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प्रकाशकश्री आत्मानंद जैन ट्रैक्ट सोसायटी,
अम्बाला शहर। मुद्रित-मोहनलाल वेद
सरस्वती प्रिन्टिंग प्रेस,
बेलनगंज, आगा ।
ता०२०-१२-१६. ఆ
ఆతాల
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॥ श्री॥
एक आदर्श जीवन ।
वा
श्री मुनि हीरविजयसूरीश्वर का जीवन-वृत्तान्त
सतत परिश्रमशील व्यक्ति ही वरोिचित गति पाते हैं। पीछे को भी वे ही अपनी अमर कीर्ति रख जाते हैं ।
करने को ही कर्म-कलित शुचि जीवन-सुमन-विकास हुआ। शान्तिर्मय पीयूष चन्द्रिका बरसाने शशि हास हुआ ।
Lives of great men all remind us We can make our lives sublime.
--Long fellou
लेखक कन्हैयालाल जैन,
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॥समर्पण॥
करना नित समाज की सेवा जिसका है यह सन्तत यत्न, ज्ञान और साहित्य वृद्धि हित करती प्रकट और नर रत्न । पुण्य वृद्धि हित कार्य क्षेत्र है बना हुआ जिसका दर्पण, उसी " प्रकाशक-ट्रैक्ट-सभा" को है यह क्षुद्र काव्य अर्पण ।।
इसको सादर स्वीकार कर विश्व व्याप्त कर दीजिये, भारतमां के कर कमल में अर्पित इसको कीजिये ।
कन्हैयालाल जैन,
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स्नेह-सदन, कस्तला
॥ दो शब्द ॥
विज्ञवाचकवृन्द !
इसके परिचय के लिये अधिक न लिख कर केवल इतना लिख देना ही यथेष्ट समझता हूं कि यह अकबर की सभा के विद्वानों की पांच श्रेणियों में से प्रथम श्रेणी के श्री जैन मुनि हीरविजयसूरीश्वर का जीवन वृत्तांन्त है ।
मैं कोई प्रतिभाशाली कवि वा सुलेखक नहीं किन्तु श्री आत्मानन्द जैन ट्रैक्ट सोसायटी के आदेश से इसके लिखने का अनधिकार साहस किया है । अतएव आशा है कि विद्वज्जन इसको प्रेम-दृष्टि से देख कर अपनावेंगे । इसके प्रकाशन का श्रेय उक्त ट्रैक्ट सोसायटी को ही है । इसके लिये हम उस के अनुगृहीत हैं |
""
विशेष अनुग्रह हम पं० महावीर प्रसाद जी द्विवेदी का मानते हैं । जिनकी " प्राचीन पंडित और कवि नानी पुस्तक से हमने बहुत बड़ी सहायता ली है ।
यदि विद्वान और गुण- प्राही सज्जन इसे सप्रेम अपनायेंगे तो पुनः शीघ्र ही सेवा में उपस्थित होने की चेष्टा करूंगा ।
विनयावनतकन्हैयालाल जैन |
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}
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एक आदर्श जीवन
मंगलाचरण ।
जय जय जगदाधार । जगत्पति । करुणा बरुणालय भगवान् । जयजय रिपुदल-घातक ! सचराचर के ज्ञाता ! दयानिधान् । विश्वपते ! जय, जगद्गते ! जय,जय जय जय सर्वेश महान् । जय जय जय अरिहन्त विभो! श्री बीतराग जग-जीवन-प्राण ।
तेरी अनुकम्पाका विभुवर पार नहीं हम पाते हैं, ऋषि, मुनि, योगी, व्रती तपस्वी तेरा नित गुण गाते हैं । तू अद्भत अज अनाद्यन्तहै शाश्वत जीवन मरण विहीन, तू प्यारे हृदमें मेरे है पर न तुझे लखते हग दीन ।
