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“અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્ ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૬૯
'હરિતકાવ્યાદિ નિઘંટુ
: દ્રવ્ય સહાયક: પૂ. આ. શ્રી પ્રેમ-ભુવનભાનુસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના સમુદાયના દીક્ષા દાનેશ્વરી પૂ. આ. શ્રી ગુણરત્નસૂરીશ્વરજી મ.સા. તથા પૂ. આ. શ્રી રસિમરત્નસૂરીશ્વરજી મ.સા. ના શિષ્યની પ્રેરણાથી
શ્રી સુમતિનાથ શ્વે. મૂ. પૂ. જૈન સંઘ, મૃદંગ એપાર્ટમેન્ટ, વાસણા, અમદાવાદના
જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સોમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૬૯
ઈ. ૨૦૧૩
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ
ક્રમાંક
પૃષ્ઠ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
001
002
003
004
005
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007
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017
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
018
019
020
021
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023
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025
026
027
028
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श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभाकर
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
238
286
84
18
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54
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850
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640
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454
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414
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288
30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
045
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138
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(04)
210
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
218.
|
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी ugl stGirls sी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-टी815२-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहदन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056 | विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 लारतीय टन भए। संस्कृति सनोमन
पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
| पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/. | श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
532 on જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी 376
060
322
073
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार- संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३
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क्रम
कर्त्ता / टीकाकार
91 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी
92 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
93
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
वादिदेवसूरिजी
94
मोतीलाल लाघाजी पुना
स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
वादिदेवसूरिजी
95 स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना
96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब
टी. गणपति शास्त्री
टी. गणपति शास्त्री
वेंकटेश प्रेस
97 समराङ्गण सूत्रधार भाग - १
98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग - २
99 भुवनदीपक
100 गाथासहस्त्री
101 भारतीय प्राचीन लिपीमाला
102 शब्दरत्नाकर
103 सुबोधवाणी प्रकाश
104 लघु प्रबंध संग्रह
105 जैन स्तोत्र संचय - १-२-३
106 सन्मति तर्क प्रकरण भाग १,२,३
107 सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४, ५
108 न्यायसार न्यायतात्पर्यदीपिका
109 जैन लेख संग्रह भाग - १
110 जैन लेख संग्रह भाग-२
111 जैन लेख संग्रह भाग-३
112 | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग - १
113 जैन प्रतिमा लेख संग्रह
114 राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
115 | प्राचिन लेख संग्रह - १ 116
बीकानेर जैन लेख संग्रह
117 प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग - १
118 प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग - २
119 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो - १
120 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो २ 121 गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल - १ 123 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
भोजदेव
भोजदेव
पद्मप्रभसूरिजी
समयसुंदरजी
गौरीशंकर ओझा
साधुसुन्दरजी
न्यायविजयजी
जयंत पी. ठाकर
माणिक्यसागरसूरिजी
सिद्धसेन दिवाकर
सिद्धसेन दिवाकर सतिषचंद्र विद्याभूषण
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
पुरणचंद्र नाहर
कांतिविजयजी
दौलतसिंह लोढा
विशालविजयजी
विजयधर्मसूरिजी
अगरचंद नाहटा
जिनविजयजी
जिनविजयजी
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
गिरजाशंकर शास्त्री
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन
पी. पीटरसन जिनविजयजी
भाषा
सं.
सं.
सं.
सं.
सं.
सं./अं
सं.
सं.
सं.
सं.
हिन्दी
सं.
सं./गु
सं.
सं,
सं.
सं. सं.
सं./हि पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि
पुरणचंद्र नाहर
सं./ हि
जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार
सं./हि
अरविन्द धामणिया
सं./गु
सं./गु
सं./हि
सं./हि
सं./हि
सं./गु
सं./गु
सं./गु
अं.
सुखलालजी
मुन्शीराम मनोहरराम
हरगोविन्ददास बेचरदास
हेमचंद्राचार्य जैन सभा
ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट वरोडा
आगमोद्धारक सभा
अं.
अं.
अं.
सं.
सुखलाल संघवी
सुखलाल संघवी
एसियाटीक सोसायटी
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
यशोविजयजी ग्रंथमाळा
नाहटा धर्स
जैन आत्मानंद सभा
जैन आत्मानंद सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
फार्बस गुजराती सभा
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
रॉयल एशियाटीक जर्नल
भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा.
जैन सत्य संशोधक
पृष्ठ
272
240
254
282
118
466
342
362
134
70
316
224
612
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250
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454
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354
372
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336
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656
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764
404
404
540
274
414
400
320
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
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हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
304
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208 70
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462
512
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
विषय
|
भाषा
पृष्ठ
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
181
| संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
330
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
248
504
संस्कृत
पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला
448
188
444
616
190
632
| नारद
84
| 244
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
संस्कृत हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर
446
|414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
श्री डी. एस शाह
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
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*RROR
RORRORORS
.
-
.
-
ॐतत्सत् ।
श्रीभावमिश्रकृत-भावप्रकाशान्तर्गतः हरीतक्यादिनिघण्टुः ।
-
-
-
-
-
-
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पटियालाराज्यनिवासि--राजवैद्य--श्रीवैद्यरत पं० ॥ रामप्रसादात्मज--विद्यालङ्कार--शिवशर्मवैवाशास्त्रिकृत--शिवप्रकाशिका
भाषाटीकासहितः।
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*RRORARRORADABA000*RGAORORSROSORRORRORO*/
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- -
खेमराज श्रीकृष्णदास, अध्यक्ष-" श्रीवेङ्कटेश्वर " स्टोम् -प्रेस,
___ बम्बई.
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संवत् २००९ शके १८७४
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RE
RSERY
- n
amasodes
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AANANHAWowNTARAT
...
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Funeralama
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मुद्रक और प्रकाशकखेमराज श्रीकृष्णदास,
अध्यक्ष-"श्रीवेङ्कटेश्वर" स्टीम्-प्रेस, बम्बई. पुनर्मुद्रणादि सर्वाधिकार "श्रीवेङ्कटेश्वर" मुद्रणयन्त्रालयाध्यक्षके अधीन है।
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Aho! Shrutgyanam
Page #13
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DEDICATION.
TO
Vaidya Ratna Pandit Ram Prasad
Raj Vaidya of Patiala.
Whose Solicitude for the advancement of Ayurveda has manifested itself in such glorious success, whose sympathies for suffering humanity are highly genuine, and whose fount of Knowledge has incessiintly been supplying the author amongst thousand others, with inspirations that have been the main cause of the production of this work, this Commentary entitled the Shiv Prakashika is very respectfully dedicated by.
His most dutiful & obedient Son
SHIV SHARMA.
Aho! Shrutgyanam
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Aho! Shrutgyanam
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PREFACE
While every session witnesses a tremendous outpour of the se called sommentaries on Ayurvedic Books from the Press an apology seems necessary for the production of the present work.
That the book has univessally been approved by the present Scholars of Ayurveda as a sagacious and conenient access to enter the vast science of Ayurveda, is evident from the fact that the leading institutes of Ayurveda have with a singular coincidence, chosen it as the fit text for the beginners of Ayurveda. A suitable commer tary on this Nighantu for the students of Ayurveda, therefore, is not an unnecessary labour.
This may not satisfy the fastidious critic and he might still assert with this professional frown, that these are translations extant in tha same line, and another work in the same ine is a futile
labour.
In response to this I can only request him to alienate my humble work from that line. The work in this line in many cases, though written by professional parasites of Ayurvede, have elearly ommitted the texts, whenever they invite some racking of the brain, and replaced by the convenient and self-made texts, which fail to follow the chain. In many places most confounding and misleading transliations have been cansciously given to hide the inability of rightly understanding the tex. The text in such cases itself than to be distorted into such crude forms,
were better left to
I have endeavoured, in the present translation to clear out such ntricate points, and made the best effort I could to simplify the work for the young students of Ayurveda.
I must not forget to acknowlege the great help rendered te me by Pandit Hari Sharma Shastri, Vaidya Bhushan, which enabled me to bring forth this work with great convenience, and much sooner than anticipated.
Patiala.
7th June 1926.
SHIV SHARMA.
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Aho ! Shrutgyanam
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भूमिका ।
धार्मिक उन्नतिको छोडकर और अनेक प्रकारकी उन्नति संसार इस समय अपने अपने ढंग से कर रहा है। इस उन्नति में आयुर्वेदिक उन्नतिवा लोने भी आगे पांव बढाया। जिससे कुछ प्रायुर्वेदिक हिन्दी उर्दू के पत्र आयुर्वेदिक ग्रन्थ तथा उनकी जैसो तैसी भाषा भी आगे आने लगी ।
इस समय सब वैद्य ऋषियोंकी आज्ञानुसार शास्त्रको विधिवत गुरुयोंसे पढकर सब विधि व्यवस्था अपने पूज्य गुरुयोंसे सीखकर और अनुभव प्राप्त करने के अनन्तर संसार के हित में धम्मनुसार अपना भी हितसाधन कर उभयलोक कल्याणकारी मार्गका अवलम्बन करनेवाले मिल सकें यह बात तो है ही नहीं, किन्तु वे गुरु के वैद्य स्वयं गीता पढे हुए इस समय शास्त्रज्ञ भी बहुत मिल सकते हैं। जो व्याख्यान और लेखोंमें एवं प्रस्ताव विज्ञानमें कहीं न कहीं प्रतिवर्ष अपना पाण्डित्य प्रकाशित कर डालते हैं। ऐसी अवस्था में बिना गुरुओं की सेवा और विना ही मर्यादा के सबको आयुर्वेद - शिरोमणि बननेका अभ्यास बडे वेगसे बढता जाता है ।
मैंने दश पन्द्रह वर्षमें अपने पूज्य पिताजी के पास स्वयं सर्वसिद्धान्ती वननेवाले बहुत से रोगी आते देखे हैं। ऐसे सर्वतन्त्र स्वतन्त्रोंको देख कभी २ मुझे हास्य और कभी २ वैद्यराज बनने की रुचि हो आती थी, परन्तु पूज्य पिताजी आयुर्वेदिक ग्रन्थोंको कभी हाथ भी लगाने नहीं देते थे । दम दोनों भाइयों के भाग्य में व्याकरण, न्याय और काव्यप्रकाश ही रहता था । हमको छः महीने पढकर घर भाग जानेवाले वैद्यराजों पर बडी ईर्षा रहती थी ।
हमने यह कष्ट 'शास्त्री' के कठिन ग्रन्थों और बी० ए० के स्टीवसन आदि तक भोगा । फिर हमको आयुर्वेद की प्रथम श्रेणीका विद्यार्थी बनाया गया । और ग्रन्थोंके साथ साथ पारेके संस्कार तथा सर्कारी औषधालयों में उपवैद्योंसे प्रारम्भ कर कभी कभी वैद्यके स्थान पर काम करनेको भी समय हम
लगाया गया। अब पंद्रह वर्ष
के
बाद चरक संहिताके पढ़ते
Aho! Shrutgyanam
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भूमिका ।
समझे कि उस समय पिताजी हमको क्यों मायुर्वेदका नाम तक नहीं लेने देते थे । आयुवद शास्त्रके ज्ञानके लिये जितने शास्त्रोंका पण्डित प्रथम ही हो जाना चाहिये, अभी हममें वह योग्यता नहीं आयी थी।
तो भी पढ़ते • सुश्रुतसंहिता और चरकसंहिता पर अंग्रेजी टोका करनेकी धुन सवार हुई । हमने अपना भाव पूज्य पिताजीसे प्रगट किया । पित जी ने आज्ञा दी अभी जल्दी मत करो। पहले छोटे ग्रंथोंपर भाषानुवाद करो फिर संस्कृत अंग्रेजी टिप्पणिये करो । सब उपकरण एकत्रित कर चरककी अंग्रेजी टीका करना।
जो ग्रंथ भानुशाद के लिए मुझे दिये गये उनमें वह हरीतकवादिनिघण्टु" भी है । मैंने थम इसको लेकर इसका भाषानुवाद किया। इसमें कही। अंग्रेजी और फारसी शब्द भी लाथ दे दिये गये हैं। सज्ञ सर्वाधार अन्तर्यामीकी पूजाके लिये यह अनुड मेरा प्रथम आयुर्वेदिक पुए है । इसको भगवानकी भेंटके लिये अनभिज्ञावस्थामें लाया हं, भगवान् मुझ पर कृपावर कि मैं और पुष्प जानकार पुजारीके समान भगवानको भेंट कर सकू। जिसे मैं आयुर्वेद द्वारा सच्चा पुजारी कहलानेका अधिकारी बन जाऊं । जिन पूज्य पिताजी द्वारा इस अायुर्वेद ममद्रका दर्शन हुमा है, उनकी आज्ञानुसार यह निघण्टु "श्रीवें कटेश्वर" स्टीम् प्रेसमें छपने को भेज दूपरे फूलकी खोज में लगता हूं।
भगवान् अपने भक्तोंको अनभिज्ञताके दोषोंपर सदा क्षमा करते आये हैं। विराट्र भगवान् इस फून चढानेकी अनभिज्ञता पर भी अधपक्षमा बर विज्ञ बननेका आशीर्वाद प्रदान करेंगे।
यदि मानुषी बुद्धि के कारण या छापेखानेकी कृपासे कोई भ्रष्टतानाटक खिळ जाये तो बुद्धिमान् जन क्षमाकर सूचित करने की कृपा करेंगे जिससे दूसरी बार छपने में सुधार दिया जाये।
-शिशर्मा,
पटियाला।
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अभ्यर्थना ।
सर्व शक्तिवाले प्रभू, हे जगके कर्तार ! अपने आयुर्वेदकी, अब तो सुनो पुकार ॥ अपनी सृष्टीका हित कर जो आयुर्वेद बनाया है । सृष्टीकी रचना से पहले ही जो तुमको भाया है ॥ जिसमें सब सृष्टीका हितकर सच विधि मार्ग बताया है । जिसको कह उपवेद विधाताने प्रचार कराया है ॥
इसी आपके वेदपर, अब संकट रहा छाय । हे इसके प्यारे प्रभू, लीजे इसे बचाय ॥
प्रथम तो इसके ही पृजक अब नाना कष्ट उठाते हैं । तिसपर भी नैतिक बलसे कोई इसे डराने आते हैं । कहीं वृथा कोइ एक्ट बनाकर इसे दबाने आता है । कोई झूठे विज्ञापन दे इसको बदनाम कराता है ||
मण्डली इस तरह करे नित्य बदनाम | पर यह सबको दे रहा, फिर पूरण काम ॥ फिर भी पूरण काम सभीका सच विधि यह हितकारी है । धर्म, अर्थ अरु काम मोक्षतकका भी यही प्रचारी है ॥ इसमें ही सब स्वास्थ्यवृत्त और धर्म कर्म बतलाया है । मिलते सच उभयलोक सुख जिसे हृदय यह भाषा है |
अंग अंग है भरा, निःस्वारथ उपकार | छिपी नहीं इसकी दशा, क्या क्या कहूँ पुकार ॥
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फिर अपने इस पुण्य वेदपर दया काहे नहीं करते हो। जगके करता हरता हो भी क्या कलियुगसे डरते हो । सष विज्ञानासे कुछ बढ़कर अब भी यह विज्ञानी है। रामप्रसाद प्रजाका हितकर सबविध दास अमानी है।
--रामप्रसाद.
Aho! Shrutgyanam
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प्रस्तावना।
अथर्ववेदमें देव परापूजन, प्रायश्चित उपवास आदिके अनन्तर देहको पारोग्य रखने के लिये चिपसाका उपदेश किया है। द्रव्य, गुण, कर्मके विचार करनेसे आरोग्य लाभ होता है। किस द्रव्यमें क्या गुण है उसकी इतिकर्तव्यता किस प्रकारसे है इतना जान लेना सभीको आवश्यक है । वात, पित्त, कफ अथवा इनके संयोगसे हुई प्रकृति के अनुकूल पदार्थोके सेवन करनेसे देहमें रोग नहीं हो सकते । कदाचित विरुद्ध पदार्थों के सेवनसे पातादि दोषोंमें वैषम्य हो जाने के कारण रोग हो भी जावे तो उनके कर्षण पंहणात्मक (दोषों के घटाने बढाने रूप ) सुचिकित्सासे शीघ्र नष्ट हो सकते हैं । यही सब विचार करके आयुर्वेदतत्त्वज्ञ भाव मिश्र ने अपने निर्मित भावप्रकाश में नाना प्रकार के अत्र, शाक, फल, मूल, जल, दही, दूध, शर्करा आदि नित्य के उपयोगी प्रायः सभी पदार्थो के गुण अवगुण कहे हैं। उसी भावप्रकाशमें संग्रह का यह भावप्रकाशनिघण्टु बनाया गया है। इसीका दूसरा नाम हरीतस्यादिनिघण्टु है । इसमें ग्रन्थकार (भाव मिश्र ) ने दीपान्तर वचा (चोव चीनी) आदि वर्तमान समयमें प्रचलित कतिपय नवीन द्रव्यों के नाम गुण लिखकर अपने पूर्ववर्ती निघण्टुकारोंले विशेषता दिखाते हुए इसकी उपादेयताको और भी बढ़ा दिया है । यह ऐसा उत्तम निघण्टु बना है कि वैद्य तथा अन्य आयुर्वेदप्रेमी मनुष्योंने इसको अत्यन्त आदरसे पठन पाठन प्रादि कार्यमें ग्रहण किया है । इसके द्वारा देशवासियों का जो उपकार हुआ है इसके लिये उक्त ग्रंथकारके, लोग अत्यन्त उपकृत और ऋणी हैं। ऐसे परमोपयोगी-सर्वप्रियलर्वमान्य निघण्टुका यथार्थ भाषानुवाद न होने के कारण संस्कृतानभिज्ञ जन. साधारण इसके अनुपम लाभोंसे वश्चित थे । यद्यपि हमारे यहांके छपे हुए सविस्तृत सरल भाषाटीकासहित भावप्रकाशमें इस निघण्टुका भी मुविस्वत सरळभाषानुवाद पाचुका है तथापि समग्र ग्रंथका मूल्य अधिक
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( १२ )
प्रस्तावना |
होने के कारण वह भी सर्व साधारणको सुलभ न था; अंतः यह सबके लिये सुलभ हो इस इच्छा से हमारे यहां तृतीयावृत्ति प्रकाशित मूल पुस्तकका पटियाला राजवैद्य वैद्यरत्न पं० रामप्रसादात्मज विद्यालङ्कार शिवशर्म वैद्यशास्त्रि द्वारा औषधोंके अंग्रेजी नामोंसहित शिवप्रकाशिका नमक सरल हिन्दी भाषाटीका बनवाकर प्रकाशित किया है। उक्त पुस्तकमें मांसवग और कृतान्नवग न होनेके कारण हमारे यहां प्रकाशित स्व० लालाशालग्राम वैश्यकृत भाषानुवादसहित भावप्रकाशसे उद्धृतकर उक्त दोनों वर्गों को भी इसमें जोड दिया है । और वर्तमान कालमें फारसी नामोंसे व्यवहृत होनेवाली अनेक औषधों के संस्कृत नाव तथा अनेक अप्रसिद्ध संस्कृतनामवाली कौपधोंडे प्रचलित भाषानाम प्रदर्शित करनेवाला परिशिष्ट भी जोड दिया है, इससे इसकी उपयोगिता अत्यधिक बढ गयी है । इस प्रकारका यह संस्करण यद्यपि यथासंभव सुविधायुक्त और भली भांति परिशोधित करके ही छापा गया है तथापि प्रथम प्रयत्न और मनुष्यस्वभाव के कारण यदि कोई त्रुटि प्रतीत हो तो उसे सहृदय महोदय सदय हृदय होकर अवश्य क्षमा करें। ऐसी विनीत प्रार्थना करते हुए आशा करते हैं कि आरोग्यको सबसे अधिक लाभ समझनेवाले नीतिज्ञ पुरुष तथा आयुर्वेद विद्याप्रेमी इसका संग्रह कर हमारे परिश्रमको सफल करते हुए इससे लाभ उठावेंगे।
राजश्रीकृष्णदास,
अध्यक्ष- "श्रीवेङ्कटेश्वर" स्टीम्-प्रेस,
Aho! Shrutgyanam
बम्बई.
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श्री। अथ भावप्रकाश ( हरीतक्यादि ) निघण्टुस्थ
वाँकी सूची।
-toपृष्ठ. वर्ग | पृष्ट.
वर्ग. १ हरीतक्यादिवर्ग।
३२३ तक्रवर्ग ५७ कर्पूरादि वर्ग।
३२७ नवनीत वर्ग। ८४ गुडूच्यादिवर्ग।
३२८ घृतवर्ग। १४८ पुष्पवर्गी
३३२ मूत्रवर्ग। १६३ फलवर्ग।
३३४ तेल वर्ग! १९४ बटादिवर्ग।
३३८ मधुवर्ग। २१० धातुवर्ग!
३४४ इक्षु वर्ग। २५० धान्यवर्ग।
३५० संधानवर्ग। २६८ शाकवर्ग:
३५७ द्रव्यपरीक्षावर्ग। २९३ वारिवर्ग।
३६६ मांसवर्ग। ३०९ दुग्धवर्ग।
३९४ कृतान्न वर्ग। ३१८ दधिवर्ग:
४३० अनेकार्थवर्ग!
RE
Aho! Shrutgyanam
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावप्रकाश ( हरीतक्यादि) निघण्टुकी सूची ।
विषय. |
पृष्ठ.
हरीतक्यादिवर्गः ।
१ मंगलम् ।
२ हरीतक्या नामलक्षणगुणाः ।
२ हरीतक्या उत्पत्तिः ।
३ हरीतक्या नामानि ।
३ हरीतकीजातयः ।
३ रीतक्या लक्षणम् ।
४ हरीतकी प्रयोगः ।
५ हरीतकीगुणाः ।
८ हरीतकी सेव ने अयोग्य प्राणिनः
९ विभीतकः ।
९ आमलकी ।
१० फलानुरूप बीज गुणः ।
१० त्रिफला ।
११ शुण्ठी ! १२ आर्द्रकम् ।
१२ पिप्पली ।
१४ मरिचम् ।
१४ त्रिकटु ।
१४ पिप्पजीमूलम् ।
१५ चतुरूषणम् ।
१५ चव्यम् ।
१५ गजपिप्पलीं ।
पृष्ठ.
१६ चित्रकः ।
१६ पंचकोलम् ।
१. षडूषणम् ।
१७ यथानिका ।
१८ अजमोदा ।
१९ पारसीकयवानी ।
१९ शुक्लजी कंकृष्णाजी रकमुपकुंची।
२० धान्यकम् ।
२० शतपुष्य, मित्रेया
२१ मेथिका, वनमेथिका ।
२२ चन्द्रशूरम् |
२२ चतुर्बीजम् ।
२२ हिंगु ।
२३ वचा ।
२३ पारसीकवचा ।
२४ महामरीवचा ।
२४ द्वीपान्तरवचा ।
विषय.
२५ हपुषा ।
२५ विडंगम् ।
२६ बुरु |
Aho Shritaveram २६ वशरोचना ।
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावप्रकाश ( हरीतक्यादि ) निघण्टुकी सूर्ग। (१५)
पृष्ठ.
विषय.
पृष्ठ.
विषय.
-
'२७ समुद्रफेनः। २७ अष्टवर्गः । २८ जीवकर्षभयोरुत्पत्तिलक्षण
नामगुणाः। २८ मेदामहामेदयोः। २९ काकेन्योः । ३० ऋद्धिवृद्धयोः। ३१ मुख्यंलदृशः प्रतिनिधिः। ३५ यष्टिमधु ३३ कोपिल्लः । ३३ आरवधः। ३४ कट्वी। ३४ किरातः । ३५ इंद्रयवम् । ३५ इतिक्की बेअमरःप्राह । ३६ मदनः । ३६ रास्ता । ३७ नाकुली। ३७ माचिका। • ३८ तेजवती।
३८ ज्योतिष्मती। ३८ कुष्ठम् । ३९ पुष्करमूलम् । ३९ हेमाहा। ४० शृङ्गी।
४० कट्फलः। ४० भागी। ४१ अश्मभेदः। ४१ धतकी। ५२ मंजिष्ठा। ४२ कुसुंभम्। ४३ लाक्षा। ४३ हरिद्रा। ४४ आम्रगंधिहरिद्रा। ४४ अरण्यहरिद्रा। ४४ दारुहरिद्रा। ४५ रसांजनम्। ४५ वाकुची। ४६ चक्रमर्दः। ४७ अतिविषा। ४७ सावरलोध्रः पटियालोधः । ४८ रसोनः। ४९ पलांडः। ४९ भल्लातकम्। ५० भगा। ५१ खसतिलः। ५१ अहिफेनकम्। ५२ ख सबीनानि ।
५२ संधवम् । Alb ! ५२ गडाख्यम्।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
(१६)
भावप्रकाश (हरीतक्यादि) निघण्टुकी सूची ।
पृष्ठ.
५३ सामुद्रम | ५३ विडम् । ५४ सौवर्चलम् | ५४ औद्भिदम् ।
५४ चणकाम्लम् ।
५५ यवक्षार स्वर्जिका सुवचिकाश्च
५५ सौभाग्यम् ।
५६ क्षारद्वयं क्षारत्रयं च ।
५६ क्षाराष्टकम् ।
५६ चुक्रम् ।
कर्पूरादिवर्गः ।
५७ कर्पूरः ।
५८ चीन नज्ञा ।
५८ कस्तूरी !
५९ लत कस्तूरिका |
५९ गंध मार्जारवीर्यम् ।
५९ चन्दनम् ।
६० हरिचन्दनम् ।
६० रक्तचन्दनम् ।
६१ पतंगम् ।
विषय
६२ सरलः ।
६३ तगरम् ।
६३ पद्मकम् ।
६१ अगुरु, कृष्णा गुरु, गुरुसत्वं च ।
६२ देवदह ।
पृष्ठ.
६४ गुग्गुलुः ।
६५ श्रीवासः ।
६६ रालः
६७ कुन्दरु ।
६७ सिह्नकः ।
६८ जातीफलम् ।
६८ जातिपत्री ।
६९ छवङ्गम् ।
६९ बहुला ।
७० उपकुंचिका ।
७० त्वकू ।
७० दारुसिता ।
७१ तमालपत्रम् ।
७१ नागपुष्पः ।
७२ विजातकं, चतुजविकम् ।
७२ कुंकुमम् ।
७३ गोरोचना ।
७३ नखम् ।
७४ ह्रीवेरम् ।
७४ वी रणम् ।
७५ उशीरम् ।
७५ जटामांसी ।
७६ शिलापुष्पम् ।
७६ सुस्तकम् ।
Aho! Shrutgyanam
विषय.
७७ कचूरः ।
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावप्रकाश ( हरीतक्यादि) निघण्टुकी सूची। (१७ ।
पृष्ट.
विषय. |
पृष्ट.
विषय.
-
७७ मुग।
८९ स्नाक। ७७ पलाशी।
९० बृहत्पश्चमूलम् । ७८ प्रियंगुः।
९० शालपर्णी। ७९ रेणुका।।
९१ पृश्निपर्णी। ७९ ग्रंथिपर्णम् ।
९१ बृहती। ७९ स्थौणेयकम्।
९२ कंटकारी। ८० निशाचरः।
९२ उभे च बृहत्यौ। ८० ताली रापत्रम्।
९३ गोक्षुर। ८१ काकोलम्।
९३ लघुपंचमुलम् ८१ गन्धकोकिला, गंधमालती।
९४ दशमूलम्। ८१ लामजकम्।
१४ जीवन्ती। ८२ एलवालुकम् ।
९५ मुद्रपर्णी। ८२ कुटनटम् ।
९५ माषपर्णी। ८३ स्पृक्का ।
९५ जीवनीयगणः। ८३ पर्पटी। ८३ नलिका।
९६ शुक्लरक्तैरंडा। ८४ प्रपौण्डरीकम्।
९७ आकारकरभः।
९८ शुक्लरक्ताको। मुडूच्यादिवर्गः।
९२ सेहुंडः। ८४ गुडूच्या उत्पत्ति म गुणाश्च । १०० सेहुंडभेदः शातला। ८५ गुडूची।
१०० लिहारी। ८६ तांबुलम् ।
१०० श्वेतरक्तकरवीरौ। ८७बिल्वः ।
१०१ धनरः। ८७ गंभारी।
१०२ बायकः। ८८ पाटला।
१०२ पर्पटः। ८९ अग्निमम्थः।
१०३ निंबः।
Ahd! Shrutgyanam
Page #28
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________________
(१८) भावप्रकाश हरीतक्यादि) निघण्टुकी सूची |
विषय.
पृष्ठ.
१०३ महानिंयः ।
१०४ पारिभद्रः ।
१०४ कांचनारः को विदारश्च । १०५ श्याम श्वेत रक्त--शिग्रुः ! १०६ श्वेतनीलपुष्पा अपराजिता ।
१०६ सिंदुवारः ।
१०७ कुटजः ।
१०८ करं तो इसकरंजः ।
,
१०८ तृतीयः करंजः ।
१०९ श्वेतरक्तगुओ |
१०९ कपिकच्छुः ।
११० रोहिणी ।
११० चिल्लकः ।
१११ टंकारी
१११ वेतसः ।
१११ जलवेतसः ।
१११ इज्जः ।
११२ अंकोटः ।
११२ बला, महावला, प्रतिबला,
मागवला ।
११३ लक्ष्मणा ।
११३ स्वर्ण१ली ।
११४ कार्पासी ।
११४ वंशः ।
२१५ नकः ।
पृष्ठ.
११५ मुजः ।
११६ काशः ।
११६ गुन्द्रः ।
११६ एरका ।
११७ कुशः ।
११७ कणम् ।
११७ भूस्तृणम् ।.
११८ नीलदू ।
११८ श्वेतदूव ।
११८ गंडदूर्वा ।
११९ विदारीकन्दः, वाराहीकन्दः ।
१२० मूसली ।
१२० शतावरी ।
१२१ अंकुरः ।
१२१ अश्वगन्धा ।
१२१ पाठा ।
विषय.
१२२ श्वेता निशोथा ।
१२२ श्यामात्रवृद |
१२२ लध्वीदन्ती बृद्दन्तो च । १२३ लघुदन्तोफलं, बृहतीफलम
१२४ ऐन्द्रवारुणी ।
१२४ नोली ।
१२५ शरपुंखा ।
१२५ मृजदारकः । Ato Shrutgyanam
दुरालभा ।
Page #29
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________________
पृष्ठ.
भावप्रकाश ( हरीतक्यादि ) निघण्टुकी सूची (१९)
विषय. |
विषय.
१२६ मुण्डी । १२७ अपामार्गः ।
१२७ रक्तापामार्गः ।
१२८ कोकिलाः ।
१२८ अस्थिसंहारी ।
१२९ महाजाळनो ।
१३० कुमारी ।
१३० श्वेत पुनर्नवा |
१३० रक्तपुनर्नवा |
१३१ एकायकः ।
१३१ प्रसारणी । १३२ कृष्णसारिवा ।
१३२ सारिवा ।
१३२ भृंगराजः ।
१३३ षणपुष्पी ।
१३३ चायमाणा ।
१३३ मूर्वा ।
१३४ काकमाची ।
१३४ काकनासा ।
१३४ काकजंघा |
१३५ नागपुष्पी ।
१३५ मेषशृङ्गी ।
१३६ हंसपदी ।
१३६ सोमलता ।
३६ माकाशवली |
पृष्ठ.
१३७ पातालगडी ।
१३७ बन्दा ।
१३७ वटपत्री ।
१३७ हिंगुपत्री ।
१३८ वंशपत्री ।
१३८ सर्पाक्षी ।
१३८ मत्स्याक्षी ।
१३८ शंखपुष्पी ।
१३९ अकपुष्पी |
१३९ लज्जालुः ।
१३९ तद्भदः प्रलम्बुषा ।
१४० दुग्धिका ।
१४० भूम्यामलकी ।
१४० ब्राह्मो ।
१४१ द्रोणपुष्पी ।
१४१ सुवर्चला ।
१४२ वन्ध्याककोटकी ।
१४३ मार्केशिका |
१४२ देवाली ।
१४४ जलपिपळो ।
१४४ गोजिह्वा ।
१४४ नागदन्ती ।
१४५ बेल्लुतरी ।
१४६ छिक्कनी ।
१४६ वर्वरी ।
Aho १४६
ककुन्दर ।
Page #30
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________________
( २० )
पृष्ठ.
१४० सुदर्शना । १४७ भाखुपर्णी ।
१४७ मयूरशिखा ।
#
भावप्रकाश ( हरीतक्यादि) निघण्टुकी सूची ।
विषय..
पुष्पवर्गः ।
१४८ कमलस्य नामानि गुणाश्च ।
१४९ पद्मिनी ।
१४९ नवपत्रादि ।
१५० स्थलकमलिनी ।
१५० कुमुदम् ।
१५० कुमुदिनी ।
१५१ जलकुम्भी सेवालम् ।
१५१ शतपत्री ।
१५२ वासन्ती ।
१५२ वार्षिकी ।
१५२ स्वर्णजातिका
१५३ यूथिका ।
१५३ चांपेयः ।
१५४ बकुलः ।
१५४ बकः ।
१५४ कदंबः ।
१५५ कुजकः ।
१५५ मल्लिका |
१५६ माध्वी ।
१५६ केतकी, स्वर्ण केतकी । १५६ किंकिगतः ।
१५७ कणिकारः ।
१५७ अशोकः ।
१५७ बागपुष्पः ।
१५८ सैरेयः ।
१५८ कुन्दम् ।
१५८ मुचुकुन्दः ।
१५९ तिनकः ।
विषय.
१५९ बन्धूकः ।
१५९ खडपुष्पम् ।
१६० सिन्दूरी ।
१६० अगस्त्यः ।
१६० तुलसी शुक्ला कृष्णा च ।
१६१ मरुवकः
१६१ दमनकः ।
१६२ वर्वरी !
फलवर्ग: ।
१६३ आम्रभ्य नाम गुणाः ।
१६५ आम्रावर्त्तम्य लक्षणां गुणाश्च ।
१६६ ग्राम्रवीजम् ।
१६६ नवपल्लवम् ।
१६६ आम्रातम् ।
१६७ राजाम्रम् ।
१६७ कोशाम्रम् |
१६७ पनसः ।
Ah! Shrutgyanam १६८ लकुचम् ।
Page #31
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________________
भावप्रकाश (हरीतक्यादि) निघण्टुकी सूची। (२१)
पृष्ठांक.
विषय.
पृष्ठ.
विषय.
AutomaintafaiwanNE
-
१६९ मोचाफलम्।
५८१ भखाणम्। १६९ चिर्भटम् ।
१८१ शृङ्गारकम् । १७० नारिकेलम् ।
१८. कुमुद बीजम् । १७१ कालिन्दम्।
१८१ मधूकं, जलमधूकम् । १७१ दशांगुलम्।
१८२ पालेवतम् । १७२ वपुषम्।
१८२ परूषकम्। १७२ क्रमुकम्।
१८३ तूतम्। १७३ तालम् ।
१८३ दाडिमम् । १७३ ताडी।
१८४ बहुवारः। १७४ शालफळन् ।
१८४ कतकम् । १७४ बिल्यः।
१८५ द्राक्षा। १७५ कपित्थम् ।
१८६ क्षुद्रखर्जूरं, पिण्ड खजूरं च । १५५ नारंगम।
५८७ पिण्डखजूरभेदः-सुलेमानी । १७५ तिन्दुकम् ।
1 २८७ वातादः। १७६ कपीलुः।
१८८ सेवम् । १७६ फलेन्द्रः।
५८८ अमृतफलम् । १७७ बदरम्।
१८८ पीछः। १७७ बदरविशेषाणांलक्षण गुणाश्च । | १८१ अघोटः। १७८ प्राचीनामल कम। २८९ बीजपूरम् । १७८ ल वली।
१८९ वीजपूरभेदः। १७८ करमदः करमर्दिका। १९० जम्बीरद्रयम्। १७९ प्रियालम् ।
१९० निबूझम्। १८० राजादनम्।
१९० मिष्टानम्बूकम्। १८० विकंकतम् ।
१९१ कर्मरंगम्। १८० एमबीजम्।
All १९५ मिलका।।
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२२) भावप्रकाश ( हरीतक्यादि) निघण्टुकी सूची ।
1
पृष्ठ.
१९१ अम्लवेतसम् ।
१९२ वृक्षाम्हम् |
१९३ चतुरालं पंचाय्लम् ।
१९३ परिभाषा |
बटादिवर्गः ।
१२४ वरस्य नामानि गुणाश्च :
१९४ प्रश्वत्थः
१९५ पिपलभेदः
१९५ प्रश्वत्थभेदः ।
विषय.
१९५ उदुम्बरः ।
१९६ मल यूः ।
१९६ प्लक्षः ।
१९६ शिरीषः ।
१९७ श्रीरिवृक्षाः पंचपल्वलाः ।
१९८ शाळः ।
१९८ शाल भेदः ।
१९८ शल्लकी ।
१९९ शिशिपा ।
१९९ कुक्कुभः।
२०० असनः ।
२०० खदिरः ।
२०१ श्वेतखदिर:
२०१ इरिमेदः ।
२०१ रोहितकः ।
२०२ किकिरातः ॥
पृष्ठ.
२०२ अरिष्टकः ।
२०२ पुत्रजीवः ।
२०२ इंगुरुः ।
२०३ जिंगिनी ।
२०३ तालः
२०३ तुणी ।
२०४ भूर्जपत्रः ।
२०४ पलाशः ।
२०५ शाल्मली ।
२०५ मोचरसः ।
२०५ कूटशाल्मलिः ।
२०६ धत्रः ।
२०६ धन्वंगः ।
२०६ करीरः ।
२०७ शाखोटः ।
२०७ वरुणः ।
२०० कटभी ।
२०८ गोलीढः ।
२०८ अंबु शिरीषका ।
२०९ शमी ।
२०९ सप्तपर्णः ।
२०९ तिनिशः ।
२०९ भूमिसहः ।
धातुवर्गः ।
विषय.
Aho S५१० धातूनां लक्षणानि गुणाश्च ।
rotay
:
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावप्रकाश ( हरीतक्यादि निघण्टुकी सूची ।
विषय.
पृष्ठ.
२१० सुवर्णोत्पत्तिनामलक्षणाः । २३५ मनःशिला ।
२१२ रजतम् ।
२३५ अंजनं सौवीरम् ।
२३६ टंकणम् ।
२३७ स्फटिका ।
२३७ राजावतः ।
२१४ ताम्रम् ।
२१५ वंगम् ।
२१६ यसदम् ।
२१७ सीलकम् ।
२१८ लोहम् ।
२१९ लोहस र 1
२१९ कांतळोहम् ।
१२० मंडुरम् ।
२२० सप्तोपधातवः ।
२२१ स्वर्णमाक्षिकम् ।
२२२ तारमाक्षिकम् ।
२२२ तुत्थम् ।
२२३ कांस्यम् । २२३ पित्तलम् ।
२२४ सिंदूरम् ।
२२४ शिलाजतु |
१२६ रसः ।
२२६ पारदः ।
२२९ उपरसाः ।
२१९ गंधकम् ।
२३० हिंगुलम् |
पृष्ठ.
२३१ अ कम् । २३४ हरितालम् ।
२३७ चुंबकः ।
२३७ गैरिकम् ।
२३८ खटी, गौरखटी ।
२३८ वालुका ।
२३८ रूपै म् ।
२३९ कासीम् ।
२३१ सौराष्ट्रा ।
३३९ कृष्णमुनिका ।
२४० कपर्दकम् ।
२४० शंखः ।
२४० बोलम् ।
२४० ककुष्ठम् ।
२४१ रत्न निरुक्तिः ।
( २३ )
विषय.
२४१ रत्न नाम । २४२वष्णुधर्मोत्तरेऽपि ।
२४२ हारकम् ।
२४४ हरिन्मणिः (पन्ना)
२४४ माणिक्यम् ।
२४४ पुष्परागः ।
Aholar, २४५६- द्रः खं गोमेदः ।
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२४) भावप्रकाश (हरीतक्यादि) निघण्टुकी सूची।
विषय.
२४५ वैदूर्यम् ।
२५८ माषः। २४५ मौक्तिकम्।
२५८ राजमाषः। २४५प्रशालः।
२५९ निष्पावः । २४५ अथ रत्नानां गुणाः ।
२५९ मकुष्ठम् । २४६ कि रत्नं यस्य ग्रहस्य प्रीति
२५९ मसूरः। करम।
२६० चणाः । २४६ उपरगनि।
२६१ कालायः। २४६ कपर्दशंखौ। २४७ विषम्।
२६१ त्रिपुटः। २४७ बरसनाभः।
२६१ कुनथः। २४७ प्रदीपनः।
२६२ तिलः। २४८ गिकः।
२६३ अतसी। २४८ कालकूटः ।
३६३ तुवरी। २४८ हालाहलः।
२६३ गोरमर्षपः। २४९ ब्रह्मपुत्रः।
२६४ राजिका। २५० उपविषाणि
२६४ क्षुद्रधान्यम्। धान्यवर्गः।
२६५ कंगु। २५१ शालि। २५१ शालि धान्यगुणाः ।
२६५ चीनकः। २५३ रहशालिः।
२६५ कोद्रवः। २५३ व्रीहिंधान्यम्।
२६६ शाबीजम् । २५४ षष्टिकम्।
२६६ वंशधीजम् । २५५ यवः।
२६६ कुसुंभवीजम्। २५६ गोधूमः।
२६६ गयेधुः। २५७ शिंबीगुणाः। .
२६७ नीवारः। ३५७ मुद्गम्।
Aho ! h२६७ यवनालः।
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
भावपकाश ( हरीतस्यादि ) निघण्टुकी सूनी । ( २५)
manAmAINMENSanvarmummer
पृष्ठ.
विषय.
-
-
--
-
-
-
२६७ शणः। २६७ नवधान्यादिः।
शाक्वर्गः। . २६९ पत्रशाकं वास्तुकद्धयम् । २७० पोतकी। २७० श्वेतरक्तमारिषः। २७० तंडुलीयः । २७१ पालिक्या । २७१ कालशाकम् । २७२ षटुशाकः। २७२ कलंबी। २७२ लोनी हल्लोनी च। २७२ चांगेरी। २७३ चुक्रा। २७३ चिंचुः। २७४ हिलमोचका। २७४ शितिवारः। २७४ मुलकम। २७५ द्रोणपुष्पी। २७५ यवानी। २७५ दद्रुघ्रम् । २.५ सेहुण्डम्। २७६ पर्पटम्। २७६ गोजिहा। २७६ पटोलम् । २७६ गुडूची।
पृष्ठ.
विषय. २.७ कानमर्दम् । २७७ चणकम् । २७७ कलायः। २४७ सार्षणम् । २७८ पुष्पशाकं-अगस्तिकम् । २७८ कदली। २७८ शिग्रु। २७८ शाल्मली। २७९ फलशाकं-कूष्माण्डम्। २७९ कूष्माण्डी। २८० मिष्टतुम्बी। २८० कटुतुंबी। २८० ई.केटी। २८१ चिचिडा |२८१ कारवेल्लम्। २८१ महाकोशासकी। २८२ राजकोशातकी। २८२ पटोलः। २८३ विबी। २८३ शिबीद्रयम्। . २८४ शोभांजनम् । २८४ ताम्। २८. निडिशः
८५ पिटाम्। 1 २८५ कर्कोटकी।
Aho|२८६ डोडिका।
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
( २६ )
पृष्ठ.
भावप्रकाश (हरीतक्यादि निघण्टुकी सूची |
२८६ कटकारी।
२८६ नालशाकम् ।
२८६ मूलकम् ।
२८७ कंदशकं - सूरयाम
२८७ प्रालुकम् । २८८ रक्त लुभेदः ।
३८८ मूलकम् ।
५८८ गाजरम् ।
३८९ कदली ।
१८९ मान६.
२८९ वाराही । २९० इस्तिकर्णी |
२९० केम्बुकम् ।
१९० कसेरुलम् ।
३९१ शालूकम् ।
२९१ वर्जनीयम् ।
२९२ संस्वेदजम |
वारिवर्गः ।
विषय
२९३ वारिनामानि गुणाश्च ।
२९३ तद्भेदाः ।
३९४ धाराजलम् । २९४ तद्भेदौ ।
२९५ गांगं सामुद्रं वेति धारा जलस्य परीक्षा ।
२९५ अनार्तवम् ।
२९६ करकाजलम् ।
पृ.५.
२९६ तौषाम् ।
२९६ हेमजलम् |
२९७ भौमम् ।
२९७ भो-नादेयम् ।
२९९ प्रौद्धित्रम् ।
२९९ नै
म् ।
३००
रसम ।
२०० ताडागम् ।
३०० वापी |
३०१ कौण्म् ।
३०१ चौंड्यम् ।
३०२ पाल्वलम् ।
३०२ विकरम् ।
३०२ केदारम् |
३०३ वृष्टिजम्म् ।
३०३ विहितजम्
६०४ सुश्रुतः ।
३०४ जलग्रहणकालः ।
३०५ जलपानम्
३०५ शीतलजलम् ।
३०५ तन्निषेधः ।
३०६ अल्पज म् ।
३०६ आवश्यकता ।
३०६ हारीतः ।
३०६ प्रश तजलम् । ३०० निन्दितम् ।
Aho७ शाधन ।मू
विषय.
FR
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
पृष्ठ.
भावप्रकाश (क्या?) निघण्टुकी सूची । ( २७ )
विषय. |
पृष्ठ.
विषय.
३२० सशर्करदधिगुणः ।
३०० सगुडदधिगुणाः ।
३२० नक्तं दाधनिषेधः ।
३२० सरः (मलाई ) ।
३१२ सरस्य गुणाः ।
३२२ मस्तुगुणाः । तवर्गः ।
दुग्धवर्गः ।
३०९ दुग्धम् । ३१० गोदुग्धम्
३१० देशविशेषे श्रष्टच
३११ आहारविशेषम् ।
३११ माहिषम् ।
३११ छाम् ।
३१२ मृगी दुग्धम् । ३१२ मेषी काम् ।
३१२ अश्वदुग्धम् ।
३१२ उष्ट्री दुग्धम् । ३१३ हस्तिनी दुग्धम् ।
३१३ नारीदुग्धम् ।
३१३ धारोष्णम् ।
३१४ पीयूष - किलाट-क्षीरशा
वक्रपिंड - मोरटा: ।
३१५ सन्तानिका गुणाः । ३१७ निन्दितम् ।
दधिवर्गः ।
३१८ दधि ।
३१८ तद्भेदा गुणाश्च ॥ ३१९ गव्यदधिगुणाः । ३१९ माहिषद गुणाः । ३१९ प्रजादधिगुणःः । ३१९ असारक दाधगुणाः । ३२० गाढितदधिगुणाः ।
३२३ तक्रस्य पंच भे
३२३ तेषां पृथक पृथक् गुणाः ।
३२४ तक्रसेवनगुणाः ।
३३४ उद्धृतस्तोकोद्धृतनानुद्धृतघृत
तक गुणः ।
३२५ द्रव्यान्तरस्य संयोगात विविधरोगा हारत्वम् । नवनीतव: ।
३२७ नवनीतनामानि ।
गव्यनवनीतम् । माहिषनवनीतम् । दुग्धोत्थनवनीतम् ।
सद्यस्कनवनीतगुणाः ।
चिरंतन नवनीतगुणाः । घृतवर्गः ।
३२८ घृतगमानि ।
३२८ घृतगुणाः
३२८ गव्यवृतगुणाः । ३२९ माहिषघृतगुणाः
Ahe! ३२यज्जा घृतगुणाः ।
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( २८) भावप्रकाश (हरीलक्पादि) निघण्टुकी सूी।
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विषय. | पृष्ठ.
विषय
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३३९ उष्ट्रीघृतगुणाः।
३३८ मधुनामगुणाश्च । ३२९ मेषीघृतगुणाः।
३३९ मधुभेदाः। ३२९ स्त्रीवृतगुणाः।
३३९ माक्षिकलक्षण गणा: ३३९ वडवाघृतगुणाः ।
३५० भ्रामरमधुलक्षणगु०॥ ३३० दुग्धोद्धृतघृत गणाः। ३४० क्षौद्रमधुलक्षशागुणाश्च । ३३० शस्तनदुग्धोत्थवृतगुणाः।। ३४० पौत्तिकमधुलक्षणगुणाः ।
( एक दिन में बासी दृधले ३४१ छात्रमधुलक्ष गागुणाः।
निकाले हुए घृतके गुण) ३४? आयम थुलक्षण। ३३१ पुराणघृतगुणाः।
३४२ पौद्दार कमधुलक्षणगुणाः । ३३१ रोगविशेषे वृतणाः । |३४२ दाबमधुलषणगुगाः। ___ मूत्रवंगः।
३४२ नवपुराणमधुगुणाः । ३३२ गोमूत्रगुणाः।
४३ शातलं मधु गुणवतरम् । ३३३ मनुष्रभूवगुणाः।।
३४३ पधूम्णमुशारुष्णानिस्योष्ण३३३ मृत्रस्यामान्यपरिभाषा। __ काले च विषसमम्।
सैलवर्गः। ३४३ मधूच्छिष्टगुणाः। ३३४ तैलस्वरूपम् ।
इक्षुवर्गः। ३३४ विल तेलगुणाः।
३४४ इक्षुनामगुणाः। ३३५ सर्षपतैलगुणाः।
|३४५ इशुभेदा गुणाश्च । ३३६ तुवरीतेलगुणाः।
३४५ काष्ठेञ्जः। ३३६ अतसीतैनगुणाः।
३४५ पालतरुणवृद्धेनुगुणाः । ३३६ कुसुम्भतेलगुणाः।
३४६ मूलमध्यायभेदेनेझुगुणाः। ३३७ खस (पोस्तदाना) तैलणाः ।
३४३ चूषितेक्षुगुणाः। ३३७ एरण्डतैल गणाः।
३४६ यांत्रि झुरसगुणाः। ३३८ रान तैलगुणाः। ३३८ अवशिष्टतेलगुणाः।
३४६ पयुषितेझुरमगुणाः ।
३४६ पक्वेक्षुरसगुभाः। मधुवः ।
३४७ इक्षु जनितद्रव्यगुगाः। ३३८ मधूत्पत्तिः।
Ant३१७ फायतम्
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aratra (aratiादि) निघण्टुकी सूची |
विषय.
IZNESTI MALTA MINA EN ELSA
३४७ मत्स्थंडील क्षणागुणाः ।
३५५ षकसीधुः ।
३४८ गुडम् ।
३-५ आसवः ।
३४८ पुराणगुडम् ।
३५५ नवमद्यदोषाः ।
३४८ संयाविशेषेण गुडस्य गुणाः । ३५५ पुराणमद्यगुणाः ।
३४९ खण्ड | ३४९ सिता ।
३४९ पुष्पासिता । ३४९ सितोपला ।
३४९ मधुजा शर्मा ।
३५० परिभाषा |
सन्धानवर्गः ।
३५१ तुषोदकस्य लक्षण गुणाच
३५१ सोवीरस्य लक्षणं गुणाच ।
द्रव्यपरीक्षा |
३५७ पथ्यादीनां परीक्षा । ३५८ स्वभावतो हितानि । ३५९ स्वभावादहितानि ।
३५० कांजिकलक्षणं गुणाश्च ।
३५१ कोजिकस्येतेषु रोगेषु निषेधः । ३६० संयोगविरुद्धानि ।
३५२ भारतानम् ।
३५२ धान्याम्लम् । ३५२ शंडाकी बुधाः ।
गुणाः ।
३५२ शुक्त
३५३ आसुतम् । ३५३ मद्यनिरुक्तिः ।
३५३ मद्यनामानि ।
च.
३५४ मद्यगुताः । ३५४ अरिष्टम् ।
३५४ अरिष्टगुणाः ।
३५४ सुराया लक्षणे गुणाश्च । ३५४ वारुणीगुणाः ।
३५५ आमसीधुः ।
( १२९ )
३५६ साविकादिनराणां जातेऽपि
मदे सत्वादयो भावाः । ३५६ मद्यपानविधिः ।
३५६ गंधनाशः ।
३६० भेषजसंक्तः । ३६१ प्रतिनिधिः ।
मांसवर्गः ।
विषय.
३६६ मांलस्य नामानि । ३६६ मांसभेदः ।
३६६ जांगलमांसभ्य लक्षण गुणाच ३६७ मानूपमांसस्य लक्ष गुणाश्च । ३६७ जंघालगाना विशिष्टगुणः । ३६८ बिलेशयानां गणना गुणाश्च । ३६८ गुहाशयानां गाना गुणाश्च । ३६९ पर्णमृगाणां गतना गुणाश्च । ३५० विष्किराणां गणना गुणाच । ३७० प्रतुदानां गणना गुणाश्च । ३७१ प्रसहानां गणना गुणाश्च । All ३७२ ग्राम्याणां गणना गुणाश्च ।
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. (३०) भावपकाश ( हरीतक्यादि) निघण्टुकी सूची।
ms
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विषय. |
पृष्ठ.
विषय.
marAmaranMATUSamsasaramanandmary Teanintendra
अथानूपाः। | ३८१ पक्ष्यण्डस्य गुणाः। ३७२ कूले चराणां गगना गुणाश्च ।
३८२ ग्राम्यनछागः । ३७२ प्लवा । गणना गुणाव।
३८३ मेषः ( मेढ़ा) ३७३ कोशस्थानां गणना गुणाच। ।३८३ एडकः (दुम्बा) ३७४ पादिगणना गुणाश्च । ३८३ वृषभः (चैन) ३७४ मत्स्यानां गणना गुणाश्च । । | ३८४ अश्वः (घोड़ा) ३७५ जंघालादीनां नामानि गुणाश्च। ३७५ एणहरिण. (काला हिरण)
अथ कूले चराः। ३७५ कुरंगः।
३८४ महिषः (भंसा) ३७५ रोझः।
३८५ मण्डूकः ( मेडक) ३७६ पृषतः (चित्तालमृग)
अथ पादिनः। ३७६ न्यकुः (बारहसिंगा) ३७६ साबरम् ।
३८५ मच्छपः (कछुपा) ३७६ मुण्डी ।
३८५ सयोहतस्य मांसस्य गुणाः।
३८६ स्वयंमृतस्य मांसम् । अथ विलेशयाः। ३८६ वृद्धवालमांसम् । ३७७मेधा (साही).
३८६ विवादिनस्य मोसमू। ३७७ पक्षिणां नामानि गुणाश्च ।
१३८७ जात्यादिपरत्वेन गुणाः । ३७७ वर्तकः ( बटेर)
अथ मत्स्याः । ३७८ लावः (लवा)
३८८ रोहितः (रोह) ३७९ वार्तीकः।
३८८ शिलीन्धः (सिळध) ३७९ कृष्णतिनिरिगौरतितिरी।
८९ मंकुरः (माकुर) ३७९ चटकः (गौरेया निश)
३८९ मारिका ( मोई) ३७९ कुक्कुटः धनकुक्कुटश्च ।
३८९ पाठीन: (बुमारी) अथ प्रतुदाः। ३८९ श्रृंगो (सींगा) ३८० हारीतः । ( हरियल)
३९० इल्लीनः ( इलना)
३९० शकुली (सौरी) ३८० पाण्डधवल पाण्डू।
३९० गर्गरः (गर्गरा) ३८१ मयूरः।
३९० कवि: (कई) ३८१ पारातः।
1३९० मिमस्यः वी)
Aho
Shrutavaman
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भावप्रकाश (हरीतक्यादि) निघण्टुनी सूती। (३१)
cm
विषय. | पृष्ठ.
विषय. ३९० दण्डमत्स्यः ( दण्डारी) |३९९ लप्सिका ( यो) ३९१ एरङ्गी ( अरंगी)
[४०० रोशिका (रोटी) ३९१ महाशफरी (१पता) ४०० अंगारकर्कटी (वाटी) १९१ गगनी (गाई)
४०१ यवरोटिका। ३९१ मद्गुरः (मगुरो)
४०१ मारोटिका। ३९१ सणदपत्स्यः ( टेंगरा) ४०१ चरकरोटिका । ३९१ प्रोष्ठी शहरी (पुंडी) |१०१ पिष्टिका। ३९२ क्षुद्रमत्स्यः ।
४०२ बेढमिका ( वेटई) ३९३ प्रतिक्षुद्रमत्स्यः ।
४०२ पर्पट : (प पड) ३९३ मत्स्याण्डः।
४०३ पूरका (कचौरी) ३९३ शुभकमास्याः ।
४०३ वटक: (बरा) ३९३ दग्धमत्म्याः । ३९३ कूपजातिमत्स्यगुणाः ।
४०४ कालिकवटकः। ३९३ ऋतुविशेषे मत्स्यविशेषाः ।
४०५ अम्लिकावटकः।
४०५ मद्रकाः। कृतानमः।
४०६ माषव टेका। ३९४ मनानांसाधनप्रकाराःसिद्धानां! गुणाश्च।
४०६ कूष्माण्ड कवटी। ३९५ परिभाषा।
४०६ मुगवटी। ३९५ भक्तम्य नामानि साधनाजाचा४०६ अलीकमत्स्यः। ३९५ दाली (दाल)
४०७ क्वथिका (कढी) ३९६ कृशरा (खिचरी)
४०८ मुद्ग कवटकाः। २९६ सापहारी (ताहरी) ४०८ पकौरी (फुलौरी) ३९७ परमाई (खीर)
मांसस्य प्रकारा। ३९७ नारिकक्षी।
४०९ शुद्धमांसम् । ३९८ सेविका (सई)
४१० सहद्रकम् । ३९८ मंडकः ( मंडा)
४१० तकमासमा १९८ लोग्बी (लोई)
४११ हरीसा (प्रास) ३९९ री।
Aho atसवितमातम्।
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(३२) भावप्रकाश (हरीतक्यादि) निघण्टुकी सूची |
| पृठ.
पृष्ट.
४१३ शूल्यपलम् । ४१२ मांसशृंगाटकम् | ४१३ मांसरसः ।
शाकपाकविधिः ।
४१४ मटकम् (मरी )
४१४ संयावः ( गुजिया ) ४१५ कर्पूरनालिका
विषय.
४१५ फेनिका ( फेनी ) ४१६ शष्कुली (खस्त पूरी ) । ४१७ सेविकामोदकः । ४१७ मुक्कामोदकाः (बूंदी के लड्डू)
४१७ वेसन मोदकाः (माताचूर के लड्डू )
४१८ दुग्धकूपिका ।
४१८ कुण्डलिनी ( जलेबी ) पश्चात् परिष्याणि ।
४१९ रसाला (सिखरन ) प्रपानकानि ।
४२१ शर्करोदकम् (सरबत )
४२१ आम्र फलप्रपानकम् । ४२२ अम्लिका कलमरानकन् ।
४२२ निम्बुकफलप नकम् ।
४२२ धान्याप कनम् । ४२३ काशी ।
१२३ जालिः ।
४२४ तक्रम् ।
४२४ दुग्धम्
1
४२४ सक्तवः ।
४२५ यत्रसक्तवः ।
४२५ चणकयव सक्तवः । ४२५ शालिसक्तवः । ४२६ सामान्य परिभाषा । ४२६ धात्रा: ( बहुरी )
४२६ लाजा ( खील )
४२७ चिपिटा : ( चिउडा ) ४२७ होला ।
४२७ ऊची (जंबी )
विषय.
४२८ कुल्माषः । ( घुघुरी ) ४२८ तिलकुट्टम ( तिलकुट ) ४२८ तिल : (खल, पीला ) ४२९ तन्दुलः ( चावल ) अनेकार्थवर्गः ।
४२९ द्वयर्थन्दाः | ४३४= यर्थकवर्गः ।
४३८ अनेकार्थशब्दाः । ४४० परिशिष्टनाम ४४४ परिशिष्टभाषानामानि ।
।
इति विषयानुक्रमणिका समाप्ता ।
Anor Shrugyanam
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श्रीगणेशाय नमः।
AU
।
भावप्रकाशनिघण्टुः ।
अर्थात् हरीतक्यादिनिघण्टुः। शिवप्रकाशिकाटीकोपेतः।
-CETRO
गुरवे नमः।
टीकाकारकृतं मंगलम् । ब्रह्मेन्द्रादीश्च वै देवान् भरद्वाजादिकानुषीन् । सिद्धाचार्यास्तथान्यांश्च द्यायुर्वेदप्रचारकान् ॥ १॥ प्रणम्य श्रीगुरून्भक्त्या पूज्यान् पितृपदाब्जकान् । हरीतक्यादिकोशस्य भाषा शिवप्रकाशिका । सर्वलोकहितार्थाय क्रियते शिशर्मणा ॥ २ ॥ ब्रह्मादिक देवताओं, भरद्वाजादि ऋषियों, सिद्धाचार्यों और अन्य मायुर्वेदप्रचारकों, गुरुओं तथा पूज्य पितृचरणकमलोंमें भक्तिसहित प्रणाम करके मैं शिव शर्मा सब लोगोंके हितके लिये हरीतक्यादि निघण्टुपर शिवप्रकाशि का नामकी भाषाटीकाको करता हूं ॥ १ ॥२॥
यतो द्रव्यगुणज्ञानं प्रधानं हि चिकित्सिते। हरितकी पुरस्कृत्य निघण्टुलिख्यते मया ॥
दोहा। आयुर्वेदिक शास्त्र है, औषध ज्ञान प्रधान । यासे पथ्यादिक लिख्यो, उचित द्रव्य गुण ज्ञान ।
Aho! Shrutgyanam
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। अथ प्रथमं हरीतक्या उत्पत्तिर्नाम लक्षणं गुणाश्च । दक्ष प्रजापति स्वस्थमश्विनौ वाक्यमूचतुः। कुतो हरीतकी जाता तस्यास्तु कति जातयः ॥ १॥ रसाः कति समाख्याताः कति चोपरसा स्मृताः। नामानि कति चोक्तानि किंवा तासां च लक्षणम्॥२॥ के च वर्णा गुणाः के च का च कुत्र प्रयुज्यते । केन द्रव्येण संयुक्ता कांश्च रोगान्व्यपोहति ॥३॥ प्रश्रमेतं यथा पृष्टं भगवन्वक्तुमईसि ।
अश्विनोर्वचनं श्रुत्वा दक्षो वचनमब्रवीत् ॥ ४ ॥ सर्वथा सुखपूर्वक बैठे हुए दक्ष प्रजापतिजीसे अश्विनीकुमार पूछने लगे कि हे भगवन् ! हरीतका ( हरड़ ) कहां से उत्पन्न हुई है और इसकी कितनी जातिये हैं ? इसमें कितने रस और उपरस हैं ? इसके कितने नाम हैं और उन्के क्या लक्षण हैं ? इसके वर्ण और गुण क्या क्या हैं ? किस प्रकारकी हरीतकीका किस स्थान में प्रयोग करना चाहिये ? हरीतकी किन २ द्रव्योंके संयोगसे किन २ रोगोंको दूर करती है ? इन प्रश्नोंका क्रमपूबैंक उत्तर देनेकी कृपा कीजिये । इस प्रकार अश्विनीकुमारोंके वचःको सुनकर दक्ष प्रजापति कहने लगे॥ १-४ ॥
हरीतक्या उत्पत्तिः। पपात बिंदुर्मेदिन्यां शकस्य पिबतोऽमृतम् । ततो दिव्याः समुत्पन्नाः सप्तजातिहरीतकी ॥५॥ आदिकाळमें जब इन्द्र अमृत पीने लगे तो पीते समय अमृतकी एक बूंद पृथ्वीपर गिर पड़ी उससे सात जातिकी दिव्य शक्तियोंवाली हरी. तकी उत्पन्न हुई ॥ ५॥
Aho ! Shrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.।
हरीतकीनामानि । हरीतक्यभया पथ्या कायस्था पूतनामृता। हैमवत्यव्यथा चापि चेतकी श्रेयसी शिवा ॥ वयस्या विजया चापि जीवन्ती रोहिणीति च॥६॥ हरीतकी, अभया, पथ्या, कायस्था, पूतना, अमृता, हैमवती, मध्यमा, चेतकी, श्रेयसी, शिक्षा, वयस्था, विजया, जीवन्ती और रोहिनी पर हरीतकीके संस्कृत नाम हैं।
इसे हिन्दी भाषामें हरड, हरी, हरीतकी, यूनानीमें इललाजई और अंग्रेजीमें Myraaglans कहते हैं ॥ ६ ॥
हरीतकी जातयः। विजया रोहिणी चैव पूतना चामृताभया ॥
जीवन्ती चेतकी चेति पथ्यायाः सप्त जातयः॥ ७॥ विजया, रोहिणी, पतना, अमृता, अभया, जीवन्ती और चेतकी पर हरीतकीकी सात जातिये ॥ ७ ॥
हरीतीलक्षणम् । अलावुवृत्ता विजया वृत्ता सा रोहिणी स्मृता । पूतनास्थिमती सुक्ष्माकथिता मांसलामृता ॥ ८ ॥ पंचरेखाभया प्रोक्ता जीवन्ती स्वर्णवर्णिनी। त्रिरेखा चेतकी ज्ञेया सप्तानामियमाकृतिः ॥९॥ तूम्बीके पाकार की गोल हरडको विजया कहते हैं। साधारण गोल हरद रोहिणी कही जाती है। जिस हरड़में गुठली बड़ी और छिलका पतला हो उसको पूतना कहते हैं । मोटे गुहे वाली हरडे अमृता कही जाती हैं। यश्च रखाओंवाली हरडको अभया करते हैं। स्वर्गक समान वर्णवाली जीवन्ती कही जाती है। गौर तीन रेखावाली हरहको की कहते हैं । इस प्रकार सात जातिकी हरडोंके यह सात स्वमने
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(४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । कहे हैं। विजया इरड प्रायः विन्ध्याचल पर्वतपर उत्पन्न होती है। चेतकी हिमाचलपर, पूतना सिन्धु नदीके किनारे पर, रोहिणी प्रायः सब स्थानोंमें, अमृता और अभया चम्बेके पहाडोंपर और जीवन्ती सौराष्ट्र देशमें उत्पन्न होती है ॥ ८ ॥९॥
हरीतकीप्रयोगः।
विजया सर्वरोगेषु रोहिणी व्रणरोपणी । प्रलेपे पूताना योज्या शोधनार्थेऽमृता हिता ॥१०॥ अक्षिगेगेऽभया शस्ता जीवन्ती सर्वरोगहृत् । चूणार्थे चेतकी शस्ता यथायुक्तं प्रयोजयेत् ॥ ११॥ चेतकी द्विविधा प्रोक्ता श्वेता कृष्णा च वर्णतः। षडंगलायता श्वेता कृष्णा त्वेकांगला स्मृता ॥१२॥ काचिदास्वादमात्रेण काचिद् गन्धेन भेदयेत् । काचित्स्पर्शन दृष्टयान्या चतुर्धा भेदयेच्छिवा १३॥ चेतकीपादपच्छायामुपसर्पति ये नराः । भियंते तत्क्षणादेव पशुपक्षिमृगादयः ॥ १४॥ चेतकी तु धृता हस्ते यावत्तिष्ठति देहिनः । तावद भिद्येत वेगैस्तु प्रभावानात्र संशयः ॥ १५ ॥ नृपादिसुकुमाराणां कृशानाम्भेषजद्विषाम् । चेतकी पस्मा शस्ता हिता सुखविरेचनी॥ १६॥ सप्तानामपि जातीनां प्रधान विजया स्मृता। सुखप्रयोगा सुलभा सर्वरोगेषु शस्यते ॥ १७॥ विजया हरड सब रोगोंमें प्रयुक्त की जाती है, रोहिणी व्रणों के भरने में
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. ट
(५)
हितकारी है, पूतना लेप करनेके लिये उत्तम हैं, अमृता हरड शोधन ( रेचन कार्य ) में हितकारी है, प्रभया नेत्र विकारोंके लिये श्रेष्ठ है, जीवन्ती सब रोगों को हरनेवाली है, और चूर्णों में चेतकीका प्रयोग करना चाहिये ॥ चेतकी वर्ण में दो प्रकार की है-सफेद और काली । सफेद प्रायः छे अंगुल लम्बी होती है और काली एक अंगुल लम्बी होती है |
कोई हरड स्वादमात्रसे, कोई गन्ध लेनेसे, कोई स्पर्श मात्रसे और कोई दृष्टिमात्र से ही दस्त लाने लगती है । इनमें चेतकी हण्डके वृक्ष के नीचे हो जो मनुष्य या पशु पक्षि मृगं आदि लख जाते हैं उनको तत्क्षण दस्त होने लगते हैं । उत्तम चेतकी हरड जबतक मनुष्य हाथमें धारण करता है तबतक उसको इस हरड के प्रभाव से बराबर विरेचन होता रहता है राजा आदि सुकुमार पुरुषोंको, कृश पुरुषोंको तथा अौषध पीने से द्वेष रखने वालों को चेतकी हरड परम हितकारी और सुखपूर्वक विरेचन करनेवाली है |
इन सातों ही जातिकी हरडोंमें विजया हरड प्रधान है सब स्थानों में मिल सकती है, तब रोगोंमें हितकारी है और इसका : सुखपूर्वक प्रयोग किया जा सकता है ॥ १०- १७ ॥
हरीतकीगुणाः ।
हरीतकी पञ्चरसालवणा तुवरा परम् । रूक्षोष्णा दीपनी मेध्या स्वादुपाका रसायनी ॥ १८ ॥ चक्षुष्या लघुगयुष्या बृंहणी चानुलोमनी । श्वासकासप्रमेहार्शः कुष्ठशोथोदर क्रिमीन् ॥ १९ ॥ वसग्रहणी रोग विबन्धविषमज्वरान् । गुल्माध्मानत्रणच्छर्दिहिका कंठहृदामयान् ॥ २० ॥
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(६) भावप्रकाशानिघण्टुः भा. टी. । कामलां शूलमानाहं प्लीहानं च यकृद्गदम् । अश्मरी मूत्रकृच्छ्र च मूत्राघातं च नाशयत् ॥२॥ हरीतकी लवणके अतिरिक्त पांचों रसोवाली है, विशेषतः कषाय रस-' वानी है, तथा रूखी, गरम, दीपन करनवाली, बुद्धिको बढानेवाली, स्वादु पाकबाली, आयुको बढानेवाली, आंखाको हितकारी, हलकी, मायुवर्धक, शरीरको पुष्ट करनेवाली और वायुको शांत करनेवाली है। हरड-श्वास, खांसी प्रमेह, बवासीर, कोढ, सूजन, उदर, कृमिरोग, विसपरोग, (पाठान्तर वैस्वर्यस्वरङ्ग रोग) ग्रहणी, विन्ध, विषमज्वर, मुल्म, प्राधमान, व्रण (धाव), वमन, हिचकी, कण्ठ और हृदयके रोग, कामला, शूल, सानाह, प्लीहा और यकृत रोग, पथरी, मूत्रकृच्छ और मूत्राघात इन सबको नष्ट करती है ॥ १८-२१ ॥ स्वादुतिक्तकषायत्वात पित्तहत्कफहृत्तु सा । कटुतिक्तकषायत्वादालत्वादाहच्छ्विा ॥ २२ ॥ पित्तकृत्कटुकाम्लत्वाद्वातन्त्र कथं शिवा ॥ प्रभावादापतृत्वं सिद्धं यत्तत्प्रकाश्यते ।। २३ ।। हेतुभिः शिष्यबोधार्थ पूर्व तु क्रियतेऽधुना। कम्मान्यत्वं गुणः साम्यं दृष्टमाश्रयभेदतः ॥ २४ ॥ यतस्ततो नेति चिंत्यं धारीलकुचयोर्यथा । पथ्याया मज्जनि स्वादु नावावम्लो व्यवस्थितः॥२५ वृते तिक्तस्त्वचि कटु स्थिस्थस्तुवरो रसः। नवा स्निग्धा घना वृत्ता गुर्वी क्षिप्ता च यांभसि २६ निमज्जेत्सा सुप्रशस्ता कथितातिगुणप्रदा । नवादिगुणयुक्तत्वं तथैवात्र द्विकर्षता। हरीतक्याः फले यत्र द्वयं तच्छृष्ठभुच्यते ॥ २७ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (७) हरीतकी मधुर, तिक्त और कषैली होनेसे पिनको, कटु तिक्त और कसैली होनेसे कफको और अम्ल होने ने वातको हरनेवाली है । यदि ऐसा कहो कि कटु और अम्ल होनेसे पित्तको क्यों नहीं बढाती ? कड़वी
और कसली होनेसे वायुको क्यों नहीं बढाती ? क्योंकि प्रभावसे ही इसका दोष हरनेवाला स्वभाव है इसलिये यह दोषोंका प्रकोप नहीं करती। पहले जो हमने रसोंके गुणसे दोषोंका प्रशमनक्रम बतलाया है वह शिष्योंके बोधके लिये है। बहुतसे द्रव्यरस गुणोंमें साम्यावस्था रखते हुए भी आश्रय भेदसे भिन्न भिन्न कर्मों को करते हैं। जैसे मामले और पबहरके फूल रसमें समान होनेपर भी भिन्न भित्र गुणों को करते हैं।
हरडकी मज्जा स्वादु है, इसकी नाडियोंमें खट्टापन है, हमें तिक्त रस है, त्वचा कटुपन है और गुठली में कसैला रस है।
हरड नई चिकनी, घन, युष्ट. गोल और भारी लेनी चाहिये । जो इन गुणोंवाली हरड जल में गिरानेसे डूब जाय वह हरड अत्यन्त श्रेष्ट और गुणोंके करनेवाली होती है । जो हरड नवीन आदि गुणोंके होते हुए भी दो तोला की तोलमें हो वह हरड श्रेष्ठ कही है ॥ २२-२७ ॥
चर्विता वयत्यग्निं पेषिता मलशोधनी। स्विना संभाहिणी पथ्या भृष्टा प्रोता त्रिदोषनुत्२८ उन्मीलिनी बुद्धिबलेन्द्रियाणां निर्मूलिनी पित्तकफानिलानाम् । वित्रंसिनी मूत्रराकृन्मलानां हरीतकी स्यात्सह भोजनेन ॥ २९ ॥ अन्नपानकृतान्दोषान्वातपित्तकफोद्भवान् । हरीतकी हरत्याशु भुतस्योपरि याजिता ॥३०॥ हरीतकी चर्वण करनेसे अग्निको बढाती है,। पीसकर खानेसे मलको
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(८)
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
शुद्ध करती है, पुटपाक की हुई मलको बांधती है, भूनकर खाई हुई त्रिदोको नाश करती हैं ।
यति हरीतकी भोजनके साथ खाई जावे तो बुद्धि, बल और न्द्रियों को विवसित करती है; वात, पित्त कफके विकारोंको निर्मूल करती है. मूत्र विष्ठा और मतोंको साफ करके निकाल देती है । यदि हरडको भोजन के अन्तमें सेवन किया जाय तो अन्न पान के मिथ्या उपयोग करने से उत्पन्न हुए बात पित्त कफ के सब विकारोंको दूर करती है ॥ २८-३० ॥
लवणेन कर्फ हंति पित्तं इंति सशर्करा । घृतेन वातजान्रोगान्सर्वरोगान्गुडान्विता ॥ ३१ ॥ सिंधूत्थशर्करा शुंठी कणामधुगुडैः क्रमात् । वर्षादिष्वभया प्राश्या रसायनगुणैषिणा || ३२ ॥
हरड लगाके साथ कफको, मिश्री के साथ पित्तको, घृतके साथ वातविकारों को और गुड के साथ सब रोगों को दूर करती है। इरड-सैंधा नमक, शर्करा, सौंठ, पीपल, शहद और गुडके साथ क्रमपूर्वक वर्षा, शरद, हेमन्त शिशिर, वसन्त और ग्रीष्म ऋतुमें खानेसे रसायन के गुणोंको करती है अर्थात् बुढापे और बीमारीको दूरकरके उमरको बढाती है ।। ३१ ।। ३२ ।।
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हरड़ सेवनके अयोग्य प्राणी । अध्वातिखिन्नोबलवर्जितश्च रूक्षः कृशोलंघनकर्षितश्च । पित्ताधिको गर्भवतीचनारी विमुक्तरक्तस्त्वभयांनखादेत् ॥
जो मनुष्य मार्ग चढकर थक गया हो, बलरहित हो, रूक्ष हो, कृश हो, जो लंघन करने से कृश होगया हो, जिसके शरीर में पित्त अधिक हो, जिसका रक्त निकलवाया गया हो और गर्भवती स्त्री इनको इरड़का सेवन नहीं करना चाहिये ॥ ३३ ॥
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विभितकः। विभीतकत्रिलिङ्गः स्यादक्षः कर्षफलस्तथा ॥ कलिद्रुमो भूतवासस्तथा कलियुगालयः ॥ ३४॥ विभी-कं स्वादुपाकं कषायं कफपित्तनुत् । उष्ण वीर्य हिमस्पर्श भेदनं कासनाशनम् ॥३५॥ सूक्षं नेत्रहितं केश्यं कृमिवैस्वर्यनाशनम् । विभीतमज्जा तृछर्दिकफवातहरी लघुः ॥३६॥
कषाया मदकृञ्चाथ धात्रीमज्जापि तद्गुणा। बहेडा, विभीतक, विभीतकी, अक्ष,कर्षफल, कलिद्रुम, भूतवास,कलियुगालय, सम्वत सम्वतक, कुशिक और कासघू यह बहेडेके नाम हैं। हिंदीमें बहेडा, फारसीमें बलैले और अंग्रेजीमें Belleric Myrabalam कहते हैं। बहेडा मधुरपाकी. कसैला, कफ और पिनको नष्ट करनेवाला, उष्णवीर्य, स्पर्शमें ठण्डा, दस्तावर और खोमीकोष्ट करनेवाला है, रून है, नेत्रे'को हितकारी है, केशोंको बढाता है, कृमि और स्वरभङ्गको दूर करता है।
बहेड़ेकी मज्जा-प्यास, छर्दि, कफ और वायुको हरनेवाली है । हल्की है, कसैली है और मद करनेवाली है, मामलेकी मज्जाके भी प्रायः यही गुण हैं ॥ ३४-३६ ॥
आलमकी। वयस्यामल की वृष्या जातीफलरसं शिवम् ॥३७॥ धात्रीफलं श्रीफलं च तथामृतफलं स्मृतम् । त्रिष्ट्रामलकमाख्यातं धात्री तिष्यफलामृता॥३८॥ हरीतकी मं धात्री फलं किन्तु विशेषतः । रक्तपित्तप्रमेहघ्नं परं वृष्यं रसायनम् ॥ ३९ ॥
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(१०) हंति वातं तदम्लत्वात्पित्तं माधुर्य्यशैत्यतः । कर्फ रूक्ष कषायत्वात्फलं धाग्यास्त्रिदोषजित् ॥४०॥ ववस्या, पालमकी, वृष्ण, जातीफलरसा, शिवधात्रिफल, श्रीफल: अमृतफल, धात्री, तिष्यफल और अमृता यह मामले के नाम हैं। इसको हिन्दीमें प्रामला, फारसीमें मामलज, अंग्रजामें Emblic Myrababa lan कहते है। ग्रामलक शब्द तीनों लिंगोंम होता है। आमला हरीतकीके समान गुणोंवाला है किन्तु इतनी इसमें विशेषता है कि रक्तपित्त तथा प्रमेहका दूर करनेमे, वीर्य पुष्टि और रसाय कर्मम यह विशे रूपसे गुण करता है, मला अम्ल रससे वायुका,मधुर रसस और शीततासे पित्तको, रू और कषाय होनेसे कफको जीतता है । इस लिये धात्रा फल त्रिदोषनाशक है ।। ३७ ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ ४० ॥
यत्ययस्य फलस्येह वीर्य्य भवति यादृशम् । यस्थतस्येव वीर्येण म जानामपि निर्दिशेत् ॥ ४ ॥ जित २ फल झा जिस २ प्रकारका वीर्य होता है उत्त-२ फल की मज्जाको भी उसी प्रकार के वीर्यवाली जानना चाहिये ॥ ४१ ॥
त्रिफला । पथ्या विभीनधात्रीणां फलैः स्यात्रिफला समैः । फलत्रिकं च त्रिफला सा वरा च प्रकार्तिता॥१२॥ त्रिफला कफपित्तघ्नी मे कुष्ठइरा सरा ।
चक्षुष्या दीपनी रुच्या विषमज्वरनाशिनी ॥४३॥ हरड, बहडा तथा प्रामला इन तीनोंकी गुठलीरहित छाल मम भाग ले नेसे त्रिफला कही जाती है । फलविक, फिफला और बरा यह विफले के नाम हैं। विफहा ककपिननाशक, मेड और कुष्ठको हरने पाला दस्तावर, अग्निदीपक,रुचिकारक और विषमज्वरको दूर करनेवाला है ॥४२॥ १३ ॥
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शुंठी । शुंठी विश्वा च विश्वं च नागरं विश्वभेषजम् । ऊषण कटुभद्रं च शृंगवेरं महौषधम् ॥ ४४ ॥ शुंठी रुच्यामवातघ्नी पाचनी कटुका लघुः । स्निग्धोष्णा मधुरा पाककफवातविबंधनुत् ॥ ४५ ॥ वृष्या स्वय्र्यावमिश्वासशूलकासहृदामयान् । इंति श्लीपदशोफार्शआना हो इरमारुवान् ॥ ४६ ॥ आग्नेयगुणभूयिष्ठं तोयांशं परिशोषयेत् । संगृह्णाति मलं तत्रु ग्राहि शुव्यादयो यथा ॥ ४७ ॥ विबंधभेदनी या तु सा कथं ग्राहिणी भवेत् । शक्तिर्विबंधभेदेऽस्वा यतो न मलपातने ॥ ४८ ॥
( ११ )
शुण्ठी, विश्वा, विश्व, नागर, विश्वभेषज, ऊषण, कटुभद्र, शृङ्गवेर और महौषध यह सोंठ के नाम हैं । शुण्डीको हिन्दी में सोंठ, फारसी में जंजबील अग्रेजीमें Drygingerroot कहते हैं ।
सौंठ-रुचिकारक, आमवातको नष्ट करने वाली, पाचन करनेवाली, कटु, हलकी, चिकनी, गरम, पाकमें मधुर, कफ वात तथा मलके बन्धको नष्ट करनेवाली, वीर्यवर्धक, स्वरको बढानेवाली, तथा वमन, श्वास, शूज, खांसी, हृदय के रोग, श्लीपद, सूजन, बवासीर, आवाद और बायुके विकारों को नष्ट करती है। जो द्रव्य अनिक गुणकी अधिकतासे जलके अंशको शोषण करने वाला हो और मलय बांधनेवाला हो उसको ग्राही कहते है । जैसे सोंठ, यदि इसमें यह शंका की जाय कि जब सोंठ मलके बन्धको भेदन करनेवाल' है फिर यह ग्राही कैसे हो सकती है ? इसके उत्तर में कहते हैं कि सोंठकी शक्ति भेदन करने में है परन्तु मलको पातनः करना इसका धर्म नहीं है ।। ४४-६८ ॥
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4 १२ ) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
आद्रकम् । आर्द्रकं शृंगवेरं स्यात्कटुभद्रं तथार्दिका । आर्द्रिका भेदनी मुर्वी तीक्ष्णोष्णा दीपनी मता ॥१९॥ कटुका मधुरा पाके रूमा वातकफापहा । ये गुणाः कथिताः अ॒व्यां तेऽपिसंत्याकेऽखिलाः५० भोजनाग्रे सदा पथ्यं लवणाकभक्षणम् ।
अग्निसंदीपनं रुच्यं जिह्वाकण्ठविशोधनम् ॥११॥ आद्रक, शृंगवेर, कटुभद्र और आदिका यह अदरकके नाम हैं। इसे हिन्दीमें अदरक, फारसी में जिंजिबिलरतवा और अंग्रेजी में Emblic Myrobalan कहते हैं । आदिका भेदन करनेवाली, भारी, तीक्षण, ऊपण और दीपन करती है। आद्रिक पाक मधुर, रूखा और वात तथा कफको नष्ट करनेवाला है । जो गुण सोंठमें हैं वह सम्पूर्ण अदा कमें भी हैं। भोजनसे प्रथम लवण और आर्दक खाना सर्वदा हितकारी, अग्निको दीपन करनेवाला, रोचक और जीभ तथा कण्ठको शुद्ध करता
कुष्ठे पांड्वामये कृच्छ्रे रक्तपित्ते व्रणे ज्वरे । दाहे निदाघशरदोनॆव पूजितमाकम् ॥ ५२ ॥ कुष्ठ, पाण्डुरोग,कृच्छ, रक्तपिन, व्रया (घाव ), ज्वर, दाह इनमें तथा ग्रीष्म और शरद ऋतु में अदरकका सेवन नहीं करना चाहिये ।। ५२ ।।
पिप्पली। पिप्पली मागधी कृष्णा वैदेही चपला कमा। उपकुल्योपणाशौंडी कोला स्यात्तीक्ष्णतंडुला ॥५३॥ पिप्पली दीपनी वृष्या स्वादुपाकारसायनी । अनुष्णा कटुका स्निग्धा वातश्लेष्महरीलघुः॥ ५४॥
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हरीतक्पादिनिघण्टुः भा. टे!. |
पिप्पली रेचनी हंति श्वासकासोदरज्वरान् । कुष्ठप्रमेह गुल्मार्शः प्लीहशूलाममारुतान् ॥ ५५ ॥ आदी कफप्रदा त्रिग्धा शीतला मधुरा गुरुः । पित्तप्रशमनी सा तु शुष्का पित्तप्रकोपनी ॥ ५६ ॥ पिप्पली मधुसंयुक्ता मेदःकफ विनाशिनी । श्वासकासज्वरहरी वृष्या मेध्याग्निवर्द्धनी ॥ ५७ ॥ जीर्णज्वरेऽग्निमांद्ये च शस्यते गुडपिपली । कासाजीर्णारुचिश्वासहृत्पांडुकृमिरोगनुत् ॥ ५८ ॥ द्विगुणः पिप्पलीचूर्णागडोत्र भिषजां मतः ॥
(१३)
पिप्पली, मागधी, कृष्णा, वैदेदी, चपला, कणा, उपकुल्या, ऊष्णा शौंडी, कोला, तीक्ष्णतण्डुला यह पिप्पलीके नाम हैं। इसका हिन्दी में मद्य फारसीमें पिप्पलादशज ।
पिप्पली- दीपन करनेवाली, वीर्यवर्धक, पाकमें मधुर, आयुके बढाने - वाली, ऊष्ण नहीं, कटु, चिकनी, वात और कफको हरनेवाली, हल्की और रेचक है । पिप्पली - श्वास, खाँसी, उदर, ज्वर, कोट, प्रमेद, गुल्म, अर्श प्लीहा ( तिल्ली ), शूल तथा ग्रामको नष्ट करती है । पिप्पली यदि गाली दो तो कफको बढानेवाली, चिकनी, शीतल, मधुर, भारी और पित्तको शमन करनेवाली है, यदि सूखी हो तो पित्तको प्रकोप करती है। मधुके साथ खाई हुई पिप्पली मेद तथा कफको नष्ट करनेवाली, श्वास, काल और ज्वरको हरनेवाली, वीर्यवर्धक, बुद्धिवर्धक तथा अग्निको बढानेवाली है। जीर्ण ज्वर में और अग्निके मन्दहो जानेपर गुड़के साथ पिप्पली खाने योग्य है | गुड़के साथ पीपल खानेसे कास, अजीर्ण, अरुचि, श्वास तथा हृदय, पाण्डु और कृमि रोगोंको नष्ट करती है। श्रेष्ठ वैद्योंके मतमें पिप्पली चूर्णसे द्विगुण गुड़ डालना योग्य है ॥ ५३५८ ॥
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.
मरिचम् । मरिचं वेल्लजं कृष्णमूषणं धर्मपत्तनम् । मरिचं कटुकं रूक्ष्णं दीपनं कफवातजित् ॥ ५९॥ उष्णं पित्तकरं तीक्षं श्वासशूलकृमीन हरेत् । तदा मधुरं पाके नात्युष्णं कटुकं गुरु ॥ ६॥ किंचित्तीक्ष्णगुणं श्लेष्मप्रसेकि स्यादपित्तलम् । मरिच, वेल्लज, कृष्ण, ऊषण, धर्मपत्नन यह काली मिरचके नाम हैं इसको हिन्दीमें काली मिरच तथा गोल मिरच, फारसीमें पिलपिल पस्वत्, पौर अंग्रेजीमें Black Pepper कहते हैं। काली मिरच-कटु, तीक्ष्ण, दीपक, कफ और वातको जीतनेवाली उष्णा, पित्तकारक, रूखी तथा श्वास शूल और कृमियोंको नष्ट करतोडे । गोली काली मिरच पाकमें स्वादु, बहुत ऊष्ण नहीं, कटु, भरी, कुछ तीक्ष्ण गुणोंवाली, कफको निकाल देनेवाली और पित्तकारक नहीं है ॥ ५९ ।। ६० ॥
त्रिकटु। विश्वोपकुल्यामरिचत्रयं त्रिकटु कथ्यते ॥ ६१॥ कटुत्रिकं तु त्रिकटु त्र्यूषणं व्योषमुच्यते । त्र्यूषणं दीपनं हंति श्वामकामत्वगामयान् ॥ ६२॥ गुल्ममेहकफस्थौल्यमेदःश्लीपद पीनमान् । सोंठ, पीपल और काली मिरच इन तीनोंको त्रिकटु कहते हैं। कटुत्रिक, विकटु, व्यूष्ण और योष यह त्रिकटु पर्यायवाचक शब्द हैं। त्रिकटु अग्निदीपक तथा श्वास, खांसी, स्वचाके रोग, गुल्म, प्रमेह, कफ, मोटापन,मेदारलीपद और पीनस इन रोगोंको नष्ट करता है ॥६१ ॥ ६२ ॥
पिप्पलीमूलम् । अंथिकं पिप्पलीमूलमूषणं चटकाशिरः ॥ ६३ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१५) दीपनं पिप्पलीमूलं क्टूष्णं पाचनं लघु । रूक्षं पित्तकरं भेदि कफवातोदरापहम् ॥ ६४ ॥
आनाहप्लीगुल्मघ्नं कृमिश्वापक्षयापहम् । ग्रन्थिक, पिप्पलीमूल, ऊषण और चटकाशिर यह पिप्पलीमूलके संस्कृत नाम हैं। हिन्दी में इसे पिप्पलामूल, फारसीमें फिनफिलमोया और अगरेजी Piper Root कहते हैं।
पिप्पनामल-अग्निदीपक, कटु, उष्ण, पाचक, हल्का रूखा,पिनकारक, भेदन करनेवाला तथा कफ, वात, उदर, पानाह, प्लीहा, गुल्म, कृमि. रोग, श्वास तथा क्षयको नष्ट करता है॥६३ ॥ ६४॥
चतुरूषणम् । ज्यूषणं सकणामूलं कति चतुरूषणम् ॥६५॥ व्योषस्यैव गुणाः प्रोक्ता अधिकाश्चतरूपणे। संउ, काली मिरच, पीपल और पिपला मूल इन चारों को चतुरूषण कहते हैं। चतुरूपया में उपेषणवाले ही अधिक गाणा हैं ॥ ६५॥
चव्यम् । भवेच्चव्यन्तु चविका कथिता सा तथोषणा ॥६६॥ कणामूलगुणं चन्यं विशेषाद्दजापहम् । चध्य, चविक, ऊषण यह चव्यके संस्कृत नाम हैं। हिन्दीमें इसको चय और अगरेजीमें Chavica Rax Burghi Piper Chava कहते हैं चव्यमें पीपल मूल सदृश ही गुण हैं परन्तु गुदासे उत्पन्न हुए रोगोंके लिये विशेषतः हितकारी हैं ॥ ६६॥
गजपिप्पली। चविकाया फलं प्राज्ञैः कथिता गजपिप्पली॥६७॥ कपिवल्ली कोलवल्ली श्रेयसी बशिरश्च सा।
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( १६ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
गजकृष्णा कटुवीतश्लेष्मद्वह्निवर्धिनी ॥ ६८ ॥ उष्णा निरंत्यतीसारं श्वासकण्ठामयक्रिमीन् ।
चविका फलको ही विद्वान पुरुष गजपिप्पली कहते हैं । कपिवल्ली कोलबली, श्रेयसी तथा वशिर यह संस्कृत में गजपिप्पली के पर्यावाचक शब्द हैं | हिन्दी में इसको गजपीपल, अंग्रेजी में Scendapsus Officinalis कहते हैं । गजपीपल- कटु, वात और कफको हरनेवाली, अग्रिको बढानेवाली, गरम तथा अतिसार, श्वास, कण्ठके रोग तथा कृमियोंको नष्ट करती है ॥ ६७ ॥ ६८ ॥
चित्रकः ।
चित्रकोऽनलनामा च पाठी व्यालस्तथोषणः ॥ ६९ ॥ चित्रकः कटुकः पाके वह्निकृत्पाचनो लघुः । रूक्षोष्णो ग्रहणीकुष्ठशोथार्शः कृमिकासनुत् ॥ ७० ॥ वातश्लेष्महरो ग्राही वातार्शःश्लेष्म पित्तहृत् ।
वित्रक, अनलनामा ( अर्थात अग्नि के जितने नाम हैं वह सब चित्रकके भी हैं ) पाठी, व्याळ और ऊषण यह चित्रकके नाम हैं । इसको हिन्दी में चीता और चित्रक, फारसीमें वेख बरन्दा और अङ्गरेजी में Gingerroot कहते हैं। चीता पाकमें कटु, अग्निकों दीपन करनेवाला, पाचन करने बाला, रूखा और ग्राही है। चित्रक -ग्रहणी, कुष्ठ, सूजन, बवासीर, कृमिरोग ओर कासको नष्ट करनेवाला तथा वात और कफको नष्ट करनेवाला है ।। ६९ ।। ७० ।।
पंचकोलम् |
पिप्पलीपिप्पलीमूलं चव्य चित्रकनागरैः ॥ ७१ ॥ पंचभिः कोलमात्रं यत्पंचकोलं तदुच्यते ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः मा. टी.। (१७) पंचकोलं रसे पाके कटुकं रुचिकृन्मतम् ॥ ७२ ॥ तीक्ष्णोष्णं पाचनं श्रेष्ठं दीपनं कफवातनुत् । गुल्मप्लीहोदरानाहशूलघ्नं पित्तकोपनम् ॥ ७३ ॥ पीपल, पिप्पलीमूल, चव्य, चीता और सोंठ इन पांचोंको एक २ कोल (आठ २ मासे) लेकर एकत्रित करे उसे पञ्चकोल कहते हैं। पञ्चकोलरस तथा पाकमें कटु, रुचिकारक तीक्ष्ण,गरम, पाचन करनेवाला, अग्निदीपक, कफ वातको नष्ट करनेवाला तथा गुल्म,प्लीहा तिल्ली, उदररोग, आनाह और शूलको हरनेवाला और पित्तको प्रकुपित करनेवाला है ।। ७१-७३।
पडूषणम् । पंचकोलं समरिचं षडूषणमुदाहृतम् । पंचकोलगुणं तत्तु रूक्षमुष्णं विषापहम् ॥ ७४॥ पञ्चकोलमें काली मिरच मिलादेनेसे पडूषण बन जाता है। पञ्चकोलरूखा, गरम और विषों का हरनेवाला है ॥ ७४ ॥
यवानिका । यवानिकोग्रगंधा च ब्रह्मदर्भाजमोदिका। सैवोक्तादीप्यका दीया तथा स्याद्यवसाह्वया ॥७॥ यवानी पाचनी रुच्या तीक्ष्णोष्णा कटुका लघुः। दीपनी च तथा तिक्ता पित्तला शुक्रशूलहृत् ॥७६॥ वातश्लेष्मोदरानाहगुल्मप्लीहकृमिप्रणुत् । यवानिका, उग्रगन्धा,ब्रह्मदर्भा, अजमोदिका, दीप्यका,दीप्या तथा यक्षसाहया ये अजरायन के संस्कृत नाम हैं इसे हिन्दी में अजवायन, फारसीमें नानुका, अंग्रेजी में ( Bishops weed seed) कहते हैं। भजवायन--पाचन करनेराली रुन्नि कारक तीक्ष्ण,गरम,कटु हलकी
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(१८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। अग्निदीपक,तिक्तपित्तकारक,तथा वीर्य,शूल,वात, कफ, उदररोग,पानाह शुल्म, प्लीहा तथा कृमियों को हरती है।। ७५ ॥ ७६ ॥
अजमोदा।
अजमोदा खराश्वा च मायूरो दीप्यकस्तथा ॥७७॥ तथा ब्रह्मकुशा प्रोक्ता कारवी लोचमस्तका । अजमोदा कटुस्तीक्ष्णा दीपनी कफवातनुत् ॥७॥ उष्णा विदाहिनी हया वृष्या बलकी लघुः । नेत्रामयकफच्छर्दिहिकाबस्तिरुजो हरेत् ।। ७१ ॥ अजमोदा, खराश्वा,मायूर,दीप्यक, ब्रह्मकशा कारवी,लोचमस्तका यह अजमोदके संस्कृत नाम हैं। हिन्दीमें इसे अजमोद, फारसीमें करपस और अंग्रेजीमें Celery Seed कहते हैं।
अजमोद-कटु, तीक्ष्ण, अग्निदीपक, कफ, वातको हरनेवाली, उष्ण, दाहको करनेवाली,हदयको प्रिय लगनेवाली,वीर्थधक बल कारक,इल की तथा नेत्ररोग, कफ, वमन, हिचकी तथा बस्ति (मसाना ) के रोगोंको नष्ट करती है ॥ ७७-७९ ।।
पारसीकयवानी।
पारसीकयवानी तु यवानीसदृशा गुणैः । विशेषात्पाचनी रुच्या ग्राहिणी मादिनी गुरुः॥८॥ पारसीकयवानी गुणोंमें यवानी ही समान है किंतु यह विशेषतासे याचन करनेवाली,रुचिकारक,ग्राही,मदकारक और भारी है। इसे हिंदी में खुरासानी अजवाइन, फारसी में तुरुमें वंजे और अंग्रेजीमें Artimisiamaritema कहते हैं । खुरासानी अजवायन अधिक खानेसे विषका प्रभाव करती है ॥ ८०॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
शुक्लजीरकं कृष्णजीरकमुपकुची ।
जीरको जरणोजाजी कणा स्वाद्दीर्घजीरकः । कृष्णजीरः सुगंधिश्व तथैवोद्गारशोधनः ॥ ८१ ॥ कालाजाजी तु सुपवी कालिका चोपकालिका पृथ्वीका कारवी पृथ्वी पृथुः कृष्णोपकुंचिका ॥ ८२॥ उपकुंची च कुंची व बृहज्जीरकमित्यपि । जीरकत्रितयं रूक्षं कटूष्णं दीपनं लघु ॥ ८३ ॥ सग्राहि पित्तलं मेध्यं गर्भाशयविशुद्धिकृत । ज्वरघ्नं पाचनं वृष्यं बल्यं रुच्यं कफापहम् ॥ ८४ ॥ चक्षुष्यं पवनामा नगुलमच्छतिसारहृत् । धान्यकं धानकं धान्यं धाना धानेयकं तथा ॥॥८५ ॥
( १९ )
जीरक, जरण, अजाजी, कथा, दीर्घजीरक, ये सफेद जीरे के संस्कृतमें नाम हैं ! हिन्दीमें इसे सफेद जीरा, फारसीमें जीरा और अंग्रेजीमें Cumminon Seed कहते हैं ।
कृष्णाजीर, सुगंधि, उद्गारशोधन यह काले जीरेके संस्कृत नाम हैं । हिन्दी में इसे काला जीरा, फारसी में जीरा स्याह और अंग्रेजीमें Black Caraway Seed कहते हैं ।
कालाजाजी, सुषवी, कालिका, उपकालिका, पृथ्वीका कारवी, पृथ्वी, पृथु, कृष्णा, उपकुञ्चिका उपकुंची कुनी, तथा बृहज्जीरक यह कलौंजीके संस्कृत नाम हैं। हिन्दी में इसे कलौंजी, फारसी में स्याहदाने, अंग्रेजीमें Small Fennel Flower कहते हैं। तीनों प्रकारके जीरे, रूखे, कटु उष्ण, अग्निदीपक, हलके, ग्राही, पित्तकारक, बुद्धिवर्धक, गर्भाशयको शुद्ध करनेवाले, ज्वरनाशक, पाचक, वीर्यवर्धक, बलकारक, रुचिकारक, कफना शक, नेत्रको हितकर तथा वायु, आध्मान, गुल्म, वमन और अतिसारको - नष्ट करते हैं ॥। ८१-८४ ॥
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( २० ) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
धान्यकम् ।
धान्यकं धानकं धन्वं धाना धानेयकं तथा ॥ ८५ ॥ कुनटी धेनुका छत्रा कुस्तुंबुरु वितुन्नकम् । धान्यकं तुवरं स्निग्धमवृष्यं मूत्रलं लघु ॥ ८६ ॥ तिक्तं कटूष्णवीर्ये च दीपनं पाचनं स्मृतम् । ज्वरघ्नं रोचनं ग्राहि स्वादुपाकि त्रिदोषनुत् ॥८७॥ तृष्णादावमिश्वासकासामाशःकृमिप्रणुत् । आई तु तद्गुणं स्वादु विशेपात्पित्तनाशि तत्८८ ॥
धान्यक, धानक, धान्य, धाना, धानेयक कुनटी, धेनुका, छत्रा, कुस्तुम्बुरु, चित्रक यह घनियेके संस्कृत नाम हैं । धनियां फारसीमें तुख्मेकसनीजई, अंग्रेजी में Coriander Seed कहते हैं । धनियां - कसैला, चिकना, वीर्यनाशक, मूत्रको उत्पन्न करते वाळा, हल्का, तिक्त, कटु, उष्णवीर्य, अग्निदीपक, पाचक, ज्वरनाशक, रुचिकारक, ग्राही, पाक में मधुर, त्रिदोषनाशक तथा प्यास, दाह, वमन, काल, आम अर्श और कृमियों का उन्मूलन करता है ।
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गीले धनिये के भी गुण सूखेके समान ही हैं किन्तु वह विशेषतः मधुर और पित्तनाशक होता है ॥ ८५-८८ ॥
शतपुष्पा मिश्रेया !
शतपुष्पा शताह्वा च मधुरा कारवी मिसिः । अतिलंबी सितच्छत्रा संहितच्छत्रकापि च ॥ ८९ ॥ छत्रा शालेयशालीनौ मिश्रेया मधुरा मिसिः । शतपुष्पा लघुस्तीक्ष्णा पित्तकृद्दीपनी कटुः ॥ ९० ॥ उष्णा ज्वरानिलश्लेष्मव्रणशूलाक्षिरोगहृत् । मिश्रेया तद्गुणा प्रोक्ता विशेषाद्योनिशूलनुत्॥९१॥
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( २१ )
अग्निमांद्य द्या बद्ध विकृमिशुक्रहृत् । रूक्षोष्णापाचनीका सवमिश्लेष्मा निलान् हरेत् ॥ ९२ ॥
शतपुष्पा, शताह्वा, मधुरा, कारवी, मिली, प्रतिलम्बी, खितच्छत्रा सहितच्छत्रका, छत्रा, शाळेय तथा शालीन यह सौंफ के संस्कृत नाम हैं, हिन्दी में इसे सौंफ कहते हैं, फारसी में बादियान, अंग्रेजीमें Fennel Seed कहते हैं ।
मिश्रया, मधुरा और मिलि यह सोयाके संस्कृत नाम हैं । इसको हिन्दी में सोया फारसी में तुख्में शूत, अंग्रेजीमें Dill Seed कहते हैं ।
सौंफ - हलकी, तीक्ष्ण, पित्तवर्धक अग्रिदीपक, कटु, गरम तथा ज्वर वायु, कफ. व्रण शूद्ध और नेत्ररोगोंको नष्ट करती है। सोयेके भी ऐसे ही गुण हैं परन्तु सोया विशेषतासे योनिके शूलको हरनेवाला, अग्निदीपक, हृदयको हितकर, मलको बान्धनेवाला, कृमि तथा वीर्यको हरनेवाला, रूखा, गरम, पाचक तथा काल, वमन, कफ और वातको नष्ट करनेवाला है ।। ८९-९२ ॥
मेषिका वनमेथिका ।
मेथनी 'मेथिका मेथी दीपनी बहुपत्रिका | बोधनी बहुबीजा च जातीगंधफला तथा ॥ ९२ ॥ वरी चन्द्रिका मंथा मिश्रपुष्पा च कैरवी । कुंचिका बहुपर्णी च पीतबीजा मुनिच्छदा ॥९४॥ मेथिका वातशमनी श्लेष्मघ्नी ज्वरनाशिनी । ततः स्वल्पगुणा वन्या वाजिनां सा तु पूजिता ॥ ९५ ॥
मेथिका, मेथी, मेथी, दीपनी, बहुपत्रिका, बोधनी, बहुबीजा, जातिगंधफला, वल्लरी, चन्द्रिका, मन्था, मिश्रपुष्पा, कैरवी, दुःखिका, बहुपर्णी, पीतबीजा तथा मुनिच्छदा यह मेथी के संस्कृत नाम हैं। हिन्दी में Aho! Shrutayanam इसे मेथी, फारसी में तुख्मे शमपीत, षग्रेजीमें Fennyreek कहते हैं ।
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(२२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
मेथी-वातको शमन करनेवाली, कफको नष्ट करनेवाली तथा ज्वरनाबक है। वनमेथी इसकी अपेक्षा थोडी गुणोंवाली है, यह घोडोंके लिये परमोत्तम है ॥ ९३-९५॥
चंद्रशूरम् । चंद्रिका चर्महंत्री च पशुमेहनकारकः।। नंदनी कारवी भद्रा वासपुष्पा सुवासरा ॥१६॥ चंद्रशूरं हितं हिकावातश्लेष्मातिसारिणाम् । असृग्वातगदद्वेषि बलपुष्टिविवर्धनम् ॥ ९७ ॥ चंद्रिका, चर्महन्त्री, पशुमेहनकारक, नन्दनी, कारवी, भद्रा, वासपुष्पा, सुवासरा, यह चंद्रशूरके संस्कृत नाम हैं. इसे हिन्दीमें हाली हालिम्, फारसीमें हालम तुरुमे तरातेजक, अंग्रेजीमें Common Cress कहते हैं।
चंद्रशूर-हिचकी, वात-कफ, रुधिर तथा वातव्याधियोंमें हितकारी है। तथा बलकारक्ष और पुष्टि करनेवाला है ॥ ९६ ॥ ९७ ॥
चतुर्बीजम्। मेथिका चंद्रशरश्च कालाजाजी यवानिका । एतचतुष्टयं युक्तं चतुर्बीजमिति स्मृतम् ॥ ९८॥ तच्चूर्ण भक्षितं नित्यं निहंति पवनामयम् ।
अजीर्णशूलमाध्मानं पार्श्वशूलं कटिव्यथाम् ॥९९॥ मेथी, हालो, कालाजीरा और अजवायन इन चारोंको चतुर्बीज (चारदाना ) कहते हैं । चतुर्बीजका चूर्ण नित्य खाया हुमा वायुके रोग, अजीर्ण, शूल, अफारा, पसलीका शूल और कमरकी वेदना इनको नष्ट करता है ॥ ९८ ॥ ९९ ॥
हिंगु । सहस्रवेधि जतुकं बाह्रीक हिंगु रामठम् ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. 1 (२३)
हिंगुष्णं पाचनं रुच्यं तीक्ष्णं वातबलासहृत् ॥ १०० ॥ शूलगुल्मोदरानाइकृमिघ्नं पित्तवर्धनम् ।
सहस्रवेधि, जतुक, बाह्निक, हिंगु, रामठ यह हींगके संस्कृत नाम हैं । हिंदी में इसे हींग, फारसी में दर्खते भौर अङ्गुजखालिस, अंग्रेजीमें Assaboetida कहते हैं ।
हींग - गरम, पाचक, रुचिकारक, तीक्ष्ण, पित्तवर्धक तथा वात, कफ, शूल, गुल्म, उदररोग, ग्रानाह और कृमिरोगको दूर करता है ।। १००॥
वचा ।
वचोग्रगन्धा षड्ग्रंथा गोलोमी शतपर्विका ॥ १०१ ॥ क्षुद्रपत्रीच मङ्गल्या जटिलोग्रा च लोमशा । वचोयगंधा कटुका तिक्तोष्णा वांतिवह्निकृत् ॥ १०२ ॥ विबंधाध्मान शूलघ्नी शकृन्मूत्रविशोधनी । अपस्मारकफोन्मादभूतजन्त्वनिलान् हरेत् ॥१०३॥
वच, उग्रगन्धा, षड्ग्रन्था, गोलोमी, शतपविका, क्षुद्रपत्री, मांगल्या, जटिला, उम्रा और लोमशा यह वचके संस्कृत नाम हैं। हिन्दी में इसे बच फरासी में सोसनजर्द तथा अगर, तुरकी और अंग्रेजी में Sweet Flagroot कहते हैं ।
*
वच - उग्रगन्धवाळी. कटु, तिक्त, गरम, वमन और वह्निको करनेवाली मल मूत्रको शुद्ध करनेवाली तथा मलादिके बन्ध, ग्राम्मान, शूल अपस्मार (मृगी ) कफ, उन्माद, भूत, कृमी और वातका नाश करनेवाली है ।। १०१ ।। १०२ ॥ १०३ ॥
पारसीकवचा ।
पारसीकवचा शुक्का प्रोक्ता हैमवतीति सा । हैमवत्युदिता तद्वातं हंति विशेषतः ॥ १०४ ॥
पारसीकवचा, शुक्ला और हेमवती इन तीन नामोंसे संस्कृत में खुरासानी
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( २४ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी.
वच कही जाती है । हैमवती के गुण भी बचके ही समान हैं किन्तु वातको यह विशेषतासे हनन करती है। इसका नाम हिन्दीमें खुरासानी बच, फारसी में सोसन जर्द तथा अगर, तुरकी तथा अंग्रेजी में Sweet Flagroot है ॥ १०४ ॥
महाभरी - वचा ।
सुगन्धाप्युग्रगंधा च विशेषात्कफकासनुत् । सुस्वरत्वकरी रुच्या हृत्कंठमुखशोधनी ॥ १०५ ॥ परा सुगंधा स्थूलग्रंथिर्यस्यालोके महाभरी । स्थूलग्रंथिः सुगंधा स्यात्ततो हीनगुणा स्मृता १०६॥
सुगन्धा और उग्रगन्धा यह कुलजनके संस्कृत नाम हैं, हिन्दी में इसे कुलिजन फारसीमें खिरद्दासा और अंग्रेजीमें Great Galangal कहते हैं ।
यह विशेष करके कफ और वातको नष्ट करनेवाली, स्वरकारक, रुचिकारक तथा हृदय, कण्ठ और मुखको शुद्ध करती है। दूसरी वत्र सुगन्धा, स्थूलग्रन्थि तथा महाभरी नामसे लोक में प्रसिद्ध है । वह वच सुगन्धयुक्त, मोटी गांठवाली और कुलिंजनसे हीन गुणवाली होती है ॥ १०५ ॥ १०६ ॥
दीपांतरवचा |
द्वीपांतरवचा किंचित्तिक्तोष्णा वह्निदीसिकृत् । विबंधाध्मान शूलघ्नी शकृन्मूत्रविशेोधनी ॥ १०७ ॥ वातव्याधीनपस्मारमुन्मादं तनुवेदनाम् । व्यपोहति विशेषेण फिरंगामयनाशिनी ॥ १०८ ॥ दीपान्तरवच हिन्दी में चोपचीनी, फारसीमें खन और अंग्रेजीमें Chinaroot कहते हैं ।
चोपचीनी- किंचित तिक्त, कुछेक गरम, अग्निको दीपन करनेवाली, मल मूत्रको शुद्ध करनेवाली तथा मल आदिका बन्ध, आध्मान, शूळ वातव्याधि, अपस्मार ( मृगी ) उन्माद तथाam तथा शरीरकी पीडाको चौर विशेषतः फिरङ्ग रोगको नष्ट करनेवाली है ॥ १०७ ॥ १०८ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२५)
हपुषा। तन्मध्ये प्रथमफलं मत्स्यवद्विलगंधकम् । द्वितीयमश्वत्थफलसदृशं मत्स्यगंधि च ॥ १०९॥ हपुषा हवुषा विना पराश्वत्थफला मता। मत्स्यगंधाप्लीहहंत्रीविषघ्नीध्वक्षनाशिनी॥१०॥ हपुषा दीपनी तिक्ता मृदूष्णा तुवरा गुरुः । पित्तोदरसमीराोंग्रहणीगुल्मशूलहृत् ॥ १११ ॥ पराप्येतद्गुणा प्रोक्ता रूपभेदो द्वयोरपि । हाऊबेर दो प्रकारका है एक तो मच्छी की तरह की दुर्गन्ध युक्त, दूसरा पीपल के फलके समान और मच्छी की गन्धवाला। हपुषा, हषा, विना यह प्रथम प्रकार के हाऊबेरके नाम हैं और अश्वस्थफला, प्लीह
त्री. विषघ्नी और चांक्षनाशिनी यह दूसरे हाऊबेरके नाम हैं। इसको हिन्दीमें हाउबेर, तथा अंग्रेजीमें Thevetic Narifoia कहते हैं।
हाऊबेर अग्निको दीपन करनेवाली, तिक्त, मृदु, उष्ण, कषैली, भारी तथा पित्तरोग, उदररोग, वायु रोग, बवासीर, संग्रहणी, गुल्म और शूल इनके हरनेवाली है। दूसरे हाऊबेरमें भी यही गुण है। रूपमात्रका ही भेद है॥ १०९-१११॥
विडंगम् । पुंलि क्लीवे विडंगः स्यात्कृमिघ्नो जंतुनाशनः । तंडुलश्च तथा वेल्लममोघा चित्रतंडुलः ॥ ११२॥ विडंगं कटु तीक्ष्णोष्ण सूक्षं वह्निकरं लघु ।
शूलाध्मानोदरश्लेष्मकृमिवातनिबन्धनुत् ॥११३॥ · विडंग पुल्लिङ्ग अथवा नपुंसक दोनों लिंगों में होता है । कृमिघ्न, जन्तुनाशन, तण्डुल, वेल्ल, अमोघा और चित्रतंडुल यह वायविडङ्गके नाम हैं। हिन्दीमें इसे वायविडङ्ग, फारसीमें बरंग, कावनी और अंग्रेजीमें Bubreng कहते हैं।
Aho! Shrutgyanam
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(२६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । वायविडङ्ग-कटु तीक्ष्ण, उष्ण, रूक्ष, जठरानिको चैतन्य करनेवाला और हलका है। तथा शूल, आध्मान, उदररोग, कफविकार, कृमि और वायुके बन्धको दूर करता है ॥ ११२ ॥ ११३ ॥
तुंवरुः। तुंबरुः सौरभः सौरो वनजः सोऽणुजोंऽधकः । तुबरु कथितं तिक्तं कटु पाकेऽपि तत्कटु ॥ ११४॥ रूक्षोष्णं दीपनं तीक्ष्णं रुच्यं लघु विदाहि च ।। वातश्लेष्माक्षिकर्णोष्ठशिरोरुग्गुरुताकृमीन् ॥११॥ कुष्ठशूलारुचिश्वासप्लीहकृच्छ्राणि नाशयेत् । तुम्बरु, सौरभ, सौर, धनज, सानुज, (सोऽणुज ) और अन्धक यह नेपाली धनिये के नाम हैं । इसे हिन्दीमें नैपाली धनिया कहते हैं।
तुम्घरु-तिक्त, कटु, पाकमें भी कटु, रूक्ष, उष्ण, अग्निदीपक, रुचिका. रक, हलका, दाहको उत्पन्न करनेवाला तथा वात, कफ, नेत्ररोग, कर्णरोग, पोष्ठरोग, शिरोरोग, भारीपन, कृमि, कोढ, शूल, अरुचि, श्वास, प्लीहा तथा कृच्छ इनको नाश करनेवाला है ॥ ११४ ।। ११५ ।।
वंशरोचना। स्याद्वंशरोचना वांशी तुगाक्षीरी तुगा शुभा॥११६॥ त्वक्षीरी वंशजा शुभ्रा वंशक्षीरी च वैष्णवी । वंशजा बृंहणी वृष्या बल्या स्वाद्वी च शीतला११७॥ तृष्णाकासज्वरश्वासक्षयपित्तास्रकामलाः। हरेत्कुष्ठं व्रणं पांडुं कषायो वातकृच्छजित् ॥११८॥ वंशरोचना, घांशी, तुगाक्षीरी, तुगा, शुभा, स्वक्षीरी, वंशजा, शुभ्रा, वंशक्षरी तथा वैष्णवी यह वंशलोचन के नाम है। इसे हिन्दीमें वंशलोचन
Ano! Shrutgyanem.
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । (२७) फारसीमें बवाशीर और अंग्रेजीमें The Siliceus Concreotion करते हैं।
वंशलोचन-शरीरकी धातुओंको पुष्ट करनेवाली, वीर्यवर्धक, बलवर्धक, मधुर, शीतल तथा तृष्णा, (प्यास) खांसी ज्वर, श्वास, क्षय, पित्त, रक्तविकार, कामला, कुष्ठ, व्रण, पाण्डुरोग इन रोगोंको हरनेवाली कसैली तथा वायु और कृच्छको जीतनेवाली है । ११५-११८ ॥
सगुद्रफेनः।
समुद्रफेनः फेनश्च डिंडीरोब्धिकफस्तथा समुद्रफेनश्चक्षुष्यो लेखनः शीतलश्च सः ॥ ११९ ॥ कषायो विषपित्तघ्नः कर्णहक्कफहल्लघुः । समुद्रफेन, फेन, डिण्डीर, अब्धिकफ यह समुद्रफेनके नाम हैं। इसको हिन्दीमें समुद्रझाग, फारसीमें कफेदरया और अंग्रेजीमें Catilefish bone कहते हैं ।
समुद्रफेन-नेत्रोंके लिये हितकारी, लेखन, शीतल, कषाय, विष और पित्तको नष्ट करनेवाली, कर्णरोग और कफको हरनेवाली तथा हलकी है ॥ ११९॥
अष्टवर्गः।
जीवकर्षभको मेदे काकोल्या ऋद्भिवृद्धिके ॥१२०॥ अष्टवर्गोऽष्टभिर्द्रव्यैः कथितश्चरकादिभिः । अष्टवर्गो हिमः स्वादु बृंहणः शुक्रलो गुरुः ॥१२१॥ भनसन्धानकृत्कामबलसंबलवर्द्धनः। वातपित्तास्रतृड्दाहज्वरमेहक्षयापहः ॥ १२२ ॥ जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धि और वृद्धि इन पाठोंको चरकादि ऋषियों ने अष्टवर्ग कहा है।
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( २८ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
अष्टवर्ग- शीतल, मधुर, धातुओं को पुष्ट करनेवाला, वीर्यवर्धक, भारी, टूटे हुएको जोडनेवाला, काम, कफ तथा बलको बढानेवाला, तथा वात, पित्त, रक्तविकार, प्यास, दाह, ज्वर, प्रमेह तथा क्षयको नष्ट करता ॥ १२०-१३२ ॥
जीवकर्षभयोरुत्पतिर्लक्षणं नाम गुणाः ।
जीवकर्षभको ज्ञेयौ हिमाद्रिशिखरोद्भवौ । रसोनकंदवत्कंदो निस्सारौ सूक्ष्मपत्रकौ ॥ १२३ ॥ जीवकः कूचिकाकारः ऋषभो वृषशृंगवत् । जीवको मधुरः शृङ्गी ह्रस्वांगो कूचशीर्षकः ॥ १२४ ॥ ऋषभो वृषभो धीरो विषाणी द्राक्ष इत्यपि । taarat बल्यौ शीतौ शुक्रकफप्रदौ ॥ १२५ ॥ मधुरौ पित्तदाहास्रकार्श्यवातक्षयापहौ ।
जीवक और ऋषभक यह दोनों हिमालयपर उत्पन्न होते हैं । रखोन ( लहसुन ) कन्दकी तरह यह दोनों कन्द साररहित और सूक्ष्म पत्तोंवाले होते हैं जीवक कूचीके आकारवाला तथा ऋषभक बैलके सींग के आकारवाला होता है । जीवक, मधुर, श्रृंगी, ह्रस्वांग, कूचंशीर्षक यह जीवके नाम हैं । ऋषभ, वृषभ, धीर, विषाणी, द्राक्ष यह ऋषभक के नाम हैं। जीवक और ऋषभक- बलवर्द्धक, शीत, वीर्य तथा कफको बढानेवाले, मधुर तथा पित्त, दाह, रुधिरविकार, दौर्बल्य, वात तथा क्षयको हरनेवाले हैं ॥ १२३ - १२५ ॥
मेदामहादयोः ।
महामेदाभिधः कंदो मोरंगादौ प्रजायते ॥ १२६ ॥ महामेदावन मेदा स्यादित्युक्तं मुनीश्वरैः । शुष्काकनिभः कंदो लताजानः सपांडुरः ॥१२७॥ महामेदाभिधो ज्ञेयो मेदालक्षणमुच्यते । शुक्ककंदो नखच्छेद्यो मेदो धातुमिव स्रवेत् ॥ १२८॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२९) यः स मेदेति विज्ञयो जिज्ञासातत्परैर्जनैः । स्वल्पपर्णी मणिच्छिद्रा मेदा मेदोभवाधरा॥१२९॥ महामेदा वसुच्छिद्रा त्रिदंती देवतामणिः। मेदायुगं गुरु स्वादु वृष्यं स्तन्यकफावहम् ॥१३०॥ बृंहणं शीतलं पित्तरक्तवातज्वरप्रणुत् । महामेदा नामका कन्द मोरंग आदि पहाड पर उत्पन्न होता है।मरामेद और अवनिमेदा यह महामेदाके नाम मुनीश्वरोंने कहे हैं। महामेदा नामका कन्द सूखे हुए अदरकके समान श्वेत तथा ल तासे उम्पन्न होता है। अब मेदाका लक्षण कहते हैं। जिस श्वेत कन्दको नखसे छेदने पर मेद धातु के समान रस निकले उसे जिज्ञासु मनुष्य मेदा कहते हैं । स्वल्पपर्णी,मणिच्छिद्रा,मेदा, मेदोभवा, अधरा यह मेदा के नाम हैं। महामेदा, पसुछिद्रा, विदन्ती, देवतामणि यह महामेदाके नाम हैं। मेदा और महामेदा-भारी, . मधुर,वीर्यवर्धक,दूध तथा कफको बढानेवाली,धातुपोंको पुष्ट करनेवाली, शीवल तथा पित्त,रुधिरविकार,वात, ज्वर इनको नष्ट करती है ॥१२६-१३०
काकोल्योः।
जायते क्षीरकाकोली महामेदोद्भवस्थले ॥१३॥ यत्र स्यात्तीरकाकोली काकोली तत्र जायते । पीवरीसदृशः कन्दक्षीरं स्रवति गंधवान् ॥ १३२॥ सा प्रोक्ता क्षीरकाकोली काकोलीलिंगमुच्यते। यथा स्यात्क्षीरकाकोली काकोल्यपितथा भवेव१३३ एषा किंचिद्भवेत्कृष्णा भेदोयमुभयोरपि । काकोली वायसोली च वीरा कायस्थिका तथा॥१३४
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(३०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
सा शुक्ला क्षीरकाकोली बयःस्था क्षीरवल्लिका। कथिता क्षीरिणी धारी क्षीरशुक्ला पयस्विनी।।१३५॥ काकोलीयुगलं शीतं शुक्रल मधुरं गुरु ।
बृंहणं वातदाहात्रपित्तशोथज्वरापहम् ॥१३॥ जहां महामेदा उत्पन्न होती है वहीं अर्थाव मोरंग पहाडमें ही क्षीरकाकोली उत्पन्न होती है और जहां जहां क्षीरकाकोली उत्पन्न होती है वहीं काकोली उत्पन्न होती है। क्षीरकाकोलीका कन्द पीवरी असगन्धके समान होता है और उसमें से गन्धयुक्त दूध निकलता है, यह क्षीरकाकोलीके लक्षण हैं, काकोलीके चिह्न कहते हैं-काकोलीः भी क्षीर काकोलीके समान ही होती है किन्तु यह किश्चित् काली होती है। यही इन दोनोंमें भेद है । काकोली, वायसोली, वीरा, कायस्थिका यह काकोलीके नाम हैं। सफेद काकोली क्षीरकाकोली कही जाती है। वयस्या,क्षीरवल्लिका, क्षीरिणी धारी,तीरशुक्ला और पयस्विनी यह तीरकाकोलीके नाम हैं।दोनों काकोलि ये-शीतल, वीर्यको बढानेवाली, मधुर, भारी, धातुओंको पुष्ट करने वाली तथा वात, दाह, रक्तविकार,पित्त, शोथ; ज्वर, इन सबको जीतने चाली हैं ॥ १३१-५३६ ॥ .
