Book Title: Jain Dharm Mimansa 03
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ सत्प्रसन्देश ग्रन्थ-माला * जैनधर्म-मीमांसा [भांग ३] [ छट्टा अध्याय ] -सत्यभक्त Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर सेवा मन्दिर दिल्ली क्रम मस्या काल न० खण्ड ६० Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य-सन्देश ग्रन्थमाला का २३वा पुष्प जैनधर्म-मीमांसा नीसरा भाग [छटा अध्याय] केखकः--दरबारीलाल सत्यभक्त नवम्बर १९४२ प्रथम संस्करण * * मूल्य डेढ़ रुपया Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकरघुनन्दनप्रसाद 'विनीत' मंत्री-सत्य-सन्देश ग्रन्थमाला, सत्याश्रम, वर्धा. (सी. पी.) मंत्री-सत्याश्रम मंडल सत्यश्वर प्रिन्टिंग प्रेस Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इस मीमांसा के दो भाग निकल चुके, यह तीसरा भाग है, और इसके साथ यह मीमांसा पूरी हो रही है । इस भाग में आचार-शास्त्र का विस्तृत विवेचन है । पिछले दो भागों के समान इस भाग में भी जैन-धर्म की विवेचना में क्रान्ति हुई है । जैनधर्म का मर्म प्रगट किया गया है और आज के देशकाल के अनुरूप परिवर्तन किया गया है, पुगेन रूमों का ठीक ठीक परिचय देकर उनकी आलोचना की गई है, पिछले दो हजार वर्षों में जैनधर्म में जो विकृति आ गई है वह भी दूर की गई है। जो सुधारक सम्प्रदाय भेद और अन्धश्रद्धा को दूर कर एक अभिन्न और वैज्ञानिक जैनधर्म की उपासना करना चाहते हैं उन्हें यह मीमांसा अन्त तक और पूरी तरह पथ प्रदर्शक का काम देगी । ___मीमांसा का यह भाग जैनजगत् या सत्य-सन्देश में १६ मार्च १९३४ से लगाकर १६ जून १९३५ तक सवा वर्ष में प्रकाशित हो पाया था। अब सात वर्ष बाद वह पुस्तकाकार निकल रहा है । पुस्तकाकार छपाते समय मैंने एक नज़र ज़रूर डाल ली है और कहीं कहीं कलम से छू भी दिया है, पर जिसे संशोधन कहते हैं वह मैं नहीं कर पाया हूं। समय और रुचि का अभाव ही इसका कारण है । पर इससे पुस्तक की उपयोगिता किसी भी तरह कम न समझना चाहिये । इस पुस्तक के प्रकाशन में कलकत्ते के बाबू छोटेलाल जी ने Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [-ख ] ५००) की सहायता दी है। उनसे इस संस्था को और सहायता मिली है, पर दान के बारे में नाम-मोह का संयम जितना उनमें है वह असाधारण है । ऐसी बातों में अपनी तारीफ सुनकर वे लज्जित ही नहीं हो जाते, पर खिन्न भी हो जाते हैं; इसलिये यहां उनकी तारीफ नहीं की जाती है । हां ! समझदारों के लिये इन शब्दों में भी काफी हो चुकी है । उनके बारे में एक बात और कहना है । जैनधर्म-मीमांसा के प्रथम भाग की प्रस्तावना के प्रारम्भ में जिन श्रीमान् सज्जन का उल्लेख हुआ है, बातचीत में जिनके प्रश्नों के उत्तर मैंने आज से करीब ग्यारह वर्ष पहिले दिये थे और इसीसे जिनने मेरे जैनधर्म विषयक व विचारों को लिपिबद्ध करने का तीव्र आग्रह किया था- वे श्रीमान सज्जन और कोई नहीं, किन्तु यहीं बाबू छोटेलालजी 1 I हैं । इसलिये मीमांसा के प्रकाशन में ही नहीं, किन्तु निर्माण में भी बाबु छोटेलालजी निमित्त कारण रहे हैं । इसलिये जो लोग इस जैनधर्म-मीमांसा के दृष्टिकोण को पसन्द करते हैं उन्हें बाबू छोटेलालजी का भी कृतज्ञ होना चाहिये, और जो इस पुस्तक के दृष्टिकोण को पसन्द नहीं करते, वे चाहें तो बाबू छोटेलालजी को मन ही मन गालियाँ दे सकते हैं। पर वे अगर इस पुस्तक के तीनों भागों को ध्यान से पढ़ जायेंगे तो गालियों के पाप से मुक्त हो जायँगे । सत्याश्रम, वर्धा. २ अक्टूम्बर १९४२ - दरबारीलाल सत्यभक्त Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १६७ २३८ १ सम्यक्चारित्र का स्वरूप २ अहिंसा ३ सत्य ४ अचौर्य ५ ब्रह्मचर्य ६ अपरिग्रह (पूंजीवाद आदि की आलोचना) ७ पूर्ण और अपूर्ण चारित्र ८ मुनिसंस्था के नियम (प्रचलित मूलगुणों की आलोचना और ११ मूलगुणों का विधान) १८१ ९ द्वादशानुप्रेक्षा १० दशधर्म (बारह तप और दान का विस्तृत विवेचन) २४७ ११ परिषह विजय २९१ १२ गृहस्थ-धर्म २९९ १३ गृहस्थों के मूलगुण १४ जैनत्व १५ नित्यकृत्य १६ सल्लेखना १७ अतिचार ३३९ १८ प्रतिमा ३४६ १९ गुणस्थान ३५६ २० उपसंहार ३६६ س ३२१ ३२८ س س ३ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म-मीमांसा के तीन भाग अगर आप जैनधर्म का पूर्ण और वैज्ञानिक परिचय पाना चाहते हैं तो आप जैनधर्म-मीमांसा के तीनों भाग ज़रूर पढ़िये । सत्यसमाज के संस्थापक स्वामी सत्यभक्तजी ने ग्यारह बारह सौ पृष्ठों में जैनधर्म का जैसा सुलझा हुआ सागपूर्ण रूप निचोड़ कर रख दिया है वैसा आपको अन्यत्र कहीं न मिलेगा । कठिन से कटिन विषय को खूब सरल बनाया है और ऐसी ऐसी गुस्थियाँ सुलझाई गई है, जो अभी तक कभी न सुलझी थी। प्रायः हर एक बात में दिगम्बर-श्वेताम्बर ग्रन्थों के हवाले दिये गये हैं । प्रथम भाग में धर्म का व्यापक रूप, म. महावीर के पहिले की हालत, म. महावीर का विस्तृत जीवन-चारित्र, उनके अतिशयों आदि की वैज्ञानिक दृष्टिकोण से व्याख्या, उनके बाद होनेवाले सम्प्रदाय, उपसम्प्रदाय निहत्र आदि का विवेचना पूर्ण परिचय, सम्यग्दर्शन का सागपूर्ण विस्तृत विवेचन, आदि है । दूसरे भाग में सर्वज्ञत्व की विस्तृत आलोचना, ज्ञान के सभी भेद प्रभेदों का विस्तृत वर्णन, अंग पूर्व आदि का रहस्योद्घाटन अनेक चर्चाओं की सुसंगति आदि है। ___तीसरे भाग में समस्त जैनाचार की आधुनिक ढंग से विस्तृत व्याख्या है जो कि आपके हाथ में है । रघुनन्दनप्रसाद 'विनीत' मंत्री-सत्याश्रम, वर्धा (सी. पी.) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म-मीमांसा छटा अध्याय मम्यक् चारित्र . .. ... . - - - सम्यक्चारित्र का रूप कल्याणमार्ग का तीसरा अंश सम्यकचारित्र है । सम्यदर्शन और मान्यग्ज्ञान सम्यक चारित्र के लिये हैं इसलिये जबतक चारित्र न हो तबतक दर्शन ज्ञान निष्फल ही समझना चाहिये। जिस तत्त्व पर विश्वास किया था, जिस तत्व को जाना था उसका आचरण सम्यक चारित्र है । तीनों का विषय एक ही है । कल्याण के मार्ग पर विश्वास, कल्याण के मार्ग का अच्छी तरह जानना, कल्याण के मार्ग पर चलना यही रत्नत्रय है। अन्य वस्तुओं को तुमने जान लिया विश्वास भी कर लिया परन्तु यदि वे आचार के लिये उपयोगी न हुई तो उनसे सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का कोई सम्बन्ध नहीं । यही कारण है कि सम्यग्ज्ञान की पूर्णता के लिये समस्त पदार्थों को जानने की जरूरत नहीं है सिर्फ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [ जैनधर्म-मीमांसा तत्त्व को अर्थात् कल्याणमार्ग के लिये उपयोगी या आचरणीय बातों को जानना जरूरी है इसीलिये सम्यग्दर्शन में तत्त्व पर विश्वास करने पर जोर दिया जाता है । सम्यक्चारित्र का लक्षण है 'स्त्रपर कल्याण के अनुकूल आचरण'। कभी कभी वह आचरण प्रवृत्तिप्रधान होता है, कभी कभी निवृत्तिप्रधान । पर चारित्र का सम्बन्ध प्रवृत्ति निवृत्ति से नहीं है वह है कल्याण से । अगर किसी आचार से जगत् में सुखवृद्धि होती है या दुख कम होता है तो वह सम्यक् चारित्र है । अकषायता, आत्मशुद्धि, प्रेम आदि सब सम्यक चारित्र के रूप हैं। शंका-जैनाचार्योंने रागद्वेषकी निवृत्तिको सम्यक्चारित्र* कहा है । इतना ही नहीं, किन्तु चारित्र की पूर्णता के लिये वे यह भी आवश्यक समझते हैं कि मन वचन काय की क्रियाओं का पूर्ण विरोध होना चाहिये । परन्तु आपने जो चारित्र का लक्षण किया है, वह प्रवृत्तिरूप मालूम होता है। उत्तर--चारित्र के किसी एक रूप पर जोर डालना सामयिक आवश्यकता का फल है । जिस युग में जिस विषय में प्रवृत्तिमुख से पाप फैला होता है उस युग में उस विषय में निवृत्तिरूप में * बहिरमंतर-किरिया-रहो भवकारणप्पणासहं । णाणिरस जं जिणुतं तं परमं सम्मचारितं-द्रव्यसंग्रह । भवत्प्रहाणाय बहिरभ्यन्तरक्रिया-विनिवृत्तिःपरं सम्यक् चारित्रम बानिनो मतम् । त० लोकवत्र्तिक १-१-३ । संसार. कारणविनिवृत्तिम्प्रत्यागृर्णस्य ज्ञानवती बाह्याभ्यन्तराक्रियाविशेषोपरमः सम्यक् चारित्रम । त० राजवर्तिक १-५-३ । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यकचारित्र का रूप ] [ ३ चारित्र का वर्णन किया जाता है । और जब जहां निवृत्ति की ओट में जड़ता, अकर्मण्यता, हरामखोरी आदि दोष आजाते हैं तब वहां प्रवृत्तिमें चारित्र का वर्णन किया जाता है । मुख्य बात जगत्-कल्याण है, अनेकान्त दृष्टि दोनों का समन्वय करती है। रूप I जैनाचार्यों ने चारित्र की व्याख्या ऐसे ही व्यापक रूपमें की है । उनके अनुसार चारित्र का अर्थ है चलना । किसी ध्येय के लिये जब हम चलते हैं तब वह चारित्र कहलाता है । जब वह चना विश्वसुख के अनुरूप होता है तब वह सम्यक्चारित्र कह लाता है । जैनधर्म की जब स्थापना हुई तब निवृत्ति की आवश्यकता अधिक थी इसलिये निवृत्ति पर बहुत जोर दिया गया । दूसरी बात यह है कि जीवन स्वभाव से ही प्रवृत्तिमय है, वह अच्छे बुरे सब कामों में प्रवृत्ति करता रहता है अगर बुरे काम से निवृत्ति करदी जाय तो अच्छे काम में प्रवृत्ति सहज ही होती रहती हैं इसलिये निवृत्ति पर जोर दिया जाता है । चारित्र को बनाने में निवृत्ति का इतना बड़ा हाथ है कि चारित्र और संयम पर्यायवाची शब्द बन गये हैं, अन्यथा संयम तो चारित्र का एक पहलू है । बल्कि मूल अर्थ तो इनका कुछ विरोधी सा है | चारित्र का अर्थ चलना है संयम * का अर्थ रुकना है । प्रश्न -- चारित्र और संयम में जब इतना अन्तर है तब दोनों को एकरूप कहने का कारण क्या है ? उत्तर - संस्कृत में बिजली के विद्युत्, चपला आदि अनेक | चरति चर्यते अनेन चरणमात्रं वा चारित्रम - सर्वार्थसिद्धि १ - १ | * यम उमरमे ( to check to stop ) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] [ जैनधर्म-मीमांसा नाम हैं, परन्तु विद्युत् और चपला दोनों के अर्थ में बहुत अन्तर है। विद्युत का अर्थ है चमकनेवाली और चपला का अर्थ है चपलता वाली । फिर भी दोनों एक ही वस्तु के नाम कहे जाते हैं । इसका कारण यह है कि ये दोनों धर्म एक ही वस्तु में पाये जाने हैं। बिजली चपल भी है और चमकती भी है । चारित्र और संयम के विषय में भी यही बात है। सुख के लिये जो प्रयत्न किया जाता है वह एक दृष्टि से चारित्र है, दूसरी दृष्टि से संयम । अच्छी प्रवृत्तियाँ करने से वह चारित्र है, और बुरी प्रवृत्तियों को रोकने से संयम है । सम्यक्चारित्र के लक्षण में दोनों बातों का A उल्लेख होता है । एक तो अशुभ से निवृत्ति, दूसरी शुभ में प्रवृति । इस प्रकार अपेक्षा भेद से एक ही वस्तु के ये दो नाम हैं । अत्र इनमें कुछ भेद नहीं माना जाता। प्रश्न-यद्यपि जैनशास्त्रों में शुभ प्रवृत्ति को भी चारित्र कहा है; परन्तु जबतक थोड़ी भी प्रवृत्ति है, तबतक चारित्र की अपूर्णता ही मानी है, शुभ प्रवृत्ति को जहाँ चारित्र कहा है, वहाँ भी व्यवहार दृष्टि से कहा है । इससे मालूम होता है कि वह वास्तविक चारित्र नहीं है । वास्तविक चारित्र निवृत्तिरूप ही है । उत्तर-जीवन्मुक्त या अर्हन्त अवस्था तक जितना चारित्र है वह प्रवृत्तिरूप है । जैनधर्म कहता है कि तीर्थकर भी A असुद्र किरियाण चाओ सुहाम किरियासु जो य अपमाओ । तं चारित्त उत्तमगुणजुत्त पालह निरुतं । सिारास रिवाल कहा ३१ । अमहादो विणिवित्ती सुहे पविती य जाण चारित्तं । वदसामीदोत्तरूवं ववहारणया दु जिणभाणयं । दव्वसंगह। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यञ्चारित्र का रूप जीवन के अन्त तक प्रवृत्तिमय चारित्रवान् होते हैं। जीवन के अंतिम समय में कुछ क्षणों के लिये उनकी प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं । उस समय श्वास हृदय आदि की क्रियाएँ तक रुक जाती हैं । ऐसी अवस्था में दूसरी प्रवृत्ति तो हो ही कैसे सकती है ? योग निरोधरूप इस अवस्था में जो चारित्र की पूर्णता बतलाई गई है, उसका कारण यह है कि वह मोक्षमार्ग की पूर्णता है । जैसे--मार्ग को पूरा करने के लिये चलना आवश्यक है, किन्तु जबतक चलना है, तब तक मार्ग की पूर्णता नहीं कही जा सकती; उसी प्रकार कल्याण की प्राप्ति के लिये प्रवृत्ति आवश्यक है, परन्तु कल्याण की पूर्ण प्राप्ति हो जाने पर प्रवृत्ति को रुकना ही चाहिये । प्रत्येक प्रयत्न साध्य की सिद्धि हो जाने पर निश्चष्ट हो जाता है, तभी वह पूर्ण प्रयत्न कहलाता है । इसी प्रकार चारित्र भी जीवन के अन्तिम पलमें निश्चष्ट हो जाता है, और तभी वह पूर्ण कहलाता है। चरित्र की पूर्ण अवस्था में जो निश्चेष्टता पैदा होती है वह चारित्र के स्वरूप का नहीं है, किन्तु चारित्र की पूर्णता का फल है ।। प्रवृत्तिरूप चारित्र को जो कहीं कहीं व्यवहारचारित्र और निवृत्ति को निश्चय चारित्र कहा गया है उसका कारण वही है जो ऊपर निवृति की प्रधानता के विषय में कहा गया है । दूसरा कारण यह है कि व्यावहारिक रूप बदलता रहता है जैसा देशकाल वैसा उसका रूप । निवृत्ति अंश में प्रवृत्ति अंश की अपेक्षा परिवर्तनीयता कम है अथवा प्रवृत्ति की अपेक्षा ही निवृत्ति बदलती है इसलिये प्रवृत्ति के साथ व्यवहार का सम्बन्ध कुछ अधिक कहा जा सकता है। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६] [ जैनधर्म-मीमांसा लोकन चारित्र व्यवहार छोड़कर नहीं रह सकता । उसका मूल्य, उसका रूप व्यवहार पर अवलम्बित है । व्यवहार बदलता रहेगा पर रहेगा अवश्य । व्यवहारशून्य चारित्र का कोई अर्थ नहीं । इसलिये प्रवृत्तिहीन चारित्र का कोई मतलब नहैं। होता । स्थितिप्रज्ञ, अर्हन्, तीर्थकर, केवली, जीवन्मुक्त आदि शब्दों से जिनका उल्लेख किया जाता है, वे सब व्यवहार के भीतर ही हैं, इसलिये उन्हें व्यवहारचारित्र का अर्थात् प्रवृत्तिन्य चारित्र का पालन करना ही पड़त! है। जबतक प्रवृत्ति है अर्थात् मनस, बचनसे या शरीरसे थोड़ी भी क्रिया हो रही है, तबतक चारित्र प्रवृत्तिमय है । इस प्रकार जीवन के अन्तिम समय को छोड़कर शेष समग्र जीवन में चारित्र प्रवृत्तिमय रहता ही है। ___जबतक जीवन है, तभी तक चारित्र है, क्योंकि तभी तक प्रयत्न है । जीवन के अन्तिम समय में (चतुर्दश गुणस्थान में ) जो चारित्र या संयम कहा जाता है, उसका कारण यही है कि उस समय जीवन है, मन वचन काय को पूर्णरूप से रोक देने का भी प्रयत्न है । जिस समय जीवन नहीं रहता उस समय चारित्र नहीं माना जाता । यही कारण है कि मक्तात्माओं में संयम या चारित्र नहीं माना जाता । मुक्तात्माओं में सिद्धगति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और आनाहार को छोड़कर बाकी नव मार्गणाओं का अभाव माना गया है। उनमें संयममार्गणा भी एक है । मुक्तात्माओं में Aसिद्धाणं सिद्धगई केवलणाणं च दंसणं खइयं सम्मत्तमणाहारो उवजोगाणमकमपउत्ता । गुणजीवठाणरहिया सण्णापअत्तिपाणपरिहीणा । सेसणव मन्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति । गोम्मटसार जीवकांड ७३३ । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्चारित्र का रूप] [७ संयम या चारित्र का अभाव माना गया इसका कारण सिर्फ यही है कि वहां कोई प्रयत्न नहीं है। प्रश्न-दर्शन ज्ञान आदि के समान चारित्र भी एक गुण है। गुण का कभी नाश नहीं होता । यदि मुक्तात्माओं में चारित्र न माना जायगा तो इसका अर्थ होगा कि चारित्रगुण का नाश हो गया। परन्तु गुण का नाश नहीं होता, इसलिये वहां चारित्र मानना चाहिये ? उत्तर--एक आदी में इतनी शक्ति है कि अगर कोई उसे मांकल से जकड़ दे तो वह सांकल को तोड़ सकता है । परन्तु उस समय उभे कोई सांकल से नहीं जकड़ता, इसलिये वह सांकल नहीं तोड़ रहा है । तो क्या इसका यह अर्थ है कि उसमें सांकल तोड़ने की शक्ति नहीं है ? इसी प्रकार चारित्र का काम आत्माको मुग्व प्राप्त कराना है । आमा जब दुःख में हो तो मुख प्राप्त कराता है । अगर दुःख में न हो तो सुख प्राप्त कराने की जरूरत न होने से वह नहीं करता, इससे उसका अभाव नहीं हो जाता किन्तु शक्तिरूप में उसका सद्भाव रहता ही है । वैभाविकशक्ति योगशक्ति आदि अनेक शक्तियाँ आत्मा में मानी जाती हैं, परन्तु मुक्तावस्था में उनका उपयोग नहीं होता वे शक्तिरूप में रहती हैं । ज्योंही निमित्त मिले त्योंही वे अपना काम दिखलाने लगे । यही बात चारित्र के विषय में भी समझना चाहिये । इससे मालूम होता है कि चारित्र अभावरूप नहीं है वह प्रवृत्तिनिवृत्तिरूप एक प्रयत्न है । इसलिये उसे सद्भावरूप वर्णन करना चाहिये । यदि अभावरूप में कहा भी जाय तो जैनशास्त्रों के अनुसार अभाव भावान्तरस्वरूप है । इसलिये निवृत्तिरूप चारित्र भावान्तररूप या Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनर्धम-मीमांसा प्रवृत्तिरूप होना चाहिये । दूसरी बात यह कि चारित्र की परीक्षा निवृत्ति प्रवृत्ति की कसौटी पर कसकर न करना चाहिये । जो प्रवृत्ति सुखको प्राप्त करानेवाली हो और दुःख को दूर करनेवाली हो वह कितनी भी अधिक हो परन्तु वह चारित्र है; और जो निवृत्ति दुग्य दूर न करे या सुख न दे वह अचारित्र है । तीर्थकर के समान प्रवृत्तिशील कौन होगा ? परन्तु उनके समान समुन्नत चारित्र किसका है ? इसी प्रकार जो प्राणी जड़समान है (पृथ्वीकायिक आदि) या जो आलसी दीर्घसूत्री निद्रालु और कायर हैं, वे निवृत्तिपरायण हो करके भी चारित्रहीन हैं । इसलिये चारित्र, निवृत्ति प्रवृत्ति पर निर्भर नहीं है किन्तु सुखप्रापकता पर निर्भर है । यदि पूर्ण सुख की प्राप्ति के लिये पूर्ण निवृत्ति आवश्यक हो तो पूर्ण निवृत्ति भी चारित्र के अंतर्गत हो जायगी; परन्तु वह इसलिये नहीं कि वह निवृत्ति है किन्तु इसलिये कि वह सुखप्रापक है। ___ यह बात दूसरी है कि चारित्र के वर्णन के लिये कहीं निवृत्ति पर जोर दिया जाय, कहीं प्रवृत्ति पर जोर दिया जाय, परन्तु किसी एक पक्षको पकड़के रह जाना एकान्तवाद ही है । और एकान्तवाद तो जैनधर्म के विरुद्ध है; इसलिये चाहे निवत्तिरूप हो या प्रवृत्तिरूप हो, जो सुखी होने का सच्चा प्रयत्न, क्रिया चर्या आचरण है, वह सम्यक्चारित्र है । जैनशास्त्रों में अगर कहीं चारित्र के नाम पर निवृत्ति या प्रवृत्ति पर भार रखा गया हो तो समझना चाहिये कि वह शास्त्र रचना के समय के देशकालका प्रभाव है, या उस समय की आवश्यकता का फल है। वह सार्वकालिक और सार्वत्रिक स्वरूप नहीं है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्चारित्र का रूप ] [ ९ --प्रथम अध्याय में कल्याणमार्ग की मीमांसा की गई है और अधिकतम मनुष्यों के अधिकतम सुखवाली नीति का संशोधित रूप बतलाया गया है । वहाँ पर मुखकी प्राप्ति के लिये दो बातें आवश्यक बतलायीं गई हैं- (१) संसार में सुख की वृद्धि करना [काम] और (२) सुखी रहने की कला सीखना [ मोक्ष ] ! दुःख के जितने साधन दूर किये जा सकें उनको दूर करने का और सुख के जितने साधन जुटाये जा सकें उनको जुटाने का प्रयत्न करना तथा अवशिष्ट दुःख को समभाव से सहन करके अपने को सदा सुखी मानना, सुखका वास्तविक उपाय है । इस प्रयत्न का बहुभाग मानसिक भावना पर अवलम्बित है । दुःख के साधन दूर करने का और सुख के साधन जुटाने का कोई कितना भी प्रयत्न क्यों न करे, फिर भी कुछ त्रुटि रह जायगी जिसे संतोष से पूरा करना पड़ेगा । जितना कुछ मिलता है उसकी अपेक्षा न मिलने का क्षेत्र बहुत ज्यादा है, इसलिये संतोषादि से बहुत अधिक काम लेने की जरूरत है । इसलिये कहना चाहिये कि सुखका मार्ग आत्माकी भावना पर ही अधिक अवलम्बित है । ऊपर जो बातें बताई गई हैं उनमें दूसरी बात ( सुखी रहने की कला ) तो परिणामों पर ही निर्भर है और पहिली बात का भी साक्षात् सम्बन्ध परिणामों से है । क्योंकि दुःख क्या है ? एक तरह का परिणाम ही है । प्रतिकूल साधनों के रहने पर भी अगर हम बेचैनी को पैदा नहीं होने दें तो हमें दुःख न होगा । प्रतिकूल साधन बेचैनी पैदा करते हैं इसलिये उनको दूर करने का उपाय सोचा जाता है । अगर हम उन पर विजय प्राप्त कर सकें तो Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० [ जैनधर्म मीमांसा दुःख से बच सकते हैं । मतलब यह है कि अपने परिणामों के ऊपर ही अधिकतर दुःख-सुख अवलम्बित है, इसलिये कल्याण मार्ग में परिणामों का बड़ा भारी महत्व है । अपने भावों पर असर डाले बिना कोई भी दुःख-सुख नहीं होता इसलिये कहना चाहिये कि दुःख-सुख का सीधा सम्बन्ध परिणामोंसे-भावोंसे--है। दूसरे के लिये जब हम कुछ काम करते हैं, तब भी परिणामों का विचार किया जाता है । इसके चार कारण हैं १-हमारी जैसी इच्छा होती है, हम वैसा ही प्रयत्न करते हैं। जैसा प्रयत्न किया जाता है, वैसा ही फल होता है-यह साधारण नियम है। कभी कभी प्रयत्न से विपरीत भी फल होता है, परन्तु यह कादाचित्क है । अधिक सुख के लिये हमें उसी नीति से काम लेना पड़ेगा जो अधिक स्थलों में फलप्रद हो। २--मनुष्य अच्छे काम के लिये अच्छी भावना की ही जिम्मेदारी ले सकता है, न कि अच्छे फल की । डॉक्टर ईमानदारी से काम करने की ही जिम्मेदारी ले सकता है । वह रोगी को बचा ही लेगा, यह नहीं कहा जा सकता । अच्छी भावनापूर्वक प्रयत्न करने पर भी अगर कोई मर जाय, इस पर अगर डॉक्टर को खूनी कहा जाय तो कोई भी मनुष्य किसी को सहायता न देगा। ३.भावना के साथ सुख-दुःख का साक्षात्संबन्ध है। चोरी करते समय जो भय उद्वेग आदि पैदा होते हैं, वे चोरी की भावना पर ही निर्भर हैं । भूल से अगर हम किसी की चीज़ उठा लें तो हमें चोर की संक्लेशताका कष्ट न उठाना पड़ेगा । इस प्रकार आत्मा की मलिनता दुर्भावना पर निर्भर है । आत्मा के साथ जो कर्म बँधते Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यकचारित्र का रूप] हैं उनके ऊपर हमारे परिणामों का ही अच्छा या बुरा प्रभाव प.. सकता है, न कि बाहिरी कार्यों का। ४-दूसरे के अभिप्रायों का हमारे ऊपर प्रभाव अधिक पड़ता है। एक बालक को प्रेमपूर्वक बहुत जोर से थपथपाने पर भी वह प्रसन्न होता है, परन्तु क्रोध के साथ उंगली का स्पर्श भी वह सहन नहीं करता । यदि हमारे विषय में किसी के अच्छे भाव होते हैं, तो हम प्रसन्न होते हैं और बुरे भाव होते हैं तो अप्रसन्न होते हैं इसलिये हमको भावना की शुद्धि करना चाहिये। प्रश्न-यदि भावशुद्धि के ऊपर ही कर्तव्याकर्तव्य, चारित्रअचारित्र का निर्णय करना है तो 'सार्वत्रिक और सार्वकालिक अधिकतम प्राणियों का अधिकतम सुख देने वाली नीति' को कर्तव्य की कसौटी क्यों बताया ? भावना को ही कसौटी बनाना चाहिये । उत्तर-भावना की मुख्यता होने पर भी कर्तव्याकर्तव्य का निर्णय करने के लिये किसी कसौटी की आवश्यकता बनी ही रहती है । उदाहरण के लिये, कुरुक्षेत्र में अर्जुन की भावना शुद्ध होने पर भी वह यह नहीं समझ सकता था कि इस समय मेरा कर्तव्य क्या है ? भावना की बड़ी भारी उपयोगिता यही है कि उपर्युक्त नीति का ठीक ठीक पालन हो। हाथ पैर आदि सभी अंग ठीक ठीक काम करें, इसके लिये प्राण की आवश्यकता है। अकेले प्राण कुछ नहीं कर सकते, साथ ही प्राणहीन शरीर भी व्यर्थ है । इसी प्रकार उपयुक्त कसौटी न हो तो भावशुद्धि होने पर भी चारित्र का पालन नहीं हो सकता; और भावशुद्धि न होने पर उपयुक्त नीति का पालन मी असंभव है । इसलिये भावपूर्वक उपर्युक्त नीति Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] का पालन करना चारित्र है । 1 इस चारित्रधर्म का पालन करने के लिये अनेक नियमोपनियम बनाये जाते हैं । परन्तु उन नियमों को चारित्र न समझना चाहिये । वे सिर्फ चारित्र के उपाय हैं । उनको उपचार से चारित्र कह सकते हैं । परन्तु जब वे वास्तविक चारित्र को उत्पन्न करें तभी उन्हें उपचार से चारित्र कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं । एक नियम किसी परिस्थिति में चारित्र का कार्य या चारित्र का कारण कहा जा सकता है । वही नियम अवस्था के बदलने पर अचारित्र या असंयम कहा जा सकता है । प्रत्येक नियम और उसके कार्य के विषय में हमें इसी तरह अपेक्षा भेद से विचार करना चाहिये । उदाहरणार्थ, किसी को मार डालना पाप है; परन्तु न्याय की रक्षा के लिये निस्वार्थता समभाव से खूनी को मृत्युदंड देना पाप नहीं है, क्योंकि प्राणियों की सुखरक्षा के लिये ऐसा करना आवश्यक है । - [ जैनधर्म-मीमांसा - . इस प्रकार जीवन में ऐसे सैंकड़ों प्रसंग आते हैं जब सामान्य नियमों का भंग करना धर्म के लिये ही आवश्यक मालूम होता है 1 जब ऐसे अवसर कुछ अधिक संख्या में आते हैं, तब हम उन्हें अपवाद नियम बनाते हैं । इस प्रकार उत्सर्ग और अपवाद विधियों का भेद खड़ा हो जाता है । परन्तु जीवन इतना जटिल है और उसमें अनेक बार ऐसे प्रसंग आते हैं कि प्रचलित अपवाद नियम भी कुछ काम नहीं दे सकते । उस समय नियमों की पर्वाह न करके हमें चारित्र की रक्षा करना पड़ती है । इसलिये कहना पड़ता है कि पूर्ण संयमी के लिये नियमों की कोई आवश्यकता नहीं है । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्चारित्र का रूप] संयम या चरित्रा में जितनी अपूर्णता है उतने ही अधिक नियमों के बंधन रखना पड़ते हैं। हाँ, यह बात अवश्य है कि अपवाद अनुकरणीय नहीं होते । अपवाद प्रत्येक प्राणी की योग्यता और उसकी परिस्थिति के अनुसार होते हैं । मतलब यह है कि कोई कार्य चाहे वह नियम के अन्दर हो या नियम के बाहर हो, अगर उससे कल्याण की वृद्धि होती है तो वह चारित्र है अन्यथा अचारित्र है । किसी कार्य को नियमों की कसौटी पर कसकर उस की जाँच नहीं करना चाहिये, किन्तु कल्याणकारकता की कसौटी पर कसकर उसकी जाँच करना चाहिये । धर्माधर्म की परीक्षा का यही सर्वोत्तम उपाय है। इसका यह मतलब नहीं है कि नियम बेजरूरी हैं । साधक अवस्था में नियमों की जरूरत अवश्य है। परन्तु जब मनुष्य संयमनिष्ठ हो जाता है तब वह नियमों के पालन करने की चेष्टा नहीं करता, किन्तु कल्याणकारकता को कसौटी बनाकर उसी के अनुसार कार्य करता है। उस प्रकार कार्य करने से नियमों का पालन आप से आप हो जाता है। यदि कभी नहीं होता तो भी इससे चारित्र में कुछ त्रुटि नहीं होती बल्कि कभी कभी वह नियम ही संशोधन के योग्य हो जाता है | नियम आवश्यक होने पर भी जो मैं यहां उनपर जोर नहीं दे रहा हूं, इसका कारण यह है कि नियमों को सार्वकालिक या सार्वत्रिक रूप नहीं दिया जा सकता। उनको परिस्थिति के अनुसार बदलने की आवश्यकता होती है। दूसरी बात यह है कि असंयमी भी संयम के नियमों का अच्छी तरह पालन करते हैं, Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] [जैनधर्म-मीमांसा किन्तु नियमोंके भीतर रहते हुए भी पाप करते हैं। तीसरी बात यह है कि नियम तो भय और लालच से भी पाले जाते हैं, परन्तु इस से आत्मशुद्धि नहीं होती और न इससे स्वपरकल्याण की वृद्धि होती है । भय और लालच के कारण दूर होने पर वह मनुष्य कल्याण का नाश करने लगता है । इसलिये ऐसे आदमी पर विश्वास नहीं रक्खा जा सकता | अगर भूल से विश्वास कर लिया जाता है तो ठीक मौके पर धोखा खाना पड़ता है । इस प्रकार वह गोमुखव्याघ्र की तरह व्याघ्र से भी अधिक भयंकर सिद्ध होता है । नियम का गुलाम यह नहीं देखता कि इस कार्य से स्वपर कल्याण होता है कि नहीं; वह तो मनमानी स्वार्थसिद्धि करने के लिये दूसरों की बड़ी से बड़ी हानि करते हुए भी यही देखेगा कि मैं नियम भंग के अपराध में तो नहीं पकड़ा जाता । बस, इतने से ही वह संतुष्ट हो जाता है । परन्तु इस प्रकार की आत्मवञ्चना कल्याण की वृद्धि नहीं कर सकती । इसलिये नियमों पर जोर न देकर कल्याणकारकता पर जोर दिया जाता है । फिर भी चारित्र के प्रतिपादन में नियमों का बड़ाभारी स्थान है | चारित्र के प्रतिपादन के लिये हमें उसका कोई न कोई रूप तो बतलाना ही पड़ता है; और वह रूप नियम ही है । हम जिस द्रव्यक्षेत्र कालभाव में हैं, उसके अनुसार चारित्र का रूप बनता हैं । योग्यतानुसार मनुष्य में जो श्रेणी-विभाग होता है, उसके अनुसार चारित्र में भी श्रेणी विभाग होता है । मद्दाव्रत, अणुव्रत तथा ग्यारह प्रतिमाएँ इसी श्रेणीविभाग का फल हैं । इस प्रकार चारित्र का विवेचन अनेक प्रकार के विधिविधानों का Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक्चारित्र का रूप [ १५ समूह हो जाता है । उसकी निर्दोषता के लिये हमें स्याद्वाद का उपयोग करना चाहिये। वस्तु के पूर्णस्वरूप को हम कह नहीं सकते, इसलिये उसके किसी एक अंशका निरूपण करते हैं। यहां पर स्याद्वाद का कर्तव्य यही है कि वह नय की सहायता से बतावे कि वस्तु अमुक अपेक्षा से अमुकरूप है । दूसरी अपेक्षाओं से वस्तु कैसी है, इस विषय में वह मौन रखता है अथवा साधारण संकेत करता है। इसी प्रकार चारित्र का प्रतिपादन करते समय हमें यही कहना चाहिये कि अमुक द्रव्य क्षेत्र काल भावमें अमुक विधि कल्याणकारी है । द्रव्यक्षेत्रकालभाव के परिवर्तन होने पर उस विधिमें परिवर्तन भी किया जा सकेगा । इस प्रकार चारित्र के लिये कोई न कोई विधि-नियम-कर्तव्य तो रहेगा ही, परन्तु सदा सर्वत्र अमुक ही रहना चाहिये, ऐसा बन्धन न रहेगा। इस प्रकार विधिविधानों के निर्णय होजाने पर भी पूरा काम न हो जायगा । उनके पालन करने का ढंग भी देखना पड़ेगा । जैनाचार्यों ने इस विषय में बहुत सतर्कता रक्खी है । व्रत के लिये उनकी यह शर्त है कि जो निःशल्य A हो वही व्रती है । जिस प्रकार गाय होनेपर अगर उससे दूध न निकले तो उसका होना व्यर्थ है, उसी प्रकार जो निःशल्य नहीं है, उसका व्रत व्यर्थ है। शल्यवाला व्रत रखने पर भी व्रती नहीं कहला सकता। शल्ये तीन हैं-माया, मिथ्यात्व और निदान । तीन में से एक भी शल्य हो तो कोई व्रती नहीं हो सकता । जहां व्रत में माया A निःशल्यो व्रती Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] [ जैनधर्म-मीमांसा चार है, वहां व्रत, व्रत नहीं है । जगत् का कल्याण करना उसका लक्ष्य नहीं होता, किन्तु 'हम कल्याण करनेवाले हैं' इस प्रकार का झूठा प्रदर्शन करके दुनिया को धोखा देने की भावना होती है। परन्तु ऐसा व्यक्ति जगत् में कल्याण की वृद्धि नहीं कर सकता । मिध्यात्वी भी व्रती नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें वह विवेक द्दी नहीं है जिससे कल्याण की वृद्धि होती है । वह देखा देखी ज्यों त्यों बाह्य आचरण करता है । कल्याण के साथ इसका क्या सम्बन्ध है, यह बात वह नहीं समझता । इसलिये वह रूढ़ि का ही पालन कर सकता है, किन्तु व्रती नहीं बन सकता । रूढ़ि के विरूद्ध जाने से अगर कल्याण होता है तो वह कल्याण काही विरोध करने लगेगा | इस प्रकार न तो वह ठीक मार्ग पकड़ सकता है, न उससे उचित लाभ उठा सकता है । किसी व्रत को कर्तव्यदृष्टि से न करके स्वार्थ दृष्टि से करना निदान शल्य है । ऐसा मनुष्य भी व्रती नहीं है । क्योंकि ऐसा मनुष्य जगत् में कल्याणवृद्धि करना नहीं चाहता, जैसा कि प्रथम अध्याय में बताया गया है । व्रत को तो उसने स्वार्थसिद्धि का साधन बनाया है । जिस उद्देश्य से चारित्र की आवश्यकता बतायी गई है, उसकी इसको जरा भी पर्वाह नहीं है, इसलिये यह अनती है । इस प्रकार तीन शल्यों का विवेचन करके नियमों के दुरुपयोगको रोकने का सुन्दर प्रयत्न किया गया है । फिर भी कौनसा नियम किस अवस्था में कितना उपयोगी है, उसके अपवाद कब कैसे होते हैं, उनको किस अपेक्षा से कितने भागों में विभक्त करना चाहिये, कब किस पर कितना जोर डालना चाहिये, पुराने नियम Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ]. [ १७ आज के लिये कितने उपयोगी हैं, और उनमें क्या क्या परिवर्तन आवश्यक है, इत्यादि विवेचन चारित्र को समझने के लिये आवश्यक हैं । इस अध्याय में उन्हीं का वर्णन किया जायगा । जैनशास्त्रों में तथा जैनेतरशास्त्रों में भी चारित्र या संयम पाँच भागों में विभक्त किया गया है--अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह | बाकी जितने विधिविधान हैं वे सब इनके अन्तर्गत हैं या इनके साधक हैं । इन पाँच व्रतों में भी कोई कोई एक दूसरे के भीतर आ जाते हैं । इसका खुलासा आगे किया जायगा । यहां पर इन पाँचों के स्वरूप पर अलग अलग विवेचन किया जाता है। / अहिंसा व्यापकता, उच्चता और अग्रजता की दृष्टि से चारित्र में प्रथम स्थान अहिंसा को प्राप्त है । जब पापों में हिंसा प्रधान और व्यापक है, तब धर्म में अहिंसा प्रधान और व्यापक हो तो इसमें क्या आश्चर्य है ? यही कारण है कि, अहिंसा परम धर्म है' यह वाक्य प्रायः सभी धर्मों में माना गया है। जो प्राणी इतना अविकसित है कि वह अर्थ संचय की उपयोगिता नहीं समझता, इसलिये चोरी भी नहीं जानता, जिसमें काम क्रिया ही नहीं है, अथवा वह इच्छापूर्वक नहीं होती, जिसमें बोलने की शक्ति नहीं है अथवा है तो उसकी भाषा अनुभय ( न सत्य, न असत्य ) है, इस प्रकार चार पापों के करने की जिसमें योग्यता नहीं है, वह भी हिंसा अवश्य करता है । हिंसाका क्षेत्र ऐसा ही व्यापक है । इसी प्रकार चारित्र में अहिंसा का क्षेत्र Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] । जैनधर्म-मीमांसा व्यापक है। सबसे पहिले प्राणी जीवित रहना चाहता है, इसलिये अहिंसा की आवश्यकता सबसे पहिले हुई । सबसे पहिले जब कभी धर्म की उत्पत्ति हुई होगी, तब उसका रूप यही रहा होगा कि 'मतमारो !' धीरे धीरे इसकी सूक्ष्म व्याख्या होने लगी। प्राणी मरने से डरता है, इसका कारण यही है कि मरने में उसे कष्ट होता है । इसलिये 'मतमारो' इसका अर्थ यही हुआ कि किसी को कष्ट मत दो। इस प्रकार किसी भी प्रकारका कष्ट देना हिंसा और कष्ट न देना या कष्ट से बचाना अहिंसा कहलाने लगा। परन्तु ऐसे भी बहुत से कार्य होते हैं जिनमें पहिले कष्ट और पीछे आनन्द होता है तथा कभी कभी सुख के लिये कोई प्रयत्न किया जाता है और बहुत सतर्कता से किया जाता है, फिर भी उसका फल अच्छा नहीं होता । ऐसी अवस्था में अगर उसके बाह्य फलपर दृष्टि रखकर किसी को अपराधी माने और निर्णय करें तो कोई अच्छा प्रयत्न ही न करेगा । इन सब कारणों से हिंसा. अहिंसा बाह्य क्रिया न रह गई किन्तु वह हमारे भावों पर अवलम्बित हो गई । इसीलिये जैनशास्त्र कहते हैं कि यह सम्भव है कि कोई किसी को मार डाले फिर भी उसे । हिंसाका पाप न लगे * । कोई जीव मरे या न मरे, परन्तु जो मनुष्य प्राणिरक्षा का ठीक ठीक प्रयत्न नहीं करता, वह हिंसक है। और प्राणिरक्षा का उचित प्रयत्न करने पर केवल प्राणिवध से कोई * वियोजयति चामुभिर्न वधेन संयुज्यते । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ १९ हिंसक नहीं कहलाता 1 ____ अमृतचन्द्रसरिने पुरुषार्थसिद्धयुपाय में इसका और भी सुन्दर विवेचन किया है। वे कहते हैं---- एक मनुष्य हिंसा [प्राणिवध] न करके भी हिंसक हो जाता है अर्थात् हिंसा का फल प्राप्त करता है । दूसरा मनुष्य हिंसा [प्राणिवध । करके भी हिंसक नहीं होता । एक की थोड़ी सी हिंसा भी बहुत फल देती है और एक की बड़ी भारी हिंसा भी थोड़ा फल देती है। किसी की हिंसा, हिंसा का फल देती है और किसी की वही हिंसा अहिंसा का फल देती है। किसी की अहिंसा हिंसा का फल देती है और किसी की हिंसा अहिंसा का फल देती है । हिंस्य (जिसकी हिंसा की जाय) क्या है ? हिंसक कौन है ? हिंसा क्या है ? और हिंसा का फल क्या है ! इन बातों पर अच्छी तरह विचार करके हिंसा का त्याग करना चाहिये । A * मरदुव जियदुव जावो अयदाचारस्स णिच्छिदाहिंसा ! पयदस्स णन्थिबंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स । A अविधायापि हि हिंसा हिंसाफल माजनं भवत्येकः । कृत्वापरो हिंसा हिंसाफलभाजनं न स्यात् ।। एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् । अस्वस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके । कस्यापि दिशति हिंसा हिंसाफलमेकमेव फल काले । अस्वस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसा फलं विपुलम् ।। हिंसा फलमपरस्य तु ददास्यहिंसा तु परिणामे । इतरस्य पुनहिंसा दिशत्यहिंसा नान्यत् ॥ अवबुध्य हिंस्यहिंसक हिंसा हिंसाफलानि तत्त्वेन । नित्यमवगृहमानः निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] [ जैनधर्म-मीमांसा इस प्रकार अहिंसा बहुरूपिणी है, इसलिये उसे प्राप्त करना, उसकी परीक्षा करना कठिन है । किसी के द्वारा केवल प्राणिवधको देखकर यह कह देना कि वह हिंसक है, ठीक नहीं है । संसार में सब जगह इतने प्राणी भरे हुए हैं कि उनकी हिंसा किये बिना हम एक क्षणभर भी जीवित नहीं रह सकते । तब पूर्ण अहिंसाका पालन कैसे किया जा सकता है ? जैनियोंकी अहिंसाका जो मज़ाक उड़ाते हैं, वे भी यही दुहाई दिया करते हैं कि श्वास लेने में भी जीव मरते हैं, फिर तुम पूर्ण अहिंसक बननेका पागलपन क्यों करते हो ? इसका उचित उत्तर पं. आशाधरजीने दिया है यदि बन्ध और मोक्ष भावोंके ऊपर अवलम्बित न होते तो कहाँ रहकर प्राणी मोक्ष प्राप्त A करता ? भट्टाकलंकदेवने भी तत्त्वार्थराजवार्तिक में इस प्रश्नको उठाया है कि-- 'जलमें जन्तु हैं, स्थलमें जन्तु हैं, आकाशमें जन्तु हैं, इस प्रकार सारा लोक जन्तुओं से भरा हुआ है तब कोई मुनि अहिंसक कैसे हो सकता है ?' इसका उत्तर यों दिया गया है-- सूक्ष्म जीव (जो अदृश्य होते हैं और इतने सूक्ष्म होते हैं कि न तो वे किसी से रुकते हैं, न किसी को रोकते हैं ) तो पीड़ित नहीं किये जा सकते, और स्थूल जीवों (बहुतसे स्थूल जीव अदृश्य भी होते हैं ) में जिनकी रक्षा की जा सकती है, उनकी रक्षा की A विष्वग्जीव चितेलोके क्वचरन् कोप्पमोक्ष्यत । भावैकसाधनौ बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यताम् । जलेजंतुः स्थले जंतुराकाशे जंतुरखेच । जतुमाला कुले लोके कमिक्षुरहिंसकः । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ २१ जाती है; इसलिये जो मनुष्य हिंसाको बचाने में प्रयत्नशील है, वह हिंसक कैसे हो सकता है ? केवल जैनशास्त्रों में ही इस सूक्ष्म हिंसाका विचार नहीं किया गया है, किन्तु महाभारत में भी यह प्रश्न उठा है ! वहाँ अर्जुन कहते हैं: इस जगत् तें ऐसे ऐसे सूक्ष्म जीव हैं जो कि आँखोंसे तो हा दिखाई देते किन्तु तर्क से सिद्ध हैं - वे जवि पलक हिलानेसे भी मर जाते हैं। इस प्रश्न के समाधान में वहाँ भी ' द्रव्यहिंसा से ही हिंसा नहीं होती' इत्यादि कथन किया गया है । इस वक्तव्यका सार यही है कि प्राणिवध देखकर ही किसी को हिंसक न कहना चाहिये | परन्तु इसके साथ ही प्रश्न यह होता है कि 'तत्र हिंसक किसे कहना चाहिये ? वास्तव में हिंसा क्या है, जिसका मनुष्य त्याग करे ? ' इस प्रश्न के उत्तर के लिये भी हमें इसी बात पर विचार करना चाहिये कि वास्तव में हमें धर्मकी - चारित्रकी - अहिंसाकीजरूरत क्यों हुई ? यह पहिले कहा जा चुका है कि कल्याण के लिये - सुख के लिये - इनकी जरूरत है । बस यही इसका उत्तर # हैं कि प्रथम अध्याय में बताये हुए कल्याणमार्ग के अनुसार कल्याण सूक्ष्मा न प्रतिपीड्यन्ते प्राणिनः स्थूलमृर्त्तयः । ये शक्यास्ते विवर्ण्यन्तेका हिंसा संयतात्मनः । सूक्ष्मयोनीनि भूतानि तर्कगम्यानिकानिचित् । पक्ष्यणोऽपिनिपातेन येषाम् स्यात्स्कन्धपर्ययः ! महाभारत शान्तिपर्व १५-२६ । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] [ जैनधर्म-मीमांसा के लिये जो कार्य किया जाय, वह अहिंसा है; उसके विरुद्ध हिंसा है । इसलिये प्राणिवध करते हुए भी प्राणी अहिंसक है और स्वार्थवश, कायरतावश अत्याचारी की रक्षा करना भी हिंसा है । हिंसा-अहिंसा और पाप-पुण्य की परीक्षा हमें इसी कसौटी पर करना उचित है । इतने पर भी हिंसा, अहिंसा को जटिलता बनी ही रहती है । जबतक जीवन है तबतक उससे हिंसा होगी ही, इसलिये कहाँ तक की हिंसा को क्षन्तव्य कहा जाय और वह कौनसी मर्यादा बाँधी जाय कि जिसके बाहर जाने से हम हिंसक कहलाने लगें ? यह एक ऐसा प्रश्न है कि दुनिया के सम्प्रदायों को चक्कर डाल दिया है । एक सम्प्रदाय शिकार और युद्ध [ दिग्विजय ] को भी धर्म कहता है और दूसरा, श्वास लेने से भी जीव हिंसा होती इसलिये उससे बचने के लिये मुँह पर कपड़े की पड्डी बँधवाता है ! मज़ा यह कि ये दोनों ही अहिंसाको परमधर्म मानते हैं । फिर भी ये दोनों हिंसाको रोक नहीं सकते, क्योंकि कपड़े की पट्टी बाँधने पर भी हिंसा बिलकुल दूर नहीं हो जाती । इस प्रकार यदि अहिंसा का पालन असंभव कहकर छोड़ दिया जाय तो धर्म ही उठ जायगा, फिर उसका कोई पालन क्यों करेगा ? इसलिये स्पष्ट या अस्पष्ट शब्दों में सभी धर्मोंने यह अपवाद बनाया कि जीवन निर्वाह के लिये जो क्रियाएँ अनिवार्य हैं उनके द्वारा प्राणिहिंसा हो तो उसे हिंसा न मानी जाय । इसलिये स्वासोच्छ्वास आदि में होनेवाली हिंसा, हिंसा [ अधर्म ] नहीं Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ २३ कही जा सकती। परन्तु इस अपवाद को स्वीकार करके भी सब समस्याएँ पूरी न हुई; साथ ही इस अपवाद के पालन में भी नाना मत हो गये। उदाहरणार्थ __शरीर में कीड़े पड़ गये हैं या कोई बीमारी हो गई है, उसकी चिकित्सा करना चाहिये कि न करना चाहिये ! पूर्व में और पश्चिम में ऐसे लोग हुए हैं जो चिकित्सा करना ठीक नहीं समझते थे । सुकरात के भी 'पहिले यूनान में जेनो' [zeno] नामका एक तार्किक था, उसके अनुयायी शरीर में कीड़े पड़ जाने पर भी उनका हटाना अच्छा नहीं समझते थे, बल्कि कारणवश कोई कीड़ा गिर पड़ता था तो वे उसे फिर उसी जगह (अपने शरीर पर) उठाकर रख देते थे जिससे वह भूखी न मर जाय । जैनशास्त्रों में इतने तो नहीं, परन्तु इसी ढंगके कुछ चरित्र चित्रण मिलते हैं जिनमें चिकित्सा न कराना बहुत प्रशंसा की बात कही गई है । सम्भवतः ऐसे लोगोंकी तरफ़ से यह तर्क भी किया जा सकता है कि “रोगकी चिकित्सा की जायगी तो रोगके कीटाणु अवश्य मरेंगे । हम नीरोगी रहकर अधिक दिन जीवित रहें इसकी अपेक्षा रोगी रहकर थोड़े दिन जीवित रहें तो क्या हानि है ? चिकित्सा कुछ श्वासोच्छ्वासकी तरह जीवन के लिये अनिवार्य नहीं है । इत्यादि । सिर्फ यही एक प्रश्न नहीं है, किन्तु और भी अनेक प्रश्न हैं, जैसे-एक आदमी श्रीमान् है, फिर भी वह पैसेके लिये खून तक कराता है, परस्त्री हरण करता है, इसी नीच वृत्तिसे प्रेरित Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] [जैनधर्म-मीमांसा होकर वह हमारे ऊपर या हमारी पत्नी या बहिन के ऊपर आक्रमण करता है उस समय उसका विरोध करना और विरोध करने में उसका वध करना अनिवार्य हो तो उसका वह वध करे या न करे ? यदि वह अत्याचारी हमारा धन ले जाय या पत्नी या बहिन पर अत्याचार कर जाय तो भी हम सब जीवित तो रहेंगे इसलिये इसलिये स्वासोच्छ्वास के समान उसका विरोध करना अनिवार्य तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह भी ठीक है कि यदि उसका वध न किया जाय तो वह पाप की सफलता से उन्मत्त होकर सेकडें । जीवनों को बर्बाद करेगा । मतलब यह कि ऐसे बहुत से कार्य हैं, जिनको हमें जगत्कल्याणकी दृष्टि से करना चाहिये, भले ही वे स्वासोच्छवास के समान अनिवार्य न हों इसलिये यह प्रश्न फिर खड़ा हो जाता है कि जो कार्य अनिवार्य नहीं हैं, उन कार्यों में से किसको उचित और किसको अनुचित कहा जाय ? यदि यह कहा जाय कि स्वासोच्छ्वास आदि ही नहीं किन्तु जिस किसी हिंसा की हमें आवश्यकता हो वह सब हिंसा विधेय है, अगर उसके बिना हमारी प्राणरक्षा न हो सकती हो; परन्तु इस नियम के अनुसार घर से घोर हिंसक भी अहिंसक सिद्ध किया जा सकेगा। सिंहादिक हिंसक पशु अपने जीवन की रक्षा के लिये ही गाय आदि पशुओं की हिंसा करते हैं, इसलिये वे भी अहिंसक ही कहलाये । इतना ही नहीं, दुर्भिक्ष आदि के समय भी खाने को न रहे तो ऐसी हालत में उसे दूसरे प्राणी को ही यदि मनुष्य के पास कुछ नहीं किन्तु मनुष्य को भी खा जाने का हक प्राप्त हो जायगा । てつ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [२५ दुर्भिक्ष आदि के समय ऐसी घटनाएँ हो जाया करती हैं । इस प्रकार अहिंसा के विषय में यह एक महान् प्रश्न खड़ा होता है कि कितनी हिंसा को हिंसा न कहा जाय ? इस बातको समझने के लिये यहां कुछ नियम बनाये जाते हैं। ?--बिना किसी विशेष प्रयत्न के जो क्रियाएँ शरीर से होती रहती हैं, उनके द्वारा होनेवाली हिंसा, हिंसा नहीं है । जैसे--श्वासोच्छ्वास आदि में होनेवाली हिंसा । २--शरीर को स्थिर रखने के लिये आहार और पान आवश्यक है। इनकी सामग्री जुटाने में जो हिंसा अनिवार्य हो, वह भी हिंसा नहीं है । परन्तु इस विषय में आगामी तीसरे और सातवें नियमों का खयाल रखना चाहिये ।। ३--अपने निर्वाह के लिये किसी ऐसे प्राणी का वध न होना चाहिये जिसकी चैत्यन्य की मात्रा करीब करीब अपने समान हो । ४--अपने से हीन चैतन्यवाले प्राणी की हिंसा भी निरर्थक न होना चाहिये । ५.-सक्ष्म प्राणियों की हिंसा रोकने के लिये ऐसा प्रयत्न न करना चाहिये जिससे दूसरे ढंग से वैसी ही हिंसा होने लगे; साथ ही प्रमाद वगैरह की वृद्धि हो । ६--जीवन के विकास के लिये या परोपकार के लिये अगर सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा करना पड़े तो भी वह क्षन्तव्य है। ७-दो प्राणियों में जहाँ मौत का चुनाव करता है वहां उसकी रक्षा करना चाहिये जो परोपकारी हो। अगर इस ष्टि से निर्णय न हो सके तो जिससे भविष्य में परोपकार की आशी हो । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ } [ जैनधर्म-मीमांसा ८--अत्याचारी के अनिवार्य क्ध करने में भी हिंसाका पाप नहीं है । शर्त यह है कि वह अत्याचार को रोकने के लिये किया जाय । ९.-यदि जीवित रहने की अपेक्षा मरने में कल्याण की मात्रा अधिक हो तो यथायोग्य साम्यभाव से जीवन का त्याग करना या कराना हिंसा नहीं है। ___ उदाहरणपूर्वक विवेचन किये बिना इनका स्पष्टीकरण न होगा इसलिये इन नौ सूत्रोंका यहाँ क्रम से भाप्य किया जाता है । १--श्वासोच्छ्वास, पलक बन्द करना, निद्रा में हाथ-पाँव आदि का चल जाना, अंग अकड़ न जाय इसलिये अंग संचालन आदि में होनेवाली हिंसा, हिंसा नहीं है । प्रश्न-यदि जीवित रहने में हिंसा अनिवार्य है तो प्राण त्याग कर देना क्या बुरा हैं ? एक की मौत होने पर अनन्त जीवों की रक्षा होगी । जिससे सुखवृद्धि हो, वही तो धर्म है । एक के मरने पर अनन्त जीवों की रक्षा होन से संसार में एक का दुःख और अनन्त का सुख बढ़ता है, इसलिये यही धर्म कहलाया । उत्तर---अगर सब जीवों का सुख बराबर होता तब यह बात उचित कही जा सकती थी। परन्तु जिसके आत्मगुण (चैतन्य) जितने विकसित होते हैं उसमें सुख की शक्ति भी उतनी अधिक होती है । पृथ्वी आदि की अपेक्षा वनस्पति में चैतन्य की मात्रा असंख्यगुणी है । उसमें भी साधारण वनस्पति की अपेक्षा प्रत्येक वनस्पति में असंख्यगुणी है । उससे असंख्यगुणी जोंक आदि में है। उससे असंख्यगुणी तेइन्द्रिय चिउँटी आदि में । उससे असंख्य Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा [२७ गुणी भ्रमर वगैरह में । उससे असंख्यगुणी असंज्ञी पंचेन्द्रिय में । उससे असंख्यगुणी संज्ञी पंचेन्द्रिय में । उससे भी संख्यगुणी मनुष्य में । उसमें भी असंयमी की अपेक्षा संयमी में संख्यगुणी है । यहाँ संयमी स मतलब वेषधारी बाबा लोगों से नहीं है, किन्तु भावसंयमियों से है। इसलिये मनुष्य को जीवित रहने के लिये अगर स्थावर प्राणियों का तथा कृमि आदि त्रस प्राणियों का वध करना अनिवार्य हो तोभी कर सकता है । क्योंकि ऐसा करने पर भी सुख का पलड़ा भारी ही रहेगा। इसीलिये इसे हिंसा नहीं कह सकते। २-शरीर की स्थिरता के लिये आहार--पान की हिंसा भी हिंसा नहीं है । शरीर में स्थित जो कमि आदि हैं उनका विनाश तो हिंसा है ही नहीं, साथ ही किसी बीमारी आदि से कृमि आदि पड़ गये हों तो चिकित्सा द्वारा उनका विनाश करना भी हिंसा नहीं है। शंका- यदि स्वास्थ्यरक्षा के लिय कृमि आदि का नाश करना हिंसा नहीं है तो कृमि आदि का नाश करके तैयार की हुई दवाइयाँ लेना भी हिंसा न कहलाया। उत्तर- शरीर में स्थित प्राणियों का वध करना स्वास्थ्य के लिये जैसा और जितना अनिवार्य है वैसा और उतना दूसरे प्राणियों का वध करना अनिवार्य नहीं है । अनिवार्यता की मात्रा पर्याप्त न होने से इसे अहिंसा नहीं कह सकते । अनिवार्यता की मात्रा जितनी कम होगी, हिंसा की मात्रा उतनी ही अधिक होगी। " डॉक्टर ने यही दवाई बतलाई है इसलिये यह अनिवार्य है" Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [ जैनधर्म-मीमांसा अनिवार्यता का यह ठीक रूप नहीं है किन्तु इसके लिये प्रत्येक सम्भव उपाय की खोज कर लेना चाहिये । दूसरी बात यह है कि प्राणियों की द्रव्यहिंसा चार तरह की होती है— संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी । किसी निरपराध प्राणीकी जान बूझकर हिंसा करना या अनिच्छापूर्वक भी इस तरह कार्य करना जिससे हिंसा न होने की जगह भी हिंसा हो जाय, वह संकल्पी हिंसा है कसाई या शिकारी के द्वारा होनेवाला पशुवध साधारणतः संकल्पी हिंसा है 1 सफ़ाई करने, भोजन बनाने आदि कार्यों में जो यथायोग्य यत्नाचार करने पर भी हिंसा होती है, वह आरम्भी हिंसा है । अर्थोपार्जन में जो हिंसा होती है, वह उद्योगी हिंसा है । कोई दूसरा प्राणी अपने ऊपर आक्रमण करे तो आत्मरक्षा के लिये उसका वध करना विरोधी हिंसा है । जैसे रामने रावण का वध किया 1 इन चार प्रकार की हिंसाओं में संकल्पी हिंसा ही वास्तव में हिंसा है। बाकी तीन प्रकार की हिंसाएँ तो तभी हिंसा कही जा सकती हैं जब वे अपनी मात्रा का उल्लंघन कर जाय, उसमें प्रमाद और कषाय की तीव्रता हो जाय अथवा वे अनिवार्य न रहें । औषध के लिये दूसरे प्राणी को मारने में संकल्पी हिंसा है जब कि अपन शरीर में पड़े हुए कीड़ों को मारने में विरोधी हिंसा है । इसलिये पहिली को हम हिंसा कहते हैं, दूसरी को नहीं । 1 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ २९ उदाहरणार्थ, किसी मनुष्य को प्लेग की बीमारी हो गई । प्लेग के कीटाणु किसी सन्धिस्थल पर गिल्टी के रूप में जमा हो गये । उन कीड़ों का हमारे ऊपर यह आक्रमण है--भले ही उनका यह आक्रमण इच्छापूर्वक न हो, परन्तु है वह आक्रमण । इस समय हम कितनी भी निर्देष औषध का उपयोग करें, परन्तु उन कीड़ों का मारना अनिवार्य है । इसलिये इसे संकल्पी हिंसा न कहकर अनिचार्य विरोधी हिंसा ही कहना चाहिये । प्रश्न -- जीवन को टिकाये रहने के लिये यदि खेती करना, रोटी बनाना आवश्यक मालूम हो तो इसमें भी आप हिंसा न मानेंगे । जब हिंसा नहीं है तब संयमी मुनि भी ये काम करें तो क्या दोष है ? यदि कुछ दोष नहीं है तो जैनशास्त्रों में मुनि के लिये इन कार्यों का निषेध क्यों किया है ? उत्तर -- कृषि आदि कार्य भी यथासाध्य यत्नाचार से किय जाँय तो उनमें हिंसा नहीं है, और एक संयमी मुनि भी ये कार्य कर सकता हैं । जैनशास्त्रों में मुनि के लिये इन कार्यों की जो मनाई की गई है, वह हिंसा से बचने के लिये नहीं किन्तु परिग्रह से बचने के लिये है । वह भी उस समय की दृष्टि से है, न कि सार्वकालिक । यदि जैनधर्म ने कृषि या पाक के भी कार्य में हिंसा मानी होती तो मुनि को भोजन करने की मनाई की होती; क्योंकि मुनि के भोजन के लिये मुनि को नहीं तो दूसरे को रसोई बनाना पड़ती है, कृषि करना पड़ती है। प्रश्न-मुनि तो उद्दिष्टत्यागी होता है, इसलिये गृहस्थ लोग जो कृषि आदि में हिंसा करते हैं, उसका पाप उसे नहीं लगता, Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जैनधर्म-मीमांसा ३० ] क्योंकि मुनि अपने निमित्त कुछ भी नहीं कराता । उत्तर--' अपने उद्देश्य से नहीं बना ', सिर्फ इसीलिये उसके पाप से कोई नहीं छूट जाता, अन्यथा बाजार में जो चीजें तैयार मिलती हैं वे सब निरुद्दिष्ट कहलायेंगी । तब तो मांसमक्षी को भी पशुवध का दोष न लगेगा । यदि कहा जाय कि जो लोग माँसभक्षण करते हैं उन सबका उद्देश करके पशुवध किया जाता है इसलिये पशुवध का दोष उन सबको लगता है, तो इसी तरह जो लोग अन्न खाते हैं उन सबके ऊपर खेती करने का दोष लगता है, भले ही फिर वह अन्न भिक्षा द्वारा प्राप्त किया जाय । प्राणवारण के लिये अन्न खाना अनिवार्य है, इसलिये खेती करना भी अनिवार्य 1 है । जो अन्न खाता है वह खेती की जिम्मेदारी से कैसे बच सकता है ? यदि अन्न खाना पाप नहीं है तो खेती करना भी पाप नहीं है । हां, उसमें यथाशक्ति यत्नाचार करना चाहिये | इसलिये अगर आवश्यकता हो तो मुनि भी कृषि करे तो इसमें मुनि का भंग नहीं हो सकता । 1 1 ३ - प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने का अधिकार हैं । अगर हम दूसरे के प्राण लें तो यह अन्याय होगा । परन्तु प्रकृति की गति ऐसी है कि एक जीव के वध हुए बिना दूसरा रह नहीं सकता | इसलिये कुछ हिंसाओं को अहिंसारूप मानना पड़ता है । प्रकृति बलवान की रक्षा के लिये निर्बलों की बलि लेती है । धर्म में भी कुछ परिवर्तन के साथ इसी नियम का पालन करना पड़ता है 1 प्रकृति की नीति में बल शब्द का अर्थ पशुबल या जीवनोपयोगी बल है जबकि धार्मिक नीति में बल-शब्द का अर्थ चैतन्यवल, / Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ ३१ ज्ञानबल है, जिससे सुखका संवेदन अधिक किया जा सके । इसलिये अधिक चैतन्यवाले की रक्षा के लिये अगर हीन चैतन्यवाले का वध अनिवार्य हो तो करना पड़ता है । परन्तु यदि दो प्राणी ऐसे हों जिनमें समान चैतन्य हो तब उनमें से किसी को भी यह अधि. कार नहीं रह जाता कि वह दूसरे की हिंसा करे क्योंकि इससे कल्याण की वृद्धि नहीं है--लाभ और हानि बराबर रहता है। प्रश्न-यदि दोनों बराबर हैं तो अपने बचाने के लिये दूसरे का वध करना उचित कहलाया, अथवा अनुचित तो न कहलाया । उत्तर-इस दृष्टि से बराबर कहलाने पर भी अन्य दृष्टि से कल्याण का नाश हो जाता है। कल्पना करो कि दो मित्र ऐसी जगह पहुँच गये जहां न खाने के लिये कुछ है, न पीने के लिये कुछ है। ऐसी हालत में एक मित्र अगर दूसरे मित्र को मारकर खा जाय तो सम्भवतः एक की जान बच सकती है परन्तु अगर हम इस कार्य को कर्तव्य मान लें तो इसका फल यह होगा कि(क) दोनों ही एक दसेरे को मारकर स्वयं बचने कोशिश करेंगे, इससे सम्भवतः दोनों ही लड़कर मर जायँगे अथवा मरनेवाला मारनेवाले को मृतकप्राय जरूर कर जायगा । (ख) संकट का आभास होते ही दोनों मित्र मन ही मन एक दूसरे के शत्रु बन जायगे। और जल्दी से जल्दी एक दूसरे को मार डालने के षडयंत्र में लग जायेंगे। इससे जो कष्ट और अशान्ति होगी वह उपेक्षणीय नहीं कही जा सकती। (ग) इस उतावली में कभी कभी अनावश्यक हत्यायें भी हो जाया करेगी, क्योंकि सम्भव है कि वह विपत्ति इतनी बड़ी न हो जितनी कि उनने उतावली से समझ ली । (घ) इससे जो मानसिक Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ ] [ जैनधर्म-मीमांसा अधःपतन होगा, विश्वासघात आदि की वृद्धि होगी और समाज की मनोवृत्ति में जो बुरा परिवर्तन होगा, वह बहुत अधिक होगा । इस प्रकार इससे लाभ तो कुछ न होगा, साथ ही इतने स्थायी और अस्थायी नुकसान होंगे । प्रश्न- ऊपर के उदाहरण में हम दो मित्रों को न लेकर दम्पत्तिको लें तो आत्म-रक्षा के लिये पुरुषके द्वारा स्त्रीका वध होना उचित है या नहीं ? दूसरी बात यह है कि पुरुषकी अपेक्षा स्त्रीकी योग्यता कम होती है । उत्तर -- इससे परिस्थिति में कुछ भी अन्तर नहीं होता । स्त्री भी मित्र है, बल्कि उसकी रक्षा का भार पुरुष के ऊपर होनेसे पुरुषकी जिम्मेदारी और बढ़ जाती है । इसलिये मित्रकी अपेक्षा पतिका विश्वासघात और अधिक हानिप्रद है । इसके अतिरिक्त ऊपर जो मैंने क, ख, ग, घ नम्बर देकर आपत्तियाँ बतलाईं हैं वे यहाँ भी ज्यों की त्यों लागू हैं । योग्यता की दृष्टि से भी इसका निर्णय नहीं होता, क्योंकि यहाँ पशुबल आदि की योग्यता से निर्णय नहीं करना है, किन्तु चैतन्य से निर्णय करना है । सुखानुभव करने की जो शक्ति पुरुष में हैं, उससे स्त्री में कम नहीं है समाज के लिये पुरुष जितना आवश्यक है - स्त्री उससे कम आवश्यक नहीं है | परिस्थिति के अन्तर से दोनों का कार्यक्षेत्र जुदा जुदा है, परन्तु नैसर्गिक योग्यता तथा समाज हितकी दृष्टि से दोनों समान हैं । इसलिये स्त्री-पुरुष, नीच ऊँच, विद्वान् - अविद्वान्, श्रीमान् गरीब आदि का भेद यहां नहीं लगाया जा सकता । अन्यथा क, ख, ग, घ वाले उपयुक्त दोष बहुत भयंकर रूप धारण कर लेंगे। 1 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ ३३ प्रश्न- ऐसे अवसर पर अगर स्त्री, पुत्र, दास आदि कोई व्यक्ति स्वेच्छामे आत्म-समर्पण करे तब तो उपर्युक्त दोष निकल जायेंगे । उत्तर - परन्तु ऐसी अवस्था में वे स्त्री, पुत्र या दास इतने महान्, उच्च और पूज्य हो जायँगे कि कोई भी व्यक्ति, जो उनके बलिदान पर जीवित रहना चाहता है, उनसे अधिक योग्य न रह सकेगा । ऐसी हालत में उनका बलि लेना देवदारुकी लकड़ी की रक्षा के लिये चन्दन जलाने के समान होगा | प्रश्न- एक मनुष्य ऐसा है, जिस पर सैकड़ों का जीवन या उनकी उन्नति अवलम्वित है। वह अगर अपनी रक्षा के लिये किसी साधारण मनुष्य का अनिवार्य परिस्थिति में वध करे तो उस का यह कार्य निर्दोष कहा जा सकता है या नहीं ? उत्तर- इसके लिये चार बातों का विचार करना चाहिये । (अ) मैं हज़ारों का अवलम्बन हूँ--इसका निर्णय वह स्वयं न करे किन्तु वह करे, जिसे अपने जीवन का बलिदान करना है । (आ) बलिदान स्वेच्छापूर्वक होना चाहिये । (इ) इस कार्य में आत्मरक्षा का भाव नहीं परन्तु समाज-रक्षा का भाव होना चाहिये । (ई) 1 'मेरा यह कार्य आत्मरक्षा के लिये हैं या समाज-रक्षा के लिये ' इस प्रकार का संदेह का विषय बनाने से तथा दूसरे की बलि के ऊपर अपनी जीवनरक्षा होने से उसे हार्दिक पश्चात्ताप होना चाहिये । ये शर्तें बहुत कड़ी शर्तें हैं, सूक्ष्म होने से भी इनका पालन बहुत कठिन है | साथ ही ये अपवाद के निर्णय के लिये हैं इसलिये अपने अधःपतन तथा धर्मनीतिपर आघात होने की बहुत सम्भावना है, इसलिये बहुत सतर्कता के साथ इस अपवाद 1 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] [ जैनधर्म-मीमांसा का पालन होना चाहिये। प्रश्न--प्रकृति जैसे पशुबल के आधार पर चुनाव कराती है तथा इसी मार्ग से विकास होता है, धर्म में भी उसी नीति का अवलम्बन क्यों न किया जाय ? उत्तर- प्रकृति और धर्म के लक्ष्य में बहुत अंतर है । विकास सुखरूप ही नहीं होता, दुःखरूप भी होता है । प्रकृति की दृष्टि में सुख और दुःख में कोई अन्तर नहीं है । उसके लिये तो स्वर्ग भी विकास है, नरक भी विकास है । परन्तु धर्म का सम्बन्ध सुखसे है, वह स्वर्ग को उन्नति और नरक को अवनति कहता है। प्रकृतिकी कसौटी को अगर धर्म भी अपनाले तो धर्म की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती है। क्योंकि प्रकृति तो अपना काम अपने आप कर रही है, उसका भूलसुधार अगर धर्म नहीं करना चाहता तो उसकी ज़रूरत क्या है । विकास का अर्थ है बढ़ना; धर्म प्रकृति के बढ़ने को नहीं रोकता किन्तु प्रकृतिकी जो शक्ति नरक की तरफ बढ़ने में खर्च होती है उसे वह स्वर्गकी तरफ़ ले जाता है, सुखकी तरफ़ ले जाता है। इसलिये प्रकृति की और धर्म की कसौटी में थोड़ा फ़रक है। ४-अपने से हीन श्रेणी के प्राणी की हिंसा निरर्थक न होना चाहिये, इस वाक्य में निरर्थक शब्द जटिल है; क्योंकि कोई आदमी घूमने को भी निरर्थक कहता है, और दूसरा मौजशौक के लिये पशुवध या नरवध को भी सार्थक समझ सकता है । इसलिये यहाँ कुछ सूचनाएँ लिख दी जाती हैं : (क) जो हिंसा स्वास्थ्यरक्षा या ज्ञानोन्नति में सहायक नहीं Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ ३५ है, वह निरर्थक है । वायुसेवन आदि स्वास्थ्यरक्षा तथा मन शान्ति के लिये उपयोगी होने से निरर्थक नहीं है | (ख) जितनी सार्थकता है उसके अनुकूल ही हिंसा होना चाहिये । जैसे-वायुसेवन में संकल्पी हिंसा नहीं होती, सूक्ष्म और अदृश्य जीवों की ही विशेषतः हिंसा होती है, तो यह लाभ के अनुकूल हिंसा है। परन्तु यदि कोई व्यायाम के नाम पर पशुओं का शिकार करे तो यह हिंसा लाभ के अनुसार नहीं है क्योंकि इसमें अपने ही समान पञ्चेन्द्रिय प्राणियों को जानसे हाथ धोना पड़ता है और इससे फल बहुत थोड़ा होता है। निरर्थकता का पूरा निर्णय करना कठिन है परन्तु अहिंसा के अन्य नियमों के अनुसार द्रव्य क्षेत्र काल भाव देखकर निरर्थकता का निर्णय करना चाहिये। ५-सूक्ष्म प्राणियों की हिंसा रोकने के लिये कभी कभी ऐसे प्रयत्न किये जाते हैं जो असफल होने के साथ कष्टप्रद होते हैं; जैसे दाँतुन नहीं करना, स्नान नहीं करना, मुँहपत्ति बाँधना, कीड़ियों को शक्कर डालना, कसाइयों के हाथ से पैसा देकर पशु, पक्षी, मछली आदि छुड़वाना आदि । दांतुन नहीं करने से हिंसा नहीं रुकती । मुंह के साफ करने से याद दाँतों के कीड़े मरेंगे तो एकबार मरेंगे; किन्तु साफ न करने से उससे कईगुणे कीड़े वहां पैदा होंगे और थूक के साथ पेटकी भट्टी में चले जायेंगे। इसके अतिरिक्त गंदगी से मुँह में दुर्गंध आने लगती है, इससे अपने को कष्ट होता है और इससे भी अधिक उन्हें होता है जो अपने साथ बात करते हैं। इसके साथ गंदगी से Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ] [ जैनधर्म-मीमांसा प्रमाद भी बढ़ता है । इसलिये अहिंसा के नाम पर यह निरर्थक यत्नाचार है। यही बात स्नान न करने के विषय में भी है। शरीर में पसीना तो आया ही करता है जो जीवयोनि है । अगर उसे साफ़ न किया जाय तो मलिनता आदि बढ़ने से जीव अधिक पैदा होने लगते हैं, दुर्गंध भी बढ़ती है, प्रमाद भी बढ़ता है । उचित साधन न मिलें और स्नान न किया जाय तो कोई हानि नहीं, परन्तु अस्नान को व्रत बनाने की जरूरत नहीं है । जिन दिनों मुनि समाज में नहीं रहते थे, प्रतिदिन भोजन भी नहीं करते थे, जंगल में रहने से स्नान वगैरह के पवित्र साधन नहीं मिलते थे, उस समय ये व्रत बनाये गये । इसके अतिरिक्त यह भी सम्भव है कि स्नान आदि क्रियाओं को हो परमधर्म माननेवाले और इसके न करने में महान अधर्म माननेवाले लोगों के दुराग्रह का विरोध करने के लिये यह नियम बनाया गया हो, और पीछे कारणवश इसे भी ऐकान्तिक रूप देना पड़ा हो, या ऐकान्तिक रूप प्राप्त हो गया हो । अथवा यह भी सम्भव है कि स्वच्छता के नाम पर मुनियों में श्रृंगारप्रियता बढ़ने लगी हो और श्रृंगारप्रियता को रोकने के लिये तथा मुनियों को परिषहविजयी बनाने के लिये ये नियम बनाये गये हों । मतलब यह कि अहिंसा के लिये ये नियम निरुपयोगी हैं। दूसरी दृष्टि से उस समय इनके बनाने की आवश्यकता हुई होगी, परन्तु आज की परिस्थिति में ये निरर्थक हैं। 1. मुँहपत्ति के विषय में भी यही बात है । वह वायुकाय के Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंता ]. | ३७ / जीवों की रक्षा के लिये बाँधी जाती है, परन्तु निरर्थक है, क्योंकि मुँहपत्ति से मुँह की वायु रुककर सामने न जाकर नीचे जायगी, परन्तु वायु तो वहां पर भी है । इसलिये वहां भी जीव मरेंगे। इसके अतिरिक्त कपड़े में जो गर्मी पैदा हो जाती है, उससे पीछे भी जीव मरते रहते हैं। इसके अतिरिक्त थूक वगैरह से मुँहपत्ति कृमिपूर्ण हो सकती है। इस प्रकार उससे उतना लाभ नहीं है, जितनी हानि है । फिर भी हिंसा नहीं रुकती, नासिका की वायु से तथा शरीर के सम्पर्क से जीव - हिंसा होती ही रहती है । इसके लिये नासिकापत्ति नहीं लगाई जा सकती है । न सारा शरीर आवृत किया जा सकता है । कई लोग कौड़ियोंको शक्कर डालकर असंख्य कीड़ियोको एकत्रित करके हिंसा के साधन एकत्रित करते हैं । एकबार मैंने देखा कि सड़क के एक किनारे असंख्य चीटे मरे पड़े हैं। मैं समझ नहीं सका कि ऐसी स्वच्छ सड़क पर असंख्य चीटे मरने के लिये कहाँ से आ गये ? इस प्रकार की घटना जब मैंने मुझे और भी आश्चर्य हुआ । परन्तु, एक दिन मेरी नज़र एक पास के बार बार देखी तब बहुतसी शक्कर वृक्ष के नीचे पड़ गई, वहाँ किसी धर्मात्मा जीवने डाली थी । उसकी दयालुता का ही यह फल था कि असंख्य चीटे शक्कर के लोभ से वहाँ आते थे और राहगीरों के पैरों से कुचलकर मौत के मुँह में जाते थे। कीड़ों-मकोड़ों की दया इसमें नहीं है कि उन्हें मरने के लिये निमंत्रण दिया जाय, किन्तु इसमें है कि स्वच्छता रखकर उन्हें पैदा होने न दिया जाय । स्वच्छता न रखना कीड़ों की हिंसा करना है । कई लोग पैसा देकर कसाइयों से जीव छुड़ाते है । ऐसे Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] [ जैनधर्म-मीमांसा भाइयों का अविवेक अत्यन्त दयनीय है | वे वास्तव में प्राणिवध को उत्तेजना देते हैं । एक कसाई पशु खरीदता है, इसलिये कि वह उसे मारकर उसके शरीर से अधिक पैसा पैदा करे । परन्तु एक जैनी भाई उसको पूरे दाम देकर उसके परिश्रम को बचाता है और इस तरह और भी जल्दी अधिक पशु मारनेके लिये उत्तेजित करता है । अगर ऐसा नियम होता कि जिसने पैसा लेकर पशु छोड़ दिया वह अब पशुवध न करेगा तो यह ठीक था; किन्तु जब वह अच्छी तरह पशुवध करता रहता है तब उसे पैसा देकर पशु छुड़ाना-पशुवध के लिये आर्थिक उत्तेजन देना है । पशुवध के रोकने का इलाज तो यह है कि उनके मन में अहिंसा का भाव पैदा किया जाय । पशुओं का इस तरह पालन किया जाय, जिससे उनकी उपयोगिता बढ़े आदि । मैंने देखा है कि पर्युषण के अवसर पर जब जैनी लोग मन्दिर आदि के लिये जाते हैं और रास्ते में अगर कोई तालाब पड़ता है तो उस दिन बीसों मछलीमार सिर्फ इसलिये मछली मारने लगते हैं कि जैन लोग पैसे देकर मछलियां छुड़ायगे । अगर जैनी लोग इस प्रकार प्रलोभन उन के सामने न रखें तो वे इस प्रकार मछलियां मारनेके लिये उत्तेजित न हों। यह याद रखना चाहिये कि धर्म का पालन केवल हृदयकी कोमलता से नहीं होता, उसके रिये विवेक और विचारशक्ति की भी ख़ास ज़रूरत है, अन्यथा मिथ्यादृष्टि के तपकी तरह वह निरर्थक ही होता है। ६-कभी कभी मनुष्य अपनी महत्ताका प्रदर्शन करने के लिये अथवा कायरतावश या द्वेषवश सूक्ष्म हिंसा बचाने के बहाने से Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ ३९ कर्तव्यच्युत होता है । हितोपदेश में एक कथा आती हैं कि एक गीदड़ने अपने मित्र हरिण को इसलिये जाल से न छुड़ाया था कि जाल ताँत का बना था। मांसमक्षी गीदड़ का यह बहाना जैसा दंभ था, इसी प्रकार का दंभ सैकड़ों मनुष्य करते हैं। 'अमुक आदमी दवाखाने में ऑपरेशन कराने गया है, न मालूम क्या खायगा इसलिये मैं उसकी सेवा नहीं कर सकता ।'' अगर मैं उसको उपदेश दूँगा तो वायुकाय के जीव मरेंगे, इसलिये उसे सचाई पर लगाने के लिये उपदेश नहीं दे सकता, इस प्रकार बीसों बहाने बनाकर मनुष्य कर्तव्यच्युत होता है । कोई कोई लोग तो सिर्फ इसलिये परोपकार नहीं करते — उसे मरने से भी बचाने की चेष्टा नहीं करते - कि अगर वह जीवित रहेगा तो न मालूम क्या क्या पाप करेगा इसलिये मैं उसे नहीं बचाऊँगा । वास्तव में यह अज्ञान है। क्योंकि इस सिद्धान्त के अनुसार ऐसे मनुष्यों को बच्चे भी पैदा न करना चाहिये अगर पैदा हो जाँय भी न करना चाहिये क्योंकि न मालून वह बच्चा युवा क्या पाप करेगा ? इस प्रकार इस सिद्धान्त के अनुसार समाज का नाश ही हो जावेगा, कल्याण का मार्ग ही नष्ट हो जायगा । प्रथम अध्याय में बताये हुए कल्याणमार्ग के अनुसार कल्याणवृद्धि के लिये जीवन को परोपकारमय बनाने की आवश्यकता है । अगर अपने को मालूम हो जाय कि अमुक प्राणी के जीवित रहने से उसी के समान या उससे महान् अन्य अनेक प्राणियों का वध अवश्यम्भावी है तो इस दृष्टि से उसका न बचाना ही नहीं, किन्तु वध करना तक कर्तव्य होगा । किन्तु, जो प्राणी इस श्रेणी में नहीं तो उनका पालन होकर क्या Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] [जैनधर्म-मीमांसा आते उनकी रक्षा न करना और रक्षा न करने को धर्म समझना ठीक नहीं है । -6 दो प्राणियों में से एक का मरना अनिवार्य हो और 1 एक के मारने से दूसरा बच सकता हो तो परोपकारीको बचाना उचित है । जैसे--माता के उदर में बच्चा इस तरह फँस गया है कि किसी भी तरह नहीं निकलता । सिर्फ दो ही उपाय हैं कि या तो बच्चे को काटकर माता को बचाया जाय या माता का पेट चीरकर बच्चा निकाल लिया जाय तो ऐसी हालत में माता का बचाना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि बच्चे का उपकार माता के द्वारा हुआ है, न कि बच्चे के द्वारा माता का उपकार - 1 - ऐसी हालत में बच्चे का वध करना भी कर्तव्य है । यदि इस प्रकार निर्णय न हो सके अर्थात् उनमें उपकार्य उपकारक भाव न हो तो जो अधिक संयमी (संयमवेषी नहीं) तथा समाज हितकारी हो उसका रक्षण करना चाहिये । मतलब यह कि अहिंसा -- दयालुता -- के नामपर दोनों को मरने देना, प्राणिरक्षा के लिये की जानेवाली अनिवार्य हिंसा को भी पाप समझना भूल हैं । ८-- अत्याचार रोकने के लिये अत्याचारीका अनिवार्य वध भी हिंसा नहीं है । जैसे रामने सीता ऊपर होनेवाले अन्यायको रोकने के लिये रावण का वध किया । अथवा कल्पना करो कि कोई मुनिसंघ जंगल में बैठा हो और कोई जानवर उनपर आक्रमण करे और उसके रोकने के लिये अगर उसका वध करना पड़े तो भी वह क्षन्तव्य है, भले ही यह काम मुनि ही क्यों न करे । जब सामान्यरूप में उसका वध करना उचित है, तब वह श्रावक Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] करे या मुनि, एक ही बात है । योग्यता, अयोग्यता की संघटना की बात दूसरी है, परन्तु धर्माधर्म की कुछ अन्तर नहीं पड़ता । प्रश्न--क्या जो श्रावक का कर्तव्य है, वह मुनिका भी अवश्य है ? दोनों का कर्तव्य-क्षेत्र क्या बिलकुल एक है ? यदि हाँ, तो दोनों में अन्तर क्या है ? [ ४१ की या संस्था दृष्टि से उसमें उत्तर - श्रावक और मुनि का भेद कार्य का भेद नहीं है किन्तु आसक्ति अनासक्ति का भेद है । जो अनासक्त रहकर कार्य करता है वह मुनि है । जिसकी आसक्ति मर्यादित है, वह श्रावक है । जिसकी आसक्ति अमर्याद है वह असंयमी है । जो कर्तव्य सामान्यतः कर्तव्यरूपमें निश्चित हुआ हो, वह सभी के लिये कर्तव्य है | और जो अमुक व्यक्ति या व्यक्ति समुदाय । की अपेक्षा कर्तव्य माना गया हो वह उसी व्यक्ति या समष्टि के के लिये कर्तव्य है । जैसे मन्दिर में जाकर देवकी पूजा करना उसी के लिये कर्तव्य है, जिसको उसकी जरूरत हो, महात्माओं के लिये नहीं । कर्तव्य का भेद मुनि श्रावक का भेद नहीं है, किन्तु भावना और जरूरत का भेद है । यह बात दूसरी है कि अनासक्त जीवन बिताने के लिये द्रव्यक्षेत्र कालभाव के अनुसार मुनि जीवन के बारूप अनेक प्रकार के हों । ९ -- धर्म का लक्ष्य कल्याण है 1 । कभी कभी जीवन कल्याण का विरोधी हो जाता है, उस समय कल्याण के लिये जीवन का त्याग करना पड़ता है । परन्तु उसे आत्महत्या नहीं कहते । उदाहरणार्थ, सल्लेखना या समाधिमरण की क्रिया ऐसी ही है। जब Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ) [ जैनधर्म-मीमांसा कोई मुनि या गृहस्थ देखता है, कि वह ऐसे उपद्रव या बीमारी आदि में फंस गया है या जरावस्था के कारण वह अपने को और दूसरों को दुःख का कारण बन रहा है और इसका प्रतीकार कुछ नहीं रहा है, तब वह किसी सौम्यविधि से प्राणत्याग करता है । यदि किसी को इस प्रकार मरने में कष्ट मालूम होता हो तो उसका प्राणत्याग करना निरर्थक है ।. जब प्राणत्याग जीवन की अपेक्षा श्रेयस्कर मालूम हो, तभी करना चाहिये । ऐसे प्राणत्याग में सहायक होना भी अनुचित नहीं है । परन्तु यह कार्य होना चाहिये प्राणत्याग करनेवाले की इच्छा के अनुसार । अपने आप तो इस प्रकार का प्रस्ताव रखना भी अनचित है, बल्कि अगर वह स्वयं इच्छा प्रदर्शित करे, तो एक दो बार मना भी करना चाहिये । फिर जब यह अच्छी तरह निर्णय हो जाय कि वास्तव में इसकी इच्छा है, यह लोकलज्जा आदि से ऐसा नहीं कह रहा है, और इसकी अवस्था भी प्राणत्याग करने के लायक है तब उसके इस कार्य में सहयोग करना चाहिये। समाधिमरण के विषय में आगे कुछ विस्तार से विवेचन किया जायगा। समाधिमरण की इस प्रक्रिया के लिये ही इस नियम की उपयोगिता नहीं है किन्तु और भी ऐसे अवसर आ सकते हैं जब स्वेच्छापूर्वक प्राणत्याग करने पर भी आत्महत्या का दोष नहीं लगता। जैसे--किसी सती के ऊपर बलात्कार करने के लिये कोई उसका हरण कर ले और वह सती, सतीत्व की रक्षा के लिये नहीं क्योंकि यदि सती की इच्छा न हो तो बलात्कार होने पर भी सतीत्व नष्ट नहीं होता--किन्तु अत्याचारी के अत्याचार को निष्फल बनाने के लिये जिससे कि भविष्य में अत्याचारी अत्याचार से विरत हों, अगर प्राणत्याग करे Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ ४३ तो उसे आत्महत्या का पाप न लगेगा। इसी प्रकार धर्मरक्षा, नीतिरक्षा, देशरक्षा आदि के लिये प्राणत्याग करना अनुचित नहीं कहा जा सकता । यदि किसी को यह विश्वास हो जाय कि मेरे जीवित रहने से असह्य यन्त्रणाएं देकर मेरे जीवन का दुरुपयोग किया जायगा, रहस्योद्घाटन करके अनेक न्यायमार्गियों को सताया जायगा, तो इसके लिये भी प्राणत्याग करना अनुचित नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार और भी बहुत से अबसर हो सकते हैं जब कि आत्मकल्याण और समाजहित की दृष्टि से प्राणत्याग करना पड़े परन्तु उसे आत्महत्या का पाप न लगे। हां, यह बात अवश्य है कि जो काम किया जाय समभाव से किया जाय । उसमें अगर व्यक्तिगत द्वेष पैदा हो जाय, कर्तव्यबुद्धि न रहे या गौण हो जाय तो वहां असंयम हो जायगा । वह उतने अंश में हिंसा कहा जायगा। अहिंसा के ऊपर--खासकर जैनधर्म की अहिंसा के ऊपर यह दोषारोप किया गया है कि इससे मनुष्य कायर हो जाता है, देशरक्षा आदि का कार्य नहीं किया जा सकता, भारत की पराधीनता का कारण यह अहिंसा ही है । परन्तु मेरी समझ में इस दोषारोप में कुछ दम नहीं है। यों तो प्रत्येक गुण की ओट में दोष छुपा करता है, या बहुत से दुर्गुण गुणों के रूपमें दिखलाये जाते हैं, परन्तु इसीलिये गुणों की अवहेलना नहीं की जा सकती । क्षमा की ओट में निर्बलता, विनय की ओट में चापलूसी, अमायिकता की ओट में चुगलखोरी, मितव्ययिता की ओट में कंजूसी आदि छिपायी जाती है. । इसी प्रकार Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ ] [ जैनधर्म-मीमांसा अगर किसी ने अहिंसा की ओट में कायरता को छिपायी हो तो इसमें न तो कोई आश्चर्य की बात है न इससे अहिंसा की निन्दा की जा सकती है। संसार में ऐसा कोई गुण नहीं है जिसके नाम का दुरुपयोग नहीं किया जाता हो । जैनधर्म ने अहिंसा पालन की ऐसी कड़ी शर्त कहीं नहीं लगाई जिससे एक राजा को या क्षत्रिय को या किसी को भी अपने लौकिक कर्तव्य से च्युत होना पड़े। अगर कोई राजा जैन हो जा और वह गृहस्थोचित अहिंसा व्रत ( अणुत्रत) का पालन करने लगे तो वह प्रजा को दंड न दे सकेगा या प्रजा की रक्षा के लिये युद्ध न कर सकेगा - यह बात न तो जैनधर्म के आचारशास्त्र से सिद्ध होती है न जैन कथा-ग्रन्थों के चरित्रचित्रणों से मालूम होती है । गृहस्थ विरोधी हिंसा का त्यागी नहीं है, कर सकता है -- यह बात तो प्रायः सब जगह जैनाचार्यों ने जहां युद्धादि का वर्णन किया है वहां यह बात भी दिखलाई है कि अणुव्रती लोग भी सैनिक जीवन व्यतीत करते थे । रविषेणकृत पद्मचरित में जहां सैनिकों का वर्णन है वहां स्पष्ट कहा है कि कोई सैनिक सम्यग्दृष्टि है. कोई अणुव्रती ५ है । जैन - पुराणों में युद्ध और दिग्विजय के खूब ही सुन्दर और विस्तृत वर्णन आते हैं, और ऐसा कहीं नहीं लिखा कि युद्धों से किसी का जैनत्व नष्ट हो गया या वह अणुव्रती नहीं रहा । जैनियों ४ सम्यग्दर्शनसम्पन्नः शूरः कश्चिदणुव्रती । पृष्ठतो वीक्ष्यते पल्या पुरस्त्रिदशकन्यया ॥ ३-१६८ ॥ इसलिये वह युद्ध मिलती है और 3. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ ४५ ने जितने महापुरुषों को माना है वे सब प्रायः क्षत्रिय हैं और प्रायः उन सबके साथ युद्धों की परम्परा लगी हुई है। अहिंसा और धर्म के पूर्णावतार स्वरूप तीर्थंकरों के जीवन भी युद्ध से खाली नहीं हैं । 1 हरिवंश पुराण में नेमिनाथ तीर्थंकर का महाभारत युद्ध में भाग लेना बतलाया है । दोनों तरफ के वीरों की लिस्ट में नेमिनाथ का नाम आता है | इन्द्र के द्वारा भेजे हुए रथ पर चढ़कर नेमिनाथ युद्ध में जाते हैं । नेमीश्वर शाक नामक शंख बजाते हैं। और दक्षिण दिशा से चक्रव्यूह का भेदन करते हैं । अरिष्टनेमि के रथ के घोड़े हरे रंग के थे और जब जरासिन्ध ने कृष्ण के ऊपर चक्र छोड़ा तब वे कृष्ण के साथ खड़े थे । चक ने नेमिनाथ की और कृष्ण की प्रदक्षिणा की थी । शान्तिनाथ, कुन्थनाथ और अरनाथ तो तीर्थंकर होने के साथ चक्रवर्ती भी थे इसलिये उनने छ : खण्ड की विजय भी की थी । जब तीर्थंकर सरीखे सर्वश्रेष्ठ धर्माधिकारी युद्ध करते हैं और जैनशास्त्र इसका सुन्दर, विस्तृत और प्रशंसापूर्ण शब्दों में वर्णन 1 यदुष्वतिरथो नेभिस्तथैव बलकेशवौ । अतिक्रम्य स्थितान् सर्वान् भारतेऽतिरथांस्तु ते । ५० - ७७ / मातल्यधिष्ठितं सात्र सुत्रामप्रहितं रथं । नेमीश्वरः समारूढ़ो यदूनामर्थसिद्धये . ५१ - ११ दनौ नेमीश्वरः शंखं शाकं शत्रुभयावहम् । ५१-२० । मध्यं विमेद सेनानी नेमिर्दक्षिणतः क्षणात् ॥ ५१-२२ ॥ शुकसमैरत्रैर्युकोऽयं स्वर्णशृंखलैः । अरिष्टनेमिवीरस्य वृषकेतुमहारथः । ५२-६ | नेमीशस्त्ववधिज्ञातभाविकार्यगतिस्थितिः चक्रस्याभिमुखच विष्णुनैव सह स्थितिं । ५२ - ६४ | सहप्रदक्षिणीकृत्य भगवन्नोमिना हरिं । तत्करे दक्षिणे तस्थौ शंखचक्रांकुशांकिते । ५२-६६ । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ ] [ जैनधर्म-मीमांसा करते हैं, तब यह नहीं कहा जा सकता कि जैन होने से कोई युद्ध के काम का नहीं रहता । जैनशास्त्रों में आये हुए जैन महापुरुषों की अगर गिनती लगाई जाय तो सौ में निन्यानबे से अधिक महापुरुष तो क्षत्रिय-वर्ण के ही मिलेंगे । इससे कहा जा सकता है कि जैनधर्म सार्वधर्म होनेपर भी विशेषतः क्षत्रियों का धर्म है अथवा यों कहना चाहिये कि क्षत्रियों ने इस धर्म से विशेष लाभ उठाया है और क्षत्रिय-वर्ण तो एक युद्ध गीवी वर्ण रहा है । इससे कोई कहे कि जैनधर्म की अहिंसा ने भारतीयों को युद्धविमुख बना दिया और इससे वे पराधीन हो गये तो उसका यह कहना अहिंसा और खासकर जैनधर्म की अहिंसा से नासमझी प्रगट करना है, साथ ही उसपर अन्याय करना है। शंका- आप पार्श्वनाथ के पहिले जैनधर्म का अस्तित्व अधेरे में मानते हैं, फिर यहाँ अरिष्टनेमि, शान्तिनाथ, कुन्थनाथ, राम, रावण आदि के नामों का उपयोग क्यों करते हैं ? ये सब पार्श्वनाथ के पहिले के हैं इसलिये जैनी अहिंसा को समझाने के काम में ये नहीं आ सकते। समाधान-- कोई चरित्र कल्पित हो या तथ्यपूर्ण, परन्तु उसके चित्रण में चरित्रनिर्माताका हृदय रहता है। मानलो राम रावण आदि की कथाएँ बिलकुल कल्पित हैं, परन्तु उससे इतना तो मालूम होता है कि कथाकार राम और सीताको पुरुष और स्त्री का आदर्श मानता है । इसी प्रकार जैन ग्रन्थकारोंकी कथावस्तु कल्पित भले ही हो, परन्तु उससे उन ग्रन्थकारोंका हृदय मालूम होता है । इस प्रकार इतिहास की अपेक्षा भी इन कल्पित कथाओंका महत्व Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] .. [४७ तथा उपयोगिता बढ़ जाती है, क्योंकि इतिहास से तो हमें इतनाही मालूम होता है कि क्या हुआ , परन्तु कल्पित कथा से या इच्छानुसार परिवर्तित कथासे हम यह जान सकते हैं कि क्या होना चाहिये । मैंने जो उपर्युक्त उदाहरण लिये, वे ऐतिहासिक दृष्टि से नहीं, किन्तु जैनदृष्टि को समझाने की दृष्टिसे । इस दृष्टिसे तो तथ्यपूर्ण चरित्रों की अपेक्षा कल्पित चरित्र अधिक उपयोगी होते हैं। शंका-- जैनधर्म की अहिंसा भले ही मनुष्य को कायर न वनाती हो और जैनचार्यों ने भले ही अपने शुभ स्वप्नों का चित्रण चरित्रग्रन्थों में किया हो, और सम्भव है म.महावीर के समयके आसपास उसका ऐसाही रूप रहा हो, परन्तु पीछे से जैन समाज अवश्य ही एक कायर समाज बन गया; इतना ही नहीं, किन्तु उसने समाज पर एक ऐसी छाप मारी कि सभी लोग कायर हो गये । यही कारण है कि भारतवर्ष को गुलामी की जंजीरें पहिनना पड़ी हैं। समाधान-- पिछले सवा दो हज़ार वर्ष के इतिहास पर अगर नज़र डाली जाय तो हमें सम्भवतः एक भी उदाहरण न मिलेगा कि जैनी अहिंसा ने देश को गुलाम बनाया हो। सिकन्दर से लेकर अंग्रेजी लड़ाइयों तक जितने युद्ध हुए हैं, और उनमें जहाँ जहां भी भारतीयों का पराजय हुआ है, वहाँ वहां मुख्यतः फूटने तथा राष्ट्रीयभावना के अभाव ने काम किया है । कहीं कहीं अन्धविश्वास या चौकापन्थी मूढ़ताने भी पराजित होने में सहायता पहुंचायी है । सिकंदर की पोरस पर जो विजय हुई थी उसका कारण Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] [ जैनधर्म-मीमांसा तो हाथियों का बिगड़ना आदि था, परन्तु उसके पहिले जो सफलता हुई थी उसका कारण फूट ही था । इस्लामधर्मवालों के संघर्षमें भी हमें हर जगह फट या राजनैतिक मूर्खता ही दिखाई देती है और ऐसे ही कारण अंग्रेजी संघर्षके समय में भी रहे हैं । “ मैं अहिंसक हूं इसलिये युद्ध नहीं करूंगा" ऐसा विचारकर किसीने देशको विदेशियोंके ताबे कर दिया हो, ऐसी कोई घटना नहीं मिलती। इसके अतिरिक्त ऐतिहासिक युग में जैन नरेशोंके युद्ध और विजय का इतिहास मिलता है । सम्राट् खारवेलका नाम तो प्रसिद्ध ही है, परन्तु कुछ शताब्दी पहिले तक जैन राजा होते रहे हैं । आज जैनियों के हाथ में राज्यश्री नहीं है इसका कारण अहिंसा नहीं है, किन्तु प्रकृतिका नियम है । बड़े बड़े साम्राज्य डूबे, सभ्यताएँ डूबी, इस तरह परिवर्तन होते ही रहते हैं उसी नियमानुसार जैन युग भी चला गया। ऐतिहासिक घटनाओं का निरीक्षण करने से भारतकी पराजयके कुछ कारण स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं । जैसे १ फूट--पृथ्वीराज, जयचन्द्र, आदि इसके उदाहरण हैं । . २ ईर्ष्या-मराठा साम्राज्यके अधःपतनके समय सिंधिया होलकर आदि में । ३ विश्वासघात-सिक्ख सेनापति, मीरजाफर आदि । ४ राजनैतिक-पृथ्वीराजकी अनुचित क्षमा, राणा प्रताप का भाइयों को विद्रोही बना लेना। वीरता होने पर भी नीति से काम न लेना। ५ चौकापन्थी मूढ़ता--हिन्दू सिपाहियोंकी रसोई में मुसलमान सिपाहियों के आने से रसोईका अपवित्र मान लेना इससे Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ १९ हिन्दू सिपाहियों का भूखे रहना और तैयार रसोई विरोधियों के हाथ लगना आदि । ६- अन्धविश्वास-शत्रदलने अगर तीर मारकर झंडा गिरा दिया तो सिर्फ इसी बात से हिन्दू सेना का भाग उठना । ७- अराष्ट्रीयता-एक हिन्दूराजा के अधःपतन को दूसरे हिन्दूराजा का चुपचाप देखते रहना । राष्ट्रीयता के नाते उसे अपनी क्षति न समझना । ८- वर्णव्यवस्था-राज्यका कारवार क्षत्रियोंके हाथ में ही होने से अन्य तीन वर्षों का इस तरफ़ से उदासीन होकर ' कोउ नृप होय हमें का हानी' वाली नीतिका पालन करना । इसलिये विदेशी राजाओं का भी स्वदेशी राजाओं की तरह स्वागत करना । ९-कोई भी देश जब अपने समय में समृद्धिकी चरमसीमा पर पहुंच जाता है तब उस में विलासिता आदि की मात्रा बढ़जाती है, धर्म और अर्थ लुप्तप्राय हो जाते हैं और कामका राज्य बढ़जाता है । इससे अनेक दुर्गुण पैदा होने के साथ वीरता और त्यागका अभाव हो जाता है । भारत में भी ऐसा ही हुआ। उपर्युक्त कारण जितने जबर्दस्त हैं उनने ही स्पष्ट हैं । सम्भव है कोई हलकी पतली ऐसी भी घटना हुई हो जहाँ किसी धर्मामासी राजाने अहिंसा धर्म की ओट में अपनी कायरता को छुपाकर शत्रुओंको घुसने दिया हो, परन्तु ऐसी घटनाएँ इतनी बड़ी नहीं है जिनका देशव्यापी प्रभाव पड़ा हो, और इतिहास में जिनके लिये कोई स्थान हो । यह भी सम्भव है कि कुछ जैनाचार्योंने अहिंसा के संकुचित Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० [ जैनधर्म-मीमांसा रूपका प्रचार किया हो, परन्तु इससे देशको कुछ हानि हुई हो ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता । हाँ, इससे अनेक राजाओंने जैनधर्म छोड़ दिया और सम्भवतः अनेक क्षत्रियः जातियाँ वैश्य बन गई, परन्तु ये परिवर्तन देशके पतन में कारण नहीं हुए । इससे जैनधर्म के प्रचार में बाधा पड़ी, उसके पालनेवालों की संख्या घट गई, परन्तु इससे राष्ट्रको कोई क्षति नहीं उठानी पड़ी। आज जैनधर्म वैश्यों के हाथ में है, इसलिये उसका रूप कुछ दूसरा ही दिखलाई देता है । जैनपुराणों में वर्णित और आचारशास्त्र में कथित रूप नहीं दिखाई देता । वह दिखलाई देता तब, जब उसके पालन करनेवाले क्षत्रिय भी बचे होते । इसके कारण तो अनेक हैं परन्तु पिछले समय के धर्मगुरुओं का अहिंसा के विषय में अव्यावहारिक दुराग्रह भी कारण है, जिसका दुष्फल जैनसमाज को भोगना पड़ा है। फिर भी देशकी राजनीति पर उसका कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ा है। सार यह है कि जैनधर्म की अहिंसा का क्षत्रियत्व के साथ जरा भी विरोध नहीं है। हां, जैनधर्म इतना जरूर कहता है कि निरर्थक रक्तपात न होना चाहिये । रक्तपात जितना कम हो, उतना ही अच्छा । यह बात जैनपुराणों के चरित्रचित्रण से भी स्पष्ट होती है। उदाहरणार्थ-बाल्मीकि रामायण के अनुसार सीता चुराने के कारण सिर्फ रावण ही नहीं मारा गया किन्तु कुम्भकर्ण इन्द्रजित वगैरह भी मारे गये । जैनपुराण इतनी हिंसा निरर्थक समझते हैं, इसलिये वे रावण का तो वध कराते हैं--क्योंकि उसका अपराध प्राणदंड क ही योग्य है-परन्तु इन्द्रजित कुम्भकर्ण वगैरह को कैद Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] ५१ कराते हैं और युद्ध के अंत में वे छोड़ दिये जाते हैं, जिससे वे श्रमणदीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार जैन महाभारत में भी दुर्योधन आदि मारे नहीं जाते, किन्तु कैद होते हैं और अंत में श्रमण बनते हैं। यही हाल कीचक का भी होता है। वह भी मारा नहीं जाता । इस चरित्रचित्रण का सार इतना ही है कि आवश्यकतावश मनुष्यवध करना पड़े तो किया जाय, परन्तु जहां तक हो वह कम किया जाय । शत्रु अगर गुड़ से मरता हो तो विष से न मारा जाय । वह सुधर सकता हो तो उसे सुधरने का मौका दिया जाय । मैं नहीं समझता कि इस नीति को कोई अनुचित कहेगा । किसी समय की बात दूसरी है । परन्तु धर्म का समय राजनैतिक परिस्थितियों के समय से कुछ बड़ा होता है । धर्म इन परिस्थितियों के अनुसार कार्य करने का निषेध नहीं करता, फिर भी उसकी दृष्टि मनुष्यता तथा सर्वभतहित पर रहती है। जीवन में उत्सर्ग और अपवाद दोनों की आवश्यकता होती है। उत्सर्ग के स्थानपर अपवाद का प्रयोग जिस प्रकार अनुचित है, उसी प्रकार अपवाद के स्थानपर उत्सर्ग का प्रयोग करना भी अनुचित है । मनुष्य इनके प्रयोगों में भूलता है परन्तु उसके फलको भूल का फल नहीं मानता किन्तु नियम नीति या धर्म का दुष्फल मानता है यह ठीक नहीं है। ___ मैं पहिले कह चुका हूं कि प्रत्येक गुण का दुरुपयोग किया जा सकता है, किन्तु इसीलिये गुण निंदनीय नहीं होते । इसी प्रकार अहिंसा का भी दुरुपयोग हो सकता है और अनेक जगह हुआ भी है, परन्तु इसीसे वह निंदनीय नहीं हो सकती । जैनधर्म की Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] [ जैनधर्म-मीमांसा अहिंसा हो या अन्य किसी धर्म को अहिंसा हो, सब के विषय में यही बात कही जा सकती है। किसी वस्तु की परीक्षा करते समय सिर्फ उसके दुरुपयोग पर ही नजर न रखना चाहिये, किन्तु उसके वास्तविक रूप पर दृष्टि डालना चाहिये, इस दृष्टि से जैनी अहिंसा पर विचार किया जाय तो वह अनुचित न मालूम होगी, किन्तु अनेक दृष्टियों से उसमें उपयोगी विशेषताएँ मालूम होगी । सत्य जैसे को तैसा कहना सत्य है । परन्तु यह सत्य ज्ञानके क्षेत्रका सत्य है । धर्म के क्षेत्रका सत्य इससे भिन्न है। धर्म तो जगत्-कल्याण के लिये है इसलिये धर्म के क्षेत्र में वही वचन सत्य कहा जा सकता है जो कल्याणकर हो। इसलिये दोनों सत्योंका भेद समझने के लिये मैं जुदे जुदे शब्द रख लेता हूँ। जैसे को तैसा कहना तथ्य है, और कल्याणकारी वचन सत्य है । यद्यपि अनेक स्थलोंपर तथ्य और सत्य में विरोध नहीं होता, फिर भी अनेक मौके ऐसे आते हैं जब तथ्य और सत्य में विरोध पैदा हो जाता है । इस विरोध का समझना ही मुश्किल है । एक चोर कह सकता है कि अगर मैं तथ्य बोलूंगा तो चोरी न कर सकूँग, इससे दुखी होना पड़ेगा, इसलिये मेरा अतथ्य बोलना भी सत्य कहलाया इस प्रकार तथ्य और सत्य के विरोध माननेसे सत्य की हत्या ही हो जायगी । इसलिये किस जगह अतथ्य भी सत्य है, किस जगह तथ्य भी असत्य है, इस विषय में गंभीर सतर्कता की जरूरत है। जिस प्रकार पहिले हिंसाके संकल्पी आदि चार भेद किये गये थे, उसी प्रकार हमें असत्य अर्थात् अतथ्य के भी चार भेद Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य ] [५३ करना चाहिये । संकल्पी अतथ्य -- स्वार्थवश दूसरे के हिताहित का विचार न करके किसी निरपराध प्राणी के साथ असत्य बोलना या किसी दूसरे ढंगसे असत्यभाव प्रगट करना संकल्पी असत्य ( अतथ्य ) है । आरम्भी-पागलोंकी, बच्चों की, रोगी इत्यादिकी रक्षा के लिये जो हमें अतथ्य बोलना पड़े वह आरम्भी अतथ्य है । या अनजान में हमारे मुँहसे अतथ्य निकले, वह भी आरम्भी अतथ्य है। उद्योगी--- अर्थोपार्जन आदि में अपने रहस्य छुपाने की जरूरत हो, और उसका छुपाना नैतिक नियमों या कानूनके विरुद्ध न हो तो उस के लिये अतथ्य बोलना उद्योगी अतथ्य है । विरोध--अन्याय के प्रतीकार के लिये तथा नैतिक आत्मरक्षा के लिये अतथ्य बोलना विरोधी अतथ्य है। इन में से संकल्पी हिंसा के समान संकल्पी अतथ्य का त्याग अवश्य करना चाहिये । विरोधी के त्यागकी जरूरत नहीं । हाँ, अगर दूसरे किसी मार्ग से आत्मरक्षा या अत्याचारनिवृत्ति की जा सकती हो और वह मार्ग अपन पकड़ सकते हों तो विरोधी अतथ्य भी न बोला जाय, यह अच्छा है । बाकी दो के विषय में भी यत्नाचार करना चाहिये, तथा अनिवार्य परिस्थिति में ही उनका उपयोग करना चाहिये । यह याद रखना चाहिये कि जीवन में हिंसा जिस प्रकार अनिवार्य है, उस प्रकार असत्य अनिवार्य नहीं है । इसलिये हिंसा के लिये जितनी छूट दी जा सकती है, उतनी असत्य या अतथ्य के लिये नहीं दी जा सकती । फिर भी इतनी बात तो ठीक है कि अगर दुरुपयोग न किया जाय तो अतथ्य भी Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] '[ जैनधर्म-मीमांसा सत्य होता है और तथ्य भी असत्य होता है। जैनाचार्योंने जो सत्य की व्याख्या की है उससे भी यही सिद्ध होता है । सवार्थसिद्धिकार कहते हैं " असत शब्द प्रशंसावाची है, असत् अर्थात अप्रशस्त । जो प्राणियोंको दुःख देनेवाला है वह अप्रशस्त है, भले ही वस्तु. स्थिति की दृष्टिसे वह ठीक हो या न हो । क्योंकि अहिंसा के पालन के लिये बाकी व्रत हैं, इसलिये हिंसा करनेवाले, दुःख देने वाले वचन अनुत हैं ।" महाभारतकार भी कहते हैं---- सत्य (तथ्यपूर्ण) का बोलना अच्छा है परन्तु सत्यकी अपेक्षा हितकारी बोलना अच्छा है । जो प्राणियोंके लिये हितकारी है, वही मेरे मतसे सत्य है । * इसके समर्थन में जैनशास्त्रोकी गुणस्थानचर्चा--जो कि एक महत्त्वपूर्ण असाधारण चर्चा है--भी सहायक है । आत्मिक विकासके क्रमके अनुसार जैनियोंने प्राणियोंकी चौदह श्रेणियाँ की हैं । पाँचवीं म सच्छब्दः प्रशंसावाची न सदपदप्रशस्तमिति यावत् । प्राणिपाड़ाकर यत्तदप्रशस्तम् । विद्यमानार्थविषयम्वा अविद्यमानार्थविषयम्वा । उक्तं च-प्रागेव अहिंसाप्रतिपालनामितरव्रतमिति तस्माद्धिसाकर्मवचोऽनृतमिति निश्चेयम् । * सत्यस्य वचनं श्रेयः सत्यादपि हितं वदेन । यभूतहितमत्यन्तम् एतत्सत्यं मतं मम ॥ -शान्तिपर्व ३२६,-१३, २८७-१९ । अथवा-'यदभूतहितमत्यन्तं तत्सत्यमिति धारणा।' -वनपर्व २०९-४। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसा ] [ ५५ श्रेणीमें प्राणी असल्यका आंशिक त्यागी होता है, और लट्ठी श्रेणी (प्रमत्तविरत ) में पूर्णत्यागी । छट्ठी श्रेणीमें पहुँचा हुआ मनुष्य सत्य महाव्रतका पूर्ण पालक होता है, फिर भी जैनशास्त्रोंके अनुसार असत्यवचनयोग बारहवीं श्रेणी तक रहता है । इसका मतलब यह हुआ कि छट्ठीसे बारहवीं श्रेणी तकके मनुष्य असत्य या अतथ्य भाषण तो करते हैं, परन्तु इससे उनका सत्य महाव्रत भंग नहीं होता । इससे यह बात स्पष्ट होती है कि जैनशास्त्रोंके अनुसार अतध्य होकरके भी सत्य होता है और तथ्यपूर्ण होकरके भी असत्य होता है | सत्यासत्यका निर्णय अर्थको देखकर नहीं, किन्तु कल्याण को देखकर किया जाना चाहिये । जैनशास्त्रों में ऐसा ही कथन है । कुछ यूरोपियन ग्रंथकार सत्यकी इस व्याख्यापर आक्षेप करते हैं परन्तु यूरोपियन नीतिशास्त्रज्ञों में ऐसे बहुतसे हैं जो उपर्युक्त व्याख्याका समर्थन करते हैं । लेस्ली स्टीफनका कहना है- . " किसी कार्यको परिणामकी ओर ध्यान देने के बाद ही उसकी नीतिमत्ता निश्चित की जानी चाहिये । यदि मेरा यह विश्वास हो कि झूट बोलने ही से कल्याण होगा तो मैं सत्य बोलने के लिये कभी तैयार नहीं रहूंगा । मेरे इस विश्वास में यह भाव भी हो सकता है कि इस समय झूठ बोलना ही मेरा कर्तव्य है"। नीतिशास्त्र के ग्रन्थलेखक-बेन, वेवेल. आदि अन्य अंग्रेज पंडितों का ऐसा ही मत है। तथ्य को असत्य और अतथ्य को सत्य सिद्ध कर देने पर भी सत्यासत्यकी समस्या हल नहीं हो सकती, व्यवहार में इससे बहुत अड़चने आ सकती हैं। लोग मनमाना झूठ बोलेंगे, फिर भी कहेंगे कि Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ । [ जैनधर्म-मीमांसा हम सत्यवादी हैं, हमने भलाई के लिये या आत्मरक्षा के लिये झूठ बोला, इसलिये वह झूठ भी सत्य है । इस उच्छृखलता को रोकने के लिये यह कह देना आवश्यक है कि स्वार्थसिद्धि का नाम कल्याण या आत्मरक्षा नहीं है, इसके लिये अधिकतम प्राणियों का सार्वत्रिक और सार्वकालिक अधिकतम सुख का विचार करना चाहिये । सष्टीकरण के लिये इस विषय में भी यहां कुछ सूचनाएँ करना आवश्यक मालूम होता है । निम्नलिखित सात सूचनाएँ विशेष उपयोगी मालूम होती हैं: १-न्याय की रक्षा के लिये अतथ्य भाषण करना चाहिये, केवल स्वार्थरक्षा के लिये नहीं। जैसे-- एक महिला के पीछे गुंडे पड़े हुए हैं और तुमसे उसका पता पूछते हैं कि वह क्या इस दिशा में गई है ! तुम अगर चुप रह जाते हो या 'नहीं मालम' कहते हो तो वे ' मौनं सम्मतिलक्षणम्' की नीति के अनुसार समझलेते हैं कि वह इसी तरफ गई है । अगर तुम विरोध करते हो तो तुम्हें गोली का निशाना बनाते हैं और इस बातका दृढ़ निश्चय करते हैं कि वह इसी दिशा में गई है । ऐसी हालत में अगर तुम झूठ बोल कर उनको उल्टे रास्ते लगा देते हो तो उसकी रक्षा हो जाती है । इस प्रकार उस महिला पर अत्याचार नहीं हो पाता । ऐसी परिस्थिति में असत्य बोलना ठीक है। शंका- कल्पना करो कि डाकुओं ने हमारे ऊपर आक्रमण किया उस समय हम सत्य बोलकर लुट जं.य या अपने धनकी रक्षा करें। समाधान-असत्य बोलकर भी धनकी रक्षा कर सकते हो। शंका--आपने कहा है कि स्वार्थ के लिये असत्य न बोलना Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य ] 1 ५७ चाहिये । तब अपने धनकी रक्षा के लिये झूठ बोलना कैसे उचित कहा जा सकता है ? क्योंकि यहां तो स्वार्थ के लिये झूठ बोला गया है। समाधान-डाँकुओं से धनकी रक्षा करना स्वार्थ की ही रक्षा नहीं है किन्तु न्याय की भी रक्षा है, डांकुओं के द्वारा जो कुकृत्य हो रहा है वह अन्याय है । उसका विरोध करने के लिये हम झूठ बोलते हैं, उसके साथ स्वार्थरक्षा हो गई यह दूसरी बात है, परन्तु उसका असली लक्ष्य न्यायरक्षा है, इमलिये उसके लिये वह झूठ बोल सकता है। शंका-एक आदमी पर खून का मुकदमा चल रहा है । यदि हम झूठी गवाही दे दें तो वह बच सकता है। ऐसी हालत में हम झूठी गवाही दें या न दें । झूठी गवाही देने से उसका कल्याण है और सच्ची गवाही देने से वह मारा जायगा और जिस आदमी का ग्वन हुआ है वह तो कुछ वापिस आ नहीं सकता। समाधान-वह आदमी तो वापिस न आजायगा किन्तु खुनी को मिलनेवाली फाँसी हजारों खनियों के हौसले ठंडे किये रहेगी । भविष्य के इन खूनियों को खून के पाप से बचाये रखने के लिये उसको फाँसी मिलना उचित है । इसलिये ऐसी ही गवाही देना चाहिये जिससे उसका अपराध साबित हो । हां, अगर उसका कृत्य अन्याय को रोकने के लिये हुआ है तो हम झूठी गवाही भी दे सकते हैं। जैसे-- मानलो कुछ राहगीर व्यापारियों पर डाकुओं ने आक्रमण किया । राहगीरों में से एक ने पिस्तौल चलाकर एक डॉकू को मार डाला । इसलिये डॉकू गोली चलानेवाले पथिक को ढूँढते Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] [ जैनधर्म-मीमांसा हैं-उनका विचार है कि गोली चलानेवाले को हम मार डालेंगे और बाकी पथिकों का धन लूटकर उन्हें जाने देंगे ऐसी अवस्था में डाँकुओं के साथ झूठ बोलकर उस पथिक की रक्षा करना उचित है । मतलब यह कि अन्याय के प्रतिकार के लिये अगर किसी ने खून किया हो तो झूठ बोलकर भी उसकी रक्षा करना चाहिये । जैनशास्त्रों में इस प्रकार न्यायरक्षा के लिये झूठ बोलने के बहुत से उदाहरण मिलते हैं । झूठ बोलकर के ही विष्णुकुमार मुनि ने सात सौ मुनियों की रक्षा की थी । भरत के ऊपर आक्रमण करनेवाले अतिवार्य राजा को धोखा देकर कैद करने के लिये राम लक्ष्मण ने नटवेष बनाकर उमकी वंचना की थी । लक्ष्मण ने तो नटीका वेष बनाया था । भट्टाकलंक ने बौद्ध विद्यालय में अपने जैनत्व को छुपाये रखने के लिये झूठ बोला था। इस प्रकार के बहुत से उदाहरण जैनशास्त्रों में मिल सकेंगे। ये कथाएँ कल्पित होने पर भी कथाकार जैनाचार्यों के विचारों का प्रदर्शन अच्छी तरह करती हैं। २-रोगी, पागल आदि के साथ उन्हीं के हित के लिये झूठ बोलना अनुचित नहीं है । परन्तु झूठ बोलने से रोगी आदि को लाभ है, इस बात का पक्का निश्चय कर लेना चाहिये। इस पर उपेक्षा करना या स्वार्थवश झूट बोल जाना पूर्ण असत्य है। रोगी का जीवन संशयापन है । अगर उससे यह कह दिया जाय कि तुम्हारा बचना असंभव है तो रोगी और भी जल्दी घबराकर मर जायगा-ऐसी हालत में उससे झूठ बोलना चाहिये । परन्तु यह रोगी है इसलिये झूठ बोलने में कुछ हर्ज नहीं' सिर्फ इतना Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य ] [ ५९ विचार करके झूठ बोल जाना घोर प्रमाद है क्योंकि इससे अधिक - तर अकल्याण होने की सम्भावना है । अगर रोगी ऐसा हो जिस पर समाज का या कुटुम्ब का भार हो, मरने के पहिले वह कुछ गुप्त रहस्य प्रकट करना चाहता हो, या कुटुम्ब की आर्थिक आदि व्यवस्था कर जाना चाहता हो तो ऐसी हालत में भी उसको मिथ्या बोलकर भ्रम में डाले रहना उसका और समाजका घोर अपराध करना 1 | अथवा यह सम्भव है कि रोग की असली अवस्था मालूम हो जाने से वह दूसरा उपाय निकालना चाहता हो जिसमें वह सफल हो सके । ऐसी अवस्था में असली हालत छुपाये रखना अनुचित है । इस असत्य का भुक्तभोगी तो मैं ही हूँ । मेरी पत्नी को अस्थिक्षय था परन्तु प्रमादी और अज्ञानी डॉक्टरों ने मुझ से जरा भी जिकर न किया और बार बार ऑपरेशन करके कंधे के नीचे की हड्डी काटते रहे । मुझे रोगजगत् का अनुभव तो नहीं था किन्तु कुछ घटनाओं के सुनने से मुझे यह अच्छी तरह मालूम था कि अस्थिक्षय ऑपरेशनों से कभी नहीं जाता । अगर मुझे पहिले ही रोग का परिचय करा दिया होता तो मैं कभी ऑपरेशन न करवाता । परन्तु बड़ी मुश्किल से यह बात मुझे एक साल बाद मालूम हुई । लेकिन उस समय तक शिकारी डॉक्टरों ने रोगी का कई बार शिकार कर लिया था, फिर भी मैंने हिम्मत न हारी और डॉक्टरी जगत् को लम्बासा प्रणाम करके जलचिकित्सा का अध्ययन किया और उससे रोगी को इस हालत में ले आया जिसमें कोई डॉक्टर न ला सकता । मेरे एक चिकित्सक और अनुभवी डॉक्टर ने मेरी पत्नी को देखकर हँसते हँसते कहा कि अब तुम भी डॉक्टर हो गये हो । फिर भी ऑपरेशन ने ज Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] [ जैनधर्म-मीमांसा क्षति पहुँचा दी थी उसकी पूर्ति न हो पाई । इस प्रकार डॉक्टर की एक छोटीसी झूठ ने जीवन की आधी शक्ति बर्बाद कर दी । इसलिये मैं कहता हूं कि रोगी से या रोगी के अभिभावक से झूठ बोलने का नियम बड़ी सतर्कता से पालना चाहिये । सच बोलने से यह रोगी किसी दूसरे डॉक्टर के पास चला जायगा, इस अभिप्राय से झूठ बोलना तो और भी बड़ा अपराध है। इस अभिप्राय से झूठ बोलनेवाले लोग तो कसाई की कक्षा में चले जाते हैं । मतलब यह कि रोगांके कल्याणकी दृष्टिसे झूठ बोलने का विचार करना चाहिये और उसमें प्रमाद न करना चाहिये । जो बात शरीर के रोगी के लिये कही गई है, वही बात आध्यात्मिक रोगकेि विषय में भी समझना चाहिये। समझदार आदमी को धर्म के गुण अवगुण बता देनेसे वह धर्मको ग्रहण करता है और उसमें स्थिर रहता है । परन्तु कोई मनुष्य या व्यक्ति जब धर्मके इस स्वाभाविक सत्य विवेचनसे आकर्षित नहीं होता, बल्कि भड़कानेवाली मिथ्या बातोंसे वह ढोंगियों की तरफ आकर्षित होता है, तब धर्मगुरुको भी मिथ्याभाषण की ज़रूरत पड़ जाती है । वह उन्हें सदाचारी बनाने के लिये स्वर्ग और नरकके कल्पित चित्र बताता है । विश्वास पैदा करने के लिये सर्वज्ञ की कल्पना करता है, पूर्व जन्मकी कल्पित कथाएँ सुनाता है, मनके ऊपर असर डालकर पूर्व जन्मका स्मरण कराता है । इस प्रकार धर्मप्रचार के लिये वह मिथ्याभाषण करता है । परन्तु इस मिथ्याभाषण से लोगों का कल्याण ही होता है, इसलिये इस मिथ्याभाषण से सत्यत्रत में कोई धक्का नहीं लगता । इसका एक सुदर उदाहरण णायधम्मका में Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६१ सत्य ] मिलता है । उसका संक्षिप्तसार यहाँ दिया जाता है राजा श्रेणिक का पुत्र मेघकुमार जोश में आकर महात्मा महावीर के पास दीक्षित हो गया । साधु तो हो गया परन्तु राजकु मारपन की गंध न गई । वह चाहता था कि साधु हो जानेपर भी राजा - साधु कहलाऊँ और दूसरे साधु मेरा आदर करें। परन्तु महात्मा महावीर के संघ में श्रीमानों और ग़रीबों में भेद न था । इसलिये मेघकुमार की इच्छा पूरी न हुई; बल्कि नया साधु होनेसे उसकी बैठक सबके अंत में थी इसलिये आते जाते समय साधुओं के पैरोंकी धूलि उसके ऊपर पड़ती, इससे उसे कष्ट तो होता था सो ठीक हैं किन्तु उसका हृदय अपमान का अनुभव करता था । वह महात्ना महावीर के पास आया । महात्माजी ने सब बातें शीघ्र समझ लीं और मेघकुमार से कहा T " कुमार ! तुम भूल गये हो परन्तु मुझे सब बातें याद हैं. आज से तीसरे भव में तुम गंगातट के जंगल में हाथी थे । दावानल से मरकर तुम फिर हाथी हुए । फिर आग लगी, परन्तु इस बार तुम बचे, तब तुमने अपने झुंड को लेकर वृक्ष उखाड़कर एक मैदान बनाया जिससे जब आग लगे तब तुम उसमें जाकर रक्षा कर सको । एक बार फिर आग लगी परन्तु तुम्हारे पहुंचने के पहिले वह मैदान अन्य जानवरों से भर गया था । बड़ी मुश्किल से तुम्हें खड़े होने को जगह मिली । परन्तु थोड़ी देर बाद अङ्ग खुजाने के लिये तुमने पैर उठाया ही था कि उस जगह पर एक खरगोश आ बैठा, तुमने सोचा कि अगर मैं पैर रखूँगा तो बेचारा खरगोश मर जायगा इसलिये तुम ढाई दिन तक तीन पैर से खड़े Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ । [जैनधर्म-मीमांसा रहे । जब आग बुझ गई, सब जानवर चले गये तब तुमने भी चलने की कोशिश की । परन्तु अङ्ग अकड़ जाने से गिर पड़े • और कुछ दिन समभाव कष्ट सहकर श्रेणिक पुत्र मेघकुमार हो गये । एक पशु के भव में तुममें इतनी दया, सहनशक्ति और विवेक था, परन्तु यह कितने आश्चर्य की बात है कि मनुष्यभव प्राप्त करके इतनी अच्छी सत्संगति में रहकर भी तुममें आज राजमद और असहिष्णुता है ।" म० महावीर को मेघकुमार के पुराने भव याद आये कि नहीं - यह तो वे ही जानें, परन्तु इसमें सन्देह नहीं कि मेघकुमार का उद्धार हो गया । उसका राजमद आंसू बनकर वह गया । वह पवित्र मनुष्य बन गया । इस प्रकार अध्यभाषण से सत्यव्रत भंग तो क्या दूषित भी नहीं होता । महात्मा ईसा के शिष्य 'पाल' कहते हैं "यदि मेरे असत्यभाषण से प्रभु के सत्य की महिमा और बढ़ती है तो इससे मैं पापी कैसे हो सकता हूं ?" परन्तु जैसे मैंने शारीरिक रोगी के विषय में कहा है कि इस नियम का उपयोग बड़ी सतर्कता से करना चाहिये, उसी प्रकार मैं यहां भी कहता हूं कि धार्मिक मामलों में भी इस प्रकार के असत्य का प्रयोग बहुत सतर्कता से करना चाहिये । अगर इस से जिज्ञासु लाभ उठा सके, उसका कल्याण हो तो ठीक है, नहीं तो इसका प्रयोग खतरे से खाली नहीं है । उदाहरणार्थ- हजार दो हजार वर्ष पहिले लोग जैसी कल्पनाओं पर विश्वास कर लेते थे उन कल्पनाओं पर आज अगर वैज्ञानिक सत्य का रूप दिया जाय, Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्य ] उनको ऐतिहासिक सत्य समझा जाय तो इसका फल यह होगा कि अनाज के साथ धुन भी पिस जायगा । एक के पीछे सभी बातें असल्य मानी जायगी । इससे हम कल्याण के स्थान में अकल्याण करेंगे। अगर कल्याण अकल्याण पर दृष्टि न रखकर अहंकारवश अपने मत की-असत्य होने पर भी पुष्टि करते जायेंगे और सत्य के आगे सिर न झुकायेंगे तो पूर्ण असत्यवादी हो जायेंगे । एक बात और है कि इस नियम के अनुसार पर-कल्याण के लिये ही असत्य बोलना चाहिये, न कि अपने सम्प्रदाय या अपने मत-विचार की विजय वैजयन्ती उड़ाने के लिये । अपने सम्प्रदाय में जो अपनापन होता है वह अहंकार है, स्वार्थ है । उसके लिये असत्य बोलना वास्तव में असत्य बोलना है । जैसे-दिगम्बर श्वेताम्बर आपस में लड़ते हैं, इनमें से दिगम्बर या श्वेताम्बर अपने को प्राचीन सिद्ध करने के लिये या किसी तीर्थ को अपना सिद्ध करने के लिये मनमाना झूठ बोलकर अतथ्यसत्य की दुहाई देकर कहें कि 'हमने यह झूठ धर्म के लिये बोला है इसलिपे क्षन्तव्य है' तो यह बहाना ठीक नहीं । इस प्रकार झूठ बोलनेवाला उतना ही झूठा और बेईमान है जितना कि दुनियादारी में झूठ बोलनेवाला हो सकता है, क्योंकि ऐसा करना असंयम से संयम में लेजाना नहीं है किन्तु दूसरे के नैतिक अधिकारों का हड़पना है । इसी प्रकार एक आदमी व्यभिचारजात या दस्सा है और मुनि बन गया है परन्तु कहता फिरता है कि व्यभिचारजात या दस्सा को मुनि बनने का अधिकार नहीं है, जब उससे कोई पूछता है, तुम भी ऐसे हो तो कहता है कि मैं ऐसा नहीं हूँ', इस प्रकार झूठ बोलकर वह यह सोचे कि Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] ( जैनधर्म-मीमांसा मैंने धर्मरक्षा के लिये यह झूठ बोला है तो उसका यह समझना भारी भ्रम है, क्योंकि ऐसा करके वह धर्म के स्वरूप पर वास्तविक विचार करने की सामग्री छीनता है। कहने का मतलब यह है कि असंयम से संयम में ले जाने के लिये या संयम में स्थिर रखने के लिये, दूसरे के नैतिक अधिकारों पर आक्रमण किये बिना निस्वार्थ भाव से झूठ बोलना क्षन्तव्य है । अन्यथा धर्म के नाम पर भी वह पूरी बेईमानी है। ३- अपना कोई रहस्य छुपाना न्यायसंगत हो तो उसे छुपाने के लिये झूठ बोलना अनुचित नहीं है। पहिले तो यथाशक्ति मौन रक्खे । यदि कुछ बोलना ही आवश्यक हो तो यह कह दे कि 'मैं नहीं कहना चाहता। यदि इतना स्पष्ट उत्तर देने की परिस्थिति न हो तो कहदे कि 'मुझे नहीं मालूम' । परन्तु कुछ कहनेसे ही अगर रहस्यभंग होने की सम्भावना हो तो झूठ बोल दे । जैसे बहुत दिन पहिले एकबार मुझसे एक पण्डितजीने पूछा कि-'आप सर्वज्ञ मानते हैं कि नहीं ? मैंने हंसकर कहा कि इस विषय में कुछ न पूछिये । उनने कहा--सब समझ गया अब पूछने की ज़रूरत नहीं है । मुझे अपने मनोभाव छिपाने की उस समय भी ज़रूरत नहीं थी इसलिये बात प्रगट होनेपर भी चिन्ता न हुई परन्तु जीवनमें ऐसे अवसर आते हैं कि झिझक के साथ उत्तर देनेसे ही असली बात प्रगट हो जाती है। जैसे समाचार-पत्रोंके संवाददाता चेहरे परसे राजनैतिक नेताओंके मनोभाव समझा करते हैं । अब अगर कोई राजनीतिकी किसी गुप्त मंत्रणामें शामिल हो और उससे शर्त कराली जाय कि Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य ] [६५ उसके द्वारा यह मंत्राणा प्रगट न की जायगी तो उसे छुपाने के लिये अगर उसे झूठ बोलना पड़े तो अनुचित नहीं है। परन्तु इस बातका खयाल रहे कि रहस्य छुपाना न्यायसंगत हो । न्यायसंगतता न होनेसे वह पूर्ण असत्यकी कक्षामें आ जायगा । एक विद्यार्थी आकर पछता है कि क्या आपने अमुक प्रश्न निकाला है ! मैं जानता हूँ कि निकाला है परन्तु अगर उत्तर देनेमें ज़रा भी शिक्षकता हूँ तो विद्यार्थी समझ जाता है, इस तरह परीक्षाका उद्देश ही मारा जाता है तथा में भी विश्वासघाती परीक्षक ठहरता हूँ। इसलिये उस समय दृढ़ताके साथ झूठ बोलना मेरा कर्तव्य होजाता है क्योंकि इस जगह रहस्य छुपाना न्यायसंगत है। इसी प्रकार एक आदमीने कोई आविष्कार किया है जिससे वह आजीविका करेगा, परन्तु पूछने पर अगर वह अपना रहस्य प्रगट करदे तो उसकी न्यायसंगत आजीविका ही मारी जाय, इसलिये उसे अपना रहस्य छुपाने का अधिकार है, भले ही उसे इसके लिये मिथ्या बोलना पड़े। प्रश्न- स्पष्ट शब्दों में इस प्रकार झूठ बोलनका भी विधान क्यों किया जाता है ? वह चुप रहे, हूँ हूँ करके रहजाय या और किसी तरहसे टालटूल करदे तो ठीक है । असत्य भाषण से तो बचना ही चाहिये। उचर-- स्पष्ट बोलने में और अस्पष्ट बोलने में थोड़ा अन्तर अवश्य है, फिर भी असत्यभाषण दोनों हैं । क्योंकि जो मनुष्य हूँ हूँ करके टाल देता है उसका भी अभिप्राय तो यही है कि पूछने वालेसे असली बात छुपी रहे । इसलिये वह जो कुछ बोला है, Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ) [ जैनधर्म-मीमांसा धोखा देनेके भावसे ही बोला है इसलिये हूँ-हूँ करना भी असत्य भाषण है । वश्चनाके अभिप्रायसे मौन रखना भी असत्य भाषण है । हाँ, अभिप्राय दोनोंमें एक सरीखा होने पर भी बाह्य दृष्टिस उसमें. अन्तर है. इसलिये होसके तो मौन रखकर या हूँ-हूँ करके काम चलाना चाहिये परन्तु इससे काम न चले ते. न्यायसंगत रहस्यकी रक्षाके लिये असत्यभाषण करना भी अनुचित नहीं है। .. : अगर रहस्य न्यायसंगत न हो तो छुपाने के लिये झूट बोलना अनुचित है । जैसे तक मुनिवेषी दुराचारी हैं, वह अपने दुराचारको छुपाता है या उसके भक्त दुराचारको छुपाते हैं, तो यह पूरा असत्य है, क्योंकि दुराचार न्यायसंगत नहीं है। ऐसे समाचार कब कितने कैसे छुपाना चाहिये, इस विषय का विस्तृत और स्पष्ट विवेचन सम्यग्दर्शन के प्रकरण में उपगृहन या उपवृंहणका कथन करते हुए किया गया है वहाँ से समझ लेना चाहिये । इसी प्रकार जो दुकानदार ग्राहकको कुछ का कुछ माल देते हैं, वे अगर इसे औद्योगिक असत्य कहकर असत्य के पापसे बचना चाहें तो नहीं बच सकते, क्योंकि उनका यह रहस्य न्यायसंगत नहीं है । इसी प्रकार जो स्त्री या पुरुष अपने दुराचार को छुपात हैं , वे आत्मरक्षा के नामपर असत्यके पापसे बचना चाहें तो नहीं बच सकते क्योंकि समाजके साथ उनने यह प्रतिज्ञा करली है कि हम अमुक जातिका दुराचार न करेंगे । अब अगर वे दुराचार करते हैं और आत्मरक्षा के नामपर उसे छुपाते हैं तो वे घोर असत्यवादी हैं, क्योंकि उनका इस प्रकार पाप छुपाना न्यायसंगत नहीं है । हाँ, जो दुराचार नहीं है परन्तु समाजने उसे दुराचार कह दिया हो तो Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य ] हमें स्पष्ट घोषण करना चाहिये कि हम इसे दुराचार नहीं मानते । ऐसा असत्य कदाचित् विरोधी असत्य की श्रेणीमें भी जा सकता है, परन्तु इनकी कसौटी न्यायसंगतता है उसपर ध्यान पूरा रखना चाहिये। ४-- अन्याय या अनुचित प्रतिज्ञा तोड़ना असत्य नहीं है । अज्ञानवश या भ्रमवश मनुष्य अनुचित प्रतिज्ञाएँ कर जाता है। उन प्रतिज्ञाओंको पूरा किया जाय तो अनर्थ या अन्याय होता है, इसलिये उन प्रतिज्ञाआको प्रतिज्ञा ही न मानना चाहिये । कानून भी इस प्रकार का विचार करता है, वह अनेक प्रतिज्ञाओंको अनुचित ठहरा देता है। मान लीजिये किसी आदमीने यह प्रतिज्ञा की कि अगर मेरा पुत्र स्वस्थ हो जायगा तो मैं देवीके आगे वकंगका वध करूँगा। परन्तु किसी आदमी ने उसे समझाया कि 'देवी तो जगन्माता है इसलिये वह बकरोंकी भी माता है । जब कोई अपनी मौतसे मर जाता है तब मातापिता उसको जलाने भी नहीं जाते, फिर माता अपने बच्चेको कैसे मरवा सकती है ? कैसे उसके खुनमाप्तका भोगकर सकती है ?' इस प्रकार समझानेसे वह समझ गया कि पशुबलि करना घोर पाप है । ऐसी अवस्था में वह पहिले की हुई प्रतिज्ञाको तोड़दे तो इसमें असत्य-भाषणका पाप नहीं लगेगा क्योंकि उसकी पहिली प्रतिज्ञा अन्याय्य और अनुचित थी। अर्जुन के विषय में कहा जाता है कि उसने प्रतिज्ञा की थी कि जो मुझसे कहेगा कि तू अपना गांडीव धनुष छोड़ दे, में उसका सिर काठ लूंगा । इसके बाद जब युधिष्ठिर कर्णसे पराजित Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ ] [ जैनधर्म-मीमांसा हुए तब उनने अर्जुन से कहा- 'तेरा गांडीव हमारे किस कामका ? तू इसे छोड़ दे ' । बस, अर्जुन ता तलवार उठाकर युधिष्ठिर का सिर काटने को तैयार हो गया ! श्रीकृष्ण वहीं खड़े थे उनने अर्जुन से. कहा- तू मूर्ख है, तुझे अभी तक धर्म का मर्म नहीं मालूम हुआ । तुझे अभी समझदारोंसे कुछ सीखना चाहिये । यदि I तू प्रतिज्ञाकी रक्षा करना ही चाहता है तो तू युधिष्ठिरकी निर्भत्सना कर, क्योंकि सभ्यजनों को निर्भर्त्सना मृत्यु के समान है । श्रीकृष्णने अर्जुनसे इस प्रकार प्रतिज्ञा भंग कराके धर्मकी रक्षा की । इतना ही नहीं, महाभारतका इतिहास ही बदल दिया । इस अनुचित प्रतिज्ञाको तुड़वाकर श्रीकृष्णने अच्छा ही किया, इसकेलिये उनकी युक्ति भी उस मौके के लिये ठीक ही है, परन्तु इससे भी अच्छी युक्ति यह मालूम होती है कि अर्जुन से यह कहा जाता कि 'मूर्ख, तेरी यह प्रतिज्ञा ही पाप है, तुझसे कोई कुछ भी कहे, परन्तु उसे मारडालने का तुझे क्या हक है ? अगर तू समझता है तो अपराध इस प्रकार बोलने का उसे दण्ड देने का अपने को अधिकारी के अनुकूल ही दण्ड देना चाहिये, परन्तु अपराध इतना बड़ा नहीं है कि किसी को मृत्युदंड दिया जाय ।' यहां तो युधिष्ठिर थे जिन के लिये भर्त्सना भी मृत्यु के समान थी परन्तु यदि कोई साधारण मनुष्य होता तो क्या उस का वध करना उचित कहलाता ? सच पूछा जाय तो यहां पर अर्जुनने युधिष्ठिरकी भर्त्सना करके भी अनुचित किया, क्योंकि युधिष्ठिर ने जो कुछ कहा उसे कहने का बड़े भाई के नाते उन्हें हक़ था; परन्तु अर्जुन को बड़े भाई का अपमान करने का हक़ न था । बल्कि उसने ऐसी Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य ] [ ६९ अनुचित प्रतिज्ञा करके केवल युधिष्ठिर का नहीं, किन्तु मनुष्यमात्र का अपराध किया था । इसी प्रकार आज कोई किसी मिध्यात्वीके चक्कर में पड़कर यह प्रतिज्ञा करले कि मैं अमुक वर्गको अछूत समझंगा, हरिजनों का स्पर्श न करूँगा, पीछे उसे अपनी भूल मालूम हो कि मनुष्य अवस्था में को पशुओं से भी नीच समझना घोर पाप है, मिथ्यात्वी के द्वारा दी हुई इस पापमय प्रतिज्ञाक । सत्य की रक्षा करना है । कर देना ही ऐसी नष्ट एक आदमीने जनेऊ पहिरने की प्रतिज्ञा यह समझकर ली है कि जिससे मैं शूद्र न कहलाऊँ । पीछे उसे मालूम हुआ कि शूद्रको, हमारे समान सदाचारी होनेपर भी अगर जनेऊ पहिरने का हक नहीं है तो जनेऊ पहिरना पाप है क्योंकि इससे मनुष्य मनुष्यका अपमान करता है, अहंकार की पूजा करता है । ऐसी अवस्था में जनेऊ की प्रतिज्ञा को और जनेऊ को तोड़ डालना ही सत्य की रक्षा रखना है । इस प्रकार और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं । करादी गईं प्रतिज्ञाएँ इसी श्रेणी में नासमझी में की गई या भी शामिल हैं । जैसे किसी अबोध बालिका विवाह कर दिया गया, विवाह के समय सप्तपदी उससे पढ़ा दी का किसी के साथ कि जिस के साथ दाम्पत्य जीवन निभ गई; परन्तु होश सम्हालने पर वह देखती हैं विवाह हुआ है वह वृद्ध है, उसके साथ मेरा नहीं सकता, तब वह उस सम्बन्धको तोड़ प्रतिज्ञाभंग का दोष नहीं लग सकता । इसी नियम के अनुसार डाले तो इस में उसे Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] [ जैनधर्म-मीमांसा बालविधवा भी वास्तव में विधवा नहीं कही जा सकती, क्योंकि उसकी प्रतिज्ञाएँ नाजायज़ हैं । .. . जिस बात को मानकर प्रतिज्ञा की गई है, वह अगर भ्रमरूप निकले तो भी प्रतिज्ञाको तोड़ना पाप नहीं है । जैसे कोई विद्यार्थी परीक्षा में प्रथम आया इसलिये मैंने उससे कहा कि मैं तुझे अमुक पारितोषिक दूँगा । परन्तु पीछे यह सिद्ध हुआ कि उसने चोरी की थी इसलिये प्रथम आगया है, ऐसी हालत में अगर मैं उसे पारितोषिक न दूं तो प्रतिज्ञाभंग का दोष न लगेगा। शंका-- इस प्रकार अगर आप प्रतिज्ञाओं के तोड़ने का विधान बना देंगे तो दुनिया में प्रतिज्ञा का कुछ मूल्य न रहेगा, क्याकि कोई न कोई बहाना हरएक को मिल ही जायगा । कल कोई स्त्री पतिसे कहेगी कि तुम्हें भला आदमी समझकर मैं तुम्हारे साथ शादी की थी, परन्तु तुम भले आदमी नहीं हो इसलिये मैं सम्बन्ध तोहती हूं । कल कोई किसी से महीने भर काम करायगा और अंत में कुछ भी पारिश्रमिक न देकर कहेगा कि तुमको सदाचारी समझ कर मैंने काम कराया था, परन्तु तुम तो सदाचारी या योग्य नहीं हो इस. लिये मैं कुछ नहीं देता । इस प्रकार जगत में अंधेर हो जायगा । . . समाधान--- इस नियम में मनचाहा बहाना निकाल कर प्रतिज्ञा तोड़ने की आज्ञा नहीं है, किन्तु प्रतिज्ञा के पालन से जगकल्याण में बाधा पहुंचती हो तब प्रतिज्ञा तोड़ना चाहिये । प्रतिज्ञा यदि अन्याय्य या अनुचित न हो तो उसे तोड़ना विश्वासघात करना है। ऊपरके उदाहरणमें अगर स्त्रीने यह शर्त कराली हो कि 'जबतक तुम भले आदमी रहोगे, तभीतक मेरा तुम्हारा सम्बन्ध रहेगा और तुम्हारी Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य] . [७१ भलमानसाहत का निर्णय भी मैं ही करूँगी' तो इस बहानेसे वह संबंध तोड़ सकती है । जिस आदमी ने महीने भर काम कराया है उसे सदाचार का बहाना निकालकर पारिश्रमिक रोकने का हक नहीं है क्योंकि पारिश्रमिक परिश्रम का दिया जाता है न कि आचार का । दूसरी बात यह है कि ऐसे मामलों में मात्रा का विचार करना चाहिये । जितने अंश की कमी हो उतने ही अंश में हमें अपनी प्रतिमा को भंग करना चाहिये । 'ककरी के चार को कटार मारिये नहीं' की कहावत यहाँ भी चरिचार्थ होती है । दुरुपयोग करनेवाले तो हरएक नियम का दरुपयोग करते हैं, परन्तु नियम के आशय पर विचार करके निःपक्षता से उसका पालन किया जाय और कराया जाय तो दुरुपयोग की सम्भावना नहीं है। ५-शब्द का अर्थ करते समय उसके आशय पर ध्यान देना चाहिये । आशय को ही वास्तविक अर्थ समझना चाहिये । आशय को गौण करके प्रतिज्ञा से बचना या दूसरे पर असत्यता का आरोप करना ठीक नहीं। यह कार्य भी बहुत कठिन है परन्तु इसके बिना छुटकारा भी नहीं है । सत्य और असत्य कुछ शब्दों का धर्म नहीं, आत्मा का धर्म है, इसलिये भावों के ऊपर ही अवलम्बित है। व्यवहार में भी हमें अभिप्राय के अनुसार अर्थनिर्णय करना पड़ता है । शास्त्रकारों ने भी कुछ भेद-प्रभेदों के साथ इस विषय का विवेचन किया है । गोम्मटसार जीवकांड में दस प्रकार के सत्य वचनों का उल्लेख किया गया है। जनपद, सम्मति, स्थापना, नाम, रूप, प्रतीत्य, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] [ जैनधर्म-मीमांसा व्यवहार, संभावना, भाव और उपमा ।। जनपद-ऐसे अनेक शब्द हैं जिनका एक भाषा में या एक देश में एक अर्थ होता है और दूसरे में दूसराः । जैसे दस्त का अर्थ हिंदी में 'विष्ठा' और उर्दू में 'हाथ' है । पाद का अर्थ हिन्दी में 'अपानवायु' और संस्कृत में 'पैर है। ऐसे प्रयोग होनेपर अर्थ का निर्णय देशके अनुसार करना चाहिये । जिस देशमें हम बोल रहे हों, वहाँपर उसका जो अर्थ होता हो वही मानना चाहिये । अथवा बोलनेवाला जिस भाषा में बोल रहा हो, उसीके अनुसार अर्थ समझना चाहिये । तथा बोलनेवालकी योग्यता आदिका विचार करके भी अर्थ करना चाहिते । बोलनेवालके आशय को बदलकर उसे असत्यवादी ठहराना ठीक नहीं । जुदी जुदी भाषाओं में एकही अर्थ को कहनेवाले जुदे जुदे शब्द होते हैं। हिन्दी में जिसे प्याज बोलते हैं, मराठी में उसे काँदा कहते हैं । एकबार दिल्ली के कुछ आदमी महाराष्ट्रमें गये और उनने एक दुकान से भजिये खरीदते हुए दूकानदारसे पूछा कि इसमें प्याज तो नहीं है ? दुकानदार प्याजका अर्थ न समझ कर बोला 'नहीं जी ! इस में प्याज नहीं, काँदा है ।' ग्राहकोंने जब भाजये खाये तब बिगड़कर बोले कि इस में तो प्याज है, तुमने हमें धर्म भ्रष्ट करदिया । उनका धर्मभ्रष्टतासे कैसे उद्धार हुआ यह तो नहीं माल्म, परन्तु इसमें संदेह नहीं कि दुकानदार सत्यवादी था, वह देश-सत्य बोला था। सम्मति- बहुतजन आदर आदि भावसे सहमत होकर जिस शब्दका प्रयोग करें उसके अनसार बोलना सम्मति सत्य है । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [७३ सत्य] जैसे त्रियोंको देवी और पुरुषोंको देव कहना । आदर होनेपर ऐसे शब्दोंका * प्रयोग किया जाता है । जैसे देवोंने महावीर निर्वाण का कल्याणक किया । यहाँ देव शब्दका अर्थ श्रेष्ठ मनुष्य करना चाहिये । मनुष्योंमें देव देवी शब्दका प्रयोग करनेवाले को कोई मिध्यावादी कहे तो यह ठीक नहीं। स्थापना- मर्शि आदि में किसी की स्थापना करके हम मर्ति को भी उसी नामसे कहने लगे। जैसे कुण्डल पुर जाकर मैंने महावीर भगवान् की वन्दना की । वाक्यमें महावीर का अर्थ महावीरप्रतिमा है, इसलिये इस प्रकार बोलनेवाला असत्यवादी नहीं कहला सकता । यह स्थापना सत्य है। नाम--अर्थ का अर्थात गुणागुण का विचार न करके व्यक्ति को अलग पहिचानने के लिये जो संज्ञा रक्खी जाती है उसके अनुसार बोलना नामसत्य है । जैसे यह देवदत्त है, ऐसा कहने पर कोई कहे कि तुम झूठ क्यों बोलते हो ? क्या यह देव-दत्त है ? क्या इसे देवने दिया है ? यह आरोप व्यर्थ है, क्योंकि यह नाम सत्य है। रूप-रूपादिगुण की अपेक्षा किसी का वर्णन करना रूप सत्य है । जैसे अमुक मनुष्य बहुत सुन्दर है । इस पर कोई कहे कि हाडमांस का देह कैसे सुन्दर हो सकता है ? तो यह ठीक नहीं, यहां सिर्फ रूप का विचार है । इसी प्रकार रस गंधस्पर्श पर भी विचार करना चाहिये । रूप तो यहां गुण का उपलक्षण है। __ अथवा बहुभाग की अपेक्षा कुछ वर्णन किया जाय तो वह * देव देवैरपिनातं विज्ञाप्य अयतामेदम् । क्षत्र चडामणि ! शोक न मुश्चति मनागमि देव देवी ॥ चन्द्रप्रभचारत Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] | जैन-धर्म-मीमांसा भी रूप सत्य है । जैसे अमुक मनुष्य बहुत गौर है । बाल आदि काले होने पर भी बहुभाग की अपेक्षा गौर कहा गया । प्रतत्यि - आपेक्षिक कथन को प्रतीत्य सत्य कहते हैं । जैसे यह आम बहुत बड़ा है । यद्यपि सैकड़ों चीजें आम से बड़ी हैं परन्तु यहां आमकी अपेक्षा से ही उसकी लघुता महत्ता का विचार किया जाता है, न कि समस्त पदार्थों की अपेक्षा से व्यवहार - संकल्प आदि की अपेक्षा से व्यवहार के अनुसार बोलना व्यवहार सत्य हैं । जैसे देहली कौन जा रहा है ? इसके उत्तर में कोई कह कि मैं जा रहा हूं । यद्यपि वह खड़ा हुआ है, फिर भी व्यवहार में ऐसा बोला जाता है, इसलिये व्यवहार सत्य है । सम्भावना - असंभव अर्थ को छेडकर उसी भात्रको लिये हुए सम्भव अर्थ को लेना सम्भावना सत्य है । जैसे, युवक अगर संगठित होकर कार्य करें तो मेरु को हिला दें । यहाँ मेरु का हिलाना असंभव है परन्तु इसका अर्थ यह है कि संगठित युवक मनुष्यसाध्य सब कुछ काम कर सकते हैं । महावीर ने तीनों लोकों का क्षुब्ध कर दिया । तीनों लोकों का अर्थात् समस्त विश्व को शुब्ध करना मनुष्य की शक्ति के पर हैं, परन्तु उसका यही अर्थ है कि जिस समाज में महावीर क्रान्ति मचा रहे थे, वह समाज महावीर के आन्दोलन से क्षुब्ध होगया । भाव-भाव के अनुसार किसी वस्तु का वर्णन करना, जैसे मैं कल उसके यहां अवश्य जाऊंगा । यहां पर इसका अर्थ सिर्फ यही है कि मैं जाने का प्रयत्न करूँगा, यह बात मैं सच्चे दिल से Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सता]. [७५ कह रहा हूँ, बाकी होना न होना मनुष्य के वश की बात नहीं है।। दो मिनिट बाद क्या होगा, यह कौन कह सकता है ! इसी प्रकार यह वस्तु शुद्ध है, यह वाक्य भी भाव-शुद्धि के अनुसार है, अर्थात् मेरी समझ से शुद्ध है। वास्तव में क्या है, यह कौन कह सकता है ! इत्यादि । । उपमा-समानता बतलाकर किसी अपरिमित वस्तुका परिणाम बताना । जैसे पल्योपमकाल, सागरोपमकाल । दो हजार कोसके गड्ढे में कोई छोटे छोटे रोम भर कर सौसौ वर्ष में निकालने नहीं बैठता । परन्तु असंख्य वर्षों के सम्झाने का यह तरीका है । असंख्य और अनन्त की संख्या के प्रयोग प्रायः इसी प्रकार किये जाते हैं। इस प्रकार दस प्रकार से शब्दों का सत्य अर्थ निणीत किया जाता है। नये प्रकरण में भी इस विषय में कुछ कहा जायगा । यह सत्य अपने अपने स्थान पर सत्य हैं । स्थानका खयाल न किया जाय तो असत्य हो जायेंगे । इसलिये प्रकरण आदि के अनुसार आशयका विचार करना चाहिये । इन दस भेदों के समझने से आशय के निकालने में कुछ सुभीता होजाता है। शब्दों की अर्थ-सूचक शक्ति सिर्फ इतने में ही समाप्त नहीं होजाती । कभी कभी प्रचलित अर्थ को छोड़कर बिलकुल जुदाही अर्थ लिया जाता है, और कभी कभी सुननेवालों के भावोंपर शब्दका अर्थ निश्चित रहता है । इस प्रकार शब्दोंके भयं तीन प्रकारके हैं। अभिधा, लक्षणा, व्यञ्जना; जिसमें अभिधा तो साधारण अर्थ है, लक्षणा और व्यञ्जना में विचार रहता है। जहाँ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैनधर्म-मिांसा मुख्य अर्थ सम्भव न हो वहाँ उसमें सम्बद दूसरा अर्थ लेना' लक्षणा है। जैसे सारा देश शिक्षित होगया । यहॉपर देश शब्दका अर्थ देशवासी है । व्यञ्जनामें प्रकरण आदिके अनुसार इच्छित अर्थ किया जाता है । जैसे ' सन्ध्या होगई' इस वाश्यक अर्थ, सामायिक करना चाहिये, नमाज़ पढ़ना चाहिये, प्रार्थना करना चाहिये, भोजन करना चाहिये, घर. चलना चाहिये आदि अनेक हैं। जैसा प्रकरण, वैसा अर्थ । _____ रूपक आदि अलंकारमय भाषामें भी, शब्दका अर्थ • बदल ! जाता है इसलिये सन्यासत्यके विचार कवल सीधे अभिधेय अर्थका ही विचार नहीं किया जा सकता किन्तु यह देखना चाहिये । कि बोलनेवाले का अभिप्राय क्या है ! अभिप्रायके ऊपरही सत्यासत्यका निर्णय किया जाना चाहिये । अभिधेय अर्थका त्याग तभी करना चाहिये जब वह असंगत मालूम होता हो । वैदिकयुगमें अग्नि की पूजाको जाती थी । इस . वाक्य में अग्निका आलंकारिक अर्थ नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह बात ऐतिहासिक दृष्टिसे असंगत है । परन्तु ' मेरे हृदय में आग • जल रही है इस वाक्य में आगका भौतिक अर्थ. असंगत है इसलिये सत्यासत्यके निर्णयमें विवेक और नि:पक्षतासे उसके अभिप्रायको जानने की कोशिश करना चाहिये, सायही अपने शब्दों का अपने अभिप्रायके अनुसारही पालन करना चाहिये । अभिधेय . अर्थको दुहाई देकर अभिप्राय का लोप करनाभी असत्य है। ६. यद्यपि सन्यके लिये अतथ्य-भाषण क्षन्तव्य कहा गया है फिर भी अध्य में कुछ न कुछ हानिकारकता है Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्या [७७ फिर भी अंतध्य में कुछ न कुछ हानिकारकता हैं भविष्यमें ऐसा मौका न आने इसके लिये प्रायश्चित्तभी करे। __धर्मका फल सुख है और अधर्मका फल दुःख है । अतध्यभाषणसे कुछ न कुछ दुःख पैदा होता है इसलिये उसको दूर करने की ज़रूरत है । अतथ्य का फल अविश्वास है । एक डाकूके सामने आत्मरक्षा के लिये भी झूठ क्यों न बोला जाय किन्तु इसका फल यह अवश्य होगा कि वह विश्वास करना छोड़ देगा । आज हम झूठ बोलकर भले ही आत्मरक्षा करले परन्तु जब वह वञ्चित होगा तो भविष्य में कोई झूठ भी बोलगा तो वह विश्वास न करेगा, इसलिये झूठ बोलकर के भी आत्मरक्षा कठिन हो जायगी । एक रोगी को झूठा आश्वासन दिया जा सकता है, परंतु जब रोगी के साथ झूठ बोलने का नियम सा बन जायगा, तब रोगी का विश्वास उड़ जायगा । फिर आश्वासन देने पर भी वह विश्वास न करेगा, क्योंकि जब वह नीरोगी था तभी जानता था कि रोगी के साथ लोग झूठ बोलते हैं । इसलिये कभी कभी सच्चे आश्वासन पर भी वह विश्वास न करेगा। इसी प्रकार अन्यं अतथ्य भाषणों के विषय में भी समझना चाहिये । प्रश्न-जब अतध्य-भाषण निरर्थक और दुःखप्रद है तब अपवाद के रूप में भी उसका विधान क्यों किया गया ! उत्तर-बिलकुल निरर्थक तो नहीं कहा जासकता, क्योंकि बिलकुल निरर्थक होता तो झूठ बोलने का कष्ट ही कोई क्या उठाता ! जबतक लोग सत्यभाषण करते हैं तबतक उसकी ओट Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ [ जैन-धर्म-मीमांसा में छुपकर असत्य अपना काम करता है। असत्य वचनों पर अविश्वास करने बालों की अपेक्षा सन्देह में पड़ने वालों और विश्वास करनेवालों की संख्या कई गुणी है। इसलिये निरर्थक तो नहीं कहा जा सकता; हाँ.दुःखप्रद अवश्य है । परन्तु आपवादिक मिथ्या भाषण, जिसका विधान ऊपर, किया गया है, जितना दुःखप्रद है उससे भी अधिक सुखप्रद है । इसलिये उसका विधान किया गया है। धर्मफल का विचार करते समय अधिकतम--सुख का ही विचार किया गया है। प्रश्न-जब अपधादिक मिथ्याभषाण कर्तव्य ही है लब प्रायश्चित की क्या ज़रूरत ! उत्तर-इसके लिये अन्य किसी प्रायश्चित्त की जरूरत नहीं है, सिर्फ आलोचना की जरूरत है । यह भी एक प्रायश्चित्त है । अर्थात् मैं अमुक कारण से अतथ्य बोला, इस प्रकार प्रकट करने की ज़रूरत है। इसका फल यह होगा कि लोग मिथ्यावादी न समझेंगे । मैं दूसरे के हित के लिये झूठ बोला या अपने लिये झूठ बोला, लोग इस पर विचार न करके अपने को मिथ्यावादी समझने लगते हैं। इससे ऐसी जगह भी वे अपना विश्वास न करेंगे, जहाँ आपवादिक मिथ्याका प्रकरण नहीं है। इस अविश्वास को दूर करने के लिये प्रायश्चित्त, आलोचना, असत्यताको स्वीकारता, की आवश्यकता है । इससे आपवादिक मिथ्याभाषण भी + सुखाधिक दुःख जनकत्वं धर्मसामान्यलक्षणम् । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य ] [ ७९ जहाँ तक होगा कम बोला जायगा । अपवादों का उपयोग आपद्धर्म समझकर करना चाहिये । प्रश्न - आलोचना कर देने पर अतथ्य भाषण को उपयोगिताही नष्ट हो जायगी । महात्मा महावीर अमर मेघकुमार से कह देते कि 'मुझे तुम्हारे पूर्वभवों का स्मरण तो नहीं आया था परन्तु उस समय तुम्हें समझाने के लिये मैंने पूर्वभव को बात कहीयी? तो मेघकुमार के ऊपर जो प्रभाव पड़ा था, वह भी नष्ट हो जाता और इस तरह वह असंयम की तरफ फिर झुक जाता; इतनाही नहीं किन्तु दूसरे लोगों पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ता । उत्तर - जहाँ आलोचना करने से अपवादिक असत्य भाषण का उद्देश पर कल्याण आदि माना जाय वहाँ उन लोगों के सामने आलोचना न करना चाहियें। अगर कोई भी आदमी ऐसा न हो जिस पर रहस्य प्रगट किया जाय तो मानसिक आलोचना ही करना चाहिये । प्रायश्चित्त का यह सारा विधान इसीलिये है जिससे कोई अपवादों का अधिक उपयोग न करे, तथा लोगों पर उसका बुर। प्रभाव न पड़े, वे अविश्वासी न हो जावें । इसलिये मूल उद्देश्य की रक्षा करते हुए जितनी बन सके, उतनी आलोचना करना चाहिये । प्रश्न- अहिंसा व्रत में भी आपने बहुत से अपवाद बताये थे किन्तु वहाँ पर प्रायश्चित्त का आपने ज़िक्र नहीं किया । इसका क्या कारण है ? उत्तर - यह पहिले ही कहा जा चुका है कि हिंसा जीवन के लिये जितनी अनिवार्य है, उतना असत्य नहीं । इसलिये अहिंसा Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८.] जिन-धर्म-मीमांसा के लिये जितनी ढील दी जा सकती है उतनी सत्य के लिये नहीं। इसके अतिरिक्त आपवादिक हिंसा के प्रायश्चित्त की उपयोगिता प्रायः कुछ नहीं है जब कि अपवादिक असत्य का प्रायश्चित्त अविश्वास को दूर करके सत्य के उद्देश्य में सहायक होता है। इसलिये यहाँ पर प्रायश्चित्त का उल्लेख किया गया है । -सत्य बचन भी अगर दूसरे को दुःखी करने के लिये बोला जाय अथवा शब्दों को पकड़ में आने पर भी दूसरे को धोख। देने के लिये आडी टेढ़ी शब्द रचना की जाय तो बहू असत्य हो कहलायगा । अंधे का तिरस्कार करने के लिये उसे अन्धा कहना, मुख को मूर्ख कहना भी, असत्य है। गाली देना आदि भी इसी असत्य में शामिल हैं, क्योंकि इससे दूसरे को अनुचित पीड़ा पहुँचती है । यह हिंसात्मक होने से असत्य है । हां, कभी कभी ऐसे वचन विरोधी हिंसा में भी शामिल होते हैं । जैसे कोई आदमी अपना अनुचित तिरस्कार करता हो, उससे बचने का सबसे अच्छा उपाय यही हो कि उसका भी कटु शब्दों से सत्कार किया जाय तो यह विरोधी हिंसा के समान क्षतव्य होगा। हाँ, इसमें मर्यादा का और आवश्यकता का विचार तो करना ही पड़ेगा। अपना कोई शिष्य या पुत्रादि आलसीहो, उसको उद्योगी बनाने के लिये कभी कुछ कठोर बोलना पड़े तो यह असत्य न समझना चाहिये; परन्तु शर्त यह है कि ऐसे समय कषायका आवेश न हो, सिर्फ दूसरे के सुधार की भावना हो। साथ ही मर्यादा का Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य ] [८१ उल्लंघन न किया जाय, आवश्यकतामे अधिक प्रयोग न किया जाय । प्रतिक्रिया उल्टा असर-न होने लंगे, इसका भी विचार किया जाय । मतलब यह कि दूसरे को दुःवी करने का भाव जरा भी न होना चाहिये । फिरभी इसमें छट्टे नियमके उपयोगकी जरूरत है। छल कपटमे आडीटेड़ी रचना भी अमल है। जैसे महाभारत के समय युधिष्टिर ने 'अश्वत्थामा हतः नरा वा कुंजरो वा' अर्थात अश्वन्याना मारा गया परन्तु का नहीं सकते कि वह मनुष्य था या हाया, कहकर द्राणाचार्य को धोखा दिया था । युधिष्टा ने अपने बचाव के लिय · नर वा, कुंजरो वा कह दिया था परन्तु वह जानसकर इतने धारसे कहा कि जिसमें रोणाचार्य बोख म जाँय, हुआ भी यही । परन्तु इससे युधिष्टिरका रथ जमीन पर चलने लगा जोकि चार अंगुल ऊँचा चलता था । युधिष्ठिर का रथ चार अंगुल ऊँचा चलता था, इस पर विश्वास करने का काम अगर मैले भक्तोंपर छोड़ दिया जाय तो भी इसमें संदेह नहीं कि प्रत्यवादिताने युधिष्ठिर का स्थान पृथ्वी अर्थात पृथ्वी पर रहने वाले प्राणिोरे अर्थात् साधारण समा में चार अंशुल ऊँचा था । परन्तु द्रोणाचार्य की ञ्चना करने के बाद ये पृथ्वी ९ अगाये अनि नाधारण लोगों की तरह हा गय। यह तो हुई बोलनकी बात । ऐसी ही लिखनेकी कुटिलता हाती है । असली बातको खराब अशगमें लिख जाना, एसी जगह लिख जाना जहाँ पाठकका ध्यानही न पहुँच, अथवा आगे पीछे ऐसी बातें लिख देना जिसमे उसका ध्यान दूसरी तरफ चला जाय और मौके Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ } | जैन धर्म मीमांसा पर साफ निकल जावे आदि भी अमत्य की कक्षा में हैं, क्योंकि इन सब क्रियाओं में वञ्चनाके परिणाम होते है तथा इसका फल भी वञ्चना हैं । सत्यासत्य के निर्णय के लिये ये थोड़ीसी सूचनाएँ हैं । सच्चा संयम होनेपर इनका पालन अपने आप होने लगता है और अमंयमी जीव इन नियमों के पंजेस बचकर भी सम्भवत झूठ बोल सकता है हाँ. निःपक्ष होकर इन सूचनाओं की कसौटी पर कसकर अपने व्यवहारकी जाँच की जाय तो अवश्य ही हम सत्यके बहुत सर्मा पहुँचेंगे। यद्यपि हम कितनी भी कोशिश करें, हमारे अज्ञानसे हम दूसरों को कष्ट देते रहते हैं । इसलिये अहिंमाकी दृष्टि से भी पूर्ण सत्यका पालन नहीं हो सकता । इसलिये हम अपना प्रयत्न ही कर सकते हैं । जो इस प्रयत्न में पूर्ण तत्पर है, वहां पूर्ण सत्यवादी है 1 अचौर्य दूसंरकी वस्तुको उसकी अनुमतिके बिना अपनी बनालेना चोरी है और इसका त्याग अचौर्य है। चोरी भी दुख:प्रद होने से हिंसा है तथा सत्यका नाशक होनेसे, या यों कहना चाहिये कि सत्य का घात किये बिना चोरी हो नहीं सकती इसलिये, चोरी भी असत्य है । व्यवहार में किसी को मारने में ही हिंसा शब्दका व्यवहार होता है इसलिये स्पष्टता के लिये चोरी को अलग पाप और अचौर्य को एक स्वतन्त्र व्रत रूप में स्वीकार करना पड़ा है । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचौर्य [८३ अहिंसा और सत्य के विषय में कहा था कि अहिंसा हिंसा और हिंसा अहिंसा हो जाती है ; सत्य असत्प, और असत्य सत्य हो जाता है, इसी प्रकार चौर्य अचौर्य आर अचौर्य चौर्य हो जाता है । बहन से कार्य एस है जो स्थूल दृष्टि से देखने पर चोरी मालूम होते हैं फिर भी वे चौरी नहीं होते; और बहुतसे काम ऐसे हैं जो चोरी नहीं मालूम होते, फिर भी वे चोरी ही हैं । इसप्रकार अहिंमा और सत्य के ममान यह व्रत भी सूक्ष्म है तथा निरपवाद नहीं हैं । कुछ उपनियमों तथा उदाहरणासे यह बात स्पष्ट हो जायगी । १-कोई वस्तु अगर अपनी हो परन्तु यह बान अपनेको मालूम न हो, फिरभी उसे लेलेना चोरी है, क्योंकि लनेवालेने उसे अपनी समझकर नहीं लिया है । यह तो आकस्मिक बात हुई कि वह अपनी निकली परन्तु अगर वह दो की होती तो उसे ग्रहण करनमें इसे कुछ ऐतराज़ नहीं था । इसलिये ऐसा मनुष्य चोर ही है । यह अपनी है या नहीं, इस प्रकार के संदेहमें पड़करमी ग्रहण कर लेना * चेरी है । २-अपने कुटुम्चियोसे छुपकर अपनी वस्तु का ग्रहण करना चोरी है । कुटुम्बकी सम्पत्ति पर प्रत्येक कुटुम्बीका न्यूनाधिक अधिकार है । इस यं जब हम कोई चीन ग्रहण करते है तब अन्य कुटुम्बियों का अधिकार हडप करते हैं। मानलो कि हमे कोई राकनेवाला नहीं, है या अनुमति मांगने भर की देर है, सूचना देनेपर तुरंत मिल जायगी, तो भी अनुमति न लेकर किसी चीज का उपयोग __ + स्वमपि स्वं मभ स्याद्वान वति द्वापरास्पदम । यदातदाऽऽ दीयमानम् बता जाय जायते । सागार धमामुन-४९ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ] [ जैन-धर्म-मीमांसा करलेना चोरी ही है । अनुमति लेने का समय न हो तो पीछेसे सूचना देना चाहिये, अथवा उसके छुपाने का भाव तो कदापि न होना चाहिये । कल्पना करो हम बाजारसे दस आम लाये । घरमें पाँच आदमी हैं परन्तु दुमरोंने यह सोच कर कि इनका परिश्रम उच्च श्रेणीका है इसलिये मुझे दो के बदले चार आम दिये और मैं खागया । यद्यपि यहाँ कुछ कहने सुनने की आवश्यकता नहीं हुई फिर भी सबने मौनभाषामें यह कह दिया कि इमने तुम्हारा हिस्सा तुम्हारी ये ग्यता और परिश्रमो अनुसार चुका दिया है, अब हमारे ऊपर ऋण न रहा आदि, परन्तु यदि दो आम चारीसे खाता हूँ और प्रकट रूपमें उतना ही हिस्सा खाता हूँ जितना दूसरोंको मिला है तो इसका अर्थ यह हुआ कि मैं मौनभाषा में कह रहा हूँ कि मैंने अपनी योग्यताका अधिक भाग नहीं लिया इसलिये वह ऋण तुम लोगों पर चढ़ा हुआ है । आसमीमे रुपये लेकर भी यह कहना कि मैंने नहीं लिया, कुछ न देकर के भी यह कहना कि मैंने दान दिया है, जैसे यह चोरी है, उसी प्रकार इस आमके दृष्टान्तमें भी चोरी है। इसी प्रकार बच्चों वगैरहसे छुपाकर खाना भी चोरी है, क्योंकि इस में कुछ न देकर भी दूसरोंको ऋणी बनाये रहने की दुर्वासना है। ३-में अर्थोपार्जन करता हूँ. इसलिये सम्पत्तिपर मेरा ही पूर्ण अधिकार है यह समझना भी चोरी है। समाजने सबकी सुविधाके लिये काम का बटवारा कर दिया है। कुछ काम पुरुषके हाथमें सौंपा. कुछ स्त्रीके हाथमें । वृद्धावस्थामें शरीर शिथिल होजाने पर या अपना गृहस्थोचित कर्तव्य कर जाने पर माता पिताको पेंशन दी। समाजके दो प्रतिनिधियों ( माता पिता) ने तुम्हें पाला, इसलिये Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचौर्य ]. [८५ तुम्हें अपनी सन्तानका पालन करना चाहिये, इस प्रकार मैं कर्तव्य में बँधा हूँ । माता पिता तथा सन्तान हमारे साहुकार या साहुकार के प्रतिनिधि हैं । मैं जो कुछ देता हूँ वह अपना ऋण चुकाता है। ऋण चुकानेको मैं दान स-झू इसका मतलब यह हुआ कि मैं ऋण को अस्वीकार करता हूँ । इस प्रकार परधनको जबर्दस्ती अपनाता हूँ, यह चोरपन ही नहीं है किन्तु जबर्दस्तीका भाव आजानेसे डाँकूपन भी है। और स्त्री तो स्पष्ट रूपमें ही साझेदार है। हमारे अमुक परिश्रमका उपयोग वह करती है और उसके अमुक परिश्रमका उपयोग हम करते हैं, इस प्रकार वह हिस्सेदार है । अब अगर मैं उपार्जित सम्पत्तिपर अपना पूर्णाधिकार समझता हूँ तो मैं अपने हिस्सेदार का तथा साहुकार का हिस्सा हेड़ा जाता हूँ इस प्रकार मैं चौर हूँ। घरमें अगर कुटुम्ब विभक्त न हुआ हो तो पुत्रवधू भ्रातृवधू, या भौजाई विधवा हो तो उसका सम्पतिमें उचित हिस्सा न मानना तथा उसका हिस्सा उसकी इच्छा होने पर भी न देना भी चोरी है। ४-अविभक्त कुटुम्ब होनेपर भी जो सम्पत्ति किसी व्यक्तिके लिये नियत करदी गई हो, उसे उसकी इच्छाके बिना ग्रहण करना भी चोरी है। जैसे-अविभक्त कुटुम्बके भीतर स्त्रीधन अर्थात विवाह के अवसर पर दोनों पक्ष (वरपक्ष और कन्यापक्ष ) से मिली हुई सम्पत्ति पर अधिकार करलेना चोरी ही है। इसका चर्यिपन स्पष्ट ५-कन्याविक्रय और वरविक्रय भी चोरी है। वरपक्षसे अमुक धन लेकर कन्याका विवाह करना कन्याविक्रय है, और कन्यापक्षसे अमुक धन लेकर वरका विवाह करना वरविक्रय है। ये दोनों Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-धर्म-मीमांसा ही चोरी है । कन्याको अधिकार है कि वह अपनी इच्छा के अनुसार योग्य वर से शादी करे और वर को अधिकार है कि वह अपनी इच्छाके अनुसार योग्य कन्याके साथ शादी करे । कन्याविक्रय और वरविक्रयमें दोनों का यह जन्मसिद्ध अधिकार छीन लिया जाता है । शंका-कन्याशुल्क लेनका रिवाज़ तो बहुत पुराना है। और यह उचित भी मालूम होता है; क्योंकि जब माता पिताने कन्याका पालन किया है तब उसका मिहनताना उन्हें मिलना ही चाहिये। समाधान - कन्याशुल्कका विज समाजकी अविकसित अवस्थामें था किन्तु वह बुरा था । ज्या ज्यों विकास होता गया त्यों यो उस कुरीतिका त्याग भी होता गया । पुराना होनेमें कोई पाप पुण्य नहीं बन जाता। इसके अतिरिक्त वरविक्रयका रिवाज तो पुराना भी नहीं है और न कन्याशुल्कके समान थोडासा भी नैतिक सहारा रखता है । वरपक्षको किस हैसियतसे कन्यापक्षसे कुछ लेनेका अधिकार मिलसकता है ! कन्या के मातापिताने कन्याका पालन कर दिया, इतना ही काफी है। अब यह कन्याको सम्पत्ति क्यों दे ! कन्याविक्रयके रिवाज़से कन्याशुल्कका रिवाज कम खराब है । क्योंकि कन्याशुल्व के रिवाज़ में तो वर कन्याको पारस्परिक चुनाव करनेका पूर्ण अधिकार होता था। दोनोंका सम्बन्ध जब तय हो जाता था तब वर, कन्या के पितासे शुल्कका परिमाण पूछता था । वह शुल्क कन्याके पालनपोषणके खर्च के अनुसार नियत रहता था, न कि वरके अनुसार घटता बढ़ता था। कन्याविक्रयमें तो जितना ही अधिक बढ़ा और अयोभ्य वर होगा, कन्याका पिता उतना ही अधिक धन Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अचौर्य । [८७ लगा । एक तरहसे वह वरकी योग्यताका विचार न करके कन्याको नीलाम पर रख देगा। जो मबस अधिक धन दे. वही कन्याको प्राप्त करे । इसपर इसमें कन्याका अधिकार हड़प लिया जाता है। कन्याशुल्कके रिवाजमें यद्यपि इतनी बुगई नहीं है, फिरभी बुई है, क्योंकि इससे चुनाव में बाधा पड़सकती है । किसांके पास धन न हो और कन्या उसे पसन्द करे तो उसकी यह पसन्दगी कन्याशुल्क न चुका सकने के कारण व्यर्थ जायगी । हा. कन्या शुल्कके रिवाज में शुल्क चुकाने का एक तरीका और था कि जो शुल्क न चुकासके वह अमुक समय तक श्वसुर घरमें रहकर काम करे, इस प्रकार उसका ऋण चुक जायगा । इस तरह इस प्रथा का बहुत कुछ विषापहरण होगया था, फिरभी व्यवहारमें यह बहुत कठिन होनेसे इससे हानि ही थी, इससे उठगया। इसके अतिरिक्त इन दोनों-कन्या विक्रय और कन्याशुल्कके विषयमें एक विचारणीय बात और है । मातापिता का यह सममना कि हमने पुत्रीका पालन किया है इसलिये उसके बदलेमें कुछ लेनेका हमें अधिकार है, अनुचित है । पहले कहा जाचुका है कि सन्तानका पालन समाजका ऋण चुकाना है ( पुत्रको तो इसलिये पिताकी सेवा करना चाहिये कि वह सम्पत्तिका उत्तराधिकारी है। कन्या पिताके इस उत्तराधिकारसे मुक्त है इसलिये सेवासे मुक्त है। हाँ, दूसरे घरमें रहते हुएभी जितनी सेवा की जासकती हो, उतनी करना चाहिये । परन्तु पिता इसके लिये नैतिक दबाव नहीं डाल सकता) इसलिये उसे कन्याशुल्क लेनेका क्या हक है ! ऋण चुकाना कुछ साहुकारी नहीं है कि वह वापिस मांगी जाय । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८) [जैन-धर्म-मीमांसा इसलिये कन्याशुल्क चोरी है, और कन्याविक्रय तथा वरविक्रय तो इससे भी कईगुणी चोरी तथा डॉकूपन है। ६--अन्याय्य उपायोंसे तथा बदलेमें कुछ भी न देकर धनो. पार्जन करना भी चोरी है । किसी जगह जूआ या सट्टेकी मनाई हो तब इनसे धन कमाना तो चोरी है ही, परन्तु यदि इनकी कानूनसे मनाई न भी हो तो भी इन मागोंसे धन कमाना चोरी है। क्योंकि धनोपार्जनके अधिकारका नैतिक मूल यही है कि हम समाजसेवाका बदला प्राप्त करें। हमने ज्ञानस, शब्दसे, कलासे शारीरिक श्रमम कुछ सेवा की, उसके बदलेमें धन लेने का हमें अधिकार मिलता है; अगर हमने कोई भी सेवा न भी तो धन लेना चोरी है । जूर और सट्टे, हम समाजकी कोई सेवा नहीं करते इसलिये हमें उस धन प्राप्त करनेका कोई अधिकार नहीं है । फिर भी हम धन लेते हैं, इसलिये वह चोरी है। ७--जिस मालका वायदा किया है उसके बदले में दूसरा खराब माल देदेना भी चोरी है । इसका चोरीपन स्पष्ट ही है । ८. भ्रमसे, अनिच्छापूर्वक वा छलसे अनुमति प्राप्त करलेना भी चोरी है । जैसे कोई आदमी हमारे पास रुपये रखगया परन्तु भूलसे उसने थोड़े माँगे तो जानते हुये भी उसके बाक़ी रुपये न देना भी चोरी है। कोई आदमी देना तो नहीं चाहता किन्तु अगर न देगा तो हम या नुकसान करदेंगे या अमुक काम ठीक तरहसे न करेंगे-ऐसे दबावसे धन लेना चोरी है । लाँच लेना इसी श्रेणीकी चोरी है । लाँच लेना और इनाम लेना, इन दोनों में अन्तर है। इनाम प्रसन्नताका फल है और लाँच विवशताका फल है। इसलिये Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचौर्य ] [ ८९ इनाम में जरा भी चोरी नहीं है और लाँच पूरी चोरी है । १ - - जनसाधारणको सम्पत्तिका न्यायानुसार उपयोग करना चोरी नहीं है । इसमें व्यक्तिको अनुमति नहीं माँगना पड़ती, जैसे गड़कर चलने के लिये, तालाब से पानी लेनेके लिये अनुमति नहीं लीजाती; फिरभी यह चोरी नहीं है । परन्तु यदि स्वच्छता के लिये यह नियम बनादिया गया हो कि अमुक घाट पर स्नान न किया जाय. अमुक बगीचे में अमुक समय से अधिक समय तक न बैठा जाय, तब इन नियमों का मंग करना भी चोरी है । अगर हमें इन नियमोंके बाहर काम करने की ज़रूरत हो तो अनुमति लेना चाहिये। हाँ, अगर हमें यह मालूम हो कि अमुक प्रतिबन्ध अधिकारियोंने पक्षपातवश अन्यायपूर्वक बनाया तो उसे हम तोड़ सकते हैं। परन्तु उसमें सत्याग्रह के नियमों का पालन होना चाहिये । १० - अनुमतिके बिना किसीकी चीज़ लेना ही चोरी नहीं है किन्तु उसीके पास रहने पर भी दूरसे उसका उपयोग कर लेनामी चोरी है। जैसे छुपकर कोई ऐसा खेल देख लेना जिसपर टिकिट हो या छुप कर गाना सुन लेना चोरी है समाचार पत्र बालेकी दूकानपर आकर समाचार पढ़ लेना और फिर पेपर न खरीदना चोरी है। हाँ, जितना हिस्सा उसने विज्ञापन के लिये पढ़ने को छोड़ रक्खा हो उतना पढ़नेमें हानि नहीं है, क्योंकि उतना पढ़नेके लिये उसने सभीको अनुमति देवी है, इसलिये हमें भी वह अनुमति प्राप्त है Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] जिन-धर्म-मिांसा अभी तक जो चोरियां बताई गई उनका सम्बन्ध धनसे है परन्तु धनकीही चोरी नहीं होती किन्तु धनसे भिन्न वस्तुकीभी चोरी होती है । जैसे ११-यशकी चोरी एक बड़ी भारी चोरी है। जैसे दूसरे की रचनाओंको अपना बताना चोरी है। रचनाकी मुख्य वस्तु हड़पकर उसको छुपानेके लिये कुछ दूसरा रंग चढ़ाना भी चोरी है। आवश्यक्तावश अगर हमें ऐसा करना पड़े तो कृतज्ञता प्रगट करना चाहिये। शंका-मनुष्यके पास अपना तो कुछभी नहीं है। मनुष्य अगर पैदा होने के साथ समाजसे अलग कर दिया जाय तो वह जीवित ही न रह सकेगा। अगर वह जीवित भी रहा तो पशुसे भी बुरा होगा । वह मनुष्यके समान बोल भी न सकेगा । जय भाषा तक अपनी नहीं है तब और तो अपना क्या होमा ! इसलिये वह अपनी किसी रचनाको कमी अपना नहीं कह सकेगा। कहेण तो भाप उसे चोर कहेंगे। समाधान-जो ज्ञानधन जनसाधारणको सम्पति रूप प्रसिद्ध हो गया है, उसे लेनेमें चोरी नहीं है, न उसके लिये कृतज्ञता प्रगट करनेकी ज़रूरत है । मिट्टी जनसाधारणको हो सकती है, परन्तु मिट्टी को लेकर जो कोई रचनाविशेष (घर आदि) बनाता है, वह उसीकी चीज़ कहलाती है । सामादि जो सम्पत्ति जनसाधारणकी चीज़ बन गई है उसके विषयमें व्यक्तिविशेषको व्यक्तिविशेषकी कृतज्ञता प्रगट करने की ज़रत नहीं है। करे तो Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचौर्य अच्छा, न करे तो भी कोई बुराई नहीं है। परन्तु किसीका जो विचार जब तक जनसाधारणकी सम्पत्ति न बन जावे तब तक कृतमतापूर्वक ही हमें उसका उल्लेख करना चाहिये। शंका--अमुक विचार जनसाधारणकी सम्पति बन गया है, इसको कैसे समझा जाय! समाधान -- जब लोगोंमें यह खब प्रसिद्ध होजाय कि यह विचार अमुकका है तो वह जनसाधारणकी सम्पत्ति है । महावीर, बुद्ध, रामायण, महाभारत आदि के उपदेश जनसाधरणकी सम्पाते कहे जासकते है। इस विषय असली बात तो यह है कि जो बातें हमने अपने विचारसे खोजी हो, जो हमारे अनुभवका फल हों वे हमारी है. भलेही वे अन्यत्र भी पाई जाती हो । दार्शनिक जगत्में ऐसे विचारों की समानता बहुन होती है । बैज्ञानिक खोजके विषय में समानताकी बात इतनी नहीं कहा जा सकती; तथा कहानियों तथा कविताओंके विषयमें तो समानता अशक्यही समझना चाहिये । मौलिक क्या है, और अमौलिक क्या है, इस विषयमें कदाचित दुनियाँको धोका दिया जासके, परन्तु अपना अन्तरात्मा इस बातको अच्छी तरह जानता है कि मेरा क्या है और चोरीका क्या है। १२-आवश्यकता होनेपर और मौका आनेपरभी कृतज्ञता प्रकाशित न करना भी चोरी है । जैसे किसीके उपदेशसे या सहायतासे कोई विद्वान बानी बना, या उसके मिथ्या विचार बदले अब यदि यह कहे कि इसमें तुम्हारा स्या, तो ऐसा होनाली Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ (जैन-धर्म-म मामा था इसलिये अपनेही आप मेरे विचार बदले हैं, तुममें मेरे विचारों के बदलनेकी क्या ताकत है ! इस प्रकार उपकार न मानना उसके यशकी चोरी है। १३-स्वार्थवश, द्वेषक्श एकका यश दुसरेको देना भी चोरी है। जैसे कोई ब्राह्मण जाति का पुजारी कहे कि धर्म का प्रचार नो ब्राह्मण ही कर सकते हैं, क्षय और वैश्य ब्राह्मणों की बराबरी कदापि नहीं कर सकते; महावीर का तो नाम है, काम तो उनके ब्राह्मण शिष्यों का है। यह भी जातिमद के कारण की जानेवाली यश की चोरी है। इसी प्रकार किसी आदमी मे देष होगया हो तो उसकी सफलताओं का श्रेय दूसरों को देना, उसकी मफलता की चर्चा में उसका नाम भी न लेना या दबेछुपे शब्दों में गाण बनाकर लेना आदि भी चोरी है, क्योंकि इसमें विपक्षी का यश चुराकर वह बोरी का माल अपने पक्षबालों को दिया जाता है । ११-दुनियाँ को बताना कि हमने इम चीन का त्याग किया है परन्तु छुपकर, या इस ढंग से जिससे लोगोंको यह पता नगे कि हम इसका सेवन करते हैं, सेवन करना चोरी है । रात्रिभोजन स्यागी समाज से छुपाकर-उसमाज से छुपाकर कि जिसके सामने उसे प्रगट करना है कि मैं अमुक का त्यागी है . रात्रिभोजन करना चोरी है । इसी प्रकार अन्य सब स्याका इस प्रकार यश की चोरी मी चोरी है। . Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचौर्य ] [ ९३ १५-दूसरे के नैतिक अधिकारोंकी भी चोरी होती है स्टेशन पर टिकिट खरीदने के लिये या और किसी जगहपर बहुतसे आदमी एकत्रित हैं । उनको क्रमश: टिकिट आदि लेना चाहिये परन्तु क्रम भंग करके अपने से पहिले वालोंकी पर्वाह न करके शक्तिसे, चञ्चलतासे, धृष्टता से पहिले टिकिट लेलेनाभी चोरी है । रेल में हम चार आदमियों की जगह रोके हुए हैं। जगह यदि खाकी पड़ी हो तो उसका उपयोग भलेही किया जाय परन्तु जब दूसरोंको बैठने को भी जगह न मिले, फिर भी अधिक जगहको रोके रहना चोरी है। जगह होने परभी दूसरे यात्रियों को न आने देना चोरी है । टिकटके दृष्टान्तमें हम दूसरेके अधिकार - समय - आराम आदिकी चोरी करते हैं। रेलमे बैठने की जगह दृष्टान्तमें इन सब की चोरी स्पष्ट है 1 इसप्रकार हम जीवन में पद पद पर चोरी करते हैं । इनमें से बहुतसी चोरियाँ केवल हमारे पापकी ही सूचना नहीं देती किन्तु वे हमारी असभ्यताकी भी सूचना देती हैं। ये क्रियात्मक चोरियाँ जब हमारे मन में भी स्थान जमा लेती हैं तब भी वे चोरी ही कहलाती हैं इन उदाहरणोंसे चोरीका स्वरूप समझ में आ जाता है । चोरियो की सूची बनाना तो असम्भवही है परन्तु उसका श्रेणीविभाग करना भी कम कठिन नहीं है । जब अहिंसा के अपवाद थे, सत्य के अपवाद थे. तब इस व्रत के अपवाद न हो यह कैसे हो सकता है ! बाहिरी अहिंसा और बाहिरी सत्य कभी कभी कल्याण के विरोधी होजाते है, इसलिये Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ . [ जैन धर्म-मीमांसा कल्याणकी रक्षाके लिये बाब हिंसा और बाह्य अपत्यका उपयोग करना पड़ता है . कल्याणकर होनेसे हिंसाको हिंसा नहीं माना भाता। ये सब बातें अचौर्य व्रतके सम्बन्ध भी हैं । इमालेये इसके भी बहुतसे अपवाद है। उदाहरणके तौरपर पाँच आवाद यहाँ बताये जाते हैं। १ किसाकी प्राणरक्षा, स्वास्थ्यरक्षा आदि के लिये उसके हितकी दृष्टिसे चोरी करना अनुचित नहीं है । जैसे कोई आदमी विष खाकर आत्महत्या करना चाहता है। मुझे मालम हुआ कि उसने अमुक जगह विरकावा है मैंने जाकर चुरा लिया तो यह वास्तवमें चोरी नहीं है। इसीप्रकार रोगी को अपथ्य से बचाने के लिये अपथ्यकी चोरी करनाभी चोरी नहीं है। पहिले कहा था कि बच्चोंसे छुपाकर वस्तु ग्वाना चोगे परन्तु अगर यह मालूम हो कि इस चीजको खिलानेसे बच्चे बीमार होजायगे तो उनसे छुपाकर खानामी चोरी नहीं है । यद्यपि इस अपवाद की ओटमे हम वास्तविक चोरीको भी अचर्यि कह सोते हैं, परन्तु कह सकना एक बात है और होना दूसरी बात । अपने भावोंको हम अपनेसे नहीं छुपा सकते । २-- अन्यायसे अथवा अनधिकारी होने पर भी अगर किसीने किसी वस्तुको अपने अधिकार कर लिया हो तो उसे चुराना चोरी नहीं है। जैसे मानो किसी सुलेखकने जनसमाज की भलाई के लिये कोई ग्रंथ बनाया और वह ग्रंथ किसी के हाथ लग गया अब वह अपनी प्रतिष्ठाको बनाये रखनेके लिये या और किसी Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचौर्य [९५ स्वार्थवश उसका उपयोग किसी को नहीं करने देता, या उसको बर्बाद हो जाने देता है तो उस प्रथका चुरा लना उचित है। किसी ऐसी अनुचित प्रतिज्ञामें बाँधकर अगर वह ग्रंथ मिले, जिस प्रतिज्ञासे समाजके कल्याणमें बाधा पड़ती हो तो उसे तोड़ देनाभी उचित है अथवा किसीने से साधु मा वेष बनाया हो जिसके अनुसार वह परिग्रह न रख सकता हो, फिरभी वह परिग्रह रखता हो तो उसका परिग्रह चुरा लेना भी उचित है; क्योंकि वह इस परिग्रहको सबनेका अधिकारी नहीं है : ३ - अत्याचार रोकने के लिये अगर चोरी करना पड़े तो वह भी उचित है । एक आदमी खुन करने के लिये कुरी लिये बैठा है । मौका पाकर उस की छुरी चुरा लेनाभी उचित है । परन्तु य: याद रखना चाहिये कि अन्यायमे खुन करने पर जो उतारू है उसीकी चगि उचित है । जो आत्मरक्षा के लिये छुरी लिये प्रेम है, उसी आत्मरक्षाका साधन चुरा लेना उचित नहीं है । ४- अन्यायका विरोध करनके लिये यदि सत्याग्रह करना हो और उसमें अधिकारी की आज्ञा के दिन कोई वस्तु उठाना है। तब ता वह चोरी है ही नहीं । चोरी सत्यकी रक्षा नहीं होती। सत्याग्रह में तो सत्यकी रक्षा भीतरसे भी होती है और बाहिरसेन होती है क्यों की का अधिकारीको सूचना दे देता है के में ऐसा करनेके लिये आने वाला हूँ। इसलिये बाह्यष्टि से भी सत्याग्रहके ऊपर चोरीका छींटा नहीं पड़ सकता और भीतः। शिम तो वह कि है ही। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६) [बैन-धर्म-मीमांसा ५--जिन बातों को स्वीकार करनेमें सिर्फ लजाही बाधक है, जिनको प्रगट करना सभ्यतानुमोदित नहीं है, ऐसी क्रियाएँ छुप कर भी की जाय तो भी वे वारीमें शामिल नहीं हैं । जैसे पतिपत्नीका प्रेमक्रीड़ा. आदि। परस्त्रीसेवनका छुपाना इस अपवादमें नहीं बासकता, क्योंकि उसमे त हम समाजको धोका देकर उसके नियमभंग करने हैं । पति पत्नी की कौडा आदिमें ये बातें नहीं । ___ इस प्रकार चोरी के रूप और अस्तेय व्रतके अपवादों के कतिपय नियमों और उदाहरणोंसे इस व्रत के समझनेमें सुभीता होजाता है । और भी अबाद मिल सकेंगे परन्तु चोरी का स्वरूप समझ लेनेमे उनका ममझना कठिन नहीं है। संकल्पी--मंकल्पपूर्वक अन्यायसे किसी का धन, यश, अधिकार आदिका चुराना । ____ आरम्भी....दूसरे के हित के लिये चोरी करना जैसे अपवादके पहिले नियममें बनाई गई है। अथवा अनजानमें कभी चोरी होजाना। उद्योगी- अपने आविकारों तथा न्यायोचित गूढ रहस्यों को छुपाये रखना उद्योगी चौर्य है । विरोधी युद्ध आदिमें तथा न्यायोचित आत्मरक्षा कार्यमें चौर्य करना पड़े तो वह विरोधी चौर्य है । कोई आदमी अपने राष्ट्र पर अन्यायसे आक्रमण करता हो तो उसकी युद्ध सामग्री चुर। लेना, छीन लेना आदि विरोधी चौर्य है। इनमें से संकल्प चोरी ही वास्तवमें पूर्ण चोरी है, इसकिने Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ] [ ९७ उसका पूरा त्याग करना चाहिये। बाकी तीन का तो यथाशक्ति संयमही पर्याप्त | है ब्रह्मचर्य शास्त्रों में ब्रह्मचा अर्थ अनेक तरहका किया गया है । ब्रह्मचर्या करना - आला लीन होना पूर्ण संयम का पालन करना ब्रह्मचर्य हैं इस अर्थ के अनुसार अहिमामी ब्रह्मचर्य है, सत्यभी वर्ष है, अनी ब्रह्मचर्य है, आहि भी ब्रह्मचर्य है और ब्रह्मवतो ब्रह्म है ही | परन्तु जब संयम के अहिंसा आदिक पाँच मे जाते है तब उसका यह व्यापक अर्थ नहीं मना जाता ब्रह्मचर्य का अर्थ हैं मैथुनका त्याग । इसी अर्थको मानकर यह चतुर्थी व्रत बनाया गया है । यद्यपि ब्रह्मचर्षकी मत्ता शास्त्रमिं बहुत बताई गई है और प्रायःसमीने एक स्वरसे उसे एक महान व्रत बतलाया है, फिर भी यह एक प्रश्न है कि मचर्य का व्रत है क्यों ? और मैथुनमें पाप क्या है ? मनुष्य समाजकी स्थिरता के लिये मैथुन तो आवश्यक है ही मैथुन करनेवाले दोनों पात्र [स्त्री और पुरुष ] सुखानुभव करते हैं, इसमें किनके अधिकारों का नाश भी नहीं होता, फिर क्या बात है कि इसे पाप माना गया है ? हाँ, बात्कार पाप है, परपुरुषनेवन या परस्त्रीसेवन पाप है, यह कहना ठीक है । परन्तु बलात्कार आदि इसलिये पाप नहीं कहे जा सकते कि उनमें मैथुन प्रसंग है, किन्तु इसलिये पाप कहे जा सकते हैं कि उनमें जबर्दस्ती की जाती है। इसलिये वह हिंसालक है, उसमें छुपाकर काम किया जाता है Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | जन-धर्म-मीमांसा इसलिये चोरी है, आदि । परन्तु जिस मैथुन में जबर्दस्ती नहीं है, चोरी नहीं है, उसे पाप कैसे कहा जा सकता है ! ९८ मैथुन में रागपरिणति है, इसलिये उसे पाप कहा जाय तत्र तो भोजनादि भी पाप कहलायेगे । प्रत्येक इन्द्रियका विषय पाप कहलायेगा । यदि उन सबको पाप माना जाय तो पापको पाँचही भागों में विभक्त क्यों किया ? मैथुन के समान अन्य इन्द्रियों के विषय को भी स्वतंत्र पाप गिनना चाहिये था । अथवा ब्रह्मचर्यको भी मोगोपभोग परिणाम नामक व्रत में रखना चाहिये । इसे प्रधान पापो क्यों गिना ? इन सब समस्याओंके ऊपर विचार करने के पहिले ब्रह्मचर्य के विषय में कुछ ऐतिहासिक विवेचन कर लेन उचित है I यह बात प्रसिद्ध है कि महात्मा पार्श्वनाथ के समय में चार ही व्रत थे, ब्रह्मचर्यव्रत नहीं था | ब्रह्मचर्यको नया व्रत बनाय महात्ला महावरिने ! अब प्रश्न यह है कि यदि उस समय ब्रह्मचर्यव्रत नहीं था तो क्या उस समय के साधु सपत्नीक ? अथवा हर किसा खीसे सम्बन्ध स्थापित कर देते थे ? अथवा ब्रह्मचर्यव्रत का पालन तो करते थे किन्तु उसे अपरिग्रहव्रतमें शामिल करते थे । जैनश, स्त्रों के अनुसार पार्श्वतीर्थ के साधुमी ब्रह्मचर्य रखते थे, किन्तु उस वे अपरिग्रह शामिल करते थे । परन्तु इस मत यह सन्देह तो रह ही जाता है कि जैनशास्त्रों का यह समन्वय ऐतिहासिक दृष्टिमे (Historioal Method) किया गया है या संगतता की दृष्टिसे (Logical Method) । पार्श्वतीर्थ के श्रमण का और महात्मा महावीरका 1 Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ] जब समझौता होगया और दोनोंकी एकही परम्परा मानली गई तव यह बहुत मम्भव है कि एक परम्परा मिद्ध करने के लिये ऐतिहासिकता को किनारे रखकर संगतताकी दृष्टिमे समन्वय किया गया हो। जैनशास्त्रों के देखनेसे यह बात माफ मालूम होती है कि पार्श्वतीयमें शिथिलाचार बहुत आगया था, उस समयके मुनि ऐय्याश और कष्टोंको न महनेवाले होगये थे। खैर, माना कि मैथुनीवाति अपरिग्रहवतमें शामिल थी परन्तु इससे भी इतना तो मान होता है कि उस समय स्त्रीसेवनका पाप इतना ही बड़ा या जितना स्वादिष्ठ भोजन या अन्य किमी इन्द्रिय विषयके सेवनका पाप हो सकता है । महात्मा महावीर के बाद • ब्रह्मचयको जो महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ, वह उमे पहिले प्राप्त नहीं था। जैनशास्त्रोंमें ही क्या, दुनियाँके सभी इतिहामों में इस विषयके पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं कि पहिले मैथुनको लोग कोई पप नहीं समझते थे, यद्यपि चे अहिंसा, सत्य, अयि और त्यागः । उच्चस्वर में गाने लगेथे । ज सिप्पेगे पंपात सिमिर माए पचायने । नासपो अणग हिमवाए निवायसन्ति । टीका-पार्श्वनाथ तीर्थप्रबजिता गच्छवासिनः एव शीतादिता निवातपात घंघ शालादिका वसती र्वाता नादरहिताः प्रार्थयात । किन इह मंघाटीशब्दन शीतापनादक्षयं कल्चर यं वा गृह्यते , नाः सघारी: शीतादिता व प्रवेश्यामः एवं गीतार्दिता अनगागः अपि विदधति-आचारात ९. -१६। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० । जन-धर्म-मीमांसा महाभारतके अनुसार तो सतयुगमें स्त्रियाँ बिल कुल स्वच्छन्द थी। वे चाहे जिसके साथ चली जाती थी, उस समय उसमें अधर्म नहीं माना जाता था, वह धर्म ही था । यह धर्म उत्तर कुरुमें अभी भी पाला जाता है । इस मनाजमें भी विवाह की मर्यादा अभी थोड़े दिनोंसे आई है जो कि उद्दा ठक के पुत्र श्वेतकेतु न चलाई । है । __द्रौपदी पाँच पति रखतीथी और फिर भी सती थी। इसीप्रकार हजारों स्त्रियाँ रखनेवाले राजा लोग भी अणुव्रती कहलाते थे । इतनाही नहीं, किन्तु वेश्या सेवन करनेपर भी उनका अणुव्रत नष्ट नहीं होता था। ___ जैनशास्त्रोंके अनुसार आदिम युगमें (भोगभूमिके युगमें ) बहिन भाईही पतिपत्नी बन जाते थे। बादमें यह रिवाज़ नो बन्द हुआ; फिर मामाकी ल की लेने में कोई ऐतराज़ न था । इससे मालूम होता है कि मैथुन के विषयों पुराने लोगाके विचार बहुत साधारण थे। 0 अनावृताः किलरा प्रिय अामन् वरानने ! कामाचार विहारिण्य स्वतंत्रावामहासिनि । तापां व्युच्चर गगानां कौमारा मन पनी नाधर्मो ऽ भूद्वरारोहे सहिधर्मः पुराऽभव ॥ तमद्यापि विधीयते तिर्यग्यानि गता प्रजा । उत्तरेषु च भो। कुरुष्वद्यापि पूयते ।। अस्मिंस्तुलोके न चिरान्मर्यादयं शुचिस्मिते उद्दालकस्य पुत्रेण स्थापिता श्वेतके ना || म भा. आदिपर्व । __ + एए णं मए पंचपंडवा वरिया, तते णं ते सिं वासुदेव पामक्खिाणं बइणि राय सहस्साणि महया महया सद्देणं उग्योसेणा २ एवं वयंति सुवरियं खलु भोदोवइए रायवर कन्नाए। ... हस्थिणानुरे नयरे पंचण्डं पंडवाणं दोघतीए य देवीए कहाणकरे भविस्सीत । णायधम्मकहा १६-१२० । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य [१०१ इस विषयमें ज्यों ज्यों सुगर होता गया त्या त्यों हमारे साहित्यमें इन सुधरे रूपोंके वर्णन बढ़ते गये और पुराने रिवाजों के वर्णन नष्ट होगये । फिर भी ना कुछ बचे हैं, वे कुछ कम नहीं हैं । परन्तु जिन देशों और जातियों में इस प्रकार के सुधार नहीं हुए उनमें मैथुन सम्बन्धी स्वच्छन्दता अब भी पाई जाती है । हमारे पड़ोसी तिब्बतमें जिसे संस्कृतमें स्वर्ग त्रिविष्टप कहते हैं, आजभी एक एक स्त्री अनेक पति रखती हैं। बेबीलोन शहर आजसे पाँचहज़ार वर्ष पहिले एक प्रसिद्ध नगर था, जो भूगर्भस्थ होगया । उसकी खुदाई बहुत वर्षोमे होरही है, जिससे हजारों वर्ष पुराने सामाजिक जीवन पर भी प्रकाश पड़ता है। खुदाईमें कई शिलास्तूप मिले है जो चारहजार वर्ष पुराने हैं और जिनमें उस समय के कानून बुदे हुए हैं । इससे मालूम होता है कि उस समय वहाँ देशका प्रत्येक स्त्री को वह अौर हा या गरीब-जीवनमें एकबार वेश्या अवश्य बनना पड़ताया । माता पिता अपनी लड़कियोंको और पति अपनी पत्नी को पैसा ठहराकर परिमित समय के लिये दूसरोके हवाले कर देतेथे । वहाँपर स्त्रियाँ एकही साथ अनेक पतियों के साथ शादी करती थीं । पाछेसे उरुकागिना नामके एक सुधारक राजाने बहुपतित्वकी यह प्रथा बन्द करदी। __ सीथियन जातिमें प्रत्येक स्त्री प्रत्येक पुरुषकी पत्नी है । इस प्रथासे वे लोग यह बड़ा लाभ समझते हैं कि इससे सब पुरुष आपसमें भाई भाई होकर रहेंगे । कौरम्बा जातिमें भी ऐसाही अभेद Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( जैन-धर्म-मीमांसा १०२ ] समागम होता है । केल्टिक जातिमें तो माँ और बहिन को भी पत्नी बना लिया जाता है । यही बात फेलिक्स अरेबिया के लोगों में है । चीन में फूके राज्यकाल तक यह प्रथा थी कि समस्त पुरुषोंका समस्त स्त्रियोंपर समान अधिकार था । आस्ट्रेलिया में कुमारी अवस्था में व्यभिचार करना बुरा नहीं समझा जाता । वहाँ पहिले विवाह की प्रथा थी ही नहीं | जब वहाँ कुछ सुधारकोंने विवाह की प्रथाको चलाना चाहा तो स्थितिपा कोंने यह कहकर बहुत विरोध किया कि इससे हमारी स्वतन्त्रताका अपहरण होता है । परन्तु सुधारक, जो कि विजयी बनने के लिये ही पैदा होते हैं, जब बलवान् हो गये तो स्थितिपालकों को उनके साथ समझौता करना पड़ा और इस शर्तपर उनने विवाहप्रथाको अपनाया कि विवाह के पहिले प्रत्येक कन्याको वेश्या का काम करना चाहिये | अर्मीनियन जातिकी कुमारी लड़कियाँ या जीवन वितान के लिये अनेटिस देवी मन्दिरमें रख दी जाती था । इसके बाद वे किसी एक पुरुष से विवाह करतीथी । प्राचीन रोममें, जो स्त्रां विवाह के पहिले वेश्यावृति मे अगर कुछ धन पैदा न करले तो वह घृणा की दृष्टि से देखी जाती थी । रेड इंडियन जातियों में भी यह कार्य उचित समझा जाता है ! वहाँ कुटुम्बियोकी अनुमति से स्त्रियाँ परपुरुषांसे प्रेम- मिक्षा माँगती हैं । faage जाति के लोगों के यहाँ जब कोई मेहमान आता है Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य। तब वे अपनी पत्नी या बेटी सहवासके लिये उपस्थित करते हैं । मेहमान अगर इस भेंटको अस्वीकार करदे तो इसमें वह घोर अपमान समझता है । चुकची जातिमें भी ऐसा ही रिवाज़ है। और यही हाल उत्तरी एशियाकी कमैडल और अलीढस जातियोंका है। एस्किमो जातिमें दो एक रात्रिके लिये दो मित्र अपनी स्त्रियोंको बदल लेते हैं । इस प्रकार अपनी स्त्रीको मित्रके हवाले करना मित्रताकी पराकाष्ठा समझी जाती है। ऐसा मालूम होता है वि भारतवर्ष में भी ऐसा रिवाज था । यहाँ भी मित्रको पत्नी समर्पित करके मित्रताको पराकाष्टा बन्लाई जाती थी। इसलिए इस पकारके चरित्रों का चित्रग जैनपुराणांमें भी पाया जाता है । विमलमूर के 'पउमचरिय' और रविषेणाचार्य के पद्म चरितमें दो मित्रों की ऐसी ही कथा है । यद्यपि इस प्रकार पत्नीप्रदानको जैनाचार्य अच्छा नहीं समझते, फिर भी इससे इतना तो मालूम होता है कि यहाँको समाज में कहीं और कभी ऐसे रिवाज़ होगे तभी ऐसा चित्रण किया है, भलेही वे घी से निंदनीय होगये । खैर, वह कथा इस प्रकार है। सुमित्र और प्रभव नाम के दो मित्र थे । सुमित्र महाराजा था और प्रभव मामूली आदमी । परन्तु सुनिनने वन देकर उसे श्रीमान् बनादिया था । एक बार सुमित्र एक जंगल में पहुँच गया । वहाँ एक भीलने उसके साथ अपनी लड़की (बनमाला ) का विवाह कर दिया । इस नवविवाहिता पनिको देख कर प्रभवको काम जर होगया । सुभित्रने जब बीमारी का कारण प्रभवसे पूछा तो उसने Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] | जैन-धर्म-प्रमींसा कह दिया कि मेरा चित्त तुम्हारी पत्नीपर आसक्त होगया है । उसने जाकर तुरन्तही अपनी स्त्रीसे कहाकि तुम मेरे मित्र की इच्छा पूरी करो, मैं तुम्हें एक हजार ग्राम दूँगा । यह सुनकर वह अपने पति मित्रको सन्तुष्ट करने के लिये गई उसका पति भी छुपकर उसके पीछे इस आशयने आया कि अगर यह मेरे मित्रकी इच्छा पूर्ण न कोगी तो इसे दंड दूँगा । 1 पछेिले उसके मित्र प्रभत्र को ही यह कार्य अनुचित मालूम हुआ परन्तु इससे किसी समय के वातावरणको जानके पर्याप्त साधन मिलते हैं । इसलिये एस्किमो जातिका यह रिवाज़ अनुचित होने पर भी आश्चर्यजनक और भारत के लिये अभूतपूर्व नहीं मालूम होता । माँगोल फारेन, डोडा और डकोटा जातिमें सती का ज़रा भी मूल्य नहीं है | नाइकेर गुआ में वर्ष में एक त्यौहार के दिन सभी स्त्रियों को व्यभिचार करने के लिये दी जाती हैं । हमारे यहाँका होलीका i [] युवा प्राणयमस्यास्य दुःखं खत्रीनिमित्तकम् । तामाशु प्राहिगो प्राज्ञः सुमित्र निवसः | ३६ | अविनियमन्ना स्थानकाका ततोनिग्रहमेत यः कर्नास्ति सुविति ॥ ३८ ॥ यया वा कामं संपाद विष्यति। ततेोप्राण[जयिष्यामि सुन्दरीं । ३९ । पद्मचरित पर्व १२ । ननिऊण तन्म चलणे नत्र परिकउम्पती दहुण तुझ हिल सामिय आय पत्तो | १८ | मणिण वयणमेयं भगइ सामेतो निसामु वणमालं वच्चतु श्रीमत्या भवसया पसन्नही । १९ । गाम सहस्से सुन्दरि देमिनुमं जर करेहिमिचहियं । जइतं नेच्छसिभढे घोरं ते निग्गहं काहूं २० भणिऊण वयणमेयं बणमाला पत्थिया समओ स पत्ता पभवागारं तेगय सा पुच्छिया सहसा २१ पटमचरियं उदेस १२ J Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य] [१०५ त्पाहार शायद ऐसी ही किसी प्रथाका भग्नावशेष है और यहाँकी कुमारियोंको तो न्यभिचारकी पूरी छुट्टी है। वे वेश्यावृत्ति से पहिले धन कमाती हैं, फिर उसी धनसे अपना विवाह करती हैं। रेडकारेन लोग स्त्री-पुरुष के अभेद समागमका खूब समर्थन करते हैं। अगर उनको कोई इस प्रथा की बुराई बतावे तो बापदादोंकी दुहाई देकर चे इसका समर्थन करते हुए कहते हैं कि-वाह ! यह तो पुरानी रीति है । क्या हमारे पुरखा मूर्य थे ! __ अपर कौंगो, टहीटी, मैकरोनेशिया, कण्ट्रोन, और पल्यूिद्वीप रहनेवाली जातियों में अपनी बहिन-बेटी को थोड़े धन के लिये चाहे जिसके हवाले कर देते हैं । इससे न तो उनकी इज्जतमें बट्टा लगता है न उस कुमारी के विवाहमें कुछ अड़चन पैदा होती है। वेटियाक लोगोंमें किसी कुमारीकी सबसे बड़ी शोभा यही है कि वह बहुनसे युवकोंसे फंसी हो । उसके पीछे अगर युवकोंका झुंड नहीं चलता तो उसके लिये यह अपमानकी बात है। अगर कुमारी अवस्थामें ही उसके बच्चा पैदा हो जाय तो इससे उसका सन्मान और भी बढ़ता है । इससे वह श्रमन्त घराने में वित्राही जाती है और उसके पिताको लव धन भी मिलता है। चिपचा जातिके किसी पुरुषको अगर यह मालूम होजाय कि उसकी पत्नी का कुमारावस्था में किसी भी पुरुष के साथ सम्बन्ध नहीं था तो वह इसलिय अपन भाग्यको कोसने लगता है कि उसकी स्त्री इतनी तुच्छ है कि वह किसी भी पुरुषको आकर्षित न कर सकी। प्राचीन जापानियों में यह रिवाज था कि पिता का ऋण चुकाने के लिये स्त्री व्यभिचारसे धन पैदा करती थी। और जब Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (जैन-धर्म-मीमांसा लड़की इस प्रकार पैसा पैदा करके आती थी तब कमाऊ पूतकी तरह उसका सन्मान बढ़ जाता था। नीति के अन्य अंगों पर भी ऐसा ही विवेवन किया आसकता है जिससे मालूम होगा कि हज़ारों वर्षों के अनुभवने मनुष्यको नीतिधर्म की शिक्षा दी है | आदिमयुग में मनुष्य हिंसा, अहिंसा आदिको नहीं समझता था। धीरे धीरे सुख शान्तिकी खोज करते करते उसने अहिंसा आदि का अविष्कार किया। उनमें ब्रह्मचर्यका आविष्कार सबसे पिछला है । इसलिये महात्मा पार्श्वनाथ के युगमें चार ही व्रत हों, यह बहुत स्वाभाविक है पछिसे महात्मा महावीरने ब्रह्मचर्य नामक नया व्रत बनाया । इतिहास के ऊपर इस प्रकार एक विहंगम दृष्टि डालने से इतना तो माल्म होता है कि मनुष्य समाज ने मैथुनको पाप बहुत देर में समझा । और उसे स्वतंत्र पाप मानने की कल्पना तो और भी दरमें उठी । इसका कारण यही है कि जिस प्रकार हिंसा झठ चोरी आदि साक्षात् दुःखके कारण हैं, उस प्रकार थुिन नहीं । परिग्रहमें तो मनुष्य बहुतसी सम्पत्ति एकत्रित करके दृमराकी गमी और बेकारीमें कारण होता है, परन्तु थुनमें तो इतना भी दोष देखनमें नहीं आता। इस प्रकार अन्य सब पापोंकी अपेक्षा मैथुनको दुःखप्रदता बहुत कम होनेसे प्रारम्भका मनु-यसमाज इसे पामें न गिनस का । पीछे जब इसे अधिक अनुभव हुआ, उस अनुभवसे उसे सूक्ष्म दृष्टि प्राप्त हुई, तब वह मैथुनको संयममें रखनेका तथा पूर्ण ब्रह्मवर्यका आविष्कार कर सका । फिर तो इस दिशा में समाज इस प्रकार Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य] [१०७ सरपट दौड़ा कि उसे मर्यादा का भी खयाल न रहा । ब्रह्मचर्यके नाम पर स्त्रियों को जीते जलानेका, उन्हें बलाद्वैधव्य देने का भी रिवाज़ पड़गया । मैं पहिले कह चुका है कि धर्म मुख के लिये है । इसलिये जो सुखका कारण है वह धर्म है; जो दुःख का कारण है वह अधर्म है । इस कसौटी पर कसकर यहाँ विचार करना चाहिये कि भैथुन कितने दुःख का कारण है ! १-पराधीनता दु.ख का कारण है । अन्य इन्द्रियों के विषयोंमें जितनी पराधीनता है, उसमे कइ गुणी पराधीनता मैथुनमें है। अन्य इन्द्रियोंमें भोग या उपभोग्य सामग्री जड़ या जडतुल्य होती है इसलिये उसमें इच्छा नहीं होती, जिसका हमें ग्वयाल रखना पड़े । परन्तु मैथुनमें दूसोकी इच्छा का पूरा खयाल रखना पड़ता है। अगर खयाल न रकवा जाय तो वह हिंसा:मक और नीरस होजाता है । इसलिये वह अन्य विषयों की अपेक्षा दुःखप्रद है। २-उपर्युक्त विषमता होनेसे उसमें पीछे का कार्यभार और बढ़ता है । जैसे गर्भाधानादि होने पर जीवन की शक्तियाँ उसके संरक्षण आदिने खर्च होने लगती है । जो विश्वको कुटुम्ब मानकर उसकी सेवा करना चाहता है उसकी शक्तियों का बहुभाग इस छ टेसे कुटुम्बकी सेवामें लग जाता है । और इसके लिय उसे थोड़ी बहुत मात्रामें परिग्रहादि अन्य पापों को भी स्वीकार करना पड़ता है ३-अन्य इन्द्रियों के विषय शारीरिक और मानसिक शक्तिका Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.८] [जैन-धर्म-मीमांसा क्षय नहीं करते या इतना नहीं करते जितना मैथुनसे होता है। बल्कि भोजनादिसे शक्ति की वृद्धि तक होती है । इसलिये भी मैथुनको अन्य विषयोंकी श्रेणीसे जुदा किया गया है। ४-मैथुनसेवनके बाद एक प्रकार की ग्लानि पैदा होती है इसलिये यह सुख पीछेसे ग्लानिरूप दुःख का देनेवाला है। ५-इस में स्थायिता नहीं है। ६-जल, वायु और भोजनादि जिस प्रकार जीवन के लिये आवश्यक हैं, उस प्रकार मैथुन नहीं । इसलिये मैथुनसेवन विकारों की तीव्रताका सूचक होनेसे पाप है। प्रश्न-जिस प्रकार भोजन वगैरह शरीरकी माँग है, उसी प्रकार मैथुन भी शरीरकी माँग है । शरीरकी इस माँगकी अगर पूर्ति न की जाय तो इसका शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है' और अनेक नाहकी बीमारियाँ भी पैदा हो जाती हैं। उत्तर-बीमारियाँ पैदा होती है तब, जब इच्छाएँ तो पैदा होकर हृदयमें घूमती रहती हैं और उनको कार्यरूपमें परिणत होने का मौका नहीं मिलता । परन्तु उन इच्छाओंका अगर रुरान्तर करदिया जाय तो मैथुन की आवश्यकता नहीं रहती। ऐसी वासनाएँ मातृभक्ति, भगिनीप्रेम, पुर्ववात्सल्य, विश्वप्रेम, दीनसेवा आदि अनेक सवृत्तियोंमें परिवर्तित हो सकती हैं। जब हमारे ऊपर कोई भयंकर विपत्ति आजाती है या असह्य इष्टवियोग होजाता है तब ऐसी वासना लुप्त हो जाती है अर्थात् उसका रूप परिवर्तित हो नाता है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य [१.९ प्रश्न-जब तक इन सवृत्तियों का प्रभाव तीव्र रहता है तभीतक वे मैथुनकी वासना परिवर्तित करती रहती हैं, परन्तु कोई भी सवृत्ति सदैव तीव्र नहीं रह सकती । ज्योंही उसमें कुछ मन्दता. आयगी, मैथुनकी वासना अपने ही रूमें काम करने लगेगी। उत्तर-ऐसे भी कुछ असाधारण लोकोत्तर व्यक्ति होते हैं या हो सकते हैं जिनकी सद्वृत्तियाँ सदैव इतनी तीव्र बनी रहती हैं जिससे कामवासना परिवर्तितरूपमें ही बनी रहे वह बात अवश्य है कि ऐसे व्यक्ति करोड़ोमें एकाध ही होते हैं, परन्तु होते हैं । फिर भी यह राजमार्ग नहीं कहा जा सकता इस. लिये उचित यही है कि इस प्रकार तीव्र वेग के समयमें विवाहित जीवन बिताया जाय । आजकल के हिसाबसे पचास वर्ष तककी उमर तक इस प्रकार जीवन बिताना चाहिये । इतना समय तो बहुत ही पर्याप्त है, परन्तु इससे भी कम समयमें इस वासनाका वेग इतना मंद हो सकता है जो कि सरलतासे दूसरी सद्वृत्तियों के रूपमें परिवर्तित किया जा सके। मैथुनकी वासनाका वेग सामाजिक परिस्थति पर भी निर्भर है। कई प्राचीन जातिय ऐसी भी हैं जिनमें कामवासनाकी आर्थर्यजनक मन्दता पाई जाती है । स्त्रियों का मासिकधर्म कामवासनाका ही सूचक है परन्तु ऐस्किमो आदि जातिकी स्त्रियों के वर्षों तीन बार ही ऋतुकाल आता है । इसी प्रकार पुरुष भी कामका आवेम कम होनेसे शीघ्रही स्खलितवीर्य नहीं होते । ये सब बातें वंशपरम्पराका फल है। परन्तु जिन लोगों को यह परिस्थिति प्राप्त नहीं है वे Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ] [जैन धर्म-मीमांसा कुछ समय संयम मैथुनसे अपनी वासनाओंके बेगको कम करें, बाद में उसको अन्य सद्वृत्तियों में परिवर्तित करें । प्रश्न --मैथुन में जो आपने दोष बतलाये हैं उनका बहुत कुछ परिहार किया जा सकता है। अगर पति-पत्नी दोनोंही संयमी हों तो उनकी इच्छाओंका बलात्कार एक दूसरेपर नहीं हो सकता इससे पराधीनताका कष्ट बहुत कुछ कम हो जाता है । जब अनिच्छापूर्वक कोई काम करना पड़ता है तब पराधीनताका कष्ठ होता है । यदि दोनों संयमी हो तो कोई किसीको विवश न करेगा जब दोनों स्वेच्छा से राजी होंगे तब परावनिताका कष्ट न रहेगा। गर्भाधानादि रोकने के लिये कृत्रिम उपायोंसे काम लिया जा सकता है । इसलिये दूसरा भी दोष दूर हो जाता है । तीसरा दोष भी इतना जबर्दस्त नहीं है क्योंकि मात्रा से अधिक मैथुन ही शक्तिक्षय करता है अगर थोड़ा हो भी तो वह इतना नहीं हो सकता जिससे कि मनुष्य कर्तव्यच्युत होजाय । ग्लानिका कारण भी जबर्दस्त नहीं है क्यों कि वह तृप्तिका फल है । यों तो पेट भरनेके बाद भोजन से भी ग्लानि होजाती है, परन्तु इससे भोजन पाप नहीं हो जाता | स्थायिता न हो तो क्या हानि है ? जब अन्तमें वह दुःखप्रद नहीं है, तब क्षणिक हो इससे भी लाभ ही है । थोड़ा सही, पर है तो लाभ ही । विकारकी तीव्रता नामक दोष भी विशेष महत्त्व नहीं रखता, क्योंकि जब यह पाप सिद्ध हो जाय तभी इसमें विकारकी तीव्रताका दोषारोप किया जा सकता उपर्युक्त कारण न होने से यह कारण भी नहीं रहता । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य [१११ उत्तर-यद्यपि दोषों का यह परिहार बिलकुल निर्बल नहीं है, फिर भी कुछ बातें ऐसी हैं जिनसे यह बात मानना पड़ती है कि मैथुन पूर्णसुख में बाधक है । पहिला परिहार यद्यपि सम्भव है फिर भी इतना दुर्लभ है कि अपवाद के नाम पर उसका उल्लेख ही किया जा सकता है, नियमरूपी राजमार्ग में उसको जगह नहीं दी जा सकती । दूसरा परिहार ठक कहा जा सकता है और तीसरा भी किसी तरह ठीक है, परन्तु चौथा कुछ विचारणीय है; क्योंकि संगीत आदि के श्रवण करने से जो तृप्ति होती है उसका फल ऐसी ग्लानि नहीं है जैसी कि यहाँ होती है । इसलिये अन्य विषयों की तृप्तेि की अपेक्षा इसकी तृप्ति कुछ विचित्र है । पाँचवाँ परिहार इससे भी अधिक विचारणीय है क्योंकि क्षणिक सुख का परिणाम दुःख है । जिसका संयोग सुखरूप है उसका वियोग दुःख रूप होता है। अगर संयोग का समय अल्प और वियोगका समय अधिक है, तो यह मानना चाहिये कि सुख की अपेक्षा दुःख अधिक है । इसलिये अगर संयोगज सुबका भोग ही करना हो तो यथाशक्ति ऐसा भोग करना चाहिये जिसमें संयोग अधिक और वियोग का हो। इस दिशा में भैयूनका प्रचलित रूप बहुत निन्न श्रेणीका ठहरता है इसलिये जैनशास्त्रों में मैथुन के विविध रूपों का वर्णन है इस वर्णनसे यह बात माइम होती है कि क्यों ज्यों सभ्यता का विकास और सुखकी वृद्धि होती है त्यो त्यों मैथुन का प्रचलित रूप विकसित होता जाता है और अन्त में ब्रह्मचर्यमें परिवर्तित हो जाता है। जैनशाखों में देवगति का जो वर्णन मिलता है उसमें इस Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] [जैन-धर्म-मीमांसा सिद्धान्तका सुन्दर चित्रण है । देवगतिके इस बर्णनपर अगर विश्वास न भी किया जाय तो भी इस सिद्धान्त की सत्यता को धक्का नहीं लगता, क्योंकि वर्तमान में अपने अनुभव से भी इस चित्रण की सत्यता को समझ सकते हैं । पहिले और दूसरे स्वर्ग के के देव मनुष्यों के समान ही मैथुन करते हैं, तीसरे और चौथे स्वर्ग देव आलिङ्गनादि से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं । इससे आगे के देव सौन्दर्य के अवलोकन से सन्तुष्ट हो जाते हैं । इससे आगे सहबार स्वर्ग तक के देव संगीत सुनने से ही संतुष्ट हो जाते हैं और इससे आगे के देव मानसिक सङ्कल्प से ही संतुष्ट हो जाते हैं । और इससे आगे के देवों के मैथुनकी वासना ही नहीं होती- वे ब्रह्मचारी की तरह होते हैं । ये देव सबसे अधिक सुखी माने जाते हैं। इससे कम सुखी मानसिक सङ्कल्प वाले, उनसे भी कम सुखी संगीत से सन्तुष्ट होनेवाले, उनसे भी कम सौन्दर्य से सन्तुष्ट होनेवाले और उससे भी कम आलिंगन से सन्तुष्ट होनेवाले भार उससे भी कम सुखी साधारण मैथुन करनेवाले हैं । जैनधर्म में देवगति में संयम नहीं माना जाता, इसलिये सुख की यह अधिकता संयम की दृष्टि से तो है नहीं, इसलिये यह एक विचारणीय बात है। दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लान्तव और कापिष्ट स्वर्ग के देव | श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कम और ब्रह्मोत्तर स्वर्ग एक ही नाम से पुकारा जाता है इसी प्रकार लावन्तका पिष्ट, लान्तव नामने आगंके शुक महानुक, महाशुक्र के नामसे और सतार सहस्रार, सहस्रार के नामसे । इसप्रकार दिगम्बर सम्प्रदाय में स्वर्गो की संख्या १६ और देताम्बर में १२ हैं । वस्तुस्थिति में कुछ मंद नहीं है । फिर भी १२ की मान्यता प्राचनि और दोनों समदाय में प्रचलित है । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य] कि यह मुख किस दृष्टि से अधिक है ! निरक्षिण करनेसे इस सुख का कारण स्थायिता ही मालूम होता है । मनुष्यों के समान मैथुन बहुत थोड़े समय तक किया जा सकता है और पीछे से इसमें ग्लानि अधिक है। इसकी अपेक्षा आलिङ्गन आदि अधिक समय तक हो सकता है और इसमें ग्लानि कम है । रूपदर्शन इससे भी अधिक समय तक हो सकता है और स्पर्श न होने से इसमें ग्लानि और भी कम है तथा संगीत तो और भी अधिक आकर्षक तथा स्थायी है और शरीर के अवयों का प्रत्यभिज्ञान भी इससे कम होता है इससे ग्लानि तो बिलकुल कम है | मानसिक विचार तो इन सबसे अधिक समय तक स्थायी रह सकता है, इसमें पराधीनता भी नहीं हैं और ग्लानिके कारणों का किमी भी इन्द्रियमे प्रत्यक्ष नहीं होता इस लये य: और भी अधिक मुग्वमय है और ब्रह्मचारी के समान रहनवाला तो मानसिक टिम भी बिलकुल स्वतंत्र आर निराकुल रहता है इसलिये उनका मुख सबसे अधिक है। उपर्युक क्रम विकासवादी दृष्टि से भी उचित मालूम होता है। पशु भों में स्त्री-पुरुष का मुग्व प्रायः मागरण मैथुनकी क्रिणमें समाप्त हो जाता है, जबकि मनुष्यों में इसमें आगे की चार श्रेणियाँ (स्पर्श रूप शब्द, मन ) भी पाई जाती है । ज्या ज्यो सभ्यता का विकास होता है त्यों त्यों कलाओं का भी विकास होता है, और पाशविक लिप्सा कलाप्रेममें परिणत होती जाती है । इससे इतना अवश्य मालूम होता है कि सुख की वृद्धि ब्रह्मचर्य की दिशा में ही है । इस प्रकार ब्रह्मचर्य सुखबर्द्धक सिद्ध हो जाने पर भी हिंसा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] [जैन-धर्म-मीमांसा आदि जिस प्रकार दुःख के कारण हैं और साक्षात् दुःखस्वरूप हैं उतना मैथुन नहीं है, और न वह भोजनादि की श्रेणी में ही आता हैं । उसका स्थान मध्य में है । हाँ, अगर वह अन्य पापों से मिश्रित हो जाय तो उसकी पापता बहुत भयंकर होजाती है, तथा अन्य भोगोपभोग सामग्रियों की अपेक्षा इसमें आरम्भ परिग्रह की वृद्धि भी बहुत होती है या होने का अधिक सम्भवना है । ब्रह्मचर्य के मुख्य तीन प्रयोजन हैं १- शक्ति का संचय या उसकी रक्षा, २-कौटुबिक और सामाजिक जीवन की शान्ति, ३-विश्वप्रेम या समभाव की रक्षा । १-शरीर में बहुमूल्य धातु वीर्य है । मैथुन में पुरुष-स्त्री के दशीर का यही बहुमूल्य धन नष्ट होता है । अगर इसकी रक्षा की जाय ता शरीर की शक्ति सुरक्षित रहती है तथा बढ़नी है । शारीरिक शक्ति के साथ मानसिक शक्ति पर इसका प्रभाव और भी अधिक पड़ता है । अन्य प. की अपेक्षा मैथुनका मन से अधिक सम्बन्ध है । मनमें दूसरा पाप होनेसे मन चित्र होता है परन्तु उसका वाश्य प्रभाव उल्लेखनीय नहीं होता, जब कि मानसिक थुनका बाह्यप्रभाव बहुत अधिक होता है । इससे वर्यिका स्खलन होता है और शरीर कमजोर होजाता है । इसलिये नहर से ही मैथुन का त्यागी अगर मनको वशमें नहीं रखता तो यह ब्रह्मचारी तो है ही नहीं, साथ ही बाहिरी ब्रह्मचीका बाहिरी फल भी प्राप्त नहीं कर सकता । विवाहित जीवन में पति पत्नी में परिमित ब्रह्मचर्य का पालन होता है । वह भी शक्तिसंचय का कारण है । परन्तु अगर Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य] [११५ उसमें मर्यादा न रक्खी जाय, उससे दो में से किसी एक की भी शक्तिका हास होने लंग तो उसे एक प्रकार का व्यभिचार ही कहेंगे। नियम के शब्दों की दृष्टि से वह व्यभिचारी मल ही न कहा जाय, परन्तु नियम के लक्ष्य की दृष्टि से वह व्यभिचारी है । भोजनादि की सात्विकता भी ब्रह्मचर्य का अंग है । जिस भोजन को हम पचा नहीं सकते अर्थात् जिसकी उभाटकता को हम सहन नहीं कर सकते, मनोवृत्तियों जिससे विकृत होती हों उससे बचना चाहिये । इसी प्रकार श्रृंगार तथा अन्य इन्द्रियोंकी लोलुपता भी ब्रह्मचर्य में बाधक है। शंका --धर्मका लक्ष्य अगर सुख है तो वह सौन्दर्य आदि सुखसाधनों का विरोध क्यों करता है ? सौन्दर्योपासना में आखिर पाए क्या है ? क्योंकि इससे न तो किसी को कष्ट पहुँचता है. न किसी की कोई सामग्री छीनी जाती है । यह तो एक ऐसा आनन्द है जिसके लिये हमें किसी की गुलामी नहीं करना पड़ती । प्रकृति के भण्डार में जो अनंत सौन्दर्य भरा हुआ है उसको विना नष्ट किय अगर हम उसका उपभोग कर सकते हैं तो इसमें क्या हानि है ! क्या आप यह चाहते हैं कि मनुष्य गंदा रहे ? इस गंदगी और नारसता के कष्ट सहन करने से क्या आत्मोन्नति हो जायगी ? समाधान-कष्ट सहन से आत्मोन्नति नह होती; न धर्मके नामपर गंदगी फैलाने की ज़रूरत है । गंदगी तो पाप है और स्वच्छता धर्म है । परन्तु सौन्दर्य या श्रृंगार को स्वच्छता समझना भूल है । सुंदर से सुंदर वस्त्राभूषण स्वच्छ नहीं होते और स्वच्छ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] [जैन-धर्म-मीमांसा वखादि भी सुन्दर नहीं होते । यह सम्भव है कि कहीं स्वच्छता और सुंदरता का मेल होजाय परन्तु इनके मेल का नियम नहीं है । धर्म, विशुद्ध सोन्दर्य की उपासना का विरोध नहीं करता । मन्दाकिनी की निरवच्छिन्न धारा, समुद्रको असंख्य कल्लोले या उसकी अनंत नीरवता, गिरिराज की हिमाच्छन्न चोटियाँ और बसन्त में प्रकृतिका अनन्त शृंगार जो अनन्द प्रदान करता है, धर्म उसका विरोध नहीं करता क्योंकि इससे ब्रह्मचर्य के उपरिलिखित तीन प्रयोजनों में से किसी की भी हानि नहीं है । इस सौन्दर्योपासना में व्यक्त या अव्यक्त रूपमें विश्व में तल्लीन होजाने की भावना है, संकुचितता या याग है । इतना ही नहीं किन्तु इस आशय से हम प्राणियोंके और मनुष्यों के भी सौन्दर्यकी उपासना कर सकत जैसे वनस्पति आदि प्राणियों में प्रकृतिका सौन्दर्य दिखलाई देता है उसी प्रकार मयूर की शिखा और कोकिल की कुहुकुहू भी प्रकृति का सौन्दर्य हैं । स्वयं मनुष्य भी प्रकृतिका एक अंग है। जिस निर्दोष बुद्धि से हम वसन्त आदि की शोभा निरखत है या जिस निर्दोष बुद्धि से हम बालक या बालिकाको या अपनी बहन और नाताको देखते हैं, उसी निर्दोष बुद्धिसे हम किसी भी स्त्री या पुरुष के सौन्दर्य को देखें तो यह ब्रह्मचर्य का दोष नहीं है ! परन्तु यह याद रखना चाहिये कि इस निर्दोष बुद्धिका सुरक्षित रखना कठिन है । यह पहुँचे हुए महात्माओं का कार्य है । "जैनशास्त्रों के अनुसार जैनसाधु बियों के साथ विहार नहीं कर सकता परन्तु महात्मा महावीर के साथ सैकड़ों स्त्रियाँ (आर्या और श्राविकाएँ ) विहार करती थीं। इससे मालूम 1 २. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ] [११७ होता है कि यदि सौन्दर्योपासना में मैथुन की गसना न हो तो वह अधर्म नहीं है, क्योंकि इस दुवीसना के आने उपयुक्त तीनों प्रयोजन नष्ट हो जाते हैं। शंका -मान्दर्य की उपासना में मैथुन की वासना न हो, यह असम्भव है । जगतका सारा मौन्दर्य मैथुन की वासना का रूपान्तर या सूक्ष्म रूप है। बल्कि यों कहना चाहिये कि जो हमारी इस वासना की पूर्ति करता है, उसीका नाम सौन्दय है । स्त्री और पुस्तम जो लैङ्गिक आकर्षण है उसको या उसके साधनों की जहाँ समानता दिखाई देती है उसी का नाम सौन्दर्य है। चन्द्रमा इसीलिये सुन्दर है कि वह प्रेयसी के मुख का स्मरण कराता है। हंस इसीलिये प्यारा कि वह स्त्री की गति । अनुकरण करके हमें उसका प्रत्यभिज्ञान कराता है । आँखों की समानता कमला की शोभा है । इतना ही नहीं किन्तु मैथुनके लिये जो समय या जो वातावरण अनुकूल होता है उससे विशेष सम्बन्ध रखनेवाली बस्तु भी सुन्दर मालूम होती है । वसन्त का समय अगर अनुकूल है तो वसन्त में होनेवाली प्रत्येक वस्तु हमारे लिये सुन्दर हो जाती है । बालक आदि में जबतक यह वासना पैदा नहीं होती तबतक उसका पूर्वरूप रहता है । लैङ्गिक विज्ञानके अनुसार तो माता का पुत्र से स्नेह भी इसी वासना का रूपान्तर है । इसलिये सौन्दर्योपासना को मैथुन की वासना से अलग करना असंभव है । इसलिये अब या तो सौन्दर्योपासना को पार कहना चाहिये या मैथुन को धर्म कहना चाहिये। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] [जैन-धर्म-मीमांसा समाधान- मैथुन की वासना का रूपान्तर मैथुन नहीं है । यो तो अच्छी से अच्छी मनोवृत्ति भी बुरी से बुरी मनोवृत्ति का रूपान्तर कही जासकती है, परन्तु इसीलिये वह बुरी नहीं होती । स्वादिष्ट और सुगंधित फलफूल आदि भी उस खादके रूपान्तर होते हैं जो दुर्गध आदि का समूह है । जैनशास्त्र के अनुसार कषाय और संयम एक ही गुण के रूपान्तर हैं, इसलिये कोई किसी का रूपान्तर होजगने से ही अच्छा या बुरा नहीं होजाता । इसका निर्णय करने के लिये हमें उसकी स्वतंत्र परीक्षा करना चाहिये । ब्रह्मचर्य के जो तीन उद्देश्य ऊपर बतलाये हैं उन में आर बाधा न आवे तो मैथुन की वासना का रूपान्तर होकर के भी सौन्दर्योपासना मैथुन में शामिल नहीं की जा सकती, न पाप मानी जा सकती है । इसके साथ एक बात और ध्यान में रखने की है कि ब्रह्मचारी को लोलुप न होना चाहिये । किसी सुन्दरी का दिखजाना एक बात है और उसके लिये लोलुप मनोवृत्ति का होना दुमरी बात । अमर यह लोलुपता रहेगी तो बहुत ही शंघ्र मन विकृत और अशान्त हा जायगा जिसका अनिवार्य फल मानसिक और शारीरिक मैथुन होगा इसलिये लोलुपतारहित समभावपूर्वक सौन्दर्यकी उपासना करना चाहिये । अगर इसमे मैथुन की वासना को उत्तेजना मिलती हो तो इसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है । अगर इससे वह वासना परिवर्तित हो जाती हो तो यह उचित है। यद्यपि हरएक पुण्य-पाप का विश्लेषण मनोवृत्ति पर ही निर्भर है परन्तु ब्रह्मचर्य तो मनोवृत्ति से और भी अधिक घनिष्ट Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य 1 [११९ 1 सम्बन्ध रखता है । शक्ति के संचय और उसकी रक्षा के लिये मनको वश में रखना या दुर्वासनाओं को विश्वप्रेम प्रकृतिप्रेम आदि में रूपान्तरित करना उचित है । २ - कौटुम्बिक और सामाजिक जीवन की शांति के लिये भी ब्रह्मचर्य अत्यावश्यक है । गृहस्थ जीवन की दृष्टिसे अकेली स्त्री और अकेले पुरुष का जीवन अपूर्ण है। दोनों के योग्य सम्मिलन से ही पूर्णता आती है । यह सम्मिलन एक ऐसा साम्मेलन है जिसमें तीसरे को स्थान नहीं मिल सकता है । अगर तीसरे का प्रवेश हुआ तो वह विश्वास और प्रेम नष्ट होजाता है जिससे यह सम्मिलन हुआ है । इससे यह आवश्यक है कि स्त्रीकृत पति-पत्नी को छोड़कर शेष सभी स्त्रीपुरूषों के साथ पवित्र प्रेम ही रक्खा जाय । उसके साथ मैथुन की कामना की कलु पतता न आने पांव | स्त्री, पुरुष के लिये भोग की सामग्री है और पुरुष, स्त्री के लिये भोग की सामग्री है इस तरह इन दोनों में दुतरफा भोज्यभोजक भाव है । इसलिये दोनों ही समान हैं । यह समानता अन्यत्र देखने में नहीं आती । वहाँ एक ही भोज्य और एक ही भोजक 1 होता है और भोजक की प्रधानता रहती है । स्त्रीपुरुष में यह सम्बन्ध दुतरफा होने से अन्य जड़ या जड़तुल्य भोग्यों की अपेक्षा इसमें विशेषता आती है । हमारी कुर्सी के ऊपर अगर कोई दूसरा आदमी बैठ जाय तो भी हमारे और कुर्सी के सम्बन्ध में कोई फर्क न पड़ेगा, परन्तु अगर कोई पुरुष दूसरी स्त्रीसे सम्बन्ध स्थापित करले तो पहिली स्त्री से उसका वह सम्बन्ध ( प्रेम आदि ) न रह जायगा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० १ [जैन-धर्म-मीमांसा इसी प्रकार स्त्री के विषय में भी कहा जासकता है । प्रेम की यह शिथिलता अविश्वासको पैदा करती है और इस प्रकार यह शिथिलता और अविश्वास कौटुम्बिक शान्तिको बर्बाद कर देते हैं; इतना ही नहीं किन्तु इनसे सभ्यसे सभ्य समाज भी असभ्य बन जाता है । दुतरफ़ / भोज्यभोजक भाव होनेसे यद्यपि स्त्री और पुरुष समानता बतलाई जाती है, फिर भी व्यक्तिगत रूप में तो दोनों ही अपने को भोजक समझते हैं और भोजन की दृष्टिमें तो भोज्य शिकार के तुल्य है । है । इसलिये अगर इनमें संयम की मात्रा न हो तो समाज अविश्वास और भय से इतना त्रस्त हो जाय कि उसे नरक ही कहना पड़े । स्त्रियाँ श्रृंगारसे, सौन्दर्यसे, छलसे, विश्वासघात से पुरुषों का शिकार करें और पुरुष भी पशुवल तथा छल आदि से स्त्रिया का शिकार करें | इसका फल यह हो कि स्त्रियों का घर से निकलना भी मुश्किल हो जाय, और पुरुषों को भी स्त्रियों से सदा सतर्क रहना पड़े । न पति को पत्नीका विश्वास रहे, न पत्नी का पतिका । इन सब कष्टों से बचने के लिये शील ब्रह्मवर्य (दार सन्तोष, स्वाति सन्तोष) की अत्यावश्यकता है । स्वदार को छोड़कर अन्य स्त्रियों में माँ, बहिन और पुत्री की भावना और स्वपतिको छोड़कर अन्य पुरुषों में पिता भाई और पुत्र की भावना अगर हो तो प्रत्येक और पुरुष निर्भयताका अनुभव करे। जिस समाज के लोगों में ये पवित्र भावनाएँ नहीं होती और वासनाओं का वेग तीव्र होता है अर्थात् लोग नीतिभ्रष्ट और क्रूर होते हैं, वहीं खियाँको चार Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य [१२१ दोबारियों में कैद रहना पड़ता है, चूंघट आदि आवरणों में ढका रहना पड़ता है । इससे स्त्रियों का विकास रुक जाता है और उनकी सन्तान (खी और पुरुष) मनोबल आदिसे शून्य तया नीच प्रकृति की होती है । यदि स्त्रियों के विषय में मातृत्व आदि की भावना और पुरुषों के विषय में पितृत्व आदि की भावना हो तो इन अनयों से समाजका रक्षण होता है। इससे जीवन के विकास तथा निर्भयता, स्वतन्त्रता और विश्वास का अनंत आनन्द मिलता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य के दो प्रयोजन हैं । उनका विचार करते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये । जिस प्रकार हिंसा आदि पापों के चार भेद किये गये हैं, उसी प्रकार मैथुन के भी चार भेद हैं-संकल्पी, आरम्भी, उद्योगी और विरोधी। संकल्पी-व्यवहार में जिसे व्यभिचार कहते हैं, वह संकल्पी मैथुन है। पति या पत्नी की इच्छा न रहते हुए भी मैथुन करना संकल्पी मैथुन है । इसी प्रकार मर्यादा से अधिक [स्वास्थ्यनाशक] मैथुन भी संकल्पी मैथुन है । यद्यपि इनकी सांकल्पिकता में परस्पर अंतर है--सब से अधिक सांकल्पिकता व्यभिचार में हैफिर भी ये हिंसात्मक, दुःखप्रद और निवार्य होनेसे संकल्पी है। आरम्भी-सन्तानोत्पत्ति के लिये या शारीरिक उद्वेगों को शान्त करने के लिये जो मर्यादित मैथुन है, वह भारम्भी मैथुन है। दाम्पत्य जीवन में या नियोग की प्रथा में आरम्भी मैथुन होता है। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] [जैन-धर्म-मीमांसा । . . शंका विधवा विवाहसे जो मैथुन होता है उसे आत किसमें शामिल करेंगे ! समाधान-विधवा-विवाह हो या कुमारी-विवाह हो, अब स्त्री पुरुष बिना चोरी के तथा स्वेच्छापूर्वक एक दूसरे को स्वीकार कर लेते हैं तब उसमें परस्रीत्व या परपुरुषत्व रह ही नहीं जाता वे दोनों दम्पति बन जाते हैं। दाम्पत्य जीवन का मैथुन तो आरम्भी मैथुन है यह पहिले कहा जा चुका है। इस विषय का विशेष विवेचन आगे भी किया जायगा । __ शंका -विधवा विवाहको आप आरम्भी मैथुन भले ही कहें परन्तु नियोगको अप आरम्मी मैथुन कैसे कह सकते हैं, क्योंकि निगेग में तो विवाह भी नहीं होता ? जब किसी कुटुम्ब में कोई सधवा स्त्री नहीं रहती और विधवाएँ नि:सन्तान होती हैं तब वंशरक्षाके लिये उन विधवाओं का या विधवा का किती योग्य पुरुष से संयोग कराया जाता है इसे नियोग कहते हैं। यह बात स्पष्ट है कि इसमें परपुरुष से प्रयोग कराया जाता है, इसलिये इसे व्यभिचार की तरह संकल्पी मैथुन ही कहना चाहिये । समाधान --नियोग की प्रथा विधवा-विवाह और कुमरी विवाह की अपेक्षा भी अधिक पवित्र है । मयुक्त दोनों विवाहों में तो सन्तानोत्पत्ति आदि के साथ मर्यादित भोग-लालसा भी है, परन्तु नियोग तो शुद्ध वशंरक्षा के उद्देश से ही किया जाता है। सन्तानोत्पत्ति तक ही वह सीमित है। महाभारत के अनुसार पांडु धृतराष्ट्र और विदुर इसी प्रकार नियोग से पैदा हुए थे। यह बात Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ] [१२३ दूसरी है कि आज इस प्रथा की आवश्यकता नहीं है । अब त गोद लेने का रिवाज़ प्रचलित है तथा जनसंख्या भी बढ़ रही है । अगर किसी समय इस प्रथा की आवश्यकता हो तो इसे व्यभिचार कदापि नहीं कह सकते, वह आरम्भी मैथुन ही कहलायेगा | व्यभिचार में हिंसकता या चौर्य व सना और असत्य श्रितता है परन्तु नियोग में इनमें से कुछ भी नहीं है । इसलिये भी यह संकल्पी मैथुन में नहीं आ सकता । के लिये अधिक से प्रश्न- किसी देश में विवाह की प्रथा ऐसी हो जिससे विवाहित स्त्रियों का स्थान पुरुष की अपेक्षा नीचा हो जाता हो. इसलिये कोई स्त्री इस प्रकार स्त्रीत्व का अपमान करना स्वीकार न करे इसलिये, अथवा यह सोचकर कि संतान अधिक बलिदान तो स्त्री को करना पड़ता है अधिकांश स्वामित्व और नाम पुरुष के जाता है इसलिये, अथवा और किसी कारण से कोई स्त्री विवाहित जीवन अस्वीकार करके गर्भाधान मात्र के लिये किसी पुरुष से क्षमिक सम्बन्ध स्थापित करे तो + इसे आप व्यभिचार करेंगे या आरम्भी मैथुन ! और संतान का उत्तर--हिंसकता या चौर्य-वासना और असत्याश्रितता आदि व्यभिचार के दोष यहाँ भी बिलकुल नहीं पाये जाते इसलिये इसे भी संकल्प मैथुन या व्यभिचार नहीं कह सकते । यह भी आरम्मी मैथुन है; शर्त यह है कि उसका यह सम्बन्पर-पुरुष + कुछ वर्ष हुए जत्र इंग्लैंड की एक बाईन - जिसका नाम मैं भूल गया हूँ - इसी प्रकार सम्बन्ध किया था। इस विषयका उसने आन्दोलन खड़ा कर दिया था । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैन-धर्म-मीमांसा १२४ ] के साथ न होना चाहिये । शंका- जब उसने विवाह ही नहीं कराया तब उसको स्वपुरुष कहां से मिलेगा ? पर-पुरुष शब्द से आपका क्या मतलब है ? समाधान -- जो पुरुष विवाहित है उसके लिये अपनी पत्नी को छोड़कर बाकी सब स्त्रियां पर-स्त्री हैं, भले ही वह वेश्या हो, विधवा हो या कुमारी । इसी प्रकार जो स्त्री विवाहित है उसके लिये अपने पति को छोड़कर बाकी सभी पुरुष पर-पुरुष हैं, भले ही वे कुमार हों या विधुर । परन्तु अविवाहित श्री पुरुषों के लिये पर-पुरुष और पर-स्त्री की व्याख्या इस प्रकार नहीं हो सकती क्योंकि 'पर' यह सापेक्ष शब्द है । अविवाहितों को 'स्व' कहने के लिये ही जब कोई नहीं है तब उनके लिये 'पर' कौन हो सकता है, यह विचारणीय है । इसलिये ऐसे पुरुषों के लिये वही पर- स्त्री है जो किसी पुरुष के साथ विवाह सम्बन्ध से बँधी है और ऐसी अविवाहित आदि) स्त्री के लिये वही पर - पुरुष है जो किसी स्त्री के साथ विवाह सम्बन्ध में बँधा है । जो अविवाहित स्त्री गर्भाधान करना चाहे वह ऐसे पुरुष से गर्भाधान करे जो अपत्नीक हो । अन्यथा उसे पर-पुरुष सेवन का दोष लगेगा । वह संकल्प व्यभिचार होगा । 1 प्रश्न- यदि अविवाहितों को इस प्रकार की छुट्टी दी. जायगी तो विवाहित होना कोई पसंद क्यों करेगा ! अविवाहित रहकर वेश्या सेवन आदि से वह स्वतन्त्रता का उपभोग क्यों म करेगा ? Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमचर्य [१२५ उत्तर- स्वतन्त्रता का यह उपभोग बहुत महंगा दुःखद और घृणित है । एक मनुष्य घर के मकान में रहता है और एक भाड़े के मकान में रहता है । भाडेवाला चाहे तो हर महीने मकान बदल सकता है और घरू मकानवाला अपने घर में बँधा है, परन्तु गृह स्वामी की अपेक्षा भाड़त बनना कोई पसन्द नहीं करता । गरीबी आदि से या आर्थिक लाभ की दृष्टि से भाडेतु बनना पड़े, यह दूसरी बात है । अथवा, कोई आदमी घर में रहता है और दूसग किसी घर में नहीं रहता, वह आज इस मुसाफिरखाने में पड़ रहता है, कल उस होटल में और परसों उस धर्मशाला में । क्या यह स्वतन्त्रता स्थिरवासी से अधिक सुखप्रद है ? माँगेपन की दृष्टि से अविवाहित के लिये मैथुन की स्वतन्त्रता कष्ट-प्रद है ही। ऐसे मनुष्य का जीवन अव्यवस्थित, अशान्त, सतत वासनापूर्ण और अधिक पराधीन रहता है । इसके अतिरिक्त इस स्वच्छन्दता में घृणितता भी रहता है क्योंकि वेश्यासेवन आदि में सुसंगति स्वच्छता आदि नहीं मिलती या नहीं के बराबर मिलती है। बहुत से कार्य ऐसे हैं जिन्हें हम मूल पापों में शामिल नहीं कर सकत, फिर भी वे बहुत घृणा की दृष्टि से देखने योग्य होते हैं, क्योंकि वे अपने और पर को साक्षात् नहीं तो परम्परा से दुःखप्रद होते हैं । एक मनुष्य दुर्जनों की संगति में रहे, अशुचि भक्षण करे तो उसका यह कार्य हिंसादि पापों में साक्षात् रूप में अन्तर्गत न होगा, फिर भी दुःखप्रद और घृणित होने से वह हेय होगा। इसी प्रकार अविवाहित के वश्या सेवन को संकल्पी व्यभिचार में शामिल न कर सकने पर भी वह उपर्युक्त दोषों से पूर्ण होने Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] [जैन धर्म-मीमांसा से हेय है। ___हाँ, जो बाई अविवाहित रहने पर भी सिर्फ गर्भाधान के लिये क्षणिक सम्बन्ध करती है, इसको वह व्यसन नहीं बनाती, वह संकल्पी व्यभिचार के पाप में नहीं डूबती । असली बात तो यह है कि इस प्रश्न का सम्बन्ध ब्रह्मवर्य मीमांसा से उतना नहीं है जितना कि समाज में स्त्री-पुरुषों के अधिकार की मीमांसा से । सन्तान के निर्माण में जब अत्यधिक भाग माना का है, तब उसपर माता का ही अधिक अधिकार क्यों न रहे ? सन्तान के नाम के साथ पिता का नाम क्यों रहे, माता का क्यों न रहे ! पिता का निर्णय करना तो अशक्यप्राय है तथा वेश्याओं की और विधवाओं की सन्तान के नाम के साथ उस के पिता का नाम लगाना नहीं बन सकता, इसलिये व्यापकता की दृष्टि से माता का ही नाम क्यों ने लगाया जाय ! अगर दायभाग के निर्णय के लिये पिता का नाम लगाया जाता है तो दायभाग के नियम इस प्रकार पक्षपातपूर्ण क्यों हैं ! उन्हें बदलना क्यन चाहिये ! इत्यादि अनेक समस्याएं हैं जिनके साथ उपर्युक्त समस्या का सम्बन्ध है । व्यभिचार का अर्थ सामाजिक वातावरण के अनुकूल. ही लगाया जा सकता है। मैथुन के जिस सम्बन्ध को समाज स्वीकार कर लेती है का व्यभिचार नहीं कहा जा सकता । इतना ही नहीं किन्तु सामाजिक विधि में कोई अन्याय मालूम होता हो तो उसको सुधारने के लिये नैतिक बल से किसी दूसरी विधि का अवलम्बन लेना भी व्यभिचार नहीं है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य . [१२७ - उद्योगी- संकल्पी मैथुन को बचाकर समाज की किसी आवश्यकता को पूर्ण करते हुए अर्थ लाभ के लिये जो मैथुन किया जाता है, यह उद्योगी मैथुन है। वेश्याओं का धंधा इसी प्रकार का मैथुन है । यद्यपि उसमें सांकल्पिकता का बचाव नहीं किया जाता, इसलिये वह सदोष है, फिर भी यह बचाव किया जा सकता है । अगर यह बचात्र किया जाय तो वह उद्योगी मैथुन कहलायगा । । '', वेश्याओं का अस्तित्व यद्यपि समाज का कलंक है, तथापि जबतक समाज में विषमता है और न्याय का पूर्ण साम्राज्य नहीं है, तब तक वेश्याओं का होना अनिवार्य है। इतनाही नहीं किन्तु अगर यह विषमता दूर नहीं की जाय और न्याय की रक्षा न की जाय तो वेश्याओं का होना आवश्यक भी है। वश्याप्रया के अस्तित्व में स्त्री और पुरुष दोनों का हाथ हैं। अगर नियों को वेश्या बनने के लिये विवश न होना पड़े तो यह कुप्रथा नष्ट हो सकती है, अथवा पुरुषों को वेश्याओं की अरूरत ही न हो तो यह प्रथा नष्ट हो सकती है। अभी तक समाज की रचना इतनी सदोष है कि उसके लिये वेश्याएँ आवश्यक हो गई हैं। हम देखते हैं कि अच्छे अच्छे युवक अविवाहित रहते हैं । कुमारियों की संख्या कम होने से युवकों को त्रियाँ नहीं मिलती। इनमें से सभी युवक आजन्म ब्रह्मचारी नहीं रह सकते इसलिये यह अनिवार्य है कि परखियों के ऊपर छल , से या बल से इनके आक्रमण हो । उनके इस आक्रमण को रोकने के लिये Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] [जैन-धर्म-मीमांसा वेश्या प्रथा कुछ समर्थ हो सकती है । इधर त्रियों के ऊपर भी समाज का अत्याचार कम नहीं है । वैधव्य प्राप्त करने पर उन्हें ब्रह्मचर्य के लिये विवश किया जाता है, जिसको वे पालन नहीं कर सकती, इससे न्यभिचार बढ़ता है । बाद में गर्म रहजाने पर वह बिलकुल बहिष्कृत कर दीजाती हैं । अन्त में वह गिरते गिरते पतन की सीमा पर पहुँच कर वेश्या बन जाती है । इस प्रकार समाज की अव्यवस्था और अत्याचारशीलताने एक तरह वेश्याओं के निर्माण का कारखाना खोल रक्खा है और दूसरी तरफ युवकों को अविवाहित रहने के लिये विवश कर दिया है। ऐसी अवस्था में वेश्याओं का होना अनिवार्य है। वेश्याएँ कुछ इसलिये अपना धन्धा नहीं करतीं कि उन्हें काम सुख लूटना है किन्तु इसलिये करती है कि उन्हें पेट की ज्वाला शान्त करना है। उन बेचारियों में भूखों मरने का साहस नहीं है । इसलिये उनका कार्य संकल्पी मैथुन अर्थात् ब्यभिचार न कहलाकर उद्योगी मैथुन कहलाता है। इस उद्योगी मैथुन में सांकल्पिकता का प्रवेश न होना चाहिये अर्थात इसमें पर-स्त्री-सेवन और पर पुरुष सेवन का पाप न आना चाहिये। जो पुरुष विवाहित है उसके लिये वेश्या भी (स्वस्त्री से भिन्न होने से ) परस्त्री है, इसलिये वेश्यागमन करके वह व्यभिचार करता है, और विवाहित होने से वेश्या के लिये भी यह पर-पुरुष (पर दूसरी स्त्री का पुरुष ) है, इसलिये उससे सम्बन्ध करके वह भी व्यभिचारिणी होती है। जिनको अनिवार्य कारणवश अविवाहित जीवन व्यतीन करना पड़ता है, सिर्फ उन्हीं के लिये Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य ] [ १२९ वेश्याओं की सृष्टि है । इससे आगे ज्योंही वह संबंध बढ़ा त्योंही व्यभिचार हो गया । शंका-विवाहित पुरुष बेश्या सेवन से व्यभिचारी कहलावे, यह तो ठीक है क्योंकि वह जानता है कि 'मैं विवादित हूँ' । परंतु वेश्या तो नहीं जानती कि 'यह पुरुष विवाहित है या अविवाहित ' इसलिये उसका क्या दोष ? समाधान - वेश्या के लिये इस विषय में कुछ असुविधा जरूर है, परन्तु शुद्ध मन से उसे इस बात की जांच करना चाहिये और पता लग जाने पर उसको पास न आने देना चाहिये, और उससे अपत्नीक होने का वचन ले लेना चाहिये | शक्य उपायों के कर लेने पर भी अगर बोई धोका दे माय तो वेश्या व्यभिचार के दोष से मुक्त रहेगी, सिर्फ पुरुष ही व्यभिचारी कहलायेगा | शंका- तब तो येश्या अपना धंधा करते हुये भी अगर विवाहित पुरुषों से संबंध न रक्खे तो पंच अणुव्रत ले सकती है । समाधान - जो वृत्ति समाज की किसी अनिवार्य और अहिंसक आवश्यकता का फल है उसे करते हुए अणुव्रतों में बाधा नहीं पड़ सकती । इसलिये उपर्युक्त विवेक रखने वाली वेश्या भी अगर चाहे तो पांच अणुव्रतों का पालन कर सकती है 1 वेश्या का धंधा संकल्पी मैथुन न होने पर भी वह किसी समाज की शोभा नहीं है, बल्कि वह कलंक है - समाज की अव्यवस्था का सूचक है । इसलिये ऐसे साधनों को एकत्रित करना चाहिये जिससे इस प्रथा की जरूरत ही न रहे। इसके लिये निम्न Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३.] [जैन-धर्म-मीमांसा लिखित उपाय काम में लेना चाहिये । क-समाज का प्रत्येक पुरुष और स्त्री विवाहित हो इस लिये विवाह की पूर्ण स्वतन्त्रता होना चाहिये, इसमें जाति-पाँति का तथा विधवा-कुमारी का विचार न रक्खा जाय । ख-विवाहोत्सव का खर्च इतना कम हो कि पैसे के अभाव से किसी का विवाह न रुक सके । ग-जिस मनुष्य की आमदनी इतनी अधिक नहीं है कि वह संतान का पालन कर सके तो वह कृत्रिम उपायों से सन्तान निग्रह करे। घ-विधवाओं को किसी भी हालत में समाज से बाहिर न किया जाय । अगर वह ब्रह्मचर्य से न रह सकती हो या न रह सकी हो तो उसके पुनर्विवाह का आयोजन किया जाय । उ-व्यभिचार के कार्य में व्यभिचारजात सन्तानका कोई अपराध नहीं है, इसलिये उनका दर्जा वैसा ही ससमा जाय जैसा कि अन्य सन्तान का समझा जाता है। च--अगर कोई विधवा आजीविका से दुःखी हो तो उसे आजीविका दी जाय, जिससे वह पेट के लिये वेश्या न बने। इस प्रकार अगर एक तरफ पुरुषों को वेश्या की आवश्यकता न रहेगी, दूसरी तरफ नियों को पेट के लिये इस घृणित व्यापार की आवश्यकता न रहेगी तब यह न्यापार भाप ही आप उठ जायगा। विरोधी-आत्मरक्षा या आत्मीय रक्षा के लिये यदि Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्रह्मचर्य व्यभिचार करना पड़े तो वह विरोधी व्यभिचार कहलायगा । अगर युद्ध के समय कोई स्त्री जासूस का काम कर रही है और इस कार्य में वह शत्रु का गुप्त रहस्य तभी जान सकती है, जब वह शत्रु पक्ष के किसी अफसर के साथ प्रेम का नाट्य करे, ऐसी अवस्था में जो व्यभिचार होगा वह विरोधी व्यभिचार होगा । यदि किसी स्त्री को किसी अत्याचारीने कैद कर लिया है और अगर वह उसकी इच्छा तृप्त नहीं करती तो वह उसके बच्चे को मार डालता है, ऐसी अवस्था में अगर वह व्यभिचार करती है तो उसका यह कार्य आत्मीय रक्षा के लिये होने से विरोधी * व्यभिचार है। इसी प्रकार प्राणरक्षा के लिये भी विरोधी व्यभिचार हो सकता है। प्रश्न-सीत! आदि सतियों ने आत्म रक्षा को पर्वाह न करके सतीत्व की रक्षा की, उसी प्रकार प्रत्येक बी को क्यों न करना चाहिये ? अथवा कम से कम उस स्त्री को अवश्य करना चाहिये जिसने अणुव्रत लिये हैं। अणुव्रत-धारिणी को भी आप इतनी छूट दें तब सतीत्र आखिर रहेगा कहाँ ! सीता आदि के जीवन तो दुर्लभ ही हो जायगे । उत्तर- सीता आदि ने जो प्राणों की बाजी लगाकर स्तीत्व रक्षा की, वहाँ सतीत्व का प्रश्न मुख्य नहीं है किन्तु वह अत्याचार के आगे सत्याग्रह नामक महाशन का उपयोग है । अगर रावण ने बलात्कार किया शेता तो महासती सीताजी के ब्रह्मपर्य व्रत को ज़रा भी धका न लगता, अथवा दुर्भाग्यवश भगर रावण ने Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] [जैन-धर्म-मीमांसा रामचन्द्रजी को क़ैद कर लिया होता और वह उन्हें छोड़ने के लिये सिर्फ इसी शर्त पर तैयार होता कि सीता रावण की इच्छा पूरी करे और पति-रक्षा के लिये सीताजी ने रावण का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया होता तो सीताजी का ब्रह्मचर्याणुव्रत कभी भंग न होता । भगवती सीता ने लोकोत्तर दृढ़ता का परिचय दिया इसलिये उनके विषय में ऐसी कल्पना करते भी संकोच होता है, परन्तु अगर कोई दूसरी स्त्री इस प्रकार दृढ़ता का परिचय न दे सके तो हम उस की गिनती वीराङ्गनाओं में भले ही न करें परन्तु उसे चरित्र-भ्रष्ट या असंयमी नहीं कह सकते । व्यभिचार किस वासना का फल है, इसका विचार करने पर यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जायगी । व्यभिचार में समाज के 1 ऊपर एक प्रकार का आक्रमण किया जाता है, दूसरे के कुटुम्ब के बन्धन को शिथिल बनाया जाता है, कौटुम्बिक जीवन विश्वासशून्य और अशान्त बनाया जाता है और इन सब कार्यों के लिये कोई भी नैतिक अवलम्बन नहीं होता; जब कि विरोधी मैथुन में ये सब बातें नहीं होती । व्यभिचार जिस प्रकार काम वासना की उत्कटताअमर्यादिता का परिणाम है, उस प्रकार उपर्युक्त विरोधी मैथुन नहीं । 1 शंका- क्या इस छूट का दुरुपयोग न होगा ? क्या इस की ओट में वास्तविक व्यभिचार न छुपाया जायगा ! समाधान - छुपाने को मनुष्य किसकी ओट में क्या नहीं छुपा सकता ? देखना इतना चाहिये कि छूट के भीतर पाप को पकड़ने के पर्याप्त साधन हैं कि नहीं ? उदाहरणार्थ कोई स्त्री व्यभिचार करके Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह ] [ १३३ अगर यह कहे कि यह विरोधी मैथुन है तो उसे अपने इस काम को बलात्कार सिद्ध करना पड़ेगा और उस पुरुष को शत्रु बताना पड़ेगा | परन्तु स्वेच्छापूर्वक किये गये इस कार्य में ऐसा होना अत्यन्त कठिन है । मैथुन के इन चार भेदों के बलाबल पर अवश्य विचार करना चाहिये | सुख शांति के लिये ब्रह्मचर्य आदर्श है, परन्तु समाज संरक्षण के लिये अमुक सीमा तक मैथुन भी आवश्यक है 1 दोनों का समन्वय करके ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये, तथा द्रव्यक्षेत्र कालभाव के विचार को न भूलना चाहिये | अपनी शक्ति और स्वतन्त्रता की तथा दूसरों के अधिकारों की रक्षा के किये लिये ब्रह्मचर्य उपयोगी है । 