(३) तेरे अद्भुत रूप प्रकृति में कृति की सीख सिखाते हैं, तेरी अद्भुत भक्ति शक्ति सारों में प्यारे पाते हैं। आज अलौकिक बल हम में भी करो विभो संचालन शीघ्र, जागृत जो हम भी होकर कर्बव्य करें निज पालन शीघ्र ।
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[२]
प्रारम्भ
(४) जिनकी गाथाओं से अपने ग्रन्थ भरे हम पाते हैं, अफ्नी धर्म-महत्ता-दर्शन जिनके कर्म दिखाते हैं । अन्य-धर्म-अवलम्बी जनभी नित जिनका गुण गाते है, उन्हीं सूरि श्री हीर विजय का हम कुछ वृत्त सुनाते हैं ।
अकबर के विद्वान सभीथे पांच श्रेणियों में सुविभक्त, होर विजय जी जिनमें पहली श्रेणी में होतेथे व्यक्त । धर्म-शास्त्र उपदेश सभीम उनका प्रथम स्थान मिला, अब सुनिए यह महत सुमनथा कैसे विकसित हुआ खिला।।
जहां हुआ उस महापुरुष का जन्म मोद प्रद मनोऽभिराम, धन्य धन्य धरणी तल परहै वह पालनपुर मंगल-धाम । उसकी ही सुखदा मिट्टीमें वे पोषित हो बड़े हुए, पूर्णतया पर जब कि न वे थे पैरों पर भी खड़े हुए
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[३]
(७) विपति शैल तब ही टूटा विधिका है क्रूर भयंकर चक्र, हस्ताक्षेपन हो सकता उसमें मारें भी सहकर वक्र । तेरह वर्षीयावस्था थी माता पिता गये परलोक, विजय मूरि को छोड़ गएथे वे केवल सहने को शोक ।।
(८) वे यों होकर अहो ! निराश्रित, पाटन नगर गये तत्काल, उनकी बहन वहां बाही थी वहां रहे वे तब कुछ काल । "विजय सूर' विद्वानवर्य का उन्हें मिला सुख-प्रद सत्संग, जिनके उपदेशों को सुन कर हृदय बढ़ा वैराग्य-तरंग ।।
तेरह वर्ष वयस में ही यो मुनिवर ने त्यागा संसार, *अंक-राम-कन्या-रवि का जब ईसा संवत था सुख कार । विजय दान सूरीश्वर ने तब उनको दीक्षा दान करी, निर्मल तप संयम दृढ़ता के जो थी उंचे भाव भरी ।।
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[४]
शास्त्र पठन पाठन में मुनिवर ने एकान्त लगाया ध्यान, कुछ ही दिन पश्चात 'देव गिरि' के प्रति करना पड़ा प्रयाण । उपाध्याय जी वहां 'धर्म सागर' थे विज्ञ और विद्वान ।। *इन्हें उन्हों ने न्याय शास्त्र पारंगामी कर दिया निदान ।।
तभी लौट कर सीधे मुनिवर आये मातृ भूमि गुजरात,
ब्रह्म-अनल-कन्या शशि इसा सम्बत की पर है यह बात । जब श्री हीर विजय जी ने थी वाचक की पदवी पाई, + ताप-अनल-कन्या-रवि में पर सूरि होगये सुखदायी ।।
(१२) उनकी विद्वत्ता की गाथा अकबर के जब पहुंची पास, उन्हें देखने को तब उसके मन में बढ़ा अती वोल्लास । “मोदी' और 'कमाल' नाम के कर्मचारियों को फरमान दे, अकबर ने नगर अहमदाबाद कराया तभी प्रयाण ।।
* श्री हीर विजयजी को। $ १५५१. + १५५३.
