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Soldahl
महान
आचा
पदनसागरजी
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हे नवकार महान
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लेखक - चिंतक आचार्य पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराज
प्रेरक
मुनिश्री अरुणोदयसागरजी महाराज
संपादन - संकलन रंजन परमार
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श्री. किरीटभाई फुलचंद वखारिया, अध्यक्ष श्री अरुणोदय फाउन्डेशन ट्रस्ट : पंजीकृत क्रमांक E/4373 अहमदाबाद 'लायन्ना' अहमदाबाद मेडिकल
सोसायटी के पीछे, अहमदाबाद : द्वारा प्रकाशित
आवरण : श्री. प्रभाकर जोशी
द्वारा चित्रित
प्रतियाँ : दो हजार
मूल्य : दस रुपये
श्री. प्रदीप मुनोत, प्रभात प्रिंटिंग वर्क्स, ४२७ गुलटेकडी, पुणे ४११ ०३७ द्वारा मुद्रित
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MARACETICS
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Babacchamamaeese
लेखकीय निवेदन
श्री नवकार महामंत्र का जप-जाप और ध्यान-धारणा करते हुए सहज में ही मुझे स्फुरणा हुई...अनुभूति हुई, मैं उसे शब्ददेह का आकार देता गया और उस समय तक देता रहा; जब तक चेतन-सृष्टि का कण-कण सतेज न हो जाए ! श्री महामंत्र के स्मरण से...अनुभव से ऐसा अनुभव प्राप्त हुआ जैसे जीवन का समस्त संगीत, रस और तन्मयता इसी में छिपी हुई हो...कूटकूट कर भरी पडी हो। और उक्त संगीत, रस एवं तन्मयता सहज साध्य हो। इसके स्मरण मात्र से जीवन का सर्वांग पूलकित हो उठते हैं। साथ ही होता है रूपांतरण इसके पूण्य-स्मरण से ! जीवन की ज्योति इसके चिंतन-मनन से प्रगट हो, मानवजीवन तो क्या समस्त भूमंडल को भी सदैव ज्योतिर्मय करती रहती है।
इसके भाव-पूर्ण स्मरण से जो असीम शांति...एकाग्रता और लीनता प्राप्त हुई है, उसे मैं शब्दों में अभिव्यक्त करने में सर्वथा असमर्थ हूँ। ठीक त्योंही निःशब्द की भूमिका पर...साधना की अनुभूति का परिचय शब्दों के माध्यम से भी नहीं दे सकता।
तीन
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फिर भी प्रस्तुत कृति 'हे नवकार महान' के माध्यम से मैंने अपने भावों को...चितन को 'घागर में सागर' भरने की तरह ही थोडा बहुत व्यक्त करने का प्रयास अवश्य किया है। श्री नवकार महामंत्र के विविध रूप-रंग और अलौकिक सौंदर्य का दर्शन-मनन मैंने प्रायः चितन के उन सर्वोत्तम क्षणों में किया है, जिसका वर्णन करने में मेरी लेखनी सक्षम न होने के उपरान्त भी जो भी व्यक्त किया गया है वह लोक-जागृति एवं मानव मात्र के लिए एकमात्र सम्बल...पाथेय सिद्ध होगा। इसी भावना के साथ 'हे नवकार महान' में प्रदर्शित विचार-धारा....चितन कणों को संजोकर प्रस्तुत करने का अल्प प्रयास किया है।
श्री नवकार महामंत्र के सबध में समय-समय पर मैंने जो चिंतन किया....चितन को लिपिबद्ध किया; इसे सुन्दर रूप से संपादन एवं परिष्कृत करने का भगीरथ कार्य मेरे अनुरागी भाई रंजन परमार ने किया है। अतः वह धन्यवाद के पात्र है।
-पद्मसागर
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निवेदन
अभी दस माह पूर्व की बात है । मातृभूमि कालन्द्री के नूतन मन्दिर की अंजनशलाका एवं प्रतिष्ठा महोत्सव की पूर्णाहूति के पश्चात् व्यावसायिक कार्य निमित्त नागौर जाना हुआ। पूज्य गरुदेव आचार्य श्रीमद् पद्मसागरसूरीश्वरजी महाराजा उक्त समय वहीं थे । अतः उनके वंदनार्थ एवं आशीर्वाद प्राप्ति हेतु अनायास पहुँच गया।
आपके दर्शन हुए। जीवन धन्य हो गया। मैंने विनीत भाव से पूछा : 'कोई आज्ञा गुरुदेव ?' आचार्यदेव कुछ क्षणों के लिए मौन हो गये। और तब उन्होंने एक पुस्तिका हाथ में थमाते हुए कहा : 'यदि संभव हो तो इसे आदि से अंततक देख जाना और इसमें आवश्यक संशोधन, सूत्रों का संकलन तथा भाषा की दृष्टि से परिसंस्कार करने हो तो कर लेना । इसकी नई आवृत्ति प्रकाशित करनी है।' ___ तदनुसार मैंने इसे आवश्यक संशोधन, सूत्रों का संकलन और भाषा की दष्टि से समचित परिसंस्कार के माध्यम से सँवार ने का प्रयत्न किया है। यह सब करते हुए मूल पुस्तक 'स्नेहाज्जलि'
पाँच
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का 'हे नवकार महान' के रूप में नाम परिवर्तन करने की घृष्टता भी की है । मेरी दृष्टि से प्रस्तुत संचय के माध्यम से गुरुदेव ने श्री नवकार की महत्ता, गरिमा और आवश्यकता का स्थानस्थान पर गुणगान करते हुए मानव जीवन में श्री नवकार का क्या महत्त्वपूर्ण योगदान है । यह प्रतिपादित करने का महत् प्रयास किया है ।
I
पूज्य गुरुदेव श्री ने यह कार्य सौंपते हुए सच पूछिए तो मेरी कसौटी, अग्नि परीक्षा ली है । मैं इसमें उत्तीर्ण हुआ हूँ अथवा अनुत्तीर्ण वह तो वे स्वयं ही जाने ! लेकिन प्रस्तुत जिम्मेदारी का वहन करते हुए मैंने स्वयं को अवश्य कृत-कृत्य समझा है ।
३११ रविवार पेठ,
पूना ४११ ००२ विर
1
मेरा प्रयास अल्प है । लेकिन आप महान है । आपके विचार, चिंतन और निरीक्षण - शक्ति महान है । बस, स्वीकार हो - यह अर्ध्य -यही प्रार्थना है ।
छः
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का
बन कडु क
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विनीत रंजन परमार
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श
की
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प्रकाशकार
: द्रव्य सहायक :
श्री पारसमल प्रमोदकुमार बागरेचा
दिल्ली
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प्रकाशकीय निवेदन
आज तक 'नवकार' के संबंध में जितनी भी रचनाएँ प्रणीत हुई हैं, उनमें 'हे नवकार महान' आधुनिक शैली की एक अभिनव कृति है।
विषय वस्तु अन्य कृतियों से संगृहीत होने पर भी इस कृति की अपनी ही मौलिकता है। भाषा-शैली भावात्मक होते हए भी सर्व साधारण के लिए सरल एवं बोधगम्य है। मान्यवर लेखक प्रवरने 'प्रभु श्री नवकार' के प्रति अपनी भावभीनी प्रेमांजलि अर्पण करते हुए शांति का अनुभव किया है। उनका यह मृदुल प्रयास सफल एवं सराहनीय है।
प्रस्तुत कृति में प्रेम और विरह के भाव प्रभूत मात्र में दिखलाई देते हैं। इस पुस्तक का प्रणयन करने में लेखक ने अनेक रचनाओं से सहयोग प्राप्त किया है । अनेक पुस्तकें होने के कारण उनके नामों का संकेत यहाँ नहीं दिया गया है, फिर भी 'हे नवकार महान' के प्रणेता ने उदात्त हृदय से उन समस्त रचनाकारों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए सौजन्यता दिखलाई है। समस्त पाठकगण भी इस रचना को पढ़कर आनन्द की अनुभूति करेंगे ऐसी मैं अपेक्षा रखता हूँ।
आठ
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त्वं मे माता पिता नेता, देवो धर्मो गुरुः परः । प्राणः स्वर्गोऽपवर्गव, सत्त्वं तत्त्वं गतिर्मतिः ॥
प्रियतम ! प्रभो !! नवकार !!!
मेरे मन तो तू मात, तात, नाथ, देव, गुरु, धर्म, सर्वस्व, प्राण, स्वर्ग, मोक्ष, सत्त्व, तत्त्व, शरण और मति हो। ती
अथवा तो
जगत में जो भी सुन्दर है वह तुम ही तुम हो !!
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POID GODHP Detaalee
अर्घ्य कारकाय निवेदन
- स्नेहमूर्ति नवकार ! तुम्हारी स्नेह-वल्लरी-सी करुणा ने मेरे सुप्त मन को जागृत किया है !
इसी करुणावश मेरे मन ने
चुने हुए पुष्प-गुच्छ सम लेखन-निधि को संचित कराया है !!
लेकिन यह अर्पण किसे करूँ ?
हे नवकार ! तुम्हारी करुणा से पाया है ! अतः तुम्हें ही अर्पण !! सादर समर्पण !!!
-पद्मसागर
दस
OPIC OPIPIRIPIPIRIPIRIE
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प्रथम विभाग
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१. मंगल भावना
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मैत्री भावका पवित्र झरना,
शुभ होवे अखिल विश्व का,
मेरे हृदय
गुण से भरे गुणी जन देख कर,
इन सन्तों के चरण कमल में,
ऐसी भावना नित्य रहे ।
दीन, हीन, धर्म विहीनों को,
करुणा संचित नेत्रों में से,
मम हृदय नृत्य
सर्वेऽपि सुखिन: सन्तु, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,
हे नवकार महान
मार्ग भूले जीवन पथिक को,
मम जीवन का अर्ध्य रहे ।
देख दिल में दर्द रहे । अश्रुओं का शुभ स्रोत वहे ॥
मार्ग दिखाने खड़ा रहूँ ।
यदि करे उपेक्षा इस मारग की,
में बहा करे ।
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करे ।
तो भी समता चित्त धरूं ॥
सर्वत्र सर्वे सुखिनो भवन्तु सर्वत्र सर्वे गुणिनो भवन्तु सर्वत्र सर्वे कृतिनो भवन्तु सर्वत्र सर्वे मितिनो भवन्तु
सर्वे सन्तु निरामयाः ।
मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत् ॥
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शुश्र
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२. वंदना
विश्व मित्र नवकार !
तुम्हें वंदन । असंख्य अनगिनत शत् शत् प्रणाम ।। अरे, तुम्हें वंदन करनेवाले अनेक हैं, अनेकानेक हैं इस जगमें ।
विश्व का हर प्राणी और चराचर जीव एक या दूसरे प्रकार से तुम्हें नित्य, नियमित
वंदन करते हैं; लेकिन मैं अनेकों में एक हूँ । प्रिय नवकार !
मेरी वंदना... प्रणाम तुम्हारे चरणों को स्पर्श करेगा न ?
अन्य की वंदना में वह कहीं खो तो नहीं जाएगा और जीवन के भूलभुलैये में गुम न जाएगा न ?
मेरे वंदन की आवाज.... ध्वनि तुम तक पहुँच तो जाएगी न ?
मेरे वंदन की ओर ध्यान दोगे न ? उसे सहज भाव से स्वीकार करोगे न ?
हे आराध्य ! तुम उसे सुनो या न सुनो मुझे भला उससे क्या मतलब ?
मेरा एकमात्र यही कर्तव्य है कि तुम्हें भक्तिभाव से वंदन करूँ ! एक बार नहीं, बल्कि हजार बार, बस !
तुम्हें वंदन |
सिर्फ तुम्हें ही वंदन | श्रद्धासिक्त और भावयुक्त ॥
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३. वरदान ४
मैं तुम्हारी शरण में यह विनय लेकर नहीं आया
कि,
विपत्ति-आपत्तियों से मेरी रक्षा करो; किन्तु आपत्तियों के घेरे में घिर जाने के बावजूद मैं जरा भी भयभीत न बनूँ ।
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बल्कि सदा अटल-अचल बना रहूँ ऐसा वरदान अवश्य दो ।
अपने दुःख और पीडा से उत्पीडित चित्त की सांत्वना हेतु याचना नहीं करता; ना ही भिक्षा माँगता हूँ ऐसा तो वरदान अवश्य दो । संसार के उत्पीडन और घुटन से मुझे बचाओ ! मेरी रक्षा करो, यह भीख माँगने तुम्हारे द्वार निःसंदेह नहीं आया... किन्तु संसार-सागर तैर, पार लगने की शक्ति पाऊँ ऐसा तो वरदान अवश्य दो ।
मेरा भार हलका कर दो,
ऐसी प्रार्थना नहीं करता पर
भार वहन करने का बल मुझे प्राप्त होऐसा वरदान तो अवश्य दो ।
हे नाथ, सुख में तुम्हारा नित्य स्मरण करता रहूँ और दुःख में कभी विस्मरण नहीं करूँ, साथ ही साथ विश्व की समस्त नजरें भले ही मेरा उपहास करें 1
मैं जनमात्र के लिए उपेक्षा का विषय बन जाऊँ, फिर भी तुम्हारे प्रति कभी शंकाशील - उदासीन न बनूँ ऐसा तो वरदान अवश्य दो ।
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४. दिव्य संकेत
प्रियतम नवकार !
मुझे भली भाँति विदित है और स्वीकार करता हूँ कि,
यहाँ पत्ते-पत्ते और डाल-डाल पर जो चमक-दमक और अनुपम कांति है यह तुम्हारे दिव्य संकेत हैं । तुम्हारे ही कारण सुस्ताये आलसी बादल वरस बरस पडते हैं
शीतल और शुद्ध समीर प्रकम्पित हो ; हर जन और हर मन को स्पर्श कर जाती है । और तो और मेरे मन में जो सुन्दरता, सहजता और सहृदयता है यह सब तुम्हारी परिस्थिति के ही दिव्य संकेत हैं ।
तुम्हारे शांत-प्रशांत मुखमंडल पर हल्की सी स्मित रेखा बिखर गयी ।
तुम्हारे नयन मेरे नयनों से टकराये । अनजाने ही परस्पर कुछ संकेत हुए || मेरी हृदय वीणा के तारों ने झंकृत हो, तुम्हारा अर्चन-पूजन किया ।
मेरे मस्तक ने नतमस्तक हो तुम्हारे चरण स्पर्श कर रज ग्रहण की और मैं धन्य हो उठा । प्रियतम ! यह भी तो तुम्हारा ही दिव्य संकेत है, मधुर, मृदुल संकेत |
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५. अनुमति
हे भवभंजन दीनानाथ ! मैं सिर्फ तुम्हारा गुणगान करने आया हूँ। प्रेम के गीत लेकर, श्रद्धा के स्वर और भक्ति की लय से सजे गीत ।। मुझे गीत गुंजन की गुणानुवाद करके की अनुमति दो। नाथ इस भरे-पूरे संसार में और किसी प्रकार की योग्यता....क्षमता मझ में नहीं है। प्रत्यतः मेरे निरुपयोगी, निर्बल प्राण सदा-सर्वदा तुम्हारे ही गीत गुजारित करते रहे ऐसी शक्ति मुझे प्रदान कर। हृदय-कुंज में तिमिराच्छन्न रात्रि सदशक नीरवता है। जीवन के लहलहाते खेत खलिहान मायूस और उदासीन है तुम्हारे वियोग में . . . । मन के हाट-हाट और हवेली वीरान है। अरे ओ! प्राणेश्वर! जगति के मंदिर में आरती की दीपशिखा प्रज्वलित हो उठी है। सर्वत्र हँसी-खुशी और उष्मा का समा बंध गया है। ऐसे में मुझे तुम्हारे गीत गानेकी अनुमति दे दे। सिंदूरी उषा की गले लिपटती किरण मालाओं से ओत-प्रोत प्रभात बेला में तुम्हारे मंगल गीत गाने की अनुमति दे। बस इतनी सी भिक्षा दे दे। दे दे मेरे प्रभ, अब और निराश न कर।
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६. उपहार
मेरे प्राणाधार नवकार !
निखिल भूमंडल पर स्थित हर व्यक्ति और जीव यथाशक्ति श्रद्धासिक्त मन से भक्तिभावपूर्वक आपको अच्छी अथवा बुरी भेंट... उपहार प्रदान करता रहता है ।
कोई चढाता है हीरे पन्ने और मुक्ताओं की दमकती माला तो कोई अर्पित करता है पुष्प सुगंधी रसाल !
कोई देता है फूल-फल युक्त रसाला !! जबकि मेरे पास है सिर्फ दुःख दर्द की हाला ! ! ! कृपावंत इसे स्वीकार कर मुझे कृत-कृत्य कर दे, मेरे जीवन को सुख-समृद्धि और वैभव से भर दे । परम आराध्य नवकार । इस दुनिया की रीत है कि जिसके पास जो हो वह खुले हाथ दे दे और वही वह देता है ।
अतः मेरे पास अपनी जो वर्षों की जमा-पूंजी थी, सहर्ष दे दी... आपकी सेवामें विनीत भाव से चढा दी ।
तुम परीक्षक हो, निरीक्षक हो और हो स्थितप्रज्ञ !
