है । पर्त पर पतं चढ़े रहते हैं उसी प्रकार भारतीय संस्कृति भी कई संस्कृतियों के सम्मिलन से विनिर्मित है। जिस प्रकार समस्त नदी-नयों का जल समुद्र की ओर जाता है उसी प्रकार विभिन्न मार्गों से चलते हुए मनुष्य एक ही गन्तब्य
१. वैदिक संस्कृति के मूलमंत्र, पं० श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, सम्मेलन पत्रिका, लोक संस्कृति अंक, पृष्ठ ४१ ।
२. सर्वात्मदर्शन, डॉ० हरबंसलाल शर्मा शास्त्री, नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, संवत् २०२६, पृष्ठ २२३ ।
३. आदिपुराण में भारत, डॉ० नेमिचन्द्र जैन, पृष्ठ १६२ ।
Page #297
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २८७ )
(मोन, निर्वाण) की ओर अग्रसर होता है। यह सहिष्णुता एवं समन्वय भावना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। वस्तुतः प्राणिमात्र में समभाव भारतीय संस्कृति का मूल है।
जन संस्कृति बड़ी प्राचीन है। डॉ० सर राधाकृष्णन कहते हैं-'जन परम्परा ऋषभदेव से अपने धर्म को उत्पत्ति होने का कथन करती है जो बहुत सी सताब्दियों पूर्व हुए हैं।" डॉ० कामता प्रसाद जैन प्राद. ऐतिहासिक काल में भी जैन धर्म का प्रचार एवं प्रसार स्वीकारते हैं। जैनधर्म का अर्थ है सिपाहियाना धर्म। आखिर मोह की फौज के सामने आ डटने के लिए सिपाही की जरूरत नहीं तो किसकी हो सकती है।'
जैन संस्कृति को मान्यता है कि आत्मा स्वयं कर्म करती है और स्वयं उसका फल भोगती है तथा स्वयं संसार में भ्रमण करती है और भवभ्रमण से भी मुक्ति प्राप्त करती है
स्वयं कर्मकरोत्यात्मा स्वयं तफलमश्नुते ।
स्वयं भ्रमति संसारे स्वयं तस्माद् विमुच्यते ।। चित्तवतियों के परिष्कारार्थ जैन संस्कृति अधिक सजग है। जैन संस्कृति मानव के चरम उत्थान में विश्वास करती है और वह प्राणियों के माध्यम से प्रमाणित करती है कि आत्मा अपने प्रयासों एवं साधना से परमात्मा बन सकती है। ऐसी प्राचीनतम संस्कृति विश्वमंत्री को प्रचारिका है एवं सम्पूर्ण जगत के कल्याण की पूर्ण भावना को लेकर ही यह आज भी जीवित है। संस्कृति के प्रमुख दो रूप हैं -
१- लोक संस्कृति (पाम संस्कृति)
२- लोकेतर संस्कृति (नागरिक संस्कृति) लोक संस्कृति लोकोत्तर संस्कृति को आधार शिला है । लोक संस्कृति प्रकृति की गोद में पलो हुई बनस्थली है और लोकोसर संस्कृति नगर के मध्य अथवा पार्क में निमित्त उद्यान है । एक सहज है, नैसगिक है और अकृत्रिम है और १. Indian Philosophy Vol. I. P. 287. २. "जैन धर्म की प्राचीनता और उसका प्रभाव : नामक आलेख, श्रीमद्
राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रंथ, पृष्ठ ५०५ । ३. धर्म और संस्कृति, श्री जमनालाल जैन, पृष्ठ ४०-४२ ।
Page #298
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८)
लस गित से पूर और कृषिमता के सहारे जीवित है। न संपति मनः विवरूप में लोक संस्कृति है जिसमें लोक जीवन सतत मुबारित है। जीवन को गतिविधि माचार-विचार विश्वास -भावनाएं, लोकाचार, अनुष्ठान आदि इस संस्कृति में उसी प्रकार समाए हुए हैं जिस प्रकार घृत दूध की प्रत्येक में संचरित होता है।
जैन-हिन्दी-पूजा-मान्य मूलतः आध्यात्मिक अभिव्यञ्जना प्रधान है तथापि इसके माध्यम से तत्कालीन लोक्षिक तस्वों को भी अभिव्यम्बना हुई है। विष्यकाब्य में प्रयुक्त नगर, वेशभूषा, सौन्दर्य प्रसाधन तथा बामपंच के अतिरिक्त मानवेतर प्रकृतिपरक पुष्पवर्णन, फलवर्णन, पसुवर्णन तथा पक्षी वर्णन उल्लेखनीय है । यहाँ प्रयुक्त इन्हीं वर्णन वैविध्य का संक्षेप में अध्ययन करेंगे।
१. जैन कथाओं का सांस्कृतिक मध्ययन, श्रीचन्द्र जैन, रोशनलाल जैन एण्ड
संस, मैनसुखदास मार्ग, जयपुर-३, प्रथम संस्करण सन् १९७१ ई०,
Page #299
--------------------------------------------------------------------------
________________
नगर - वर्णन
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में नगर तथा तीर्थ वर्णन मी उल्लेखनीय हैं। जिस क्षेत्र में सीकर के गर्म, जन्म, तप तथा ज्ञान नामक कल्याणकों में से एक अथवा अनेक कल्याणक होते हैं उस क्षेत्र को अतिशय क्षेत्र कहा जाता है और जिस क्षेत्र से जीव मुक्ति अथवा मोक्ष प्राप्त करता है उसे सिद्धक्षेत्र की संज्ञा दी गई है। पूजाकाव्य में अतिशय और सिद्ध दोनों ही क्षेत्रों का वर्णन हुआ है। अब यहाँ नगर तथा तीर्थस्थलों की स्थिति और माहात्म्य विक विवेचन अकारादि क्रम से करेंगे ।
अयोध्या (श्री ऋषभदेवपूजा ) ' - यह नगर उत्तरप्रदेश में २६.४८ उत्तरी अक्षांश और ८२.१४ पूर्वी देशान्तर पर बसा है। अयोध्या मंनियों का आदि नगर और आदि तीर्थ है।" यहीं पर आदि तीर्थंकर ऋषभदेव जी के गर्भ व जन्म कल्याणक हुए थे। इस प्रकार अयोध्या धर्म-कर्म का पुष्यमय अतिशय क्षेत्र है ।
कम्पिला (श्री विमलनाथजिनपूजा) - कम्पिला जो का प्राचीन नाम काम्पिल्य है । यह अतिशय क्षेत्र उत्तर प्रवेश के फर्रुखाबाद जिले में कायमगंज के निकट अवस्थित है। इस क्षेत्र में तेरहवें तीर्थंकर भगवान विमलनाथ जी के गर्म, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक हुए थे। इस प्रकार यह चार कल्याणकों का अतिशय क्षेत्र है ।
कुण्डलपुर (श्री वद्धमान जिनपूजा) - यह
रोड, बडगांव, पटना में स्थित है। यहां चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर का जन्म हुआ था ।
१. श्री ऋषभदेवपूजा, मन रंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ १० ।
२. जैन तीचं बीर उनकी यात्रा, डा० कामताप्रसाद जैन, भारतीय दिगम्बर जैन परिषद, पब्लिशिंग हाउस, देहली, तृतीय संस्करण फरवरी १९६२, पृष्ठ ३३ ।
३. श्री विमलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थश, पृष्ठ ११ ।
४. श्री वर्तमान जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थमत्र, पृष्ठ १६६ ।
Page #300
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२९०)
कोशाम्बी (श्री पद्मप्रभु जिनपूजा)-पकोसाजी से ४ मील दूर कोशाम्बी नगर स्थित है। यहां पर पद्मप्रभु के गर्म-जन्म-तप और ज्ञान नामक वार कल्याणक हुए थे।
संडगिरि-उदयगिरि (भी खण्डगिरिक्षेत्रपूजा)'-भुवनेश्वर से पांच मील पश्चिम की ओर उक्यगिरि और संरगिरि नामक दो पहारियाँ है। उदयगिरि पहाड़ी का प्राचीन नाम 'कुमारी पर्वत' है। यहां से अनेक मुनिजन मोक्ष को प्राप्त हुए हैं अस्तु यह सिद्ध क्षेत्र है। इन पहाड़ियों के मध्य एक तंग घाटी है यहां पत्थर काटकर बहुत सी गुफायें और मन्दिर बनाये गये हैं नहीं चौबीस तीर्य करों को प्रतिमाएं विरामान हैं-ऐसा उल्लेख पूजाकाव्य के जयमाला अंश में प्रष्टग्य है।
गिरिनार (श्री गिरिनार सिद्धक्षेत्र पूजा)-सौराष्ट्र प्रदेश में २१ अक्षांश मोर १०.४१ वेशान्तर पर स्थित 'गिरिनार' महान सिद्धक्षेत्र है । यहाँ बाइसवें तीर्थंकर श्री नेमिनाथ जी के तप, मान और मोक्ष कल्याणक हुये थे। गिरिनार पर्वतराज महापवित्र और परमपूज्य निर्वाणक्षेत्र है। गिरिनार के निकट ही गिरि नगर बसा है जो अधुनातन समय में जूनागढ़ के नाम से जामा जाता है, पूजाकाव्य में यह गढ़ उल्लिखित है।
चंपापुर (श्री चम्पापुरसिद्धक्षेत्र पूजा)-चम्पापुर का अर्वाचीन
१. श्री पद्मप्रभ जिनपूजा, रामचन्द्र, वर्तमानचतुर्विंशति जिनपूजा, नेमीचन्द
वाकलीवाल, जैन ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज (किशनगढ़) राजस्थान, अगस्त
१६५६, पृष्ठ ५७ । २. जैन तीर्थ मोर उनकी यात्रा, डा० कामताप्रसाद जैन, पृष्ठ ३२ । ३. श्री खण्डगिरि क्षेत्रपूजा, मुन्नालाल, जैनपूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ १५८ । ४. जैनतीर्य और उनकी यात्रा, डा. कामताप्रसाद जैन, पृष्ठ ४५-४६ । ५. श्रीखण्डगिरिक्षेत्रपूजा, मुन्नालाल, जनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ १५६-१५८ । ६. श्री गिरिनार सिद्धक्षेत्रपूजा, रामचन्द्र, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १४१ । ७. जय सितक्षेत्र तीरथ महान, गिरिनारि सुगिरि उन्नत बबान ।
तहं जूनागढ़ है नगर सार, सौराष्ट्र देश के मधि विधार ॥
-श्री गिरिमार सिद्धक्षेत्र पूजा, रामचन्द्र, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १४४ । ८. श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र पूजा, दौलतराम, बन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १३६ ।
Page #301
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २९१ )
नाम नाथनगर है यह बिहार प्रान्त के भागलपुर के समीपस्थ है। यह सिद्धक्षेत्र हूं। बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य के पांचों कल्याणक यहीं हुये हैं।"
पावापुर (श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा) - बिहार प्रदेश के पटना महानगर के निकट सिद्धक्षेत्र पायापुर है। पावापुर अंतिम तीर्थकर विभु
मान का निर्वाणधाम है अतः यह पवित्र, पूज्य, तीर्थस्थान है ।
बनारस (श्रीपार्श्वनाथ जिनपूजा ) ' - यह नगर उत्तरप्रदेश में २३.५३ उत्तरी अक्षांश और ८३.१२ पूर्वी देशान्तर पर गंगा नदी के तट पर स्थित है । बनारस का प्राचीन नाम वाराणसी है। सातवें तीर्थंकर श्री सुपार्श्वनाथ और तेइसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ जी का लोकोपकारी जन्म कल्याणक, इसी स्थल पर हुये हैं फलस्वरूप यह अतिशय क्षेत्र हैं ।
सम्मेद शिखर (श्री सम्मेदशिखरपूजा ) " -- यह पूर्वी भारत के हजारी बाग जिला पार्श्वनाथ हिल पर स्थित है । सम्मेद शिखर वह पावन भूमि है, जहाँ अजितनाथ आदि बीस तीर्थकरों और अगणित ऋषि पुगों मे तप साधना द्वारा निर्माण पर प्राप्त किया है। फलस्वरूप यह सिद्धक्षेत्र है ।
सोनागिरि (श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा) - उत्तर प्रदेश में झांसी के free aftया जिले में सोनागिरि क्षेत्र है । यह पर्यंत छोटा-सा किन्तु अत्यन्त रमणीक है । यहाँ से गंग-अनंग कुमार आदि साढ़े पांच करोड़ मुनियों के साथ मुक्ति को प्राप्त हुए हैं।
श्रवणबेलगुल (श्री बाहुबली पूजा) ७ - श्रवणबेलगोल जैनियों का अति प्राचीन और मनोहर तीर्थ है इसे उतर भारतवासी 'जंगबद्री' कहते हैं। यह 'जैन काशी' और 'गोम्मट तीर्थ' नामों से भी प्रसिद्ध रहा है। यह
१. जैन तीर्थ और उनकी यात्रा, पृष्ठ ४० ।
२. श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा, दौलतराम, जंनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १४७ । ३. श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ११८ । ४. श्री सुपार्श्वनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थ यश, पृष्ठ ५४ ।
५. श्री सम्मेदशिखर पूजा, रामचन्द्र, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १२५ । ६. श्री सोनागिरि क्षेत्रपूजा, आशाराम, जैनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ १५० १ ७. श्री बाहुबलि पूजा, जिनेश्वरदास, जैनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ १७२ ।
Page #302
--------------------------------------------------------------------------
________________
अतिशय क्षेत्र रियासत मैसूर के शासन जिले में गनरायपढन नपरह मील पर है। यहाँ पर श्री बाहुबली स्वामी की १७ फीट ऊँची विक्की परितोष विशालकाय प्रतिमा है।
हस्तिनापुर (श्रीविष्णुकुमारनहामुनिपूजा) - उत्तर प्रदेश में मेरठ के मवाना से वाइस मील दूर हस्तिनापुर भतिशय क्षेत्र स्थित है। यह तीर्थ वह स्थान है जहाँ इस युग के मावि में दानतीर्थ का अवतरण हुमा था। मावि तीर्थंकर ऋषभ देव को इक्षुरस का माहार देकर राजा श्रेयांस ने दान की प्रथा चलाई थी। इसके उपरान्त यहाँ श्री शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरहनाप मानक तीन तीर्थंकरों के गर्म, जन्म, तप, और शान कल्याणक हुए थे।' अकम्पनाचार्यादि सात सौ मुनियों ने इस स्थल पर उपसर्ग सहन किये थे।
जन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उल्लिखित नगर तथा तीर्थों के प्रयोग का आधार अतिशय अथवा सिद्ध सम्पन्नता हो रही है। आज भी इन सभी क्षेत्रों में बने भव्य मंदिरों में चौबीस तीथंकरों की प्रतिमाएं विराजमान हैं। जिनसे प्राचीन भारत का इतिहास, कला तथा संस्कृति समाविष्ट है।
-
-
-
-
१. जैन तीर्थ मोर उनकी यात्रा, पृष्ठ ४६ । २. श्री विष्णुकुमार महामुनिपूजा, रघुसुत, जनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ १७३। ३. जैन तीर्थ और उनकी यात्रा, पृष्ठ २७ । ४. श्री रक्षाबन्धनपूजा, रघुसुत, राजेश नित्य पूजापाठ संबह, पूछ ३६२ ।
Page #303
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेशभूषा, आभूषण और सौन्दर्य-प्रसाधन
पूजाकाव्य में अनेक आभूषणों एवं विविध वस्त्रों का प्रयोग हुमा है। इन मानूषणों में अधिकांश इस प्रकार के हैं जो धातु निर्मित हैं, कुछ पुष्पादि विनिर्मित हैं, यहाँ हम वस्त्र, मामषण तथा सौन्दर्य प्रसाधनों की संक्षेप में चर्चा करेंगे।
ध्वजा-पताका या झंडा को ध्वमा कहते हैं। सेना, रथ, देवता मावि का चिन्हमत स्वरूप बजा है। जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में ध्वजा का प्रयोग चिन्ह के रूप में उन्नीसवीं शताब्दी के पूजा कवि कमलनयन द्वारा प्रणीत 'भी पंचकल्याणक पूना पाठ' नामक पूजा में हुआ है।'
लंगोटी-लंगोटी कमर पर बाँधने का वस्त्र विशेष है जिससे उपस्व और नितंब प्रदेश आवृत रहा करते हैं । जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में अगरहवीं शती के पूजाकार पानतराय ने आकिवनय धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है कि जिस प्रकार शरीर में कांस सालती है उसी प्रकार दिगम्बर मुनि के लिए मंगोटी की चाह भो दुःख देती है।
वस्त्रों की भांति विवेच्य काग्य में आभूषणों का उल्लेख मिलता है । अब यहां प्रयुक्त माभूषणों का अकारादि कम से अध्ययन करेंगे। ___ आरसी-यह अंगूठे में पहनने का आभूषण है । इसमें शीशा लगा रहता है। यह नीचे से खुल भी जाती है। इसके अन्दर महिलायें इन का काया और होठ रंगने आदि की सामग्री रखा करती हैं। शीशा में नायिका अपना
१. पुनि ध्वजा भूमि पांचई पेखि । बरनन साकों कछु करों लेष ।।
लघु दौरष ध्वजा अनेक भांति । दशचिन्ह सहित सोमै सुपांति ॥
-श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । २. उत्तम माकिचन गुण ब्रानो, परिग्रह-चिन्ता दुख ही मानो।
फांस तनकसी तन में साले, चाह लगोटी की दुख भाले ।। -बी दशलक्षण धर्मपूजा, बानवराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६७ ।
Page #304
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
२९४ )
भंगार और सलग्न वातावरण में अपने प्रियतम का मुखमंडल भी देख
बैन-हिन्दी-प्रजा-काव्य में अगरवीं शती के पूजाकवि बामतराय द्वारा प्रणीत 'श्री दशलक्षण धर्मपूजा' नामक पूजा में आरसी आभूषण निर्मल वर्शन के लिए प्रयुक्त है।'
नपुर-पैर की अंगुलियों में स्त्रीपयोगी गहना नपुर है। इसे धरू भी कहते हैं। इस गहने को पहन कर नृत्य किया जाता है। 'कृष्ण-विवाणी' भोरा का तो यह प्रिय आभूषण था।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के कवि वावन' और बोसवीं राती के कवि जवाहरबास' ने पूजा-रचनाओं में नूपुर का प्रयोग किया है। __ मुकुट-एक प्रसिद्ध शिरोभूषण जो प्रायः राजा आदि धारण किया करते हैं। पूजा काव्य में बीसवीं शती के पूजाकवि आशाराम ने 'श्रीसोनागिरि सिवक्षेत्र पूजा' नामक कृति में हार पर हारपाल अभ्यर्थनार्थ कुट लिए खड़ा हमा उल्लिखित है।
हार-सोना-चांदी या मोतियों आदि की माला जिसे कंठ में पहना जाता है, हार कहलाता है।
-
१. करिये सरल तिहुँ जोग अपने, देख निरमल पारसी।
मुख करे जैसा लखे तसा, कपट-प्रीति अंगारसी।
-श्री दशलक्षण धर्मपूजा, धानतराय, जन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६४ । २. दम दम दम दम बाजत मृदंग।
मन नन नन नन नन नूपुरंग ॥ -श्री शांतिनाजिनपूजा, बदावन, राजेशनित्यपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ
३. श्री अथसमुच्चय लघुपूजा, जवाहरदास, बहजिनवाणीसंग्रह, पृष्ठ
४. जिन मंदिर की वेदी विशाल, दरवाजे तीनों बहु सुढाल ।
ता दरवाजे पर द्वारपाल, ने मुकुट खड़े अरु हापमाल ॥ -श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा, आशाराम, जैनपूजा पाठसंग्रह, पृष्ठ
Page #305
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २९५ )
विवध काव्य में विभिन्न शतानियों में भिन्न संसानों के साथ यह आपण प्रयुक्त है। उन्नीसवों शती के पूजाकार शावन प्रणीत 'मोचनम् जिनपूजा" नामक कृति में हार संज्ञा के साप तथा 'श्री शांतिमाय जिनपूवार रचना में गुणों को रत्नमाला के रूप में यह आभूषण प्रयुक्त है। इस शती के अन्य कवि रामचन्द्र ने 'श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा" में माला तथा 'श्री अनंतनाब जिनपूजा में कुंव हार का पूजा-प्रसंग में प्रयोग किया है। इसके अतिरिक्त कमलनयन रचित 'श्री पंचकल्याणक पूजापाठ' में 'माल' संज्ञा में हार गहना व्यवहृत है।
१. जिन अंग सेत सित चमर ढार । सित छत्र शीश गल-गुलक हार ।।
-श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, वदावन, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३३७ । २. मोक्ष हेतु तुम ही दयाल हो।
हे जिनेश ! गुन रत्नमाल हो॥ ~श्री शांतिनाथजिनपूजा, बदावन, राजेनित्यपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ
११४॥ ३. पूरन भायु जु धाय, तबै माला मुरमानी।
आरति तें तजि प्राण, कुसुम भव पाय अज्ञानी । -~-श्री चन्द्रप्रभुजिनपूजा, रामचन्द्र, राजनित्यपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ ६५। स्वेत इन्दु कुन्द हार खंड ना अखित्तही। दुर्ति खंकार पुज धारिये पवितही ॥ ~श्री अनंतनाथजिनपूजा, रामचन्द्र, राजेशनित्यपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ
१०५। ५. गल किकिन हो माल बधीं सुविशाल सरिस रवि को करें।
शिर सोहे हो वालि चलत गज चालि मंदर्यात को धरें। ~श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तनिधित।
Page #306
--------------------------------------------------------------------------
________________
: बीसवीं शती के पूजा-कवि सेवक,' आताराम, मेस और रस्त बारा मुरमाना, हषमाला, मणिमाला और आनंद-माला नामक अभिप्राय से मानूषण का व्यवहार हमाहै।
बस्त्र एवं आभूषण की माई पूनाकाव्य में सौन्दर्य प्रसाधन का उल्लेख मिलता है । मब यहाँ हमें प्रयुक्त सौन्दर्य प्रसाधनों का बकारादि कम से मध्ययन करना अभीप्सित है।
मगर-यह सुगंधित पदार्थ है जो धूप, दशांग इत्यादि में पड़ता है। इसी से अगरबत्ती बनती है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती के पूजाकार बानतराय विरचित 'श्री पंचमेव पूजा'", श्री सोलहकारण पूजा, श्री बालवणधर्म पूमा और श्री रत्नत्रय पूजा नामक पूजाओं में अगर का व्यवहार पूजोपकरण के अर्थ में सुगंधित वातावरण बनाने के लिए हुआ है। १. प्रभु इह बिधि काल गमायके, फिर माला गई मुरझाय हो ।
-श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६८ । २. जिन मंदिर की वेदी विशाल, दरवाजे तीनों बहु सु डाल । .