1 अपरिग्रह साधाण लोग परिग्रह को पाप नहीं मानते, वल्कि उन की दृष्टि में जो जितना बड़ा परिग्रही है वह उतना ही बड़ा पुण्यात्मा है, आदरणीय भी है। धन और धनवानों की महिमा से समस्त जगत का साहित्य भरा पड़ा है, दुनियाँ के बड़े बड़े राज्य शासन - चाहे वे प्रजातंत्र हों या एक तंत्र और बड़े बड़े विद्वान - भले ही वे बात-बात में धर्म के ही गीत गाते हों, प्रायः सभी धनवानों के इशारों पर नाचते रहे हैं और नाचते हैं । आज 'बड़ा आदमी' शब्द का बहु- प्रचलित और सुगम अर्थ 'श्रीमान' है । जो धन सर्व - शक्तिमान के स्थान पर विराजमान है उस के संग्रह को पाप कहना और उसके त्याग को व्रत संयम आदि Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] कहना विचारणीय तो अवश्य है 1 [जैन-धर्म-मीमांसा 'परिग्रह पाप है ' - इस सिद्धान्त की छाप लोगों पर इतनी अवश्य बैठी है कि वे इस सिद्धान्त का मौखिक विरोध नहीं करते, परन्तु मन में और व्यवहार में इस सिद्धान्त पर जरा भी विश्वास नहीं रखते । इस विषमता का कारण क्या है, यह भी विचारणीय है । इस सिद्धान्त के विषय में यह भी एक प्रश्न है कि अब परिग्रह में हिंसा नहीं है, झूठ नहीं है, चोरी नहीं है अर्थात् यदि किसी ने ईमानदारी से धन पैदा किया है तो उसका संग्रह पाप क्यों है ? हाँ, अगर पैसा बेईमानी से, चोरी से या क्रूरता से पैदा किया गया है तो अवश्य पाप है । परन्तु उस समय उसे परिग्रह - पाप नहीं कह सकते वह तो हिंसा, झूठ या चौर्य पाप कहा जा सकता है । मतलब यह कि शुद्ध परिग्रह - ईमानदारी से एकत्रित किया हुआ धन - पाप कैसे कहा जा सकता है ? इन सब समस्याओं पर प्रकाश डालने के लिये हमें परिग्रह पर मूल से ही विचार करना पड़ेगा कि परिग्रह क्यों और कैसे आमा ? उससे जगत् की हानि क्या है ? परिग्रह किसे कहते हैं ? इसक भी अपवाद है या नहीं ? हैं तो क्या ? इत्यादि । जब मनुष्य वन्य-जीवन व्यतीत करता था, बन्दरों की तरह स्वतन्त्रता से विचरण करता था, प्राकृतिक फल-फूलों से अपनी सब आवश्यकताएँ पूरी कर लेता था; जैन- शात्रों के शब्दों में जब मनुष्य भोग-भूमि के युग में था, तब वह परिग्रही नहीं था । प्राकृतिक सम्पत्ति अधिक थी और मनुष्य संख्या तथा उस Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह [१३५ की आवश्यकताएँ थोडी थीं । तब परिग्रह की जरूरत ही क्या थी ? तब खाने के लिये उसे मन चाहे फल मिलते थे, पत्र और पुष्प उसके शृंगार थे, बम्बूल आदि की फली तथा बाँसुरी वगैरह उसके बादित्र थे, बल्कल के वस्त्र थे, पर्वत की कन्दराएँ और वृक्षों की खोहें उसके मकान थे, अनेक वृक्षों का मादक-रस पीकर वह मद्य सेवन करता था । जब इस तरह चैन से गुजरती थी तब वह संग्रह करने के झगड़े में क्यों पड़ता ! परन्तु इस शान्ति का भी अन्त आया । जन संख्या बढ़ने लगी, रुचि और बुद्धि का भी विकास हुआ । अब कृत्रिम वस्त्र, कृत्रिम गृह आदि की रचना हुई । इस प्रकार से समाज में अत्यन्त क्रान्तिकारी युगान्तर उपस्थित हुआ । पहिले तो प्राकृतिक सम्पत्ति के हिस्सा बाँट से ही काम चल गया परन्तु पीछे और भी अनेक विधि-विधानों की आवश्यकता हुई । अब मनुष्य प्राकृतिक सम्पत्ति से ही गुज़र न कर सका, उसे परिश्रम भी करना पड़ा । इधर आवश्यकताएँ यहाँ तक बढ़ी और इतने तरह की बढ़ी कि एक मनुष्य से अपनी सारी आवश्यकताएँ पूरी न हो सकी । इसलिये कार्य का विभाग कर दिया गया । इस प्रकार मनुष्य पूरा सामाजिक प्राणी बन गया । __परन्तु सब मनुष्यों की योग्यता और रुचि बराबर नहीं थी। कोई परिश्रमी थे, कोई स्वभाव से कुछ आरामतलब । कोई बुद्धिमान् थे, कोई साधारण । जो परिश्रमी थे, बलवान थे, बुद्धिमान् थे, वे अधिक और असाधारण काम कर सकते थे, इसलिये यह स्वाभाविक पा कि वे अपने कार्य का अधिक मूल्य माँगें आर यह उचित भी था। इस प्रकार के अधिक मूल्य चुकाने के दो ही उपाय ये-एक Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६] ( जैन धर्म-मीमांसा तो यह कि उसने जितना अधिक काम किया है उसके बदले में उसका कुछ अधिक काम कर दिया जाय । उदाहरणार्थ, अगर वह अधिक परिश्रम करने से थक गया है तो उसके शरीर में मालिश कर दिया जाय, लेटने के लिये दूसरों की अपेक्षा अच्छा पलंग आदि दिया जाय आदि; दुसरा उपाय यह था कि उससे दूसरे दिन काम न लिया जाय और उसे भोगोपभोग की सामग्री दूसरे दिन भी दी जाय । बस, यहीं से परिग्रह का प्रारम्भ होता है । कोई कोई लोग कहने लगे कि अमुक मनुष्य को एक दिन के काम में अगर दो दिन की सामग्री दी गई है तो मेरा काम तो उससे बहुत अच्छा है, मैं चार दिन की लूगा । इस प्रकार यह संख्या बढ़ती ही गई। दूसरी तरफ एक अनर्थ और हुआ। लोगों ने यह सोचा कि एक दिन काम करके चार दिन आगम करने की अपेक्षा यह कहीं अच्छा है कि दस बीस वर्ष काम कर के शेष जीवन आराम किया जाय । परन्तु मरने का तो कुछ निश्चय न था, इसलिये लोग जिन्दगी-भर संग्रह करने लगे। खैर, यहाँ तक भी कुछ हर्ज नहीं था, अगर वे लोग इस संग्रहीत धन को भोग डाळते या मरते समय समाज को ही दे जाते । परन्तु इसी समय मनुष्य के हृदय में अनंत जीवन की लालसा जागृत हई । उसने अपने स्थान पर पुत्र को स्थापित किया और अपनी संग्रहीत संपत्ति उसे दे दी। कहने को तो यह काम कानूनी था परन्तु इस कानून की जो मंशा थी उसकी इसमें पूरी हत्या हो गई थी । समाज के विधान की मंशा तो यह थी कि जिसने अपनी योग्यतासे अधिक Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह] [१३७ मूल्य की सेवा की है वह दूसरों से [अर्थात समाज से अधिक सेवा लेले। परन्तु उसे दूसरों से सेवा लेने का अधिकार था, न कि उनकी जीवन निर्वाह की सामग्री को छीनने का या दबा लेने का।। जिन लोगों ने अधिक सेवा की, उनका यह कहना था कि हमने अधिक सेवा की है, इसके बदले में हमें कुछ प्रमाण-पत्र तो मिलना चाहिये, जिसको देकर हम समाज के किसी सदस्य से इच्छानुसार उतने मूल्य की सेवा ले सकें । समाज ने कहा-अच्छा प्रमाण-पत्र के रूप में तुम अपने पास अधिक सामग्री रख लो, जो कोई तुम्हारी सेवा करे उसको तुम यह दे देना । इस प्रकार समाज ने जो सामग्री दी थी, वह सिर्फ इसलिये कि वह अपनी सेवा के बदले में सेवा ले सके, न कि इसलिये कि वह सदा के लिये उस सामग्री को रखले, भले ही उसके बिना दूसरे भूखे मरते रहें। यह तो एक प्रकार से विश्वासघात और हिंसा है। शंका-जिस जमाने में सम्पत्ति का संग्रह अन्न, चन, गाय, भैंस, जमीन आदि में किया जाता था उस ज़माने में संग्रह करनेवाला अवश्य पापी था क्योंकि वह दूसरों की जीवन-निर्वाह सामग्री लेकर लौटाने की कोशिश नहीं करता था, जिससे दूसरे भूखों मरते थे । परन्तु जब धन का संग्रह चाँदी, सोना, हीरा आदि में होने लगा, या इंडियों, नोटों में होने लगा तब कोई संग्रह करे तो क्या हानि भी ! सोना, चाँदी, नोद आदि तो खाने-पीने की चीज़ नहीं है इसलिये उनका कोई कितना भी संग्रह करले, उससे किसी का क्या नुकसान है ! . Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] (जैन-धर्म-मामांसा समाधान--जीवनोपयोगी वस्तुओं का संग्रह करना या उनको प्राप्त करने के साधनों का संग्रह करना एक ही बात है । व्यवहार की सुगमता के लिये भागोपभोग की वस्तुओं के स्थान में चाँदी-सोना या उसके सिक्के या नोट वगैरह स्थापित कर लिये जाते हैं, इसालेये सिक्का आदि का मूल्य मूल वस्तुओं के समान ही है। सिको या नोटों का संग्रह जब एक जगह हो जाता है तब दूसरों को वे नहीं मिल पाते, इसलिये दूसरे लोग भागोपभोग की सामग्री क्या देकर प्राप्त करें ! इसलिये किसी भी रूप में धन का संग्रह किया जाय, वह दूसरों के न्यायोचित अधिकारों को छौनता है, इसलिये पाप है। शंका-यदि परिग्रह को पाप माना जायगा तब तो समाज का विकास ही रुक जायगा । अगर धन-संचय का प्रलोभन न रह नायगा तो कोई असाधारण कार्य क्यों करेगा ! फिर तो किसी भी तरह के आविष्कार न हो सकेंगे और मनुष्य जङ्गली ही रह जायगा उत्तर-संयमी मनुष्य तो बिना किसी प्रलोभन के कर्तव्यवश समाज की उन्नति के लिये असाधारण कार्य करता है। फिर भी यह ठीक है कि ऐसे संयमी इने-गिने ही होते हैं इसलिये प्रलोभन आवश्यक है। इसके लिये यह उचित है कि जो वसाधारण काम करे, उसे तदनुसार ही असाधारण धन दिया जाय। परन्तु उसका कर्तव्य है कि वह या तो उस धन का दान कर दे अथवा भोग करले . पहिले मार्ग से उसे यश मिलेगा, दूसरे से काम-सुख । दोनों ही मार्ग से धन दूसरों के साथ में पहुँच कर उनें Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह] [१९ मुखी करेगा, बेकारी और गरीबी दूर करेगा। शंका - धन के भोग करने की बात कहकर आप मनुष्य को विषय का गुलाम बनाते है । एक मनुष्य धन पैदा करने के साथ अगर साविक जीवन व्यतीत करना चाहता है, मौज-शौक की चीज़ोंका उपयोग नहीं करना चाहता तो क्या बुरा करता है ! समाधान--मूलवत की रक्षा न करते हुए उत्तरबत का पालन करना व्रत की दृष्टि से मृतक शरीर के श्रृंगार की तरह है। श्रृंगार अच्छी चीज़ भले ही हो परन्तु मुर्दे का श्रृंगार किस काम का ! इसी प्रकार जब तक मलबत अपस्त्रिह नहीं है तब तक भोगोपभोग परिमाण नामक उत्तरबत का कुछ मूल्य नहीं है । भौगोपभोग सामग्री का परिमाण करने का या लाग करने का यही उद्देश्य है कि बची हुई सामग्री दूसरों के काम आवे, परन्तु अपरिग्रह बत का पालन किये बिना इस उद्देश्य की सिद्धि हो ही नहीं सकती. क्यों कि उस सामग्री को प्राप्त करने का उपाय जो धन है वह तो उसने दबा रक्खा है । तब भोगोपभोग की सामग्री का उपयोग न करने पर भी वह दूसरे को कैसे मिलेगी ! इस प्रकार यह व्रत निष्प्राण हो गया है । तब भोमोपभोग परिमाण के द्वारा इस निष्प्राण बत के सम्हाल-भृङ्गार से क्ण लाभ है ! यही कारण है कि जैनशाखों ने भोगोपभोग परिमाण को मूलवतों में नहीं गिना, इसे अपरिग्रह-बत का सिर्फ सहायक कहा है । महात्मा महावीर ने परिग्रह और भोपभोग परिमाणवत में जो स्थानभेद बतलाया है और अपरिग्रह को जो महत्वपूर्ण स्थान दिया है इससे उनकी अर्थशाब मर्मज्ञता साबित होती है । इसीलिये उनने मौज-शौक की Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १..] जिन-धर्म-मीमांसा अपेक्षा धन के संग्रहमें अधिक पाप बतलाया है । इसे मूल पाप में गिना है। शंका-यदि अर्थिक दृष्टि से दो आदमी एक सरीखे हों तो मौज-शौक से जीवन वितानेवाला आपकी दृष्टि में अच्छा कहलाया । परन्तु इस तरह संयम की अवहेलना करना क्या उचित समाधान--यदि दोनों ईमानदारी से धन पैदा करते हों, दोनों की ऐहिक आवश्यकताएँ समान हो तो इन दोनों में जो रूखा सूखा आदि खाकर बाह्य संयम पालता है और उससे जो पैसे की बचत होती है उसका संग्रह करता है, उसकी अपेक्षा वह अच्छा है जो आई हुई लक्ष्मी का संग्रह करने की अपेक्षा उचित भागों में उसे खर्च कर डालता है । हाँ, अगर उसमें भोग-लालसा इतनी बढ़ जाय कि वह उसके लिये पाप भी करने लगे या उसमें कष्टसहिष्णुता न रहे तो वह पापी कहलायगा । परन्तु अपरिग्रह की दृष्टि से नहीं, किन्तु अन्य पापों की दृष्टि से । स्पष्टता के लिये मैं यहाँ छः श्रेणी किये देता हूँ: १-जो मनुष्य समाज की सेवा में अपना सर्वस्त्र लगा देता है, बदले में समाज से कुछ नहीं लेता किन्तु पूर्वोपार्जित धन से निर्वाह करता है, अथवा जीवन-निर्वाह के योग्य सामग्री लेता है. किन्तु संग्रह कुछ नहीं करता, वह प्रथम श्रेणी का अपरिग्रही है। इस श्रेणी में महावीर, बुद्ध, ईसा आदि आते हैं। " २-जो मनुष्य समाज की खब सेवा करता है और उसके बदले में नियमानुसार यथोचित पन लेता है, साधारण गृहस्थ की Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह [१४१ तरह जीवन निर्वाह करके बची हुई सम्पत्ति शुभ-दान में लगा देता है - यह दूसरे नम्बर का अपरिग्रही है। ३-समाजको मेवा करके यथोचित धन लेनेगला (दूसरी श्रेणी के समान) अगर इस आशय से धन का संग्रह करता है कि इससे मैं भविष्य में अपना जीवन निर्वाह करता हुआ बिना किसी बदले के समाज की सेवा करूँगा, अपने जीवन-निर्वाह का बोझ भी समाज पर न डालूंगा, मरने के बाद मेरी ग्रहीत सम्पत्ति समाज की ही होगी, तो यह तीसरी श्रेणी का अपरिग्रही बनता है । ४-न्याय-मार्ग से धन पैदा करनेवाला भोग करके अपने और अपनी सन्तान के लिये धन का इतना संग्रह करता है जितना उस की सन्तान की शिक्षा और सन्तान की नाबालिग अवस्था में जीवन-निर्वाह के लिये आवश्यक है, तो वह चौथी श्रेणी का अपरिग्रहा है। ५-पूर्वजों से उत्तराधिकारित्व में उसे बहुत धन मिला हुआ है इसलिये उसके पास धन का संग्रह है । अब वह इसमें जितना बढ़ाता है उतना किसी न किसी उचित उपाय से खर्च कर डालता है, मूलधन को भी शुभ-दान में लगाता है, वह पाँचवी श्रेणी का अपरिगही है। ६-पाँचवी श्रेणी का अपरिग्रही अगर मूलधन को संग्रहीत रखता है किन्तु बाकी आमदनी खर्च कर डालता है तो वह छट्ठी श्रेणी का अपरिग्रही है। ' . उपर्युक्त सभी श्रेर्णावाले समाज को सम्पत्ति बढ़ाने के लिये उद्योग धन्धों के न्यायोचित प्रचार में पूर्ण सहयोग कर सकते Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] [जैनधर्म मीमांसा उत्तर- जैनशास्त्र साम्यवाद के विरोधी नहीं, किन्तु उसके पूर्ण पोषक हैं । जैनशास्त्रों में जो पहिले, दूसरे, तीसरे (आरा) काल की कल्पना की गई है और जो सबसे अच्छा युग बतलाया गया है, वह पूर्ण साम्यवादी है । इसी प्रकार स्वर्ग लोक के भी दो भेद हैं--एक तो साम्राज्यवादी, दूसरे पूर्ण साम्यवादी । साम्राज्यवादी सौधर्म आदि स्वर्गों के देवों की अपेक्षा पूर्ण साम्यवादी गैवेयक आदि के देवों का स्थान बहुत उच्च है । वे सभ्यता, शिक्षा, शान्ति, शक्ति, सुख आदि में माम्राज्यवादी देवों से बहुत बढे चढ़े हैं । साम्राज्यवादी देवों का सम्राट इन्द्र भी उनकी बराबरी नहीं कर सकता । इससे इतना तो मालूम होता है कि सुखमय-समाज का पूर्ण आदर्श साम्यवाद है । परन्तु यह साम्यवाद समाज के व्यक्तियों की योग्यता और निस्वार्थता पर निर्भर है । समाज अगर मूढ़ और स्वार्थी हो तो साम्यवाद महामकर हो जाता है । वह या तो समाज को नरक बना देता है या साम्राज्यवाद या राज्यवाद में परिणत कर देता है । परन्तु इस प्रकार का दुरुपयोग तो प्रत्येक गुण का होता है या हो सकता है, इसीलिये वह गुण हेय नहीं हो जाता । सिर्फ योग्यता का विचार करना चाहिये । समाज की योग्यता और निस्वार्थता का विचार करके मात्रा से अधिक नहीं, फिर भी अधिक से अधिक साम्यवाद का प्रचार करना चाहिये । साम्यवाद और अपरिग्रह-व्रत का यह उद्देश्य नहीं है कि मनुष्य पशु की तरह हो जाय किन्तु यह उद्देश्य है कि दूसरे लोग अपनी न्यायोचित सुविधाओं से वंचित रहकर भूखों न मरें। समाज के पास जितनी सम्पत्ति है उसे देखते हुए जितना माग हमारे हिस्से Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह ] [ १४५ का है अथवा कर्तव्य को पूरा करने के लिये जो हमें आवश्यक है उसका उपभोग और संग्रह करने में कोई परिग्रही नहीं कहलाता ; किन्तु अनावश्यक तथा अपने हिस्से से बहुत अधिक संग्रह करना परिग्रह है । एक ही समान बाह्य परिग्रह रखने पर भी एक समय और एक जगह परिग्रह का पाप हो सकता है और दूसरे समय और दूसरी जगह नहीं। जब काम अधिक हो और करनेवाले कम हो तब भोगोपभोग की जितनी सामग्री किसी को परिग्रही बना सकती है उतनी बेकारी के ज़माने में नहीं बना सकती । जब काम कम और करनेवाले अधिक होते हैं और वे बेकार फिरते हैं। तब भोगोपभोग की चीजों का अधिक संग्रह किया जा सकता है । मतलब यह कि समाज की परिस्थिति के ऊपर परिग्रह और अपरिग्रह की मात्रा अवलम्बित है । ढाई हजार वर्ष पहिले मुनि जितने उपकरण रख सकता था, आज उससे कई गुणे उपकरण रखकर भी अपरिग्रही हो सकता है। हाँ, उसके ऊपर अनावश्यक स्वामित्व न होना चाहिये; इसलिये अपरिग्रह व्रत में संग्रह-मात्र का निषेध नहीं है, किन्तु उसके मात्राधिक्य का निषेध है । जगह जगह संग्रह करने की आवश्यकता तभी होती है जब एक तरफ अत्यंत कङ्गाली हो । यदि सभी को न्यायोचित साधन मिले तो किसी के पास अधिक संग्रह हो इसकी क्या आवश्यकता है ? यदि कोई सार्वजनिक बड़ा-सा कार्य करना हो तो इसके लिये सरकार के पास सार्वजनिक कोष होता है, उसका उपयोग किया जा सकता है या सब लोग मिलकर वह कार्य कर सकते हैं, और जलाशयों की उपमा यहाँ भी लागू हो सकती है । जलाशयों का होना Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] [जैन-धर्म-मीमांसा अच्छा है परन्तु उसके ऊपर व्यक्ति विशेष की ठेकेदारी होना ही दुःखद है । विवश होकर यह व्यवस्था अपनाना पड़े यह ठीक है, परन्तु इसे आदर्श नहीं कह सकते । सफल साम्यवादी समाज में श्रीमानों का और दानवीरों का जितना अभाव होता है उससे भी बड़ा अभाव उनकी आवश्यकता का होता है । दानियाँका होना अच्छा है परन्तु भिखमंगों का न होना इससे हमार गुणा अच्छा है। अभी तक के विवेचन से इतनी बात समझ में आ गई होगी कि परिग्रह किस प्रकार अन्याय है, विश्वास घात आदि दोष उस में किस प्रकार जड़ जमाये बैठे हैं, समाज के असली ध्येय को वह किस प्रकार नष्ट करता है । परन्तु इसमें अभी एक और भयंकर दोष है जो कि अनेक आत्याचारों को जन्म देता है। पहिले कहा जा चुका है कि हमें अधिक सेवा करके अधिक सेवा लेने का ही अधिकार है, उसके प्रमाणपत्र रूप जो सम्पत्ति समाज ने हमारे पास रक्खी है उसको अनिश्चितकाल के लिये दबा रखने का नहीं । अगर हम दबा रखते है तो विश्वासघात करते हैं । परन्तु यह विश्वासघात उस समय एक प्रकार के अत्याचार में परिणत हो जाता है, जब हम उस संग्रहीत धन को भी धनार्जन का उपाय बना लेते हैं । हमको जो धन मिला है वह सेवा के बदले में मिला है। सेवा के बदले में धन लेना उचित है परन्तु हमारे पास धन है इसलिये बिना सेवा किये ही हमें और धन दो, यह कहना अनुचित है। परन्तु होता यही है । हम मकान बनवाकर जो उसके भाई से आमदनी करते हैं, कारखानों के शेयर (हिस्से) लेकर या ब्याज पर रुपये देकर जो Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह ] [ १४७ आमदनी करते हैं, वह अनुचित है । इतना ही नहीं किन्तु जिस ब्यापार की आमदनी हमारी योग्यता और श्रम का फल नहीं किन्तु पूँजी का फल है, वह आमदनी भी अनुचित है । यह बात दूसरी है कि इस प्रथा का सर्वथा बहिष्कार करना अशक्य है, परन्तु हैं यह अन्याय अर्थात् पाप ही । यह पाप यहाँ जाकर ही नहीं अटकता परन्तु आगे चलकर यह बड़े बड़े अत्याचारों को जन्म देता है । उससे साम्राज्य नहीं किन्तु साम्राज्यवाद रूपी एक भयंकर राक्षम पैदा होता है जिस 1 लेलिन का मत है कि साम्राज्यवाद वह आर्थिक अवस्था हे जो पूँजीवाद के विकास के समय पैदा होती है उसकी पाँच विशेषताएँ या दोष हैं । (२) पूर्ण अधिकारों को स्थापना (३) कतिपय महाजनों का आधिपत्य ( ३ ) पूँजी क' निर्यात ( ४ ) अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक गुटों का निर्माण ( ५ ) आर्थिक दृष्टि से देशों का बटवारा | जब बहुत बड़ी पूँजी लगाकर कोई व्यापार किया जाता है तब उसके लिये बड़े क्षेत्र की आवश्यकता होती है परन्तु दूर के क्षेत्रों में दूसरे पूँजीपति अपना स्थान जमा बैठते हैं इसलिये इन लोगों में खूब प्रतियोगिता होने लगती है । इससे इनकी आर्थिक लूट बहुत कम हो जाती है । तब ये आपस में मिलकर एक गुट बना लेते हैं। जो व्यापारी इनके गुट में शामिल नहीं होना चाहता उसके विरुद्ध आर्थिक लड़ाई छेड़ दी जाती है, जिससे या तो वह इनके गुट में आ जाता है अथवा मिट जाता है । इस प्रकार व्यापार के ऊपर अमुक गुट का Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] [जैनधर्म-मीमांसा के दाँतों के नीचे करोडों मनुष्य पिस जाते हैं. पिसते रहते हैं । इतिहास के बहुत से पन्ने इसी प्रकार की काली कथाओं मे भरे पड़े हैं । इसी के लिये उपनिवेशों की रचना होती है । उपनिवेश पूर्णाधिपत्य स्थापित हो जाता है। किसी गाँव में एक ही दुकानदार हो तो वह किस प्रकार मनमानी लूट करेगा, इससे हम इस पूर्णधिकार की भयंकरता को समझ सकते हैं । ये गुट बड़ी भारी पूँजी और व्यापक क्षेत्र के कारण एक विशाल-काय दैत्य सरीखे होते हैं । इस प्रकार के दो गुटों में जब भिडन्त होती है तब परिस्थिति विकट हो जाती है और कभी कभी तो दो राष्ट्रों के बीच में युद्ध छिड़ जाता है । इन गुटों में बल तो पूँजी का रहता है, इसलिये महाजनों का आधिपत्य हो जाता है । महाजनों के पास जब इतना रुपया इकट्ठा हो जाता है कि उनके बैंक अच्छा ब्याज पैदा नहीं कर पाते तब बैंकों का रुपया व्यापार में लगा दिया जाता है । इस प्रकार देश के व्यापार पर बैंकों का अर्थात् बैंकों के मालिकों-श्रीमानोंका गज्य हो जाता है। देश के भीतर व्यापार मुख्य वस्तु होने से ये लोग उस देश के वास्तविक शासक हो जाते हैं । जब धन, धन को पैदा करने लगता है तब पूँजीवाद का चक्र एक देश के भीतर ही सीमित नहीं रहता किन्तु पूंजी बाहर भेजी जाने लगती है, क्योंकि देश में काफ़ी पूंजी लग जाने से और अधिक पूँजी लगाने की गुंजायश नहीं रहती तब पूँजीपति लोग विदेशों में पूँजी भेजने लगते हैं और इस प्रकार ब्याज की अपेक्षा कई गुणी आमदनी करते हैं । जिन देशों Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह ] [१४९ पहिले भी होते थे; परन्तु उपनिवेश स्थापना के पहिले ध्येय और अब के ध्येय में जमीन आसमान का अन्तर है । पहिले तो लोग जीवन निर्वाह के लिये बस जाते थे, परन्तु अब तो पूँजी लगाकर पैसा पैदा करने के लिये उपनिवेश बनाये जाते हैं । इसके लिये में यह पूँजी लगाई जाती है उनके पास अधिक पूँजी होती नहीं है इसलिये नफा के बदले वहाँ प्रकृतिक और आवश्यक वस्तुएँ पूँजीपति देशों के पास पहुँचती हैं । यह एक तरह की सभ्य डकैती है । इस प्रकार पूँजी का प्रभाव क्षेत्र जब राष्ट्र के बाहर भी हो जाता है, तब प्रतियोगितासे बचने लिये जिस प्रकार राष्ट्र के भीतर आर्थिक गुट बनाये जाते थे उसी प्रकार राष्ट्र के बाहर भी अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक गुट बनाये जाने लगते हैं। और इसके बाद अमुक गुट अमुक देश को लूटे और अमुक अमुक को, इस प्रकार संसार के देशों का बटवारा कर लिया जाता है । इस बटवारे के लिये भयंकर युद्ध तक किये जाते हैं। जो देश या जो व्यापारी लोहे के कारखानों में या बारूद आदि विस्फोटक पदार्थों के कारखानों में पूंजी लगाते हैं वे इस बात की चेष्टा करते हैं कि किसी प्रकार युद्ध हो । धनिक होने के कारण इनका प्रभाव बहुत होता है, प्रचार करने के साधन भी इन के पास बहुत अधिक होते हैं इसलिये ये लोग देशभक्ति आदि के नाम पर जनता को उत्तेजित कर लड़ा देते हैं । लोग बुरी मौत मरते हैं किन्तु इनका व्यापार चमकता है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.] (जैनधर्म मीमांसा दुसरी प्रजाओं को पशुओं की मौत* मरना पड़ता है । संसार के सभ्य से सभ्य और शान्ति प्रिय देश पराधीन बनाये जाते हैं ! और * कांगो ( आफ्रिका ) जब बेलजियम का उपनिवेश बनाया गया तब वहाँ की चीजों के संग्रह के लिये मूल-निवासियों के साथ सस्ती की जाने लगी। अनेक प्रकार की सख्ती पर भी जब वे लोग माल नहीं लाते थे तो उनसे रबर और हाथी दाँत के रूप में टैक्स लिया जाने लगा और जब तक वे रबर या हाथी दाँत नहीं लाते थे तब तक उनकी औरतें पकड़ कर रखी जाती थीं। इसके लिये गाँवों पर सैनिकों का पहरा बैठा दिया जाता था। दिन दिन भर बेगार कराई जाती थी। रबर की मांग इतनी अधिक की जाती थी कि मूलनिवासियों को खेती करने की फुरसत भी न मिलती थी। इससे दुर्मिज्ञ फैलता था, लोग भूखों मरने लगते थे, बच्चों की मृत्यु संख्या असाधारण रूप में बढ़ जाती थी, आदमियों को देश छाड़ कर भाग जाना पड़ता था। कभी कुछ लोग उपद्रव भी कर बैठते थे तो उपद्रव दबाने के बहाने हज़ारों आदमियों को फाँसी दी जाती थी, अथवा कोई कठोर दण्ड दिया जाता था। इसी प्रकार पूर्व आफिका-में जब अच्छी ज़मीन जर्मन पूँजीपतियों को मिली तो उनने जबर्दस्ती मल निवासियों से मजदूरी कराना शुरू किया । इससे तंग होकर उनने उपद्रव कर दिया जिससे उनका बड़ी क्रूरता से दमन किया गया । सन् १८९८ में केनिया की सारी जमीन ब्रिटिश सरकारने छीन ली, और यूरोपियनों को बाँट दी । मल निवासियों Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह] [१५१ पैसा पैदा करने के लिये उनके व्यापार को नष्ट कर * दिया जाता है । वे दूसरों के साथ व्यापार न कर सकें इस प्रकार की को ज़मान रखने का हक ही न रहा; जिससे वे गोरे पुँजीपतियों की गुलामी करें । इतने पर भी जब उद्देश सिद्ध न हुआ तो उन पर मुंड कर लगा दिया, और जो मजदूरी न करे उसपर दुना कर लगाया गया । इतने पर भी जब काम न चला तो म्जर जबर्दस्ती पकड़े जाने लगे, और अगर वे भाग जाते तो उन्हें जेल भेज दिया जाता । तब कैदी की हैमियत से उनसे मुफ्त में ही काम लिया जाता । इससे दुःखी होकर जब उनने उपद्रव किण तो करता से दबाया गया । नेताओं को गली मार दी गई ग कैद कर लिया गया । भीड़ पर गोलियां चला कर अनेक स्त्रियों को भी सदा के लिये सुला दिया गया । ये तो थोड़े से नमूने हैं, परन्तु इस प्रकार के अत्याचार असंख्य हैं। आफ्रिका के अत्याचार असंख्य हैं । आफ्रिका के हब्सियों की गुलामी प्रथा के अत्याचार सुननेवालों के रोंगटे खड़े कर देते हैं। अमेरिका में रेडडियनों का पशुओं की तरह शिकार किया गया था । रेडईडियनों की सभ्यता यूरोपियनों से कुछ कम नहीं थी। उन के गाँव के गाँव नष्ट किये जाते थे। मतलब यह कि इन उपनिवेशों का जन्म लाखों निर्दोष और पवित्र आदमियों के रक्तप्रवाह में हुआ है। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत के कारीगरों पर जो अस्याचार किये हैं और विविध उपायों से भारत के न्यापार को जिस Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] [जन-धर्म-मीमांसा शर्ते उन पर लादी * जाती हैं। पूँजीपति लोग कर्ज देकर शासक राजाओं को गुलाम बनाते हैं और व्यापार के लिये राज्य तक हड़पे जाते हैं। तरह नष्ट किया है, उसका पुराण भी बहुत लम्बा और भयंकर है। __* ईस्ट इंडिया कम्पनी ने बंगाल के जुलाहों पर ऐसा ही अत्याचार किया था। बेलजियम की सरकार ने कांगों के मूल निवासियों पर भी ऐसा अत्याचार किया था, जिससे वे सरकारी एजेन्टों के सिवाय और किसी के हाथ कोई चीज नहीं बेच सकते थे। उत्तरी आफ्रिका के मुसलिम राज्य १९ वीं शताब्दी में कमजोर थे। यरोपीय राष्ट्र उन्हें चकमा देकर ऋण देते थे, इस प्रकार वे और ऐयाश हो जाते थे। इससे आर्थिक अवस्था और खराब हो जाती थी; तब वे लोग और ऋण देते थे जिसे चुकाने के लिये वह प्रजा पर अधिक कर लगाता था जिससे बलवा हो जाता था, जिसको दबाने के लिये वह और ऋण लेता । इस प्रकार जब ऋग न चुकने लायक हो जाता तब ये लोग राजा को अपने संरक्षण में ले लेते और अपने व्यापार के प्रसार के लिये मनमाना अन्याय करते । अगर यह या उसकी प्रजा कुछ ची. चपड़ करती तो वह दवा दी जाती और राज्य पर पूर्णाधिकार कर लिया जाता । इस विषय की चालबाजियों का काला पुराण भी बहुत लम्बा है। * भारत इसी तरह हड़पा गया । कोरिया. मंचूकुआ, जापान ने हड़प लिये । आस्ट्रेलिया, अमेरिका और आफ्रिका की Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह] [१५३ परिग्रह पाप-जिसको दुनियाँ ने अभी तक एक स्वर से पाप नहीं माना है-कितना दुःखप्रद है, यह बात साम्राज्यवाद के इतिहास से अच्छी तरह जानी जा सकती है । साम्राज्य और श्रीमान होना बुरा नहीं है, किन्तु साम्राज्यवाद और पूँजीवाद बुरा है। वास्तव में यही परिग्रह है । अगर आज दुनिया भर के देशों का एक साम्राज्य बना दिया जाये जिससे एक राज्य दूसरे से म लड़ सके अर्थात् युद्ध एक गैरकानूनी चीज़ ठहर जाय, तो यह साम्राज्य बुरा नहीं है; परन्तु साम्राज्यवाद का यह लक्ष्य नहीं होता। इससे तो निर्बल गरीब और भोले मनुष्य, बदमाश और सबलों से पीसे जाते हैं । इसी प्रकार श्रीमान और पूंजीवाद में अन्तर है। जहाँ धन से धन पैदा न किया जाता हो वहाँ श्रीमत्ता है, पूँजीवाद नहीं । पूँजीवाद क्या है, उसका भयंकर रूप ऊपर बता दिया गया है। यह न समझना चाहिये कि बड़े बड़े श्रीमान ही पूँजीवादी होते हैं। सम्भव है कि श्रीमान भी पूँजीवादी न हो और मध्यम तथा और भी नीची श्रेणी के मनुष्य भी पूँजीवादी हों; क्योंकि जब साधारण गृहस्थ भी श्रीमान बनना चाहता है तब वह पुराने श्रीमान से भी भयंकर हो जाता है । वह अपनी छोटी-सी पूंजी से भी अधिक से अधिक धन पैदा करता है, तथा बहुसंख्यक होने से भी यही दशा हुई । वहाँ के मूलनिवासियों का तो अस्तित्व भी नहीं के बराबर हो गया है। * फ्रान्स के जिन किसानों और मजदूरों ने मोरक्को की Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] जैनधर्म-मीमांसा इनके पाप का प्रतिकार भी कठिन होता है। धन में जो धन को पैदा करने की शक्ति है, वह कभी नष्ट हो सकेगी या नहीं यह कहना कठिन है; परन्तु परस्पर सहयोग के जिस तत्व पर समाज की रचना हुई है, उसके यह विपरीत है इसीलिय यह पाप है। यह बात दूसरी है कि अधिकांश लोग इसे पाप नहीं समझते, परन्तु इससे तो सिर्फ यही सिद्ध होता है कि समाज में अभी बहुत-सी जड़ता बाकी है । बहुत-सी जङ्गली जातियाँ ऐसी है जिनमें किसी मनुष्य को मार डालना और खा जाना बहुत साधारण बात है, वे इसे पाप नहीं समझतीं । हमारे पूर्वज भी किसी समय हिंसा का पाप नहीं समझते थे । धीरे धीरे उनमें से कुछ विचारशील लोगों ने हिंसा को पाप समझा, परन्तु उनकी समझ को अपनाने में समाज ने शताब्दियाँ नहीं, सहस्राब्दियाँ लगाई हैं। परिग्रह के पाप को पापरूप में घोषित कर देने पर भी इसको अभी समाज ने नहीं अपना पाया है। परन्तु एक न एक दिन वह इसे भी अपना लगी। हिंसा आदि को पापरूप में स्वीकार कर लेने पर भी हिंसा सरकार को ऋण देने के लिये ऋणपत्र [बौंड | खरीदे थे, वे सब यही चाहते थे कि जैसे बने वैसे फ्रांस की सरकार मोरको पर अपना प्रभाव कायम रक्खे, इसलिये वे फ्रान्स की सरकार के अत्याचारों का भी समर्थन करते थे । अगर किसी एक ही श्रीमान ने यह ऋण दिया होता तो अधिकांश किसानों और मजदूरों की सहानुभूति मोरको की तरफ होती। Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह] [१५५ दुनियाँ से उठ नहीं गई है , इससे सिर्फ अहिंसा को नैतिक-वल तथा समाज का पीठ-बल मिला है। इसी प्रकार परिग्रह-पाप भी नष्ट न होगा; किन्तु अपरिग्रह व्रत को नैतिक बल तथा समाज का पीठ-बल मिल जायगा, यही क्या कम है ! अपरिग्रह के अपवाद-व्यवहार में तो लोगों ने अभी तक परिग्रह को पाप समझना नहीं सीखा है, परन्तु जब उनसे चर्चा करने बैठो तब वे 'बाल की खाल' निकलते हैं । उनकी दृष्टि में साधारण कपड़े पहिननेवाला या लँगोटी लनानेवाला, चलने के सुभीते के लिये एकाध लकड़ी रखनेवाला या दो चार पैसे रखने वाला भी परिग्रही है, अर्थात् उनकी दृष्टि में प्रत्येक वस्तु परिग्रह ही है । यद्यपि जुने जुदे सम्प्रदायों ने जुदे जुदे उपकरणों को अपवादरूप स्वीकार किया है। किन्तु उनके वे नियम विशेष विशेष साधु-संस्था से सम्बन्ध रखते हैं, परन्तु मुझे तो यहाँ यह विचार करना है कि यम की दृष्टि से इसके अपवाद क्या हैं ? अपरिग्रही कितनी और कौन कौन चीजें रख सकता है ! १-जीवन-निर्वाह के लिये जो चीजें अनिवार्य हैं उन्हें परिग्रह नहीं कहते । जैसे, कोई आदमी रोटी आदि खाद्य सामग्री को रखता है तो वह परिमही नहीं कहलाता । अपरिग्रह-व्रत का पालन करनेवाला इसीलिये भिक्षा आदि से अगर अन्न लावे तो उसे परिमही नहीं कहेंगे। शंका-एक आदमी किसी के यहाँ भोजन कर आवे यह लो ठीक है, परन्तु अगर वह किसी पात्र में भिक्षा-वस्तु लेकर रक्खेगा तब तो परिग्रही कहलायगा। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] [जैनधर्म-मीमांसा . समाधान --किसी के यहाँ भोजन करना या अनेक घरों से भिक्षा माँगकर एक जगह भोजन करना अपरिग्रह की दृष्टि से एक ही बात है। शंका--अपने स्थान पर भिक्षान लानेवाला कुछ समय के लिये धान्य का परिग्रह करता है; इसलिये वह परिग्रही ही है। अगर उसे परिग्रही न कहा जाय तो कोई जीवन भर के लिये धान्य का संग्रह करे तो उसे भी परिग्रही न कह सकेंगे--इसलिये कुछ न कुछ मर्यादा तो बाँधना ही पड़ेगी । कोई मर्यादा बाँधी जाय तो उसका कोई कारण तो बतलाना पड़ेगा, और ऐसा कोई कारण है नहीं जिससे यह कहा जाय कि अमुक समय तक संग्रह करना चाहिये और बाद में नहीं। समाधान-अपने पास रखने से ही कोई परिग्रही नहीं होता अपने पास रखने पर भी अगर स्वामित्व की वासना न हो तो वह परिग्रही नहीं कहलाता । दूसरी बात यह कि जो चीज़ हम ग्रहण करें वह हमारे वास्तविक अधिकार के बाहर की न होना चाहिये । पहिले परिग्रह का विवेचन करते समय यह बताया गया है कि परिग्रह क्यों पाप है ! जिस संग्रह में परिग्रह का वह लक्षण नहीं जाता वह परिग्रह नहीं कहला सकता । समय की मर्यादा भी यहाँ भावश्यक नहीं है । वह तो देशकाल के अनुसार बाँधी जा सकती है। मिक्षा या परिश्रम के द्वारा प्रतिदिन भोजन मिलने की सुविधा हो तो दूसरे दिन के लिये संग्रह न करे, अन्यथा कई दिन के लिये भी संग्रह किया जा सकता है। प्रवास आदि में भी कई दिन के लिये संग्रह किया जा सकता है। हाँ, इस बात का विचार Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह [१५७ अवश्य रखना चाहिये कि यह संग्रह दूसरों के अधिकारों में बाधा म डाले । उदाहरणार्थ दुर्भिक्ष आदि के समय कोई वर्षों का भोजन सामग्री का संग्रह कर ले-तो यह परिग्रह ही है । सगज के पास कौनसी चीज़ कितनी है और उसमें मेरा क्या हिस्सा है, इसके अनुसार संग्रह किया जा सकता है, उसमें काल की मर्यादा नहीं बाँधी जा सकती, अथवा देशकाल के अनुसार अस्थायी मर्यादा बाँधी जा सकती है। शंका-जैनियों का एक सम्प्रदाय तो यह कहता है कि अपने स्थान पर भी भिक्षा न लाना चाहिये और दूसरा यह कहता है कि दूसरे दिन के लिये न रखना चाहिये; परन्तु आप काल की मर्यादा भी नहीं बाँधते, यह क्या बात है ! समाधान-जैनियों के दोनों सम्प्रदायों में जो मुनियों के नियम हैं, वे एक मुनि-संस्था के नियम हैं । जुदी जुदी संस्थाओं के नियम नुदे जुदे होते हैं और वे देशकाल के अनुसार बदलते रहते हैं। मुनि-संस्था रखना चाहिये कि नहीं ! और रखना चाहिये तो उसके नियम कैसे हो ! पुराने नियम कितना परिवर्तन माँगते हैं ! आदि बातों पर तो आगे विचार किया जायगा । यहाँ तो अपरिग्रहबत का विचार किया जाता है । मुनि-संस्था में तो उन नियमों की भी आवश्यकता हो सकती है, जो अपरिग्रह-वत में शामिल नहीं किये जा सकते किन्तु एक वर्ग से उसका पालन कराने लिये समयानुसार बनाये गये हैं। संस्था बात जुदी है और संयम जुदी । संयम तो संस्था के बाहर रहकर गृहस्थ वेष में भी पालन किया Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ....mugges १५८] [जैनधर्म मीमांसा जा सकता है और मुनि-संस्था में भी किसी संयम को शिथिल बनाया जा सकता है । यहाँ तो संयम का विचार किया गया है। - २-जीवन-निर्वाह के लिये अन्नादि जिन साधनों की अनिवार्य आवश्यकता है उसको प्राप्त करने के लिये जो न्यायोचित साधन हों, उनका संग्रह भी परिग्रह-पाप नहीं है । उदाहरणार्थ, खेती करने के लिये जिन आजारों की आवश्यकता है-उनका रखना परिग्रह नहीं है। शंका-इसे आप अल्प परिग्रह कह सकते हैं परन्तु बिलकुल परिग्रह ही न माने यह कैसे हो सकता है ? ऐसा मानने से तो एक मुनि भी खेती करने लगेगा ! तब गृहस्थ और मुनि में अन्तर क्या रह जायगा ! समाधान- गृहि-संस्था और मुनि-संस्था का भेद अगर नष्ट भी हो जाय तो भी गृहस्थ और मुनि का भेद रहनेवाला है । जिस के कार्य विश्वप्रेम को लक्ष्य में रखकर होने हैं वह मुनि है, और जिसके कार्य पापित स्वार्थ को लक्ष्य में लेकर होते हैं वह श्रावक है । जिस जमाने में कृषि आदि कार्य करनेवालों की कमी नहीं होती और निःस्वार्थ सेवकों की आजीविका आदि का प्रबन्ध करने के लिये समाज विनयपूर्वक तैयारी बताती है, उस समय साधुओं को निराकुलता के साथ समाजसेवा का मौका देने के लिये कृषि आदि की मनाही कर दी जाती है । परन्तु अगर परिस्थिति बदल जाय, साधु-संस्था समाज के लिये गेझ हो जाय अथवा समाज साधुओं को कुपथ में खींचना चाहे, रूदियों और परम्परागत Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह ] [१५९ अन्यायों का समर्थन कगना चाहे अथवा वातावरण ऐसा हो या राज्य के काबून ऐसे हैं। जिसस अपनी आजीविका स्वयं चलाने की आवश्यकता हो तो मुनि रेखती भी कर सकता है और उसके योग्य उपकरण भी रख सकता है, वह रहने के लिये कुटी भी बना सकता है । दि. जैन सम्प्रदाय में द्राविड संघ ऐसा हुआ है जो खेती और व्यापार से अपनी आजीविका चलाना मुनित्व के बाहर नहीं समझता था। साम्प्रदायिक कट्टरता के कारण यद्यपि उसे पापी कह दिया गया है; परन्तु इस प्रकार की गालियाँ तो अच्छे से अच्छे व्यक्ति को भी दी गई हैं । इतने पर भी द्राविड़ संघ के अनुयायियों की संख्या कम नहीं रही, वह एक विशाल संव हुआ है । आचार तथा आवार सम्बन्धी विचारों में उसने अनेक सुधार* किये थे ; इसलिये जैन मुनि निर्मितिता के साथ कृषि आदि कार्य बरे, इसमें आश्चर्यजनकता और अनुचितता बिलकुल नहीं है। शंका- मुनित्व और श्रावकत्र का भेद भावों पर है यह ठक, परन्तु निष्परिग्रहता और अल्प परिग्रहता का कोई बाहिरी रूप भी तो बतलाना चाहिये । बाह्यपरिग्रह की दृष्टि से एक मुनि कैसा होगा ? और एक गृहस्थ से उसमें क्या अन्तर होगा ! उत्तर--मुनि और गृहस्थ का बाह्य अन्तर सदा के लिये नहीं बताया जा सकता; परन्तु जो आजकल की परिस्थिति के * बीएसु णस्थि जीबो उन्मसण णात्य फासुगं अस्थि । सावज णहु मण्णा प गणइ जिह कप्पियं अठं । २६ । कच्छं खेत्तं वसहिं वाणिज्जं कारिऊन जीवंतो । ण्हंतो सायलणारे पाव परं स संनेदि । २७ । दर्शनसार । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] [जैन-धर्म-मीमांसा अनुकुल हो वह बताया जा सकता है कि एक मुनि आवश्यकतानुसार सम्पत्ति रक्खेगा, परन्तु उस सम्पत्ति का उत्तराधिकारित्व वह समाज को देगा, वह सन्तान को या सन्तान के स्थानापन्न किसी व्यक्ति को नहीं । इसके अतिरिक्त आवश्यकतानुसार ही सम्पत्ति रक्खेगा, महत्ता बतलाने के लिये नहीं । इन दो बातों की रक्षा करता हुआ वह खेती करे या और कुछ, उसके मुनित्व में बाधा नहीं आ सकती अर्थात् वह परिग्रह का दोषी नहीं कहला सकता। ३-'देश की सम्पति में अपना जितना हिस्सा हो सकता है उससे अधिक ग्रहण करना परिग्रह है, इसमें इस बात का खयाल रखना चाहिये कि अगर समाज सेवा के लिये उपकरण रखना हो तो वे परिग्रह नहीं हैं । जैसे, एक विद्वान ज्ञान बढ़ाकर समाज का कल्याण करन! चाहता है, इसके लिये उसे पुस्तकालय की आवश्यकता है तो वह परिग्रह नहीं है । हाँ, अगर वह काम कुछ नहीं करता या बहुत थोड़ा करता है, किन्तु सिर्फ महत्ता बतलाने के लिये पुस्तकों का ढेर एकत्रित करके रखता है, कोई भसुविधा या हानि न होने पर भी उनका उपयोग दूसरों को नहीं करने देता तो वह परिग्रही है । उन पुस्तकों को अपनी सम्पत्ति समझता है तो परिग्रही है। जो बात यहाँ बानोपकरण के विषय में कही गई है वही बात और भी अनेक तरह की सेवा के उपकरणों के लिये लागू है। इतना ही नहीं किन्तु सेवा करने के लिये शरीर के लिये कुछ मुविधा देने की आवश्यकता हो तो वह भी परिग्रह नहीं है। उदाहरणार्य अधिक परिश्रम के कारण जौषष Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह [१६९ वगैरह का सेवन करना पड़े या वाहन आदि का उपयोग करना पड़े तो वह सब परिग्रह नहीं है ।. शंका-यदि अपवाद का क्षेत्र इतना विस्तृत कर दिया जायगा तब इसकी अट में ऐयाशी का राज्य जम जायगा | मामूली नाममात्र की सेवा करनेवाले भी स्वास्थ्य की दुहाई देकर पहिले दर्जे में ही रेल यात्रा करेंगे, दो-दो चार-चार रुपयों के फल उड़ायँगे, मोटर में सैर करेंगे और फिर भी कहेंगे कि हम अपरिग्रही हैं ! क्या यह ठीक होगा ? समाधान-नियमों और उनके अपवादों का दुरुपयोग सदा से होता आया है और आज भी होता है, भविष्य में भी होगा, परन्तु इसीलिये आवादों का विचार न किया जाय यह नहीं हो सकता । क्योंकि ऐसा करने से वास्तविक अपरिग्रहता रखते हुए भी उसके बाह्य रूप को न रख सकने के कारण अपरिग्रही की समाज-सेवक वृत्तियाँ व्यर्थ जाती हैं । हाँ, उपर्युक्त दुरुपयोगों को हम पहिचान सकें, इसके लिये कुछ विचार अवश्य ध्यान में रखना चाहिये । उदाहरणार्थ, अगर कोई समाज-सेवक पहिले दो में रेल-यात्रा करता है तो हमें निम्नलिखित बातों पर विचार करना चाहिये : क्या उसके स्वास्थ्य के लिये यह आवश्यक है कि वह . अगर पहिले दर्जे में रेलयात्रा न करेगा तो उसका स्वास्थ्य इतना खराब हो जायगा कि उससे सेवा कार्य में क्षति पहुंचेगी ! या उसका जीवन जोखिम में पड़जायगा ! क्या उसकी सेवा इतनी बहुमूल्य है ? क्या समाज के लिये उसके व्यक्तित्व की प्रभावना Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] जैनधर्म-मीमांसा करना इतना आवश्यक है ? क्या समाज बिना किसी कष्ट के इतनी सुविधा देने को तैयार है ? सेवक व्याक्ति इसके लिये सीधी या टेढ़ी रीति से किसी को विवश तो नहीं कर रहा है ! अहंकार से तो वह ऐसा नहीं कर रहा है ! इसी प्रकार के प्रश्न अन्य दरुपयोगों के विषय में भी करना चाहिये । इन प्रश्नों के उत्तर से वास्तविकता का पता लग जायगा । नीति तो सिर्फ मार्ग बतला सकती है । उसका ठीक पालन करना हमारी शुद्ध बुद्धि पर निर्भर है। Y~ आत्म-रक्षा के लिये लकड़ी आदि के रखने की आवश्यकता हो तो वह भी पारग्रह नहीं है । मार्ग आदि चलने में लकड़ी आदि से बहुत सहायता मिलती है, इसलिये अगर कोई लकडी रखेगा तो वह परिग्रह न कहलायगी । हाँ, अगर वह उस से हिंसा करेगा तो अवश्य परिग्रह हो जायगी, क्योंकि अब उसका लक्ष्य आत्म-रक्षा न रहा। प्रश्न-पशुओं वगैरह से आत्म-रक्षा करने के लिये लकड़ी रखना परिग्रह है या नहीं ? अथवा आर वह आत्म-रक्षा के लिये लकड़ी का प्रयोग को, पशु को कदाचित मार भी दे तो फिर उसे परिग्रह कहेंगे या नहीं ? उत्तर-यह प्रश्न हिंसा-अहिंसा से सम्बन्ध रखता है। प्रत्येक बाह्य हिंसा को हम हिंसा नहीं कह सकते, इस बात का विचार करके ही हम उपर्युक्त प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं । मनुष्य के समान पशुओं के भी आत्मा है इसलिये उन्हें नहीं सताना चाहिये, परन्तु वे अपनी भाषा नहीं समझते इसलिये लकड़ी Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह ] [ १६३ वगैरह का संकेत करके उन्हें रोका जाय तो यह हिंसा नहीं है। जैसे - पशु-पालन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, परंतु इसीलिये पशु-पालक हिंसक नहीं कहला सकता । उसी प्रकार आत्म-रक्षा आदि के काम में भी समझना चाहिये । ५ - समाज-सेवा के लिये समाजाश्रित न रहना पड़े, इसके लिये धन-संग्रह करनेवाला परिप्री नहीं है । समाज-सेवा का कार्य बड़ा जटिल है । समाज के सुधार के लिए जब कुछ ऐसे विचारों की आवश्यकता होती है जो प्रचलित मान्यता के विरुद्ध जाते हैं तब उनका प्रचार करना मुश्किल होता है । उस समय यदि कोई भी मनुष्य किसी भी तरह से समाजाश्रित • हो तो उसका टिकना अत्यन्त कठिन हो जाता है । वह समाज को सत्पथ दिखला ही नहीं सकता । समाज, सुधारकों की पीठ पर तो मुक्के लगाती ही है; परन्तु पेट पर भी मुक्के लगाती है । इससे सिर्फ सुधारक का जीवन दुःखपूर्ण ही नहीं होता और उसकी बहुत-सी शक्ति बर्बाद ही नहीं जाती; किन्तु इसने सुधार का कार्य असफल या अत्यल्प सफल हो जाता है । इसके लिये अगर वह वैध उपायों से अर्थ-संग्रह करे तो भी वह परिग्रही नहीं कहला सकता। हां, उते आवश्यकतानुसार ही सम्पत्ति का उपयोग करना चाहिये और उसका उत्तराधिकारिय समाज को ही देना चाहिये । शंका --- समाज से मांगकर अगर कोई इसी बहाने से धन का संचय करे तो आप उसे परिग्रही कहेंगे या अपरिमही ? समाधान - समाज से पैसा लेकर अपने नाम पर संग्रह करनेवाला व्यक्ति परिग्रही ही नहीं, लिये या अपने विश्वासघाती भी Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] [जैन-धर्म-मीमांसा है । साधारणत: समाज से धन जिस लिये मांगा गया है उसी काम में लगाना चाहिये, विशेष अवस्था में अन्य किसी समाजोपयोगी कार्य में लगाया जा सकता है; परन्तु एक क्षण भर के लिये भी उस पर अपना स्वत्व स्थापित नहीं करना चाहिये | ऊपर जो अपवाद बतलाया है वह तो सिर्फ उस संचय के लिये है जो अपने परिश्रम आदि के बदले में वैध उपायों से प्राप्त किया गया है । सब अपवाद गिनाये नहीं जा सकते और न सब अपवादों के दुरुपयोगों से बचाने के लिये उपाय गिनाये जा सकते हैं। हां, उसकी कुंजी बतलाई जा सकती है, या कसौटी दी जा सकती है। परिग्रह क्यों दुःखप्रद है, इसका वर्णन पहिले किया गया है। उस को समझ लेने से अपरिग्रह के अपवाद समझे जा सकते हैं, और अगर कोई उसका दुरुपयोग करे तो उसकी दुरुपयोगता भी ध्यान में आ सकती है । प्रश्न -- अभी तक जो आपने अपरिग्रह का वर्णन लिखा लिखा है वह सिर्फ पुरुष समाज के विषय में ही मालूम होता है परन्तु स्त्रियों के हाथ में तो साम्पत्तिक अधिकार ही नहीं है । वे न तो परिग्रह का पाप ही कर सकती हैं, न अपरिग्रह व्रत ही रख सकती हैं । उनके लिये इस व्रत का क्या रूप है ? उतर - - अभी तक अपरिग्रह के विषय में जो कुछ कहा गया है वह जैसा पुरुषों लिये लागू है वैसा स्त्रियों के लिये भी । यह दूसरी बात है कि किसी स्त्री के हाथ में सम्पत्ति न हो, परन्तु अभी बहुत-सी स्त्रियों के हाथ में सम्पत्ति होती है । जियाँ व्यापार भी करती हैं, नौकरी भी करती हैं। कुटुम्ब में दूसरा न होने से 1 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह ] [१६५ सारा उत्तराधिकारित्व भी उन्हें मिलता है। यूरोप, खासकर रूस में तो स्त्रियों का सम्पत्तिक अधिकार और भी अधिक है । बर्मा में व्यापारादि कार्य में स्त्रियाँ अधिकतर भाग लेती हैं, इसलिये परिग्रह और अपरिग्रह की चर्चा जैसी पुरुषों के लिये है वैसी ही स्त्रियों के लिये भी है । साधारणतः इस प्रकार इस प्रश्न का उत्तर दे' देने पर भी इस प्रश्न का एक विचारणीय अंश पड़ा ही रह जाता है । उस पर विचार करना चाहिये । जो लोग गुलाम हैं, वे इस व्रत का पालन कैसे करें ? अनेक स्त्रियाँ कहलाने को तो सेठानी कहलाती हैं, परन्तु सम्पत्ति पर उनका वास्तविक अधिकार बिलकुल नहीं रहता । वे इस व्रत का पालन कैसे करें ? इस प्रश्न के उत्तर के लिये हमें परिग्रह के या पाप के मूल स्वरूप पर विचार करना चाहिये । पाप केवल बाहिरी क्रिया का नाम नहीं है, किन्तु असली पाप अपने अभिप्राय पर निर्भर है । जहाँ आसक्ति है वहाँ परिग्रह है । एक स्त्री का अपने पति की सम्पत्ति में लोक प्रचलित कानून के अनुसार हक्क हो या न हो परन्तु वह उस सम्पत्ति में उतनी ही आसक्त होती है जितना कि उसका पति । बस, यही परिग्रह की भूमिका है । कुटुम्ब मैं दस आदमी हों और उनमें कोई एक मुखिया हो तो इसीलिये बाक़ी नौ आदमी परिग्रह के पाप से छूट नहीं जाते । स्त्रियाँ अपरिग्रह के लिये उसमें आसक्ति कम करें, दानादि देने में बाधक न बनें, इस तरह वे अपरिग्रह-व्रत का पालन कर सकती हैं । 1 जहाँ स्त्री-धन के रूप में स्त्रियों के पास सम्पत्ति रहती है हाँ वे उसकी अपेक्षा से अपरिग्रह व्रत का पालन कर सकती हैं । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] जैनधर्म-मीमांसा दास और पशुओं के पास धन नहीं होता । वे अनासक्ति तथा भोगोपभोगों की परिमितता से इस व्रत का पालन कर सकते हैं। कदाचित उनके हाथ में सम्पत्ति आवे तो वे अपनी अपरिग्रहता का परिचय दे सकते हैं। परिग्रह के चार भेद-हिंसा, असल्य आदि के जैसे चार चार भेद पहिले किये गये हैं उसी प्रकार परिग्रह के भी चार भेद समझना चाहिये । यहाँ तो उनका नाममात्र वर्णन किया जाता है, बाकी विवेचन तो ऊपर किया ही जा चुका है। संकल्पी-भागों की लालसा से, अहंकार या मोह से अपने हिस्से से अधिक सम्पत्ति रखना संङ्कल्पी-परिग्रह है । कोई महात्मा या कर्मयोगी कारणवश अधिक सामग्री भी रक्खेगा परन्तु मौज उड़ाने के लिये नहीं, अपनी सन्तान के मोह से नहीं, बड़ा आदमी बहलाकर दूसरों के ऊपर धाक जमाने के लिये नहीं; किन्तु सिर्फ समाज-सेवा के लिये । इसलिये इसे सङ्कल्पी परिग्रह न कह सकेंगे। . आरम्भी-सेवा आदि कार्य के लिये या जीवन के निर्वाह के लिये जिन चीजों की आवश्यकता है उनका रखना आरम्भी परिग्रह है । जैसे पढ़ने के लिये पुस्तक (किसी के यहाँ पुस्तकों का व्यापार होता हो तो वह आरम्भी-परिग्रह न कहलायगा । यही बात सेवा के अन्य उपकरणों के विषय में भी समझना चाहिये) कुर्सी, पलंग आदि । परन्तु इनका अनावश्यक संग्रह किया जाय, या नाम मात्र की आवश्यकता से संग्रह किया जाय या सम्पत्ति मानकर इनका संग्रह किया जाय तो यह संकल्पी-परिग्रह हो जायगा । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्रह ] [ १६७ उदाहरणार्थ, दूध पीने के लिये एक गाय रखना एक बात है परन्तु इस आशय से कि अगर बचास गायें रखूँगा तो इस रूप में दो चार हज़ार की सम्पत्ति हाथ में रहेगी, यह सङ्कल्पी - परिग्रह ही है । परन्तु गौ-रक्षा की दृष्टि से रक्खीं जाँय तो यह संकल्पी - परिग्रह नहीं है। उद्योगी व्यापार आदि के उपकरणों को रखना उद्योगी परिग्रह है । जैसे - आरम्भी - परिग्रह में मात्रा की अधिकता आदि से संकल्पीपन आ जाता है, वैसा यहाँ भी आ जाता है । इसलिये अपरिग्रही के लिये इसके मात्राधिक्य से बचना चाहिये । विरोधी - अन्यायी और अत्याचारियों से आत्म-रक्षा करने के लिये जो परिग्रह रक्खा जाता है-वह विरोधी- परिग्रह है । जैसे चोरों से रक्षित रहने के लिये-द्वार, ताला, तिजोड़ी आदि; अथवा शत्रुओं से रक्षित रहने के लिये तलवार बंदूक आदि । ये ही वस्तुएँ अगर दूसरों पर आक्रमण करने के लिये रकटी जाँय तो यहाँ संकल्पी - परिग्रह कहलायगा । 1 इन चार प्रकार के परिग्रहों में संकल्पी - परिग्रह ही वास्तव में परिग्रह है और वही पाप है । बाकी तीन परिग्रह तो तभी पाप बन जाते हैं जब उनमें किसी तरह से संकल्पीपन आ जाता है । चरित्रको पाँच भागों में विभक्त करके जो उसका वर्णन किया गया है, वह सामान्य दृष्टि से है । उसमें पूर्ण - अपूर्ण का विचार नहीं किया गया है, अथवा उसे पूर्ण चरित्र का वर्णन मानना चाहिये, और आगे बताई जाने वाली कसौटियों से पूर्ण अपूर्ण की कल्पना करना चाहिये । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] (जैन-धर्म-मीमांसा चारित्र की पूर्णता और अपूर्णता का जैसा विचार आजकल किया जाता है या जैनशास्रों में किया गया है, वह एकदेशी है। आजकल गृहस्थ के व्रत को अणु-व्रत * और मुनि के व्रत को महाव्रत कहते हैं, परन्तु सैद्धान्तिक दृष्टि से यह परिभाषा ठीक नहीं है, क्योंकि गृहस्थ और मुनि, ये तो दो संस्थाएँ हैं । कोई किसी भी संस्था में रहे, परन्तु इससे उसके व्रत अपूर्ण या पूर्ण नहीं कहे जा सकते हैं । मुनि-संस्था में रहने वाला भी महाव्रती या अवती हो सकता है और गृहस्थ-संस्था में रहने वाला भी महाव्रती और केवली हो सकता है। कू पुत्र केवलज्ञानी होने पर भी घर में रहे थे, इसके अतिरिक्त बहुत से मनुष्यों ने मुनि-संस्था में प्रविष्ट हुए बिना, मुनिवेष लिये बिना केवलज्ञान प्राप्त किया था । सम्राट भरत + इलापुत्र, आसाढ़भूति आदि इसके उदाहरण हैं । इससे यह बात स्पष्ट है कि जैन सिद्धान्त के अनुसार भी अणुव्रत और महाव्रत का सम्बन्ध गृहस्थ और सन्यास * अणुव्रतोऽगारी । तत्त्वार्थ ७ भावेण कुम्म उत्तो अवगयतत्तो य अगहिय चरित्तो । गिहवासे वि बसंतो संपत्तो केवलं नाणं | कुम्मा० च० ७ भावेण भरह चक्की तारिससुद्धन्तमझमल्लीणो। आयंसघरनिविट्ठो गिही वि सो केवली जाओ॥१४०॥ वंसग्गिसमारूढो मुनिपवरे के वि दटु विहरते । गिहिवेस इलाइचो भावेणं केवली जाओ ॥१४॥ आसाढमुइमुणिणो भरहेसरपिक्खणं कुणंतस्स । उत्पन्न गिहिणो विहु भावणं केवलं नाणं ॥१.२॥ -कुम्मापुत्त च। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण और अपूर्ण चारित्र [१६९ आश्रम से नहीं है । किसी भी आश्रम में मनुष्य अणुव्रती और महाव्रती हो सकता है । आवश्यकता होने पर मुनि-संस्था तोड़ी ना सकती है, परन्तु महावती नष्ट नहीं किये जा सकते। सब लोग मुनि या संन्यासी होजाय, यह बात किसी भी समाज के लिये असह्य है; क्योंकि इससे उस समाज का नाश हो जायगा परन्तु अगर सब लोग महानती होजाय तो यह मनुष्य-समाज का सुवर्ण-युग होगा। ____ अणुव्रत और महाव्रत की एक दूसरी परिभाषा भी जैनशास्त्रों में प्रचलित है । उनने रागद्वेष आदि कषायों की वासना के ऊपर अणुव्रत और महाव्रत का विभाग रकवा है । इस दृष्टि से चारित्र के चार भेद किये गये हैं:-(१) स्वरूपाचरण-चारित्र, (२) देश चारित्र, (३) सकल-चारित्र, (४) यथाख्यात-चारित्र । चारित्र अर्थात् कर्त्तव्य के पालन में राग और द्वेष सबसे बड़ी बाधाएँ हैं। हमारे मुंह के ऊपर भले ही ये प्रकट न हों, परन्तु जब तक ये वासना के रूप में हृदय में बने रहते हैं, तब तक न तो हमें शुद्ध-ज्ञान प्राप्त होता है, न हम शुद्ध चारित्र का पालन कर सकते हैं । कौन आदमी कितना अचारित्री है-इस बात को समझने के लिये हमें यह समझना चाहिये कि उसकी कषाय-वासना कितने अधिक समय तक स्थायी है । जितनी लम्बी कषाय-वासना, उतनी ही अधिक चारित्र-शून्यता । इस परिभाषा के अनुसार जिस व्यक्ति में राग-द्वेष की वासना बिलकुल नहीं रहती, वह यथाख्यात-चारित्री कहा जाता है। यह Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] [जैनधर्म-मीमांसा चारित्र का सर्वोत्तम स्थान है । जिसको कषायें - वासना पन्द्रह दिन तक रहती है, वह सकल-चारित्री है । साधारणतः मुनियों के कम से कम यह चारित्र होना चाहिये। जिसकी कषाय-वासना चार मास तक ठहरती है, वह देश - चारित्री है। यह चारित्र साधारणतः गृहस्थों के माना जाता है और जिसकी कषाय-वासना एक वर्ष तक ठहरती है, इससे ज्यादा नहीं ठहरती वह स्वरूपाचरण चारित्री कहलाता है । यह चारों गतियों में हो सकता है । इस वारित्रवाले को सम्यग्दृष्टि भी कहते हैं, क्योंकि सम्यग्दर्शन के साथ यह, चारित्र अवश्य होता है । इससे भी अधिक जिसकी कषाय- बासना ठहरती है, वह मिया-दृष्टि है । उसकी कषायन्वासना अनन्तानुबन्धी कहलाती है । उसके कोई चारित्र नहीं माना जाता है इन चार प्रकार के चारित्रों को नाश करनेवाली जो कषायें हैं, उनके चार नाम रक्खे गये हैं: - अनन्तानुबन्धी, अप्रत्यारूपानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संचलन । अनन्तानुबन्धी की वासना श्वेताम्बर मतानुसार जीवन भर रहती है और दिगम्बर + मतानुसार अनन्त या असंख्य या संख्य भवों तक । अप्रत्याख्यानावरण की वासना एक ९ जाजीव बरिस चडमा पक्खगा नस्य तिरिय नर अमरा । सम्माशुसव्व विरह अहवाय चरितत्रायकरा ॥ - कम्म विवाग १ - १८ | + अन्तत पक्वं छम्मासं संखसवर्णतमवं ' संजलणमादियाणं वासणकाला दु नियमेण ॥ - गोम्मटसार कर्मकाण्ड ४६ | Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण और अपूर्ण चरित्र ] [१७१ वर्ष (श्वेताम्बर) अथवा छ: मास ( दिगम्बर), प्रत्याख्यानावरण की वासना चार मास (श्वेताम्बर ) अथवा एक पक्ष (दिगम्बर) और संज्वलन की वासना एक पक्ष (श्वेताम्बर ) अन्तुर्मुहूर्त अड़तालीस मिनट से कम (दिगम्बर)। ___कषायों की वासना से चारित्र-अचारित्र की परीक्षा करना कुछ अधिक युक्ति-सगंत है । मुनि-सम्धा और गृहस्थ-संस्था में चरित्र को विभक्त करने की अपेक्षा इस प्रकार संस्कार काल में विभक्त करना अधिक उपयोगी है। प्रभ-गृहस्थ-जीवन में यह हमारा कर्तव्य है कि हम अपने कुटुम्बियों से सदा प्रेम करें । इस दृष्टि से प्रेम की वासना जीवन-भर स्थायी कहलायी और इससे प्रत्येक गृहस्थ मिथ्या-दृष्टि कहलाया । उसके स्वरूपाचरण चरित्र भी न रहा, इसलिये अगर वासना पर चारित्र भचारित्र का विचार किया जाय तो कोई भी गृहस्थ चारित्रधारी न बन सकेगा; अथवा उसे कुटुम्बियों से प्रेम करना छोड़ना पड़ेगा। उचर-प्रेम को वासना समझना भूल है । बासना है मोह आसकि बादि : प्रेम तो निश्छल वृत्ति है । सामाजिक सुव्यवस्था के लिये हम जिन लोगों के साथ कर्तव्य में बंधे हुए हैं, उनके साथ निश्छल व्यवहार करना, हृदय से उनकी सेवा करना प्रेम है; यह कषाय नहीं है। हम अपनी पनी से प्रेम भी कर सकते हैं, मोह भी । प्रेम बुरा नहीं है। वह तो कर्तव्य तत्पर बनाने-बाली मानसिक वृत्ति है । उसका अचारित्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] [ जैन-धर्म-मीमांसा 1 निर्लिप्त होकर कार्य करना चाहिए और मोह तो सम्बन्धियों का भी न होना चाहिए । सम्यग्दर्शन के प्रकरण में इस विषय पर बहुत विवेचन किया गया है । कषाय वासना रहित होकर जीवन के सभी काम किये जा सकते हैं । जैन तीर्थङ्कर या केवली क्षण भर के लिए भी कषाय वासना नहीं रखते; परन्तु धर्म प्रचार आदि का काम दिन रात करते रहते हैं । वासना-रहित होने से मनुष्य कुछ मी काम न कर सकेगा, वह व्यवहार-शून्य हो जायगा अथवा इन कामों से वासना आ जायगी - आदि शंकाएँ ठीक नहीं । इस अध्याय के प्रारम्भ में चरित्र की जो परिभाषा बतलाई गई है, उसी को कसौटी बनाकर पूर्णता अपूर्णता का विचार करना चाहिये । सुख के सच्चे प्रयत्न में जो बाधाएँ हैं उनको जितना हटाया जायगा चारित्र उतना ही उन्नत कइलायगा | ऊपर जो वासना का विवेचन किया गया है, वह भी सुव में बाधक हैं; इसलिये उसे जितना हटाया जायगा चरित्र उतना ही उन्नत कहलायगा | / इससे इतना तो मालूम होता है कि चारित्र की एक अखंड धारा है । उसमें कोई ऐसी सीमा नहीं है जो स्वभावतः चारित्र के विभाग करती हो । एक वर्ष से अधिक वासना रहने पर चारित्र का नाश मानना भी आपेक्षिक है; क्योंकि तेरह महांने तक वासना रखने वाले और दो वर्ष तक वासना रखने वाले में भी तरतमता है। दो वर्ष तक कषाय- वासना रखने वाले की अपेक्षा तेरह महीने तक कषाय वासना रखने वाला चारित्रवान है । एक वर्ष और एक समय अधिक एक वर्ष में जितना अन्तर है उतना . Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चूर्ण और अपूर्ण चरित्र; | १७३ अन्तर एक वर्ष के भीतर या बाहर सब कहीं पाया जा सकता है । इससे हम चारित्र की न्यूनाधिकता तो जान सकते हैं; परन्तु यह नहीं कह सकते कि अमुक समय तक की वासना મેં महाव्रत माना जाय और अमुक समय तक अणुव्रत । अहिंसा के प्रकरण में यह बात कही जा चुकी है कि चारित्र अचारित्र का भेद अनासक्ति आसक्ति का भेद है । उस अपेक्षा से भी हम चारित्र और अचारित्र की दिशा को ही जान सकते हैं; परन्तु अणुव्रत महाव्रत का भेद नहीं कर सकते। क्योंकि आसक्ति की कितनी मात्राको अणुक्त मानाजाय और उससे अधिक को अव्रत अथवा उससे कमको महावन - इसकी कोई सीमा नहीं बनाई जा सकती । 1 चारित्र और अचारित्र के विषय में और भी दिशा सूचन किया जा सकता है । जैसे- जो न्याय के आगे सिर झुकादे वह चारित्रवान् है | चारित्रहीन मनुष्य न्याय अन्यायी पर्वाह नहीं करता । वह पशुबल से डरता है, न्याय बलसे नहीं । अगर अंकुश छूट जाय तो वह अन्याय पर उतारू हो जायगा । 1 चारित्र और अचारित्रकी यह कसैटी भी बहुत सुन्दर है, परन्तु देश चारित्र और सकल चारित्रकी सीमा बनाना इसमें भी बहुत मुश्किल है। क्योंकि छोटेसे छोटे न्याय के आगे पूर्ण रूपसे सिर झुका देने वाला सफल चारित्र है और बड़े से बड़े न्याय के आगे ज़रा भी न झुकाने वाला चारित्र हीन है । इसके बीच में ऐसी सीमा बाँधना अशक्य है, जिसे देश चारित्र कह सकें । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] [जैनधर्म-मीमांसा और भी कोई चारित्र की कसौटी कही जाय परन्तु उससे सिर्फ चारित्र अचारित्र का निर्णय होगा; परन्तु चारित्रके बींच में कोई रेखा न होगी, जिसके एक तरफ को महाव्रत कहा जाय । हाँ ! व्यवहार चलाने के लिये अगर हम उनमें सीम बाँधना चाहें तो अवश्यही सीमा की कल्पना कर सकते हैं। जैसे पहिले स्वरूपाचरण आदि चारित्र के चार भेद किये गये थे और उनको वासना काल में विभक्त किया गया था, उस प्रकार के व्यवहारोपयोगी भेद बनाये जा सकते हैं। 1 परन्तु ऐसे भेद गृहस्थाश्रम और सन्यासाश्रम आदि के साथ जोड़े नहीं जा सकते | गृहस्थ भी एक पक्षसे अधिक वासना न क्वे, यह हो सकता है; और मुनि भी अधिक वासना रक्खे, यह भी हो सकता है । ये आश्रम के भेद तो सामाजिक तथा व्यक्तिगत 1 सुविधाओं के लिये बनाये जाते हैं; इनका चारित्र अचारित्र से कोई सम्बन्ध नहीं है। हाँ यह बात अवश्य है कि जिसने सन्यास लिया है. उसे चारित्रवान् अवश्य होना चाहिये । अन्यथा उसे सन्यास लेने का -मुनि बनने का कोई अधिकार नहीं है, वह तो समाज के लिये भार है 1 1 आत्म विकास की चरम सीमा तक दोनों पहुँच सकते हैं । इसलिये इस सीमा पर पहुँचा हुआ गृहस्थ, इस सीमा पर न पहुँच हुए हज़ारों मुनियों से वंदनीय हैं; और इसी प्रकार इस सीमा पर पहुँचा हुआ मुनि इस सीमा पर न पहुँच हुए हज़ारों गृहस्थों से बन्दनीय है । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण और अपूर्ण चरित्र] . [१७५ प्रश्न-जब गृहस्थ और मुनि दोनों ही आत्म विकास की चरम सीमा पर पहुँच सकते हैं, तब म० महावीर, म० बुद्ध आदिने गृहत्याग क्यों किया तथा किसी को भी मुनि बनने की ज़रूरतही क्या है ! समाज को ही इस संस्था का बोझ क्यों उठाना चाहिये ! उत्तर--कोई समय ऐसा भी हो सकता है, जब इस संस्था की समाज को आवश्यकता न रहे, तथा पुराने ढंगकी मुनि संस्था तो आज भी अनावश्यक है, फिर भी इस संस्थाकी आवश्यकता होती है। यह सब देशकाल तथा व्यक्तिगत रुचिके ऊपर निर्भर है । श्रीराम और श्रीकृष्ण का समय ऐसा था, उनकी रुचि ऐसी थी तथा उनके साधन तथा परिस्थिति ऐसी थी कि वे गृहस्थ रहकर ही समाजकी सेवा कर सकते थे यही बात म० जरथुस्त तथा मुहम्मद साहिब आदि के विषयमें भी कही जा सकती है। और म० महावीर, म० बद्ध, २० ईसा आदि की परिस्थिति ऐसी थी कि वे ग्रह त्याग करके ही ठीक ठीक समाज सेवा कर सकते थे । मुहम्द साहिब आदि गृहस्थ बन कर तीर्थकर व्यों बने और और म० महाबीर आदि मुनि बनकर तीर्थकर क्यों बने-इसके अनेक कारण है । संक्षेप में उन कारणोंका वर्णन यहाँ किया जाता है: १-दो तरह के मनुष्य होते हैं । एक तो वे जिनके ऊपर कोमलताका अधिक प्रभाव पड़ता है और कटोरतासे वे और भी अधिक खराब होते हैं । दूसरे वे जिन पर कोमलताका प्रभाव बहुत कम पड़ता है कोमलता से बल्कि वे सुधर ही नहीं सकते । उनको तो Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] जैनधर्म-मीमांसा समाज का कंटक समझ कर हटाना ही पड़ता है। जिस समय पहिली श्रेणी के लोग अधिक होते हैं, उस समय म० महावीर म० बुद्ध आदि के समान तीर्थकर होते हैं । और जिस समय दूसरी प्रकृति के मनुष्य अधिक होते हैं, उस समय श्री राम, श्रीकृष्ण आदि सरीख अवतार होते हैं। रावण और कंस के अत्याचारों को दूर करने के लिये म० महावीर और म० बुद्ध सरावे लोग कुछ नहीं कर सकते थे । कोरी क्षमा और कष्ट-सहिष्णुता उनके हृदय को नहीं पिघला सकती थी । सदाशय से किये गये शान्त आन्दोलनों को भी वे उतनी ही निर्दयता से कुचलते जितनी कि हिंसात्मक आन्दोलनों को कुचलने में की । इतना ही नहीं; किन्तु शान्त मनुष्यों को कायर और क्षुद्र समझकर वे और भी अधिक तांडव करते । इन लोगों को सुधारने के लिये या इनके अत्याचारों से समाज की रक्षा के लिये राम और कृष्ण की आवश्यकता थी महावीर और बुद्ध की नहीं । परन्तु मढ़ता में डूबे हुए जन समाज के उद्धार के लिये रामका धनुष और कृष्णका चक्र या राजनैतिक चतुराई व्यर्थ थी। उनके लिये तो महावीर और बुद्ध के समान कोमल नीति वालों की आवश्यकता थी। कभी कभी ऐसा भी होता है कि कोमल नीति से काम करने वाले लोगों के सामने एक समाज का समाज अत्याचार करने पर उतारू हो जाता है और वह किसी के जन्म सिद्ध अधिकारों की भी पर्वाह नहीं करता, बल्कि सुधारक पर अत्याचार करने को वह धर्म समझता है और उस पर अत्याचारों द्वारा विजय प्राप्त करने को यह नीति की विजय समझता है । उस समय शान्ति-प्रेमी होने पर भी Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण और अपूर्ण चरित्र ] [१७७ या शस्त्र मार्ग का पथिक न होने पर भी तीर्थंकर को शस्त्र पकड़ना पड़ता है, जैसा कि मुहम्मद साहिब को पकड़ना पड़ा | मतलब यह कि जिस ज़माने में जिस प्रकृति के लोग सत्य के विरोधी होते हैं उसको दबाने के लिये जिस नीति की आवश्यकता होती है, तार्थंकर को उसी नांति का अवलम्बन करना पड़ता है । म० महावीर, म० बुद्ध को जन-सेवा के लिये गृह-त्याग की आवश्यकता थी, इसलिये उनने गृहत्याग किया और श्रीराम तथा श्रीकृष्ण को शस्त्र उठाने की आवश्यकता थी, इसलिये उनने वैसा किया, तथा मुहम्मद साहिब को दोनों की आवश्यकता भी या बीच का मार्ग पकड़ना था, इसलिये उनने वैसा किया । इसी प्रकार अन्य तीर्थंकरों के विषय में भी समझना चाहिये । २ - गृह त्याग करने में तथा गृहस्थ रहने में व्यक्तिगत रुचि भी कारण हो जाती है । कोई तीर्थंकर समाज के भीतर रहकर 1 समाज का उद्धार करना चाहता है और कोई समाज से अलग हटकर समाज की सेवा करना चाहता है। दोनों ही तरह से कार्य हो सकता है; इसलिये अपनी-अपनी रुचि के अनुसार कार्य करने की शैली का चुनाव कर लिया जाता है । इस रुचि में उसकी शिक्षा - संगति का असर तो होता ही है, साथ ही कुछ घटनाचक्र भी इस रुचि में कारण हो जाता है। समाज में दोनों तरह के प्राणी होते हैं - एक तो मुढ़तावश अधर्म करने वाले या दुःख उठाने वाले दूसरे शक्ति, सम्पत्ति आदि के मद से अत्याचार करने वाले । ये दोनों तरह के प्राणी हरएक समाज में प्रायः सर्वदा होते हैं । यह बात दूसरी है कि इनमें से किसी एक दल की Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] [जैनधर्म-मीमांसा बहुलता हो । इनमें से जो दल उस सुधारक शिरोमणि के दृष्टिगोचर होता है, उसी की तरफ़ उसकी कार्य-प्रणाली दुल जाती है । म. बुद्ध लोगों के स्वाभाविक दुःख देखकर कार्य क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और रामचन्द्रजी अत्याचारियों के अत्याचार सुनकर कार्यक्षेत्र में प्रवेश करते हैं । इस प्रकार दोनों की कार्य-प्रणाली जुदी जुदी हो जाती है । और उसी के अनुसार उनकी रुचि बन जाती है; परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि वे कार्य क्षेत्र में संकुचित होते हैं । श्रीकृष्ण सुदर्शन चक्र चलाने के साथ मीता का संदेश भी देते हैं और म० महावीर, मृगावती और चण्डप्रद्योत की युद्धस्थली में आकर युद्ध का अंत कराके मृगावती की रक्षा करते हैं । इस प्रकार अपनी अपनी रुचि के अनुसार कार्य-प्रणाली अंगीकार करके भी सभी तरह के तीर्थकर समाज का सर्वतोमुख सुधार करते हैं । जिस प्रकार वैद्य, डाक्टर और हकीम तीनों ही रोग को दूर करते हैं यद्यपि उनकी चिकित्सा-प्रणाली जुदी-जुदी है, उसी प्रकार गृह-त्यागी और • गृहस्थ तर्थिकरों की बात समझना चाहिये । ३-यद्यपि गृहस्थ अवस्था में रहकर मनुष्य अपना पूर्ण विकास कर सकता है और कभी-कभी तो ऐसी परिस्थितियाँ आती हैं कि उसे गृहस्थ अवस्था में रहना ही श्रेयस्कर होता है तथापि साधारणतः पूर्ण लोक-सेवक या तीर्थकर को एक प्रकार का सन्यास लेना पड़ता है । इस अवस्था में वह अर्धगृहस्थ या मुनि के समान रहता है। इससे उसे दो लाभ होते हैं (क) भार हलका होने से वह लोक-सेवा का काम सरलता से कर सकता है । व्यक्तिगत चिन्ताओं में उसे अपनी शक्ति Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ण और अपूर्ण चरित्र] [१७९ व्यय नहीं करना पड़ती-इस प्रकार उसकी सारी शक्ति समाज-सेवा में जाती है । जगत् के छोटे-छोटे उपद्रव मनुष्य की शक्ति को क्षीण कर देते हैं। परन्तु गृह-त्यागी उनसे बच जाता है। उदाहरणार्थ गृहस्थावस्था में कोई अपमान कर दे और सहन करनेवाला चुपचाप सहन कर ले तो साधारणतः लोग उसे कायर समझते हैं, इसलिए उसे उस अपमान के निराकरण करने के लिए शक्ति लगानी पड़ती है; परन्तु गृह-त्यागी होने पर अपमान का सह जाना गौरव और महत्ता का चिन्ह समझा जाता है । उसके अपमान को निराकरण करने का काम समाज का हो जाता है । जिन घटनाओं या त्रुटियों से एक गहस्थ-कायर, निर्बल या अभागी कहलाता है, वे ही एक गृह-त्यागी के लिए शोभा की चीन हो जाती हैं। इससे उन कार्यों में उनकी शक्ति बरबाद नहीं होती। (ख) गृहस्थावस्था के मानसिक कष्टों से बच जाता है। यद्यपि उसे खाने-पीने रहने आदि का कष्ट होता है और बढ़ जाता है; परन्तु पराधीनता, अपमान, गुलामी आदि के कष्टों से बच जाता है । बड़े से बड़े गदशाह के सामने उसको झुकने की ज़रूरत नहीं पड़ती । इससे वह नेतृत्व भी कर सकता है। ___ यद्यपि गृहस्थ वेष में रहते हुए भी ये बातें पैदा हो सकती हैं-हुई है और होती हैं; परन्तु उसमें कुछ असुविधा रहती है। ४-कभी कभी कौटुम्बिक परिस्थिति के कारण भी गृह-त्याग करने की ज़रूरत हो जाती है । कुटुम्बी ख़ासकर पत्नी जब अपने ही समान न हो, उसका स्वभाव और आवश्यकताएँ ऐसी हों जिससे वह साथ न दे सकती हो, तब भी गृह त्याग करने की Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] [जैनधर्म-मीमांसा आवश्यकता होती है । पत्नी को पति और पति को पना सिर्फ प्रतिकूल होकर ही बाधक नहीं होते बल्कि अनुकूल होकर के भी बाधक होते हैं । मोह, जिसे कि लोग प्रेम समझते हैं- एसी बाधाएँ उपस्थित करता है, तब तीर्थकर या क्रान्तिकार का गृह त्याग करना पड़ता है। इस प्रकार गृह त्याग के अनेक कारण हैं । जिन तीर्थंकरों के सामने वे कारण उपस्थित होते हैं, वे गृह त्याग करते हैं और जिनके सामने वे कारण उपस्थित नहीं होते,वे गृह त्याग नहीं करते । तीर्थकर घर में रहें या वन में, उनमें निःस्वार्यता और निर्लिप्तता रहती है। घर में रहते हुए भी वे गृह-त्यागी होते हैं । इससे यह बात समझ में आ जाती है कि पूर्ण-चारित्र और अपूर्ण चारित्र का सम्बन्ध गृहस्थसंस्था या मुनि-संस्था से नहीं है। चारित्र की पूर्णता या अपूर्णता का सम्बन्ध भावना पर निर्भर है। पूर्ण और अपूर्ण चारित्र का सम्बन्ध गहस्य और मुनि-संस्था से हो या न हो; परन्तु इन दोनों संस्थाओं के बाहिरी नियमों में कुछ न कुछ अन्तर रखना पड़ेगा । यह बहुत कुछ सम्भव है कि किसी अवस्था में मुनि संस्था हटा दी जाय; परन्तु अधिकांश समय में इस संस्था की आवश्यकता रहती है । हाँ, एक तरह की विकृत मुनि-संस्था तोड़कर दूसरी तरह की मुनि-संस्था बनाई जा सकती है। उसका स्थान भी ऊँचा-नीचा बदला जा सकता है, आर्थिक दृष्टि से उसे अधिक स्वावलम्बी बनाया जा सकता है । इस प्रकार इसमें बहुत परिवर्तन हुए हैं-होते हैं। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम ] [१८१ पुरानी है । थे । आज तो 1 इसलिये आज आवश्यकता है । वर्तमान की जैन मुनि-संस्था ढाई हजार वर्ष बीच में कुछ संशोधन हुए थे; परन्तु वे नाममात्र के वह कई तरह से निरुपयोगी और विकृत हो गई है, उसमें साधारण सुधार नहीं, किन्तु क्रांति की दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायों में मुनियों के लिए जो कुछ नियम बनाये गये हैं, उनका प्रयोजन क्या है, एक समय में वे उपयोगी होने पर भी आज वे निरुपयोगी क्यों हैं और उनको क्यों हटाना चाहिये तथा उन्हें हटाकर दूसरे कौन से नियम लाना चाहिये, इसी बात का यहाँ विवेचन किया जाता है 1 मुनि-संस्था के नियम अगर मुनि-संस्था खड़ी की जाय या रक्खी जाय तो उसके नियम कैसे होना चाहिये, इसका उत्तर देश - काल की परिस्थिति के अनुसार ही दिया जा सकता है । मुनि-संस्था की आवश्यकता के विषय में दो बातें कही जा सकती हैं। एक वैयक्तिक आवश्यकता, दूसरी सामाजिक आवश्यकता । जिन नियमों के आधार से इन आवश्यकताओं की अधिक से अधिक पूर्ति हो उन नियमों के आधार पर ही मुनि-संस्था के नियम बनाना चाहिये । जो मनुष्य शारीरिक कष्टों की पर्वाह नहीं करते, किन्तु मानसिक-शान्ति चाहते हैं और इस प्रकार की मानसिक-शान्ति में ही जिनको बहुत आनन्द मिलता है, वे मुनि-संस्था में जुड़ जाते हैं या मुनि हो जाते हैं । यह वैयक्तिक आवश्यकता है । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] [जैन-धर्म-मीमांसा समाज को ऐसे सेवकों की आवश्यकता रहती है जो निःस्वार्थ . भाव से काम करें । वैतनिक सेवकों से जो काम नहीं हो सकता या अच्छी तरह नहीं हो सकता, इस प्रकार की सेवा का काम एक बर्ग करे, उसके लिये साधु-संस्था की आवश्यकता समाज को होती है । इस प्रकार व्यक्ति और समाज परस्पर उपकार करते हैं । साधु, जीवन-निर्वाह की सामग्री-भले ही यह कम से कम हो-समाज के पास से लेता है। इतना ही नहीं, किन्तु अपने रक्षण की समस्या भी वह समाज से सुलझवाता है। आज गृहस्थ होकर अगर कोई अपमानित हो तो दूसरे उनकी इतनी पर्वाह नहीं करते, बल्कि उसे निर्बल या दब्बू समझकर मन ही मन उसे नीची निगाह से देखने लगते हैं, परन्तु साधु के विषय में बात उल्टी है । साधु के अपमान को समाज अपना ही अपमान समझता है, इसलिये वह साधु का अपमान होने नहीं देता, और इससे भी बड़ी बात तो यह है कि जो साधु अपमान वगैरह को सहन कर जाता है उसे समाज और भी अधिक श्रद्धा की दृष्टि से देखता है । जिस अवस्था में गृहस्थ की महत्ता घटती है उस अवस्था में साधु की महत्ता बढ़ती है । गृहस्थ-अवस्था में अनेक जगह सिर झुकाना पड़ता है जब कि साधु बड़े से बड़े महर्द्धिक के सामने सिर नहीं झुकाता । यह सब समाज का, साधु के ऊपर बड़ा उपकार है, इसलिये उसे सारी शक्ति लगाकर समाज की सेवा करना चाहिये । ___ जो आदमी समाज से, सेवा से अधिक बदला लेता है अथवा समाज को अनावश्यक कष्ट देता है, वह साधु कहलाने के लायक नहीं है, और न वे नियम साधु-पद के नियम कहे ना सकते हैं Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम ] [१८३ जो लोक-हितकर कार्यों में बाधा डालते है । साधु-संस्था भी एक ऐसी संस्था है जैसी अनेक लौकिक संस्थाएँ हैं, इसलिये उनके समान उसकी व्यवस्था के नियम भी बदलते रहना चाहिये। जैन-शास्त्रों में साधुओं के जो मूल गुण हैं, उनमें कितने आवश्यक हैं और कितने अनावश्यक ! और उनमें कुछ नियम बनाने की आवश्यकता है कि नहीं ! आदि समस्याएँ विचारणीय हैं । ____ जैन-शामों में साधुओं के सत्ताईस या अट्ठाईस मूल-गुण कहे गये हैं। दिगम्बर-शास्त्रों में २८ हैं और श्वेताम्बर शास्त्रों में २७ । दिगम्बर जैन साधुओं के* २८ मूलगुण ये हैं--- ५ महाव्रत, ५ समिति, ५ इन्द्रियविजय, ६ आवश्यक, १ केशलोंच, १ नग्रता, १ स्नान नहीं करना, १ ज़मीन पर सोना, १ दतौन नहीं करना, १ खड़े-खड़े आहार लेना, १ दिन में सिर्फ एक बार ही भोजन लेना। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में मूल-गुण २७ हैं और उनके दो पाठ मुझे मिले हैं । पहिला पाठ समवायांग : सूत्र का यह है - * पंचय महव्वयाई समिदीआ पंच जिमवरहिट्ठा । पंचविंदियरोहा गप्पय आवासया लोचो ॥२॥ अञ्चलकमण्हाणं खिदिसयणमदंतघस्सणं चेव । ठिदिमायणेयमचं मूलगुणा अहवीसादु ॥ ॥ -मूलाचार, मूलगुणधिकार सत्तावीसं अणगार गुणा प० तं० पाण!इशायाओं वेस्नणं. मुसावाया) बेरमणं, आदिण्णादाणाओ वेरमणं मेहुणाओ वेरमणं, परिग्गाहाजो बेरमणं, सोइंदिय निम्गहे, चविखदिय निम्गहे, जिभिदिय निग्गहे फार्सिदिय निम्ग Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] [जैनधर्म-मीमांसा ५ अहिंसादि-व्रत, ५ इन्द्रिय-विजय, . क्रोधादि चार विवेक, ३ सत्य (भाव-सत्य, करण-सत्य, योग-सत्य), १ क्षमा, १ विरागता, ३ मन-वचन-काय की समाहरणता अर्थात् उनकी बुराइयों को रोकना, १ ज्ञानयुक्तता, १ दर्शनयुक्तता, १ चरित्रयुक्तता, १ वेदना सहन करना अर्थात् ठंड गर्मी का कष्ट सहन करना, १ मरण का कष्ट सहन करना अथवा ऐसा उपसर्ग सहन करना जिससे मृत्यु होने की सम्भावना हो। दूसरे + पाठ के अनुसार २७ मूल-गुण निम्न लिखित हैं६ व्रत (पाँच व्रतों में एक रात्रि-भोजन त्याग जोड़ देने से ), ६ षट्काय के जीवों की रक्षा, ५ पंचेन्द्रिय दमन, १ लोभ दमन, १ क्षमा, १ भाव विशुद्धि, १ यनाचार पूर्वक सफाई करना, १ संयमयुक्तता, ३ मन-वचन-काय की बुराइयों का रोकना, १ शीतोष्ण आदि के कष्ट सहना, १ मरणोपसर्ग सहना । ___ इस मूल-गुणों में नामों का भेद होने पर भी वस्तुस्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं पड़ता। मूल गुणों में बहुत से मुल-गुण ऐसे हैं कि जिनका नाम नहीं आया है अथवा उत्तर-गुणों में कोह विवेगे, माणविवेगे. मायाविवेगे लोहाविवेगे मावसञ्चे, करणसच्चे, जोगसच्चे खमा, विरागया, मणसमाह णया, वय समाहरणया, काय समाहरणया, णाणसं. पण्णया, चरित्त संपण्णया, बयण अहियासणया, मारणंतिय अहियासणया। छन्वय छकाय रक्खा पंचिदिय लोहनिम्गही खंती। मावविशुद्धी पडिलेहणा य करणे विसद्धी य ।। संजम जोए जुची अकुसल मणवयणकाय संरोही। सीमाश्पीडसहणं मरणं उपसग्गसहणं च। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम ] [१८५ जिनका नाम आया है परन्तु जिनका पालन मूल-गुणों के समान होता है । जैसे दिगम्बर सम्प्रदाय के मूल गुणों में रात्रि भोजन त्याग नहीं है परन्तु कोई मुनि रात्रि-भोजन नहीं कर सकता । इसी प्रकार केशलोंच, स्नान नहीं करना, दतान नहीं करना, इन का नाम श्वेताम्बर मूल-गुणों में नहीं आया है, परन्तु प्रत्येक श्वेताम्बर मुनि को इनका पालन मूल-गुणों के समान ही करना पड़ता है । खैर, देखना यह है कि इन मूल-गुणों में अब कितने रखने लायक हैं और कितने अब बिल्कुल निकम्मे है और कितने अच्छे होकर के भी मूल गुणों की नामावलि में रखने लायक नहीं हैं । 1 पाँच व्रत - सच पूछा जाय तो मुनियों के मूल - गुण अहिंसा आदिक पाँच व्रत ही हैं । परन्तु इनके पालन का रूप परिवर्तनीय है | अहिंसा आदि का विस्तृत विवेचन पहिले किया गया है, उसी के अनुसार मुनि को अहिंसा का पालन करना चाहिये । अहिंसा के नाम पर पृथ्वीकाय, जलकाय आदि की रक्षा के जो सूक्ष्म नियम हैं। अनावश्यक हैं; वे मूल - गुण में नहीं रखे जा सकते । हाँ, अगर. किसी कर्तव्य में बाधा न आती हो तो यथाशक्ति उनका पालन किया जाय तो कोई हानि नहीं है । स्वास्थ रक्षा आदि का खयाल न रखकर उन नियमों का पालन करना अनुचित है । 1 पहिले जो अहिंसा आदि का विवेचन किया गया है उसमें अहिंसा, सत्य और अचौर्य की जो व्याख्या की गई है वह गृहस्थ और साधु दोनों को एक सरीखी है। साधु और श्रावक में जो भेद होगा वह किसी ख़ास कार्य द्वारा विभक्त नहीं किया जा सकता Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] (जैनधर्म-मीमांसा हाँ, साधु परिग्रह-त्यागी होने से आरम्भी-हिंसा आदि के अवसर उसे कम प्राप्त होंगे, तथा उसके परिणामों की निर्मलता भी श्रावक की अपेक्षा अधिक होगी; बस अहिंसा, सत्य और अचार्य की दृष्टि से साधु श्रावक में इतना ही भेद होगा। साधु और श्रावक का भेद मुख्यतः परिग्रह की दृष्टि से है । अपरिग्रह के प्रकरण में अपरिग्रह की छः श्रेणियाँ बतलाई गई हैं। उनमें से प्रारम्भ की तीन श्रेणियाँ साधु के लिये हैं और बाकी श्रावक के लिये। अपरिग्रह के इस भेद का प्रभाव ब्रह्मचर्य पर भी पड़ता है। साधारणतः साधु को भी सिर्फ संकल्पा-मैथुन का ही त्यागी होना चाहिये । परन्तु किसी भी प्रकार के मैथुन से सन्तान होने की सम्भावना है और जहां सन्तान पैदा हुई कि उसके लिये अपरिग्रह की प्रारम्भिक तीन श्रेणियों में रहना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है, इसलिये यह उचित है कि वह ब्रह्मचारी रहे । अगर स्त्री-पुरुष दोनों जीवित हैं। और दोनें! ही साधु-संस्था के आश्रय में जीवन व्यतीत करना चाई और उनकी उमर वानप्रस्थ बनने के योग्य न हो तो यह ज़रूरी है कि वे दोनों सम्मातिपूर्वक कृत्रिम उपाय से सन्तान निरोध करें और यथाशक्ति अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य का पालन करें । अपरिग्रही बनने के लिये सन्तानोत्पत्ति का रोकना आवश्यक है । हाँ, अगर कोई ऐसा साम्यवादी समाज हो, जहाँ सन्तान भी समाज की संपत्ति होती हो तथा समाज को सन्तान की अत्यधिक आवश्यकता हो तो इस नियम में Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम] [१८७ भी अपवाद किया जा सकता है; परन्तु साधारणतः राजमार्ग उत्सर्ग मार्ग-वही है । कहने का तात्पर्य यह है कि सन्तान की समस्या अपरिग्रह-व्रत के पालन करने में बाधक है, इसलिये संतानोत्पत्ति के मार्ग से बचना चाहिये, और प्रारम्भ की तीन श्रेणियों में से किसी भी एक श्रेणी का अपरिग्रही बनकर साधु बनना चाहिये। साधु-संस्था में इस प्रकार के पाँच मूल गुण आवश्यक है। पाँच ममिति-यपि पाँच महासतों में पाँच समितियाँ शामिल हो जाती हैं फिर भी जिस समय लोगों का जीवन प्रवृतिबहुल होगया था और उसमें आवश्यक निवृत्ति को भी उचित स्थान नहीं रह गया था, उस समय प्रवृत्तियों को सीमित करने के लिये पाँच समितियों का अलग स्थान बनाया गया है । परन्तु मैं कह चुका हूँ कि प्रवृत्ति भी अगर कल्याणकर हो तो धर्म है और निवृत्ति भी अगर अकल्याणकर हो तो पाप है, इसलिये निवत्ति को धर्म की कसौटी बनाना ठीक नहीं । इसलिये पाँच समितियों को अलग स्थान नहीं दिया जा सकता; वे पाँच महाव्रतों में शामिल हैं। पाँच समितियों में पहिली र्या-समिति है । इसका अर्थ है, चलने फिरने में यत्नाचार करना दिन में ही चलना चाहिये, धीरे धीरे चलना चाहिये, आगे आगे चार हाथ जमीन देखते हुए . चलना चाहिये, इत्यादि रूप में इसका पालन किया जाता है । हाथी घोड़ा गाड़ी आदि का उपयोग भी नहीं किया जा सकता। निःसन्देह ये नियम आदर्श हैं और एक समय के लिये आवश्यक Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] [जैनधर्म-मीमांसा भी ये; परन्तु आज ये नियम प्रगति में बाधक हैं। रेल, जहाज, वायुयान, मोटर आदि साधनों के बढ़ जाने से मनुष्य का कार्यक्षेत्र खब व्यापक हो गया है। और एक समाज-सेवक के लिये कभी कभी लम्बी यात्रा करना आवश्यक हो जाता है, इसलिये इनका उपयोग भी अनिवार्य हो जाता है। उस समय ईर्यासमिति उसके कार्य में बाधक हो जाती है, इसलिये इसे मूल गुणों में नहीं रख सकते। किसी की रक्षा करने के लिये या और भी किसी तरह की सेवा के लिये रात में चलना पड़े, या जल्दी जल्दी भागना पड़े तो ईर्या-समिति का पालन नहीं हो सकता। इस प्रकार ईर्या-समिति की ओट में अपनी वह अकर्मण्यता को छुपाता है तथा समाज का नुकसान करता है । कभी कभी किसी शारीरिक बाधा के लिये भी रात्रि में चलना या शीघ्र चलना आवश्यक हो जाता है । उस समय यदि वह ईया-समिति के लिये स्वास्थ्य के नियमों का भंग करे या दूसरों से ईर्या-समिति का कई गुणा भंग करावे तो यह भी अनुचित है, इसलिये इन सब नियमों का रखना आवश्यक नहीं है । कर्तव्य में बाधा न पड़े, फिर जितनी ईर्या-समिति का पालन किया जाय उतना ही अच्छा है, परन्तु इसे मूल गुण में शामिल नहीं कर सकते। दुसरी भाषा-समिति है। इसमें भाषा के दोष दूर करके स्व-पर-हितकारी वचन बोलने की आवश्यकता है, निरर्थक हास्थ और बकवाद का त्याग है, परन्तु इसका सारा कार्य सत्य-व्रत से हो सकता है, इसलिये इसको अलग गिनाने की आवश्यकता नहीं है। हाँ, निरर्थक हास्य वगैरह का निषेध इसमें आता है; परन्तु Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम ] [१८९ मनोविनोद के लिये अगर ऐसा हास्य किया जाय जिससे पर-निंदा न होती हो, अहिंसा और सत्य का भंग न होता हो तो उसके त्याग की आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता होने पर कोई मौन धारण करे, किसी से बातचीत न करे या कम करे तो उसको कोई बुरा नहीं कहता, परन्तु यह आवश्यक नहीं है । जितना आवश्यक है वह सत्यव्रत ने आ चुका है, इसलिये भाषा समिति का भी अलग उल्लेख नहीं किया जा सकता । तोसरी एषणा-समिति है। इसमें निर्दोष आहारादि का विधान है । इस विषय में इतने अधिक सूक्ष्म* नियम हैं कि उन सबका वर्णन करने से बहुत विस्तार हो जायगा । पुरोन समय की साधु-संस्था जैसी थी उसके लिये वे नियम उपयोगी थे, और उसमें इस बात का पूरा ख़याल रखा गया था कि साधु-संस्था के कारण गृहस्थों को कोई कष्ट न हो, तथा साधुओं की किसी क्रिया से अप्रत्यक्ष-रूप में भी हिंसा न हो, दूसरे भिक्षुकों को भी कोई बाधा न पहुँचे, इसलिये मुनि के भोजन में उद्दिष्टाहार-त्याग का मुख्य स्थान है । जो भोजन अपने निमित्त से बनाया गया हो वह भोजन साधु के लिये अप्राय है । इसका मुख्य उद्देश यही था कि साधु के लिये गृहस्थों को कोई कष्ट न हो, साधु के भोजन की गृहस्थों को कोई चिन्ता न करना पड़े और न विशिष्ट भोजन तैयार करना पड़े । साधु अकस्मात् किसी गली से निकल जाता था और जो भी उसे बुलाता उसके यहाँ शुद्धाहार मिलने पर भोजन कर लेता; परन्तु एक घर में पूरा भोजन करने से उस गृहस्थ को कुछ तकलीफ़ होने की सम्भावना थी, इसलिये दुसरी रीति यह बी * देखो नूलाचार पिंड्युद्धि अधिकार । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०] .. [जैनधर्म मीमांसा कि अनेक गृहस्थों के यहाँ से थोड़ा-थोड़ा भोजन माँगकर भोजन किया जाय । आजकल पहिली रीति दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित है और दूसरी रीति श्वेताम्बर सम्प्रदाय में । हाँ, मुनि होने के पहिले क्षुल्लक अवस्था में दिगम्बर लोग भी अनेक घर से भिक्षा माँगना उचित समझते हैं । जहाँ तक उद्दिष्ट-त्याग का सम्बन्ध है वहाँ तक यह दूसरी विधि ही अधिक उपयुक्त मालूम होती है; क्योंकि किसी आदमी को अगर भर-पेट भोजन कराना हो तो उसके उद्देश से कुछ न कुछ बनाना पड़ेगा, अथवा आने लिये बनाया गया मेजन उसे देकर अपने लिये दुसरा भोजन बनाना पड़ेगा। __उद्दिष्टाहार-त्याग के जो नियम हैं वे बहुत सूक्ष्म हैं । उनसे मालूम होता है कि महात्मा महावीर ने इस बात का पूरा खयाल रक्खा था कि साधु लोग समाज को कष्ट न दें। भोजन के विषय में बहुत-सी बातें जानने योग्य हैं । जैसे जिस भोजन के तैयार करने में हिंसा हुई हो, जो जैनमुनियों के लिये, दूसरे साधुओं के लिये, गरीबों के लिये यो और किसी के लिये बनाया गया हो, साधु को देखकर बनतो हुई सामग्री में कुछ बढ़ा लिया गया हो, वा तुरन्त खरीद कर गया गया हो, या किसी दूसरी चीज़ से बदल लिया गया हो, भा उधार लिया गया हो, जिसे निकालने के लिये अटारी [भट्टालिका] भादि पर चढ़ना पड़ा हो, या बालक को दुध पिलाना बन्द करना पड़ा हो, जो भोजन किसी के दबाव से दिया गया हो, अपने Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसंस्था के नियम ] [१९१ सहयोगियों के मना करने पर भी दिया गया हो, वह सब भोजन मुनि के लिये अग्राह्म है | इसी प्रकार किसी को खुश करके आहार लेना, झूठी-सच्ची बातों का अनुमोदन करके, या विद्या वगैरह की आशा दिलाकर या कुछ औषध आदि देकर आहार लेना भी अनुचित है । . उद्दिष्टाहार त्याग का मुख्य कारण यही है कि समाज को कष्ट न हो, साधु-संस्था समाज के लिये बोझ न बन जाय । दूसरा कारण यह भी कहा जा सकता है कि इससे विषय - लोलुपता न आ जाय, इच्छानुसार भोजन न मिलने से रसना -इन्द्रिय का विजय हो; परन्तु इन दोनों प्रयोजनों की सिद्धि नहीं हो रही है । भाज एक निमन्त्रित व्यक्ति की अपेक्षा उद्दिष्ट त्याग का बाह्याचार दिखलानेवाला व्यक्ति समाज के लिये अधिक कष्टप्रद है । निमन्त्रण से तो एक व्यक्ति के लिये एक आदमी को भोजन तैयार करना पड़ता है और अगर उसमें रसना - इन्द्रिय जीतने की इच्छा हो तो निमन्त्रित होकर के भी जीत सकता है । निमन्त्रण में सादा भोजन भी किया बा सकता है; परन्तु उद्दिष्टन्यागी के लिये तो सैकड़ों मनुष्यों को भोजन तैयार करना पड़ता है। अगर एक भी मुनि भोजनार्थी होता है तो गाँव के सभी गृहस्थों को एक एक आदमी की रसोई अधिक बनाना पड़ती है। इतना ही नहीं बल्कि वह रसोई भी बसाधारण होती है । इससे शक्ति से अधिक खर्च भी होता है । इसकी अपेक्षा निमंत्रण स्वीकार कर लिया जाय तो समाज को बहुत कम कष्ट हो । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] [जैनधर्म-मीमांसा अगर अनेक घरों से भिक्षा लाये तो एक घर के भोजन से कुछ अच्छा ज़रूर है, परन्तु उसमें भी कुछ हानि है; क्योंकि इससे साबु फालतू अन्न भी माँग लाता है। भोजन की मात्रा से भी अधिक माँग लाता है । जब तक स्वादिष्ट भोजन न मिले, तब तक अनेक धरों से माँगता ही रहता है । इसलिये उद्दिष्टस्याग के विधान के जो दो प्रयोजन थे, वे सिद्ध नहीं हो पाते । प्रश्न - उद्दिष्ट-त्याग का एक तीसरा प्रयोजन भी है कि इस से साधु पाप की अनुमोदना से बचा रहता है। भोजन तैयार करने में छोटे बड़े अनेक आरम्भ करना पड़ते हैं । अगर वह भोजन साधु के उद्देश से बनाया जाय और साधु उसे ग्रहण करे तो भोजन के आरम्भ का पाप साधु को भी लगेगा । उद्दिष्ट-त्याग में वह पाप सिर्फ गृहस्थ को लगता है, साधु उससे बचा रहता है । उत्तर -पहिले हिंसा अहिंसा के विवेचन में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि जो आरम्भ जीवन के लिये अनिवार्य है, उसमें यथाशक्ति यत्नाचार करने से पाप नहीं रहता । कोई वस्तु हमारा नाम लेकर बनाई जाय या बिना नाम के बनाई जाय परन्तु अगर हम उसका उपयोग करते हैं तो उसके पाप से हम टिप्स हुए बिना नहीं रह सकते; क्योंकि बिना किसी उद्देश के नहीं किया जाता । भोजन जो बनाया जाता है, उसमें है उसी का उदेश रहता है, भले ही उसका नाम न लिया गया हो। बाजार में बिकनेवाली चीज का पुण्य-पाप उसी के सिर है जो उसे खरीदता है । इसी प्रकार आरम्भ में अगर पाप है तो अनुदि कोई काम जो खाता Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम [१९३ भोजन करनेवाला मुनि भी उस पाप से बच नहीं सकता। उद्दिष्ट-त्याग की शर्त को अनिवार्य कर देने से कई बड़े बड़े नुकसान भी हैं । कोई भी देश अपनी आर्थिक परिस्थिति आदि के कारण भिक्षावृत्ति को कानून से बन्द कर दे तो इस प्रकार की साधु-संस्था इस प्रकार के कानून बनाने में बाधक होगी. अथवा अपने लिये कुछ ऐसे अपवाद रखवायगी जिससे वह भिक्षा ले सके। लेकिन इस एक ही अपवाद से सभी सम्प्रदाय के साधु इस प्रकार का अपवाद चाहेंगे और उन्हें देना ही पड़ेगा । तब . साधुवेषी भिक्षुकों की संख्या लाखों पर पहुंचेगी और वह कानून निरर्थक हो जायगा । यदि इस प्रकार के कानून बनानेवालों का जोर ज्यादह हुआ तो इस साधु-संस्था को उठा देना पड़ेगा या चोरी से चलाना पड़ेगा; परन्तु यह सब अनुचित है । इसी से लगती हुई दूसरी बात यह है कि इससे अकर्मण्यों की संख्य बढ़ती है । लोग परिश्रम करने को पाप और भिक्षावृत्ति को-जिसमें हरामखोरी के लिये सबसे अधिक गुंजाइश है-पुण्य समझने लगते हैं । साधु लोग, समाज के द्वारा पोषित होना अपना हक समझ लेते हैं और समाज को इच्छा न रहते हुए भी, भूखों न मर जाय, इस डर से भोजन कराना ही पड़ता है । इस प्रकार साधुओं के जीवन में बेजिम्मेदारी और समाज के ऊपर एक बोझ लदता है । यद्यपि साधु-संस्था का पुल न कुछ बोझ समाज को उठाना ही पड़ता है परन्तु बह. इस दंग का अनिवार्य न होना चाहिये और साधु-संस्था के लिये निमलिखित में मार्ग खुले रहना चाहियेः अगर कोई देसरा उपाय न हो तो रास्ते में चलते चलते Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९.] [ जैनधर्म-मीमांसा जो कोई उसे बुला ले और उसके यहाँ उसके लायक शुद्ध-भोजन मिल सके तो भोजन कर ले। २-अथवा, थोड़ा थोड़ा अनेक घरों से माँगकर भोजन कर ले। ३-अगर कोई निमन्त्रण करे तो उसके यहाँ भोजन कर ले। -४-अपने परिश्रम से पैदा किये पैसे से भोजन ख़रीदकर या भोजन का सामान खरीदकर स्वयं तैयार करके भोजन कर ले। इससे साधु में बेज़िम्मेदारी न आ पायेगी और समाज को साधु-समाज की चिन्ता न करना पड़ेगी, क्योंकि उसके लिये स्वयं परिश्रम करने का मार्ग खुला रहेगा । हाँ, आवश्यकता के लिये बाकी तीन मार्ग भी खुले रहेंगे। प्रश्न-यदि समाज साधुओं के लिये कोई आश्रम बना दे और साधु लोग वहाँ भोजन करें तो वह भोजन उपर्युक्त चार श्रेणियों में से किस श्रेणी में समझा जायगा ? उत्तर-चौथी श्रेणी में; क्योंकि आश्रम में रहकर वह कुछ काम करेगा और उस काम के बदले में भोजन लेगा, मुफ्त में नहीं । हाँ, अतिवृद्ध होने पर या अतिरुग्ण होने पर वह पेन्शन के तौर पर भोजन ले सकता है । परन्तु इस प्रकार की पेन्शन देना न देना समाज की इच्छा पर निर्भर है, अथवा उसकी पूर्व सेवाओं पर या भविष्य में होनेवाली सेवा की आशा पर निर्भर है। प्रश्न-साधु के लिये इस प्रकार भोजन के अनेक मार्ग खोलकर जहाँ आपने उसके सिर पर जिम्मेदारी लादी है और Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम] [१९५ । समाज का बोझ कुछ हलका कर दिया है, वहाँ साधु को भोजन के विषय में स्वतन्त्रता देकर निरंकुश भी बना दिया है । इससे समाज का दबाव उसके सिर पर न रहेगा, वह किसी तरह पैसा पैदा कर समाज के विरोध में भी खड़ा हो सकेगा। उत्तर-जिस समय समाज में उसके पक्ष का एक भी आदमी न रह जायगा, उस समय वह साधु कहलाकर रह भी नहीं सकता। वह साधु-संस्था से अलग कर दिया जा सकेगा । उस समय उसके लिये भोजन का चौथा मार्ग ही रह जायगा । वह मार्ग तो अवश्य खुला रहना चाहिये, नहीं तो वह चोर और डकैतों में शामिल हो जायगा । समाज ने उसे साधु नहीं माना, बस यही क्या कम दंड है ! यदि उसके पक्ष में कुछ लोग हैं तब तो उद्दिष्ट त्यागी होकर के भी वह 'तागडधिन्ना' कर सकेगा; क्योंकि उसके भक्त उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे । सच बात तो यह है कि सबसे कठिन मार्ग अपने परिश्रम से पैदा करके खाना है । थोड़ी-सी गड़. बड़ी होने पर इसी चौथे मार्ग का सहारा लेना पड़ेगा और इसमें उसकी पूरी कसौटी हो जायगी । इस विषय में एक बात और है कि कोई आदमी साधु कहलाता रहे और साधुता का पालन न करे तो भी वह आज के समान भयंकर न होगा; क्योंकि समाज के ऊपर उसके पोषण का बोझ न रहेगा और आजकल साधु-वेष धारण करने से ही लोग जिस प्रकार सातवें आसमान पर चढ़ जाते हैं, दूसरों से पूजा कराना अपना हक समझते हैं, वह बात पीछे न रहेगी । उस समय तो गुण और समाज-सेवा के अनुसार ही उपचार बिनय का पालन होगा, वेष के अनुसार नहीं । इस प्रकार Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] [जैनधर्म-मीमांसा उद्दिष्टत्याग अनिवार्य नहीं है। __भोजन के विषय में और भी बहुत से नियम हैं जैसे अमुक चीज़ को देखकर भोजन नहीं लेना आदि; परन्तु इन सबका उद्देश यही था कि जिससे मनुष्य सहृदय बना रहे । कोई मनुष्य रो रहा हो और साधु भोजन करे तो इससे कुछ खार्थपरता या निर्दयता मालूम होती है, अथवा किसी भक्ष्य-पदार्थ में मांस आदि का संकल्प हो जाय और फिर भी उसे खाया जाय तो इससे अभक्ष्य से ग्लानि घट जाती है । साधक अवस्था में इन मनोवृत्तियों को बनाये रखने की आवश्यकता होती है, परन्तु इन अन्तरायों के होने पर भोजन का छूट जाना एक बात है और छोड़ देना दूसरी बात । बहुत से लोगों को ग्लानि तो होती नहीं है, परन्तु दिखाने के लिये छोड़ देते हैं, तथा दूसरे लोगों पर बिगड़ पड़ते हैं । इस प्रकार की कृत्रिमता अनावश्यक है। स्वच्छता के नियमों का पालन करना तथा हिंसा आदि से बचे रहना उचित है; परन्तु कुत्ते के भौंकने से और बिल्ली के बोलने से अन्तराय मानना, छोटे छोटे बहाने निकालकर मोजन छोड़कर भोजन करानेवाले को लजित करना उचित नहीं है। भोजन तभी छोड़ना चाहिये जब स्वभाव से इतनी ग्लानि आ जाय कि भोजन न किया जाय । इस विषय में नियम बनाना या अन्तरायों की संख्या गिनाना अनावश्यक है। एषणा-समिति पर विचार करते समय सचित्ताचित्त पर विचार करना भी आवश्यक है । मांस वगैरह त्रस-हिंसाजन्य पदाथों का त्याग करना आवश्यक है । परन्तु जैन-समाज में वनस्पति के Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम [१९७ विषय में कुछ बाह्याडम्बर फैला हुआ है । जैनाचार्यों ने प्राणि-शास्त्र का अध्ययन करके यह निर्णय किया था कि कुछ वनस्पतियाँ ऐसी हैं जिनमें अनन्त जीव रहते हैं । कन्द-मूल आदि इसी श्रेणी में समझे जाते हैं, तथा वनस्पतियों की कुछ अवस्थाएँ ऐसी हैं जब उनमें अनन्त जीव होते हैं । बनस्पति में जब नसें नहीं मालूम होती उनकी स्वचा बहुत मोटी होती है या दल से मिली रहती है, तब भी वे अनन्त जीव-वाली होती हैं । जैनाचार्यों की यह खोज अवश्य ही उनकी अध्ययनशीलता का परिचय देती है । परन्तु इसी आधार पर जो भक्ष्याभक्ष्य का विचार चल पड़ा है, वह ठीक नहीं है। किसी वनस्पति में अनन्त जीव मानने का यही अर्थ है कि उसमें इतने अधिक जीव हैं जिनको हम जान नहीं सकते । यह बहुत सम्भव है कि उनमें बहुत जीव हों, परन्तु . सिर्फ इसीलिये उनको अभक्ष्य कहना अनुचित है । क्योंकि एक शरीर में अनन्त या अत्यधिक जीव बतलाने का अर्थ यही है कि उन जीवों का विकास बहुत थोड़ा हुआ है, उनमें चैतन्य की मात्रा प्रत्येक वनस्पवि की अपेक्षा अनन्तवें भाग है । ऐसी हालत में इन अविकसित साधारण प्राणियों का भक्षण करना प्रत्येक वनस्पति के भक्षण की अपेक्षा कुछ अधिक उचित है। जिस प्रकार अनेक एकेन्द्रिय जीवों को मारने की अपेक्षा एक त्रस की हत्या में अधिक पाप है, इसी तरह अनेक साधारण वनस्पति को मारने की अपेक्षा एक प्रत्येक वनस्पति के मारने में अधिक पाप है । परन्तु प्रत्येक वनस्पति को भक्षण करने के बिना हमारा काम नहीं चल सकता तथा एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा अनिवार्य है, इसलिये प्रत्येक Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] (जैनधर्म-मीमांसा तथा साधारण वनस्पति का विचार किये बिना हमें प्रस-हिंसा का ही ख़याल रखना चाहिये । हाँ, अनावश्यक स्थावर-बध न करना 'चाहिये। साधारण वनस्पति का त्याग एक दुसरी दृष्टि से उचित है, परन्तु वह सब साधारण वनस्पतियों का नहीं । प्रत्येक वनस्पति भी एक समय साधारण अवस्था में से गुजरती है, जब कि उसमें नस गुठली आदि नहीं होती। जो वनस्पति अन्त तक साधारण रहनेवाली है उसके भक्षण करने में तो कोई दोष नहीं है, जैसे-आलू आदि । परन्तु जो वनस्पति साधारण अवस्था को पार करके प्रत्येक वनस्पति बनेगी उसका उपयोग साधारण अवस्था में न करना चाहिये, यह त्याग अहिंसा की दृष्टि से नहीं है किन्तु अपरिग्रह की दृष्टि से है । किसी फल को उसकी साधारण अवस्था में नष्ट कर देने से उससे उतना लाभ नहीं उठाया जा सकता जितना कि उसकी प्रत्येक अवस्था में उठाया जा सकता है । आम का एक फल कोई उस अवस्था में खा जाय जब उसमें गुठली, दल, और त्वचा का भेद ही नहीं था तो समाज की सम्पत्ति में से एक फल को बर्बाद कर देना है । साधारण वनस्पति के त्याग की उपयोगिता का यह छोटा-सा प्रमाण है, इसे नियम का रूप नहीं दिया जा सकता। हाँ, इसे भावना कह सकते हैं। मनुष्य को इस प्रकार की भावना रखना चाहिये तथा किसी अच्छे कार्य में बाधा डाले बिना यथाशकि ऐसी साधारण वनस्पति की हिंसा से बचे रहना चाहिये । एषणा-समिति के विषय में बहुत बातें हैं, परन्तु इतने विवेचन से उसका मर्म समझ में आ जाता है । वर्तमान में जो एषणा Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम [१९९ समिति का रूप है वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के बदल जाने से बनावश्यक है । जो सुधरा हुआ रूप ऊपर बताया गया है वह उत्तर गुणों में रखने लायक है, मल-गुणों में नहीं। आदाननिक्षेपण समिति-प्रत्येक वस्तु को यत्नपूर्वक, हिंसा को बचाते हुए उठाना-रखना-आदाननिक्षेपण समिति है । इसको भी भावना या उत्तर-गुणों में रख सकते हैं, इसे मूल गुण नहीं बनाया जा सकता । इसके अतिरिक्त हिंसा-अहिंसा का विचार भी सब जगह एक सरीखा नहीं किया जा सकता । मान लो, एक आदमी मकान बना रहा है-ऐसी अवस्था में वह छोटे छोटे कीड़ों की रक्षा का विचार उतना नहीं कर सकता जितना कि पुस्तक के उठाने रखेन में कर सकता है। इसी प्रकार अन्यत्र भी समझना चाहिये। प्रतिष्ठापना समिति-वनस्पति तथा त्रस-जीवों से रहित शुद्ध भूमि में मल-मूत्र आदि का क्षेपण करना प्रतिष्ठापना समिति है। यह भी भावना-रूप में ही रखी जा सकती है, व्रत-रूप में नहीं। आजकल नगरों की रचना ऐसी है कि वहाँ जंगल में या छोटे छोटे गाँवों में रहने के नियम नहीं पाले जा सकते । ट्रेन तथा जहाज़ में यात्रा करने पर भी इस विषय में विशेष रत्न नहीं किया जा सकता । समाज-सेवा के लिये नगर में रहने, रेल और जहाज़ में यात्रा करने की बहुत बार, आवश्यकता होती है, इसलिये साधु को इनसे विरत करना उचित नहीं है । इसलिये प्रतिष्ठापना समिति का अर्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार करना होगा, तथा इसे मलगुणों में तो रख ही नहीं सकते। Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] [जैनधर्म-मीमांसा इस प्रकार ये पाँच समितियाँ उपादेय होने पर भी मलगुण में शामिल नहीं की जा सकती । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी इन्हें मूल-गुण में शामिल नहीं किया गया है । इन्द्रियनिग्रह-स्पर्शन, जिव्हा, नाक, नेत्र और कान ये पाँच इन्द्रियाँ हैं । इन पर विजय प्राप्त करना या इनका दमन करना भी साधु के मूल-गुण है । ये पाँच मूल-गुण दोनों सम्प्रदायों में माने गये हैं। इन्द्रियों के दमन करने का यह अर्थ नहीं है कि कोई व्यक्ति कोमल खच्छ वस्तु का स्पर्श न करे, स्वादिष्ट भोजन न करे, सुगन्धित स्थान में न जावे, सुन्दर दृश्य न देखे, संगीत न सुने आदि; किन्तु इसका अर्थ सिर्फ आसक्ति का अभाव है । इन्द्रयों के विषय में उसे इतना आसक्त न होना चाहिये कि वह कर्तव्य करने में प्रमादी हो जावे, अथवा दूसरों के न्यायोचित आधकारों की पर्वाह न करे। साधु को चाहिये कि वह इन्द्रियों के अनिष्ट विषय प्राप्त होने पर भी अपने को स्थिर रखे । किसी के यहाँ जाने पर यदि रूखा-सूखा भोजन मिले तो भोजनदाता का मन से, वचन से, शरीर से तिरस्कार न करे । यदि घर के आदमी ने कुछ भोजन में गड़. बड़ी कर दी है तो सुधार के लिये प्रेमपूर्वक समझाने के सिवाय और कोई उग्र व्यवहार न करे । सदा संतोष और प्रसन्नता से भोजन करे । हाँ, जो भोजन अस्वास्थ्यकर है उसे चाहे न ले, अथवा जो इतना बेस्वाद है जिसे खाना कठिन है तो थोड़ा खावे, परन्तु इस के लिये किसी का अपमान न करे, किसी को दुःखी न करे । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम ] [२०१ संगीत आदि मनाविनोद के त्याग की भी आवश्यकता महीं है, परन्तु उसमें इतनी आसक्ति न हो जो कर्तव्यच्युत होना पड़े । रोगी की सेवा छोड़कर, अपने हिस्से का जीवनोपयोगी काम छोड़कर या और आवश्यक कर्तव्य छोड़कर संगीत सुनना या कोई खेल देखना अनुचित है। धर्म और अर्थ के समान काम भी जीवन में आवश्यक तत्व है । व्यर्थ ही अपने चेहरे को मनहूस बनाये रहना अनुचित है। फिर भी काम का सेवन-धर्म और अर्थ का विरोधी न होना चाहिये, इसीलिये साधु को इन्द्रिय-दमन की आवश्यकता है । परन्तु जो लोग इन्द्रिय दमन के नाम पर निर्थक कष्ट सहन करते हैं, लगातार अनेक उपवास कर स्वास्थ्य को बिगाड़ लेने हैं और सेवा कराकर दूसरों को परेशान करते हैं, वे इन्द्रियजयी नहीं है । किसी कार्य के औचित्यानौचित्य का विचार करते समय सार्वत्रिक और सार्वकालिक दृष्टि से अधिकतम प्राणियों के अधिकतम सुखवाली नीति को कसौटी बनाना चाहिये । एकाध दिन का भोजन बचाने के लिये या कष्टसहिष्णुता की थोडीसी कसरत करने के लिये दूसरों को परेशान कर डालना अधर्म ही होगा। कई लोग इन्द्रिय-विजय के नाम पर अमुक वस्तुओं का, या रसों का त्याग कर देते हैं, परन्तु अधिकतर यह त्याग निरर्थक ही है। शक्कर न खाकर किशमिश और छुआरा उड़ाना, घी का त्याग करके बादाम का तेल या बादाम का हलुआ खाना अधिक भोग है। हाँ, जो वस्तुएँ हिंसकता की दृष्टि से अभक्ष्य हैं अथवा जो Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] [ जैनधर्म-मीमांसा बहुत अस्वास्थ्यकर हैं उनका त्याग करना ठीक है; परन्तु ऊटपटाँग किसी भी चीज़ का त्याग करना अनावश्यक है । हाँ, अभ्यास की दृष्टि से कुछ भी करो, परन्तु वह सब अपने घर में करो अर्थात् ऐसी जगह करो जहाँ उससे किसी को कष्ट न हो । अभ्यास कुछ त्याग नहीं है; किन्तु समय पड़ने पर स्याग किया जा सके- इसके लिये वह प्रारम्भिक व्यायाम है । परन्तु दूसरे के यहाँ जाकर इस व्यायाम के प्रदर्शन की कोई ज़रूरत नहीं है, बल्कि दूसरों को कष्टप्रद होने से हेय है । सबसे बड़ा त्याग तो यह है कि मोके पर जो कुछ मिल जाय उसी से प्रसन्नता - पूर्वक अपना काम चला लेना । मैं यह नहीं खाता, वह नहीं खाता, इत्यादि प्रतिज्ञाओं की जरूरत नहीं है, किन्तु मैं यह भी खा सकता हूँ ( अर्थात् प्रसन्नतापूर्वक उससे अपनी गुज़र कर सकता हूँ), वह भी खा सकता हूँ-इत्यादि प्रतिज्ञाओं की ज़रूरत है । स्याग सिर्फ उन्हीं चीज़ों का करना चाहिये, जो अन्याय से पैदा होती है या प्राप्त होती हैं । अगर किसी को त्याग करना हो तो उसे जाति की दृष्टि से त्याग न करना चाहिये; किन्तु संख्या की दृष्टि से त्याग करना चाहिये । एक आदमी ने दस शाकों का त्याग कर दिया, परन्तु प्रतिदिन पाँच-सात तरह की शाक खाता है - इसके बिना उसका काम नहीं चलता, किन्तु दूसरे आदमी ने किसी भी शाक का त्याग नहीं किया किन्तु वह प्रतिदिन कोई भी एक-दो शाक खाता है तो पहिले की अपेक्षा दूसरा श्यागी है । इतना ही नहीं किन्तु पहिले को हम त्यागी Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम [२०३ ही नहीं कह सकते । कदाचित् दंभी तक कह सकते हैं, इसलिये अगर त्याग करने की आवश्यकता मालूम हो तो संख्या की मर्यादा बाँध लेना चाहिये, और वह भी सिर्फ इसीलिये कि दूसरों को कष्ट न हो । इन बातों से अपने को त्यागी न समझ लेना चाहिये, स्योंकि इनका मूल्य बहुत तुच्छ है । खाने-पीने की बात को लेकर लोग त्याग का दंभ बहुत करते हैं, इसलिये इस विषय में कुछ अधिक लिखा गया है, परन्तु इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय में भी विचार करना चाहिये । मुख्य बात यह है कि किसी भी इन्द्रिय के विषय में आसक्ति न हो । कोई भी विषय प्राप्त हो या न हो, परन्तु प्रसन्नता बनी रहे। 'आसक्ति कर्तव्य में बाधक न हो'-इसका नाम इन्द्रिय-विजय है, साधु के लिये यह आवश्यक है । अस्वाद-व्रत भी इसी के अन्तर्गत है। परन्तु पाँच इन्द्रियों के विजय को पाँच मल-गुण कहना अनावश्यक है । इस प्रकार के विस्त.र की आवश्यकता नहीं है । इसलिये पाँच के बदले इन्द्रिय-विजय नामक एक ही मूल-गुण रखना चाहिये। आवश्यक-दिगम्बर सम्प्रदाय में छः आवश्यक के नाम से छः कार्य* प्रसिद्ध हैं। १ सामायिक, २ चतुर्विंशतिस्तव, ३ वंदना, ४ प्रतिक्रमण, ५ प्रत्याख्यान, ६ कायोत्सर्ग । कहीं * समदा थओ य वदण पाडिकमणं तहेव णादन्छ । पञ्चक्खाण विसग्गो करणीया वासया छब्धि-मूलाचार २२ । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] [ जैनधर्म-मीमांसा कहीं पर प्रत्याख्यान के स्थान पर स्वाध्याय पाठ मी मिलता है, जो कि इस बात का सूचक है कि जिस समय जिस बात की अधिक आवश्यकता होती है उसे उस समय मूल-गुण में रख लिया जाता है, साधुता के समान साधु-संस्था के नियम स्थायी नहीं है। सामायिक के बदले में दूसरा शब्द है समता । सुख-दुख में, शत्रु-मित्र में समभाव रखना समता या सामायिक है । इस समता भाव के अभ्यास के लिये सामायिक की क्रिया भी, दिन में तीन बार सुबह, मध्याह और सन्ध्या को कुछ समय के लिये ध्यान लगाकर स्थिर होना - प्रचलित है । अभ्यास की दृष्टि से एक समय यह क्रिया आवश्यक मालूम हुई होगी, परन्तु आज इसकी ज़रूरत नहीं 1 है । हाँ, मनुष्य एकान्त में बैठे-अच्छे विचार करे- इसमें कुछ बुराई नहीं है, परन्तु आवश्यकता न होने पर भी प्रतिदिन इतना समय खर्च करना निरर्थक है । हाँ, यहाँ सामायिक का जो समताभाव अर्थ किया गया है वह ठीक है, परन्तु इसका बहुत-सा काम तो इंद्रिय निरोध से चल जाता है । उससे अधिक समभाव उचित होने पर भी मूल-गुण में शामिल नहीं किया जा सकता । हाँ, साम्प्रदायिक समभाव या सर्वधर्म समभाव अनिवार्य है, इसलिये उसे मूल-गुण में अवश्य गिनना चाहिये। दूसरे शब्दों में स्याद्वादका सच्चा रूप उसे जीवन में उतारना चाहिये । इस प्रकार का समभाव + समता घर बन्दन करें नाना धुती बनाय | प्रतिक्रमण स्वाध्यायजुत कायोत्सर्ग लगाए || इष्ट छत्तीसी २३ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसंस्था के नियम ] मूल- गुण में रखना आवश्यक है । यद्यपि यह समभाव सम्यग्दर्शन में ही आवश्यक है, इसलिये यह जैनत्व की मुख्य शर्त है तथापि इस विषय में इतनी ग़लतफ़हमी है और इसकी तरफ़ लोगों की इतनी उपेक्षा है कि इसकी तरफ़ जितना अधिक ध्यान आकर्षित कराया जाय उतना ही थोड़ा है । सर्वधर्म समभाव रूप समता प्रत्येक श्रावक को आवश्यक है, परन्तु जो साधु-संस्था में जुड़ रहा है उसे तो और मी अधिक आवश्यक है - इसलिये मूल-गुणों की नामावली में इसका नाम सब से पहिले रखना चाहिये । जिस प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना चारित्र की उत्पत्ति और स्थिति नहीं मानी जाती उसी प्रकार प्रकार इस सर्व-धर्म-समभाव के बिना साधुता नहीं हो सकती | [२०५ दूसरा आवश्यक चतुर्विंशस्तव है । महापुरुषों की स्तुति करना, उनका गुणगान करना उचित है । परन्तु यह गुण-गान किसी सम्प्रदाय के महापुरुषों में कैद न रहना चाहिये, और न उसमें चौबीस की संख्या नियत रहना चाहिये । अपनी अपनी रुचि और परिस्थिति के अनुसार महापुरुषों की प्रशंसा करना उचित है, फिर वह एक की की जाय या दस की । इसलिये इस आवश्यक का नाम चतुर्विंशतिस्तव नहीं, किन्तु महात्मस्तव रखना चाहिये । इस प्रकार यह महात्मस्तव उचित होने पर भी मूल-गुण में नहीं रक्खा जा सकता; क्योंकि साधु-संस्था के लिये यह आवश्यक नियम नहीं है । अवकाश और इच्छा होने पर उनकी स्तुति करना Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] [जैनधर्म-मीमांसा चाहिये, न हो तो न सही । हाँ, साधुओं का कोई आश्रम बनाया जाय और उसमें इस प्रकार की प्रार्थना रक्खी जाय तो कोई हानि नहीं है, परन्तु उसमें सिर्फ महात्मस्तव ही न होगा; किन्तु सत्य अहिंसा आदि गुणों का स्तव भी होगा । फिर भी इस प्रार्थना को अनिवार्य नियम का रूप नहीं दिया जा सकता; क्योंकि साधुता के साथ इसका घनिष्ट सम्बन्ध नहीं है । T करना, अपने से जो पूज्य हो समावेश होता है । महात्नस्तव तीसरा आवश्यक वन्दना है । इसमें मूर्ति के आगे प्रणाम उनको नमस्कार करना आदि का वचन रूप पड़ता है, और यह शरीर की क्रिया रूप पड़ता है; परन्तु इन दोनों में कोई मौलिक भेद नहीं है । ऐसे छोटे छोटे अन्तर निकालकर मूल-गुणों की संख्या बढ़ाना उचित नहीं है । 1 दूसरी बात यह हैं कि जिस प्रकार महात्मस्तव को मूल-गुणों में शामिल नहीं किया है, उसी प्रकार यह बन्दना भी मूल-गुण में शामिल नहीं किया जा सकता । हाँ, इसका करना बुरा नहीं है, बल्कि उचित है । शरीर से पश्चाताप चौथा आवश्यक प्रतिक्रमण है । इसका अर्थ है अपरात्रशुद्धि | हम से जान में या अनजान में जो दोष हो गये हों उसे वापिस लौटना अर्थात् मन से, वचन से, करना प्रतिक्रमण है । सचमुच यह आवश्यक ही है । यद्यपि इसका पूर्ण रूप में पालन करना कठिन है, फिर भी इसको पूर्ण रूप में पालन करने की यथाशक्ति चेष्टा करना चाहिये । नहीं, अत्यावश्यक Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम] [२०७ यथाशक्ति चेष्टा ही पूर्ण रूप में पालन करना कहलाता है। ___आजकल तो प्रतिक्रमण पाठ में जीवों के भेद-प्रभेद गिनाकर उनके कुल और योनियों की गिनती बताकर सबसे क्षमा मांग ली जाती है । निःसन्देह इसके मूल में सर्व-जीव-समभाव की भावना है, परन्तु आज तो यह क्रिया ऐसी ही है जैसे कि किसी बीमार की बीमारी दूर करने के लिये उसके शरीर को चारों तरफ झाडू से माड़ देना । शरीर के चारों तरफ झाडू फेर देने से बीमारी नहीं मड़ जाती, उसी प्रकार प्रतिक्रमण पाठ की झाडू फेरने से अपराध नही झड़ जासे । अपराध-शुद्धि के लिये हमें अपराध पर ही झाड फेरना चाहिये । उस समय दुनियाँ भर की गिनती गिनाना वास्तविक अपराध को चिकित्सा के बाहर कर देना है, अर्थात् उस पर उपेक्षा कर जाना है। इन जीवों की गिनती गिनाने में अन्धविश्वास से काम लेना पड़ता है । जैन-शास्त्रों में प्राणि-शास्त्र तथा स्वर्ग नरक आदि का जो वर्णन है, उसको विश्वास के साथ ताज़ा रखना पड़ता है, परन्तु इस विषय में नई-नई खोजें हुई हैं-हो रही है-होंगी, और उनसे वर्तमान मान्यताओं में बहुत कुछ परिवर्तन भी पड़ सकता है । इसरिये आवश्यक मालूम होता है कि प्रतिक्रमण सरीखे आत्म-शोधक कार्य में से प्राणि-शास्त्र की चर्चा को अलग कर दें । साधारणतः एक वाक्य में सर्व प्राणियों का स्मरण कर लें। परन्तु यहाँ तक का सारा कार्य तो एक प्रकार की भूमिका हुई । सच्चा प्रतिक्रमण करने के लिये तो यह आवश्यक है कि जहाँ अपराध है वहीं उसकी शुद्धि की जाय । यदि हमारे मुंह से किसी के विषय में अनुचित Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] [जैनधर्म-मीमांसा शब्द निकल गया है तो उसे स्वीकार करना, अथवा शक्य न हो तो अपने ही आप उसका पश्चात्ताप करना आवश्यक है। जिनके हम अपराधी हैं, उनके विषय में तो कुछ ध्यान ही न दें और दुनिया भर के जीवों से माफी मांगने का डील करें-इस दंभ से कुछ लाभ नहीं है । अपने विशेष पापों का शोधन करना ही प्रति. क्रमण का उद्देश है । प्रतिक्रमण के लिये किसी नियत समय की आवश्यकता नहीं है । आवश्यकता सिर्फ इतनी है कि वह अपराध के बाद जितनी जल्दी किया जाय उतना ही अच्छा है। अपराध के जितने अधिक समय बाद प्रतिक्रमण किया जायगा, उसका मूल्य उतना ही कम होगा। प्रश्न-जो काम हो गया सो हो गया । अब उसके नाम पर रोने से क्या फायदा ? अब तो आगे का विचार करना चाहिये । . उत्तर-आगे का विचार करने के लिये ही पीछे का रोना है। अपने लिये हुए काम की बुराई को अगर कोई स्वीकार न करे, उसकी निन्दा न करे तो वह भविष्य में उससे क्यों बचेगा ! भविष्य की शुद्धि के लिये ही यह भूतालोचना है। दूसरी बात यह है कि जगत् की शान्ति के लिये तथा आधे से अधिक अनयों को रोकने के लिये प्रतिक्रमण की आवश्यकता है। प्रतिक्रमण से द्वेष-वासना दूर हो जाती है, और द्वेष-वासना का दूर होना अधिकांश अनों का दूर हो जाना है । देव का सद्भाव जितना दुःखप्रद है उतना बाप कष्ट नहीं । विनोद में किसी को कितना ही मारो उसे दुःख नहीं होता, परन्तु क्रोध से आँख दिखलाना ही Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम ] [२०९ अपमान दुःख आदि का कारण हो जाता है। यह साधारण उदाहरण जीवन के प्रत्येक कार्य में मूर्तिमान रूप में दिखाई देता है । व्यवहार में जो अनेक प्रकार की शत्रुताओं का अस्तित्व पाया जाता है, वह सिर्फ इतनी ही बात से दूर हो सकता है कि हम अपनी गलती सच्चे दिल से स्वीकार कर लें । मानव-हृदय ही नहीं, प्राणि-हृदय प्रेम का भूखा है । प्रतिक्रमण से यही प्रेम प्रगट होता है, इसलिये प्रतिक्रमण अत्यावश्यक है। ___ यहाँ जिन आवश्यकों का वर्णन किया जाता है उनके स्थान में यह प्रतिक्रमण ही रक्खा जाना चाहिये । बाकी आवश्वको में जो उपादेय तत्त्व हैं, वे भी इसी के भीतर डाले जा सकते हैं। स्तुति, वन्दना, प्रत्याख्यान आदि प्रतिक्रमण की भूमिका मात्र हैं । इसलिये साधु के लिये प्रतिक्रमण मूल-गुण में रखना उचित है। यह बात पहिले भी कही जा चुकी है कि संयम को नियम से नहीं बाँधा जा सकता, इसलिये प्रतिक्रमण भी नियमों से नहीं बाँधा जा सकता ! प्रतिक्रमण का क्या लक्ष्य है, इस बात को समझकर, हानि लाभ को तौलकर शुद्ध अन्तः करण से इसका पालन करना चाहिये । इसलिये कहाँ, कब, किसके साथ, कैसा प्रविक्रमण करना चाहिये यह सब विचारणीय है, परंतु ध्येय की तरफ़ दृष्टि लगाकर अगर इसका पालन किया जाय तो प्रतिक्रमण सम्बन्धी अनेक समस्याएँ हल हो सकती हैं। ____ पाँचवा आवश्यक प्रत्याख्यान है । भविष्य के लिये अयोग्य का। का त्याग करना प्रत्याख्यान है। वास्तव में यह प्रतिक्रमण Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० ] [जैनधर्म-मीमांसा में आ जाता है, इसलिये इसको अलग कहने की कोई ज़रूरत नहीं है । इसके नाम पर जो छोटी-छोटी बातों की प्रतिज्ञाएं ली जाती हैं ने भले ही ली जावे; परन्तु वे तो सब अभ्यास के लिये हैं। तथा महत्त्वपूर्ण भी नहीं हैं । इसलिये प्रत्याख्यान को मूल-गुण में अलग स्थान नहीं दिया जा सकता । इसके बदले में कहीं कहीं स्वाध्याय रक्खा गया है । स्वाध्याय एक प्रकार से आवश्यक है, फिर भी इसे मूल-गुण में नहीं रख सकते; क्योंकि साधु के सामने अगर सेवा वगेरह का महत्वपूर्ण कार्य हो तो स्वाध्यायन भी करे तो कोई हानि नहीं । प्रश्न - स्वाध्याय पाँच तरह का है। पढ़ना, प्रश्न करना, विचार करना, ज़ोर ज़ोर से याद करना, उपदेश देना । इस में से कोई न कोई स्वाध्याय प्रतिदिन अवश्य करना चाहिये । जो लोग विद्वान हैं वे उपदेश देकर स्वाध्याय करें, और जो साधारण ज्ञानी "है वे पाँचों में से कोई एक जरूर करें। साधु संस्था में ज्ञान आवश्यक मालूम होता है और ज्ञानके लिये स्वाध्याय आवश्यक है । ( t उत्तर - सेवा के ऐसे अवसर बहुत हैं जब किसी को व्याख्यान देने की फुर्सत न हो और हो तो उसकी जरूरत न हो साधु के लिये पुस्तक का पढ़ना पढ़ाना इतना आवश्यक नहीं है जितनी कि लोक-सेवा । ,! प्रश्न - तब आप लोक-सेवा को ही मुल-गुण क्यों नहीं कहते ? बाकी सब मूल-गुण उठा दीजिये । खासकर प्रतिक्रमण की कोई ज़रूरत नहीं रह जाती । उत्तर - अन्य मूल-गुण लोक-सेवा के लिये अत्यावश्क हैं। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम ] [२११ वश जो मनुष्य अहिंसा, सत्य आदि का पालन नहीं करता, इंद्रियों को में नहीं रखता, समभाव नहीं रखता, वह लोक-सेवा क्या करेगा ? लोक सेवा के बहाने वह दु:स्वार्थ साधना तथा अनेक अनर्थ ही करेगा । प्रतिक्रमण तो लोक-सेवा में अत्यावश्यक है, क्यों कि जब तक वह अपनी भूलों को न देखेगा तब तक वह सेवा के बदले में अनेवा ही अधिक करेगा । प्रतिक्रमण स्वयं भी एक लोकसेवा है । · प्रश्न- यदि आप अन्य मूल-गुणों को लोक सेवा के लिये इतना आवश्यक समझते हैं तो क्या ज्ञान आवश्यक नहीं है ? बिना ज्ञान के वह सेवा असेवा का तत्व क्या समझेगा ? संयम के लिये ज्ञान तो अनिवार्य है, इसलिये उसे मूल-गुण में रखना चाहिये । में मूल-गुण है | परन्तु स्वध्याय और मनुष्य ज्ञानी है, वह अगर स्वाध्याय सकता है । परन्तु जो ज्ञानी नहीं है उत्तर - ज्ञानयुक्तता अर्थात् संयम तथा लोक-सेवा के लिये जितने ज्ञान की आवश्यकता है उतना ज्ञान धारण करना वास्तव ज्ञानयुक्तता में अन्तर हैं । जो नहीं करता तो भी साधु रह किन्तु स्वाध्याय से ज्ञानी बनना तक ज्ञानी न चाहता है, वह तब तक साधु नहीं बन सकता जब हो जावे | स्वाध्याय से ज्ञानी बन ज्ञानी न बन जाय तब तक उसे जब तक वह सकता है, परन्तु साधु-संस्था का उम्मेदवार ही रहना चाहिये | साधु-संस्था में प्रवेश पाने के लिये आवश्यक शर्त है, अन्यथा अनेक निरक्षर भट्टाचार्य प्रभावहीन बना देंगे | ज्ञानयुक्तता एक साधु-संस्था को Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२) [जैनधर्म मीमांसा प्रश्न-ज्ञानयुक्तता को अगर आप मूल-गुण बना देंगे तब , तो पंडितों के सिवाय दुसरा कोई साधु-संस्था में प्रवेश न कर पायगा। इस प्रकार तो आप अल्पज्ञानियों से एक प्रकार से साधुता छीन रहे हैं । हम नहीं समझते कि कोई सेवा-भावी सजन निःस्वार्थ भाव से समाज की सेवा करना चाहता हो तो अधिक ज्ञानी न होने से ही उसकी सेवा अस्वीकार क्यों कर दी जाय ? उत्तर-ज्ञानी होने के लिये पंडित होना आवश्यक नहीं है। वह मातृभाषा में अपने विचार प्रकट कर सके, तथा तत्व को समझ सके, इतना ही आवश्यक है । दूसरी बात यह है कि बाबज्ञान का माध्यम सदा सर्वत्र एक सा नहीं रक्खा जा सकता। एक जमाने में जितने ज्ञान से लोग पंडित कहलाते हैं दूसरे जमाने में उतने ज्ञान से गणनीय विद्यार्थी भी नहीं कहलाते । इसलिये उस समय साधु-संस्था में प्रवेश करने के लिये ज्ञान का जो माध्यम रक्खा जा सकता था, उतना आज नहीं रक्खा जा सकता । समाज की सेवा करने के लिये साधारण समाज से कुछ विशेष ज्ञान होना आवश्यक है, भले ही वह बड़ा पंडित न हो । हाँ, साधु-संस्था में पदाधिकारी होने के लिये विशेष विद्वान होना भी अनिवार्य है । तात्पर्य यह है कि साधु-संस्था के सभ्य को इतना ज्ञान अवश्य रखना चाहिये जिससे लोगों पर उसका कुछ प्रभाव पड़ सके तथा सेवा और आत्मोद्धार के कार्य में सुविधा हो । तीसरी बात यह है कि यह साधु-संस्था में प्रविष्ट होने की शर्त है, साधुता की शर्त नहीं । साधुता और साधु-संस्था की सदस्यता में अन्तर है। इस प्रकार स्वाध्याय नहीं, किन्तु ज्ञानयुक्तता साधु-संस्था के Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१३ मुनिसंस्था के नियम सदस्य का एक मल-गुण कहलाया । छट्ठा आवश्यक कायोत्सर्ग है । इसका अर्थ है शरीर का त्याग अर्थात् शरीर से ममत्व छोड़ना। इसके लिये आजकल खड़े होकर कुछ जाप जपने की क्रिया भी प्रचलित है । शरीर से ममत्व छोड़ना अर्थात् अपने स्वार्थ को गौण बना देना, कष्टों से न डरना आदि अच्छी बातें है; परन्तु उसको अलग गिनाने की ज़रूरत नहीं है । वास्तव में समभाव तथा इन्द्रिय-विजय करने से सच्चा कायोन्सर्ग हो जाता है। केशलौंच भी मुनिणे का मूल-गुण माना जाता है । कम से कम दो मास और अधिक से अधिक चार मासमें * साधु को सिर के, दाढी के और मूंछों के बाल उखाड़ डालना चाहिये । स्वेताम्बर सम्प्रदाय में यद्यपि यह मूल-गुणों में नहीं रखा गया है, फिर भी दिगम्बरों के समान उनमें भी यह एक अनिवार्य नियम माना जाता है । साधु कष्टसहिष्णु है कि नहीं, इसकी जाँच के लिये यह मूल-गुण बनाया गया है । कायर लोग साधु-संस्था में न घुस आवें, इसके लिये भी यह मूल-गुण उपयोगी हुआ था। उस समय को देखते हुए इस प्रकार शारीरिक कष्ट सहन उपयोगी समझा गया; परन्तु आज इसकी ज़रूरत नहीं है । सच्ची साधुता शारीरिक कष्ट-सहन में नहीं है, बल्कि इससे तो अनेक गुणहीण व्यक्ति साधु-संस्था में घुस जाते हैं और त्यागी विद्वान् लोग नहीं जा पाते । हाँ, आवश्यकता हो तो यह कष्ट भी सहन किया * बिय तिय चउकमासे लोचो उकस्स मझिम जहण्णो । सपडिकमणे दिवसे उववासेणेव काययो । मूलाचार १-२९ । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४] [जैनधर्म-मीमांसा जाय, परन्तु इससे किसी का कुछ लाभ तो है ही नहीं, तब निरर्थक कष्ट की क्या आवश्यकता है ? हाँ, कष्ट-सहिष्णुता बढ़ाने के लिये काय-क्लेश आदि तप किया जा सकता हैं; परन्तु कायक्लेश तो इच्छानुसार होता है, वह कोई अनिवार्य शर्त नहीं है केशलौंच को मूल-गुण बनाना इस समय बिलकुल निरुपयोगी है । प्रश्न – साधु तो निष्परिग्रह होता है; उसके पास उस्तरा रह नहीं हो सकते और न वे दीनता दिखला सकते हैं जिस से क्षौर कराने के लिये किसी से प्रार्थना करें । इसलिये लौंच के सिवाय उनके पास दूसरा उपाय क्या है ! उत्तर - निष्परिग्रहता का यह अर्थ नहीं है कि वह स्वच्छता के उपयोगी उपकरण भी न रक्खे : खै', यहाँ तो साधुता और अपरिग्रहता की उदार व्याख्या की गई है, इसलिये यह प्रश्न खड़ा ही नहीं होता, परन्तु दूसरी बात यह है कि प्राचीन परम्परा के अनुसार भी क्षौर कर्म में कोई बाबा नहीं आती; क्योंकि जब साधु को पढ़ने के लिये पुस्तकें मिलती हैं, पंहिनने के लिये कपड़े मिलते हैं, व खाने के लिये भोजन और बीमारी में औषध मिलती है, तब क्षौर के लिये एकाच उपकरण न मिले या कोई क्षौर न करा दे, यह कैसे हो सकता है ? जिस प्रकार श्रावक आहार-दान करते हैं, उसी प्रकार क्षौर-दान भी कर सकते हैं, इसलिये अपरिग्रह की ओट में क्षौर का विरोध नहीं किया जा सकता । हाँ, कष्टसहिष्णुता की परीक्षा के नाम पर ही इसका कुछ समर्थन किया जा सकता है, परन्तु आजकल तो वह भी ठीक नहीं है। किसी की इच्छा हो और इस तरह के काय-क्लेश का अभ्यास करना हो तो वह Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसंस्था के नियम ] [२१५ भले ही करे, परन्तु यह न तो मूल-गुणों में रक्खा जा सकता है, न उत्तर- गुणों में । गुण नग्नता - यह दिगम्बर सम्प्रदाय के साधुओं के लिये मलहै । म० महावीर के समय में बहुत से जैन साधु नग्न रहते थे। स्वयं महात्मा महावीर भी नग्न रहते थे, फिर भी उस समय यह मूल-गुण नहीं था । दिगम्बर श्वेताम्बर भेद हो जाने के बाद जब दोनों पक्षों में तनातनी होने लगी, तब से दिगम्बर लोगों ने आवश्यकता से अधिक इस पर जोर दिया और इसे मुनियों के लिये मूळ-गुण बना दिया; और श्वेताम्बरों ने नग्नता का विच्छेद कर दिया । परन्तु मालूम ऐसा होता है कि महात्मा महावीर के समय में दोनों तरह के साधु होते थे । जिन कल्पी साधु नग्न रहते थे और स्थविर-कल्पी वस्त्र धारण करते थे । जिनकल्प और स्थविर - कल्प, ये दोनों शब्द ही कुछ अपना इतिहास बताते हैं । अगर इन शब्दों का सीधा अर्थ किया जाय तो जिनकल्प का अर्थ 'जिनके समान' और स्वविकल्प का अर्थ 'बूढ़ों के समान' होता है । महात्मा महावीर जिन थे, इसलिये जो लोग उनके समान नग्न रहते थे वे जिनकल्ली कहलाते थे और जो लोग स्थविर अर्थात् बूढ़ेपुराने -म० महावीर से भी पहिले के अर्थात् म० पार्श्वनाथ के अनुयायिओं के समान रहते थे अर्थात् वस्त्रधारी थे, वे स्थविरकल्पी कहलाते थे । इससे मालूम होता है कि जैन सम्प्रदाय में भी वेष को इतना महत्व नहीं है । हाँ, जिस प्रकार एक सेना के सैनिकों को एक सरीखी पोशाक पहिनना ज़रूरी समझा जाता है, जिससे वे एक दूसरे को Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] (जैनधर्म-मीमांसा पहिचान सकें और साधारण जनता को भी उनको पहिचानने में सुभीता हो; उसी प्रकार साधु-संस्था में भी कोई नियत वेष (uniform dress) हो तो कोई आपत्ति नहीं है, परन्तु उसे साधुता की अनिवार्य शर्त मान लेना हास्यास्पद है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भी एक वेष नियत है, परन्तु उस वेष को मूल गुण नहीं बनाया गया । और, शास्त्रों में तो वेष की उदारता के प्रमाण दोनों सम्प्रदायों में पाये जाते हैं । अन्तर इतना ही है कि श्वेताम्बर शास्त्रों में उस उदारता का विस्तृत वर्णन है और दिगम्बर शास्त्रों में संक्षिप्त, परन्तु इससे इतना तो मालूम होता है कि दोनों सम्प्रदायों में वेष सम्बन्धी उदारता है । w श्री उमास्वातिकृत तत्वार्थ भाष्य में स्पष्ट लिखा है:"लिंग दो तरह का है, द्रव्यलिंग और भावलिंग | भावलिंग की अपेक्षा से सभी मुनि भावलिंग में होते हैं अर्थात् मुनि तत्व के परिणाम सबमें पाये जाते हैं, परन्तु द्रव्यलिंग की अपेक्षा उनमें भेद है अर्थात् उनका वेप अनेक तरह का हो सकता है" । " द्रव्यलिंग तीन तरह का होता है । अपना लिंग अर्थात् जैन मुनि का वेव, अन्य मुनियों का वेत्र और गृहस्थों का वेष । इनमें से किसी भी वेष से मोक्ष प्राप्त होता है" । + दिगम्बर आचार्य श्री पूज्यपाद के शब्द भी भाष्य से मिलते ★ लिंगं द्विविधं द्रव्यलिंगं मावलिंगं च । मावलिंग प्रतीत्य सबै पच निर्मन्था मावलिंगे भवन्ति द्रव्यलिंगं प्रतीत्य भाव्याः । तत्वार्थमान्य ६-४९ । 1 द्रव्यलिंगं त्रिविधं स्वलिंग, अन्यलिंगं गृहिलिंग इति तत्प्रति भाव्यम् । १०-७ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम ] [२१७ जुलते हैं । और इन्हीं के शब्द आचार्य अकलङ्क देव ने भी ज्यों के त्यों उद्धृत किये हैं"भावलिंग की अपेक्षा से पाँचों ही निर्भय होते हैं, द्रव्य उनमें भेद है । लिंग की अपेक्षा से इस प्रकार दोनों सम्प्रदारों में नियत बेन को कोई महत्व नहीं है। दोनों ही सम्प्रदाय, वेष का साबुता के साथ कोई घनिष्ट सम्बन्ध नहीं बताते । यद्यपि पीछे से दुराग्रहद्रा वेष की कट्टरता भी आ गई है, परन्तु इस कतारूपी धूलि के नीचे उदारता की चमक बिलकुल साफ मान होती है | दिगम्बराचार्य श्री कुंदकुंद इसीलिये कहते हैंI "भाव ही वास्तव लिंग है, द्रव्य-लिंग वास्तविक लिंग नहीं है, क्योंकि गुण और दोपों का कारण नाव ही हैं ।' है कि जहाँ समभाव है वहीं साधुता " कहने का मत हैं, फिर भले ही वह नम रहता हो या कपड़े पहनता हो, जेन वेष में रहता हो वा अन्य किसी वेष में, साधु का वेष रखता हो या गृहस्थ का । उणध्याय श्री यशोविजय ! का कहना इस विषय में बहुत ही ठीक है * भावलिंगं प्रपंच निवलिपिनो भवन्ति द्रव्य किं प्रतत्यि भाज्याः सर्वार्थसिध्दि ९-४७ राजार्तिक ९-४७-४ | दवा च जाप परमत्थं । भावी कारणभूदो भावीय पदम गुणदोसाणं जिणा विति भावात + अन्यलिंगादि सन्दान समतंत्र रित्रय फलप्राप्तेर्यया स्याद्वा जैनता । अध्यानसार मताधिकार ५० Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] [ जैनधर्म-मीमांसा " जैन लिंग को छोड़कर अन्य लिंग-दंड, कमण्डलु, त्रिदंड आदि-से जो लोग मुक्ति प्राप्त करते हैं उसका कारण समभाव ही । इसीसे रत्नत्रय का फल प्राप्त होता है जिससे सच्चा जैनव मिलता है ! " वेज की उदारता के - दिगम्बर सम्प्रदाय में- प्रमाण तो मिलते ही हैं, परन्तु प्रवृत्तिरूप में भी यह उदारता आ चुकी है । भट्टारक लोग - जो कि शाही ठाटबाट से रहते थे और अब भी रहते हैंदिगम्बर ही माने जाते हैं, और उनमें कई तो अपने को कट्टर दिगम्बर समझते थे और हैं वेष की उदारता का यह प्रबल प्रमाण है, साथ ही इसमें कुछ अतिरेक भी है जो कि आवश्यकताव करना पड़ा था। क्या ही अच्छा होता यदि यह उदारता उसी समय आ गई होती जब कि दिगम्बर, श्वेताम्बर नाम के दो संघ पैदा हुये थे । व्यावहारिक उदारता के कुछ नमूने और भी पेश किये जा सकते हैं। जब नग्न मुनियों को देखकर लोग उपद्रव करने लगते थे, तब उनके आचार्य चटाई वगैरह लपेटने की आज्ञा दे देते थे, अथवा कभी कभी जब कोई प्रभावशाली व्यक्ति मुनि होना चाहता था, किन्तु पुरुष चिन्ह वगैरह में दोष होने से वह लज्जित होता था, अथवा ठंड वगैरह नहीं सह सकता था तब उसके लिये दिगम्बर मुनि होते हुए भी नग्नता की शर्त उठा ली जाती थी । * कलो किल नग्नं दुष्ट्वा उपद्रवं यानी कुर्वन्ति तेन मण्डपदुर्गे श्री वसन्तकीर्तिना स्वाभिना चर्यादिवेलायां तसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम ] [२१९ इससे इतना तो मालूम होता है कि न तो दिगम्बर सम्प्रदाय में वेष की एकान्तता थी, न श्वेताम्बर सम्प्रदाय में । व्यावहारिक उदारता भी दोनों सम्प्रदायों में रही है तथा वास्तविक साधुता का नग्नता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, इसलिये नग्नता को मूल-गुण में स्थान नहीं मिल सकता | नम्रता हरएक सम्प्रदाय में रही है, परन्तु किसी सम्प्रदाय के लिये अनिवार्य नियम बना लेना ठीक नहीं है ! साथ ही इस बात का ख्याल रखना चाहिये कि इससे किसी को कष्ट न हो । जहाँ नग्नता का रिवाज़ मृतप्राय हो वहाँ नग्न रहकर स्वतंत्र विहार करना महिलाओं के साथ अन्याय करना है। 1 प्रश्न- जब नग्न बच्चों को देखकर त्रियों को बुरा नहीं मालूम होता, और पशुओं को देखकर भी बुरा नहीं मालूम होता तत्र मुनियों को देखकर बुरा क्यों मालूम होगा उत्तर- जिस प्रकार छोटे छोटे बालकों और बैलों को नग्न देखकर स्त्रियों को बुरा नहीं मालून होता, उसी प्रकार छोटी छोटी बालिकाओं और गायों को नग्न देखकर पुरुषों को बुरा नहीं मालूम होता, तब क्या इसी आधार पर यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार पुरुष नग्न-साधु बनकर स्त्रियों के सामने निकलते हैं उसी प्रकार स्त्रियाँ भी नम साध्वी बनकर पुरुषों के सामने निकला करें । यदि नग्न स्त्रियों को पुरुष सहन नहीं कर सकते तो नग्न पुरुषों को कृत्वा पुनस्तन्मुखतीत्युपदेशः कृतः संयमिनां इत्यपवाद वेत्रः । तथा नृपादिवगोत्पन्नः परम बेंगग्यवान् लिंगशुद्धिरहितः उत्यन्नमेहन टदोषः लखावान् वा शता सहिष्णुर्वा तथा करोति सोध्यपवादः प्रोच्यते । दर्शन नाभृत टीका-२४ । . Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० [जैनधर्म-मीमांसा स्त्रियाँ कैसे सहन कर सकती हैं ? खेर, किसका नग्न दर्शन आपत्तिरहित है, और किसको नहीं-इस विषय की संक्षेप में मनोवैज्ञानिक मीमांसा कर लेना चाहिये । ___बात यह है कि जिन के मिन चिन्हों को देखकर रतिकर्म की अत्यधिक स्मृति होती है, उनको देखने का त्याग कराया जाता है । पशुओं के माय मनुष्य का कोई लैंगिक सम्बन्ध न होने से उनको नग्न देखकर के भी हमारी वह स्मृति जागृत नहीं होती या अत्यल्प जागृत होती है, इसलिये पशुओं की नग्नता विचारणीय नहीं है । बालक के विषय में भी यही बात है । पशुओं में जहाँ जातीय विषमता है, बालकों में वहाँ परिमाण लघुना से विषमता है । यह विषमता रति-कर्म की स्मारकता को शून्य-प्राय कर देती है, इसलिये पशु और बालकों की नग्नता असह्य नहीं होती। साधु के विषय में यह बात नहीं कही जा सकती । वह भले ही वीतराग हो, परन्तु उससे उसके अङ्ग नी मिट जाते, उनकी स्मारकता नहीं चली जाती। प्रश्न-नग्नता का प्रश्न सिर्फ वेग का ही प्रश्न नहीं है, किन्तु निष्परिग्रहता का भी प्रश्न । मुनि को पूर्ण अपरिग्रही होना आवश्यक है, जब कि कपड़ा रखने से पूर्ण निष्परिग्रहता का पालन नहीं हो सकता । . उचर-अपरिग्रह-व्रत का विवेचन पहिले इसी अध्याय में किया जा चुका है । उससे मालूम हो जाता है कि अगर आसक्ति न हो, संग्रह करने की वासना न हो तो 'कपड़ा' परिग्रह नहीं कहला सकता । अनासक्ति की अवस्था में कपड़ा' दया तथा खाम्य Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम रक्षा का उपकरण है । नग्न देखकर दूसरों की कोई कष्ट न हो-इस प्रकार की दया से अंग ढकने लायक कपड़ा रखना 'कपड़े' को दया का उपकरण बनाना है, तथा शातादि कष्ट से स्वास्थ्य नष्ट न हो जाय-इस विचार से 'कपड़।' स्वास्थपकरण बनता है । मुनि को शरीर की पर्वाह नहीं होती, इसका यह मतलब नहीं है कि वह आवश्यकता के बिना भी स्वास्थ्य नाश करता है । कर्तव्य के लिये शरीर का उत्सर्ग करना या उसकी पर्वाह न करना एक बात है और व्यर्थ ही कष्ट सठ ना- दूसरी । इस. दूसरी बात से अपरिग्रह का कोई सम्बन्ध नहीं है, बल्कि व भी कभी विवेकशून्यता तथा हठग्राहिता के कारण इसका सम्बन्ध मिथ्यात्व से हो जाता है। किसी चीज का उपयोग करने से ही वह परिग्रह नहीं हो जाती। नहीं तो जमीन पर चलने से जमीन भी परिग्रह हो जाय । इसी प्रकार भोजन करने से अन्न और जल भी परिग्रह हो जाय । आ. सक्ति होने पर शरीर भी परिग्रह है । भावलिंग के वर्णन में शरीर को भी परिग्रह कहा है और सच्चा साधु बनने के लिये शरीर के त्याग का * भी उपदेश है । परन्तु शरीर का त्याग कर देने पर वह जीवित ही कैसे बचेगा ! इसलिये शरीर त्याग का मतलब उस से ममत्व अर्थात आसक्ति का त्याग है । कर्तव्य मार्ग में शरीर-प्रेम * देहादि संग राहओ माण कसा सयकारीतो अप्पा अप्पम्मि रओ स मावलिंगी हवे साह। -भावप्राभूत ५६ । देहो नाहिरगन्धो अपणो अक्खाण विसय अहिलासो। तसिं चाए खबओ परमत्थ हबइ णिगंयो । -आराहगासार । ३३. : Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ 1 जैनधर्म मीमांसा बाधक न बन जाय, यही भावना शरीर की अन्मसक्ति है। कपड़े के विषय में भी यही भावना रखते हुए उससे स्वास्थ्य-रक्षा आदि करना चाहिए। • अगर नग्नता को निष्परित्रहता का अनिवार्य चिन्ह बना लिया जाय तो साइबीरिया आदि देशों में साधु-संस्था का खड़ा करना असंभव हो जायगा । काश्मीर आदि में भी शीतऋतु में नग्न र कठिन है । वहाँ नग्न रहने से शीघ्र ही स्वास्थ्य खराब हो जायगा । तब वह आत्मोपकार और अगरसेवा करने के बदले आत्मापकार करेंगा तथा दूसरों से सेवा - करायगा, इसलिये नग्नता के लिये एकान्त आग्रह न रखना चाहिये। .. नग्न वेष की उचित कहा जा सकता है, जहाँपर नग्न रहने की प्रथा खूब फैल गई हो, स्त्री-पुरुष, नग्न रहने लगे हो, अथवा वल इतने दुर्लभ हो गये हों, कि लंगोटी. लगाने से भी समाज के ऊपर बोझ पड़ता हो, आदि । द्रव्य क्षेत्र काल-भाव के अनुसार इसका निर्णय कर लेना चाहिये, परन्तु नग्नता के बिना साधुता नहीं रह सकती यह एकान्त आग्रह कद्रापि न रखना चाहिये, इसलिये नग्नता को मूल-गुण नहीं माना असकृता ।। ...... अस्नान और अंदतमणः- मान नहीं करना और दतान नहीं करना, ये भी मूलगुण में शामिल समझ जाते हैं । दाई हजार वर्ष पहिले मुनियों के लिये सम्भवतः इस व्रत की जरूरत दुई होगी, परन्तु आज इसकी बिलकुल आवश्यकता नहीं है। यह भी सम्भव है कि दिगम्बर, श्वेताम्बर द हो जाने के बाद ही • इन्हें मूलगुण में स्थान मिला हो। तार सम्प्रदाय में मलगुणों में Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसंस्था के नियम ] [ २९३ इनका नाम नहीं है, यद्यपि पार्टने तो उनके यहाँ भी होता है । स्नान से स्वच्छता आती है और कभी कभी स्वच्छता से शृङ्गारी भाव पैदा हो जाते हैं तथा इससे वस्त्र पात्र का परिमाण भी बढ़ाना पड़ता है, इसलिये यह नियम बनाया गया था । उस समय साधु भी जंगल के स्वच्छ वातावरण में रहते थे, इसलिये अस्नान की स्वास्थ्य सम्बन्धी हानियाँ न खटकती थीं, परन्तु आज वे लटकती है । मलिनता से कृमि आदि पैदा होते हैं, दुर्गंध पैदा होती है जो अपने को और दूसरों को निरर्थक कष्ट देती है, इसलिये स्नान करना आवश्यक है । दंतवन तो और भी अधिक आवश्यक है । अगर पशु की तरह रूक्ष आहार लिया जाय, भूख से अधिक न खाया जाय तो यों भी दाँत साफ रह सकते हैं । सम्भवतः इसी आशय को लेकर यह व्रत बनाया गया हो, जिससे लोग दुर्गंध के भय से बहुत कीमती : आहार लेकर समाज पर अधिक बोझ न डाले; परन्तु उसका असली उद्देश्य तो नष्ट हो गया, सिर्फ़ बाहिरी किया बच्ची रही। ड्रोनन करने का व्रत उन्हीं को पालन करना चाहिये जिनके दाँत दान करने पर भी स्वच्छ रह सकते हों । जिनके दाँतों में स्वच्छता नहीं रह पाती, दुर्गंध आती है, उनको दाँत साफ करना ही चाहिये । · कहा जाता है कि दाँत साफ़ करने से दाँतों के कीड़े मरते हैं। यदि ऐसा है तब तो दाँत अवश्य साफ करना चाहिये अन्यथा दाँतों के कीड़े धीरे धीरे इतनी अधिक संख्या में वहाँ अड्डा जमा लेंगे कि थोड़ी-सी भी हरकत से वे मरेंगे, हिंसा किये बिना दाँतों को हिलाना भी मुश्किल होगा। इसलिये यह अच्छा है कि निरन्तर " ** Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] [जैनधर्म-मीमांसा की इस महान हिंसा से बचने के लिये प्रारम्भ में थोड़ी-सी हिंसा कर ली जाय । यह विवेक पूर्ण अहिंसा ही कहलायगी । इस दृष्टि से उपवास के दिन भी दैनौन करना उचित है । - भू-शयन -जमीन पर सोना भी एक मूल गुण है । साधु की कष्ट-सहिष्णुता तथा निष्परिग्रहता को बढ़ाने के लिये तथा आरामतलबी को दूर करने के लिये यह निय। बनाया गया था। अपने समय के लिये यह बहुत उपयोग या, और अमुक अंश में आज भी उपयोगी है । उस समय साधु-संस्था को परित्राजक अर्थात् भ्रमणशील बनाना ज़रूरी था, इसलिये अगर भू-शपन का नियम न होता तो मुनि लोगों के सिर पर सामान का ? ना बोझ हो जाता कि वे स्वतंत्रता में भ्रमण नहीं कर सकते थे, इसलिये भक्तों को उनके साथ नौकर-चाकर रखना पड़ते, रास्ते में अगर कोई बिस्तर चुरा लेता तो बेचारे मुनियों की गति ही रुक जाती, इसलिये यह नियम बनाकर बहुत अच्छा किया गय! । परन्तु आज गमनागमन के साधन बदल गये हैं तथा मुटभ हो गये हैं, उप्त की आवश्यकता भी बढ़ गई है, साथ ही वस्त्रादि का उत्पादन भी बढ़ गया है । सेवा करने के तरीके भी बदल गये हैं । इसलिये यह व्रत सिर्फ अभ्यास के लिये ही रखना चाहिय. मल-गुण में डालने लायक नहीं है । हाँ, साधु में इतनी मानसिक सहन शक्ति अवश्य होना चाहिये कि वह आवश्यकता पड़ने पर सन्तोष के साथ भू-शयन कर सके। खड़े आहार लेना--यह भी एक मूल-गुण समझा जाता है । जब साधु नग्न रहता था, 'पात्र नहीं रखता था, और श्रावक Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम ] [२२५ के यहाँ भोजन लेता था और स्नान नहीं करता था, तब उसके लिये यह उचित था कि वह खड़े-खड़े आहार ले; क्योंकि बैठकर आहार लेन पर अन्न से उसका शरीर भिड़ जायगा, जिसके लिये उसे स्नान करना पड़ेगा, इसलिये जिन-कल्पी साधु के लिये यह नियम उचित था । परन्तु जब नग्नता आदि के नियम आवश्यक न रहे, न अस्नान-वत रहा, तब खड़े आहार लेने की कोई जरूरत नहीं रही। आजकल यह बिलकुल अनावश्यक है। एक ही बार भोजन लेना--यह नियम है तो अच्छा, फिर भी भूल-गुण में रखने लायक नहीं है, क्योंकि एक ही बार भोजन करने से जहाँ एक तरफ स्वास्थ्य-हानि है, वहाँ दुसरी तरफ़ स्वास्थ्य-हानि के साधनों की कमी नहीं होती । एकभुक्ति से यह समझा जाता है कि मनुष्य कम खायगा । परन्तु, जब सदा के लिये यह नियम बन जाता है तब कम खाने की बात निकल जाती है, एक ही बार में दो बार का भोजन पहुंच जाता है । अपथ्य और अजीर्ण की सारी शिकायतें ज्यों की त्यों हो जाती हैं, बल्कि दूसरी बार भोजन न मिलने की आशा से ज़रूरत से ज्यारा भी हँस लिया जाता है | अजीर्ण आदि रोकने के लिये एक मुक्ति का नियम बिलकुल व्यर्थ है। यह बात तो खानेवाले की इच्छा परं निर्भर है कि वह अजीर्ण से बचा रहे। हाँ, भोजन की लोलुपता को रोकने में थोड़ी बहुत सहायता मिल सकती है, परन्तु वह भी इच्छा पर निर्भर है, अन्यथा एक भुक्ति में भी रसना-इन्द्रिय की आज्ञा के अनुसार मनमाना नाच किया जा सकता है, इसलिये एकभुक्ति को मूल-गुण बनाना Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ ] [जैनधर्म-मीमांसा उचित नहीं । हाँ, समय की बचत के लिये यह शिक्षा-त्रत के स्थान पर रक्खा जा सकता है । उसमें पानी की तथा औषध की छुट्टी सदा के लिये होना चाहिये। बीच में आवश्यकता होने पर भी पानी पीने से स्वास्थ्य को धक्का लगता है । इससे अपने कर्तव्य में हानि होती है और दूसरों की परेशानी बढ़ती है, इसलिये पानी न रोकना चाहिये । उपवास में भी पानी पांना उचित है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में जो २७ मूल-गुण कहे गये हैं, उन में दो तरह के पाठ है । पहिले समवायांग के पाठ के अनुसार अहिंसादि पाँच व्रत दोनों सम्प्रदायों में हैं जिनको मैंने यहाँ भी स्वीकार किया है। सिर्फ उनकी व्याख्या समयानुसार की है । पाँच इन्द्रिय-विजय के विषय में मी कह चुका हूँ । बाकी मूल गुण कुछ अव्यवस्थित, पुनरुक्त और अस्पष्ट मालूम होते हैं। क्रोध-मानमाया-लोम के त्याग को चार मूल-गुण माना है, परन्तु ये ऐसी बातें है जिनका निर्णय करना कठिन है, बल्कि यों कहना चाहिये कि इनको दूर करने के लिये तो साधु-संस्था में प्रवेश है। फिर इनको मूल-गुण में रखने का क्या मतलब ! आगे तीन तरह के सत्य, तीन मुल- गुण माने गये हैं । उनमें भाव-सत्य का अर्थ है - अन्तरात्मा को शुद्ध रखना । इसके लिये तो चारित्र के सोर नियम हैं, फिर इसको मूल-गुण बनाने की जरूरत क्या है, अथवा सिर्फ इसे ही मूल-गुण बना लेना चाहिये और बाकी मूलगुणों को दूर कर देना चाहिये । करण-सत्य का अर्थ है, सफाई आदि का कार्य सतर्कता से करना । पहिले समितियों का जो वर्णन Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम [२२७ किया है उनमें इसका समावेश हो जाता है । समितियों को मैंने मूल-गुण में नहीं रखा है, इसलिये यह भी मुल-गुण में शामिल न कहलाया । योग-सत्य अर्थात् मन-वचन-कार्य की सचाई । यह भी एसा - मलगुण है जो किसी विशेषता की तरफ संकेत नहीं करता, अथवा माया-कपाय के त्याग में इसका समावेश हो जाता है । क्षमा को अलग स्थान दना मी ठीक नहीं है । यह ता क्रोध-व्याग में आ जाता है । यद्यपि इन दोनों में भेद बतलाने की कोशिश की गई है कि काध को पैदा न होने देना क्षमा है और पैदा हुए क्रोध को रोक दना- प्राध-विवेक है। परन्तु इस प्रकार के सूक्ष्म अन्नर की कल्पना करक, तथा क्षमा की व्यख्या को संकुचित करके मरगुणों की मरूपा बढ़ाना ठीक नहीं है। इसी प्रकार का मूल अन्तर अन्य मूलगुणों में भी बताया जा सकता है, परन्तु वा निरर्थक क्लिट कल्पना है । ज्ञानयुक्तता-को अवश्य हो मुन्द्रगुण में स्थान दिया जा सकता है, क्योंकि बिना ज्ञान के समाज-सेवा नहीं की जा सकती। साधु-संस्था में बहुत से मूढ़ अक्षर-शत्र घुस जाते हैं, इसलिये ज्ञानयुक्तता को अवश्य ही मूलगुणों में रखना चाहिये। ज्ञानयुक्तता का यह अर्थ नहीं है कि संस्कृत, प्राकृत, इंग्लिश, अरबी, फारसी का जानकार हो जाय, या किसी विषय का जीता जागता शब्दकोष या पद्य-कोष बन जाय; किन्तु जिसमें समझदारी हो, विवेक हो, कर्तव्याकर्तव्य का दूसरों को भान करा सकता हो-वह ज्ञानयुक्त है । इस विषय का माध्यम देशकाल के अनुसार बदलता रहेगा । जहाँ स्त्री-शिक्षा का कम प्रचार Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] [जैनधर्म-मीमांसा हो, वहाँ बितनी शिक्षा से किसी स्त्री को विदुषी कहा जा सकता है, उतनी ही शिक्षा से किसी को विद्वान नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार जंगली जातियों में या पिछड़ी हुई जातियों में जितने शिक्षण से कोई विद्वान कहलाता है उतने से शिक्षण में समुन्नत जाति या देश में कोई विद्वान नहीं कहला सकता । ज्ञानयुक्तता का अर्थ करते समय यह दृष्टि-बिन्दु. ध्यान में रखना चाहिये । मतलब यह है कि साधु-संस्था में ऐसे अयोग्य आदमी न आ जाना चाहिये जिनके ज्ञान की योग्यता साधु-संस्था के कर्तव्य का बोझ न उठा सकती हो । आवश्यकता होने पर उसे उम्मेदवार के तौर पर रख सकते हैं । साधु-संस्था को कोई खास सहायता की आशा हो और कोई प्रभावशाली आदमी प्रवेश करना चाहता हो और इस नियम के अपवाद की आवश्यकता हो तो अपवाद भी किया जा सकता है। दर्शनयुकता-भी मूलगुण में रखने योग्य है; क्योंकि सम्यदर्शन के बिना सम्यकचारित्र नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन का विस्तृत विवेचन पहिले किया गया है। परन्तु यहाँ पर जिस अंश पर जोर देना है, वह है समभावं । साधु को समभावी अर्थात् सर्व-धर्म-समभावी होना चाहिये । साम्प्रदायिक पक्षपात न हो, अथा उसे सत्य का ही पक्ष हो, किसी सम्पदाय विशेष का नहीं। साधु अर्थात जिसे विश्वमात्र की सेवा की साधना करना है, वह समभावी हो-यह आवश्यक है। प्रश्न-जिन सम्प्रदायों में अहिंसा सदाचार आदि का मल्य Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम (२२९ नहीं है और जिनमें उन्नति के तत्व अधिक मौजूद हैं उनमें समभाव अर्थात् एक-सा भाव कैसे रक्खा जा सकता है ! . . उत्तर-उन्नति के लिये उपयोगी तत्वों की अपेक्षा से न्यूनाधिकता हो सकती है, परन्तु जिस समय जो धर्म उत्पन्न हुआ था, उस समय की परिस्थिति के अनुसार विचार करने पर धों के व्यक्तित्व की तस्तमता बहुत कम हो जाती है । फिर भी जो न्यूनाधिकता हो उसकी हम आलोचना कर सकते हैं । परतु इसमें पूर्ण निःपक्षता और सहानुभूति होना चाहिये । सत्य-असत्य के विवेक को छोड़ने की ज़रूरत नहीं है परन्तु धर्म की ओट में आम-प्रसंशा या : आत्मीय-प्रशंसा और पर निन्दा या परकीय की निन्दा को छेड़ने की ज़रूरत है । और साधु के लिये तो यह अत्यावश्यक है। चारित्रयुक्तता को मूलभगुण बनाने की ज़रूरत नहीं है; क्योंकि पहिले जो मूल-गुण बताये गये हैं वे सब चारित्र ही हैं। अहिंसा आदि व्रत भी चारित्र हैं । इसलिये चारित्रयुक्तता से किसी विशेष गुण का या कर्तव्य का ज्ञान नहीं होता, इसलिये मूल-गुणों की नामावली में इसका नाम नहीं रक्खा जा सकता। __ वेदना सहन करना, मरणोपसर्ग सहन करना-आदि अच्छी बातें हैं । साधु में साधारण लोगों की अपेक्षा कुछ कष्ट-सहिष्णुता अवश्य होना चाहिये, परन्तु इन दोनों को अलग अलग मूल-गुण नहीं कहा जा सकता । हाँ, दोनों के स्थान पर कष्ट-सहिष्णुता नाम का मूळ-गुण रक्खा जा सकता है । परन्तु, इसकी स्पष्ट व्याख्या नहीं हो सकती; क्योंकि इसका सम्बन्ध मन और शरीर दोनों से Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०] [जैनधर्म-मीमांसा है। मल-गुणों में मानसिक सहिष्णुता कोही स्थान दिया जा सकता है । शारीरिक सहिष्णुता पर साधु का क्य! वश है। शरीर की कमजोरी से बाहर की छोटी-सी चोट अधिक कष्ट पहुँचा सकती है और दूसरे को शरीर की दृढ़ता से बड़ी चोट भी इतना असर नहीं पहुंचा सकती । शारीरिक शक्तियों की इस विषमता से इसका निर्णय करना कठिन है कि किसमें कितनी कष्ट-सहिष्णुमा हैं। आखिर कष्ट-सहिष्णुता की भी सीमा है, इसलिये इसका निर्णय और भी कठिन है। फिर भी साधारणतः कष्ट-सहिष्णुता का उल्लेख करना जरूरी है, जिससे साधु में आरामतलबी आदि दोष न आ पावे, तथा आवश्यकता होने पर उसका ध्यान इस तरफ आकर्षित किया जा सके। स्वताम्बर सम्प्रदाय में सत्ताईस मूल-गुणों का जो दूसरा पाठप्रवचनसारोदारका है, उसमें भी इसी प्रकार की अस्तव्यस्तता तथा पुनरुक्ति पाई जाती है । उमका - यह दोष नामावली से ही स्पष्ट हो जाता है, इसलिये उनका विवेचन करने की कोई ज़रूरत नहीं है। सिर्फ दो बातों का विचार करना है। एक तो छः काय के जीवों की रक्षा, दसेर व्रत में रात्रि भोजन स्याम । इस में से छः काय के जीवों की रक्षा को मुल-गुणों में शामिल नहीं कर सकते क्योंकि पृथ्वी, पानी, अग्नि आदि की रक्षा के सूक्ष्म नियम आज आवश्यक है । तथा कभी कभी तो वे सेवा को रोकते है अनावश्यक असुविधाएँ पैदा करते हैं । इसके अतिरिक्त इनमें जीवन है कि.