यदि मेरी तुच्छ भेंट उचित लगे,
आपके योग्य हो तो अवश्य स्वीकार लेना
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७. कृपण
उदार चेता दानेश्वरी नवकार ! उफ् ! न जाने कितने लम्बे अंतराल के पश्चात मैं तुम्हारे द्वार पर भिक्षा माँगने आया हूँ। तुम्हें कहाँ कहाँ नहीं खोजा ? उत्तुंग गिरिमालाओं में, सुगंधित घाटियों में-सूर्यनारायण की तेजस्वी किरणों में और चंद्र की शीतल चाँदनी में । कलकल नाद करते सरित प्रवाह में, उमड-घुमड कर आती बदरियों में, लहलहाते खेत खलिहानों में, सनसनाती हवा की लहरियों में और सागर की केलिक्रीडा करती मतवाली तरंगों में ॥ किंतु तुम नहीं मिले। मैं हार गया, निराश और व्यथित हो उठा। उदासी से मेरा रोम-रोम निस्पंदित हो उठा; लेकिन तुम कहाँ थे ? अरे मेरे ही छोटे से कच्चे खपरैलावाले मकान के एक कोने में.. वहाँ तुम अर्से से छिपे बैठे थे शांत-प्रशांत ! मैंने देखा ... देखता ही रह गया !
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हर्षातिरेक से मेरे नयन भर आये, होंठ क्षणार्ध के लिए फडफडा उठ, मन-मयूर नृत्य कर उठा। धीरे से मैं उठा और अपनी झोली फैला दी। सहसा वातावरण को भेदता एक अज्ञात स्वर फूट पडा 'भिक्षां देहि'....सच, क्या मैं ठीक सुन रहा हूँ ? और तभी सोचा : "भिक्षुक-से भला क्या भिक्षा माँगना?" हे भगवन, फिर तुम्हारा वास्तविक स्वरूप क्या
उदार दिल ? दानेश्वरी ? या कृपण ? खैर, तुम जो भी हो। लो यह मेरी वासना...मेरा मिथ्याभिमान और अक्खडपन ! ताकि मैं तो हल्का हो जाऊँ, मेरा वर्षों का बोझ उतर जाएँ। लो नवकार अकिंचन की भेंट ले लो। अब ना न कहना, मैं इससे ही धन्य हो जाऊँगा। साथ ही स्वयं उदार और तुम कृपण !!
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८. अतिथि प्रिय अतिथि ! माननीय अतिथि !!
ओ नवकार !!! तो अब आप मेरे प्रांगण में अतिथि बनकर आये हो। ठीक ही कहा है ‘अतिथिदेवो भव' क्या ही अच्छा मौका है। का मैं अपना तन मन स्वच्छ और सुन्दर रसूंगा। सत्यम् शिवम् की दीप-ज्योति प्रज्वलित करूँगा। विचारों पर वासना की धूल नहीं जमने दूंगा। तुम मेरे आराध्य और श्रद्धेय अतिथि जो ठहरे। सच, आपके आगमन से पाप पलायन कर गय । दुःख और दर्द का जाल छिन्न-भिन्न हो गया। अब मेरे हर कार्य में तुम्हारी प्रेरणा की लौजगमगाएगी और मेरा जीवन अनायास ही पावन हो जाएगा।
९. सिंहासन
विश्वपति नवकार! तुम वहाँ अपने सर्वोच्च स्थान सिंहासन पर आरूढ थे।
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और मैं यहाँ खुरदरी, गर्दभरी जमीन पर आसन जमाये तुम्हारे गीत गुंजारित करने में मग्न था। मेरे गीत की अस्पष्ट लहरियाँ तुम्हारे कानों से टकरायीं और तुम अपने सिंहासन से जमीं पर नीचे उतर आये। आकर खड़े हो गये मन-मंदिर के सोपान पर । अरे, तुम्हारे दरबार में अगणित गुणी गायक हैं। लेकिन मेरी दर्दभरी टीसों ने तुम्हारी सुप्त प्रेम की धारा को बरबस प्रवाहित जो कर लिया। विश्व के विविध गीत स्वरों के बीच गुजारित एक अकेले मेरे करुण स्वर ने तुम्हारे तन मन को स्पर्श किया है। हे प्रभो, तुम वरदान देने हेतु मुझ अकिंचन को गले लगा कर कृतकृत्य करने के लिए उँचे सिंहासन से उतरकर नंगे पाँव नीचे आये। मेरी हृदय की दहलीज पर शांतप्रशांत आकर खड़े रहे। परन्तु...?
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१०. एक बार
दीनबन्धु दीनानाथ नवकार ! मेरी प्रार्थना एक बार स्वीकार कर ! सिर्फ एक बार !! मेरे हृदय मंदिर के आराध्य स्थान में बस जा। और ऐसा बस कि कभी जाने का नाम न लें। तुम्हारे विरह वियोग में जो दिन, घटिका और पल गया, वह सच, मिट्टी में मिल गया। अब तुम्हारी ही दिव्य ज्योति में सजग रह जीवन कली को विकसित करने हेतु सदा जागृत रहेगा। आज तक न जाने उन्माद और अभिमान में, किसी को ढूंढने, परखने और अपनाने हेतु मैं बावरा बन इधर-उधर निरुद्देश्य भटकता रहा। पता नहीं, कौन जाने? यह कैसे हुआ? किंतु अब मेरी धडकन सुन और परख । साथ ही इसमें रहा पाप-धन, छल-बल, व्यथा-विकार और मोह-जाल जो भी हैं.... उसे तुम जलाकर खाक कर दे। ताकि जो भी रहे...वह तुम्हारा मनभावन स्वरूप और संग ही हो। बस, एक बार सिर्फ इतना कर दे दो प्रभु, केवल एक बार...! महा
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११. गीत सुधा का स्नेहरश्मि सुधावर्षी नवकार ! तमने जब गीत गंजारित करने का आदेश दिया। सच, मेरा सीना हर्ष से फलकर कुप्पा हो गया और रोम-रोम पुलकित हो उठा। मेर नयनों में आनन्दाथ के मेघ उभर आये। और क्षणार्ध के लिए तुम्हारा स्नेहाभिषिक्त मुखमंडल निनिमेष नयन देखता रहा । मेरे जीवन की कटुता, विषमता और अस्तव्यस्तता बरबस पिघलकर तुम्हारी गीत सुधा में परिणत हो गयी। मेरी साधना और आराधना पक्षी की तरह पंख फैलाकर विराट गगन में उडान भरने के लिए बताब हो उठी। और मैं जान गया कि साधना और आराधना के प्रतीक स्वरूप गीत एवं गीत के बल से तुम्हारे तक पहुँचने का दुर्दम्य साहस कर सकता हूँ। फिर भी मोहग्रस्तता और अज्ञानाधीनता के कारण तुम्हारे अत्यंत निकट ...समीप आने में कुछ संकोच-सा अनुभव करता हूँ।
और केवल गीत तथा उसकी सुरीली लहरियों के माध्यम से तुम्हारा चरण स्पर्श कर लेता हूँ। प्रभु गान के तान में सब कुछ भूल जाता हूँ। और तुम्हें 'सखा' 'मित्र' और 'प्रियतम' मान कर सदा मौन आमंत्रण देता रहता हूँ।
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fe १२. गर्जना
महामेघ नवकार ! मेरा जड-जर्जरित मन कब से मछित हो पडा था! वह चैतन्य पा जाए यही तीव्र कामना थी। उसी समय तुम्हारे आषाढी मेघ जीवनाकाश में उमड घुमड कर घिर आये। सहसा महामेघ ने गर्जना की। सर्वत्र सुरीली घंटियों की सी ध्वनि उभर आयी। जिस तरह कुमार देवताओं के गेंद खेलते समय प्रायः सुनायी देती है। चपला चमकी...बिजली कौंध उठी पल भर में और मेरा मूच्छित मन किंचित हिलने लगा। झडी लग गई झरझर-झरमर.... रिमझिम रिमझिम। प्रभो, प्रभो ! महामेघ महामेघ !! तुम्हारे आषाढी गर्जन-तजन से.... मेरा वही पुराना मन जड जर्जरित पुनः पल्लवित सजीव हो रहा है। चैतन्यमय बनता नजर आ रहा है ।। ओह, मेरी चेतना ! सदा के लिए तुम्हारी साधना में जुड़ जाएगी। और मैं, मेरा तन-मन तुम में लीन तल्लीन ।
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१३. न आये सो न आये
NOCTOR
प्राणेश्वर नवकार ! आप न आये, अतः मैं मयूरशिखा वीणा लेकर बैठ गया गीत गुजारित करने । वीणा के तारों के साथ अंगुलियाँ तन्मय हो खेलने लगीं। प्रत्यतः कोयल कण्ठ के पंचम स्वरों से वातावरण आल्हादित हो उठा। गीत के बोल मैंने वीणा की लय और तान के साथ एकरूप कर दिये...और गीत...वीणा की झंकार में समरस हो उठा ।। पधारो मेरे प्राणों के आधार प्रभ ! पधारो मेरे सिरजनहार करतार प्रभु !! पधारो है छोटा-सा मेरा धाम !!! लो लाखों प्रणाम मेरे जीवन नैया के खेवनहार ! जपता निश दिन तेरा नाम ! भूल गया सब कुछ अपने काम !! तुझ बिन नहीं चाहिए आराम !! ! अर्ज करता हूँ निष्काम ! पधारो, तब मिलेगा मुझे विराम !! बोल भले बेताल हैं और जीवन यह झंझाल है। किंतु आप प्रसन्न होते हीअवश्य मेरे आँगन में पधारोगे। तब सब मंगल होंगे काम! आशाएँ पूर्ण होंगी तमाम !! किन्तु.
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आप नहीं आये !
जीवन में दुःख के साये घिर आये ! ! मन फूल रह गये मुरझाये ! ! ! किंतु आप नहीं आये. . . सो नहीं आये !
१४. महाभिनिष्क्रमण
प्राणाधार नवकार !
मेरे प्राणाधार अब मुझे अपनी जीवन नौका का लंगर अवश्य उठाना होगा और पडाव पर पडाव करते हुए महाप्रस्थान करना पडेगा ।
आलस ही आलस में लम्बा समय गुजर गया और यों ही गुजरता जा रहा है ।
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वसन्त की मनभावन ऋतु का आगमन हुआ और वह चली भी गयी, पुष्प मुस्कराये और मुरझा गये ।
लेकिन न जाने किसकी प्रतीक्षा में यहाँ यों दिग्मूढ-सा किंकर्तव्यविमूढ बना खडा हूँ ? न ओर है न छोर, ना ही दिशा मार्ग का भान फिर भी खड़ा हूँ ।
न जाने क्यों किसलिए किसकी राह में ? पीले पत्ते हवा के जरा से झोंके से गिरने लगे हैं। और उनका स्थान नई कोंपल, नये अंकुरों ने यथास्थान ले लिया है।
मुझे रह रह कर ये संकेत कर रहे हैं कि अब मेरे प्रस्थान का समय आ गया है।
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१५
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EP
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१५. खेद नहीं
वंद्य शिरसावंद्य नवकार!
तुमने मेरे प्राणों में अजीब शक्ति भर दी है यदि अब मेरी मृत्यु हो जाएँ तो भी मुझे कोई भय नहीं, पीडा नहीं, ना ही कोई वेदना....व्यथा है आज तक मृत्यु के नाम से ही कंपित था मन शंका कुशंका, संदेह विमनस्कता की घटाएँ घिर आती थीं मन प्रदेश पर ! अनजाने ही मृत्यु का भय बस जाता था, और तन मन, रोम रोम सिहर उठता था ! लेकिन आपने वह भय ही भगा दिया। प्राण पखेरू उड भी जाए तो अब कोई खेद नहीं। मुझे भली भाँति विदित है कि अव भी मैं समर्पण भाव से तुम्हें स्वीकार नहीं सका हूँ। और इसी कारण पूर्णता पूर्ण पूर्णता का वरदान पा नहीं सका हूँ। फिर भी जो कुछ मिला है, पूर्वभव के पुण्योदय से ही मिला है। तुमने मुझे अपना सुखद स्पर्श दिया है.... स्पष्ट आभास दिया है और 'तुम सर्वत्र विद्यमान हो' की अनुभूति दी है।
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यही तो मेरा पाथेय है, जीवन का सर्वस्व है। इसी श्रद्धा एवं विश्वास के बल पर मैं टिका रहा हूँ। मेरी जीवन यात्रा निर्विघ्न चल रही है। यदि अब मृत्यु बरण भी हो जाएँ तो परवाह नहीं। इसी क्षण आ जाएँ तो भी कोई खेद नहीं।
१६. मेरा वन्दन पधारो देव ! पधारो मृत्यु देव !!
आज मैं किस तरह आपका स्वागत करूँ? किस सामग्री से आपका स्वागत करूँ ? भला कौनसा अर्ध्य अर्पण करूँ ? आपका आगमन बिलकुल अकस्मात हुआ। न कोई समय, ना ही कोई बेला । यदि पहले ही सन्देश भिजवाया होता तो आपके स्वागत की अपूर्व तैयारी करता ।।
खैर,
QAORA
किन्तु दो दिन पूर्व तो सन्देशवाहक भेजना चाहिए था न ? ऐसा होता तो मैं और नवकार मिलकर कोई प्रबन्ध कोई आयोजन कर लेते।
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अस्तु । जैसे भी हो अनायास आपने मेरे आँगन को पवित्र किया है। उससे मैं हर्षविभोर हो उठा हूँ। ऐसे में आपका किस तरह उचित स्वागत करता ! मेरी समझ में नहीं आ रहा है। और खाली हाथ भी आपको भेजना ठीक नहीं। लो सन्माननीय अतिथि ! लो..... । लेते जाओ....॥ मेरे इस जीर्ण-शीर्ण पुराने शरीर को। इससे उत्तम भेंट मेरे पास दूसरी कोई नहीं है। सारी जिन्दगी जिसे मैंने मेरा मानकर जतन किया। सम्हाला, सजाया, सँवारा और जी भर जिसका रक्षण किया। उसे मैं आज उल्लासपूर्वक आपके पात्र में.... अर्पण करता हूँ। प्रभु स्वीकार करो। मुझे कृतार्थ करो। पावन करो। आपको मेरा वन्दन ।
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१७. छोटा भाई
प्राणाधार नवकार ! 'जीवन' मेरा बडा भाई था । उससे मैं बड़े हर्ष से कई बार मिला। नाथ ! नवकार ! तुम्हें भी मैंस्नेह से, प्रेम से कई बार मिला हूँ। अब अपने छोटे भाई मरण को भी उसी आनंद और उमंग से मिलूंगा । खूब गले लगूंगा। उस पर भी मेरी अपार प्रीति है। उससे मिलने के बाद पुनः यह कलेवर तुम्हारे गुण गान करने की चेतना प्राप्त करेगा। मृत्यु संभवतः क्षणिक वियोग करायेगी भी
किन्तु....
मैं तुझ से मिलकर फिर पल्लवित बनूँगा।
COUN
१८. आशादीप
काम पूरक ! काम चूरक नवकार !! प्रिय अब मेरा जीवन दीप अधिक समय नहीं जगमगाएगा।
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क्यों कि उसमें स्नेह नहीं। और स्नेहविहीन दीप भला कैसे जगमगाएगाप्रज्वलित होगा? जीवन दीप बुझ जायेगा। फिर भी आशा दीप तो प्रकाशित ही रहेगा । साथ ही आशा दीप के स्नेह तेल से दूसरे जीवन दीप देदीप्यमान बने ही रहेंगे । इसमें भी नाथ आप मिलोगे इसलिए मेरा जीवन सार्थक ! चकि मेरे जीवन दीप से भी आशा दीप का स्नेह ज्यादा है। परन्तु इस का टिकना सर्वस्वी आप पर आश्रित है। आपके प्रति श्रद्धा यही मेरी आशा है।
और आपके प्रति का स्नेह यही मेरी ज्योति है। इस आशा ज्योति से जगमगाते प्रकाश में । मैं महाप्रयाण को स्वेच्छया स्वीकार रहा हूँ। प्रियतम नवकार ! आपका आशीर्वाद मुझे सफलता प्रदान करें।
LOGOS
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१९. अधूरी पूजा
दुःख हर सुख कर नवकार !
जाने का निमंत्रण आ गया है। अतिन्म घड़ियाँ बिती जा रही हैं। किस श्वास में प्राण चले जायेंगे। उसकी कोई खबर नहीं ? अब थोडे ही श्वास बाकी गजको रहे लगते हैं।
नाथ !
मैं तुम्हें पूर्ण रूप से पहचान न सका।.. तुम्हारी पूजा भी पूरी न कर सका। अधूरी पूजा के साथ जाता हूँ। न जाने मुझे कौनसा स्वाँग मिलेगा ?... प्रियतम प्रभो!