ता दरवाजे पर द्वारपाल, ले मुकुट बड़े पर हाथ माल । -श्री सोनागिरिसिवक्षेत्रपूजा, आशाराम, जैनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ
-
३. षट तूप छज मणिमाल पाय ।
घट धून धूम विग सर्व छाय ॥
-श्री अकृत्रिम त्यालयपूजा, नेम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २५५ । ४. मुनि दीन दयाला सब दुख टाला।
आनंद माला सुखकारी॥ -श्री विष्णुकुमारमहामुनिपूजा, रघुसुत, रामनित्यपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ
२७१। ५. बेऊ अगर बमल अधिकाय ।
-श्री पंचमेरु पूजा, पानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ५३ ॥ ६. श्री सोलहकारण पूजा, पानसराय, अनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ ६० । ७. श्री दशलक्षण धर्मपूजा, पानतराय, जेन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६३ । ८ श्री रत्नत्रयपूजा, बानतराय, जैन पूजापाठ संबह, पृष्ठ ७० ।
Page #307
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २९७ )
मोसची सती पूना कपिबाम ने सुगंध हेतु इस पार्क का प्रयोग 'श्री महावीर स्वामी पूना' में किया है।' इस शती के अन्य कवि रामधन प्रगीत 'पोवनाजिनपूजा' नामक पूजा में अगर सुधि के लिए
बोसी गती के पूजा-कवयिता सेवक' एवं हेमराज ने सुगंध के लिए मगर का प्रयोग किया है।
कुंकुम-यह पदार्थ शरीर पर लेप करने के लिए प्रयोग किया जाता है। इससे शरीर कांतिमान एवं सुवासित हो जाता है। पूजाकाव्य में उन्नीसवीं शती पूजाकार रामचन्द्र ने 'श्री अनंतनाथ जिनपूजा' में सुगंध एवं आलेपन के लिए हुकुम का प्रयोग किया है। बीसवीं शती के पूजाकवि कुंजिलाल प्रणीत 'श्री देवशास्त्र गुरुपूजा' नामक रचना में आलेपन अर्ष में 'कुंकुम' व्यवहत है।
कपूर-स्फटिक के रंग-रूप का एक गंध द्रव्य जो खुला रहने पर प्रायः
विवेख्य काव्य में अठारहवीं शती के कविवर चानतराय ने 'श्री पंचमेव पूजा, श्री सोलहकारण पूजा, श्री वशलक्षण धर्मपूजा , श्री रत्नत्रय पूना" १. हरि चंदन अगर कपूर, चूर सुगंध करा ।
-श्री महावीरस्वामी पूजा, वृदावन, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह,
पृष्ठ १३४ । २. श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, रामचंद्र, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६२ । ३. श्री आदिनाप जिनपूजा, सेवक, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६६ । ४. श्री गुरुपूजा, हेमराज, गृहजिनवाणी संग्रह, पृष्ठ ३११ ।
कुंकुमादि चन्दनादि गंध शीत कारया। -श्री अनंतनाथजिनपूजा, रामचन्द्र, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह,
पृष्ठ १०४। ६. श्रीदेवशास्त्रगुरुपूजा, कुंजिलाल, नित्यनियमविशेषपूजनसंग्रह, पृष्ठ
७. जम केजर कपूर मिलाय ।
~श्री पंचमेवपूजा, बानतराप, अन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ५२ । ८. श्री सोलह कारण पूजा, पानतराय, जन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ५६ । ९. श्री दशलक्षणधर्मपूमा, बामसराय, बैन पूजापाठ संबह पृष्ठ ६३ । १०. श्री रलथपूजा, बामवराय, जैन पूजापाठ संग्रह पृष्ठ ७०॥
Page #308
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६८ )
और भी सरस्वती पूजा" में सौरभ तथा अध्य-सामग्री के रूप बहुत है।
कपूर
उन्नीसवीं शती के पूजाकार वृंदावन विरचित 'श्री शांतिनाथ जिनपूजा" में तथा कविवर बाबर की 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा" में सुगंध अर्थ में कपूर पदार्थ प्रयुक्त है। बीसवीं शती के कवि रविमल को 'श्री तीस बोबीसी पूजा' नामक कृति में कपूर का प्रयोग परिलक्षित है ।"
केवड़ा - यह सुगन्धित द्रव्य पदार्थ है । इसकी सुगन्ध विशेष प्रसिद्ध है । जैन - हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के पूजा रचयिता बख्तावर ने 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा' नामक पूजा में केवड़ा पूजा सामग्री के लिए प्रयोग किया है ।" बीसवीं शती के कवि भगवानदास विरचित 'श्री तत्वार्थ सूत्रपूजा' में सुगंध अर्थ में केवड़ा प्रयुक्त है।
पदार्थ
केशर -- केशर एक विशेष फूल का सोंका है जो पीलापन लिये लाल रंग का और सौरभयुक्त पदार्थ है ।
पुजाकाव्य में अठारहवीं शती से केशर के अभिदर्शन होते हैं। इस शती के कविवर खानतराय प्रणीत 'श्री पंचमेरू पूजा, श्रीदशलक्षणधर्म पूजा",
३. वातिका कपूर वार मोह-ध्वांत को हरू । - श्रीपार्श्वनाथ जिनपूजा, ३७३ ।
बख्तावररत्न,
१. श्री सरस्वती पूजा, खानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३७५ । २. श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वृंदावन, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ११२ ।
- श्री पार्श्वनाथजनपूजा, ३७२ ।
ज्ञानपीठपूजांजलि,
पृष्ठ
४. सुरभि जुत चंदन लायो, संग कपूर घसवायो ।
- श्री तीस चौबीसी पूजा, रविमल, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २४५ ।
५. केवड़ा गुलाब और केतकी चुनाइये ।
बख्तावररस्न, ज्ञानपीठपूजांजलि, पृष्ठ
६. श्री तत्वार्थ सूत्र पूजा, भगवानदास, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ४१० । ७. जल केशर करपूर मिलाय, गंध सों पूजो श्री जिनराय ।
- श्री पंचमेरुपूजा, खानतराय, जंन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ५२ । ८. श्री दशलक्षण धर्मपूजा, धानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६२ ।
Page #309
--------------------------------------------------------------------------
________________
। २९६ ) भी रत्नत्रयपूणा' और 'श्री सरस्वती पूजा नामक पूना रचनामों में केसर अध्र्य-सामग्री के लिए प्रयुक्त है।
उन्नीसवीं शती के पूजा कवि बदावन ने 'श्री महावीरस्वामी पूजा' नामक पूजाकृति में केशर का व्यवहार शीतलता प्रदान करने के लिए किया है।' बोसवीं शती के पूजाप्रणेता आशाराम और दौलतराम द्वारा पूजाकृतियों में कमशः बाह निकन्दन के लिए एवं तपन के लिए केशर का प्रयोग द्रष्टव्य है।
घनसार-पूजाकाव्य में 'धनसार' का प्रयोग सामग्री सन्दर्भ में उन्नीसवीं शती के कवि कमलनयन प्रणीत 'श्री पंचकल्याणक पूजापाठ' नामक रचना में हुआ है। बीसवीं शती के कविवर सेवक ने 'श्री अनंतवत पूजा' कृति में धनसार का प्रयोग सुगन्धित द्रव्य के लिए किया है।
बदन-वंदन एक प्रसिद्ध वृक्ष जिसको लकड़ी प्रगाड गन्धयुक्त होती है। साहित्य में चन्दन का प्रयोग अलंकार, सौन्दर्य प्रसाधन में आलेपन और सिंचन तथा नाम परिगणन के उद्देश्य से हुआ है। विवेच्य काव्य में अठारहवीं
१. श्री रत्नत्रयपूजा, थानत राय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ७० । २. श्री सरस्वती पूजा, धानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३८५ । ३. मलयागिरि चंदनसार, केसर संग घसा ।
प्रमुभव आताप निवार पूजत हिय हुलसा ।। -श्री महावीर स्वामी पूजा, वृदावन, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह,
पृष्ठ १३३ । ४. केसर आदि कपूर मिले मलयागिरि चन्दन । परिमल अधिकी सास और सब दाह निकंदन ॥
-श्री सोनागिरिसिद्धक्षेत्रपूजा, आशाराम, जैन पूजापाठ सग्रह, पृष्ठ
१५०1 ५. श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र पूजा, दौलतराम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृछ । ६. मलयागिरि चंदन धन कुमकुम अरु धनसार मिलाय ।
-श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयम, हस्तलिखित । ७. चन्दन अगर धनसार आदि, सुगन्ध द्रव्य घसायके ।
-श्री अनतव्रत पूजा, सेवक, जन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २६६
Page #310
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १०० )
शती के कवि ने 'भी बीस तीर्थकर पूजा", श्री सोलहकारण पुमा, श्री बृहत्सद्ध चकपूजा' और भी सरस्वती पूजा' नामक पूजा रचनाओं में सुवासित करने और तपन मिटाने अथवा शीतलता प्रदान करने के लिए चंदन का प्रयोग उल्लेखनीय है ।
उन्नीसवीं शताब्दी के कवि वृंदावन, मनरंगलाल', रामचन्द्र, donterren", कमलनयन' और कवि मल्लजी ने उक्त आशय के साथ चन्दन का परम्परानुमोदित प्रयोग किया है। बीसवीं शती के पूजाकारोंरविमल", सेवक", भविलालगू", जिनेश्वर दास ४, दौलतराम ", कुं जिलाल "
१. श्री बीस तीर्थंकर पूजा, द्यानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३३ । २. श्री सोलहकारण पूजा, बानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ५६ । ३. श्री बृहत् सिद्धचक्रपूजाभाषा, खानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २३६ ।
४. कपूर मंगाया, चंदन आया, केशर लामा, रंगभरी ।
— श्री सरस्वती पूजा, द्यानतराय, राजेशनित्यपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३७५ ।
५. मलयागिर कपूर चन्दन घसि, केसर रंग मिलाय ।
- श्री पद्मप्रभुजिनपूजा, वृंदावन, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ८२ ।
६.
श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६८ ।
७. श्री गिरनार सिद्धक्षेत्र पूजा, रामचन्द्र, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १४२ । ८. श्री कुंथुनाथ जिनपूजा, बस्तावर रत्न, ज्ञानपीठपूजांजलि, पृष्ठ ५४२ ६. वामन चंदन दाह निकंदन अरु कपूर मिलाबी ।
-श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित ।
१०. श्री क्षमावाणी पूजा, मल्लजी, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ४०३ ।
११. श्री तीस चोबीसी पूजा, रविमल, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २४५ । १२. श्री अनंतव्रत पूजा, सेवक, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २६६ ।
१३. श्री सिद्धपूजा भाषा, भविलालडू, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ७२ ।
१४. श्री बाहुबलिस्वामीपूजा, जिनेश्वरदास, जैनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ १६९ । १५. श्री पावापुर सिद्ध क्षेत्रपूजा, दीसतराम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १४७ । १६. श्री भगवान महावीर स्वामी पूजा, कु जिलाल, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह, पृष्ठ ४१ |
Page #311
--------------------------------------------------------------------------
________________
हैदराब, भवाहरलाल', मासाराम', होरा, नेम, रखत, रोप, पुगलकिशोर 'युगल चंदन का उल्लेख उक्त माराय के साथ किया है।
पण वर्पणारा स्व-पर विम्ब प्रतिविम्बित हुमा करता है। जैनहिन्दी-पूना-काव्य में अठारहवीं शती के कवि थानतराय विरचित 'श्रीवात सिवयक पूजा भाषा एवं 'श्री रत्नत्रयपूजा" नामक कृतियों में इसी हश्य से वर्पन का प्रयोग किया है।
उन्नीसवीं शती के पूनाकवि ददावन को पूजा रचना 'पोचनप्रभु जिनपूजा' में वर्षग उल्लिखित है।" बीसवीं शती के कुंजीलाल ने 'श्री भगवान महावीर स्वामी पूजा नामक पूजा में वर्पण का व्यवहार साबस्व मूलक अभिव्यंजना के लिए किया है। १. श्री गुरुपूजा, हेमराज, बृहजिनवाणी संग्रह, पृष्ठ ३१० । २. पयसों घसि मलयागिरि चंदन लाइये ।
-श्री सम्मेदाचल पूजा, जवाहरलाल, गृहजिनवाणी संग्रहपृष्ठ ४७०। ३. श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा, आशाराम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ
१५०।
४. श्री चतुविशति तीर्थकर समुच्चयपूजा, हीराचंद, नित्यनियम विशेषपूजन
संग्रह पृष्ठ ७२ । ५. श्री कृत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २५१ । ६. श्री रक्षाबंधन पूजा, रघुसुत, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३६३ । ७. श्री बाहुबली पूजा, दीपचंद, नित्यनियमविशेषपूजनसंग्रह, पृष्ठ ६३ । ८. श्री देवमास्त्र गुरुपूजा, युगल किशोर 'युगल', जैन पूजापाठ संग्रह,
पृष्ठ २७। ६. पा पद मांहि सर्वपद छाजे,
ज्यों दर्पण प्रतिबिंब विराजें। -श्री बृहद सिवचक्र पूजा भाषा, चानतराय, जन पूजापाठ संग्रह,
पृष्ठ २४ । १०. ये माठ भेद करम उधेवक,
जान वपन देखना।
-श्री रलायपूजा, धानतराय, जन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ७३ । ११. श्री चन्द्रप्रभु जिनपूना, वृंदावन, ज्ञानपीठ पूजांजलि पृष्ठ ३३८ । १२. श्री भगवान महावीर स्वामी पूजा, जिलाल, नित्य नियम विशेष पूजन
संग्रह, पृष्ठ ४५।
Page #312
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३०२ )
धूप--देवता के आधापण के लिए या सुगंध के निमिल जलाये गये गुग्गुल आदि का धुंआ हो धूप है । गुग्गुल आदि गंध द्रव्य के पांच मेद हैं
१.
निर्यास
२, चूर्ण
४. काठ ५. कृत्रिम
३. गंध
जैन- हिन्दी- पूजा - काव्य में धूप सुगंध के अर्थ में व्यवहृत है। अठारहवीं शती के कविवर खानतराय ने 'श्री बोस तीर्थकर पूजा' नामक पूजा में धूप का उल्लेख किया है।" उन्नीसवीं शती के कवि बख्तावर ने 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा' में धूप का व्यवहार किया है।" बीसवीं शती के पूजाकार कुजिलाल विरचित 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा' में धूप व्यवहृत है ।"
श्रृंगार-प्रसाधन के अतिरिक्त अब हम यहाँ मुनि, नृपावि द्वारा व्यवहृत आवश्यक उपकरणों पर चर्चा करेंगे ।
कुंभ - माटी विनिर्मित घड़ा कुंभ कहलाता है। इसका उपयोग जल भरने के लिए होता है । पूजा काव्य में अठारहवीं शती के कवि द्यानतराय विरचित 'श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजा भाषा' नामक कृति में घड़ा संज्ञा के साथ
१. बृहत् हिन्दी शब्द कोश, सम्पा० कालिकाप्रसाद आदि, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, तृतीय संस्करण संवत् २०२०, पृष्ठ ६७३ ।
धूप अनुपम खेवतें दुःख जले निरधार ।
- श्री बीस तीर्थकर पूजा, यानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३४ ।
धूप गंध लेय के सु अग्नि संग जारिये ।
श्री पार्श्वनाथजिनपूजा, बढतावररत्न, राजेश पृष्ठ ११६ ।
नित्य पूजापाठ संग्रह,
४. धूप संग अग्नि मांहि जार करे क्षार है, क्षार बार है ।
श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, कुं जिलाल, नित्य नियम विशेष पूजन संग्रह,
पृष्ठ ३७ ।
Page #313
--------------------------------------------------------------------------
________________
मह उपकरण प्रयुक्त है।' उन्नीसवीं शती के कवि मनरंगलाल ने भी शीतलना जिनपूजा' में, बावन ने 'मी वासपूज्य जिनपूजा" में और कमलनयन ने 'श्री पंचकल्याणक पूजापाठ नामक रचनामों में इस उपकरण का व्यवहार किया है।
बीसवीं शती के कवि आशाराम को 'श्री सोनागिरि सिवक्षत्र पूजा" में, दौलतराम की 'श्री चम्पापुर सिखसंत्र पूजा में, भगवानदास की 'धी तत्वार्थ सूत्रपूजा' में कुंभ का प्रयोग परम्परानुमोदित अर्थ में हुआ है।
कटोरा-कांसे आदि विनिर्मिस प्याले का नाम ही कटोरा है। विवेच्य काम्य में अठारहवीं शती के कविवर व्यानतराय ने 'श्री बृहत् सिट बापूजा, में इस उपकरण का उल्लेख किया है।
उन्नीसवी शती के कविवर मनरंगलाल 'श्री शीतलनाथ जिनपूजा में १. ज्यों कुम्हार छोटो बड़ो,
भांड़ों घड़ा जनेय । श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजाभाषा, द्यानतराय, जन पूजापाठ सग्रह,
पृष्ठ २४२। २. श्री शीतलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह,
पृष्ठ ६७ । ३. श्री वासुपूज्य जिनपूजा, वृन्दावन, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३४६ । ४. कनक कुभ भरि ल्याय के।
श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । ५. धूप कुम्भ आगे घरों।
श्री सोनागिर क्षेत्र पूजा, आशाराम, जैनपूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ १५२ : ६. श्री चम्पापुर सिवक्षेत्र पूजा दौलतराम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १३८ । ७. श्री तत्वार्थसूत्र पूजा, भगवानदास, जनपूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ ४१० । ८. पुन्नी कंचन थार कटोरा
पापी के कर प्याला कोरा।
श्री बृहत्सिवचक पूजा भाषा, यानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, प० २३६ । ६. श्री शीतलनाजनपूजा, मनरंगलाल, राजेस नित्य पूजापाठ संग्रह,
पृष्ठ १५
Page #314
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३०४ )
कटोरा अंडा के साथ तथा 'श्री सप्तर्षि पूजा' में कटोरा संज्ञा के साथउपकरण का प्रयोग किया है।
करपात्र - कर कहते हैं-हाथ और पात्र को बर्तन, इस प्रकार हाथ ही जिसके पात्र हैं, करपात्र है । 'पाणिपात्रों दिगम्बर: ' के अनुसार विवम्बर चैनमुनिजन कर-पात्र में ही आहार लिया करते हैं। पूजाकाव्य में उन्नीसवीं शती के कवि कमलनयन ने इस पात्र का उल्लेख 'श्री पंचकल्याणक पूजा पाठ' नामक रचना में किया है।"
चमर-- इसे चंदर भी कहते हैं तथा किसी-किसी स्थान पर चामर संज्ञा से भी यह व्यवहृत है। यह जिस ओर से पकड़ा जाता है 'मूठ' लगी होती है तथा दूसरी ओर बाल लगे होते हैं। इसमें लगे बाल प्रायशः श्वेत रंग के ही होते हैं। यह राजा-महाराजा साधु संत या धर्मग्रन्थ के ऊपर लाया जाता है ।
पूजाकाव्य में अमर का प्रयोग उपकरण के रूप में हुआ है । उन्नीसवींशती के पूजा रचयिता वृंदावन मे 'श्री शांतिनाथ जिनपूजा" एवं "श्रीचन्द्रप्रभ जिन पूजा" नामक रचनाओं में चमर का प्रयोग लाने के अभिप्राय से किया है ।
atest शती के कविवर नेम', दोलतराम, जिनेश्वरवास, पूरणमल और मुन्नालाल मे चंवर, बामर और चमर संज्ञाओं के साथ इस उपकरण का परम्परानुमोदित प्रयोग किया है ।
१. श्री सप्तर्षिपूजा, मनरंगलाल, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३६३ ।
२. नीरस भोजन लघु एक बार ।
ठाड़े करपात्र करें आहार ॥
श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित |
३.
सिर चमर अमर ढारत अपार ।
श्री शांतिनाब जिनपूजा, वृन्दावन, राजेशन्नित्यपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ११५ । ४. श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, वृन्दावन, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३३७ । ५. फुनि चंवर ढरत चौसठ लखाय ।
श्री अत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २५५ । ६. श्री पावापुर सिद्धक्षत्र पूजा, दौलतराम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १४६ । श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास, जैम पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ११४ । ८. श्री चांदन यांव महावीर स्वामी पूजा, पूरणमल, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १६४ ।
७.