नहीं, यह बात भी अभी तक असिद्ध कोटि में है । सम्भव है कि भविष्य में इनमें जीवन सिद्ध हो सके, परन्तु अभी तो Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम इसकी सम्भावना कम ही है ! और जब इनमें जीवन सिद्ध भी होगा तब भी इनका जीवन इतना अल्प मूल्य होगा कि उनकी रक्षा को एक गुण बनाना अनावश्यक ही रहेगा । हाँ, वनस्पतिकाय और प्रस-काय की रक्षा विचारणीय है। परन्तु, आहिंसावत के विवेचन में जितना वर्णन किया गया है उससे अलग इसका कोई स्थान नहीं रहता । तात्पर्य यह है कि छ: काय की रक्षा का बत अहिंसा-बत में आ जाता है । उससे अधिक को मल-गुण में लाने की कोई जरूरत नहीं है। रात्रिभोजनत्याग----इस नये पाठ में रात्रि भोजन त्याग को मिलाकर अहिंसादि व्रत बनाये गये हैं। दिगम्र सम्प्रदाय के पाठ में और श्वताम्बर सम्प्रदाय के प्रथम पाठ में रात्रि भोजनस्याग का उल्लेख नहीं है। इससे यह तो माल्म होता है कि प्रारम्भ में मुनियों के लिये रात्रि भोजन का त्याग अनिवार्य नहीं था। परन्तु रात्रि में यन्नाचार से चलना मुश्किल था, इसलिये रात्रि में भिक्षा भी नहीं ली जा सकती थी, इसलिये रात्रि भोजन ठीक नहीं समझा गया। रात्रि भोजन में समिति आर एपणासमिति का ठीक ठीक पालन न हो सकन से रात्रिभोजन का यथाशक्य निषेध किया गया। फिर भी प्रारम्भ में इस निषेध ने मूलगुण का रूप धारण नहीं किया। थोड़े समय बाद मुनियों के लिये यह स्वतन्त्र व्रत मान लिया गया। दशवकालिक में यह स्वतन्त्र व्रत • अहावरे छठे मन्ते वए राइमायणाओ बेरमणं । "इयाई पञ्च महब्बयाई गइभोयणवेरमण छटाई अन्तहियट्टयाए उब संपब्जिताणं विहामि । ४६ । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " .. २३२] [जैनधर्म-मीमांसा के रूप में मिलता है । दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख हुआ है, परन्तु यह वहाँ उट्टे अणुव्रत के रूप में प्रचलित । हुआ है। इस प्रकार जब यह श्रावकों के लिये व्रत बन गया, तब मुनियों के लिये हो, यह स्वाभाविक है । मूलाचार में यह : व्रत की रक्षा के लिये : उपयोगी बताया है । सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक में कहा है कि यह अहिंसावत की भावना में शामिल है । परन्तु यह बात मूलाचार के विरुद्ध मालूम होता है । मूलाचार में पाँच व्रतों की रक्षा के लिये रात्रि भोजन त्याग, आठ प्रवचनमाताएँ, और पच्चीस भावनाएँ* बताई गई हैं। अगर आलोकितपानभोजन मावना में रात्रि भोजनत्याग शामिल होता तो मलावार में रात्रि. मोजन को भावनाओं से अलग न. बताया होता । दूसरी बात यह है कि भावना तो भावना है, विचार है । वह पका नियम नहीं है। यों तो सत्यव्रत की भावनाओं में क्रोध, लोभ का भी त्याग बताया है, परन्तु इसीलिये किसी को थोड़ा बहुत क्रोध आ जाय तो उसका व्रत भंग नहीं माना जा सकता । सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिककार उसे खींचतान करके व्रतों में शामिल करने हैं। इस विवेचन का सार यही है कि रात्रि भोजन त्याग पहिले www.mmmmmmimmmmmmmmmmmmmmmwwwwwwwmmmmmmmm कचित्तुराज्य भोजनमपि अगुव्रतमुच्यते । सागारधर्मामृत । व्रतत्राणाय कर्तव्यम् रात्रिमोजन वर्जनम् । सर्वयान्नान्निवृस्तत्प्रोक्तं. षष्ठमणुव्रतम् । ५-७० आचारसार । रात्रिभोजन विरमगं षन्ठमणुव्रतम्। चरित्रसार । । तेसिंचव वयाणं रक्खलु रादिभोयणणियति । मूलाचार २९५। . * गाथा २९। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुनिसंस्था के नियम ] [२३३ मूलगुणों में नहीं था, पीछे उसकी आवश्यकता मालूम हुई और TE भावनाओं के रूप में या स्पष्ट रूप में व्रत बना लिया गया । परन्तु, अगर मुनियों के लिये ही यह व्रत रहता और श्रावकों के लिये न रहता तत्र बड़ी अड़चन होती; क्योंकि मुनियों को तो श्रावकों से भोजन मिलता था -- और भोजन भी वह जो श्रावकों ने अपने लिये बनाया हो -तत्र मुनियों को रात्रि में भोजन करना पड़ता या शाम का भोजन बन्द रखना पड़ता । यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदाय में शाम का भोजन नहीं होता है, परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह प्रचलित है, और इसमें कोई बुराई नहीं मालूम होती । दिन के दो भोजन गिनने का रिवाज दिगम्बर श्वेतावरदानों में एक सरीखा है । बेला, तेला आदि के लिये जो शब्द प्रचलित हैं उनसे भी यह बात ध्वनित होती है । लगातार दो उपवास करने को छट्ट कहते हैं । छट्ट का सीधा अर्थ यही है कि जिसमें छट्ठा भोजन किया जाय, अर्थात् पाँच भोजन बन्द किये जॉय । एक आज के शाम का आर दा कल के और दो परसों के, इस प्रकार पाँच भोजन बन्द करने पर हट्ट होता है । इस अर्थ में प्रतिदिन के दो भोजन मान लिये गये हैं । छट्टु आदि शब्दों का यह अर्थ उनके इतिहास पर प्रकाश डालकर दिन के दो भोजन सिद्ध करता है। खैर, दिन में दो भोजन हो या एक, परन्तु श्रावकों में रात्रि भोजन का प्रचार रहने पर सुबह के भोजन की व्यवस्था भी बिगड़ जाती है । जो लोग रात्रि में भोजन करेंगे, वे दिन के पूर्वार्ध का भोजन जल्दी नहीं कर सकते, वे ग्यारह - बारह बजे तक भोजन करेंगे। उस समय साधु के सामायिक आदि का Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ ] [ जैनधर्म-मीमांसा I समय आ जाता है, इसलिये साधु के लिये भिक्षा का उचित समय 'पोरस' बताया गया था । यह समय करीब दस बजे के पहिले ही व्यतीत हो जाता है और गरमी के दिनों में तो नै। या उससे भी पहिले निकल जाता है । रात्रिभोजन त्यागी के घर में इस समय निरुद्दिष्ट भोजन नहीं मिल सकता । इन सब कठिनाइयों से यह आवश्यक मालूम हुआ कि साधु के सम्मान श्रावक भी रात्रि भोजन का त्याग करें । शताब्दियों के प्रयत्न के बाद इस विषय में आशातीत सफलता मिली और साधु-संस्था की कठिनाई हल हुई । इसमें सन्देह नहीं कि दिवस- भोजन की अपेक्षा रात्रि - भोजन कुछ हीन श्रेणी का है । और पुराने जमाने में जब कि आजकल सरीखे साधन नहीं थे, ख़ासकर इस गरम देश में तो रात्रि-भोजन स्याग की बहुत आवश्यकता थी । रात्रि-भोजन का त्याग कर देने से रात्रि के लिये निराकुलता भी रहती है । आरोग्य की दृष्टि से भी रात्रि - भोजन, दिवस भोजन ठीक नहीं है । की अपेक्षा इतना सब होते हुए भी रात्रि-भोजन त्याग को मूलगुण नहीं रख सकते; क्योंकि आज यहाँ मुनिसंस्था के नियम ही बदल दिये गये हैं, इसलिये पुरानी असुविधाओं में से कुछ असुविधाएँ तो यों ही निकल जाती हैं । अब न तो भिक्षावृत्ति को अनिवार्य रखना है, न रात्रि-गमन का निषेध | इसलिये रात्रिभोजन त्याग कि अनिवार्यता नहीं रह जाती । 1 * जिस समय अपने शरीर की छाया अपने शरीर के बराबर ही लम्बी हो, उसको 'पोरस' का समय कहते हैं। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३५ फिर भी साधु-संस्था में साधारणतः रात्रि भोजन की मनाई मुनिसंस्था के नियम ] रहे, परन्तु निम्नलिखित अपवाद रहें: -- १ - बीमारी के कारण रात्रि में औषध लेना । २- पानी पीना या आवश्यकतावश फलाहार करना । ३ - प्रवास या किसी सेवा कार्य के कारण अगर दिन में मौका न मिला हो, और रात्रि में फलाहार वगैरह की सुविधा न हो तो भोजन करना | मतलब यह कि साधारणतः दिन में भोजन करने का नियम रखना चाहिये और किसी ख़ास ज़रूरत पर रात्रि-भोजन करना चाहिये । शीत-प्रधान देशों के लिये तथा जहाँ पर लम्बी लम्बी रात्रियाँ होती है, वहाँ के लिये रात्रि - भोजन त्याग का नियम इतना भी नहीं बनाया जा सकता । शङ्का - भोजन न करके फलाहार करना तो और भी अनुचित है, क्योंकि इसमें खर्च बढ़ता है । इसकी अपेक्षा सूवे चने खा लेना अच्छा है । समाधान - निःसन्देह सूखे चने खाने में और फलाहार में कोई अन्तर नहीं है, किन्तु चना खाकर 'चने की रोटी' भी खाई जाने लगती है; इसके बीच में मर्यादा बाँधना मुश्किल है । अन्न और फल के बीच मर्यादा बँधी जा सकती है । फलाहार से अच्छी तरह पेट नहीं भरता, तथा अन्न भोजन की तरह यह प्रतिदिन सुलभ भी नहीं है, इसलिये रात्रि - भोजन के अपवाद में फलाहार रखने से रात्रि-भोजन की प्रणाली निरर्गल रूप में नहीं चल सकती । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] (जैनधर्म-मीमांसा मुनि-संस्था के और भी छोटे छोटे नियम है, परन्तु मुनिसंस्था के रूप में जो यह क्रान्ति की गई है-उससे उनके विषय में वयं ही विचार हो जाता है, इसलिये उनके विषय में विचार करने की ज़रूरत नहीं है । वर्तमान में जो मूलगुण प्रचलित है, परीक्षा करने के बाद साधु-संस्था के लिये जिन मूलगुणों की आव. श्यकता रह जाती है, वे ये हैं १-समभाव, २-ज्ञानयुक्तता, ३-अहिंसा, ४-सत्य, ५- अचौर्य, ६-ब्रह्मचर्य, ७-अपरिग्रह, ८-इंद्रिय-विजय, ९-प्रतिक्रमण, १०-कर्मण्पता, ११-कष्टसहिष्णुता । वर्तमान में इन मूलगुणों की आवश्यकता है और इनमें सभी आवश्यक बातों का संग्रह और स्पष्टीकरण हो जाता है । इनमें से प्रारम्भ के नौ गुणों की आलोचना तो सत्ताईस और अट्ठाईस मूलगुणों की आलोचना करते समय कर दी गई है। बाकी दो मूलगुण और रह जाते हैं, उनकी संक्षिप्त आलोचना यहाँ कर दी जाती है। कमण्यता-साधु को जीवन-निवाई के लिये या उसके बदले में कुछ न कुछ सेवा अवश्य करना चाहिये । निवृत्ति की दुहाई देकर प्रवृत्ति को निन्दा करके चुपचाप पड़े रहने का नाम धर्म नहीं है । हाँ, यह बात अवश्य है कि सेवा अपनी अपनी योग्यता तथा समाज की आवश्यकता के अनुसार होगी। कोई कलाकार है तो उसको अपनी कला से सेवा करना चाहिये, कोई विद्वान है तो वह विद्या देकर सेवा करे, अथवा भगर कोई. वृद्ध है तो उसको बहुत-सी रियायत दी जा सकती है। हाँ, इतनी Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनिसंस्था के नियम ] [ २३७ बात अवश्य है कि कलाकार या विद्वान ज्यादह और मज़दूर कम हो तो कलाकार और विद्वानों को मज़दूरी भी करना पड़ेगी । मतलब यह कि किस काम की कितनी आवश्यकता है - उसे देखकर योग्यतानुसार काम का चुनाव किया जाना चाहिये । परस्पर में एक दूसरे की सेवा करना, रोगी की देखभाल रखना आदि आवश्यक कर्तव्य हैं, जो कि इस मूल-गुण के नाम पर अवश्य करना चाहिये । 1 कष्टसहिष्णुता - साधु-संस्था जो कि 'सेवा संस्था' है, उस में कष्टसहिष्णुता तो अत्यावश्यक है । उपसर्ग और परीषों की विजय का वर्णन इसीलिये किया जाता है, परन्तु सहिष्णुता शब्द की महत्ता पर अवश्य ही ध्यान रखना चाहिये । कष्टों के सहने का अर्थ है - कष्टों को सहन करके दुःखी न होना, कर्तव्य न छोड़ना । ज़रा ज़रा-सी बात में जो लोग झुंझला उठते हैं, अथवा थोड़ी-सी असुविधा में भी जिनका पारा गरम हो जाता है, वे कष्टसहिष्णु नहीं है । शारीरिक कष्टसहिष्णुता को यथासाध्य बढ़ाना चाहिये, किन्तु मानसिक कष्टसहिष्णुता तो और भी अधिक आवश्यक है । कष्ट-सहिष्णुता का यह अर्थ नहीं है कि मनुष्य व्यर्थ के कष्ट मोल ले । 'धर्म सुख के लिये है, इसलिये न तो अनावश्यक कष्टों को मोल लेने की ज़रूरत है, न आवश्यक और निर्दोष ( जिससे दूसरों के अधिकार नष्ट न होते हों) सुखों के त्याग करने की ज़रूरत है। हाँ, सहिष्णुता का अभ्यास बढ़ाने के लिये उपवास आदि कोई भी काम किया जा सकता है, परन्तु उसमें धैर्य न छूटना चाहिये, न स्वास्थ्य को हानि पहुँचना चाहिये । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] [जैनधर्म-मीमांसा इन ग्यारह मूलगुणों में मुनि-संस्था के मुख्य मुख्य नियम आ जाते हैं । समयानुसार इनमें परिवर्तन भी किया जा सकता है, परन्तु संख्या के घट-बढ़ जाने पर भी या थोड़े-बहुत नामों के बदल जाने पर भी वस्तुतत्त्र में कोई अन्तर नहीं आता। अन्य छोटे नियम समयानुसार बनाये जा सकते हैं । चारित्र के अंगरूप में बहुत-सी बातें जैन शास्त्रों में प्रचलित हैं । परन्तु आजकल उनका अर्थ सिर्फ ऐकान्तिक निवृत्ति को लेकर लिया जाता है । इसलिये संक्षेप में उनका वास्तविक अर्थ बतला देना आवश्यक है, जिसका कि इस संशोषित सय जेनधर्म के साथ समन्वय हो सके। . द्वादशानुप्रेक्षा वैराग्य पैदा करने के लिये ये बारह तरह की भावनाएँ विचारधाराएँ जैनसाहित्य में प्रचलित हैं। अनित्य-प्रत्येक पदार्थ नष्ट होनेवाला है, इस प्रकार का विचार करना अनित्य-भावना है। अनासक्ति के लिये यह विचार बहुत अच्छा है । "दुनियाँ की जिन चीजों के लिये हम अन्याय करते हैं, वे साथ जानेवाली नहीं है.- यह जीवन भी क्षणभंगुर है, तब भला इसके लिये दूसरों के अधिकारों का नाश करना व्यर्थ है । प्रकृति को शायद हम थोड़े बहुत अंशो में विजय कर सकें, दूसरे मनुष्यों पर भी विजय पा सकें, परन्तु मौत पर विजय नहीं पा सकते । मौत हमारी सब विजयों को छीन लेगी । जो हमारे सामने देख नहीं सकते, कल व हसँग; आज जो एक शब्द भी बोल नहीं सकते-कल वे ही मनमानी सुनायेगे Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशानुपेक्षा] [२३९ जब यह 'चार दिनों की चाँदनी फिर अँधेरी रात, है तब इस चाँदनी को अत्याचार से काला क्यों बनावें ! जब इस शरीर को एक दिन मिट्टी में मिलना ही है तब इसे दूसरों के सिर पर क्यों नचावें" इस प्रकार के विचार हमें न्यायमार्ग से भ्रष्ट नहीं होने देते । यही अनित्यभावना की उपयोगिता है। विपत्ति में धैर्य रखने के लिये भी यह भावना उपयोगी है। जिस प्रकार सम्पत्ति चली जाती है उसी प्रकार विपत्ति भी चली जाती है । विपत्ति के आने पर अगर हमारा ध्यान इस बात पर रहे कि-यह विपत्ति चली जावेगी-तो हम घबराते नहीं है और हताश होकर नहीं बैठ रहते। ' प्रत्येक वस्तु का दुरुपयोग होता है, इसलिये इस भावना का भी दुरुपयोग हो सकता है, जिससे बचने की ज़रूरत है । पहिला दुरुपयोग है-इस विचार को दार्शनिक रूप दे देना । दार्शनिक दृष्टि से जगत् नित्य है या क्षणिक, इस प्रकार की मीमांसा में इस भावना का विचार न करना चाहिये । दार्शनिक दृष्टि का सम्बन्ध समस्त जगत् के विषय में विचार करने से है, हेय उपादेय, आसक्ति अनासक्ति आदि दृष्टियों से नहीं । अमित्यभावना हृदय को निःस्वार्थ बनाने के लिये है । दार्शनिक दृष्टि से अगर जगत् नित्य सिद्ध हो तो भी अनित्यभावना मिथ्या न हो जायगी। दूसरा दुरुपयोग अकर्मण्यता का है। अनासक्त बनना चाहिये, परन्तु अकर्मण्य न बनना चाहिये । व्यक्त या अव्यक्त रूप में हम समाज से बहुत कुछ लेते हैं, उसका ब्याजसहित बदला Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] [जैनधर्म मीमांसा चुकाने की कोशिश करते रहना चाहिये । दुनिया क्षणभंगुर है, और हम भी क्षणभंगुर हैं, इसलिये उत्तरदायित्वहीन जीवन बनाना कायरता है। अशरण-मैं दुनिया का रक्षक हूँ, अथवा मेरे बहुत सहायक हैं, मेरा कौन क्या कर सकता है-इस प्रकार का अहङ्कार मनुष्य में न आ जाय, इसके लिये अशरण भावना है । मनुष्य का यह अहकार व्यर्थ है; क्योंकि मरने से इसकी कोई रक्षा नहीं कर सकता, न यह किसी को मरने से बचा सकता है । बीमारी आदि के कष्टों का इसे स्वयं वेदन करना पड़ता है, उस समय उसके दःखानुभव में कोई हाथ नहीं बटा सकता-आदि अशरण भावना है। इसका उपयोग अहङ्कार के त्याग के लिये करना चाहिये । दया परोपकार आदि छोड़कर निपट स्वार्थी हो जाना अशरण भावना नहीं है । क्योंकि यद्यपि हम किसी की रक्षा नहीं कर सकते, किन्तु रक्षा करने के लिये यथाशक्ति प्रयत्न करके सहानुभूति तो बतला सकते हैं और कष्ट सहने का उसमें साहस पैदा कर सकते हैं । इस भावना का मुख्य लक्ष्य यही है कि प्रत्येक व्यक्ति को किसी की शरण की आशा न रखकर खावलम्बी बनना चाहिये, तया परोपकार आदि करके 'हम दुनिया के रक्षक हैं, हमारे बिना किसी का काम नहीं चल सकता' इत्यादि अहङ्कार छोड़देना चाहिये। संसार-'चाहे श्रीमान हो, चाहे गरीब, सभी दुःखी हैं। यह भावना इसलिये आवश्यक है कि जिससे हम संसार के क्षुद Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ► द्वादशानुप्रेक्षा ] [ २४१ प्रलोभनों में फँसकर कर्तव्यच्युत न हो जावें । दूर से वस्तु सुन्दर दिखाई देती है, इस लोकोक्ति के अनुसार हम दूसरों को सुखी समझा करते हैं, परन्तु प्रत्येक मनुष्य जानता है कि मैं सुखी नहीं हूँ। जो चीज़ उसके पास होती है उसके विषय में वह विचार किया करता है कि - " अच्छा ! इससे क्या हुआ !" इस प्रकार का असन्तोष उसे दूसरों की तरह बनने के लिये प्रेरित करता है और यह प्रेरणा परिमह - पाप को बढ़ाने में तथा उसके द्वारा अन्य पापों के बढ़ाने में सहायक होती है । अगर उसे यह मालूम हो जाय कि इतना पाप करके भी मुझे जो कुछ मिलेगा उसमें भी मैं दुखी रहूँगा, तो पाप की तरफ़ उसकी प्रेरणा नहीं होती । परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि अगर हमारे और दूसरों के ऊपर अत्याचार होता हो तो हम उसे दूर करने की कोशिश न करें । प्रथम अध्याय में कहे गये नियमों के अनुसार हमें सुख की वृद्धि करना ही चाहिये ! इसलिये इस भावना के विषय में दूसरी दृष्टि यह है कि संसार में दुःख बहुत है. प्राकृतिक दुःखों की सीमा नहीं है, उन्हीं को हटाने में हमारी सारी शक्ति खर्च हो सकती है, फिर भी वे पूरे रूप में न हट पायेंगे । ऐसी हालत में हम परस्पर अन्याय और उपेक्षा करके जो दुःखों की वृद्धि करते हैं, यह क्या उचित है ! संसार में दुःख बहुत हैं, इसलिये हम से जितना बन सके उसे नष्ट करने की कोशिश करना चाहिये, इत्यादि अन्य अनेक दृष्टियों से यह भावना रखना चाहिये, जिससे स्वपर-कल्याण हो । 1 एकत्व - मनुष्य अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरता है, हर हालत में इसका कोई साथी नहीं है, इत्यादि विचार Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] [जैनधर्म मीमांसा एकत्व-भावना है । स्वावलम्बन तथा अनासक्ति की वृद्धि के लिये यह भावना बहुत उपयोगी है । परन्तु दुनियाँ, जो सहयोग के तत्व पर ठहरी हुई है, उसका इस भावना से खण्डन नहीं होता, बल्कि वह सहयोग और भी अच्छा बनता है। पति-पत्नी, पिता-पुत्र, गुरुशिष्य, भाई-बहिन तथा मित्र आदि के जो सम्बन्ध है-वे उचित और आवश्यक है, परन्तु प्रत्येक व्यक्ति को यह ध्यान में रखना चाहिये कि इन सम्बन्धों से लाभ उठाने में वह अकेला है । उसकी योग्यता ही उसके काम आयगी । जिस प्रकार हम अपनी भलाई के लिये दूसरों से सहायता चाहते हैं-उसी प्रकार दूसरे भी अपनी भलाई के लिये हमसे सहायता चाहते हैं । दूसरों की भलाई करने की हम में जितनी योग्यता होगी, उसी के ऊपर यह बात निर्भर है कि हम दूसरों से कुछ लाभ उठा सकें । यही हमारा एकत्व है जो कि सहयोग के अनेकत्व के लिये अत्युपयोगी है। एकल का यह अर्थ नहीं है कि व्यक्त या अव्यक्त रूप में दुनिया से तो हम लाभ उठातें रहें, किन्तु उसका बदला चुकाने के लिये कहते फिरें कि "न हम किसी के, न कोई हमारा, झूठा है संसारा" । यह तो एक प्रकार की घोर स्वार्थांधता है एकत्व भावना ३० स्वायाधता के लिये नहीं है, किन्तु स्वावलम्बी तथा योग्य बनने के लिये है। और हाँ, उस समय सन्तोष के लिये है न हमको कोई सहारा न दे । उस समय हमें सोचना चाहिये कि प्रत्येक प्राणी अकेला है, अगर मुझे कोई सहारा नहीं देता तो मुझे अपने में ही सुखी रहने की कोशिश करना चाहिये, आदि । अन्यत्व--में अपने शरीर से भी भिन्न है, इस प्रकार की Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशानुप्रेक्षा] [२४३ भावना से शारीरिक सुखदुःख अपने को विक्षुब्ध नहीं कर पाते, प्रायः शारीरिक सुख-दुःख के विचार में ही मनुष्य की सारी शक्ति नष्ट होती है, परन्तु सुख-दुःख का बड़ा श्रोत शरीर से भिन्न किसी अन्य वस्तु में है-इस बात के विचार से वह प्रथम अध्याय में बतलाई हुई मुखी रहने की कला सीखता है और सुखी बनने के लिये भौतिक साधनों पर ही अवलम्बित नहीं रहता। प्रश्न-यद्यपि आपने आत्मा का पृथक अस्तित्व सिद्ध कर दिया है, फिर भी दार्शनिक या वैज्ञानिक दृष्टि से आत्मा की समस्या, समस्या ही बनी रहती है । अब भी ऐसे विचारक हैं जो आत्मा को स्वतन्त्र तत्व नहीं मानते । वे यह भावना कैसे रख सकते हैं ! ये भावनाएँ तो धार्मिक हैं, इनका दार्शनिक या वैज्ञानिक बातों से सम्बन्ध करने की क्या ज़रूरत है ! उत्तर-अन्यत्व-भावना का दार्शनिक चर्चा से कोई सम्बन्ध नहीं है, इसलिये आत्मा के नित्यत्व से भी कोई सम्बन्ध नहीं है। यहाँ तो सिर्फ इतनी बात से मतलब है कि शारीरिक सुखों से भिन्न और भी मुख है, जिसके न होने पर शारीरिक सुख न होने के बराबर है और जिसके होने पर शारीरिक सुखों का अभाव नहीं खटकता । आत्मवादी उसे आत्मीक-मुख कहें और अनात्मवादी उसे मानसिक-सुख कहें । यह बात तो अनुभवसिद्ध है कि बहुत से मनुष्य खाने-पीने का कष्ट होने पर भी प्रसन्न रहते हैं, जेल की यातनाएँ भी उनके हर्ष को नहीं छीन पाती और बहुत से आदमी सब साधन रहने पर भी ईष्र्या आदि से जलते हैं, चैन से सो भी नहीं पाते । यही अन्यत्व की सर्चाई मालून होती है । इस सुख-श्रोत Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११] (जैनधर्म-मीमांसा को-जिसे कि आत्मवादी अनात्मवादी सभी मानते हैं-आस्मा का, मन का, या शरीर के किसी अन्य सूक्ष्म भाग का कहिये इसमें कोई हानि नहीं, परन्तु उसके समझ लेने पर सुख के विषय में मनुष्य की जो दिशाभूल होती है वह दूर हो जाती है। यही अन्यत्व. भावना का लाभ है। अशुचि- शरीर की अशुचिता का विचार करना अशुचिभावना है। इससे दो लाभ हैं । पहिला तो यह कि इससे कुलजाति का मद और छूताछूत का ढोंग दूर हो जाता है । मनुष्य अहंकारवश अपने शरीर को शुद्ध समझता है। कोई अगर व्यभिचार-जात हो तो उसे अशुद्ध समझता है। परन्तु अशुधि भावना बतलाती है कि शरीर सरीखी अशुचि वस्तु में शुचिता और अशुचिता की कल्पना करना ही मूर्खता है। शरीर तो सबके अपवित्र हैं। इसी प्रकार कोई कोई भोले जीव शूद्र के घर में पैदा होनेवाले शरीर को अशुचि और ब्रामण भादि के घर में पैदा होनेवाले शरीर को शुचि समझते हैं। उनको भी अशुचि भावना बतलाती है कि सभी शरीर अनुचि है, इनमें शुचिता अशुचिता की कल्पना करना मुर्खता है। दूसरा लाभ यह है कि शरीर को अशुचि समझने से शरीरिक भोगों की आसक्ति कम हो जाती है । इस प्रकार शारीरिक अहंकार और आसक्ति को कम करने के लिये इस मावना का उपयोग करना चाहिये । परन्तु अशुचि-भावना के नाम पर स्वच्छता के विषय में लापर्वाही न करना चाहिये ! Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादशानुप्रेक्षा ] [२४५ आश्रव - दुःख के कारणों पर विचार करना आश्रव भावना है । संवर- दुःख के कारणों को न आने देने या उनके रोकने के विषय में विचार करना संवर-भावना है । निर्जरा- आये हुए दुःख को किस प्रकार दूर किया जाय, सहन किया जाय, आदि विचार करना निर्जरा-भावना है। आश्रव संवर निर्जरा भावना की सामग्री प्रथम अध्याय में लिखी गई है । इस अध्याय में भी सदाचार के जो नियम हैं - वे भी उपयोगी है। तथा तीसरे अध्याय में सम्यग्दर्शन के वर्णन में भी बहुत-सी सामग्री है । लोक- विश्व बहुत महान है; उसमें हमारी कीमत एक अणु सरीखी है, इसलिये छोटो छोटो बातों को लेकर अहंकार करना व्यर्थ है, आदि विचार लोक - भावना है । विश्व तीन सौ सैंतालीस राज का है ! पुरुषाकार है या गोल या अनिर्दिष्ट संस्थान : इत्यादि भौगोलिक विचार लोक भावना के विषय नहीं है । अथवा भौगोलिक दृष्टि से जिसको जैसे विचार रखना हो रक्खे, परन्तु भौगोलिक दृष्टि को मुख्यता न देवे । मुख्यता इसी या ऐसे ही विचार को देना चाहिये कि जिससे विनय शीलता आदि गुणों को उत्तेजना मिले । विश्व के विषय में विचार करने से जो एक कौतूहल, हर्ष तथा जीवन के क्षुद्र स्वार्थों पर उपेक्षा पैदा होती है, जिससे पाप करने में उत्साह नहीं रहता, बड़ी बड़ा लाभ है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] [ जैनधर्म-मीमांसा बोधिदुर्लभ -- सब कुछ मिलना सरल है, परन्तु सत्य की प्राप्ति दुर्लभ है। मनुष्य जन्म, सुशिक्षा, सुसंगति आदि तो दुर्लभ हैं ही, परन्तु सब कुछ मिल जाने पर अहंकार रूपी पिशाच आकर सब छीन ले जाता है । धर्म और सम्प्रदाय के वेष में हम अहंकार के ही पुजारी हो जाते हैं, इसलिये दुनियाँ के विविध सम्प्रदायों में जो सत्य है, उसकी प्राप्ति नहीं हो पाती । किसी भी धर्म के द्वारा सब धर्मों को प्राप्त करना दुर्लभ है, सर्व-धर्म-समभाव दुर्लभ है, धर्म का मर्म प्राप्त करना दुर्लभ है और जब तक वह प्राप्त न किया जाय, तब तक धर्म का जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता, जीवन की सफलता नहीं हो सकती, आदि विचार करना बोधिदुर्लभ भावना है । धर्मस्वाख्यातत्व - धर्म किस तरह कहा जाये, जिसमें वह स्त्राख्यात अर्थात् अच्छी तरह कहा गया कहलावे, इस प्रकार का विचार करना धर्मस्वाख्यातत्व - भावना है । धर्म सबके लिये हितकारी होना चाहिये, उसमें सबको समानाधिकार होना चाहिये, किसी दूसरे धर्म की निन्दा न होना चाहिये, समन्वय बुद्धि होना चाहिये, गुण कहीं भी हो - निःपक्षता से उसको अपनाने की उदारता होना चाहिये, इत्यादि विशेषताएँ ही धर्म की स्वाख्यातता है । बारह भावनाओं के विषय में यहाँ सूत्ररूप में ही कहा गया है । इसका भाष्य तो बहुत लम्बा किया जा सकता है, परन्तु बस भाष्य का मसाला इन अध्यायों में जहाँ-तहाँ बहुत-सा है, इसलिये वह यहाँ नहीं लिखा जाता है । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म] [२४७ दशधर्म । दशधर्म के रूप में भी चारित्र का वर्णन किया जाता है । क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, पाकिश्चन्य, ब्रह्मचर्य ये दशधर्म कहलाते हैं । ये दशधर्म आहिंसादिक पाँच व्रतों के लिये साधक हैं। इनके पालन से अहिंसादिक के पालन में सुभीता होता है । अहिंसादि व्रतों के वर्णन करने से इन दशधर्मो का वर्णन हो जाता है, परन्तु स्पष्टता के लिये इनका अलग वर्णन किया जाता है । यहाँ उनके विस्तृत वर्णन की आवश्यकता नहीं है, सिर्फ दिशानिर्देशमात्र किया जाता है । ... क्षमा-क्रोध का त्याग करना क्षमा है । इसका साधारण अर्थ विदित ही है । अहिंसा के पालन करने के लिये यह बहुत उपयोगी धर्म है । इसका पालन तो हरएक प्राणी कर सकता है, परन्तु जब वीरता-शक्तिशालिता-समर्थता के साथ इसका सम्बन्ध होता है, तब इसकी कीमत बहुत बढ़ जाती है। . . प्रत्येक गुण के पहिचानने में दो कठिनाइयाँ हैं। एक तो यह कि कोई दुर्गुण बाहर से उस गुण के समान मालूम होने लगता है। दूसरा यह कि कभी कभी उस. गुण का बाहिरी रूप वैसा ही प्रगट नहीं होने पाता है जैसा कि साधारणतः प्रगट होना चाहिये । ये दोनों कठिनाइयाँ क्षमा के विषय में भी है। कभी कभी मनुष्य, भय से, विवशता से, या कायरता से क्षमा का ढोंग करता है, परन्तु उसका हृदय निर्वैर नहीं होने पाता इसका नाम क्षमा नहीं है। क्षमता रहने पर भी बदला न लेना Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८) [जैनधर्म-मीमांसा क्षमा है । यद्यपि बदला लेने की शकि न होने पर भी क्षमा रक्खी जा सकती है, परन्तु शर्त यह है कि उसके दिल में से बदला लेने की भावना बिलकुल निकल जाय; फिर भी दुनिया को उसका मल्य तभी मालूम होता है जब कि उसके पीछे क्षमता होती है। कभी कभी मनुष्य स्वार्थवश पक्षपातवश क्षमा का ढोंग करके अन्याय और अत्याचार में व्यक या अन्यक्त रूप में सहायक होता है। यहाँ भी क्षमा न समझना चाहिये । अगर अत्याचार को रोकने के लिये दंड देने की ही आवश्यकता हो तो क्षमा को धारण करते हुए भी दंडं दिया जा सकता है। उदाहरणार्थ म० रामचन्द्र ने रावण को दंड दिया, परन्तु इसीलिये यह नहीं कहा जा सकता कि २० रामचन्द्र क्षमाशील न थे। अगर रावण अपराध स्वीकार करके सीता वापिस दे देता तो म० रामचन्द्र ज्यों का त्यों उसका राज्य छोड़ देने को तैयार थे। इसलिये म. रामचन्द्र और म० महावीर म० बुद्ध आदि को क्षमाशीलता में कोई अन्तर था, यह बात नहीं कही जा सकती। जो अन्तर दिखाई देता है वह हृदय की वृत्ति का नहीं, किन्तु परिस्थिति का है । इस प्रकार जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं जबकि हृदय में क्षमा होने पर भी लोक कल्याण के लिये या दंडनीय व्यक्ति के कल्याण के लिये दंड की आवश्यकता होती है । दुःख इतना ही है कि साधारण लोगों को यह समझना कठिन हो जाता है कि वास्तव में यहाँ क्षमा है, या क्षमामास है। बाह्य-अहिंसा किस प्रकार हिंसा होती है, और बाबा-हिंसा भी वास्तव में किस प्रकार अहिंसा होती है इस विवेचन में जिस Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शधर्म ] [ २४९ तरह विचार किया गया है, वैसा ही विचार यहाँ क्षमा के विषय में भी कर लेना चाहिये | क्षमा भी अहिंसा धर्म का एक भाग है, किन्तु कोमल और सुन्दर भाग है । यद्यपि दंड को भी अहिंसा के भीतर स्थान है, फिर भी बहुत से अवसर ऐसे आते हैं जब वैर की परम्परा को दूर करने के लिये या स्थायी शांति के लिये क्षमा ही एक अमोघ उपाय रह जाता है । यदि मनुष्य सर्वत्र बदले की नीति से काम लेन लगे तो संसार में दुःखों की वृद्धि कई गुणी हो जाये और उसे कभी शान्ति न मिले । सिंह अगर मच्छरों का शिकार करने लगे तो इससे उसका पेट तो न भरेगा, किन्तु उसकी इतनी शक्ति बर्बाद होगी कि वह अधमरा हो जायगा | सफता और शान्ति के लिये अनेक उपद्रवों को सहन करके ही हम अपनी शान्ति की रक्षा कर सकते हैं, तथा दूसरों को भी सुमार्ग पर लगा सकते हैं। अनेक दुष्ट और क्रूर प्राणी जो कि किसी भी प्रकार के दंड से नहीं सुधर सके, या दंडित नहीं किये जा सके-वे क्षमा से सुधर गये । कोई कोई चीज़ पानी से गलती है, और कोई कोई चीज़ अग्नि से गलती है अपने स्थान पर दोनों की उपयोगिता है । इसी प्रकार कहीं दंडनीति काम करती है, कहीं क्षमा । एक के स्थान पर दूसरे से काम लेने से अनर्थ हो जाता है। जिस प्रकार दंड के स्थान पर क्षमा काम नहीं कर सकती, उसी प्रकार क्षमा के स्थान पर दंड काम नहीं कर सकता । दंड की उपयोगिता कभी कभी हैं, उससे दंडनीय के सुधार की आशा कम है, जब कि क्षमा की उपयोगिता सदा है और उससे क्षम्य के सुधार की आशा अधिक है । जहाँ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५०] (जैनधर्म-मीमांसा तक हो सके क्षमा से काम लेना चाहिये, किन्तु अन्याय को रोकने के लिये जब कोई दूसरा उचित उपाय न रहे तब दंड से काम लेना चाहिये । क्षमा अपने स्थान पर क्षमा है और दूसरी जगह क्षमाभास है। मादव-मान अहंकार मद का त्याग करना अर्थात् विनय रखना मार्दव है। क्षमा के समान मार्दव के पहिचानने में भी कठिनाई है । चापलूसी और दीनता का मार्दव से कुछ सम्बन्ध नहीं है, परन्तु कभी कभी ये मार्दव के आसन पर आ बैठते हैं, इसलिये इनसे सावधान रहना चाहिये । आत्मगौरव या गुण-गौरव कभी कभी मार्दव से विरुद्ध मालम होते है, परन्तु बात बिलकुल उलटी है । वास्तव में ये दीनता और चापलूसी के विरोधी है। कभी कभी मद भी आत्मगौरव का रूप धारण कर लेता है, जबकि आत्मगौरव से उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहता । जैसे--मेरा देश, मेरी जाति, मेरा धर्म-आदि भावों में आत्मगौरव समझ लिया जाता है। कभी कभी इनमें आत्मगौरव होता भी है, परन्तु अधिकांश स्थानों में देश, जाति, धर्म के स्थानों पर मनुष्य मेय' की पूजा ही करता है, उन बड़े बड़े नामों की तो सिर्फ ओट ली जाती है। अपना भाव मार्दव है कि मार्दवाभास, इस बात की पहिचान शुद्धान्तरात्मा ही कर सकता है, फिर भी एकाध बात ऐसी कही जा सकती है, जिससे मार्दव और मार्दवाभास की पहिचान करने में सहायता मिल सके। अपने देश, जाति, धर्म आदि की प्रशंसा करते समय इस बात का विचार करना चाहिये कि यह प्रशंसा अपना महत्व बतलाने Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म ] [२५१ के लिये है कि किसी सत्य की रक्षा करने या अन्याय का विरोध कर लेने के लिये है ? अपना महत्व बतलाने के लिये उपर्युक्त प्रशंसा अनुचित है। जैसे— कोई मनुष्य इसलिये हमारे देश की निन्दा करता है - जिससे वह हमारे देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ सके या उसके अधिकार छीन सके, तो उसके विरोध में अपने देश की प्रशंसा की जाय तो यह आत्म-प्रशंसा न होगी, क्योंकि इसका लक्ष्य दूसरों को अपमानित करना नहीं, किन्तु न्याय की रक्षा करना है । परन्तु कोई मनुष्य अपना महत्व स्थापित करने के लिये अपने देश की प्रशंसा करता है, और दूसरों को अनार्य म्लेच्छ असभ्य कहता है, दुनिया में अपनी जगद्गुरुता की घोषणा करता फिरता है, तो यह आत्मगौरव नहीं, अहंकार है । जो बात देश को लेकर कही गई है, वही बात प्रान्त, नगर, जाति, कुल, धर्म, सम्प्रदाय आदि को लेकर भी समझना चाहिये । इतना ही नहीं, किन्तु व्यक्तिगत प्रशंसा में भी इसी ढंग से विचार करना चाहिये । यदि अपने व्यक्तित्व की निन्दा' इसलिये की जाती हो जिससे एक निर्दोष समूह का अवर्णवाद (झूठी निन्दा) हो, उसका उचित प्रभाव घट जाय, उसकी निस्वार्थ सेवा निष्फल जाय तो दूसरों को नीचा दिखाने के लिये नहीं, किन्तु इन सब भाइयों की तथा सचाई की रक्षा के लिये आत्मन्प्रशंसा करना भी उचित है । सार इतना ही है कि जिस आत्म-प्रशंसा से तथा आत्मीयप्रशंसा से न्याय की - सत्य की रक्षा होती हो वह उचित है, और जो दूसरों पर आक्रमण करती हो वह अनुचित है । इस कसौटी से 1 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] (जैनधर्म-मीमांसा मार्दव और मार्दवाभास की परीक्षा हो सकती है। मार्दव सल्ल-धर्म का एक अंग है। आर्जव-ऋजुता-सालता-मायाचार हीनता का नाम आर्जव है । इधर की बात उधर कहना-जिसे कि व्यवहार में चुगलखोरी कहते है-आर्जव नहीं है । इसी प्रकार जिह्वा पर अंकुश न रख सकने के कारण मनमाना बकवाद करना और असभ्यताका परिचय देना, फिर कहना कि-हमारा दिल तो साफ है; जैसा मन में आता है वैसा साफ कह देते है--यह भी आर्जव नहीं है । मन में आये हुए दुर्भावों को दबा रखना गुण है न कि दोष । उनका नाश करना सर्वोत्तम है परन्तु अगर उनका नाश न हो सके तो उन्हें मन में ही रोककर धीरे-धीरे नाश करने का प्रया भी अच्छा है। आर्जव-धर्म का नाश वहीं होता है-जहाँ पर प्रति हिंसा करने के लिये भाव छिपाये जाते हैं । किसी को मारने के लिये तलवार छिपाकर रखना और चलती हुई तलवार को रोक लेना, इन दोनों में जैसा अन्तर है-वैसा ही अन्तर मायाचार से हदय के भाव छिपाने तया मानसिक आवेगों को रोक लेने में है। आर्जव-धर्म का यह मतलब नहीं है कि अपनी या दूसरे की प्रत्येक बात दुनिया के सामने खोलकर रख देना चाहिये । मतलब यही है कि किसी के साथ अन्याय करने के लिये ऐसा आचरण न करना चाहिये-जिससे वह धोखा खाकर अन्याय का शिकार बन सके । आर्जव-धर्म के नाम पर शिष्टाचार या सभ्यता को तिलाबलि देने की ज़रूरत नहीं है, परन्तु यह याद रखने की सख्त ज़रूरत है कि अपने किसी व्यवहार से दूसरा आदमी धोखा न खा जाय, ठगा न जाय । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म [२५३ सत्य-धर्म के वर्णन की भी बहुत-सी बातें इस धर्म के स्पष्टीकरण में सहायता पहुंचा सकती हैं। भार्गव, सत्य-धर्म का मुख्य अंग है। . शौच-डोम का त्याग कर देना शौच है । अपरिग्रह-धर्म का यह प्राण है। कभी कभी लोग मितव्ययिता को लोभ समझ जाते हैं, और कभी कभी कंजूसी को मितव्ययिता समझकर आत्म-सन्तोष कर लेते हैं । इसी प्रकार कभी कभी अपम्यय को शौच-धर्म समझ जाते हैं, और कभी कभी उदारता को अपव्यय समझ लेते हैं । शौच क्या है और शौचाभास क्या है, इसका निर्णय करना कठिन है । अन्तस्तल की शुद्ध वृत्तियों से ही इसकी ठीक-ठीक जाँच की जा सकती है। फिर भी एकाध बात ऐसी कही जा सकती हैजिससे शैच और शौचाभास के विवेक में सहायता मिले। .. अपन्यय और मितव्यय की सीमा निर्देश करने के लिये साधारणतः यह समझ लेना चाहिये कि आमदनी की सीमा के बाहर खर्च करना भयत्रा ऋण लेकर खर्च करना-अपव्यय है, और आमदनी के भीतर खर्च करना-मितव्यय है ! हाँ, अगर खर्च करने का ढंग ऐसा है जिससे किसी दुर्गुण की बुद्धि होती है तो आमदनी के भीतर खर्च करना भी अपव्यय है । अपव्यय का नाम शौच नहीं है और मितव्यय का शौच से कोई विरोध नहीं है । किन्तु यहाँ यह बात भी ख़याल में रखना चाहिये कि शौच-धर्म अपरिग्रहबत का प्राण है, इसलिये मितव्यय इस सीमा पर न पहुँच जाय कि उसमें अपरिग्रह-व्रत का भंग होने लगे । अपरिग्रह-व्रत का पहिले वर्णन हो चुका है । उसकी रक्षा करते हुए शौच-धर्म का पालन Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१] [जैनधर्म-मीमांसा करना चाहिये। शौच शब्द का सीधा शब्दार्थ पवित्रता है । लोभ सब अनयों की जड़ है, पाप का बाप है, इसलिये उसका त्याग शौच कहा गया है । परन्तु शौच के नाम पर बाह्य शौच को अधिक महत्व प्राप्त हो गया है । खैर, शौच कोई बुरी चीज़ नहीं है, चाहे वह अन्तरंग हो चाहे बाघ । परन्तु बाह्य-शौच के नाम पर छूताछ्त के या शुद्धाशुद्धि के अनेक रिवाज़ या नियम बन गये हैं, उनमें अधिकांश निरुपयोगी ही नहीं, किन्तु हानिप्रद हैं। शरीर को शुद्ध रखना उचित है, और जिससे स्वास्थ्य को हानि हो ऐसी बात का बचाव करना भी उचित है, परन्तु मैं इसके हाथ का न खाऊँगा, उसके हाथ का न खाऊँगा, आदि बातें पाप है। शौच धर्म के नाम पर जाति-पाति का विचार होना ही न चाहिये। इसका विस्तृत वर्णन निर्विचिकित्सा अंग के वर्णन में आ चुका है, इसलिये यहाँ पुनरुक्ति नहीं की जाती। सत्य-सत्य का वर्णन भी विस्तार से हुआ है, इसलिये इस विषय में भी यहाँ कुछ नहीं कहा जा सकता। संयम-इस विषय पर तो यह सारा प्रकरण ही लिखा जा रहा है, इसलिये इस धर्म पर भी अलग से लिखने की जरूरत नहीं है। तप-जैन-धर्म में तप को बहुत महत्व प्राप्त हो गया है, परन्तु जितमा महत्व प्राप्त हुआ है-उतनी ही गलतफहमी भी हुई है। आजकल तप का अर्थ उपवास, खाने-पीने के नियम या राम कायकेश रह गया है । महात्मा महावीर उन कष्टसहिष्णु थे, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म ] [२५५ इसलिये उनके जीवन में अन्तरङ्ग तपस्याओं के समान बहिरङ्ग तपस्याओं का भी उग्र रूप दिखलाई देता है । बाह्य-तप, बाब होने से उसकी तरफ लेगों का ध्यान बहुत जल्दी आकर्षित होता है, तथा उनके पालन में विशेष योग्यता की आवश्यकता भी नहीं होती । यश या प्रशंसा भी शीघ्र मिल जाती है, इसलिये अधिक उपयोगी न होने पर भी वह बहुत जल्दी फैल जाता है । जैन साहिल में तथा जैन समाज में इस बाह्य तपने बहुत अधिक स्थान घेर लिया है। उसकी उपयोगिता तथा मर्यादा का भी ख़याल लोग को नहीं रहा है। बाब तप की विशेष उपयोगिता इसी में थी कि लोग स्वास्थ्य को सम्हाले रखे, तथा अवसर पड़ने पर कष्ट का सामना कर सके, इसलिये कष्टसहिष्णुता का अभ्यास करते रहे परन्तु अब इन दोनों बातों का विचार नहीं किया जाता न इनकी सिद्धि होती है। प्रत्येक व्यक्ति को यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि महात्मा महावीर ने बाह्य तप जितना किया था उससे अधिक अन्तरङ्ग तप किया था। अन्तरङ्ग तप के बिना बाह्य तप का कुछ मूल्य नहीं है। दूसरी बात यह है कि युग के अनुसार भी तप की आवश्यकता होती है । महात्मा महावीर का युग ऐसा था कि उस समय बाप तप के बिना लोगों का सत्य की तरफ आकर्षण करना कठिन था। इसलिये भी बहुत से तप करना पड़ते थे। बज्ञानियों और बालकों को समझाने के लिये अगर अनिवार्य हो तो थोड़ी बहुत मात्रा में इस प्रकार की निर्दोष किया करना पड़े तो कोई हानि नहीं है । तीसरी बात यह कि बाब तप की कीमत तभी पूरी होती है जब वह भानुषादिक तप बन जाय । उपवास का Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६] [जैनधर्म-मीमांसा 4.8 लक्ष्य करके उपवास करना एक बात है और सेवा स्वाध्याय आदि तप करते करते उपवास करना पड़े, यह दूसरी बात है। इसका मूल्य अधिक है, क्योंकि सेवा स्वाध्याय आदि में लीन होने से नो उपवास होता है, उसमें आत्मा का विकास अधिक मालूम होता है । खैर, सार यह है कि बहिरङ्ग तप का महत्त्व अन्तरङ्ग तप से बहुत थोड़ा है तथा आज कल लोगों को सत्य की तरफ आकर्पण करने के लिये - एकाध अपवाद प्रसङ्ग को छोड़कर - अधिक आवश्यक नहीं है । अब तो इस विषय को निःसारता समझायी जाय, यही उचित है | सच्चा तप तो अन्तरङ्ग तप है । बहिरंग तप जो किया जाय उनकी व्यावहारिक उपयोगिता पर ध्यान रखना चाहिये, तथा उनसे स्वास्थ्य हानि न होना चाहिये | 1 तप बारह बताये गये हैं । उनमें से पहिले छः बहिरङ्ग तप है और पिछले छः अन्तरङ्ग तप हैं । . अनशन - उपवास करने का नाम अनशन है । 'आजकल कई लोग उपवास में पानी का भी त्याग करते हैं; परन्तु इससे स्वास्थ्य बिगड़ जाता है तथा उससे गर्मी बढ़ जाती है । स्वास्थ्य और व्यावहारिक उपयोगिता की दृष्टि से यह अनुचित है । इसलिये उपवास में पानी पीने की छूट रखना चाहिये । ऊनोदर - भूख से कम खाना ऊनोदर है । यह बहुत अच्छा तप है । परन्तु मर्यादा का उल्लंघन करना अनुचित और अनेक तरह के क्रम बनाना अनावश्यक है, जैसे- तिथि या चन्द्रमा की कला के अनुसार प्रास लेना आदि। अगर कभी इसकी आबश्यकता भी मालुम हो तो प्रदर्शन से बचना चाहिये । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म ] [२५७ वृत्तिपरिसंख्यान-भिक्षा लेने के विशेष नियम को वृत्तिपरिसंख्यान* कहते हैं । ये नियम अनेक तरह के होते हैं, जैसे कोई मुनि यह नियम लेता है कि मैं दो घर से ही भिक्षा लाऊँगा आदि । अनेक घरों से भिक्षा लेते समय भोजन की तृष्णा रोकने के लिये यह तप है । अथवा कोई अटपटी प्रतिज्ञा लेने को भी वृत्तिपरिसंख्यान कहते हैं । जैसे- भोजन देनेवाला और कोई क्षत्रिय होगा, या शूद्र होगा, या स्त्री होगी, घर के पास अमुक वृक्ष होगा तो भाजन लूंगा, आदि । ये सब प्रतिज्ञाएँ इसलिये की जाती थी कि जिससे अनशन अवमौदर्य (ऊनोदर) आदि तमों के लिये मन उत्तेजित हो, आशा में निराशा को सहने का अभ्यास बढ़े । कभी कभी दूसरों को कष्ट से बचाने के लिये भी इसका उपयोग हो जाता है । इस प्रकार के तप से महात्मा महावीर के द्वारा महासती चन्दनबाला का उद्धार हुआ था। इसी प्रकार दूसरों का भी उद्धार किया जा सकता है । आजकल तो भिक्षा-वृत्ति के अनिवार्य नियम को ही उठा देना है, इसलिये इस तप की कोई जरूरत नहीं है । अगर भिक्षा लेने का अवसर मिले भी तो ऐसी ही प्रतिज्ञा लेना चाहिये जिससे किसी का उद्धार हो । सिर्फ तपस्वी कहलाने के लिये निरुपयोगी प्रतिज्ञाएँ लेकर दूसरों को परेशान करना तथा * वृत्तिपरिसंख्यानम् अनेकविधम् । तद्यथा-उस्थिक्षप्तान्तप्रान्त वर्यादीनां सतु कुरुमाषौदनादीनाम् चान्यतममभिगृह्यावशेषस्य प्रत्याख्यानम् । तत्वा र्थभाव्य ९-१९-३ . एकागारसप्तवेश्मैकरण्यार्थप्रामादिविषयः संकल्पो वृत्तिसंख्यानं । -तत्वार्थराजवार्तिक ९-१९-४ । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] [जैनधर्म-मीमांसा अपव्यय करानो अनुचित है । क्योंकि जब इस ढंग की प्रतिज्ञाएँ ली जाने लगती हैं, तब दाता-लोग बीसें तरह की वनस्पतियाँ और अन्य चीजें एकत्रित करते हैं, बदल बदल कर उनका प्रदर्शन करते हैं, इससे एक तमाशा लग जाता है । यह सब हिंसाजनक और अनावश्यक कष्टदायक होने से छोड़ देना चाहिये । दिगम्बर सम्प्रदाय के कोई कोई लेखक इस तप का उद्देश सिर्फ यही बताते हैं कि शरीर की चेष्टा के नियमन करने के लिये यह व्रत है । इसका कारण शायद यही है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में अनेक घरों से भिक्षा लेने का नियम नहीं है । परन्तु यह अर्थ बहुत संकुचित है । इतनी छोटी-सी बात के लिये अलग तप बनाने की आवश्यकता भी नहीं है । इसके अतिरिक्त मूलाचार में दाता तथा भाजन (वर्तन) आदि के नियमविशेषों को वृत्तिपरिसंख्यान कहा । है । इस प्रकार राजवार्तिककार का अर्थ मूलाचार के विरुद्ध जाता है । मालूम होता है कि राजवार्तिककार की नज़र में मूलाचार नहीं आया था। खैर, आजकल इस तप का अधिकांश भाग निरुपयोगी है। रसपरित्याग-जिस रस की तरफ आकर्षण अधिक हो अथवा उत्कट रस का चटपटा भोजन ही अच्छा मालम होता हो न वा, कायचष्टाविषयगणनार्थत्वाद वृतिपरिसंख्यानस्य । ~त. रा. वार्तिक १-१९-११॥ ! गोयर पमाण दायग मोयण नाणामिधाण जं गहणं । तह एसणस्स गहणं विविधस्स य वृत्तिपरिसंखा। -मूलचार ६५५ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधमें ] [२५९ , तो उसका त्याग करना रसपरित्याग है । रसना इन्द्रिय को वश में रखने के लिये यह तप बहुत अच्छा है। हाँ, यह बात कषाय से न होना चाहिये । परन्तु यह शर्त तो हरएक तप के लिये आवश्यक विविक्तशय्यासन-एकान्त-सेवन करना विविक्तशय्यासन सप है । ब्रह्मचर्य पालने तथा मौज-शौक की आसक्ति कम करने के लिये यह तप किया जाता है । मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसलिये साधारणतः वह एकान्त पसन्द नहीं करता । परन्तु दूसरे लोगों के अनावश्यक सहवास में रहकर, वह जानबूझकर नहीं तो अनजान में, बहुत कष्ट पहुँचाया करता है । इसके अतिरिक्त उसका सुख पराधीन हो जाता है-इससे उसको कष्ट होता है, और दूसरों को भी कष्ट होता है । जैसे-एक आदमी ऐसा है जिसे किसी न किसी से गप्पें मारने की आवश्यकता है । अब ऐसा आदमी अवश्य ही जान में अनजान में या उपेक्षावश दूसरों के कार्य में विघ्न करेगा, अथवा वह दुखी होकर रहेगा । इसलिये अपनी और दूसरों की भलाई के लिये यह आवश्यक है कि मनुष्य में एकान्त में रहकर सुखी रहने की तथा पवित्र मन रखने की आदत हो। इसके लिये यह तप आवश्यक है। परन्तु यह याद रखना चाहिये कि तप किसी दोष की निर्जरा करने अर्थात् उसे दूर करने के लिये है । एक दोष को दूर करके दूसरे दोषों को स्थान देने से वह तप नष्ट हो जाता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है, इसीलिये उसके दुष्प्रभाव से बचन के लिये विविक्तशम्यासन-तप है । परन्तु, मानलो मनुष्य एक ऐसा Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] [जैनधर्म-मीमांसा प्राणी है ओ घर के भीतर या गुफाओं में अकेले पड़ा रहना ही पसन्द करता है, इस प्रकार उसमें जड़ता आ गई है, परस्पर सहयोग के अभाव से अनेक प्रकार के प्राकृतिक कष्ट दूर नहीं किये जा सकते हैं, तथा विनोद आदि का निर्दोष सुख भी उपलब्ध नहीं है, ऐसी हालत में विविक्तशय्यासन तप न कहलायगा, किन्तु सामाजिकता या सहवास - तप कहलायेगा | मतलब यह कि तप सुख प्राप्ति दुःख-नाश तथा स्वतन्त्रता के लिये है । इसलिये कोई तप इनका विरोधी न होना चाहिये । विविक्तय्शयासन कभी कभी इनका विरोधी हो जाता है, इसलिये इस विषय में सतर्कता की ज़रूरत है । जैसे - एकान्त में रहने का अभ्यास हो जाने से हमें प्रसन्न रहने के लिये दूसरे की आवश्यकता नहीं होती, इस प्रकार हम स्वतन्त्र भी होते हैं और दूसरों को कष्ट देने से भी बचते हैं । परन्तु कल्पना करो कि हम किसी ऐसी जगह पहुँच जाँय - जहाँ एकान्त दुर्लभ हो, एकान्त की योजना करने में लोंगो को बहुत परेशान होना पड़ता हो । अगर ऐसी जगह न रह सकें और लोगों की सेवा न कर सकें तो यह हमारे जीवन की बड़ी भारी त्रुटि होगी । ऐसी परिस्थिति में विविक्तशय्यासन नहीं अविविक्तशय्यासन ही तप कहलाया । हम लोगों को सहन कर सकें, कोलाहल में भी शान्ति से सेवा स्वाध्याय आदि तप कर सकें, यह बड़ी भारी तपस्या है । इस तप का मतलब सिर्फ यही है कि हम विविक्तता या अविविक्तता में समभावी हो, इसके लिये दूसरे को कष्ट न दें, स्वयं दुखी न हों । 1 हाँ, अगर गम्भीर चिन्तन के कार्य के लिये थोड़े बहुत Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म ) [२६१ एकान्त की आवश्यकता हो तो कोई हानि नहीं है | किसी ख़ास • कार्य के लिये साधन के रूप में विविक्तता या अविविक्तता की इच्छा करना बुरा नहीं है, परन्तु साधारण हालत में उसे इस विषय में समभावी होना चाहिये । कायक्लेश-शारीरिक कष्टों को सहन करना भी एक तप है । कभी कोई शारीरिक कष्ट आ पड़े तो उस समय हम उसे सहन कर सकें, समभाव रख सकें, इसके लिये यह तप है-एक समय यह साम्प्रदायिक प्रभावना के लिये भी था, परन्तु आज यह प्रभावना के लिये नहीं है, बल्कि अप्रभावना के लिये है। कोरी प्रभावना के लिये तप करना कुतप है। जैनधर्म ने ऐसे तपों का विरोध किया है। पंचाग्नि तपना, शीत ऋतु में पानी में खड़े होना-आदि कुतप माने गये हैं। परन्तु उस जमाने में बाह्य-तप का इतना प्रभाव था कि जैनाचार्यों को भी बाह्य-तप का विरोध करना कठिन था, इसलिये उनने इसका विरोध दूसरे ढङ्ग से किया । जैसे-अग्नि जलाने में हिंसा होती है. इसलिये पंचाग्नि तप नहीं तपना चाहिये आदि । परन्तु असली बात तो यह है कि ऐसे बाह्य-तप करने की ज़रूरत नहीं है, जो सिर्फ सर्कस के खेल की तरह लोगों को आश्चर्यचकित करने के लिये हैं । समय के असर के कारण तथा लोकाकर्षण के कारण कुछ जैनाचार्यों ने इसे प्रभावना के लिये भी लिख दिया है, परन्तु यह दिशा ठीक नहीं है । वास्तव में उसकी उपयोगिता सिर्फ कष्टसहि देह दुःख तितिक्षासुखानामिप्नंग प्रवचनप्रभावनायर्थ । -त. रा.ब.०७-१९-१४॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] [ जैनधर्म-मीमांसा 1 ष्णुता का अभ्यास करने के लिये हैं । फिर असली कष्टसहिष्णुता तो मन के ऊपर अवलम्बित है । प्रबल मनोबल होने पर ऐसे लोग भी कष्ट सहन कर लेते हैं-जिनने कभी कष्टों को नहीं सहा । जैनशास्त्रों में ऐसी अनेक कथाएँ आतीं हैं । सुकुमाल कुमार इतना कोमल था कि उसकी बैठक के नीचे एक तिल का दाना आ गया था इससे वह भोजन न कर सका था, परन्तु ऐसा आदमी जब तपस्या करने लगा और गीदड़ी उसे सात दिन तक चाटती रही तब भी वह दृढ़ रहा । इससे मालूम होता है कि असली अभ्यास तो मानसिक है। फिर भी थोड़ा-बहुत इस प्रकार का अभ्यास किया जाय तो हानि नहीं है । परन्तु इसके लिये अन्तरङ्ग तपों को मुला बैठना, या प्रभावना समझना, या इससे यश ख़रीदने लगना आदि अनुचित है । यह बात अन्य बाह्य तपों के विषय में भी समझना चाहिये । 1 अन्तरङ्ग-तप ही वास्तव में तप हैं। इन्हीं से आत्म-शुद्धि और लोक-सेवा होती है । बाह्य-तप तो इसलिये तप हैं कि वे अन्तरङ्ग तप में कारण हैं । महात्मा महाबीर के पहिले बाह्य-तप को ही तप कहा जाता था, परन्तु बाह्य तप से आत्मा का कोई विशेष विकास न होता था, इसलिये उनने इन आभ्यन्तर तपों की रचना की, या मुख्यता दी । जैन धर्म ने तप शब्द के अर्थ में यह आवश्यक वृद्धि की थी । अकलङ्क देव ने इन तपों की आभ्यन्तरता के तीन ★ यतोऽन्यैस्तीच्यै रन भ्यस्तमनालीदं ततोऽस्यांतरत्वम् अभ्यन्तरमितियावत । अन्तःकरणव्यापारालम्बनं ततोऽस्याभ्यन्तरत्वम् । ९-२०-१ : बाह्यद्रव्यानपेक्ष त्वाच्च । ९-२०-२ | तत्वार्थ राजवार्तिक । 1 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म ] [२६३ कारण बताये हैं । (१) दूसरे धर्मों ने इनका तप रूप में अभ्यास नहीं किया । (२) अन्तःकरण की वृत्ति पर अवलम्बित हैं। (३) इनके करने में बाह्यद्रव्य की आवश्यकता नहीं । इससे मालूम हो सकता है कि जैनधर्म का वास्तविक तप क्या है ? अन्तरङ्ग तप छः है-प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, ध्यान । प्रायश्चित्त- अपने दोषों के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिये स्वेच्छा से प्रयत्न करना प्रायश्चित्त है । प्रायश्चित्त और दंड का उद्देश्य एक ही है । दोनों ही दोषों के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिये हैं, परन्तु प्रायश्चित्त स्वेच्छता से होता है, वह आत्मशुद्धि से सम्बन्ध रखता है; जब कि दंड में स्वेच्छा का खयाल नहीं किया जाता, इसलिये प्रायश्चित्त तप है, दंड तप नहीं है । प्रायश्चित्त गुरु आदि के द्वारा दिया जाता है और दंड किसी शासक के द्वारा दिया जाता है, इसलिये दोनों की प्रक्रिया में भी भेद है। फिर भी कभी दंड प्रायश्चित्त बन जाता है; और कभी प्रायश्चित्त; दंड बन जाता है । अनिच्छा से लिया गया प्रायश्चित्त आत्मशोधक नहीं होता, इसलिये वह दंड है । और जब नीति की रक्षा के लिये शासक के सामने स्वेच्छा से आत्म समर्पण किया जाता है तब वह दंडरूप होकर भी प्रायश्चित्त है । मतलब यह कि स्वेच्छा और अनिच्छा से दोनों में भेद पैदा होता है। प्रायश्चित्त, दंड न बन जाय- इसलिये अनेक दोषों का बचाव किया जाता है । इसके लिये यह आवश्यक है कि किसी प्रकार का बहाना न किया जाय, मायाचार न किया जाय । जिस Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] [जैनधर्म-मीमांसा से अपनी निर्मलता सिद्ध हो और लोगों में निर्वैर-वृत्ति का प्रचार हो उसी ढंग से प्रायश्चित्त लेना चाहिये । प्रायश्चित्त में निम्नलिखित दोषों का बचाव करना चाहिये (१) प्रायश्चित्त करने के पहिले इस आशय से गुरु को प्रसन्न करना जिससे वे प्रायश्चित्त कम दें, (२) बीमारी आदि का बहाना निकालकर यह कहना कि अगर आप कम प्रायश्चित्त दें तो मैं दोष कहूँ । (३), जो दोष दूसरों ने देख लिये हैं-उनका कहना और जो दूसरों ने नहीं देख पाये हैं-उनको छुपा जाना । (४) बड़े बड़े दोष कहना, छोटे-छोटे दोष छुपा जाना (५) बड़े बड़े दोष छुपा जाना और छोटे छोटे दोष प्रगट करना । (६) दोष न बताना किन्तु यह पूछ लेना कि अगर ऐसा दोष हो जाय तो क्या प्रायश्चित्त होगा, इस प्रकार चुपचाप प्रायश्चित्त लेना । (७) सांवत्सरिक पाक्षिक आदि अतिक्रमण के समय यह समझकर दोष प्रगट करना कि इसी सामूहिक प्रतिक्रमण के साथ ही प्रायश्चित का आलोचन प्रतिक्रमण हो जायगा और अलग से कुछ न करना पड़ेगा। (८) प्रायश्चित में अनुचित सन्देह करना । (९) अपने किसी घनिष्ट मित्र या साथी को अपना दोष बताकर प्रायश्चित लेना, भले ही वह उचित से अधिक हो । (१०) अपने समान किसी दूसरे ने अपराध किया हो तो उसी के समान चुपचाप प्रायश्चित . ले लेना। इन दस दोषों में जिस बात को हटाने की सबसे अधिक चेष्टा की गई है, वह है-प्रायश्चित की गुप्तता । प्रायश्चित की गुप्तता से, उसका होना करीब करीब न होने के बराबर हो जाता है। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म 1 [ २६५ “ वह न तो आत्म-शोधन करता है. (अथवा बहुत थोड़ा करता है) और न निर्वैरता पैदा करता है । जब हमसे किसी का अपराध हो जाता है, और उससे जो बैर बढ़ता है- जो कि बड़े बड़े अनथों को पैदा करता है, उसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि उस अपराध से उसकी ऐसी हानि हो गई है जिसकी वह पूर्ति नहीं कर सकता; किन्तु उसका कारण यही होता है कि वह हमको अपना हितैषी और विश्वासी नहीं समझता । प्रायश्चित्त से वह विश्वस्तता फिर पैदा की जाती है । परन्तु अगर हम चुपचाप प्रायश्चित्त कर लें तो इस से दो बड़ी हानियाँ होगी पहिली तो यह कि जिसका हमने अपराध किया है- उसको हमारी आत्म-शुद्धि का पता न लगेगा, इसलिये उसका बैर बढ़ता ही जायगा । दूसरी यह कि इससे हमारे अहङ्कार की पुष्टि होती है । अपराधी होने पर भी जब हम अपना अपराध प्रगट रूप में स्वीकार नहीं करते तत्र इसका कारण यही समझना चाहिये कि इससे हम अपनी तौहीन समझते हैं। यही 'अहङ्कार तो आत्म-शुद्धि के मार्ग में सबसे बड़ा अड़ंगा है । जहाँ अहङ्कार है, वहाँ प्रेम कहाँ ! जहां प्रेम नहीं, वहाँ शान्ति कहाँ ? अहाँ शान्ति नहीं, वहाँ सुख कहाँ ? हमारी यह छोटी-सी ही भूल अनर्थ पैदा करती 1 हम मित्रों की हानि और शत्रुओं की सृष्टि करते हैं । हम मुनि हो या श्रावक हमारा कर्तव्य है कि हमसे जब किसी का अपराध हो जाय तो वह हमें माफ करे या न करे; परन्तु हमें उसके सामने अपराध स्वीकार कर लेना चाहिये । अपराध कितना भी पुराना पड़ गया हो, परन्तु वर्षों पीछे भी उसकी आलोचना सफल है । इस Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ [जैनधर्म मीमांसा विषय में अपवाद सिर्फ इतना ही बनाया जा सकता है कि किसी समाज-हित के लिये उस अपराध का छुपाना, आवश्यक हो तो छुपाया जाय। उसमें अहंकारका तो लेश भी न आना चाहिये । मायाचार, कायरता आदि भी आत्मशुद्धि में बाधक हैं, इसलिये उनको दूर करने के लिये भी उन दोषों को दूर करना चाहिये । ... पुराने समय की मुनिसंस्था को लक्ष्य में लेकर प्रायश्चित्त के नौ भेद किये गये हैं-आलोचन, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, उपस्थान । अपने दोष को स्वीकार करना आलोचना है इसकी आवश्यकता जैसी सब थी-वैसी भी है। लगे हुए दोषों पर पश्चात्ताप प्रगट करना, वह मिथ्या हो जाय, इत्यादि कहना यह प्रतिक्रमण है । आलोचन और प्रतिक्रमण ये एक ही तरह के प्रायश्चित्त हैं। प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ है पापसे लौटना । इस दृष्टिसे आलोचन भी प्रतिक्रमण है। परन्तु यहाँ पर प्रतिक्रमण और आलोचन को अलग अलग : कहा है, इससे प्रतिक्रमण को आलोचन से विशेष समझना चाहिये, और स.मा. जिक म्यवहार में प्रतिक्रमण में क्षमायाचना शामिल करना चाहिये। कहीं सिर्फ आलोचना से प्रायश्चित्त होता है, कहीं पर अपराधों की पृथक-पृथक आलोचना न करके सिर्फ क्षमायाचना से काम चल जाता है, और कहीं पर दोनों की आवश्यकता होती हैं। प्रत्येक बात की जुनी-जुदी आलोचना करके जुदी-जुदी क्षमायाचना करना पड़ती है। जिस विषय में अधिक आसक्ति दो उस विषय को छुड़ादेना विवेक है। अमुक समय के लिये ध्यान आसन-लगाना कायोत्सर्ग Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म . ] [.२६७. है । तपका वर्णन पहिले हो चुका है । प्रायश्चित्त के प्रकरण में तप का अर्थ उपवास आदि बाह्य तप है । छेद प्रायश्चित पहिले समय के रिवाज पर अवलम्बित है । पहिले समय में यह नियम था कि जो मनुष्य पहिले दीक्षित होता था, वह बड़े भाई के समान माना जाता था और जो पीछे दीक्षित होता था वह छोटे भाई के सनान माना जाता था । इस के बाद सम्पता का नियम लगता था कि छोटा भाई बड़े भाई की विनय करे । एक मुनिकी उमर पचास वर्षकी है परन्तु वह पाँच वर्ष से दीक्षित है, और दूसरे की उमर चालीस वर्षकी है परन्तु वह दस वर्ष का दीक्षित है, ऐसी हालत में पचास वर्षकी उमरवाला चालीस वर्षकी उनर वाले का छोटा भाई कहलायेगा | लोकन्यनहार में जो स्थान उमर को प्राप्त है, मुनिसंस्था में वह स्थान दीक्षाकाल को प्राप्त था । जिस प्रकार व्यवहार गुण, पद आदिके कारण उपर के नियम में अपवाद होता है, इसी प्रकार के अपवाद दीक्षाकाल में भी हुआ करते थे । दीक्षाकाल के इसनियन का उपयोग प्रायश्चित्त के लिये भी किया गया था। अगर दस वर्ष के दीक्षितको नव वर्ष को दीक्षित नमस्कार करता है और कल दस 'वर्ष दीक्षित से ऐसा अपराध हो गया कि उसकी दीक्षा का दी वर्ष छेद कर दिया गया तो वह आठ वर्षके दीक्षित के समान हो जायगा और अत्र नत्र वर्ष बाले को बड़ा भाई मानेगा । यह छेद है । · So कभी कभी दोषी प्रायश्चित्त में कुछ समय के लिये संघ से बाहर कर दिया जाता था । यह परिहार था | और जब बहुत 1 W Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८] [जैनधर्म-मीमांसा भयंकर अपराध होता था तब उसे फिर नये सिरे से दीक्षा दी जाती थी ! यह उपस्थापना प्रायश्चित्त था। . पुरानी मुनिसंस्था के लिये ये सब नियम बहुत उपयोगी ये, और आन भी इनकी उपयोगिता है । हाँ, थोड़ा बहुत परिवर्तन करने की आवश्यकता होगी तो इसमें कोई हानि नहीं है । मल बात यही है कि निदोषता बढ़ाया जाय, वैर भाव हटाया जाय, अहंकार दूर किया जाय, इस प्रकार आत्म-शुद्धि हो । प्रायविच एक महान तप है । व्यवहार को सुव्यवस्थित और सुखमय बनाने के लिये भी इस तरह तपकी बड़ी उपयोगिता है । सकड़ों उपवासों का करना सरल है परन्तु सचा प्रायश्चित्त करना कठिन है । इसका महत्व भी सैकड़ों उपवासों से सैकड़ों गुणा है। . विनय-विनय अर्थात नम्रता भी एक सचा तप है। आकार के सिर पर यह सीधा दंड-प्रहार है । सत्य के द्वार पर ले जाने वाला एक सुंदर मार्ग है । इसके चगर मेद है-ज्ञान विनय, दर्शन-विनय, चारित्र-विनय और उपचार-विनय । ___ज्ञान के विषय में विवेक पूर्वक पूज्यभाव रखना ज्ञान-विनय है। ज्ञान के क्षेत्र की बहुतसी बाते ऐसी होती है जो हमारे लिये। उपयोगी नहीं होती, इसलिये हम उनका तिरस्कार करने लगते है परन्तु ऐसा न करना चाहिये । अगर कोई बात मिथ्या नहीं है अर्थात कल्यणकारी है तो हमारे लिये उपयोगी हो या न हो, हमें उसके विषय में मान रखना चाहिये । इसी प्रकार सत्यकी प्राप्ति के लिये दुनिया में जितने शाल बने " बन रहे है, अथवा उनमें विकास हो रहा है उसके विषय में भी आदर भाव रखना चाहिये। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दधौ ] [२६९ . कोई कोई लोग शान का प्राण, अभ्यास, स्मरण आदि को ज्ञान-विनय कहते हैं। बात तो अच्छी है परन्तु श्रेणी-विभाग की घष्टि से उसका समर्थन नहीं किया जा सकता । क्योंकि ज्ञान-ग्रहण अभ्यास आदि तो स्वाध्याय नाम के तप में आजाते हैं । तब उसका इसी जगह अन्तर्भाव करना उचित नहीं मालूम होता । कोई कोई लोग शानियों की विनय को ज्ञान विनय समझते हैं, परन्तु यह सो उपचार-विनय है। सम्यग्दर्शन का विस्तृत स्वरूप पाहिले कहा गया है उसके अह्नों का वर्णन भी हुआ है । उन बातों में आदर रखना दर्शनविनय है । शान और दर्शन में जो थोड़ा बहुस भेद है वह पहिले समझाया गया है। उससे ज्ञान-विनय और दर्शन-विनय का भेद भी समझा जा सकता है । सच बात तो यह है कि ज्ञान-विनय और दर्शन-विनय भगवान सत्य की उपासना है। चारित्र-विनय भगवती अहिंसा की उपासना है। चारित्र के जो नियम पहिले बताये जा चुके है उनमें आदर भाव, विनय भाव रखना, स्वार्थ के पीछे उनका मानसिक, वाचनिक या शारीरिक तिरस्कर न करना चारित्र विनय है। . मान दर्शन चारित्र को धारण करने वालों का योग्यतानुसार आदर करना, किसी भी तरह उनका तिरस्कार न होने देना, उनकी अपेक्षा अयोग्यों का उनके सामने उनसे अधिक आदर न करना बादि उपचार-विनय है। अधिकार के और शनि के आगे भय से, अन और किसी प्रलोभन के आगे लालच से सिर झुकाने-बाले तो प्रायः सभी है Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] [जैनधर्म-मीमांसा और ढोंगी वेषधारी के आगे अन्धश्रद्धा या समाज भय से झुकनेबलि भी बहुत है परन्तु इन कुवृत्तियों पर विजय प्राप्त करके सच्चे समाज सेवकों के आगे सिर झुकाना वास्तविक विनय हैं । यह एक तप है । मनुष्य की पूजा उसकी समाज सेवा तथा उसके लिये उपयोगी स्वार्थ त्याग से है । अमुक स्थान पर शिष्टाचार के रूपमें हम अधिकारी आदि के साथ नम्रता का व्यवहार कर सकते हैं परन्तु उसे जीवन की बाहिरी चीज़ समझना चाहिये | आत्मा का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है । वास्तव में वह विनय नहीं है। प वास्तव में यह उपचार विनय, ज्ञान दर्शन चारित्र-विनय है । परन्तु ज्ञान दर्शन चारित्र का मूर्त्तिमान रूप उसको धारण करनेवाला ही है, इसलिये उसका विनय करना चाहिये । इससे अपने में वे गुण उतरते हैं, इस मार्ग पर चलने के लिये दूसरों को उत्तेजना मिलती है । इससे अपना और जगत का कल्याण होता हूँ । वैयावृत्य - वैयावृत्य का अर्थ है सेवा । इसको तप में गिनांकर जैनधर्म ने यह बतला दिया है कि जनधर्म का तप कोरा कष्टसहन नहीं है, प्रेमहीन नहीं है, अक्रियात्मक नहीं हैं। दूसरों की सेवा करना भी वास्तव में तप है। तप का विवेचन विशेषतः मुनि संस्था को 'लक्ष्य में लेकर किया गया था, इसलिये वैयावृत्य के पात्रों में नाना मुनियों का ही उल्लेख हुआ है। विवेचन की यह मुख्यता सामयिक है । इसका यह अर्थ न समझना चाहिये कि वैयावृत्य का क्षेत्र मुनि-संस्था में ही संकुचित है। वहाँ संघ की वैयावृत्य का भी उल्लेख हैं जिसमें • Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म ] [ २७१ मुनि, आर्थिका, श्रावक, श्राविका चारों का समावेश होता है। अकलंक देवने तो मनोज्ञ वैयावृत्य में मनोज का अर्थ असंयत सम्यग्दृष्टि भी लिया है, अर्थात् जो मनुष्य संयम का पालन नहीं करता किन्तु सच्चे मार्ग का विश्वासी है वह भी वैयावृत्य का पात्र है। ___ . यह अर्थ भी कुछ संकुचित है परन्तु दर्शन ज्ञान चारित्र का साम्प्रदायिक अर्थ न करने से यह संकुचितता भी नष्ट हो जाती है । जब दर्शनशान चारित्र हरएक सम्प्रदाय में हो सकता है तब साम्प्रदायिक संकुचितता तो नष्ट हो ही गई। जिसमें थोड़ा भी स्वार्थत्याग है, विश्वप्रेम है, वह चारित्रधारी तो है ही। इस प्रकार उदार व्याख्यान से इसकी संकुचितता दूर हो जाती हैं। फिर भी स्पष्टता के लिये इतना और समझ लेना चाहिये कि इसके भीतर प्राणिमात्र की सेवा का संकेत है । हाँ, समाज सेवा आदि गुणों को उत्तेजना देने के लिये .गुण के अनुसार वैयावृत्य करना चाहिये । जो अधिक गुणी है, समाजसेवी है, वह वैयावृत्य का अधिक पात्र है । समान आवश्यकता होने पर अधिक गुणी का अधिक ख़याल रखना चाहिये। . . अधिकारी, श्रीमानों और वेषियों की वैयावल्म अविक लोग किया ही करते है, परन्तु वास्तव में वह तप नहीं है। ऊपर विनय के विषय में सो बावें कहीं गई हैं वे वहाँ भी समझना चाहिये। . मनोसोऽभिरूपः । ९-२४-१२। असंयतसम्यग्दुष्टिवी। . 11-२४-१३ । त• राजवार्तिक Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२) [जैनधर्म-मीमांसा स्वाध्याय-स्वाध्याय को भी तप में शामिल करके जैन. धर्म ने तप की व्यापकता तथा प्रत्यक्ष फलप्रदता का सन्दर प्रदर्शन किया है । स्वाध्याय वास्तव में एक महान् तप है। ज्ञान के विना मनुष्य कुछ नहीं कर सकता और स्वाध्याय ज्ञानप्राप्ति का असाधारण कारण है। - इसके पाँच भेद किये गये हैं । वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, धर्मोपदेश। शिष्योंको पढ़ाना अथवा किसी को निर्दोष मन्या सुनाना या उसका अर्थ समझाना वाचना है ! सच पूछा जाय तो वाचना का समावेश.धर्मोपदेश में करना चाहिये । प्राचीन ग्रन्धकारों ने जो इसे स्वतन्त्र भेद माना है उसका कारण प्राचीन युग में लेखनपद्धति की कठिनाई है । पहिले जमाने में शास्त्र श्रुतिस्मृति रूपमें रहते थे। वे सुने जाते थे और स्मरण में रखे जाते थे, इसलिये श्रुति या स्मृति या श्रुति-स्मृति कहलाते थे | जब कोई गुरु या गुरुतुल्य व्यक्ति किसी को याद करने के लिये ग्रन्थ सुनाता था तथा उसका अर्थ भी समझाता था, तब यह वाचना कहलाती थी । धर्मोपदेश में कोई पाठ नहीं किन्तु इच्छानुसार अपने शब्दों में व्याख्यान किया जाता था। .. लेखन प्रणाली का अधिक प्रचार न होने से स्वाध्याय के भेदों में, लिखी हुई पुस्तक आदि के पढ़ने के लिये कोई शब्द ही नहीं रक्खा गया । वार्चना का जो उपर अर्थ किया क्या है, वह - - -तत्र वाचनम् शिष्याध्यायनम् । तत्वार्थमाष्य ९-२५॥ निरवयमन्थार्थोमयप्रदानम् वाचना | ० रा. वर्तिक । ९-२५-। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दधर्म [२७३ । लिखित का पढ़ना नहीं मालूम होता । परन्तु आजकल उसका यही अर्थ करना चाहिये । आजकल पुराने ढंग की वाचना का रिवाज़ नष्टप्राय हो गया है और लिखित के पढ़ने का रिवाज़ सब जगह फैल गया है । इसलिये वाचना का अर्थ - "पढ़ना" करना उचित है। प्रकृतभाषा में अध्ययन के अर्थ में यह शब्द प्रचलिस दुआ है तथा आजकल की लोकभाषा में तो पढ़ने के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग और भी अधिक होता है। पृच्छना का अर्थ है पूछना । निःपक्ष होकर जिज्ञासा के साथ शंका समाधान करना भी एक प्रकार का स्वाध्याय है। पढ़ी हुई, सुनी हुई या अनुभव की गई बातों पर विचार करना अनुप्रेक्षा हैं। स्वाध्याय का यह बहुत महत्वपूर्ण-बाणोपम भाग है । धांग्णं करने के लिये याद करना आनाय है । व्याख्यान देना, समझाना आदि धर्मोपदेश है। ___... व्युत्सर्ग-आभ्यन्तर तथा गह उपधिका त्याग करना व्युत्सर्ग है । प्रायश्चित्त के मेदों में भी इसका वर्णन हुभा है, परन्तु वहाँ अपराध, की प्रतिक्रिया के रूप में है जबकि यहां यह कारण नहीं है। आभ्यन्तर उपधि में कषाय तथा बाह्य उपधि में हर बाल वस्तु का संग्रह किया जा सकता है । परन्तु इसकी. विशेष उपयोग गिता शरीर त्याग में है । और शरीर त्याग,का मतलब मर जान नहीं है किन्तु उसले विशेष रूप में ममत्व छोड़ देना है । अपरिग्रह व्रत की बीक्षा इससे कुछ विशेष जोर दिया जाता है। . . . . . ध्यान- मन की एकाग्रता का नाम ध्यान है । इस तप पर बहुत जोर दिया गया है, इसका वर्णन भी बहुत किया गया है। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१] जिनधर्म-मीमांसा ध्यान के चार भेद हैं आतथ्यान, ध्यान, धर्मथ्यान और शुक्लध्यान . पहले के दो ध्यान बुरे हैं, संसार अर्थात् दुःख के कारण है। पिछले दोनों अच्छे हैं, मोक्ष के अर्थात् सुख के कारण है। वार्तध्यान में पीड़ा होती है : दुःख हर जो ध्यान है का आर्तध्यान है । किसी प्रिय वस्तु के वियोग होने पर (इष्टवियोग ) या अप्रिय वस्तु के मिलने पर (अनिष्टसंयोग, या बीमारी वगैरह से (वेदना) अथवा भविष्य में विषय भोग की आकांक्षा से (निदान) जो ध्यान होता है वह आतथ्यान है। . शा--प्रारम्भ के तीन आर्तध्यान इसलिये अशुभ कहे जा सकते हैं कि उनमें कायरता है इसलिये दुःखों पर विजय प्राप्त करने में बाधा उपस्थित होती है । सहिष्णुता का अभाव होने से थोड़ा दुःख भी बहुत मालूम होता है परन्तु निदान क्यों बुरा है ! यह तो आप ही कहते है कि धर्म सुख के लिये है इसलिये अगर कोई सुख के साधनों की आकांक्षा करे तो इसमें बुरा क्या है ? समाधान-सुख के साधनों को आश करना बुरा नहीं है, परन्तु निदान में असली सुखको आकांक्षा न करके, नकली मुम्बकी आकांक्षा की जाती है । प्रथम अध्याय में मुखका जो स्वरूप बताया गया से मुखकी आकांक्षा करना बुग नहीं, क्योंकि यह मुख समष्टिकी उमति के साथ होता है। परन्तु निदान में ऐसे मुखाभास की आकांक्षा की जाती है जो इसरों के दलका तथा अनेक अनयों का कारण है । इसलिये निदान गाण्यान है, अशुभ है। जो मनुष्य समाज को सुखी करने के साथ अपने को मुखा करना चाहता है अर्थात ऐसी आकांक्षा करता है उसके निदान Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दधर्म] [२७५ बार्तध्यान न समझना चाहिये शंका-भविष्य सुखकी आकांक्षा करने को आपने मिदान बताया परन्तु वर्तमान मुखकी इच्छा करने वाला अर्थात् वर्तमान में विषयों में लीन रहनेवाला क्या मार्तध्यानी नहीं है! क्या वह शुभध्यानी है। 