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[५]
वहां *शहाबुदीन गवर्नर पर पहुंचा फरमान विशेष, हीर विजय जी को था जिसमें वहां भेनने का आदेश । इसको देख गवर्नर ने एकत्र किये सब जैन प्रधान, और उन्हें वह सभी सुनाया जो जो कहता था फरमान ।।
(१४) विजय मूरि जी किन्तु वशं से गये हुये थे और कहीं, अतः प्रतिष्ठित मान्य जैन कुछ पहुंचे उनके निकट वहीं । उन से जाकर संदेशा सब कहा सुनाकर वह फरमान, जिस पर मुनिवर लगे सोचने अपने मन में दया निधान ।।
(१५) जाकर राज्य सभा में सम्भव है कि हो सके बहु उपकार, और सतत उपकार कर्म ही है मुनि के जीवन का सार । अतः फतहपुर सीकरी गमन का मुनिवर ने तब किया विचार, इसी हेतु वे लौट अहमदाबाद गये होने तैयार ।।
* पूरा नाम था 'शहाबुद्दीन अहमदखां" $ फतहपुर सीकरी ॥
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[]
(१६) वहां शहाबुद्दीन मिला और किया मान आदर सत्कार, हाथी, घोड़े, और द्रव्य का देने लगा उन्हें उपहार । किन्तु सभी सादर लौटाए, मुनिवर न किये स्वीकार, जो लाए फरमान साथ उनके मुनि पैदल चले उदार ।।
(१७) पट्टन, पालन, पुरी, सिरोही, पाली, और मेड़ता ग्राम, जो पथ में आए उनके वासी करते सत्कार प्रणाम । पहुंचे सांगानेर पठाया "विमल हर्ष को शाह समीप, पाकर मुनि आगमन सूचना हुए तभी तैय्यार महीप ।।
(१८) और धूम से स्वागत करने ‘थानसिंह' को भेज दिया, उसके साथ और अफसर, रथ, हय, गय, सैन्य, समूह किया।
और साथ दे प्रमुख जैन जनता को भेजा सांगानेर, जिनके साथ फतहपुर आते मुनिवर को कुछ लगी न देर ।।
* विमल हप' सूरिजी के शिष्य थे ।
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[७]
(१६) जगमल कछवाहे के मन्दिर एक रात्रि करकं विश्राम, हुए शाह दरबार उपस्थित द्वितीय दिवस मुनिवर सुखधाम । उसी समय में नृप अकबर पर महत् कार्य की थी भरमार, 'हीर विजय जी' की सेवा का सौंपा अबुलफज़ल पर भार ।।
(२०) 'अबुलफल' तब निज घर में श्री हीर विजय के साथ गया, भक्ति भाव का श्रोत वहां पर लगा उमडने और नया । कुछी काल पश्चात् धर्म-सम्बन्धी उसने प्रश्न किये, संतोष-प्रद उत्तर जिनके मुनिवर ने तत्काल दिये ।।
(२१) 'अबुलफज़ल' ने कहा--"हमारी धर्म पुस्तिका कहे कुरान'मुसल्मान के शव का है प्रलयान्त तलक भूमि में स्थान । प्रलय अन्त में सभी खुदा के सम्मुख होंगे वे नर नार, पुण्य पार का पक्ष पात को त्याग करेगा खुदा विचार ।।
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[=]
( २२ )
भू में पड़े हुए बीजों का ज्यों पृथ्वी करती फल दान, उस प्रकार कृत पुण्य और पापों का फल देगा भगवान । कुछ जावेंगे स्वर्ग -- वहां वे सब सुख पावेंगे स्वर्गीय, कुछ जावेंगे नरक--जहां भोगेंगे दु:ख अनिर्वचनीय ||
( २३ )
ये कुरान की बातें हमको कृपा करो बतलाओ तुम, सब सच है या निर्मूलक ही हैं केवल आकाश कुसुम । यह सुनकर पूर्वोक्त कथन का किया श्लोक द्वारा खण्डन, "सृष्टि अनादि अनन्त नित्य है" और किया इसका मण्डन ।
( २४ )
66
ईश्वर कर्ता नहीं, न कोई पैदा करता है संसार, स तथैव इसका कोई कभी न कर सकता संहार । जीवन स्थिति में विभिन्नताएं हमें दीखती हैं जो नित्य, वे केवल फल हैं जो देते हम को पूर्व जन्म कृत कृत्य ॥
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[६]
( २५ ) सृष्टि का अस्तित्व अत: है केवल वन्ध्या पुत्र समान, है निर्लेप निरीह और गतराग द्वेष जगपति भगवान । अबुलफज्ल सुनकर प्रसन्न हो बोला "तब तो नाथ अहो ! मुस्लिम धर्म पुस्तकों में हैं तथ्यतर भी बात कहो ?"