आशीर्वाद दो कितेरी पूजा मिले ऐसा ही स्वाँग मिले । तेरी अधूरी पूजा को पूरी कर सकूँ ऐसा भव....जन्म मिले। तुम्हारी पूजा की प्रतिज्ञा अधुरी रह गयी। इस बोझ से मैं दबा जा रहा हूँ। मैंने तुम्हारी अखण्ड अक्षत से आरती नहीं की। तेरे सन्मुख ताजे फल धरे नहीं। सुगंधी नैवेद्य चढाया नहीं।
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सिर्फ अन्तर के भाव समर्पित किये हैं । वह भी अधूरे। फिर भी इस अधूरे अन्तःकरण के भाव से मैं आनेवाले भव में तुम्हारी अधूरी पूजा । भक्तिभाव से पूरी कर सकूँ ऐसा स्वांग चाहता हूँ। प्राणसखा ! मेरी आँखे बन्द हो रही हैं। रक्त की गति शिथिल बन गई है। नाड़ियाँ, तड़ तड़ टूट रही हैं । हृदय निःशब्द होने की तैयारी में है। ना......थ...! प्र....भो ! तेरी अधूरी पूजा को भक्तिपूर्वक पूरी करूँ ऐसा ही स्वांग/भव मिले । मे....रे प्रि....य....त....म....?
moneleOAD
२०. प्रेम का दूत
समाधिमरण नवकार! आप कब आओगे ? आपके आने से क्षणार्ध में मेरे सब द्वंद्व मिट जायेंगे। लेकिन मेरे मन पर कोई दूसरे बोझ डालेंगे।
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उसका मुझे पूरा भय है। वे आत्मा और मन के द्वार बंद कर देंगे। यदि पराजय स्वीकार न करूँ तो ज्यादा जकडेंगे। ऐसे में ओ समाधिमरण ! आप आओगे तोसभी विघ्न दूर हो जायेंगे । नवकार ! आप आओगे तोसभी बन्धन शिथिल हो जायेंगे । आपके आते ही मुझे कैद रखने में भला कौन समर्थ है ? जब मेरे हृदय में आपका आगमन होगा तब मेरा हृदय स्वतः निःशब्द हो जायेगा। पूर्ण शान्ति या पूर्ण प्रकाश ! !
२१. विदाई के समय
वरेण्य शरण्य नवकार !
जाने के दिन मैं यह बात कहता जाता है कि मैंने जो कुछ देखा, जाना उसकी कोई उपमा मेरे पास नहीं थी। तेरे प्रकाशमय सरोवर के कमलपुष्प के मधुर मधु को पान कर में धन्य बना हूँ। विश्व के क्रीडांगण में मैंने अनेक खेल खेले हैं।
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आत
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साथ ही उक्त क्रीडांगणों को नेत्रों से देखकर जी भरकर सौंदर्य का पान किया और मैं धन्य बना ।
तेरा स्पर्श असम्भावित है, तो भी मेरी नस नस पुलकित हो उठी हैं । अतः मैं धन्य बना हूँ । तेरी मधुर व मंजुल पुकार सुनकर मेरे कर्णयुगल सुधावाणी रस के स्वादु हो गये है । अतः मैं धन्य बना हूँ ।
तेरे स्पर्श को आँचल में संजोकर प्रवाहित वायु ने मेरी नासिका को प्राणवायु
प्रदान किया है और मैं धन्य बना हूँ
अतः मैंने जो देखा है और अनुभव किया है-'
वह अनुपमेय है, अतुल्य है !
विदाई के दिन मैं यही घोषित करता हूँ ! और यही मेरी विदाई के अंतिम शब्द हैं ! !
क्रि
PS
२४
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२२. मृत्यु के बाद
तेरे गीत गाते गाते यह प्राण चले जाये तो कितना अच्छा !
मैं अपने इष्ट मित्र और सगे-संबंधियों को
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बालमित्र नवकार
!
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कहता जाता हूँ कि मेरी मृत्यु के पश्चात आप रोना नहीं ! किसी प्रकार का शोक न मनाना ! मैं गया हूँ अद्भुत स्थान में ! वहाँ नहीं शोक....लवलेश....कंकाश, न जरा भी धिक्कार ! मिला है मुझे अमूल्य अप्राप्य बड़ा अधिकार ! में शान्त हूँ, सुखी हूँ। आनन्दमग्न विभोर हूँ। आप रो कर आँख न दुखाना ! ली शोक करके दिल न दुभाना ! आपको भी जाना है यह कभी न भूलना ! दुबारा नये रूप रंग में मिलेंगे वहाँ ! किन्तु....! इस से पूर्व महाप्रयाण की तैयारी करना न भूलना!
२३. आरती
प्रियतम प्रभो नवकार !
ती
तेरी आरती का समय हो गया है। मैं तेरी आरती उतारता हूँ। उसमें नव नव पातियाँ टिमटिमा रही है।
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मैं तुझ पर न्योछावर हो जाता हूँ। यह आरती मेरे स्नेह का प्रतीक है। स्नेह में जितना दे सकूँ उतना ही कम है ! अब मेरे पास मेरा कुछ रहा नहीं !! स्नेह में मैं भी अर्पण हो चुका हूँ !!! स्नेह मुख से नहीं बोला जा सकता !
और आँख से नहीं बताया जा सकता !! यह तो चित्त का अनभव है ! चित्त ही समझ सकता है ! तू सच्चिदानन्दमय है; इसलिये तू जान सकता है ! सुखकन्द ! यह आरती मेरे स्नेह का प्रतीक है ! तु इसे स्वीकारना ! मझे उबारना!!
RATORON
२४. मंगल दीप
प्राणप्रिय प्राणाधार नवकार ! कैसे और किन शब्दों में तेरी भक्ति हो सकती है ! इसका मुझे सही ज्ञान नहीं है। फिर भी मैं तेरे प्रेम को प्राप्त कर सकँगा? हृदय कहता है, साथ ही आत्मा साक्ष्य देती
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बालक तुतलाता बोलता है ।
उसमें नई रचना या व्याकरण नहीं होती । फिर भी वह सबको आनन्दित करता है न ? क्योंकि उसमें सरलता, निखालसता वसती है ! स्नेह भरे शब्द चाहे कितने विलंब से और चाहे जिस प्रकार बोले जायें,
तो भी वे महाआनन्द को जागृत कर जाते हैं ! सर्व का स्नेह प्राप्त कर जाते हैं !!
उसी प्रकार प्रियतम प्रभो
मैं तेरे पास स्नेह प्राप्त करूँगा ।
उस स्नेह से मेरे में सर्वात्म भाव प्रगट होगा । प्रभो, 'दीप से दीप प्रगट होते हैं' तेरे अखण्ड जगमगाते मंगल दीप से मेरे ज्ञान दीप को प्रकाशित कर । ताकि स्नेह के सुनहरे प्रकाश में मैं सर्व को स्नेहासक्त बने देख सकूँगा !!
२५. विदाई
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विश्वम्भर प्रभो नवकार !
मैं जानता हूँ, भलीभाँति जानता हूँ कि दिन दूर नहीं अब, जब
वह
पृथ्वी आँखों से ओझल हो जायेगी । आँख पर परदा तान सदा के लिए
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田
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यह प्राण पिंजरे में चुपचाप चले जायेगें...उड जाएँगे! !TERI मित्रों! विदाई का समय आ गया है।FFBER मंगल कामना करो। मेरा मार्ग रमणीय है। वारीजन यह न पूछो कि साथ में क्या पाथेय है?IRTE है हाथ खाली। र किन्तु...
कामरी मागरम आशा भरे हृदय से नई यात्रा आरम्भ की है। मार्ग में संकट है, किन्तु में निर्भय हूँ। सूर्य चन्द्र स्नेह पूर्ण स्वागत करेंगे। तारे, नक्षत्र, स्नेह से बधाई देंगे। आरती समय के घंटानाद अभिवादन करेंगे। मेरा सब प्रेम से अभिनन्दन करेंगे। कि जाने की आज्ञा मिल गई है। शनि प्रणाम कर अन्तिम विदाई चाहता हूँ। लम्बे समय तक साथ में रहें। लिया ज्यादा और दिया कम । अब नया सूरज उगा है। नई प्रभात फटी है। अन्धेरे में जलता मेरा दीपक बुझ गया। दूर देश का निमन्त्रण जो आ गया है। प्रस्थान के लिये तैयार हूँ।
मी यह चला ....!!! यामा
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२६. मुलाकात
रक्षणकर्ता नवकार !
आज मेरी अन्तर- राजधानी पर महाशत्रु चढ आये हैं ।
मोह-महिपति इन शत्रुओं का राजा है । राग और द्वेष उसके दो महा सेनाधिपति हैं । इनकी देख-रेख में, नियंत्रण तले, सैन्य सागर समान है ।
इन्होंने एक साथ असंख्य अनगिनत संख्या में हमला कर मेरी राजधानी में
हाहाकार मचा दिया है । जीवन-वाहिनी को संघर्ष की आग में झोंक दिया है ।
भाग-दौड़ और 'त्राहिमाम्' 'त्राहिमाम्' के चित्कार रह-रहकर मेरे कानों के पर्दे फाडे जा रहे हैं ।
मेरी चिन्ता का वारापार नहीं ।
गुर
हृदय- मेरु काँप रहा है । शरणागति के बिना और कोई चारा नहीं । लेकिन शत्रु के अधीन होने को मन नहीं
मानता ।
ऐसी भीषण और भयानक आपत्ति के समय मैंने महायता के लिये आपको याद किया है।
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प्री
पु
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यह
सोच कर कि, भयमंजन | AC तुम मुझे अवश्य साथ दोगे और गिरों को ऊपर उठाओगे ।
प्रभो ! तुम एक राष्ट्र के महान् हो । मैं भी एक राष्ट्र का महान् हूँ । मेरा राष्ट्र, तुम्हारे राष्ट्र में मिला देने की तीव्र भावना है ।
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और दो राष्ट्रों के महान् व्यक्ति गम्भीर विषय की चर्चा के लिए प्रायः गुप्तस्थल पसन्द करते हैं ।
वह स्थल निहायत सुरक्षित एवं सुन्दर होना चाहिए ।
मुझे तो महारिपु से द्वंद्व करना है । इसीलिए मैं तुम से मुलाकात चाहता हूँ ।
बोलो प्रभु !
किस स्थल पर मंत्रणा के लिए चला आऊँ ?
और यदि आप स्थान निश्चय का कार्य भी मुझ पर छोड़ दें तो,
मैं गुप्त स्थान बताऊँ ।
वहाँ पर मैं सब प्रकार की
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व्यवस्था करवा दूँगा ।
और वह गुप्त स्थान है मेरा मनो-मंदिर ! जहाँ किसी का प्रवेश नहीं है । और ना ही रहस्य-भेद का डर है । प्रभो, बोलो !
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for
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है स्वीकार ?
मेरी अनुनय मानो और शीघ्र आओ ।
ये नयन लगे हैं तुम्हारी प्रतीक्षा में !!
२७. मोह शृंखला
मनरंजन निरंजन नवकार !
मेरी मोह की श्रृंखला अत्यंत दृढ है ।
और मेरी कामना है कि तू इसे तोड़ दे । परन्तु जब यह टूटने लगती हैं, तब मेरा मन कातर हो उठता है ।
आपके पास मुक्ति माँगने अवश्य आता हूँ । किन्तु मुक्ति की कल्पना से ही
भय-भीत वन जाता हूँ । मेरे जीवन की आप ही सर्व श्रेष्ठ अक्षय निधि हो । आपसा अनमोल धन
मेरे लिये दूसरा कोई नहीं ।
यह मैं भली भाँति जानता हूँ,
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तथापि मेरे घर में जो टूटे-फूटे बर्तन ठीकरे हैं उन्हें भी फेंकने के लिए मेरा मन नहीं करता । भगवन्, यह कैसा भाव ?
जो आवरण मेरे हृदय पर पड़ा है ।
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वह कर्म स्वरुप धुल- धूसर है साथ ही
मृत्यु शाप से ग्रस्त और त्रस्त है ।
मेरा अंतःकरण सदा उसे धिक्कारता है । फिर भी उस पर मुझे स्नेह है- मोह है, अमीट - असीम !
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मेरे ऋण और कर्ज का अन्त नहीं । मेरे खाते में अनेक जीवों की रकम जमा है । मेरे जीवन की असफलताएँ अनगिनत हैं । मेरी लज्जा की कोई मर्यादा या सीमा नहीं, किन्तु जब कल्याण की भिक्षा माँगने आपके सम्मुख आता हूँ ।
तब मन ही मनमें कंपित हो उठता हूँ । कहीं मेरी भिक्षा स्वीकार न हो जाय ? कहीं मेरे शरीर और हृदय के मैले कुचेले आच्छादन को तुम छिन्न-भिन्न न कर दो ? मेरी बन्धन-श्रृंखला तुम तोड़ न दो ! इसके साथ मेरी भव-भवान्तर से प्रीति जो है !
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२८. पूजा प्राप्त हो
स्नेह कुंज ! प्रेम कुंज नवकार !
मुझे यह ज्ञात नहीं कि तुम्हारे पास क्या माँगना चाहिये ?
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कई बार जो नहीं माँगना चाहिए वही
माँग लेता हूँ ।
एक
और जो माँगना चाहिए वह प्रायः
市
भूल जाता हूँ ।
रोगी को भला क्या समझ कि पथ्य क्या है और अपथ्य क्या है ?
INF
वह तो अपथ्य माँगता है ।
लेकिन वैद्य या स्नेही उसे अपथ्य नहीं देते । फिर भले ही वह रोये या चाहे जैसी बकवास करें ।
साथ ही उसे तिरस्कृत भी नहीं करते, भविष्य में सुखी निरोगी बनें, ऐसा भाव हमेशा मन में संजोये रहते हैं । क्षणिक दया के वशीभूत होकर उसका शरीर नहीं बिगाड़ते ।
नाथ !
मैं भी एक दर्दी हूँ... रोगी हूँ - और एक ही चीज माँगता हूँ। “भवो भव तुम्हारे चरणों की प्राप्ति हो । और मैं स्नेहपूर्वक उनकी सेवा किया करूँ । यदि तुम्हारे चरणों मैं मुझे स्थान मिलेगा तो मैं ज्यादा बीमार हो जाऊँगा । दुःख विव्हल पीडित वन, बेहाल हो जाऊँगा । नाथ ! ि
तुम्हारे चरणों की पूजा मिले BF
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एक् ट
७३.३
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भवों-भव सदा मिलती ही रहे । और उसका वियोग कभी न हो ।
२९. महा सागर के मोती
TUN
विश्वेश्वर नवकार !
एक दिन मैं किसी अज्ञात महासागर के
तट पर जा पहुँचा
था तो तट ही परन्तु
निर्मल नीर से भरपूर
शीतल और गहरा ।
मुझे याद आया कि सागर के तल में मोती होते हैं ।
आँख मूंदकर एक डुबकी लगा दी । सागर के तल से मुट्ठी में कुछ ले आया
खोल कर देखा तो चार मोती निकले: 'मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ' ये उनके नाम ।
मोह संवरण न कर सका
और लगा दी दूसरी डुबकी
'उदारता, सदाचार, इच्छा-निरोध
और सद्विचार'
चार बहुमूल्य मोती की और खरात मिलीं ।
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NOR
किसी ने ठीक ही कहा हैलाभ से लोभ बढता है। तीसरी डुबकी लगा दी
और ? 'समता, नम्रता, सरलता और निर्लोभता' के मोती मिले। मन में संतोष छा गया। हर्षित मन अपने ठोर की ओर एक कदम आगे बढा तभी सामने एक भाग्यवान मिला। उन्होंने पूछा मृदुतासे.... “यहाँ किधर ? इतने हर्ष विभोर क्यों हो रहे हो? मुट्ठी में क्या है? क्या स्वर्ग का खजाना मिल गया ?" मस्कुराते हुए मुख से मैंने कहा, "ये तो महा सागर के बहु मूल्य महा मोती हैं"
३०. तुम नहीं होते तो?
आनन्दकंद नवकार ! मेरी नजर पहुँचती नहीं। जहाँ देखता हूँ वहाँ दुःख, दुःख और दुःख ! जैसे असंख्य पहाडों की हारमाला !!
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किन्तु इसमें भी कहीं कहीं सुख के खद्योत...जुगनु अवश्य चमक-दमक जाते हैं। मैं उसे अपनी गिरफ्त में लेने के लिए आगे बढ़ने का विचार करता हूँ। किन्तु... पाँव रखते ही काँटे चुभ गये । आगे बढ़ते ही आया गहरा गढ्ढा ! होश में और जोश में आनन-फानन में उस गढ्ढे को कूद गया। परन्तु... सहसा खद्योत...जुगनु का चमकना बंद हो गया। तभी अचानक कोई अज्ञात योगी आकर कानमें धीमे से कहता है: "भद्र ! संसार में सुख नहीं । फिर भी नवकार आनन्द और उल्लास प्रणेता है। वह प्रमोद और हर्ष का दाता है !! नवकार की शरण में जा !!!" इस प्रकार की भाग-दौड से कुछ नहीं होगा। अचकते और अनमने मन से मैंने बात मानी। और आया तुम्हारे चरणों की शरण में। चमत्कार घोर चमत्कार ! सुखे के खद्योत-जुगनु पूर्ववत सर्वत्र उडने लगे।
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इस अनोखे आनन्द और उमंग की घडी में मख से अनायास निकल गया : "दुःख भरे संसार में कि प्रियतम नवकार। यदि तुम न होते तो,..? सुख कहाँ से होता?"
