Book Title: Jain Dharm aur Vidhva Vivaha 01
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली क्रम संख्या काल नं० खण्ड च्-टेट ४१.५॥ सहयंजा Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैकर नं० - जैनधर्म और विधवा विवाह (प्रथम भाग) लेखक:श्रीयुत “सव्यसाची" प्रकाशक :दौलतराम जैन, मंत्री जैन बाल विधवा सहायक सभा दरीबा कलाँ, देहली -reer शान्तिचन्द्र जैन के प्रबन्ध से "चैतन्य" प्रिन्टिङ्ग प्रेस, 'यजनौर में छपी। प्रथम वार ) पौष मूल्य . २०००वीर नि० सम्बत् २४५५ । - - - - Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धन्यवाद * इस ट्रैकृ के छपवाने के लिये निम्न लिखित महानुभावों ने सहायता प्रदान की है, जिनको सभा हार्दिक धन्यवाद देती है । साथ ही समाज के अन्य स्त्री पुरुषों से निवेदन करती है कि वे भी निम्न श्रीमानों का अनुकरण करके और अपनी दुखित बहिनों पर तरस खाकर इसी प्रकार सहायता प्रदान करने की उदारता दिखलावें : १०) लाला दौलतराम जैन, कटरा गौरीशंकर देहली । १०) लाला केसरीमल श्रीराम चावल वाले देहली । १०) लाला शिखरचन्द्र जैन । ५) लाला कश्मीरीलाल पटवारी बदवाले डाकखाना छपरोली / १०) मुसद्दीलाल लेखराज कसेरे मेरठ छावनी । १०) गुप्तदान ( एक जौहरी ) । १०) गुप्तदान ( एक बाबू साहिब ) | १०) गुप्तदान ( एक जौहरी ) | १०) गुमदान एक ठेकेदार ) | 4 ५) गुप्तदान ( एक सराफ ) । १०) गुप्तदान ( एक गोटेवाले ) । १०) ला० भन्नलाल शिवसिंहराय जैनी, शादरा देहली ११० ) कुल जोड़ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नम्र निवेदन यह पाठकों में छिपा नहीं है कि विधवा विवाह का प्रश्न दिन २ देश व्यापी होता जा रहा है। एक ममय था कि जब विधवा विवाह का नाम लेने ही म लोग भय खाते थे: आज यह समय आगया है कि सब से पीछे रहने वाले सनातन धर्मी और जैन धर्मा बड़े विद्वान भी इसका प्रचार करने में नन मन और धन में जुटे हुए दिखाई पड़ते है । यह देश के परम सौभाग्य की बात है कि अब सर्व साधारण को विधवा विवाह के प्रचार की आवश्यक्ता का अनुभव हो चला है । यद्यपि कही २ थोड़ा २ इसका विरोध भी किया जा रहा है, लेकिन मभ्य और शिक्षित समाज के सामने उस विरोध का अब कोई मूल्य नहीं रहा है। जैन समाज में भी यह प्रश्न जोरी में चल रहा है। कुछ लोग इसका विरोध कर रहे है । इस विषय पर निर्गय करने के लिय जैन समाज के परम विद्वान, अग्विल भारतवर्षीय सनातन धर्म महा सभा द्वाग 'विद्या वार्गिध की पदवी से विभूषित श्रीमान पं० चम्पतगय जी जैन बार-ट-ला, हरदोई ने जैन समाज के सामने कुछ प्रश्न हल करने को श्रीमान माहित्य रत्न पं० दरबागेलाल जी न्यायाध द्वारा सम्पादित मुप्रसिद्ध पत्र "जन जगत" ( अजमर ) में प्रकाशित कराये थे । इन प्रश्नों को श्रीयुत "मध्य नाची" महोदय ने इसी पत्र में बड़ी योग्यता से हल किया है कि जिसका उत्तर देने में लोग अब तक असफल रहे हैं। हम चाहते है कि समझदार जैन समाज पक्षपात को त्याग कर श्रीयुत 'सत्यमाची' की विना से लाभ उठाये । श्रतः Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) "श्री बैरिस्टर साहब के प्रश्नों का उत्तर" जैव जगत (अजमेर) से उद्धत करके कृ रूप में जैन समाज के लाभार्थ प्रकाशित किया जाता है। जो जैनी भाई विधवा विवाह के प्रश्न से डर कर दूर भागते हैं उनको चाहिये कि वे कृपा करके इस ट्रैकृको अवश्य पढ़ लेवें । श्राशा की जाती है कि जो जैन बन्धु ज्ञानावरणी कर्मों के उदय से "विधवा विवाह" को बुरा समझते हैं और समाज सुधार के शुभ कार्य में अन्तराय डाल कर पाप कर्म के भागी बनते हैं, उनको इसकी स्वाध्याय कर लेने पर विधवा विवाह की वास्तविकता का सच्चा स्वरूप सहज ही में दर्पणवत् स्पट दीखने लग जावेगा । को जैन श्रीयुत "सव्य साची" महोदय द्वारा दिये हुए उत्तर जगत में पढ़कर कल्याणी नामक किसी बहन की इसी पत्र में एक चिट्ठी छपी है। उस चिट्ठी में बहन कल्याणी ने श्री 'सव्य साची' जी से कुछ प्रश्न भी किये हैं। इन प्रश्नों का उत्तर भी श्री० 'सव्यसाची' जी ने उक्त 'जैन जगत' में छपवाये हैं । लिहाज़ा, बहन कल्याणी का पत्र व श्रीयुत सव्य साची द्वारा दिया हुआ इसका उत्तर भी इसी ट्रेक में 'जैन जगत' से लेलिया गया है। जो बातें पूर्व में रह गई थीं, वे प्रश्न करके बहन कल्याणी ने लिखवादी हैं । यह बात नहीं है कि यह ट्रैकृ केवल जैनियों के ही लिये लाभदायक हो, बल्कि जैनंतर बन्धु भी इसमें प्रकाशित विधवा विवाह की समर्थक युक्तियों से लाभ उठाकर विरोधियों को मुँह तोड़ उत्तर दे सकते हैं। किस उत्तमता के साथ धर्म चर्चा की गई है, यह बात इसके स्वाध्याय से ही मालूम होगी । - मन्त्री Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म और विधवा विवाह प्रश्न ( १ ) – विधवा विवाह से सम्यग्दर्शन का नाश हो जाता है या नहीं ? यदि होता है तो किसका ? विवाह करने कराने वालों का या पूरी जाति का ? उत्तर - विधवा विवाह से सम्यग्दर्शन का नाश नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन अपने श्रात्मस्वरूप के अनुभव का कहते हैं । श्रात्मस्वरूप के अनुभव का, विवाह शादी से कोई ताल्लुक नहीं । जब सातवें नरक के नारकी और पाँचों पाप करने वाले प्राणियों का सम्यग्दर्शन नष्ट नहीं होता तब, विधवा विवाह तो ब्रह्मचर्याशुवत का साधक है उससे सम्यक् दर्शन का नाश कैसे होगा ? विधवा विवाह श्रप्रत्याख्याना - वरण कषाय के उदय से होता है । श्रप्रत्याख्यानावरण कषाय से सम्यग्दर्शन का घात नहीं हो सकता । कहा जा सकता है कि विधवा विवाह को धर्म मानना तो मिध्यात्व कर्म के उदय से होगा, और मिथ्यात्व कर्म सम्यग्दर्शन का नाश करदेगा । इसके उत्तर में इतना कहना बस होगा कि यों तो विधवा विवाह ही क्यों, विवाह मात्र धर्म नहीं है क्योंकि कोई भी प्रवृत्तिरूप कार्य जैन शास्त्रों की अपेक्षा धर्म नहीं कहा जा सकता । यदि कहा जाय कि विवाह सर्वथा प्रवृत्यात्मक नहीं है किन्तु निवृत्यात्मक भी है, अर्थात् विवाह से एक स्त्री में राग होता है तो संसार की बाकी सब Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (8) स्त्रियों से विराग भी होता है । विराग श्रंश धर्म है, जिसका कारण विवाह है। इस लिए विवाह भी उपचार से धर्म कह लाता है। तो यही बात विधवा विवाह के बारे में भी है । विधवा विवाह से भी एक स्त्री में राग और बाकी सब स्त्रियों में विराग पैदा होता है । इस लिये कुमारी विवाह के समान विधवा विवाह भी धर्म है । "" यदि कहा जाय कि शास्त्रों में तो कन्या का ही विवाह लिखा है, इस लिए विधवा विवाह, विवाह ही नहीं हो सक्ता, तो इसका उत्तर यह है कि शास्त्रों में विवाह के सामान्य लक्षण में कन्या शब्द का उल्लेख नहीं है । राजवार्तिक में लिखा है - " सद्वेद्यचारित्रमोहोदयाद्विवहने विवाहः " - साता aritr और चारित्र मोहनीय के उदय से "पुरुष का स्त्री को और स्त्री का पुरुष को स्वीकार करना faवाह है । ऊपर जिस सिद्धान्त से विवाह धर्म-साधक माना गया है, उसी सिद्धान्त से विधवा विवाह भी धर्मसाधक सिद्ध हुआ है 1 इसलिए चरणानुयोग शास्त्र ऐसी कोई आज्ञा नही दे सकता जिसका समर्थन करणानुयोग शास्त्र से न होता हो । राजवार्तिक के भाष्य में तथा अन्य ग्रंथों में जो कन्या शब्द का उल्लेख किया गया है, वह तो मुख्यता को लेकर किया गया है । इस तरह मुख्यता को लेकर शास्त्रों में सैकड़ों शब्दों का कथन किया गया है। इसी विवाह प्रकरण में विवाह योग्य कन्या का लक्ष्ण क्या है, वह भी विचार लीजिए । त्रिवर्णाचार में लिखा है ➖➖➖➖ श्रन्यगोत्र भषां कन्यामनातङ्कां सुलक्षणाम् । श्रायुष्मती गुणाढ्यां च पितृदत्तां वरेद्वरः ॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात्-दुसरे गोत्र में पैदा हुई, नीगंग, अच्छे लक्षण वाली, आयुष्मती, गुणशालिनी और पिता के द्वारा दी हुई कन्या को वरण करे । यदि कन्या बीमार हो, या वह जल्दी मर जाय, नो क्या उसका विवाह अधर्म कहलायगा? जिस कन्या का पिता मर गया हो तो उसे कोन देगा और क्या उसका विवाह अधर्म कहलायगा ? यदि यह कहा जाय कि पिता का तात्पर्य गुरुजन से है तो क्या यह नहीं कहा जा सकता कि कन्या का तात्पर्य विवाह योग्य स्त्री से है ? कुमारी के अतिरिक्त भी कन्या शब्द का प्रयाग हाना है। दि० जैनाचार्य श्रीधरसेनान विश्वलोचन कोष में कन्या शब्द का अर्थ कुमारी के अनि रिक्त स्त्री सामान्य भी किया गया है । 'कन्या कमारिका नायर्या गशिभंदोषधीभिदाः।' ( विश्वलोचन, यान्तवर्ग, श्लोक ५ वाँ)। इसी तरह पद्मपुराण में भी सुग्रीव की स्त्री सुनारा को उस समय कन्या कहा गया है जब कि वह दो बच्चों की मां हो गई थी। 'केनोपायेन तां कन्यां लस्य निवृतिदायिनी ॥' सुतारा को कन्या कहने का मतलब यह है कि साहसगति विद्याधर उसे अपनी पत्नी बनाना चाहता था । धर्म मंग्रह श्रावकाचार में देवाङ्गनाओं को भी कन्या कहा है-- एवं चतुर्थ चीथीषु नृत्यशालादयः स्मृताः । पग्मत्र प्रनत्यंनि वैमाना मरकन्यकाः ।। देवाङ्गनाओं का कन्या इसी लिए कहा जाता है कि वे एक देव के मरने पर दूसरे देव की पत्नी बन सकती हैं। अगर कन्या शब्द का अर्थ कुमारी ही रक्खा जावे Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो दीक्षान्वय क्रिया में स्त्री पुरुष का पुनर्विवाह संस्कार कैसे होगा? पुनर्विवाह संस्कारः पर्वः सर्वोस्य संमतः । सिद्धार्चनां पुरस्कृत्य पल्याः संस्कारमिच्छतः। -श्रादिपुगण ३६ वाँ पर्व । ६० वाँ श्लोक । अर्थात्-जब कोई अर्जन पुरुष जैनधर्म की दीक्षा ले तो उसका और उसकी स्त्री का फिर विवाह करना चाहिए । जो लोग कन्या का अर्थ कुमारी ही करेंगे उनके मत से उम पुरुष की पत्नी का विवाह कैसे होगा ? क्या भगवजिनसेनाचार्य के द्वारा बताया गया पुनर्विवाह भी अधर्म है ? इससे साफ मालूम होता है कि शास्त्रों में कन्या शब्द कुमारी के लिए नहीं, किन्तु विवाह योग्य स्त्री के लिये आया है। शास्त्रों में विवाह का कथन श्रादर्श या बहुलता को लेकर किया गया है। सागारधर्मामृत में कन्या के लिए निदोष विशेषण दिया गया है। निर्दोष का अर्थ किया है-सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार दोषों से गहत । परन्तु ऐसी बहुत थोड़ी ही कन्याएं होंगी जिनमें सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार दोष न हो । तो क्या उनका विवाह धर्म विरुद्ध कहलायगा ? इस लिये जिस प्रकार कन्या के स्वरूप में उसके "अनेक विशेषण अनिवार्य नहीं है. उसी प्रकार विवाह के लक्षण में भी कन्या का उल्लेख अनिवार्य नहीं है । क्योंकि कन्या और विधवा में करणानुयांग की दृष्टि में कोई अन्तर नहीं है, जिसके अनुसार कन्या और विधवा के लिये जुदी जुदी दो प्राज्ञाए बनाई जायं । जो लोग कन्या शब्द को अनुचित Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महत्व देना चाहते हों उनको समझना चाहिये कि कन्या शब्द का अर्थ कुमारी नहीं, किन्तु विवाह योग्य स्त्री है । इस तरह भी विधवा विवाह आगम की आज्ञा के प्रतिकूल नहीं है । इस लिये उसका मिथ्यात्व के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है जिससे वह सम्यग्दर्शन का नाशक माना जा सके । प्रश्न (२)- पुनर्विवाह करने वाले सम्यक्त्वी होने पर स्वर्ग जा सकते हैं या नहीं ? । उत्तर-जा सकते हैं । जव पुनर्विवाह ब्रह्मचर्य अणुव्रत का साधक है तब उससे स्वर्ग जाने में क्या बाधा है ? स्वर्ग ता मिथ्यादृष्टि भी जाते हैं, फिर विधवा विवाह करने वाला तो अपनी पत्नी के साथ रहकर मम्यग्दृष्टि और छटवी प्रतिमा तक देशवती श्रावक भी हो सकता है और पीछे मुनिव्रत ले ले तो मोक्ष को भी जा सकता है । विधवा विवाह मोक्षमार्ग में उतना ही बाधक है जितना कि कुमारी विवाह ! स्वर्ग में दोनों ही बाधक नहीं है। दोनों से सोलहवें स्वर्ग तक जा सकता है । राजा मधुने चन्द्राभा को रख लिया था,फिर भी वह मर कर सोलहवें स्वर्ग गई । पहिले प्रश्न के उत्तर से इस प्रश्न के उत्तर पर पूरा प्रकाश पड़ जाता है प्रश्न (३)-विधवा विवाह से निर्यश्च और नरक गति का बंध होता है या नहीं ? उत्तर-विधवाविवाह से तिर्यश्च और नरक गति का बंध कदापि नहीं हो सकता, क्योंकि तिर्यञ्च गति और नरक गति अशुभ नाम कर्म के भीतर शामिल है। अशुभ नाम कर्म के बंध के कारण योग वक्रता और विसंवादन है । "योगवकता Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ) विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः' अर्थात् मन, वचन, काय की कुटिलता से अशुभ नाम कर्म का बन्ध होता है । विधवा विवाह में मन, वचन, काय की कुटिलता का कोई सम्बन्ध नहीं है,बल्कि प्रत्येक बान की सफाई अर्थात् सरलता है। इस लिए अशुभ नाम कर्म का बन्ध नहीं हो सकता। हाँ, जो विधवा-विवाह के विरोधी है, वे अधिकतर नरकगति और निर्यश्चगति का बन्ध करने हैं, क्योंकि उन्हें विसंवादन करना पड़ता है। विसंवादन से अशुभ नाम कर्म का बन्ध होता है । गजवार्तिक में विसंवादन का बुलासा इस प्रकार किया है सम्यगभ्युदयनि श्रेयसार्थासु क्रियासु प्रवर्तमानमन्यं काय वाङ्मनोभिर्विसंवादयति मैचं कार्षीरेवं कुर्विति कुटिलतया प्रवर्तन विसंवादनं । अर्थात् कोई मनुष्य स्वर्गमानोपयोगी क्रियाएँ कर रहा है उसे रोकना विसंवाद है । यह तो सिद्ध ही है कि विधवा विवाह अणुव्रत का माधक होने से स्वर्गमोक्षोपयोगी है । जो विधवाण पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकती हैं, उन्हें विधवा विवाह के द्वारा अविरति से हटा कर देशविरति दीक्षा देना है। इस दीक्षा को जो रोकते हैं, धर्म विरुद्ध बताते हैं, बहिष्कारादि करते हैं, वे पूज्यपाद अकलंक देव आदि के अभिप्राय के अनुसार विसंवाद करते है जिससे नरकगति और तिर्यश्चगति का बन्ध होता है। यदि नरकगति और नियंचगति से नरकाय और तिर्यचायु की विवक्षा हो तो इनका भी बन्ध विधवा विवाह से नहीं हो सकता क्योंकि बहुत प्रारंभ और बहुत परिग्रह से नरकायु का बन्ध होता है । विधवा विवाह में कुमारी विवाह Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( है ) की बस्ति आरम्भ और परिग्रह अधिक है ही नहीं, तब वह नरका का कारण कैसे हो सकता है ? तिर्यञ्चाय के बन्ध का कारण है मायावार । सो मायाचार तो विधवा विवाह के विरोधी ही बहुत करते हैं - उन्हें गुप्त पाप छिपाना पड़ते हैं इसलिये वे तिर्यञ्चायु का बन्ध अवश्य ही करते हैं । विधवा विवाह के पोपकों को मायाचारी से क्या मतलब ? इस लिए वे तिर्यञ्चाय का बन्ध नहीं करते । - हाँ यह बात दूसरी है कि कोई विधवा विवाह करने ' के बाद पाप करे जिससे इन अशुभ कर्मों का बन्ध हो जाय । लेकिन वह बन्य विधवा विवाह से न होगा, किन्तु पाप से हागा | कुमारी विवाह के बाद और मुनी वेष लेने के बाद भी तो लोग बड़े बड़े पाप करते हैं। इससे कुमारी विवाह और मुनिवेष बुरा नहीं कहा जा सकता। इसी तरह विधवा विवाह भी बुरा नहीं कहा जा सकता । प्रश्न ( ४ ) - यदि विधवा विवाह पाप कार्य है तो साधारण व्यभिचार से उसमें कुछ अन्तर होता है या नहीं ? यदि हां, तो कितना और कैसा ? . उत्तर- जब विधवा विवाह पाप ही नहीं है तो साधारण व्यभिचार से उसमें अन्तर दिखलाने की क्या ज़रूरत है ? खैर ! दोनों में अन्तर तो है, परन्तु वह 'कुछ' नहीं, 'बहुत' है । विधवा विवाह श्रावकों के लिये पाप नहीं है और व्यभिचार पाप है । वर्तमान में व्यभिचार को हम तीन श्रेणियों में बांट सकते हैं - ( १ ) परश्री सेवन, २ ) वेश्या सेवन ओर ( ३ ) विवाह के बिना ही किसी स्त्रो को पत्नी बना लेना । पहिला सबसे बड़ा है; दूसरा उससे छोटा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) है। सोमदेव प्राचार्य के मन से वेश्यामेवी भी ब्रह्मचर्याणुव्रती हो सकता है * परन्तु परस्त्री सेवी नहीं हो सकता। इससे वश्या मेवन हलके दर्जे का पाप सिद्ध होता है। किसी स्त्री को विवाह के बिना ही पत्नी बना लेना वेश्यासेवन से भी कन पाप है, क्योंकि वेश्यासेवी की अपेक्षा रखैल स्त्री वाले की इच्छाएँ अधिक मीमित हुई है। विधवा विवाह इन तीन श्रेणियों में से किसी भी श्रेणी में नहीं पाता, क्योंकि ये तीनों विवाह में कोई सम्बन्ध नहीं रखते। कहा जा मकना है कि विधवा विवाह परस्त्री सेवन में ही अन्तर्गत है, क्योंकि विधवा परस्त्री है । इसके लिये हमें यह समझ लेना चाहिये कि परस्त्री किसे कहते हैं और विवाह क्यों किया जाता है ? अगर कोई कुमारी, विवाह के पहले ही संभोग करें तो वह पाप कहा जायगा या नहीं ? यदि पाप नहीं है तो विवाह की ज़रूरत ही नहीं रहनी । यदि पाप है तो विवाह हो जाने पर भी पाप कहलाना चाहिये । यदि विवाह हो जाने पर पाप नहीं कहलाता और विवाह के पहिलं पाष कहलाता है तो इससे सिद्ध है कि विवाह, व्यभिचार दोष को दूर करने का एक अव्यर्थ साधन है । जो कुमारी श्राज परस्त्री है और जो पुरुष श्राज पर पुरुष है, वे ही विवाह हो जाने पर स्वस्त्री और म्वपुरुष कहलाने लगते हैं । इससे मालूम होता है कि कर्मभूमि में म्वस्त्री और स्वपुरुष जन्म में पैदा नहीं होने, किन्तु बनाये जाते हैं। कुमारी के समान विधवा * वधूवित्तस्त्रियो मुक्या सर्वान्यत्रऽनजने । मातास्वसा तनूजेति मनिर्बह्म गृहाश्रमे ॥ --यशस्तिलक Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) भी म्बस्त्री बनाई जा सकती है। विवाह के पहिले विधवा परम्त्री है, परन्तु विवाह के बाद म्वम्त्री हो जायगी । तब उस व्यभिचार कैसे कह सकते हैं ? जब विवाह में व्यभिचार दोष के अपहरण की ताकत है और कन्याओं के विषय में उसका प्रयोग किया जा चुका है तो विधवाओं के विषय में क्यों नहीं किया जा सकता है ? कहा जा सकता है कि स्त्री ने जब एक पति (म्वामी) बना लिया तब वह दूसरा पति कैसे बना सकती है ? इसका उत्तर यही है कि जब पुरुप, एक पत्नी (स्वामिनी) के रहने पर भी दृमरा पन्नी बना लेता है तो स्त्री विधवा होने पर भी क्यों नहीं बना सकती ? मुनि न बन सकने पर जिस प्रकार पुरुष दूसरा विवाह कर लेता है, उसी प्रकार स्त्री भी आर्यिका न बन सकने पर दृमग विवाह कर सकती है। स्त्री किमी की सम्पत्ति नहीं है। अगर सम्पत्ति भी मान ली जाय तो सम्पत्ति भी मालिक से वश्चित नहीं रहती है । एक मालिक मरने पर तुरन्त उसका दूसग मालिक बन जाता है। दृमग मालिक बनाना या बनना कोई पाप नहीं है। इससे साफ मालूम होता है कि विधवा विवाह और व्यभिचार में धरती आसमान का अन्तर है जैसे कि कुमारी विवाह और व्यभिचार में है। प्रश्न (५)-वैश्या और कुशीला विधवा के आन्तरिक भावों में मायाचार की दृष्टि में कुछ अन्तर है या नहीं? उत्तर- यद्यपि मायाचार सम्बन्धी अतरंग भावों का निर्णय होना कठिन है, फिर भी जब हम वश्या संबन और परस्त्री संवन के पाप में नरतमता दिखला सकते है ना इन दोनों के मायाचार में भी तरतमता दिखाई जा सकती Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) है | कुशीला विधवा का मायाचार बहुत अधिक है । वेश्या व्यभिचारिणी के वेश में व्यभिचार करती हैं, किन्तु कुशीला तो पतिव्रता के वेश में व्यभिचार करती है । वेश्या को अपने पाप छिपाने के लिये विशेष पाप नहीं करना पड़ते, परन्तु कुशीला को तो -छोटे मोटे पापों की बात छोड़िये - भ्रूणहत्या सरीखे महान पाप तक करना पड़ते हैं। कहा जा सकता है कि वेश्या को तो पाप का थोड़ा भी भय नहीं है, परन्तु कुशीला को है तो इस प्रश्न की मीमांसा करने के पहिले यह ध्यान में रखना चाहिये कि यहाँ प्रश्न मायाचार का है - वेश्या और कुशीला की तरतमता दिखलाना नहीं है किन्तु मायाचार की तरतमता दिखलाना है । सो मायाचार तो कुशीला विधवा का अधिक हैं, साथ ही साथ भयङ्कर भी है } इन दोनों में कौन बुरी है और कौन भली, इसके उत्तर मैं यही कहना चाहिये कि दोनों बुरी हैं। हाँ, हम पहिले कह चुके हैं कि परस्त्री सेवन से वेश्या सेवन में कम पाप है इसलिये कुशीला विधवा, वेश्या से भी बुरी कहलाई। कुशीला को जां पापका भय बतलाया जाता है वह पाप का भय नहीं हैं, किन्तु स्वार्थनाश का डर है । व्यभिचार प्रकट होजाने पर लोकनिंदा. होगी, अपमान होगा, घर से निकाल दी जाऊंगी, सम्पत्ति छिन जायगी, यदि वालों का डर होता है: यह पापका डर नहीं है | अगर पापका डर होता तो वह ऐसा काम ही क्यों करती ? और किया था तो छिपाने के लिये फिर और भी बड़े पाप क्यों करती ? खैर ! इन बातों का इस प्रश्नसे विशेष सम्बन्ध नहीं. है । हां, इतना निश्चित है कि कुशीला विधवा का मायाचार वेश्या से अधिक है और कुशीला विधवा अधिक भयानक हैं । - Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न (६)-ऐसी कुशीला, मायाचारिणी, भ्रणहत्या. कारिणी, विधवा को तीव्र पाप (नरकायु आदि ) का बन्ध होता है या नहीं ? और उसके सहकारियों को भी कृत कारित अनुमोदन के कारण नीव पापका बन्ध होता है या नहीं ? उत्तर-ऐसे पापियों को तीव्र पाप का बंध न होगा नो किम होगा ? साथ में इतना और समझना चाहिये कि विधवाविवाह के विरोधी भी ऐसे पापियों में शामिल होते हैं, क्योंकि उनकी कठोरताओं और पनपातपूर्ण नियमों के कारण ही स्त्रियों को ऐसे पाप करने पड़ते हैं । यद्यपि विधवाविवाह के विरोधियों में सभी लोग भ्रूणहत्याओं को पसन्द नहीं करते फिर भी उनमें फी सदी नव्चे ऐसे हैं जो भ्रणहत्या पसन्द करेंगे, परन्तु विधवाविवाह का न्यायोचित मार्ग पसन्द न करेंगे। अगर हम वृव म्वादिष्ट भोजन करें और दूसरों को एक टुकड़ा भी न खाने दें ता उन्हें म्वाद के लिये नहीं तो क्ष धा शान्ति के लिये चोरी करना ही पड़ेगी। और इसका पाप हमें भी लगेगा। इसी तरह भ्रूणहत्या का पाप विधवा विवाह के विरोधियों को भी लगता है। प्रश्न (७)-वर्तमान समय में कितनी विधवाएँ पूर्ण पवित्रता से वैधव्य व्रत पालन कर सकती हैं ? उत्तर—यों तो भव्यमात्र में मोक्ष जाने तक की ताकत है, लेकिन अवस्था पर विचार करने से मालूम होता है कि वृद्ध विधवाओं को छोड़कर बाकी विधवाओं में फीसदी पाँच ही ऐसी होगी जो पवित्रता से वैधव्य का पालन कर सकती हो । विधुगे में कितने विधुर जीवन पर्यन्त विधुरत्व का पालन करते हैं ? विधवाओं के लिये भी यही बात है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न (E)-व्यभिचार से किन २ प्रकृतियां का बन्ध होता है और विधवा-विवाह से किन किन प्रकृतियों का बन्ध होता है ? उत्तर-~व्यभिचार से चारित्र माहनीय का नीव बन्ध हाना है और विधवाविवाह से कुमागविवाह के ममान चारित्र मोह का अल्प बन्ध होना है। व्यभिचार सं पुगयबन्ध नहीं होता, परन्तु विधवाविवाह से पुरायबन्ध होता है। और वर्त. मान परिस्थिति में तो कुमारी विवाह से भी अधिक पुगयवन्ध विधवाविवाह से होता है, क्योंकि वर्तमान में जो विधवा विवाह करता है वह भ्रणहत्या और व्यभिचार आदि को रोकने की कोशिश करता है, स्त्रियों के मनुष्यांचित अधिकार दिलाता है । इस प्रकार के करुणा तथा परोपकार के भावोस उसे तीव्र पुगय का बन्य होता है, जो कि व्यभिचारी के और विधवाविवाह के विरोधियों के नहीं हो सकता। विधवाविवाह से दर्शनमोह का बन्ध नहीं हो सकता, क्योंकि विधवाविवाह धर्मानुकूल है । विधवाविवाह में योग देने वाला धर्म के मर्म को जान जाता है, स्याद्वाद के रहस्य से परिचित हो जाता है। यही तो सम्यक्य के चिन्ह है। विधवा विवाह के विरोधी एकान्तमिथ्यात्वी हैं, वे श्रृत और धर्म का अवर्णवाद करते हैं इसलिये उन्हें तीव्र मिथ्यात्व का बन्ध होता है । अन्य पाप प्रकृतियों का तो कहना ही क्या है ? प्रश्न (6)-विवाह के बिना, काम लालसा के कारण जो संक्लेश परिणाम होते हैं, उनमें विवाह होने से कुछ न्युनता आती है या नहीं? Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) उत्तर-'कुछ' नहीं, किन्तु 'बहुत' न्यूनता पानी है। विवाह के बिना तो प्रत्येक व्यक्ति को देख कर पापवासना जाग्रत होती है और वह वासना सदा ही जाग्रत रहती है। किंतु विवाह से तो एक व्यक्ति को छोड़कर बाकी सबके विषय में उसकी वासना मिट जाती है और वह वासना भी सदा जाग्रत नहीं रहती। कहा जा सकता है कि जिनकी काम लालसा अतिप्रबल है. उनकी विवाह होने पर भी शान्त नहीं होती। अनेक विवाहिन पुरुष और सश्या स्त्रियाँ व्यभिचारदूषित पायी जाती हैं, यह ठीक है। किन्नु विवाह तो व्यभिवार को रोकने का उपाय है। उपाय, मो में दस जगह असफल भी होता है, किन्तु इससे यह निरर्थक नहीं कहा जा सकता। चिकित्सा करने पर भी लोग मरत है, शास्त्री बन करक भी धर्म को नहीं समझते. मुनि बन करके भी बड़े २ पाप करते हैं, इससे चिकित्मा आदि निरर्थक नहीं कह जा सकते। यदि विवाह होने पर भी किन्हीं लोगों की काम वासना शान्त नहीं होती ना इससे सिर्फ विधवाधिवाह का ही निषेध कसं हो सकता है ? फिर तो विवाह मात्र का निषेध करना चाहिय और समाज से कुमार, कुमारियों के विवाह की प्रथा उड़ा देना चाहिये, क्योंकि व्यभिचार तो विवाह के बाद भी होता है । यदि कुमार कुमारियों के विवाह की प्रथा का निषेध नहीं किया जा सकता तो विधवाविवाह का भी निषेध नहीं किया जा सकता। एक महाशय ने लिखा है-"वास्तव में विवाहका उद्दे. श्य काम लालसा की निवृत्ति नहीं है । विवाह इस जघन्य एवं Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) कुतिमन उद्देश्य से सर्वथा नहीं किया जाता है, किन्तु वह मोक्ष मागोपसंयी स्वपर हितकारक शुद्ध संतान की उत्पत्ति के लिये ही किया जाता है । इस लिये वह शास्त्रविहित, मोक्षमार्ग सा'घक, धर्म कार्य माना गया है । इस लिये विवाह होने पर काम लालमा के संक्लेश परिणामों की निवृत्ति उतना ही गौण कार्य है जितना किसान को भूसे का लाभ ।” जो लोग विवाह का उद्देश्य काम लालसा की निवृत्ति नहीं मानते हैं और काम लालसा की निवृत्ति को जघन्य और कुन्मित उद्देश्य समझते हैं उनकी विद्वत्ता पर हमें दया आती है। ऐसे लोग जब कि जैन धर्म की वर्गमाला भी नहीं समझते तव क्यों गहन विषयों में टांग अडाने लगते है ? क्या हम पूछ सकते हैं कि 'काम लालम्मा की निवृत्ति' यदि जघन्य और कुन्सिन है तो क्या काम लालसा में प्रवृत्ति करना अच्छा है ? सच है, जो लोग एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी श्रादि स्त्रियों के साथ मौज उड़ा रहे हैं, वे काम लालसा के त्याग को कुत्सित और जघन्य समझ ना इसमें श्राश्चर्य की क्या बात है ? खैर, अब हमें यह देखना चाहिये कि विवाह का उद्देश्य क्या है ? विवाह गृहस्थाश्रम का मूल है गृहस्थाश्रम धर्म, अर्थ, काम तीनों पुरुषार्थों का साधक है। काम लालसा की जितनी निवृत्ति होती है उतना अंश धर्म है: जितनी प्रवृत्ति होती है उतना काम है । अर्थ इसका साधक है । इससे साफ़ मालम होता है कि विवाह काम-लालसा की प्रांशिक निवृत्ति के लिये किया जाता है । शास्त्रकार कहते हैं Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ ) न्याज्यानजस्त्रं विषयान् पश्यतोऽपि जिनालया। मोहात्त्यनुम शक्तस्य गृहिधर्मोनुमन्यते ॥ अर्थात्-जिनेन्द्र की प्राशा से जो विषयों को छोड़ने योग्य समझता है, किन्तु फिर भी चारित्र माह कर्मकी प्रबलता से उनका त्याग नहीं कर सकता, उसकी गृहस्थ धर्म धारण करने की सलाह दी जाती है । इससे साफ़ मालूम होता है कि विवाह लड़कों बच्चों के लिए नहीं, किन्तु मुनि बनने की असमर्थता के कारण किया जाता है । हमारे जैन पंडितों ने जब से वैदिक धर्म की नकल करना सीखा है, तब से वे धर्म के नाम पर लड़कों बच्चों की बात करने लगे हैं । वैदिक धर्म में तो अनेक ऋण माने गये है जिनका चुकाना प्रत्येक मनुष्य को श्रावश्यक है । उनमें एक पितृ ऋण भी है। उनके खयाल से संतान उत्पन्न कर देने म पितृ ऋण चुकजाता माना गया है किन्तु जैन धर्म में ऐसा कोई पितृ ऋण नही माना गया है जिसके चुकाने के लिये सन्तानोत्पत्ति करना धर्म कहलाता हो । विवाह का मुख्य उद्देश्य काम लालसा की उच्छखलता को रोकना है । हां, ऐसी हालत में सन्तान भी पैदा हो जाती है। यह भी अच्छा है, परंतु यह गौण फल हैं । सन्तानोत्पत्ति और काम लालसा की निवृत्ति, इनमें गौण कौन है और मुख्य कौन है, इसका निबटारा इस तरह हो जायगा-मान लीजिए कि किमी मनुष्य में मुनिव्रत धारण करने की पूर्ण योग्यता है । ऐसी हालत में अगर वह किमी आचार्य के पास जावे तो वह उसे मुनि बनने की सलाह देगे या श्रावक बनकर पुत्रोत्पत्ति करने की सलाह देंगे? शास्त्रकार तो इस विषय में यह कहते हैं Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) बहुशः समस्त विरति प्रदर्शितां यो न जानु गृहणाति । तस्यैक देश विरतिः कथनीयानेन बीजेन ॥ यो यति धर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्म मल्पमतिः । तम्य भग्वत्प्रवचने, प्रदर्शितं निग्रहस्थानं ॥ अक्रमकथनेन यतः प्रोत्महमानोऽति दूरमपिशिष्यः । अपदेऽपि संप्रतृप्तः प्रतारितो भवति तेन दुर्मतिना ॥ महावत का उपदेश देने पर जो महाव्रत ग्रहण न कर सके उसे अणुव्रत का उपदेश देना चाहिये । महाव्रत का उपदेश न देकर जो अणुव्रत का उपदेश देता है वह निग्रहीत है। क्योंकि अगर किसी के हृदय में मुनिव्रत धारण करने का उत्साह हो और बीच में ही अणुव्रत का उपदेश सुनकर वह सन्तुष्ट हो जाय तो उसके महादत पालन करने का मौका निकल जायगा। इससे साफ़ मालूम होता है कि प्राचार्य, अणुव्रत धारण करने की मलाह तभी देते हैं जब कोई महाव्रत न पाल सकता हो । अणुव्रत लड़कों बच्चों के लिए नहीं,किंतु महावत पालन करने की असमर्थता के कारण किया जाता है। अणुवत के साथ आंशिक प्रवृत्ति होने से सन्तान भी उत्पन्न हो जाती है। यह अणुव्रत का गौणफल है, जैसे किसान के लिये भूमा। लड़को बच्चों को जो मुख्यता देदी जाती है उसका कारण है समाज का लाभ । व्रत से वती का कल्याण होता है और सन्तान से समाज का । इस लिये व्रती को व्रत मुख्य फल है और सन्तान गौण फल है। दृसरे लोगों को सन्तान ही मुख्य है । जैसे-अन्न किसान को मुख्य है भूसा गौण । किन्तु किसान के घर रहने वाले बैलों को तो भूसा ही मुख्य है और अन्न गौण, क्योंकि बैलों को तो Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) भूमा ही मिलेगा, अन्न नहीं । व्रती के व्रत का लाभ तो वृती ही पावेगा. दूसगै को नहीं मिल सक्ता, किन्तु उसकी संतान से दूसरे भी लाभ उठावेंगे, समाज की स्थिति कायम रहेगी इस लिये मामाजिक दृष्टि से सन्तान मुख्य फल है, परन्तु धार्मिक दृष्टि से व्रत ही मुख्य फल है, पुत्रादिक नहीं । धार्मिक दृष्टि में 'पुत्तसमो वैरियाणन्थि' (पुत्र के समान कोई वैरी नहीं है ) इत्यादि वाक्यों से संतान की निन्दा ही की गई है। इस लिये धार्मिक दृष्टि से संतान के लिय विवाह मानना अनुचित है । वह काम वासना का सीमित करने के लिए किया जाता है। इसी बात को दूसरे स्थान पर और भी अच्छे शब्दों में कहा है। विग्य विषमाशनास्थित मोहज्वर जनिततोब तृष्णम्य । निःशाक्तिकस्य भवतः प्रायः पयाद्य पक्रमः श्रेयान ॥ “विषय रूपी अपथ्य भोजन से उत्पन्न हुआ जो मोह रूपी ज्वर, उस ज्वर से जिसको बहुत ही तेज़ प्यास लग रही है, और उस प्यास को सहने की जिसमें ताकत नहीं है उसको कुछ पीने योग्य श्रोषध देना अच्छा है। ___ मतलब यह है कि उमें प्यास तो इतनी लगी है कि लोटे दो लोटे पानी भी पी सकता है, परन्तु वैद्य समझता है कि ऐसा करने से बीमारी बढ़ जायगी । इसलिए वह पीने योग्य प्रोग्य देता है जिससे वह प्याम न बढने पाये । इसी वरह जिसकी विषय की आकांक्षा बहुत तीव, है, उसको विवाह डाग पंप औषध दी जाती है जिससे प्याम शांत रहे और गोग न बढ़ने पाये । मतलब यह की जैन शास्त्रों के अनुसार विवाह का मुख्य उद्दश्य विषय वासना को मीमित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) करना है। यह बात विधवा विवाह से भी होती है। अगर किसी विधवा बाई को विषय वासना रूपी तीव, प्यास लगी है तो उसे विवाह रूपी पेय औषध क्यों न देनी चाहिये ? मर्द तो औषध के नाम पर लोटे के लोटे गटका करें और विधवाओं को एक बूंद औषध भी न दी जाय, यह कहाँ की दया है ? कहाँ का न्याय है ? कहाँ का धर्म है ? विवाह में जिस प्रकार पुरुषों के संक्लेश परिणाम मंद होते हैं, उसी प्रकार स्त्रियोंक भी होते हैं । फिर पुरुषों के साथ पक्षपात और स्त्रियों के साथ निर्दयता का व्यवहार क्यों ? धर्म तो पुरुषों की ही नहीं, स्त्रियों की भी सम्पत्ति है। इस लिय धर्म ऐमा पक्षपात कभी नहीं कर सकता। प्रश्न (१०)-प्रत्येक बाल विधवा में तथा प्रौढ विधवा मैं भी आजन्म ब्रह्मचर्य पालने की शक्ति का प्रगट होना अनिवार्य है या नहीं ? उचर-नहीं। यह बात अपने परिणामों के ऊपर निर्भर है । इसलिय जिन विधवाओं के परिणाम गृहस्थाश्रम से विरक्त न हुए हों उन्हें विवाह कर लेना चाहिय । कहा जा सकता है कि जैसे मुनियों में वीतरागता आवश्यक होने पर भी सरागता आजाती है, उसी प्रकार विधवाओं में भी होसकती है. लेकिन ये शीलभ्रष्ट ज़रूर कहलायँगी। मुनि भी सरागता से भ्रष्ट मानाजाता है।" यह बात ठीक है। शक्ति न होने से हम अधर्म को धर्म नहीं कह सकते। परन्तु यहाँयह बात विचारणीय है कि जो कार्य मुनिधर्मसे भ्रष्ट करता है क्या वही श्रावकधर्म से भी भ्रष्ट करता है ? विवाह करने से प्रत्येक व्यक्ति मुनिधर्म से भ्रष्ट होजाता है, परन्तु क्या विवाह से श्रावक धर्म भी छूट जाता है ? क्या Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) विवाह करने वाले का अणुक्त सुरक्षित नहीं रह सकता ? हमारे ख़याल से तो कन्या भी अगर आर्यिका होकर फिर विवाह करे तो भ्रष्ट है और विधवा अगर आर्यिका आदि की दीक्षा न लेकर विवाह करले तो भ्रष्ट नहीं है । यह ठीक है कि पति के मरजाने पर स्त्री वैधव्यदीक्षा ले तो अच्छा है, परन्तु लेना न लेना उसकी इच्छा पर निर्भर है। यह नहीं हो सकता कि वह तो वैधव्यदीक्षा लेना न चाहे और हम ज़बर. दम्ती उसके सिर टीक्षा मढदे। स्त्री के समान पुरुष का भी कर्तव्य है कि वह पत्नी के मर जाने पर दीक्षा लेले । बृद्धों को ता वासकर मुनि बनजाना चाहिये। परन्तु श्राज कितने वद्ध मुनि बनते हैं ? कितने विधुर दीक्षा लेते है ? जो लोग मुनि नहीं बनते और दमग विवाह करलेते है वे क्या भ्रष्ट कहे जाते हैं अगर वे भ्रष्ट नहीं है, तो विधवाएँ भी भ्रष्ट नहीं कही जासकती। पुरुषका शीलभङ्ग तभी कहलायगा जबकि वे विवाह न करके संभोग करें। इसी तरह विधवाएँ शीलभ्रष्ट तभी कहलावेगी जबकि वे विवाह न कर के मंभोग करें या उसकी लालसा रकावे। प्रश्न (११)-धर्मविरुद्ध कार्य, किसी हालत में (उससे भी बढ़कर धर्मविरुद्ध कार्य अनिवार्य होने पर ) कर्तव्य हो सकता है या नहीं? उत्तर-जैनधर्म का उपदेश अनेकान्त की अपेक्षासे है। जो कार्य किमी अपेक्षासे धर्मविरुद्ध है वही दूसरी अपेक्षा से धर्मानुकूल भी है । मुनि के लिये विवाह धर्मविरुद्ध है, श्रायक के लिये धर्मानुकूल है । पति के मरने पर जिसने आर्यिका की दीक्षा ली है उसके लिये विवाह धर्मविरुद्ध है और जिस Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) विधवा के व्रत, सप्तम प्रतिमासे नीचे है उसके लिये विवाह धर्मानुकूल है । श्रावक अगर श्राहार दान दे तो धर्मानुकूल है और मुनि अगर ऐसा करे तो धर्मविरुद्ध है। भाषा गुप्ति का पालन करने वाला (मानव्रती) अगर सच बात भी बोले तोधर्म विरुद्ध है और समिति का पालन करने वाला बोल तो धर्मानुकृल है। मतलब यह है कि जैन धर्म में कोई कार्य सर्वथा धर्मविरुद्ध नहीं कहा जाता । उसके साथ अपेक्षा रहती है। यपि जैनधर्म में यह नहीं कहा गया है कि एक अनर्थ के लिये दमण अनर्थ करी: फिर भी इतनी श्राशा अवश्य है कि बहुत अनर्थ शे गंकने के लिये थोड़े अनर्थ की श्रावश्यक्ता हो तो उसका प्रयोग कगे। दूसरे अनर्थ का निषेध है,परन्तु उम अनर्थ के कम करने का निषेध नहीं है-जैसे पक श्रादमी सब तरह के मांस खाता था, उसने काक मांस छोड़ दिया तो यद्यपि वह अन्य मांस खाता रहा, फिर भी जितना अनर्थ उमन रोका उतना ही अच्छा किया। नासमझ व्यक्ति जैनधर्म के ऐस कथन को यक्तिप्रमागशुन्य प्रमत्त उपदेश समझते है,परन्तु जैनधर्म के उपदेश में कोरी लढवाज़ी नहीं है-उसके भीतर वैतानिक विचार पद्धति मोजूद है । अगर कोई कह कि क्या बड़े बड़े पापों की अपेक्षा छोटे छोटे पाप ग्राह्य है ? तो जैनधर्म कहेगा-अवश्य । सप्तव्यसन का सेवी अगर सिर्फ व्यभिचारी रहजाय तो अच्छा (यद्यपि व्यभिचार पाप है) व्यभिचारी अगर परस्त्री का त्याग कर सिर्फ वेश्या संवी रहजाय तो अच्छा है ( यद्यपि वेश्या सेवन पाप है) वश्या सेवन का भी त्याग करके अगर कोई स्व. स्त्री सेवी ही रह जाय तो अच्छा ( यद्यपि महानत की अपेक्षा स्वस्त्री सेवन भी पाप है): यह विषय इतना स्पष्ट है कि ज्यादा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं । जैनधर्म का मामूली विद्यार्थी भी कह सकता है कि जो कार्य एक व्यक्ति के लिये धर्मविरुद्ध है वही दूसरे के लिये धर्मानुकूल भी हो सकता है । प्रश्न ( १२ ) - छोटे २ दुधमुंहे बच्चों का विवाह धर्म विरुद्ध है या नहीं ? उत्तर- दुधमुहे अर्थात् विवाह के विषय में नासमझ बच्चों का विवाह नहीं हो सकता । समाज के चार आदमी भले ही उसे विवाह मान लें, परन्तु धर्मशास्त्र उसे विवाह नहीं मानता। जो लोग उसे विवाह मानते हैं उनका मानना धर्म विरुद्ध है । अगर ऐसे विवाह हो जायें तो उन्हें विवाह न मानकर उचित अवस्था में उनका फिर विवाह करना चाहिये । अन्यथा उनकी सन्तान कर्ण के समान नाजायज़ सन्तान कहलावेगी | विवाह के लिये वर कन्या में दो बातें आवश्यक हैंविवाह के विषय में अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान और चारित्र मोहनीय के उदय से होने वाले राग परिणाम अर्थात् वह कामलालसा जो कि मुनि, श्रर्यिका श्रथवा उच्चवती न बनने दे । इन दो बातों के विना तीन लोक के समस्त प्राणी भी अगर किसी का विवाह करें तो भी नहीं हो सकता । जो लोग इन दो बातों के बिना विवाह नाटक कराते हैं वे धर्मद्रोही हैं। छोटी उमर में शास्त्रानुसार नियतविधि के अनुसार विवाह का नाटक हो सकता है, परन्तु विवाह नहीं हो सकता । क्योंकि जब उपादान कारण का सहयोग प्राप्त नहीं है तब सिर्फ निमित्तों के ढेर से क्या होसकता है ? विवाह के लिये शास्त्रानुसार नियत विधि की आवश्यकता अनिवार्य नहीं है, परन्तु उपर्युक्त दो बातें अनिवार्य हैं । गान्धर्व विवाह में शास्त्रानु Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार नियत विधि नहीं होती, फिर भी वह विवाह है और उस विवाह से उत्पन्न संतान मोक्षगामी तक होती है। इसी विवाह से रुक्मणीजी कृष्णजी की पटगनी बनी थीं और उनसे तद्भव मोक्षगामी प्रद्युम्न पैदा हुए थे। इसलिये शास्त्रानुसार विधि हो या न हो, परन्तु जहाँ पर उपयुक्त दो बातें होगी वहाँ पर धर्मानुकूलता है और उनके बिना धर्मविरुद्धना है। प्रश्न (१३)-विधवा होने के पहिले जिन्होंने पन्नीन्य का अनुभव नहीं किया, उन्हें विधवा कहना कहाँ तक उचित है ? उत्तर--१२ में प्रश्न के उत्तर में इसका भी उत्तर श्रा सकता है। वहाँ कही हुई दो बातों के बिना जो विवाहनाटक होजाता है उसके द्वारा उन दोनों बच्चों को पति पत्नीत्व का अनुभव नहीं होता। वे नाटकीय पति पनि कहलाते हैं । ऐसी हालत में अगर वह नाटकीय पनि मरजाय तो वह नाटकीय पत्नी नाटकीयविधवा कहलायेगी । पन्नीत्व के व्यवहार और पन्नीत्व के अनुभव में बहुत अन्तर है। व्यवहार के लिये तो चारों निक्षेप उपयोगी हो सकते हैं, परन्तु अनुभव के लिये सिर्फ भावनिक्षप ही उपयोगी है। बालविवाह के पति-पत्नी व्यवहार में स्थापना निक्ष पसे काम लिया जाता है। जो लोग उसे भाव निक्षप समझ जाते हैं अथवा व्यवहार और अनुभव के अन्तर को नहीं समझते, उनकी विद्वत्ता (?) दयनीय हैं। प्रश्न (१४)-क्या पत्नी बनने के पहिले भी कोई विधवा हो सकती है ? और पत्नी बनकर व्रत ग्रहण करने में वती के भावो की ज़रूरत है या नहीं? Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) उत्तर-पत्नी बनने के पहिले कोई विधवा नहीं हो सकती। इस लिये यह दृढ़ता से कहा जा सकता है कि जिन बालिकाओं को लोग विधवा कहते हैं वे विधवा नहीं हैं क्योंकि बाल्यावस्था का विवाह उपर्यन दो बातो के न होने से विवाह ही नहीं है। जिसका विवाह ही नहीं उसमें न तो पत्नीपन आ सकता है न विधवापन । वून ग्रहण करने में बनी के भावों की ज़रूरत है-भाव के बिना क्रिया किसी काम की नहीं । शास्त्रकार तो कहते है--'यम्माक्रियाः प्रतिफलन्ति न भावशन्याः' अर्थात् भावरहित क्रियाओं का कुछ फल नहीं होता । अर्थात् भावशन्य क्रियायों के द्वारा शुभाशुभ बंध और संवर आदि नहीं होते। जो लोग यह कहते हैं कि 'अनेक संस्कार बाल्यावस्था में ही कराये जाते हैं इस लिये भावों के बिना भी व्रत कहलाया' वे लोग व्रत और संस्कार का अन्तर नहीं समझते। व्रत का लक्षण स्वामी समन्तभद्राचार्य ने यह लिखा है : अभिसन्धिकृता विरतिः विषयाद्योगाव्रतं भवति । अर्थात्--योग्य विषय से अभिप्राय (भाव) पूर्वक विरक्त होना व्रत कहलाता है। वाहादृष्टि से त्यागी हो जाने पर भी जब तक अभिप्राय पूर्वक त्याग नहीं होता तब तक चूत नहीं कहलाता है। संस्कार कोई वत नहीं है, परन्तु वूती बनने को योग्यता प्राप्त करने का एक उपाय है । वृत पाठ वर्ष की उमर के पहिले नहीं हो सकता, परंतु संस्कार तो गर्भावस्था से ही होने लगते हैं। संस्कार से योग्यता पैदा हो सकती है ( योग्यता का होना अवश्यम्भावी नहीं है) लेकिन व्रत तो योग्यता पैदा होने के बाद इसके उपयोग होने पर Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) ही हो सकते हैं। संस्कार से हमारे ऊपर प्रभाव पड़ता है और वह प्रभाव प्रायः दूसरों के द्वारा डाला जाता है: परंतु व्रत दूसरों के द्वारा नहीं लिया जा सकता। संस्कार तो पात्र में श्रद्धा, समझ और त्याग के बिना भी डाले जा सकते हैं, परंतु व्रत में इन तीनों की अत्यंत श्रावश्यकता रहती है । इस लिये भावों के बिना व्रत ग्रहण हो ही नहीं सकता | वर्तमान में जो अनिवार्य वैधव्य की प्रथा चल पड़ी हैं, वह वन नहीं है, किन्तु अत्याचारी, समर्थ, निर्दय पुरुषों का शाप है जो कि स्त्रियों को उनकी कमज़ोरी और मूर्खना के अपराध ( ? ) में दिया गया है 1 प्रश्न ( १५ ) – जिसने कभी अपनी समझ में ब्रह्मचर्याव्रत ग्रहण नहीं किया है उसका विवाह करना धर्म है या धर्म ? उत्तर- -जो मुनि वा श्रायिका बनने के लिये तैयार नहीं है या सप्तम प्रतिमा भी धारण नहीं कर सकता उसे विवाह कर लेना चाहिये चाहे वह विधुर हो या विधवा, कुमार हो या कुमारी । ऐसी हालत में किसी को भी faare की इच्छा होने पर विवाह कर लेना अधर्म नहीं है । प्रश्न (१६) जिसका गर्भाशय गर्भधारण करने के लिये पुष्ट नहीं हुआ है उसका गर्भ रह जाने से प्रायः मृत्यु का कारण हो जाता है या नहीं ? -~ -- उत्तर- इस प्रश्न का सम्बन्ध वैद्यक शास्त्र से है । वैद्यक शास्त्र तो यही कहता है कि १६ वर्ष की लड़की और बीस वर्ष का लड़का होना चाहिये: तभी योग्य गर्भाधान हो सकता है। इससे कम उमर में अगर गर्भाधान किया जाय तो Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) सन्तान अल्पायु या रोगी होगी अथवा गर्भ स्थायी न रहेगा। बहुत से लोग यह समझते हैं कि स्त्री को पुष्पवति हो जाने से ही गर्भाधान की पूर्ण योग्यता प्राप्त हो जाती है। लेकिन प्राकृतिक नियम इसके बिलकुल विपरीत है। अंड, पोपइया श्रादि फलो के वृक्षोंमें जब पुष्प अाते हैं हो चतुर माली उन्हें निष्फल ही झड़ा देता है । कोकि अगर ऐसा न किया जाय ता फल बहुत छोटे, बेस्वाद और रही होते हैं । श्राम के वृक्ष में अगर सब फूलों के आम बनने लगे तो आम बिलकुल रद्दी होंगे,उनका श्राकार गई के दाने से शायद ही बड़ा हो सके । इसलिये प्रकृति फी सदी ६ पुष्पों को निष्फल झड़ादेती है । तब कहीं अच्छे ग्राम पैदा होते हैं । सभी वृक्षों के विषय में यह नियम है कि अगर आप उनसे अच्छा फल लेना चाहते हैं तो प्रारम्भ के पुष्पों को फल न बनने दीजिये और मात्रा से अधिक फल न लगने दीजिये । नारी के विषय में भी यही बात है। वहाँ भी रजोदर्शन के बाद तुरन्त ही गर्भाधान के साधन न मिलना चाहिये, अन्यथा मृत्यु आदि की पूरी सम्भावना है। कहा जा सकता है-मृत्यु भले ही हो, परंतु उसका पाप नहीं लग सकता । लेकिन यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि यन्ना. चार न करने से प्रमाद होता है और 'प्रमत्त यांगान प्राणव्य. परोपणं हिंसा' इस मूत्र के अनुसार वहाँ हिंसा भी है। जब हम जानते हैं कि ऐसा करने से हिमा हो जायगी, फिर भी हम वही काम करें तो इससे हिंसा का अभिप्राय, अथवा हिंसा होने से लापर्वाही सिद्ध होती है जो कि पापबंध का कारण है । घरमें स्त्रियों को यह शिक्षा दी जाती है कि पानी को ढककर रक्खा करो, नहीं तो कीड़े मकोड़े गिर कर मर Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) जायंगे । यद्यपि स्त्रियों के हृदय में कीड़े मकोड़े मारने का अभिप्राय नहीं है फिर भी प्रयत्नाचार से जो प्रमाद होता है उसका पाप उन्हें लगता है । जब इस प्रयत्नाचार से पाप लगता है तब जिस प्रयत्नाचार से मनष्यों को भी प्राणों से हाथ धोना पड़े तो उससे पाप का बंध क्यों न होगा? प्रश्न (१७)-किसी समाज की पांच लाख औरतों में एक लाख तेतालीस हजार विधवाएँ शोभा का कारण हो सकती हैं या नहीं ? उत्तर-जिस समाज में विधवाओं को पुनर्विवाह करने का अधिकार है, उनका पुनर्विवाह किसी भी तरह से हीनदृष्टि से नहीं देखा जाता, स्त्रियों को इस विषय में कोई संकोच नहीं रहता, उस समाज में कितनी भी विधवाए हो व शोभा का कारण हैं । क्योंकि ऐसी समाजों में जो वैधव्य का पालन किया जायगा वह जबर्दस्ती से नहीं, त्यागवृत्ति से किया जायगा और त्यागवृत्ति तो जैनधर्म के अनुसार शोभा का कारण है ही, लेकिन जिस समाज में वैधव्य का पालन ज़बर्दस्ती करवाया जाता है, वहाँ पर कोई भी विधवा शोभा का कारण नहीं है, क्योंकि वहाँ कोई वैधव्यदीक्षा नहीं लेता-वह तो बन्दी जीवन है । बन्दियों से किसी भी समाज की शोभा नहीं हो सकती। ऐसी समाजों के साक्षरों को भी स्वीकार करना पड़ता है कि "एक विधवा भी शोभा का कारण नहीं है--शोभा का कारण तो सौभाग्यवती स्त्रियाँ हैं"। इससे साफ मालूम होता है कि विधवाओं का स्थान सौभाग्यवतियों से नीचा है। अगर ऐसी समाजों में वैधव्य कोई व्रत होता तो क्या विधवाओं का ऐसा नीचा स्थान रहता ? उनके विषय में Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) क्या ऐसे अपमानजनक शब्द लिखे जाते ? व्रती के आगे अवती को क्यी शोभा का कारण कहा जाता ? वैधव्य दीक्षा से दीक्षित महिलाए तो सौभाग्यवती और सौभाग्यवानों से भी पूज्य है । गृहस्थाश्रम में वे वीतरागता की एक किरण हैं । परन्तु उनको इतना मूल्य तो तब मिले जब समाज में विधवा विवाह का प्रचार हो । तभी उनके त्याग का मूल्य है । जो वस्तु ज़बर्दम्ती छिन गई, जिसके ऊपर अधिकार ही नहीं रहा, उसका त्याग ही क्या ? कहा जा सका है कि 'देवी आपत्ति पर कौन विजय प्राप्त कर सकता है ? प्लेग, इन्पनुऐंजा श्रादि से मनुष्य क्षति हो जाती है, वहाँ क्या किसी के हाथ की बात है ? ऐसी बात करने वालो से हम पूछते हैं कि बीमारी हो जाने पर आप चिकित्मा करते हैं या नहीं ? अगर दैव पर कुछ वश नहीं है तो औषधालय क्यों खुलवाये जाते हैं ? दैव के उदय से कंगाल हो कर भी लोग अर्थोपार्जन की चेष्टा क्यों करते हैं ? दैव के उदय से तो सब कुछ होता है, फिर पुरुषार्थ की कुछ ज़रूरत है या नहीं? तथा यह बात भी विचारणीय है कि देव के द्वारा जैसे विधवाएँ बनती हैं। उसी प्रकार विधुर भी बनते हैं । विधुगे के लिये तो दैव का विचार नहीं किया जाता है और विधवाओं के लिये किया जाता हैयह अन्धेर क्यों ? यदि कहा जाय कि विधुरपन की चिकित्सा भी देव के उदय से होती है तो विधवापन की चिकित्साभी देव के उदय से हो जायगी और होने लगी है। मनुष्य को उद्योग करना चाहिये, अगर सफल हो जाय तो ठीक है। अगर सफलता न होगी तो क्या दोष है? "यत्ने कृते यदि न सिद्धयति कोऽत्र दोषः" Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) अगर कोई विधवा विवाह मे वैधव्य की चिकित्सा करता है तो हमें उमको धन्यवाद देना चाहिये । यहाँ कोई शीलभ्रष्टता की सम्भावना करं नो यह भी अनुचित है। इसका उत्तर हम दे चुके हैं । देवकत विधुरत्व के दुःख को हम दूर करते हैं और इससे समाज की शोभा नहीं बिगड़ती तो बंधव्य दुव को दूर करने से भी शोभा न बिगड़ेगी। प्रश्न (१८)-जिस तरह जैन समाज की संख्या घट रही है उससे जैन समाज को हानि है या लाभ ? उत्तर-गवर्नमेगट को मईमशमारी की रिपार्टी के देखने में साफ़ मालम है कि प्रतिवर्ष ७ हज़ार के हिसाब से जैनी घट रहे हैं। गवर्नमेण्ट की रिपोर्ट पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है। समाज का श्रादर्श जिनना चाहे ऊंचा हो, परन्तु उसे अपना माध्यम ऐसा अवश्य रखना चाहिये जिससे समाज का नाश न होजाय । उच्च धर्म का पालन करना अच्छी बात है, परन्तु वह समाज का अनिवार्य नियम न होना चाहिये । जिनमें शक्ति हो वे पालन करें, न हो तो न करें। समाज की संख्या कायम रहेगी तो उच्व धर्म का पालन करने वाले भी मिलेंगे । जब समाज ही न रहेगी तो कौन उच्च धर्म का पालन करेगा और कौन मध्यम धर्म का। इस लिये समाज को कोई भी आत्मघातक रिवाज न बनाना चाहिये । वर्तमान में अनिवार्य वैधव्य के रिवाज से संख्या घट रही है और इससे बहुत हानि हो रही है। प्रश्न (११)---जैनसमाज में काफी संख्या में अविवाहित हैं या नहीं? उत्तर--हैं । परंतु इसका कारण स्त्रियों की कमी नहीं, Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) किन्तु अनिवार्य वैधव्य की कुप्रथा है। धर्म के वेष में छिपी हुई यह धर्मनाशक प्रथा बंद हो जाय तो अविवाहित रहने का मौका न पावे। प्रश्न (२०)-एक लाख तेतालीम हज़ार विधवाएँ अगर समाजमें न होती तो जनसंख्या बढ़ सकती थी या नहीं? उत्तर-इतनी विधवाओं के स्थान में अगर सधवाएँ होती तो संख्या अवश्य बढ़ती। मदुमशुमारी की रिपोर्टों से मालूम होता है कि जिन समाजों में विधवा-विवाह का रिवाज हे उनकी जनसंख्या नहीं घट रही है, बल्कि बढ़ रही है। जा लोग ऐसा कहते है कि "क्या कोई ऐसी शक्ति है जो कि दैव. बल का अवरोधक होकर विधवा न होने दे ?' ऐसा कहने वालों को बुद्धि मिथ्यात्व के उदय से भ्रष्ट होगई है-वे देवै. कांतवादी बन गये हैं । कुमारपन और कुमारीपन, तथा विधुरपन भी देव के उदय से होते हैं, किन्तु उनके दूर करने का उपाय है। इसी प्रकार वैधव्य के दूर करने का भी उपाय विधवा-विवाह है। हाथकंकरण को पारसी क्या ? सौ पचास विधवा-विवाह करके देख लो। जितने विवाह होंगे उतनी विधवाएँ घट जायँगी। अगर विधवाओं का संसारी जीवों की तरह होना अनिवार्य है तो जैसे संसारी जीवों को सिद्ध बनाने की चेष्टा की जाती है उसी तरह विधवाओं को भी सधवा बनाने की चेष्टा करना चाहिये । छः महीना आठ समय में ६०८ जीव संसारी से सिद्ध बन जाते हैं । अगर इतने समय में इतनी ही विधवाएं मधवा बनायी जाय तो सब विधवाएं न घटने पर भी बहुत घट जावेगी। अगर कोई कहे कि "विधवा-विवाह से नित्य नये उत्पात Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) और विशाल अनर्थ होंगे, इसीलिये संख्यावृद्धि के प्रलोभन में हमें न पड़ना चाहिये" लेकिन यह भूल है। प्रत्येक रिवाज से कुछ न कुछ हानि और कुछ न कुछ लाभ होता ही है । विचार सिर्फ इतना किया जाता है कि हानि ज्यादा है या लाभ? अगर लाभ ज्यादा होता है तो वह ग्रहण किया जाता है। अगर हानि ज्यादा होती है तो छोड दिया जाता है। विवाह के रिवाज से ही बाल-विवाह, वृद्ध-विवाह, कन्या-विक्रय, स्त्रियों की गुलामी आदि कुरीतियाँ और दुःपरिस्थितियाँ पैदा हुई हैं। अगर विवाह का रिवाज न होता तो न ये कुरीतियाँ होती, न विजातीय-विवाह, विधवा-विवाह आदि के झगड़े खड़े होते । इसलिये क्या विवाह प्रथा बुरी हो सकती है ? मनुष्य को बहुतसी बीमारियाँ भोजन करने से होती हैं। तो क्या भोजन न करना चाहिये ? हमारे जीवन में ऐमा कौन सा कार्य या समाज में ऐसी कौनलो प्रथा है जिनमें थोड़ी बहुत बुराई न हो ? परंतु हमें वे सब काम इस लिये करना पड़ते हैं कि उनसे लाभ अधिक है। विधवा-विवाह से कितने अनर्थ हो सकेंगे, उससे ज्यादा अनर्थ तो श्राज विधवा-विवाह न होने से हो रहे हैं । विधवाओं का नारकीय जीवन, गुप्त व्यभिचार का दौर दौरा, अविवाहित पुरुषों का वनगज की तरह डोलना और कसाइयों को भी लजित करने वाले भ्र ण-हत्या के दृश्य, ये क्या कम अनर्थ है ? इन सब अनों को दूर करने के लिये विधवा-विवाह एक सर्वोत्तम उपाय है । विधवाविवाह से समाज क्षीण नहीं होती, अन्यथा योरांप, अमेरिका आदि में यह तरक्की न होती। अगर विधवाविवाह के विरोध से समाज का उद्धार होता तो हमें पशुओं की तरह गुलामी की Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) ज़ंजीर में न बँधना पड़ता । हमने विधवा विवाह का विरोध करके स्त्रियों के मनुष्योचित अधिकारों को हड़पा, इसलिये श्राज हमें दुनियाँ के साम्हने औरत वन के रहना पड़ता है । मनुष्यों को श्रद्धूत समझा इसलिये आज हम दुनियाँ के अछूत बन रहे हैं । हमारे राक्षसी पापों का प्रकृति ने गिन गिनकर दंड दिया है। फिर भी हम उन्हीं राक्षसी अत्याचारों को धर्म समझते हैं! कहते हैं-विधवा विवाह से शरीर की विशुद्धि नष्ट हो जायगी ! जिस देह के विषय में जैन समाज का बच्चा बच्चा जानता है पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादि ते मैली । नव द्वार व घनकारी, अस देह करे किम यारी ॥ ऐसी देह में जो विशुद्धि देखते हैं उनकी आँखें और हृदय किन पाप परमाणुओं से बने हैं, यह जानना कठिन है । व्यभिचारजात शरीर से जब सुदृष्टि सरीखे व्यक्ति मोक्ष तक पहुंचे हैं तब जो लोग ऐसे व्यक्तियों को जैन भी नहीं समझते उन्हें किन मूर्खों का शिरोमणि माना जाय ? जैन धर्म श्रात्मा का धर्म है न कि रक्त, मांस और हड्डियों का धर्म | चमार रक्त, मांस में धर्म नहीं देखते। फिर जो लोग इन चीज़ों में धर्म देखते हैं, उन्हें हम क्या कहें ? प्रश्न ( २१ ) - व इसका उत्तर इस में से हटा दिया गया है क्योंकि इसका सम्बन्ध सम्प्रदाय विशेष के साधु से है । प्रश्न ( २२ ) - क्या रजस्वला के रक्त में इतनी ताकत है कि वह सम्यग्दर्शन का नाश कर सके ? यदि नहीं तो क्या सम्यग्दर्शन के रहते अविवाहित रजस्वला के माता Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) पिता आदि नरक में जा सकते हैं ? यदि मान लिया जाय कि उस रक्त में वैसी शक्ति है तो क्या विवाह कर देने से बह नष्ट हो जाती है ? अगर उत्तर- - रजस्वला के रक्त में सम्यग्दर्शन नष्ट करने की ताकत नहीं है । श्रविवाहित अवस्था में रजोदर्शन होने से पाप बम्ध नहीं, किन्तु पुण्य बंध होता है। क्योंकि जितने दिन तक ब्रह्मचर्य पलता रहे उतने दिनतक, अच्छा ही है । हाँ, कोई कन्या वा विधवा, विवाह करना चाहे और दूसरे लोग उसके इस कार्य में बाधा डाले तो वे पाप के भागी होते हैं, क्योंकि इससे व्यभिचार फैलता है। गर्भधारण की योग्यता व्यर्थ जाने से पाप का बंध नहीं होता, क्योंकि यदि ऐसा माना जायमा तो उन राजाओं को महापापी कहना पड़ेगा जो सैकड़ों स्त्रियाँको छोड़कर मुनि बन जाते थे और रजोदर्शन बन्द होने के पहिले श्रार्थिका बनना भी पाप कहलायगा । विधवा विवाह के विरोधी इस युक्ति से भी महापापी कहलायेंगे कि वे विधवाओं की गर्भधारण शक्ति को व्यर्थ जाने देते हैं । जो लोग यह समझते हैं कि 'रजोदर्शन के बाद गर्भाधानादि संस्कार न करने से माता पिता संस्कारलोपक और जनमार्गलोपी हो जाते हैं" वे संस्कार का मतलब ही नहीं समझते । विवाह भी तो एक संस्कार है; फिर जिन तीर्थकरों ने विवाह नहीं कराये वे क्या संस्कार लोपक और जिनमार्गलोपी थे ? ब्राह्मी और सुन्दरी जीवनभर कुमारी ही रहीं तो क्या उनके पिता भगवान ऋषभदेव और माता मरुदेवी, भाई भरत बाहुबली यादि नरक गये ? ये लोग भी क्या जिनमार्गलोपी ही थे ? गर्भाधानादि संस्कार तभी करना चाहिये जब कि स्त्री Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) पुरुष के हृदय में गर्भाधान की तीव्र इच्छा हो, फिर भले ही वह संस्कार २५ वर्ष की उम्र में करना पड़े। इच्छा पैदा होने के पूर्व ऐसे संस्कार करना बलात्कार के समान पैशाचिक कार्य है। प्रश्न (२३)-चतुर्थ, पंचम, सैतवाल आदि जातियों में विधवा विवाह कब से प्रचलित है और ये जातियाँ कब से जैन जातियाँ है ? उत्तर-जैन समाज की वर्तमान सभी जातियाँ हज़ार वर्ष से पुरानी नहीं है । जिन लोगों को मिलाकर ये जातियाँ बनाई गई थीं उनमें विधवा विवाह का रिवाज पहिले से ही था। यह इन जातियों की ही नहीं किन्तु दक्षिण प्रान्त मात्र की न्यायोचित रीति है। दक्षिण में अन्य अजैन लोगों में भी जोकि उच्चवर्णी है-यह रिवाज पाया जाता है । ऐतिहासिक सत्य तो यह है कि उत्तर भारत में पर्दे का रिवाज श्राजाने से यहाँ की स्त्रियाँ मकान के भीतर कैद हो गई और पुरुषों के चङ्गुल में फँसगई । पुरुषों ने इस परिस्थिति का बुरी तरह उपभोग किया। उन्होंने स्त्रियों के मनुष्योचित अधिकार हड़प लिये । परन्तु दक्षिण की स्त्रियाँ घर और बाहर दोनों जगह काम करती थीं, इस लिये स्वार्थी पुरुषों का कुचक्र उनके ऊपर न चल पाया और उनके पुनर्विवाह श्रादि के अधिकार सुरक्षित रहे । हाँ, जिन घरों की स्त्रियाँ पाराम तलव हो कर घर में पड़ी रहीं उन घरों के स्वार्थी पुरुषों ने मौका पाकर उनके अधिकार हड़प लिये । इस लिये थोड़े से घरों में यह रिवाज नहीं है । उत्तर प्रान्त में भी शूद्रों में विधवा विवाह का रिवाज है। इसका का कारण यही है कि Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) उनकी स्त्रियां घर के अतिरिक्त बाहर का काम भी करती हैं। अब ज़माना बदल गया है । लेकिन जिम ज़माने में स्त्री पुरुषों का संघर्ष हुआ था उस ज़माने में जहाँ की स्त्रियाँ आर्थिक दृष्टि से पुरुषों की पूगे गुलाम बनी वहाँ की स्त्रियों के बहुत से अधिकार छिन गये। उनमें पुनर्विवाह का अधि कार मुख्य था: जहाँ स्त्रियाँ अपने पैरों पर खड़ी रहीं वहाँ यह अधिकार बचा रहा। प्रश्न (२४)---विधवा विवाह से इनके कौन कौन मे अधिकार छिन गये हैं तथा कौन कौन मी हानियाँ हुई हैं ? उत्तर-विधवा विवाह से किसी के अधिकार नही छिनते । अधिकार छिनते हैं कमजोरी से और मूर्खता से । अफ्रिका, अमेरिका आदि में अनेक जगह भारतीयों के साथ अछूत कैसा व्यवहार किया जाता है । इसका कारण भार. तीयों की कमजोरी है । दक्षिण के उपाध्यायों में विधवा विवाह का रिवाज है, वे निर्माल्य भक्षण भी करते हैं । फिर भी उनके अधिकार सबसे ज्यादा है। इसका कारण हे समाज को मूर्खता । उत्तर प्रान्त के दस्स अगर विधवा विवाह न करें तो भी उन्हें पूजा के अधिकार नहीं मिलेंगे, परन्तु दक्षिण के लोगों को सर्वाधिकार है। अधिकार छिनने के कारण तो दूसरे ही होते हैं। हाँ, धार्मिक दृष्टि से विधवा विवाह वालों का कोई अधिकार नहीं छिनता । स्वर्गों में भी विधवा विवाह है, फिर भी देव लोग नंदीश्वर में, समवशरण में तथा अन्य कृत्रिमाकृत्रिम चैत्यालयों में भगवान की पूजा बन्दना आदि करते हैं । विधवा विवाह, कुमारी विवाह के समान धर्मानुकूल है: यह बात हम पहिले सिद्ध कर चुके है । जब Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) कुमारीविवाह से कोई अधिकार नहीं छिनते तो विधवा विवाह से कै छिनेंगे । कुछ लोग नासमझी से, विधवा विवाह से उन अधिकारों का छिनना बतलाते हैं जो व्यभिचार से भी नहीं छिन सकते ! इस सम्बन्ध के कुछ शास्त्रीय उदा. हरण सुनिये कौशाम्बी नगरी के राजा सुमुख ने वीरक सेठ की स्त्री को हर लिया: फिर दोनों ने मुनियों को आहार दिया और मरकर विद्याधर, विद्याधरी हुए । इनही से हरिवंश चला । पमपुराण और हरिवंशपुराण की इस कथा से मालूम होता है कि व्यभिचार से मुनिदान अधिकार नहीं छिनता । राजा मधु ने चन्द्राभा का हरण किया था। पीछे से दोनों ने जिनदीक्षा ली और मोलहवें स्वर्ग गये । इससे मालूम होता है कि व्यभिचार से मुनि, प्रायिका बनने का भी अधिकार नहीं छिनता । प्रायश्चित ग्रन्यों के देखने से मालूम होता है कि आर्यिका भी अगर व्यभिचारणी हो जाय तो प्रायश्चित के बाद फिर आर्यिका बनाई जासकती है ।व्यभिचार जात सुदृष्टि सुनार ने मुनिदीक्षा ली और मोक्ष गया, यह बात प्रसिद्ध ही है। इस से मालूम होता है कि व्यभिचार से या व्यभिचार जात होने से किसी के अधिकार नहीं छिनते । विधवाविवाह तो व्यभिचार नहीं है, उससे किसी के अधिकार कैसे छिन सकते हैं ? प्रश्न (२५)-~-इन जातियों में कोई मुनि दीक्षा ले सकता है या नहीं? यदि ले सकता है तो क्या उनके स्वानदान में विधवाविवाह नहीं हुआ और क्या विधवाविवाह करने वाले ख़ानदानों से बेटी व्यवहार नहीं हुआ ? उत्तर-इन जातियों में मुनिदीक्षा लेते हैं। बेटी व्यव. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार भी सब जगह होता है । यह सब धर्मानुकूल है । इसका खुलासा २३ और २४ वे प्रश्न के उत्तर में हो चुका है। प्रश्न (२६)-व्यभिचार से पैदा हुई सन्तान मुनिदीक्षा ले सकती है या नहीं ? यदि नहीं तो व्यभिचारिणी का पुत्र सुदृष्टि सुनार उसी भव से मोक्ष क्यों गया ? क्या यह कथा मिथ्या है? उत्तर-यदि कथा मिथ्या भी हो तो इससे यह मालूम होता है कि जिन जिन श्राचार्यों ने यह कथा लिखी है उन्हें व्यभिचारजात सन्तान को मुनि दीक्षा लेने का अधिकार स्त्रीकार था । यदि कथा सत्य हो तो कहना ही क्या है ? मनुष्य किसी भी तरह कहीं भी पैदा हुआ हो, वैराग्य उत्पन्न होने पर उसे मुनिदीक्षा लेने का अधिकार है । इसमें तो सन्देह नहीं कि सुदृष्टि सुनार था, क्योंकि दोनों भवों में श्राभूषण बनानेका धंधा करता था, जोकि सुनार का काम है । रत्नविज्ञानिक शब्द से इतना ही मालूम होता है कि वह रत्नों के जड़ने के काम में बड़ा होशियार था: व्यभिचार जातता तो स्पष्ट ही है, क्योंकि जिस समय वह मरा और अपनी स्त्री के ही गर्भ में आया उसके पहिले ही उसको स्त्री व्यभिचारणी हो चुकी थी और जार से ही उसने सुदृष्टि की हत्या करवाई थी। वह अपने वीर्य से ही पैदा हुश्रा हो, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि वीर्य व्यभिचारिणी के गर्भ में डाला गया था। इतने पर भी जब कोई दोष नहीं है तो विधवा-विवाह में क्या दोष है ? विधवा विवाह से जो संतान पैदा होगी वह भी तो एक ही वीर्य से पैदा होगी। प्रश्न (२७)-वर्णिकाचार के ग्यारहवें अध्याय में Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) १७५ वे श्रादि श्लोकों से स्त्री-पुनर्विवाह का समर्थन होता है या नहीं? उत्तर--होता है । त्रैवर्णिकाचार के रचयिता सोमसेन ने हिन्दू-स्मृतियो की नकल की है, यहाँ तक कि वहाँ के श्लोक चुरा चुरा कर ग्रन्थ का कलेवर बढ़ाया है। हिन्दू स्मृतियों में विधवा-विवाह का विधान पाया जाता है इसलिये उनमें भी इसका विधान किया है । दूसरी बात यह है कि दक्षिण प्रान्त में ( जहाँ कि सोमसेन भट्टारक हुए है) विधवा-विवाह का रिवाज सदा से रहा है। यह बात हम तेईसवें प्रश्न के उत्तर में कह चुके हैं। इसलिये भी सोमसन जी ने विधवा-विवाह का समर्थन किया है । सब से स्पट बात तो यह है कि उनने गालव ऋषि का मत विधवा-विवाह के पक्ष में उद्धृत किया है लेकिन उसका खण्डन बिलकुल नहीं किया । पाठक ज़रा निम्न लिखित श्लोक पर ध्यान दें : कलौतु पुनरुद्वाहं वर्जयेदिति गालवः । कस्मिश्चिद्देशे इच्छन्ति न तु सर्वत्र कंचन ॥ __"गालव ऋषि कहते हैं कि कलिकाल में पुनर्विवाह न कर । परन्तु कुछ लोग चाहते हैं कि किसी किसी देश में करना चाहिये।" इससे साफ़ मालूम होता है कि दक्षिण प्रान्त में उस समय भी पुनर्विवाह का रिवाज चालू था जिसका विरोध भट्टारकजी भी नहीं कर सके। इसलिये उनने विधवा-विवाह के विरोध में एक पंक्ति भी न लिखी । जो आदमी ज़रा ज़रा सी बात में सात पुश्त को नरक में भेजता है वह विधवा विवाह को ज़रा भी निंदा न करे यह बड़े आश्चर्य की बात है Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) सोमसेन ने गालव ऋषि का मत उद्धृत करके उसका खण्डन करना तो दूर, अपनी असम्मति तक ज़ाहिर नहीं की । इससे साफ़ मालूम होता है कि सोमसेन विधवा-विवाह के पक्ष में थे, अथवा विपक्ष में नहीं थे । अन्यथा उन्हें गालवऋषि के मनको उद्धृत करने की क्या ज़रूरत थी ? और अगर किया था तो उसका विरोध तो करते। इससे एक यान और मालम होती है कि हिन्दू लोगों में कलिकाल में पुनर्विवाह वर्जनीय है मां भी, किसी किसी के मत से नहीं है ) लेकिन पहिले युगों में पुनर्विवाह वर्जनीय नहीं था। श्रीमान पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ने जैन जगत् के १८ व अङ्क में पराशर,वसिष्ठ,मनु,याज्ञवल्क्य आदि ऋषियों के वाक्य देकर हिन्दू-धर्मशास्त्रों में स्त्री-पुनर्विवाह को बड़े अकाट्य प्रमाणों से सिद्ध किया है । जो लोग “न मृत प्रव्रजिते क्लीवे च पतिते पतौ । पञ्चम्वापन्सुनारीणां पतिरन्यो विधीयते" इस श्लोक में पतौ का अपतो अर्थ करते हैं वे बड़ी भूल में है । अमितगति प्राचार्य ने इस श्लोक को विधवा-विवाह के समर्थन में उद्धृत किया है। वेद में पति शब्द के पतये आदि रूप बीसों जगह मिलते हैं। मुख्तार साहिब ने व्याकरण श्रादि के प्रकरणों का उल्लेख करके भी इस बात को सिद्ध किया है। हितोपदेश का निम्नलिखित श्लोक भी इसी बात को सिद्ध करता है--- 'शशिनीव हिमाानाम् धर्मार्तानाम् रवाविव । मनोन रमते स्त्रीणां जराजीणेन्द्रिये पतौ' ॥ शान्तिपुराण में भी 'पतेः' ऐसा प्रयोग मिलता है। हिन्दू-धर्मशास्त्रों से विधवा-विवाह के पोषण में बहुत ही Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक प्रमाण हैं । इस लिये यह बात सिद्ध होती है कि हिन्दुओं में पहिले आमतौर पर पुनर्विवाह होता था । ऐसे विवाहों की सन्तान धर्मपरिवर्तन करके जैनी भी बनती होगी। जिस प्रकार आज दक्षिण में विधवा-विवाह चाल है उसो तरह उस ज़माने में उत्तर प्रान्त में भी रहा होगा। कौटिलीय अर्थशास्त्र के देखने से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है । त्राणिक्य ने यह ग्रन्थ महाराजा चंद्रगुप्त के राज्य के लिये बनाया था, और जैनग्रंथों से यह सिद्ध है कि महाराजा चंद्रगुप्त जैनी थे। एक जैनी के राज्य में पुनर्विवाह के कैसे नियम थे, यह देखने योग्य है ___ "हस्त्र प्रवासिनां शुद वैश्य क्षत्रिय ब्राह्मणानां भार्याः संवत्सरोत्तरं कालमाकांक्ष रनजाताः संवत्सराधि प्रजाताः । प्रतिविहिता द्विगुणं कालं ॥ अप्रतिविहिताः सुखावस्था विभूयुः परंचत्वारिवर्शगयष्टौवा शातयः ॥ ततो यथा दत्त मादाय प्रमुञ्चयुः॥ ब्राह्मणमधोयानं दश वर्षारय प्रजाता द्वादश प्रजाता रामपुरुषमायुः क्षयादाळेत ॥ सवर्णतश्च प्रजाता नापवाद लभेत् । कुटुम्बर्द्धि लोपे वा मुखावस्थै विमुक्ता यथेष्टं विन्देत जीविनार्थम् ।' अर्थात-थोड़े समय के लिये बाहर जाने वाले शुद्र वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मणों की पुत्रहीन स्त्रियाँ एक वर्ष तथा पुत्रवती इससे अधिक समय तक उनके पानेकी प्रतीक्षा करें। यदि पति उनको श्राजीविका का प्रबन्ध कर गये हों तो वे दुगुने समय उनकी प्रतीक्षा करें और जिनके भोजनाच्छादन का प्रबन्ध न हो उनका उनके समृद्ध बंधुबांधव चार वर्ष या अधिक से अधिक आठ वर्ष तक पालन पोषण करें । इसके Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) बाद प्रथम विवाह में दिये धन को वापिस लेकर दूसरी शादी के लिये प्राज्ञा देवे । पढ़ने के लिये बाहर गये हुए ब्राह्मणों की पुत्ररहित स्त्रियाँ दश वर्ष और पुत्रवती स्त्रियाँ बारह वर्ष तक प्रतीक्षा करें। यदि कोई व्यक्ति राजा के किसी कार्य से बाहर गये हों तो उनकी स्त्रियाँ प्रायु पर्यंत उनकी प्रतीक्षा करें। यदि किसी समान वर्ण ( ब्राह्मणादि ) पुरुष से किसी स्त्री के बच्चा पैदा होजाय तो वह निन्दनीय नहीं । कुटुम्ब की सम्पत्ति नाश होने पर अथवा समृद्ध बन्धुबांधवों से छोड़े जाने पर कोई स्त्री जीवन निर्वाह के लिये अपनी इच्छा के अनुसार अन्य विवाह कर सकती है। प्रकरण ज़रा लम्बा है: इसलिये हमने थोड़ा भाग ही दिया है । इसमें विधवाविवाह और सधवा विवाह का पूग समर्थन किया है । यह हे सवा दो हज़ार वर्ष पहिले की एक जैन नरेश की राज्यनीति । अगर चन्द्रगुप्त जेनी नहीं थे ना भी उस समय का यह श्राम रिवाज मालम होता है। श्राचार्य सोमदेव ने भी लिखा है--विकृत पत्यूढापि पुनर्विवाहमहतीति स्मृतिकाराः - अर्थान् जिस स्त्री का पति विकारी हो, वह पुनर्विवाह की अधिकारिणी है, पेसा स्मृतिकार कहते हैं। सामदेव प्राचार्य ने ऐसा लिखकर स्मृतिकारों का बिल्कुल खण्डन नहीं किया है, इससे सिद्ध है कि वे भी पुनविवाह से सहमत थे । इसी गति से सोमसेन ने भी लिखा है-उनने गालव ऋषि के बचन उद्धृत करके विधवाविवाह का समर्थन किया है। प्रश्न (२८)-अगर किसी अबोध कन्या से कोई बलात्कार करे तो वह कन्या विवाह योग्य रहेगी या नहीं। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर...कयों न रहेगी? यह बात तो उन्हें भी हबीकार करना चाहिये जो त्रिशे के पुनर्विवाह के विरोधी है, क्योकि उन लोगों के मन से विवाह भागम की विधि से होता है। बलात्कार में पागम की विधि कहाँ है ? इस लिये वह विवाह तो है नहीं और अविवाहित कन्या को तो सभी के मत से विवाह का अधिकार है। रही बलात्कार की बात सो उसका दंड बलात्कार करने वाले पापी पुरुष को मिलना चाहिये-बेचारी कन्या को क्या मिले ? कुछ लोग यह कहते हैं कि "यदि बलात्कार करने वाला पुरुष कन्या का सजातीय योग्य हो तो उसी के साथ उस कन्या का पाणिग्रहण कर देना चाहिये; अन्यथा कन्या जीवनभर ब्रह्मचारिणी रहे।" जो लोग बलात्कार करने वाले पापी, नीच, पिशाच पुरुष को भी योग्य समझते हैं उनकी धर्मवुद्धि की बलिहारी ! ब्रह्मचर्य पालना कन्या की इच्छा की बात है, परन्तु अगर वह विवाह करना चाहे तो धर्म उसे नहीं रोकता । न समाज को ही रोकना चाहिये । जो लोग पुनर्विवाह के विरोधी है उनमें अगर न्याय बुद्धि का अनंतवाँ हिस्सा भी रहेगा नो वे भी न रोकेंगे क्योंकि ऐसी कन्या का विवाह करना पुनर्विवाह नहीं है। प्रश्न (२६)-वर्णिकाचार से तलाक के रिवाज का समर्थन होता है । क्या यह उचित है ? उत्तर-दक्षिण प्रांतमें तलाक का रिवाज है इसलिये सोमसेन ने इस रिवाज की पुष्टि की है। वे किसी को दसव वर्ष में, किसी को १२ वे वर्ष में, किसी को पंद्रहवें वर्ष में, तलाक देने की ( छोड़ देने की व्यवस्था देते हैं । जिसका बोलचाल अच्छा न हो उसको तुरंत तलाक देने की व्यवस्था Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) है। इस प्रथा का धर्म के साथ कोई ताल्लुक नहीं है। समाज की परिस्थिति देखकर उसी के अनुसार इस विषय में विचार करना चाहिए। परंतु जिन कारणों से सोमसेन जी ने तलाक देने का उपदेश दिया है उनसे तलाक देना अन्याय है । यो भी तलाक प्रथा अच्छी नहीं है। प्रश्न (३०)-किस कारण से पुराणों में विधवा विवाह का उल्लेख नहीं मिलता? उस समय की परिस्थिति में और आज की परिस्थिति में अंतर है या नहीं ? उत्तर-पुराणों के टटोलने के पहिले हमें यह देखना चाहिये कि पौराणिक काल में विधवाविवाह या स्त्रियों के पुनर्विवाह का रिवाज था या नहीं ? ऐतिहासिक दृष्टि से जब हम इस विषय में विचार करते हैं तब हमें कहना पड़ता है कि उस समय पुनर्विवाह का रिवाज ज़रूर था। २७ प्रश्न के उत्तर में कहा जा चुका है कि हिंदू धर्मशास्त्र के अनुसार विधवाविवाह सिद्ध है । गालव आदि के मत का उल्लेख सोमसेन जी ने भी किया है। इससे सिद्ध है कि जनसमाज में यह रिवाज हो या न हो परंतु हिंदू समाज में अवश्य था । हिंदू पुराणों के देखने से यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है । उनक ग्रंथों के अनुसार सुग्रीव की स्त्री का पुनर्विवाह हुआ था; धृतराष्ट्र पांडु और विदुर नियोग की सन्तान हैं। यदि यह कहा जाय कि ये कहानियाँ झूठी हैं तो भी हानि नहीं, क्योंकि इससे इतना अवश्य मालूम होता है कि जिन लोगों ने ये कहानियाँ बनाई हैं उन लोगों में विधवाविवाह और नियोग का रिवाज ज़रूर था और इसे वे उचित समझते थे। दमयंती ने नल को Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) ढूंढने के लिये अपने पुनर्विवाह के लिये स्वयम्बर किया था । माना कि उसे दूसरा विवाह करना नहीं था, परंतु इससे यह अवश्य ही सिद्ध होता है कि उस समय पुनर्विवाह का रिवाज था और राजा लोग भी उसमें योग देते थे । उपर्यु रक्त विवेचन से इतनी बात सिद्ध हुई कि चतुर्थकाल में अजैन लोगों में स्त्रियों के पुनर्विवाह का रिवाज था । अब हम आगे बढ़ते हैं। चतुर्थ काल में देव भगवान के बाद शांतिनाथ भगवान के पहिले प्रत्येक तीर्थकर के अंतराल में ऐसा समय आता रहा है जब की जैन धर्म का विच्छेद हो जाता था । ऐसे समय में जैनों के धार्मिक विश्वास के अनुसार विधवाविवाह, नियोग आदि अवश्य होते थे । धर्मविच्छेद का वह अंतराल असंख्य वर्षों का होता था । इससे करोड़ों पीढ़ियाँ इसी तरह निकल जाती थीं और इतनी पीढ़ियों तक विधवा विवाह, नियोग आदि की प्रथा चलती रहती थी । फिर इन्हीं में जैनी लोग पैदा होते थे अर्थात् दीक्षा लेकर जैनी बनते थे । इस लिये जैनी भी इस प्रथा से अछूते नहीं थे। दूसरी बात यह है कि दीक्षान्वय क्रिया के द्वारा प्रजनों को जैनी बनाया जाता था । इस तरह भी इस प्रथा की छूत लगती रहती थी। जैन शास्त्रों के अनुसार ही जब इतनी बात सिद्ध हो जाती है तब विधवा विवाह का प्रथमानुयोग में उल्लेख न होना सिर्फ़ आश्चर्य की बात रह जाती है; विशेष महत्व की नहीं । परंतु ज़रा और गम्भीर विचार करने पर इसकी श्राश्चर्यजनकता भी घट जाती है और महत्व तो बिलकुल नहीं रहता | Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) आजकल हमारे जितने पुराण हैं वे सब श्रेणिक के पूछने पर गौतम गणधर के कहे हुए बतलाये जाते हैं । श्राजकल जो रामायण, महाभारत प्रसिद्ध हैं, श्रेणिक ने उन सब पर विचार किया था और जब वह चरित्र उन्हें न जँचे तो गोतम से पूछा और उनने सब चरित्र कहा और बुराइयों की बीच बीच में निन्दा की । लेकिन इसके बीच में उनने कहीं विधवा विवाह की निन्दा नहीं की । हमारे पंडित लांग विधवा विवाह को परबीसेवन से भी बुरा बनलाते हैं लेकिन गौतम गणधर ने इतने बड़े पाप (2) के विरोध में एक शब्द भी नहीं कहा। इससे साफ़ मालूम होता है कि गौतम गणधर की दृष्टि में भी विधवा विवाह की बुराई कुमारी विवाह से अधिक नहीं थी अन्यथा जब परस्त्रीसेवन की निन्दा हुई और मिथ्यात्व की भी निन्दा हुई तब विधवाविवाह की निन्दा क्यों नहीं हुई ? एक बात और है । शास्त्रों में परस्त्रीसंवत की निन्दा जिस कारण से की गई है वह कारण विधवा विवाह को लागू ही नहीं होता । जैसे -- यथा च जायते दुःखौं रुद्धायामात्म यांषति | नरान्तरेण सर्वेषामियमेत्र व्यवस्थितिः ॥ "जैसे अपनी स्त्री को कोई गेकले तो अपने को दुःख होता है उसी तरह दूसरे की स्त्री रोक लेने पर दूसरे को भी होता है ।" पाठक ही विचारे, जिसका पनि मौजूद है उसी स्त्री के विषय में ऊपर की युक्ति ठीक कही जा सकती है। लेकिन विधवा का तो पति ही नहीं है. फिर दु ख किसे होगा ? अगर Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जाय कि कोई सम्बन्धी तो होंगे, उन्हें तो दुःख हो सकता है। लेकिन यह तो ठीक नहीं, क्योंकि इस विषय में स्वामी को छोड़ कर किसी दूसरे के दुःख से पाप नहीं होता। हां अगर स्त्री स्वयं राजी न हो तो बात दूमी है । अन्यथा रुक्मणीहरण श्रादि बीमों उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनमें माता पिता को दुःख हुआ था फिर भी वह पाप नहीं माना गया। इसका कारण यही है कि रुक्मणी का कोई स्वामी नहीं था जिसके दुःरव की पर्वाह की जाती और वह तो स्वयं गजी थी ही । विधवा के विषय में भी बिलकुल यही बात है। उसका कोई स्वामी तो है नहीं जिसके दुःख की पर्वाह की जाय और वह स्वयं राजी है। हां, अगर वह राजी न हो तो उसका विवाह करना अवश्य पाप है । परंतु यह बात कन्या के विषय में भी है । कन्या अगर राजी न हो तो उसका विवाह करना अन्याय है; पाप है। इस विवेचन से हमें यह अच्छी तरह मालूम हो जाता है कि गौतमगणधर ने विधवा विवाह की निन्दा क्यों नहीं की ? शास्त्रों में विधवा विवाह का उल्लेख क्यों नहीं है ? इस के पहले हमें यह विचारना चाहिये कि विधवाओं का उल्लेख क्यों नहीं है ? विधवाएँ तो उस समय भी होती थीं? परंतु जिस प्रकार कन्याओं के जीवन का चित्रण है, पत्नीजीवन का चित्रण है, उसी प्रकार प्रायः वैधव्य का चित्रण नहीं है। इतना ही नहीं बल्कि वैधव्य दीक्षा किसी ने ली इसका भी चित्रण नहीं है । इस कारण क्या हम यह कह सकते हैं कि उस समय विधवाएँ नहीं होती थीं या वैधव्य दीक्षा कोई नहीं लेना था ? यदि इन चित्रणों के अभाव में भी विधवा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और वैधव्यदीक्षा का उस समय सद्भाव माना जा सकता है तो विधवाविवाह के चित्रण के अभाव में भी उस समय विधवाविवाह का सद्भाव माना जा सकता है, क्योंकि जो ग्विाज धर्मशास्त्र के अनुकूल है उसके प्रचार में चतुर्थकाल के धार्मिक और उदार लोग बाधा डालते होंगे इसकी तो म्वप्न में भी कल्पना नहीं की जा सकती। । प्रथामानुयोग शान कोई दिनचर्या लि वन की डायरी नहीं। उनमें उन्हां घटनाओं का उल्लेख है जिनका सम्बन्ध शुभाशुभ कर्मों से है। वर्णन को सरम बनाने के लिये उनने मरस रचना अवश्य को है लेकिन अनावश्यक चित्रण नहीं किया, बल्कि अनेक आवश्यक चित्रण भी रह गये हैं। दीक्षान्वय क्रिया का जैसा विधान आदिपुराण में पाया जाता है, उसका चित्रण किसी पात्र के चरित्र में नहीं किया, जब कि सैकड़ा अजैनों ने जैन धर्म की दीक्षा ली है । इस लिये क्या यह कहा जा सकता है कि उस समय दीक्षान्वय की वह विधि चालू नहीं थी ? यही बात विधवाविवाह के बारे में भी है। विवाह-विधान के आठ भेद बतलाये हैं, परन्तु प्रथमा. नुयोग के चरित्रों में दो एक विधानों के अतिरिक्त और कोई विधान नहीं मिलते । लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता कि उस समय वैसे विधान चालू नहीं थे। इससे यह बात सिद्ध होती है कि विधवाविवाह कोई ऐसी महत्वपूर्ण घटना नहीं थी जिसका चित्रण किया जाता। यहाँ शंका हो सकती है कि 'कुमारी-विवाह भी ऐसी क्या महत्वपूर्ण घटना थी जिसका चित्रण किया गया ?' इसका उत्तर थोड़े में यही दिया जा सकता है कि प्रथमानुयोग Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) ग्रन्थों में कुमारी-विवाह का उल्लेख सिर्फ वहीं हुआ है जहाँ पर कि विवाह का सम्बन्ध किसी महत्वपूर्ण घटना से हो गया है। जैसे सुलोचना के विवाह का सम्बन्ध जयकुमार अर्ककीर्ति के युद्ध मे है, सीता के विवाह का सम्बन्ध धनुष चढ़ाने और भामंडल के समागम से है इत्यादि । बाकी विवाहों को कुछ पता ही नहीं लगता; सिर्फ स्त्रियों की गिनती से उनका अनुमान किया जाता है। प्रचीन समय में कुमारी विवाहों में किमी किसी विवाह का सम्बन्ध किसी महत्वपूर्ण घटना से हो जाता था इस लिये उनका उन्न ख पाया जाता है। परन्त विधवा विवाह में ऐली महत्वपूर्ण घटना की सम्भावना नहीं थी या घटना नहीं हुई इस लिये उन का उल्लेख भी नहीं हुआ । शास्त्रों में सिर्फ महत्वपूर्ण घटनाओं का उल्लेख मिलता है। महत्वपूर्ण घटनाएं अच्छी भी हो सकती हैं और बुरी भी हो सकती हैं। इसीलिये परस्त्रीहरण आदि दुरी घटनाओं का भी उल्लेख है । बुरे कार्यों को निन्दा ओर उनका बुग फल बतलाने के लिये यह चित्रण हुया है। अगर विधवाविवाह भी बुरी घटना हाती तो उसका पाप फल बत. लाने के लिये क्या एक भी घटना का उल्लेख न होता। इससे माफ़ मालूम होता है कि विधवाविवाह का अनुल्लेख उसकी बुराई को नहीं, किन्तु साधारणता को बतलाता है । जब शास्त्रों में परस्त्रीहरण और बाप बेटी के विवाह का उल्लेख मिलता है (देखा कार्तिकेय स्वामी की कथा-आराधना कथाकोष में ) और उनकी निन्दा की जाती है,किन्तु विधवाविवाह का उल्लेख उसकी निन्दा करने और दुष्फल बताने को भी नहीं Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) मिलता: इतने पर भी जो लोग विधवाविवाह को बड़ा पाप समझते हैं उनकी समझ की बलिहारी । साराँश यह है कि विधवा विवाह न तो कोई पाप है, न कोई महत्वपूर्ण बात है जिससे उसका उल्लेख शास्त्रों में किया जाता । जब यह बात सिद्ध हो चुकी कि विधवाविवाह जैनशास्त्रों के अनुकूल और पुरानी प्रथा है तब इस बात की ज़रूरत नहीं है कि दोनों कालोंकी परिस्थितिमें अन्तर दिखलाया जाय, फिर भी कुछ अन्तर दिखला देना हम अनुचित नहीं समझतेः पहिले ज़माने में विवाह तभी किया जाता था जब मातापिता देख लेते थे कि इनमें एक तरह का रागभाव पैदा हो गया है, जिसको सीमित करने के लिये विवाह श्रावश्यक है, तब वे विवाह करते थे । परन्तु श्राजकल के माता पिता में ही बिना ज़रूरत विवाह कर देते हैं; बस फिर उनकी बला से । पहिले ज़माने में भ्रूणहत्याएँ नहीं होती थीं । परन्तु श्राजकल इन हत्याओं का बाज़ार गर्म है । असमय 1 पहिले ज़माने में अगर किसी स्त्री से कोई कुकर्म हो जाता था तो भी वह और उसकी संतान जाति से पतित नहीं मानी जाती थी। उनकी योग्य व्यवस्था की जाती थी । ज्येष्ठा श्रर्थिका का उदाहरण काफ़ी होगा । उस समय जैनसमाज में जन्म संख्या की अपेक्षा मृत्युसंख्या अधिक नहीं थी । विधवा स्त्रियों के साथऐसे अत्याचार नहीं होते थे; जैसे कि श्राजकल होते हैं । इस प्रकार अन्तर तो बहुत से हैं, परन्तु प्रकरणके लिये उपयोगी थोडेसे अन्तर यहाँ लिख दिये गये हैं। प्रश्न (३१) - सामाजिक नियम अथवा व्यवहार धर्म श्रावश्यकतानुसार बदल सकता है या नहीं ? Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५१ ) उत्तर--सामाजिक नियम अथवा व्यवहार धर्म, इन दोनों शब्दों के अर्थ में अन्तर है, परंतु सामाजिक नियम, व्यवहार धर्म की सीमा का उल्लंघन नहीं कर सकते हैं । इस लिये उनमें अभेद रूप से व्यवहार किया जाता है । जो सामा. जिक नियम व्यवहार धर्म रूप नहीं हैं अर्थात निश्चय धर्म के पोषक नहीं है वे नादिरशाही के नमूने अथवा भेड़ियोधसानी मर्खता के चिन्ह हैं । व्यवहार धर्म ( तदन्तगत होने से सामाजिक नियम भी ) सदा बदलता रहता है। व्यवहार धर्म में द्रव्य. नेत्र, काल, भाव की अपेक्षा है । जब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावमे सदा परिवर्तन होता है,तब तदाश्रित व्यवहार धर्म में परिवर्तन कयों न होगा ? व्यवहार धर्म में अगर परिवर्तन न किया जाय तो धर्म जीवित ही नहीं रह सकता। माक्षमार्ग में ज्यों ज्यों उच्चता प्राप्त होती जाती है क्यों त्यो भेद घटते जाते है। मिद्धों में परम्पर जितना भेद है उससे ज्यादा भेद अरहंतो में है और उससे भी ज्यादा मुनियों में और उससे भी ज्यादा श्रावकों में है। ऊपरी गण स्थानों में कर्मों का नाश, कंवलज्ञानादि की उत्पत्ति, शुक्ल ध्यान श्रादि की दृष्टि से ममानता है। परन्तु शुक्ल ध्यान के विषय प्रादिक की दृष्टि से भेद भी है । और भी बहुत सी बातों में भेद है। कोई सामायिक संयम रखता है, कोई छेदोपस्थापना । कोई स्त्री वेदो है, कोई पुवेदी, कोई नपुंसक वेदी । इन जुदे जुदे परिणामों से भी सव यथाख्यात संयम को प्राप्त करते हैं। भगवान अजितनाथ से लेकर भगवान महावीर तक छेदोपस्थापना संगम का उपदेश ही नहीं Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) था। भगवान ऋषभदेव और भगवान महावीर ने इसका भी उपदेश दिया ! मुनियों के लिये कमंडलु रखना आवश्यक है, परन्नु तीर्थङ्कर और सप्त ऋद्धि वाले कमंडलु नहीं रखते । मतलब यह कि व्यवहार धर्म का पालन आवश्यकता के अनुसार किया जाता है उसका कोई निश्चित रूप नहीं है। श्रावकाचार में तो यह अन्तर और भी अधिक हो जाता है । छटवी प्रतिमा में कोई रात्रि भोजन का त्याग बताते है तो कोई दिनमें स्त्री सेवन का त्याग ! अष्ट मूलगुण तो समय समय पर बदलते ही रहे हैं और वे इस समय चार तरह के पाये जाते हैं। किसी के मतसे वेश्यासेवी भी ब्रह्मचर्याणुव्रती हो सकता है किसी के मत से नहीं ! जो लोग यह समझते हैं कि निश्चयधर्म एक है इसलिये व्यवहारधर्म भी एक होना चाहिये, उन्हें उपयुक्त विवेचन पर ध्यान देकर अपनी बुद्धि को सत्यमार्ग पर लाना आवश्यक है । कई लोग कहते हैं- "ऐसा कोई सामाजिक नियम अथवा क्रिया नहीं है जो धर्म से शुन्य होः सभी के साथ धर्म का सम्बन्ध है अन्यथा धर्मशन्य क्रिया अधर्म ठहरेगी" । यह कहना बिलकुल ठीक है । परन्तु जब येही लोग कहने लगते हैं कि सामाजिक नियम तो बदल सकते हैं, परन्तु व्यवहार धर्म नहीं बदल सकता तब इनकी अक्ल पर हँसी पाने लगती है। वे व्यवहार धर्म के बदलने से निश्चय धर्म बदलने की बात कहके अपनी नासमझी तो प्रगट करते हैं, किन्तु धर्मानुकल सामाजिक नियम बदलने की बात स्वीकार करके भी धर्म में परिवर्तन नहीं मानते । ऐसी समझदारी तो अवश्य ही अजायबघर में रखने लायक है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ हम इस बात का खुलासा कर देना चाहते हैं कि व्यवहारधर्म के बदलने से निश्चय धर्म नहीं बदलता। दवाइयाँ हज़ागें तरह की होती है और उन सबसे बीमार आदमी निगेग बनाया जाता है । रोगियों की परिस्थिति के अनुसार ही दवाई की व्यवस्था है । एक रोगी के लिये जो दवाई है दूसरे को वही विष हो सकता है। एक के लिये जो विष है, दूसरे को वही दवाई हो सकती है। प्रत्येक रोगी के लिये औषध का विचार जुदा जुदा करना पड़ता है। इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के लिये व्यवहारधर्म जुदा जुदा है। सभी रोग के लिये एक ही तरह की दवाई बनाने वाला वैद्य जितना मूर्ख है उससे भी ज्यादा मूर्ख वह है जो सभी व्यक्तियों के लिये सभी समय के लिये एक ही मा व्यवहार धर्म बतलाता है। इस पर थोडामा विवेचन हमने ग्यारहवे प्रश्न के उत्तर में भी किया है। विधवा-विवाह सं सम्यक्त्व और चारित्र में कोई दूषण नहीं पाता है इस बात को भी हम विस्तार से पहिले कहचुके हैं । विधवा-विवाह मे चारित्र में उतनी ही अटी होती है जितनी कि कुमारी विवाह से। अब इस विषय को दुहराना व्यर्थ है। उपसंहार ३१ प्रश्नों का उत्तर हमने संक्षेप में दिया है फिर भी लेख बढ़ गया है। इस विषय में और भी तर्क हो सकता है जिसका उत्तर सरल है । विचारयोग्य कुछ बातें रहगई है। उन सबके उल्लेख से लेख बढ़ जावेगा इसलिये उन्हें छोड़ दिया जाता है। इति Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) प्रेरित पत्र श्रीमान सम्पादकजी महोदय ! मैं जैन जगत्” पढ़ा करती है और उसकी बहुतसी बाते मुझे अच्छी मालम होती हैं। लेकिन श्रीयुत सव्यसाची जी के द्वारा लिखे गये लेख को पढ़कर मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गई । उस लेखमें विधवाविधाह का धर्म के अनुसार पोषण किया गया है । वह लेख जितना जबर्दस्त है उतना ही भया. नक है । मैं पंडिता तो हूँ नहीं, इस लिए इस लेख का खगडन करना मेरी ताकत के बाहर है। परन्तु मैं सीधी साधी दो चार बाते कह देना उचित समझती हूँ। पहिली बात तो यह है कि मव्यसाचीजी विधवाओंके पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हैं ? वे बेचारी जिस तरह जीवन व्यतीत करती है उसी तरह करने दीजिए । जिस गुलामी के बन्धन से वे छट चुकी है, क्या उसी बंधन में डालकर सव्य. साचीजी उनका उद्धार करना चाहते हैं ? गुलामीका नाम भी क्या उद्धार है ? जो लोग विधवाविवाह के लिये एडीमे चोटी तक पसीना बहाते हैं उनके पास क्या विधवाओ ने दरख्वास्त भेजी है ? यदि नहीं तो इस तरह अनावश्यक दया क्यों दिखलाई जाती है ? फिर वह भी ऐसी हालतमें जबकि स्त्रियाँ ही स्वयं उस दया का विरोध कर रही हो। भारतीय महिलाएँ इस गिरी हुई अवस्थामें भी अगर सिर ऊँचा कर सकती हैं तो इसीलिये कि उनमें सीता, सावित्री सरीखी देवियाँ हुई हैं । विधवाविवाह के प्रचार से क्या सीता सावित्रीके लिये अङ्गुल भर जगह भी बचेगी ? क्या Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) वह श्रादर्श नष्ट न हो जावेगा ? श्रादर्श बने रहने पर उन्नति के शिखर से गिर पड़ने पर भी उन्नति हो सकती है, परन्तु श्रादर्श के नष्ट होजाने पर उन्नति की बात ही उड़ जायगी। सम्पादकजी ! मैं धर्मके विषय में तो कुछ समझती नहीं हूँ। न बालकी खाल निकालने वाली युक्तियाँ ही दे सकती हूँ । सम्भव है सव्यसाची सरीखे लेखकों की कृपा से विधवा विवाह धर्मानुकुल ही सिद्ध हो जाय, परन्तु मेरे हृदय की जो श्रावाज़ है वह मैं श्रापके पास भेजती हूँ और अन्त में यह कह देना भी उचित समझती हूँ कि शास्त्रों में जो आठ प्रकार के विवाह कहे है उनमें भी विधवाविवाह का नाम नहीं है। श्राशा है सव्यसाचीजी हमारी बातों का समुचित उत्तर देंगे। आपकी भगिनी-कल्याणी । कल्याणी के पत्र का उत्तर । ( लेखक-श्रीयुत 'सव्यसाची' ) बहिन कल्याणी देवीने एक पत्र लिखकर मेरा बड़ा उपकार किया है । वैरिस्टर साहिब के प्रश्नों का उत्तर देते समय मुझे कई बातें छोड़नी पड़ी है। बहिन ने उनमें से कई बातों का उल्लेख कर दिया है । आशा है इससे विधवाविवाह की सचाई पर और भी अधिक प्रकाश पड़ेगा। पहिली बात के उत्तर में में निवेदन करना चाहता हूँ कि विधवाविवाह से स्त्रियों को गुलाम नहीं बनाया जाताहै। हमारे ख़याल से जो विधवाएँ ब्रह्मचर्य नहीं पाल सकतीं उनके लिये पतिके साथ रहना गुलामी का जीवन नहीं है । क्या सधवा जीवन को स्त्रियाँ गुलामी का जीवन समझती है ? यदि हां, तो Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) उन्हें विधवा बनने के लिये आतुर होना चाहिये-पति के मरने पर खुशी मनाना चाहिये; क्योंकि वे गुलामी से छूटी है; परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। हमारी समझ में स्त्रियाँ वैधव्य को अपने जीवनका सबसे बड़ा दुःख समझती हैं और पतिके साथ रहने को बड़ा मुख | समाज की दशा देखकर भी कहना पड़ता है कि जितनी गुलामी विधवा को करना पड़नी है उतनी सधवा को नहीं । सधवा एक पुरुष की गुलामी करती है, साथ ही में उससे कुछ गुलामी कराती भी है: परन्तु विधवा को समस्त कुटुम्ब की गुलामी करना पड़ती है। उसके ऊपर सभी आँख उठाते है,परन्तु वह फिसीके साम्हने देख भी नहीं सकती। उस के आँसुश्रीका मूल्य करीब करीव 'नहीं' के बराबर होजाता है। उसका पवित्र जीवन भी शंका की दृष्टि से देखा जाता है। अप. शकुन की मूर्ति तो यह मानी ही जाती है । क्या गुलामी की जजीर टूटने का यही शुभ फल है ? क्या स्वतन्त्रता के येही चिन्ह हैं । थोड़ी देर के लिये मान लीजिये, कि वैधव्य-जीवन बड़ा सुखमय जीवन है, परन्तु विधवाविवोह वाले यह कय कहते हैं कि जो विधवा-विवाह न करेगी वह नरक जायगी ? उनका कहना तो इतना ही है कि जो वैधव्य को पवित्रता से न पाल सके वे विवाह करलें क्योंकि कुमारी-विवाह के समान विधवाविवाह भी धर्मानुकूल है। किन्तु जो वैधव्य को निभा सकती हैं वे ब्रह्मचारिणी बने! पार्यिका बने! कौन मना करता है ? विधवा विवाह के प्रचारक कोई ज़बर्दस्ती नहीं करते। वे धर्मानुकूल सरल मार्ग बताते हैं । जिसकी खुशी हो चले, न हो न चले। हाँ, इतनी बात अवश्य हैं कि ऐमी बहिने गुप्त व्यभिचार और भ्रूण-हत्याओं से दूर रहें। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरी बात के उत्तर में मेरा निवेदन है कि विधवाओं ने मेरे पास दरख्वास्त नहीं भेजी है। श्राम तौर पर भारतवर्ष में विवाह के लिये दरख्वास्त भेजने का रिवाज भी नहीं है । मैं पूछता हूँ कि हमारे देश में जितनी कन्याओं के विवाह होते हैं उनमें से कितनी कन्या विवाह के लिये दरख्वास्त भेजती हैं यदि नहीं भेजती तो उनका विवाह क्यों किया जाता है ? क्या कन्याओं का विवाह करना अनावश्यक दया है ? यदि नहीं तो विधवाओं का विवाह करना भी अनावश्यक दया नहीं है। दुसरी बात यह है कि दरख्वास्त सिर्फ कागज पर लिख कर ही नहीं दी जाती-यह कार्यों के द्वारा भी दी जाती है । विधवा समाज ने भ्र ण-हन्या, गुप्त व्यभिचार आदि कार्यों से समाज के पास ज़बर्दस्त से ज़बर्दस्त दरख्वास्ते भेजी हैं । इस लिये उनका विवाह क्यों न करना चाहिये ? कन्याएँ न तो कागजों पर दरख्वास्त भेजती है, न भ्रण हत्या आदि कुकार्यों मे: फिर भी उनका विवाह एक कर्तव्य समझा जाता है । तब विधवाओं का विवाह कर्तव्य क्यों न समझा जाय ? कुछ दिनों से कुछ महापुरुषों ( ? ) ने स्त्रियों के द्वारा भी विधवाविवाहकं विरोध का म्वाँग कराना शुरूकर दिया है, परंतु कुमारी विवाह के निषेध के लिये हम कुमारियों को खड़ा कर सकते हैं । फिर क्या कल्याणीदेवी, कुमारियों के विवाह को भी अनुचित दया का परिणाम समझेगी ? बात यह है कि शताब्दियों की गुलामी ने स्त्रियों के शरीर के साथ श्रात्मा और हृदय को भी गुलाम बना दिया है। उनमें अब इतनी हिम्मत नहीं कि वे हृदय की बात कह सके। अमेरिका में जब गुलामी की प्रथा के विरुद्ध प्रवाहमलिकन ने युद्ध छेड़ा तो स्वयं गुलामों Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) ने अपने मालिकों का पक्ष लिया, और जब वे स्वतन्त्र हो गये तो मालिकों की ही शरण में पहुँचे । गुलामी का ऐमा ही प्रभाय पड़ता है । ज़रा स्वतन्त्र नारियों से ऐसी बात कहिये-योगेप की महिलाओं से विधवाविवाह के विरोध करने का अनुरोध कीजिये - तब मालूम हो जायगा कि स्त्री-हृदय क्या चाहता है ? हमारे देश की लजालु स्त्री छिपे छिपे पाप कर सकती है। परन्तु स्पष्ट शब्दों में अपने न्यायोचित अधिकार भी नहीं माँग सकतीं । एक विधवा से-जिसके चिन्ह वैधव्य पालन के अनुकूल नहीं थे-एक महाशय ने विधवाविवाह का ज़िकर किया तो उनको पचासों गालियाँ मिली, घर वालों ने गालियाँ दी और बेचारों की बड़ी फ़ज़ीहत की । परन्तु कुछ दिनों बाद वह एक श्रादमी के घर में जाकर बैठ गई ! इमी तरह हज़ारों विधवाएँ मुसलमानों के साथ भाग सकती हैं, भ्रणहत्या कर सकती हैं, गुप्त व्यभिचार कर सकती है, परन्तु मुह से अपना जन्म सिद्ध अधिकार नहीं माँग सकतीं। प्रायः प्रत्येक पुरुष को इस बात का पता होगा कि ऐसे कार्यों में स्त्रियां मुंह से 'ना', 'ना' करती हैं और कार्य से 'हाँ', 'हाँ' करती है, इस लिये स्त्रियों के इस विरोध का कुछ मूल्य नहीं है। बहिन कल्याणी ने अपने पत्रमें सीता सावित्री श्रादि की दुहाई दी है। क्या बहिन ने इस बात पर विचार किया है कि अाज सैकड़ों वर्षों से उत्तर प्रान्तके जैनियों में विधवाविवाह का रिवाज बन्द है लेकिन तब भी कोई सीता जैसी पैदा नहीं हुई है? बात यह है किपशुओके समानगुलाम स्त्रियों में सीता जैसीस्त्री पैदा हो हा नहीं सकती,क्योंकि डंडे के बलपर जो धर्म का ढोंग कराया जाता है वह धर्म ही नहीं कहलाता है। बहिनका कहना Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) है कि "विधवाविवाह के प्रचार से क्या सीता सावित्री के लिये अंगुल भर भी जगह बचेगी?" हमारा कहना है कि जहाँ धर्म के लिये अंगुल भर भी जगह नहीं है, वहाँ हाथ भर जगह निकाल लेने वाली ही सीता कहलातीहै। ज़बर्दस्ती या मौका न मिलने से ब्रह्मचर्य का ढोंग करने वाली यदि सीता कहलावे तो वेचारी सीताओं का कौड़ी भर भी मूल्य न रहे। सीता जी का महत्व इसी लिये है कि वे जंगल में रहना पसंद करती थीं और तीन खंड के अधिपति रावण की विभूतियों को ठुकराती थीं । जब सीता जी लंका में पहुँची और उन्हें मालूम हुआ कि हरण करने वाला तो विद्याधरोंका अधिपति है तभी उन्हें करीब २ विश्वास हो गया कि अब छुटकारा मुश्किल है। रावण जब युद्ध में जाने लगा और सीता जी से प्रसन्न होने को कहा तो उस समय सीता जी को विश्वास हो गया था कि राम लक्ष्मण, रावण से जीत न सकेंगे । इसीलिये उनने कहा कि मेरा संदेश विना सुनाये तुम राम लक्ष्मण को मत मारना । मतलब यह कि रावण की शक्ति का पूरा विश्वाश होने पर भी उनने रावण को बरण न किया: इमीलिये सोता का महत्व है। आजकल जो विधवार समाज के द्वारा जबर्दस्ती बन्धन में डाली गई हैं, उन्हें सीता समझना सीता के चरित्र का अपमान करना है। विधवाविवाह के आन्दोलन से सिर्फ विधवाओं को अपने विवाह का अधिकार मिलता है-उन्हें विवाह के लिये कोई विघश नहीं करता। अगर वे चाहे तो खुशी से वैधव्य का पालन करें । परन्तु बहिन कल्याणी का कहना है कि विधवाविवाह से सीताक लिये अंगुल भर भी जगह न बचेगी। इसका मतलब यह है कि अाजकल की विधवाएं पुनर्विवाह के अधि Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) कार सरीखा हलके से हलका प्रलोभन भी नहीं जीत सकती ! क्या हमारी बहिन एसी ही स्त्रियों से रावण के प्रलोभन जीतने की श्राशा रखती हैं ? बहिन, सखी विधवाएँ तो उस समय पैदा होंगी जिस समय समाज में विधवाविवाह का खूब प्रचार होगा। विधवा और ब्रह्मचारिणी में बड़ा अन्तर है । पति मरने से विधवा होती है न कि ब्रह्मचारिणी । उसके लिये त्याग की ज़रूरत है और त्याग तभी हो सकता है, जब प्राप्ति हो या प्राप्ति की आशा हो । 1 अन्त में बहिन ने कहा है कि आठ प्रकार के विवाहा में विधवाविवाद का उल्लेख नहीं है । परन्तु इन आठ तरह के विवाहों में कुमारी विवाह, अन्यगोत्र विवाह, सजातीय विवाह आदि का उल्लेख भी कहाँ है ? क्या ये सब विवाह भी नाजायज़ हैं ? बात यह है कि ये आठ भेद विवाह की रीतियों के भेद हैं अर्थात् विवाह आठ तरह से हो सकता है । अर्थात् सजातीय विवाह, विजातीय विवाह, कुमारीविवाह, विधवा विवाह, अनुलोम विवाह, प्रतिलोम विवाह, आदि सभी तरह के विवाह आठ रीतियों से हो सकते हैं। इसीलिये कुमारीविवाह विधवा विवाह आदि भेदों को रीतियों में शामिल नहीं किया है। जैसे कुमारीविवाह के आठ भेद हैं उसी तरह विधवाविवाह के भी आठ भेद हैं। आशा है बहिन को हमारे उत्तरों से सन्तोष होगा । अगर फिर भी कुछ शंका रहे तो मैं उत्तर देने को तैयार हूँ Page #68 --------------------------------------------------------------------------  Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जरूरी निवेदन। १-आजकल हिन्दी “जैनगजट” में जो श्रीयुत "सव्यसाची के लेख (जो कि "जैन जगत में निकल चुका है ) के उत्तर में एक लेख क्रमशः निकल रहा है, उसका मुंह तोड़ जवाब श्रीयुत “सव्यसाची" जो भी नय्यार करते जा रहे हैं । वह शीघ्र ही हिन्दी "जैन गज़ट” में पूर्ण छप चुकने पर "विधवा विवाह और जैन धर्म के दूसरे भाग के रूप में प्रकाशित होगा। २-"उजले पोश बदमाश की भूमिका में जो " सेठ जी की काली करतृत" के लिये सूचित किया गया था, वह पुस्तक भी लिखी जा रही है, शीघ्र ही प्रकाशित होगी। निवेदक-मंत्री। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य उपयोगी पुस्तकें १. शिनाप्रद शास्त्रीय उदाहरण—लेग्वक श्री पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार मूल्य ॥ २. विवाह क्षत्र प्रकाश- ,, ,. 14) ३. जैन जाति सुदशा प्रवर्तक-लेखक । श्री वावृ मृरज भानु वकील ,, , ४. मंगलादेवी५. क्यारों की दुर्दशा- , ६. गृहस्थ धर्म७. राजदुलारी८. विधवाविवाह और उनके संरक्षकों से अपील-लेखक व शीतलप्रसादजी ,, )" ६. उजलेपोश बदमाश-लेग्वक पंडित __ अयोध्याप्रमाद गायलीय ,, 7) १०. जैनधर्म और विधवाविवाह-लेग्वक श्री० सव्यसाची ,, । ११. विधवाविवाह समाधान- ... ) मिलने का पता : जौहरीमल सर्राफ बड़ा दरीबा, देहली। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Venka PAN जैनधर्म और विधवाविवाह | (दुसरा भाग ) लेखक :--- श्रीयुन “सव्यसानी" Page #72 --------------------------------------------------------------------------  Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टेक्ट नं०१३ जैनधर्म और विधवा-विवाह ( दूसरा भाग ) लेखकश्रीयुत् “सव्यसाची" प्रकाशकमंत्री जैन बालविधवा-सहायक सभा दीया कलाँ, देहली __"चैतन्य प्रिन्टिङ्ग प्रेस, बिजनौर ( य०पी० ) ११ प्रथमवार । * १००० सन १६३१ ई० ।) ७ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकला. जौहरीमल जैन सर्राफ़ मन्त्री जैन बाल विधवासहायक मभा, दरीबा कला, देहली TREN HANAL १ Rane मुद्रक शान्तिचन्द्र जैन, "चैतन्य" प्रिन्टिङ प्रेस, बिजनौर (यू० पी०) Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि-पत्र डीप २० २८ ३४ पंक्ति प्रशद्ध शुद्ध १६ डीप १६ टीप टाप २६ पदत्रायं यदत्रायं १३ वह पुरुष मदोन्मत्त वे पुरुषत्व-मदोन्मत्त - में के लिये १७ वृशाल वृषल ४ निमय नियम १६ मिहों २० यात्यानश्च यात्यनिश्च २२ सएष स एव २१ स्वद ही १७ चाहिये আসি ११ छट्टक छेदक १८ भोक्ती मोक्त्री ४ युक्ति से जीतने पर। युक्ति में न जीतने पर १५ सन्धेर अन्धेर ४१ ४१ सिंही ४६ ४- ७१ १८२ - नावत्री नवाबी Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध मूलाचार मूलाचार मलाचार U C : कुमि पृष्ट पंक्ति अशुद्ध १८२ २३ मूलाकार २७ मुलापार ६ मूलापार १८५७ कुभि १८८५ आदि १६३१ व्यभिचार नही है १३ अपतिरन्या २०६१ प्रप्रांग १ व्याख्यास्यायः २१३ २० मुखावस्थैविमुक्ता २१४ १२ चिसका २२७ १२ सद्धा २२६८ निगंग २२६ निगंग अनादि व्यभिचार भी नहीं दे अपनिग्न्या प्रयोग व्याख्यास्यामः सुखावम्यैविमुक्ता जिसका रुद्धा नीगंग नीगग Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अावश्यक निवेदन * जैन समाज और हिन्दु समाज की घटी का मुख्य कारण विधवाविवाह से घृणा करना व उसको व्यभिचार या शाप समझना है । लाखों हो संतान बिन विवाहे कुमारे रह जाते हैं, क्योंकि उनको कन्याएँ नहीं मिलती। इसलिये वे जब मरते हैं तब अपने घरों में सदा के लिये ताले लगा जाते हैं। उधर विधुर पुरुष अपन पक जीवन में कई २ बार शादियां करते हैं. वृद्ध होने पर भी नहीं चूकते हैं। जिसका फल यह होता है कि बहुन सी युवान विधवाएँ बिना संतान रह जाती हैं। कोई जो धनवान होती हैं वे गोद ले लेती है शेष अनेक निःसंतान मरकर अपने घरमें नाला दे जाती हैं । इस तरह कुवारे पुरुषों के कारण व बहुसंख्यक विधवाओं के कारण जैन समाज तथा हिन्दू समाज बड़े वंग से घट रहा है। जहां २५ वर्ष पहले १०० घर थे वहां अब ४०-५० ही घर पाए जाते है। जैपुर में २५ व ३० वर्ष पहले जैनियों के ३००० घर थे, अब मात्र १०० ही रह गए हैं । उधर युवान विधवाओं को अनेकों गुप्त पापों में फंसकर घोर व्यभिचार व हिंसा के पाप में सनना पड़ता है । वे ब्रह्मचर्य के भार को न सह सकने के कारण पतित हो जाती हैं। यह सब वृथा ही कष्ट व हानि उठाई जा रही है, केवल Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख] इम ही विचार से कि विधवाविवाह की इज़ाज़त जैन सिद्धांत व हिन्दू शास्त्र नहीं देता। हिन्दू शास्त्रों में तो अथर्ववेद व स्मृ तियों में पुनर्विवाह का स्पष्ट कथन है । जैन सिद्धान्त द्वारा यह सिद्ध है या प्रसिद्ध इस प्रश्न को माननीय बैरिटर चम्पतराय जी ने उठाया था। उसका समाधान 'सव्यसाची' महोदय ने बड़ी ही अकाट्य व प्रौढ़ यक्तियों के द्वारा देकर यह सिद्ध कर दिया था कि विधवाविवाह कन्या विवाह के समान है व इससे गृहधर्म में कोई बाधा नहीं आती है। यह सब समाधान 'जैनधर्म और विधवाविवाह' नामक दै कृ में प्रकाशित हो चुका है। इस समाधान पर पण्डित श्रीलालजी पाटनी अली. गढ़ तथा पं० विद्यानन्द शर्मा ने आक्षेप उठाए थे-उनका भी समाधान उक्त सव्यसाचीजी ने 'जैन जगत' में प्रकाशित कर दिया है । वही सब समाधान इस पुस्तक में दिया जाता है. जिसे पढ़कर पाठकगण निःशंक हो जायेंगे कि विधवाविवाह न तो व्यभिचार है और न पाप है-मात्र कन्याविवाह व विधुरविवाह के समान एक नीति पूर्ण लोकिक कार्य है-इतना ही नहीं-यह उस अबला को व्यभिचार व हिंसा के घोर पापों से बचाने वाला है ।सर्व ही जैन व हिंदू भाइयों को उचित है कि इस पुस्तक को श्रादि से अन्त तक पढ़ें । उनका चित्त बिलकुल मानलेगा कि विधवाविवाह निषिद्ध नहीं है किन्तु विधेय है। पाठकों को उचित है कि भारत में जो गुप्त व्यभिचार व हिंसा विधवाओं के कारण हो रही है उसको दूर करावे Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ग] उसका उपाय यही है कि हर एक कुटुम्ब अपने २ घर में जो कोई विधवा हो जाय उससे एकान्त में बात करें । यदि उस की बातचीत से व उसके रहन सहन के ढंग से प्रतीत हो कि यह ब्रह्मवर्य व्रत का पाल लेगो नब तो उसे वैराग्य के साधनों में रख देना चाहिये और जो कोई कहें कि वह पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं पाल मकनी है तब जा उसके संरक्षक हो-चाहे पिता घर वाले चाहे असुर घर वाले-उनका यह पवित्र कर्तव्य है कि उम्मको कन्या के समान मानकर उसका विवाह योग्य पुरुष के माथ कर देवें । स्त्री लज्जा के कारण अपने मनका हाल स्पष्ट नहीं कहती है। उसके मंरक्षकों का कर्तव्य है कि उसकी शक्ति के अनुसार उसके जीवन का निर्णय करदें । समाज की रक्षा चाहने वाला मन्त्री Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धन्यवाद * इस ट्रक के छपवाने के लिये निम्नलिखित महानुभावों ने सहायता प्रदान की है, जिनको सभा हार्दिक धन्यवाद देती है,साथ ही समाज के अन्य स्त्री पुरुषों से निवेदन करती है कि वे भी निम्न श्रीमानों का अनुकरण करके और अपनी दुखित बहिनों पर तरस खाकर इसी प्रकार सहायता प्रदान करने की उदारता दिख लाव: २५) ला० धनकुमार जी जेन कानपुर । २५) गुप्तदान ( एक जैन ; कानपुर । २०) गुप्तदान ( एक वकील ) लखनऊ । १०) ला० रामजीदास मदर बाज़ार देहली। १०) बा० उलफतराय इंजीनियर देहली। १०) बा. महावीर प्रसाद देहली । १०) ला० किशनलाल देहली। १०) ला० गुलाबसिंह बजी मल देहली। १०) ला० भोलानाथ मुखतार बुलन्दशहर । १०) बा० माईदयाल बी० ए० श्रानर्स अम्बाला । १०) ला० केशरीमल श्रीराम देहली । १०) ला० ललताप्रसाद जैन श्रमगहा। १०) बा० पंचमलाल जैन तहम्मीलदार जबलपुर । १०) ला० विशम्भर दास गार्गीय झांमी। १०) गुप्तदान ( एक बाबू साहब ) देहली। १०) गुप्तदान ( एक बाबू साहब ) केगना । १०) गुप्तदान (एक ठेकेदार साहब) देहली। १०) गुप्तदान ( एक रईस साहब ) बिजनौर । ५) गुप्तदान ( एक सर्राफ़) देहली। ५) गप्तदान ( एक जैन ) गोहाना । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधवाविवाह और जैनधर्म! आक्षेपों का मुंह तोड़ उत्तर सबसे पहिली और मुद्दे की बात में पाठकों से यह कह दना चाहता हूँ कि मेरे ख़याल से जैनधर्म पारलौकिक उन्नति के लिये जितना मर्वोत्तम है उतना ही लोकिक उन्नति के लिये सुविधाजनक है । समाज की उन्नति के लिय और समाज की रक्षा के लिय ऐसा कोई भी रीतिरिवाज नहीं है जाकि जैनधर्म के प्रतिकुल हो । जैनधर्म किसी घुसखोर व अन्यायी मजिस्ट्रेट की तरह पक्षपात नहीं करना जिसस पुरुषों के साथ वह रियायत करे और स्त्रियों को पीस डाले । स्त्रियों के लिये और शुद्रा के लिये उसने वही सुविधा दी हैं जो कि पुरुषा के लिये और द्विजों के लिये । जैनधर्म की अनक खबियों में ये - - इस पैगमाफ़ के प्रत्येक वाक्य को मैं अच्छी तरह विचार कर लिख रहा हूँ। इसमें मैंने उत्तेजना या अतिशयोक्ति से काम नहीं लिया है। इसके किसी वाक्य या शब्द के लिये अगर कोई नया श्रान्दोलन उठाना पडे तो मैं उसके लिये भी तैयार हूँ। अगर कोई महाशय श्राक्षेप करने का कष्ट करें तो बड़ी कृपा होगी, क्योंकि इस बहाने से एक आन्दोलन को खड़ा करने का मौका मिल जायगा। -लेखक Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) दोनों खूबियाँ बहुत बड़ी खूबियाँ हैं । सामाजिक- रक्षा और उन्नति के साथ श्रात्मिक रक्षा और उन्नति के लिये सुविधा देना और किसीके अधिकारको न छीनना, ये दोनों बातें अगर जैनधर्म में न होंगी तो किस धर्म में होंगी ? अगर किसी धर्म में ये दोनों बातें नहीं हैं तो यह इन दोनों बातों का दुर्भाग्य नहीं है, किन्तु उस धर्मका ही दुर्भाग्य है । यह स्मरण रखना चाहिये कि धर्मग्रन्थों में न लिखी होने से अच्छी बातों की क़ीमत नहीं घटती, किन्तु अच्छी बातें न लिखी होने से धर्मग्रन्थों की कीमत घटती है । प्रत्येक स्त्री पुरुष को किशोर अवस्था से लेकर युवा श्रवस्था के अन्त तक विवाह करने का जन्मसिद्ध अधिकार है । पुरुष इस अधिकार का उपयोग मात्रा से अधिक करता रहे और स्त्रियोंको ज़रूरत होने पर भी न करने दे; इतना ही नहीं किन्तु वह अपनी यह नादिरशाही धर्म के नाम पर उसमें भी जैनधर्म के नाम पर -- चलावे, इस अन्धेर का कुछ ठिकाना है ! मुझे तो उनकी निर्लजना पर श्राश्चर्य होता है कि जो पुरुष अपने दो दो चार चार विवाह कर लेने पर भी विधवाओं के पुनर्विवाहको धर्मविरुद्ध कहने की धृष्टता करते हैं। जिस कामदेव के श्रागे वे नङ्गे नाचते हैं, वृद्धावस्थामें भी विवाह करते हैं, एक कसाई की तरह कन्याएँ ख़रीदते हैं, उसी 'काम' के श्राक्रमणसे जब एक युवती विधवा दुखी होती है और अपना विवाह करना चाहती है तो ये क रता और निर्लज्जता के श्रवतार धर्मविरुद्धता का डर दिखलाते हैं ! यह कैसी बेशरमो है ! विधवाविवाह के विरोधी कहते हैं कि पुरुषों को पुनविवाह का अधिकार है और स्त्रियों को नहीं । ऐसे अत्याचार Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण अहङ्कार के ये लोग शिकार हो रहे हैं, जब कि विधवा. विवाह के समर्थक इस विषय में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार देना चाहते हैं। विधवाविवाह के समर्थक, पुरुष होने पर भी अपने विशेषाधिकार, बिना स्त्रियों की प्रेरणा के, छोड़ना चाहते है । स्त्रियों के दुःख से उनका हृदय द्रवित है; इसीलिये स्वार्थी पुरुषों के विरोध करने पर भी वे इस काम में लगे हैं। अपमान तिरस्कार आदि की बिलकुल पर्वाह नहीं करते। विधवाविवाह समर्थकों की इस निस्वार्थता, उदारता, त्याग, दया, सहनशीलता, कर्तव्यपगयणता और धार्मिकता को विधवाविवाह के विरोधी कोटिजन्म तप तपने पर भी नहीं पा मकने । ये स्वार्थ के पुतले जब विधवाविवाह समर्थकों को स्वार्थी कह कर "उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे" की कहावत चरितार्थ करते हैं तब इनकी धृष्टता की पराकाष्ठा हो जाती है। शैतान जब उलट कर ईश्वर से ही शैतान कहने लगता है तब उस की शैतानियत की सीमा प्राजाती है। विधवाविवाह के विगंधी शैतानियत को ऐसी ही सीमा पर पहुंचे हैं। समाज के भीतर छिपी हुई हम शैतानियत को दूर करने के लिये मैंन विधवाविवाह के समर्थन में बैरिष्टर चंपतरायजी के प्रश्नों के उत्तर दिये थे। उसके खंडन का प्रयास जैनग़ज़ट द्वारा दो महाशयों ने किया है-एक तो पं० श्रीलाल जी अलीगढ़, दूसरे पं०विद्यानन्दजी रामपुर । उन दोनों लेखों को अनावश्यक रूपसे बढ़ाया गया है । लेख में व्यक्तित्व के ऊपर बड़ी सभ्यता के साथ आक्रमण किया गया है। प्रसभ्यता से पेश आने में कोई बहादुरी नहीं है । इसलिए असभ्य शब्दों का उत्तर में इस लेख में न दूंगा। ___ उन दोनों लेखकों से जहां कुछ भी खंडन नहीं बन पड़ा है वहाँ उन्होंने “छिछि.", "धिक धिक", "यह तो घृणित है", Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादि शब्दों की भरमार की है। ऐसे शब्दों का भी उत्तर न दिया जायगा । विद्यानन्द जी ने मेरे लेख के उद्धरण अधरे अधूरे लिये हैं और कहीं कहीं अत्यावश्यक उद्धरण छोड़ दिया है। इस विषय में तो मैं पं० श्रीलाल जी को धन्यवाद दगा जिन्होंने मेरे पूरे उद्धरण लेने में उदारता दिखलाई । उद्धरण श्रधग होने पर भी ऐसा अवश्य होना चाहिये जिसमे पाठक उलटा न समभले। दोनों लेख लम्बे लम्बे हैं। उनमें बहुत मी ऐमी बाने भी हैं जिनका विधवाविवाह के प्रश्न से सम्बन्ध नहीं है, परन्तु दोनों महाशयों के सत्ताधार्थ में उन बाता पर भी विचार करूंगा । इमसे पाठकों को भी इतना लाभ ज़रूर होगा कि वे जैनधर्म की अन्यान्य बातों से भी परिचित हो जावेगे । मेग विश्वास है कि वह परिचय अनावश्यक न होगा। चम्पतगयजी के ३१ प्रश्नों के उत्तर में जो कुछ मैंने लिखा था उसके खगडन में दोनों महाशयोंने जो कुछ लिखा है, उमका सार मेंने निकाल लिया है। नीचे उनके एक एक प्राक्षे का अलग अलग समाधान किया जाता है। पहिन्ते श्रीलालजी के प्राक्षेपो का, फिर विद्यानन्दजी के श्राक्षेण का समाधान किया गया है ! में विरोधियों से निवेदन करता हूँ या चैलेज देता हूँ कि उनसे जितना भी श्राक्षेप करते बने, खुशीसे करें। मैं उत्तर देने को तैयार हूँ। पहला प्रश्न आक्षेप (अ)- सम्यक्त्व की घातक सात प्रकृतियों में चार अनन्तानुबन्धी कपायें भी शामिल हैं। विधवाविवाह के लिये जितनी तीन कषाय की ज़रूरत है वह अनन्नानुबन्धी के उदय के बिना नहीं हो सकती। जैसे परस्त्रीसेवन अनन्तानुबंधी Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के उदय के बिना नहीं हो सकता। इसलिये जब विधवाविवाह में अनन्तानुबन्धी का उदय आ गया तो सम्यक्त्व नष्ट होगया। समाधान (अ)-जय स्त्री के मर जाने पर, पुरुष दूसरा विवाह करता है तो तीन गगी नहीं कहलाता, तब पुरुष के मर जाने पर स्त्री अगर दसग विवाह करे तो उसके नीव राग कामान्धता क्यों मानी जायगी ? यदि कोई पुरुप एक स्त्री के रहते हुए भी ६६ हजार विवाह करे या स्त्रियाँ रक्खे तो उस का यह काम बिना तीव्र गगके नहीं होसकता। लेकिन ६६ हज़ार पनियों के तीवगग से भो सम्यनवका नाश नहीं होता, बल्कि वह ब्रह्मचयावती भी रह सकता है। जब इतना तीव राग भी सम्यक्त्व का नाश नहीं कर सकता नव पति मर जाने पर एक पुरुष से शादी करने वाली विधवा का सम्यक्त्व या अणु. व्रत कैस नष्ट होगा? और अणुव्रत धारण करने वाली विधवा एसी पतित क्यों मानी जायगी कि जिम्मम उसे ग्रहण करने वाले का भी सम्यक्त्व नष्ट हो जावे ? विधवाविवाह से व्यभि. चार उतना ही दर है, जितना कि कुमारी विवाह से । जैसे विवाह होने के पहिले कुमार और कुमारियों का संभोग भी व्यभिचार है, किन्तु विवाह होने के बाद उन दोनो का संभोग व्यभिचार नहीं कहलाता, उसी तरह विवाह होने के पहिले अगर विधवा सम्भोग करे तो व्यभिचार है, परन्तु विवाह के बाद होने वाला सम्भोग व्यभिचार नहीं है। गृहस्थों के लिये व्यभिचार की परिभाषा यही है कि-"जिसके साथ विवाह न हुआ हो उसके साथ सम्भोग करना" । यदि विवाह हो जाने पर भी व्यभिचार माना जायगा तो विवाह की प्रथा बिलकुल निकम्मी हो जायगी और आजन्म ब्रह्मचारियों का छोड़ कर सभी व्यभिचारी साबित होगे । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीव्रता मन्दता की दृष्टि से सकषाय प्रवृत्ति छः भागों में बाँटी गई है, जिन्हें कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्र शब्दों से कहते हैं। इनमें सबसे ज्यादा तीव्र कृष्ण लंश्या है । लेकिन कृष्ण लेश्या के हो जाने पर भी सम्यक्त्व का नाश नहीं होता। इसीलिये गोम्मटसार में लिखा है ___ "अयदोन्ति छ लेस्साओ" अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि जीव तक छहों लेश्याएँ होती हैं। अगर विधवाविवाह में कृष्ण लेश्यारूप परिणाम भी होते तो भी सम्यक्त्व का नाश नहीं हो सकता था। फिर तो विधवाविवाह में शुभ लेश्या रहती है, तब सम्यक्तत्व का नाश कैसे होगा ? आक्षेपक ने परस्त्रीसेवन अनन्तानुबन्धी के उदय से बतलाया है । यह बात भी अनुचित है । मैं परस्त्रीसेवन का समर्थन नहीं करता, किन्तु श्राक्ष पक की शास्त्रीय नास मझी को दूर कर देना उचित है । परस्त्री सेवन अप्रत्याख्यानावरण कपायके उदयसे होता है। क्योंकि अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशवत-अणुव्रत की घातक है और अणुव्रत के घात होने पर ही परस्त्री सवन होता है। प्राक्षेपक को यह जानना चाहिये कि अणुव्रती, पांच पापों का त्यागी होता है न कि अविरत सम्यग्दृष्टि। खैर ! मुझे व्यभिचार की पुष्टि नहीं करना है । व्यभिचार और विधवाविवाह में बड़ा अन्तर है। व्यभिचार अप्रत्याख्यानावरण और विधवा विवाह प्रत्याख्यानावरण कषाय के उदय से होता है। ऐसी हालत में विधवा * मेरे पहिले लेख में इस जगह अप्रत्याख्यानावरण छप गया है। पाठक सुधारकर प्रत्याख्यानावरण कर लें। -लेखक Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७ ) विवाहको अनन्तानुबन्धीके उदयसे मानना और उससे सम्य. क्त्व नाश की बात कहना बिलकुल मिथ्या है। आक्षेप (श्रा)-परस्त्री सेवन सप्त व्यसनों में है। सभ्यक्त्वी सप्त व्यसन सेवी नहीं होता। विधवाविवाह परस्त्री. सेवन है । इसलिये त्रिकालमें सम्यक्त्वोके नहीं हो सकता । समाधान-परस्त्री-सेवन व्यसनों में शामिल ज़हर है, परन्तु परस्त्री सेवी होने से ही कोई परस्त्री व्यसनी नहीं हो जाता। परस्त्री-सेवन व्यसन का त्याग पहिली प्रतिमाम माना जाता है, परन्तु परस्त्री सेवन पहिली प्रतिमा भी हो सकता है, क्योंकि परस्त्रीसेवन का त्याग दूसरी प्रतिमा में माना गया है। यहां प्रापक को व्यसन और पाप का अन्तर समझना चाहिये। अविरत मभ्यग्दृष्टि को पहिलो प्रतिमा का धारण करना अनिवार्य नहीं है। इस लिये सप्तव्यसन का त्याग भी अनिवार्य न कहलाया । हाँ, अभ्यास के रूप में वह बहुत सी बातों का त्याग कर सकता है, परन्तु इस से वह त्यागी या वती नहीं कहला सकता । सौर, मम्यक्त्वी परस्त्री-सेवा रहे या परस्त्री-त्यागी: परन्तु सम्यक्ष का विधवा विवाहसे कोई विरोध नहीं होमकता, क्योंकि विधवा-विवाह परस्त्री सेवन नहीं है । यह बात में "अ" नम्बर के समाधान में सिद्ध कर चुका हूँ। आक्षेप (इ)-यह नियम करना कि सातवें नरक में मम्यक्त्व नष्ट नहीं होता, लेखक की प्रचता है। क्या वहाँ सायिक सम्यक्त्व हो जाता है ? नरकों में नारकी अपने किये हुए पापों का फल भोगते हैं। यदि वहां भी वे विधवाविवाह से अधिक पाप करने वाले ठहर जायँ तो उस किए हुए पाप का फस्त कहाँ भोगे? Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान-सातवे नरक में सम्यक्त्व नष्ट न होने की बात में नियम करने की बात आक्षेपकने अपने मनले घुसेड दी है। सातवे नरक के नारकी के न तो सम्यक्त्व होने का नियम है न सदा स्थिर रहनेका । वात इतनी ही है कि सातवें नरक का नारकी औपर्शामक और तायोपशमिक सम्यक्त्व पैदाकर सकता है और वह सम्यक्त्व (क्षा पशामक) कुछ कम तेतीस सागर तक रह सकता है । तात्पर्य यह कि वहाँ की परमकृष्ण लेश्या और रोद्रपरिणामों से इतने समय तक उसके सम्यक्त्व का नाश नहीं होता। उसके सम्य. त्वका कभी नाश ही नहीं होता-यह मैंने नहीं कहा। सातवें नरक के नारकी एक दूसरे को पानी में पेल देते है, भाड़ में भुंज देते हैं, आरे से चीर डालते हैं, गरम कड़ाही में पका डालते हैं ! क्या ऐसे कर कामों से भी विधवाविवाह का काम दरा है ? क्या उनके इन कामों से पाप बन्ध नहीं होता ? सातवे नरक के नारकी यदि पापी न होते तो वे तिर्यश्चगतिमें ही क्यों जाते ? और उनका वह पाप इतना ज़बर्दस्त क्यों होता कि उन्हें एक बार फिर किसी न किमी नरक में पाने के लिये बाध्य करता? तत्वार्थसारके इस श्लोक पर विचार कीजिये न लभन्ते मनुष्यत्वं सप्तम्या निर्गताः क्षितेः । तिर्यक्त्वे च समुत्पद्य नरकं यान्ति ते पुनः ॥१४७॥ अर्थात्-सातवें नरक से निकला हुआ जीव मनुष्य नहीं हो सकता । तिर्यश्च गति में पैदा होकर उसे फिर नरक में ही जाना पड़ता है। क्या विधवाविवाह करने वालों के लिये भी शास्त्र में ऐसा कहीं विधान है ? श्राक्षेपक की यह बात पढ़ कर हँसी श्राती है कि सातवें नरक के नारकी यदि ज़्यादा पाप करेंगे तो फल कहाँ भोगेंगे ? तन्वार्थसार के उपयुक्त श्लोक में बन Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाया हुश्रा विधान क्या फल भोगने के लिए कम है ? हां तो सातवें नरक के नारकी जीवन भर मार काट करते हैं और उनका पाप यहाँ तक बढ़ जाता है कि नियम से उन्हें तिर्यश्च गति में ही जाना पड़ता है और फिर नियम से उन्हें नरक में ही लोटना पडता है । ऐन पापियों में भी सम्यक्त्व कुछ कम तेतीस सागर अर्थात पर्याप्त होने के बाद से मरण के कुछ समय पहिले नक सदा रह सकता है । वह "सम्यक्त्व विधवाविवाह करने वाले के नही रह सकना"! बलिहारी है इस समझदारी की। आक्षेप (ई)-नारकियोंके सप्त व्यसन की सामग्री नहीं है जिससे कि उनके सम्यक्त न हो और होकर भी छूट जावे। अतः यह मातवे नरक का दृष्टांत विधवाविवाह के विषय में कुछ भी मल्य नहीं रखता । ममाधान-श्राक्षेपक के कहनसे यह तात्पर्य निकलता है कि अगर नरकों में सप्त व्यसन की सामग्री होती तो सम्य. कत्व न होता और छट जाता (नष्ट होजाता)। वहां सप्त व्यसन की सामग्री नहीं है। इसलिए सम्यक्त्व होता है और होकर के नहीं छूटता है ( नष्ट नहीं होता है ) । नरक में सम्यक्त्व के नष्ट न होने की बात जब हमने कही थी, तब श्राप बिगड़े थे। यहाँ वही वान आपने स्वीकार कर ली है । कैसी अद्भत सत. र्कता है ! सातवे नरक के दृष्टांत से यह बात अच्छी तरह सिद्ध हो जाती है कि जब परम कृष्ण लेश्या वाला क र कर्मा, घोर पापी नारकी सम्यक्त्वी रह सकता है तो विधवा-विवाह वाला- जो कि श्ररणुव्रती भी हो सकता है--सम्यक्त्वी क्यों नहीं रह सकता? आक्षेप ( 3 )-पाँचों पापों में एक है संकल्पी हिंसा, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' १० ) सा संकल्पी हिंसा करने वाला श्राखेट वालों की तरह सप्त व्यसनी है। उसके कभी सम्यक्त्व नहीं होसकता । भत्ता जहाँ प्रशम संवेग हो गये हों वहाँ संकल्पी हिंसा होना त्रिकाल में भी सम्भव नहीं है । समाधान- -यहाँ पर आक्षेपक व्यसन और पापकं भेद को भूल गया है । प्रत्येक व्यसन पाप है, परन्तु प्रत्येक पाप व्यसन नहीं है । इसलिये पापके सद्भाव से व्यसन सद्भाव की कल्पना करना आचार शास्त्र से अनभिज्ञता प्रगट करना हे । श्रक्षेपक अगर अपनी पार्टी के विद्वानों से भी इस व्याप्य व्यापक सम्बन्धका समझने की चेश करेगा तो समझ सकेगा । श्रक्षेपक के मतानुसार सप्तभ्यसन का त्याग दर्शन प्रतिमा के पहिले है, जब कि संकल्पी हिंसा का त्याग दूसरी प्रतिमा में हैं । इससे सिद्ध हुआ कि दर्शन प्रतिमा के पहले और सातिचार होने से दर्शन प्रतिमा में भी सप्तव्यसन के न होने पर भी संकल्पी हिंसा है। क्या श्रक्षेपक इतनी मोटी बात भी नहीं समझता ? 'प्रशम संवेग होजाने से संकल्पी हिंसा नहीं होती' यह भी श्रक्षेपक की समझ की भूल है । प्रशम संवेगादि तो चतुर्थ गुणस्थान में हो जाते हैं, जबकि मंकल्पी सहिंसा का त्याग पाँचवे गुणस्थान में होता है। इससे सिद्ध हुआ कि चतुर्थ गुणस्थान में - जहाँ कि जीव सम्यक्त्वी होता है- प्रशम संवेगादि होने पर भी सङ्कल्पी त्रस हिंसा होती है। ख़ैर, प्रक्षेपक यहाँ पर बहुत भूला है । उसे गोम्मटसार आदि ग्रन्थों से श्रविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत के अन्तर को समझ लेना चाहिये । आक्षेप (ऊ) - जब पुरुष के स्त्री वेद का उदय होता है, तब विवाहादि की सूझती है। भला श्रप्रत्याख्यानावरण कषाय वेदनीय से क्या सम्बन्ध है ? Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान-स्त्रीवेद के उदय से विवाहादि की सूझती है-आक्षेपक की यह बात पाठक ध्यान में रक्खें क्योंकि आगे इसी वाक्य के विरोध में स्वयं आक्षेपक ने बकवाद किया है। और, स्त्रीवेद के उदय से विवाह की नहीं, सम्भोग की इच्छा होती है। सम्भोग की इच्छा होने पर अगर अप्रत्याख्याना. धरण का उदयाभावी क्षय होता है तो वह अणुव्रत धारण कर किसी कुमारी से या विधवा से विवाह कर लेता है। अगर अप्रत्याख्यानाधरण का उदयाभावी क्षय न होकर उदय ही होता है तो वह व्यभिचारी होने की भी पर्वाह नहीं करता । भेद का उदय तो विवाह और व्यभिचार दोनों के लिये समान कारण है, परन्त अप्रत्याख्यानावरण का उदयक्षय, अथवा प्रत्याख्यानावरण का उदय, व्यभिचार से दूर रख कर उसे विवाह के बन्धन में रखता है। इसलिये विवाह के लिये अप्रत्या. ख्यानावरणके उदयाभावी क्षय का नाम विशेष रूप में लिया जाता है। बेचाग आक्षेपक इतना भी नहीं समझता कि किस कर्म प्रकृतिका कार्य क्या है ? फिर भी सामना करना चाहता है ! आश्चर्य ! आक्षेप (ऋ)-गजवातिकके विवाह लक्षण में जैसे कन्या का नाम नहीं हे वेसे ही स्त्री पुरुषका नाम नहीं है । फिर स्त्री पुरुष का विवाह क्यों लिखा ? स्त्री स्त्री का क्यों न लिखा ? समाधान-राजवार्तिक के विवाह लक्षणमें चारित्रमोह के उदय का उल्लेख है ! चारित्र माह में स्त्रीचंद पुरुषवंद भी है । स्त्रीवेद के उदय से स्त्री, स्त्री को नहीं चाहती-पुरुष की चाहती है। और पुरुपवेद के उदय से पुरुष, पुरुष कोनहीं चाहता-स्त्री को चाहता है । इसलिय विवाह के लिये स्त्री और पुरुष का होना अनिवार्य है। योग्यता की दुहाई देकर यह नहीं कहा जा सकताकि स्त्रीवेद के उदय से कुमार के हो साथ रमण Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२ । करने की इच्छा होती है और वह कुमारी को हो होती है । इसी तरह पुरुषवद के उदय से यह नहीं कहा जा सकता कि पुरुष को कुमारी के माथ ही ग्मरण करने की इच्छा होती हैविधवा के साथ नहीं होती। मतलब यह कि स्त्रीपुरुष वंदा. दय के कार्य में स्त्री पुरुष का होना आवश्यक है, कुमार कुमारी का होना आवश्यक नहीं है । इसीलिये गजबार्तिक के लक्षण के अर्थ में स्त्रीपुरुष का नाम लिया-कुमार कुमारी का नाम नहीं लिया। आप ( ल )--न्त्री वेद के उदय स तो म्त्री मात्र में भांग करने की निर्गल प्रवृत्ति होती है। वह विवाह नहीं हैव्यभिचार है। जहाँ मर्यादा रूप कन्या पुरुष में स्वीकारता है वही विवाह है। कामसेवन के लिये दोनों बद्ध होते है । में कन्या तुम ही पुरुप मे मैथुन का गी और मैं पुरुष तुम ही कन्या मे मैथुन करूंगा' यह स्वीकारता किस की है ? जबतक कि कुमार श्रयस्थामें दोनों ब्रह्मचारी हैं। यहाँ समय की अवधि नहीं है, अतः यह कन्या पुरुष की स्वीकारता यावज्जीव है । समाधान-सिर्फ रोवेद के उदय को कोई विवाह नहीं कहता। उससे तो काम लालसा होती है। उस काम लालसा को मर्यादित करने के लिये विवाह है । इसलिये स्त्रीवेद के उदय के विना विवाह नहीं कहला सकना और स्त्रोवेदके उदय होने पर भी काम लालसा का मर्यादित न किया जाय तो भी विवाह नहीं कहला सकता । काम लालसा का मर्यादित करने का मतलब यह है कि संसारको समस्त स्त्रियोंमें काम लालसा हटाकर किसी एक स्त्रीमें नियत करना । वह स्त्री चाहे कुमारी हो या विधवा. अगर काम लालसा वहीं बद्ध हो गई है नो मर्यादा की रक्षा हो गई । सैकड़ों कन्याओं के साथ विवाह करते रहने पर भी काम लालसा मर्यादित कहलाती रहे और Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समस्त स्त्रियों का त्याग कर के एक विधवा में काम लालसा को बद्ध करने से भी काम लालसा मर्यादित न मानी जावे, इम्म नासमझो का कुछ ठिकाना भी है ? श्राक्षेपक के कथनानुसार जैसे कन्या 'तुम ही पुरुष' से मैथुन करने की प्रतिज्ञा करती है, उसी तरह पुरुष भी ना "तुमही कन्या" से मैथन करने की प्रतिज्ञा करता है। पुरुष ना विधुर हो जाने पर या सपत्नीक होने पर भी अनेक स्त्रियों के साथ विवाह करता रहे-फिर भी उसको 'तम ही कन्या की प्रतिज्ञा बनी रहे और स्त्री. पति के मर जाने के बाद भी किसी एक पुरुप से विवाह को नो इनने में ही 'तम ही पुरूप' वाली प्रतिज्ञा नष्ट हो जावे ! बाहरे 'मही'! यह 'तुम ही' का 'ही' तो बड़ा विचित्र है जो एक तरफ तो सैकड़ों बार मारे जाने पर भी बना रहता है और दमगे नरफ ज़रा मा धक्का लगते हो ममाप्त हो जाता है ! क्या श्राक्षे. पक इस बात पर विचार करेगा कि जब उसके शब्दों के अनु. सार ही स्त्री और पुरुष दोनों की प्रतिज्ञा यावज्जीव थी ता पुनर्विवाह से स्त्री, प्रतिज्ञाच्युत क्यों कही जाती है और पुरुष क्यों नहीं कहा जाता है ? यहाँ प्राक्षेपक को अपने 'यावज्जीव' और 'ही का बिलकुल व्याल ही नहीं रहा। इसीलिये अपनी धुन में मस्त होकर वह इक तरफा डिगरी देता हुआ कहता है आक्षेप ( ए ---जव यावज्जीव की प्रतिज्ञा कन्या करती है तो फिर पनि के मर जाने पर वह विधवा हुई तो यदि पुरुषा. न्तर ग्रहण करती है तो अकलदेव प्रणीत तक्षरण से उसका विवाह नहीं कहा जा सकता । वह व्यभिचार है। समाधान-ठीक इसी तरह या क्षेपक के शब्दानुसार कहा जा सकता है कि जब यावज्जीव की प्रतिज्ञा पुरुष करता हैं तो फिर पत्नी के मर जाने पर वह विधुर हुआ । सो यदि Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह दूसरी कन्या ग्रहण करता है तो अकलङ्क देव प्रणीत लक्षण से उसका विवाह नहीं कहा जा सकता । वह व्यभिचार है। यदि इतने पर भी पुरुष का पुनर्विवाह विवाह है, व्य. भिचार नहीं है, तो स्त्रीका पुनर्विवाह भी विवाह है, व्यभिचार नहीं हैं। प्राक्षेपक के शब्द ही पूर्वापरविरुद्ध होने से उसके वक्तव्य का खंडन करते हैं । वे काने की दृष्टि के समान इक तरफ़ा तो है ही। आक्षेप (ऐ)--गजवातिक के भाष्य में विवाह के लिए कन्या शब्द का प्रयोग किया गया है। यह बात लेखक स्वयं मानते हैं। समाधान-कन्या शब्द का अर्थ 'विवाह योग्य स्त्री हैविवाह के प्रकरणमें दूसरा अर्थ हो हो नहीं सकता। यह बात हम पहिले लखमें सिद्धकर चुके हैं, यहाँ भी आगे सिद्ध करेंगे। परन्तु "तुप्यतु दुर्जनः" इस न्याय का अवलम्बन करके हमने कहा था कि कन्या शब्द, कन्या के अन्य विशेषणों की भाँति श्रादर्श या बहुलता को लेकर ग्रहण किया गया है । इसीलिए वार्तिक में जो विवाह का लक्षण किया है उम्म में कन्या शब्द नहीं है। टीका में कन्या-विवाह का दृष्टान्त दिया गया है, इस से कन्या का ही वरण विवाह कहलायेगा, यह बात नहीं है । अकलङ्क देव ने अन्यत्र मी इमी शैली से काम लिया है। वे वार्तिक में लक्षण करते है और उसकी टीका में बहुलता को लेकर किसी प्रान्तको इस तरह मिला देते हैं जैसे वह लक्षण ही हो। प्रकलङ्क देव की इस शैली का एक उदाहरण और देखिये संवृत्तस्य प्रकाशनम् ग्होभ्याख्यानं ( वार्तिक ) स्त्री पुंसाभ्यां एकान्तेऽनुष्ठितस्य क्रियाविशेषस्य प्रकाशनं यत् रहो. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) भ्याख्यानं तद्वेदितव्यं ( भाष्य )। वार्तिक में रहोभ्याख्यान का अर्थ किया गया है किसी की गुप्त बात प्रगट करना' परन्तु भाष्य में बहुलता की अपेक्षा लिखा गया है कि 'स्त्री पुरुष ने जो एकांत में कार्य किया हो उसका प्रकाशित करना रहोभ्याख्यान है । भाष्य के अनुमार 'स्त्री पुरुष' का उल्लेख श्राचार्य प्रभाचन्द्रने रत्नकरराडकी टीकामें,ग्राशाधरजीने अपने सागारधर्मामृत में भी किया है । प्राचार्य पूज्यपाद भी इसी तरह लिख चुके हैं। इस विवेचनसे प्राक्ष पक सरीखे लोग तो यही अर्थ निकालेंगे कि 'स्त्री-पुरुप' की गुप्त वात प्रगट करना रहाभ्याख्यान है। अन्य लोगो की गुप्त बात प्रगट करना रहाभ्याख्यान नहीं है। परन्तु विद्यानन्दि स्वामी ने श्लोक वार्तिक में जो कुछ लिखा हे उसमे बात दूसरी ही हो जाती है। ___ "संवृतम्य प्रकाशनं ग्हाभ्याख्यानं, स्त्री पुरुषानुष्ठित गुप्त क्रिया विशेष प्रकाशनवत्' अर्थात् गुप्त क्रिया का प्रकाशन, रहोभ्याख्यान है । जैसे कि स्त्री-पुरुष की गुप्त बान का प्रकाशन । यहाँ स्त्री पुरुष का नाम उदाहरण रूपमें लिया गया है। इसस दूसरो की गुप्त बात का प्रकाशन करना भी रहाभ्याख्यान कहलाया । यही बात राय चन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित नन्वार्थ भाष्य में भी मिलती है-"स्त्री पुंमयोः परम्परेणान्यम्यवा" मेरे कहने का सार यह है कि जैसे रहोभ्याख्यान की परिभाषा में बहुलता के कारण दृष्टांत रूप में स्त्री पुरुष' का उन्लेन कर दिया है उसी तरह विवाह की परिभाषा में मूलमें कन्या-शब्द न होने पर भी, बहुलता के कारण उदाहरण रूप में कन्या-शब्दका उल्लेग्न हुआ है । जिसका अनुकरण रहोभ्या. ख्यान की परिभाषा के 'स्त्री पुरुप' शब्द की तरह दूसरों ने भी किया है । परन्तु विद्यानन्दि स्वामी के शब्दोंसे यह बात साफ़ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज़ाहिर होनी है कि रहोभ्याख्यान का 'रहः' स्त्री पुरुष में ही कैद नहीं हैं और न विवाह का 'वरण' कन्या में ही केद हे । इसीलिये श्लोक वार्तिक में विवाह की परिभाषा में 'कन्या'शब्द का उल्लंख ही नहीं है। इस नारासी बात को समझाने के लिये हमें इतनी पंक्तियाँ लिखनी पड़ी है। पर करें क्या ? ये श्राक्ष पक लोग इतना भी नहीं समझते कि किस ग्रन्थ की लेखन शैली किस ढङ्ग की है। ये लोग 'धर्म-विरुद्ध, धर्म-विरुद्ध' चिल्लाने में जितना समय बरबाद करते हैं उतना अगर शास्त्रों के मनन करने में लगावे तो योग्यता प्राप्त होने के साथ सत्य की प्राप्ति भी हो । परन्तु इन्हें सत्य की परवाह हो तब तो ! आशेप-(श्री) जो देने के अधिकारी हैं वे सब उपलक्षणसे पितृ सदृश है । उनके समान कन्याके स्थान में विधवा जोड़ना सर्वथा असंगत हैं। क्योकि विधवा के दान करने का अधिकार किसी को नहीं है। अगर पुरुप किसी के नाम वसीयत कर जाय तो यह कल्पना स्थान पा सकती हैं । पिता ने कन्या जामाता को दी, अगर जामाता फिर किसी दूसरे पुरुषको देना चाहे तो नहीं देसकता है: फिर दुमग कौन दे सकता है ? समाधान-जिस प्रकार देने के अधिकारी उपलक्षण से पितृ सदृश है उसी प्रकार विवाह योग्य सभी स्त्रियाँ कुमारी सदृश हैं: इस में न कोई विषमता है न असङ्गतता। प्राक्ष पक का हृदय इतना पतित है कि वह स्त्रियों को गाय, भैस श्रादि की तरह सम्पत्ति या देन लेने की चीज़ समझता है। इसीलिए वह लिखता है "कन्या पिता की है, पिता न हो तो जो कुटुम्बी हो वेही उसके स्वामी हैं" लेकिन जैन शास्त्रों के अनुसार पिता वगैरह उसके संरक्षक है--स्वामी नहीं। स्त्री कोई सम्पत्ति नहीं Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७ । है यहाँ तक कि वह पति की भी सम्पत्ति नहीं है । सम्पत्ति, इच्छानुसार स्वामी को नहीं छोड़ सकती, जबकि स्त्री अपने 'पति' को छोड़ सकती है। यही कारण है कि अग्निपरीक्षा के बाद सीताजी ने राम को छोड़कर दीक्षा लेली । रामचन्द्र प्रार्थना करते ही रहगये। क्या सम्पत्ति इस तरह मालिक की उपेक्षा कर सकती है ? स्त्रियों को सम्पत्ति कहकर अपनी मां बहिनों का घोर अपमान करने वाले भी जैनी कहलाते हैं, यह आश्चर्य की बात है। ___ यदि स्त्रियाँ सम्पत्ति है तो स्वामी के मरने पर उन का दुसग स्वामी होना ही चाहिये, क्योंकि सम्पत्ति लावारिस नहीं रहती है। स्त्रियों को सम्पत्ति मान लेने पर तो विधवा. विवाह की आवश्यकता और भी ज्यादा हो जाती है । हम पूछते हैं कि पति के मर जाने पर विधवा, लावारिस सम्पत्ति बनती है या उसका कोई स्वामी भी होता है । यदि आक्षेपक उसे लावारिस सम्पत्ति मानता है तब तो गवर्नमेन्ट उन विधवाओंको हथिया लेगी, क्योंकि 'अस्वामिकस्य द्रव्यस्य दायादो मेदिनी पतिः' अर्थात् लावारिस सम्पत्ति का उत्तराधिकारी राजा होता है। क्या आक्षेपक की यह मन्शा है कि जैनसमाज की विधवाएँ अग्रेजोंको देदो जायँ ? यदि वे किसीकी संपत्ति हैं तो आक्षेपक बनलावे कि वे किसकी सम्पत्ति हैं ? जैसे वाप की अन्य सम्पत्ति का स्वामी उसका बेटा होता है, क्या उसी प्रकार वह अपनी मां का भी स्वामी बने ? कुछ भी हो, स्त्रियों को सम्पत्ति मानने पर उनका कोई न कोई स्वामी अवश्य सिद्ध होता है और उसी को अधिकार है कि वह उस विधवा को किसी योग्य पुरुष के लिये देदे । इस तरह स्त्रियोंको सम्पत्ति मानने का सिद्धांत जंगली. पन से भरा होने के साथ विधवाविवाह-विरोधियों के लिये Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) श्रामघातक है। एक तरफ नो आक्षेपक कहता है कि पिताको दी कन्या जामाता की सम्पत्ति है, दूसरी तरफ कहता है कि जामाता भी किसी को देना चाहे तो नहीं दे सकता। जब कि मम्पत्ति है तब क्यों नहीं दे सकता ? क्या इससे यह नहीं सिद्ध होता कि स्त्री किसी की सम्पत्ति नहीं है ? स्त्रियों को सम्पत्ति मानने वाले कन्या विक्रय के साथ भार्या विक्रय, मातृ-विक्रय की कुप्रथाओं का भी मूत्रपात करते हैं । खैर, स्त्रियाँ किसी की सम्पत्ति हो चाहे न हो, दोनों ही अवस्थाओं में विधवाओं को विवाह का अधिकार रहता है । इस तरह विवाह योग्य सर्भ स्त्रियाँ उपलक्षणसे कुमारी सदृश हैं; जैसे कन्या के सभी संरक्षक उपलक्षण से पितृसदृश ।। प्राक्षेप (श्री)-कन्या नाम स्त्री सामान्य का भी है, हम भी इसे स्वीकार करते हैं । विश्वलोचन कोष ही क्या, हेम और मेदिनी कोष भी ऐसा लिखते है, परन्तु जहाँ जैसा सम्बन्ध होगा, शब्द का अर्थ भी वहाँ वैसा मानना होगा। समाधान-जब श्राक्षेपक कन्या का अर्थ म्त्री-सामान्य म्वीकार करता है और विवाह के प्रकरण में में कन्या शब्द का अर्थ 'विवाह योग्य स्त्री' करता हूँ तो इसमें सम्बन्ध-विरुद्धता या प्रकरणविरुद्धता कैसे हो गई ? विवाह के प्रकरण में विवाह योग्य स्त्री को प्रकरण-विरुद्ध कहना बुद्धि का अद्भुत परिचय देना है। भोजन करते समय सैन्धव शब्दका अर्थ घोड़ा करना प्रकरण-विरुद्ध है, क्योंकि घोड़ा खाने की चीज़ नहीं है, परन्तु विवाहयोग्य स्त्री तो विवाह की चीज है। वह विवाह के प्रक रण में प्रकरण-विरुद्ध कैसे हो सकती है ? आक्षेपक कहेगा कि विवाह तो कुमारी का ही होता है. इसलिये कन्या का कुमारी अर्थ ही प्रकरण-सढ़त है। परन्तु यह तो श्राक्षेपक को मन गढंत वात है: जैनधर्म के अनुसार तो कुमारी और विधवा Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) दोनों का विवाह हो सकता है । इसलिये सुधारकों के लिये "विवाह योग्य स्त्री अर्थ" ही प्रकरण-सङ्गत है । श्रक्षेपक के समान सुधारक लोग तो जैनधर्म को तिलाञ्जलि दे नहीं सकते । आक्षेप ( ) - साहसगति के मुँह से सुतारा को कन्या कहलाकर कवि ने साहित्य की छटा दिखलाई है। उसकी दृष्टि में वह कन्या समान ही थी । साहसगति के भावों में सुतारा की कामवासना सूचित करने के लिये कवि ने नारी भार्या श्रादि न लिखकर कन्या शब्द लिखा । यदि ऐसा भाव न होता तो कन्या न लिखकर ग्राडा लिख देता । समाधान — कविने ग्राडा इसलिये न लिखा कि सुतारा तब राँड नहीं हुई थी । साहसगति सुग्रीवसे लड़कर या उसे मार कर सुतारा नहीं छीनना चाहता था- वह धोखा देकर छीनना चाहता था । इसीलिये उसने रूप-परिवर्तिनी विद्या सिद्ध की । श्रावश्यकता होने पर लड़ना पड़ा यह बात दूसरी है। ख़ैर ! जब तक सुग्रीव मरा नहीं तब तक सुतारा को रॉड कैसे कहा जा सकता था । दध्यौचेतसि कामाग्निदग्धों निःसार मानसः । केनोपायेतां कन्यांलप्स्ये निरृतिदायिनी ॥ १०॥१४॥ यह श्लोक हमने यह सिद्ध करने के लिये उद्धत किया था कि कन्याशब्द का 'स्त्री सामान्य' अर्थ भी है और इसके उदाहरण साहित्य में मिलते हैं । श्रक्षेपक ने हमारे दोनों श्रर्थी को स्वीकार कर लिया है; तब समझमें नहीं श्राता कि वह उस अर्थ के समर्थन को क्यों अस्वीकार करता है । यह श्लोक विधवाविवाह के समर्थन के लिये नहीं दिया है । सिर्फ़ कन्याशब्द के अर्थ का खुलासा करने के लिये दिया है, जो अर्थ आक्षेपक को मान्य है । नारी, भार्या न लिखकर कन्या लिखने से कामवासना Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैसे मृचिन हई ? अगा कन्या शब्द का अर्थ कुमारी रक्खा जावे तब तो भार्याहरण की अपेक्षा कन्याहरण में कामवासना कम ही मालूम होती है। असली बात तो यह है कि साहसगति विद्याधर दो पुत्रों की माना हो जाने पर भी मुताग को प्रौढ़ा नहीं मानता था । उसको दृधिमें उम्म समय भी वह परम सुन्दरी थी। उस में विवाह योग्य स्त्री के सब गुण मौजुद थे । इसीलिये उसने सुनारा को कन्या कहा। सुनाग में इस समय भी विवाहयोग्य स्त्री के समान सौंदर्यादि थे, इसलिये कविने उसे कन्या कहला कर यह बात और भी साफ़ करदी है कि विवाहयोग्य स्त्रीको कन्या कहते हैं । अगर कवि को यह अर्थ अभिमत न होता तो इस जगह वह 'बाला शब्द का प्रयोग करता जिसम माहस. गति की कामातुरता का चित्र और अधिक खिल जाता।। खैर, ज़रा व्याकरण की दृष्टिसे भी हमें कन्या शब्द पर विचार करना है । व्याकरण में पुल्लिंग शब्दों को स्त्रीलिंग बनाने के कई तरीके है। कहीं डीप, कहीं टीप, कहीं इन ( हिंदी में ) श्रादि प्रत्यय लगाये जाते हैं तो कहीं शब्दोंका रूप बिलकुल बदल जाता है। जैसे पुत्र पुत्री श्रादि शब्दों में प्रत्यय लगाये जाते हैं जयकि माता पिता, भाई बहिन में शब्द ही बदल दिया जाता है। भाई और बहिन दोनों शब्दों का एक अर्थ है। अन्तर इतना है कि भाई शब्द से पुरुष जानीय का बोध होता है जबकि बहिन शब्द से स्त्री जातीय का। इसी तरह वर और कन्या शब्द हैं। दोनों का अर्थ एक हो है; अन्नर इतना ही है कि एक से पुरुष का बोध होता हे दूसरे से स्त्री का । अपने विवाह के समय प्रत्येक पुरुष वर कहा जाता है, चाहे उस का पहिला विवाह हो, चाहे दूसरा।ऐसा नहीं है कि पहिले विवाह के समय 'वर' कहा जाय और दूसरे विवाह के समय वर न Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जाय । तथा हर एक कुमार को वर नहीं कह सकते । इसी प्रकार अपने विवाह के समय प्रत्येक स्त्री 'कन्या कही जाती है, चाहे यह उसका पहिला विवाह हो चाहे इसग। ऐसा नहीं हो सकता कि पहिले विवाह के समय वह कन्या कही जाय और दूसरे विवाह के समय न कही जाय । मनलब यह कि विवाह करने वालो प्रत्येक स्त्रो कन्या है और विवाह न कराने वाली कुमारी भी कन्या नहीं है । अन्य प्रकरण में कन्या शब्द के भले ही दूसरे अर्थ हो, परन्तु विवाह के प्रकरण में अर्थात् वरण करने के प्रकरण में कन्या शब्द का विवाह करने वाली स्त्री' अर्थ ही हो सकता है । इमी अर्थ को ध्यान में रख कर कवि ने साहसगति के मुंह से सुनाग का कन्या कहलाया है। इसी प्रयोग से कवि ने बतला दिया है कि कवि को वाच्य वाचक सम्बन्ध का कैसा सूक्ष्म परिचय है। कविवर ने अपने इस सूक्ष्म ज्ञान का परिचय अन्यत्र भी दिया है कि जिस से सिद्ध होता है कि कविवर, कन्या शब्द का अर्थ 'विवाह कराने वाली स्त्री' या 'ग्रहण को जाने वाली स्त्री' करते हैं । यहाँ पर कविवर ने कन्या शब्द का प्रयोग किसी साधारण पात्र के मुंह से न कगके एक प्रव. धिज्ञानी मनि के मह से कराया है। गजा कुण्डलमण्डित ने पिंगल ब्राह्मण की स्त्री का हरण कर लिया था। जन्मान्तर की कथा सुनाते समय अव. धिज्ञानी मनिगज हम घटना का उल्लख इन शब्दों में करते हैं प्रहरगिलात् कन्यां तथा कुडल मंडितः। पदत्रायं पुर। वृत्तः सम्बन्धः परिकीर्तितः ॥ ३०-१३३ ॥ अर्थात्-कुण्डलमण्डित ने पिङ्गल ब्राह्मण की स्त्री Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) का हरण किया। यह बात पहिले ही ( पद्मपुराण में ) कही (कुण्डलमण्डित ने पिंगल की स्त्री का ही हरण किया था, किसी कुमारी का नहीं। यह बात पाठक पद्म. पुगण में देख सकते हैं। यहां भी वह श्लोक दिया जाता है: भरतम्थे विदग्धाख्ये पुरे कुगडलमण्डितः। अधार्मिकोऽहरकांतां पिंगलस्यमनः प्रियां ॥ ॥ ३०। ६६ ॥ इस श्लोक में जिस का उल्लन कान्ता शब्द से किया गया है, उसी का १३३ वे श्लोक में कन्या शब्द से किया गया है। इन घटनाओं की अन्य बातों से हमें कोई मतलब नहीं । हमें तो आक्षेपक के हठ के कारण इन का उल्लेख करना पड़ा है। इस से हमें सिर्फ यही सिद्ध करना है कि कन्या शब्द का अर्थ 'ग्रहण-चरण-करने योग्य स्त्री' हे । इस लिए "कन्यावरणं विवाहः" ऐसा कह कर जो विधवाविवाह का निषेध करना चाहते हैं, वे भूलते हैं। आक्षेप- प्र. ) कन्या शब्द का अर्थ नारी भी है: इसलिये देवाङ्गनाओं के लिये 'देव कन्या शब्द का प्रयोग किया गया है । यह नहीं हो सकता कि जो स्त्री दूसरा पति करे, वही कन्या कहलावे । विधवा होकर दूसरा पति ग्रहण करने वाली भी कन्या कहलाती हो सो सारे संसार में कहीं नहीं देखा जाता । जिन योरोप आदि देशों में या जिन जातियों में विधवा-विवाह चालू है, उन में भी विवाह के पूर्व लड़कियों को कन्या माना जाता है और विवाह के बाद बधू आदि । समाधान-कुमारी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों ( सधवा, Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) विधवा ) को भी कन्या कह सकते हैं, यह बात श्राप पहिले म्वीकार कर चुके हैं और यहाँ भी स्वीकार कर रहे हैं । यही बात हम सिद्ध करना चाहते हैं । 'जो दूसरा पति ग्रहण करे वही कन्या हे' यह तो हमारा कहना नहीं है। हम तो यह कहना चाहते हैं कि वह भी कन्या है। इस अर्थ को आप भी स्वीकार करते हैं । हाँ साहसगति विद्याधर और कुण्डल. मरिडत के दृष्टान्त से यह बात अवश्य मालूम होती है कि जब कोई पुरुष किसी स्त्री को ग्रहण करना चाहता है, तभी प्रायः वह कन्या कही जाती है। अन्य अवस्थानों में अकुमारी को कन्या कहने के उदाहरण प्रायः नहीं मिलते। इन उदाह. रणों से तथा वर और कन्या शब्द की समानार्थकता से यह बात साफ मालूम होती है कि कन्या का अर्थ विवाह करने वाली या विवाह योग्य स्त्री है। __ यांगेप का उदाहरण देकर ना पाप ने अपना ही विरोध किया है । श्राप ने कन्या शब्द का अर्थ अकुमारी स्त्री भी किया है, जब कि योरोप का उदाहरण देकर आप यह सिद्ध करना चाहते हैं कि अविवाहिता को ही कन्या कहते हैं । परन्तु आप ने शब्दों का प्रयोग ऐसा किया है, जिस से हमारी वात सिद्ध होती है। श्राप का कहना है कि-यारोप में विवाह के पहिले लड़कियों को कन्या माना जाता है। इस पर हमारा कहना है कि अगर कोई बालविधवा दूसरा विवाह करे तो उस विवाह के पहिले भी वह कन्या कहलायगी । यह तो श्राप बिलकुल हमारे सरीखी बात कह गये । आपने यह तो कहा नहीं है कि प्रथम विवाहके पहिले कन्या कहलानी हे और दूसरे विवाह के पहिले कन्या नहीं कहलाती ! खोर। अब इस नर्क वितर्क के बाद सीधी बात पर श्राइये । योरोप में भारतीय भाषा के कन्या प्रादि शब्दों का प्रयोग नहीं होता । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगरेजी में कन्या के बदले fiss ( मिस ) शब्द का प्रयोग होता है, परन्तु कन्या शब्द का अर्थ जब कुमारी किया जायगा तभी उसका पर्याय शब्द Miss (मिस ) होगा; जब नारी अर्थ किया जायगा तब Miss ( मिस ) शब्द उसका पर्यायवाची नहीं बन सकता। असली बात तो यह है कि 'घर' और 'कन्या' इसका ठीक हिंदी अनुवाद होगा 'दल्हा' और 'दुल्हन'। जिस प्रकार 'दुल्हा' को 'घर' कहते हैं उसी प्रकार दुल्हिन को 'कन्या' कहते हैं। वर शब्द का अङ्गारेजी अनुवाद है Bride. groon (ब्राइडग्रम); इसलिये कन्या शब्द का अनुवाद होगा Bride (ब्राइड)। विवाह के प्रकरण में कन्या शब्द का दुल्हिन अर्थात् Bride अर्थ लगाना ही उचित है । जिस प्रकार भोजन के समय सैन्धव शब्द का घोड़ा अर्थ करना पागलपन है, उसी प्रकार विवाह के प्रकरण में कन्या शब्द का कुमारी अर्थ करना पागलपन है । उस समय तो कन्या शब्दका दुल्हिन अर्थ ही होना चाहिये । वह दुल्हिन कुमारी भी हो सकती है और विधवा भी हो सकती है । इसलिये कन्या शब्दके कारण विधवाविवाह का निषेध नहीं किया जा सकता। आक्षेप-(क) सभी देवियों को दूसरे देवों के साथ नहीं रहना पड़ता । देवी जिसे चाहे उसी देव को अपना पति नहीं बना सकती, परन्तु अपने नियोगी को ही पति बना सकती है। देवियों के दृष्टान्त से विधवाविवाह की पुष्टि न करना चाहिये । दृष्टान्त जिस विषय का है पुष्टि भी वैसी करेगा। देवाना दुसरी गति है। रजस्वला नहीं होती, गर्भधारण नहीं करती, उन के पलक नहीं गिरते, जब कि मनुष्यनी की ये बातें होती हैं। समाधान-सभी देवियों को दूसरा पति नहीं करना पड़ता, परन्तु जिन देवियों का पति मर जाता है वे पति के Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) स्थान पर पैदा होने वाले अन्य देव को पति बना लेती हैं, गह बात तो बिलकुल सत्य है। जैसा कि आदिपुराण के निम्न लिखित श्लोकों से मालम होना है। भीमः साधुः पुरे पुडगकिरायां घातिघातनात् । -पर्व०४६ । श्लो० ३४ः । रम्ये शिवंकरोद्याने पंचमहान पूजितः । तस्थिवास्तं समागत्य चतस्रो देवयोषितः ॥ ४६॥ ३४६ ॥ वंदित्वाधर्ममाकरार्य पापादम्मत्पतिमतः।। त्रिलोकेशवदाम्माकं पतिः कान्यो भविष्यति ॥ ४६॥३५०॥ पुण्डरीकपुर के शिवंकर नामक बगीचे में भीम नामक साधु को घातिया कर्मों के नाश करने से केवल ज्ञान हुा । उन के पास चार देवाङ्गनाएं आई। बन्दना की, धर्म सुना । फिर पूछा-हे त्रिलोकेश ! पापकर्म के उदय से हमारा पति मर गया है, इसलिये कहिये कि हमारा दमरा पति कोन होगा? __ यह बात दुमरी है कि बहुतसो देवाङ्गनाओं को विधवा नहीं होना पड़ता, इससे दूसरा पति नहीं करना पड़ता। परन्तु जिन्हें करने की ज़रूरत होती है वे दूसरे पति का त्याग नहीं कर देती । हाँ, देवाङ्गनाएँ दूसरे देव को नहीं पकड़ती, अपने नियोगी को ही पकड़नी हैं; सो यह बात कर्मभूमि में भी है । मध्यलोक में भी नियोगी के साथ ही दाम्पत्यसम्बन्ध होता है। हाँ, देवगति में नियोगी पुरुष और नियोगिनी स्त्री का चुनाव (नियोग = नियुक्ति) दैव ही कर देता है जबकि कर्म. भूमि में नियोगी और नियोगिनी के लिये पुरुषार्थ करना पड़ता है। सो इस प्रकार का पुरुषार्थ विधवाओं के लिये ही नहीं करना पड़ता, कुमारियों के लिये भी करना पड़ता है। देवकृत और प्रयत्नकृत नियोग की बात से हमें कुछ मतलब नहीं। देखना यह है कि देवगति में देवियाँ एक देव के मरने पर Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) दूसरा देव प्राप्त कर लेनी हैं। इतना ही नहीं, दूसरे देव को प्राप्त करने की लालसा इतनी बढ़ जाती है कि वे थोड़ी देर भी शान्त न बैठ कर केवली भगवान के पास पूछने जाती हैं । केवली भगवान भी दूसरे पति के विषय में उत्तर देते हैं 1 गर दूसरे पति को ग्रहण करना पाप होता तो वं देवियाँ धर्म श्रवण करने के बाद केवली भगवान् से ऐसा प्रश्न न करतीं । और न केवली भगवान् के पास से इस का उत्तर मिलता | जब केवली भगवान् ने उन्हें धर्म सुनाया तो उसमें यह बात क्यों न सुनाई कि दुसग पति करना पाप है ? क्या इससे यह बात साफ़ नहीं हो जाती कि जैनधर्म में विधवाविवाह को वही स्थान प्राप्त है जो कुमारीविवाह को प्राप्त हैं । इतने पर भी जो लोग विधवाविवाह को धर्मविरुद्ध समझते हैं वह पुरुष मदोन्मत्त, मिथ्यादृटि नहीं तो क्या हैं ? देवांगना दूसरी गति में हैं और उनके शरीर में ग्स रक्तादि नहीं हैं, तो क्या हुआ ? जैनधर्म तो सब जगह है। मिथ्यात्व और दुराचार शरीर के विकार नहीं, श्रात्मा के विकार हैं। इस लिये शरीर की गुणगाथा से श्रधर्म, धर्म नहीं बन सकता | यहाँ धर्म अधर्म की मीमांसा करना है, हाड़ माँस की नहीं । हाड़ माँस तो सदा पवित्र हैं, वह न तो पुनर्विवाह से अपवित्र होता है और न पुनर्विवाह के बिना पवित्र । अगर यह कहा जाय कि 'देवगति में ऐसा ही रिवाज है, इसलिये वहाँ पाप नहीं माना जाता; विधवा देवियों को ग्रहण करने वाले भी क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं और दूसरे देव का ग्रहण करने वाली देवियाँ, स्त्री होने से क्षायिक सम्यक्त्व तो नहीं पा सकतीं, परन्तु बाकी दोनों प्रकार के सम्यक्त्व प्राप्तकर सकती हैं। 'यदि रिवाज होने से देवगति में यह पाप नहीं है तो यहाँ भी पुनविवाह के रिवाज हो जाने पर पाप नहीं कहला सकता । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) आक्षेप-( ख ) दीक्षान्वय क्रिया में जो पुरुष दीक्षा ले रहा है, उसका विवाह उमी की स्त्री के साथ होता है। इससे विधवाविवाह कैसे सिद्ध होगया? समाधान-जो लोग कन्या शब्द का अर्थ कुमारी करते है और कुमारी के सिवाय किसी दूसरी स्त्री का विवाह ही नहीं मानते, उनकी महतोड उत्तर देने के लिये हमने दीक्षा. न्वय क्रिया का वह श्लोक उद्धृत किया है । दीक्षित मनुष्य भले ही अपनी स्त्री के साथ विवाह करता हो, परन्तु उस की म्त्री कन्या है कि नहीं? यदि कन्या नहीं है तो 'कन्यावरणं विवाहः' इस परिभाषा के अनुसार वह विवाह ही कैसे कहा जा सकता है ? लेकिन जिनसेनाचार्य ने उसे विवाह कहा है। अगर वह स्त्री, विवाह होने के कारण कन्या मानो जासकती है तो विधवा भी कन्या मानी जा सकती है। सधवा तो कन्या कहला सके और विधवा कन्या न कहला सके-यह नहीं हो सकता। आक्षेप (ग)-कन्याएँ जिस प्रकार शखिनी पद्मिनी आदि होती हैं, उसी प्रकार पुरुष भी। जब स्त्री पुरुष समान गुणवाले नहीं होतं तत्र वैमनस्य, सन्तानादि का प्रभाव होता है। इसलिये सागारधर्मामृत में कन्या के लिये निर्दोष विशेषण दिया है। तुम इन महत्त्वपूर्ण शब्दों का भाव ही नहीं समझे। समाधान-समान गुणवाले स्त्री पुरुष होने से लाभ है। परन्तु हमारा कहना यह है कि अगर शङ्गिनी आदि भेदों की समानता नहीं पाई जाय तो विवाह धर्मविरुद्ध कह लायगा या नहीं ? यदि धर्मविरुद्ध कहलायगा तब आजकल के फी सदी १. विवाह धर्मविरुद्ध ठहरेंगे, क्योंकि इन भेदों का विचार ही नहीं किया जाता। अन्य प्रकार के वृद्धविवाहादि अनमेल विवाह भी धर्मविरुष ठहरेंगे । फिर केवल विधवाविवाह के पीछे Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) इतना तूफान मचाना किस काम का ? यदि अनमेल आदि विवाह धर्मविरुद्ध नहीं है तो विधवाविवाह भी धर्मविरुद्ध नहीं है । इसलिये जिस प्रकार 'निर्दोष' विशेषण सदोषा के विवाह को धर्मविरुद्ध नहीं ठहरा सकता, उसी प्रकार 'कन्या' विशेषण विधवा के विवाह को धर्मविरुद्ध नहीं ठहरा सकता। इसके लिये हमने पहिले लेख में खुलासा कर दिया है कि 'कन्या और विधवा में करुणानुयोग की दृष्टि में कुछ अन्तर नहीं है जिससे कन्या और विधवा में जुदी जुदी दो श्राक्षाएँ बनाई जायँ'। इस अनुयोग सम्बन्धी प्रश्न का श्राप कुछ उत्तर नहीं दे सके। आक्षेप (घ)-जैन सिद्धान्त में कन्या का विवाह होता है, यह स्पष्ट लिखा है । विधवा को आर्यिका होने का या वैधव्य दीक्षा धारण करने का स्पष्ट विधान है। इसलिये विधवाविवाह का विधान व्यभिचार को पुष्टि है। समाधान-कन्या शब्द का अर्थ विवाह कराने वाली स्त्री' या 'दुल्हिन' है (स्त्री सामान्य आपने भी माना है। )। दुल्हिन कुमारी भी हो सकती है और विधवा भी हो सकती है, इसलिये जैन सिद्धान्त को प्राशासे विधवाविवाह का कुछ विरोध नहीं । शास्त्रों में तो अनेक तरह की दीक्षाओं के विधान है, परन्त जो लोग दोक्षा ग्रहण नहीं करते. वे धर्मभ्रष्ट नहीं कहलाते । जिनमें विरक्ति के भाव पैदा हुए हों, कषायें शांत होगई हो, वे कभी भी दीक्षा ले सकती हैं। परन्तु जब विरक्ति नहीं हे, कषाये शान्त नहीं है, तब ज़बर्दम्ती उनसे दीक्षा नहीं लिवाई जा सकती । 