ऋद्धिवृद्धवोः। ऋद्धिवृद्धिश्च कंदौ द्वौ भवतः कोशयामले। श्वेतलोमान्वितौ कन्दौ लताजातौ सरंध्रकौ॥१३७॥ तावेव वृद्धिर्ऋद्धिश्च भेदमप्येतयोब्रुवे । तूलग्रंथिसमा ऋद्धिमिावत्तफला च सा ॥१३८॥ वृद्धिस्तु दक्षिणावर्तफला प्रोक्ता महर्षिभिः । ऋद्धियुग्मं सिद्धिलक्ष्म्यौ वृद्धरण्याह्नया इमे।।१३९॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३१) ऋद्धिर्बल्या त्रिदोषघ्नी शुक्ला मधुरा गुरुः। प्राणैश्वयंवरी मृरिक्तपित्तविनाशिनी ॥ १४०॥ वृद्धिगर्भप्रदा शीता बृंहणी मधुरा स्मृता। वृष्या पित्तास्रशमनी क्षतकासक्षयापहा॥ १४१॥ राज्ञामप्यष्टवर्गस्तु यतोऽयमतिदुर्लभः । तस्मादस्य प्रतिनिधिग्रहीयात्तद्गुणं भिषक् ।।१४२॥
ऋद्धि और वृद्धि यह दोनों कन्द कोशयामल पर्वतमें पाये जाते हैं। ऋद्धि व वृद्धि के कन्द लताओंके नीचेसे निकलते हैं, इन कन्दों पर श्वेत नोभ और छिद्रसे होते हैं अब ऋद्धि और वृद्धि में भेद कहते हैं। ऋद्धि कपासकी गांठके समान होती है तथा इसका फल बाई ओर घूमा हुआ होता है। वृद्धिका फल दाई बोर घूमा हुआ रहता है ऐसा महर्षियोंने कहा है। ऋद्धि सिद्धि तथा लक्ष्मी यह ऋद्धिके और वृद्धि सिद्धि तथा लक्ष्मी यह वृद्धिके नाम हैं। . ऋद्धि बलवर्धक, त्रिदोषनाशक, वीर्यको बढानेवाली, मधुर, भारी, आयु तथा ऐश्वर्यको बढानेवाली तथा मूच्र्छा और रक्तपित्तका नाश करने वाली है । वृद्धि-गर्भके देनेवाली, शीतवीर्य, धातु पुष्टिको करनेवाली, मधुर, वीर्यठधक, पित्त तथा रक्तको शमन करनेवाली तथा चत कास पौर क्षयको दूर करती है। क्योंकि प्रायः यह अष्टवर्ग राजाओंके लिये भी दुप्राप्य होगया है इसलिये वैद्यको इसके स्थान पर इसके सदृश गुणोंवाले इसके प्रतिनिधि द्रव्य प्रयोग करना चाहिये ॥ १३७-१४२॥
मुख्यसदृशः प्रतिनिधिः। मेदाजीवककाकोलीवृद्धिद्वंद्वेऽपि चासति । वरी विदार्यश्वगंधा वाराहीश्चक्रमाक्षिपेत् ॥१४॥
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(३२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
मेदामहामेदास्थाने शतावरीमूलम् । जीवकर्षभस्थाने विदारीमूलम् ॥ १४४ ॥ काकोलीक्षीरकाकोलीस्थाने अश्वगंधामूलम् । ऋद्धिवृद्धिस्थाने वाराही कंदगुणैस्तत्तुल्यंक्षिपेत् १४५ भेदा, महामेदा, जीवक और ऋषभक, काकोली, क्षीरकाकोली तथा ऋद्धि वृद्धिके अभावमें क्रमसे शतावर, विदारीकन्द, असगन्ध तथा बाराहीकन्दका प्रयोग करे। अर्णत् मेदा और महामेदाके अभाव में शतापर, जीवक और ऋषभकके अभाव में विदारीकन्द काकोली और क्षीरकाकोलीके अभावमें असगन्ध एवं ऋद्धि के तथा वृद्धिके अभावमें वाराही कन्द डालना चाहिये ।। १४३-१४५ ॥
यष्टीमधु ।
यष्टीमधु तथा यष्टीमधुकं क्लीतकं तथा। अन्यत्लीतनकं तत्तु भवेत्तोयमधूलिका ॥ १४६ ॥ यष्टी हिमा गुरुः स्वाद्वी चक्षुष्या बलवर्णकृत् । मुस्निग्धा शुकला केश्या स्वापित्तानिलास्रजित्॥ व्रणशोथविषच्छदितृष्णाग्लानिक्षयापहा ॥ १४७॥ यष्टीमधु, यष्टीमधुक, क्लीतक, यह मधुयष्टिके नाम हैं। जो मधुष्टि जल में उत्पन्न होती है उसे क्लीतक और क्लीतनक कहते हैं। मधुयष्टिको हिन्दीमें मुलैठी, फारसीमें बेखमेहेक्मर तथा परवीमें असल-प्रसूस अङ्गरेजीमें Liguariel poor कहते हैं । मधुयष्टी-शीतल, भारी, मधुर, नेबोंको हितकर, बल तथा वर्णके लिये हितकारी, स्निग्ध, बीर्यवर्धक, केशों और स्वरको बढानेवाली तथा पित्त, वायु, व्रण, शोथ, विष, वमन, प्यास, ग्तानी तथा क्षयको दूर करती हैं ॥ १४६ ।। १४७ ।।
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हरीतक्पादिनिघण्टुः भा. टी. । (३३)
कांपिल्लः । कांपिल्यः(छः)कर्कशश्वन्द्रोरक्तां गोरे चनोपि च ॥ १४८ कांपिल्यः कफपित्तास्रकृमिगुल्मोदरवणान् । हंति रेची कटूष्णश्च महानादविषाश्मनुत् ॥ १४९ ॥
कांपिल्य, कर्कश, चन्द्र, रक्तांग तथा रेचन यह कमीलेके नाम हैं। इसको हिन्दी में कमीला, फारसी में कन्विलाम और अंग्रेजी में Kamila Rodtlera कहते हैं। कमीला रेचन करनेवाला, कटु, गरम तथा कफ, पित्त, रक्तविकार, कृमि, गुल्म, उदररोग और व्रण इनको नष्ट करनेवाला तथा प्रमेह, आनाह, विष और पथरीको दूर करता है ।। १४८ ॥ १४९ ॥ आरग्वधः ।
आरग्वधो राजवृक्षः शंपाकश्चतुरंगुलः । आरेवतो व्याधिघाती कृतमालः सुवर्णकः ॥ १५० ॥ कर्णकारो दीर्घफलः स्वर्णगः स्वर्णभूषणः । आरग्वधो गुरुः स्वादुः शीतलः स्रंसनो मृदुः १५१ ज्वरहृद्रोगपित्तास्रवातोदावर्त्तशूलनुत् ।
तत्फलं स्रंसनं रुच्यं कोष्ठपित्तकफापहम् ॥ १५२॥ ज्वरे तु सततं पथ्यं कोष्ठशुद्धिकरं परम् ।
प्रावध, राजवृक्ष, शंषाक, चतुरंगुल, आरेवत, व्याधिघाती, कृतमाल, सुवर्णक, कर्णकार, दीर्घफल, स्वर्णग तथा स्वर्णभूषण यह अमलतासके नाम हैं | हिन्दी में यह अमलतास, फारसी में ख्यारे शम्बर पौर अंग्रेजी में Pudding Pipeltree इन नामोंसे पुकारा जाता है । अमलतास- भारी, मधुर, शीतल, स्रंसन ( दस्तोंके लगानेवाला ), कोमलतथा ज्वर, हृदयके रोग, रक्तविकार, वात, उदावर्त तथा शूलका नाश करता है । अमलतासकी फळी संसन करनेवाली, रुचिकारक तथा कोष्ट,
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(३४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । फ्लि, और कफको नष्ट करनेवाली है । यह ज्वरमें दी हुई सर्वदा पथ्य तथा कोठेको शुद्ध करनेवाली होती है ॥ १५०-१५२ ॥
कट्वी। कट्वी तु कटुका तिक्ता कृष्णभेदा कटंभरा॥१५३॥ अशोका मत्स्यशकला चक्रांगी शकुलादनी। . मत्स्यपित्ता कांडरुहा रोहिणी कटुरोहिणी॥१९॥ कटुका कटुका पाके तिक्ता रूक्षा हिमा लघुः। भेदनी दीपनी हृद्या कफपित्तज्वरापहा ॥ ११९ ॥ प्रमेहश्वासकासास्रदाहकुष्ठकृमिप्रणुत् । कवी, कटुका, तिक्ता, कृष्णभेदा, कटंभरा, अशोका, मत्स्यशकला, चक्रांगी, शकुलादनी, मत्स्यपित्ता, काण्डरुहा, रोहिणी कटुरोहिणी यह कटवीके नाम हैं । इसे हिन्दीमें कटुकी, कुटकी, कटु, फारसीमें खर्त केसियाह और अंग्रेजीमें Black Hellhare कहते हैं।
कुटकी-पाकमें कटु, तिक्त, रूक्ष, शीतल, हलकी, मलको भेदन करने वाली, अग्निदीपक, हृदयको प्रिय तथा कफपित्तज्वर, प्रमेह, श्वास, खांसी, रक्तविकार, दाह, कुष्ठ तथा कृमी इनका नाश करनेवाली है ॥१५३-१५५।।
किरातः। किराततिक्तः कैरातो कटुतिक्तः किरातकः॥१६॥ कांडतिक्तोऽनाय्यतितो भूनिंबो रामसेनकः । किरातकोऽन्यो नेपाल सोऽईतितो ज्वरांतकः १५७ किरातः सारको रूक्षः शीतलस्तिक्तको लघुः।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३५) सन्निपातज्वरश्वासकफपित्तास्रदाहनुत् ॥ १५८ ॥
कासशोथतृषाकुष्ठरव्रणकृमिप्रणुत् । किराततिक्त, कैरात, कटु तिक्त, किरातक, काण्डतिक्त, अनार्यतिक भूनिम्ब, रामसेनक यह चिरायतेके नाम हैं। इसी प्रकारका चिरायता जो नेपाल देशमें उत्पन्न होता है उसको अतिक्त और ज्वरांतक कहते हैं। इसको हिंदीमें चिरायता, फारसी, नेनीहादा तथा अंग्रेजीमें Chireta कहते हैं। चिरायता-दस्तावर, रूक्ष, शीतल, तिक्त, हलका तथा सन्निपातज्वर श्वास, कफ, पित्त रक्तविकार, दाह, खांसी, शोथ, तृषा, कुष्ठ, ज्वर, व्रण तथा कृमि इनको नष्ट करता है ॥ १५६-१५८ ॥
इन्द्रयवम् । उक्तं कुटजबीजं तु यवमिंद्रयवं तथा ॥ १५९ ॥ कलिंगं चापि कालिंग तथा भद्रयवं स्मृतम् । कचिदिन्द्रस्य नामैव भवेत्तदभिधायकम् ॥ १६०॥ फलानीन्द्रयवास्तस्य तथा भद्रयवा अपि। कुटजबीज, यव इन्द्रयव, कलिंग, कालिंग तथा भद्रयव यह इन्द्रजौके नाम हैं। यह अमरकोशमें लिखा है। भगवान् धन्वन्तरि कहते हैं कि इन्द्रके सम्पूर्ण नाम इन्द्रजौके पर्यायवाचक शब्द होते हैं । जैसे शक्र, इन्द्र, इन्द्रयव और भद्रयव इत्यादि। इसे हिन्दीमें इन्द्रजौ, फारसीमें जवान कुचिस्क और अंग्रेजीमें Rosebay कहते हैं ॥ १५९ ॥ १६० ॥
इन्द्रयवं त्रिदोषघ्नं संग्राहि कटु शीतलम् ॥१६॥ ज्वरातीसाररक्तार्श कृमिवीसर्पकुष्ठनुत् । दीपनं गुदकीलास्रवातास्रश्लेष्मशूलजित् ॥१६२॥ इन्द्रजौ-त्रिदोषनाशक, ग्राही, कटु, शीतल तथा ज्वर, अतिसार,रक्तविकार, अश, कृमि, विसर्प तथा कुष्ठको करनेवाला, अग्निदीपक,
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(३६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। और बवासीरके मस्सों, रुधिरविकार, वात, कफ तथा शूलको जीतनेपाना है ॥ १६१ ॥ १६२ ॥
मदनः। मदनश्छर्दनःपिंडीराठः पिंडीतकस्तथा । करहाटो मरुबकः शल्यको विषपुष्पकः ॥१६॥ मदनो मधुरस्तिक्तो वीर्योष्णो लेखनो लघुः । वांतिकृद्विद्रधिहरः प्रतिश्यायव्रणान्तकः ॥१६॥ रूक्षः कुष्ठकफानाहशोथगुल्मव्रणापहः । मदन, छर्दन, पिण्डीराठ, पिण्डीतक, करहाट, मरुवक, शल्यक, विषपुष्पक यह मदनफलके संस्कृत नाम हैं। हिन्दी में इसे राडा तथा मैनफल, अंग्रेजीमें Bushia Gardenia कहते हैं । मैनफल-मधुर, तिक्त, उष्णबीर्यवाला, लेखन करनेवाला, हलका, वमनको करनेवाला, विद्रधिनासक, रूक्ष तथा प्रतिश्याय, व्रण, कोढ, कफ, शोथ, पानाह, (अफारा), गुल्म तथा व्रणको नाश करनेवाला है ॥ १६३ ॥ १६४ ।।
राना।
रास्ना युक्तरसा रस्या सुवहा रसना रसा ॥१६॥ एलापर्णी च सुरसा सुगन्धा श्रेयसी तथा । रानामपाचनी तिक्ता गुरूष्णा कफवातजित्।१६६। शोथश्वाससमीरास्त्रवातशुलोदरापहा । कासज्वरविषाशीतिवातकामयसिध्महृत् ॥ १६७॥ रास्ना, युक्तरसा, रस्या, सुबहा, रसना, रसा, एलापर्णी, सुरसा, सुगन्धा, प्रेयसी यह रास्नाके संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दीमें रायसन, फारसीमें रान कहते हैं। Aho! Shrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( ३७ )
रायसन - ग्रामको पचानेवाली, तिक्त, भारी, गरम, कफवातनाशक तथा शोथ, श्वास, वातरक्त, वातशूल, उदररोग, कास, ज्वर, विष, स्लीप्रकारकी वातव्याधियां तथा सिध्म, कोट इनको नष्ट करती है ॥ १६५-१६७ ॥
नाकुली ।
नाकुली सुरसा नागसुगन्धा गंधनाकुली । नकुलेष्टा भुजंगाक्षी सर्पाक्षी विषनाशनी ॥ १६८ ॥ नाकुली तुवरा तिक्ता कटुकोष्णा विनाशयेत् । भोगिलूतावृश्विकाखु विषज्वरकृमित्रणान् ॥ १६९ ॥
नाकुली, सुरमा, नागसुगन्धा, गंधनाकुली, नकुलेष्टा, भुजंगाक्षी, सर्पाक्षी और विषनाशिनी यह इसके संस्कृत नाम हैं । इसे हिन्दी में नाई तथा नाकुलीकन्द, फारसी में विषमूंगरी और अंग्रेजीमें Kanwolfia Scrpentina कहते हैं ।
नाकुली - कषाय रसधाली, तिक्त, कटु, उद्या तथा सर्प लूता ( मकडी), बिच्छू तथा चूहेका विष, ज्वर, कृमि तथा व्रण इनको नष्ट करती है ।। १६८ ।। १६९ ।।
माचिका । माचिका प्रस्थकांबष्ठा तथांबांबालिकांबिका | मसूरविदला केशी सहस्रा बालमूलिका ॥ १७० ॥ माचिकाम्ला रसे पाके कषाया शीतला लघुः । पक्कातीसार पित्तास्रकफ कंड्डामयापहा ॥ १७१ ॥ माचिका, प्रस्थका, अम्बष्ठा, अम्बा, अम्बालिका, अम्बिका, मसूरविदला, केशी. सहस्त्रा और बालमूलिका यह माचिकाके संस्कृत नाम हैं । इसे हिन्दी में मकोह, फारसी में रोधातरीख और अंग्रेजीमें Solenum Nigrum कहते हैं ।
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मकोह-रसमें अम्ल, पाकमें कषाय, शीतल, हलका और पक्वातिसार, पित्त, रक्तविकार, कफ तथा कण्डुरोग ( खुजली ) दूर करता है १७० १७१
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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
तेजवती ।
तेजस्विनी तेजवती तेजोह्वा तेजनी तथा । तेजस्विनी कफश्वासकासास्यामय वातहृत् ॥ १७२॥ पाचन्युष्णा कटुस्तिक्ता रुचिवह्निप्रदीपनी ।
( ३८ )
तेजस्विनी, तेजवती तेजोवा, तेजनी यह तेजवतीके संस्कृत नाम हैं । . इसे हिन्दीमें तेजोवती और अंग्रेजी में Toothache Tree कहते हैं ।
तेजस्विनी - पाचन करनेवाली, गरम, कटु, तिक्त, रुचिकर, अग्रिदीपक तथा कफ, श्वास, कास, मुखरोग तथा वायुको हरण करती है ।। १७२ ॥ ज्योतिष्मती ।
ज्योतिष्मतीस्यात्कटभीज्योतिष्काकंगुनीतिच १७३ पारावतपदी पण्या लेता प्रोक्ता ककुंदनी । ज्योतिष्मती कटुस्तिक्ता सरा कफसमीरजित् १७४ अत्युष्णा वामनी तीक्ष्णा वह्निबुद्धिस्मृतिप्रदा ।
ज्योतिष्मती, कटभी, ज्योतिष्का, कंगुनी, पारावतपदी, पण्या, लता, ककुंदनी यह ज्योतिष्मतीके नाम हैं। हिन्दी में इसे मालकंगनी, फारसीमें काल और अंग्रेजी में Staff Trec कहते हैं ।
मालकंगनी - कटु, तिक्त, दस्तावर, बात तेथा कफको नष्ट करनेवाली, बहुत गरम, बमनकारक, तीक्ष्ण तथा अग्नि, बुद्धि और स्मृतिको बढाती है ।। १७३ ।। १७४ ॥
कुष्ठम् ।
कुष्ट रोगाह्वयं वाप्यं परिभाव्यं तथोत्पलम् ॥ १७५ ॥ कुष्ठमुष्णं कटु स्वादु शुक्रलं तिक्तकं लघु ।
हंति वातास्रवीसर्पकास कुष्ठमरुत्कफान् ॥ १७६ ॥
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कुष्ठ, रोगाहय, वाप्य, परिभाव्य तथा उत्पल यह कुष्ठके संस्कृत
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.
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( ३९ ) नाम हैं, हिन्दी में इसे कूठ, फारसीमें कोश्त और अंग्रेजीमें Castor root कहते हैं ।
कूठ - गरम, कटु, मधुर वीर्यपर्द्धक, तिक्त, हलका तथा वात, रुधिरविकार, विसर्प, कास, कुष्ठ और कफको नष्ट करता है ॥ १७५ ॥ १७६ ॥
पुष्करमूलम् ।
उक्तं पुष्करमूलं तु पौष्करं पुष्करं च तत्र । पद्मपत्रं च काश्मीरं कुरभेदमिमं जगुः ॥ १७७ ॥ पौष्करं कटुकं तिक्तमुव कातकफज्वरान् । इंतिश्वासारुचिशोथानविशेषात्पार्श्वशूलनुत् ।
पुष्करमूल, पौष्कर, पुष्कर, पद्मपत्र तथा काश्मीर यह कुष्ठके भेद पोड़करमूल के नाम हैं, हिन्दी में इसे पोहकरमूल कहते हैं ।
पोहकरमूल- कटु, तिक्त तथा वात और कफके ज्वर, श्वास, अरुचि, शोथ और विशेषतः पार्श्वशूल इनको नष्ट करनेवाला है ॥ १७७ ॥ १७८ ॥ हेमाह्वा । पटुपर्णी हैमवती हेमक्षीरी हिमावती । माह्वा पीतदुग्धा च तन्मूलं चोकमुच्यते ॥ १७९ ॥H मावा रेचनी का भेदन्युत्क्लेशकारिणी । कृमिकंडूविषानाहकफपित्तास्रकुष्ठनुत् ॥ १८० ॥
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पटुपर्णी, हैमवती हेमक्षीरी, हिमावती, हेमावती, हेमाहा, पीतदुग्धा यह माह के संस्कृत नाम हैं । हिन्दी में इसे पीले दूधकी कटेरी तथा सत्या नाशी और अंग्रेजीमें Gambage Thistle कहते हैं । इसकी जड़को चोक कहते हैं ।
पीले दूध की कटेली-रेचन करनेवाली, तिक्त. मलको शिथिल करनेवाली, जीको मचलानेवाली तथा कृमि, खुजली, विष, आनाह, कफ, पित्त, रक्तविकार और कोंढ़को नष्ट करनेवाली है ॥ १७९ ॥ १८० ॥
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(४०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
शृंगी। शृंगी कर्कटशृंगी च स्यात्कुलीरविषाणिका। अजशृंगी च वक्रा च कर्कटयख्या च कीर्तिता१८१ शृंगी कषाया तिक्तोष्णा कफवातक्षयज्वरान् । श्वासोवाततृकासहिकारुचिवमीहरेत् ॥ १८२ ॥ शृंगी, कर्कटशृंगी, कुलीर, विषाणिका, मजशृङ्गी, वक्रा तथा कर्कटा यह शृङ्गीके संस्कृत नाम हैं । हिन्दीमें इसे काकडसिंगी काते हैं ।
शृङ्गी-कषायरसपाली, तिक्त, गरम तथा कफ, वात, क्षय, ज्वर,श्वास, ऊह्मवात, तृष्णा, कास, हिचकी, अरुचि, वमन, इनको हरनेवाली है ॥ १८१ ॥ १८२ ॥
कट्फल । कटफलः सोमवल्कश्च कैटर्य्यः कुंभिकापि च । श्रीपर्णिका कुमुदिका भद्रा भद्रवतीति च ॥१८३॥ कट्फलस्तुवरस्तिक्तः कटुवातकफज्वरान् । हंति खासप्रमेहार्शः कासकंड्वामयारुचीः॥१८॥ कट्फल, सोमवल्क, कैटरर्य, कुम्भिका, श्रीपर्णिका, कुमुदिका, भद्रा, भद्रवती यह कट् फलके संस्कृत नाम हैं। हिन्दीमें इसे कायफल फारसीमें उदुलबर्क तया अंग्रेजीमें Myricasapida कहते हैं।
कायफल-कसला, तिक्त, मुटु तण वात, कफ, उदर, वास, प्रमेह,मर्श, खांसी, खुजली और अरुचि इन सबको दूर करता है । १८३ ॥ १८४ ॥
भागीं। भागी भृगुभवा पद्मा फंजी ब्राह्मणयष्टिका । ब्राह्मण्यंगारवल्ली च खरशाकश्वहंजिका ॥ १८५॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४१) भाङ्गी रूक्षा कटुस्तिक्ता रुच्योष्णा पाचनी लघुः। . दीपनी तुवरा गुल्मरक्तजिन्नाशयेद्धवम् ॥ १८६॥ शोथकासकफश्वासपीनसज्वरमारुतान् । भाी, भृगुभवा, पद्मा, फी, ब्राह्मणयष्टिका, ब्राह्मणी, अङ्गारवल्ली, खरशाक और हलिका यह भागींके संस्कृत नाम हैं। हिन्दीमें इसे भारंगी तथा अंग्रेजीमें Clerodendron Seretun कहते हैं. भारंगी-रूक्ष, कटु, तिक्त, रुचिकारक, उष्ण, पाचक हलकी, अग्निदीपक, कसैनी, गुल्म पौर रक्तविकारोके जीतनेवाली, शोथ, कास, कफ, वास, पीनस, ज्वर तथा वात इनको शीघ्र ही नष्ट कर देती है ॥ १८५ ॥ ॥१८६॥
___ अश्मभेदः। पाषाणभेदकोश्मनो गिरभिनिनयोजनी ॥ १८७॥ अश्मभेदो हिमस्तितः कषायो बस्तिशोधनः । भेदनो हंति दोषार्थीगुल्मकृच्छाश्मदुजः ॥१८८॥ योनिरोगान्प्रमेहांश्च प्लीहशूलवणानि च । पाषाणभेद, अश्मन, गिरिभित, भिन्नयोजनी, अश्मभेद यह पापायभेदके संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दी में पाखानभेद, फारसीमें गोशाद तथा अंग्रेजीमें Irissp कहते हैं।
पाषाणभेद-शीतल, तिक्त, कसैला, बस्ति (मसाना) को शुद्ध करने वाला, भेदन करनेवाला तथा वात, पित्त, कफ, अश, गुल्म, कृच्छ, पथरी, हृदयके रोग. योनिरोग, प्रमेह. प्लीहा, शूल तथा व्रोंका नाश करता है। १८७ ॥ १८८॥
धातकी। धातकी धातुपुष्पीच वह्निज्वाला च सा स्मृता १८९ धातकी कटुका शीता मदकृत्तुवरा लघुः। तृष्णातीसारपित्तास्रविषकृमिविसर्पजित् ॥ १९ ॥
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(४२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
धातकी, धातुपुष्पी, वह्निज्वाला, यह धातकीके संस्कृत नाम हैं। हिन्दीमें इसे धायके फल और अंग्रेजीमें Woodfaraha. Floribunda कहते हैं।
धायके फूल-कटु, शीत, मदकारक, कसैले, हलके तथा प्यास, प्रतिसार, पित्त, रक्तविकार, विष, कृमि पौर विसर्पको जीतनेवाले हैं॥१८९॥ १९०॥
मंजिष्ठा। मंजिष्ठा विकसा जिंगी समंगा कालमेषका । मंडूकपर्णी मंडीरी भंडी योजनवल्ल्यपि ॥ १९१ ॥ रसायन्यरुणा काला रक्तांगी रक्तयष्टिका । मंडीतकी च गंडीरी मंजूषा वस्त्ररंजनी ॥ १९२ ॥ मंजिष्ठा मधुरा तिक्ता कपाया स्वरवर्णकृत् । गुरुरुष्णा विषश्लेष्मशोथयोन्यक्षिकर्णरुक् ।।१९३॥ रक्तातीसारकुष्ठात्रबीसपत्रणमेहनुत् ।। मंजिष्ठा, विकसा, जिङ्गी, समझा, कालमेषिका, मण्डूकपर्णी,मण्डीरी, भण्डी, योजनवल्ली, रसायनी, अरुणा, काळा, रक्ताङ्गी, रक्तयष्टिका, मण्डीतकी, गण्डीरी, मंजूषा, वस्वरंजनी यह मंजिष्ठाके संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दी में मॅजीठ, फारसीमें सनास और अंग्रेजीमें Madderroot कहते हैं। . मजीठ-मधुर, तिक्त, कसली; स्वर और वर्ण के लिये उत्तम, भारी, उष्ण तथा विष, श्लेष्म, शोथ योनि, अक्षि तथा कानोंके रोग, रक्तातिसार, कोट, रक्तविकार, विसर्प तथा व्रण और मेहको नष्ट करती है। १९१-१९३॥
कुसुभम् । स्याकुसुंभं वह्निशिखं वस्त्ररंजकमित्यपि ॥१९॥ कुसुमं वातलं कृच्छरक्तपित्तकफापहम् । कुसुंभ, वह्निशिखा तथा वखरञ्जक यह कुसुभके सस्कृत नाम हैं।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४३) हिन्दीमें इसे कुसुंभा, फारसीमें गुलेमास्कर और अंग्रेजीमें Officinal Carthamus कहते हैं। कुसुम्भा-वातकारक तथा कृच्छ, रक्त, पित्त और कफको दूर करता
कसैल, वसप, कमलाक्षा सा करता
लाक्षा। लाक्षा पलंकषालतो यावो वृक्षामयो जतु ॥१९॥ लाक्षा वा हिमा बल्या स्निग्धा च तुवरा लघुः । अनुष्णा कफपित्तात्रहिकाकासज्वरप्रणुत ॥१९६॥ व्रणोरक्षतवीसर्पकृमिकुष्ठगदापहा।
अलक्तको गुणस्त द्विशेषाद् व्यंगनाशनः ॥१९७॥ लाक्षा, पलंकषा, अलक्त, पाव, वृक्षामय, जतु यह लामाके संस्कृत : नाम हैं। हिन्दीमें इसे लाख, फारसी में इसे लाक और अंग्रेजीमें Shellac कहते हैं। लाक्षा-वर्णको उत्तम करनेवाली, शीतल, बलवर्धक, स्निग्ध, कसैली, अनुण्ण और कफ, पित्त, रक्तविकार हिचकी, कास, ज्वर, व्रण, उरक्षत, विसर्प, कृमि, कुष्ठ इन व्याधियोंको हरण करती है । मलतक (लाखका रस) भी लाक्षाके समान गुणोंवाली है किन्तु विशेषकरके स्वचाके छिभ्भ पौर छाइयों को नष्ट करतो है ॥ १९५-१९७ ॥
हाद्रिा। हरिद्रा कांचनी पीता निशाख्या वरवर्णिनी। कृमिना हलदी योषित्प्रिया हट्टविलासिनी॥१९८॥ हरिद्रा कटुका तिक्ता रूक्षोष्णा कफपित्तनुत । वर्ध्या त्वग्दोषमेहास्रशोथपांडुव्रणापहा ॥ १९९ ॥ हरिद्रा, काञ्चनी, पीता,निशाख्या, वरमणिनी, कृमिना, इनदी, योषिप्रिया, हट्टविनासनी यह हल्दीके नाम है। हिन्दीमें इसे हलदी, फार सीमें जर्दचोब और अंग्रेजीमें Turmeric कहते हैं।
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(४४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
हनदी-कटु, तिक्त, रूक्ष, गरम, कफ और पित्तको नष्ट करनेवाली, वर्गको उत्तम करनेवाली और स्वचाके दोष, प्रमेह, रक्तविकार, शोथ, पाण्डुरोग और व्रणोंको नष्ट करती है ॥ १९८ ॥ १९९ ॥
आम्रगन्धिहरिद्रा। दाभेदा सुगंधा च दारू दारुकदारु च । कर्पूरा पद्मपत्रा स्यात्सुरभी सुरनायका ॥२०॥ आम्रगंधिहरिद्रा या सा शीता वातला मता । पित्तहन्मधुरा तिक्ता सर्वकण्डूविनाशिनी ॥२०१॥ दार्वीभेदा सुगन्धा, दार्वी, दारुक, दारू, कर्पूरा, प्रद्मपत्रा, आम्रगन्धी सुरभी, सुरनायका. यह आम्बाहल्दीके नाम हैं। आम्बाहल्दी-शीतल, वातकारक, पित्तनाशक, मधुर, तिक्त और सब प्रकारकी कण्डु (खुजली) को दूर करनेवाली है। पम्पिया हल्दी के नामसे प्रसिद्ध है ॥ २००॥२०१॥
___ अरण्यहरिद्रा। अरण्यहलदीकंदः कुष्ठवातास्रनाशनः । भरण्यहल्दी अर्थात् जंगल में होनेवाली हल्दीका कन्द-कुष्ठ आर वातरक्तको दूर करता है, यह वनहल्दोके नामसे प्रसिद्ध है।
दारुहरिद्रा । दार्वी दारुहरिद्रा च पर्जन्या पर्जनीति च ॥२०२॥ कटंकटेरी पीता च भवेत्सैव पचंपचा। सैव कालीयकः प्रोक्तस्तथा कालेयकोऽपिच ॥२०३॥ पीतश्च हरिश्च पीतदारुश्च पीतकम् । दार्वी निशागुणा किंतु नेत्रकर्णास्यरोगनुत् ॥२०॥ दार्वी,दारुहरिद्रा, पर्जन्या पर्जनी, कटंकटेरी, पीता, पचम्पचा, कालीयक, कालेपक, पीतदु, हरिद्रु पीतदारु, पीतक यह दारुहल्दीके नाम हैं। 'सिमलेके पहाडोंमें कस्मलके नामसे प्रसिद्ध nam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. डी. ।
(४५)
दारूहरदी में हल्दी के समान ही सब गुण हैं किन्तु नेत्र कान और सुखके रोगोंको विशेष रूपसे दूर करती है । २०२-२०४ ॥
रसांजनम् ।
दावकासमं क्षीरं पादं पक्त्वा यदा घनम् । तदा रसांजनं ख्यातं नेत्रयोः परमं हितम् ॥ २०५ ॥ रसांजनं तार्क्ष्यशैलं रसगर्भ च तार्क्ष्यजम् । रसांजनं कटुश्लेष्म विषनेत्रविकारनुत् ॥ २०६ ॥ उष्णं रसायनं तिक्तं छेदनं व्रणदोषहृत् ।
दारूहल्दी के अष्टावशेष क्वाथमें चौथा हिस्सा गोदुग्ध मिलाकर पकाचे जब वह अफीम के समान गाढा हो जाय तो इसको रसाअन या रसोत कहते हैं । यह नेत्रोंके लिये परम हितकारी है । रसाञ्जन, तार्यशैल, रसगर्भ, ताज, यह रसौतके संस्कृत नाम हैं ।
रसौत - कटु है, कफ, विष और नेत्ररोगोंको हरती है, उष्ण है, रसायन : है, तिक्त है, छेदन है औौर व्रण दोषोंको हरनेवाली है || २०५ ॥ २०६ ॥
वाकुची ।
अवल्गुजा वाकुची स्यात्सोमराजी सुपर्णिका २०७ शशिलेखा कृष्णफला सोमा पूतिफलीति च । सोमवल्ली कालमेषी कुष्ठघ्नी च प्रकीर्तिता ॥ २०८ ॥ वाकुची मधुरा तिक्ता कटुपाका रसायनी । विष्टभहृद्धिमा रुच्या सरा श्लेष्मास्रपित्तनुत् ॥ २०९ H रूक्षा द्या श्वासकुष्ठमेहज्वरकृमिप्रणुत ।
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(४६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । तत्फलं पित्तलं कुष्ठकफानिलहरं कटु ॥ २१ ॥ केश्यं त्वच्यं वमिश्वासकासशोथामपांडुनुत् । पवल्गुजा, बाकुची, सोमराजी. सुपर्णिका, शशिलेखा, कृष्णफला, सोमा, प्रतिफली, सोमवल्ली, कालमेषी और कुष्ठघ्नी यह बावचीके नाम हैं।
बावची-मधुर, तिक्त, कटुपाकी, रसायनकर्वी, विबन्धको दूर करने वाली, ठण्डी, रुचिकारक दस्तावर, कफ और रक्तपित्तको हरनेवाली, रुक्ष, हृदयको हितकारी, श्वास, कुष्ठ, प्रमेह, ज्वर और कृमियों को दूर करती है। वावचीके फल पित्तकारक, कुष्ठ कफ और वायुके हरनेवाले कटु, पेशोंको हितकारी, त्वचाको सुन्दर बनानेवाले, वमन, श्वास, कास, सूजन और पाण्डुरोगको हरनेवाले हैं। बावचीका श्वित्रकुष (फुलबहरी) के ऊपर विशेष रूपसे प्रयोग किया जाता है । इसे हिन्दीमें बावची और अंग्रेजीमें Esculent Fiacourtia कहते हैं । २०७-२१० ॥
चक्रमर्दः । चक्रमर्दः प्रपुन्नाटो दद्रुघ्नो मेषलोचनः ॥ २११ ॥ पद्माटः स्यादेडगजः चक्री पुन्नाट इत्यपि । चक्रमर्दो लघुः स्वादू रूक्षः पित्तानिलापहा२१२॥ हृयो हिमः कफश्वासकुष्ठदद्रुकृमीन हरेत् । हंत्युष्मं तत्फलं कुष्ठकंडुदद्रुविषानिलान् ॥२१३॥ गुल्मकासकृमिश्वासनाशनं कटुकं स्मृतम् । चक्रमर्द, प्रपुनाट, दद्रुघ्न, मेषलोचन, पद्माट, एडगज, चक्री, पुबाट, यह पनवाडके नाम हैं। पननाड-लका, स्वादु, कक्ष, पित्त और वायुके हरनेवाला, हदयको हितकारी, शीतल,कफ, श्वास, कुष्ठ, दगु, विष, वायु, कृमियोंको हरनेवाला है, इसके फल गरम हैं,कुष्ठ, कण्डुगु, विष,वायु, गुल्म, खांसी, कृमि और श्वास रोगको नष्ट करनेवाले हैं तथा कटु है।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४७) इसके पेड वर्षाऋतुमें उत्पन्न होते हैं, गरीब लोग इसके पत्तोका शाक भी खाते हैं । इसकी फलियों से मोठके समान बीज निकलते हैं, जो दहीमें मिलाकर स्वचा पर लगाने के काम पाते हैं ॥ २११-२१३॥
, अतिविषा। विषा स्वति विषा विश्वा शृंगी प्रतिविषारुणा २१४ शुक्लकंदा चोपविषा भंगुरा घुणवल्लभा । विषा सोष्णा कटुस्तिक्ता पाचनी दीपनी हरे२१५ कफपित्तातिसारामविषकासवमिक्रिमीन् । विषा, अतिविषा, विश्वा, ऋडी, प्रतिविषा, अरुणा, शुलकन्दा, उपविषा, भगुरा, घुणवल्लभा यह अतीसके नाम हैं। प्रतीस-किचित् उष्ण, कटु, तिक्त, पाचनकर्ता और अग्निदीपक है। तथा कफ, पिन्न, अतिसार, ग्रामविकार, विषविकार, खांसी, वमन और कृमिरोगको पूर करती है । रातिसार और बारीके ज्वरोंमें यह विशेष रूपसे प्रयुक्त किया जाता है। अतीम नामसे यह सब जगह प्रसिद्ध है ॥२१४ ॥२१॥
सावरलोध्रः । पटियालोध्रः। लोप्रस्तिल्लस्तिरीटश्च सावरो गालवस्तथा ॥२१६॥ द्वितीयः पट्टिकालोधः क्रमुकः स्थूलवल्कलः । जीर्णपत्रो बृहत्पक्षः पट्टी लाक्षाप्रसादनः ॥२१७॥ लोध्रो ग्राही लघुः शीतः चक्षुष्यः कफपित्तनुत् । कषायो रक्तपित्तामृग्ज्वरातीसारशोथहृत् ॥२१॥ लोध्र, तिल्ल, तिल्लक, तिरीट, सावर, गालव यह शावरलोधके नाम हैं। पट्टिकालोध्र, क्रमुक, स्थूलवल्कन, जीर्णपत्र, बृहत्पत्र, पट्टी और नाक्षाप्रसादन यह पटिया लोन या पठानीनोधके नाम हैं। लोध्र-ग्राही, इल का; शीतल, नेत्रोंको हितकारी, कफ-पितमाशक, कसैला, रक्तपित्त,
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. (४८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। रक्तविकार, ज्वर, अतिसार और शोथके हरनेवाला है पठानी लोधके नामसे सब जगह प्रसिद्ध है ॥ २१६-२१८ ॥
रसोनः। लशनस्तु रसोनः स्यादुग्रगंधो महौषधम् । अरिष्टो म्लेच्छकंदश्च यवनेष्टो रसोनकः ॥२१९॥ यदामृतं वैनतेयो जहार सुरसत्तमात् । तदा ततोऽपतद्विदुः स रसोनोऽभवद्भुवि ॥ २२० ॥ पंचभिश्च रसैर्युक्तो रसेनाम्लेन वर्जितः। तस्माद्रसोन इत्युक्तो द्रव्याणां गुणवेदिभिः ॥२२१॥ कटुकश्चापि मूलेषु तिक्तः पत्रेषु संस्थितः। नाले कषाय उदिष्टो नालाग्रे लवणः स्मृतः॥२२२॥ बीजं तु मधुरः प्रोक्तो रसस्तद्गुणवेदिभिः । रसोनो बृंहणो वृष्यः स्निग्धोष्णः पाचनःसरः२२३ रसे पाके च कटुकस्तीक्ष्णो मधुरको मतः।
बलवर्णकरो मेधाहितो नेव्यो रसायनः ॥ २२४ ॥ हृद्रोगजीर्णज्वरकुक्षिशूलविबन्धगुल्मारुचिकासशोफान्। दुनोमकुष्ठानलसादजंतुसमीरणश्वासकफांश्च हंति २२५
लशुन, रसोन, उग्रगन्ध, महौषध, अरिष्ट, म्लेच्छकन्द, यवनेष्ट, रसोनक यह लशुनके नाम हैं । जब गरुड़जी देवनोकसे अमृत लेकर आये तो उनके मुखसे जोएक बिन्दु पृथ्वीपर गिराउससे रखोनकन्द (लशुन) उत्पन्न हुमा । क्योंकि अम्ल रससे रहित यह कन्द पांच रसोवाला होता है इसलिये इसको द्रव्यगुणके जाननेवानोंने रखोन कहा है। रसोन-मूलमें कटु, पोंमें तिक्त, नालमें कषाय, नालके अग्र भागमें नवण और बीजों में मधुर रसवाला. इसके
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. (१९) तत्त्वको जाननेवालोंने कहा है । नशुन वीर्यको पुष्ट करनेवाला, शरीरको पुष्ट करनेवाला चिकना, गरम, पाचन, दस्तावर. रत और पाकमें कड, वीक्ष्ण और मधुर है, बल वर्णके करनेवाला, मेधावर्धक, नेत्रोंको हितकारी और रसायन है, हृद्रोग, जीर्णज्वर, कुक्षिशूल, विषन्ध, गुल्म, भरुचि, कास, सूजन, बवासीर, कुष्ठ, अग्निकी मन्दता, कृमि,वायु, श्वास और कफको हरनेवाला है २१९-२२५ ॥
पलांडुः। पलांडुर्यवनेष्टश्च दुर्गधो मुखदूषकः । पलांडुस्तु गुणै यो रसोनसदृशो बुधैः ॥ २२६॥ स्वादुः पाके रसेनोष्णः कफन्त्रातिपित्तलः । हरते केवलं वातं बलवीर्यकरो गुरुः ॥ २२७ ॥ पलाण्डु, यवनेष्ट, दुर्गन्ध, मुखदूषक यह प्याजके नाम हैं इसे हिन्दीमें पियाज, फारसीमें प्याज और अंग्रेजी में Onion bulb करते हैं।
पियाज (पलाण्ड) गुणों में रसोनके समान है। पाकमें मधुर, रममें उष्ण, कफकारक, किश्चित पिनकारक, वेवल वातनाशक, बलवीर्यवर्धक और भारी है ।। २२६ ॥ २२७ ॥
भल्लातकम्। भल्लातकं त्रिषु प्रोक्तमरुष्कोरुष्करोऽनिकः । तथैवानिमुखी भल्ली वीरवृक्षश्च शोफकृत् ॥२२८॥ भल्लातकफलं पक्वं स्वादु पाकरसं लघुः।। कषायं पाचनं स्निग्धं तीक्ष्णोष्णं छेदि भेदनम्२२९॥ मेध्यं वह्निकरं हंति कफवातव्रणोदरम् । कुष्ठाझेग्रहणीगुल्मशोथानाइज्वरक्रिमीन् ॥२३०॥
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(५०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
तन्मज्जा मधुरा वृष्या बृंहणी वातपित्तहा । वतमारुष्करं स्वादु पितघ्नं केश्यमग्निकत ॥२३॥ भल्लातकः कषायोष्णः शुक्रलो मधुरो लघु । वातश्लेष्मोदरानाहकुष्ठाशग्रहणीगदान् ॥२३२॥ हंति गुल्मज्वरश्वित्रवह्निमांद्यकृमिव्रणान् । भल्लातक शन्द विलिङ्ग वाचक है। अरुष्क, अरुष्कर, पग्निक, अग्निमुखी, भल्ली, वीरवृतं और शोफकृत् यह भिलावेके नाम हैं। इसे हिन्दीमें भिलावा, फारसीमें बिलादुर और अंग्रेजीमें rarkingnut करते हैं। भिलावेके पके फल रस और पाकमें मधुर, हलके, कसैले, पाचन, स्निग्ध, तीक्ष्ण, उष्ण, छेदी, भेदनकर्ता, बुद्धिवर्धक और अग्निकारक हैं। तथा कफ, वात, व्रण, उदररोग, कुष्ठ, बवासीर, ग्रहणी, गुल्म, शोथ अफारा, ज्वर और कृमियोंको नाश करते हैं । भिलावेके फलोंकी मजा-मधुर, वीर्यवर्धक, शरीरपुष्टिकारक और वात पित्तके हरनेवाली है। भिलावेके फलों की उण्डिये मधुर, पित्तनाशक, केशों और जठराग्निको बढानेवाली होती हैं । भिकावे-कैसेले, गरम, वीर्यवर्धक, मधुर और हलके हैं। तथा वात, कफ, उदररोग, अफारा, कुष्ठ, बवासीर, गुल्म,ज्वर, श्वित्रकुष्ठ, मन्दाग्नी, कृमि और व्रोको दूर करनेवाले हैं । भिलावेका विधिरहित उपयोग करनेसे शरीरमें खुजली और सूजन मादि दारुण विकार उत्पन्न हो जाते हैं। दही, नारियनकी गिरी और तिलोंका नेप करनेसे और खानेसे भिलावेकी खुजली तथा विष शान्त होता है। २२८-२३२ ॥
भङ्गा गन्नामातुलानी मादनी विजया जया॥२३३॥ भङ्गा कफहरी तिक्ता ग्रहणी पाचनी लघुः। तीक्ष्णोष्णा पित्तला मोहमदवाग्वह्निवर्धनी ॥२३॥ भंगा, गंजा, मातुलानी, मादनी, विजया और जया यह भांगके नाम
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हरितक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (५१) नाम हैं। फारसी भाषा में कनक तथा अंग्रेजीमें mnlian Hded कहते हैं। भांग कफको हरनेवाली, तिक्त, ग्राही, पाचन करनेवाली, इनकी, तीक्ष्ण, उष्या, पित्तकारक और मोह, मद, वाणी और अग्निको बढानेवाली है ॥ २३३ ॥ २३४ ॥
खमतिलः। तिलभेदः खसतिलः खाखसश्चापि संस्मृतः। स्यात्वाखसफलोदभूतं वल्कलं शीतलं लघु २३६॥ ग्राहि तिक्तं कषायं च वातकृत्कफकासहृत । धातूनां शोषकं रूक्षं मदकृद्वाग्विवर्द्धनम् ॥ २३६॥ मुहुर्मोहकरं रुच्यं सेवनात्पुंस्त्वनाशनम् । तिलभेद, खसतिल और खाखस यह पोस्तके नाम हैं। इसे हिन्दीमें पोस्तदानेके डोडे अथवा खसखस, फारसीमें कोकनार तथा अंग्रेजीमें Poppy Seed कहते हैं।
खसखसका छिलका शीतल, हलका, ग्राही, तिक्त, कसैला वातकारक, कफ और खांसीके हरनेवाला, धातुओं को सुखानेवाला, रूखा,मदकारक, वाणीको बढानेवाला, बारंपार मोहकारक, अरुचिकारक तथा सेवन करनेने पुरुषत्वको नष्ट करनेवाला है। खसखसके डोडे पर पछने लगाकर जो दूधसा नगकर सूबता है वह अफीम कहाती है॥२३५॥२३६॥
___ अहिफेनकम् । उक्तं खसफलं क्षीरमाफूकमहिफेनकम् ॥ २३७ ॥ आफूकं शोषणं ग्राहि शेष्मघ्नं वातपित्तलम् । तथा खसफलोद्भूतवल्कलप्रायमित्यपि ॥ २३८ । खसफल, क्षीर, पाक और पहिनक यह अफीमके नाम हैं । इसे हिन्दीमें अफीम फारसीमें अफयून और अंग्रेजीमें Opium कहते हैं।
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(५२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
अफीम-शोषण करनेवाली, ग्राही, कफनाशक, वात पित्तकारक पौर जो पोस्तकी छानके गुण हैं वह प्रायः इसमें हैं ।। २३७ ॥ २३८॥ .
खसबीजानि। उच्यते खसबीजानि ते खाखसतिला अपि । खसबीजानि बल्यानि वृष्याणि सुगुरूणि च २३९॥ शमयंति कर्फ तानि जनयंति समीरणम् । खसपीज और खाखसतिला यह खसखसके नाम हैं। बसपीज-वळकारक, वीर्यवर्धक, अत्यंत भारी, कफको शमन करनेवाले तथा वायुको उत्पन्न करनेवाले हैं ॥ २३९ ।।
सैन्धवम् । सैन्धवोऽस्त्री शीतशिवं पाणिभंथं च सिंधुजम्२४० सैंधवं लवणं स्वादु दीपनं पाचनं लघु । स्निग्धं रुच्यं हिमं वृष्यं सूक्ष्म नेत्र्यं त्रिदोषहत२४१ सैंधव शब्द स्वीलिंगमें नहीं होता । सैंधव, शीतशिव, पाणिमन्य पौर सिन्धु यह सैंधव नमकके नाम हैं । इसको हिन्दी में सेंधा नमक, फारसीमें नमकसंग, अंग्रेजीमें Cloride of Sodium कहते हैं।
संधव नमक स्वादु, दीपन करनेवाला, पाचक हलका, स्निग्ध रुधिकारक शीतल, वीर्यवर्धक, सूक्ष्म, नेत्रोंको हितकर तथा त्रिदोषको नष्ट करनेवाला है ॥२४० ॥ २४१ ॥
गडाख्यम् । शाकंभरीयं कथितं गडाख्यं रोमकं तथा। गडाख्यं लघु वातघ्नमत्युष्णं भेदि पित्तलम् २४२॥ तीक्ष्णोष्णं चापि सूक्ष्म चाभिष्यंदि कटुपाकि च । शाकंभरी गडाख्या और रोमक यह सांभर नूनके नाम है। इसे. हिन्दीमें सांभर नून, फारसीमें मिलहे अवशी कहते हैं।
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( ५३ )
सांभर नमक-हलका, वातनाशक, अत्यन्त उष्ण, दस्तावर, पित्तवर्धक, तीक्ष्ण, उष्णा, सूक्ष्म, अभिष्यन्दी और कटुपाकी है । यह सांभरलवण नाम से प्रसिद्ध है ॥ २४२ ॥
सामुद्रम् ।
सामुद्रं यत्तु लवणमक्षीवं वशिरं च तत् ॥ २४३ ॥ सामुद्रं वै सागरजं लवणोदधिसंभवम् । सामुद्रं मधुरं पाके सतिक्तं मधुरं गुरु ॥ २४४ ॥ नात्युष्णं दीपनं भेदि सक्षारमविदाहि च । श्लेष्मलं वातनुत्तितम रूक्षं नातिशीतलम् ॥ २४५ ॥
समुद्रलवण, अक्षीव, वशिर सामुद्रज, सागरज, उदधिसम्भव यह समुद्रलवणके नाम हैं।
सामुद्र नमक- पाक में मधुर, किंचित तिक्त, मधुर, भारी, किश्चित् उष्ण, दीपन, भेदनकर्त्ता, क्षारयुक्त, अविदाही, कफकारक, वातनाशक, विक, स्निग्ध और किंचित शीतल है ।। २४३-२४५ ॥
विडम् | विडं पाक्यं च कतकं तथा द्राविडमासुरम् । विडं सक्षारमूर्द्धाधिः ककवातानुलोमनम् ॥ २४६ ॥
(ऊर्ध्वं कफमधो वातं संचारयेदित्यर्थः । )
दीपनं लघु तीक्ष्णोष्णं सूक्ष्मं रुच्यं व्यवयायि च विबंधानाह विष्टंभोदर्द गौरवलनुत् ॥ २४७ ॥
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विड, पाक्य, कतक, द्राविड और आतुर यह विड़ नमकके नाम हैं विनमक क्षारयुक्त है । ऊपर और नीचे के मार्गों से कफ और बायुके अतुलोमन करनेवाला है अर्थात ऊर्ध्व मार्गले कफ और अधो मार्गसे पवनको अनुलोमन करके निकालता है | Aasahasrर्ता, हलका
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. (६४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । तीक्ष्ण,उष्ण,रूखा,रुचिकारक,न्यवायी, विवंधनाशक तथा पानाह,विष्टम्भ उदर्द, शरीरका भारीपन और शूलको नाश करता है ॥२४६ ॥२४७ ॥
सौवर्चलम् । सौवर्चलं स्याद्रुचकमक्षपाकं च धातुमत् ॥ २४८॥ रुचकं रोचनं भेदि दीपनं पाचनं परम् ।
सस्नेहं वातनुनातिपित्तलं विशदं लघु ॥ २४९ ॥ सौवर्चल, रुचक, अक्षपाक और धातुमत् यह सश्वर नमकके नाम हैं। इसे हिन्दीमें काला नमक, फारसीमें नमक स्याह तथा अंग्रेजीमें Black Salt कहते हैं इसको काला नमक भी कहते हैं। सश्चर नमक-रुचिकारक, दस्तावर, अग्निदीपक, पाचन करनेवाला, स्निग्ध, वातनाशक, पित्तको किश्चित् बढानेवाला, विशद और हल्का है ॥२४८ ॥ २४९ ।।
औद्भिदम् । औद्भिदं पांशु लवणं यज्जातं भूमितःस्वयम् । क्षारं गुरु कटु खिग्धं शीतलं वातनाशनम् ॥२५०॥ औद्भिद और पांशु लवय यह खारी नोनके नाम हैं। यह नमक भूमिसे स्वयं ही उत्पन्न होता है। पांशु लक्षण-क्षार, भारी,कटु, स्निग्ध, शीतल और वातनाशक है॥२५०॥
चणकाम्लकम् । चणकाम्लकमत्युष्णं दीपन दंतहर्षणम् । लवणाम्लरसं रुच्यं शुलाजीर्णविबंधनुत् ॥२५॥ चणकाम्लक ( चनेका खार) बहुत उष्ण,दीपन, दन्तहर्षकर्ता, नमकीन और खट्टे रसवाला है, रुचिकारक, शूल, अजीर्ण और विवाधको नाश करनेवाला है ॥ २५१॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
यवक्षारा स्वर्जिका - सुवार्चिकाश्च ।
पाक्यः क्षारो यवक्षारो यावशुको यवाग्रजः । स्वर्जिकापि स्मृतः क्षारः कापोतः सुखवर्चका २५२॥
(५५)
पाक्य, चार, यवक्षार, यवाग्रज और यावशूक यह जवाखारके नाम । इसे हिन्दी में जौखार, अंग्रेजी में Carbouate of Potash कहते हैं । स्वर्जिका, सज्जीखार, कपोत और सुखवर्चका यह सज्जीखारके नाम हैं। इसे हिन्दीमें सजीखार फारसी में सञ्जार कलिया और अंगरेजी में Carbonate 0. Soda कहते हैं ।। २५२ ॥
कथितः स्वर्जिकाभेदो विशेषज्ञैः सुवर्चका । निदं तिशूलवाताम श्लेष्मश्वासगलामयान् ॥ २५३॥ पांड्वशग्रहणीगुल्मानाहप्लीहहृदामयान् । स्वर्जिका रूपगुणा तस्माद्विशेषाद्गुल्मशुल हृव २५४ सुवर्चका स्वर्जिकात्र बोद्धव्या गुणतो जनैः ।
सज्जीखारका भेद एक सुवचिका या लोटासज्जी नामसे प्रसिद्ध है इनमें जौखार-शूल, वातविकार, आमविकार, कफ, श्वास, गलेके रोग, पाण्डुरोग, बवासीर ग्रहणी, गुल्म अफारा, प्लीहा और हृदयके रोगोंको दूर करता है । सज्जीखार जौखारसे न्यूनगुणोंवाला है । किन्तु गुल्म और शूलको विशेषरूपसे दूर करता है। सुवचिका ( लोटासज्जी) भी सज्जीखारके समान ही गुणवाली है ।। २५३ ॥ २५४ ॥
•
सौभाग्यम् ।
सौभाग्यं टंकणं क्षारं धातुद्रावकमुच्यते ॥ २५५ ॥ टंकणं वह्निकृद्र्क्षं कफहृद्वातपित्तकृत् ।
सौभाग्य, टंकण, क्षार और धातुद्रावक यह सुहागेके नाम हैं । इसे हिन्दीमें सुहागा, फारसीमें तीगार और अंग्रेजीमें Borax कहते हैं ।
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(५६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
सुहागा-वहिवर्द्धक, रूक्ष कफनाशक और वातपित्तके करनेवाला है॥२५५॥
क्षारद्वयं क्षारत्रयं च । स्वर्जिकायावशूकश्च क्षारद्वयमुदाहृतम् ॥ २५६ ॥ टंकणेन युतं तत्तु क्षारत्रयमुदीरितम् । मिलितस्तूक्तगुणवद्विशेषादगुल्महत्परम् ॥ २५७ ॥ सज्जीखार और जौखारके मिलानेसे क्षारद्धय कहा जाता है। यदि इनमें मुहागा मिला दे तो क्षारत्रय बन जाता है। तीनों क्षार मिले हुए उपरोक्त गुणोंको विशेष रूपसे करते हैं। और गुल्मको तो विशेषरूपसे नष्ट करनेवाले हो जाते हैं । २५६ ॥ २५७ ॥
क्षाराष्टकम् । पलाश वजिशिखरिचिंचार्कतिलनालजः । यवजः स्वर्जिका चेति क्षाराष्टकमुदाहृतम् ॥२५८॥ क्षारा एतेऽग्रिना तुल्या गुल्मशूलहरा भृशम् । पलाश (ढाक ), थोहर, अपामार्ग, (पुठकण्डा ) इमली, आक और तिल, नान इन ६ द्रव्योंका अलग अलग क्षार बनाकर इनहीमें जौखार
और सज्जीखार मिला दिया जाय तो इनको क्षाराष्टक कहते हैं। यह भाठ क्षार मिलाकर अग्नि के तुल्य हो जाते हैं तथा गुल्म और शूलको विशेषरूपसे नष्ट करते हैं । २५८ ॥
चुक्रम् । चुकं सहस्रवेधि स्यादसाम्लं शुक्तमित्यपि ॥२५९॥ चुकंमत्यम्लमुष्णं च दीपनं पाचनं परम् ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (५७) शूलगुल्मविबन्धामवातश्लेष्महरं परम् ॥ २६० ॥ वमितृष्णास्यवैरस्यहत्पीडावह्निमांद्यहृत् । चुक्र, सहस्रवेधी, रसाम्ल पौर शुक्त यह खट्टे चूकके नाम हैं। . चुक्र-अत्यन्त खट्टा, उष्ण, दीपन और पाचन है तथा शूल, गुल्म विबन्ध, आमवात, कफ, वमन. प्यास, मुखकी विरसता, हस्पीडा और मंदाग्निको दूर करनेवाला है ॥ २५९ ॥ २६० ॥
इति श्रीविद्या नकार-शिवशर्मवैद्यशास्त्रिकृतशिवप्रकाशिकाभाषायां
हरीतक्यादिनिघण्टौ हरीतक्यादिवर्गः॥१॥
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कर्परादिवर्गः।
कपूरः। पुंसि क्लीबे च कर्पूरो हिमाह्वो हिमबालकः । घनसारश्चन्द्रसंज्ञो हिमनामापि स स्मृतः ॥ १॥ कर्पूरःशीतलो वृष्यश्चक्षुष्यो लेखनो लघुः । सुरभिर्मधुरस्तिक्तः कफपित्तविषापहः ॥२॥ दाहतृष्णास्यवरस्यमेदोदौगन्ध्यनाशनः। कर्पूरो द्विविधः प्रोक्तः पक्कापक्कप्रभेदतः ॥ ३॥ पक्वात्कर्पूरतः प्राहुरपक्कं गुणवत्परम् । कर्पूर शब्द पुल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग दोनोंमें होता है। कपूर, सिताभ्र हिमा ( हिमके सम्पूर्ण नामोंवाला), हिमालक, घनसार यह कपरके
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(५८)
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
नाम हैं तथा चन्द्रमाके सम्पूर्ण नामोंसे भी पुकारा जाता है । इसे हिन्दी में कपूर, फारसी में कफूर और अंग्रेजीमें Comphor कहते हैं।
कवर - शीतल, वीर्यवर्धक, नेत्रोंके लिये हितकारी, लेखन, हलका, सुगन्धयुक्त, मधुर, तिक्त तथा कफ, पित्त, विष, दाह तृष्ण, मुखकी विरसता, मेद और दुर्गंधको नष्ट करता है। कपूर पक्क और अपक्क भेदसे दो प्रकारका है, पपक कपूर पक्क कपूर से अधिक गुणोंवाला है ॥ १-३ ॥ चीनसंज्ञः ।
चीनसंज्ञस्तु कर्पूरः कफक्षयकरः स्मृतः ॥ ४ ॥ कुष्ठकंडूवमिहरस्तथा तिक्तरसश्च सः ।
चीनसंज्ञक कर्पूर ( चीनियाँ कर्पूर ) - तिक्त रसवाला तथा कफ, कोट, कण्डु (खुजली ), वमन इनको नष्ट करता है ॥ ४ ॥
कस्तूरी । मृगनाभिर्मृगमदः कथितस्तु सहस्रभित् ॥ ५ ॥ कस्तूरिका च कस्तूरी वैधमुख्या च सा स्मृता । कामरूपोद्भवा कृष्णा नैपाली नीलवर्णयुक् ॥ ६ ॥ काश्मीरे कपिलच्छाया कस्तूरी त्रिविधा स्मृता । कामरूपोद्भवा श्रेष्ठा नेपाली मध्यमा भवेत् ॥ ७ ॥ काश्मीरदेशसंभूता कस्तूरी ह्यधमा स्मृता । कस्तूरिका कटुस्तिक्ता क्षारोष्णा शुक्रला गुरुः ॥८॥ कफवात विषच्छर्दिशीत दौर्गन्ध्यदोषहृत् ।
मृगनाभि, मृगमद सहस्रभित, कस्तूरिका, वैधमुख्या यह कस्तूरिकाके संस्कृत नाम हैं । इसे हिन्दी में कस्तूरी, फारसी में मुष्क और अंग्रेजीमें Musk कहते हैं । कामरूप देशमें उत्पन्न हुई कस्तूरी कालेवर्णकी, नेपाल देशमें उत्पन्न हुई नीलवर्ण युक्त तथा काश्मीर देश में उत्पन्न हुई भूरे रंगकी
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (५९) होती है । इस प्रकार कस्तूरी तीन प्रकारकी है। कामरूप देशकी कस्तूरी उत्तम, नेपालकी मध्यम तथा काश्मीरकी हीन गुणोंवालो है।।
कस्तूरिका-कटु, तिक्त, खारी,गरम,वीर्यवर्धक, भारी और कफ, वात, विष, वमन, शीत तथा दुर्गन्धताको हरनेवाली है ॥ ५-८॥
लताकस्तूरिका। लता कस्तूरिका तिक्तास्वाद्वीवृष्या हिमा लघुः॥९॥ चक्षुष्या छेदनी श्लेष्मतृष्णावस्त्यास्यरोगहृत् । लता, कस्तूरी, तिक्त, मधुर, वीर्यवर्धक, शीतल, हलकी, नेत्रोंको हित करे, छेदन और कफ, तृष्णा तथा वस्ति (मसाना) और मुखके रोगोंका नाश करती है ॥९॥
गन्धमाजारवायम् । गन्धमार्जारवीर्य्यन्तु वीर्य्यकृत्कफवातहत् ॥१०॥ कण्डुकुष्ठहरं नेत्र्यं सुगन्धं स्वेदगन्धनुत् । गन्धमार्जारवीर्य (जवादिकस्तुरी)-वीर्यकारक, नेत्रोंको हितकारी, सुगन्धयुक्त तथा कफ, वात, कण्डु, कुष्ठ और स्वेदकी गन्धको नष्ट करनेवाली है॥ १०॥
चन्दनम् । श्रीखण्डं चन्दनं न स्त्री भद्रश्रीस्तैलपणिका ॥११॥ गन्धसारो मलेयजस्तथा चन्द्रद्युतिश्च सः। स्वादे तिक्तं कषे पीतं छेदे रक्तं तनौ सितम् ॥१२॥ ग्रन्थिकोटरसंयुक्तं चन्दनं श्रेष्ठमुच्यते । चन्दनं शीतलं रूक्षं तिक्तमालादनं लघु ॥ १३ ॥ श्रमशोष विषश्लेष्मतृष्णापित्तास्रदाहनुत् । श्रीखंड और चन्दन स्वीलिङमें नहीं होते । श्रीखंड, चन्दन, भद्रश्री,तैल पर्णिका, गंधसार, मलयज तथा चन्द्रद्युति यह चन्दनके संस्कृत नाम हैं।
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(६०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। हिन्दीमें इसे सफेद चन्दन, फारसी में सपेद सन्दल तथा अंग्रेजीमें Sandal wood कहते हैं।
उत्तम चन्दन वह होता है जो स्वादसे तिक्त हो, घिसनेपर पीत निकले छेदन करनेपर लाल निकले,ऊपरसे सफेद हो तथा ग्रंथि और कोटरीयुक्त हो । चन्दन--शीतन, रूक्ष, तिक्त, पालाद करनेवाला, हलका तथा श्रम, शोष, विष, कफ, तृष्णा, पित्त तथा रुधिरके विकारोंको नष्ट करता है॥११.-१३॥
हरिचन्दनम् । कलंबकं तु कालीय पीताभं हरिचन्दनम् ॥ १४ ॥ हरिप्रियं कालसारं तथा कालानुसार्यकम् । कालीयकं रक्तगुणं विशेषाद्व्यंगनाशनम् ॥ १५ ॥ कलम्बक,कालीय, पीताभ,हरिचन्दन, हरिप्रिय,काल तार तथा कालासार्थक यह पीत चन्दनके नाम हैं। पीत चन्दनके गुण रक्तचन्दनके ही समान हैं, किन्तु यह विशेष करके व्यंग (छाई) को नष्ट करता है॥ १४ ॥ १५॥
रक्तचन्दनम् रक्तचन्दनमाख्यातं रक्तांग क्षुद्रचन्दनम् । तिलपर्णी रक्तसारं तत्प्रवालफलं स्मृतम् ॥१६॥ रक्तं शीतं गुरु स्वादुच्छदि तृष्णास्रपित्तहत् । तितं नेत्रहितं वृष्यं ज्वरव्रणविषापहम् ॥ १७॥ रक्तचन्दन, रक्तांग, शुदचन्दन, तितपर्णी, रक्त तार तथा प्रवालफल यह रक्तचन्दनके संस्कृत नाम हैं। हिन्दी में इसे नाल वन्दन, फारसीमें संदलेरख और अंग्रेजी में इसे Red Sandel wood कहते हैं। . लालचन्दन-शीतल,भारी, मधुर, तिक्त नेवहितकारी,वीर्यवर्द्धक तथा
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (६१) वमन, तृष्णा, रक्तविकार, पित्त, ज्वर, व्रण, विष, इनका अपहरण करता है ॥ १६ ॥ १७ ॥
पतंगम् ।
पतंगं रक्तसारं च सुरंग रंजनं तथा । पटरंजकमाख्यातं पत्तूरं च कुचन्दनम् ॥ १८ ॥ पतंग मधुरं शीतं पित्तश्लेष्मत्रणा स्रनुत्.। हरिचन्दनवद्वेद्यं विशेषादाहनाशनम् ॥ १९ ॥ चन्दनानि तु सर्वाणि सदृशानि रसादिभिः। गन्धे न तु विशेषोऽस्ति पूर्व श्रेष्ठतमं गुणैः ॥२०॥ पतंग, रक्तसार, सुरंग, रंजन, पटरंजक, पत्तूर और कुचन्दन यह पतंगके संस्कृत नाम हैं । इसे हिन्दीमें पतंग अथवा पतंगवृक्ष, और फारसी बकम, अंग्रेजी में Sappan wood कहते हैं।
पतंग-मधुर, शीतल तथा पित्त, कफ, व्रण पौर रक्तविकारोको दूर करता है। इसमें पीत और चन्दनके समान ही गुण हैं,परन्तु यह दाहको विशेष करके नष्ट करता है। रसादिकमें तो सब चन्दन समान ही हैं, केवल गन्धका ही भेद है। उन सबमें प्रथप (श्वेत चन्दन ) गुणों में सबसे श्रेष्ठ रे॥१८-२०॥
अगुरु कृष्णागुरु अगुरुसत्वं च । अगुरु प्रवरं लोहं राजाह योगजं तथा । वशिकं कृमिजं चापि कृमिजग्धमनार्यकम् ॥२१॥ अगुरूषण कटु त्वच्यं तितं तीक्ष्णं च पित्तलम् ।। लघुकर्णाक्षिरोगघ्नं शीतवातकफप्रणुत ॥२२॥
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र ६२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. कृष्णं गुणाधिकं तनु लोहवद्वारि मजति । अगुरुप्रभवः स्नेहः कृष्णागुरुसमः स्मृतः ॥ २३ ॥ पगुरु, प्रवर, लोह, राजाह, योगज, वशिक, कृमिज, कृमिजग्ध तथा अनार्यक यह पगुरुके संस्कृत नाम हैं । इसको हिन्दी में अगर अथवा काली अगर, फारसीमें कश बेबवा और अंग्रेजी में Eagal woodकहतेहैं। - अगर-गरम, कटु, त्वचाको उत्तम करनेवाला, तिक्त, तीक्ष्ण, पित्तव. धक हल्की और कर्मरोग, अक्षिरोग, शीत, वात तथा कफको दूर करती है। काले रंगकी अगर अधिक गुणोंवाली होती है और वह जनमें लोहेकी तरह डूब जाती है । अगुरुसे उत्पन्न हुए तेल में भी काली अगरके समान गुण हैं ॥ २१-२३ ॥
देवदारु। देवदारु स्मृतं दारु भाद्रदाविदारु च । मस्तदारु द्रुकिलिमं किलिमं सुरभूरुहः ॥ २४ ॥ 'देवदारु लघु स्निग्धं तिक्तोष्ण कटुपाकि च ।। विबन्धाध्मानशोथामतंद्राहिकाज्वरात्रजित् ॥२५॥ प्रमेहपीनसश्लेष्मकासकंडूसमीरनुत्। देवदारु, दारु भद्रदारु, इन्द्रदारू, मस्तदारु, द्रुकिलिम, किलिम तथा सुरभूरुह यह देवदारुके संस्कृत नाम हैं। हिन्दीमें इसे देवदाह फारसीमें देवदार तथा अंग्रेजीमें lsua Caprredea कहते हैं।
देवदारु-हल्का, स्निग्ध, तिक्त, गरम पाकमें कटु और मलके बंध, आध्मान, शोथ, आम, तन्द्रा, हिचकी, ज्वर, रक्तविकार, प्रमेह, पीनस, कफ, खांसी, कण्ड, (खुजली) तथा वायुको नष्ट करता है ॥ २४ ॥२५॥
सरलः। सरलः पीतवृक्षः स्यात्तथा सुरभिदारुकः ॥२६॥ सरलो मधुरस्तितः कटुपाकर सो लघुः ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (६३) स्निग्धोष्ण कर्णकण्ठाक्षिरोगरक्षोहरःस्मृतः ॥ २७ ॥ कफानिलस्वेददाहकासमूच्छावणापहः। सरल,पीतवृक्ष, सुरभिदारुक यह सरलके संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दीमें धूपवृक्ष तथा अंग्रेजीमें Long Leved pine कहते हैं।
सरल-मधुर, तिक्त, पाक और रसमें कटु, हल्की, स्निग्ध, गरम और कर्णरोग, अक्षिरोग. कण्ठरोग, भूतादिकोंकी पीडा, कफ, बायु, स्वेद, दार, कास, मूच्छी तथा व्रणको नष्ट करता है ॥ २६ ॥ २७ ॥
तगरम् । कालानुसाऱ्या तगरं कुटिलं नहुषं नतम् ॥ २८ ॥ अपरं पिण्डतगरं दण्डहस्तं च बहिणम् । तगरद्वयमुष्णं स्यात्स्वादु स्निग्ध लघु स्मृतम्॥२९॥ विषापस्मारशूलाक्षिरोगदोषत्रयापहम् । कालानुसार्य, तगर कुटिल, नहुष तथा नत यह प्रथम प्रकार की तगरके नाम हैं। पिण्डतगर, दण्डहस्त तथा बहिण यह दूसरी तगरके नाम हैं। तगरको हिन्दीमें तगर कहते हैं।
दोनों प्रकारकी तगर--उष्णमधुर, स्निग्ध, हल्की और विष, अपस्मार शूल, अक्षिरोग तथा त्रिदोष इनको नष्ट करते हैं ॥ २८ ॥२९॥
- पद्मकम् । पद्मकं पद्मगन्धि स्यात्तथा पद्माह्वयं स्मृतम् ॥३०॥ पद्मकं तुवरं तिक्तं शीतलं वातलं लघु । विसर्पदाहविस्फोटकुष्ठश्लेष्मास्त्रपित्तनुत् ॥३१॥ गर्भसंस्थापनं वृष्यं वमिव्रणतृषाप्रणुत् । पनक, पद्मगन्धि, पद्माहय यह पद्मकके संस्कृत नाम हैं इसे हिन्दीमें पप्रकाष्ठ तथा पमाख करते हैं।
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( ६४ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. 1
पद्मक- कसैला, तिक्त, शीतल, वातवर्धक, हलका, गर्भको स्थापन करनेवाला, वीर्यवर्धक तथा विज्ञ, दाह, विस्फोट, कुष्ठ, कफ, रक्तपित्त, चमन, व्रण और तृषाको दूर करता है ॥ ३० ॥ ३१ ॥
गुग्गुल्लुः ।
मुग्गुलुर्देवधूपश्च जटायुः कौशिकः पुरः ॥ ३२ ॥ कुम्भोल्लूखलकं कीबे महिषाक्षः पलंकषः । महिषाक्षो महानीलः कुमुदः पद्म इत्यपि ॥ ३३ ॥ हिरण्यः पञ्चमो ज्ञेयो गुग्गुलोः पञ्चजातयः । मृगांजन सवर्णस्तु महिषास इति स्मृतः ॥ ३४ ॥ महानीलस्तु विज्ञेयः स्वनामसमलक्षणः । कुमुदः कुमुदाभः स्यात् पद्मो माणिक्यमन्निभः ॥ ३५ ॥ हिरण्याख्यस्तु हेमाभः पंचानां लिङ्गमीरितम् । महिषाक्षो महानीलो गजेंद्राणां हित वुभौ ॥ ३६ ॥ हयानां कुमुदः पद्मः स्वस्त्यारोग्यकरौ परौ । विशेषेण मनुष्याणां कनकः परिकीर्तितः ॥ ३७ ॥ कदाचिन्महिषाशश्च मतः कैश्चिन्नृणामपि । गुग्गुलुर्विशदस्तिक्तो वीर्योष्णः पित्तलः सरः ॥ ३८॥ कषायः कटुकः पाके कटू रूक्षो लघुः परः । भग्रसन्धानकृवृष्यः सूक्ष्मस्तप्य रसायनः ॥३९॥ दीपनः पिच्छिलो बल्यः कफवातत्रणापचीः । मेदोमेहाश्मवातांश्व वेदकुष्ठाममारुतान् ॥ ४० ॥ पिण्डकाग्रंथिशोफाश गण्डमालाकृमीञ्जयेत् । माधुर्याच्छमयेद्वातं कषायत्वाच्च पित्तदा ॥ ४१ ॥
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हर्गतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (६५) तिक्तत्वात्कफजित्तेन गुग्गुलः सर्वदोषहा। स नवो बृंहणो वृष्यः पुराणस्त्वतिलेखनः॥४२॥ स्निग्धः कांचनसंकाशः पकजम्बूफलोपमः । नूतनो गुग्गुलुः प्रोक्तःसुगन्धिर्यस्तु पिच्छिलः॥४३॥ शुष्को दुर्गंधकश्चैव त्यक्तप्रकृतिवर्णकः । पुराणः स तु विज्ञेयो गुग्गुलुर्वीर्य्यवर्जितः ॥४४॥ • अम्लं तीक्ष्णमजीण च व्यवायं भ्रममातपम् ।
मद्यं रोषं त्यजेत्सम्यग्गुणार्थी पुरसेवकः ॥ ४५ ॥ गुग्गुल, देवधूप, जटायु, कौशिक, पुर, कुम्भ, उल्लूखलक, महिषाक्ष और पलंकषा यह गुग्गुलके संस्कृत नाम हैं। उल्लूखलक शन्द नपुंसक लिंगमें ही होता है । गुग्गुलको हिन्दी में गुग्गुल, फारसीमें वोराजदान
और अंग्रेजीमें Indian Dellum कहते हैं । __ महिषाक्ष, महानील, कुमुद, पद्म तथा हिरण्य यह गुग्गुळके पांच भेद हैं। मृगके नेत्रके समान वर्णवाला महिषाक्ष गुग्गुल होता है, जो गुग्गुल अपने नामके अनुसार अत्यंत नीला हो उसे महानीन कहते हैं। जिस गुग्गुलका कुमुद समान वर्ण हो उसे कुमुद कहते हैं। जिस गुग्गुलकी माणिक्यके समान कान्ति हो उसे पद्म कहते हैं तथा जिसका वर्ण स्वर्णके समान हो वह हिरण्यगुग्गुल जानना । यह पांचोंके लक्षण हैं। महिषाक्ष और महानील हाथियोंके लिये हितकारी हैं, पद्म और कुमुद यह दोनों गुग्गुल अश्वोंके लिये लाभदायक हैं और मनुष्योंके लिये विशेष करके हिरण्य गुग्गुल हितकर है। कुछ मनुष्योंका मत है कि हिरण्याक्षगुग्गुल मनुष्योंको भी दिया जा सकता है । गुग्गुल-विशद, तिक्त, उष्णवीर्य, पित्तकारक, दस्तावर, कसैना, कटु, पाकमें कटु, रूक्ष, हलका टूटे हुएको जोडनेवाला, वीर्यवर्धक सूक्ष्म,स्वरकारक अायुको बढानेवाला दीपन, चिकना, बलकारक तथा कफ, वात व्रए, अपची, मेद, मेह, पथरी,
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( ( ६६ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी . ।
बात, क्लेद, कुष्ठ, आमवात, पिण्डक, ग्रन्थि, शोफ बवासीर, गंडमाळा तथा कृमियोंको हरता है । गुग्गुल-मधुर होनेसे वात को, कसैला होने से पित्तको तथा तिक्त होने से कफको नष्ट करता है, इस प्रकार गुग्गुल त्रिदोषनाशक है। नवीन गुग्गुल पुष्टिकारक तथा वीर्यको बढानेवाला है, पुराना गुग्गुल अत्यन्त लेखन है । जो गुग्गुल स्निग्ध हो, स्वर्णके समान हो, पके हुए अम्बु फलके सदृश हो तथा सुगन्धित और पिच्छिल हो वह नया (नवीन) होता है । जो गूगल सूखा दुर्गन्धियुक्त तथा जिसने अपना स्वाभाविक वर्ण छोड दिया हो, वह पुराना होता है तथा वह शक्तिरहित होता है !
लाभकी इच्छा करनेवाले गूगलके खानेवालेको प्रम्ल, तीक्ष्ण तथा अजीर्ण करनेवाले पदार्थ तथा व्यवाय, भ्रम और गरमी, मद्य तथा क्रोध इनका त्याग कर देना चाहिये ।। ३२-४५ ॥
श्रीवासः ।
श्रीवासः सरलस्रावः श्रीवेष्टो यक्षधूपकः । श्रीवासो मधुरस्तिक्तः स्निग्धोष्णस्तुवरःसरः ॥४६॥ पित्तलो वातमूत्रक्षिस्वररोगक्षयापहः । रक्षोघ्नः स्वेददौर्गन्ध्ययू काकण्डूत्रणप्रणुत् ॥ ४७ ॥
श्रीवास, सरलस्राव, श्रीवेष्ट, यक्षधूपक यह श्रीवास के संस्कृत नाम हैं । हिन्दी में इसे गन्धपिरोजा तथा सरलका गोन्द, फारसी में सन्दरुष कादवा और अंग्रेजीमें Gumcopal कहते हैं।
श्रीवास - मधुर, तिक्त, स्निग्ध, उष्ण, कसैला, दस्तावर, पित्तवर्धक और वात, शिरोरोग, अक्षिरोग, स्वर रोग, क्षय, राक्षरूकी पीडा, स्वेद, दुर्गउता, थूका (जूं), खुजली तथा व्रया इनको नष्ट करता है ॥ ४६ ॥ ४७ ॥
रालः ।
रालस्तु शालनिर्यासः तथा सर्जरसः स्मृतः । देवधूपो यक्षधूपस्तथा सर्वरसश्च सः ॥ ४८ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (६७) रालोहिमोगुरुस्तिक्तः कषायो ग्राहको हरेत् । दोषास्रस्वेदवीसर्पज्वरव्रणविपादिका ॥ १९ ॥ ग्रहभनास्थिदग्धामशूलातीसारनाशनः । राळ, शालनिर्यास, सर्जरज, देवथूप, यक्षधूप और सर्वरस यह रालके संकृत नाम हैं। इसे हिन्दीमें राल, फारसीमें राल मगरबी और अंग्रेजीमें Yellow Risin कहते हैं। गल-शीतल, भारी, तिक्त, कलैली, ग्राही और दोष, रक्तविकार, स्वेद, विसर्प, ज्वर, व्रण, विपादिका, ग्रह, भन्नास्थि, अग्निसे दग्ध, पाम, शूल तथा अतिसारका नष्ट करती है॥४८ ॥४९॥
कुंदरुः। कुन्दरुस्तु मुकुन्दः स्यात्सुगन्धाकुन्द इत्यपि ॥५०॥ कुन्दरुमधुरस्तिक्तस्तीक्ष्णस्त्वच्याकटुर्हरेत् । ज्वरस्वेदग्रहालक्ष्मीमुखरोगकफानिलान् ॥५॥ कुंदरू, मुकुंद, सुगन्ध और कुंद यह कुन्दके संस्कृत नाम है, इसे हिन्दीमें नल कुन्दरु, फारसी में कंदुररूमी तथा अंग्रेजी में Alibanam
कुंदरु-मधुर, तिक्त, तीक्ष्ण, त्वचाको हितकर, कटु तथा ज्वर, स्वेद, ग्रह, अलक्ष्मी, मुखरोग, कफ और वातको नष्ट करती है ॥५०॥५॥
सिहकः। सिद्धकस्तु तुरुष्कः स्याद्यतो यवनदेशजः। कपितैलं स चाख्यातं तथा च कपिनामकः ॥१२॥ सिद्धका कंटुकः स्वादुःस्निग्धोष्ण शुककांतिकृत् । वृष्यः कण्ठ्यः स्वेदकुष्ठज्वरदाहग्रहापहः ॥५३ ॥ सिद्धक, तुरुक, यवनदेशज, कपिल और कपिवाचक सम्पूर्ण शब्द इसके नाम हैं। इसे हिन्दीमें शिलारस, फारसीमें सरारस और अंग्रेजीमें Liquid Amber कहते हैं।
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।। सिहक-कटु, मधुर, सिन्ध, उष्ण, शुक्र और कांतिको बढानेवाला, बीर्य तथा कंठको बढानेवाला तथा स्वेद, कोढ. ज्वर, दाह तथा ग्रहबाधाको नष्ट करता है ॥ ५२ ॥.५३ ।।
जातीफलम् । जातीफलं जातिकोषं मालतीफलमित्यपि। .. जातीफलं रसे तिक्तं तिक्तोष्णं रोचनं लघु ॥१४॥
कटुकं दीपनं ग्राहि स्वयं श्लेष्मानिलापहम् । निहंति मुखवैरस्यं मलदौर्गन्ध्यकृष्णताः ॥ ५५ ॥ कृमिकासे वमिश्वासशोषपीनसहृद्रुजः । जातिफल, जातिकोष, मालतीफल यह जातिफलके संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दीमें जायफल, फारसीमें जोभो बुवा तथा अंग्रेजीमें Nutmeg
. जातिफल-रसमें तिक्त, उष्ण, रोचक, हलका, कटु, दीपन ग्राही, स्थरकारक, श्लेष्म और वातको नष्ट करनेवाला और मुखकी विरसता मलकी दुर्गन्धता, कृष्णता, कृमि, कास, वमन, शोष, पीनस तथा हृदः । यके रोगोंको दूर करता है ।। ५४ ॥ ५५ ॥
जातिपत्री। जातीफलस्य त्वक् प्रोक्ता जातीपत्री भिषग्वरैः॥५६॥ जातिपत्री लघुः स्वादुःकटूष्णा रुचिवर्णकृत् । कफकासवमिश्वासतृष्णाकृमिविषापहा ॥ १७ ॥
श्रेष्ठ वैद्योने जातिफल की छालको जातिपत्री कहा है । इसको हिन्दीमें 'जावित्री, फारसीमें जवत्री और अंग्रेजीमें Mace कहते हैं। . जातिपत्री-लघु, मधुर, कटु, उष्ण, रुचिकारक,वर्णको उत्तम करनेबाली तथा कफ, कास, वमन, श्वास, प्यास कृमि और विष इनको मारनेवाली है। ५६ ॥ ५७ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (६९)
लवंगम् । लवंगं देवकुसुम श्रीसंज्ञं श्रीप्रभूनकम् । लवंगं कटुकं तिक्तं लघु नेत्रहित हिमम् ॥ २८॥ दीपनं पाचनं रुच्यं कफपित्तास्रनाशनम् । तृष्णां छर्दि तथाध्मानं शूलमाशु विनाशयेत्॥१९॥
कासं श्वासं च हिकां च क्षयं क्षपयति ध्रुवम् । 'लवंग, देवकुलम, श्रीसंज्ञ, श्रीप्रसूनक यह लवंग के संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दीमें लौंग, फारसीमें मेहरू और अंग्रेजीमें Cloves कहते हैं।
नवंग-कटु, तिक्त, नेत्रको हितकारी, शीतल, दीपन, पाचन, रुचिकारक तथा कफ, रुधिरविकार, प्यास, वमन, आध्मान, शूल, कास, बास, हिचकी तथा क्षयको दूर करता है ॥ ५८ ॥ ५९ ॥
बहुला ( एला)। एला स्थूला च बहुला पृथ्वीका विषुटापि च ॥६॥ भद्रला वृहदेला च चन्द्रबाला च निष्कुटिः। स्थूला च कटुका पाके रसे चानिलकृल्लघुः ॥६१ ॥ रूक्षोष्णा श्लेष्मपित्तास्रकंडूश्वासतृषापहा । हल्लासविषवस्त्यास्यशिरोरुग्वमिकासनुत् ॥ ६२॥ एला, स्थूला, बहुला, पृथ्वीका, विकुटा, भद्रेला, बृहदेला, चन्द्रबाला और निष्कुटी यह एलाके संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दीमें बडी इलायची, फारसीमें हैलकला और अंग्रेजी में Large Cardamum कहते हैं। .
एला-पाक और रसमें कटु, वातकारक, हलकी, कक्ष, उष्ण तथा कफ, पित्त, रक्तविकार, कण्ड (खुजली), श्वास, हल्लास (सूखे वमन होना), विष, वस्ति (मलाना ) के रोग, मुख के रोग, शिरके रोग, वमन और कासको नष्ट करनेवाली है ६०-६२ ॥
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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
उपकुंचिका ।
सूक्ष्मोपकुञ्चिका तुत्था कोरंगी द्राविडी त्रुटि: । एला सूक्ष्मा कफश्वासकासार्शोमूत्रकृच्छ्रहृत् ॥६३॥ रसे तु कटुका शीता लघ्वी वातहरी मता ।
सूक्ष्मा, उपकुञ्चिका, तुत्था, कोरंगी, द्राविडी, त्रुटी यह छोटी इलायची के संस्कृत नाम हैं । इसको हिन्दीमें छोटी इलायची, फारसीमें डैल तथा अंग्रेजी में Sheleser Cardamum कहते हैं ।
( ७० )
सुक्ष्म एला-रसमें कटु, शीतल, हलकी, वातनाशक तथा कफ, श्वास, काल, अर्श, मूत्रकृच्छ्र इनको नष्ट करती है ॥ ६३ ॥
त्वक ।
त्वक्पत्र च वरांगं स्याद् भृंगं चोचं मदोत्कटम् ६४ ॥ त्वचं लघूष्णं कटुकं स्वादु तिक्तं च रूक्षकम् । पित्तलं कफवातघ्नं कण्ड्वामारुचिनाशनम् ॥६५॥ हृद्वस्तिरोगवाताशःकृमिपीन सशुक्रहृत् ।
स्वपत्र, वरांग, भृंग, चोच तथा मदोत्कट यह त्वक्पत्रके संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दी में तेजपात और अंग्रेजी में Cinnamon कहते हैं
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स्वपत्र - हलका गरम. कट्टु, मधुर, तिक्त, रूक्ष, पित्तवर्धक, कफवातनाशक, कण्डु, आम, अरुचि, हृदयके रोग, वस्तिकें रोग, वात, अर्श, कृमि, पीनस और शुक्रको नष्ट करता है ॥ ६४ ॥ ६५ ॥
दारुसिता । स्वस्वाद्वीतनुत्वक सा स्यात्तथा दारुसितामता ६६ उक्ता दारुसिता स्वाद्वी तिक्ता चानिलपित्तहृत् । सुरभिः शुक्रला वर्ण्य मुखशोषतृषापहा ॥ ६७ ॥
श्वकू, स्वाद्वी, तनुत्वक तथा दारुसिता यह दालचीनी के संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दी में दालचीनी,gyaफारसी में दानी तथा
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। अंग्रेजी में Cinnamon Bark कहते हैं। दालचीनी मधुर, तिक, वात पौर पित्तको हरनेवाली, सुगन्धयुक्त, वीर्यवर्धक, वर्णको उत्तम करने वाली तथा मुखशोष और तृषाको नष्ट करनेवाली है ।। ६६॥ ६७ ।
तमालपत्रम् । पत्रं तमालपत्रं च तथा स्यात्पत्रनामकम् । पत्रकं मधुरं किंचित्तीक्ष्णोष्णं पिच्छिलं लघु ॥६८॥ निहंति कफवाता हल्लासारुचिपीनसान् । पत्र, तमालपत्र तथा पत्रवाचक सम्पूर्ण शब्द यह तमालपत्रके संस्कृत नाम हैं । इसे हिन्दीमें तेजपात, फारसीमें सादरसु, अंग्रेजीमें Falia Malabathy कहते हैं।
पत्रक--मधुर, किंचित तीक्ष्ण पौर उष्ण, चिकना, हलका और का वात, अश, हल्लास तथा पीनस इन रोगोंको नष्ट करनेवाला है ॥ ६८॥
नागपुष्पः। नागपुष्पः स्मृतो नागः केशरो नागकेशरः ॥१९॥
गंपेयो नागकिंजल्कः कथितः कांचनाह्वयः । नागपुष्पं कषायोष्णं रूक्ष लवामपाचनम् ॥७०॥ ज्वरकण्डूतृषास्वेदच्छर्दिहल्लासनाशनम् । दौर्गन्ध्यकुष्ठवीसर्पकफपित्तविषापहम् ॥ ७१ ॥ नागपुष्प, नाग, केसर, नागबेसर, चांपेय, नागकिरक तथा सुवर्णके सम्पूर्ण नाम यह नागकेशरके नाम हैं। इसे हिन्दी में नागकेशर, फरसीमें नरकीमास, अंग्रेजीमें Saffron कहते हैं।
नागकेशर--कसैला, गरम, रूक्ष, हलका, प्रामको पकानेवाला और ज्वर, कण्ड, तृषा, स्वेद, वमन, हल्लास, दुर्गब्धता कुष्ठ, विक्षप, कपा, पित्त वथा विषको नष्ट करनेवाला है ।। ५९ ॥ ७ ॥
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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी . ।
त्रिजातं चतुर्जातम् ।
स्वगेला पत्र कैस्तुल्यैस्त्रिसुगन्धि विजातकम् । नागकेसरसंयुक्तं चतुर्जातकमुच्यते ॥ ७२ ॥ तदद्वयं रोचनं रूक्षं तीक्ष्णोष्णं मुखगन्धहृत् । लघुपित्ताद्विर्ण्य कफवातविषापहम् ॥ ७३ ॥
( ७२ )
दालचीनी, एला तथा तमालपत्र, इन तीनोंको विजातक तथा त्रिसुगन्ध कहा जाता है । यदि इन तीनोंमें नागकेसर भी मिला दिया जावे तो उसे चतुजीतक कहते हैं ।
विजातक और चतुर्जातक - रुचिकारक, रूक्ष, तीक्ष्ण, मुखकी दुर्गन्धताको हरनेवाले, इळके, पित्ताग्निवर्द्धक, वर्णको उत्तम करनेवाले तथा कफ बात और विषको नष्ट करनेवाले हैं ॥ ७२ ॥ ७३ ॥
कुंकुमम् ।
कुंकुमं घुसृणं रक्तं काश्मीरं पीतकं वरम् । संकोचं पिसुनं धीरं बाह्रीकं शोणिताभिधम् ॥७४॥ काश्मीरदेश क्षेत्रे कुंकुमं यद्भवेद्धितम् । सूक्ष्म केसर मारक्तं पद्मगन्धि तदुत्तमम् ॥ ७५ ॥ बाह्रीकदेशसंजातं कुंकुमं पांडुरं मतम् । केतकी गन्धयुक्तं तन्मध्यमं सूक्ष्म केसरम् ॥ ७६ ॥ कुंकुमं पारसीकं यन्मधुगन्धि तदीरितम् । ईषत्पाडुरवर्ण तत् धमं स्थूलकेसरम् ॥ कुंकुमं कटुकं स्निग्धं शिरोरुग्णजन्तुजित् । तिक्तं वहिरं वर्ण्य व्यंगदोषत्रयापहम् ॥ ७८ ॥ कुंकुम, घुण, रक्त, काश्मीर, पीतक, वर, संकोच पिशुन, धीर, बाह्लीक,
७७ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (७३) यह तथा रक्तके सम्पूर्ण नाम कुंकुमके हैं। इसे हिन्दीमें केसर अथवा केशर. फारसी में जाफरान और अंगरेजीमें Saffron कहते हैं।
जो केशर काश्मीरमें उत्पन्न होता है वह सूक्ष्म, लाल तथा कमलके समान गन्धवाली होती है वह सर्वोत्तम है। जो केशर बाह्रीक देशमें उत्पन्न होती है वह पाण्डुरंगवालो, रेतकी पुष्पके समान गन्धवाली तथा सूक्ष्म होती है और वह केसर मध्यम है। जो केशर पारस देश में उत्पन्न होती है वह स्थूल कुछ पाण्डु वर्णमाली तथा मधुके समान गन्धवाली होती है और वह अधम है।
कुंकुम-कटु स्निग्ध, तिक्त, बमनको हरनेवाला, मणको उत्तम करनेवाला तथा शिरके रोग, व्रण, कृ मे, व्यंग और त्रिदोषको नष्ट करनेवाला है॥७४-७८॥
गोरोचना। गोरोचना तु मांगल्या वंद्या गौरी च रोचना ।
गोरोचना हिमा तिक्ता वश्या मंगलकांतिदा ॥७९॥ ' विषालक्ष्मीग्रहोन्मादगर्भस्रावक्षतास्रजित् । .. गोरोचना, मांगल्या, वन्द्या, गोरी और रोचना यह गोरोचनके संस्कृत नाम हैं । इसे हिन्दीमें गोरोचन, फ़ारसीमें गायरोहन तथा अंग्रेजीमें Gallstone Bijoor कहते हैं । गोरोचन-शीतल, तिक्त, वंशमें करने वाली, मंगल और कान्तिको करनेवाली तथा विष, अलक्ष्मी, ग्रह, उन्माद, गर्भस्त्राव, क्षत तथा रक्त विकारोको जीतती है॥७९ ॥
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नखम् ।
नखं व्याघनखं व्याघ्रायुधं तच्चक्रकारकम् ॥ ८॥ नखं स्वल्पं नखी प्रोक्ता हनुईट्टविलासिनी। नखद्वयं ग्रहश्लेष्मवातास्त्रज्वर कुष्ठनुत् ॥ ८१॥
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(७४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । लघूष्णं शुक्रलं वये स्वादु व्रणविषापहम् । अलक्ष्मीमुखदौर्गन्ध्याहृत्पाकरसयोः कटु ॥ ८२॥ नख, व्याघ्रनख, व्याघ्रायुध तथा चक्रकारक यह नखके नाम हैं। छोटे मखोंको नखी, हनु और हडविलासिनी कहते हैं। इसे हिन्दी में नख' अथवा नखी, फरसीमें नाखुधिरयाँ तथा अंग्रेजीमें Shell कहते हैं।
नख और नखी दोनों-हलके, गरम, वीर्यवर्धक वर्णको उत्तम करनेवाले, मधुर तथा ग्रह, कफ, वात, रक्तविकार, ज्वर कुष्ट व्रण, विष, अलक्ष्मी, मुखकी दुर्गन्ध इन सबको हरनेवाले हैं तथा पाक और रसमें कटु है ॥ ८०-८२॥
हीबेरम् । बालं ह्रीबेरबरिष्ठोदीच्यं केशांबुनाम् च । बालकं शीतलं खरं लघु दीपनपाचनम् ॥ ८३ । हल्लासारुचिविसर्पहृद्रोगामातिसारजित् । बाल, हीबेर बहिष्ठ, उदीच्य यह पौर केशों तथा जलके सम्पूर्ण नाम हीवेरके नाम हैं। इसको हिन्दीमें सुगंधवाला, फारसी में असारूं तथा अंग्रेजीमें Muricatus कहते हैं।
सुगन्धवाला-शीन, रूक्ष, हलका, दीपन, पाचन तथा हल्लास, परुचि, विसर्प, हृदयके रोग और भामातिसारको दूर करता है । ८३ ।
वीरणम् । स्याद्वीरणं वीरतरं वीरं च बहुमूलकम् ॥ ८४ ॥ वीरणं पाचनं शीतं स्तंभनं लघु तिक्तकम् । मधुरं ज्वरनुवांतिमदजित्कफपित्तहत् ॥ ८५॥ तृष्णास्त्रविषवीसपकृच्छ्रदाहव्रणापहम् । वारण, वीरता,वीर, बहुमूलक यह वीरनके संस्कृत नाम हैं। इसे. हिन्दी में वीरण तृण या पहीयास कहते है।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (७५) वीरणतण-पाचन, शीतल, स्तम्भन करनेवाला, हलका, तिक, मधुर तथा ज्वर, वमन, मद कफ, पित्त, तृष्णा, रक्तविकार, विष, विसर्प, रुच्छ, दाह तथा व्रण इनको नष्ट करता है ॥ ८४ ॥ ८५ ॥
उशीरम् । वीरणस्य तु मूलं स्यादुशीरं नलदं च तत् ।। ८६॥ अमृणालं च सेव्यं च समगन्धकमित्यपि । उशीरं पाचनं शीतं स्तंभनं लघु तिक्तकम् ॥ ८७ ।। मधुरं ज्वरहद्धांतिमदनुत्कफपित्तहत् । तृष्णास्रविषवीसर्पदाहकृच्छ्रवणापहम् ॥ ८८॥ वीरणकी जदको उशीर, जलद, अमृणाल, सेव्य, समगन्धक कहा जाता है । हिन्दी में इसको खस कहते हैं।
उसीर (खस) पाचन, शीतल, स्तम्भन करनेवाला, हलका, तिक्त, मधुर तथा उबर, वमन, मद, कफ, पित्त, तृष्णा, रक्तविकार, विष,विसर्प, कृष्छ, दाह और ब्रोंको हरनेवाला है ॥ ८६-८८ ॥
जटामांसी। जटामांसी भूतजटा जटिला च तपस्विनी । मांसी तिक्ता कषाया च मेध्या कांतिबलप्रदा ॥८९॥ स्वाही सिता त्रिदोषास्रदाहवीसर्पकुष्ठनुत् । जटामांसी, भूतजटा जटिला और तपस्विनी यह जटामांसीके संस्कृत नाम हैं। इसको हिन्दीमें बालछड, फारसीमें सुंबुल और अंग्रेजी में Spikenardकहते हैं। · जटामांसी-तिक्त, कसैली, बुद्धिवर्धक कांति और बलको देनेवाली मधुर, शीतल तथा विदोष, रक्तविकार, दाह, विसर्प और कुष्ठको दूर करती है । ८९॥
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
হিতা। शैलेयं तु शिलापुष्पं वृद्ध कालानुसार्यकम् ॥९०॥ शलेयं शीतलं हृद्यं कफपित्तहरं लघु । कण्डुकुष्ठाश्मरीदाहविषहल्लासरक्तजित ॥ ९१॥ शैलेय, शिनापुष्प, वृद्ध, कालानुसार्यक यह शैलेयके नाम हैं। इसको हिन्दीमें भूरिछरीला तथा पत्थरका फूल और फारसीमें दहाल कहते हैं
शैलेय छार छरीला-शीतल, हृदयको प्रिय, कफ और पिनको हरनेवाला, हलका तथा कुष्ठ, कण्डू, पथरी, दाह, विष हल्लास और रक्तबि. कारोको जीतता है ।। ९० ॥ ९१॥
मुस्तकं (नागरमुस्तकम् ) । मुस्तकं न स्त्रियां मुस्तं त्रिषु वारिदनामकम् । कुरुविन्दो परो भद्रमुस्तो नागरमुस्तकः ॥९२॥ मुस्तं हिमं कटु ग्राहि तितं दीपनपाचनम् । कषायकफपित्तात्रतडूज्वरारुचिजंतुजित् ।। ९३॥ अनूपदेशे यजातं मुस्तकं तत् प्रशस्यते । स्त्रापि मुनिभिः प्रोक्तं वरं नागरमुस्तकम् ।। ९४॥ मुस्तक शब्द बोलिंगमें नहीं होता । मुस्त शब्द विगिवाची हैं। मुस्तक, मुस्त, कुरुबिन्द, पर, भद्रमुस्त, नागरमुस्तक यह तथा मेघके सम्पूर्ण नाम यह नागरमोथेके संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दीमें मोथा अथवा नागरमोथा, और फारसोमें मुश्क जमीन कहते हैं ।
मुस्तक-कटु, शीतल, ग्राही, तिक्त, दीपन, पाचन, कसैला तथता कफ पित्त, रक्तविकार, वृषा,ज्वर, अरुचि और कृमियोंको जीतनेवाला है। जो मुस्तक अनूप देशमें उत्पन्न होता है वह उत्तम होता है। उसमें भी मुनियोंने नागर मुस्तकको श्रेष्ठ कहा है ।। ९३-९४ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
कर्चूरः । कर्पूरो वैधमुख्यश्च द्राविडः काल्पिका शटी | कर्पूरो दीपनो रुच्यः कटुकस्तिक्त एव च ॥ ९५ ॥ सुगन्धिः कटुपाकः स्यात्कुष्टाशत्रणका सनुत् | उष्णो लघुई रेच्छूवास गुल्मवातकफकृमीन् ॥ ९६ ॥
( ७७)
कर्पूर, वेघमुख्य, द्राविड, काल्पिक, शटी यह कचूरके संस्कृत नाम हैं। इसको हिन्दी में कचूर अथवा काली हल्दी, फारसीमें जरंवाद, अंग्रेजीमें Long zedoory कहते हैं ।
कर- दीपन, रुचिकारक, कटु, तिक्त, सुगन्धयुक्त, कटुपाकी, हलका, गरम तथा कुष्ठ, अर्श, व्रण, कास, श्वास, गुल्म, वात, कफ और कृमि-, योंको हरता है ॥ ९५ ॥ ९६ ॥
मुरा ।
सुरा गन्धकुटी दैत्या सुरभिस्तालपर्णिका । मुरा तिक्ता हिमा स्वाद्वी लघ्वी पित्तानिलापहा । ज्वरा सृग्भूतरक्षोघ्नी कुष्ठकासविनाशिनी ।
मुरा, गन्धकुटी, दैत्या, सुरभि और तालपर्णिका यह मुशके संस्कृत नाम हैं । इसे हिन्दी में मुरा कहते हैं ।
मुरा-तिक्त, शीतल, मधुर, हलकी, पिस और वासको दूर करनेवाली, कुष्ठ और कासको नष्ट करनेवालि तथा ज्वर, रक्तविकार और भूत, राक्षसोंकी पीडाको हरनेवाली है ॥ ९७ ॥
पलाशी ।
शटी पलाशी षड्ग्रन्था सुव्रता गन्धमूलका ॥ ९८ ॥ गन्धारिका गन्धवपुर्वधूः पृथुपलाशिका । भवेद् गन्धपलाशी तु कषाया ग्राहणी लघुः ॥९९॥
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( ७८ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
तिक्ता तीक्ष्णा च कटुका उष्णास्यमलनाशिनि । शोथ का सब्रणश्वास शूलहिध्मग्रहापहा ॥ १०० ॥
शटी पछाशी, षड्ग्रन्था, सुव्रता, गन्धमूलका, गन्धारिका, गन्धवपु, वधू और पृथुपला शिका यह गन्धपकाशीके नाम हैं। इसे हिन्दीमें गन्धपलाशी, फारसी में जरंबाद कहते हैं ।
गन्धपलाशी - कसैली 'ग्राही, हलकी, तिक्त, तीक्ष्या, कटु, गरम, मुखके मलको नष्ट करनेवाली तथा शोथ, कास, व्रण, श्वास, शूल, हिम्म, हिचकी तथा ग्रहको दूर करनेवाली है ।। ९८- १०० ॥
प्रियंगुः ।
प्रियंगुः फलिनी कांता लता च महिलाह्वया । गुन्द्रा गन्धफली श्यामा विष्वक्सेनांगनाप्रिया ॥ १॥ प्रियंगुः शीतला तिक्ता तुवरानिलपित्तहृत् । रक्तातीसार दौर्गध्यस्वेददाहज्वरापहा ॥ २ ॥ गुल्मतृइविषमेहनी तद्वद्गन्धप्रियंगुका । तत्फलं मधुरं रूक्षं कषायं शीतलं गुरु || ३ || विबन्धाध्मानबलकृत् संग्राहि कफपित्तजित् ।
• प्रियंगु, फलिनी, कान्ता, लता, गुन्द्रा, गन्धफली, श्यामा, विष्वक्सेना, अंगना प्रिया, यह तथा महिलाके सब नाम प्रियगुके नाम हैं। इसको हिन्दी में फूल प्रियंगु कहते हैं ।
प्रियंगु - शीतल, तिक्त, कसैली, कफ और पित्तको हरनेवाली, रक्तविकार, अतिसार, दुर्गन्धता, स्वेद, दाह, ज्वर, गुल्म तथा तृषाको नष्ट करनेवाली है, गन्धप्रियंग भी इन्हीं गुणोंवाली जाननी । प्रियंगुका फल मधुर, रूक्ष, कसैला, शीतल, भारी, ग्राही, कफ और पित्तको जीवनेवाला तथा मलके बन्ध, प्राध्मान और बलको करता है ॥ १-३ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (७९)
रेणुका। रेणुका राजपुत्री च नन्दनी कपिला द्विजा ॥ ४॥ भस्मगंधा पाण्डुपुत्री स्मृता कौंती हरेणुका । रेणुका कटुका पाके तिक्तानुष्णा कटुर्लघुः ॥५॥ पित्तला दीपनी मेध्या पाचनी गभपातिनी। बलासवातकृच्चैव तृट्कण्डूविषदाहनुत् ॥ ६॥ रेणुका, राजपुत्री, नन्दनी, कपिला, द्विजा, भरमगन्धा, पाण्डुपुत्री, कौन्ती तथा हरेणुका यह रेणुकाके नाम हैं।
रेणुका-पाकमें कटु, तिक्त, अनुष्णा, कटु, हलकी, पित्तकारक, दीपन, बुद्धिधर्धक, पाचन,गर्भको गिरानेवाली, कफ और वातको नष्ट करनेवाली सया प्यास, कण्डू, विष और दाहको दूर करनेवाली है॥४-६ ॥
ग्रन्यिपर्णम् । प्रन्थिपणे ग्रन्थिकं च काकपुच्छं च गुत्थकम् । नीलपुष्पं सुगन्धं च कथितं तैलपर्णिकम् ॥७॥ ग्रंथिपण तिक्ततीक्ष्ण कटूष्णं दीपनं लघु । कफवातविषश्वासकण्डदौर्गध्यनाशनम् ॥ ८॥ अन्यिपर्ण, ग्रन्थिक,काकपुन्छ, गुत्थक,नीलपुष्प,सुगन्ध और तैलपणिक यह प्रन्थिपर्णके नाम हैं।
प्रन्थिपर्ण-तिक्त, तीक्ष्ण, कटु, उष्ण, दीपन, हलका तथा कफ, वात, विष, श्वास, कण्डु पौर दुर्गन्धको नष्ट करता है ।। ७॥ ८॥
। स्थाणेयकम् । स्थौणेयकं बर्हिबर्ह शुकबह च कुक्कुरम् । शीर्ण रोम शुकं चापि शुकपुष्पं शुकच्छदम् ॥९॥ स्थौणेयकं कटु स्वादु तिक्तं स्निग्धं त्रिदोषनुत्।
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( ८० )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
मेधाशुक्रकरं रुच्यं रक्षोऽश्रीज्वरजन्तुजित् ॥ १० ॥ हंति कुष्ठातृदादौध्य तिलकालकान् ।
स्थौयक, बर्हि, शुकबई, कुक्कुर, शीर्ण, रोम, शुक, शुकपुष्प, शुकच्छद यह स्थौणेयक के नाम हैं। इसे हिन्दी में थुनेर कहते हैं ।
स्थयक कटु मधुर, तिक्त, स्निग्ध, त्रिदोषनाशक, बुद्धि तथा वीर्यको बढानेवाला, रुचिकारक तथा राक्षस, अलक्ष्मी, ज्वर, कृमि, कुष्ठ, रक्तविकार प्यास, दाह तथा तिलकालक इनको दूर करनेवाला है ॥ ९ ॥ १० ॥
निशाचरः ।
निशाचरो धनदरः कितवो गणहासकः ॥ ११ ॥ रोचक शंकितश्वण्डो दुष्पत्रः क्षेमको रिपुः । रोचको मधुरस्तिको कटुःपाके कटुर्लघुः ॥ १२ ॥ तीक्ष्णो द्यो हिमोहंति कुष्ठकण्डुकफानिलान् । रक्षोऽश्रीस्वेद मेदोत्रज्वरगन्धविषव्रणान् ॥ १३ ॥
निशाचर, धनहर, कितव, गणहासक, रोचक, शंकित, चण्ड, दुष्पत्र क्षेमक, रिपु यह निशाचर (भटेश) के नाम हैं ।
भटेरा (निशाचर ) मधुर, तिक्त, कटु, पाकमें कटु, हलका, तीक्ष्ण, हृदयको प्रिय, शीतल तथा कुष्ठ, खुजली कफ, बात, राक्षसभय, अलक्ष्मी, स्वेद, मेद, रक्तविकार, ज्वर, दुर्गन्ध, विष, और व्रणोंको नाश करनेवाला है ॥ ११-१३ ।। ।।
तालीसपत्रम् ।
तालीसमुक्तं पत्राढ्यं धात्रीपत्रं च तत्स्मृतम् । तालीसं लघु तीक्ष्णोष्णं श्वासकासकफानिलान् १४: निहन्त्यरुचिगुल्मामवह्निमांद्यक्षयामयान् ।
तालीसपत्र, तालीस, पत्राढ्य और धातीपत्र यह तालीसपत्रके नाम हैं हिन्दी में इसे तालीसपत्र, फारसीमें जरा कहते हैं ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (८१) तालीलपत्र-हलका, तीक्षण, उष्ण तथा श्वास, कास, कफ, वात, अरुचि, गुल्म, आम, अग्निकी मन्दता तथा क्षयको नष्ट करता है ॥१४॥
कोलम् । ककोलं कोलकं प्रोकं तथा कोशफलं स्मृतम् ॥१६॥ कक्कोलं लघु तीक्ष्णोष्णं तितं हृद्यं रुचिप्रदम् ।
आस्यदौर्गभ्यहृद्रोगकफवातामयांध्यत् ॥ १६॥ कक्कोल, कोटक और कोशफल यह कंकोन के नाम हैं। इसे हिंदीमें कंकोल, फारसीमें कवाबह और अंग्रेजीमें Cubeba Pepper कहते हैं।
कंको-हलका, तीक्ष्ण, उष्ण, विक्त, हइयका प्रय, रुपकारक तथा मुखकी दुर्गधता, हृदयके राग, वात, कफ और अन्धताको हरनेवाला है॥१५॥ १६॥
गन्धकोकिला, गन्धमालती। स्निग्धोष्णा कफ हत्तिक्ता सुगन्धा गंधकोकिला। गंवकोकिलया तुल्या विज्ञेया गंधमालती ॥ १७ ॥ गन्धकोकिला-स्निग्ध, कफको हरवानी, तिक्त और सुगन्धवाली है। गन्धकोकिलाके समान ही गबमाल ती जाननी ।। १७ ।।
ल.मजाम्। लामजकं सुनालं स्थादमृगा लयं लघु । इष्टकावथकं सेव्यं नलदं चावदातकम् ॥१८॥ लामजकं हिमं तितं लघु दोषत्रयास्रजित् । त्वगामयस्वे कृच्छदाहपितास्ररोगनु । ॥ १९ ॥ लाम जक, तुनाल, अमृणाल, लय, लघु, इष्टकावथक, सेन्य, नसद भोरपदातक यह लामज्जक नाम है।
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(८२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
लामजक-शीतल, तिक्त, हलका तथा त्रिदोष,रक्तविकार,त्वचाके रोग, स्वेद, कृच्छ्र, दाह और रक्तपित्तका नाश करनेवाला है ॥ १८॥ १९ ॥
एलावालुकम् । एलवालुकमैलेयं सुगंधि हरिवालुकम् । ऐलवालुकमैलालु कपित्थफलमीरितम् ॥२०॥ ऐलालु कटुकं पाके कषायं शीतलं लघु। हंति कण्डूव्रणच्छदितृट्कासारुचिदुजः ॥ २१॥ बलासविषपित्तास्रकुष्ठमूत्रगदक्रिमीन् । एलवालुक, ऐलेय, सुगन्धि, हरिवालुक, ऐलवालुक, ऐलाल और कपित्थफल यह एलके संस्कृत नाम हैं।
एलवा-कटु, पाकमें कसैला, शीतल, हलका तथा खुजली, व्रण, वमन, प्यास, कास, अरुचि, हृदयके रोग, कफ, विष, पित्त, रक्तविकार, कोढ, मूत्ररोग तथा कृमियोंको नाश करनेवाला है ॥२०॥२१॥
कुटन्नटम् । कुटनटं दासपुरं वानेयं परिपेलवम् ॥ २२॥ प्लवगोपुरगोनदै कैवर्ती मुस्तकानि च । मुस्नावत्पेलवपुटं शुकाव स्याद्वितुनकम् ॥ २३॥ वितुन्नकं हिमं तिक्तं कषायं कटुकांतिदम् । कफपित्तास्रवीसर्पकुष्ठकंडूविषप्रणुत् ॥२४॥ कुटनट, दास, वानेय, परिपेलव, पूव, गोपुर, गोनर्द, कैवर्ती तथा सुस्तक यह केवटीमोथेके नाम हैं।केवटीमोथा मोथेके समान कोमल पत्रोंवाला तथा शुकके समान कांतिवाला होता है और उसको वितुनक
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वितुनक-शीतल, तिक्त, कसैला, कड, कांतिवर्धक तथा कफ, पित्त, रक्तविकार, विसर्प, कोढ, खुजली और विष इनको नष्ट करता है। २२-२४॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.।
(८३)
स्पृका।
स्पृक्कास्त्रम् ब्राह्मणी देवी मरुन्माला लता लघुः । समुद्रांता वधूः कोटिवर्षालंकोपकेत्यपि ॥२५॥ स्पृका स्वाद्वी हिमा वृष्या तिक्ता निखिलदोषनुत् कुष्ठकण्डूविषस्वेददाहाव्यज्वररक्तहृत् ॥ २६॥ . स्पृक्का, अस्नग,ब्राह्मणी, देवी, मरुन्माला, लता, लघु, समुद्रांता, वध, कोटिव और अलंकोपका यह असवरगके नाम हैं।
स्पृका-मधुर, शीतल, वीर्यवर्धक, तिक्त, त्रिदोषनाशक तथा कुष्ट खुजली विष, स्वेद, दाह, पाढयवात, ज्वर तथा रक्तविकारको नष्ट करने वाली है॥२५॥२६॥
पर्पटी। पपटी रंजनी कृष्णा जतुकी जननी जनिः। जतुकृष्णा िनसंस्पर्शा जतुकृच्चक्रवर्तनी ॥ २७॥ पर्पटी तुवरा तिक्ता शिशिरा वर्णकृल्लघुः । विषव्रणहरी कण्डूकफपित्तास्रकुष्ठनुत् ॥ २८॥ पर्पटी, रजनी, कृष्णा, जतुकी, जननी, जनि, जतुकृष्णा, अग्निसंस्पा , जतुकृत और चक्रवर्तिनी यह पर्पटीके नाम हैं।
पर्पटी-कषाय, तिक्त, शीतल, वर्णको उत्तम करनेवाली, हलकी तय विष, व्रण, खुजली, कफ, पित्त, रक्तविकार और कुष्ठको नष्ट करनेवाली है॥२७॥२८॥
नलिका। नलिका विद्रुमलता कपोतचरणा नटी। धमन्यंजनकेशी च निर्मथ्या सुषिरा नली ॥ २९ ॥
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(८४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। नलिका शीतला लघ्वी चक्षुष्या कफपित्तहत् । कृच्छ्राश्मवाततृष्णास्रकुष्ठकण्डुज्वरापहा ।। १३०॥ नलिका विद्रुमलता, कपोतचरणा, नटी, धमनी, अञ्जनकेशी, निर्मभ्या मुषिरा और नली यह नलीके नाम हैं।
मली-शीतल, हलकी, नेत्रोंको हितकर तथा कफ, पित्त, कृच्छ्र, पपरी, बात, प्यास, रक्तविकार, कोढ, खुजली और, ज्वरको दूर करनेवाली है।॥ २९ ॥ १३०॥
प्रपौण्डरीकम् । प्रपौण्डरीकं पौंडयं चक्षुष्यं पौंडरीयकम् । पौंडय्य मधुरं तिक्तं कषायं शुक्रलं हिमम् । चक्षुष्यं मधुरं पाके वये पित्तकफप्रणुत् ।। १३१ ॥
इति कर्पूरादिवर्गः। प्रपौण्डरीक,पौण्डर्य,चक्षुष्य और पौण्डरीयक यह पौण्डरीयकके नाम हैं।
ण्डरीयक-मधुर, तिक्तः कसैला, वीर्यवर्धक, शीतल, नेत्रहितकर, पाकमें मधुर, वर्णको उत्तम करनेवाला, पित्त तथा कफका नाश करने वाला है। ११॥ इति श्रीविद्यालंकार-शिवशर्मवैद्यशास्त्रिक्त-शिवप्रकाशिफामाषायां
हरीतक्यादिनिघण्टौ कर्पूरादिवर्गः ॥ २ ॥
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क.