३१. अंजन शलाका
ज्ञानेश्वर नवकार !
आपके कमलदल सम विपुल नयनों में । मैं अंजन करुंगा। स्वर्ण, रजत, मक्ता, धनसार, बरास और गौधत आदि उत्तम द्रव्यों के पेषण और मिश्रण से मैंने अंजन तैयार किया है।
और स्फटिक रत्न के कटोरे में इसे प्रेम से भरा है। साथ ही अंजन करने के लिए आवश्यक नीलमणि रत्न की शलाका भी तैयार की है। प्रभो ! महर्त की घटिका निकट आ गई है। अब मैं स्नेह भरते कामनगारे नयनों में . अंजन लगाऊँगा। आपका अंजन करने के माध्यम से मेरे अज्ञान
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तिमिर आवृत नयनों में दिव्यता और विशदता प्राप्त होगी। मेरे अंतर नयनों में चंद्र समान म ज्योति जगमगा उठेगी। इस स्नेह भरी चन्द्र सम ज्योति में मैं आत्म समदर्शित्व गुण को वरूँगा आत्म समज्ञप्तृत्व गुण को धरूँगा और आत्म समवर्तित्व गुण का आचरण करूँगा प्रियतम! मेरे अन्तर-आवरण दूर हो। हृदय-मंदिर विशुद्ध और मृदु हों। गण-रत्न प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त हो। इसीलिए तो अंजन शलाका करता हूँ,
३२. प्रतिष्ठा
जीवितेश्वर नवकार !
जनम जनम के अथक और अविरत प्रयासों द्वारा कठिन कर्मों की कठिनतम एवं बेढंगी चट्टानों को काट कर मैंने यह मंजुल मन-मंदिर तैयार किया है। इस में देव की तरह तुम्हारी प्रतिष्ठा करनी है। तुम्हें यह मन-मन्दिर पसन्द आजाएँ
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HD
इसलिये “सकल विश्व का कल्याण हो आज' भावना रूपी निर्मल नीर से इसे धोकर स्वच्छ किया है। "बनो सर्व सज्ज परहित के काज" के पुरुषार्थ द्वारा इसको घिस घिस कर का मसृण-सुकोमल किया है। ELETE "सब जीवों में मित्रता प्रसारित करूँ" रीन के सुगंधित धूप द्वारा मन मन्दिर के वातावरण को शुद्ध और सुवासित किया है। " नहीं रे किसी के साथ में अब बैर धरूं" TE के गुलाबजल का मन मन्दिर में सब जगह र अन्तर-बाहय छिडकाव किया है। पानी प्रभो! अब तुम्हारी प्रतिष्ठा करूँगा। आशातना की मुझे कोई भीति नहीं। मन-मन्दिर में तुम्हारी प्रतिष्ठा कर प्रति दिन मंजुलघोषा-वीणा लेकर तेरे सम्मुख गीत गाने बैठेगा। माला लेकर जप जाप करूंगा।
यह पद्मासन लगाकर ध्यान धरूंगा। अन्त में नवोढा मुग्धा बाला की भाँति की जीवितेश्वर प्रभो! तेरे मुख को निनिमेष नेत्र से टकटकी लगाकर देखता रहूंगा।
बाबा
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३३. आश्रय
_शांत सुधारस नवकार !
जब मेरा शरीर असहय ताप से तप्त, भयंकर तृषा से तृषित और दुर्गधत मल से मलिन होता है, तब जलाशय का आश्रय ग्रहण करता है। जलाशय के आश्रय से ताप, तृष्णा और मल का कहीं नामोनिशान नहीं रहता। शरीर से दूर हो जाते है। परिणामस्वरूप सर्वत्र एक अनोखी शीतलता, तृप्ति और निर्मलता का अनुभव होता है । अतः हे प्रिय नवकार, मुझे लगा कि तुम्हारे अन्तर्वरूप सरोवर की शरण में यदि मैं पहुँच जाऊँ तो ...? . . . . तो ! क्रोध के उत्ताप का शमन हो जाय तृष्णा की तृषाणु का शमन हो जाय और मोह के मैल का शमन हो जाय यदि इस प्रकार हो जाय तो? तो.... मैं शुद्ध, बुद्ध और मुक्त बन जाऊँ। परम पद को पा जाऊँ । परम आनन्द की अनूभुति का अनुभव करूँ !
४०
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प्रभो ! मेरे प्रभो ! भला यह दिन कब आयेगा? बताओ न, वह नई नवेली भोर कब आएगी ?
३४. स्नेह आदान
कामघट कानधेनु नवकार ! एक वार मध्य रात्रि में अचानक नींद उचट गयी और मैं जाग पडा । चारों ओर दृष्टि डाली, किन्तु भयानक अन्धेरा। हाथ को हाथ न सुझे। कहीं कुछ दिखायी न दें। दीपक तो था ? तो क्या बुझ गया होगा ? मैं मन्थ रगति से दीपक के पास गया। ध्यान से उसे देखा।
ओह ! दीपक में स्नेह तेल नहीं ! विना स्नेह भला वह प्रकाश कहाँ से देगा ? दीपक के बिना सर्वत्र अन्धकार होता है वैसे ही नाथ, मेरे हृदय-कुन्ज में अन्धकार है। मुझमें मैत्री भाव का स्नेह नहीं । किन्तु तुम मिले.. एक नई आशा ने अंगडाई ली कि,
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मैत्री भाव का स्नेह अवश्य मिलेगा
और तुम से स्नेह खरीदने हेतु रात दिन मुद्राओं का सन्चय करता रहता हूँ। दोगे न, स्नेह दान, तेरा जाप ही मेरी रजत मद्रा है। और तेरा ध्यान ही मेरी स्वर्ण मद्रा है।? अब तो मैत्री भाव का स्नेह दान मिलेगा न ?
३५. चाह
शिवंकर शुभंकर नवकार !
आप जब मेरे घर में आये हो तो कृपाकर कभी लौटकर चले न जाना, अब तो मुझे आपकी ही चाह है। यह चाह शुद्ध है, निष्काम है। मेरा अन्तःकरण पुकार पुकार कर कह रहा है। जो दूसरी चाह थी वह सर्वथा मिथ्या है। निस्सार है, निष्प्रयोजन है। आपकी चाह ही सत्य है । शिव है !! सुन्दर है !!!
AL
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३६. प्रेम बेला
प्रेममूर्ति नवकार !
प्रेम की प्रथम बेला को खोजने का मैंने प्रयत्न किया, किन्तु
ति र सामने यक्ष-प्रश्न खडा हो गया...! गीत प्रेम की प्रथम बेला कौनसी ?
m उसे मैं खोज न सका। खेत में कृषक ने किस धान का बीज बोया है, भला अबोध मानव को कहाँ से यह बोध हो ? उगने के बाद ही उसके पत्तों से अनुमान कर सकते हैं। तुम मेरी मन-भूमि में कब प्रेम के बीज बो गये ? उस सौभाग्यवती 'बेला' को मैं न जान सका । परन्तु आज यह अंकुरित होकर फला-फला है। अब ध्यान में आया कि किसी शकुनवंती क्षण में प्रेम का बीज बो दिया गया था। शायद । अब तो स्नेहसित हो मैं इसका जतन करूंगा कल इस में सुरभित सुंदर प्रेम-पुष्प खिलेंगे
और परसों, मंजुल फल फलित होते दिखाई देंगे। प्रेम कुसुमों की वह सौरभ सच 105
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कल्पनातीत होगी, मंजुल फलों का वह रसास्वाद वचनातीत होगा। प्रिय ! प्रभो!! प्रेम की सभी चीजें अवर्णनीय होती हैं। प्रेम की धूल में भी आनन्द है,
और प्रेम की भूल में भी आनंद होता है। पार्थिव मूल्य के साथ प्रेम का संम्बध नहीं यह एक मात्र वस्तु आदान में चाहता है ताजगी भरा निखालस और निर्मल प्रेम !
३७. साथी
साथी नवकार !
मझसे मिलने के लिए आप अनादि काल से चलते चले आते प्रतीत होते हो। अगणित संध्या और प्रभात के पूर्व भी आप कहीं थे जरूर और आपके दूत अन्तर मन को किसी समय चुपचाप निमन्त्रण दे जाते हैं। यह हे साथी ! ज्ञात नहीं होता कियह मन हर्षातिरेक से इतना प्रफुल्लित क्यों हो रहा है ?
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एक अवर्णनीय आनन्द की उमि से हृदय का हर कोना व्याप्त हो गया। क्या आज जाने का समय आ गया है ? महाभिनिष्क्रमण का ... महा प्रयाण का?" क्या आज मेरे सब कर्तव्य पूर्ण हो गये ? यि प्रिय साथी ! आपके स्पर्श मात्र से वायु में मदुता और मधुरता की सुगंध सुवास भर गयी है।
और वह मुझे जाने-अनजाने सूचित कर जाती है कि आप मेरे बहुत समीप अतिमी निकट आ गये हैं। किन्तु .... सच, मेरे जाने का समय आज आ गया है !
३८. उपहार
आत्म प्राण नवकार !
आनेवाले दिन जब भी मृत्यु मेरे द्वारपर आएगी। सोचता हूँ तब मैं उसे क्या भेंट दूंगा? कैसा उपहार दूंगा? माजी मेरे प्राण सागर में जितने भी रत्न, मणि-मुक्ताफल होंगे वे सब उसके चरणों में से रख दूंगा। निगुनी
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जिस दिन मत्य-दूत यमराज मेरे आँगन में आयेंगे । उस दिन सच मैं उन्हें खाली हाथ जाने नहीं दूंगा। मतली संध्या-प्रभात, दिन रात, शरद-बसन्त द्वारा मेरी जीवन वाटिका में खिले हये सूख-दु:ख छाया-प्रकाश केविविध पत्र पूष्पों से भरी फलदानी उसे बेखटके बिना किसी हिचकिचाहट के अपर्ण कर दूंगा। जितना संचित धन, जो कुछ भी संग्रहीत है. वह सजा कर यात्रा के अंतिम दिन मृत्यु आयेगी तब उसे बधाई देकर अंतिम बेला के उपहार सम उसके पवित्र पात्र में प्रेम से घर दूंगा।
३९. रे मृत्यू !
सर्वरक्षी अन्तिम मित्र नवकार !
अरे, मेरे मरण तुम शौक से आ जाओ। मुझसे बातें करो, मैं तुम्हारे लिए ही जाग रत हूँ। जीवन भर तुम्हे पाने की कामना से
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सुख-दुःख का भार कन्धे पर उठाकर
सदा ढोता रहा हूँ । आओ, और मुझ से बात करो; मुझे अपने गलेसे लगा लो !
मैं जो कुछ भी हूँ !
मेरा जो कुछ भी है !
मैंने जो 'कुछ भी जीवन में किया ! मेरा प्रेम, मेरी आशा सब ही, रहस्यपूर्ण मार्ग द्वारा अर्जित धन-संपत्ति केवल तुम्हारी है, सिर्फ तुम्हारे लिए ही है ।
तुम्हारी एक मात्र मुस्कान पर मेरा संपूर्ण जीवन समर्पित हो जाएगा ॥
मेरा काया-महल, मैं त्याग दूंगा । ओ मरण, तुम आओ तो . . . ! और मुझसे तनिक बातें तो करो ।
ही
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शिलंकी
४०. नई यात्रा
IPE FEFRI
ॐ कोटि मंगलमय नवकार !
परमात्मा ने मुझे अपने पास बुला लिया है। कारण ?
उसके दरबार में एक गायक की जरूरत जो है । अतः उनकी कृपा-दृष्टि मुझ पामर पर पड़ी है ।
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ACCO
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सम्भव है...... अल्पावधि में ही उपस्थिति देने जाना पड़े। वहाँ के नियम कठोर हैं, काँटों से भरी हई सड़के हैं; किन्तु गये बिना कोई चारा नहीं और अपने बस की बात नहीं। और मैं जाने के लिए तैयार सर्वदा तैयार हूँ....
किन्तु
'किन्तु' का जवाब मुझे याद नहीं। मेरे जाने के बाद क्या होगा? यही चिन्ता सता रही है। प्रभो, सताये या न सताये ? लेकिन आपके अनमोल निमंत्रण को भला अस्वीकार कैसे करूँ। निःसंदेह तेरे पास आते ही कोई चिन्ता नहीं रहेगी प्रियतम प्रभो ! लो, मैं तुझसे मिलन हेतु सत्वशीला चन्द्र ज्योति में, सानन्द 'नई यात्रा' के लिए प्रयाण करता हूँ !!
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४१. अंतिम वार्ता
प्रिय वल्लभ नवकार !
कहने जैसा बहुत कुछ कह दिया । माँगने जैसा बहुत कुछ माँग लिया । आप ज्ञानी हो, अन्तर्यामी हो ।
अतः सब जानते हो ।
फिर भी बावलेपन से कहने से नहीं रोक सकता अपने आपको ।
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प्रयाण कर रहा हूँ ।
वहाँ मेरा मुख सदैव आपकी तरफ ही रहे, मोह मद के आवर्त में न फँस जाएँ !
काम क्रोध के कादव में कहीं न घिर जाएँ ! ! मान-माया के पाश में न जकड जाएँ !!!
अब एक अन्तिम बात कह दूँ ।
बात न कहूँ तब तक अशांति तन मन में रहेगी, बेचैनी कसोटती रहेगी और उद्दिग्नता निरंतर बढती रहेगी ।
लो, सुन लो ! मेरे प्रियवल्लभ ! !
अब मैं परलोक गमन के लिए
म
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४२. जीवन सरोवर
प्रिय प्रियतम नवकार ! यदि जीवन सरोवर सुख जाय, हृदय कमल की पंखुडियाँ मुरझा जाय, तब तुम करुणा के बादल को अपने साथ ले आना। यदि जीवन का माधुर्य कटता के मरुस्थल में परिवतित हो जाय, तब तुम गंगा बनकर आकाश से भूमंडल पर उतर आना। यदि संसार के कार्यों का कोलाहल दशों दिशाओं में निनादित हो । और मुझे अपनी मर्यादा के घेरे में कैद कर दे, तब ओ प्रशान्त प्रभु ! तुम मेरे पास शांति का सेनानी और विश्राम का दूत बनकर आना । यदि वासनायें अपनी प्रचण्ड प्रतापी धूल और भभक भरी लालसाओं से मुझे अंधा बना दें, तब हे भगवान ! अपनी तेजस्विता और ओजस्वी प्रकाश की सेना के साथ जीवन जगती पर टूट पडना । ताकि मैं बच जाऊँ और सदा सर्वदा के लिए तुम्हारा चाकर बन, पूजन अर्चन में निमग्न हो जाऊँ...!
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४३. विश्व विहार
विलोभनीय मनोहारी नवकार ! सुनसान और खतरनाक मोह-मार्ग के भयंकर मोडों और उबड़-खाबड कंकरीले पथ से भरी पडी गिरि-कंदराओं को लाँघ कर विराट विश्व के विहार हेतु निर्विघ्न बाहर जा सकूँगा? अतिशय मोह ग्रस्त हो, सभी का काम करते-करते, दुनियाँ की भूल-भूलैया में शामिल बुरी तरह फंस गया हूँ। आशा और आकांक्षा से भरे हुए जाने सुख अल्प और दुःख अति, ऐसे संसार सागर में मैं निरंतर तैरता, डूबता और टकराता रहता हूँ। फिर भी जब जब भयंकर तूफानों से कि जर्जरित हो जाता है, तब तुम्हारे चरणों की छत्रछाया में आराम के लिये उडा चला आता हूँ। तब हे दिलवर! विश्व के अपार कोलाहल में भी प्रायः आप ही याद आते हो !
और तब मन ही मन विचार करता हूँ कि कर्म बन्धनों की इन मोहमयी दीवारों को पार कर विश्व विहार के लिये कभी बाहर जा भी सकूँगा?
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४४. पुष्प की प्रार्थना
का पुष्पपति अनाथगति नवकार ! शीघ्र करो प्रभु ! शीघ्र करो !! इसे तोड लो! विलम्ब न करो !! कहीं यह धूल में न मिल जाए, बस इसका भय है। मेरे इस मन बगीचे में पल्लवित सद्भाव पुष्प को आपकी माला में स्थान मिलेगा? कौन जाने ? तब भी अपने चरण पद्मों के स्पर्श से इसे भाग्यवान बना लो। विलम्व न करो प्रभु ! दिन पूरा होते देर न लगेगी। और अन्धेरा छा जाएगा सर्वत्र ! आपकी पूजा का समय निकल नहीं जाए, यही एक भय है। इसमें जो थोडा बहुत रंग है, जो थोडी बहुत सुवास है; वह आपकी सेवा-महूर्त बाकी हैसिर्फ तब तक ही है। अतः इसको स्वीकार कर लो ! विलम्व करना अच्छा नहीं ! पुष्प तोड़ लो, चरणों में स्वीकार लो, कृपा कर अब देर न करो मेरे स्वामिन !