'ज्यों ज्यों उपशमत कषाया, त्यो त्यो तिन त्याग बताया' का सिद्धान्त आपको ध्यान में रखना चाहिये। इल विषय को प्रायः सभी बाते पहिले कही जा चुकी हैं। आक्षेप (ङ)-प्रबोधसार में लिखा है कि 'कन्या का Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) दुबाग विवाह नहीं होता' । यशस्तिलक में लिखा है कि 'एक. बार जो कन्या स्त्री बनाई जाती है वह विवाह द्वारा फिर दुबारा मंत्री नहीं बनाई जाती'। श्रादिपुगण में अर्ककीर्ति कहते हैं कि मैं उस विधवा सुलोचना का क्या करूंगा'। नीतिवाक्यामृत में श्रेष्ठ शुद्रों में भी कन्या का एकबार विवाह माना जाता है। समाधान-जैनगज़ट में श्लोक नहीं छपते, इस की प्रोट लेकर पण्डित लोग खूब मनमानी गप्पं हाँक लिया करते हैं। अगर श्लोक देने लगे तो मारी पोल खुल जाय । खैर, प्रबोध. मार में तो किमी भी जगह के ४४ नम्बर के श्लोक में हमें विधवाविवाह का निषेध नहीं मिला । यशस्तिलक के श्लोक के अर्थ करने में श्राक्षेपक ने जान बूझकर धोखा दिया है । ज़रा वहाँ का प्रकरण और वह श्लोक देखिये। किस तरह की मूर्ति में देवकी स्थापना करना चाहिये, इसके उत्तर में सोमदेव लिखते हैं कि विष्णु श्रादिकी मूर्ति में अरहन्त की स्थापना न करना चाहिये । जैसे-जब तक कोई म्त्री किसी की पत्नी है तब तक उस में ( परपरिग्रहे ) स्वस्त्री का सङ्कला नहीं किया जा सकता। कन्याजन में स्वम्त्री का सङ्कल्प करना चाहिये। शुद्धवस्तूनि सङ्कलाः कन्याजन इवोचितः । नाकारान्तर संक्रान्ते यथा परपरिग्रहे ।। मतलब यह कि मर्ति का आकार दूसग हो और स्थापना किसी अन्य की की जाय तो वह ठीक नहीं । हनुमान की मूर्ति में गणेश की स्थापना और गणेश की मूर्ति में जिनेन्द्र की स्थापना अनुचित है । परन्तु मूर्ति का आकार बदलकर अगर स्थापना के अनुरूप बना दिया जाय तब वह स्थापना के प्रनिकूल नहीं रहती। अन्य धर्मावलबियों में तो पत्थरों के ढेर और पहाड़ों तक को देवता की मूर्ति मान लेते हैं । इसलिये ज्या Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) पत्थरों के ढेर में से या पहाड़ में से किसी पत्थर की जिनेन्द्र मूर्ति बना लेना अनुचित हो जायगा? स्थापना में सिर्फ इतना ही देखना चाहिये कि वर्तमान में यह पत्थर प्राकारान्तरसंक्रान्त तो नहीं है। पहिले किस आकारमें था, इसके विचार की कोई ज़रूरत नहीं है। इसी प्रकार वर्तमान में जो किसी दूसरे पुरुष कौस्त्री है उसे स्वस्त्री नहीं बनाना चाहिये; जैसै कितिब्बत में अनेक पुरुष एक ही स्त्री को अपनी अपनी पत्नी बनाते हैं या जैसे कि हिंदू शास्त्रों में द्रोपदी के विषय में प्रसिद्ध है । परन्त जो स्त्री विधवा होगई है वह तो कुमारी के समान किसी की पत्नी नही है । वह आकारान्तरसंकान्त अर्थात् किसी की पत्नी थी ज़रूर, परन्तु अब नहीं है। इसलिये उसमें स्वपत्नीत्वका सङ्कल्प अनु. चित नहीं है । आक्षेपक ने प्रकरण को छिपाकर, कन्या शब्दका अर्थ भुलाकर, ज़बरदस्ती भूतकाल के रूपको वर्तमान का रूप देकर या तो खुद धोखा खाया है या दृसगे को धोखा दिया है। प्राचार्य सोमदेवकं वाक्यों से विधवाविवाह का विरोध करना दुःसाहस है । जो प्राचार्य अणुवती को वेश्यासेवन तक को खुलासी देते हैं वे विधवाविवाह का क्या विरोध करेंगे ? बल्कि दूसरी जगह खुद उन्होंने स्त्री के पुनर्विवाह का समर्थन किया है। नीतिवाक्यामृत में वे लिखते हैं कि-'विकृत पत्यू. ढापि पुनर्विवाहमहतीति स्मृतिकाराः' अर्थात् शास्त्रकार कहते हैं कि जिस स्त्री का पति विकारी अर्थात् सदोष हो,वह स्त्री भी पुनर्विवाह की अधिकारिणी है। इस वाक्य के उत्तर में कुछ लोग कहा करते हैं कि यह तो दूसरों की स्मृतियों का हवाला हैसोमदेव जी इससे सहमत नहीं हैं । परन्तु सोमदेव जी अगर सहमत न होते तो उन्हें इस हवाले की ज़रूरत क्या थी ? यदि सोमदेवजी ने विधवाविवाह का खंडन किया होता और खंडन के लिये यह वाक्य लिखा होता तब तो कह सकते थे कि वे Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) विधवाविवाह से महमत न थे; परन्त जब विधवाविवाह का वे खण्डन नहीं करते और विधवाविवाह आदि के समर्थक वाक्य को उद्धत करते हैं तो मूर्ख से मर्ख भी कह सकता है कि सोमदेव जी विधवाविवाह के पक्षपाती थे। दूसरी बात यह है कि स्मृति शब्द से अजैनों के धर्मशास्त्र ही ग्रहण नहीं किये जा सकते। जैनशास्त्र भी श्रति म्मति आदि शब्दों से कहे गये हैं, जैसाकि आदिपुगण के ४४ वे पर्व में कहा गया है सनाननोऽस्ति मार्गोऽयम् श्रतिस्मृनिष भाषितः । विवाहविधि भेदेषु वरिष्ठोहि म्वयंवरः ॥४४॥३२॥ यहाँ पर जैन शास्त्रों का उल्लेख अनि स्मृति शब्द मे हुआ है। और भी अनेक स्थानों पर ऐसा ही शब्द व्यवहार देखा जाता है। मतलब यह कि नीतिवाक्यामृत में जो स्त्री के पुनर्विवाह का समर्थक वाक्य पाया जाता है उससे सोमदेव जी तो पुनर्विवाह समर्थक ठहरते ही हैं, साथ ही अन्य जैनाचार्यों के द्वाग भी इसका समर्थन होता है। ऐसे सोमदेवाचार्य के यशस्तिलक के श्लोक में विधवाविवाह का विरोध सिद्ध करने की कुचेष्टा करना दुःसाहस नहीं तो क्या है ? पाठक अब जग अर्ककीर्ति के वाक्य पर विचार करें। जवसुलोचनाने जयकुमार को वर लिया तब अर्ककीनिक मित्र दुर्मर्षण ने अर्ककीर्ति को समझाया रत्नं ग्लेष कन्येव नत्राप्येव कन्यका । तत्त्वां स्वगृहमानीय दोष्ट्य पश्यास्य दुर्मतेः ॥४४॥५॥ रत्नों में कन्यारत्न ही श्रेष्ठ है; उसमें भी यह कन्या (पाठक यह भी बयाल रक्खे कि जयकुमार का वर तेने पर भी सुलोचना कन्या कही जा रही है) और भी अधिक श्रेष्ठ है । इसलिये तुम उसे अपने घर लाकर उस दुर्बुद्धि की दुष्टता देखा (बदला लो) । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) दुर्मर्षण की बातों में प्राकर अर्ककीर्ति जयकुमार को मार कर उसकी वरमाला छीनने को उतारू हो गया । इसी. लिये वह कहता है कि द्विधा भवतु वा मा वा बलं तेन किमाशुगाः। माला प्रत्यानयिष्यति जयवक्षा विभिद्यमे ॥ ४४। ६४ ॥ अर्थात् सेना दो भागों में बट जाय चाहं नहीं, मेरा उस से क्या ? मेरे तो बाण जयकुमार का वक्षस्थल चीरकर वर. माला लोटा लावेगे। पाठक विचार करें कि वरमाला को छीन लेना सलाचना को ग्रहण कर लेना था, जिसके लिये अकीर्ति तैयार हुआ था। निःसन्देह यह काम वह जयकुमारसे ईप्याके कारण कर रहा था। परन्तु अर्ककीर्ति का अनवद्यमति नामका मन्त्री जानता था कि सुलोचना सरीखी गजकुमारी अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी को नहीं कर सकती। इसीलिये तथा अन्य प्राप. त्तियों की प्राशङ्का से उसने अर्ककीर्ति को समझाया कि 'तम चक्रवर्ती के पुत्र होकर के भी क्या अनर्थ कर रहे हो ? तुम्ही से न्याय की रक्षा है और तुम्ही ऐसे अन्याय कर रहे हो ! तुम इस यग के परस्त्रीगामियों में पहिले नम्बर के परस्त्रीगामो मत वनो' । परदाराभिलाषस्य प्राथम्यं मा वृथा कृथाः। अवश्यमाहताप्येषान कन्याते भविष्यति ॥४४॥४७॥ अनवद्यमति की बाते सुनकर अर्ककीर्ति लज्जित तो हुना, परन्तु जयकुमार से बदला लेने का और सुलोचना छीनने का उसने पक्का निश्चय कर लिया था, इसलिये यद्ध का प्रोग्राम न बदला । हाँ, अपनी नैतिक सफाई देने के लिये उसने अपने मन्त्री को निम्नलिखित वाक्य बोल कर झाँसा अवश्य दिया : Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) नाहं सुलोचनार्थ्यामि मत्सरी मच्छरैग्यम् । परासुरधुनैवस्यात्कि मे विधवयातया ॥ मुझे सुलोचना कुछ मतलब नहीं, यह घमण्डी जयकुमार मेरे बाणों से मर जाय । मुझे उस विधवा से क्या लेना है ? ↓ बस, अत्याचारी श्रर्ककीर्तिकी यह बात ही श्रीलालजी के लिए श्रागम बन बैठी है । आक्षेपक प्रकरण को छिपा कर इस प्रकार समाज को धोखा देना चाहता है । दुर्मण ने जब सुलोचना को, कन्यारत्न कहकर प्रशन्सा की, तब श्रकीर्ति से नहीं कहा गया कि मैं उस विधवा का क्या करूँगा ? उस समय तो मुँह में पानी श्रा गया था। अनवद्यमति की फट कार से कहने लगा कि मैं विधवा सुलोचना को ग्रहण न करूँगा - मैं तो सिर्फ बदला लेना चाहता हूँ । अर्ककीर्ति की यह कांगे चाल थी तथा उससे यह नहीं मालूम होता कि वह विधवा होने के कारण उसको ग्रहण नहीं करना चाहता था । उसने तो परस्त्रीहरण के अन्याय से निर्लिप्त रहने की सफ़ाई दी थी । प्रकरण को देखकर कोई भी समझदार कह सकता है कि इससे विधवाविवाह का खण्डन नहीं होता । नीतिवाक्यामृत के वाक्य से विधवाविवाह का विरोध करना बड़ी भारी धोखेबाज़ी है। नीतिवाक्यामृत उन्हीं सोमदेव का बनाया हुआ है जो विधवाविवाह का अनुमोदन करते हैं । तब सोमदेव के वाक्य से विधवाविवाह का विरोध कैस हो सकता है ? जिस वाक्य से विधवाविवाह का विरोध किया जाना है उसे श्रक्षेपक ने समझा ही नहीं है, या समझ कर छिपाया है। वह वाक्य यह है- सकृत्परिणयन व्यवहाराः सच्छूद्राः । अर्थात् अच्छे शूद्र वे हैं जो एक ही बार विवाह करते Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) हैं,अर्थात् एक ही स्त्री रखते हैं । यह नियम उम समय के लिये था जब अनुलोम विवाह की पृथा जोर पर थी। उच्चवर्णी, शूद्र की कन्याएँ लेते थे, लेकिन शुद्रों को देते न थे। ऐसी हालत में शुद्र पुरुष भी अगर बहुपत्नी रखने लगते नब तो शुद्रों के लिये कन्याएँ मिलना भी मुश्किल हो जाता। इलिये उन्हें अनेक पत्नी रखने की मनाई की गई। जो शुद्र अनेक स्त्रियाँ रखते थे व असचन्द्र कहे जाते थे। एक प्रकार से यह नियम भङ्ग करने का दगड था। आक्षेपक ने स्त्रियों के पुनर्विवाह न करने की बात न मालम कहाँ से खींच ली? उस वाक्य की संस्कृत टीका में आक्षेपक की यह चालाकी म्पट हो जाती है टीका-“य सच्छद्राः शोभनद्रा भवन्ति ते सकृत्परि. ण्यनाः एकवारं कृतविवाहाः, द्वितीयं न कुर्वन्तीत्यर्थः । तथा च हारीतः द्विभार्योयात्रशूद्रः म्याद्वृषालः स हिवि श्रुतः । महत्वं तम्य नो भावि शुद्र जाति समुद्भां ।” अर्थात्-जो अच्छे शूद्र होते हैं वे एक ही बार विवाह करते हैं, दूसग नहीं करते हैं । यही बात कही भी है कि दो पत्नी रखने वाला शूद्र वृषाल कहलाता है--उसे शूद्र जाति का महत्त्व प्राप्त नहीं होता। 'शूद्रों को बहुत पत्नी न रखना चाहिये', एस अर्थवाल वाक्य का 'किसी को विधवाविवाह न करना चाहिये' ऐसा अर्थ करना सगसर धोखेबाज़ी है। यह नहीं कहा जा सकता कि आक्षेपक को इसका पता नहीं है, क्योंकि त्रिवर्णाचार की परीक्षा में श्रीयन जुगलकिशोर जी मुख्तार ने इसका ग्वूब खुलासा किया है। इस प्रकार पहिले श्रापक के समस्त श्राप बिलकुल निर्बल हैं। अब दूसरे प्रक्षेपक के धानेपों पर विचार किया जाता है। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३५ ) आक्षेप ( च )-यदि विवाह शादी से सम्यक्त्व का कोई सम्बन्ध नहीं तो क्या पारसी, अंग्रेज़ लेडी, यवन कन्या आदि के साथ विवाह करने पर भी सम्यक्त्व का नाश नहीं होता? यदि नहीं होना तो शास्त्रों में विहित समदत्तिका क्या अर्थ होगा? समाधान पारसी अङ्रेज़ आदि नो श्रार्य हैं: सम्यक्त्व का नाश ना म्लेच्छ महिलाओं के साथ शादी करने परभी नहीं होता । चक्रवर्ती की ३२ हजार म्लेच्छ पत्नियों के दृष्टान्त से यह बात बिलकुल स्पष्ट है । चकतर्नियों में शान्तिनाथ, कुन्थु नाथ, अरनाथ. इन तीन तीर्थङ्करों का भी समावेश है। अन्य अनेक जैनी गजात्रों ने भी म्लेच्छ और अनार्य स्त्रियों के साथ विवाह किया है। हां विवाह में इतनी बात का विचार यथासाध्य अवश्य करना चाहिये कि स्त्री जैन. धर्म पालने वाली हो अथवा जैनधर्म पालन करने लगे । इस से धर्मपालन में मुभीता होना है। इमीलिये समदत्ति में माधर्मी के साथ गटी बेटी व्यवहार का उपदेश दिया गया है । अगर कोई पारसी, अरेज़ या यवन महिला जैनधर्म धारण करले ना उसके साथ विवाह करने में कोई दोष नहीं हैं । पूराने जमाने में तो मी अजैन कन्याओके साथ भी शादी होनी थी. फिर जैनकी तो बात ही क्या है ? प्राचार शास्त्रों में लौकिक और पारलौकिक प्राचारों का विधान रहता है। उन का पालन करना सम्यग्दृष्टि की योग्यता और इच्छा पर निर्भर है। उन प्राचार नियमों के पालन करने से सम्यक्व श्राना नहीं है और पालन न करनेस जाता नहीं है । इस लिए श्राचार नियमी के अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी महिलासे शादी करने से सम्यक्त्व का नाश नहीं होता। आक्षेप (छ)-सगग सम्यक्त्व की अपेक्षा वीतराग सम्यक्त्व विशेष ग्राह्य है । फिर भी वीतराग सम्यक्त्वी में प्रशम Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) संवेग अनुकम्पा श्रास्तिक्य गुण ज़रूर प्रकट होने चाहियें । निश्चय और व्यवहार दोनों का ख़याल रखना चाहिये । व्यवहार, निश्चयका निमित्त कारण नहीं - उपादान कारण है । T समाधान - सम्यग्दृष्टिमें प्रशम सम्वेगादि होना चाहिये तो है । सम्यग्दृष्टिविधवाविवाह करते हुए भी प्रशम सम्वेग अनुकम्पा श्रनिक्यादि गुण रख सकता है । प्रशम से गग, द्वेष कम हो जाते हैं, सम्वेग से संसार से भय हो जाता 1 इतने परभी वह हज़ारों म्लेच्छ कन्याश्रमं विवाह कर सकता है, बड़े २ युद्धकर सकता है और सरक में हो तो परम कृष्णा लेश्या वाला रौद्रपरिणामी बनकर हज़ारों नारकियोंसे लड़सकता है ! तब भी उस के सम्यक्त्वका नाश नहीं होता। उसके प्रशम संवगादि बन सकते हैं, तो विधवाविवाह वाले के क्यों नहीं बन सकते ? व्यवहार निश्चय का कारण है । परन्तु विधवाविवाह भी तो व्यवहार है । जिस प्रकार कुमारी विवाह धर्म से दृढ़ रहने का कारण है उसी प्रकार विधवाविवाह भी है। व्यवहार तो द्रव्य क्षेत्र काल भाव के भेद से अनेक भेद रूप है । व्यवहार के एक भेद से उसी के दूसरे भेद की जाँच करना व्यव हारैकान्तवादी बन जाना है । निश्चय की कसौटी बना कर व्यवहार की परीक्षा करना चाहिये। जो व्यवहार निश्चय अनुकूल हो वह व्यवहार है, जो प्रतिकूल हो वह व्यवहाराभास है । विधवा विवाह निश्चय सम्यक्त्व के अनुकूल अथवा श्रविरुद्ध है । इसलिये वह सच्चा व्यवहार है । व्यवहार सम्यक्त्व के अन्य चिन्हों के साथ भी उस का कोई विरोध नहीं है। 1 व्यवहार को निश्चय का उपादान कारण कहना कार्य कारण भाव के ज्ञान की दिवाला निकाल देना है | व्यवहार पराश्रित है और निश्चय स्वाश्रित । क्या पराश्रित, स्वाधिन का उपादान हो सकता है ? यदि व्यवहार निश्चय का उपादान Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३७ ) कारण है तो वह सिद्धों में भी होना चाहिये; क्योंकि उन के भी निश्चय सम्यक्त्व है । परन्तु सिद्धों में रागादि परिणति न होने से सराग सम्यक्त्व हो नहीं सकता । तब वह उपादान कारण कैसे कहलाया ? यदि व्यवहार निश्चय को पूर्वोत्तर पर्याय मान कर उपादान उपादेय भाव माना हो तो दोनों का साहचर्य ( साथ रहना ) बतलाना व्यर्थ हैं। तथा इस दृष्टि से तो सम्यक्त्व के पहिले रहने वाली मिध्यात्व पर्याय भी उपादान कारण कहलायगी । तत्र सम्यक्त्व की उपादानता में महत्व ही क्या रह जायगा ? खैर, हमारा कहना तो यही हैं कि विधवाविवाह निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यtra के प्रशमादि गुणों के विरुद्ध नहीं है । इसलिये व्यवहार सम्यक्त्व की दुहाई देकर भी उस का विरोध नहीं किया जा सकता । आक्षेप ( ज ) - विवाहों की भ्रष्ट प्रकार की संख्या से वाह्य होने के कारण और इसीलिये भगवन् प्रतिपादित न होने के कारण क्या श्रास्तिक्य सम्यग्दृष्टि विधवाविवाह को मान्य ठहरा सकता है ? समाधान-विवाह के आठ भेदों में तो बालविवाह, वृद्ध विवाह, युवतीविवाह, सजातीयविवाद, विजातीयविवाह, अनुलोमविवाह, प्रतिलोम विवाह, सगोत्र विवाह, विगोत्र विवाह, कुमारीविवाह, विधवाविवाह, श्रादि किसी नाम का उल्लेख नहीं है; तब क्या ये सब श्रास्तिक्य के विरुद्ध हैं ? तब तो कुमारी विवाह भी श्रास्तिक्य के विरुद्ध कहलाया, क्योंकि आठ भेदों में कुमारी विवाह का भी नाम नहीं है । अगर कहा जाय कि कुमारीविवाह, सजातीय विवाह श्रादि विवाहों के उपर्युक्त आठ आठ भेद हैं तो बस, विधवाविवाह के भी उपर्युक्त आठ भेद सिद्ध हुए। जैसे कुमारीविवाह Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) आठ तरह का हो सकता है उसी प्रकार विधवाविवाह भी पाठ तरह का हो सकता है। आक्षेप (झ)-सम्यग्दृष्टि जीव में राग द्वेष की उत्कटता का क्षयोपशम हो गया है। उस के वन निमय न मही. परन्तु म्वरूपाचरण चारित्र ना है, जो संमार से भयभीत. मद्यमांस आदि से विरत विधवाविवाह आदि गग-प्रवृति से बचाता है । यदि उस के स्वरूपाचरण चारित्र न माना जाय तो वह दुनियाँ भर के सभी गेद्र कर्म करके भी सम्यक्त्वी बना रहेगा। समाधान-म्वरूपाचरण नो नागकियों के भी होता है, पाँचों पाप करने वालों के भी होता है, कृष्णलेण्या वालों के भी होता है। तब विधवाविवाह से ही उस का क्या विरोध है. ! सम्यग्दर्शन, भेद विज्ञान, म्वरूपाचरण चारित्र, ये सहचर हैं ? इसलिये जो बात एक के लिए कही गई है वही तीनों के लिये समझना चाहिये । अनन्तानुबन्धी के उदय क्षय से स्व. रूपाचरण होता है । इस विषय में लेख के प्रारम्भ में श्राप नम्बर 'अ' का समाधान देखना चाहिये। आक्षेप (अ)-मानवे नरक में सम्यक्त्व नट न होने की बात आप ने कहाँ से लिखी ? समाधान-इसका समाधान पहिले कर चुके हैं। देखा आक्षेप नम्बर 'इ' का समाधान । प्राक्षेप (ट)-सम्यग्दृष्टि जीव पञ्च पापोपसेवी नहीं होता, किन्तु उपभोगी होता है अर्थात् उसको रुचिपूर्वक पञ्च पापों में प्रवृत्ति नहीं होती । “पाप तो सदा सर्वथा घोर पाप. बन्धन का ही कारण है । फिर तो सम्यक्त्वी को भी घोर पाप बन्ध सिद्ध हो जायगा और सम्यत्तवीको बन्धका होना कहने पर अमृतचन्द्र मूरि के "जिस दृष्टि से सम्यग्दृष्टि है उस दृष्टि से बन्ध नहीं होता" इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ? Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३६ ) ममाधान-हमने सम्यक्त्वी को पञ्चपापी पसेवो नहीं लिखा है,पाँच पाप करने वाल लिखा है। भले ही वह उपभोग हो । उसकी मचिपूर्वक प्रवृत्तिता पाप में ही क्या. पुराय में भी नहीं हानी । वह नो दोनों को हेय और शुद्ध परिणति को उपादेय मानता है। उसकी रुचि न नो कुमारी-विवाह में है न विधवा. विवाह में, किन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के उदय से वह अरुचिपूर्वक जैम कुमार्गविवाह करता है उसा प्रकार विधवाविवाह भी करता है। उसकी अरुचि विधवाविवाह को गेक और कुमारी विवाह का न रोके, यह केस हा सकता है ? पाक्षेपक का कहना है कि "पाप तो मदा मर्वथा घार पापबन्धका कारण है", नब तो सम्यग्दृष्टि को भो घोर पापबन्ध का कारण होगा, क्योंकि वह भी पापोपमांगी है। लेकिन आक्षेपक सम्यग्दृष्टिको घोर पाप बन्ध नहीं मानता । तब उस का 'सदा सर्वथा' शब्द प्रापही जागिडत हा जाता है। अमृत. चन्द्र का हवाला देकर तो श्राक्ष पक ने बिलकुल ऊटपटाँग बका है, जिस मे विधवाविवाह विरोध का काई ताल्लक नहीं। मम्यक्त्व तो बन्ध का कारण हे ही नहीं, किन्तु उनके साथ रहने वाली कपाय बन्ध का कारण जरूर है। यही कारण है कि अविरत सम्यग्दृष्टि ७७ प्रकृतियों का बन्ध करता है जिन में बहुभाग पाप प्रकृतियों का है । सम्यक्त्व और म्वरूपाचरगा होने से उस के १६+ २५४१ प्रकृतियों का बन्ध रुकता है। सम्यग्दृष्टि जीव अगर विधवाविवाह करे तो उसके इन ४१ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होगा। हां, बाकी प्रकृतियोका बन्धहो सकेगा । सो वह तो कुमारी विवाह करने पर भी हो सकेगा और विवाह न करने पर भी हो सकेगा । हमाग कहना तो यही है कि जब सम्यग्दृष्टि जीव-अरुचि पूर्वक ही सही Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) पाँचों पाप कर सकता है, कुमारीविवाह कर सकता है, तब विधवाविवाह भी कर सकता है । आक्षेप ( उ ) - विधवाविवाह इसीलिए अधर्म नही हैं कि वह विवाह है बल्कि इस लिए अधर्म है कि श्रागम विरुद्ध है । "कोई प्रवृत्यात्मक कार्य धर्म नही है" यह लिखना सर्वथा श्रसङ्गत और श्रज्ञाननापूर्ण हैं । विवाहको निवृत्त्यात्मक मानना भी व्यर्थ | अगर निवृत्त्यात्मक होता तो पाँचवें गुणस्थान के भेदोंमें निवृत्तिरूप ब्रह्मचर्य प्रतिमाकी श्रावश्यकताही क्या थी ? समाधान - विधवाविवाह श्रागमविरुद्ध नही है, यह हम सिद्ध कर चुके है और आगे भी करेंगे । यहाँ हमारा कहना यही हैं कि अगर विवाह अधर्म नहीं है तो विधवाविवाह भी धर्म नहीं है। अगर विधवाविवाह अधर्म है तो विवाह भी अधर्म है। सच पूछा जाय तो जैनधर्म के अनुसार कोई भी प्रवृत्त्यात्मक कार्य धर्म नहीं है । क्योंकि धर्म का मतलब है रत्नत्रय या सम्यक्चारित्र । सम्यक्चारित्रका लक्षण शास्त्रकारों ने " वाह्याभ्यन्तर क्रियाओं की निवृत्ति" किया है: जैसे कि"संसार कारण निवृत्तिम्प्रत्यागुर्णस्य ज्ञानवतः वाह्याभ्यन्तर क्रिया विशेषां परमः सम्यक्चारित्रम्" ( राजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि ) भवहेतु प्राणाय वहिरभ्यन्तरक्रिया विनिवृत्तिः परं सम्यक् चारित्रम् ज्ञानिनां मतम् । - श्लोक वार्तिक । बहिरअंतर किया रोहो भवकारण पणासटुम् । गाणिस्स जंजिरणुत्तं तं परमम् सम्मचारितम् ॥ द्रव्यसंग्रह | चरणानुयोग शास्त्रों में भी इसी तरह का लक्षण है -- Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंसा नृतचोर्येभ्यो मैथन सेवा परिग्रहाभ्यांच । पापप्रणालिकाभ्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥ ४६।। -रत्नकरराडश्रावकाचार । ज़्यादा प्रमाण देने की जरूरत नहीं । प्रायः सर्वत्र चारित्र का लक्षण निवृत्यात्मक ही किया है। हाँ व्यवहानिय से प्रवृन्यात्मक लक्षण का भी उल्लेख मिलता है; जैसे असुहादा विगिण वित्ती सुह पवित्तीय जाण चारित्तं । बदसमिदि गुत्तिरूप ववहारणयादुजिण भणियं ॥ -द्रव्यसंग्रह। यहाँ पर अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को व्य. वहाग्नय से चारित्र कहा गया है। परन्तु व्यवहारनय से कहा गया चारित्र, वास्तविक चारित्र नहीं है । क्योंकि व्यवहाग्नय का विषय अभूतार्थ । अवास्तविक) है । अमृतचन्द्राचार्य ने इस का बहुत ही अच्छा खुलामा किया है निश्चर्यामह भूनाथ व्यवहार वर्णयन्त्य भूतार्थम । भूतार्थ बोर्धावमुखः प्रायः मर्वोऽपि संसारः ॥ अबुधम्य बोधनार्थं मुनीश्वग वर्णयन्त्य भृतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवेति यम्तम्य देशना नास्ति ॥ मागवक पव सिंहो यथा भवत्यनवगीन सिंहस्य । व्यवहार एहि तथा निश्चयतां यात्यानश्चयज्ञस्य ॥ व्यवहार निश्चयो यः प्रबुध्यतन्वेन भवति मध्यस्थः। प्राप्नोति दशनायाः सपषफलमविकलशिष्यः ॥ अर्थात-वास्तविकता को विषय करने वाला निश्चयनय हे और वास्तविकताको विषय करने वाला व्यवहार नय है । प्रायः समस्त संमार वास्तविकता के ज्ञान से रहित है । अल्प. बुद्धि वाले जीवों को समझाने के लिये व्यवहारनय का कथन किया जाता है। जो व्यवहारनय को ही पकड के रह जाता है Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसको उपदेश देना व्यर्थ है। जैसे जिसने सिह नहीं देखा वह करता शूरता वाले व्यक्ति को ही सिंह समझ जाता है, उसी प्रकार जो निश्चय ( वास्तविक) का नहीं जानता वह व्यवहार ( अवास्तविक ) को ही निश्चय समझ जाता है । जो व्यवहार ओर निश्चय इन दोनों को समझकर मध्यस्थ होता है, वही उपदेश का पूर्ण फल प्राप्त करता है। मतलब यह कि व्यवहार चारित्र, वास्तव में चारित्र नहीं है-वह ता चारित्र के प्राप्त करने का एक जरिया हे, जो कि अल्पबुद्धि वालों को समझाने के लिये कहा गया है। हाँ, यहाँ पर प्राचार्य यह भी कहते है कि मनुष्य को एकान्तवादी न बनना चाहिये। यही कारण है कि हमने अनेकान्त रूप से विवाह का विवेचन किया है । अर्थात् वास्तविकता की दृष्टि से । निश्चयनय मे) विवाह धर्म नहीं है, क्योंकि वह प्रवृत्तिरूप है और उपचार से धर्म है । परन्तु यह उपचरित धार्मिकता मिर्फ कुमारी विवाह में ही नहीं है विधवाविवाह में भी है । क्योंकि दोनों में परस्त्री अर्थात् अविवाहित स्त्री से निवृत्ति पाई जाती है । पाठक देखेंगे कि हमाग विवंचन कितना शास्त्रसम्मत और अनेकाल से पूर्ण है, जबकि आक्षेपक बिल्कुल व्यवहारैकान्तवादी बन गया है। इसीलिये "प्रवृत्यात्मक कार्य धर्म नहीं हैं" निश्चयनय के इम कथन को यह मर्वथा (?) असगत समझता है ? हमने विवाह को उपचग्नि धर्म सिद्ध करने के लिये कथंचिनिवृत्यात्मक सिद्ध किया था। जिस प्रकार किसी मनुप्य को शेर कहने से वह शेर नहीं होजाता, किन्तु शेर के कुछ गुणों की कुछ समानता उसमें मानो जाती है, उसी प्रकार व्यवहार चारित्र, चारित्र न होने पर भी उनमें चारित्रको कुछ समानता पायी जाती है । चारित्र में तो शुभ और अशुभ दोनों Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से निवृत्ति पायी जाती हैं और व्यवहार चारित्र में अशुभ से ही निवृत्ति पायी जाती हैं । व्यवहार चारित्र की चारित्र के साथ यही आंशिक समानता है । यही कारण है कि व्यवहार चारित्र भी चारित्र कहा गया । जब विवाह, व्यवहार धर्म है तो उसमें किमी न किसी रूप में निवत्यात्मकता होना चाहिये । इसीलिये हमने कहा है कि विवाह से परस्त्रीसेवन रूप अशुभ परिणति में निवृत्ति होती हैं । यह नियत्ति कुमारीविवाह से भी होती है और विधवाविवाह न भी हानी है। __ "विवाह अगर निवृत्यान्मक है तो ब्रह्मचर्य प्रतिमा क्यों बनाई !"--अातं पकका यह कथन तो बड़ा विचित्र हैं। अरे भाई विवाह में जितनी निवत्ति है उस से ज्यादः निवत्ति ब्रह्मचर्य में है । पहली क्लास में भी शिक्षा दी जाती और दूसरी में भी दी जाती है तो क्या यह कहा जासकता है कि पहिली क्लास में शिक्षा दी जाती है तो दूसरी क्या बनाई ? अगर कोई पूछ कि मुनि नो छठवें गुणस्थान में बन जाता है, फिर मानवाँ क्यों बनाया ? पाँच पापी का त्याग तो अगुव्रतों में हो जाता है फिर महाव्रत क्यों बनाये ? सामायिक और प्रापधापवास तो दूसरी प्रतिमा में धारण किये जाते हैं फिर इन नामों की तीसरी चौथी प्रतिमा क्या बनाई ? व्यभिचार प्रोर परिग्रह का त्याग तो ब्रह्मचर्याणुवत और परिग्रह परिमाण व्रत में हो जाता है फिर सातवीं ओर दशमी प्रतिमा क्यां बनाई ? तो इन सब प्रश्नों का क्या उत्तर दिया जायगा? उत्तर यही दिया जायगा कि पहिली अवस्थामा में थोड़ा त्याग है और आगे की अवस्थाओं में ज्यादः त्याग है। यही उत्तर विवाह के विषय में है । विवाह में थोड़ा त्याग है-ब्रह्मचर्य में ज्यादः त्याग है। देव पूजा आदि प्रवृत्यात्मक हैं परन्तु जब वे धर्म कहे Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४४) जात है नब निवन्यात्मक भी होते है। उन में कुदेवपूजा तथा अन्य अशुभ परिगनियों में निवृत्ति पायी जाती है। इसी से वगी व्यवहार-धर्म कहे गये है। इस विवेचन म पाठक समझ गये होंगे कि विधवाविवाह में कुमागविवाह के बराबर निवृत्ति का अंश पाया जाना है। इसलिये दोनों एक ही तरह के व्यवहार धर्म है । आक्षेप (ड)-यह लिग्वना महाझठ है कि विवाह के मामान्य लक्षण में कन्या शब्द का उल्लेख नहीं है। 'कन्या का ही विवाह होता हैं क्या इस दलील को झूठ बोलकर यों ही उड़ा देना चाहिये ? समाधान-हमने कन्या शब्द को उड़ाया नहीं है, बल्कि हम शब्द के ऊपर ना हमने बहुत ज़ारदार विचार किया है। गजवानिक तथा अन्य ग्रंथोमें जो कन्या शब्दका प्रयोग किया गया है, उसके विषय में हम श्रीलाल जो के पापों के उत्तर देते समय लिख चुके हैं। इसके लिये आक्षेप नम्बर ' का समाधान पढ़ लेना चाहिये। आक्षेप ( 8 )-श्राप त्रिवर्णाचार को अप्रमाण मानकर के भी उसी के प्रमाण देत है, लेकिन जिम्म त्रिवर्णाचार में टही पेशाब जाने की क्रिया पर भी कड़ी निगरानी रखी गई है. उसी में विधवाविवाह की मिद्धि कैम्म हो सकती है ? समाधान-त्रिवर्णाचार को हम अप्रमाण मानते है, परन्तु विधवाविवाह के विरोधी तो प्रमाण मानते हैं. इसलिये उन्हें ममझाने के लिये उसका उल्लेख किया है। किसी ईमाई को समझाने के लिये बाइबिल का उपयोग करना, मुसलमान को समझाने के लिये कुगन का उपयोग करना, हिन्दू का समझाने के लिये वेद का उपयोग करना जिस प्रकार उचित है, उसी प्रकार स्थितिपालकों को समझाने के लिये त्रिवर्णाचार का Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) उपयोग करना उचित है । 'टट्टी पेशाब की निगरानी रखने वाला विधवाविवाह का समर्थन नहीं कर सकता'-यह तो बिलकुल हास्यास्पद युक्ति है। आज भी दक्षिण प्रान्त में टट्टी पेशाब तथा अन्य क्रिया-कांड पर उत्तर प्रान्त की अपेक्षा कई गुणी निगरानी रखी जाती है। फिर भी वहाँ विधवाविवाह और तलाक का श्राम रिवाज है । खैर, त्रिवर्णाचारमें विधवा. विवाह का विधान है, यह बात २७ वे प्रश्न के उत्तर में सिद्ध की गई हैं। उम्मी प्रश्न आक्षेप समाधानों में इस पर विचार किया जायगा। ___ आक्षेप ( ण)-कन्या शब्द का अर्थ "विवाह योग्य स्त्री" क्यों किया जाय ? पिता शब्द का अर्थ ना 'गुरुजन' होता है जैमा कि अमरकोप में लिखा है 'म्यानिषेकादिकृद्गुरुः'; पर. न्तु कुमारी के अतिरिक्त कन्या शब्द का प्रयोग न तो हमारे कहीं देखन में पाया है न सुना ही हैं। धनञ्जय नाममाला में 'कन्या पनिर्वरः' लिखा है; स्त्री पनिर्वगः' क्या नहीं? ममाधान-कन्या शब्द का 'विवाह योग्य स्त्री' अर्थ क्यों किया जाय, इस का समाधान आक्षेप 'ओ' के समाधान में देखिये । कन्या शब्द का कुमारी के अतिरिक्त अर्थ श्राप ने नहीं देखा सुना तो इस में हमाग क्या अपराध है ? यह श्राप के ज्ञान की कमी है । श्राप के सहयोगी १० श्रीलास्त जी ने तो यह अर्थ देखा है । उन के कथनानुमार ही श्राप विश्ललोचन, हेम और मेदिनी कोष देख डालिये। परन्तु इसके पहिले काप देखने की कला सीख लीजिये, क्योंकि इसी प्रकरण में अमरकोष देखने में श्राप ने बड़ी गलती की है। अमरकोष में लिखा है कि 'पित्रादिगुरुः' अर्थात् पिता, माता, भ्राता, मामा श्रादि गुरु है; परन्तु श्राप अर्थ करते है कि पिता माता, भ्राता आदि पिता है। आप को समझना चाहिये कि Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिना आदि को गुरु कह सकते हैं. परन्तु म तरह के गुरुत्री को पिता नहीं कह सकते । कन्या का विशेषण 'पितृदत्ता' है न कि 'गुरुदत्ता जिससे कि अमरकोप के अनुसार श्राप विस्तृत अर्थ कर सके। इसलिये यहाँ पितृशब्द उपलक्षण है। इसी प्रकार कन्या शब्द भी उपलक्षण है। नाममाला में 'स्त्री पतिबैगन कहने का कारण यह है कि प्रत्येक स्त्री का पति वर नहीं कहलाना, किन्त जो कन्या अर्थात जो विवाह योग्य स्त्री । दल्डिन ) होती है उसी के पति को वर ( दुल्हा ) कहते हैं। 'त्री पतिर्वगः कह देने स ममी मम्त्रीक पुरुष जीवन भर के लिये वर अर्थात दूल्हा कहलाने लगते। आक्षेप ( न ---अमरकोप में 'पुन ' शब्द का अर्थ किया हैं 'बाग विवाह करने वाली स्त्री' और कवि सम्राट् धनञ्जय नं पुनर्भ शब्द को व्यभिचारिणी स्त्रियों के नामों में डाला है। धनञ्जय, अकलङ्क और पूज्यपाद की काटि के है. क्योंकि नाम: माला में लिखा है "प्रमाणमकलङ्कमय पूज्यपादम्य लनणं । द्विसन्धान कयेः काव्यम् रत्नत्रयम पश्चिमम्" नाममाला के प्रमाण से सिद्ध हैं कि स्त्री का पुनर्विवाह व्यभिचार है। समाधान-धनञ्जयजी कवि थे, परन्तु उनका कोष संस्कृत साहित्य के सब कोपों से छोटा और नीचे के दर्जे का है। ऊपर जा इन की प्रशंसा में श्लोक उद्धत किया गया है वह व द हा इन्हीं का बनाया है । इस तरह अपने मुंह से प्रशंसा करने में ही कोई बड़ा नहीं हो जाता। धनञ्जय को पूज्यपाद या अकल, की कोटि का कहना उन दोनों प्राचार्यों का अपमान करना है । धनञ्जय यदि सर्वश्रेष्ठ कवि भी होते तो भी क्या अकल द्वादि के समान मान्य हो सकते थे ? गाँधी जी मब से घई नेता है, गामा मब से बड़ा पहलवान है और गौहर सर्व श्रृंठ गायिका है तो क्या गांधीजी गामा और गौहर की इज्जत Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) बगबर हो गई ? मान्यता के लिये सिर्फ सर्वश्रेष्ठना नहीं देखी जाती, परन्तु यह भी देखा जाता है कि वह श्रेष्ठता किस विषय में है। धनञ्जय एक अच्छे पण्डित या कवि थे तो क्या वे पूज्यपाद और अकलङ्क के समान प्राचार्य ओर तत्व भी थे, जिस से मिद्धान्त के विषय में उन का निर्णय माना जाय ? खोर! अब हम मूल विषय पर आते हैं। अमरकोषकारने पुनर्भ शब्द का अर्थ किया है "दुबाग विवाह कराने वाली स्त्री" | पूनों का दमग नाम दिधिपू भी है। जिस ब्राह्मण क्षत्रिय या वैश्य की स्त्री, पुनर्म होती है उसे अग्नेदिधिष कहते हे ( इस से यह भी सिद्ध होता है कि पहिले ज़मान में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य में भी स्त्री पुनर्विवाह होता था)। अमरकोपकार ने पूनर्भ का 'दुबाग विवाह करने वाली स्त्री' अर्थ ना किया, परन्तु उस व्यभिचारिणी नहीं माना । व्यभिवारिणी के उन्होंने पुंश्चली, धर्षिणी, बन्धकी, असनो, कुलटा, इत्वरी श्रादि नाम ना बताय परन्तु पुन नाम नहीं बताया। जो कोपकार पुनर्भ शब्द का उपयक्त अर्थ करता हे वह तो व्यभिचारिणी उस लिखता नहीं, किन्तु जिम्मन ( धनञ्जय ने ) पुनर्भ शब्द का अर्थ ही नहीं बताया वह उस व्यभिचारिणी कहता है ! इसम मालूम होता है कि अमरकापकार के अर्थ से धनञ्जय का अर्थ बिलकुल जुदा है। अमरकोपकार के मनसे पुनर्भ शब्द का अर्थ है 'दुबाग विवाह करने वाली स्त्री' और धनञ्जय के मत से पुनर्भू शब्द का अर्थ है व्यभिचारिणी। ये तो एक शब्द के दो जुदं जुदे अर्थ हुए । इससे दुबाग विवाह करने वाली स्त्री व्यभिचारिणी कम मिद्ध हुई ? गो शब्द का अर्थ गाय भी है, स्वर्ग भी है, पृथ्वी भी है, इत्यादि और भी अनेक अर्थ हैं। अब कोई कहे कि अमुक अादमी मर कर स्वर्ग गया, नो क्या इस का यह अर्थ होगा कि वह गाय में गया ? Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्योंकि स्वर्ग को गो कहते हैं और गो का अर्थ गाय है । जिस प्रकार गो शब्द के 'गाय' और 'स्वर्ग' ये दोनों अर्थ होने पर भी 'गाय' को म्वर्ग नहीं कह सकते उसी प्रकार पुनर्भु शब्द के 'याग विवाह कराने वाली' और 'व्यभिचारिणी' ये दोनों अर्थ होने पर भी दुबाग विवाह करने वाली को व्यभिचारिणी नहीं कह सकते । दो ग्रन्थकाग की दृष्टि में पुनर्भू शब्द के ये जुद जुदं अर्थ है। इन जुदं जुदे अर्थों को पर्यायवाची समझ जाना अक्ल की ख़बी है । हाँ. अगर अमर कोष में लिखा हुआ पुनभू शब्द का अर्थ नाममाला में होता और फिर वहाँ उसे व्यभिचारिणी का पर्यायवाची बनलाया होता तो धनञ्जय के मत से पुनर्विवाह व्यभिचार सिद्ध होता । अथवा अमरकोशकार ने ही अगर पुनभू शब्द को व्यभिचारिणी शब्द का पर्याय. वाची लिखा होता तो भी पुनर्विवाह को व्यभिचार कहने की गुंजाइश होती। परन्तु न तो अमरकोशकार पुनभू को व्य. भिचारिणी लिखते है, न नाममालाकार अमरकोश सरीखा पुनर्भू का अर्थ ही करते हैं । इसलिये पुनभू शब्द के विषय में दोनों लेखकों के जुदे जुदं अर्थ ही समझना चाहिये। दुसरी बात यह है कि 'पुनर्भ' तीन तरह की होतो है१. अक्षतयानि,२. नतानि, ३. व्यभिचारिणी (दखा मिनाक्षरा शब्द कल्पद्रम. या हिन्दी शब्दमागर )। हो सकता हेकि धन अय कवि ने तीसरे भेद को ध्यान में रख कर पुन को व्यभिचारिणी का पर्यायवाची लिखा हो । इस प्रकार छोटी छोटी ग़लनियाँ नाममाला में बहुत पाई जाती है। जैसे-धानु. किका अर्थ है धनुष चलाने वाला, परन्तु नाममालामें धानुष्क को भील का पर्यायवाची शब्द लिखा है। लेकिन न तो सभी भील, धानुष्क हो सकते हैं और न सभी धनुष चलाने वाले भील हो सकते है। अगर नाममालाकार के अर्थ के अनुसार Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { ४६ ) प्रयोग किया जाय तो धनुष चलाने वाले तीर्थङ्कर चक्रवर्ती प्रादि सभी गजा महाराजा भील कहलायेंगे । इसी प्रकार नौकर के पर्यायवाची शब्दों में शस्त्र-जीवी लिखा है। लेकिन सभी नौकर शस्त्रजीवी नहीं होते। शस्त्रजीवी तो सिर्फ सिपा. हियों और सैनिकों को कह सकते हैं परन्तु सैनिक और नौकर का एक ही अर्थ करना नाममाता की ही विचित्रता है । दूसरे कोषों में न तो पुनर्भू का पर्याय शब्द व्यभिचारिणी लिखा है, न धानुक का पर्याय शब्द भील लिखा है और न मैनिक का पर्याय शब्द सेवक लिखा है । इस प्रकार की छोटी मोटी भूल के नाममालामें दर्जनों उदाहरण मिल सकते हैं। जो नाममाला की इन त्रुटियों पर ध्यान न देना चाहते हो व उपक्तछेहक (पैगमाफ़ ) के कथनानुसार पुनर्भू शब्द के अर्थ करने में अमरकोशकार और नाममालाकार का मतभेद समझे । इसलिये पुनर्विवाहिता को व्यभिचारिणी नहीं कहा जा सकता। इस के बाद श्राक्षेपक ने साहसगति विद्याधर तथा 'धर्म संग्रह श्रावकाचार' के कन्या शब्द पर अज्ञानतापूर्ण विवचन किया है, जिस का विस्तृत उत्तर आक्षेप 'अं' 'अ' और "क" में दिया जाचुका है। इसी तरह दीक्षान्वय क्रिया के पुनविवाह का विवेचन श्राक्षेप नं० 'ख' में किया गया है। प्राक्षे. पक ने बकवाद तो बहुत किया, परन्तु वह इतनी भी बात नहीं समझ पाया कि दीक्षान्वय क्रिया के पुनर्विवाह का उन्लेख क्या किया गया था। दीक्षान्वय क्रिया पुनर्विवाह से हम विधवा. विवाह सिद्ध नहीं करना चाहते, किन्तु यह बतलाना चाहते हैं कि विवाहिता स्त्री भी, अगर उसका फिर विवाह हो तो (भरले ही अपने पति के ही साथ ही कन्या कहलाती है। अगर कन्या शब्द का अर्थ कुमारी ही किया जायगा तो दीक्षान्वय क्रियामें Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) दीक्षिता बीका अपने पति के साथ पुनर्विवाह कैसे हो सकेगा, क्योंकि श्राक्ष पक कन्या का ही विवाह मानना है। अाप (थ)-जैनाचार्यों की सम्पूर्ण कथनी नय विवक्षा पर है। उन्होंने (?) विश्वलोचन में "कन्या कुमारिका नार्यः" लिखा है । यद्यपि यह बिल्कुल सीधा सादा है और इसमें नय प्रमाण वागे की कुछ अावश्यकता नहीं है फिर भी नीतिकार न कहा है-'अर्थी दापं न पश्यति'। जो हो ! जानि अपेक्षा (गशि भदोपधाभिदा ) नारि (?) के माथ कन्या, कुमारी का प्रयोग किया गया है। हमारे अर्थ को सिद्ध करने वाला अंश 'जगन्' में बड़े (?) बारीक टाइश में छापा गया है । इतना छल : कुछ खोफ है ? समाधान--काष के स्त्री बाची कन्या शब्द का जब कुछ भी खण्डन न हो मका ता उपर्यन प्रलाप किया गया है । आक्षपक का कहना है कि कन्या और स्त्री की जानि एक है. इसलिय दानों को माथ लिख दिया है। ठीक है, मगर भार्या और भगिनी भी ना सजातीय हे, बाप और बेटा भी नो मजानीय है, नो इन सब के विषय में घुटाला कर देना चाहिये । इस बकवाद में प्राक्षेपक ने अपने कोष देखने की कला के अज्ञान का पुनः प्रदर्शन किया है। विश्वलोचन, एक अनेकार्थ कोश है। अन्य काशों के समान उसमें पर्यायवाची शब्दों की लाइन नडी नहीं की जाती है। उसमें तो यह बताया जाता है कि. एक शब्द के जुदे जुद कितने अर्थ है। कन्या शब्दके कुमारी, नारी, गशिभेद आदि जुद जुद अर्थ हैं। अगर श्राक्षेपक को काश देखने का ज़ग भी ज्ञान होता तो वह इननी भूल न करता। टाइप की बात तो बड़ी विचित्र है । लेखक, जिस बान पर पाठकों का ध्यान ज़्यादः आकर्षित करना चाहता है उसे वह अन्डर लाइन कर देना है और प्रेस वाले उसे ब्लाक Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [मोटे टाइप में छापते हैं। इस बात में प्राक्षेपक को छल खोफ प्रादि अनेक भूत नज़र आ रहे है । यह पागलपन नहीं तो क्या है ? बेचाग आक्षेपक ऐसे ऐसे ज़बरदस्त (?) नर्क (!) शस्त्रों से विधवाविवाह का खण्डन करने चला है। कन्या शब्दके विषय में इतना लिखा जाचुका है कि अब और लिखने की ज़रूरत नहीं है। सागारधर्मामृत के निर्दोषा विशेषण पर जो श्रापक ने लिखा है उसका समाधान "ग" में किया गया है। आक्षेप (द)-शायद सत्यमाचा को करुणानुयोग का लक्षण भी नहीं मालूम है । कही करुणानुयोग में गृहस्थ-चारित्र की प्राज्ञाएँ भी देखने में आई है। करुणानुयांग में तो लोकालोक विभाग आदि का वर्णन रहता है । करुणानुयोग और श्राक्षा का क्या सम्बन्ध? समाधान-इस आक्षेप से मालूम होता है कि प्राक्षेपक का शास्त्रज्ञान अधूरा और तुच्छ है। पाठशालाओं के छोटे २ बच्चे जितना ज्ञान रखते है उतना ज्ञान बेचारे श्राक्षपकको मिला है और उसी के बल पर वह अपने को सर्वश समझता है ! आक्षेपक को हम सलाह देते है कि वह मोक्षमार्गप्रकाश के पाठ अधिकार में करुणानुयांग का प्रयोजन" और "करुणा नयोग के व्याख्यान की पद्धति' नामक विवंचनों का स्वाध्याय कर जाय । वहाँ के कुछ उद्धरण हम यहाँ नीचे देते हैं : "यहरि करुणानुयोग विषे जीवनि की वा कर्मनि की विशेषता वा त्रिलोकादि की रचना निरूपण करि जीवन को धर्मविर्षे लगाये हैं। जे जीव धर्मविष उपयोग लगाया चाहते जीवनि का गणम्यान मार्गणा आदि विशेष अर कर्मनि का कारण अवस्था फल कौन कौन के कैसे केस पाइये, इत्यादि Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) विशेष पर त्रिलोक विप नरक स्वर्गादिक ठिकाने पहिचानि पाप ने विमुख होय धर्म विषे लागे हैं । "बहुरि करणानुयांग विर्षे छद्मस्थान की प्रवृत्ति के अनु. मार (प्राचारण) वर्णन नाहीं । केवल ज्ञान गम्य (श्रात्म परिणाम) पदार्थनिका निरूपण है। जैम-काई जीव ना द्रव्यादिक का विचार करें हैं वा व्रतादिकपाले हे, परन्तु अंतरंग मम्यक चारित्र नहीं नाने उनको मिथ्याष्टिः। अवनी कहिये है । बद्दगि कई जीव द्रव्यादिक का वा व्रतादिक का विचार-रहिन हे अन्य कार्यान वि प्रवन हे वा निद्रादि करि निर्विचार होय रहे हैं, परन्तु उनके मम्यक्तादि शक्ति का सद्भाव है नाते उन को मम्यक्ती वा व्रती कहिये हैं। बहुरि कोई जीव के कषायनि की प्रवृत्ति ना घनी है अर वाकं अन्तरङ्ग कषाय-शक्ति योग है ना वाकी मन्दकाई कहिये हैं। श्रर कोई जीव के कपानि की प्रवृत्ति तो थारी है और वाकै अन्तरङ्ग कपाय-शनि धनी है तो वाकी तीव्र कषायी कहिये है"। "बहुरि कहीं जाकी व्यक्ति तो किळू न भासै ना भी मूक्ष्म शक्ति के सद्भावने नाका नहाँ अस्तित्व कह्या । जैसे मुनि के प्रब्रह्म कार्य किट नाही ना भी नवम गुणस्थान पर्यन्त मैथुन मज्ञा कहीं"। 'बहुरि करणानुयांग सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादिक धर्म का निरूपण कर्म प्रकृनीनिका उपशमादिक की अपेक्षा लिये मृत्म शक्ति जैस पाइये नैस गुणस्थानादि विर्षे निरूपण इन उद्धरणों से पाठक समझ जायँगे कि करणानुयोग में चारित्रादिक का भी निरूपण रहता है। हाँ, करणानुयोगका जैसे दक्षिण के शान्तिसागरजी। -सम्पादक Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५३ ) विवेचन भावों के अनुसार है और चरणानुयोग का विवेचन वाह्यक्रिया के अनुमार । चरणानुयोग का मुनि व श्रावक करणानुयोग का मिथ्यादृष्टि हो सकता है । भावों के सुधार के लिये क्रिया है अर्थात् करणानुयोग के धर्म के लिये चरणानुयांग का धर्म है । विवाह से पुरुषकी काम लालसा अन्य स्त्रियों से हट कर एक ही स्त्रो में केन्द्रीभूत होजाती है । इस प्रकार इच्छा का केन्द्रीभूत होना कुमारी-विवाह से भो है और विधवा विवाह से भी है, इसलिये करणानुयोग की अपेक्षा कुमारी-विवाह और विधवाविवाह में कुछ फर्क नहीं है। इमलिये कुमाग-विवाह और विधवाविवाह के लिये जुदी जुदी श्राक्षाएँ नहीं बनाई जानकती न बनाई गई है। अगर आक्षेपक करणानुयोग के स्वरूप को समझने की चेष्टा करेगा तो उसे अच्छी तरह यह बात समझ में श्राजायगी। पाक्षेप (ध)-विधवा के लिये प्राचार-शास्त्र में स्पष्ट वैधव्य दीक्षा का विधान है। समाधान-इस श्राक्षेप का उत्तर नम्बर 'घ' में दिया गया है। इसके बाद आक्षेपक ने सम्यक्त्व बन्ध का कारण है या नही इस विषय पर अनावश्यक विवेचन किया है, जिसका विधवाविवाहस कोई ताल्लक नहीं है । हाँ, यह बात हम पहिले विस्तार से कह चुके है कि सम्यक्त्वी विधवा विवाह कर सकता है। दूसरा प्रश्न दूसरे प्रश्न के उत्तर में कोई ऐसी बात नहीं है जिसका उत्तर पहिले प्रश्न के उत्तर में न आगया हो। इसलिये यहाँ पर विशेष न लिखा जायगा। पुनर्विवाह करने वाला मम्यक्त्वी Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) होने पर स्वर्ग जा सकता है या नहीं-इस पर श्रीलालजी तो कहते हैं कि वह सीधा नरक निगांदका पात्र है। जबकि विद्या. नन्द लिखते हैं कि उदासीन वत्ति रखने पर म्वर्ग जा सकता हैं। इस तरह दानों पापक एक दूसरे को काटते हैं। दोनों आक्षेपकोंक श्राक्ष पो पर निम्न में विचार किया जाता है : प्राक्षेप ( क )-पुनर्विवाह करने वाला मोक्ष तो तब जाय, जब वह गंड पीछा छोड़ । भाव ही मनिव्रत के नहीं होते। विधवाविवाह से संतान होगी वह गॅड का साँड फिर किसी का लडग बनेगा। (श्रीलाल) । विधवाविवाह की संतान मोक्ष की अधिकारिणी नहीं है । (विद्यानन्द) समाधान-- गॅड, साँड, लेडग श्रादि शब्दा का उत्तर देना वृथा है । विधवाविवाह की सन्तान मोक्ष जा सकती हैं। जय व्यभिचार जान सुदृष्टि मोक्ष जा सकता है, तब और की बात ही क्या है ? विधवाविवाह करने के बाद मुनिव्रत धारण कर सकता है और मोक्ष भी जा सकता है। इसमें तो विवाद ही नहीं है। ____ आक्षेप ( ख )-पुनर्विवाह करने वाले असच्छुद्र है । (विद्यानन्द) ममाधान--पहिले प्रश्न के उत्तर में इसका समाधान कर चुके है । देखो नं०-(ङ) आक्षेप (ग )-सागारधर्मामृत में लिखा है कि स्व. दार.संतापी पर-त्रो का कभी ग्रहण नहीं करता। विधवा का परस्त्रीत्व किस प्रमाण से इंटेगा। (विद्यानन्द ) समाधान-इस का समाधान उसी सागारधर्मामृत में है। वहाँ लिखा है कि म्वदार संतोषी परस्त्री-गमन और वेश्या. गमन नहीं करता । यहाँ पर ग्रन्थकार ने कन्या (कुमारी) को भी परस्त्री में शामिल किया है ( कन्यातु भाविकर्तृकत्वा. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) पित्रादि परतन्त्रत्वाद्वासनाथेत्यन्यस्त्री तो न विशिष्यते ) । जब कन्या भी परस्त्री है और विवाह द्वारा उस का परस्त्रीत्व दूर कर दिया जाता है तब कन्या के समान विधवा का भी पर स्त्रीत्व दूर कर दिया जावेगा । अथवा जैसे विधुर का परपुरुत्व दूर होता है उसी प्रकार विधवा का परस्त्रीत्व दूर हो जायगा । ख़ैर, जब सागारधर्मामृत की बात चल पड़ी हैं तब हम भी कुछ लिख देना चाहते हैं । विधवाविवाहविरोधी, अपने अज्ञान तिमिर को हटा कर जग देखें । लागारधर्मामृत में वेश्यासेवी को भी ब्रह्मचर्याशुवनी माना है, क्योंकि ग्रन्थकार के मन से वेश्या, पर-स्त्री नहीं है । उनका कहना है कि "यस्तु स्वदाग्वत्साधारण स्त्रियांऽपि वनयितुमशक्तः परदारानेव वर्जयति सोऽपि ब्रह्मावतीष्यते" अर्थात् जो स्वस्त्री के समान वेश्या को भी छोड़ने में असमर्थ है सिर्फ परस्त्री का ही त्याग करता है वह भी ब्रह्मचर्यावती है । इसका मतलब यह है कि वेश्या, परस्त्री नहीं है, क्योंकि उसका कोई स्वामी मौजूद नहीं है । यदि ऐसी वेश्या का सेवन करने वाला श्रणुव्रती हो सकता है तो विधवासे विवाह करने वाला क्या अणवती नहीं हो सकता ? वेश्या, परस्त्री नहीं है, किन्तु वह पूर्णरूप से स्वस्त्री भी तो नहीं है । परन्तु जिस विधवा के साथ विवाह कर लिया जाता है, वह तां पूर्णरूप से स्वस्त्री हैं। कानून से वेश्या स्वस्त्री नहीं कहलाती, जबकि पुनर्विवाहिता स्वस्त्री कहलाती है। इतने पर भी अगर वेश्यासंत्री द्वितीय श्रेणी का श्रणुत्रती कहला सकता है तो विवाह करने वाला प्रथम श्रेणी का अयुवती कहला सकता है। सागारधर्मामृत में जहाँ इन्वरिकागमन को ब्रह्मचर्याशुव्रत Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का अतिचार सिद्ध किया है वहाँ लिखा है कि "चास्य भार्यादिना परण किश्चित्काल परिगृहीतां वेश्यां गच्छतो भंगः कथ. चिपग्दाग्त्वातम्या: । लोकनु परदारत्वारूढ़ेर्न भंगः इति भंगाभंग रूपानिचार:" | इम वाक्य पर विचार कीजिये। जहाँ भग ही भंग है वहाँ अनाचार माना जाता है। जहाँ अभंग ही है वहाँ वत माना जाता है । जहाँ भंग और अभंग दोनों है वहाँ अनिबार माना जाता है । ऊपर के वाक्य में वेश्या-संवन को भंग और अमङ्गरूप मान कर अनिचार सिद्ध किया गया है। यहाँ देखना इतना ही है कि भङ्ग अंश क्या है और अभद अंश क्या है ? और उनमें से कोनसा अश विधवाविवाह में पाया जाता है ? ग्रन्थकार कहते हैं कि वेश्यासेवन में वन का भङ्ग इसलिये होता है कि वह दृमगे के द्वारा ग्रहण की जाती है। मतलब यह कि वेश्या के पास बहुत में पुरुष जाते हैं और सभी पैमा दे देकर उसे अपनी अपनी स्त्री बनाते हैं । इसलिये वह परपग्गृिहोना हुई और उसके सेवन से वृत का भङ्ग हुा । लेकिन लोक में वह परस्त्री नहीं मानी जानी ( क्योंकि पैसा लेने पर भी पूर्णरूप से वह किमी की स्त्री नहीं बनती) । इसलिये उम के सेवन में व्रत का अभङ्ग (ता) हुश्रा । पाठक देखें कि विधवाविवाद में वन का प्रभङ्ग (रक्षा) ही हे, मङ्ग बिलकुल नहीं है । लोक व्यवहार से कानून की दृष्टि से, तथा परस्त्री सेवन में जो संक्लेश होता है वह संक्लेश न होने से पुनर्विवाहिता स्वम्त्री ही है, इमलिये इस सेवन में वेश्यासेवन की अपेक्षा कई गणी वृत. रक्षा ( अमांश) है। साथ ही चश्या में तो परपरिगृही. तता है किन्तु इस में नाममात्र को भी परपरिगृहीतता नहीं है । जब कोई मनुष्य वेश्या के पास जाना है तब वह उस का पूर्ण अधिकारी नहीं बन सकता, क्योंकि उतना Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) अधिकार दूसरे पुरुषों को भी प्राप्त है । लेकिन पुनर्विवाहिता के ऊपर दृमरे का बिलकुल अधिकार नहीं रहता। इसलिये वेश्यासेवन में तो अमन के साथ में भङ्ग है, लेकिन पुनर्विवाहिता में अभङ्ग ही अभङ्ग है । इसलिये वेश्या-सेवन अति. चार है और पुनर्विवाह न है । अनाचार दोनों ही नहीं हैं। सागारधर्मामृत का यह कथन विधवाविवाह का पूर्ण समर्थन करता है। हम पाठकों से दृढ़ता के साथ कहते हैं कि अकेले सागार. धर्मामृत में ही क्या, किसी भी जैनग्रन्थ में-जो कि भगवान महावीर के परम पवित्र और उश्च सिद्धान्तों के अनुसार बना हो-विधवाविवाह का समर्थन ही मिलेगा। किन्तु उसे सम. झने के लिये विवेक और निःपक्षता की ज़रूरत है। आक्षेप (घ)-चन्द्राभा अपने निंद्य कृत्य की जीवन भर निन्दा करती रही (विद्यानन्द ) । जब उस दुष्ट का साथ छूट गया तब श्रेष्ठमार्ग धारण करने से स्वर्ग गई । वह स्वेच्छा से व्यभिचार न करती थी, किन्तु उस पर मधु बलात्कार करता था । (श्रीलाल ) समाधान-मधु ने चन्द्राभा के साथ बलात्कार किया था या दोनों ही इससे प्रसन्न थे, यह बात प्रद्युम्नचरित के निम्नलिखित श्लोकों से मालूम हो जाती है :चाटुभिःसपरिहासबचोभितां तथा समनुनीय स रेमे । जातमम्य च यथा चरितार्थ यौवनं व मदना विभवश्च ॥७॥६६॥ लोचनान्तक निरीक्षणमन्तःकृजितं च हसितं च नदस्याः। चुम्बितं च वितुतञ्च ग्तश्च व्याजहार सुरतोत्सबगगम् ॥७७०॥ गीतनृत्यपरिहास्यकथाभिर्दीर्घिकाजलवनान्त विहारैः । तत्रतो रतिसुखाव मग्नी जशतर्न समय समतीतम् ॥१७॥ मधु ने चन्द्रामा को मीठी मीठी और हंसीली बातों Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से खुश करके रमण किया जिससे उसका यौवन मदन और विभव सफल हो गया । चन्द्राभा का देखना, किलोले करना, हंसना, चूमा लेना, काम क्रीड़ा करना आदि से उनका सुरतो. त्सव अंग जमने लगा। गाना, नाचना, हँसी दिल्लगी करना, वापिका के जल में और बनों में बिहार करना प्रादि से वे सुख के समुद्र में मग्न हो गये। उन्हें जाता हुप्रा समय मालूम भी न पड़ा। पाठक देखें कि क्या वह बलात्कार था ? खैर, मधु की बात आई है तो एक बात और सुनिये। मधु था तो परस्त्री संघक और उसका यह पाप विख्यात भी हो गया था । फिर भी उसके यहाँ एक दिन विमलवाहन मुनिगज आहार लेन के लिये भाये-स्मरण रहे कि इस समयभी मधु चन्द्रामा के माथ रहता था तो उसने मुनि को दान दिया। प्रामुकं नृपतिना विधिपूर्व संयनाय वरदानमदायि । नेन चान्तफलतः सहसैव चित्रपश्चक मवापि दुगपम् ॥७॥६५॥ गजा मधु ने मुनिगज के लिये आहार दान दिया, जिससे तुरन्त ही पंच श्राश्चर्य हुए । पाठक देखें कि एक पर. म्त्रीसेवी, मुनि को आहार देता है जिसको प्राचार्य महाराज वरदान (उत्कृष्टदान) कहते हैं और उससे तुरन्त पंच-आश्चर्य भी होते है । इससे न तो मुनि को पाप लगता है न मधु को। पञ्च पाश्चर्य इसका प्रमाण है। इतना ही नहीं, बल्कि उस परम्त्रीसवी का अन्न खाने के बाद ही विमलवाहन मुनिको केवल जान पैदा हुआ। अगर आजकलके ढोंगी मुनियों के साथ ऐसी. घटना हो जाये तो वे दुरभिमान के पुतले शुद्धि के नाम पर अनाड़ियाँ तक निकाल निकाल कर धोने की चेष्टा करेंगे और बेगरे दानाको नो नरक निगांद के सिवाय दूसरी जगह भेजेंगे ही नहीं । स्वैर, अब भागे देखिये । राजा मधु और चन्द्रामा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) दोनों मरकर सोलहवें स्वर्ग में देव हुए (इस घटना से नरक के ठेकेदार पंडितोको वड़ा कष्ट होता होगा।)। इस पर श्रादी. पक का कहना है कि वह स्वर्ग गई सो श्रेष्ठ-मार्ग के प्रवलंबन से गई', परन्तु इससे इतना तो मालूम होगया कि परस्त्रीसंवी को श्रेष्ठमार्ग अवलम्बन करने का अधिकार है-व्यभिचारिणी स्त्री भी सार्यिका के व्रत ले सकती है। उसका यह कार्य धर्म: विरुद्ध नहीं है । अन्यथा उसे अच्युत-स्वर्ग में देवत्व कैसे प्राप्त होता? हमाग यह कहना नहीं है कि विवाह करने से ही कोई स्वर्ग जाता है । स्वर्ग के लिये तो तदनुरूप श्रेष्ठ मार्ग धारण करना पड़ेगा । हमारा कहना तो यही है कि विधवाविवाह कर लेने से श्रेष्ठ मार्ग धारण करने का अधिकार या योग्यता नहीं छिन जाती । आक्षेपकों का कहना तो यह है कि पुनर्विवाह वाला सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, परन्तु मधु के दृष्टान्त से तो यह सिद्ध होगया कि पुनर्विवाह वाला तो क्या, परस्त्रीसेवी भी सम्यक्त्वी ही नहीं, मुनि तक बन सकता है। प्रश्न तीसरा “विधवाविवाह से निर्यश्च और नरकगतिका बंध होता है या नहीं" इस नीसरे प्रश्न के उत्तर में हमने जो कुछ कहा था उस पर श्राक्षेपकों ने कोई ऐसी बात नहीं कही है, जिसका उत्तर दिया जाय ? श्राक्षेपकों ने बार बार यही दुहाई दी है कि विधवाविवाह धर्म विरुद्ध है, व्यभिचार है, इसलिये उस से विसंवाद कुटिलता है, उससे नरक तिर्यञ्चगति का बन्ध है । लेकिन इस कथनमें अन्योन्याश्रय दोष है। क्योंकि जब विधवा. विवाह धर्मविरुद्ध सिद्ध हो तब उससे विसंवादादि सिद्ध हो । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब विसंवादादि सिद्ध हो, नब वह धर्मविरुद्ध सिद्ध हो । खैर नाममात्र के आक्षेपों का उत्तर देना भी हम उचित समझते हैं। आक्षेप ( क )-गजुल आदि की तपश्चर्याओं के दृष्टान्त शास्त्रों में पाये जाते हैं। अगर उन्हें काई विवाह का उपदेश देता तो उनकी उन्नति में सन्दह था। (विद्यानन्द) __ ममाधान-गजुल आदि के ममान बाल ब्रह्मचारिणी ब्राह्मीदेवी, सुन्दरी देवी, नीलीवाई आदि के दृशान्त भी तो शास्त्रों में पाये जाते हैं। इसलिये क्या यह नहीं कहा जासकता कि अगर कुमारीविवाह का उपदेश होना तो ब्राह्मी श्रादि की तरक्की केसे होती? अगर कुमागीविवाह के उपदेश रहने पर भी बालब्रह्मचारिणी मिल सकती हैं तो पुनर्विवाह का उपदेश रहने पर भी वैधव्य-दीक्षा लेने वाली और आर्यिका बन कर घोर तपश्चर्या करने वाली क्यों न मिलेंगी? आक्षेपक को गजुलदेवी की कथाका पूरा पता ही नहीं है। जैनियों का बच्चा बच्चा जानता है कि नेमिनाथके दीक्षा लेने पर राजुल के माता, पिता, सखियाँ तथा अन्य कुटुम्बियों ने उन्हें किमी दूसरे गजकुमार के साथ विवाह कर लेने को ग्वूच ही समझाया था। फिर भी उनन विवाह न किया । प्राक्षपक को समझना चाहिये कि गजुल सरीखी दृढ़मनस्विनी देवियाँ किसी के उपदेश अनुपदेश की पर्वाह नहीं करतीं । अगर उन्हें विवाह करना होता तो सब लोग रोकते रहते, फिर भी वे विवाह कर लेती। और उन्हें विवाह नहीं करना था तो सब लोग आग्रह करते रहे फिर भी उनने किसी के कहने की पर्वाह नहीं की। आक्षेप (ख)-पंडित लोग श्रेष्ठमार्ग का उपदेश देते हैं, इमलिये विसंवादी नहीं हैं । जबरन व्यभिचार की शिक्षा देने वाले कुछ अपडेट लीडर्म विसंवादी हैं । (विद्यानन्द) Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान-श्रेष्ठ मार्ग का उपदेश देना बुग नहीं है. परन्तु जो उस श्रेष्ठमार्ग का अवलम्बन नहीं कर सकते उनको उससे उतरनी श्रेणी के मार्ग में भी न चलने देना मतके नाम पर मतवाला हो जाना है। क्या विधवाविवाह का उपदेश ब्रह्मचर्यका घातक है ? यदि हाँ. नो गृहस्थधर्म का विधान भी मनिधर्म का घातक कहलायगा । पहिली श्रादि प्रतिमाओं का विधान भी दूमरी प्रादि प्रतिमाओं का घातक कहलायगा । यदि गृहस्थधर्म आदि का उपदेश देने वाले, वञ्चक. नास्तिक, पाखंडी, पापोपदेष्टा, पाप पंथ में फँसाने वाले आदि नहीं हैं ना विधवाविवाह के प्रचारक भी वञ्चक प्रादि नहीं हैं। क्योंकि जिस प्रकार पूर्ण संयम के अमाव में अविरति से हटाने के लिये गृहस्थधर्म (विग्ताविरत ) का उपदेश है उसी प्रकार पूर्ण ब्रह्मचर्य के अभाव में, व्यभिचार से दूर रखने के लिये विधवाविवाह का उपदेश है। जब विधवा-विवाह श्रागमविरुद्ध ही नहींहै तब उसमें विसंवाद कैसा ? और उसका उपदेश भी व्यभिचार की शिक्षा क्यों ? विधवाविवाह के उपदेशक ज़बर. दस्ती आदि कभी नहीं करते न ये बहिष्कार प्रादि की धमकियाँ देते हैं। ये सब पाप तो विधवाविवाह-विरोधी पण्डितों के ही सिर पर सवार है। आक्षेप (ग)-विधवाविवाह में वेश्या-सेवन की तरह प्रारम्भ भले ही कम हो, परन्तु परिग्रह-ममत्व परिणामकुमारी विवाह से असंख्यात गुणा है। (श्रीलाल) समाधान--यदि विधवाविवाहमें असंख्यात गुणा मम. त्व है तो विधुरविवाह में भी असंख्यातगुणा ममत्व मानना पडेगा। क्योंकि जिस प्रकार विधवा पर यह दोषारोपण किया जाता है कि उसे एक पुरुष से सन्तोष नहीं हुआ, उसी प्रकार विधुर को भी एक स्त्री से सन्तोष नहीं हुअा इसीलिये वह Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) भी दोषी कहलाया । वास्तविक बात तो यह है कि न विधुर विवाह में ज्यादः ममन्य परिणाम हैं और न विधवाविवाह में। हाँ, अगर कोई स्त्री एक ही समय में दो पति रक्खे अथवा कोई पुरुष एक ही समय में दो स्त्रियाँ रखे तो ममत्व परिणाम (गग परिगति ) ज़्यादः कहलायगा। अगर किसी ने यह प्रतिक्षा ली कि मैं २०० रुपये से ज्यादः न रक्खंगा और अब यदि वह २०१) रक्खे तो उस की गगपरिणति में वृद्धि मानी जायगी । लेकिन अगर वह २००) में से एक रुपया खर्च कर फिर दुसरा एक रुपया पैदा करके २०० ) करले तो यह नहीं कहा जायगा कि तू दूसग नया रुपया लाया है, इसलिये तेरी प्रतिक्षा भङ्ग हो गई और ममत्व परिणाम बढ़ गया। किसी ने एक घोड़ा रखने की प्रतिज्ञा ली, दुर्भाग्य से वह मर गया: इसलिये उसने दुसरा घोड़ा खरीदा । यहाँ पर भी वह प्रतिज्ञा. च्युत या अधिक गगी ( परिग्रही ) नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार एक पति के मर जाने पर दसग विवाह करना, या एक पत्नी के मरजाने पर दूसग विवाह करना अधिक गग ( परिग्रह ) नहीं कहा जा सकता। हाँ, पति के या पत्नी के जीवित रहते दूसग विवाह करना, अवश्य ही अधिक रागी होना है। परन्तु पण्डितों के अंधेर नगरी के न्याया. नुसार पुरुष तो एक साथ हज़ारो स्त्रियों के रखने पर भी अधिक परिग्रही नहीं हैं और स्त्री, एक पति के मर जाने पर दूसग विवाह करने से ही, असंख्यात गुणी परिग्रहशालिनी हैं ! कैसा अद्भुत न्याय है ? विधवाविवाह में प्रारम्भ कम है, परन्तु इसका कारण गुगडो का तमाशा नहीं है। तमाशे के लिये तो ज्यादः प्रारम्भ की ज़रूरत है। विधवाविवाह तमाशा नहीं है इसलिये प्रारम्भ कम है। असली बात तो यह है कि विधवाविवाह में शामिल Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) होने वाले पुरुष धर्मश, दयालु, विवेकी और द्रव्य क्षेत्र काल भाव के ज्ञाता होते हैं। इसलिये उसमें किसी भी तरह के दौंग और कुरूढ़ियों को स्थान नहीं मिलता। इसीलिये उसमें प्रारम्भ कम होना है। इस तरह विधवाविवाहमें विवाहरूपता है, अल्प प्रारम्भ है, अधिक परिग्रह नहीं है, वेश्यासेवन जैसा नहीं है। वेश्यासेवन या परस्त्री-सेवन से विधवाविवाह में क्या फ़रक है, यह बात हम पहिले पतला चुके हैं। आक्षेप (घ )-जब विधवाविवाह होने लगेंगे, तब बड़े बड़े मोटे मोटे पुरुषत्वहीन पुरुषों की हत्याएँ होगी और नलाक का बाजार गर्म होगा । (श्रीलाल ) समाधान-आक्षेपक के कथन से मालूम होता है कि समाजमें बहुत से बड़े बड़े मोटे मोटे पुरुष ऐसे हैं जो नपुसक होकर भी स्त्री रखने का शौक रखते हैं। अगर यह बात सच है तो एक ऐसे कानून की बड़ी आवश्यक्ता है जिससे ऐसे घष्ट, बेईमान, निर्लज्ज और धोखेबाज़ नपुंसको को आजन्म काले पानी की सज़ा दी जा सके, जो नपुन्सक होते हुए भी एक स्त्री के जीवन को बर्बाद कर देते हैं, उस जीते जी जीवन भर जलाते हैं-उनका अपराध तो मृत्युदण्ड के लायक है। विष देना पाप है, परन्तु ऐसे पापियों को विष देना ऐसा पाप है जो क्षम्तव्य कहा जासकता है । निःसन्देह ऐसे पापी, श्रीमानों में ही होते हैं । क्योंकि पहिले तो गरीबी में ऐसे नपुन्सक होते ही नहीं है। अगर कोई हुप्रा भी, तो जब पुरुषत्व होने पर भी गरीबों के विवाह में कठिनाई है तो पुरुषत्वहीन होने पर तो विवाह ही कैसे होगा ? श्रीमान् लोग तो पैसे के बल पर विवाह करा लेते है। अगर वे विवाह न करावे तो लोग योहो कहने लगे कि क्या मैयासाहिब नपुसक हैं ? इसलिये वे विवाह कराते हैं और अपने घर में दर्जी, सुनार, लोदी Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६४ ) आदि किसी भी जाति का गुन्डा नौकर रख लेते हैं जिसस श्रीमनीजी की कामवासना शान्त होती रहती है, तथा उन के तो नहीं उनके नाम के बच्चे पैदा होते रहते हैं। ऐसी हालत में विष देने की भी क्या ज़रूरत है ? अगर श्रीमती जी पतिव्रता निकली तो ये विष ही क्यों देंगी? विधवाविवाह होने पर तलाक का रिवाज चलाना न चलाना अपने हाथ में हैं । शताब्दियों से स्त्री जाति के ऊपर हम नारकीय अत्याचार करते श्रारहे हैं। श्राये दिन कोटुम्बिक अत्याचारों से स्त्रियों की प्रान्महत्या के समाचार मिलते हैं। उनके ऊपर इतने अत्याचार किये जाते हैं जितने पशुओं पर भो नहीं किये जाते । कसाई के पास जाने वाली गाय तो दस पन्द्रह मिनट कट सहती है और उस समय उसे ज़्यादा नहीं तो चिल्लाने का अधिकार अवश्य रहता है । लेकिन नारीरूपी गायको तो जीवनभर यन्त्रणाएँ सहना पड़ती है और उसे चिल्लाने का भी अधिकार नहीं होता । पुरुष तो रात गतभर रंडी श्रीर पर स्त्रियों के यहाँ पड़ा रहे, वर्षों तक अपनी पत्नीका मुंह न देखे, फिरभी अपनी पत्नीको जीवनभर गुलाम रखना चाहे, यह अन्धेर कबतक चलेगा? हमाग कहना तो यही है कि अगर पुरुष, अपने अत्याचारों का त्याग नहीं करता तो तलाक प्रथा ज़रूर चलेगी । अगर पुरुष इनका त्याग करता है तो तलाक प्रथा न चलेगी। आक्षेप (ङ)-विधवाविवाह वालों को विधवा का विवाह करके भी शङ्का लगी हुई है तो पहिले से ही विधवा से क्यों नहीं पूछलिया जाता कि तेरी तृप्ति कितने मनुष्यों से होगी? समाधान-हमने कहा था कि विधवाविवाह कोई पाप नहीं है। हाँ, विधवाविवाह के बाद कोई दूसरा (हिंसा झूठ चोरी कुशील प्रादि ) पाप करे तो उस पाप बन्ध होगा ।सा Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो कुमारी विवाह के बाद और मनिवेष लेने के बाद भी होता है । हमारे इस वक्तव्य के ऊपर आक्षेपक ने ऊपर का (ऊ) बेहूदा और अप्रासनिक आक्षेप किया है । खैर, उसपर हमाग कहना है कि स्त्री तो यही चाहती है कि एक हो पति के साथ जीवन व्यतीत हो जाय । परन्तु जब वह मर जाता है तो विवश होकर उसे दूसरे विवाह के लिये तैयार होना पड़ता है । विवाह के समय वह बिचारी क्या बतलाए कि कितने पुरुषों से तृप्ति होगी ? वह तो एक ही पुरुष चाहती है । हाँ, यह प्रश्न तो उन निर्लजों से पूछा, जो कि एक तरफ तो विधवाविवाह का विरोध करते हैं और दूसरी तरफ जब पहिली स्त्रीको जलाने के लिये मरघट में जाते हैं तो वहीं दूसरे विवाह की चर्चा करने लगते हैं और इसी तरह चार चार पाँच पाँच स्त्रियाँ हडप करके कन्याकुरंगी केसरी की उपाधि प्राप्त करते हैं। अथवा उन धृष्टयों से पूछी जो विधवाविवाहवालों का बहिष्कार करने के लिये तो बड़ा गर्जन तर्जन करते हैं, परन्तु खुद एक स्त्री के रखते हुए भी दूसरी स्त्री का हाथ पकड़ने में लज्जित नहीं होते । देव को सतायी हुई विचारी विधवा से क्या पूछते हो ? शराबियों को भी मात करने वाली अम्मभ्यता और कसाइयों को भी मात करने वाली करता के बल पर बिचारी विधवाओं का हृदय क्यों जलाते हो। चौथा प्रश्न चौथे प्रश्न के उत्तर में तो दोनों ही आक्षेपक बहुत बुर्ग तरह से लड़खड़ाते हैं । इस प्रश्न के उत्तर में हमने कहा था कि परस्त्रीसेवन, वेश्यासेवन और बिना विवाह के पत्नी बना लेना, ये व्यभिचार की तीन श्रेणियाँ हैं। विधवाविवाह किसी में भी शामिल नहीं हो सकता। कुमारी भी परस्त्री है, लेकिन Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह से बस्त्री बन जाती है । उसी प्रकार विधवा भी विवाह से स्वम्त्री बन जाती है । श्रीलालजी ने व्यभिचार की उपयक तीन श्रेणियाँ स्वीकार की, जब कि विद्यानन्द उस के विरुद्ध हैं। हर बान के उत्तर में दोनों प्राक्षेपक यही कहते हैं कि "विधवाविवाह धर्मविरुद्ध है, कन्या का ही विवाह होता है आदि" । इन सब बातों का वृष विवेचन हो चुका है। आक्षेप (क)-विधवा कभी भी दूसग पनि नहीं करेगी जबतक कामाधिक्य न हो । लोकलजा श्रादि को तिलाञ्जली दे जो दूसरे पति को करने में नहीं हिचकती, वह उस दूसरे करे हुए पति में सन्लाष रक्खे, असम्भव है। अतः उसका तीमग चौथा श्रीर जार पुरुष भी होना सम्भव है। अतएव वह भी एक प्रकार वेश्यामंगम जैसा हुा । ( श्रीलाल ) । समाधान-एक मनुष्य अगर प्रतिदिन आध सेर अनाज खाता है, इस तरह महीने में १५ सेर अनाज खाने पर यह नहीं कहा जा सकता कि यह बड़ा अगोरी हे, पन्द्रह पन्द्रह सेर अनाज खा जाता है । इसी प्रकार एक स्त्री अगर एक समय में एक पति रखती है और उसके स्वर्गवास होने पर अपना दूसरा विवाह कर लेती है तो उसे अनेक पति वाली नही कह सकते जिससे उसमें कामाधिक्य माना जावे । एक माथ दो पति रखने में या एक साथ दो पत्नी रखने में कामाधिक्य कहा जा सकता है । इस दृप्रिसे पुरुषों में ही कामाधि. क्य पाया जा सकता है। दूसरी बात यह कि श्रादेपक कामाधिक्य का अर्थ ही नहीं समझा। मानलीजिये कि एक स्त्री ने यह प्रतिज्ञा ली कि महीने में सिर्फ एक दिन (ऋतु काल के बाद ) काम सेवन काँगो । वह इस प्रतिक्षा पर दृढ़ रही। ऐसी हालत में अगर वह विधवा हो जाये और फिर विवाह करले और इसके बाद Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) भी वह पूर्व प्रतिक्षा पर दृढ़ रहे तो उममें कामाधिक्य ( काम की अधिकता ) नहीं कहा जा सकता । और दूसरी स्त्री जो मधवा ही बनी रही है और प्रतिदिन या दो दो चार चार दिन में काम सेवन करती है उसमें कामाधिक्य है। काम की अधिकता कामाधिक्य है, न कि काम के साधनों का परिवर्तन। इसलिये पति या पत्नीक बदल जाने से कामाधिक्य नहीं कहा जा सकता। लोकलज्जा के नामपर अन्याय या अत्याचार सहना पाप है । धर्मविरुद्ध कार्य में लोकलजा से डरना चाहिये, लेकिन आँख मूंदकर लोक की बातों को धर्मसंगत मानना मूर्खता है। जो काम यहाँ लोकलजा का कारण है वही अन्यत्र लोकलजा का कारण नहीं है। कहीं कहीं तो धर्मानुकूल काम भी लोक. लजा के कारण होजाते हैं जैसे, अन्तर्जातीयविवाह, चारसाँक में विवाह. स्त्रियों के द्वारा भगवान की पूजा, प्रक्षाल, शूद्रोंको धर्मोपदेश देना पर्दा न करना, घस्त्राभूषणों में परिवर्तन करना, निर्भीकता से बोलना, स्त्रीशिक्षा, अत्याचारी शासक या पंच के विरुद्ध बोलना श्रादि । किस किस बात में लोकलजा का विचार किया जायगा ? ज़माना तो ऐमा गुज़र चुका है कि जैनधर्म धारण करने से ही लोकनिन्दा होती थी, दिगम्बर वेष धारण करने से निन्दा होती थी । तो क्या उसे छोड़ देना चाहिये ? और श्राजकल भी ऐसे लोग पड़े हुए है--जिनमें आक्षेपक का भी समावेश है-जो कि भगवान महावीर की जयन्ती मानना भी निन्दनीय समझते हैं । जब ऐसे धर्मानुकूल कार्यों की निन्दा करने वाले मौजूद हैं तब लोकनिन्दा की कहाँ तक पर्वाह की जाय ? इसके अतिरिक्त धर्मविरुद्ध कार्य भी लोक-प्रशमा के कारण हो जाते हैं या लोक-निन्दा के कारण नहीं होते। जैसे-सीथियन जाति में प्रत्येक पुरुष का प्रत्येक Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) स्त्री पर मोर प्रत्येक स्त्री का प्रत्येक पुरुष पर ममान अधिकार रहता है, इससे वहाँ सब पुरुष अपने को भाई २ समझते हैं। चीन में भी फूधीक राजत्वकाल तक ऐसा ही नियम था। इसी तरह प्रायलेंगड की केल्टिक जाति के बारे में भी है। फेलिक्स अरेबिया में और कोरम्बा जाति में भी ऐसा ही नियम था । ऑस्ट्रेलिया में विवाह के पहिले ममागम करना बुरा नहीं समझा जाता था। बैबिलोन में प्रत्येक स्त्रीको विवाह के बाद व्हीनस के मन्दिर में बैठकर किसी अपरिचित आदमी के साथ सहवास करना पड़ता था। जब तक वह ऐसा न करे, नब तक वह घर नहीं जा सकती थी। अर्मीनियन जाति में कुमारी स्त्रियाँ विवाह के पहिले वेश्यावृत्ति तक करती हैं परन्तु इसमें लोकलज्जा नहीं समझी जाती । प्राचीन रोम में विवाह के पहिले यदि कोई लड़की व्यभिचारवृत्ति से पैसा पैदा नहीं कर पाती थी तो उसे बहुत लज्जित होना पड़ता था। चिपचा जाति में अगर किसी पुरुष को यह मालूम हो कि उसकी स्त्री का अभी तक किसी पुरुष से समागम नहीं हुश्रा तो वह अपने को प्रभागा समझता था और अपनी स्त्री को इसलिये तुच्छ समझता था कि वह एक भी पुरुष का चित्ता. कर्षण न कर सकी । वोटियाक लोगों में अगर किसी कुमागे के पीछे नवयुवकों का दल न चले तो उसके लिये यह बड़े अपमान की बात समझी जाती है। वहाँ पर कुमारावस्था में ही माता बनजाना बड़े सौभाग्य और सम्मान की बात मानी जाती है। इस विषय में इसी प्रकार के अद्भुत नियम चियवे, केमैग्मट, ककी, किचनक, रेड इन्डियन, चुकची, एस्कियो, डकोटा, मौंगोलकारेन, डोडा, रेड कारेन, टेहिटियन, आदि जानियों में तथा इसके अतिरिक्त कमेस्क डैल, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) अलीटस, उत्तरी एशिया, टहीटी, मैकरोनेशिया, कैएड्रोन आदि देश और द्वीपों के निवासियों में भी पाये जाते हैं। इसलिये जो लोग लोकलजा और लोकाचार की दुहाई देकर कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय करना चाहते हैं वे मूर्ख हैं। हमारे कूपमण्डूक पण्डित बार बार चिल्लाया करते हैं- "क्योंजी, ऐसा भी कहीं होता है ?" उन्हें जानना चाहिये कि यह "कहीं" और 'लोक' तुम्हारे घर में ही सीमित नहीं हैं। 'कहीं' का क्षेत्र व लोक' बहुत बड़े और विचित्र हैं, और उन्हें जानने के लिये विस्तृत अध्ययन की ज़रूरत है। लोकाचार, क्षेत्र काल की अपेक्षा विविध और परिवर्तनशील है, इसलिये उस को कसोटी बनाना मूर्खता है। हम तो कहते हैं कि अगर विधवाfaare धर्मविरुद्ध है तो वह लोकलज्जा का विषय हो या न हो, वह त्यागने योग्य है; और अगर वह धर्मविरुद्ध नहीं है तो लोगों के बकवाद की चिन्ता न करके उसे अपनाना चाहिये । धर्मानुकूल समाजरक्षा और न्याय के लिये अगर लोकलज्जा का सामना करना पड़े तो उसको जीतना परिग्रह-विजय के समान श्रेयस्कर है । इसके बाद पुनर्विवाहिताओं के विषय में श्रक्षेपक ने जो शब्द लिखे हैं वे धृष्टता के सूत्रक हैं। अगर पुनर्विवाहिता के तीसरा चौथा और जार पुरुष होना भी सम्भव है तो पुनविवाहित पुरुष के तीसरी चौथी पाँचवीं तथा अनेक रखैल माशूकाएँ होना सम्भव है। इस तरह पुनर्विवाह करने वालाआक्षेपक के कथनानुसार- भँडुआ है । श्रक्षेपक की सम्भावना का कुछ ठिकाना भी है। एक साथ हज़ारों स्त्रियाँ रखने वाला पुरुष तो सन्तोषी माना जाय और पुनर्विवाह करके एक ही पुरुष के साथ रहने वाली स्त्री असन्तुष्ट मानी जाय, यह आक्षेपक को अन्धेर नगरी का न्याय है । पाठक देखें कि Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) माक्षेपक से जब विधवाविवाह के विरोध में कुछ कहते नहीं बन पड़ा तब उसने यह बेहूदा बकवाद शुरू कर दिया है। आक्षेप ( ख )-विवाह तो कन्या का होता है सो भी कन्यादान पूर्वक । वह विधवा न कन्या है न उसका कोई देने वाला । जिसकी थी वह चल बसा..."वह किसी के लिये वनीयत कर गया नहीं, अब देने का अधिकारी कौन ? ( श्रीलाल ) समाधान-इन श्राक्षपों का समाधान प्रथम प्रश्न के उत्तर में कर चुके हैं। देखो, 'ए' 'ऐ' 'श्री' 'घ' । हमारे विवेचन से सिद्ध है कि स्त्री सम्पत्ति नहीं है । जब सम्पत्ति नहीं है तो उसकी वसीयत करने का अधिकार किसे है । कन्या. दान भी अनुचित है । यह जयदस्ती का दान है; अत कुदान है। इसलिये प्राचार्य सामदेव ने कुदानों की निन्दा करने हुए लिखा है : हिररायपशु भूमीनाम्कन्याशय्यान्नवाससाम् । दानबहुविधश्चान्यैर्न पाप मुपशाम्यति ॥ चाँदी, पशु, ज़मीन, कन्या. शय्या, अन्न, वस्त्र आदि दानों से पाप शान्त नहीं होता । अगर विवाह का लक्षण कन्यादान होता तो वह कुदान में शामिल कभी न किया जाता । यह बात पण्डितों के महामान्य त्रिवर्णाचार में भी पायी जाती है : कन्याहस्ति सुवर्ण वाजि कपिला दासी तिलास्यन्दनं । क्षमा गेद्दे प्रतिबद्धमत्र दशधा दानं दरिद्रप्सितम् ॥ नोर्थान्ते जिनशीतलस्य सुतरामाविश्वकार स्वयं । लुब्धो वस्तुषु भूतिशर्म तनयो-सौमुण्डशालायनः ॥ कन्या, हाथी, सुवर्ण, घोड़ा, गाय, दासी, तिल, रथ, ज़मीन, ये दरिद्रों को इष्ट दश प्रकार के दान हैं, जिन का, Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७१ ) शीतलनाथ के तीर्थ के अन्त में भूतिशर्मा के पुत्र मुण्डशालायन ने आविष्कार किया था। इससे सिद्ध है कि कन्यादान, जैनधर्म में नहीं है। शीतलनाथ म्वामी के पहिले कन्यादान का रिवाज ही नहीं था। तो क्या उसके पहिले विवाह न होता था ? न तो ऋषभदेव, भरत, जयकुमार सुलोचना आदि का विवाह न मानना पड़ेगा। कन्यादान को विवाह मानने से गान्धर्व श्रादि विवाह, विवाह न कहलायँगे। श्रीकृष्ण का रुक्मणी के साथ जो विवाह हुप्रा था उसमें कन्यादान कहाँ था ? क्या वह विवाह नाजायज़ था ? म्मरण रहे कि इसी विवाह के फलस्वरूप, रुक्मणी जी के गर्भ से तद्भवमोक्षगामी प्रद्यम्न का जन्म हुश्रा था । खेर, इस विषय में हम पहिले बहुत कुछ लिख चुके हैं । मुख्य बात यह है कि कन्यादान विवाह का लक्षण नहीं है। आक्षेप ( ग )-पुरुष भोक्ता है, स्त्री मोज्य है। पुरुष जब अनेक भाज्यों के भोगने की शक्ति रखता है तब क्यों नहीं एक भोज्य के अभाव में दूसरे भोज्य को भांगे। (श्रोलाल) समाधान-पुरुप भोक्ता है परन्तु वह भाज्य भी है। इसी प्रकार स्त्री भोज्य है परन्तु वह भोक्ती ( भोगने वाली) भी है। इसलिये भोज्य-स्त्री के अभाव में, पुरुष को अधिकार हे कि वह दूसगे भोज्य-स्त्री प्राप्त करे; इसी प्रकार भोज्यपरुष के प्रभाव में स्त्री को अधिकार है कि वह दूसरा भोज्य. परुष प्राप्त करे । शक्ति का विचार किया जाय तो परुष में जिननी स्त्रियों को भोगने की ताकत है उससे भी ज्यादः पुरुषों को भोगने की ताकत स्त्री में है।। जहां भोज्यभोजक सम्बन्ध होता है वहाँ यह बात देखी जाती है कि भोग से भोजक को सुखानुभव होता है और भोज्य को नहीं होना । स्त्री-परुष के भांग में तो दोनों को Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) सुखानुभव होना है। इसलिये उनमें से किसी एक को भोज्य या किसी एक को भोजक नहीं कह सकते । असल में दोनों ही भोजक हैं। अगर स्त्री को भोजक न माना जायगा तो स्त्रियों के लिये कुशील नाम का पाप ही नहीं रहेगा; क्योंकि कुशील करने वाला (भोजक) ना पुरुष है न कि स्त्री। इस लिये स्त्री का क्या दोष है ? हिंसा करने वाला हिंसक कहलाता है न कि जिसकी हिंसा की जाय वह । चोरी करने वाला चोर कहलाता है न कि जिसकी चोरी की जाय वह । इसलिये जो व्यभिचार करने वाला होगा वही व्यभिचारी कहलायगा नकि जिसके साथ व्यभिचार किया जाय वह । इसलिये स्त्रियाँ सैकड़ो पुरुषों के साथ सम्भोग करने पर भी व्यभिचार पाप करने वाली न कहलायँगी, क्योंकि वे भोजक ( भोग करन वाली) नहीं हैं। अगर स्त्रियों को व्यभिचार का दोष लगता है तो कहना चाहिये कि उनमें भी भोक्तृत्व है। भोक्तृत्व के लक्षण पर विचार करने से भी स्त्रियों में भोक्तृत्व मानना पड़ता है। दूसरी वस्तु की ताकत को ग्रहण करने की शक्ति को भोक्तृत्व कहते हैं (पर द्रव्यवीर्यादान. सामध्य भोक्तृत्वलक्षणम्-राजवार्तिक)। स्त्री पुरुष के भागम हमें विचारना चाहिये कि कौन किसकी ताकत ग्रहण करता है और कौन अपनी शक्तियों को ज्यादः बर्बाद करता है। विचार करते ही हमें मालूम होगा कि मोक्तृत्व स्त्री में है न कि पुरुष में, क्योंकि सम्भोग कार्य में पुरुष की ज्यादः शक्ति नष्ट होती है। दूसरी बात यह है कि स्त्रीके रजको पुरुष ग्रहण नहीं कर पाता बल्कि पुरुष के वीर्य को स्त्री ग्रहण कर लेती है । राजवार्तिक के लक्षणानुसार, ग्रहण करना ही भोक्तृत्व है। ___ स्त्रोको जूंठी थालीके समान बतलाकर भोज्य ठहराना अनुचित है, क्योंकि पुरुष को भी गन्ने के समान ठहरा कर Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) भोज्य सिद्ध कर दिया जायगा। यदि एक पुरुष के संगम से स्त्री जूंठी हो जाती है तो एक स्त्रीके संगम से पुरुष भी जूंठा हो जाता है । इसलिये अगर जूंठी स्त्री को सेवन करने वाला चांडाल या कुसा है तो जूठे पुरुषको सेवन करने वाली चांडा. लिन या कुतिया है । अगर दूसरी बात ठीक नहीं तो पहिली बात भी ठीक नहीं है। भोज्य भोजकके सम्बन्ध में यह ध्यान में रखना चाहिये कि यह उपभोग का प्रकरण है। भोजन वगैरह तो भोग हैं और वस्त्र वगैरह उपभोग हैं । स्त्री के लिये पुरुष उपभोग सामग्री है और पुरुष के लिये स्त्री उपभोग सामग्री है । इसलिये यहाँ गूंठी थाली आदि भोग सामग्री का उदाहरण ठीक नहीं हो सकता है । उपभोग में यह नियम नहीं है कि एक सामग्री का एक ही व्यक्ति उपभोग करे। जिस विस्तर पर एक आदमी सो लेता है उसी पर अगर दसग लेटजावे तो वह अँठा खानेवाला या उसके समान न कहलायेगा । पक सावुन की बट्टी का चार प्रादमी उपयोग कर सकते हैं । इसी प्रकार कुर्सी, टेबुल, पलंग, चौकी, मोटरगाड़ी, रेलगाड़ी, चटाई, साइकिल, मोती, माणिक आदि वस्तुओका अनेक प्रादमी उपयोग कर सकते हैं, लेकिन इससे कोई नँठन खाने वाले के समान नहीं कहलाता। इसलिये अगर थोड़ी देर के लिये स्त्री को भोज्य ( उपभोग. सामग्री) मान लिया जाय तो भी उसके पुनर्विवाह को घृणित नहीं कहा जा सकता। जिस समय माता. अपने बच्चे की सेवा करती है, उस समय माता बच्चे की उपभोग सामग्री है; इसलिये क्या माता अब दूसरे बच्चे की सेवा नहीं कर सकती? क्या वह जूंठी हो गई ? एक नौकर अपने मालिक के हाथ पैर आदि दबाता (संवाहन करता) है तो क्या वह जूंठा होगया? भांग सामग्री Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और उपभोग सामग्रीमें बड़ा फ़रक है, यह सदा म्मरण रखना चाहिये । उपभोग मामग्री दुसरे के लिये घृणित नहीं होजाती। हाँ, अगर एकाध चीज़ थाड़ो बहुत घृणित कहलावे भी, तो यह नियम कदापि नहीं गया जा सकता कि उपभोग सामग्री हो जाने से वृणित हो ही गई । क्योंकि पंसा मानने से कुर्सी नौकी श्रादि का दुबाग उपयोग करना भी घृणित कहलाने लगेगा। आक्षेप (घ)-ऐमा कहीं न देखा मुना होगा कि एक स्त्री के शक पुरुप हो. जिस प्रकार एक पुरुप के अनेक स्त्रियाँ होती है: यह सिद्धान्त कितना अटल है ? (श्रीलाल) समाधान-पाक्षपक के सिद्धान्त की अटलता का तिब्बत में-जिसे प्राचीनकालमें त्रिविष्टप या स्वर्ग कहते थेदिवाला निकला हुआ है। वहाँ पर एक स्त्रीक एक साथ चार चार छः छः पति होते हैं। और अमेरिका, इंग्लेड श्रादि देशो में एक पुरुष को एक से अधिक पत्नी रखने का अधिकार नहीं है। प्राकृतिक बात यह है कि एक पुरुष और एक स्त्री का दाम्पत्य सम्बन्ध हो । हाँ, अगर शक्तिका दुरुपयोग करना हो तो एक पुरुष अनेक स्त्री रख सकता है और एक स्त्री अनेक पुरुष रख सकती है। अटल नियम कुछ भी नहीं है । अगर थोड़ी देर के लिये आक्षेपक को बात मानली जाय कि एक स्त्री एक ही पुरुष रख सकती है तामी उसके पुनर्विवाह का अधि. कार छिन नहीं जाता । एक श्राभूषण एक समय में एक ही श्रादमी के काम में श्रामकता है। क्या इसीलिये फिर कोई उसका उपयोग नहीं कर सकता ? स्त्री तो रत्न है । रत्न एक समय में एक ही श्रादमी की शोभा बढ़ाता है, लेकिन समयान्तर में दूसरे के काम में भी आता है । आक्षेप( )-एक पुरुष अनेक स्त्रियों से एक वर्ष में Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक सन्तान उत्पन्न कर सकता है परन्तु एक स्त्री, अनेक परुषो को भी रखकर एक सन्तान से अधिक पैदा नहीं कर सकती। (श्रीलाल) समाधान-यदि ऐसा है तो स्त्रियों का पुनर्विवाह तुरंत चालू कर देना चाहिये, भले ही पुरुपों का पुनर्विवाह रोक दिया जाय । क्योंकि अनेक सन्तान पैदा करने के लिये तो एक पुरुष ही काफी है। इसलिये बहुत पुरुष कुमार या विधुर रहें तो सन्तान संख्या की दृष्टि से कोई हानि नहीं है, किन्त स्त्री तो एक भी कुमारी या विधवा न रह जाना चाहिये: क्योंकि उनके वैधव्य या कौमार्य से संख्या घट जायगी। यह कहाँ का न्याय है कि जिसकी हमें अधिक ज़रूरत है वह नो व्यर्थ पड़ी रहे और जिसकी थोड़ी ज़रूरत है उसकी ज़्यादः कदर की जाय । प्रकृति ने जो स्त्री पुरुष के बीच में अन्तर उत्पन्न कर दिया है, उससे मालूम होता है कि विधुरविवाह की अपेक्षा विधवाविवाह कई गुणा श्रावश्यक है। आक्षेप ( च )-सब विषय समान नहीं हुआ करते। एक ही सम्मोग क्रिया से स्त्री को गर्भधारण आदि अनेक कष्ट सहने पड़ते हैं और पुरुष को कछ नहीं। अव कहाँ गये ममान बनाने वाले न्यायनीर्थ जी ? ( श्रीलाल ) समाधान-स्त्री पुरुषों में शारीरिक समानता नहीं है इसलिये उनके अधिकागे में भी विषमता होना चाहिये और उस विषमता में पुरुषों को अधिक अधिकार मिलना चाहिये यह नहीं कहा जासकता। अगर कोई कहे कि स्त्री परुष में शारीरिक विषमता है, इसलिये पुरुष के मरने पर स्त्री को भोजन करने का भी अधिकार नहीं है ( उसे भूखो रह कर मर जाना ही उचित है), तो क्या यह उचित है ? प्रकृतिविरुद्ध विषमता पैदा करने का हमें क्या अधिकार है ? हाँ, अगर Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकृति ने कोई ऐसी विषमता पैदा की होनी जिससे पुनर्विवाह का निषेध मालुम होना तो कहने को गुंजाइश थी। अगर विधवा हो जाने से स्त्री का मासिकधर्म रुक जाता, स्त्रीत्व के चिन्ह नए हो जाते या बिगड़ जाते तो कुछ अवश्य ही स्त्री के पनर्विवाह का अधिकार छीना जाता। आक्षेपक ने जो विषमता बतलाई है उससे तो स्त्रियों को ही विशेष अधिकार मिलने चाहिये, क्योंकि कर्तव्य और अधिकार ये एक ही सिक्के के दो पृष्ठ ( बाजू) है। इसलिये न्यायोचित बात यह है कि जहाँ कर्तव्य अधिक है वाहाँ अधिकार भी अधिक है सन्तानोत्पत्ति में स्त्रियों का जितना कर्तव्य है उसका शतांश कर्तव्य भी पुरुषों का नहीं है; इसलिये स्त्रियों को ज़्यादः अधिकार मिलना चाहिये। म्त्री सम्पत्ति है, इसके खगडन के लिये देखो प्रश्न पहिला समाधान 'ओ' । स्त्री यावज्जीव प्रतिक्षा करती है और पुरुष भी करता है। खुलासे के लिये देखा प्रश्न पहिला समाधान ए (१-ए)। श्रमर कोष और धनञ्जयनाममाला के पुनर्भ शब्द का खुलासा १-त' में देखिये । विवाह पाठ प्रकार के हैं; उनमें विधवाविवाह नहीं है-इसका उत्तर प्राक्षप "१-ज" में देखिये। आक्षेप (c)—व्यभिचार को तीन श्रेणियाँ ठीक नहीं हैं। रखैल के साथ सम्भोग करना परस्त्रीसेवन की कोटि का हो पाप है । रखैल और विधवाविवाह में कुछ भेद नहीं है। परस्त्रीसेवन को व्यभिचार मान लेने से विधवाविवाह भी पाप सिद्ध हो गया: इसलिये सव्यसाची निग्रहस्थान पात्र है। (विद्यानन्द) समाधान-ज्यभिचार को तीन श्रेणियाँ श्रीलाल जी ने Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) मानी हैं: विद्यानन्द नहीं मानते हैं। खैर, परस्त्रीसेवन में वेश्यासेवन से अधिक पाप है जबकि रखैल स्त्री के साथ सम्भोग वेश्यासेवन से छोटा पाप है। इसका कारण संक्लेश की न्यू. नता है । परस्त्रीसेवन में वेश्यासेवन की अपेक्षा इसलिये ज़्यादा संक्लेशता है कि उसमें परस्त्री के कुटुम्बियों का तथा पड़ोसियों का भय रहता है, और ज़्यादः मायाचार करना पड़ता है । वेश्यासेवन में ये दोनों बातें कम रहती हैं । खैत स्त्री में ये दोनों बातें बिलकुल नहीं रहती हैं । व्यभिचार को उन दोनों धेणियों से यह श्रेणी बहुत छोटी है, यह बात बिलकुल स्पष्ट है। इस तीसरी श्रेणीको व्यभिचार इसलिये कहा है कि ऐसी म्त्री से पैदा होने वाली सन्तान अपनी सन्तान नहीं कहलाती; और इनका परस्पर सम्बन्ध समाज की अनुमति के बिना ही होता है और समाज की अनुमति के बिना ही छूट जाता है । . विधवाविवाह में ये दोष भी नहीं पाये जाते। इससे सन्तान अपनी कहलाती है। बिना समाज को सम्मति के न यह सम्बन्ध होता है न ट्टता है। व्यभिचार का इससे कोई ताल्लुक नहीं। विवाह के समय जैसे अन्य कुमारियाँ कन्या (दुलहिन) कहः लाती हैं, उसी प्रकार विवाह के समय विधवा भी कन्या कह. लाती है। व्यभिचार की तीन श्रेणियाँ और विधवाविवाह का उनसे बाहर रहना इतना स्पष्ट है कि विशेष कहने की ज़रूरत नहीं है । जब विधवाविवाह परस्त्रीसेवन नहीं है नब परस्त्री. सेवनको व्यभिचार मान लेनेसे व्यभिचार कैसे सिद्ध होगया ? माक्षेपक, यहाँ पर अनिग्रह में निग्रह का प्रयोग करके स्वयं निरनुयोज्यानुयोग निग्रहस्थान में गिर गया है। प्राक्षेप (ज)-जहाँ कन्या और वर का विवाहविधि के पूर्व सम्बन्ध हो जाता है वह गांधर्व-विवाह है। इसमें कन्या के साथ प्रवीचार होता है; इसलिये व्यभिचार श्रेणी से हलका Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 35 ) है । कुन्ती का पाराडु के साथ पहिले गान्धर्वविवाह हो चुका था । बाद में उस अधर्मदोष को दूर करने के लिये नहीं, किंतु अपनी कुमारी कन्या का विवाह करना माता पिता का धर्म है इस नीति वाक्य को पालने के लिये उनने अपनी कमारीकन्या कुन्ती का विवाह किया। गान्धर्व विवाह के अधर्म के दोष को दूर करने के लिये उन्हें कुन्ती का विवाह नहीं करना पड़ा, किन्तु पागडु को पात्र चुनना पड़ा । इसलिये विवाह व्यभिचार-दोष को दूर करने का श्रव्यर्थ साधन नहीं है। (विद्यानन्द) समाधान-आक्षेपक ने यहाँ पर बड़ा विचित्र प्रलाप किया है । हमने कहा था कि विवाह के पहिले अगर किसी कमारी से सम्भोग किया जायगा नो व्यभिचार कहलायगा: अगर विवाह के बाद सम्भोग किया जायगा तो व्यभिचार न कहा जायगा। मतलब यह कि विवाह स व्यभिचार दोष दूर होता है । इस वक्तव्ग का उत्तर धाक्षपक से न बना । इसलिये उनने कहा कि विवाह के पहिले किसी कमारी के साथ संभोग करना व्यभिचार ही नहीं है। तय तो पंडित लोग जिस चाहे कुमारी लड़की के साथ संभोग कर सकते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह व्यभिचार नहीं है। तारीफ़ यह है कि व्यभिचार न मानने पर भी इसे अधर्म मानते हैं। व्यभिचार तो यह है नहीं, बाकी चार पापों में यह शामिल किया नहीं जा सकता, इसलिये अब फोनमा अधर्म कहलाया ? प्राक्षेपक ने गान्धर्वविवाद के लक्षण में भूल की है। प्रवीचार करना विवाह का अन्यतम फल है, न कि विवाह । गांधर्व विवाह में वर कन्या एक दूसरे से प्रतिज्ञाबद्ध होजाते है, तब प्रवीचार होता है । विवाह के पहिले पाण्डु और कुन्ती का जो संसर्ग हुअा था वह व्यभिचार ही था। अगर वह व्यभिचार न होता तो उस संसर्ग से पैदा होने Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) वाली सन्तान (कर्ण) छिपाकर नदी में न बहादी जाती । हम कह चुके हैं कि व्यभिचार से जो सन्तान पैदा होती है वह नाजायज़ कहलाती है और विवाह से जो सन्तान पैदा होती है वह जायज़ कहलाती है। कर्ण नाजायज़ सन्तान थे, इसलिये वे बहादिये गये । और इसीलिये पाण्डु कुन्तो का प्रथम संयोग व्यभिचार कहलाया न कि गान्धर्व विवाह । अब हमें देखना चाहिये कि वह कोनसा कारण है जिससे कुन्ती के गर्भ से उत्पन्न कर्ण तो नाजायज़ कहलाये, किन्तु युधिष्ठिर आदि जायज़ कहलाये, अर्थात् जिस संसर्ग स कर्ण पैदा हुए वह व्यभिचार कहलाया और जिससे युधिष्ठिर पंदा हुए वह व्य भिचार न कहलाया। कारण स्पष्ट है कि प्रथम संसर्ग के समय विवाह नहीं हुअा था और द्वितीय संसर्ग के समय विवाह हो गया था । इससे बिलकुल स्पष्ट है कि विवाह से व्यभिचार का दोष दूर होता है । इसलिये विवाह के पहिले किसी विधवा में संसग करना व्यभिचार है और विवाह के बाद (विधवाविवाह होने पर) संसर्ग करना व्यभिचार नहीं है। आक्षेपक के कथनानुसार अगर पाराडु कुन्ती का प्रथम संयोग गान्धर्व-विवाह था तो कर्ण नाजायज़ संतान क्यों माने गये ? उनको छिपाने की कोशिश क्यों की गई ? कृष्ण जी ने भी रुक्मणी का हरण करके रैवतक पर्वत के ऊपर उनके साथ गान्धर्व विवाह किया था, परन्तु रुक्मणीपुत्र प्रद्युम्न तो नहीं छिपाये गये। दूसरी बात यह है कि जब पाण्डु कुन्तीका गांधर्वविवाह हो गया था तो उनके माता पिता ने कुन्ती का दूमग बार विवाह (पुनर्विवाह) क्यों किया ? क्या विवाहिता का विवाह करना भी माता पिता का धर्म है ? और क्या तब भी वह कन्या बनी रही? यदि हाँ, तो विधवा का विवाह करना Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 20 ) माता पिता या समाज का धर्म क्यों नहीं ? और वह कन्या भी क्या नहीं? आक्षेपक के होशहवास तो यहाँ तक बिगड़े हुए हैं कि एक बच्चा पैदा कर देने के बाद भी कुन्ती को कुमारी कन्या बनला रहे हैं। जब एक बच्चे की मां कुमारी कन्या हो सकती है तब बेचारी विधवा, कुमारी कन्या नहीं, सिर्फ 'कन्या' क्यों नहीं हो सकती ? कन्या के साथ कुमारी विशेषण लगा कर आक्षेपक ने यह स्वीकार कर लिया है कि कन्या कुमारी भी होती है और अकुमारी (विधवा) भी होती है। आक्षेप (झ)-कुमारी जैसे स्वस्त्री बनायी जा सकती है उस प्रकार विधवा नहीं बनायी जा सकती। क्योंकि कुमारी परस्त्री नहीं है। आप कुमारी को परस्त्री कहने का साहस क्यों कर गये ? वह तो स्त्री भी नहीं है । भावी स्त्री है। समाधान—कुमारी, स्त्री तो अवश्य है, क्योंकि वह पुरुष अथवा नपुंसक नहीं है । परन्तु प्राक्ष पक ने स्त्री शब्द का भार्या अर्थ किया है । इसलिये उसी पर विचार किया जाता है । आचार शास्त्रों में ब्रह्मचर्याणुवती को कुमारी के साथ सम्भोग करने की मनाई है: इसलिये कुमारी परस्त्री है। अपनी स्त्री के सिवाय अन्य स्त्रियों को परस्त्री कहते हैं: इस. लिये भी कुमारी परस्त्री है। कुन्ती को अपनी संतान छिपाना पडी; इसलिये भी सिद्ध होता है कि कुमारी परम्त्री है। गज. नियमों के अनुसार भी कमारी परस्त्री है। करपना कर लो, अगर पाण्डु अणुवती होते तो विवाह के बिना कुन्ती के साथ सम्भोग करने से उनका अणुवत क्या नए न होता? जैनशास्त्रों के अनुसार उनका अणुव्रत अवश्य नष्ट होता । लेकिन विवाह करके अगर सम्भोग करते तो उनका अणुवत नष्ट नहीं होता। क्या इससे यह नहीं मालूम होता कि विवाह के द्वारा परस्त्री, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समा ( १ ) स्वस्त्री बन गई है। खैर ! अगर आक्षेपक की यही मंशा है कि कुमारीको परस्त्री न माना जाय, क्योंकि वर्तमान में वह किसी की स्त्री नहीं है-भावी स्त्री है, तो इसमें भी हमें कोई ऐतगज़ नहीं है। परन्तु ऐसी हालत में विधवा भी परस्त्री न कहला गगी, क्योंकि वर्तमान में वह किसी की स्त्री नहीं है । जिसकी थी वह तो मर गया, इसलिये वह तो भूत-स्त्री हैं। इसलिये कुमारी के समान वह म्वम्त्री बनाई जा सकती हैं। आक्षेप (अ)-विवाह किसी अपेक्षा से व्यभिचार को दूर करने का कारण कहा भी जा सकता है। किन्तु कहा जा सकता है विवाह ही । विधवा सम्बन्ध की विवाह संशा ही नहीं। समाधान-शास्त्रों में जो विवाह का लक्षण किया गया है वह विधवाविवाह में जाता है । यह बात हम प्रथम प्रश्न में कन्या-शब्द का अर्थ करते समय लिख पाये हैं। लोक में भी विधवाविवाह शब्द का प्रचार है, इसलिये संज्ञा का प्रश्न निरर्थक हैं । इस आक्षेप को लिखने की ज़रूरत ही नहीं थी, परन्तु यह इसलिये लिख दिया है कि प्राक्षेपक न यहाँ पर विवाह को व्यभिचार दूर करने का कारण मान लिया है । इसलिये विधवाविवाह व्यभिचार नहीं हैं। श्राक्षेप (ट)-विवाह तो व्यभिचार की ओर रुज कराने वाला है, अन्यथा भगवान महावीर को क्या सूझी थी जो उन्हों ने ब्रह्मचर्यव्रत पाला ? समाधान—विवाह तो व्यभिचार की ओर रुजू कराने वाला नहीं है, अन्यथा श्रीऋषभदेव प्रादि तीथंकरों को क्या सूझी थी जो विवाह कराया ? सभी तीथंकरों को क्या सूझी थी जो ब्रह्मचर्याणुव्रत का उपदेश दिया? प्राचायों को क्या सूझी थी कि पुराणों को विवाह की घटनाओं से भर दिया और Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) विवाहविधि के विषय में प्रकरण के प्रकरण लिखे ? विवाह पूर्णब्रह्मचर्य का विरोधी है, ब्रह्मचर्याणवत का बाधक या व्य. भिचार का साधक नहीं है । अगर यह बात मानली जाय तो अकेला विधवाविवाह ही क्या, कुमारी विवाह भी व्यभिचार कहलायगा। अगर व्यभिचार होने पर भी कुमारी विवाह विधय है नो विधवाविवाह भी विधेय है।। आक्षेप । 3)-पुरुष इसी भव से मोक्ष जा सकते हैं. पुरुषों के उच्च संम्थान संहनन होते हैं, उनके शिश्न मूछे होती है । स्त्रियों में ये बाते नहीं हैं। इसलिये उन्हें पुरुषों के समान पुनर्विवाह का अधिकार नहीं है। लक्षण, प्राकृति, स्वभाव, शक्ति को अपेक्षा भी महान् अन्तर हे। समाधान-आजकल के पुरुप न तो मोक्ष जा सकते हैं, न स्त्रियों से अधिक संहनन रख सकते हैं। इसलिये इन्हें भी पुनर्विवाह का अधिकार नहीं होना चाहिये । संस्थान तो स्त्रियों के भी पुरुषों के समान सभी हो सकते हैं (देखो गांम्मटसार कर्मकांड)। पुरुषों के शिश्न मूछे होती है और स्त्रियों के योनि और स्तन होते है । आक्षेपक के समान कोई यह भी कह सकता है कि पुरुषों को पुनर्विवाह का अधिकार नहीं है, क्योंकि उनके योनि और स्तन नहीं होते। लिङ्ग और भूछे ऐसी चीज़ नहीं है जिनके ऊपर पुनर्विवाह की छाप खुदी रहती हो । दवा के और तीर्थकरादिको के मूछे नहीं होती, फिर भी उनके अधिकार नही छिनते । दाढ़ी के बाल और मछे नो सौन्दर्य की विघातक और उतने स्थान की मलीनता का कारण हे। उनसे विशेषाधिकार मिलने का क्या सम्बन्ध ? खैर, विषमता को लेकर स्त्रियों के अधिकार नहीं छीने जा सकते । संसार का प्रत्येक व्यक्ति विषम है। सूक्ष्म विषमता को अलग करदें तो स्थूल विषमता भी बहुत है। परन्तु विषमता Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) के कारण अधिकार छीनना अन्याय है । अगर यह नियम बनाया जाय कि जो इतना विद्वान हो उसे इतने विवाह करने का अधिकार है और जो विद्वान नहीं है उसे विवाह का अधिकार नहीं है, तो क्या यह ठीक होगा ? दूसरी बात यह है कि जिस विषय का अधिकार है उसी विषय की समता, विषमता, योग्यता, अयोग्यता का विचार करना चाहिये । किसी के पैर में चोट आ गई है तो बहुत से बहुत वह जूता नहीं पहिनेगा, परन्तु वह कपड़े भी न पहिने, यह कहाँ का न्याय है ? किसी भी अधिकार के विषय में प्राय चार बातों का विचार किया जाता है । योग्यता, श्रावश्यक्ता, सामाजिक लाभ, स्वार्थत्याग | पुनर्विवाह के विषय में भी हम इन्हीं बातों पर विचार करेंगे । स्त्रियों में पुनर्विवाह की योग्यता तो है ही, क्योंकि पुनर्विवाह से भी वे सन्तान पैदा कर सकती हैं। संभोगशक्ति, रजोधर्म तथा गार्हस्थ्यजीवन के अन्य कर्तव्य करने की क्षमता उन में पाई जाती है । श्रावश्यक्ता भी हैं, क्योंकि विधवा हो जाने पर भी उनकी कामवासना जाग्रत रहती है, जिसके सीमित करने के लिये विवाह करने की ज़रूरत है । इसी तरह सन्तान की इच्छा भी रहती हैं, जिसके लिये विवाह करना चाहिये । वैधव्यजीवन बहुत पराश्रित, आर्थिक कष्ट, शोक, चिन्ता और संक्लेशमय तथा निगधिकार होता है, इसलिये भी उन को पुनर्विवाह की श्रावश्यक्ता है । कुछ इनीगिनी विधवाओं को छोड़ कर बाकी विधवाओं का जीवन समाज के लिये भार सरीखा होता है । वैधव्यजीवन के भीतर कैद हो जाने से बहुत से पुरुषों को स्त्रियाँ नहीं मिलतीं । इसलिये उनका जीवन दुःखमय या पतित हो जाता है। समाज की संख्या घटती है । विधवाविवाह से ये समस्याएं अधिक श्रंशो में हल हो जाती है: इसलिये विधवाविवाद से सामाजिक लाभ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) हैं। स्वार्थत्याग तो ज़्यादा है हो, क्योंकि स्त्रियाँ सेवाधर्म का पालन ज़्यादह करती हैं। सन्तानोत्पत्ति में स्त्रियों को जितना कप सहना पड़ता है, उसका शतांश भी पुरुषों को नहीं सहना पडता। विवाह होते ही स्त्री अपने पितृगृह का त्याग कर दंती है । मतलब यह कि हे विवाह के विषय में विचार कीजिये, चाहं विवाह के फल के बारे में विचार कीजिये. स्त्रियों का स्वार्थत्याग पुरुषों के स्वार्थत्याग से कई गुणा ज्यादह है। स्त्रिया में परुषां से विषमता ज़रूर है, परन्तु वह विषमता उन बातों में कोई त्रुटि उपस्थित नहीं करती, जो कि पुनर्विवाह के अधिकार के लिये आवश्यक है। बल्कि वह विषमता अधिकार बढ़ाने वाली ही है। क्योकि पुरुष विधुर हो जान पर नो किसी तरह गार्हस्थ्यजीवन गौरव के साथ बिता सकता है, साथ ही आर्थिक स्वानन्य और सुविधा भी रख सकता हे; परन्तु विधवा का तो सामाजिक स्थान गिर जाता है और उसका आर्थिक कष्ट बढ़ जाता है। इसलिय विधुरविवाह की अपेक्षा विधवाविवाह की ज्यादः श्रावश्यक्ता है। और स्वार्थन्याग में स्त्रियाँ ज्यादा हैं ही, इसलिये विधुरों को विवाह का अधिकार भले ही न हो, परन्तु विधवाओं को तो अवश्य होना चाहिये। आक्षेप (ड)-स्त्री पर्याय निंद्य है। इसलिये उपपयांय ( पुरुषपर्याय ) प्राप्त करने के लिये त्याग करना चाहिये।। विद्यानन्द) समाधान-खीपर्याय निंध है, अथवा अत्याचारी पुरुष समाज ने सहस्राब्दियों के अत्याचारों से उसे निंद्य बनाडाला है, इसकी मीमांसा हम विचारशील पाठकों पर छोड़ देते हैं। अगर माक्षेपक की बात मानली जाय तो पुरुषों की अपेक्षा त्रियों को पुनर्विवाह की सुविधा यादः मिलना चाहिये, क्यों. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (cy) कि पुरुषों को अपनी उच्चता के लिहाज़ से ज़्यादा त्याग करना चाहिये । मुनिपद श्रेष्ठ है और श्रावकपद नीचा | अब कोई कहे कि मुनि उच्च हैं, इसलिये उन्हें रण्डीबाज़ी करने का भी अधिकार हैं ! गृहस्थ को तो मुनिपद प्राप्त करना है, इसलिये उसे ग्राडीबाज़ी न करना चाहिये ? क्या उच्चता के नाम पर मुनियों को ऐसे अधिकार देना उचित है ? यदि नहीं, तो पुरुषों को भी उच्चता के नाम पर पुनर्विवाह का अधिकार न रखना चाहिये | अथवा स्त्रियों का अधिकार न छीनना चाहिये । इसी युक्ति के बल पर हम यह भी कह सकते हैं कि स्त्रियाँ अधिक निर्बल और निःसहाय हैं; इसलिये स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा ज्यादः सुविधा देना चाहिये । आक्षेप (ढ) - विषय-भोगों की स्वच्छन्दता हर एक को देदी जाय तो वैराग्यका कारण बहुत ही कम मिला करे । छोटो अवस्था की विधवा का दर्शन होना कर्मवैचित्र्य का सूचक है, इससे उदासीनता श्राती है । (विद्यानन्द ) समाधान - पुरुष तो एक साथ या क्रम से हज़ारों स्त्रियाँ रक्खे, फिर भी वैराग्य के कारणों में कमी न हो और स्त्री के पुनर्विवाह मात्र से वैराग्य के कारण बहुत कम रह जायँयह तो विचित्र बात है ! क्या संसार में दुःखों की कमी है जो वैराग्य उत्पन्न करने के लिये नये दुःख बनाये जाते हैं ? क्या अनेक तरह की बीमारियाँ देखकर वैराग्य नहीं हो सकता ? फिर चिकित्सा का प्रबन्ध क्यों किया जाना है ? यदि श्राज जैनियों के वैराग्य के लिये संसार को दुःखी बनाने की ज़रूरत है तो जैनधर्ममें और आसुरीलीलामें क्या अंतर रह जायगा ? यह तो ध्यान की प्रकर्षता है। जिनको वैराग्य पैदा करना है उन्हें, संसार वैराग्य के कारणों से भरा पड़ा है। मेघाँ और बिजलियों की क्षणभंगुरता, दिन रात मृत्यु का दौरा, अनेक Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( =६ ) तरह की बीमारियाँ आदि वैराग्य की ओर झुकाने वाली हैं । पुराणों में ऐसे कितने मनुष्यों का उल्लेख है जिन्हें बालविध वाओं को देखकर वैराग्य पैदा हुआ हो ? कर्मवैचित्र्य की सूचना पुराय और पाप दोनों से मिलती है । विधवा के देखने से जहाँ पाप कर्म की विचित्रता मालूम होती है वहाँ विधवाविवाह से पुण्य कर्म की विचित्रता मालूम होती है । जिस प्रकार एक स्त्री मर जाने पर पुण्योदय से दुसरी स्त्री मिल जाती है, उसी प्रकार एक पुरुष के मर जाने पर भी पुण्योदय से दूसरा पुरुष मिल जाता है। वैराग्य के लिये बालविधवाओं की स्थिति चाहना ऐसी निर्दयता, क रता और रुद्रता है कि जिसकी उपमा नहीं मिलती । 2 पाँचवाँ प्रश्न इस प्रश्वा का सम्बन्ध विधवाविवाह से बहुत कम है । इस विषय में हमने लिखा था कि वेश्या और कुशीला विधवा के मायाचार में अन्तर हैं | कुशीला विधवा का मायाचार बहुत है । हाँ, व्यक्तिगत दृष्टि से किसी के अन्तर भावों का निर्णय होना कठिन है । इस विषय में आक्षेपकों को कोई ज्याद ऐतराज़ नहीं है, परन्तु 'विरोध तो करना ही चाहिये' यह सोच कर उनने विरोध किया है I आक्षेप (क) - वेश्या, माया-मूर्ति है । व्यभिचार ही उसका कार्य है । वह अहर्निश माया-मूर्ति है । किन्तु यह नियम नहीं है कि कुशीला जन्मभर कुशीला रहे । ( विद्यानन्द ) समाधान यहाँ यह प्रश्न नहीं है कि पाप किसका ज्यादा है ? प्रश्न मायाचार का है। जो कार्य जितना छुपाकर किया जाता है उसमें उतना ही ज्यादः मायाचार है । वेश्या इस कार्य को छुपाकर नहीं करती, जबकि कुशीला को छुपाकर Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 52 ) 1 करना पड़ता है । व्यभिचार के लिये नहीं, किन्तु पैसों के लिये वेश्या कृत्रिम प्रेम करके किसी आदमी के साथ मायाचार करती है जबकि कुशीला विधवा अपने पाप को सुरक्षित रखने के लिये सारी समाज के साथ मायाचार करती है । अपने व्यभिचार को छुपाने के लिये ऐसी नारियाँ मुनियों की सेवा सुश्रूषा में आगे आगे रहती हैं, देव पूजा आदि के कार्यों में प्रेसर बनती हैं, तप आदि के ढोंग करती हैं जिससे लोग उन्हें धर्मात्माबाई कहें और उनका पापाचार भूले रहें । स्म रहे कि व्याघ्र से गोमुख व्याघ्र भयानक होता है । वेश्या अगर व्याघ्री है तो कुशीला गोमुखच्याघ्री है । सम्भव है कोई स्त्री जन्मभर कुशीला न रहे। परन्तु यह भी सम्भव है कि कोई स्त्री जन्मभर वेश्या न रहे। जब तक कोई कुशीला या वेश्या है, तभी तक उसकी श्रात्मा का विचार करना है । आक्षेप ( ख ) - प्रश्न में मायाचार की दृष्टि से अन्तर पूछा गया है श्रतः पाप-कार्य की दृष्टि से अन्तर बतलाना प्रश्न के बाहर का विषय है । ( विद्यानन्द ) समाधान -- हमने कहा था कि, "जब हम वेश्या सेवन और परस्त्रीसेवन के पाप में अन्तर बतला सकते हैं तब दोनों के मायाचार में भी अन्तर बतला सकते हैं।" इसमें अन्य पाप से मायाचार का पता नहीं लगाया है, परन्तु अन्य पाप के समान मायाचार को भी अपने ज्ञान का विषय बतलाया है । यह भूल तो आक्षेपक ने स्वयं की है । उनने लिखा है - "व्यभिचार एक पाप-पथ है । उसपर जो जितना श्रागे बढ़ गया वह उतना ही अधिक सर्व दृष्टि से पापी एवं महामायावी है।" पाप के अन्तर से माया का अन्तर दिखला कर श्रक्षेपक स्वयं विषय के बाहर गये हैं। आक्षेप ( ग ) - सव्यसाची ने श्रान्तरिक भावों का निर्णय Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( == ) कठिन लिखा है फिर भी मायाचार की तुलना की है। ये परस्पर विरुद्ध बातें कैसी ? मन का हाल तो मन:पर्ययज्ञानी ही जान सकते हैं । (विद्यानन्द ) समाधान- मन:पर्ययज्ञानी को मन की बातका प्रत्यक्ष होता है लेकिन परोक्ष शप्ति तो श्रुतज्ञान से भी हो सकती है। वचन, श्राचरण तथा मुखाकृति श्रादि से मानसिक भावों का अनुमान किया जाता है | श्रक्षेपकने स्वयं लिखा है कि "किस. का मायाचार किस समय अधिक है सो भगवान ही जानें. परन्तु वेश्या से अधिक कभी कुशीला का मायाचार युक्ति प्रमाण से सिद्ध नहीं होता ।" क्या यह वाक्य लिखते समय आक्षेपक को मन:पर्ययज्ञान था ? यदि नहीं तो भगवान के ज्ञान की बात उनने कैसे जानली ? आक्षेप (घ ) - कुशीला, पतिव्रता के वेष में पाप नहीं करती । जहाँ पति पानिव्रत होगा वहाँ तो कुशीलभाव हो ही नही सकते । ( विद्यानन्द ) समाधान- श्रक्षेपक पतिव्रता के वेष और पातिव्रत के अन्तर को भी न समझ सके । वेश्याएँ भी सोता सावित्री आदि का पार्ट लेकर पतिव्रता का वेष धारण करती हैं, परन्तु क्या वे इसी से पतिव्रता होती हैं ? क्या कुशीलाओं का कोई जुदा वेष होता है ? आक्षेप (ङ) - कुशीला हज़ार गुप्त पाप रती हैं, परन्तु जिन मार्ग को दूषित नहीं करती । इसलिये विवाहित विधवा और वेश्या से कुशीला की कक्षा ऊँची कही गई है। ( विद्यानन्द ) समाधान- विवाहितविधवा और वेश्यासे कुशीला की कक्षा किस शास्त्र में ऊँची कही गई है ? ज़रा प्रमाण दीजिये ! Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) हमने विधवाविवाह को धार्मिक सिद्ध कर दिया है, इसलिये विवाहित विधवा जिनमार्ग दूषित करने वाली नहीं कही जा सकती । अथवा जब तक विधवाविवाह पर यह वादविवाद चल रहा है तब तक विधवाविवाह की धार्मिकता या अधार्मिकता की दुहाई न देना चाहिये। नहीं तो अन्योन्याश्रय आदि दोष पायगे। इस प्राक्षेप से यह बात अच्छी तरह सिद्ध होती है कि पण्डिताऊ जैनधर्म के अनुसार कोई स्त्री राडी बन जाय या हज़ार गुप्त पाप करे तो जिनमार्ग दुषित नाहीं होता और छिनाल बनजाय तो भी नहीं होता. नवजात बच्चों के प्राण लेने तो भी नहीं होता, लेकिन अगर वह किसी एक पुरुष के साथ दाम्पत्य बन्धन स्थापित करले तो बेचारे पंडि. ताऊ जैनधर्म की मौत ही समझिये । वास्तव में ऐसे जैनधर्म को व्यभिचार पन्थ समझना चाहिये । प्राक्षेप ( च )-इन्द्रियतृप्ति करने में ही प्रसन्नता मानते हो तो आप शोकसे चार्वाक हो जाश्रां! (विद्यानन्द) समाधान-गण्डो बनाने के लिये, हज़ागे गुप्त पाप करने के लिये धर्मधुरन्धर कहलाकर लोडेबाज़ो करने के लिये, म्रणहत्या करने के लिये अगर कोई चार्वाक नहीं बनता तो विधवाविवाह के लिये चार्वाक बनने की क्या जरूरत है ? यदि जैनधर्म में इन्द्रियतृप्ति को बिलकुल स्थान नहीं है तो अविरत सम्यग्दृष्टि के लिये "णो इन्द्रियेसु विग्दा" अर्थात् 'अविरत सम्यग्दृष्टि जीव पाँच इन्द्रिय के विषयों से विरक्त नहीं होता' क्यों लिखा है ? जैनी लोग कामल बिस्तर पर क्यों सोते हैं ? स्वादिष्ट भोजन क्यों करते हैं ? लड़कों बच्चों के होने पर भी विवाह क्यों कराते हैं ? क्या यह इन्द्रिय विषय नहीं हैं ? अथवा क्या ऐस सब जैनी चार्वाक हैं ? पुरुष जब दूसरा विवाह करता है तो क्या वैराग्य की भावना के Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) लिये स्त्री लाता है ? या पण्डितों के वेद विचार के अनु सार योनि-पूजा के लिये लाता है ? क्या यह इन्द्रिय-विषय नहीं है ? क्या विधवाविवाह में ही अनन्त इन्द्रिय-विषय एकत्रित हो गये हैं? क्या तुम्हारा जैनधर्म यही कहता है कि पुरुष तो मनमाने भोग भोगे, मनमाने विवाह करें, उससे वीतरागता को धक्का नहीं लगना, परन्तु विधवाविवाह से लग जाता है ? इसी को क्या "छोड़ो छोड़ो की धुन " कहते हैं ? आक्षेप (छ) - कुशीला अपने पापों को मार्ग-प्रेम के कारण छिपानी है | 'वह भ्रूणहत्या करती है फिर भी विवाहित विधवा या वेश्या से अच्छी है । ( विद्यानन्द ) समाधान- - अगर मार्ग-प्रेम होता तो गुप्त पाप क्यों करती ? भ्रणहत्याएँ क्यों करती ? क्या इनसे जिनमार्ग दुषित नहीं होता ? या ये भी जैनमार्ग के श्रङ्ग हैं ? चोर छिपाकर धन हरण करता है, यह भी मार्गप्रेम कहलाया । अनेक धर्मधुरन्धर लौंडेबाज़ी करते हैं, परस्त्री सेवन करते हैं. यह भी मार्गप्रेम का ही फल समझना चाहिये ! मतलब यह कि जो मनुष्य समाज को जितना अधिक धोखा देकर पाप कर लेता है वह उतना ही अधिक मार्गप्रेमी कहलाया ! वाहरे मार्ग ! और बाहरे मार्गप्रेमी ! व्यभिचारिणी स्त्री वेश्या क्यों नहीं बनजाती ? इसका उत्तर यह है कि वेश्याजीवन सिर्फ व्यभिचार से ही नहीं श्राजाता | उसके लिये अनेक कलाएँ चाहिये, जिनका कि दुरुपयोग किया जा सके अथवा जिन कलाओं के जाल में अनेक शिकार फँसाए जासकें । कुछ दुःसाहस भी चाहिये, कुछ निमित्त भी चाहिये, कुछ स्वावलम्बन और निर्भयता भी चाहिये। जिनमें ये बातें होती हैं वे वेश्याएँ बन ही जाती है । आज जो भारतवर्ष में लाखों वेश्यायें पाई जाती हैं Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६१ ) उनमें से प्राधी से अधिक वेश्याएँ ऐसी हैं जो एक समय कुल-वधुएँ थीं । वे समाज के धर्मढौंगी नरपिशाचों के धक्के खाकर वेश्या बनी हैं। व्यभिचारिणी स्त्री पुनर्विवाह क्यों नहीं करती ? इसका कारण यह है कि पुनर्विवाह तो वह तब करे जब उसमें ब्रह्मचर्याणुव्रत की भावना हो, जैनधर्म का सचा ज्ञान हो । जो स्त्री नये नये यार चाहती हो, उसे पुन. वियाह कैसे अच्छा लग सकता है ? अथवा वह तैयार भी हो तो जिन धर्मात्माश्रा ने उसे अपना शिकार बना रखा हे व कब उसका पिंड छोड़ेंगे ? पुनर्विवाह से तो शिकार ही निकल जायगा । स्त्रियों की अज्ञानता और पुरुषों का स्वार्थ ही स्त्रियों को विधवाविवाह के पवित्र मार्ग से हटाकर व्यभिचार की तरफ ले जाता है। छठा प्रश्न कुशीला भ्रूणहत्याकारिणी को और कृत कारित अनुमोदना से उसके सहयोगियों को पाप-बन्ध होता है या नहीं ? इसके उत्तर में हमने कहा था कि होता है और जो लोग विधवा. विवाह का विरोध करके ऐसी परिस्थति पैदा करते हैं उन को भी पाप का बन्ध होता है। इसके उत्तर में प्राक्षपको ने जो यह लिखा है कि "विधवाविवाह व्यभिचार है, उसमें अकलंक. देव प्रणीत लक्षण नहीं जाता, आदि" इसका उत्तर प्रथम प्रश्न के उत्तर में अच्छी तरह दिया जा चुका है। आक्षेप (क)-विधवाविवाह के विरोधी व्यभिचार को पाप कहते हैं तो पाप करने वाले चाहे स्त्रियाँ हो चाहे पुरुष, वह सवे ही पापी हैं। ( श्रीलाल ) समाधान-ऐसी हालत में जब विधवाविवाह पाप है तो विधुरविवाह भी होना चाहिये या दोनों ही न होना Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिये। क्योंकि जब पाप है ना 'सर्व ही पापी हैं । व्यभिचार में नो श्राप सर्व ही पापी बतलावे और पन. विवाह में विधुरविवाह को धर्म बतलावे और विधवाविवाह का पाप, यह कहाँ का न्याय है? आक्षेप ( ख )-चोर चोरी करता है । गवर्नमेन्ट दण्ड देती है इसमें गवर्नमेन्ट का क्या अपराध ? (श्रीलाल) ममाधान-गवर्नमेन्ट ने अर्थोपार्जन का अधिकार नहीं छीना है। व्यापार से और नौकरी या भिक्षा से मनुष्य अपना पेट भर सकता है । गवर्नमेन्ट अगर अर्थोपार्जन के गस्ते गंकद तो अवश्य हो उस चोरी का पाप लगेगा । विधवाविवाह के विरोधी, विधवा को पति प्राप्त करने के मार्ग के विरोधी हैं, इसलिये उन्हें व्यभिचार या भ्रूणहत्या का पाप अवश्य लगता है। यदि स्थितिपालक लोग बतलायें कि अमुक उपाय से विधवा पति प्राप्त करले और वह उपाय सुसाध्य हो, फिर भी कोई व्यभिचार करे तो अवश्य स्थितिपालको को वह पाप न लगेगा। परन्तु जब ये लोग किसी भी तरह से पति प्राप्त नहीं करने देते तो इससे सिद्ध है कि ये लोग भ्रणहत्या और व्यभिचार के पोषक हैं। अगर कोई सरकार व्यापार न करने द. नौकरी न करने दे, भीख न माँगने दे और फिर कहे कि"तुम चोरी भी मन कगे, उपवास करके ही जीवन निकाल दो" तो प्रत्येक श्रादमी कहेगा कि यह सरकार बदमाश है, इसकी मन्शा चोरी कराने की है। ऐसी ही बदमाश सरकार के समान श्राजकत की पंचायते तथा स्थितिपालक लोग हैं । इसमें इतनी बात और विचारना चाहिये कि अगर कोई सर. कार चार्ग की अपेक्षा व्यापागदि करने में ज़्याद दण्ड दे तो उम्म सरकार की बदमाशी बिल्कुल नंगी हो जायगी। उसी प्रकार स्थितिपालको की चालाकी भी नंगी हो जाती है, Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) क्योंकि वे लोग कहते हैं कि व्यभिचार भले ही करलो, परन्तु विधवाविवाह मन कगे ! विधवाविवाह करने के पहिले पंडित उदयलाल जी से एक बुजुर्ग पण्डित जी ने कहा था कि-"तुम उसे स्त्री के रूप में यों ही रखतो, उसके साथ विवाह क्यों करते हो ?" श्राप के सहयोगी विद्यानन्द जी ने पाँचवें प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि'यद्यपि कुशीला भ्र णहत्या करती है किन्तु फिर भी जिनमार्ग से भय खाती है। उसमें स्वाभिमान लजा है। इसलिये वह विधवाविवाहित या वेश्या से अच्छी है"-क्या अब भी स्थितिपालक लोग व्यभिचारपोपकना का कलंक छिपा सकते हैं? उस सरकार को क्या कहा जाय जो चोगे की प्रशंसा करती है और व्यापारियों की निन्दा ? आक्षेप ( ग )-यदि किसी को स्त्री नहीं मिलती तो क्या दया धर्म के नाम पर दूसरे दे दें ? विधवाविवाह के प्रचार हो जाने पर भी सभी पुरुषों को स्त्रियाँ न मिल जायँगो तो क्या स्त्री वाले लोग एक एक घण्टे को स्त्रियाँ दे देंगे। ममाधान-सुधारकों के धर्मानुसार स्त्रियों का देना लेना नहीं बन सकता, क्योंकि स्त्रियाँ सम्पत्ति नहीं हैं। हाँ, स्थितिपालक पण्डितों के मतानुसार घटे दो घंटे या महीनों वर्षों के लिये स्त्री दी जासकती है, क्योंकि उनके मतानुसार वह देने लेने की वस्तु है, भोज्य है, सम्पत्ति है । पुरुष की इच्छा के अनुसार नाचने के सिवाय उसका कोई व्यक्तित्व नहीं है। खैर, लोगों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे स्त्रियाँ देदें. परन्तु उनका इतना कर्तव्य अवश्य है कि कोई पुरुष स्त्री प्राप्त करता हो या कोई स्त्री पनि प्राप्त करती हो तो उनके मार्ग में रोड़े न अटकावे । यह कहना कि "विधवा अपने भाग्योदय से पतिहीन हुई; कोई क्या करे" मूर्खना और पक्षपात है । भाग्यो. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दय से तो विधुर भी बनता है और सभी विपत्तियाँ पाती हैं। उनका इलाज किया जाता है । विधुर का दूसरा विवाह किया जाता है। इसी तरह विधवा का भी करना चाहिये । इसका उत्तर हम पहले भी विस्तार से दे चुके हैं । "पुरुषत्वहीन पुरुषों की सिकारें होगी" इस श्राक्षेप के समाधान के लिये देखो "३ घ"। आक्षेप ( घ)-विधवाविवाह के विरोधियों को पापियों की कक्षा में किस पागम युक्तितर्क के आधार पर आपने घसीट लिया ? (विद्यानन्द) समाधान-इसका उत्तर ऊपर के (ख) नम्बर में है। उससे सिद्ध है कि कारित और अनुमोदन के सम्बन्ध से विधवाविवाह के विरोधी भ्रूण हत्यारे हैं। आक्षेप (ङ)--पण्डित लोग पागम का अवर्णवाद नहीं करना चाहते । वे तो कहते हैं कि परलोक की भी सुध लिया करा। समाधान-जिन पगिडतों के विषय में यह बात कही जारही है, घेवचारे अज्ञानतमसावृत जीव आगम को समझते ही नहीं 1 वे तो रूढ़ियों को ही धर्म या पागम समझते हैं और रूढ़ियों के भंडाफोड़ को श्रागम का प्रवर्णवाद । परलोक की सुध दिलाने की बात तो विचित्र है। जो लोग खुद तो चार २ पाँच पांच औरतें हज़म कर जाते हैं और बालविधवाओं से कहते है कि परलोक की सुध लिया करो ! उन धृष्टों से क्या कहा जाय ? जो 'बुद तो हूँस ढूंस कर खाते हो और दूसरों से कहते हो कि "भगवान् का नाम लो ? इस शरीर के पोपने में क्या रक्खा है ? यह तो पुद्गल है"---उनकी धृष्टता प्रदर्शनी की वस्तु है । वे इम धृष्टता से उपदेश नहीं देते, आदेश करते है, ज़बर्दस्ती दसगे का भूखों रखते हैं । क्या यह परलोक की Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) सुध स्त्रियों के लिये ही है ? मर्दो के लिये नहीं ? फिर जैनधर्म ज़बर्दस्ती त्याग कराने की बात कहाँ कहता है ? उसका तो कहना है कि "ज्यों ज्यों उपशमत कषाया। त्यो त्यो तिन त्याग बताया।" आक्षेप (च)-पण्डितों के कठोरतापूर्ण शासन और पक्षपातपूर्ण उपदेशों के कारण स्त्रियाँ भ्रणहत्या नहीं करती, परन्तु जो उनके उपदेश से निकल भागती हैं वे व्यभिचारि. णियाँ ही यह पाप करती हैं। ममाधान-इस बात के निर्णय के लिये एक दृष्टान्त रखना चाहिये । चार विधवाएँ हैं । दो सुधारक और दो स्थितिपालक । एक सुधारक और एक स्थितिपालक विधवा तो पूर्ण ब्रह्मचर्य पाल सकती है और बाकी की एक एक नहीं पाल सकती । पहिली से मुधारक कहते हैं कि 'बहिन! अगर तुम पवित्रता के साथ ब्रह्मचर्य पालन करने को तैयार हो तो एक ब्रह्मचारीके समान हम आपकी पूजा करते हैं और अगर तुम नहीं पाल सकती हो तो आज्ञा दो कि हम अापके विवाह का आयोजन कर दें।" वह बहिन कहती है कि अभी में ब्रह्म चय पालन कर सकती हूँ, इसलिए अपना पुनर्विवाह नहीं चाहती। जब मैं अपने मनको वश में न रख सकेगी तो पुनविवाह का विचार प्रगट कर दूंगी। दूसरी बहिनसे यही बात कही जाती है तो वह विवाह के लिये तैयार हो जाती है और उसका विवाह कर दिया जाता है। उसके विवाह को पण्डित लोग ठीक नहीं समझते-सुधारक ठीक समझते है । परन्तु जब वह बहिन विवाह करा लेती है तो उसे संतान को छिपाने की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती जिससे वह भ्रणहत्या करें । इस तरह सुधारक पक्ष में नो दोनों तरह की विधवाओं का पूर्ण निर्वाह है। अब स्थितिपालको में देखिये ! उनका कहना Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) हे कि 'विधवा-विवाह घोर पाप है, क्योंकि स्त्रियाँ जूँठी थाली के समान है। अब वे किसी के काम की नहीं'। दोनों बहिनों को यह अपमान चुपचाप सहलेना पडता है, जिस में पहिलो बहिन तो ब्रह्मचर्य से जीवन बिताती है और दूसरी वैधव्यका ढोंग करती हैं। उसकी वासनाएँ प्रगट न हो जायें, इसलिये वह विधवा-विवाद वालोको गालियाँ देती हैं। इसलिये पंडित लोग उसकी बड़ी प्रशंसा करते हैं । परन्तु वह बेचारी अपनी वासनाओं को दमन नहीं कर पाती, इसलिये व्यभिचार के मार्ग में चली जाती है । फिर गर्भ रह जाता है । अब वह सोचती हैं कि विधवाविवाहवालों को मैंने आज तक गालियाँ दी हैं, इसलिये जब मेरे बच्चा पैदा होगा तो कोई क्या कहेगा ? इस लिये वह गर्भ गिराने की चेष्टा करती है । गिर जाता है तो ठीक, नहीं गिरता है तो वह पैदा होते ही बच्चेको मारडालती है । वह बीच बीच में पुनर्विवाह का विचार करती हैं, लेकिन पण्डितों का यह वक्तव्य याद श्राजाता है कि "विधवाविवाह सेतो जिनमार्ग दूषित होता है लेकिन व्यभिचार या भ्रूणहत्या में जिनमार्ग दूषित नहीं होता", इसलिये वह व्यभिचार और भ्रूणहत्या की तरफ झुक जाती हैं । सुधारक बहिन को तो ऐसा मौका ही नहीं है जिससे उसे अपना दाम्पत्य छिपाना पढ़े और भ्रूणहत्या करना पड़े । उसके अगर सन्तान पैदा होगी तो वह हर्ष मनायगी जबकि स्थितिपालक बहिन हाय २ करेगी और उसकी हत्या करने की तरकीब सोचेगी। इससे पाठक समझ सकते हैं कि हत्याग मार्ग कौन है और दया का मार्ग कौन है ? हम यहाँ एक ही बात रखते हैं कि कोई स्त्री विधवाविवाह और गुप्त व्यभिचार में से किस मार्ग का अवलम्बन करना चाहती है । सुधारक लोग विधवाविवाह की सलाह Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७) देते हैं। अब परिडता से हम पूछते हैं कि उनकी क्या सलाह है ? अगर वे गुप्त व्यभिचार की मलाह देते है, तो उसके भीतर भ्रण हत्या की सलाह भी शामिल है क्योंकि भ्रणहत्या न करने पर व्यभिचार गुप्त न रह सकेगा। इसलिये इस सलाह से परिडतों को भ्रणहत्या का दोषी होना ही पड़ेगा। अगर व विधवाविवाह की सलाह देते है तो भ्रूण हत्या के पाप से बच सकते है। यदि वे इम पाप से बचना चाहते है तो उन्हें विधवाविवाह को व्यभिचार और भ्रण हत्या से भी बुरा कहने की बान प्रायश्चित्त के साथ वापिस लेना चाहिये । ऐसी हालत में ये पण्डित सुधारको से जुद नहीं रह सकते । क्योंकि सुधारक लोग भी व्यभिचार आदि की अपेक्षा विधवाविवाह को बाच्छा समझते हैं, पूर्णब्रह्मचर्य से विधवाविवाह को अच्छा नहीं समझते । इस वक्तव्य से सिद्ध हो जाता है कि पण्डित लोग भ्रण हत्या श्रादि का प्रचार बुल्लमखुल्ला भले ही न करते हो परन्तु उनके सिद्धान्त ही पसे है कि जिससे भ्रणहत्या का समर्थन तो होता ही है साथ ही उसको उत्तेजन भी मिलता है। और यह पाप विधवाविवाह करने वाली बहिनों को नहीं करना पडता, बल्कि उन्हें करना पड़ता है जो पगिडतों के कथनानुसार विधवाविवाह का गालियाँ देती हैं या उससे दूर रहती हैं। आक्षेप (छ)-श्राप लिग्नते है कि स्थितिपालका में सभी भ्रण हत्या पसन्द नहीं करने परन्तु फीसदी नवं करते है । इस परम्पर विरोधी वाक्य का क्या मतलब? समाधान-इम प्राक्षप में प्राक्षपक ने अपने भाषाविज्ञान का ही नहीं, भाषाशान का भी दिवाला निकाल दिया है। पूणांश के निषध में अल्पांश की विधि भी इन्हें परम्पर विरुद्ध मालूम होती है। अगर कोई कहे कि मेरे पास पुग रुपया तो नहीं है, चौदह श्राने हैं। तो भी आक्षेपक यही Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 1 ) कहेंगे कि जब तुमने रुपये का निषेध कर दिया तो चौदह पान की विधि क्यों करते हो ? क्योंकि चौदह प्राने ना रुपये के मोनर हो है। यह विगध नही. विगध प्रदर्शन को बोमागे है। एक के हान पर दो नहीं है' (कमत्त्वेऽपि द्वयं नास्ति) के समान दा न हाने पर एक का बात भी परम्पर विरुद्ध नहीं है। खेद है कि आक्षेप का इतना सा भी भाषाज्ञान नहीं है। आक्षेप ( ज )-मछली की अपेक्षा बकग ग्राह्य हे या बकग की अपेक्षा मछली ? सिद्धान्न मे दानों ही नहीं। (विद्यानन्द) समाधान-विधवाविवाह और भ्र गहत्या इन दानों में ममानता नहीं है किन्तु नर तमता है। भोर मी तरतमता है जैसी कि विधविवाह श्रार नरहत्या में है। इमलिये मछलो और बकरे का दृष्टान्त विषम है। जहाँ नग्नमना नहीं वहाँ चुनाव नहीं हो सकता । त्राहिमा और स्थावर हिसा. अणुः व्रत और महावन के ममान व्यभिचार और विश्वाविवाह में चुनाव हो सकता है जेमा कि विधुरविवाह और व्यभिचार में होता है। प्राक्षप (झ)-चाणक्य ने कहा है कि गजा और पगिडत एक ही बार बालते है कन्या एक ही बार दी जानी हे । (विद्यानन्द । ममाधान-हमने विधवाविवाह को न्यायोचित कहा है। उमका विरोध करने के लिये ऊपर का नीनिवाश्य उद्धत किया गया है। प्राक्षेपक ने भूल से न्याय और नीति का एक हो अर्थ समझ लिया है। असल में नीति शब्द के, न्याय से अनिरिक्त तीन अर्थ है । (१) कानून, (२) चाल, ढग, पॉलिसी, (३) गैनि विगज । ये तीनों ही बाते न्याय के विरुद्ध भी हो सकती है। दक्षिण के एक गज्य में ऐसा कानून Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६६ ) है कि लडका बाप की सम्पत्ति का मालिक नहीं होता। यह कानून है परन्तु न्याय नहीं । प्रजा में फूट डालकर मनमाना शासन करने की पालिसी, नीति है, परन्तु यह न्याय नहीं है। इसी तरह मिलजुल कर पञ्चों में गहिय, प्राण आँय साँची नहीं कहिय'' की नीति है परन्तु यह न्याय नहीं है। योगप में डयल का रिवाज था और कहीं कहीं अब भी है, परन्तु यह न्याय नहीं कहा जा सकता, ज्योकि इसमें सबल का हो न्याय कहलाता है। जिसकी लाठी उसकी भेस' यह भी एक नीति हे परन्तु न्याय नहीं । इमलिय नीतिवाक्य का उद्धरण देकर न्यायाचितता का विरोध करना व्यर्थ है। दुमग बात यह है कि चाणक्य ने खुद स्त्रियों के पुनविवाह के कानून बनाये है जिनका उल्लेख २७ वे प्रश्न में किया गया था । इस लख में भी आगे किया जायगा । यहाँ सिफ एक वाक्य उद्धत किया जाता है-'कुटुम्बद्धिलाप वा सुखावस्थैविमुक्ता यथेष्ट विन्देन जीवितार्थम्' । अर्थात् कुटुम्ब की सम्पत्ति का नाश होने पर अथवा समृद्ध बन्धुबाँधवा स छाड़े जाने पर कोई स्त्री, जीवननिर्वाह के लिय अपनी इच्छा के अनुसार अन्य विवाह कर सकती है। चाणक्यनीति का उल्लेख करने वाला ज़रा इम वाक्य पर भी विचार करे । साथ ही यह भी ख्याल में रक्ख कि ऐसे ऐसे दर्जनों वाक्य चाण. क्य ने लिखे है। जब हम दोनों वाक्यों का ममन्यय करते है तब चाणक्यनीति के श्लोक से पुनर्विवाह का ज़रा भी विरोध नहीं होता। उस श्लोक सं इतना ही मालूम होता है कि बाप को चाहिये कि वह अपनी पुत्री एक ही बार देव । विधवा होने पर या कुटुम्बियों के नाश होने पर देने की ज़रूरत नहीं है । उस समय तक उसे इतना अनुभव हो जाता है कि वह स्वयं अपना पुनर्विवाह कर सकती है। इसलिये पिता को Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) फिर कोम्बिक अधिकार न बनाना चाहिये। अगर चाणक्यनीति के उस वाक्य का यह अर्थ न होना ना चाणक्य के अन्य वाक्यों म ममन्वय ही न हो पाता । प्राक्षेप (ब)-प्रापने कहा कि 'अगर हम ग्खूब म्वादिष्ट भोजन करें और दमग को एक टुकड़ा भी न खाने दें तो उन्हें म्वाद के लिय नही नो क्षुधाशांति के लिये चोरी करनी ही पड़ेगी। और इमका पाप हमें भी लगेगा । इसी तरह भ्रण हत्या का पाप विधवाविवाह के विगधियों को लगता है परन्तु कीन किम्म को क्या नहीं खाने देना? कानिकयानु प्रक्षा में लिखा है कि 'उपकार तथा अपकार शुभाशुभ कर्म ही करे है। (विद्यानन्द) ममाधान-उपकार अपकार ना कर्म करते है परन्तु वों का उदय नाकर्मों के बिना नहीं थाना । बाह्यनिमित्तों को नाकर्म कहते है (दखा माम्मट सार कर्मकागड )। अशुभ कमो क नोकर्म बनना पाप है। पशु तो अपने कमोदय म माग जाता है परन्तु कर्मादय के नोकर्म कमाई का पाप का बन्ध होता है या नहीं ? विधवा को पापकर्म के उदय म पनि नहीं मिलता, परन्तु जो लाग पनि नहीं मिलने देत व ना उमी कमाई के समान उस पाप कर्म के नाकर्म है। यदि काकिगानुप्रेक्षा का ऐसा ही उपयोग किया जाय नो पण्डित लोग गुट्ट बाँध कर डाका डालना, स्त्रिया के माथ बलात्कार करना श्रादि का श्रीगणेश करदे और जब काई पछे कि एमा क्या करते हो ? तो कह दें-"हमने क्या किया ? उपकार तथा अपकार नां शुभाशुभ कर्म ही करे हे'। इस तरह से राजदण्ड आदि की भी काई ज़रूरत नहीं रहेगी क्योंकि "उपकार अपकार शुभाशुभ कर्म ही करे है" । ग्वैर माहिब ऐसा ही मही। नच ता जिस विधवा का कर्मोदय आयगा उसका पुनर्विवाह Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जायगा। न आयगा न हो जायगा। इसमें उस दम्पति को तथा सुधारको को कोमने की क्या ज़रूरत ? क्योंकि यह मब नो "शुभाशुभ कर्म ही करे है"। चाह रे ! 'करे हैं। आक्षेप (2)-कर्म की विचित्रता ही ता वैराग्य का कारण है। उन चुवानों पर नरम आता है इसलिये हम उन्हें शान्ति से इम कर्मकृन विधिविडम्बना को महलने का उपदेश देते हैं।" ( विद्यानन्द) समाधान-जी हाँ, और जब यह विधिविडम्बना उप. देशदाताओं के सिर पर आती है नत्र व स्वयं कामदेव के आगे नंगे नाचते हैं, मरघट में ही नये विवाह की बातचीत करते हैं ! यह विधिविडम्बना मिर्फ स्त्रियों को सहना चाहिये। न मही जाय नो गुप्त पाप करके ऊपर से महने का ढोंग करना चाहिये । परन्तु पुरुषों को इसके महने की जरूरत नहीं । क्योंकि धर्म पुरुषों के लिये नहीं है । वे तो पाप मे भी मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं । अथवा यहाँ की आदत के अनुसार मुक्ति का झोटा पकड़ कर उसे वश में कर सकते हैं। उन्हें पाप पुण्य के विचार की ज़रूरत क्या है ? । वैराग्य के लिए कर्मविचित्रता की जरूरत है। इसलिये आवश्यक है कि मैकड़ों मनुष्य भूखों मारे जाँय, गरम कड़ाहों में पकाए जाँय, बीमाग की चिकित्सा बन्द कर दी जाय । इस से असुरकुमारों के प्रवनार पगिडनों को और पश्चों को वैराग्य पैदा होगा। अच्छा हो, ये लोग एक कमाईखाना खोल दे जिस में कमाई का काम ये स्वयं करें । जब इनकी छुरी खाकर बेचारे दीन पशु चिल्लायेंगे और तड़पेंगे, तब अवश्य ही उनके खून में से वैराग्य का सत्त्व खींचा जासकंगा। अगर किसी जगह विधवाओं की कमी हो तो पुरुषों की हत्या करके विधवाएँ पैदा की जाँय । क्योंकि उनके करुण क्रन्दन और Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) आँसुओं में से वैराग्य का दोहन बहुत अच्छा होता है। यह वैराग्य न मालूम कैसा अडियल टट्टू है कि श्राता ही नहीं है ! इधर जैनसमाज में मुफ्तखोरों की इतनी कमी है और जैन समाज के पास इतना धन है कि सुना ही नहीं कि किसे खिलायें या कैसे खर्च करें ! सातवाँ प्रश्न इसमें पूछा गया था कि आजकल कितनी विधवाएं पूर्ण पवित्रता के साथ वैधव्य पालन कर सकती हैं । इसका उत्तर हमने दिया था कि वृद्ध विधवाओं को छोड़कर बाकी विधवाओं में से की सही पाँच । यहाँ पूर्णपवित्रता के साथ वैधव्य पालने की बात है। गं धोकर वैराग्य पालन करने वाली तो आधी या आधी से भी कुछ ज्यादा निकल सकती है । श्राक्षेपकों ने उत्तर का मतलब न समझकर बकवाद शुरु कर दिया। श्रीलाल जी हमसे पूछते हैं कि . आक्षेपक – आप को व्यभिचारिणियों का ज्ञान कहाँ से हुआ ? क्या व्यभिचारियों का कोई अड्डा है जो ख़बर देता है या गवर्नमेरा रिपोर्ट निकलती है ? समाधान — मालूम होता है आक्षेपक भूगर्भ में सबिलकुल ताज़े निकले हैं। अन्यथा आप किसी भी शहर के किसी भी मोहल्ले में चले जाइये और ज़ग भी गौर से जाँच कीजिये, आपकी बुद्धि आपको रिपोर्ट देदेगी। इस रिपोर्ट की जाँच का हमने एक अच्छा तरीका बतलाया था-विधुर्गे की जाँच । स्त्रियों में काम की अधिकता बतलाई जाती है । अगर हम समानता ही मानले तो विधुरों की कमज़ारियों से हम विध वाओं की कमज़ोरियों का ठीक अनुमान कर सकते हैं । वृद्ध विधुरों को छोड़कर ऐसे कितने विधुर हैं जो पुनर्विवाह की Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३) कोशिश न करते हो ? किसी प्रान्त में या शहर में जाँच करती जाय तो मालूम होगा कि चालीस पैंतालिस वर्ष से कम उमर में विधुर होकर अपने पुनर्विवाह की कोशिश न करने वाले विधुर फ़ो मदी पाँच से भी कम है। जहाँ पर विधुरविवाह के समान विधवाविवाह का भी पूर्ण प्रचार है वहाँ को रिपोर्ट में भी इस बात का समर्थन होगा। क्या ऐसी स्पष्ट जाँच को धृष्टता कहते है ? इम वक्तव्य से विद्यानन्दजी के श्राक्षेपी का भी उत्तर हो जाता है । हाँ ! उनके बहन से आक्षेप प्रकरण के बाहर हागये हैं, परन्तु उनका भी उत्तर दिया जाता है जिसस कहने को भी गुजाइश न रह जावे । __ आक्षेप ( ग्व )-क्या प्रभव्य में मोक्ष जाने की नाकस नहीं है ? ता कवल ज्ञानावरण का मद्भाव कैस घटित होगा? राजवार्तिक दखियं ! (विद्यानन्द) समाधान-आक्षेपक ने गजवार्तिक गौर से नहीं देखा। गजवार्निक में लिखा है कि द्रव्यार्थिकनय से ना अभव्य में वलज्ञानादि की शक्ति है, परन्तु पर्यायाथिकनय से नहीं है। इसलिये द्रव्याथिकनय से ना स्त्रिया में वैधव्य पालन की नो क्या, कंवलज्ञानादिक की भी शक्ति कहलायी। ऐसी हालत में तो प्रश्न की काई ज़रूरत ही नहीं रहती। और जब प्रश्न किया गया है ना सिद्ध है कि पर्यायार्थि कनय की अपेक्षा है, और उस नय से अभव्य में मुक्तियोग्यता नहीं है । ज़रा राजवार्तिक के इस वाक्य पर भी विचार कं जिये-"सम्यक्वादिपर्यायव्यनियांगाहों यः स भव्यः तद्विपरीताऽभव्यः" अर्थात् जिसमें सम्यक्त्वादि को प्रगट करने की योग्यता हो उसे भव्य कहते हैं; उससे विपरीत का अभव्य । मतलब यह है कि प्रकट करने की शक्ति प्रशक्ति की अपेक्षा से भव्य अभ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४ ) व्य का भेद है। हमने मोक्ष जाने तक की बात कही है, शक्ति रूप में मौजूद रहने की नहीं । खेर. यहाँ इम चर्चा मे कुछ मतलब नहीं है। अगर आक्षेपक को इस विषय की विशेषज्ञता का अभिमान है तो वे स्वतन्त्र चर्चा करें। हम उनका समा. धान कर देंगे। आक्षेप ( ग )-अाजकल भी स्त्रीजाति को पंचम गुण स्थान हो सकता है और पुरुषों को सप्तम गुणस्थान । इसलिये अवस्था का बहाना बनाना अधमता में भी अधम है। समाधान-गुणस्थानों की चर्चा उठाकर आक्षेपक ने अपने पैग पर श्राप ही कुल्हाड़ी मारी है। क्या श्रापक ने विचार किया है कि मनुष्या में पश्चम गुणस्थान के मनुष्य कितने हैं ? कुल मनुष्य २६ अङ्क प्रमाण हे और पञ्चम गुणम्थानवाले मनुष्यों की संख्या ६ अङ्कप्रमाण । बीस अङ्क ज्यादा है । १६ अङ्क के दम महान है बीस अङ्क क. १०० सङ्ख हुए। अर्थात् पाँचवे गुणस्थान के मनुष्यों से कुल मनुष्य सो सङ्क गुण है । सो सङ्ख मनुष्यों में एक मनुष्य पञ्चम गुणस्थानवर्ती है । इस चर्चा से तो सौ में पाँच तो क्या एक या प्राधा भी नहीं बैठना ! फिर समझ में नहीं आता कि पाँच गुणस्थान में जीव होने से दुराचारियों का निषेध कैस हो गया ? अनन्त सिद्धों के होने पर भी उनसे अनन्तगुणे संमागे हैं । असंख्य सम्यग्दृष्टियों के होने पर भी अनन्तानन्त मिथ्याष्टि हैं । इसलिये पाँच सदाचारिणी स्त्रियों के होने से क्या ५ दुगचारिणी नहीं हो सकती? फिर हमने ता वृद्धाओं को अलग रक्खा है और युवती विधवाओं में भी ६५ को दुराचारिणी नहीं, किन्तु पूर्ण वैधव्य न पालने वाली बतलाया है। - सीता राजुल आदि सतियों के दृष्टान्त से प्राक्षेपक की नहीं, किन्तु हमारी बान सिद्ध होती है । सतीत्व के गीत गाने Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) वाले बतलायें कि आज कितनी स्त्रियाँ अग्नि में बैठकर अपने सतीत्व की परीक्षा दे सकती है? सीता और राजुल आज तो असाधारण हैं ही, परन्त उस ज़माने में भी प्रसाधारण थीं। आक्षेपकने ज्योति प्रसाद जी आदि का उदाहरण देकर सिर किया है कि विधुर भी ब्रह्मचर्य से रहते हैं । इस सिद्ध करने की धुन में आप अपने असली पक्ष को खो बैठे । अगर ज्योतिःप्रसादजी श्रादि विधुगें के रहने पर भी फ़ीसदी ६५ विधुर अपने पुनर्विवाह की कोशिश करते हैं अर्थात निदोष वैधुयं का पालन नहीं कर पातं तो शुद्ध वैधव्य पालन करने वाली अनेक विधवाओं के रहने पर भी फ़ी सदी ५ विधवाएँ शुद्ध वैधव्य पालन नहीं कर पातीं। माक्षेप (घ )-विधुगे के समान विधवाओं के विवाह की प्राशा कौन दे ? क्या हम छद्मस्थ लोग ? शास्त्रों में बहुविवाह का उल्लेख पाया जाना हे । शास्त्रका पुरुष होन स पक्षपाती नहीं कह जासकते, क्योकि न्याय और सिद्धान्त की रचनाएँ गुरुपरम्पग से हैं। यदि उन्हें पुरुषत्व का अभिमान होता तो शुद्रों का पूजनप्रक्षाल, महाव्रत ग्रहण आदि से बंचित क्या रखते ? यदि ब्राह्मणत्यका पक्षपात बताया जाय तो उनने हीना. बारी ब्राह्मण को शुद्रों से भी बुग क्यों कहा ? इसलिय पक्ष. पात का इल्ज़ाम लगाना पशुता और दमनीय अविचारता है। (विद्यानन्द) समाधान--हमारे उत्तर में हम विषयका एक अक्षर भी नहीं है और न घुमा फिगकर हमने किसी पर पक्षपात का इल्ज़ाम लगाया है। यह हरिण का साते शेर को जगाना है । प्रारम्भ में हम यह कह देना चाहते हैं कि मादोपकन जैन शास्त्रों की जैसी आशाएँ समझी हैं वैसी नहीं हैं । जैन शास्त्र तो पूर्ण ब्रह्मचर्य की प्रामा देने हैं, लेकिन जो लोग पूर्ण Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६) ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकने उनके लिये कुछ नीची श्रेणी का ( विवाह आदि का) उपदेश देते हैं। इन नोची श्रेणियों में किस ज़माने के अधिकांश मनुष्य किम श्रेणो का किस रूप में पालन कर सकते हैं इस बात का भी विचार रखा जाता है। भारतवर्ष, निब्बत और वनमान यांगर की परिस्थितियोम बड़ा फर्क है। भारतवर्ष में पक पति, अनेक पत्नियाँ रख मकना है । तिब्बत में पक पत्नी भनक पति रख सकती है। यारोप में पनि, अनेक पत्नियाँ नहीं रख सकता, न पन्नी अनेक पति रख मकती है । यागप में अगर एक पन्नी के रहने हुए कोई दूसरी पन्नी से विवाह करले ना वह जेल में भेज दिया जायगा। क्या प.मी परिस्थिति में प्राचार्य, योगपियन पुरुषों को बहुविवाहको श्राक्षा देंगे ? जैनाचार्यों की दृष्मेिं भी वहाँ का बहुविवाह अनाचार कहलायगा । परन्तु भारत के लिय पुरुषों का बहुविवाह अनिचार ही हागा। निब्बत के लिये स्त्रियों का बहुविवाह प्रति. चार होगा। नापर्य यह है कि पूर्ण ब्रह्म वय में उतर कर समाज का नैनिक माध्यम ( 11.hth) जिम श्रेणी का रहता है उसी का प्राचार्य ब्रह्मचर्याणवत कहते हैं। यही कारण है कि सामदेव और आशाघरजी ने वेश्यामवों को भी अणुवनी मान लिया है। इसमें श्राश्चय की कुछ बात नहीं है क्योकि यह नो जुदे जुदे समय और जुदे स्थानों के समाज का माध्यम है । इस विषय में इतनी बान ध्यान में रखने की है कि माध्यम चाहे जो कुछ रहा हो परन्तु उनका लक्ष्य पूर्ण ब्रह्मचर्य रहा है । इस. लिये बहुपत्नीक मनुष्य को उनने भनिचारी कहा है । देखिये सागारधर्मामृत टीका "यदा तुम्वदारसन्तष्टो विशिष्टसन्तापाभावात् अन्यत्कल परिणयति तदाऽप्यस्यायमतिचारः स्यान्" अर्थात् विशिष्ट सन्नाप न होने के कारण जो दूसरो स्त्री के साथ विवाह करता है उसको ब्रह्मचर्याणुवन में दोष लगता है। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७) अम्मल बात तो यह है कि ब्रह्मचर्याणुव्रत भी एक तरह का परिग्रहपरिमाणवत है: परिग्रह परिमाण में सम्पत्ति तथा अन्य भागांपभोग की वस्तओं की मर्यादा की जाती है। ब्रह्मचर्य में काम संबन सम्बन्धी उपभोगसामग्री की मर्यादा की जाती है । परन्त जिस प्रकार अहिंसा के भीतर चागे व्रत शामिल होने पर भी स्पष्टता के लिये उनका अलग व्याख्यान किया जाता है उसी प्रकार ब्रह्मचर्याणुव्रत में परिग्रह परिमाण बन से अलग व्याख्यान किया गया है। परिग्रह परिमाणवतमें परिग्रह की मर्यादा की जानी है, परन्तु वह परिग्रह कितना होना चाहिये यह बात प्रत्येक व्यक्ति के द्रव्य क्षत्रकालभाव पर निर्भर है । मर्यादा बाँध लेने पर सम्राट भी अपरिग्रहाणुव्रती है और मर्यादाशुन्य साधारण गिखमंगा भो पूर्ण परिग्रही है । ब्रह्मचर्याणुव्रत के लिये प्राचार्य ने कह दिया कि अपनी काम वासना को सीमित करो और विवाह की कामवासना की सीमा नियन कर दिया । जो वैवाहिक बन्धन के भीतर रहकर काम सेवन करता है वह ब्रह्मचर्याणुवती है । यह बन्धन कितना ढीला या गाढ़ा हो यह सामाजिक परिस्थिति और वैयक्तिक साधनों के ऊपर निर्भर है । यहाँ पर एक पुरुष का अनेक स्त्रियों के साथ विवाह हा सकता है और विवाह ही मर्यादा है इसलिये वह ब्रह्मचर्याणुवती कहलाया । तिब्बत में एक स्त्री अनेक पुरुषों के साथ एक साथ ही विवाह कर सकती है और विवाह ही मर्यादा है इसलिये वहाँ पर अनेक पनि वाली स्त्री भी अणुब्रह्मचारिणी है । अणुब्रह्मचर्य का भंग वहीं होगा जहाँ अविवाहित के साथ कामादि संबन किया जायगा। इससे साफ मालूम होता है कि अणुव्रत के लिये भाचार्य एक अनेक का बन्धन नहीं डालते. घे विवाह का बन्धन डालते हैं। सामाजिक परिस्थिति और साधन सामग्री से जो जितने विवाह कर सके Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) उसे वहीं अणुचूत की मीमा है । एक पनि या अनेक पनि का प्रश्न सामाजिक या राजकीय परिस्थिति का प्रश्न है न कि धार्मिक प्रश्न। ऊपर, निबन का उदाहरण देकर बहुपतित्व का उल्लंख कर चुका हूँ। और भी अनक छाटी छोटा जानियों में यह रिवाज है। अगर ऐतिहामिक दृष्टि म देखा जाय तो एक दिन संमार के अधिकांश देशों में बहुपनत्व की प्रथा प्रचलिन थी। बात यह है कि माना का महत्व पिना में अधिक है। माता को ही लकर कुटुम्ब की रचना होती है। इसलिये एक समय मातृवश अर्थात माना के ही शासन की विधि प्रचलिन थी। उस समय बहुपनिविवाह अर्थात् एक स्त्री के कई पनि हाने की प्रथा भी शुरु हो गई । शिया की कुछ प्राचीन जानियों में अब भी इम प्रथा क चिन्ह पाये जाने हैं। कई पनियों में से जा सबसे बलवान और रक्षा करन में समर्थ हाना था धीरे धीरे उसका आदर अधिक हाने लगा अथात् पट्टगनी के समान पट्टपति का रिवाज चला। जो बलवान और पन्नी का ज़्यादा प्याग हाना था वही अच्छी तरह घरमें रह पाना था। यही रिवाज अगरेज़ो क हसबंड Hushant शब्द का मूल है। इस शब्द का अमली रूप है 11115 y1tamily अर्थान घर में रहने वाला। सब पतियों में जो पन्नी के साथ घर पर रहता था वही धीरे धीरे गृहपति या हसबंड कहलान लगा, और शक्ति हान स धीरे धीरे घर का पूग आधिपत्य उम के हाथ में आगया । घर की मालिकी के बाद जब किमी पुरुष का जाति की सरदारी मिली तो पुरुषों का शासन शुरू हुआ, और बहुपनिस्व के स्थान पर बहुपत्नीत्व की प्रथा चल पडी। हिन्द शास्त्रों में द्रौपदी को पांच पति वाली कहा हैं और उसे महासती भी माना है । भले ही यह कथा कल्पिन Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६) हो परन्तु भारतवर्ष में भी एक समय बहुपतिन्व के साथ सती. व का निर्वाह होता था, इस बात की सूचक अवश्य है। जैनसमाज में थी कि नहीं, यह जुदा प्रश्न है परन्तु भारतवर्ष में अवश्य थी। __ मतलब यह है कि बहुपतित्व और बहुपत्नीत्व की प्रथा सामयिक है। धर्म का उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं। धर्मनी अणुव्रती का अविवाहित के साथ संभोग करने की मनाई करता है। विवाहित पुरुष या स्त्री, एक हो या अनेक, धर्म की दृष्टि में अणुव्रतनाशक नहीं है। हाँ, धर्म तो मनुष्य को पूर्णब्रह्मचर्य की नरफ झुकाता है इसलिये बहुपत्नीत्व ओर बहुपतित्व के स्थान में एक पनिव, और एक पत्नीत्व का अच्छा समझता है और जिसका प्रचार अधिक सम्भव हो उसी पर अधिक जार देना है। इनना ही नहीं, एक पत्नीत्व के बाद भी वह संभाग की गंकथाम करता है। जैस पर्व के दिन में विषय सेवन मन करो ! ऋतुम्नान दिवस के सिवाय अन्य दिवों में मन कगे! आदि। मुनियों के लिये जैसा ब्रह्मचर्य है प्राधिकाओं के लिये भी वैसा है। ब्रह्मचारियों के लिये जैमा है, ब्रह्मचारिणियों के लिये भी वैमा है । बाको पुरुषों के लिये जैमा है, बाकी त्रियों के लिये भी वैमा है । सामयिक परिस्थिति के अनुमार पुरुषों और स्त्रियों ने जिम प्रकार पालन किया प्राचार्यों ने उसी प्रकार उसका उल्लेख किया। प्राचार्य नो बहुपत्नीत्व और बहुपतित्व दोनों नहीं चाहते थे। ये नो पूर्णब्रह्मचर्य के पोषक थे। अगर वह न हो सके तो एकपनित्व और एकपत्नीत्व चाहते थे। ज़बरदस्ती से हो या और किसी नरह से हो, त्रियों में बहुपतित्व की प्रथा जब नहीं थी तब वे उसका उल्लेख करके पीछे खिसकने का मार्ग क्यों बतलाने ? पिछले Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) ज़माने में जब विधवाविवाह की प्रथा न रही या कम हो गई तब इस प्रथा का उल्लेख भी न किया गया। यदि इसी तरह बहुपत्नीव की प्रथा नष्ट हो जाती तो श्राचार्य इस प्रथा का भी उल्लेख न करते । माध्यम जितना ऊँचा होजाय उतना ही अच्छा है । अगर परिस्थितियों ने स्त्रियों का ब्रह्मचर्यविषयक माध्यम पुरुषों से ऊँचा कर दिया था तो इससे स्त्रियों के अधिकार नहीं छिन जाते । कम से कम धर्म तो उनके अधि कारों में बाधा नहीं डालता । पुरुष समाज का माध्यम तां स्त्री समाज से नीचा है । इसलिये पुरुषों को तो स्त्रियों से कुछ कहने का अधिकार ही नहीं है । अब यहाँ एक प्रश्न यह खड़ा होता है कि विधवाविवाह का प्रचार करके स्त्रियों का वर्तमान माध्यम क्यों गिराया जाता है ? इसके कारण निम्नलिखित है । ( १ ) यह माध्यम स्त्रियों के ऊपर ज़बरदस्ती लादा गया हैं, और लादने वाले पुरुष हैं जो कि इस दृष्टि से बहुत गिर हुए हैं। इसलिये यह त्याग का परिचायक नहीं किन्तु दासता का परिचायक है। इसलिये जब तक पुरुष समाज इस माध्यम पर चलने को तैयार नहीं है तब तक स्त्रियों से ज़बर्दस्ती इस माध्यम का पलवाना अन्याय है, और अन्याय का नाश करना धर्म है । ( २ ) माध्यम वही रखना चाहिये जिसका पालन सहूलियत के साथ हो सके । प्रतिदिन होने वाली भ्रणहत्याएँ और प्रति समय होने वाले गुप्त व्यभिचार आदि से पता लगता है कि स्त्रियाँ इस माध्यम में नहीं रह सकतीं । ( ३ ) श्रार्थिक कष्ट, घोर अपमान, तथा अन्य अनेक आपत्तियों से वैधव्य जीवन में धर्मध्यान के बदले श्रर्तध्यान की ही प्रचुरता है । (४) स्त्री और पुरुष के माध्यम में इतनी विषमता है Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि पुरुषममाज का और स्त्रीसमाज का अधःपतन हो रहा है। इस समय दोनों का माध्यम समान होना चाहिये । इसके लिये पुरुषों को बहुपत्नीत्व की प्रथा का त्याग करने की और स्त्रियों का विधवाविवाह की ज़रूरत है। (५) जनसंख्या की दृष्टि से समाज का माध्यम हानि. काग है । भारतवर्ष में स्त्रियों की संख्या कम है, पुरुषों में बहुविवाह होता है, फिर फ़ीसदी १७ स्त्रियाँ असमय में विधवा हो जाती है. इमलिय अनक पुरुषो का, बिना स्त्री के रहना पड़ता है। उनमें से अधिकांश कुमार्गगामी हो जाते हैं। अगर विधवाविवाह का प्रचार हो तो यह कमी पूरी हो सकती है तथा अनेक कुटुम्बा का सर्वनाश हाने से भी बचाव हो सकता है। (६) बहुपतित्व और बहुपत्नीत्व की प्रथा, सीमित होने पर इतनी विस्तृत है कि उममें विषय वामनाओं का ताराहव हो सकता है। सामूहिक रूपमें इसकाापालन ही नहीं होसकना इसलिये ये दोनों प्रथाएँ त्याज्य है । किन्तु अपतित्व और अपस्नीत्व की प्रथा इतनी संकुचित है कि मनुष्य उममें पैर भी नही पसार मकता । और सामूहिक रूपमें इसका पालन भी नहीं होमकता । इसलिये कुमार और कुमारियों का विवाह कर दिया जाता है । अपनत्व की प्रथा से जिस प्रकार कुमारियो की हानि हो सकती है वही हानि विधवाओं की हा रही है इसलिये उनके लिये भी कुमारियों के समान एकपतित्व प्रथा की आवश्यकता है। जबकि बहुपत्नीत्व और बहुपतित्व नक ब्रह्मचर्यायुक्त की सीमा हे तब एक पतित्वरूप विधवाविवाह की प्रथा, न सो अणुवनकी विरोधिनी होमकती है और न आचार्यों की प्राशाओकी प्रामाके प्रतिकुल हो सकी है । यहाँ पाठक विधवा Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२ ) विवाह को बहुपतित्व की प्रथा न समझे । एक साथ अनेक पतियों का रखना बहुपतित्व है । एक की मृत्यु हो जाने पर दुसग पति रखना एक पतित्व ही है क्योंकि इसमें एक साथ बहुपनि नहीं होते। पाठक इस लम्ब विवंचन से ऊब तो गये होंगे, परन्तु इसमें "विधवाविवाह की आज्ञा कोन दे ?". "पुराणों में बहु. विवाह का उल्लेख पाया जाता है" आदि प्राक्षेपों का पूरा समा. धान हो जाता है । शास्त्रोक कथन की अनकान्तता मालुम हो जाती है। साथ ही ब्रह्मचर्यायुवत का रहस्य मालुम हो जाता है । आपकने पक्षपात के इल्ज़ाम को पशुता और दमनीय अविचारता लिखा है। खेर, जैनधर्म तो इतना उदार हे कि उसपर बिना इल्ज़ाम लगाये विधवाविवाह का समर्थन हो जाता है । परन्तु जो लोग जैनशास्त्रों को विधवाविवाह का विगंधी समझते है या जैनशास्त्रों के नाम पर बने हुए. जैन धर्म के विरुद्ध कुछ ग्रन्थों को जैनशास्त्र समझते है उनसं हम दो दो बातें कर लेना चाहते हैं। ये दो बातें हम अपनी तरफ स नहीं, किन्तु उनके वकील की हैसियत से कहते है जिनको प्राक्षपकने पशु बतलाया है। प्राक्षेपक का कहना है कि "न्याय और सिद्धान्तकी रच. नाएँ गुरु.परम्पग से हैं". परन्तु उनमें स्वकल्पित विचारों का सम्मिश्रण नहीं हुआ, यह नहीं कहा जा सकता । माणिक्यनंदि आदि प्राचार्याने प्रमाण को अपूर्वाग्राही माना हे ओर धारावाहिक ज्ञानको अप्रमाण । परन्तु आचार्य विद्यानन्दीने गृहीत. मगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यात, तत्र लोके न शास्त्रेप विज. हाति प्रमाणताम्-कहकर धागवाहिक को अप्रमाण नहीं माना है । ऐसा ही अकल देवने लिखा है ( देखो श्लोकवार्तिक. लघीयस्त्रय, या न्यायप्रदीप ) धर्मशास्त्रमें तो और भी ज्यादा Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११३ ) । अन्धेर है । विषेण कहते हैं कि सीता जनक की पुत्री थी । रामको बनवास मिला था । वे अयोध्या में रहते थे । गुणभद्र कहते हैं सीता रावण की पुत्री थी राम को बनवास नहीं मिला था । वे बनारस में रहते थे। दोनों कथानकों के स्थूल सूक्ष्म अंशों में पूर्व पश्चिम का सा फ़रक है । क्या यह गुरुपरपरा का फल है ? कोई लेखक कहना है कि मैं भगवान महावीर का ही उपदेश कहता हूँ तो क्या इसीसे गुरुपरम्परा सिद्ध होगई ? यदि गुरुपरम्परा सुरक्षित रही तो कथानकों में इतना भेद क्यों ? श्रावकों के मूलगुण कई तरह के क्यों ? क्या इस से यह नहीं मालूम होता है कि अनेक लेखकोंने द्रव्य क्षेत्र का लादि की दृष्टि अनेक तरह का कथन किया है । अनेकों ने जैनधर्म विरुद्ध अनेक लोकाचारों को जिनवाणी के नाम से लिख माग है; जैसे सांमसेन आदि मट्टारकोंने योनिपूजा आदि की घृणित बातें लिखी है । इसीलिये तो मोक्षमार्गप्रकाश में लिखा है कि " कोऊ सत्यार्थ पदनिक समूहरूप जैन शास्त्रनि विर्षे श्रमत्यार्थपद मिलावें परन्तु जिन शास्त्र के पदनिविता कषाय मिटावने का वा लौकिक कार्य घटावने का प्रयोजन है । और उस पापी ने जो असत्यार्थ पद मिलाये हैं तिनि विषै कषाय पोषने का वा लौकिक कार्य साधने का प्रयोजन है। ऐसे प्रयोजन मिलता नाहीं, तातें परीक्षा करि ज्ञानी ठिगावते भी नाहीं. कोई मर्ख होय सोही जैन शास्त्र नाम करि ठिगावें हैं । " कहिये ! अगर गुरु परस्परा में ऐसा कचरा या विष न मिल गया होता तो क्यों लिखा जाता कि मूर्ख ही जैन शास्त्र के नाम से उगाये जाते हैं । तात्पर्य यह है कि गुरु परम्परा के नाम पर बैठे रहना मूखता है। जैनी को तो कोई शास्त्र तभी प्रमाण मानना चाहिये जब वह जैन सिद्धान्त से मिलान जाता है । अगर वह मिलान न खाये तो श्रुत Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंवली के नाम में ही क्यों न लिखा गया हो, उसे कचरे में डाल देना चाहिये । धृतों की धूनता का छिपाना घोर मिथ्यात्व का प्रचार करना है । जैन सिद्धान्तों के विरुद्ध जाने पर भी ऐसे शास्त्रों का मानना घोर मिथ्यावी बनजाना है। गरु परम्पग है कहाँ ? श्वेताम्बर कहने है कि हमारे मृत्र भगवान महावीर क. कहं हुए है । दिगम्बर कहते हैं कि कुन्द कुन्द में लंकर भट्टारको ओर अन्य अनेक पोगापन्थियों तक के बनाये हुए ग्रन्य वीरभगवान की बाणी हैं । अब कहिये ! किसकी गरु परम्पग ठीक है ? यो ना मभी अपने बाप के गीत गाते हे परन्त इतने में ही सत्यानत्य का निर्णय नहीं हो जाता । यहाँ तो गरुपरम्पग के नाम पर मक्खी हाँकने बैठा न रहना पड़ेगा। ममम्न माहित्य की माक्षी लेकर अपनी बुद्धि से जैनधर्म के मूल सिद्धान्न खोजने पड़ेंगे और उन्हा सिद्धान्तों का कमौटी बनाकर म्वर्ण और पीतल की परीक्षा करना पड़ेगी, और धृतों तथा पक्षपातियों का भण्डाफोड करना पड़ेगा। यह कहना कि "प्राचीन लेखकों में पक्षपानी धृत नही हुए” बिलकुल धोखेबाज़ी या अज्ञानता है। माना कि बहुत से लेखकों ने श्रापेक्षिक कथन किया है जैसाकि इमी प्रकरण में ऊपर कहा जा चुका है परन्तु थोड़े बहुन निरे पक्ष. पाती, उन्मत्रवादी और कुलजाति मद के प्रचारक घोर मिथ्यान्वी भी हुए हैं। अगर किसी लेखक ने यह लिखा हो कि "पुरुष तो एक साथ हज़ागे स्त्रियाँ रखने पर भी अणुव्रती है परन्तु स्त्री, एक पति के मर जाने पर भी दूसग पनि र ख तो घोर व्यभिचारिणी है उसको पुनर्विवाह का अधिकार ही नहीं है" तो क्या पक्षपान न कहलायगा ? पक्षपात के क्या सीग होते हैं ? यह पुरुषत्व की उन्मत्तता का तांडव नहीं तो क्या है ? पुरुषों ने शद्र पुरुषों को भी कुचला है। इससे ना Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) सिर्फ यही सिद्ध होता है कि उनमें पुरुषत्व की उन्मत्तता के साथ द्विजत्व की उन्मत्तता भी थी । " उनने पुरुषों को भी कुचला, इसलिये स्त्रियों को नहीं कुचला" यह नहीं कहा जासकता । मुसलमान आपस में भी लड़ते हैं, क्या इसलिये उनका हिन्दुओं से न लड़ना सिद्ध हो जाता है ? कहा जाता है कि "उनने दुराचारी द्विजों की भी तो निन्दा की है, इसलिये वे सिर्फ दुराचार के ही निन्दक हैं" । यदि ऐसा है तो दुराचारी शूद्रों की और दुराचारिणी स्त्रियों को ही निन्दा करना चाहिये । स्त्रीमात्र की ओर शुइ मात्र को नीचा क्यों दिखाया जाता है ? अमेरिका में अपराधी लोग दण्ड पाते है और बहुत से हब्शी नाममात्र के अपराध पर इसलिये जला दिये जाते हैं कि वे हब्शी है, तो क्या यह उचित है ? अपराधियों को दण्ड देने से क्या निरपराधियों को सताना जायज़ हो जाता है ? प्राचीन लेखकों ने अगर दुराचारियों को कुचला है तो सिर्फ इसीलिये उनका शूद्रों को और स्त्रियों को कुच लना जायज़ नही कहला सकता । यह पक्षपात पिशाच, उस समय बिलकुल नगा हो जाता है जब दुराचारी द्विज के अधिकार, सदाचारी शूद्र और सदाचारिणी महिला से ज्यादा समझे जाते हैं । दुगचारी द्विज अगर जीते बालकों को मार मारकर खाजाय तो भी उसके मुनि बनने का और मोक्ष जाने का अधिकार नहीं छिनता ( देखी पद्मपुराण सोदास की कथा ) | परन्तु शूद्र कितना भी सदाचारी क्यों न हो, उसका श्रात्मविकास कितना ही क्यों न हो गया हो वह मुनि भी नहीं बन सकता । झूठा, चोट्टा, व्यभिचारी और लुच्चा द्विज अगर भगवान् की पूजा करे तो कोई हानि नहीं, परन्तु शूद्र आरम्भत्यागी या उद्दिष्ट त्यागी ही क्यों न हो, वह जिन पूजा करने का अधिकारी Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं। क्या सदाचार या चारित्र की यही प्रशसा है ? क्या इसी का नाम निपतता है ? स्त्री हो या शुद्र हो. प्रत्येक जीव को ऊचा से ऊँचा धर्म पालने का अधिकार है। जो उनके अधिकागे को छीनते हैं व मिर्फ पक्षपानी ही नहीं डाक है। मनुष्य जाति के दुश्मन हैं। वे चाहे पूर्व पुरुषों के वष में हा, चाहे प्राचार्य के वंष में हो, चाहे और किसी रंग में रंगे हो, उनका नाम सिर्फ उनके नाम पर थूकने के लिये ही लेना चाहिये। पाठक देखें कि पक्षपान का दोष लगाना सत्य है या नहीं हमें यह वकालत इमलिये करनी पडी है कि अाज बुद्धि और विधक से काम लेने वालों को अधम पशु कहा जाता है। कोन अधम पशु है, इसका निर्णय पाठक ही करेंगे। नवमा प्रश्न । "विवाह के बिना, कामलालसा के कारण जो सक्लेश परिणाम होते है, उन में विवाह होने से कुछ न्यूनता पानी है या नहीं ?" इस प्रश्न के उत्तर में हमने कहा था कि संक्लेश परिणामों को कम करने के लिये विवाह किया जाता हे और इम में बड़ी भारी सफलता मिलती है । हमने सागारधम्मामृत और पुरुषार्थसिद्धयपाय के श्लोकासे अपने पक्ष का सम. र्धन किया था। आक्षेपक कई जगह तो हमारे भाव को समझ नहीं पाय ओर बाकी जगह उन से उत्तर नहीं बन पड़ा । आक्षेप (क)-जब ब्रह्मचर्याश्रम पूर्ण कर युवा १६ वर्ष का होता है तब पितादि उस का विवाह करते है । ऐसी अवस्था में न किसी के विवाहक बिना संक्लेश परिणाम होते है न कुछ होता है। (श्रीलाल ) समाधान-कामलालसा रूप संक्लेशके बिना किसी का Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) विवाह करना राजवार्तिक के लक्षण के अनुसार विवाह ही नहीं कहला सकता । जैसे घर न होने पर घर की औषधि देना हानिकारक है, उसी प्रकार काम वासनाकं बिना उसका विवाह कर देना हानिकारक है। उस में ना नवीन कामज्वर पैदा हो जायगा। खेर, अगर १६ वर्ष के यवा में कामवासना नहीं है तो क्या २०-३० वर्ष के उस विधुर में भी नहीं है, जो विवाह के लिये अपनी सारी शकि लगा रहा है ? विवाह के होजाने पर वह थोड़ी बहुत निश्चिन्तना का अनुभव करता है या नहीं? वही निश्चिन्तना तो संक्लेश परिणामोंकी न्यूनता है। जिस प्रकार विधुविवाहसं मलश परिणामा में न्यूनता होती है उस प्रकार विधवाविवाहस भो मक्लेश परिणामों में न्यूनता होती है, इसलिये विधवाविवाह गे विधेय है ।। आक्षेप ( ग्व )-जिन पुरुषों के सर्वथा विवाह होने की आशा नहीं है, उन का काम नष्ट जैसा होजाना है। उन की इच्छा भी नहीं होती । जैसे किसी ने श्रानू खाना छोड़ दिया ता उसका मन भालु प्रा पर नहीं चलता । गत्रिमें जलत्यागियों को प्यास नहीं लगती । पुनः पुनः काम न सेवन करने से काम नए हो जाता है । जिस विधवा का पुरुषमा की आशा नहीं होती, उसका मन विकृत नहीं होना । समाधान-आक्षेप क्या है, पागल के प्रलाप है । नपु. सक को विवाह और कामभोगकी आशा तो नही होती परन्तु उसकी कामवंदना को शास्त्रकारों ने सबसे अधिक तीव्र बतलाया है। यदि साधन न मिलने से ब्रह्मचर्य होने लगता तो विधुर और विधवाओं में व्यभिचार क्या होता ? भालू छोड़ देना एक बात है और भालू न मिलना दुसरी बात है । ब्रह्माचर्य एक बात है और दुर्भाग्यवश विधवा या विधुर हो जाना दूसरी बात है। रात्रि में जलत्यागियों को प्यास नहीं लगती, Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) इसका कारण यह है कि वे संध्या को ही लोटे दो लोटे पानी गटक जाया करते हैं । खैर ! विधवा होने से जिनकी काम 1 वासना नष्ट हो जावे उनसे विवाह का अनुरोध नहीं किया जाता परन्तु जो कामवासना पर विजय प्राप्त नहीं कर सकती है उन्हें अवश्य ही विवाह कर लेना चाहिये । श्राप ( ग ) - काम शान्ति को विवाह का मुख्य उद्देश्य बताना मुर्खता है । शुद्ध सन्तानोत्पत्ति व गृहस्थ धर्म का दानादिकार्य यही मुख्य उद्देश्य है ।