९. श्री खण्डगिरि क्षेत्रपूजा, मुन्नालाल, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ११६ ।
Page #315
--------------------------------------------------------------------------
________________
छत्र-यह रामानों या पुस्पतिषि मुनियों के ऊपर लगायी जाने वाली राज-चिन्ह रूप छतरी है। भावकल बारातों में दूल्हा के ऊपर समते हुए देखने में माता है। पूजाकाग्य में प्रतिष्न एवं मय सामग्री की मांति छन उल्लिक्षित है । अठारहवीं सती के पूजाकवि दयानतराम में भी वृहत् सिबायक पूजा भाषा' में छत्र का प्रयोग इसी अर्थ में किया है।'
उन्नीसवीं शती के पूजाकार बावन', रामचंद्र' और कमलनयन को पूजा रचनाओं में छत्र उपकरण उल्लिक्षित है।
पोसवीं सती के पूजा प्रणेता नेम', जिनेश्वरदास और पूरणमल की पूमा रचनाओं में छत्र का व्यवहार परम्परा के अनुरूप ही हुमा है।
सारी-पानी परसने हाथ-मुंह धुलाने आदि के लिए काम में लाया जाने बाला टोटीवार बरतन वस्तुत: 'शारी' कहलाता है। पूजाकाव्य में उन्नीसवों शती से भारी उपकरण का प्रयोग इसी अर्थ में मिलता है । इस शती के पूजाकवि रामचन्द्र और कमलनयन ने क्रमशः 'सारी रतन' 'रस्न जड़ित कंचन भारी का उपयोग काव्य कृतियों में बखूबी किया है। १. पुन्नी के शिर छत्र फरावे,
पापी शीश बोझ ले धार्य । -श्री बृहत् सिद्धचक्र पूजाभाषा, बामसराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ
२३६। २. श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, वंदावन , ज्ञानपीठ पूजांजलि पृष्ठ ३३७ । ३. श्री गिरनार सिवक्षेत्र पूजा, रामचन्द्र, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १४८ । ४. छत्र तीन राजे जिन शीश ।।
-श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । ५. श्री अकृषिम चैत्यालयपूजा, नेम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २५५ । ६. तीन छत्र सिर ऊपर राजे चौसठि चामर सार ।
श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास, जन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ११४ । ७. कोई छत्र चंबर के करत दान ।
-श्री चांदनगांव महावीर स्वामीपूजा, पूरणमल, जैन पूजापाठ संग्रह
पृष्ठ १६४ ५. सोहन भारी रतन जड़िये माहि गंगा जल भरो।
श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १२६ । ९. रतन जडित कंचनमय भारी सुरसरि नीर भराय ।
श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित ।
Page #316
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीसवीं शती के कवि सेवक', बौलतराम' और पूरणमल मे तारो का प्रयोग इसी रूप में किया है।
बाल-कासे या पीतल की बाली की शक्ल का बड़ा बरतन वस्तुतः थाल कहलाता है। पूनाकाव्य में पाली का भी प्रयोग हुआ है। पूजाकाव्य में अठा. रहवीं शती के पूजाकवि दयानतराय ने 'श्री बृहत् सिवक पूजाभाषा' में कंचन चार का प्रयोग किया है।
उन्नीसवीं शती में बावन द्वरा विरचित 'श्री शांतिनाय जिनपूना" और भी पदमप्रमजिन पूजा नामक पूजामों में क्रमशः कंचन-चारी, और कनकपार संज्ञाओं के साथ यह उपकरण व्यवहत है।
बीसवीं मती के पूजाकार नेम विरचित 'श्री अकृत्रिम त्यालय पूजा" में कंचन पाली संज्ञा में, आशाराम प्रणीत' श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा में हेमपारन संज्ञा में, सेवक रचित 'श्री आदिनाथ जिनपूजा' में चार संज्ञा १. श्री वादिनाथ जिनपूजा, सेवक, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६५ । २. श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा, दौलतराम, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १४७ । ३. नित पूजन करत तुम्हार कर मे ले झारी। -श्री चांदनगांव महावीर स्वामी पूजा, पूरणमल, जनपूजापाठ संग्रह,
पृष्ठ १६१ । ४. पुन्नी कंचन थार कटोरा,
पापी के कर प्याला कोरा । -श्री बृहदसिद्धचक्र पूजाभाषा, द्यानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ
२३६ । ५. श्री शांतिनाथ जिनपूजा, वृदावन, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ
६. कनक थार भरि लाय।
-श्री पदमप्रभु जिनपूजा, वृदावन, राजेशनित्यपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ
७. श्री अकृत्रिम त्यालय पूजा, नेम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २५१ । ८. कनक कटोरी माहि हेम थारन में धर के ।
-श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा, आशाराम, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ
१५० । ६. बाल भराऊ क्ष धा नशाऊं।
-श्री आदिनाथ जिनपूजा, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६६ ।
Page #317
--------------------------------------------------------------------------
________________
में समा भयवानदास लिखित 'धी तत्वार्यसूत्र पूजा" में पाल संमा में यह सकरण रल्लिखित है।
धूपायन-धूपद्रव्य के खेने वाले पात्र को धूपायन कहते हैं। पूजाकाव्य में बीसवीं शती के पूजा प्रणेता रघुसत ने 'श्री रक्षाबंधनपूजा' में इस पात्र का उल्लेख किया है।
प्याला-पेय पदार्थ के लिए छोटा बर्तन विशेष । पूजा-काव्य में अठारहवीं राती के कवि यानतराय रचित 'श्री बृहत् सिवयक पूजाभाषा में प्याला का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है।' बीसवीं शती के पूजा रचयिता होराचना ने श्री चतुपियति तीर्थकर समुच्चय पूजा' में प्याले का व्यवहार किया है।
भामण्डल-भावानां मण्डलम भामण्डलम् । भामण्डल का अयं किरणों को मेखला है । जैनधर्म में भामण्डल अरहन्त के महिमामयी बिहनों में से एक चिहन है । ये महिमामयी चिह न-अशोक वृक्ष, सिंहासन, छत्र, भामंडल, विध्यध्वनि, पुष्पवृष्टि, चौसठ चमर ढरना तथा दुबुमी बजाना-नामक प्रातहार्य कहलाते हैं।
बीसवीं शती में पूजाकवि नेम द्वारा प्रणीत 'श्री अकृत्रिम त्यालय पूजा' नामक रचना में भामंडल का प्रयोग इसी मर्थ में हुआ है।
रकाबी- रकानी को तश्तरी कहते हैं। चीनी मिट्टी अथवा धातु बनिर्मित पात्र रकाबी अथवा तस्तरी कहलाता है। जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में
१. श्री तत्वार्थ सूत्रपूजा, भगवानदास, जन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३६४ । २. धूप सुगन्ध सुवासित लेकर धूपायन में खेऊ ।
-श्री रक्षाबंधन पूजा, रघुसुत, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३६४ । ३. पापी के घर प्याला कोरा ।
-श्री बृहदसिदचक पूजाभाषा, द्यानतराय, जैन पूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ
२३६। ४. पावन चंदन कदली नंदन, धसि प्यालो भर लायो ।
-श्री चतुविशति तीर्षकर समुच्चय पूजा, हीराचन्द, नित्य नियम विशेष
पूजन संग्रह, पृष्ठ ७२ ।। ५. भामण्डल की छवि कोन गान ।
श्री कृत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम, बन पूजापाठसंग्रह, पृष्ठ २५५ ।
Page #318
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३०८ )
reat शती के पूजाकार मेम विरचित 'श्री अकृत्रिमचत्यालय पूजा" में एवं जिनेश्वर प्रणीत 'श्री नेमिनाथ जिनपूजा" में एवं बोलतराम लिखित 'भी पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा" में इस उपकरण के अभिदर्शन होते हैं।
शिविका - डोली एवं पालको को शिविका कहते हैं। विवेच्य काव्य में उन्नीसवीं शती के पूजा कवयिता वृंदावन मे 'श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा" में, Centerरत्न ने 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा" में शिविका का व्यवहार पालकी अर्थ में किया है बीसवीं शती के पूजा कवि दौलतराम ने 'श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा" नामक कृति में शिविका का प्रयोग परम्परा के अनुरूप किया है ।
सिंहासन- सिंह मुखी आसन को सिंहासन कहते हैं। राजा, महाराजा, प्रतिष्ठित एवं पूज्यगण सिंहासन पर आसीन होते हैं। जंग-हिम्बी-पूजा-काव्य मैं उन्नीसवीं शती के कवयिता कमलनयन विरचित 'श्री पंचकल्याणक पूजापाठ' में सिहासन का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है।"
उपङ्कित अध्ययन से स्पष्ट है कि विवेच्य काव्य में विविध वस्त्रों, अनेक आभूषणों, सौन्दर्य-प्रसाधनों तथा नाना उपकरणों का प्रयोग हुआ है ।
जन-पूजा-काव्य में उपास्य देवता का स्वरूप वीतरागमय है अस्तु यहां वस्त्रों के धारण करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। वे तो दिगम्बर हुआ करते हैं। साधु के अन्तर्गत क्षुल्लक-ऐलक कोटि के साधुओं के लिए लंगोटी
१. धरि कनक रकेबी ।
- श्री अकृत्रिम चैत्यालय पूजा, नेम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २५१ । २. श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ११२ । ३. श्री पावापुर सिद्ध क्षेत्रपूजा, दौलतराम, जंन पूजापाठसंग्रह, पृष्ठ
१४७ ।
४. श्री चन्द्रप्रभ जिनपूजा, वृंदावन, ज्ञानपीठपूजांजलि, पृष्ठ ३३७ । ५. घरी शिविका निजकंथ मनोग |
--श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३७६। ६. श्री पावापुर सिद्धक्षेत्र पूजा, दौलतराम, जैनपूजापाठपूजांजलि पृष्ठ १४६-१
७
हरि सिंहासन करि थिति प्रवीन ।
तब माततात अभिषेक कीन ||
- श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित 1
Page #319
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३०६ )
धारण करने का विधान है। इस प्रकार वस्त्र विवेचन में मात्र ध्वजा और लंगोटी का उल्लेख हुना है।
मत्स्यास्मक अभिव्यंजना के लिए आरसी, नूपुर, मुकुट तथा हार नामक आभूषणों का सफलतापूर्वक प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार सौन्दर्य प्रसाधनों में वातावरण को सुगंधित करने के लिए अगर, धनसार, कुमकुम भालेपन के लिए केवड़ा, केशव, चंदन अध्यं सामग्री और ताप-शांत करने के लिए, वर्षण प्रतिविम्ब दर्शन के लिए प्रस्तुत काव्य में व्यवहृत हैं।
कुम्भ, कटोरा, भारी, चमर, छत्र, थाल , धूपायन, प्याला, भामंडल, रकाबी, शिविका, सिंहासन आदि उपकरणों का पूजा-विधान सन्दर्भ में मावश्यक प्रयोग हुआ है । इस प्रकार विवेच्य काव्य में एक ओर जहां इन वस्तुओं का वर्णन हुआ है वहीं दूसरी ओर पूजा-विधान में इन सभी वस्तुओं को उपयोगिता भी प्रमाणित हुई है।
Page #320
--------------------------------------------------------------------------
________________
वाद्य यंत्र
जीवन में सुख दुःख की वृत्तियां अनादिकाल से चली आ रही हैं। इन बुतियों का विकास विभिन्न साधनों पर आधूत है । वाद्ययंत्र इन वृतियों को उद्दीप्त करने में सहायक हुए हैं। वस्तुतः अभिव्यक्ति के प्रस्तुतीकरण में वाद्ययंत्र महत्वपूर्ण बाह्य उपकरण हैं । काव्याभिव्यक्ति में हम आरम्भ से ही वायों की महत्ता से परिचित होते आए हैं। वादय-यंत्रों ने हमारे जीवन साधना और भक्तिपक्ष को सदैव बल प्रदान किया है ।
स्थूल रूप से वाद्य यंत्रों को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं, यथा
१. ताल वाय
२. तार वाक्य
३. खाल वाय ४. फूंक वाय
जन- हिन्दी-पूजाकाव्य में उपयंकित चारों प्रकार के वाक्य यंत्रों का व्यवहार हुआ है। पूजा-काव्य में प्रयुक्त वायों का अकारादि क्रम से वर्णन करना हमारा मूलाभिप्रेत है ।
करताल
करताल एक ताल बाय है । ताल वाद्य उसे कहते हैं जिसमें ताल देने की क्षमता हो। इसे 'माधा साज' भी कहते हैं । करताल सामूहिक गान के अवसर पर प्रयोग में लाया जाता है। 'खड़ताल' इसी से बना है। यह निरतर एक ही लय की ताल देने वाला वाक्य है । इसका अधिकतर प्रयोग साधु-सन्त प्राय: अधिक करते हैं ।
जैन- हिन्दी- पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के कविवर वृंदावन द्वारा 'श्री महावीर स्वामीपूजा' नामक पूजाकृति में यह वाक्य प्रयुक्त है।"
१. करताल विषं करताल घरे ।
सुरताल विशाल जु नाद करें ||
- श्री महावीर स्वामीपूजा, वृंदावन, राजेशनित्य पूजापाठसंग्रह पृष्ठ १३८ ।
Page #321
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३११ ) कलश-भक्ति में निमग्न भक्त कलश पर हाथ पोटने लगता है। कलश वस्तुत: ताल वादय है। यश अभिवन के लिए कलश का प्रयोग जैन-पूजाकाम्य में हआ है। उन्नीसवीं शती को भी शांतिनाय जिनपूजा' नामक पूजाकृति में कलश का प्रयोग द्रष्टव्य है।'
कंसाल-कंसाल ताल बादय है। यह कांसा का बना हुआ होता है, इसे हाथों से बनाते हैं। जन-हिन्दी-पूना-काध्य में उन्नीसवीं शती के कवि कमलनयन ने कंसाल वाव्य का व्ययहार किया है।
खंजरी-खंजरी खाल वाच्य है। खंजरी या खंजड़ी इफली की मांति आकार में उससे छोटा एक वाव्य है। खंजरी एक ओर बकरी के चमड़े से मड़ी होती है । भिक्ष क-जन इसका उपयोग अधिक करते हैं। चंग की भांति इसे बजाया जाता है।
जन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती में खंजरी वाद्य 'श्री पंच. कल्याणक-पूजा-पाठ' नामक कृति में व्यंजित है।'
घंटा-घंटा ताल वाय है। घंटा कांसे का गोल पट्ट जिसे मुंगरी या हाय से पीटकर पूजन में और समय सूचना के लिए बजाते हैं। कांसे का लंगरवार बाजा जो लंगर हिलाने से बजता है, घंटा कहलाता है। इस का प्रयोग प्रायः मंदिरों में होता है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में घंटा का प्रचुर प्रयोग उन्नीसवीं शती में हुआ है। कविवर बावन द्वारा विरचित 'श्री शांतिनाथ जिमपूजा" 'श्री महावीर १. अब घ घ घ घ घ धुनि होत घोर ।
भ भ भ भ भ म ध ध ध ध कलश शोर ।। -~~-श्रीशांतिनाजिनपूजा, वृदावन, राजेशनित्यपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ ११५ । चन्द्रोपक चामर घंटा तोरन घने । पल्लरि ताल कंसाल करन उप सब बने ।।
-श्री पंचकल्याणक पूजापाठ-कमलनयन, हस्तलिखित । ३. सांगीत गीत गावें सुर गधवं ताल देहिं भारी।
बीन मृदंग मुहचंग खंजरी बात है सुखकारी ॥
-श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । ४, तन नन नन नन नन तनन तान ।
धन धन नन घंटा करत ध्वान ॥ -श्री शांतिनाथ जिनपूषा, बावन, राजेगनित्यपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ
Page #322
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३१२ ) स्वामी-पूजा", कमलनयन प्रगीत 'श्री पंच-कल्याणक-पूजा-पाठ नामक पूजा रचनाओं में घंटा बाद्य व्यवहत है।
बीसवीं शती के कवि कं जिलाल' और जवाहरदास द्वारा पूजाकाव्य में घंटा नामक वाद्ययंत्र का प्रयोग उल्लेखनीय है।
बंग- चंग एक साल बादय है। यह एक गोलाकार तथा एक ओर से मड़ा हुमा वाच्य है जो होली के अवसर पर बहुतशः बजाया जाता है । इसका एक ओर बकरे की खाल से मढ़ा होता है। यह रस्सी से मढ़ा जाता है। लेही से ऊपर खाल चिपका दी जाती है। इसे कंधे पर रखकर बनाया जाता है । इसे दाहिने हाथ से पकड़ कर उसी से चिमटी मारते है और बाएं हाथ से बजाते हैं । इस बाय पर धमाले गीत प्रायः चलते हैं । इस का प्रिय ताल 'कहरवा' है। चंगड़ी बंग से छोटी होती है।
चंग का प्रयोग भारतीय लोक-जीवन में प्रचुर प्रचलित है। बारहमासों में विशेष रूप से फाल्गुण और चेत्र मासों में इसका उल्लेख हुआ है।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में बीसवीं शती में यह वाद्य मुहचंग नाम से १. धननं घननं धन घंट बजे । दृमदं दृमदं मिरदंग सजे॥
-श्री महावीरस्वामीपूजा, वृदावन, राजेशनित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ
१३७ । २. चन्द्रोपक चामर घंटा तोरन घने ।
झल्लरि ताल कंसाल करन उप सब बने ।
-श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित । ३. देवन घर घंटा बाजे, माड़ शंखादिक गाजे ।
इन्द्रासन हूँ कम्पाये, प्रगटे महरा- ---जा जी ॥ सुखिया अतुल बलधारी, जनमे जिनरा ---जा जी।। --श्री भगवान महावीर स्वामी पूजा, जिलाल, नित्यनियमविशेष पूजन
संग्रह, पृष्ठ ४४। ४. दम दम दमता बजे मृदंग ।
घन घन मंट बजे मुहचंग ॥ -~श्रीअपसमुच्चयलधपूजा, जवाहरवास, बृहजिनवाणीसंग्रह, पृष्ठ ४६६ ।
-
Page #323
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३१३ )
अभिहित है। इस शती के कवि आशाराम' और जवाहरदास' की जातियों में चंगवाद के अभिदर्शन होते हैं ।
शनिया - सुनिया या शुनझुना काठ और दिन का बना हुआ तालवाय है जो हिलाने से 'सुनसुन' ध्वनि करता है, इसे 'इसे 'घुनघुना' भी कहते हैं। जैन- हिन्दी-पूजा - काव्य में इस वाद्य का व्यवहार बीसवीं शती की अथ समुच्चय- लघु-पूजा, रचना में हुआ है ।"
ढोल-ढोल वाक्य है । यह एक लकड़ी का खोल होता है जिसके दोनों पावों में बकरी का चमड़ा मढ़ा होता है। इसे रस्सी से कसा मी जाता है जिससे इसको आबाज में आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सके। इसकी soft बड़ी दूर तक जाती है ।
लोकगीत गाते समय स्वतंत्र रूप से भी ढोल का प्रयोग किया जाता है । लोकनृत्य में इसका उपयोग उल्लिखित है । सामूहिक नृत्य एवं जन्मोत्सव, विवाह तथा अन्य मांगलिक अवसरों पर इसका प्रयोग प्रायः होता है। हिन्दी बारहमासा काव्य में भी होली प्रसंग पर ढोल वाक्य का वर्णन मिलता है ।
जैन- हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती के पूजाकवि व्यानतराय द्वारा
१. ता येई थेई थेई बाजत सितार |
मृदंग बीन मुहचंग सार ॥
तिनकी ध्वनि सुनि भवि होत प्रेम ।
जयकार करत नाचत सु एम ||
- श्री सोनागिरिसिद्धक्षेत्रपूजा, आशाराम, जनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १५४ ।
२. हम हम हमता बजे मृदंग ।
घन घन घंट बजे मुहषंग ||
- श्री अथसमुच्चयलघुपूजा, जवाहरदास, बृहजिनवाणी संग्रह, पृष्ठ
४६६ ।
३. सुन झुनझुनझुन शुनिया शुनं ।
सर सर सर सर सारंगी धुनं ॥
श्री अय समुच्चय लघुपूजा, जवाहरदास, बुहजिनवाणी संग्रह, पृष्ठ ४९६ ।
Page #324
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३१४ )
विरचित 'श्री दोश्वरद्वीप पूजा' नामक पूजाकृति में ढोल वाय उल्लिखित है।"
ताल - संगीत में नियम मात्राओं पर हाथों से ताली बजाना वस्तुतः ताल कहलाता है । इसका प्रयोग उत्सवों में स्त्री-पुरुष समवेतरूप से करते हैं । ताल वाक्य में इसे सम्मिलित किया जा सकता है ।
जैन- हिन्दी-पूजा - काव्य में उन्नीसवीं शती के कवि कमलनयन प्रणीत 'श्री पंचकल्याणक पूजापाठ' नामक पूजाकाव्य कृति में ताल का शास्त्रीय रूप से प्रयोग हुआ है।"
तूर--तूर या तुरही फूंककर बजाने का एक पतले मुँह का बाजा होता है जो दूसरे सिरे की ओर क्रमशः चौड़ा होता जाता है।
जैन- हिन्दी-पूजा - काव्य में उन्नीसवीं शती के कवि रामचन्द्र' और बीसवीं
राजहीं ।
छाजहीं ॥।
सहस चौरासिया एक दिन ढोल सम गोल ऊपर तले मौन बावन्न प्रतिमा नमो सुखकरं ॥
सुंदरं ।
- श्री नंदीश्वरद्वीपपूजा, यानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ
१७३ ।
२. चन्द्रोपक चामर घंटा तोरन घने । झल्लरि ताल कंसाल करन उप सब बने || जिन मंदिर में मंडप शोभा करि सही । दीपक ज्योति प्रकाशक जग मग ह्व रही ॥
१. चार दिशि चार अंजन गिरी
-
श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित ।
३. फिर पितु घर लाये जो नचि तूर बजाये जी । लखि जंग नमायें मात पिता लये जो ॥ तन हेम महा छवि जी, पंचास धनू रवि जी ।
लाख तीस कहे कवि आयु भई सबै जी ||
- श्री अनंतनाथ जिनपूजा, रामचन्द्र, राजेशनित्यपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ
१०५ ।
Page #325
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३१५ ) शती के कवि जवाहरवास हारा पूजाकाम्य में इसका सफलता पूर्वक प्रयोग हुना है।
मि-शुभि या नगाड़ा या का बाल बाप है। यह वाय एक ओर से मढ़ा होता है और लकड़ी की चोट से बजाया जाता है। पुमि में लकड़ी द्वारा भयंकर चोरें पड़ा करती हैं। नौबत या नगाड़ा प्रायः एक से हो होते है । शादी-संस्कारों तथा नौटंकी-नाचों में यह अधिक बजाया जाता है। इसी को अपरात्री पर्याय 'नगाड़ी' कहलाती है।
हुंदुभि वाद्य का प्रयोग हिन्दी-साहित्य में बादलों की गर्जन के लिए सेनापति के अतिरिक्त अन्य अनेक कवियों ने किया है। बुभि के प्रयोग की परम्परा बारहमासा काव्य रूप में भी परिलक्षित है।'
जन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के कवि बावन प्रणीत भी चनप्रम जिन पूजा' नामक पूजाकृति में इंदुभि मोर नगारे राम उल्लिखित है।'
-
-
१. मुरली बीन बजे धुनि मिष्ट ।
पटहा तूर सुरान्वित पुष्ट । सब सुरगण थुति गावत सार । सुरगण नाचत बहुत पुकार ।। --श्री अप समुच्चयलघुपूजा, जवाहरदास, बृहजिनवाणी संग्रह, पृष्ठ
४६६ । २. हिन्दी का बारहमासा साहित्य : उसका इतिहास तथा अध्ययन, चतुर्ष
अध्याय, गे० महेन्द्रसागर प्रचंडिया, पृष्ठ ३३८, पैराग्राफ ४२७ । ३. दुंदुभि नित बाजत मधुर सार ।
मनु करत जीत को है नगार ॥ मिर छत्र फिर अय भवेत वर्ण । मनु रतन तीन प्रय ताप हर्ण ।। -श्री चन्द्रप्रभु जिनपूजा, वदावन, मानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३३८ ।
Page #326
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३१६ )
weat शती में जिनेश्वरवाल' और नेम' ने अपनी पूजा काव्य कृतियों में हु'दुभि वाद्य का व्यवहार किया है।
निसान - निशाण या निसान को तम्बूरा और चौतारा भी कहा जाता । इसमें चार तार होते हैं । यह तानपूरा अथवा सितारा से मिलता-जुलता । यह लकड़ी का बना होता है। बाएं हाथ से इसे पकड़ कर बाएं हाथ से बजाया जाता है। जोगीजन इस पर ही प्रायः भजन गाते है । यह तार बाय यंत्र है।
जैन- हिन्दी- पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के कवि कमलनयन रचित 'श्री पंचकल्याणक पूजापाठ' नामक पूजाकृति में निसान बाक्ययंत्र का प्रयोग द्रष्टव्य है ।"
नुपुर - घुंघरू का अपरनाम ही नूपुर है। इसे पैर में बांध कर नृत्य किया जाता है। इसकी ध्वनि मधुर होती है। यह तार बाध्य है । 'कृष्ण-विबाणी' मीरा का तो यह प्रिय वाक्य है ।
१. जिनके सन्मुख ठाढे इन्द्र नरेन्द्रजी । नभ में दुन्दुभि को धुनि भारी ॥ वर्षे फूल सुगन्ध अपारी । जिनके सम्मुख ठाढ़े इन्द्र नरेन्द्र जी ॥
- श्री नेमिनाथ जिनपूजा, जिनेश्वरदास, जैमपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ११४ ।
२. भामण्डल की छवि कौन गाय ।
फुनि चंवर तुरत चोसठि लखाय ॥ जय दुन्दुभि रव
अद्भुत सुनाय ।
जय पुष्प वृष्टि गन्धोदकाय ||
-
- श्री अकृत्रिम चैत्यालयपूजा, नेम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २५५ ।
३. बाजन अधिक बजाय गाय गुण सार जू ।
भेरि निसान सु झांझ झना झनकार जू ।। विधि संक्षेप कही पूजा की सार जू । इन्द्रध्वज आादिक जे बहु विस्तार जू ।।
- श्री पंचकल्याणक पूजापाठ, कमलनयन, हस्तलिखित |
Page #327
--------------------------------------------------------------------------
________________
मतवा जबाहरलाल प्रगीत 'भो अब समुन्वय पूना" नामक पूजाहति में र पुष्प धवलता गुण तथा प्रकृति वर्णन के लिए हमा है।
कदंब-कब सुगन्धित पुष्प है। जन-हिन्दी पूषा-काम में सलीलयों शती के पूनाकार रामचन्द्र ने 'श्री गिरिनार सिरोष पूना' मानक पूजा में फर्दर पुष्प का प्रयोग आलम्बन रूप में सामग्री के लिए किया है। इसी प्रकार बीसवीं शती में भी कर का प्रयोग समुन्वय बोबीसी पूजा काव्य में सामग्री-व्य के लिए हमा है।'
कुरर-बीसवीं शती के पूजाकाव्य में 'कुरं' का प्रयोग पूजा-अप के लिए हुआ है।
केतकी-एक पुष्प का नाम जिसका रसपान भ्रमर चाव से किया करते हैं। केतकी चम्पा की भांति खिला करती है किन्तु विरहिणी नायिका को यह अतीव दुःख देती है। जन-जनेतर-हिन्दी-साहित्य में केतकी का उल्लेख निम्न रूपों में हुआ है -
(१) प्रकृति वर्णन के लिए। (२) नायिका द्वारा नायक को आकर्षित करने के लिए। (३) मालंकारिक रूप में वर्णन करने के लिए।
जैन-हिन्दी-पूमा-काव्य में उन्नीसवी शती के पूजा प्रणेता ममरंगलाल विरचित 'धी अथ सप्तर्षि पूजा एवं 'श्री नेमिनाय जिनपूजा नामक प्रणा कृतियों में इस पुष्प का उल्लेख मिलता है। इस शती के अन्य कविताबार
१. कुंद कमलादिक चमेली गंधकर मधुकर फिरें।
-श्री अथ समुच्चयपूजा, जवाहरलाल, यह जिनवाणी संग्रह, पृ०४६७ । २. श्री मिरिनार सिद्धक्षेत्र पूजा, रामचन्द्र, जन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १४२ । ३. वरकंज कदंब कुरंड, सुमन सुगन्ध भरे ।
-श्री समुच्चय चौबीसी पूजा, सेवक, बृहजिनवाणीसंग्रह, पृष्ठ ३३५ । ४. वही। ५. केतकी चम्पा चारु मरुवा,
पुने निजकर चाव के। --श्री अथ सप्तर्षि पूजा, मनरंगलाल, राजेश निस्य पूजापाठ संग्रह,
६. केतकी पम्पा चारु मरुवा पुष्प भाव सुताव के ।
-श्री नेमिनाम जिनपूजा, मनरंगलाल, मानपीठपूजांजलि, पृष्ठ ३६६।
Page #328
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३२६ ) रानमारा श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा" नामक पूजा में तथा कवि मल्ली विरचित 'श्री मावाणी पूजा" नामक कृति में केतको पुष्प का व्यवहार पूजा की सामग्री-द्रव्य के लिए हुआ है।
बीसवीं शती में कविवर सेवक', बीपचंद और पूरगन' ने केतकी पुष्प का प्रयोग सामग्री के संदर्भ में किया है।
केवड़ा-यह पुष्प 'बाल' रूप में होता है। इसकी सुगंध अत्यन्त मधुर और शीतल होती है। हिन्दी काव्य में प्रकृति वर्णन और शृंगार प्रसाधन रूप में इसका प्रयोग हुआ है। स्वकीया नायिका विविध पुष्पों के साथ केवड़ा पुष्प का हार बनाकर शृंगार करती है।
जैन हिन्दी पूजा काव्य में उन्नीसवीं शती में बख्तावररत्न द्वारा केवड़ा पुष्प का प्रयोग सामग्री के अन्तर्गत हुआ है। बीसवीं शती में कविवर सेवक, भगवानदास द्वारा प्रणोत क्रमशः अनन्त व्रत पूजा' तथा 'श्री तत्वार्थ सूत्र पूजा नामक काव्य में केवड़ा का प्रयोग सामग्री संदर्भ में हुआ है।
गलाब- श्वेत और अरुण वर्ण का पुष्प-विशेष गुलाब होता है। यह प्रायः चेत्रमास में मुकुलित होता है । अपने सौन्दर्य तथा शीतल गुण के लिए
१. केवड़ा गुलाब और केतकी चुनाइये।
श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३७२ । २. श्री अमावाणी पूजा, मल्लजी, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ४०३ । ३. श्री आदिनाथ जिनपूजा, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६६ । ४. श्री बाहुवली पूजा, नित्य नियम विशेष पूजा संग्रह, पृष्ठ ६३ । ५. वेलर केतकी गुलाब चम्पा कमललऊँ।
-श्री चांदन गांव महावीर स्वामी पूजा, जैनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ १६० । ६. हिन्दी का बारहमासा साहित्य उसका इतिहास तथा अध्ययन, गे.