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४५. साम्य सौम्य
स्नेही विदेही नवकार ! आज तो.... मेरे अंग अंग में आनंद है !ीवोहम मेरे रोम रोम में रोमाँच है ! मेरे नेत्रों में उन्माद है ! मेरे उर में अनोखी उमंग है ! या किन्तु कारण समझ में नहीं आता ? आज तुमने आकाश से धरा तक मुझे और बार मेरे मन को विकसित कर दिया है। मैत्री भाव में सब साम्य और सौम्य मुझे दिखाई देते हैं। क्या यही मेरे आनन्द का कारण तो नहीं? तो भी मैं जिसे खोज रहा हूँ ! उसके साथ अवश्य मिलन होगा? या उसे ढूंढने हेतु दर-दर भटकना पड़ेगा ? मुझे इसकी कुछ समझ नहीं..... उसी प्रकार यह आनन्द, रोमांच, उन्माद और उमंग क्यों हैं ? उसकी भी मुझे कोई समझ नहीं ।
CCO
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४६. रक्षा बन्धन पशा करुणागार अरुणाकार नवकार ! आज मैं तुम्हें राखी बाँधने आया हूँ ! इसे तुम हगिज छिपा न लेना। सच भगवन् ! तुम्हें राखी बाँधकर मैं जगती के जीवमात्र को ही स्नेह बन्धन में बाँध लूँगा। मैत्री भावना के इस पवित्र और अटूट बंधन से कोई बाहर रह जाए! यह सम्भव नहीं ! राखी में यह मेरा और वह दूसरा ऐसा कोई भेद नहीं है। मैं भीतर और बाहर सब जगह साथ ही सब को सौम्य और साम्य, कानाराम एक समान देख रहा हूँ। तेरे विरह दुःख में रोते-कलपते मैं इतनी बार भटका कि जिसका कोई अंदाज नहीं ! परन्तु वह विरह क्षण पलक झपकते ही नष्ट हो गया ! अब मैं तुम्हारी ओर बढता चला आ रहा हूँ। तुम्हारी कलाई पर राखी जो बांधनी है ! प्रियतम, हगिज तुम इसे छिपा न लेना !
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४७. अल्प भिक्षा
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प्रिय नाथ प्राणपति नवकार !
कि
मैं तुम्हारे पास इतनी ही भिक्षा माँगता हूँ तुम मेरे में इतना ही 'ममत्व भाव' भर दो कि मैं तुझे
अपना मानूँ, अन्य को नहीं !
मेरे में इतनी चेतना रहने दो कि सिर्फ तुझे ही समझ सकूँ ? अन्य को नहीं ।
मुझे ऐसे बंधन में बाँध दे कि तुम्हारे ही प्रेमपाश में अंत तक बंधा रहूँ
बाट
और मेरा समस्त जीवन तुम्हारे ही ध्यान में
सदा मस्त रहे, अन्य में नहीं ! मेरे में इतना ही प्रेम स्नेह रहने दो कि वह तुझे ही अर्पण
करूँ, अन्य को नहीं !
प्रियनाथ |
.१४
तुम से शिर्फ इतनी ही अल्प भिक्षा चाहता हूँ ।
TETS TEF
कर्फ
४८. विश्वस के आधार पर
वियोगी-योगी नवकार !
पुत्री
आज से मैं तुम्हारे विश्वास पर रहना सीखता हूँ । और शरीर की संपूर्ण विस्मृति हो जाय ऐसी दशा सिद्ध करने का
IP 12P BE
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अनिश प्रयत्न करूँगा। तुम्हारे अक्षय स्वरूप में लीन होने हेतु ही मैं गोता लगा रहा हूँ। मुझे अब नश्वर शरीर की कोई ममता नहीं चाहिये !
और ना ही इसका विचार मात्र भी !! फिर भी यदि पैदा हो जाएँ तो...! प्रारब्ध के अधीन रहकर तितिक्षा और उपशम द्वारा मन पर संयम प्राप्त करूँगा ! आज मैं सिर्फ इतना ही जी जानना और परखना चाहता हूँ किप्रिय नवकार ? तुम मेरी रक्षा करते हो या नहीं ?
४९. अंशु बंधन
प्रिय सखा नवकार ! एक बार मैं तेरा दरबार देखने चला आया । मुझे आशा नहीं थी कि मैं तुम पर मोहित हो जाऊँगा। तुमने अपनी मृदु वाणी से मुझे उपदेश दिया, मेरे कोमल हृदय ने उसका स्नेह से पय पान किया। उसमें भरा था आश्चर्य जनक जादू !
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उससे जीवन बना मेरा साधु !
विनम्र भाव से, मौन रहकर मन ही मन
तुम्हारे चरणों में नमन किया । निःशल्य हृदय
स्नेह भाव,
पाप पंक वमन किया ।
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खडा-खडा देख रहा हूँ मैं तेरे मुख को ! करुणा से नष्ट कर रहा तू मेरे दुःख को ! स्नेहसिक्त देखता हूँ सभा में, इधर-उधर जहाँ ? तेरे बिना दिखता नहीं मुझे कोई भी वहाँ ! मन में हुआ, जरूर तूने किया
नयनों के अंशुओं से बन्ध । अच्छा हुआ प्रभो !
उससे मेरे हर गये सर्व विघ्न !
15
WPM
你
स्नेहांशुओं से बन्ध गया प्रभो, बन्ध गया ! छूटना मैं नहीं चाहता भले ही मैं बन्ध गया ! !
FR
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५०. अज्ञात
अनंतरूप अज्ञात स्वरूप नवकार !
मुझे गर्व था कि मैं तुझे जानता हूँ, पूर्ण रूप से पहचानता हूँ ।
सच, मुझसे कईं तेरा रूप और स्वरूप पूछते हैं?
तब गद्गद हो मैं कहता हूँ ।
तभी मेरी आत्मा रह रह कर कहती है कि
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पगले, यह तो बहुत ही अपूर्ण है.... सौ का एक हिस्सा भी नहीं। अतः जब कोई आकर तुम्हारा रहस्यमय गुढ स्वरूप पूछता है तो कह देता हूँ बेबाक होकर “मुझे ज्ञात नहीं। वे कहते हैं, 'तुम साधक हो न ?' मैं कहता हूँ 'दुनिया में धन कितना?' "इसकी गणना करने में हम समर्थ नहीं' 'मेरा उत्तर भी यही'मा और बिचारे उदास बनकर लौट जाते हैं। साथ ही मुझे भी उदास कर जाते है। प्रभो ! विभो ! तुम्हारे अनन्त स्वरुप का ज्ञाता मैं कब बनूँगा ...?
P
५१. समावेश
शरणागत-वत्सल नवकार ! तुम मुझे अपने चरणों में ले ले। तुम्हें मैं अपने मन मन्दिर में रखेंगा। तुम्हारी पूजा-अर्चा करुंगा। तुम्हारा वन्दन करुंगा। तुम्हारी भक्ति-भाव से DEEP सेवा-सुश्रुषा करूँगा।
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मैं जन्म-जन्मांतर भवों भव
TET
कि
साथ छोड़ना नहीं चाहता । तुम और मैं, मैं और तुम ਜੀਜਾ ਸਾ एक दूसरे में परस्पर समा जायेंगे । शिफि तब एक अनुठा मनभावन समीकरण हो जाएगा । बोलो, मेरे जीवन साथी !
THE FIS BPIE
अब तो बोलो !!
अरे स्वामिन, कुछ तो बोलो तो ? मैं भटक भटक कर थक गया हूँ ।
अब नहीं भटका जाता सच, मुझे अपने चरणों में ले ले । अब तो ले ले ! !
प्राणपति ! नवकार ! !
क्या हररोज मुझे तुम्हें हाथ जोडने पडेंगे ? मुझे नतमस्तक होकर रहना पड़ेगा । किTIC क्या ? इस तरह खड़ा रहना पड़ेगा ? अपने में विलीन कर दे, प्रभो लीन कर दे।
क
के
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नि
राण
की
५२. आप न आये
दीनानाथ कृपालु नवकार !
आपने मुझे वचन दिया था !
मैं तुमसे मिलने अवश्य आऊँगा !लिक
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घनघोर काले आषाढी मेघ गये ! शरद ऋतु की शुभ्रावलय में लिपटी धटाएँ फिसल गयीं। परन्तु आप मेरे आँगन में न आये सो न आये! शिशिर और वसंत की ऋतु बीत भी गयी। आम्र वृक्षों पर मोर आये किन्तु दिल के चोरआप मेरी झोपडी में न आये सो न आये ! ग्रीष्म का उत्ताप तप, तप कर चला गया। वर्षा के बादल पुनः पुनः रिमझिम-रिमझिम बरसने लगे । विद्युत चमक-दमक संजोये पूर जोर से चमकने लगी। किन्तु आप मेरे घर न आये, सो न आये ! निराश नयन, उदास वदन कब तक राह देखू तेरी? आशा की उष्मा है कि अब भी आप आओग। किन्तु आप मेरे द्वार पर न आये सो न आये।
ओ दिल और दीनके तारणहार । फिर भी आप न आये सो न आये।
५३. मधुपेय
विश्वभर्ता नवकार !
मैं तुम्हारे आतिथ्य के लिये ताजे फल ले लाया हूँ।
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उनमें से सुन्दर मधुर फल छाँटे ! छाँटे हुये इन फलों का अमृत रस निकाला । इसमें शर्करा, लौंग और
मरीचिका जी भर कर मिलाई ।
प्रिंसी
और स्वादिष्ट शीतल मधु पेय बनाया । उज्ज्वल चंद्र समान स्फटिक रत्न के पात्र में उसे सावधानी से भरा !
यह सोचा कि
तुम मेरे आँगन में आओगे ।
विनय, विवेक और मैत्री भाव से यह पात्र तुम्हें अर्पण करूँगा और विनम्र, सरल और स्नेह भाव से मैं तुम्हारे सामने बैठूंगा ।
तुम शीतल मधुपेय का पान करोगे । तुम्हे शांति मिलेगी, मुझे विश्रान्ति ! ! तुम प्रसन्न होंगे, मुझे वरदान मिलेगा ! ! ! पलक झपकते आप कह उठोगे: "माँग, माँग, माँग”
तब मैं एक वचन माँगूँगा,
" मम हुज्ज सेवा भवे भवे तुम्ह चलणाणं" भवों-भव मुझे तुम्हारे चरणों की सेवा मिले । इन चरणों का वियोग कभी भी न हो !
सच, स्वप्न में भी न हो !
और फिर वचन की डोर में
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बँधे तुम स्नेह भरे वरदान के पाश से कदापि मुक्त नहीं हो पाओगे ! ! ! कदापि चलित नहीं हो सकोगे ! ! ! !
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מר לכם
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५४. प्रहार
वीर नवकार ! मेरी यही एक प्रार्थना है कि तुम एक प्रहार करो, बस एक प्रहार मेरी विषय-वासना पर..... फलतः मेरे में प्रेम और शांति की अखंड ज्योति प्रकट हो जाएँ। जीवन की दीपिका जगमगा उठेगी सर्वशक्ति के साथ ! और सर्वत्र शांति एवं परमानंद के दीपक झिलमिलाने लगेंगे।
५५. कामना
अमृतवर्षी नवकार ! मेरी यह आखिरी कामना है कि मैं आनेवाले जन्म में चंद्र जैसा सौम्य बनें और स्नेह प्राप्त करूँ । चंद्र में सौम्यता है। आल्हादता है। प्रियता और मधुरता है। साथ ही है स्वर्गीय शीतलता।
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औषधियों में वह अमत सिंचता है, लय जन-मन में जीने की नयी वा शार उमंग और उत्साह जगाता है। किती प्रिय नवकार सौम्य आल्हादक!ी यह जीवन प्रिय मधुर और शीतल बनें निजात चंद्र अमीर या गरीब को, राजा या रंक को योगी या भोगी को, विद्वान या मूर्ख को।। सब को एक जैसा झिलमिलाता प्रकाश प्रदान कर स्नेह प्राप्त करता है, उसी प्रकार मैं भी स्नेह प्राप्त करूँ सब का किन्तु, . . . . कल्पतरु नवकार आप मिले तो सब कुछ मिला। आप फले तो सब कुछ फला।
५६. प्रसन्नता
प्राण सखा प्रियतम नवकार ! तुम तो मुझ पर प्रसन्न हो न ? क्यों कि तुम्हारी प्रसन्नता ही
मामी मेरे लिए सर्वस्व है। फिर भला दूसरों को प्रसन्न करने की क्या आवश्यकता? म राजन
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तुम्हारे आगे खुशामद करूँगा, चरण पकडूंगा। प्रेम से प्रार्थना करूँगा ! बिनती करूँगा, झोली फैलाए खडा रहूँगा विनम्रता से नतमस्तक होकर । रोऊँगा, चिलूँगा, चिल्लाऊँगा फिर भी किसी दूसरे को प्रसन्न करने हेतु दीन-हीन नहीं बनूँगा ? दूसरे आज भले ही खुशामद से खुश होंगे किंतु जरासा विपरीत हुआ कि सब मिट्टी में मिल जाएगा जब कि तुम भूल को याद नहीं करते । सेवा को नहीं भूलते। क्षमा करते हो। स्नेह दान देते हो। इसलिये तुम ही मेरे प्राण सखा हो और प्रीतम भी!
५७. स्थिर योग
योगेश्वर नवकार ! विरह वेदना में तडपता छोडकर तू चला गया। शोक ही शोक में दिन पर दिन जाने लगे उदासीनता से मढ होकर नित्यप्रति तुम्हारा ही रटन मैं करता रहा ६४
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वहीं बहुत वर्षों के जीर्ण-शीर्ण पुराने पंचाग हाथ लगे। पन्ने पर पन्ने उलटने लगा। प्रेम मिलन के प्रथम दिन का ज्योतिष जानने की मन में अजीब हक उठी। रवियोग, स्थिरयोग, अमृत-सिद्धि योग था। द्वि-स्वभाव लग्न और चन्द्र श्रेष्ठ था। दिन शुद्धि, लग्न शुद्धि, योग सिद्धि होरा शुद्धि थी। फिर भी विरह वेदना की बाधा कहाँ से आ पड़ी? और विरह वेदना का गणितचक्र निकालने लगा। स्वातिनक्षत्र, मंगलवार, मृत्युयोग और भद्रा ! मैं हर्ष विमोर हो उठा। जोशोखरोश से रोंगटे फडक उठे नाथ, तुम भले ही चले गये....। किन्तु यह गणित चक्र कहता है: 'तुम्हे आना ही होगा इसके सिवाय कोई चारा नहीं .... एक बार फिर आना ही होगा स्वाति नक्षत्र में गये हुये को लौटकर कर आना ही पडता है। तिस पर फिर मंगलवार, मत्युयोग और भद्रा ! इस लिए शंका के लिए कोई स्थान नहीं । अस्तु वह सब मेरे लाभ के लिए ही तो है।
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५८. विरह की वेदना
मा म हृदयेश्वर नवकार ! यदि तुम्हें मुझे छोड़कर चला ही जाना था, तो इस प्रकार स्नेह-प्रेम की ज्योति क्यों प्रज्वलित की? विरह सहने की असीम शक्ति तुमने मुझे दी है। क्या मेरा कोई अपराध तुम्हारी नजर में आया है ? मैंने बहुत-बहुत त्याग किया है, तुम्हें पाने के लिए तेरे ध्यान से बाहर तो नहीं न, कहीं यह तथ्य ? फिर भला मझे छोडकर जाने का कारण ही क्या ? विरह की वेदना बिच्छु के डंक से भी ज्यादा कातिल होती है। सर्प की फुत्कार से भी ज्यादा भीषण और भयंकर होती है। ऐसे दारूण दुःख में झोंकने से भला क्या लाभ ? मेरे भाग्य ! हृदयेश्वर !! तुम एक बात अवश्य ध्यान में रखना।
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मेरे पास से चले जाने में आप भले समर्थ होंगे। किन्तु मेरे हृदय कुंज में जो मधुर नाम हैअमिट और स्थिर। उसे मिटाने में तुम समर्थ नहीं होंगे खैर, मैं तेरी मीठी यादों से मित्रता बांधूंगा मेरा अधूरा जीवन किसी तरह उसके साथ दुःख-सुख में बिता दूंगा। परंतु उससे भला विरह वेदना थोडी ही मिट जाएगी? वह निरंतर मुझे व्यथित और पीडित करती रहेगी। अतः तुम शीघ्र लौट आना, PATTE विरह वेदना साथ न लाना। बस, यही मेरी बिनती उर में धरना ।।
५९. मौन
स्वामिन नवकार ! गजब की है तेरी विचक्षणता और विलक्षणता। फलतः मौन धारण किये बिना या और कोई चारा नहीं। मैं तुम्हारे साथ बोलना चाहता हूँ।
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किंतु.... तुम हो कि दूर अतिदूर चल जाते हो, मेरे दूसरे स्नेहियों को भी दूर अति दूर भेज देते हो... और ? जिसके साथ मुझे स्नेह नहीं। स्नेह होना संभावित नहीं। बोलने तक का भी कोई सम्बंध नहीं। वैसों को समीप अतिसमीप ला रखते हो। वे सब मझे बलवाने का प्रयत्न करते हैं। परन्तु मुझे उनके साथ बोलना अच्छा नहीं लगता। और न बोल तो....? उन सब पर दुःख का बवंडर छा जाता है। ऐसे समय मौन के सिवाय दूसरा भला कौनसा सुन्दर तरीका हो सकता है ? मैं ऐसा तरीका अपनाना चाहता हूँ, कि किसी को मनोदुःख न हो
और मेरा कार्य भी पूर्ण हो जाय। प्रियतम ! नवकार ! ! जब कि मौन से, नीरस बातों में व्यतीत होता समयतुम बचा लोपरन्तु ऐसे समय में तुम्हारी याद ।
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और भी अधिक मुखरित वन व्यथित करती है, और मुझे यह व्यथा.... वेदना.... सचमुच खूब अच्छी लगती है ।
६०. अमावस्या
राहू से वह दब रहा है ।
भला ऐसे में वह पृथ्वी को प्रकाशित कर स्नेह कैसे प्राप्त करें ?