श्रतएव काम गौरा है, मुख्य धर्म ही है । (श्रीलाल ) समाधान -- श्रक्षेपक यहाँ इतना पागल होगया है कि उसे काम में और कामवासना की निवृत्ति में कुछ अन्तर ही नहीं मालूम होता । हमने कामवासना की निवृत्ति को मुख्यफल कहा है न कि काम को और कामवासना की निवृत्तिको धर्मरूप कहा है । धर्म श्रगर मुख्य फल हे तो कामवासना की निवृत्ति ही मुख्य फल कहलायी। इसमें विरोध क्या है ? पुत्रात्पत्ति आदि को मुख्यफल कहने के पहिले आक्षेपक गर हमारे इन शब्दों पर ध्यान देता तो उसे इस तरह निरर्गल प्रलाप न करना पड़ता " मान लीजिये कि किसी मनुष्य में मुनिवृत धारण करने की पूर्ण योग्यता है । ऐसी हालत में अगर वह किसी श्राचार्य के पास जावे तो वे उसे मुनि बनने की सलाह देंगे या श्रावक बन कर पुत्रोत्पत्ति की सलाह देंगे” ? यह कह कर हमने अमृतचन्द्र श्राचार्य के तीन श्लोक उद्धृत करके बतलाया था कि ऐसी अवस्था में श्राचार्य मुनि · व्रत का ही उपदेश देंगे । मुनिवृत धारण करने से बच्चे पैदा नहीं हो सकते, परन्तु कामलालसा की पूर्ण निवृत्ति होती है । इससे मालूम होता है कि जैनधर्म बच्चे पैदा करने पर ज़ोर नहीं Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६ ) देता, किन्तु कामलालसा की निवृत्ति पर जोर देता है । पूर्ण निवृत्ति में असमर्थ होने पर प्रांशिक निवृत्ति के लिये विवाह हैं । उससे सन्तान आदि की भी पूर्ति हो जाती है । परन्तु मुख्य उद्देश्य तो कामवासना की निवृत्ति ही रहा । अमृतचंद्र के पद्योंने यह विषय बिलकुल स्पष्ट कर दिया है । फिर भी श्रक्षेपक को पद्यों की उपयोगिता समझ में नहीं श्राती । ठीक हैं, समझने की अक्ल भी तो चाहिये । आक्षेप (घ ) – विवाहको गृहस्थाश्रमका मूल कहकर धर्म, अर्थ, काम रूप तो नियत कर दिया, परन्तु इससे आप हाथ थप्पड़ खाली । जब काम गृहस्थाश्रम रूप है तब उस की शान्ति को ? काम शान्ति स तो गृहस्थाश्रम उड़ता है | काम निवृत्तिको धर्म और प्रवृत्ति को काम कहना कैसा ? एक विषय में यह कल्पना क्या ? और अर्थ इस का साधक क्या ? फल तो विवाह के तीन हैं, उलटा अर्थ साधक क्यों पड़ा ? साध्य की साधक बनादिया ? ( श्रीलाल ) समाधान - यहाँ तो श्राक्षेपक बिलकुल हक्का बक्का हो गया है । इसलिये हमारे न कहने पर भी उसने काम की गृहस्थाश्रमरूप समझ लिया है। काम की पूर्णरूप में शान्ति हो जाय ना गृहस्थाश्रम उड़ जायगा और मुनिश्राश्रम श्रजायगा । अगर काम की निवृति ज़ग भी न हो तो भी गृहस्थाश्रम उड़ जायगा, क्योंकि ऐसी हालत में वहाँ व्यभिचारादि दोषों का दौरदोग हो जायगा । अगर काम की प्रांशिक निवृत्ति हो अर्थात् परदार- विषयक काम की निवृत्तिरूप स्वदार सन्तोष हो तो गृहस्थाश्रम बना रहता है। आक्षं एक ऐसा जड़बुद्धि * * श्राक्षेपकने ऐसे ही कटुक और एक वचनात्मक शब्दों का जहाँ तहाँ प्रयोग किया है: इसलिये हमें भी " शठम् प्रति Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) है कि वह अभी तक यह नहीं समझ पाया है कि कामवासना की आंशिक निवत्तिका मतलब म्वदारसन्तोष गा म्वपतिसन्तोष है। जो लोग म्बदारसन्तोष को विवाह का मुख्य फल नहीं मानते वे जैनधर्म से बिलकुल अनभिज्ञ निरे बुद्ध हैं। बेचाग श्रीलाल, काम निवत्ति अर्थात् परदार निवृत्ति या परपुरुषनिवत्तिको धर्म, अोर म्बदारप्रवृत्तिका काम कहने में चकिन होता है । वाहरे श्रीलाल के पाण्डित्य ! गृहस्थाश्रम, धर्म अर्थ काम तीनों का साधक है, परन्तु उन तीना में भी परम्पर साध्य साधकता हो सकती है। जैसे- धर्म, अर्थ काम का माधक है; अर्थ, कामका साधक है आदि । बैग, हमाग कहना इतना ही है कि कुमारी विवाह के जो जो फल हैं वे मव विधवा विवाहस भी मिलते है। इसलिये विधवाविवाह भी विधेय है । आक्षेप (ङ)-जो पुरुष विषयों को न छोड़ सके वह गृहस्थधर्म धारण करे । यहाँ विषय शब्द से कंबल काम को ही सूझी! (श्रीलाल ) समाधान-विषय नो पाँची इन्द्रियों के होते है, परन्तु उन सब में यह प्रधान है। क्योंकि इसका जीतना सबसे अधिक कठिन है। जिसने काम को जीत लिया उसे अन्य विषयों को जीतने में कठिनाई नहीं पड़ती। इसलिये काम की मर्यादा करने वाला एक म्वतन्त्र अणुव्रत कहा गया है। अन्य भागांपनांग सामग्रियों के व्रत को तो गुणत्रत या शिक्षाक्त में डाल दिया है। उसका मातिचार पालन करते हुए भी ती रह सकता है, परन्तु ब्रह्मचर्याणुव्रत में अतिचार लगने से वन प्रतिमा नष्ट हो जाती है। क्या इससे सब विषयों में काम विषय की प्रधानता नहीं मालूम होती ? ग्रन्थकागे ने इस शाठ्यमाचरेत्" इस नीति के अनुसार ऐसा ही प्रयोग करना -सव्यसाची। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१ ) प्रधानना का स्पष्ट उल्लेख किया है 'विषयान्-एकामिन्यादीन्'-सागारधर्मामृत टीका । क्या इससे काम की प्रधानता नहीं मालूम होती ? विवाह के प्रकरण में तो यह प्रधानता और भी अधिक माननीय है, क्योंकि काम विषय को सीमित करने (श्रांशिक निवृत्ति) के लिये ही विवाह की आवश्यकता है। रसनेन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय आदि के विषयों को सीमित करने के लिये विवाह की ज़रूरत नहीं है । विवाह के बिना अन्य इन्द्रियाँ उच्छखल नहीं होती, सिर्फ यही इन्द्रिय उच्छृखल होतो है । इसलिये सागारधर्मामृत टीका में परविवाहकरण नाम के अतिचार की व्याख्या में पत्र पत्री के विवाह को श्राव श्यकता बतलाते हुए कहा है कि यदि स्वकन्याविवाहो न कार्यते तदा स्वच्छन्द चारिणो स्यात् ततश्च कुलसमयलोकविरोधः म्यात् विहिनविवाहात्त पतिनियनत्रीत्वेन न तथा म्यात् । एष न्यायः पत्रेऽपि विकल्पनीयः' अर्थात् 'अगर अपनो पुत्री का विवाह न किया जायगा ना वह स्वच्छन्दचारिणो हो जायगी, परन्तु विवाह कर देने से यह एक पति में नियत हो जायगी। इसलिये म्वच्छन्दचारिणी न होगी । यही बात पुत्र के लिये भी समझ लेना चाहिये अर्थात् विवाह से वह म्वच्छन्दचागे न होगा'। यहाँ पुत्र पुत्री के लिये जो बात कही गई है वह विधवा पुत्रीके लिये भी लागू है। आक्षेपक में अगर थोड़ी भी अक्ल होगी तो वह इन प्रमाणों से समझ सकेगा कि विवाह का मुख्य उद्देश्य क्या है, और वह विधवाविवाह से भी पूर्ण रूपमें सिद्ध होता है । सागार. धर्मामृत के इस उल्लेख संप्राक्षेप नम्बर 'क' का भी समाधान होता है। आक्षेप (च)-समाज की अपेक्षा से सन्तानोत्पत्ति को मुख्य बतलाना भूल है। समाज में १-२ लड़के न हुए न Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२२ ) सही, परन्तु विवाह वाले के न हुए तो उसका नो घर ही चौपट है। ममाधान-त्याग के गीत गाने वालों की यहाँ पाल खुल गई। उनके ढोंगों का भण्डाफोड होगया। अरे भाई ! घर, गृहिणी को कहते हैं गृहं हि गृहिणीमा:-मागारधर्मामृत । लडका न होने से न गृहिणी मरेगी, न गृही मरेगा, न दोनों के ब्रह्मचर्याणुवन में बाधा आयगी, न महावत धारण करने का अधिकार छिन जायगा । मनुष्य जीवन के जो वास्तविक उद्देश्य है उनका पक भी साधन नष्ट न होगा। क्या इसी का नाम चौपट हो जाना है ? बनावटी धर्म के वष में रंगे हुए ढोंगिया ! क्या यही तुम्हाग जीवन सवस्व है ? हाँ, सन्तान के न होने से समाज की हानि है, क्योकि समाज माक्ष नही जानी न मुनि बनती है। अगर वह मुनि बन जाय तो नए हो जाय । एक एक दो दा मिलकर ही नो समाज है । सन्तान के अभाव में समाज नट हो सकती है, परन्तु सन्तान के प्रभाव में व्यक्ति ना माक्ष तक जासकता है। श्रय ममझो कि सन्तान किसके लिये मुख्य फल कहलाया? क्या इतने स्पष्ट प्रमाणों के रहते हुए भी तुम्हारा मुख्य गौण का प्रश्न बना हुआ है ? आक्षेप ( छ )-कुमार्ग और विधवा को स्त्री समान समझकर समान कर्त्तव्य बनलाना भूल है। माना बहिन वधू सभी स्त्री है, परन्तु बहिन माना प्रभोज्य हे, वधू भाज्य है। (श्रीलाल) समाधान-भोज्य-भोजक सम्बन्ध की नीच और बर्बर कल्पनाका हम समाधानकर चुके हैं। जो हमारी बहिन है वह हमारे बहिन उ की बहिन नही है । जो हमारी माता है वह हमारे पिता को माना नहीं है। हमारी वधू दूसरे की वधू नहीं है। इसलिये यह भाज्याभोज्यता आपेक्षिक है। सर्वथा Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) अभोज्यना किसी में नहीं है । यहिन माता आदि ये नातेदारी के शब्द हैं, इसलिये नातेदारी को अपेक्षा से इनकी भाज्यामी. ज्यता की कल्पना की है। कुमारी और विधवा ये अवस्थाविशेष के शब्द हैं, इमलिय इनकी भाज्याभाज्यता अवस्था के ऊपर निर्भर है । जबतक कुमारी या विधवा है तब तक प्रभोज्य हैं जब उस कमारी या विधवा का विवाह हो जायगा तब वह भोज्य होजायगी। मोज्य तो वधू हैं, फिर भले ही वह कुमारी रही हो या विधवा । मातृत्व और भगनीत्व सम्बन्ध जन्म से मरण तक स्थायी है। कौमार्य और वैधव्य ऐसे सम्बन्ध नहीं है। उनको बदलकर वधू का सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। स्त्री होने से ही कोई भोज्य नहीं होजाती, वधू होने से भोज्य होती है। मातृत्व, भगनीत्व अमिट है, कौमार्य और वैधव्य मिट नहीं हैं । इसलिये माना और भगिनी के साथ विवाह नहीं किया जासकता किम्त कुमागी या विधवा के माथ किया जा सकता है । श्रापक के पक्षपको अगर हम विधुरविवाह के निषेध के लिये लगावें तो आपक क्या उत्तर दंगा ? देखिये-आक्षेप-"कुमार और विधुर का पुरुष समान समझकर समान कर्त्तव्य बनलाना भूल है । पिता, भाई, पति सभी पुरुष है, परन्तु भाई और पिना अभोज्य है, पति भोज्य है"। श्राक्षपक के पास इसका क्या उत्तर है ? वही उत्तर उस विधवाओं के लिये लगा लेना चाहिये। आक्षेप (ज)-विधवाविवाह के पक्षपाती भी अपने घर की विधवाओं के नाम पर मुंह सकोड़ लेते हैं। समाधान-यह कोई आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक विधवा का विवाह ज़रूर करना चाहिये । अगर कोई विधवा विवाह नहीं करना चाहती तो सुधारक का यह कर्तव्य नहीं है कि वह ज़बर्दस्ती विवाह कर दें । जबर्दस्ती विवाह करने का Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) रिवाज तो नादिरशाह के अवतार स्थितिपालकों के घर में होता है। अगर वास्तव में किसी सुधारक में अपने घर में प्रावश्यक होने पर भी विधवाविवाह को कार्यरूप में परिणत करने की शक्ति नहीं है तो उसकी यह कमजारी है। वह नैष्ठिक सुधारक नही है, सिर्फ पाक्षिक सुधारक है । जिस प्रकार पाक्षिक धावकों के होने से नैष्ठिक श्रावकों का प्रभाव नहीं कहा जा सकता और न वे निंदनीय हो सकते हैं, उसी तरह पाक्षिक सुधारका के होने से नैष्ठिक सुधारका का प्रभाव नहीं कहा जासकता और न उनकी निंदा की जासकती है। आक्षेप (झ)-विधवाविवाह यूरुपियनों एवं मोहमडनों (मुसलमानों ) में भी अनिवार्य नहीं है, क्योंकि यह नीच प्रथा हैं। (श्रीलाल) समाधान-योगंप में ना कुमारी और कुमारों का विवाह भी अनिवार्य नहीं है । फ्रॉस में तो हम कौमार्य का ग्विाज इतना बढ़ गया है कि वहाँ जनसंख्या घट रही हैं। दूसरे देशों में भी कोमाय का काफ़ी रिवाज है। इसलिये विवाह भी एक नीच प्रथा कहलाई । आक्षेपक को अभी कुछ मालम ही नहीं है । विधवाविवाह अनिवार्य न होने के कई कारण है । एक कारण यह है कि विधवा और विधुर होते होते किसी का आधा जोवन निकल जाता है व किसी का तीन चतुर्थाश या इससे भी ज्यादा जीवन निकल जाता है, ऐसे लोगों को इसकी आवश्यक्ता का कम अनुभव होता है। इसलिये वे लोग विवाह नहीं करते। नीचता के डर संघहाँ विधवाविवाह नहीं रुकते। अगर किसी जगह विधुरविवाह नीच प्रथा नहीं कहलाता और विधवा विवाह नीच प्रथा कहलाता है तो इससे सिर्फ इतना ही सिद्ध Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२५ ) होता है कि वहाँ के लोग तीव् मिथ्यात्वी, घोर अत्याचारी, महान् पक्षपाती और अत्यन्त मदांध हैं । इन दुर्गुणों का अनुकरण करके जैनियों को ऐसे मदांध पापी क्यों बनना चाहिये ? - आक्षेप (ञ) - लॉर्ड घरानों में क़तई विधवाविवाह नहीं होता । विधवाविवाह से उच्च नीच का भेद न रहेगा । समाधान — लॉर्ड घराने का मतलब श्रीमन्त घराने से है । लॉर्ड कोई जाति नहीं है । साधारण आदमी भी श्रीमन्त और महर्द्धिक बनकर लॉर्ड बन सकते हैं । इन सब में विधवा विवाह होता है । हाँ. साधारण विधवाओं की अपेक्षा लॉर्ड घराने की विधवाएँ कुछ कम संख्या में विवाह करानी हैं । यह उच्चता नीचता का प्रश्न नहीं, किन्तु साम्पत्तिक प्रश्न है । लॉर्ड घराने की अपार सम्पत्ति छोड़कर विवाह कराना उन्हें उचित नहीं जँचता । जिन्हें जँचता है वे विवाह करा ही लेती हैं । दक्षिण के डेढ़ लाख जैनियों में, आर्यसमाजियों में, ब्रह्मसमा• जियों में, विधवाविवाह होता है परन्तु वे भंगी चमार नहीं कहलाते । आक्षेप ( ट ) - सूरजभान का जीवदया की पुकार मचाकर विधवाविवाह को कर्तव्य बनलाना अनुचित हे । जीवदया धर्म है, न कि शरीर दया । मन्दिर बनवाना धर्म है और प्याऊ लगवाने से अधर्म है। अगर कोई व्यभिचारिणी काममिक्षा माँगे तो वह नहीं दी जासकती। जो दया धर्मवृद्धि का कारण है, वही वास्तविक दया है । (श्रीलाल ) समाधान - बेचारा श्रक्षेपक दान के भेदों को भी न समझा । उसे जानना चाहिये कि श्रात्मगुणों की उन्नति को लक्ष्य में लेकर जो दान दिया जाता है वह पात्रदान है, न कि दयादान | दयादान तो शरीर को लक्ष्य में लेकर हो दिया Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) जाना है, फिर भले ही उससे धर्म किया जाय या न किया जाय । आक्षेपक प्याऊ लगवाने को अधर्म कहता है, परन्तु सागारधर्मामृत में प्याऊ और सत्र को स्थापित करने का उप देश दिया गया है - "सत्रमध्यनुकम्प्यानां सदनुजिघृक्षया । सत्रमत्र प्रदानस्थानं, अपिशब्दात्प्रपां च" || अर्थात्-दीन प्राणियों के उपकार की इच्छा से सत्र ( भोजनशाला जहाँ गरीबों को मुफ्त में भोजन कराया जाता है) और प्याऊ खोले । दान, गृहस्थों का मुख्य कर्तव्य है । जब आक्षेपक दान के विषय का माधारण ज्ञान भी नहीं रखता तो गृहस्थधर्म केसं निभाता होगा? जो गृहस्थ प्यासो को पानी पिलाने में भी अधर्म समझता है वह निर्दय तथा क र जीव जैनी कैस कहला सकता है ? ___ व्यभिचामिण का काम भिक्षा नहीं दी जासकती, परन्तु श्राक्षपक के मतानुसार व्यभिचारियों का कामभिक्षा दी जा सकती है, क्योंकि अगर द्वितीय विवाह कराने वाली स्त्री व्यभिचारिणी है, तो द्वितीय विवाह कराने वाला पुरुष भी व्यभिचारी है। क्या पुरुष का दूसरा विवाह धर्मवृद्धि का कारण है ? यदि हाँ, तो स्त्री का दूसरा विवाह भी धर्मवृद्धि का कारण है. जिसकी सिद्धि पहिल विस्तार से की जा चुकी है। जो चार चार स्त्रियों को निगल जाने वाले को तो धर्माः त्मा समझना हो, किन्तु पुनर्विवाह करने वाली स्त्रियो को व्यभिचारिणी कहता हो, उसकी धृष्टतापूर्ण नीचता का कुछ ठिकाना भी है! __ आक्षेपक स्वीकार करता है और हम भी कह चुके हैं कि विवाहका लक्ष्य कामशान्ति, म्वदारसन्तोष, स्व-पतिसन्तोष अर्थात् ब्रह्मचर्याणुवत है। विवाह कामभिक्षा नहीं हैं। क्या Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) आक्षेपक अपनी बहिन बेटियों के विवाह को कामभिक्षा समझता है ? यदि नहीं, नो विधवाओं के विवाह को काम. भिक्षा नहीं कह सकते । विधवाश्री का विवाह धर्मवृद्धि का कारण है, यह बात हम पहिले सिद्ध कर चुके है। आक्षेप ( 3 )-विवाह से कामतालसा घटनी है, इस का एक भी प्रमाण नहीं दिया । विवाह हाने पर भी कामलालसा नष्ट नहीं हुई, उल्टो बढ़ा है, जैसे गवणादिक की। (विद्यानन्द) समाधान-श्राबाल गोपाल प्रसिद्ध बातको शास्त्र प्रमाणों की ज़रूरत नहीं हाती। फिर भी प्रमाण चाहिये ना श्राशाधर जी के इन शब्दों पर ध्यान दीजिये कि अगर पुत्र पुत्री का विवाह न किया जायगा ना वे स्वच्छन्दचारी हो जायेंगे (दखा पाक्षप 'ङ') । विवाह से अगर कुलसमयलोकविरोधी यह म्वच्छन्दाचार घटता है तो यह क्या कामलालसा का घटना न कहलाया ? विवाह होने पर भी अगर किसी की काम. लालसा नष्ट नहीं होती तो इसके लिये हम कह चुके है कि उपाय १०० में दम जगह अमफल भी होता है। तीर्थङ्करों के उपदेश रहने पर भी अगर अभव्य का उद्धार न हो, सूर्य के रहने पर भी अगर उल्लू को न दिख नो इसमें नीर्थङ्कर की या सूर्य की उपयागिता नष्ट नहीं होती है। इसी तरह विवाह के हाने पर अगर किसी का दुगचार न रुके ता इससे उसकी उपयोगिता का प्रभाव नहीं कहा जा सकता । आक्षेपक ने यहाँ व्यभिचार दोष दिल लाकर न्यायनमिता का परिचय दिया है। इस दृष्टि से ता नीर्थङ्कर और सूर्य की उपयोगिता मी व्यभिचरित कहलाई । श्राक्ष पक को जानना चाहिये कि कारण के मद्भाव में कार्य के प्रभाव होने पर व्यभिचार नहीं होना, किन्तु कार्य के सद्भाव में कारण के अभाव होने पर व्यभि Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) बार होता है । अनि कारण हैं: परन्तु उसके होने पर भी अगर asia निकले तो अग्नि और धुआँ का कार्य कारणभाव व्यभि afत नहीं कहलाता । हमने इसी बातके समर्थन में कहा था कि "चिकित्सा करने पर भी लोग मरते हैं, शास्त्री होने पर भी लोग धर्म नहीं समझते" । इस पर श्राप कहते हैं कि "वह चिकित्सा नहीं, चिकित्साभास है; वह शास्त्री, शास्त्री नहीं है" । बहुत ठीक, हम भी कहते हैं कि जिस विवाह के बाद कामलालसा शान्त नहीं हुई, किन्तु बढ़ी है, वह विवाह नही, विवा हाभास हैं | वास्तविक विवाह तो कामलालसा को अवश्य शांत करेगा । इसलिये विधवाविवाह से भी कामलालसा की शांति होती है। आक्षेप (ड) - यह कोई नियम नहीं कि विवाह के बिना प्रत्येक व्यक्ति को देखकर पापवासना जागृत हो जाय। वासु पूज्य अकलङ्क श्रादि के विवाह नहीं हुए । क्या सभी श्रसं यमी थे ? - - $6 समाधान- - कामलालसा की प्रांशिक शांति के लिए विवाह एक औषधि है । वासुपूज्य श्रादि ब्रह्मचारी थे । उनमें कामलालसा थी ही नहीं, इसलिये उन्हें विवाह की भी ज़रू रत नहीं थी । 'श्रमक श्रादमी सख़्त बीमार है । अगर उसकी चिकित्सा न होगी तो मरजायगा " - इस के उत्तर में अगर यह कहा जाय कि वैद्य के पास तो सौ दोसौ श्रादमी जाते हैं, बाक़ी क्यों नहीं मर जाते ? तो क्या यह उत्तर ठीक होगा ? श्ररे भाई ! बीमार को श्रौषधि चाहिये, नीरोगको औषधि नहीं चाहिये। इसी तरह कामलानमा वाले मनुष्य को उस की आंशिक शांति के लिए विवाह की श्रावश्यकता है, न कि ब्रह्मचारी को । इससे एक बात यह भी सिद्ध होती हैं कि विवाह का मुख्य उद्देश्य लड़के बच्चे नहीं हैं । बालब्रह्मचारियों के Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६) सन्तान नहीं होती, फिर भी वे विवाह नहीं कराते। क्योंकि उन्होंने विवाह का मख्य उद्देश्य विवाह के बिना ही पूर्ण कर लिया है। मुख्य उद्देश्य की पूर्ति होने पर गौण उद्देश्य की पूर्ति के लिये कार्य नहीं किया जाता। प्राक्षेप (द)-कामवासना के शान्त न होने के कारण विधवाविवाह के विगंधी, विधवाविवाह का विरोध नहीं करते, किन्तु उनसे विरोध करने का कारण है भगवान महावीर का पागम । पाप उत्तर दें। आपके प्रमाण हमें अँचे तो हम आप के आन्दोलन में आपका हाथ बटायेंगे। समाधान-नघमाँ प्रश्न भगवान के प्रागम के विचार का नहीं था । उसका विचार नो पहिलं प्रश्नों में अच्छी तरह होगया। इसमें तो यह पूछागया है कि विवाहसे काम लालसा के परिणामों में न्यनता पाती है या नहीं ? यदि श्राती है तो विधवाविवाह प्रावश्यक और उचित है। यदि नहीं पाती तो विधवाविवाह अनावश्यक है । इसीलिये हमने युक्ति और शास्त्र प्रमाणों से सिद्ध किया है कि विवाह से संक्लेशता कमती होती है। युक्ति और तर्क के बलपर हमारे आन्दोलन में वही शामिल होगा जो सत्यप्रिय होगा, प्रात्मोद्धार का इच्छुक होगा, दशसमाज का रक्षक होगा । सव्यसाची, टक के गुलामो की पर्वाह नहीं करता। जिस प्रकार प्राचीन सव्यसाची ने कृष्ण का बल पाकर अपने गाराडीव धनुष से निकले हुए वाणों से कौरव दल का अवसान किया था उसी प्रकार आधुनिक सव्यसाची भगवान महावीर का बल पाकर अपने खान गाराडीव से निकले हुए तकरूपो वाणों से स्थितिपालक दस का अवसान करेगा। माक्षेप (ण)-सव्यसाची महोदय को दृष्टि में व्यभि. चार को रोकने का उपाय विवाहमागे को उड़ाना है। आपको Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ होश भी है कि श्राप ऊपर क्या कुछ लिख पाये हैं ? पहिल उमे जलाकर वाक कर डालो नब दूसरी बात कहना ! समाधान-हमने कहा था कि "यदि विवाह होने पर भी किन्हीं लोगों की कामवासना शान्त नहीं होती तो इससे विधवाविवाह का निषेत्र कैसे हो सकता है। फिर तो विवाह मात्र का निषेध होना चाहिये।'' पाठक देखें कि हमारा यह वक्तव्य क्या विवाह मार्ग को उड़ाने का है ? हम तो विधवा. विवाह और कुमागे विवाह दोनों के समर्थक है । परन्तु जो लोग जिम कारण से विधवाविवाह अनावश्यक समझते हैं, उन्हें उसी कारण से कुनागविवाह भी अनावश्यक मानना पड़ेगा। अमली बात तो यह है कि अगर किसी जगह विवाह (कुमारीविवाह या विधवाविवाह ) का फल न मिले तो क्या विवाहप्रया उड़ा देना चाहिये ? हमारा कहना है कि नहीं उड़ाना चाहिये। जब कि आक्षाक का कहना है कि उडा देना चाहिये, क्योंकि श्राक्ष पक न विधवाविवाह की प्रथा उड़ा देने के लिये उसकी निष्फलना का ज़िकर किया है । ऐसी निष्फलता कुमारी विवाह में भी हो सकती है, इसलिये आक्षेपक के कथनानुसार वह प्रथा मी रड़ा देने लायक ठहरी। पाक्षेप (त)---श्रादिपुगण, मागारधर्मामृत, पं० मेधावी, पं० उदयलालजी, शीतलप्रसादजी, दयाचन्द गोयलीय आदि ने पुत्रोत्पत्ति के लिये ही, विवाह कामभोग का विधान किया है, कामवासना की पूर्ति को कामुकता बनलाया है। समाधान-कामलालसा की पूर्ति कामुकता भले ही हो परन्तु कामलालसा की निवृत्ति काम कता नहीं है । स्वस्त्रीरमण को कामकना भले ही कहा जाय, परन्तु परस्त्रोत्याग कामकता नहीं है। यह कामलालसा की निवत्ति है। हमने शास्त्रप्रमाणों से सिद्ध कर दिया है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करने की प्रस Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३१ ) मर्थता में ही गृहस्थ धर्म अङ्गीकार करना चाहिये । अमृतचंद्र जी और पाशाधरजी के श्लोक हम लिख चुके हैं । फिर भी आक्षपक का पूछना है कि प्रमाण बताओ ! खैर, और भी प्रमाण लीजिये। सागारधर्मामृत के द्वितीय अध्याय का प्रथम श्लोक"त्याज्यानजन' आदि पहिले ही लिखा जा चुका है । यदि कन्या विवाहो न कार्यते' श्रादि उद्धरण प्राक्षप (3) में देखो। 'विषयसुखोपभोगेनैव चारित्रमाहोदयोद्रेकम्य शश्यप्रतीकारत्वात् तदद्वारेणेव तस्मादवात्मानमिव साधर्मिकमपि विषयेभ्यो व्युपरमयेत् । विषयेषु सुखभ्रान्निकर्माभिमग्नपाक जाम् । द्वित्वातदुपगेनवाजयेत्ताम्यवत्पगन् ।' अर्थात्-चारित्रमोह का जब तीव उदय होता है तो विषयसुख के उपभोग से ही उसका प्रतीकार (निवत्ति) हो सकता है, इसलिये उमका उपभोग करके निवृत्त होवे और दूसरे को निवृत्त करे। सुखभ्रान्ति हटाने का यह वक्तव्य विवाह की श्रावश्यक. ना के लिये कहा गया है । सौर, और भी ऐसे प्रमाण दिये जासकते हैं । निवृत्तिमार्गप्रधान जैनधर्म में निवृत्तिपरक प्रमाणों की कमी नहीं है । यहाँ पर मुख्य बात है ममन्वय की, अर्थात् जब विवाह का उद्देश्य कामलालम्मा की निवृत्ति अर्थात् आंशिक ब्रह्मचर्य है तब पुत्रोत्पत्ति का उल्लेख प्राचीन लेखकों ने क्यों किया ? नासमझ लोगों से तो क्या कहा जाय, परन्तु समझदार समझते हैं कि पुत्रोत्पत्तिका उल्लेख भी कामलालसा की निवृत्ति के लिये है। जैनधर्म प्रथम तो कहता है कि पूर्ण ब्रह्मचर्य पालो । अगर इतना न हो सके तो विवाह करके प्रांशिक निवृत्ति (परदारनिवृत्ति) करो। परन्तु लक्ष्य तो पूर्ण निवृत्ति है इसलिये धीरे धीरे उसके निवृत्ति अंश बढ़ाये जाते Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३२ ) हैं और उससे कहा जाता है कि तुम्हें सन्तान के लिये ही सम्भोग करना चाहिये । जब उसकी यह बात समझ में श्रा जाती है तब वह ऋतुस्नान के दिन ही काम सेवन करना है । इस तरह प्रति माम २६ दिन उसके ब्रह्मचर्यसं बीतने लगते हैं । श्राचार्यों ने परदारनिवृत्ति के बाद स्वस्त्री सम्भोग-निवृत्ति का भी यथासाध्य विधान बतलाया है। इसलिये कहा है "सन्तानार्थमृतावेव" । अर्थात् सन्तान के लिये ऋतुकालमें हो सेवन करे । इससे पाठक समझ गये होंगे कि सन्तान की बात भी कामलालसा की निवृत्ति को बढ़ाने के लिये है । श्राचार्यों ने जहां सन्तान के उत्पादन, लालन पालन श्रादि की बातें लिखी हैं उसका प्रयोजन यही है कि "जब तुम आंशिक प्रवृत्ति और आंशिक निवृत्ति के मार्ग में आये हो तो परोपकार आदि गौण उद्दे शो का भी खयाल रखो, क्योंकि ये कामलालसा की निवृत्ति रूप मुख्य उद्देश को बढ़ाने वाले है, साथ ही परोपकार रूप भी हैं ।" यदि अन्नप्राप्ति का मुख्य उद्देश्य सिद्ध हो गया है तो भी भूमा की प्राप्ति का गोरा उहेश्य भी छोड़ने योग्य नहीं है । आक्षेप (थ) - कामलालसा की निवृत्ति तो वैश्यासेवन, परस्त्रीसेवन से भी हो सकती है, फिर विवाह की आवश्यकता ही क्या ? समाधान- - कामलालसा नाके जिस अंशकी निवृत्ति करना है, वह वेश्या सेवन और परस्त्रीसेवन ही हैं। इसी कामलालसा से बचने के लिये तो विवाह होता है। इससे विवाह का लक्ष्य श्रांशिक ब्रह्मचर्य या स्वदाग्सन्तोष कैसे सिद्ध हो सकता है ? इससे पाठक समझेंगे कि हमारे कथनानुसार विवाह मज़े के लिये नहीं है, परन्तु तीव्र चारित्र मोह के उदय को शांत करने के लिये पेयौषधि के समान कुछ भोग भोगने पड़ते हैं जैसा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३३ ) कि अमृतचन्द्र प्राचार्य और आशाधरजी ने कहा है, जो कि हम लिख चुके है । स्त्रीपुरुष के अधिकार भेद के विषय में कहा जा चुका है। विधवाविवाह को जहर आदि कहना युक्ति से जीतने पर गालियों पर प्राजाना है। आक्षेप (द)-यदि विवाह से ही कामलालसा की निवृत्ति मानली जाय तो ब्रह्मचर्य आदि वनों की क्या श्रावश्यकता है, क्योंकि ब्रह्मचर्य का भी ना काम की निवृत्ति के लिये उपदेश है? ममाधान-अभी तक श्राप कामलालमा की निवृत्ति को वुग समझते थे। इसके समर्थकों को आपने पागल, मोही, नित्यनिगांदिया (निगोदिया), अक्षानी, रट्ट नाते श्रादि लिख मारा था । यहाँ आपने इस ब्रह्मचर्य का साध्य बना दिया है। बैंग, कुछ ना ठिकाने पर पाए। अब इतना और समझ लीजिये कि विवाह, ब्रह्मचर्य अणुवत का मुख्य साधक है। इसलिये विवाह और ब्रह्मचर्यत्रत के लक्ष्य में कोई विरोध नहीं हे । ब्रह्मचर्यव्रत अन्तरङ्गसाधक है, विवाह वाह्यलाधक, इस लिये कोई निरर्थक नही हैं। एक साध्य के अनेक साधक हाते हे। प्राक्षप (ध)-जिनकी कामलालसा प्रबल है, वे बिना उपदेश क ही स्वयमेव इस पथ को पकड़ लेती हैं। फिर आप क्यों अपना अहिन करते हैं ? समाधान-जिनकी कामलालसा प्रबल है, वे अभी स्वय. मेव विधवाविवाह के मार्ग को नहीं पकड़ती, वे व्यभिचार के मार्ग को पकड़ती है । उसको निवृत्ति के लिये विधवाविवाह के आन्दोलन की ज़रूरत है। विवाह न किया जाये तो कुमारियाँ भी अपना मार्ग ढूंढ लेंगो, लेकिन वह व्यभिचार का मार्ग होगा । इसलिये लोग उनका विवाह कर देने हैं । फल यह Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) होता है कि व्यभिचार मार्ग बहुत कुछ रुक जाता है । ठीक यही बान विधवाओं के लिये है। दसवाँ प्रश्न 'क्या विधवा हो जाने से ही प्राजन्म ब्रह्मचर्य पालन की शक्ति पाजाती है ?' इसके उत्तर में हमने कहा था कि 'नहीं' । दूसरे प्रक्षेपक (विद्यानन्द ) ने भी हमारी यह बात म्वीकार करली है परन्तु पहिले प्राक्ष पक कहते है कि यह धृष्टता है। इसका मतलब यह निकला कि संमार में जितनी विधवा हुई है व सब व्यभिचारिणी है। आक्ष पक की इस मूर्खता के लिये क्या कहा जाय ? प्रत्येक विधवा ब्रह्मचर्य नहीं पाल सकती है-इमका तो यही अर्थ है कि कोई काई पाल सकती हैं, जिनके परिणाम विरक्तिरूप हो। इसलिये हमने लिखा था कि यह बात परिणामों के ऊपर निर्भर है । परन्तु श्रीलाल, न तो परिणामों की बात समझा, न उस वाक्य का मतलब । श्रीलाल यह भी कहता है-'मगगता से मुनि में भटता नहीं पाती, न पर पुरुष से रमणरूप भाव से विधवा भ्रष्ट होती है। हम अपने शब्दो में इसका उत्तर न देकर आक्ष पक के परम सहयोगी पं० मक्खनलाल के वाक्यों में लिखते हैं : "सगगता से विधवाएँ शीलभ्रट जरूर कहलायेंगी। मुनि भी सगगता से भ्रष्ट माना जाता है।" अब ये दोनों दोम्त आपस में निबट ले।। दोनों ही प्रापकों ने एक ही बान पर विशेष जोर दिया है । “विधवाविवाह अधर्म है; उसको कोई तीसरा मार्ग नहीं है: विधवा का विवाह नहीं हो सकता, उसे विवाह नहीं, कराव या धरेजा कहते हैं। आप के पास क्या यक्ति प्रमाण है ? आप अपनी इच्छा से ही विधवाविवाह का उपदेश क्यों Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) करते हो ?" श्रादि । इन सब बातों का उत्तर पहिले अच्छी तरह दिया जा चुका है । अब बारबार उत्तर देने की ज़रूरत नहीं है । हाँ, श्रवदो आक्षेप रह जाते है जिनका उत्तर देना है । इनमें अन्य आक्षेपों का भी समावेश हो जाता है । आक्ष ेप (क) - प्रत्येक मनुष्य में तो शराब के त्यागने की शक्ति का प्रगट होना भी अनिवार्य नही है तब क्या शराब पी लेना चाहिये ? समाधान - विधवाविवाह की जैसी और जितनी उपयोगिता है वैसी यदि शराब की भी हो तो पी लेना चाहिये । ( १ ) विधवाविवाह परस्त्रीसेवन या परपुरुषसेवन से बचाता है । इसलिये अणुवन का साधक है । क्या शराब अणुवन का साधक है ? ( २ ) विधवाविवाह से भ्र राहत्या रुकती है । क्या शराब से भ्रूण या कोई हत्या रुकती है ? ( ३ ) जेनशास्त्रों में जैसे विधवाविवाह का निषेध नहीं पाया जाता, क्या वैसा शराब का निषेध नहीं पाया जाता ? (५) पुरुषसमाज अपना पुनर्विवाह करती है और स्त्रियों को नहीं करने देना चाहती। क्या इसी तरह पुरुष समाज शराब पीती है और क्या स्त्रियों को नहीं पीने देना चाहती ? ( 4 ) जिस विधवा के सन्तान न हो और उसे सन्तान की आवश्यकता हो तो उसे विधवाविवाह अनिवार्य है । क्या इसी तरह शराब भी किसी ऐसे कार्य के लिये अनिवार्य है ? ( ६ ) किसी को वैधव्य जीवन में आर्थिक कष्ट है, इसलिये विधवाविवाह करना चाहती हैं, क्या शराब भी आर्थिक कष्ट को दूर कर सकती है ? Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) (७) विधवाविवाह से जो सामाजिक और धार्मिक लाभ हमने सिद्ध किये हैं, क्या शराब से भी वे या वैसे लाभ श्राप सिद्ध कर सकते हैं ? (a) विधवाएँ जिस तरह हीन दृष्टि से देखी जाती हैं, क्या उमी तरह शराब न पीने वाले देखे जाते हैं ? यदि मद्यपान में लाभ हो तो जिसमें उसके त्याग करने की शक्ति नहीं है उसको उसका विधान किया जासकता है, अन्यथा नहीं। पूर्ण ब्रह्मचर्य की शक्ति प्रगट न होना विधवाविवाह का एक कारण है। जब तक अन्य कारण न मिले तब तक विधवाविवाह का विधान नहीं किया जाता है। उसके अन्य कारण मौजूद नहीं हैं इसीलिये उसका विधान किया गया है । आक्षेप (ख)-कार्यों की बहुतसी जातियाँ हैं-१) मनिधर्मविरुद्ध श्रावकानुरूप (२) गृहस्थविरुद्ध मुनिअनुरूप (३) उभयविरुद्ध (४) उभयअनुरूप । विवाह प्रथम भेद समाधान-विधवाविवाह भी विवाह है इसलिये वह मनिधर्म के विरुद्ध होने पर भी श्रावकानुरूप है। श्राप विधुर. विवाह को विवाह मानते और विधवाविवाह की विवाह नहीं मानते-यह बिलकुल पक्षपान और मिथ्यात्व है । हम पहिले विधवाविवाह को विवाह सिद्ध कर चुके हैं। बलाद्वैधव्य की शिक्षा जैनधर्म की शिक्षा नहीं हो सकती। प्राचार्यों ने विधवाविवाहका कहीं निषेध नहीं किया। हाँ, धूर्तता और मूर्खता पुगने ज़माने में भी थी। सम्भव है आजकल के पण्डितों के समान काई अज्ञानी और धूर्त हुआ हो और उसने जैनधर्म के विरुद्ध, जैनधर्म के नाम पर ही कुछ अंट संट लिख मारा हो। परन्तु ऐसी Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) कुपुस्तकों को पुराने ज़माने का जैनगज़ट ही समझना चाहिये । वास्तव में कोई जैन ग्रन्थ विधवाविवाह का विरोधी नहीं हो मकता और न कोई प्रसिद्ध जैनग्रन्थ है ही। नाना तरह की दीक्षाएँ जो शास्त्रों में पाई जाती हैं वे विशेष प्रतियों के लिये ही हैं-साधारण अणुवतियों के लिये नहीं। वृद्धों को मुनि बनते न देखकर हम में चलमलिन आदि दोष कैसे पैदा होंगे? इसमे तो यही सिद्ध होता है कि जन वृद्ध लोग ब्रह्मचर्य से नहीं रह पाते और उनका ब्रह्मचर्य से न रहना इतना निश्चित है कि भद्रबाहु ने पहिले से ही कह दिया है, तब विधवाएँ ब्रह्मचर्य से कैसे रहेंगी? भद्रबाहु श्रुतकेवली ने वृद्धों के मुनि न होने की विशेष बान तो कही. परन्तु विधवाओं के विवाह की विशेष बात न कही , इससे मालूम होता है कि विधवाविवाह प्राचीनकाल सं चला पाता है । यह कोई ऐसी विशेष और अनुचित बात न थी जिसका कि चन्द्रगुप्त को दुम्बपन होता और भद्रबाहु श्रतकेवली उसका फल कहते । जो चाहे, जैसे चाहे, विचार करले, उसे स्वीकार करना पड़ेगा कि गृहस्था के लिये जैनधर्म में विधवाविवाह विरोध की परमाणु बराबर भी गुजायश नहीं हैं। इस प्रश्न में यह पूछा गया है कि धर्मविरुद्ध कार्य किसी हालत में ( उससे बढ़कर धर्मविरुद्ध कार्य अनिवार्य होन पर ) कर्तव्य हो सकता है या नहीं ? इसके उत्तर में हमने कहा था कि हो सकता है । यह बात अनेक उदाहरणों से भी समझाई थी। विधवाविवाह व्यभिचार है प्रादि बातों का उत्तर हम दे चुके हैं। आक्षेप (क)-जो कार्य धर्मविरुद्ध है, वह त्रिकाल में भी ( कदापि ) धर्मानुकूल नहीं हो सकता । पाँच पापों को धर्मानुकूल सिद्ध कीजिये । ( श्रीलाल, विद्यानन्द ) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३% ) ममाधान-यदि इस विषय में शास्त्रार्थ की दृष्टि से लिखा जाय तब ना जैम को नैमा ही उत्तर दिया जामकता है। जैनशास्त्रों में तो किसी अपेक्षा म गधे के मांग का भी अस्तित्व सिद्ध किया गया है। परन्तु हमें पाठकों की जिज्ञासा का भी खयाल है इसलिये तदनुकूल ही उत्तर दिया जाना है। पाँच पापा में हिसा मुख्य है । परन्तु द्रव्य क्षेत्र काल माव की अपेक्षा न वह धनुकून अर्थात् कर्तव्य हो जाती है। जेम--युद्ध में हिमा होता है, परन्तु मीना की धर्मरक्षा के लिय गनचन्द्र ने अगणित प्रारियां की हिंमा कगई। श्रगु. वृती युद्ध में जाने है, प.ला शास्त्रों में स्पष्ट कथन है । शूकरन मुनिको रक्षा करने के लिये सिंह को मार डाला और खुद भी मग, पुगयबध किया ओर म्वर्ग गया । मन्दिर बनवाने में तथा अन्य बहुत मे पगपकार के मारम्म कार्यों में हिमा होती है परन्तु वह पुण्य वन्ध का कारण कही गई है। जिन अमृतचन्द्र प्राचाय की दुहाई आक्षेपक न दी है, वही कहते है अविधायापि हि हिसां हिंसाफलभाजनं भवत्यकः। कृत्वाप्यपग हिमां हिमाफलभाजनं न स्यात् ॥ कम्यापि दिशति हिला हिंसाफनमेकमेव फल कालं । अन्यम्य सेव दिसा दिशत्यहि माफल विफलम् ॥ हिम्नाफलमपरम्य तु ददात्यहिमा त परिणाम । इतरस्य पुनहिमा दिशत्यहिसाफलं नान्यत् ॥ एक आदमी हिंसा न करके भी हिंसामागी हाता है, दुसग हिमा करक भी हिसाभागी नहीं होता। किसी की हिमा, हिमाफल देनी है, किमी की हिंसा, अहिमाफल देनी है । किसी की अहिंसा, हिंसा फल देती है किसी कि अहिमा अहिंसाफल देती है। क्या इससे यह बात नहीं सिद्ध होती कि कही हिंसा भी Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) कर्तव्य हो जाती है और कही अहिंसा भी कर्तव्य हो जाती है ? श्रङ्गदेन पाप हे परन्तु बालकों के कछेद आदि में पाप नहीं माना जाता | किसी सती के पीछे कुछ मदमाश पड़े हॉ तो उसके सतीत्व की रक्षा के लिये झूठ बोलना या उसे छिपा लेना (वांगी) भी अनुचित नहीं है । परविवाहकरण श्रवन का दुषण हे परन्तु अपनी सन्तान का विवाह करना या व्यभिचार की तरफ झुकने वालों को विवाह का उपदेश देना दूषण नहीं है । परिग्रह पाप है परन्तु धर्मोपकरणों का रखना पाप नहीं है । इस तरह पाँचों ही पाप अपेक्षा भेद से कर्तव्याकर्तव्य रूप है । श्रक्षेपक एक तरफ तो यह कहते हैं कि धर्मविरुद्ध कार्य त्रिकाल में भी धर्मानुकूल नहीं हो सकता परन्तु दूसरी तरफ, त्रिकाल की बात जाने दीजिये एक ही काल में, कहते हैं कि पुनर्विवाह विधवा के लिये धर्मविरुद्ध है और विधुर के लिये धर्मानुकूल है । क्या यहाँ पर एक ही कार्य द्रव्यादि चतुष्य में मे द्रव्यपेक्षा विविधरूप नहीं कहा गया है । ये ही लोग कहते है कि अद्रव्य से जिनपूजन धर्म है, परन्तु अंगी अगर ऐसा करें तो धर्म डूब जायगा 1 यदि जिनपूजन किसी भी तरह अधर्म नहीं हो सकता तो भंगी के लिये अधर्म क्यों हो जायगा ? मतलब यह है कि द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा लेकर एक कार्य को विविधरूप में ये खुद मानते हैं । इसीलिये सप्तम प्रतिमा के नीचे विवाह ( भले ही वह विधवाविवाह हा ) धर्मानुकूल हैं । ब्रह्मचर्य प्रतिमा से लेकर वह धर्मविरुद्ध है । आक्षेप (ख - विवाह क्रिया स्वयं सदा सर्वदा सर्वथा धार्मिकही है। हाँ ! पात्र अपात्र के भेद से उसे धर्मविरुद्ध कह दिया जाता हैं 1 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४०) ममाधान-जहाँ पात्र (द्रव्य ) अपात्र की अपेक्षा है वहाँ सर्वथा शब्द का प्रयोग नहीं होता है । सुधारक यही तो कहते है कि द्रव्य (गात्र) क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से किसी कार्य की धर्मानुकूलता या धर्मविरुद्धता का निर्णय करना चाहिये । इसलिये एक पात्र के लिये जा धर्मविरुद्ध है दूसरे के लिये वही धर्मानुकूल हो सकता है। ब्रह्मवर्य प्रतिमा धारण करने वाली विधवा को विवाह धर्मविरुद्ध है, अन्य विधवाओं को धर्मानुकल है। यही ना पात्रादि की अपेक्षा है। आक्षेप (ग )-सव्यसाची ने विवाह को धर्मानुकूल अर्थात् धार्मिक ना मान लिया । सालभर पहिले तो उसे मामाजिक, सामाजिक चिल्लाते थे। ममाधान-ब्रह्मचर्य प्रतिमा से नीचे कुमार कुमारी और विधवा विधुर के लिये विवाह धर्मानुकूल है-यह मैं सदा से कहना हूँ। परन्तु धर्मानुकूल और धार्मिक एक ही बात नहीं है । व्यापार करना, घूमना, भोजन करना, पेशाब करना आदि कार्य धर्मानुकलता है परन्तु धार्मिक नही हैं। धर्म का अङ्ग होना एक बात है और धर्ममार्ग में बाधक न होना दुसरी बान है। _ आक्षेप (घ)-बहुत अनर्थ को रोकने के लिये थोड़ा अनर्थ करने की प्राशा जैनधर्म नहीं देना। समाधान-मैं पहिले हो लिख चुका हूँ कि एक अनर्थ को रोकने के लिये इसग अनर्थ मत करो परन्तु महान अनर्थ रोकने के लिये अल्प अनर्थ कर सकते हो । व्यभिचार अनर्थ रोकने के लिये ही तो विवाह अनर्थ किया जाता है। जिनने प्रवृत्यात्मक कार्य हे वे मब अनर्थ या पाप के अंश हैं। जब वे कार्य अधिक अनों को रोकने वाले होते हैं तब वे अनर्थ या पाप शब्द से नहीं कहे जाते । परन्तु हैं नो वे पाप Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही । साधारण पाप की तो बात ही क्या है परन्तु अणुवन नक पाप कहा जासकता है (अणुवन अर्थात् थोड़ा व्रत अर्थात् बाकी पाप) जब अणुव्रत की यह बात हे नबोरों की तो बात ही क्या है ? प्राणदण्ड सगेखा कार्य भी जैनसम्राटी ने अधिक अनर्थों को रोकने के लिये किया है । निर्विकल्प अवस्था के पहिले जितने कार्य है वे सब बहु अनयों को रोकने वाले थोड़े अनर्थ ही हैं। प्रकृत बात यह है कि विधवाविवाह से व्यभिः चार श्रादि अनर्थों का निगंध होता है इसलिये वह ग्राह्य है। आक्षेप (ङ)-जो पुराय हैं वह मदा पुरा प है । जो पाप है वह मदा पाप है। मपाधान-नब तो पुनर्विवाह, विधुगे के लिये अगर पुण्य है तो विधवाओं के लिये भो पुराय कहलाया। आक्षेप ( च )-म्वस्त्रीसंबन पाप नहीं, पुराय है । इसी. लिये यह म्वदारसंतोष अणुव्रत कहलाता है । ममाधान-म्वदारसंवन और स्वदारसंतोष में बड़ा अन्तर है । म्वदारसंबन में अम्बदारनिवृत्ति का भाव है। संवन में सिर्फ प्रवृत्ति है । स्वदारसंतोष, अणुव्रती को ही होगा। म्वदारसेवन ना अविरत और मिथ्यात्वी भी कर सकता है। आक्षेप (छ)-अपेक्षाभेद लगाकर तो आप सिद्धा की अपेक्षा म्नातकों ( अहनों) को भी पापी कहेंगे । समाधान-अकुल श्रादि को अपेक्षा पुलाक श्रादि पापी कहं जासकते हैं क्योंकि पुलाक आदि में कषाये हैं। कोई जीव तभी पापी कहला सकता है जब कि उसके कपाय हो । कषायरहित जीव पापी नहीं कहलाना । अहन कषायानीत है। माक्षेप ( ज )-यदि धर्मविरुद्ध कार्य भी ग्राह्य स्वीकार किये जाँय तब त्याज्य कोन से होंगे? समाधान-धर्मविरुद्ध कार्य, जिस अपेक्षा से धर्मानु Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) कल सिद्ध हांग उमो अपेक्षा से ग्राहा है। बाकी अपेक्षानों से अनाहा । प्रत्येक पदार्थ के साथ समभंगी लगाई जासकती हैं। अगर नास्तिभंग लगाते समय कोई कह कि प्रत्येक पदार्थ को यदि नास्तिरूप कहांगे तो अस्तिरूप किम कहांगे? तब इसका उत्तर यही हागा कि अपेक्षान्तर में यही पदार्थ अम्निरूप भी होगा । इसी प्रकार एक कार्य किमी अपेक्षा सं ग्राहा, किसी अपेक्षा में अग्राह्य है। जो लोग पूर्णब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर मकने उनको विधवाविवाह ग्राह्य हैं । पूर्ण ब्रह्मचारियों को अग्राहा । बारहवाँ प्रश्न "छोटे छोटे दुधम् है बच्चों का विवाह धर्मविरुद्ध है या नहीं" ? इस प्रश्न के उत्तर में हमने ऐसे विवाह को धर्मविरुद्ध कहा था, क्योकि उन में विवाह का लनगा नहीं जाना । जब वह विवाह ही नहीं तो उसने पँदा दुई सन्तान का के ममान नाजायज़ कहलाई । इसलिये ऐसे नाममात्र के विवाह के हो जाने पर भी वास्तविक विवाह की आवश्यकता है। आक्षेप (क)-मद्रयाहुहितामें लिखा है कि कन्या १२ की और वर सोलह वर्ष का होना चाहिये । इससे कम और अधिक विकार है । ( श्रीलाल) समाधान-भद्रयाहु नकवली थे । दिगम्बर सम्प्र. दाय में उनका बनाया हुआ कोई ग्रन्थ नहीं है । उनके दो हज़ार वर्ष बाद एक अज्ञानी धूत ने उनके नाम से एक जाली ग्रन्थ बनाया और उसपर भद्रबाहु की छाप लगादी । खैर, पुराणों में शायद ही कोई विवाह १२ वर्ष की उम्र में किया हुआ मिलेगा। धर्मशास्त्र तो यह कहता है कि जितनी अधिक उमर नक ब्रह्मचर्य रहे उतना ही अच्छा । दूसरी बात यह है कि ठीक Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) बारह वर्ष पूरे होने का नियम पल नहीं सकता । ये पण्डित लोग शारदा बिल के विरोध में कहा करते है कि १४ वर्ष को उमर रकानी जायगी तो माइन न मिलने से १७ वर्ष की उमर होजायगी । परन्तु बारह वर्ष के नियम के अनुसार भी तो साइत न मिलने पर १५ वर्षकी उमर होजायगी। पुरुषों के लिये १६ वर्ष से ज़्यादा उमर में विवाह न करने का विधान किया जाय नो विधुर विवाह और बहुविवाह बन्द ही हो जायं, जिनके कि य परिडत हिमायती है। आक्षेपः ख )-बाल विवाह को धर्मविरुद्ध और नाजा. यज़ कार दने में स्त्रियां छीनी जायँगी । श्रीलाल ) समाधान ---त्रिगाँ छीनी न जायँगी परन्तु उन दोनों का फिर मचा विवाह करना पड़ेगा। इसमें कोई नाजायज़ विवाह (बालविवाह) के लिये प्रायोजन न करेगा। आक्षेप ग )-अगर भूल से माता पिता ने बालविवाह कर दिया तो वह टूट नही सकता । भल में विष दे दिया जाय ना भी मरना पड़ेगा, धन चोरी चला जाय तो बह गया ही कहलायमा (श्रीलाल ) समाधान-विष देने पर चिकित्मा के द्वाग उम हटान की चंदा की जाती है। चाहाने पर चार को दगड देने की ओर मान बरामद करने की कोशिश की जाती है। बालविवाह हो जाने पर फिर विवाह करना मानो चोग का माल बरामद करना है। प्राक्षक के उदाहरण हमाग ही पक्ष समर्थन करते हैं । आक्षेप घ)-गांधर्व विवाह का उदाहरण यहां लाग नहीं होना क्योंकि यहाँ ब्राह्मविवाह का प्रकरण हे । (श्रीलाल) ममाधान-हमने कहा था कि विवाह में किसी खास विधिको आवश्यकता नहीं । गांधर्व विवाह में शास्त्रीय विधि Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४४ ) नहीं है फिर भी वह विवाह है। इस दोष का निवारण श्राक्षंएक न कर सका तो कहता है कि यह ब्राह्मविवाह का प्रकरण है । परन्तु हमारा कहना यह है कि ब्राह्मविवाह के अतिरिक्त बाकी विवाह, श्रक्षेपक के मतानुसार विवाह हैं कि नहीं ? यदि a fear हैं और उनमें किसी खास विधिकी आवश्यकता नही हैं तो हमारा यह वक्तव्य सिद्ध हो जाता है कि विवाह में किसी खास विधि की आवश्यकता नहीं है। आक्षेप (ङ) छोटी आयुवाली विवाहिता स्त्री से उत्पन्न सन्तान को कर्ण के समान कहना उन्मत्त प्रलाप है । ( श्रीलाल ) समाधान-न्यायशास्त्र की वर्णमाला से शुन्य आक्षेपक को यहाँ समानता नहीं दीखती । यह उसकी मूर्खता के ही अनुरूप है । कर्ण के जन्म में यदि कोई दोष था तो यही कि वे श्रविवाहिता की सन्तान थे । बालविवाह जब विवाह ही नहीं है तब उससे पैदा होने वाली सन्तान अविवाहिता की सन्तान कहलाई इसमें विषमता क्या है ? आक्षेप (च ) - दुधमुहे का अर्थ विवाह के विषय में नासमझ करने से तो शङ्कराचार्य भी दुधमुँ है कहलाये क्योंकि इसी चर्चा के मण्डन मिश्र की स्त्री से हारे थे। अगर तत्का लीन समाज उनका विवाह कर देता तो आपकी नज़र में नाजा यज़ होता । ( विद्यानन्द ) समाधान- -अगर शङ्कराचार्य विवाह के विषय में कुछ नहीं जानते थे तो उनका विवाह हो ही नहीं सकता था । समाज ज़बर्दस्ती उनका विवाह कराने की चेष्टा करती तो वह विवाह तो नाजायज़ होता ही, साथ ही समाज को भी पाप लगता । विवाह के विषय में शङ्कराचार्य को दुधमुहा कहना अनुचित नहीं है। न्यायशास्त्र में 'बालानाम् बांधाय को टीका Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) में बाल शब्द का यही अर्थ किया जाता है कि जिसने व्याकरण काव्य कोषादि नो पढ़ लिये परन्तु न्याय न पढ़ा हो । इसी तरह विवाह के प्रकरण में भी समझना चाहिये। इस विषय में प्राक्षेपक ने शुरू में भी भूल खाई है। वास्तव में शङ्कराचार्य विवाह के विषय में अनभिज्ञ नहीं थे। वे कामशास्त्र में अनभिज्ञ थे और इसी विषय में वे पगजित हुए थे। विवाह में, कामवासना में और कामशास्त्र में बड़ा अंतर है । यह बात श्राक्षं पक को समझ लेना चाहिये ।। आक्षेप (छ)-पहिले गर्भस्थ पुत्रपत्रियों के भी विवाह होते थे और व नाजायज़ न माने जाते थे। ( विद्यानन्द ) समाधान-इम आक्षप से तीन बातें ध्वनित होती हे-(१) पुराने जमाने में अाजकल की मानी हुई विवाहविधि प्रचलित नही थी क्योकि इस विवाहविधि में कन्या के द्वाग सिद्धमंत्र की स्थापना की जाती हैं, सप्तपदी होती है, तथा वर कन्या को और भी क्रियाएँ करनी पड़ती हैं जो गर्भस्थ वर. कन्या नहीं कर सकते । (२) गभ में अगर दोनों तरफ पुत्र हा और माता पिता के वचन ही विवाह माने जाँय और वे नाजायज़ न हो सके तो पुत्र पुत्रों में भी विवाह कहलाया। अथवा यही कहना चाहिये कि वह विवाह नहीं था। माना पिता ने सिर्फ सम्भव होने पर विवाह होने की बात कही थी। ( ३ ) जब गर्भ में विवाह हो जाता था तब गर्भ में ही लड़की सधया कहलायी। दुर्योधन और कृष्ण में भी ऐसी बान चीत हुई थी। दुर्योधन के पुत्री उदधिकुमारी हुई जो गर्भ में ही प्रद्युम्न की पत्नी कहलायी । परन्तु प्रद्युम्न का हरण हो गया था इसलिये भानुकुमार के साथ विवाह का आयोजन हुआ । गर्भस्थ विवाह को आक्ष पक नाजायज़ मानते नहीं है इसलिये यह उदधिकुमारी के पुनर्विवाह का प्रायोजन कह. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) लाया । इसलिये श्रय श्राक्षं पक को या तो बालविवाह नाजायज मानना चाहिये या स्त्री पुनर्विवाह जायज़ । बालविवाह को नाजायज़ सिद्ध करने में किसी ख़ास प्रमाण के देने की ज़रूरत नहीं है। विवाह का लक्षण न जाने से ही वह नाजायज़ हो जाना हँ I आक्ष ेप (ज) - आश्चर्य है कि कर्ण को श्राप बालविवाह की सन्तान कह कर नाजायज़ कह रहे हैं । वह तो गान्धर्व विवाह की सन्तान होने से नाजायज़ माना गया है । समाधान - कुछ उत्तर न सूझने पर अपनी तरफ से झूटी बात लिखकर उसका खण्डन करने लगना श्रक्षेपक की श्रादत मालूम होती है, या आक्षेपक में हमारे वाक्य को सम ने की योग्यता नहीं है । हमने कर्ण को अविवाहिता की सन्तान कहा है और बालविवाह में विवाह का लक्षण नहीं जाना इसलिये उसकी सन्तान भी अविवाहिता की सन्तान कहलायी । कर्ण में और बालविवाह की सन्तान में अविवा हितजन्यता की अपेक्षा समानता हुई। इससे कर्ण को बालविवाह की सन्तान समझ लेना प्रक्षेपक की अकुल की खूबी है । आक्षेपक को उपमा, उपमेय, उपमान समान धर्म का बिलकुल ज्ञान नहीं मालूम होता । कर्ण अगर गान्धर्व विवाह की सन्तान होते तो उन्हें छिपाकर वहा देने की ज़रूरत न होती, अथवा पाँचों पांडव भी नाजायज़ होते । अगर यह कहा जाय कि कर्ण जन्म के बाद कुन्ती का विवाह किया गया था तो मानना पड़ेगा कि कर्ण जन्म के पहिले कुन्ती का गान्धर्वविवाह नहीं हुआ, अथवा कर्ण जन्म के बाद उसका पुनर्विवाह हुआ और एक बच्चा पैदा करने पर भी वह कन्या कहलाई । अगर कन्या नहीं कहलाई नो विवाह कैसे हुआ ? Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७) आक्षेप (झ)-विवाह का चारित्र मोहनीय के उदय के साथ न तो अन्वय है न व्यतिरेक । समाधान-यह वाक्य लिख कर आक्षेपक ने अकलङ्काचार्य का विरोध तो किया ही है साथ ही न्यायशास्त्र में प्रसा. धारण अज्ञानता का परिचय भी दिया है । श्रापक अन्वय व्यतिरेक का स्वरूप ही नहीं समझता । कार्य कारण का जहाँ अविनाभाव बतलाया जाता है वहाँ कारण के सद्भाव में कार्य का सद्भाव नहीं बताया जाता किन्तु कार्य के सद्भाव में कारण का सद्भाव बतलाया जाना है। कारण के सद्भाव में कार्य का सद्भाव हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। चारित्र माह के उदय ( कारण ) रहने पर विवाह ( कार्य ) हो सकता है और नहीं भी हो सकता। अर्थात् व्यभिचार वगेरह भी हो सकता है । परन्तु विवाह ( कार्य ) के सद्भाव में चारित्र माह का उदय (कारण) ता अनिवार्य है। अगर वह न हो तो विवाह नहीं हो सकता । यह व्यतिरेक भी म्पट है। चारित्रमाह के उदय का फल संभोग क्रिया का ज्ञान नहीं है । शान तो शानावरण के क्षयोपशम का फल है । चारित्र माहोदय तो कामलालसा पैदा करता है। अगर उसे परिमित करने के निमित्त मिल जाते है तो विवाह हा जाता है, अन्यथा व्यभिचार होता है। प्राक्ष पक ने यहाँ अपनी आदत के अनु. सार अपनी तरफ से 'ही' जोड़ दिया है। अर्थात् 'चारित्र मोह का उदय ही' कहकर खराडन किया है, जबकि हमने 'ही' का प्रयोग ही नहीं किया है । जब चारित्रमाह के उदय के साथ सद्वंद्य की बात भी कही है तब 'ही' शब्द को ज़बर्दस्ती घुसेड़ना बड़ी भारी धूर्तता है। अकलदेव ने सवेद्य और चारित्रमोह लिखा है। प्राक्ष पक ने उसका अभिप्राय निकाला है 'उपभोगान्तराय'। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४८ ) क्या गज़ब का अभिप्राय हैं ! श्राक्षपक के ये शब्द बिलकुल उन्मत्त प्रलाप हे "विवाह साता-वेदनीय अोर उपमांगान्त. गय के क्षयोपशम से होता है-चारित्रमोह के उदय से नहीं, इमीलिये उन्होंने चारित्रमाहोदयात् के पहिले सद्वेद्य पद डाल दिया है ।" चारित्रमाह के पहिल सटेद्य पद डाल दिया, इसम एक के बदले में दो कारण होगये परन्तु चारित्रमाह का निषेध कैसे हो गया और उसका अर्थ उपभोगान्तगय कैम बन गया ? आक्षेप ( अ )-विवाह का उपादान कारण चारित्रमाह का उदय नहीं है किन्तु पर बधु है। ममाधान-हमने वहाँ "चारित्रमाह के उदय से होने वाले गगपरिणाम" कहा है। यह परिणाम ही तो विवाह की पूर्व अवस्था है और पूर्व अवस्था को श्राप म्वयं उपादान कारण मानते हैं। विस्तृत कामवासना का पर्मिनन कामवासना हो जाना ही विवाह है। आपने उपचार में पोरणामी (वर कन्या) को उपादान कारण कह दिया है, परन्तु परिणाम के बिना परिणामी वर कन्या नहीं हो सकते । बालविवाह में वर कन्या होते ही नहीं, दो बच्चे होते है । जब परिणाम नहीं नब परि. णामी कैसे ? यहाँ आक्षेपक अनिग्रह में अप्रतिमा नामक निग्रह कहकर निग्नुयोज्यानुयाग नामक निग्रहस्थान में जागिरा है । प्राक्षेप ( ट )--जब आप विवाह के लिये नियत विधि मानते हैं तब उसके बिना विवाह केसा ? नियत विधि शब्दका कुछ ख़याल भी है या नहीं? ममाधान-गांधर्वविवाह को श्राप विवाह मानते हो । आपको दृष्टि में भले ही वह अधर्म विवाह हो, परन्तु है तो विवाह ही। इस विवाह में आप भी नियत विधि नहीं मानने फिर भी विवाह कहते है। दूसरी बात यह है कि किसी नियन Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६) विधि का उपयोग करना न करना इच्छा के ऊपर निर्भर है। किसी एक नगर मे दुमरे नगर को यात्रा करने के लिये रेलगाड़ी चलती है । इस तरह यात्रियों के लिये रेलगाड़ी नियत करदी गई है परन्तु इसका मतलब यह नहीं है कि वहाँ मोटर से, घोड़ स या अपने पैरोम यात्रा नहीं हो सकनी। रेलगाड़ी की यात्रा के साधनों में मुख्यता भले ही देदी जाय परन्तु उस अनिवार्य नहीं कह सकते। इसी तरह नियत शास्त्रविधिको भले ही कोई मुख्य समझे परन्तु अनिवार्य नहीं कह सकते । अनिवार्य तो चारित्रमोह श्रादि हो है । रेलगाड़ी के अभाव में यात्रा के समान विवाह विधि के अभाव में भी विवाह हो सकता है। आक्षप ( )-प्रद्युम्न को गांधर्व विवाह से पैदा हुआ कहना धृष्टता है। गांधविवाह जान हे कर्ण, इम से वे नाजा. यज है। ___ममाधान-कर्ण के विषय में हम पहिले लिख चुके हैं और इस प्रश्न के आक्षप'छ' के समाधानमें भी लिख चुके हे । कर्ण व्यभिचार जात हे गांधर्व विवाहोत्पन्न नही। रुक्मिणी का अगर गांधर्वविवाह नही था तो बतलाना चाहिये कि कौन मा विवाह था। प्रारम्भ क चार विवाहों में श्राप लोग कन्या. दान मानते हे। रेवतकगिरि के ऊपर कन्यादान किसने किया था ? वहाँ तो रुकमणो, कृष्ण और बलदेव के सिवाय और कोई नही था। गांधर्व विवाह में "स्वच्छया अन्यान्य सम्बन्ध" होता है । रुक्मणी ने भी माता पिता आदि की इच्छा के विरुद्ध अपनी इच्छा से सम्बन्ध किया था। गांधर्व विवाह व्यभिचार नहीं है जिससे प्रद्यम्न व्यभिचारजात कहला सके। यहाँ पर आक्ष पक अपने साथी प्रापक के साथ भी भिड़ गया है। विद्यानन्द कहते हैं--गांधर्व विवाह, विवाहविधि Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) शून्य अधर्म विवाह है हम से उत्पन्न संतान मोक्ष नहीं जा. मकनी । जबकि श्रीलाल जी कहते हैं-"गांधर्वविवाह भी शास्त्रीय है अतः उससे उत्पन्न संतान क्यों न मोक्ष जाय। जब दो मिलते हैं नव इसी तरह परम्पर विरुद्ध वक्ते हैं। तेरहवाँ प्रश्न ज्या सुधारक और क्या बिगाड़क पाजनक सगी बाल. विवाह को गुहा गुड़ो का खेल कहते रहे है । हमने ऐसे वर वधू को नाटकीय कहा है । ऐसी हालत में उसका वैधव्य भी नाटकीय रहेगा । वास्तव में ता वह कुमारी ही रहेगी। इस. लिये पत्नीत्व का जबतक अनुभव न हा तब तक वह पत्नी या विधवा नहीं कहला सकती। आक्षेपको में इतनी अक्ल कहाँ कि वे पत्नीत्व के अनुभव में और सम्भांग के अनुभव में भेद समझ सके । पहिला भाक्ष पक ( श्रीलाल ) कहना है कि सप्त. पदी हो जाने से ही विवाह हो जाता है। परन्त किमी बालिका से तोते की तरह सप्तपदी रटवा कर कहना देना या उस की तरफ से बोल देना ही तो सप्तपदी नहीं है । सप्तपदी का क्या मतलब है और उससे क्या ज़िम्मेदारी पा रही हे इसका अनु. भव तो होना चाहिये । यही तो पन्नीत्व का अनुभव है। बालविवाह में यह बात ( यही सप्तपदी ) नहीं हो सकती इसलिये उसके हो जाने पर भी न कोई पति पत्नी बनता हे न विधवा विधुर । उपयुक्त पत्नीत्व के अनुभव के बाद और सम्भोग के पहिले वर मर जाय तो वधू विधवा हो जायगी, और उसका विवाह पुनर्विवाह ही कहा जायगा। परन्तु नासमझ अवस्था में जो विवाह नाटक होता है उससे कोई पत्नी नही बनती । प्राक्षेप (क)--विवाह को स्थापना निक्षेपका विषय कहना सचमुच विद्वत्ता का नका नाच है । तब तो व्यभिचार भी विवाह कहलायगा । ( विद्यानन्द ) Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) ममाधान---जहाँ विवाह का लक्षण नहीं जाना और फिर भी लोग विवाह की कल्पना करते हैं तो कहना ही पड़ेगा कि वह विवाह स्थापना निक्षेप से है, जैसे कि नाटक में स्थापना की जानी है। श्रापक का कहना है कि व्यभिचार में भी स्थापनानिक्षेप से परस्त्री में म्यस्त्री की स्थापना करली जायगी। परन्तु यही बात तो हमाग पक्ष है। स्था. पना ना व्यभिचार में भी हो सकती है परन्तु व्यभिचारी वर बधू नहीं कहला सकने । इस तरह नासमझ बालक बालि. काओं में भी वर वधू की स्थापना हो सकती है परन्तु वे वास्तव में वर बधृ नहीं कहला मकने । चौदहवाँ प्रश्न इस प्रश्न में यह पूछा गया है कि पत्नी बनने के पहिले क्या कोई विधवा हो सकती है और व्रत ग्रहण करने में व्रती के भावों की ज़रूरत है या नहीं? इसका मतलब यह है कि अाजकल विवाह नाटक के द्वाग बहुतमी बालिकाएँ पत्नी बना दी जानो हैं परन्तु वास्तव में वे पन्नी नहीं होती। उनको ( उस नाटकीय पति के मर जाने पर ) विधवा न कहना चाहिये । वन ग्रहण करने में भावों की ज़रूरत है। बालविवाह में विवाहानुकल भाव ही नहीं होते। इसलिये उम विवाह से कोई किसी तरह की प्रतिक्षा में नहीं बँधना। श्रीलाल ने वे ही पुरानी बातें कही है, जिसका धव ( पनि) मर गया है वह विधवा अवश्य कही जायगी मादि । परन्तु यहाँ नो यह कहा गया है कि वह नाटकीय पनि वास्तविक पनि ही नहीं है। फिर उसका मरना क्या और जीना क्या ? उसका पति क्या और पत्यन्तर क्या? आक्षेप (क)-पाठ वर्ष की उमर में जम व्रत लिया Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५२) जा सकता है नत्र =॥ या वर्ष की उमर में भावपूर्वक विवाह क्यों न माना जाये ? (श्रीलाल)। ___ समाधान~इसमे मालूम होता है कि श्राक्षेपक पाठ वर्ष से कम उमर के विवाह को अवश्य ही नाजायज़ समझता है । वैर, अब हम पूछते हैं कि जब आठ वर्ष में व्रत ग्रहण किया जा सकता है तब आक्षेपक के मनगढन्त शास्त्रकारों ने विवाह के लिये बारह वर्ष की उमर क्यों रक्ली ? अाठ वर्ष की क्यों नहीं रखी ? इससे मालूम होता है कि साधारण व्रत ग्रहण करने की अपेक्षा वैवाहिक व्रत ग्रहण करने में विशेष योग्यता की आवश्यकता है । अर्थात परिपुष्ट शरीर, गार्हस्थ्य जीवन के भार सम्हालने की योग्यता और हृदय में उठती हुई वह कामवासना जिसके नियमित करने के लिये विवाह श्रावश्यक है, अवश्य होना चाहिये। अगर किसी अमाधारण व्यक्ति में पाठवर्ष की उमर में ही ये बातें पाई जाँय तो वह बालविवाह न कहलायगा, और इन बातों के न होने पर कितनी भी उमर में वह विवाह हो, वह नाजायज़ कहलायगा । भले ही तुम्हारे मनगढन्त शास्त्रकार १२ वर्ष का राग अलापते रहे। एक बात यह भी है कि शास्त्रों में आठ वर्ष की उमर में व्रत ग्रहण करने की योग्यता का निर्देश है । परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि प्रत्येक पाठ वर्ष का वास्तक, मुनि या श्रावक के वन ग्रहण कर सकता है. या आठ वर्ष से अधिक उमर में व्रत ग्रहण करने वाला मनुष्य पापी हो जायगा। श्राठ वर्ष की उमर में केवलज्ञान तक बतलाया है परन्तु क्या इसी लिए इराक श्रादमी का इस उमर में केवलज्ञानीत्व मनाया जाने लगे ? कहा जायगा कि अली उमर हो जाने से क्या होता है ? अन्य अन्तरङ्ग बहिरङ्ग निमित्त तो मिलना चाहिये । बस : विवाह के विषय में भी हमाग यही कहना Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . ( १५३ ) है कि अकेली उमर हो जाने से क्या होता है, उसके लिये अन्य अन्तरङ्ग बहिरङ्ग निमित्त तो मिलना चाहिये । यदि विवाह के लिये व निमित्त १४ वर्ष की उमर के पहले नहीं मिलते तो उसके पहिले होने वाले विवाह (नाटक) नाजायज़ हैं। इसलिये उन विवाहों के निमित्त से सधवा विधवा शब्द का प्रयोग न करना चाहिये । आप (ख)-अमरकोपकार ने पाणिगृहीती को पत्नी कहा है, इसलिये पाणिगृहीता वालिका चाहे वह १ वर्ष की क्यों न हो अवश्य ही पतिवियांग होने पर विधवा कहला. यगी । (विद्यानन्द) माधान-पाणिगृहीनी का अगर शब्दार्थ हो लिया जाय तर नां विवाह नाटक के पहिले ही वे सधवा विधवा कहलाने लगेगी क्योंकि छोटी २ बालिकाओं के हाथ बाप, भाई और पड़ोसियों के द्वारा पकड़ ही जाया करते है। अगर पाणिगृहीती का मतलब विवाहिता है तो माता पिता के द्वारा किसी से हाथ पकड़ा देने ही से बालविवाहिता नहीं कही जासकती है । इसीलिये एक वर्ष की बालिका किसी भी हालत में विधवा या सधवा नहीं कहला सकनी । विधवाविवाह, धार्मिक दृष्टि में व्यभिचार है-इम बात का उत्तर पहिले अच्छी तरह अनेक बार दिया जा चुका है। प्राक्षेप (ग)-वनग्रहण करने में व्रतीक भावोंकी ज़रू. गत है भी और नहीं भी है। छः वर्ष के बच्चे को पानी छान कर पीने का व्रत दिला दिया और तीस वर्ष के प्रादमी ने बत नहीं लिया। इनमें कोन अच्छा है ? क्या उस बच्चे को पुराय. बन्ध न होगा? समाधान--प्राक्षपक ने 'वनग्रहण करने में भावों की Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) ज़रूरत नहीं है। इसके लिये कोई शास्त्रीय प्रमाण नही दिया । छः वर्ष का बचा अगर कोई अच्छी किया करता है तो क्या श्राक्षेपक के मतानुसार वह बनी है ? क्या प्राचार्यों का यह लिखना कि आठ वर्ष से कम उम्र में व्रत नहीं हो सकता भूठ हे ? या श्राक्षेपक ही जेनधर्म में अनभिज्ञ है? छोटे बच्चे में भी कुछ भाव ना होते ही है जिसमे वह पुरायबन्ध या पापबन्ध करता है। जब पकन्द्रिय द्वीन्द्रिय प्रादि जीव भावरहित नही हे नव यह तो मनुष्य है । परन्तु यहाँ प्रश्न तो यह है कि उसके भाव, व्रतग्रहण करने के लायक होते हैं या नहीं? अर्थात् उसके व कार्य वनरूप है या नही ? हो सकता है कि वह नीम वर्ष के श्रादमी से भी अच्छा हो, परन्तु इससे वह वनो नहीं कहला मकना । कल्याणमन्दिर का जो वाक्य ( यस्माक्रिया प्रनिफलन्नि न भावशन्याः ) हमने उद्धृत किया हे उसके पीछे समस्त जैनशास्त्रों का बल है। वह हर तरह की परीक्षा से मोटश्च का उतरता हे । प्राक्ष पक हमें मिद्धमन के सदभिप्राय से अनभिज्ञ बतलाते है परन्तु बाम्तव में आपक ने स्वय कल्यामन्दिर और विषापहार के श्लोका का भाव नहीं समझा हे । दोनो श्लोको के मार्मिक विवेचन म पक स्वतन्त्र लेख हो जायगा। वास्तव में सिद्ध. मन का श्लोक भक्तिमाग की तरफ प्रेग्णा नहीं करता किन्तु पण्डित धनजय का श्लोक भक्तिमार्ग की तरफ़ प्रेरणा करता है। उनका मतलब है कि बिना भाव के भी अगर लोग भगवान को नमस्कार करेंगे ना सुधर जायेंगे । मिद्धसेन का श्लोक पंसी भक्ति को निरर्थक बतलाना है। सिद्धसेन कहते हैं ऐसी मावशून्य भक्ति नो हज़ागे बार की है परन्तु उसका कुछ फल नहीं हुआ। सिद्धसेन के श्लोक में तथ्य है, वह समझदागे के लिये है और धनञ्जय के श्लोक में फुसलाना है । वह Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचों ( अज्ञानी ) के लिये है। बच्चों को फुसलाने की बातों को जैनसिद्धान्त के समझने की कुञ्जी समझना मूर्खता है। आजकल शायद ही किसी ने भावशुन्य क्रिया को व्रत कहने की धृष्टता की हो। जो धर्म शुल्कलेश्याधारी ननमप्रैवे. यक जाने वाले मुनि को भी ( भावशून्य होने से ) मिथ्या दृष्टि कहता है, उसमें भावशून्य क्रिया से लत बतलाना अक्षन्तव्य अपराध है। आक्षेप (घ)यद्यपि समन्तभद्र स्वामी ने अभिप्रायः पूर्वक त्याग करना वत कहा है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि बाल्यावस्था में दिलाए गये नियम उपनियम सब शास्त्रविरुद्ध हैं। बाल्यावस्था में दिये गये व्रत को अकलङ्क ने जीवन भर पाला । ( विद्यानन्द) समाधान-ममन्तभद्र के द्वाग कहे गये व्रत का लक्षण जानते हुए भी आक्षेपक समझते हैं कि बिना भाव के वन ग्रहण हो सकता है। इसका मतलब यह है कि जानि स्वभाव के अनुसार जैनधर्म और समन्तभद्र के विद्रोही हैं या अपना काम बनाने के लिये जैनी वेष धारण किया है। खेर, बाल्या. वस्था के नियम शास्त्रविरुद्ध भले ही न हो परन्तु वे बूतरूप अवश्य ही नहीं है। प्रकला के उदाहरण पर तो प्राक्ष पक जग भी विचार नहीं किया । अकलङ्क अपने पिता से कहते हैं कि जब आपने बन लेने की बात कही थी तब वह व्रत पाठ दिन के लिये थोड़े ही लिया था, हमने तो जन्मभर के लिये लिया था। इससे साफ मालुम होता है कि वृत लेते समय अकस्तङ्क की उमर इतनी छोटी नहीं थी कि वन न लिया जासके । उनले भावपूर्वक वृत लिया था और उसके महत्व को और उत्तरदायित्व को समझा था। क्या यही भावशन्य वन का उदाहरण है ? Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्षेप (ङ)-न दो प्रकार के हैं-निवृत्तिरूप, प्र. त्तिरूप । शुभकर्म में प्रवृत्ति करना भी चूत है । यद्यपि बच्चों की शुभकर्म की प्रवृत्ति में काई भाव नहीं रहता, फिर भी वे वनी कहे जा सकते हैं। (विद्यानन्द ) समाधान-~-जब कि वन भावपूर्णक होते हैं तब वूतों के भेद भावशून्य नहीं हो सकते । जीव का लक्षण चेतना. उसके मय भेद प्रभेदा में अवश्य जायगा । जीव के प्रभेद यदि जलचर, थलचर, नमबर हे ना इसस नाका, रेलगाड़ी या वायुयान, जीव नहीं कहला सकते, क्योंकि उनमें जीव का लक्षण नही जाता । इमलिये भावशून्य कोई कार्य वन का भेद नहीं कहला सकता । जा फल फूल या जल भगवान को चढ़ाया जाता है क्या वह वनी कहलाता है ? यदि नहीं, तो इसका कारण क्या भावशन्यता नहीं हैं ? क्या भावशन्य जिनदर्श नादि कार्यों को न कहने वाला एकाध प्रमाण भी श्राप दे सकते हैं? आक्षेप (च)-संस्कागे को अनावश्यक कहना जैन सिद्धान्त के मर्म को नहीं समझना है । इधर आप संस्कारी स योग्यता पैदा करने की बात भी कहते हैं। ऐसा परम्पर. विरुद्ध क्यों कहते हैं ? (विद्यानन्द) समाधान-वत और सस्कारों को एक समझ कर श्राक्षेपक के गुरु ने घार भूर्खता का परिचय दिया था । हमने दोनों का भेद समझाया था जो कि अब शिष्य ने स्वीकार कर लिया है। वन और संस्कार जुदे जुदे हैं इसलिये वे संस्कार अनावश्यक हैं' यह अर्थ कहाँ से निकल पाया, जिससे परम्परविरोध कहा जासकं ? प्राक्ष पक या उसके गुरु का कहना तो यह है कि "कि बाल्यावस्था में भी संस्कार होते हैं इस. लिये खत कहलाया" । इसी मूवता को हटाने के लिये हमने Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५७ ) कहा था कि "संस्कार से हमारे ऊपर प्रभाव पड़ता है और वह प्रभाव प्रायः दूसरो के द्वारा डाला जाता है, परन्तु व्रत दूमग के द्वाग नहीं लिया जा सकता। संस्कार तो पात्र में श्रद्धा, समझ और त्याग के बिना भी डाले जासकते हैं परन्तु बत में इन तीनों को अत्यन्त आवश्यकता रहती है"। जब व्रत ओर संस्कार का भेद इतना स्पष्ट है तब बाल्यावस्था में सं. कारामा अस्तित्व बनलाकर वनका अस्तित्व बतलाना मूर्खता और धोखा नही तो क्या है ? संस्कार श्रावश्यक भले ही हो परन्तु वे वन के भेद नहीं हैं। आक्षेप( छ )--शुभ कार्य दूसरों के द्वारा भी कराये जा सकते है, और उनका फल भो पूरा पूरी होता है। शुभ कार्य में जबरन प्रवृत्ति कगना अधर्म नहीं है। हाँ, यदि कोई विधवा कह कि मैं तो वैधव्य नहीं लूंगी तब उस पर जबर्दस्ती वैधव्य का 'टीका' मढ़ना भी उचित नहीं है । यदि कोई विधवा कहे कि मेग विवाह ग दो नो वह भी भागमविरुद्ध है। समाधान-शुभ कार्य कराये जा सकते है । जो कग. यगा उस कदाचित् पुण्यबन्ध भी हो सकता है। परन्तु इससे यह कहाँ मिद्ध हुअा कि जिमसे क्रिया कराई जा रही है वह भावपूर्वक नहीं कर रहा है। यदि कोई कराना है और कोई भावपूर्वक करता है तो उसे पुरायबन्ध क्यों न होगा ? परन्तु यह पुरायबन्ध भावपूर्वकना का है। ऊपर भी इस प्रश्नका उत्तर दिया जा चुका है। श्राप स्वीकार करते हैं कि अनिच्छापूर्वक वैधव्य का टीका न मढ़ना चाहिये । सुधारक भो इससे ज़्यादा और क्या कहते हैं ? जब उसे वैधव्य का टीका नहीं लगा ना वह प्रागमविरुद्ध क्या ? Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) पन्द्रहवाँ प्रश्न । १२, १३, १४ और १५ वें प्रश्न बालविवाहविषयक हैं । इस में बालविवाह को नाजायज़ विवाह सिद्ध किया गया है । जो लोग सभ्यग्दृष्टि हैं वे तो विधवाविवाह के विगंधी क्यों होंगे, परन्तु जो लोग मिथ्यात्व के कारण से विधवाविवाहको ठीक नहीं समझते उन्हें चाहिये कि बालविधवा कहलाती हुई स्त्रियों के विवाह को स्वीकार करें क्योंकि बालविधवाएँ वास्तविक विधवाएँ नहीं हैं। एकबार न्यायशास्त्र के एक सुप्रसिद्ध प्राचार्य ने ( जो कि दिगम्बर जैन कहलाने पर भी तीब्र मिथ्यान्व के उदयसे या अन्य किमी लौकिक कारणसे विधवा. विवाह के विरोधी बन गये हैं ) कहा था-कि तुम बड़े मुर्ख हो जो बालविधवाओं को भी विधवा कहते हो। इसी तरह एकबार गोपालदास जी के मुख्य शिष्य और धर्मशास्त्र के बड़े भारी विद्वान् कहलाने वाले पगिडत जी ने भी कहा था-कि 'अक्षतयोनि विधवाओं के विवाह में तो कोई दोष नहीं हैं। यहाँ पर भी बालविवाह के विषय में चम्पतराय जी साहब ने जो तनकियाँ उठाई हैं उनके उत्तरी से यही बात साबित होती है। विवाह का सम्बन्ध ब्रह्मचर्यायुक्त से है। जिनका बाल्यावस्था में विवाह होगया वे ब्रह्मचर्याणुव्रत वाली कैसे कहला सकती हैं ? इसलिये उनका विवाहाधिकार तो कुमारी के समान ही रक्षित है। अगर वे महावत या सप्तम प्रतिमा धारण करे तब तो ठीक, नहीं तो उन्हें विवाह कर लेना चाहिये । यद्यपि हम कह चुके हैं कि बालविधवाएँ विधवा नहीं हैं परन्तु कोई विधवा हो या विधुर, कुमार हो या कुमारी, अगर वह ब्रह्मचर्य प्रतिमा या महाव्रत ग्रहण नहीं करता तो विवाह की इच्छा करने पर विवाह कर लेना अधर्म नहीं है। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५६) आक्षेप ( क )-प्रश्नकर्ता का प्रश्न समझ कर तो उत्तर देते । जो मनुष्य ब्रह्मचर्याणुव्रत धारण नहीं करता उस का विवाह करके क्या करोगे ? वह तो माता बहिन को स्त्री समझता है। (श्रीलाल) समाधान-हमारे उपयुक्त वक्तव्यको पढ़कर पाठक ही विचारें कि प्रश्न कौन नही ममझा है। जिसने ब्रह्मचर्य अणुव्रत नहीं लिया है, उसे ब्रह्मचयप्रणुषन देने के लिये ही तो विवाह है । इस आक्षेपक ने विवाह को ब्रह्मचर्यवन रूप माना है । यहाँ कहना है कि ब्रह्मचर्यवनरहित का विवाह क्यों करना अर्थात् ब्रह्मचर्यवून क्यों देना ? मतलब यह कि अवूनोको व्रत दना निग्थंक है : कैसा पागलपन है ! आक्षेप ( ख ) क्या दीक्षा और विवाह यही दो अव. स्थाएँ हो सकती हैं। (विद्यानन्द) समाधान-जो दीक्षा नही लेता और विवाह भी नहीं करना उससे कोई ज़बर्दस्ती नहीं करना । परन्तु उसे विवाह करने का अधिकार है । अधिकार का उपयोग करना न करना उसकी इच्छा के ऊपर निर्भर है। उपयोग करने से वह पापी न कहा जायगा। आक्षेप (ग)-जब श्राप विधुर विधवा श्रादि जिस किसी को विवाह करने का अधिकार देने हैं तब तो एक वर्ष की बांध बच्ची भी विवाह करावें । आपने नो बात, वृद्ध, अनमेल विवाह की भी पीठ ठोकी। (विद्यानन्द ) समाधान-इससे तो यह बात कही गई है कि वैधव्य, विवाहमें बाधक नहीं है ।१ वर्ष की बच्ची का विवाह तो हो ही नहीं सकता यह हम अनेक बार कह चुके हैं। बालविवाह का जैनधर्म और हम विवाह ही नहीं मानते हैं । विवाह के अन्य अन्ना बहिरङ्ग निमित्त मिल जाने पर कोई भी विवाह कर Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सकता है। हमारा कहना तो यह है कि वैधव्य उसका बाधक नहीं है। सोलहवाँ प्रश्न "जिसका गर्भाशय गर्भधारण के योग्य नहीं हुआ उस को गर्भ रह जाने से प्रायः मृत्यु का कारण होजाता है या नहीं ?" इस प्रश्न के उत्तर में वैद्यक शास्त्र के अनुसार उत्तर दिया गया था । आक्षेपकों को भी यह बात मंजूर है । परन्तु उसके लिये १६ वर्ष की अवस्था की बात नहीं कहते । श्राक्षेपको ने इसपर जोर नहीं दिया । हम अपने मूल लेख में जो कुछ लिख चुके हैं उससे ज़्यादा लिखने की ज़रूरत नहीं है। आक्षेप (क)-सन्तानोत्पादन के लिये दृष्टपुष्टता की आवश्यकता है, उमर की नहीं। (श्रीलाल, विद्यानन्द) समाधान-सन्तानोत्पादन के लिये हृष्टपुटताकी श्राव. श्यकता है और हण्पुरता के लिये उमर की प्रावश्यकता है। हाँ, यह बात ठीक है कि उमर के साथ अन्य कारण भी चाहिये। जिनके अन्य कारण बहुत प्रबल हो जाते हैं उनके एक दो वर्ष पहिले भी गर्भ रह जाता है, परन्तु इससे उमर का बन्धन अनावश्यक नहीं होता, क्योंकि ऐसी घटनाएँ लाख में एकाध ही होती हैं। श्रीलाल स्वीकार करते हैं कि कई लोग २०-२४ वर्ष तक भी सन्तानोत्पत्ति के योग्य नहीं होते। यदि यह ठीक है तो श्रीलाल को स्वीकार करना चाहिये कि १२ वर्ष की उमर में विवाह का नियम बनाना या रजस्वला होने के पहिले विवाह कर देना अनुचित है। यदि विवाह और सन्तानोत्पा. दन के लिये हष्टपुष्टता का नियम रक्खा जाय तब १२ वर्ष का नियम टूट जाता है और बालविवाह मृत्यु का कारण है-यह बान सिद्ध हो जाती है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) सत्रहवाँ प्रश्न "पाँच लाख औरतों में एक लाख तेंतालीस हज़ार विधवाएँ क्या शोभा का कारण हैं ?" इसके उत्तर में हमने कहा था कि--"वैधर में जहाँ पाग है वहाँ शोभा है अन्यथा नहीं । जहाँ पुनर्विवाहका अधिकार नहीं, वहाँ उसका स्याग हो क्या ?" इस प्रश्न का उत्तर प्रातक नहीं दे सके हैं। श्री लालजी तो तलाक की बात उठा कर यूरोप के नावदान सूंघने लग लये है। 