महेन्द्रसागर प्रचण्डिया, चतुर्थ अध्याय, अनुच्छेद ३६०, पृष्ठ २८८ । ७. श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, ज्ञानपीठपूजांजलि, पृष्ठ ३७२ । ८. श्री अनन्तब्रत पूजा, जैनपूजापाठ सग्रह, पृष्ठ २६६ । ६. सुमन बैल चमेलिहि केवरा,
जिन सुगंध दशों दिश विस्तारा । -~-श्री तत्वार्थसूत्रपूजा, भगवानदास, जनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ ४१.।
Page #329
--------------------------------------------------------------------------
________________
भी सुमतिनाव विमपूमा" और 'मी नेमिनार जिन पूजा 'सुप्रिया" नामक संशा में प्रयक्त है।
माम-आम भारतीय फल है। यह मांगलिक अवसर पर प्रथक होता है। यहां यह उन्नीसवीं शती के कवि मनरंगलाल विरचित 'श्री पदमप्रम जिनपूजा श्री चन्द्रप्रमजिनपूजा, 'मी वासुपूज्यजिनपूजा और भी बर्ममायजिनपूजा" नामक रचनाओं में कामवल्लभाविरसाल, आम और मान संज्ञाओं के साथ व्यवहत है। इस शती के अन्य कधि बन्तापररत्न प्रणीत 'श्री ऋषभनाथजन पूजा और मल्लजी लिखित 'श्री क्षमावाणी प्रवा" में नाम और अंब संज्ञाओं के साथ यह उल्लिखित है। ___ बीसवीं शती के पूजा कबपिता मुन्नालाल", भगवानदास और हीराचन्द" द्वारा आम फल का प्रयोग अर्घ्य सामग्री के लिए हमा है। १. श्री सुमतिनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ ४० । २. फल शुकप्रिय नी आम्र निंबू न फीके ।
-श्री नेमिनाय जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयश, पृष्ठ १४६ । ३. पंडित शिखरचन्द्र जैन शास्त्री ने सत्यार्थयज्ञ ग्रंथ के पृष्ठ ४० पर 'श्री
'सुमतिनाथ जिनपूजा' कृति की टिप्पणी में शुकप्रिया को अमरूद कहा है यद्यपि बृहद हिन्दी कोश के पृष्ठ १३:२.६३ पर शुकप्रिया का वर्ष जंबू,
जामुन उल्लिखित है। ४. कामवल्लभादि जे फलोध मिष्टता घने ।
-श्री पद्मप्रभजिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ ४८ । ५. श्री चन्द्रप्रभजिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ ६३ । ६. फल माम नारंगी केरा, बादाम छुआर घनेरा।
-श्री वासुपूज्य जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थ यज्ञ, पृष्ठ ८७ । ७. श्री धर्मनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ १०६ । १. पं. शिखरचन्द्र जैन शात्री ने सत्यार्थयश ग्रंथ के पृष्ठ ४८ पर 'श्री पदम
प्रभजिनपूजा' कृति की टिप्पणी में कामवल्लभादि को माम कहा है। ९. एला सुकेला आन दाहिम केंथ चिरमट लीजिये।
-श्री ऋषभनाथ जिनपूजा, बख्तावररल, चतुर्विगतिजिनपूजा, पृ० १० । १०. केला अंब अनार ही, नारिकेल ले दाख ।
-श्री क्षमावाणीपूजा, मल्लजी, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २५७ । ११. श्री फल पिस्ता सु बादाम, आम नारंगि धरूं।
-श्री बण्डगिरि क्षेत्रपूजा, मुन्नालाल, जनपूजा संग्रह, पृष्ठ १५६ । १२. श्री तत्वार्यसूत्रपूजा, भगवानदास, जन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ४११ ।
श्री फल केमा बाम नरंगी, पक्के फल सब ताजा। -बी चतुरिति तीर्ष कर समुच्चय पूजा, हीराचन्द, नित्य नियम विशेष पूर्वर पर पृष्ठ ७३।
Page #330
--------------------------------------------------------------------------
________________
इलायची-एक सुरक्षित कल मिस नेपाल साल का मावि के काम माते हैं। इसे एला भी कहते हैं। यहाँ मौसी सती के प्रजाकार मनरंगलास', बतावरत्न' और रणवन' ऐला. लायची संसायों के सायास पाल का व्यवहार किया है। बीसवीं शती पी पिच फुमार महामुनिपूजा' नामक पूना रसमा में सायची संका में पहल प्रयुक्त है।
फेला-भारतीय संस्कृति में माम की पति यह कल भी नागलिक माना जाता है । उन्नीसवीं शती के कविवर मनरंगलाल', सावरल', समय और मल्लीवारा रचित पूजाकाव्य में मोष, कबली, केला नामक संमाबों
१. बहतु हिन्दी कोड, पृष्ठ २२४ । २. जातिफल एला फल मे केला, नारिकेला बादि भने ।
-श्रीसम्भवनापजिन पूजा, मनरंगलाल, सत्यापयश, पुष्ठ २६ । ३. श्री ऋषभनापजिनपूजा, बख्तावररल, पवितति जिनयूबा, बीर पुस्तक
भण्डार, मनिहारों कारास्ता, जयपुर, पौष सं० २०१०, पृष्ठ १.। ४. श्रीफल लोंग बदाम सुपारी, एला मादि मंगाये।
श्री पद्मप्रभुजिनपूजा, रामचन्द्र, चतुविशति जिनपूजा, नेमीचन्द बाकलीवाल जैन, अंथ कार्यालय, मदनगंज (किशनगढ़) राजस्थान, अगस्त १९५०,
पृष्ठ ५५ ५. लोंग लायची श्रीफलसार, पूजों श्री मुनि सुखदातार ।
श्री विष्णु कुमार महामुनि पूजा, रघुसुन, जन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १७४। ६. [क] मोष दन्तीज वातशत्र ल्याय के बने ।
-श्री पद्मप्रभुजिनपूजा, मनरंगमाल, सत्यार्थयत, पृष्ठ ४८ ॥ [ख] मीठे रसाल कदली फल नारिकेला ।
-श्री भरहनाप जिनपूजा, मनरंवलाल, सत्यार्पया, पृष्ठ १२८ । ७. श्री ऋषमनाजिनपूबा, बाबररल, चतुर्विधति जिनपूजा, वीर पुस्तक
भण्डार, मनिहारों का रास्ता, अपपुर, पौष सं० २०१८, पृष्ठ १०॥ ८. श्री सम्मेवसिवपूजा, रामचन्द्र जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १३८ । १. श्री क्षमावाणी पूजी, मल्लवी, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २५६ । १०. पं० शिखरचन्द्र बन शात्री बारा सत्यार्पया पृष्ठ ४८ परको पत्र
जिनपूणा ति की टिप्पणी में मोषकावर्षमा उल्लिवित है।
Page #331
--------------------------------------------------------------------------
________________
में यह पार व्यवहत है। बीसवीं शती के सेवक' ओर होरा रचित नामों में भी मह फल अध्य-सामग्री के लिए प्रयुक्त है।
कथा-एक फल विशेष जिम्का कपित्य अपर नाम है।' उन्नीसवीं शती के मनरंगलाल विरचित 'श्री धर्मनाथ जिनपूजा तथा बखताबररत्न जीत 'मी ऋषमनाथ जिनपूजा' नामक पूजाओं में यह फल कपित्थ, कॅब संज्ञामों के साथ प्रयुक्त है।
खराज-भारतीय खरीफ फसल का फल विशेष। उन्नीसवीं शती के विवेच्य काव्य में मनरंगलाल द्वारा इस फल का व्यवहार मा है।
छहारा-खजूर का एक भेद जो रेगिस्तानी प्रदेशों में होता है उसका सना रूप ही छुआरा है। पूजाकाव्य में अठारहवीं शती से इस फल के अभिवर्शन होते हैं। इस शती के कवि व्यानतराय कृत 'श्री रत्नत्रयपूजा और 'श्री सरस्वती पूजा" नामक पूजाओं में यह फल अध्यं सामग्री के लिए व्यबहत है । उन्नीसवीं शती के कवि मनरंगलाल° और बीसवीं शती के
१. श्रीफल और बदाम सुपारी,
केला बादि छुबारा ल्याम ।
-श्री आदिनाप जिनपूजा, सेवक, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६६ । २. श्री चतुर्विशति तीर्थकर समुच्चयपूजा, हीराचन्द, नित्य नियम विशेष
पूजन सग्रह, पृष्ठ ७३ । ३. बृहत् हिन्दी कोश, पृष्ठ ३१५ । ४. चिरभट आम्र पनस दाडिम ले दाख कपित्थ विजोरें।
-श्री धर्मनाथ जिनपूजा, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ १०६ । ५. ऐला सकेला आम्र दाडिम कथ चिरभट लीजिए।
-श्री ऋषभनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, चतुर्विशतिजिनपूजा, पृष्ठ
६. खरबूज पिस्ता देवकुसुमा नवम पुगी पावनी ।
-श्री नेमिनाय जिनपूजा, मनरगलाल, सत्यार्थवा, पृ. १५५ । ७. बृहत् हिन्दी कोश, पृष्ठ ४७५ । ८. फल शोभा अधिकार, लोंग छहारे जायफल ।
-श्री रलत्रयपूजा, द्यानतराय, जैनपूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ ७० । ६. श्री सरस्वती पूजा, दयानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३७६ । १०. फल माम नारंगी केरा, बादाम छहार धनेरा।।
श्री वासुपूज्यजिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ ८७ ।
Page #332
--------------------------------------------------------------------------
________________
सातवा होराबारा रचित पूना काम में छहारा फल का प्रयोग पार्व-सामग्री के लिए बा है।
जायकल-एक विशेष फल जिसे जातिफल भी कहते हैं। पूजाकाव्य में महारहवीं शती के बयानतराय विरचित 'भो रस्नाय पूजा तथा बन्नीसवी शती के मनरंगलाल द्वारा भी सम्भवनापजिनपूमा काव्य में मायकल का प्रयोग हुआ है।
जावित्री-सावित्री जायफल जन्य है वो वाई के काम आती है। बांगुली और देवकुसमा इसके अपर नाम हैं। पूजाकाव्य में यह फल उन्नीसवीं शती के पूजा कवि मनरंगलाल विरचित 'श्री पुष्पदन्तजिनपूजा, भी नेमिनाप जिन-पूजा' नामक कृतियों में बांगुली और देवकुसमा संसानों में व्यवहत है।
१. श्रीफल बोर गाराम सुपारी, केला बादि छुहारा ल्याय । ___श्री आदिनाथ जिनपूजा, जैनपूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ १६ । २. लोंग छिवारा भेंट चढ़ाऊँ, मोम मिलन के काजा।
-श्री चतुर्विशति तीर्थकर समुभवपूजा, हीराचन्द, नित्य नियम विशेष
पूजन संग्रह, पृष्ठ ७३। ३. बहत हिन्दी कोश, पुष्ठ ४९८-९९ । ४. फल शोभा अधिकार, लोंग छुहारे जायफल ।
-श्री रत्नपयपूजा, बानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ७० । ५. जातिफल एला फल ले केला।
-धी सम्भवनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्य यज्ञ, पृष्ठ २६ । ६. पंडित शिखरचन्द्र जैन शास्त्री ने 'सत्यार्पयज्ञ' के पृष्ठ ७० पर 'श्री
पुष्पदंत जिनपूजा' कति की टिप्पणी में दसांगुली को गावित्री कहा है । ७. पंडित शिखरचन्द्र जैन शास्त्री ने सत्यापयश के पष्ठ १५५ पर श्री
नेमिनाप जिनपूचा कृति की टिप्पणी में देवकुसुमा के बर्ष जावित्री
८. दशांगुनी दास गाराम योगा।
-श्री पुष्पदंत जिनपूणा, मनरंगलाल, सत्यार्थ बम, पृष्ठ ७० । ६. बखून पिस्ता देव कुसुमा नवम पुगी पानी।
-श्री नेमिनाप जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यापन, पृष्ठ १५५ ।
Page #333
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३४० )
नारियल - यह दक्षिण भारत का प्रमुख फल है। इसे भीकल', लांबली", नारिकेल' भी कहते हैं। पूजाकाव्य में अठारहवीं शती के पूजा रचयिता ज्ञानतराय विरचित 'भी सरस्वतीपूजा' नामक कृति में यह फल लोकल संज्ञा प्रयुक्त है।" उन्नीसवीं शती के मनरंगलाल प्रणीत 'भी सम्भवनाच जिनपूजा, श्री विमलनाथजिनपूजा" नामक कृतियों में यह फल नारिकेल, लांगली संज्ञाओं के साथ व्यवहुत है । इस शती के अन्य कवि रामचन्द्र, antarरल' और मल्लजो' मे श्रोफल, नारिकेल संज्ञाओं में इस फल का प्रयोग किया है । बीसवीं शती में सेवक", मुन्नालाल ", पूरणमल "
१२
१. हिन्दी का बारहमासा साहित्य : उसका इतिहास तथा अध्ययन, डॉ० महेन्द्र सागर प्रचंडिया, सन १६६१, पृष्ठ २६५ ।
२. श्री पंडित शिखर चन्द्र जैन शास्त्री द्वारा सत्यार्थयज्ञ के पृष्ठ १३ पर श्री विमलनाथ जिनपूजा कृति की टिप्पणी में लांगली को नारियल की सज्ञा दी गई है ।
३. बृहत् हिन्दी कोश, पृष्ठ ७०४ ।
४. बादाम छुहारा, लोंग सुपारो, श्रीफल भारी ल्यावत हैं ।
- श्री सरस्वती पूजा, द्यानतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृ35 ३७६ ॥
५. श्री सम्भवनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ २६ ।
६. ले क्रमुक पिस्ता लांगली अरु वाख बादामे घनी ।
- श्री विमलनाथ जिनपूजा, मनरंगलाम, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ ६३ । ७. बादाम श्रीफल चार पूंजी, मधुर मनहर ल्यायये ।
- श्री सुमतिनाथ जिनपूजा, रामचन्द्र, चतुविशति जिनपूजा, नेमीचन्द्र वाकलीवाल, जैन ग्रन्य कार्यालय, मदनगंज (किशनगढ़) राजस्थान, अनेस् १९५१, पृष्ठ ४५ ।
८. श्री ऋषभनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, चतुर्विशति जिनपूजा, बीर पुस्तक भहार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, पौष सं० २०१८, पृष्ठ १० । ९. केला अंब अना रही, नारिकेल ले दाव ।
- श्री क्षमावाणी पूजा, मल्लजी, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २५७ । १०. श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, जन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १६ । ११. श्री खण्डगिरिक्षेत्रपूजा, मुन्नालाल, जैनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ १५६ । १२. श्री चांदनगांव महावीर स्वामीपूजा, पूरणमल, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ
१६० ।
Page #334
--------------------------------------------------------------------------
________________
! २४५ )
' और सनदास द्वारा रचित
मधु-सामग्री के लिए हुआ है।
काव्य में नारियल का प्रयोग
नारंगी-- यह मम्ल जाति का फल विशेष है। विवेच्य काव्य में उत्ती शती के कवि मनरंगलाल रचित 'भो मेयांसनाथ जिनपूजा" मी बासुं जिमका में नारंगी फल का व्यवहार हुआ है। बीसवीं शती के हीराचंद, मुनालाल और भगवानवास' प्रचीत पूजाओं में मयं सामग्री के लिए नारंगी फल का प्रयोग हुआ है ।
मी - नारंगी को भांति यह भी अम्ल जाति का फल है। इस फल को बिजोर", वातशत्रु', निम्बु भी कहते हैं। उन्नीसवीं शती के मनरंगलाल रचित 'श्री पद्मप्रभुजिनपूजा" श्री मेयांसनाथजिना" श्री धर्मनाथजनपूजा भ
१. श्री विष्णुकुमार महामुनि पूजा, रघुसुत, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १७४ | २. *मुखदाख बदाम अनारला,
नरंगनीहि मामहि श्रीफला ।
-
- श्री तत्वार्थसूत्र पूजा, भगवानदास, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ४११ । ३. मधुर मधुर पाके आम्र निम्बू नरंगी ।
- श्री श्रेयांसनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयश, पृष्ठ ८१ । ४. श्री वासुपूज्य जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ ८७ । ५. श्री फल केला बाम नरंगी, पक्के फल सब ताजा ।
-श्री चतुविशति तीर्थंकरसमुच्चयपूजा, हीराचंद, नित्यनियम विशेष पूजन संग्रह, पृष्ठ ७३ ।
६. श्री खण्डनिरिक्षेत्रपूजा, मुसालाल, जैनपूजापाठ संग्रह, १५६ । ७. क्रमुक दाख वदाम अनारला, नरंगनीब्रूहि नामह धोफला ।
- श्री तत्वार्थसूत्र पूजा, भगवानदास, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ४१९ । ८. बृहत् हिन्दी कोश, पृष्ठ ६७३ ।
६. पंडित शिखरचंद जैनशास्त्री ने सत्यार्थयज्ञ के पृष्ठ ४८ पर 'श्री' पद्मप्रभु जिनपूजा' कृति की टिप्पणी में बातशत्रु को नीबू की संज्ञा दी है ।
१०. मीच दंतबीज वातशत्र ल्याम के घने ।
--
- श्री पदमभुजिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थवज्ञ, पृष्ठ ४८ |
पृष्ठ २१ ।
११. श्री श्रेयांसनाथजिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थ
१२. चिरमट बाम पनस दाहिस से बाख कपित्थ बिचारें ।
- श्री धर्मनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्या, पृष्ठ १०१।
Page #335
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३४२ )
और भी नेमिनाथ जिनपूजा" नामक पूजाकृतियों में मोनू फल बालसभ, निम्बु, fuari और नीबू संताओं में उल्लिखित है। बसों शती के प्रभावि भगवानदास द्वारा रचित 'श्री तत्वार्थ सूत्रपूजा' नामक रचना में यह फल व्यबहुत है । "
पनस - यह काष्ठ-फोड़ जन्यफल है। इसे कटहल भी कहते हैं।' यहाँ यह उन्नीसवीं शती के मनरंगलाल विरचित 'श्री धर्मनाथजिन पूजा" और 'श्री व मानजिनपूजा" नामक पूजाओं में व्यवहृत है ।
पिस्ता - यह एक पौष्टिक फल है। इसका अपर नाम है निकोचक । उन्नीसवीं शती के मनरंगलाल विरचित 'श्री सुमतिनाथजिनपूजा", श्री सुपार्श्वनाथ जिन पूजा" नामक पूजाओं में निकोचक और पिस्ता संज्ञाओं के साथ व्यवहृत है। इस शती के अन्य कवि रामचंद्र प्रणीत 'श्री सुपार्श्वनाथ जिनपूजा' तथा 'श्री सम्मेदशिखरपूजा"" नामक कृतियों में पिस्ता के अभि
१. श्री नेमिनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ १४६ ।
२. क्रमुक दाख बदाम अनारला, नरंगीब्रूहि महि श्रीफला ।
- श्री तत्वार्थ सूत्र पूजा, भगवानदास, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ४११ ।
३. बृहत् हिन्दी कोश, पृष्ठ ७७१ ।
४. श्री धर्मनाथजिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयश, पृष्ठ १०९ ।
५. पनस दाडिम आम्र पके भये ।
- श्री व मानजिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयश पृष्ठ १६५ । ६. पंडित शिखर चंद्र जैन शास्त्री ने सत्याबंयज्ञ के पृष्ठ ४० पर श्री सुमतिनाथ जिनपूजा की टिप्पणी मे निकोचक को पिस्ता कहा है।
७. निकोचक सुगोस्तनीमराय पालिका बड़ी ।
- श्री सुमतिनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थमज्ञ, पृष्ठ ४० ।
८. पिस्ता सुबादाम नवीन हेरे ।
- श्री सुपाश्वनाथ जिनपूजा, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ ५६ ।
९. बादाम श्रीफल लोंग पिस्ता, मिष्ट बारिक ल्याव ही ।
- श्री सुपार्श्वनाथजिनपूजा, रामचंद्र, चतुविशति जिनपूजा, नेमीचंद बाकलीवाल, जैन ग्रंथ कार्यालय, मदनगंज, किशनगढ़, राजस्थान, ववस्त १६५१, पृष्ठ ६२ ।
१०. बादाम श्रीफल लोंग पिस्ता लेय शुद्ध सम्हाल हो ।
---
-श्री सम्मेदशिखरपूजा, रामचंद्र, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १२० ।
Page #336
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३४३ ) '
दर्शन होते हैं। बसों शती के मुसालाल' और पूरणमल ने पिस्ता फल का प्रयोग बखूबी किया है।
फूट -- एक फल विशेष जो खरीफ की फसल में उत्पन्न होता है । इसे चिरगट भी कहते हैं।' पुजाकाव्य में उन्नीसवीं शती के कवि मनरंगलाल और बस्तावररत्न" ने चिरभट संज्ञा के साथ इस फल का व्यवहार किया है।
बादाम - यह शुष्क पौष्टिक फल है । महारहवीं शती के वाताव विरचित 'श्री सरस्वतीपूजा' रचना में बादाम प्रयुक्त है।" उन्नीसवीं शती के मनरंगलाल रचित 'श्री सुपार्श्वनाथजिन पूजा", 'श्री मल्लिनाथजिनपूजा " तथा रामचंद्र प्रणीत 'श्री सुमतिनाथजिनपूजा", श्री पद्मप्रभु जिनपूजा" नामक पूजामों में बादाम व्यवहृत है।
१. श्रीफल पिस्ता सु बदाम, आम नारंगिधखं ।
- श्री बण्डगिरिक्षेत्र पूजा, मुन्नालाल, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १५६ । २. श्री चांदन गांव महावीरस्वामीपूजा, पूरणमल, जैनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ १६० ।
३. पंडित शिखरचन्द्र जैन शास्त्री ने सत्यार्थयज्ञ के पृष्ठ १०६ पर “श्री धर्मनाथ जिनपूजा' कृति में चिरभट फूट के अर्थ में उल्लेख किया है । ४. श्री धर्मनाथजिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ १०९ । ५. एला सुकेला आज वाडिम कॅथ चिरभट लीजिये ।
- श्री ऋषभनाथजिनपूजा, बख्तावररत्न, चतुर्विंशतिजिनपूजा, वीर पुस्तक भंडार, मनिहारों का रास्ता, जयपुर, पौष सं० २०१८, पृष्ठ १० ।
६. बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी ल्यावत हैं ।
- श्री सरस्वतीपूजा, यानतराय, राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३७६ ।
७. पिस्ता सु बादाम नवीन हेरे, थारा मर्राक कलधौत केरे ।
-
- श्री सुपार्श्वनाथजिनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयश, पृष्ठ ४६ ।
८. श्री मल्लिनाथजनपूजा, मनरंगलाल, सत्यार्थयज्ञ, पृष्ठ १३६ । ९. बादाम श्रीफल चारु पुगी, मधुर मनहर ल्याये ।
- श्री सुमतिनाब जिनपूजा, रामचंद्र, चतुविशति जिनपूजा, नेमीचंद वाकलीवाल, पृष्ठ ४६
१०. श्री पद्मप्रभुजिनपूजा, रामचंद्र, चतुर्विगतिजिनपूजा, नेमीचंद बाकलीवाल, पृष्ठ १५ ।
Page #337
--------------------------------------------------------------------------
________________
( w)' बीसीसीमावि सेवक', पुमाल गौर पर भावानफल का प्रयोग मन्याम के अन्तर्गत किया है।
• लॉप-एक फल विशेष । पूजाकाव्य में गवारीं शती के कवि चामतराप प्रणीत भी सरलीजा", मी रत्नभयपूजा' मानक पूजामों में यह फल, व्यवहत है । उनीसवीं शती के पूजाकवि पमा विरचित 'श्री पदमप्र जिनपूणा", बी सुपावनाववियूला", श्री शीतलनानिनपूजा और श्री सम्मेदशिवरपूजा नामकातिरों में लॉग फल प्रष्टव्य है।
बीसी माती के हीराद", पूरणमल" और रसुत मे लोग का व्यवहार मर्य-सामग्री के लिए किया है। १. श्रीफल और बादाम सुपारी,
केला बादि छहारा ल्याय।
-श्री मादिनाथ जिनपूजा, सेवक, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६६ । २. श्रीफल पिस्ता सुबदाम, बाम नारंगि घई।।
-श्रीणगिरिक्षेत्रपूजा, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १५६ । ३. श्री पांदन गांव महावीरस्वामी पूजा, पूरणमल, जनपूजापाठ संग्रह १६० । ४. श्री सरस्वतीपूजा, चामतराय, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३७६ । ५. फल शोभा अधिकार, लोंग छुहारे जायफल ।
-श्री रत्नत्रयपूजा, जनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ७० । ६. श्रीफन लोंग बदाम सुपारी, एला बादि मंगाबें ।
-श्री पद्मप्रभुजिनपूजा, रामचंद्र, पविशति जिनपूजा, नेमीचंद वाकली.