गुइच्यादि-वर्गः ।
तत्रादौ गुडूच्या उत्पत्तिनाम मुणाश्च । अथ लंकेश्वरो मानी रावणो राक्षसाधिपः । रामपत्नी वनात्सीतां जहार मदनातुर ॥ ३॥
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(८५)
ततस्तं बलवान् रामो रिपुं जायापहारिणम् । वृतो वानरसैन्येन जघान रणमूर्द्धनि ॥ २ ॥ हते तस्मिन् सुरारातौ रावणे बलगर्विते । देवराजः सहस्राक्षः परितुष्टो हि राघवे ॥ ३ ॥ तत्र ये वानराः केचिद्राक्ष तैर्निहता रणे । तानिंद्रो जीवयामास संसिच्यामृतवृष्टिभिः ॥ ४ ॥ ततो येषु प्रदेशेषु कपिगात्रात्परिच्युताः । पीयूषबिन्दवः पेतुस्तेभ्यो जाता गुडूचिका ॥ ५ ॥ !
प्रथम गिलोय की उत्पत्ति तथा गुणोंको कहते हैं- जब अभिमानी राकसोके अधिपति रावणने कामातुर होकर बलात् सीताका हरण किया, तब जायाके हरनेवाले रावणको बलवान् रामचन्द्र जीने वानरोंको साथ ले जाकर रणमें मारा । बलाभिमानी पौर देवता प्रोंके शत्रु रावण के मारे जानेपर रामचन्द्रजी पर अत्यंत प्रसन्न होकर देवताओं के राजा इंद्रने मृतकी वृष्टि करके वानरों को जिनको रामें राक्षसोंने मार दिया था, फिर जीवित कर दिया । उस समय जिन २ स्थानोंपर वानरोंके शरीर से भ्रष्ट होकर अमृत की बूँदें गिरों वहां २ गुडूची उत्पन्न हो गई ॥ १-५ ॥
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गुडूवी ।
गुडूची मधुपर्णी स्यादमृतामृतवल्लरी | छिन्ना छित्ररुहा छिन्नोद्भवा वत्सादिनीति च ॥ ६ ॥ जीवंती तंत्रिका सोमा सोमवल्ली च कुण्डली । क्षणिका धारा विशल्या व रसायनी ॥ ७ ॥
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( ८६ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
चन्द्रहासा वयस्या च मंडली देवनिर्मिता । गुडूची कटुका तिक्ता स्वादुपाका रसायनी ॥ ८ ॥ संग्रहणी कषायोष्णा लघ्वी बल्याग्निदीपनी । दोषत्रयामतृड्रदाह मेहकासांच पांडुताम् ॥ ९ ॥ कामला कुष्ठवातास्रज्वरकिमिवमीर्हरेत् ।
गिलोय, गुडूची, मधुपर्णी, अमृत, अमृतवल्लरी, छिन्ना, छिन्नरुहा छिन्नोद्भवा, वत्सादिनी, तंत्रिका, सोमा, सोमवल्ली, कुण्डली, चक्रलक्षणिका, धारा, विशरया, रसायनी, चन्द्रद्दाला वयस्था, मण्डली, देवनिमिता यह गुडूवी के संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दी में गिलो, फारसी में गिलोय और अंग्रेजी में Coculs corbi कहते हैं ।
गिलोय - कडु, तिक्त, पाक में मधुर, प्रायुवर्धक ग्राही, कैली, गरम, इलेकी, बलकारक, अग्निदीपक तथा त्रिदोष याम, प्यास, दाङ, प्रमेह कास, पाण्डुता, कामला, कुष्ठ, वायु, रक्तविकार, ज्वर, कृमि तथा को हरनेवाली है ॥ ६-९ ॥
१० ॥
तांबूलम् | तांबूलवली तांबूली नागिनी नागवल्लरी ॥ तांबूलं विशदं रुच्यं तीक्ष्णोष्णं तुवरं सरम् । वश्यं तिक्तं कटु क्षारं रक्तपित्तकरं लघु ॥ ११ ॥ श्लेष्मास्यदोर्गध्यमलवातश्रमापहम् ।
बल्यं
ताम्बूलवल्ली, ताम्बूली, नागिनी तथा नागवल्लरी यह ताम्बूलके नाम है । इसको हिन्दी में पान, फारसीमें तबोल और अंग्रेजीमें Betel leaf कहते हैं ।
ताम्बूल - विशद, रुचिकारक, तीक्ष्ण, उष्ण, कसैला, दस्तावर, वशकारक, तिक्त, कटु, खारा, रक्तपित्तकर, हलका, बलवर्धक तथा कफ सुखकी दुर्गन्ध, मल, वात और श्रमको हरनेवाला है ॥ १० ॥ ११ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (८७)
विल्वः । बिल्वः शाण्डिल्यशैलूषौ मालूरश्रीफलावपि ॥१२॥ गन्धगर्भः शलाटुश्च कण्टकी च सदाफलः॥ श्रीफलस्तुवरस्तितो ग्राही सूक्षोऽग्निपित्तकृत् ॥१३ वातश्लेष्महरो बल्यो लघुरुष्णश्च पाचनः। बिल्व, शांडिल्य, शैलूष, मालूर, श्रीफल, गन्धगर्भ, शलाटु, कण्टकी, सदाफल यह बिल्पके नाम हैं। अंग्रेजीमें इसे Bangakins कहते हैं।
बिल्व-कसैला, तिक्त, ग्राही, खा, अग्नि और पित्तको बढानेवाला, वात धौर कफको हरनेवाला, बलवर्धक, हलका, उष्ण और पाचन
गंभारी। गंभारी भद्रपर्णी च श्रीपर्णी मधुपर्णिका ॥ १४ ॥ काश्मीरी काश्मरी हीरा काश्मर्यः पीतरोहिणी । कृष्णवृन्ता मधुरसा महाकुसुमकापि च ॥ १९ ॥ काश्मरी तुवरा तिक्ता वीर्योष्णा मधुरा गुरुः। दीपनी पाचनी मेध्या भेदनी भ्रमशोथजित् ॥१६॥ दोषतृष्णामशूलार्शीविषदाहज्वरापहा । तत्फलं बृंहणं वृष्यं गुरु केश्य रसायनम् ॥ १७॥ वातपित्ततृषारक्तक्षयसूत्रविबंधनुत् । स्वादु पाके हिमं स्निग्धं तुवराम्लं विशुद्धिकृत्॥१८॥ हन्यादाहतृषावातरक्तपित्तक्षतक्षयान् । गम्भारी, भद्रपर्णी, श्रीपर्णी, मधुपर्णिका, काश्मीरी, काश्मरी, हीरा, काश्मर्य, पीतरोहिणी, कृष्णयन्ता, मधुरसा, महाकुसुमका यह गम्भारीके
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(८८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । माम हैं। कालकाके समीप कौशल्या नदी के किनारे इसके बडे वृक्ष पीपनके समान चौडे पत्नोंवाले होते हैं, वहां यह कुम्हार नामसे प्रसिद्ध है।
काश्मरी-कसैली, तिक्त उष्णवीर्य, मधुर, भारी दीपन, पाचन, बुद्धि, वर्धक, दस्तावर तथा भ्रम, शोथ, विदोष, प्यास, आम, शूल, अश, विष, दाह पौर ज्वरको दूर करनेवानी है। काश्मरीका फल-धातुओंको पुष्ट करनेवाला, वीर्यवर्धक, भारी, केशे को बढानेवाला और रसायन, पाकमें मधुर, शीतल, स्निग्ध, कसैला, अम्ल, शुद्धिकारक और वात, पित्त, प्यास, रक्त विकार, क्षय, मूत्ररोग, मलका बन्ध, दाह, वात, प्यास, रक्त, पित्त, क्षत और क्षय इनको नष्ट करता है ॥ १४-१८॥
पाटला।
पाटली पाटलामोघा मधुदूती फलेरुदा ॥ १९ ॥ कृष्णवृन्ता कुबेगक्षी काचस्थाल्यलिवल्लभा। ताम्रपुष्पी च कथिता परा स्यात्पाटला सिता।।२० मुष्कको मोक्षको घण्टा पाटलिः काष्ठपाटला। पाटला तुवरा तिक्तानुष्णा दोषत्रयापहा ॥ २१ ॥ अरुचिश्वासशोथार्शश्छदिहिकातृषाहरी । पुष्पं कषायं मधुरं हिमं हृद्यं कफास्रनुत् ॥२२॥ पित्तातीसारहृत्कंठयं फलं हिकास्त्रपितहत ।
पाटली, पाटला, अमोघा, मधुदूती, फलेकहा, कृष्णचन्ता, कुराक्षी, काचस्थाली, अलिबल्लभा, ताम्रपुष्पी यह पाढल के नाम हैं। मुष्कक, मोक्षक, घण्टा, पाटली, काष्ठपाटला, यह घंटापाढनके नाम हैं। इसको अंग्रेजी में Banduknut कहते हैं ho! Shrutgyanam .
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (८९) पाठला-कषाय, तिक्त, अनुष्ण, विदोषनाशक तथा अरुचि, श्वास, ग्रोथ, अश, वमन, हिचकी, प्यास इनको हरनेवाली है। इसका पुष्पकसैला, मधुर, शीतल, हदपको प्रिय, कफ और रक्तविकारको जीतने वाला, पित्त और अतिसारको जीतनेवाला पौर कण्ठको हितकारी है। इसका फल हिचकी, रक्तविकार और पित्तको जीतनेवाला है ॥१९..२२॥
आमिमंथः। अनिमन्थो जया स स्यात् श्रीपर्णी गणकारिका२३ जया जयंती तर्कारी नादेयी वैजयंतिका । अग्निमंथः वयथुनुवीर्योष्णः कफवातहत् ॥२४॥ पांडुनुत् कटुकस्तितस्तुवरो मधुरोऽग्निदः । अग्निमंथ, जय, श्रीपर्णी, गणकारिका, जया, जयंती, तकारी, नादेयी, वैजयंतिका यह अग्निमंथके नाम हैं। इसको हिन्दीमें अर्णो कहते हैं।
अग्निमंथ-सूजनको नष्ट करनेवाला, उरणवीर्य, कफ तथा वातको नष्ट करनेवाला, पाण्डुरोगनाशक, कटु, तिक, कषाय, मधुर तथा अग्निको बढानेवाला॥२३॥२४॥
स्यानाकः।
स्योनाकः शोषणश्च स्यानटकट्वंगटुंटुकः ॥ २५ ॥ मण्डूकपर्णपत्रोणशुकनाशकटुनटाः। दीर्घवृन्तोरलुश्चापि पृथुशिंबः कटंभरः ॥ २६ ॥ स्योनाको दीपनः पाके कटु कस्तुवरो हिमः । ग्राही तितोऽनिलश्लेष्मपित्तकासामनाशनः ॥२७॥ टुंटुकस्य फलं बालं रूक्ष वातकफापहम् ।
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(९०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । हृद्यं कषायं मधुरं रोचनं लघु दीपनम् ॥ २८ ॥ गुल्मार्श कृमिहत्प्रौढं गुरुवातप्रकोपनम् । स्योनाक, शोषण, नट, कट्वंग, ढुंटुक, मण्डूकपर्ण, पत्रोर्ण, शुकनाश, कटुन्नट, दीर्घवृन्त, अरल, पृथुसिब भौर कटंभर यह स्योनाकके नाम हैं। इसे हिन्दीमें सोनापाठा कहते हैं।
स्योनाक-दीपन, पाकमें कटु, कसैला, शीतल, ग्राही, तिक्त तथा वात, कफ, पित्त, कास, आम इनको नष्ट करता है। इसका कच्चा फल-खा, बात तथा कफनाशक, हृदयको प्रिय, कसैला, मधुर, रुचिकारक, हस्का, दीपन तथा गुल्म, प्रश, कृमि इनको नष्ट करता है और पका हुआ फल भारी तथा वातको कुपित करनेवाला है। यह शिमळेके पहाड़ोंमें और कालकाके पास बड़ा पृक्ष होता है, इसको तलवारके समान फल लगते हैं। और वहां इसे टाटमडंगा कहते हैं ॥२५-२८ ॥
बृहत्पश्चमूलम् । श्रीफलः सर्वतोभद्रा पाटला गणिकारिका । स्योनाकः पञ्चभिश्चतैः पञ्चमूलं महन्मतम् ॥ २९॥ पंचमूलं महत्तिक्तं कषायं कफवातनुत् । मधुरं श्वासकासघ्रमुष्णं लध्वग्निदीपनम् ॥३०॥ श्रीफल (विल ), सर्वतोभद्रा (काश्मरी), पाटना (पाढल ), गणिकारिका (अग्निमन्थ) तथा स्योनाक (सोनापाढा) इन पांचोंको मिलानेसे वृहपंचमूल बन जाता है । हतपंचमूल-अत्यन्त तिक्त, कसैना, कफ और वातको नष्ट करनेवाला, मधुर, श्वास और कासको हरनेवाला, गरम, लघु तथा अग्निदीपक है। २९ ॥ ३० ॥
शालपर्णी। शालपर्णी स्थिरा सौम्या त्रिपर्णी पीवरी गुहा । विदारिगंधा दीघोधिदर्दीधपत्रांशुमत्यपि ॥ ३१ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । (९१)
शालपर्णी गुरुश्छर्दिज्वरश्वासातिसारजित् । शोषदोषत्रयहरी बृंहण्युक्ता रसायनी ॥ ३२ ॥ तिक्ता विषहरी स्वादुः क्षर्तकासकृमिप्रणुत् ।
शालपर्णी, स्थिरा, सौम्या, त्रिपर्णी, पीवरी, गुहा, विदारिगन्धा, दीर्घाघ्र दीर्घपत्रा और अंशुमती यह शालपर्णी के नाम हैं ।
शालपर्णी - भारी, शोष तथा त्रिदोषनाशक, धातुओं को पुष्ट करनेवाली आयुवर्द्धक, तिक्त, विषको हरनेवाली, मधुर तथा वमन, ज्वर, श्वास, अतिसार, क्षत, कास और कृमि इनको हरनेवाली है ॥ ३१ ॥ ३२ ॥
पृश्निपणा |
पश्रिपर्णी पृथकपर्णी चित्रपयत्रिपर्णिका ॥ ३३ ॥ क्रोष्टुविन्ना सिंहपुच्छी कलशी धावनी गुहा । पृश्निपर्णी त्रिदोषघ्नी वृष्योष्णा मधुरा सरा ॥३४॥ हंति दाहज्वरश्वासरक्तातीसारतृड्वमीः ।
पृश्निपर्णी, पृथक्पर्णी, चित्रपर्णी, अंघ्रिपणिका, काष्टुचित्रा सिंहपुच्छी कलशी तथा गुहा यह पृश्निपर्णी के नाम हैं ।
पृश्रिपर्णी- त्रिदोषन्न, वीर्य्यवर्द्धक, गरम, मधुर, दस्तावर तथा दाह, ज्वर श्वास, रक्तातिसार, प्यास और बमन इनको नष्ट करती है ॥ ३३ ॥ ३४ ॥
बृहती ।
वार्ताकी क्षुद्रभंटाकी महती बृहती कुली ॥ ३५ ॥ हिंगुली राष्ट्रिका सिंही महोटी दुष्प्रधर्षणी । बृहती ग्राहणी द्या पाचनी कफवातहृत् ॥ ३६ ॥ कटुतिक्तास्य वैरस्य मलारोचकनाशनी ॥
उष्णा कुष्ठज्वरश्वासशूलका साग्निमांद्यजित् ॥ ३७॥
वातकी, क्षुदभंटाकी, महती. बृहती, कुली, हिंगुनी, राष्ट्रिका, सिंही मोटी, दुष्प्रधर्षणी, यह बृद्दतीके नाम हैं, इसको बडी कटेली कहते हैं ।
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(९१) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
वृहती-ग्राही, हृदयको प्रिय, पाचन, कफ तथा वातको हरनेवाली,कटु, तिक्त, गरम तथा मुखकी विरसता,अरुचि, मल, कुष्ठ, मार, 'वास, शूल, कास तथा अग्नि की मन्दता इनकोर करनेवाली है ॥३५-३७ ।
कंटकारी। कण्टकारी तु दुःस्पर्शा क्षुद्रा व्याघी निदिग्धिका ॥ कंटारिका कंटकिनी धावनी बृहती तथा ॥ ३८॥ कंटकारी, दुःस्पर्शा क्षुद्रा; निदि ग्ध का, कंटारिका, कंटकिनी धावनी तथा वृहती यह कटेरी के नाम हैं ॥ ३८ ॥
उभे च बृहत्यौ यत आह सुश्रुतः। क्षुद्रायां क्षुद्रघंटाक्यां बृहतीति निगद्यते । श्वेता क्षुद्रा चंद्रहासा लक्ष्मणा क्षुद्रदूतिका ॥३९॥ गर्भदा चन्द्रमा चन्द्रा चन्द्रपुष्पा प्रियंकरी। कंटकारी सरा तिका कटुका दीपनी लघुः ॥४०॥ रूमोष्णा पाचनी कासश्वासज्वरकफानिलान् । निहंति पीनसं पार्खपीडाकृमिहृदामयान् ॥ ४॥ तयोः फलं कटु रसे पाके च कटुकं भवेत् । शुक्रस्य रेचनं भेदि तिक्तं पित्ताग्निकल्लघु ॥१२॥ कटेरी मौर बड़ी कटेरी दोनों ही वृहती कहलाती हैं। यह सुश्रुतमें कहा है। श्वेता, क्षुद्रा, चन्द्रहासा, लक्ष्मणा, क्षुद्रदूतिका, गर्भदा , चन्द्रमा, चन्द्रा, चन्द्रपुष्पा और प्रियकरी यह सफेद पुष्पवाली कटेरीके नाम हैं।
कटेरी-दस्तावर, तिक्त, कटु, अग्निदीपक, हलकी, रूक्ष गरम, पाचन करनेवाली तथा कास, श्वास ज्वर, कफ वात, पीनस, पसलीकी पीड़ा कृमि तथा हृदयके रोगोंको हरती है। दोनों कटेरियों के फन-कटु रस और पाकमें कडु, वीर्यके रेचन करने वाले, दस्तावर, तिक्त, पित्ताग्नि
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (९३) वर्षक, हलो तथा कफ, वायु, खुजली, कास, मेद कृमि और ज्वरको दूर करनेवाले हैं ।। ३९-४२ ॥ हन्यात्कफमरुत्कंडूकासमे कृमिज्वरान् । तद्वत्प्रोक्ता सिता क्षुद्रा विशेषाद्र्भकारिणी॥ १३ ॥ उसीके समान श्वेत कटेरीके गुण हैं, किन्तु यह विशेषतासे गर्भको धारण करानेवाली है ॥४३॥
गोक्षुरः। गोक्षुरः क्षुरकोऽपि स्यात् त्रिकंटःस्वादुकंटकः । गोकंटको भक्षटंको वनभंगाट इत्यपि ॥ १४ ॥ पलंकपाश्वदंष्ट्रा च तथा स्यादिक्षुगंधिकः । गोक्षुरः शीतलः स्वादुर्बलकृद्धस्तिशोधनः ॥१५॥ मधुरो दीपनो वृष्यः पुष्टिदश्वाश्मरीहरः। प्रमेहश्वासकासार्शकृच्छदोगवातनुत् ॥ ४६॥ गोक्षुर, क्षुरक, विकण्ट, स्वादुकण्टक, गोकण्टक, भटक, वनशृङ्गाट, पढ़कष, अश्वदेष्टा तथा इशुगंधिक यह गोखकरे नाम हैं। इसको हिन्दीमें गोखरू और फारसी तुरुमखार या हस्तचिंघाड कहते हैं।
गोखरू-शीतल, मधुर, बलबद्धक, मसानेको शुद्ध करनेवाला, स्वादु, दीपन, वीर्यवर्धक, पुष्टिकारक, पथरीको हरनेवाला तथा प्रमेह बास, कास, मश, कृच्छ, हृदयके रोग और वात इनको नष्ट करता
लघुपंचमूलम् । शालपर्णी पृश्निपर्णी वार्ताकी कंटकारिका। गोक्षुरः पंचभिश्चतैः कनिष्ठं पंचमूलकम् ॥ १७ ॥
Mavale
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। पंचमूलं लघु स्वादु बल्यं पितानिलापहम् । नात्युष्णं बृंहणं ग्राहि ज्वरश्वासाश्मरीप्रणुत् ॥४८॥ शालपर्णी, पृश्निपर्णी, छोटी कटेरी, बडी कटेरी और गोखरू इनको लघु पञ्चमूल कहते हैं।
लघु पञ्चमूल-हलका, मधुर, बलकारक, पित्त तथा वायुको नष्ट करने. वाला, किश्चित गरम, बृंहण, ग्राही, ज्वर, श्वास और पथरीको नष्ट करने बाना है।। ४७॥४८॥
दशमूलम् । उभाभ्यां पंचमूलाभ्यां दशमूलमुदाहृतम् । दशमूलं त्रिदोषघ्नं श्वासकासशिरोरुजः ॥४९॥ तंद्राशोथज्वरानाहपार्श्वपीडारुचीहरेत् । लघुपश्चमूल और वृहत पञ्चमूल यह दोनों मिलकर दशमूल कहलाते है दशमल-विदोषनाशक तथा श्वास, कास, शिरके रोग, तंद्रा, थोथ, ज्वर, आनाह ( अफारा), पसलीका शूल तथा अरुचि इनको नष्ट करती है॥४९॥
जीवन्ती। जीवंती जीवनी जीवा जीवनीया मधुस्रवा ॥५०॥ मांगल्यनामधेया च शाकश्रेष्ठा पयस्विनी । जीवंती शीतला स्वादुः स्निग्धा दोषत्रयापहा ॥५॥ रसायनी बलकरी चक्षुष्या ग्राहिणी लघुः । जीवंती, जीवनी, जीवा, जीवनीया, मधुरवा, मांगल्यनामधेया,शाक श्रेष्ठा तथा पयस्विनी, यह जीवन्तीके नाम हैं।
जीवन्ती-शीतल, स्वादु, स्निग्ध, त्रिदोषनाशक, वायु तथा बलवर्द्धक, नेत्रोको हितकर, प्राही और हलकी है ॥ ५० ॥ ५१ ॥
! Shrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (९५)
मुद्गपणी। मुद्गपर्णी काकपर्णी शूर्पपर्ण्यल्पिका सहा ॥ ५२ ॥ काकमुद्दा च सा प्रोक्ता तथा मार्जारगंधिका । मुद्गपर्णी हिमा रूक्षा तिक्ता स्वाद्वी च शुक्रला ५३ चक्षुष्या क्षतशोथनी ग्राहणी ज्वरदाहनुत् । दोषत्रयहरी लध्वी ग्रहण्योंतिसारजित् ।। ५४ ॥ मुद्रपर्णी, काकपर्णी, शूर्पपर्णी, अल्पिका, सहा, काकमुद्गा और मारिंगंधिका यह मुद्गपीके नाम हैं।
मुद्रपर्णी-शीतल, कक्ष, तिक्त, वीर्यवर्धक, नेत्रोंको हितकर, त्रिदोष, नाशक, हलकी, ग्राही तथा ज्वर, दाह, अर्श और अतिसारको जीतती है।। ५२-५४॥
माषपर्णी। माषपर्णी सूर्यपर्णी कांबोजी हयपुच्छिका। पांडुलोमशपर्णी च कृष्णवृन्ता महासहा ॥ ५५॥ मषपर्णी हिमा तिक्ता रूक्षा शुक्रबलासकृत् । मधुरा पाहणी शोथवातपित्तज्वराजित् ॥५६॥ माषपर्णी, सूर्यपी, कांबोजी, हयपुच्छिका, पालोमशपर्णी, कुग्णवृन्ता, महासहा यह माषपीके नाम हैं। मापपर्णी-ठंढी, तिक्त, रूखी, वीर्य और कफको बढानेवाली, मधुर, आही, शोथ, वात, पित्त, ज्वर और रक्तविकारको हरनेवाली ॥५५॥५६॥
" जीवनीयगणः। अष्टवर्गः सयष्टीको जीवंती मुद्गपर्णिका । माषपर्णीगणोऽयं तु जीवनीय इति स्मृतः ॥१७॥
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
जीवनो मधुरश्वापि नाम्ना स परिकीर्तितः । जीवनीयगणः प्रोक्तः शुक्रकृत बृंहणो हिमः ॥ ५८ ॥ गुरुर्गर्भप्रदः स्तन्यकफकृत्पित्तरक्तहृत्
तृष्णां शोषं ज्वरं दाहं रक्तपित्तं व्यपोहति ॥ ५९ ॥ अष्टवर्ग - ( जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, काकोली, क्षीरकाकोली, ऋद्धि, वृद्धि) जीवन्ती, मुद्रपर्णी तथा माषपर्णी इनको जीवनीय गण कहते हैं । जीवनीथगन - वीर्य हारक, धातुमको पुष्ट करनेवाला, शीतल, भारी, गर्भको देनेवाला, दूध तथा कफको उत्पन्न करनेवाला, पित्त, तथा रक्त, प्यास, शोष, ज्वर, दाह तथा रक्तपित्त इन को नष्ट करता है ॥५७-५९॥ शुक्कुर क्तैरडौं । शुक एरंड आमंडश्चित्र गंधर्वहस्तकः । पंचांगुली वर्धमानो दीर्घदंडो व्यवकः ॥ ६० ॥ रक्तोऽपरोरुबूकः स्यादुरुबू को रुस्तथा । व्याघ्रपुच्छश्व वातारिश्चंचु हत्तानपत्रकः ॥ ६१ ॥ एरण्डयुग्मं मधुरमुष्णं गुरु विनाशयेत् । शूलशोथकटीवस्तिशिरःपीडोदरज्वरान् ॥ ६२ ॥
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ब्रध्नश्वासकफानाहकासकुडाममा हतान् एरंडपत्रं वातघ्नं कफ क्रिमिविनाशनम् ॥ ६३ ॥ मूत्रकृछ्रहरं चापि पित्तरक्तप्रकोपनम् । वातार्य्यप्रदलं गुल्मवस्तिशूलहरं परम् ॥ ६४ ॥ कफवातकृमीन हंति वृद्धिं सप्तविधामपि । एरंडफलमत्युष्णं शूलगुल्मा निलापहम् ॥ ६५ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी . । (९७)
यकृत्प्लीहोदरार्शोघ्नं कटुकं दीपनं परम् । तद्वन्मज्जा च विभेदी वातश्लेष्मोदरापहा ॥ ६६ ॥
शुक्ल एरंड, घमंड, चित्र, गंधर्वहस्तक; पंचांगुल, वर्धमान, दीर्घदण्ड तथा विडम्बक यह सफेद एरंडके नाम हैं । रक्त एरंड, रुबूक, उहबूक, रुबु, व्याघ्रपुच्छ वातारि, चंचु, उत्तानपत्रक यह लाल एरंड के नाम हैं । इनको हिन्दी में सफेद तथा लाल एरंड, फारसी में बेदंजीर और अंग्रेजीमें Castor Oil कहते हैं ।
दोनों प्रकारके एरंड - मधुर, उष्ण, भारी तथा शूल, शोथ, कमर, बस्ति और शिरकी पीडा, उदररोग, ज्वर, श्वास, कफ, अफारा, कास, कुष्ठ और आमवातको नाश करनेवाले हैं। एरंड के पत्र पित्त तथा रक्तको कुपित करनेवाले हैं तथा वात, कफ, कृमि और मूत्रकृच्छ्रको नष्ट करते हैं। एरंडकी को पल-गुल्म, वस्तिके शूल, कफ, वात कृमि, तथा साता प्रकार की वृद्धिको नष्ट करती है । एरंड के फल अत्यन्त गरम, कट्ट, दीपन तथा गुल्म, शूळ, वात, यकृत, प्लीहा, उदररोग और अर्श को नष्ट करनेवाले हैं । इसकी मज्जा मलभेदक तथा वात, कफ और उदरके रोगों को हरनेवाली है । ६०-६६ ॥
आकारकरभः ।
आकारकरभश्चैव कलकोऽथ कलकः । अल्लोष्णो वीय्यैण बलकृत्कटुको मतः ॥ ६७ ॥ प्रतिश्यायं च शोथं च वातं चैव विनाशयेत् ।
आकारकरभ, ग्राकल्लक और अकल्लक यह अकरकरेके नाम हैं । कर्कश - ऊष्णवीर्य, बलकारक, कंटु तथा वात, प्रतिश्याय और शोथनष्ट करता है ॥ ६७ ॥
Aho ! Shrutgyanam
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(९४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
शुक्लरक्ताौं । श्वेतार्को गणरूपः स्यान्मंदारो वनुकोऽपि च ॥१८॥ श्वेतपुष्पः सदापुष्पः स बालार्कः प्रतापसः। रक्ताऽपरोकनामा स्यादर्कपर्णो विकीरणः ॥ ६९ ॥ रक्तपुष्पः शुक्लफलस्तथा स्फोटः प्रकीर्तितः। अर्कद्वयं सरं वातकुष्ठकण्डूविषवणान् ॥ ७० ॥ निहंति प्लीहगुल्माशःश्लेष्मोदरशकृत्कृमीन् । अलर्ककुसुमं वृष्यं लघु दीपनपाचनम् ॥ ७१ ॥
अरोचकप्रसेकाशकासश्वासनिवारणम् ॥ ७२॥ रक्तार्कपुष्पं मधुरं सतिक्तं कुष्ठक्रिमिघ्नं कफनाशनं च अशीविषहतिचरक्तपित्तसंग्राहिगुल्मेश्वयथोहितं तत्७३
क्षीरमर्कस्य तिक्तोष्णं स्निग्धं सलवणं लघु । कुष्ठगुल्मोदरहरं श्रेष्ठमेतद्विरेचनम् ॥ ७४ ।।
श्वेतार्क, गणरूप, मन्दार, वसुक, श्वेतपुष्प, सदापुष्प, बालार्क तथा प्रतापस यह श्वेत अर्कके नाम हैं। रक्तार्क, अर्कपर्ण, विकीरण, रकपुष्प, शुक्लफल, स्फोट तथा सूर्यके सम्पूर्ण नाम यह रक्तार्कके नाम हैं। इनको हिन्दी में सफेद और लाल आक, फारसीमें दुध तथा खुर्क और अंग्रेजीमें Gigontic Swallw wart कहते हैं।
दोनों प्रकारके आक-दस्तावर तथा वात, कोड़, खुजली, विष, व्रण, कीहा, गुल्म, अर्श, कफ, उदररोग और मलके कृमियोंको नष्ट करते हैं। पाकका फूल-वीर्यवर्धक,हल्का,दीपन,पाचन रुचिकारक, प्रसेक (मुखसे नार गिरना ) अर्श,कास और वास इनको दूर करता है । लाल पाकका
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (९९) फूल-मधुर, तिक्त तथा कुष्ठ, कृमि, कफ, अर्श, विष, रक्तपित्त इनको दूर करनेवाला है। ग्राही तथा गुल्म और सूजनमें हितकारी है। पाकका दूध तित, उष्ण, स्निग्ध, लवण रसवाला और कुष्ठ, गुल्म, उदर इन रोगोंको हरनेवाला है तथा विरेचन कार्यमें श्रेष्ठ है ॥ ६८-७४ ॥ .
सेहुंडः। सेहुण्डः सिंहतुण्डः स्याद्वजी वज्रद्रुमोऽपि च । सुधासमंतदुग्धा चस्नुस्त्रियांस्यात्स्नुही गुडा।७५॥ सेहुण्डो रेचनस्तीक्ष्णो दीपनः कटुको गुरुः । शूलामष्ठीलिकाध्मानकफगुल्मोदरानिलान् ॥७६॥ उन्मादमेदकुष्ठाशःशोथमेदोऽश्मणंडुताः। व्रणशोथज्वरप्लीहविषदूषीविषं हरेत् ॥ ७७ ॥ उष्णवीर्य स्नुहीक्षीरं स्निग्धं च कटुकं लघु । गुल्मिनां कुष्ठिनां चापि तथैवोदररोगिणाम् ॥७८॥ हितमेतद्विरेकार्थे ये चान्ये दीर्घरोगिणः । सेहुण्ड, सिहतुंड, वज्री, वज्रद्रुम, सुधा, समंवदुग्धा, स्नुक, स्नुही, गुडा यह थोहरके नाम हैं। इसे हिंदीमें थोहर, फारसीमें लादनाम, अंग्रेजीमें nilkhedge Prickly pear कहते हैं।
थोहर-रेचन, तीक्ष्ण, दीपन, कटु, गुरु तथा शूल, आम, अष्ठीलिका, माध्मान, कफ गुल्म, उदर रोग, वायु, उन्माद, प्रमेह, कुष्ठ, अर्श, शोथ, मद, पथरी, पांडुरोग, व्रण, शोथ, प्लीहा, विष और दूषी विषको नष्ट करता है। थोहरका दूध-स्निग्ध, कटु, उष्णवीर्य, हल्का है तथा गुल्म कुष्ठ, उदर रोग, और दीर्घ रोगियों के विरेचनके लिये उनम गुणकारी है।७५-७८॥
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( १०० )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.
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सेहुडभेदशातला ।
शातला सप्तला सारविमला विला च सा ॥ ७९ ॥ तथा निगदिता भूरिफेना कर्मकपेत्यपि । शातला कटुका पाके वातला शीतला लघुः ॥ ८० ॥ तिक्ता शोथकफानाहपित्तोदावर्तरक्तजित् ।
शातला, सप्तला, सारविमला, विदला, भूरिफेना तथा कर्म्मकषा यह शातला के नाम हैं । इसे फारसी में एषण कहते हैं ।
शातला - पाक में कटु, वातवर्द्धक, शीतल, हल्की, तिक्त तथा शोथ, कफ, आनाह (बारा), पित्त, उदावर्त्त और रक्त विकारको जीतती है ॥७९॥८० कलिहारी |
कलिहारी तु इलिनी लांगली शुक्लपुष्प्यपि ॥ ८१ ॥ विशल्याग्निशिखानंता वह्निवत्रा च गर्भनुत् । कलिहारी सरा कुष्ठशोफाशव्रणशूलजित ॥ ८२ ॥ सक्षारा श्लेष्मजित्तिक्ता कटुका तुवराणि च । तीक्ष्णोष्णकृमिलघ्वी पित्तला गर्भपातिनी ॥ ८३ ॥
कलिहारी, हलिनी, लाङ्गली, शुक्लपुष्पी, विशल्या, अग्निशिखा, अनंता वह्निवत्रा और गर्भनुत यह कलिहारीके नाम हैं। इसको अंग्रेजी में Wolfsbone कहते हैं । इसको शिमला प्रान्तमें नगरौडी कहते हैं ।
कलिहारी - दस्तावर, कुष्ठ, शोफ, अर्श, व्रण और शूलको जीतनेवाली' है । क्षार, कफनाशक, तिक्त, कटु, कषाय, तीक्ष्ण, उष्ण, कृमिनाशक, हल्की, पित्तकारक और गर्भको गिरानेवाली है ॥ ८१-८३ ॥
श्वेतरक्त करवीरौ । करवीरः श्वेतपुष्पः शतकुम्भोऽश्वमारकः । द्वितीयो रक्तपुष्पश्च चंडांतो लगुडस्तथा ॥ ८४ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१०१) करवीरद्वयं तिक्तं कषायं कटुकं च तत् । व्रणलाघवकृनेत्रकोपकुष्ठव्रणापहम् ॥ ८५॥ वीर्योष्णं कृमिकण्डुघ्नं भक्षितं विषवन्मतम् । करवीर, श्वेतपुष्प, शतकुंभ और अश्वमारक यह सफेद कनेरके नाम हैं। दूसरा नान कनेर-रक्तपुष्प, चंडोत और लगुड कहलाता है । इसे फारसीमें खरजेरा और अंग्रेजीमें Sweet Scented obander कहते हैं, हिन्दीमें कनेर कहते हैं।
दोनों कनेर-तिक्त, कषाय, कटु, व्रणकारक, लाघव करनेवाले, नेत्रपीड़ा, कुष्ठ और व्रणको नष्ट करनेवाले, उष्णवीर्य, कृमि और खुजलीको हटानेवाले, खानेसे विषके समान हानिकर हैं ।। ८४ ॥ ८५ ॥
धत्तरः। धत्तरधूर्तधुत्तूरा उन्मत्तः कनकाह्वयः ॥ ८६ ॥ देवता कितवस्तूरी महामोही शिवप्रियः । मातुलो मदनश्चास्य फले मातुलपुत्रकः ॥ ८७ ॥ धतूरो मदवर्णाग्निवातकृज्ज्वरकुष्ठनुत् । कषायो मधुरस्तितो यूकालिक्षाविनाशनः ॥८८॥
उष्णो गुरुव्रणश्लेष्मकंडूकृमिविषापहः । धनूर, धूर्त, धुत्तूर, उन्म म, स्वर्णके पर्यायवाचक सब शब्द, देवता, कितव, तूरी, महामोही, शिवप्रिय, मातुन और मदन यह धतूरेके नाम हैं। इसके फलको मातुलपुत्रक कहते हैं । अंग्रेजी में इसे Thorn Apple समझते हैं।
धतूरा-मदकारक, वर्णकारक, अग्नि तथा वायुद्धक, ज्वर और कुष्ठको मारनेवाला, कषाय, मधुर, तिक्त, यूका पौर लिक्षानाशक, उष्ण, भारी तथा व्रण, कफ, कंड, कृमि और विषको नाश करनेवाला १॥८६-८८॥
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। १०२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
• वासकः। वासको वासिका वासा भिषङ्माता च सिंहिका८९ सिंहास्यो वाजिदंतः स्यादाटरूपक इत्यपि । अटरूपो वृषनामा सिंहपर्णश्च स स्मृतः ॥ ९ ॥ वासको वातकृत्स्वर्यः कफपित्तास्रनाशनः । तिक्तस्तुवरको हृयो लघुः शीतस्तृडर्तिहत् ॥ ९ ॥ श्वासकासज्वरच्छर्दिमेहकुष्ठक्षयापहः। वासक, वासिका, वासा, भिषङ्माता, सिंहिका, सिंहास्य, वाजिदन्त पाटरषक, अटरूष, वृष, सिंहपर्ण यह बांसेके नाम हैं।
बांसा-वातकारक, स्वरकारक, कफ, पित्त और रुधिर विकारको नाश करनेवाला, तिक्त, कषाय, हृदयको हितकर, हल्का, शीतन, प्यास और पीडाको हरनेवाला तथा श्वास, कास, ज्वर, वमन, प्रमेह, कुष्ठ, क्षय नको नष्ट करने वाला है और रक्तपित्त ( नकशीर) आदिका सिद्ध भौषध है ॥ ८९-९१ ॥
पर्पटः। पपटो वरतिक्तश्च स्मृतः पर्पटकश्च सः ॥ ९२ ॥ कथितः पांशुपर्यायस्तथा कवचनामकः। पर्पटो हंति पित्तास्त्रभ्रमतृष्णाकफज्वरान् ॥ ९३ ॥ संग्राही शीतलस्तितो दाहनुद्वातलो लघुः। पर्पट, वरतिक्त, पपर्टक तथा पांशु और कवचके पर्यायवाचक शब्द पित्तपापडेके नाम हैं। इसे फारसीमें शाहतरा और अंग्रेजीमें Justacia Procarabens कहते हैं। . पित्तपापड़ा-ग्राही, शीतल, तिक्त, हलका, वातकारक तथा दाह, पित्त, रक्तविकार, भ्रम,प्यास, कफ और ज्वर इनका नाश करता है ॥९२।। ९३ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१०३)
निवः। निंबः स्यात्पिचुमर्दश्च पिचुमंदश्च तितकः ॥ ९४॥ अरिष्टः पारिभद्रश्च हिंगुनिर्यास इत्यपि । निंबः शीतो लघुाही कटुपाकोऽग्निवातनुत् ॥१५॥ अद्यः श्रमतृट्कासज्वरारुचिकृमिप्रणुत् । व्रणपित्तकफच्छर्दिकुष्ठहल्लासमेहनुत् ॥ ९६ ॥ निंबपत्रं स्मृतं नेत्र्यं कृमिपित्तविषप्रणुत् । वातलं कटुपाकं च सर्वारोचककुष्ठनुत् ॥ ९७ ॥ नैम्बं फलं रसे तितं पाके तु कटुभेदनम् । स्निग्धं लघूष्णं कुष्ठध्नं गुल्मार्शःकृमिमेहनुत् ॥९८॥ निध, पिचुमर्द, पिचुमन्द तितक, परिष्ट, पारिभद्र, हिंगुनियास यह नीमके नाम हैं। इसे फारसी में ने नव और अंग्रेजी में Nimbtree कहते हैं
नीम-शीतल, हल्की, ग्राही, पाकमें कटु, मग्नि और वातको नष्ट करनेवाली, हृदयको अप्रिय तथा भ्रम, प्यास, कास, ज्वर, अरुचि, कृमि, व्रण, पित्त, कफ, वमन, कुष्ठ, हल्लास और प्रमेहको हरनेवाली है। नीमके पत्ते नेत्रोंके लिये हितकारी, वातकारक, पाकमें कटु तथा कृमि, पित्त, विष, सब प्रकारकी अरुचि और कुष्ठको नष्ट करनेवाले हैं। नीमके फल- रसमें तिक्त, पाकमें कटु भेदन, स्निग्ध, उष्ण, कुष्ठन्न तथा गुल्म, अश, कृमि और प्रमेहके नाश करनेवाले हैं ॥ ९४-९८॥
___महानिका। महानिंबः स्मृतो द्रेको रम्यको विषमुष्टिकः । केशमुष्टिर्निबरका कार्मुको क्षीव इत्यपि ॥ ९९ ॥ महानिंबो हिमो रूक्षस्तिको ग्राही कषायकः ।
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(१०४). भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
कफपित्तभ्रमच्छर्दिकुष्ठहल्लासरक्तजित् ॥ १० ॥ · प्रमेहश्वासगुल्मार्शोमूषिकाविषनाशनः ।
महानिंब, द्रेक, रम्यक, विषमुष्टिक, केशमुष्टि, निवरक, कार्मुक पौर क्षीच यह बकायनके संस्कृत नाम हैं। इसे हिन्दीमें डेक और बकायन, और फारसी में तुजाकुनार्य कहते हैं। बकायन-शीतल, रूक्ष, तिक्त, ग्राही, कषाय तथा कफ, पित्त, भ्रम, वमन, कोढ़, हल्लास, रक्तविकार, प्रमेह, श्वास, गुल्म, अर्श और चूहेके विषको नष्ट करनेवाली है ॥ ९९ ॥ १०० ॥
पारिभद्रः। पारिभद्रो निंबतरुमैदारः पारिजातकः ॥ ११ ॥
पारिभद्रोनिलश्लेष्मशोथमेद कृमिप्रणुत् । . तत्पुष्पं पित्तरोगघ्नं कर्णव्याधिविनाशनम् ॥१०२॥ . पारिभद्र, निंबतरु, मंदार, पारिजातक यह पारिभद्र के नाम हैं। इसे फारसीमें फरहद और अंग्रेजी में Erythrine Indica कहते हैं।
पारिभद्र-वात, कफ, शोथ, मेद और कृमिरोगको नष्ट करता है। इसका फूल पित्तरोगोंको नाश करनेवाला और कर्णरोगको हरनेवाला है॥ १०१ ॥ १०२॥
कांचनारः कोविदारश्च। कांचनारः कांचनको गंडारिः शोणपुष्पकः । कोविदारश्चमरिकः कुद्दालो युगपत्रकः ॥ १०३ ॥ कुण्डली ताम्रपुष्पश्चाश्मंतक: स्वल्पकेसरी। कांचनारो हिमो ग्राही तुवरः श्लेष्मपित्तहृत्॥१०४॥ कृमिकुष्ठगुदभ्रंशगंडमालाबणापहः।
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नाम हैं।
हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१०५ ) कोविदारोऽपि तद्वत्स्यात्तयोः पुष्पं लघु स्मृतम् १०६ सूक्ष संग्राहि पित्तात्रप्रदरक्षयकासनुत् । कांचनार, कांचनक, गंडारी, शोण पुष्पक, कोविदार, चमरिक,कुदान, युगपत्रक, कुण्डनी, ताम्रपुष्प, अश्मन्तक, स्वल्पकेशरी यह कचनारके
कचनार- शीतल, ग्राही, कसैला,कफ तथा पित्तनाशक पौर कृमि,कोद, गुदभ्रंश, गंडमाला और व्रणोको हरनेशला है। कोविदार भी इसीके समान गुणोंवाला है। इन दोनोंके फूल-लघु, रूक्ष, ग्राही तथा पित्त,रक्तविकार, प्रदर, क्षय और कासको नष्ट करने वाले हैं ॥ १०३-१०५ ॥ .
श्याम-श्वेत-रक्त-शिग्रुः । शोभांजनः शिग्रुतीक्ष्णगंधकाक्षीवमोचकाः ॥१०६॥ तद्बीजं श्वेतमरिचं मधुशिग्रुस्तु लोहितः। शिग्रुः शरः कटुः पाके तीक्ष्णोष्णं मधुरोलघुः।।१०७ दीपनो रोचनो सूक्षः क्षारस्तितोविदाहकृत् । संग्राही शुक्रलो हृयो पित्तरक्तप्रकोपनः ॥ १०८॥ चक्षुष्यः कफवातघ्नो विद्रधिश्वयथुक्रिमीन् । मेदोऽपचीविषप्लीहगुल्मगंडवणान् हरेत् ॥ १०९ ॥ श्वेतः प्रोक्तगुणो ज्ञेयो विशेषादीपनः सः । प्लीहानं विद्रधिं हंति व्रणनः पित्तरक्तकृत ॥११०॥ मधुशिग्नुः प्रोक्तगुणो विशेषादीपनः सरः॥ शिवल्कलपत्राणां स्वरसः परमार्तिहत् ॥ ११ ॥ चक्षुष्यं शिग्रुजं बीजं तीक्ष्णोष्णं विषनाशनम् । , अवृष्यं कफवातघ्नं तत्रस्येन शिरोतिहृत् ॥ ११२ ॥ शोभांजन, शिग्रु, तीक्ष्णगंधक, अक्षोध, मोचक यह सहिजनके नाम हैं। इसे अंग्रेजीमें Horse Radish Tree कहते हैंm
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(१०६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
लाल सहिजनको लघुशिशु कहते हैं। सहिजना-दस्तावर, पाकमें कटु तीक्ष्ण, उष्ण, मधुर, हल्की, दीपन,रोचन, रूक्ष, क्षार, तिक्त, दाहकारक, . ग्राही, बीर्यवर्धक हृदयको हितकर,पिन और रुधिरको कुपित करनेवाली, नेवोंको हितकर, कफ तथा वातनाशक और विद्रधि,सूजन, कृमिरोग,मेद, अपची, विष, प्लीहा, गुल्म, गंडमाला और व्रणोंको हरनेवाली है। सफेद सहिजनेके भी यही गुण हैं। परन्तु यह विशेषता अग्निदीपक, दस्तावर तथा विद्रधि, प्लीहा, वर्ण, पिन और रक्तविकारको नष्ट करनेवाली है। नाल सहिजनमें भी यही गुण हैं,विशेषतासे अग्निदीपक,और दस्तावरहै। सहिजनेका छाल और पत्तोंका स्वरस अत्यन्त पीडाको नष्ट करता है। इसके बीज नेत्रोंको हितकर, तीक्ष्ण, उष्ण, विषनाशक, वीर्यको कम करनेवाले तथा कफ और वातको नष्ट करने वाले हैं। उनकी नसवार सिर-दर्दको दूर करती है ॥ १०६-११२ ॥
- श्वेतनीलपुष्पा अपराजिता । आस्फोता गिरिकर्णी स्याद् विष्णुकांतापराजिता । अपराजिते कटुमेध्ये शीते कण्ठये सुदृष्टिदे ॥११३॥ कुष्ठमूत्रत्रिदोषामशोथव्रणविषापहे । कषाये कटुके पाके तिक्ते च स्मृतिबुद्धिदे ॥११४॥ भास्फोता, गिरिकर्णी, विष्णुक्रांता, अपराजिता यह अपराजिताके नाम हैं। अंग्रेजीमें इसे Megerin कहते हैं । - दोनों प्रकारकी अपराजिता-कटु, मेधावर्धक, शीतल, कण्ठको हितकर दृष्टिको देनेवाली, कषाय, पाकमें कटु, तिक्त, स्मृति और बुद्धिदायक तथा कोढ़, मूत्ररोग, त्रिदोष, ग्राम शोथ, व्रण और विष इनको नष्ट करने वाली है॥ ११३ ॥ ११४ ॥
सिंदुबारः । सिंदुवारः श्वेतपुष्पः सिंदुकः सिंदुवारकः । नीलपुष्पी तु निर्गुडी शेफाली सुवहा च सा ॥११५
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१०७) सिंदुकः स्मृतिदस्तिक्तः कषायः कटुको लघुः।। केश्यो नेत्रहितो हंति शूलशोथाममारुतान्॥११६॥ कृमिकुष्ठारुचिश्लेष्मवणानीला हि तद्विधा । सिंदुवारदलं जन्तुवातश्लेष्महरं लघु ॥ ११७॥ सिंदुवार, श्वेतपुष्प, सिन्दुक, सिन्दुवारक, नीलपुष्पी, निर्गुण्डी, शेफाली, सुबहा यह संभालूके नाम हैं। इसे अंग्रेजीमें Five Leaved. Chus Tree कहते हैं।
संभालू-स्मृतिदायक, तिक्त, कषाय, कटु, हलका, केश और नेत्रों को हितकर तथा शूल, शोथ, आम, बात, कृमि, कोद, अरुचि, कफ और व्रण इनको नष्ट करनेवाला है। नीले फलवाले संभालूके भी यही गुण हैं। इसके पत्ते कृमि, वात तथा कफ इनको हरनेवाले और हल्फे. हैं ॥ ११५-११७ ॥
कुटजः। कुटजः कुटिजः कौटो वत्सको गिरिमल्लिका । कालिंगश्चक्रशाखी च मल्लिकापुष्पइत्यपि ॥११८॥ इंद्रयवफलः प्रोक्तो वृष्यकः पांडुरद्रुमः । कुटजः कटुको रूक्षो दीपनस्तुवरो हिमः ॥ ११९ ॥
अोतिसारपित्तास्रकफतृष्णामकुष्ठजित् । कुटज, कुष्टिज, कौट, वत्सक, गिरिमल्लिका, कालिंग चक्रशाखी, मल्लिकापुष्प, इन्द्रयवफल वृण्यक, पाण्डुरद्रुम यह कुड़ाके नाम हैं। अंग्रेजी में इसे Ovalleaved Rose Bay कहते हैं।
कुड़ा-कटु, रूक्ष, दीपन, कषाय, शीतल तथा अर्श, अतिसार, पित्त रक्तविकार, कफ. प्यास, प्राम और कोढको जीतनेवाली है। शिमन प्रान्तमें कोयड़ नामसे प्रसिद्ध ॥ ११८ ॥ ११९०१
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
करंजो ह्रस्वकरंजः ।
करंजो नक्तमालश्च करजश्विर बिल्वकः ॥ १२० ॥ घृतपूर्णः करंजोऽन्यः प्रकीर्यः पूतिकोऽपि च । सचोक्तः पूतिकारंजः सोमवल्कश्च स स्मृतः १२५॥ करंजः कटुकस्तीक्ष्णो वीर्योष्णो योनिदोषहृत् । कुष्ठोदावर्त गुल्माशत्रण क्रिमिकफापहा ॥ १२२ ॥ तत्पन्नं कफवाताशःकृमिशोथहरं परम् । भेदनं कटुकं पाके वीर्योष्णं पित्तलं लघु ॥ १२३ ॥ तत्फलं कफवातघ्नं मेहाशःकृमिकुष्ठजित् । घृत पूर्णकरंजोऽपि करंजसदृशो गुणैः ॥ १२४ ॥
( १०८ )
करंज, नक्तमाल, करज, विरबिल्वक यह करंजके नाम हैं । घृतपूर्ण, करंज, प्रकीर्य, पूतिक, पूतिकरंज और सोमवल्क, यह घियाकरंजके नाम हैं। इसे अंग्रेजीमें Smooth Leaved Pongamia कहते हैं ।
करंज- कटु, तीक्ष्णा, उष्णवीर्य, योनिरोगनाशक तथा कोढ़, उदावर्त, गुल्म, अर्श, व्रण, कृमि और कफके नाश करनेवाला है । इसके पत्ते, भेदनकर्ता हैं, पाक में कटु, उष्णवीर्य, पित्तकारक, हल्के तथा कफ, बात, अर्श, कृमि और शोथके हरनेवाले हैं। करंजका फल - कफ, वात, प्रमेह, अर्श, कृमि और कोटको नष्ट करता है । घृतपूर्ण करंजके भी करंजलदृश गुण हैं । १२०-१२४ ॥
तृतीयः करंजः ।
उदकीर्य्यस्तृतीयोऽन्यः षड्ग्रन्थ हस्तिवारुणी । कर्कटी वायसी चापि करंजी करभंजिका ॥ १२५॥
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( १०९ )
हरतिक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । करंजी स्तंभनी तिक्ता तुवरा कटुपाकिनी । वीर्योष्णा वमिवत्ता कृमिकुष्ठप्रमेहजित १२६॥ उदकी, पथ, हस्तिवादणी, कर्कटी, वायसी, करंजी, करभंजिका यह तीसरे करंजु एके नाम हैं ।
करंजी - वीर्यस्तंभक, तिक्त, कषाय, पाकवें कटु, ऊष्णवीर्य तथा वमन पित्त, अर्श, कृमि, कोट और प्रमेहको नष्ट करनेवाली है ॥ १२५ ॥ १२६ ॥ श्वेतरक्तगुंजे ।
श्वेता गुञ्जच्चटा प्रोक्ता कृष्णला चापि सा स्मृता । रक्ता सा काकचिची स्यात्काकणतीच रक्तिका १२७ काकादनी काकपीलुः सा स्मृतांगारवल्लरी । गुञ्जाद्वयं तु केश्यं स्याद्वातपित्तज्वरापहम् ॥ १२८ ॥ मुखशोषभ्रम श्वासतृष्णामदविनाशिनी । नेत्रामयहरं वृष्यं बल्यं कंडुव्रणापहम् ॥ १२९ ॥ कृमींद्रलुप्तकुष्ठानि रक्ता च धवलापि च ।
सफेद घुंघुचीको उच्चटा और कृष्णला कहते हैं। लाल घुंघुचोको काकचिची, काकांती, रक्तिका, काकादनी, काकपीलू और अंगारवलरी कहते हैं। दोनों घुघुची रक्तकके नामसे प्रसिद्ध हैं ।
दोनों घुघुचियें - केश, वीर्य और बलवर्धक तथा वात, पित्त, ज्वर, मुख शोष, भ्रम, श्वास, प्यास, मद, नेत्ररोग, खुजली, व्रण, कृमि, इंद्रलुप्त और कोढको नष्ट करनेवाली हैं, खानेले विषका प्रभाव करती हैं ।। १२७-१२९ ।।
कपिकच्छुः । कपिकच्छूरात्मगुप्ता रिष्यप्रोक्ता च मर्कटी ॥ १३० ॥ अजहा कण्डुराध्यंडा दुःस्पर्शा मावृषायणी ।
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( ११०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । लांगूली शूकशिंबी च सैव प्रोक्ता महर्षिभिः॥१३॥ कपिकच्छुभृशं वृष्या मधुरा बृंहणी गुरुः तिक्ता वातहरी बल्या कफपित्तास्रनाशिनी ॥१३२॥ तदीजं वातशमनं स्मृतं वाजीकरं परम् । कपिकच्छु, पारमगुप्ता, रिष्यप्रोक्ता, मर्कटी,अजहा, कण्डरा, अध्यंडा, दुःस्पर्शा, प्रावृषायणी, लांघुली, शुकशिंबी यह कौंचके नाम हैं। इसे अंग्रेजीमें Cowhedge कहते हैं।
कौंच-मस्यन्त वीर्यवर्धक, मधुर, धातुओंको पुष्ट करनेवाली, भारी, तिक्त, वातनाशक, बलवर्धक तथा कफ, पित्त और रक्तविकारोंको नष्ट करनेवाली है । कौंचका बीज-वातनाशक, स्मृतिवर्धक और परम वाजीकर है । १३०--१३२॥
रोहिणी। मांसरोहिण्यतिविषा वृत्ता चर्मकषा कृशा ॥१३३॥ प्रहारवल्ली विकसा वीरवत्यपि कथ्यते । स्यान्मासरोहिणी वृष्या सरादोषत्रयापहा ॥१३४॥ मांसरोहिणी, अतिविषा, वृता, चर्मकषा, कृशा, प्रहारपल्ली, विकसा और वीरबती यह रोहिणीके नाम हैं। रोहिणी-वीर्यवर्धक, दस्तावर और त्रिदोषनाशक है ॥ १३३ ॥ १३४ ॥
' चिल्लकः। चिल्लको वातनिहर्हारी श्लेष्मघ्नो धानुपुष्टिकृत् ।
आग्नेयो विषवद्यस्य फलं मत्स्यनिषूदनम्॥१३५॥ चिल्लछ- वातनाशक, कफनाशक, धातुओंकी पुष्टि करनेवाला और अग्निगुण भूयिष्ठ है। इसका फल विषसदृश मच्छियोंको मार डालता
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१११)
टंकारी। टंकारी वातजित्तिक्ता श्लेष्मघ्नी दीपनी लघुः।
शोथोदरव्यथाहंत्री हिता कोष्टविसर्पिणाम् ॥१३६॥ . टंकारी-वातको जीतनेवाली, तिक्त, कफनाशक, दीपन, हल्की, शोथ पौर उदरपीडाको नष्ट करनेवाली, तथा कोष्ट और विसर्पके लिये हितकारी है ॥ १३६ ॥
वेतसः । वेतसो नम्रकः प्रोक्तो वानीरो वंजुलस्तथा । अभ्रपुष्पश्च विदलो रथशीतश्च कीर्तितः ॥१३७॥ वेतसः शीतलो दाहशोथार्थोयोनिरुक्मणुत् । इंति वीसर्पकृच्छास्त्रपित्तश्मरिकफानिलान् ॥१३८॥ वेतम, नम्रक, वानीर, वंजुल, अधपुष्प, विदल और रथशीत यह व्यूस (वेतम) के नाम हैं।
वेतस-शीतल है और दाह, शोथ, अर्श, योनिरोग, विसर्प, कृच्छ, रक्त. पित्त, पथरी, कफ और वातका नाश करती है ॥ १३७ ॥ १३८॥
जलवेतसः। निकंचकः परिव्याधो नादेयी जलवेतसः ।
जलजो वेतसः शीतः संग्राही वातकोपनः ॥१३९॥ • निकुंचक, परिव्याध, नादेयी, जल घेतल, जलज यह जलवततके नाम हैं । जलवेतस-शीत, ग्राही पौर वातको बढ़ानेवाली है ॥ १३९ ॥
इज्जलः। इजलो हिज्जलश्चापि निचुलश्चांबुजस्तथा । जलवेतसववेद्यो हिजलोऽयं विषापहः ॥ १४० ॥ इन्जल, हिजल, निचुल और अंबुज यह हिजलक नाम हैं। इसके सब गुण जलवेतस ही हैं। जैसे विशेषशासे यह विषनाशक है॥१४०
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( ११२ ) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
अंकोटः । अंकोटो दीर्घकीलः स्यादंकोलच निकोचकः । अंकोटकः कटुस्तीक्ष्णः स्त्रिग्धोष्णस्तुवरो लघुः १४१ रेचनः कृमिशूलामशोफग्रहविषापहः । विसर्पकफपित्तास्रमूषिका हिविषापहः ॥ १४२ ॥ तत्फलं शीतलं स्वादु श्लेष्मघ्नं बृंहणं गुरु । बल्यं विरेचनं वातपित्तदाहक्षयास्रजित् ॥ १४३ ॥ अंकोट, दीर्घकील, अंकोल, निकोचक यह ढेराके नाम हैं।
देश - कटु, तीक्ष्ण, स्निग्ध, उष्ण, कषाय, हल्का रेचन तथा कृमि; शूल, आम, शोफ, ग्रह, विष, विसर्प, कफ, पित्त, रक्तविकार, चूहे और सांपका विष इनको नष्ट करनेवाला है। इसका फळ- शीतल, स्वादु, कफनाशक, धातुओं को पुष्ट करनेवाला, भारी, बककारक, दस्तावर और वात, पित्त, दाह, क्षय, रक्तविकार इनको जीतनेवाला है ॥ १४१--१४३ ॥
बला, महाबला, अतिबला, नागवला |
बला वाट्यालिका वाट्या सैव वाटचालकापि च । महाबला पीतपुष्पा सहदेवी च सा स्मृता ॥ १४४ ॥ ततोऽन्यातिबला रिष्यप्रोक्ता कंकतिका सहा । गांगेरुकी नागबला झषा ह्रस्वगवेधुका ॥ १४५ ॥ बलाचतुष्टयं शीतं मधुरं बलकांतिकृत् स्निग्धं ग्राहि समीरास्रपित्तास्रक्षतनाशनम् ॥१४६॥ बलामूलत्वचश्चूर्ण पीतं सक्षीरशर्करम् । मूत्रातिसारं हरति दृष्टमेतन्न संशयः ॥ १४७ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( १३ )
हरेन्महाबला कृच्छ्रं भवेद्वातानुलोमनी । हन्यादतिबला मेहं पयसा सितया समम् ॥ १४८ ॥
बला, वाटचालिका, वाट्या, वाटचालका, महाबला, पीतपुष्पा, सहदेवी यह बला और महाबलाके नाम हैं। बलाको अंग्रेजी में Hombeamep Side कहते हैं । प्रतिबला, रिष्यप्रोक्ता, कंकतिका यह अतिबला के नाम हैं । इसे अंग्रेजीमें Indian Mellow कहते हैं । गांगेरुकी, नागबला, झषा, ह्रस्वगवेधुका यह नागबला के नाम हैं।
चारों वला - शीतल, मधुर, बलवर्धक, कांतिवर्धक, स्निग्ध, ग्राही पौर वात, रक्त, पित्त, रक्तविकार, क्षत इनको नष्ट करनेवाली हैं । बलाकी जड़की छालका चूर्ण दूध और शर्कराके साथ खाया हुआ मूत्रकृच्छ्रको दूर करता है इसमें संशय नहीं, दृष्टिसे देखा हुआ है। महाबला मुत्रकृच्छूको नष्ट करती है और वातनाशक है। अतिबला दूध और मिसरीके साथ खाई हुई प्रमेहको नाश करती है । १४४--१४८ ॥
लक्ष्मणा ।
पुत्रकाकाररक्ताल्पबिंदुभिर्लाञ्छिता सदा ।
लक्ष्मणा पुत्रजननी वस्तगन्धाकृतिर्भवेत् ॥ १४९ ॥ कथिता पुत्रदा वश्या लक्ष्मणा मुनिपुङ्गवैः ।
लक्ष्मणाका कन्द पुतलेके आकारवाला होता है, पत्र लाल और छोटी बूदोंसे लांछित होता है । इसकी गंध बकरे के सदृश होती है। लक्ष्मया और पुत्रजननी इसके संस्कृत नाम हैं। मुनि कहते हैं कि लक्ष्मणा श्रवश्य ही पुत्रको देती है । इसके अभाव में सफेद फूल की कटेनीकी जड़का प्रयोग करते हैं ।। १४९ ॥
स्वर्णवल्ली। स्वर्णवी रक्तफला काकायुः काकवल्लरी ॥ १५० ॥ स्वर्णवली शिरःपीडां त्रिदोषं हंति दुग्धदा ।
स्वर्णवल्ली, रक्तफल, काका, काकवल्लरी यह स्वर्णवल्ली के नाम हैं।
Aho! Smrutgyanam
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(११४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। स्वर्नवल्ली-शिरकी पीड़ा और विदोषका नाश करती है, दूधको बढानेवाली है । १५०॥
कार्पासी। कार्पासी तुंडकेशी च समुद्रांता च कथ्यते॥१५॥ कासको लघुः कोष्णो मधुरो वातनाशनः। तत्पलाशं समीरनं रक्तकृन्मूत्रवर्द्धनम् ॥ १५२ ॥ तत्कर्णपिडिकानादपूयास्राव विनाशनम् । तबीजं स्तन्यदं वृष्यं स्निग्धं कफकरं गुरु ॥१५३॥ कापासी, तुण्डकेशी, समुद्राता यह कपालके नाम हैं। कपाम-लघु, किंचित् गरम, मधुर, वातनाशक है । इसके पत्ते वातमाशक रक्त और मूत्रको बढानेवाले और कानकी पीड़ा, कर्णनाद, पीप बहना, इनको बंद करनेवाले हैं। कपासके बीज दूध बढानेवाले, वीर्यवकि, स्निग्ध, कफकारक और भारी हैं ।। १५१-१५३ ।
वंशः। वंशस्वकूसारकरित्वचिसारतृणध्वजाः । शतपर्वा शतफली वेणुमस्करतेजनाः ॥ १५४॥ वंशः सरो हिमः स्वादुः कषायो वस्तिशोधनः । छेदनः कफपित्तनः कुष्ठास्रवणशोथजित् ॥ १५५ ॥ तत्करीरः कटुः पाके रसे रूक्षो गुरुः सरः। कषायः कफकृत्स्वादुर्विदाही वातपित्तलः ॥१५६॥ तद्यवास्तु सरा रूक्षाः कषायाः कटुपाकिनः । वातपित्तकरा उष्णा बद्धमूत्रा-कफापहाः ॥ १५७ ॥ वंश, त्वक्सार, कार, स्वचिसार, तृणध्वज, शवपर्वा, शतफली,वेणु
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( ११५
मस्कर और तेजन यह बांसके नाम हैं। इसे फारसी में कसव और अंग्रेनीमें Bombooeamc कहते हैं ।
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बांस दस्तावर, शीतल, मधुर, कषाय, वस्तिशोधक, छेदन, कफ और वातको नष्ट करनेवाला, कोठ, रक्तविकार, व्रण, शोध इनको जीतनेवाला है । बसका अंकुर - पाक और रसमें कटु, रूक्ष, भारी, दस्तावर, कषाय, कफकारक, मधुर, दाहकारक वात और पित्तको बढानेवाला है । बांसके जौ दस्तावर, रूक्ष, कसैले, पाक में कटु, वातपित्तकारक, उन्न मूत्ररोधक और कफ नाशक हैं । १५४ - १५७ ॥
नलः ।
नलः पोटगलः शुन्यमध्यश्व धमनस्तथा । नलस्तु मधुरस्तिक्तः कषायः कफरक्तजित् ॥ १५८॥
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नल, पोटगल, शून्यमध्य, धमन यह नलके नाम हैं। इसे अंग्रेजीमें Indian Tobaccoo कहते हैं । नल - मधुर, तिक्त, कषाय, कफ और वातनाशक है ॥ १५८ ॥
मुंजः ।
भद्रमुञ्जः शरो बाणस्तेजनश्चक्षुमुण्डनः । मुञ्ज मुआतको बाणः स्थूलदर्भः सुमेखलः ॥ १५९ ॥ मुअद्वयं तु मधुरं तुवरं शिशिरं तथा । दाहतृष्णा विसर्पास्रमूत्रकृच्छ्राक्षिरोगहृत् ॥ १६० ॥ दोषत्रयहरं वृष्यं मेखला सृपयुज्यते ।
भद्रमुंज, शर, बागा, तेजन, चक्षुमण्डन, मुंज, मुंजातक, बाण, स्थूलदर्भ, सुमेखल यह मुञ्जके नाम हैं। दोनों मुंज--मधुर, कषाय, शीतन और दाइ, प्यास, विसर्प, रक्तविकार, मूत्र कृच्छ्र, नेत्ररोग, त्रिदोष ( इनको नष्ट करनेवाली तथा वीर्यवर्धक हैं। मुंज मेखलाओं में प्रयोग की जाती ३ ॥ १५९ ॥ १६० ॥
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( ११६ ) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
काशः ।
काशः कशेक्षुरुद्दिष्टः स स्यादिक्षुरकस्तथा ॥ १६१॥ इक्ष्वालिकेक्षुगंधा च तथा पोटगलः स्मृतः । काशः स्यान्मधुरस्तिक्तः स्वादुपाको हिमःसरः१६२॥ मूत्रकृच्छ्राश्मदाहास्रक्षयपित्ताक्षिरोगजित ।.
काश, काक्षु, इक्षुरस, इक्षुवाळिका, इक्षुगन्धा और पोटगल यह कास के नाम हैं । कास-- मधुर, तिक्त, पात्र में मधुर, शीतल, दस्तावर और मूत्रकृच्छ्र, पथरी, दाह, रक्तविकार, क्षय, पित्त, नेत्ररोग इनको हरनेवाली है ।। १६१ ।। १६२ ।।
गुन्द्रः ।
गुन्द्रः पटेरको गुत्थः शृंगवेराभमूलकः ॥ १६३ ॥ गुंद्रः कषायो मधुरः शिशिरः पित्तरक्तजित् । स्तन्यः शुक्ररजोमूत्रशोधनो मूत्रकृच्छ्रहृत् ॥१६४॥
गुन्द्र, पटेरक, गुत्थ, श्रृंगवेराभमूलक यह गुन्द्रके नाम हैं। गुन्द्र कषाय, मधुर, शीतल, दूध बढानेवाला, वीर्य्य, रज और मूत्रको शुद्ध करनेवाला तथा पिन, रक्तविकार, मूत्रकृच्छ्र इनको नष्ट करनेवाला है ॥ १६३ ॥ १६४ ॥
एरका |
एरका गुंद्रमला च शिवगुंद्रा शरीति च । एरका शिशिरा वृष्या चक्षुष्या वातकोपिनी १६५ ॥ मूत्रकृच्छ्राश्मरीदाहपित्तशोणितनाशिनी ।
परका, गुद्रमूला, शिव गुन्द्रा और शरीति यह एरकाके नाम हैं । एरकाशीयल, वीर्यवर्द्धक, नेत्रोंको हितकर, वातवर्द्धक और मूत्रकृच्छ्र, बधरी, दाह, पित्त तथा रुधिर विकार नाशक a ७ १६५ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. 1
कुशः ।
कुशो दर्भस्तथा बर्हिः सूच्ययो यज्ञभूषणः ॥ १६६ ॥ ततोऽन्यो दीर्घपत्रः स्यात्क्षुरपत्रस्तथैव च । . दर्भद्रयं त्रिदोषघ्नं मधुरं तुवरं हिमम् ॥ १६७ ॥ मूत्रकृछ्राश्मरीतृष्णावस्तिरुक् प्रदरास्रजित् ।
( ११७ )
कुश, दर्भ, बर्हि, सूच्यग्र, यज्ञभूषण यह कुशाके नाम हैं । क्षुरपुत्र भी ऐसी ही है परन्तु लम्बे पत्तोंवाली होती है। दोनों कुशा-त्रिदोषनाशक मधुर, कसैली, शीतल तथा मूत्रकृच्छ्र, पथरी, प्यास, वस्तिरोग और प्रदरको हरनेवाली है ॥ १६६ ॥ १६७ ॥
कतृणम् ।
कत्तृणं रोहिषं देवजग्धं सौगंधिकं तथा ॥ १६८ ॥ भूतीकं व्याम पौरं च श्यामकं धूपगंधिकम् । रोहिषं तुवरं तिक्त कटुपाकं व्यपोहति ॥ १६९ ॥ हृत्कंठव्याधिपित्तास्रशूलकासकफज्वरान् ।
पौर, श्यामक,
कण, रोहिष, देवजग्ध, सौगंधिक, भूतीक, ध्याम, धूपगंधिक यह रोहिषके नाम हैं। रोहिष-कषाय, तिक्त, पाकमें कट्टु तथ हृदयव्याधि, कण्ठव्याधि, पित्त, रक्त विकार, शूल, कास, कफ और वर को नष्ट करता है ॥ १६८ ॥ १६९ ॥
भूस्तृणम् ।
भूतीकं गुह्यबीजं च सुगंधं गोमयप्रियम् ॥ १७० ॥ भूस्तृणं तु भवेच्छत्रा मालातृणकमित्यपि । भूस्तृणं कटुकं तिक्तं तीक्ष्णोष्णं रोचनं लघु ॥ १७१ ॥
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( ११८ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
विदाहि दीपनं रूक्षमनेत्र्यं मुखशोधनम् । अवृष्यं बहुविट्कं च पित्तरक्तप्रदूषणम् ॥ १७२ ॥
भूतीक, गृह्यबीज, सुगंध, गोमयप्रिय, भूस्तृण, छत्रा, मालातृन यह भूतृणके नाम हैं। भूतृण-कटु, तिक्त, तीक्ष्ण, उष्य रेचन, लघु, दाहकारक, दीपन, रूक्ष, नेत्रोंको हितकर, मुखशोधक, वीर्य्यको कम करनेवाला, बहुत विष्ठा निकालनेवाला, पित्त और रक्तको दूषित करनेवाला है ॥ १७० - १७२ ॥
नीलदूर्वा । नीलदूर्वा रुहानंता भार्गवी शतपर्विका । शस्या सहस्रवीर्य्या च शतवल्ली च कीर्तिता ॥१७३॥ नीलदूर्वा हिमा तिक्ता मधुरा तुवरा हरेत् । कफपित्तास्रवीसर्पतृष्णादाहत्वगामयान् ॥ १७४ ॥
नीलदूर्वा, रुहा, अनंता, भार्गवी, शतपविका, शस्या, सहस्रवीर्या और शतवल्ली यह न ली दूबके नाम हैं। नीली दूब-शीतल, मधुर, विक्त, कषाय, और कफ, पित्त, रक्तविकार, वीसर्प, व्यास, दाह तथा त्वचाके रोगोंको नष्ट करनेवाली है ॥ १७३ ॥ १७४ ॥
श्वेतदूर्वा । दूर्वा शुक्का तु गोलोमी शतवीर्य्या च कथ्यते । श्वेतदूर्वा कषाया स्यात्स्वाद्वी व्रण्या च दीपनी १७५ तिक्ता हिमा विसर्पास्त्रतृपित्तकफदाहहृत् ।
श्वेतदूर्वा, गोलोमी, शतवीय यह सफेद दूबके नाम हैं। सफेद दूबकषाय, मधुर, व्रणनाशक, दीपन, तिक्त, शीतल और विसर्प, रक्तविकार, प्यास, पित्त, कफ औौर दाहको नष्ट करनेवाली है ।। १७५ १
गंडदूर्वा । गंडदूर्वा तु गंडीरी मत्स्याक्षी शकुलादनी ॥१७६॥ गडदूर्वा हिमा लोहद्रावण ग्राहणी लघुः ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( ११९ )
तिक्ता कषाया मधुरा वातकृत्कटुपाकिनी ॥ १७७॥৷ दाहतृष्णाबला सारुकुष्ठपित्तज्वरापहा ॥
गंडदूर्वा, गंडीरी, मत्स्याक्षी, शकुलादनी यह दूवकेि नाम हैं । गंडदूर्वा-शीतल, लोहा यादि धातुओंको द्रवित करनेवाली, ग्राही, हल्की, तिक्त, कषाय, मधुर, वातकारक, कटुपाकी तथा दाइ, प्यास, कफ, रक्तविकार, कोढ़, पित्त और ज्वरका नाश करनेवाली है ॥ १७६ ॥ १७७ ॥
विदारीकन्दः । वाराही कंदः ।
वाराहीकंद एवान्यश्चर्मकारालुको मतः ॥ १७८ ॥ अनूपे स भवेद्देशे वाराह इव लोमवान् । विदारी स्वादुकंदा चसातु क्रोष्ट्री सिता मता ॥ १७९ ॥ इक्षुगंधा क्षीरवली क्षीरशुक्का पयस्विनी । वाराही वरदा वृष्टिर्वदरेत्यभिधीयते ॥ १८० ॥ विदारी मधुरा स्निग्धा बृंहणी स्तन्यशुक्रदा । शीता स्वर्य्या मूत्रलाच जीवनी बलवर्णदा ॥ १८१॥ गुरुः पितास्रपवनदाहान्हंति रसायनी ।
वाराहीकन्दको भेषरबन्द भी कहते हैं। वाराहीकन्दकी सजल देशमें होनेवाली एक जातीको चर्मकारालु भावमिश्र मानते हैं, परन्तु कालकाके समीप पहाड़ोंपर जो भेवरकन्द है वही वाराहीकंद है । यह सूअर जैसे रोमवाला कन्द होता है । विदारी, स्वादुकंश, क्रोष्ट्री, सिता, इक्षुगंधा, क्षीरवल्ली, क्षीरशुक्ला, पयस्विनी यह विदारीकन्दके नाम हैं। शिमले के पहाड़ पर इसको सराली कहते हैं। वाराही, वरदा, घृष्टि, वरद यह भी वाराहीकन्द के नाम हैं । विदारीकन्द-मधुर, स्निग्ध, बृंहण, वीर्यवर्द्धक, शीतल, स्वरकारक, मूत्रबद्धक, जीवन देनेवाला, बल और वर्ण बढ़ाने वाला, भारी, रसायन तथा पित्त, रक्तविकार, वात और दाहको नष्ट करनेवाला है ॥ १७८--१८१ ॥
Aho ! Shrutgyanam
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
मूली ।
तालमूली तु विद्वद्भिर्मुषली परिकीर्तिता ॥ १८२॥ मूषली मधुरा वृष्या वीय्यष्णा बृंहणी गुरुः । तिक्ता रसायनी इंति गुदजाननिलं तथा ॥ १८३॥
( १२० )
तालमूली और मुसली यह मुसलीके नाम हैं । मुसली - मधुर, वीर्यवर्द्धक, उष्णवीर्य, बृंहणी, भारी, तिक, रसायन, बवासीरको हरनेवाली तथा वातनाशक है ॥। १८२ ॥ १८३ ॥ .
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शतावरी ।
शतावरी बहुसुता भीरुरिन्दीवरी वरी ।
नारायणी शतपदी शतवीर्य्या च पीवरी ॥ १८४ ॥ महाशतावरी चान्या शतमूल्यूर्ध्वकंटिका । सहस्रवीर्य्या हेतुश्च रिष्यप्रोक्ता महोदरी ॥ १८५ ॥ शतावरी गुरुः शीता तिक्ता स्वाद्वी रसायनी । मेधामिपुष्टिदा स्निग्धा नेत्र्या गुल्मातिसारजित् १८६ शुक्रस्तन्यकरी बल्या वातपित्तास्रशोथजित् । महाशतावरी मेध्या हृद्या वृष्या रसायनी ॥ १८७॥ शीतवीर्या नित्यर्शो ग्रहणीनयनामयान् ।
शतावरी, बहुसृता, भीरु, इन्दीवरी, वरी, नारायणी, शतपदी, शतवीय पीवरी यह शतावरीके नाम हैं । महाशतावरी, शतावरी, ऊर्ध्वकंटिका, सहस्रवीय, हेतु, रिष्यप्रोक्ता, महोदरी यह बड़ी शतावरीके नाम हैं । शतावरी भारी, शीतल, तिक्त, मधुर, रसायन, बुद्धिवर्द्धक, प्रनिवर्द्धक, स्त्रिग्ध नेत्रोंको हितकर, गुल्म और प्रतिसारको जीतनेवाली, वीर्य्य तथा दुग्ध वक, बलकारक, वात, पित्त, रक्त विकार और शोधको नष्ट करनेवाली है
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( १२१ )
शतावरी बुद्धिवर्धक, हृदयको प्रिय, वीर्यवर्धक, रसायन, शीतवीर्य और अर्श, ग्रहणी, नेत्र रोग इनको नष्ट करनेवाली है ।। १८४-१८७ ॥
अंकुरः । तदंकुर स्त्रिदोषघ्नो लघुरशः क्षयापहः ॥ १८८ ॥
इसका अंकुर - त्रिदोषनाशक, दत्तका, अर्श और क्षयको नाश करनेबाला है || १८८ ॥
अश्वगन्धा ।
गन्धांता वाजिनामा दिरश्वगंधा दयाह्वया । वाराहकर्णी वरदा बलदा कुष्ठगंधिनी ॥ १८९ ॥ अश्वगंधानिलश्लेष्मश्वित्रशोथक्षयापदा ।
बल्या रसायनी तिक्ता कषायोष्णा तिशुक्रला ॥ १९०॥
गंधांता, वाजिगंधा, अश्वगंधा, हयाहया, वाराहकर्णी, तरदा, वलदा, कुष्ठगंधिनी यह असगन्ध के नाम हैं। इसको फारसी में मेहेमन वररी और अंग्रेजी में Winter Chery कहते हैं। अलगन्ध-बलकारक, रसायन, तिक्त, कषाय, उष्ण, अत्यन्त वीर्यवर्धक और वात, कफ, श्वित्र, शोथ, क्षय इनको नष्ट करनेवाला है ॥ १८९ ॥ १९० ॥
पाठा ।
पाठांबष्ठांबष्ठकी च प्राचीना पापचेलिका ।
एकाष्ठीला रसा प्रोक्ता पाठिका वरतिक्तिका ॥ १९१॥ पाठोष्णा कटुका तीक्ष्णा वातश्लेष्महरी लघुः । इंति शूलज्वरच्छर्दिकुष्ठातीसारहदुजः ॥ १९२ ॥ दाहकंडु विषश्वासकृमिगुल्मगरवणान् ।
पाठा, अंबष्ठा, अंबष्ठकी, प्राचीना, पापचेलिका, एकाष्टीला, रसा, पाठिका वरतिक्तिका यह पाढके नाम हैं। पाट-उष्णा, कडु,
वीक्ष्ण, वात
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( १२२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । पौर कफ नाशक, हल्की तथा शूल, ज्वर, वमन, कुष, अतिसार, हृदयके रोग, दाह, खुजली, विष, श्याप्त, कृमि, गुल्म और विषके व्रणको नष्ट करता है ॥ १९१ ॥ १९२ ॥
श्वेता निशोथा। श्वेता त्रिवृत्रिभण्डी स्यात्रिवृता त्रिपुटापि च॥१९३॥ सर्वानुभूतिः सरलो निशोथो रेचनीति च । श्वेता त्रिवृद्रेचनी स्यात्स्वादुरुष्णा समीरहृत् १९४ रूक्षा पित्तज्वरश्लेष्मपित्तशोथोदरापहा। श्वेता, विवृत्, त्रिभण्डी, त्रिवृता, त्रिपुटा, सर्वानुभूति, सरल, निशोथ, रेचनी यह निसोतके नाम हैं। इसे अंग्रेजीमें Turbitn root कहते हैं। सफेद निखोत रेचनी, मधुर, उग्ण, वातनाशक, रूखी तथा पिस, ज्वर, कफ, शोथ और उदररोगको नष्ट करती है ॥ १९३ ॥ १९४ ॥
श्यामात्रिवृत् । त्रिवृच्छयामार्द्धचन्द्रा चपालिंदी च सुषेणिका१९५ श्यामा त्रिवृत्ततो हीनगुणा तीव्र विरेचनी ।
मच्छींदाहमदभ्रांतिकण्ठोत्कर्षणकारिणी ॥ १९६॥ विवृत, श्यामा, अधचन्द्रा, पालिन्दी, सुषेणिका यह कालीनिखोतके नाम हैं । कालीनिलोत उससे गुणमें कुछ हीन है । परन्तु बिरेचन करानेमें तीव्र है। मादाह, मद, भ्रम और कण्ठका खिचना, अधिक सेवनसे इन उपद्रवोंको करती है ॥ १९५ ॥ १९६ ॥
लध्वीदन्ती च बृहद्दन्ती ।। लघ्वी दन्ती विशल्या च स्यादुदुंबरपर्ण्यपि। तथैरंडफला शीघ्रा श्येनघण्टा घुणप्रिया ॥ १९७ ॥ वाराहांगी च कथिता निकुंभश्च मुकूलकः।
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दंदन और राहांगी, निकुंभ, वरपणी, परंडा
हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१२३) द्रवंती शंबरी चित्रा प्रत्यक्पाखुपय॑पि ॥१९८॥ चित्रोपचित्रा न्यग्रोधी सुतश्रेणी तथा वृषा। दंतीद्वयं सरं पाके रसे च कटु दीपनम् ॥ १९९ ॥ गुदांकुराश्मशूलाश कंडुकुष्ठविदाहनुत । तीक्ष्णोष्णं हंतिपित्तास्त्रकफशोथोदरक्रिमीन॥२०॥ लवी, दन्ती, विशल्या, उदुम्बरपर्णी, एरंडफला, शीघ्रा, श्येनघण्टा, गुणप्रिया, वाराहांगी, निकुंभ, मुकूलक यह लघुदन्तीके नाम हैं। इसको दंदन और तिरीफल भी कहते हैं। अंग्रेजी में इसे Croton Seed और फारसीमें बंद कहते हैं।
द्रवन्ती, शंधरी, चित्रा, प्रत्यकपर्णी, आखुपर्णी, चित्रोपचित्रा, न्यग्रोधी, सुतश्रणी और वृषा यह बडी दन्ती के नाम हैं। इसे फारसीमें शकारहुजुर और अंग्रेजीमें Physician nnt कहते हैं। दोनों प्रकारकी दन्ती-दस्वावर, पाक और रसमें कटु तथा दीपन है । बवासीर, पथरी, शूल, गुदाकी खुजली, कुष्ठ और दाहको नष्ट करनेवाली है। तीक्षण और उष्ण है। पित्त, रक्त, कफ, सूजन, उदररोग और कृमियोंको दूर करती है ॥ १९७-२००॥
.. लघुदन्तीफलं बृहदंतीफलम् । क्षुद्रदन्तीफलं तु स्यान्मधुरं रसपाकयोः । शीतलं सृष्टविण्मूत्रं गरशोथकफापहम् ॥ २०१॥ जयपालो दंतिबीजं विख्यातं तितिणीफलम् । जयपालो गुरुः स्निग्धो रेचनः कफपित्तहा॥२०२॥ छोटी दन्तीके फल-पाक और रसमें मधुर हैं, शीतल, मलमूत्रको निकालनेवाले हैं । विषविकार, सूजन पौर कफको हरनेवाले हैं। बढी दन्तीके फल-जयपाल, दन्तीबीज, तितणीफल और जमानगोटेके नामसे प्रसिद्ध हैं। जमालगोटा-भारी, चिकना, तीक्ष्ण, विरेचनकता पित्त और कफको हरनेवाला है । २०१॥ ३०॥
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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी.
ऐंद्रवारुणी । raigarरुण चित्रा गवाक्षी च गवादनी । वारुणी च परा शुक्का सा विशाला महाफला २०३ ॥ श्वेतपुष्पा मृगाक्षी च मृगैवरुर्मृगादनी ॥ गवादनीद्वयं तिक्तं पाके कटु सरं लघु ॥ २०४ ॥ वीय्र्योष्णं कामला पित्तकफ प्लीहोदरापहम् । श्वासकासापहं कुष्ठमुल्मथित्रणप्रणुत् ॥ २०५ ॥ प्रमेह मूढगर्भामगंडामय विषापहम् ।
( १२४ )
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ऍद्री, इन्द्रवारुणी, चित्रा, गवाक्षी, गवादनी, वारुणी यह इन्द्रायण के नाम हैं। दूसरी इन्द्रायण शुक्ला, विशाला, महाफला, श्वेतपुष्पा, मृगाक्षी, मृगा, एवfरु और मृगादनी इन नामोंवाली है। दोनों प्रकारकी, इंद्रायण पाकमें तिक्त, कटु, दस्तावर दल्की, उष्णवीर्य है तथा कामला, पिस, कफ, तिल्ली, उदर रोग, श्वास, काल, कोट, गुल्म, ग्रंथिरोग, व्रण, प्रमेह, मूढगर्भ, ग्रामविकार, गंडमाला और विषविकारको दूर करनेवाली है। इसे फारसी में खुरियाजा तलख और अंग्रेजीमें Clocynth कहते
॥ २०३ - २०५ ॥
नीली ।
नीली तु नीलिनी तृणी काला दोला च नीलिका २०६ रञ्जनी श्रीफली तुत्था ग्रामीणा मधुपर्णिका । कीतिका कालकेशी च नीलपुष्पा च सा स्मृता २०७ नीलनी रेचनी तिक्ता केश्या मोहभ्रमापहा । उष्णा इंत्युदर प्लीहवातरक्तकफानिलान् ॥ २०८ ॥ आमवातमुदावर्ते मदं च विषमुद्धतम् ।
नीली, नीलिनी, तूणी, काळा, दोला, नीलिका, रञ्जनी, श्रीफली स्तुत्था, मीणा, मधुपर्णिका, क्लीतिका, कालकेशी और नीलपुष्पा यह नीलिनीके नाम हैं। हिन्दी में इसे कालादाना या काह कि । कहते हैं। काला
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( १२५ ) दाना रेचक, तिक्त, केशोंको बढानेवाला, मोह और भ्रमको हरनेवाला बौर उष्ण है । तथा उदररोग, प्लीहा, वातरक्त, कफ, वायु, आमवात, उदावर्त, मद और बढे हुए विषविकार को दूर करता है । २०६ - २०८ ॥
शरपुंखा । शरपुंखा प्लीहशत्रुर्नीलवृक्षाकृतिश्च सा ॥ २०९ ॥ शरपुंखा यकृत प्लीहगुल्मत्रण विषापहा । तिक्तः कषायः कासास्रश्वासज्वरहरो लघुः ॥२१० ॥
शरखा, प्लीहशत्रु, नीलवृक्षाकृति यह सरपुंखाके नाम हैं। हिंदीमें इसे सरफों का कहते हैं । अंग्रेजीमें Purpose Tebhrosia कहते हैं । सरपुंखा - यकृत, प्लीहा, गुल्म, व्रण और विषको हरनेवाली है तथा तिक्त और कषाय है । एवं कास, रक्तविकार, श्वास, ज्वरको हरनेवाली है मोर हल्की है ॥ ३०९ ॥ २१० ॥
वृद्धदारकः ।
वृद्धदारक आवेगी छत्रांगी रिष्यगंधिका । वृद्धदारः कषायोष्णः कटुस्तिक्तो रसायनः ॥ २१६ ॥ वृष्यो वातामवातार्शःशोथमेहकफप्रणुत । शुकायुर्बलमेवाभिस्वरकांतिकरः सरः ॥ २१२ ॥
वृद्धदारक, आवेगी, छत्रांगी, रिष्यगंधिका यह वृद्धदारुके नाम हैं हिन्दी में इसे विधायरा कहते हैं। शिमला प्रान्तमें इसे बुड्ढनकी बेल कहते हैं । बिधायरा- कषाय, उष्ण, कटु, तिक्त, रसायन, बीर्यवर्धक, वातनाशक और आमवात, अर्श, सूजन, प्रमेह प्रौर कफको नाश करता है । तथा बीर्य, आयु, बल, बुद्धि, जठराग्नि, स्वर और कान्तिको बढ़ानेवाला और दस्तावर है || २११ ॥ २१२wanam
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( १२६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
यबास दुरालभा। यासो यवासो दुःस्पर्शो धन्वयासः कुनाशकः । दुरालभा दुरालंभा समुद्रांता च रोदनी ॥ २१३ ॥ गांधारी कच्छुरानंता कषाया दुरभा ग्रहा। यासः स्वादुः सरस्तिक्तस्तुवरः शीतलो लघुः२१४॥ कफमेदोमदभ्रांतिपित्तास्रकुष्ठकासजित् । तृष्णा विसर्पवातास्रवमिज्वरहरः स्मृतः ॥२१॥
यवासस्य गुणैस्तुल्या बुधैरुक्ता दुरालभा। • यास, यवास, दुस्पर्श, धन्वयास, कुनाशक, दुरालभा, दुरालंभा समुद्रांता, रोदनी, गान्धारी, कच्छुरा, अनंता, कषाया,दुरभा और ग्रहा यह जवासेके नाम हैं। जवासा-मधुर, दस्तावर, तिक्त, कसला,शीतन
और हल्का है। तथा कफ, मेद, मद, भ्रम, पित्त, रक्त, कुष्ठ, खांसी, प्यास, विसर्प, वातरक्त, वमन, ज्वर इनको हरनेवाला हैं । जवासा,
और दुरालभा एक जातिके क्षुप हैं। अम्बाला जिलामें जवासा और झासाके नामसे बहुत मिलता है ॥२१३-२१५ ॥ .
मुण्डा । मुंडी भिक्षुरपि प्रोक्ता श्रावणी च तपोधना॥२१६॥ श्रावणाह्वा मुण्डितिका तथा श्रावणशीर्षिका।। महाश्रावणिका त्वन्या सा स्मृता भूकदंबिका २१७ कदंबपुष्पिका च स्यादव्यथातितपस्विनी । मुण्डितिका कटुः पाके वीर्योष्णा मधुरा लघुः२१८ मेध्या गंडापचीकुष्ठकृमियोन्यतिपांडुनु ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१२७) श्लीपदारुच्यपस्मारप्लीहमेदोगुदातिहत् ॥ २१९ ॥ महामुंडी च तुल्या हि गुगैरुता महर्षिभिः । मुण्डी, भिक्षु, श्रावणी, तपोधना, श्रावणाहा, मुण्डितिका, श्रवणशी पिका यह गोरखमुण्डीके नाम हैं। दूसरी मुण्डी महाश्रावणी, भूकदंविका. कदंवपुष्पिका अव्यथा, अतितपस्विनी इन नामों वाली है। दोनों प्रकारकी मुंडियां पाकमें कटु, वीर्य में उष्ण, मधुर, हलकी, बुद्धिवर्द्धक तथा गंड; अपची, कुष्ठ, कृमि, योनिरोग, पांडु, श्लीपद, अरुचि, अपस्मार, प्लीहा, मेद और बवासीर इनको दूर करती है । मुंडो और महामुंडी गुणोंमें एक जैसी है ॥ २१६--२१९ ॥
____ अपामार्गः। अपामार्गस्तु शिखरी ह्यधःशल्यो मयूरकः । मर्कटी दुग्रहा चापि किणही खरमंजरी ॥२२० ॥
अपामार्गः सरस्तीक्ष्णो दीपनस्तितकः कटुः। पाचनो नावनश्छर्दिकफमेदोऽनिलापहः ॥२२१ ॥ निहंति गुजाध्मानाशः कण्डुशूलोदरापचीः । अपामार्ग, शिखरी, अधःशल्य, मयूरक, मर्कटी, दुर्ग्रहा, किणही और खरमंजरी यह अपामार्गके नाम हैं । हिंदीमें इसे पुठकंडा और प्राधा. मारा कहते हैं । अपामार्ग-दस्तापर, तीक्ष्ण, दीपन, कढ़, पाचन तथा बीक, वमन, कफ, मेद, वायु, हृद्रोग, अफारा, अश, खुजली, शूल, उदर रोग और अपचीको दूर करता है ॥ २२० ॥ २२१ ॥
रक्तापामार्गः। रक्तोऽन्यो वशिरो वृन्तफलो धामागवोऽपि च २२२ प्रत्यकपर्णी केशपर्णी कथिता कपिपिप्पला। अपामार्गोऽरुणो वातविष्टंभी कफहद्धिमः ॥२२३॥
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( १२८) भातप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । रूक्षः पूर्वगुणैन्यूनः कथितो गुणवेदिभिः। अपामार्गफलं स्वादु रसे पाके च दुर्जरम् ॥२२॥ विष्टंभि वातलं रूक्षं रक्तपित्तप्रसादनम् । रक्तअपामार्ग, वशिर, वृन्तफल, धामार्गव, प्रत्यकूपर्णी, केशपर्णी और कपिपिप्पला यह लाल अपामार्गके नाम हैं। लाल अपामार्ग--वायुकारक, विष्टभकारक, कफनाशक, शीतल, क्ष पौर अपामार्गसे गुणोंमें हीन है।
अपामार्गके फल-रसमें स्वादु, पाकम दुर्जर, विष्टभी, वातकारक,रूखे, रक्त और पित्तको प्रसन्न करनेवाले हैं ॥ २२२-२२४ ॥
__ कोकिलाक्षः। कोकिलावस्तु काकेक्षुरिक्षुरः क्षुरिकः क्षुरः ॥२२५॥ भिक्षः कांडेक्षरप्युक्त इक्षुगन्धेक्षवालिका। क्षुरिकः शीतलो वृष्यास्वाद्वम्लपिच्छलस्तथा २२६ तितो वातामशोथाश्मतृष्णादृष्टयनिलास्रजित् । कोकिलाक्ष, काकेक्षु, इक्षुर, क्षुरिक, भुर, भिक्षु, काण्डेच, इक्षुगन्धा और क्षुवालिका यह कोकिलाक्षके नाम हैं। हिंदी भाषामें इसे तालमखाना कहते हैं। तालमखाना--शीतल, वीर्यवर्धक, मधुर अम्म, पिच्छल और तिक्त है। तथा यु, आम, शोथ, पथरी, प्यास, दृष्टिदोष, वात पौर रक्तविकारको जीतनेवाला है ॥ २२५ ॥ २२६ ॥
अस्थिसंहारी। ग्रंथिमानस्थिसंहारी वज्रांगी चास्थिशृङ्खला २२७
अस्थिसंहारिकः प्रोक्तो वातश्लेष्महरोऽस्थियुक् । उष्णः सरः कृमिघ्नश्च दुर्नामा चाक्षिरोगहत्॥२२८॥ लक्षः स्वादुर्लघुर्वृष्यः पाचनः पित्तलः स्मृतः।
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'हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१२९) भिषग्वरैर्यथानाम फलञ्चापि प्रकीर्तितम् ॥ २२९॥ कांडं त्वविरहितमस्थिशृंखलाया, माषा द्विदलमकंचुकं तदर्दम् । संपिष्टं तदनु ततस्तिलस्य तैले, . संपकं वटकमतीव वानहारि ॥ २३० ॥ ग्रोथमान, अस्थिसंहारी, वज्रांगी, अस्थिशृङ्खना यह पस्थिसंहारीके नाम हैं। हिन्दीमें इसे हडजोरी कहते हैं। अस्थिसंहारी--वात, कफनाशक, हडूडीको जोडनेवाली, गरम, दस्तावर, कृमिघ्र, अर्शनाशक, नेत्ररोगहर, रूक्ष, मधुर, हलकी, वीर्यधिक, पाचन और पित्तकारक है वद्योंने इसके नामके माफिक ही इसके फलको भी कथन किया है। अस्थिसंहारीका त्वचारहिन कांड लेकर उससे पाधी हिल्का रहित उडदकी दान लेकर दोनोंको बारीक पील टिकिया बगकर तिलोके तेलमें पकावे, यह सम्पूर्ण वातविकारोंको दूर करती है ।। २२७--२३० ।।
महाजालनी। महाजालनिका चर्मरंगः स्यात्रीलपुष्पिका । आवर्तकी तिदुकिनी विभांडी रक्तपुष्पिका ॥२३॥ महाजालनिका तिता रेचनी कफपित्तजित् । हंति दाहोदरानाहशोफकुष्ठकफज्वरान् ॥ २३२ ॥ महाजाननिका, चर्मरंग, नलिपुष्पिका, आवर्तकी, ति दुकिनी, विभांडी और रक्तपुष्पिका, यह जंगली कड़वी तुरईके नाम हैं। महाजालनी-- विक्त, दस्तावर, कफ पिन, दाह, उदारोग, अफारा, सूजन, कुष्ठ, कफ और ज्वरको हरनेवाली है।। २३१ ॥ २३२ ।।
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
कुमारी ।
कुमारी गृहकन्या च कन्या घृतकुमारिका । कुमारी भेदनी शीता तिक्ता नेत्र्या रसायनी ॥ २३३॥ मधुरा वृंहणी बल्या वृष्या वातविषप्रणुत् । गुल्म प्लीहय कृवृद्धिकफज्वरहरी भवेत् ॥ २३४ ॥ ग्रन्थ्यग्निदग्ध विस्फोटपीतरक्तत्वगामयान् ।
( १३० )
कुमारी, गृहकन्या, कन्या, घृतकुमारिका यह घीकुमार या घुमार पट्टे नाम हैं। घोकुमार दस्तावर, शीतल, तिक्त, नेत्रोंको हितकर, रसायन, मधुर, वृंहण, बलकारक और वीर्यवर्धक है। तथा वात, विषविकार, गुल्म, प्लीहा, यकृत, अण्डवृद्धि, कफ, ज्वर, ग्रंथि, अग्निदग्ध, विस्फोटक, कामला, रक्तविकार और त्वचाके विकारोंको दूर करता हैं । इसे फारसीमें दरख्ते सिन्न और अंग्रेजीमें Barhadses aloes कहते * ॥ २३३ ॥ २३४ ॥
श्वेतपुनर्नवा | पुनर्नवा श्वेतमूला शोथघ्नी दीर्घपत्रिका ॥ २३५ ॥ कटुः कषायानुरसा पांडुघ्नी दीपनी सरा । शोफा निलगरश्लेष्महरी व्रण्योदरप्रणुत् ॥ २३६ ॥
पुनर्नवा, श्वेतमूल्या. शोथनी, दीर्घपत्रिका यह श्वेतपुनर्नवा के नाम हैं । हिन्दी में साठी, इखिट और बिलखपरा कहते हैं। इसे अंग्रेजी में Spreading Hagweed कहते है। श्वेतपुनर्नवा कटु कषायानुरस है तथा दस्तावर, दीपन, पांडुनाशक एवं सुजन, वायु, विषविकार, कफ, ण और उदररोगको दूर करती है ।। २३५ ।। २३६ ।।
रक्तपुनर्नवा |
पुनर्नवापरा रक्ता रक्तपुष्पा शिवाटिका । शोथनी क्षुद्रवर्षाभूवृषकेतुः कठिलिका ॥ २३७ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१३१) पुनर्नवारुणा तिक्ता कटुपाका हिमा लघुः । वातला ग्राहिणी श्लेष्मपित्तरक्त विनाशिनी॥२३८॥ रक्तपुजनवा, रक्ता, रक्तपुमा, शिवाटिका, शोथनी, वर्षाभू, वृष बेतु, कठिल्लि का यह लालपुनर्नवाके नाम हैं। लानपुनर्नवा--तिक्त, कटुपाकी, शीतल, हलकी, वातकारक, मलरोधक तथा कफ, पित्त और रक्तधिकारको दूर करती है ॥ ३३७ ।। २३८ ॥
एलायकः । एलायकः कृष्णबोलः कुमारी सारतोद्भवः । · कृष्णबोलः कटुः शीतो भेदको रसशोधकः।
शूलाध्मानकर्फ वातं कृमिगुल्मौ च नाशयेत्।।२३९॥ एलायक, कृष्णवोल, कुमारी, सारतोद्भव यह एलवेके नाम हैं । एलचाकटु, शीतल, दस्तावर, रसशोधक, शूल, आध्मान, कफ, वात, कृमि
और गुल्मरोगको नाश करता है । इसे अंग्रेजीमें Socotrin Aloes कहते हैं ॥ २३९ ॥
प्रसारणी। प्रसारणी राजबाला भद्रपर्णी प्रतानिनी ।। २४० ॥ सरणी सारणी भद्रबला चापि कटंभरा। प्रसारणी गुरुर्वृष्या बलसंधानकृत्सरा ॥२४॥ वीर्योष्णा वातहत्तिक्ता वातरक्तकफापहा । प्रसारणी, राजवला, भद्रपर्णी, प्रतानिनी, सरणी, सारिणी, भद्रवना पौर कटभरा यह प्रसारिणीके नाम हैं। हिन्दीमें खीप या पसरन और चन्द्रवेल कहते हैं । प्रतारणो--भारी, वीर्यवर्द्धक, बनकारक, सन्धानकारक, दस्ताघर, उष्णवीर्य, वातनाशक, तिक्त, वातरक्त और कफको करनेवाली है ॥ २४० ।। २४१ ॥
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( १३२ ) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
कृष्णसारिखा ।
कृष्णा तु सारिवा श्यामा गोपीगोपवधूश्व सा२४२ चवला सारिवा गोपी गोपकन्या च शारदी | स्फोटाश्यामागोपवलीलतास्फोताचचंदना ॥ २४३॥
कृष्णसारिवा, श्यामा, गोपी, गोपवधू और कृष्णा यह काले शारिवाके नाम हैं। धरना, सारिश, गोपी, गोपकन्या, शारदी, स्फोटा, श्यामा, गोपवल्ली, लता, स्फोता और चन्दना यह श्वेतशारिवाके नाम हैं । इसको हिन्दी में पनन्तमूल,
कहते हैं । शिमला प्रान्त में दुधलीकी बेल कहते हैं २४२ ॥ २४३ ॥
सारिवा ।
सारिवायुगलं स्वादु स्निग्धं शुक्रकरं गुरु । अग्निमांद्यारुचिश्वासकासामविषनाशनम् २४४ ॥ दोषत्रयाखप्रदरज्वरातीसारनाशनम् ।
दोनों प्रकारका सारिवा स्वादु, स्निग्ध, वीर्यवर्धक, भारी है तथा अग्निमांद्य, अरुचि, श्वास, कास, आम, विष, त्रिदोष, रक्त, प्रदर, ज्वर और अतिसारको नष्ट करता है ॥ २४४ ॥
भृंगराजः ।
भृंगराजो भृंगरजो मार्कवो भृंग एव च ॥ २४९ ॥ अंगारकः केशराजो भृङ्गारः केशरञ्जनः । भृङ्गारः कटुकस्तिको रूक्षोष्णः कफवातनुत् ॥ २४६ ॥ केश्यस्त्वच्यः कृमिश्वासकासशोथामपांडुनुत् । दंत्यो रसायनो बल्यः कुष्ठनेत्रशिरोर्तिनुत् ॥ २४७॥
भृङ्गराज, भृंगराज, मार्कव, भृङ्ग, अंगारक, केशराज, भंगार और
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१३३) केशरंजन यह भांगरेके नाम हैं। भांगरा-कटु, तिक्त, रूक्ष, उष्ण, कफवा तनाशक, केशवर्द्धक, त्वचाको हितकारी तथा कृमि, श्वास, कास, शोष, पाम, पाण्डु, कुष्ठ,नेत्र और शिरके विकारोको दूर करता है। दांतोंके लिये हितकारी, रसायन और बलवर्द्धक है। इसे फारसीमें जमदर, अंग्रेजीमें Traling Ebipat कहते हैं ॥ २४५-२४७ ॥
शणपुष्पी। शणपुष्पी स्मृता घंटारवा शणसमाकृतिः। शणपुष्पी कटु तक्ता वामनी कफपित्तजित्॥२४८॥ शणपुष्पी, घण्टारवा, शणसमाकृति यह शणपुष्पीके नाम हैं। शणपुष्पी-कटु, तिक्त, वमनकारक और कफ पित्तको जीतनेवाली है। इसको हिन्दीमें वनछुनछुना, फारसीमें लादना अंग्रेजीमें Flax Hemg कहते हैं ॥ २४८॥
त्रायमाणा। बलभद्रा त्रायमाणा त्रायंती गिरिसानुजा। त्रायंती तुवरा तिता सरा पित्तकफापहा ॥ २४९ ॥ ज्वरहृद्रोगगुल्मार्शोभ्रमशूलविषप्रणुत् । बलभद्रा, त्रायमाणा, वायंती और गिरिसानुजा यह त्रायमाणके नाम हैं। वायमाण-कसैली, तिक्त, दस्तावर, पित-कफनाशक तथा ज्वर, हृद्रोग, गुल्म, अर्श, भ्रम, शूल और विषविकारको दूर करती है॥२४९॥
मूर्वा मूर्वा मधुरसा देवी मोरटा तेजनी खुवा ॥ २५० ॥ मधूलिका मधुश्रेणी गोकर्णी पीलुपर्ण्यपि । मूर्वा सरा गुरुः स्वादुस्तितापित्तास्रमेहनुत्॥२५॥ त्रिदोषतृष्णाहृद्रोगकंडुकुष्ठज्वरापहा । मूर्वा, मधुरसा, देवी, मोरटा, तेजनी, सुवा, मधूलिका, मधुश्रेणी, गोकर्णी, पीलुपर्णी यह मूर्वा के नाम है। भू-दस्तावर, भारी, स्वादु,
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( १३४ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
तिक्त तथा पित्त, रक्त, प्रमेह, त्रिदोष, प्यास, हृद्रोग, कण्डु, कुष्ठ और बरके हरनेवाली है ।। २५० ।। २५१ ।।
काकमाची ।
काकमाची ध्वांक्षमाची काकाह्वा चैव वायसी २५२ काकमाची त्रिदोषघ्नी त्रिग्धोष्णा स्वरशुक्रदा । तिक्ता रसायनी शोथ कुष्टाशज्वरमेहजित् ॥ २५३ ॥ कटुहिता हिक्काछर्दिहृद्रोगनाशनी ।
काकमाची, ध्वांक्षमाची, काकाह्वा, वायसी यह काकमाचीके नाम हैं। हिन्दी में इसे मकोह कहते हैं। काकमाची त्रिदोषनाशक, स्निग्ध, उष्णा, स्वरवर्द्धक, वीर्य्यप्रद, तिक्त और रसायन है। तथा शोथ, कु.ष्ठ, अर्श, ज्वर, प्रमेह, हिचकी, छर्दी और हृद्रोगको दूर करती है। तथा कटु और नेत्रोंको हितकारी है ।। २५२ ।। २५३ ।।
काकनासा ।
काकनासा तुकाकांगी काकतुंडफला च सा ॥२५४॥ काकनासा कषायोष्णा कटुका रसपाकयोः । कफघ्नी वामनी तिक्ता शोथार्शः श्वित्रकुष्ठहृत्॥२५५॥
काकनासा, काकांगी, काकतुण्डफला यह काकनासाके नाम हैं हिन्दी में इसे कव्वाडोडी कहते हैं। काकनासा- कषाय, उष्ण, रस पाक में कटु, कफनाशक, वमनकारक, तिक्त तथा शोथ, अर्थ और चित्रकुष्ठको नाश करनेवाली है ।। २५४ ॥ २५५ ॥
काकजंघा |
काकजंघा नदीकांता काकतिक्ता सुलोमशा । पारावतपदी दासी काका चापि प्रकीर्तिता ॥ २५६॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टा.। (१३५) काकजंघा हिमा तिक्ता कषाया कफपित्तजित । निहंति ज्वरकुष्ठास्रक्रिमिकंडुविषप्रणुत् ॥२५७ ॥
काकजया, नदीकांता. काकतिक्ता,लोमशा,पारावतपदी, दासी और काका यह काजंघाके नाम हैं। काकजंघा-शीतल, तिक्त, कषाय, कफ, पित्तको जीतनेवाली तथा ज्वर, कुष्ठ, रक्तविकार, कृमि, कण्डू और विषको दूर करती है ॥ २५६ ॥ २५७ ।।
नागपुष्पी।
नागपुष्पी श्वेतपुष्पा नागरी रामदूतिका । नागरी रोचनी तिक्ता तीक्ष्णोष्णा कफपित्तनुत२५८ विनिहंति विषं शूलं योनिदोषवमिक्रिमीन् । नागपुष्पी, श्वेतपुष्पा, नागरी, रामदूतिका यह नागपुष्पीके नाम हैं। नागपुष्पी-रुचिकारक, तीक्ष्ण, उष्ण, तिक्त, कफपित्तनाशक तथा विष, शूल, योनिदोष, वमन और कृमियों को दूर करती है ॥ २५८ ।।
मेषशृंगी। मेषशृंगी विषाणी स्यान्मेषवल्ल्याजशृंगिका॥२५९॥ मेषशृंगी रसे तिक्ता वातला श्वासकासहृत् । सूक्षा पाके कटुस्तिक्ता व्रणश्लेष्मातिशूलनुव२६०॥ मेषशृंगीफलं तिक्तं कुष्ठमेहकफप्रणुत् । दीपनं स्रेसनं कासकृमिव्रणविषापहम् ॥२६३ ॥ मेषशृङ्गी, विषाणी, मेषवल्ली, अजशृङ्गी यह मेढाङ्गीके नाम हैं मेटाशृङ्गो-रसमें तिक्त, वातकारक, श्वास-कासनाशक, रूक्ष, पाकमें कटु, तिक्त, व्रण, कफ और नेत्रशूलको दूर करती है। मेघसिंगोके फल
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( १३६ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
तिक्त होते हैं । कुष्ठ, मेह और कफको दूर करते हैं। दीपन हैं, संसन तथा खाँसी कृमि, व्रण और विषको हरनेवाले हैं ॥ २५९-२६१ ॥
हंसपदी | हंसपदी हंसपदी की माता त्रिपादिका । हंसपादी गुरुः शीता हंति रक्तविषव्रणान् ॥ २६२ ॥ विसर्पदाहातीसारलूताभूतादिरोगनुत् ।
हंसपदी, हंसपदी, कीटमाता, त्रिपादिका यह हंसपदीके नाम हैं । इसे हिन्दी में हंसपदी, फारसी में परस्पाशान और अंग्रेजी में Maiden Hair कहते हैं।
हंसपदी - भारी, शीतल तथा रक्त, विष, व्रण, विसर्प, दाह, प्रतिसार मक्कडीका विष, भूतादि रोगोंको दूर करनेवाली है । २६२ ॥
सोमलता । सोमवल्ली सोमलता सोमक्षीरी द्विजप्रिया ॥ २६३॥ सोमवल्ली त्रिदोषनी कटुस्तिक्ता रसायनी ।
सोमवल्ली, सोमलता, सोमतीरी, द्विजप्रिया यह सोमलताके नाम हैं । सोमवल्लीकी अंशुमान् आदि जतियें होती हैं। सोमलता-- त्रिदोषनाशक, तिक और रसायन है || २६३ ॥
कटु,
आकाशवली । आकाशवल्ली तु बुधैः कथितामरवल्लरी ॥ २६४ ॥ वल्ली ग्राहणी तिक्ता पिच्छिलाक्ष्यामयापहा । तुराग्निकरी हा पित्तश्लेष्मामनाशिनी ॥ २६५ ॥
प्राकाशवली, भ्रमरवल्लरी और खवल्ली यह अमरबेलके नाम हैं । अमवेल-ग्राही, तिक्त, चिकनी, नेत्ररोग नाशक, कषाय, अग्निदीपक, हदयको प्रिय और पित्त, कफ तथा ग्रामको हरनेवाली हैं ॥ २६४ ॥ २६५ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
पातालगरुड़ी ।
छिलहिंडो महामूलः पातालगरुडाह्वयः । छिलहिंडः परं वृष्यः कफघ्नः पवनापहा ॥ २६६ ॥
( १३७ )
छिलहिण्ड, महामूल, पातालगरुड तथा गरुडके सम्पूर्ण नाम यह पाताळगारुडीके नाम हैं । यह अत्यन्त वीर्यवर्धक, कफ तथा वातको नष्ट करनेवाली है ॥ २२६ ॥
बंदा | वंदा वृक्षादनी वृक्षभक्ष्या वृक्षरुहापि च । वंदाकः स्याद्धिमस्तिक्तः कषायो मधुरो रसे ॥ २६७ ॥ कफवातास्ररक्षोत्रणविषापहा ।
मांगल्यः
चन्दा, वृक्षादनी, वृक्षभक्ष्या और वृक्षरुहा यह बन्देके नाम हैं। बन्दा - शीतल, तिक्त, कषाय, रस में मधु, मंगलकारक तथा कफ, वात, रक्त विकार, राक्षसरोग, व्रण और विषको हरता है ॥ २६७ ॥ वटपत्री ।
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वटपत्री तु कथिता मोहनी रेवती बुधः ॥ २६८ ॥ वटपत्री कषायोष्णा योनिमूत्रगदापहा ।
वटपत्री, मोहनी और रेवती यह वटपत्र के नाम हैं। वटपत्रीकसैली, गरम तथा योनि और मूत्रके रोगोंको हरती है ।। २६८ ॥ हिंगुपत्री ।
हिंगुपत्री तु कवरी पृथ्वीका पृथुका पृथुः ॥ २६९ ॥ हिंगुपत्री भवेद्रुच्या तीक्ष्णोष्णा पाचनी कटुः । हृद्वस्तिरुग्विबंधाशःश्लेष्मगुल्मानिलापहा ॥ २७० ॥
हिंगुपत्री, कथरी, पृथ्वीका, पृथुका, पृथु यह हिंगुपत्रीके नाम हैं। हिंगुपत्री - रुचिकारक, तीक्ष्ण, उष्ण, पाचन, कटु तथा हृदयरोग, वस्तिके रोग, विबन्ध, अर्श, कफ, गुल्म और बात इनको जीतनेवाली है ।। २६९ ।। २७० ।।
Aho ! Shrutgyanam
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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
वंशपत्री ।
वंशपत्री वेणुपत्री पिंगा हिंगुशिवाटिका । हिंगुपत्रीगुणा विज्ञैर्वेशपत्रीव कीर्तिताः ॥ २७१ ॥
( १३८ )
वंशपत्री, वेणुपत्री, पिङ्गा और हिंगुशिवाटिका यह वंशपत्रीके नाम हैं। उसके गुण विद्वानोंने हिंगुपत्रीके समान ही कहे हैं ।। २७१ ॥ मत्स्याक्षी । मत्स्याक्षी बाह्निकी मत्स्यगंधा मत्स्यादनीति च । मत्स्याक्षी ग्राहणी शीता कुष्टपित्तकफास्रजित २७२ लघुस्तिका कषाया च स्वादी कटुविपाकिनी ।
मत्स्याक्षी, बालिकी मत्स्यगन्धा, मत्स्यादनी ये मत्सीके नाम हैं । माली - ग्राही, शीतल, लघु, तिक्त, कसैली, स्वादु, कटुपाकी तथा कुष्ठ, पित्त, कफ और रक्तविकार इनको नष्ट करनेवाली है इसको मछेछी भी कहते हैं ।। २७२ ॥
सर्पाक्षी ।
सर्पाक्षी स्यात्तु गंडाली तथा नाडीकलायका ॥ २७३ ॥ सर्पाक्षी कटुका तिक्का सोष्णा कृमिनिकृन्तनी । वृश्विको दुरुसर्पाणां विषघ्नी व्रणरोपणी ॥ २७४ ॥
सर्पाक्षी, गण्डाली और नाडीकलायका यह सरहटी ( गोहके आदे ) के नाम हैं । सर्पाक्षी-कटु, तिक्त, गरम तथा कृमि, विच्छु, चूहा और सांप एनके विषको मारनेवाली तथा व्रणको भरनेवाली है ।। २७३ ॥ २७४ ॥
शंखपुष्पी | शंखपुष्पी तु शंखाह्ना मांगल्या कुसुमापि च । शंखपुष्पी सरा मेध्या वृष्या मानसरोगहृत् ॥ २७५॥
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( १३९ )
रसायनी कषायोष्णा स्मृतिकांतिबलाग्निदा | दोषापस्मारभूतादिकुष्ठ किमि विषप्रणुत ॥ २७६ ॥
शंखपुष्पी, शंखाहा और मांगल्यकुतुमी यह शंखपुष्पीके नाम हैं । शंखपुष्पी - दस्तावर, बुद्धिवर्धक, वीर्यवर्धक, मानसिकरोगनाशक, रसायन, कषाय, उष्ण तथा स्मृति, कान्ति, बल और अग्नि इनको बढानेवाली है । दोष, अपस्मार, भूतादि रोग, कृमि तथा विषको हरनेवाली है ॥ २७५ ॥ २७६ ॥
अर्क. पुष्पी | अर्कपुष्पी क्रूरकर्मा पयस्या जलकामुका । अर्कgoपी कृमिश्लेष्ममेह पित्तविकारजित् ॥ २७७৷৷
अर्कपुष्पी, क्रूरकर्मा, पयस्या और जलकामुका यह प्रर्कपुष्पीके नाम हैं। हिन्दी भाषामें इसे अर्कफूली भी कहते हैं ।
अर्कपुष्पी - कृमि, कफ, प्रमेह और पित्तके विकारोंको जीतती है ॥ २७७ ॥
लज्जालुः ।
लज्जालुहिं शमीपत्रा समंगा जलकर्णिका । रक्तपादी नमस्कारी नाम्ना खदिरकेत्यपि ॥ २७८ ॥ लज्जालुः शीतला तिक्ता कषाया कफपित्तजित् । रक्तपित्तमतीसारं योनिरोगान्विनाशयेत् ॥ २७९ ॥
लज्जालु, शमीपत्रा, समङ्गा, जलकर्णिका, रक्तपादी, नमस्कारी, खदिरका यह लाजवन्तीके नाम हैं। हिन्दी भाषा में इसे छुईमुई कहते हैं। लाजवन्ती - शीतल, तिक्त और कषाय है तथा कफ, पिस, रक्तपित्त, अतिसार और योनिरोगोंको दूर करती है || २७८ ॥ २७९ ॥ तद्भेदः अलंबुषा ।
अलंबुषा खरत्वक् च तथा मेदोगला स्मृता । अलंबुषा लघुः स्वादुः कृमिपित्तकफापहा ॥ २८० ॥ लाजवन्त का भेद अलम्बुषा, खरत्वक और मेदोगला यह अलम्बुषाके
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(१४०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। नाम हैं। अलम्बुषा हलकी, स्वादु, कृमि, पित और कफको नाश करनेवाली है ॥ २८०॥
दुग्धिका। दुग्धिका स्वादुपर्णी स्यात्क्षीरावी क्षीरिवी तथा । दुग्धिकोष्णा गुरू रूक्षा वातला गभकारिणी२८॥ स्वादुक्षीरा कटुस्तिक्ता सृष्टमूत्रमलापहा । स्वादुर्विष्टंभनी वृष्या कफकोष्टकृमिप्रणुत् ॥२८२॥ दुग्धिका, स्वादुप, शीरावी, क्षोरिवी यह दुधलीके नाम हैं। दुन्धिका गुरु, पक्ष, पातकारक, गर्भकारिणी, स्वादु, दुधवाली, कटु, तिक्त, मुत्र और मलको निकालनेवाली, स्वादु, विष्टम्भकारी, वृष्य तथा कफ, कोढ और कृमियोंको दूर करनेवाली है ॥ २८१॥ २८२ ॥
___भूम्यामलकी। भूम्यामलकिका प्रोक्ता शिवा तामलकीति च । बहुपत्रा बहुफला बहुवीर्या जटापि च ॥ २८३ ॥ भूधात्री वातकृत्तिका कषाया मधुरा हिमा। पिपासाकासपित्तास्रकफपांडुक्षतापहा ॥ २८४॥ भूम्यामलकी, शिवा, तामलकी, बहुफला, बहुवीर्या, जटा यह भई मामलेके नाम हैं। भूई आमला-वातकारक, तिक्त, कषाय, मधुर और शीतल है तथा प्यास, खाँसी, पित्त, रक्त, कफ, पाण्डु और क्षतको हरनेवाला है। भूमिग्रामल-पाताला मामला इन नामोंसे प्रसिद्ध है॥ ३८३ २८४ ॥
ब्राह्मी। ब्राह्मी कपोतका च सोमवल्ली सरस्वती । मंडूकपर्णी मांडूकी वाष्ट्री दिव्या महौषधी २८५॥
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__ हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१४१) ब्राझी हिमा सरा तिक्ता लघुर्मेध्या च शीतला। कषाया मधुरा स्वादुपाका पुण्या रसायनी ॥२८६॥ स्वय्यो स्मृतिप्रदा कुष्ठपांडुमेहास्त्रकासजित । विषशोथज्वरहरी तद्वन्मंडूकपर्णिका ॥२८७॥ ब्राह्मी, कपोतका, सोमवल्ली, सरस्वती यह ब्राह्मीके नाम हैं। मण्ड कपर्णी, माण्डूकी. स्वाष्ट्री, दिव्या और महौषधी यह मण्डूकपर्णो के नाम हैं।
ब्राह्मी-शीतल. दस्तावर, तिस्त, हलकी, बुद्धिवर्धक, उण्डी, कषाय, मधुर, स्वादुपाकी, पु
ती , स्वपर्धक, स्मृतिवर्द्धक कुष्ठ, पाण्ड, प्रमेह, रातविकार, खांसी, विष, शोथ मोर ज्वर के हरने वालो है ब्राझीके समान ही मण्डूकों के गुण हैं । ब्राह्मो और मण्डूषों में बड़े छोटे पत्रका किंचित भेद है, परन्तु बंगाल के वैद्य जल नीम को ब्राह्मो और दोनों प्रसकी ब्राह्मीको मण्डूकपर्णी ही मानते हैं ॥ २८५०.२८७ ॥
द्रोणपुष्पी। द्रोणा च द्रोणपुष्पी च फलपुष्पा च कीर्तिता। द्रोणपुष्पी गुरुः स्वादू रूसोष्णा वातपित्तकृत२८८ सतीक्ष्णा लवणा स्वादुपाका कट्वी च भेदनी।
कफामकामलाशोथतमकश्वासजंतुजित् ।। २८९ ।। द्रोणा, दोणपुष्पी और फरपुष्पा यह द्रोणपुष्पी के नाम हैं। देशभाषामें इसको गुरुग और बड़घल भी कहते हैं। द्रोणपुष्पी-भारी, स्वादु, रूक्ष, उष्ण, वातपितकारक, तीक्ष्ण, लवणरलयुक्त, स्वादुपाकी, कटु पौर दस्तावर हे तथा कफ, आम, कामला, शोथ, तमकपास और कृमि. योंको जीतनेवानी रे ॥ २८८ ॥२८९ ॥
सुवर्चला। सुवर्चला सूर्यभक्ता वरदा बदरापि च । सुर्यावर्ता रविप्रीता परा ब्रह्मासुवर्चला ॥ २९ ॥
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( १४२ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
सुवर्चला हिमा रूक्षा स्वादुपाका सरा गुरुः । अपित्तला कटुः क्षारा विष्टंभकफवातजित् ॥२९१॥ अन्या तिक्ता कषायोष्णा सरा रूक्षा लघुः कटुः । निहंति कफपित्तास्रश्वासकासारुचिज्वरान् ॥ २९२ ॥ विस्फोटकुष्ठमेहास्त्रयोनिरुक्कुमिपांडुताः ।
,
सुवर्चला सूर्यभक्ता, वरदा, बदरा, सूर्यावर्त्ता, रविप्रोता यह सुवर्च - लाके नाम हैं। दूसरी ब्रह्मसुवर्चला होती है। सुवर्चला -शीतल, रूक्ष, स्वादुपाकी, दस्तावर, भारी, पित्त न करनेवाली, कटु बोर क्षार होती है। तथा विष्टम्भ, कफ और वातको जीतनेवाली है । ब्रह्मतुवर्चला कषाय, उष्ण, दस्तावर, रूक्ष, हलकी और कटु है तथा कफ, रक्तपित्त, श्वास, काल, अरुचि, ज्वर, विस्फोटक, कुष्ठ प्रमेह, रक्तविकार, योनिरोग, कृमि और पाण्डुरोगका नाश करती है। इसको हिंन्दीभाषा में हु हुल, फारसी में आफताब परस्त और अंग्रेजी में Suu flower कहते हैं ।। २९० -- २९२ ॥
वंध्याककोटकी ।
वंध्यraachi देवी कन्या योगेश्वरीति च ॥ २९३॥ नागारिर्नागदमनी विषकंटकिनी तथा । वंध्याककोटकी लघ्वी कफनुव्रणशोधनी ॥ २९४ ॥ सपदपहरी तीक्ष्णा विसर्पविषहारिणी ।
asranaकी, देवी, कन्या, योगेश्वरी, नागरी, नागदमनी और विषण्टा किनी यह बांझ ककोडेके नाम हैं। बांझककोडा- हलका, कफ नाशक, व्रणशोधक, सपदर्पनाशक, तीक्ष्ण, विसर्प और विषको हरनेवाला है। बांझककोडेकी बेल होती है। इसकी जडमेंसे कन्द निकलता और प्रायः वही सब काम आता है ।। २९३ ॥ २९४ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१४३)
माकडिका। मार्कंडिका भूमिचरी मार्कडी मृदुरेचनी ॥ २९५ ॥ मार्कडिका कुष्ठहरी उधिःकायशोधनी। विषदुर्गधकासनी गुल्मोदरविनाशनी॥ २९६ ॥ माडिका, भूमिचरी, मार्कण्डी और मृदुरेचनी यह मार्कण्डिकाके नाम हैं। इसको देशभाषामें भुईखाखसा कहते हैं । भुईखाखसा-कुष्ठको हरनेवाली, वमन विरेचन द्वारा दोनों ओरसे शरीरको शुद्ध करनेवाली तथा विष, दुर्गन्ध, खांसी, गुल्म और उदररोगको नष्ट करती है॥ २९५ ।। २९६ ॥
देवदाली। . देवदाली तु वेणी स्यात्कोंटी च गरागरी। देवताडो वृत्तकोषस्तथाजीमूत इत्यपि ॥ २९७ ॥ पीतापरा खरस्पर्शा विषघ्नी गरनाशनी ।
देवदाली रसे तिक्ताकफाशःशोफपांडताः ॥ २९८॥ नाशयेद्वामनी तिक्ता क्षयहिक्काकृमिज्वरान् । देवदालीफलं तिक्तं कृमिश्लेष्मविनाशनम् ॥२९९ ॥ संस्रन गुल्मशलघ्नमर्शोघ्नं वातजित्परम । देवदाली, वेणी, कर्कोटी, गरागरी, देवनाड, वृत्तकोश और जीमूत यह बन्दाल डोडेके नाम हैं। इसको घघरबेल भी कहते हैं, इसका भेद पीतदेवदाली है । इसके नाम खरस्पर्शा, विषघ्नी और गग्नाशिनी है। देवदालीरसमें तिक्त है, कफ, अर्श, सूजन और पाण्डुरोगको नष्ट करती है। एवं वमन कर्ना, तिक्त तथा क्षय, हिचकी, कृमि और ज्वरोंको नष्ट करती है । देतदालीके फल-तिक्त हैं, कृमि, कफ, गुल्म, शूल, अर्थ और वायुको जीतनेवाले हैं तथा दस्तावर हैं ॥ २९७-२९९ ॥
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(१४४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
जलपिप्पली। जलपिप्पल्यभिहिता शारदी शकुलादनी ॥३०॥ मत्स्यादनी मत्स्यगंधा लांगलीत्यपि कीर्तिता। . जलपिप्पलिका हृद्या चक्षुष्या शुक्रला लघुः३०१॥ संग्राहणी हिमा रूक्षा रक्तदाहवणापहा । कटुपाकरसा रुच्या कषाया वह्निवर्द्धनी ॥ ३०२॥ जलपिप्पली, शारदी, शकुला नो, मत्स्यादनी, मत्स्यगन्धा, लांगली यह जलपीपलके नाम हैं, जल पीपल-हृदयके लिये हितकारी, नेत्रोंको हितकारी, वीर्यवर्द्धक, हल्की, संग्राही, शीतल, रूत तथा रक्त दाह और व्रणों को हरनेवाली, पाक और रतमें कटु, रुचिकारक, कसैली और अग्निको बढानेवाली है ॥ ३००-३०२ ॥
गोजिह्वा । गोजिह्वा गोजिका गोजी दार्विका खरपणिनी । गोजिह्वा वातला शीता ग्राहणी कफपित्तनुत् ३.३॥ हृद्या प्रमेहकासास्रवणज्वरहरी लघुः । कोमला तुवरा तिक्ता स्वादुपाकरसा स्मृता॥३०४॥ गोजिबा, गोजी, दाविका, गोजिका खरपणिनी यह गोजिया घासके नाम हैं। इसको मन्तल, गाजवां पौर काहजवां भी कहते हैं। गोजि हापातकारक, शीतल, ग्राही, कफपित्तनाशक, हृदयको हितकारी, प्रमेह, कास, रक्तविकार, व्रण और ज्वरको हरनेवालो; कोमल कसैली, तिक्त, पाक और रसमें स्वादु होती है ॥ ३०३ ॥ ३०४ ॥ .