'विधवाविवाह वाली ऊँची नहीं हो सकती' उसे आर्यिका बनने का अधिकार नहीं, प्रादि वाक्यों में कोई प्रमाण नहीं है। हम इसका पहिले विवेचन कर चुके हैं । भागे भो करेंगे। आक्षेप। क)-विधवा गृहम्थ है, इसलिये वह सौभाग्यवतियों से पूज्य नहीं हो पाती। समाधान-गृहस्थ तो ब्रह्मचर्य प्रतिमाधारी भी हैं। फिर भी साधारण लोगों की अपेक्षा उसका विशेष सन्मान होता है। इसी प्रकार विधवाओं का भी होना चाहिये, परन्तु नहीं होता। इसका कारण यही है कि उनका वैधव्य त्यागरूप नहीं है। अगर कोई विधुर विधाहयोग्य होने और विवाह के निमित्त मिलने पर भी विवाह नहीं कराता तो वह प्रशंसनीय होता है । इसी प्रकार पुनर्विवाह न कराने वाली विधवाएँ मी प्रशं. मापात्र हो सकती हैं अगर उन्हें पुनर्विवाह का अधिकार हो और वे विवाह योग्य हो तो। हाँ. उन विधुगे की प्रशंसा नही होती जो चार पाँच बार तक विवाह करा चुके हैं अथवा विवाह की कोशिश करते २ अन्त में 'अंगूर खट्टे है' की कहा वत चरितार्थ करते हुए, अन्त में ब्रह्मचारी परिग्रहत्यागी आदि बन गये हैं। विवाह की पूर्ण सामग्री मिल जाने पर भी जो Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) विवाह नहीं करते वे ही प्रशंसनीय हैं चाहे वे विधुर हो या विधवा । आक्षेप (ख)-पुनर्विवाह वाली जातियों में वैधव्य शोमा का कारण है। क्या इमस मिद्ध नहीं होता कि पुनर्विवाह न करने वाली शोभा का कारण और करने वाली प्रशाभा का कारण हैं ? ( विद्यानन्द) समाधान-उपवाम और भूखे मरने का बाह्यरूप एकसा मालूम होता है, परन्तु दोनों में महान् अम्लर है । उपवास म्वच्छापूर्वक है, इसलिये न्याग हे, तप हे । भूखों मरना. विवशता से है इसलिये वह नारको मगखा सक्लेग है। एक समाज पेमी है जहाँबाने की स्वतन्त्रता है। एक ऐसी है जहाँ सभी को भूखों मरना पड़ता है । पहिलो ममाज में जो उप. वाम करते हैं वे प्रशंसनीय हान है, परन्तु इमीलिये भूखों मरने वाला समाज प्रशमनीय नहीं कही जासकती; फिर ऐमी हालत में जब कि भूखों मरने वाले चुग चुग कर खाते हो। पुनर्विवाह करने वाली जातिम वैधव्य प्रशंसनीय है क्योंकि उस में प्राप्य भागों का त्याग किया जाना है. पुनर्विवाहशुन्य समाज में एसी चीज़ों का त्याग कहा जाता है जा अप्राप्य है । तब नो गध के सींग का त्यागी भी बड़ा त्यागी कहा जायगा । जिन जातियों में पुनर्विवाह नहीं होना उनकी मभी स्त्रियाँ (भले ही वे विधवा हा) पुनर्विवाह कराने वाली स्त्रिया से नीची है क्योंकि नपुंसक के बाह्य ब्रह्मचर्य के समान उनक वैधव्य का काई मूल्य नहीं है। सारांश यह कि पुनर्विवाह वाली जातियों की विधधामों का स्थान पहिसा है ( उपचासी के समान): पुनर्विवाहिताओं का स्थान दुसरा है ( संयनाहारी के समान) पुनर्विवाहशून्य जाति की विधवामों का पान तीसरा है (भूतों मरने वालों के समान) । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) आक्षेप ( ग ) – विधुर और विधवाओं का अगर एकसा इलाज हो तो दोनों को शास्त्रकारों ने समान आज्ञा क्याँ नहीं दी ? (विद्यानन्द ) समाधान - जैनधर्म ने दोनों को समान आशा दी है । इस विषय में पहिले विस्तारसे लिखा जा चुका है। देखा '७ घ' । आक्षेप (घ ) - स्त्रीपर्याय पुरुषपर्याय से निद्य है । इस लिये जो विधवाएँ पुरुषों के समान पुनर्विवाह का अधिकार चाहती हैं, वे पहिले पुरुष बनने के कार्य संग्रमात्रिक पालकर पुरुष बनलें। बाद में पुरुषों के समान पुनर्विवाह की अधिकारी बने । (विद्यानन्द ) समाधान - अगर यह कहा जाय कि "भारतवासी निंद्य हैं इसलिये अगर वे स्वराज्य चाहते है तो अंग्रेज़ों की निस्वार्थ सेवा करके पुण्य कमायें और मरकर अंग्रेज़ों के घर जन्म लंबे" तो यह जैसी मुर्खता कहलायगी इसी तरह की मुर्खता प्रक्षेपक के वक्तव्य में हैं। वर्तमान विधवाएं अगर मर के पुरुष बन जायेंगी तो क्या परलोक में विधवा बनने के लिये पडित लोग अवतार लेंगे ? क्या फिर विधवाएँ न रहेंगी ? क्या इससे विधवाओं की समस्या हल हो जायेगी ? क्या भ्रूणहत्याएँ न होगी ? क्या विपत्तिग्रस्त लोगों की विपत्ति दूर करने का यही उपाय है कि पारलौकिक सम्पत्ति की झूठी श्राशा से उन्हें मरने दिया जाय ? खैर, जिन विधवाओं में ब्रह्म चर्य के परिणाम हैं वे तो पुण्योपार्जन करेंगी परन्तु जो विध वाएँ सदा मानसिक सौर शारीरिक व्यभिचार करती रहती हैं, भोगों के अभाव में दिनगत गंती हैं और हाय हाय करती हैं, वे क्या पुरायोपार्जन करेंगी ? दुःखी जीवन व्यतीत करने से ही क्या पुण्यबन्ध हो जाता है ? यदि हाँ, तब सानवें नरक के नारकी को सब से बड़ा तपस्वी कहना चाहिये । यदि Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६४ ) नहीं, तो वर्तमान का वैधव्य जीवन पुरायो गर्जक नहीं कहला सकता । अठारहवाँ प्रश्न इस प्रश्न में यह पूछा गया था कि जैनसमाज की सख्या घटने से समाज की हानि है या लाभ ? हमने संख्याघटी की बात का समर्थन करके समाज की हानि बतलाई थी। श्रीलाल तो गवर्नमेन्ट की रिपोर्ट का अस्तित्व ही स्वीकार नही करते । किम्वदन्ती के अनुसार कुम्भकर्ण ६ महीने सोता था, परन्तु हमारा यह प्रक्षेपक कुम्भकर्ण का भी कुम्भकर्ण निकला । यह जन्म से लेकर बुढापे तक सो ही रहा है। खैर, विद्यानन्द ने संख्याघटी की बात स्वीकार करती है। दोनों आक्षेपकों का कहना है कि संख्या घटती है घटने दो, जाति रसातल जाती हे जाने दो, परन्तु धर्म को बचाओ ! विधवाविवाह धर्म है कि अधर्म- इस बात की यहाँ चर्चा नहीं है। प्रश्न यह है कि संख्या घटने से हानि या नहीं ? यदि है तो उसे हटाना चाहिये या नहीं ? हरएक विचारशील आदमी कहेगा कि संख्याघटी रोकना चाहिये। जब विधवाविवाह धर्मानुकूल हैं और उससे सख्या बढ़ सकती है तो उस उपाय को काम में लाना चाहिये । आक्षेप ( क ) - जैनी लोग पापी होगये इसलिये उनकी सख्या घट रही है । समाधान- बात बिलकुल ठीक हे । सैकडों वर्षों से जैनियों में पुरुषत्व का मद बढ़ रहा है। इस समाज के पुरुष यतो पुनर्विवाह करते हैं, और स्त्रियों को रोकते हैं, यह अत्याचार, पक्षपात क्या कम पाप है ? इसी पाप के फल से इनकी संख्या घट रही है । पूजा न करने श्रादि से संख्या घटती तो म्लेच्छों की संख्या न बढ़ना चाहिये थी । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) आक्षेप ( स्व )-मुसलमान लोग तो इसलिये बढ़ रहे हैं कि उन्हें नरक जाना है। और इस निकृष्ट काल में नरक जाने वालों की अधिकता होगी। ( श्रीलाल ) ममाधान-श्राप कह चुके हैं कि जैनियों में पापी हो गये इसलिये संख्या घटी। परन्तु इस वनव्य से तो यह मालूम होता है कि जेनियों की संख्या पाप से बढ़ना चाहिये जिममें नरकगामी श्रादमी मिल सके। इस नरक के दन ने यह भी स्वीकार किया है कि "नीच काम करने से नीच की जितना पाप लगता है उमस कई गुणा पाप उच्च को लगता है", अर्थात् जैनियों को ज्यादा पाप लगता है। इस सिद्धान्त के अनुसार भी जेनियों की संख्या बढ़ना चाहिये क्योंकि इस समाज में पैदा होने से खूब पाप लगेगा और नरक जल्दी भरेगा। एक तरफ पाप म संख्या की घटो बसलाना और दूसरी तरफ़ पाप म संख्या की वृद्धि बतलाना विचित्र पागस्तपन हे। आक्षेप (ग)-विधवाविवाह श्रादि से, प्लंग हैजा प्रादि से समाज का सफावट हो जायगा । ( श्रीलाल) समाधान-विधवाविवाह से सफाचट होगा इसका उत्तर तो यारोप अमेरिका आदि को परिस्थिति देगी। परन्तु विधवाविवाह न होने से जैनसमाज सफाचट हो रही है यह तो प्रगट ही है। आक्षेप (घ)- समाज न रहने का डर वृथा है। जैनधर्म तो पंचम काल के अन्त तक रहेगा। (श्रीलाल) समाधान--विधवाविवाह के न होने से संख्या घट रही है । जैनियों की जिन जानियों में पुनर्विवाह है उनमें संख्या नहीं घट रही है। अगर पुनर्विवाह का रिवाज चालू न होगा तो संख्या नष्ट हो जायगी । परन्तु जैनधर्म का इनना हास तो Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं हो सकता इससे सिद्ध है कि विधवाविवाह का प्रचार जरूर होकर रहेगा । अथवा जिन जातियों में विधवाविवाह का रिवाज है वे ही जातियाँ अन्त तक रहेगी। रही चिन्ता की बान सो जो पुरुष है उसे तो पुरुषार्थ पर ही नज़र र साना चाहिये। कोरी भविनम्यता के भरोसे पर बैठकर प्रयत्न से उदासीन न होना चाहिये। तीर्थकर अवश्य मोक्षगामी होने हैं फिर भी उन्हें मोक्ष के लिये प्रयत्न करना पड़ता है। इसी तरह जैनधर्म पंचमकान के अन्त तक अवश्य रहेगा परन्तु उसे तब तक रहने के लिये विधवाविवाह का प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। यह छूनाछूतविचार का प्रकरण नहीं है । इसका विवे. चन कुछ हो चुका है। बहुत कुछ आगे भी होगा। आक्षेप ( 3 )-विधवाविवाह से तो बचे ग्वचे जैनी नास्तिक हो जायेंगे, कौड़ी के तीन तीन बिकेंगे । जैनधर्म यह नहीं चाहता कि उसमें संन्यावृद्धि के नाम पर कड़ाकचरा भर जाय । (विद्यानन्द ) समाधान-आक्षेपक कड़ाकचग का विरोधी है परन्तु विधवाविवाह वालों को कड़ाकचरा तभी कहा जामकता है जब विधवाविवाह धर्मविरुद्ध सिद्ध हो । पूर्वोक्त प्रमाणों से विधवाविवाह धर्मानुकूल सिद्ध है इसलिये प्राक्षेपक की ये गालियाँ निरर्थक हैं। विधवाविवाहोत्पन्न तो व्यभिचारजान है ही नहीं, परन्तु व्यभिचारजातना से भी कोई हानि नहीं है। व्यभिचार पाप है (विधवाविवाह व्यभिचार नहीं है) व्यभिचार जानता पाप नहीं है अन्यथा रविषेणाचार्य ऐसा क्यों लिखते चिन्हानि विटजातम्य सन्ति नांगेष कानिचित् । अनार्यमाचरन् किश्चिजायते नीचगोचरः ॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) व्यभिचारजातता के कोई चिन्ह नहीं होते । दुराबार से ही मनुष्य नीच कहलाता है । यदि व्यभिचारजात शूद्र ही कहलाता है तो रुद्र भी शूद्र कहलाये । जब रुद्र मुनि वनते हैं तब आपको शूद्र मुनि का विधान भी मानना पड़ेगा । तद्भवमोक्षगामी व्यभिचार जात सुदृष्टि सुनार पर विवेचन तो श्रागे होगा ही । आक्षेप (च ) - जैनधर्म नहीं चाहता कि उसमें संख्यावृद्धि के नाम पर कूड़ा कचरा भर जाय । यदि ६०८ बढ़ते हैं। ता ६०८ मुक्ति भी प्राप्त कर लेते हैं । जैनधर्म स्वयं अपने में बढ़ा हुई संख्या ६०८ को सिद्धशिला पर सदा के लिये स्थापन कर देता है | ( विद्यानन्द ) समाधान - उदाहरण देने के लिये जिस बुद्धिकी श्रावश्यकता है उस तरह को साधारण बुद्धि भो आक्षेपक में नहीं मालूम होती । श्रक्षेपक संख्यावृद्धि के नाम पर कूड़ा कचराग न भरने की बात कहते हैं और उदाहरण कूड़ा कचरा भरने का दे रहे हैं । व्यवहारराशि में से छः महीन आठ समय में ६०८ जीव माक्ष जाते हैं और नित्यनिगोद से इतने ही जीव बाहर निकलते हैं । जैनधर्म अगर ६०८ जीव सिद्धालय की भेजता है तो उसकी पूर्ति निगोदियों से कर लेता है। अगर जैनधर्म को संख्या घटने की पर्वाह न होती तो वह सिद्धालय जाने वाले जीवों की संख्यापूर्ति निगोदियों सरीखे तुच्छ जीवों से करने को उतारू न हो जाता । इस उदाहरण से यह बात भी सिद्ध होती है कि जैनधर्म में कूड़े कचरे को भी फलफूल बनाने की शक्ति है। वह कूड़े कचरे के समान जीवों को भी मुक्त बनाने की हिम्मत रखता है । जैनधर्म उस चतुर किसान के समान है जो गाँव भर के कूड़े कचरे का बाद बनाता है और उससे सफल खेती करता Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) है । वह मोक्ष भेजने के लिये देवलोक में से प्राणियों को नहीं चुनना बल्कि उस समह में से चुनता है जिस्म का अधिक भाग कूड़े कचरे के समान है। खेत में जितनी मिट्टी है उतना अनाज पैदा नहीं होता परन्तु इसीलिये यदि कोई मुर्ख किसान यह कहे कि जिनना अनाज पैदा होता है उतनी ही मिट्टो रक्तो बाकी फैकदो तो वह पागल विफल प्रयत्न करेगा। अगर हम चाहते हैं कि दस लाख मच जैनी हो तो हमें जैन समाज में १०-१२ करोड़ भले बुरे जैनी तैयार रखना पड़ेंगे। उनमें से १० लाख सच जैनी नैयार हो सकेंगे। जैनधर्म तो सिद्धालय भेजने पर भो संख्या की त्रुटि नहीं सहना और हम कुगति और कुधर्म में भेज करके भी संख्यात्रुटि का विचार न करें तो कितनी मर्खता होगी। उन्नीसवाँ प्रश्न जैन समाज में अविवाहितों की काफी संख्या है। इसका कारण बलाद्वैधव्य की कुप्रथा है । जैन समाज में कुमारियों की मंख्या १ लाख ८५ हजार ५१४ हैं जबकि कुमारों की संख्या ३ लाख ६ हजार २६५ है । इनमें से ६३२४६ कुमार तो ऐसे हैं जिनकी उमर बीस वर्ष से ज्यादा है । इस उमर के इन गिने कुमारों को छोड़ कर बाकी कुमार अविवाहित रहने वाले ही है। एक तो कुमारियों की सख्या यों ही कम है परन्तु तीन चार वर्ष तक के लड़कों के लिये विवाह योग्य लड़कियाँ भागे पैदा होगी इस प्राशा से कुमारियों की संख्या सन्तोषप्रद मानती जाय तो ६१३७१ विधुर मौजूद हैं। ये भी अपना विवाह कुमा. रियों से ही करते हैं। फल इसका यह होता है कि ६३२४६ पुरुष बीम वर्ष की उमर के बाद भी कुमार रहते हैं। यदि ये ६१३७१ विधु विधवाओं से शादी करें तो २० वर्ष से Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) अधिक उमर के कुमारों की संख्या ६३ हज़ार से अधिक के स्थान में दो हज़ार से भी कम रह जाय । जब तक विधवाविवाह की सुप्रथा का प्रचार न होगा तब तक यह विषमता दूर नहीं हो सकती । अन्तर्जातीय विवाह से भी कुछ सुभीता हो सकता है क्योंकि करीब ४२०० कुमारियाँ ऐसी हैं जिनकी उमर २० वर्ष से ज्यादा होगई है परन्तु उनका विवाह नहीं हुआ | छोटी जातियों में गोग्य वर न मिलने से यह परिस्थिति पैदा हो गई है । बड़ी जातियों को भी इस कठिनाई का सामना करना पड़ता है । अन्तर्जातीय विवाह का प्रचार करने के साथ विधवा विवाह के प्रचार की भी ज़रूरत है क्योंकि विधवाविवाह के बिना अविवाहितों की समस्या हल नहीं होसकती । श्रीलालजी यह स्वीकार करते हैं कि 'लड़का लड़की समान होते हैं परन्तु लांग अविवाहित इसलिये रहते हैं कि वे ग़रीब है' । इस भले श्रादमी को यह नहीं सूझता कि जब लड़का लडकी समान हैं तो गरीबों को मिलने वाली लड़. कियाँ कहाँ चली जाती हैं ? भले आदमी के लड़के भी तो एक स्त्री रखते हैं । हाँ, इसका कारण यह स्पष्ट है कि विधुर लोग कुमारियों को हजम कर जाते हैं । ऐसे अविवाहित कुमार्ग की संख्या बहुत ज्यादा है जिनके पास पश्चीस पचास हजार रुपये की जायदाद भले ही न हो या जो हज़ार दो हज़ार रुपये देकर कन्या खरीदने की हिम्मत न रखते हो फिर भी जा चार श्रादमियों की गुज़र लायक़ पैदा कर लेते हैं। लड़कियों को लखपति लेजाँय या करोड़पति ले जाँय परन्तु यह रूपए है कि विवाहयोग्य उमर के ६३ हजार कुमार्गे को लड़कियाँ नहीं मिल रही हैं । जब इनके लिये लड़कियाँ है ही नहीं तब ये लखपति भले ही बन जाँय परन्तु इन्हें अविवाहित रहना Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) हो पड़ेगा। अगर इनमें में कोई विवाहित हो जायगा तो इसके बदले में किमी दमा को अविवाहित रहना पड़ेगा। धन से लड़कियाँ मिल सकती है परन्तु धन स लडकियाँ बन तो नहीं मकती । मनिये जब तक विधवाविवाह की सुप्रथा का प्रचार नहीं होता नयनक यह समम्या हल नहीं हो सकती। आक्षेप ( क )- अविवाहित रहने का कारण ना हमने कर्मोदय समझ रखा है। यह ( बलाधव्य ) नया कारण तो आपने बय ही निकाला। ( विद्यानन्द ) ममाधान-मोदय ता अन्न कारण है और वह तापस हर एक कार्य का निमित्त है। परन्त यहाँ ना बाह्य कारणों पर विचार करना है। विधवाविवाह का प्रचार भी अपन अपने कर्मोदय के कारण है फिर पाप लाग ज्या उम वरोध में हा हल्ला मचाते है ? चागे करना, स्वन करना, बला. कार करना आदि अनक अभ्याग और अन्याचाग का निमित्त मोदय है फिर शासनव्यवस्था की क्या आवश्यकता ? कर्मो. दय म बीमाग हुआ करती है फिर चिकित्मा और संवा की कुछ ज़रूरत है कि नहीं? कर्मोदय म लक्ष्मी मिलती हे किर व्यापागद की आवश्यकता है कि नहीं? मनुष्यगव देव की गुलामी के लिये नहीं है प्रयत्न के लिये है। इसलिये भले ही म अपना शनि प्राजमाव परन्त हमें ना अपने प्रयत्न स काम लेना चाहिये। 'विधवाविवाह कर लेने पर भी कोई विवाहित न कह. না কি নিথৰাবিৰাহু ম নিন্যা স্কা দ্য না আসা इसका उत्तर हम दे चुके है, और विधवाविवाह को विवाह सिद्ध कर चुके है। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७१ ) बीसवाँ प्रश्न यहाँ यह पूछा गया है कि ये विश्वाएँ न होती तो संख्यावृद्धि होती या नहीं। बहन जातियों में विधवाविवाह होता है और मन्नान भी पैदा होती है इमलिय संग्ख्यावृद्धि को बान तो निश्चित है। जहाँ विधवाविवाह नहीं होता वहाँ भ्रणहत्या आदि में तथा दम्मा विनैकया श्रादि कहलाने वाली सन्तान पैदा होने में विधवाश्री के जननीत्व का पता लगता है। विद्यानन्द जी का यह कहना निरर्थक प्रलाप है कि अगर वे बन्ध्या होती ना ? बन्ध्या हानी तो मन्तान न बढ़नी मिर्फ ब्रह्मचर्याणुव्रत का पालन होना । परन्त जैनममाज की मब विधवा बन्ध्या है इसका कोई प्रमाण नहीं है बल्कि उनके प्रबन्ध्यापन के बहुत R प्रमाण है। श्रीलाल का यह कांग भ्रम है कि विधवाविवाह वाली जातियों की संख्या घट रही है। कोई भी श्रादमी-जिसके आँखें है-विधवाविवाह और सन्तानवृद्धि की कार्यकारणव्याप्ति का विरोध नहीं कर माता । गंग म, भूना मर कर या अन्य किमी कारण से कहीं की मृत्युमंख्या अगर यह जाय तो इम में विधवाविवाह का कोई अपराध नहीं है। उमम ती यथासाध्य संख्या की पनि ही होगी। परन्तु बलाद्वैधव्य में तो संन्या हानि ही होगी । विधवाविवाह में व्यभिचारनिवत्ति नहीं होती, इसका खगडन हम पहिले कई बार कर चुके हैं। मुष्टि की चर्चा के लिये अलग प्रश्न है। वहीं विचार किया जायगा । आक्षेप (क)-माना बहिन आदि में मांग करने में भो सन्तान हो सकती है । ( श्रीलाल) समाधान-जिम दिन माताओं और बहिनी को पुत्र Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १७२। और भाई को छोड कर दुनियाँ में और कोई पुरुष न मिलेगा श्रोर पुरुषों का माँ यहिन छोड़कर और कोई स्त्री न मिलेगी, भाई बहन म ओर माँ बेटे में गुप्त व्यभिचार की मात्रा बढ़ जावगी, भ्रणहत्याएं होने लगेंगी, उनकी कामवासना को मीमित करने के लिये और कोई स्थान न रहंगा, उस दिन माँ बेटे और वहिन भाई के विवाह की समस्या पर विचार किया जा सकता है। प्रापक विधवाविवाह में बढ़ने वाली सख्या के ऊपर मां बहिन के साथ शादी करने की बात कह कर जिम घार निजता का परिचय दे रहा है, क्या यह परिचय विधुरविवाह क. विषय में नही दिया जानकता ? मन्तान के बहाने से अपना पुनर्विवाह करने वाले विधुरा, अपनी माँ बहिन में शादियाँ क्यों नहीं करते ? जा उत्तर विधुविवाह के लिये है वही उत्तर विधवाविवाह के लिये है। इस प्रश्न में यह श्रापक अन्य प्रश्ना में अधिक लड. रन डाया है. इसलिये कुछ भी न लिखकर यह असभ्य कथन नया लेंडग आदि शब्दों का प्रयाग किया है। माक्षेप-( ख ) अठारह प्रश्न में आपने कहा था कि प्रतिवर्ष जेनियों की संख्या ७ हज़ार घट रही है। अब कहते है कि बढ़ रही है । म हरजाई ( रिपार्ट का हम विचार नहीं करते । ( विद्यानन्द) समाधान-प्रापके विश्वाम न करने में रिपार्ट की उपयोगिता नष्ट नहीं होती, न वस्तुस्थिति बदल जाती है। पशु क. आँगन मींचने से शिकागे का अस्तित्व नहीं मिट जाता। जैनियों को जनसंख्या प्रतिवर्ष सात हजार घट रही है परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि जैनियों के किसी घर में जनसंख्या बढ़ती नहीं है। एसे भी घर हैं जिनमें दो से इस श्रादमी हो गये होंगे परन्तु वे घर कई गुणे है जिनमें दस से Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) दो आदमी ही रह गये हैं । कहीं वृद्धि और कहीं हानि तो होती ही है परन्तु सुन सात हज़ार हानि का है । किसी किमी जाति में संख्या बढ़ने से जैन समाज की संख्याहानि का निषेध नहीं किया जा सकता। जिन जातियों में विधवाविवाह का रिवाज है उनमें संख्या नही घटती है, या बढ़ती है। साथ ही जिन जातियों में विधवाविवाह का रिवाज नहीं है उनमें इतनी संख्या घटती है कि विधवाविवाह वाली जातियों की संख्यावृद्धि उस घटी का पूरा नहीं कर पाती । आक्षेप ( ग ) - हमारी दृष्टि में तो विधवाविवाह से बहन वाली संख्या निर्जीव है । (विद्यानन्द ) समाधान —— इसका उत्तर ता युगप अमेरिका आदि देशों क नागरिकों की अवस्था से मिल जाता है । प्राचीनकाल क व्यभिचारजान सुदृष्टि आदि महापुरुष भी ऐसे आक्षेपकों का मुँह तोड़ उत्तर देते रहे हैं। विशेष के लिये देखो (१८ ङ) आक्षेप (घ) विधुरत्व के दूर करने का उपाय शास्त्रा में है । साध्य के लिये श्रवध विधान हे श्रमाध्य के लिए नहीं । एक ही कार्य कही कर्तव्य और सफल होता है, कही अकर्तव्य और निष्फल । समाधान-विधुरत्व और वैक लिये एक ही विधान है. इस विषय में इस लब में अनेकवार लिखा जा चुका है । असाध्य के लिये आप का विधान नहीं है परन्तु असाध्य उसे कहते हैं जो चिकित्सा करने पर भी दूर न हो सके । वैधव्य नो विधुत्व के समान पुनर्विवाह से दूर हो सकता है, इसलिये वह असाध्य नहीं कहा जा सकता। एक ही कार्य कहीं कर्तव्य और कहीं कर्तव्य हो जाता है इसलिये कुमार कुमारियों के लिये विवाह कर्तव्य और विधुर विधवाओं के लिये अकर्तव्य होना चाहिये । पुनर्विवाह यदि विधु के लिये श्रकर्तव्य नहीं है Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) तो विधवाओं के लिये भी अकर्तव्य नहीं कहा जा सकता। आक्षेप (ङ)-गान जाने वाले ६०८ जीवों की संख्या में कमी न पाजाय इमलिये हम विधवाविवाह का विरोध करने है। ( विद्यानन्द ) ममाधान-जैनधर्मानुसार छः महीने अाठ समय में ६०% जीव मोक्ष जाने का नियम अटल है। उसकी रक्षा के लिये प्रानपक का प्रयत्न हाम्याम्पत है। फिर आक्षक जहाँ। भरत. क्षेत्र में) प्रयत्न करता है वहाँ तो मोक्षका द्वार अभी बन्द ही है। नीमरी बात यह है कि विधवाविवाह से मोक्ष का मार्ग बन्द नही हाता । शास्त्री की प्राज्ञाएँ जो पहिले लिखी जा चुकी है और सुदृधि का जीवन हम बात के प्रबल प्रमाण है। । आक्षप (च)-~-मध्यमाची, तुम ोरता की भाँति बिलख बिलख कर क्यों ग रहे हो ? तुम्हें औरत कोन कहता है ? तुम अपने आप औरत बनना चाहो ता ११ डबल के बताशं भेज दो। गहाँ से एक नावीज़ भेज दिया जायगा। तुम तो न औरत हो न मर्द । मध्यमाची (अर्जुन ) नपुंसक हो । (विद्यानन्द ) समाधान-पाक्षेपकों को जहाँ अपनी अज्ञानता का मात्राधिक परिचय होगया है वहां उनने इसी प्रकार गालियाँ दी है । ये गालियाँ हमने इनके भंडपन की पोल खोलने के लिये नहीं लिखी हैं परन्तु इनके टुकडम्बार पन को दिखाने के लिये लिखी है । श्रादेषक १। पैसे के बताशों में मुझे स्त्री बना दन का गा दुनिया में प्रसिद्ध कर देने को तैयार है। जो लोग शपेस में मर्द को स्त्री बनाने के लिये नयार हैं वे भरपेट गेटियाँ मिलने पर धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म कहने के लिये तयार हा जाय तो इसमें क्या आश्चर्य है ! जो लोग इन पंडितों को टुकड़ों का गुलाम कहते हैं वे लोग कुछ नरम शब्दों का Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) ही प्रयोग करते हैं। प्राक्षक ने ताबीज़ बाँधने की बात कह. कर अपने गुप्त जीवन का परिचय दिया है । तावीज़ बाँधने वाले बगलाभक्त ठगों से पाठक अपरिचित न होंगे। रही नपुं. सकता की बात सो यदि कोरवदल को पाप का फल चखाने वाला और उसी भव से मोक्ष जाने वाला अर्जुन नपुंसक है तो ऐसी नपुंसकता गौरव की वस्तु है। उम पर अनन्तपांगा. पशियों का पुरुषत्व न्याछावर किया जा सकता है। हमने एक जगह लिखा है कि "हमने विधवाविवाह का विरोध करके स्त्रियों के मनुष्याचिन अधिकारी को हड़पा इमलिय आज हम दुनिया के सामने प्रोग्त बनके रहना पड़ता है । कभी २ एक आदमी के द्वारा 'हम' शब्द का प्रयोग समाज के लिये किया जाता है। यहाँ 'हम' शब्द का अर्थ 'जैनसमाज' म्पष्ट है। परन्तु जब कुछ न बना तो आपक ने इसी पर गालियाँ देना शुरू कर दी। इस तरह के वाक्य तो हम भी श्राक्ष पक के वक्तव्य में म उधृत कर सकते हैं। १८ वे प्रश्न में श्रापक ने एक जगह लिखा है कि "हम विधवाओं के लिये तड़प रहे हैं, उन्हें अपनी बनाने के लिये छटपटा रहे है।" अब इस आक्षेपक में कोई पूछ कि 'जनाच ! आप ऐसी बदमाशी क्यों कर रहे है। शाक्षेप (छ)-यदि जैनधर्म का सम्बन्ध रक्त मांस में नहीं है तो उमक भक्षण करने में क्या हानि ? (विद्यानन्द) ममाधान-हानि नो मलमूत्र मधुमद्य प्रादि के भक्षण करने में भी है तो क्या जैनधर्म के लिये इन सब चीजों के उपयोग की भी आवश्यकता होगी ? जिम भक्षण करने में भी हानि है उसको जैनधर्म का आधार स्तम्भ कहना गजब का पाण्डित्य है। यहाँ तो श्राक्षपक के ऊपर ही एक प्रश्न Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खड़ा होता है कि अब आप रक्त मांस में शुद्धि समझते हैं नो उसके भक्षण करने में क्या दोष? आक्षेप (ज)-द्रव्यवेद (स्त्री) पाँचवेंना क्यों ? भाव. चंद नघमें तक क्यों ? क्या यह सब विचार रक्त माँस का नहीं है । (विद्यानन्द ) ममाधान-वेद को रक्तमांस समझना भी अद्भुत पागिडत्य है । खैर, यह प्रश्न भी आक्षेपक के ऊपर पड़ता है कि एक ही माता पिता से पैदा होने वाले भाई बहिन की रक्तः शुद्धि ता समान है फिर म्त्री पाँच गुणस्थान तक ही क्यों ? गदि स्त्रियों में रक्त माँम की शुद्धि का प्रभाव माना जाय तो क्या उनके सहोदर भाइयों में उनकी कुल जाति जुदी मानी जायगी ? और क्या सभी स्त्रियाँ जारज मानी जायँगी ? माक्षेप (झ)-बिना वज्र वृषभनागच संहनन के मुक्ति प्राप्त नहीं होती। कहिये शरीर शुद्धि में धर्म है या नहीं ? समाधान--संहनन को भी रक्त मांस शुद्धि समझना विचित्र पागिडत्य है । क्या व्यभिचारजातों के वज्र वृषभनागच संहनन नहीं होता? क्या मच्छों के बज्र वृषभनागच मंहनन नहीं होता ? यदि होता है तो इन जीवों का शरीर ब्राह्मी सुन्दरी सीता आदि देवियों और पञ्चमकाल के अनकवस्ती तथा अनेक प्राचार्यों के शरीर में भी शुद्ध कह. लाया क्योंकि इनके वज्रवृषभनाराच संहनन नहीं था । कहीं रक्त शुद्धि का अर्थ कुलशुद्धि जातिशुद्धि करना, कहीं संहनन करना विक्षिप्मना नहीं तो क्या ? आक्षेप ( अ )--सुभग आदि प्रकृतियों के उदय से पुण्यात्मा जीवों के संहनन संस्थान मादि इतने प्रिय होते हैं कि उन्हें छाती से चिपटाने की लालसा होती है। (विद्यानन्द) Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७७ ) ममाधान -इसीलिये तो शरीर के साथ जैनधर्म का कुछ सम्बन्ध नहीं है। शरीर के अच्छे होने से उसे छाती से चिपटाने की लालसा होती है परन्तु किसी को छाती से चिपटाने से मोक्ष नहीं मिलता, मान दूर भागता है। धर्म और मोक्ष के लिये तो यह विचार करना पड़ता है कि "पल रुधिर गधमल थैली, कोकम बमादि ते मैली । नवद्वार बहे घिनकारी, प्रम दह करें किम यारी॥" आक्षेप ( 2 )-जहाँ रक्त मांस की शुद्धि नहीं है, यहाँ धर्मसाधन भी नहीं है, यथा म्वर्ग प्रादि । (विद्यानन्द ) समाधान-देवों के शरीर में रक्तमांस की शुद्धि नहीं है परन्तु अशुद्धि भी तो नहीं है । यदि शरीर का धर्मस सम्बन्ध होना तो दवा को मोक्ष बहुत जल्दी मिलता। ममन्तभद्र स्वामी ने प्रातमीमांसा में तीर्थंकर भगवान को लक्ष्य करके कहा है कि "भगवन् ! शागरिक महत्व तो आपके समान देवों में भी है इसलिये श्राप महान नहीं है"। इमसे दो बाने सिद्ध होती हैं । पहिली तो यह है कि परमात्मा बनने के लिये या परमात्मा कहलाने के लिये शरीर शुद्धि की बात कहना मखेता है। दूसरी यह कि दवा का शरीर भी शुद्ध होता हे फिर भी वे धर्म नहीं कर पाते। अगर रक्त मांस की शुद्धि' शब्द को हो पकड़ा जाय तो भोगभूमिजों के यह शुद्धि होती है, फिर भी व धर्म नहीं कर पाते हैं। पशुभों के यह शुद्धि नहीं होती किन्तु फिर भी इन सबसे अधिक धर्म पंचमगुणस्थान और शुक्ल श्या धारण कर लेते हैं। शीग्शुद्धिधारी भांगभूमिज तो सिर्फ चौथा गुणस्थान और पीन लेश्या तक ही धारण करपाते हैं। * अध्यात्म बहिरप्येष विग्रहादिमहादयः । दिव्यः सत्यो दिवौकस्स्वप्यस्ति गगादिमत्सु सः। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) म्लेच्छ और सुदृष्टि के मोक्षगमन तथा पूज्यपाद और विषण आदि प्राचार्यों के प्रमाणों स व्यभिचारजान प्रादि भी माक्ष जा सकते है यह बात लिखी जा चुकी है । इक्कीसवाँ प्रश्न । अलासच्या हाने से मुनियों का आहार में कठिनाई होनी है। यद्यपि अाजकल मुनि नहीं है, फिर भी अगर मुनि हो तो व मब जगह विहार नहीं कर सकते क्योंकि अनेक प्रान्ती मे जेनी है ही नहीं और जहां हे भी वहां प्रायः नगर्ग में ही है। मनियों में अगर इतनी शक्ति हो कि वे जहाँ चाहे जाकर नये जैनी बनाव और समाज के ऊपर प्रभाव डालकर उन नये जैनियों को समाज का अजम्वीकार करावे ना यह समस्या हल हो सकती है। परन्तु हर जगह तुरन्त ही नये जैनी बनाना और उहित्यागपूर्वक उनसे आहार लेना मश्किल है, इमलिय जैन समाज का बहुसंख्यक हाने की मावश्यकता है। विधवाविवाह मंशावृद्धि में कारण है, इमलिय विधवाविवाह मुनिधर्म के अस्तित्व के लिये भी अन्यतम साधन है। आक्षेप ( क )-जब मार्ग में जैन जनता नहीं तब जो भक्त गृहस्थ अपना काम धन्धा छोड़कर मुनिसेवामें लगे उम क समान दूसग पुगय नहीं। मुनियों को हाथ से गटी बनाकर खाने की सलाह देना धृष्टता हे। समाधान-मनियों को ऐसी सलाह देना धृष्टता होगी परन्तु दोगियों की ऐसी मलाह देना परम पुराय है । जेनशास्त्रों क अनुसार उहिष्टत्याग के बिना कोई मनि नही हो सकता और उहष्टत्याग इमलिये कराया जाता है कि वे प्रारम्भजन्य हिमा के पाप से बचें। निमन्त्रण करने में विशेषारम्भ करना पड़ना है । उहिपत्याग में सामान्य प्रारम्भ ही रहता है Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) सामान्य प्रारम्भ के अतिरिक्त जितना प्रारम्भ होता था उससे बचने के लिये उहिष्टत्याग का विधान है। इस ज़गसे प्रारम्भ के बचाने के लिये अगर श्रावकों को घर बटोर कर मुनियों के पीछे सलना पड़े और नये नये स्थानों में नये तरह से नया प्रारम्भ करना पड़े तो यह कीडी की रक्षा के नाम पर हाथी की हत्या करना है । दर्जनों कुटुम्बी परदेश में जाकर मुनियों के लिये इतना ज्यादा प्रारम्भ करें तो इस कार्य को कोई महा. मद मियादृष्टि ही पुगय ममझ सकता है । इसकी अपेक्षा नो मनि कहलाने वाला व्यक्ति हाथ से पकाके वाले तो ही अच्छा है। आक्षेप (ख)-प्रछतों के हाथ लगने से जल अपेय हो यह अन्धेर नहीं है। ........ .. "उपदेश शक्यानुष्ठान का ही होता है । गहुँ बाध है और खात अखाद्य ............ जिनके हृदय में भी चमार ब्राह्मण सब एक ही उस मा की दृष्टि में सब सन्धेर ही रहेगा । (श्रीलाल) ममाधान--पगिडनदल की मढ़तापूर्ण मिध्यात्ववर्धक मान्यता के अनुसार शद्र के स्पर्श से जलाशय का जल भी अपय होजाता है । इसपर हमने कहा था कि जलाशयों में ना खयं शुद्रों से भी नीच जलचर रहते हैं। इसपर आक्षेपक का कहना है कि वह अशक्यानुष्ठान है । स्वैर ! जलाशयों को जल चगे के स्पर्श से बचाना अशक्यानुष्ठान सही परन्तु स्थलचर पशुओं कस्पर्श से बचाना ना शक्य है । फिर स्वलचर पशुओं संम्पर्श से जलाशयों का जल अपेय क्यों नहीं मानते ? पशुओं के स्पर्शले अपेय न मानना और मनुष्यों के स्पर्श से अपय मानना घोर धृष्टता नहीं तो क्या है ? इसका स्पष्ट कारण ना यही है कि जिनके आगे तुम जातिमद का नहा नाच कगना चाहते हो उन्हीं के विषय में अस्पृश्यता की बात निकालते हो । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) खान का पर्श ग्स गन्ध्र वर्ण मभी घृणिन हैं । उसमें कृमि प्रादि भी रहते हैं इसलिये वह भणाय है। गेहूँ में ये बुगाइयाँ नहीं है इसलिय खाद्य है। क्या आक्षेपक बतलायगा कि जीवित प्राणियों को निगल जाने वाले मगर मच्छो में तथा अन्य अशुनिभाजी पशुओं में ऐसी कौनसी विशेषता है जिससे वंशूद्रों से भी अच्छ समझ जात है। हमारे सामने नो ब्राह्मण और शुद्ध दोनों बराबर है। जो सदाचारी है वही उच्च है। तुम मर्गख सदाचारशत्रुश्री और धर्मवंसियों में ही सदाचार का कुछ मूल्य नहीं है । तुम लोग शैतान के पुजारी हो इमलिये दुराचारी का इतना घणित नही समझते जितना शद का। हम लोग भगवान महावीर 2. उपासक हैं इसलिये हमारी दृष्टि में शद भी भाई के समान हे । मिर्फ दुगचार्गनिंद्य है। प्राक्षेप (ग)-जवनक शरीर में जीव है तब तक वद हाड़ मांस नहीं गिना जाता । ( श्रीलाल) ममाधान-तब तो शद का शरीर भी हाड़ मांगन गिना जायगा । फिर उसके हाथ के जल से और उससे छुए हुप जलाशय क जल तक सं इतनी घृणा क्यों ? विद्यानन्द ने हमारे लेख में भाषा की गल्लियां निकालने को अमफाल चेपा की है। हिन्दी में विक्ति चिन्ह कहाँ लगाना चाहिये, कहाँ नहीं. इसके समझने के लिये भापक का कुछ अध्ययन करना पड़ेगा । 'सान नहीं मिलता-यहाँ 'को' लगाने की कोई भावश्यकता नहीं है। अगर 'को' लगाना ऐसा अनि. वार्य होनी में जाने भी न पाया कि उसने पकड लिया' इम वाक्य में 'जान' के माथ को लगाना चाहिये और जाने क भी न पाया' लिखना चाहिये । 'जादा' 'यादह' 'यादह' 'ज्यादः' इनमें से कौनसा प्रयोग ठोक है इस को मीमांना Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) का यह स्थल नहीं है । ऐसी अप्रस्तुत बानों को उठाकर भा. पक, अर्थान्तर नामक निग्रहस्थान में गिर गया है। प्राक्षप (घ)-नोटिसबाजी करते करते किसका दम निकला जाता है । गर्मी की बीमारी मुम्बई में हो सकती है। यहाँ तो नवाबी ठाठ है । (विद्यानन्द ) समाधान-नोटिसबाज़ी का गर्मी की बीमारी से क्या सम्बन्ध ? और गर्मी की बीमारी के अभाव का नवाबीढाठ में क्या सम्बन्ध ? ये बीमारियां तो नवायी ठाठ वालों को ही हुमा करती हैं। हाँ, इस वक्तव्य में यह बात ज़रूर सिद्ध हो जाती है कि आक्षेपक, समाजसंवा की ओट में नवाबी ठाठ से खब मौज उड़ा रहा है मो जब तक समाज अन्धी और मुढ़ है तब तक कोई भी उसके माल से मौज उड़ा सकता है। आक्षेप (ङ)-दुनियाँ दूसरों के दोष देखनी है परन्तु दिल खोजा जाय तो अपने से बुग कोई नहीं है। (विद्यानन्द) ममाधान-क्या इस बात का खयाल आक्षेपक ने सुधारका का कोसते समय भी किया है ? मनियेषियों के विरुद्ध जो हमने लिखा है वह इसलिय नहीं कि हमें कुछ उन गरीब दीन जन्तुओं से द्वेष है। वे बेचारे ना भूख और मान काय के सताये हुए अपना पेट पाल रहे हैं और कषाय की पूर्ति कर रहे हैं। ऐसे निकृष्ट जीव दुनियाँ में अगणित हैं। हनाग ना उन सब से माध्यस्य भाव है। यहाँ जो इन ढोंगियों की ममालोचना की है वह सिर्फ इसलिये कि इन दागियों के पोछ सपा मुनिधर्म पदनाम न हो जाय । अनाधविद्या की बीमारी मे लोग यों ही मर रहे हैं। इस प्रपथ्य सेवन से उनकी बीमारी और न बढ़ जाय । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२) माक्षेप ( च (-मुनियों के साथ श्रावक समूह का चलना नाजायज़ मजमा नहीं है। समाधान-केवली को छोड़कर और किसी के साथ श्रावकसमूह नहीं चलना। हाँ, जब भट्टारको की सृष्टि हुई और उनमें से जब पिछले भट्टारकों ने धर्मसंवा के स्थान में समाज से पूजा कराना और नवाबी ठाठ से रहना ही जीवन का ध्येय बनाया तब अवश्य ही उनने ऐमी अाझाएँ गढ़ डाली जिससे उन्हें नावबी ठाठ से रहने में सुभीता हो । प्राचीन लोगों के महत्व बढ़ाने के बहाने उनने अपने म्वार्थ की पुष्टि की। पीछे भाले मनुष्यों ने उसे अपना लिया। माक्षेप (छ)-गटी ना पाठवी प्रतिमा धारी भी नहीं बनाता। फिर मुनियों में ऐसी बात कहना तो प्रमभ्य जोश की चरम सीमा है। (विद्यानन्द ) समाधान-जिन असभ्य ढोंगियों के लिये रोटी बनाने की बात कही गई है वे मुनि. आठवी प्रतिमाधारी या पहिली प्रतिमाधारी नोदर, जैनी भी नहीं है, निकृष्ट मिथ्याष्टि हैं। दूसरी बात यह है कि प्रारम्भ त्याग में प्रारम्भत्याग तो होना चाहिये । परन्तु ये लोग पेटपूजा के लिये जैसा घोर प्रारम्भ कराते हैं उसे देखकर एक उद्दिप्रत्यागी तो क्या प्रारम्मत्यागी भी शामिन्दा हो जायगा । विशेष के लिये देखो २१-क । प्रकृत के विषय में २१-ख में विचार किया गया है। माक्षेप । ज)-मुनियों के लिये अगर केवल अप्रासुक भोजन का ही विचार किया जाता तो मूलाधार आदि में १६ उद्गम दोष और ४६ अन्तगय टालने का विधान क्या है ? (विद्यानन्द) समाधान-दोष और अन्तराय के भेद प्रभेद जो मला. धार आदि में गिनाये गये है वे तीन बातों को लक्ष्य करके । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८३ ) १ भोजन श्रप्राक तो नहीं है, २ मुनि को कोई कषाय भांगाकांक्षा आदि तो उत्पन्न नहीं होती है, ३ दाता में दाता के योग्य गुण हैं कि नहीं। भोजन के विषय में तो प्रासुकता के सिवाय और कोई विशेषण डालने की ज़रूरत नहीं है । शुद्र जल से प्रासुकता का भङ्ग होजाता है या कोई और दोष उपस्थित हो जाता है, इस बात का विधान भी मूलाधार में नहीं है। भांज्य के विषय में जितने दोष लिखे गये हैं वे सिर्फ इसीलिये कि किसी तरह से वहाक तो नहीं है । जानिमद का नङ्गा नाच दिखाने के लिये जस्त के विषय में अविचारशून्य शर्तें तो इन मदान्ध ढोंगियों की ही है । जैनधर्म का इनके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है | बाईसवाँ प्रश्न | इस प्रश्नका सम्बन्ध भी बालविवाह से है । इस विषय में पहिले बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इस विषय में श्राक्षेपकों का लिखना बिलकुल हास्यास्पद | प्रस्तु आक्षेप ( क ) - विवाह करके जो ब्रह्मचर्य पालन करे वह अवश्य पुरा का हेतु है । (श्रीलाल ) समाधान- -क्या विवाह के पहिले ब्रह्मचर्य पाप का हेतु है ? ब्रह्मचर्य को किसी समय पाप कहना कामकीटता का परिचय देना है। आक्षेप ( ख ) - जिनेन्द्र की श्राशाका भङ्ग करना पाप है । बारहवर्ष में विवाह करने की जिनेन्द्राशा है । ( श्रीलाल ) समाधान - जिनेन्द्र, विवाह के लिये कम से कम उमर का विधान कर सकते हैं, परन्तु ज्यादा से ज्यादा उमर का नहीं । १२ वर्ष का विधान जिनेन्द्र की आशा नहीं है। कुछ लेखकों ने समय देखकर ऐसे नियम बनाये हैं, और ये कम से Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८४ ) कम उमर के विधान हैं। अन्यथा १६ वर्ष से अधिक उमर के कुमार का विवाह भी पाप होना चाहिये । ऐसी तुच्छ श्रौर ब्रह्मचर्यविरुद्ध आशाओं को जिनेन्द्र की आज्ञा बतलाना जिनन्द्रका अववाद करना है 1 प्रक्षेप ( ग ) - जो ब्रह्मचर्य भी न ले और संस्कार भी समय पर न करे वह अवश्य पापी है। ब्राह्मी श्रादिने तो जीवन भर विवाह नहीं किया इसलिये उन का ब्रह्मचर्य पाप नहीं है । ( श्रीलाल ) समाधान-संस्कार, बनादि की योग्यता प्राप्त करानेक लिये है । जब मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता तब अांशिक ब्रह्मचर्य के पालन कराने के लिये विवाहको श्रावश्यकता होती है। विवाह संस्कार पूर्णब्रह्मचर्य की याग्यता प्राप्त नहीं कराता इसलिये जबतक कोई पूर्णब्रह्मचर्य पालन करना चाहता है तबतक उसे विवाह संस्कार की आवश्यकता नहीं है। शास्त्रों में ऐसी सैकडों कुमारियों के उल्लेख है जिनने बडी उमर में, युवती हो जाने पर विवाह किया है। विशल्या — विवाह के समय 'शातोदरी दिग्गज कुम्भशोभिस्तद्वयानूतनयौवनस्था' अर्थात् गजकुम्भके समान स्तनवाली थी । पद्मपुराण ६५ – ७४ । जयचन्द्रा - सूर्यपुर के राजा शक्रधनुकी पुत्री जयचन्द्रा को अपने रूप और गुणों का बड़ा घमण्ड था । इसलिये पिता के कहने पर भी उस ने किसी के साथ शादी न कराई । अन्त में वह हरिषेण के ऊपर रोकी और अपनी सखोके द्वारा सांत समय हरिषेण का हरण करा लिया। फिर हरिषेण से विवाद कराया । वैवाहिक स्वातंत्र्य और उमर के बन्धन को न मानने का यह अच्छा उदाहरण है । पद्मपुराण ८ पर्व | Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८५ ) पना-गाना, बजाना मीत रही थी। श्रीकण्ठको देखा ना माहित होगई और माता पितादि की चांग से श्रीकण्ठ के साथ चल दी। पिता ने श्रीकराठका पीछा किया किन्तु लड़ाई के अवसर पर पना ने कहसा दिया कि मैं अपनी इच्छा म आई हूँ, मैं इन्हीं के साथ विवाह करूंगी। अन्तमें पिता चला गया और इसने श्रीक राठम विवाह कर लिया। पर्व पमपुगण। अञ्जना-विवाह के समय कमिकम्भनिभस्तनी' गज कम्भक समान स्तन वाली अर्थात् पूर्ण यवती थी । पद्मपुराणु १५-१७। कंकया-गाना नाचना आदि अनेक कला में प्रवीण, दशरथ को युद्ध में महायता दनवाली के कया का वर्णन जैसा पद्मपुराण २४ वे पर्व में विस्तार से मिलता है वह १२ वर्ष की लड़की के लिए असम्भव है। भाठकुमारियाँ-चन्द्रवर्धन विद्याधर की पाठलड़कियाँ । मीना म्वयम्बर के समय इनने लक्ष्मण को मन ही मन वर लिया था परन्तु विवाह उस समय न हा पाया। जब लक्ष्मण गवण से युद्ध कर रहे थे उस समय मी ये लक्ष्मण को देखने पहुंची। युद्ध के बाद विवाह हुआ । य एक ही माता से पैदा हुई थी इसलिये अगर छोटी की उमर १२ वर्ष की हो तो बड़ी की उमर १६ की जरूर होगी। फिर सीता म्वयम्बर के समय जिनने मन ही मन साक्ष्मण का वरण किया उमका उस समय विवाह न हुआ, कई वर्ष बाद त्वंकाविजय के बाद विवाह हुभा, उस समय तक उनकी उमर और भी ज्यादा बढ़ गई। पाठ गन्धवे कन्याएँ---एक ही माता सं पैदा हुई इस. लिये इनकी उमर में अन्तर था । परन्तु वे एक साथ रामचन्द्र Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) से विवाही गई। विवाह के योग्य उमर हो जाने पर इच्छित वर के न मिलने से इन्हें वाट देखते रुकना पड़ा। लहासन्दरी-हनुमान के साथ इसने घोर युद्ध किया। पापुगण के ५३ पर्व में इसका चरित्र पढ़ने से इसकी प्रोदना का पता लगता है। पुराणों में ऐसे सैकड़ी उल्लेख मिलते हैं जिनसे यवती. विवाह का पूर्ण समर्थन हाता है। कन्याएँ कोई प्रतिज्ञा कर लनी या किमी खास पुरुष को चुन लेती जिसके कारण उन्हें वर्षों बाट दशनी पड़ती थी । पंसी अवस्था में १२ वर्ष की उमर का नियम नहीं हो सकता । कन्याओं के जैसे वर्णन मिलते हैं उनसे भी उनके योवन और परिपक्वबुद्धिता का परिचय मिलता है जा १२ वर्ष की उमर में असम्भव है। इन उदाहरणों से यह बात भी सिद्ध हो जाती है कि पुगन समय में कन्या को स्वतन्त्रता थो और उन्हें पति पसंद करने का अधिकार था । इस स्वतन्त्रता मोर पसन्दगी का विगंध करने वाले शास्त्रविरोधी और धर्मलादी हैं। भाक्षेप ( घ)-यदि ब्रह्मचर्य की इतनी हिमायत करमा है ना विधवा के खिये ब्रह्मचर्य का ही विधान क्यों नहीं बनाया जाता! ___ ममाधान-चाहे कुमारियाँ हो या विधवाएं हो हम दानों के लिय बलाद् ब्रह्मचर्य मोर बसाविवाह बुरा समझते हैं। जो विधवाएँ ब्रह्मचर्य से रहना चाहे, हे । जो विवाह करना चाहें, विवाह करें। कुमारियों के लिये भी हमारा यही कहना हे । कुमारी और विधवा जब तक बह्मचर्य से रहेंगी नबनक पुण्यबन्ध होगा। माक्षेप ( 3 )-जो लोग यह कहते हैं कि जितना ब्रह्मचर्य पल सके उतना ही अच्छा है व ब्रह्मचर्य का अर्थ हो Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८७) नहीं समझते । ब्रह्मचर्य का अर्थ मजबूरी से मैथुन का अभाब नहीं है किन्तु प्रात्मा की ओर ऋजु होने को ब्रह्मचर्य कहते हैं। कोई कन्या मनमें किसी सुन्दर व्यक्ति का चितवन कर रही है। क्या आप उसे बह्मचारिणी समझते हैं ? (विद्यानन्द | समाधान-कितनी अच्छी बात है ! मालूम होता है छिपी हुई सुधारकता प्रमावधानी से छलक पड़ी है। यही बात तो सुधारक कहते हैं कि विधवाओं के मैथुनाभाव को वे ब्रह्मचर्य नहीं मानते क्योंकि यह विधवाओं को मजबूरी सं करना पड़ता है और यह मजबूर्ग निरुपाय है । कमारियों के लिये यह बात नहीं है। उन्हें मजबूर्ग से ब्रह्मचर्य पालन नहीं करना पड़ता। फिर उनके लिये विवाह का मार्ग खुला हुआ है । विवाहमामग्री रहने पर भी अगर कोई कमागे विवाह नहीं करती ता उम्मका कारण ब्रह्मचर्य ही कहा जासकता है। विधवाओं को अगर विवाह का पूर्ण अधिकार हो मोर फिर भी अगर वे विवाह न करें तो उनका वैधव्य ब्रह्मचर्य कहलायगा । माक्षेप (च)-मबको एक घाट पानी पिलाना-एक डंडे से हाँकना नीतिविरुद्ध है। समाधान-एक घाट से पानी पिलाया जाता है और एक रण्डे से बहुत से पशु हांक जाते हैं। जब एक घाट और एक डरे से काम चलाना है तब उसका विगंध करना फिजूल है। कुमार कुमारी और विधुगे को जिन परिस्थितियों के कारण विवाह करना पड़ता है व परिस्थितियाँ यदि विधवा के लिये भी मौजूद हैं तो वे भी विवाहघाट सं पानी पी सकती हैं। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) नेईसवाँ प्रश्न । इस प्रश्न का सम्बन्ध विजातीय विवाह से अधिक है। विजानीय बियाह के विषय में इतना लिखा जा चुका है कि प्रय जो कुछ लिखा जाय वह सब पिएपंषण होगा। प्राक्षेप ( क)-मामदेव करते हैं कि जानियाँ अादि है । ( श्रीलाल विद्यानन्द । ममाधान-जानियाँ दा नरह की हैं-कल्पित, अकल्पित । पकन्द्रिय श्रादि अकल्पित जानियाँ है । बाको ब्राह्मण क्षत्रियादि कहिग्न जातियाँ हैं। एकन्द्रिय प्रादि भरिपन जातियों अनादि हे । कलियन जानियाँ अनादि नही है, अन्यथा इनकी रचना ऋषभदेव ने की या भग्न ने कायह बान शास्त्रों में क्यों लिखी होतो? माने । न -नामचन्द्र मिद्धान्तचक्रवर्ती ने १२ खरब जानियां कही हैं। ( श्रीलाल ) मपाधान-माक्षरक अगर किमी पाठशाला में जाकर गाम्मटमार पदले नाघह नमिचन्द्रका समझने लगेगा। नामचन्द्र ने सिर्फ पाँच ही जातियों का उल्लेख किया । १२ बरब जानिया का उम्ख बनाने के लिये हम आक्षेपक को चुनौती दत है।२लन कोटी कुलों का उल्लख नमिचन्द्र ने ज़रूर किया है परन्तु उन कुलों को जाति समझ लेना घोर मुर्खना का परिचय देना है। गाम्मटसार टीका में ही कुल भेदाका मर्थ शरीगत्पादक वर्गणाप्रकार किया गया है। अर्थात् शगेर बनने के लिये जितनी तरह की वर्गणाएं लगती हैं उतने ही कुन है। एक हो यानि मे पैदा हान वाले शरीगेके कुल लाखों होते हैं क्योंकि यानिभेदसे कुलके भेद लागोंगुणे हैं और एक ही जानि-में चाहे वह कल्पित हा या अकलिपन -लाखों Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८६) तरह की यानियाँ होती हैं। इमलिये योनि या कुस्तकी जातियाँ कहदेना बिलकुल मुर्खता है। शास्त्रकारों ने भी योनिभेद और कुलभेदों को जानि नहीं कहा । नार्गकयों में जातिभेद नहीं है फिर भी लाखा यानियाँ और मनुष्यों को अपेक्षा दुगुने से भी अधिक कुल है। आक्षेप (ग)-कालकी पलटनाके अनुमार जातियों की संज्ञाएँ भी बदल गई । (विद्यानन्द ) ममाधान-नो पुगने नाम मिलना चाहिये या अन्य किसी रूप में इनका उल्लंब होना चाहिये । प्राप(घ)-जाति एक शब्द है, उसका वाच्य प्रगर गुणरूप है नो अनादि अनन्त है। अगर पर्यायरूप है ना धोव्य क्या है। जो ध्रौव्य ह वही जानियों का जीवन है। (विद्यानन्द) ममाधान-महशता को जाति कहते हैं । सरशता गुग्ण पर्याय आदि सभी में हो सकती हैं। दव्य गुण की सरशना अनादि है और पर्याय की सरशता मादि है । वर्तमान जानियाँ (जिनमें विवाह की चर्चा है)ना न गुणरूप हैं न पर्याया। व ना बिलकुल कल्पित हैं। नामनिक्षा में अधिक इनका महन्त्र नहीं है। यदि इनका पर्यायरूप माना जाय तो इनका मुल जीव मानना पड़ेगा । इमलिये भापक के शब्दानुसार 'जीवन्त्र जानि कहलायगी। जीव को एक जाति मान कर उमका पुद्गल धर्म अधर्म में विवाह करने का निषेध किया जाय ना कोई आपत्ति नहीं हैं। जिम प्रकार कलकनिया, बंगाली, बिहारी, लखनवी, कानपुरी मादि में अनादित्व नहीं है उसी प्रकार ये जातियाँ हैं। यदि माक्षेपक का दल इन उपजानियों को अनादि Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) अनन्त मानता है, छठे काल में भी ये जातियाँ बनी रहती हैं तो यह मानना ही पड़ेगा कि विजातीय विवाह आदि से इन जातियों का नाश नहीं हो सकता। जब जाति का नाश करना असम्भव है तो उसकी रक्षा करने की चिन्ता मूर्खता है । प्रक्षेप (ङ) - अनुमानतः इन जातियों का नवीनत्व प्रसिद्ध है । ( विद्यानन्द ) समाधान - मांगभूमियों में जातिभेद नहीं था । ऋषदेव ने तीन जातियाँ बनाई । भरत ने चौथी । इससे इतना तो सिद्ध हो गया कि ये भरत के पीछे की है। इसके बाद किसी अन्य तीर्थंकरादि ने इनकी रचना की हो ऐसा उल्लेख कहीं नहीं है। हाँ, ऐतिहासिक प्रमाण इतना अवश्य मिलता हैं कि हुएनसंग के ज़माने में भारत में सिर्फ ३८ जातियाँ थीं और आज करीब ४ हज़ार हैं । इससे मालूम होता है कि पिछले डेढ़ दो हज़ार वर्षो में जातियों का ज्वार श्राता रहा है उसी में ये जातियाँ बनी हैं। अब तक जैनियों का सामाजिक बल रहा तब तक इन जातियाँ की सृष्टि करने की ज़रूरत हो ही नहीं सकती थी। बाद में इनकी सृष्टि हुई है । चौबीसवाँ प्रश्न | इस प्रश्न में यह पूछा गया था कि विधवाविवाह से इनके कौन कौन अधिकार छिनते हैं । यह बात हमने अनेक प्रमाणों में सिद्ध की है कि इनके कोई अधिकार नहीं छिनते । परन्तु श्रीलाल ने तो बिलकुल पागलपन का परिचय दिया । यह बात उसके आक्षेपों से मालूम हो जायगी । है आक्षेप ( क ) - जो अधिकारी होकर अधिकार सम्बन्धी किया नहीं करता वह धिक्कारी बन जाता है । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१) समाधान--कोई इस प्राक्षेपक से पूछे कि तुझे मुनि बनने का अधिकार है या नहीं? यदि है, तो तू मुनि क्यों नहीं बनता ? अब तुझे धिकारी कहना चाहिये? क्या प्रापिक इनना भी नहीं समझता कि मनुष्य को धर्म करने का पूर्ण अधिकार है परन्तु धर्म उतना ही किया जासकता है कि जितनी शक्ति होती है । (विशेष के लिये जैनजगत् वर्ष ४ अङ्क ७ में 'योग्यता और अधिकार' शीर्षक लेख देखना चाहिये ।.) "गारुपवाले मांसभक्षी हैं इसलिये जो हिन्दुस्थानी यांरुप जाते हैं उनका व अपमान करते हैं क्योंकि योरुप जाने वाले भारतीय धर्मकर्मशून्य है"। श्रीलाल के इन शब्दों के विषय में कुछ कहना वृथा है । भारतीय छूनाखून छोड़ देते हैं या पाए पगिडतों की प्राशा में नहीं चलते इसलिये उनका विलायत के लोग अपमान करते हैं, ऐसा कहना जब. दस्त पागलपन के सिवाय और क्या कहा जा सकता है? आक्षेप (स)-सुमुख आदि के दृष्टान्त से व्यभिचार की पुष्टि नहीं होती । वे ना त्याग करके उत्तम गति गये । दानादि करके उत्तमति पाई । इसमें कौनसा आश्चर्य है ? (श्रीलाल) ममाधान-धर्म से हो उत्सम गति मिलती है, परन्तु इस सिद्धान्त को तुम लोग कहाँ मानते हो। तुम्हारा तो कहना है कि ऐसा प्रादमी मनि नहीं बन सकता, दान नहीं दे सकता, यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता। अब तुम यह स्वीकार करते हो कि व्यभिचारी भी दान दे सकता है, मुनि या धार्यिका के धूत ले सकता है। यही तो हम कहते है। विवाह से या व्यभिचार से मोक्ष कोई नहीं मानता। तुम्हारे कहने से भी यह सिद्ध हो जाता है। जैनधर्म के अनु Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) सार भी उन जातियों के कोई अधिकार नहीं छिन सकते | सुधि के लिये अलग प्रश्न हैं । विद्यानन्दजी की बहुतसी बानों की आलोचना प्रथम प्रश्न में हो चुकी हैं। आक्षेप (ग) विधवाविवाह की सन्तान कभी मोक्षा. भिकारिणी नहीं हो सकती । विष का बीज इसलिये भयङ्कर नाहीं है कि वह विष बीज हे परन्तु विपबीजोत्पादक होने से भयङ्कर है। (विद्यानन्द ) समाधान - यह विचित्र बात है । विषबोज अगर स्वतः भयङ्कर नहीं है तो उस के खाने में कोई हानि न होनी चाहिये. क्योंकि पेट में जाकर वह विषबीज पैदा नहीं कर सकता । व्यभिचारी तो वास्तविक अपराधी है । उस के तो अधिकार लिने नहीं और उस की निरपराध सन्तान का अधिकार छिन जाय यह अन्धेर नगरी का न्याय नही तो क्या है ? बैर । रविषेण आचार्य के कथनानुसार व्यभिचारजान में कोई दुषण नहीं होता। यह हम पहिले लिख चुके हैं। सुटि के उदाहरण से भी यह बात सिद्ध होती है । आक्षेप (घ ) - सम्यसाची का यह कहना कि "विधवाविवाह तो व्यभिचार नहीं है। उससे किसी के अधिकार कैसे छिन सकते हैं" ? यह बात सिद्ध करती है कि व्यभिचार से अधिकार छिनते हैं । समाधान - हमारी पूरी बात उधृन न करके आक्षेपक ने पूरी धूर्तता की है। समाज की आँखों में धूल भोकना चाहा है। पूरी बात यह है' व्यभिचारजात सुदृष्टि सुनार ने मुनि दीक्षा की और मोक्ष गया । यह बात प्रसिद्ध हो है । इससे मालूम होता है कि व्यभिचार से या व्यभिचारजात होने से Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३) किसी के अधिकार नहीं छिनते । विधवाविवाह तो व्यभिचार नहीं है। उससे किमी के अधिकार कैसे छिन सकते हैं?' पच्चीसवाँ प्रश्न । जिन जातियों में विधवाविवाह होता है उन में कोई मनि बन सकता है या नहीं? इसके उत्तग्में दक्षिण की जातियाँ प्रसिद्ध है। शांतिसागर की जाति में विधवाविवाह का श्रामतौर पर रिवाज है। आक्षेप ( क )-जिन घगनों में विधवाविवाह होता है उन घगनेके पुरुष दीक्षा नहीं लेते । पटैल घरानोंमें विधवाविवाह बिस्कुल नहीं होता। कोई खंडेलवाल अगर विधवा विवाह करल ना समग खंडेलवाल जाति दलित नहीं हो सकती। समाधान-शांतिसागर का भूठापन भच्छी नरहमिद्ध किया जाचुका है। सामना हो जाने पर जम्मा व मुंह छिपाते है उससे उनकी कलई बिलकुल खुल जाती है। पटैल घगनेक विषय में लिया जा चुका है। ग्वद शान्तिमागर के भतीजे ने विधवाविवाह किया है । यह बात जैन जगत् में सप्रमाण निकन्न चुकी हैं। यह ठीक है कि एक खगडलवाल के कार्यमें बह जातीय रिवाज नहीं बन जाता है। परन्तु अगर मैकडो वर्षास हजागे मराडेलवाल विधवा-विवाह कराने हों, वे जाति में भी शामिल रहने हो, उनका रोटी बेटी व्यवहार सब जगह होता हा. तब वह रिवाज ही माना जायगा । शान्तिमागर जी की जाति में विधवाविवाह ऐसा ही प्रचलित है। भाक्षेप ( ख )-यदि अनधिकारी होकर भी कोई दस्मामुनि बन जाय तो मनिमार्ग का वह विकृत रूप उपाय कदापि नहीं हो सकता। (विद्यानन्द ) Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४) समाधान-शान्तिमागर का मनि बनना अगर विकृत रूप है ना दम्मी को मान न बनने देने वाले शान्तिसागर को मनि क्यों मानने है ? अगर मनि मानते हैं ना किसी का मनि बनन का अधिकार नही छिन सकता। होना और मकना में कार्य कारण भाव है। जहाँ होना है वहाँ मकना अवश्य है । अगर कोई म्वर्ग जाना है तो इससे यह बात आग ही सिद्ध हो जाती है कि वह म्वर्ग जा सकता है। जब शास्त्रों में ऐम मनियों के बनने का उल्लख है, उन्हें मात नक प्रान हुआ है तब उन्हें मुनि बनन का अधिकार नहीं है ऐमा कहना मृखता है। मशे शास्त्रामें कही किमीका कोई अधिकार नहीं छीना गया। अच्छे काम करन का अधिकार कभी नहीं छीना जा मकता । अथवा नर्गपशाच गक्षस ही ऐस अधिकारी का छीनने की गुम्नाम्बी कर सकते है। छब्बीसवाँ प्रश्न । विधवाविवाह के विगधियों का यह कहना है कि उमम पैदा हुई मन्नान मोक्षाधिकारिणी नहा होती। हमाग कथन यह है कि विधवाविवाह से पैदा हुई मन्नान व्यभिचारजान नहीं हैं और माक्षाधिकारी नो व्यभिचार जान भी होने है। आगधना कथा काष में व्यभिचारजान सुदृष्टि का चरित्र इसका ज़बर्दस्त प्रमाण है। भाक्षेप (क)-सुरष्टि म्वयं अपने वीर्य से पैदा हुये थे । (श्रीखाल ) विनाहिन पुरुष में भिन्नार्य द्वाग जो सन्तान हा वह न्यभिचारजात मन्तति है । बालबा, क्षत्री, वैश्य इन तीन वर्षों की कोई स्त्री यदि परपुरुषगामिनी हो जाय नी परपुरुषात्पन्न सन्तान मोक्ष की अधिकारिखी नहीं Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) है क्योंकि वहाँ कुलशुद्धि का प्रभाव है । यदि उसी स्त्रो के यभिचारिणी होने के पहले स्वपति से कोई सन्तान हो तो वह सन्तति त्रिविध कर्मों का क्षय करने पर मुक्ति प्राप्त कर सकती है । । विद्यानन्द) __ ममाधान-कोई अपने वीर्य से पैदा हो जाय तो उसको व्यभिचारजानता नए नही हो जाती। कोई मनुष्य वंश्या के साथ व्यभिचार करे और शीघ्र ही मर कर अपने ही वीर्य से उमी वेश्या के गर्भ से उत्पन्न हो जाय तो क्या वह व्यभिचारजान न कहलायगा। विद्यानन्द का कहना है कि परपुरुषगामिनी होने के पहिल उत्पन्न हुई मन्तति को मोक्षाधि. कार है परन्तु सुष्टि की पत्नी ता उमर मरने के पहिले ही परपुरुषगामिनी हो चुकी थी। तब वह मांस क्यों गया ? निम्नलिखित श्लोकों से यह बात बिलकुल मिद्ध है कि वह पहिले ही व्यभिचारिणी हो गई थी वक्राख्यो दुधीस्तस्या गृहे छात्रः प्रवतते । तेन मा दुगनार मा कति स्म पापिना।" एकदा विमलायाश्च वाक्यतः सोऽपि वक्रकः । सुर्राण मारयामाम कुर्वन्तं कामसंबनम् ॥ ६॥ अर्थात विमला के घर में वक्र नाम का एक बदमाश छात्र रहता था, उस पापी के साथ वह व्यभिचार करती थी। एक दिन विमला के कहने में कामसेवन करते समय उम वक ने सुहाट का मार डाला। इससे मालूम होता है कि मुटि के मरने के पहिले उसकी स्त्री व्यभिचारिणी हो चुकी थी, मुष्टि अपनी व्यभिचारिणी स्त्री के गर्भ से पैदा होकर मोक्ष गया था। उनके लिये नजा पाना चाहिये जो हाड़ मांस में शुद्धि अशुद्धि का विचार करते हैं और जब उन विचागं की पुष्टि शास्त्रों से Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं होती तो शास्त्रों की बातों को छिपाकर लोगों को आँखों में धूल झांकते है। आक्षेप ( स्त्र )- सुदाप सुनार नहीं था । ( श्रीलाल, विद्यानन्द)। समाधान-गने समय में प्रायः जाति के अनुसार ही लोग आजीविका करते थे, इमलिय आजीविका के उल्लेख म उसकी जाति का पता लग जाना है। अगर किमी को चर्मकार न लिखा गया हा परन्तु जन बनाने का बात लिखी हा, माथ ही प्रेमी कोई बात न लिरनी हा जिसस वह चमार मिद्ध न हो ना यह मानना ही पड़ेगा कि वह चमार था । यहाँ बात सुदृष्टि की है। उसन गनी का हार बनाया था और मरने के बाद मरे जन्म में भी उमने हार बनाया। अगर वह सुनार नही था ना (१) पहिले जन्म में वह हार क्या बनाना था ? ( २) ब्रह्मचाग नमिदत्त ने यह क्यों न लिखा कि यह था ता वैश्य परन्तु सुनार का धन्धा करता था ? (३) मा जन्म में जब गजकर्मचार्ग मब सुनाग के यहां चक्कर लगा रहे थे तब अगर वह सुनार नही था ता उसके यहाँ क्या प्राय ? सुरष्टि के मुनार होने के काफी प्रमाण है। श्राज में १६ वर्ष पहिले जो इस कथा का अनुवाद प्रकाशित हुआ था ओर जो स्थितिपालको के गुरु पं० धन्नालाल जी का समर्पित किया गया था उममें भी सुदृष्टि को सुनार लिखा है। उसकी व्यभिचारजातना पर ना किसी का सन्देह हो ही नहीं सकता। हाँ, धावा देने वालों की बात दुसरी है। सत्ताईसवाँ प्रश्न । सोमसन त्रिवर्णाचार का हम प्रमाण नहीं मानते परन्तु Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६७ ) विधवाविवाह के विरोधी पण्डित इसको पूर्ण प्रमाण मानते हैं, यहाँ तक कि उस पक्ष के मुनिवेषो लोग भी उसे पूर्ण प्रमाण मानते हैं । जिस प्रकार कुरान पर अपनी श्रद्धा न होने पर भी किसी मुसलमान को समझाने के लिये कुरान के प्रमाण देना अनुचित नहीं है उसी प्रकार विचार को न मानते हुये भी स्थितिपालकों को समझाने के लिये उसके प्रमाण देना अनुचित नहीं है । त्रिवर्णाचार में दो जगह विधवाविवाह का विधान है और दोनों ही स्पष्ट हैं गर्भाधानं पुंसवने सीमन्तोन्नयने तथा । प्रवेश पुनर्विवाह मंडने ॥ ८-११६ ॥ पूजने कुलदेव्याश्च कन्यादानं तथैव च । कर्मवेषु वै भार्या दक्षिणे तृपवेपयेत् ॥ ८-११७ ॥ गर्भाधान पुंसवन सीमन्तोन्नयन वधूप्रवेश, विधवाविवाह, कुलदेवीपूजा और कन्यादान के समय स्त्री को दाहिनी श्रार बैठाव । इस प्रकरण से यह बात बिलकुल सिद्ध हो जाती है कि सोमसेनजी की स्त्री पुनर्विवाह स्वीकृत था । पीछे के लिपिकारों या लिपिकारकों को यह बात पसन्द नहीं आई इसलिये उनने 'ड' की जगह 'शूद्रा' पाठ कर दिया है। पं० पनालालजी सोनी ने दोनों पाठों का उल्लेख अपने अनुवाद में किया था परन्तु पीछे से किसी के बहकाने में श्राकर छपा हुआ पत्र फड़वा डाला और उसके बदले दूसरा पत्र लगवा दिया। अब वह फटा हुआ पत्र मिल गया है जिससे वास्त विक बात प्रकट हो गई है। दूसरी बात यह है कि इन श्लोकों में मुनिदान, पूजन, श्रभिषेक, प्रतिष्ठा तथा गर्भाधानादि संस्कारों की बात आई है इसलिये यहाँ शूद्र की बात नहीं Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८ ) पासकती क्योंकि ग्रन्थकार के मतानुमार शुद्रों को इन कार्यों का अधिकार नहीं है। इसलिये वास्तव में यहाँ राडा पुनविवाह' पाठ ही है जैसा कि प्राचीन प्रतियों से सिद्ध है। अब ग्यारहवे अध्याय के पुनर्विवाह विधायक श्लोकों को भी देख लेना चाहिये । १७१वं श्लोक में साधारण विवाहविधि समाप्त हो गई है परन्तु गन्थकार को कुछ विशेष कहना था मां उनने १७२ वें श्लोक स लगाकर १७७ वे प्रतीक नक कहा है । परन्न दुमरी प्रावृत्ति में पण्डितों ने १७४ वे श्लोक में "अथ पग्मतम्मृतिवचनम्" पेमा वाच्य और जोर दिया जो कि प्रथमावृत्ति में नहीं था। बैरव कही के हो परन्तु सामसनी उन्हें जैनधर्म के अनुकूल समझते हैं इलिये उन को उधृत कर भी उनका बगडन नहीं करने । इमोलिय पना. लाल जी ने १७२ वे श्लोक की उत्थानिका में लिखा है कि"पग्मतके अनुसार उस विषयका विशेष कथन करते हैं जिम्म का जैनमत के साथ कोई विरोध नहीं है।" इमलिये यहाँ जा पाँच श्लोक उद्धृत किये जाते हैं उनके विषय में कार्ड यह नही कह सकता कि ये ना यहाँ वहाँ के है इनमें हमें क्या सम्बन्ध? दूसरी बात यह है कि मोममन जी ने यहाँ वहाँ के श्लोकों से या नो गन्धका प्राधा कलेवर भर रखा है, इमलिये यहाँ वहाँ के श्लोकों के विषय में सिर्फ इतना ही कहा जा सकता है कि गह रचना मगे की है परन्तु मन तो उन्हीं का कहलायगा । मौर, उन श्लाकों को देखिये विवाहे दम्पती म्यातां त्रिग ब्रह्मचारिणौ । अलंकृता बधूचव सह शय्यामनाशनी ॥ ११-१७२ ॥ विवाह होजाने के बाद पति पत्नी तीन गत्रि तक ब्रह्मचर्य से रहे। इस के बाद बधू अलकृत की जाय और वे दोनों साथ सावे साथ बैठे और साथ भोजन करें। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९) वध्वा सहैव कुर्वीत निवासं श्वशुरालये। चतर्थदिनमत्रत्र कंचिदेवं वदन्ति हि ॥ वर, अधू के साथ ससुराल में हो निवास करे परन्तु कोई काई कहते हैं कि चौथे दिन तक ही निवास करे। चतर्थीमध्ये ज्ञायन्ते दापा यदि वग्म्य चेत् । दत्तामपि पुनर्दद्यात् पितान्यम् विबुधाः ॥ ११-१७४ चौथी गात्रि को यदि वरके दोष (नपुंसकत्वादि) मालूम हो जायँ ना पिता को चाहिये कि दो हुई-विवाही हुई-कन्या फिर से किसी दूसरे वर का दे दे अर्थात् उस का पुनर्विवाह करदे ऐसा बुद्धिमाना ने कहा है। प्रचरैक्पादिदोषाः म्युः पतिसगादधा यदि । दत्तामपिहरेद्दद्यादन्यस्मा इति कंचन ॥ ११-१७५ अगर पतिमाम के बाद मालूम पड़े कि पनि पति के प्रवर गात्रादि की एकता है तो पिता अपनी दी हुई कन्या किमी दूसरे को दद। कलो तु पुनरुद्वाहं वर्जयदिति गालवः। कम्मिंश्चिद्देश इच्छन्ति न तु सर्वत्र कंचन ॥११-१७६ परन्तु गालव ऋषि कहने हैं कि कलिकाल में पुनर्विवाह न करें और कोई काई यह चाहते हैं कि कहीं कहीं पुनर्विवाह किया जाय सब जगह न किया जाय । दक्षिण प्रांत में पुनर्विवाहका रिवाज होने से भट्टारक जी ने उस प्रान्त के लिये यह छट चाही है। यों तो उननं पुनर्विवाह को आवश्यक माना है परन्तु यदि दुमरे प्रांत के सोग पुनर्विवाहन चलाना चाहे तो भट्टारक जी किसी किसी प्रान्त के लिये खासकर दक्षिण प्रान्त के लिये प्रावश्यक ममझते हैं। पाठक देखें इन श्लोकों में स्त्रीपुनर्विवाह का कैसा जबर्दम्त समर्थन है । यहाँ पर यह कहना कि वह पुरुषों के पुनर्विवाह Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०० ) का निषेधक है घोर अमानता है । १७४-१७५ वें श्लोकों में कन्या के पुनर्दान या पुनर्विवाह का प्रकरण है । १७६३ श्लोक में पुनः विवाह के विषय में कुछ विशेष विधि बतलाई गई है। विशेष. विधि सामान्यविधि की अपेक्षा रखनी है इसलिये उसका सबब्ध ऊपर के दोनों श्लोको म हो जाता है जिनमें कि स्त्रीपुनविवाह का विधान है। कलौ न पुनरुद्वाह' 'कलिकाल में तो पुनर्विवाह' यहाँ पर जा 'त' शब्द पडा है वह भी बतलाता है कि इसके ऊपर पुनर्विवाह का प्रकरगा रहा है जिसका आंशिक निषेध गालव करते हैं। यह 'तु शब्द भी इतना जबर्दस्त है कि १७. शलाक का सम्बन्ध १.७५ व कसे कर देता है और ऐमोहालनमें पुरुष के पनर्विवाह की बात ही नहीं पाती। इमरी बात यह है कि पुरुषों के पुनर्विवाह का निषेध किमी काल के लिये किमी प्राचीन ऋषि ने नहीं किया। हाँ एक पलीके रहते हुए दूसरी पत्नीका निषेध किया है । परन्तु विधुर होजाने पर दुमरी पत्नी का निषेध नही किया हैं न मी पन्नी को मांगपत्नी कहा है । इसलिये भोगपत्नी के निषेध को पुनर्विवाहका निषेध समझ लेना प्रक्षन्तव्य शाब्दिक अज्ञान है। मतलब यह कि न तो पुरुषों का पनर्विवाह निषिद्ध है न यहाँ उम का प्रकरण है, जिसमे १७१ श्लोकका अर्थ बदला जा सके । यह कहना कि हिन्दु ग्रन्थकाग ने विधवाविवाह का कही विधान नहीं किया है बिलकुल भूल है । नियांग ओर विधवाविवाह के विधानोस हिन्द म्मृतियाँ गरी पडी हैं। इस का लेख अमितगति आदि जैन ग्रन्थकारों ने भी किया है। स्थितिपालक पगिडन १७५ वें श्लोक के 'पनिमगादधा' शन्दों का भी मिथ्या अर्थ करते हैं। पतिसङ्गशब्द का पाणि पीडन अर्ध करना हद दने की धोखेबाज़ी हैं। पतिमङ्ग पति Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) "मम्भोग" यह मीधा सवा अर्थ हरेक प्रादमी समझना है। १७४ श्लोक के चतुर्थी शब्द का भो पाणिपीड़न अर्थ किया है और इधर पतिमा शब्द का भी पाणिपीड़न अर्थ किया जाय ना १७५ वाँ लोक बिलकुल निरर्थक हाजाता है: इसलिये यहाँ पर पागिपोडन अर्थ लोक, शास्त्र और ग्रन्गरचमा की दृष्टि से बिलकुल झूठा है। अधः शब्द का अर्थ है 'पोछे'. परन्तु यं पगिटुन करते है पहिलं': परन्तु न तो किसी कोष का प्रमाण देते है और न साहित्यिक प्रयोग बतलाते हैं । परन्तु अधः शब्द का अर्थ गोल या बाद होता है। इसके उदाहरण तो जितने चाहे मिलेंगे। जैम अधांमत अर्थात् मोसनान्ते पीयमानं जलादिकम-भाजन के अन्त में दिया गया जहादिक । इसी तरह "प्रधोलिखित श्लोक" शब्द का अर्थ है 'इसके बाद लिखा गया लोक' न कि 'इसके पहिले लिखा गया इतोक' । इसलिये पनिसमादधः' शब्द का अर्थ हुआ 'मम्भोग के बाद' । जब सम्भाग के बाद कन्या दूसरे को दो जासकती है तब स्त्रीपुनर्विवाह के विधान की स्पष्टता और क्या होगी? अगर 'अधः' शब्द का अर्थ 'पहिले' भी कर लिया जाय ना भो १७५ में नाक में स्त्रापुनर्विवाह का समर्थन ही होता है। 'सम्भोग के पहिले' शब्द का मतलब हुआ मनपदी के बाद' क्योंकि सम्मोग सप्तपदी के बाद होता है। यदि सन्नपदो के पहिले तक ही पुननि की पान उन्हें म्वीकृत होती तो घे पनिसा शब्द क्यों डालते? मनपदी शब्द ही डालने । सप्तपदी के हो जाने पर विवाह पूर्ण हो जाता है और जय सप्त. पदी के बाद पुनर्शन किया जा सकता है ना स्त्रीपन वाह सिद्ध हो गया। त्रिवर्णाचार में यदि एकाध शब्द ही स्त्रीपनर्विवाह Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०२ ) माधक होता ना बात मरी थी, परन्तु उननं तो अनेक प्रकरणों में अनेक तरह से स्त्रीपनर्विवाह का समर्थन किया है। इस त्रिवर्णाचार में ऐसी बहुत कम बाते हैं जो जैनधर्म के अनुकूल हो। उन बहुन थोड़ो बालों में एक बात यह भी है । इसलिये त्रिवर्णाचार के भक्तों का कम से कम विधवाविवाह का ना पूर्ण समर्थक होना चाहिये। इतना लिखने के बाद जो कुछ प्राक्षेपकों के प्राक्षेप रह गये हैं उनका समाधन किया जाना है। आक्षेप (क)-गालव ऋषि नो पुनर्विवाह का नि. पंध कर रहे है। आप विधान क्यों समझ बैठे ? ( श्रीलाल, विद्यानन्द ) ममाधान-गालव ऋषि ने सिर्फ कलिकाल के लिये पुनर्विवाह का निषेध किया है। इसलिये उनके शब्दों से ही पहिले के युगों में पनर्विवाह का विधान सिद्ध हुआ। तथा इसी श्लोक के उत्तरार्ध से यह भी सिद्ध होता है कि कोई प्राचार्य किसी किसी देश के लिये कलिकाल में भी पुनर्विवाह चाहते हैं । इसलिये यह श्लोक विधवाविवाह का समर्थक है। भोगपत्नी आदि की बातों का खराडन किया जा चुका है। श्रीलालजी ने जो १७२ वे प्रादि श्लोको का अर्थ किया है वह बिलकुल बेबुनियाद तथा उनकी ही पार्टी के पंडित पन्नालाल जी सोनी के भी विरुद्ध है। इन इलाकों में रजस्वला होने की बात तो एक बच्चा भी न कहेगा। ___ आक्षेप (ख )-मनुस्मृति में भी विधवाविवाह का निषेध है। समाधान-आक्षेपक यह बात तो मानते ही हैं कि हिन्दु शास्त्रों में परस्पर विगंधी कथन बहुत है। इसलिये वहां विधवाविवाह और नियोग का एक जगह जोरदार समर्थन Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०३। पाया जाता है तो दूसरी जगह ब्रह्मचर्य की महत्ता के लिये दोनों का निषेध भी पाया जाता है। अगर परिस्थिति की दृष्टि से विचार किया जाय तो इन सबका समन्वय हो जाता है। खैर, मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों में विधवाविवाह या स्त्री पुनर्विवाह के काफी प्रमाण पाये जाते हैं। उनमें से कुछ ये हैं या पत्या वा परित्यक्ता विधवा वा म्बयेच्छया। उत्पादयेत्पुनर्भूत्वा स पौनर्भव उच्यते ॥ मनुम्मति:-१७५ ॥ मा चेदक्षतयानिः स्याद् गतप्रत्यागतापि वा। पोनर्भवन भी सा पुन: संस्कारमहति ॥६-१७६ ॥ पति के द्वारा छोडी गई या विधवा, अपनी इच्छा से दूसरे की भार्या हो जाय और जो पुत्र पैदा करे वह पौनर्भव कहला. यगा। यदि वह स्त्री प्रक्षनयानि हो और दूसरे पति के साथ विवाह करे तो उसका पुनर्विवाह संस्कार होगा । ( पौनर्भवन भी पुनर्विवाहाख्यं संस्कारमहति) अथवा अपने कौमार पति को छोड़कर दूसरे पति के साथ चली जाय और फिर लोटकर उसी कौमार पति के साथ श्राजाय तो उनका पुनर्विवाह संस्कार होगा । ( यद्वा कौमारं पतिमुत्सृज्यान्यमाश्रित्य पुनस्तमेव प्रत्यागता भवति तदा तेन कोमारेण भ पुनर्विवाहा ख्यं संस्कारमर्हति)। यहां पुनर्विवाह को संस्कार कहा है इसलिये यह सिद्ध है कि वह व्यभिचार रूप या निंद्यनीय नहीं है। हिन्दुशास्त्रों के अनुसार कलिकाल में पागशग्म्मृति मुख्य है। 'कलो पाराशराः स्मृताः' । पाराशग्म्मृति में तो पुनर्विवाह बिलकुल स्पष्ट है नटे मृते प्रबजिते की च पतित पती। पंचवापत्सु नारीणां पतिरन्या विधीयते । ४-३०॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २०४) पनि के खो जान पर, मर जान, संन्यामी होजाने, नपुं. मक होने नया पनि हाजाने पर स्त्रियों का दुमग पति कर लेने का विधान है। पति शब्द का पतो' रूप नही होना-यह बहाना निकाल कर श्रालालजी तथा अन्य लोग 'अपनो' शब्द निका लने है और अपनि का अर्थ करते हैं-जिमकी सिर्फ मगाई टुहो। परन्तु यह काग भ्रम है । क्योंकि इस श्लोक को বনাথ গমনান ন গিন্যানিঃ ক মন মা उधृत किया है। देखिये धर्मपरीक्षा - पन्यो प्रवतिने का प्रन पतिले मृत। पंचम्बापत्सु नागरण पनिरन्या विधीयते ॥ ११-१२॥ इमरी बात यह है कि अगर यहाँ 'अपनो' निकलना होना ना 'प्रनिग्या विधायन पंमा पाठ रखना पडना जा कि यहाँ नही है भोर न छन्दामह के कारण यहाँ प्रकार निकाला जा सकता। नीसरी बात यह है कि मपनि शब्द का अर्थ जिसकी सिर्फ सगाई हुई हो ऐमा पनि' नहीं होना। अपनि शब्द के रम अर्थ के लिय काई नमना पेश करना चाहिये । चौथो बात यह है कि पति शन्द के रूप हरि मगख भी चलन है। क्योकि पति का अर्थ जहाँ साधारणत: स्वामी मालिक यह होता है वहाँ ममाम में ही घि संहा होती है इसलिये वहाँ 'पती' ऐसा रूप नहीं बन सकता । परन्तु जहाँ पति शब्द का लाक्षणिक अर्थ पनि अर्थात् 'विवाहित पुरुष' अर्थ लिया जाय वहाँ असमास में मोघि संडा हो जाती है जिसस पनी यह रूप भी बनता है। पति समास एव' इस सत्र की तत्वबोधिनी टीका में खुलासा तौर पर यह बान लिख दी गई है और उसमें पाराशरस्मृति का "पनि पलों" Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०५ ) वाला श्लोक भी उद्धृत किया गया है जिससे भी मालूम होता है कि यहाँ 'अपनो' नही है 'पतो' है। “अथ कथं मीतायाः पनय नमः" इनि, 'नटे मृने प्रवजितं लोके च पतित पतो। पंचम्बापन्सु नागणां पनिग्न्या विधीयते' इति पाराश. गश्च । अत्राहुः पतिरिति प्राख्यातः पतिः नत्कगनि तदार इति णिचि टिलाप अन्न हः इत्यौणादिकप्रत्यय परनिटि इनि मिलाप च निष्पन्नोऽयं पनिः "पनि समानः एव इत्यत्र न गृह्यन, लाक्षणिकत्वादिति"। पनि शब्द के घिमंशिक रूपों के मोर भी नमन मिलने है नया वेदिक संस्कृत में ऐसे प्रयोग बहुलता से पाये जाने है । पहिले हम यजुर्वेद के उदाहरण देते हैं नमो दायातनायिने क्ष वारणा पनय नमः, नमः सूनाया. हन्ये वनानां पतये नमः ।१६।१८। इसी तरह कक्षाणां पतये नमः' 'पत्तीनां पतये नमः' श्रादि बहुत में प्रयोग पाये जाने हैं। स्वयं पागशर न-जिनके श्लोक पर यह विवाद चल रहा है--अन्यत्र भी 'पनो' प्रयोग किया है। यथा जारेण जनयद्गर्भ मृतं त्यक्त गने पनो। तां त्यजेदपरे राष्ट्र पनितां पापकारिणीम् ॥ १०-३१।। अर्थात् पनि के मर जाने पर या पनि में छोड़ो जाने पर जो स्त्री व्यभिचार से गर्भ धारण करे उस पापिनी को देश में निकाल देना चाहिये । अर्थात् पाराशरजी यह नहीं चाहते कि कोई स्त्री व्यभिचार करे । विधवा या पनिहीन स्त्री का नं. व्य है कि वह पुनर्विवाह करले या ब्रह्मचर्य मे रहे, परन्तु व्य. भिचार कभी न करे । जो स्त्रियाँ ऊपर सेना विधवाविवाहको या उसके प्रचारकों को गालियाँ देती है और भीतर ही भीतर व्यभिचार करती हैं वे सचमुच महापापिनी हैं। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हमकोष में भी पता शब्द का प्रपोग हुआ है । 'धध धृत नरे पत्तो । यहाँ पर धव और पति शब्द का पर्यायवाची कहा है और पति शब्दका पती रूप लिखा है। ___यास स्मृति में भी पनय प्रयोग है । 'दासीवादिष्ट. कार्येष भार्या भर्तः सदा भवेत् । ततांनसाधनं कृत्वा पनये विनिवंद्य तत् ॥ २-२७॥ ___ यहाँ पतिके प्रति भार्याक कर्तव्य बतलाये हैं । यहाँ भी सगाई वाला पति अर्थ नहीं किया जा सकता है। शशिनीव हिमाानां घर्मानानां ग्वाविव । मना न रमते स्त्रीणां जग जीणेन्द्रिये पती॥ मित्रलाभ-हितोपदेश । इस श्लोक के अर्थ में अपनी निकालने की चेटा करके श्रीलालजी ने धोखा देने की चेणा की है । इतना ही नहीं यहाँ पर भी अपनी आदत के अनुमार उलटा चोर कोतवाल को डॉट की कहावत चारतार्थ की है। आप कहते हैं कि 'यहाँ भी सगाई वाले (अपति ) बढ़े दूल्हे की बात है। ताज्जुब यह है कि यहीं पर यह बात भी कहते जाते हैं कि विवाह तो १२-१६ की उम्र में हुआ होगा । जब विवाह के समय वर की उम्र प्राप १६ बतलाते हैं तब क्या वह जन्म भर ती पनि बना रहा और बुढ़ापे में भपति बन गया ? यलिहारी है इस कलाना की! खैर, जग यह भी देखिये कि श्लोक किस प्रकरण का है। कौशाम्बी में चन्दनदास सेठ रहता था। उसने बुढ़ापे में धन के बलसे लीलावती नाम की एक वणिकपुत्री से शादी करली, परन्तु लीलावती को उस बूढ़े से सन्तोष न हुआ। इस. लिये वह व्यभिचारिणी होकर गुप्त पाप करने लगी । इसी मौके पर यह श्लोक कहा गया है जिसमें 'पती' रूप का प्रयोग Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७) है । प्रश्न पाठक हो सोचें कि क्या वह बुड्डा सगाई वाला दूल्हा था ? श्रीलालजी धोना तो देते ही है परन्तु उसके भीतर कुछ मर्यादा रहे तो अच्छा है। खैर, ये सब प्रमाला इतने ज्यादा ज़बर्दस्त हैं कि 'पती' रूप में किसी को सन्देह नहीं रह सकता। इसलिये पाराशर ने विधवाविवाह का विधान किया है, यह स्पष्ट है । इसके अतिरिक्त मनुस्मृति के प्रमाण दिय गये है। आवश्यकता होने पर और भी प्रमाण दिये जा सकते हैं। जैन विद्वान यह कह सकते हैं कि हम हिन्दू म्मृतियाँ नहीं मानते परन्तु उन्हें यह कमी भूलकर भी न कहना चाहिये कि उनमें विधवाविवाहका विधान नहीं है । हिन्द पुगण और हिन्दु स्मृतियाँ विधवा. विवाह की पूर्ण समर्थक है। आक्षेप ( ग )नान्यम्मिन् विधवा नारी नियोक्तव्या द्विजातिभिः । अन्यस्मिन् हि निय जाना धर्म हन्युः सनातनः ॥ नांद्वाहिकप मन्त्रेष नियोगः कीर्त्यते क्वचित् । न विवाहविधायुक्त विधवावदनं पुनः ।। मनुस्मृतिक ये दोनों श्लोक विधवाविवाह विरुद्ध है। (श्रीलाल) समाधान-हम कह चुके है परिस्थिति के अनुसार अनेक तरह की माझा एक ही स्मृतिमें पाई जाती हैं । इसलिये अगर एक पुस्तक में एक विषय में विधि निषेध है तो उसका समन्वय करने के लिये अपेक्षा ददना चाहिये । अन्यथा जिस मनुस्मृति में स्त्री पुनर्विवाह की मात्रा है और उसे संस्कार कहा है उसी में उसका विरोध केसा? स्वृतियों में समम्मय और मुख्यगौणताका बड़ा मूल्य है। खैर, परन्तु इन श्लोकों को तो श्रीलालजीने ठीक ठीक नहीं समझा है अन्यथा ये श्नांक Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २० ) कभी उद्धृत न किये जाने । पाठक इनके अर्थ पर विचार करें, पूर्वापर सम्बन्ध देखें और नियोग तथा विधवाविवाह के भेद को समझे। ये श्लोक नियोगप्रकरण के हैं। नियोग में सन्तानोत्पत्ति के लिये सिर्फ एक बार सभाग करने की प्राक्षा है। नियांग के समय दोनों में सम्मांग क्रिया बिलकुल निर्तित होकर करना पडती है तथा किसी भी तरह की रसिकता से दूर रहना पड़ता है । देखिये ज्येष्ठी यवीयसी मार्यो यवीमान्वाग्रजस्त्रियम् । पतितो भवतो गत्या नियुक्तावप्यनापदि ॥