बाल, पृष्ठ ५५। ७. श्री सुपाश्र्वनाथविनपूजा, रामचंद्र, चतुरितिजिनपूजा, नेमीचंद ' वाकलीवाल, पृष्ठ ६२। ८. फल लेहि उत्तम मिष्ट मोहम, सोंग श्रीफल आदि ही।
-श्री शीतलनाथ जिनपूजा, रामचंद्र, चतुर्विशति जिमपूबा, नेमीचंद ' बाकलीवाल, पृष्ठ ६८। ६. बादाम श्रीफल लोग पिस्ता मेय सुख सम्हालही।
-श्री सम्मेदशिवरपूषा, रामचंद्र, जनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १२० । १०. लोंब छिवारा भेंट चढ़ाऊँ, मोक्ष मिलन के काणा।
-श्री चतुर्विशति तीर्थकर समुच्चय पूजा, हीराचंद, नित्य नियम विशेष
पूजन संग्रह, पृष्ठ ७१। ११. श्री चांदन गांव महावीर स्वामी पूजा, पूरणमल, जनपूधापासंग्रह, पृष्ठ
१६०। १२. लोब मावची श्रीकलसार, पूजों श्री मुनि सुखदातार। .
-श्री विष्णकुमार महामुनि पूजा, रघुरत, बनपूजापाठसंग्रह, पृष्ठ १७४ ।
Page #338
--------------------------------------------------------------------------
________________
• सुपारी-एक भारतीय फल जिसे पुगी, मी कहते है। काम्य में अठारहवीं पाती के बानतराय प्रणीत 'मी सरस्वतीपूजा' मैं यह पाल सुपारी संवा में वृष्टिगत है।' उन्नीसवीं शती – मनरंगलाल विरचित 'मी मेमिनायजिनपूजा', 'श्री हवादेवपूजा" नामक पूजामों में धुपी, अनुक संत्राओं में यह प्रयुक्त है । इस शतो के अन्य कवि रामचंद्र रचित 'श्री सुमतिनावजिनपूजा, श्री पदमप्रजिनपूना में पुंगी, सुपारी संसा में इस फल का व्यवहार हुआ है।
बीसवीं शती के कवि सेवक और भगवानगस ने सुपारी, अनुक संगालों के साथ इस फल का प्रयोग मय-सामग्री के लिए किया है। . , उपयंकित विदेश्य काव्य में इस्कीस फलों का प्रयोग बम-सामग्री के लिए हुआ है। हारा, मायफल, नारियल, बाथम, लोग, सुपारी नामक १. हिन्दी का बारहमासा साहित्य : उसका इतिहाम तथा अध्ययन, डॉ. महेन्द्र
सागर प्रचंडिया, चतुर्थ अध्याय, पृष्ठ २६६ । २. बृहत् हिन्दी कोस, पृष्ठ ३२४ । ३. बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफलमारी ल्यावत है।
-श्री सरस्वती पूजा, धानतराय, राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ३७६ । ४. श्री नेमिनापजिनपूजा, मनरगलाल, सत्यार्पयश, पृष्ठ १५५ । ५. क्रमुक श्रीफल सुंदर लाय सो।
-श्री ऋषभनाप बिनपूजा, मनरंगलाल, पृष्ठ १२ । ६. बादाम श्रीफल चारु पुगी, मधुर मनहर ल्याये।
-श्री सुमतिनाथजिनपूजा, रामचंद्र, चतुर्विशति जिनपूजा, नेमीचंद बाकलीवाल, पृष्ठ ४८। ७. श्रीफल लोंग बावाम सुपारी, एला बादि मंगायें।
-श्री पद्मप्रभूजिनपूजा, रामचंद्र, चतुर्विशति जिनपूजा, नेमीचंद
बाकलीवाल, पृष्ठ ५५। ८. श्रीफल और बादाम सुपारी,
केला आदि छुहारा ल्याय ।
-श्री आदिनानिपूजा, सेवक, जनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६६ । ९. क्रमुक दाव बदाम अनारला।
नरंगनी बूहिं बामहि श्रीफला ॥ -बी तत्वासूनपूजा, भगवानदास, जनपूजापाठ ग्रह पृष्ठ ४११ ।
Page #339
--------------------------------------------------------------------------
________________
फलमानी सती में तालीसवीं सती में सनी का किस
बोलनी शती में कुल तेरह कनों का प्रयोग हमा है जिनका नकारारिका निम्न प्रकार है-अंगूर, अनार, माम, नापी, केला, छहारा, नारियन नारंगी, नौजू, पिस्ता, बाराम, मान, सुपारी।
मठारहनी से बीसौं शती तक निरन्तर पाहत होने वाले फलों को संख्या पांच है, यथा-फुहारा, नारियल, बाबाम, लोग तथा सुपारी।
इन सभी फलों के व्यवहार से यह सहज में कहा जा सकता है कि उन्नीसवीं सती के कवियों के चिन्तन का क्षेत्र व्यापक रहा है। उन्होंने तत्कालीन प्रकृति का पूक्म निरीक्षण कर अपनी भवस्यात्मक अभियंबना में तस्पीन प्रचलित फलों को गृहीत किया है।
-
-
-
-
Page #340
--------------------------------------------------------------------------
________________
1
पशु-वर्णन
पशु शब्द को वैज्ञानिक नहीं माना जा सकता है। भावारत्न में बनाव ने इसका लक्षण इस प्रकार लिखा है- 'लोभ बल्लांगुलवत्वं पशुत्वं' लोम और लांगुल विशिष्ट जन्तु को पशु कहते हैं । स्थूल रूप से समस्त प्राणियों या देहधारियों को दो भागों में बाँटा जा सकता -अपक्ष और दूसरा सपक्ष | अपक्ष सभी पशु के अन्तर्गत दिये गये हैं और सपक्ष में पक्षी । इस दृष्टि से मेढक, मछली और झीगुर भी पशुओंों में रखे गए हैं। प्रकृति में मानव को अपने अलावा अन्य प्राणियों से भी परिचित होना पड़ता है । पूजा - साहित्य में व्यवहृत पशुओं की स्थिति पर यहाँ विचार करना हमारा मूलोद्देश्य है
उरग - यह विवला जीव है। इसके नेत्र और कान एक ही क्षेत्र प्रदेश में होते हैं अस्तु इसे 'शुभवा' भी कहा जाता है। इस जीव का प्रयोग हिम्दी साहित्य में निम्न रूपों में मिलता है :
१. नाग कथा के रूप में
२. आलंकारिक प्रयोग के रूप में
३. बल स्वभाव की अभिव्यक्ति के लिए
४. पूर्वभव के रूप में
५. हिंसात्मक वृति की अभिव्यक्ति के लिए
६. प्रकृति प्रसंग में
जैन- हिन्दी- पूजाकाव्य में उरण का प्रयोग अठारहवीं शती में डरन', नाग
१. हिन्दी का बारहमासा साहित्य : उसका इतिहास तथा अध्ययन, डॉ० महेन्द्रसागर प्रचण्डिया, पृष्ठ १६४ ।
२. अति सबल मद कंदर्प जाको,
क्षुधा - उरम अमान है ।
-श्री देवशास्त्र गुरुपूजा, धानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १५ । काम-नाम विषधाम,
नाश को गरुड़ कहे हो ।
-श्री बीस तीर्थकर पूजा, धानवराय, जेनपूजापाठ संग्रह पृष्ठ ३४ ।
Page #341
--------------------------------------------------------------------------
________________
और भग' बालंकारिक एवं प्रति प्रसंग में तथा उनीसवीं में नाग', उरण, धनिय, पद्मावती प्राकृतिक-प्रसंग में सहायक बनकर और बीसवीं सती में विवधर, नाप नामक संभावों के साप प्राकृतिक एवं मालंकारिक म में व्यवहत है।
ऊंट-यह मारवाही पर है। मरुभूमि में यात्रा के लिए प्रायः उपयोपी पर है। इसकी गर्दन अपेक्षाकृत अन्य पशुओं से लम्बी मोर बड़ी होती है। हिन्दी के बारहमासा साहित्य में ट का वर्णन मुहावरा के प्रयोग में वर्णित है।
१. भद्रबाह पनि के करता,
श्री मुजंग भुजंगम भरता।
- श्री बीस तीपंकर पूजा, बानतराय, जनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १५ । २. भयो तब कोप कहे कित पीर,
जले तब नाग दिखाय सजोष । -श्री पारवनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, राजेश नित्यपूजा पाठ संग्रह,
पृष्ठ १२२ । ३. जय अजित गये शिव हनि कर्म,
जय पावं करो जुग उरग समें ।
-~श्री सम्मेदशिखरपूजा, रामचंद्र, जनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १३६ । ४. तबै पद्मावती कंथ धनिंद,
चले जुग बाय तहां जिनचंद । -श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररत्न, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १२६ ।
६. विषधर बम्बी करि परनतल ऊपर बेल चढ़ी अनिवार।
युगजंगा कटि का बेड़ि कर पहुंची बक्षस्थल परसार॥ -श्री बाहुबलीस्वामी पूजा, जिनेश्वरदास, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ
१७२। ७. रे ज्यों नाग गएको देखि।
मजे गज जुत्य जुसिंहहि पेखि ॥
-श्री सम्मेदाचलपूजा, जवाहरलाल, बृहजिनवाणी संग्रह, पृष्ठ ४८२ । ८. बृहद हिन्दी कोश, पृष्ठ २१५) ६. हिन्दी का बारहमासा साहित्य: उसका इतिहास तथा बनायम, ग. महेन्द्र
सापर प्रचंरिया, पृष्ठ २०७१
Page #342
--------------------------------------------------------------------------
________________
बीसवी सती के न-हिन्दी-पूजा-काव्य में ऊँट का प्रयोग मारवाही रल्लिखित है।
गज-यह भारतीय पशु है । यह पोत और काले रंग का पाया माता है। इसके कान मऔर ही होते हैं। हिन्दी काव्य में इस पर का प्रयोग निम्न रूपों में उपलब्ध है
१. संवेदनशील प्राणी के रूप में २. मतवालेपन के लिए ३. पूर्वभव के लिए ४. मालंकारिक रूप में ५. प्रकृति वर्णन के रूप में ६. स्वप्न संवर्म में ७. पुत्रजन्म प्रतीक अर्ष में ८. प्रमत्त बाल के लिए
जन-हिन्वी पूजा-काव्य में अठारहवीं शती से इस पर का प्रयोग द्रष्टव्य है । कविवर बानतराय प्रमीत 'श्री बृहत् सिद्ध चक पूजा भाषा में पज का उल्लेख 'सवारी के लिए मिलता है।
उन्नीसवीं शती में इस पशु का व्यवहार कविवर धावन, मनरंगलाल,
१. प्रभु में ऊंट बदल मेंसा भयो,
ज्या पे लदियो भार अपार हो । -श्री वादिनाथ जिनपूजा, सेवक, जनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १ । पुन्नीगज पर चढ़ चामन्ता, पापी नंगे पग धावन्ता। पुन्नी के शिर छत्र फिरावे, पापी शोसले बाये। -श्री बाब सिरकमाभावा, थानतराय, गपूजापाठ संसह, पृष्ठ
Page #343
--------------------------------------------------------------------------
________________
। ३५. )
रामचा और बाताबररत्न द्वारा मशः प', ऐरावत', हस्ती' मोर पाराज नामक संकाओं के साथ प्राकृतिक वर्णन एवं सवारी के लिए हमा है।
बोसयों शती में पूजा कवयिता मुन्नालाल और जवाहरलाल द्वारा हावी तथा गन संसानों के साथ क्रमशः 'भौषमगिरिक्षेत्रपूजा एवं श्री सम्मेवाचल पूर्णा नामक कृतियों में हाथी गुफा तथा पुर-प्रसंग में प्रयोग सफलतापूर्वक हुआ है।
गर्दभ-मम अपनी सिधाई के लिए प्रसिख है। लोकजीवन में इसके स्वर-भंग की प्रसिद्धि कम महत्वपूर्ण नहीं है। जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में गर्दन का म्यवहार अठारहवीं शती के उत्कृष्ट पूजा पिता बानतराय द्वारा प्रणीत
१. गजपुरे गज साजि सवें त,
गिरि जखें इतमें जजि हों अवें। --श्री शांतिनापजिनपूजा, वृदावन, राजेश नित्यपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ
२. ऐरावत सम अति क्रोधवान,
सनमुख आवत दंती महान । -~-श्री अनंतनाथ जिनपूजा, मनरंगलाल, ज्ञानपीठ पूजांगलि, पृष्ठ
३५७ । ३. हस्ती घोटक बैल,
महिष असवारी धायो।
-श्री चन्द्रप्रभु पूजा, रामचन्द्र, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ६५ । ४. चढ़े गजराज कुमारन संग ।
सुदेवत गंगतनी सुतरंग ।। -श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा, बख्तावररल, ज्ञानपीठ पूजिलि, पृष्ठ
३७५ । ५. तिनमें इक हाथी गुफा जान,
प्राचीन लेख शोभे महान् ।
-श्री बण्डगिरिक्षेत्रपूजा, मुन्नालाल, जनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १५७ । ६. भजे मज जुत्व जू सिंहहि पेखि।
परे ज्यों नाग गरुड़ को देखि॥ -श्री सम्मेदाचल पूजा, जवाहरलाल, बहजिनमानी संग्रह, पृष्ठ ४५२ ।
Page #344
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १५१ )
'श्री बृहत् सा माया' नामक रचना में वर्डस्वर के लिए परि सति है ।"
गाय - यह उपयोगी तथा सामाजिक पशु-धान है। यह अपनी उपयोगिता के लिए समास है। हिन्दी बाहमय में गाय का प्रयोग मालंकारिक तथा दुग्ध प्रदान करने वाले पशुओं में उल्लेखनीय है ।
जैन - हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती से इस पशु का प्रयोग मिलता है । इस शती के पूजा कवयिता मनरंगलाल द्वारा प्रणीत 'श्री नेमिनाथ जिनपूजा' नामक कृति में गाय के घृत के लिए इसका प्रयोग हुआ है ।"
deaf शती के gorefa पूरणमल ने गाय का प्रयोग कामधेनु संज्ञा के रूप में 'श्री चांदनपुर गाँव महावीर स्वामीपूजा' नामक पूजा रचना में सर्व प्रकार की एवजातृप्ति करने के साधन के लिए किया है ।"
घोड़ा - वह शक्ति-बोधक पशु है। इस पशु के अन्य पशुओं को भौति सींग नहीं होते । यह काला, लाल, सफेद रंगों में प्राय: पाया जाता है । हिन्दी काव्य में बाल, शक्ति तथा धन के लिए 'घोड़ा' पशु का प्रयोग परिलक्षित है। जंग-हिन्दी- पूजा- काव्य में उम्मीसवीं शती के इस पशु का उल्लेख मिलता है। इस शती के पूजाकवि रामचन्द्र प्रणीत 'श्री चन्द्रप्रभु पूजा' नामक पूजाकृति में घोटक संज्ञा का प्रयोग सवारी के लिए हुआ है ।" १. सुस्वर उदय कोकिलावानी,
स्वर गर्दभ-ध्वनि समजानी ।
—श्री बृहद सिद्धचक्र पूजाभाषा, धानतराय, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ २४२ ।
२. पकान्नपूरित गाय घृत सों, मधुर मेवा वासितं ।
-श्री नेमिनाथ जिमपूजा, मनरंगलाल, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३६६ ।
३. जहाँ कामधेनु नित नाय दुग्ध जु बरसावे ।
तुम चरणनि वरलन होत माकुलता जाये ||
- श्री चांदन गांद महावीर स्वामी पूजा, पूरणमल, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १६१ ।
४. हस्ती चोटक बेल,
महिद सवारी धायो ।
-श्री
-
रामचन्द्र, राजेश नित्य पूजापाठ संग्रह पृष्ठ १५ ।
Page #345
--------------------------------------------------------------------------
________________
करा-बहीन परमुलापेकी पर है। जैन-हन्दीमामान्य में रा का प्रयोग बीसवीं शतो के पूजाकार सेवक प्रणीत 'मी बादिना बियूबा' नम्मा पूजाकाम्य में बीनता के लिए हुमा है। यह बनाके कम में गल्लिखित है।'
बछड़ा-'गो-वत्स' वस्तुतः 'ना' कहलाता है। हिन्दी काव्य में इसका भयोष निम्न अभिप्राय में उपलब्ध है
(२) उबकारने के लिए स्वप्न संदर्भ में (२) लता के लिए (३) कथा प्रसंग में (४) भार होने के अर्थ में (५) प्रतीकात्मक अर्ष में (६) प्रकृति वर्णन के रूप में।
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में बीसवीं शती के पूजा कवयिता सेवक विरचित 'भो आदिनाथजिनपूजा' नामक पूजा रचना में 'बछडा पस' मनाथ पस के स्प में प्रयुक्त है।
मेल-यह कृषि प्रधान भारतदेश का उपयोगी पशु है। इसी के बलबूते पर भारतीय कृषि-कर्म निर्भर करता है। पूजाकाव्य में यह बोमा मादने के उहश्य से प्रयुक्त है। उन्नीसवीं शती के रामचन्द्र प्रणीत 'धी चखना पका' नामक कृति में बैल का इसी रूप में प्रयोग परिलक्षित है।। . .