नागदमनी। विज्ञेया नागदमनी बलामोटा विषापहा । नागपुष्पी नागपत्री महायोगेश्वरीति च ॥३०॥
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( १४५ )
बलामोटा कटुस्तिका लघुः पित्तकफापहा । मूत्रकृच्छ्रत्रणान् रक्षो नाशयेजालगर्दभम् ॥ ३०६ ॥ सर्वप्रहप्रशमनी विशेषविषनाशनी ।
जयं सर्वत्र कुरुते धनदा सुमतिप्रदा || ३०७ ||
नागदमनी, बलमोटा, विषापहा, नागपत्री, नागपुष्पी, महायोगेश्वरी यह नागदमनी के नाम हैं। नागदमनी कडु, तिक्त, हलकी, पिन कफना. शक तथा मूत्रकृच्छ्र, व्रण, राक्षसभय, जालगर्दभ और सर्व ग्रह को शमन करनेवालो है। विशेषतासे विषको नष्ट करती है तथा धन, बुद्धि और सर्वत्र जयको देनेवाली है । ३०५-३०७ ॥
बेलंतरी ।
वेल्लंतरो जगति वीरतरुः प्रसिद्धः श्वेता सितारुणविलोहितनीलपुष्पः । स्यानातितुल्य कुसुमः शमिसूक्ष्मपत्रः स्यात्कंटकी सजलदेशज एष वृक्षः ॥ ३०८ ॥ वेलंतरी रसे पाके विक्तस्तृष्णा कफापहा । मूत्राघाताश्म जिग्राहीयो निमूत्रानिलार्तिजित् ३०९
बेलन्तर, वीरतरु नामसे सर्वत्र प्रसिद्ध है । इसमें श्वेत, काले, लाळ, अत्यन्त बाल और नीलवर्णक पुष्प आते हैं। इसमें पुष्प चमेलीके पुष्पों के समान, इसक पत्र शमीके पोंके समान और बारीक होते हैं। इसकी टहनियों में कांटे होते हैं । इसके वृक्ष जलवानी भूमिमें उत्पन्न होते हैं, वेल्लन्तर - रस में और पाक में तिक्त होता है तथा प्यास, कफ, मूत्राघात और पथरीको जीतता है । ग्राही है, योनिरोग, मूत्ररोग, और वायुकी पीडाको दूर करता है ॥ ३०८ ॥ ३०९ ॥
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( १४६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
छिकनी। छिक्कनी क्षवकृतीक्ष्णा छिकिका प्राणदुःखदा। छिकनी कटुका रुच्या तीक्ष्णोष्णा वह्निपित्तकृत् । वातरक्तहरी कुष्ठकृमिवातकफापहा ॥ ३१० ॥ विक्कनी, सवत, तीक्ष्णा, छिक्किका, घ्राणदुःखदा यह नकछिकनीके नाम हैं। नकछिकनी, कटु, रुचिकारक. तीक्ष्णा, उन्न, वह्नि तथा पित्तको बढानेवाली तथा वातरक्त, कुष्ठ, कृमि और वात कफको हरनेवाली है । नकछिकनीके क्षुप जमीनपर छाये हुए होते हैं और यह छिकनी नामसे प्रसिद्ध है। ३१०॥
वर्वरी।
वर्वरी कबरी तुंगी खरपुष्पाजगंधिका । वर्वरी तु लघू रुच्या हद्या च कफवातहृत्॥३१॥ वर्वरी, कपरी, तुंगी, खरपुष्पा, अजगन्धिका यह नगन्धवावरीके नाम हैं। नगन्धवावरी-हलकी, रुचिकर, हृदयको हितकारी, कफ और वातको जीतनेवाली है ॥ ३११ ॥
ककुंदरः। ककुंदरस्ताम्रचूडः सूक्ष्मपत्रो मृदुच्छदः । ककुंदरः कटुस्तितो ज्वररक्तकफापहा॥३१२॥ तन्मूलमा निक्षिप्तं वदने मुखशोषहृत् । ककुन्दर, ताम्रचूड, सूक्ष्मपत्र, - मृदुच्छद ये कुकरौंदाके नाम हैं। कोई इसे कुकरभंगरा और कुकड छिही कहते हैं। कुकडछिडी-कटु, तिक्त तथा ज्वर, रक्त और कफको हरनेवाली है। इसकी गीली जडको मुखमें रखजैसे मुख सूखना बन्द होता है ॥ ३१२ hrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
सुदर्शना ।
सुदर्शना सोमवल्ली चक्राह्वा मधुपर्णिका ॥ ३१३ ॥ सुदर्शना स्वादुरुष्णा कफशोफास्रवातजित् ।
( १४७ )
सुदर्शा सोमवल्ली, चक्राहा, मधुपर्णिका यह सुदर्शनाके नाम हैं। सुदर्शना - स्वादु, उष्ण, कफ, सूजन, रक्त पौर वातको जीतनेवाली हे ॥ ३१३ ।।
आखुकर्णी ।
आखुकर्णी त्वाखुकर्णपर्णिका भूदरीभवा ॥ ३१४ ॥ आखुकर्णी कटुतिक्ता कषाया शीतला लघुः । विपाके कटुका सूत्रकफामयकृमिप्रणुत् ॥ ३१५ ॥
आखुकर्णी, आखुकर्णपणिका, भूदरीभवा यह मूसाकन्नी के नाम हैं । मूसा कन्नी कटु, तिक्त, कषाय, शीतल और हलकी है, विपाकमें कटु तथा मूत्र और कफके रोगों और कृमियोंको दूर करती है ॥ ३१४ ॥ ३१५ ॥ मयूरशिखा । मयूराह्नशिखा प्रोक्ता सहस्रांत्रिर्मधुच्छदा । नीलकण्ठशिखा लघ्वी पित्तश्लेष्मातिसार जित ३१६ ॥ इति गुडूच्यादिवर्गः ।
मयूरशिखा, सहस्रांघ्रि, मधुच्छ दा, नीलकण्ठ शिखा यह मोरशिखाके नाम हैं। मोरशिखा- इल्की, पित्त कफ और प्रतिसारको जीतनेवाली है ॥ ३१६॥
इति श्रीवैद्यरत्न पण्डित राम प्रसादात्मज - विद्यालङ्कारशिवशर्मवैद्यशास्त्रिकृत- शिवप्रकाशिका भाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ गुडूच्यादिवर्गः समाप्तः ॥ ३ ॥
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( १४८ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
पुष्पवर्गः ४.
तत्रादौ कमलस्य नामानि गुणाश्च ।
वा पुंसि पद्मं नलिनमरविंदं महोत्पलम् । सहस्रपत्रं कमलं शतपत्रं कुशेशयम् ॥ १ ॥ पंकेरुहं तामरसं सारसं सरसीरुहम् । बिसप्रसून राजीव पुष्करां भोरुहाणि च ॥ २ ॥ कमलं शीतलं वण्य मधुरं कफ पित्तजित् । तृष्णादाहात्र विस्फोट विषवीसर्पनाशनम् ॥ ३ ॥ विशेषतः सितं पद्म पुंडरीकमिति स्मृतम् । रक्तं कोकनदं ज्ञेयं नीलमिंदीवरं स्मृतम् ॥ ४ ॥ धवलं कमलं शीतं मधुरं कफपित्तजित् । तस्मादरूपगुणं किंचिदन्यद्वक्तोत्पलादिकम् ॥ ५ ॥
कमलके नाम तथा गुणों को कहते हैं
-
पद्म शब्द पुंल्लिंग तथा नपुंसक दोनों में होता है । पद्म, नलिन, परविन्द, महोत्पल, सहस्रपत्र, कमल, शतपत्र, कुशेशय, पंकेरुह, तामरस, सारस, सरसो०ह, बिल प्रसून, राजीव, पुष्कर तथा अम्भोरुह यह कमके नाम हैं। इसको हिन्दी में कमल अंग्रेजीमें Lotus कहते हैं ।
कमल-शीतल, वर्णको उत्तम करनेवाला, मधुर कफ तथा पित्तको जीतनेवाला, तथा वास, दाह, रक्तविकार, विस्फोट, विष और विसर्प इनको नष्ट करनेवाला है । श्वेत कमलको पुण्डरीक, लाल कमलको रक्तम और नीने कमलको इन्दीवर कहते हैं । श्वेत कमल - शीतल, मधुर तथा कफ और पित्तको जीवनेवाला है । अन्य रक्तादि कमल इससे किचिन्न्यून गुणवाले हैं ॥ १--५ Aho ! Shrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. 1
पद्मिनी ।
मूलनालदलोत्फुलफलैः समुदिता पुनः । पद्मिनी प्रोच्यते प्राज्ञैर्बिसिन्यादिश्व सा स्मृता ॥ ६॥ आदिशब्दात् नलिनीकमलिनीत्यादिः ।
( १४९ )
पद्मिनी शीतला गुर्वी मधुरा लवणा च सा । पित्तासृक्कफनुद्रूक्षा वातविष्टंभकारिणी ॥ ७ ॥
मूल, नाल, पत्र आदि युक्त और प्रफुल्लित कमलको पद्मिनी तथा बिसिनी कहते हैं ।
पद्मिनी- शीतल, गरी, मधुर, लवणरसयुक्त, वात तथा मलके विष्टम्भ को करनेवाली तथा पित्त, रक्तविकार, कफ इनको नष्ट करनेवाली और रूक्ष है ॥ ६ ॥ ७ ॥
नवपत्रादि ।
संवर्तिका नवदलं वीजकोशोब्जकर्णिका । किञ्जल्कः केसरः प्रोक्तो मकरंदो रमः स्मृतः ॥ ८ ॥ पद्मनालं मृणालं स्यात्तथा बिसमिति स्मृतम् । संवर्तिका हिमा तिक्ता कषाया दाहतृप्रणुत् ॥ ९॥ मूत्रकृच्छ्रगदव्याधिरक्तपित्तविनाशिनी । पद्मस्य कर्णिका तिक्ता कषाया मधुरा हिमा || १ ० ॥ मुखवैशद्यकुल्लवी तृष्णासृक्कफपित्तनुत् । किंजल्कः शीतलो वृष्यः कषायो ग्राहकोऽपि सः ११ कफपित्ततृषादाहरक्ताशविषशोथजित् । मृणालं शीतलं वृष्यं पित्तदाहास्रजिद्गुरुः ॥ १२ ॥ दुर्जरं स्वादुपाकं च स्तन्यानिल कफप्रदम् । संग्राहि मधुरं रूक्षं शालूकमपि तद्गुणम् ॥ १३ ॥
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(१५० ) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
कमलिनीके नवीन पत्रोंको संतिका, बीजकोशको अन्जकर्णिका, केशरको किचल्क तथा इसके रसको मकरेद कहते हैं। पद्मकी नालको मृणाल तथा बिस या भिस, भसीड़ा कहते हैं। .. संबर्तिका-शीतल, तिक्त, कसैली, दाह चौर प्यासको हरनेवाली तथा मूत्रकृच्छ्र, गुदाके रोग और रक्त पित्तको नष्ट करनेवाली है।
मन्जकर्णिका-तिक्त, कसनी, मधुर, शीतल, मुखको स्वच्छ करनेवाली, हल की तथा प्यास, रक्तविकार और कफको जीतने
किंजल्क-शीतल, वीर्यवर्धक, कसैला, ग्राही और कफ, पित्त, प्पास, दाह रक्तविकार, अर्श, विष तथा शोथको जीतनेवाला
मृणाल-शीतल, वीर्यवर्धक, पित्त दाह और रक्तविकारको जीतनेवाला, दुजर, पाकमें मधुर, दूध, वायु तथा कफको बढानेवाला, प्राही, मधुर तथा रूक्ष है। शालूक (कमलका कन्द ) में भी मृणालके समान गुण है ॥ ८-१३।।
स्थलकमलिनी। पद्मचारिण्यतिचराऽन्यथा पद्मा च शारदी। पद्मानुष्णा कटुस्तिक्ता कषाया कफवातजित्॥१४॥
मूत्रकृच्छ्राश्मशूलघ्नी श्वासकासविषापहा । पचारिणी, अतिचरा, अव्यथा, पद्मा और शारदी यह स्थलकमलिनीके नाम हैं।
स्थलकमलिनी-अनुष्ण, कटु, तिक्त; व सैली, कफ और वातको नीतनेवाली तथा मूत्रकृच्छ्र, पथरी शूल, श्वास, कास और विष इनको दूर करती है ॥ १४ ॥
कुमुदम् । श्वतं कुवलयं प्रोक्तं कुमुदं कैरवन्तथा ॥१५॥ कुमुदं पिच्छिलं स्निग्धं मधुरं हादि शीतलम् । श्वेत कुवलयको कुमुद और कैरव कहते हैं। इसे हिन्दीमें भभुत
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( १५१ )
कुमुद - पिच्छिल, स्निग्ध, मधुर, पित्तको प्रसन्न करनेवाला तथा शीतल है ॥ १५ ॥
कुमुदिनी । कुमुद्रती कैरविका तथा कुमुदिनीति च ॥ १६ ॥ सा तु मूलादिसर्वागैरुदिता समुदिता बुधैः ।
पद्मिन्या ये गुणाः प्रोक्ताः कुमुदिन्यामपि स्मृताः १७॥ मूलादि सम्पूर्ण अङ्गयुक्त कुमुदको मुकुदिनी कहते हैं। कुमुद्धती, कैरविका और कुमुदिनी यह उसके नाम हैं। जो गुण पद्मिनीके कहे हैं वह कुमुदिनी में भी हैं ॥ १६ ॥ १७ ॥
जलकुंभी सेवालम् ।
वारिपर्णी कुंभिका स्याच्छेवाले शैवलं च तत् । वारिपर्णी हिमा तिक्ता लघ्वी स्वाद्वी सरा कटुः ॥ १८ ॥ दोषत्रयहरी रूक्षा शोणितज्वरशोषकृत् । शैवालं तुवरं तिक्तं मधुरं शीतलं लघु ॥ १९ ॥ स्निग्धं दाहतृषापित्तरक्तज्वरहरं परम् ।
वारिपर्णी, कुंभिका, शेवाल और शैवाल यह शैवालके नाम हैं। इसको हिन्दी में शैवाल कहते हैं ।
शैवाल- शीतल, तिक्त, हलका, मधुर, दस्तावर, कटु, त्रिदोषनाशक, रूक्ष तथा रक्तविकार, ज्वर और शोषको नष्ट करता है । शैवाल - कसैला, तिक्त, मधुर, शीतल, हलका, स्निग्ध तथा दाह, प्यास, पित्त, रक्तविकार और स्वर इनको अत्यन्त हरनेवाला है ॥ १८ ॥ १९ ॥
शतपत्री ।
शतपत्री तरुण्युक्ता कर्णिका चारुकेसरां ॥ २० ॥ सहा कुमारी गंधाव्या लाक्षापुष्पातिमंजुला ।
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( १५२ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
शतपत्री हिमा हृद्या ग्राहिणी शुक्रला लघुः ॥२१॥ atrara जिद्वर्ण्या तिक्ता कटूवी च पाचनी ।
शतपत्री, तरुणी, कणिका, चारुकेसरा, सहा, कुमारी. गंधाढया, साक्षापुष्पा तथा अतिमञ्जुला यह गुलाबके नाम हैं । इसको हिन्दी में गुलाब, फार्स में गुलेसुखं तथा अंग्रेजी में Cabbagerose कहते हैं ।
शतपत्री शील, हृदयको प्रिय, ग्राही, वीथ्यवर्धक, हलकी, त्रिदोष तथा रक्तविकारको नष्ट करनेवाली, वर्णको उत्तम करनेवाली, विक, कटु और पाचन है ॥ २० ॥ २१ ॥
वासन्ती ।
नेपाली कथिता तज्ज्ञैः सप्तला नवमालिका ॥ २२॥ वासंती शीतला लघ्वी तिक्ता दोषत्रयास्रजित् ।
नेपाली, सप्तला, नवमालिका और वार्सती यह नवमालिकाके नाम हैं । इसे हिन्दी में नेवारी या वासन्ती कहते हैं ।
नेवारी - शीतल, हलकी, तिक्त और त्रिदोषनाशक है ॥ २२ ॥ वार्षिकी ।
श्रीपदी षट्पदा नंदा वार्षिकी मुक्तबंधना ॥ २३ ॥ वार्षिकी शीतला लघ्वी तिक्ता दोषत्रयापदा | कर्णासमुखरोगघ्नी तत्तैलं तद्गुणं स्मृतम् ॥
२४ ॥
श्रीपदी, षट्पदा, नन्दा, वार्षिकी मुक्तबन्धना यह श्रीपदी के नाम हैं । श्रीपदी - शीतल, हलकी, तिक्त, त्रिदोषनाशक और कर्णरोग, अक्षिरोग और मुखरोगों को हरनेवाली है । इसके तैलमें भी इसके समान गुण हैं ॥ २३ ॥ २४ ॥
स्वर्णजातिका ।
जातिजती च सुमना मालती राजपुत्रिका । चेतकी हृद्यगंधा च सा पीता स्वर्णजातिका ॥२५॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१५३ ) जातीयुगं तिक्तमुष्ण तुवरं लघु दोषजित् । शिरोशिमुखदंतार्ति विषकुष्ठत्रणास्रजित् ॥ २६॥ जाति, जाती, सुमना, मालती, राजपुत्रिका, चेतकी और हृद्यगन्धा, यह चेतकीरे नाम हैं। पीली चेतकीको स्वर्णजाति का कहते हैं। इसको हिन्दीमें चमेली और चम्बेली तथा अंग्रेजीमें Spanish Jasmine कहते हैं।
दोनों प्रकारकी चमेली-तिक्त, गरम, कसैली, हज की, त्रिदोषनाशक और शिरोरोग, अक्षिरोग, मु वरोग, दन्तौकी पीडा, कुष्ठ, व्रम और रकविकारको हरनेवाली है ।। २५ ॥ २६ ॥
যুথিঙ্কা। यूथिका गणकांबष्ठा सा पीता हेमपुष्पिका । यूथियुगं हिमं तितं कटुपाकरसं लघु ॥ २७॥ मधुरं तुवरं हृद्यं पित्तघ्नं कफवातलम् । व्रणास्रमुखदंताशिशिरोरोगविषापहम् ॥ २८ ॥ यूथिका, गणका और अम्बष्ठा यह जूहीके नाम हैं । हेमपुष्पिका पीली जूहीका नाम है।
दोनों प्रकारकी जूही-शीतल तिक्त, पाक और रस में कटु, हलकी, मधुर, कसैली. हदयको प्रिय, पित्तनाशक, कफ और वातको बढानेवाली तथा व्रण, रक्तविकार, मुखरोग, दन्तरोग, अक्षिरोग, शिरोरोग और विषका नाश करनेवाली है ॥ २७ ॥ २८ ॥
चांपेयः।
चांपेयश्चपकः प्रोक्तो हेमपुष्पश्च स स्मृतः। एतस्य कलिका गंधफलीति कथिता बुधैः ॥२९॥
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( १९४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । चंपकः कटुकस्तिक्तः कषायो मधुरो हिमः । विषक्रिमिहरः कृच्छूकफवातास्रपित्तजित् ॥३०॥ चांपेय, चम्पक और हेमपुष्प यह चम्पकके नाम हैं। इसे. हिन्दी में चम्पा कहते हैं। इसकी चम्पोतियोंको गन्धफली कहा जाता है। चम्पक-कटु, तिक्त, कसैमा, मधुर. शीतल, विष और कृमियोंको हरनेवाला तथा कृच्छ, कफ, वात और रक्तपित्तको नष्ट करनेवाला है॥ २९ ॥ ३०॥
नकुलः। बकुलो मधुगंधश्च सिंहकेसरकस्तथा । बकुलस्तुवरोऽनुष्णः कटुपाकरसो गुरुः ॥ ३१ ॥ कफपित्तविषश्वित्रकृमिदंतगदापहा । बकुल, मधुगन्ध और सिंहकेसर ये बकुलके नाम हैं। इसे हिन्दीमें मौलसिरी तथा अंग्रेजीमें Surinam medlar कहते हैं।
बकुल-कसैला, अनुष्ण, पाक और रसमें कटु, भारी और कफा पित्त, विष, श्वित्र, कृमि तथा दांतोंकी व्याधियोंको दूर करनेवाला
वकः । शिवमल्ली पाशुपत एकाष्ठीलो बको वसुः ॥ ३२॥ बकोऽनुष्णः कटुस्तितः कफपित्तविषापहा । योनिदोषतृषादाइकुष्ठशोथास्त्रनाशनः ॥ ३३ ॥ शिवमल्ली, पाशुपत, एकाष्ठील, बक तथा वसु यह बड़ी मौलसिरीके नाम हैं।
बडी मौलसिरी-अनुष्य, कटु, तिक्त और कफ, पित्त, विष, योनिदोष, प्यास, दाह, कुष्ठ, शोथ तथा रक्तविकारको नष्ट करती है॥ ३२ ॥ ३३॥
कदंवः।
. कदंबः प्रियको नीपो वृत्तपुष्पो इलिप्रियः ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१५५ ) कदंबो मधुरः शीतः कषायो लवणो गुरुः ॥ ३४॥ सरोऽवष्टंभकृक्षः कफस्तन्यानिलप्रदः । कदव, प्रिय, नीप, वृत्तपुष्प तथा हलिप्रिय यह कदंबके नाम हैं। कदंग-मधुर, शीतल, कसैला, लवणरसवाला, भारी, दस्तावर, पेटमें हवा भरनेवाला रूक्ष और कफ, दूध तथा वायुको बढ़ानेवाला है ॥३४॥
कुब्जकः। कुब्जको भद्रतरुणी बृहत्पुष्पोऽतिकेसरः॥ ३५ ॥ महासहा कंटकाढया नीलाऽलिकुलसंकुला। कुब्जकः सुरभिः स्वादुः काषायानुरसासरः॥३६॥ त्रिदोषशमनो वृष्यः शीतहर्ता च स स्मृतः। कुब्जक, भद्रतरुणी, बृहत्पुष्प, प्रतिवेसर, महासहा, कंटकाढय, नीला पौर अलिकुद्धसैकुला यह कुन्जकके नाम है। इसे हिन्दीमें कूजा कहते हैं।
कुन्जक-सुगन्धयुक्त, मधुर कसैला, दस्तावर, त्रिदोषनाशक, वीर्यवर्धक तथा शीतको हरनेवाला है ॥ ३५ ॥ ३६ ॥
मल्लिका। मल्लिका मदयंती च शीतभीरुश्च भूपदी ॥ ३७॥ मल्लिकोष्णा लघुवृष्या तिक्ता च कटुका हरेत् । वातपित्तास्यहरव्याधिकुष्ठारुचिविषत्रणान् ॥ ३८ ॥ मल्लिका, मदयन्ती, शीतभीरु और भूपदी यह मल्लिकाके नाम हैं। इसको हिन्दीमें मोतिया कहते हैं।
मल्लिका-गरम, हलकी, वीर्यवर्धक, तिक्त, कटु पौर वात, पित्त, मुख तथा पाखोंके रोग, कुष्ठ, अरुचि, विष पौर व्रणोंका नाश करनेवाली है॥३७॥ ३८॥
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(१५६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
माधवी। माधवी स्यात्तु वासंती ड्रिको मंडकोऽपि च ।
अतिमुकश्चाविमुक्तःकामुको भ्रमरोत्सवः ॥३९॥ माधवी मधुरा शीता लघ्वी दोषत्रयापहा । माधवी, वासन्ती, पुंडिक, मण्डक, अतिमुक्त, अविसक्त, कामुक और भ्रमरोग्सव यह माधवीके नाम हैं । इसे हिन्दीमें.माधवी और वसन्ती तथा अंग्रेजीमें Clustered Hiptega कहते हैं। माधवी-मधुर, शीतल, हलकी और त्रिदोषनाशक है ।। ३९ ॥
केतकी । स्वर्ण केतकी। केतकः सूचिकापुष्पो जंबूकः क्रकचच्छदः ॥४०॥ सुवर्णकेतकी त्वन्या लघुपुष्पा सुगंधिनी । केतकः कटुकास्वादुर्लघुस्तिक्तः कफापहः ॥ ११ ॥ उष्णस्तिक्तरसो ज्ञेयश्चक्षुष्यो हेमकेतकी । केतक, सूचिकापुष्प, जम्बूक और क्रकचच्छद यह केतकीके नाम हैं सुवर्णरे तकी, लघुपुष्पा और सुगंधिनी यह सुवर्णकेतकी के नाम हैं। इसको हिन्दीमें केवडा तथा पीना केवडा और फारसीमै करज कहते हैं।
केवडा-कटु, स्वादिष्ठ, हलका,तिक्त पौर कफको हरनेवाला है। पीला बेवडा-गरम, तिक्तरसवाला तथा नेत्रोंके लिये हितकारी है ॥४०॥४१॥
किकिरातः । किंकिरातो हेमगौरः पीतकः पीतभद्रकः ॥४२॥ किंकिरातो हिमस्तिक्तः कषायश्च हरेदसौ। कफपित्तपिपासास्रदाहशोषवमिक्रिमीन् ॥ १३ ॥ किंकिगत, हेमगौर, पीतक और पीतभद्रक यह पीतके नाम हैं। इसको हिन्दीमें किंकिरात और फारसी में मधिलान कहते हैं।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१५७ ) किंकीरात-शीतल, तिक्त, कषायरलवाला और कफ, पित्त, प्यास, रक्तविकार, व्रज धौर कुष्ठ इनको जीतनेवाला है। ४२॥ ४३ ॥
कर्णिकारः। कर्णिकारः कटुस्तितस्तुवरः शोधनो लघुः॥४४॥ रंजनः सुखदः शोथश्लेष्मास्रवणकुष्ठजित् । कर्णिकार (अमलतास)-कटु, तिक्त, कसैला, शोधन, हलका, रंग देनेवाला, सुखदायक और शोथ, कफ, रक्तविकार, व्रण तथा कुष्ठ इनको जीतनेवाला है॥४४॥
अशोकः। अशोको हेमपुष्पश्च वंजुलस्ताम्रपल्लवः ॥१५॥ कंकेलिः पिंडपुष्पश्च गंवपुष्पो नटस्तथा । अशोकः शीतलस्तितो ग्राही वर्ण्यः कषायका४६॥ दोषापचीतृषादाहकृमिशोथविषास्रजित । अशोक, हेमपुष्प, वंजुल, ताम्रपल्लव, कंकेली, पिण्डपुष्प, गन्धपुष्प और नट यह अशोकके नाम हैं। अशोक-शीतल, तिक्त, ग्राही, वर्णको उनम करनेवाना, कसैला और त्रिदोष, अपची, तृषा, दाह, कृमि, शाथ विष तथा रक्तविकारका नाश करने वाला है। ४५॥ १६ ॥
बाणपुष्पः। अम्लातोऽम्लादनः प्रोक्तस्तथाम्लातक इत्यपि ४७॥ कुरंट को बाणपुष्पः सरावोक्ता महासहा । अम्लादनः कषायोष्णः स्निग्धः स्वादुश्च तिक्तका पालात, पम्लादन, अम्लातक, कुरंटक, बाणपुष, सरायोक्ता और महासहा यह बाणपुष्पके नाम हैं। बाणपुष्प-कसैला, गरम, निधि, स्वादु और तिक्त है ॥४७॥ १८॥ .
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( १५८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
सैरेयकः। सैरेयकः श्वेतपुष्पः सैरेया कटिसारिका । सहाचरः सहचरः स च भिंद्यपि कथ्यते ॥ १९ ॥ कुरंटकोऽत्र पीतः स्याद्रक्तः कुरबकः स्मृतः। नीलो बाणो द्वयोरुक्तो दासी चार्तगलश्च सः॥५०॥ सैरेयः कुष्ठवातास्त्रकफकंडूविषापहः । तिक्तोष्णो मधुरो दंत्यः मुस्निग्धः केशरंजनः॥५॥ सरेयक, श्वेतपुष्प, सरेया, कटिसारिका, सहाचर, माचर और 'भिन्दी या श्वेतपुष्पवाली कटसरैयाके नाम हैं । पीले पुष्पवाली कटसरैयाको कुरंटक, नालपुष्पवानीको कुरबक तथा नीले फूलवामीको बाण, दासी पौर आर्तगन कहते हैं। वाण शब्द स्वीनिंग और पुंलिंग दोनों में होता है।
कटसरैया-तिक्त, उष्ण, मधुर, दांतोंको हितकारी, स्निग्ध, केशको रंजन करनेवाला और कुष्ठ, वात, रक्तविकार, कफ, कण्हु तथा विषको दूर करनेवाला है ॥ १९-५१ ॥
कुंदम् । कुंदं तु कथितं माध्यं सदापुष्पं चतत्स्मृतम् । कुंदं शीतं लघु श्लेष्मशिरोरुग्विषपित्तहत् ॥५२॥ कुंद, माध्य और सदापुग्प यह कुंदके नाम हैं।
कुन्द-शीतल, लघु और कफ, शिरकी पीडा, विष तथा पित्तको नष्ट करनेवाला है ॥५२॥
मुचुकुंदः। मुचुकुंदः क्षत्रवृक्षश्चित्रका प्रतिविष्णुकः । मुचुकुंदः शिरस्पीडापित्तास्त्र विषनाशनः ॥५३॥ शुचकुन्द, पत्रवृष, चित्रक और प्रतिविष्णुक यह मुचुकुन्दके
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१५९) मुचुकुन्द-शिरकी पीडा, पिस, रुधिरविकार तथा विषको नष्ट करता
तिलक । तिलकः क्षुरकः श्रीमान् पुरुषश्छत्रपुष्पकः । तिलकः कटुकः पाके रसे चोष्णो रसायनः ॥५४॥ कफकुष्ठकमीन्वस्तिमुखदन्तगदान हरेत् । तिलक, भुरक, श्रीमान और छत्रपुष्प यह तिलकके नाम हैं। तिलक-पाक और रसमें कटु,उष्ण, रसायन और कफ, कुष्ठ, कृमि, वस्तिरोग, सुखरोग तथा दांतोंके रोगको हरता है ॥ ५४ ॥
बंधूकः । बंधूको बंधुजीवश्च रक्तो माध्याह्रिको मतः ॥५५॥ बंधूकः कफदू ग्राही वातपित्तहरो लघुः । बन्धक, बन्धुजीव, रक्त और माध्याडिक यह बम्धूकके नाम हैं। बन्धूक-कफकारक, ग्राही, पित्त-वातनाशक और लघु है ॥ ५५ ॥
ओण्डपुष्पम् ।
ओण्डपुष्पं जपा चाथ त्रिसंध्या सारुणा मता ५६ जपा संग्राहिणी केश्या त्रिसंध्या कफवातहत । बोण्डपुष्प, जपा यह जपाके नाम हैं। लालपुष्पावाली जपाको त्रिसन्ध्या कहते हैं। जपाको हिन्दीमें गुडार और अंग्रेजी में Shoe flower कहते हैं।
अपा-पाही और केशोंको उत्तम करनेवाली है। विसत्य (लालपुषचानी जपा) कफवातको नष्ट करती है । ५६ ॥
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( १६०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
सिंदूरी। सिंदूरी रक्तबीना च रक्तपुष्पा सुकोमला ॥ ७ ॥ सिंदूरी विषपित्तास्रतृष्णावांतिहरी हिमा। -सिन्दूरी. रकबीना, रक्तपुष्पा और कोमला यह सिंदरीरे नाम हैं इसे हिन्दीमें सिंदूरिया प्रथया जाफर और अंग्रेजी में Armalto कहते हैं।
सिन्दूरी-शीतल पौर विष, पित्त, रक्तविकार प्यास पौर वमनको र करनेवाली है ॥ ५७ ॥
अगस्त्यः । अगस्त्याह्वो वंगेसेनो मुनिपुष्पो मुनिद्रुमः ॥१८॥ अगस्त्यः पित्तकफजिचातुर्थिकहरो हिमः। सूक्षो वातकरस्तितः प्रतिश्यायनिवारणः ।। ५९॥ भगस्त्य, घनसेन, मु ने पुष्प और मुनिद्रुम यह अगस्यके नाम हैं इसे हिन्दी में अगस्त्य अथाहथिया और अंग्रेजी में Large Flowered Agita कहते हैं।
अगस्त्य -पित्त तथा काको जीतने वाला, चातुर्थिक परको हरनेवाला शीतल रूक्ष, वातकर, तिक्त और प्रतिश्यायको निवारण करता है।५८ ।। ५९ ॥
तुलसी शुक्ला कृष्णा छ। तुलसी सुरसा ग्राम्या सुलभा बहुमंजरी । अपेतराक्षसी गौरी शूलधनी देवदुंदुभिः ॥ ६॥ तुलसी कटुका तिक्ता हृद्योष्णा दाह पित्तकृत् । दीपनी कुष्ठकृच्छास्त्रपार्श्वरुक्कफवातजित् ॥ ६ ॥
शुक्ला कृष्णा च तुलसी गुणैस्तुल्या प्रकीर्तिता । वनसी, सुरसा, ग्राम्या, मुलभा, बहुमजरी, अपेतराक्षप्ती, गौरी..
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१६१) शूलध्नी और देवदुंदुभि यह तुलसीके नाम हैं। इसे हिन्दीमें तुनसी, फारसीमें रेहान और अंग्रेजीमें White Basil कहते हैं।
तुलसी-कटु, तिक्त, हदयको प्रिय, गरम, दाह और पित्तको करनेवाली, दीपन और कुष्ठ, कृच्छ्र, रक्तविकार, पसलीका शूल, कफ और वात इनको नष्ट करती है। काली और श्वेत दोनों प्रकारकी तुलसी गुणोंमें समान ही है ॥ ६० ॥ ६१ ॥
__मरुचकः। मारुतको मरुबको मरुन्मरुरपि स्मृतः ॥ ६२ ।। फणीफणिज्जकश्चापि प्रस्थपुष्पः समीरणः । मरुदग्निप्रदो हृयस्तीक्ष्णोष्णः पित्तलो लघुः॥६३॥ वृश्चिकादिविषश्लेष्मवातकुष्ठकृमिप्रणुत् । कटुपाकरसो रुच्यस्तितो रूक्षः सुगंधिकः ॥ ६४ ॥ मारुतक, मरुबक, मरुव, मरु, फणि, फणिजक, प्रस्थपुष्प और समीरण यह मारुतकके नाम हैं। हिन्दी में इसे मरुवा, फारसी में मर्जगुल और अंग्रेजी में Sweet Mary aran कहते हैं।
मरुवा-अग्निवर्धक, हृदयको प्रिय, तीक्ष्ण, उष्ण, पित्त कारक, हलका, पाक और रसमें कटु, रुचिकारक, तिक्त, रूक्ष, सुगन्धयुक्त और विच्छू भादिके विष, कफ, वात, कुष्ठ और कृमि इनको दूर करनेवाला है। ६३-६४॥
दमनकः। उक्तो दमनको दांतो मुनिपुत्रस्तपोधनः । गंधोत्कटो ब्रह्मजटो विनीतः कुलपुत्रकः ॥ ६ ॥ दमनस्तुवरस्तितो हृयो वृष्यः सुगंधिकः । ग्रहणीविषकुष्ठास्रक्लेदकंडुत्रिदोषजित् ॥६६॥ दमनक, दान्त, मुनिपुत्र, तपोधन, गन्धोत्कट, ब्रह्मजट, विनीत
११
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(१९२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । और कुलपुत्रक यह दमनकके नाम हैं। इसे हिन्दीमें दौना और अंग्रेजीमें Arteemesia Indica कहते हैं।
दमनक-कषायरसवाला, तिक्त, हदयको प्रिय, वीर्यवर्धक, सुगन्धयुक्त पौर ग्रहणी, विष, कुष्ठ, रक्तविकार, क्लेद, कण्ड तथा त्रिदोष इनको नष्ट करनेवाला है । ६५ ॥ ६६ ।।
वर्वरी।
वर्वरी कवरी तुंगी खरपुष्पाजगंधिका । पर्णासस्तत्र कृष्णेतु कठिल्लककुठेरकौ ॥ ६७ ॥ तत्र शुक्लोजकः प्रोक्तो वटपत्रस्ततोऽपरः । वर्वरीत्रितयं रूक्षं शीतं कटु विदाहि च ॥ ६८ ॥ तीक्ष्णं रुचिकरं हृद्यं दीपनं लघुपाकि च। , पित्तलं कफवातारकंडुक्रिमिविषापहम् ॥ ६९॥
इति पुष्पवर्गः। वर्वरी, कवरी, तुंगी, खरपुष्पा, अगंधिका और पर्णात वह वर्वरीके नाम हैं । काली बर्वरीको कटिल्लक और कुठेरक, श्वेत. बर्बरीको अर्जक और तीसरे प्रकारकी बर्बरीको वटपत्र कहते हैं। बर्बरीको हिन्दीमें बनतुळसी अथवा बर्वरी और फारसीमें पलंग मुक कहते हैं।
तीनों प्रकारकी वर्वरी-रूक्ष, शीत, कटु, दाहोत्पादक, तीक्ष्ण, रुचिकारक, हदयको प्रिय, दीपन, पाकमें हलकी, पित्तवर्धक और कफ, वात रक्तविकार, कण्डु, कृमि तथा विषको दूर करनेवाली है ॥ ६७-६९ ॥
इति श्रीविद्यालंकार-शिवशर्मवैद्यशास्त्रिकृत--शिवप्रकाशिकाभाषायां
हरीतक्यादिनिघण्टौ पुष्पवर्गः समाप्तः ॥४॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
फलवर्गः ५.
( १६३ )
तत्रादावाम्रस्य नाम, गुणाः 1
आम्रश्वतो रसलोऽसौ सहकारोऽतिसौरभः । कामांगो मधुदूतश्च माकन्दः पिकवल्लभः ॥ १ ॥ आम्रपुष्पमतीसारकफपित्तप्रमेहनुत् । असृग्दरहरं शीतं रुचिकृद् ग्राहि वातलम् ॥ २ ॥ आम्र बालं कषायाम्ले रुच्यं मारुतपित्तकृत् । तरुणं तु तदत्यम्लं रूक्षं दोषत्रयास्रकृत् ॥ ३ ॥ आम्रमामं त्वचाहीनमातपेऽतिविशोषितम् । अम्लं स्वादु कषायं स्यादभेदनं कफवातजित् ॥४॥ पक्वं तु मधुरं वृष्यं स्निग्धं बलसुखप्रदम् । गुरु वातहरं हृद्यं वयं शीतमपित्तलम् ॥ ५ ॥ कषायानुरसं वह्निश्लेष्मशुक्रविवर्द्धनम् । तदेव वृक्षसंपक्वं गुरु वातहरं परम् || ६ || मधुराम्लरसं किंचिद्भवेत्तत्पित्तनाशनम् । आम्र कृत्रिमपक्वं चेत्तद्भवेत्पित्तनाशनम् ॥ ७ ॥ रसस्याम्लस्य हानेस्तु माधुर्य्याच्च विशेषतः । चूषितं तत्परं रुच्यं बल्यं वीर्य्यकरं लघु ॥ ८ ॥ शीतलं शीघ्रपाकि स्याद्वातपित्तहरं सरम् । तद्रसो गालितो बल्यो गुरुवतहरःसरः ॥ ९ ॥
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(१६४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
अहृद्यस्तर्पणोऽतीव बृंहण कफवर्द्धनः । तस्य खंडं गुरु परं रोचनं चिरपाकि च ॥ १०॥ मधुरं बृंहणं बल्यं शीतलं वातनाशनम् । वातपित्तहरं रुच्यं बृंहणं बलवर्द्धनम् ॥ ११ ॥ वृष्यं वर्णकरं स्वादु दुग्धानं गुरु शीतलम् ॥१२॥ मंदानलत्वं विषमज्वरं च रक्तामयं बद्धगुदोदरं च । आघ्रातियोगो नयनामयं च करोति तस्मादति तानि नाद्यात् ॥ १३ ॥ एतदम्लाम्रविषयं मधुराम्रपरं न तु। मधुरस्य पर नेत्रहितत्वाया गुणा यतः ॥ १४ ॥ शंव्यम्भसोऽनुपानं स्यादाम्राणामतिभक्षणे । जीरकं वा प्रयोक्तव्यं सह सौवर्चलेन च ॥ १५ ॥ प्रथम आमके नाम और गुण कहते हैं-आम्र, चत, रसाल, सहकार, पतिसौरभ, कामांग, मधुक्त, माकन्द और पिकवल्लभ यह आमके नाम हैं। इसे हिन्दी में प्राम, फारसीमें प्रांबा और अंग्रेजीमें Mango कहते हैं।
आमका फूल-शीतल, रुचिकारक, ग्राही, वातकारक और अतितार, कफ, पित्त, प्रमेह, रक्तप्रदर इनको नष्ट करनेवाला है।
कच्चा माम-कसैला, खट्टा, रुचिकारक, वायु और पित्तको बढानेवाला होता है। तरुण (बड़ा और विना पका) पाप-प्रत्यन्त खट्टा, कक्ष और त्रिदोष तथा रक्तविकारको दर करनेवाला है। छिला हुआ कच्चा और धूपमें सुखाया हुमा पाम (भमचर)-अम्ल,स्वादु, कलैला, भेदन और कफ तथा वातको जीतने वाला होता है।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । ( १६५ )
पक्का आम- मधुर, वीर्यवर्धक, स्निग्ध, बल धौर सुखके देनेवाला भारी, वातनाशक, हृदयको प्रिय, वर्णको उत्तम करनेवाला, शीतल पित्तको न करनेवाला, कषाय रसवाळा और अग्नि, कफ तथा वीर्यको बढानेवाला होता है ।
वृक्षपर पका हुबा आम· भारी, वातनाशक, मधुर, अम्ल रसवाला और पित्तको किञ्चित नष्ट करनेवाला होता है। कृत्रिमताले पकाया हुआ आम अम्ल न होने से तथा अत्यन्त मधुर होने से पित्तको नष्ट करता है । चूसा हुआ ग्राम अत्यन्त रुचिकारक, बलवर्धक, वीर्यकारक, हलका, शीतल, शीघ्र पाचन करनेवाला, वात और पित्तको हरनेवाला तथा दस्तावर है | आमका निकाला हुआ रस-बलवर्धक, भारी, वातनाशक, दस्तावर, हृदयको अप्रिय, तृप्तिकारक, धातुभोंको पुष्ट करनेवाला और कफवर्धक है। आमका खण्ड ( सुरख्या) भारी, अत्यन्त रुचिकारक, व देर में पकनेवाला, मधुर, वातुओं को पुष्ट करनेवाला, बलकारक, शीतल और वातनाशक है ।
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दूधके साथ खाया हुआ आम-वात तथा पित्तको हरनेवाला, रुचिकारक, पुष्टिकारक, बलवर्धक, वीर्यको बढानेवाला, वर्णको उत्तम करनेवाला, स्वादु, भारी और शीतल है ।
ग्रामका अत्यन्त भक्षण करना- मन्दाग्नि, विषमज्वर, रक्तविकार, मलका रोध, उदररोग तथा नेत्रव्याधियों को उत्पन्न करता है । इसलिये ग्रामको बहुत नहीं खाना चाहिये। यह दोष अम्ल आम खानेसे होते हैं, मधुरसे नहीं, क्योंकि मधुर आम खानेसे नेत्रों को हितकर यदि गुण होते हैं । यदि ग्राम अधिक खाने हों तो सडके पानी अथवा जीरा पौर काले नमक के साथ साथ सेवन करना चाहिये ॥ १--१५ ॥
अथाम्रावर्तस्य लक्षणं गुणाश्च ।
पकस्य सहकारस्य पटे विस्तारितो रसः । धर्मशुष्को मुहुर्दत्त आम्रावत इति स्मृतः ॥ १६
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(१६६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
आम्रावर्तस्तृषाच्छर्दिवातपित्तहरः सरः । रुच्यः सू-शुभिः पाकाल्लघुश्च स हि कीर्तितः१७॥ पके हुए आमका रस वस्त्रपर विछाकर धूपमें बार २ रस डालकर मुखाया हुमा आम्रावर्त कहलाता है। पाम्रावर्त--दस्तावर, रुचिकारक, सूर्यकी किरणों द्वारा पकनेसे लघु और प्यास, वमन, वात तथा पिसको हरता है ।। १६ ॥ १७ ॥
आम्रबीजम् । आम्रबीजं कषायं स्याच्छर्यतीसारनाशनम् । ईषदम्लं च मधुरं तथा हृदयदाहनुत् ॥ १८॥ आमकी गुठली- कसैली, किश्चित भग्न, मधु, हृदयकी दाहको नष्ट करनेवाली और वमन तथा अतीसारको नष्ट करनेवाली है ॥ १८ ॥
नवपल्लवम् । आम्रस्य पल्लवं रुच्यं कफपित्तविनाशनम् । पाम्रके पत्ते-रुचिकारक और कफ तथा पिसको नष्ट करते हैं।
आम्रातकम् । आम्रातकः पीतनश्च मर्कटाम्रः कपीतनः ॥ १९ ॥ आम्रातमम्लं वातघ्नं गुरूष्णं रुचिकृत्सरम् । पक्कं तु तुवरं स्वादु रसे पाके हिमं स्मृतम् ॥२०॥ तर्पणं श्लेष्मलं स्निग्धं वृष्यं विष्टंभि बृंहणम् । गुरु बल्यं मरुत्पित्तक्षतदाहक्षयास्रजित् ॥२१॥ पानातक, पीतने, मर्कटाम्र और कपीतन यह अम्बोडके नाम हैं। इसको हिन्दी में अम्बाडा और अंग्रेजी में Spondias Minate कहते हैं।
मानंतक-खट्टा, वातनाशक, भारी, उष्ण, रुचिकारक और दस्तावर है। पका हुआ आम्रातक-कसैला, स्वादु, रस"तथा पाकमें शीतल,
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( १६७ )
तृप्तिको करनेवाला, कफकारक, स्निग्ध, वीर्यवर्धक, मळके बन्धको करनेवाला, पुष्टिकारक, भारी, बलकारक और वायु, पित्त, क्षत, दाह, क्षयः तथा रक्तविकारको दूर करता है । १९-२१ ॥
राजाम्रम् ।
राजा म्रष्टंग आम्रातः कामाह्वो राजपुत्रकः । राजानं तुवरं स्वादु विशदं शीतलं गुरु ॥ २२ ॥ ग्राहि रूक्षं विबंधाध्मवातकृत्कफपित्तनुत् ।
राजाम्र, टंग, साम्रात, कामाद और राजपुत्रक यह कलमी ग्रामके नाम हैं । इसे हिन्दीमें कलमी आम और मालदह आम कहते हैं ।
राजा म्र- कसैला, स्वादु, विशद, शीतल, भारी, ग्राही, रूक्ष, कफ और पित्तको नष्ट करनेवाला और विवन्ध, प्राध्मान, वात तथा कफ इनको बढानेवाला है ॥ २२ ॥
कोशाम्रम् ।
कोशाम्र उक्तः क्षुद्राम्रः कृमिवृक्षः सुकोशकः ॥ २३ ॥ कोशाम्रः कुष्ठशोथास्रपित्तत्रणकफापहः । तत्फलं ग्राहि वातघ्नमम्लोष्णं गुरु पित्तलम् ॥२४॥ पक्वं तु दीपनं रुच्यं लघूष्णं कफवातनुत् ।
कोशाम्र, क्षुद्राम्र, कृमिवृक्ष, सुकोशक यह छोटे आमके नाम हैं । कशाम्र - कुष्ठ, शोथ, रक्तविकार, पित्त, व्रण और कफ इनको नष्ट करता है। कोशाम्रका फल-ग्राही, वातनाशक, खट्टा, गरम, भारी पित्तकारक होता है । इसका पका हुआ फल- दीपन, रुचिकारक, हलका, गरम तथा कफ और वातको दूर करनेवाला है ॥ २३ ॥ २४ ॥
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घनसः ।
पनसः कंटकिफलः पनसोऽतिबृहत्फलः ॥ २५ ॥ पनसं शीतलं पक्वं स्निग्धं पित्तानिलापहम् |
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( १६८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । तर्पणं बृहणं स्वादु मांसलं श्लेष्मलं भृशम् ॥२६॥ बल्यं शुक्रपदं हंति रक्तपित्तशतव्रणान् । आम तदेव विष्टंभि वातलं तुवरं गुरु ॥२७॥ दाहहृन्मधुरं बल्यं कफमेदोविवर्द्धनम् । पनस, कंटकिफल और अतिवृहत्फल यह पनसके नाम हैं। इसे हिन्दीमें कटहर अथवा कटहल कहते हैं। कटहरका पका हमा फलशीतल, स्निग्ध, पिन और वायुको घटानेवाला, बन तथा शुक्रको बढाने वाला और रक्तपित्त, क्षत और व्रणोंको दूर करता है। कच्चा कटहरविष्टम्भकारक, वातवर्धक, कसैला, भारी, दाहको हरनेवाला, मधुर पौरपत, कफ, मेद इनको बढानेवाला है ।। २५-२७ ॥
लकुचम् ।
लकुचः क्षुद्रपनसो लिकुचो डहुरित्यपि ॥२८ ॥ आम लकुचमुष्णं च गुरु विष्टंभकृत्तथा। मधुरं च तथाम्लं च दोषत्रयविरक्तकृत् ॥ २९॥ शुक्रानिनाशनं वापि नेत्रयोरहितं स्मृतम् । सुपक्वं तनु मधुरमम्लं चानिलपित्तहत् ॥३०॥ कफवह्निकरं रुच्यं वृष्यं विष्टंभकं च तत् । लकुच, क्षुद्रपनस, लिकुच और डहु यह बड़हलके नाम हैं। बड़हलखट्टा, त्रिदोष और रक्तविकारोंको उत्पन्न करनेवाला, शुक्र पौर अग्निको भष्ट करनेवाला और नेत्रोंको हानि करनेवाला है। पका बड़हल-मधुर, सहा, वात तथा पिनको हरनेवाला, कफ और अग्निको बढानेवाला, रुचिकारक वीर्यवर्धक भौर विष्टम्भ करनेवाला है । २८-३०॥
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मोचाफलम् ।
( १६९ )
कदली वारणसा रंभा मोर्चाशुमत्फला ॥ ३१ ॥ मोचाफलं स्वादु शीतं विष्टंभि कफनुद्गुरु 1 स्निग्धं पित्तास्रतृड्रदाहक्षतक्षयसमीरजित् ॥ ३२ ॥ पक्वं स्वादु हिमं पाकं स्वादु वृष्यं च बृंहणम् । क्षुनेत्रामयहरं मेहनं रुचिमांसकृत् ॥ ३३ ॥ माणिक्यमय मृतचंपकाद्या भेदाः कदल्या बहवोऽपि संति । उक्ता गुणास्तेष्वधिका भवंति निदाषता स्याल्लघुता च तेषाम् ॥ ३४ ॥
कदली, वारणा, रंभा, मोचा, अंशुमत्फला यह कदलीके नाम हैं 1 इसे हिंदी में केला, फारसी में मावजबोझ, अंग्रेजीमें Plantain कहने हैं ।
कदलीफल - स्वादु, शीतल, विष्टम्भकारक, कफनाशक, भारी, स्निग्ध पौर पित्त, रक्तविकार, तृषा, दाह, क्षत, क्षय और वायुको नष्ट करनेवाले होते हैं । केले का पका हुआ फल-स्वादु, शीतल, पाकमें मधुर, वीर्यवर्धक, पुष्टिकारक, रुचि तथा मांसको बढानेवाला और भूख, प्यास, नेत्रोंके रोग तथा प्रमेहको नष्ट करनेवाला है। माणिक्य, मर्त्य, अमृत तथा चम्पकादि भेदोंसे कदली कई प्रकारकी है। उनमें उक्त गुण हैं किन्तु निर्दोषता और लघुता यह अधिक हैं ।। ४१-३४ ॥
चिर्भटम् ।
चिर्भटं धेनुदुग्धं च तथा गोरक्षकर्कटी । चिर्भटं मधुरं रूक्षं गुरु पित्तकफापहम् ॥ ३५ ॥
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( १७०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
अनुष्णं ग्राहि विष्टभि बालं चानिलकोपनम् । कफपित्तकरं स्यंदि पकं तृष्णं च पित्तलम् ॥ ३६॥ चिर्भट, धेनुदुग्ध और गोरक्षकर्कटी यह चिन्भडके नाम हैं । इसको हिन्दीमें चिम्भड, फारसीमें खयार पौर अंग्रेजी में Pubescetcucudmber कहते हैं।
बालचिर्भट-मधुर, रूक्ष, भारी, पित्त और कफको हरनेवाला, अनुग्ण, ग्राही, विष्टम्भकारक है । पश्यचिर्भट-गरम तथा पित्तवर्धक है ॥३५॥३६॥
नारिकेलम् । नारिकेलो दृढफलो लांगली कूर्चशीर्षकः । तुङ्गः स्कंधफलश्वोच्चस्तृणराजः सदाफलः ॥ ३७॥ नारिकेलफलं शीतं दुर्जरं वस्तिशोधनम् ।
विष्टंभि बृंहणं बल्यं वातपित्तास्त्रदाहनुत् ॥ ३८॥ विशेषतः कोमलनारिकेलं निहंति पित्तज्वरपित्तदोषान् । तदेव जीण गुरु पित्तकारि विदाहि विष्टभि मतं भिषग्भिः
तस्यांभः शीतलं हृद्यं दीपनं शुक्रलं लघु । पिपासापित्तजित्स्वादु वस्तिशुद्धिकरं परम् ॥४०॥ नारिकेलस्य तालस्य खजूरस्य शिरांसि च । कषायस्निग्धमधुरबृंहणानि गुरूणि च ॥४१॥ नारिकेल, दृढफल , लांगली, कूर्चशीर्षक, तुंग, स्कन्धफल, उच्च, तृणराज और सदाफल यह नारिकेल के नाम हैं। इसको हिन्दी में नारियल, फारसीमें फराज, और अंग्रेजीमें Coconut Palm कहते हैं।
नारियल-शीत, दुर्जर, वस्तिशोधक विष्टम्भकारक, बलवर्धक तथा वात, पित्त, रक्तविकार पौर दाहको नष्ट करनेवाला है। कोमल
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१७१) नारियल-विशेष करके पित्तज्वर, और पित्तदोषों को दूर करता है । जीर्ण नारियम-भारी, पित्तकारक दाहोत्पादक और विष्टम्भकारक है। नारियलका जल-शीतल, हृदयको प्रिय, वीर्यवर्धक, दीपन, हलका, प्यास पौर पित्तको जीतनेवाला, स्वादु और वस्तिको शुद्ध करने वाला है। नारियल, ताल और खजूर इनकी शिरा कसैली, स्निग्ध, मधुर, पुष्टिकारक मौर भारी होती है ॥ ३७-४१ ॥
___कालिन्दम् । कालिन्दं कृष्णबीजं स्यात्कालिंगञ्च सुवर्तुलम् । कालिन्द ग्राहि दृपित्तशुक्रहृच्छीतलं गुरु ॥४२॥ पक्वं तु सोष्णं सक्षारं पित्तलं कफवातजित् । कालिन्द. कृष्णबीज, कालिंग और सुवर्तुल यह तरबूजके नाम हैं। इसे हिन्दीमें तरबूज, फारसीमें हदवाना और अंग्रेजी में Water Malon कहते हैं । तरबूज-ग्राही, शीतल, भारी पौर दृष्टि, पित्त और वीर्यको हरनेवाला है। पका हुमा तरबूज-गरम, क्षारयुक्त, पित्तकारी और कफ तथा वायुको जीतनेवाला है ॥ ४२ ॥
दशांगुलम् । दशांगुलं तु खर्बुजं कथ्यते तद्गुणा अथ ॥ १३॥ खबूंजं मूत्रलं बल्यं कोष्ठशुद्धिकरं गुरु । स्निग्धं स्वादुतरं शीतं वृष्यं पित्तानिलापहम् ॥४४॥ तेषु यच्चाम्लमधुरं सक्षारं च रसाद्भवेत् । रक्तपित्तकरं तत्तु मूत्रकृच्छ्रहरं परम् ॥४९॥ दशांगुल और खबूज यह खरबूजेके नाम हैं । इसे हिन्दी और फारसीमें खरबूजा और अंग्रेजी में Melon करते हैं।
खरबूजा-मूत्रवर्धक, बलकारक को ठेकी शुद्धिको करनेवाला, भारी, स्निग्ध, स्वादुतर, शीत, वीर्यवर्धक और पित्त तथा वायुको नष्ट करने
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( १७२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । वाला है। खट्टा खरबूजा-मधुर, क्षार, रक्तपित्तनाशक और मूत्रकृच्छ्रको दर करनेवाला है ।। ४२-४५ ॥
पुसम्। त्रपुस कंटकिफलं सुधावासः सुशीतलम् ।
पुस लघु शीतं च नवं तृट्कमदाहजित् ।। ४६॥ स्वादुपित्तापहं शीतं तिक्तं कृच्छ्रहरं परम् । तत्पकमलमुष्णं स्यात्पित्तलं कफातनुत् ॥४७॥ तद्बीजं मूत्रलं शीतं रूक्षं पित्तास्रकृच्छ्रजित् । बपुस, कंटकिफल, सुध वास और सुशीतल यह खीरे के नाम हैं। इसे हिन्दीमें खीरा, फारसी में शियारखुर्द और अंग्रेजी में cucumbet कहते हैं। छोटा और नवीन खीरा-शीतल, स्वादु, पिननाशक, तिक्त और कृच्छू, प्याल,ग्लानि पौर दाहको दूर करता है। पका हुआ खीरा-खट्टा, गरम, पित्तकारक तथा कफ और बातको दूर करनेवाला है। वीरेका बीज-मूत्रल, शीतल, रूक्ष और पित्त, रक्तविकार तथा कृपछूको जीतनेवाला है। ४६ ॥४७॥
कमुकम्। घोंटा पूगी च पूगश्च गुवाका क्रमुकस्य तु ॥१८॥ फलं पूगीफलं प्रोक्तमुद्धेगं च तदीरितम् । पूगं गुरु हिमं रूक्षं कषायं कफपित्तजित् ॥ ४९ ॥ मोहनं दीपनं रुच्यमास्यवैरस्यनाशनम् । आद्र तद्गुर्वभिष्यंदि वह्निदृष्टिहरं स्मृतम् ॥ ५० ॥ स्विनं दोषत्रयच्छेदि दृढमध्यं तदुत्तमम् । घोंटा, पूंगी, पूग, गुवाक और क्रमुक यह सुपारीके नाम है। इसके फलको पूगीफल तथा उद्वेग कहते हैं । इसको हिन्दीमें सुपारी, फारसीमें पोपिल और अंग्रेजीमें Betinut Palm कहते है।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी . ।
( १७३ )
सुपारी भारी, शीतल, रूक्ष, कसैती, कफ और पित्तको जीतनेवाली, मोहन करनेवाली, दीपन, रुचिकारक, मुखकी विरसताका नाश करनेवाली है। गोली सुपारी-भारी, अभिष्यंदि और अग्नि तथा दृष्टीको हरनेवाली है। चिकनी सुपारी त्रिदोषनाशक है । जिस सुपारीका मध्यभाग दृढ हो वह उत्तम गुणोंवाली होती है ॥ ४८-५० ॥
तालम् ।
तालस्तु लेखपत्रः स्यात्तृणराजो महोन्नतः ॥ ५१ ॥ पक्कतालफलं पित्तरक्तश्लेष्म विवर्द्धनम् । दुर्जरं बहुमूत्रं च तंद्राभिष्यंदशुक्रदम् ॥ ५२ ॥ तालमज्जा तु तरुणा किंचिन्मदकरो लघुः । श्लेष्मलो वातपित्तघ्नः सस्नेहो मधुरः सरः ॥ ५३ ॥
ताल,
लेखपत्र, तृणराज और महोत्रत यह ताडके नाम हैं । इसे हिन्दी में ताड, फारसी में ताल तथा अंग्रेजी में Palmypalm कहते हैं । तालका पका हुआ फल-पित्त, रक्त और कफकों बढानेवाला, दुर्जर, बहुत मूत्रको लानेवाला, अभिष्यन्दकारक तथा तन्द्रा और वीर्यको उत्पन्न करनेवाला है। नवीन ताडकी मज्जा-किञ्चित् मदको करनेवाली, हलकी, कफकारक वात-पित्तनाशक स्निग्ध, मधुर और दस्ताबर है ॥ ५१--५३ ॥
ताडी ।
तालजं तरुणं तोयमतीत्र मदकृन्मतम् । अम्लीभूतं यदा तु स्यात्पित्तातदोषहृत् ॥ ५४ ॥
तालका नवीन रस- अत्यन्त मदकारी होता है । यदि वह खट्टा हो जाय तो पित्तकारक और वातके दोषोंको हरनेवाला है ॥ ५४ ॥
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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी . ।
शालफलम् ।
शालं फलं रूक्षशीतं मधुरं स्तंभनं गुरु । कषायं लेखनं स्तन्यवाताध्मान विबंधकृत् ॥ ५५ ॥ पित्तदाहतृषाकासक्षतक्षयविषास्रनुत ।
( १७४ )
शालको हिन्दी में साल और अंग्रेजी में Soltree कहते हैं । शालका फल - रूक्ष, शीतल, मधुर, स्तंभनकारक, भारी, कसैला, लेखन और दूध वर्धक, वायु, आध्मान तथा विबन्धको करता है। तथा पित, दाह, प्यास, खांसी, क्षत, क्षय, विष और रक्तविकारोंको दूर करनेवाला है ॥ ५५ ॥
बिल्वः ।
बिल्वः शांडिल्य शैलूषौ मालूर श्रीफलावपि ॥ ५६ ॥ बालं बिल्वफलं बिल्वकर्कटी बिल्वपेशिका | ग्रहणी कफवातामशूलघ्नी बिल्वपेशिका ॥ ५७ ॥ बालं बिल्वफलं ग्राहि दीपनं पाचनं कटु । कषायोष्णं लघु स्निग्धं तिक्तं वातकफापहम् ॥५८॥ पक्वं गुरु त्रिदोषं स्याद्दुर्जरं पूतिमारुतम् । विदाहि विष्टंभकरं मधुरं वह्निमांद्यकृत् ॥ ५९ ॥
बिल्व, शाण्डिल्य शैलूष, मालूर और श्रीफल यह बेळके नाम हैं। इसे हिन्दी में बिल अथवा बेल, अंग्रेजीमें Bangolkins कहते हैं। विश्व कर्कटी और विश्व पेशिका यह बालबिलके नाम हैं ।
बालबिल — ग्राही और कफ, वात, ग्राम तथा शूलको नष्ट करता है । अन्य ग्रन्थों में लिखा है कि बच्चा बिल-ग्राही, दीपन पाचन, कटु, कसैला, गरम, स्निग्ध और वात तथा कफको हरनेवाला हैं। पक्का बिल - भारी, त्रिदोषकारक, दुर्जर, दुर्गन्धित, दाहोत्पादक, विष्टंभकारक, मधुर पौर अग्निको मन्द करनेवाला है ॥ ५६ ॥ ५९ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१७५ )
कपित्थम् । कपित्थस्तु दधित्थः स्यात्तथा पुष्पफलः स्मृतः । कपिप्रियो दधिफलस्तथा दंतशठोऽपि च ॥ ६० ॥ कपित्थमाम संग्राहि कषायं लेखनं लघु । पक्वं गुरु तृषाहिकाशमनं वातपित्तजित् ॥ ६१ ॥ स्वाद्वम्लं तुवरं कण्ठशोधनं ग्राहि दुर्जरम् । कपित्थ, दधित्थ, पुष्पफल, कपिप्रिय, दधिफल और दंतशठ यह कैथके नाम हैं। इसे हिन्दीमें कैथ और अंग्रेजीमें woodapple कहते हैं। कच्चा कैथ-ग्राही, कसैला, लेखन और हलका है । पक्क कैथ-भारी, प्यास और हिचकियोंको दूर करनेवाला, वात तथा पित्तको जीतनेवाला, स्वादु, अम्ल, कसैला, कण्ठको शुद्ध करनेवाला, ग्राही तथा दुर्जर है ॥६०॥६१॥
नारंगम् । नारंगो नागरंगः स्यात्त्वक्सुगंधो मुखप्रियः ॥६२॥ नारंगं मधुराम्लं स्याद्रोचनं वातनाशनम् ।
अपर त्वम्लमत्युष्णं दुर्जरं वातहृत्सरम् ॥ ६३ ॥ नारंग, नागरंग, त्वम्सुगन्ध पौर मुखप्रिय यह नारंगीके नाम हैं । इसे हिन्दीमें नारंगी, फारसीमें नारंग और अंग्रेजीमें Orrange कहते हैं। नारंग-मधुर, खट्टा, रुचिकारक, वातनाशक है। दूसरी प्रकारके नारंगी--अम्ल, अत्यन्त उष्ण, दुर्जर, वातहारक और दस्तावर है॥ ६२ ॥ ६३ ॥
तिंदुकम् । तिदुकः स्फूर्जकः कालस्कंधश्च शितिसारकः । स्यादामं तिंदुकं पाहि वातलं शीतलं लघु ॥६४ ॥ पक्वं पित्तप्रमेहास्रश्लेष्मघ्नं मधुरं गुरु।। सिंदुक्त, स्फूर्जक, कालस्कन्ध और शितिसारक यह तेन्दूके नाम हैं।
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( १७६ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी . ।
इसको हिन्दी में तेन्दू, फारसी में जनुबस और अंग्रेजीमें Ehony कहते हैं । कच्चा तेन्दु-ग्राही, वातकारक, शीतळ और भारी है। पका हुआ तेन्दु - मधुर, भारी और पित्त, प्रमेह, रक्तविकार तथा कफको जितनेवाला है ॥ ६४ ॥
कुपीलुः । तिंदुकः कथितो यस्तु जलजो दीर्घपत्रकः ॥ ६५ ॥ कुपीलुः कुलकः काकतिंदुकः कालपीलुकः । काकेन्दुर्विपतिदुश्च तथा मर्कटतिंदुकः ॥ ६६ ॥ कुपीलु शीतलं तिक्तं वातलं मदकृल्लघु । पादव्यथाहरं ग्राहि कफपित्तविनाशनम् ॥
६७ ॥
जो सिन्दुक जल में उत्पन्न हो उसको दीर्घपत्रक, कुपिलु, कुलक, काक तिन्दुक, कालपीलुक, काकेंदु, विषतिन्दु और मर्कटतिन्दुक कहते हैं । इसको हिन्दीमें काकतेंदु, अथवा कुचला, फारसी में इफराको और अंग्रेजी में Paison Nut कहते हैं। कुचला - शीतळ तिक्त, वातकारक, मदवर्धक, हलका, पेश्की पीडाको हरनेवाला, ग्राही तथा कफ और पित्तको नष्ट करनेवाला है ॥ ६५ ॥ ६७ ॥
फलेंद्रः । फलेन्द्रः कथिता नंदी राजजबूर्महाफला । तथा सुरभिपत्रा च महाजंबूरपि स्मृता ॥ ६८ ॥ राजजबूफलं स्वादु विष्टंभि गुरु रोचनम् । क्षुद्रजम्बूः सूक्ष्मपत्रो नादेयी जलजंबुकः ॥ ६९ ॥ जम्बू : संग्राहणी रूक्षा कफपित्तास्रदादजित् ।
फलेंद्र, नंदी, राजजम्बू, महाफना, सुरभिग्वा और महाजंबू यह बड़ी जामुन के नाम हैं। इसको अंग्रेजीमें Jamdil tree कहते हैं ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१७७) राजजम्बूफल--स्था, विष्टम्भकारक, भारी और रुचिकारक है । शुद. नम्बू, सक्षमपत्र, नादेयी और जलज बुक यह छोटी जामुन के नाम हैं। छोटी जामुन-ग्राही, रूक्ष और कफ, पित्त, रक्त विकार तथा दाहको जी। नेपाली है ॥ ६८ ॥ ६९ ॥
बदरम् । पुंसि स्त्रियां च कर्कधूर्बदरी कोलमित्यपि ॥ ७० ॥ फेनिलं कुवलं घोंटा सौवीरं बदरं महत् । अजाप्रियः कुडाकोलिविषमो भयकंटकः ॥ ७॥ कर्कन्धू, बदरी कोल, फेनिल, कुशल, घोंटा और सौवीर यह बडे वेर के नाप हैं । अजाप्रिय, कुहा, कोलि, विषम और भरकंटक यह छोटे चेरके नाम ॥ ७० ॥ ७१ ॥
बदरविशेषाणां लक्षणगुणाश्च । पच्यमानं तु मधुरं सौवीरं बदरं महत। सौवीरं बदरं शीतं भेदनं गुरु शुक्रलम्॥ ७२ ॥ बृंहणं पित्तदाहालक्षयतृष्णानिवारणम् । सौवीरं लघु संपक्वं मधुरं कोलमुच्यते ।। ७३ ॥ कोलं तु बदरं ग्राहि रुच्यमुष्णं च वातलम् । कफपित्तकरं चापि गुरु सारकमीरितम् ॥ ७४ ॥ ककन्धुः क्षुद्रबदरं कथित पूर्वसूरिभिः । अम्लं स्यात्क्षुद्रबदरं कषाय मधुरं मनाक् ॥ ७९ ॥ स्निग्धं गुरु च तितं च वातपित्तापहं स्मृतम्।
शुष्कं भेद्यग्निकृत्सर्व लघुतृष्णाक्लमात्रजित ।। ७६॥ पके हुए मधुर और बडे बेरको सौवीर कहते हैं। सौवीर-शीतल
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( १७८) भावप्रकाशनिघण्टुःभा. टी.। भेदन, भारी, वीर्यवर्धक, आयुको बढानेवाला और पित्त,दाह,रक्तविकार, भय और तृष्णा इनको निवारण करता है।पके हुए छोटे बेरको कोल कहते हैं। कोल-ग्राही, रुचिकारक, गरम, वातकारक, कफ, पित्तको बढानेवाला, भारी तथा दस्तावर है । अत्याध छोटे बेरको कर्कन्धू कहते हैं। कर्कन्धू-अम्ल, कसला, किंचित् मीठा, स्निग्ध, भारी, तिक्त, वात तथा. पित्तको नष्ट करनेवाला है। शुष्कवेर-भेदन करनेवाला, अग्निवर्धक हलका और तृष्णा,कानि तथा रक्तविकारोको जीतनेवाला है ।।७२-७६॥
प्राचीनामलकम् । प्राचीनामलकं लोके पानीयामलकं स्मृतम् । प्राचीनामलकं दोषत्रयजिज्ज्वरघाति च ॥ ७७॥ प्राचीनामलक और पानीयामलक यह पानी आमने के नाम हैं। इसको अंग्रेजीमें Hacaurtia Cataphracta कहते हैं । प्राचीनामलक-त्रिदोष तथा ज्वरको जीतने वाना ॥७॥
लवली। सुगन्धमूला लवली पांडुकोमलवल्कला। लवलीफलमश्माश कफपित्तहरं गुरु ॥ ७८॥ विशदं रोचनं सूक्षं स्वादम्लं तुवरं रसे । सुगन्धमूला, लवली, पांडु और कोमल वल्कला यह लवलीके नाम है। इसको हिंदीमें हरफारेवडी तथा अंग्रेजी में Ciccodisticha कहते हैं।
लवलीका फल-भारी, स्वच्छ, रुचिकारक, रूक्ष, स्वादु, अम्ल, रसमें कसला और पथरी, अर्श, कफ तथा पित्तको हरनेवाला है ।। ७८ ॥
करमदः करमर्दका। करमर्दः सुषेणः स्यात्कृष्णपाकफलस्तथा॥ ७९ ॥ तस्माल्लघुफला या तु सा ज्ञया करमर्दिका।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१७९) करमर्दद्वयं त्वाममम्लं गुरु तृषापहम् ॥ ८० ॥ उष्णं रुचिकरं प्रोक्तं रक्तपित्तकफप्रदम् । तत्पक्वं मधुरं रुच्य लघुपित्तसमीरजित् ॥ ८१ ॥ करमर्द, सुषेण और कृष्ण पाकफल यह करौंदेके नाम हैं। जिसके छोटे परक हो उसको करमर्दिका (करौंदी) कहते हैं । इसको अंग्रेजी में Jasmine flowered Carriressa कहते हैं ।
कच्चे करौंदा करौंदी और खट्टे, भारी, प्यासको नष्ट करनेवाले,उष्ण, रुचिकारक और रक्तपित तथा ककको उत्पन्न करनेवाले हैं, पक्के करौंदे
और करौंदी-मधुर, रुचिकारक, हलके और पित्त तथा वायुको नष्ट कर नेवाले हैं। ७९ ॥ ८१॥
प्रियालम् । प्रियालस्तु खरस्कंधश्वारो बहुलवल्कलः । राजादनं तापसेष्टः सन्नकदुर्धनुःपटः ॥ ८२ ॥ चारस्तु पित्तकासनः तत्फलं मधुरं गुरु । स्निग्ध सरं मरुत्पित्तदाहज्वरतृषापहम् ॥ ८३॥ प्रियालमज्जा मधुरा वृष्या पित्तानलापहा ।
हृद्योऽतिदुर्जरः स्निग्धो विष्टंभी चामवर्द्धनः ॥८॥ प्रियाल, खरस्कन्ध, चार, बहुलवल्कल, राजादन, तापसेष्ट, सन्त्रकहूँ और धनु:पट यह चिरौंजीके नाम हैं। इसको हिन्दी में चिरौंजी, फार. सीमें बुकलेखाजा कहते हैं । चिरौंजी पित्त और कासको दूर करती है। उसका फल मधुर, भारी, स्निग्ध, दस्तावर और वायु, पित्त, दाह, ज्वर तथा पासको दूर करता है। चिरौंजीकी मजा-मधुर, वीर्यवर्धक, पित्त सथा अग्निको दूर करनेवाली, हृदयको हितकारी, अत्यन्त दुर्जर, स्निग्ध, विष्टम्भकारक और पामको बढाने वाली है ॥ ४५ ॥ ८४ ॥
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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी.
राजादनः ।
राजादनः फलाध्यक्षो राजन्या क्षीरिकापि च । क्षीरिकाया फलं वृष्यं बल्यं स्निग्धं हिमं गुरु ॥ ८५ ॥ तृष्णामूर्च्छामदभ्रांतिक्षयदोषत्रयास्रजित् ।
( १८० )
राजादन, फलाध्यक्ष, राजन्या और क्षीरिका यह खिरनीके नाम हैं । इसको अंग्रेजी में Obtuse Leaved Mimusops कहते हैं । खिरनीका फल - वीर्यवर्धक, बलकारक, स्निग्ध, शीतल, भारी और ध्यास, मूर्च्छा, मद, भ्रांति, क्षय, विदोष तथा रक्तविकारको दूर करता है ॥ ८५ ॥
विकंकतम् ।
विकंकतः मुवावृक्षो ग्रंथिलः स्वादुकंटकः ॥ ८६ ॥ स एव यज्ञवृक्षश्च कंटकी व्याघ्रपादपि । विकंकतफलं पक्वं मधुरं सर्वदोषजित् ॥ ८७ ॥
विकंकत, सुवावृक्ष, ग्रंथिल, स्वादुकण्टक, यज्ञवृक्ष, कण्टकी और कंडवाह, व्याघ्रपाद यह कंटाईके नाम हैं। कंटाईका पका हुआ फळ- मधुर और त्रिदोषनाशक है ॥ ८६ ॥ ८७ ॥
पद्मवीजम् ।
बीजं तु पद्माक्षं गालोढचं पद्मकर्कटी । पद्मबीजं हिमं स्वादु कषायं तिक्तकं गुरु ॥ ८८ ॥ विष्टंभि वृष्यं रूक्षं च गर्भस्थापनकं परम् । कफवातहरं बल्यं ग्राहि पित्तास्रदाहनुत् ॥ ८९ ॥
पद्मवीज, पद्माक्ष, गालोढ्य और पद्मकर्कटी यह कमल गट्टेके नाम हैं। कमलगट्टा - शीतल, स्वादिष्ट, कसैला, तिक्त, भारी, विष्टम्भकारक, वीर्यवर्धक, रूक्ष, गर्भको स्थापन करनेवाला, कफ और वातको हरनेवाला, बलकारक, [ग्राही और पित्तरक्तविकार तथा दाहको दूर करनेवाला
८८ ॥ ८९ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१८१)
मखाणम् । मखाणं पद्मबीजाभं पानीयफलमित्यपि । मखाणं पद्मबीजस्य गुणस्तुल्यं विनिर्दिशेत् ॥९॥ कमलगट्टे भून ले नेपर मखाणे हो जाते हैं । मखाण, पद्मवीमाभ पौर पानीयफल यह मखाणे के नाम हैं । मखाणेके कमगढेके समान
शृंगाटकम् ।
शृंगाटकं जलफलं त्रिकोणफलमित्यपि। शृंगाटकं हिमं स्वादु गुरु वृष्यं कषायकम् ॥९॥ ग्राही शुक्रानिलश्लेष्मप्रदं दाहालपित्तनुत्।
उक्त कुमुदबीजं तु बुधैः कैरविणीफलम् ॥ ९२ ॥ . भंगाटक, जलफल और त्रिकोणफल यह सिंघाडेके नाम हैं इसको हिन्दीमें सिंघाडा, फारसीमें सुरक्षान् और अंग्रेजीमें Water Caltrap कहते हैं। सिंघाड़ा-शीतल, सादु, भारी, वीर्यवर्धक, कलैला, ग्राही तथा शुक्र, वायु, और कफको बढ़ाता है । तथा दाह और रक्तपित्त को नष्ट करता है॥ ९१ ॥ ९२ ॥
कुमुदवीजम् । भवेत्कुमुद्रतीबीजं स्वादु रूक्ष हिमं गुरु । कुमुद्रती के बीज-स्वादिष्ट, रूक्ष, शीतल और भारी होते हैं ।
मधूक, जलमधूकम् । मधूको गुडपुष्पः स्थान्मधुपुष्पो मधुस्रवः ॥१३॥ वानप्रस्थो मधुष्ठीलो जलजोऽत्र मधूलकः। मधूकपुष्पं मधुरं शीतलं गुरु बृहणम् ॥ ९४ ॥ बलशुक्रकरं प्रोक्तं वातपित्तविनाशनम् ।
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(१८२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
फलं शीतं गुरु स्वादु शुकलं वातपित्तनुत् ॥ ९५ ।। अहृद्य हंति तृष्णास्त्रदाहश्वासक्षतक्षयान् । मधूक, गुडपुष्प, मधुपुष्र, मधुस्रव, वानप्रस्थ और मधुष्ठीन यह महुए के नाम हैं। जल में उत्पन्न महुएको मधूलक और जलमहुआ करते हैं। इसकी फारसीमें जका और अंग्रेजीमें Elloo Patree कहते हैं। महुपके फूल-मधुर, शीतल, गुरु, बृहण, बलकारक, वीर्यवर्द्धक और वात, पिनको नाश करनेवाले हैं। महुएके फल-शीतल, भारी, मधुर, वीर्यवईक, वात, पित्तनाशक और हृदय के लिये हानिकारक हैं। तथा प्यास, रक्त, दाह, श्वास, क्षत और ज्यको दूर करते हैं ।। ९३-९५ ॥
. . पालवतम् । पालेवतं सितं पुष्पैस्तिदुकाभं फलं मतम् ॥ ९६ ॥ अन्यान्माणवकं ज्ञेयं महापालेवतं तथा । स्वादम्लं शीतमुष्णं च द्विधा पालेवतं गुरु ॥९७॥ यत स्वादु मधुरं तच्छीतं यदम्लं तदुष्णकम् ।
उभयमपि गुरु इति हेमाद्रिः। पालेवतके फूल श्वेत होते हैं, फल विन्दुके समान होते हैं। दूसरा पालेवत माणवक और महापानेवत नामसे प्रसिद्ध है । पालेषत पहाडी सेवकी छोटी जाति है । अपालो और पालो नामसे प्रसिद्ध है। पालेषतमीठे और खट्टे दो प्रकार के होते हैं। मीठे शीतल पौर खट्टे उष्णस्वभावबाले होते हैं। दोनों प्रकारके पालेवत भारी होते हैं। यह हेमाद्रिका मत १॥९६॥ ९७ ॥
परूषकम् । परूषकं परुषकमल्पास्थि च परापरम ॥ ९८॥ परूषकं कषायाम्लमामं पित्तकरं लघु
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( १८३ )
तत्पक्वं मधुरं पाके शितं विष्टंभि बृंहणम् ॥९९॥ हृद्यं तु पित्तदादाखज्वरक्षयसमीरजित् ।
परूषक, परुष, अल्पास्थि और परापर यह फाल लेके नाम हैं । कच्चा फालसा - कसैला, हलका और पिनकारक है । पकनेपर रस और पाकमें मधुर, शीतल, विष्टम्भ, बृंहण औौर हृदयको हितकारी होता है । तथा पित्त, दाह, रक्त, ज्वर, क्षय और वायुको जीतता है ॥ ९८ ॥ ९९ ॥
तृतम् ।
तूदस्तूतं च यूपश्च क्रमुको ब्रह्मदारु च ॥ १०० ॥ तृतं पक्वं गुरु स्वादु हिमं पित्तानिलापहम् । तदेवामं - गुरु सरमम्लोष्णं रक्तपित्तकृत् ॥ १०१ ॥
तूद, तूत, यूप, क्रमुक और ब्रह्मदाह यह शहतूत के नाम हैं । इसे हिन्दी में सहतूत, फारसी में शहतूत, अंग्रेजी में Mulberrias कहते हैं । पके हुए तूत भारी, स्वादु, शीतल, पित और वायुको हरनेवाले होते हैं। कच्चे तून भारी, दस्तावर, खट्टे, उष्णा और रक्त पितको करनेवाले होते हैं ॥ १०० ॥ १०१ ।
दाडिमम् । दाडिमः करको दंतबीजो लोहितपुष्पकः । तत्फलं त्रिविधं स्वादु स्वाद्वम्लं केवलाम्लकम् १०२ तत्त स्वादु त्रिदोषघ्नं तृड्दाहज्वरनाशनम् । हृत्कंठमुखरोगघ्नं तर्पणं शुकलं लघु ॥ १०३ ॥ कषायानुरसं ग्राहि स्निग्धं मेधाबलावहम् । स्वाद्वम्लं दीपनं रुच्यं किंचित्पित्तकरं लघु ॥ १०४ ॥ अम्लं तु पित्तजनकमामवातकफापहम् । दाडिम, कारक, दन्तबीज और लोहित
यह अनार के नाम हैं ।
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अनार के फल तीन किसमके होते हैं-मीठे, खटूटेमिट्ठे पर केवल खट्टे ।
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(१८४ ) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। इनमें मीठे अनार-त्रिदोषनाशक, प्यास, दाह और ज्वरका नाश करने वाले, हृदय, कण्ठ और मुखरोगोंको हरनेवाले, तृप्तिकारक, बीर्यवर्धक, हलके, कषायानुरस प्राही, स्निग्ध, मेधा और बल के करनेवाले हैं।
खटमिठा अनार-दीपन, रुचिकारक, किंचित् पित्तको करनेवाला और हलका होता है। खट्टा अनार-पित्तकारक. आमवात और कफके हरनेवाला होता है ॥ १०२.१०४ ॥
बहुवारः। बहुवारस्तु शीतः स्यादुद्दालो बहुवारकः ॥ १०५॥ शेलुः श्लेष्मातकश्चापि पिच्छिलो भूतवृक्षकः। . बहुवारो विषस्फोटवणवीसर्पकुष्ठनुत् ॥ १०६॥ मधुरस्तुवरस्तितः केश्यश्च कफपित्तहत् । फलमाम तु विष्टभि रूक्षं पित्तकफास्त्रजित् ।।१०७॥ तत्पक्वं मधुरं स्निग्धं श्लेष्मलं शीतलं गुरु । बहुवार, शीत, उद्दाल, बहुवारक, शेलु, श्लेग्मांतक, पिच्छिन और भृतवृक्ष यह लिप्सोदेके नाम हैं। इसको हिन्दीमें लिसोढ़, फारसी में सपिस्ता, अंग्रेजीमें Narrow leaved Sepistun करते हैं लिसोड़ा-: विष, फोडे, व्रण, विसर्प और कुषको नष्ट करता है। मधुर, कसैना और तिक्त है, वेशीको हितकारी तथा कफपित्त के जीतनेवाला है। इसके कच्चे फल विष्टम्भी, रूक्ष और पित्त, कफ तथा रक्त के जीतनेवाले हैं। इसके पके हुए फल-धुर, स्निग्ध, कफकारक, शीतल और भारी होते हैं ॥ १०५.१०७॥
- कतकम् । एयामसादि कतकं कत्तकं तत्फलं च तत् ॥१०८॥ कतकस्य फलं नेत्र्यं जलनिर्मलताकरम् । वातश्लेष्महरं शीतं मधुरं तुवरं गुरु ॥ १०९ ॥ पयःप्रसादी, कतक और कत्तक यह निर्मली धुक्ष तथा फलोंके नाम
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। हैं। निर्मलीके फल-नेत्रोंको हितकारी, जलको निर्मल बनानेवाले, बात
और कफके हरनेवाले, शीतल, मधुर, कसैले और भारी होते हैं। इसे अंग्रेजीमें A nut which clears water कहते हैं ॥ १०८ ॥ १०९॥
द्राक्षा। द्राक्षा स्वादुफला प्रोक्ता तथा मधुरसापि च। मृद्वीका हारहूरा च गोस्तनी चापि कीर्तिता । ११०॥ द्राक्षापक्वा सराशीता चक्षुष्यावृहणी गुरुः।। स्वादुपाकरसा स्वर्या तुवरा सृष्टमूत्रविट् ॥ १३१॥ कोष्ठमारुतकृद् वृष्या कफपुष्टिरुचिप्रदा । हंति तृष्णावरश्वासवातवातास्त्रकामलाः ॥११२॥ कृच्छ्रास्त्रपित्तसम्मोहदादशोषमदात्ययान । आमा स्वल्पमुणा गुर्वी सैवाम्ला रक्तपित्तकृत् ११३ वृष्या स्थागोस्तनी द्राक्षा मुर्वी च कफपित्तनुत् । अबीजाऽन्या स्वल्पतरा गोस्सनी सहशा गुणः ११४ द्राक्षा पर्वतजा लवी साम्ला श्लेष्माम्लपित्तकृत् । द्राक्षा पर्वतजा यादृक् तादृशी करमर्दिका ।।११५॥ द्राक्षा, स्वादुफला, मधुरसा, मृद्धीका, हारहरा और गोस्तनी यह मुनक्का, दाख या अंगूर के नाम हैं। इसको हिन्दीमें दाख तथा अंगर, फारसीमें मुनक्का और अंग्रेजी में Grape Raisins कहते हैं । पकी हुई द्राक्षा--दस्तावर, शीतन, नेत्रोंको हितकारी, वृहण, भारी, पाक और रसमें स्वादु, स्वरवर्धक, कसैली, मल तथा मूत्रको लानेवाली, कोठेमें हवाको करनेवाली, वीर्यवर्धक, कफ, पुष्टि और रुचिको करनेवाली और तृष्णा, ज्वर, श्वास, वात, बातरक्त, कामला, कुच्छू, रक्तपित्त, सम्मोह, दाह; शोष तथा मदात्यय इन रोगों को दूर करती है।
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(१८६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
कच्ची दाख--थोड़े गुणोंवाली तथा भारी है। खट्टी दाख-रक्तपित कारक है । गौके स्तनके समान आकारवाली दाख-वीर्यवर्धक, भारी तथा कफ और पितको नष्ट करनेवाली है। बीजों से रहित दाख-गोस्तनोके समान गुणों वाली है । पर्वतमें उत्पन्न हुई दाख-हन की, खट्टी, कफ तपा अम्लपिनके करनेवाली है, पर्वतोपत्र द्राक्षाके समान ही करमर्दिका भूम्बेके गुण हैं ॥ ११०.११५ ॥
क्षुद्रखर्जूरं पिंडखजूंरं च ।
भूमिखर्जुरिका स्वादी दुरारोहा मृदुच्छदा । तथा स्कन्धफला काककर्कटी स्वादुमस्तका ११६॥ पिंडखर्जुरिका त्वन्या सा देशे पश्चिमे भवेत । खर्जुरी गोस्तनाकारा परद्वीपादिहागता ॥ ११७ ॥ जायते पश्चिमे देशे सा छोहारेति कीर्तिता। खजुरीत्रितय शीतं मधुरं रसपाकयोः ।। ११८ ॥ स्निग्धं रुचिकरं हृद्यं क्षतक्षयहरं गुरु । तर्पणं रक्तपित्तघ्नं पुष्टि विष्टंभशुक्रदम् ॥ ११९॥ कोष्ठमारुतहरल्यं वांतिवातकफापहम् । जरातिसारक्षुत्तृष्णाकासश्वासनिवारकम् ॥ १२० ॥ मदमूर्छामरुत्पित्तमद्योद्भूतगदान्त्यकृत् । महतीभ्यां गुणैरल्पा स्वल्पा खजूरिका स्मृता १२१ खजुरितरुतोयं तु मदपित्तकरं भवेत् । वातश्लेष्महरं रुच्य दीपनं बलशुक्रकृत् ॥ १२२ ॥ भूमिखजूरिका, स्वादी, दुगरोहा, मृदुच्छदा, स्कंधकला, काकककटी पौर स्वादुमरवका यह खजूर के नाम जो खजूर पश्चिम देशमें
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( १८७ )
उत्पन्न होती है उसे पिंडखजूरिका कहते हैं । बौर जो खजूर दूसरी जातिकी गौके स्तन के समान आकारवाली, दूसरे द्वीपसे आई हुई पश्चिम देश में उत्पन्न होती है उसे छोदारा कहते हैं । इनको हिन्दी में खजूर, पिण्ड' खजूर और छुहारे, फारसी में तमरुरुतक और अंग्रेजी में Date Palm कहते हैं ।
तीनों प्रकारकी खजूरें - शीतल, रस और पाक में मधुर, स्निग्ध, रुचिकारक, हृदयको प्रिय, क्षत और क्षयको नष्ट करनेवाली, भारी, तृप्तिकारक, रक्तपित्तनाशक, पुष्टिकारक, विष्टम्भी, शुक्रवर्धक, कोठेकी वायुको हरनेवाली, बलकारक और धमन, वात, कफ, ज्वर, प्रतिहार, क्षुधा, तृष्णा, काल, श्वास, मद, वायु, पित्त, मद्यसे उत्पन्न हुए रोग इन सबको नष्ट करनेवाली हैं। छोटी खजूर बड़ी खजूरसे गुणों में न्यून है । खजूर के वृक्षों का इस मद तथा पित्तकारक, बात और कफको हरनेवाला, रुचिकारक दीपन और बलवीर्यवर्धक है ॥ १९६-१२२ ॥
पिण्डखर्जूरभेदः ( सुलेमानी ) ।
सुनेपाली तु मृदुला दलहीनफला च सा । सुनेपाली श्रमभ्रांतिदाह मूर्च्छास्रपित्तहृव ॥ १२३ ॥
सुनेपाली, मृदुला और दलद्दीन फला यह सुलेमानी खजूरके नाम हैं । सुलेमानी खजूर - श्रम, श्रीति, दाह, मूर्च्छा और रक्तपित्तको जीतने वाली है ॥ १२३ ॥
वातादः ।
वातादो वातवेरी स्यान्नत्रोपमफलस्तथा । वाताद उष्णः सुस्निग्वो वातघ्नः शुक्रकृद्गुरुः १२४ वातादमज्जा मधुरो वृष्यः पित्तानिलापहः । स्निग्धोष्णः कफकनेष्टो रक्तपित्तविकारिणाम् १२५
बाताद, वातवैरी और नेत्रोपफल यह बादाम के नाम हैं । इसको हिन्दी में बादाम, फारसी में बदामशीरी और अंग्रेजीमें Almond कहते
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(१८८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । हैं। बादाम-गरम, स्निग्ध, वातनाशक, वीर्यवर्धक और भारी है। बादा
सकी मजा-मधुर, वीर्यवर्धक, पित्त तथा वायुको नष्ट करनेवाली, स्निाष . गरम, कफकारक और रक्तपित्तविकारियोंको अहितकर है ॥ १२४ ॥ १२५॥
सेवम् ।
मुष्टिप्रमाणं बदरं सेव शिबितिकाफलम् । सेवं समीरपित्तघ्नं वृंहण कफकृद् गुरु ॥ १२६॥ रसे पाके च मधुरं शिशिरं रुचि शुक्रकृत । मुष्टिप्रमाण, बदर, सेव, शिविति काफल यह सेधके नाम हैं। इसे हिन्दीमें तथा फारसीमें सेव और अंग्रेजी में Apple कहते हैं । सेव-वात, "पिनको नष्ट करनेवाला, पुष्टिकारक, कफोत्पादक, भारी,रत और पाकमें मधुर, शीतल ओर रुचि तथा वीर्यको उत्पन्न करनेवाला है।। १२६ ॥
....... अमृतफलम् । अमृतफलं लघु वृष्यं सुस्वादु त्रीन् हरदोषान् १२७॥ देशेषु मुद्गलानां बहुलं तल्लभ्यते लोकैः । अमृतफल (नासपाती अथवा नाख) इनका, वीर्यवर्धक, अत्यन्त स्वादु तथा त्रिदोषनाशक हैं। अमृतफल प्रायः मुद्गल देशोमें अधिक मिलता है ॥ १२७ ॥
पीलः । पीलुर्गुडफलः स्रंसी तथा शीतफलोऽपि च ॥१२८॥ पीलु श्लेष्म समीरघ्नं पित्तलं भेदि गुल्मनुत् । स्वादु तिक्तं च यत्पीलु तन्त्रात्युष्णं त्रिदोषहत्१२९॥ पीलु, गुड़फल, झली और शीतफल यह पीलुके नाम हैं। इसको हिन्दीमें पीलू, फारतीमें दरखते मिस्वाक् और अंग्रेजी में Mustarad tree of scripture कहते हैं । पीलू कफ और धातको नष्ट करने वाला।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.
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( १८९ )
पित्तकारक, भेदन और गुल्मनाशक है। जो पीलू मधुर तथा तिक्त हो वह किचित् गम और त्रिदोषनाशक होता है ॥ १२८ ॥ १२९ ॥
अक्षटः ।
पीलुः शैलभवोऽक्षोटः कंदरालश्च कीर्तितः । carrotsपि वातादसदृशः कफपित्तकृत् ॥ १३० ॥ पर्वतोत्पत्र पीलूको अक्षोट कहते हैं। हिन्दी में अखरोट, फारसी में बालअंग्रेजी में Walnut नामसे पुकारा जाता है । अतोट भी बादाम के समान गुणोंवाला और कफ पित्तको करनेवाला है ॥ १३० ॥
गज,
बीजपूरम् |
बीजपूरो मातुलुंगो रुचकः फलपूरकः । बीजपूरफलं स्वादु रसेऽम्लं दीपनं लघु ॥ १३१ ॥ रक्तपित्तहरं कंठजिह्वाहृदयशोधनम् । वासकासारुचिरं हृद्यं तृष्णाहरं स्मृतम् ॥ १३२ ॥ बीजपूर, मातुलुंग, रुचक, फलपूरक यह बिजौरा निम्बू के नाम हैं । इसे हिन्दी में बिजौरा निम्बू, फारसी में तुरंब, अंग्रेजी में Sitres कहते हैं । बिजौरा नीम्बू - स्वादु, रस में खट्टा, दीपन, हल्का, रक्तपित्तनाशक, हृदयको प्रिय, तृष्णाको हरनेवाला और कण्ठ, जिह्वा और हृदय इनको शुद्ध करता है तथा वास, कास अरुचि इनको दूर करनेवाला है ॥ १३१ ॥ १३२ ॥
बीजपुरभेदः । बीजपूरोऽपरः प्रोक्तो मधुरो मधुकर्कटी । मधुकर्कटिका स्वाद्वी रोचनी शीतला गुरुः॥ १३३॥ रक्तपित्तक्षयश्वासकासहिक्काश्रमापहा ।
दूसरी प्रकार के बीजपूरको मधुर और मधुकर्कटी कहते हैं । इसको देशभाषा में कोतरा व हते हैं। चकोतरा -स्था, रुचिकारक, शीतल,
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( १९० )
भावप्रकाशनिघण्टुः मा. टी. ।
आरी और रक्तपित, चाय, श्वास, काल, हिका और भ्रम इनको दूर करता है ॥ १३३ ॥
जंबीरद्वयम् । स्याजंबीरो दंतशठो जंभजंभीरजंभलाः ॥ १३४ ॥ जंबीरमुष्णं गुर्वम्ल वातश्लेष्म विबंधनुत् । शूलकास कफोत्क्लेशच्छर्दितृष्णामदोषजित् ॥ १३५ ॥ आस्यवैरस्यहृत्पीडावह्निमांद्य कृमीन्हरेत् । स्वल्पजबी रिका द्वष्णाछर्दि निवारणी ॥ १३६ ॥
जम्बीर, दन्तशठ, जंभ, जंभीर, जंभन यह जम्भीरी निम्बू के नाम हैं । इसको हिन्दी में जंभीरी नींबू, फारसी में लिमुने तुर्श और अंग्रेजीमें Lemen कहते हैं। जम्बीर- गरम, भारी, खट्टा, वात, कफ और विवन्धको जीतनेवाला, मुखकी विरसताको हरनेवाला तथा शूल, कास, कफोत्क्लेश, वमन, प्यास, आमके दोष, अग्निकी मन्दता तथा कृमियों को नष्ट करनेवाला है । उसके समान ही स्वल्पजेभीरिका भी तृष्णा तथा वमनको निवारण करती है || १३४ ॥ १३६ ॥
निंबूकम् |
निंबू : स्त्री निंबुकं क्कीबे निंपाकमपि कीर्तितम् | निंबूकमम्लं वातघ्नं दीपनं पाचनं लघु ॥ १३७ ॥
निम्बू यह शब्द खीलिङ्ग तथा निंबुक यह नपुंसक लिङ्गमें होता है । निंबू, निंबुक, निम्पाक यह कागजी निंबू के नाम हैं। कागजी निंबू खटूटा, बातनाशक, दीपन, पाचन और इलका है ॥ १३७ ॥
मिष्टनिंबूकम् ।
मिष्टनिंबूफलं स्वादु गुरु मारुतपित्तनुत् ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१९१) गलरोगविषध्वंसि कफोत्केशि च रक्तहत् ॥ १३८ ॥
शोषारुचितृषाच्छर्दिहरं बल्यं च बृंहणम् । मिष्टनिंबूफल, मीठेनीबू अथा सर्बती नींबूको कहते हैं। मीठानींबूस्वादिष्ठ, भारी, वात तथा पित्तको जीतनेवाला, कफोक्लेशकारक, रक्तको हरनेवाला, बलकारक, धातुओंको पुष्ट करनेवाला तथा गलके रोग, विष, शोष, अरुचि, तृपा और यमनको दूर करनेवाला है १३८ ।
कर्मरंगम् । कर्मरंगं हिमं ग्राहि स्वादम्लं कफवातहत् ॥५३९॥ कर्मरंगको हिन्दीमें करमख और अंग्रेजीमें Carmb ola कहते हैं। करमख-शीतल, ग्राही, खटूटा, स्वादु और कफ-वातका नाश करने वाला है॥ १३९ ॥
अम्लिका। अम्लिका चुक्रिकाऽम्ली च चुक्रा दंतशठापि च । अम्ला च चिंचिका चिंचा तितिडीका च तितिडी। अम्लिकाम्ला गुरुतिहरी पित्तकफास्रकृत् । पक्का तु दीपनी रूक्षा सरोष्णा कफवातनुत् ॥१४॥ अमिनका अम्ली, चुक्रिका, चुका, दन्तशठा, अम्ला, चिंचिका, चिंचा, तितिडीका और तितिडी यह इमलीके नाम हैं । इसको अंग्रेजीमें Tame irined कहते हैं। इमली-खटूटी, भारी, वातनाशक और पित्त, कफ तथा रक्तविकारको करनेवाली है । पकी हुई इमली- दीपन, रूक्ष, दस्तावर और कफ तथा वातको हरनेवाली है ॥ १४० ॥ १४१ ।
अम्लवेतमम् । स्यादम्लवेतसं चुके शतवेधि सहस्रभित् । अम्लवेतसमत्यम्लं भेदन लघु दीपनम् ॥ १४२ ॥
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( १९२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
हृद्रोगशलगुल्मघ्नं पित्तलं लोमहर्षणम् । रूक्षं विण्मुत्रदोषघ्नं प्लीहोदावर्तनाशनम् ॥१४३॥ हिकानाहारुचिश्वासकासाजीर्णवमिप्रणुत् । कफवातामयध्वंसिच्छागमांसद्रवत्वकृत् ॥ १४४ ॥ चणकाम्लगुणं ज्ञेयं लोहसूचिद्रवत्वकृत। अम्लवेतस, चुक,शतवेधि, सहस्रभित यह अम्लवेतके नाम हैं। इसको हिन्दीमें अमलवेत, फारसोमें तुर्षक और अंग्रेजीमें Com mom Soral करते हैं । अम्ल वेत अत्यन्त खटा, भेदन, लघु, दीपन, पिन कारक, लोम हर्षण करने वाला, बकरी के मांस तथा लोहेकी सूके पिघलानेवाला,चणकके क्षारके समान गुणोंवाला और हृदयके रोग, शूल, गुल्म, विष्ठा और मुत्रके दोष,प्लीहा,उदावर्त, हिचकी आनाह, अरुचि,श्वास, काल,अजीर्ण, वमन और कफ तथा वायुके रोगोंको दूर करता है ॥ १४३-१४४ ॥
वृक्षाम्लम् । वृक्षाम्लं तितिडीकं च चुकं स्यादम्लवृक्षकम् १४५॥ वृक्षाम्लमाममम्लोष्णं वातघ्न कफपित्तलम् । पक्वं तु गुरु संग्राहि कटुकं तुवरं लघु ॥ १४६॥
अम्लोष्णं रोचनं रूक्षं दीपनं कफवातहत् । वृक्षाम्ल, तिन्तिडीक, चुक्र और अम्लवृक्ष यह अम्लवृक्ष (अमलवेत) के नाम हैं। इसे हिन्दीमें अम्लवेत और अंग्रेजीमें Kokam Balten tree कहते हैं।
कच्चा अम्लवृक्ष-खट्टा, गरम, वातनाशक, कफ और पित्तको बढानेवाला होता है। पका हुआ-भारी, ग्राही, कदु, कषाय, हलका, खट्टा, गरम, रुचिकारक, कक्ष, अग्निदीपक तथा कफ और वातको हरनेवाला है। १४५ ॥ १४६ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१९३ )
चतुरम्लं पंचाम्लम् । अम्लवेतसवृक्षाम्लबृहज्जबीरनिंबुकैः ॥ १४७॥ चतुरम्लं हि पंचाम्लं बीजपूरयुतैर्भवेत् । अम्ल वेत, अम्ल वृक्ष, वडा नम्भीरीनीवू तथा कागजी नींबू इन चारोको मितानेसे चतुरग्ल और इन चारोंमें बिजौरा नीम्बू मिलानेसे पंचाम्स बन जाता है ॥ १७॥
परिभाषा। फलेषु परिपक्वं यद्गुणवत्तदुदाहृतम् ॥ १४८॥ बिल्वादन्यत्र विज्ञेयमाम तद्धि गुणाधिकम् । फलेषु सरसं यत्स्याद्गुणवत्तदुदाहृतम् ॥ ११९ ॥ द्राक्षाबिल्खशिवादीनां फलं शुष्कं गुणाधिकम् । फलतुल्यगुणं सर्व मज्जानामपि निर्दिशेत् ॥ १९० ।। फलं हिमाग्निदुर्वातव्यालकीटादिदूपितम् । अकालजं कुभूमीजं पाकातीतं न भक्षयेत् ॥ १५१ ॥ .
इति कनवर्गः। बेनके अतिरिक्त शेष सब फन पके हुए ही अधिक गुणवाले हैं। परंतु बेल तो कच्चा ही अधिक गुणोंवाला होता है। दाख, वेन और हरड भादिके सूखे फन अधिक गुणोंवाले हैं। जो गुण फलोंमें वहेरें सो गुण उनकी मज्जामें भी जानने । जो फल परफ, भग्नि, दूषितपवन, सर्प अथवा कीहा मादिसे क्षित हो, विना समय उत्पन्न हुभा हो, बुरीभूमिमें उत्पन्न हपा हो अथवा पककर खराब हो गया हो पर कदापि नहीं खाना चाहिये।। १५८ ॥ १५१ ॥
इति श्रीवैद्यरत्नपंडितरामप्रसादात्मज-विद्यालङ्कार-शिवशर्मवैवरुवशिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ फलवर्गः समाप्तः ॥ ५॥
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( १९४)
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । वटादिवर्गः ६.