(२६)
अकबर को अवकाश मिला जब तभी बुलाए मूरि गए, वे आज्ञानुसार उपस्थित जा अकबर के निकट भए । "कहो गुरूजी चंगे तो हो" कह अकवर औ गहकर हाथ, उनको अपने महलों भीतर तभी लेगया अपने साथ ॥
वहां मुरिजी को शैय्या पर सादर आसन और दिया, पर मुनीन्द्र ने वस्त्रों पर पगरोपण अस्वीकार किया । अकबर ने तब इसका कारण पूछा मान अतीवाश्चर्य, तब "मुनि को विस्तर निषेध"का मुनि ने समझाया तात्पर्य ।।
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[१०]
(२८)
"जैन साधु रखते न सवारी मुनि भी हैं पैदल आए. वे पैदल ही चलते हैं" सुनकर अकबर अति सकुचाए । फेर धर्म विषयक चर्चाकर दोनोंने आनन्द लिया, देव, गुरु धर्म तत्व पर मुनिवर ने व्याख्यान दिया ।।
( २६ )
मुनिने फिर विज्ञान और स्याद्वाद जैनका समझाया, अद्भुत जैन-धर्म का तब यों अकबर ने परिचय पाया । उनकी शुचिता, निस्पृहता, विद्वत्ता आदिक देख सभी, हर्षित विस्मित और चकित भी अकबर नरपति हुए तभी ||
(३०)
अकबर ने बहु धर्म पुस्तकों का उनको उपहार दिया, अबुलफ़ज्लके त्याग्रहसे जो मुनिने स्वीकार किया । पर मुनिके जीवन का तो है एक कर्म उपकार महान अतः आगरेमें देदीं सभी पुस्तकालय को दान ॥
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(३१) वहीं *पक्ष वसु-शर-शशि-ईसा चतुर्मास्य औ विता दिया, चतुर्मास्य जाने पर अकबर से जा फिर संयोग किया। वहां सुनाया तब मुनिवरने उन्हें धर्म उपदेश उदार, पन,हाथी,घोड़े, रथ अकबर देने लगा उन्हें इसबार ॥
(३२) हरिविजय जी ने पर सादर उनको भी न किया स्वीकार, बह्वाग्रह के बाद दान वर मांगे निम्न लिखित अनुसार । "कैदी गण को छोड़ो करदो पिंजड़ों के पक्षी स्वच्छन्द, और आठ दिन “पर्युषण" में करो जीवहिंसा सब बंद ।
(३३) देने में बरदान किया अकबर ने भी औदार्योत्कर्ष, शिरोधार्य मुनिवर की आज्ञा तब की अतिशय शीघ्र सहर्ष ।
आठ दिवस ही नहीं किन्तु बारह दिन को की हिंसा बंद, जिस से मुनिवर हीर विजय जी को भी हुआ अमित आनंद।
* १५८२
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[१२]
( ३४ )
फिर # स्वजन्म दिन औ नवरोजे औ जब जब आवे रविवार, तब २ को अकबर ने सुखमद किया अहिंसा धर्म प्रचार | कुछ दिन फिर अकबर ने ऐसे निश्चित किए सुमंगल धाम, जिल में हत्या करने वाले का हो प्राणदण्ड परिणाम | (३५)
तद् विषयक फ़रमानों का सम्पूर्ण देश में हुआ प्रचार, 1 'विजय प्रशस्ति' 'बदाऊनी' भी इसको करते हैं स्वीकार । अब तक यह फरमान सुरक्षित कहीं कहीं पाए जाते, मुसलमान कालीन जैन की स्थिति जो अब तक बतलाते । ( ३६ )
6
पाठकगण ! उन के पढ़ने से होता है असीम आमोद, निम्नांकित सारांश उसी का देते हैं - हो मनो विनोद | जाने सभी हमारा इस में सतत मोद और उद्देश, शुभकृति - शान्ति सुविस्तृत हो भगजावें और निशाचर क्लेश ॥
(C
* अकबर का अपना जन्मदिन | विजय प्रशस्ति सार के कती और बदाऊनी प्रसिद्ध ऐतिहासिक भी ऐसे फरमानों का जारी होना मानते हैं ।
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[१३]
( ३७ )