'समाधान-वह शुभध्यानी नहीं किन्तु रौदध्यानी है। भविष्य की भोगाकांक्षा में अप्राप्ति का कष्ट रहता है इसलिये इसे आतध्यान में शामिल रक्खा है, परंतु वर्तमान भोगों में तो एक करता पूर्ण उल्लास रहता है इसलिये इसे विषयसंरक्षणानन्द या परिग्रहानन्द नामका रोद्रायन कहा है। इस प्रकरण. में अपरिग्रह की परिभाषा ध्यान में रखना चाहिये । शरीर की स्थिति के लिये तथा दूसरों को कष्ट न देते हुए अगर वस्तुओं का उपयोग किया जाय तो उस में नशुभ ध्यान नहीं होता। रौद्रध्यान-पाप में आनन्दरूप-उल्लासरूप-पत्ति रोदध्यान है। इसके बार भेद है, हिंसानन्द, अन्नानन्द, चौर्यानन्द, परि. महानन्द । इन के लक्षण इन के नामसे ही मालूम हो जाते हैं। . शंका-जिस प्रकार पार पाँच है, उसी प्रकार सैदध्यान पाँच प्रकार का होना चाहिये था। कुशीलानन्द क्यों छेड़ दिया ! ममाधान-वह परिग्रह या विषय सेवन में शामिल है। पहिले चार व्रत और चार पाप माने जाते थे इसलिये ध्यान की संख्या भी चार ही रही । पीछे जब ब्रह्मचर्यको अलग ब्रत बनाने की ज़रूरत पड़ी तब पाँच ब्रत हो गये । और पांच बतों को सम Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९७६: ] [ जैन धर्म-मीमांसा झाने के लिये पापों का भी पाँच भेदों में वर्णन करना पड़ा | परन्तु रौद्रध्यान के भेद बढ़ाने की कोई ज़रूरत नहीं थी इसलिये वे चार ही रहे । अगर 'आज किसी को उस का पाँच, भेदों में वर्णन करना' हो तो भले ही करे, इस में कोई आपत्ति नहीं है । A धर्म्यध्यान- ज्ञान चारित्र रूप धर्म से युक्त ध्यान धर्म्यध्यान है । धर्मध्यान की कोई ऐसी परिभाषा नहीं जो उसे शुरुध्याम से अलग करती हो । बर्म्यय्न और शुरूध्यान मोया अंतर है, इसका भी स्पष्टीकरण नहीं मिलता है । सर्वार्थसिद्धि में इतना अवश्य कहा है कि श्रेणी आरोहण के पहिले ध्यान है और श्रेणी में शुक्र । फिर भी इसमे दोनों के स्वरूप में अन्तर नहीं मातृम होता जिससे यह समझ में आ जाये कि दोनों में यह गुणस्थान भेद क्यों हुआ है : इसके अतिरिक्त एक अड़चन और है श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित तत्त्वार्थसूत्र में ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान तक ध्यान बतलाया गया है। अगर यह बात मानी, जाय तब तो धम्यच्यान और शुलध्यान एक प्रकार से समान दर्जे के है| जाते हैं । इस प्रकार इनमें स्वरूप भेद बताना और भी कठिन हो जाता है । / - बहुत कुछ विचारने पर व मालूम होता है कि धर्मध्यान में कर्तव्य का विचार किया जाता है इसका सम्बन्ध धर्म पुरुषार्थ से है और शुरूध्यान में धर्म की सिद्धि का अनुभव किया जाता * तत्र व्याख्यानतो विप्रतिपतिरिति प्यारोहणात्प्राग्धर्म्य श्रेण्योः शुक्ते । ९-३७ । 1. उपशान्तक्षीणकषाययोश्च । त० ९-३८ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म ] [ २७५ है इसका सम्बन्ध मोक्ष पुरुषार्थ से है, और दोनों ही बारहवें गुणन स्थान तक जा सकते हैं | तेरहवें चौदहवें गुणा स्थान में तो ध्यान लगाने की आवश्यकता ही नहीं रहती है; वास्तव में वहाँ ध्यान माना भी नहीं जाता, कर्म की निर्जरा होने से ध्यान का उपचार किया जाता है । जीवन के अन्तिम समय में यह अवस्था होती है धर्म्यध्यान के चार भेद हैं । आज्ञाविचय, अपायत्रिचय, विपाक विश्चय संस्थानविचय | आजकल इन चारों ध्यानों क परिभाषाएँ निम्नलिखित रूप में प्रचलित हैं: pam जिस समय कोई बात समझ में न आवे, उस समय यह समझकर कि जिनेन्द्र कभी झूठ नहीं बोलते उस बात पर विश्वास रखना आज्ञात्रिचय है । अथवा जिनेन्द्र के कहे शब्दों को युक्तितर्क से सिद्ध करना आज्ञा त्रिचय है* | कहना न होगा कि धर्म्यध्यान के नाम पर किसी वैज्ञानिक. धर्म में इस प्रकार अन्धश्रद्धा का समर्थन नहीं किया जा सकता । जं.वन में कभी किसी को इस प्रकार श्रद्धा से काम लेना भी पड़े परन्तु ऐसी बात को तो अपवाद और आपद्धर्म के रूप में रखना चाहिये न कि धर्मध्यान का भेद बनाकर । सम्भवतः निःपक्ष • उपदेः कुम्भावान्मन्दबुद्धिवान्कम दियात्सूक्ष्मत्वाच्च पदार्थानां हेतुदृष्टातीपरमे सति सर्वशप्रणीतमागमं प्रमाणीकृत्य इत्थमेवेदं नान्यथावदिनों जिना इति गहन पदार्थश्रद्धाननर्थावधारणमाज्ञाबिचयः अथवा स्वयं विदित पदार्थतत्वस्यतः परप्रातप्रतिपादाः स्वसिद्धान्ताविरोधेन तस्वसमर्थनार्थतर्कनय प्रमाण योजन परः स्मृतिसमन्वाहारः सर्वशालाप्रकाशनार्थत्वादालाविचयः इत्युच्यते । सर्वार्थसिद्धे ६-३६ । Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ [जैनधर्म-मीमांसा विचारकों को तो इसमें कोई स्थान ही नहीं रह जाता । इससे मालूम होता है कि बाजाविचय का यह ठीक लक्षण नहीं है। शास्त्रों का क्या अर्थ है, इस प्रकार का विचार भी आज्ञाविचय* कहा जाता है । वह अर्थ कुछ ठीक दिशा में अवश्य है, फिर भी संकुचित है। आगे वास्तविक अर्थ कहा जायगा। प्राणी सन्मार्ग से किस प्रकार नष्ट हो रहे हैं, इस प्रकार विचार करना अपायविचय है । कर्म का कैसा फल मिलता है इसपर विचार करना विपाक विचय है । और विश्व की रचना पर विचार करना संस्थान विचय है। साधारण दृष्टि से ये परिभाषाएँ ठीक है, परन्तु प्रश्न यह है कि संस्थान विचय के नाम पर भूगोल और खगोल पर जोर क्यों दिया गया ! इतिहास और पुराण पर क्यों नहीं ! बारह भावनाओं में एक लोक भावना है, उसी तरह का यह संस्थान विचय ध्यान है। माना कि भावना में ध्यान की तरह स्थिरता नहीं है परन्त अन्य भावनाओं को भी धर्म्यध्यान के भेदों में क्यों नहीं रक्खा ! यदि कहा जाय कि इनका आज्ञाविचय में समावेश हो जायगा तो बाकी तीनों धर्म्यच्यानों का भी आजाविचय में समावेश किया जा सकता है । इससे मलम होता है कि धर्म्यध्यान का यह श्रेणी. विभाग ठीक नहीं है अथवा इनकी परिभाषाओं में कुछ विकृति आगई है। ___वास्तव में धर्म्यध्यान के इन विभागों में एक क्रम है । बल्कि * आप्तवचनं तु प्रवचनमाहाविचयस्तदर्थनिर्णयनम् । स्थानांग टीका Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म [२७९ , एक विचार के चार अंश हैं । आमाको कल्याणमार्ग में लगाने तथा जगत के उद्धार की अपेक्षा से धHध्य न के ये भेद किये हैं। धर्मशास्त्र में आज्ञा का अर्थ है कर्तव्य की प्रेरणा, अथवा कल्याणोपयोगी पदायों का विधान । उसका विचार करना वह आज्ञा विषय है अर्थात् सुख के मार्ग पर विचार करना आज्ञाविचय है। प्राणियों का जो कर्तव्य है उसका अर्थात् आज्ञा का पालन न करने से वे कैसे दुराचारी, पतित, स्वाण आदि हो जाते हैं इस प्रकार का विचार अपायविचय है। इस प्रकार पतित होकर उन्हें कैसे का भोगना पड़ते हैं, इस प्रकार का विचार विपाकविचय है। "प्राणियों के इस अधःपतन से संसार की कैसी दुरवस्था हो रही है यह संस्थानविचय है। धHध्यान के इन चारों भेदों का ऐसा अर्थ करने से उसमें एक प्रकार का क्रम आजाता है, जो कि धर्म के किसी उद्देश्य को पूरा करने के लिये उचित और आवश्यक मालूम होता है । शुक्लध्यान--धHध्यान की तरह यह भी एक पवित्र ध्यान है । इसके भी चार भेद है, पृथक्त्व वितर्क, (इस अवस्था में ध्यान कुछ काल रहता है। एक विषय पर स्थिर होने पर भी भीतर ही भीतर इसमें कुछ परिवर्तन होता रहता है) एकत्ववितर्क (इसमें परिवर्तन नहीं होता) सूक्ष्म कियाप्रतिपाति (मरते समय जब शरीर में एक प्रकार की स्थिरता आजाती है, बहुत ही सूक्ष्म किया बाकी रह जाती है, उस समय यह ध्यान माना जाता है) व्युपरत.कयानिवर्ति-इसमें वह सूक्ष्म किया भी बन्द हो जाती है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] [ जैनधर्म मीमांसा पीछे के दोनों शुक्लध्यान अहंत के ही माने जाते हैं । इन ध्यानों के लिये कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता । प्रत्येक अहन्त के जीवन के अन्त समय में ये आप से आप होते हैं। पान की व्यावहारिक उपयोगिता भी बहुत है । इससे किसी विषय पर विचार किया जा सकता है, इससे ज्ञान की वृद्धि यो प्राप्ति होती है, दुःखों को भुलाया जाता है, अपने आप में पूर्ण बना जाता है। इस प्रकार ये अन्तरङ्ग तप हैं । बहिरङ्ग तप की अपेक्षा अन्तरङ्ग तपों पर अधिक जोर देना चाहिये । बहिरङ्ग तप वास्तव में तप नहीं है किन्तु वास्तविक तप के लिये एक साधन मात्र हैं । , त्याग-आठवा धर्म त्याग है । त्याग शब्द का व्यापक अर्थ किया जाय तब तो इसमें बहुत से धर्मों का समावेश किया जा संकता है परन्तु यहाँ पर उसका अर्थ दान है । पहिले अध्याय में कहा जा चुका है कि समाज की उन्नति में अपनी उनति है। अगर हम समाज को पतित अवस्था में छोड़कर उन्न। बनाना चाहें तो हमें असफल होना पड़ेगा अथवा इमें जितनी सफलता मिलना चाहिये उतनी सफलता न मिलेगी । द न के द्वारा हम दोनों का कुछ समीकरण करते हैं। दूसरों को उन्नत बनाकर हम यातावरण को कुछ स्वच्छ बनाते हैं जिससे हमें भी श्वास लेने में कष्ट न हो। इस प्रकार दान जितना परोपकारक है उतना ही स्त्रोपकारक है।. जैन शाखों में दान के चार भेद किये गये है। आहार दान, आषधदाम शानदान (ज्ञान दान) और अभयदान, Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म [२८१ अभयदान के बदले में आवासदान भी कहा जाता है। वास्तव में ये दान मुनिसंस्था को लक्ष्य में लेकर कहे गये थे । इसलिये मुनियों को जिन जिन चीजों की जरूरत होती थी उनका नाम लिख दिया गया । परन्तु वास्तव में इसकी उपयोगिता सभी के लिये है, और देश काल के भेद से इस के ढंग में भी परिवर्तन करना आवश्यक है। जैन साहित्य में भी इस प्रकार का संशोधन हुआ है और उस के अनुसार दान के चार भर दूसरे ढंग से किये गये हैं - पात्रदान, करुणादान, समदान, और अन्वयदान । प्रारम्भ के चार दान पात्र-दान में शामिल किये जाते हैं । दान के ये चार भेद पहिले भेदों की ओक्षा अधिक पूर्ण है। पात्रदान- जो लोग सदाचारी हैं, न्यायशील हैं, दुनिया की भलाई के लिये जिनने अपना जीवन लगाया है---उन के सहायता पहुंचाना, उन के जीवन की आवश्यकताएँ पूरी करना पात्र दान है। इसका साम्प्रदायिक अर्थ न करना चाहिये; किन्तु जो भी मनुष्य दुनिया की भलाई के लिये प्रयत्न करता हो और किसी भी ढंग से क्यों न करता हो, उसे सहायता पहुँचाना आवश्यक है। हाँ, सच्चे पात्र को पहिचानने के लिये विवेककी ज़रूरत तो है ही, साप ही उसके कार्योकी उपयोगिता का भी विचार करना पड़ेगा। पहिले ब्राह्मणों को इस प्रकार का दान दिया जाता था और आज भी दिया जाता है, परन्तु अब ब्राह्मण कुलोत्पन्न को दिया जाता है, भले ही वह ब्राह्मग हो या न हो । आर ब्राह्मग Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] [ जैनधर्म-मीमांसा कुलोत्पन्न न हो किन्तु ब्राह्मण हो तो भी नहीं दिया जाता । श्रमण सम्प्रदाय में यह दान श्रमणोपासकों को भी दिया जाने लगा। परन्तु आज पात्रापात्र का विचार कुछ दूसरे ढंग से करना चाहिये । ब्राह्मण कुलोत्पन्न होने से या ब्राह्मण (विद्वान ) होने से ही कोई पात्र नहीं हो जाता और न श्रमण का वेष धारण करने से पात्र होता है । सच्ची साधुता का स्वरूप पहिले कहा गया है । उसी को कसै.टी बनाकर साधुता की-पहिचान करना चाहिये, मनुष्य में निस्वार्थ समाज सेवाके साथ समाज सेवा करने की जितनी योग्यता होगी और उस का वह जितना उपयोग करेगा उसकी पात्रता उतनी ही अधिक होगी, फिर वह किसी भी जाति का क्यों न हो और किसी भी वेप में क्यों न हो। पहिले ज़माने में पात्र को चार वस्तुएँ दी जाती थी। भाजन, औषध, ज्ञानवृद्धि के साधन, रहने या टहरने के लिये स्थान । वस्त्र तथा अन्य उपकरणों का समावेश भी इन्हीं में हो जाता है। आज भी इस प्रकार के साधन जुटाना आवश्यक है। परन्तु इसके अतिरिक्त कुछ और भी करना चाहिये । पात्रों में भिक्षावृत्ति अनिवार्य न वन जाय, उनके हृदय पर कर्मण्यता का कुछ अंकुश रहे तथा कुपात्र भी पात्रों में न घुम जायँ-इसके लिये दानप्रणाली में कुछ नया दंग लाना चाहिये । उनको भोजनादि देने की अपेक्षा उपार्जनके साधन जुटादेना की बहुत अच्छा है। वे स्वयं परिश्रम करें, उस के बदले में जीवन निर्वाह के लिये उचित और आवश्यक वस्तुएँ लें और अगर कुछ बचत हो तो समाज को अर्पण करें। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म ] [२८३ , पहिले ज़माने में साधुओं को या धर्म-स्थानों को जमान वगैरह दी जाती थी। उसका प्रयोजन यही था कि समाज-सेवक लोग कृषिद्वारा अपना जीवन निर्वाह करें और इस प्रकार स्वाश्रयी बनकर समाज सेवा करें । परन्तु बहुत समय व्यतीत हो जाने पर इत्या दुरुपयोग होने लगा। उनमें कर्मण्यता तो न रही किन्तु जमीदारी-शान आ गई । उनने अपने हाथ से काम करना छोड़ दिया और पूँजीवादी मनोवृत्ति से काम लेना शुरू किया। आन पूंजीवादी मनोवृत्ति को दूर करके इसी प्रकार के आश्रमों या संस्थाओं की जरूरत है जिनके पन्चन में रहकर समाज-सेवक-वर्ग समाज-सेवा करता हुआ जीवन यापन करे, जिसमे इनको भी शान्ति मिले और समाज को सच्चे सेवक तथा मित्र मिलें। जो काम पैसा खर्च करके वेतन नगी विद्वानों से नहीं हो सकता, यह इनमे हो, फिर भी मन के ऊपर इनका कम से कम बोझ पड़े। यह आवश्यक नहीं है कि ये लोग खेती ही करें । ये लोग गृहोद्योग तथा मशीनों के अन्य काम भी करें, छोटे बड़े कारखाने च ठा-साहित्य प्रचार के लिये मुद्र गाय च ठारें । इससे साधु. संस्था और समाज सेवक वर्ग स्वाधी, कण्य, उत्तरदायित्वपूर्ण और संगठित बनेगा । इसके अतिरेक राष्ट्रीय दृष्टि से बहुत लाभ * लाज कल सरीखी जर्मादारी की प्रथा अर्वाचीन है। अगर मैं भूलना नही है तो अकबर बादशाह के समय राजा तोडरमल ने इस प्रथा का सूत्रः पात किया था : इसके पहिल जान के मालिक ही जमीन जोतते हाग। इसकिये समारियों के दाजनी, क.: उपलोग वे ही करते होगा। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जैनधर्म-मीमांसा २८१ ] होंगे | उदाहरणार्थ:-- राष्ट्र के जो उद्योग विदेशी पूँजीपतियों की प्रतियोगिता के कारण पनप नहीं सकते या टिक नहीं सकते, वे इन स्त्रार्थत्यागियों के भरोसे खड़े किये जा सकेंगे क्योंकि इन लोगों को बदला बहुत घोड़ा देना पड़ेगा । अगर राष्ट्र का ग्राम्य जीवन बर्बाद हो रहा है तो ये लोगजो कि विवेकी सभ्य और त्यागी होंगे - ग्राम्य जीवन का आदर्श उपस्थित करेंगे, जहाँ स्वच्छता, सभ्यता, सहयोगशीलता के साथ नागरिकता का समन्वय किया जायगा । इस प्रकार के नमुने उपस्थित कर दूसरे ग्रामों को इसीप्रकार सुधारने की कोशिश करेंगे । एक बार जहाँ इस प्रकार ग्राम्य सुधार की हवा चली कि वह सर्वव्यापी हो जायगी । जिस देश में करोड़ों रुपये धार्मिक संस्थाओं को दान दिया जाता हो उस देश में अगर उसका दसवाँ भाग इस ढंग से खर्च किया जाय तो देश की सारी आवश्यकताएँ देश में ही पूरी की जा सकती हैं । इस प्रकार अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक आक्रमणों का पाप दूर किया जा सकता है । अगर किसी उद्योग में एक लाख रुपया प्रतिवर्ष घाय सहा जाय और उस में काम करने वाले साधु के समान अपरिग्रही हों तो यह सम्भव ही नहीं है कि थोड़े से वर्षो में वह अपने पैरों पर खड़ा न हो सके । प्रारम्भ से ही जब पूँजीवादी मनोवृत्ति काम करने लगती है तब असफलता होती है, परन्तु यहाँ तो पूँजी खो देने तक की तयारी है और निस्वार्थ काम करना है तब क्यों न सफलता होगी ? Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म ] [ २८५ इस प्रकार दान करने की दिशा में परिवर्तन करना चाहिये ऐसी संस्थाओं के नीचे उद्योग चलाने के लिये धन का दान करना किसी भी अन्य धार्मिक संस्था में दान करने की अपेक्षा अधिक पुण्यका कार्य है क्योंकि इससे स्वकल्याण और परकल्याण दोनों ही होते हैं। इस जरिये से बेकारी भी इटायी जा सकती है और आदर्श समाज भी बनायी जा सकती है। इन दोनों बातों के नाना सुफल होंगे वे अलग | ये आश्रम लोगों को शांति प्रदान करने तथा जीवन सुधार की शिक्षा लेने के लिये भी उपयोगी होंगे। पुराने ढंग के लोगों में तीर्थाटन का बहुत रिवाज है। नये ढंग के के लोग भी हवाखोरी के बहाने देशाटन करते ही हैं । कुछ लोग नगरों से या अपने स्थान से ऊब कर कुछ समय के लिये अन्यत्र चले जाते हैं । ऐसे लोगों के लिये ये आश्रम बड़े काम की चीज होंगे । यहाँ पर आकर लोग सकुटुम्ब होकर रहें। जीवन सुधार का, संयम का, शांति का अभ्यास करें । साथ ही वायु परिवर्तन भी । इस प्रकार ये संस्थाएँ समाज राष्ट्र और विश्व की बहुत अच्छी चीज बन सकेंगी। . पात्र दान की यह नयी व्यवस्था विवेकपूर्ण तथा बहुत फल देनेवाली है । रोटी खिला देने से या थोड़ा-सा अन्न दे देने से या थोड़ी सी सम्पत्ति आँख बन्द कर जहाँ चाहे फेंकदेने से पात्र दान नहीं हो जाता | उस के लिये विवेक से काम लेकर ऐसा प्रयत्न करना चाहिये, जिस से समाज का सर्वाङ्गीण विकास हो उस के कष्ट कम हो तथा सुख में वृद्धि हो । पात्र दान में अन्य दानों की अपेक्षा विशेषता यह है कि Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६] [जैनधर्म-मीमांसा इस में पात्र की पूजा की जाती है । इस के लिये चरण धोने आदि की प्रणाली प्रचलित है । यह है तो अनुचित, परन्तु इसके भीतर एक रहस्य है, वह अवश्य ही ध्यान में और व्यवहार में रखने लायक है। पात्र-दान ऐसे ही लोगों को दिया जाता है जो कि निस्वार्थ समाज सेवक हैं । उनको दान देकर हम उनके ऊपर अहसान नहीं कर रहे हैं-यह बात ध्यान में रहे, इसलिये यह पूजा-अर्चाकी प्रथा है । उसका वर्तमान रूप त्याग करके भी हमें उस का भाव ध्यान में रखना चाहिये, तथा सच्चे समान-सेवकों को अहसान में न दबाकर उनका आदर करना चाहिये तभी उन से लाभ उठाया जा सकता है; अन्यथा सच्च सेवक न तो मिलेंगे और न हम उनसे सच्ची सेवा ले सकेंगे। कदाचित वे हमारी इच्छा के अनुसार काम करेंगे, जैसा कि हम चाहते हैं, परन्तु हित के अनुसार नहीं। करुणादान- दीन-दुःखी मनुष्यको करुणा बुद्धि से दान देना करुणा-दान है । चिकितालय खुलवाना आदि इसी दान के भीतर है । सदावर्त द्वारा गरीबों को भोजन देना भी करुणादान है। परन्तु इसकी अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि उनसे कुछ काम कराया जाय जिससे उनमें दीनता, भिखमंगापन, आलस्य आदि न आने पावे। शंका-अगर किसी देश में काम करनेवाले इतने अधिक हो कि उन्हें काम न मिलता हो, और फिर इन भिक्षुकों से भी काम लिया जाने लगे तब तो वेकारी और बढ़ेगी। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म ] [ २८७ समाधान-इनको ऐसे काम दिये जावें जिन्हें कि आर्थिक दृष्टि से लाभप्रद न होने से कोई न करता हो । देश में ऐसे बहुत से काम होते हैं जो आवश्यक होने पर भी बहुव्ययसाध्य होने से उसके लिये कोई पैसा खर्च नहीं करता । ऐसे काम इन लोगों से लेना चाहिये । मानलो गाँव के बाहर एक ऐसी ज़मीन है जहाँ लोग शाम को घूमने जा सकते हैं, परन्तु जमीन इतनी ऊबड़ खाबड़ तथा पथरीली है कि कोई उसका उपयोग नहीं करता। म्युनिसिलिटी या ग्राम्यसंघ में पैसे की इतनी गुंजायश नहीं है कि वह मजूर लगाकर यह काम कग सके, और गाँव का कोई श्रीमान भिक्षुकों को मुट्ठीभर अनाज रोज़ देता है । अ६ अगर वह इस शर्त पर अनाज दे कि सब भिक्षुक पन्द्रह मिनिट तक वह जमीन साफ़ करें तो थोड़े ही दिनों में वह बिलकुल साफ हो जायगी। अपर इससे भी मजूगेकी मजरी मारी जाती हो तो और कोई काम देखना चाहिये । यह तो एक उदाहरण मात्र है। और इस तरह के काम दूंटे जा सकते हैं जो भिक्षुकों से कराये जाय किन्तु उसके लिये किसी को बेकार न होना पड़े । इस प्रकार करुगादान में अगर विक से काम लिया जाय तो अकर्मण्य लोग करुणास्पद बनने का ढोंग न करेंगे, तथा यह दान व्यापक रूप में लोकोपकारक सिद्ध होगा। हाँ, जो लोग किसी कारण से कोई काम करने लायक न हों तो उनको वैसे ही मदद की जाय । क्योंकि इसका क्या ठिकाना कि हमारी कभी दुरवस्था न होगी। उस समय इस सुनियम का सुफल हमें भी मिलेगा । परोपकार क्यों आवश्यक है, इस विषय में प्रथम अध्याय में लिखा गया है । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] [ जैनधर्म मीमांसा शङ्का- अगर हम कर्मफल को मानते हैं तो हमें करुणादान क्यों करना चाहिये ? प्राणी अपने पाप का फल भोगते हैं। वह उन्हें भोगना चाहिये । उन्हें उस से छुड़ाने का प्रयत्न करने वाले हम कौन ! समाथान-इस प्रकार का विचार हमें दूसरों के लिये ही न करना चाहिये, किन्तु अपने कुटुम्बियों और अपने लिए भी करना चाहिए । अपना पुत्र जब बीमार पड़े तो उसकी चिकित्सा सेवा न करना चाहिए यहाँ तक कि जब हम स्वयं बीमार पड़ें तब निरोग होने की चेष्टा न करना चाहिए । चलते चलते गिर पड़ें तो उठना भी न चाहिए अन्यथा कर्मफल में बाधा आयगी । अगर अपने लिये हम इतनी उदारता का उपयोग नहीं करते तो दूसरे के लिए भी उस का उपयोग न करें, इसी में हमारी सच्चाई है । दूसरी बात यह है कि हमारे और दूसरे के भाग्य में क्या है-यह हमें दिखाई नहीं देता । इधर कर्म भी अपना कार्य करने के लिये नोकर्म ( बाह्य निमित्तों) की अपेक्षा रखता है । इसलिए सम्भव है कि उसका शुभ कर्म उदय में हो जिससे वह विपत्ति से छुटकारा पानेवाला हो, परन्तु किसी बाह्य निमित्त की ज़रूरत हो । वह हमें जुटा देना चाहिए । सहायक का संयोग भी, तो उस के शुभ कर्म की निशानी है। तीसरी बात यह है कि मनुष्य में दैव की प्रधानता नहीं है, किन्तु पुरुषार्थ की प्रधानता है। देव अपना काम करे, परन्तु हमें भी अपना काम करना चाहिए । देव को हम नहीं जान सकते, न वह हमारे हाथ । में है हमारे हाथ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म ] [ २८९ पुरुषार्थ है, प्रयत्न है-इसलिये दैव का विचार किये बिना हमें प्रयत्नशील होना चाहिए और अधिक से अधिक भलाई करना चाहिए। शङ्का--असंयमी प्राणियों पर करुणा करने से तथा उन की रक्षा करने से असंयम की वृद्धि ही होगी । भविष्य में वे जो पाप करेंगे उसके निमित्त हम भी होंगे। समाधान- प्राणी के जीवन में असंयम ही नहीं होता किन्तु संयम भी होता है, उसमें प्रेम भी होता है, इससे वह किसी का अवलम्बन भी बनता है, इसलिये हमें असंयमी का नहीं किन्तु असंयम का विचार करना चाहिए। असंयम के कार्य में सहायता कभी न करे, परन्तु असंयमी को सहायता करना चाहिए। सम्भव है-इमासे यह संयमी बने, दूसरों के लिए वह भलाई का साधन बने । गाय भैस आदि पशु भी असंयमी होते हैं, परन्तु उनकी रक्षा से समाज की रक्षा है । अहिंसा के प्रकरण में भी इस विषय में विवेचन किया है । उस पर भी विचार कर लेना चाहिये। समदान- सामाजिकता तथा प्रेम बढ़ाने के लिये प्रीतिभोज करना आदि समदान है । यथाशक्ति ये काम भी उपयोगी हैं। इससे साम्पत्तिक वितरण में समता आती है-~-पारस्परिक सहयोग का भाव बढ़ता है । प्रवास वगैरह में हम दूसरों को, दूसरे अपने को सहायक होते हैं । हाँ, विवेक से काम लेने की जरूरत तो यहाँ भी है । मृत्युभोज सरीखी कर क्रियाओं का समर्थन इससे नहीं किया जा सकता। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ] [जैनधर्म-मीमांसा 1 अन्वयदान - अपनी सम्पत्तिका किसी या किन्हीं उत्तराधिकारियों को सौंपना अन्वयदान है | बहुत से लोग शायद इसे दान न मानेंगे, परन्तु यह भी एक दान है । हमारे मर जाने पर हमारे उत्तराधिकारी जो हमारी सम्पत्ति के स्वामी हो जाते हैं-वह दान नहीं है । दान वही है कि अपने जीते जी अपनी सम्पत्ति का यथायोग्य वितरण कर देना, तथा वानप्रस्थ होकर अपना स्थान दूसरों को खाली कर देना तथा अपने हाथ में ऐसे काम ले लेना जो समाज की उन्नति तथा प्रगति के लिये उपयोगी हैं, किन्तु आर्थिक बेकारी नहीं फैलाते । जीवन के अंतिम भाग में सेवा और शान्ति के लिये प्रयत्न करना चाहिये । कर्मयोगी बनकर विश्वमात्र की सेवा के लिये कर्मशील बनना उचित है । अन्वय-दान इस क्रिया बहुत सहायक है | I 1 दान की यहाँ दिशा-मात्र बतला दी गई है । इससे दान के विषय में पर्याप्त विचार किया जा सकेगा । हाँ, एक बात ध्यान में रखना चाहिये कि दान ऐच्छिक धर्म नहीं है, किन्तु अनिवार्य है । सम्पत्ति होने पर अगर दान न किया जाय, उसकी कैद करके रख लिया जाय तो इसमें समाज का दोह है, परिग्रह पाप है । अपरिग्रह के प्रकरण में भी इस विषय पर पर्याप्त विचार किया गया है । सम्पत्ति एक न एक दिन टूटनेवाली तो अवश्य है । भले ही वह ऐसे आदमी को मिले जिसे हम अपना पुत्र कहते हैं, परन्तु आखिर वह भी तो समाज का ही एक अङ्ग है। शायद हम यह समझें कि उसे सम्पत्ति देने से नाम चलेगा; परन्तु इसका Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशधर्म 1 [ २९१ > भरोसा क्या है ? दूसरी बात यह है कि अगर सम्पत्ति से नाम चल सकता है तो उसका उपयोग जीवन में ही क्यों न किया जाय - जिससे यश का आनन्द अपने को मिल सके ! तीसरी बात यह है कि अपने मरने के पीछे उत्तराधिकारी सम्पत्ति ले ले और उससे किसी का जितना नाम हो सकता है उससे हज़ार गुणा नाम उसका होता है - जो समाज के लिये सम्पत्ति दे जाता है । यहाँ सन्तान को भिक्षुक बना देने की बात नहीं है । सन्तान का पालन, रक्षण, उन्नति आदि भी समाज का कान है । परन्तु सभी तरफ समतोलता रहे - इसके लिये एक तरफ जोर दिया गया है । इस प्रकार दान, यश की दृष्टि से तथा समाज हित की दृष्टि से बहुत उपयोगी है। यह परमार्थ भी है और स्वार्थ भी हैं । आर्किचिन्य - अर्थात अपना कुछ न समझना । अपरिग्रहव्रत के लिये, शौच और दान के लिये यह उत्तेजक है | अपने की स्वानी नहीं, किन्तु दृस्टी, रक्षक मानने में निराकुलता भी है तथा समाज हित भी है । ब्रह्मचर्य - - इसका विवेचन पहिले विस्तार से किया गया है। परिवह विजय मुनि या संयमी मनुष्य को परिवह विजय करना चाहिये, अन्यथा वह संयम का पूर्ण रूप से पान नहीं कर सकता ह संयम से गिर पड़ेगा | इसके लिये बाईस परिषदों को जीतने का उल्लेख है । मैं पहिले मुनियों के ग्यारह मूल-गुणों का उल्लेख कर आया हूँ । उनमें एक कष्ट सहिष्णुता भी है | परिषदों का Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ] [जैनधर्म-मीमांसा यथाशक्ति विजय करना इसी मूल-गुण में शामिल है । स्वास्थ्य वगैरह को सम्हालने की जो बातें कष्ट-सहिष्णुता के वर्णन में कही गई हैं, उनका यहाँ भी ध्यान रखना चाहिये । हाँ, योग्य कर्त्तव्य के लिये स्वास्थ्य का क्या, जीवन का भी बलिदान करना पड़ता है । 1 यद्यपि यहाँ परिवह-विजय पर कुछ लिखने की जरूरत नहीं थी, परन्तु कुछ परिपहों पर जुदे जुदे दृष्टि-बिन्दुओं से विचार करना है, इसीलिये यहाँ कुछ लिखा जाता है । परियहें बाईस हैं । उनका अर्थ उनके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है । यह भी आवश्यक नहीं है कि वे बाईस ही मानी जायँ । आवश्यकता होने पर उनमें न्यूनाधिकता भी हो सकती है। उनके नाम ये हैं: क्षुधा (भूख), पिपासा (प्यास), शीत, उष्ण, दंशमशक (डॉस, मच्छर, बिच्छू, सर्प आदि), नग्नता, स्त्री, चर्या ( चलने का कष्ट), निषद्या ( एक जगह आसन लगाने का कष्ट ), शय्या ( मोने का कष्ट, कटोर ज़मीन में सोना पड़े आदि), आकोश ( गालियाँ वगैरह सहना पड़े ), वध ( मारपीट सहना पड़े ), याचना, अलाभ ( भिक्षा वगैरह न मिले ), रोग, तृणस्पर्श (कंटक वगेरह ), सत्कारपुरस्कार (मानापमान ), प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन इनमें से कुछ परिषहों पर विशेष सूचना करने की ज़रूरत है । नग्नता इस विषय में मूल-गुणों की आलोचना करते समय लिख दिया गया है । यहाँ सिर्फ इतना सम्झना चाहिये कि परिषहों में नग्नता के उल्लेख से इतना तो मान्न होता है कि जैन सम्प्रदाय में नग्नता प्राचीन है, अर्थात् महात्मा महावीर के ज़माने से Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिपह-विजय ] [ २९३ है । परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह अनिवार्य है । परिहों में जो परिषहें उपस्थित हो जायँ उन पर विजय करना चाहिये | सहन करने के लिये प्रत्येक परिपह को रखना जरूरी नहीं है । जैसे साधु प्रति समय भूखा-प्यासा आदि नहीं रहता, उसी प्रकार नग्न रहना भी जरूरी नहीं हैं। हाँ, अगर कभी नग्न रहना पड़े तो उसे विजय करने की शक्ति रखना चाहिये | कुछ लोग नग्नता के समर्थन में कहने लगते हैं कि अगर कोई मनुष्य नग्न रहकर टण्ड - गर्मी नहीं सह सकता तो वह साधु क्यों बनता है ? इसके उत्तर में पहिली बात तो यह है कष्टसहिष्णुता का सम्बन्ध सिर्फ शरीर से नहीं है - वह अनेक परिस्थितियों पर अवम्बित है | दूसरी बात यह है कि नाग्न्य परिषद का ठंड-गर्मी आदि से कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु लज्जा से है । एक आदमी शीत पीड़ित होकर ताप रहा है, किन्तु नग्न है । तो हम उसे शीत-परिव-विजयों तो न कह सकेंगे, किन्तु नग्न- परिपह विजयी कह सकेंगे। इसी प्रकार लँगोटी लगाकर टंड सहनेवाला नम्न परिवजयी नहीं है, किन्तु शीतजयी है । इसीलिये इस परिवह का सम्बन्ध चारित्र मोह से रक्खा गया है, क्योंकि इससे शरीर पर नहीं, मन पर विजय प्राप्त करना है । मन पर विजय प्राप्त करके भी अगर लोगों की सुविधा के लिये नग्न न भी रहे तो भी वह नपरिवह विजयी है | " स्त्री-त्रियों की तरफ से कामुकतापूर्ण आकर्षण किया जाय तो उस आकर्षण पर विजय प्राप्त करना स्त्री-परिवह विजय है । यह परिवह तो सिर्फ़ साधुओं को ही लागू हो सकती है, न Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ ] [जैनधम-मीमांसा कि साध्वियों को । परन्तु परिषह-विजय तो दोनों के लिये एक-सी आवश्यक है । तब स्त्री-परिषह के समान पुरुष-परिषह क्यों नहीं मानी जाती है इसका कारण तो सिर्फ यही मालूम होता है कि पहिले जमाने में जब साधारणतः किसी बात का उपदेश दिया जाता था तब वह विवेचन पुरुषों को लक्ष्य में लेकर किया जाता था, इसलिये उन ही को लक्ष्य लेकर यह परिषह बन गई है। दूसरा कारण यह है कि साधारणतः पुरुष जितना स्त्री की तरफ आकर्षित होता है-उतनी स्त्री पुरुष की तरफ आकर्षित नहीं होती, अथवा आकर्षित हो करके भी उसका आकर्षण प्रगट नहीं होता, इसलिये पुरुष को सम्हालने की अधिक ज़रूरत मालूम हुई । परन्तु ये दोनों कारण पर्याप्त नहीं हैं । इसलिये आज तो इस परिषह का नाम बदल देना चाहिये । स्त्री-परिपह के बदले इसका नाम "काम. परिषह" रखना चाहिये । यह स्त्री और पुरुप दोनों के लिये एक सरीखी है। याचना-इस परिपह के अर्थ में दोनों सम्प्रदायों में मतभेद है । दिगम्बर सम्प्रदाय कहता है कि प्राण जाने पर भी दीन वचन न बोलना और न किसी से आहार वगैरह की याचना करना याचना-परिप-विजय है । याचना के रिवाज को व पाप समझने हैं * . जब कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इसे पाप नहीं माना गया है, बल्कि याचना करने में दीनता तथा अभिमान न आने देना * अद्यावे पुनः कागदांपादीनानाथपाखंडि बहुले जगन्यमार्गक्षरनामावतिः याचनमनुष्टीयते । न० स० वार्तिक ९-९-२१ । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषह - विजय ] [ २९५ 1 ! * याचना - परिषह का विजय है । दोनों सम्प्रदायों के मुनियों की भिक्षा का ढंग जुदा जुदा है । इसीलिये इस परिषद के अर्थ करने में यह गड़बड़ी पैदा हुई है । मैं लिख चुका हूँ कि भिक्षा के दोनों ढङ्ग प्राचीन हैं । पहिला ढङ्ग जिनकल्पियों का है, दूसरा ढङ्ग स्थविरकल्पियों का । आंशिक दृष्टि से दोनों ठीक हैं; फिर भी याचना-परिषद की उपयोगिता तथा वर्गीकरण की दृष्टि से पहिला अर्थ कुछ असंगत मालूम होता है । यहाँ यह बात याद रखना चाहिये कि याचना परिह का सम्बन्ध भी चारित्रमोह से है । इससे यह मालूम होता है कि उसमें किसी मानसिक - वासना पर विजय प्राप्त करना है । दिगम्बर मान्यता के अनुसार उसका सम्बन्ध चारित्रमोह से नहीं रहता; बल्कि भूख-प्यास सहने के समान असातावेदनीय से हो जाता है । यों तो हरएक परिषह में वास्तविक विजय तो मन पर ही करना पड़ती है; परन्तु कुछ का सम्बन्ध पहिले शरीर से हैं फिर मन से, जब कि कुछ का सीधा मन से ग्यारह परिषहें शारीरिक कष्टों से सम्बन्ध रखती हैं, इसलिये उनका कारण असातावेदनीय माना जाता है; और बाकी ग्यारह घातिया कर्मों से सम्बन्ध रखती है । - याचना करने में लज्जा, दीनता, संकोच आदि मानसिक कष्टें | का सामना करना पड़ता है, इसलिये उनके विजय करने का नाम्यारति स्त्रीनिषद्याक्रोशयाचना सत्कार पुरस्काराः ९- १५ सत्यार्थ । + क्षुधा, तृषा, शीत, उप, दंशमशक, चर्चा, शय्या, अब, रोग, तृणस्पर्श, मळ | * चारित्रमोहे Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] [ जैनधर्म मीमांसा विधान किया गया है, इसलिये याचना करना ही वास्तव में परिषद 'कहलायी - जिस पर विजय प्राप्त करना है । याचना न करना परिषह नहीं है, क्योंकि उससे किसी मानसिक कष्ट का सामना नहीं करना पड़ता । इसीलिये परिषह का नाम याचना है, न कि अयाचना | इस ग्रन्थ के अनुसार तो मुनियों का कार्यक्षेत्र विशाल है तथा मुनियों का धर्म गृहस्थों के लिये भी उपयोगी है, इसलिये याचनापरिषद का क्षेत्र विशाल है । भोजन के विषय में भिक्षावृत्ति अनिवार्य न होने से उस विषय में आज याचना - परिषह अनिवार्य नहीं है; फिर भी अगर कभी ज़रूरत हो तो याचना- -विजय करना चाहिये | इसके अतिरिक्त धर्म तथा समाज की उन्नति के लिये लोगों से अनेक प्रकार की याचना करना पड़ती है, इसलिये वहाँ भी उस परिषद के विजय की आवश्यकता है । मल - इसके विजय की भी ज़रूरत है, परन्तु इसके नाम पर शरीर को मलिन रखने का जो रिवाज़ है-वह ठीक नहीं है । अकलंक देव ने इस विषय में एक बात यह भी कही है कि केशलाच परिषह भी इसी में शामिल है । परन्तु यह ठीक नहीं मालूम होता, क्योंकि मल- परिपक्ष विजय का अर्थ है घृणित चीजों से भी घृणा न करके कर्तव्य पर दृढ़ रहना । बाल कोई मल नहीं है, बल्कि वे तो शृङ्गार के साधन माने जाते हैं। अगर उन्हें मलरूप माना भी जाय तो उनके धारण किये रहने में मल - परिषह - विजय है-न कि लौंच करने में । इसलिये यह समाधान ठीक नहीं है । आज केशलोंच की ज़रूरत नहीं है, इसलिये उसका उल्लेख निरर्थक है । अगर उसकी जरूरत होती तो उसका नाम Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषह - विजय ] [ २९७ अलग ही लेना चाहिये था। यह भी सम्भव है कि प्रारम्भ में- जब कि परिषों की गणना की गई हो उस समय-केशलोंच का रिवाज़ न हो । प्रज्ञा - विद्वान् और बुद्धिमान होने से मनुष्य में एक प्रकार का अहंकार आ जाता है । यह उसके अधःपतन का मार्ग है तथा समाज हित का नाशक है, इसलिये ऐसा अहंकार न आना चाहिये । यहाँ प्रज्ञा उपलक्षण है इसलिये किसी भी तरह का विशेष गुण जिससे अहंकार पैदा हो सकता है, वह सब प्रज्ञा शब्द से समझना चाहिये । अज्ञान- अज्ञान की व्याख्या भी गुणाभावरूप करना चाहिये । प्रज्ञा से यह उल्टा है । उसमें गुण के अहंकार का विजय करना पड़ता है और इसमें गुणाभाव से जो दीनता, निराशा, अपमान, अपमान से पैदा होनेवाली कवाय आदि का अनुभव करना पड़ता है, उस पर विजय की जाती है । अदर्शन- अविश्वास पर विजय प्रास करना अदर्शन-परिवह है । धर्म मनुष्य को सदाचारी बनाना चाहता है । इसलिये वह स बात की घोषणा करता है कि सदाचार, संयम, तप आदि से सब प्रकार की उन्नति होती है। सैकड़ो मनुष्य मिलकर जो काम कर सकते हैं, जो जान सकते है-वह सब तपस्त्री की भद्धियों और अलौकिक प्रत्यक्षों के आगे कुछ नहीं है । इस आशा से सैकड़ों मनुष्य अपने जीवन को सदाचारमय बनाते हैं और जब उन्हें सदाचार का मर्म समझ में आ जाता है तब वे समझ जाते हैं कि ऋद्धियों आदि की बात तो निरर्थक है, सदाचार से इनका कोई Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ] [ जैनधर्म-मीमांसा 1 विशेष सम्बन्ध नहीं है | वास्तव में सदाचार से आत्मिक शान्ति और सुख मिलता है, परलोक सुधरता है, दुनियाँ की भलाई होती है और उससे मेरी भी भलाई होती है - इस प्रकार धर्म का मर्म समझकर वह केवली हो जाता है । परन्तु यह अवस्था प्रारम्भ में नहीं होती । पहिले तो मनुष्य यह समझता है कि संयम का पालन करने से सचमुच मैं यहाँ बैठे बैठे हजारों कोस की सब चीजें देखने लगूँगा, तप से आकाश में उड़ने लगूँगा, बनाना और बिगाड़ना मेरे बाएँ हाथ का खेल हो जायगा आदि । अन्त में जब उसे इनकी प्राप्ति नहीं होती और उधर वह धर्म का मर्म भी नहीं समझ पाता, तब वह व्याकुल हो जाता है वह धर्म पर अविश्वस करने लगता है ! इसका नाम है अदर्शन - परिष। जैन - शास्त्र कहते हैं कि यह परिषद दर्शन - मोह अर्थात मिथ्यात्व के उदय से होती है । बात बिलकुल सत्य है । धर्म का मर्म नहीं समझना, यह मिथ्यास्त्र तो है ही । उसी से यह परिषह होती है । इस परिषह को, विजय, करने का उपाय यही है कि धर्म का मर्म समझा जाय । उसके कार्यकारण भाव का ठीक ठीक पता लगाकर यह विश्वास किया जाय कि धर्म का फल भौतिक जानकारी तथा ऋद्धियाँ नहीं हैं, किन्तु आत्मिक ज्ञान तथा शान्ति है । इस तरह अदर्शन - परिवह विजय करना चाहिये | 1 पर 1 मैं पहिले कह चुका हूँ कि परिपहों की नियत संख्या बनाने की ज़रूरत नहीं है । परिषों की संख्या बदली मी जा सकती है । उदाहरणार्थ, लज्जा परिवह है । जब एक आदमी साधु हो जाता है और उसे अपने हाथ से झाडू लगाना पड़ती है, बर्तन Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९९ परिषह-विजय] मलना पड़ता है, कभी मल-मूत्र भी साफ करना पड़ता है तो उसे इन कामों में टना आती है। परन्तु ऐसी लजा न आना चाहिये - इसे स्वावलम्बन, सेना और अहिंसा का कार्य सम्झकर प्रसनता से करना चाहिये । यह लजा-परिषह का विजय है । इस प्रकार और भी परिषहें दूंही जा सकती हैं। धर्म चारित्रमय है । इसलिये उसका जितने द्वारों से विवेचन किया जाए उतना ही थोड़ा है । दुःख को दूर करने तथा भविष्य के लिये न आने देने के लिये अनेक उपायों का वर्णन जैन शास्त्रों में किया गया है, उनमें अधिकांश की विवेचना यहाँ कर दी गई है। कुछ उपाय जान बूझकर छोड़ दिये जाते हैं। जैसे चारित्र के गच भेद है सामायिक छदोपस्थापना आदि । अभेद रूप में व्रत लेना सामायिक, भद रूप में व्रत लेना छेदोपस्थापना । आजकल उन भेदों की कई विशेष उपयोगिता नहीं है, इसलिये उन पर उपेक्षा की जाती है । गृहस्थ-धर्म जैन शाखों में अहिंसा अणुव्रत आदि १६ व्रतों के नाम से गृहस्थ-धर्म का जुदा विवेचन किया गया है साधारण शब्दों में गृहस्थों का धर्म अणुव्रत कहा जाता है । परन्तु अणुव्रत और महाबत की सीमा का वर्णन में 'पूर्ण और अपूर्ण चारित्र' शीर्षक के नीचे कर आया हूँ । साधारणत: श्रावक का अणुव्रत के साथ और मुनि का महावत के साथ सम्बन्ध न जोड़कर स्वतंत्र रूप में ही इनकी व्याख्या करना चाहिये, जैसी कि पहिले मैंने की है। इसलिये जैन शास्त्रों में जो अणुव्रत या देशव्रत के नाम से कहे जाते हैं, Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० [जैनधर्ममीमांसा उन्हें अणुक्त न कहकर गृहस्थात कहना चाहिये । गृहस्थों के बारह व्रत कहे गये हैं । अहिंसा आदि पाँच व्रत तो वे ही है-जिनका पहिले विवेचन किया गया है । इसके अतिरिक्त तीन गुणत्रत और चार शिक्षाबत और है । इसमें से कुछ तो अनावश्यक है। संक्षेप में उनका विवेचन किया जाता है। . गुणव्रत तीन हैं और शिक्षात चार है। अणुव्रत में वृद्धि करनेवाले व्रत गुणव्रत हैं और संयम की या मुनिधर्म की शिक्षा देनेवाले व्रत शिक्षाक्त हैं। यहाँ तक जैन शास्त्रों में मतभेद नहीं है, परन्तु गुणव्रत और शिक्षाबत के नामों में मतभेद है। एक मत-जिसका आचार्य उमास्त्राति आदि ने उल्लेख किया है-के अनुसार सातो का क्रम यह यह है। तीन गुणव्रत-दिग्बत, देशवत, अनर्थदंडवत । चार शिक्षाबत-सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगापरमाण, अतिथिसविभाग । ___गुणव्रत प्रायः जीवन भर के व्रत * होते है. और शिक्षाप्रत प्रति दिन के अभ्यास के क्त है । इस लक्षण के अनुसार देशवितिको गुणत्रत में शामिल नहीं कर सकते, परन्तु आचार्य उमास्वाति ने यह परिवर्तन क्यों किया इसका-ठीक ठीक उल्लेख मही मिलता। पताम्बर सम्प्रदाय की आगम परम्परा में भी देश -गुणा अणुव्रतामामुपकारार्थ ब्रां गुणवतम, दिग्वित्यादीनाम. शुव्रतानाहणार्थत्वात् । तथा मयति शिक्षाबतं । शिक्षा अभ्यासाय अंत दंशावकाशिकादर्दान! प्रांतदिक्साम्यसनीयत्वात् । अतएव मुणवतावस्य भेदः । जुनबतं हि प्रायो वावजांविकमाः। - मामाRधर्मामृत टीका -1 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थधर्म ] विरति को गुणव्रत नहीं माना है । की सम्भव है कि आचार्य उमास्वाति ने गुणव्रत और शिक्षा-व्रत का भेद किसी दूसरी दृष्टि से क्रिया हो । परन्तु वह दृष्टि उल्लिखित नहीं है । सम्भव है कि उनके ये विचार हों कि दिग्विरति और देशविरति एक ही ढंग के व्रत हैं, इसलिये उनको एक ही श्रेणी में रखना चाहिये। दूसरी बात यह भी कही जा सकती है कि देशविरति में कोई ऐसी क्रिया नहीं है जो संयम के साथ खास सम्बन्ध रखती हो । अणुव्रती दृष्टि से देश की मर्यादा भले ही उपयोगी हो सकती हो, परन्तु महाव्रती के लिये उसकी कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि वह मर्यादा के बाहर भी पाप नहीं करता तथा समस्त नरलोक में भ्रमण कर सकता है, इसलिये भी देशविरति, संयम की शिक्षा के लिये उपयोगी नहीं मालूम होती । दिग्निरति, देशविरति, अनर्थदंडविरति ये तीनों ही व्रत विरतिप्रधान अर्थात् निषेधप्रधान हैं । इनमें किसी विधायक कार्यक्रम की मुख्यता नहीं मालुम होती, इसलिये भी आचार्य उमाखाति को इन्हें एक ही श्रेणी में रखना पड़ा हो । दूसरा मत जिसका उल्लेख आचार्य समन्तभद्र आदि ने किया है, उसमें देश और उपभोगपरिभोगपरिमाण में परिवर्तन हुआ है, अर्थात् देशगत शिक्षामत में शामिल है और उपभोगपरिभोगपरिमाण, भोगोपभोगपरिमाण नाम से गुणवत में शामिल है। इसके अतिरिक्त थोड़ा-सा भेद यह भी है कि आचार्य समन्तभद्र ने अतिथिसंविभाग को वैमावृत्य का नाम देकर इसकी [ ३०१ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२] (जैनधर्म-मीमांसा व्याख्या कुछ व्यापक कर दी है। इसमें और भी अनेक प्रकार की . सेवा का समावेश कर दिया गया है । इस विषय में तीसरा मत आचार्य कुंद-कुंद आदि का है उनके गुणवत तो आचार्य समन्तभद्र के समान हैं, परन्तु शिक्षाबतों में देशावकाशिक के स्थान पर सल्लेखना का नाम है। इनके मतानुसार देशात्रकाशिक अर्थात् देशविरति को न गुणव्रत में स्थान है न शिक्षाबत में, और सल्लेखना नामक नया ब्रत आया है । यद्यपि सल्लेखना का उल्लेख अन्य आचार्यों ने भी किया है, परन्तु इसको वारह व्रतों से बाहर रखा है। इसका कारण यह है कि यह व्रत गृहस्थों के लिये ही नहीं किन्तु साधुओं के लिये भी है, तथा मरते समय ही इसकी उपयोगिता है-साधारण जीवन में इसका कुछ उपयोग नहीं है। आचार्य वमुनन्दी ने शिक्षातों को सबसे भिन्न रूप दिया है। उनने भोगोपभोगपरिमाण ब्रत के दो टुकड़े करके उनको दी बत बना दिया है-भोगविरति और परिभोगविरति । फिर अतिथिसंविभाग और सल्लेखना को लेकर चार शिक्षाबना कर दिये हैं। सामायिक और प्रोषधोपवासबत का तो बहिष्कार ही कर दिया है। न केवलम् दानमेव वैयावृत्यमुच्यते आपतु-व्यानिध्यपनोदः पदया: संवाहन च गुणरागात् । वैयावृत्त्यं यावानुपग्रहोऽन्योऽपिसं यामिनाम् । ४.२१ । | লঙ্কাকাবা। • सामाइयं च पदम विदियं च तहेव पोसहं भणियं तस्यं च अतिहिपुर्ज चउत्थ सहेहणा अन्ते । चारित्र प्राभूत २५ । तमोय विरह माणमं पटमंसिक्वावयं सके। "तं परिमोयाणिवृत्ति विदितं ...। पटेखणंच उत्थं ..... | -वमनदीश्रावकाचार Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थधर्म [ ३०३ इसके अतिरिक्त और भी बहुत से मत है जिनमें या तो बतों की थोड़ी बहुत परिभाषा बदल दी गई है, अथवा गुणवती में एक आचार्य का अनुकरण किया गया है और शिक्षाब्रतो में किसी दूसरे आचार्थ का अनुकरण किया गया है।। इन मतभेदों का मुख्य कारण देशकाल का भेद है । गुणवत और शिक्षावत की परिभाषा भी जैसी चाहिये वैसी स्पष्ट नहीं है, इसलिये भी अनेक व्रत वर्गीकरण में घर के उधर हो गये हैं। इस विषय में अनेक आचार्य तो चुप्पी साधकर रह गये हैं और अनेकों ने अनिश्चित रूप में भेद दिखलाया है । 'प्रायः' शब्द का प्रयोग करके उनने लक्षण-भेद को अस्पष्ट कर दिया है। बास्तव में वहाँ अस्पष्टता का कारण भी है । जैसे-गुणत्रत के भेद अगर इससे किये जायें कि उनमें जीवन भर के लिये व्रत लिये जाते हैं और इसलिये देशविरति को गुणव्रत से बाहर कर दिया जाय तो भोगापभोगगरिमाणवत भी अमुक अंश में अलग कर देना पड़ेगा, अथवा उसके एक अंश को गुणत्रत और दुसरे अंश को शिक्षाबत मानना पड़ेगा, क्योंकि भोगोपभोग परिमाणवत में यम और नियम दोनों का विधान है। यम जीवनपर्यन्त रहता है और नियम * में समय की मर्यादा रहती है। - - $ नियमोयमय विहितों द्वेषा भोगोपभोगसंहारे। नियमः परिमितकालो यावजी यमी भिते । ३.४१.र.क. पा. • अद्य दिवा रजनी वा पक्षो मासस्तथ रयनं वा । इतिकालपििकत्त्या मत्यारयानं मवेनियमः Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० [ जैनधर्म-मीमांसा सांगारधर्मामृत टीका में शिक्षाबत की एक और परिभाषा - दी गई है कि विशेष श्रुतज्ञान की भावनारूप परिणति जिनमें होती है वे शिक्षाबत हैं। देशावकाशिक आदि में विशिष्ट श्रुतज्ञान की भावना की आवश्यकता होती है । परन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि देशावकाशिक की अपेक्षा अनर्थदण्डविरति में श्रतज्ञान की भावना अधिक अपेक्षित है । तब उसे गुणवत क्यों माना जाय ! प्रोषधोपवास में बल्कि उससे कम अपेक्षित है, तब से गुणव्रत में क्यों न रक्खा जाय ! इसलिये यह भेद भी ठीक नहीं है। सच तो यह है कि गुणव्रत और शिक्षाव्रत-यह भेद ही कुछ निरर्थक-सा मालूम होता है। सभी का नाम शिक्षाव्रत होना चाहिये। वेताम्बर आगमों में जब किसी श्रावक के बारह व्रत लेने का उल्लेख आता है तब वह यही कहता है कि मैं पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाबत लेता हूँ। वह तीन गुणव्रत और चार शिक्षाबत नहीं बोलता; यद्यपि पछि के श्वेताम्बर-साहित्य में गुणवत और शिक्षाबत का भेद मिलता है । इससे मालूम होता है कि गुणव्रत शिक्षा व्रत का भेद पीछे से आया है। परन्तु आकर के भी वह ठीक ठीक नहीं बन सका। खैर, यहाँ इनकी गहरी मीमांसा करने की ज़रूरत नहीं रह * शिक्षाप्रधानं व्रतं शिक्षाप्रतं ! देशावकाशिकादेविशिष्ट श्रुतमानमावनाप रिणतत्वेनच निर्वायत्वात् । ४.४१ * अहं णं देवाणुप्पियाणं अन्तिए पंचाणुव्वइयं सत सिलाववायं दुवालसविहं गिहिथम्म पारिवास्जिस्सामि। -उवासगदसा १-१२ । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ-धर्म ) [ ३०५ जाती । परन्तु इससे इस बात का फिर एक बार समर्थन होता है कि जैनाचार्य भी आचार-शास्त्र की परम्परा भूल गये थे और वे समयानुसार स्वेच्छा से नये विधान बनाते थे। वे पुरानी परम्परा मूले या न भूलें, परन्तु समयानुसार उचित विधान बनाने तथा उनमें परिवर्तन करने का प्रयत्न उचित है। इन सातों व्रतों को शील भी कहते हैं । व्रतों के रक्षण करने के लिये जो उप व्रत बनाये जाते है-उन्हें शीला कहते हैं । इसलिये इनकी शीलसंज्ञा भी ठीक है। ___ अब यहाँ मैं उन वनों की आलोचना कर देना चाहता हूँ, जिससे मालूम हो जाय कि इस समय कौन-सा व्रत उपयोगी है ! और कानमा नहीं ? आजकल इन शीलों या शिक्षात्रतों की संख्या कितनी रखना चाहिये ! दिग्विरति- अमुक दिशा में इतनी दूर जाऊँगा, इससे अधिक न जाऊँगा-इस प्रकार जीवन भर के लिये मर्यादा बाँधन। दिग्विरति है । मनुष्य मर्यादा के बाहर पं.च पापों से बचा रहता है, इस दृष्टि से इस व्रत की उपयोगिता बताई जाती है । इस प्रकार अहिंसादि अणुव्रतों की वृद्धि का कारण होने से यह गुण वत कहलाता है । यहां तक कि मर्यादा के बाहर पाँच पापों से पूर्ण निवृत्ति परिधय इव नगराणि बतानि फिल पालयन्ति शीलानि । व्रतपालनाय तस्मान्छीलान्यपि पालनीयानि । पुरुषार्थसिद्धयपाय १३ ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३०६] (जैनधर्म-मीमांसा रहती है, इसलिये उसे मर्यादा के बाहर उपचार से महावती* भी कह दिया है । यद्यपि साथ में यह बात भी कह दी है कि उसमें महाव्रती के समान मन्दकषायता न होने से वह वास्तव में महावती नहीं है, फिर भी उपचरित महाव्रत कहना भी कम महत्व की बात नहीं है। श्रमण संस्कृति के अनुसार निवृत्ति मार्ग का अभ्यास कराने के लिये इस व्रत की थोड़ी-सी उपयोगिता थी, परन्तु वास्तविक उपयोगिता नहीं के बराबर है । एक मनुष्य हिमालय के उस पार अगर हिंसा न करे और देश के भीतर सब कुछ करे, इसलिये वह व्रती नहीं हो जाता-पाप का क्षेत्र कम हो जाने से पाप कम नहीं हो जाता । माना कि इस व्रत के पहिले मनुष्य को अगुवती होना आवश्यक है, परन्तु अणुव्रती रहकर भी मनुष्य जितना पाप मर्यादा के बाहर कर सकता है, उतना मर्यादित क्षेत्र में भी कर सकता है। इसलिये इस व्रत को व्रत-रूप न मानना चाहिये । बल्कि आजकल तो इससे नुकसान ही है, क्योंकि आज सारी पृथ्वी एक बाज़ार या गांव के समान हो गई है । यातायात के इतने साधन बढ़ गये है, साक्षात् या परम्पग-रूप में हमारा जीवन सारी पृथ्वी के साथ इस तरह गुंथ गया है कि हमारा सबसे असम्बद्ध होकर रहना अशक्य. प्राय हो गया है । हमें सेवा के लिये, विकास के लिये, सीमा के * अवहिरशुपाप प्रति विरतदिग्वतानि धारयताम् । पञ्च महाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते । २४ । प्रत्याख्यानतनुत्वान्मन्दतावरण माह परिणामाः । सत्वेन दुरवधारा: महावताय प्रपद्यन्ते । २५ । -लकरण्ड श्रावकाचार Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थधर्म ) [ ३०७ भीतर कैद न रहना चाहिये । एक त पुराने जमाने की तरह निवृतिप्रधान बनना कठिन है, फिर एकान्त-निवृत्ति ही तो धर्म नहीं है। धर्म की एक बाजू निवृत्ति है और दूसरी बाजू प्रवृत्ति है, इसलिये भी इसको व्रत-रूप में रखने की कोई ज़रूरत नहीं है । देशविरति-यह व्रत भी दिग्विरति के समान दिशाओं की मर्यदा बनाने के लिये है । अन्तर इतना ही है कि दिग्विरति की मर्यादा जीवन भर के लिये होती है और इसकी मर्यादा अमुक समय के लिये होती है । इमलिये इसका क्षेत्र भी छोटा रहता है। इसमें दिन दो-दिन आदि के लिये मर्यादा ली जाती है, इसलिये छोटे क्षेत्र की रहती है । आचार्य समन्तभद्र ने इसका नाम देशाबकाशिक रक्खा है । देशवत या देशविरति कहने से कभी कभी बारह ही व्रतों का भान होता है, इसलिये सामान्य देशवत और इस विशेष देशव्रत में अन्तर नहीं मालूम होता, इसलिये इसका नाम देशाववाशिक कर दिया, यह टीक ही किया है । परन्तु जिन कारणों से दिग्नत अनावश्यक या-उन्हीं कारणों से यह भी अनावश्यक है। अनर्थ-दंडविरति-निरर्थक पापों का त्याग अनर्थ-दंडवि. रति है । परन्तु निरर्पक में जो 'अर्थ' शब्द है-उसका अर्थ अनिश्चित है । अनेक जैनाचार्यों ने इस व्रत के नाम पर इतनी अधिक बातों का उल्लेख कर दिया है और उनके व्यावहारिक रूपों को इतना अस्पष्ट रक्खा है कि इसे व्रत-रूप में स्वीकार करना कठिन हो जाता है । बहुत से लोगों के मत में ऐसा भ्रम है कि वास्थ्य के लिये वायु-सेवन करना, तैरना, दौड़ना, कूदना आदि भी Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] [ जैनधर्म-मीमांसा अनर्थ-दंड है । अगर इन सब बातों को अनर्थ-दंड न माना जाय, तो दूसरी तरफ यह प्रश्न उठता है कि तब अनर्थ-दंड क्या है, जिसका त्याग किया जाय ? मनुष्य की प्रत्येक क्रिया में अर्थ और काम का साक्षात या परम्परा सम्बन्ध रहता ही है-इसलिये निरर्थक पाप किसी को भी नहीं कह सकते । इस प्रश्न की इस तरह जटिलता रहने पर भी यह बात निश्चित है कि यह एक व्रत है । इससे अहिंसा आदि व्रतों का बहुत कुछ संरक्षण हो सकता है। हाँ, इसकी सापेक्षता विशाल होने से इस पर गम्भीरता से विचार करने की आवश्यकता है आचार्य उमास्वाति ने इस प्रकरण में 'अर्थ' शब्द का अर्थ किया है 'उपभोग-परिभोग' । इससे जो भिन्न हो अर्थात् जिससे उपभोग- परिभोग न होता हो वह अनर्थ हैं। इसके लिये जो दंडप्रवृत्ति मन-वचन-काय को किया हो वह अनर्थदंड है । उसका त्याग अनर्थ दंडविरति नाम का व्रत है । · उपभोग और परिभोग में पाँच इन्द्रियों के व्रत आते हैं, किन्तु इन्द्रियाँ पाँच ही नहीं हैं, छः हैं। मन एक महान इन्द्रिय है, इसका विषय भी विशाल है - इसलिये 'अर्थ' शब्द का अर्थ करते समय इसके विषय को भी ध्यान में रखना चाहिये । बहुत से काम ऐसे हैं कि जो सष्ट हो अनर्थ दंड मालूम होते हैं। जैसे हमारे हाथ में लकड़ी है और रास्ते में कोई पशु खड़ा है तो बहुत से लोग बिना किसी प्रयोजन के या आवेशवश * उपमांग परिभोगी अस्यागारिणोऽर्थः । तयतिरिक्तोऽनर्थः । - त० मास्य - ७- १६ । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ-धर्म ] उसे लकड़ी मार देते हैं । इससे न तो इन्द्रियों की सन्तुष्टि है और न कोई स्वास्थ्य वगैरह का लाभ है, इसलिये यह अनर्थदण्ड है। ऐसी वृत्ति का त्याग होना चाहिये । यद्यपि हमारे द्वारा छोटी-छोटी प्रवृत्तियाँ इस प्रकार की होती रहती हैं कि उनके बिना भी हमारा काम चल सकता है, परन्तु अनिच्छा से वे हो जाती हैं । जैसे, एक मनुष्य खड़े-खड़े पैर हिला रहा है, उङ्गली चला रहा है । उसका यह काम निरर्थक है । फिर भी ऐसे छोटे-छोटे कामों को अनर्थ नहीं कहना चाहिये, क्योंकि ये शरीर की स्वाभाविक क्रिया के समान अनिच्छा से होते इसी प्रकार कभी कभी मनोविनोद के लिये भी हमें ऐसा काम करना पड़ता है। जो कि बाहिरी दृष्टि से आवश्यक नहीं मालूम होता. उसे भी अनर्थदण्ड में न रखना चाहिये । इस प्रकार की बातों पर विचार करने के बाद भी यह कहना उचित है कि अनर्थ दंड-विरति एक ब्रत है। इस व्रत की उपयोगिता यह है कि हम अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति के फलाफल पर विचार करना सीखें, और जिन प्रवृत्तियों से हानि के बदले लाभ कम हो, पुण्य की अपेक्षा पाप अधिक हो, उनका त्याग करें। अहिंसादि ब्रतों के वर्णन में जो हिंसा आदि के अपवाद बताये गये हैं उनका दुरुपयोग न हो जाय इसके लिये यह अनर्थदंड विरति है । इस प्रकार नतों का संरक्षक होने से यह व्रत शील-रूप है, शिक्षात्रत है। अनर्थदण्ड-विरति में जिन जिन अनर्थों के त्याग करने का विधान है-उनको पाँच भागों में विभक्त किया गया है। पापोपदेश, Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१.] [जैनधर्म-मीमांसा हिंसादान, अपध्यान, प्रमादचर्या और दुःश्रुति ।। ___ पापोपदेश-जो काम पाप-रूप हैं-उनका उपदेश देना पापोपदेश है। हम में अनेक आदतें ऐसी रहती है-जो बुरी होती हैं और जिन्हें हम भी बुरी समझते हैं, फिर भी उनका जानबूझकर या लापर्वाही से प्रचार करते हैं । एक बीड़ी पीनेवाला दुसरे को बीड़ी का शौक लगायगा, यद्यपि वह जानता है कि यह हानिकर है-यह पापोपदेश है । जो बात बुरी है उसको अगर हम स्वार्थवश या कमजोरी से त्याग नहीं सकते तो कम से कम इतना ज़रूर करना चाहिये कि हमारे द्वारा उनका प्रचार न हो। कौन-सा कार्य पाप है और कौन-सा पाप नहीं है, इस विषय का निर्णय करने के लिये पहिले जो पाँचों पापों की और व्रतों की आलोचना की गई है उस पर ध्यान देना चाहिये ।। पापोपदेश से अपना कोई लाभ नहीं है, किन्तु दूसरों का अधःपतन है, इसलिये इसका त्याग करना चाहिये । शंका- अगर किसी पापोपदेश से अपना लाभ हो, स्वार्थ सिद्ध होता हो तो क्या कह पापोपदेश नहीं है ! क्या स्वार्थियों को पापोपदेश की छूट है ! उत्तर-पापोपदेश तो वह भी है, परन्तु वह पापपदेश अनर्थदण्ड नहीं है । यह सम्भव है कि अनर्थदण्ड से भी बढ़कर उसका पाप हो, परन्तु यहाँ तो इतना ही विचार करना है कि एक तरह का पाप अगर सार्थक और निरर्थक किया जाय तो सार्थक की अपेक्षा निरर्थक अधिक बुरा है। अनेक जैन लेखकों ने पापोपदेश के नाम पर कृषि आदि के Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थधर्म] [१११ उपदेश देने का निषेध किया है, परन्तु यह निवृत्येकान्तवाद का फल है । जिसको हम न्याय्य और आवश्यक वृत्ति कह सकते है, . उसके विषय में उपटेश भी दे सकते हैं । मनुष्य के जीवन निर्वाह के लिये जब कृषि आदि भावश्यक है, तब उसका प्रचार करना उनमें सुधार करने तथा सतर्क रहने का उपदेश देना उचित है। इते पापोपदेश न समझना चाहिये । हाँ, शिकार वगैरह संकल्पीहिंसा आदि का उपदेश अवश्य पापोपदेश है। पीछे के जैन लेखकों को भी पापोपदेश के अयवा अनर्थ-दण्ड के अर्थ में संशोधन करना आवश्यक मालूम हुआ है-इसीलिये हेमचन्दाचार्य ने * कहा है कि पारस्परिक व्यवहार के सिवाय दूसरे स्थानों पर ऐसा उपदेश न देना चाहिये, अर्थात् पारस्परिक व्यवहार में ऐसा उपदेश अनर्थ-दण्ड नहीं है। इस संशोधन से पापोपदेश की व्याख्या करीब करीब ठीक हो जाती है। पारस्परिक व्यवहार को बात उनने हिंसादान के विषय में भी की है, जिसका अनुकरण पं. आशाधरजी ने भी सागार-धर्मामृत में किया है । हॉ. यहाँ इतनी बात और कहना है कि उदार-चरित मनुष्य के लिये सारा जगत् व्यवहार का विषय है, और प्रत्येक मनुष्यको उदार होना चाहिये । इसलिये जो काम समाज के लिये आवश्यक है, वह पारस्परिक व्यवहार के विषय में हो या अविषय में, इसका विचार ही न करना चाहिये । मतलब यह है कि निवृत्ति * वृषभान दमय, क्षेत्रं कृष, षडय वाजिनः । । दाक्षिण्याविषयं पापोपदेशोयं न पुज्जते । -योगशास्त्र ३-७३। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] [ जैनधर्म-मीमांसा .मार्ग पर बहुत अधिक भार डाल देने से जो आवश्यक प्रवृत्ति पर . भी अवहेलना हो गई है-उसे दूर करके अनर्थदण्ड का त्याग करना चाहिये। हिंसादान-हिंसा करने के लिये उसके साधनों का दान करना हिंसादान है। जिन चीजों से हिंसा हो सकती है-उनका दान करना हिंसादान नहीं, किन्तु हिंसा के लिये उनका दान करना हिंसादान है । अनेक लोग हिंसादान के नाम पर अपने पड़ौसी को या किसी अपरिचित को रसोई बनाने के लिये भी अग्नि नहीं देते; यह भूल है। केवल शस्त्र का विचार न करना चाहिये, किन्तु उसके उपयोग का विचार करना चाहिये । शाक बनाने के लिये अगर कोई चाकू मांगे तो चाकू देना यह हिंसादान नहीं है किन्तु किसी को मारने के लिये चाकू देना हिंसादान है। हाँ, कभी कभी हिंसा, अहिंसा होती है, जैसा कि पहिले कहा जा चुका है। ऐसी अवस्था में हिंसा के लिये दान भी. हिंसादान नहीं है। एक स्त्री को इसलिये कटार दी जाय कि अगर उसके सतीत्व पर कोई आक्रमण करे तो उससे वह आत्मरक्षा करे, तो यह हिंसादान नहीं है। इस प्रकार के उचित हिंसादान को अनयंदंड न कहना चाहिये, और न इस विषय में यह विचार करना चाहिये कि यह दान परिचित के लिये है या अपरिचित के लिये ! जैन लेखकों ने हिंसादान के विषय में भी यह कहा है कि पारस्परिक व्यवहार के Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थधर्म ] [ ३१३ बाहर हिप्तादान* अनुचित है । परन्तु भलाई के लिये पारस्परिकव्यवहार का क्षेत्र समग्र विश्व है। जिन लोगों ने रसोई बनाने के लिये भी अग्नि देने की मनाई की है उनने एक प्रकार से निवृत्येकान्त का पोषण किया है जो कि अनुचित है। प्रश्न- जो लोग युद्ध की सामग्री बनाने या बेचने का धन्धा करते हैं और अपना व्यापार चमकाने के लिये दो राज्यों को लड़ने को उत्तेजित करते हैं, राष्ट्रीयता का ऐसा मोहक-संगीत सुनाते हैं कि जिससे मोहित होकर अनेक राज्य हरिण की तरह युद्ध के जाल में फंस जाते हैं, उनका यह कार्य अनर्थदंड कहलायगा कि नहीं ? यदि नहीं तो जगत् में आप हिंसादान किसी को भी नहीं कह सकेंगे । यदि हाँ, तो इसमें अनर्थदंड की परिभाषा कहाँ जाती है ? क्योंकि अनर्थदंड तो उस पाप को कहते हैं जिस से अपना कोई प्रयोजन सिद्ध न होता हो । परन्तु राज्यों को लड़ाने से तो शस्त्रास्त्र के व्यापारियों का व्यापार चमकता है। उत्तर- वास्तव में वह भयंकर. पाप अनर्थ-दंड की परिभाषा में नहीं आता, परन्तु वह है हिंसादान अवश्य । वह अनर्थदंड-रूप नहीं है, किन्तु उससे भी बढ़कर घोर-हिंसारूप है । ऐसे लोग तो महा-हिंसक हैं। अपध्यान--पाप की सफलता की तथा पुण्य के पराजय . * यंत्र लागल शमामि मूशलोदूखलादिक । दाक्षिण्याविषये हिंसा नार्पयेत् करुणापरः। -योगशाख ३.७७॥ हिंसादानं विषास्त्रादि हिंसाकस्पर्शनं त्यजेत् । पाकापर्ध च नाग्न्यादि दाक्षिण्याविषयेऽर्पयेत। - सागारधर्मामृत ५.८॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१.] [जैनधर्म-मीमांसा की इच्छा करना, इसी के अनुसार घटनाओं पर विचार करना , अपध्यान है । ध्यान करने से किसी का हानि लाम तो हो नहीं जाता, इसलिये वह निरर्थक तो है ही, और पाप रूप है, इसलिये अनर्थदंड कहलाया । न्याय या न्यायी के जय और अन्याय या अन्यायी के पराजय के विचार अपध्यान नहीं है । जैसे राम-गवण के युद्ध में राम की जय और रावण के पराजय के विचार अपध्यान. रूप नहीं हैं । साधारणतः राग-द्वेष के विचारों से अपने को मुक्त रखना चाहिये, परन्तु न्यायरक्षण और अन्याय का नाश दुनिया की भलाई के लिये आवश्यक है, इसलिये वैसा विचार अपध्यान नहीं है। प्रमादचर्या-निरर्थक जमीन खोदना, अग्नि जलाना आदि प्रमादचर्य नामक अनर्थदंड है । बहुत से लेखकों ने वायु-सेवन आदि को भी प्रमादचर्या बतला दिया है, परन्तु यह ठीक नहीं है। स्वास्थ्य तथा मनोविनोद के लिये मात्रा के भीतर कुछ काम किये जायें तो वह प्रमादर्या नहीं है। दुःश्रति-ऐसी बातों का सुनना या पढ़ना जिससे मन में विकार तो पैदा होते हैं, किन्तु न तो मानसिक उन्नति होती है, न कोई दूसरा लाभ होता है, दुःश्रुति है । संशोधन के लिये या अध्ययन के लिये पढ़ना दुःश्रुति नहीं है । बहुत से लेखकों ने दुसरे सम्प्रदायों के ग्रन्थ पढ़ने को भी दुःश्रुति कहा है । यह साम्प्रदायिक संकुचितता अनुचित है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इस दुःश्रुति नामक अपध्यान का Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थधर्म ] [ ३१५ नाम नहीं आता है । उवासगदसा सूत्र में चार ही अनर्थदंडों का उल्लेख है । इससे मालूम होता है कि पहिले दुःश्रुति नाम का अनर्थदंड नहीं माना जाता था; पीछे से उसकी ज़रूरत मालूम होने लगी । अथवा कट्टर साम्प्रदायिकता का भी यह फल हो सकता है | श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह संख्या तो चार ही रही, किन्तु दुःश्रुति का काम प्रमादचर्या से ही ले लिया गया । इसीलिये हेमचन्द्रचार्य ने प्रमादचर्या के भीतर ही दुःश्रुति को शामिल 3 कर लिया है । प्रकार है कि थोड़े ध्यान लगाकर स्थिर सामायिक - थोड़े समय के लिये सब पापों का त्याग कर देना सामायिक है । परन्तु इसका रिवाज़ इस समय के लिये अमुक आसन लगाकर मनुष्य हो जाता है; कुछ मन्त्र का जाप भी किया जाता है । इस प्रकार दिन में तीन बार - सुबह, दुपहर और संध्या को -- सामायिक का विधान है । बहुत से स्थानों पर यह विधान रिवाज़ में परिणत हो गया है । तीन बार तो नहीं किन्तु दो बार या एक बार लोग समायिक करते हैं । जिसको फुरसत हो वह तीन से भी अधिक बार सामायिक * तयाणन्तरं च पं चउच्चिह अपट्टादण्डं पचक्खाइ । तं जहा अवज्ञाणा परियं प्रमायायरियं हिंसप्पयाण, पावकममत्रए । १-४३ । # कुतुहलाद्गीत नृत्य नाटकादि निरक्षिणं । कामशास्त्र प्रसक्तिव द्यूतमद्यादिसेवनं । ३-७८ | torisदोलनादि विनोदो जंतु गोधनं रिपोः स्तादिना वैरं भली देशराद कथा । ३-७९ | योगशास्त्र | Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६.]. [जैनधर्म-मीमांसा करे, परन्तु साधारणतः इस या ऐसे ही किसी एक काम के लिये दिन में एक बार समय देना काफी है । इसलिये साधारणतः एक बार का रिवाज़ होना चाहिये । विशेष अवसरों पर एक से अधिक बार किया जाय तो अच्छा है। सामायिक में मन्त्र पढ़ने का रिवाज अनावश्यक है। इसकी अपेक्षा वह कर्तव्याकर्तव्य का विचार करे, प्रतिक्रमण करे--यही अच्छा है । अथवा जिस भाषा को वह समझता हो उस भाषा में हृदय को आकर्षित करनेवाले पद्य पढ़े तो अच्छा है ! इतने बार अमुक नाम बोलना चाहिये, इत्यादि नियम समय का दुरुपयोग कराते हैं, क्योंकि नामों के गिनने में ही उसका समय नष्ट हो जाता है। हाँ, यह सम्भव है कि पुराने समय में समय मापने के विशषे साधन न होने से समय-मापक यन्त्र के रूप में नामों की गिनती रक्खी गई हो; परन्तु आज उसकी जरूरत नहीं है। जब तक विचारों की धारा ठीक चलती रहे, तब तक उसे बैठना चाहिये अथवा घड़ी से समय का निर्णय कर बैठना चाहिए । यद्यपि नामों का गिनना आदि भी चित्त स्थिर करने में सहायक होता है, परन्तु उस स्थिरता का कुछ मूल्य नहीं है जो जीवन के लिये उपयोगी कोई पारमार्थिक लाभ न देती हो। प्रोषधोपवास- साधारणतः इसके तीन नाम मिलते हैंप्रोषधोपवास, पौषधोपवास और पोषधवत । पहिला नाम दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित है, किन्तु उसके अर्थ करने में लेखकों में मत Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृहस्थवर्म] [३१७ भेद है । पूज्यपाद और अकलंक * आदि आचार्य प्रोषध' शब्द का अर्थ पर्व-दिवस-अष्टमी चतुर्दशी करते हैं, और पर्व के दिनों में उपवास करने को प्रोषधोपवास कहते हैं । 'प्रोषध' शब्द के अर्थ में समन्तभद्राचार्य का मत जुदा है । वे कहते हैं कि उपवास के पहिले दिन में एक बार भोजन करना प्रोपध है । पहिले प्रोषध (एक बार भोजन करना) करना, फिर उपवास करना, इस प्रकार प्रोषधोपवास होता है। समन्तभद्राचार्य का मत श्वेताम्बर सम्प्रदाय के मत से भी नहीं मिलता; स्वताम्बर सम्प्रदाय में जो मत प्रचलित है वही पूज्यपाद आदि दिगम्बराचार्यों को भी स्वीकृत है । अर्थ एक है - परन्तु शब्द में थोड़ा फरक है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में 'प्रोषध' नहीं किन्तु 'पोषध' पाठ है। पहिले जमाने में उपवास का अधिक महत्व था इसलिये यह एक व्रत बना दिया गया । परन्तु आज इस व्रत की आवश्यकता नहीं है। उपवास करना ठीक है, परन्तु नियमित व्रत के रूप में नहीं। शरीर में विकार वगैरह होने पर उपवास करना चाहिये। पीछे भी इस व्रत की आवश्यकता का कम अनुभव होने लगा था। इसलिये सागारधर्मामृत आदि ग्रंथों में हलका भोजन करने का * प्रोषधशब्दः पर्वपर्यायवाची । प्रोषधे उपवासः प्रोषधोपवासः । त. राज. वा० ७-२१-७ चतुराहार विसर्जनमुपवासः प्रोषधः सद्भुक्तिः स प्रोषधोपवासो य. दुपोप्यारंभमाचरति । रन• श्रावकाचार | ४-१९ पौषधः पत्यनान्तरम् । तत्वार्थमान्य ७.१६ । + उपवासाक्षमः कार्योऽनुपबासस्तदक्षभैः , आचाम्ल निर्विकृत्यादि शक्त्या हि ऐसे तपः । ५-३५ । - Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] [जैनधर्म-मीमांसा भी विधान है, क्योंकि शक्ति के अनुसार तप करना ही कल्याण , कारी है। साधारणतः नियम ऐसा रखना चाहिये कि सप्ताह में एक दिन एकाशन किया जाय, और एकाशन में भी प्रतिदिन के समान सादा भोजन किया जाय-यही प्रोषधोपवास है। उपभोग-परिभोग-परिमाण - यहाँ पर 'उपभोग' शब्द का अर्थ है, इन्द्रियों के वे विषय जो एक ही बार भागे जा सकते है, जैसे-रोटी, पानी, गन्ध, द्रव्य आदि । 'परिभोग' का अर्थ है-इन्द्रियों के वे विषय जो एक बार भोग करके फिर भी भोगे जा सकते हैं, जैसे-वन आदि * । परन्तु अन्य जगह उपभोग के अर्थ में भोग शब्द का और परिभोग के अर्थ में उपभोग शब्द का व्यवहार हुआ है। आश्चर्य तो यह है कि एक ही पुस्तक में इस प्रकार शब्दों की गडबड़ी पाई जाती है। इस विषय में पहिले ही कह चुका हूँ कि इस प्रकार के परिमाण की आवश्यकता नहीं है। बल्कि अमुक वस्तुओं का त्याग कर देने से शेष वस्तुओं की माँग तीव्र हो जाती है-इससे अधिकतर अपने को और दूसरों को परेशानी उठानी पड़ती है । इसलिये आवश्यकता होने पर इस नियम को किसी दूसरे ही रूप में लेना - - • उपेत्य भुज्यते इति उपभोगः । अशनपानगन्धमाल्यादिः। ७.२१.८ परित्यज्य भुज्यते इति परिमोगः । आच्छादनप्रावरणार कारशयनानगृहयान वाहनादिः ।७-२१-९ । । ० राज वा. गंधमाल्याशिरःस्नानवसान्नपानादिषु मोगव्यवहारः शयनासनांगना हस्त्यावरण्यादिपमोगव्यपंदशः । ८-१३-३ त० राजवार्तिक । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थधर्म ] [ ३१९ चाहिये । इसे गणना की मर्यादा बना लेना चाहिए कि आज पाँच या दस वस्तुओं से अधिक न लूँगा, जिससे कि अपने को या दूसरों को बहुत परेशानी न उठाना पड़े। हाँ, दूसरे रूप में भी इस व्रत का पालन किया जा सकता है। जो वस्तुएँ हिंसा-जन्य हैं तथा आध्यात्मिक और आधिभौतिक दृष्टि से हानिकारक हैं, उनका त्याग करना चाहिए । आचार्य अक. लङ्क ने इसका बहुत ही सुन्दर कम पाँच भागों में बतलाया है। वे भोग संख्यान के वे पाँच भेद बताते हैं-स-वध, प्रमाद, बहुवध, अनिष्ट, अनुपसेव्य । चलते-फिरते प्राणियों के नाश से जो चीज़ तैयार होती है उसका त्याग पहिले करना चाहिए । इसमें मांस का नाम ही ठीक तौर से लिया जाता है । उसका त्याग अवश्य करे। हृदय को विक्षिप्त करनेवाली शराब आदि का त्याग दूसरा है । तीसरी श्रेणी जैनाचार्यों के प्राणिशास्त्र के ज्ञान की अपेक्षा से है । अमुक वनस्पतियों में अनन्त स्थावर जीव रहते हैं, इसलिए उनका त्याग करना चाहिए । इस विषय में संशोधन की जो आवश्यकता है उसका ज़िकर मैं पहिले कर चुका हूँ। वहीं यह बात कही है कि बनस्पति का भी इस ढंग से उपयोग म करना चाहिए जिससे उस का विघात तो अधिक हो और लाभ कम हो । जो वस्तु अपने शरीर के लिये हानिकर है-वह अनिष्ट है। साधारणतः विष आदि को अनिष्ट कह सकते हैं, परन्तु जुदे-जुदे प्राणियों के लिये जुदा-जुदा ही 'अनिष्ट' होगा। इसलिये किसी वस्तु का नाम नहीं लिया जा सकता । इससे यह बात समझ में Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० [ जैनधर्म-मीमांसा आ जाती है कि स्वास्थ्य की रक्षा रखना भी धर्म की रक्षा करना है । निरोगी मनुष्य अपनी और जगत् की सेवा करता है, यही तो धर्म है। ___ जिस वस्तु का सेवन शिष्ट सम्मत नहीं है, घृणित है, वह अनुपसेव्य है। इस प्रकार उपभोग-परिभोग-परिमाण या भोगोपभोग परिमाण नामक शील का पालन करना चाहिये। प्रश्न--भोगापभोगपरिमाण को शील में क्या रखा ? इसे तो अपरिग्रह के स्थान पर मूल-व्रत बनाना चाहिये था; क्योंकि भौगोपभोग ही सारे अनर्थों की जड़ है। समाधान--अधिक भोगोपभोग और अधिक परिग्रह ये दोनों ही पाप हैं, परन्तु अधिक परिग्रह बड़ा पाप है ! जगत में जो बेकारी फैती है, तथा दूसरों को भूखों मरना पड़ता है, तथा मनुष्य अधिक पाप करता है-उसका कारण परिग्रह का संचय है। इसका विशेष विवेचन अपरिग्रह के प्रकरण में किया गया है। अतिथि विभाग- सद्गुणी तथा समाजसेवी मनुष्यों को स्थान भोजन आदि देना अतिथिसंविभाग है । त्याग-धर्म के वर्णन में इसका विशेष विवेचन हो चुका है। यहाँ किसी भी प्रकार की अनुचित संकुचितता से काम न लेना चाहिये । आचार्य समन्तभद्र ने इसका नाम वैयावृत्य रक्खा है, और उसका अर्थ भी व्यापक किया है। उसका भी यथायोग्य समावेश कर लेना चाहिये। वर्तमान युग में निम्नलिखित सात शीला की या शिक्षातों की Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ-धर्म ] [ ३२१ • ज़रूरत है: १- प्रतिक्रमण ( सामायिक आदि ), २- स्वाध्याय, ३अतिथिसेवा, ४--दान ( अपनी आमदनी में से अमुक भाग समाजोपयोगी कार्यों में खर्च करना ), ५ भोगोपभोग परिसंख्यान, अनर्थ-दंड- विरति, ७ प्रोषध ( सप्ताह में एक दिन एकाशन करना ) अतिथि सेवा और दान ये दोनों वैयावृत्य की व्यापक व्याख्या में आ जाते हैं, परन्तु दोनों की उपयोगिता पृथक् पृथक् है और दोनों पर जोर देना है, इसलिये अलग अलग उल्लेख किया है । सबकी व्याख्या हो चुकी है सात शीों के विषय में इतनी बात और ध्यान में रखना चाहिये कि ये पाँच अणुव्रतों के रक्षण के लिये तो हैं ही, साथ ही जिनने अणुव्रत नहीं लिये हैं वे अणुव्रत प्राप्त करने के लिये तथा अभ्यास के लिये इनका पालन करें । गृहस्थों के मूलगुण । 