तत्रादौ वटस्य नामानि गुणाश्च । वटो रक्तफलः शृंगी न्यग्रोधः स्कन्धजो ध्रुवः । क्षीरी वैश्रवणावासो बहुपादो वनस्पतिः ॥ १ ॥ वटः शीतो गुरुयाही कफपित्तत्रणापहः । वयों विसर्पदाहनः कषायो योनिदोषहत् ॥२॥ प्रथम पटके नाम तथा गुणोंको कहते हैं:वट, रक्तफल, शुंगी, न्यग्रोध, स्कन्धज, ध्रुव, क्षीरी, वैश्रवणावास, बहुपाद और वनस्पति यह बडके नाम हैं। इसे हिन्दीमें बड़ अथवा वरौटा, फारसी में दरखतरेशा और अंग्रेजी में Banian Tree कहते हैं । बड़-शीत, भारी, ग्राही, वर्णको उत्तम करनेवाला, कलैला तथा कफ, पित्त, व्रण, वितर्प, दाह और योनिदोष इनको दूर करता है ॥ १ ॥२॥
अश्वत्थः। बोधिद्रः पिप्पलोऽश्वथश्चलपत्रो गजाशनः। . पिप्पलो दुर्जरः शीतः पितश्लेष्मत्रणास्रजित् ॥३॥ गुरुस्तुवरको रूक्षा वो योनिविशोधनः । वोधिद्व, पिप्पल, अश्वत्थ, चलपत्र और गजाशन यह पीपलके नाम हैं। इसे हिन्दीमें पीपल, फारसीमें दरखत लरजां और अंग्रेजीमें Poplar leaved Figtree कहते हैं। पीग्ल-दुजर, शीतल, भारी, कसैला, रूक्ष, वर्गको उत्तम करनेवाला, योनिको र नेवाळा और पित्त, कफ व्रण और रक्त विकारको जीतता है ॥ ३ Aho! Shrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१९५)
पिप्पलभेदः। . पारिशोन्यः पलाशश्च फलीशश्च कमण्डलुः ॥४॥ गर्दभांडः कन्दरालकपीतनसुपार्श्वकाः । पारिषो दुर्जरः स्निग्धः कृमिशुक्रकफप्रदः ॥५॥ फलेऽम्लो मधुरो मूले कषायः स्वादुमजकः । पारिशोन्य, पलाश, फनीश, कमण्डलु, गर्दभाण्ड, कन्दराल, कपीतन और सुपार्श्वक यह पारिस पीपन के नाम हैं। इसको हिन्दीमें पारि सपीपल, फारसी में येलासवेल्प और अंग्रेजी में Hiluxus कहते हैं। पारिसपीपल दुर्जर, स्निग्ध, फलमें अम्ल, मधुर, मूलमें कषाय, स्वादु मज्जावाला तथा कृमिरोग, शुक्र और कफको उत्पन्न करनेवाला है॥४॥५॥
. अश्वत्थभेदः । · नन्दीवृक्षोऽश्वत्थभेदः प्ररोही गजपादपः ॥ ६ ॥ स्थालीवृक्षः क्षीरितरुः क्षीरी च स्याद्वनस्पतिः । नन्दीवृक्षो लघुः स्वादुस्तिक्तस्तुवर उष्णकः ॥७॥ कटुपाकरसो ग्राही विषपित्तकफास्त्रजित् । नन्दीवृक्ष, अश्वत्थभेद, प्ररोही, गजपादप, स्थानीवृक्ष, क्षीरितरु, क्षीरी और वनस्पति यह वेलिया पीपलके नाम हैं । इसको हिन्दीमें बेलिया पीपल कहते हैं। नन्दीवृक्ष-हलका, स्वादु, तिक्त, कषाय, गरम, पाक
और रसमें कटु, ग्राही तथा विष, पित,कफ और रक्तविकारोंको,जीतता है ॥६॥७॥
उदुम्बरः। उदुम्बरो जन्तुफलो यज्ञांगो हेमदुग्धकः ॥८॥. उदुम्बरो हिमो रूझो गुरुः पित्तकफास्रजित् । मधुरस्तुवरो वयोव्रणशोधनरोपणः ॥ ९॥ उदुम्बर, जन्तु कल, यज्ञांग और हेमदुग्धक यह गलर के नाम हैं । इसे
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( १९६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । हिन्दीमें गुलर, फारसीमें अंजीरे पादम और अंग्रेजीमें Kigtree करते हैं। गुलर-शीतल, रूस, भारी, मधुर, कसैला, वर्णको उत्तम करनेवाला, ब्रयन शोधन और रोपण करनेवाला और पित्त कफ तथा रक्तविका रको हरनेवाला है ॥ ८॥९॥
मलयूः। काकोदुम्बरिका फल्गुमलयूर्जघनेफला । मलयूस्तम्भकृत्तिक्ता शीतला तुवरा जयेत् ॥१०॥ कफपित्तव्रणश्वित्रपांड्वर्शःकुष्टकामलाः । काकोदुम्परिका, फल्गु, मलयू और जघनेफल यह कैवरी के नाम हैं। इस को हिन्दी में कैबरी, फारसी में अंजीरे दाती और अंग्रेजीमें Figtree कहते हैं। कैधरी-स्तम्भन करनेवाली, तिक्त, शीतल, कसैली तथा कफ, पित्त, व्रण, श्वित्र, पाण्डुला, अर्श, कुष्ठ और कामला इन रोगोंको दूर करनेवाली है ॥ १० ॥
प्लक्षः। प्पक्षो जटी पर्पटी च कर्पटी च स्त्रियामपि ॥११॥ पक्षः कषायः शिशिरो व्रणयोनिगदापहः । दाह पित्तकफास्रघ्नः शोथहा रक्तपित्तहत् ॥ १२ ॥ प्लक्ष, जटी, पपैंटी और कपटी यह पिलखनके नाम हैं। पिलखनकसैली, शीतल, व्रम तथा योनिरोगोंको हरनेवाली, शोथको नष्ट करने पाली, रक्तपित्तको दूर करनेवाली तथा दाइ, पित्त, कफ और रक्तविकारोको दूर करनेवाली है ॥ ११ ॥ १२ ।।
शिरीषः। शिरीषो भंडिलो भंडी भंडिरश्च कपीतनः । शुषपुष्पा शुक्तस्मृदुपुष्पा शुकप्रियः ॥ १३ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१९७) शिरीषो मधुरोऽनुष्णस्तिक्तश्च जुवरो लघुः ।।
दोषशोथविसपघ्नः कासव्रणविषापहः॥१४॥ शिरीष, भंडिन, भण्डी, भण्डीर, कपीतन, शुकपुष्प, शुकवर, मा पुष्प और शुकप्रिय यह शिरीषके नाम हैं। इसको हिन्दीमें शिरीह तथा सिरिस और फारसीमें दरख्ते जकरिया कहते हैं। शिरीष-मधुर, शीतल, तिक्त, कसैला, हनका तथा त्रिदोष, शोष, विसर्प, काल और ब्रोंको दूर करता है ॥ १३ ॥ १४॥
सीरिवृक्षाः पंचवल्कलाः। न्यग्रोधोदुंबराश्वत्थपारिषप्लक्षपादपाः। पंचैते क्षिरिणो वृक्षास्तेषां त्वकू पंचवल्कलम॥१५॥ केचित्तु पारिषस्थाने शिरीष वेतस परे । क्षीरिवृक्षा हिमा वण्या योनिरोगवणापहाः ॥ १६॥ रक्षाकषाया मेदोना विपर्पामयनाशनाः । शोथपित्तकफास्त्रनास्तन्या भग्रास्थियोजकाः१७॥ त्वपंचकं हिमं पाहि व्रणशोथविसर्पजिन् । तेषां पत्रं हिमं पाहि कफवातास्रनुल्लघु ॥ १८॥ विष्टंभाध्मानजित्तिक्तं कषाय लघु लेखनम् । वड, गलर, पीपन, पारसीपीपल पोर प्लवं यह पांच सीरीष (. वाले पुष) कहलाते हैं। उनकी छालको पंचवरकल कहते हैं। कोई पारसी पीपलके स्थान में सिरस अथवा वेततको क्षीरिवृक्षों में गिनते हैं। परंतु सिरीष और घेतम दोनों में दूध नहीं होता है, इसलिये पारस पीपल ही लेना चाहिये । क्षीरिपक्ष-शीवन, वर्णको उत्तम सरनेवाले, कम कसैले, दूधको बढानेवाले, बूटी हुई हड्डीको जोडनेवाले तथा योनिरोग, अम, मेद, विसर्प रोग,शोथ, पिन, कफ तथा रक्तविकारको जीतनेशले हैं
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(१९८) भावप्रव शनिघण्टुः भा. टी.।
पञ्चवल्कल-ग्राही, शीतल, तथा व्रण, शोथ और विसर्पको जीतने वाला है। उनके पत्ते-शीतल, ग्राही, हलके, तिक्त, कसैले, किंचित लेखन
और कफ, वात, रक्तविकार, विष्टम्भ तथा माध्मानको जीतनेवाले हैं ॥ १५॥१८॥
शालः। ( शालस्तु सर्जकाश्विकर्णकाः सस्यसंवरः ॥१९॥
अश्वकर्णः कषायः स्याद्रणस्वेदकफक्रिमीन् । बनविद्रधिबाधिर्ययोनिकर्णगदान्हरेत ॥२०॥
जाल, सर्ज, कार्य, अश्वकर्णक और सस्यसंवर यह शालके नाम । इसको अंग्रेजी में Salhel कहते हैं । शाल-कसैला तथा व्रण, स्वेद, कफ, कृमि, ब्रन, विद्रधि, बधिरता, योनिरोग और कर्णरोग इनको दूर करनेवाला है ॥ १९ ॥ २० ॥
शालभेदः। सर्जकोऽन्योऽजकर्णः स्याच्छालो मरिचपत्रकः। अजकर्णः कटुस्तिक्तः कषायोष्णो व्यपोहति ॥२१॥ कफपांडुश्रुतिगदान्मेहकुष्ठविषव्रणान् । अन्य प्रकारके खालको प्रमकर्ण, शान और मरिचपत्रक कहते। प्रजकर्ण-कटु, तिक,कसैना गरम तथा कफ,पाण्डुरोग,कर्णरोग,ममेह कुछ विष और व्रणोंको नष्ट करता है ॥२१॥
शलकी।
शल्लकी गजभक्षा च सुवहा सुरभी रसा। महेरुणा कुंदुरुकी वल्लकी च बहुलवा ॥२२॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः मा. टी. ।
( १९९ )
शल्लक तुवरा शीता पित्तश्लेष्मातिसारजित् । रक्तपित्तत्रणहरी पुष्टिकृत्समुदीरिता ॥ २३ ॥
शल्लकी, गजभक्षा, सुवद्दा, सुरभी, रसा, महेरुणा, कुंदरकी, वल्लकी और बहुवा यह सालई या छल्लके नाम हैं। सालई कसैली, शीतल, पुष्टिकारक तथा पित्त, कफ, अतिसार, रक्तपित्त और व्रणको हरनेवाली. है ।। २२ ।। २३ ।।
सिंशिना । शिंशिपा पिच्छिला श्यामा कृष्णसारा च सा गुरुः । कपिला सैव मुनिभिर्भस्मगर्भेति कीर्तिता ॥ २४ ॥ शिंशिपा कटुका तिक्ता कषाया शोथहारिणी । उष्णवीर्या हरे मेदः कुष्ठश्वित्रवमिक्रिमीन् ॥ २५॥ वस्ति रुग्वणदाहास्रबलासान् गर्भपातिनी ।
शिंशिपा, पिच्छिला, श्यामा और कृष्णसारा यह शीशम के नाम हैं । कपिल शीशमको मुनियोंने भस्मगर्भा कहा है। इसको देश भाषा में टाइली तथा सीसम और अंग्रेजी में Black woods tree कहते हैं।
सीसम - कडु, तिक्त, कसैली, शोथको हरनेवाली, उष्णवीर्य, गर्भको गिरानेवाली तथा मेद, कुष्ठ, वित्र, वमन, कृमि, वस्तिरोग, व्रथा, दाह, रक्तविकार और कफको नष्ट करनेवाली है । २४ ॥ २५ ॥
ककुभः ।
ककुभोऽर्जुननामा स्यान्नदीसर्जश्च कीर्तितः ॥ २६ ॥ इंद्रदुर्वीरवृक्षश्च वीरश्व धवलः स्मृतः । ककुभो शीतलो. हृद्यः क्षतक्षयविषास्रजित् ॥ २७॥ मेदो मेहणान हंति तुवरः कफपित्तहृत् ।
ककुभ, नदी सर्ज, इन्द्रदु, पीर, वक्त पर और अर्जुन के सम्पूर्ण नाम
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(२००) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । यह कोहके नाम हैं । ककुभ-शीतल, हृदयको प्रिय, कसैला तथा पत, क्षय, विष, रतविकार, मेद, प्रमेह, कफ और पित्तको हरनेवाला है। २६ ॥ २७॥
असनः। बीजकः पीतसारश्च पीतशालक इत्यपि ॥२८॥ बधूकपुष्पः प्रियकः सर्जकश्वासनः स्मृतः। बीजकः कुष्ठवीसर्पश्चित्रमेहगदक्रिमीन् ॥ २९ ।। हंति श्लेष्मास्रपित्तं च त्वच्या केश्यो रसायनः । पीक, पीतसार, पीतशालक, पन्धूकपुष्प, प्रियक, सर्जक और असन यह विजयसारके नाम हैं। इसे फारसी में कमर कस और अंग्रेजीमें Indian Kinstree कहते हैं। बीजक-स्वचाके लिये हितकारी, केश वर्धक, रसायन तथा कुष्ठ, विसर्प, रिकब, प्रमेह और कृमि इनको ना करता है । २८ ॥ १९॥
खदिरः। खदिरो रक्तसारश्च गायत्री दंतधावनः ॥३०॥ कंटकी भालपत्रश्च बहुशल्यश्च यज्ञियः । खदिरः शीतलो दन्त्यः कंडुकासारुचिप्रणुत॥३१॥ तिक्तः कषायो मेदोनः कृमिमेहजरव्रणाम् । वित्रशोथामपित्तात्रपांडुकुष्ठककाम् हरेत् ॥३२॥ खदिर, रक्तसार, गायत्री, दन्तधावन, कंटकी, बालपत्र, बहुशस्य पौर यज्ञिय या खरके नाम हैं। खैर शीतल, दन्तों के लिये हितकारी, तिक, कसैला तथा कण्ड, कास, अरुचि, भेद, कृमि, प्रमेह, ज्वर, व्रण, शिवच, ग्योष, धाम, पित, रक्तविकार कुष्ठ और कफ इनको नष्ट करनेवाना • है३०-३२॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । श्वेतखदिरः ।
( २०१ )
खदिरः श्वेतसारोऽन्यः कदरः सोमवल्कलः । खदिरो विशदो वय मुखरोगकफास्रजित् ॥ ३३ ॥
श्वेतखदिर, श्वेतसार, कदर और सोमवल्कल यह खैर वृक्षके नाम हैं। श्वेत खदिर- खण्छ, वर्णको उत्तम करनेवाला तथा मुखरोग, कफ और रक्त विकारको जीतनेवाला है ॥ ३३ ॥
इरिमेदः ।
इरिमेदो विखदिरः कालस्कंधोऽरिमेदकः । इरिमेदः कषायोष्णो मुखदन्तगदास्रजित ॥ ३४ ॥ इंति कण्डूविषश्लेष्म कृमिकुष्ठ विषव्रणान् ।
इरिमेद, विखदिर, कालस्कन्ध और भरिमेदक यह दुर्गन्ध खेर के नाम हैं। इसको अंग्रेजीमें Spanj tree कहते हैं । इरिमेद-कसैला, उभ्या तथा मुखरोग, खांसी, रक्तविकार, कण्डू, विष, कफ, कृमि, कुष्ठ, गरदोष और वर्णोंको हरनेवाला है ॥ ३४ ॥
रोहीतकः ।
रोहीतको रोहितको रोहि दाडिमपुष्पकः ॥ ३५ ॥ रोहीतकः लीहघाती रुच्यो रक्तप्रसादनः ।
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रोहतक, रोहितक, रोही और दाहिमपुष्पक वह रोहेडेके नाम हैं। रोग-कीडाको नष्ट करनेवाला, रुचिकारक तथा रक्तको शुद्ध करनेवाली है ॥ ३५ ॥
किंकिरातः ।
बबूला किंकिरातः स्यात्कि कराटः सपीतकः ॥ ३६॥
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शर
(२०३) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
स एव कथितस्तज्जैराभाषट्पइमोदनी । बबूलः कफनुग्राही कुष्ठकृमिविषापहः ॥ ३७॥ बबूल, किंकिरात, किंकराट, सपीतक और पाभाषट्पदमोदनी यह कीकरके नाम हैं। इसको अंग्रेजीमें Acacia tree कहते हैं । कीकरकफनाशक, ग्राही तथा कुष्ठ, कृमि पौर विषको दूर करनेवाली है ॥ ३७॥
अरिष्टकः। अरिष्टकस्तु मांगल्य कृष्णवर्णोऽर्थसाधनः । रक्तबीजः पीतफेनः फेनिलो गर्भपातनः ॥ ३८॥
अरिष्टकस्त्रिदोषघ्नो ग्रहजिद्गर्भपातनः । परिष्टक, मांगल्य, कृष्णवर्ण, अर्थसाधन, रक्तबीज, पीतफेन, फेनिल गर्भपातन यह रीठेके नाम हैं। इसे हिन्दीमें रीठा, फारसीमें फिदक और अंग्रेजीमें Soapberri Soapnut कहते हैं। रीठा-त्रिदोषनाशक, ग्रहोंको जीतनेवाला और गर्भको गिरानेवाला है ॥ ३८ ॥
पुत्रजीवः ।। पुत्रजीवो गर्भकरो यष्टिपुष्पोर्थसाधकः ॥ ३९॥ पुत्रजीवो गुरुवृष्यो गर्भदः श्लेष्मवातहत । सृष्टमूत्रमलो रूक्षो हिमः स्वादुः पटुः कटुः॥ ४० ॥ पुत्रजीव, गर्भकर, यष्टिपुष्प और अर्थसाधक यह जियापोताके नाम हैं। इसको हिन्दीमें जियापोता करते हैं। जियापोवा-भारी, वीर्यवर्दक, गर्भदायक, कफ तथा वातको हरनेवाला, मत्र और मन लानेवाला, कक्ष, शीतल, मधुर, लवणासयुक तथा कटु है ॥ ३९॥ ४० ॥
इंगुदोंगारवृक्षश्च तिक्तकस्तापसदुमः ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२०३) इंगुदः कुष्ठभूतादिग्रहणविषक्रिमीन् ॥ ११ ॥ हंत्युष्णाश्चित्रशुलनस्तितकः कटुपाकवान् । इंगद, अंगारपृच, तिक्तक और तापसद्रम यह हिंगोटके नाम हैं। इसे हिन्दीमें हिंगोट और अंग्रेजीमें Daliel कहते हैं। हिंगोट-गरम, तिक्त, पाकमें कटु, तथा कुष्ठ, भूतादिग्रह, व्रा. विष, कृमि, श्वित्र और शूल को नष्ट करता है॥४१॥
__ जिंगिनी। जिंगिनी झिंगिणी झिंगी सनि-सा प्रमोदिनी १२ जिंगिनी मधुरा सोष्णा कषाया योनिशोधिनी। कटुका व्रणहृद्रोगवातातीसारहत्पटुः ॥ ४३ ॥ जिगिनी, झिंगिणी, झिंगी, सनिर्यासा और प्रमोदिनी यह जिंगनीके नाम हैं। जिंगनी-मधुर, गरम, कसैली, योनिको शुद्ध करनेवाली, कटु, लवणरसयुक्त तथा व्रण, हृदयके रोग, वात, अतिसार इनको हरती
तमालः। तमालः शालवद्वेद्यो दाहविस्फोटहपुनः । तमालके गुण शालके समान होते हैं किन्तु यह विशेषता है कि दाद पौर विस्फोटकको हरता है।
तुणी। तुणी तुनक आपीतस्तुणिकः कच्छपस्तथा ॥४॥ कुठेरकः कांतलको नदीवृक्षश्च नंदकः ॥ तुणीरुक्तः कटु पाके कषायो मधुरो लघुः ॥१५॥ तिक्तो ग्राही हिमो वृष्यो व्रणकुष्ठास्रपित्तजित् । तुणी, तुन्नक, पापीत, तणिक, करप, कुठेरक, कांतनक, नन्दीपक पौर नन्दक यह तुनके नाम हैं।
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(२०४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
तुन-पाकमें कटु, कसैली, मधुर, हलकी, तिक्त, ग्राही, शीतल, पी+ वर्धक तथा व्रण, कुष्ठ, रक्तपित्त इनको जीतती है ॥ ४४ ॥ ४५ ॥
भूर्जपत्रः। भूजपत्रः स्मृतो भूर्जश्चर्मी बहुलवल्कलः ॥ ४६॥ भूजों भूतग्रहश्लेष्मकर्णरुक्पित्तरक्तजित् । कषायो राक्षसघ्रश्च मेदोविषहरः परः ॥ १७॥ भूजपत्र, भूजचर्मी और बहुलवल्कल यह भोजपत्रके नाम हैं। इसको अंग्रेजीमें Jacpuemontri कहते हैं । भोजपत्र-कसैला, राक्षसनाशक तथा भूतग्रह, कफ, कान की पीड़ा, पिन, रक्तविकार, मेद और विषको करनेवाला है॥४६ ॥४७॥
पलाशः। पलाशः किंशुकः पर्णो याज्ञिको रक्तपुष्पकः । क्षारश्रेष्ठो वातहरो ब्रह्मवृक्षः समिद्वरः ॥ १८॥ पलाशो दीपनो वृष्यः सरोष्णो वणगुल्मजित् । कषायः कटुकस्तिक्तः स्निग्धो गुदजरोगजित् ॥१९॥ भग्नसंधानकृदोषग्रहण्यर्शकृमीन् हरेत । पखाश, किंशुक, पर्ण, याज्ञिक, रक्तपुष्पक, कारश्रेष्ठ, वातार, ब्रह्मवृष और समिधर यह ढाकके नाम हैं । इसको अंग्रेजी में Jaxin mot
ढाक-दीपन, वीर्यवर्धक, दस्तावर, गाम, बण, और गुल्मको जीतनेवाखा, कसैला, कडु, तिक्त, स्निग्ध, गुदाके रोगको जीतनेवाला, दूटे हुएको जोडनेवाला तथा शिदोष, ग्राणी, अशे और कृमि शेको नष्ट करनेवाला २॥१८॥१९॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. 1 ( २०५१
शाल्मली ।
शाल्मलिस्तु भवेन्मोचा पिच्छिला पूरणीति च ५० रक्तपुष्पा स्थिरायुश्च कंटकाढया च तुलिनी । शाल्मलिः शीतला स्वाद्वी रसे पाके रसायनी ५१ ॥ श्लेष्मला पित्तवातास्रहारिणी रक्तपित्तजित |
शाल्मलि मोचा, पिच्छिला, पूरणी, रक्तपुष्पा, स्थिरायु, कण्ट काढ्या सौर तूलिनी यह सेमळके नाम हैं । उसको अंग्रेजीमें Sille cotton tree कहते हैं ।
शाल्मलि - शीतल, रस और पाक में मधुर, रसायन, कफकारक तथा पित्त, वात, रक्तविकार और रक्तपित्तको दूर करती है ॥ ५० ॥ ५१ मोचरसः ।
निर्यासः शाल्मलेः पिच्छाशाल्मलिवैष्टकोऽपिच ५२ मोचास्रावो मोचरसो मोचनिस इत्यपि । मोचास्रावो हिमोग्राही स्निग्धो वृष्यः कषायकः५३ प्रवाहिकातीसारामकफपित्तास्रदाहनुत् ।
शाल्मलिनियस पिच्छा, शाल्मलि, वेष्टक, मोवास्त्राव, मोचरस और मोचनिर्यास यह मोचरस के नाम हैं । मोचरस-शीतल, ग्राही, स्निग्ध, वीर्यवर्धक, कषाय तथा प्रवाहिका, अतिसार, आमविकार, कफ, पित्त, रक्त और दाइका नाश करता है ॥ ५१ ॥ ५३ ॥ कूटशाल्मलिः ।
कुत्सिता शाल्मलिः प्रोक्ता रोचना कूटशाल्मलिः५४ कूटशाल्मलिका तिक्ता कटुका कफवातनुत् । भेद्युष्णा लीहजठरयकृद्गुल्म विषापहा ॥ ५५ ॥ भूतानाद विबन्धास्रमेदः शूलकफापहा ।
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कुत्सितशाल्मलि, रोचन और कटारमल यह कूटप्लिके नाम हैं
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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी.
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कूटशाल्मलि- तिक्त, कटु, कफवातनाशक, उष्णा, भेदन करनेवाली तथा प्लीहा, जठर, यकृतविकार, गुल्म और विषको हरनेवाली है । एवं भूतबाधा, अफारा, विबन्ध, रक्त, मेद, शूरु मौर कफको हरनेवाली है ॥ ५४ ॥ ५५ ॥
धवः ।
धवो घटो नंदितरुः स्थिरो गौरो धुरंधरः ॥ ५६ ॥ धवः शीतः प्रमेहार्शः पांडुपित्तकफापहः ।
मधुरस्तुवरस्तस्य फलं च मधुरं मनाक् ॥ ५७ ॥
धव, घट, नन्दितरु, स्थिर गौर धुरन्धर यह धवके नाम हैं। धवशीतल हे तथा प्रमेह, अर्श, पाण्डु, पित्त और कफको हरनेवाला है । मधुर र कसैला है, इसका फल किश्चित मीठा होता है ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ धन्वंगः ।
धगस्तु धनुर्वृक्षो गोत्रवृक्षस्तु तेजनः । धन्वंगः कफपित्तास्रकासहृत्तुवरो लघुः ॥ ५८ ॥ बृंहणो बलकृद्र्क्षः संधिकृदव्रणरोपणः ।
धन्वंग, धनुवृक्ष, गोत्र वृक्ष और तेजन यह धन्वंग के नाम हैं । हिन्दी भाषा में धामन, और दामन कहते हैं । धामन-कफ, पित्त, रक्त और खांसीको हरता है । कसैला, हल्का, पुष्टिकारक, बलवर्द्धक, रूक्ष, संधानकारक और रोषया है ॥ ५८ ॥
करीरः । करीरः ककरोडपत्रो ग्रंथिलो मरुभूरुहः ॥ ५९ ॥ करीरः कटुकस्तिक्तः स्वेद्युष्णो भेदनः स्मृतः । दुर्नाम कफवातामगरशोथत्रण प्रणुत ॥ ६० ॥
यह करीरके नाम हैं ।
करीर, क्रकर, अपत्र, ग्रंथिल और करीर कडु, तिक स्वेदजनक, उष्ण और भेदन है । तथा अर्श, कफ
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खात, आम, गर, शोथ और व्रणको दूर करता है । इसके फलोंको टीड और डेले भी कहते हैं। अंग्रेजीमें Aper कहते हैं ॥ ५९ ॥ ६० ॥
शाखोटः ।
शाखोट' पीतफलको भूतावासः खरच्छदः । शाखोटो रक्तपित्ताशयात श्लेष्मातिसारजित् ॥ ६१॥
शाखोट, पीतफल, भूतावास, खरच्छद यह शाखोटके नाम हैं। इसको सहोडा वृक्ष भी कहते हैं। शाखोट-रक्तपित्त, अर्श, वात, कफ और अतिसारको दूर करता है ॥ ६१ ॥
वरुण ।
वरुणो वरणः सेतुस्तिक्तशाकः कुमारकः । कषायो मधुरस्तिक्तः कटुको रूक्षको लघुः ॥
६२ ॥
वरुण, वरण, सेतु, तिक्तशाक, कुमारक यह वरुण वृक्षके नाम हैं । इसको वसा और अरना वरना भी कहते हैं। वरुण कषाय, मधुर, तिक्त, कटु, रूक्ष और हल्का होता है ॥ ६२ ॥
कटभी |
कटभी स्वादुपुष्पा च मधुरेणुः कटंभरा । कभी तु प्रमेहार्शोनाडीव्रण विषक्रिमीन् ॥ ६३ ॥ अत्युष्णा कफकुष्ठघ्नी कटू रूक्षा च कीर्तिता । तत्फलं तुवरं ज्ञेयं विशेषात्कफशुक्र ॥ ६४ ॥
कटभी, स्वादुपुष्षा, मधुरेणु यह कटभीके नाम हैं । कभी - प्रमेह, अर्श, नाडीव्रण, विष और कृमियोंको नष्ट करती है । अत्यंत उष्ण है । कफ और कुष्ठ को हरनेवाली है, कटु है और रूक्ष है । इसके फल कसैले होते हैं। विशेष कर कफ और वीर्यका नाश करते हैं ॥ ६३ ॥ ६४ ॥
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । गोलीढः । मोक्षस्तु मोक्षकोsपि स्याद्गोढीलो गोलिहस्तथा । क्षारश्रेष्ठः क्षारवृक्षो द्विविधः श्वेतकृष्णकः ॥ ६५ ॥ मोक्षकः कटुकस्तितो ग्राह्युष्णः कफवातहृत् । विषमेदो गुल्म कंडूवस्तिरुक् क्रिमिशुक्रनुत् ॥ ६६ ॥
मोक्ष, मोक्षक, गोलीट, गोलिह, क्षार श्रेष्ठ, क्षारवृक्ष ये मोक्ष (मोखा • वृक्ष) के नाम हैं। यह सफेद और काला दो प्रकारका होता है मोखा - कडवा, चरपरा, ग्राही, गरम, कफ, वात, विष, मेद, गुल्म, खुजली, वस्तिरोग, कृमि तथा वीर्य को नष्ट करता है ॥ ६५ ॥ ६६ ॥
अंबुशिरीषका ।
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शिरीषिका टिंटिणिका दुर्बलांबुशिरीषिका । त्रिदोषविषकुष्टा शहरी वारिशिरीषिका ॥ ६७ ॥
शिरीषिका, ढिण्टिणिका दुर्बलाम्बुशिरीषिका यह जलसिरिसके नाम हैं। जल सिरिस - काटेदार और खिरिलसे छोटा पेड होता है । जल खिरिस-विदोष, विष, कुष्ठ मौर बवासीरको दूर करता है ॥ ६७ ॥
शमी ।
शमी सक्कुफला तुंगा केशरंतु फलाशिवा । मंगल्या च तथालक्ष्मीःशमीरासाल्पिका स्मृता ६८ शमी तिक्ता कटुः शीता कषाया रेचनी लघुः ! कफकास भ्रमश्वास कुष्ठार्शः क्रिमिजित्स्मृता ॥ ६९ ॥ शमी, सक्तुफला, तुंगा, केशईतृफला, शिवा, मंगलपा, लक्ष्मी, शमी, रासाषिका, यह शमी वृक्षके नाम हैं। पंजाब में इसको जण्डी कहते | अंग्रेजी में Sponge Tree कहते हैं Bhrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
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शमी - तिक्त, कटु, शीत, कषाय, रेचनी तथा हल्की है। और कफ, कास, भ्रम, श्वास, कुष्ठ, अर्श, कृमि इनको दूर करती है ॥ ६८ ॥ ६९ ॥
सप्तपर्णः ।
सप्तपर्णो विशालत्वक शारदो विषमच्छदः । सप्तपर्णो व्रणश्लेष्मवातकुष्टास्रजंतु जित् ॥ ७० ॥ दीपनःश्वास गुल्मनः स्निग्धोष्णस्तुवरःसरः
।
समपण, विशालत्वक्, शारद, विषमच्छद, यह सप्तपर्णके नाम हैं । इसको हिन्दी भाषामें सतौना और सतवन कहते हैं। इसका लेटिन नाम Alstonia Scholaris है । सतौना - व्रण, कफ, बात, कुष्ठ, रक्त और कृमियों को दूर करने वाला है। तथा दीपन है एवं श्वास और गुल्मको दूर करनेवाला, स्निग्ध, उभ्या, कसैला और दस्तावर है ॥ ७० ॥
तिनिशः ।
तिनिशः स्यंदनो नेमी रथदुवैजुलस्तथा ॥ ७१ ॥ तिनिशः श्लेष्म पित्तास्रमेदः कुष्ठप्रमेह जित् । तुवरः श्वित्रदाहघ्नो व्रणपांडुकृमिप्रणुत् ॥ ७२ ॥
तिनिश, स्यन्दन, नेमी, रथगु, वंजुल यह तिनिशवृक्ष के नाम हैं । इसको तिरिच्छ भी कहते हैं । तिरिच्छ कसैला, कफ, पित्त, रक्त, मेद, कुष्ठ, प्रमेह, श्वित्र, दाह, व्रण, पाण्डु और कमियोंको दूर करनेवाला है । इसको अंग्रेजीमें Emgeniadal Bargia oides कहते हैं ॥ ७१ ॥ ७२ ॥
भूमिसः । भूमिसsो द्वारदा तु शरद्भानुः खरच्छदः । भूमिसस्तु शिशिरो रक्तपित्तप्रसादनः ॥ ७३ ॥
इति घटादिवर्गः ।
भूमिसह, द्वारदा, शद्भानु, स्वरच्छद यह भूमिसहा नाम हैं। इसे
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( २१० )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
अंग्रेजीमें Indian Teak Tree हते हैं । सागोन शीतल और रक्तपित्तको शुद्ध करता है ॥ ७३ ॥
इति श्रीवैद्यरत्न पण्डित रामप्रसादात्मज - विद्यालङ्कारशिवशर्मवैद्यशास्त्रिकृत - शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ वटादिवर्गः समाप्तः ॥ ६ ॥
अथ धातुवगः ७.
तत्र धातूनां लक्षणानि गुणाश्च । स्वर्ण रूप्यं च ताम्र च वंगं यसदमेव च । सीस लोहं च सप्तैते धातवो गिरिसंभवाः ॥ १ ॥ वलीपलितखालित्यं काश्यीऽबल्यजरामयान् । निवार्य देहं दधति नृणां तद्धातवो मताः ॥ २ ॥
सोना, चांदी, तांबा, बंगे, जस्त, सीसा और लोह यह सात धातुएँ पर्वतों में होती हैं । यह धातुएँ वली ( स्वचाका लुकड़ना ), पलित ( सफेद बाल हो जाना ), खालित्य ( गंजापन ), कृशता, निर्बलता, वृद्धता और रोगको हरकर मनुष्य के शरीरको धारण करती है, इसलिये इनको धातु कहते हैं ॥ १ ॥ २ ॥
सुवर्णोर रत्तिनामलक्षणगुणाश्च ।
पुरा निजाश्रमस्थानां सप्तर्षीणां जितात्मनाम् । पत्नीर्विलोक्य लावण्यलक्ष्मीसंपन्नयौवनाः ॥ ३ ॥ कंदर्पदर्पविध्वस्तचेतसो जातवेदसः । पतितं यद्धरापृष्ठे रेतस्तद्धेमतामगात् ॥ ४ ॥
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हरीतक्यादिनिवण्टुः भा. टी. 1
( ११ )
स्वण सुवण कनकं हिरण्यं हेम हाटकम् | तपनीय च गांगेय कलधौतं च कांचनम् ॥ ५ ॥ चामी। रं शातकुंभं भर्म कार्तस्वरं च तत् । जांबूनद जातरूपं महारजतमित्यपि ॥ ६ ॥ रुक्मं लोहवरं चाग्निबीजं चांपे कर्बुरे । अष्टापदं च रसजं तैजसं चापि कीर्तितम् ॥ ७ ॥ प्राकृतं सहजं वह्निसंभूतं खनिसंभवम् । रद्रवेधसंजातं स्वर्ण पंचविधं स्मृतम् ॥ ८ ॥ दाहे रक्त संत छेदे निषेके कुंकुमप्रभम् । तारशुल्बोज्झितं स्निग्धं कोमलं गुरु हेम सत् ॥ ९ ॥ तच्छ्रुत कठिन रूक्षं विवर्ण समलं दलम् ।
छेसितं श्वेतं कषे त्याज्यं लघु स्फुटम् ॥ १० ॥ सुवर्ण शीतलं वृष्यबल्यं गुरु रसायनम् । स्वातिक्तं च तुवरं पाके तु स्वादु पिच्छिलम् ११ पवित्रं बृंहण नेत्र्यं मेधास्मृतिमतिप्रदम् । हृद्यमायुष्करं कांतिवाग्विशुद्धिस्थिरत्वकृत् ॥ १२ ॥ विषद्रयं क्षयोन्मादत्रिदोषज्वरशोषजित् ॥ १३॥ बलं सवीय्य इरते नराणां रोगवजान्पोषयतीह काये । असौख्यकार्यं सदा सुवर्णमशुद्धमेतन्मरणंच कुर्य्यात्
असम्यङ्गमारितं स्वर्ण बलं वीर्य च नाशयेत् । करोति रोगान् मृत्युं च तदन्याद्यत्नतस्ततः ॥ १५ ॥
अपने आश्रम में ठहरे हुए जितेन्द्रिय खत ऋषियोंकी लावण्य लक्ष्मी,
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(२१२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । पौर यौवनसंपन्न स्त्रियोंको देखकर कामदेवसे पीडित चित्तवाले, अमिका जो शुक्र पृथ्वीपर गिरा,वह सुवर्ण बन गया। स्वर्ग,सुवर्ण,कनक,हिरण्य, हेम, हाटक, तपनीय, गांगेय,कलधौत, कांचन, चामीकर, शातकुंभ, भर्म, कार्यस्वर, जाम्बूनद, जातरूप,महारजत रुक्म,लोहवर,पग्निबीज,चांपेय, कर्बुर, अष्टापद, रसज, तैजस यह सोनेके नाम हैं। फारसी में इसे तिना, और अंग्रेजी में Gold करते हैं। प्राकृत,सहज, वह्निसंभूत, खनिसंभव तथा रसेंद्रवेधसंजात इन भेदोंसे पांच प्रकारका स्वर्ण होता है । जो स्वर्ण पाने में लाल, काटनेसे सफेद, कसौटीपर केशरका वर्ण देनेवाला, ताम्र और चांदी रहित. स्निग्ध, कोमल और भारी हो वह स्वर्ण उत्तम होता है। जो सोना सफेद, कठोर, खा,बुरे वर्णवाला,मनसहित, गांठके सदृश तपाने और काटने में सफेद, कसौटीपर सफेद, हलका और चोटसे फूट जानेवाला हो, वह स्वर्ण त्याग देना चाहिये । स्वर्ण-शीतन, वीर्यवर्धक, बनकारक, भारी, रसायन, मधुर तिक्त, कषाय, पाकमें मधुर, स्निग्ध पवित्र, बृंहण,नेत्रोंको हितकर,बुद्धि,स्मृति और मतिको देनेवाला,हृदयको प्रिय, आयुष्य कांति और वाणीको स्वच्छ बनानेवाला, स्थिरता देनेवाना, दोनों प्रकार के विष (स्थावर, जंगम ) तथा क्षब,उन्माद,विदोष ज्वर और शोथ इनको जीतनेवाला है । अशुद्ध ग्वर्ण-बल वीर्यको हरनेवाला,कायामें रोगों के समूह को बढानेवाला पौर शरीरके सुखका नाश करता है । तथ. मृत्युको करनेवाला होता है। इसी प्रकार ठीक भस्मित न किया हुआ (अधमरा ) स्वर्ण पल पौर वीर्यका नाश करता है। तथा रोगों और मृत्युको करनेवाला है। इसलिये सुवर्षको विधिपूर्वक शुद्ध करके उत्तम भस्म बना लेना चाहिये ॥ ३-१५॥
रजतम् ।
त्रिपुरस्य वधार्थाय निर्निमेषैर्विलोचनैः । निरीक्षयामास शिवः क्रोधेन परिपूरितः ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( २१३ )
अग्निस्तत्कालमपतत्तस्यैकस्माद्विलोचनात् ॥ १६ ॥ ततो रुद्रः समभवद्वैश्वानर इव ज्वलन् । द्वितीयादपतन्नेत्रादश्रुबिंदुस्तु वामका ॥ १७ ॥ तस्माद्रजतमुत्पन्नमुक्तकर्मसु योजयेत् । रजतं त्रिविधं प्रोक्तं सहजं खनिजकृत्रिमे ॥ १८ ॥ कृत्रिमं च भवेत्तद्धि वंगादिरसयोगतः । रूप्यं तु रजतं तारं चन्द्रकांतिसितप्रभम् ॥ ३९ ॥ वसूत्तमं च कुप्यं च खर्जूरं रंगबीजकम् । गुरु स्निग्धं मृदु श्वेतं दाहे छेदे घनक्षमम् ॥ २० ॥ वर्णाढ्यं चन्द्रवत्स्वच्छं रूप्यं नवगुणं शुभम् । कठिनं कृत्रिम रूक्षं रक्तं पीतदलं लघु ॥ २१ ॥ दहच्छेदघनैर्नष्टं रूप्यं दुष्टं प्रकीर्तितम् । रूप्यं तितं कषायाम्लं स्वादु पाकरसं सरम् ॥२२॥ वयसः स्थापनं स्निग्धं लेखनं वातपित्तजित् । प्रमेदादिकरोगांश्च नाशयत्यचिराद्ध्रुवम् ॥ २३ ॥ तारं शरीरस्य करोति तापंविड्बंधनंयच्छति शुक्रनाशम् । वीर्यबलं हंतित नोस्तु पुष्टि महागदान्पोषयतिह्यशुद्धम् २४ ॥
जब त्रिपुरासुर दैत्यके वध करने के लिये महादेवने क्रोध से परिपूर्ण होकर निर्निमेष नेत्रों से देखा, तो उनके एक नेत्रसे अग्नि तो निकली और वह अग्निकी भांति प्रज्वलित शरीरवाले हुए, और उनके वाम नेत्रसे आंसू की बूंद गिरी, उससे रजत उत्पन्न हुआ, जो अनेक कर्मोंमें प्रयोग करना चाहिये। रजत (चांदी) तीन प्रकारकी होती है- एक सहज, दुसरी
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(२१४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । खनिज, तीसरी कृत्रिम इनमें कृत्रिम चांदी, वंग पारेके योगसे बनाई जाती है। चांदी, प्य, रजत, तार, चन्द्रकांती, सितप्रभ, बसुत्तम कुप्य, खजूर और रंगवीजक इन नामोंवाली है। जो चांदी भारी, चिकनी, नरम, श्वेत, दाह और छेदन में भी सफेद, चोटसे न टूटनेवाली, वर्ण करके युक्त और चन्द्रमा जैसी स्वच्छ इन नौ गुणोंवाली चांदी उत्तम . कही जाती है । तथा जो चांदी कठोर, बनावटी, रूक्ष, लालवर्णकी, पीत दलवाली, हलकी, दाहमें और छेदनमें विवर्ण और घनकी चोट लगनेसे नष्ट हो जाय ऐसी चांदीको दुष्ट चांदी कहते हैं। रूप्य (चांदी) तिक्त, कषाय, अम्ल, पाक और इसमें मधुर और दस्तावर है । तथा उमरको स्थापन करनेवाली, स्निग्ध, लेखन, वात पित्तको जीतनेवाली और प्रमेहादि रोगोंको शीघ्र नष्ट करनेवाली है। यदि अशुद्ध चांदीका सेवन किया नाय तो ताप, विबंध, शुक्रनाश, बलकी हानि और अनेक रोगोको उत्पन्न करनेवानी होती है ॥ १५-२४ ॥
ताम्रम् ।
शुक्रं यत्कार्तिकेयस्य पतितं धरणीतले । तस्मात्तानं समुत्पन्न मिदमाहुः पुराविदः ॥ २५ ॥ ताम्रमोदुंबरं शुल्बमुदुंबरमपि स्मृतम् । रविप्रियं म्लेच्छमुखं सूर्य्यपर्यायनामकम् ॥२६॥ जपाकुसुमसकाशं स्निग्धं मृदु घनक्षमम् । लोहं नागोज्झितं तानं मारणाय प्रशस्यते ॥२७॥ कृष्णं रूक्षमतिस्तब्धं श्क्तं चापि घनासहम् । लोहनागयुतं चेति शुलं दुष्टं प्रकीर्तितम् ॥ २८ ॥ तानं कषायं मधुरं च तिक्तमम्लं च पाके कटु सारकंच पिचापह श्लेष्महरंचशीतोषणस्याल्लघुलेखनंच२९
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. 1 (२१५ )
पांडूदरार्शोज्वर कुष्ठकासश्वासक्षयान्पीन समम्लपित्तम् । शोथंकृमिं शूलमपाकरोति प्राहुः परे बृंहणमल्पमेतत् ३० न विषं विषमित्याहुस्ताम्रं तु विषमुच्यते । एको दोषो विषे ताम्रे त्वष्टौ दोषाः प्रकीर्तिताः ॥ ३१॥ दाहः स्वेदोऽरुचिर्मूर्च्छा दो रेको वमिमः ।
स्वामि कार्तिकका शुक्र पतित होकर जो पृथ्वीपर गिरा उससे ताम्न बन गया, ऐसा ऋषि कहते हैं। ताम्र, औदुंबर, शुल्व, उदुंबर, रविप्रिय, म्लेच्छमुख, और सूय्यंके वाचक सब शब्द तांबेके नाम हैं। इसे फारसीमें मिख और अंग्रेजी में Copper कहते हैं। तांबा जपाकुसुमके समान लाल वर्णवाला, चिकना, नरम और घनकी चोटसे न टूटनेवाला है । लोह और सीसे पादिके अंशसे रहित, ऐसा स्वच्छ शुद्ध ताम्र भस्मके लिये अच्छा होता है ।
जो ताम्र काले वर्णका, रूखा, अत्यन्त कठोर, श्वेत, घनकी चोटसे टूटे जानेवाला, लोड और सीसा युक्त, वह दूषित ताम्र सेवन करने के योग्य नहीं होता । ताम्र-कषाय, मधुर, तिक्त और अम्ल होता है । एवं पाक में कटु होता है। तथा सारक, पित्तनाशक, कफनाशक, शीतल, रोपण, हलका, लेखन है । पाण्डुरोग, उदररोग, अर्श, ज्वर, कुष्ठ, खांसी श्वास, क्षय, पीनस, अम्लपित्त, शोध, कृमि और शूलको दूर करता है । तथा किंचित शरीरको पुष्ट भी करता है। विष दी केवल विष नहीं, ताम्र महाविष कहा जाता है। क्यों कि विषमें एक ही दोष है, ताम्रमें - दाह. स्वेद, अरुचि, मूच्छ, क्लेद, रेचन, दमन और भ्रम यह आठ दोष कहे हैं। इस लिये ताम्रको अत्यन्त शुद्ध और भस्मित करके सेवन करना चाहिये ।। २५- ३१ ॥
बंगम् |
रंग वगं त्रपु प्रोक्तं तथा पिचरमित्यपि ॥ ३२ ॥
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
खुरकं मिश्रकं चापि द्विविधं वंगमुच्यते । उत्तमं खुरकं तत्र मिश्रकं त्ववरं मतम् ॥ ३३ ॥ रंग लघु सरं रुक्षमुष्णं मेहकफक्रिमीन् । निहंति पांडु सश्वासं चक्षुष्यं पित्तलं मनाक् ॥ ३४ ॥ सिंहोयथा हस्तिगण निहति तथैव वंगोऽखिल मेहवर्गम् । देहस्य सौख्यं प्रबलेंद्रियत्वं नरस्यपुष्टिविदधातिनूनम् ॥ ३९
रंग, बंग, पु, पिञ्चड, यह वंगके नाम हैं। वंग-खुरक और मिश्रक भेदसे दो प्रकारका होता है। खुरक बंग-गुणमें उत्तम होता है और मिश्रक- न्यून होता है। हिन्दीमें कलई और फारसीमें अर्जीज कहते हैं । वंग - हल्की, दस्तावर, रूखी, उष्ण तथा प्रमेह, कफ, कृमि, पाण्डु, और श्वासको नष्ट करनेवालो है, मेत्रोंको हितकारी, किंचित पित्तकारक है । जैसे प्रबल सिंह हाथियों के समूहको नाश कर देता है, वैसे बंगभस्म सम्पूर्ण प्रमेह रोगोंको नष्ट करके देहको सुख देता है और पुष्ट करता है। तथा संपूर्ण इंद्रियों को बलवान् करता है ॥ ३२-३५ ॥
यसदम् ।
यसदं रंगसदृशं रीतिहेतुश्च तन्मतम् I यसदं तुंबरं तिक्कं शीतलं कफपित्तहृत् ॥ ३६ ॥ चक्षुध्यं परमं मेहान्पांडुं श्वासं च नाशयेत् ।
यशद, रंगसदृश पौर रीतिहेतु यह जस्तेके नाम हैं। इसे फारसीमें रूरा तूतिया और अंग्रेजीमें zinc कहन हैं। किसी किसी ग्रंथ में यसद को खर्पर और रसक नामसे भी निखा है। याज कल वैद्य स्वर्णमालिनी वसन्तमें खर्परकी जगह इसकी का प्रयोग करते हैं। यशद- -कसैला तिक, शीतल, कफपित्तनाशक, नेत्रको परम हितकारी तथा प्रमेह, " Aho : Shrutgyanam पाण्डु और श्वासको नष्ट करता हूँ ॥ ३५ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२१७)
सीसकम् । दृष्ट्वा भोगिसुतां रम्यां वासुकिस्तु मुमोचयत् ॥३७ वीर्य जातस्ततो नागः सर्वरोगापहो नृणाम् । सीसं वधं च वप्रं च योगेष्टंनागनामकम् । सीसं वंगगुण ज्ञेयं विशेषान्मेहनाशनम् ॥ ३८ ॥ नागस्तु नागशततुल्यबलं ददाति व्याधि विनाशयति जीवनमातनोति । वह्नि प्रदीपयति कामबलं करोति मृत्युं च नाशयति सन्ततसेवितस्सः ॥३९॥ पाकेन हीनौकिल वंगनागौ कुष्ठानि गुल्मांश्च तथातिकष्टान् । पांडुप्रमेहानल सादशोथभगंदरादीन् कुरुतः प्रभुक्तौ ॥४०॥ सर्पराजकी कन्याको देखकर वासुकी नागका जो वीर्य पतन हुआ, उससे मनुष्योंके सब रोगोंके दूर करने वाला सीला उत्पन्न हुआ। इसके सीस, वध, वप्र, योगेष्ट और नागके जितने पर्यायवाचक शब्द हैं, यह संस्कृत नाम हैं। हिन्दीमें सिक्का या शीशा, फारसीमें सुर्व और अंग्रेजीमें Lead बहते है। सीक में सम्पूर्ण गुप बंगक समान है। विशेषतासे प्रमेहोको नाश करता है । सीसकी उत्तम बनी हुई भस्म विधिवत सेवन करनेसे शरीरमें हाथियोंके समान बल पाता है। प्राधिये दूर होती हैं। भायु बढती है, जठरान प्रदीप्त होती है, कामदेवका बल बढता है, पौर मुत्युका भी नाश होता है। यादे वंग और नागको बिना विधिवत भस्म किये कच्ची भस्मका सेवन किया जाय तो पतिकष्टदायक, कुष्ठ, गुल्म, पाण्ड, प्रमेह, मंदाग्नि, शोथ और भगंदर मादि रोगोको करती है ।। ३७-४०॥
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(२१८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
लोहम् । पुरा लोमिनदैत्यानां निहतानां सुरैयुधि । उत्पन्नानि शरीरेभ्यो लोहानि विविधानि च ॥४१॥ लोहोऽस्त्री शस्त्रकं तीक्ष्णं पिंडं कालायसायसी। गुरु दृढतोत्क्लेदकश्मलं दाहकारिता ॥ ४२ ॥ अश्मदोषः सुदुर्गधो दोषाः सप्तायसस्य तु । लोहं तिक्तं सरं शीतं मधुरं तुवरं गुरु ॥ ४३॥ सूक्षं वयस्यं चक्षुष्यं लेखनं वातलं जयेत् । कफपित्तं गरं शुलं शोथार्शः प्लीहपांडुताः।
मेदोमेहकृमीन्कुष्ठं तकिट्टं तद्वदेव हि ॥ ४४ ॥ खंडत्वकुष्ठामयमृत्युदं भवेदूहृद्रोगशूलौ कुरुतेऽश्मरींच। नानारुजानांच तथाप्रकोपंकरोतिहल्लासमशुद्धलोहम् ४५ जीवहारि मदकारि चायसं चेदशुद्धिमदसंस्कृतंध्रुवम् । पाटवं न तनुते शरीरके दारुणं हृदि रुजां च यच्छति४६
कूष्मांड तिलतैलं च माषानं राजिकां तथा । मद्यमम्लरसं चापि त्यजेल्लोहस्य सेवकः ॥ १७॥ पहिले युदमें देवताओंसे निहत हुए, लोमिन दैस्योंके शरीरमेंसे जो पृथ्वीपर रक्त गिरा, उससे अनेक जातिके लोह उत्पन्न हुए । लोह स्त्रीलिंग वाचक नहीं। इसके शखक तीक्ष्ण, पिण्ड, कलायस, पायम यह संस्कृत नाम हैं। इसे हिंदीमें लोहा, फारसीमें आहन व फौलाद, अंग्रेजीमें Iron करते हैं। लोहेमें भारीपन, दृढता, उत्क्लेद, करमळ, दाहकारिता, अश्मदोष और दुर्गन्ध यह सात दोष रहते हैं । इस लिये भस्म करनेसे पहले शोधन करते समय यह सब दोष निकाल देने चाहिये। लोह
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हरीतक्या दिनिघण्टुः भा. टी.। (२१९) तिक्त, सर,शीतल. मधुर, कसैला, भारी,खा, वयस्थापक, नेत्रोंको हितकारी, लेखन और वातकारक है । तथा कफ, पिन, गर,शूल, सूजन, अश, प्लीहा, पाण्डु, मेदरोग, प्रमेह, कृमि और कुष्ठको दूर करता है। लोहेका किट्ट, अर्थात मण्डूर भी लोहके समान ही गुणवाना है। अशुद्ध लोहके सेवन करनेसे नपुंसकता, कुष्ठरोग, मृत्यु, हृद्रोग, शूल, पथरी, हल्लास
और अनेक प्रकारके रोगोंका प्रकोप होता है । विना शुद्ध संस्कार किये हुए लोह भरमके सेवन करनेसे जीवनकानाश, मद, जडता और हृदय दारुण पीड़ा उत्पन्न होती है। लोभम्मके सेवन करनेवाले मनुष्यको कूष्माण्ड (कद्द ) तिलतैछ उडदकी दाल, राई, मद्य मौर खट्टे रस को सर्वथा त्याग करदेना चाहिये ॥ ४१ ॥ १७ ॥
लोहसारम् । क्षमाभृच्छिखराकाराण्यंगान्यम्लेन लेपिते ।। लोहे स्युर्यत्र सूक्ष्माणि तत्सारमभिधीयते ॥ ४८ ॥ लोहं साराह्वयं इन्याद् ग्रहणीमतिसारकम् । अर्द्ध सर्वाङ्गजं वातं शुलं च परिणाम जम् ॥ १९॥
छदि च पीनसं पित्तं श्वास्त्रं कासं व्यपोहति ॥५०॥ जिस लोहेके चौडे टुकडे पर खट्टे रसके लेप करनेसे पर्वतके शिखरके प्राकारके बारीक २ चौहर चमकने नंगे, उसको साग्लोह कहते हैं। सारनामक लोह-संग्रहणी, अतिसार, प्रोगवात, सर्वाङ्गपात, परिणा. मशूल, छदी, पीमल, पित्त, श्वास और खांसीको दूर करता है ॥४८॥५०॥
कांतलोहम् ।
पात्रे यस्मिन् प्रसरति जले तैलबिंदुर्निषिक्तो विद्धं गंधं त्यजति च निजं रूषितं निंबकरकैः ।
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(२२० ) ram काश निघण्टुः भा. टी. । तप्तं दुग्धं भवति शिखराकारकं नैति भूमि कृष्णांगःस्यात्सजलचणकः कतिलोहं तदुक्तम् ५१ ॥ गुल्मोदरार्शःशुलाममा मवातं भगंदरम् । कामलाशोथ कुष्ठानि क्षयं कांतमयो हरेत् ॥ ५२॥ प्लीहानमम्लपित्तं च यच्चापि शिरोरुजम् । सर्वान् रोगान्विजयते कांतलोहं न संशयः ॥ २३ ॥ बलं वीर्य्यं वपुः पुष्टिं कुरुतेऽग्निं विवर्द्धयेत् ॥ ५४ ॥
जिस लोहके पात्र में पानी भर कर उसमें तेलकी बून्द डाली हुई न फैले, हींग अपनी गंधको त्याग देवे, नीमका पत्र कडवापन छोड दे, दूध उबल कर शिखराकार खड़ा हो जाय पर नीचे न गिरे, तथा जल भर कर चने डालने से चने काळे दिखाई देने लगें, उस पाववाले लोहको कांवलोह कहते हैं । कान्त लोह -गुल्म, उदररोग, अश, आमशूल, आमवात, भगन्दर, कामला, शोथ, कुष्ठ, क्षय, प्लीहा, अम्लपित्त, यकृत विकार और शिरोरोग इन सबको दूर करता है । कान्तलोह बल, वीर्य्य और धरीरको पुष्ट करता है, जठराग्निको बलवान करता है इसमें संदेह नहीं ॥ ५१-५४ ॥
मडूरम् ।
धमायमानस्य लोहस्य मलं मंडूरमुच्यते । लोहसिंहानिका किट्टी सिंहानं च निगद्यते ॥ ५५ ॥ यल्लोहं यद्गुणं प्रोक्तं तत्किमपि तद्गुणम् ।
भट्टी में धमाए हुए लोहका जो मल गिरता है उसको मण्डूर कहते हैं इसके छोह सिंहानिका, किट्टि, सिंहान मादि नाम हैं । लोहभस्म के नो गुण हैं लोडकिडकी भस्म के भी वही गुण हैं ॥ ५५ ॥
सप्तोपधातवः ।
सप्तोपधातवः स्वर्णमाक्षिकं तारमाक्षिकम् ॥ ५६॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । तुत्थं कांस्यं च रीतिश्व सिंदूरश्च शिलाजतु । उपधातुषु सर्वेषु तत्तद्धातुगुणा अपि ॥ ५७ ॥ संति किं तेषु ते गौणास्तत्तदंशाल्पभावतः ।
स्वर्णदि धातुओं की सात उपधातुएँ होती हैं। जैसे सोनामंक्खी/ रूपामक्खी, तुत्थ, कांसी, पित्तल, सिंदुर और शिलाजीत । इन सात उपधातुओं में इनकी अबली धातुओंके से गुण रहते हैं। क्योंकि गौण रूपसे उनही धातुयोंका अल्प भावसे अंश इनमें रहता है इसलिये अल्पभाव से यह उनकासा ही गुण करती हैं। हमारे मतमें कांसी और पीतलको उपधातु नहीं मानना चाहिये क्योंकि दो दो शुद्ध धातुयोंसे कांसी और पीवल बनाई जाती है। तांबे और बंग में मिलानेसे कांसी, तांबा पौर जस्तके मिलानेसे पीतळ बनता है । इसलिये इनको कृत्रिम या संयोगज धातु मानना चाहिये ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ स्वर्णमाक्षिकम् ।
( २२१ )
स्वच्छ माक्षिकमाख्यातं तापीजमधुमाक्षिकम् ॥५८॥ ताप्यं माक्षिकधातुश्च मधुधातुश्च स स्मृतः । किंचित्सुवर्ण साहित्यात्स्वर्णमाक्षिक्रमीरितम्॥५९॥ उपधातुः सुवर्णस्य किंचित्स्वर्णगुणान्वितः । तथा च कांचनाभावे दीयते स्वर्णमाक्षिकम् ॥ ६० ॥ किंतु तस्यानुकल्पत्वात् किंजिदूनगुणं ततः । न केवलं स्वर्णगुणो वर्तते स्वर्णमाक्षिके ॥ ६१ ॥ द्रव्यांतरस्य संसर्गात्सत्यन्येऽपि गुणा यतः । सुवर्णमाक्षिकं स्वादु तिक्कं वृष्यं रसायनम् ॥ ६२ ॥ चक्षुष्यं वस्तिरुक्कुष्ठपांडुमेह विषोदरान् । अर्श: शोथं विषं कंडु त्रिदोषमपि नाशयेत् ॥ ६३ ॥
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( २२२ ) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
मैदानत्वं बलहानियां विष्टभतां नेत्रगान्कुष्टान् । तथैवमालवण पूर्विकां चकरोतिता पी जम शुद्धमेतत् ॥ ६४ ॥
स्वच्छ, माक्षिक, तापीज, मधुमाक्षिक, ताप्यक, मादिक धातु और मधुरधातु यह सोनामक्खीके नाथ है। सोनामक्खी सुवर्णकेसे वर्णवाली होनेके कारण सोनामक्खी कही जाती है, किञ्चित् स्वर्णके गुणांवाली होनेसे इसे स्वर्णकी उपधातु कहते हैं । यद्यपि कुछ लोग स्वर्णके प्रभामें इसका प्रयोग करते है परन्तु इसमें स्वर्ण से बहुत न्यून गुण हैं । तथा गंधक आदि अन्य द्रव्योंके संसर्गले अन्य गुणोंका इसमें समावेश है । सोनामक्खी - मधुर, तिक्त, पृष्य, रायन, नेत्रोंको हितकारी तथा वस्तिपीडा, कुष्ठ, पाण्डु, प्रमेह, विषविकार, उदररोग, अर्श, शोथ. खुजली और त्रिदोषको नाश करनेवाली है । ग्रशुद्ध सोनामक्खीके खानेसे अग्निमांद्य, बनकी हानि, अत्यन्त बिष्टंभ : नेत्ररोग, कुष्ठ, गण्ड-माला आदि दारुण रोग उत्पन्न होते हैं ॥ ५८--६४ ॥
तारमाक्षिकम् । तारमाक्षिकमन्यत्तु तद्भवेद्रजतोपमम् । किंचिद्रजत साहित्यात्तारमाक्षिकमीरितम् ॥ ६५ ॥ अनुकल्पतया तस्य ततो हीनगुणं स्मृतम् । न केवलं रूप्यगुणा वर्तते तारमाक्षिके ॥ ६६ ॥ द्रव्यांतरस्य संसर्गात्सत्यन्येऽपि गुणा यतः ॥ पूर्ववत् ॥
तारमाक्षिक और रजतोरम यह रूपामाखी के नाम हैं। किंचित रजतका वर्ण होनेसे इसको रूपामाखी कहते हैं । यह रजतसे अत्यन्त दीन गुणोंवाली है । यद्यपि कुछ लोग इसका रजतके अभाव में प्रयोग करते हैं किन्तु इसमें केवल रजतके गुण नहीं हैं: जिन अन्य द्रव्यों का संसर्ग इसमें है उनके गुण भी इसमें हैं। इसके गुण प्रायः स्वर्णमाक्षिक के गुणों से मिलते हैं ॥ ६५ ॥ ६६ ॥
तुत्यम् ।
तुत्थं विन्नकं चापि शिखिग्रीवं मयूरकम् ॥ ६७ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२२३) तुत्थं ताम्रोपधातुर्हि किंच ताम्रेण तद्भवेत् । किंचित्ताम्रगुणं तस्माद्रक्ष्यमाणगुणं च तत् ॥ ६८॥ तुत्थक कटुकं क्षारं कषाय वामकं लघु । लेखनं भेदनं शीतं चक्षुष्यं कफपित्तहृत् ॥ ६९ ॥ विषाष्मकुष्ठ कंडूघ्नं खपरं चापि तद्गुणम् ।। तुत्थ,वितुनक,शिखिग्रीव और मयूरक यह नीलेथोथेके नाम हैं। नीला योथा ताम्रका उपधातु है और ताम्रसे ही उत्पन्न होता है। उसमें ताम्रकेसे गुण होते हैं तथा तुत्थ-कटु,तार,कषाय,यामक,हल्का,लेखन,भेदन,शीतल नेत्रोंको हितकारी कफ, पित्तके हरनेवाला, विष, पथरी, कुष्ट और कण्डु इनको हरनेवाला है और तुथई खपरियेके भी यही गुण ॥ ६७ ६९ ॥
कांस्यम् । ताम्रस्त्रपुजमाख्यातं कांस्य शेषं च कांसकम् ॥७॥ उपधातुर्भवेत्कांस्यं द्वयोस्तरणिरंगयोः। कांस्यस्य तु गुणा ज्ञेयाः स्वयोनिसदृशा जनैः७१॥ संयोगजप्रभावेण तस्यान्येऽपि गुणाः स्मृताः। गुरु नेत्रहितं रूक्षं कफपित्तहरंपरम् ॥ ७२ ॥ ताम्रखपुज, कांस्य,घोष, कांसक यह कांसीके नाम हैं। कांसी तांबे और रंगके योगसे उत्पन्न होती है। यद्यपि कांसी में तांबे और रंगके समान ही गुण हैं परन्तु योगज प्रभारसे इसमें गुरु,नेवहितकर,रूक्ष और कफपित्त के हरनेवाले गुण विशेष रूपसे हैं ॥ ७०-७२ ॥
पित्तलम् । पित्तलं त्वारकूटं स्यादारो रीतिश्च कथ्यते ॥ ७३ ॥ राजरीतिब्रह्मरीतिः कपिला पिंगलापि.च ।
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(२२४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। - रीतिरप्युपधातुः स्पात्ताम्रस्य यसदस्य च ।। ७४ ।। पित्तलस्य गुणा ज्ञेयाः स्वयोनिसदृशा जनैः । संयोगजप्रभावेण तस्यान्येऽपि गुणाः स्मृताः॥७॥ रीतिकायुगलं रूक्ष तिक्तं च लवणं रसे । शोधनं पांडुरोगघ्नं कृमिघ्नं नातिलेखनम् ॥ ७६ ॥ पित्तल, आरकूट, पार- रीति,राजरीति, ब्रह्मरीति,कपिला और पिंगल यह पीतल के नाम हैं। पीतल तांबे और जशदके संयोगसे उत्पन्न होती है, इस लिये इसमें तांबे और जस्तकेले गुण होते हैं। परन्तु संयोगज प्रभावसे इसमें और भी गुण पाजाते हैं। जैसे यह रूक्ष. तिक्त, वणरसयुक्त, शोधन, पांडुरोगहर, कृमिघ्न तथा प्रायंत लेखनकर्ता है॥ ७३-७६.॥
सिंदूरम् । सिंदूरं रक्तरेणुश्च नागगर्भ च सीसकम् । सीसोपधातुः सिंदूरं गुणस्तरसीसवन्मतम् ॥ ७७ ॥ सिंदूरमुष्णवीसप कुष्ठकंडूविषापहम् ।
भनसंधानजननं व्रणशोधनरोपणम् ॥ ७८॥ सिंदूर,रक्तरेणु,नागगर्भ, सीतक और सीसोपधातु यह सिंदूरके नाम हैं। सिंदूर सीसेके समान गुणोंवाला है तथा उष्ण है । विसर्प, कुष्ठ, कंडू और विषको हरनेवाला है। कटे हुएके जोडनेवाला तथा व्रणोंको शोधन और रोपण करनेवाला है ॥ ७७ ॥ ७८ ॥
शिलाजत। निदाघे धर्मसंतप्ता धातुसारं धराधराः । निर्यासवत्प्रमुचंति तच्छिलाजतु कीर्तितम् ॥ ७९ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२२५) सौवर्ण राजतं ताम्रमायसं तच्चतुर्विधम् । शिलाजत्वद्रिजतु च शैलनिर्यास इत्यपि ॥ ८ ॥ गैरेयमश्मजं चापि गिरिजं शलधातुजम् । शिलाज कटुतिक्तोष्णं कटुपाकं रसायनम् ॥ ८ ॥ छेदि योगवहं हंति कफमेदोश्मशर्कराः। मूत्रकृच्छ्रे क्षयं श्वास वाताशीसि च पाण्डुताम् ८२॥ अपस्मारं तथोन्मादं शोथकुष्ठोदरक्रिमीन् । सौवर्ण तु जपापुष्पवर्ण भवति तद्रसात ॥ ८३ ॥ मधुरं कटु तिक्तं च शीतलं कटुपाकि च । राजतं पाण्डुरं शीतं कटुकं स्वादुपाकि च । तानं मयूरकण्ठाभ तीक्ष्णमुष्णं च जायते ॥ ८४ ।। लौहं जटायुपक्षाभं तितकं लवणं भवेत् । विपाके कटुकं शीतं सर्वश्रेषमुदाहृतम् ॥ ८५ ॥ ग्रीष्मऋतुमें सूर्यकी तीक्ष्ण किरणोंसे तपायमान, पर्वत धातुमके नियास के समान जिस उपधातुका स्राव करते हैं उसे शिलाजतु कहते हैं। यह शिलाजतु सौवर्ण,राजत, ताम्र और आयस भेदले चार प्रकारकी होती है। शिलाजतु,अद्रिज,शैत नियास,गैरेय, अश्मज,गिरिज और शैलधातुज वह शिलाजतुके नाम हैं। शिलाजित-कटु,तिक्त,उष्ण, कटुपाकी, रसायन, छेदी और योगवाही है। तथा कफ,मेद, पथरी, शर्करा, मूत्रकृच्छ, क्षय, श्वास, वात, पर्श, पांडु, पपस्मार, उन्माद, शोथ, कुष्ठ, उदररोग, कृमिरोग इन सबको दूर करती है । सुवर्णवाले पहाड़की शिलाजतु जपापुष्पके वनवाली,रतमें मधुर, कटु और तिक्त होती है तथा शीतल और कटुपाकी होती है । रजतवाली पाण्डुवर्णकी शीतल, कटु और स्वादुपाकी होती है। तायवाली शिनाजित-मोरके कण्ठके समान वर्णवाली, तीक्ष्ण
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( २१६.)
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
और उष्ण होती है। लोहेवाले पहाडकी शिलाजीत - जटायुके पक्षके समान काली, तिक्त और लग्णानुरस होती है । पाकमें कटु शीतन और सबमें श्रेष्ठ, शिलाजीत मानी जाती है ।। ७९-८५ ॥
रसः ।
रसायनामिके पारदो रस्यते यतः । ततो रस इति प्रोक्तः स च धतुरपि स्मृतः ॥ ८६ ॥
रसायन करने लोग जिस लिये पारदको रसन करते हैं, इस लिये पारद को रल कहते हैं और धातु भी कहते हैं ॥ ८६ ॥
पारदम् ।
शिवांगात्मच्युतं रेतः पतितं धरणीतले । तद्देहसारं जातत्वाच्छुक्क मच्छमभूच्च तत् ॥ ८७ ॥ क्षेत्रभेदेन विज्ञेयं शिववीय्यै चतुर्विधम् ।
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रक्तं तथापी कृष्णं तत्तु भवेत् क्रमात् ८८॥ ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रश्च खलु जातितः । श्वेतं शस्तं रुजां नाशे रक्तं किल रसायने ॥ ८९ ॥ धातुवेधे तु तत्पीतं खे गतौ कृष्णमेव च । पारदो रसधातुश्च रसेन्द्रश्च महारसः ॥ ९० ॥ चपलः शिववीर्यश्व रसः सृतः शिवाह्वयः । पारदः षडूः स्निग्धस्त्रिदोषघ्नो रसायनः ॥ ९१ ॥ योगवादी महावृष्यः सदा दृष्टिबलप्रदः । सर्वामयदरः प्रोक्तो विशेषात्सर्वकुष्टनुत् ॥ ९२ ॥ स्वस्थ रसो भवेद्राबद्धो ज्ञेयो जनार्दनः । रंजितः क्रामितश्चापि साक्षादेवो महेश्वरः ॥ ९३॥
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( २२७ )
हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । मूच्छितो हरति रुजं बन्धनमनुभूय खेगतिं कुरुते । अजरीकरोति हि मृतः कोऽन्यः करुणाकरः सूतात् ९४ असाध्यो यो भवेद्रोगो यस्य नास्ति चिकित्सितम् । रसेंद्रो इंति तं रोगं नरकुंजरवाजिनाम् ॥ ९५ ॥ मलं विषं वह्निगिरित्वचापलं नैसर्गिकदोषमुशंति पारदे उपाधिजौ द्वौ त्रपुनागयोग जौदोषौरसेंद्रे कथि मुनिश्वरैः मलेन मूर्छामरणं विषेण दादोऽमिता कष्टतरः शरीरे । देहस्य जाड्यं गिरिणा सदा स्याचांचल्यतो वीर्य्यतिश्च पुंसाम् ॥ ९७ ॥ वंगेन कुएं भुजगेन गंडो भवेत्ततो सौपरिशोधनीयः ॥ ९८ ॥
वह्निर्विषं मलं चेति मुख्या दशेपास्त्रयो रसे । एते कुवतिसंपातं मृतिं मूच्छी नृणां क्रमात् ॥९९॥ अन्येऽपि कथिता दोषा भिषग्भिः पारदे यदि । तथाप्येते त्रयो दोषा हरणीचा विशेषतः ॥ १०० ॥ संस्कारहीनं खलु सुतराजं यत्सेवते तस्य करोति बाधाम् देहस्य नाशं विदधातिनूनं कुष्ठाश्च रोगाञ्जनयेन्नराणाम् ॥
शिके अंग से पतित हुआ वो जो पृथ्वीपर गिरा, वह देहका सारभूत होनेसे स्वच्छ और सफेद होकर पारद के नामसे प्रसिद्ध हुआ । यह शिववीर्य क्षेत्र के भेद से चार प्रकार का होगया । श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण, -यह जातिभेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैष शुzam नामसे प्रसिद्ध हुआ ।
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(२२८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टा.। इनमें श्वेत पारद सब रोगोंको नाश करनेके लिये, लाल पारद रसायन कर्ममें, पीला पारद धातुधन में और काला पारद आकाशगमनमें श्रेष्ठ माना जाता है।
पारद, रसधातु, रसेन्द्र, महारस, चपल, शिववीर्य, रस, सूत और जितने शिवजीके नाम हैं वह पारेके संस्कृत नाम हैं। हिन्दी में पारा, फारसी में सीमा और अंग्रेजीमें Mercury कहते हैं । पारद छे रसोंबाला, स्निग्ध, त्रिदोषन, रसायन, योगक्षाही, अत्यन्त पुरुषार्थवर्द्धक, दृष्टिको बन देनेवाला, रूब रोगोंको हरनेवाला और विशेष कर संपूर्ण कुष्ठं को दूर करता हैं।
स्वस्थावस्थामें पारा ब्रह्मा, बद्धहुमा पास जनादन, रंजित और कामित पारा साक्षात महादेव होता है। कजली आदिमें मूर्छित पारारोगोंको हरता है। खेचरी गुटिकाके रूपमें बँधा हुआ पारा आकाशगम नकी शक्ति देता है। और मारा हुआ पारद उमरको बढ़ाने वाला रसायन होता है । इस लिये पारे के समान कृपा करनेवाला दूसरा द्रव्य नहीं है, जिस रोगकी कोई चिकित्सा नहीं है, जो रोग सर्वथा असाध्य है उनको पाराही नाश कर सकता है । चाहे वह रोग मनुष्य या हाथी घोड़ आदि पशुको भी हो।
पारेमें स्वभावसे ही मल, विष, वह्नि, गिरि और चपलता यह दोष रहते हैं। और नाग तथा वेग यह दो दोष पारेमें संसर्ग पाते हैं। इनमें मनदोषसे मूच्र्वा, विषसे मृत्यु, अग्निदोषसे शरीरमें अत्यंत दाह गिरिदोषसे शरीरका जकड जाना, चांचल्यसे वीर्यनाश, वंगदोषसे कुष्ट पौर नाग दोषसे गंडमाला, आदि विकार उत्पन्न होते हैं । इसलिये इन सात दोषोंको दूर करने के लिये पारदको स्वेदन, पातन आदि संस्कारों द्वारा शोधन कर लेना चाहिये । इन सब दोषोंमें भी वह्नि, विष और मल यह तीन दोष प्रधान माने जाते हैं । यह पारेके तीनों दोष संताप,मृत्यु भौर मुच्छ को उत्पन्न करते हैं। यद्यपि पारेके संपूर्ण तीनों दोष निकाल देना अत्यावश्यक है परन्तु यहि,विष और मल इनको तो विशेष रूपसे निकाल देना ही चाहिये । जो मनुष्य विमा संस्कार किये हुए पारे
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२२९) का सेवन करता है, उसके शरी में अनेक रोग, कुष्ट तथा देहका नाश तक हो जाते हैं । ८७--१०१ ॥
उपरसाः । गंधो हिंगुलमभ्रतालकशिलाः स्रोतोजन टकण, राजावर्तकचुंबकौ स्फटिकया शंखः खटीगैरिकम् । कासीसं रसकंकपदसिकताबोलाश्च कंकुष्ठकं, मौराष्ट्रीचमताअमीउपरमाःमूतस्यकिंचिद्गुणैः१०२॥ गंधक, हिंगुल, अभ्रक, हरिताल, मनसिल, स्रोतोऽअन, टंकण, राजावर्त चुबक, स्फटिक (फरकिरी ) शंख, खडिया, गेरू, कसील,. रसक, को डये, चालु, बोन, कंकृष्ठ और गजनी यह सब उपरस कहे जाते हैं। क्योंकि किसी अंशमें सूक्ष्म रूपले इनमें भी रप्लके गुण होते हैं।॥ १०२॥
गन्धकम्।
श्वेतद्वीपे पुरा देव्याः कोडंत्या रजसाप्लुतम् । दकूलं तेन वप्रेण नातायाः क्षीरनीरधौ ॥ १.३॥ प्रसृतं यद्रजस्तस्माद्धकः समभूत्तदा। गंधको गंधिकश्चापि गंधपाषाण इत्यपि ।। १०४॥ सौगंधिकश्च कथितो बलिबलवसापि च । चतुर्धा गन्धक प्रोक्तो रक्त-पीतःसितोऽसितः ॥१०॥ रक्तो हेमक्रियासूतः पीतश्चैव रसायने । व्रणादिलेपने खेतः कृष्णः श्रेष्ठः सुदुलभः ॥१०६॥ गन्धकः कटुकस्तिको वीर्योष्णस्तुवरः सरः। पित्तलः कटुका पाके कण्डुवीसपजन्तुजित् ॥१०७॥ इंति कुष्ठक्षयप्लीहकफवातान् रसायनः ॥ १०८ ॥
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! ( २३० )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टा.
अशोधितो गंधक एककुष्ठ करोति तापंविषमंशरीरे । सौख्यं च रूपं च बलं तथौजः शुक्र निहत्येवकरोति चामम्
पूर्वकाल में श्वेतद्वीपमें क्रीडा करती हुई पार्वतीका मासिक रजसे भरा हुआ वस्त्र स्नान करते हुए जो क्षीर सागर में गिरा, उसमें से निकले. हुए पार्वती के रजते गंधक उत्पन्न हुई। गंधक, गंधिक, गंधपाषाण सौगंधिक, बली, बलवसा यह गंधकक नाम है । अंग्रेजीमें इसे Sulphur कहते है । यह रक्त, पीत, श्वत और कृष्ण भेदसे चार प्रकारकी होती है। लाल गंधक स्वर्ण बनाने में काम प्रांती है। पीली रसायन कम्र्म्ममें और श्वत व्रणादि लेपनों में काम प्राती है। कृष्ण सबमें श्रेष्ठ है, परन्तु मुशकिल से मिलती है। गंधक - कट्ट, तिक्त, उष्णवीर्य, दस्तावर, पित्तवर्द्धक, वटुपाकी तथा खुजली, विसर्प, कृमि, कुष्ठ, क्षय, प्लीहा, कफ और वात विकारोंको नाश करती है। तथा रसायन है, विन शोधनकी हुई गंधक खाने से कुष्ठ, विषमज्वर, बल, वर्ण, बीच्यं और प्रोजकी हानी तथा अनेक प्रकारके ग्रामविकार, आदि विकारोंको करती है ।। १०३-१०९ ॥
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हिगुलम् |
हिंगुल दरद म्लेच्छमिंगुल पूर्णपारदम् । मक्षिरंगं सुरंगं च नाम्ना कमरबंधनम् ॥ दरदस्त्रिविधः प्रोक्तश्वर्मारः शुकतुडकः ॥ ११० ॥ इंसपादस्तृतीयः स्याद्गुणवानुत्तरोत्तरम् । चर्मारः शुक्लवर्णः स्यात्सपीतः शुकतुंडकः ॥ १११ ॥ जपाकुसुम संकाशो हंस पादो महोत्तमः। तिक्तं कषायकटुहिंगुलंस्यान्नेत्रामयघ्नं कफपित्तहारि । हृल्लास कुष्ठज्वरकामलाश्चप्लीहा मवातौचगरंनिहंति ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२३१ ) ऊर्ध्वपातनयुक्त्या तु डमरूयन्त्रपचितम् । हिंगुलं तस्य मुतं तु शुद्धमेव न शोधयेत् ॥११३॥ हिंगुल, दरद, म्लेच्छ इंगुल, पूर्णपारद, मक्षिरंग, सुरंग और करमार' बंधन यह शिंगरफके नाम हैं । शिगरफ तीन प्रकारका होता है-१ चौर, २ शुक्रतुण्डक, ३ हंसपाद यह तीनों एकसे दूसरा उत्तरोत्तर विशेष गुणवाला है। चमार सफेद वर्णवाला, शुक्रतुण्ड कुछ पीला और हंसपाद जपाकुसुमके समान लाल वर्णवाला सबमें उत्तम होता है। शुद्ध हिंगुल-तिक्त, कषाय, कटु, नेत्ररोगहर, कफपित्त नाशक, हल्लास, कुष्ठ, ज्वर, कामला, प्लीला, ग्रामघात और गरविकारको दूर करता है।
हिंगुलको नींबू के रस में पीसकर जर्वपातन यन्त्रमें उड़ा लिया जाय तो इसमेसे शुद्ध पारद निकल पाता है। साधारण रसोमें उपयोग करने के लिये इसको और शोधन करनेकी पावश्यकता नहीं है । ११०-११३ ।।
अभ्रकम् ।
पुरा वधाय वृत्रस्य वज्रिणा वज्रमुद्धृतम् । विस्फुलिंगास्ततस्तस्माद्गने परिसर्पिताः ॥११४॥ ते निपेतुर्घनध्वानाः शिखरेषु महीभृताम् । तेभ्य एव समुन्नं तत्तद्विरिषु चाप्रकम् ॥ ११५॥ तघ्रं वज्रपातत्वादभ्रमभ्ररवोद्वात् । गगनात्स्खलितं यस्माद्गनं च ततो मतम् ।।११६।। विपक्षत्रियविद्शूदभेदात्तस्माचतुर्विधः । कमेणैव सितं रक्तं पीतं कृष्णं च वर्णतः ॥ ११७॥ प्रशस्यते सितं तारे रक्त तन रसायने । पीतं हेमनि कृष्णं तु गदेषु द्रुतयेऽपि च ॥ ११८॥
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(२३२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। पिनाकं दर्दुरं नाग वज्र चेति चतुर्विधम् । मुंचत्यग्नौ विनिक्षिप्तं पिनाकं दलसंचयात् ।। ११९।। अज्ञानाद्भक्षणं तस्य महाकुष्ठप्रदायकम् । ददुंर त्वग्निनिक्षिप्तं कुरुते दर्दुरध्वनिम् ॥ १२० ।। गोलकान बहुशः कृत्वा स स्यान्मृत्युप्रदायकः । नागं तु नागवद्वह्नों फूत्कारं परिमुंचति ॥ १२१ ॥ तद्भक्षितमवश्यं तु विदधाति भगंदरम् । वज्रन्तु वज्रवत्तिष्ठेत्तनानी विकृति व्रजेत ॥ १२२ ॥ सर्वाभ्रेषु वरं वज्रं व्याधिवाक्यमृत्युहृत् । अभ्रमुत्तरशैलोत्थ बहुसत्त्वं गुणाधिकम् ॥ १२३ ।। दक्षिणाद्रिभवं स्वल्पसत्त्वमल्पगुणप्रदम् ॥ १२० ।।
वकालमें वृत्रासुरको मारने के लिये जब इन्द्र ने वज्र उठाया तो उसमें से चिंगारियाँ निकल कर इधर उधर फैल गई । फिर वह चिगारियां मेघोंमें फैल कर पहाडोंके शिखरों पर गिर गई। उनसे उन उन पहाडोंमें अधक उत्पन्न हो गया। यह वज्रमेंसे गिरनेके कारण वज्र मेघों द्वारा आने से अधक,गगनसे मिरनेके कारण गगन नामले प्रसिद्ध हुमा, फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार जातियोंवाला क्रमसे श्वेत, रक्त, पीत मौर कृष्ण इन चार वर्णों में विभक हुआ है। इनमें चांदी बनानेके काममें श्वेत, रसायन में लाल, स्वर्ण क्रिया में पीला, सर्व रोग निवृत्ति के लिये, तथा द्रुति कर्मके लिये कृष्ण अभ्रक अच्छा होता है। कृष्णाभ्रक, पिनाक दुर्दर, नाग और बज्र इन भेदोंसे चार प्रकारका होता है। जो अभ्रक अग्निमें डालकर धमानेसे अपने दल के संचयको त्यागता है, उसको पिनाक कहते हैं। यदि इसको ज्ञानसे खा लिया जाय, तो महाष्ठोंको उत्पन्न करता है। जो अभ्रक अग्निमें डालकर पानेसे मेंढककी तरह टर्र २ के शब्द
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२३३) करता है इसे दर्दुर कहते हैं । इसके सेवनसे शरीरमें ग्रंथियां उत्पन्न होकर मृत्यु होती है। जो अभ्रक अग्निमें तपानेले सापके. समान फुकार करे, उसको नाग कहते हैं । नामाभ्रक खानेसे भगन्दर आदि दाहण रोग उत्पन्न होते हैं। जो अभ्रक अग्निमें तपानेसे विकृति को प्राप्त न हो और वनके समान वैसा ही स्थिर रहे उसे वज्राधक कहते हैं । वज्राभेक सब अभ्रकोंमें श्रेष्ठ है तथा व्याधि, वार्द्धक्य और मृत्युको हरनेवाला है । उत्तरके पहाड़ोंने उत्पन्न हुआ अभ्रक बहत सतवाना और गुणमें अधिक होता है। दक्षिणके पहाड़ोंमें उत्पन्न हुआ अभ्रक अल्प सत्व और पल्प गुणवाला होता है ॥ ११४-१२४ ॥ अभ्र कषायं मधुरं सुशीतमायुःकरं धातुविवर्द्धनं च । इन्यात्रिदोष व्रणमेहकुष्ठं प्लीहोदरं ग्रंथिविषक्रिमीश्च ।।
रोगान् हंति दृढयति वपुर्वीर्यवृद्धिं विधत्ते । तारुण्याढायं रमयति शतं योषितां नित्यमेव । दीर्घायुष्काअनयति सुतान् विक्रमैः सिंहतुल्या
न्मृत्योर्भीतिं हरति सततं सेव्यमानं मृताभ्रमम् १२६ पीडांविधत्ते विविधां नराणां कुष्ठं क्षयं पांडुगदं च शोथम् हृत्पार्थपीडां च करोत्यशुद्धमधवसिद्धं गुरुतापदंस्यात् मनक-कषाय, मधुर, शीतल,मायुवर्द्धक और धातु प्रोंको पुष्ट करनेवाला है। तथा बिदोष, व्रण, प्रमेह, कुष्ठ, जोहा, उदररोग, ग्रंथि, विष और कृमियोंको दूर करता है । वज्राभ्रककी उत्तम भस्म बनाकर खानेसे सेपूर्ण रोग दूर होते हैं । शरीर दृढ होता है। वीर्य की वृद्धि होती है और सैकडॉ.खियोंके संगकी शक्ति हो जाती है । तथा तारुण्य पाजाता है और इस प्रभावले तिहतुल्य पराक्रमवाले पुत्र उत्पन्न होते हैं। तथा मृत्युका भय दूर होता है । यह उत्तम भस्मित वाचकके गुण हैं । यदि विना अद्ध किये हुए चंद्रिकायुक्त अभ्रकका सेवन किया जाय तो कुष्ठ, क्षय,
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( २३४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । पाण्ड, शोथ. इत्पीडा, पार्श्वपीटा और शरीरमें भारीपन प्रादि अनेक प्रकारकी पीडामोको उत्पन्न करता है ॥ १२५-१३॥
हरितालम् ।
हरितालं तु तालं स्यादालं तालकमित्यपि । हरितालं द्विधा प्रोक्तं पत्राख्यं पिंडसंज्ञकम् ॥१२८॥ तयोरायं गुणैः श्रेष्ठं ततो हीनगुणं परम् । स्वर्णवर्ण गुरु स्निग्धं सपत्रं चाभ्रपत्रवत् ॥ १२९ ॥
पत्राख्यं तालकं विद्यागुणाढ्यं तद्रसायनम् । · निष्पत्रं पिंडसदृशं स्वल्पसत्त्वं तथा गुरु ॥ १३०॥ स्त्रीपुष्पहारकं स्वल्पगुणं तत्पिण्डतालकम् । हरितालं कटु स्निग्धं कषायोष्णं हरेद्विषम् । कंडुकुष्ठास्यरोगात्रकफपित्तकचत्रणान् ॥ १३१॥ हरति च हरितालं चारुतां देह जातां सृजति च बहुतापानंगसंकोचपीडाम् । वितरति कफवातौ कुष्ठरोगं विदध्यादिदमशितमशुदं मारितं चाप्यसम्यक् ॥ १३२ ॥
हरितान, ताल, पाल और तालक यह हरिताल के नाम हैं। हरिताल (पाख्य वर्की) और पिण्ड इन भेदोंले दो प्रकारकी होती है । इनमें वर्की हरताल गुणोंमें श्रेष्ठ होती है। और पिण्ड गुणों में हीन होती हैं। जो हरिवाल स्वर्णके वर्णवाली,भारी,चिकनी, अभ्रकके समान पत्रोंवाली होती है उसको पहरिताल कहते हैं। यह भनेक गुणों से युक्त और रसायन है।. पोले रहित पिण्डके समान पिण्डहरिवान होती है,यह अल्पसत्यभारी, खियोंके मासिक धर्मको रोकनेवानी पौर अल्पगुणवाली पिण्डहरिताल
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२३५) हा है । हरिताल-कटु, स्निग्ध, कषाय और उच्य होती है । तथा विष, कण्डू, कुष्ठ, मुखरोग, । क्तविकार, कफ, पित्त, केश और व्रोको नष्ट करती है।
अशुद्ध और विना उत्तम भस्म बनाये मेवन की हुई हडताल, देहके सौन्दर्यको नष्ट करती है, शरीरमें तापको उत्पन्न करती है, कामशक्तिको नष्ट करती हैं। कफ, बात और कुष्ठ आदि रोगोंको उत्पन्न करती है। इस लिये अशुद्ध पौर विना उनम भस्म बनाये हडतालका सेवन नहीं करना चाहिये ॥ १२८-१३२ ॥
मनः शेला। मनःशिला मनोगुप्ता मनोह्वा नागजिह्निका । नेपाली कुनटी गोला शिला दिव्यौपधिः स्मृता१३३॥ मनःशिला गुरुर्वण्या सरोष्णा लेखनी कटुः । तिक्तास्निग्धा विषश्वासकासभूतकफास्रनुत् ॥ १३॥ मनःशिला मंदबलं करोति जंतुं ध्रुव शोधनमंतरेण । मलानुबंधं किल मूत्ररोध सशकरंकृच्छ्रगदचकुयात॥ मनःशिला, मनोगुमा, मनोहा, नागजिहिका, नेपाली, कुनटी, गोला, शिला पौर दिव्यौषधि यह मैनसिलके नाम हैं। अंग्रेजीमें इसे Realgar कहते हैं। - मैनसिल-भारी, वर्णकारक, दम्ताधर, उष्ण, लेखन, कटु, तिक्त और स्निग्ध है। तथा विष, श्वास, कास, भूतवाधा, कफ और रक्तविकारको नाश करनेवाला है।
विना शोधन किया हुआ मैनसिल-बलहानिकारक, विबन्धकारक, मूत्ररोधक, मूत्रकृच्छ, और शर्करा रोगको करनेवाला होता है॥ १३३-१३५॥
अंजन, सौवीरम । अंजनं यामुनं चापि कापोतांजनमित्यपि।
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( २३६ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी . ।
तन स्रोतोंजनं कृष्णं सौवीरं श्वेतमीरितम् ॥१३६॥ वल्मीक शिखराकारं भिन्नमंजनसन्निभम् । घृष्टं तु गैरिकाकारमेतत्स्रोतोंजनं स्मृतम् ॥१३७॥ स्रोतोंजनसमं ज्ञेयं सौवीरं तत्र पांडुरम् । स्रोतोंजनं स्मृतं स्वादु चक्षुष्यं कफपित्तनुत् ॥ १३८ ॥ कषायं लेखनं स्त्रिग्धं ग्राहि च्छर्दिविषापहम् । सिध्मक्षयास्रहृच्छीतं सेवनीयं सदा बुधैः ॥ १३९ ॥ स्रोतों जनगुणाः सर्वे सौवीरेऽपि मता बुधैः । किंतु द्वयोरंजनयोः श्रेष्ठ स्रोतोंजनं स्मृतम् ॥ १४० ॥
अंजन, यामुन, कपोतांजन, स्रोतोऽञ्जन यह अअनके नाम हैं। स्रोतोअन और सौवीरांजन भेदसे यह दो प्रकारका होता है । स्रोतोऽखन काला और सौवीरांजन सफेद रंग का होता है । स्रोतोञ्जन बम्बीके शिखरके आकारका, तोडनेसे काले अञ्जनके समान पर घिसने से गेरूके समान कठोर होता है। सौवीरांजन स्रोतोञ्जनके समानही होता है परन्तु किञ्चित पाण्डुपन लिये होता है । स्रोतोअन स्वादु, नेत्रहितकर, कफ पित्त नाशक, कषाय, लेखन, स्निग्ध, ग्राही, वमन और विषको हरनेवाला खींप, क्षय, रक्तविकारको हरनेवाला और शीतल स्वभाववाला है । विद्वानोंको नित्य यह भञ्जन नेत्रोंमें डालना चाहिये । स्रोतोञ्जनके समान ही सब गुण सौवीरांज में हैं। किन्तु दोनोंमें स्रोतोञ्जन श्रेष्ठ माना जाता है । १३६ - १४० ॥
टंकणम् ।
टंकणोऽकरो रूक्षः कफघ्नोवातपित्तकृत् ।
टंगण ( सुहागा ) अग्नि कारक, रूक्ष, कफनाशक और बात पित- कारक है ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२३७ )
स्फोटेका। स्फटी च स्फटिका प्रोक्ताखेता च शुभरंगदा १४१॥ दृढरंगा रंगदृढा दृढा रंगापि कथ्यते।। स्फटिकातु कषायोष्णावातपित्तकफवणान् ॥१२॥ निहंति श्वित्रवीसन योनिसंकोचकारिणी । स्फटी, स्फटिका, श्वेता, शुभरंगदा, दृढ़रंगा, रंगहढा, दृढारंगा यह फटकड़ीके नाम हैं। इसे फारसीमें जाकल फेद और अंग्रेजीमें Alum कहते हैं।
फटकड़ी-कषाय, उष्ण, और योनिसंकोच करनेवाली है । तथा वात,. पित्त, कफ, व्रगा, श्वित्र और विसर्पको नष्ट करनेवाली है ।। १४१ ॥ १४२ ।।
राजावतः। राजावतःकटुस्तिक्तःशिशिर पित्तनाशनः ।। १४३ ॥ राजाश्र्तः प्रमेहनश्छर्दिहिकानिवारणः । राजावर्त-कटु, तिक्त, शीतल, पिननाशक, प्रमेह, छर्दी और हिच.. की को दूर करनेवाला है ॥ १४३ ॥ .
चुवकः । चुंबकः कांतपाषाणोऽयस्कांतो लोहवर्षकः ॥१४॥ चुंबको लेखनः शीतो मेदोविषगरापहः। चुंबक, कांतपाषाण, अयस्कान्त पौर लोहकर्षक यह चुंधकके नाम हैं। चुंबक लेखन, शीतल, मेद, विष और गरको दूर करनेवाला
गरिकम् । गैरिकं रक्तधातुश्च गैरेय गिरिज तथा ॥ १४५ ॥ स्वर्णगैरिकमन्यत्त ततो रक्ततर हि तत् ।
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( २३८ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
गैरिकद्वितयं त्रिग्यं मधुरं तुवरं हिमम् ॥ १२६ ॥ दाहपित्तास्रकफहिक्काविषापहम् ।
चक्षुष्यं
गैरिक, रक्तधातु, गरेब चोर गिरिज यह गेहके नाम हैं। दूसरा स्वर्ण गैरिक होता है वह गेरूने अत्यन्त लाल होता है। दोनों प्रकार के - स्निग्ध, मधुर, क, शील, नेत्रोंको हितकारी तथा दाह, पित्त, -रक्त, हिचकी और विषको हरने वाले हैं ॥ १५५ ॥ १४६ ॥
खटी नौरखटो |
खटिका कठिनी चापि लेखनीचनिगद्यते ॥ १४७ ॥ खटिका दादजिच्छीता मधुरा विपशोथजित् । लेपादेते गुणाः प्रोकाभक्षितामृत्तिकानमा ॥ ३४८ ॥ खटी गोरखटी द्वे च गुणैस्तुल्ये प्रकीर्तिते ।
खटिका, कठिनी और लेखनी यह खड़िया मट्टीके नाम हैं । खडिया मिट्टी ले करने से दादको जीतती है । शीवन, मधुर तथा विष और सुजनको दूर करनेवाली है । परन्तु खानेले मिट्टोके समान हानिकारक है । इसका भेद एक गोरखदी होती है । गुणमें दोनों खटिका तुल्या : होती हैं ॥ १४७ ॥ १४८ ॥
वालुका ।
वालुका सिकना प्रोका शर्करातजापिच ॥ १४९॥ वालुका लेखनी शीतांत्र गोरक्षतनाशिनी ।
बालुका, विकता, शर्करा रेतजा वह बालू रेत के नाम हैं। बालूरेत, लेखन, शील, व्रम और उरःक्षतका नाय करती है ॥ १४९ ॥
खपरम् ।
खर्परं तुत्थकं तुत्थादन्यत्तइसकं स्मृतम् ॥ १५० ॥ ये गुणास्तुत्य के प्रोकास्ते गुणा रसके स्मृताः ।
Shriyanam
खर्पर, तुत्थक यह खनके नाम हैं तां ले उत्पन्न होनेवाला खर
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२३९) रिया, तुथई खपरिया होता है। जस्तसे उत्पन होनेवाला खपरिण रसक नामका खपरिया होता है। दोनों खपरिया गुणों में प्रायः समान होते हैं। १५०।
कासीसम् । कासीसं धातुकासी पांशुकासीसमित्यपि ॥१५॥ तदेव किंचित्पीतं तु पुष्पका सी समुच्यते । कासीसमम्लमुष्णं च तिक्तं च तुवरं तथा ॥१२॥ वातश्लेष्महरं केयं नेत्रकंडूविपप्रणुत् । मूत्रकृच्छाश्मरी श्वित्रनाशन परिकीर्तितम् ॥ १५३॥ कालीस, धातुकासोस, पांगुकासीस यह कासीस के नाम हैं । वही किंचित पीला होने से पुष्पहासोल कहा जाता है । कालोस अम्ल, उष्ण, तिक्त, कसैला,वात क को हरनेवाला,केशों को हितकारी,नेत्रों की खुजली तथा विष विकारको हरने वाला, मूत्रकृच्छ, पथरी और श्वित्र को दूर करजेवाला है ॥ १५१-१५३ ॥
सौराष्ट्री। सौराष्ट्री तुवरी कांक्षी मृत्तालकसुराष्ट्रजा । आढकी चापि साख्याता मृत्स्ना च सुरमृत्तिका १५४ स्फटिकाया गुणाः सर्वे सौराष्ट्रयाअपि कीर्तिताः। सौराष्ट्र', तुधरी, कांझा, मृतालक, सुर ष्ट्रना, आढकी मृत्स्ना, सुरमनिका यह गजनी मिट्टीके नाम हैं। इसके सब गुण फटकड़ोंके समान हैं॥ १५४॥
कृष्णमृत्तिका। कृष्णामृत्क्षतदाहालप्रदरश्लेष्मपित्तनुत् ॥ १५५ ।। कृष्णमृत्तिका क्षत, दाह, रक्त, प्रदर, कक तथा पित्तका नायकरती
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( २४०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
कपर्दकम् । कपदको वराटश्च कपर्दी च वराटिका। कपर्दिकाहिमा नेत्रहिता स्फोटक्षयापहा ॥ १५६ ॥ कर्णस्रावाग्निमांद्यघ्नी पित्तास्रकफनाशिनी । कपर्दक, वराट, कपर्दी और वराटिका यह कौडियों के नाम हैं । कौड़ियाँ-शीतल, नेत्रहितकारी, फोड़े, क्षय, कर्णनाव, मंदाग्नि,पित्त, रक्त और कफको दूर करनेवाली है। इसे अंग्रेजीमें Cowries कहते हैं ॥१५६॥
शंखः। शंखः समुद्रजः कम्बुः सुनादः पावनध्वनिः॥१९७॥ शंखो नेत्र्यो हिमः शीतो लघु पित्तकफास्त्रजित । शंख, समुद्र ज, सुनाद, पावन वनि यह शंखके नाम हैं । शंख नेत्रोंको हितकारी, ठण्डा, शीतल, लघु, पित्त, कफ और रक्तको जीतनेवाला है। १५७ ॥
बोलम् । बोलं गंधरसं प्राणपिंडगोषरसाः स्मृताः ॥ १५८ ॥ बोलं रक्तहरं शीतं मेध्यं दीपनपाचनम् । मधुरं कटुतिक्तं च दाइस्वेदत्रिदोषजित् ॥ १५९ ॥ ज्वरापस्मारकुष्ठघ्नं गर्भाशयविशुद्धिकृत् । बोल,गंधरस,पाणपिण्ड पौर गोपरस यह बोलके नाम हैं।बोल रक्तको हरनेवाला, शीतल,बुद्धिवर्द्धक, दीपन, पाचन, मधुर, कटु, सिक्त तथा दाह, स्वेद विदोष, घर, अपस्मार और कुष्ठको हरनेवाला एवं गर्माशयको शुद्ध करनेवाला ।। १५८ ।। १५९ ॥
कंकुष्ठम् । तत्रैकंगलकाख्यं स्यात्तदन्यद्रेणुकं स्मृतम् ॥१६०॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
हिमवत्पादशिखरे कंकुष्ठमुपजायते । तत्रैकं रक्तकालं स्यादन्यद्धेमप्रभं स्मृतम् ॥ १६१ ॥ पीतप्रभं गुरु स्निग्धं श्रेष्ठ कंकुष्ठमादिशेत् । श्यामं रक्तं लघु त्यक्तसत्त्वं नेष्टं हरेणुकम् || १६२॥ कंकुष्टं काककुष्टं च वरांगं रंगदायकम् । कंकुष्ठं रेचनं तिक्तं कदुष्णं वर्णकारकम् ॥ १६३ ॥ कृमिशोथोदरा मानगुल्मानाहकफापहम् ।
( २४१ )
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कंकुष्ठ दो प्रकारका होता है, एक नलक और दूसरा रेणुक । कंकुष्ठ हिमवान पहाडके शिखरों में उत्पन्न होता है। इनमें एक कंकुष्ठ लाल बर्णका होता है। दूसरा स्वर्णकीसी कांतिवाला होता है । इनमें सुवर्ण कीसी कांतिवाला पीला, भारी और चिकना कंकुष्ठ श्रेष्ठ होता है । तथा श्याम रक्त वर्णवाला हल्का, सत्वरहित हरेणुका अच्छा नहीं होता । कंकुष्ठ, काककुष्ठ, बरांग और रंगदायक यह कंकुष्ठके नाम हैं। कंकुष्ठ, रेचक, तिक्त, कटु, उष्ण और व्रणकारक है। तथा कृमि, शोथ, उदर, आध्मान, गुल्म, अफारा और कफके हरनेवाला है ।। १६०-१६३ ॥ रत्ननिरुक्तिः ।
धनार्थिनोजनाः सर्वै रमंतेऽस्मिन्नतीव यत् ॥ १६४ ॥ ततो रत्नमिति प्रोकं शब्दशास्त्रविशारदैः ।
धनकी इच्छावाले लोग हर समय इनमें अत्यन्त रमण करते हैं, इस लिये शब्दशास्त्र के जाननेवालोंने इनको रत्न कहा है ॥ १६४ ॥
रत्ननाम |
रत्नं क्लीवे मणिः पुंसिस्त्रियामपि निगद्यते १६५ ॥ तत्तु पाषाणभेदोऽस्ति मुक्तादि च तद्दुच्यते । अमरः ।
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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी.
रत्नमणिर्द्वयोरश्मजातौ मुक्तादिकेऽपि च ॥ १६६ ॥ वज्रं गारुत्मतं पुष्परागो माणिक्यमेव च । इंद्रनीलश्च गोमेदं तथा वैदूर्य्यमित्यपि ॥ १६७ ॥ मौक्तिकं विद्रुमश्चेति रत्नान्युक्तानि वै तव ।
( २४२ )
विष्णुधर्मोत्तरेऽपि । मुक्ताफलं हीरकश्च वैदूय्ये पद्मरागकम् ॥ १६८ ॥ पुष्पराजं च गोमेदं नीलं गारुत्मतं तथा । प्रवालयुक्तान्येतानि महारत्नानि वै नव ॥ १६९॥
नपुंसकमें रत्न पुँलिग और खीलिङ्क में मणि शब्दका प्रयोग होता है । वह रत्न पत्थर के भेद और मोती आदि हैं धमरकोश ने भी लिखा है कि मणि शब्द हीरा आदि पत्थर और मुक्ता आदि हड्डी विशेषके वाचक हैं। वज्र ( हीरा ), गारुत्मत ( पत्रा ), पुष्पराज ( पुखराज ), (माणिक्य) ( माणक ) इन्द्रनील ( नीलम ), गोमेद, वैडूर्म्य, मोती और मूँगा यह नव रत्न हैं । विष्णुधर्मोत्तर पुराण में भी मुक्ताफल, हीरा वैडूर्य पद्मराग, पुष्पराज, गोमेद, नीलम, गारुत्मत और मूँगा यह नौ महारत्न कहे हैं । १६५-१६९
हरिकम् । हीरकः पुंसि वज्रोऽस्त्री चन्द्रोमणिवरश्च सः । स तु श्वेतःस्मृतो विप्रो लोहितः क्षत्रियः स्मृतः १७० ॥ पीतो वैश्योऽसितः शूद्रः चतुर्वर्णात्मकश्च सः । रसायनो मतो विप्रः सर्वसिद्धिप्रदायकः ॥ १७१ ॥ क्षत्रियो व्याधिविध्वंसी जरामृत्युहरः स्मृतः । वैश्यो धनप्रदः प्रोक्तस्तथा देहस्य दाढर्यकृत् ॥ १७२ ॥ शूद्रो नाशयति व्याधीन् वय स्तंभं करोति च ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२४३) पुंस्त्रीनपुंसकानीह लक्षणीयानि लक्षणैः ॥ १७३ ॥ सुवृत्ताः फलसंपूर्णास्तेजोयुक्ता बृहत्तराः। पुरुषास्ते समाख्याता रेखाबिंदुविवर्जिताः ॥१७॥ रेखाबिन्दुसमायुक्ताः षडलास्ते स्त्रियः स्मृताः।। त्रिकोणाश्च सुदीर्घास्ते विज्ञेयाश्च नपुंसकाः॥१७॥ तेषु स्युः पुरुषाः श्रेष्ठा रसबंधनकारिणः । स्त्रियाकुतिकायस्यकांतिस्त्रीणांसुखप्रदाः ॥१७६॥
नपुंसकास्त्ववीयाः स्युरकामाः सत्त्ववर्जिताः। स्त्रियः स्त्रीभ्यः प्रदातव्याः क्ली कीबे प्रयोजयेत् १७७
सर्वेभ्यः सर्वदा देया पुरुषा वीर्यवर्द्धनाः । अशुद्धं कुरुते वस्त्रं कुष्ठं पार्श्वव्यथां तथा ॥१७॥ पांडुतां पंगुरत्वं च तस्मात्संशोध्य मारयेत् । आयुः पुष्टिं बलं वीर्य वर्ण सौख्यं करोतिच १७९ सेवितं सर्वरोगनं मृतं वज्रं न संशयः।
हीरक शब्द पुल्लिंग, वज्र पुँल्लिंग और नपुंसफ लिंग है । चन्द्र और मणिवर तथा वज्र यह हीरके नाम हैं। श्वेतवर्णका हीरा ब्राह्मण, लालवर्णका क्षत्री, पीतवर्णका वैश्य और कृष्णवर्णका शूद्र कहा जाता है। . रसायन कर्ममें ब्रह्मण वर्णका हीरा काम पाता है और सब प्रकारकी सिद्धियोंके देनेवाला है। क्षत्री वर्णका हीरा व्याधियोंको नाश करता है। तथा जरा और मृत्युको दूर करता है। वैश्य वर्णका हीरा धनको देनेवाना
और देहको दृढ करनेवाला कहां है । शूद्र वर्गका हीरा व्याधियों को दूर करता है और भायुको बढानेवाला है। हीरेमें पुरुष, स्त्री और नपुंसक जातिये इन लक्षणोंसे जाननी चाहिये। जो हीरा गोल, सब पोरसे एक
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(२४४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। जैसे फलोवाला तेजयुक्त बहुत बडा रेखा और बिंदुनोंसे रहित हो पर पुरुषसंज्ञक होता है। रेखा विन्दुयुक्त है कोनेवाला स्त्रीसैज्ञक होता है। तीन कोनेवाल और बहुत लम्बा नपुंसक संज्ञक होता है । इनमें पुरुष हीरा सबसे श्रेष्ठ है, इससे बंधन होता है । स्त्रीजातिका हीरा शरीरको सुंदर करनेवाला और स्त्रियोंको सुखदायक है । नपुंसक जातिका हीरा प्रवीर्य, अकाम और शक्तिरहित होता है। स्त्री जातिका हीरा खौको नपुंसक जातिका नपुंसकको और पुरुष जातिका पुरुषको देना चाहिये । पुरुष जातिका हीरा वीर्यवर्द्धक है। अशुद्ध हीरा कोढ, पसलीकी पीडा, पांडुरोग तथा लंगडापनको करता है । इस लिये हीरेको शोध कर मारना चाहिये । मारा हुमा हीरा आयुष्य, पुष्टिकारक, बलकारका वीर्यवर्द्धक, वर्णको सुन्दर करनेवाला, मुखदायक पौर सर्वरोगनाशक है। इसे फारसी में इल्माश और अंग्रेजीमें Diamond कहते
हरितम् । गारुत्मतं मरकतमश्मगर्भो हरिन्मणिः ॥ १८० ॥ गात्मत, मरकत, अश्मगर्भ, हरिन्मणि यह पन्नेके नाम हैं। इसको फारसी में जुमईद और अंग्रेजीमें Emerald कहते हैं ॥१८॥
माणिक्यम् । माणिक्यं पद्मरागः स्याच्छोणरत्नं च लोहितम् । माणिक्य, पद्मराग, शोणरश्न और नोहित यह माणिकके नाम हैं। इसे फारसी में साल वदपथानि और अंग्रेजीमे Tapuby कहते हैं।
पुष्परागः। पुष्परागो मंजुमणिः स्यावाचस्पतिवल्लभः॥ १८॥ पुष्पराग, मंजुमणि, वाचस्पतिवल्लभ यह पुखराजके नाम हैं। इसे अंग्रेजी में Onyz कहते हैं । १८१ ॥ Aho ! Shrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२१५)
इंद्रनीलं गोमेदः। नीलं तथेद्रनीलं च गोमेदः पीतरत्नकम् । नील, इन्द्रनील, गोमेद, पीतरत्तक यह नीलमके नाम हैं। अंग्रेजी में इसे onyx कहते हैं।
वैदूर्यम् । वैदूर्य दूरजं रत्नं स्यात्केतुग्रहवल्लभम् ॥ १८२॥ वैदूर्य, दूरज, रत्न, केतुग्रहवल्लभ यह वैडूर्यमणिके नाम हैं। इसे अंग्रेजी में Catseye कहते हैं ।। १८२ ।।
- मौक्तिकम् । मौक्तिकं शौक्तिकं मुक्ता तथामुक्ताफलं च तत् ।। शुक्तिः शंखो गजः क्रोडः फणिर्मत्स्यश्च दर्दुरः १८३ वेणुरेते समाख्यातास्तज्ज्ञैमौक्तिकयोनयः । मौक्तिकं शीतलं वृष्यं चक्षुष्यं बलपुष्टिदम्॥१८४॥ मौक्तिक, शौतिक, मुक्ता, मुक्ताफल यह मोतीके नाम हैं। उसे फारसीमें मखारीद और अंग्रेजी में Pearl कहते हैं।
मोतीके मिलने के स्थान-सोप, शंख, हाथी सूअर, सर्प मत्स्य, मेढक और बांस हैं। मोती-शीतल, वीर्यवर्द्धक, नेत्रहितकर, बल तथा पुष्टिकारक है॥ १८३॥ १८४ ॥
प्रवालः। पुंसि क्लीबे प्रवालः स्यात्पुमानेव तु विद्रुमः। प्रवाल पुल्लिंग और स्त्रीलिंग में, विद्रुम पुंल्लिंगमें ही होता है। हिंदीमें उसे मूंगा, फारसीमें मिरजान् और अंग्रेजी में Red CoraL कहते हैं।
____ अथ रत्नानां गुणाः। रत्रानि भक्षितानि स्युर्मधुराणि सराणि च ॥१८॥
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(२४६); भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
चक्षुष्याणि च शीतानि विषनानि धृतानि च। मंगल्यानि मनोज्ञानि ग्रहदोषहराणि च ॥ १८६॥ रत्न-खानेमें मधुर, दस्तावर, चाक्षुष्य, शीत, विषन तथा धारण किये हुए मंगलकारक, मनोज्ञ और ग्रह दोषोंको हरनेवाले होते हैं ॥ १८५ ॥ १८६.
कि रत्नं कस्य ग्रहस्य प्रीतिकमित्युक्त रत्नमालायाम् । माणिक्यं तरणेः सुजातममलं मुक्ताफलं शीतगोमहेियस्य तु विद्रुमो निगदितःसौम्यस्य गारुत्मतम् । देवेज्यस्य च पुष्परागमसुराचार्यस्य वज्रशनेनीलं निर्मलमन्ययोनिगदिते गोमेदवैदूर्यके॥१८७॥ सूर्यके लिये माणिक चंद्रमाके लिये अमल मोती, मंगलके लिये विद्रुम, बुधके लिये गारुत्मत, बृहस्पतिके लिये पुखराज, शुक्रके लिये हीरा, शनिके लिये नीलम, राहुके लिये गोमेद धौर केतुके लिये वैदूर्य्यक धारण किये जाते हैं ॥ १८७ ॥
___उपरत्नानि । उपरत्नानि काचश्च कर्पूराश्मा कपर्दिका । मुक्ताशुक्तिस्तथा शंख इत्यादीनि बहून्यपि॥१८८॥ कांच, कर्पूगरमा, कपर्दिका, मुक्ताशुक्ति तथा शंख इत्यादि बहुतसे - उपरत्न कहलाते हैं । १८८ ॥
उपरत्नत्वादिमी कपर्दशखौ पुनरुक्तौ । गुणा यथैव रत्नानामुपरत्नेषु ते तथा । किंतु किंचित्ततो हीना विशेषोऽयमुदाहृतः॥१८९॥ उपरत्नोंमें रत्नों जैसे गुण हैं। अन्तर इतना ही है कि इनमें कुछ न्मून शुण हैं । १८९॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । विषम् । विषं तु गरलं क्ष्वेडस्तस्य भेदानुदाहरे । वत्सनाभः स हारिद्रः शक्तुकश्च प्रदीपनः ॥ १९० ॥ सौराष्ट्रकः शृंगिकश्च कालकूटस्तथैव च । हालाहलो ब्रह्मपुत्रो विषभेदा अमी नव ॥ १९१ ॥
विष गरल और दवे यह विषके नाम हैं । वम्मनाभ, हारिद्रक, शक्तुक, प्रदीपन, सौराष्ट्रिक, शृंगिक, कालकूट, हालाहल और ब्रह्मपुत्र यह नौ विषके भेद हैं ॥ १९० ॥ १९१ ॥
(२४७ )
वत्सनाभः ।
सिंधुवारसह पत्रो वत्सनाभ्या कृतिस्तथा । यत्पार्श्वे न तरोवृद्धिर्वत्सनाभः सभाषितः ॥ १९२॥ ( दारिद्रः ) हरिद्रातुल्य मूलो योहारिद्रः सउदाहृतः । (शक्तुकः) यद्रंथिःशक्तुकेनेव पूर्णमध्यः सशक्तुकः १९३
वत्सनाभ विषक संभालूकी तरह के पत्र होते हैं । वत्सकी नाभीके आकारका मूल, होता है। और उसके समीप कोई भी वृक्ष बडे साकारका नहीं हो सकता, यह लक्षण वत्सनाभके हैं ।
हारिद्रक: विषका मूल हल्दीकी गांडके समान निकलता है ।
जिस विषकंदका मध्यभाग कणकेदार ग्रंथियोंसे भरा हुआ होता है उसे सक्तुक कहते हैं ॥ १९२ ॥ १९३ ॥
प्रदीपनः ।
वर्णतो लोहितो यः स्यादीप्तिमान् दहनप्रभः । महादाह करः पूर्वैः कथितः स प्रदीपनः ॥ १९४ ॥ (सौराष्ट्रकः) सुराष्ट विषयेयः स्यात्स सौराष्ट्रिकउच्यते ।
जो विषकंद वर्ण में लाल, अग्नि के समान दीप्तिमान और महादाइके करनेवाला होता है उसको प्रदीपन कहते हैं । १९४ ॥
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( २४८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
शृंगिकः । यस्मिन् गोशृंगके बद्ध दुग्धं भवति लोहितम् १९५ स शृंगिक इति प्रोक्तो द्रव्यतत्त्वविशारदैः । सौराष्ट्रिक देशमें उत्पन्न होने वाला विष सौराष्ट्रिक कहलाता है। जिस विषके गौके सींगमें बांधनेसे दूधका लाल वर्ण हो जाय उसको द्रव्यतत्त्वके जाननेवालोंने शृंगिक विष कहा है ॥ १९५॥
कालकूटः। देवासुररणे देवैर्ह तस्य पृथुमालिनः॥ १९६॥ दैत्यस्य रुधिराज्जातस्तरुरश्वत्थसन्निभः । निर्यास कालकूटोऽस्यमुनिभिःपरिकीर्तितः ॥१९७॥ सोऽहिक्षेत्रे शृंगबेरे कोंकणे मलये भवेत् ॥ १९८॥ देवताओंके और असुरों के संग्राममें देवताबोंसे मारे हुए पृथु मालि दैत्यके रुधिरसे पीपल के समान विषका वृक्ष उत्पन्न हुआ उस वृक्षके निस (गोंद) को ऋषि लोगोंने कालक्ट कहा है। यह कालकूट प्रहिक्षेत्र, शृंगवेर पर्वत, कोंकण और मलयाचलमें उत्पन्न होता है। १९६-१९८॥
हालाहलः। गोस्तनाभफलो गुच्छस्तालपत्रच्छदस्त था ॥१९९॥ तेजसा यस्य दह्यन्ते समीपस्था द्रुमादयः । असौ हालाहलो शेयः किष्किवायां हिमालये२०० दक्षिणाब्धितटे देशे कोंकणेऽपि च जायते । हालाहल विषके वृक्ष ताड के पत्र के समान पत्र होते हैं । द्राक्षा फल के समान फलोंके गुच्छे लगते हैं। इसके समोपके वृक्ष इसके तेजसे फुक जाते है । इसके वृत किष्किन्धा, हिमालय, दक्षिण समुद्रके किना. रेके पहाडों पर और कोंकणमें होते हैं ॥ १९९ ॥ २०॥
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( २४९ )
हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
ब्रह्मपुत्रः ।
वर्णतः कपिलो यः स्यात्तथा भवति सारतः २०१॥ ब्रह्मपुत्रः स विज्ञेयो जायते मलयाचले । ब्राह्मणः पांडुरस्तेषु क्षत्रियो लोहितप्रभः ॥ २०२॥ वैश्यः पीतोsसितः शूद्रो विष उक्तश्चतुर्विधः । रसायने विषं विप्रं क्षत्रिय देहपुष्टये ॥ २०३ ॥ वैश्यं कुष्टविनाशाय शुद्रं दद्यादधाय हि । विषं प्राणहरं प्रोक्तं व्यवायि च विकाशिच २०४ ॥ आग्नेयं वातकफहृद्योगवाहि मदावहम् । तदेव युक्तियुक्तं तु प्राणदायि रसायनम् ॥ २०५ ॥ योगवाहि त्रिदोषघ्नं बृंहणं वीर्यवर्द्धनम् । ये दुर्गुणा विषेऽशुद्धे ते स्युहींना विशोधनात् २०६ ॥ तस्माद्विषं प्रयोगेषु शोधयित्वा प्रयोजयेत् ।
ब्रह्मपुत्र विष- कपिल वर्णका होता है और मलयाचल में उत्पन्न होता है । इसकी चार जातियां होती हैं। उनमें ब्राह्मण पाण्डु वर्णका, क्षत्री लाळ वर्णका, वैश्य पीतवर्षका और शूइ कृष्ण वर्णका होता है ॥ रसायन कर्ममें ब्राह्मण, देह पुष्टिके लिये क्षत्री, कुष्ठ दूर करनेके लिये वैश्य और मारण क्रियामें शूद्र विषका प्रयोग करना चाहिये । ( इसको वैद्यलोग संखिया या पाषाण विष कहते हैं ।
विष-प्राणों को नष्ट करनेवाला, व्यवायी, विकाशी, अग्निगुणभूयिष, वात कफ नाशक, योगवाही और मदके करनेवाला होता है । वही विष यदि युक्तिपूर्वक प्रयोग किया जाय तो प्राणदायक, रसायन, योगवाही, त्रिदोषनाशक, बृंहण और वीर्य्यबर्द्धक हो जाता है ।
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( २५० )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
शुद्ध विषमें जितने दुर्गुण होते हैं वह शोधन करनेसे हीन पड जाते हैं और गुण रह जाते हैं । इसलिये विषोंको सब योगों में शोधन करके ही डालना चाहिये ॥ २०१-२०६ ॥
उपविषाणि ।
अक्षीरं स्नुहीक्षीरं लांगलीकरवीरकौ ॥ २०७ ॥ गुञ्जाहिनो धत्तरः सप्तोपविषजातयः ॥ २०८ ॥
एषां गुणास्तत्रतत्र द्रष्टव्याः । इति धातुवर्गः ।
आकका दूध, वोहरका दूध, लांगली कंद, कनेर, घुंघवी, अफीम और धतूरा यह खास उपविष कहे जाते हैं ।। २०७ ।। २०८ ।।
इति श्रीवैवरत्न पं० - रामप्रसादात्मज विद्यालंकार -- शिवशर्म वैद्यकृत शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ धातुवर्गः समाप्तः ॥ ७ ॥
धान्यवर्गः ८ .
शालिधान्यं व्रीहिधान्यं शूकधान्यं तृतीयकम् । शिबीधान्यं क्षुद्रधान्यमित्युक्तं धान्यपंचकम् ॥१॥ शालयोरक्तशाल्याद्या व्रीहयः षष्टिकादयः । यवादिकं शुकधान्यं मुद्राद्यं शिंबिधान्यकम् ॥ २॥ कंग्वादिकं क्षुद्धवान्यं तृणधान्यं च तत्स्मृतम् । कण्डनेन विनाशुका हेमंताः शालयः स्मृताः ॥३॥
शालिधान्य, व्रीहिधान्य, शूकधन्य शिबीधान्य, चौर क्षुद्रधान्य यह धान्यकी पांच जातियाँ हैं । इनमें लाल नील शालि चावलादि शालिधान्य कहे
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२५१) जाते हैं। सठ्ठी आदि व्रीहि करे जाते हैं। यव आदि शूक धान्य कहे जाते हैं। मूंग मटरमादि फलियोंसे निकलनेवाले द्विदल शिवि धान्य कहे जाते हैं। और कंगुनी आदि शुदधान्य पौर तृणधान्य कहे जाते हैं।
जो चावल विना ही छडनेसे श्वेत हो उनको शालिधान्य कहते हैं ॥ १-३॥ .