सभी धर्म के पन्थ खुले हीं कोई द्वार नहीं हो बंद, धार्मिक विषयों में सारेजन भोगें सुस्वच्छन्द - आनंद | सब भिन्न मतावलंबियों में जो होवे सुखद पुनीत बातें वे सुनते हैं लखते धार्मिक तत्व नवीन अतीत ॥
( ३८ )
उनका हम बहिरंग न लखते, पढ़ते गूढ़ हृदय के भाव, उनके उत्तम सिद्धान्तों पर अनुभव करते हृदय झुकाव | फिर उनके प्रस्तावों पर कर औचित्या नौचित्य विचार, देते हैं आदेश "उन्हों का अखिल राज्य में हो विस्तार" || ( ३६ )
हीर विजय के चेलोंके निरख कठिन दृढ़ पावन ताप, हृदय झुक गया, यहां बुलाए गये, उपस्थित होने आप | उनकी विनती पर यह हमने किया निजाज्ञा का विस्तारउनके पर्युषण पर्वो हिंसाका होगा न प्रचार ||
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[१४]
(४०)
सभी धर्म मत वालोंका है हृदय दुखाना उचित नहीं मुस्लिम धर्म ग्रंथ से मिलती हिंसा देखो कहीं नहीं । उच्चात्मा और खुदा सभी होते हैं इस से सदा प्रसन्न । पावन कर्म यही है, इससे हृदय नहीं उनका अवसन्न ।
(४१) इस कारण पशु पक्षी हत्या को बारह दिन बंद किया, पर्युषण में जीव न मरने पावें यह आदेश दिया। लिखी सनद यह गई सभी इसको मानें स्वीकार करें, यही यत्न करने के अपने उरमें सब जन भाव भरें ।।
(४२) कोई मनुज न कष्ठ उठावे करता अपनी धर्म क्रिया धर्म कर्म हों अभय सभी के इसी हेतु फरमान दिया ।। इस फरमान-प्रमाण हेतु पाठक है एक और फरमान, श्री जयचन्द्र सूरि की विनती से जो हुआ उन्हें या दान ।।
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[१५]
(४३)
जिस से स्पष्ट सूरि जी को था बारह दिन के हित फरमान फ्रेर एक सप्ताह हेतु जय चन्द्र सूरि को हुआ मदान । जो जड़ हीर विजय सूरीश्वर ने यों सुखद जमाई थी, उस पर चन्द्र विजयजी ने अति दृढ़तर भित्ति बनाईथी ॥
*
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( ४४ )
अकबर से श्री हीर विजय ने " जगगुरु की पदवी पाई, मुनि ने शान्तिचन्द्र को रखकर उपाध्याय अति सुखदाई ।
युग - वसु-शर- शशि इसा में कर दिया फतहपुर से प्रस्थान, अन्य देश में जाकर करना उन्हें इष्ट था पर कल्याण ॥ ( ४५ )
सो प्रयाग में जाकर मुनिवर ने कुछ दिन तक किया निवास, और वहां से गये आगरे फैलाया जा धर्म विकास । फिर लौटे गुजरात मातृभू थी मुनिवर की यही अतीत, किन्तु मार्ग में चार महीने किये सिरोही मध्य व्यतीत ॥
* जगद् गुरु ।
*
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१२८४ ।
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[१६]
(४६)
+ स्वर- वसु- कन्या रवि इसा संवत सुख कर की यह है बात, जब वे पाटन की भू'पावन करने पहुंच गये गुजरात | शान्तिचन्द्र ने शाह हृदय को इधर दिया अतिशय सन्तोष, प्रशस्ति में अकबर की उसने पुस्तक रची कृपा रसकोष || ( ४७ ) जिस में अकबर की उदारता दया आदि का था उल्लेख, हर्षित और प्रफुल्लित अकबर स्वयं होगए जिसको देख, शान्तिचन्द्र के मुख से वह अकबर सुन प्रति संतुष्ट हुआ, जैन धर्म प्रति और अधिकतर प्रेम भाव दृढ़ पुष्ट हुआ ।। (४८)
कुमार पाल के पाट नगर में * वाचक ने जाकर सुखकार, हीर विजयजी सूरीश्वर के दर्शन का जब किया विचार । तब जब शांन्ति चन्द्र ने तज कर नगर फतहपुर किया प्रयान, कबर ने हिंसा प्रतिबन्धक उनको एक दिया फ़रमान ॥