महिष-बोम-वाहन के रूप में यह पशु अपना महत्व पूर्ण स्थान रखता है। जन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के पूजा कपिलवन विचित १. हिरणा बकरा बाछड़ा,
पशुदीन गरीब अनाथ हो। प्रभु में ऊँट बलद भंसा भयो, ज्या पे लदियो भार अपार हो ।
~श्री आदिनाजिनपूजा, सेवक, जनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १८ । २. श्री आदिनाथ जिनपूजा, सेवक, पन पूजापाठ संग्रह, पुष १८ ३. कोज पुण्ण बसाय, बाल तपते सुर बायो। हस्ती घोटक बैल, महिष असवारी धायो । -श्री चन्द्रप्रभूपूजा, रामचन्द्र, राजेश नित्यपूजापाठ -पृष्ठ २५ ।
Page #346
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३५३ ) मशः श्री वासुपूज्य'मिपूजा' तथाश्री चन्द्रप्रभाजनपूजा' नामक मान्यों में यह पसुतीर्थकर पगचिह्न के लिए तथा बोझ-वाहक के लिए प्रयुक्त है।
मुंग-यह बनवारी पशु है। भृगविहीन और गधी के रूप में यह की भागों में विभक्त किया गया है। इसकी आँखें सुग्घर होती हैं। इसकी त्वचा से बैठने का असिन बनता है।
हिन्दी वाडमय में इसका प्रयोग निम्न रूपों में हमा.है, यथा-- १. प्रकृति वर्णन के लिए २. आलंकारिक प्रयोग के लिए मुख्यतः नयन के उपमान के लिए ३. वस्तुवर्णन के लिए-मगतृष्णा, मृगभव, ममछाला माथि ४. विरहिणी को दशा को उद्दीप्त करने के लिए ५. तीयंकर चिन्ह रूप में ६. पूर्वभव के रूप में ७. सहज स्वभाव के रूप में ८. दोनता के लिए
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में बीसवीं शती के उत्कृष्ट पूजाकार युगल किशोर जैन 'युगल' रचित 'श्री देवशास्त्र गुरुपूजा' नामक पूजारचना के जयमाला प्रसंग में मग का व्यवहार तृष्णा उपमान के लिए किया है।'
इस शती के अन्य पूजाकवि सेवक द्वारा प्रणीत 'श्री आविनाय जिमपुजा' नाम पूजाकृति में हिरण संज्ञा के साथ यह पशु दीनता प्रदर्शन के लिए
१. महिष-चिह्न पद लसे मनोहर,
लाल बरन-तन समता-वाय। --श्री वासुपूज्य जिनपूजा, वृन्दावन, ज्ञानपीठ पूजालि, पृष्ठ ३४१ । कोउ पुण्य बसाय, बाल तपते सुरधायो। हस्ती घोटक बैल, महिष असवारी धायो ।
-श्रीचन्द्रप्रभु पूजा, रामचन्द्र, राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ ६५ ३. मृग सम मृगतृष्णा के पीछे, मुझको न मिली सुख की रेखा ।
श्रीदेवशास्त्रगुरु पूजा, युगल किशोर 'युगल'- जैन पूजापाठ संग्रह पृष्ठ ३० । ४. हिरणा बकरा बाछड़ा पशुवीन गरीब असाप' हो।
प्रभु में ऊंट बलद भैसा भयो, ज्यां पे लेदियो भारपार हो। -श्री आदिनाथ जिन पूजा, सेवक जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ
Page #347
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २४४ )
सिंह--यह शक्ति और साहस शौर्य का पशु है। अपनी वीरता और साहस के कारण यह 'वन का राजा' कहलाता है। इसकी अनेक उपजातियाँ होती है । केहरि सिंह, चीता, व्याघ्र परन्तु यहाँ 'सिंह' कोटि में हो वर्णन किया गया है।
हिन्दी साहित्य में इस पशु का निम्न प्रकार से प्रयोग हुआ है
(१) प्रकृति वर्णन के रूप में
(२) तीर्थकर चिन्ह के रूप में
(३) आलंकारिक रूप में
(४) पूर्वभव के रूप में (५) स्वप्न सम्बर्भ में
(६) प्रतीक रूप में
(७) हिसक रूप में
जैन - हिन्दी- पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के पूजाकवयिता वृम्बाबन ने 'हरि' संज्ञा के साथ 'श्रीमहावीरस्वामी पूजा' नामक रचना में चिह्न के लिए प्रयोग किया है।'
बसव शती के पूजा रचयिता पूरणमल और जवाहरलाल ने इस जीव का उल्लेख क्रमशः शेर और सिंह नामक संज्ञाओं के साथ 'श्री चांदनगाँव महावीर स्वामी पूजा" एवं "श्री सम्मेाचलपूजा" नामक रचनाओं में क्रमशः तीर्थकर पग-चिन्ह तथा हाथी- मयंक के रूप में किया है ।
१. श्री मसवीर हरं भवपीर, मरं सुखसीर अनाकुलताई ।
केहरि अंक मरीकरदंक, नये हरिपंकति मौलिस आई ॥
-
- श्री महावीर स्वामी पूजा, बृन्दावन - राजेश नित्य पूजा पाठ संग्रह, पृष्ठ १३२ ।
२. यहाँ आवक जन घडु गये जाय,
किये दर्शन करि मन बच काय ।
है चिह्न शेर का ठीक जान,
निश्चय हैं ये श्रीवर्द्धमान ||
- श्री दनगांव महावीर स्वामीपूजा, पूरणमल, जैनपूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १६३ ।
३. भजे बज जुत्य जु सिंहहि पेवि ।
हरे ज्यों नाथ गरुड़ को देखि ।
-- श्री सम्मेदाजलपूजा, जवाहरलाल, बृहजिनवाणी संग्रह, पृष्ठ ४६२ ।
Page #348
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपकित विवेचन के आधार पर यह सहन में कहा जा सकता है कि पूबाकाव्य की अभिव्यंजना में पशुओं की भूमिका महे महत्व की है। बारह पशुओं का विविध प्रसंगों में नाना अभिप्रायों के लिए प्रयोग उल्लेखनीय है। इन पशुओं के प्रयोग से पूना काम्याभिव्यंजना में अर्थ प्रवाह के अतिरिक्त पशु-विज्ञान का सम्यक् मघाटन हुमा है।
Page #349
--------------------------------------------------------------------------
________________
पक्षी - वर्णन
पक्षी हमेशा से मानव हृदय में भावों का उम्र के करते आये हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की शब्दावलि - 'पक्षी हमारे विनोद का साथी था, रहस्यालाप का दूत था, भविष्य के शुभाशुभ का द्रष्टा था, वियोग का सहारा था, संयोग का योजक था, युद्ध का सन्देश वाहक था और जीवन का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं था जहाँ वह मनुष्य का साथ न देता हो ।" जैन-हिन्दीपूजा काव्य में मानवीय भावों की अभिव्यक्ति के लिए पक्षियों का उपयोग हुआ है। विवेच्य काव्य में प्रयुक्त पक्षियों का अध्ययन कर उनका मूल्यांकन करना यहाँ हमें अभीष्ट रहा है, यथा
काक- भारतीय पक्षी है- काक । यह कोयल की भांति श्याम वर्ण का होता है। धाढपक्ष में इस पक्षी का सामाजिक मूल्य बढ़ जाता है। भारतीय शकुन - परम्परा में इसके प्रातः बोलने से किसी आगन्तुक - आगमन की कल्पना की जाती है। जैन-जैनेतर साहित्य में काक पक्षी का प्रयोग विभिन्न रूप से निम्नांकित लेखनी में इष्टव्य है
१. अशोभनीय वाणी के लिए
२. विकृत तत्वों (अपान) के भक्षक रूप में
३. आलंकारिक प्रयोग के रूप में
४. अशुभ जीव के रूप में
५. उचिष्ठ ( जूठन पर रुचि रखने वाला जीव ६. नरक-वर्णन प्रसंग में
जैन- हिन्दी-पूजा-काव्य में इस पक्षी के अभिवर्शन अठारहवीं शती के उत्कृष्ट पूजाकार यानतराय द्वारा प्रणीत 'श्री वशलक्षण धर्मपूजा' काव्य में होते हैं । कवि ने सांसारिक प्राणी की काम-वासना जन्य मनोवृत्ति का चित्रण करते हुए स्पष्ट किया है कि जिस प्रकार अशोच तन में काम के वशीभूत
१. भारत के पक्षी, राजेश्वर प्रसाद नारायणसिंह, पब्लिकेशन्स डिवीजन, सूचना और प्रसारण मन्त्रालय, दिल्ली, सन् १९५८, पृष्ठ ३० ।
Page #350
--------------------------------------------------------------------------
________________
प्रामी रति-कीड़ा किया करते हैं, उसी काम
को बोलाभरकर काक सुखो होता है।'
कोकिला-पह. पक्षी बसन्तऋतु में,जान-मंजरियों में प्रसन्न पंचम स्वर में गाता है। इसकी स्वर-साधा और कलित काकसी प्रसिद..। साहित्य में इसका स्थान अनुग्ण है। कोकिला का व्यवहार हिन्दी वाङमय में सुन्दर स्वर के लिए तथा जिनवाणी एवं मिथ्यावाणी के परस्पर तुलनात्मक सम्वों में परिलक्षित है।
जेन-हिन्दी पूजा-काव्य में कोकिला का उल्लेख अठारहवीं शती में मिलता है। इस काल के पूजा रचयिता द्यानतराय ने 'श्री बहतसिवचक पूजामाया' नामक कृति में इस पक्षी का प्रयोग परम्परानुमोदित सुन्दर स्वर के लिए किया है।'
गरड़-गवड चील की तरह एक पक्षी है। यह नाग नामक कीट का घोर शायु होता है। बारहमासा साहित्य में गड़ प्रियतम को उपमान के लिए लाया गया है क्योंकि विरहिणी नायिका को माग सम्बो विस रहा है। गए रूपी पति द्वारा ही वह निर्भय हो पाती है।'
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में अठारहवीं शती • से गहा पक्षी के अमितान होते हैं। इस शती के कवयिता व्यानतख्य द्वारा प्रमीत 'भीषशास्त्र गुरुपूजा' और 'श्री बोसतीचंकर पूजा" नामक-पूजा, रचनाओं में गव का १. कूरे तिया के अशुधि तन मे,
कामरोगी रति करे। बहु मृतक सड़हिं मसान माही, काक ज्यों पोचे भरें।
-श्री दशलकामापूजा, दयानतराय, पूजापाठ संग्रह पृष्ठ ६७ । २. सुस्वर उदय कोकिला बानी,
सुस्वर गर्द-बनि सम पानी।
-श्रीबृहद सिद्धवक्र पूजाभाषा, दयाननसय जैनपूजापाठ-संग्रह, पृ. २४२ ३. हिन्दी का बारहमासा साहित्य : उसका इतिहास तथा अध्ययन, ग. महेन्द्र
सागर प्रचंडिया, पृष्ठ २४५ । ४. अति सबल मद कंद जाको, क्षुधा-उरग अमान है।
दुस्सह भयानक तासु नाशन को सुगन, समान है। -श्रीदेवशास्त्र गुरुपूजा, दयानतराय, जैनपूजापाठ संग्रहा..पुष्ठ १६ । काम-नाम विषधाम, नाश को गल कहेोत्र - श्रीबीसतीर्थकर भूजा, पालतराय, पूजापाठ संग्रह, पुरु.३४ ।
Page #351
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३५८ )
व्यवहार क्रमशः सुधारूपी उरम एवं कामरूपी नाग को समाप्त करने के लिए हुआ है।
atna शती में जवाहरलाल द्वारा गरुड़ पक्षी का प्रयोग सादृश्य मूलक पद्धति में हुआ है। जिस प्रकार सिंह को देखकर हाथी भयभीत होता है उसी प्रकार गर पक्षी को देखकर नाग भयभीत हुआ करता है।'
चकोर - यह आकार-प्रकार में बहुत कुछ तीतर नामक पक्षी से समता रखता है । इसका स्वभाव विरोधाभासी है। एक ओर यह शीतल चन्द्रमूयष का प्रेमी है तो दूसरी ओर जलते हुए अंगारे का भी इसी अनोखी प्रवृत्ति के कारण साहित्य में इस पक्षी ने प्रमुख स्थान प्राप्त किया है। लोक में यात्रा के समय चकोर का बोलना प्रायः शुभ माना गया है।
1
जैन-अर्जन साहित्य में चकोर पक्षी का व्यवहार निम्न रूप में द्रष्टव्य है
१. आलंकारिक प्रयोग में
२. पुनर्जन्म विश्लेषण सन्दर्भ में
३. अनन्य प्रेमी के रूप में
४. प्रसन्न स्वभाव के प्रसंग में
५. सोथंकर के चिन्ह रूप में
जैन- हिन्दी- पूजा-काव्य में चकोर पक्षी उम्नीसवीं शती से प्रयुक्त है। इस शती के पूजा प्रणेता वृन्दाबन ने चित के लिए चकोर का व्यवहार 'श्री चन्द्रप्रभजिनपूजा' नामक रचना में किया है ।"
areat शती के उत्कृष्ट पूजा रचयिता मिनेश्वरदास बिरचित 'श्री नेमिनाथ जिनपूजा' नामक पूजाकृति में चकोर पक्षी व्यवहुत है ।"
चातक - यह एक भारतीय पक्षी है । इसके सम्बन्ध में प्रसिद्धि है कि १. डरे ज्यों नाग गरुड़ को देखि ।
मजेगज जुस्थ जु सिंहहि पेखि ||
श्री सम्मेदाचलपूजा, जवाहरलाल, बृह जिनवाणी संग्रह, पृष्ठ ४८२ । २. जिन चन्द- चरन घर च्यो चहत,
चितकोर नचि रचि रुचि ।
श्री चन्द्रमजिनपूजा, बन्दावन, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३३३ । ३. अविजन सरस चकोर चन्द्रमा, सुख सागर भरपूर ।
स्वहित निशि दी बढ़ावे जी, जिनके गुण गावँ सुर नरशेषजी । -श्रीनेमिनाथजिनपूजा, जिनेश्वरदास, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ ११३ ।
Bo
Page #352
--------------------------------------------------------------------------
________________
यह माय स्वाति नाम का बल पाता है। यह गौर और सौर को गमअलग करने में भी प्रवीण होता है।
हिन्दी बार मय में चातक पक्षी का व्यवहार निम्न सदनों में हुआ है१. पुनर्षम्म विश्लेषण सम्बर्म में २. आलंकारिक प्रयोग में ३. प्रति वर्णन के लिए
अन-हिन्दी-पूजा-काव्य में उन्नीसवीं शती के पूजा-कवि मनरंगलाल विरचित 'मी नेमिनाथ जिनपूजा' नामक रचना में चित के लिए पातक का प्रयोग द्रष्टव्य है।'
चमर-यदि कोट परक पक्षी है। इसका वर्ग काला होता है। इसकी गुनगुनाहट प्रसिद्ध है। प्रमर का प्रयोग निम्न रूपों में साहित्य में हुमा है
१. प्रेम, भक्त के रूप में २. पुणामही के रूप में ३. बालकारिक रूप में ४. प्रकृतिवर्णन में विवेव्यकाष्य में यह पक्षी मगरहवीं शती से प्रयुक्त है। कविवर यानतराय ने 'श्री देवशास्त्रपुर पूजा' नामक कृति में इस पक्षी का सर्वप्रथम उल्लेख मधुपान के लिए किया है।
उन्नीसवीं शती के पूजाकार बन्दावन विरचित 'भी चन्द्रप्रभजिनपूजा' नामक रखना में यह पक्षी मलि संज्ञा के साथ गन्धयान के लिए प्रयुक्त है।' १. श्री नेमिचन्द जिनेन्द्र के चरणारविन्द निहारिके।
करि चित चातक चतुर चर्चित जजत हूँ हित धारिके ।
-श्री नेमिनाथजिनपूजा, मनरंगलाम, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३६५ । २. विविध भांति परिमल सुमन,
भ्रमर वास अधीन । जासों पूजों परमपद, देवशास्त्र मुख्तीन ॥
-श्रीदेवशास्त्र गुरुभूबा, द्यानतराम, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १॥ ३. सखम के सुमन सुरंग,
बंधित अलि बाये। -मोपलप्रमजिनपूजा, वृन्दावन, ममयीक पूर्वावधि, पुष ३३५॥
Page #353
--------------------------------------------------------------------------
________________
( १६.)
इसकी मन्या पूजामयिका मतरंगलाल एवं मामला आम समर-पये, का प्रयोग शमशः भौरा तथा मलि संज्ञाओं में शुमार तमासन के लिए
बीसौं शती में भ्रमरपक्षी का उल्लेख मधुकर नामक संशा के साथ कविवर जवाहरलाल विरचित 'श्री अथ समुन्यपूजा' नामक पूजाति में हुआ है।
हस-बड़ी-बड़ी झीलों में रहने वाला एक सफेव जलपक्षी है। कवि समय के अनुसार यह दूध से पानी अलग कर देता है। अधिकार यह मानसरोवर झील में पाया जाता है। हिन्दी वाक मब में हंस का उपयोग निम्न प्रकार से उपलब्ध है :
१. सरल स्वभाव के लिए २. प्रतीक रूप में ३. मालंकारिक प्रयोग के रूप में ४. प्रकृतिवर्णन प्रसंग में ५. सुन्दर चाल के लिए
जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में इस पक्षी के अभिदर्शन बोस शो के पूजारचयिता भगवानदास विरचित 'श्री तत्वार्थ सूत्रपूजा' नामक कृति के. 'जयमम्मा' प्रसंग में होते हैं।
१. वशगध भौंरा पुजता पर,
करत रख सुखवासिनी।
---श्रीनेमिनापजिनपूजा, मनरंगलाल, ज्ञानपीठ पूजांजलि, पृष्ठ ३६६७ । २. जाकी सुगन्ध यकी अहो,
अलि गुंजते आवे घने।
-श्री सम्मेद शिखर पूजा, रामचन्द्र, जैन पूजापाठ संग्रह, पृष्ठ १२७ । ३. कुन्द कमलादिक चमेली,
गन्धकर मधुकर फिरें।
-श्री अथ समुच्चयलघुपूजा, जवाहरलाल, बृहजिनवाणी संग्रह, पृष्ठ ४८७ । ४. वृहत हिन्दी कोण, पृष्ठ १६०३ । ५. दलधर्मबहे शुभ हंस रा,
प्रणमामिसूत्र जिनवाणि वरा। -श्री तत्वार्थ सूत्रमूजा, महकानास, जन पूजासठ संबह पाठ,४१२ ।
Page #354
--------------------------------------------------------------------------
________________
( ३६१ )
उपयंकित विवेचन से स्पष्ट है कि जैन-हिन्दी-पूजा-काव्य में सात पक्षियों का प्रयोग हुआ है । इन पक्षियों में भ्रमर ही एकमात्र ऐसा पक्षी है जिसका व्यवहार अपनी विविध संज्ञाओं के साथ १८वीं शती से लेकर २०वीं शती तक सातत्य हुआ है ।
विवेष्य पूजाकाव्य में इन पक्षियों का प्रयोग धार्मिक विश्वासबर्द्धन, लौकिक अभिव्यक्ति तथा भावाभिव्यंजना में प्रकृतिवर्णन प्रसग में सफलतापूर्वक हुआ है। इस प्रकार के वर्णन वैविध्य में जन पूजाकवियों को आध्यात्मिकता के साथ-साथ लोकविषयक ज्ञान भी प्रमाणित होता है ।
1
Page #355
--------------------------------------------------------------------------
________________
उपसंहार
पूजा-काव्यकारों का संक्षिप्त परिचय विवेच्यकाव्य में प्रयुक्त पूजाकाव्य के रचयिताबों का पलादि तथा अकारादि क्रम से संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार हैअठारहवीं शती
खानतराय-उत्तर प्रदेश के आगरा नगर में वि० सं० १७३३ में पानतराय का जन्म हुआ था । आप अग्रवाल गोयल गोत्र के थे । आपके पिता श्री का माम श्यामदास था । आपके धर्मगुरु बिहारी दास थे। कवि ने पद, स्तोत्र, रूपक तथा पूजा काव्यरूपों में काव्य-सृजन किया । आपके द्वारा प्रणीत म्यारह पूजाएँ प्राप्त हैं। उन्नीसवीं सती