शालिः। रक्तशालिः स कलमः पांडुकः शकुनाहृतः । सुगंधकः कर्दमको महाशालिश्च दूषकः॥४॥ पुष्पांडकः पुंडरीकस्तथा महिषमस्तकः। दीर्घशूकः कांचनको हायनो लोध्रपुष्पकः ॥ ५॥ इत्यायाः शालयस्संति बहवो बहुदेशजाः ।। ग्रंथविस्तारभीतेस्ते समास्ता नात्र भाषिताः ॥६॥ शालिपान्योंकी अनेक जाति हैं जिनमें रक्तशालि, कलम, पांदुक, शकुनाहत, सुगंधक, कर्दमक, महाशालि, दूषक, पुष्पांडक, पुण्डरीक, पहिषपातक, दीर्घशूक, कांचन, हायन, लोध्रपुष्पक, आदि शालि धान्य कहे जाते हैं। चोडा वालमती आदि शालिधानों के अंतर्गत । शालिधा नोंकी अनेक देशोंमें उत्पन्न होनेसे अनेक प्रकारके जातियां होती हैं। जिनको ग्रंथके बहुत बढ जानेके भयसे यहां पर नहीं निखा ॥४-६ ॥
शालिधान्यगुणाः। । शालयो मधुराः स्निग्धा बल्या बद्धाल्पवर्चसः। कषाया लघवो रुच्याः स्वर्या वृष्याश्च बृहणाः ॥७॥ अल्पानिलकफाः शीताः पित्तना मूत्रलास्तथा । शालयोदग्धमृजाताः कषाया लघुपाकिनः ॥ ८॥ सृष्टमूत्रपुरीषाश्च रूक्षाः श्लेष्मापकर्षणाः। कैदारा वातपित्तघ्ना गुरकः कफशुकलाः ॥ ९ ॥
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४ २५२ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
कषाया अल्पवर्चस्का मेध्याश्चैव बलावहाः । स्थलजाः स्वादवः: पित्तकफघ्ना वातवह्निदाः ॥ १० ॥ किंचित्तिक्ताः कषायाश्च विपाके कटुका अपि । वापिता मधुरा वृष्या बल्याः पित्तप्रणाशनाः ११॥ श्लेष्मलाश्चाल्पवर्चस्काः कषाया गुरवो हिमाः । वापितेभ्यो गुणैः किंचिद्धीनाः प्रोक्ता अवापिताः १२॥ रोपितास्तु नवा वृष्याः पुराणा लघवः स्मृताः । तेभ्यस्तु रोपिता भूयः शीघ्रपाका गुणाधिकाः ॥ १३॥ छिन्नरूढा हिमा रूक्षा बल्याः पित्तकफापहाः । बद्धविकाः कषायाश्च लघवश्चाल्पतिक्तकाः ॥ १४॥
- शालिधान्य- मधुर, स्निग्ध, बलकारक, किंचित मलको बाँधनेवाले, कसैले हल्के, रुचिकारक, स्वरको ठीक करनेवाले, बीर्यवर्द्धक, शरीरपुष्टिकारक, किंचित वातकफ प्रधान, शीतल, पित्तनाशक और किंचित -मूत्र के करनेवाले होते हैं। जो शालिधान्य, दग्ध की हुई मिट्टी में उत्पन्न होते हैं वह कसैले लघुपाकी, मलमूत्रके निकालनेवाले, रूक्ष और कफनाशक होते हैं । जो धान्य पानीकी क्यारियों में होते हैं वह वात पित्तनाशक, भारी, कफ और शुक्रवर्द्धक होते हैं। कषाय-ग्रल्प मलकारक, बुद्धिवर्द्धक और बलको बढानेवाले हैं। जो धान्य विना पानी की क्यारियोंके साधा' रण खेतों में उत्पन्न होते हैं वह स्वादु, पित्तकफनाशक, वातकारक, अग्निको चैतन्य करनेवाले, किंचित् विक्त, कषाय, और विपाकमें कहोते हैं। जो धान एक क्षेत्र से उखाड कर दूसरे क्षेत्र में लगाए जाते हैं उनको वापित या आरोपित धान्य कहते हैं । प्रारोपित धान्य- मधुर, वृष्य, बलकारक, पित्तनाशक, कफवर्द्धक, अल्पमलके करनेवाले, कषाय,भारी, शीतल होते हैं । जो धान्य उखाड़ कर नहीं लगाए जाते, उनको प्रवापित कहते हैं । भवापित धान्य वापितों से गुणों में कुछ हीन होते हैं । जो धान्य रोपित हैं एक जगह से
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२५६) उखाड कर दूसरी जगह लगाए जाते हैं। वह नये तो वीर्यवर्द्धक होते हैं। पुराने होनेसे हल्के हो जाते हैं। परन्तु सब प्रकारके धान्योंमें रोपित धान्य शीघ्र पाकी और गुणोंमें अधिक होते हैं। जो धान्य एक बार काटलेनेसे फिर उनकी जडोंमें उत्पन्न हो जाते हैं वह रूक्ष, शीतल, वलकारक, पित्त कफनाशक, मनको बाँधनेवाले, हल्के और किंचित तिक्त होते हैं।७-१४॥
रक्तशालि । रक्तशालिवरस्तेषु बल्यो वण्यस्त्रिदोषजित् । चक्षुष्यो मूत्रलः स्वयंःशुक्रलस्तृडूज्वरापहः।।१६॥ विषव्रणश्वासकासदाइनुद्वह्निपुष्टिदः ।। तस्मादल्पांतरगुणाः शालयो महदादयः॥ १६॥ सब धानोंमें रक्तशालि अच्छे, बलदायक, वर्णकारक, विदोषनाशक, बक्षुष्य, मूत्रवर्द्धक, स्वरकारक, वीर्यकारक, प्यास, ज्वर, विष, व्रण श्वास कास और दाइको मारनेवाला, अग्निदीपक और पुष्टिकारक होते हैं। दूसरे महाशाली इससे गुणोंमें न्यून हैं ॥ १५ ॥ १६ ॥
ब्राहिधान्यम् । .. वार्षिका कंडिताः शुक्ला बीयश्चिरपाकिनः । कृष्णव्रीहिः पाटलश्च कुक्कुटांडक इत्यपि ॥ १७ ॥ शालामुखी जतुमुख इत्याया ब्रीहयः स्मृताः। कुक्कुटांडाकृतिर्कीहिःकुक्कुटांडक उच्यते ॥ १८॥ कृष्णवीहिः स विज्ञेयो यः कृष्णतुषतंडुलः । पाटलः पाटलापुष्पवर्णको व्रीहिरुच्यते ॥ १९॥ शालामुखः कृष्णशूकः कृष्णतंडुल उच्यते। लाक्षावणे मुखं यस्य ज्ञेयो जतुमुखस्तु सः ॥२०॥
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( २५४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । बोहयः कथिता पाके मधुरा वीर्य्यतो हिताः। अल्पाभिष्यंदिनोबद्धवर्चस्काः षष्टिकैःसमाः ॥२१॥ कृष्णवीहिर्वरस्तेषां तस्मादल्पगुणाः परे । वर्षा ऋतु में पकनेवाले, छडने में सफेद और देरमें पकनेवाले व्रीहि धान्य कहलाते हैं । कृष्णव्रीहि, पाटल', कुक्कुटांडक, शालामुखी, जतुमुख इत्यादि धान्य होते हैं, मुर्गे के अंडे के आकारवाले कुक्कुटांडक व्रीहि होते हैं। काले तुषोंवाला चावल कृष्णब्रीहि होता है। पाटके फूल जैसे रंग. बाले पाटल ब्रोहि होते हैं। जिसका शूक और तण्डुल काले हों उसे शालामुख कहते हैं। जिसके मुखका रंग लाखके सदृश हो उसे जतुमुख कहते हैं। ब्रीहि धान्य पाकमैं मधुर,वीर्य्यक, हितकर,अल्पाभिष्यन्दी, मलको बांधनेवाले और साठी के समान होते हैं। कृष्ण व्रीहि इनमें सबसे श्रेष्ठ है। दूसरे सब अल्प गुणवाले हैं ॥ १७-२१ ॥
पष्टिकम् । गर्भस्था एव ये पाकं यांति ते षष्टिका मताः॥२२॥ पष्टिकः शतपुष्पश्च प्रमोदकमुकुन्दको । महापष्टिक इत्याद्याः षष्टिकाः समुदाहृताः ॥२३॥ एतेऽपि त्रीहयः प्रोक्ता वीहिलक्षणदर्शनात् । षष्टिका मधुरा शीता लवको बर्चसः ॥२४॥ वातपित्तप्रशमनाः शालिभिः सहशा गुणः । पष्टिका प्रवरा तेषांलधी स्निग्धात्रिदोषजित् ॥२५॥ स्वाही मृद्वी पाहणी च बलदा घरहारिणी । रक्तशालिगुणस्तुत्यास्ततः स्वल्पगुणाः परे ॥२६॥ जो गर्भस्थ ही पक जाते हैं उन्हें साठी धान्य कहते हैं । षष्टिक, शत. पुष्प,प्रमोदक,मुकुन्दक और महापष्टिक इत्यादि साठीके भेद हैं। बोहिके
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हतियादिनिघण्टुः भा. टी.। (२५५) लक्षण दिखाने से यह भी व्रीहि कहाते हैं। साठी धान्य-मधुर, शीतल, हरके, मलरोधक, वातपित्तनाशक और शालिधान्यके समान ही गुणवाले होते हैं। परन्तु साठी चावल इनमें श्रेष्ठ, हत्के, स्निग्ध, त्रिदोषनाशक, मृदु, स्वादु, ग्राही, बलदायक और ज्वरनाशक हैं। प्रायः रक्तशालिके समान गुणवाले हैं। अन्य सब प्रकारके चावल इनसे गुणों में न्यून होते हैं । २२–२६ ।
यकः।
अनुयवो निःशूकः स्यात्कृष्णारुणवर्णो यवः । निःशूकोऽपि यवः प्रोक्तो धवलाकृतिकोमहान् ॥२७॥ यवस्तु शितशूकास्यानिःशूकोऽनुयवः स्मृतः। तोक्मस्तद्वत्तहरितस्ततः स्वल्पश्च कीर्तितः ॥२८॥ यवः कषायो मधुरः शीतलो लेखनो मृदुः। व्रणेषु तिलवत्पथ्योरूक्षो मेधाग्निवर्द्धनः ॥ २९ ॥ कटुपाकोऽनभिष्यंदी स्वयों बलकरो गुरुः बहुवातमलो वर्णस्थैर्यकारी च पिच्छिलः ॥३०॥ कण्ठत्वगामयश्लेष्मपित्तमेदाप्रणाशनः । पीनसश्वासकासोरुस्तंभलोहिततृत्प्रणुत् ॥ ३१॥
अस्मादनुयवो न्यूनस्तोक्मो न्यूनतरस्ततः। अनुयक्ष, निःशूक, कृष्णयव पौर अरुणयव, यह यवोंकी जातियाँ हैं। इनमें निःशूक यव श्वेत और बड़े आकारवाले होते हैं, साधारण या सित शूकवाले होते हैं । निःशूक योंको अनुयव भी कहते हैं, जो किंचित हरे वर्णके और छोटे आकारवाले हैं उनको तोक्म कहते हैं,। यव-कषाय; मधुर, शीतल, लेखन, मृदु, व्रणोंमें तिलों को समान पथ्य, रूक्ष, मेधा
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( २५६ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
और अग्निषद्धक, कटुपाकी, धनभिष्यन्दि, स्वरकारक, बलवर्द्धक, भारी, वातप्रधान, मलकारक, वर्ण पौर स्थेयके करनेवाले, पिच्छल, तथा कण्ठ और त्वचा के रोग, कफ, पिस, मेद, पीनस, श्वास; कास, उरुस्तंभ, रक्तविकार और प्यासको दूर करते हैं । जवोंसे अनुभव न्यून गुणवाले होते हैं । तोक्म अत्यन्त न्यून गुणवाले होते हैं ।। २७-३१ ॥ गोधूमः ।
गोधूमः सुमनोऽपि स्यात्रिविधः स च कीर्तितः ॥ ३२ ॥ महागोधूम इत्याख्यः पचाद्देशात्समागतः । मधुली तु ततः किचिदल्पा सा मध्यदेशजा ॥ ३३ ॥ निःशुको दीघगोधूमः क्वचिन्नंदीमुखाभिधः । गोधूमो मधुरः शीतो वातपित्तहरो गुरुः ॥ ३४ ॥ कफशुक्रप्रदो बल्यः स्निग्धः संधानकृत्सरः । जीवनो बृंहणो वर्ण्यो वण्यरुच्यः स्थिरत्वकृत् ॥ ३५ ॥ कफप्रदो नवीनो न तु पुराणः ।
मधूली शीतला स्निग्धापित्तघ्नी मधुरा लघुः ॥ ३६ ॥ शुक्रला बृंहिणी पथ्या तद्वनंदीमुखः स्मृतः ।
गोधूम, सुमन, मधूली यह गोधूमके नाम हैं। गोधूम तीन प्रकारकी होती है। पश्चिमदेश से प्राई हुई बडे आकारवाली गेहूं को महा गोधूम कहते हैं । मध्यदेशमें उत्पन्न होनेवाली किंचित् छोटे आकार की मधूज़ो कही जाती है। किसी देशमें शूकरहित लम्बी गोधूमको नन्दीमुख कहते हैं गेहूं (कणक) मधुर, शीत, वातपित्तनाशक, कफ और शुक्रको बढानेवाली, बलकारक, त्रिग्ध, संधानकारी, सर, जीवन, बृंहण, वर्णकारक, व्रणोंको भरनेवाली, रुचिकारक तथा आयुवर्द्धक है, । नवीन गेहू कफवर्द्धक होता है, परन्तु एक वर्षके अनन्तर कफकारक गुण इसमें नहीं रहता है।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( २५७ )
मधूली गेहूं-शीतल, स्निग्ध, पित्तनाशक, मधुर, हल्की, वीर्यवर्धक मौर बृंहण होती है। यही गुण नन्दीमुखमें भी हैं ॥ ३२-३६ ॥
शिवीगुणाः
शमीजाः शिविजाः शिविभवाःसूपाश्च वेदलाः ॥३७॥ वेदला मधुरा रूक्षाः कषायाः कटुपाकिनः । वातलाः कफपित्तघ्ना बद्धमूत्रमला हिमाः ॥ ३८ ॥ ऋते मुद्रममूराभ्यामन्ये त्वाध्मानकारिणः ।
शमीज, शिविज, शिविभव, सूप और वैदल यह दो दानवाले मूंग, माष चणक, मटरादिकों के नाम हैं । वैदल- मधुर, रूक्ष, कषाय, कटुपाकी, वातकारक, कफपित्तनाशक, मलमूत्रको बाँधनेवाले और शीतल होते हैं। इनमें मूंगी और मसूरके सिवाय सब द्विदल पेटमें दबाको भरनेवाले होते हैं ॥ ३७ ॥ ३८ ॥
मुद्रम् ।
मुद्रो रूक्षो लघुग्राही कफपित्तहरो हिमः || ३९ ॥ स्वादुरल्पानिलो नेत्र्यो ज्वरघ्नो वनजस्तथा । मुद्रो बहुविधः श्यामो हरितः पीतकस्तथा ॥ ४० ॥ श्वेतो रक्तश्च तेषां तु पूर्वः पूर्वो लघुः स्मृतः । सुश्रुतेन पुनः प्रोक्तो हरितः प्रवरो गुणैः ॥ ४१ ॥ चरका दिभिरप्युक्त एष ह्येव गुणाधिकः ।
मूंगी- रूक्ष, लघु, ग्राही, कफ-पित्तनाशक, शीतल, स्वादु, अल्पबात, नेत्रोंको हितकारी और ज्वरनाशक होती है । वनमूंग के भी बही गुण हैं । मूंगी - श्याम, हरित, पीत, श्वेत और रक्तभेद से बहुत प्रकारकी होती है । इनमें क्रमपूर्वक पहली पहली विशेष हल्की होती है । किन्तु सुश्रुत
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(२५८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । और चरक आदिकोंने हरी मुंगीको विशेष गुणोंवाली कहा है। इसे अंग्रेजीमें Green Gram कहते ॥३९-४१॥
माषः।
माषो गुरुः सादुपाकः स्निग्धो रुच्योऽनिलापहः ४२ स्रंसनस्तर्पणो बल्यः शुक्रलो बृंहणः परः। छिन्नमूत्रमलः स्तन्यो मेदः पित्तकफप्रदः ॥४३॥ गुदकीलार्दितश्वासपक्तिशूलानि नाशयेत् । कफपित्तकरो मापः कफपित्तकरं दधि ॥४४॥ कफपित्तकरा मत्स्या वृताकं कफपित्त कृव । माष ( उडद) गुरु, स्वादुपाकि, निग्ध, रुचिकारक, वातनाशक, स्रंसन, तर्पण, बलकारक, वीर्यवर्धक और शरीरको मोटा बनानेवाले, मलमूत्रको निकालनेवाले, स्तनों में दूध उत्पन्न करनेवाले, मेद, पित्त और कफको बढानेवाले तथा अश, श्वास और परिणामशूनको दूर करते हैं। माष, दधी, मछली और बेंगन यह चारों ही पृथकू सेवन करने से, या मिलाकर सेवन करनेसे पित्त और कफको विशेष रूपसे बढाते हैं । इसे अंग्रेजीमें Kidney Bean कहते हैं । ४२-४४ ॥
राजमाषः। राजमाषो महामापश्चपलश्च बलः स्मृतः ॥१५॥ राजमाषो गुरुः स्वादुस्तुवरस्तर्पणः सरः । रूक्षो वातकरो रुच्यः स्तन्यो भूरिमलप्रदः॥४६॥ श्वेतो रक्तस्तथा कृष्णस्त्रिविधः स प्रकीर्तितः। यो महास्तेषु भवति स एवोक्तो गुणाधिकः ॥१७॥ राजमाष, महामाष, चपल और बल यह राजमाषके नाम हैं । इसे हिन्दी में लोबिया खांगण भी कहते हैं । इसका अंग्रेजी नाम Chinessp
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(२५९)
हरीतक्पादिनिघण्टुः मा. टी. । कसैला
Dolicos है। राजमाष-गुरु, स्वादु, तर्पण, सर, रुक्ष, बात कर, रुचिकारक, स्तन्यवर्द्धक, मल को बढानेवाला होता है। राजमाष - श्वेत, लाल और काले वर्णभेदसे तीन प्रकारके हैं। इनमें जो प्राकारमें सबसे बड़ा है वही गुणमें भी अधेक कहा जाता है ॥ ४५-४७ ॥
निष्पावः ।
निष्पावो राजशिवी स्याद्वेछ ः शिवकः । निष्पावो मधुरो रूक्षो विपाकेऽम्लो गुरुःसरः ॥४८॥ कषायः स्तन्यपित्तास्रमूत्रात विबंधकृत् । विदाद्युष्णो विषश्लेष्मशोथहृच्छुकनाशनः ॥ ४९ ॥
निष्पाद, राजशिवी, वेल्लक, श्वेतशिबक यह बडे | मटके नाम हैं। मटर- मधुर, रूक्ष, विपाक में बम्ल, गुरु, दस्तावर, कषाय, स्तन्यवर्द्धक, पित्त, रक्त, मूत्र, दात और विवन्ध के करनेवाले, विदाहि, उष्ण, विष, कक, शोथ को हरने वाले और वीर्य को नष्ट करनेवाले हैं ॥ ४८ ॥ ४९ ॥
मकुष्ठम् ।
मकुष्ठो वनमुद्रः स्यान्मुकुष्ठ कमपुष्टकौ । मकुष्ठो वातलो ग्राही कफपित्तहरो लघुः ॥ ५० ॥ वांतिजिन्मधुरः पाके कृमिकृज्ज्वरनाशनः ।
मकुष्ठ, वनमुद्ग मुकुष्ठक, अपुष्टक यह मोठके नाम दें। इसे अंग्रेजी में Aconite Leaved Kidney Bean कहते हैं । मोठ-वातकारक, ग्राही, कफ पित्तनाशक, हलके, वमनदर, पाकमें मधुर, कृमिकारक औौर ज्वरनाशक हैं ॥ ५० ॥
मसूरः ।
मांगल्य को मसूरः स्थानमांगल्याच मसुरिका ॥५१॥
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( २६० ) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
मसरो मधुरः पाके संग्राही शीतलो मधुः । कफपित्तास्रजिद्रक्षो वातलो ज्वरनाशनः ॥ ५२ ॥
मांगल्यक, मसूर, मांगल्य, मसूरिका यह मसूरके नाम हैं । इसका अंग्रेजी नाम Lentin है मसूर पाक में मधुर, संग्राही, शीतल, हल्का; कफ, पित्त और रक्तनाशक, रूक्ष, वातकारक और ज्वरनाशक है ॥ ५१ ॥ ५२ ॥
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आढकी ।
आढकी तुवरी चापि सा प्रोक्ताशनपुष्पिका । आढकी तुवरा रूक्षा मधुरा शीतला लघुः ॥ ५३॥ ग्राहिणी वातजननी वर्ण्या पित्तकफास्रजित् ।
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भाढकी, तुवरी, शतपुष्पिका यह अरहर ( हरकर ) के नाम हैं इसका अंग्रेजी नाम Pigeon Pea है । प्राढकी - कसैली, रूक्ष, मधुर, शीतल, हल्की, ग्राही, वातकारक, वर्णकारक, पित्त, कफ और रक्तविकारको नाश करनेवाली है ॥ ५३ ॥
चणकः ।
चणको हरिमंथः स्यात्सकलप्रिय इत्यपि ॥ ५४ ॥ चणकः शीतलो रूक्षः पित्तरक्तकफापहः । लघुः कषायो विष्टं भी वातलो ज्वरनाशनः ॥५५ ॥ स चांगारेण संसृष्टस्तैलभृष्टश्च तद्गुणः । आर्द्राभृष्टो बलकरो रोचनश्च प्रकीर्तितः ॥ ५६ ॥ शुष्क भृष्टोऽतिरूक्षःस्याद्वापपित्तप्रकोपनः । स्विन्नः पित्तकफं हन्यात्सूपः क्षोभकरो मतः ॥५७॥ आर्द्राऽतिकोमलो रुच्यः पित्तशुक्रहरो हितः ।
कषायो वातलो ग्राही कफपित्तहरो लघुः ॥ ५८ ॥ चणक, हरिमंथ, सकल प्रिय यह खनेकेल हैं। इसे अंग्रेजी में Gram
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. दी. ।
((२६१)) कहते हैं । चना-शीतल, रूक्ष, पित्त, रक्तविकार और कफनाशक, हल्का, कषाय, विष्टभी, वातकारक, ज्वरनाशक है। अग्नि या तेल में भुने हुए चनों के भी यही गुण हैं । गोले भुने हुए चने बलकारक और रुचिकारक हैं। सूखे भूने हुए चने अतिरुक्ष, वात पितको कोप करनेवाले होते हैं। छौंके हुए चने पित्त और कफको नाश करते हैं । चनेका सूपक्षोभकारक है । गीले चने - कोमल, रुचिकारक, पित्त और शुक्रनाशक, हितकारक, कसैला, वातकारक, ग्राही, कफ पित्तनाशक और हल्के होते हैं ॥ ५४-५८ ॥
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कलायः ।
कलायो वर्तुलः प्रोक्तः सतीनश्चः हरेणुकः । कलायो मधुरः स्वादुः पाके रूक्षश्च शीतलः ॥ ५९ ॥
अंग्रेजी में
कलाय, वर्तुल, सतीन, हरेणुक यह मटरके नाम हैं । इसे Field Pea कहते हैं । मटर-मधुर, मधुरपाकी, रूखा तथा शीतल है ॥ ५९ ॥
*
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त्रिपुटः ।
त्रिपुटःकंटकोऽपि स्यात्कथ्यते तद्गुणा अमी । त्रिपुटो मधुरस्तिक्तस्तुवरो रूक्षणो भृशम् ॥ ६० ॥ कफपित्तहरो रुच्यो ग्राहको शीतलस्तथा । किंतु खंजत्वपंगुत्वकारी वातातिकोपनः ॥ ६१ ॥
त्रिपुट, और कंटक यह त्रिपुटके नाम हैं, अंग्रेजी में इसे Chickiling Vetch कहते हैं। त्रिपुट-मधुर, तिक्त, कषाय, रूक्ष, उष्ण, कफपित्तना शक, रुचिकारक और शीतल है। किन्तु खं जत्व और लंगडापनको करनेवाली तथा वातको अत्यन्त कुपित करनेवाली है ॥ ६० ॥ ६१ ॥
कुलत्थः ।
कुलत्थिकाकुलत्थश्च कथ्यते तद्गुणा अथ । कुलत्थः कटुकः पाके कषायः पित्तरक्तकृत् ॥६२॥
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- ( १६१ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
लघुर्विदाही वीर्योष्णः श्वासकासकफानिलान् । हंति हिक्काश्मरीशुकदादानाहान्स पीनसान् ॥ ६३ ॥ स्वेदसंग्राहको मेदोज्वरक्रिमिहरः परः ।
कुलथिका और कुलत्थ यह कुलथीके नाम हैं। इसे अंग्रेजी में Two flcwered Dolicos कहते हैं। कुलथी- पाक में कटु, कषाय, पित्तरक्तको करनेवाली, हलकी, विदाही, उष्ण, वीर्य, श्वास, काल, कफ और वायुको हरनेवाली, तथा हिचकी, पथरी, शुक्र, दाह, अफारा, पीनस, मेद, ज्वर और कृमियोंको नष्ट करती है । श्रौर पसीनेको रोकने वाली है ।। ६२ ।। ६३ ।।
तिलः । तिलः कृष्णः सितो रक्तः स वन्योऽल्प तिलःस्मृतः ६४ तिलो रसे कटुस्तिको मधुरस्तुवरो गुरुः । विपाके कटुकः स्वादुः स्निग्धोष्णः कफपित्तनुत् ६३ ॥ बल्यः केश्यो हिमस्पर्शस्त्वच्यः स्तन्यो व्रणे हितः । दंत्योऽल्पमुत्रकृदग्राही वातघ्नाऽग्निमतिप्रदः ॥ ६६ ॥ कृष्णः श्रेष्ठतमस्तेषु शुक्लो वै मध्यमः स्मृतः ।
अन्यो हीनतरः प्रोक्तस्तज्ज्ञै रक्तादिकस्तिलः ॥६७॥
तिल-काने, सफेद और लाल होते हैं। जंगल में होनेवाले तिलोंको अपरिल काते हैं। तिल - रस में कट्टु, तिक्त, मधुर, कसैले और भारी होते हैं। विपाक में कटु तथा मधुर, स्निग्ध, उष्ण, कफपित्तनाशक, बळ कारी, केशवर्द्धक, शीतल, त्वचाको उत्तम बनानेवाले, स्तन्यवर्द्धक, व्रणमें हितकारी, दांतों को मजबूत बनानेवाले, मूत्रको कम करनेवाले, किंचित् ग्राही, वातनाशक, अग्नि और बुद्धिको बढानेवाले होते हैं । इनमें काले तिल अत्यन्त श्रेष्ठ, सफेद मध्यम और अन्य लाल यादि तिल गुणोंमें डीन होते हैं । ६४-६७ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.।
अतसी। अतसी नीलपुष्पं च पार्वती स्यादुमा झुमा । अतसी मधुरा तिक्ता स्निग्धा पाके कटुगुरुः ॥६॥ अतसी शुक्रवातघ्नी कफपित्तविनाशिनी । अतसी, नीलपुष्पी, पार्वती, उमा और क्षुमा यह बलसीके नाम हैं। पलसी मधुर, तिक्त, स्निग्ध, पाकमें कटु, भारी, शुक्ननाशक, वात, कफ और पित्तको नाश करनेवानी है । इसका अंग्रेजी नाम Linseed
तुवरी। तुवरी ग्राहिणी प्रोक्ता लवी कफविषास्रजित् ६९॥ तीक्ष्णोष्णा वह्निदा कंडूकुष्ठकोष्ठक्रिमिप्रणुत् । तुवरी-ग्राही, हलकी, कफ, विषरक्तको जीतनेवाली, तीक्ष्ण, उष्ण, अग्निवद्धक तथा खाज, कुष्ठ, कोठ और कृमियोंको नष्ट करनेवाली है। इसको तारामीरा भी कहते हैं ॥ ६९ ॥
गौरसर्षपः। सर्षपः कटुकः स्नेहस्तंतुभश्च कदम्बकः ॥ ७० ॥ गौरस्तु सर्षपः प्राज्ञः सिद्धार्थ इति कथ्यते । सर्षपस्तु रसे पाके कटुः स्निग्धः सतितकः ॥७॥ तीक्ष्णोष्णः कफवातघ्नो रक्तपित्तानिवर्द्धनः । रक्षोहरो जयेत्कंडूकुष्ठकोष्ठकिमिग्रहान् ॥७२॥ यथा रक्तस्तथा गौरः किंतु गौरो वरो मतः। सर्षप-कटुक, स्नेह, तंतुभ और कदबंक यह सरसों के नाम हैं। पीली सरसोंको सिद्धार्थ भी कहते हैं। इसका अंग्रेजी में नाम Sina Pis alba हैं । सरसों रत और पाकमें कटु, सिग्ध, तीक्षाउप, कफ वातनाशक,
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(२६४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। रक्त पित्तवद्धक, अग्निवर्धक, राक्षसोंके भयको दूर करनेवाली तथा कण्डू, कुष्ठ, कोठ, कृमि और ग्रहबाधाको दूर करती है।
श्वेत सरसों में भी रक्त सरसोंके समान ही गुण हैं । किन्तु श्वेत सरसों श्रेष्ठ मानी जाती हैं ।। ७०-७२ ।
राजिका। राजी तु राजिका तीक्ष्णगंधा क्षुजनकासुरी ॥७३॥ क्षवः क्षुधाभिजनकः कृष्णिका कृष्णसर्षपः । राजिका कफपित्तघ्नी तीक्ष्णोष्णा रक्तपित्तकृत् ७४ किंचिद्रूक्षाग्निदा कंडू कुष्ठकोष्ठक्रिमीन हरेत् ।
अतितीक्ष्णा विशेषेण तद्वत्कृष्णापि राजिका ॥७॥ तथा हिमो गुरुग्राही तत्पुष्पं प्रदरास्त्रजित् । राजी, राजिका, तीक्ष्णगन्धा, क्षुजनक, आसुरी, चव, क्षुधाभिजनक, कृष्णिका और कृष्णसर्षप, यह गईके नाम हैं। इसका अंग्रेजी नाम Rus tasdsuo है। राई-कफपित्तनाशक, तीक्षण, उष्ण, रक्तपित्तकारक,किंचित रूक्ष तथा कण्डू, कुष्ठ, कोठ मोर कृमियोंको हरनेवाली है। काली राई विशेष रूपसे तीक्ष्ण होती है। तथा उसके फूल-शीतल, भारी और ग्राही हैं। रक्तप्रदरको जीतनेवाले हैं ॥ ७३-७५ ॥
क्षुदधान्यम् । क्षुद्रधान्यं कुधान्यं च तृणधान्यमिति स्मृतम् ७६॥ क्षुद्रधान्यमनुष्णं स्यात्कषाय लघु लेखनम् । मधुरं कटुकं पाके रूक्षं च क्लेदशोषकम् ॥७॥ वातकृद्धद्ध विट्कं च पित्तरक्तकफापहम् । क्षुद्रधान्य, कुधान्य, तृणधान्य या शुदधान्यों के नाम हैं। क्षुद्रधान्यअनुष्ण, कषाय, लघु, लेखन, मधुर, पाकमें कटु, रूक्ष, क्लेदशोषक,
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.
( २६५)
araकारक, मलको बांधनेवाले तथा पित्त, रक्त और कफको हरने वाले हैं ॥ ७६ ॥ ७७ ॥
कंशुः ।
स्त्रियां कंगुप्रियंगू द्वे कृष्णरक्ता सिता तथा ॥ ७८ ॥ पीता चतुर्विधा कंगुस्तासां पीता वरा स्मृता । कंगुस्तु भग्नसंधानवातकवृंदणी गुरुः ॥ ७९ ॥ रूक्षा महराsती वाजिनां गुणकृद् भृशम् ।
कं और प्रियंगु यह दोनों शब्द स्त्रीलिङ्गवाचक हैं। कंगुनी-काली, लाल, सफेद और पीली इन भेदोंसे चार प्रकारकी होती है । इनमें पीली कैगुनी श्रेष्ठ मानी जाती है। कंगुनी भग्नसंधानकारक ( टूटे हुएको जोड• नेवाली ) वातवर्द्धक, बृंहणी, भारी, रूक्ष, कफनाशक और थोडौंको अत्यन्त गुण करनेवाली होती है ॥ ७८ ॥ ७९ ॥
चीनकः ।
चीनकः कंगुभेदोस्ति स ज्ञेयः कंगुवद् गुणैः ॥ ८० ॥
कंगुनीका भेद चीनक ( चोना ) होता है इसका अंग्रेजी नाम illet है। यह भी गुणों में कंगुनीके समान है ॥ ८० ॥
श्यामाकः ।
श्यामाकः शोषणो रूक्षो वातलः कफपित्तहृत् ॥ ८१ ॥
श्यामक ( सौंफ के चावल ) शोषण, रूक्ष, वातकारक और कफपित्तनाशक है ॥ ८१ ॥
कोद्रवः । कोद्रवः कोरदूषः स्यादुद्दालो वनकोद्रवः । airat वातलो ग्राही हिमः पित्तकफापहः । उदालस्तु भवेदुष्णो ग्राही वातकरो भृशम् ॥ ८२ ॥
कोद्रव और कोरदूष यह कोदेके नाम हैं । वनकोद्रवको उद्दान कहवे
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(२६६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। हैं। कोद्रव-पातकारक, प्राही, शीतल और पित्तकफनाशक है। उद्दाल उण, ग्राही और वातकारक होता है । ८२ ॥
शरबीजम् । चारुकः शरबीजं स्यात्कथ्यते तद्गुणा अथ। चारुको मधुरो रूक्षो रक्तपित्तकफापहः ॥ ८३ ॥
क्षीतो लघरवृष्यश्च कषायो वातकोपनः । .. चारुक, शरबीज यह सरपतेके बीजोंके नाम हैं। चारुक-मधुर, रूक्ष, रक्तपिननाशक, कफघ्न, शीतल, हल्का, वीर्यनाशक, कषाय और वात.. कोपकारक होता है ॥ ८३ ॥
वंशवीजम् । या वंशभवा रक्षाः कषायाः कटुपाकिनः ॥८॥ बद्धमूत्राः कफनाश्च वातपित्तकराः सराः । बांसके जौ-रूखे, कलैले, कटुपाकी, मूचना, कफनाशक, वातपित्तका. रक पौर दस्ताघर होते हैं ॥ ८४ ॥
कुसुम्भबीजम् । कुसुम्भबीजं वरटा सेवा प्रोक्ता वराटिका ॥ ८५ ॥ वरटा मधुरा स्निग्धा रक्तपित्तकफापहा । कषायाशीतला गुरूस्यादवृष्यानिलापहा ॥ ८६॥ कुसुभबीज, वरट, वराटिका और करड यह कुसुंभके बीज का नाम है। करड-मधुर, स्निग्ध, रक्तपिननाशक, कफघ्न, कषाय, शीतल, भारी, अवृष्य पौर वायुको हरनेवाले होते हैं ।। ८५ ।। ८६ ।।
गयेधुः । गवेधुका तु विद्वद्भिर्गवेधुः कथिता स्त्रियाम् । गवेधुः कटुका स्वाद्वी कार्यकृत्कफनाशिनी ॥८७॥ गोधुका-स्त्रीलिगवाचक है। गवेधु-कटु, स्वादु, कृश करनेवाली और कफनाशक है ।। ८७ ।।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
नीवारः । प्रसाधिका तु नीवारस्तृणान्नमिति च स्मृतम् । नीवारः शीतलो ग्राही पित्तघ्नः कफवातकृत् ॥ ८८॥
प्रसाधिका, नीवार और तृणान्न यह नीवारके नाम हैं। नीवार - शीतल, ग्राही, पित्तनाशक और कफवातकारक है ॥ ८८ ॥
( २६७ )
यवनालः ।
यवनालो हिमः स्वादुर्लोहितः श्रेष्म पित्तजित | अवृष्यस्तुवरो रूक्षः क्लेदकृत्कथितो लघुः ॥ ८९ ॥
यवनाल घास के बीज-शीतल, स्वादु, रक्त, कफ और पित्तको जीतनेवाले, वीर्य्यशोषक, कसैले, रूक्ष, हलके और क्लेदकारक हैं ॥ ८९ ॥ शणः ।
शणः प्रोक्तो मातुलानी जन्तुतंतुर्महाशना । शणो हिमो लघुग्रही तत्पुष्पं प्रदास्रजित् ॥९०॥
शण, मातुलानी, जंतुरंतु, महाशना यह सनके नाम हैं। शणबीजशीतल, हलके और ग्राही होते हैं। इसके पुष्प रक्तप्रदरको दूर करते हैं ॥ ९० ॥
नवधान्यादिः । धान्यं सर्वे नवं स्वादु गुरु श्लेष्मकरं स्मृतम् । तत्तु वर्षोषितं पथ्यं यतो लघुवरं हितम् ॥ ९१ ॥ वर्षोषितं सर्वधान्यं गौरवं परिमुंचति । न तु त्यजति वीर्य्यं स्वं क्रमान्मुं चत्यतः परम् ॥ ९२ ॥ एतेषु यवगोधूमतिलमाषा नवा हिताः । पुराणा विरसा रूक्षा न तथा गुणकारिणः ॥ ९३॥
इति धाग्यवर्गः ।
सब प्रकारके नवीन धान्य- स्वादु, भारी और कफकारक होते हैं । वही धान्य एक वर्षके अनन्तर हल्के, श्रेष्ठ शपथ्य हो जाते हैं क्योंकि
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(२६८) , भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । एक वर्ष के बाद सब धान अपने भारीपनको त्याग देते हैं, परन्तु अपने वीर्यको नहीं छोड़ते । दूसरे वर्षके अनंतर इनके वियादि भी कम होने लग जाते हैं । इनमें बल पुष्टि के लिये यव, गेहूं, तिल और माषादि नवीन ही हितकारक होते हैं। पुराने होने पर क्ष और विरस होनेसे वैसे गुणकारी नहीं रहते ॥ ९१-९३ ॥
इति श्रीवैद्यरत्नपंडितरामप्रसादात्मज-विद्यालङ्कार-शिवशर्मवैद्यशास्त्रिकृत-शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादि
निघण्टौ धान्यवर्गः समाप्तः ॥ ८॥
शाकवर्ग; ९.
O
O
पत्रं पुष्पं फलं नालं कंदं संस्वेदजं तथा। शाकं षड्विधमुद्दिष्टं गुरु विद्यायथोत्तरम् ॥१॥ प्रायः शाकानि सर्वाणि विष्टंभीनि गुरूणिच । लक्षाणि बहुवासि सृष्टविण्मारुतानि च ॥२॥ शाकं भिनत्ति वपुरस्थि निहंति नेत्रं, वर्ण विनाशयति रक्तमथापि शुक्रम् । प्रज्ञाक्षयं च कुरुते पलितं च नून, हंति स्मृतिं गतिमिति प्रादंति तज्ज्ञाः ॥ ३ ॥ शाकेषु सर्वषु वसंति रोगास्ते हेतवो देहविनाशनाय । तस्माद्बुधःशाकविवर्जनं तु कुत्तियाम्लेषुसएत्रदोषः।
पत्र, फूल, फन, नाल, कंद पौर संस्वेदज इन भेदोंसे शाक छः प्रका. रके कहे हैं। इनमें पहलेसे दूसरा उत्तरोत्तर क्रमले भारी माना जाता है।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२६९ ) प्रायः सब शाक विष्टंभी, भारी, रूक्ष, बहुत मलके करनेवाले, मनमूबको पैदा करनेवाले होते हैं । शाक प्रायः शरीर और अस्थिको भेदन करनेवाले, नेत्रोंकी ज्योति कम करनेवाले, वर्ण, रक्त और वीर्यको हरनेवाले, बुद्धिका क्षय करने वाले, बालों को सफेद बनानेवाले, स्मरणशतिको बिगाड़नेवाले और गतिको हनन करनेवाले होते हैं। प्रायः सब पत्रशाकों में देहनाशक रोग होते हैं और खटाई में भी यही दोष है। इसलिये बुद्धिमानोंको शाक और खटाई कम खाना चाहिये । यह उपरोक्त दोष सामान्यरूपसे कह गये हैं परन्तु पत्र फल और कंदआदि शाकोंमें विशेष गुण भी पाये जाते हैं। इतने दोष प्रायः सब शाकोंमें नहीं होते, यह सामान्य वाक्य विशेष गुणों के बाधक नहीं हैं ॥ १-४॥ एतानि शाकनिंदकवचनानि सामान्यानि ।
पत्रशाकं वास्तुकद्वयम् । वास्तुकं वास्तुकं च स्यात्क्षारपत्रं च शाकराट् । तदेव तु बृहत्पत्रं रक्तं स्यागौडवास्तुकम् ॥५॥ प्रायशो यवमध्ये स्याद्यवशाकमतः स्मृतम् । वास्तूकद्वितयं स्वादु क्षारं पाके कटूदितम् ॥६॥ दीपनं पाचनं रुच्य लघु शुक्रबलप्रदम् । सरं प्लीहाऽस्रपित्ताशकृमिदोषत्रयापहम् ॥ ७॥
वास्तूक, वास्तुक, क्षारपत्र और शाकराट् यह बथुएके नाम हैं । लान रंगका बड़े पत्तोंवाला बाथू गौड़वास्तुक कहा जाता है। उसे अंग्रेजीमें white Goose foot अथवा purple goose foot कहते हैं।
बाथू-प्रायः यवोंके खेतके मध्यमें होता है। इसलिये इसको यषशाक भी कहते हैं। दोनों बाथू-स्वादु, खारे, पाकमें कटु, दीपन, पाचन, रुचिकारक, हल्के, वीर्य और बलको देनेवाले, सारक तथा तिल्ली, रक्तपित्त, पर्श, कृमि और त्रिदोषको हरनेवाले ॥५-७॥
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(२७०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
पोतकी। पोतक्युपोदिका सा तु मालवाऽमृतवल्लरी। पोतकी शीतला स्निग्धा श्लेष्मला वातपित्तनुत्॥८॥ अकंव्या पिच्छिला निद्राशुक्रदा रक्तपित्तजिव । बलदा रुचिकृत्पथ्या बृहणी तृप्तिकारिणी ॥ ९ ॥ पोतकी, उपोदिका, मालवा, अमृतवल्लरी यह पोईके शाकके नाम हैं। इसका अंग्रेजी में नाम Red malabar Niaht Ghods है।
पोई-शीतल, स्निग्ध, कफकारक, वात पित नाशक, स्वरको विगाड़नेवाली, पिच्छल, निद्राजनक, वीर्यवर्धक, रक्तपित्तनाशक, बलवर्धक, -रुचिकारक, पथ्य, बूंरण और तृप्तिकारक है ।। ८॥ ९ ॥
श्वेतरक्तमारिषः। मारिषो वाष्पिको मर्षः श्वेतो रक्तश्च स स्मृतः। मारिषो मधुरः शीतो विष्टंभी पित्तनुद्रुः ॥ १० ॥ वातश्लेष्मकरो रक्तपित्तनुद्विषमाग्निजित् । रक्तम! गुरुर्नाति स क्षारो मधुरः सरः ।। ११ ॥ श्लेष्मलः कटुकः पाके स्वल्पदोष उदीरितः । मारिष, वाष्पिक और मर्श यह मर्स के सागके नाम हैं। इसको शीलका साग भी कहते हैं। यह श्वेत और रक्त भेदसे दो प्रकारका होता है। मारिष शाक-मधुर, शीतल, विष्टभी, पित्तनाशक,भारी, वात कफकारक, रक्तपित्तनाशक, अग्निवैषम्यको दूर करनेवाला होता है । लाल रंगका माहिष-बहुत भारी नहीं है । खारा, मधुर, सर, कफकारक, पाक में कटु और अल्प दोषवाला कहा है॥ १० ॥ ११ ॥
तड्डलीयः। तंडुलीयो मेघनादः कांडेरस्तंडुलेरकः ॥ १२ ॥ भंडीरस्तंडुलीबीजो विषनश्वाल्पमारिषः। .
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । (२७१)
. तण्डुलीयो लघुः शीतोरूक्षः पित्तकफात्र जिव ॥ १३॥ सृष्टमूत्रमलो रुच्यो दीपनो विषहारकः । पानीयतंडुलीयो यस्तत्कंचटमुदाहृतम् ॥ १४ ॥ कचटं तितकं रक्तपित्तानिलहरं लघु ।
तंडुलीय, मेघनाद, कांडेर, तण्डुलेरक, मंडीद, तण्डुलीबीज, पल्पमारिष यह चौलाईके नाम हैं। इसका अंग्रेजी नाम Hermaphrodite Amaranth है। चौलाई-हल्की, शीतल, रूक्ष, पित्त, कफ और रक्त विकारको जीतनेवाली, मूत्र मलको निकालनेवाली, रुचिकारक, दीपन और विषहर है । पानीयतंडुल भौर कचट यह जल चौलाईके नाम हैं। कचट - तिक्त, हल्की तथा रक्तपित्त और वातको हरनेवाली है ॥ १२-१४ ॥ पालिक्या । पालिक्या वास्तुकाकारा छदिका चीरितच्छदा १५ पालिक्या वातला शीता श्लेष्मला भेदनी गुरुः । विष्टंभनी मदश्वासपित्तरक्तकफापहा ॥ १६ ॥
पालिक्या, वास्तुकाकारा, छदिका, चीरितच्छदा यह पाल कके नाम हैं । इसे अंग्रेजी में Spinase कहते हैं । पालक - शीतल, वात कफकारक, चिकने स्वभाववाली, भेदनी, भारी, विष्टम्भी तथा मद, श्वास, पित्त, रक्त-विकार और कफनाशक है ॥ १५ ॥ १६ ॥
कालशाकम् ।
नाडीकं कालशाकं च श्राद्धशाकं च कालकम् । कालशाकं सरं रुच्यं वातकृत्कफशोथहृत् ॥ १७ ॥ बल्यं रुचिकरं मेध्यं रक्तपित्तहरं हिमम् ।
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नाडीक, कालशाक, श्राद्धशाक और कालका यह नाडीके नाम नाडीक-सारक, रुचिकारक, वातकारक, कफ य कफ और सुजननाशक, बलकारक, रुचिकारक, मेध्य, रक्तपित्तनाशक और शीतल है ॥ १७ ॥
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(२७२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा.].।
पटुशाकः। पटुशाकस्तु नाडीको नाडीशाकश्च स स्मृतः ॥१८॥ नाडीको रक्तपित्तघ्नो विष्टंभी वातकोपनः। षटुशाक, नाडीक और नाडीशाक यह पटुशाकके नाम हैं। पटुशाकरक्तपित्तनाशक, विष्टम्भी और वातके कोपको करनेवाला है ॥ १८ ॥
कलंबी। कलंबी शतपर्वा च कथ्यते तद्णा अथ ॥ १९॥ कलंबी शुक्रदा प्रोक्ता मधुरा स्तन्यकारिणी। कलंबी, शतपर्वा यह कलमी शाकके नाम हैं । कलंबी-वीर्यवर्द्धक मधुर और स्तन्यकारक है ॥ १९ ॥
लोनी (णी ) बृहल्लोनी च। लोणा लोणी च कथिता बृहल्लोणीतुघोटिका॥२०॥ लोणी रूक्षा स्मृता गुर्वी वातश्लेष्महरी पटुः । अर्शोघ्नीदीपनीचाम्लामन्दाग्निविषनाशिनी ॥२१॥ घोटिकाम्ला सरा चोष्णा वातकृत्कफपित्तहत । वाग्दोषत्रणगुल्मघ्नी श्वासकासप्रमेहनुत् ॥ २२ ॥ शोथे लोचनरोगे च हिता तज्ज्ञैरुदाहृता । लोणा और लोणी यह नोनियेके तथा बृहल्लोणी और घोटिका यह बडे नोनियेके नाम हैं । नोनिया-रून, भारी, धातकफनाशक, खारी, अर्शन, दीपनी, अम्ल, मंदाग्नि तथा विषनाशक है । घोटिका-अम्ल, दस्तावर, उष्ण, वातकारक, कफपित्तनाशक तथा वाणि के दोष, गुरम, वा, श्वास, कास, प्रमेह, शोथ को मोर नेत्ररोगको दूर करनेवाली है ॥२०-२१ ॥
चांगेरी। चांगेरी चुकिका दंतशठांबष्ठाम्ललोणिका ॥२३॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२७३) अश्मंतकस्तु शफरी कुशलाचाम्लपत्रिका । चांगेरी दीपनी रुच्या रूक्षोष्णा कफवातनुत् ॥२४॥ पित्तलाम्ला ग्रहण्यशकुष्ठातीसारनाशिनी । चांगेरी, चुक्रिका, दंतशठा, अम्बष्ठा, अम्ललोणिका,पश्मंतक, शफरी, कुशला और अम्लपत्रिका यह चांगेरी के नाम हैं। हिन्दीमें खटमिट्री
और चांगेरी भी कहते हैं। अंग्रेजी में इसे Wood Sorrel कहते हैं। चांगेरीदीपनकर्ता, इचिकारक, रूक्ष, उष्ण, कफवातनाशक, खट्टी तथा ग्रहणी, बवासीर, कुष्ठ और अतिसारको नाश करती है ॥ २३ ॥ २४॥
चुका। चुक्रिका स्यातु पत्राम्ला रोचनी शतवेधनी ॥२५॥ चुका त्वम्लतरा स्वाद्री वातघ्नी कफपित्तकृत् । रुच्या लघुतरापाके बंताकेनातिरोचनी ॥२६॥ चुक्रिका, पत्राम्ला, रोचनी और शतवेधनी यह खट्टी चूक के नाम हैं। चूक-अत्यन्त खट्टी, मधुर, वातनाशक, कफपित्तकारक, रुचिकारक और लघुपाकी होती है । इसकी डंडियां विशेष रुचिकारक नहीं होतीं ॥ २५ ॥ २६ ॥
चिंचु । चिंचुश्चुचूचंचुकी च दीर्घपत्रा सतितका। चुञ्चूः शीता मरा रुच्या स्वाद्वी दोषत्रयापहा २७॥ धातुपुष्टकरी बल्या मेध्या पिच्छिलिका स्मृता। चिंचु, चुचु, चञ्चुकी, दीर्घात्रा, सतितका यह चंचुके नाम हैं। चंचुकी शाक-शीतल, बस्तावर, रुचिकारक, मधुर, त्रिदोषनाशक, धातुपुष्टकारी, पनवर्धक, बुद्धिवर्धक और पिच्छिल होता है ॥ २७॥
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
हिलमोचका ।
ब्रह्मी शंखदराचारी ब्राह्मी च हिलमोचिका ॥ २८ ॥ शोथं कुष्ठं कफ पित्तं हरते हिलमोचिका ।
(२७४)
ब्रह्मी, शंखदरा, आचारी, ब्राह्मी और हिलमोचिका यह हुलहुल के नाम हैं। हुलहु-शोथ, कुष्ठ, कफ और पित्तको हरनेवाली है ॥ २८ ॥
शितिवारः । शितिवारः शितिवरः स्वस्तिकः सुनिषण्णकः २९ ॥ श्री वीरकः सूचीपत्रः पर्णकः कुक्कुटः शिखी । चांगेरीदृशः पत्रैश्चतुर्दल इतीरितः ॥ ३० ॥ शाको जलान्विते देशे चतुष्पत्रीति चोच्यते । सुनिषण्णो हिमो ग्राहि मोहदोषत्रयापहा ॥ ३१ ॥ अविदाही लघुः स्वादुः कषायो रूक्षदीपनः । वृष्यो रुच्यो ज्वरश्वासमेहकुष्ठभ्रमप्रणुत ॥ ३२ ॥
शितिवार, शितिवर, स्वस्तिक, तुनिषण्याच, श्रीवीरक, सूचीपत्र, वर्णक, कुक्कुट और शिखी यह शितिवारके नाम हैं। इसके चांगेरीके समान चार पत्र होते हैं । इसको चौपतिया और शिरियारी भी कहते हैं। यह जनवाजे स्थान में होता
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सुषिक (चौरसिया) शीतळ, ग्रादी, मोह और विशेषको हरनेबाला, अविदाही, हलका, मधुर, कषाय, रूक्ष, दीपन, वृष्य, रुचिकारक तथा ज्वर, श्वास, प्रमेह, कुष्ठ और भ्रमको दूर करता है ।। २९-३२ ॥
मूलकम्
पांचनं लघुरुच्योष्णं पत्रं मूलकजं नवम् । स्नेहसिद्धं त्रिदोषघ्नमसिद्धं कफपित्तकृत् ॥ ३३ ॥ मूली के नरम पत्र - पाचन, हलके, रुचिकारी और उष्य होते हैं । यदि
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । (२७५)
इनको घृत या तेल में छौंक दिया जाय तो त्रिदोषनाशक होते हैं और विना पकाए कफपित्तकारक होते हैं ॥ ३३ ॥
द्रोणपुष्पी ।
द्रोणपुष्पीदलं स्वादु रूक्षं गुरु च पित्तकृत् । भेदनं कामलाशोथ मेहज्वरहरं कटु || ३४ ॥
द्रोणपुष्पी के पत्र -स्वादु, रुक्ष, गुरु, पित्तकारक, भेदन और कटु हैं तथा कामना, शोथ, प्रमेह और ज्वरको दूर करते हैं ॥ ३४ ॥
यवानी | यवानी शाकमाग्रेयं रुच्यं वातकफप्रणुत् । उष्णं कटु च तिकंच पित्तलं लघु शूलहृत् ॥३५॥
यवानीके पत्रोंका शारु-गर्म, रुचिकारक, वातकफनाशक, उष्ण, कटु, तिक्त, पित्तकारक, हलका और शूलनाशक है ॥ ३५ ॥
दद्रुघ्नम् ।
दद्रुघ्न पत्रं दोपप्रमम्लं वातकफापहम् | कण्डूकास मिशालकुष्ठप्रलघु ॥ ३६ ॥
ager (पत्रवाड ) के पत्र दोषघ्न, अमृत, वात-कफनाशक, हलके तथा खुजली, काल, कृमि, श्वास, दाद और कुष्ठको हरने वाले हैं ॥ ३६ ॥
तेहुडम् ।
सेहुण्डस्य दलं तीक्ष्णं दीपनं रेचनं हरेत् । आध्मानाष्ठीलिका गुल्म शूलशोथोदराणि च ॥ ३७ ॥
थोहरके पत्र - तीक्ष्ण, दीपन और रेचक अडोला, गुरु, शू, शोष चोर उ
होते हैं । एवम् आनान
कते हैं । ३७४
को दूर क
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(२७६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
पर्पटम् । पर्पटो इंति पित्तास्रज्वरतृष्णाकफभ्रमान् । संग्राही शीतलस्तितो दाहनुद्वातलो लघुः ॥ ३८ ॥ पापडा-पित्त, रक्त, ज्वर, प्यास, कफ, भ्रम और दाहको नाश करता है। तथा ग्राही, शीतल, तिक्त, वातकारक और हलका है ॥३८ ।
__गोजिह्वा । गोजिह्वा कुष्ठमेहास्रकृच्छ्रज्वरहरी लघुः । गोजियाके पत्र कुष्ठ, मेह, रक्त, कृर और ज्वरको जीतते हैं तथा
पटोलम् । पटोलपत्रं पित्तघ्नं दीपनं पाचनं लघु ॥ ३९ ॥ स्निग्धं वृष्यं तथोष्णं च ज्वरकासकृमिप्रणुत। पटोलपत्र-पित्तघ्न, दीपन, पाचन, हलके, स्निग्ध, चाय और उष्ण होते है तथा ज्वर, कास और कृमियोंको दूर करते हैं ॥ ३९ ॥
गुडूची। गुडूचीपत्रमाग्नेयं सर्वज्वरहरं लघु ॥ ४० ॥ कषायं कटु तिक्तं च स्वादु पाके रसायनम् । बल्यमुष्णं च संग्राहि हन्यादोषत्रयं तृषाम् ॥४१॥
दाहप्रमेहवातामुकामलाकुष्ठपांडुताः। - गिलोयके पत्र-अग्निवर्धक, सर्व ज्वरनाशक, हलके, कषाय, कटु, तिक, पारमें स्वाद, रसायन, बलकारक, उष्ण, संग्राही, त्रिदोषनाशक तथा प्यास, दाह, प्रमेह, वातरक्त, कामला, कुछ और पांडुरोगकोर करते हैं. . .
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२७७)
कासमर्दम् । कासमर्दोऽरिमर्दश्च कासारिः कर्कशस्तथा ॥ १२ ॥ कासमर्ददलं रुच्यं वृष्यं कासविषास्रनुत् । मधुरं कफवातघ्नं पाचनं कंठशोधनम् ॥ १३ ॥ विशेषतः कासहरं पित्तघ्नं ग्राहकं लघु । कालमर्द, परिमर्द, कासारि, कश यह कसौंदी के नाम हैं। कलौंदीके पत्र रुचिकारक, वृष्य, कालन, विषनाशक, रक्तजित, मधुर, ककवातनाशक, पाचन, कण्ठशोधक, पित्तनाशक, ग्राही, हल्के पौर विशेष -तासें खांसीको दूर करते हैं ॥ ४२ ॥ ४३ ॥
चणकम् । रुच्यं चणकशाकं स्यादुर्जरं कफवातकृत् ॥ १४ ॥ अम्लं विष्टंभजनकं पित्तनुदंतशोथहृत् । चनेके पत्रोंका साग रुचिकारक, दुर्जर, कफवातबईक, यमन, विष्टअकारी, पित्तनाशक और दांतों की सूजनको हरनेवाला है। ४४ ॥
कलायः। कलायशाकं भेदि स्याल्लघुतितत्रिदोषजित् ॥ ४५ ॥ कलायशाक-भेदी, हल्का, तिक्त और त्रिदोषनाशक होता है ॥ ४५ ॥
सार्षपम् । कटुकं सार्षपं शाकं बहुमूत्रमलं गुरु । अम्लपाकं विदाहि स्यादुष्णं रूझ त्रिदोषकृत॥४६॥ सक्षारं लवणं तीक्ष्ण स्वादु शाकेषु निंदितम् । सरसों का साग-कड, मलमूत्रवर्धक, भारी, अम्लपाकी, विदाही, उष्ण, कक्ष, त्रिदोषकारक, क्षारयुक्त, लवणानुरस तीक्ष्ण पौर सादु होता है। सरसोंका शाक साशाकोंमें निन्दित है ॥ ४६ ॥
इति पत्रशाशनि yanam
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(२७८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
पुष्पशाकम् अगस्तिकम् । अगस्तिकुमुमं शीतं चातुर्थिकनिवारणम् ॥४७॥ नक्तांध्यनाशनं तिक्तं कषायं कटुपाकि च । पीनसश्लेष्मपित्तघ्नं वातघ्नं मुनिभिर्मतम् ॥ १८॥ अगस्त्यके फूल-शीतल, चातुर्थिक वरनाशक, नक्ताध्यके दूर करनेवाले, तिक्त, कषाय, कटुपाकी तथा पीनल, कफ पित्त पौर वातको हरनेवाले हैं । ४७॥ १८ ॥
कदली। कदल्याः कुसुमं स्निग्धं मधुरं तुवरं गुरु । वातपित्तहरं शीतं रक्तपित्तक्षयप्रणुत् ॥ ४९॥ कदलीके फूल-स्निग्ध, मधुर, कसैले, भारी, वातपित्तनाशक, शीतन रक्त, पित्त और क्षयको दूर करनेवाले होते हैं ।। ४९ ॥
· शिशु। · शिग्रुपुष्पं तु कटुकंतीक्ष्णोष्णं स्नायुशोथकृत् ।
कृमिहत्कफवातघ्नं विद्रधिप्लीहगुल्मजित ॥५०॥ मधुशियोस्त्वक्षिहितं रक्तपित्तप्रसादनम् । लोहांजनेके फूल- कटु, तीक्ष्ण, उग्णा, नाडियोंमें शोथकारक, कृमिनाशक, कफवातनाशक तथा विद्रधि, प्लीहा और गुल्मको नाश करते हैं। मीठा सोहांजना नेत्रोंके लिये हितकारी, रक्त और पिनको प्रसन्न करने वाला है ॥५०॥
शाल्मली। शाल्मलीपुष्पशाकं तु घृतसैंधवसाधितम् ॥५१॥ प्रदरं नाशयत्येव दुःसाध्यं च न संशयः ।
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हरातक्यादानघण्टुः भा. टा.। (५५) रसे पाके च मधुरं कषायं शीतलं गुरु ॥ १२ ॥ कफपित्तास्त्रजिद् ग्राहि वातलं च प्रकीर्तितम् । सेंबलके फूलोंका शाक घी और सेंधेनमकसे सिद्ध किया जाने पर स्त्रियोंके दुःसाध्य प्रदरको भी नाश करता है। सेंबनके फूल-रस पौर पाकमें मधुर, कषाय, शीतल, भारी, ग्राही, वातकारक और कफ, पित्त तथा रक्तको जीतनेवाले हैं ॥ ५१ ॥ ५२ ॥
फलशाकं कूष्मांडम् । कूष्मांडं स्यात्पुष्पफलं पीतपुष्पं बृहत्फलम् ॥५३॥ कूष्मांडं बृहणं वृष्यं गुरु पित्तास्रवारनुत ।। बालं पित्तापहं शी मध्यमं कफकारकम् ॥ ५४॥ वृद्धं नातिहिमं स्वादु सक्षारं दीपनं लघु । वस्तिशुद्धिकरं चेतोरोगहृत्सर्वदोषजित् ॥५५॥ कूष्माण्ड, पुष्पफल, पीतपुष्प और बृहत्फल यह कुम्भडेके नाम हैं। इसे अंग्रेजी में Pumpkin कहते हैं।
पेठा-शरीरको पुष्ट करने वाला, वीर्यवर्द्धक, भारी, पित्त, रक्त और वयुको जीतने वाला होता है । कच्चा पेठा-पित्तनाशक और शीतल होता है। मनासाका पेठा-कफकारक होता है । पका हुया पेठा-अत्यन्तशीतल नहीं होता, मधुर, क्षारयुक्त, दीपन, हल्का, बस्तिको शुद्ध करनेवाला, मनके रोगोंको हरनेवाला और सब दोषों को जीतनेवाला होता
कूष्मांडी। कूष्मांडी तु भृशं लम्धी कारुरपि कीर्तिता। कारुहिणी शीता रक्तपित्तहरी गुरुः ॥५६॥ पक्का तिक्तानिजननी सक्षारा कफवातनुत् । कूष्माण्डी (कद्दू) और कलि ये को जाम हैं। इसको काशी
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( २८० )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. 1
फल भी कहते हैं । यह कक्षा - अत्यन्त हल्का, ग्राही, शीतल, रक्तपित्तनाशक मौर भारी होता है। पका हुआ कद्दू-तिक्त, अग्निवर्द्धक, क्षार और कफवात को हरनेवाला होता है ॥ ५६ ॥
मिष्टतुम्बी |
अलाबुः कथिता तुंबी द्विधा दीर्घा च वर्तुला५७ ॥ मिष्टतुंबीफलं हृद्यं पित्तश्लेष्मापहं गुरु । वृष्यं रुचिकरं प्रोक्तं धातुपुष्टिविवर्द्धनम् ।
मीठा बा दो प्रकारका होता है । १ गोल और दूसरा लंबा । गोलको तुवा, लंबेको घिया कहते हैं। मीठे तुंबे का फन हृदयको हितकरी, पित्तकफनाशक, भारी, वीर्यवर्द्धक रुचिकारक और धातुओंको पुष्ट करनेवाला होता है । इसे अंग्रेजीमें White Gourd कहते हैं ॥ ५७ ॥ ५८ ॥
कटुतुंची । इक्ष्वाकुः कटुत्री स्यात्सा तुंबी च बृहत्फला | कटुतुंबी हिमाद्या पित्तकासविषापहा ॥ ५९ ॥ तिक्ता कटुर्विपाके च वातपित्तज्वरांतकृत् ।
इक्ष्वाकु, कटुबी, तुंरी बृहत्फला यह कड़वी तुंबी के नाम हैं। कड़वी तुंबी - शीतल, ध, पित्त, कास और विषको हरनेवाली, तिक्त, कटुपाकी, वात, पित्त और उसके नाथ करनेवाली होती है । इसे अंग्रेजी में Bottle Gourd करते हैं ।। ५९ ।।
कर्कटी |
एवरुः कर्कटी प्रोक्ता कथ्यते तद्गुणा अथ ॥ ६०॥ कर्कटी शीतला रूक्षा प्राहिणी मधुरा गुरुः । रुच्या पित्तहरा सामा पक्का तृष्णाग्रिपित्तकृत् ॥ ६१ ॥
afe, कर्कटी यह ककड़ो के नाम हैं। यह शीतल, रूक्ष, ग्राही, मधुर, भारी, रुचिकारक, पित्तनाशक होती यह कच्ची काकड़ोके गुण हैं। पकी
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। . (२८१) ककड़ी प्यास अग्नि और पित्तको बढ़ाती है । इसे अंग्रेजीमें Cucumber कहते हैं ॥ ६० ॥ ६१ ॥
चिचिंडा। चिंचिडा श्वेतराजिः स्यात्सुदीर्घा गृहकूलकः । चिचिंडो वातपित्तनो बल्यः पथ्यो रुचिप्रदः ६२॥
शोषिणोऽतिहितः किंचिद्गुणन्यूनः पटोलतः । चिचिण्डा, श्वेतराजि, सुदीघी और गृहकूलक यह चचिण्डेके. नाम हैं। चचिण्डा-गात-पित्तनाशक, बलकारक, पथ्य, रुचिकारक, थोषके लिये अत्यन्त हितकारी, पटोलसे गुणों में किंचित न्यून होता
कारखेलम् । कारवेल्लं कठिल्लं स्यात्कारवेल्ली ततोलघुः ॥६॥ कारवेल्लं हिमं भेदि लघु तिक्तामवातलम् । ज्वरपित्तकफास्रघ्नं पांडुमेहकृमीन् हरेत् ॥ ६४ ।। तद्गुणा कारवेल्ली स्याद्विशेषाद्दीपनी लघुः । कारवेल्ल, कठिल्ल यह बड़े करेले के नाम हैं। छोटे करेलेको कारवेल्ली कहते हैं। इसे अंग्रेजी में Hairy mordica कहते हैं। कोला-शीतन, भेदी, हल्का, तिक्त, आमवातकारक, ज्वर, कफ, रक्तविकार, पाण्डु, प्रमेह और कृमिको दूर करने वाला होता है। करेली में भी यही गुण हैं। दिशेष कर अग्निको दीपन करती है और हल की
महाकोशात की। महाकोशातकी ज्योत्स्नाहस्तिघोषा महाफला॥६५॥ धामार्गवो घोषकश्च इस्तिपर्णश्च स स्मृतः । महाकोशातकी स्निग्धा रक्तापत्तानिलापहा ॥६६॥ महाकोशातकी, ज्योत्स्ना, हस्तियोषा महाफला, धामार्गव, घोषक
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(२८२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । और हस्तिपर्ण यह बडी तोरीके नाम हैं। बडी तोरी-स्निग्ध, रक्तपिन, पौर वायुको बर करती है। इसको रामतोरी भी कहते
राजकोशातकी। धामार्गवः पीतपुष्पो जालनी कृतवेधनः। . . राजकोशातकी चेति तथोक्ता राजिमत्फला ॥६॥
राजकोशातकी शीता मधुरा कफवातला । पित्तघ्नी दीपनी श्वासज्वरकालकृमिप्रणुत् ॥६८ ॥ धामार्गध, पीतपुष्प, जालनी, कृतवेधन, राजकोशातकी और राजिमत्फला या धारीदार कालीतोरोके नाम हैं । राजतुरईको अंग्रेजीमें Bitter Luffa कहते हैं। यह शीतल, मधुर, कफ-वातकारक, पिननाशक, दीपनी एवं श्वाल, घर, काल और कृमियोंका नाश करती है ॥ ६७ ॥ ६८ ॥
पटोलः। पटोलः कूलकस्तितः पांडुकः कर्कशच्छदः । राजीफलः पांडुफलो राजेयश्चामृताफलः ॥ ६९ ॥ बीजगर्भः प्रतीकश्च कुष्ठहा कासमंजनः । पटोलं पाचनं हृद्यं वृष्यं लध्वग्निदीपनम् ॥ ७० ॥ स्निग्धोष्णं हंति कासास्रज्वरदोषत्रयक्रिमीन् । पटोलस्य भवेन्मूलं विरेचनकरं सुखात् ।। ७१ ॥ नालं श्लेष्महरं पत्रं पित्तहारि फलं पुनः । दोषत्रयहरं प्रोक्तं तद्वतिक्तपटोलकम् ॥ ७२ ॥ पटोल, क्लक, हित, पाण्डुक, कर्कशच्छद, राजीफल, पाण्डुफन राजेय, अमृतफल, बीजगर्भ, प्रतीक, कुष्ठहा और कासमंजन यह पटो. लके नाम हैं । पटोल, (पोन),पाचन, हदयको हितकारी, वृष्य हल्का,
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( २८३) दीपन, स्निग्ध, उष्णा, कासहर तथा रक्तविकार, ज्वर, त्रिदोष पर कृमियों को दूर करता है। पटोलकी बेलकी जड सुखपूर्वक विरेचन करनेवाली है। नाल कफनाशक है, पत्र पित्तको दूर करनेवाले हैं और फल त्रिदोषनाशक हैं। इसीके समान कड़वे पटोल के भी गुण हैं । ६९-७२ ।। बिंबी | बिंबी रक्तफला तुंडी तुंडिकेरी च बिंबिका | ओष्ठोपमफला प्रोक्ता पीलुपर्णी च कथ्यते ॥ ७३ ॥ बिंबीफलं स्वादु शीतं गुरु पित्तास्रवातजित् । स्तंभनं लेखनं रुच्यं विबंधाध्मानकारकम् ॥ ७४ ॥
विंबी, रक्तफला, तुण्डी, तुण्डिकेरी, बिम्बिका, पोष्टोमफडा, पीलुप यह कंदूरी के नाम हैं। कंदूरी-स्वादु, शीत, भारी, पित्त, रक्त और वातविकारको जीतनेवाली है । एवं स्तंभन, लेखन, रुचिकारक पौर विबंध तथा आध्मान को करनेवाली है ॥ ७३ ॥ ७४ ॥
शिंबीद्वयम् ।
शिंबी शिविः पुस्तशिबी तथा पुस्तकशिबिका | शिबीद्वयं च मधुरे रसे पाके हिमं गुरु ।। ७५ । बल्यं दाइकरं प्रोक्तं श्लेष्मलं वातपित्तजित् । कोलशिबी कृष्णफला तथा पय्यैकपादिका ॥ ७६ ॥ कोलशिबी समीरनी गुर्व्युष्णा कफपित्तकृत् । शुकाग्रिसादकृवृष्या रुचिकृद्भद्धविड् गुरुः ॥ ७७ ॥
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शिंबी, शिबि, पुस्तशिबी और पुस्तकशिबिका यह दोनों प्रकारकी सेमफलियों के नाम हैं। दोनों प्रकारकी सेमफली-रस और पाक में मधुर, शीतल, भारी, बलकारक, दाह करनेवाली, कफवर्द्धक और वात पित्तके जीतनेवाली हैं ।
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(२८४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
कालेरंगकी सेमफलीको कोलशिंबी, कृष्णफना और पर्यंकपादिका भी कहते हैं। कोलशिंबी-वातनाशक, भारी, उण, कफ-पित्तकारक, वीर्यपद्धक, मंदाग्निकारक, वृष्य, रुचिकारक, विंबधकारक और भारी होती है ॥ ७५-७७ ॥
सौभांजनम् । सौभाजनफलं स्वादु कषाय कफपित्तनुत्। . शुलकुष्ठक्षयश्वासगुल्महृदीपनं परम् ॥ ७८ ॥ सोहोजनेकी फलियाँ स्वादु, कषाय, कफ-पित्तनाशक, अत्यन्त दीपन एवं शूल, कष्ठ, क्षय, शाल और गुल्मको हरनेवानी हैं ॥ ७८ ॥
वृताकम् । बंताकं स्त्री तु वार्ताकुभेटाकी भंट कापि च । वृंताकं स्वादु तीक्ष्णोष्णं कटुपाकमपित्तलम् ॥७९॥ ज्वरवातबलासघ्नं दीपनं शुकलं लघु। तद्वालं कफपितन वृद्धं पित्तकरं लघु ॥ ८॥ वृताकं पित्तलं किंचिदंगारपरिपाचितम् । कफमेदोऽनिलामघ्नमत्यर्थ लघु दीपनम् ।। ८१॥ तदेव हि गुरु स्निग्धं सतैललवणान्वितम् । अपरं श्वेतवृंताकं कुक्कुटांडसमं भवेत् ॥ ८२॥ तदर्शस्सु विशेषेण हितं हीन च पूर्वतः । घृताक, वातक, स्त्रीलिङ्गमें भण्टाकी, भण्टाका यह बैंगनके नाम हैं। इसको बैंगन, बताऊं और भण्टा भी कहते हैं। इसे अंग्रेजी में Brinjal कहते हैं। बैंगन-स्वादु, तीक्ष्ण, उष्ण, कटुसाकी, पित्तको न बढानेवाले ज्वरनाशक, वात-कफनाशक, दीपन,वीर्यवर्द्धक और हल्के होते हैं बैंगनके बानफल कफ-पित्त-नाशक होते है और पके हुए पित्तकारक तथा हल्के होते हैं। अंगारोंमें भुनेहुए बैंगनका फत्त कफ,मेद, वायु और आमको
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२८५) हरनेवाला होता है तथा हल्का पौर दीपन होता है। वही यदि नवण पौर तैल करके युक्त कर लिया जाय तो स्निग्ध और भारी हो जाता है। एक दूसरे सफेद बैंगन होते हैं जो देखने में मुर्गीके अण्डे के समान होते हैं, वह बवासीरमें विशेष हितकर होते हैं। अन्य गुणों में पहले बैंगनसे हीन गुण होते हैं । ७९-८२ ॥
सिडिशः। तिंडिशो रोमशफलो मुनिनिर्मित इत्यपि ॥ ८३ ॥ तिडिशोरुचिकृद्भेदी पित्तश्लेष्मापहः स्मृतः। सशीतो वातलो रूक्षो मूत्रलश्चाश्मरीहरः ।। ८४॥ विण्डिश, रोमशफल, पौर मुनिनिर्मित यह टिंडसोके नाम हैं। टिडंसरुचिकारक, भेदी, पित्तकफनाशक, शीतल, वातकारक, रूक्ष, मूत्रको छानेवाले और पथरीको दूर करते हैं। ८३ ॥ ८४ ॥
पिंडारम् । पिंडारं शीतलं बल्यं पित्तघ्नं रुचिकारकम् । पाके लघु विशेषेण विषशांतिकरं स्मृतम् ।। ८५॥ पिंडार-शीतल, बलकारक, पित्तनाशक, रुचिकारक, पाकमें इसका, विशेष कर विषविकारकी शांति करता है । ८५ ॥
कर्कोटकी। कर्कोटकी पीतपुष्पा महाजालीति चोच्यते । कर्कोटक्याः फलं कुष्ठहल्लासारुचिनाशनम् ॥८६॥
खासकासज्वरान् हंति कटुपाकं च दीपनम् । कर्कोटकी, पीतपुष्पा, महाजानी यह ककोड़ेके नाम हैं। ककोड़े के फन कुष्ठ, हल्लास, अरुचि, श्वास, कास पौर जारोको दूर करते हैं तथा कटुपाकी, और दीपन ॥ ८६. Aho ! Shrutgyanam
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( २८६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
डोंडिका। डोंडिका विषमुष्टिश्च डोंडीत्यपि:सुमुष्टिका ॥८७॥ डोंडिका पुष्टिदा वृष्या रुच्या वह्निप्रदा लघुः। वातपित्तकफाशीसिकृमिगुल्मविषाम यान् ॥ ८८ ॥ डोंडिका, विषमुष्टि, डोंडी और सुमुष्टिका यह डोंडीके फलों के नाम हैं। डोंडी-पुष्टिकारक, वृष्य, रुचिकारक, अग्निवर्द्धक और हल्के हैं। एवं वात, पित्त, कफ, अर्श, कृमि, गुल्म और विष के विकारोंको दूर करते हैं। ८७ ॥ ८८ ॥
कंटकारी। कंटकारीफलं तिक्तं कटुकं दीपनं लघु । रूक्षोष्णं श्वासका सध्नं घरानिलकफापहम् ॥८९॥ कंटकारीके फल-तिक्त, कटु, दीपन, हलके, रूक्ष, उष्ण, श्वासकालनाशक तथा ज्वर, हात और कफ को हरने वाले है ॥ ८९ ॥
नालशाकम् । तीक्ष्णोष्णं वार्षपं नालं वातश्लेष्मवणापहम् । कंडूमिहदद्रुष्टनं रुचिकारकम् ॥ ९ ॥ सरसोंकी गंद का शाक-वात कफ नाशक, व्रणों को दूर करनेवाला, खाज, यमन, दछु, और कुष्टको हरनेवाला तथा रुचिकारक है ॥ ९० ॥
मूल कम् । भवेन्मूलकनालं तु विष्टंभि कफकारकम् ।
वातपित्तहरं रुच्यं सुशुष्कं तद्भणाधिकम् ॥९१॥ मूलीकी गंदल-विष्टम्भी, कफकारक, वातपित्तनाशक और रुचिकारक होती है । सूखी हुई गंदलें अधिक तुम करने वाली हैं। ९१ ॥ . . . .
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (२८७)
कंदशाकम् । सूरणम् । सूरणः कंद औलश्च कण्डूलोर्शोघ्न इत्यपि । सूरणो दीपनो रूक्षः कषायः कण्डुकृत्कटुः ॥ ९२ ॥ विष्टंभी विशदो रुच्यः कफाशकृन्तनो लघुः । विशेषादर्शसां पथ्यः प्लीहगुल्मविनाशनः ॥ ९३॥ सर्वेषां कन्दशाकानां सूरणः श्रेष्ठ उच्यते । दद्रूणां रक्तपित्तानां कुष्टिनां न हितो हि सः ॥१४॥ संधानयोगं संप्रातः मुरणो गुणकृत्परः । सूरण, कन्द, प्रौल, कन्डूल, अर्शोघ्न यह जिमिकंदके नाम हैं। सुरणकन्ददीपन, रूक्ष, कषाय, खाजकारक , कटु, विष्टम्भी, विशद, रुचिकारक, कफ और अर्शनाशक और हल्का होता है । जिमिकन्द-बबासीरमें विशेषरूपसे पथ्य है । जीहा और गुलमको लाश करता है । और सब कन्द-शाकोंमें श्रेष्ट माना जाता है । परन्तु दद्रु रोगवालेको, रक्तपित्तवाले और कुष्ठियोंको यह बानिकारक होता है। सूरणकन्दकी काजी विशेष गुणकारी होती है॥९३-९४ ॥
अलुकम् । आरुकं वीरसेनं च वीरं वीरारुकं तथा ॥ ९५॥ आलुकं शीतलं सर्व विष्टभि मधुरं गुरु । सृष्टमूत्रमलं रूक्षं दुर्जरं रक्तपित्तनुत् ॥ ९६ ॥ कफानिलकरं बल्यं वृष्यं स्वल्पाग्निवर्धनम् । पारुक, वीरसेन, पीर, वीरारुक और आलुक यह आलुओंके नाम हैं। सब प्रकारके पालु-शीतष्ठ, विष्टम्भी, मधुर, भारी, मूवमलको बढानेवाले, रूक्ष, दुर्जर, रक्तपित्तनाशक, कफवातकारक, बलवीर्यवर्धक
और किचित पग्निको बढानेवाले हैं। इन्हें अंग्रजीमें Sweet Potatoe । कहते हैं ॥ ९५॥ ९६ .. .Aho i.Shrutgyanam
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( २८८ ) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी . ।
रक्तालुभेदः । रक्तालुभेदो या दीर्घा तन्वी च प्रथितालुकी ॥९७॥ आलुकी बलकुत्स्निग्धा गुर्वी हृत्कफनाशिनी । विष्टभकारिणी तैले तालतोऽतिरुचिप्रदा ॥ ९८ ॥
लम्बे भाकारका रक्तवर्ण कन्द रक्काल होता है । रक्तालू, दीर्घा, बालुकी, तम्बी यह रतादके नाम हैं। रतालू - बलकारक, स्निग्ध, भारी, हृदयके कफको दूर करनेवाला, और विष्टम्भकारी होता है। यदि इसको तेल में तलकर बनाया जाय तो अत्यन्त रुचिकारक होता है ।। ९७ । ९८ ॥
मूलकम् ।
मूलकं द्विविधं प्रोक्तं तत्रैकं लघुमूलकम् । शालामर्कटकं विस्रशालेयं मरुसंभवम् ॥ ९९ ॥ चाणक्यमूलकं तीक्ष्णं तथा मूलिकपोतिका नेपालमूलकं चान्यत्तद्भवेद्गजदंतवत् ॥ १०० ॥ लघुमूलं कटूष्णं स्याद्रुच्यं लघु च पाचनम् । दोषत्रयहरं स्वर्य्यं ज्वरश्वास विनाशनम् ॥ १०१ ॥ नासिका कण्ठरोगघ्नं नयनामयनाशनम् । महत्तदेव रूक्षोष्णं गुरुदोषत्रयप्रदम् ॥ १०२ ॥ स्नेहसिद्धं तदेव स्यादोषत्रयविनाशनम् ।
मूलक दो प्रकार की होती है। उनमें छोटी मूलीको शालामर्कट, बिनथालेप, मरुसंभव, चाणक्यमूलक, मूली और कपोतिका कहते हैं। जो हाथीदांत के समान बड़ी मुली हो उसको नेपाळमूलक कहते हैं। अंग्रेजीमें इसे Radish करते हैं। दोनों प्रकारकी मूलियां कच्ची अवस्थामें कटु, उष्ण, रुचिकारक, हलकी, पाचन, त्रिदोषनाशक, स्वरकारक, ज्वरनाशक, पर्वश्वास,
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । (२८९) नासिका रोग, कण्ठके रोग और नेत्ररोगोंको दूर करती है। पक जानेपर बडी मुली-क्ष, उष्ण, भारी और त्रिदोषकारक हो जाती है। घृत तैल में सिद्ध किया हुवा कच्ची मुलीका शाक त्रिदोषनाशक होता है ॥ ९९-१०२॥
गाजरम् । गाजरं गर्जरी प्रोक्ता तथा नारंगवर्णकम् ॥ १०३ ॥ गाजरं मधुरं तीक्ष्णं तितोष्णं दीपनं लघु । संग्राहि रक्तपित्ताभॊग्रहणींकफवातजित् ॥ १०४ ॥ गाजर, गर्जरी और नारंगवर्णक यह गाजरके नाम हैं। गाजर-मधुर, तीक्ष्ण, तिक्त, उष्ण, दीपन, हल्की, संग्राही एवं रक्तपित्त, अर्श, ग्रहणी, कफ, और वायुको जीतती है। अंग्रेजीमें इसे Carrat और फारसीमें जर्दक कहते हैं ॥ १०३ ॥ १०४ ॥
कदली। शीतलः कदलीकंदो बल्यः केश्योऽम्लपित्तजित् । वतिकृदाहहारी च मधुरो रुचिकारकः ॥ १०५ ॥ केलेका कन्द-वनकारक, केशवर्द्धक, अम्लपित्तनाशक, जठराग्निको चैतन्य करनेवाला, दाहनाशक, मधुर, मौर रुचिकारक होता है ॥१०५॥
मानकः। मानका स्यान्महापत्रः कथ्यते तद्गुणा अथ । मानकः शोथहच्छीतः पित्तरक्तहरो लघुः ।। १०६॥ मानकन्दको महापत्र भी कहते हैं। मानकन्द शोथनाशक, शीतल, रक्तपित्तनाशक और हल्का होता है ॥ १०६ ॥
. वाराही। वाराही पित्तला बल्या कटुतिक्ता रसायना ।
आयुःशुक्रानिकृन्मेहकफकुष्ठानिलापहा ॥ १०७ ॥ वाराहीकन्द-पत्तकारक, बलवर्धक कटु, तिक्त, रसायन, आयु. बंधक, वीर्यवर्द्धक, अग्निकारक पवं प्रमेह, कुष्ठ और वायुकोहरनेवाला
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( १९०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
इस्तिकीं। गजकर्णी तु तितोष्णा तथा वातकफी जयेत् । . शीतज्वरहरी स्वादुः पाके तस्यास्तु कंदकः॥१०८॥ पांडुशोथकृमिप्लीहगुल्मानाहोदरापहा । ग्रहण्यर्चाविकारघ्नो घनसुरणकंदवत् ॥ १०९॥ गजकर्णी हस्तिकर्णकन्दको करते हैं । हस्तिकर्ण-तिक्त, उष्ण, वातकफनाशक, शीतज्वरनाशक, पाकमें मधुर तथा पाण्डु, शोध, कृमि, प्लीहा, गुल्म, अफारा, उमररोग, ग्रहणी और बवासीरको दूर करता है। इसका कन्द वनसूरण कंदके समान होता है। शिमलेके पहाडमें इसको गणौरा कहते हैं ॥ १०८ ॥ १०९ ॥
कंबुकम् । केंचुकं कटुकं पाके तिक्तं ग्राहि हिमं लघु । दीपनं पाचनं हृद्यं कफपित्तज्वरापहम् ॥ ११०॥
कुष्ठकासप्रमेहास्रनाशनं वातलं कटु । केंबुक, केमुक यह केउवा कन्दके नाम हैं । केउवा कन्द कटुपाकी तिक्त, ग्राही, शीतल, हल्का, दीपन, पाचन, हृद्य, वातकारक, कटु, एवं कफ, पित्त, ज्वर, कुष्ठ, कास, प्रमेह और रक्तविकार को दूर करता है।। ११० ॥
कसेरुकम् । कसेरु द्विविधं तत्तु महद्राजकसेरुकम् ॥ १११ ॥ मुस्ताकृति लघुः स्याद्या तच्चिचोडमिति स्मृतम् । कसेरुकद्धय शीतं मधुरं तुवरं गुरु ॥ ११२॥ पित्तशोणितदाहघ्नं नयनामयनाशनम् ।
ग्राहि शुक्रानिलश्लेष्मरुचिस्तन्धकरं स्मृतम्॥११३॥ कसेरू दो प्रकारके होते हैं एक बडे जिनको कसेरू कहते हैं। दूसरे नागरमोथेके समान छोटे होते हैं उनको चिचोड कहते हैं। दोनों कसेरू
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३९१) शीतल, मधुर, कसैले, भारी, एवं पिन, रक्त, दाह और नेबरोगोंको दूर करते हैं। तथा ग्राही, शुक्रवक, वातकफकारक रुचिकारक और स्तनों में दूधको बढ़ाते हैं ॥ १११-११३ ॥
शालूकम् ।
पद्मादिकंदः शालूकं करहाटश्च कथ्यते । मृणालमूलं भिस्साडं लाजलूकं च कथ्यते ॥११४॥ शालूकं शीतलं वृष्यं पित्तास्त्रदाहनुद्गुरु । दुर्जरं स्वादुपाकं च स्तन्यानिलकफप्रदम् ॥११५॥ संग्राहि मधुरं रूक्षं मिस्साडमपि तद्गुणम् । कमलकी सब जातियों के कन्दको शालूक और करहाट कहते हैं। कमलकी इंडीके मूलको भिस्लाद और लाज लूक कहते हैं। इनको हिंदीमें भिसे कहते हैं। शालूक-शीतल, वृष्य, रक्तपित्तनाशक, दाहनाशक, भारी, दुर्जर, स्वादुपाकी, स्तन्यबर्द्धक, वातकफकारक, संग्राही, मधुर और कक्ष होता है । भित्तों के भी यही गुण हैं ।। ११४ ॥ ११५ ।।
वर्जनीयम् । बलं ह्यनात जीर्ण व्याधितं कृमिभक्षितम्।।११६॥ कंदं विवर्जयेत्सर्वं यद्वाग्न्यादिविदूषितम् ।। अतिजीर्णमकालोत्थं सूक्षसिद्धमदेशजम् ॥ ११७॥ कर्कशं कोमलं चातिशीतं व्यालादिदूषितम् । संशुष्कं सकलं शाकं नाश्रीयान्मूलकं विना ११८॥ बहुत कच्चे कन्द, विना ऋतु उत्पत्र हुए, पुराने, रोगयुक्त, कृमे. यों से भक्षिा, जो वायु या अग्निजे दूषित हो, ऐसे कद नहीं खाने
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(२९९) . भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । .' अत्यन्त पुराने, विना समयके पैदा हुए, रूस, बुरे स्थानमें पैदा हुए, कर्कश, अत्यन्तशीत, व्यालादिसे दूषित और सम्पूर्ण सूखे शाक त्याग देने योग्य होते हैं। किन्तु केवल मूल का शाक सूखा त्यागने योग्य नहीं होता ॥ ११६--११८॥
संस्वेदजम् । उक्तं संस्वेदजं शाकं भूमिच्छवं शिलींद्रजम् । क्षितिगोमयकाष्ठेषु वृक्षादिषु च तद्भवेत् ॥ ११९॥ सर्व संस्वेदजाः शीता दोषलाः पिच्छिलाश्च ते । गुरवश्छर्यतीसारज्वरश्लेष्मामयप्रदाः ॥ १२० ॥ श्वेताः श्वभ्रस्थलीकाष्ठवंशगोत्रजसंभवाः । नातिदोषकरास्ते स्युः शेषास्तेभ्योविगर्हिताः१२१॥
संस्वेदजाः छाता इति लोके ।
इति शाकवर्गः । संस्वेदज, भूमिपछत्र, शिनीन्द्रज यह संस्वेदज शाकके नाम हैं संस्वेदज शाक वर्षाऋतुमें गोबरे, पुरानी लकड़ियां, पृथ्वी और वृक्षादिकोपर उत्पन्न होते हैं। यह शाक पंजाब में खुम्भ और गुच्छिये आदि नामोंसे प्रसिद्ध हैं। इसे अंग्रेजी में Mushroom कहते हैं। सब संस्वेदज शाक शीक्ल, दोपयर्द्धक, पिच्छल और भारी होते हैं। तथा वमन, अतिसार, गर और कफरोगोंको उत्पन्न करते है। परन्तु श्वेत पवित्रस्थानकी लकड़ी या बांसके ऊपर और गोचर भूमिमें उत्पन्न हुए अत्यन्त दोषकारी नहीं होते। शेष गंदे स्थानों में उत्पन्न हुए निन्दित होते हैं ।। ११९-- १३१॥ इति श्रीवैद्यरत्न पं०--रामप्रसादात्मनविद्यालङ्कार--शिवशर्मवैद्यकृत--शिवप्र.
काशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ शाकवर्गः समाप्तः ॥ ९ ॥
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(२९३)
हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.।
वारिवर्गः १०.
पानीयं सलिलं नीरं कीलालं जलमंबु च । आपो वार्वारिकं तोयं पयः पाथस्तथोदकम् ॥१॥ जीवनं वनमभोर्णोऽमृतं घनरसोऽपि च ॥२॥ पानीयं श्रमनाशनं क्लमहरं मूर्छापिपासायह तंद्राछर्दिविबंधहदलकां निद्राहरं तर्पणम् हृद्यं गुप्तरसं ह्यजीर्णशमकं नित्यं हितं शीतलं लघ्वच्छं रसकारणानिगदितं पीयूषवज्जीवनम्॥३॥
तद्भेदाः। पानीयं मुनिभिः प्रोक्तं दिव्यं भोममिति द्विधा ॥४॥ दिव्यं चतुर्विधं प्रोतं धाराज करकाभवम् । तौषारं च तथा हैमं तेषु धारं गुणाधिकम् ॥५॥ पानीय, सलिन, नीर, श्रीलाल, जल, अम्बु, आप, पार, वारि, तोय, पय, पाथ, उदक, जीवन, वन, अम्भ,पर्ण, अमृत और धनरस यह जल के नाम हैं। इसे फारसीमें प्राप तथा अंग्रेजी में water कहते हैं।
जल-परिश्रमको नष्ट करनेवाला, ग्लानि को हरनेवाना, मूर्श तथा प्यासको दूर करनेवाला, बलकारक, निद्राको हरनेवाना, तृप्तिकारक, हृदयको प्रिय, गुप्तरसवाला, अजीर्णको शमन करनेवाला, नित्य हितकारी, शीतल, हलका, स्वच्छ, अमृत के समान जीवन देनेवाला और चन्द्रा, वमन और विवन्धको हरने वाला है।
जल दिव्य और भौम इन भेदोंसे मुनियोंने दो प्रकारका कहा है। दिव्य जल-धाराज, करकाभव, तोषार और हैम इन भेदोले चार प्रका
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(२९४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
धाराजलम् । धाराभिः पतितं तोयं गृहीतं स्फीतवाससा । शिलायां वसुधायां वा धौतायां पतितं च तत्॥६॥ सौवणे राजते ताने स्फाटिके काचनिर्मिते। भाजने मृण्मये वापि स्थापितं धारमुच्यते ॥७॥ धारानीरं त्रिदोषघ्नमनिर्देश्यरसं लघु । सौम्यं रसायनं बल्यं तर्पणं हादि जीवनम् ॥८॥ पाचनं मतिकृन्मूतिन्द्रादाहश्रमलमान् । तृष्णां हरति तत्पथ्यं विशेषात्प्रावृषि स्मृतम् ॥९॥ धारारूपमें, पत्थरोंपर अथवा धोई हुई पृथ्वीपर गिरा हुमा जल यदि छानकर सुवर्ण, चान्दी, तांबा, स्फाटिक अथवा मट्टीके बर्तन में भर लिया जावे, तो उसे धाराजल करते हैं।
धाराजल-त्रिदोषनाशक, अनिर्वचनीय रसवाला, हलका, सौम्य, रसायन, बलकारक, प्रसन्न करनेवाला, जीवन देनेवाला, पाचन करनेवाला, बुद्धिवर्धक तथा मूछा, तन्द्रा, दाह, श्रम, ग्लानि और तृष्णाको दूर करता है। प्रावद ऋतुमें वह विशेषतः पथ्य है ॥ ६-९ ॥
तद्भेदाः। धाराजलं च द्विविधं गंगासामुद्रभेदतः ।
आकाशगंगासंबंधि जलमादाय दिग्गजाः ॥१०॥ मेधैरंतरिता वृष्टिं कुर्वतीति वचः सताम् । गांगमाश्वयुजे मासि प्रायो वर्षति वारिदः ॥ ११ ॥ सर्वथा तज्जलं देयं तथैव चरके वचः। स्थापितं हेमजे पात्रे राजते मृण्मयेपि वा ॥ १२ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । (१९६)
शाल्यन्नं येन संसिक्तं भवेदक्लेदि वर्णवत् । तद्वांगं सर्वदोषघ्नं ज्ञेयं सामुद्रमन्यथा ॥ १३ ॥ तनु सक्षारलवणं शुक्रदृष्टिबलापहम् । विस्रं च दोषलं तीक्ष्णं सर्वकर्मसु गर्हितम् ॥ १४ ॥ सामुद्रं त्वाश्विने मासि गुणैगगवदादिशेत् ॥ अगस्त्यस्य तु देवर्षेरुदयात्सकलं जलम् ॥ १२ ॥ निर्मलं निर्विषं स्वादु शुकलं स्याददोषलम् ।
अत एवाह ।
फूत्कार विषवातेननागानां व्योमचारिणाम् ॥ १६ ॥ वर्षासु सविषं तोयं दिव्यमप्याश्विनं विना ।
गांग और सामुद्र यह दोनों धाराजल के भेद हैं । दिग्गज, प्राकाशगंगाके जलको लेकर बादलों में छिप कर वृष्टिको करते हैं, यह सत्पुरुष कहते हैं। विशेषकरके जो जल ग्राश्विनमासमें बरलता है वह गांग सम झना चाहिये । वह जल सुवर्णके, रजतके प्रथवा मट्टी के बर्तन में रक्खा हुमा, रोगियोंको देना चाहिये। ऐसेही चरक में भी कहा है। जिस जलके डालने से चावल जैसे हों वैसे ही दिखाई दें वह जळ गांग होता है और वह त्रिदोषनाशक है। जो ऐसा न हो वह सामुद्र होता है ।
सामुद्रजल - क्षारयुक्त, नवया रसाला, शुक्र दृष्टि और बनको हर. नेवाला, दुर्गन्धयुक्त, दोषोंको बढानेवाला, तीक्ष्णा चौर सब कामों में निन्दित है । आश्विन मास में बरसे हुए सामुद्रजलमें गांग के समान गुण होते हैं क्यों कि देवर्षि अगस्त्यके उदय हो जानेसे सब जल निर्मल, विष.. रहित, स्वादु, वीर्यवर्धक और दोषरहित हो जाते हैं। इसी कारण कहा है कि आकाश में घूमनेवाले नागादियोंके विषयुक्त पवनसे वर्षा ऋतु दिव्य जल भी विषैला हो जाता है । परन्तु अश्विन मास में विषरहित होता है ।। १०- १६ ॥
अनार्त्तवम् ।
अनार्तवं प्रमुचंति वारि वारिधरास्तु यत् ॥ १७ ॥
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(२९६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । तत्रिदोषाय सर्वेषां देहिनां परिकीर्तितम् ।
___ करकाजलम् । दिव्यवाय्वग्निसंयोगात्संहताः खात्पति याः॥१८॥ पाषाणखंडवच्चापस्ताः कारक्योऽमृतोपमाः। करकाजं जलं रूक्षं विशदं गुरु चास्थिरम् ॥ १९ ॥ दारुणं शीतलं सांद्र पित्तहत्कफवातकृत् । बिना ऋतुके जो जल धारारूपमें बरसता है वह त्रिदोषकारक है। प्राकाशकी वायु और अग्नि के संयोगसे जो जल पत्थरके टुकड़ोंके समान बन्धा हुआ पोलोंके रूपमें गिरता है वह करकाभव होता है । करका. भव जल-अमृत-समाब, क, स्वच्छ, भारी, अस्थिर, दारुण, शीतल, चांद्र पित्तनाशक और कफ तथा वातको नष्ट करने वाला है ॥ १७.-१९ ॥
तोषारम् । अपि नद्यः समुद्रांते वह्निरापश्च तद्भवाः ॥२०॥ धूमावयवनिमुक्तास्तुषाराख्यास्तु ताः स्मृताः । अपथ्याः प्राणिन प्रायो भूरुहाणां तु ता हिताः२१॥ तुषारांबु हिमं रूक्षं स्याद्वातलमपित्तलम् । कफोरुस्तंभकंठराग्रिमेदोगंडादिरोगकृत् ॥ २२ ॥ नदीत लेकर समुद्र पर्यन्त जल में अग्नि होती है, उस अग्निसे उत्पत्र हुमा तथा धूमके अवयवोसे रहत जो जल होता है उसे तुषार कहते है। नुषारजन-प्रायः प्राणियों के लिये हानिकारक तथा वृक्षों के लिये लाभदायक है तथा शीतल, क्ष, वातकारक, पिनाशक और कफ, ऊरस्तम्भ कण्ठरोग, अग्नि, भेद और गण्डादि रोगों को करनेवाला है ।। २०-२२ ॥
हेमजलम् । हिमवच्छिखरादिभ्यो द्रवीभूयाभिवर्षति । यत्तदेव हिम हमें जलमाहुर्मनीषिणः ॥ २३ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( २९७ )
हिमां शीतं पित्तघ्नं गुरु वातविवर्द्धनम् । हिमं तु शीतलं रूक्षं दारुणं सूक्ष्ममित्यपि ॥२४॥ न तद्दूषयते वातं न च पित्तं न वा कफम् ।
हिमालय आदि पर्वतशिखरों पर से पिघल कर हिमका जो जल गिरता है उसको हैम कहते हैं। हिमांशीतल, पित्तनाशक, भारी, वातव, रूक्ष, दारुण, सूक्ष्म तथा वात, पित्त और कफ इनको दूषित नहीं
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करता ॥ २३ ॥ २४ ॥
भौमम् ।
भौमig निगदितं प्रथमं त्रिविधं बुधैः ॥ २५ ॥ जांगलं च तथानूपं ततः साधारणं क्रमात् । अल्पोदकोऽल्पवृक्षश्च पित्तरक्तामयान्वितः ॥ २६ ॥ ज्ञातव्यो जांगलो देशस्तत्रत्यं जांगलं जलम् । बम्बुवृक्षश्व वातश्लेष्मामयान्वितः ॥ २७ ॥ देशोऽनूप इति ख्यात आनूपं तद्भवं जलम् । मिश्रचिह्नस्तु यो देशःस हि साधारणः स्मृतः ॥२८॥ तस्मिन्देशे यदुदकं तत्तु साधारणं स्मृतम् । जागलं सलिलं रूक्षं लवणं लघु पित्तनुत् ॥ २९ ॥ वह्नित्कफ त्पथ्यं विकारान्कुरुते बहून् । आनूपं वार्य्यभिष्यंदिस्वादुस्रिग्धं घनं गुरु ॥३०॥ वह्नित्कफकृन्नित्यं विकारान्कुरुते बहून् । सावारणं तु मधुरं दीपनं शीतलं लघु ॥ ३१ ॥ तर्पणं रोचनं तृष्णादाददोषत्रयप्रणुत् ।
भौम जल विद्वानोंने तीन प्रकारका कहा है। जांगल, अनूप और
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(२९८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । साधारण इन भेदोंसे जिस देशमें थोड़े वृक्ष हों और पित्त तथा रक्तसम्बन्धि रोग हो उसको जांगल देश कहते हैं और वहांके जलको जांगल कहते हैं। जो देश बहुर जलवाला, बहुत वृक्षोंवाला तथा वात और कफके रोगोधाला होता है उसे अनूप देशके लक्षण मिश्रित हों उसे साधारण देश तथा वहां के जलको साधारण जल कहते हैं । जांगल जल रूक्ष, नवणरसयुक्त, हलका, पित्तनाशक वद्धिको हरने वाला, कफको बढानेवाला, पथ्य और बहुतसे विकारोंको करने वाला है। आनूपजल-अभियदि, स्वादु, स्निग्ध, गाढा, भारी, वह्निको हरनेवाला, कफकारक और नित्य विकारोंको उत्पन्न करनेवाला होता है। साधारण जल-मधुर, दीपन, शीतल, हलका, तृप्तिकारक, रुचिकारक तथा तृष्णा, दाह और विदोषको नष्ट करने वाला है । २५-३१ ॥
भोमनादेयम् । नया नदस्य वा नीरं नादेयमिति कीर्तितम् ॥३२॥ नादेयमुदकं रूक्षं वातलं लघु दीपनम् । अनभिष्यंदि विशदं कटुकं कफपित्तनुत् ॥ ३३ ॥ नद्यः शीघ्रवहा लव्यः सर्वा याश्चामलोदकाः । गुर्व्यः शैवलसंछन्नाः मंदगाः कलुषाश्च याः ॥३४॥ हिमवत्प्रभवाः पथ्या नद्योश्माहतपाथसः। गंगाशतदुसरयूयमुनाद्या गुणोत्तमाः॥ ३५ ॥ सह्यशैलभवा नद्यो वेणीगोदावरीमुखाः । कुबैति प्रायशः कुष्ठमीषद्वातकफावहाः ॥ ३६ ॥ नदीसरस्तडागस्थे कूपप्रस्रवणादिजे । उदके देशभेदेन गुणान्दोषांश्च लक्षयेत् ॥ ३७॥ नदी या नदके जनको नादेय करते हैं। नदीका जल-कक्ष, वातका
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(२९९)
रक, हलका, दीपन, अभिष्यन्दको न करनेवाला, विशद, कटु और कफ तथा पित्तको दूर करनेवाला है। जो नदियें शीघ्र बहनेवाली तथा निर्मळ जलवाली होती हैं वह हलके जलवाली होती हैं। जो नदियें मन्द २ बह नेवाली, शैवाल (काई ) से ढकी हुई तथा मलीन हैं उनका जल भारी होता है । जो गंगा, शतद्रु, सग्यू, यमुना आदि नदियां हिमालय से उत्पन्न होती हैं, तथा मार्गमें पत्थरों से प्राप्त होती हैं, उनका जल पथ्य तथा गुण में उत्तम है । सह्याद्रिसे उत्पन्न हुई श्रेणी, गोदावरी आदि नदिय कुष्टको, किंचित वात तथा कफको करती हैं । नदी, तालाब, सरोवर, कूप अथवा झरने आदिके जलके गुण और दोष उस स्थान के अनुसार जानने ॥ ३२-३७ ॥
औद्भिदम् । विदार्य भूमिं निम्नां यन्महत्या धारया स्रवेत् । तत्तोयमौद्भिदं नाम वदंतीति महर्षयः ॥ ३८ ॥ औद्भिदं वारि पित्तनम विदाह्यतिशीतलम् । प्रीणनं मधुरं बल्यमीषद्वातकरं लघु ॥ ३९ ॥ जो जन नीचेकी भूमिको विदीर्ण करके बडी धारा में बहे उसको महर्षि बौद्भिद कहते है । आद्भिद-पिमनाशक, दाइको न करनेवाला, अत्यन्त शीतल, तृप्ति करनेवाला, बलकारक, वायुको किंचित कुपित करने वाला और इनका होता है ॥ ३८ ॥ ३९ ॥
नैर्झरम् | शैलसानुस्रवद्वारिप्रवाहो निर्झरोझरः ।
स तु प्रस्रवणश्वापि तत्रत्यं नैर्झरं जलम् ॥ ४० ॥ नैर्झरं रुचिकृनीरं कफघ्नं दीपनं लघु । मधुरं कटुपाकं च वातलं स्यादपित्तलम् ॥ ४१ ॥
जो जलका प्रवाह पर्वतकी चोटियोंपर से झरता है उसको निर्भर और प्रण करते हैं । वहांके जलको निर्झरहते हैं। निर्भर जल-इचिका
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(३००)
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रक कफनाशक, दीपन, हल्का, मधुर, पाकमें कटु, वातनाशक औरं पित्तको न करनेवाला है ॥ ४० ॥ ४१ ॥
सारसम् ।
नद्याः शैलादिरुद्वायायत्र संश्रुत्य तिष्ठति । तत्सरोजदलच्छन्नं तद्भः सारसं स्मृतम् ॥ ४२ ॥ सारसं सलिलं बल्यं तृष्णाघ्नं मधुरं लघु । रोचनं तुवरं रूक्ष बद्धमूत्रमलं स्मृतम् ॥ ४३ ॥
पर्वत मादिसे रुका हुआ जहाँ नदी का जल झर २ कर इकट्ठा होता है और वह कमलके पत्रोंसे ढका हुआ हो उस स्थान के जल को सारस कहते हैं । सारस जल-बलकारक, तृष्णा नाशक, मधुर, हलका, रुचिका - रक, कसैला, रूक्ष और मूत्र तथा मल को बाँधनेवाला होता है ॥ ४२ ॥४३॥
तडागम् ।
प्रशस्त भूमिभागस्थो बहुसंवत्सरोषितः । जलाशयस्तडागः स्यात्ताडागं तजलं स्मृतम् ॥ ४४ ॥ ताडागमुदकं स्वादु कषायं कटुपाकि च । वातलं बद्धविण्मूत्रममृकपित्तकफापहम् ॥ ४५ ॥
अनेक वर्षोंका पुराना और उत्तम स्थानपर बना हुआ तालाब तडाग होता है । तडागका जल-स्थादु, कसैला, कटुपाकी, वातकारक, मल तथा मूत्रको बाँधनेवाला और रक्तविकार, पित्त तथा कफको नष्ट करने - वाला है ॥ ४४ ॥ ४५ ॥
वापी |
पाषाणैरिष्टका भित्री बद्धः कूपो बृहत्तरः । ससोपाना भवेद्रापी तज्जलं वाप्यमुच्यते ॥ ४६ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३०१) वाप्यं वारि यदि क्षारं पित्तकृत्कफवातहत् । तदेव मिष्टं कफकद्वातपित्तहरं भवेत् ॥ १७ ॥ पत्थर और ईंटोसे बने हुए पौंडियोंवाले बहुत बडे कुएँको वापी (बावली) कहते हैं। वापीका जल यदि क्षार हो तो पित्तकारक और कफवातनाशक होता है। और यदि मधुर हो तो कफकारक और वात तथा पित्तको हरनेवाला होता है ॥ ४६॥ ४ ॥
कौपम् । भूमौ खातोल्पविस्तारो गंभीरो मण्डलाकृतिः। बद्धोऽबद्धः स कूपः स्यात्तदंभः कोपमुच्यते ॥४८॥ . कौपं पयो यदि स्वादु त्रिदोषघ्न हितं लघु । तत्क्षारं कफवातघ्नं दीपनं पित्तकृत्परम् ॥ १९ ॥ पृथ्वीमें अल्प विस्तारवाला, अत्यन्त गहरा तथा गोल आकारका खोंदा हुमा गढ़ा कूप ( कुमाँ) कहनाता है। कुएँका जन यदि मधुर हो तो त्रिदोषनाशक, हितकारक तथा हलका है। यदि चार हो तो कफ वातको नष्ट करनेवाला, दीपन और अत्यन्त पित्तकारक है ॥ १८ ॥ ४९ ॥
चौंड्यम् । शिलाकीर्ण स्वयं श्वनं नीलांजनसमोदकम् । लतावितानसंछन्नं चौंड्यमित्यभिधीयते ॥ ५० ॥ अश्मादिभिरबद्धं यत्तच्चौंड्यमिति वापरे । तत्रत्यमुदकं चौंडयं मुनिभिस्तदुदाहृतम् ॥५१॥ चौंड्यं वह्निकरं नीरं रूक्षं कमहरं लघु । मधुरं पित्तनुद्रुच्यं पाचनं विशदं स्मृतम् ।। ५२॥ शिलानोसे ढका हुआ स्वयं श्वेत, नील अअनके समान जलबाला तथा नवाके ममहोसे ढका हुआ बोगदा हो उसको चौंडय कहते हैं।
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(३०२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । पन्य आचार्योंके मतमें जो गढ़ा शिला मादिसे बदन से वह चौंड्य कहलाता है। चौंडयका जल-अग्निदीपक, रूक्ष, कफनाशक, हलका, मधुर, पित्तनाशक, रुचिकारक पाचन और विशुद्ध होता है । ५०-५२ ॥
पाल्वलम् । अल्पं सरः पल्वलं स्याद्यत्र चन्द्रसंगे खौ। तत्तिष्ठति जलं किंचित्तत्रत्यं वारि पावलम् ॥१३॥ पाल्वलं वायंभिष्यदि गुरु स्वादु विदोषकृत । जिस छोटे तालाब में सूर्यके मृगशिर नक्षत्र में पाने पर जलन रहेउसको पलवल कहते हैं । पलपलका जल-अभिष्यन्दि, भारी, स्मादु तथा त्रिदोषकारक है ॥ ५३ ॥
. किरम् । नद्यादिनिकटे भूमिर्या भवेद्वालुकामयी ॥५४॥ उद्भाव्यते यत्तोय तु तज्जलं विकर विदुः । विकरं शीतलं स्वच्छं निर्दोष लघु च स्मृतम् ॥१५॥ तुवरं स्वादु पित्तघ्नं शारं तत्पित्तलं मनाक् । नद्यादिके समीपकी रेतेपाली पृथ्वीमेंसे खोद कर जो जन निकाला जाय उसको विकर,कहते हैं विकर जल-शीतल, स्वच्छ, निर्दोष, हलका, कसैला, स्वादु, पित्तनाशक, सबार मोर किंचित गरम है ॥ ५४ ॥ ५५॥
केदारम् । केदारं क्षेत्रमुदिध केदारं तजलं स्मृतम् ॥ १६॥
केदारं वार्यभिष्यंदि मधुरं गुरु दोषकृत् । १ खेतको केदार करते हैं। केदारका जल-अभि पन्दि, मधुर, भारी और दोषों को करनेवाला है। ५६ ! Shrutgyanam
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वृष्टिजलम् |
वार्षिकं तदहर्वृष्टं भूमिस्थमहितं जलम् ॥ ५७ ॥ त्रिरात्रमुषितं तत्तु प्रसन्नममृतोपमम् ।
( ३०३ )
आश्विन में वर्षाका जल भूमिपर गिरा हुआ जिस दिन वरसा हो उस दिन हानिकारक है तीन दिनके अनन्तर वह स्वच्छ होकर अमृतके समान होता है ॥ ५७ ॥
विहितजलम् ।
हेमन्ते सारसं तोयं ताडागं वा हितं स्मृतम् ॥ ५८ ॥ ते विहितं तोयं शिशिरेऽपि प्रशस्यते । वसन्तग्रीष्मयोः कौपं वाप्यं वा नैर्झरं जलम् ॥ ५९ ॥ नादेयं वारि नादेयं वसंतग्रीष्म योर्बुधैः । विषववृक्षाणां पत्राद्यैदूषितंयतः ॥ ६० ॥ औद्भिदं चांतरिक्ष वा कौपं वा प्रावृषि स्मृतम् । शस्तं शरदिनादेयं नीरमंशूदकं परम् ॥ ६१ ॥ दिवा रविकरैर्जुष्टं निशि शीतकरांशुभिः । ज्ञेयमंशुदकं नाम स्निग्धं दोषत्रयापहम् ॥ ६२ ॥ अनभिष्यंदि निर्दोषमांतरिक्षजलोपमम् । बल्यं रसायनं मेध्यं शीतं लघु सुधासमम् ॥ ६३ ॥
हेमन्त ऋतु सारस और ताडाग जळ हितकारी है । हेमन्तमें विहित जल शिशिर में भी प्रशस्त है । वसन्त और ग्रीष्ममें कौप ( कुएका )वाप्य ( बावलीका ) और निर्झर जल देना योग्य है । विद्वानोंको वसन्त पौर ग्रीष्ममें नदीका जल प्रयोग में नहीं लाना चाहिये, क्योंकि इन ऋतुयोंमें विषैले वनके वृक्षोंके पत्रों से वह जल दूषित हो जाता है । प्रावृटू ऋतु मे
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(३०४ ) .भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । भौद्भिद और प्रान्तरिक्ष अर्थात् पाकाशका और कूपका जल पीना योग्य है। शरद ऋतु में नादेय और अंशूदक पीना योग्य है । जिस जनके ऊपर दिनमें सूर्यकी तथा रात्रिमें चन्द्रमाकी किरणें गिरें उसे अंशूदक कहते हैं। अंशूदक- स्निग्ध, त्रिदोषनाशक, पभिष्यन्दी, दोषरहित, आकाशके जलके ममान, बलकारक, रसायन, बुद्धिवर्धक, शीत, लघु और अमृतके समान होता है ॥ ५८--६३ ॥
सुश्रुतः।
पौषे वारि सरोजातं माघे तनु तडागजम् । फाल्गुने कूपसंभूतं चैत्रे चौंड्या हिमं मतम् ॥६४॥ वैशाखे नैसरं नीरं ज्येष्ठे शस्तं तथोद्भिदम् । आषाढे शस्यते कोपं श्रावणे दिव्यमेव च ॥ ६॥ भाद्रे कौपं पयः शस्तमाखिने चौंडयमेव च । कार्तिके मार्गशीर्षे च जलमात्रं प्रशस्यते ॥६६॥ मुश्रुत कहते हैं पौषमासमें सरोवरका, मायमें तडागका, फाल्गुनमें कूपका, चैत्रमें चौण्डयाका, वैशाखमें निर्झर (झरले ) का, ज्येष्ठमें भौद्भिद, आषाढमें कुएंका, श्रावणमें दिव्य (आकाशका) भाद्रपदमें कूपका, आश्विनमें चौण्याका और कार्तिक तथा मार्गशीर्ष में सर्व प्रकारका जल पीना योग्य है ॥ ६४-६६ ॥
जलग्रहणकालः। भौणनामभसा प्रायो ग्रहणं प्रातरिष्यते ।
शीतत्वं निर्मलत्वं च यतस्तेषां मता गुणाः ॥६७॥ भौम अर्थात् पृथ्वीके जलको प्रातःकाल ग्रहण करना चाहिये क्योंकि भौम जल उस समय शीतल और निर्मल होते हैं ॥ ६७ ॥
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जलपानम्। अत्यंबुपानान विपंच्यतेऽनं निरंबुपानाच्चसएवदोषः । तस्मानरो वह्निविवर्धनाय मुहुर्मुहुर्वारिपिबेदभूरि६८ जलके बहुत पीनेसे अन्न नहीं पचता और जलके बिल्कुल न पीनेसे अन्न नहीं पचता, इस कारण अग्निको बढानेके लिये थोडा २ तथा कई वार जल पीना चाहिये ॥ ६८ ॥
शीतलजलम् । मूर्छादिपित्तदाहेषु विषे रक्ते मदात्यये । श्रमे भ्रमे विदग्धेऽने तमके क्षवथो तथा ॥ ६९ ॥ ऊर्द्धगे रक्तपित्ते च शीतमंबु प्रशस्यते । मूर्छा, पित्त दाह, विष, रक्तविकार, मदात्यय, श्रम, भ्रम, तमकश्वास, क्षवथु (छींक) और ऊर्ध्वगत रक्तपित्त में तथा जितको विदग्धा. जीर्ण हो उनको शीतल जल पीना योग्य है ॥ ६९ ॥
तनिषेधः। पार्श्वशूले प्रतिश्याये वातरोगे गलग्रहे ॥ ७० ॥ आध्मानोस्तमिते कोष्ठे सद्यःशुद्धौ नवज्वरे । अरुचिग्रहणीगुल्मवासकासेषु विद्रधौ ॥ ७१ ॥ हिकायां स्नेहपाने च शीतांबु परिवर्जयेत् । पसनीके शूलमें, प्रतिश्याय, वातरोगमें, गलग्रहमें, आध्मानमें, कोठेकी शुद्धिके लिये विरेचन करानेपर, नवीन ज्वरमें, अरुचि में, ग्रहणीमें, गुल्ममें, श्वास, कासमें, विद्रधिमें, हिचकीमें तथा स्नेहके पीने के अनन्तर, शीव जल नहीं देना चाहिये ॥ ७० ॥ ७१ ॥
अल्पजलम् । अरोचके प्रतिश्याये मंदेऽनौ श्ववथौ क्षये ॥ ७२ ॥
Aho! Shrutgyanam
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। ३०६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । मुखप्रसेके जठरे कुष्ठे नेत्रामये ज्वरे । व्रणे च मधुमेहे च पिबेत्पानीयमल्पकम् ॥७३॥ अरुचि, प्रतिश्याय, अग्निपान्द्य, शोय, क्षय, मुखप्रसेक ( मुहँसे जलका बहना,) उदररोग, कुष्ठ, नेत्ररोग, ज्वर, व्रण, और मधुमेहमें पानी थोडा पीना चाहिये । ७२ ॥ ७३ ॥
आवश्यकता। जीवनं जीविनां जीवो जगत्सर्वं तु तन्मयम् ।
अतोऽत्यंतनिषेधेऽपि न क्वचिद्रारि वार्यते ॥७॥ सम्पूर्ण प्राणियों का जीवन जल है, सम्पूर्ण जगत जलमय है इस लिये जिन रोगोंमें अत्यन्त निषेध भी है उनमें भी सर्वथा जलका त्याग नहीं करना चाहिये ॥७४॥
हारीतः। तृष्णा गरीयसी घोरा सद्यः प्राणविनाशिनी । तस्माद्देयं तृषार्ताय पानीयं प्राणधारणम् ॥ ७५ ॥ तृषितो मोहमायाति मोहात्प्राणान्विमुंचति ।
अतः सर्वास्ववस्थासु न कचिद्वारि वर्जयेत् ॥७६॥ हारीतने भी कहा है तृष्णा प्रत्यन्त भयंकर और शीघ्र ही प्राणों को नष्ट कर देनेवाली होती है, इस लिये तृषार्तको प्राण धारण करनेके लिये जल अवश्य देना चाहिये। तृषित मनुष्य मोहको प्राप्त होता है और मोहको प्राप्त हुमा मनुष्य प्राणोंको छोड देता है इस लिये सब अवस्थामें जलका कहीं भी सर्वथा स्याग न करे ॥ ७५॥७६ ॥
प्रशस्तजलम् । अगंधमव्यक्तरसं सुशीतं तर्षनाशनम् । स्वच्छं लघु च हृद्यं च तोयं गुणवदुच्यते ॥ ७७॥ गन्धरहित, जिसमें कोई रस प्रगट न हो, अत्यन्त शीतल, प्यासको
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३०७) नष्ट करनेवाला, स्वच्छ, लघु और हृदयको प्रिय नगनेवाला जल उत्तम होता है ॥७७ ॥
निदितम् । पिच्छिलं कृमिलं किन्नं पर्णशैवालकर्दमैः । विवर्ण विरसं सांद्रं दंगधं न हितं जलम् ॥ ७८ ॥ कलुष छनमभोजपणनीलीतृणादिभिः । दुःस्पर्शनमसंस्पृष्टं सौरचांद्रमरीचिभिः ॥ ७९ ॥ अनातवं वार्षिकं तु प्रथमं तच्च भूमिगम् । व्यापन्न परिहर्तव्यं सर्वदोषप्रकोपनम् ॥ ८ ॥ तत्कुर्यात्स्नानपानाभ्यः तृष्णाध्मानचिरज्वरान् । कासानिमांद्याभिष्यंदकंडुगंडादिकं तथा ॥ ८१ ॥ जो जल पिच्छिल, कीडोंवाला, पत्ते शैवाल और कीचड़ मादिसे. खराब, बुरे वर्णवाला, रसरहित, गाढा तथा दुगधेित हो वह जल अहेि. तकर होता है। एवं मलीन, कमलके पत्ते, शवाल, तृण आदिसे ढका हुआ, बुरे स्पर्शवाला, सूर्य तथा चन्द्रमाकी किरणोंसे असं स्पृष्ट, विना ऋतु परसा हुमा पौर पृथ्वीपर गिरा हुमा तथा खराब जन नहीं पीना चाहिये। क्योंकि वह सर्व दोषोंको प्रकुपित करता है। ऐसे जनका पीना तथा स्नान, तृष्णा, पाम्मान, जीर्णज्वर कास, अग्नि की मंदता,अभिष्यन्दा कण्डु पोर गण्डरोगादिकोंको करता है ॥ ७८-८१
शोधनम् । निंदितं चापि पानीयं कथितं सूर्य्यतापितम् । सुवर्ण रजतं लोहं पाषाणं सिकतामपि ॥ ८२ ॥ भृशं संताप्य निर्वाप्य सप्तधासाधितं तथा । कर्परजातिपुत्रागपाटलादिसुवासितम् ॥ ८३ ।।
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
शुचि सांद्रपटस्रावि क्षुद्रजंतु विवर्जितम् । स्वच्छं. कनकमुक्ताद्यैः शुद्धं स्याद्दोषवर्जितम् ॥ ८४ ॥ पर्णमूल बिग्रंथिमुक्ताकतकशैवलैः । गोमेदेन च वज्रेण कुर्य्यादंबुप्रसादनम् ॥ ८५ ॥ पीतं जलं जीर्य्यति यामयुग्मा
द्यामैंकमात्राच्छ्रुतशीतलं च । तदर्द्धमात्रेण शृतं कदुष्णं पयःप्रपाके त्रय एव कालाः ॥ ८६ ॥
इति वारिवर्गः ।
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दूषित जल - उबालने से, सूर्यकी किरणों द्वारा सपाने, सुवर्ण, चांदी, छोह, पत्थर और रेहेको तंपावर सात बार बुझानेसे, कपूर, जाति, पुन्नाग (बेशर) और पादल आदिले सुवासित करनेसे, सफेद चौर गाठे कपड़े में छानने द्वारा क्षुद्रजन्तुको निवाल देने से और सुवर्ण तथा मोती प्रादिसे स्वच्छ करनेपर निर्दोष हो जाता है । पत्ते जड़ पौर बिससे तथा मुक्ता निर्मदिफल शैवल जल पिया हुआ दो याममें, गरम जल एक याम तथा किंचित गरम जल चार घडीमें पच जाता है। जल के पचने के यह तीन ही समय हैं ।। ८२-८६ ॥
इति श्रीवैरत्न पंडित रामप्रसादात्मज - विद्यालंकारशिवशर्मवैद्यशास्त्रकृत- शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ वारिवर्गः समाप्तः ॥ १० ॥
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दुग्धवर्गः ११.