प्रिय नवकार !
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पुर
गुप्त ज्योति नवकार !
आज अमावस्या की महा श्यामला रजनी है । रजनी पति चन्द्र आज कलाविहीन बन गया है। उसकी स्नेहमयी एक भी किरण
प्रकाश विखेरती नजर नहीं आती ।
वस्तुतः मेरा भी यही आज बेहाल है । अनादि अनन्त काल से
मेरी चन्द्र जैसी सौम्य आत्मा अज्ञान राहू से दब गई है ।
इस श्यामला रात्रि में बुध गुरु शुक्र के तारे मात्र झिलमिलाते हैं... टिमटिमाते हैं । और प्रकाश के कुछ कण बिखेर जाते हैं मेरा प्रयाण महा विकट है फिर भी ?
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वह प्रकाश के आधार पर सफल होगा। भुवनदीप नवकार! तुम्हारा स्मरण, जाप और ध्यान स्वरूप बुध, गुरु और शुक्र ताराओं के प्रकाश में ही मेरा प्रयाण है। और निस्संदेह स्नेहपूर्वक वे मुझे तुम्हारी छत्रछाया में पहुँचा देंगे।
६१. पूर्णिमा
पूर्ण प्रकाश नवकार ! नम की तारों भरी रात में, चन्द्र को देखकर विचार आया। जो कुछ होना था हो गया। मेरी यात्रा की भी अव पूर्णिमा होने आई।
अन्तिम पड़ाव आ गया, मैं परवान चढ गया। मुझे प्रतीति हुई कि आगे अब मार्ग नहीं । मैं मेरी मंजिल तक आ चुका हूँ। अब और प्रयास का प्रयोजन नहीं रहा, भत्ता....पाथेय भी समाप्त हो गया है। समय निकट है। बस, अब तो थके पके जीवन को आराम मिले! इस जीर्ण-शीर्ण, फटे-ट्ट, चीथडे जैसे शरीर से आगे वढना भी किस प्रकार संभव है ?
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परन्तु मैं देखता हूँ कि, तुम्हारी लीला का कोई वारापार नहीं। वह अपरम्पार है। तुम मेरे काया वस्त्र बदल दोगे! मेरी यात्रा पुनः स्नेह आनंद के साथ कुलाछे भरती वेगवती बन उठेगी ! शीतल और मधुर बनेगी, परन्तु तब भी उसकी पूर्णता नहीं होगी ! !
-
६२. अस्पर्शनीय
स्पर्शनातीत प्रभो नवकार ! मेरा अंग अंग सुकोमल स्पर्श की भावना से भरा पडा है। उसे मुलायम, महीन... मृदु वस्त्र चाहिए, रेशम से भी बढकर मिल जाएँ तो आनन्द ही आनन्द है। उसे सोने के लिए सुन्दर पलंग का मुलायम मखमल के गद्दे रजाई जिक तकिया और गलीचा चाहिए। तिस पर सुकोमल और स्वच्छ चादर बा ढंकी हुई हो, ऊपर थोडे पुष्प बिछाये हुए हो तो अति उत्तम । श्री प्राणी को अन्य, सुकोमल और सुखदाई कर पदार्थ अति प्रिय मालूम होते हैं । बाजागा
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स्पर्शनातीत प्रभो !
तभी तुम्हारी एक बात याद आती है: 'स्पर्शना वशवती जीव दुर्गति पाते हैं ।' याद आते ही क्षणार्ध में मदु स्पर्श की भावना टूट जाती है और मर्यादा के लिए वस्त्र और शय्या के लिये भूमि ।
बस, बावरे मन को सिर्फ इतना ही तो चाहिए !
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६३. अवर्णनीय
७२
रसनानीत प्रभो नवकार !
एक बार मुझे हलवाई के हाट-बाजार से
गुजरना पड़ा ।
आँखे नटखट बनं चंचल
उस ने रसना से पानी-पानी हो गई।
बरफी, पेडा, जलेबी, गुलाब जामन,
मोहन थाल, हलबा, हलवासन, भेल पुरी तथा खारी पुरी, पकोडा-चटनी, चूड़ा और दहीबड़ा
कुछ कहा
यह खाऊँ या वह खाऊँ ?
समारम्भ में जीमने का मतलब
चपल
और रसना
रसना के लिए दिवाली का दिन । रसनातीत नाथ !
एक दिन बहुत ज्यादा खा गया ।
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home
शिक
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पडा बीमार और सहसा याद आयाः म 'हिताशी स्यात् मिताशी स्यात् पथ्य और मित खाना चाहिए। तत्पश्चात् उनोदरी ही रखता हूँ। ती भी कभी कभी जिव्हा भुल-भुलैया में भूला देती है। प्रभो! भूख का दुःख दूर जाय तो सारी रामायण ही मिट जाए....!
६४. सुगंधातीत
घ्राणातीत प्राणपिता नवकार ! एक बार घुमते-घामते किसी सुगन्धी पुष्पों से सराबोर बगीचे में जा पहुँचा। उसकी सुगन्धी गमक से अनजाने ही मन मस्त हो गया। मेरी नासिका को सुगन्ध अति प्रिय है: जही, चमेली गुलाब, मोगरा, हिना और रातरानी आदि के अत्तरों से दिल खुश खुशहाल हो जाता है। स्नो, क्रीम, सुगन्धी तेल तो मेरे नित्य क्रम में हैं। घ्राणातीत ! विभो!! इतने में...!
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ANDER
EL
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वह भ्रमर सुगंधी के लिएखिले हुए कमल दल पर आ बैठा । बैठते ही कमल संकुचित हो उठा । और
भ्रमर सुगन्ध की लीनता में लीन होते ही फँस गया
!
तभी कहीं से एक हाथी पानी पीने आया ।
और
मदोन्मत्त बन उस कमल को उसने उछाल फेंका,
भ्रमर मारा गया,
सुगंध की मौज उसे महँगी पड़ी । प्राण गँवाने जो पडे...!
प्रभो !
इस दृश्य से मैं सावधान हो गया । पर पदार्थ की प्रीति पतन का पथ है । जबकि तुम्हारे प्रति का स्नेह-पथ सुहावना है।
अतः
हे जीवन श्रृंगार ! बस, इसीलिए कहता हूँअब मैं तेरे साथ ही प्रीति रखूँगा ।
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का
गाउ
किड
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६५. अदृश्य
नयनातीत नाथ नवकार !
नयन बैरी की बात क्या करनी ? जहाँ तहाँ तिरछी आडी नजर डाला करता है। इतना ही नहीं, बल्कि अपने संबंधियों को भी उत्तेजित करता है। यदि इसकी न माने तो हड़ताल की धमकी देते नहीं अचकाता। और बैठे बिठाये दैनिक कार्यक्रम में अव्यवस्था उत्पन्न कर देता है। यदि कहीं अच्छा देख लें या कोई आकर्षण पड जाय तो... बस, इसको रख लूँ ! इसे बसा लूँ !! इन्हें अपने में समेंट लूँ !!! पर दुःख की बात तो यह है कि प्रभो ! इसे आपकी मूर्ति पसंद नहीं। आपका रूप पसंद नहीं। परन्तु नारी के रूप में.... सौंदर्य में मोहित हो जाते देर नहीं लगती। नयन को किसी ललना के नयन निहारना मत अच्छा लगता है।
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यदि किसी रूपवती, यौवनवंती नारी का चित्र मिल जाए तो -
मानो तीन लोग का साम्राज्य ही हाथ लग गया ! इन्हें आपके उपदेश पढना अच्छा नहीं लगता विषय की कथा और काम रति के गीत अच्छे लगते हैं । नयनातीत शंभो !
ये नयन आपके रूप को देख सकें. और आपके उपदेश को पढ सकें. इतनी ज्योति इनमें अवश्य भर देना । क्यों कि बाकी सब निःसार और असार है ।
६६. अश्राव्य
श्रवणातीत स्वामिन् नवकार !
मेरे कर्ण युगल विकथा, निन्दा सुनने के प्यासे हैं !
उन्हें तेरे त्याग और विराग की बातें सुननी अच्छी नहीं लगती, पसन्द नहीं आतीं ।
रात दिन, आठों प्रहर, चौसष्ठ घड़ी काम - कथा सुननी । ही प्रिय लगती है ।
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उसमें भी सब से श्रेष्ठ उन्हें काम-कथा लगती है। जीवन की सार्थकता उसीमें समाई हुई प्रतीत होती है। सिनेमा के राग की सुन्दर कोई कडी उसके कान मे प्रवेश कर जाय तोअमृत सिंचन हुआ जैसा भासित होता है। मानों कामोद्दीपक संगीत की सरिता में सदा गोता लगाये रहे ! मानो यही उसकी एकमात्र इतिकर्तव्यता न हो? श्रवणातीत ! प्रभो !! डरावने भुजंग और भोले कुरंग हरिण संगीत की तरंग में प्राणों के रंग तजते हैं और मृत्यु संग को भजते हैं। संगीत के रंग का ऐसा भीषण और भयंकर अंजाम जि प्यारे, परमात्मन ! मेरे कर्ण युगल तुम्हारे गुणी गीत ही पान करनेवाले बनें। उसके द्वारा स्वच्छ और सुन्दर जीवन जीनेवाले बनें। तभी जीवय धन्य है !
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६७. चिंता नहीं
ओ प्राण जीवन नवकार !
अपने मन मन्दिर में मुझे बुला लो ! चरणों में स्थान दे दो !
दिल में बसा लो और सान्निध्य में रख लो ! फिर मुझे किसी बात की चिन्ता नहीं ? भले ही मार्ग में अंगारें बिछ जावें ! कण्टक छा जावे !
संकटों के पहाड़ टूट जावे !!
७८५
६८. अमूल्य अवसर
मैं तुम्हारे रस भरे नयनों को
निरखता था और तुम्हारी मोहक आँखें करुणा के स्तोत्र बरसातीं थी ।
जनतारक नवकार !
स्तोत्र इशारे ही इशारे में कहते थे मेरे पास है चले आओ !
तुम्हारे रोग, शोक, दुःख दारिद्र को धो दूँ !! मैं स्तोत्र के पास गया तो सही !
किन्तु छत्री ओढ़कर !
उस छत्री की ममता रूपी चिकनी डंठी थी ।
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अहंता का वक्र और गोल हाथा था। और, मोह के श्यामल वस्त्र से वह मढी हुई थी। उस पर करुणा का प्रपात पड़ रहा था। किन्तु चारों तरफ बिखर जाता था। में किकर्तव्यमढ बन इधर-उधर झाँक रहा था। तुम्हारी टोह ले रहा था। इतने में अमत सने वेण तुमने कहे : "अरे मुग्ध पागल ! यह क्या कर रहा है? इस प्रकार तेरे रोग-शोक दूर नहीं होंगे ! दु:ख दरिद्रय से त्राण नहीं होगा!" किंतु मैं अडा रहा
और बालहठ पर आरुढ नहीं माना ! करुणा सागर ! आपने समझाने का लाख प्रयत्न किया। पर मैं न माना सो नहीं माना ! समभाव से आप पीछे लौट गये । हाय ! कहीं चले गये, अन्तर्धान हो गये !! क्षणार्ध पश्चात छाता हटा, मैं आपको देखने का प्रयत्न करता हूँ !
किंतु....
करुणामय! कामनगारी आँखों से आप अलोप। सहसा मैं रो पड़ा, क्रंदन कर उठा ! Eि परन्तु अब क्या ? अवसर हाथ से निकल गया।
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धनुष से बाण अलग हो गया । प्रभो ! प्रभो !!
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यह अमूल्य अवसर खोने का दुःख मेरे हृदय को बिंध रहा है, उसे चीर-चीर रहा है ! !
६९. आषाढी मेघ
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हृदय वत्सल नवकार !
- आषाढी कृष्ण धवल घटाओं से
घटाटोप दिन-रात, एक समान बन गये हैं ! आसमानी आकाश को बादलों ने
काले पर्दे से ढँक दिया है ।
सनसनाता पवन भी आज बेमतलब तन और मन को अधिक से अधिक सता रहा है ! चंद्र की शीतलता भी दुःख दे रही है ! वन-पर्वत नीरव बन गये हैं ! राज मार्ग और हाट हवेलियाँ भी आज निर्जन वन गयी हैं !
छोटे बडे आवास धुप्प अंधेरे में बन्द हैं ! और वन प्रान्तर, कुंज - निकुंज वीरान हैं, उदास हैं !
हे एकाकी सखा । प्रियतम नवकार !! मेरा द्वार खुला है,
स्वप्न की तरह आकर कहीं चले न जाना !
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बिजली की तरह चमक कर कतई चले न जाना! मैं घनघोर अन्धकार में कुछ भी देख नहीं सकता और तुम्हारी आशा में | छलिया नींद भी नहीं आई ! अब तुम आकर चले न जाना ! मेरे सनम, चले न जाना !!
७०. यदि न देखा तो?
प्रभो नवकार !
यदि अब भी इस जीवन में तुम्हारे दर्शन न किये तो प्रायः मुझे यह बात कांटे की तरह चभती रहेगी कि में तुम्हारे दर्शन न कर सका। और इसे मैं अपने जीवन में कदापि भूल नहीं सकूँगा। साथ ही इसकी वेदना सोते-जागत, रात दिन मुझे निरंतर बेचैन करती रहेगी। संसार के बाजार में, मैं कितने ही दिन बिता चुका है। मेरे इन हाथों में धन-धान्य, राज्य-पाट ऋद्धि-सिद्धि कितनी ही बार आयीं और गयीं। फिर भी इससे भला क्या लाभ ?
और यह बात मन को सतत कसोटती ही रही कि
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'तुझे मैंने नहीं देखा... तुझे मैंने नहीं देखा' आलस्यवश रास्ते के किनारे बैठ, आराम के लिये बिछौने की व्यवस्था की। तब सहसा स्मरण हो आया कि यह प्रवास तो निष्प्रयोजन है। भला इसका क्या प्रयोजन ? कारण 'तुझे मैं न देख सका तो? तुम मुझे भूल तो नहीं जाओगे ?' सोते-जागते, उठते-बैठते और खाते-पीते नित्य प्रति यहीं एक चिंता अनवरत लगी रहती है। मेरे घर में चाहे जितने हास्य के होज हो, ध्वजापताका-तोरण और दीपमालाओं से घर दमकता हो। गुलाबजल, अत्तर और धप से घर महकता हो। किन्तु तुम नहीं आओगे ? यह बात याद आते ही दिल टूट-टूटकर टुकडे-टुकडे हो जाता है । यह वेदना कभी भूली नहीं जा सकती। तुम मुझे भूल तो नहीं जाओगे न ? यह शंका सोते-जागते हमेशा मन को खाये जाती ! !
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७१. प्रिय व्यथा अन्तर्यामी नवकार !
तुम्हारी प्रतीक्षा भी मुझे प्रिय लगती है ! नवकार ! तेरे द्वार पर बैठा मेरा भिखारी मन,
तुम्हारी करुणा को चाह रहा है ! ओ अन्तर्यामी !
प्रतीक्षा करते-करते मेरी आँखे थक गयी ! तुमसे मिलन न हो सका
फिर भी प्रतीक्षा कर रहा हूँ !
कभी तो मिलन होगा आँखोंसे होंगी आँखे चार,
मधुर साक्षात्कार;
यदि तुम्हारी करुणा न मिली
तो मेरी कामना तृप्त नहीं होगी ।
और अब प्रियतम, यह व्यथा मेरे हृदय को व्यथित करती रहेगी ! भले ही करें ! !
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७२. आव्हान
भयहर अभयकर नवकार ! मेरा भय नष्ट करो, मटियामेट कर दो ! मुझसे मुख न मोडो ! ! हे नाथ, तुम पास ही थे ! पर में पहचान न सका ! मैं कहीं ओर देख रहा था खोयासा बेसुध होकर ! किंतु खबर नहीं, कहाँ ? तुम मेरे हृदय में आनन्द और उमंग का प्रकाश भर दो ! मेरे अन्तःकरण के मनभावन प्रदेश में विहार करो! हे नाथ ! मुझसे कुछ तो बोलो !! मेरे शरीर का स्पर्श कर
और हाथ पकडकर उबार लो। नवकार ! मेरा ज्ञान अधूरा है। किंतु तुम्हारा नाम तो मधुर है !! मेरा हास्य रुदन सब भ्रामक है। लेकिन तुम दीन दुखियों के सिरजनहार जो हो !! पलभर के लिए प्रभो, मेरे सामने आओ ! मेरा भ्रम दूर करो! मेरा भय पाप हर लो !!