कमलनयन- कमलनयन उन्नीसवींशती के अच्छे पूजाकवि है। 'श्री पंचकल्याणक पूजा पाठ' आपकी उत्कृष्ट रचना है।
बख्तावररत्न-बख्तावररत्न दिल्लीवासी थे। आपका मूलनाम रतनलाल बख्तावर है । आप अग्रवाल जाति के हैं। आपका जन्म संवत् १८९२ में हुआ था-यथा
संवत् अष्टादश शतक और बानवे जान । फागुनकारी सप्तमी, भोमवार पहचान । मध्यदेश मण्डल विष, दिल्ली शहर अनूप ।
बादशाह अकबर नसल नमन करें बहभूप ।। मनरंगलाल-जाति के पल्लीवाल कपि मनरंगलाल कन्नौज के निवासी थे । आपके पिता का नाम कन्नौजीलाल और माता का नाम था देवको। आप उन्नीसवीं गतो के सशक्त पूजाकवि हैं। नेमिचन्तिका, सप्तव्यसन परित तथा पूजाकाव्य आपको काम्यकृतियां प्रसिद्ध हैं। मनरंगलाल की पूजाएँ जैनसमाज में सर्वाधिक प्रचलित है।
मल्लजी-कवि मल्लजी का रचनाकाल उन्नीसवीं सती है । 'भी क्षमावाणी पूजा' नामक पूजा श्रेष्ठ कति है।
Page #356
--------------------------------------------------------------------------
________________
"
( १६३ )
रामचन्द्र - रामचन्द्र उन्नीसवीं शती के सशक्त कवि हैं। आपके द्वारा प्रणीत अनेक पूजा काव्य प्रसिद्ध हैं ।
बुम्बावन - गोयल गोत्रीय अग्रवाल कवि बृन्दावन का जन्म शाहाबाद जिले के बारा नामक ग्राम में सं० १८४२ मे हुबा था । आपके पिता का नाम धर्म और माता का नाम सिताबी । आपकी पत्नी रुक्मिणी एक धर्मपरायण महिला थीं । प्रवचनसार, तीस चौबीसी तथा चौबीसी पूजाकाव्य, छन्द शतक, वृन्दावन विलास ( पदसंग्रह) नामक आपकी काव्यकृतियाँ उल्लिखित हैं। बापकी रचनाओं में भक्ति की ऊँची भावना, धार्मिक सजगता और आत्मनिवेदन विद्यमान है ।
ateaunt
आशाराम - आशाराम बीसवीं शती के कवि हैं। 'श्री सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा' नामक पूजा आपकी रचना है ।
कु· जिलाल - बीसवीं शती के कु जिलाल उत्कृष्ट पूजाकवि हैं। आपकी तीन पूजा कृतियाँ - 'श्री देवशास्त्रगुरुपूजा', 'श्री महावीर स्वामीपूजा' और 'श्री पार्श्वनाथ जिनपूजा' हैं ।
जवाहरलाल -- जवाहरलाल छतरपुर के निवासी थे । आपके पिता मोतीलाल और काका हीरालाल थे । यथा
पिता सु मोतीलाल 'जवाहर' के कहे । काका हीरालाल गुणन पूरे लहे ॥
बीसवीं शती के पूजाकार जवाहरलाल की दो पूजायें -- श्री सम्मेदाचलपूजा, श्री लघुसमुच्चय पूजा- उपलब्ध हैं ।
जिनेश्वर बास - जिनेश्वरदास की तीन पूजा रचनाएँ - श्री नेमिनाथ बिन पूजा श्री बाहुबली स्वामी पूजा और श्री चन्द्रप्रभु पूजा-प्राप्त हैं। इनका रचना काल बीसवीं शती है ।
पूरणमल -- पूरणमल बीसवीं शती के कवि हैं । आप शमशाबाद ग्राम के निवासी हैं जैसा कवि स्वयं स्वीकारता है -
-
पूरणमल पूजा रची बार, हो भूल लेउ सज्जन सुधार । मेरा है waerere ग्राम, जयकाल करूं प्रभु को प्रणाम || भगवानदास श्री तत्वार्थसूत्र पूजा नामक कृति के रचयिता भगवानदास atest शती के कवि हैं आपके पिता का नाम कन्हैयालाल है जैसा कि कवि ने स्वयं लिखा है---
Page #357
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१६४ ) सस कहवालाल परमाम करा,
भगवानदास जिहि नाम घस। भविपलबू-बीसवीं शती के पूजा रविता भविलालजू ने 'श्री सिद्ध पूषा भाषा' मामक पूजाकृति की रचना की है।
मुन्नालाल-मुन्नालाल बीसवीं पाती के पूजा कवि हैं। 'श्रीखणगिरि सिवोशपूजा' नामक पूजा आपकी रचना है।
दीपचन्द-बीसवीं सती के पूजाकवि दीपचन्द ने 'श्री बाहुबली पूजा' नामक कृति की रचना की है।
दौलतराम-दौलतराम बीसवीं शती के सशक्त पूजाकवि है। दौलतराम की श्री पावापुर सिद्धक्षेत्रपूजा और श्री चम्पापुर सिद्धक्षेत्र पूजा नामक
नेम-'श्री अकृत्रिम चैत्यालय पूजा' नामक कृति के रचयिता श्री नेम बीसवीं शती के उस्कृष्ट पूजा कवि हैं।
युगल किशोर जैन 'युगल-पंडित युगल जो कोटा (राजस्थान) के निवासी है। अध्यापन-कार्य में संलग्न हैं । मापकी 'श्री देवशास्त्र गुरुपूजा' एक सशक्त रचना है।
रसुत-रघुसुत बीसवीं शती के उस्कृष्ट पूजाकार हैं। आपको दो पूजा रचनायें श्री रक्षाबंधन पूजा, श्री विष्णकुमार महामुनि पूजा-उपलब्ध हैं।
रविमल-बीसवीं शती के पूजाकार रविमल ने 'श्री तीस चौबीसी पूजा' की रचना की है।
राजमल पवैया-पवैया जी भोपाल, मध्य प्रदेश में रहते हैं। आप एक अच्छे कवि हैं। श्री पंचपरमेष्ठी पूजा' बापकी श्रेष्ठ पूजा रचना है।
सम्मिानव-सन्धिदानक बीसी शती के पूजा कवि हैं आपने 'श्री पंचपरमेष्ठी पूजा' नामक पूजाकाव्य का प्रणयन किया है। सेवकार
-- सेवक बीसवीं शती के पूषा कवयिता हैं। भापको तीन पूजा कृतियां-'श्री आदिनाथ जिनपूजा', श्री अनंतत्रत पूजा और श्री समुच्चा चौबीसी पूजा'- उपलब्ध हैं।
होरा-बीसवीं शती के पूजा कवयिता हीराचंद की पूजा कृतियां 'श्री सिद्धपूजा श्री चतुर्विशति तीर्थकर समुच्य पूजा' उपलब्ध हैं।
हेमराज-हेमराज विरचित 'श्री गुरुपूजा' नामक पूजाकृति स्कृष्ट रचना है। हेमराज बीसवीं शती के श्रेष्ठ कवि हैं।
Page #358
--------------------------------------------------------------------------
________________
अंजनशलाका
अयं
अजीव
अणुव्रत
अदाकार
अच
अतिचार
अतिशय
तीर्थ
'क्षेत्र
'अनंतचतुष्टय
अनुप्रेक्षा
पूजा - शब्द-कोश
जैन मूर्ति की प्रतिष्ठा, मंत्रन्यास, नयनोन्मीलन, श्वेताम्बर विधि
अष्टद्रव्य-जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल - का समीकरण / समवेत् रूप । जिसमें सुख-दुःख अनुभव करने की शक्ति नहीं है और जो ज्ञानशून्य है वह अजीव कहलाता है ।
श्रावक दशा में पांच पापों का स्थूल रूप
-
एक देश
त्याग होता है, उसे अणुव्रत कहते हैं । भावपूजा, भावनापरक पूजन, जिसमें स्थापना, प्रस्तावना, पुराकर्म आदि नहीं होते ।
यह; स्थापना के प्रथम चरण में यह आता है । इन्द्रियों की असावधानी से शीलव्रतों में कुछ अंश - मंग हो जाने को अर्थात् 'कुछ दूषण लग जाने को अतिचार कहते हैं ।
terreince विशेषता को अतिशय कहते हैं, ये मात्र तीर्थकरों में होते हैं ।
तीर्थकरों के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान नामक चार अथवा एक या दो कल्याणक सम्पन्न होने वाले क्षेत्र को तीर्थक्षेत्र कहते हैं ।
आत्मा के चार गुणों- अनंतदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य, अनंत सुख के समन्वित रूप को अनंत तुष्टय कहते हैं ।
संसार आदि की असारता का चित्तवन करना ही अनुप्रेक्षा कहलाता है, ये बारह प्रकार के प्रभेदों में विभाजित है नित्य, अशरण, संसार, एकत्व,
Page #359
--------------------------------------------------------------------------
________________
अनुयोग
अनेकांत
अन्तराय कर्म
afees
भव
( ३६६ )
अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, धर्म ।
fararut में वर्णित आगम जिसमें भूत व भावीकाल के पदार्थों का निश्चयात्मक वर्णन किया गया है, अनुयोग कहते हैं। इसके चार भेद हैं- (क) प्रथमा - नुयोग (ख) करणानुयोग (ग) चरणानुयोग (घ) द्रव्यानुयोग ।
यह यौगिक शब्द है—अनेक + अन्त; अन्त का अर्थ है - धर्म, प्रत्येक वस्तु में अनंतगुण विद्यमान रहते हैं, वस्तुजन्य उन सभी गुणों को देखना अनेकांत कहलाता है ।
वे कर्म परमाणु जो जीव के दान, लाभ, भोग, उपभोग और शक्ति के विघ्न में उत्पन्न होते हैं, अन्तराय कर्म कहलाते हैं ।
भगवान् की प्रतिमा का जल आदि से स्नान; इस तरह प्राप्त जल को 'गंधोदक' कहा जाता है, जिसे श्रावक वर्ग श्रद्धापूर्वक मस्तक, नेत्र और ग्रोवा भाग पर लगाता है; अभिषेक की तैयारी को प्रस्तावना कहा जाता है; प्रक्षाल; जिनके घातिया कर्म नष्ट हो गए हैं उन केवलियों को 'स्नातक' कहा गया है । 'अ' अभय का सूचक है, यह वर्णमाला का आरम्भी स्वर है तथा सर्वव्यञ्जनव्यापी है; 'र्' अग्निबीज है, जो मस्तक में प्रदीप्त अग्नि की तरह व्याप्त होने की क्षमता रखता है, 'ह' वर्णमाला के अन्त में आने वाला ऊष्म वर्ण है, जो हृदयवर्ती होने के कारण
(())
बहुमत / भारत है, यह चन्द्रन्दु नासिकाग्रवर्ती है और सारे वणों के मस्तक पर रहता है; "महं" का समग्र अर्थ है : 'अरिहन्त रूप सर्वज्ञ परमात्मा', चार जातिया कर्मों का नाश कर अनंत चतुष्टय को प्राप्त करके जो केवल ज्ञानी परम आत्मा है जो
अपने स्वरूप में स्थिर है, वह अर्हन्त है ।
Page #360
--------------------------------------------------------------------------
________________
सवार . अधिमान
भायें, पधार, विराजमान हों, अवतरित हों। भानरूपी पदार्थों को प्रलमा जानने वाला मर्यादा माहित ज्ञान अवधिज्ञान है अर्थात् जो शानद्रव्य, क्षेत्र, कालभाव को मर्यादा के लिए रूपी पदार्थ को स्पष्ट व प्रत्यक्ष जाने वह बबधिशान है। भाठ भागों वामा, काठ छन्दों का समुदाय, यषा.. मंगलाष्टक, महावीराष्टक दृष्टाष्टक, प्रादि। निश्चय से तो समस्त पर-पदार्थो से दृष्टि हटाकर अपनी बारमा की पक्षा, ज्ञान और लीनता ही मुमुक्षु श्रावक के मूल गुण हैं पर-व्यवहार से मब त्याम, मांस त्याग, मधु त्याग, बोर पाँच उदुम्बर-बड़का फम, पीपल का फल अमर, कठूमर (गूलर) मोर पाकर फल-फलों के त्याग को मष्टमून गुण कहते हैं। जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल ये पाठ द्रव्य अष्टाव्य कहलाते हैं, इनका प्रयोग जनपूजा-उपासना में किया जाता है।
आठ फूल, अष्टपुष्पी पूजा के काम में जाने वाले पाठ फूम, पूजा का यह प्रकार जनों में प्रचलित नहीं है। बाठ कर्मों में तीसरे कम वेदनीय का एक भेद बसाता कर्म है इसके उदय से संसारी जीव दु:ख का अनुभव करता है। रत्नत्रयधारी जीव चार बातिया को कर नय करके अनंत चतुष्टय प्राप्त कर संसार के बावाममन से छुटकारा पाकर अक्षय पद की प्राप्ति करता है; बनवपद वह पद विशेष है वहाँ बीव निराकुल, बानंदमय, शुद्ध स्वभाव का परिणमन करता है तथा सम्यक्त्व, शान-दर्शनादिक आत्मिक गुण पूर्णत: अपने स्वभाव को प्राप्त करता है। बारमा के वक्षों में से आकिंचन्य का क्रम ब्रह्मचर्य से पूर्व बाता है, मह, परिग्रह और अहंकारों के अभाव में धर्म कामक्षण प्रकट होता है, इस
पष्टपुष्प
बसाता
Lमपब
Page #361
--------------------------------------------------------------------------
________________
आगम
आचार्य
आर्जव
मात्मविशुद्धि मातंव्यान
afrat
आयुक
भारती
आराधना
बलम्बन
( ३६० )
धर्म के उदय होने पर प्राणी पर-पदार्थों के प्रति उदासीन तथा अन्तर्मुखी होकर पूर्णतः आकिंचन्य बन जाता है जो मोक्ष प्राप्ति में परम सहायक है । जिनेन्द्रवाणी को आगम कहा गया है, यह मूलतः निरक्षरी वाणी में निसृत हुआ किन्तु कालान्तर में आगम सम्पदा को आचार्यों द्वारा शब्दाबित किया गया फलस्वरूप उसे आचार्य परम्परा से आगतमूल सिद्धान्त को आगम कहा गया है।
पंचपरमेष्ठियों का एक भेद है आचार्य । आचार्य में छतीस गुण विद्यमान होते हैं। आचार्य पर मुनि संघ की व्यवस्था तथा नए मुनियों की दीक्षा दिलाने का arfare भी विद्यमान रहता है ।
आत्मा के दमों में से तृतीय क्रम का धर्म आजंव है, स्वपदार्थ की स्वानुभूति पर आर्जव धर्म का उदय होता है, मन वच, कर्म से जो अत्यन्त स्पष्ट, सरल स्वभावी है, वही प्राणी 'आजंव' धर्म का पालनकर्ता माना जाएगा।
आत्मा की कर्ममल से क्रमश:, या नितान्त मुक्ति । भविष्य की दुःखद कल्पनाओं में मन का निरन्तर व्याकुल रहना आसंध्यान कहलाता है : सात्विक आचरण करने वाली स्त्री-साधु आर्थिका है। जीव अपनी योग्यता से जब नारकी, तियंच, "मनुष्य या देव शरीर में रुका रहे तब जिस कर्म का उदय हो उसे आयु कर्म कहते हैं । नीराजना, भगवान का गुणानुवाद करते हुए उनके सम्मुख प्रज्वलित दीप-संग्रह को चक्राकार घुमाना । ध्यान, पूजा, सेवा, श्रृंगार, जिनवाणी में भक्ति का एक अंग विशेष आराधना है जिसका अर्थ है मात्मा के गुणों का सम्यक् चितवन ।
सहारा, साधन, जिसके आश्रय में मन चारों ओर से खिचकर टिका रह सके ।
Page #362
--------------------------------------------------------------------------
________________
भासद
माष्टाहिकापूजा
आहार
इज्या इति आशीर्वाद
( ३६९ ). कर्म के उदय में भोगों की जो राग सहित प्रवृत्ति होती है वह नवीन कर्मों को बींचती है अर्थात शुभाशुभ कर्मों के आने का द्वार ही आसब कहलाता है। प्रतिवर्ष भाषाड़, कार्तिक और फास्मुन के शुक्लपका में अष्टमी से पूर्णिमा तक मनाये जाने वाले पर्व में की जाने वाली पूजा, अष्टान्हिका पर्व को "मठाई" भी कहते हैं। आमंत्रण, पूजा के निमिस किसी देवता-वहाँ जिनेन्द्र भगवान को प्रतीक रूप बुलाना। जैन मुनिगण अपने भोजन का मन-चच-काय शुद्धि के साथ अपुष्ट पदार्थ का जो खाद्यान्न ग्रहण करते हैं उसे आहार कहते हैं। बर्हन्त भगवान की पूजा, मूर्ति, प्रतिमा। सर्वभूत मंगल कामना, इसे पूजा के अन्त में पुष्पांजलि अर्पित करते हुए कहा जाता है, दिगम्बरों में पुष्पांजलि रूपं चन्दन से-रंगे अक्षत चढ़ाने की रस्म है । एक पूजा-भेद जिसे ऐन्द्र ध्वज-विधान भी कहा जाता है। परम्परानुसार इसे इन्द्र सम्पन्न करता है। किसी भी जंतु को क्लेश न हो इसलिए सावधानी पूर्वक चलना ही ईर्या समिति है। स्वयं को शंका, कांक्षा आदि दोषों से दूर करना, इसे सम्यक्त्व की आराधना भी कहते हैं। जीब की ज्ञान दर्शन अथवा जानने देखने की शक्ति का व्यापार ही उपयोग है। पंचपरमेष्ठी के भेद विशेष उपाध्याय है। रत्नत्रय तथा धर्मोपदेश की योग्यता रखने वाले साधु को उपाध्याय कहते हैं। द्रव्यश्रुतागम का सातवा अंग, जिसमें श्रावक-धर्म की विस्तृत विवेचना की गई है। शुखाम भावना की कारणरूप-की-गयी बहसेना, बाराधना।
इन्द्रध्वज
ईर्यासमिति
ज्योतन
उपयोग
उपाध्याय
उपासकाध्ययन
उपासना
Page #363
--------------------------------------------------------------------------
________________
एकेन्द्रिय
एषणा
ओम् (8)
ओम् नमः
करणानयोग
(३७. ) जिसके एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है ऐसे जीव, पृथ्वीकायिक, अपकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और बनस्पति कायिक जीव । एषणा का अर्थ निमित्त तप वृद्धि के लिए ही नियंत्रित इच्छा से भोजन ग्रहण करना है। णमोकार मंत्र के प्रथमाक्षरों (म+अ+आ+उ+म्) से बना प्रणवनाद, मोक्षद, समयसार, जिनेश्वर को ओंकार रूप कहा गया है। पंच परमेष्ठियों (अहंन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु) को नमस्कार। वीतरागता को पोषण करने वाले कपन को चार विधियों में से एक वणित विधि करणानुयोग । जीव के साथ जुडने वाला पुद्गल स्कन्ध कर्म कहलाता है, विषय को दृष्टि से इनके आठ भेद किए गए हैंज्ञानावरणी, दर्शनावरणी, मोहनीय, अन्तराय, वेदनीय, आयु, नाम, गोत्र। चक्रवतियों द्वारा किमिच्छक दानपूर्वक की जाने वाली बड़ी पूजा, जिसमे जगत् के सब जीवों की आशाआकांक्षा पूरा करने का प्रयत्न होता है । तीर्थंकर के गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और मोक्ष के समय होने वाले महोत्सव ही कल्याणक होते हैं । राग देष का ही अपर नाम कषाय है, जो आत्मा को कसे अर्याद दुःख दे, उसे ही कषाय कहते हैं, कषाय चार हैं-क्रोध, मान, माया, लोभ । देव बन्दना, जिस वाचनिक, मानसिक, कायिक क्रिया के करने से ज्ञानावरणादि आठ कर्मों का उच्छश्न विनाश होता है। काया की ओर उपयोग न जाकर आत्मा में ही लीनता । शरीर से ममता रहित होकर आत्म साक्षात्कार के लिए प्रतिक्षण तटस्थ रहना ही कायोत्सर्ग है। भक्तिबोज, आचाबीज ।
कल्पद मपूजा
कल्याणक
कषाय
कृतिकर्म
कायगुप्ति कायोत्सर्ग
Page #364
--------------------------------------------------------------------------
________________
केवलज्ञान
क्रों
क्षमा
गंध
गंधोदक
गणधर
गति
गुण
गुप्ति
गुरू
मो.