(३०९)
दुग्धम् ।
दुग्धं क्षीरं पयः स्तन्यं बालजीवनमित्यपि । दुग्धं समधुरं स्त्रिग्धं वातपित्तहरं परम् ॥ १ ॥ सद्यः शुक्रकरं पीतं सात्म्यं सर्वशरीरिणाम् । जीवनं बृंहणं बल्यं मेध्यं वाजिकरं परम् ॥ २ ॥ वयःस्थापनमायुष्यं संधिकारि रसायनम् । विरेकवांतिवस्तीनां तुल्यमोजो विवर्द्धनम् ॥ ३ ॥ जीर्णज्वरे मनोरोगे शोषमूच्छी भ्रमेषु च । ग्रहण्यां पांडुरोगे च दाहे तृषि हृदामये ॥ ४ ॥ गर्भस्रावे च सततं हितं मुनिवरैः स्मृतम् । बलवृद्धक्षतक्षीणक्षुद्व्यवाय कृशाश्च ये ॥ ५ ॥ तेभ्यः सदातिशयितं हितमेतदुदाहृतम् ।
दुग्ध, क्षीर, पय, स्तन्य तथा बालजीवन यह दूधके नाम हैं । दूधको फारसी में शीर और अंग्रेजीमें milk कहते हैं । दूध-मधुर, स्निग्ध, वातपित्तको हरनेवाला, वी को जल्दी उत्पन्न करनेवाला, सर्व प्राणियों के किये हितकर, जीवनदायक, पुष्टिकारक, बल तथा बुद्धिको बढानेवाला, वाजीकरण, वायुको स्थापन करने वाला तथा बढानेवाला जोडने शाळा: रसायन और विरेचन, वमन और वस्तिक्रियावालोंके लिये हितकारी तथा प्रोजको बढानेवाला है । जीगंज में, सबके रोग में, शोष, मूर्छा तथा भ्रम, ग्रहणी में पाण्डुरोग में, दाइनें तृषमें, हृदय के रोग में दूध अत्यन्त हितकर है यह मुनियोंने कहा है ।'बालक, वृद्ध, क्षतशेगवाना, क्षीप
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.
( ३१० )
पुरुष इनको तथा जो भूख से सर्वदा अत्यन्त हितकारी है ॥
प्रथवा मैथुन से कृश हो गये हैं, उनको १-५ ॥
गोदुग्धम | गव्यं दुग्धं विशेषेण मधुरं रसपाकयोः ॥ ६ ॥ शीतलं स्तन्यकृत स्निग्धं वातपित्तास्रनाशनम् । दोषधातुमलस्रोतः किंचित्क्लेदकरं गुरु ॥ ७ ॥ जरासमस्तरोगाणां शांतिकृत्सेविनां सदा । कृष्णाया गोर्भवं दुग्धं वातदारि गुणाधिकम् ॥ ८॥ पीताया हरते पित्तं तथा बातहरं भवेत् । श्लेष्मलं गुरु शुक्काया रक्ताचित्रातिवातं ॥ ९ ॥ बालवत्सविवत्सानां गवां दुग्धं त्रिदोषकृत् । बष्कयिण्यास्त्रिदोषघ्नं तर्पणं बलकृत्पयः ॥ १० ॥
गाय का दूध-रस और पाक में अत्यन्त मधुर, शीतल, स्तनोंमें दूधको बढानेवाला, स्त्रिग्ध, वात पित्त तथा रक्त विकारको नष्ट करनेवाला, दोष धातु मन तथा नाडियोंको किंचित् गीला करनेवाला तथा बुढापेके सब रोगोंको शमन करनेवाला है । काली गायका दूध-वातको हरनेवाला तथा गुणों में अधिक है । पीली गायका दूध पित्त तथा वायुको हरता है तथा श्वेत गायका दूध भारी बौर कफकारक और लाल तथा चितकवरी गाय का दूध वातको अत्यन्त हरनेवाला है । जिल गायका बछडा छोटा हो अथवा मर गया हो उसका दूध त्रिदोषकारक होता है । वणी ( वाखरी ) गायका दूध - त्रिदोषनाशक तृप्तिकाश्क तथा बलवर्धक होता है ।। ६-१० ॥
देशविशेषेण श्रेष्ठयम् ।
जांगलानूपशैलेषु चरंतीनां यथोत्तरम् । पयो गुरुतरं स्नेहं यथाहारं प्रवर्तते ॥ ११ ॥
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जो गायें जांगल तथा अनूप देश में और पर्वतमें चरती हैं उनका दूध
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.
( ३११ )
एक से दूसरा यथोत्तर भारी है। जैसी वस्तुको गाय खाती है उसके प्रतु सार ही उसका दूध स्निग्ध होता है ॥ ११ ॥
आहाराविशेषम् ।
स्वल्पान्नभक्षणाज्जातं क्षीरं गुरु कफप्रदम् ।
तत्तु बल्यं परं वृष्यं स्वस्थानां गुणदायकम् ॥ १२ ॥ पलालतृणकार्पासबीजजातं गुणैर्हितम् ।
थोडा अन्न खानेवाली गायका दूध--भारी, कफवर्द्धक, बलकारक, aterers और स्वस्थ मनुष्योंके लिये हितकारी है । जो गायें पलालतृण, कपास के बीज ( विनौले आदि) भक्षण करती हैं, उनका दूध अत्यन्त हितकारी है ॥ १२ ॥
माहिषम् ।
माहिषं मधुरं गव्यात्स्निग्धं शुक्रकरं गुरु ॥ १३ ॥ निद्राकरमभिष्यंदि क्षुधाधिककरं हिमम् ।
भैंसका दूध-- मधुर, गायसे अधिक स्निग्ध, वीर्यवर्धक, भारी, निद्राकारक, अभिष्यन्दि, भूखको अधिक लगानेवाले और शीतल है ॥ १३ ॥
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छागम् ।
छागं कषायं मधुरं शीतं ग्राहि तथा लघु ॥ १४ ॥ रक्तपित्तातिसारघ्नं क्षयका सज्वरापहम् । अजाना मल्पकायत्वात्कटुतिक्तनिषेवणात् ॥ १५ ॥ स्तोकांबुपानाद्वयायामात्सर्वरोगापहं पयः ।
बकरीका दूध - कसैला, मधुर, शीतल, ग्राही, इलका और रक्तपित्त, अतिसार, क्षय, कास और उबरको इरनेवाला है। बकरीका छोटा शरीर होनेसे कटु , तिक्त पदार्थोंके सेवन करने से, पानी थोडा पीने से और प्रत्यन्त व्यायाम करनेसे उसका दूध सब
Ako! Shrutayanam
रोगोको नष्ट करता है ॥ १४ ॥ १५ ॥
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( ३१२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
मृगीदुग्धम् । मृगीणां जांगलोत्थानामजाक्षीरगुणं पयः ॥ १६॥ जङ्गलकी हरनियोंका दूध भी बकरी के दूध के समान गुणवाला है ॥१६॥
मेषीणाम् । आविकं लवणं स्वादु स्निग्धोष्णं चाश्मरिप्रणुत् । अहृद्यं तर्पणं वृष्यं शुक्रपित्तकफप्रदम् ॥ १७ ॥ गुरुकासेऽनिलोद्भूते केवले चानिले वरम् । भेड का दूध-ळवणरत युक्त, स्वादु, स्निग्ध, उष्ण, पथरीको तोडने . वाना, हृदयको अप्रिय, तृप्तिकारक, वृष्य, शुक्र, पित्त और ककको बढा. नेवाळा, भारी तथा वातजनित खांसी में पौर केरल वातमें हितकारी है॥ १७ ॥
अश्वीदुग्धम् । रूझोष्णं वडवाक्षीरं बल्यं शोषानिलापहम् ॥१८॥
अम्लं पटु लघु स्वादु सर्वमैकश६ तथा । वोडीका दूध-कक्ष, गरम, बलकारक, शोष तथा वायुको नष्ट करने पाला, अम्ल, लक्षणरसवाला, हलका, स्वादु है । और सब एक खुरवाले पशुओं का दूध इस के समान गुणों वाला होता है ॥ १८ ॥
उष्ट्रीदुग्धम् । ष्ट्रीदुग्धं लघु स्वादु लवणं दीपनं तथा ॥ १९॥ कृमिकुष्ठकफानाहशोथोदरहरं सरम् । ऊंटनीका दूध-लघु, स्वाद, लवगरसयुक्त, दीपन, दस्तावर तथा कृमि, कुष्ठ, कफ, आना, शोथ और उदररोगको हरता है ।। १९ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३१३)
हस्तिनीदुग्धम् । बृंहण हस्तिनीदुग्धं मधुरं तुवरं गुरु ॥२०॥ वृष्यं बल्यं हिमं स्निग्धं चक्षुष्य स्थिरताकरम् । हस्तिनीका दूध-धातुओंको पुष्ट करनेवाला, मधुर, कसैला, भारी, वीर्यवर्धक, बलकारक, शीतल, स्निग्ध, नेत्रों को हितकारी तथा दृढता करनेवाला है ॥ २०॥
नारीदुग्धम् । नार्या लघु पयः शीतं दीपन वातपित्तजित् ॥२१॥
चक्षुःशूलाभिघातघ्नं नस्याश्चोतनयोहितम् । स्वीका दूध-हलका, शीतल, दीपन, वात और पितको जीतनेवाला, नेत्रोंके शूल तथा अभिघातको नष्ट करनेवाला तथा नसवार देने में और पाश्च्योतन कर्म (आंख तथा नाकमें टपकाने में ) श्रेष्ठ है ॥२१॥
धारोष्णम् । धारोष्ण गोः पयो बल्यं लघु शीतं सुधासमम् २२॥ दीपनं च त्रिदोषघ्नं तद्धाराशिशिरं त्यजेत् । धारोष्णं शस्यते गव्यं धाराशीतं तु माहिषम् २३॥ शृतोष्णमात्रिकं पथ्यं शृतशीतमजापयः। आमं क्षीरमभिष्यंदि गुरु श्लेष्मामवद्धनम् ॥ २४ ॥ ज्ञेयं सर्वमपथ्यं तु गव्यमाहिषवर्जितम् । नारीक्षीरं त्वाममेव हितं न तु शृतं हितम् ॥२५॥ शृतोष्णं कफवातघ्नं शृतशीतं तु पित्तनुत् । अर्दोदकं क्षीरशिष्ट मामालपुतरं पयः ॥२६॥
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( ३१४ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. डी. ।
जलेन रहितं दुग्धमतिपक्वं यथायथा । तथातथा गुरुस्निग्धं वृष्यं बलविवर्द्धनम् ॥ २७ ॥
गायका धारोष्ण दूध अर्थात जो दूध निकालते ही पी लिया जावे वह दूध - बलदायक, लघु शीतल, अमृत के समान, दीपन, त्रिदोषनाशक है । धारोष्ण दूध ठण्डा हो जानेपर पीने योग्य नहीं होता। गायका दूध तो धारोष्ण प्रशस्त है और भैंसका धाराशीत अर्थात् दुहने के बाद शीतल हुआ प्रशस्त गुणोंवाला है । भेडका दूध शीतल तथा बकरीका गरम पथ्य है । कच्चा दूध - अभिष्यन्दि, भारी, कफ और आमको बढानेवाला है इस लिये गाय और भैंस के दूध के अतिरिक्त सब कच्चे दूध अपथ्य हैं । स्त्रीका दूध तो कच्चा ही हितकारी है, गरम नहीं । गरम किया हुआ दूध कफ और बातको नष्ट करता है, गरम करके ठण्डा किया हुबा दूध पितको नष्ट करता है तथा बराबरका जल डालकर उबालकर रहा हुआ ब्रेवल दूध कच्चे दूध से भी हलका है। जल रहित दूधको जितना पकाते जायेंगे वह उतना २ भारी, स्निग्ध, वीर्य तथा बलवर्धक होता चला जाता है ।। २२-२७ ।।
पीयूष कलाक्षीरशाकतक्रपिंडमोरटाः ।
क्षीरं तत्कालसूताया घनं पीयूषमुच्यते । नष्टदुग्धस्य पक्कस्य पिंडः प्रोक्तः किलाटकः ॥ २८॥ अपक्वमेव यन्नष्टं क्षीरशाकं हि तत् पयः दध्ना तक्रेण वा नष्टं दुग्धं बद्धं सुवाससा ॥ २९ ॥ द्रवभागेन रहितं यत्तत्रपिंडः स उच्यते । नष्टदुग्धभवं नीरं मोरटं जय्टोऽब्रवीत् ॥ ३० ॥ पीयूषश्च किलाटं च क्षीरशाकं तथैव च । तकपिंड इमे वृष्या बृंहणा बलवर्द्धनाः ॥ ३१ ॥ गुरवः श्लेष्मला हृद्या वातपित्तविनाशनाः ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । ( ३१५ )
दीप्ताग्नीनां विनिद्राणां विद्रधौ चाभिपूजिताः ॥३२॥ मुखशोषतृषादाहरक्तपित्तज्वरप्रणुत् । लघुर्बलकरो रुच्यो मोरटः स्यात्सितायुतः ॥ ३३ ॥
तत्काल प्रसूत गाय प्रादिके गाटे दूधको पीयूष ( खीस ) कहते हैं । दूधको नष्ट हो जानेपर जो पिंड रह गया हो उसको किलाट (खोया) कहते हैं। जो दूध विना ही पके सूख गया हो उसे क्षीरशाक कहते हैं । दही या तक्र द्वारा जिस दूधको जमाकर कपड़े में छानकर जलरहित करके पिंडरूप बनादे उसे तत्रपिण्ड कहा जाता है। फटे हुए दूध के पानीको मोरट कहते हैं, यह जय्यटने कहा है ।
पीयूष आदि पांचों प्रकारके दूध-वीर्यवर्धक, बृंहण, बलवर्धक, भारी, कफकारक, हृदयको प्रिय, वात और पित्तको नष्ट करनेवाले तथा जिनकी अग्नि प्रदीप्त है। जिनको नींद नहीं आती और विद्रधि रोगवालोंको हितकर है। खांड मिलाया हुआ मोरट-हलका, बलवर्धक, रुचिकारक और मुखशोष, तृषा, दाद, रक्तपित्त और ज्वरको दूर करनेवाला है ।। २८-३३ ॥
सन्तानिका (मलाई ) आदिगुणाः । संतानिका गुरुः शीता वृष्या पित्तास्रपातनुत् । तर्पणी बृंहणी स्निग्धा बलासबलशुकला ॥ ३४ ॥ खण्डेन सहितं दुग्धं कफकृत्पवनापहम् । सितासितोपलायुक्तं शुकलं त्रिमलापहम् ॥ ३५ ॥ रात्रौ चन्द्रगुणाधिक्याद्वयायामाकरणात्तथा । प्राभातिकं तदा प्रायः प्रादोषाद्गुरु शीतलम् ॥ ३६ ॥ दिवाकर कराघाताद्वयायामानिलसेवनात् । प्राभातिका तु प्रादोषं लघुवातकफापहम् ॥ ३७ ॥
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४ ३१६ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
वृष्यं बृंहणमशिदीपनकरं पूर्वाह्नपीतं पयो मध्याह्ने बलदायकं कफहरं पित्तापढं दीपनम् । बाल्ये वह्निकरं ततो बलकरं वृद्धेषु रेतोवदं रात्रौ पथ्यमनेकदोषशमने क्षीरं सदा सेव्यते ॥ ३८ ॥ वदंति पेय निशि केवलं पयो भोज्यं न तेनेह सहौदनादिकम् । भवेदीर्ण यदि न स्वपेन्निशि क्षीरस्य पीतस्य न शेषमुत्सृजेत् ॥ ३९ ॥ विदाहीन्यन्नपानानि दिवाभुंके हि यन्नरः । तद्विदाहप्रशांत्यर्थे रात्रौ क्षीरं सदा पिबेत् ॥ ४० ॥ -दीप्तानले कृशे पुंसि बाले बृद्धे पयः प्रिये । मतं हिततमं दुग्धं सद्यः शुक्रकरं यतः ॥ ४१ ॥ क्षीरं गव्यमथाजं वा कोष्णं दंडाहतं पिबेत् । लघु वृष्यं ज्वरहरं वातपित्तकफापहम् ॥ ४२ ॥ गोदुग्धप्रभवं किं वा छागी दुग्धसमुद्भवम् । भवेदेतत्रिदोषनं रोचनं बलवर्द्धनम् ॥ ४३ ॥ वह्निवृद्धिकरं वृष्यं सद्यस्तृप्तिकरं लघु । अतिसारेऽग्निमांद्ये च ज्वरेऽजीर्णे प्रशस्यते ॥ ४४ ॥ इति दुग्धवर्गः ।
सन्तानिका अर्थात मनाई - भारी, शीतल, वीर्यवर्धक, पित, रक्तविकार और वायुको नष्ट करनेवाली, तृप्तिकारक, बृंहण, स्निग्ध तथा कफ, बल और बीर्थको बढाती है ।
खाण्डवाला दूध - हरु कार और नाशक है। बूरा और खितो - ला (मिश्री ) युक्त दूध, वीर्यवर्धक और त्रिदोषनाशक है।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
(३१७ )
शतमें चन्द्रमा के गुणोंकी आधिक्यताले तथा व्यायाम और परिश्रमके न करने से प्रातःकालका दूध-प्रायः शामके दूध से भारी तथा ठण्डा है । सूर्य की किरणोंके सम्पर्कसे, वायुके व्यायाम करनेसे, वायुके सेवन करनेसे सायंकालका दूध प्रातःकालके दूधकी पिक्षा हलका तथा वात और कफको जीतनेवाला है ।
हमें पिया हुआ दूध-वीर्यवर्धक, धातुओंको पुष्ट करनेवाला और अग्निको बर्धन करनेवाला होता है । मध्याह्नमें पिया हुआ बलदायकः कफनाशक, पित्तको हरनेवाला तथा दीपन होता है। रात्रिमें पिया हुआ बच्चों के लिये अग्निदीपक तथा बलकारी, वृद्धोंके लिये वीर्योत्पादक, पथ्यकारक अनेक दोषोंको शमन करनेवाला है। कुछ मनुष्यों के मतमें रातको दूध ही पीना चाहिये। उसके साथ अन्न यादि नहीं खाना चाहिये । क्यों कि यदि रात्रि में निद्रा नहीं भावे तो अजीर्ण होनेका भय है तथा वर्तन में लिया हुआ दूध सब पी जाना चाहिये छोडना नहीं चाहिये छोडा हुम्रा दूध दोषयुक्त हो जाता है। मनुष्य दाह करनेवाले जो अन्नपान करता है उनकी शांति के लिये रातको उसको दूध अवश्य पीना चाहिये। जिन की प्रग्नि दीप्त हो उनके लिये तथा कुश, बालक, वृद्ध इनके लिये दूध अत्यन्त हितकारी है। क्यों कि यह शीघ्र ही वीर्यको उत्पन्न कर देता है ।
गाय और बकरीके दूधको यदि दण्डसे मथ कर किंचित गरम करके पीछे तो यह दूध-लघु, वीर्यवर्धक, ज्वरनाशक तथा त्रिदोषनाशक होता है ।
गाय और बकरीके दूधकी फेन ( झाग ) त्रिदोषनाशक रुचिकारक बलवर्धक, अग्निवर्धक, वीर्यकारक, शीघ्रही तृप्तिको करनेवाली, हलकी तथा अतिसार, मन्दाग्नि, ज्वर और अजीर्ण में प्रशस्त है ॥ ३४-४४ ॥
निर्दितम् ।
विवर्ण विरसं चाम्लं दुर्गंध ग्रथितं पयः । वर्जयेदम्ललवणयुक्तं बुद्धया दिहृद्यतः ॥ ४५ ॥
बुरे वर्णवाले, रसरहित, दुर्गन्धिय, फटे हुए अथा अम्ल और लवण
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( ३१८ )
भाकप्रकाशनिघण्टुः भा. टी . ।
रसवाले दूधका त्याग कर देना चाहिये क्योंकि यह बुद्ध्यादिके
हरनेवाला है ॥ ४५ ॥
इति श्रीवैद्यरत्न - रामप्रसादात्मज विद्यालंकार - श्रीशिवशर्मा वैद्यशास्त्रकृत शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ दुग्धवर्गः समाप्तः ॥ ११ ॥
दधिवर्गः १२ .
दधि
दध्युष्णं दीपनं स्निग्धं कषायानुरसं गुरु । पाकेम्लं श्वासपित्तास्रशोथ मेदः कफप्रदम् ॥ १ ॥ मूत्रकृच्छ्रे प्रतिश्याये शीतगे विषमज्वरे । अतिसारेऽरुचौ काश्यै शस्यते बलशुक्रकृत् ॥ २॥
दधि-गरम, दीपन, स्निग्ध, कषायानुरस, भारी पाक में अम्ल तथा श्वास, पित्त, रक्तविकार, शोप मेद और कफको करनेवाली है। मूत्रकृच्छ्र में, प्रतिश्याय में शीतयुक्त विषमज्वर में, अतिसार में, अरुचि में चौर कृशतामें दही अत्यन्त हितकारी तथा बल और वीर्यको बढानेशला है ॥ १५२ ॥
तद्भेदः । आदौ मन्दं ततः स्वादु स्वाद्वम्लं च ततः परम् । अम्लं चतुर्थमत्यम्लं पञ्चमं दधि पञ्चधा ॥ ३ ॥ मन्दं दुग्धवदव्यक्तरसं किंचिदङ्घनं भवेत् । मन्दं स्यात्सृष्ट विण्मूत्रदोषत्रयविदाहकृत् ॥ ४ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( ३१९ )
यत्सम्यग्धनतां यातं व्यक्तस्वादुरसं भवेत् । अव्यक्ताम्लरसं तत्तु स्वादु विज्ञैरुदाहृतम् ॥ ५ ॥ स्वादु स्यादत्यभिष्यंदि वृष्यं मेदःकफापहम् । वातनं मधुरं पाके रक्तपित्तप्रसादनम् || ६ || स्वाद्रम्लं सांद्रमधुरं कषायानुरसं भवेत् । स्वाद्वम्लस्य गुणा ज्ञेयाः सामान्यदधिवज्जनेः ॥७॥ यत्तिरोहितमाधुर्य्यं व्यक्ताम्लत्वं तदम्लकम् । अम्लं तु दीपनं पित्तरक्तश्लेष्मविवर्द्धनम् ॥ ८ ॥ तदत्यम्लं दन्तरोमहर्षकण्ठादिदाहकृत | अत्यम्लं दीपनं रक्तवातपित्तकरं परम् ॥ ९ ॥ गव्यं दधि विशेषेण स्वाद्वम्लं च रुचिप्रदम् । पवित्रं दीपनं हृद्यं पुष्टिकृत्पवनापहम् ॥ १० ॥ उक्तं दध्नामशेषाणां मध्ये गव्यं गुणाधिकम् । माहिषं दधि सुस्निग्धं श्लेष्मलं वातपित्तनुत् ॥ ११ ॥ स्वादुपाकमभिष्यंदि वृष्यं गुर्वस्रदूषकम् । आज दध्युष्णकं ग्राहि लघु दोषत्रयापहम् ॥ १२ ॥ शस्यते श्वासकासार्शः क्षयका श्यैषु दीपनम् । पक्कदुग्धभवं रुच्यं दधि स्निग्धगुणोत्तमम् ॥ १३॥ पित्तानिलापहं सर्वधात्वग्निबलवर्द्धनम् । असारं दधि संग्राहि शीतलं वातलं लघु ॥ १४ ॥ बिष्टभि दीपनं रुच्यं ग्रहणीरोगनाशनम् ।
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(३२०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । गलितं दधि सुस्निग्धं वातघ्नं कफकृद्गुरु ॥१५॥ बलपुष्टिकरं रुच्यं मधुरं नातिपित्तकृत् । सशकरं दधि श्रेष्ठं तृष्णापित्तास्रजित् परम् ॥१६॥ सगुडं वातनुद् वृष्यं बृंहणं तर्पणं गुरु । न:नक्तं दधि भुनीत न चाप्यघृतशर्करम् ॥ १७॥ नामुद्गसूपं नाक्षौद्रं नोष्णैर्नामलकैविना । शस्यते दधि नो रात्रौशस्तं चांबुघृतान्वितम्॥१८॥ रक्तपित्तकफोत्थेषु विकारेषु च नैव तत् । हेमन्ते शिशिरे चापि वर्षासु दधि शस्यते ॥१९॥ शरद्रीष्मवसन्तेषु प्रायशस्तद्विगर्हितम् । ज्वरामृपित्तवीसर्पकुष्ठपांड्डामयभ्रमान् ॥ २० ॥ प्राप्नुयात्कामलां चोग्रां विधिं हित्वादधिप्रियः। दधस्तूपरि यो भागो घनः स्नेहसमन्वितः॥ २१ ॥ स लोके सर इत्युक्तो दध्नो मण्डस्तु मस्त्विति । मन्द, स्वाद, स्वादम्ल, पम्छ और अत्यम्ल इन भेदोंसे दही पांच प्रकारका है।
दूधके समान अध्यक्त रसवाला तथा गाढा जो दही हो उसको मन्द कहते हैं। मन्द दही-मूत्र मलको निकालनेवाला तथा त्रिदोष और दाहको करता है।
जिस दहीमें अम्ल रस व्यक्त न हुआ हो उसको स्वादु कहते हैं। स्वादु दही-अभिष्पन्दि, वीर्यवर्धक, मेह और कफको बढानेवाला, बातनाशक, पाकमें मधुर तथा रक्तपित्तको दूर करनेवाला है।
जो दही गाढा, मधुर तथा कषायानुरस हो उसको स्वादम्ल कहते हैं। स्वादम्लके गुण सामान्य दधिके समान ही जानने।
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. हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३२१ ) जिस दहीमें मीठेपनका नाश तथा खटाई व्यक्त हो उसको अम्ल कहते हैं। अम्ल दही पित्त, रक्तविकार और कफको बढाता है।
जो दही दन्त और रोमोंमें हर्ष तथा कण्ठ आदिमें दाह करता है उसको अस्यम्ल कहते हैं। अत्यम्ल ददी- दीपन तथा रक्त, वात और पित्तका अत्यन्त कोप करता है।
गायका दही विशेष करके मीठा, खट्टा, रुचिकारक, पवित्र, दीपन, हृदयको प्रिय, पुष्टिकारक तथा पवननाशक है।
सष दधियोंमें गायका दही ही अधिक गुणोंवाला है। भैंसका दही अत्यन्त स्निग्ध, कफकारक, वातपिज़नाशक, पाकमें स्वादु, अभिष्यन्दि वीर्यवर्धक, भारी और रक्तको दूषित करने वाला है।
बकरीका दही--गरम, ग्राही, हलका; त्रिदोषनाशक तथा श्वास, कात, अश, क्षय और कृशतामें हितकारी है तथा दीपन है।
पके हुए दूधका दही-रुचिकारक, स्निग्ध, उत्तम गुणोंशाला, पित्त तथा वायुको नष्ट करनेवाला तथा सब धातु, अग्नि और बलको बढाने. बाला है।
साररहित दूधका दही-प्रारी,शीतल, चातकारक, लघु,विष्टम्भकारक, दीपन, रुचिकारक और ग्रहणी रोग को नष्ट करने वाला होता है।
गालित अर्थात् वस्त्र में छना हुआ दही-स्निग्ध, वातनाशक,कफकारक, भारी, बलपुष्टिकारक, रुचिकारक, मधुर और किंचित् पित्तको करनेवाला है।
बूरेवाला दही-श्रेष्ठ तथा तृष्णा, पित्त और रक्तविकार को जीतने घाला है। गुडवाना दही-वीर्यवर्धक, बृहप, तृप्तिदायक और भारी
रात्रिमें दही खाने योग्य नहीं यदि खाना भी रो तो बिना घृत और खाण्ड, बिना मूंग की दालके, बिना मधुके, तथा बिना गरम पदार्थों के और आपलोंकन खावे । रातको दही खाना उचित नहीं, यदि खाग हो तो घृत और जल डालकर खावे । एवं रक्त पित कफविकारों में तो दही खाना ही नहीं चाहिये।
Aho! Shrutgyanam
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( ३२२ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
हेमन्त शिशिर र वर्षायें दही खाना उतम है । शरद, ग्रीष्म और वसन्तमें प्रायः दही खाना गहित है ।
जो मनुष्य विधिके विना दही खाता है वह ज्वर, रक्तपित्त, विसर्प, कुष्ठ, पाण्डु और भ्रमको तथा उम्र कामलाको प्राप्त करता है ।
दहीके उपरका जो भाग गाढा तथा स्नेहयुक्त होता है उसे सर कहते हैं । सौर दहीके मण्डको मस्तु कहते हैं ।। ३-२१ ॥
सरः स्वादुर्गुरुर्वृष्यो वातवह्निप्रणाशनः ॥ २२ ॥ साम्लो वस्तिप्रशमनः पित्तश्लेष्मविवर्द्धनः । मस्तु कुमहरं बल्यं लघु भक्ताभिलाषकृत् ॥ २३ ॥ स्रोतोविशोधनं ह्लादि कफतृष्णा निलापहम् | अवृष्यं प्रीणनं शीघ्रं भिनत्ति मलसंचयम् ||२४||
इति दधिवर्गः ।
सर - स्वादु, भारी, वीर्यवर्धक, वात तथा वह्निको नष्ट करनेवाला होता है। तथा खट्टा, दस्तिरोगों को शमन करनेवाला और पित्त और कफको बढानेवाला होता है ।
मस्तु–ग्लानि को हरने वाला, बलकारक, हलका, अबकी इच्छा करनेवाला, नाडियोंका शोधन करनेवाला, आह्लादकारक, अवृष्य, तृप्तिकारक मल संचयको शीघ्र ही तोडनेवाला और कफ, तृष्णा तथा वायुको नष्ट करता है ।। २२-२४ ॥
इति श्रीवैद्यरत्न -- पं० -- रामप्रसादात्मज विद्यालंकार - शिवशमवैद्यकृत-शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिवण्टौ दधिवर्गः समाप्तः ॥ १२ ॥
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(३२३)
हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.।
तक्रवर्गः १३,
घोलं तु मथितं तकपुदश्विच्छच्छिकापि च ।। ससरं निर्जलं घोलं मथितं त्व सरोदकम् ॥ १॥ तकं पादजलं प्रोक्तमुदिश्वित्ववारिकम् । छच्छिका सारहीना स्यात्स्वच्छा प्रचुरवारिका ॥२॥ तक पांचप्रकारका है, बोल, मथि न, तक, उदश्वित् और छच्छिका। विना जल डाले मलाई सहित विलोये हुए दही को घोल कहते हैं। मलाई उतार कर बिना जल डाले जो दही विलोश जाय उसे प्रथित कहते हैं। जिस दही में चतुर्थ भाग जक डालकर पिलोया जाय उसको तक वहते हैं। जिस दहीमें ग्राधा जल डाल कर विलोया जाय उसको उदश्चित कहते हैं। तथा जिल दहीमेंसे माखन निकाल लिया हो और जो स्वच्छ तथा अत्यन्त जलवाळा हो उसको छच्छि का कहते हैं ॥१॥२॥
घोलं तु शर्करायुतं गुणैर्तेयं रसालवत । वातपित्तहरं हादि मथितं कफपित्तनुत् ॥ ३ ॥ तकं ग्राहि कषायाम्लं स्वादुपाकरसं लघु । वीर्योष्णं दीपनं वृष्यं प्रीणनं वातनाशनम् ॥ ४॥ ग्रहण्यादिमतां पथ्यं भवेत्संग्राहि लाघवात् । किंचित्स्वादुविपाकित्वान्न च पित्तप्रकोपनम् ॥२॥ कषायोष्णं दीपनं वृष्यं प्रीणनं वातनाशनम् । कायोगविकाशित्वाद्रौशाचापि कफापहम् ॥६॥ खाण्ड डालकर पिश हुमा घोल रताला समान गुणों वाला होता है, तथा वातपित्तनाशक और म को पसन्न करनेवाला होता है ।
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
( ३२४ )
मथित-कफ पित्तको दूर करनेवाला है !
तक-ग्राही, कसैना, खट्टा, पाक और रसमें स्वादु, हलका, उष्णवीर्य,. दीपन, वीर्यवर्धक, तृप्तिकारक, वातनाशक और ग्रहणी सादि रोगवालौके लिये पथ्य है ।
तक्र- लघु होनेसे ग्राही, पाकमें किंचित स्वादु होनेसे वातको प्रकुपित न करनेवाला, कषाय, गरम, विकाशी तथा रूक्ष होने से कफनाशक होता है ।। ३-६ ॥
न तत्रसेवी व्यथते कदाचिन्न तक्रदग्धाः प्रभवंति रोगाः । यथा सुराणाममृतं सुखायतथानराणां भुवितक्रमादुः ॥ अम्लेन वातं मधुरेण पित्तं कफंकषायेण निहंति सद्यः । उदश्वित्कफकद्वयमामध्नं परमं मतम् ॥ ८॥ छच्छिका शीतला लघ्वी पित्तश्रमतृषाहरी । वातनुत्क फकत्सा तु दीपनी लवणान्विता ॥ ९॥
तकको सेवन करनेवाला मनुष्य रोगी नहीं होता, तक्रसे नष्ट किये हुए रोग फिर नहीं बाते । जैसे देवताओंके लिये अमृत सुखदायक है वैसे ही मनुष्योंके लिये तक्र है ।
तक्र- अम्लरस से वातको, मधुर रससे पित्तको और कषायसे कफको शीघ्र ही नष्ट कर देता है ।
उदश्वित-कफकारक, बलवर्धक और आमनाशक होता है ।
छच्छिका - शीतल, हलकी, दीपन, लवणरसयुक्त, कफकारक, वातनाशक तथा पित्त, श्रम और तृषाको दूर करती है ॥ ७-९ ॥ उद्धृतघृतस्तोकोद्र्धृतघृतानुद्धृतघृतानि ।
समुद्धृतं घृतं तत्रं पथ्यं लघु विशेषतः । स्तोकोद्धृतघृतं तस्माद् गुरु वृष्यंकफावहम् ॥१०॥ अनुद्धृतघृतं सांद्रं गुरु पुष्टिकफप्रदम् ।
जिस तक में से सम्पूर्ण मक्खन निकाल लिया हो वह पथ्य और अत्यन्त
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
(३२५ ) लघु होता है। जिसमें से थोड। मक्खन निकाल लिया हो वह भारी, वीर्य वर्धक और कफकारक है। जिससे घृत नहीं निकाला वह गाढा, भारी और पुष्टि तथा कफकारक होता है ॥ १० ॥
वातेऽम्लं शस्यते तत्रं शुण्ठी सैंधव संयुतम् ॥ ११ ॥ पित्ते स्वादु सितायुक्तं सव्योषमधिकं कफे | हिंगु जीरgतं घोल सैंधवेन च संयुतम् ॥ १२ ॥ भवेदतीव वातघ्नमर्शोतीसारहृत्परम् । सुरुच्यं पुष्टिं बल्यं वस्तिशूलविनाशनम् ॥ १३ ॥
वातमें सोंठ और सेंधव नमक से युक्त खट्टा तक देना योग्य है । पिनमें - मधुर तथा बूरा से युक्त तक देना चाहिये । तथा कफमें सोंठ, मिरच, पीपलयुक्त तक देना चाहिये ।
हींग जीरा और सैंधव डालकर पिया हुआ घोल - वातको अत्यन्त नष्ट करनेवाला, अशें तथा अतिसार को जीतने वाला, रुचिकारक, पुष्टिदायक, बलवर्धक तथा वस्तिके शुलको दूर करनेवाला होता है ॥ ११-१३ ॥
मूत्रकृच्छ्रे तु सगुडं पांडुरोगे सचित्रकम् । तक्रमामं कर्फ कोष्ठे हंति कण्ठे करोति च ॥ १४ ॥ पीनसश्वासकासादौ पक्कमेव प्रयुज्यते । शीतकालेऽग्निमांद्ये च तथा वातामयेषु च ॥ १५ ॥ अरुचौ स्रोतसां रोधे तकं स्यादमृतोपमम् । तत्र हंति गरच्छर्दि से कविषमज्वरान् ॥ १६ ॥ पांडुमेदोग्रहण्यर्शोमूत्र ग्रह भगन्दरान् । मेहं गुल्ममतीसारं शूल प्लीहोदरारुचीः ॥ १७ ॥
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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
वित्रकोष्ठगतव्याधीन् कुष्ठशोधतृषा कृमीन् । नैव तर्क क्षते दद्यान्नोष्णकाले न दुर्बले ॥ १८ ॥ न मूर्च्छाभ्रमदाहेषु न रोगे रक्तपित्तजे । यान्युक्तानि दधीन्यष्टौ तद्गुणं तक्रमादिशेत् ॥ १९॥
इति तवर्गः ।
मूत्रकृच्छ्रमें गुड डालकर पिया हुआा तथा पाण्डुरोगमें चित्रक डालकर पिया हुआ घोल गुणकारी होता है ।
( ३२६ )
कच्चे दूधका तक्र-कफको कोठेमें हरता है तथा कण्ठमें उत्पन्न कर देता है | अतः पीन्स, श्वास, कास आदिमें पक्के दूधका तक दी प्रयुक्त करना चाहिये ।
शीतकाल में, अग्निकी मंदतामें, वातव्याधियों में, प्ररुचिमें, नाडियोंके रोध में तक अमृतके समान होता है। तक्र-विष, वमन, प्रसेक, मूत्रग्रह भगन्दर, प्रमेह, गुल्म, प्रतिसार, शूळ, प्लीहा, उदररोग, अरुचि, श्वित्रकोट, कोष्ठगतरोग, कुष्ठ शोथ, तृषा और कृमिरोगको दूर करता है।
में, उकाल में, दुर्बल मनुष्य को, रक्त पित्तज विकार में तथा मुच्छ म और दाइ तक देना अच्छा नहीं है ।
आठ प्रकार की दहियों में से जिस २ दहीका जो तक्र है उस २ दहीके. झुण उस २ तक में जानने चाहिये ॥ १४-१९ ॥
इति श्रीवैद्यरत्न पंडितरामप्रसादात्मज - विद्यालङ्कार- शिवशर्मवैद्यशास्त्रकृत - शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ तकवर्गः समाप्तः ॥ १३ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३२७ ) नवनीतवर्गः १४.
-*म्रक्षणं सर्ज हैयंगवीनं नवनीतकम् । नवनीतं हितं गव्यं वृष्यं वर्णबलानिकृत् । संग्राहि वातपित्तामुक्क्षयार्शोदितकासहृत् ॥१॥ तद्धित बालके वृद्ध विशेषादमृतं शिशोः। नवनीतं महिष्यास्तु वातश्लेष्मकरं गुरु ॥२॥ दाहपित्तश्रमहरं मेदःशुकविवर्द्धनम् । दुग्धोत्थं नवनीतं तु चक्षुष्यं रक्तपित्तनुत् ॥३॥ वृष्यं बल्यमतिस्निग्धं मधुरं ग्राहि शीतलम् । नवनीतं तु सद्यस्कं स्वादु ग्राहि हिमं लघु ॥ ४॥ मेध्यं किंचित्कषायाम्लमीषत्तकांशसंक्रमात् । सक्षारकटुकाम्लत्वाच्छयरी कुष्ठकारकम् ॥ ५॥ श्लेष्मलं गुरु मेदस्यं नवनीतं चिरन्तनम् ॥६॥
___ इति नननीतवर्गः। गायका मक्खन-हितकारी, वीर्यवर्धक, वर्ण, बल, अग्नि इनको अढाने. वाला, ग्राही तथा वात, पित्त, रक्तविकार, क्षय, अर्श, अदितवात (लकवा), खांसी इनको नष्ट करने वाला है।
मक्खन-चालक वृद्ध सबके लिये हितकारी है। विशेष करके बच्चोंको अमृत समान है। भैंसका मक्खन-वातकफकारक, भारी, दाह, पित्त और श्रमको हरनेवाना, मेद और वीर्यको पढाने वाला होता tranam
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(३२८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
दूधसे निकला हुमा मक्खन-नेत्रों को हितकारी, रक्तपित्तनाशक, बल. कारक, अत्यन्त स्निग्ध, मधुर, ग्राही पौर शीतल है ।
तत्कालका निकला हुआ मक्खन-स्वादु, ग्राही, शीतल, हलका बुद्धि. बर्द्धक तथा तक अंश बी व आजानेसे किंचित कषाय और किंचित् खट्टा होता है। __ बहुत देरका निकला हुमा मक्खन-क्षार, कटु और मम्ल रसवाला होने के कारण नमन, अर्श और कुष्ठ को हरनेवाला, कफवर्द्धक, भारी तथा मेदको बढानेवाला होता है १-६॥
इति श्रीवैद्यरत्न-पंडितरामप्रसादात्मजविद्यालङ्कारश्रीशिवशर्मवैद्यशास्त्रिकृतायां शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतस्यादिनिघण्टौ नवनीतवर्गः समाप्तः ॥ १४ ॥
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घृतवगः १५,
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घृतमाज्यं हविः सर्पिः कथ्यते तद्गुणा अथ। घृतं रसायनं स्वादु चक्षुष्यं वह्निदीपनम् ॥ ३॥ शीतवीर्य विषालक्ष्मीपापपित्तानिलापहम् । अल्पाभिष्यंदिकांत्योजस्तेजोलावण्यबुद्धिकृत् ॥२॥ स्वरस्मृतिकरं मेध्यमायुष्यं बलकृद्गुरु। उदात बरोन्मादशुलानाहत्रणान् हरेत् ॥ ३ ॥ स्निग्धं कफकरं वृष्यं क्षयवीसर्परक्तनुत । गव्यं घृतं विशेषेण चक्षुष्यं वृष्यमनिकृत् ॥ ४॥ स्वादुपाकरसं शीतं वातपित्तकफापहम् ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३२९) मेधालावण्यकांत्योजस्तेजोवृद्धिकरं परम् ॥५॥ अलक्ष्मीपापरक्षोन्नं वयसः स्थापनं गुरु । बल्यं पवित्रमायुष्यं सुमंगल्यं रसायनम् ॥६॥ सुगन्धं रोचकं चारु सर्वाजेषु गुणाधिकम् । माहिषं तु घृतं स्वादु पित्तरक्तानिलापहम् ॥७॥ शीतलं श्लेष्मलं वृष्यं गुरु स्वादु विपच्यते । आजमाज्यं करोत्यनिं चक्षुष्यं बलवद्धनम् ॥ ८॥ कासे श्वासे क्षये चापि हितं पाके भवेत्कटु ।
औष्ट्र कटु घृतं पाके शोषक्रिमिविषापहम् ॥ ९ ॥ दीपनं कफवातघ्नं कुष्ठगुल्मोदरापहम् । पाके लध्धाविकं सर्पिः सर्वरोगविनाशनम् ॥ १० ॥ वृद्धिं करोति चास्थीनामश्मरीशर्करापहम् । चक्षुष्यमग्निसंधुक्ष्यं वातदोषनिवारणम् ॥११॥ कफेऽनिले योनिदोषे पित्ते रक्ते च तद्धितम् । चक्षुष्यमाज्यं स्त्रीणां वा सर्पिः स्यादमृतोपमम् १२॥ वृद्धिंकरोति देहाग्नेलघु पाके विषापहम् । तर्पणं नेत्ररोगनं दाहनुद्रडवाघृतम् ॥ १३॥ घृत, प्राज्य पौर हवि यह घोके नाम हैं। इसके गुणों को करते
घृत-रसायन, स्वादु, नेत्रको हितकारी, अग्निदीपक, शीतवीर्य, किश्चित अभिष्यन्दि, कांति-प्रोज, तेज लावण्य, बुद्धि, स्वर, स्मृति, मेधा, आयु, बन इनको बढानेवाला, भारी, स्त्रिाध, कफकारक, वीर्यवर्द्धक तथा वीर्य अलक्ष्मी, पाप, पित्त, वायु, उदावत, ज्वर, उन्माद, शून, पानाह, व्रण, क्षय वथा विसपै इनको नष्ट करता है। ! Shrutgyanam
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( ३३० )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
गायका घी - विशेष करके नेत्रोंको हितकारी, वीर्यवर्द्धक, अग्निदीपक पाक और रसमें स्वादु, शीतल, त्रिदोषनाशक, मेधा, लोवण्य, कांति तेज, पोज इनकी वृद्धिको करनेवाला, अलक्ष्मी, पाप और राक्षस भयको नष्ट करनेवाला, भायुको स्थापित करनेवाला, भारी, बलवर्द्धक, पवित्र मायुवर्द्धक, मङ्गलकारक, रसायन, सुगन्धयुत, रुचिकारक सुन्दर तथा सर्वघृतों से अधिक गुणकारी है।
भैसका बी- स्वादु, पित्त, रक्त तथा वायुको दूर करनेवाला, शीतल, कफ वर्धक, वीर्यवर्धक भारी तथा पाकमें स्वादु है ।
बकरीका घी - अग्निदीपक, नेत्रोंको हितकारी, बलवर्धक कटु तथा कास श्वास और क्षयमें हितकारी है
ऊंटनीका घी - पाक में कटु, दीपन, कफ और वातको नष्ट करने वाला तथा शोष, कृमि, विष, कुछ, गुल्म और उदररोग को दूर करनेवाला है ।
भेडका घी - पाक में लघु, सर्वरोगनाशक, अस्थियोंकी वृद्धिको करने - वाला, पथरी तथा शकराको नष्ट करनेवाल', नेत्रोको हितकारी, अग्निदीपक, वातदोषोंका निवारण करनेवाला है ।
·
नारीका घी-कफ, वात, योनिदोष, वात, रक्तविकार में हितकारी नेत्रोको हितकारी तथा अमृत के समान है ।
घोडीका घी-देहकी अग्निको दीपन करनेवाला है; पाकमें हलका है, विषविकारको दूर करता है, तर्पण है, नेत्ररोगनाशक है तथा दाहको दूर करता है ॥ १-१३॥
घृतं दुग्धभवं ग्राहि शीतलं नेत्ररोगहृत् । निदंति पित्तदाहास्रमदमूर्छा भ्रमानिलान् ॥ १४ ॥
दूधले उत्पन्न हुआ थी -ग्राही, शील, नेत्ररोगों को हरनेवाला, पित्त, दाह, रक्तविकार, मद, मूर्छा, भ्रम और वायुको दूर करता
॥ १४ ॥
इविर्ह्यस्तनदुग्धोत्थं तत्स्याद्वैयंगवीन कम् । हैयंगवीनं चक्षुष्यं दीपनं रुचिकृत्परम् ॥ १५ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३३१) बलकृबृंहण वृष्यं विशेषाज्ज्वरनाशनम् । वर्षादूबै भवेदाज्यं पुराण तत्रिदोषनुत् ॥ १६॥ मूर्छाकुष्ठविषोन्मादापस्मारतिमिरापहम् । यथायथाखिलं सर्पिः पुराणमधिकं भवेत् । १७ ॥ तथातथा गुणैः स्वैःस्वैरधिकं तदुदाहृतम् । योजयेत्रवमेवाज्यं भोजने तर्पणे श्रमे ॥ १८ ॥ बलक्षये पांडुरोगे कामलानेत्ररोगयोः।। राजयक्ष्मणि बाले च वृद्धे श्लेष्मकृते गदे ॥ १९॥ रोगे सामे विषूच्यां च विबंधे चमदात्यये । ज्वरे च दहने मंदे न सर्पिबई मन्यते ॥ २० ॥
इति घृतवर्गः।
पहिने दिनके जमाए हुए दृधमेंसे निकाला हुआ घी हैयंगवीन कहा जाता है। रेयंगान-नेत्रोंको हितकारी, दीपन, रुचिकारक, बलवर्धक, बृंहण, वृष्य, विशेष कर ज्वरनाशक होता है।
एक वर्षका पुराना घी-त्रिदोषनाशक, मूच्र्छा, कुष्ट, विष, उन्माद, अपरमार पौर तिमिरको दूर करता है । जैसे जैसे घी अत्यन्त पुराना होता है, वैसे २ रोगनाशक गुणों में अधिक होता जाता है। त्रिदोषजनित
और विषजनित विकारों को दूर करने के लिये पुराने घीकी प्रशंसा है। - भोजनमें तृप्त करने के लिये, थकावट दूर करनेके लिये, बलायमें पाण्डु रोगमें, कामहमें, मन्द दृष्टि होनेपर नेत्ररोगों में नवीन घीका ही उपयोग करना चाहिये।
राजयक्ष्मामें बच्चों और बूढे को रोगों में कफप्रधान रोग में, साम
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( ३३२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। म्याधियों में, विसूचिका, मदात्ययमें, विवन्धमें और मन्दाग्निमें अधेक धृत नहीं खाना चाहिये ।। १५-२० ॥
इति श्रीवैद्यरत्नरामप्रसादात्मजविद्यालकारशिवशर्मवैद्यशास्त्रिकृतशिवप्रकाशिका
भाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ घृतवर्गः समाप्तः ॥ १५ ॥
मूत्रवर्गः १६.
गोमूत्रम् । गोमूत्र कटु तीक्ष्णोष्णं क्षारं तिक्तक फापहम् । लवग्निदीपनं मेध्यं पित्तकृतकफवातहत् ॥ १॥ शूलगुल्मोदरानाहकण्वनिमुखरोगजित् । किलासगदवातामबस्तिरुक्कुष्ठनाशनम् ॥२॥ कासश्वासापहं शोथकामलापांडुरोग हृव ॥ ३ ॥
कण्डूकिलासगुदशूलमुखाक्षिरोगान् गुल्मातिसारमरुदामयमूत्ररोधान् । कासं सकुष्ठ जठरक्रिमिपांडुरोगान्
गोमूत्रमेकमपि पीतमपाकरोति ॥ ४॥ गोमूत्र-कटु, तीक्षण, उष्ण, क्षार, तिक्त, कफनाशक, हल्का, पग्निदीपक, बुद्धिबर्द्धक, पित्तकारक, कफवातनाशक होता है । एवं शूल, गुल्म, उदररोग, पानाह, कंड्ड, अक्षिरोग, मुखरोग, किलास, प्रामवात, बस्तिरोग, कुष्ठ, कास, श्वास, शोथ, कामला, पाण्डुरोग इन सबको दूर करता है। कण्डू, किनास, अश, शून, मुखरोग, अक्षिरोग, गुल्म, अतिसार,
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इतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( ३३३ )
वातरोग, मूत्रावरोध, काल, कुष्ट, जठररोग, कृमि और पाण्डुको केवल एक गोमूत्र ही पीने से दूर कर देता है ।। १-४.
सर्वेष्वपि च मूत्रेषु गोमूत्रं गुणतोऽधिकम् । अतो विशेषात्कथितं मूत्रं गोमूत्रमुच्यते ॥ ५ ॥ प्लीहोदरश्वासकासशोथवच कफापहम् । शूलगुल्मरुजानाहकामलापांडुरोगहृत् || ६ || कषायं तिक्ततीक्ष्णं च पूरणात्कर्णशूलनुत् ॥ ७ ॥
सब मूत्रों में गुणों से गोमूत्र अधिक गुणवाला कहा है, इस लिये केवल मूत्र शब्द से गोमूत्र का ही प्रयोग करना चाहिये । गोमूत्र - प्लीहा, उदर, बास, कास, शोथ, बिबंध, शूल, गुल्म, अनाह कामला और पाण्डुरोमको दूर करता है । कषाय, तिक्त और गरम करके कान में डालने से कानके शूलको दूर करता है ॥ ५-७ ॥
नरमूत्रं गरं हंति सेवितं तद्रसायनम् । रक्तपामाहरं तीक्ष्णं सक्षारं लवणं स्मृतम् ॥ ८ ॥ गोजाविमहिषीणां तु स्त्रीणां मूत्रं प्रशस्यते । खरोष्ट्रेभनराश्वानां पुंसां मूत्रं हितं स्मृतम् ॥ ९ ॥
इति मूत्रवर्गः ।
मनुष्यका मूत्र सेवन करनेसे गरदोषको दूर करता है पौर रसायन है । तथा रक्तविकार और पामाको हरता है, तीक्ष्ण, क्षारयुक्त और नमकीन है ।
गौ, बकरी, भेड और भैंस इनमें खी-जातिका मूत्र ग्रच्छा होता है । गधा, ऊंट, मनुष्य और घोडा इनमें पुरुष जातिका मूत्र हितकारी होता है ॥ ८-९ ॥
इति श्रीवैद्यरत्न पंडित रामप्रसादात्मज विद्यालङ्कार शिवशर्मवैद्यशास्त्रकृत-शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ मूत्रवर्गः समाप्तः ॥ १६ ॥
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(३३१)
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। तैलवर्गः १७.
तिलादिस्निग्धवस्तूनां स्नेहस्तैलमुदाहृतम् । तत्तु वातहरं सर्व विशेषात्तिलसंभवम् ॥ १॥ तिलतैलं गुरु स्थैर्यबलवर्णकरं सरम् । वृष्यं विकाशि विशदं मधुरं रसपाक्योः ॥२॥ सूक्ष्मं कषायानुरसं तिक्तं वातकफापहम् । वीय्यणोष्णं हिमं स्पशैं बृहण रक्तपित्तकृत् ॥३॥ लेखनं बद्धविण्मूत्रं गर्भाशय विशोधनम् । दीपनं बुद्धिदं मेध्यं व्यवायित्रणमेहनुत् ॥४॥ श्रोत्रयोनिशिरःशूलनाशनं लघुतारकम् । त्वच्य केश्यं च चक्षुष्यमभ्यंगे भोजनेऽन्यथा ॥२॥
तिल अादि स्निग्ध वस्तुका पीडन करनेसे निकाला दुपा स्नेह तैल कहा जाता है। सब प्रकारके तैल प्रायः वातनाशक होते है। और तिलों. कातेल विशेष रूपसे वातनाशक है। तिल का तैल-भारी, थरीरको दृढ बनानेवाला, बल, वर्ण कारक, सारक, वृष्य, विलासी, विराद, रस पाकमें मधुर, सूक्ष्म, काषायानुएस, तिक्त, वातकफनाशक, वीर्यमें उप, स्पर्शमें शीतल, बृहण, रक्तपित्तकारक, लेखन, मळम्बको बांधनेवाला, गर्भाशयको शुद्ध करनेवाला, दीपन, बुद्धिबईक, मेधाजनक, व्यथायो, व्रण पौर प्रमेहको दूर करने वाला, कान,योनि और शिरके शूनको नाश करनेवाला, शरीरको हलका बनानेवाला, स्वचा और केशोको सुन्दर बनानेवाला, नेत्रोंको हितकारी, मालिश और भोजनमें हिसकारी होता है ॥१-५॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३३५) छिन्नभिन्नच्युतोपिष्टमथितक्षतपिच्चिते । भग्नस्फुटितविद्धानिदग्धविश्लिष्टदारिते ॥ ६॥ तथाभिहतनि नमृगव्याघ्रादिविक्षते । वस्तौ पानेऽत्रसंस्कारे नस्ये कर्णाक्षिपूरणे ॥ ७ ॥ सेकाभ्यंगावगाहेषु तिलतैलं प्रशस्यते । घृतमब्दात्परं पक्वं हीनवीर्य प्रजायते ।
तैंले पक्वमपक्वं वा चिरस्थायि गुणाधिकम् । तिलतैल-छिन्न, भिन्न, च्युत, पिष्ट, मथित,क्षत,पिच्चित,भग्न, स्फुटित, विद्ध, अग्निदग्ध,विश्लिष्ट आदि अभिहत स्थानोपर, निर्भुग्न स्थानमें, मृग
और व्याघ्र प्रादिके किये हुर ततपर,वस्तिकर्ममें,पीने में, अबके संस्कारमें नस्य कर्ममें,कान और नेत्र में भरने के लिये,सेकमें,मालिशमें और अवगाइनमें तिलतैल सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।
पकाया हुआ घी एक वर्ष के बाद ही नवीर्य हो जाता है। तैल पक्व हो अथवा अपक हो,चिरस्थायी होता है और गुणोंमें अधिक होता है॥६-८॥
__ सर्षपतैलगुणाः । दीपनं सार्षपं तैलं कटुपाकरसं लघु ॥९॥ लेखनं स्पशवीर्योष्णं तीक्ष्ग पित्तास्रदूषकम् । कफमेदोनिलार्शोघ्नं शिरःकर्णामयापहम् ।। १० ॥
कण्डुकुष्ठकृमिश्वित्रकोठदुष्टक्रिमिप्रणुत् । . तद्वद्राजिकयोस्तैलं विशेषान्मृत्रकृच्छकृत् ॥ ११ ॥
सरसों का तेल-रस और पाकमें कटु,हलका, स्पर्श तथा वीर्यमें उष्ण, तीक्षण, रक और पितको दृषित करनेवाला, कफनाशक,मेदनाशक, वायु और अर्थ के हरनेवाला,कानके और शिरोंके रोगों को दूर करने वाला,तथा कण्डू, कुष्ठ, कृमि श्वित्र,कोठ और दुष्ट कृमियों को दूर करता है।
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( ३३६ ) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
सरसों के तेल के समान ही राई के तेल के गुण हैं। किंतु राईका तेल मूत्र• . कृच्छको करनेवाला है ॥ ९-११॥
तुवरीतैलगुणाः । तीक्ष्णोष्णं तुवरीतैलं लघु ग्राहि कफास्त्रजित् । वह्निकृद्विषहत्कण्डुकुष्ठकोठक्रिमिप्रणुत् । मेदोदोषापहं चापि व्रणशोथहरं परम् ॥ १२ ॥ तुवरी (तारामीरा) का तेल-अग्निवर्द्धक, तीक्ष्ण,उष्ण,ग्राही,कम और रक्तविकारको जीतने वाना, विषविकारको हरनेवाला तया कण्डू, कुष्ठ, कोठ, कृमि, मेदरोग और व्रण शोथको हरनेवाला है ॥ १२ ॥
अतसीतेलगुणाः। अतसीतैलमानेयं स्निग्धोष्णं कफपित्तकृत् ॥ १३ ॥ कटुपाकमचक्षुष्यं बल्यं वातहरं गुरु । मलकृद्रसतः स्वादु ग्राहि त्वग्दोषहृद्घनम् ॥१४॥ वस्तौ पाने तथाभ्यंगे नस्ये कर्णास्यपूरणे । अनुपानविधौ चापि प्रयोज्यं वातशांतये ॥ १५॥ अलसीका तेल-अग्निवर्द्धक, स्निग्ध, उष्ण, कफ, पित्तकारक,कटुपा की? नेत्रोंको अहितकारी,बलकारक, वातनाशक,भारी,मनकारक, रसमें स्वादु ग्राही, सचाके दोहरनेवाला,गाढा,नथा बस्तिकर्म, पीने में, अभ्यंगमें नस्य कर्ममें,कर्णपूरण में, मुखपूर अनुगन विधिले, वायुकी शांतिके. लिये प्रयोग किया जाता है ॥ १३-१५॥
. कुसुम्मतैलगुणाः। कुसुम्भतैलमम्लं स्यादुष्णं गुरु विदाहि च । चक्षुामहितं वृष्यं रक्तपित्तकफप्रदम् ॥ १६॥ कुसुंभे के बीजों का तेल-अम्ल, उष्ण,भारी,विदाहो,नेत्रों को हानिकारक पृष्य, रक्त पित्त और कफको बढानेवाला होता है ॥ १६ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । ( ३३७ ) खसतैलगुणाः ।
तैलं तु खमबीजानां बल्यं वृष्यं गुरु स्मृतम् । वातहर कफहच्छीतं स्वादुपाकरसं च तत् ॥ १७ ॥ खसखसका तेल बलकारक, वृष्य, भारी, वातनाशक, कफनाशक, शीत, रस और पाक में मधुर होता है ॥ १७ ॥
एरण्डतैलगुणाः ।
एरंडतेलं तीक्ष्णोष्णं दीपनं पिच्छिलं गुरु । वृष्यं त्वच्यं वयःस्थापि मेइकांतिबलप्रदम् ॥ १८ ॥ कषायानुरसं सूक्ष्मं योनिशुक्रविशोधनम् । विखं स्वादुरसे पाके सति कटुकं सरम् ॥ १९ ॥ विषमज्वरहृद्रोगपृष्ठगुह्यादिशुलनुत् ।
इंति वातोद्गनाहगुल्माष्ठीलाकटिहान् ॥ २० ॥ वातशोणित विडूबंधब्रमशोथाम विद्रधीन् । आमवात गजेंद्रस्य शरीरवनचारिणः । एक एव निहन्ताय मेरंड स्नेहकेसरी ॥ २१ ॥
एरण्डका तेल- तीक्ष्ण, उष्ण, दीपन, पिच्छिल, भारी, हृष्य, त्वचाके लिये हितकारी, वयस्थापनकर्ता, मेद, कांति और मळके बहानेवाला, कषायानुरस, सूक्ष्म, योनि और वीर्यको शुद्ध करनेवाला, चित्र, रस और पाक में मधुर, किंचित तिक्त, कटु और दस्तावर है । एवं विषमज्वर, हृद्रोग, पृष्टशूल, योनिशूल, वातोदर, अफारा, गुल्म, अष्ठीला, कमरका शूल, वातरक्त, मलका विबंध, ब्रध्म, शोथ, आमविकार और विद्रधिको दूर करता है। ग्रामवातरूपी हाथी जो शरीररूपी बनमें मस्त होकर फिरता है उसको एक परण्ड तेलरुपी शेर मार डालता है ॥ १८-२१ ॥
Aho! Shrutgyanam
२२
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । रालतैलगुणाः ।
तैलं सर्जरसोद्भूतं विस्फोटवणनाशनम् । कुष्ठपामाकमिहरं वातश्लेष्मामयापहम् ॥ २२ ॥
( ३३८ )
शलका तेल- विस्फोटक, व्रण, कोट, खुजली, कुमि, वात और कक रोगोंको दूर करता है ॥ २२ ॥
तैलं स्वयोनिगुणकृद्राग्भटेनाखिलं स्मृतम् । अतः शेषस्य तैलस्य गुणा ज्ञेयाः स्वयानिवत् ॥२३॥
इति तेल वर्गः ।
वाग्भटने लिखा है जो जो तेड़ जिन २ इयोंले उत्पन्न होता है, उस उस तेल का अपने कारण द्रव्यके समान गुण जानना चाहिये ॥ २३ ॥ इति श्री विद्यालंकारपंडित शिवरामवैद्य कृतशि प्रकाशिका भाषा तैलवर्गः समाप्तः ॥ १७ ॥
मधुवर्गः १८.
मधु ।
मधुमाक्षिक माध्वी कक्षौद्र सारच मीरितम् । Marathi goपरसोद्भवम् ॥ १ ॥ मधु शीतं लघु स्वादु रूक्षं ग्राहि विलेखनम् । चक्षुष्यं दीपनं स्वर्ये व्रणशोधनरोपणम् ॥ २ ॥ सौकुमार्य्यकरं सूक्ष्मं परं स्रोतोविशोधनम् । कषायानुरसं वादि प्रसादजनकं परम् ॥ ३ ॥ वर्ण्य मेधाकरं वृष्यं विशदं रोचनं हरेत् ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३३९) कुष्ठाशकासपित्तास्त्रकफमेहक्लमक्रिमीन् ॥ ४॥ मेदस्तृष्णावमिश्वासहितकातीसारविड्ग्रहान् । दाहक्षतक्षयात्रं तु योगवाह्यल्पवातलम् ॥५॥ मधु,माक्षिक,माध्वीक,ौद्र,लारघ,पक्षिकाबान्त, गरीबान्तभंगवान्त और पुष्परसोद्भव यह शहदके नाम हैं। इसका अंग्रेजी नाम Honey है।
मधु-शीतल, हलका, मधुर, रूत, ग्राहो, लेखन, नेत्रहि तकर, दीपन, स्वरकारक, वण को शोधा और रोषण करने वाला, पुनारताको बढानेवाला, सूक्ष्म नाडियों को शुद्ध करने वाला, कायानुप्स, आहादकारक, प्रसन्न करने वाला,वर्णको उनन करने का, वीर्य पद्धत, विशद, राचन तथा कुष्ठ, भर्श, काल, पिस, रक्त वेझार, कर, प्रह, ग्लाने, कृमि, मेद, प्यास, वनन,श्वास, हिचकी, मल दाहाबत, चार और रक्तविकारको नष्ट करने वाला है तथा योगाहो पोर किंचित वातकारक है ॥१-५॥
अथं मधुमेदाः। माक्षिक भ्रामरं क्षौद्रं पौत्तिकं छात्रमित्यपि ।
आध्यमौदालक दालमित्यष्टौ मधुजातयः ॥ ६॥ माक्षिक, भ्रापर, क्षोद, पोतेक, छात्र, अर्य,ौदालक और दान मधुके यह आठ भेद हैं ॥ ६ ॥
माक्षिकरक्षणगुणाश्च । मक्षिकाः पिंगवर्णास्तु महत्यो मधुमक्षिकाः । ताभिः कृतं तैलवण माक्षिक परिकीर्तितम् ॥ ७ ॥ माक्षिकं मधुषु श्रेष्ठं नेत्रामयहरं लघु ।
कामलार्श शतश्वासकासक्षयविनाशनम् ॥ ८॥ 'बडी मोर पिंगनधर्मवाली मलिकाको मधुमक्षिका कहते हैं । इनसे बनाया हुआ था वेबके वर्णवाला मधु मान्टिक कहलाता है। माक्षिक
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(३४० )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
मधुओं में श्रेष्ठ, नेत्ररोगोंको हरनेवाला, हलका तथा कामला, अर्श, क्षत श्वास, कास, क्षय इनका नाश करनेवाला है ॥ ७ ॥ ८ ॥
किंचित्सूक्ष्मैः प्रसिद्धेभ्यः षट्पदेभ्योऽलिभिश्चितम् । निर्मलं स्फटिकाभं यत्तन्मधु भ्रामरं स्मृतम् ॥ ९ ॥ भ्रामरं रक्तपित्तघ्नं मूत्रजाडयकरं गुरु । स्वादुपाकमभिष्यंदि विशेषात्पिच्छिलं हिमम् १० ॥ प्रसिद्ध भौंरोसे कुछ छोटे भौरों द्वारा बनाया हुआ, स्फटिक मणिके समान निर्मल जो मधु हो उसको भ्रामर कहते हैं ।
भ्रामर - रक्तपित्तनाशक, मूत्र तथा जडताको करनेवाला, भारी, पाक में मधुर, अभिष्यन्दि, विशेष करके पिच्छिल और शीतल है ॥ ९ ॥ १०४
मक्षिकाः कपिलाः सूक्ष्माः क्षुद्राख्यास्तत्कृतं मधु । मुनिभिः क्षौद्रमित्युक्तं तद्वर्णात्किपिलं भवेत् ॥ ११ ॥ गुणैमक्षिकवत ौद्रं विशेषान् मेहनाशम् ॥ १२ ॥
कपिल वर्णकी छोटी मक्खियां क्षुद्रा कहलाती हैं। इन मक्खियोंका बनाया हुआ कपिल वर्णवाला मधु क्षौद्र कहलाता है । क्षौद्रके गुण माक्षिक के समान ही हैं किन्तु यह विशेषकरके प्रमेहको नष्ट करता है ॥ ११ ॥ १५ ॥
कृष्णा या मशकोपमा लघुतराः प्रायो महापिंडका बध्नानास्तरुकोटरांतरगताः पुष्पास्वं कुर्वते । तास्तज्ज्ञैरिह पुत्तिका निगदितास्ताभिः कृतं सापषा तुल्यं यन्मधु तद्वनेचरजनैः संकीर्तितपौत्तिकम् ॥ १३ ॥ पौत्तिकं मधु रूक्षोष्णं पित्तदाहास्रवातकृत् । विदाहि मेहहृच्छस्तं ग्रंथयादिशतशोथिषु ॥
१४ ॥
काली मच्छर के सहा, बहुत छोटी, बडे पिण्ड बनानेवाली, खोह मौर
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.
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(३४१) वृक्षोंके अन्दर रहनेवाली जो पुष्पका रस लेकर शहद बनायें उसको पूतिका कहते हैं। उनका घोके सदृश बनाया हुआ जो शहद होता है उसको वनचर लोग पौत्तिक कहते हैं। पौत्तिक मधु-रुक्ष, उष्ण, विदाहि तथा पिन, दाह, रक्तविकार वात इनके करनेवाला है बौर प्रमेह ग्रंथि आदि रोग, क्षत और शोष इनमें दिया हु मा हितकारी है ॥ १३ ॥ १४ ॥
छात्रमधुगुणाः ।
वरटाः कपिलाः पीताः प्रायो हिमवतो वने ॥ १५ ॥ कुर्वेति छत्रकाकारं तज्जं छात्रं मधु स्मृतम् । छात्रं कपिलपीतं स्यात् पिच्छिलं शीतलं गुरु ॥१६॥ स्वादुपाकं कृमिश्वित्ररक्तपित्तप्रमेहजित् । भ्रमतृण्मोह विष त्तर्पणं च गुणाधिकम् ॥ १७ ॥
हिमालय में कपिन और पीत वर्णवाली, छत्र के आकारवाली मक्खियां जो मधु बनाती हैं उसको छात्र कहते हैं। छात्र- कपित और पीले वर्णका, पिच्छिल, शीतल भारी, स्वादुपाकी तथा कृमि, श्वित्र, रक्तपित्त, और प्रमेहको जीतने वाला है । एवं भ्रम, तृषा, मोह और विषको नष्ट करनेवाला और गुणों में उत्तम है ।। १५-१७ ॥
मधूकवृक्षान्निर्यासं जरत्काश्रमोद्भवाः । स्रवत्थाय तदाख्यातं श्वेतकं मालवे पुनः ॥ १८ ॥ तीक्ष्णतुंडास्तु याः पीना मक्षिकाः षट्पदोपमाः । अर्घास्तास्तत्कृतं यत्तु तदार्घ्यमितरे जगुः ॥ १९ ॥ आध्य मध्वतिचक्षुष्यं कफपित्तहरं परम् । कषायं कटुकं पाके तितं च बलपुष्टिकृत् ॥ २० ॥
जरत्कारुके आश्रम में उत्पन्न हुए मधूक ( महुए के ) वृचसे बहते हुए निर्यास (गोंदुकी) आर्ध्य कहते हैं । मालवेमें इसे श्वेतक कहते हैं । अन्यों
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(३४२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। के मतमें तीक्ष्ण मुखवाली, भ्रमरके सदृश जो पीली मक्खियां होती है उनको पy कहते हैं। इनके बनाये हुए मधुको आर्य कहते हैं। आर्य मधु-नेत्रोंको अत्यन्त हितकारी, कफ और पिसको हरनेवाला. कसैला पाकमें कटु, तिक्त तथा बल पुष्टिकारक है ॥ १८- २०॥
प्रायो वल्मीकमध्यस्थाः कपिलाः स्वल्पकीटकाः । कुर्वति कपिलं स्वल्पं तत्स्यादौदालकं मधु ॥२१॥
औदालकं रुचिकर स्वयं कुष्टविषापहम् । कषायमुष्णमम्लं च कटुपाक च पित्तकृत ॥ २२॥ प्रायः बम्बी में रहनेवाले छोटे २ पीले कीडे थोडासा पंला मधु बनाते हैं उसको दान करते हैं। श्रौदा क मधु- इचिकारक, स्वरकारक' कुष्ठ और विषको नाश करनेवाला, कसैला, गरम, अाल, पाकमें कटु तथा पित्तकारकरे ॥ ३१ ॥ २२॥
संश्रुत्य पतितं पुष्पायत्तु पत्रोपरि स्थितम् । मधुराग्लकषायं च तद्दालं मधुकीर्तितम् ॥ २३ ॥ दालंमधु लघु प्रोक्तं दीपनीयं कफापहम् । कपायानुरसं रूझं रुच्यं प्रच्छदिमहजित् ।। २४ ॥ अधिकं मधुरं स्निग्धं बृंहणं गुरु भारिकम् । जो मधु पुष्पमें गिरकर पत्ते पर स्थित हो जाता है, उसको दान मधु करते हैं । दाल मधु-अम्ल, कषाय, लघु, दीपन, कफनाशक,कषायातुश्स, रूक्ष.रुचिकारक, छर्दि और प्रमाको नष्ट करनेवाला, अत्यन्त मधुर, स्निग्य बंदण और तोलमें भारी होता है ।। २३ ॥२४॥
नवं मधु भवेत्पुष्टयै नातिश्लेष्महरं सरम् ॥ २५ ॥ - पुराणं ग्राहकं रूक्षं मेदोघ्नमतिलेखनम् ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३४३) मधुनः शर्करायाश्च गुडस्यापि विशेषता ॥२६॥ एकसंवत्सरेऽतीते पुराणत्वं स्मृतं बुधैः। मया मधु-पुष्टिकारक, कफको किंचित हरनेवाला, दस्तावर तथा. पुराना मधु-ग्राही, रूक्ष, मेदनाशक और अत्यन्त लेखन होता है।
मधु, खाण्ड और गुड एक वर्ष बीतनेपर पुराने होते हैं। यह विद्धानोंने कहा है ॥ २५ ॥२६॥
विषपुष्पादपि र सविषा भ्रमरादयः ॥२७॥ गृहीत्वा मधु कुवैति तच्छी गुणवन्मधु । विषान्वयात्तदुष्णं तु द्रव्येणोष्णेन वा सह ॥२८॥
उष्णार्तस्योष्णकाले च स्मृतं विषसमं मधु । विषले फूलोंसे रस लेकर विषैले भौंरे यदि मधु बनाये तो वह शीतल ही गुणकारक है। विषले पदार्थका संयोग होनेसे, गरम होनेसे, गरम द्रव्यके साथ संयोग होनेसे अथवा किसी उष्ण रोगसे पीडितको देनेने यह मधु विषके समान हो जाता है ।। २७ ॥ २८ ॥ मयनं तु मधूच्छिष्टं मधुशेषं च सिस्थकम् ॥ २९ ॥ मध्वाधारो मदनकं मधूषिामपि स्मृतम् । मदनं तु मृदु स्निग्धं भूतघ्नं व्रणरोपणम् ॥ ३० ॥ भनसंधानकृद्रातकुष्ठवीसपरक्तजित् ।
इति मधुवर्गः। मयन, मधूच्छिष्ट, मधुशेष, सिरक, मध्वाधार, मधूषित यह मोमके नाम हैं। मोम-मृदु, भूतनाशक, व्रणरोपक, टूटे हुएको जोडनेशला तथा वात, कुष्ठ, विसपे और रक्तविकारको जीतनकाला है ॥ २९ ॥ ३०॥ इति श्रीवैद्यरत्नपंडितरामप्रसादात्मजविद्यालं हार-शिवशर्मनेद्यकृत-शिवप्रकाशिका
भाषायां हरीतक्यादिनिघण्टो मधुवर्गः समाप्तः ॥ १८ ॥
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(३४४)
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
इक्षुवर्गः १९.
इक्षुर्दीच्छदः प्रोक्तस्तथा भूमिरसोऽपि च । गुडमूलोऽसिपत्रश्च तथामधुतृणः स्मृतः ॥ १ ॥ इनो रक्तपित्तना बल्या वृष्याः कफप्रदाः। स्वादुपाकरसाः स्निग्धा गुरको मृत्रला हिमाः ॥२॥ इक्षु. दीपच्छर, भूमिरस, गुडमल, असिग्त्र और मधुतण यह इक्षु (ईख ) के नाम हैं। इनको हिन्दी में गत्रा, फारसीमें नेशकर और अंग्रेजीमें Sugarcaue कहते हैं।
इक्षु-पक्त पिननाशक, बल तथा वीर्य को बढानेवाले, कफकारक, रत पौर पाकमें मधुर, स्निग्ध, भारी, मुबल पौर शीतन हैं ॥ १ ॥२॥ पौंड्रको भीरुकश्चापि वंशकः शतपोरकः । कांतारस्तापसेक्षुश्च काष्ठेक्षुः सूचित्रकः ॥३॥ नेगालोदीपत्र व नीलपारोऽप्यकोशकृत् । इत्येता जातयस्तेषां कथयामि गुगानपि ॥ ४॥ पोण्डक, भीरुक वंशव, शतपारक, कान्तार, तापसेशु, काष्ठा, सुधि पत्रक, नैपाल, दीघपत्र, नीलपोर और कोशकारक यह इक्षुकी जाति है। अब इसके गुणाका कहते हैं ॥ ३ ॥ ४ ॥
वातपित्तप्रशमनो मधुरो रसपाकयोः । सुशीसो घंह गो बल्यः पौंड्रको भीरकस्तथा ॥५॥ कोशकारो गुरुः शीतो रक्तपितक्षयापहः।। कांतारेक्षुर्गुरुर्वृष्यः श्लेष्मलो बृहणः सरः ॥६॥
DAShCHU
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३४६) दीर्घपोरः सुकठिनः सक्षारो वंशकः स्मृतः । शतपोरो भवेत्किचित्कोशकारगुणान्वितः ॥ ७॥ विशेषात्किचिदुष्णश्च सक्षारः पवनापहः । तापसेक्षुभवेन्मृद्वी मधुरा श्लेष्मकारिणी ।। ८॥ पौण्डक और भीरुक-शीतल, बृंहण, बलकारक वातपिननाशक और रस पाकमें मधुर होते हैं। कोशकार भारी, शीतल, रक्त पेस और भयको नष्ट करता है। कान्तार-भारी, वीर्यवर्धक, कफकारक, बृंहण पौर दस्तावर होता है । वंशक-बडी पोरियौवाला, कठोर और क्षारयुक्त होता है। शतपोर-कोशकारके कुछ गुणोंवाला विशेष करके किंचित उष्ण, क्षारयुक्त भौर वासनाशक होता है । तापसेक्षु-मृदु, मधुर, कक. कारक होता है॥५-८॥
काष्ठेक्षुः। एवंगुणैस्तु काष्ठेक्षुः स तु वातप्रकोपनः ॥९॥ सूचीपत्रो नीलपोरो नैपालो दीर्घपत्रकः । वातलाः कफपित्तघ्नाः सकषाया विदाहिनः ॥१०॥ मनोगुप्ता वातहरी तृष्णामयविनाशिनी। सुशीता मधुरातीव रक्तपित्तप्रणाशिनी ॥ ११ ॥ यही गुण काष्ठे में भी हैं। किंतु वह विशेष करके वातको कुपित करनेवाला है।
सूचीपत्रक, नेपाल, दीर्घपत्र पौर नीलपोरं यह-वातकारक, कषाय, विदाही तथा कफपित्तनाशक है।
मनोगुप्ता-वातनाशक, यासतम्बन्धिरोग, रक्तपित्तको नष्ट करनेवाली तथा शीतल और मधुर है ।। ९-११ ॥
बाल इक्षुः कथं कुर्यान्मेदोमेहकरश्च सः युवा तु वातहत्स्वादुरीपतीक्ष्णश्च पित्तनुत् ॥ १२ ॥
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( ३४६ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
रक्तपित्तहरो वृद्धः क्षयहृद्वलवीर्य्यकृत् । मूले तु मधुरोऽत्यर्थे मध्येऽपि मधुरः स्मृतः ॥ १३ ॥
· कक्षा मन्त्रा-कफकारक, भेद और मेहको बढानेवाला है । प्रधपका गन्ना वातनाशक, मधुर, किंचित तीक्ष्ण तथा पित्तनाशक है । पका हुआ गन्ना - बलवीर्यवर्धक, क्षय और रक्तपित्तको हरनेवाला है। गन्ना-जडमें अत्यन्त मधुर, मध्य में मधुर और ऊपरकी पोरियों में धारयुक्त होता है ।। १२ ।। १३ ।।
अग्रे ग्रंथिषु विज्ञेय इक्षुः पटुरसो जनैः । दन्तनिष्पीडितस्येक्षो रसः पितास्रनाशनः ॥ १४ ॥ शर्करासमवीर्य्यः स्यादविदाही कफप्रदः । मूलाग्रजं तु ग्रन्थयादिपीडनान्मल संकरात् ॥ १५ ॥ किंचित्कालविधृत्या च विकृतिं याति यांत्रिकः । तस्माद्विदाही विष्टंभी गुरुः स्याद्यांत्रिको रसः ॥ १६ ॥
दाँतों से चूमे र गन्ने का रस - पित और रक्तविकारका नाश करता है । शर्कराके समान वीर्यवर्धक, दादोत्पादक और कफकारक होता है ।
यन्त्र ( कुल्हाडी ) में मे निकाला हुआ गन्नेका रस-मूल, अग्रज तथा गांठ यादिके पीडने से मैल के मिल जानेसे और कुछ समय तक रक्खा रहने के कारण खराब हो जाता है । इस ही कारण कुल्हाडीका निकाला हुमा रस विदाहि, विष्टम्भि और भारी होता है ।। १४--१६ ॥
रसः पर्युषितो नेष्टो ह्यम्लो वातापहो गुरुः । कफपित्तकरः शोषी भेदनश्चाति मूत्रलः ॥ १७ ॥ पक्को रसो गुरुः स्निग्धः सतीक्ष्णः कफवातनुत् । गुल्मानाहप्रशमनः किंचित्पित्तकरः स्मृतः ॥ १८ ॥
गोका बासी रस- अपथ्य, खट्टा, वातनाशक, भारी, कफपित्तकारक, शोषी, भेदन और अत्यन्त मूत्रवर्धक है। ईखका पकाया हुआ रस-भारी
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.
(३४७ )
स्निग्ध, तीक्ष्ण, कफ वातनाशक, गुल्म तथा ग्रानाहको नष्ट करनेवाला और किंचित पित्तकारक है ॥ १७ ॥ १८ ॥
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इक्षोर्विकारास्तृइदादमूर्छापित्तास्रनाशनाः गुरवो मधुरा बल्याः स्निग्धा वातहराः सराः ॥ १९ ॥ वृष्या मोहहराः शीता बृंहणा विषहारिणः ।
ईख के रस के विकार अर्थात गुड आदि पदार्थ-भारी, मधुर, बलकारक, स्निग्ध, वातनाशक, दस्तावर, वीर्यवर्धक, मोहनाशक, शीतल, बृंहण तथा विष, प्यास, दाह, मूर्च्छा, पिस और रक्तविकारका नाश करते हैं ॥ १९ ॥
फाणितम् ।
इक्षो रसस्तु यः पक्कः किंचिद्गाढो बहुद्रवः ॥ २० ॥ स एवेक्षुविकारेषु ख्यातः फाणितसंज्ञया । फाणितं गुर्वभिष्यंदि वृंहणं कफशुक्रकृत् ॥ २१ ॥
नेका जो रस- कुछ गाढा, बहुत बहनेवाला और पका हुआ होता है इक्षुविकारोंमें उसको फाणित नामले पुकारा जाता है । फाणित-भारी, अभिष्यन्दि, बृंहण, करु और शुक्रको बढानेवाला, वात, पित्त और श्रमको हरनेवाला तथा मूत्र और वस्तिको शुद्ध करनेवाला है ॥ २० ॥ २१ ॥
·
वातपित्तश्रमान्हंति मूत्रवस्ति विशोधनम् । इक्षो रसो यः संपक्को घनः किंचिद्रवान्वितः ॥२२॥ मंदं यत्स्यंदते तस्मान्मत्स्यंडीति निगद्यते । मत्स्यंडी भेदनी बल्या लध्वीपित्तानिलापहा ॥२३॥ मधुरा बृंहणी वृष्या रक्तदोषापहा स्मृता ।
इक्षुका जो रस- अच्छी तरह पकाया हुआ, गाढा और किंचित बहनेवाला होता है उसे मत्स्यण्डी (मीजा) कइसे में क्योंकि यह मन्द ९
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( ३.४८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । रखता है। मास्यण्डी-भेदन, बलकारक, हलकी, पित्त और वातनाशक, मधुर, बृहण, वीर्यधिक पौर रक्तदोषनाशक है ।। २२ ॥ २३ ॥
गुडम् । इक्षो रसो यः संपको जायते लोष्ठवहृढम् ॥२४॥ स गुडो गौडदेशे तु मत्स्यंडये। गुडो मतः । गुडो वृष्योगुरु स्निग्धोवातघ्नो मूत्रशोधनः ॥२५॥ नातिपित्तहरो मेदकफक्रिमिबलप्रदः। गुडो जीर्णोलघुःपथ्याऽनभिष्यंघनिपुष्टिकृत ॥२६॥ पित्तघ्नो मधुरो वृष्यो वातघ्नोऽमृप्रसादनः।
गुडो नवः कफश्वासकासकृमिकरोऽनिकृत् ॥२७॥ इक्षुका जो रस-खूब पकानेसे लोष्ठक समान दृढ हो जाय उसको गुड कहते हैं । गौड देशमें तो मत्स्यण्डिको ही गुड कहते हैं। गुरु-वीर्यवर्द्धक, भारी, वातनाशक, मनशोधक, पित्तको किंचित हानेवाला, तथा मेद, कफ, कमि और बल को उत्पन्न करनेगाना है। .
पुराना गुड-हटका, पथ्यकारक, अभिष्यंदन को करने वाला, पग्निकारक, पुष्ट करनेवाला, पितनाशक, मधुर, वोर्य धर्द्धक, वातनाशक और रक्तको शुद्ध करनेवाला है । नबीनगुड़-कफ, श्वास, कास, कृमि और बलको बढानेवाला है ।। २४-२७ ॥
श्लेष्माणमाशु विनिहंति सदाईकेण पित्त निहंति च तदेव हरीतकीभिः । शुठया समं हरति वातमशेषमित्थं
दोषत्रयक्षयकराय नमो गुडाय ॥ २८ ॥ गुड-आद्रक के साथ खाया हुआ ककको, हरड साथ खाया हुआ पित्त
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. डी. ।
( ३४९ )
को और सौंठके साथ खाया हुआ सम्पूर्ण बातको शीघ्र ही नष्ट कर देता है । इस प्रकार त्रिदोषको नष्ट करनेवाले गुडको प्रणाम
हैं ॥ २८ ॥
खंडम् |
खंडं तु मधुरं वृष्यं चक्षुष्यं बृंहणं हिमम् । वातपित्तहरं त्रिग्धं बल्यं वांतिहरं परम् ॥ २९ ॥
खाण्ड - मधुर, वीर्यवर्द्धक, नेत्रोंको हितकारी, बृंहण, शीतल, वातपित्तनाशक, बलकारक तथा वमनको हरनेवाली है ॥ २९ ॥
सिता ।
खंडं तु सिकतारूपं सुश्वेता शर्करा सिता । सिता सुमधुरा रुच्या वातपित्तास्रदाहनुत् ॥ ३० ॥ मूर्च्छाछर्दिज्वरान हंति सुशीता शुक्रकारिणी ॥३१॥
वालूरेते के समान तथा श्वेत खाण्डको सिता अथवा शर्करा कहते हैं। सिता - अत्यन्त मधुर, रुचिकारक, अत्यन्त शीत, वीर्यवर्धक तथा बात, पित्तरक्तविकार, दाह, मूर्च्छा, छर्दि और ज्वरको दूर करती है ॥ ३० ॥ ३१ ॥
पुष्पासिता ।
शीता पुष्पसिता वृष्या रक्तपित्तहरी लघुः ॥ ३२ ॥
पुष्प सिता अर्थात बूरा - वीर्यवर्द्धक, रक्तपित्तनाशक और हलकी हैं ३२॥ सितोपला ।
सितोपला सरा लध्वी वातपित्तहरी हिमा । मधुजाशर्करा रूक्षा कप. पित्तहरी गुरुः ॥ ३३ ॥
छतीसार तृड्रदा हरकहतुवरा हिमा ।
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(३५०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
यथायथा स्यान्नमल्यं मधुरत्वं यपायथा ॥३४॥ स्नेहलाघवशैत्यानि सरत्त्वं च तथातथा।
इति इक्षुवर्गः। सीतोपला अर्थात मिश्री-दस्तावर, हलकी, शीतल तथा वातपित्तनाशक है।
मधुसे उत्पन्न हुई शर्करा-रूत, कफ-पित-नाशक, भारी, कसैली, शीतल तथा छ, अतिसार, तृष्णा, दाह और रक्तविकारोको दूर करती है।
खाण्ड और शर्करा जितनी निर्मक और मधुर अधिक होती है उसमें उतना ही हलकापन, स्नेह और शैत्य अधिक होता है ।। ३३ ॥ ३४ ॥ इति श्रीवद्यरत्नपंडितरामप्रसादात्मविद्यालंकारश्रीशिवशर्मकृतशिवप्रका
शिकाभाषायां हरीतक्यादिनिवग्टो इचवर्गः ॥ १९ ॥
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संधानवर्गः २०.
संधित धान्यमंडादि कांजिकं कथ्यते जनः। कांजिकं भेदि तीक्ष्गोष्णं रोचनं पाचनं लघु ॥१॥ दाहज्वरहरं स्पर्शात्पानाद्वातकफापहम् । माषादिवटकैर्युक्तं क्रियते तद्गुणाधिकम् ॥२॥ लघु वातहरं तत्तु रोचनं पाचनं परम् ।
शुलाजीर्णविबंधामनाशनं वस्तिशोधनम् ॥ ३ ॥ मुख बन्द करके किसी पात्र में रखे हुए धान्य मण्डादिको काजी करते हैं। काजी-भेदन, तीक्षण, उपप, रोचन, पाचन, हल्की, स्पर्श करनेने दाह और ज्वरको नष्ट करनेवाली और पीनेसे वास तथा कफकोहरती हैं। उडदोंके पडोसे युक्त कांनी अधिक गुणवाली, हस्की, वासनायक,
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३५१) रोचन, पाचन, पस्तिशोधक तथा शूल, अजीर्ण, विबंध और आमको नष्ट करनेवाली रोती है ॥ १-३॥
शोषमूभ्रिमातानां महकण्डुविशोषिणाम् । कुष्ठिनां रक्तपित्तानां कांजिकं न प्रशस्यते ॥४॥ पांडुरोगे यक्ष्मरोगे तथा शोषातुरेषु च । क्षतक्षीणे तथा श्रोते मदज्वरनिपीडिते ॥५॥ शोष, मूळ और भ्रमसे पीड़ितोंको, अदनालों को, खुनजीगलों को, जिनका शरीर सूख गया हो उनको, कुष्ठियों को पोर रक पित्तवालोंको कांजी देनी उचित नहीं । पाण्डुरोग, शोष, क्षतसे हुई टुर्व नता, थकावट पौर मंदम्परकी पिडा कांजी देनी अहितकर और दोषोंको कुपित करने वाली है ॥ ४॥ ५॥
एतेषां त्वहितं प्रोक्तं कांजिकं दोपकारकम् । तुषोदकं यरामैः सतुषैः शकलीकृतैः ॥ ६॥ तुषांवु दीपनं हृद्यं पांडुक्रिमिगदापहम् । तीक्ष्गोष्णं पाचनं पित्तरक्तकृद्रस्तिशुलनुत् ॥ ७॥ यदि कच्च योंको तुषों सहित टुकडे करके जल में डालकर संधान करे तो वह तुषोदक बन जाता है। तुषोदक-दीपन, हद्य, तीक्ष्ण, उष्ण, पाचन, पित्ताकारक, पस्तिशूननाशक तया पाण्डु और कृमियोंको मष्ट करनेवाला है ॥ ६ ॥७॥
सौवीरं तु यवैरामैः पौर्वा निस्तुपैः कृतम् । गोधूमैरपि सौवीरमाचार्याः केचिदूचिरे ॥ ८ ॥ सौवीरं तु ग्रहण्यकिफघ्नं भेदि दीपनम् । उदावतीगमर्दास्थिशूलानाहेषु शस्यते ॥ ९ ॥ यदि कच्चे अथवा परके यवोका छिलका उतार कर दुको २ करके
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(३५२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। उनको संधानरीतिसे जलमें भिगोदे तो उस पानीको सौवीर कहते हैं। किन्हीं प्राचार्योंके मतमें गेहूँ को पूर्वोक्त रीतिसे डालनेसे सौवीर बनता है। सौवीर-ग्रहणी, अश और कफको नष्ट करनेवाला, भेदन तथा उदा' वर्त, अंगमर्द, भस्थिशूल और पानाह इनमें दिया हुआ हितकारी होता है ॥ ८ ॥ ९॥
आरनालं तु गोधूमैरामैः स्यानिस्तुषीकृतैः । पक्वैर्वा संधितैस्तत्तु सौवीरसदृशो गुणः ॥ १०॥ करची अथवा पक्की गेहूं की तुष उतारकर संधान रीतिसे जल में भिगोदे तो उस जळको प्रारनाल कहते हैं । और वह गुणोंमें सौवीरके समान है ॥१०॥
धान्याम्लं शालिचूर्णाच्च कोद्रवादिकृतं भवेत । धान्याम्लं धान्ययोनित्वात्प्रीणनं लघुदीपनम् ११॥
अरुचौ वातरोगेषु सर्वेष्वास्थापने हितम् । चावलोंके अथवा कोदोंके चनके द्वारा संघानकी रीतिसे जो पानी बने उसको धान्याम्ल कहते हैं। धान्याम्ल-कांजी धान्योंसे उत्पन्न होनेके कारण तृप्तिकारक, हल्की, दीपन तथा अरुचि और सब किसमकी पास्थापनवस्ति करने में हितकारी है ॥ ११ ॥
शंडाकीराजिकायुक्तैः स्यान्मूलकदलद्रवः ॥ १२॥ सर्षपस्वरसैर्वापि शालिपिष्टकसंयुतैः । शण्डाकी रोचनी गुर्वी पित्तश्लेष्मकरी स्मृता॥१३॥ राई और मूलीके पत्तोंको अथवा रसोंके सस्थरस और चावलोकी पिट्टीको यदि सन्धान रीतिसे भिगोया जाय तो इनके जनको शंडाकी कहते हैं । शंडाकी-रोचन, भारी तथा पित्त और कफको करती है। १२ ॥ १३ ॥ कंदमूलफलादीनि सस्नेहलवणानि च । यत्र द्रवेऽभिषूयते तच्छुक्तमभिधीयते ॥ १४ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( ३५३
शुक्तं कफघ्नं तीक्ष्णोष्णं रोचनं पाचनं लघु । पांडुक्रिमिहरं रूक्ष भेदनं रक्त पित्तकृत् ॥ १५ ॥
कंदमूल फल आदि तेल और लक्ष्य सहित जल या इसमें संधान किये जायँ उसको शुक्त कहते हैं । शुक्त-कफनाशक, तीक्ष्ण, उष्ण, रुचिकारक, पाचन, हल्का, पाण्डु और कृमिको नष्ट करनेवाला, मळका भेदन करनेवाला, रूक्ष, और रक्तपित्तकारक है ।। १४ । १५ ।।
कंदमूलफलाढ्यं यत्तत्तु विज्ञेयमासुतम् । तदुच्यं पावनं वातहरं लघु विशेषतः ॥ १६ ॥
कंदमूल और फल इनसे बना हुई कांजी को आसुत कर दें। आलुतरुचिकारक, पाचन, वातनाशक और विशेष करके हल्का है ॥ १६ ॥
मद्यं तु सीधुमैरेय मिरा च मंदिरा सुरा । कादंबरी वारुणीच हालापि बलवल्लभा ॥ १७ ॥ पेयं यन्मादकं लोके तन्नद्यमभिधीते । यथारिष्टं सुरासीतवाद्यमनेकधा ॥ १८ ॥ मद्यं सर्वे भवेदुष्णं पित्तं कुद्वातनाशनम् । भेदनं शीघ्रपाकं च रूक्षं कफहरं परम् ॥ १९ ॥ अम्लं च दीनं रुच्यं पाचनं चाशुकारि च । तीक्ष्णं सूक्ष्मं च विरादं व्यवायि च विकाशिच २०
मद्य, सीधु, मैर, इरा, मदिरा, सुरा, कादम्बरी, वारुणी, हाला पौर बलवल्लभा यह शभबके नाम हैं। लोकमें जो पीकीस्तु मदको करनेवाली हो, उसको मद्य कहते हैं। और ऐसे ही अरिष्ट, सुरा, सीधु, आसव आदि भेदोंसे मद्य कई प्रकारकी है। सर्व प्रकारकी मद्य-गरम पित्तकारक, वातनाशक, भेदन, शीघ्र पचने वाली, अत्यन्त कफनाशक
२३
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( ३५४ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
खट्टी, दीपन, रुचिकारक, पाचन, शीघ्र प्रभाव दिखलानेवाली, तीक्षण, विशद, सूक्ष्म, व्यवायी और विकाशी है ॥ १७-२० ॥
आरिष्टम् ।
पक्वौषधाबुसिद्धं यन्मद्यं तत्स्यादरिष्टकम् | अरिष्टं लघुपाकेन सर्वतश्च गुणाधिकम् ॥ २१ ॥
पकाई हुई औषधियों और जलसे जो मद्य बनाई जाय उसको अरिष्ट कहते हैं। अरिष्ट - पाक में लघु और सब प्रकार से अधिक गुणोंवाला है । जिन द्रव्यों से अरिष्ट बनाया गया हो उन द्रव्योंमें जो गुण दो वदी अरिटके होते हैं ॥ २१ ॥
अरिष्टस्य गुणा ज्ञेया बीजद्रव्यगुणैः समाः । शालिषष्टिकपिष्टाद्यैः कृतं मद्यं सुरा स्मृता ॥ २२ ॥ सुरा गुर्वी बलस्तन्यपुष्टिमेदः कफप्रदा । ग्राहिणी शोथगुल्माशग्रहणी मूत्रकृच्छ्रनुत् ॥ २३ ॥ चावल अथवा साठी के चावल के चूर्ण ग्रादिकों से बनाए हुए मचको सुरा कहते हैं। सुरा-भारी, ग्राही तथा बल, स्तनों में दूध, पुष्टि, मेद और कक इनको बढ़ाती है । एवं शोथ, गुल्म, अर्श, ग्रहणी और मूत्रकृ चक्रको हरनेवाली है ।। २२ ।। २३ ।।
पुनर्नवाशालिपिष्टिविहिता वारुणी स्मृता । संहितैस्तालखर्जूररसैर्या सापि वारुणीं ॥ २४॥
पुनर्नवा और साठी चावलों को शिलापर पीसकर जो मद्य बनाई जाय उसको वारुणी कहते हैं । अथवा ताल और खजूरको इकठ्ठा करके उनके इससे जो मद्य बनाई जाय उसको भी वारुणी कहते हैं। वारुणी सुके समान गुणों वाली है ! किन्तु उससे हल्की और पीनस, ग्राध्मान तथा को नष्ट करनेवाली है ॥ २४ ॥
• Aho ! Shrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टा भा. टी.। (३५५ ) मुरावद्वारुणी लघ्वी पीनसाध्मानशूलनुत् ।। इक्षो पक्वरसै सिद्धः सीधुः पक्वरसश्च सः ॥२५॥ आमस्तैरेव यः सीधुः स च शीतरसः स्मृतः । सीधुः पक्वरसः श्रष्ठः स्वराग्निबलवर्णकृत् ॥२६॥ वातपित्तकर सबस्नेहनो रोचनो हरेत् । विबंधमेदःशोफार्शःशोषोदरकफामयान् ॥२७॥ गनोंके पक्के रससे जो मद्य बनाई जाय, उसको पक्वरससीधु और गन्नेके कच्चे रससे बनाई हुई मद्यको शीतलरससीधु कहते हैं। पक्वरस. सीधु-मुणोंमें श्रेष्ठ, स्वरको उत्तम करनेवाली, अग्नि पौर बलको बढानवाली, वर्णको उत्तम करनेवाली, वातपित्तकारक, शीघ्र ही स्निग्धताको दिखानेवाली । रोचन तथा विबन्ध, मेद, सूजन, उदररोग और कफ इन व्याधियोंको नष्ट करती है ।। २५-२७ ॥
तस्मादल्पगुणः शीतरसः संलेखनः स्मृतः। यदपक्वौषधांबुभ्यां सिद्ध मद्यं स आसवः ॥२८॥ आसवस्य गुणा ज्ञया बीजद्रव्यगुणः समाः। शीतरससीधु उससे अल्प गुणवाली तथा लेखन करनेवाली है। विना पकी औषधियों तथा जलसे बनाई हुई मद्यको पासव करते हैं। आसपके गुण जिन पदार्थों से आसव बनाया जाय उनके समान ही होते हैं ॥२८॥ मद्य नवमभिष्यंदि त्रिदोषजनकं सरम् ॥२९॥ अहृद्यं बृंहणं दाहि दुर्गधं विशदं गुरु । जीर्ण तदेव रोचिष्णु कृमिश्लेष्मानिलापहम् ॥३०॥ हृद्यं सुगंधिगुणवल्लघु स्रोतोविशोधनम् । नवीन मद्य-अभिष्यन्दी, त्रिदोषकारक, स्वावर, इदयको अप्रिय,
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(३५६)
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
वृहण, दादकारक, दुर्गन्धयुक, विशद् तथा भारी होता है । पुगना मद्य-रुचिकारक, हृदयको प्रिय, सुगंधित गुणोंवाला, हलका, नाडीको शुद्ध करनेवाला तथा कृमि, कफ और वायुको नष्ट करनेवाला होता है ॥ ३९ ॥ ३० ॥
सात्त्विके गीतहास्यादि राजसे साहमादिकम् ३३॥ तामसे निंद्यकर्माणि निद्रां च मदिरो चरेत् । मदिरा पीकर सात्त्विक मनुष्य गाने तथा हसने लग जाता है। रजो. गुणप्रधान मनुष्य साहस आदिको करता है । तथा तमोगुणी मनुष्य निध कर्मोको करता है ॥ ३१ ॥
विधिना मात्र या काले हितैरन्नैपथावलम् ॥३२॥ प्रहृष्टो यः पिबेन्मयं तस्य स्यादमृतोपमम् । विधिले ठीक मात्रामें हितकारक अनों के साथ अपने बन के अनुसार बो मनुष्य सन्नतापूर्वक मद्यको पीता है उसके लिये यह अमृत समान्छे गुणकारी है। ३२॥
मन्धनाशः। मुस्तैलबालगुडजीरकधान्यकैला यश्चर्वयन् सदसि वाचमभिव्यनक्ति । स्वाभाविकं मुखजमुज्झति पूतिगधं गंधं च मद्यलशुनादिभवं च नूनम् ॥३३॥
- इति संधानवर्गः नागरमोथा, कवाबचीनी, कुट्ट, जीरा, धनियां और इलायची इनको चबाकर जो मनुष्य सभामें बोलता है तो उसके मुखकी स्वाभाविक तथा मद्य लशुन आदि कोसे उत्पन्न हुई दुर्गन्ध नष्ट हो जाती है ॥ ३३ ॥ इति श्रीवैद्यरत्न पं०--रामप्रसादात्मन--विद्यालङ्कार--श्रीशिवशर्मवैद्य यात्रिकत--शिवप्र
काशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ सन्धानवर्गः समाप्तः ॥ २०॥
Abo! Shrutavanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. । द्रव्यपरीक्षा २०.
( ३५७ )
सूक्ष्मास्थिमां मला पथ्यासर्वकर्मणि पूजिता । क्षिप्ताभपि निमजेद्या भल्लातक्यस्तथोत्तमाः ॥ १॥ वाराहमूद्रवत्कंदो वाराही कंद संज्ञकः ।
सौवचलं तु काचाभं सैंधवं स्फटिकप्रभम् ॥ २ ॥ सुवर्णच्छविकं ज्ञेयं स्वर्णमाक्षिकपुत्तमम् । इन्द्रगोपप्रतीकाशं मनोहा चोत्तमा मता ॥ ३ ॥ श्रेष्ठ शिलाजतु ज्ञेयं प्रक्षिप्तं न विशीर्य्यते । तोयपूर्ण कांस्यपात्रे प्रतानेन विवर्द्धते ॥ ४ ॥ कर्पूरस्तुवरः स्निग्ध एला सूक्ष्मफला वरा । श्वेतचन्दनमत्तं सुगन्धि गुरुपूजितम् ॥ ५ ॥ रक्तचन्दनमत्यंत लोहितं प्रवरं मतम् । काकतुं निभः स्निग्धो गुरुः श्रेष्ठोऽगुरुर्मतः ॥ ६ ॥ सुगंधि लघु रूक्षं च सुरदारु वरं मतम् । सरलं स्निग्वमत्यर्थे सुगंधि च गुणावदम् ॥ ७ ॥ अतिपीता प्ररास्ता तु ज्ञेना दारुनिशा बुधैः जातीफलं गुरु स्निग्नं समं शुभ्रांतरं वरम् ॥८॥ मृद्वीका सोत्तमा ज्ञेया या स्याद्गान्तन पन्निभा । करमर्दफलाकारा मध्यमा सा प्रकीर्त्तिता ॥९॥
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( ३५८ ) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
खंडं तु विमलं श्रेष्ठं चन्द्रकान्तसमप्रभम् । गव्याज्यसदृशं गंधं रुच्यं मधु वरं स्मृतम् ॥ १० ॥
हरड सूक्ष्म गुठळीवाली तथा मोटी छालवाली सर्व कर्मोंमें श्रेष्ठ होती है । जलमें डालने से डूबजानेवाले भिलावे उत्तम हैं। वाराहके मस्तक के समान कंदवाला वारादीकंद श्रेष्ठ है। कांच के समान वर्णवाला सौवर्चल नमक उत्तम है। स्फटिकके समान कांतिवाला सैंधव नमक अच्छा होता है । स्वर्ण के समान कांतिवाला स्वर्णमाक्षिक उत्तम होता है । वीरबहू डीके समान वर्णवाली मैनखिल श्रेष्ठ है। शिलाजीत जलसे भरे हुए कांसी के बर्तन में डाली हुई न टूटे और जिसमें से तारे निकले वह श्रेष्ठ होती है। कर्पूर चिकना श्रेष्ठ है । छोटी इलायची श्रेष्ठ है । अत्यन्त सुगं षित और भारी चन्दन श्रेष्ठ होता है । अत्यन्त लाल रक्त चन्दन श्रेष्ठ कहा है । कन्येके तुण्ड के समान काळावाला, स्निग्ध तथा भारी अगर श्रेष्ठ
| सुगंधित, हल्का और रूक्ष देवदारु उत्तम है । अत्यन्त सुगंधित और स्निग्ध सरल गुणकारी है । अत्यन्त पीली दारु हलेदी उत्तम है। भारी, त्रिन्ध और ऊपर सफेद जायफल श्रेष्ठ है। मुनक्का वह उत्तम है जिलका गऊ स्तन के समान आकार हो । क्रौंदे के फल के आकारवाली मध्यम मुनक्का होती है । विमल चन्द्रमाकी कांतिके समान प्रभावाली खांड श्रेष्ठ है । गऊके घीके समान गंधवाला तथा रुचिकारक शहद श्रेष्ट होता है ।। १-१००
स्वभावतो हितानि । शालीनां लोहिता शाली षष्टिकेषु च षष्टिंका । शूकधान्येष्वपि यवो गोधूमः प्रवरो मतः ॥ ११ ॥ शिबिधान्ये वरो मुद्रो मसूरश्वाढकी तथा । रसेषु मधुरः श्रेष्ठो लवणेषु च सैंधवम् ॥ १२ ॥ दाडिमामलकं द्राक्षा खर्जूरं च परूषकम् । राजादनं मातुलुंगं फलवर्गे प्रशस्यते ॥ १३ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. 1
(३५९)
पत्रशाकेषु वास्तुकं जीवंती पोत्तिका वरा । पटोलं फलशाकेषु कंदशा वेषु सुरणम् ॥ १४ ॥ एणः कुरंगो हरिणों जांगलेषु प्रशस्यते । पक्षिणां तित्तिरी लावो वरो मत्स्येषु रोहितः ॥ १५ ॥ जलेषु दिव्यं दुग्धेषु गव्यमाज्येषु गोभवम् । तैलेषु तिलजं तैलमैक्षवेषु सिता हिता ॥ १६ ॥
शाली धान्यों में रक्तवर्णकी शाली, षष्टिकचावलों में साठीके चावल, शूकधान्यों में जौ तथा गेहूँ श्रेष्ठ हैं। शिम्बी धानों में मूँग, मसूर, अरहर उत्तम हैं । रसों में मधुर और लवणोंमें सैंधवलवण श्रेष्ठ है। फलों में अनार, आमला, अंगूर, खजूर, फाळसा, बडी, जामन और बिजोरा श्रेष्ठ है । पत्रशाकों में बाथुमका शाक, जीवंतीका शाक तथा पोईका शाक श्रेष्ठ है । फलशाकों में पटोल, और कंदशाकोंमें जमीकंद श्रेष्ठ होता है । जंगल के मांसो में एग कुरंग तथा हरिणोंका, पक्षियोंमें तित्तर मौर लवाका तथा महस्योंमें रोहित मत्स्यका मांस हितकारक है । जलोंमें प्रकाशका जल, दूध और घीमें गऊका दूध और घी, तेलीमें तिलका केल और इक्षुविकारों मिखिरी हितकारक है ।। ११-१६ ॥
स्वभावादहितानि ।
शिबीषु माषान् ग्रीष्मत लवणेष्वौषरं त्यजेत् । फलेषु लकुचं शाकेसार्षपं न हितं मतम् ॥ १७ ॥ गोमांसं ग्राम्यमांसेषु न हिता महिषीवसा । मेषीपयः कुसुंभस्य तैलं त्याज्यं च फाणितम् ॥१८॥
शिबिधान्यों में से ग्रीष्म ऋतुमें माषों को और लवणोंमेंसे ऊपर नमकको त्याग देना चाहिये । फलोंमें बडद्दर, शाकोंमें सरसोंक पनका शाक हानिकारक है । ग्राम्य मांसोंनें गोमांस और भैसोंका मांस, दूधोंमें
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( ३६० )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
भेडका दूध तेलोंमें कुम्भेका तेल तथा इक्षुविकारोंमें फाणित त्याज्य है ॥ १७ ॥ १८ ॥
संयोगविरुद्धानि ।
मत्स्यमानूपममं च दुग्धयुक्तं विवर्जयेत् । कपोतं पपस्नेभर्जितं परिवर्जयेत ॥ १९ ॥ मत्स्यानक्षुविकारेण तथाक्षौद्रेण वर्जयेत् । सक्तून्मांसपयोयुक्तानुष्णैर्दधिविवर्जयेत् ॥ २० ॥ उष्णं नभांबुना क्षौद्रं पायसं कृशरान्वितम् ॥२१॥ दशाहमुषितं सर्पिः कांस्ये मधुघृतं समम । कृतान्नं च कषायं च पुनरुष्णीकृतं त्यजेत् ॥ २२ ॥ एकत्र बहुमांसानि विरुध्यंते परस्परम् । मधुसर्पिर्वमा तैलं पानीयं वा पयस्तथा ॥ २३ ॥
मत्स्य और जलमें होनेवाले जानवरोंके मांस को दूध के साथ सेवन नहीं करना चाहिये। कबूतरके मांसको सरमोंक तेल के साथ, मच्छियों को शहद और क्षुविकारोंक साथ तथा सक्तुम्रोको दूधके साथ सेवन न करे । मांसको ठण्डे दहीसे सेवन न करे । गरम जल तथा आकाशके जल के साथ शहद और खिचड़ी के साथ दूध सेवन नहीं करना चाहिये । कांसीके बत्तनमें दश दिन रक्खा हुम्रा घृत तथा शहदके बराबर भी मिलाके नहीं खाना चाहिये । पकाया हुआ पत्र और काथ फिर गरम करके नहीं खाना चाहिये । बहुत मांस इकट्ठे करके नहीं खाना चाहिये । शहद, घी, चरबी और तेल, पानी और दूधके साथ नहीं खाने चाहिये || १९ - २३ ॥
भेषजसंकेतः ।
लवणं सैंधवं प्रोक्तं चन्दनं रक्तचन्दनम् ।
चूर्ण लेहा सवस्नेहाः साध्या धवलचन्दने ॥ २४ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.।
(३६१)
कषायलेपयोः प्रायो युज्यते रक्तचन्दनम् । अन्तःसम्माजने ज्ञेया हजमोदा यवानिका ॥२५॥ बहिःसंमार्जने सैव विज्ञातव्याऽजमोदिका। पयासर्पिःप्रयोगेषु गव्यमेव हि गृह्यते ॥ २६ ॥ शकृद्रसो गोमयकं मूत्रं गोमूत्रमुच्यते । लवण कहनेपर सेंधन और चन्दन करने पर रक्त चन्दन लेना चाहिये। वर्ण, चटनी, पासव और तेल इनमें सफेद चंदन डाल ग चाहिये । काय और लेपमें प्रायः रक्त चन्दनका प्रयोग होता है। अन्दरके समाजनके लिये यदानिका (अजशयन) लेनी चाहिये और बाहरके समाजनमें अज. मोदा लेनी चाहिये । दूध, घी, विष्ठा, रस और मूत्र, इनसे गायका दूध, भी, गोबर और गोमत्र लेना चाहिये ॥ २४-२६ ॥
प्रतिनिधिः। चित्रकाभावतो दंती क्षारः शिखरिजोऽथा ॥२७॥ अभावे धन्वयासस्य प्रक्षेप्या तु दुरालभा । तगरस्याप्यभावे तु कुष्ठं दद्याद् भिषग्वरः ॥२८॥ मूर्वाभावे त्वचो ग्राह्या जिंगनी प्रभवा बुधैः । अहिंस्राया अभावे तु मानकन्दः प्रकीर्तितः ॥२९॥ लक्ष्मणाया अभावे तु नीलकण्ठशिखा मता। बकुलाभाबतो देयं कहारोत्पलपंकजम् ॥३०॥ नीलोत्पलस्याभावे तु कुमुदं देयमिष्यते । जातीपुष्पं न यत्रास्ति लवंगं तत्र दीयते ॥ ३१ ॥ अर्कपर्णादि पयसो ह्यभावे तद्रसो मतः । पौष्कराभावतः कुष्ठं तथा लांगल्यभावतः ॥ ३२॥
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( ३६२ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
स्थैणेयकस्याभावे तु भिषग्भिर्दीयते गदः । चविकागजपिप्पल्यो पिप्पलीमूलवत्स्मृतौ ॥३३॥ अभावे सोमराज्यास्तु प्रपुत्राटफलं मतम् । यदि न स्याद्दारुनिशा तदा देया निशाबुवैः || ३४ ॥ रसांजनस्याभावे तु सम्यग दाव प्रयुज्यते । सौराष्ट्रय भावतो देया स्फटिका तगुणा जनैः ॥ ३५ ॥
चीतेके प्रभाव में शिखरीका खार अथवा दंती, जवासेके प्रभावमें दुरालभा और तगरके अभाव में कूट लेना चाहिये । मूकी छाल के अभा बजींगणीकी छाल. हींसा के प्रभाव में मानकन्द, लक्ष्मणाके अभाव में मोरशिखा, नीलोत्पलके अभाव में कुमुद और जावित्री के अभाव में लवंग लेना चाहिये । पाक और पर्ण आदिके दूध के अभाव में उसका रस लेना चाहिये । पोहकरमूल तथा लांगली के अभाव में कूट, थुणेष रुके अभाव में भी कूट ही लिया जाता है । चव्य और गजपिप्पली के अभाव मे पिप्पलीमूल, बावचीके अभाव में पनवाडके बीज, और दारुहळदीके अभाव में हल्दी लेनी चाहिये। रसौत न मिले तो हल्दी और सौर ष्ट्री न मिले वो वैसे ही गुणोंवाली फटकरी देनी चाहिये ॥ २७-३५ ॥
तालीसपत्रकाभावे स्वर्णताली प्रशस्यते । भार्ग्यभावे तु तालीप्तं कण्टकारी जटावा ॥ ३६ ॥ रुचिकाभावतो दद्यात्रणं पांसु पूर्वकम् । अभावे मधुयष्ट्यास्तु घातकीच प्रयोजयेत् ॥ ३७॥ अम्लवेतसकाभावे चुक्रं दातव्यमिष्यते । द्राक्षा यदि न लभ्येत प्रदेयं काश्मरीफलम् ॥३७॥ तयोरभावे कुसुमं बन्धूकस्य मतं बुधैः ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३६३) लवंगकुसुमं देयं नखस्याभावतः पुनः ॥ ३९ ॥ कस्तूर्य्यभावे कक्कोलं क्षेपणीयं विदुर्बुधाः ।। काकोलस्याप्यभावे तु जातीपुष्पं प्रदीयते ॥४०॥ सुगंधिमुस्तकं देयं कर्पूराभावतो बुधैः। कर्पूराभावतो देयं ग्रंथिपर्ण विशेषतः ॥ ११ ॥ कुंकुमाभावतो दद्यात्कुसुम्भकुसुमं नवम् । श्रीखण्डचन्दनाभावे कर्पूरं देयमिष्यते ॥ ४२ ॥ अमावे त्वेतयाद्या प्रक्षिपेद्रक्तचन्दनम् । रक्तचन्दनका भावे नवोशीरं विदुर्बुधाः ॥ ४३ ॥ मुस्ता चातिविषाभावे शिवाभावे शिवा मता। अभावे नागपुष्पस्य पद्मकेसरमिष्यते ॥४४॥
तालीसपत्रके अभाव में स्वर्णताली, भारंगीके अभावमें तालीस अथवा कंटकारीजटा, कचकके प्रभावमें पांसुलवण, तथा मुलहटीके प्रभारमें धाके फलोंका प्रयोग करना चाहिये । अम्लवेतके अभावमें वुक्र, दाखके अभाग्में काश्मरी फल, और उन दोनोंके अभावमें बंधूकका फूल लेना चाहिये। नखके अभाधम लवंगका फूल, कस्तुरीके प्रभावमें कंकोल और कंकोलके अभाव जावत्री, कपूरके अभाव में सुगंधित नागरमोथा, तथा विशेष करके प्रन्थिपर्ण लेना चाहिये । केसरके अभावमें कुसुम्भेका नया फूल, भऔर श्रीखण्ड चन्दनके अभावमें कपूर देना चाहिये। श्रीखण्ड चन्दन तथा कपूर के अभाव रक्तचन्दन और रक्तचन्दनके अभाव में खप्त, अती. सके अभावमें नागरमोथा, भूमि मामले के अभावमें प्रामळा, नागपुष्पके अभावमें पद्मकेशर लेना चाहिये ॥ ३६-४४॥
मेदाजीवककाकोली ऋद्धिद्वंद्वेऽपि चासति । वरीविदार्यश्वगंधावाराहीश्च क्रमात् क्षिपेत् ॥४५॥
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(३६४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। वाराह्याश्च तथाभावे चर्मकागलुको मतः। वारही कंदसंज्ञस्तु पश्चिमे गृष्टि संझकः ॥ ४६ ॥ वाराहीकंद एवान्यश्चर्मकारालु को मतः । अनूपे स भवेदेशे वाराह इव लोमवान् ।। ४७॥ भल्लातकीसहत्त्वे तु रक्तचन्दनमिष्यते । भल्लाताभावतश्चित्रं नलश्चेशोरभावतः ॥४८॥ सुवर्णा भावतः स्वर्णमाक्षिक प्रक्षिपेधः । श्वेतं तु माक्षिकंज्ञेयं बुबै राजतवध्रुवम् ॥४९॥ माक्षिकन्याप्यभावे तु प्रदद्यात स्वर्णगरिकम् । सुवर्ण मथवा रौप्यं मृतं यत्र न लभ्यते ॥५०॥ तत्रकांतेन कर्माणि भिषककुर्याद्विचक्षणः । कांताभावे तीक्ष्णलोहं योजयेद्वैद्य रत्तमः ।। ५१ ॥ अभावे मौक्तिकस्यापि मुक्ताशुक्तिं प्रयोजयेत् । मधु यत्र न लभ्येत तत्र जीर्ण गुडो मतः ॥२२॥ मत्स्यंड्यभावतो दद्युभिषजः सितशर्कराम् । असंभवे सितायास्तु बुधः खंडं प्रयोजयेत् ॥५३॥ क्षीराम वे रसो मौद्गो मारो वा प्रदीयते । अत्र प्रोक्तानि वस्तूनि यानि तेषु च तेषु च॥९॥ योज्यमे कतराभावे परं वैद्येन जानता। रसवीर्य वैषाकायैः समं द्रव्यं विचिंत्य च ॥२५॥ युज्याद्विविधमन्यद्वा द्रयाणां तु रसादिवित् ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी . ।
( ३६५ )
योगे यदप्रधानं स्यात्तस्य प्रतिनिधिर्मतः ॥ ५६ ॥ यत्तु प्रधानं तस्यापि सदृशं नैव गृह्यते ॥
इति द्रव्यपरीक्षादिवर्गः ।
मेदा और महामेदाके अभाव में मतावर, जीवक और ऋषभ कके प्रभाव में विदारीकन्द, काको ती मौर क्षीरकाको तीके प्रभाव में वाराही कन्द डालना चाहिये । वाराही कन्द के अभाव में चर्म करालू डालना चाहिये । वाराही कन्दकाही एक भेद चर्म्म हालू होता है जो धनूर देशोंमें उत्पन होता है । और वाराह की तरह लोमाला होता है । भल्लातकी के साथ नाल चन्दन मिलाना चाहिये, लेकिन भिलावों के अभाव में चिना और के अभाव में डा तथा रुपर्णके अभाव में स्वर्णमाक्षिक डालना चाहिये। चांदी के अभा में श्वेतमाक्षिक, माक्षिकके अभाव में स्वर्णगैरिक डालना न हिये, जहाँ मृतस्वर्ण और चांदी न मिले हां कान्तलोहसे और कान्तलोहके प्रभावमें तीक्ष्णलोहसे विचक्षण वैद्यको कार्य करना चाहिये। मौकिक के प्रभाव में मुक्ताशुक्तिका, मत्स्यण्डीके अभाव में शर्कराका, सिता ( मिलरी ) के प्रभा
में खांडका प्रयोग करना चाह। दूध के प्रभाव में मूंग या मसूरीका यूष दिया जाता है। यहां जो जो वस्तुएँ कही हैं उनमें से किसीके अभाव होनेपर वैद्यको उचित है कि रस वीर्य विपाकादिमें समान द्रव्य सोचकर उसकी जगह प्रयोग करे ।
योग में जो द्रव्य अप्रधान होता है उसका, तो प्रतिनिधि ले लेया जाता है परन्तु प्रधान द्रव्य (जैसे च्यवनाशमें आमलों और योगराज गुगुल ) - का प्रतिनिधि नहीं लेना चाहिये अर्थात् प्रधान द्रव्य अच्छा और विना बदलेके वह प्रधानही द्रव्य लेना चाहिये ॥ ४५-५६ ॥
इति श्री वैद्यरत्न पण्डित रामप्रसादात्मज - विद्यालंकार शिवशर्म वैद्यशास्त्रकृत-शिवप्रकाशिकाभाषायां हरीतक्यादिनिघण्टौ द्रव्यपरीक्षादिवर्गः ॥ २१ ॥
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( ३६६ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
अथ मांसवर्गः ।
अथ मांसस्य नामानि ।
मांसं तु पिशितं क्रव्यमामिषं पललं पलम् । मांस वातहरं सर्वे बृंहणं बलपुष्टिकृत् । प्रीणनं गुरु हृद्यञ्च मधुरंरसपाकयोः ॥ १ ॥
मांस, पिशित, कव्य, आमिब, पलल और पल ये मलिके संस्कृत नाम हैं । गुण-सर्व कारके मांस वातनाशक, पुष्टिकारक, वनबर्द्धक, तृमिदायक भारी, हृदयको प्रिय और रतमें तथा पाकमें मधुर हैं ॥ १ ॥
अथ मांसभेदः ।
मांसवर्गो द्विधा ज्ञेयो जांगलाssनूपभेदतः ॥ २ ॥ सम्पूर्ण मांस दो प्रकार के हैं, एक जांगलमांस और दूसरे प्रानूपमांस || जांगलमांसस्य लक्षणं गुणाश्च ।
मांसवत्र जंघाला बिलस्थाश्च गुहाशयाः । तथा पर्णमृगा ज्ञेयाविष्किराः प्रतुदास्तथा ॥ ३ ॥ प्रसहा अथ च ग्राम्या अष्टौ जांगलजातयः । जांगला मधुरा रूक्षास्तुवरा लघवस्तथा । बल्यास्ते बृंहणा वृष्या दीपना दोषहारिणः ॥ ४॥ मूक मिन्मिनत्वं च गद्दत्वार्दिते तथा ॥ बाधिर्य्य मरुचिच्छर्दिप्रमेदमुखजान् गदान् ॥ श्रीपदं गलगण्डञ्च नाशयत्यनिलामयान् ॥ ५ ॥ यहां मांसवर्ग में जंघाल, बिलस्थ (बिलेशय), गुहाशय, पर्ण मृग, विष्किर, प्रतुद, प्रसह और ग्राम्य ये पाठ जांगल जातिय हैं ।
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हरातक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३६७) गुण-जांगल जातिके मांस-मधुर, कक्ष, कसैले, हलके, बलदायक, पुष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, अनिको दीपन करनेवाले, दोषनाशक और गंगापन, मिन्-मिनापन, तोतलापन. अर्दितवात (लकवा), बहरापन, अरुचि, वमन, प्रमेह, मुखरोग, श्लोपद, गलगण्ड तथा वातसम्बन्धी रोगोको नष्ट करते हैं । ३-५ ॥
अथ अनूपमांसस्य रक्षणं गुणाश्च । कूलेचराः प्वाश्चापि कोशस्थाः पादिनस्तथा। मत्स्या एते समाख्याताः पञ्चधानूपजातयः ॥ ६॥ आनूपा मधुराः स्निग्धा गुरवो वह्निसादनाः । श्रेष्मलाः पिच्छिलाश्चापि मांसपुष्टिप्रदा भृशम् । तथाऽभिष्यन्दिनस्ते हि प्रायःपथ्यतमाःस्मृताः ॥७॥ कूलेचर, प्लव, कोशस्थ, पादी और मत्स्य ये पाँच भानूपजातिमें हैं। • गुण-मानूपजातिके मांस-मधुर, स्निग्ध, भारी, अग्निको मन्द करने. पाले, कफकारक, पिच्छिल, मांसको बहुत पुष्टिदायक, अभिष्यन्दी और विशेष करके बहुत पथ्य हैं ॥ ६॥७॥
अथ जांगलाः।
तत्र घालगणनाविशिष्ट गुणाः। हरिणणकुरंगर्घ्यपृषतन्यकुशम्बराः ।, राजीवोऽपि च मुण्डी चेत्यायाजांगलसंज्ञकाः ॥८॥ हरिणस्ताम्रवर्णः स्यादेणः कृष्णः प्रकीर्तितः । कुरंग ईषत्ताम्रः स्यादेणतुल्याकृतिर्महान् ॥ ९॥ ऋष्यो नीलांगको लोके स रोझ इति कीर्तितः । पृषतश्चन्द्रबिन्दुः स्यादरिणात्किञ्चिदल्पकः ॥१०॥ न्युकुर्बहविषाणोथ शम्बरो गवयो महान । राजीवस्तु मृगो ज्ञेयो राजभिः परितो वृतः ॥११॥
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( ३६८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
यो मृगः श्रृंगहीनः स्यात्स मुण्डीतिनिगद्यते। जंघालाः प्रायशः सर्वं पित्तश्लेष्महरा स्मृताः। किञ्चिदातकराश्चापि लघवो बलबद्धनाः ॥ १२॥ हरिण, एण, कुरंग, ऋग्य, पृषत, न्य, शम्बर, रानीव और मुण्डी इत्यादि पशु जघालसंज्ञक हैं। जो मृग लाल वर्णका हो उसको हरिख, जो काला हो उनको एण, किंचित लालवर्णका बडा और पाक सय प्राकृतिधाला हो उसको पुरंग, जो नीले वर्णका हो उसको ऋग्य और लोकमें रोझ जो चद्रके सदृश छींटोवाला और हरिणसे कुछ छोटा हो उसको पृषत, जिमफे बहुनसे सींग हों उसको न्यं कु (बारहसिंगा), बडे रोझको शम्बर, जिसके शरीरमें अधिक रेखा पडी हो उसको राजीव और जो मृग सींगरहित होता है उसको मुण्डी कहते हैं। प्रायः सर्व जंघाल-पिन तथा कफनाशक, कुछ बातकारक, हलके और बलबद्धक हैं। ८-१२॥
अथ विलेशयानां (विलनिवासी
प्राणियों की ) गणना गुणाश्च । गोवाशशभुजंगाखुशलक्याया,विलेशयाः । बिलेशया वातहरा मधुरा रसशकयोः । बृंहणा बद्धविण्मूत्रा वीर्योष्णाश्चप्रकीर्तिताः ॥३३॥ गोह, खरगोश, सांप, मूला और शल्लकी (सेई ) इत्यादिक विलस्थ (मिट्टीम रहनेवाले) कहाते हैं।
विलस्थों के मांस-वातनाशक, रसमें तथा पाकमें मधुर, पुष्टिकारक, मल तथा मूत्रको बांधनेवाले और उष्णवीर्य हैं ॥ १३ ॥
अथ गुहाशयानां ( गुफानिवासी
प्राणियोंकी ) गणना गुणाश्च । सिंहन्याप्रवृका ऋतरक्षुदीपिनस्तथा । बभ्रुजम्बूकमार्जारा इत्याधाः स्युर्मुहाशयाः ॥१४॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३६९) स्थूलपुच्छो रक्तनेत्रो बचदेहः स नाकुलः । गुहाशया वातहरा गुरूष्णा मधुराश्च ते । स्निग्धा बल्या हिता नित्यं नेत्रगुह्यविकारिणाम १५ सिंह, बाथ, भेडिया, रीछ, तरक्षु ( चीतल ), चीता, बधु ( नौला), गीदड और बिलाव इत्यादि जीव गुहाशय ( गुफामें रहनेवाले) कहाते हैं। जो मोटी पूँछवाला और लाल नेत्रोंयुक्त तथा पधके सदृश देहवाला होता है उसको नाकुल (न्यौला ) कहते हैं।
सम्पूर्ण गुहाशयोंका मांस-वातनाशक, भारी, गरम, मधुर, स्निग्ध, बलदायक और नेत्र तथा गुदाके रोगवालोंको सर्वदा हितकारी है ॥ १४ ॥ १५॥
अथ पर्णमृगाणां (पत्ते खानेवाले
प्राणियोंकी ) गणना गुणाश्च । वनौका वृक्षमार्जारो वृक्षमर्कटिकादयः । । एते पणमृगाः प्रोक्ताः सुश्रुताचैर्महर्षिभिः ॥ १६॥ वनौका वानरः । वृक्षमार्जारी वृक्षबिडालः।। वृक्षमर्कटिका 'रूपी वानर' इति लोके । स्मृताः पर्णमृगा वृष्याश्चक्षुष्याः शोषिणे हिताः।
खासाशंकासशमनाः सृष्टमूत्रपुरीषकाः ॥ १७॥ वानर, पृक्षपर रहनेवाले विलाप (चन बिलाव) और वृक्षमर्कटी (रूपी) ये सुश्रुतमादि महर्षियोंने पर्णमृग कहे हैं।
पर्णमृगोंका मांस-वीर्यपदक, नेत्रोंको हितकारी, शोष (क्षय ), रोगवालोंको हितकारी, मळ तथा मूबको निकालनेवाला और श्वास, बवा सीर तथा खांखीको नष्ट करते हैं ॥ १६ ॥ १७ ॥
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( ३७० )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. 1
अथ विष्किराणां (विष्किर पक्षियोंकी ) गणना गुणाश्च ।
वर्त्त कालाववर्तीरकपिञ्जलकतित्तिराः । कुलिंगकुक्कुटाद्याश्च विष्किराः समुदाहृताः ॥ १८ ॥ विकीर्य भक्षयन्त्येते यस्मात्तस्तादि विष्किराः । कपिल इति प्राज्ञैः कथितो गौरतित्तिरिः ॥ १९ ॥ विष्किरामधुराः शीताः कषायाः कटुपाकिनः । बल्या वृष्यास्त्रिदोषन्नाः पथ्यास्ते लघवः स्मृताः २०
वर्त्तक ( चित्रविचित्र रंगके पंखों की चिडिया ), लाव ( लवा ), वढेर, गौरतीतर, तीतर, घरकी चिडिया और मुरगा आदिक विष्किर कहाते हैं। ये जीव कुरेद कुरेद कर खाते हैं इससे इनकी विष्किर संज्ञा है । कपिल अर्थात गौर तीतर (कबूतर ) जानना । विष्किर जीवों का मोलमधुर, शीतल, कसैला, पाकमें चरपरा, बलकारक, वीर्यव ट्रैक, त्रिदोषनाशक, पथ्य और हलका है । १८-२० ॥
·
अथ प्रतुदानां ( चुंचसे खानेवाले पक्षियोकी ) गणना गुणाश्च ।
हारीतो धवलः पाण्डुश्वित्रपक्षो बृहच्छुकः । पारावतः खञ्जरीटः पिकाद्याः प्रतुदाः स्मृताः । प्रतुद्य भक्षयन्त्येते तुण्डेन प्रतुदास्ततः ॥ २१ ॥ हारीतःहरियल इति लोके ।
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कपोतो धवलः पाण्डुः शतपुत्रो बृहच्छुकः ॥ २२ ॥ दावघाटः इत्यमरः । कटोरा' इति लोके ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३७१) अनुदा मधुराः पित्तकफनास्तुवरा हिमाः। लघवो बद्धवर्चस्काः किञ्चिद्रातकराः स्मृताः ॥२३॥ हरियल, पिंडुकिया, चित्रपक्ष एक (शकारका तोता) बडा तोता, कर सर, खंजन और कोयळ प्रादिक प्रतुद कहे हैं। ये चोचले पदार्थको नोच कर खाते हैं इससे इनको प्रतुद कहा है। कबूतर-मफेद और पांडुर ऐसे दो प्रकारका होता है. शतपत्र यह बडे तोतेहीका नाम है और अमरकोशमें तो कटफोरेको लिखा है ।। . प्रतुदजीवों का मांस-मधुर, पित्त तथा कफनाशक, कलेला, शीतल, इलका, मलको बांधनेवाला और किंचित् वातकारक है ॥ २६-३३६ .