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७३. चन्द्र पुष्प
चंद्रज्योति नवकार !
आकाश में चंद्ररूप कमल पुष्प खिला है। उसकी पंखड़ियाँ चारों दिशाओं में फैली हैं ! अंधकार के काले भ्रमर पानी पीने कहीं चले गये हैं ! चारों ओर स्फटिक सा स्नेहल प्रकाश बिछा हुआ है ! पुष्प के मध्य मधुर रसभीना कोष है ! मैं वहाँ आनन्दविभोर मस्त बैठा हुआ हूँ !! चन्द्र पुष्प में से पराग बिखेर रहा हूँ ! अंतर आकाश में से तरंग उठी हैं ! प्राण वायु में सुगन्ध और शीतलता छाई है !! आत्मा में अतुल आनन्द की लहरियाँ केलि-क्रीडा करने लगी हैं ! परन्तु मन मस्त बना है तुझ ध्यान में । वचन मस्त बना है तेरे गान में! तन मस्त बना है तुम्हारी तान में ! जहाँ तुम वहाँ प्रकाश, जहाँ प्रकाश वहाँ तुम ! चन्द्र ज्योति ! मैं तुझे नमस्कार करता हूँ !! मेरे दु:ख दूर कर ! मेरे मस्तक पर वरद हाथ रख ! पुष्प पराग! मैं तुझे नमस्कार करता हूँ ! तुम मेरे सब मनोरथ पूर्ण करो !
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७४. नाम का मोह
शाश्वतनाम गुणधाम नवकार ! मेरे नाम को अजरामर बनाने के लिये निरंतर प्रयत्नशील था ! तभी कहीं से एक मंजुल झंकार की लहरियाँ उभर आयीं वातावरण में . . .! 'अरे मुग्ध मानव, तू साधक बना ! काम को जीत गया, परन्तु नाम के मोह को फिर भी न भूला? भला नाम भी किसी का अमर रहा है?' नाम उसका नाश यह बोल कई बार तुमने ही दोहराये हैं न? इतना भी याद नहीं रहता ? याद रख ! सागर की एक एक तरंग नाम के रंग को मिटाती जाती है ! बड़े बड़े नामों को भी सागर की ये तरंग मिटाना नहीं भलती ! देव के नाम को मिटाती है। देवेन्द्र के नाम को मिटाती है ! देवाधिदेव के नाम को भी मिटाती है ! फिर भोले मानव ! तुम्हारी भला क्या हस्ती ? अमर रहा न किसी का नाम ! अतः सदा के लिए भूल जा तू तेरा नाम ! अमर है जगत में बस एक ही नाम !
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नवकार ! सतनाम !!
रसखान !!!
Be
बस इसमें मिल जा तो अमर होगा तुम्हारा नाम !
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७५. शरद पूर्णिमा
आज शरद पूर्णिमा की रात है ! निरभ्र - निश्चल आकाश में चन्द्र के दर्शन कर
मेरे प्राण पुनः चंचल हो उठते है !
और सोचता हूँ : मुझे तेरे चरणों में स्थान मिलेगा ?
हे नवकारे महान
प्राणपति नवकार !
क
तभी तुम्हारा सच्चा स्वरूप देख सकूंगा ? मेरे नयन तेरे नयनों को
अनिमेष - अपलक देख सकेगें ? ४
फिर सोचता हूँ : मेरे पश्चाताप के
आँसु तुम्हारे चरणों को चिरकाल स्पर्श करने की आज्ञा तो अवश्य प्राप्त कर सकेंगे ।
एक
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ॐ
प्यार
कि
क
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VOERVRE
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७६. पिता
कृपालु नवकार !
तुझ महान समझकर और कहीं मुझसे अविनय न हो जाए... !
05 ८८
अतः निकट नहीं आता !
यदि कहीं आशातना हो जाय तो ?
ऐसी भीति रह रहकर हृदय में लहराती रहती है ।
पिता जानकर चरणों में नमता हूँ ! किन्तु...
मित्र मानकर तू हाथ नहीं पकड़ता ! तब भी एक ही भावना संजोये हुए हूँ ! तुम मुझे पालते हो - अतः पिता हो !!
७७. अखण्ड आशा
यहाँ पर जो गीत गाने आया था वह न गा सका !
आज क्या गाऊँ ? क्या न गाऊँ इसी सधेडबुन में गाने का मन में ही रह गया ।
कल्पतरु अघहरु नवकार !
बैंक
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मिठ
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हे नवकार महान
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मैं कोई रचना न रच सका, मेरे शब्द कविता को न पा सके ! केवल मेरे प्राणों में तेरे गीत गाने की व्याकुलता और उत्कटता भरी पडी है! आज ये आशा पुष्प खिले नहीं ! केवल हवा में झूलते रहे ! मैंने तेरे दर्शन नहीं किये ! तेरे शब्द भी नहीं सुने ! आप मेरे पास आ रहे हो.. केवल आशा की आहट सुनता रहा हूँ निशदिन ! आप मेरे मन मन्दिर तक आते हो और चले जाते हो! मैंने अपना सब कुछ मन मन्दिर की साफ सफाई में लगा दिया है ! मैंने अब तक दीपक भी नहीं जलाये हैं ! भला किस प्रकार बुलाऊँ ? मिलाप न हुआ ? परन्तु आप आओगे और मिलन होगा ! ऐसी उम्मीद और आशा अवश्य मेरे प्राणों में बस गयी हैं।
हे नवकार महान
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द्वितीय विभाग
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त्वमेव शरणं, त्वमेव शरणं; त्वमेव शरणं, त्वमेव शरणं !
शरणं शरणं शरणं शरणं; त्वमेव शरणं, त्वमेव शरणं !!
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तव एव चरणं, मम एव शरणं;
तव एव चरणं, मम एव शरणं ! शरणं शरणं, शरणं, शरणं; तव एव चरणं, मम एव शरणं !!
हे नवकार महान
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"जीवन में सदा सर्वदा और सर्वत्र अपने विचारों को या भावनाओं को प्रभु श्री नवकार के अनुकूल बनाने के लिए आपको छोटे, फिर भी संपूर्ण भाव प्रकट करनेवाले इन सूत्रों का बारम्बार चितन-मनन करना चाहिए !"
'इस प्रकार करते हुए एक दिन ऐसी अलौकिक प्रभात का आगमन होगा कि जिसमें आप और प्रभु श्री नवकार एकरुप हो, परस्पर एकाकार हो जाएँगे !'
हे नवकार महान
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* श्री 'नवकार' का आव्हान करो किंतु
विसर्जन नहीं ! * अस्खलित सुख का मूल-'नवकार' है ! * 'नवकार' के प्रति विशुद्ध प्रेम अति
दुर्लभ है! * सच्चे हृदय की भक्ति निष्फल नहीं जाती ! * सब प्रपंचों को छोडकर 'नवकार' में
तल्लीन हो जाओ! * केवल 'नवकार' को ही विश्वास का
स्थान बनाओ! * 'नवकार' प्रेमी जहाँ भी देखेगा वहाँ उसे नवकार ही याद आयेगी ! 'नवकार' के अनुकूल जीवन जीना यह परम रहस्य है ! * दूसरे काम भले करो परंतु, 'नवकार'
को न भूलो! * 'नवकार' में से निकलते प्रकाश को । आत्मव्यापी बनाओ! * पूर्व में जितना चलेंगे उतना ही पश्चिम
दूर होता जाएगा! * जो कुछ 'नवकार' को देते हो
वही है अपना ! * 'नवकार' की शरण में जाने से
बल मिलता है! * जो ठगने के लिये साधक बनता है वह
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अपने दोनों भव बिगाडता है ! * 'नवकार' का प्रेम प्राप्त करने का ही
प्रयत्न करना चाहिये ! * 'नवकार' के प्रति जो नतमस्तक नहीं उसे
लोगों के समक्ष नतमस्तक होना पडता है ! * जो तुम्हें चाहिए पहले वह 'नवकार' को
अर्पण करो ! * 'नवकार' की तरफ जितना बढोगे उतने ही
प्रमाण में दुख दूर होंगे ! * 'नवकार' के प्रति अभिमुख बनो,
आपके क्लेश मिट जायेंगे ! * यदि हाथ में हो नवकार का प्रकाश !
तो कभी न होंगे जग में निराश ! * दुख आता है तब किसी के पास रोने की
अपेक्षा 'नवकार' के पास रोने से ज्यादा लाभ होगा! * 'नवकार' का चिंतन करने से वह सदा सर्वदा
आपके साथ रहेगी ! * 'नवकार' के वास्तविक ज्ञान से मनुष्य का स्वभाव बदल जाता है ! पूर्व में सूर्य उदय होता है तब तारे अस्त हो जाते हैं । ठीक उसी प्रकार हृदय में जब 'नवकार' का उदय होता है तब विपत्तियाँ
दूर हो जाती हैं ! * श्रद्धालु जीव अपने जीवन में कुछ भी प्राप्त
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न होने पर भी अपनी श्रद्धा नहीं छोडते !
* 'नवकार' के संग सब आनन्दमय है और उसके बिना सब दुखमय है !
* शांत भाव से सुखी रहना यह 'नवकार' की तरफ बढने का सुन्दर मार्ग है ।
* सकाम जाप मानव की काम इच्छा पूरी करता है और निष्काम जाप काम... . विषय वासना को जलाकर खाक कर देता है ! छोटे २ प्राणियों से जो प्रेम नहीं कर सकता वह भला 'नवकार' से क्या प्रेम करेगा ? * 'नवकार' के प्रति अन्तःकरण पूर्वक
समर्पण करना यही
अपने क्लेशों से मुक्ति पाने का वास्तविक मार्ग है ।
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* 'नवकार' का ऐसा ध्यान धरो कि * जागृत, स्वप्न, सुषुप्तादितीनों दशाओं में याद आवें ।
* यदि 'नवकार' के साथ प्रेम रखना है
तो हमें अन्य आसक्तियों से दूर रहना होगा ।
* 'नवकार' प्रति की श्रद्धा के लिये भूलकर भी बाहय संयोगों के ऊपर आधारित नहीं होना चाहिये ।
* यदि 'नवकार' को समझना हो
तो अपनी पसंदगी और पूर्वाग्रह दूर रखो । पसंदगी और पूर्वाग्रह जड के पुत्र हैं ।
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* 'नवकार' से साक्षात्कार यही
जीवन की एकमात्र भूख बनी रहे ।
* 'नवकार' स्वीकार करने से जो निंद्य थे, वे भी वंद्य बन गये ! * हे 'नवकार' अब मैं
तुम्हारी शरण स्वीकार करता हूँ । अतः ध्यान रहे कि तुम्हारा
एक भी सेवक कभी निराश नहीं बने ।
* 'नवकार' की आज्ञा के विरुद्ध यदि आप कुछ करते हो
तो निःसंदेह दुख की प्राप्ति होगी ! * आज हम जो दुख अनुभव करते हैं उसका मूल कारण यही है कि हमने कभी पहले नवकार की आराधना नहीं की ।
* विपत्तियों के बीच जो यह माने कि मेरे पर 'नवकार' की कृपा है ।
उसे विपत्तियाँ दुखदायी नहीं लगतीं !
* यदि आप वर्तमान कर्तव्यों के प्रति वफादार हैं तो भविष्य में स्वयं 'नवकार' आपकी रक्षा करेगा !
* 'नवकार' में जितनी श्रद्धा है।
उसी प्रमाण में उसकी करुणा आप को मदद करने का कार्य कर सकेगी ! * एक गाँव छोडे बिना
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दूसरे गाँव नहीं पहुँच सकते । ठीक उसी तरह संसार- प्रेम छोडे बिना 'नवकार' तक नहीं पहुँच सकते ! * ‘नवकार' की शरण में सब सुख मिलता है, जिस प्रकार वृक्ष की
शरण से पक्षियों को फल और छाया !
* उसका ज्ञान भी झूठा और उसका ध्यान भी झूठा, जिसे 'नवकार' के प्रति प्रेम न हो । * सब कुछ छोडकर एक मात्र 'नवकार' में लीन हो जाना ही सुख की चाबी है । * जो विपत्ति में 'नवकार' को नहीं भूलता उसकी विपत्ति शीघ्र ही कम होकर सम्पत्ति रूप में परिवर्तित हो जाती है । * बिना पानी के जैसी दशा मछली की होती है वैसी ही दिशा 'नवकार' के
बिना हमारी होनी चाहिये ।
* जो 'नवकार' का चरण स्पर्श कर लेता है, उसे दुःख और विपत्ति से डर नहीं रहता । दुनिया के संबंधियों को प्रसन्न रखने के लिये बहुत कुछ देना पडता है, जबकि 'नवकार' को प्रसन्न रखने से हमें बहुत कुछ मिलता है ।
* करोड़ों प्रयत्नों के बावजूद भी बिना जल नाव नहीं तैर सकती, उसी प्रकार 'नवकार' बिना सुख नहीं मिल सकता
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* श्री 'नवकार' निष्ठ आत्माएँ जहाँ एकत्र होती हैं, वहाँ मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भाव के झरने बहने लगते हैं। * मत्य समय जैसे विचार होते हैं वैसे ही दूसरे जनम में शरीर की प्राप्ति होती है। इसलिये सदा सर्वदा 'नवकार' का ही विचार करना चाहिए। * जिसने स्वय को नवकार के प्रति समर्पित कर दिया है, उसके लिये समर्पण की मात्रा ज्यादा से ज्यादा बढाने के सिवाय दूसरा कोई कर्तव्य नहीं रहता। * हमें केवल 'नवकार' की करुणा का विश्वास रखना सीखना चाहिए और सर्व संयोगों में उसकी सहायता के लिए गुहार करनी चाहिए । इस प्रकार हमें निःसंदेह
उसकी कृपा का सुपरिणाम मिलेगा। * जिस प्रकार नदियाँ समुद्र की ओर बहती हैं, उसी प्रकार अपने सभी विचार और भावनाएँ 'नवकार' की ओर बहनी चाहिए। * आपने यदि 'नवकार' को पहचान लिया है तो यही एक मित्र पर्याप्त है और यदि नहीं पहचाना तो दूसरे सब मित्र बेकार हैं ! * 'नवकार' के प्रति अटूट श्रद्धा रखकर
जो काम करने में आता है, वह सदा मंगलमय बन जाता है। हम
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* जो नवकार को पकडे रहता है वह इस लोक और परलोक में अनेक लाभ प्राप्त करता है जब कि जो उससे अलग रहता है वह उसके लाभ से भी अलग हो जाता है ।
* समुद्र में गोते लगाया करोगे तो रत्न जरूर प्राप्त होंगे। वैसे ही 'नवकार' का स्मरण किया करोगे तो अवश्य सुख शान्ति प्राप्त होगी !
* जरा भी शेष रक्खे बिना और संकोच रहित बन यदि अपना सर्व 'नवकार' को समर्पण कर दें तो 'नवकार' की
कृपा प्राप्त करने की यह उत्तमोत्तम रीति है ।
*
सुईं के छोटे छेद में मोटा डोरा पिरोते समय उसे पिसकर पतला बनाते हैं । उसी प्रकार विषय कषाय पतले बनाने पर ही
'नवकार' में मन पिरो सकेंगे !
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* मैके में पाँव धरती आशा भरी कन्या के बदन पर मुग्धता का जो आनन्द छा जाता है वैसा ही मुग्धता का आनन्द 'नवकार' के जाप के समय होना चाहिए !