कातिया कर्म
( ३७१ )
किसी बाह्य पदार्थ की सहायता से रहित हो आत्मस्वरूप से उत्पन्न हो, आवरण से रहित हो, क्रम रहित हो, घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुना हो तथा समस्त पदार्थों को जानने वाला हो उसे केवल ज्ञान कहते हैं ।
अंकुश, गज साधन |
आत्मा के दश धर्मों में से प्रथम धर्म का नाम क्षमा है, उपसर्ग से उत्पन्न क्रोध को मान्यता न देना ही क्षमा की प्रवृत्ति है।
roerari में से द्वितीय, जिसे चंदन भी कहा जाता है । d. अभिषेक |
समवशरण के प्रधान आचार्य का नाम गणधर है । जिसके उदय से जीव दूसरी पर्याय ( भव) प्राप्त करता है, तियंचगति, मनुष्यगति, देवगति और नरकगति । द्रव्य के आश्रय से उसके सम्पूर्ण भाग में तथा समस्त पदार्थों में सदैव रहे उसे गुण अथवा शक्ति कहते हैं । संसार के कारणों से आत्मा का गोल करना ही गुप्ति है अर्थात् मन, वच, काय की प्रवृत्ति का निरोध कर केवल ज्ञाता द्रष्टा भाव से समाधि धारण करने को गुप्ति कहा है, इसके तीन प्रकार हैं- मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, काय गुप्ति | सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन गुणों के द्वारा जो बडे है उनको गुरू कहते हैं अर्थात् आचार्य, उपाध्याय, साधु ये तीन परमेष्ठी ही गुरू है। जीव को उच्च या नीच आचरण वाले कुल मैं उत्पन्न होने में जिस कर्म का उदय हो उसे गोत्र कर्म कहते हैं ।
जो जीत्र के अनुजीवी गुणों को घात करने से निर्मित होते हैं वे घातिया कर्म कहलाते है, ये चार प्रकार के होते हैं - (१) ज्ञानावरणी, (२) दर्शनावरणी, (३) मोहनीय, (४) मन्तराय ।
Page #365
--------------------------------------------------------------------------
________________
पविशति
चरणानुगोग
चारिय
चितिकर्म
चैत्य
छहोंतव्य
जप
( ७२ ) चौबीस (तीर्थकर)। दे० गंध। भावकों की आचार-विचार परम्परा का निर्देशक मागम ग्रंथ का एक मार्ग करणानुयोग है जिसमें मुनि तथा श्रावक चर्या का वर्णन है। चारित्र संसार की कारणभूत बाह्य व अंतरंग क्रियाजों से निवृत्त होमा कहा है। दे० कृतिकर्म ; कृतिकर्म के पुण्यसंचय के कारण रूप होने से चितिकर्म भी कहा जाता है। महत्प्रतिमा, जिनबिम्ब, जिनालय, जिनमन्दिर । जीव, अजीव (पुदगल), धर्म, अधर्म, आकाश भोर काल छह द्रव्य कहलाते हैं। जिनेन्द्रवाचक/बीजाक्षररूप मन्त्र आदि का अन्तर्जल्परूप (भीतर अनुगुजित) वार-बार उच्चारण । किसी जीव को दुःख न हो इस तरह प्रवृत्ति करने का ख्याल, यतना, उपयोग, सावधानी से काम करने की क्रिया। पूजा के अन्त में पूजा की विषय-वस्तु को सार रूप में प्रस्तुत करने वाला गेप भाग, जो प्रायः प्राकृत, अपभ्रंश या हिन्दी मे होता है, मूलपूजा संस्कृत में होती है (अब यह परम्परा टूट गयी है)। अष्टद्रव्यों में प्रथम द्रव्य । इष्टदेव का मन ही मन स्मरण, या किसी मन्त्र का मन ही मन उचार। जिसने अपने कर्म-कषायों को जीत लिया हो वह जिन कहलाता है। वह स्थान जहां जिन प्रतिमा प्रतिष्ठित की गयी हो। जिसमें अनुभव करने की शक्ति हो, मंसारी और मुक्त जानने-देखने अपवा मानदर्शन शक्तिशाली वस्तु को यात्मा कहा जाता है, जो सदा बाने और जानने कप परिषणित हो उसे पीय अपवा बात्मा कहते है।
जयणा
जयमाला
बल पाप
জিলাৰ
Page #366
--------------------------------------------------------------------------
________________
मिसही
जिनके अनुयायी जैन कहलाते हैं । सर्वमित्र, चन्द्रमण्डल, नन्दप, एकत्रण, समासन, शून्यबीज, करुणा, मकर, कृतान्तकृत, "3: :" माने पर स्वाहा या महामाता के अर्थ में प्रयुक्त । निःसही, स्वाध्याय भूमि, निर्वाणभूमि, पाप कियानों के त्याग का संकल्प, साधुओं के रहने का स्थान, दिगम्बरों के मन्दिर में प्रवेश करते समय श्रावक "ॐ जय जय निःसही निःसही" का उच्चार करता है, जिसका परम्परित अर्थ है 'मैं जागतिक परिग्रह को निषित कर/छोरकर इस पवित्र स्थान में प्रवेश करता हूँ', श्वेताम्बरों में इसका प्रयोग तीन प्रस्थानबिन्दुओं पर होता है, पूजा के लिए घर से निकलते समय, मन्दिर में प्रवेश करते समय, पूजा भारम्भ करते समय; इसका एक रूपान्तर णमो मिसीहीए', जिसका अर्थ निर्वाण भूमियों को नमन है, भी प्रचलित है, प्राकृत में इसके रूप है णिसीहीए (निषीधिका); णिसीहिमा (नषेधिकी)-स्वाध्यायभूमि, जहाँ स्वाध्याय के अतिरिक्त शेष प्रवृत्तियों का निषेध है (स्वाध्याय का एक अर्थ पूजा भी है); "निस्सही/निःसही" का लोकप्रचलित अर्थ है : मैं दर्शन पूजा के निमित समस्त पाप/परिग्रह को छोड़कर पा रहा हूं। तस्व का वर्ष वस्तु का स्वभाव है, जीव, अजीब मानब, बन्ध, सबर, निर्जरा, मोम ये सप्त तस्व है। कर्म भय के लिए सपा जाए वह तप है अर्थात् रत्नत्रय का माविर्भाव करने के लिए इष्टानिष्ट इन्द्रिय-विषयों की आकांक्षा के विरोध का नाम रुप है। ब्रम्पपूजा, म्यात्मक पूजा, ऐसी पूजा विसमें अष्टाम्प
तिष्ठ
ठहरें, कमें, रों (सं• स्था)। ती का पर्व है पापों से तरना अपना पापों को दूर करने का स्थान बही तो कहलाता है।
Page #367
--------------------------------------------------------------------------
________________
तोर्यकर
त्याग
दण्डक
द्रव्यपूजा दर्शन
दर्शनावरणी
दर्शनोपयोग
( ३७४ ) संसार-सापर को स्वयं पार करने तथा दूसरों को पार कराने वाले महापुरुष तीकर कहलाते हैं। अपने आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान के साथ होने वाले स्वभाव-परिणमन को, जिसमें विभाव का परिपूर्ण त्याग है, त्याग कहते है। नियम, सूत्रांश, सकल्प, परम्परा, छन्दांश, मन, वचन, काय की एकाग्रता। अष्टद्रव्य-युक्त पूजा; दे तदाकार। दर्शन का अभिप्राय प्रदान आस्था, विश्वास से है, इस प्रकार जो मोक्ष मार्ग दिखाये उसे दर्शन कहते हैं । वे कर्म परमाणु जो आत्मा के अनंत दर्शन पर आवरण करते है, दर्शनावरणी कर्म कहलाते हैं। आकार भेद न करके जाति गुण क्रिया आकार प्रकार की विशेषता किए बिना ही जो स्व-पर का सत्ता मात्र सामान्य ग्रहण करना ही दर्शनोपयोग है। जिससे दिव्यता की प्राप्ति होती हो पापों का समूह नष्ट होता है, प्राचीन आचार्यों ने उसे दीक्षा कहा है, जिनवाणी मे वणित विभिन्न लिंग-क्षुल्लक, ऐलक, मुनि, मजिका पद के लिए दीक्षित होना अथवा ग्रहण करना ही दीक्षा कहलाती है। देव का अर्थ दिव्य दृष्टि को प्राप्त करना है, जो दिव्य भाव से युक्त माठ सिखियों सहित क्रीड़ा करते हैं, जिनका शरीर दिव्यमान है, जो लोकालोक को प्रत्यक्ष जानते हैं वही सर्व देव कहलाते हैं। षद्रव्य, नवपदार्थ के उपदेश का रुचि से सुनकर धारण करना देशनासब्धि है। जिनालय, मंदिर, देवालय । असाता वेदनी कर्म के तीन तथा मंद उदय से बित में विभिन्न प्रकार के राम उत्पन्न होकर चारित्र में दोष उत्पन्न कर देते हैं।
दीक्षा
देव
देशनालब्धि
देरासर
दोष
Page #368
--------------------------------------------------------------------------
________________
द्रव्य
द्रव्यानुयोग
द्वादशांग
धर्म
ध्यान
धूप
F:
नय
नवदेव
नवधाभक्ति
नामकर्म
( ३७५ )
द्रव्य वह मूल विशुद्ध तस्य है जिसमें गुण विद्यमान हो तथा जिसका परिणमन करने का स्वभाव हैं, द्रव्य दो प्रकार से कहे गए हैं- जीवद्रव्य, अजीव द्रव्य । द्रव्यानुयोग मे जीवादि छह द्रव्यों तथा सप्त तत्त्वादि का कथन किया गया है । अर्हन्त की वाणी को गणधरदेव ने सूत्रों में गूंथा है, वही सूत्र द्वादशांग कहलाते हैं, द्वादशांग बारह हैंआचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवयांग, व्याख्या प्रशस्ति, ज्ञानधर्मकथा अंग, उपासकाध्ययन अंतकृतदशांग, अनुतरोपपादक अंग, प्रश्न व्याकरण नाम अंग, विपाक-सूत्र, दृष्टिवाद नाम ।
धर्म-वस्तु का स्वभाव, दुःख से मुक्ति दिलाने वाला, निश्चय रत्नत्रय रूप से मोक्ष मार्ग, जिससे आत्मा मोक्ष प्राप्त करता है. रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र; धर्म के लक्षण - ( १ ) वस्तु का स्वभाव बह धर्म (२) अहिंसा (३) उत्तमक्षमादि दश लक्षण ( ४ ) निश्चयरत्नत्रय |
चित्त की एकाग्रता को ध्यान कहते हैं ।
अष्ट द्रव्यों में सातवां द्रव्य ।
द्वि. बहुवचन "हमें "; च. बहु. "हमारे लिए"; ष. बहु. "हमारा" ।
वस्तु के एकांशग्राही ज्ञान की यथार्थता को प्राप्त कराने में समर्थ नीति को नय कहते हैं ।
नौ देव, अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, जिनवाणी, जिनधर्म, जिन प्रतिमा, जिन मंदिर ।
श्रावक को नौ प्रकार की भक्ति को नवधाभक्ति कहते हैं ।
जिस शरीर में जो हो उस शरीरादि की रचना में जिस कर्म का उदय हो उसे नाम कर्म कहते हैं ।
Page #369
--------------------------------------------------------------------------
________________
निगोद
निर्जरा
नित्यमह निर्वपामिइति
निर्वाण
निर्माल्य
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चरित्र पी मोक्ष मार्ग में बंधन रूप उपस्थित होने वाले बाह्य-जयन्तर परिग्रह का स्याग करने वाले केवल सामी साधु को निग्रंन्य कहते हैं। जिन जीवों के साधारण नाम कर्म का उदय होता है उनका शरीर इस प्रकार होता है कि वे अनंतानंत जीवों को निगोद कहते हैं। कर्मों की जीर्णता से निवृत्ति का होना निर्जरा है। दैनंदिनी पूजा, प्रतिदिन का पूजा-कर्तव्य । मेंट करता हूँ, अपित करता हूँ, बढ़ाता हूँ (सं० निर्व/वप्)। कर्म रूपी वाणों का विनाश ही 'निर्वाण' है अर्थात् दुःख सुख, जन्म-मरण से छुटकारा मिलना ही 'निर्वाण' है। ममत्व-मुक्त होकर महान् आत्माओं के सम्मुख क्षेपित/मर्पित अति निर्मल द्रव्य, स्वामित्व-विसर्जक द्रव्य । समापन, अन्त । बोदारकादि पांच शरीर और छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल परमाणु नौ कर्म कहलाते हैं। भावाहन, संस्थापन, संनिधीकरण, पूजन और विसर्जन, पूजा के पांच उपचार । जो परमपद में तिष्ठता है वह परमेष्ठी कहलाता है। बरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु ये पांच परमेष्ठी है। मोह के उदय से भावों का ममत्वपूर्ण परिणमन होना ही परिग्रह कहा गया है। रत्नत्रय मार्ग से विचलित न होने तथा कर्मों की निर्जरा के लिए जो क्षुधा, तृष्णा, शीत, उष्ण, भग्न, याचना, अति, अलाभ, शमशकादि, माक्रोश रोग, मल, तृणस्पर्म, ज्ञान, अदर्शन, प्रसा, सत्कार,
निर्वहण नोकर्म
पंचोपचार
परमेष्ठी
परिग्रह
परीषह
Page #370
--------------------------------------------------------------------------
________________
पुदगल
पुरा कर्म
पुष्प
पुष्पांजलि
पूजन
पूजा
( ३७७ )
पुरस्कार, शय्या, चर्या, बध बन्ध, निवधा, स्त्री इन बाइस उपगों को सहन करना ही परीवह कहा गया है ।
चलन-मिलन स्वभाव ही पुद्गल है, स्पर्श, रस, गंध तथा वर्ण ये पुद्गल के लक्षण कहे गए हैं, यह जीव को शरीर, इन्द्रियों, वचन तथा श्वासोच्छवास प्रदान करता है ।
पीठ के चारों कोनों पर जल से भरे कलशों को स्थापित करना |
अष्ट द्रव्यों में से चौथा द्रव्य, चंदन चचित अक्षत भी पुष्प की जगह काम में आते हैं ।
विसर्जन के बाद पुष्पों की अंजलि का क्षेपण, दिगम्बरो में पुष्प के स्थान पर चंदन से रंगे बातों की अंजलि अर्पित करने की परम्परा है ।
दे, पूजा, श्रावक का पाँचवा कर्तव्य, बर्हस्प्रतिमा का अभिषेक, उसको द्रव्य पूजा-अर्चा, स्तोत्र वाचन, गीतनृत्य आदि के साथ भक्ति ।
पूज्य पुरुषों के सम्मुख जाने पर, या उनके अभाव में उनकी प्रतिकृति के सम्मुख उनकी अर्चना या उनका गुण-स्मरण, इसके चार भेद हैं- सदार्थन, चतुर्मुख, कल्पद्रम, अष्टान्हिक अन्य रीति से इसके छह भेद हैं- १. नाम पूजा अरिहंतादि का नाम लेकर द्रव्य चढ़ना; २. स्थापना पूजा-आकारवान् वस्तुओं में अरिहंतादि के गुणों को आरोपित कर पूजा करना, ३. द्रव्यपूजा - अरिहंतादि की माठ द्रव्यों से विधिविहित पूजा करना, ४ क्षेत्र - पूजा - जिनेन्द्र भगवान् की जम्म, निष्क्रमण, कैवल्य, तीर्थ, निर्वाण आदि भूमियों की पूजा करना ५. कालपूजा -- उक्त दिनों में पूजा करना, नवींश्वर पर्व या अन्य पर्व- दिनों में पूजा करना, ६. माव- पूजा - मन से अरिहंतादि के गुणों का अनुचिन्तन करना, निश्चयपूजा-- पूज्यपूचक मैं बन्दर न रहे इस तरह पूजा करना, इस स्वानुभूति के साथ पूजा करना कि 'जो परमात्मा है, वहीं मैं हूँ ।"
Page #371
--------------------------------------------------------------------------
________________
। १७८ )
प्रणति प्रतिमा
प्रतिष्ठा
प्रस्तावना प्रथमानुयोग
प्राविहार्य
प्रार्थना
प्रासुक
नमस्कार, प्रणाम । मूर्ति, बिम्ब, विग्रह। प्रोक्षण, वेदी पर अहत्प्रतिमा को विधिपूर्वक विराजमान करना। अभिषेक की प्रक्रिया का सूत्रपात प्रथमानुयोग आगम का एक प्रकार है इसमें संसार की विचित्रता, पाप-पुण्य का फल, महन्त पुरुषों की प्रवृत्ति इत्यादि निरूपण कर जीवों को धर्म में लगाया जाता है। प्रातिहार्य अर्हन्त के महिमामयी चिन्ह विशेष हैं, ये आठ प्रकार से वर्णित है-अशोक वृक्ष, सिंहासन, तीनछत्र, भामण्डल, दिव्यध्वनि, पुष्पवृष्टि, चौसठ चमर ढरना, दुन्दुभि बाजे बजना । विनयपूर्वक स्वपक्ष-कथन, यानी अपनी बात कहना, भक्ति । निर्जन्तुक, जिसमें से एकेन्द्रिय जीव निकल गये हैं, वे जल , वनस्पति, मार्ग आदि । प्रतिमा, मूर्ति, विग्रह; यथा-जिन बिम्ब । उपादान कारण, मूलवर्ती कारण । निर्मलशान-स्वरूप आत्मा में रमण करना ब्रह्मचर्य है। जिनालय, देवालय, देरासर, चैत्यालय । मनन करके जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे मतिज्ञान कहते हैं। मतिमान, अतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय, केवलज्ञान में से एक ज्ञान मन: पर्यय है जो कर्म के क्षयोपशम होने पर ही प्रकट होता है। पूजा, इसके अन्य पर्याय शब्द हैं-याग, यज्ञ, ऋतु, सपर्या, इज्या, मख, अध्वर ।। बड़ी पूजा; यथा इन्द्रध्वजपूजा । अन्तिम बड़ा मर्य, इसे सम्पूर्ण पूजा के अन्त में चढ़ाते हैं।
बिम्ब बीज
ब्रह्मचर्य
मन्दिर मतिज्ञान
मनःपर्यय
महामह महामर्य
Page #372
--------------------------------------------------------------------------
________________
मार्दव मिथ्यादर्शन मुनि
मूर्ति
मोहनीय
( ३७ ) हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील कोर परिग्रह का पूर्णरूपेण सर्वथा त्याग करना महावत है। मान का अभाव ही मार्दव है। जीवादि तत्त्वों की विपरीत प्रवा। साधु परमेष्ठी, समस्त व्यापार से विमुक्त पार प्रकार की आराधना मे सदा लीन निग्रंप मोर निर्मोह ऐसे सर्व साधु होते हैं, समस्त भाव लिंगी मुनियों को दिगम्बर दशा तथा साधु के २८ मूल गुणों के साथ रहना होता है। प्रतिमा, बिम्ब, विग्रह। वे कर्म परमाणु जो आत्मा के शांत आनंद स्वरूप को विकृत करके, उसमें क्रोध, अहंकार आदि कषाय तथा रागद्वेष रूप परिणति उत्पन्न कर देते हैं, मोहनीय कर्म कहलाते हैं। अध्यात्म-दृष्टि से जीव की परमोच्च अवस्था, जो कर्म अपनी स्थितिपूर्ण करके बंध दशा को नष्ट कर लेता है और आत्म गुणों को निर्मल कर मेता है उसे मोम कहते हैं। वीतराग या वीतरागता के प्रति प्रशस्त रागानुभूति, जिनेन्द्र प्रभु का श्रद्धापूर्वक गुण स्मरण; इसका स्थायीभाव शान्ति (निर्वेद) है। उपासना, सेवा, पद-पान, गुण-संकीर्तन, ऐसा पध जिसमें भगवद्भक्ति हो। हो, हो; संस्कृत की भू धातु का नाशार्थ (लोट्)
माक्ष
भक्ति
भजन
भवभव
भावपूजा
दे, बतदाकार, द्रव्यों का उपयोग किए बिना मन-हीमन पूजा करना। सम्पदर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यचारित्र का समीकरण वस्तुतः रलत्रय कहलाता है। इसके चितवन से व्यक्ति मोक्ष प्राप्त कर सकता है। एकाग्रता, बल्लीनता, साम्य की अवस्था, समाधि।
सय
Page #373
--------------------------------------------------------------------------
________________
लोकांतिक देव
( ३८०) देवों को एक प्रकार विशेष लोकांतिक कहलाता है। यह सम्यक दृष्टि होते हैं तथा वैराग्य कल्याण के समय तीर्घकर को सम्बोधन करने में तत्पर
बचन गुप्ति
वषट्कार
व्रत
श्रावक के छह आवश्यकों में से एक; तीर्थकर-प्रतिमा को नमन करना, मन, वचन, काय की निर्मलता के साथ खड़े होकर या बठकर चार बार शिरोनति और बारह बार आवर्तपूर्वक जिनेन्द्र का गुण स्मरण | बोलने की इच्छा को रोकना अर्थात् आत्मा में लोनता। आकर्षण, शिखाबोज, आवाहन के निमित्त इसका उपयोग होता है। देबोद्देशक त्याग-रूप पूजा, या यज्ञ। शुभ कर्म करना और अशुभ कर्म को छोड़ना ब्रत है अथवा हिंसा, असत्य, चौरी, मैथुन और परिग्रह इन पांच पापों से भाव पूर्वक विरक्त होने को व्रत कहते हैं व्रत सम्यदर्शन होने के पश्चात् होते है और आशिक वीतरागता रूप निश्चय व्रत सहित व्यवहार व्रत होते हैं। देह, बिम्ब, मूर्ति, एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीर को प्राप्त करने के लिए जीव का गमन । अनुष्ठान, पूजा-विधि, नियम । विनय, प्रार्थना, गुणानुवाद । कृतिकर्म, उत्कृष्ट विनय प्रकट करने के कारण ही कृतिकर्म को विनय कर्म भी कहा गया है। दे. कृतिकर्म। पूजा का उपसंहार, भारत इष्ट देव, या देवों की भक्ति पूर्वक विदाई, जिनबिम्ब की मूलपीठ पर स्थापना। संक्लेश परिणामों का नष्ट हो जाना ही वीतराग कहलाता है, मोह के नष्ट हो जाने पर उनष्ट
विग्रह
विधान
विनती विनयकर्म
विसर्जन
वीतराग
Page #374
--------------------------------------------------------------------------
________________
वेदनीयकर्म
वैवावृत्य मान्तिपाठ
मोषधर्म
संनिधान
भावना से निर्विकार आत्म-स्वरूप का प्रकट होना ही बोतराग है। जिनके कारण प्राणी को सुख या दुःख का बोष होता है वेदनीय कर्म कहलाते हैं। मुनियों, साधुनों की सेवा करना ही यावृत्य है। सर्वभूत-हित कामना, इसमें शान्तिनाथ भगवान का गुणानुवाद होता है और विश्व में सर्वत्र शान्ति हो यह कामना रहती है, इसे पूजा के उपान्त-प बोलते हैं। शुचिता आत्मा का स्वभाव है, यह स्वभाव ही शौच. धर्म कहलाता है। यह वही जिनेन्द्र हैं, यह वही सुमेरु है, यह वही सिंहासन है, यह वही गरोदधि-जल है, 'मैं साक्षात इन्द्र हूँ"-इस कल्पना के साथ जिन प्रतिमा के सम्मुख/निकट होने को संविधान कहते हैं। के. संनिधापन । सम्यक् प्रकार से नियन्त्रण करना ही संयम है। जीव के रागादिक अशुभ परिणामों के अभाव से कर्म वर्गणाओं के मानव का रुकना संबर कहलाता है। वश्वम्, जीतने का उपादान, जय-उपकरण । इसे सर्वतोभद्र पूजा भी कहते हैं जिसे महामुकुटबन राजाओं द्वारा सम्पन्न किया जाता है। बनेकांतमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्थावार है, स्याद्वाद (सापेमवाद) में कथन के तरीके, डंग, या भंग जो सात-स्याद् अस्ति, स्यादनास्ति, स्थाव. अस्ति-नास्ति, स्याद् अबक्तब्य, स्याद् अस्ति बक्तव्य, स्यादनास्ति अव्यक्तव्य, स्याद् अस्ति-नास्ति बव्यक्तब्य होते है, सप्तभंग कहते है। अपने स्वभाव व गुणपर्यायों में स्थिर रहने को समय
संनिधिकरण संयम संवर
संबोष
सचतुर्मुख पूजा
सप्तभंग
Page #375
--------------------------------------------------------------------------
________________
(३२)
समिति
समवशरण
सत्य .
सर्वतोभद्र स्तुति स्तोत्र
स्थापना
यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति को समिति कहते हैं, ईर्या, भाषा, एषणा, आदान निक्षेपण, उत्सर्ग ये पांच भेद समिति के हैं। केवलज्ञान प्राप्त होने पर उपदेश ने की सभा जो देवों द्वारा रचित होती है जिसमें सभी श्रेणियों के प्राणी एकत्र होते हैं। अध्यात्म मार्ग में स्व व पर महिला की प्रधानता होने से आत्म हित-मित वचन को सत्य कहा जाता है। दे. चतुर्मुख, सच्चतुमुख। शब्द्रों द्वारा गुणों का संकीर्तम। स्तुतियों का समूह, पूज्य पुरुषों का गुणानुवाद । बस्तु का ज्ञानकर उसी रूप में स्थापित करना स्थापना है; जल-कलशों के मध्यवर्ती स्थान में रखे सिंहासन पर जिनबिम्ब स्थापित करने की क्रिया, अभिषेक के निमित्त जिन-विम को विराजमान करना । पृथ्वी अप आदि काय के एकेन्द्रिय जीव अपने स्थान पर स्थित रहने के कारण अथवा स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर कहलाते हैं, ये जीव सूक्ष्म व बाहर दोनों प्रकार के होते हुए सर्वलोक में पाये जाते हैं। अनेकांतमयी वस्तु का कथन करने की पति का नाम स्याद्वाद है। आत्म और लोक-कल्याण के लिए चतुविशति तीर्थंकरों का मंगल स्मरण; क्षेमकल्याण/आशीर्वाच/पुण्य आदि का सूचक अव्यय । साधिया। पुष्पांजलि बढ़ाते समय स्वस्ति मंगल पढ़ना, यथा-- 'श्री वृषभो : स्वस्ति स्वस्ति श्री अजितः' आदि । स्वयं बारमा के लिए अध्ययन करना स्वाध्याय है, सद वचनों का अध्ययन इसका लक्ष्य है।
स्थावर
स्याद्वाद
स्वस्ति
स्वस्तिक
स्वस्तिपाठ
स्वाध्याय
Page #376
--------------------------------------------------------------------------
________________
स्वाहा
साधु
सिद्ध
सिद्धपूजा
सिद्धक्षेत्र
सिहासन
सोलहकारण
सोलहस्वप्न
( ३८३ )
शान्ति बीज, सर्वदर्शी, अग्नि-पत्नी, नाद शब्द में अग्नि सम्मिलित है- ( न = प्राण, द अग्नि), परम्परा से मन्त्र स्वाहाकार से रहित होता है जिसके अन्त में स्वाहाकार होता है वह विद्या है, देवोदन से हवि (द्रव्य) चढ़ाना |
जो सम्यक् दर्शन, ज्ञान से परिपूर्ण शुद्ध चारित्र्य को साधते हैं, सर्वजीवों में समभाव को प्राप्त हो वे साधु कहलाते हैं ।
जिन्होंने चार अघातिया कर्मों का नष्ट कर मोक्ष पा लिया है, सिद्ध कहते हैं ।
सिद्ध परमेष्ठी की पूजा, सिद्धचक्र पूजा ।
पाँच कल्याणकों में से मोक्ष कल्याणक जिस स्थल, क्षेत्र में सम्पन्न होता है उस क्षेत्र को सिद्धक्षेत्र कहते हैं ।
मूलपीठ से लाकर जिस आसन पर जिनबिम्ब को स्थापित विराजमान किया जाता है ।
भावना पुण्य-पाप, राग-विराग संसार व मोक्ष का कारण है, जीव को कुत्सित भावनाओं का त्याग कर उत्तम भावनाओं का चितन करना चाहिए, जिनवाणी में सोलह भावनाओं का उल्लेख है, इन भावनाओं का चितन सिद्ध फल का कारण है, अतः इन भावनाओं को सोलह कारण कहा गया है ।
सोलह स्वप्न जैनधर्म में प्रतीकात्मक शब्द है । यहाँ तीर्थकर जीव गर्भ में आने पर तीर्थंकर की म सोलह प्रकार के स्वप्न देखती हैं, ये स्वप्न इस प्रकार हैं- हाथी, बल, सिंह, पुष्पमाला, लक्ष्मी, पूर्णचन्द्र, सूर्य, युगल कलश, युगल मछली, सरोवर, समुद्र, सिंहासन, देवविमान, नागेन्द्र भवन, रत्नराशि, अग्नि; यह स्वप्न महत्वपूर्ण है तथा जीव के तीर्थंकर होने की भविष्य वाणी करते हैं ।
Page #377
--------------------------------------------------------------------------
________________
भानावरणी
अणुप्रती सम्बन्टि हो जायक कहते हैं। लक्ष्मीबीच।
कर्म परमाण जिनसे बात्मानस्वरूप पर बावरण हो जाता है अर्थात बालमानी विद्यलाई देता है उसे शामाबरनी कर्म कही। प्राण, अजपा, हं-श्वास लेने के समय की ध्वनि, स:-श्वास छोड़ने के समय को नि, इन दोनों का अयं 'सो अहम्' या महम् सः हुमा, प्रत्येक व्यक्ति दिन-रात में २१६०० सास लेता है, यानी अजपा जाप करता है। माया बीज, मन्त्रराज, ह्रींकार को २४ तीर्थकरों की शक्ति से समन्वित माना ज्या है, समस्ता, शिवा, सर्वतोमय, संवैमन्त्रमय, सिचाप, इसीलिए "ओं ह्री नमः" को मन्त्राभिराज कहा गया है, इसे 'आत्मबीज' भी कहा गया है, बत: इसका उपांशु माप करना चाहिए।
DOOOD
Page #378
--------------------------------------------------------------------------
_