४-५%!! अगर विधवा क सन्तान हो (अनापदि-सन्तानामाव बिना ) ता उपका ज्येष्ठ या देवर नियाग करे तो पतित हा जाते हैं। देवगाहा सपिंडाद्वा स्त्रिया सम्यनयुक्तया। प्रजेप्सिताधिगन्तव्या मन्नानस्य पग्निये ॥६-५६ ॥ सन्तान के नाश हाजाने पर गुरुजनों की प्राशाम विधि. पूर्वक देवर से या और सपिंड से । कुटुम्बी म) इच्छित मनान पैदा करना चाहिये। (श्रावश्यकता होने पर एक में अधिक सन्तान पैदा की जाती है । हिन्दु पुराणों के अनुमार धृतराष्ट्र पांडु और विदुर नियांगज सन्तान हे )। विधमायां नियुक्तम्तु घृतातो पाग्यता निशि । एकमुम्पादयेत्पुत्रं न द्वितीयं कथचन ॥ ६-६० ॥ विधवा में (आवश्यकता होने पर सवामें भी) समान कलिय नियक्त पुरुष, सारे शरीर में घी का लेप करे मौन रक्वे और एक ही पुत्र पैदा करे। विधवायां नियोगार्थे निवृत्त नु यथाविधि । गुरुवच स्नुषावश्च वतैयातां परम्परम् ॥६-६२॥ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०६ ) नियोग कार्य पूरा हो जाने पर फिर भौजाई या बहू के समान पवित्र सम्बन्ध रक्खे | T नियतौ तौ विधि हित्वा वर्तेयातां तु कामतः । तावुभौ पतितौ स्यातां स्नुषागगुरुतल्पगौ ॥६- ६३॥ यदि नियोग के समय कामवासना से वह सम्भोग करे तो उसे भौजाई या भ्रातृबधू के साथ सम्भोग करने का पाप लगता है, वह पतित हो जाता है । पाठक देखें कि यह नियोग कितना कठिन है । साधारण मनुष्य इस विधिका पालन नहीं कर सकते । इसलिये श्रागे चलकर मनुस्मृति में इस नियोगका निषेध भी किया गया है। वेही निषेधपरक श्लोक पंडित लोग उधृत करते हैं और विधिपरक श्लोकों को साफ़ छोड़ जाते हैं । हिन्दू शास्त्र न तो नियोगके विरोधी हैं, न विधवाविवाह के । उनमें सिर्फ नियोग का निषेध, कलिकाल के लिये किया है क्योंकि कलियुग में नियोग के योग्य पुरुषों का मिलना दुर्लभ है । यही बात टीकाकारने कही है-" श्रयं न स्वोक्तनियांगनिषेधः कलिकालविषयः" । वृहस्पति ने तीन इलोकों में तो और भी अधिक खुलासा कर दिया है । इसलिये हिन्दुशास्त्रोंस विधवाविवाह का निषेध करना सर्वथा भूल है । आक्षेप (घ ) - वाणिक्यने पुनर्विवाह की आज्ञा नहीं दी परन्तु पति के पास जाने की आज्ञा दी है । बिल लाभ का अर्थ छोड़कर दूसरा पति करने का अर्थ तो इस अन्धेरी दरबार को हो सूझा । समाधान-श्रीलालजी जान बूझकर बात को छिपाते हैं अन्यथा "यथादस्तमादाय प्रमुञ्चेयुः” आदि वाक्यों से पूर्वविवाह सम्बन्ध के टूट जानेका साफ़ विधान है। ख़ैर, पहिली बात तो यह है कि उन वाक्योंका अनुवाद छुपी हुई पुस्तक में Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से लिया गया है। हमारे विषय में अर्थ बदलने की कुकल्पना आप भले ही करें, परन्तु अनुवादक के विषय में इस कल्पना की कोई जरूरत नहीं है । इसके अनुवादक वेदरत्न विद्याभा. कर, न्यायतीर्थ, सांख्यतीर्थ और वेदान्त विशारद हैं। दूसरी बात यह है कि 'विल लाभे धातु का प्रयोग विवाह अर्थ में होता है । मनुम्मृति में विन्देन देवरः का पर्याय वाच्य भर्तुः मोदर भ्राता परिणयेत् किया है । इमी तरह श्लोक ६-६० में 'विन्दत सदृशं पति' का 'वरं स्वयं वृणोन पर्याय माक्य दिया है। खुद कोटिलीय अर्थशास्त्र में विद्ल धातु का प्रयोग वरण के अर्थ में हुमा है । जैसे-ततः पुत्रार्थी द्वितीयो विन्दत अर्थात् पहिली स्त्री से अगर १२ वर्ष तक पुत्र पैदा न हो ता पुत्रार्थी दूसरी शादी करले । यहाँ विन्देन का अर्थ शादी कर ही है। इसी तरह और भी बहुत से प्रयोग हैं । पहिले हमने थोड़े से प्रमाण दिये थे, अब हम ज़रा अधिक देंगे । उन में ऐसे प्रमाण भी होंगे जिनमें विद्ल का अर्थ पास जाना न हो सकेगा। ___ "मृते भत्तरिधर्मकामातदानीमेवास्थाप्याभरणं शुल्क शेषं च लभेत ॥ २५ ॥ लावा वा विन्दमाना सवृद्धिकम मयं दाप्येन ॥ २६ ॥ अर्थात् पति के मरने पर ब्रह्मचर्य से रहने वाली खत्री, अपना लो धन और प्रवशिष्ट शुल्क (विवाह के समय प्राप्त धन ) ले ले । अगर इस धन को प्राप्त कर वह ( विधवा ) विवाह करे तो उससे ज्याज सहित वापिस ले लिया जाय। पाठक विचार कि यहाँ "विन्दमाना" का अर्थ विवाह करने वाली है न कि पति के पास जाने वाली क्योंकि पति तो मर चुका है। और भी देखिये 'कुटुम्बकामातुश्वसुरपतिदतं निवेशकाले खभेत ॥२७॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११) निवेशकालं हि दीर्घप्रवासे व्याख्याम्यायः ॥२८॥ यदि विधवा दुसग घर बसाना चाहे अर्थात् पुनर्विवाह करना चाहे तो श्वसुर और पति द्वारा दी हुई सम्पत्ति को वह विवाह समय में ही पा सकती है। विवाह का समय हम दीर्घ प्रवास के प्रक. रण में कहेंगे। इमी दीर्घप्रवास प्रकरण के वाक्य हमने प्रथम लेख में उद्धृत किये थे। इससे मालूम होना है कि वहाँ पुनर्विवाह का ही ज़िकर है न कि पति के पास जाने का। __ "श्वसुर प्रातिलोम्येन वा निविष्टा श्वसुर पतिदत्तं जोयत" ॥ २६ ॥ श्वसुरको इच्छाके विरुद्ध विवाह करने वाली यधू से, श्वसुर और पति से दिया गया धन ले लिया जाय । इससे मालूम होता है कि महागजा चन्द्रगुप्त के राज्य में श्वसुर अपनी विधवा वधू का पुनर्विवाह कर देता था । अगर श्वसुर उसका पुनर्विवाह नहीं करता था तो वह बधू ही अपना स्त्रीधन छोड़कर पुनर्विवाह कर लेती थी। __ शानिहस्तादभिमृटाया ज्ञातया यथागृहीतं दधः ॥ ३०॥ न्यायोपगतायाःप्रतिपत्ता स्त्रीधनं गोपायेत् ॥३१॥ अगर उसके पीहर वाले ( पिता माना आदि ) उसके पुनर्विवाह का प्रबन्ध करें तो वे उसके लिये हुए धन को दे दे, क्योंकि न्यायपूर्वक रक्षार्थ प्राप्त हुई स्त्री की रक्षा करने वाला पुरुष उसके धन की भो रक्षा करे। पतिदायं विन्दमाना जीयेत ॥ ३२ ॥ धर्मकामाभुञ्जीत ॥ ३३ ॥ दूसरे पति की कामना वाली स्त्री रतिका हिस्सा नहीं पा सकती और ब्रह्मचर्य से रहने वाली पासकती है। पुत्रवती विन्दमानास्त्रीधनं जीयेत ॥ ३४ ॥ तत्तु स्त्रीधनं पुत्रा हरेपुः ॥ ३५ ॥ पुत्रभरणार्थ वा विन्दमाना पुत्रार्थ स्फाती कुर्यात् ।।३६|काई स्त्री पुत्र घाली होकरकेभी अगर पुनर्विवाह Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ ) करे तो वह स्त्री धन नहीं पासकती । उसका स्त्री धन उसके पुत्र ले लें। अगर पुत्रोंके भरण पोषण के लिये ही वह पुनविवाह करे तो वह अपनी सम्पत्ति पुत्रोंके नाम लिख दे | हम नहीं समझते कि इन प्रकरणों में कोई पुनर्विवाहका विधान न देखकर पति के पास जाने का विधान देख सकेगा । इस ग्रन्थ में परदेश में गये हुए दीर्घप्रवासी पति को तो छोड़ देने का विधान है, उसके पास जाने की तो बात दूसरी है । नीचत्वं परदेश वा प्रस्थितां राजकिल्विषी । प्राणाभिहन्ता पतितस्त्याज्यः क्लीयोऽपित्रा पति । नीच, दीर्घप्रवासी, राजद्वाही, घातक, पतित और नपुं सक पतिको स्त्री छोड़ सकती है। हमें खेद के साथ कहना पड़ता है कि श्रीलालजी या उनके साथी किसी भी विषय का न तो गहरा अध्ययन करते हैं न पूर्वापर सम्बन्ध देखते हैं और मनमाना बिलकुल बेबुनियाद लिख मारते हैं। ख़ैर, अब हम स्वप्रवास और दीर्घप्रवास के उद्धरण देते हैं जिनके कुछ अंश पहिले लेख में दिये जा चुके हैं। 'स्वप्रवासिनां शुद्र वैश्य क्षत्रिय ब्राह्मणानां भार्याः संव त्सगेतर कालमाकांक्षेरनप्रजाता, संवत्सराधिकं प्रजाताः ||२६|| प्रतिविहिताद्विगुणं कालं ||२७|| श्रप्रनिविहिता. सुखावस्था बिभृपुः परं चत्वारि वर्षाण्यष्टौ वाज्ञातयः । तनां यथादत्तमादाय प्रमुचेयुः ॥ २६ ॥ थोड़े समय के लिये बाहर जाने वाले शूद्र वैश्य क्षत्रिय और ब्राह्मणों की स्त्रियाँ अगर पुत्रहीन हो तो एक वर्ष और पुत्रवती इससे अधिक समय तक प्रतीक्षा करें। यदि पति आजीविका का प्रबन्ध कर गया हो तो इससे दूने समय तक प्रतीक्षा करें। जिनकी आजीविका का प्रबन्ध नहीं है, उनके बंधु बाँधव चार वर्ष या भाठ वर्ष तक उनका भरण पोषण करें । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१३ ) इसके बाद प्रथम विवाह के समय में दिया हुआ धन वापिस लेकर दूसरी शादी के लिये आज्ञा देदें । पाठक देखे कि यहाँ 'प्रमुञ्चेयुः' क्रिया है । इसका अर्थ 'छोड़ दें' ऐसा होता है। पति के पास भेज दें ऐसा अर्थ नहीं होता | पति के पास से पिता के पास, या पिता के पास से पति के पास आने जाने में मुञ्च या छोड़ देने का व्यवहार नहीं होता | इसलिये सम्बन्ध विच्छेद के लिये ही इस शब्द का व्यवहार हुआ है । ब्राह्मणमधीयानं दश वर्षाण्यप्रजाता, द्वादश प्रजाता राजपुरुषमायुः क्षयादाकाङ्क्षत ||३०|| सवर्णतश्च प्रजाता नाप वादं लभेत ।। ३१ ।। पढ़ने के लिये विदेश गये ब्राह्मण की सन्तानहीन स्त्री दशवर्ष तक, संतान वाली १२ वर्ष तक और राजकार्यप्रवासी की जीवनपर्यन्त प्रतीक्षा करे । हाँ, अगर किसी समान वर्ण से वह गर्भवती होजाय तो वह निन्दनीय नहीं है । यहाँ पर प्रतीक्षा करने के बाद पति के पास जाने की 亦 पुरुष बात नहीं लग सकती । जब ऐसी हालत में परपुरुष से गर्भवती होजाने की बात भी निन्दनीय नहीं है तब उनके पुनर्विवाह की बात का तो कहना ही क्या है। कुटुम्बडिलांपे व सुखावस्थैविमुक्ता यथेष्ट विन्देत जीवितार्थम् ।। ३२ ।। कुटुम्बकी सम्पत्ति नम्र होने पर या उनके द्वारा छोड़े जाने पर जीवन निर्वाह के लिये इच्छानुसार विवाह करे । श्रीलालजी विन्देत का अर्थ करते हैं पति के पास जाये । हम सिद्धकर चुके हैं कि विन्देत का अर्थ विवाह करें' है । साथ ही इस ग्रन्थ का सारा प्रकरण ही स्त्री पुनर्विवाह का है यह बात पहिले उद्धरणों से भी सिद्ध है । 'ग्रंथे" शब्द से भी Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१४ ) विवाह करने की बात सिद्ध होती हैं । इच्छानुसार पति के पास जावे - यहाँ इच्छानुसार शब्द का कुछ प्रयोजन ही नहीं मालूम होना, जब कि, इच्छानुसार विवाह करे – इस वाक्य में इच्छानुसार शब्द श्रावश्यक मालूम होता है 1 आपद्गतावाधर्मविवाहस्कुमारी परिगृहीनार मनाख्याय प्रापितं श्रयमाणं सततीर्था न्याकाङ्क्षत ||३३|| संवत्सरं श्रूयमाणमाख्याये ॥३४॥ प्राषितमश्रूयमाणं पञ्चतीर्थान्या कक्षेत ॥ ३५ ॥ दश श्रमयाणम् || ३६ || एक देशदत्त शुल्कं त्रीणीतीर्थान्यश्रयमाणम् ||३७|| श्रूयमाणम् सप्ततीर्थान्यकाङ्क्षत ||३८|| दत्त शुल्कं पञ्चतीर्थान्यश्रूयमाणम् || ३६ || दश श्रूयमाणम् ||४०|| ततः परं धर्मस्थैर्विसृष्ट्रा यथेष्टम् विन्देत् ||४१ || निर्धनता से प्रापद्मस्त कुमारी ( श्रक्षतयोनि ) चिलका चार धर्मविवाहों में से कोई विवाह हुआ और उसका पति बिना कहे परदेश चला गया हो तो वह सान मासिकधर्म पर्यंत प्रतीक्षा करे | कहकर गया हो तो एक वर्ष तक | प्रवासी पति की ख़बर न मिलने पर पाँच मासिकधर्म तक | ख़बर मिलने पर दश मासिकधर्म तक प्रतीक्षा करे । विवाह के समय प्रतिज्ञात धन का एक भाग ही जिसने दिया हो ऐसा पति विदेश जानेपर अगर उसकी ख़ाबर न मिले तो तीन मासिकधर्म तक और ख़बर मिलने पर सात मासिक धर्म तक उसकी प्रतीक्षा करे। अगर प्रतिज्ञात धन साग देदिया हो तो ख़बर न मिलने पर तीन और ख़बर मिलने पर सान मासिकधर्म तक प्रतीक्षा करे । इसके बाद धर्माधिकारी की श्राज्ञा लेकर इच्छानुसार दूसरा विवाह कर ले ( यहाँ भी यथेष्ट ं शब्द पड़ा हुआ है | ) | साथ ही धर्माधिकारी आज्ञा लेने की बात कही गई है। पुनर्विवाह के लिये ही धर्माधिकारी की आज्ञा की ज़रूरत है न कि पति के पास जाने के लिये। फिर Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१५ ) जिस पति की खबर ही नहीं मिली है उसके पास वह कैसे जा सकती है ? दीर्घप्रवासिनः प्रवजितस्य प्रेतस्य वा भार्यामप्ततीर्थान्याकांक्षेत ॥ ४३ ॥ संवत्सरं प्रजाता ।। ४४ ।। ततः पतिसोदयं गच्छेत् ।। ४५ ।। बहुष प्रत्यासत्रं धार्मिकं भर्म समर्थं कनिष्ठम. भायं वा । तदभावेऽप्यसोदयं सपिण्डं कुल्यं वासत्रम् ।। ४७ ।। एतेषां एष पत्र क्रमः ।।४।। दीर्घप्रवासी, संन्यासो या मर गया हो तो उसकी स्त्री सप्त मासिकधर्म तक उम्मको प्रतीक्षा करे। अगर सन्तान वाली हो तो एक वर्ष तक प्रतीक्षा करे, इसके बाद पति के भाई के साथ शादी करले । जो भाई पतिका नज़दीकी हो, धामि कहा, पालन पोषण कर मके और पत्नी रहिन हो। अगर सगा भाई न हो तो पति के वंश का हो या गोत्र का हो।। यहाँ तो श्रीलाल जी पति के पास जाने की बात न कहेंगे? क्योंकि पति तो संन्यासी हो गया है या मर गया है। फिर पति के भाई के पास जाने की आशा क्यों है? अपने भाई या पिता या श्वसुर के पास जाने को क्यों नहीं ? फिर पति का भाई भी कैमा? जिसके पत्नी न हो। क्या अब भी श्रीलाल जी यहाँ विवाह की बात न समझेंगे। प्राक्षेप ( )-प्राचार्य सोमदेवजी ने जिन स्मृतिकागे के विषय में लिखा है वह सब चर्चा सगाई बाद की है। वैष्णवों के किसी प्रन्य में भी विधवाविवाह की प्राक्षा नहीं है। (श्रीलाल) समाधान-"विकृतपत्यूढापि पुनर्विवाहमहंतीति स्मृ. निकारा" विकृतपति के साथ विवाही गई नी भी पुनर्विवाह कर सकती है। स्मृतिकारों के इस बकव्य में सगाई की ही धुन लगाये रहने वाले श्रीलाल जी का साहस धन्य है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६ ) 'तावद्विवाहा नैवस्याद्यायवत्सप्तपदी भवेत्' तब तक विवाह नहीं होता जब तक सप्तपदो न हो जाय । इसलिये जिस स्त्री को विवाही गई कहा है वह अभी तक वाग्दत्ता ही बनी हुई है, ऐसी बात श्रीलाल जी ही कह सकते हैं। फिर पुनर्विवाह शब्द भी पड़ा हुआ है । यह पुनर्विवाह शब्द ही इतना स्पष्ट है कि विशेष कहने की ज़रूरत नहीं है। खैर, श्रीलाल जी इस वाक्य का जो चाहे अर्थ करें परन्तु उनने यह बात मानता है कि सोमदेव जी को इम वाक्य में कुछ आपत्ति नहीं है। अन्यथा उन्हें इस वाक्य के उद्धत करने की क्या ज़रूरत थी, जब कि खराडन नहीं करना था। वैष्णवों के प्रन्थों में पुनविवाह की कैसी आज्ञा है यह बात हम इसी लेख में विस्तार से सिद्ध कर चुके हैं। प्रश्न अट्राईसवाँ इस प्रश्न में यह पूछा गया था कि अगर किसी अबोध कन्या के साथ कोई बलात्कार करे तो फिर उसका विवाह करना चाहिये या नहीं। हमने उत्तर में कहा था कि ऐसी हालत में कन्या निरपराध है। इसलिये विधवा-विवाह के विरोधी भी ऐसी कन्या का विवाह करने में सहमत होगे; क्योंकि उसका विवाह पुनर्विवाह नहीं है, आदि । श्रीलाल जी का कहना है कि 'उसी पुरुष के साथ उसका विवाह करना चाहिये या वह ब्रह्मचारिणो रहे, तीसरा मार्ग नहीं अँचता ।' जब तक मिध्यात्व का उदय है तब तक श्रीलालजी को कुछ जैच भी नहीं सकता। परन्तु श्रीलालजी, न अँचने का कारण कुछ भी नहीं बतला सके हैं इसलिये उनका यह बक्तव्य दुग. ग्रह के सिवाय और कुछ नहीं है। प्राक्षेप ( क )-ऐसी कन्या का विवाह बलात्कार करने Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) वाले पुरुष के साथ ही करना चाहिये । पाण्डु और कुन्ती के चारित्र से इस प्रश्न पर प्रकाश पड़ता है। (विद्यानन्द) समाधान-पाण्डु और कुन्ती का सम्बन्ध बलात्कार नहीं था जिससे हम पाण्डु को नीच और राक्षसी प्रकृति का मनुष्य कह सके । और ऐसी हालत में पाण्डु अपात्र नहीं कहा जा सकता । बलात्कार तो शैतानियत का उग्र और बीभत्सरूप है। बलात्कार सिर्फ कुशील ही नहीं है, किन्तु वह घोर गक्षसी हिंसा भी है । इसलिये बलात्कार के उदा. हरण में पाण्डु कुन्ती का नाम लेना भूल है। हम पूछते हैं कि बलात्कार, विवाह है या नहीं ? यदि विवाह है तो फिर विवाह करने की आवश्यकता क्या है ? अगर विवाह नहीं है तो वह कन्या अविवाहिता कहलाई: इसलिये उसका विवाह होना चाहिये। माक्षेप (ख)-बिलाव अगर दूध को जूठा करदे तो वह अपेय हो जाता है, यद्यपि इसमें दूध का अपराध नही है। इसी प्रकार बलात्कार से दूषित कन्या भी समझना चाहिये । ( विद्यानन्द) समाधान-इस दृष्टांत में अनेक ऐसी विषमताएँ है जो दृद्ध के समान कन्या को त्याज्य सिद्ध नहीं करतीं। पहिली तो यह है कि दूध जड़ है । वह अगर नाली में फेंक दिया जाय तो दूध को कुछ दुःख न होगा। इसलिये हम दूध के निरपराध होने पर भी उसकी तरफ से लापर्वाह रह सकते हैं। परन्तु कन्या में सुख दुःख है। उसकी पर्वाह करना समाज का कर्तव्य है। इसलिये कन्या के निरपराध होने पर हम ऐसा कोई विधान नहीं बना सकते, जिससे उसको दुःख या उसका अपमान हो। दूसरी विषमता भोज्य भोजक की है। स्त्री को हम Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८ ) भोज्य कहें और पुरुष को भोजक, यह बात सर्वथा अनुचिन है । क्योंकि जिस प्रकार स्त्री, पुरुष के लिये भोज्य है उसी प्रकार पुरुष, स्त्री के लिये भोज्य है । इसीलिये स्त्री जूठी हो और पुरुष जूठा न हो, यह नहीं कहा जा सकता । जब पुरुष जूठा हाकर के भी स्त्री के लिये भोज्य रहता है तो स्त्री भी क्यों न रहेगी ? तीसरी बात यह है कि स्त्री पुरुष के सम्बन्ध को श्रक्षेपक ने गांग मान लिया है जबकि वह उपभोग है । भांग का विषय एक बार हो मांगा जाता है, इसलिये उसमें जूठापन श्राजाता है: परन्तु उपभोग अनेकवार भांगा जाता है । सभ्य आदमी अपना ही जूठा भोजन दूसरे दिन नहीं खाना जबकि एक ही वस्त्र को अनेकवार काम में लाता रहता है । अगर स्त्री को भोज्य माना जाय तो जिस स्त्री को आज मांगा गया उसको फिर कभी न भागना चाहिये । तब नो हर एक पुरुषको महीने में चार चार छः छः स्त्रियों की आवश्यकता पड़ेगी अन्यथा उन्हें जूठी स्त्री से ही काम चलाना पड़ेगा । स्त्री और पुरुष के सम्बन्धमें तो दोनोंही सुखानुभव करने हैं, इसलिए कौन किसका जूठा है यह नहीं कहा जा सकता । फिर भी जो लोग स्त्रियों में जूठेपन का व्यवहार करते हैं वे माता को भी जूठा कहेंगे, क्योंकि एक बच्चे ने एक दिन जिस माता का दूध पीलिया वह दूसरे दिन के लिये जूठी हो गई । और दूसरे बच्चो के लिये और भी अधिक जूठी हो गई । इतना ही नहीं इस दृष्टि से पृथ्वी, जल, वायु श्रादि जूठे कहलायँगे, सारा संसार उच्छिष्टमय हो जायगा, क्योंकि किसी भी इन्द्रिय का विषय होने से जब पदार्थ उच्छिष्ट माना जायगा तो स्पर्श करने से पृथ्वी, जल और वायु जूठी कहलायेगी और आँखों से देख लेने पर सारा संसार जूठा कहलायगा । यदि Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१६) रसना इन्द्रिय के विषय में ही उच्छिष्ट अनुच्छिष्ट का व्यवहार किया जाय तो कन्याको हम उच्छिष्ट नहीं कह सकते, क्योंकि वह चबाने खाने की वस्तु नहीं है, जिससे वह जूठे दुधके समान समझी जाय। उन्तीसवाँ प्रश्न । "त्रैवर्णिकाचार से तलाक के रिवाज का समर्थन होता है। यह बात हमने संक्षेप में सिद्ध की थी। परन्तु ये दोनों आक्षेपक कहते हैं कि उसमें तलाक की बात नहीं है। भले ही तलाक या (Divorce ) आदि प्रचलित भाषाओं के शब्द उस ग्रन्थ में न हो परन्तु वैवाहिक सम्बन्ध के त्याग का विधान अवश्य है और इसी को तलाक कहते हैं अप्रजां दशमे वर्षे स्त्री प्रजां द्वादशे त्यजेत् । मृतप्रजां पंचदशे सद्यम्त्वप्रियवादिनीम् ॥११-१६७॥ व्याधिता स्त्रीप्रजा वन्ध्या उन्मत्ता विगतातंया ।। अदुष्टा लभते त्यागं नोर्थता न तु धर्मतः ॥११-१६८॥ अगर दस वर्ष तक कोई संतान न हो तो दसवें वर्षमें, अगर कन्याएँ ही पैदा होती हो तो बारहवें वर्षमें. अगर संतान जीवित न रहती हो तो १५वे वर्ष में स्त्री को छोड़ देना चाहिय और कठोर भाषिणी हो ता तुरन्त छोड़ देना चाहिये ।। १६७।। गगिणी, जिसके केवल कन्याएँ ही पैदा होती हो, अध्या, पागल, जो रजस्वला न होती हो ऐसी स्त्री अगर दुष्ट न हो तो उसके साथ संभोग का ही त्याग करना चाहिए; बाकी पत्नीत्व का व्यवहार रखना चाहिए ।। १६८ ।। इससे मालूम होता है कि १६७ वें श्लोक में जो त्याग बनलाया है उसमें स्त्री का पत्तीत्व सम्बन्ध भी अलग कर दिया गया है। यह तलाक नहीं तो क्या है ? Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२०) श्रीलाल जी कहते हैं कि दक्षिण में तलाक का रिवाज ही नहीं है । सौभाग्य से दक्षिणप्रान्त आज भी बना हुआ है । कोई भी प्रादमी वहाँ जाकर देख सकता है कि चतुर्थ पंचम संतवाल प्रादि दिगम्बर जैनियों में विधवाविवाह और तलाक का रिवाज आमतौर पर चालू है या नहीं। बल्कि वहाँ पर विधुर कुमारियों के साथ शादी नहीं करते । इसलिये कुमा. गियों के साथ पहिले किसी अन्य पुरुष की शादी करदी जाती है इसके बाद तलाक दिलाया जाता है फिर उस विधा के माथ उस तलाक वाली स्त्री की शादी होनी है। इसके अतिरिक्त अन्य स्त्रियाँ भी तलाक देती हैं, पुनर्विवाह करती हैं। दक्षिणप्रान्त में तलाक का प्रभाव बतला कर श्रीलाल जी या नो कृपमराडकता का परिचय दे रहे हैं या समाज को धोखा दे रहे हैं। तीसवाँ प्रश्न । पुराणों में विधवा-विवाह का उल्लेख क्यों नहीं मिलना, इसके कारणोंका सप्रमाण दिग्दर्शन किया था। दोनोंही पाले. पको से यहां पर भी कुछ खण्डन नहीं बन सका है। परन्तु हम प्रश्नमें विद्यानन्द जीने तो सिर्फ अपनी अनिच्छाही जाहिर की है, परन्तु पण्डित श्रीलालजी ने अण्ड बराड लिख माग है। बल्कि धृष्टताका भी पूर्ण परिचय दिया। जैन जगत् मादि पत्रों का काला मुंह करने का उपदेश दिया है । खैर, यहाँ हम संक्षेप में अपना वक्तव्य देकर आक्षेपोका उत्तर देंगे। अ-पुराणों में विधवा-विवाह का उल्लेख नहीं है और विधुर विवाह का उल्लेख नहीं है। परन्तु यह नहीं कहा जासकता कि पहिले ज़माने में विधुर विवाह नहीं होते थे। न यह कहा जासकता है कि विधवाविवाह नहीं होते थे। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) पा-आजकल भी प्रथम विवाह के समय ही विशेष समारोह किया जाता है। द्वितीय विवाह के समय विशेष समा. गह नहीं किया जाता। इसी तरह पहिले ज़माने में भी स्त्री पुरुषों के प्रथम विवाह के समय विशेष समारोह होता था; द्वितीयादि विवाहों के समय नहीं । रामचन्द्र आदि के प्रथम विवाह का जैसा उल्लेख मिलता है वैसा द्वितीयादि विवाहोका नहीं मिलता। इसी तरह स्त्रियों के भी प्रथम विवाहका उल्लेख मिलता है द्वितीय विवाहों का नहीं। इ-पुरुषों के द्वितीयादि विवाहोंका जो माधारण उल्लेख मिलता है वह उन के बहुपत्नीत्व का महत्व बतलाने के लिए है। पुराने ज़माने में जो मनुष्य जितना बड़ा वैभवशाली होना था वह उतनी ही अधिक स्त्रियाँ रखना था। इसीलिए चक्रवर्ती के ६६ हज़ार, अर्द्धचक्रीक १६०००, बलभद्र के...तथा साधा. ग्ण गजाओंके सैकड़ों स्त्रियाँ होती थीं । स्त्रियाँ अपना पुनर्विवाह तो करती थों, परन्तु उनका एक समय में एक ही पति होता था; इसलिये उनके बहुपतित्व का महत्व नहीं बतलाया जासकता था। तब उनके दूसरे विवाहका उल्लेख क्यों होता? ई-प्राजकल लोग अपनी लड़कियों का विवाह जहाँ तक बनता है कुमार के साथ करते हैं, विधुरके माथ नहीं । खास. कर श्रीमान् लोग नो अपनी लड़की का विवाह विधुरोके साथ कदापि नहीं करते । परन्तु इस परसे यह नहीं कहा जासकता कि आज विधुरविवाह नहीं होता, या विवाह करने वाले विधुर जातिच्युत समझे जाते हैं । इसी प्रकार पुगने समय में लोग यथाशक्ति कुमारियों के साथ शादी करते थे और श्रीमान् लोग नो विधवाओं के साथ शादी करना ही नहीं चाहते थे। परन्तु इससे विधुर विवाह के समान विधवाविवाह का भी निषेध नहीं हो सकता । दूसरी बात यह है कि स्त्रियों को विवाह के Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२२ ) बाद एक कुटुम्ब छोड़कर दूसरे कुटुम्ब में जाना पड़ता है । इसलिये भी श्रीमन्त घरानो की स्त्रियाँ पुनर्विवाह नहीं करती थीं, क्योंकि ऐसी अवस्थामे उन्हें गरीब घरमें जाकर रहना पड़ता था । चूँकि श्रीमान् लोगों को तो कुमारियाँ ही मिल जाती थी इसलिये वे विधवाओं से विवाह नहीं करते थे । गरीब घरानों में होने वाले वैवाहिक सम्बन्धों का महत्व न होने से शास्त्रों में उनका उल्लेख नहीं है। उ-प्रायः कुमारियाँ हो स्वयम्बर करती थीं और म्व. यम्बर बड़े २ विग्रहोंक तथा महत्वपूर्ण घटनाओं के स्थान थे। इसलिए शास्त्रों में म्वयम्बर का ज़िकर पाता है । विधवाओं का स्वयम्बर न होने से विधवाविवाह का ज़िकर नहीं आता। ऊ-हिन्दु पुराणों में द्रौपदी के पाँच पति माने गये हैं। दिगम्बर जैन लेखकोन द्रौपदीक प्रकरणमें इस बात का खण्डन किया है। हिन्दु शास्त्रों के अनुसार मन्दोदरीका भी पुनर्विवाह हुआ था, परन्तु मन्दोदरी के प्रकरण में उसके पुनर्विवाह का खराडन नहीं किया गया. इससे मालूम होता है कि दिगम्बर जैन लेखक बहुपतित्व (एक साथ बहुत पति रखना) की प्रथा के विरोधी थे, परन्तु विधवाविवाह के विरोधी नहीं थे। ऋ-हमारे पुराण जिस युग के बने हैं उस युग में भारत में सतीप्रथा ज़ोर पकड़ रही थी, विधवाविवाहकी प्रथा लुप्त होरही थी। ऐसी अवस्थामें दिगम्बर जैन लेन कोने ज़माने का रुख देखकर विधवाविवाह वाली घटनाओको अलग कर दिया, परन्तु कोई आदमी विधवाविवाह को जैनधर्म के विरुद्ध न समझले, इसलिये उनने विधवाविवाहका विरोध नहीं किया। ल-हिन्दू पुराणों से और स्मृतियों से वैदिक धर्माव. लम्बियों में विधवाविवाह का रिवाज सिद्ध है । गौतम गणधर ने हिन्दू पुराणों की बहुतसी बातोंका खण्डन किया, परन्तु Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२३ ) विधवाविवाहका खण्डन नहीं किया। इससे भी विधवाविवाह की जैनधर्मानुकूलता मालूम होती है। ए-प्रथमानुयोग, पुराय और पापका फल बतलाने के लिये है, इसलिये उसमें रीतिरिवाजों का उल्लेख नहीं होता है। इसलिये उसमें ऐसे किसी भी विवाहका उल्लेख नहीं है जो असाधारण पुण्य या पुराय फल का द्योतक न हो । ऊपर हम कह चुके हैं कि विधवाविवाह में ऐसी असाधारणता न होने से उसका उल्लेख नहीं हुआ। ऐ-ऐसी बहुन बातें हैं जो जैनधर्म के अनुकूल हैं, शास्त्रोक्त है, परन्तु पुराणों में जिनका उल्लेख नहीं है-जैसे विवाह में होनेवाली सप्तपदी, वैधव्यदीक्षा, दीक्षान्वय क्रियाएँ प्रादि । ओ-परस्त्रीसेवन आदि का जिस प्रकार निन्दा करने के लिये उल्लेख है, उस तरह शास्त्र में विधवाविवाहका खण्डन करने के लिए उल्लेख नहीं है।। औ-भगवान महावीर के द्वारा जितना प्रथमानुयोग कहा गया था उतना आजकल उपलब्ध नहीं है। सिर्फ मोटी मोटी घटनाएँ रह गई है इसलिए भी विधवाविवाह सरीखी साधारण घटनाओं का उल्लेख नहीं है । उपर्यक्त बारह छेदकों में मेरे वक्तव्य का सारांश भागया है और प्रादेषों का खण्डन भी हो गया है । फिर भी कुछ बाकी न रह जाय, इसलिये आक्षेपकोंक निःसार आक्षेपोंका भी समाधान किया जाता है । लेखनशैली की अनभिज्ञता से श्रोलालजी ने जो प्राक्षप किये हैं उन पर उपेक्षा दृष्टि रक्खी जायगी। आक्षेप ( क )--दमयन्तीने अपने पति नलको हूँढने के Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) लिये स्वयम्बर रचदिया तो क्या हिन्दु शास्त्रों में पुनर्विवाह सिद्ध होगया? [श्रीलाल समाधान-दमयन्ती पुनर्विवाह चाहती थी, यह हम नहीं कहते; परन्तु उस समय हिन्दुओं में उसका रिवाज था यह बान सिद्ध होजाती है । दमयन्ती के स्वयम्बर का निमन्त्रण पाकर किसीने इसका विरोध नहीं किया-सिर्फ दमयन्ती के पति नल को छोड़कर और किसी को इसमें आश्चर्य भी न हुआ। सब राजा महाराजा स्वयम्बर के लिये आये । यदि विधवा. विवाहका रिवाज न होता तो राजा महाराजा क्यों आते ? प्राक्षेप (ख)-अन्तगल में चाहे धर्म कर्म उठ जाय परन्तु सजातीयविवाह नष्ट नहीं हुआ करता है। श्रिीलाल समाधान-अन्तरालमें धर्मकर्म उठ जाने पर भी अगर सजातीय विवाह नष्ट नहीं हुआ करता तो इससे सिद्ध हो जाता है कि सजातीय विवाह से धर्मकर्म का कुछ सम्बन्ध नहीं है। ऐसी हालत में सजातीय विवाह का कुछ महत्व नहीं रहता। सजातीय विवाह का बन्धन ता पौराणिक युग में कभी रहा ही नहीं। जातियाँ तो सिर्फ व्यापारिक क्षेत्र के लिये थीं। भगवान् ऋषभदेव के समय से जातियाँ हैं और उनके पत्र सम्राट् भरतने ३२००० विवाह म्लेच्छ कन्याओं के साथ किये थे। तीर्थङ्करों ने भी म्लेच्छों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध किये थे । अनुलोम और प्रतिलोम दोनों तरह के उदाहरणोंसे जैन. पगरण भरे पड़े हैं। विजातीयविवाह और म्लेच्छ कन्यामो से होने वाले विवाहके फलस्वरूप होने वाली सन्तान मुतिगामी हुई है इसकभी उदाहरण और प्रमाण बहुतसे हैं । यहाँ विजा. तीय विवाह का प्रकरण नहीं है । विजातीय विवाह की चर्चा उठाकर श्रीलाल जी धूप के डरसे भट्टी में कूद रहे हैं । अन्त. Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) राल में विजातीय विवाह रहे चाहे जाय परन्तु जब उस समय जैनधर्म की प्रवृत्ति नहीं थी तब वैदिकधर्म के अनुसार विधवाविवाह का रिवाज अवश्य था और पोछे के जैनी भी उन्हीं की सन्तान थे। आक्षेप (ग)-मुसलमानों में भी सैय्यद का सैय्यद के साथ और मुगल का मुग़ल के साथ विवाह होता है। (श्रीलाल) समाधान-विधवा विवाह के विगंध के लिये ऐसे ऐसे आक्षेप करने वाले के होश हवास दुरुस्त हैं इस बात पर मुश्किल से ही विश्वास किया जा सकता है। सैय्यद सैय्यद से विवाह करे इसमें विधवाविवाह का खराडन क्या हो गया ? बल्कि इससे तो यही सिद्ध हुआ कि जैसं मुसलमान लोग (श्रीलाल जी के मतानुसार) सजातीय विवाह करते हुय भी विधवाविवाह करते है तो अन्यत्र भी सजातीय विवाह होने पर भी विधवाविवाह हो सकता है । इसलिये अन्तराल में सजातीयविवाह के बने रहने से विधवाविवाह का प्रभाव सिद्ध नहीं होता । फिर मुसलमाना में विजातीयविवाह न होने की बात तो धृष्टता के साथ धोखा देने की बात है। जहाँगीर बादशाह की माँ हिन्दु और बाप मुसलमान था। मुसलमानों में आधे से अधिक हिन्दरक्तमिश्रित हैं। आज भी मुसलमान लोग चाहे जिस जाति की स्त्री से शादी कर आक्षेप (घ)-विजातीय विवाह से एक दो सन्तान के बाद विनाश हो जाता है । बनस्पतियों के उदाहरण से यह बात सिद्ध है। समाधान-आक्षेपक को बनस्पति शास्त्र या प्राणि शास्त्र का ज़रा अध्ययन करना चाहिये । प्राणिशास्त्रियों ने Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) विजातीय सम्बन्धों से कैसी विचित्र जातियों का निर्माण किया है और उनकी कैसी वंशपरम्पग चल रही है, इस बात का पता श्राप को थोड़े अध्ययन में ही ला जाता । किसी मूर्ख माली की अधूरी बात के आधार पर सिद्धान्त गढ़ लेना श्राप ही सरीखे कृपमंडूक का काम हो सकता है । खैर, मान लीजिये कि विजातीय सम्पर्क की वंश परम्पग नहीं चलती, परन्तु मनुष्य में ता विजातीय विवाह की वंशपरम्पग चलती है । जहाँगीर हिन्दु माँ और मुसलमान बाप से पैदा हुआ था। इसके बाद के भी अनेक बादशाह इसी तरह पैदा हुप जिनकी परम्पग आज तक है। कई शताब्दियों तक तो वह वंश राज्य ही करता रहा। बाद में १८५७ के स्वातन्त्र्ययुद्ध के बाद मा उसी वंश के बहुत स मनुष्य गरीबो की हालत में गुज़ार करते थे और उनमें बहुत से आज भी बने हुए है। यदि यह सिद्धान्त मान लिया जाय कि विजातीयविवाह की मन्तान परम्पग अधिक नहीं चलती तो इससे विजातीय विवाह का निषेध नही होगा किन्तु मनुष्या में हान वाला विजातीय विवाह, विजातीय नहीं है अर्थात् मनुष्यमात्र एक जानि के है यही बात सिद्ध होगी. क्योंकि मनुष्यों में विजा. नीय सम्बन्ध से भी वश परम्परा चलती रहती है। ___ आक्षेप ( 3 )-क्या श्रेणिक के समय में रामायण श्रादि ग्रन्थ बन गये थे ? समाधान-ये ग्रन्थ बहुत प्राचीन है यह बात ऐतिहासिक प्रमाणों सिद्ध है। साथ ही अपने पद्मपुराण में भी यह लिखा है। देखिये पद्मपुराण द्विनीय पर्वश्रूयंते लौकिके ग्रन्थे राक्षसाः रावणादयः ॥ २३० ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) एवंविधं किल ग्रन्थं रामायणमुदाहृतं ॥ २३७ ।। अश्रद्धयमिदं सर्व वियुक्तम्पपत्तिभिः ।। २४८ ॥ ये सब श्रेणिक के मुंह से निकले हुए वाक्य हैं। रामा. यण का नाम तक पाया है । श्रेणिक ने गमायण को अन्य बातों की तो निन्दा की, परन्तु विधवाविवाह को कहीं भी निन्दा न की, न गोतम ने ही निन्दा की, इससे विधवाविवाह की जैनधर्मानुकूलता सिद्ध होती है। आक्षेप (च)-जब कुछ न बना तो एक श्लोक ही बना कर लिख दिया । इस मायाचार का कुछ ठिकाना है ! (श्रीलाल ) समाधानयथा च जायते दुःखं सद्धायामात्मयांषिति । नगन्तरेण सर्वेषामियमेव व्यवस्थितिः॥१४-११२॥ इस श्लोक में यह बताया गया है, कि परस्त्री रमण से परस्त्री के पति को कष्ट होता है इसलिये परस्त्री सेवन नहीं करना चाहिये । यह श्लोक पद्मपुराण का है जिसे श्रीलाल जी ने मेरा कह कर मझे मनमानी गालियाँ दी हैं। इतना ही नहीं ऐसे अच्छे श्लोक के खराडन करने की भी असफल चेष्टा की है। परन्तु इससे हमारा नहीं पद्मपुराण का खण्डन और प्राचार्य रविषेण का अपमान होना है। इस श्लोक से यह बात सिद्ध होती है, कि परस्त्री रमण से पति को कष्ट हाता है, इसलिये वह पाप है। इसी आधार पर यह कहा जाता है कि विधवाविवाह से पति को कष्ट नहीं होता, क्योंकि पति मर गया है इसलिये विधवाविवाह पाप नहीं है। ऐसी सीधी बान भी श्रीलाल जी न समझे तो बलिहारी इस समझ की। श्रीलाल जी ने यह स्वीकार किया है कि 'अपनी विधा. Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२८ ) हिना को छोड़ कर शंष मर में व्यभिचार है चाहे वह कुमारी हो सधवा हो या विधवा हो' । श्रीलालजी के इम वक्तव्य का हम पूर्ण समर्थन करते हैं और इमीसं विधवा-विवाह का ममर्थन भी हो जाता है । जिस प्रकार कुमारी के साथ रमण करना व्यभिचार है, किन्तु कुमारी को विवाहिता बना कर रमण करना व्यभिचार नहीं है। उसी प्रकार विधवा के साथ रमण करना व्यभिचार है परन्तु विधवा के साथ विवाह कर लेने पर उसके साथ ग्मण करना व्यभिचार नहीं है । विधवा के साथ विवाह करने पर उसे अविवाहिता नहीं कहा जा सकता, जिसमे यहाँ व्यभिचार माना जावे। इस तरह श्रीलाल जी के वक्तव्य के अनुसार भी विधवा-विवाह उचित ठहरता है। प्राक्षेप (छ)-महर्षिगरण पाठ विवाह बताने वालों की हम माने या नीमी प्रकार का ये विधवा-विवाह बनाने वाले तुम्हारी माने। समाधान-विधवा विवाह नघमा भेद नहीं है किन्तु जिस प्रकार कुमारीविवाह के पाठ भेद हैं उसी प्रकार विधवा-विवाह के भी पाठ भेद है। इस विषय में पहिले विस्तार से लिखा जा चुका है। आक्षेप ( ज )-प्राचीन समय में लोग विधवा होना अच्छा नहीं समझते थे । यदि पहिले समय में विधवाविवाह का ग्घिाज होता तो फिर विधवा शब्द से इतने डरने की कोई श्रावश्यकता नहीं थी। (विद्यानन्द ) समाधान-प्राज मुसलमानों में ईसाइयों में या अन्य किसी समुदाय में, जिसमें कि विधवाविवाह होता है, क्या विधवा होना अच्छा समझा जाता है ? यदि नहीं तो क्या वहाँ भी विधवा विवाह का प्रभाव सिद्ध हो जायगा? आजकल या Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६ ) प्राचीन ज़माने में क्या लोग अपनी स्त्री का मरजाना अच्छा समझते थे ? यदि नहीं तो विधुर होना भी बुरा कहलाया। तब तो विधुर विवाह का भी अभाव सिद्ध हो जाना चाहिये। प्राचीन ज़माने में विधवा को अच्छा नहीं समझते थे, इससे विधवाविवाह का अभाव सिद्ध नहीं होता बल्कि सद्भाव सिद्ध होता है । विधवा होना अच्छा नहीं था, इसलिये विधवा विवाहके द्वारा उस सधवा बनाते थे। क्योंकि जो चीज़ अच्छी नहीं होती उसे हटाने की कोशिश होती है । निराग अगर रोगी हो जाय तो उसे फिर निरांग बनाने की कोशिश की जाती है। इसी प्रकार सधवा अगर विधवा हो जाय तो उसे फिर सधवा बनाने की कोशिश की जाती थी । इस तरह विद्यानन्द का तर्क मी विधवा-विवाह का समर्थन ही करता है। इस प्रश्न में कुछ प्राक्षेप ऐस भा है जो कि पहिले भी किये जा चुके है और जिनका उत्तर भी विस्तार से दिया जा चुका है। इसलिये अब उनको पुनरुक्ति नहीं की जाती। इकतीसवाँ प्रश्न । 'सामाजिक नियम या व्यवहार धर्म बदल सकते हैं या नहीं इसके उत्तर में हमने कहा था कि बदल सकते हैं, क्योंकि व्यवहार धर्म साधक है। जिस कार्य से हमें निश्चय धर्म की प्राप्ति होगी वही कार्य व्यवहार धर्म कहलायगा । प्रत्येक व्यक्ति की योग्यता और प्रत्येक समय की परिस्थिति एकली नहीं होती। इसलिये सदा और सब के लिये एकसा व्यवहार धर्म नहीं हो सकता । अनेक प्रकार के मूलगुण, कभी चार संयम, कभी पांच संयम, किसी को कमण्डलु रखना, Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३० ) किसी को नहीं रखना आदि शास्त्रांत विधान व्यवहार धर्म की विविधता बताते हैं । सामाजिक नियमों के विषय में विद्यानन्द कहते हैं कि " सामाजिक नियम व्यवहार धर्म के साधक हैं अतः उनमें तबदीली करना मोक्ष मार्ग की ही तबदीलो है " सामाजिक नियमों में रद्दोबदल करने और मोक्षमार्ग में रद्दोबदल करने का एक ही अर्थ है ।" परन्तु इनके सहयोगी पण्डित श्रीलाल जी कहते हैं कि "सामाजिक नियम भिन्न भिन्न देशों में और भिन्न भिन्न कालों में और भिन्न भिन्न जातियों में प्रायः भिन्न भिन्न हुआ करते हैं । ...... "लौकिक विधि उसी रूप में करना चाहिये जैसी कि जहाँ हो" । इस तरह ये दानों आक्षेपक आपस में ही भिड़ गये हैं । यह कहने की ज़रूरत नहीं कि विद्यानन्दजी ने सामाजिक नियम का कुछ अर्थ ही नहीं समझा और वे प्रलापमात्र कर गये हैं । सामाजिक नियमों के विषय में श्रीलालजी का कहना ठीक है और वह हमारे वक्तव्य की टीका मात्र है | श्रीलालजी कहते हैं कि सामाजिक नियम धर्म की छाया में ही रहते हैं । हमने भी लिखा था कि सामाजिक नियम धर्मपोषक होना चाहिये। अब व्यवहार धर्मविषयक मतभेद रह जाता है, इसलिये उसके श्राक्षेपों का समाधान किया जाता / आक्षेप ( क )- -व्यवहार धर्म निश्चय का साधक है । न संसारी श्रात्मा की अवस्था पलटती है न निश्चयधर्म की, न उसके साधक व्यवहार धर्म की । ( श्रीलाल ) समाधान - किसी भी द्रव्य की शुद्धावस्था दो तरह की नहीं होती परन्तु अशुद्धावस्था अनेक तरह की होती है, क्योंकि शुद्धावस्था स्वापेक्ष है और अशुद्धावस्था परापेक्ष है । पर द्रव्य श्रनन्त हैं इसलिये उनके निमित्त से होने वाली Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३१ ) अशुद्धि भी अनन्त तरह की हैं। इसलिये उनका उपचार भी अनन्त तरह का होगा। लोक और शास्त्र दोनों ही जगह साध्य की एकता होने पर भी साधन में भिन्नता हुश्रा करती है। श्रीलालजी का यह कहना बिलकुल झूठ है कि संसारी आत्माओं की अवस्था नहीं पलटतो। अगर संसारी प्रात्मा की अवस्था न पलटे तो सब संसारियों का एक ही गुणस्थान, एक ही जीवसमास और एक ही मार्गणा होना चाहिये। निम्नलिखित बातों पर दोनों आक्षेपकों को विचार करना चाहिये। १-मनुष्य अगर अणुव्रत पाल तो वह पानो छानकर और गर्म करके पियेगा, जब कि अणुवती पशु ऐसा न कर सकेगा। वह बहताहुधा पानी पीकरकमी अणुवती बनारहेगा। व्यवहार धर्म अगर एक है तो पशु और मनुष्य की प्रवृत्ति में अन्तर क्यों? २-कोई कमण्डलु अवश्य रक्खगा, कोई न रक्खेगा, यह अन्तर क्यों? ३-किसी के अनुसार तीन मकार और पाँच फल का त्याग करके ही [बिना अणुव्रतोंके ] मूलगुण धारण किये जा सकते हैं, किसी मत के अनुसार मधु संवन करते हुएभी मूलगुण पालन किये जा सकते हैं क्योंकि उसमें मधु के स्थान पर द्यत का त्याग बतलाया है। इस तरह के अनेक विधान क्यों हैं ? अगर कहा जाय कि इस में सामान्य विशेष अपेक्षा का भेद है तो कौनसा सामान्य और कौनसा विशेष है ? औरइस अपेक्षा भेद का कारण क्या है ? ४-२२ तीर्थड्डरों के तीर्थ में चार संयमों का विधान क्यों रहा ? और दो ने पाँच का विधान क्यों किया? [कोई सामायिकका पालन करे, कोई छेदोपस्थापना का, यह एक Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बात है, परन्तु छेदोपस्थान का विधान न होना दूसरी बात है। ऐसे और भी बहुत से उदाहरण दिये जा सकते हैं। परन्तु इन सबके उत्तरमें यही कहा जासकता है कि जिस व्यक्ति में जितनी योग्यता होती है या जिस यग में जैसे व्यक्तियों की बहुलता रहती है व्यवहार धर्म का रूपभी वैसा ही होता है । हाँ, व्यवहार धर्म हो कैसा भी, किंतु उस की दिशा निश्चय धम्मे की ओर रहती है। अगर निश्चय साधकता सामान्य की दृष्टिसे व्यवहार धर्म एक कहाजाय तो किसीको विवाद नहीं है परन्तु वाह्यरूप की दृष्टि से व्यवहार धर्म में विविधता अवश्य होगी। अब इस कसौटी पर हम विधवाविवाह को कसते हैं। धार्मिक दृष्टि से विवाह का प्रयोजन यह है कि मनुष्य की कामवासना सीमित हो जाय । इस प्रयोजनकी सिद्धि कुमारी विवाह से भी है और विधवाविवाह से भी है। निश्चय साधकता दोनों में एक समान है । अगर दोनों प्राक्षेपक निश्चय साधकता सामान्य को एि में रखकर व्यवहार धर्म को एक तरह का माने तो कुमागविवाह और विधवाविवाह दोनों एक सरीखे ही रहेंगे। दोनों की समानता के विषय में हम पहिलं भी बहुत कुछ कह चुके हैं। माक्षेप ( ख )-जो लोग अजितनाथसे लेकर पार्श्वनाथ तक के शासन में छेदोपस्थापनाका प्रभाव बतलाते हैं उनकी विद्वत्ता दयनीय है। (विद्यानन्द) समाधान-मेरी विद्वत्ता पर दया न कीजिये, दया कीजिये उन बट्टकर स्वामी की विद्वत्ता पर जिनने मूलाचारमें यह बात लिखी है। देखिये Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३३ ) बाबीसं तित्ययग सामाइय संजमं उपदिसन्ति । छेदुव ठावणियंपुण मयवं उसहो य वीरोय ॥ ५३३ ॥ 'अर्थात् बाईस तीर्थङ्कर सामायिक संयम का उपदेश देते हैं और भगवान् ऋषभ और महाबीर छेदोपस्थापना का। अगर श्राप बट्टकेर म्वामी की विद्वत्ता पर दया न बतला सके तो अपनी विद्वत्ता को दयनीय बतलाये, जो कप-मण्डक की तरह हंस के विशाल अनुभव को दयनीय बतला रही है । - आक्षेप (ग)-बिना व्यवहारका पालम्बन लिये मोक्ष मार्ग के निकट पहुंच नहीं हो सकती। (विद्यानन्द) ममाधान व्यवहार का निषेध मैं नहीं करता, न कहीं किया है। यहाँ तो प्रश्न व्यवहार के विविध रूपों पर है । कुमारीविवाह में जैसी व्यवहार-धर्मता है वैसी ही विधवाविवाह में भी है। यहाँ व्यवहार के दो रूप बतलाये हैं-व्यवहार का प्रभाव नहीं किया गया। श्राक्षेप (घ)-जब पथ भ्रष्टता होचुकी तो लक्ष्य तक पहुंच ही कैसे होगी? समाधान-मार्ग की विविधता या यान की विविधता पथभ्रष्टता नहीं है । कोई बी० बी० सी० आई० लाइनसे देहली जाता है, कोई जी० आई० पी० लाइन से, कोई ऐक्सप्रेस स, कोई मामूली गाडी से, कोई फर्स्टक्लास में, कोई थर्ड क्लास में, परन्तु इन सब में पर्याप्त विविधता होने पर भी कोई पथभ्रष्ट नहीं है। क्योंकि समय-भेद मार्ग भेद होने पर भी दिशाभेद नहीं है। विधवाविवाह, कुमारीविवाह के समान निर्गल कामवासनाको दूर करता है। इसलिये दोनोंकी दिशा एक है, दोनों ही लक्ष्य के अनकूल है, इसलिये उसे पथभ्रष्टता नहीं कह सकते। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४ ) इस तरह विधवाविवाह जैनधर्म के अनुकूल सिद्ध हो गया। मैं विधवाविवाह के प्रत्येक बिगेधी को निमन्त्रण देता हूँ कि उसे विधवाविवाह के विषय में अगर किसीभी नरहकी शका होनो वह ज़रूर पूछे। में उसका अन्त तक समा. धान करुंगा। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अावश्यक सूचना* देहली में एक जैनबाल-विधवा-विवाह. सहायक सभा स्थापित है। वे सजन जो विधवाविवाह के सिद्धान्त से सहमत हों या जो सभा के मेम्बर होना चाहें या जिन्हें अपने लड़के या लड़की का ऐसा सम्बन्ध कराना स्वीकार हो, वह नीचे लिखे पते पर पत्र-व्यवहार करें: मन्त्रीजैन बाल-विधवाविवाह सहायक सभा दरीबा कला, देहली। इस पुस्तक के प्रकाशन में अन्यत्र प्रकाशित महानुभावों के अतिरिक्त श्रीमान बाबू गजकृष्ण प्रेमचन्द्र कोल परचेन्ट ने में प्रदान किये हैं-धन्यवाद । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *अन्य उपयोगी पुस्तकें* بل لا یا ت १. शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण-लेखक-श्रीमान् पण्डित जुगल किशोर जी मुस्तार मूल्य ॥ २. विवाह क्षेत्र प्रकाश " .. मृल्य !) ३. जैनजानि सुदशा प्रवर्तक-लेखक-श्रीमान बाबू सूरजभान जी ४. मंगला देवी५ कुवारों की दुर्दशा ६. गृहस्थ धर्म७ राजदुलागी ८. विधवा-विवाह और उन के संरक्षकों से अपील लखक-व्र. शीतल प्रसाद जो है. उजलेपोश बदमाश-लेखक-पं० अयोध्याप्रसाद गोयलीय देहली ... . १०, अबलाओं के आँसू ११. पुनर्लग्न मीमांसा-ले०-बाबू भोलानाथ मुख्तार बुलन्दशहर ... १२. विधवा-विवाह ममाधान ले०-धी० सव्यसाची १३. सुधारसंगीतमाना-ले०-५० भूगमल मुशरफ जैपुर ... ... ॥ १४. जैन धर्म और विधवा विवाह ( पहिला भाग),. | १५. जैन-धर्म और विधवा विवाह ( दुसरा भाग) ,, । मिलने का पता:लाजौहरीमल जैन सर्राफ, दरीबा कलाँ, देहली پا لی پی پی ل Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंकन०६ विधवा विवाह समाधान लेखक :श्रीयुत "सव्यसाची प्रकाशकः-- जेन वाल विधवा सहायक सभा । दर्गवा कलाँ, देहली। शान्तिचन्द्र जैन के प्रबन्ध से "चैतन्य" प्रिन्टिङ्ग प्रेस बिजनौर में छपी । प्रथमावृत्ति । पोष २००० ) वीर नि० सम्वन २४५५ । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * धन्यवाद * श्रीमान् पं० “सव्यसाची" जी ने इस अपूर्व विद्वत्ता पूर्ण लेख द्वारा जो अनेकों युक्तियों से विधवा विवाह का समा. धान किया है, यह सभा उमके उपलक्ष में लेखक महोदय के प्रति अत्यन्त कता है और जिन निम्नांकित सजनों ने हमारे उद्देश्य से प्रेम भाव धारण करके इस रहस्य पूर्ण नियन्ध के छपाने में हमारी आर्थिक सहायता की है यह मभा हृदय मे उनकी आभारी है : - १०) ला० भोलानाथ जैन (दरखशाँ ) मुस्तार बुलन्दशहर १०) ला० काहनचन्द गमलाल पंजावी अमृतसर । १०) राजकृष्ण प्रेमचन्द्र कोल मर्चेट देहली। ३०) कुल जोड़। मन्त्री मैन बाल विधवा सहायक सभा देहली। Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधवा विवाह [ लेखक - एक " सव्यसाची" ] विधवा विवाह के विषय में इस समय काफी चर्चा चल रही है। विधवा विवाह के प्रचारकों का कहना है कि इससे धर्म में विशेष हानि नहीं है और वर्तमान अवस्था को देखते हुए यह अत्यन्त आवश्यक है । विरोधी इसको हर तरह धर्म वि. रुद्ध कहते हैं, महापातक समझते हैं और उन्हें इस बात का दुख है कि विधवा विवाह प्रचारकों को भेजने के लिये आठवां नरक क्यों नहीं है ? र ! पर सामाजिक दृष्टि से विधवा विवाह कैसा है इस विषय मैं इस लेख में विशेष विचार न करूंगा। मुझे तां धार्मिक दृष्टि से इस विषय पर विचार करना है । यद्यपि मैं पंडित नहीं हूँ फिर भी थोड़ी सी संस्कृत जानता हूँ । धर्म शास्त्रों का भी स्वाध्याय किया है । विद्वानों की मङ्गति का भी सौभाग्य मिला है। इससे मेरी इच्छा हुई कि इस विषय पर मैं भी कुछ अपने विचार प्रगट करू । बड़े बड़े विद्वानों के बीच में मुझ सरीखे क्षुद्र व्यक्ति के पड़ने की ज़रूरत तो नहीं है, बल्कि यह एक प्रकार की धृष्टता है, फिर भी समय ऐसा आगया है कि चुप रहना भी बड़े साहस का काम 1 मेरे विचार से विधवा विवाह धर्म विरुद्ध अथवा पाप Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) नहीं है। श्रथवा दूसरे शब्दों में इसे यों कहना चाहिये कि यह उतना ही बड़ा पाप है जितना कि कुमारी विवाह । जो लोग यह कहते हैं कि विधवा विवाह प्रादर्श नहीं है, लेकिन... .." उनके शब्दों से भी मैं सहमत नहीं हूँ। लेकिन' 'किन्तु' 'परन्तु' लगा कर विधवा-विवाह को नीची दृष्टि से देखना में समझ का फेर समझता हूँ। आदर्श तो ब्रह्मचर्य है, उससे उतरती अवस्था विवाह हे: फिर चाहे वह विधवा के साथ हो या कन्या के साथ । विवाह पाप होने पर भी. जिन युक्तियों और आवश्यकताओं से हम कुमारी विवाह को उचित समझते है, उन्हीं युक्तियों और आवश्यकताओं से विधवा विवाह भी उचित है । कन्या का विवाह इस लिये किया जाता है कि जिससे सन्तान चले और कन्या दुगचारिणी न हो जावे। यद्यपि अभी तक वह दुगचारिणी हुई नहीं है, सिर्फ दुगचारिणी होने की सम्भावना है। इसी प्रकार विधवा-विवाह भी इसी लिये किया जाता है जिससे कि सन्तान चले और वह दुराचारिणी न हो जाव । भले ही वह अभी तक दुराचारिणी न हुई हो, सिर्फ सम्भावना ही हो। जो लोग यह कहने लगते हैं कि "विधवाओन क्या आपके पास दरख्वास्त भेजी है ?" उनकी यह भी सोचना चाहिये कि कुमारी कन्यायें भी क्या दरख्वास्त भेजनी हैं ? कुमारियों के विषयमें तो भ्रूणहत्या और गुप्त व्यभिचार की भी शिकायते यहाँ सुनने में नहीं पाती, फिर भी आप उनका विवाह कर देते हैं: तब विधवा समाज ती भ्रूण हत्या, गुप्त व्यभिचार आदि कार्यों द्वारा ज़बरदस्त दरख्वास्ते भेजती है,फिर उनका विवाह क्यों न किया जाय ? विधवा-विवाह के निषेध के लिये लोग Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल्दी से सीता और अञ्जना का नाम लेने लगते हैं,परन्तु सीता और अञ्जना को वैधव्य कब भोगना पड़ा ? पुराणों में विध. वाओं का उल्लेख नहीं के बराबर है और जो मिलती हैं वे आर्जिका के रूप में। हम मानते हैं कि उस समय भी अनेक विधवायें गृहवास करती थीं, परन्तु इससे भी उनके विवाह का निषेध नहीं होता । भगवान ऋषभदेव की पुत्रियों (ब्राह्मी, सुन्दगी) ने अखगड ब्रह्मचर्य पाला था । क्या उनका उदाहरण देकर हम कुमारी विवाह का निषेध कर सकते हैं ? और क्या सीता अञ्जनाको भी पापिनी कह सकते हैं? यदि नहीं ना सीता अञ्जना का उदाहरण देकर हम वर्तमान में विधवा विवाह का भी निषेध नहीं कर सकते । जैसे ब्राह्मी और सुंदरी का उदाहरण देकर हम कुमारी विवाह और विधवा विवाह का निषेध नहीं कर सकते, उसी प्रकार पवनंजय का उदाहरण देकर पुरुषों के पुनर्विवाह का भी खगडन नहीं किया जामकता। पवनंजय अञ्जना को वाईस वर्ष छोड़ रहा । फिर भी उसने दूसग विवाह न कराया। आजकल कितने पुरुष भर जवानी में बाईस वर्ष तक संयन रख सकते हैं ? स्त्रियों के लिये तो ब्राह्मी, सुन्दरी, सीना आदि आदर्श है. परन्तु पुरुषों के लिय क्या वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ महावीर, पवनंजय श्रादि अादर्श नहीं है ? बात यह है कि आदर्श से हम रास्ते का पता लगा सकते हैं, उसकी तरफ मुंह करके चल सकते हैं लेकिन समाज का प्रत्येक व्यक्ति उसके ऊपर प्रारूढ़ नहीं हा सकता। जब हम देखते हैं कि अपने तीन तीन चार चार विवाह करने वाले पुरुष विधवा विवाह का निषेध करते हैं तब हमें Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी बेशरमी पर ताज्जुब होता है । अरे भाई ! तुम मर्द हाकर जव काम की जगसी चपेट नहीं मह सकते,तो विचारी नियाँ कैसे महेंगी । जिस काम को नुम स्वयं करते हो, उमी पर तुम दूसरों को दगड देना चाहते हो । भला इस बेहयाई का कुछ ठिकाना है। जो विधवा विवाह के विरोधी हैं, उन्हें चाहिये कि वे एक अलग समाज स्थापित करें जिसमें न तो पुरुषों का पुनर्विवाह होता हो न स्त्रियों का । बहुत से लोग विधवा-विवाह के निषेध के लिये स्त्रियों को श्राग करने लगे हैं । परन्तु हम कुमारी विवाह के निषेध के लिये सैकड़ों कन्याओं को खड़ा करदें नो क्या आप कुमारी विवाह बन्द कर देंगे ? बात यह है कि शताब्दियों की गुलामी ने स्त्रियों के शरीर को ही नहीं. किन्तु अात्मा और हृदय को भी गुलाम बना दिया है । उनमें अब इतनी हिम्मत नहीं है कि वे हृदय की बात कह सके। अमेरिका म जब गुलामी की प्रथा के विरुद्ध अब्राहमलिंकन ने युद्ध छड़ा ना स्वयं गुलामा ने लिकन माहिव के विरुद्ध अपने मालिका का पक्ष लिया और जब वे म्वतन्त्र हो गये तो भी मालिकों की शरण में पहुँचे । गुलामी का ऐसा ही प्रभाव पड़ता है। ज़रा स्वतन्त्र नारियों से आप ऐसी बात कहिय, युगप की स्त्रियाले विधवा-विवाह के विरोध करने का अनुरोध कीजिए, तब आपको मालूम हो जायगा कि स्त्रीहृदय क्या चाहता है ? हमारे देश की लजालु स्त्री कार्य कर सकती है, पर कह नही सकनी । एक विधवा स-जिसके चिह्न वैधव्य पालन के अनुकल नहीं थे-एक महाशय ने विधवा-विवाह का ज़िकर Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया तो उनको पचासों गालियाँ मिलीं, घर वालों ने गालियां दी और विनागं की बड़ी फजीहत की, परन्तु कुछ दिनों बाद वह एक आदमी के घर में जाकर बैठ गई । इसी तरह कड़ी विधवाएँ अजनों के साथ भाग सकती हैं, भ्र ण-हत्या कर सकती है, गुप्त व्यभिचार कर सकती है, परन्तु मुह से अपना जन्म सिद्ध अधिकार नहीं मांग सकती । प्रायः प्रत्येक पुरुप को इस बात का पता होगा कि एम कार्यों में स्त्रियाँ मह से 'ना'ना' करती हैं और कार्य मे 'हां' 'हां' करती हैं। इसलिये स्त्रियों के इस विरोध का कोई मूल्य नहीं है। अब हम इस विषय में विचार करते है कि क्या विधवा विवाह पाप है और अगर पाप है तो कौनमा? विधवाविवाह के विरोधियों का कहना है कि यह व्यभिचार है । अगर पूछा जाय कि व्यभिचार किस कहते हैं तो उत्तर मिलेगा कि परपुरुष या परस्त्री के साथ ग्मगा करना। अगर पूछा जाय कि परपुरुष और परस्त्री किसे कहते हैं ? तो उत्तर मिलंगा कि पुरुप का जिम स्त्री के साथ विवाह न हुआ हो वह पर म्बी, और स्त्री का जिम पुरुष के माथ विवाह नहीं हुआ, वह पर पुरुष है । विवाह के पहिलं अगर कोई पुरुष, किमी कुमारी के साथ अनुचित सम्बन्ध कर, तो भी उसे व्यभिचार कहंगे: लेकिन विवाह होने के बाद वह सम्बन्ध व्यभिचार न कहलायंगा ! इस में यह बात साफ मालम होती है कि विवाह में ऐसी खूबी है जो व्यभिचार के दाप को अपहरण कर लेती है। जो आज परपुरुप है विवाद होने के बाद वह म्वपुरुप बन जाता है. जो श्राज परस्त्री है विवाह होजाने के बाद वह ही स्वस्त्री बन जाती है । जो विधवा आज परम्त्री है वह विवाह Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाने पर स्वम्त्री हो जावेगी: जो पुरुष, एक विधवा के लिये श्राज परपुरुष है वही विवाह हो जाने पर स्वपुरूष होजा. यगा । फिर अब व्यभिचार कहां रहा। क्या म्बम्त्री और स्वपुरुष के साथ सम्बन्ध करना भी व्यभिचार है ? यदि विवाह हो जाने पर भी हम व्यभिचार व्यभिचार चिल्लाते रहें तब नो पूर्ण ब्रह्मचारी के सिवाय मभी व्यभिचारी कहलायेंगे । कहा जाता है कि विधवा का तो विवाह ही नहीं हो सकता, फिर वह व्यभिचार का दोष कमे दुर होगा ? ठीक है: अगर विधवा का विवाह न हो सके तव ता व्यभिचार का दोष बना ही रहेगा। लेकिन हमें काशिग तो करनी चाहिये कि विधवा का विवाह हो सकता है या नहीं ? यदि कर मकंग तो ठीक है, न कर सको तो वश क्या है । अगर विधवा-विवाह करते ही वज्र पड जाय, स्त्री का जीवन समाप्त हो जाय या पुरुष का जीवन समाप्त हो जाय, मासिकधर्म बन्द हो जाय, स्त्रीत्व के चिन्ह नष्ट हा जाय तब समझना चाहिये कि विधवा-विवाह हो ही नही सकता । अगर ऐसी बात नहीं है तब ना पालसी बन कर पड़ रहन म क्या फायदा है ? यदि श्राप म्वयं नहीं कर सकते तो जो लोग कर सकते है उन्हें शाबाशी तो दीजिये । जो काम आपके लिये प्रसम्भव है वह उन्हाने सम्भव करके दिखा दिया: यह क्या कम बहादुरी है ? यदि आप कहें कि न करना चाहिये. इस लिये नहीं हो सकता ना हम पूछते हैं कि क्यों न करना चाहिये ? जब विवाह में यह ताकत है कि व्यभिचार का दोष दूर कर देता है तब, ज़रूरत पड़ने पर उसका उपयोग क्यों न किया जाय ? Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक भाई कहेंगे कि शास्त्रों में 'कन्यादान विवाहः' लिखा हुआ है । इस लिये विधवा का विवाह नहीं हो सकता। यदि कन्यादान विवाह का लक्षण माना जावं तब तो गंधर्व विवाह को विवाह ही न कहना चाहिये; क्योंकि उसमें स्त्री और पुरुष परस्पर एक दूसरे को स्वीकार करते है-कन्या का दान नहीं किया जाता । इमसे मालूम होता है कि शास्त्रों में विवाह के जो लक्षण मिलते हैं वे किसी समय की विवाह प्रथा के प्रदर्शकमात्र है। विवाह का व्यापक लक्षण है 'स्त्री पुरुष का एक दूसरे को स्वीकार करना । कन्या शब्द के ऊपर जब हम नज़र डालते हैं तब हमें इसमें और ही रहम्य दीखता है । कन्या शब्द का अर्थ 'भोग' अविवाहिता लड़की करते हैं। लेकिन कन्या शब्द का अर्थ पुत्री भी होता है। विवाहित हो जाने पर भी यह कहा जाता है कि अमुक पुरुष की कन्या है । विवाह में कन्यादान (पुत्रीदान) शब्द के प्रयोग करने का मतलब यह है कि कन्या दान करने का सबसे बड़ा अधिकार पिता का है। पिता को अधिकार है कि वह कमारी कन्या के समान विधवा का भी दान करें। दृमर्ग बात यह है कि 'कन्या शब्द का अर्थ "विवाह याग्य स्त्री है चाहं वह कमारी हो या विधवा । सैकड़ों वर्षों से भारतवर्ष में कुमारी विवाह का ही विशेष चलन रहा है इस लिये कुमारी और कन्या दोना ही शब्द पर्यायवाची बन गये हैं। देखिये कोषकार ने 'कन्या शब्द का अर्थ 'स्त्री सामान्य' बताया है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्या कुमारिका नार्यो गशिभेदोपधाभिदोः ( विश्वलावन) । इमाम मालूम होता है कि कन्या कुमारी को भी कहते है और स्त्रोमात्र का भी कहते है। इसलिये विधवा को भी कन्या कह सकते हैं। यह न समझिये कि यह अर्थ सिर्फ कोप में लिखने के लिये ही है, शास्त्रका ने इसका प्रयोग भी किया है। इसका उदाहरण भी लीजिये मुग्रोव की स्त्री मुताग, दो बच्ची को माना हो गई थी । फिर भी माहम्मगति विद्याधर उसके ऊपर आसक्त था। वह सोचता है कि वह कन्या ( सुतारा ) मुझे कब मिले गी-'फनोपायनतां कन्यां लम्प निवृ निदायिनी' । जब दो बच्चों की माता को कन्या कहा आ सकता है नव विधवा को कन्या क्या नहीं कहा जा सकता? ऐसे व्यापक अर्थ में कन्या शब्द का प्रयोग पार भी मिलता है: जे-'देवकन्या' आदि। विवाह क लन्नगा के फर में पड कर जा लाग विधवाविवाह का निषेध करते हैं, उनमें हम कह देना चाहते है कि वास्तविक विवाह का लनण 'म यचारित्रमाहोदया किवहनं विवाहः' है जिसमें कन्या और विधवा का कोई प्रश्न ही नहीं है । कन्याशब्द का प्रयाग एक मात्रय के ग्विाज के अनुसार है। दूसरी बात यह है कि शब्द का अर्थ बहुत ज्यापक है। कई लोग कहने लगते हैं कि "कन्या तो दने की चीज है। जिसको वह दी जानी है, वह उसी की सम्पनि हो जाती है: फिर किमीमर को लन का क्या अधिकार है। इसके उत्तर में हम पहिले यही निवेदन करेंगे कि स्त्री किसी की सम्पत्ति नहीं है । जैन धर्म कहता है कि महावन न पाल सकने के कारण जैसे पुरुष एक स्त्री को ग्रहण करके अणु Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्रत पालता है उसी प्रकार स्त्री भी महावत न पाल सकने के कारण एक पुरुष को ग्रहण कर अणुव्रत पालती है। इसमें कोई किमी की सम्पत्ति नहीं कहलाती।सीताकी जब अग्निपरीक्षा हो चुकी तब रामचन्द्र ने फिर घर में रहने को उनसे प्रार्थना की, परन्तु सीताने गमचन्द्र की प्रार्थना नामंजूर की और आर्यिका की दीक्षा लेली । क्या सम्पत्ति, मालिक की इच्छा के विरुद्ध चनी जा सकती है ? अब जग और भी विचार कीजियअगर स्त्री, पुरुप की सम्पत्ति है तो पुरुष के मरने के बाद जर ममम्त सम्पत्ति का स्वामी उम्मका पुत्र होता है उमी प्रकार उनकी स्त्रो का अर्थात अपनी माता का भी म्वामी पुत्र कहलायगा। क्या विधवाविवाह के विरोधियों को यह पान इट है ? यदि वह स्वामी नहीं है तो मानना चाहिए कि वह पिता की सम्पत्ति नहीं थी। उसने तो अणुव्रत पालन के लिये एक पुरुष का महाग लिया था। अब वही महाचत पालंगी या वन्य दीना लेगी अथवा छठवी प्रतिमा के आगे न बढ़ सकंगा ना नर्विवाह करेगी । उसने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार पति के जीवन भर साथ दिया । अब वह दृमग प्रवन्ध करने के लिये स्वतन्त्र है। यदि इतने भर भी लोग त्रो को सम्पत्ति समझ तब यह कहना पड़ेगा कि पति के मरन पर उसका दृालरा पनि हाना ही चाहियः क्याकि सम्पत्ति जावारिस नहीं रह सकती। अगर वह लावारिम रहगी तब तो प्रत्येक प्रादमी उसका मन माने रूपमें प्रयोग करेगा । तब हमारीमा वहिन या वन जावेगी। यह कल्पना भी * पगिडत नेकीगम शर्मा के शब्दों में आजकल की बहुत मो विधवार पब्लिक प्रापर्टी-सार्वजनिक सम्पत्ति Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमा है। यदि प्रत्येक प्रादमी उनका उपयोग न का सकंगा तो यह कहना पड़ेगा कि "अम्बामि कम्य द्रव्यम्य दामादो मंदिनीपतिः जिसका कोई म्वामी नहीं होता उमका म्वामी गजा होना है। आजकल हमारे यहाँ राजा है-अंग्रज़ लोग, तव सब विधवानों के स्वामी व ही हो जायेंगे। स्त्रियों को सम्पत्ति समझने वाले दानवों से हम पूछते हैं कि तुम लोग अपनी इन गन्दी कल्पनाओं मे अपनी मां बहिन और बेटियों को कितना नीचे गिरा देते हो? उनका कैसा अपमान करते हो, उनके सतीत्व पर केस आक्षेप करते हो. इसकी कल्पना करते ही आँखों में खून टपकने लगता है श्रोर जी चाहता है कि............ । कुछ लोगों का यह कहना है कि जिस प्रकार मनुष्य अनेक थालियों में भोजन कर सकता है लेकिन हमारी झूठी थालीमै दसग पुरुप भोजन नहीं करता, उसी प्रकार एक पुरुष अनेक स्त्रियों का सेवन कर सकता है, लेकिन अनेक पुरुष एक म्त्री का सेवन नहीं कर सकते, क्योंकि पुरुष भोजक है और म्त्री भोज्य है। यदि स्त्री को थाली मान लिया जाय तो भी विधवाविवाह का विरोध नहीं हाता। क्योंकि जिस प्रकार मांजने धोने के बाद थाली फिर काम में लाई जाती है और दुमा पुरुष के भी काम में आ सकती है, उसी प्रकार मासिक धर्म के बाद द्वितीय पुरुष के साथ मंत्री का सम्बन्ध होना अनुचित नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह है कि स्त्री पुरुष का भोज्य भोजक सम्बन्ध नहीं है: यदि है तो दोनों ही भाजक और दोनों ही भाज्य है । सीधी बात यही है कि भोग के कार्य में दोनों को बन गई है । घर वालों से लेकर बाहर तक के सभी पुरुषों की कुदृष्टि उन पर रहती है । स० जा०प्र० । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख होता है: अगर भाज्य भोजक सम्बन्ध होता तो भोज्य (स्त्री) को सुख न होना चाहिये था: अगर स्त्री को भोज्य माना जाय तो स्त्री को कुशील के पाप का बन्ध न होना चाहिये: कयोंकि भोगने वाला ना पुरुष है स्त्री ने नो भोग किया ही नहीं हैं, फिर पाप कमा? तीसरी बात यह है कि वेश्या को भी हमें निदोष मानना पड़ेगा: क्योंकि वह तो भाज्य हैं । जैसे थाली का एक पुरुप झूठा कर या दम, वह अपवित्र होती है, किन्तु इसमें उनका दोष नहीं माना जाता । इसी प्रकार वेश्या का दोप या अपगध भी नहीं मानना चाहिये । रही अपवित्रता की बात, मो नो मधवा विधवा और वेश्या मसी अपवित्र है। क्योकि पापक मत सेव भी झूठी थाली के समान है । एमी हालतम हमें सपवा विधवा और वेश्या भवका समान मन्मान और धार्मिक व सामाजिक अधिकार देना पड़ेगा । बर ! भाक्ता किम कहते हैं ? अब जग इस पर भी विचार कीजिय । गजवार्तिक में लिखा है “परद्रव्य वीर्यादान सामथ्र्य भोक्तृत्वलक्षणम' सर द्रव्य की ताकत को ग्रहण करने की सामथ्य को संक्तृित्व कहते हैं । स्त्री पुरुष के भाग में हमें विचार करना चाहिये कि कौन किमकी ताकत को ग्रहण करता है । अथवा कौन अपनी शक्तियों को ज्यादह बर्बाद करता है । विचार करत ही हमें मालूम होगा कि मांकनृत्य स्त्री में है, पुरुष में नहीं । कयाकि इम कार्य में पुम्य की जितनी कि नट होती है इतनी म्बी की नहीं । दृमरी बात यह है कि म्बी की 'रज' को पुरुष ग्रहण नहीं कर पाता बल्कि पुरुष के वीर्य को स्त्री ग्रहण कर लेती है। ग्रहण करना ही भोक्तृत्व है: यह बात गजवार्तिक Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) के लक्ष ग से साफ़ मालूम होती है। मतलब यह है कि पुरुष को भोजक और स्त्री का भोज्य कदापि नहीं कहा जा मकता । थाली के उदाहरण के स्थान पर गन्न का उदाहरण रखने से यह बात ओर भी अधिक स्पष्ट हो जाती है । पुरुष अगर स्त्री को थाली के अनुसार झूठी करके फेंक देना चाहते है तो स्त्रियां भी ऐसा ही कर सकती हैं। इस उदाहरण से बहुपत्नी को शंका का भी समाधान होजाता है। कहा जाता है कि पुरुष तो एक ही समय में अनेक स्त्रियों को रख सकता है लेकिन एक स्त्री अनेक पुरुषों को नहीं रख सकती । इस तरह स्त्रियाँ हीन है। इसका उत्तर गन्न के उदाहरण में है । अनेक व्यक्ति पक गन्ने के अनेक भागों को चूस सकते हैं: इस लिये वह गन्ना बड़ा नहीं हो जाता और न किसी का दृसग गन्ना चूसने का अधिकार छिन जाना है। दूसरी बात यह है कि एक पुरुष की अनेक स्त्री हाना या एक स्त्री के अनेक पुरुष होना यह देश देश का रिवाज है । यहाँ एक पुरुष अनेक स्त्री रखता है: तिब्बत में एक स्त्री अनेक पति रखती है। शक्ति सब में सब तरह की है। उपयोग होना देशकाल के ऊपर निर्भर है। इसलिये थाली वगैरह के उदाहरण देकर या भोज्य भोजक सम्बन्ध बता कर विधवा विवाह का निषेध करना निरर्थक हैं। कई लोग कहने लगते हैं कि शास्त्रों में ब्राह्म प्राजा. पत्य आदि पाठ तरह के विवाह लिखे हैं। उनमें विधवाविवाह का नाम क्यों नहीं है ? इसका उत्तर बिलकुल सीधा है । ऐसे भाइयों को देखना चाहिये कि इन बाठो भेदों में कन्या (कुमारी) विवाह का उल्लेख कहाँ है ? तथा सजातीय विवाह, विजातीय विवाह, अनुलोम विवाह, प्रतिलोम विवाह आदि का भी उल्लेख कहाँ है ? मतलब यह है कि जैसे कुमारी का Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह आठ तरह का होता है, उसी तरह विधवा का विवाह भी पाठ तरह का होता है। जैसे सजातीय विवाह पाठ तरह होता है, उसी प्रकार विजातीय विवाह भी पाठ तरह का ही होता है। सब तरह के विवाहों में ये आठ भेद हो सकते हैं। आश्चर्य है इस हलकी सी बात को भी विधवा विवाह के विरोधी समझ नहीं पाते। कई लोग कहते हैं कि "पुरुषों को प्रकृति ने ही अधिक अधिकार दिये हैं और स्त्रियोको थोड़े अधिकार दिये हैं । देखो! पुरुष वर्ष भर में सो दौ सो बच्चे भी पैदा कर सकता है और स्त्री सिर्फ एक ही बच्चा पैदा कर सकती है" इसका उत्तर भी बहुत सरल है । यदि ऐसा है तो पुरुषों का पुनर्विवाह तुरन्त गेक देना चाहिये और स्त्रियों को पुनर्विवाह तुरन्त चालू कर देना चाहिये, क्योकि मी सन्तान पैदा करने के लिये एक पुरुष से ही काम चल सकता है। इसलिये निन्यानवे अगर न हो या कुवारे रहें तो भी कोई हानि नहीं है लेकिन स्त्री तो एक भी कुमारी या विधवा हो जायगी तो एक बच्चा घट जावंगा। यह कहां तक न्याय है कि जिस चीज़ की हमें अधिक ज़रूरत है वह तो व्यर्थ पड़ी रह और जिसकी ज़रूरत हमें थोड़ी है उस की ज्यादा कदर की जाय । मतलब यह है कि प्रकृति ने जो स्त्री पुरुष में अन्तर उत्पन्न कर दिया है उससे भी मालूम होता है कि विधुर विवाह की अपेक्षा विधवाविवाह सौ गुना अधिक आवश्यक है। कई सज्जन कहने लगते हैं कि विधवाएँ तो पाप कर्म के उदय से होती है। उन्हें अपने कर्म का उदय शान्ति से सह लेना चाहिये; विवाह करने की क्या ज़रूरत है ? बहुत ठीक है, परन्तु दुःख इतना ही है कि यह सारी कर्म की फिलासफ़ी महिलाओं के सिर ही मढ़ दी गई है । जैसे विधवाएँ पाप Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म के उदय से होती हैं, उसी प्रकार क्या विधुर पाप कर्म के उदय से नहीं होते ? फिर लोगों ने जब विधुरपन मिटाने का इलाज उचित समझा है तब वेधन्य मिटाने का इलाज उचित क्यों नहीं समझा जाय । ज्ञानावरण कर्म के उदय से मनुष्य अज्ञानी होता है तब शिक्षा का प्रबन्ध कयों नहीं किया जाता है। निर्बल को सबल क्यों बनाया जाता है ? हम पूछते हैं कि कर्मों के उदय को सफल बनाने का क्या विरोधियों ने ठेका ले रक्खा है ? तब तो स्त्री वेद के उदय को सफल बनाने के लिये विधवा का विवाह करना अत्यन्त आवश्यक है । ज़रा और भी विचार कीजिये । यदि असाता वेदनीय आदि के उदय को सफल बनाना आवश्यक है, तब आपके घर में यदि कोई बीमार पड़ जाय तव भूल करके भी उसका इलाज न करना चाहिये । पाप कर्म के उदय को सहकर कर्मों की निर्जग करने का अवकाश देना चाहिये । जो लोग रोगियों की चिकित्सा करते हैं वे वैसे ही पापी हैं, जैसे विधवाविवाह के प्रचारक । अगर पाठशाला खोलने वाले, श्राहार दान देने वाले, औषधालय खोलने वाले, परिचर्या करने वाले तथा अन्य तरह की आपत्तियों को दूर करने वाले अच्छे हैं--पाप कर्म के उदय को भोग कर कर्मों की निर्जग करने का अवकाश छीनने का पाप उन्हें नहीं लगता-तव विधवाविवाह के प्रचारक भी दोषी नहीं कहे जा सकते। __असली बात तो यह है कि अगर पापकर्म के उदय से मनुष्य को कोई दुःख उठाना पड़े तो उसे सहना चाहिये । परन्तु दूसरों का यह कर्तव्य नहीं है कि वे पापकर्म के उदय को स्थिर रखने की कोशिश करें और उसे ज़बर्दस्ती सहन करने के लिये वाध्य करें। उस पुरुष को भी सहन करने का ढोंग नहीं करना चाहिये । अाज समाज में ऐसी कितनी Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधवाएँ हैं जो स्वेच्छा से वैधव्य की वेदना को शान्तरूप से सहने को तैयार हो ? अगर ऐसी देवियां हैं तो बड़ी खुशी की बात है, अगर नहीं हैं तब तो उनसे निर्जरा की श्राशा नहीं की जा सकती। बल्कि दिन रात के आर्त ध्यान से वे नीच गति का ही बंध करती है। भ्रण हत्या और गुप्त व्यभिचार से यह बात स्पष्ट जाहिर होती है कि विधवा विवाह की ज़रूरत है। इस प्रकार के तर्क वितर्क से यह बात साफ़ जाहिर हो जाती है कि विधवा विवाह धर्म विरुद्ध नहीं हो सकता । अब जरा नजीरों पर विचार कीजिये . देवगति में आम तौर पर विधवा विवाह चालू है । जिन देवियों का पति ( देव ) मर जाता है, वे अपने स्वामी के स्थान पर पैदा होने वाले देव की पत्नी हो जाती है । इतने पर भी उनके सम्यक्त्व और शुक्ल लेश्या में कोई अन्तर नहीं पाता। न उनके जिन दर्शनादि सम्बन्धी अधिकार कोई छीनता है । यदि कहो जाय कि उनका शरीर वैक्रयिक है जो कभी अपवित्र नहीं होता, तो यह भी कहा जा सकता है कि नारियो का शरीर रक्त मांसमय श्रीदारिक है जो कभी पवित्र नहीं रहता । चाहे वह अविवाहित रहे या एक बार विवाहित या बहु बार विवाहित । धर्म अधर्म चमड़े में रहने की वस्तु नहीं है। उसका सम्बन्ध प्रात्मा से है । अरे भाई : धर्म अधर्म तो चर्मकार भी चमड़ में नही ढहता. फिर आप लोग क्या उससे भी गये बीते हो ? ग्वैर ! जो कुछ हो, परन्तु इतना तो सिद्ध हुवा कि विधवाविवाह का विरोध, सम्यक्त्व ( जैन धर्म ) और शुक्ल लेश्या से नहीं है । अगर तिर्यञ्चगति के ऊपर नजर डाली जाय तो हमें यह भी मानना पड़ता है कि देशविरति से भी इसका विरोध नहीं है। किन्तु Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब से बड़ी उदारता तो हमें अपने धर्म ग्रन्थों में मिलती है। कोई मनुष्य चाहं बह कितना भी व्यभिचारी या पापी रहा हो, उसे मुनि बनने का अधिकार है। कोई स्त्री चाहे वह कितनी ही व्यभिचारिणी रही हो, उसे आर्यिका बनने का अधिकार है । देखो गजा मधु का चरित्र-उसकी रमेल गनी चन्द्राभा ने श्रार्यिका-व्रत लिये: रुद्र की माता उपेष्टा एक मुनि के साथ फंस गई,लड़का पैदा हुआ बाद में वह फिर आर्यिका बन गई। प्रायश्चित शास्त्रों में भी पंमी भ्रष्ट आर्यिकाओं तक को फिर पार्यिका की दीक्षा दे देने का विधान ' है । मुदृष्टि मुनार तो व्यभिचारिंगी स्त्री की सन्तान होने पर भी मोक्ष गया । इन सब उदाहरणों से साफ मानम होता है कि व्यभिचार से भी मनुष्य के अधिकार नहीं छिन सकते । फिर विधवा विवाह तो ब्रह्मचर्याणु व्रत का माधक है । उसमे धर्म हानि तो कैसे हो सकती है। यहाँ हमने खास खाम बानों पा संक्षेप में प्रकाश डाला है। अभी तो वहन सी बातें हैं जिनके ऊपर प्रकाश डालना है आशा है समाज के प्रसिद्ध लेखक श्रोर विद्वान इस विषय पर प्रकाश डाला। अन्त में हम जैन जगत आदि पत्रों के सम्पादकों से निवेदन करते है कि आप लोग सत्य के पथ में बढ़ करके बीच में ही क्यों रह गये । । यह बड़े आश्चर्य की बात है ॐदग्बारीलाल जी न्यायतीर्थ के 'धर्म और लोकाचार' शीर्षक लेख में इस बात का खुलासा प्रमाण देकर किया गया है । (लेखक) जिस तरह से हमारी विधवा वहिने अत्याचारी पुरुष समाज के भय तथा अपने संकोच नमाव के कारण Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि आप लोग "विधवा-विवाह" सरीखे धर्मानुकल कार्य के भी विरोधी हैं। जैन गजट आदि पत्र के सम्पादकों से भी हम निवेदन करते हैं कि आप लोग मिथ्यात्व को छोड़ो ! धर्म का निवास स्थान न तो रूढ़ियों में है, न चमड़ में है, न कोरी वाह वाही में है, वह आन्मा में है। धर्म के लिये स्त्रियों पर प्रत्या चार करने की जरूरत नहीं है। हदय को पत्थर बनाने की ज़रूरत नहीं है। जबर्दस्ती वैधव्य पलवाना सती प्रथा से भी बढ़ कर पाप है। सती प्रथा से स्त्रियों को १०-१५ मिनट जलना पड़ता था, वैधव्य से जीवन भर जलना पड़ता है। इसलिये सती प्रथा यदि मिथ्यात्व है तो ज़बर्दस्ती का वैधव्य महा मिथ्यात्व है। आप लोग मिथ्यात्व मे छूटकर महामिथ्यान्व में न फैसिये, बल्कि सम्यक्त्व की ओर भाइये। समाज के उन विद्वानों में भी हम निवेदन करते हैं जिन्हें कि आजीविका की चिन्ता नहीं है कि श्राप निष्पक्ष गति से विचार कीजिये । इस बात को भूल जाइये कि लोग क्या कहेंगे । सत्य के लिये, सिर्फ सत्य के लिये व जैनधर्म के लिये निःपक्ष हदय से विचार कीजिये कि धर्म क्या है । जो लोग यह कहते हैं कि विधवा विवाह को बात सुनते ही पृथ्वी क्यों नहीं फट जाती जिसमें हम समा जाते, उनसे भी हम प्रार्थना करेंगे कि पृथ्वी को फटने का निमन्त्रण देने के पहिले हृदय को फाड़िये और एकान्त में देखिये कि उसमें धर्म प्रेम है या झूठे नाम का प्रेम । यदि वह वाहवाही के लिये मर रहा अपने हृदय के भाव जुबान से खुल्लम वुल्ला प्रकट नहीं करती, सम्भव है उसी तरह ये पत्र भी किसी भय या लज्जा के वश सत्य के मार्ग में बढ़ते बढ़ते रुक गये हो । स० जा०प्र० Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो या और कोई ऐहिक स्वार्थ हो तो हमारी बात न सुनिये परन्तु उसमें सशा धर्म प्रेम हो तो जब तक पृथ्वी फटे तब तक हमारे लेख पर विचार कीजिये । विरोध करना हो तो अवश्य कीजिये, नहीं तो हिम्मत के साथ सच बोलिये। पुरुष समाज से हम कहेंगे, कि समाज पुरुषों की ही नहीं, स्त्रियों की भी है। पापोदय की चिकित्सा पुरुषों के लिये ही नहीं,स्त्रियों के लिये भी है । रूढ़ि के लिये सत्यकी हत्या मत करो ! किन्तु सत्य के लिये रूढ़ियों को मिटादो। देवियों से यह कहेंगे कि आप आजीवन ब्रह्मचर्य पालन करना चाहती हैं नो बड़ी खुशीसे करें; हम आपके सामने सिर झुकाते हैं किन्तु रो रो कर ब्रह्मचर्यका पालन न करें और ब्रह्म चर्य का ढोंग न करें। वैधव्य का पालन इसलिये करें कि आपको पालन करने की इच्छा है, न कि इसलिये कि समाज विधवा विवाह को बुरा समझती है । यदि आपको वैधव्य की अपेक्षा गार्हस्थ्य जीवन ही ज्यादा पसन्द है तो अपने पुन: विवाह के अधिकार का उपयोग करके विशुद्ध ब्रह्मचर्याणुव्रत पालन करें। धर्मशान शून्य स्वार्थी निर्दय पुरुषों को कोई हक्क नहीं है कि जिसके पालन में वे स्वयं फिसल जाते हैं वही बात दूसरों से जबर्दस्ती पलवावें । याद रखो ! वे स्वार्थी पुरुष तुम्हे मनुष्य नहीं, जूठी थाली समझते है । इसलिये तुम अपने गौरव की रक्षा करी । विश्वास रक्खो कि मनुष्य जाति की स्थिति के लिये पुरुषों की अपेक्षा त्रियाँ अधिक आवश्यक हैं। आशा है सभी श्रेणी के व्यक्ति इस लेख पर विचार करेंगे और पक्ष में या विपक्ष में सम्मति अवश्य देंगे । Page #337 --------------------------------------------------------------------------  Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ son 666666 (6) हिन्दू जति की सामाजिक दुर्दशा सुधारने का एक मात्र उपाय विधवा-विवाह प्रथम बार शुक समाज सुधारक माला तृतिय पुण्य - MAN मोतीलाल पहाड्या, कुनाड़ी कोटा [राजपूताना ] वि० संवत ११० सू० पौण मान मात्र 9999999999 Page #339 --------------------------------------------------------------------------  Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दू जाति की सामाजिक दुर्दशा सुधारने एक मात्र उपाय विधवा विवाह। इस देश में बाल विवाह, वृद्ध विवाह, अनमेल विवाह और कन्या-कम-विक्रय प्रादि सामाजिक कुप्रथायें भयंकर रूप धारण करती जा रही हैं। इन्हों कुरीतियों के दारुण परिणाम स्वरूप सन् १९२१ को मनुष्य गणना के अनुसार इस देश में समस्त हिन्द विधाओं को संख्या २१२५५५५४ थीं। इनमें से केवल २५ वर्ष तक को आयु बाली विधवाए १५३७६४४ हैं । इस संख्या में १० वर्ष से कम उम्र वाली विधवामी को संख्या १७८५४ है कि जिन विचारियों को यह भी मालूम नहीं है कि सुहाग और पति किस खिलौने का नाम हुमा करता है। माज इनका सुहाग सिन्दूर धो दिया गया है और इसके साथ ही इनके नन्हे २ हाथों को चड़िया भी तोड़ दी गई हैं रंगोन वस्त्र तो इन घिचारियों को दिखाये भो नहीं जाता पहनने के लिये फटो दुई काली साड़ो बिछाने के लियेटी सो Mat और खाने के लिये टंडो बासो रोटो और २४ रोज की बची Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खुची सड़ी बुसी माग हो अब इनके भाग्य में विधाता ने लिखा है दस वर्ष से कम उम्र को विधवाओं की संख्या में ५ वर्ष से कम उम्र को १२०२४ विधवार ऐसो दुध मुही नन्हों २ बच्चियां हैं जो अभी मानस्तन के दूध का स्वाद भी नहीं भूल गई है। आगे चलिये, इनमें मे २ वर्ष तक की उम्र वाली ४८ विधवाएं ऐसी हैं जो अभी घुटने के बलही चल मरती है और जो तोतलो २ बोली बोलती हुई माँ को अंगुली पकड़ कर भी खड़ो नहीं हो सकती हैं। कहाँ नक कहा जाय ? और भी ज़रा हृदय को थाम कर सुनिये, इनमें से ६१२ विधवाएं एक वर्ष से नीचे की उम्र वाली हैं। ये शिशु विधवाए अभी मान स्तन पर हो चिपटी रहती हैं और जिनके मह में प्रभो दुध के भी दांत नहीं पाये हैं। दुनियां के किसो देश में भौमतन इतनी विधवा नहीं है जितनी कि इम अभागे देश में और खास कर इस हिन्दू समाज में है। मुश्किल से ऐसा कोई भाग्य शालीघर पाया जावेगा कि जिसमें कोई विधवा नहीं हो । प्रत्येक घर विधवा पाश्रम बना हुआ है। हा : रिखते हुए हृदय टूट जाता है कि इस भारत वसुन्धरा की ५५ वर्ग से नीचे उम्र को ३३०००% हित विधवा पुत्रियां अभी अपने अपने पतियों के साथ २-४ नोज त्योहार ही नहीं व्यतीत कर सको हैं। इन शीघ्र हो 'खलने वाली कुसुम कतिमा पर विधवा पन का तुषार पटक दिया गया है। इन बाइया के सुहागपो मुकुट के मणि को दुर्देव कीन कर ले गया है । घड़ी भर पहले इनको 'सुहागन' कहा जाता थद् लेकिन घड़ी भर ६ाद ही निई ममाज ने इस वकष को छीना लिया; अब इनको हत्यारिनो चंडालिनी और पति भक्षका आदि नामी से पुकारा जाता है। भय मांगलिक प्रसंगों पर इन बाइयों का मुख देखना भो अपशकुन माना जाता है । इनके प्रिय वस्त्राभूपण छीन कर उन्हें फटे टूटे मैले कुचैले कपड़े पहनने को दे दिये गये हैं Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हास्य पिलास और तमाम मनोरंजन को सामग्रियां इनके लिये मना है। इच्छा न होते हुए भी बर्ष भर में इनको दम बोस उपवास करने पड़ते हैं। अब इनके समस्त अधिकारा का हरण हो चुका है। न तो पीहर हो में इन बिचारियों की कुछ कदर है और न सुसराल हो में इन प्रभागिनी को कुछ इज्जत है ! मानी अब तो इन विवारियों का जीवन कुछ जीवन ही नही है। घर के बाल बच्चों का पाखाना साफ करना, झाडू बुहारा करना, गाय भैंस बांध देना, घर भर के जूठे बरतन मांजना तथा सासु ससुर, देवर देवरानी, जेठ जेठानी, अड़ोसी पड़ोसो को गालियां और झिड़कियां सुनना और इन सबके मुआबजे में खाने को बासो रोटी और सड़ी बुसी साग पालेना मात्र ही इनका काम रह गया है। विवारी ये दोना होना विधवाए अपने जीवन के समस्त प्रानन्द, योधन की समस्त विभूति श्रीर हृदय को समस्त इच्छाए सदव के लिये समाजके मुखिया पटेल चौर्धाग्या की क्रूर बलिवेदी पर भेंट कर चुकी है और आज वे अपनी दग्ध पाहो से इस हिन्दू समाज को बुरे २ शाप दे रही हैं। इनमें से बहुत सी युवती विधवाए तो बड़े शहरों में अपने मकानों के झरोखा में बैठ कर अपने सौन्दर्य और मनीत्व को बाजार वस्तुओं के समान बचने को मजबूर हुई है और बहुत सो विधवा ऐसी भी हैं जो अपने पंच परमेश्वरा और हत्यारे मां बाप को रोतो हुई अपनी रात्री करवटें बदल २ कर और प्रकाश के तारे गिन २ कर व्यतीत कर रही हैं । सैकडा विधवाए ऐमी है जो कई प्रकार के प्रलोभनो के बशोमूत होकर तथा अपनी कामेच्छाधा को रोक सकने में असमर्थ होने से लोक लाज के कारण दिन रात गर्भपान और भ्रूण हत्याए करती हुई समाज को कलंकित कर रही है। हजारों विधवाएं जगह २ ऐसी भी हैं । जो विधर्मियों तथा अन्यान्य जातियों के घर बसा २ कर अपनी कोख से हमारी हो जड़ काटने वाली संताने पैदा कर रही हैं। सैकड़ों जगह देवर भोजाई और Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४ ) ससुर बहू के बहुत बुरे २ किस्से भी सुनाई पड़ते हैं। यहां तक भो सुना जाता है कि कई युवती विधवा माताएं अपने दत्तक पुत्रों से अनुचित सम्बन्ध रखता हैं। इस वृद्ध विवाह की कुरीति से देश में कन्या क्रय-विकय तो बहुत ही चल पड़ा है। धनी लोग तो ५० वर्ष की उम्र तक पहुंच चुकने पर भी विवाह की इच्छा रखते हैं और अपनी इच्छा को सफल करने के लिये तीन तीन और चार चार शादियां कर चुकते है। पति के मरते ही विधवाओं को जो दुर्दशा होती है उसका थोड़ा सा चित्र ऊपर खींचा गया है। इसके विपरीत पत्नी के मरने पर विधु [रंडवों ] के कारनामें भी किसी से छिपे हुये नहीं है । स्त्री के मरने पर स्मशान ही में सगाइयों की चरचा चलने लग जाती है । लड़की के बाप को देने के लिये थैलियों के मूंह खुल जाते, है, अपनी उम्र कम दिखलान के लिये रुपयों के ज़ोर से ब्राह्मण दवता जी की नकली जन्म पत्रिका तैयार करने लग जाते है। रंडवे जी या तोव तक दो दो महीनों में हजामत बनवाते थे लेकिन अब तो दुसरे तीसरे दिन ही उस्तरा फिराया जाता है। मूंछें भी खस खसी कराजी जाती हैं ज़रूरत हुई तो बढ़िया खिजाव भी लगाया जाता है। क्या कहिये अब तो ज़मीन में गड़े हुये ज़ेवर भी निकाल २ कर पहने जाते है: गर्ज यह कि रंडव साहब हर तरह से अपना रूप रंग और धन दौलत बतलाने में लगे रहते हैं और किसी न किसी तरह किसी छोटी सी बालिका से शादी करके उसके भावी सुहाग पर अपनी नीच काम वासना का खंजर झोंक देते हैं । प्रकृति के नियमानुसार लड़के और लड़की बराबर ही पैदा होते हैं लेकिन ऐसी दशा में जब एक पुरुष मरते २ भी तीसरी और चौथी शादी कर लेता है यानी एक पुरुष तीन २ और चार २ लड़कियों को अपनी अर्द्धाङ्गिनीयां वना लेता है तो उधर लड़कियों की कमी पड़ जाती है। इस तरह कुंवारे Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवकों की संख्या बढ़ती है। यह भी कोई मानन के लिये तैयार नहीं होगा किसारे ही कुवार ब्रह्मचारा बने रह कर शान्ति के साथ अपना जीवन व्यतीत करते हों । भस्तु ! ये लोग भी कई किस्म के पापाचार रंचकर समाज में अशान्ति का बीज वपन कर रहे हैं। इस तरह समाज का पतन ही पतन नजर मारहा है। इस पर यदि विचार किया जावेगा तो इस पतन की समस्त जिम्मेदारियां इस निर्दयी पुरुष जाति के ही ऊपर है। प्रकृति का नियम है कि मनुष्य जाति के सामने जिस प्रकार का आदर्श रखा जावेगा उसी प्रकार उसके हृदय में भावों की उत्पत्ति होगी। जब कि यह निर्लज्ज पुरुष समाज अपनी ४०/४० और ५०५० बल्कि कई मरतवा इससे भी अधिक ६०६० वर्ष की प्रायुमें अपनी पाशविक कामेच्छार्यो को पूर्ण करने के लिय निर्दयी होकर १०१० और १२॥