१५८७ * शान्तिचन्द्र उपाध्याय |
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[१७]]
(४१)
जिसमें हिंसा प्रति बन्धन का अधिक अवधि विस्तार किया, जज़िया नामक कर भी कृपया फिर अकबर ने उठा लिया। इसके हित अकबर का भारत वर्ष सभी आभारी है, इस से नीति निपुणता अकबर की प्रकटित अति प्यारी है।
(५०) शान्ति चन्द्र के पीछे आए भानु चन्द्र नामक विद्वान् , सिद्धिचन्द्र थे शिष्य जिन्हों के साहित्यज्ञ अतिशय गुणवान् । इसी शिष्य श्री सिद्धिचन्द्र ने बाण भट्ट कविकी रचना, कादम्बरी उच्च कृति की थी टीका लिखी उदार मना ।।
__(५१) वह टीका उनकी विद्वत्ता का देती अब तक संदेश, उसके अन्तिम वाक्यों से उनका भी परिचय मिले विशेष । उन वाक्यों से यही हमें संक्षिप्त रूप में पड़ता जान, 'अकबर शाह' प्रसन्न हुआ लख सिद्धिचन्द्र का शतावधान ।।
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[१८]
(५२) इस से उनको अकबर ने दी 'खुश हेम' पदवी सुखकार, सिद्धि चन्द्र ने जिसे किया था सविनय और सहर्ष स्वीकार ।
और विदित होता है इस से 'भानुचन्द्र' ने भूपति की, 'सूर्य सहस्त्रनाम' संस्कृत पुस्तक में अकबर की गति की ।।
तथा उन्होंने कह कर उत्तम एक कर्मा का श्रेयलिया, शत्रुञ्जय के यात्रि गणों पर से कर उठवा तभी दिया । किन्तु कार्य यह हीर विजय के परामर्श से किया गया, आवश्यक इस हेतु उन्हों का काशमीर को गमन भया ।।
किन्तु उक्त घटनाओं का जब बंधा हुआ था ऐसा तार, *राम-अंक-कन्या-पृथ्वी का ईसा सम्बत् था सुख कार । विजयसैन मूरि को बुला कर तब अकबर ने रक्खा पास, धाम्मिक चर्चाओं में उनका लगा बीतने वह सहवास ॥
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(५५) उसी समय अकबर ने धार्मिक सम्मेलन संगठन किया, जिसमें श्री श्री हीर विजय जी मुनिवर ने भी योग दिया। दूर देश से श्रा आ कर सम्मिलत हुए उसमें विद्वान, सभी राज्यधानी में आ एकत्र हुए-पाया सम्मान ॥
सत्य विवेचन सभादेश था नहीं तनिक सा भी था स्वार्थ, सब से हीर विजय जी मुनि ने किया सभी में अति शास्त्रार्थ। किन्तु धन्य उनकी विद्वत्ता, धन्य जैन पथ सत्य उदार, विद्या धन्य, धन्य गुण गरिमा, धन्य धन्य पाण्डित्य विचार।
(५७)
अपने अद्भुत चमत्कार से प्रतिवादिगण किये निरस्त, कर उनके सिद्धान्त युक्ति से खण्डन उन्हें दिया कर व्यस्त । सभी तीनसौ वेसठ के लग भग थे गणना में विद्वान् जैन धर्म की छाप मान वे गये सभी यों किन्तु निदान
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[२०]
(२८) विद्वत्ता पर मुग्ध शाह ने लख कर यह पाण्डित्योत्कर्ष 'स्वामी' पदवी श्री मुनिवर को अकबर ने की दान सहर्ष । 'विजयरत्न' ने 'भानुचन्द्र' को उपाध्याय पद किया उदार, इसका उत्सव किया गया-भूतल पर आया स्वार्गागार ।।
(५६) इस से अबुलफजल ने पाकर अत्यानन्द और संतोष, +छै सौ रुपया, अश्वदिये कहता है यही कृपा रस कोश । स्विर-वसु-कन्या चन्द्र ईसवी सम्वत् था जब अति सुखकार, चतुर्मास्य रहना पाटन में किया भूरिजी ने स्वीकार ||