1 महात्ला महावीर ने जब - जैन-धर्म की पुनर्घटना की और एक नयी संस्था को जन्म दिया तब उनने आचार के जो नियम बनाये थे वे साधुओं को लक्ष्य में लेकर थे; क्योंकि साधुसंस्था ही प्रारम्भ में व्यवस्थित संस्था थी। पीछे गृहस्थों के लिये भी कुछ नियम बने । परन्तु ज्यों ज्यों समय निकलता गया, त्यों त्यों गृहस्थों के लिये अनेक तरह के विधि-विधानों की आवश्यकता होती गई। जिस प्रकार मुनियों के मूल-गुण थे, उसी प्रकार चारित्र की दृष्टि से श्रावकों के मूल-गुण की भी ज़रूरत हुई । परन्तु मुनियों के समान Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ 1 [जैनधर्म-मीमांसा श्रावकों को एकरूप बनाना असम्भव था, इसलिये श्रावकों के लिये अनेक तरह के मूल-गुण मिलते हैं । श्वेताम्बर सम्प्रदाय में गृहस्थों के मूल-गुणों का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, इससे भी मालूम होता है कि इन मूल-गुणों का निर्माण दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद हो जाने के बाद हुआ था । इसलिये देश-काल , के अनुसार इनका वर्णन भी जुदा जुदा मिलता है । यहाँ सबका जुदा जुदा वर्णन क्रमशः दिया आता है। १-१-५ पाँच अणुव्रत, ६ मयत्याग, ७ मांसत्याग ८ मधुत्याग । -समन्तभद्र * २-१-५ पाँच अणुवत, ६ मद्यत्याग, ७ मांसत्याग, यतत्याग । -जिनसेन ३-- १-८ मद्य, मांस, मधु, ऊम्बर, कठूम्बर, बड़फल पीपरफल, पाकरफल-इन आठ का त्याग । सोमदेव । ४- १ मद्यत्याग, २ मांसत्याग, ३ मधुत्याग, ४ रात्रि भोजन त्याग, ५ ऊंबर आदि पाँच फलों का त्याग, ६ अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु को नमस्कार, ७ जीवदया, ८ पानी - मद्यमांसमधु त्यागः सहायुवतपंच मम : अष्टौ मूलगुणानाहुरिणां श्रमणोत्तमाः ! * हिंसासत्यस्तेयादब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् ! वृतान्मांसामयारितिगृहिणोऽट सन्यमी मूलगुणाः।। मयमांसमप्रत्यागैः सहोदम्बरपंचकैः । अष्टावते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थों के मूलगुण] [३२३ छानकर पीना। -आशाधर * कालक्रम से इन मतों का उल्लेख यहाँ किया गया है । अन्य आचार्यों ने भी इन मतों का उल्लेख किया है, तथा और भी इस विषय में मत होंगे। मैं पहिले कह चुका हूँ कि चारित्र के नियम द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव के अनुसार होते हैं । हरएक धर्म के नियम इस बात की साक्षी देते हैं । जैनधर्म में भी यह बात पाई जाती है । मलगुणों की विविधता भी इस बात का एक प्रमाण है | अपने अपने समय के अनुसार बनने वाले चार नियम ऊपर बताये गये हैं, परन्तु आज के लिये वे सब पुराने हैं, इसलिये वर्तमान देश-काल के अनुसार नये मूलगुण बनाना चाहिये। मलगुणों के विषय में इतना और समझना चाहिये कि ये वती होने की कम से कम शर्त के रूप में हैं । ये जैनत्व की शर्त नहीं हैं; क्योंकि अष्टमूलगुणों का पालन किये बिना भी कोई जैनी बन सकता है, जिसे कि अविरत- सम्यग्दृष्टि कहते हैं । हाँ, मूलगुणों में से कुछ ऐसी बातें चुनी जा सकती है, जो जैनत्व की शर्त के रूप में रक्खी जा सकें । खर, आजकल मूलगुण निम्नलिखित होना चाहिये १ सर्वधर्म-समभाव, २ सर्व जाति-समभाव, ३ सुधारकता (विवेक), ४ प्रार्थना, ५ शील, ६ दान, ७ मांसत्याग, ८ मद्यत्याग । (१) सर्वधर्म-समभाव का दूसरा नाम स्याद्वादिता है । किसी * मद्यपलमधु निशाशन पंचफली विरतिपंचकातनुती । जीवदया जलगालन मिति च कचिदष्ट मूलगुणाः । - Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२.] [जैनधर्म-मीमांसा धर्म से द्वेष न करना, उसमें जो जो भलाइयाँ हों-उन्को सादर , ग्रहण करना, विधर्मी होने से ही किसी की निंदा न करना, आदि सर्वधर्म-समभाव या स्याद्वाद है । (२) मनुष्यमात्र को एक जाति समझना, विजातीय होने से ही किसी से द्वेष न करना, या इसी कारण से खानपान आदि में आनाकानी न करना सर्वजाति समभाव है। (३) रीति-रिवाजों में जो अच्छा हो उसे स्वीकार करना और जो बुरा हो असत्य हो-अपना या समान का नुकसान करने. घाला हो या अन्य किसी कारण से अनुपयुक्त हो-उसका त्याग करना, रूढ़ियों का अन्धभक्त न होना, सुधारकता या विवेक है। (१) सत्य आदि धर्मों की तथा उनको पाकर जो व्यक्ति महान बन गये हैं उनकी, प्रत्यक्ष या परोक्ष में प्रार्थना स्तुति प्रशंसा आदि करना, उन गुणों को जीवन में उतारने के लिये विनीत मन से विचार करना और उन विचारों को किसी तरह प्रकट करना प्रार्थना है। (५) 'शील' शब्द का अर्थ पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं है, किन्तु सापुरुष का आपस में ईमानदार रहना है। पुरुषों के लिये यह ख-सी सन्तोष या पर-स्त्री-निषेत्र के रूप में है और त्रियों के लिये ख-पुरुष सन्तोष या पर-पुरुष-निषेध के रूप में है । जो पुरुष विवाहित हैं उन्हें ख-खी-सन्तोषी होना चाहिये । जो अविवाहित (कुमार या विधुर) में उन्हें पर-स्त्री-निषेधी होना चाहिये, अर्थात् जिन स्त्रियों का पति जीवित है - उनके साथ काम-सम्बन्ध स्थापित न करना चाहिये । जिस प्रकार अविवाहित पुरुषों के लिये कुछ छूट रक्खी Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थों के मूलगुण ] [ ३२५ गई है, उसी तरह अविवाहित विशेषतः विधवा स्त्रियों के लिये भी है । · परन्तु यह छूट उसी जगह के लिये है जहाँ कि चेष्टा करने पर भी विवाहित न बना जा सकता हो । अविवाहित का पहिला कर्तव्य यह है कि वह ब्रह्मचर्य का पालन करे । अगर ब्रह्मचर्य का पालन न कर सकता हो, तो विवाह करे । परन्तु जब हरएक प्रकार की कोशिश करने पर भी विवाह न हो, तो वह ऐसे व्यक्ति को अपना साथी बना सकता है जो किसी दूसरे व्यक्ति के साथ इस बन्धन में नहीं बँधा है । अहिंसादि चार अणुव्रतों को छोड़कर जो सिर्फ शील या ब्रह्मचर्यव्रत को मूलगुणों में रक्खा गया है उसका कारण यह है कि यह गृहस्थ जीवन का मूलाधार है। स्त्री और पुरुष अगर 'आपस में विश्वासघात करें तो गार्हस्थ्य जीवन नरक ही समझना चाहिये । अन्य अणुव्रतों के पालन न करने पर भी गार्हस्थ्य-जीवन की उतनी दुर्दशा नहीं होती जितनी कि इस शील के न पाटने से होती है, इसलिये गृहस्थों के मूलगुणों में इसका समावेश करना अत्यावश्यक है । अविवाहितों को जो छूट दी गई है, उसका कारण यह है कि उसके दुरुपयोग से आर्थिक या प्रबन्ध सम्बन्धी अन्य बुराइयाँ भले ही होवें, परन्तु गार्हस्थ्य-जीवन के मूल पर कुठाराघात नहीं होता । (६) गृहस्थ को अपनी आमदनी में से समाज हित के लिये कुछ न कुछ अवश्य देना चाहिये । अगर वह अत्यन्त गरीब हो, Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] [जैनधर्म-मीमांसा । अपनी ही गुज़र न कर सकता हो, बेकार हो तो उसे छूट है, परन्तु इस छूट का जरा भी दुरुपयोग न हो, इस विषय में सावधानी - रखना चाहिए। (७) जिन देशों में अन्न या शाक मिल सकता है-वहाँ के लिये यह अत्यावश्यक मूलगुण है : मांस-भोजन हिंसा का उग्र रूप है, इसलिये उसका त्याग करना चाहिये । भारतवर्ष या इसी के समान अन्य देशों के लिये यह एक आवश्यक मूलगुण है । हाँ, उत्तर ध्रुव के आसपास के प्रदेश अथवा और भी ऐसे स्थानों के लिये जहाँ जीवन-निर्वाहयोग्य अन्न पैदा ही नहीं होता, वहाँ के लिये इस मूलगुण को शिथिल बनाना पड़ेगा | उसका शिथिल रूप कैसा हो, यह बात वहाँ की परिस्थिति के ऊपर निर्भर है। उदाहरणार्थ, जलचरों की छूट देकर स्थलचर और नभचरें। का त्याग किया जा सकता है, क्योंकि जलचरों की अपेक्षा स्थल-, चर और नभचर अधिक विकसित प्राणी है । इसी तरह से और भी विचार करना चाहिये । ऐसे देशों के लिये इस मूल-गुण का नाम मांस-मर्यादा होगा। (८) मद्य-त्याग भी आवश्यक है, क्योंकि मद्यपायी का जीवन अनुत्तरदायी तथा पागल के समान हो जाता है। हाँ, औषध के लिये मद्य-बिन्दु का सेवन करना पड़े तो इससे मूल गुण का भंग नहीं होता । तथा जिन शीतप्रधान देशों में दूध और चाय की तरह मद्यपान किया जाता है, वहाँ अगर इसका त्याग न हो सके तो भी मर्यादा बना लेना चाहिये और इतनी शराब कभी न पीना चाहिये जिससे मनुष्य भान भूलकर पागल सरीखा Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थों के मूलगुण ] [ ३२७ हो जावे । ऐसे देशों के लिये इस मूलगुण का नाम मद्यत्याग के स्थान पर मद्य-मर्यादा होगा। मूलगुणों में जिन-जिन नियमों में अपवाद बताया गया है या छूट दी गई है, वहाँ पर यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि वह छूट या अपवाद व्यसन का रूप न पकड़ ले । जीवन के लिये जो कार्य आवश्यक नहीं हैं, फिर भी जो पाप-कार्य इस प्रकार आदत का रूप पकड़ लेते हैं कि जिसके बिना बेचैनी का अनुभव होने लगता है, उसे व्यसन कहते हैं। इस प्रकार के दुर्व्य सनों का मूलगुणी को त्यागी होना चाहिये। ५. जैनशास्त्रों में जुआ, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी, पर बा के विषय को लेकर सात व्यसन बताये गये है। व्यसनों की संख्या कितनी भी हो, उसका सार वही है जो ऊपर कहा जा चुका है । स्पष्टता के लिये सात की गणना कर दी गई, यह ठीक है । मूलगुणी को इनका त्यागी होना चाहिये । हाँ, 'जुआ' शब्द के स्पष्टीकरण में यह कह देना उचिन मालूम होता है कि हार-जीत की कल्पना से ही जुआ नहीं हो जाता, किन्तु जब जुआ धन-पैसे से खेला जाता है तब जुआ कहलाता है । अन्यथा स्वास्थ्य, शिक्षा आदि विषयों की अच्छी प्रतियोगिताएँ भी जुआ कहलाने लगेगी अथवा मनोविनोद के लिये कोई खेल भी जुआ कहलाने लगेगा। 'जुआ' शब्द का इतना व्यापक अर्थ करना ठीक नहीं है, क्योंकि जुआ की जो विशेष हानियाँ हैं वे उपर्युक्त प्रतियोगिताओं या खेलों में नहीं पाई जाती। वर्तपान परिस्थिति के अनुसार ये आठ मलगुण बताये गये Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # ३२८ ] [ जैनधर्म-मीमांसा हैं। देश-काल-पात्र के भेद से इनमें न्यूनाधिकता तथा नामों में परिवर्तन किया जा सकता है । जैनत्व | मैं पहिले कह चुका हूँ कि मूलगुण व्रती होने की पहिली शर्त है, परन्तु व्रत हुए बिना जैन बन सकता है। जैन सम्प्रदाय में जन्म लेने से जैन में गिनती हो सकती है, परन्तु वास्तव में वह सच्चा जैन नहीं बन सकता । सच्चा जैन होने के लिये उसमें अमुक गुण होना चाहिये । व्रतादि उसमें हों या न हों, परन्तु अमुक तरह की भावना तो होना ही चाहिये, जिससे वह जैन कहा जा सके। 1 ऊपर जो मूलगुण बताये गये हैं उनमें से प्रारम्भ के तीन मूलगुण जैनत्व की शर्त के रूप में पेश किये जा सकते हैं । १ - सर्व धर्म समभाव, २ - सर्व जाति समभाव, ३ - सुधारकता (विवेक) ) I -- अगर रखने के आवश्यकता तो इस बात की है कि प्रत्येक जैन आठ मूलगुणों का पालन करे, परन्तु किसी कारणवश न कर सकता हो तो जैनत्व की लाज लिये कम से कम इन तीन गुणों का पालन तो अवश्य करे। और जहाँ तक बन सके प्रार्थना में शामिल अवश्य हो । प्रतिदिन न हो सके तो सप्ताह में एक दिन अवश्य हो । नित्य कृत्य । प्रत्येक धर्म-संस्था के सदस्यों के लिये कुछ ऐसे साधारण नित्यकृत्य नियम किये जाते हैं - जिनसे उस संस्था की संघटना बना Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्य-कृत्य [३२९ रहती है और उसके आश्रित रहकर उसके सदस्य आत्मोन्नति तथा परोन्नति करते रहते हैं। ऐसे कृत्य संस्था के साथ ही पैदा नहीं हो जाते, किन्तु धीरे धीरे पैदा होते हैं, और कभी कभी तो वे पूर्ण रूप में प्रचलित भी नहीं हो पाते । जैनशास्त्रों में, खासकर दिगम्बर जैनशास्त्रों में, इस प्रकार के दैनिक कृत्यों का वर्णन मिलता है। १ देवपूजा, २ गुरूपास्ति, ३ खाध्याय, ४ संयम, ५ तप, ६ दान । इनमें से स्वाध्याय, संयम, तप और दान-इन चार का वर्णन पहिले अच्छी तरह किया जा चुका है, इसलिये यहाँ इनके विवेचन की ज़रूरत नहीं है । रही देवपूजा और गुरूपास्ति; इनमें से भी गुरुपास्ति की आज जरूरत नहीं है, जिनमें वास्तव में गुरुत्व है उनको हर तरह सहायता पहुँचाना प्रत्येक गृहस्थ का कर्तव्य है; परन्तु यह तो पात्रदान में आ जाता है, इसलिये अलग उल्लेख करना अनावश्यक है । इससे अधिक गुरूपास्ति आवश्यक नहीं है। कम से कम वह नित्यकृत्य में नहीं रखी जा सकती। अब रा देवपूजा, सो देव कहीं मिलता तो है नहीं, भूत. काल के गुरु या महागुरु ही देव के रूप में माने जाने लगते हैं। महात्मा महावीर आदि महागुरु ही आज देव के रूप में माने जाते है, और देवपूजा के नाम पर उनकी मूर्तियों की पूजा की जाती है। हम ऐसे महागुरुओं को तथा जिन गुणों के कारण वे महागुरु बने-उन गुणों को देव के स्थान पर पूजें तो अनुचित नहीं है। परन्तु इसके विषय में तीन तरह के सुधारों की आवश्यकता है१-देवपूजा के वर्तमान रूप को बदल देना चाहिये । २-पूजा के Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 | जैनधर्म-मीमांसा ३३० ] विषय में अधिकार अनधिकार का जो प्रश्न है, उसके विषय में प्रतिबन्ध उठा लेना चाहिये । ३ - देवपूजा का अर्थ व्यापक करना चाहिये | इन तीनों का संक्षेप में स्पष्टीकरण इस प्रकार है । १ - देव पूजा का वर्तमान रूप विकृत है। अभिषेक, आँगी, पकान्न चढ़ाना आदि उसमें समय के प्रवाह के कारण मिल गये I हैं । जैन-धर्म में महावीर आदि की यद्यपि एक महात्मा या तीर्थंकर के रूप में ही मान्यता है, तथापि लोगों के हृदय में ऐश्वर्य की जो अमिट छाप है उसके कारण वे अगर महात्माओं की उपसना भी करते हैं तो वे उन्हें ईश्वर बनाकर छोड़ते हैं । उनके बाह्य वैभव और अतिशयों की कल्पना करके वे उन्हें मनुष्य की श्रेणी से निकालकर बाहर कर देते हैं। उनके जीवन की अद्भुत कहानियाँ गढ़ डालते हैं, और फिर उनके रण में नाना तरह की क्रियाएँ रचते हैं । मूर्तियों के अभिषेक आदि ऐसी ही अवैज्ञानिक सारहीन भक्तिकल्प्य घटनाओं के स्मारक है । उनकी आज ज़रूरत नहीं है । इसके अतिरिक्त मूर्तियों का श्रृङ्गार पूजा का अंग न बनाना चाहिये । रंगमंच के ऊपर नेपथ्य का काम करना जैसे कलाहीन और भद्दा है, उसी प्रकार पूजा में मूर्तियों का सजाना मी अनुचित है । जो कुछ करना हो पूजा के पहिले ही एकान्त में कर लेना चाहिये। साथ ही उसके अनुरूप ही सजावट करना चाहिये । महात्मा महावीर, महात्मा बुद्ध आदि की मूर्तियों पर मुकुट आदि लगाना — उनके श्रमण-जविन की हँसी करना है। हाँ महात्मा राम, महात्मा कृष्ण आदि की मूर्तियों पर यह सजावट की Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नित्य-कृत्य ] [ ३३१ जाय तो किसी तरह क्षन्तव्य है, परन्तु उन पर भी राजोदित श्रृङ्गार विशेष महत्त्वपूर्ण नहीं मालूम होता । म० रामचन्द्र की महत्ता उनके वनवासी जीवन में है, और म० कृष्ण की महत्ता महाभारत के सारथी - जीवन में है; इसलिये उस समय के अनुरूप ही उनका शृङ्गार होना चाहिये। जैनमूर्तियों में म० महावीर की मूर्ति तो नग्न ही बनाना चाहिये । म० पार्श्वनाथ की मूर्ति, म० बुद्ध की तरह सब बनाना चाहिये; तथा यह नियम रक्खा जाय कि श्रमण महात्माओं की मूर्तियों पर अलङ्कार नाममात्र को भी न हो । २ - पूजा तो ब्राह्मण या उपाध्याय ही कर सकता है, या पुरुष ही कर सकता है - इस प्रकार के प्रतिबन्ध उठा देना चाहिये । यह घोषित कर देना चाहिये कि पुरुष हो या स्त्री, ब्राह्मण हो या शूद्र, अमीर हो या गरीब, सबको देवपूजा का समान अधिकार है । बहुत से स्थानों पर खियों को पूजा नहीं करने दी जाती अथवा मूर्ति को नहीं छूने दिया जाता । यह अन्याय है और यह बात जनशास्त्रों के भी प्रतिकूल है | बेताम्बर सम्प्रदाय में तो खियों को तीर्थंकर तक माना है, सैकड़ों स्त्रियों के मुक्त होने का उल्लेख है, इसलिये देवपूजा का निषेध किया जाय - यह तो हो ही नहीं सकता | दिगम्बर सम्प्रदाय में यद्यपि दिगम्बर के कट्टर आग्रह से तथा समय के प्रवाह से स्त्रीमुक्ति का निषेध किया गया; तथापि खियों के द्वारा देवपूजा के बहुत से उल्लेख मिलते हैंपद्मपुराण में रावण की पत्नियाँ, अंजनासती, चन्द्रनखा, विशल्या आदि; आदिपुराण में सुलोचना आदि; हरिवंश पुराण में गन्धर्वसेना, Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] (जैनधर्म -मीमांसा सुभद्रा, जिनदचा, अईहास सेठ की पत्नी आदि; शान्तिपुराण में स्वयंप्रभा आदि । इनमें से कुछ ने अकेले पूजा की है, कुछ ने पति के साथ। कुछ के विषय में तो उनके द्वारा मर्तिस्थापन तथा अभिषेक होने का स्पष्ट उल्लेख है। ये सब उदारतापूर्ण बातें शास्त्रों में मिलती हैं । अगर कदाचित् न मिलती होती तो भी न्याय की रक्षा के लिये इनका रखना आवश्यक था । समता का विघातक अनुचित प्रतिबन्ध कदापि न होना चाहिये । इसी प्रकार शूद्रों के बारे में भी समझना चाहिये । जब उन्हें मोक्ष जाने, संयम पालने, व्रत लेने का अधिकार है, तब पूजा का अधिकार कौन सा बड़ा अधिकार है ? ३-देव-पूजा के लिये मूर्ति को अबलम्बन मानकर उसका उपयोग किया जाय यह अच्छा है, परन्तु यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि मूर्ति आदि के अवलम्बन के बिना भी पूजा हो सकती है। जहाँ तक सम्भव हो सामाजिकता को बढ़ाने के लिये, वात्सल्य की स्थिरता के लिये, सामूहिक प्रार्थना करना चाहिये | अगर यह सम्भव न हो तो प्रार्थना के लिये सार्वजनिक स्थान, मन्दिर, स्थानक, आदि में जाना चाहिये । अगर इतना भी न हो तो कहीं भी प्रार्थना करना चाहिये । इस प्रकार की प्रार्थनाएँ वास्तव में देव-पूना श्रावकों के इन छः कृत्यों में से गुरुपारित की तो जसरत ही नहीं है अथवा उसे दान में शामिल कर सकते हैं । संयम कोई खास दैनिक कृत्य नहीं है, वह तो मूलगुणादिक के रूप में सता Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना [३३३ रहता है । तप को भी दैनिक कृत्य बनाने की आवश्यकता नहीं है। किसी की इच्छा हो तो वह भले ही करे । इस प्रकार नित्यकृत्यों की संख्या तीन रह जाती है-प्रार्थना, स्वाध्याय और दान । प्रार्थना का सम्बन्ध सम्यग्दर्शन से है, स्वाध्याय का सम्बन्ध ज्ञान से है और दान का सम्बन्ध सम्यक्चारित्र से है । इस प्रकार ये तीन दैनिक कृत्य उपयोगी भी है, सरल भी है । जीवन के किसी कार्य' में विशेष बाधा डाले बिना-इनका अच्छी तरह से पालन किया जा सकता है, इसलिये इनका पालन अवश्य करना चाहिये । सल्लेखना। जैनधर्म में बतों के प्रकरण में सल्लेखना का भी उल्लेख किया जाता है । यह मत्युसमय की क्रिया है तथा मुनि और श्रावक कोई भी इसे कर सकता है, इसलिये इस व्रत का अलग विधान किया गया है। यद्यपि किसी ने इसे शिक्षा-व्रतों में भी गिना है जैसा कि पहिले कहा जा चुका है-परन्तु अधिकांश लेखकों ने इसे अलग ही रक्खा है। जिस समय मृत्यु का निश्चय हो जाय अथवा कोई ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाय कि मृत्यु को स्वीकार किये बिना कर्तव्य. भ्रष्टता से बचने का दूसरा कोई उपाय न हो, उस समय अपने कर्तव्य की रक्षा करते हुए जीवन का उत्सर्ग कर देना सल्लेखना है । बहुत से धर्मों में इस प्रकार के जीवनोत्सर्ग का विधान पाया जाता है। कहीं जल में डूबने, कहीं पर्वत से गिरने अथवा किसी दूसरे रूप से प्राणों के उत्सर्ग करने का विधान है। परन्तु Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] जैनधर्म-मीमांसा आजकल वैसे विधानों का कोई मूल्य नहीं है, क्योंकि एक तो उनकी नींव अन्धश्रद्धा पर खड़ी हुई है, दूसरे उसकी कोई उपयोगिता सिद्ध नहीं होती है। किसी देवता को खुश करने के लिहाज से मर जाना अन्धश्रद्धा का भयंकर परिणाम है, क्यों कि न तो कोई ऐसा देवता है और न उसे इस प्रकार से खुश करने की ज़रूरत है। हाँ, कर्तव्य की वेदी पर बलिदान करना ही सच्चा बलिदान है। समाज की रक्षा के लिये जान लड़ा देना, दूसरों की सेवा में शरीर देना पड़े तो देना आदि ही सच्चा बलिदान है । अमुक जगह मरने से या अमुक का नाम लेकर मरने से या मोक्ष मिल जायगा, इस प्रकार की अन्धवासना से प्राण देने का कोई फल नहीं है । वह एक प्रकार की आत्महत्या ही है। अपनी और जगत् की भलाई की दृष्टि से जब प्राणोत्सर्ग करना, अधिक कल्याणकारी मालूम हो तभी प्राणोत्सर्ग करना चाहिये । पुराने समय की प्राणोत्सर्ग किया. इतनी विकृत और दुर्बसनापूर्ण थी कि वह एक प्रकार से नामशेष ही हो गई या अन्धश्रद्धालुओं के लिये बच रही । धार्मिक उपयोगिता की दृष्टि से उसका कुछ मूल्य न रहा; किन्तु जैनधर्म ने उसका इतना अधिक संशोधन किया है कि वह शो हुए वित्र की तरह औषध का रूप धारण कर गई है । आज उसमें थोड़े बहुत संशोधन की आवश्यकता और हो गई है; उस संशोधन के बाद वह आज भी उपयोगी है । जैनधर्म ने जो इस विषय में संशोधन किया है, उसमें सबसे बड़ा संशोधन यह है कि उपवास को छोड़कर मृत्यु के अन्य Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखना [ ३५५ सब उपायों की मनाई कर दी गई है। जब कोई ऐसी असाध्य बीमारी हो जाय कि उसके कष्टों का सहन करना कठिन हो, उसके मारे हम दूसरों की सेवा भी न कर सकते हों, बल्कि दूसरों से अधिक सेवा लेनी पड़ती हो, उस समय उपवास करके शरीर छोड़ना चाहिये। जल में डूबने आदि उपायों की सस्त मनाई है। और उपवास का विधान भी एकदम नहीं है; किन्तु प्रारम्भ में नीरस भोजन करना चाहिये, बाद में अन्न त्याग करना चाहिये, बाद में छाछ वगैरह किसी पेय वस्तु के आधार पर रहना चाहिये, इसके बाद शुद्ध जल के आधार पर रहना चाहिये, इसके बाद पूर्ण उपवास का विधान है या सिर्फ जल के आधार पर रह सकता है। इस प्रक्रिया से दिनों, महिनों और वर्षों का समय लग जाता है । एकदम प्राण त्याग करने में जो संक्लेश अपने को और दूसरों को होता है, वह इस प्रक्रिया में नहीं होता । इसके अतिरिक्त यह प्रक्रिया मरण का ही नहीं, जीवन का भी उपाय है । इस प्रकार का भोजन-त्याग कभी कभी असाध्य बीमारियों तक को दूर कर देता है। अगर भोजन-त्याग से बीमारी शांत हो जावे और जिन कारणों से सल्लेखना की थी, वे कारण हट जावें तो सल्लेखना बन्द कर देना चाहिये । इस प्रकार के संशोधन से सल्लेखना की उपयोगिता और भी अधिक बढ़ जायगी। आत्महत्या और सलेखना में जमीन-आसमान का अन्तर है । आत्म-हत्या किसी कषाय के आवेग का परिणाम है, जब कि सल्लेखना त्याग और दया का परिणाम है । जहाँ अपने जीवन की कुछ भी उपयोगिता न रह गई हो, और दूसरों को व्यर्थ कष्ट Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६] [जैनधर्म-मीमांसा उठाना पड़ता हो, वहाँ शरीर-त्याग में दूसरों पर दया है। प्रश्न-जिन रोगों को बड़े बड़े वैध असाध्य कह देते हैं, उनसे भी मनुष्य की रक्षा हो जाती है । क्षणभर बाद क्या होने वाला है, इसको पूर्ण निश्चय के साथ कीन कह सकता है ? इसलिये मृत्यु का भी पूर्ण निश्चय कैसे होगा ? और पूर्ण निश्चय के बिना सल्लेखना लेना उचित नहीं कहा जा सकता । वह तो आत्मवध हो जायगी। उत्तर-मनुष्य के पास निश्चय करने के जितने साधन हैं उन सबका उपयोग करने पर जो निर्णय हो, उसी के आधार पर काम करना चाहिये । अन्यथा मनुष्य को बिलकुल अकर्मण्य हो जाना पड़ेगा । जीवन के वह सारे काम अपने ज्ञान से करता है। यह काम भी उसे इसी तरह करना चाहिये । हाँ, उसके भीतर किसी प्रकार का कषायावेष न हो, शुद्ध बुद्धि से विचार करे, इस प्रकार का तथा निम्नलिखित चार बातों का विचार करके सल्लेखना स्वीकार करे लोक-लजा आदि से सल्लेखना न ले और न किसी को ज़बर्दस्ती सल्लेखना दे। क-रोग अथवा और कोई आपत्ति असाध्य हो। ख-सबने रोगी के जीवन की आशा छोड़ दी हो। ग-प्राणी स्वयं प्राण त्याग करने को तैयार हो। घ-जीवन की अपेक्षा जीवन का त्याग ही उसके लिये श्रेयस्कर सिद्ध होता हो। इसके अतिरिक्त और बातें भी विचारणीय हो सकती है Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सल्लेखमा ] [ ३३७ जैसे, उसकी परिचर्या करना अशक्य हो और परिचर्चा करने पर भी उसकी असह्य-वेदना में कमी न की जा सकती हो, आदि । यह बात पहिले ही कही जा चुकी है कि सल्लेखना करने से अगर किसी का स्वास्थ्य सुधर जाय तो सल्लेखना बन्द कर देना चाहिये । प्रश्न-यदि स्वास्थ्य सुधरने पर सल्लेखना बन्द कर दी जाय तो सल्लखना एक प्रकार की चिकित्सा ( उपवास-चिकित्सा) कहलाई । तब व्रतों के प्रकरण में उसके विधान की क्या आव. श्यकता है ! उसे तो चिकित्सा-शास्त्र में शामिल करना चाहिये । उत्तर - उपवास-चिकित्सा और सल्लेखना में अन्तर है । चिकित्सा में जीवन की पूरी आशा और चेष्टा रहती है, सल्लेखना उस समय की जाती है जबकि जीवन की न तो कोई आशा रहती है न उसके लिये कोई चेष्टा की जाती है । अकस्मात् कोई एसी परिस्थिति पैदा हो जाय कि उपवाम वगैरह से निराशा में आशा का उदय होकर उसमें सफलता हो जाय तो जबर्दस्ती प्राण. त्याग करने की जरूरत नहीं है। क्योंकि सल्लेखना आत्महत्या नहीं है, किन्तु आई हुई मौत के सामने वीरता से आत्म-समर्पण करना है। इससे मनुष्य शांति और आनन्द से प्राण-त्याग करता है । मृत्यु के पहिले जो उसे करना चाहिये-वह कर जाता है । मौत अगर टल जाय तो उसे जबर्दस्ती न बुलाना चाहिये । सल्लेखना का मुख्य कारण रोग अथवा और ऐसी ही कोई Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८] [जैनधर्म-मीमांसा शारीरिक विकृति है । परन्तु अन्य कारणों का भी उल्लेख किया जाता है । जैसे-उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वृद्धता आदि । ये कारण पुराने समय की मुनिसंस्था को लक्ष्य में लेकर बताये गये हैं । पुरानी मुनिसंस्था के नियमानुसार उपसर्ग आने पर मुनि को भागना न चाहिये-न बचाव करना चाहिये, इसलिये सल्लेखना ही अनिवार्य है । इसी प्रकार दुर्मिक्ष में मुनि के योग्य निर्दोष आहार नहीं मिल सकता, इसलिये भी उसे प्राण त्याग करना चाहिये । इसी प्रकार अतिवृद्ध हो जाने पर मनुष्य मुनियों के आचार का पूरी तरह पालन नहीं कर सकता, इसलिये आचारहीन होने की अक्षा प्राणत्याग श्रेष्ठ है। पुरानी मुनि संस्था के ये नियम आज बदल दिये गये हैं, इसलिये सल्लेखना के ये कारण भी आवश्यक नहीं कहे जा सकते। परन्तु इनके भीतर जो दृष्टि-है वह आज भी उपयोगी है । पुरान समय के उपसर्ग, दुर्भिक्ष आदि को हम सल्लखना के लिये पर्याप्त कारण माने या न मानें, परन्तु इसमें एक बात अवश्य है कि जब मनुष्य दुनिया के लिये भारभूत हो जावे तो स्वेच्छा से साविक रीति से मत्यु स्वीकार करे तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है। मनुष्य को भारभूत होने की कोशिश न करना चाहिये, किन्तु जब उसके ऊपर प्राकृतिक या पर-प्राणिकृत ऐसी विपत्तियाँ आ जाय कि वह न तो अपना ही कल्याण कर सके, न जगत् का कल्याण कर सके, तो समाधि-मरण उचित है । यह आत्म-हत्या नहीं है। समाधि-मरण आत्महत्या नहीं है, इसके विषय में जैना Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिचार ] [ ३३९ चायों ने एक सुन्दर उपमा दी है । वे कहते हैं कि जैसे कोई व्यापारी घर का नाश नहीं चाहता, अगर घर में आग लग जाती है तो उसके बुझाने की चेष्टा करता है, परन्तु जब देखता है कि इसका बुझाना कठिन है, तब वह घर की पर्वाह न करके धन की रक्षा करता है। इसी तरह कोई आदमी शरीर का नाश नहीं चाहता, परन्तु जब उसका नाश निश्चित हो जाता है तब वह शरीर को तो नष्ट होने देता है; किन्तु धर्म की रक्षा करता है, इसलिये यह आत्म-वध नहीं कहा जा सकता। यह आत्म-वध नहीं है, किन्तु इसका दुरुपयोग न होने लगे, इसके लिये सतर्कता रखना चाहिये । अतिचार । श्रावकों के लिये जो बारह व्रत बताये गये हैं उनका वर्णन हो चुका, परन्तु व्रतों की रक्षा के लिये उनके दोषों का जानना आवश्यक है । अतिचार व्रत का दोष माना जाता है । अनाचार व्रत का नाश माना जाता है। अतिचार में भी व्रत का नाश होता है, परन्तु कुछ अंश में उसकी रक्षा रहती है । इसलिये आंशिक भंग को अतिचार आर पूर्ण भंग को अनाचार कहते हैं। • यथा वाण: विविध पण्यदानादानसंचयपरस्य गृहविनाशोऽनिष्टः तद्विनाशकारणे चांपस्थिते यथाशक्ति परिहरति । दुःपरिहारे च पण्याविनाशो यथा भवति तथा यतते । एवं गृहस्थोऽपि व्रतशीलपुण्यसत्यप्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य शरीरस्य न पातमाभिवाञ्छति । तदप्लवकारणे चौपस्थिते स्वगुणाविरोधन पारिहरति दुष्परिहारे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति यथा प्रयतति कथमात्मवधां मवेत् । -त. राजवार्तिक ७-२२-८ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०] [जैनधर्म-मीमांसा दोष या अतिचार सैकड़ों हो सकेत हैं, परन्तु उनमें से मुख्य मुख्य पांच पांच दोष चुनकर गिनाये गये हैं। यहां उनका संक्षेप में विवेचन किया जाता या नामावलि दी जाती है। जो अतिचार वर्तमान काल की दाष्टे से अनाचार रूप है अथवा जो दोष-रूप ही नहीं है, उसका स्पष्टीकरण उस जगह कर दिया जायगा। अहिंसाणुव्रत-१पशुओं को इस तरह जड़ककर बाँधना जिससे उनको हिलना डुलना भी मुश्किल हो जाय (बन्ध], २. उनको निर्दयता से पीटना (वध), ३. कान नाक वगैरह छेदना, ४. उनपर ज्यादह बोझ लादना, ५. खाने-पीने में कमी करना । अगर ये काम दुर्भाव से न किये गये हों तो अतिचार नहीं हैं। सत्याणुव्रत- १. झूठा उपदेश देना । इस अतिचार का साधारणतः जो अर्थ किया जाता है-वह ठीक नहीं है। जानबूझकर अगर झूठी बात का उपदेश दिया जाय तब तो वह अना. चार है । अगर किसी विषय में हमारा विश्वास ही ऐसा हो और तदनुसार ही हमने उपदेश दिन हो तो वह व्रत की दृष्टि से अति. चार नहीं है । वास्तव में इस अतिचार का अर्थ लापर्वाही से बोलना या दुराग्रह करना है । २-श्री पुरुष आदि की चेष्टाओं को प्रगट करना । ३-दूसरे के कहने से झूठी बातें लिखना या नकली हस्ताक्षर * बना देना आदि । यह अतिचार नहीं वास्तव में अनाचार * अन्ये नानुनमननुतिं च यत्किञ्चित्तस्य परप्रयोगवशादेव तेनोक्तमनुठितं चेति वश्चनानिमित्तम लखनम् अन्यसरूपाक्षर करुणमित्यन्ये। -सागारधर्मामृत ४-१५ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिचार ] [ ३४१ है । ४ - कोई मनुष्य अपने यहाँ कोई चीज़ रख गया हो और भूल से कम माँगे, तो जानते हुए भी उसका अनुमोदन करना । ५ - चुगली खाना | वास्तव अचार्याणुव्रत -- १- किसी को चोरी के लिये प्रेरित करना । में यह अनाचार ही है । २ - चोरी का सामान लेना । ३मापने तालने के साधन न्यूनाधिक रखना । यह भी अनाचार है । ४ - अधिक मूल्य की वस्तु में हीन मूल्य की वस्तु मिलाकर बेचना | श्री में चत्र मिलाना, पूछने पर झूठ बोलना आदि अवस्था में यह अनाचार ही है । ५-सामान पर टैक्स वगैरह न देना | सत्याग्रह में चोरी की वासना न होने से वह अतिचार नहीं है । ब्रह्मचर्याणुव्रत - १.दुमरे की सन्तति का विवाह कराना | इसको अतिचार मानना निवृत्ति मार्ग का अतिरेक है । जिस कारण से अपनी सन्तान के विवाह का आयोजन करना उचित हैं, उसी कारण मे दूसरे की सन्तान का विवाह करना भी उचित है | पीछे के लेखकों को इसकी अतिचारता खटकी भी है, इसलिये उनने इसका दूसरा अर्थ किया है कि एक अपनी दूसरी शादी करना परविवाह करण अतिचार हैं । इस अर्थ की दृष्टि से बहुपत्नी के रिवाज वाले देश में यह अतिचार माना जा सकता है । जहाँ बहुत्व की प्रथा नहीं है, वहाँ तो यह भी पत्नी के रहने पर मैं यदा तु स्वदारसन्तुष्टो विशिष्टताभावात् अन्यस्कलत्रं परिणयति नदाप्यस्यायमतिचरः स्यात् । परस्य वनान्तरस्व विवाह व रणमात्मना विवाहनम् । - सागारधर्मामृत ४-५८ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] . । जैनधर्म-मीमांसा अनाचार है । जहाँ तलाक का रिवाज़ हो वहाँ पर तलाक देना अतिचार मानना चाहिये, या तलाक देकर दूसरा विवाह करना अतिचार है, अथवा दूसरा विवाह करने की इच्छा से तलाक देना अतिचार है । २-दूसरे के द्वारा परिगृहात वश्या के पास जाना । ३-अथवा अपरिगृहीत वेश्या के पास जाना । पहिले समय में इस विषय में नैतिकता के बन्धन बहुत शिथिल थे, इसलिये वेश्या-सेवन भी अतिचार ही था, न कि अनाचार । परन्तु स्त्रियों के साथ यह अत्याचार है। वास्तव में वेश्या-गमन भी अनाचार है । हाँ, अविवाहित पुरुष की दृष्टि से इसे अतिचार कह सकते हैं, परन्तु विवाहित के लिये तो अनाचार ही है । दो पुरुषों में होने वाला काम-सेवन भी वेश्या-सेवन के समान दोप है । ४. काम-सेवन के सिवाय भिन्न अंगों से काम-सेवन करना । ५. कामोत्तेजना अधिक होना या इसके लिये कामोत्तेजक पदार्थों का उपयोग करना । , आचार्य समन्तभद्र ने परिगृहीत और अपरिगृहीत, इस प्रकार वेश्या के दो भेद नहीं रक्खे हैं । उनने दोनों के स्थान पर एक ही अतिचार माना है और पाँच की संख्या पूरी करने के लिये विटत्व-भण्डपन से भरी हुई वचन और मन की चेष्टाएँ को अतिचार माना है । यह मतभेद साधारण है। परिग्रह परिमाण- धनधान्यादि परिग्रह की मर्यादा का उल्लंघन करना अतिचार है । मर्यादा का उल्लंघन करने से ते * क्षेत्रवास्तु हिरण्य सुवर्ण धनधान्य दासीदास कुप्प प्रमाणातिकमाः । ~तत्वार्थ ७-११ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिचार ] [ ३४३ अनाचार ही हो जायगा । इसलिये उल्लंघन करने में भी मर्यादा की अपेक्षा रखना चाहिये । जैसे, गाय के गर्भवती होने पर संख्या बढ़ जाती है, परन्तु उसे गिनती में शामिल न करना। आभूषणों की संख्या बढ़ रही हो तो दो आभूषणों को मिलाकर एक कर देना आदि । ___आचार्य समन्तभद्र ने इस व्रत के अतिचारों के नाम दूसरे ही दिये हैं । १-पशु जितनी दूर तक चल सकते हैं उससे अधिक दूर तक चलाना । २-आवश्यकता से अधिक संग्रह करना । 3-लाभ के आवेश से बहुत आश्चर्य करना । ४-बहुत लोभ--कंजमी करना । ५--लोभ से पशुओं पर बहुत भार लादना । विश्वन और देशविति की आज आवश्यकता ही नहीं है, इसलिये उनके अतिचार नहीं बताये जाते । सामायिक -मन वचन काय की चञ्चलता, अनादर से सामायिक करना या भूल जाना । ये बातें प्रतिक्रमण प्रार्थना अदि में भी लगाना चाहिये । प्रतिक्रमण में एक बड़ा भारी अतिचार यह गिनना चाहिये कि जिससे क्षमा याचना करना चाहिये उससे न करके दुनिया भर के जीवों से क्षमा-याचना करना। स्वाध्याय-पहिले यह बारह व्रतों में नहीं गिना जाता था, इसलिये इसके अतिच.र नहीं बनाये गये । अब इसके अतिचार यो समझना चाहिये। अतिवाहनातिसंग्रह विस्म्य लाभारिमारवहनानि । परिमित परिमहस्य च विक्षपा पंच लक्ष्यन्ते !! -रत्न क. था. ३-१२ ! Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] [जैनधर्म-मीमांस १- मन की असंलग्नता, २ - वचन की विसंलग्नता, ( मौन में वचन की असंलग्नता रहती है, परन्तु मौन में भी स्वाध्याय अच्छी तरह होता है, इसलिये वचन की असंलग्नता अतिचार नहीं है, किन्तु विसंलग्नता अर्थात् स्वाध्याय के समय विचार किसी और बात का करना और बोलना कुछ और, अतिचार है । हाँ, कोई आवश्यक सूचना करना पड़े तो यह अतिचार नहीं है ) । ३ अनादर से पढ़ना सुनना आदि । ४ भूल जाना । ५ पक्षपात! इससे सच्चे ज्ञान की प्राप्ति में बाधा पड़ती है, इसलिये यह बड़ा भारी अतिचार है । काय की असंलग्नता या विसंलग्नता को अतिचार नहीं कहा, . इसका कारण यह है कि चलते फिरते या लेटे हुए भी स्वाध्याय हो सकता है. इसलिये वह दोष नहीं है । अतिथिसेवा - मुनियों को भोजन देने की दृष्टि से पुराने समय में अतिचार बताये गये थे । इसलिये सचित्त वस्तु से ढक देना, उसमें रखना, देय वस्तु दूसरे की बता देना, अनादर से देना, काल का उल्लंघन करना अतिचार थे । सचित्त का अर्थ अभक्ष्य करने पर आज भी ये अतिचार कहे जा सकते हैं। परन्तु अतिथिसेवा में सिर्फ भोजन कराना ही न समझ लेना चाहिये; अन्य प्रकार की सेवा का भी यथायोग्य समावेश करना चाहिये । दान- इसको एक अलग व्रत के रूप में रक्खा गया है । इसके मुख्य अतिचार निम्नलिखित मानना चाहिये- ९ निरुपयोगी कार्यों में देना, २ अहङ्कार करना, ३ यश की वासना को मुख्यता देना, ४ बदले की वासना रखना, ५ अनादर या अनिच्छा से देना आदि । Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिचार ] [ ३४५ भोगोपभोग परिसंख्यान-इसक अतिचार दो तरह के मिलते हैं। पुरानी मान्यता यह है -१ सचित्ताहार, २ सचित्त से सम्बद्ध वस्तु का आहार, ३ सचित्त से मिश्रित वस्तु का आहार, ४ मादक आदि वस्तुओं का आहार, ५ अधपकी वस्तु का आहार, ये पाँचा अतिचार सिर्फ भोजन के विषय में हैं जब कि भोगोपभोग परिसंख्यान का क्षेत्र विशाल है, इसलिये अतिचारों का यह पाठ बहुत अपूर्ण है । इसलिये आचार्य समन्तभद्र ने जो संशोधन किया है या जो पाठ दिया है वह अधिक उपयुक्त है । १ विषयों में आदर रखना, २ बार बार विचार करना, ३ अत्यधिक लोलुपता रखना अर्थात् प्रतिकार हो जाने पर भी इच्छा रखना, ४ भविष्य के भोगों में तन्मय होना, ५ अत्यधिक तल्लीन होना । और भा अतिचार बनाय जा मकते हैं। अनर्थदंडविरति-१ असभ्य परिहास करना, २ असभ्य चेष्टा करन!, ३ व्यर्थ बकवाद करना, ४ बिना विचारे प्रवृत्ति करना, ५ अनावश्यक संग्रह करना। प्रोपध-१-२.३ बिना देखे शोधे वस्तुओं का उठाना रहना और बिछाना, १.५ धार्मिक क्रियाओं में अनादर रखना और भूल जाना। • सचित्तसबन्ध समिाभिषव दुःपक्काहाराः । -तत्वार्थ ७-३५ । • विषयविषताऽनुपेक्षाऽनस्मृतिरतिलील्यमतितृषानुभवौ । भोगांपभोगपरिमा व्यतिकमा पंच कश्यन्ते ॥ -रल क० श्रा० ३-४ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ) [जैनधर्म-मीमांसा प्रोषध इसलिये है कि भोजन की तरफ से निराकुल रहकर मनुष्य अधिक सेवा, स्वाध्याय आदि कर सके तथा स्वास्थ्य भी ठीक रख सके । इन उद्देश्यों को धक्का पहुँचाने से अतिचार हो जाता है। सल्लेखना-१ जीवन की इच्छा रखना, २ मरने की इच्छा रखना (उस समय मनुष्य को मृत्यु और जीवन में समदर्शी होना चाहिये), ३ मित्रों का स्मरण कर करके दुखी होना, ४ पुराने भोगों का स्मरण करना, ५ भविष्य के लिये भोगों की लालसा रखना। अतिचार अनेक हैं । यहाँ तो नमूने के तौर पर मुख्य मुख्य गिनाये गये हैं। जैनाचार्यों में इस विषय में भी अनेक मतभेद हैं, जिसमें तात्त्विक हानि तो नहीं हैं, परन्तु उससे इतना तो सिद्ध होता है कि ये आचार्य अरहन्त के नाम की दुहाई देकर देशकाल के अनुसार स्वेच्छा से नये नये विधान बनाया करते थे। उनका यह प्रयत्न लोगों को समझाने के लिये उचित ही था। प्रतिमा। प्रतिमा शब्द का अर्थ यहाँ कक्षा या श्रेणी है । गृहस्थों को आचार में धीरे-धीरे समुन्नत बनाकर पूर्णसंयमी बनाने के लिये ये श्रेणियाँ हैं । मुनि-संस्था में प्रवेश करने के पहिले इन श्रेणियों का अभ्यास कर लेना उचित है । महात्मा महावीर के पहिले वर्णाश्रम व्यवस्था का जोर था । उसमें अनेक विकार आ जाने से महात्मा महावीर ने उसे तोड़ दिया । परन्तु किसी न किसी रूप में इनका रखना अनिवार्य और आवश्यक था । वर्णव्यवस्था जन्म से न रही, कम से रही । इसी प्रकार आश्रम-व्यवस्था भी उम्र के हिसाब से न रही, किन्तु समय के हिसाब से रही । म० महावीर की भी Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा ] [ ३४७ > इच्छा थी कि गृहस्थ और सन्यास के बीच में कोई एक आश्रम अवश्य हो जिसमें मनुष्य संयम का अभ्यास करे । म० महावीर की उसी इच्छा का फल, प्रतिमाओं का यह विधान है । हाँ, यह बात अवश्य है कि इस विधान को जैसी चाहिये वैसी सफलता न मिली । चारित्र के जब अन्य नियम देश-काल के अनुसार बदलते रहे है, तत्र प्रतिमाओं का बदलते रहना आवश्यक था; क्योंकि प्रतिमाएँ चारित्र-मियम रूप नहीं हैं किन्तु नियमों के पालन का एक क्रम हैं। बहुत से नियमों में कोई किसी नियम का पहिले अभ्यास करता है और कोई पीछे, इसलिये प्रतिमाओं में अदलाबदली होना स्वाभाविक था । फिर इनमें जितना परिवर्तन होना चाहिये था उतना नहीं हुआ । इसका कारण यही है कि इनका यथेष्ट प्रचार न हो सका । जैनशास्त्रों में प्रतिमाओं के सिर्फ तीन पाठ मुझे मिले हैं । सम्भव है और भी हों । इनमें एक तो श्वेतार सम्प्रदाय का है और दो दिगम्बर सम्प्रदाय के । पाठकों की सुविधा के लिये मैं तीनों पाठ एक साथ दे रहा हूँ | भी तृतीयपाठ मूलवत व्रत अर्चा पर्वकर्म अकृषिक्रिया વિચામા प्रथमपाठ १ दर्शन २ व्रत ३ सामायिक ४ प्रोषध ५ पडिमा डिमा ६ कर्जन द्वितीयपाठ दर्शन व्रत सामायिक प्रोषधीपवास सचित्तत्याग रात्रिभुक्ति त्याग Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] ७ सचित्ताहार वर्जन ८ स्वयमारम्भवर्जन ९ प्रेष्यारम्भवर्जन १० उद्दिष्टभक्त वर्जन ११ श्रमणभूतप्रतिमा [ जैनधर्म-मीमांसा नवविधब्रह्म सचित्तवर्जन परिमहत्याग ब्रह्मचर्य आरम्भत्याग परिग्रहत्याग अनुमतित्याग भोजनमात्रानुमोदन त्याग अनुमतित्याग पहिला पाठ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सर्वमान्य है । दूसरा तीसरा पाठ दिगम्बर सम्प्रदायका हैं, परन्तु तीसरा न तो प्रचलित है और न प्रसिद्ध ही है | इसका विधान सोमदेवसूरि ने अपने" यशतिलक * में किया है । इसके अतिरिक्त छुट्टी प्रतिमा के विषय में एक चौथा गठ भी है । समन्तभद्र आदि आचार्यों ने इस प्रतिमा का नाम रात्रिभुतित्याग अर्थात् रात्रि में चारों प्रकार के आहार का त्याग, रक्खा है; जब कि सोमदेव आशाधर आदि ने इसका नाम रात्रिभुक्तत्रत * मूलवतं व्रतान्यर्चा पर्वकमा कृषि किया। दिवा नवाबधं ब्रह्म सचित्तस्य विवर्जनम् ॥ परिग्रह परित्याग भुक्तिमात्रानुमान्यता | वृद्धानां च वदन्त्येतान्यकाश यथाक्रमम् ॥ अवधित्रतमारोहे पूर्व पूर्वव्रत स्थितः । सर्वत्रापि समा प्रोक्ता ज्ञानदर्शनभावनाः || गृहिणी ज्ञेया त्रयः स्युब्रह्मचारिणः । भिक्षुका द्वौ तु निर्दिष्ट ततः स्यात्सर्वतो यतिः ॥ अन्नं पान खायं यं नाश्राति यो विभावयम | स च रात्रिभुक्तिविरतः सत्त्वेष्वनुकम्पमानमनाः । -रत्न क० श्रा० ५-२१। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा ] [३१९ दिवामैथुनविरति रक्खा है । और इसका अर्थ किया है दिन में* मैथुन नहीं करना । इस मतभेद के मिलाने से प्रतिमाओं के चार पाठ हो जाते हैं। पहिले पाठ का- जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रचलित है-अन्य पाठों से एक विशेष मतभेद और है और वह यह कि स्वताम्बर पाठ के अनुसार प्रतिमाएँ परिमित समय के लिये हैं, जब कि दिगम्बर मतानुसार प्रतिमाएँ जीवन भर के लिये ली जा सकती हैं। श्वेताम्बर मतानुसार पहिली प्रतिमा एक महीने के लिये है, दूसरी दो महीने के लिये, तीसरी तीन महीने के लिये, इस प्रकार ग्यारहवीं ग्यारह महीने के लिये । इस तरह सब प्रतिमाओं के अभ्यास में साई पाँच वर्ष लग जाते हैं। साथ ही यह नियम भी है कि ऊँची प्रतिमा धारण करने पर नीची प्रतिमा का धारण किये रहना अनिवार्य है, इस प्रकार ग्यारहवीं प्रतिमा के समय बाकी दस प्रतिमाओं का धारण करना अनिवार्य है । इस प्रकार पहिली प्रतिमा सब प्रतिओं के साथ रहने से साढ़े पाँच वर्ष तक रहेगी, दूसरी पाँच वर्ष पाँच माह, तीसरी पाँच वर्ष तीन माह, चौथी पाँच वर्ष इत्यादि । ऊँची प्रतिमाओं के धारण करने पर नीची प्रतिमाओं का धारण करना दिगम्बर सम्प्रदाय में भी अनिवार्य है । महात्मा महावीर ने आश्रम-व्यवस्था का विरोध करके भी उसके तत्व को स्वीकार किया था । कोई मनुष्य जिम्मेदारिों को श्री वैराग्यनिमित्तैकचित्तः प्रावृत्तनिधितः । • यस्त्रिधादि मजेन्ननी रात्रिमतवतस्तु सः । -सागारधर्मामृत ७-१२॥ - Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] [जैनधर्म-मीमांसा छोड़कर न भागे, मुनिसंस्था में आकर के उसके नियमों का मंग न करे, आदि बातों का उनने खूब ध्यान रक्खा था । इसलिये ऐसा मालूम होता है कि ये प्रतिमाएँ मुनिसंस्था के उम्मेदवारों के लिये बनाई गई थीं, परन्तु पीछे से सर्व साधारण के लिये उपयोगी होने से सभी के लिये हो गई फिर भले ही वह मुनिसंस्था का उम्मे दवार हो या न हो। इसी रूप में इन प्रतिमाओं का प्रचार हो पाया। मुनि संस्था के उम्मेदवारों ने तो इनका बहुत कम उपयोग किया है । खैर, अब मैं इन प्रतिमाओं का सामान्य परिचय देकर वर्तमान युग के अनुकूल संशोधन करूँगा । * दर्शन - शंकादि दोषरहित सम्यग्दर्शन का पालन करना | यह अर्थ श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों को मान्य है । परन्तु किसी किसी दिगम्बर लेखक ने इसमें निरतिचार मूलगुणों + पालन का भी विधान किया है। व्रत- निरतिचार 8 पाँच अणुव्रतों का पालन करना | दि $ * संकादि सह विरहिय सम्मदंसण जुओ उ जो जन्तु । सगुण विमुक्का एसा खलु होह परमा उ । ४ सम्यग्दर्शनशुद्ध: संसारशरीग्भागनि विण्णः । पञ्जगुरुचरणशरणो दर्शनिकस स्वपथगृझः । ५-१६ ० क० । + पाक्षिकाचारसंस्कार दृढ़कित विशुद्धदृक् । वाङ्गाधनिर्विण्णः परमेष्ठिपदेकधीः । ३-७ ॥ निर्मूलयन्मलान्मूलगुणेष्वप्रगुणोत्सुकः । न्याय वृतिं तनुस्थित्य तन्वन् दर्शनिको मतः ॥ ३८ * सण पडिबाजुची पालेन्तोऽणुव्व निरहयारे । कम्पाइगुणजओ जीवो इह होइ वय पडिमा | Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा ] [ ३५१ म्बर सम्प्रदाय में पाँच अणुव्रतों के साथ सात शीलवतों के पाउने है। हाँ, शीलवन में अतिचार बचाने की ज़रू ' का भी विधान रत नहीं है। सामायिक - प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सन्ध्यासमय निरतिचार सामायिक करना । प्रोषध - अष्टमी चतुर्दशी अमावस और पूर्णिमा को उपवास करना । दिगम्बर सम्प्रदाय में सिर्फ अष्टमी चतुर्दर्शी का विधान है । पडिमापडिमा - अष्टमी और चतुर्दशी को रात्रि में कायोत्सर्ग करना, स्नान नहीं करना; दिन में ही भोजन लेना; काँछ नहीं लगाना; दिन में सदा ब्रह्मचर्य रखना और पर्व - दिनों में रात्रि में भी ब्रह्मचर्य रखना, शेष दिनों में भी परिमित ब्रह्मचर्य रखना, कायोत्सर्ग में जिनेन्द्र का ध्यान करना और अपने दोष देखना | अब्रह्मवर्जन- पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करना । अचिचाहार वर्जन- वनस्पति तथा कबे पानी आदि का त्याग करना । हूँ निरतिक्रमणमणुव्रत पञ्चकमपि शीलसतकं चापि । धारयते निःमा यो योऽसा प्रतिनाम्मतो प्रतिकः ॥ * सम्ममन्य उपाय सिक्खावयविशेष नाणीय | अभि उसी पडिमं ठायगराईयं ॥ अणाण बिडमोई मउलिकडो दिवस ब्रह्मचारी ब । राई परिमाणको पडिया बच्चेस दियहेस । शायद पडिमा ठिओ। तिलांएपुज्जे जिणे जियकसाए । निदोस पचणीय अन्नं वा पंच जामासा ॥ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] [जैनधर्म-मीमांस स्वयमारम्भ वर्जन- व्यापार धन्धे का काम अपने हाथ से नहीं करना, सिर्फ नौकरों से कराना । प्यारम्भ वर्जन- नौकरों से भी ये काम न कराना । उद्दिष्टभक्त वर्जन +- अपने उद्देश से बनाया हुआ भोजन भी न करना; सिर मुँडाना या सिर्फ चोटी रखना । श्रमणभृत प्रतिमा- सिर मुँडाना या लौच करना; रजाहरण ओघा ग्रहण करना । दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रतिमाओं के जो पाठ प्रचलित हैं उनका अर्थ भी इतने से हो जाता है। जो कुछ विशेषता है, वह साधारण शब्दार्थ से समझी जा सकती है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही पहिली प्रतिमा का नाम दर्शन - प्रतिमा रखते हैं । उसमें सम्यग्दर्शन धारण करने का उपदेश है, चारित्र की कोई विशेष बात नहीं है । परन्तु सम्यग्दर्शन का धारण करनेवाला तो साधारण जैन भी होता है, फिर इस प्रतिमाधारी में उससे क्या विशेषता आई ? दूसरे शब्दों में यों पूछा जा सकता है कि चौथे गुणस्थान में ही क्षायिक सम्यक्त्व तक हो सकता है, जो कि पूर्ण निर्मल सम्यक्त्व है; फिर दर्शन प्रतिमाघारी जो कि पाँचवें गुणस्थान वाला है--उसमें क्या विशेषता है ? यह प्रश्न बहुत से जैन लेखकों के सामने रहा है, परन्तु इस विषय में + उद्दिकडं मतं पिवज्जए किमु य सेसमारम्भं । सो होइ उ खुरमुंडो सिहलिं वा धारए कोत्रि || मैं खुरमुण्डो लोएण व श्यहरणं आम्हं च घत्तूर्ण । error विहर धम्मं कारण फासतो || " Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा ] उन्हें कोई सन्तोषकारक समाधान नहीं मिला, इसलिये उनने - दर्शन-प्रतिमा के भीतर मूलगुणों का भी विधान बना डाला, जैसा मैं पहिले पं० आशाधरजी का उद्धरण देकर कह आया हूँ। और किसी किसी ने तो इस प्रतिमा का नाम ही बदलकर मूलवत' कर दिया है, जैसा कि ऊर सामदेवजी के पाठ में बतलाया गया यह परिवर्तन उचित होने पर भी यह प्रश्न रहता है कि पहिले से ही इस प्रतिमा का नाम और अर्थ इस प्रकार चारित्रहीन क्यों रक्खा गया ? मुनि बनने के लिये व्रतों का अभ्यास तो ठीक, किन्तु सम्यग्दर्शन के अभ्यास कराने की क्या ज़रूरत थी ! इसका एक ही कारण ध्यान में आता है, वह यह कि जब महात्मा महावीर या पीछे के अन्य किसी आचार्य के पास कोई ऐसा व्यक्ति जिसने जैनधर्भ धारण नहीं किया है-आता था और उनके उपदेश से प्रभावित होकर एकदम मुनि बन जाना चाहता था, तब उसको सम्यग्दर्शन का अभ्यास कराने की भी आवश्यकता होती थी। और प्रारम्भ में तो इसी प्रकार के उम्मेदवारों की संख्या बहुत होती थी, इसलिये वह साधारण विधान बना दिया गया । जब जनसमाज की संख्या बढ़ गई, मुनि बनने के लिये अधिकांश उम्मेदवार जैनसमाज में से ही आने लगे, तब सम्यग्दर्शन के अभ्यास की ज़रूरत न रही और पहिली प्रतिमा में कुछ व्रतों का समावेश किया गया । में पहिले कह चुका हूँ कि 'प्रतिमा' चारित्र नहीं, किन्तु चारित्र का अभ्यासक्रम है । जैसे, शिक्षा संस्थाओं में पठनक्रम बनाया जाता है, उसी प्रकार यह अभ्यासक्रम है । पठनक्रम में Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] [ जैनधर्म-मीमांसा I कभी और कहीं कोई पुस्तक नीची कक्षा में रहती है और अन्यत्र वही ऊँची कक्षा में भी पहुँच जाती है । चारित्र के अभ्यासक्रम में भी यही बात है । आचार का एक नियम कोई पाँचवीं प्रतिमा में रखता है तो कोई सातवीं में या आठवीं में। इस प्रकार पाठयक्रम के समान चारित्र का अभ्यासक्रम भी बदलता रहता है और उसे बदलते रहना चाहिये | इसके अतिरिक्त कोई विद्यापीठ अपनी पढ़ाई ग्यारह भागों में विभक्त करता है; कोई तीन या चार भागों में । इसलिये कोई ग्यारह परीक्षाएँ लेता है, कोई तीन परिक्षाएँ लेता है । इसी प्रकार अभ्यासक्रम में भी बात है । वैदिकधर्म ने गृहस्थ और वानप्रस्थ या एक बानः प्रस्थाश्रम में जो पाठ पढ़ाया वही जैनियों ने ग्यारह भागों में विभक्त किया । आज कोई चार पाँच आदि भागों में विभक्त कर सकता है । अभ्यासक्रप में परिवर्तन करने हे या न्यूनाधिक भागों में विभक्त करने से कुछ भी हानि नहीं है | असली बात तो यह है कि मनुष्य को पूर्ण समभात्री निस्वार्थ अर्थात् महाव्रती बनाया जाय, भले ही वह बारादृष्टि से निवृत्ति प्रधान हो या प्रवृत्ति प्रधान । 1 समय समय पर प्रतिमाओं के नये नये विधानों की ज़रूरत तो रहेगी ही, परन्तु देशकाल के अनुसार कुछ प्रतिमाओं का विधान बनाना चाहिये, जिससे अगर कोई कक्षा के अनुसार अपने जीवन का विकास करना चाहे तो कर सके। परन्तु यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि अगर कोई इन कक्षाओं में नाम न लिखावे तो उसको प्रमाणपत्र न मिलेगा, परन्तु इसी से वह असंयमी न कहलायेगा । जिस प्रकार उच्च शिक्षणसंस्थाओं का उपयोग किये बिना भी कोई Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा ] उच्च विद्वान हो सकता है;-हो, उसे उपाधि या प्रमाणपत्र न मिलेगा - उसी प्रकार इन प्रतिमाओं की कक्षा के बाहर रहकर भी काई संयमी रह सकता है । यह तो सिलसिलेवार संयम का अभ्यास करने के लिये सुलभ मार्ग है । मतलब यह कि ज्ञान शिक्षा के समान इस चारित्र-शिक्षा की भी उपयोगिता समझना चाहिये । अस्तु । ग्यारह प्रतिमाएँ ये हैं (१) मूलबत- सर्वधर्म समभाव, सर्वजाति-समभाव, सुधारकता (विवेक), प्रार्थना, शील, दान, मांस-त्याग, मद्य-त्याग का पालन करना। (२) अहिंसकता-पहिले जो अहिंसा की व्याख्या की है उसके अनुसार उसका पालन करना । प्रतिमाएँ अभ्यास के लिये होने से अहिंसा सत्य आदि को जुदा-जुदा कर दिया है। (३) सत्यवादिता- पहिले जो सत्य की और अचार्य की व्याख्या की गई है तदनुसार उनका पालन करना । झूठ बोले बिना या झूठ का व्यवहार किये बिना चोरी नहीं हो सकती, इसलिये दोनों का त्याग एक साथ होना चाहिये । साधारण गृहस्थ स्थूल असल और चोरी का त्याग कर सकता है, इसलिये वही यहाँ अभीष्ट है। . (१) कामसन्तोष-पुरुष का स्वपनी सन्तुष्ट होना तथा स्त्री का रूपतिसन्तुष्ठा होना। (५) परिग्रह परिमाण- अपरिग्रह के विवेचन में अपरि. मह की जो छः श्रेणियाँ बताई गई है उनमें से पिछली तीन भेणियों में से किसी एक श्रेणी में रहना । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : ३५६ ] [ जैन धर्म-मीमांसा (६) अनर्थदंड विरति - इसका विवेचन कुछ पहिले ' किया गया 1 (७) भोगोपभोग - परिसंख्यान- इसका भी विवेचन अभी ही हुआ है । (८) शिक्षात पहिले जो सात शिक्षाव्रत बतलाये गये हैं उन सबका पालन करना । ( ९ ) निरतिचारिता - पहिले जो अहिंसादि पाँच त्रतों के अतिचार बतलाये गये हैं, उनका त्याग करना | (१०) इन्द्रिय-जय - इसका वर्णन महाव्रती के ग्यारह मूलगुणों में हुआ है ! (११) अपरिग्रहता अपरिग्रह की जो छः श्रेणियाँ बतलाई गई हैं, उनमें से पहिली तीन श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी में रहना । प्रतिमाओं के विवेचन के साथ चारित्र के विषय में मुख्यमुख्य बातों का संक्षिप्त विवेचन समाप्त होता है । परन्तु आत्मिक विकास के पूर्वक्रम को समझने के लिये गुणस्थान के विवेचन पर एक नज़र डाल लेना ज़रूरी है । इस प्रकार अन्त में गुण-स्थानों का भी संक्षेप में विवेचन कर दिया जाता है । गुणस्थान यहाँ पर गुण शब्द का अर्थ आत्मविकास का अंश है । आत्मविकास के अंश ज्यों ज्यों बढ़ते जाते है, त्यों त्यों गुणस्थानों की वृद्धि मानी जाती है । गुणस्थानों को चौदह मागों में विभक्त किया है | यह वर्णन करने की सुविधा के लिये है; अन्यथा गुण 1 गया Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान ] [ ३५७ स्थान तो असंख्यात हैं । इस विषय में आत्मा की जितनी परिणतियाँ हैं, उतने गुणस्थान हैं। उनको हम कल्पना से सङ्कलित करके अमुक भागों में रख सकते हैं । जिस प्रकार नदी के एक प्रवाह को हम 'कोस' आदि के कल्पित मापों से विभक्त कर सकते हैं परन्तु इससे उस प्रवाह में कोई अमिट रेखाएँ नहीं बन जाती, न वह प्रवाह ही टूटता है जिससे एक भाग से दुसरा भाग बिलकुल अलग मालूम पड़े, इसी प्रकार गुणस्थानों की बात है । एक गुण. स्थान से दूसरे गुणस्थान की सीमा इस प्रकार भिड़ी हुई है कि वह एक प्रवाह-सा बन गया है। गुणस्थानों का क्रम, दर्शन और चारित्र का क्रम है । इन दोनों के भले-बुरे रूपों की विविधता से यह गुणस्थान का प्रवाह या मार्ग बना है । ज्ञान के विकास से गुणस्थान का कोई सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि पदार्थों के जानने न जानन से गुणस्थान बढते घटते नहीं है । नीचे गुणस्थानवाला भी अधिक ज्ञानी हो सकता है और उँचे गुणस्थानवाला भी कम ज्ञानी हो सकता है। तेरहवें गुणस्थान में जो ज्ञान की पूर्णता बतलाई जाती है, वह सत्यता की दृष्टि से है, बाह्य पदायों की दृष्टि से नहीं है। सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को विभक्त करना भी बड़ा कठिन है। वे एक दूसरे में इस प्रकार अनुप्रविष्ट है कि उनमें शब्दिक अन्तर क्तलाना भले ही सरल हो, परन्तु गम्भीर विचार करने पर वह अन्तर मिट-सा जाता है । अथवा वे एक ही मार्ग के पूर्वापर भाग की तरह मालूम होने लगते हैं ! इन दोनों के अभेद का निर्देश करने के लिये जैन-शाखों की दो बातें अच्छी विचार Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८) जिनधर्म-मीमांसा सामग्री देती हैं । एक तो यह कि सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र । का घात एक ही कर्म के द्वारा होता है जिसे कि मोहनीय-कर्म कहते हैं । जब कि जुढे-जुदे गुणों का घात करने के लिये जुदेजुदे कर्म हैं तो सिर्फ सम्यग्दर्शन और सम्यक्रचारित्र के घात के लिये ही एक कर्म क्यों रक्खा गया ? इसका कारण दोनों की भभिन्नता है, दूसरी बात यह कि सम्यग्दर्शन के साथ स्वरूपाचरण चारित्र अवश्य होता है । स्वरूपाचरण एक ऐसा चारित्र है कि जिसको बाह्याचार के रूप में परिणित करना कठिन है, या बाबाचार के रूप बतला सकना अशक्य है। वैसे देश-विरति महाव्रत और यथाख्यात चारित्र (पूर्णसमभाव ) भी स्वरूपाचरण अर्थात् । मात्मा के भीतर का आचरण है परन्तु इसका बाह्यरूप भी दिखलाई देता है, इसलिये उनके नाम दूसरे रख दिये गये हैं । सम्यग्द. र्शन के साथ स्वरूपाचरण का अविनाभाव बतलाना भी दोनों के अभेद का सूचक है । सच तो यह है कि सम्यग्दर्शन के रूप में हम जिस बात का विवेचन करते हैं वह तो स्वरूपाचरण-चारित्र से परिष्कृत किया हुआ ज्ञान है । उसी का साहचर्य खरूपाचरण से बतलाया जाता है । सम्यग्दर्शन चारित्र की एक अनिवर्चनीय प्रारम्भिक अवस्था है । इसध्येि पहिले चार गुणस्थान सम्यग्दर्शन ! से सम्बन्ध रखते हैं, और पिछले सम्यक चारित्र से, यह कहना भी एक धारा के कल्पित भेद करने के समान है । र, गुणस्थान के विवेचन के लिये यहाँ इनमें भेद मानना आवश्यक है। चारित्र के स्तृित विवेचन के बाद और गुणस्थान का संक्षेप में म बतलादेने के बाद अब यह कहने की जरूरत नहीं रहती कि Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान ] [ ३५९ गुणस्थानों के भेद न्यूनाधिक कर दिये जाय तो कुछ हानि नहीं है । एक मार्ग के बीस कोस के बीस भाग कल्पित करने की अपेक्षा अगर कोई पाँच पाँच योजन के चार भाग करें या चालीस मील के चालीस भाग करें तो इससे मार्ग छोटा बड़ा नहीं होनेवाला है । व्यवहार की सुविधा देखना चाहिये । यही बात गुणस्थानों की है । आजकल गुणस्थान चौदह माने जाते हैं । यहाँ इनका संक्षेप में परिचय दिया जाता है। (१) मिध्यात्व - जब प्राणी में सम्यदर्शन और सम्यक् चारित्र बिलकुल नहीं होता, तब वह इस श्रेणी में रहता है। छोटे कीडों से लगाकर बड़े बड़े पण्डित, तपस्त्री, राजा आदि तक इस श्रेणी में रहते है, क्योंकि वास्तविक आत्मदर्शन के बिना उनकी अन्य उन्नति का कुछ मूल्य नहीं है । (२) सासादन - मिथ्यात्व गुणस्थान में जो अनन्तानुबन्धी कषाय होती है – कषाय-वासना के प्रकरण में जिसका विवेचन पहिले किया गया है - वह यहाँ भी होती है, इसलिये इस गुणस्थान बाले की गिनती भी मिध्यास्त्रियों में की जाती है। इसीलिये मिथ्यात्वी के समान इस गुणस्थान के जीव का भी अज्ञानी कहा जाता है । परन्तु इसके मिध्यात्व नहीं होता, इसलिये मिथ्यात्र गुणस्थान से यह उच्चश्रेणी का गुणस्थान हैं । परन्तु जब अनन्तानुबन्धी कषाय आ गई, तब मिध्यास्त्र आने में देर नहीं लगती । इसलिये इस गुणस्थान वाला शीघ्र ही मिथ्यात्व गुणस्थान में पहुँच जाता है । सासादन का समय एक सैकिण्ड से Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० [ जैनधर्म मीमांसा भी थोड़ा है । जब कोई सम्यक्त्वी सम्यक्त्र से भ्रष्ट होता है तब बीच में एकाध सैकिण्ड के लिये यह अवस्था प्राप्त करता है । सासादन-वाले को मिथ्यात्व गुणस्थान में जाने के सिवाय दुसरा कोई मार्ग ही नहीं है। (३) मिश्र-इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय नहीं होती, इसलिये यह उपर्युक्त दोनों श्रेणियों से ऊँची श्रेणी का गुणस्थान है परन्तु इसमें पूर्ण विवेक प्राप्त नहीं होता; सम्यक्त्व और मिथ्यात्व का मिश्रण होता है, इसलिये इस गुणस्थान को मिश्र गुणस्थान कहते हैं। जिस समय किसी नीव को सत्य का दर्शन होता है, तब वह आश्चर्यचक्ति-सा हो जाता है । उसके पुराने संस्कार उसको पीछे की ओर खींचते हैं और सत्य का दर्शन उसे आगे की ओर खींचता है । यह चकित अवस्था थोड़े समय के लिये होती है । इसके बाद या तो वह मिथ्यात्व में ही गिर पड़ता है या सत्य को प्राप्त करता है। (४; अविरत सम्यक्त्व- इसमें जीव सम्यग्दृष्टि हो जाता है । सम्यक्त्व का वर्णन पहिलं कर चुके हैं । सम्यक्त्व के साथ स्वरूपाचरण चारित्र भी होता है यह बात भी पहिले कही जा चुकी है। फिर भी इसे अविरत कहा है। इसका कारण यही है कि इसका संयम इतना हलका रहता है कि उसका मानसिक वाचनिक और कायिक प्रभाव स्पष्ट नहीं हो पाता, अथवा साधारण गृहस्थ की अपेक्षा भी कम प्रगट होता है। हाँ, यह सम्यादृष्टि अवश्य बन जाता है। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान] [ ३६१ इस प्रकार के सम्यग्दृष्टि तीन तरह के होते हैं-वेदक, 'औरशमिक और क्षायिक। दक सम्यक्त्व उसे कहते हैं कि जिसमें सत्य का दर्शन तो हो जाता है, उस पर दृढ़ विश्वास भी हो जाता है, परन्तु नाम का मोह रह जाता है । जैन-शास्त्रों में इसका सुन्दर स्पष्टीकरण किया गया है । यधपि उसमें कुछ संशोधन की ज़रूरत है परन्तु वह दिशानिर्देश अच्छी तरह से करता है । वे कहते हैं कि यदि किसी ने मूर्ति बनाई हो और वह यह कहे कि यह मेर।* देव है तो वह उसका इस प्रकार मूर्तियों में 'मेरे-तेरे' का भान आ जाना सम्यक्त्व का एक दूषण है । यद्यपि इससे सम्यक्त्व नष्ट तो नहीं झेता, फिर भी कुछ मलिन ज़रूर हो जाता है। इसी प्रकार तीर्थकरों में समानता होने पर भी किसी विशेष का थोड़ा पक्षपात होना भी एक दोष है, इससे सम्यक्त्व मलिन होता है, यद्यपि वह नष्ट नहीं होता; क्योंकि दूसरे तीर्थंकरों की उसमें अवहेलना निंदा आदि नहीं होती है। इन उदाहरणों से इतना तो स्पष्ट होता है कि नामादि के पक्षपात से समभाव में थोड़ा-सा मैल लगाने से सम्यक्त्व कुछ • स्वकारितऽईचत्यादौ देवोऽयं मेऽन्यकारिते । अन्यस्यायमिति म्राम्यन् मोहाड्राद्धोऽपि चेष्टते । -गोम्मटसार जीवकाण्ड २५ टीका। 2 समप्यनन्तशक्तित्व सर्वेषामहंतामयं । देवोऽस्मै प्रभुरषोऽस्माइत्यास्था सुदशामपि । -गो. जी० का २५ ॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ (जैनधर्म-मीमांसा अशुद्ध हो जाता है । ऐसे जीव को वेदक सम्यक्त्री कहते हैं, क्योंकि इसमें मोह का कुछ वेदन अनुभव होता . रहता....। औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व में यह मैल नहीं रहता, इसलिये विशुद्धि की दृष्टि से ये वेदक की अपेक्षा कुछ उच्च हैं । औपशमिक सम्यक्त्व बहुत थोड़े समय के लिये होता है और क्षायिक सदा के लिये होता है । यही इन दोनों में अन्तर है।। सत्यसमाज के उदाहरण से इस विषय को कुछ स्पष्ट किया जा सकता है, सत्यप्तमाज के नैष्ठिक सदस्य को औपशमिक या क्षायिक सम्यक्त्वी कहना चाहिये और पाक्षिक सदस्य को वेदक-सम्यग्दृष्टि । यद्यपि दोनों ही सर्वधर्म-समभावी हैं, परन्तु पाक्षिक को कुछ पुराने नाम का मोह है। पाक्षिक और नैष्ठिक का यह अन्तर स्वरूप की दृष्टि से बतलाया गया है, न कि सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से । क्योंकि कोई व्यक्ति अमुक परिस्थिति के कारण पाक्षिक सदस्य बना हो, या सदस्य ही न बना हो, तो भी वह नैष्ठिक हो सकता है। और परिस्थिति वश नैष्ठिक बननेवाला भी पाक्षिक या अनुमोदक हो सकता है। इसलिये सदस्यों में तरतमभाव न रखकर सिर्फ उसके वास्तविक स्वरूप में तरतमता समझना चाहिये, तथा यह बात भी ध्यान में रखना चाहिये कि सत्यसमाज का सदस्य न होने पर भी कोई व्यक्ति सम्यग्दृष्टि, महात्मा, पूर्ण समभावी बन सकता है । सत्यसमाज की सदस्यता तो सिर्फ इसलिये है कि सुविधापूर्वक संगठित होकर सत्य का प्रचार किया जा सके और उसे जीवन में उतारा जा सके। (५) देशविरति- सम्यग्दर्शन के साथ इसमें देश संयम Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान ] भी होता है । ग्यारह प्रतिमाओं के रूप में देशविरति का विवेचन किया गया है। ___ (६) प्रमत्तविरति-इसमें अहिंसा आदि पाँच महाबों का पालन होता है, या साधु-संस्था के ग्यारह मुलगुणों का पालन होता है । परन्तु यहाँ प्रमाद रहता है । कभी कभी कर्तव्य कार्य सामने रहने पर भी आलस्यादि के वश से जो अनादर बुद्धि पैदा हो जाती है, उसे प्रमाद कहते हैं । विकथा, कषाय, इन्दियविषय, निद्रा और प्रणय ये प्रमाद के भेद हैं । यहाँ यह बात ध्यान में रखना चाहिये कि इनके होने से ही प्रमाद नहीं हो जाता; किन्तु जब इनकी तीव्रता इतनी होती है कि कर्तव्य कार्य में भी अनादर बुद्धि पैदा करदे तभी इन्हें प्रमाद-रूप कह सकते हैं, अन्यथा नहीं । इसलिये किसी को सोते देखकर यह न समझना चाहिये कि यह प्रयादी है, किन्तु असमय में सोते देखकर, अधिक समय तक सोते देखकर उसे प्रमादी कह सकते हैं। इसी प्रकार कषाय की बात है। यों तो कषाय सूक्ष्यसांपराय गुणस्थान तक रहती है, परन्तु वहाँ प्रमाद नहीं माना जाता । शारीरिक आवश्यकतावश केवली भी सोता है, परन्तु यह प्रमादी नहीं है। (७) अप्रमत विरति-प्रमाद के न रहने पर अप्रमत्त गुणस्थान होता है । संयमी मनुष्य सैकड़ों बार प्रमत्त और अप्रमत्त अवस्था में परिवर्तन करता रहता है । कर्तव्य में उताह का बना रहना अप्रमत्त अवस्था है, वह अवस्था सदा नहीं रहती, इसलिए घोड़े ही समय में फिर प्रमत्तता आ जाती है। Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] [जैनधर्म-मीमांसा (८-९) अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण-इन दोनों गुण-: स्थानों की आवश्यकता नहीं मालूम होती है । वास्तव में इन्हें सातवें गुणस्थान में ही शामिल रखना चाहिये । अपूर्वकरण अर्थात् समभाव के ऐसे अपूर्व परिणाम, जो उसे पहिले कभी नहीं मिले थे। किसी भी प्रकार का आत्मिक उत्थान होते समय परिणामों में ऐसी निर्मलता आती है, जो इकदम नई मालूम होती है । उसी का नाम अपर्वकरण है । जब जीव मिथ्यात्वी से सम्यक्त्वी बनता है, तब भी ऐसे ही नये परिणाम होते हैं । हाँ, वे सम्यक्त्र के अनुरूप होते हैं, इसलिये यहाँ की अपेक्षा छोटी श्रेणी के होते हैं, परन्तु है वे अपूर्वकरण । जब उनको वहाँ नया गुणस्थान नहीं बनाया, तब इनको यहाँ नया गुणस्थान बनाने की ज़रूरत नहीं है। यही बात अनिवृत्तिकरण के विषय में है । यह परिणामों की वह अवस्था है जब इस श्रेणी के अन्य प्राणियों के परिणामों से उसके परिणामों का भेद नहीं रहता। इन अवस्थाओं में इतना कम अन्तर है कि इनके लिये स्वतंत्र गुणस्थान बनाने की जरूरत नहीं मालूम होती : विकारों को दूर करने की तरतम अवस्थाओं को विस्तार से समझाने के लिये इन्हें अलग गुणस्थान बनाया गया है। आजकल उस विस्तार को समझाना कठिन है । वह तो जम्बूस्वामी के साथ ही चला गया । आजकल भी वह अवस्था प्राप्त होती है, परन्तु उसका श्रेणी विभाग दूसरे ही ढंग का होगा । खैर, यहाँ कहना इतना ही है कि जिस प्रकार सम्यक्वोत्पत्ति के अपर्वकरण अनिवृत्ति वरण को प्रथम गुणस्थान में शामिल रक्खा, उसी प्रकार पूर्णसंयम की उत्पत्ति के अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण को अपमत्तविरति Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान ] में शामिल रखना चाहिये। (१०) सूक्ष्मसांपराय- यह अवस्था यथाख्यात संयम के अति निकट की है । इसमें किसी से द्वेष तो रहता ही नहीं है, परन्तु थोड़ा-सा राग रह जाता है, जो कि पूर्ण समभाव में कमी करता है। (११) उपशांत मोह । ये दोनों पूर्णसमभाव के (१२) क्षीणमोह । गुणस्थान हैं । इनमें अन्तर इतना ही है कि उपशांत-मोही का समभाव स्थाणं नहीं होता, जब कि क्षाणनोही का स्थायी रहता है। (१३) सयोग केवली- क्षीणमोह होने पर ही पूर्ण सत्य की प्राप्ति होती है । बिलकुल अकषाय होकर जब मनुष्य सत्य की खोज करता है, तब उसे भगवान सत्य के दर्शन होते हैं । यही आत्मा का परम विकास है । इसी अवस्था में वह केवली अहन्त, सर्वज्ञ, जीवन्मुक्त, स्थितिप्रज्ञ आदि कहलाता है । उपशांतमोही इस अवस्था को प्राप्त नहीं कर पाता, क्योंकि इस अवस्था को प्राप्त होने पर फिर किसी का पतन नहीं होता। . (१४) अयोग केवली - मृत्यु के समय केवली करीब एक सेकेण्ड के लिये पूर्ण निश्चल हो जाता है । वही निश्चलावस्था अयोगकेवली की अवस्था है । निवृत्ति प्रधान होने से वर्तमान जैन मान्यता के अनुसार ११३ गुणस्थान में रत्नत्रय [सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र ] की पूर्णता मानी जाती हैं । परन्तु वास्तव में वह तेरहवें में ही हो जाती है । इस प्रकार आत्मा के क्रम-विकासको बतलानेवाले १४ गुणस्थान हैं । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण को अप्रमचविरति Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ) (जैनधर्म-मीमांसा में शामिल करने से १२ ही कहे जा सकते हैं। उपंसहार। __ चारित्र का विस्तृत विवेचन कर दिया है । सामायिक परि. स्थिति के कारण जैन-शास्त्रों में चारित्र का वर्णन निवृत्तिप्रधान कहा गया है। वह भी ठीक है, परन्तु मैंने यहाँ उसके दोनों पह. लुओं को समतोल रखने की कोशिश की है । भविष्य में जब किसी एक तरफ अधिक जोर पड़ जाय तो दूसरी तरफ भी जोर डालकर उसे समतौल कर देना चाहिये । इस वर्णन में एक बात बहुत से जैन-बन्धुओं को खटक सकती है कि मुनि संस्था में गृहस्थ संस्था से बहुत कम भेद रक्खा गया है, इसलिये भविष्य में इसका शीघ्र दुरुपयोग होगा। इसके उत्तर में मेरा कहना है कि मुनिसंस्था का जो आज दुरुपयोग हो रहा है, वह कुछ कम नहीं है । बाहर से अपरिग्रहता का जो दंभ-जाल फैला हुआ है, उसके कारण उसका सुधार भी कठिन हो रहा है । तथा समाज के उपर उसका ऐसा बोझ है कि अगर समाज उसे न उठावे तो समाज को नाक कट जाने का डर है। मैंने इस दुःपरिस्थिति से बचाव किया है । अगर शीघ्र दुरुपयोग भी होगा तो भी उसका सुधार भी शीघ्र होगा, क्योंकि ऐसे साधुओं का निर्वाह करने के लिये समाज कुछ बँधी हुई नहीं है । उन्हें अपने पेट के लिये मजूरी करना पड़ेगी और इतने पर भी उनके मरने के बाद उनकी सम्पत्ति पर समाज का अधिकार होगा। यह एक ऐसा नियम है कि इससे साधुसंस्था के दुरुपयोग में कठि Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार ] ३६७ नाई होगी तथा सुधार में सरलता होगी। इसके अतिरिक्त वर्तमान में उनको सेवा करने के जो अधिक मौके मिलेंगे, वे अलग | "युग नियम कैसे भी बनाये जॉय, परन्तु सब जगह विवेक की आवश्यकता तो रहती हो है । जब तक विवेक रहेगा तभी तक नियम काम करेंगे। बाद में उनमें संशोधन करना होगा । इसलिये साधुसंस्था के परिवर्तित रूप से घबराने की ज़रूरत नहीं है । चारित्र का मर्म समझने के लिये तथा वर्तमान समय में साधुसंस्था में कर्मण्यता तथा सेवा का पाठ भरने के लिये यह उचित परिवर्तन किया गया है । सम्यग्दर्शन ज्ञान चरित्र ये जैनधर्म के मुख्य विषय हैं । छः अध्यायों की इस विस्तृत मीमांसा में इन्हीं की मीमांसा की गई है । [ छड्डा अध्याय समाप्त ] ( जैनधर्म-मीमांसा समास ] Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्यभक्त साहित्य सत्यसमाज के संस्थापक स्वामी सत्यभक्तजी ने धार्मिक सामाजिक राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय तथा जीवन शुद्धि विषयक जो विशाल माहित्य रचा है, जो ग्य, पद्य, नाटक, कथा आदि अनेक रूप में बुद्धि और. मन पर असाधारण प्रभाव डालनेवाला है उसे एकबार अवश्य पढ़िये । १ सत्यामृतमानव-धर्म-शास्त्र [ दृष्टिकांड ]. १) २ सत्यामृत [ आचारकांड) ऐसा महाशास्त्र जो सब धर्मों का निचोड़ कहा जा सकता है और जिसमें धार्मिक सामाजिक राष्ट्रीय अन्तराष्ट्रीय व्यावहारिक आध्यात्मिक आदि जीवन के हर पहलू पर पूरा प्रकाश डाला गया है और जो अनेक दृष्टियों से मौलिक है। ३ निरतिवाद-भारत की परिस्थिति के अनुसार। साम्यवाद का रूप... १ सत्य-संगीत-सर्वधर्मसमभावी प्रार्थनाओं और जीवन-शेधक गीतों का संग्रह.... ५ कुरान की झांकी-कुरान में आये हुए उपदेशों का संग्रह ) ६ जैनधर्म-मीमांसा [भाग १].... ७ जैनधर्म-मीमांसा [ भाग २]..... ८ जैनधर्म मीमांसा (भाग ३) .... , जैनधर्म में आई ई विकृतियों और उसकी अपूर्णता को हटाकर उसका संशोधित रूप । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- _