१२ वर्ष की सुकुमार घोर अबोध बालिकामों के साथ विवाह करक घर पर आते ही वहुत जल्द 'राती जगा' [एकान्त वास] करने में व्याकुन हुमा रहता है तो यह समझ में नहीं आता कि उसे छोटी २ उम्र में होजाने वाली बाल विधवाओं को जबरन सन्यासिनीयां बनाकर जन्म भर के निय उनसे कठिन संयम के पालन की प्राशा रखने का अधिकार ही कसे हो सकता है ? पवित्र नारी जाति के सामन इस निर्लज्ज पुरुष समाज का कैसा निन्दनीय और घृणित श्रादर्श है। घर में एक १५ २० वर्ष की युवत: विधवा पुत्र बधू काली साड़ी नोंद कर और चूड़ियां फोढ़कर सन्यासिनी बनी बेटी है तकिन ५० वर्ष के सुलग जी थलियों के जोर से एक १२ वर्ष की बच्ची को बन्दिनी बनाकर रंग भवन में सुहाग की रात मनाते हैं। घर में एक १० वर्ष की छोटी बहिन दुर्भाग्य से रंडापे की गत काट रही है लेकिन मौजाई के मान पर ३०-३५ वर्ष की उम्र में बड़े दादा भाई तो तीसरी शादी कर ही लाते है आज तीज का त्यौहार चमड़ी के जटक जाने पर भी पचास २ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष की डाकरियां सोलह शृंगारकरतो हैं और दिन में छत्तीस मर्तवा कांच देख २ कर चमकाली टिकियां लगाती है, यांवले नेवरी को झनकार मचाता हुई इधर उधर फुदक २ कर उठती बैठती है, मेंहदी स अपने हाथ पांव रचाती है, मस्तक को गोटा और लेंस आदि से सजाती है, फूलदार कांचली पहनती है, इत्र में सनी हुई बहुत बढ़िया पोशाक से अपन श्राप की सजाती हैं और रात को छत पर दप्त बीस स्त्रियों में बैठकर गहरे शृंगार रस के गीत गाती हैं। कुछ ही देर बाद बाजार से बढ़ लखद पति के मिठाई लेकर आते ही वह रंगीली सजीली बुढ़िया चुपके से दहने दाखिल हो जाती है, लेकिन वह आकाश का पटकी भोर धरती की झेळी हुई अभागिनी विधवा पुत्र धृ इस हिन्दू समाज को गालियां देकर फटी हुई चटाई पर जा पड़ती है। उस विचारी का समस्त सुख और समस्त मानन्द हमेशा के लिये इस संसार से उट गया है। हा! फं क कर पांव रखते हुये भी उसका स कर बोलना और भूल कर कमी २ अच्छी सी चीज़ खाने पीने या पहनने आदन के लिये मांग लेना मा सन्देह की दृष्टि से देखा जाता है। केसा पाशविक दृष्य है। इसमें कोई शक नहीं कि नारी जाति पर होने वाले पुरुष जाति के अत्याचार एक निप्पक्ष जज के इजलास में बिलकुल भी क्षमा करने के योग्य नहीं है। अगर वास्तव में कोई ईश्वर नाम की शकि इस दुनियां में है मौरं वह शक्ति निष्पक्ष होकर स्त्री बनाम पुरुष के मुक्रम को समाप्त करने में दिलचस्पी लेगी तो उसे निस्संदेहपुरुष जातिको एक दम फ्रर्द जुर्म सुनाकर सख्त से सख्त सजा का फैसला सुनाना पड़ेगा। विचारी विधवाएँ प्रखण्ड सन्यास की मूर्तियां बन कर अपने चारित्र को प्रादर्श एवं निर्मल रखती हुई चुपचाप बैठी रहना चाहती Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) हैं परन्तु यह पुरुष समाज इस पर भी संतुष्ट नहीं होता । यह इन देवियों को श्रादर्श से गिराने के लिये कई प्रकार के प्रलोभनों को साथ में लिये फिरता है। हा ! कहते हुए हृदय को बड़ा दुःख होता है कि इस पुरुष जातिने ही हमारे समाज मन्दिर को ग्राम सब तरह से व्यभिचार और अत्याचार को कुत्सित लीलामों का अड़ा बना रखा है। ऐसी हज़ारों नजारे देखी गई हैं कि लोग कई प्रकार के प्रलोभनदेकर विधवानों के साथ अपना अनुचित सम्बन्ध जोड़ कर उन के सतीत्व को नष्ट कर बैठते हैं। विचारी भोली भाली विधवाएं भी उनके जाल में फंस कर उन की प्रेमिका वन जाती है। जब संयोग से उन के गर्भ रह जाता है तो वे लोग अपने को बदनामो से बचाने के लिये पहले तो उस का गर्भ गिरवाने का कोशीश में रहते हैं और जहां तक हो सकता है दस बीस रुपया खच कर के उस का गर्भपात करवा ही देते हैं। यदि कभी २इस में वे सफल न हो सके तो दुसरो कोशीश उनकी यह रहती है कि वह विधवा स्त्री कहीं मेरा नाम नजेदे वरना जाति बाहर होना पड़ेगा। पंचों के बुलाकर पूछने पर कोई स्त्रियां तो उस पुरुष पर प्रायन्दा अपना तथा होने बाले बच्चे का भरण पोषण होते रहने का दाबा रखने के लिये अपना सच्चा हाल प्रकट कर देती है और कोई २ स्त्रियां इस क्रदर भजी मानुष होती हैं कि वह अपने प्रेमी को जाति दण्ड व लोकिक तिरस्कार स बचाने के लिये सारा अपराध अपने ही ऊपर लेकर उसका नाम प्रकट नहीं करती । पस वह पुरुष तो उस विधा के गर्भ धारण होते ही उससे अब कोस भर दर रहने लग जाता है और उसेस किसी किस्म के दुःख सुख की पूछताछका नाम भी नहीं लेता। या तो वह पुरुष दिन में दस दस मरतबा उसके घर उसके पांव के तलवे चाटने के लिये जाया करता था लेकिन अब तो वह उस गली की तरफ मुंह करके भो नहीं झांकता । स्त्रियां प्रगर सच्चाहाल प्रकट करके उस पुरुष का Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम भी ले दें तो वह पुरुष तो जाति में बदस्तूर बना रहने के लिये कभी भी अपना अपराध स्वीकार करने को तैयार नहीं होता। कुछ भी हो, जिस प्रकार दुध में से मक्खी निकाल कर माहर फेंकदी जाती है उसी तरह वह स्त्री तो फौरन ही जाति में से सर्दव के लिये निकाल दी जाती है । पुरुष मियां तो सिर्फ २-४ गेज जातिक बाहर रहते है । वह हजरत तो शीघ्र ही पंचों की श्राक्षानुसार किसी धर्माचार्य जी की व्यवस्था लिखा लाकर तथा उसके अनुसार एक दो उपवास करके या गौमूत्रादि पीकर अथवा कहीं नजदीक़ को तीर्थयात्रा करके और पंचों को कुछ तरावट माल खिलाकर पीछ मी जाति में श्राबेटते है और बदस्तूर अपना व्यवहार चलाने लगते है । लेकिन उस स्त्री का उद्धार करने क लिंय तरन तारन कहाने वाल पंच परमदेवरों के पास कोई नियम नहीं है। स्वार्थी पुरुष समाज ने अपने सुभीत के लिये सव कुछ नियम बना रखे है, लेकिन विचारी भवला समाज की तरफ तो वह अपनी फूटी प्रांख से भी नहीं देखना चाहता । वह तो केवल अपनी श्वानवत् नीच काम वासना की तृप्ति के समय ही उसके सामने हाथ जोड़ खड़ा रहने को संयार रहता है। अब वह पतिता कहीजानेवाली स्त्री जव कहीं भी रक्षा तथा उदर पालन का जरिया नहीं पाती है और न बिरादरी के लोग ही उसका उद्धार करने को तैयार होते हैं तो ऐसी दशा में नह अवश्य ही अधिकाधिक गिर जातो है, वेश्या बन जाती है तथा विधर्मियों के घरों में बैठ कर अपनी गौ रक्षक कुक्षि से गौ भक्षक विधी संताने पैदा करने लग जाती है । यही स्त्री अपने साथ दो चार को भोर भी ले जाती है और ज्यों २ उसको अवसर मिलता है त्यो त्यों वह अपना Fमुदाय और हम जोल बढ़ाती रहती है पेसी एक दो नहीं, सो दो सौ और हजार दो हज़ार नहीं, बलिक जास्त्रोन जीरे है और सब जानते हैं। सुसराल में तो इन प्रभा Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) गिनीयों की पूंछ उसी दिन तक रहती है जब तक कि कमाई करके खिलाने वाले उनके पति देव जीवित रहते हैं। उधर पीहर में भी उनकी इज्जत उसी अवस्था तक थी जब कि उनसे शादी करने के उम्मेदवार दूर २ के बूढ़े हज़ारों की थैलियां लेल कर आया करते थे । जहां तक ये निर्धन और बेबस बहिने, सदाचारिणीयां बन कर समाज में बैठी रहती है तब तक तो यह पापी पुरुष समाज उनकी रक्षा के लिये फूटी कौड़ी भी देने को तैयार नहीं होता लेकिन जब यी विधवा बहू बेटियां व्यभिचारिणीयां हो कर और अपने सतीत्व से गिर कर वेश्याएँ बन जाती है तो फौरन ही उनकी शादी के जमों में बुला कर उनके लिये थैलियों का मुंह खोल दिया जाता है। वूढ़े के साथ लग्न रचाकर धर्म के सेवक बनने वाले ब्राह्मण देवता भी प्राजके दिन न मालुम कहां मुंह छिपाये रहते हैं | कैसा घृणास्पद व्यवहार है ? समाज सुधार का प्रश्न उठते ही धर्म के ठेकेदार धर्म की दुहाइयां देने लग जाते हे । दिन रात हजारों हिन्दु विधवाद हिन्दु समाज में से निकल २ कर विघवन रही हूँ लेकिन स्वार्थ के सांचे में ढले हुए कीडों ने इस खुद गरजी को छोड़ कर तथा अपने हृदय की चीर कर नहीं देखा। धर्म की थोथी दुहाई देने वाले धर्मचार्यों और चिकने चुपड़े बने रहने वाले सफेद पोश युगले भक्त पापाचार्यो ! इस समाज की हालत पर अब तो कुछ तरस लाभो । धर्म शास्त्रों के सूतों को पहचानों । धर्म शास्त्र तो हमेशा द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव के अनुसार चलने की आज्ञा देते है 1 'समाज और जाति के मुखिया लोगों ! तुम किस घार निद्रा में सोये हा ? जरा आंखें तो खोल कर देखो तुमारी जाति किस दुरावस्था को प्राप्त हो रही है । साट २ साल के बुड्ढे बावाजी तो 16 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) पुत्र पौत्र होते हुए भी अपने काम भोग की तृष्णा को बुझाने के लिये पक सुकुमारी कन्या से विवाह कर सकते हैं। परन्तु कितना अन्याय है, कितना अत्याचार है कि समाज उन अयोध भौर निर्दोष बाल विधवाओं के प्रार्तनाद की और जरा भी ध्यान नहीं देता है । बुड्ढे खुसट होकर भी जब तुम्हारा वित्त विषय बासनानों की और दौडता है तो क्या तुम समझते हो कि १५-२० वर्ष की वे अयोध तरणियां जो प्रपन कुटुम्स के अन्य सब स्त्री पुरुषों को सांसारिक भोग विलासों में नित्य प्रासक्त देखती हैं, अपने चंचल चित्त को काम रख सक्ती हैं ? क्याउनका दिलनहीं चाहता कि ये भी तुम्हारी नरइ मुन्दर वस्त्राभूषणों को ग्रहण करें, स्वादिष्ट पदार्थों को खायें, और अन्य सांसारिक वस्तुओं का उपभोग करे, एवं प्राकृतिक कामनाओं को यथा शक्ति तृप्त कर ?” विधवानो की इस दुर्दशा और हिन्द जाति के गहरे हास को दस्त्र कर देश के मुधारकों ने एक स्थर से विधवा विवाह की प्रथा को अपनाने का आदेश किया है। और वास्तव में इस मर्ज़ की यही टवा हो सकती है। लेकिन खेद है कि अभी बहुत से लोग इस प्रथा म सहमत होते हुए भी ' विधवा विवाह' के नाम को समाज के सामने रखते हुए घबराते हैं। प्यारे वीर, समाज सुधार को ! विधवाओं की भयंकर चीन ने इस जड़ प्रामाश की गुंजायमान कर दिया है। यदि इस समाज की रता ही मंजूर है तो अब अपने हृदय के भावों को छिपाते रहने का समय नहीं रहा है । हिन्दुस्तान में सुधार का कार्य इसी लिये रुका हुधा है कि लोग अपने विचारों को दवाये हुये हैं, यह याद रखना कि जो अपने विचारों को दबाता है वह अपनी प्रात्मा का x ‘नर हो कि नर पिशाच 'शीर्षक एक हस्त पत्रक से । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) भब खून करता है । विधवा विवाह के मिशन का काम अब वहुत जोर से चलना चाहिये ! इस मिशन को क्रियात्मक बनाना पड़ेगा और इस प्रथा का प्रचार बहुत तेजी के साथ करना पड़ेगा अब यह विषय किसी भी तरह टाल देने योग्य नहीं रहा है । ज्यॉ २ इसमें ढोल की जा रही है त्यो २ ही हमारे सर्व नाश का समय निकट आता जाता है । धर्म के नाम पर शेखी मारने वाले ईर्षा के पुतलों को चिल्लोने दो, खूब गालियां देने दो, गहरा विरोध करन दो लेकिन स्वयं एक वीर सुधारक की तरह ग्रासात्मक भावों के साथ अपना कार्य करते रहो । विरोध होना ही सफलता का चिन्ह है, यही तो सफलता की लहराती हुई पताका है । किसी इक्त हुए को तिराना और गिरते हुए को उठाना महापुण्य कार्य है और इसीदृष्टि विन्दु से यह विधवा विवाह का मिशन धर्म का स्थिति करण अंग है । इसमें धर्म की प्रभावना के तत्व भरे हुए हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि F - ब्रह्मचर्य और शील द्दी मनुष्य के लिये धर्म का श्रेष्ट मार्ग है । परन्तु अच्छे और बुरे की तुलना करने में अपेक्षा नय एक प्रधान वस्तु है । अतः गर्भपात और भ्रूण हत्याएँ करने तथा विधर्मियों के घर बसा २ कर अपनी कुत्ति से विधी संतान पैदा करने की अपेक्षा विधवाओं के लिय विधवा बिबाह एक महान उत्तम और धार्मिक कार्य है । यदि इस मिशन में पांच पीछा रखा तो इस हिन्दू समाज का मातम मनाने के लिये तैयार हो जाइये। यह खूब याद रखने की बात है कि जिस समाज ने परिस्थिति के महत्व को की है वह इस संसार में अधिक नहीं टिक सका है। यदि यह प्रथा पहले न थी तो न सही, प्राचीन होने ही से किसी प्रथा में सर्व श्रेष्ठता नहीं आती। जो प्रथा आज प्राचान गिनी जाती है वह एक दिन अवश्य ही नवीन थी। नय से नया परिवर्तन भी यदि बुद्धि की परीक्षा में सफल हो सकता है तो वही सर्व भ्रष्ट है याज की नवीन, प्रथा कुछ ही समय पश्चात् प्राचीनता का रूप धारण न समझ कर उसकी उपेक्ष कर लेगी Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) और तब फिर उसमें कोई भी बात आपत्ति जनक न होगी। अब इस विधवा विवाह के विरोध में होने वाले प्रक्षेपों की ओर कुछ भी ध्यान न देकर हमें अपनी शक्ति को इसके प्रचार में लगा देना नाहिये। धर्म के बने का बहाना लेकर चिल्लाने वाले लोग बास्तत्र मेक कार्य नहीं हैं और न उनको समाज सुधार के प्रश्न से ही का दिल पी | उनसे यह तो पूछिये कि आपने कहां २ मैदान में जाकर वूढों से कन्याओं की रक्षा की है ? नि २ विधवाओं के लिये आपन मासिक वृत्तियां निकाल रखी है ? कौन सी विधवाओं के लिये पंचायतों ने अन्न और कपड़े का प्रबन्ध कर रखा है ? दो किरोड़ और बारह लाख हिन्दु विधवाओं के लिये क २ विधवा आश्वन कायम कर रखे हैं ? बूढ़ों का व्याह रोकने वाली कौन सी संस्थाओं का अपने सहायता दी है? समाज में बीस २ और पचीस २ वर्ष के हज़ारों कुंवार युवक बिना व्याह अपना जीवन व्यतीत कर रहे है उनकी शादी के लिये किस २ ने कितमः २ प्रयत्न किया है? बूढों के साथ अपनी छोट २ कन्याओं को व्याहने वाले माता पिताम ओर छोटो २ पच्चित्र के साथ व्याह करने वाले बूढ़ों को आपने पंचायत से क्या दण्ड दिलवाया है ? विवाह आदि मांगलिक प्रसंगो परजां बहुत सा रुपया महाव्यभिचारिणी और कुशल रचने वाली बश्याओं का नाच गाना कराने में खर्च कर दिया जाता है वहां क्या कभी आपन दस बीस रुपया इन सदाचारिणी असहाया और दीना छीना विधवा के प्रति पालन में भी सहायता रूप में दिया है ? पस उत्तर में सूखा और बेहूदा सा जव ब मिल जाता है । परन्तु ये लोग इस विषय पर युक्तिपूर्वक विचारने को कभी तैयार नहीं होते । बल्कि ये धर्म का स्तम्भ बनाने वाले तो उलटा विधावा का माल, चाटने और हडपने को तैयार रहते हैं। उनके पतियो का नुकता चाटकर बाद में कभी भी उनकी सार सम्हाल नहीं पूछो जाती। हां, वेशक प्रगर उनके पास कुछ पैसा हुआ तो उसको Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) हडपने के लिये गिद्ध को सो नजर लगाये रहते हैं इनसे तोयमेरिका श्रीर युरुप के वे ईसाई अच्छे हैं जो प्रति वर्ष करोड़ों रुपया इकट्ठा काक हिन्दुस्तान में भेजते हैं . और इन निगराधार विधवाओं को खाने . लिये अन्न और पहनने के लिये कपडा देते हैं . चाहे वे किसी उद्देश्य से ऐसा करते हो परन्तु उनके इस दगा धर्म के मागे हमारे दया धर्म को बोलने के लिये कुछ गुजायश नहीं है • बन्धुना ! समाज को इन निरपराध विधवानों को दुर्दशा सुधारना और इस हिन्द जाति कोहास से बचाना अगर मजूर हे तो विधवा विवाह की प्रथा का स्वीकार करना पड़ेगा और जितना जल्दी हो सके उतना ही जल्दी इसको क्रियात्मक ( Practical ) बनाना पड़ेगा। इस एक प्रथा के चल जाने से कई किस्म की कुनथाप एक दम रुक जावेगी . कन्या-क्रय-विक्रय की कुप्रथा , नाश हो जावेगा , पचास २ वर्ष को उम्र में पहुंच कर भी अपनो तन्दुरस्तो शादी करने के योग्य बतलान वाले बूढ़ा के लिये उनके योग्य विधवाए मिलने लग जागो तो कुचागे न्याओ का जीवन नष्ट नहीं होगा । विधुरा का विधवाश्री से विवाह होने लग जावेगा तो कन्यामा की 'कमी का सवाल हल होजाने से सब सम्बन्ध योग्य होने लग जायेंगे और विचारे समाज के सांड कहाने वाले क्वारों क घर वसने लग जावेंगे विधवाश्रा का पापमय जीवन शान्ति मय हे। जावेगा। कुवारी कन्याश्री का व्याह उन्हों के योग्य अच्छे और कंवारे लडकी से हो सकेगा । व्यभिगर और दुराचार, गर्भ पात और मृण हत्याओं से जो यह समाज कलकत हो रहा है वह भो रुक जावेगा . रंडवों को तोन तोन और गर चार मरतया शादियां करने में जो वार २ बहुत रुपया खर्च करना पड़ता है, वह न करना पड़ेगा हमारा समाज को मूल जो ये विधवा रमणियां, जो हमारे अत्याचारों से घबरा कर विधर्मियों के घर बसाने को बाधित Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हो जाती हैं यह बदस्तूर समाज में बनो रहेमो . जिस हिन्दू जाति का आज तेजी से हास हो रहा है उसका सौमाग्य सूर्य शीघ्र ही उदय हो जायेगा . भला हो, समाज सुधार के कटर पक्षपाती, सुप्रसिद्ध समाज सुधारक शिरोमणि स्व• ईश्वर चन्द्र विद्यासागर को प्रात्मा का कि जो बडो मुस्तैदी के साथ भारत सरकार से विधवा विवाह का कानून (एक्ट नं० १५ सं० १८५६ ई० ) म जूर करा गये है। विधवा विवाह के विरोध में, विधवा से विवाह करने वाले पुरुष को, अपना पुनर्विवाह करने वालो विधवा को तथा इस शुभ कार्य में सहायक होने वालों को कोई जातीय दण्ड नहीं दिया जा सकता। बल्कि जो पंच या मुखिया विधवा विवाह के विरोध में ऐसे लोगों को जाति बाहर कर देते हैं व गज से दण्ड कं भागो बनते हैं। मेरठ । में एक विधवा विवाह के समय ब्राह्मण जातिके पटेल चौधरियों ने एक पंचायत करकं लगभग डेढ़ संपादमियांको एकत्रित किया और पुनर्विवाह करने वाली विधवा पुत्री के पिता पं० राधेलाल और उनके सहायक पं० घासीराम को जाति वाहर करके उनका जातोय व्यवहार बंद कर दिया। दोना बहिणत पंडिता ने स्पेशल मजिस्टर, मेरठ को अदालत में बिगदरी के पटेल चौधरिया के खिलाफ दफा ५०० हाजी रात हिन्द (Feet3011500, Indian penal codle) के अनुसार अलग २ मुक़दमे दायर कर दिये । लेकिन बहुन विचार के बाद स्पेशल मजिस्टेट साहब ने ता० ३ सितम्बर २०१६१८ को दोनों मुकद्दमा में फरियादियों को बिरादरी के एक मुखिया पर ३००) और दूसरे दोना मुखियामां पर २००) २००) रुपया जुरमाने का हुक्म दिया । जुरमाना अदा न करने की हालत में एक हजरत को चार महोने को भऔर दूसरों को तीन २ मास की कैद का आदेश किया। अपराधियों ने स्पेशल मजिस्टेट के इस फैसले से रुष्ट होकर Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इलाहाबाद के प्रसिद्ध वकोल मिस्टर सत्यचन्द्र मुकरजो को सहायता से सेशन जज, मेरठ की अदालत में अपील को लेकिन विद्वान अज ने अपने २० नवम्बर सन् १९१८ के फैसले में अदालत मातहत को तजवीज बहाल रखी । अपराधियों ने फिर हाई कोर्ट, इलाहाबाद में निगरानी के लिये प्रार्थना की, लेकिन यह निगरानी भो श्रीयुत माँनरेबल मिस्टर टी. सी. पंगट, चीफ जस्टिस हाई कोर्ट इलाहाबाद ने ता० २८ मार्च सन् १९१८ को खारिज करदी। इससे साफ जाहिर है कि विधवा विवाह कानून से भी जायज़ है । अतः किसी को भी यह दुस्साहस न होना चाहिये कि यो हो मनमानी पंचायतें कर के किसी पुरुष को जो ऐसे शुभ कार्य में सहायक होता है, बिरादरी से बाहर करने की धमकी दे अथवा उसको निन्दा या अपमान करे। धन्य है, पंजाव के उस वोर समाज सधारक वैश्य रईस सर गंगा राम अग्रवाल, राय वहादुर, क. टी. सी. आई., ई.एम.बो.ओ. को कि जिसने लाहौर में विधवा विवाह सहायक सभा स्थापित करके हिन्दू जाति को इस घोर पतन से बचाने का बीड़ा हाथ में लिया है। इस सभा की ओर से हिन्दुस्तान की ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य और अन्यान्य आतियों में हजारों विधषा विवाह हो चुके हैं तथा बड़ी तेजी से हो रहे हैं और जगह २ प्रान्तों में विधवा विवाह के प्रचार की शाखा सभाएं भी स्थापित होती जा रही है । इमें जहां तक मालूम हुमा है, दया प्रेमी सर गंगाराम साहब ने इसके प्रचार के लिये लग भग १५-२० हजार रुपयासालाना आमदनी की अच्छी जायदाद निकाल रखी है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासा धर्म के मानने वाले वैष्णव और जैनी भाइयों! श्रवषी पाप हो चुका है। यदि इस पाप के अपराध से बचना चाहते हो तो अपनी र समाज में विधवा विवाह जारी करके अपने पापों का प्राय श्चित कर डालो। नोट:-स ट्रक्ट में जहां हिन्दू विधवाओं की संख्या बतलाई है उसमें सनातन धमा जैनी, आर्य समाजी, सिक्ख, ब्रह्मसमाजी और बौद्ध विधवानों की संस्या भी शामिल है जो हिन्दू महासभा के नियमानुसार हिन्द जाति है। में माने गये हैं। लेखक शान्ति ! शान्ति !! शान्ति !!! दामोदर प्रेस, रावतपाड़ा प्रागर। Page #356 --------------------------------------------------------------------------  Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन समाज का सौभाग्य । विधवाओं की संख्या जिस कदर अहिंसा धनुयायी जैन समाज में है उतनी हिन्दुस्तान की किसी जाति में नहीं पायी जाती । जहाँ सनातन धर्मियों में प्रति सैकड़ा १९.१, आर्यममाजियों में १४.९ उद्म सम जियों में १२.८, सिवनों में १३.५ और बौद्धों में ११.५ विधवा है वहा जैन समाज में २५.५ विधवाएं है। जैन समाज के लिये यह बग्न ही सोचने की बात है। लेकिन यह बड़ी प्रसन्नता की बात है कि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भार के पारखी मुबार जना माहियों ने इन विवाओं की दुर्दशा पर दया लाकर अब विधवा विवाह सहायक सभायें स्थापित करना शुरु कर दिया है । यह भा, संतोष की बात है कि जैन समाज में जगह जगह इस प्रथा की अ वश्यक्ता को अनुभव मे लाने वाले धार सुधारक पैदा होते जा रहे । जो जेनी भाई अपने विधुः लह और विधवा पुत्रियों का ऐसा सम्बन्ध करना चाहे उनको नीचे लिग्वे पों पर पत्र व्यवहार करना चाहिये:---- (१) श्रीयुत या फूलचन्द जैन, मंत्री, जैन विधवा विवाह र हायक सभा मोतीकटरा, आगरा (२०६०) (२) श्रीयुत मस्टर चिम्मनलाल जैन, रिटायई इंटेशन मास्टर उपमंत्री, जन बाल विधवा विवह सहायक सभा गली प.पलवाली, धर्मपुरा, देइली हमार जैनी भाइयों को चाहिये कि वे अपनी विधवा बहन मोटियों का दुःख निवारण कर के उन विवाह करार्दै । एमय जीवन व्यतीत करने और कराने की अपेक्ष, शान्तिमय जीवन व्यतीन करना और कराना ही जैन धर्म का मुरूम सिद्धात है ।। निवेदक- मोतीलाल पहाड्या जैन, कुनाड़ी। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुछ उपयोगी ट्रेक्ट (१) महाग २६२ विभान-- [३) रु० सैकड़ा] ......, (२)तिचा जो कातिक दुजा- २) रु० सैकड़ा] ......... Sil (३. विश्या विवाद ... . ....[३, रु. सैकड़ा ] .......... 1) सनी मत .... ... ... [५)6. सैंकड़ा ] .... ( ईयों का च... . . .. { २॥) रु० सैंका] ......॥ { मदा का सखा कोदवी ........................ १) मिला का पता ...... यहाड्या (कुनाड़ी) सेक्रेटरी, घश्य सुनारक मंडल, कोटा पो कोटा (राजपूमान) Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्रैक्ट नं० १६ जैन जगत के इसी अङ्कका कोई पत्र विधवा-विवाह प्रकाश लेखकरघुवीरशरण जैन अमरोहा -- --- ---- काटाकाटकर प्रकाशक-- जैन बालविधवा विवाह सहायक सभा दरीबा कलां दहली। SSSS मुल्य प्रथमघार २००० • वीर नि० सम्बत् २४५८ ) ) - ---- विक्टोरिया क्रास प्रेस, दरियागंज देहली। Page #360 --------------------------------------------------------------------------  Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्रों' "विधवाविवाह" के विरोधी मित्रों से नम्र निवेदन श्राप जो विधवाविवाह" को बुरा समझते हैं, और समाज सुधारक इस शुभ कार्य में अन्तराय डालकर व्यथे आपके भागी बनते है इसका मुझे अत्यन्त से अधिक दुःख है। क्या आप मुझे आज्ञा देंगे कि मैं विवाविवाद" का कुछ रहस्य दिखलाऊँ ? यदि हां तो लीजिये - SALI मैं आपके चरणकमलां में यह "विधवाविवाह प्रकाश" नामक ट्रेट भेट करता हूँ। साथ ही निवेदन है कि आप इस पर दिल विचार करें। मुझे आशा है कि इस पर freeaar से विचार करने पर आपको "विधवा विवाह" का कुछ रहस्य झलक जायगा और आप अपने को हितमार्ग पर लगा कर अपना कल्याण करेंगे। भावना है कि आपका कल्याण हा । - लेखक, Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विधवा विवाह प्रकाश *** * यह बात सर्व पर प्रगट है कि अाजकल 'विधवाविवाह" की चर्चा देशव्यापी होती आ रही है। एक समय वह था जब कि लोग "विधवा विवाह" को महा पातक समझते थे, और इसके नाम मात्र से कांपते थे; परन्तु अब वह समय नहीं रहा है, सब इसकी आवश्यकता का अनुभव कर रहे हैं, यहां तक कि सुधार मार्गमें सबसे पीछे रहने वाले सनातन धर्मी व जैन धर्मी बड़े बड़े विद्वान घ नेता भी इसके प्रचार में तन मन धन से अग्रसर हैं। जैनसमाज में भी कुछ समय में यह चर्चा चल रही है। कतिपय रुढ़िदास इसका विरोध करते हैं और इसके समर्थकों व प्रचारकों को कोस २ कर समाज को भड़काने का प्रयत्न करते हैं; परन्तु उनका विरोध सभ्य और शिक्षित समाज की दृष्टि में कुछ मूल्य नहीं रखता। दुर्भाग्य में वे अभी तक मिथ्यात्व के उदय से "विधवा विवाह" के रहस्य को नहीं समझ पाये हैं, वे रुढ़ियों को ही धर्म मान बैठे हैं यही कारण है कि वे "विधवा विवाह" को पाप कह कर व्यर्थ ही पाप के भागी बनते हैं। "खैर ? सौभाग्य से जैनसमाज को "सनातन जैन (वर्धा ) व” “जैन जगत (अजमेर)” पत्रों का दर्शन होता रहता है जिनमें पूज्य ब्रशीतलप्रसाद जी व साहित्य Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) लिख रहा हूँ। बड़े २ विद्वानों के बीच में मुझ जैसे क्षुद्र व्यक्ति का पड़ना धृष्टता ही है, परन्तु क्या किया जाय, समय ऐसा श्रागया है कि चुपकी साधना भी एक बड़े साहस का काम है । मैं विद्वान नहीं हूँ, परन्तु थोड़ा सा अवश्य पढ़ा हुआ हूँ । सत्य का पुजारी हूँ. जो बात वुद्धिकी कसौटी पर ठीक उतरती है उसे अपनाता हूँ। मैं अपने में गलतियों का होना स्वीकार करता हूँ, परन्तु जबतक वह गलती संयुक्ति रीतिस मेरे सामन न लाई जाय, तब तक मैं उसे स्वीकार नहीं कर सकता । धर्मायों, प्रलोभनों सामाजिकदंड व सभाओं के कारण अपनी बात को, जिसे मैं सत्य समझता हूँ, वापिस लेना मेरी शक्ति से बाहर है। पाठकों से सप्रेम निवेदन है कि वे मेरे लेख पर शांति से विचार करें और असत्य की तिलांजली देकर सत्यको अपनावें । १. विधवा विवाह व्यभिचार नही है । हमारे विरोधी मित्र "विधवा विवाह को व्यभिचार बतलाते हैं, वे कहते है कि "विधवा विवाह" से व्यभिचार की निवृत्ति नहीं होसकती। यहां मैं पहिले यही विचार करूँगा कि उनका यह कहना कहां तक सत्य है : व्यभिचार का लक्षण शास्त्रकारों ने यह बतलाया है:'निजं विहाय परंणत्याकं भोगत्त्वं व्यभिचारत्वं' अर्थात- अपने पति को छोड़ कर अन्य के साथ विषय सेवन करना व्यभिचार है ।" जिसके साथ नियमानुसार विवाह हुआ हो वही स्वपुरुष या स्वस्त्री है। और जिसके साथ नियमानुसार विवाह न हुआ हो वही परपुरुष या परस्त्री है। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) रत्न पं० दरवारीलाल जी "विधवा विवाह" पर प्रकाश डालने रहते हैं; परन्तु फिर भी जैनसमाजमें "विधवा विवाह " के विरोधी लोग मौजूद हैं, इस बातका मुझे अत्यन्त श्राश्वर्य ग्वेद है। निमित्त तां प्रथल हैं परन्तु ज्ञानावर्गीय कर्म के पर्दे ने उनकी ज्ञान-शक्ति को इतना हीन बना दिया है कि वे उनसे कुछ लाभ नहीं उठा सके हैं! खेद ! महा वेद !! "विधवा विवाह" के विरोधियों को इसका नाम मात्र भयंकर है। उनके लिये "विधवाविवाह" ठीक ऐसा ही है जैसा कि गीदड़ के लिये सिंह। उन्ही में के एक प्रतिष्ठित महाशय "विधवा विवाह" पर अपने लिखित व्याख्यान के प्रारम्भ में fafter शब्द कहते हैं, जिनसे पाठक अनुमान कर सकते है कि आपको "विधवा विवाह" कितना भयंकर है: "सजनो ! श्राज जिस विषय में सभापति महोदय ने मुझको व्याख्यान देने की आज्ञा दी है उस शब्द के नाम मात्र मुझे अत्यन्त ग्लानि और पाप होने की सम्भावना हैं, परन्तु श्राज्ञा का उलंघन मेरी शक्ति से बाहर है.... ········ | " और कहते हैं इस "विधवाविवाह" के नाम मात्र से पाप होने की सम्भावना है" बाहरी बुद्धिमत्ता (?) तेरी इस अपूर्व गुढ़ फिलासफी / philosophy) को समझने में बड़े बड़े बुद्धिमानों की बुद्धि भी बंकाम हैं। पाठक आपकी इस अद्भुत फिलासफी पर विचार तो करें । मेरी राय में "विधवा विवाह" पाप नहीं है । इससे धर्म में कोई रुकावट व हानि नहीं हो सकती, और वर्तमान अवस्था को देखते हुए तो यह 'अत्यन्त से अधिक आवश्यक है। मैं इस लेख में "विधवा विवाह" पर ही विचार करूँगा । मैं पाठकों को विश्वास दिलाता हूँ कि यह लेख उच्छृंखलता से या किसी समाज व दल को नीचा दिखाने के लिये नहीं Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इससे ज्ञात होता है कि विवाह से दो परपुरुष व परस्त्री, म्वपुरुष व स्वास्त्री होजाते हैं। यदि वे विवाह से पहिले विषय मयन करें तो यह, उनका व्यमिवार होगाः परन्तु यदि वे ही विवाह के पश्चात विषय मेवन करें तो यह, उनका व्यभिचार नहीं होगा। इस तरह विवाह, व्यभिचार दोष को अपहरगा करने का 'अव्यर्थ साधन है। ___जी कुमारी आज परस्त्री है, और जो पुरुष आज परपुरुष है, व ही विवाह होजाने पर स्वपुरुष व स्वस्त्री होजात हैं, नब जो विधवा अाज परस्त्री है और जो पुरुष आज परपुरुष है. वे विवाह के बाद स्वरूप व स्वस्त्री क्यों नहीं हो सकते? जबकि विवाह में व्यभिवार दोषक आहरण की शक्ति है और कुमारियां के विश्यमें इसका प्रयोग किया जाता है, तो इसका प्रयोग विधवाओं क विषय में क्यों नहीं किया जा सकता ? और भी देखिए - पूज्य जैनाचार्य श्री स्वामी अकलंक देव ने 'गजवार्तिक' में विवाह का लक्षण इस प्रकार बतलाया है: "सद्वेद्य चारित्र महोदयाद्विवहनं विवाह" अर्थात --"मानावेदनीय और चारिख मोह के उदय से स्त्री पुरुष का एक दमरे को स्वीकार करना विवाह है" विवाह का हो जाना माता वेदनीय का फल है; क्योंकि इमम असन्तोषी को संताप हो जाता है। परन्तु विवाह करने की तीव्र इच्छा चारित्र माह के उदय से होती है । वंद नाम नोकषाय, काम भावना का प्रेरक है। इस कषाय के उदय का जोर प्रत्येक स्त्री पुरुष की हुश्रा करता है । बस जिस प्रकार • विधवा' शब्द का अर्थ है 'विगतो धवो यस्यः-अर्थात जिसका धव (पुरुष) दृर होगया (मर गयाहो। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुमारी का सातावेदनीय व चारित्र के उदय से विवाह हो सकता है, उसी प्रकार विधवा का भी, जिसमें चारित्रमोहके उदय से काम की तीव्र इच्छा धधक रही है, विवाह हो सकता है। इस प्रकार हमारे विरोधी मित्र यह पालाप अलापते हैं कि जब स्त्री ने एक पति बना लिया, तब वह फिर दूसरा पति केसे बना सकती है ? इसके उत्तर में यह कहना ही काफी है कि जब पुरुष एक २ दो २ पत्नियां होने पर भी दूसरी पत्नि बना लेता है तो फिर स्त्री विधवा होने पर भी अर्थात कोई पति न रखते हुए भी दूसरा पति क्यों नहीं बना सकती ? यदि यह हट किया जाय कि विधवाओं को तो पूर्ण ब्रह्मचर्य पालना ही चाहिएचाहे वे गं २ कर पालें, चाहें खुशी में पाले-ता यह विशुद्ध अत्याचार है। यदि किसी मनुष्य में अनुपान त्याग करने की शक्ति नहीं है, फिर भी उसकी यह श्राशा करना कि तुम्हें तो उपवास करना पड़ेगा-चाहे ग २ कर करा, चाहे राजी से कगे, तो उसके लिये यह व्रत नहीं, दंड है । व्रत वही कहलाता है जो इच्छा या रुचि पूर्वक अपनी शक्तिअनुसार धारण किया जाए । अतः विधवाओं से, उनमें शक्ति न होते हुए भी जबरदस्ती वैधव्य पलवाना उनके लिये व्रत नहीं, बल्कि दंड है। मैं विगंधी मित्रों में पूछता हूँ कि यह दंड किस अपराध पर उन्हें दिया जाता है ? क्या 'विधवा हो जाना' ही उनका अपराध है । हमें ऐसा कोई कारण व अधिकार नहीं है कि हम उनमें जबरदस्ती वैधव्य पलवाएं। हमा विरोधी मित्र यह भी आक्षेप करते हैं कि "सर्वार्थ सिद्धि" में "कन्यादानं विवाहः' एसा कथन आया है। इसके अनुसार विधवा का विवाह केस हो सकता है ? अतः विधवा विवाह व्यभिचार है ? Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह जो "सर्वार्थ सिद्धि" में ऐसा कथन अाया है. सामान्य रूप में है। क्योंकि प्रचार में जब कभी विवाह का विचार प्राता है, उस समय कुमार व कुमारी को ही संयोग आदर्श माना जाता है, इमी भाव में सर्वार्थ सिद्धि" में ऐसा कथन पाया है। "कन्यादानविवाहः इसमें दान का अर्थ रुपये पैसे देनं के समान नहीं है, किन्तु 'माता पिता द्वारा किसी योग्यवर के सुपुर्द कन्या का किया जाना है' ऐसा अर्थ है। जिसे लोग प्रचार में कन्यादान कहते हैं, वह वास्तव में विवाह है जो योग्य वर के साथ किया जाता है। यदि कन्या दान की वस्तु दान के समान माना जाय, तो वह जो कन्यादान राता है, उसी कन्या को किसी दूसरे को देसकता है । क्या यह हमार विरोधी मित्रों को इष्ट होगा? यदि "कन्यादानं विवाहः" के 'कन्या' शब्द पर सून्मता से विचार किया जाय. ती नया ही रहस्य दीखता है । 'कन्या शब्द का अर्थ केवल 'कुमारी ही नहीं है बल्कि साधारण स्त्री देखिये-श्री वामन शिवराम आपट अपने संस्कृतअंग्रेजी कोष में पृष्ट ३३३ के दुसरे कालन में कन्या शब्द के कई अर्थ देते हैं:१-An unmarrierl girl or laughter ( एक अविवा हिता लड़की या पुत्री) A girl ten yeurs (okl. ( दस वर्ष की लड़की) A virgili, maiden. ( अक्षत यांनि, या, अविवाहिता) A women in s, eneral. ( एक साधारण स्त्री) नीचे लिखे श्लोक में भी 'कन्या' शब्द साधारण स्त्री के लिये प्रयुक्त नहीं हुआ है: Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) अहल्या, द्रोपदी, तारा, कुंती मन्दोदरी, तथा । पंचकन्याः स्मरेन्नित्य महापातक नाशनम् ।। यहां पांचों स्त्रियां विवाहिता तथा क्षत योनि थीं, फिर भी उन्हें 'कन्या' कहा गया है। "पद्म पुराण में सुग्रीवकी स्त्री सुतागको उस समय कन्या कहा गया है जब कि वह दो बच्चों की मां होगई थी। "केनो पायेन तांकन्यां लप्सये निवृत्तिदायिनी।" जरा विचार कीजिये कि जब दो बच्चों की मां को कन्या कहा है तो फिर विधवा को क्यों नहीं कहा जा सकता? जिस प्रकार विवाह में कुमारी कन्या दी जा सकती है उसी प्रकार विधवा कन्या भी दी जा सकती है। और यही विवाह है, न कि व्यभिचार । और भी देखियेविधवा जब विवाह करती है, तब यह प्रगट रूप से करती है, गुप्त रूप से नहीं करती । जब इसमें किसी प्रकार का गुप्तपना नहीं, न किसी प्रकार का भय, तब यह कार्य कभी भी व्यभिचार नहीं कहा सकता क्यों कि व्यभिचार में भय व लजा पाई जाती है। यभिचार एक जुर्म है जिसकी सजा गवर्नमेंट (Government) से मिलती है। यदि 'विधवा विवाह" व्यभिचार होता तो यह भी एक जुर्म होता और गवर्नमेन्ट इस पर सजा लगाती, परन्तु गवर्नमेन्ट का कोई कानुन ( It w ) ऐसा नहीं जिसस “विधवा विवाह" करने व कराने वालों को सजा दी जाय । इससे स्पष्ट है कि "विधवा विवाह" व्यभिचार नहीं है। यदि यह व्यभिचार होता तो गवर्नमेन्ट इसको जुर्म करार देती। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) अत: सिद्ध होगया कि “विधवा विवाह" व्यभिचार नहीं है। यह कहना, कि "विधवा विवाह" में भिचार की निवृत्ति नहीं हो सकती, ऐसा ही सत्य है जैसा कि यह कहना कि सूर्य में अन्धकार का विनाश नहीं हो सकता, सत्य है ! “विधवाविवाह का प्राशय विधवा का इत्वरिका व व्यभिचारिणी होने से बचाना है उसको गृहस्थ श्राविका के अणुव्रत में रखकर उसका स्थिति करण करना है। ___ विधघा का विवाह करके उसको गृहस्थ श्राविका के अणुबत में रखकर उसका स्थिति करण करना किसी प्रकार भी व्यभिचार नहीं कहा जा सकता। विधवा को जबरदस्ती पंधव्य पलवाना व्यभिचार है। हमारे विराधी मित्र इसम बच हुयं नहीं हैं। व विधवा विवाह' का विरोध करके बेचारी असमर्थ विधवाश्राम जबरदस्ती वैधव्य पलवाकर उन्हें व्यभिचारिणी बना देते हैं. जो कि 'यभिचार' में भी बढ़कर व्यभिचार है । बस ! यदि हम विधवाविवाह" के विरोधियों को .. कहें तो कुछ भी अयुक्ति न होगी। उपरोक विवेचन में ज्ञान हुआ कि “विधवा विवाह"और "व्यभिचार" में केवल इतना ही अन्तर है जितना अन्तर "ब्रह्मचर्य" व "न्यभिचार" में है अर्थात "विधवाविवाह" इतना ही बड़ा व्यभिचार ( पाप । है जितना बड़ा व्यभिचार कुमारी-विवाह" है। २. क्या कारण है कि पुराणों में "विधवाविवाह" का उल्लेख नहीं मिलता। "विधवा विवाह" पर हमारं कृपमगडूक मित्र यह आक्षेप भी करते है कि "शास्त्रों में कुमारी विवाहका तो वर्णन प्राता Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, परन्तु 'विधवा विवाह" का वर्णन कहीं नहीं मिलता फिर इस धर्मानुकूल कैसे कहा जा सकता।" शास्त्रों में यदि "विधवा विवाह" का उल्लेख नहीं मिलता तो यह कैसे कहा जासकता है कि विधवा विवाह" धर्म विरुद्ध है । उसकी घटना का शास्त्रों में न होना उसकी प्रसिद्धता प्रगट नहीं करता पुगणों व शास्त्रों में वही घटनाएँ उल्लिखित हैं जो कुछ महत्व ( importanc. ) रखती हैं। जहां भी कुमारी विवाह का वर्णन पाया है । वहां कोई महत्व पूर्गा । important ) घटना अवश्य है "विधवा विवाह में कोई महत्व पूर्ण घटना की 'मम्भावना नहीं थी, अथवा कोई महत्वपूर्ण घटना नहीं हुई, इसलिये उसका उल्लेख भी नहीं हुआ। यदि उममें कोई महत्व पूर्गघटना होती तो इसका उल्लेख भी शास्त्रकार करते । घटनाएँ अच्छी भी होती हैं, और बुरी भी। शास्त्रों व पुराणों में दानों प्रकार की घटनाओं का उल्लेख मिलता है। शास्त्रकारों ने जहां अच्छी घटना का वर्णन किया है वहां उसका अच्छा फल भी दर्शाया है; और जहां किसी बुरी घटना । पाप । का वर्णन किया है वहां उसका बुरा फल दिखलाया है। बुरं कार्यों की निन्दा और उनका बुग फल दिखाने के लिये यह चित्रण हुआ है । जहां शास्त्रकारों ने पर स्त्री हरण. वेश्या मवन श्रादि अनेक कुकार्यों का वर्णन किया है, वहां 'विधवा विवाह' का जरा भी घर्गान नहीं किया। यदि 'विधवा विवाह" पाप होता तो शास्त्रकारों ने जहां अनेक पापों का वर्णन करक उनकी निन्दा की है। वहां कम से कम एक बार तो इसका वर्गान करके इमकी निन्दा करतं । मालूम हुआ कि "विधवा विवाह का पुगणां में उल्लेख न मिलना इसकी बुगई को प्रकट नहीं करता बल्कि इसकी भलाई व साधारणता को प्रगट करता है। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि शास्त्रों में "विधवा विवाह" का निषेध रूप मे वर्गान पाता तब यह बात कुछ विचारणीय हो जाती और इसकी युक्ति व प्रमाण में बुद्धि की कसौटी तर्क वितर्कसे परखा जाता और मत्य असत्य का निर्णय किया जाता, परन्तुशास्त्रों में कहीं भी "विधवा विवाह' निषेध नहीं है। ३. 'विधवा' और 'विवाह' ये दो शब्द कहां तक असंगत है ? ___ हमार विगंधी मित्र 'विधवा' और 'विवाह' इन दोनों शब्दों को असंगत बतलाते हैं। यदि यह दोनों शब्द असंगत मान भी लिय जाय नब भी 'विधवा विवाह पार केमे ठहर सकता है : बात यह है कि जब इन दोनों शब्दों का परस्पर मल जाता है इनके छहां अक्षगं के एक समूह मव बेचार छकड़ भूल जाते हैं. इसलिये व इन दोनों शब्दों को असंगत कहने लगते हैं । खेर..........! __ अधिकतर सुनने में आता है कि अमुख विधवा व्यभिचारिणी हो गई, अमुक विधया के गर्भ रह गया, अमुक विधवा मुसलमान या ईमाई बन गई. अमुक विधवा वेश्या बन गई. इत्यादि २...... ( विचार कीजिये, कि यदि 'विधवा और 'विवाह' यह दो शब्द असंगत हैं, तो 'विधवा' और 'व्यभिचार', अथवा 'विधवा' और 'गर्भ' ये तो इनसे भी अधिक अमंगत हैं। विधया के धब नहीं होता और बिना धर पुरुष के गर्भ नहीं रहसकता इसलिये जब कोई विधवाली * "विधवा' x 'विवाह'"विधवा विवाह" Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भवती होगई तो वह सधवा हो चुकी इसमें कुछ संदेह नहीं। जब 'विधवा' और 'गर्भ' इन दो शब्दों की प्रकृत्ति सङ्गत बनाती है तो फिर 'विधवा' और विवाह इन दो शब्दों का सङ्गत होना कितनी बड़ी बात है ? ४. "विधवाविवाह” से शरीर की विशुद्धि नष्ट हो जायेगी" इस पर विचार: हमारे विगंधी मित्र "विधवा विवाह पर यह भी आक्षेप करते हैं कि विधवा विवाह से शरीर की विशुद्धि नष्ट हो जायेगी। इसमें मालूम होता है कि वे शरीर को विशुद्ध मानते हैं। दुःख है कि हमारे मित्र इन छोटी २ बातों में बड़ी २ गलतियां कर बैठते है, नहीं तो वे अपवित्र शरीर को विशुद्ध कभी नहीं कहतं । शरीरके विषय में यह हर कोई जानता है: "पलरुधिर राध मल थैली, कीकस वसादि ने मैली। नव द्वार बहें घिनकारी, अस देह करे किम यारी ॥ ऐसी अपवित्र देह को जो विशुद्ध बतलाते हैं, उनकी बुद्धि पर हंसी पाती है। उनकी श्रांखां व बुद्धि की तीव्रता पर पाठक जरा विचार तो करें ? ५. "स्त्री” “पुरुष” में भोज्य भोजक सम्बन्ध नहीं है। हमारे विरोधी मित्र यह आक्षेप भी करते हैं कि जिस प्रकार एक मनुष्य अनेक थालियों में भोजन कर सकता है, लेकिन एक थाली में कई पुरुष भोजन नहीं कर सकतं, उसी Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) प्रकार एक पुरुष अनेक स्त्रियों का सेवन कर सकता है, लेकिन अनेक पुरुष एक स्त्री का मेवन नहीं कर सकतं क्योंकि स्त्री पुरुष में भोज्य भाजक सम्बन्ध है। भांग के काम में स्त्री पुरुष दोनों को सुख होता है, यदि उनमें उपरोक्त सम्बन्ध होना नो स्त्री ( भोज्य । को सुख नहीं होना चाहिये था, अर्थात् पुरुष भोजक) को ही सुख होना चाहिये था, लेकिन यहां स्त्री पुरुर दोनों को सुख होता है। इमलिये मालूम हुआ कि स्त्री पुरुष में भोज्य भाजक सम्बन्ध नहीं है। ___ हमें इस बात का अत्यन्त खेद है कि हमारे विरोधी मित्र इतनी मगल बातों में, जिनमें युक्ति ष प्रमाण की आवश्यकता ही नहीं है गलती कर जाते हैं खैर.. ! __ यदि 'दुर्जनताप न्याय' में स्त्री पुरुष में भाज्य भाजक सम्बन्ध मान भी लिया जाय तब भी "विधवा विवाह" में इसमें कोई विरोध नहीं पाता । क्यों कि जिस प्रकार थाली को मांझ धोकर साफ कर लिया जाता है। और उसमें दूसरा पुरुष भोजन कर सकता है, उसी प्रकार 'मासिक-धर्म के बाद स्त्री दुसरं पुरुष के काम में लाई जा सकती है।" ६. अदभुत न्याय ! हमा घिगंधी मित्र विधवाओं के विवाह का तो खूब विरोध करते हैं, परन्तु विधुरों के विवाह का समर्थन करते हैं । वाह ! वाह !! क्या अच्छा न्याय है। ___ जब कि पुरुष पत्नि रखते हुये भी दूसरी पनि बना लता है, तो विधवा.पति न रहते हुये भी दूसरा पति क्यों नहीं बना सकती समझ में नहीं आता कि विधुरों का विवाह ना हो जाय । परन्तु विधवाका न हो! विधुरों को यह रियायत क्यों ? स्त्रियों के लिये तो पुरुषों में भी जियादा रियायत Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) होनी चाहिये क्योंकि स्त्रियों में पुरुष की अपेक्षा काम की तीव्रता कई गुनी होती है। ___ जब हम देखते हैं कि “विधवा विवाह" के विरोधी विधुर हो जाने पर बुढ़ापे में भी अपना दूसरा विवाह कर लते हैं, परन्तु बाल व युवान विधवाओं का विवाह नहीं होने देते हैं तो हमें उनकी इस करतूत पर बहुत क्रोध पाता है और दिल में प्राता है कि....।' ७. वर्तमान अवस्था में "विधवा विवाह" की आवश्यकता वर्तमान अवस्था में "विधवाविवाह' 'अत्यन्त' से अधिक आवश्यक है हमारे रूढ़ि प्रेमी मित्रों की कृपा (?) से बाल विवाह, वृद्ध विवाह और अनमेल विवाह आदि अनंक कुप्रथाओं ने अड्डा जमा रक्खा है जिसके कारण आज समाज में हजारों की संख्या में विधवाएँ पाई जाती है उनका जीवन भी उनकी दया (?) मे दयनीय बन रहा है। बहुत मे मित्र यह कहते है कि “कुप्रथाओं में विधवाएँ बनती हैं, इसलिये सबसे पहिले इन कुप्रथाओं को रोकना चाहिये, जब कुप्रथाएँ नष्ट हो जायगी, तब विधवा भी न बनेंगी। इसलिये "विधवा विवाह" के प्रचार को बन्द रखकर इन कुप्रथाओं को नष्ट करने में अपनी शक्ति लगानी चाहिये।" यदि मान लीजिये कि इन कुप्रथाओं का श्राज ही अभाव हां जाय तो वर्तमान समय हजारों विधवाओं को उससे क्या लाभ होगा। उनका जीवन तो संकट मय ही रहेगा उनका जीवन जभी सुखी बन सकता है जब कि उनका विवाह किया जाय । इसलिये कुप्रथाश्रो को बन्द करने के साथ "विधवाविवाह" प्रचार भी आवश्यक ठहरता है। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुप्रथाश्रो का सर्वदा प्रभाव होने जाने पर भी विधवाएँ बन्द नहीं हो मकनी--चाहे वह अल्प संख्या में ही बनें-इस लिये उन विधवाओं के विवाह की भी आवश्यता रहेगी अत. “विधवाविवाह" का प्रचार किस तरह बन्द किया जासकता है। कुप्रथाओं को रोकने के साथ साथ "विधवाविवाह" का प्रचार भी अत्यन्त आवश्यक है, क्यों कि कुप्रथाओं के बन्द होने में विधवाएँ बहुत थोड़ी बनंगी और विधवाविवाह में उनका जीवन सुखी बन सकेगा। उपरोक विवेचन में मालूम हुआ कि बिना विधवाविवह के कुप्रथाओं का प्रभाव भी अधिक लाभदायक नहीं हो सकता जो दांप 'विधवाविवाह में अपहरण हो सकता है वह कुप्रथात्रों के अभाव में सर्वथा दूर नहीं हो सकता। ___ हम चाहते हैं कि तमाम कुप्रथाश्रो का शीघ्र सर्वथा अभाव हो जाय, परन्तु मित्रों ! 'विधवाविवाह" की आवश्य कता हर समय है । संवर के साथ साथ निर्जरा न हो तो कम काम चल मकता है ? अंतिम निवेदन अब मैं अपना लेख समाप्त करता है। मैंने यहां विधवा विवाह" की खास खास बातों पर संक्षेप में प्रकाश डाला है। आशा है कि बड़े २ विद्वान इस विषय पर प्रकाश डाल कर साधारण समाज का भ्रन दूर करेंगे । मैं समझता हूँ कि बुद्धिमान् मनुष्य के लिये इतना ही लेख बहुत काफी होगा, क्योंकि बुद्धिमान के लिये इशारा ही काफी होता है । जैसा शंखसादी ने कहा भी है 'अक्लमदांग इशारा काफीस्त" अर्थात्-बुद्धिमान के लिये संकेत काफी है।" * यह फारसी के बड़े उक्तम कवि हो चुके हैं । Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) मैं अपने मित्रों से निवेदन करता हूँ कि आप अपने हृदय से इस मिथ्या वासना को कि “विधवा विवाह" धर्म विरुध है, दूर कर दीजिये । यदि आप निष्पक्ष रीति से विचार करें तो आपको श्रानी गलती ज्ञात हो जायगी। आपको चाहिये कि आप सत्य के कहने में निर्भय बनें। इस बात का भ्रम छोड़ दीजिये कि इसका फल क्या होगा ? सत्य बात के लिग यदि जीवन भी न्योछावर हो जाय तो भी कुछ चिन्ता मत करो। सच्चा वीर वही होता है जो सत्य बात के कहने में कुछ भी नहीं भय खाता । यदि उसको सत्य बात पर जान भी देनी पड़े, तो वह वीरता से हंसते हुए जान पर खेल जाता है। सच्ची बात के कहने में डरना या संकोच करना महा पाप है । जो मनुष्य हठ पूर्वक अपनी झूठी बात पर जमा रहता है और सत्य को ग्रहण नहीं करता, वही नीच है। आपको मिथ्यात्व छोड़ कर सम्यक्तव की ओर जाना चाहिये, क्योंकि यही हित का मार्ग है। झूठी बात पर डंटे रहना वुद्धिमानी नहीं है । "धर्म डूबा "धर्म डूबा " की आवाज लगा कर व्यर्थ ही अपनी जिल्हा को न थकाइये । धर्म न तो रूढ़ियों में है, न रक्त मांस में, न हड्डी में, न कोरी 'श्रहा - हूहू' में, न कोरी 'धर्म डूबा २' में, वह आत्मा में है। पेट के लिये ढोंग बना कर अपनी आत्मा का घात न कीजिये सुधारकों को बुरा कह २ कर साधारण समाज की धांक में न डालिये । विधवात्रों पर अत्याचार करना छोड़ दीजिये उनका विवाह करने में ही उनका जीवन सुखी बन सकता है और वे व्यभिचार सं बच सकती हैं, इसलिये आप "विधवा विवाह" का विरोध छोड़ कर इसके प्रचार में जुट कर अपनी सत्यता, वीरता, निर्भयता तथा मनुष्यता का प्रमाण दीजिये । स्त्रियों पर अत्या चार करना महाअनर्थ है, विधवाओं में जबरदस्ती वैधव्य पलवाना महा अत्याचार है । यह महा अत्याचार सती प्रथा Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से बढ़कर पाप है। क्योंकि सती प्रथा में स्त्री को थोड़े समय ही जलना पड़ता है, परन्तु षैधव्य से उन्हें जीवन भर जलना पड़ता है। प्रिय मित्रों ! रुढ़ियों के लिये 'सत्य' का गला मत घोटो, किन्तु 'सत्य' के लिये 'रुढ़ियों' का गला घोंट डालो। मैं समस्त जैन समाज से भी निवेदन करूँगा कि वह 'विधवा विधाह' को अपनाये, क्योंकि "विधवा विवाह" के प्रचार के बिना जैनियों की उन्नति असम्भव है जैन समाज "विधवाविवाह" से गहुत दूर है यही कारण है कि संसार की अन्य समस्त जातियों में यह सब से गिरी हुई जाति गिनी जाती है । जैनसमाज को "विधवा विवाह" के प्रकाश की अत्यन्त आवश्यकता है ताकि वह इसके प्रचार में जुट कर अपने को उन्नत बनाये, अतः विद्वानों को चाहिये कि वे इस पर प्रकाश डालें। आशा है कि पाठकगण इस लेख पर ठंडे दिल से निष्पक्ष विचार करने का कष्ट उठायेंगे और इस पर अपनी सम्मति अवश्य देंगे । जो महाशय मेरे लेख से सहमत न हों, वे इसके विरुद्ध अवश्य लिखें । मैं उनके लेख पर शान्ति से विचार करूँगा, क्योंकि मेरा आशय किसी बात पर हठ पूर्वक जमा रहना नहीं है । मेरी नीति तो यह है:न पर खण्डन से कुछ मतलब न मण्डन मुहमा अपना। सतासत निर्णय करते हैं, कराये जिसका जी चाहे ॥ * समाप्त Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन्यवाद इस ट्रैक्ट के छपवाने में निम्न लिखित महानुभावों ने सहायता प्रदान की है, जिनको सभा हार्दिक धन्यवाद देती है और साथ ही समाज के अन्य स्त्री पुरुषों से निवेदन करती है कि वे भी निम्न श्रीमानों का अनुकरण करके अपनी दुखिया बहिनों पर नग्स खाकर इसी प्रकार सहायता प्रदान करने की उदारता दिखाव:10; लाला बिशम्बरदास बजाज जैन जगाधरी ५. लाला जुगलकिशोर जैन बहादग्गढ़ ४) गुमदान अमरोहा २, लाला मृलचन्द अमरोहा २) लाला ग्धुार सरण अमरोहा २ लाल। मंगतगम जैन स्यादवादी दहली। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अन्य उपयोगी और क्रांतिकारी पुस्तकें के १ शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण-लंग्वक श्रीमान मूल्य गिटन जुगल किशार जो मुग्तार २ विवाह क्षेत्र प्रकाश .. ) ३ जन जानिनुदशा प्रवत्तक ले० श्री बाब सूरजभान जी४ मगला दबी ५ कुवारा की दुर्दशा ६ गृस्थ धर्म विधवाविवाह पार उनक मरक्षा में अपील लम्बक- शीतल प्रमाद जी ८ उजल पाश बदमाश लेखक अध्याप्रमाद गायलीय - • अवलमा आम .. .. , । i, एनलग्न मीमांसा मच्चाव भालानाथ मुख्तार बुलन्दशहर ! ११ पायाद आयगान उद .. ., .- विधवा विधान ममा धान लग्यका सव्यमाची १३ जन धर्म या विवाह पहिला भाग जैन धर्म अप विधवा विवाद । दृग्सग भाग ) ) १५ सुधार संगीत माला २.० ६० वृगमन मुशरफ जैपुर । - त्याग मामामा २०६० नपचन्द जी वर्गा ३. प्राधना स्त्रात कर पा शाला में विद्याधियों तथा कन्या पाटशान्तः - हिनाथ १८ १३ मा विवाद प्रकाश रघुवीरशरण जेन अमरोहा । मिलने का पनाजाहर्गमल जन सराफ दरीवा कलां, देहली। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ट्रक्ट नं० ७ 'जति प्रबोधक' के इसी अङ्क का क्रोडपत्र विधवाओं और उनके संरक्षकों से अपील | लेखक - जैनधर्मभूषण धर्मदिवाकर ब्रह्मचारी शीतलप्रसादजी प्रकाशक जैन बाल विधवा विवाह सहायक सभा दरीवा कलां देहली | संवत् १६८५ मुद्रक- गयादत्त प्रेस, क्लोथ मारकेट देहली + Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मेरे दो शब्द * प्रिय पाठकगण ! सब म प्रथम अपनी विधवा बहिनों की पकार मनिये और फिर हृदय पर हाथ रखकर बिवारिये कि क्या कभी आपने उनकी पाहाँका नोटिस लिया? नहीं, कदापि नहीं, हाय शोक ! महाशांक !! देखिये यह अपने भाइयों से क्या प्रार्थना करती है --- किस काम की जिन्दर्गा तुम्हारी। रक्षा न हुई अगर हमारी॥ तारवार का वक्त अब नही है। कांटा सा जिगर में जागजी है। में अपने को बड़ा ही भाग्यवान समझता हूं कि जैन धर्मभरण धर्मदिवाकर ब्रह्मचारी शानलप्रसादजी ने मेरे अन्धकार रूपी परदे को हटा कर ममार्ग पर लगाया। मैं इस विधवाविवाह के अति विपगत था घोर मैंने इसके वा · जैन ला' के खिलाफ हिन्दा जैन गजट में लेख भी दिये, परन्तु संयोगवश हमारं पारगेनाइजिंग इन्सपैक्टर श्रीमान् घाब बलवतगय जन का एक ब्राह्मणी विधवा से विवाह निश्चित हुश्रा, उसमें मुझे शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त हुश्रा उस समय पज्य ब्रह्मचारा जा से कुछ देशका समाधान हान पर मेरा भ्रम दूर होगया और मैंने ममय,काल पार व्यवस्था का देखकर यह प्रण किया कि जैन जाति का उद्धार तभी हो सकता है जबकि विधवा बहिनी की करुणा नाद के सामन मस्तक झकाया जाय और जंन शास्त्रोक्तानुसार उनका शमविवाह कराते हुये जन जाति का उत्थान कियाजाय और चौधरी चौकड़ायनी के फदे और भय से जैन जाति के सच सपतों को बचाया जाय। मैं अधिक न लिखते हुए १००८ श्री महावीर भगवान के दरबार में प्रार्थना करता हूं कि वह मेरे नवयुवक भाइयों को एसी सद्धि प्रदान करें जिससे कि वह छाती ठोक कर मैदान में भाए और इस शुभकार्य में हमारा हाथ बटाये कि जिस प्रकार हम जैनजाति की भंवर में पड़ी नय्या का पार लेजाएं। ज्योतिषमार्तण्ड(पं० शीतलप्रसाद जैन,F.A A. रिवाड़ी। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विधवाओं और उनके संरक्षकों से अपील इक्कीम करोड़ की हिन्दू जाति की आबादी में जब २ दो करोड़ से अधिक विधवाएं है तब ११।। साढे ग्यारह लाख की जैन संख्या में १॥ लाख विधवाएं हैं जब कि बिधुर मात्र ६५ हजार है । परन्तु कुमारे पुरुष ३ लाख है और कुमारी स्त्रियां १८५०८० अथात् दो लाग्य में कम है । जो जैन समाज को मरने से बचाना चाहने र उनको सन १६५१ की जैन मर्दुम शुमारी की रिगट को भलो प्रकार पट डालना चाहिये । उससे साफ विदित हो जायगा कि जैन लोग जो ८००० आठ हजार प्रति वर घट रहे हैं इसका बड़ा भारी कारण यह है कि जैन जानि में कुमारियों की संख्या कम होने पर भी उनका विवाह कुमागें और विधगं से करना होता है । पापा का प्रभाव होने में वह जिस तरह बनना है एक दफे विवाह के पीछे स्त्री के मरने पर इमरी दर कुमारी कन्या को विवाह ले। है । यदि कदाचित यह सी भी मर गई तो तीमर्ग दरे फिर अपनी पत्री व पोती के समान किमी कुमारी को ज्याद लेते हैं। किसी २ पम्प को जीवन में ६ या ७ दर कुमारी को विवाहने का प्रसंग जाता है । इस प्रकारकी व्यवस्था का कडुवा फल यह होता है कि बहुतमी जवान विधवायें जो बड़ी उमके पुरुपों को विवाह दी जानी हैं अपने पतिके मरने पर Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर बिना किसी संतान को पैदा किये हुये काम विधवायें रहकर अपना जिस तिस प्रकार जन्म काटती है । समाज में बाल विवाहों की भी कमी नहीं है। निदान १५-१६ वर्ष के बालक ११या१२ वर्षकी कन्या विवाह दिये जाते है । देवयोग से यदि यह बालक मर जाता है तो ये बाल भी बेकार अपनी जिन्दगी वित है। ये भी बिना संतान के पैदा किये हुये मर जाता है । उधर कुमारी कन्याएं यही कम है तिस पर उनमें से बहुत सी कन्यायों को विचुर पुरुष विवाह लेते है। कुमारां की संख्या भी अधिक है इसलिये अधिक कुमारे बिन विवाह तथा बिना किसी सतान को पैदा किये जाते हैं । सन १६०९ की रिपोर्ट बताती है कि २० से ७० वर्ष व ऊपर तक के कुमारे ६२२८६ है । जिस जानि में ७० हजार कुष्णरे विन विवाह रह जाये उस जाति की संतान अवश्य कम होगी इसमें कोई संदेह नही बद्धिमान जैन भाई तथा वहिन विचार सकते है कि जैन समाज की संख्या को स्थिर रखने वाला समाज के बालक व बालिकायें है। जब इनकी उत्पत्ति कम होगी तब अवश्य संख्या घटेगी जो बुरी दशा मर्दुम शमारी की रिपोर्ट से झलकती है वही वरी दशा प्रत्यक्ष जैनियों की आबादी को देखने से झलकती है। हम जब अपने भ्रमण में किसी स्थान की दशा को जांचने लगते है तो वर्ष Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालम होता है कि जहां आज ५० घर हैं वहां २०१२५ वर्ण पीछे २५ घर रह जायगे क्योंकि ये सब ५० घर जोईवाले नहीं है इनमें कितने घरों में मात्र कुमार व विधुर पाप है व किनने घरों में मात्र विधवाएं ही है । किसी भी समाज के जीवन को स्थिर रखने के लिये पुर.पा का विवाहित होकर मंतान जन्म देना अति शय अावश्यक है । नव जैन समाज में इस आवश्यकता को कैसे पग किया जाये । इसका उपाय यही समझ में श्राना है कुगरी कन्याय कुमागे ही को व्याही जावें पमा पहा नियम किया जा । फिर भी यदि अविवाहित कुमार रहे ना उनका उनकी उम में छोटी वाल विधवाएं व युवा विधवार विवाही जावे । तथा व पुरुप निनको दवाग तिवाग या ची बाग विवाह करना हो वे अपनी उम में कुछ छोटी विधवाओं को ही विवाह । समाज में इस व्यवस्था को जारी करने में विना संतान पैदा किये बहुत कम पुरूप व मि मरेगा । इस व्यवस्था के लिय यह अति आवश्यक है कि विधवाएं अपने जीवन को मफल करें । विधवाओं को अपना जीवन न्याय मार्गी बनाना चाहिये उनको कभी भी व्यभिचार व गुप्त पाप में नहीं फंसना चाहिये । यह न्यभिचार मनुष्य हन्या आदि ग्रादि बोर अनया का कारण है । यदि उनको इस लोक में मदाचार मय जीवन विताना है और परलोक में Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खोटी गति में नहीं जाना है तो उनको व्यभिचार के पाप में अपने को हर तरह बचाना चाहिये । इस पार से बचने का उपाय यही है कि वे व मचर्य व्रत के मतलब को अच्छी तरह समझ लेवें। ब्रह्मचर्य वन दो तरह में पाला जाता है एक पूर्ण या सर्व देश दुसरे अपूर्ण या एक देश । पूर्ण व मचर्य में पुप को मन वचन कायमे सर्व स्त्री मात्र का व मर्च प्रकार काम भाव का त्याग होता है, इसी तरह स्त्री को मन वचन काय में सर्व पुप मात्र का व सर्व प्रकार काम भाव का त्याग होता है । अपूण व एक देश व मचर्य में पुरूप जिम बी को समान व नानिक अनमार विवाद लें उस स्त्री के मिपाय उसके सा अविवाहित व विवाहित स्त्रियों का त्याग होता है इमी नग्ह बी जिम पुष्प का समाज व नीति के अनुसार विवाहले उम पुल्प कामवाय उसे अन्य विवाहित व अविवाहित पापोंका त्याग होता वी वियोगी पुरुप को अथात विमर को अपने भावों को व अपनो शरीर की शक्ति को देखना चाहिये कि इन दो प्रकार के ब्रह्मचर्य में से वह किम को पालने की शक्ति रखता है । यदि वह पूर्ण ब्रह्मचर्य पाल सके तो उस ब्रमचारी रहकर स्वपर कल्याण करते हुपे मानव जन्म को मफल करना चाहिये । यदि वह विधुर अपनी शक्ति पूर्ण ब्रमचर्य पालने की न दे वे तो उसे अपूर्ण या Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Q. एक देश ब्रमचर्य पालना चाहिये और तब उसको किसी योग्य स्त्री से विवाह करके ग्रही जीवन संतोष से विताना चाहिये वेश्या व पर स्त्री सेवन आदि अनेक प्रकार व्यभिचारों अपने को इस तरह बचाना चाहिये | इसी तरह पुरुष वियोगी स्त्री को अर्थात् विधवा को अपने भावों की अपनी शरीर की शक्ति को देखना चाहिये कि इन दो प्रकार के ब्रह्मचर्यो में वह किस को पालने की शक्ति रखती है । यदि वह पूर्ण ब्रह्मचर्य पाल सके तो उसको ब्रह्मचारिणी रहकर स्वपर कल्याण करना चाहिये और अपने मानव जन्म को भले प्रकार सफल करना चाहिये । यदि वह विधवा अपनी शक्ति ब्रह्मचर्य पालने की न देखे तो उसे पुरुषकी तरह अपर्ण या एकदेश ब्रह्मचर्य पालना चाहिये और तब उस विधवा को उचित है कि वह किसी योग्य पुरुषसे विवाह सम्बन्ध करके ग्रही जीवन संतोष से विताव, संतानों को जन्म दे और उन्हें पाले । साधारण जैन भाइयों ने यह भ्रम बना रक्खा है कि विधवा को पुनर्विवाह करने का हक नहीं है। हम जहां तक जैन शास्त्र, नीति व तर्क को समझते हैं उससे हम कह सक्त है कि यह मानना कि विधवा को पुनर्विवाह का अधिकार नहीं है किसी भी सुतर्क से सिद्ध नहीं हो सकता है। जो हेतु एक विधुर को पुनर्विवाह करने में है - Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही हेतु एक विधवा को पनविवाह करने में है दोनों की अन्तरंग की कामवासना व शारीरिक स्थिति द्वितीय विवाह करने की प्रेरणा करती है। यदि विधवाओं में कदाचिन किसी कारण से रजस्वला होना बंद हो जाता और उन में काम वासना ही न रहनी नव तो ऐसा कहा जा सता था कि जिन कारणों में प्रेरित होकर एक विधुर को पुनर्विवाह करना पड़ता है वे कारण विधवाम नहीं पाए जाते इमलिये उनका विवाह करना निग्थक है परन्त ऐसा नहीं है दोनों स्त्री और पम्पों में समान कारण है नव जैसे विधुर को पुनर्विवाह करने का हक है वैसे एक विधवा को पुनर्विवाह करने का हक है। यह विधवा विवाह न व्यभिचार है न अन्याय है किन्न नानि पूण विवाह सम्बन्ध तथा न्याय यक्त माग है। इसमें श्राविका के ब्रह्मचर्य अगावत में अथात एक देश ब्रमचय पालने के प्रण में कोई बाधा नहीं पाती है। बहुन में पुरुप युवक इस सच्चे सिद्धांत को समझ गए है और इस लिये विधवाओं से लग्न करने की तय्यार है-इस संबन्ध में उनक पत्र निन्य ही विधवा विवाह महायक सभाओं के मंत्रियों के पास आया करने ह परंतु बाल व युवान विधवाओं की समझ में अभी तक यह मचा सिद्धांन नहीं बैठा है । वं विचारी माली विधवाएं व्यभिचार को पुनर्विवाद से बहुन बुग समझती Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है और मन में चाहती भी है कि यदि ब्रह्मचर्य नहीं पलता है तो पुनर्विवाह कर डालें परन्तु समाज की लाज के भय से या संग्क्षकों के भय से अपना भाव प्रगट करने से हिचकिचाती है । यह हिचकिचाना उनके जीवनका नाशक होरहा है उधर लजा वश व पुनर्विवाह को तय्यार नहीं होती हैं घर काम भाव की प्रेरणा वरा गप्त पाप में फंस जाती है और अपना उभय लोक का जीवन बिगाड़ लेनी है इलिये हम उन असमर्थ बाल व युवान विधवाओं में कह ग कि वे अपने को प्रथम में बचावं या तो वे पुण ब्रह्मचर्य पाल मा पुनर्विवाह करके एक देश या अपर्ण ब्रह्मचर्य पालं । यमनों में फंसकर अपना अमल्य मीवन न नष्ट करें । हमारी अपील इन भोली भाली विधवाओं के संरक्षकों में भी है-चाहे वे उनके माता पिना हों, भाई बहिन हों या माम श्वसुर जेठ देवर हों व अन्य कोई सवधी हो कि वे विधवाओं को यह सच्चा सिद्धांत समझा --पर्ण ब्रह्मचर्य पालने के भाव हों तो श्राविकाश्रमों में भेज या वैगग्य मामानों में रकावें नहीं नो उनको पनर्विवाद कगने में तय्यार करके उनके जीयन को ग्रही जीवन बनवाद जिम में व्यभिचार आदि पापों से बचें। यदि विधवाओं ने और उनके मरनकों ने ध्यान Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न दिया तो जो खगवियां जैन समाज में हैं वे कभी भी दूर न होंगी-असदाचार, गुप्त पाप बढ़ता जायगा और समाज की मंग्च्या घटनी जायगी और यदि उन्होंने इस सच्चे सिद्धांत पर ध्यान दिया तो कुमागे का, विधुगें का नथा विधवाओं का इन सब का जीवन मंतोप रूप हो जायगा- सन्तानों की विशेष उत्पत्ति होगी, ममाज की घटी अवश्य दर होगी और जैन समाज मग्न में बचंगी क्योंकि धर्म धमात्मा के आश्रय रहता है इसमें यदि समाज जीता रहंगा नो धर्म भी देखने में आयगा। इलिये जैन धर्म की स्थिति और जैन समाज की रक्षा के लिये विधवाओं को अपना भला या वग स्वयं विचारना चाहिये और उनके संरक्षकों को भ्रम दर करके उनके जीवन को मंतापी व आन यान हित बनाना चाहिये स्त्री समाज विद्या के विना अपने हकों को बिलकुल भल बैठी है । उसको पराधीनता की बड़ी ने बिलकुल गलाम सा बना दिया है। उनकी दशा उन पक्षियों के अनमार है जिनको पिंजरों में वहुन काल बन्द ग्क्वा जावे-पीछे यदि छोड़ा भी जाये तो वे फिर पिंजरे में बन्द होने को आजाते हैं । इमी तरह स्त्रियों को गलामी में रहने की आदत पड़ गई है वे इस आदत को छोड़ नहीं सकती है यही उनको आपत्तियों में पड़ने का कारण है। हम यहां स्त्री समाज को उसके कर्तव्य बताते हैं : Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) पहिला कर्तव्य तो यह है कि ख ब विद्या पढ़ें, शरीर से परिश्रम करना सीखें. घर के काम बड़ी खुशी मे कर, आटा पीसने की, झाडू देनेकी, अन्न चुगने की, मफाई रखने की, पानी भरने की, रसोई बनाने की, कपड़ों को माफ रखने की, आदतें बनालें । प्यार से मीठे वचन बोलने की आदत डालें । विद्या पढ़ती हुई अपने चरित्र पर पग ध्यान रक्खें । जो कन्या चरित्र पर पग ध्यान नहीं देती है वह अच्छी गृहस्थ महिला नहीं बन सकती है एक कन्या को शुरू से ही नीचे लिखे आठ पाग में अपना मन अलग रखना चाहिये । (?) जान बूझकर किसी मनुष्य को या पशु पक्षी को मताना न चाहियं न उसके प्राण लेना चाहिये, दया धम को पालना चाहिये, काम काज करते हुये देखभाल करके करना चाहिये जिननी जीवों की रक्षा होगी उतना भला होगा । पानी मदा छानकर पीना पिलाना चाहिये, दयाभाव रखकर जो कोई भख गर्गव अपाहन भाई व बहन ही उनका भोजन व वन देना चाहिये भूखे जानवरों को, पक्षियों को खिलाना चाहिये सब मे प्रेम रखना चाहिये, गेगी आदमियों की सेवा टहल करनी चाहिये परन्तु यदि कोई चोर बदमाश सतावे तब उस पर दया न करनी चाहिये उसको मार भगाना चाहिये और अपने जान माल को व अपने शील को बचाना चाहिये इसलिये Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कन्याओं को कुछ कसरत भी मीख लेनी चाहिय, लाठी आदि चलाना भी जान लेना चाहिये जिससे मंकट पड़ने पर अपनी क्षा कर सकें इस तरह अहिंमा अागबन पालना चाहिये। (२) मत्य वचन मदा बालना चाहिये, ऐमा वचन नहीं कहना चाहिये जिमग दुसरे का नुकमान हो जाये। पर को बरी करने वाला सत्य वचन भी झट है : कड़या बचन, पर की निन्दा का बचन, गानी गलौन का बचन, कठोर बचन, यह मर झूट है-त्री की मुग्व की शोभा मत्य हिनकारी वचनों से है झट बोलना महापाप समझना चाहिये । सत्यवादीको कोई भय नहीं रहता है। कन्यायों को मीठे वचनों के द्वारा अपने घर वालों को अपने वश करलेना चाहिये । मीग हितकारी वचन तो जगन भरको वश कर सकता है। (:) कन्यायों को कभी भी चोरी करने की आदन न डालना चाहिये । घर में खाने पीने की सब चीज़ों को माता पिना से पूछ कर लेना चाहिये चुगकर एक लट भी ग्वाया जायगा तो यादन बरी हो जायगी। मांगकर लेना अच्छा है परन चोरी करना अच्छा नहीं है चांग से जगन में विश्वास उठ जाता है । (४) कन्यायों को शीलवन की महिमा सीवनी चाहिये जहां तक विवाह न हो बहनों को पग ब्रह्मचर्य Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ मन लगाकर पालना चाहिये । अपने मन में कभी भी किसी दूसरे पुरुप से मिलने का बुराभाव न लाना चाहिये न आपस में विवाह शादी की चर्चा लाना चाहिये, न ग्योटे गीत गाना चाहिये, न उन स्त्रियों की संगत करनी चाहिये जो वर चारित्र वाली है । कभी लड़कों से व लड़कियों मे आपम में हं.मी मश्करी न करनी चाहिये शील धम बड़ा धर्म है। जो स्त्री शील बिगाड़ देनी है उसका पाप छिपता नहीं है । वह यहां भी अपना जन्म नाश करता है और पग्लोक के लिये नरकादि गति बांध लेनी है जग में अपया पानी है । कन्या को उचित है जय नक विदा न हो विद्या पढ़ने में मन लगावे ब्रह्मचर्य पाले, वन चामिणी हे. पान न स्यावे, ग्वाट पर न मोवे, अन्गारित कपड़े न पहने मादगी से रहे, गहनों का शोक न कर. मने नमाशों में न जाये, कहानी किस्से न पड़े, बाजार की चाट न खावं, शुद्र घर का भोजन दो दफ मंनाए ये करले । मन अपना विद्यालाभ व धर्म में लगाये गन भगवान का ध्यान करे, पूजन करे, शास्त्र पहे, गुरु महागज का कई वियों के माथ दर्शन करे, उनका उपदेश मने, उनको भक्ति पूर्वक दान देवे नियम पाखड़ी लेने रहे. सवेरे व शाम को थोड़ी देर अलग बैठ करके मामायिक ध्यान करती रहे । जहां नक ही दिन में खावे जो कन्या धर्म में चिन रकम्वेगी. सतसंगति में रहेगी वही Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य को पाल सकेगी। ब्रह्मचय ही सं कन्या का शरीर दृढ़ बनना है। (५) पग्ग्रिह की ज्यादा लालसा न रग्वनी चाहिये घर में जो संतोप से मिले उम खाकर व पहन कर मनको आनन्द में ग्वग्वे । (६) कभी मांस को न खावं, वह डाक्टग दवा भी न ग्वा जिन में मांस का मेल हो । मड़ी बुसी बासी चीन ग्वान से भी मांस का दाप लगता है उससे भी जहां नक हो बचे। (७) नशा न पीव, कन्या को चाहिये कि कभी भूल कर भी शगव न पीव, भांग न पीव, कोकेन न ग्वावे । नशा पागल बना देना है नशे की आदत से प्राणी नशेबाज़ बन जाता है जिन डाक्टरी दवाओं में शगव पड़ी हो उनको भी न ग्वावं । (८) मध न ग्वाव-मध मविश्वयों को कष्ट देकर व उनके बच्चों को मारकर व निचोड़ कर आता है व मांस के समान उममें कीड़ पैदा होते है व मग्ते है ।। इन आठ बातों का पालन भने प्रकार करनी ग्हें जब तक विद्या पहें और विवाह न होवे । ____ (२) दुसरा कर्तव्य यह है कि १६वां वर्ष जब शुरू हो तब अपना विवाह कराने का विचार करें १६ वर्ष से पहले विवाह न करावें माता पिता को समझादें कि जन्दी Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हम विवाह न करेंगे । तथा जिसके साथ माता पिता ने विवाह ठीक किया हो उस पुरुष को भी समझ लें कि वर २० वर्ष के अनुमान है या नहीं, कहीं छोटा तो नहीं है या बूढ़ा नो नहीं है जवान सदाचारी कमाऊ वर के माथ विवाह करें- यदि वर पसंद नहीं हो तो तुरन्त माना पिना को मना करदें यदि न माने तो ज़िट करें तथा परोपकार्ग भाई हो उनको अपने मनका दुःख कहकर उनकी मदद से अनमेल विवाह को रोकं आज कल लाभी माता पिता पैसे के लोभ में बढ़े व निर्वल पुरुष के साथ विवाह पक्का कर देते है इस जुल्म को न होने दें। यदि माता पिना न पान तो पलिम में खबर देकर या मजिस्ट्रेट को लिवकर इस अन्याय से बचें। (३) तीमग कर्तव्य यह है कि विवाह हो जाने पर कभी भी परपुरुप की चाह न करें अपने पति की हर. नगह भक्ति करें व योग्य मन्नान को पैदा करें मन्नान की अच्छी आदन मिग्वावं । घर में सब में प्रेम रकम्व किमी से कठोर बचन बोलकर लड़ाई झगड़ा न करें। (४) यदि संतान रहित हों और विधवापना जाने नव अपने मन को देखें कि सच्चं हृदय से ब्रह्मचर्य पालने की शक्ति हो तबना पुनर्विवाह न करें परन्तु यदि मन वश में न हो तो कभी भी व्यभिचार में न पड़े और खुशी से किसी सभा द्वाग पुनर्विवाह कराकर ग्रही धर्म में रहें । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) यदि कदाचित मनान होने पर भी मन काव में न आता हो तो समाज के विचारवान भाइयों से मलाह करके संतान का योग्य प्रबंध करके फिर पुनर्विवाह करें परन्तु व्यभिचार के नरक में कभी न पड़ें। ___ प्यारी बहनो-तुम्हारे हित के लिये ऊपर की शिक्षा दी गई है उस पर निर्भय हो चलो, पाप में सदा वचो-यह बात अच्छी तरह याद रकवा कि जैसे विधर को पुनवियाह का अधिकार है वैसे ही विधवा को है। दोनों को श्राविकाचार में अणुवती कहते हैं । विधवा विवाह अधर्म नहीं है इसे नीति व्यवहार समझो व्यभिचार महाअधर्म है उसमें अपने को कभी न डालो। विधवाओं के संरक्षकों को भी इस लेख पर पग ध्यान देकर विधवाओं के जीवन सुधारने चाहिये । - - - आवश्यक सूचना । दिल्ली में एक जैन बाल विधवा विवाह सहायक सभा स्थापित हुई है। वे सज्जन जो विधवा विवाह के सिद्धांत से सहमत हो, जो सभा के मेम्बर होना चाहं या जिन्हें अपने लड़के या लड़की का ऐसा सम्बन्ध करना स्वीकार होवे नीचे लिखे पते पर पत्र व्यवहार करें: - उपमंत्री-. Page #396 --------------------------------------------------------------------------  Page #397 --------------------------------------------------------------------------  Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर पुस्तकालय