*वसु-वसु-पूर-शशि ईसा सम्बत् पर जब आया सौख्य निधान शाह सुवर्णिक तेजपाल ने की दो प्रतिभा उन्हें प्रदान । श्री 'सुपार्श्व' विभु ओ 'अनन्त' प्रभुवर की प्रतिभा थीं सुपवित्र, उसी अब्द उनकी गुनिने की सुखद प्रतिष्ठा विविध विचित्र।।
+ शेखो रूपक षट् शती व्यति करे तत्राश्च दानादिभिः । । १५८७
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[२१]
( ६१ )
* नभ - 2 - कन्या - ब्रह्म ईस्वी में पर तेजपाल समुदार की सुविनय पर मुनिवर ने स्वीकारा एक और भी भार । श्री शत्रुञ्जय तीर्थ धामपर आदीश्वर मन्दिर सुख धामके उद्घाटन की की धर्म क्रिया समापन मनोऽभिराम ||
( ६२ )
पीछे अन्यतीर्थ क्षेत्रों में किया पर्यटन और निवास, वृद्ध वयस् में उन्हीं पुण्य क्षेत्रों में किया स्वर्ग आवास । पृथ्वी करत नेत्र - अङ्क- शर- शशि संवत् का थी जब भोग श्री श्री हीर विजय सूरीश्वर का तब हुआ असह्य वियोग || ( ६३ )
किन्तु धन्य है काल! तुम्हारी लीला, गति तब है अनिवार्य, प्रबल सभी से तुम हो तुम से बचना अहो ! असम्भव कार्य । तू विस्मृत की धूल डाल कर शूल हृदय का करता नष्ट, अति अस भी विरह वेदना कुछी काल में करता भ्रष्ट ॥
१५६०, ६१÷६२
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[२२]
(६४) सज्जन, उच्च, दुष्ट लघु सारे कवलित हुए तुम्हीं से काल, ऋषि, मुनि, राजा, व्रती, तपस्वी को न छोड़ता तेरा व्याल । नद प्रवाह भी रुक सकता पर तेरी गति अनिवार्य अरोक, खेद व्यथा सन्ताप यन्त्रणा, तुम में सभी समाते शोक !!
अस्तु-ऋषभ जिन-मन्दिर में है शिला लेख इक अति विस्तीर्ण संस्कृत-पद्य मयी रचना में किया हुआ है वह उत्कीर्ण । उसके पढ़ने से विद्वद्गण को पड़ता है यह ही जान, हीर विजय का अकबर के दरबार मध्य था अति सम्मान ।।
शिला लेख में उनके ही गुण गण-गरिमा का है वृत्तान्त उनकी विद्वत्ता की अब तक उड़ती जय ध्वजा दुर्दान्त। धन्य धन्य !! मुनिवर ज्ञानेश्वर ! गौरव गरिमा के भण्डार, धन्य अहिंसा व्रत-पाली मुनि-गण-गणना-अग्रणी उदार!
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[२३]
(६७ ) तुमने प्रभु! वे कर्म किये जो बने जाति के हित आदर्श, तुमने वह उपदेश दिये जो कर जाते थे मर्मस्पर्श । तुमने ऐसी छाप जमाई जो कि यहां फिर हट न सकी, तुमने ऐसी ज्योति-बिछाई जो रजनी में घट न सकी ।।
(६८)
तुमने क्या क्या किया अस्तु-हम यह कहने के योग्य नहीं दीपक रवि की ओर दिखाना लगता कभी मनोज्ञ नहीं। उन हृदय में ज्ञान-सूर्य का हुआ छटा का जो उद्भाव, वही शाह के सम्मुख निकला बना अहिंसा का प्रस्ताव ।।
(६६) और वही प्रस्ताव समाप्त किया स्वयं श्री अकबर भूप, जिसका अकबर नृपति-राज्य सीमा में हुआ प्रकाशित रूप इस से हम श्री मुनिवर का कुछ मान न सकते कय उपकार सच पूछो तो एक तरह से किया जैन का पुनरुद्धार ।।
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[२४]
(७०) हमी नहीं, उनके आभारी अन्य मती भी सारे हैं, श्रद्धा भक्ति भाव मुनिवर प्रति जो निज मन में धारे हैं क्यों कि न केवल पशु हिंसा की कमी हेतु उद्योग किया, संस्कृत की साहित्य वृद्धि हित भी था पूरा योग दिया ।