* जो कुछ भी चाहिये 'नवकार' से माँगो,
बल्कि दूसरे से माँगकर दीन-हीन भिखारी
न बनो। दूसरे के पास थोडा मिलेगा फिर भी
उसके हाथ तले सदा दबा रहना पड़ेगा । * यदि पहले ही गोते में रत्न न मिले तो
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यह न समझो कि रत्नाकर समुद्र में
रत्न है ही नहीं । 'नवकार' भले ही शीघ्र फलदायी न दिखे 1
लेकिन उसे फलहीन न समझो ? * जो 'नवकार' का पालन-रक्षण करता है और उस पर विश्वास रखता है । 'नवकार' उसका भी सदा पालन-रक्षण करता है, साथ ही अपने आश्रय में सुखी रखता है ? * जिसने जीवन में 'नवकार' के प्रति श्रद्धा
गँवा दी, उसने सर्वस्व गँवा दिया और जिसने जीवन में 'नवकार' के प्रति श्रद्धा व्यक्त की, उसने सर्वस्व प्राप्त कर लिया हैं । * फूल माला के संग डोरा जिस प्रकार
देवाधिदेव के कंठ तक पहुँच सकता है । उसी प्रकार 'नवकार' की स्नेहमैत्री द्वारा आत्मा उर्ध्वगतिगामी बन सकती है । * 'नवकार' को समझने के लिये केवल तर्क, युक्ति या बुद्धि ही संपूर्ण नहीं, अपितु उसके निकट परिचय के लिये सर्व समर्षणता की ही आवश्यकता है ।
* दिन में किये हुए परिश्रम को जिस प्रकार रात्रि में विश्राम दूर करता है, उसी प्रकार अशुभ विचारजन्य मन के
सब परिश्रम 'नवकार' का ध्यान दूर
करता है ।
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* 'नवकार' सबका कल्याण करने को तैयार है, बशर्ते सबको अपने अपने कल्याण की सारी जिम्मेदारी उस पर सौंप देनी चाहिए और बिना किसी तरह की रोक टोक के उसे काम करने देना चाहिये। * 'नवकार' यह जगत का नाथ है। यह तीनों जगत का योग क्षेमंकर है । आप उसे सव कुछ अर्पित कर शरण भाव स्वीकार करो ।
वह आपकी सब जिम्मेदारी ले लेगा ! * अपने मुख दर्शन हेतु मानव को दर्पण के पास जाना पड़ता है, उसी प्रकार अंतरजीवन के दर्शन हेतु भाग्यशाली जीव को
श्री 'नवकार' की शरण में जाना पड़ता है ! * हम जितना 'नवकार' का जाप करें, थोड़ा
या ज्यादा; परंतु उसमें अपना तन-मन सब लगा देना चाहिये । भूलकर भी हमें अपने ध्यय के साथ खल नहीं खलना चाहिये। * यदि हमें नवकार का प्रेम प्राप्त करना है। तो किसी भी शुभ कार्य के बदले वाह वाह, मान-सम्मान, लाक-प्रतिष्ठा या अच्छा दिखाने की जरा भी इच्छा नहीं रखती
चाहिये। * नवकार हमें बिलकुल अच्छा नहीं लगता ऐसा तो है नहीं ! परंतु उसके प्रति हमारे में प्रेमभाव वहुत कम है। जव कि बाकी के
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सब भाव हम अपने लिये अमानत रखते
आये हैं। * जिसके आँगन में मोर नाचता हो, उसके घर
में सर्प प्रवेश नहीं कर सकता। उसी प्रकार जिसके हृदय में नवकार बसता है, उसके । जीवन पर अशभ बल आक्रमण नहीं कर सकत । * जनेता के वात्सल्यमय कोमल स्पर्श से जिस प्रकार बालक शांत और प्रसन्नता का अनुभव करता है। उसी प्रकार 'नवकार' रूपी माता के गोद में खेलते बाल साधक शांति और प्रसन्नता अनुभव करते हैं। * पतंगा यदि एक बार दीपक की ज्योति देख
लेता है तो वह पीछे हटने का नाम नहीं लेता। उसी प्रकार हमें 'नवकार' के समीप चले जाने के पश्चात् पीछे नहीं हटना चाहिये। * कोई भी कार्य करने से पूर्व यदि 'नवकार' का स्मरण किया होगा तो आपत्ति पास नहीं फटकेगी और आ भी जाये तो समझना चाहिये कि वड़ी विपत्ति आनेवाली थी, लेकिन 'नवकार' के प्रताप से वह हल्की फुल्की हो गयी है। * तलहटी में खडा मानव क्रोधवश हो गिरिशिखर पर खडे मानव को पत्थर नहीं
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मार सकता । उसी प्रकार श्री 'नवकार' की साधना में स्थिर बने सत्त्व गुणवंत आत्मा को कषाय कदाचित ही मात कर सकते हैं । * नवकार की शरण में जाओ और अन्तर्मन हो सुबह शाम प्रार्थना करो कि हे नाथ मुझे सद्बुद्धि दो । मेरी पाप बुद्धि का नाश करो । यदि छह महीने तक लगातार ऐसी प्रार्थता करने में आये तो बहुत से दोष अपने आप मिटते नजर आऐंगे ही। * डाक्टर के पास जाने के पश्चात् अपना दर्द छिपाने से दर्दी निरोगी नहीं बन सकता । उसी प्रकार 'नवकार' के समक्ष अपने सब पाप शुद्ध हृदय से प्रकट न कर दें तब तक वह पूर्ण निष्पाप नहीं बन सकता ।
* गाड़ी में बैठते समय गठड़ी माथे पर उठानी पडती है; किन्तु गाडी में बैठने के तदुपरांत भी यदि उठाये रक्खे तो हमारी वह निरी मूर्खता समझी जाती है । उसी प्रकार 'नवकार' की शरण स्वीकार करने के बावजूद भी अपना भार माथे पर रखे रहें तो भला वह क्या गिना जायेगा ?
* माँ.... माँ की रट लगाने पर भी यदि माँ सुने नहीं तब जिस प्रकार बालक स्वाभाविक रूप से रोने लगता है । उसी प्रकार श्री नवकार के भाव मिलन की शंखना में से ही विरह
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विलाप साधक के हृदय में शुरू हो जाता है। * 'नवकार' के पास माँगनेवाले स्वयं अपनी भिक्षा वृत्ति द्वारा अपने ही हित शत्र बनते हैं। कारण श्री नवकार में उपासक को देने की जितनी क्षमता है उससे एक करोड गुनी भी क्षमता उपासक में माँगने की नहीं होती। * 'नवकार' के जिस कगार पर तुम खडे हो भव सागर की तूफानी लहरें चाहे जितना उत्पात मचा दें फिर भी तुम्हारा कुछ भी नहीं बिगाड सकती। उल्टी वे बेचारी कगार के साथ टकरा टकरा कर छिन्न भिन्न हो जाएगी * सरहद पर रहनेवाले सैनिक अपने सैनिक धर्म को चूक जाये तो जिस प्रकार राष्ट्र में रहनेवाले मानव प्रणियों की बुरी दशा होती है। उसी प्रकार श्री 'नवकार' का आराधक यदि अपने नमस्कार धर्म को ही चूक जाय तो उसका बुरा असर तीन लोक तक फैलते देर नहीं लगती। * जिस वस्तु के प्रति हमारा प्रेम होगा उसके लिये हमेशा हम अपने प्राणों की बाजी लगाने में कोई कसर उठाकर
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नहीं रखते । लेकिन जब हम प्राणों को तुच्छ समझकर 'नवकार' का जाप आदि कोई भी कार्य करने के लिये सदा तत्पर रहें तो निःसंदेह विघ्नों पर विजय प्राप्त करते हैं और अपने कार्य में सफल बन जाते हैं । * सच पूछे तो माँगने का अधिकार नवकार को है, हमें नहीं । कारण हम पर उसके आज तक के उपकारों की कोई सीमा नहीं है । ऐसे में इन उपकारी भगवंतों के उपकारों क यथासंभव बदला चुकाने के बजाय STE 'बदले में इतना देना' इस प्रकार कहते रहना निहायत कृतज्ञता के अभाव का द्योतक है ।
* 'नवकार' में मन जोड़ना यह पर्वत पर चढने जैसा है, जब कि विषयों में आसक्त बनना पर्वत से गिरने जैसा ।
यद्यपि पर्वत पर चढना कठिन है,
किंतु चढने के बाद शुद्ध वायु मंडल आदि की प्राप्ति मनको सदा आनन्द देती है । ठीक उसी प्रकार 'नवकार' में मन जोडना कठिन अवश्य है । परन्तु जोडने के पश्चात् जो अद्भुत और अनुभूत आनन्द अनिर्वचनीय होता है । उसकी तुलना में विश्व की समस्त ऋद्धि-सिद्धियां तुच्छ. तुच्छतम; तुच्छकर हैं !!
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॥ ओम अर्हम् नमः ॥ त्वमेव शरणं, त्वमेव शरणं । शरणं शरणं शरणं शरणं ।।
महा आनन्द ग्रीष्म की संध्या में विशाल उद्यान में जब मृदु दूर्वा पर चहल कदमी करते हो, समीपस्थ नदी के स्पर्श से शीतल बनी मन्द और शुद्ध समीर बहती हो तब वहाँ दुनिया के साक्षात स्वर्ग सा अद्भुत अकल्पय आभास होता है। ऐसे भौतिक आनन्दप्रद वातावरण में श्री 'नवकार' का हास्य मुख पर स्मित करता हो और उसी तरह क्लेस के कंटक और कंकाश के कर्कश कंकरों से हृदय शीर्ण-विशीर्ण होता हो। विषाद के आवों से असंख्य उलझने खड़ी होती हो ऐसी विषम दुख:दायी परिस्थितियों में भी श्री 'नवकार' का हास्य मुख पर मुस्कराता हो तो समझ लेना चाहिये कि श्री 'नवकार' के महा आनन्द के स्वाद का आस्वाद गुणी पुरूष ले रहे हैं और स्थितिप्रज्ञता बनाये रख रहे हैं।
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गुणारोपण श्री 'नवकार' के चरण ग्रहण करने के पूर्व अनादि दोषों का- दासीकरण करना होगा। सत्त्व गुणों के बीजारोपण के लिये हृदय भूमि में शुद्धि और निर्मलता का वातावरण सर्जन करना पड़ेगा। तत्पश्चात् ही हम श्री 'नवकार' को पदार्पण का आमंत्रण दे सकेंगे। श्री 'नवकार' के उत्तरोत्तर पदार्पण के पश्चात् भी दो कार्य चालू रहेंगे जिससे, उसमें उन्नति होती जायेगी। शीघ्रातिशिघ्र दोष विलीनीकरण को प्राप्त होंगे और त्वरित गति से गुण-पुष्प विकासोन्मखता को पायेंगे। दोषों के विलीनीकरण द्वारा होती हई निर्मलता और गुण-पुष्पों के विकासीकरणता के माध्यम से प्रसारित मृदु सौरभ का आनन्द साधक के सिवाय भला कौन अनुभव कर सकता है ? साधना द्वारा यह सब सदा सर्वदा संभव है शक्य है !
हे नवकार महान !
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समर्पण आराधना हेतु आत्मा में अविचल निर्भयता आवश्यक है। कदापि भय का स्पर्श न होने देना। 'भय' अति शुद्ध एवं निकृष्ट पदार्थ है। आत्मा में असीम धैर्य एवं पूर्ण आत्मसमर्पण के भाव जागृत करना जरुरी है। साथ ही उसमें भूलकर भी कोई आदान-प्रदान का भाव नहीं होने चाहिये। प्राप्ति की आशा से प्रदान नहीं किया जाएँ ना ही विपत्ति में सहायता की अपेक्षा से आत्म समर्पण हो। जो भी करना है। एकमात्र अपनी श्रद्धा को प्रकट करने हेतु ही करना है। अपनी भक्ति को प्रकट करने हेतु समर्पण करना है। श्रद्धा एवं भक्ति युक्त भाव से समर्पण करना यही हमारा आद्य कर्तव्य है।
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श्री नवकार महामंत्र श्री की प्राप्ति भी नवकार की
आराधना से ही संभव होगी। नमस्कार मंत्र के प्रभाव से ही
देवेन्द्रों द्वारा नमस्कार के पात्र बन सकेंगे । वरदान ही माँगना हो तो
श्री नवकार की शरण में सदा रहने का माँगो। कार्य मंगल के लिये श्री नवकार __का स्मरण करना न भूलो। रवि जिस प्रकार अंधकार का नाश करता है। उसी प्रकार श्री नवकार
अज्ञान अंधकार का नाश करता है। महान बनना हो तो महामंत्र नवकार को
लक्ष्य में रखकर हो हरएक कार्य करो। हा इस प्रकार का शब्द अंत समय में न बोलना पड़े इसलिये हर समय नवकार रटन करो। मंजिल संसार की बहुत लम्बी है,
उसे छोटी बनानी हो
तो श्री नवकार का साथ करो। त्रस्त जीवों के विश्राम के लिये
नवकार महामंत्र सदृश अन्य कोई सर्वोत्तम विश्रामगृह नहीं है।
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आ. श्री. पद्मसागरसूरीश्वरजी १. सांसारिक नाम : प्रेम चंद २. पिता का नाम : श्री रामस्वरूपजी जैन ३. माता का नाम : श्रीमती भवानीदेवी ४. जन्म तिथि : वि. सं. १९९२
भाद्रपद शुक्ला ११ जन्मस्थान : अजीमगंज (बंगाल) ५. दीक्षा तिथि
: वि. सं. २०११
मार्गशीर्ष द्व ३ ६. दीक्षा स्थल : साणंद (गुजरात) ७. दीक्षा नाम : मुनि पद्म सागर ८. दीक्षा गुरु : आ. श्री कैलाशसा गर
या सूरिश्वरजी । ९. बडी दीक्षा : मार्गशीर्ष सुद ६ १०. बडी दीक्षा स्थल : साणंद (गुजरात) ११. गणिवर्य पद : वि. सं. २०३०
: वसंत पंचमी १२. गणिपद प्रदान स्थल : अहमदाबाद १३. पन्यास पद : वि. सं. २०३२
फाल्गुन सुद६ १४. पन्यास पद प्रदान स्थल : जामनगर १५. आचार्य पद : वि. सं. २०३३
माह सुद ३
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१६. आचार्य पद प्रदान स्थल : श्री सीमंधर स्वामी
तीर्थ : मेहसाणा (गुज.) १७. गुरु
: आ. श्री कल्याण
सागरसूरिश्वरजी १८. प्रकाशित साहित्य : हे नवकार महान : हिन्दी स्नेहांजलि : गुजराती चितन की केडी : गुजराती पाथेय
: गुजराती प्रेरणा
: गुजराती जीवन नो अरुणोदय (भाग १ ते ४)
: गुजराती प्रवचन पराग
हिन्दी पद्म परिमल : हिन्दी मोक्ष मार्ग में बीस कदम : हिन्दी प्रतिबोध
: हिन्दी मित्ती मे सव्व भुऐसु : हिन्दी जीवन दृष्टि : हिन्दी (प्रकाशनाधीन) AWAKENING : अंग्रेजी Golden Steps :: अंग्रेजी
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हे नवकार महास
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हमारे अन्य प्रकाशन : १) अवेकनींग
(अग्रेजी) २) एसेन्सिल्स ऑफ जैनिज्म (अंग्रेजी) ३) मोक्ष मार्ग में बीस कदम (हिंदी) ४) प्रतिबोध
(हिंदी) ५) चिंतन नी केडी (गुजराती) ६) जीवन नो अरुणोदय भाग १ (गुजराती)
७) प्रेरणा
(गुजराती) ८) श्री सीमंधरस्वामी प्रत्यक्ष पंचांग
(गुजराती) ९) श्री अरुणोदय प्रत्यक्ष पंचांग (हिंदी) १०) प्रवचन पत्रिका (हिंदी, गुजराती,
अंग्रेजी समान्तर) ११) कर्मयोग
(हिंदी) १२) द गोल्डन स्टेप्स टू साल्वेशन (अंग्रेजी) १३) हे नवकार महान
(हिंदी) १४) आचार्यश्री : जीवन दर्शन एवं चिंतन
(हिंदी)
हे नवकार महान
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचार्य श्री पद्मसागर सूरीश्वरजी महाराज जैन संस्कृति और साहित्य के दिग्गज रक्षक तथा कला क्षेत्र एवं अन्य विधाओंके मर्मज्ञ होने के उपरांत उन्होंने भारत की एकता, साम्प्रदायिक सामंजस्य और विविध धर्मोक समन्वय को अपना कर मानव मात्र के कल्याण को जीवन संदेश बना कर वह सदैव प्रयत्नशील है। उन्होंने अपने कार्य-कलाप, व्याख्यान और गतिविधियों के माध्यम से सदा-सर्वदा राष्ट्रहित, राष्ट्रीय विकास और नैतिकतामय सुसंस्कृत धार्मिक संस्कारों का प्रचार और प्रसार किया है। ' आचार्य श्री धर्म के संदर्भ में भले ही जैन-धर्म से जुडे हुए हों। किंतु विचार,वाणी कर्म और कार्य से भारतीय संस्कृति के ज्योतिर्मय नक्षत्र मंडल से सर्वत्र देदीप्यमान हैं। वास्तव में वह एक क्रांतिदर्शी मनीषी हैं, जिनमें संन्यासी वृत्ति, त्याग-तपस्विता के साथ-साथ एक अपूर्व तेजस्विता एवं दूरदर्शी दृष्टिकोण है। उनकी सूर्य की तरह प्रखर ज्ञान की उष्मा, प्राचीन ऋषि-मुनियों की सात्विकता, कबीर की स्पष्टवादिता और विवेकानंद सी ओजस्वी शैली ने असंख्य जन-हृदयों की श्रध्दा का भाजन बना दिया है। प्रायः वह अपने प्रवचनों में कहते हैं “मैं सभी का हूँ, सभी मेरे हैं। प्राणी-मात्र का कल्याण मेरी हार्दिक भावना हैं। मैं किसी वर्ग, वर्ण, समाज या जाति के लिए नहीं, अपितु सब के लिए हूँ। मैं इसाइयों का पादरी, मुस्लिमों का फकीर, हिंदुओंका संन्यासी और जैनियों का आचार्य हूँ।" For Private And Personal Use Only