(७१) उनका हम अभिनन्दन करते अभिनन्दन करते हैं फेर क्यों कि जिन्हें था दुष्कृतिने यों डाला गौरव गिरिसे गेर ।। कर गह कर उनको ही मुनिवर ज्ञानी ने था किया सचेत नमस्कार करते हम उनको सविनय श्रद्धा लह समेत ।।
(७२) हैं उच्च पुरुषों के महत् जीवन यही सिखला रहे, निज नेत्र पट खोलो लखो प्रत्यक्ष वे दिखला रहे । “जो हैं परिश्रम-शील मानव उच्च होते हैं वही, पर-हित सतत करते अहो ! उद्देश जीवन का यही ।।
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[२५]
( ७३ )
जो जाति का, निज देश का, उपकार करते हैं सदा जो भव्य भावों से हृदय भाण्डार भरते हैं सदा । जग ज्योति कर जो मनुज विद्या दान देते हैं सदा उपदेश दें जो, जन हृदय-सम्मान लेते हैं सदा ||
(७४)
वे धन्य है ! जीवन उन्हों ने ही किया निज सार है सव मानता संसार उनकी पुण्य कृति का भार है वे देश जाति समाज जीवन और प्राणाधार हैं हैं धन्य वे नर श्रेष्ट उनके धन्य पर उपकार हैं ।।
(७५)
हे मुनिवरो ! आदर्श कृति उनकी भुला देना नहीं कर्तव्य विस्मृत कर वृथा अपयश उचित लेना नहीं उद्धार केवल स्वात्म का ही कुछ न मुनि का कर्म है उपकार " पर" करना सदा ही मुनि जनों का धर्म है ।।
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[२६]
(198)
६ ७ ६ १
रस-वार-ग्रह--निधि विक्रमी सम्वत् महा सुख कार
था भाद्रपद जन्माष्टमी तिथि और मंगल बार / तव यह सुखद आदर्श जीवन उच्च किया समाप्त, इसका विभो ! उद्देश होवे विश्वभर में व्याप्त ॥
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॥ इति ॥
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॥श्री॥
बाली (मारवाड़) में ओसवाल ज्ञातीय श्रीयुत् गुलाबचंद जी ने मिती मार्गशीर्ष वदी ३ को बड़े वैराग्यभाव से गृहस्थपन को छोड़ कर मुनिमहाराज श्रीमद् वल्लभविजय जी के शिष्य श्री मुनि विद्याविजय जी के पास संसाररूपी समुद्र से तारने वाली दीक्षा धारण की है। आपका नाम श्री मुनि उपेन्द्रविजय जी रक्खा गया । उस समय आपने ५० रुपये यहां की श्री श्रात्मानंद जैन सोसायटी को दान दिये हैं। इस लिये सोसायटी की तरफ से आपको बहुत २ धन्यवाद दिया
जाता है।
आप का दास
सैक्रेटरी।
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्री आत्मानन्द जैन ट्रैक्ट सोसायटी अंबाला शहर की नियमावली 1 इसका मेम्बर हर एक हो सकता है। -2 फ्रीस मेंबरी कम से कम ) वार्षिक है, अधिक देने का हरएक को अधिकार है, फीस अगाऊ लोजाती है। जो महाशय एक साथ सोसायटी का 50) रुपये दंग वह इसक लाइफ मेम्बर समझे जावेग / वार्षिक सदर उनसे कुछ नहीं लिया जावेगा। 3 इस सोसायटी का वर्ष जनवरी से प्रारंभ होता है। जो महालय मेम्बर होंगे वे चाहे किसी महीने में मेम्बर चने होः किन्तु चन्दा उनसे ता०१ जनवरी से 31 दिसम्बर तक का लिया जावेगा। ४जी महाशय अपने खर्च से कोई टैक्ट इस सोसायटी द्वारा प्रकाशित कराकर चिना मुल्य वितीर्ण कराना चाह.. उनका नाम देक्ट पर छपवाया जायगा। 5 जो देक्ट यह सोसायटी छपवायो काम मेस्वर के पास विनापरवाज जाया करगे। सेक्रेटरी। For Private And Personal Use Only