अथ प्रसहानां ( दूसरेसे छीनकर खानेवाल
पक्षियोंकी ) गणना गुणाश्च । काको गृध्र उलूकश्च चील्लश्च शशघातकः । चाषो घासश्च कुरर इत्याद्या प्रसहाः स्मृताः॥२४॥
शशघातकावाज इति लोके। चाषो नीलकण्ठइति लोके भासो गृध्रविशेषः स्यात्" । कुररः ‘कुरांकुर' इति लोके। "प्रसहाः कीर्तिता एते प्रसह्याच्छिद्य भक्षणात् ।" प्रसहाः खलु वीर्योष्णास्तन्मांसं भक्षयन्ति ये। ते शोषमम्मकोन्मादशुक्रक्षीणा भवन्ति हि ॥२६॥ कौमा, गिद्ध, उल्लू, चीन, बाज, वशिकरा, वई, नीलकण्ठ, भास (एक प्रकारका गिद्ध ) और कुरर (कुल) इत्यादि प्रतह कहाते हैं। बलात्कारसे छीन खाते हैं इससे इनका नाम प्रसह है।
प्रसह जीवोंका मांस-उष्णवीर्य है, इससे जो इनको खाते हैं उनको-शोष भस्मक और उन्मादरोग होता है तथा वीर्य क्षीण होता है ॥ २४॥ २५॥
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( ३७२ )
भावप्रकाशानेघण्टुः भा. टी.
अथ ग्राम्याणां (ग्राम्य पशुओंकी गणना गुणाश्च ।
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छागमेष वृषाश्वाश्वा ग्राम्याः प्रोक्ता महर्षिभिः । ग्राम्या वातदराः सर्वे दीपनाः कफपित्तलाः । मधुरा रसपाकाभ्यां बृंहणा बलवर्द्धनाः ॥ २६ ॥
बकरी, मेंढा, बैल और घोडा इत्यादि जीव ग्राम्य हैं । ग्राम्य जीवोंका मांस - वातनाशक, अग्निको दीपन करनेवाला, कफ तथा पित्तकारक, पाक में तथा रसमें मधुर, पुष्टिदायक और बलवर्द्धक है ॥ २६ ॥
अथानूपाः ।
तत्र कूलेचराणां गणना गुणाश्च ।
लुलायगण्डवाराहचमरीवारणादयः ।
एते कूलेचराः प्रोक्ता यतः कूले चरन्त्यपाम् ॥२७॥ कुलायो महिषः । गण्डः खड्गः। चमरी चमरपुच्छी गौः । कूलेचरा मरुत्पित्तहरा वृष्या बलावहाः । मधुराः शीतलाः स्निग्धा मूत्रलाः श्लेष्मवर्धनाः २८
भैंसा, गेडा, सुभर, चमरगाय ( सुरेमाय ) और हाथी आदि कूलेचर ( जल के किनारे रहनेवाले ) हैं ।
कूलेचरजीवों का मांस वात तथा पित्तनाशक, वीर्यवर्द्धक, बलदायक, मधुर, शीतल, स्निग्ध, मूत्रको बढानेवाला और कफवर्द्धक है || २७ ॥ २८ ॥ अथ प्लवानां (पंक्तियोंसे आकाशमें उडनेवाले पक्षियोंकी ) गणना गुणाश्च । हंससारसकारण्डबकक्रौञ्चशरारिकाः ।
नंदीमुखी सकादम्बा बलाकाद्याः प्लवाः स्मृताः । पुवंति सलिले यस्मादेते तस्मात्लवाः स्मृताः २९
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हरातक्यादानघण्टुः भा. टा.। (३७३ ) कारण्डः कपर्दिकाख्यो बृहद्धंसभेदः । स्थूला कठोरा वृत्ता च यस्याश्चञ्चूपरि स्थिता । गुटिका जम्बुसदृशी प्रोक्ता नन्दीमुखीति सा ॥३०॥
बलाका बगुली इति लोके ॥ प्वाः पित्तहराः स्निग्धा मधुराः गुरवो हिमाः । वातश्लेष्मप्रदाश्चापि बलशुक्रकराः सराः ॥ ३१॥ हंस, सारस, चकवा, बगला, क्रौं व (ढेंग), शरारी (बगलेका भेद ), नन्दीमुखी, बत्तक और बळाका आदि जीवोंको प्लब कहा है ये जलमें तेरते हैं, इसकारण इनका नाम प्लव है जिलकी चोंचके ऊपर मोटी, कठोर, गोल और जम्बूके सदृश गोलाई हो उसको नन्दीमुखी करते हैं
प्लवजीवोंका मांस-पित्तनाशक, चिकना, मीठा, भारी, शीतल, चात तथा कफको उत्पन्न करनेवाला, बलदायक, वीर्यवर्द्धक और दस्ता. घर है ॥२९-३१॥ ___ अथ कोशस्थानां ( ढकनेके मध्यमें रहनवाले
प्राणियोंकी ) गणना गुणाश्च । शंखशंखनखश्चापि शक्तिशम्बूककर्कटाः। जीवा एवंविधाश्चान्ये कोशस्थाः परिकीर्तिताः॥३२॥ ____ शंखनखः क्षुद्रशंखः। कोशस्था मधुराः स्निग्धा वातपित्तहरा हिमाः । बृहणा बहुवर्चस्का वृष्याश्च बलवर्द्धनाः ॥ ३३ ॥ शंख, छोटाशंख, सीप, शम्बूक (जल की छोटी सीप) और कर्कट केकडा पादिक तथा इसीप्रकारके और भी जीव कोशस्थ कहाते हैं ।
कोशस्थजीवोंका मांस-मधुर, चिकना, पात तथा पित्तनाशक, शीतल पुष्टिकारक, बहुत मलका , वीर्यवर्द्धक और नल दायक है ॥ ३२ ॥ ३३ ॥
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( ३७४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। . अथ पादिनां ( पांवोंके प्राणियोंकी)
गणना गुणाश्च । कुम्भीरकूर्मनकाश्च गोधामकरशंकवः । घंटिकः शिशुमारश्चेत्यादयः पादिनः स्मृताः ॥३४॥ कुम्भीरो मारको जलजन्तुः । कुर्मः कच्छपः । नका नाका इति लोके । गोधा गोहिजलजन्तुः । मकरः मगर इति लोके । शंकुः शाकुच इति लोके । घंटिकः घडियाल इति लोके । पादिनोऽपि च येते तु कोशस्थानां गुणैः समाः३५ कुम्भीर (मार डालनेवाला जलका जीव ) कछुआ, नाका, गोह, मगर, मच्छ, शंकु (शाकुच), घडियाल और शिशुमार (सुरू) इत्यादि जलमें रहनेवाले जिनके पाँव होते हैं उनको पादी कहते है गदीजीवों का मांस भी कोशस्थके सदृश गुणकारक है ॥ ३४॥ ३५ ॥
अथ मत्स्यानां ( मत्स्योंके ) नामानि गुणाश्च । मत्स्यो मीनो विकारश्च झषो वैसारिणोऽण्डजः शकुली पृथुरोमा च स सुदर्शन इत्यपि ॥ ३६॥ रोहिताद्यास्तु ये जीवास्ते मत्स्याः परिकीर्तिताः । मत्स्याः स्निग्धोष्णमधुरा गुरवः कफपित्तलाः॥३७॥ वातघ्ना बृंहणा वृष्याः रोचका बलवर्द्धनाः । मद्यव्यवायसक्तानां दीप्ताग्रीनाञ्च पूजिताः ॥३८॥ मत्स्य, मीन, दिकार, झप, वैसारिण, अण्डज, शकुली, पृथुरोमा और सदर्शन ये मच्छियोंके नाम हैं। रोहिडा मादिक जो जीव जल में होते हैं उनको मछली कहते हैं। Aho ! Shrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। ( ३७५) मछली-चिकनी, गरम, भारी, कफ तथा पित्तकारक, वातनाशक, पुष्टिदायक वीर्यवर्द्धक, रुचिकारक, बलबद्धक पौर मद्य (दारू) तथा मैथुनमें भासतोंको तथा प्रदीप्त जठराग्निवानोको हितकारी है ।। ३६-३८॥ अथ जंघालादीनां (जांघवालोंके) नामानि गुणाश्च ।
तत्र जंघालेषु हरिणस्य गुणाः। हरिणः शीतलो बद्धविण्मूत्रो दीपनो लघुः । रसे पाके च मधुरः सुगंधिः सन्निपातहा ॥ ३९ ॥ हिरनका मांस-शीतल, मल सथा मूत्रको बांधनेवाला, अग्निप्रदीपक, एका, रसमें तथा पाकमें मीठा, सुगन्धि पौर सन्निपातनाशक है ॥३९॥
अथ एणहरिणः ( काला हरिण )। एणः कषायो मधुरः पित्तामुक्कफवातहत् । संग्राही रोचनो बल्यो ज्वरप्रशमनः स्मृतः॥४०॥ एण नामक मृगका मांस-कसैला, मीठा, ग्राही, रुचिकारक, बलदायक और पित्त, रक्तविकार, कफ, वात तथा ज्वरनाशक है ॥ ४० ॥
अथ कुरङ्गः। कुरंगो बृंहणो बल्यः शीतलः पित्तद्गुरुः । मधुरो वातग्राही किञ्चित्कफकरः स्मृतः ॥११॥ कुरंग नामक मृगका मांस-पुष्टिकारक, बलवर्द्धक, शीतल, पित्तनाशक, भारी, मधुर, वातनाशक, ग्राही और किश्चित् कफकारक है ॥ ११ ॥
__ अथ रोझा ऋष्यो नीलांडकश्चापि गयो रोझ इत्यपि। गवयो मधुरो बल्यः स्निग्धोष्णः कफपित्तलः १२॥ ऋष्य नीलाण्डक, गवय और रोझ ये रोझके नाम हैं।
रोझका मान-मधुर, बलदायक, स्निग्ध, गरेप और कफ तथा पित्तकारक है॥४२॥
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4 ३७६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
.. अथ पृषतः (चित्तालमृग)। पृषतस्तु भवेत्स्वादुहिकः शीतलो लघुः । दीपनो रोचनः श्वासज्वरदोषत्रयास्रजित् ॥ ४३ ॥ पृषत (चित्तल ) नामक मृगका मांस-मधुर, ग्राही, शीतल, हलका, अग्निप्रदीपक, रुचिकारक और श्वास, ज्वर, त्रिदोष तथा रक्तविकारना. शक है ॥४३॥
अथ न्यकुः (बारहसिंगा)। न्यंकुः स्वादुर्लघुर्बल्यो वृष्यो दोषत्रयापहः ॥४४॥ न्यकु नामक मृग (बारहसिंगा) का मांस-मधुर,हनला, बनदायक, वीर्यवर्द्धक और त्रिदोषनाशक है ॥ ४४॥
___ अथ साबरम् । साबरं पललं स्निग्धं शीतलं गुरु च स्मृतम् । रसे पाके च मधुरं कफदं रक्तपित्तहत् ॥ ४५ ॥ राजीवस्तु गुणैज्ञेयः पृषतेन समो जनैः । सावर मृगका मांस-स्निग्ध, शीतल, भारी, रसमें तथा पाकमें मीठा, कफकारक और रक्तपित्तविनाशक है ॥ ४५ ॥ राजीवनामक मृगके मांसके गुण पृषत (चित्तलके) मांसके सदृश ही हैं।
अथ मुंडी। मुंडी तु ज्वरकासास्रक्षयश्वासापहो हिमः ॥१६॥ मुण्डी (सींगरहित ) मृगका मांस--शीतल और ज्वर, खाँसी, रकविकार, पय तथा श्वासनाशक है ॥ ४६॥
___ अथ बिलेशया।
तत्र शश (खरगोश ) स्थ नाममुणाः । लम्बकर्णः शशः शूली लोमकों बिलेशयः । शशः शीतो लघुग्राही रूक्षः स्वादुः सदा हितः४७॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। । ३७७) वहिकृत्कफपित्तघ्नो वातसाधारणः स्मृतः । • ज्वरातीसारशोषास्रश्वासामयहरश्च सः॥१८॥
लम्पकर्ण, शश, शूली, लोकर्ण और विलेश र ये खरगोश चौगडाके संस्कृत नाम हैं।
खरगोधका मांस शीतल, हलका, ग्राही, रूखा, स्वादु, सदा हितकारी,अग्निकारक, कफ तथा पिसनापक, साधारण वातकारक और ज्वर, भतिसार, शोष, रक्तविकार तथा श्वास को नष्ट करता है ॥४७॥४८॥
अथ सेधा (सेह, साही)। सेधा तु शल्यकः श्वावित्कथ्यन्ते तद्गुणा अथ। शल्यकः श्वासकासास्रशोषदोषत्रपापहः ॥ १९॥ सेधा, शल्पक और श्वावित, ये सेहके संस्कृत नाम हैं। सेहका मांस-बास, खांसी, रक्तविकार, शोष तथा त्रिदोषनाशक है ॥ ४९ ॥
अय पक्षिणां ( पक्षियोंके ) नामानि गुणाश्च । पक्षी खगो विहंगश्च विहगश्च विहंगमः । शकुनिर्विः पतत्री च विष्किरो विकिरोऽण्डजः ५०॥ धान्यांकुरचरा येऽत्र तेषां मांसं लघूत्तमम् ।
आनूपं बलकृन्मांस स्निग्धं गुरुतरं स्मृतम् ॥५१॥ पक्षी, खग, विहग, विहग विहंगम, शकुनि, वि, पतत्री, विम्किर, विकिर और अण्डज ये पक्षीके संस्कृत नाम हैं। जो पक्षी धान्य तथा अंकुर खानेवाले हैं इससे उनका मांस हलका और उत्तम है । जो पक्षी जलमें रहनेवाले हैं उनका मांस-स्निग्ध, बलदायक और बहुत भारी है ॥ ५० ॥ ५५ ॥
अथ तेषु विष्किरेषु वर्तकः (बटेर)। वर्तीको वर्त्तकश्चित्रस्ततोऽन्या वर्तका स्मृता ।
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( ३७८ ) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. । वर्त्तकोऽग्निकरः शीतो ज्वर दोषत्रयापदः । सुरुच्यः शुक्रदो बल्यो वर्त्त काल्पगुणा ततः ॥ ५२ ॥
वर्तीक, वर्तक और चित्र, ये घटेर के नाम दें । इसकी जातिके दूसरे पक्षियों को वर्त्तका कहते हैं ।
बटेरका मांस-निकारक, शीतल, रुचिकारी, वीर्यवर्द्धक, वल दायक और ज्वर तथा त्रिदोषनाशक है । वर्त्तकामें इससे हीन गुण हैं ॥ ५२ ॥
अथ लावः (लवा )
लावा विष्किरवर्गेषु ते चतुर्धा मता बुधैः । पांशुल गौरकोऽन्यस्तु पौंड्रको दर्मरस्तथा ॥ २३ ॥ लावा वह्निराः स्निग्वा गरघ्ना ग्राहिका हिताः । पांशुलः श्लेष्मलस्तेषुवी ष्णोऽनिलनाशनः ॥५४॥ गौरी लघुतरो रूक्ष वह्निकारी त्रिदोषजित | पौण्डूकः पित्तत्किञ्चिल घुर्वातकफापहः । दर्भ रक्तपित्तघ्नो हृदामयहरी हिमः ।। ५५ ।।
विष्किरवर्ग में लवा भी है, वह पांशुल, गौरक, पौण्ड़क और दर्भर इस भांति चार प्रकारका होता है।
लवेका मांस - अग्निकारक, स्निग्ध, विषविनाशक, ग्राही और हितकारी है ।
पांशुल जातिका लवा - कफकारक, उष्णवीर्य और वातनाशक है।
गौरकजातिका लवा - अत्यन्त हलका, रुक्ष, प्रनिकारक धौर विदोषनाशक है। पौंडकजातिका वा पिनकर्ता किंचित हलका और वात तथा कफनाशक है । दर्भरजातिका लवा रक्तपित्तना तक हृदयरोगनाशक और शीतल है ।। ५३-५५ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.।
अथ वातीकः ( वगेरा बटेरा)। वालीको वर्तिचटको वार्तीकश्चैव स स्मृतः । वालीको मधुरः शीतो रूक्षश्चकफपित्तनुत् ।।५६ वालीक, वर्तिचटक और वार्तीक ये वगरे के संस्कृत नाम हैं। वगेरेका माल-शीतल, कक्ष और कफ तथा पित्तनाशक है ॥ ५६ ॥
__अथ कृष्णतित्तिरिगौरतित्तिरी ( तीतर )। तित्तिरिः कृष्णवर्णः स्याचित्रोऽन्यो गौरतित्तिरिः । तित्तिरिर्बलदो ग्राही हिकादोषत्रयापहः । श्वासकासज्वरहरस्तस्माद्दौरोऽधिको गुणैः ॥ ५७ ॥ जो तीतर काले रंगका हो वह काला तीतर और जो चित्र विचित्र वर्णका हो वह गौर तीतर कहाता है।
तीतरका मांस-बलदायक, ग्राही और हिचकी, त्रिदोष, श्वास, खांसी तथा ज्वरनाशक है। काले तीतरकी अपेक्षा गौर तीतर के मोसमें अधिक
अथ चटकः ( गवरया चिडा)। चटकः कलविकः स्यात्कुलिंगः कालकण्ठकः । कुलिंगः शीतलः स्निग्धः स्वादुः शुक्रकफप्रददः । सन्निपातहरो वेश्मचटकश्चातिशुक्रलः ॥२८॥ वटक, कलविक, कुलिंग और कालकण्ठक, ये चिडेके संस्कृत नाम हैं। चिडेका मांस-शीतल, स्निग्ध, मधुर, वीर्य तथा कफवद्धक पौर सत्रिपात-नाशक है । घरोंमें रहनेवाले चिडेका मांस अत्यन्त वीर्यपद्धक
अथ कुक्कुटः वनकुक्कुटश्च ( मुरगा)। कुक्कुटः कृकवाकुः स्यात्कालज्ञश्चरणायुधः। ताम्रचूडस्तथा दक्षो प्रातर्नादी शिखण्डिकः ॥१९॥ कुक्कुटो बृंहणः स्निग्धो वीर्योष्णानिल हृद्गुरुः । .
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३८० ) भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. 1
चक्षुष्यः शुक्रकफकद्वल्यो वृष्यः कषायकः ॥ ६० ॥ आरण्यकुक्कुटः स्निग्धो बृंहणः श्लेष्मलो गुरुः । वातपित्तक्षयवमिविषमज्वरनाशनः ॥ ६१ ॥
कुक्कुट, कृकवाकु, कालज्ञ, चरणायुध, ताम्रचूड, दक्ष, प्रातर्नादी और -शिखडक ये मुरगे संस्कृत नाम हैं ।
मुरगेका मांस पुष्टिदायक, स्निग्ध, उप्यावीर्थ, वातनाशक, भारी' नेत्रोंको हितकारी, वीर्य तथा कफवर्द्धक, बलदायक, वृष्प और कसैला है । वनमुरगेका मांस - स्निग्ध, पुष्टिकारक, कफकर्ता, भारी और वात पित्त, क्षय वमन तथा विषमज्वरनाशक है ।। ५९-६१ ॥
अथ प्रतुदाः । हारीतः ( हरियल ) |
हारीतो रक्तपीतः स्याद्धरितोऽपि स कथ्यते ॥ ६२ ॥ हारीतोरूक्ष उष्णश्व रक्तपित्तकफापहः । स्वेदस्वरकरः प्रोक्त ईषद्वातकरश्च सः ॥ ६३ ॥
हारीत, रक्तपीत पौर हरित, ये हरियल के संस्कृत नाम हैं ।
हरियलका मांस - रूखा, गरम, रक्तपिन तथा कफनाशक, स्वेदकारक, स्वरको उत्तम करनेवाला और किंचित वातकारक है ॥ ६२ ॥ ६३ ॥ अथ पाण्डुधवलपाण्डू ( पण्डाकृतां ) । पाण्डुस्तु द्विविधो ज्ञेयश्चित्रपक्षः कलध्वनिः । द्वितीयो धवलः प्रोक्तः स कपोतः स्फुटस्वनः ॥६४॥ चित्रपक्षः कफहरो वातघ्नो ग्रहणीप्रणुत् । धवलः पाण्डुरुद्दिष्टो रक्तपित्तहरो हिमः ॥ ६५ ॥
पण्डाता दो प्रकारकी होती है । एक चित्रित पंखोंयुक्त मीठे स्वर. वाली होती है और दूसरी सफेदवर्णयुक्त स्फुटशब्दोंवाकी होती है पहिलीको पाण्डु और दूसरीको धवल और कपोत कहते हैं ॥ ६४ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः मा. टी. ।
( ३८१ )
चित्रपक्षका मांस कफनाशक और वात तथा संग्रहणी नाशक है । भवलका मांस - रक्तपित्तनाशक और शीतल है ॥ ६५ ॥
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अथ मयूरः ( मोर ) ।
मयूरश्चन्द्रकी केकी मेघरावो भुजंगभुक् । शिखी शिखावलो बहीं शिखण्डी नीलकण्ठकः ६६ ॥ शुक्लोपांगः कलापी च मेघनादानुलास्यपि । रसे पाके च मधुरः संग्राही वातशान्तिकृत् ॥६७॥ मयूर, चन्द्र की, केकी, मेघशवा भुजंगभुक्, शिखी, शिखाबल, बहीं, शिखण्डी, नीलकण्ठ, शुक्लोपांग, कलापी और मेघनादानुनासी ये मोरके. संस्कृत नाम हैं ।
मोरका मांस रस में तथा पाकमें मधुर, प्राही और घातनाशक है६६६७ ॥
अथ पारावतः (कबूतर, परेवा ) |
पारावतः कलरवः कपोतो रक्तवर्द्धनः । पारावतो गुरुः स्निग्धो रक्तपित्तानिलापहः ॥ संग्राही शीतलस्तज्ज्ञैः कथितो वीर्यवर्द्धनः ॥ ६८ ॥
पाशवत, कलरव, कपोत और रक्तवर्द्धन ये परेबा और कबूतरके नाम हैं । इन दोनोंका मांस भारी, स्निग्ध, ग्राही, शीतल, वीर्यवर्द्धक और रक्तपिन तथा वातनाशक है ॥ ६८ ॥
tr verses (पक्षियों के अण्डाके ) गुणाः । नातिस्निग्धानि वृष्पाणि स्वादुपाकरसानि च । वातघ्नान्यतिशुकाणि गुरूण्यण्डानि पक्षिणाम् ६९
पक्षियोंके अण्डेको हिन्दीमें अंडा । बं- डिम्ब गु० - इंडा कहते हैं । पक्षियोंका अंडा - बहुत स्निग्ध नहीं, वृष्य, भारी, पाकमें तथा इसमें मधुर, वातनाशक और अत्यन्त वीर्यवर्द्धक है ॥ ६९
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. 1
अथ ग्राम्यच्छागः ( बकरा ) |
छागलो बर्करश्छागो बस्तोऽजश्छेलकः स्तुभः । अजा छागा स्तुभा चापिछेलिकाचगलस्तनी ॥७०॥ हागमांसं लघु स्निग्धं स्वादुपाकं त्रिदोषनुत । नातिशीत मदाहि स्यात्स्वादुपीनसनाशनम् ॥ ७१ ॥ परं बलकरं रुच्यं बृंहणं वीर्यवर्द्धनम् । अजायास्त्वप्रसुताया मांसं पीनमनाशनम् ॥ ७२ ॥ शुष्ककासेऽरुचौ शोषे हितमग्नेश्च दीपनम् । अजासुतस्य बालस्य मांस लघुतरं स्मृतम् ॥७३॥ हृद्यं ज्वरहरं श्रेष्ठं सुखहं बलदं भृशम् । मांसं निष्कासिताण्डस्य छागस्यकफकृद्गुरु ॥ ७४ ॥ स्रोतः शुद्धिकरं बल्यं मांसदं वातपित्तनुत् । वृद्धस्य वातलं रूक्षं तथा व्याधिमृतस्य च । ऊर्द्ध विकारघ्नं छागमुण्डं रुचिप्रदम् ॥ ७५ ॥ छागल, वर्कर, छाग, बस्त, : अज, छेलक धौर स्तुभये बकरे के -संस्कृत नाम हैं ।
₹ ३८२ )
बकरे का मांस हलका, स्निग्ध, पाकमें मीठा, त्रिदोषनाशक, बहुत शीतल नहीं, दाहकारक नहीं स्वादु, पीनसनाशक, अत्यन्त बलकर्त्ता, चिकारी, पुष्टिदायक और बीर्यवर्द्धक है ।
अप्रसूता ( बिनाच्याई ) बकरीका मांस - पीनसको नष्ट करनेवाला, अग्निदीपक और सूखी खांसी, अरुचि तथा शोषरोगमें दिवकारी है। बकरीके बच्चेका मांस बहुत हलका, हृदयके प्रिय, ज्वरनाजक, श्रेष्ठ, सुखदायक और बहुत बलदायक है। जिसके अण्ड निकालडाले हों ऐसे बकरे का मांस-कफकारक, भारी, ताडियोंको शुद्ध करनेवाला, बलदायक
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी . ।
( ३८३ )
मालवर्द्धक और वात तथा पिसनाशक है । वृद्ध, रोगयुक्त और मृतक बकरे का मांस वातकारक और रूखा है। बकरे के मस्तकका मांस - हँसनीसे ऊपर के विकारोंको नष्ट करनेवाला और रुचिकारी है ।। ७०-७५ ॥ अथ मेष: (मेंढा ) |
मेट्रो मेढो हुडो मेष उरणोऽप्येडकोऽपि च । अविवृष्णिस्तथोर्णायुः कथ्यन्ते तद्गुणा अथ ॥ ७६ ॥ मेषस्य मांस पुष्टौ स्यात्पित्तश्लेष्मकरं गुरु । तस्यैवण्ड विहीनस्य मांस किञ्चिल्लघुस्मृतम् ॥७७॥৷ मेढू, मेढ, हुड, मेष, उरण, एडक, अवि, वृष्णि और ऊर्णायु ये मेंढके संस्कृत नाम हैं।
मेंडेका मांस पुष्टिदायक, पित्त तथा कफकारक और भारी है। जिसके अण्ड निकाल लिये हों ऐसे मेंढका मांस कुछ हलका है ॥ ७६ ॥ ७७ ॥
अथ एडक: (दुम्बा ) ।
एडकः पृथुशृंगः स्यान्मेदः पुच्छस्तु दुंबकः । एडकस्य पलं ज्ञेयं मेषामिषसमं गुणैः ॥ ७८ ॥ मेदः पुच्छोद्भवं मांसं हृद्यं वृष्यं श्रमापहम् । पित्तश्लेष्मकरं किंचिद्वातव्याधिविनाशनम् ॥ ७९ ॥
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संस्कृत नाम हैं ।
एडक, पृथुश्रृंग, मेदःपुच्छ और दुबक ये दुब एडकाका मांस-मेंडे के मांस के सहरा गुणवाला है और दुबाका मांस हृदयको प्रिय, वृष्य श्रमनाशक, पित्त तथा कफहारक और वातसम्बन्धी रोगोंको नष्ट करता है ॥ ७८ ॥ ७९ ॥
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अथ वृषभः (बैल) ।
बलीवर्दस्तु वृषभ ऋषभश्च तथा वृषः । अनशन्सौरभेयोऽपि गौरक्षा भद्र इत्यपि ॥ ८० ॥
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(३८४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
सुरभिः सौरभेयी च माहेयी गौरुदाहृता। गोमांस तु गुरु स्निग्धं पित्तश्लेष्मविवर्द्धनम् ॥ बृंहण वातद्वल्यमपथ्यं पीनसप्रणुत् ॥ ८१ ॥ बनीवर्द, वृषभ, ऋषभ, वृष, अनडूवान्, सौरभेष, गौ, उक्षा और भद्र ये बैल के संस्कृत नाम हैं।
पौर सुरभि, सौरभेयी, माहेयी और गौ, ये गायके संस्कृत नाम हैं। बलका मांस-भारी, स्निग्ध, पित्त तथा कफवद्धक, पुष्टिकारक, वात. नायक, बलदायक, अपश्य और पीनस रोगनाशक है। ८० ॥ ८१ ॥
अथ अश्वः (घोडा)। घोटकेऽप्यश्वतुरगास्तुरंगाश्च तुरंगमाः। वाजियाहार्वगन्धर्वहयसैन्धवसप्तयः ॥ ८२ ॥ अश्वमांस तु तुवरं वह्नित्कफपित्तलम् । वातहबृंहणं बल्यं चक्षुष्यं मधुरं लघु ॥ ८३ ॥ घोटक, अश्व, तुरग, तुरंग, तुरंगम, वाजि, वाह, पर्व, गन्धर्व, हय, सैंधव और साम ये घोडेके संस्कृत नाम हैं।
योडेका माल-कसैला, अग्निकारक, कफ तथा पित्तको करनेवाला, पातनाशक, पुष्टिदायक, बळकारक नेत्रोंको हितकारी, मधुर पौर हलका है॥ ८२ ॥ ८३,
अथ कूलेंचराः।
तत्र महिषः ( भैंसा)। महिषो घोटकारिः स्यात्कासरश्च रजस्वलः । पीनस्कन्धः कृष्णकायो लुलायो यमवाहनः ॥८४॥ माहिषस्यामिषं स्वादु स्निग्धोष्णं वातनाशनम् ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३८५) निद्राशुक्रप्रदं बल्यं तनुदाळकरं गुरु। वृण्यञ्च सृष्टविमूत्रं वातपित्तास्रनाशनम् ॥ ८५ ॥ महिष, घोटेकारि, कासर, रजस्वल, पीनस्कन्ध, कृष्णा काय, लुलाय और यमवाहन ये भले के संस्कृत नाम हैं।
भैसेका मांस-मधुर, स्निग्ध, गरम, वातनाशक, निद्रा. शुक, बलदा. यक शरीरको दृढ करनेवाला, वृष्य, मल तथा मूत्रको आधेक करनेवाला पौर वात, पित्त तथा रक्तविकारनाशक है ॥ ८४ ॥ ८५॥
अथ मण्डूका ( मेंडक) मंडूकः प्रगो भेको वर्षाभूर्द१रो हरिः मंडूकःखेमलो नातिपित्तलो बलकारकः ॥८६॥ मण्डूक, प्नवग, भेक, वर्षा दर्दुर और हरि ये मेंड के संस्कृत नाम हैं। मेंडकका मांत-कफकारक, अत्यन्त पित्तकारी नहीं और बमदायक है॥ ८६ ।।
अथ पादिनः ।
तत्र कच्छपः (कछुआ) कच्छपो गूढपाकूर्मः कमठो दृढपृष्ठकः । कच्छपोः बलदो वातपित्तनुत्पुंस्त्वकारकः ॥८॥ कच्छप, गृहपाह. कूर्म, कमठ और दृष्टष्ठक ये कछु के संस्कृत नाम हैं। कछुएका मांस-बलदायक, वात तथा पित्तको नष्ट करनेवाला और वीर्यकारक है ।। ८७ ॥
सबोहतस्य मांसस्य गुणाः। सद्योहतस्य मांस स्याद्व्याधिघाति यथामृतम् ।
वयस्यं बृहगं मात्म्यमन्यथा तद्धि वर्जयेत् ॥८८॥ - तत्कालके मारेहुए जीवों का मांस-प्रमतके सदृश, रोगनाशक, मायु:
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(३८६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । स्थापक, पुष्टिदायक और शरीरके स्वभाव से मिलमा हुआ है इसने इसको इसको ग्रहण करे और वासो माल स्याग दे ॥ ८८ ॥
स्वयंमृतस्य मांसम् । स्वयंमृतस्य चाबल्यमतिसारकरं गुरु ॥ ८९॥ - स्वयं मरे हुए जीपका मांस-बलकी हानिकारक, प्रतिमारको करने. चामा पौरभारी है । ८९॥
___ वृद्धगलमांसम् । वृद्धानां दोषलंमाम बालानां बलदं लघु । सर्पदष्टभ्य मांसश्च शुष्कमा त्रिदोषकृत् । ग्यालदश्चदुष्टश्च शुष्कं शूलकरं परम् ॥९॥ पर (पह) जीवोंका माल-दोपकारक और बालक जीवों का मांस रसदायक और हलका है।
सर्पके काटनेने मरे हुए जी का मांस और सूखा मांस त्रिदोषकारक है। हिंसक जीवोंके काटनेले परे हुए जीबोका मांस, सूखा मांस और इषित मांस अत्यन्त शुलकारक है ॥ १० ॥
अथ विषादिमृतस्य ( विषमृतका)
मांसम् । विषाम्बुरुङ्मृतस्यैतन्मृत्युदोषरुजाकरम् । क्लिन्नमुत्क्लेशजनकं कृशं वातप्रकोपणम् । तोयपूर्ण शिराजालं मृगमप्सुत्रिदोषकृत् ॥ ९॥ विष, रोग, अषमा जनके मर हुए जीवोंका मांस दोगे को उत्पन्न करनेबाला, रोगकारक और मृत्युदायक है । गीला माल-ग्लानिकारक, कृथ करनेवाला और वात कोप है जिनकी नामें जल भर गया हो उसका माज ओर जलमें मरे हुर का मान विदोष कारी है ॥९१ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३४७)
जात्यादिपरत्वेने गुणाः। वहंगेषु पुमान्छेष्ठः स्त्री चतुष्पद जातिषु ॥ ९२ ॥ पराधो लघु पुंसां स्यात्स्त्रीणां पूर्वाद्धमादिशेत् । देहमध्यं गुरुपायं सर्वेषां प्राणिनां स्मृतम् ॥ ९३ ॥ पक्षक्षेपाद्विहंगानां तदेव लघु कथ्यते । गुरुण्यंडानि सर्वेषां गुर्वी ग्रीवा च पक्षिणाम्॥९॥ उरःस्कंधोदरं कुक्षी पादौ पाणी कटी तथा । पृष्ठत्वग्यकृदन्त्राणि गुरूणांह यथोत्तरम् ॥ ९५ ॥ लघु वातकरं मांस खगानां धान्यचाग्णिाम् । मत्स्याशिनां पित्तकरंवातघ्नं गुरु कीर्ततम् ॥१६॥ पलाशिनां श्लेष्मकरं लघु रूसमुदीरितम् । बंदणं गुरु वातघ्नं तेषाने पलाशिताम् ॥ ९७ ॥ तुल्यजातिष्वल्पदेहा महादेहेषु पूजिताः। अल्पदेहेषु शस्यंते तव स्थू लदेहिनः ॥ ९८ ॥ पक्षियोंमें पुरुषजातिके पक्षियोंका मांस और पशुयों में खोजातिक पोंका मांस उनम है, पुरुषों के कार भागका पारसका है और स्त्रियोंके नीचे के भागका मांस उत्तम है । सम्पूर्ण प्राणिगे। मध्य भागका मांस अधिक भारी होता है। पौर पक्षियों के पंव गिरजाने के देहका मध्यभाग हलका होता है। सम्पूर्ण जातिके पक्षियों का अण्डा पार गरयन भारी होता है, तथा छाती, कंधा, उार, कोख, पाँ, हार, कमर, पीठ, स्वचा (चमडा), कलेजा और बात ये पूर्व पूर्वमे पीछे पीछे के भारी होते हैं। धान्य (गेहूँ, ज्वार, बाजरा आदि) खानेव ले पक्षियों का मोस हलका पौर वातकारक है। पछ नी खाने गले पनियों का मात-पित्तका रक, वातनाशक और भारी है। फल खानेवाले पक्षियों का मांस कफकाः रक, हलका और कत्त है। मांस खाने वाले पक्षियों का मांस-पुष्टिकारक,
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( ३८८ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी . ।
भारी पौर वातनाशक है। जिनका देह बडा पौर मोटा होता हैं उनके सर जातिके प्राणियोंमें जो छोटे देहवाले होते हैं उनका मांस उत्तम और जिनका देह छोटा है उनके सदृश जातिके प्राणियोंमें जिनका देह बडा होता है उनका मांस उत्तम है । ९१-९८ ॥
अथ मत्स्याः ।
रोहितः ( रोहू ) ।
रक्तोदरो रक्तमुखो रक्ताक्षो रक्तपक्षतिः । कृष्णपुच्छो झषः श्रेष्ठो रोहितः कथितो बुधैः ॥ ९९ ॥ रोहितः सर्वमत्स्यानां वरो वृष्योऽर्दितार्त्तिजित् । कषायानुरसः स्वादुनो नातिपित्तकृत् । ऊर्ध्वजत्रुगतान्रोगान्हन्याद्रोहितमुण्डकम् ॥ १०० ॥
जिन मछलियों के पेट, सुख, नेत्र और पंख ये काम होते हैं तथा पूँछ काली होती है उनको विद्वानोंने उत्तम रोहू मछली कहा है। रोहित (रोहू ) मछली, सर्व मछलियोंमें श्रेठ, वृष्य, प्रतियाते (लकवा) नाशक, कसैली, स्वादु, वातनाशक और अत्यन्त पित्तकारक नहीं है । रोहका मस्तक - हँसली से ऊपरके रोगोंको नष्ट करता है ॥ ९९ ॥ १००
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अथ शिलींध: ( सिलन्ध ) ।
शिलींध्रः श्लेष्मलो बल्यो विपाके मधुरो गुरुः । वातपित्तहरो हृद्य आमवातकरश्च सः ॥ १०१ ॥
सितम्भ मछली- कफकारी, बलदायक, पाक में मधुर, भारी, वा aur पिनाथक, हृदयको प्रिय और आमवातकारक है ॥ १०१ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३८६)
अथ भकुरः ( भाकुर)। भंकुरो मधुरः शीतो वृष्यः श्लेष्मकरो गुरुः । विष्टम्भजनकश्चापि रक्तपित्तहरः स्मृतः ॥ १०२ ॥ भाकुर मछली मधुर, शीतल, वृष्य, कफकारक, भारी, विष्टम्भजनक और रक्तपित्तनाशक है ॥ १०॥
अथ मोचिका (मोई) मोचिका वातहद्धल्या बृंहणी मधुरा गुरुः। पित्तहत्कफकृदुच्या वृष्या दीप्तानये हिता ॥१०३॥ मोचिका (मोई ) माली वातनाशक, बलदायक, पुष्टिकारक, मधुर, भारी, पिसनाशक, कलकारक, रुचि उत्पन्न करनेवाली, पृष्य और जिनकी अग्नि दीपन है उनके लिये हितकारी है। १०३ ॥
अथ पाठीनः (बुमारी, वोयाल )। पाठीनः श्लेष्मलो वल्यो निद्रालुः पिशिताशनः । दूषयेद्रुधिरं पित्तकुष्ठरोगं करोति च ॥ १०४ ॥ पाठीन (पठिना) मच्छो ककारक, बलदायक, निद्राजनक, मांसको बोडनेवाली, रुधिरको दूषित करनेवाली और पित्त तथा काढरोगकारक है। १०४॥
अथ शृंगी (सींगी)। शृंगी तु वातशमनी स्निग्धा श्लेष्मप्रकोपनी । रसे तिक्ता कषाया चलनी रुच्या स्मृता बुधैः१०५ श्रृंगी (सींगी) मछली-वातनाशक, स्निग्ध, पित्तको कुपित करनेगली, रसमें कहधी, कसैली, हलकी पौर रुचिकारक है ॥ १०५ ॥
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(३९०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
अथ इल्लीसः (इल्सा )। इल्लीसो मधुरः स्निग्धो रोचनो वह्निवर्द्धनः। पित्तहकमकृत्किञ्चिल्लघुर्वृष्योऽनिलापहः॥१०६॥ इन्सा मछली-मधुर, स्निग्ध, रुचिकारक, अग्निगर्द्धक, पित्तनाशक, कफकारक, किचिव हलकी, वृष्य और वातनाशक है ॥ १०६ ।
अथ श कुली (सौरी)। शष्कुली ग्राहिणी हृद्या मधुरा तुपरा स्मृता १०७॥ सौरी मछली-ग्राही, हदयका प्रिय, धुर और कलैली है ॥ १०७ ॥
अथ गर्गरः (गर्गरा)। गर्गरः पित्तला किंचिद्रातजित्कफकोपनः ॥१०॥ गर्गरा मछली-पनकारक, किंचित वातनाशक और कफको कुपित करनेवाली है। १०८॥
अथ कविकः ( कई )। कविका मधुरा स्निग्ग कफना रुचिकारिणी । किंचित्पित्तकरी वातनाशिनी वह्निवर्द्धिनी ॥१०९॥ • कविका (कवई ) मछली -मधुर, स्निग्ध, कमकारक, रुचिकारक, किंचित पित्तकर्ना, वायुको नष्ट करनेवाली और अग्निवर्द्धक है । १०९ .
अथ वर्मिमत्स्यः (वर्मा)। वर्मिमत्स्यो हरद्वातं पित्तं रुचिकरो लघुः ॥११॥ धर्मी मछली-वातनाशक, पित्तहारक, रुचिकारक और हलकी है॥११॥
___ अथ दंडमत्स्याः (दडारी) दण्डमत्स्यो रसे तिक्तः पित्तरक्तं कर्फ हरेव । वातसाधारणः प्रोक्तः शुक्रलो बलवर्द्धनः ॥ १११॥ दंडारी मछली-समें कडवी, रक्तपित्र तथा करनाशक, वातके लिये साभारण और वीयको तथा बलको बढानेव ली है । १११ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
अथ एरङ्गी ( अरंगी ) । एरंगी मधुरः स्निग्धो विष्टंभी शीतलो लघुः ११२
परंगी मछली - मधुर, स्निग्ध, ग्मी, शीतल और हलकी है ।। ११२०अथ महाशफरी (पपता ) |
(
महाशफरसंज्ञस्तु तिक्तः पित्तकफापहः । शिशिरो मधुरो रुच्यो वातसाधारणः स्मृतः ११३ ॥
( ३९१
महाशफर (पता) मछली कडी, पिन तथा कफगशक, शीतल, मधुर, रुचिकारक और शयुके लिये साधारण है ॥ ११३ ॥
अथ गरी ( गई ) । गरघ्नी मधुरा तिक्ता तुवरा वातपित्तहृत । कफघ्नी रुचिकृल्लवी दीपनी बलवीर्यकृत् ॥ ११४ ॥ *
गरनी ( गई ) मछली - मधुर, कडवी, कसैली, घात तथा पित्तनाशक, कफहारक, रुचिकारक, हलकी, अग्निप्रदीपक, और बल तथा वीर्यबर्द्धक है ॥ ११४ ॥
अथ मद्गुर : ( मंगुरी ।
मद्गुरो वातद्बल्यो वृष्यः कफकरो लघुः॥ ११५ ॥
मद्गुर (मँगुरी ) मछली - वातनाशक, बलदायक, वृष्य, कफकारक और हलकी है ।। ११५ ॥
अथ सपादमत्स्यः ( टेंगरा ) ।
सपादमत्स्यो मेधावन्मेदःक्षयकरश्च सः । वातपित्तकाश्चापि रुचिकृत्परमो मतः ॥ ११६ ॥
सपाद (टॅगग ) मछली- बुद्धिवर्धक, मेदका क्षय करनेवाली, वातपित्त तथा रुचिकारक है ॥ ११६ ॥
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । अथ प्रोष्ठी शफरी (पुंठी ) । प्रोष्ठी तिक्ता कटुः स्वादुः शुक्रघ्नी कफवातजित् । स्निग्धास्यकण्ठरोगघ्नी रोचनी च लघुः स्मृता ११७
प्रोष्ठी ( शफरी) मछली- कडवी, चरवरी, स्वादु, वीर्यनाशक, कफ तथा वातको जीतनेव ल', स्निग्ध, मुखकी विरसता तथा कण्ठरोगनाशक, रुचिकारी और हलकी है ॥ ११७ ॥
( ३९२ )
अय क्षुद्रमत्स्याः |
क्षुद्रा मत्स्याः स्वादुरसा दोषत्रय विनाशनाः । लघुपाका रुचिकरा बलदास्ते हिना मताः ॥ ११८ ॥ छोटी मछली-स्वादु, त्रिदोषनाशक, पाकमें हलकी, रुचिकारी, बल दायक और हितकारी है ॥ ११८ ॥
अथ अतिक्षुद्रमत्स्याः । अतिसुक्ष्माः पुंस्त्वहरा रुच्या कामानिलापहाः ११९ बहुत छोटी मछली- पुरुषतानाशक, रुचिकारी, खाँसी और यातनाशक है ॥ ११९
अथ मत्स्याण्डः ।
मत्स्यगर्भो भृशं वृष्यः स्निग्धः पुष्टि करो लघुः कफमेदः दो बल्यो ग्लानिकृन्मेहनाशनः ॥ १२० ॥
मछलीका भंडा - अत्यन्त वृष्य, स्निग्ध, पुष्टिकारक, हलका, कफ तथा मेववर्द्धक, बलदायक, ग्लानिकारक और प्रमेहनाशक है ।। १२० ॥
अथ शुष्कमत्स्याः (सूखी मछली ।
शुष्कमत्स्या नवा बल्या दुर्जरा विविबन्धिनः । सूखी हुई मछली - बलवर्द्धक, दुर्जर और मनरोधक है ॥ १२१ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३९३ )
अथ दग्ध-(भूजे हुए) मत्स्याः । दग्धमत्स्यो गुणैः श्लेष्ठः पुष्टिकृद्धलवर्द्धनः ॥३२२॥ भुनी हुई मछली-उत्तम, पुष्टिकारक और बलवर्द्धक है ॥ १२२ ॥
अय कूपजादिमत्स्य गुणाः। कौपमत्स्याः शुक्रमूत्रकुष्ठश्लेष्मविवर्द्धनाः । सरोजा मधुरास्निग्धा बल्या वातविनाशनाः १२३॥ नादेया बृंहणा मत्स्या गुरवोऽनिलनाशनाः। रक्तपित्तकरा वृष्याः स्निग्धोष्णाः स्वल्पवर्चसः॥ चौजाः पित्तकराः स्निग्धा मधुरा लघवो हिमाः। ताडागा गुरवो वृष्या शीतला मलमूत्रदाः। ताडागवत्क्षिप्तजाता बलायुर्मतिहक्कराः ॥ १२५॥ कूप (कुंएकी) मछली-वीर्य, मूत्र, कोढ पौर कफवर्धक है । सरोज (छोटे तलावकी ) मछना-मधुर, स्निग्ध, वनदस्यक और वात विनाशक है। नदीकी मच्छी-पुष्टिकारक, भारी, वातनाशक, रक्तपित्तकारक, मैथुनयक्तिवर्द्धक, गरम और अल्पविष्टा, लानेवाली है । चौध ( हौजकी) मछली-पित्तकारक, स्निग्ध, मधुर, हलकी और शीतल है । सडागकी मछली-भारी, वृष्य, शीतल और मल तथा मूत्रजनक है। झरनेकी मछली-तडागके सदृश बल, आयु, बुद्धि और दृष्टिकारक है ।१२३-१२५॥
अथ ऋतुविशेष मत्स्यविशेषाः । हेमन्ते कूपजा मत्स्याः शिशिरे सारसा हिताः। वसन्ते ते तु नादेया ग्रीष्मे चौअसमुद्भवाः॥१२६॥
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( ३९४ )
भावप्रकाशनिः भा. टी . ।
तडागजाता वषालु तास्वपथ्या नदीभवाः । नैर्झराः शरदि श्रेष्ठा विशेषाऽयमुदाहृतः ॥ १२७ ॥
इति श्रीभावप्रकाश निघण्टौ सवर्गः ।
हेमन्तऋतु में कुएंकी मछली, शिशिरऋतु में तालाव की मछली, वस न्तऋतु में नदी की मछली, ग्रामॠ में हौज (चोए) की मछली, वर्षा - ऋतु में तडागकी मछली और शरद तुमे झरनेकी मछली श्रेष्ठ है, वर्षाऋतु नदीकी मछली अपथ्य है ॥ १२६ ॥ १२७ ॥
इति श्रीवैद्यरत्न रामप्रसादात्मज - विद्यालङ्कारशिवशवैद्यशा विकृत शिवप्र शिकाभाबाटीकायां हरीतक्यादिनिघण्टौ मांसवर्गः समाप्तः ।
तत्र परिमा
अथ कृतान्नवर्गः ।
तत्र अन्नानां साधनप्रकाराः सिद्धानां गुणाश्व ।
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समवायिनि तौ ये मुनिभिर्गणिता गुणाः । काय्यैऽपि तेऽखिला ज्ञेयाः परिभाषेति भाषिताः १ ॥ क्वचित्संस्कारभेदेन गुणभेदो भवेद्यतः । भक्तं लघु पुराणस्य शाळेस्तचिोि गुरुः || २ || क्वचिद्योगप्रभावेण गुणान्तरमपेक्ष्यते । कदन्नं गुरु सर्पिश्च लघूकं सुहितं भवेत् ॥ ३ ॥
जिन पदार्थों में जो गुण कडे हैं, उन पदार्थोंके बनाये हुए अन मैं भी वे सम्पूर्ण गुण होते हैं, यह सामान्यता से कहा है। किसी मनमें संस्कारभेद से अन्य गुण होजाते हैं, जैसे कि पुनि चावल का भात हलका होता है परन्तु वही थालीचावलोंका बना हुम्रा भात और चिउरा भारी
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (३९५) होता है। कहीं सयोगले प्रभाव से भी गुणों में अन्तर हो जाता है, जैसे कि दुष्ट अन्न भारी है और घो भी भारी है परन्तु वह दुष्ट अन्न या घृत यदि औषधान्तरोंके संयोगसे बना हो तो हलका और हितकारी होता है। १.-३ ॥
अथ भक्तस्य (भातके ) नामानि
साधन गुणाश्च । भक्तमन्नं तथान्धश्च कचित्तूरं च कीर्तितम् । ओदनोऽस्त्री स्त्रियां भिस्मादी देविः पुंसि भाषितः।। सुधौतांस्तण्डुलान् स्फीतांस्तोये पंचणे पचेत् । तद्भक्तं प्रभुतं चोष्णं विशई गुणवन्मतम् ॥५॥ भक्तं वतिकरं पथ्यं तर्पणं रोचनं लघु । अधौतमशृतं शीतं गुरुच्य कफपदम् ॥ ६॥ भक्त, अन्न, अंध, ओदन, भिस्सा और दीदिवे ये भातके संस्कृत नाम: हैं। कहीं कूर भी भातका नाम है ।
भले प्रकार उत्तम रीति से धोये हुए चावलोको पांच गुने जलमें पकावे, जब पकजाय तब वह जल ( मांड) निकाल देवे तो वह उभात निर्मक पौर गुणकारी होता है। ___ भात-अग्निकारक, पथ्य, तृप्तिदायक, रुचिकारक और हलका है। विना धोये हुए चावलोंका, विना मांड निकाला हुमा भात और शीतल हुमा भात भारी, अरुचिकारक और कफाईक है ॥ ४ ॥ ५॥६॥
अथ दाली (दाल) दलितन्तु शमी धान्यं दालिदी की स्त्रिपामुभे । दाली तु सलिले सिद्धा लवणार्द्र कहिङ्गुभिः ॥७॥ संयुका सूपनाम्नी स्यात्कथयन्ते तद्गुणा अथ । सूपोविष्टंभको रूमः शीतस्तु स विशेतः । निस्तुषो भृष्टसंसिद्धो लाघवं सुतरां व्रजेत् ॥ ८ ॥ फलीके ( मुंग, चना, अरहर, उरद यादि) धान्यों को दलनेसे दाल हो.
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( ३९६ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
जाती है। दालि कौर दाली ये दालके नाम हैं । जलमें डालकर दाल को पकावे जब उसीदिज जाय तब उसमें नमक, अदरख और हींग यथा• योग्य डाले तब वह सूप ( दान ) तयार होती है। सूप (दाल) विष्टम्भकारी, रूक्ष पौर विशेष कर शीतल है। भुनी हुई छिलके रहित दालअत्यन्त हलकी है ॥ ७ ॥ ८ ॥ -
अथ कृशरा ( खिचरी ) । तण्डुला दालिमंमिश्रा लवणाई कहिंगुभिः । संयुक्तासलिले सिद्धाकृशरा कथिता बुधैः ॥ ९ ॥ कृशरा शुक्रला बल्या गुरुः पित्तकफप्रदा । दुर्जरा बुद्धिविष्टम्भमलमूत्रकरी स्मृता ॥ ५० ॥
दाल और चावल मिलाकर उनमें नमक, अदरख और हींग डालकर जल में सिद्ध करे उसको विद्वानोंने कृशरा (खिचरी ) कहा है। खिचरी वीर्यवर्द्धक, बलदायक, भारी, कक तथा पित्तको उत्पन्न करनेवाली, दुर्जर, बुद्धि, विष्टम्भ, मल तथा मूत्रकारक है ॥ ९ ॥ १० ॥
अथ तापहरी (ताहरी ) ।
वृते हरिद्रासंयुक्ते माषजां भर्जयेद्वटीम | तण्डुलांश्चापिनिधतान्सहैव परिभर्जयेत् ॥१३॥ सिद्धयोग्यं जलं तत्र प्रक्षिप्य कुशलः पचेत् । लवण कहिंगूनि मात्रया तत्र निक्षिपेत् ॥ १२ ॥ एषा सिद्धिमानः प्रोक्ता तापहरी बुधैः । भवेत्तापहरी बल्या वृष्या श्लेष्माणमाचरेत् । बृंहणी तर्पणी रुच्या गुर्जी पित्तहरा स्मृता ॥ १३ ॥
घोमें हलदी डालकर उसमें उडद की बडी और धुले हुए स्वच्छ चादलोको भूनलेथे, पश्चात् जितने जल में पक जाय उतना जल बढाकर कुशल
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. 1 ( ३९७ )
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घुरुष पहावे और यथायोग्य नमक अदरख और हींग डाले, जब भलीभांति पक जाय तब तापहारी (ताहरी ) कहाती है । ताइरी - तृप्तिदायक, रुचिकारक, बलदायक, वृष्य, कफकारक, पुष्टिदायक, भारी और विनाशक है ॥ ११-१३ ॥
अथ परमात्रम् (खीर ) ।
पायसं परमान्नं स्यात्क्षीरिकापि तदुच्यते । शुद्धेऽर्द्धपके दुग्धे तु घृताक्तांस्तण्डुलान् पचेत् १४ ते सिद्धाः क्षीरिका ख्याता ससिताज्ययुतोत्तमा । क्षीरिका दुर्जरा प्रोक्ता बृंहणी बलवर्द्धिनी ॥ १५ ॥
पायस, परमान और क्षीरिका ये खीरके संस्कृत नाम हैं I हिन्दी - खीर | गु० - दूधपाक ।
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प्रधौटे स्वच्छ दूधमें घोसे भुने हुए चावल डाले जब चावल पक जाये तब उसमें स्वच्छ बूरा और घी डाले यह उत्तम खीर बन जाती है खीर दुर्जर पुष्टिकारक और बलवर्द्धक है ॥ १४ ॥ १५ ॥
'अथ नालिकेरेक्षीर ( नारियल की खीर ) ।
नालिकेरं तनूकृत्य छिन्नं पयसि गोः क्षिपेत् । सितागण्याज्यसंयुक्ते तत्पचेन्मृदुनामिना ॥ १६ ॥ नालिकेरोद्भवा क्षीरी त्रिग्धा शीतातिपुष्टिदा । गुर्वी सुमधुरा वृष्या रक्तपित्तानिलापहा ॥ १७ ॥
नारियल (गोले ) के छोटे २ टुकडे गायके दूधमें डाले पौर उसमें स्वच्छ खांड और गायका घी डाले, इसप्रकार कर धीमी अग्नि से पकाये तो नारियल की खीर बनजाती है ।
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यह खीर - स्निग्ध, शीतल, बहुत पुष्टिकारक, भारी, मधुर, वीर्यवर्द्धक
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और रक्तपित तथा वातनाशक है ॥ १६ ॥ १७ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.
( ३९९ )
इनके कपडेकी (चलनी) में ज्ञानले उनको मैदा कहते हैं। मैदाको पानी में मांड, कर भली-ते कुचले पश्च' व हाथोंमे लोई बनाकर रोटीके सदृश करले फिर चूल्हेपर उलटे घडेकी तत्लीपर डालकर मन्दाग्निसे बकाये इसको मण्डक कहते हैं । खांड घोर घृतयुक्त दूध के साथ अथवा पकाये हुए के साथ तथा दही पकोडीके साथ भक्षण करे । मण्डकपुष्टिकारक, वृष्य, बलवर्द्धक, प्रत्यन्त रुचि मारक, पाकमें मधुर, ग्राही इलका और तीनों दोषों को नष्ट करता है ।। २०-२४ ॥
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अथ पूरी (दु ) ।
कुर्यात्समिताऽतीव तन्वीं पर्पटिकां ततः । स्वेदयेत्त के तां तु पोलिकां जगदुर्बु वा । तां खादे सिकायुक्तां तस्या मण्डकाद्गुणाः २५ ॥
मैदाकी अथवा चूर की पपेटिका (पपडी) अर्थात् पतली रोटीके सहश पूरी खेळले, पश्चात् तब में सेकले उसको पोलिका ( एक प्रकारकी पूरी ) कहते हैं । उसको लप्सी (हलुए ) के साथ भक्षण करें, इसके गुणा मण्डलके सहश हैं ॥ २५ ॥
अथ लप्सिका ( लप्सी )
समितां सर्पिषा भृष्टां शर्कगं पयसि क्षिपेत् । तस्मिन्घनी ते न्यस्येलांगं मरिचादिकम् ॥ २६ ॥ सिद्वैषा लप्सिका ख्याता गुणांस्तस्या वदाम्यहम् | लसिका बृंहणी वृष्या बल्या पित्तानिलापहा । स्निग्धा श्लेष्मकरी गुर्वी रोचनी तर्पणी परम् ॥२७॥
मैदrat at भूनकर शर्करा ( बूरा ) युक्त गर्न में डाले, जब पकते २ गाढा हो जाय तब उसमें लोग मिश्च प्रादि डाले सिद्ध होनेपर लप्सिका कहाती है । लप्सिका ( हलुआ ) - पुष्टिदायक, वृष्य, बलकारक, वात
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( ३९९ )
हलके कपडेकी (चलनी) में छाले उनको मैदा कहते हैं। मैदाको पानी में मांड, कर भली मे कुचले पश्च' व ह' थमे लोई बनाकर रोटीके सदृश करले फिर चूल्हे पर उल्टे घडेकी तलीपर डालकर मन्दाग्निसे कावे इसको मण्डक कहते हैं । खांड और घृतयुक्त दूधके साथ अथवा पकाये हुए के साथ तथा दही पकोडीके साथ भक्षणा करे । मण्डकपुष्टिकारक, वृष्य, बलवर्द्धक, अत्यन्त रुचिरक, पाकमें मधुर, ग्राही इलका और तीनों दोषों को नष्ट करता है । २०-२४ ॥
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अथ पूरी (दु ) " कुर्यात्समितयाऽतीव तन्वीं पर्पटिकां ततः । स्वेदयेत्तप्त के तां तु पोलिकां जगदुर्बुः । तां खादे सिकायुक्तां तस्या मण्डकाद्गुणाः २५ ॥
मैदाकी अथवा चूकी पपेटिका (पपडी) अर्थात् पतली रोटीके सडश पूरी मेळले, पश्चात् तमें सेकले उसको पोलिका ( एक प्रकार की पूरी ) कहते हैं। उसको लप्सी (हलुए ) के साथ भक्षण करे, इसके गुण मण्डलके सहश हैं ॥ २५ ॥
अथ लप्सिका ( लप्सी )
समितां सर्पिषा भृष्टां शर्कगं पयसि क्षिपेत् । तस्मिन्घनी ते न्यस्येलांगं मरिचादिकम् ॥ २६ ॥ सिद्वैषा लप्सिका ख्याता गुणांस्तस्या वदाम्यहम् । लप्सिका बृंहणी वृष्या बल्या पित्तानिलापहा । स्निग्धा श्लेष्मकरी गुर्वी रोचनी तर्पणी परम् ॥२७॥
मैदाको घी में भूनकर शर्करा ( बूरा ) युक्त गर्न में डाले, जब पकते २ गाढा हो जाय तब उसमें लोग मिश्च प्रादि डाले सिद्ध होने पर लप्सिका कहाती है। लप्सिका (हलुआ ) - पुष्टिदायक ant वृष्य, बलकारक, वात
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(४००) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। तथा पित्तनाशक, स्निग्ध, कफकारक, भारी रुचिकारी और अत्यन्त तृप्तिकारक ॥२६॥२७॥
अथ रोटिका ( रोटी शुष्कगोधूमचूर्णेन किंचित्पुष्टाश्च पोलिकाम् । तप्तके स्वेदयेत्कृत्वा भूयंगारेश्च तां पचेत् ॥२८॥ सिद्धषा रोटिका प्रोक्ता गुणं तस्याः प्रचश्महे । रोटिका बलकृद्रुच्या बृंहणीधातुवर्द्धनी। वातघ्नी कफकृद् गुर्वी दीप्तानीनां प्रपूजिता ॥२९॥ सूखे गेहूँके चूनमें पानी डालकर माण्ड ले और बेनकर तपेपर सकार फिर नीचे अंगारोंपर सेंके जब भली भाँति सिक जाय तब रोटिका (रोटी) कहाती है।
रोटिका (रोटी)-बलकारक, रुचिकारी, पुष्टिकारक, धातुवर्द्धक, वातनाशक, कफकारी, भारी और जिनकी भग्नि प्रदीप्त है उनको हित. कारी है॥२८॥ २९॥ ,
अथ अंगारकर्कटी (वाटी)। शुष्कगोधूमचूर्णन्तु सांबु गाढं विमर्दयेत् । ' विधाय वटकाकारं निधूमेऽनो शनैः पचेत् ॥३०॥ अङ्गारकर्कटी ह्येषा बृहणी शुक्रला लघुः । दीपनी कफद्धल्या पीनसश्वासकासजित् ॥ ३५ ॥ सूखे हुए उनम गेहूँके चुनको मांडकर हाथों से गोल गोल लोई बनाले और धूमरहित मन्द म द पग्निसे पकावे, अब भली भाँति मिड रो जाय तो उसको अंगारकर्कटी (वाटी) कहते हैं । वाटी पुष्ट हारक, वीर्यक और पीनस, बास तथा खासीको नष्ट करती है॥ ३० ॥ ३१ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
अथ यवरोटिका |
यवजा रोटीका रुच्या मधुरा विशदा लघुः । मलशुक्रानिलकरी बल्या हंति कफामयान् ॥ ३२ ॥
जौकी रोटी-रुचिकारी, मधुर, विशद हलकी, मल, वीर्य तथा वातकारक, बलकारी और ककसम्बन्धी रोगोंकोट करती है ॥ ३२ ॥ अथ माष- ( उरदकी) रोटिका ।
(४०१ )
भाषाणं दालयस्तोये स्थापितस्त्यतकंचुकाः । आतपे शोषिता यंत्रे पिष्टास्ता धूमसी स्मृता ॥ ३३ धूमसी रचिता चै प्रोक्ता झर्झरिका बुधैः । झर्झरी कफपित्त किंचिद्रातकरी स्मृता ॥ ३४ ॥
उडद की दालको पानी भिजोकर छिलके निवाल देवे पश्चात धूममें सुखाकर लक्की में पिसवावे, उस धूमपी कहते हैं, धूमसो की बनाई हुई रोटी : संस्कृत में झर्झरी इत हैं, यह रोटी कफ, पित्तनाशक और क्रिचित वातकारक है ॥ ३३ ॥ ३४ ॥
अथ चणक-- ( चनेकी ) गेटिका ।
चणक्या रोटिका रूक्षा श्लेष्म पित्तास्रनुगुरुः ।. विष्टंभिती न चक्षुष्यातगुणा चाप शष्कुली ३५॥
चनेकी राटी-खी, विटम्भकारक, गरी, नेवाको हितकारी नहीं और कफ, पित्त, तथा रक्तविकारनाशक है। इनकी पूरीमें भी यही गुण हैं ॥ ३५ ॥
•
अथ पिष्टिका । दालिः संस्थापिता तोये ततोs? हृतकंचुका । सिला साधु संपिष्टा पिष्टिका कथिग बुधैः ३६॥
दालको पानी में भिगा भीजनेवर छिलके निहाल डाले, पश्चात् शिलापर खूब पीसले इसकी पिष्टिका (पिटु ) कहते हैं ॥ ३६
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(४०२) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.।
अथ वेढमिका ( वेढई)। माषपिष्टिकया पूर्णगर्भा गोधूमचूर्णतः । रचिता रोटिका सैव प्रोक्ता वेढमिका बुधैः ॥३७॥ भवेटेढमिका बल्या वृष्या रुच्याऽनिलापहा। उष्णा सन्तर्पणी गुर्वी बृंहणी शुकला परम् ॥३८॥ भित्रमूत्रमला स्तन्यमेदापित्तकफप्रदा । गुदकालाईितवामपंक्तिशूलानि नाशयेत् ॥ ३९ ॥ गेहूँ के मडेहुए आटेमें उडदकी पिट्ठी भरके रोटी बनावे उसको पिट्ठोंकी रोटी (बेढई ) कहते है।
या रोटी-बलदायक, पण्य, रुचिकारक, वातनाशक, गरम, तृप्तिदापक, भारी, पुटिकारक, अत्यन्म वी बर्द्धक, मलभेदक, मूत्र लानेवाली, दष तथा मेदवर्धक, पिन ताकफकार और गुदकील (गुदाके मस्से), मदितवान, सास और पंक्तिशूल शक है ॥ ३७-३९ ॥
अथ पर्पटाः (पापड)। धूमसारचिता हिंगुहरिद्रालवणैर्युताः । जीरकस्वर्जिकाभ्याञ्च तनूकृत्य च वेल्लिताः ॥४०॥ पर्पटाम्ते सदांगारभृष्टाः परमरोचकाः। दीपनाः पाचना रूक्षा गुरवः किंचिदीरिताः ॥४॥ मौद्गाश्च तद्गुणाः प्रोता विशेष लघवो हिताः। चणकम्य गुणयुक्ताः पर्पटाश्चणकोद्भवाः । स्नेहभृष्टास्तु ते सर्वे भवेयुर्मध्यमा गुणः ॥ १२ ॥ उपद की दालको पानी में भिगोकर छिलके निकाल कर धूप में मुखा वे, उसको पिसवाकर शरीक आटा करने, उस पाटेमें हींग, इनदी,
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( ४०३ )
नमक, जीरा और सज्जी डालकर पानी से मांडले और बहुत पतला पतला बेलले उसको पर्पट (गण्ड) कहते हैं। पापड अंगारोंवर भूनकर खावे तो प्रत्यन्त रुचिकारी, अग्निप्रदीपक, पाचक, रूक्ष और किंचित् भारी है, इसी प्रकार मूँग की दालके पापड़ों में भी यही गुण हैं परन्तु विशेष इनके और हितकारक हैं। चनेके पापडोंमें चनेके सदृश गुण हैं । जो पापड स्नेहमेंभुने जायँ तो मध्यम गुणदायक हैं ।। ४०-४२ ॥
अथ पूरिका ( कचारी ) ।
माषाणां पिष्टिकां पूर्यावणाई कहिं ग्रभिः । तया पिष्टिकया पूर्णा समिताकृत पोलिका ॥ ४३ ॥ ततस्तैलेन पक्का सा पूरिका कथिता बुधैः । रुच्या स्वाद्वी गुरुः स्निग्धा बल्या पित्तास्रदूषिका ४४ चक्षुस्तेजोहरी चोष्णा पाके वातविनाशिनी । तथैव घृतपकापि चक्षुष्या रक्तपित्तहृत् ॥ ४५ ॥
उडकी पिट्टी में नमक अदरक तथा हींग डालकर मैदाकी लोई में भर लेवे, पश्चात् बेजकर इसको तेलमें सेक लेवे, उसको पूरिका ( कचौरी ) कहते हैं । कचौरी - स्वादिष्ट, भारी, स्निग्ध, बलकारी पित्त तथा रक्तविकारको दूषित करनेवाली, नेत्रोंका तेज हरनेवाला, पाकमें गरम और वातनाशक है । यदि यह घीमें बनाई हुई होय तो नेत्रोंको हितकारी और रक्तपित्तनाशक है ॥ ४३-४५ ॥ /
अथ वटा ( बेरा ) ।
माषाणां पिष्टिकां युक्तां लवणाई कहिंगुभिः । कृत्वा विदध्याद्वांस्तांस्तैलेषु पचेच्छनैः ॥ ४६ ॥ विशुष्का वटका बल्या बृंहणा वीर्यवर्द्धनाः । वातामयहरा रुच्या - विशेषादर्दितापहाः ॥ ४७ ॥
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( ४०४ ) भावप्रकाश निघण्टुः मा. टी. ।
विबन्धभेदिनः श्लेष्मकारिणोऽत्य निपूजिताः । संचूर्ण्य निक्षिपेत्तके भृष्टजीरकहिंगुभिः ॥ ४८ ॥ लवणं तत्र वटकान्स कलानपि मज्जयेत् । शुकलस्तत्र वटको बलकृद्रोचनो गुरुः ।। ४९ ।। विबन्धहृद्विदाही च श्लेष्मलः पवनापहः । राज्यक्तपातिनो वान्यान्पाचनस्तस्तु भक्षयेत् ५०
राज्यक्ता (राइता ) इति लोके ॥
उडदों की पिट्टि में नौन, अदरक और होंग मिलाकर धीरे २ तेलमें बड़े कावे भरवा पिट्टिकी वरी बनाकर तेल में पकावे ।
बडे बलदायक, पृष्टिकारक, वीर्यवर्द्धक, वायुरोगनाशक, रुचिकारक और विशेषकरके प्रतिमान (लकण ) को दूर करता, मलबन्धभेदक (दस्तावर ), करुकारी और प्रदीप्त प्रशिवालों के लिये उनम हैं । तथा हिंग गरेका चूर्ण भूरकर मट्टे (छाल) में डाले पश्चात् नमक डालकर इनमें बडी छोड देवे ।
वह बड़ी वयवर्द्धक, रुचिकारक, भारी, मनभेदक, बिहाड़ी, कफक्काएक और वातनाशक है । अथवा शषतेनें मिलाकर वा पौर अन्य पाचन के साथ खावे ॥ ६६-५० ॥
अथ कानि स्वकः ( फाबरा)
मन्थनी नूतना धार्या कटुतैलेन लेपिता । निर्मलेनाम्बुनापूर्य तस्यां चूर्ण विनिक्षिपेत् ॥ ५१ ॥ . राजिकाजीरलवण हिंगुशुण्डी निशा कृतम् । निक्षिपेट कांस्तत्र भांडस्यास्यञ्च मुद्रयेत् ॥ ५२ ॥ ततो दिनत्रया
ध्रुवम् ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४.५) कानिकवटको रुच्यो वातघ्नः श्लेष्मकारकः शीतः ।
दाहं शूलमजी में क्षिप्रं हरतेहगामयेष्वहितः ॥५३॥ 'एक नवीन मट्टोका पात्र लेकर उसमें सरसका नेल चुपडे, पचास कर तेलको चुडकर निर्मल जल भरके उसमे र ई, जीरा, नमक, हींग, सोंठ और हलदी इनका चूर्ण डानकर बडे डाल दे और पात्रको मुख बन्द करके तीन दिन तक रखे रहने देवे घे बडे खट्टे हो जायेंगे. उनका कीजि कवटक (कांजी के बडे ) कहते हैं।
ये बडे रुचिकारी, गतविनाशक, कफकारक, शीतल पौर दाह, राज सया मजीनाशक हैं, नेवरोगियोंको अहितकारी हैं । ५१-५२ ॥
अथ अमिडकावटकाः (इमली के रडे) अम्लिका स्वेदयित्वा तु जलेन सह मर्दयेत् । तन्नीरे कृतसंस्कारे वटकान्मजये पुनः ॥ ५॥ अम्लिकावटकास्ते तु रुच्या वतिप्रदीपना। वटकस्य गुणैः पूर्वरेपोऽपि च समन्धितः ।। ५९॥ पक्की इमनीको कतरकर जनमें प्रौटावे और जल के साथही मलने, पखात् उस बनाये हुए पानी में बडे छोडदे और नमक मसाला पारि डाल दे तो इमली के बडे बन जाते हैं।
यह बडे-रुचि हारी, पग्निदीपक हैं, इसमें पूर्वोक पडों के भी सब गुण हैं॥ ५५ ॥ ५५॥
अथ मुद्गटकाः ( मुंगवरां) मुद्रानां वटकास्तके मजिता लघवो दिमाः। संस्कारजयभावेण त्रिदोषशमना हिताः ॥५६॥ मंगके बडे छाछमें भिगोदे, उनको सेवन करे तो हलके पौर शीतल है। पौर संस्कारके प्रभावसे त्रिदोषनाशक तथा हितकारी होते हैं।
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(४०६ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी.
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अथ माषकः ( उरद की बरी ) | माषाणां पिष्टिका हिंगुलवणादक संस्कृता । तया विरचिता वत्रे वटिकाः साधुशोषिताः ॥५७॥ भर्जितास्तप्ततैलैस्ता अथवाम्बुप्रयोगतः । वटकस्य गुणैर्युक्ता ज्ञातव्या रुचिदा भृशम् ॥५८॥
की पट्टी में हींग, लोन तथा अदरक मिलाकर कपडेपर बडी तोडपर स्खाले थे। यह बडी ते में डालकर अथवा पानी डालकर पकाये । यह बड़ी बडों के सदृश गुणदाली हैं और अत्यन्त रुविकारक हैं ॥५७॥५८॥ अथ कूष्मांड कवटी (पेठेकी बरी ।
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कूष्मांड कवटी ज्ञेया पूर्वोक्तवटिका गुणा । विशेषात्पित्तरक्तघ्नी लघ्वी च कथिता बुधैः ॥५९॥ पैकी बडी भी पूर्वोक्त बडीके सदृश गुणवाली है, विशेष करके रक्तपि मशक और दृष्ट की है ॥ ५९ ॥
अथ मुद्रवटी (मूंगकी बरी )
सुगानां वटिका तद्वदुचिता साधिता तथा । पारुच्या तथा लध्वीमुद्रमुपगुणास्मृता ॥ ६० ॥ उपरोक्त प्रकारही मूँग की बडी बनावे | यह बडी-रुचिकरी, हलकी और मूंग की दाल के समान गुणवाली है ॥ ६९ ॥
अलीकमत्स्य | माषपिष्टिकया लिप्तं नागवल्लीदलं महत् । तत्तु संस्वेदयेत्या स्थाहयामास्तारकोपरि । ततो निष्कास्य तत्खण्डचं ततस्तैलेन भर्जयेत् ॥ ६१॥ खण्डचं खंडेन योज्यमिति यावत् ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४०७) अलीकमत्स्य उक्तोऽयं प्रकारम्पाकपंडितः । तं वृन्ताकभटित्रेण वास्तूकेन च भक्षयेत् ॥ ६२॥ बडे नागरवेनके पान उडदकी पिट्ठ'मे लपेटकर युक्ति ने कढाई में पकाये, फिर छोटे छोटे कतर के तेल में भून लेवे तो अलीकमस्य तैयार होते हैं, इनको बैंगनके भरतेके साथ अथवा बथुएके सागसे या रायतेस भाक करे ॥ ६१ ॥ ६॥
अथ कथिता ( कढी)। स्थाल्यां घृते वा तैले वा हरिद्र हिंगु भर्जयेत। अवलेह नसंयुक्तं तकं तत्रैव निक्षिपेत् । एषा लिद्धा समरिचा कथिता कथिता बुयैः ॥६३॥ कथिता पाचनी रुच्या लघ्वी वह्नि प्रदीपिली।
कफानिलविबन्धघ्नी किचित्पित्तप्रकोपिणी ॥६॥ . अलीकमत्स्याः शुष्का वा किंवा क्वथितया पुनः
बृंहणा रोचना वृष्या बल्या वातगदापहा ॥६५॥ ' कोष्ठशुद्धिकराःशुत्या किंचित्पित्तप्रकोपणाः॥ , अर्दित सहनुस्तंभे विशेषेण हिताः स्मृताः ॥६६॥
कढाई में धी अथवा तेल डालकर उसमें हलदी और होगको भने, पश्चात रसमें धुला हुआ वेपन और मट्टा डाले, फिर नोन, मिरच, मसाला प्रादि डाना र पक वे, पकने पर क्यथिता (कढी) तयार होती है। कढी-पाचक, रुचिकारक, हलकी, अग्निदीपक, किश्वत पिनकोपक और कफ, वात तथा मलके अवरोधको नष्ट करती है। ऊपर कही हुई अलीकमत्स्य सखी खावे या कढी माय खावे । कहीं साथ खाई हुई-पुष्टिकारक, रुचिकारी, पुष्प, बलकारक, और बातसम्बन्धी रोगोंको
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( ४०८ )
aftaarशविण्टुः भा. टी. ।
मष्ट करती है। यह (अली कमस्य ) सीखा तो कोठेको शुद्ध करनेबाली, किचित पिकाप और वि बातनं तथा नुस्तम्भ रोगमें विशेष करक हितकारी है ॥ ६६-६६ ॥
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अय मुद्रा द्रकवटका: ( अदरकवडा ) । मुद्गपिष्टिविरचितान्वां तैलेन पाचितान् । इस्तेन पूर्णयेत्सम्यक्त स्मिश्चूर्णे विनिक्षिपेत् ॥६७॥ भृष्टं दिग्वाईकं मृक्ष्मं मरीच जीरकं तथा । निंबूरमं यवानीं च युक्त्या सर्वे विमिश्रयेत् ॥ ६८ ॥ मुद्गपिष्टि पचेत्सम्यक्स्था ल्यामास्तारकोपरि । तस्यास्तु गोरकं कुर्यात्तन्मध्ये पूरणं क्षिपेत् ॥ ६९ ॥ तैले तान्गोलका पत्ता कथितायां निमज्जयेत् । गोलकाः पाचकाः प्रोतांस्ते वाईक वटा अपि ॥ ७० ॥ मुद्रार्द्धकवटा रुच्या लघवो बलकारकाः ।
: दीपनास्तर्पणाः पथ्या स्त्रषु दोषेषु पूजिताः ॥७१॥
मूंग की पिट्टीकी बड़ी बनाकर मेलमें पकावे, पश्चात् हायसे मलकर
चूर्ण श्ले, उसमें भुनी हुई हींग, छोटे छोटे अदरक के टुकडे, भुना हुआ
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जीरा, मिरव, नींबूस रन और अजवायन, ये सब युकिसे मिलाकर फिर कट ईमें पकाये, पश्चात इसके गोले बनाकर उसके भीतर मसाला भरकर फिर उन गोल' को सेट में पकावे, पक्रनेपर बढी डाल देवे । ये
पंडे-कारक, पाचक, हलके, बलदायक, अभिप्रदीपक, वृतिकारक, पश्य और त्रिदोषनाशक हैं ।। ६७-७१ ॥
अथ पौरी (फुलौरी) दालयश्चणकानां तु निस्तुषा यन्त्रपेषिताः । तच्चूर्ण बेसनं प्रोक्तं पाकशास्त्रविशारदैः ॥ ७२ ॥
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( १०९ )
वटिका बेसनम्यापि कथितायां निमजिता । रुच्या विष्टम्भजननी बल्या पुष्टिकरी स्मृता ॥७३॥ चने की दाल के छिलके छुटाकर नक्की नावे उस दाल के चूर्ण को पाकशास्त्र जाननेवाले बेसन कहते हैं इस बेमनकी बरियों को कढीमें डाले उसकी पकडी व हते हैं । ये बड़ी रुचिकारक, विष्टम्भजनक, बल-दायक और पुष्टिकारक हैं ॥ ७२ ॥ ७३ ॥
अथ मांसस्य प्रकाराः ।
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तत्र शुद्धमम् ।
पाकपात्रे घृतं दद्यात्तैलं च तदभावतः । तत्र हिंगु हरिद्रां च भर्जयेत्तदनन्तरम् ॥ ७४ ॥ छाग देर स्थिरहितं मांस तत्खण्डितम् ध्रुवम् । धौतं निर्गलितं तस्मिन्नृते तद्भर्जयेच्छनैः ॥ ७५ ॥ सिद्धयोग्यं जलं दत्त्वा लवणन्तु पचेत्ततः । सिद्धं जलेन संपिष्य वेशवारं परिक्षिपेत् ॥ ७६ ॥ वेशवार: ( पिसा हुआ मसाला ) । द्रव्याणि वेशवारस्य नागवल्लीदलानि च । तंडुलाश्च लवंगानि मरी चानि समासतः ॥ ७७ ॥ अनेन विधिना सिद्धं शुद्धांसमिति स्मृतम् । शुद्धमसिं परं वृष्यं बल्यं रुच्यं च बृंहणम् । त्रिदोषशमकं श्रेष्ठ दीपनं धातुवर्द्धितम् ॥ ७८ ॥
बकानेके बरतन में घी और घो न मिळे तो वेल डाले, तदनंतर हीग
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(४१०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। तथा हलदीको डालकर उसमें भूने वात बकरी पादिका हड्डीरहित मांस लेवे, उसके टुडे करके धोघे पश्चात तंटमें अथवा घ में धीरे पकावे, इस नोन और जल भी डाले, जब पक जाय ता उसमें गरममसाला डाल देवेनागर वेके पान. चाल,लौंग और मिरच, ये मसा. लेके पदार्थ तपसे जानने । इस प्रकारसे पकाये ह मां का शुद्ध मांस कहते हैं। शुद्ध मांस अत्यन्त वृष्य, बलदाय , रुचिक, पुष्टिकारी, त्रिदोषनाशक, श्रेष्ठ, अग्निको दीपन करनेवाला और धानुषद्धक है । ७४-७८॥
अथ सहद्रकम् ( महर्वासु)। छागादेमौसमू : कुट्टिा खंडितं पुनः । शुद्ध मांसविधानेन पचेदे सहद्रकम् । सहद्रकं गुणग्रन्थे शुद्धामगुणं स्मृतम् ॥ ७९ ॥ बकरे का मस और पूर्वा प्रादिकके टुकडे कर कूट ले पौर उपरोक्त शुद्ध मौसकी रीतिसे पकाये, पकनपर इसका सरद्रक कहते हैं, सहद्रक मांसमें शुद्ध मांसक सदृश गुण है, ये गुण अन्य ग्रन्याम . कहे ॥ ७९ ॥
अथ तक्रमांसम् ( अखनी)। पाकप त्रे घृतं दत्त्वा हन्द्रिां हिंगु भर्जयेत् । छागादेः मकलस्यापि खण्डान्यपि च भजयेत् ८. सिद्धयोग्य जलं दत्त्वा पचेन्मृदुतरं तथा। जीरकादियुते तके मांसखण्डानि तारयेत् ॥ ८॥ तक्रमांसन्न वातघ्नं लघु रुच्यं बलप्रदम् । कफघ्नं पित्तलंकिञ्चित् स्वाहारस्य पाचनम् ।। ८२॥ पाकपात्र (कटाई, डे ची ) में घी डालकर उसमें हलदी तथा हींग भूनले और ब री आदेिके मांस के टुकडे भी उनमें भू फिर यथायोग्य जत गलकर मन्द २ अग्निसे पकावे, पश्च त जीरा यदि पसाला पडे हुए मट्टेमें उन मांसके टुकडोंको डाले, तैयार होनेपर सको तक्रमांस
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४११) (पखनी) कहते हैं, तक्रमम ( अखनी)-वात तथा कफनाशक, हलका, रचिकारक, बलदायक, किंचित पित्तकारक और सम्पूर्ण प्रकार पाहार पचानेवाला है । ८०-८२ ॥
अथ हरीसा ( आस)। पाकपात्रे तु बृहति मांगवण्ड नि निक्षिपेत् । पानीयं प्रचुरं सर्पः प्रभूतं हिंगु जीरकम् ॥ ८३ ॥ हरिद्रामाकं शुण्ठी लवणं मरिचानि च । तण्डुलांश्चापि गोधूमाञ्जम्बीराणां रसान्बहून् ८४॥ तथा सवाणि वस्तूनि सुपक्वानि भवन्ति हि । तथा पचेतु निपुणो बहुमास शितिर्यथा ॥ ८५ ॥ एषा हरीमा बलकृद्वातपित्तापहा गुरुः। शीतोष्णा शुक्रदा स्निग्धा सरासन्धानकारिणी॥८६॥ पाकपात्रमें सडे २ मास के टुकडे डालकर उसमें पागं, घी. होग, जीरा, हलदी अदरक सोठ, नमक, मिरच, चावल, गेहूँ तथ जम्भीरी नीबूका रस बहुत डालके पकावे जब सब वस्तुएँ भलीभाँति पक जाये तब उतार. लेवे इसको हरीसा कहते हैं।
हरीसा ("पास ) बलदायक, वात तथा पिननाशक, भारी, शीतल, गरम, वीर्यःधक, स्निग्ध, दस्तावर और टूटी हड्डो आदिको जोहनेवाला.
अथ तालतमांसम । (ता हुआ मांग)। शुद्धमांसविधानेन मांसं सम्यक्प्रसाधितम् । पुनस्तदाज्ये सम्भृष्टं तलितं प्रोच्यते बुधैः ॥ ८७॥ तलितं बलमेधामिमांसौजःशुरुवृद्धिकृत् । तर्पणं लघु सुस्निग्धं रोचनं दृढताकरम् ॥ ८८ ॥ शुद्ध मांसकी रीतिके अनुसार मालको पकाकर पीछे उसको घो तक लेखे, उसको तलित मांस कहते है Shrutgyanam
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( ४१२ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
तलित मां दरक, हलका, बहन निम्न रुचिकारी, शरीर को करनेवाला बौर बल, बुद्धि, अग्नि, मांस, धोज तथा धीर्यवर्द्धक
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अथ शूल्यालम ( कवाच ) ।
कालखण्डादिमांसानि ग्रथितानि शलाकया । घृतं सलवणं दत्त्वा निधूमे दइने पचेत् ॥ ८९ ॥ तत्तु शुल्यमिदं प्रोकंपाक कर्म विवक्षः । शूल्यं पलं सुचातुल्यं रुच्यं वह्निक लघु । कफहरं बल् किश्चित्तकरं हि तत् ॥ ९० ॥ कलेजे के मांसको कुचलकर थी और नन मिनाकर लोहे की सलाईमें लपेटकर धुएँरहित अग्निपर पकावे. ककर्म में कुशन पुरुष इमको शुरुव मांस ( कवाब ) कहते हैं । यह मांत-अमृतुल्य, रुचिकारी, अग्निको दीपन करनेवाला, डल का, करु तथा वातनाशक, बजदापक और किंचित पित्तकारक है ॥ ८९ ॥ ९० ॥
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अथ मांसश्रृंगाटकम (मांका लिंग. डा ) ।
शुद्धममं तनूकृत्य कर्तित स्वेदितं जले | लवंग हिंगुलवणमरिचकयुतम् ॥ ९१ ॥ एलाजीरवान्याक निम्बूरस समन्वितम् । घृते सुगन्धे तद्भृष्टं मांसशृंगाटकं रुव्यं बृंहणं बलकृद् गुरु । वातपित्तहरं वृष्यं कफघ्नं वीर्यवर्धनम् ॥ ९३ ॥
शृंगाटकं स्मृतम् ॥ ९२ ॥
शुद्ध मांसके छोटे २ टुकडे करके पानी में कावे पश्चात उसने लौंग, हींग, जीरा, नॉन, मिश्च, अदरक, हलायची, जीरा, धनियाँ तथा नींबू का इस डालकर घीमें भूनले, उसको मगाटक कहते हैं । मांसशृंगाटक
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हरीतस्यादिनिघण्टुः भा. टी.। ११३) रुचिकारी, पुष्टिकारक, बलदायक, भारी, वात तथा पित्तनाशक, पुण्य कफनाशक और वीर्यवर्द्धक है ॥ ९१-९३ ॥
.. अथ मांजरसः ( सुरवा) सिद्धासरसो रुच्यः श्रमश्वासक्षयापहः । पीणनो वातपित्तघ्नः क्षीगानामरूपरेतसाम् ॥९॥ विशिष्ट भग्न सन्धीनां शुद्धानां शुद्धिकाक्षिणाम् । स्मृत्योजोबलहीनानां ज्यरक्षीणक्षतोरसाम् ॥ ९५ ॥ शस्यते स्वरहीन नां दृष्टयायुःश्रवणार्थिनाम् । प्रकार: कथिताः सन्ति बहवो मांसम्भवाः। ग्रन्थविस्तारभीतेस्ते मया नात्र प्रकीर्तिताः॥९६ ॥ पकाये हुए मांसका रस-रुच हारक, प्रिदायक, पात तथा पित्तना. शक और परिश्रम, वास तथा क्षयनाशक है । क्षीण ( दुबले ) तथा अप. मीर्यवालोको पुष्टकर्ता, विदरी हुई और दूटी संधियों को जोडनेवाला शरीरकी शुद्धि चाहनेवालोको, स्मृति, भोज तग बलहीन को, ज्वरो सीण हुर और क्षतरोगवालों की, सरहीनोंको, दृष्टि, पायु और श्रषण शक्ति बढानेवाल'को तथा स्वस्थ शरीरवालोंको भी मांस का रस परम हितकारी है। मांस बनाने के भेद अनेक प्रकारके हैं. । परन्तु यहाँ ग्रन्थका विस्तार होनेके भय से नहीं कहे हैं ।। ९४-९६ ॥
अथ शाकपाविधिः। हिंगुनीरयुते तैले शिपेच्छाकं सुखण्डितम् । लवगं चाम्लचूर्गादि सिद्धे हिंगूदकं क्षिपेत् । इत्येवं सर्वशाकानां साधनोऽभिहितो विधिः ॥९७॥ में रोम वा मीरा भने पश्चात सुधारामा थाक कतरकर उसमें
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भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी.। छौक देवे, जब गेलजाय तब नोन खट्टा चूर्ण आदि तथा होगका पानी डाले यही सम्पूर्ण शाक बनाने की रीति है ॥ ९७ ॥
___ अथ मठकम् ( मठरी)। समितां मर्दयदन्यजलेनापि च सन्नयेत् । तस्यास्तु वटिकां कृत्वा पचेत्सपिषि नीरसम्॥९८॥ एलालवंगकर्पूरमरिचाद्यैरलंकृते। मज्जयित्वा सितापाके त-स्तं च समुद्धत् । अयं प्रकारः संसिद्धौ मठ इत्यभिधीयते ॥ ९९ ॥
सन्नयेत मर्दयेत। . मठस्तु बृहणो वृष्यो बल्यः सुमधुरो गुरुः। पित्तानिलहरो रुच्यो दीप्तानीनां सुजिाः ॥१०॥ समिता शर्कासपिनिमिता अपरेऽपि ये। प्रकारा अमुना तुल्पास्तेऽपि चेतगणाः स्मृताः१०१ मैदाको घी तथा जलमे खूा मल कर उसमें इलायची, लोंग, कपूर और मिरच आदेिक डाले और सपटो बडी बना लेवे, फिर धीमें सेंककर खांडकी चासनीमें पाग लेधे, फिर चासनीले निकाल लेवे। इस प्रकारसे बनाई हुई वस्तको मठ (मठरी) कहते हैं।
मठ-पुष्टिकारक, वृष्य , बलदायक, मधुर, भारी, वात तथा पित्तना शक, रुचिकारी और प्रदीप्त अग्निवालों के लिये उत्तम है । इसी प्रकार और भी मैदा, खांड तथा बोके बने पदार्थ (बालूसाई आदि ) जानने, उनमें भी यही गुण हैं ॥ ९४-१०१ .
___ अथ संया ( गुजिया)। पर्पटयः साज्यसमिता निर्मिता घृतभर्जिनाः। कुहिताश्चालिताः शुद्धशर्कराभिर्विमर्दिताः ॥ १०२॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (५१५) तत्र चूर्ण क्षिपेदेलालवंगमरिचानि च । नालिकरं सकपूरं चारबीजान्यनेकधा ॥ १०३॥ घृताक्तसमिता पुष्टरोटिका रचिता ततः। तस्यान्तापूरणं तस्य कुान्मुद्रां हां सुधीः १०४ सर्पिषि प्रचुरे तान्तु सुपचेत्रिपुणो जनः । प्रकारज्ञैः प्रकारोऽयं संयाव इति कीर्तितः ॥१०॥ मैदा और घी मिलाय रोटी बनाकर घोमें सेंक लेरे, सिन्नेपर कूट ने और छान ले , पश्चात स्वच्छ बुरा मिलावे, फि इलायची, लोंग, काली मिरच, नारियल की मींग और कपुर, चिरोंजी डाले। फिर मोवन पडी हुई मैदाकी गेटीसी बेल लेवे, पश्चात उस चूर्णको उसके भीतर भरे और मजबूत मुख बंद करदेवे, चतुर पुरुष, इसको घोमें भली भांति सेंकलेवे, सिकने पर इसको संयाव ( गुजिया) कहते हैं। इस संयावके गुण मठके सदृश ही जानने ॥ १०२.-१०५ ॥
____ अथ कर्पूरनालिका। घृताठ्यया समितया लम्बं कृत्वा पुटं ततः। लवंगोल्वणकर्पू युतया सितयाऽन्वितम् ॥ १०६ ॥
पचेदाज्येन सिद्धैषा ज्ञेया कर्पूरनालिका । . संयावसहशी ज्ञेया गुणैः कर्पूरनालिका ॥ १०७॥ - मोक्न पडी हु मैदाकी लोई को बेल कर लम्बा सुपुट बनावे, फिर मोंग, मिरच, कपूर और खांड मिलाकर उसके भीतर भरे और मुख बंद करके घृत में सेंक लेवे.इसको कर्पूरनालिका कहते हैं, इसमें संवायके सदृश गुण हैं ॥ १०६ ॥ १०७॥
अथ फेनिका (फेनी)। समिताया घृनाढयाया वर्ति दीर्घा समाचरेत् । तास्तु सन्निहिता दीर्घाः पाठस्योपरि धारयेत १०८
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(४१६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
वेल्लयेरेल्लनेता यथैका पर्पटी भवेत् । ततश्छुरिकया तान्तु संलग्रामेव कर्तयेत् ॥१०९॥ ततस्तु वेल्लोद्भूयः सट्टकेन च लेपयेत् । शालिचूर्ण घृतं तोयं मिश्रितं सट्टकं वदेत् ॥१०॥ ततः संवृत्य तल्लाप्पी वेदधीन पृथक पृथक् । पुनस्तां वेल्लल्लाप्नों यथास्यान्मंडलाकृतिः १११ ततस्तां सुपवेदाज्य भवेयुश्च स्फुटाः स्फुटाः। सुगन्धया शाया तदुदूलन नाचरेत् ॥ ११२॥ सिदैा फेनिका नाम्ना मंडकेन समा गुणैः । ततः किञ्चिल्लघुरिय विशेषाऽयमुदाहृतः ॥ ११३ ॥ वेल्लोत् प्रसारयेत । वल्लर 'वेलुन' इति लोके
पी रोटी लोत्री ‘लाई इति लोक। मोचन युक्त मैदाको मलकर उसमें घी डालकर लम्बी लम्बी बत्ती पनाये, फिर सबको लपेटकर लाबी २ वही करे पश्चात् अननस लकर रोटी बना तदनन्तर चाकूमे कतरकर सब मिला ले, फिर कसरकर ले पौर सहरुका लेप कर, चावलका चूर्व घृत और जन इन सबको मिला
, इसको सहक कहते हैं, इस सट्टकको लपेटकर बेल लेवे. फिर मिला कर गोल २ वाले, तत्पश्चात धीमें सेंक लेके, जब सिक जायगी ता नार नार अलग होजायेंगे, गिर गंधित खाण्डकी चासनीमें पागले, तयार होनेपर फेविका (फेती) कराती है। फेनीमें मंडकके खरण रोक विशेष करके किंचित हनकी है॥ १०८-२१३ ॥
अथ शकुली (खस्तापूरी)। समिनाया वृताताया लोत्री कृत्वा च वेल्लयेत् । आज्ये तो भर्नयत्सिद्धां शष्कुल फेनिकागुणाम् ११४॥ मोवनयुक्त मैदाको मनकर नोई कारे,किर पतलो पेजकर पो छोरदेव,
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.
(४१७)
जब सिकजाय तब निकाल ले इसको शष्कुली ( खस्तापूरी ) कहते हैं इसमें केवी के सदृश गुण हैं ॥ ११४ ॥
अथ सेविकामोदकः ( सेवके लड्डू ) ।
घृताढ्यया समितया कृत्वा सूत्राणि तानि तु । निपुणो भर्जयेदाज्ये खण्डपाकेन योजयेत् । युक्तेन मोदकान्कुर्य्यात्ते गुणमैडका यथा ॥ ११५ ॥
वृतयुक्त मैदा के सेव बनाकर बीमें सेक लेवे और खाँडकी चासनीमें डालके लड्डू बनायले, इन लड्डुयोंमें भी मंडक के सदृश गुया हैं ॥ ११५ ॥ अथ मुक्ता मोदकाः ( बूँदी के लड्डू ) ।
मुद्वानां धूमसीं सम्यग्घोलयेन्निर्मलाऽम्बुना । कटाहस्थघृतैरूर्ध्व झझरं स्थापयेत्ततः ॥ ११६ ॥ धूमसीन्तु द्रवीभूतां प्रक्षिपेज्झझरोपरि । पतन्ति दिवस्तस्मात्तान्मुपक्कान्समुद्धरेत् । सितापाकेन संयोज्यकुर्याद्धस्तेन मोदकान् ॥ ११७ ॥ लघुग्राही त्रिदोषघ्नः स्वादुः शीतो रुचिप्रदः । चक्षुष्यो ज्वरद्वल्यस्तर्पणो मुमोदकः ॥ ११८ ॥ मूंगकीं धूमसीको जल में घोलकर बीकी भरी हुई कढाईमें बड़े बड़े छेदवाली झर्झर में उस सनी हुई मूँग की धूमसीको झाडदेवे तो उसकी छोटी छोटी बूंद कढाईमें पडेंगी उनको सिकनेपर निकालले और चासनी में डालकर हाथसे लड्डू बनावे | बूंदी के लड्डू-हलके, ग्राही, त्रिदोषना शक, स्वादिष्ठ, शीतल, रुचिकारक, नेत्रोंको हितकारी, म्वरनाशक, बढदायक और तृप्तिकारक हैं ।। ११६-११८ ॥
अथ बेसनमादकः ( मोतीचूर के लड्डू ) । एवमेव प्रकारेण कायी बेसनमोदकाः ।
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( ४१८ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
ते बल्या लघवः शीताः किंचिद्वातकरास्तथा । विष्टम्भिनोज्वरघ्नाश्च पित्तरक्तकफापहाः ॥ ११९ ॥ उपरोक्त लड्डू सदृशडी बेलनके बड्डू बनावे उन को मोतीचूर के लड्डू कहते हैं । मोनीचू के लड्डू - बलकारक, हलके, शीतल, किंचित वातकारक, विष्टम्भी, ज्वरनाशक और पित्तरक्त तथा
कफनाशक
हैं ॥ ११९ ॥
दुग्धकूपिका ।
तण्डुलचूर्णविमिश्रितनष्टक्षीरेण सान्द्रपिष्टेन । हृढकू पिकां विदध्यात्ताञ्च पचेत्सर्पिषा सम्यक् १२० अथ तां करितमध्य घनपयसा पूर्णगर्भाञ्च । सट्टकमुद्रितवदनां सर्पिषि सुपक्ववदनाञ्च ॥ १२१ ॥ अथ पाण्डुखण्डपाके स्नपयेत्कर्पूरवासिते कुशलः । अब दुग्धकूपिका सा बल्या पित्तानिलापहा चैत्र । वृष्या शीता गुर्वी शुक्रकरी बृंहणी रुच्या ॥ १२२ ॥ विदधाति काय पुष्टि दृष्टिं दूरप्रसारिणीं चिरम् |
चावलों के चूर्ण में मावा ( खोहा ) मिलाकर मजबूत कुप्पी बनावे, उसको घोंमें छोडकर सेकले वे, पकनेपर निकालकर बीच में छेदकर गाढा मिश्री युक्त दूध भर देवे बौर सहकसे मुख खूब बंद करके फिर
में से जब उसका मख सिकजाय तब चतुर मनुष्य कपूर से मुवाचित खाँड की चासनी में पागलेवे, उसको दुग्धकूपिका कहते हैं ।
यह दुग्धकूपिका- बलकारक, पित्त तथा कफनाशक, वृष्य, शीतल भारी, वीयंत्रद्धक, पुष्टिकारी, रुचिकारक, शरीरकी पुष्टि करनेवाली और दृष्टिको दूरदर्शक करनेवाली है ॥ १२०-१२२ ।।
अत्र कुण्डलिनी ( जलेबी ) ।
नूतनं घटमानीय तस्यान्तः कुशलो जनः ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (१९) प्रस्थाद्धपरिमाणेन दनाऽम्लेन प्रलेपयेव ॥ १२३ ॥ द्विपस्थः समितां तत्र दध्यम्लं प्रस्थसम्मितम् । घृतमद्धशरावञ्च घोलयित्वा घृतं क्षिपेत् ॥ १२४॥ आतपे स्थापयेत्तावद्यावद्याति तदम्लताम् । ततस्तत्प्रक्षिपेत्पात्रे सच्छिद्रे भाजने तु तत् ॥१२॥ परिभ्राम्यपरिभ्राम्य तत्सन्तप्ते घृते क्षिपेत् । पुनः पुनस्तदावृत्त्याविदध्यान्मण्डलाकृतिम्॥१२६॥ तां सुपक्वां घृतानीत्वा सितापाके तनुवे । कर्पूरादिसुगन्धञ्च स्थापयित्वोद्धरेत्ततः ॥ १२७ ॥ एषा कुंडलिनी नाम्ना पुष्टिकान्तिबलप्रदा। धातुवृद्धिकरी वृष्या रुच्या च क्षिप्रतपणी ॥१२८॥ नवीन मृत्तिकाके पडेमें आधसेर खट्टे दही का लेप कर देवे पश्चात दोसेर मैदा उसमें डाले और एक्सेर दही तथा प्राधसेर घृत घोलकर जबतक खट्टा न हो तबतक धूपमें रखा रहने दे पश्चात जिस बासनमें नीचे छेद हो उस पात्र में करके नीचे घृत भरी हुई कढामें गोल २ करके छोडता जाय, जब वह सिक जाय तब घी में से निकालकर कपूर भादिसे सुगंधित हुई खांडकी चासनी में डाल देवे और पश्चात निचोडकर निकाल ले उसको कुंडलिनी (जलेबी) कहते हैं। यह जलेबी पुष्टिकारक, कांदिकारक, बरदायक, धातुवर्द्धक, वृष्य, रुचिकारक और तुरन्त वृप्तिकारक है:॥ १२३-१२८॥
अथ पश्चात् परिवेष्याणि।
रसाला ( सिखरन)। आदौ माहिषमम्लमंबुरहितं दध्याढकं शर्करा शुभ्रांतस्थयुगोन्मितां शुचिपटेकिञ्चिच्च किंचित्क्षपेत्
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(४२०) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
दुग्धेनाईघटेन मृन्मयनवस्थाल्यां दृढं स्रावयेदेलाबीजलवंगचन्द्रमरिचैर्योग्यैश्च तद्योजयेत् १२९॥ भीमेन प्रियभोजनेन रचिता नाम्ना रसाला स्वयं श्रीकृष्णेन पुरा पुनःपुनरियं प्रीत्या समास्वादिता। एषा येन वसन्तवर्जितदिने संसेव्यते नित्यशस्तस्य स्यादतिवीर्यवृद्धिरनिशं सर्वेन्द्रियाणां बलम् ।। १३०॥ ग्रीष्मे तथा शरदि ये रविशोषितांगा ये च प्रमत्तवनितासुरतातिखिन्नाः। ये चापि मार्गपरिसर्पणशीर्णगात्रा
स्तेषामियं वपुषि पोषणमाशु कुर्यात् ॥१३॥ .. रसाला शुक्रला बल्या रोचनी वातपित्तजित । ति दीपनी बृंहणी स्निग्धा मधुरा शिशिरा सरा।
रक्तपित्ततृषां दाहं प्रतिश्यायं विनाशयेत् ॥१३२ ॥ । प्रथम सा तथा जलरहित दोसौ छप्पन २५६ तोले भर भैसका दही लेवे और उसको स्वच्छकपडेमें रख कर एकसो अठाईस १२८ तोला भर सफेद दूरा डालकर नीचेको स्वच्छ नवीन मिट्टौके पात्रमें दही छानता नाय, पश्चात इसमें पांचसौ बारह ५१२ तोला भर दूध डाले और इलायची, लौंग, कपूर, मिरच, यथा-योग्य डाले। प्रिय भोजन के' बनानेवाले भीमसेनने स्वयं यह रसाना बनाई थी और श्रीकृष्णने परम प्रीति से वारंवार स्वाद लेकर खाई थी । जो मनुष्य वसन्तऋतुको त्यागकर नित्य साना भोजन करते हैं उनको निरन्तर वीर्यकी अत्यन्त वृद्धि होती है और सर्व इन्द्रियोंमें बम बढता है । जिनका शरीर ग्रीष्म तथा शरदऋतुमें सूर्षके तापसे सूख गया है, जो महोन्नता शियोंके संभोगसे अतिखिन
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी । (४२१) होगया है और जिनका शरीर मार्ग चलनेसे शिथिल हो गया है उन पुरुषों के शरीरोको तरकाल पुष्टि करती है। यह रसाला-(श्रीखण्ड) बीर्यवर्द्धक, बलदायक, रुचिकारक, वात तथा पित्तनाशक, अग्रिको दीपन करनेवाली, पुष्टिकारक, स्निग्ध, मधुर, शीतल, दस्तावर और रक्तपित्त वृषा, दाह तथा प्रतिक्षाय (जुखाम ) नाशक है॥ १२९-१३२ ॥
___ अथ शकरादकम् (सरबत)। जलेन शीतलेनैव घोलिताशुभ्रशर्करा । एलालबङ्गकर्पूरमरिचैश्व समन्विता ॥ १३३ ॥ शर्करोदकनाम्ना तत्प्रसिद्ध विदुषां मुखैः । शर्करोदकमाख्यातं शुक्रलं शिशिरं सरम् ॥१३४॥ बल्यं रुच्यं लघु स्वादु वातपित्तप्रणाशनम् । मूर्छा छर्दितृषादाहज्वरशान्तिकरं परम् ॥१३॥ शीतल जलमें सफेद खांड घोलकर उसमें इलायची, लोंग, कपूर तथा मिरच डाल देवे उसको विद्वान् शर्कगेदक (सरवत ) कहते हैं।
सरबत-वीर्यवर्धक, शीतल, दस्तावर, बलदायक, रुचिकारी, स्वादिष्ट हमका और वात, पिन, मूच्छी, वमन, तृषा, दाह तथा ज्वरको शांत करता ॥ १३३-१३५ ॥
अथ प्रपानकानि (सरबत)।
तत्र आम्रफलप्रपानकम् । आम्रमामं जले स्विन्नं मर्दितं दृढपाणिना। सिताशीतांबुसंयुक्तं कर्पूरमरिचान्वितम् ॥ १३६ ॥ प्रपानकमिदं श्रेष्ठं भीमसेनेननिर्मितम् । सद्यो रुचिकर बल्यं शीघ्रमिन्द्रियतर्पणम् ॥१३॥ कच्ची प्रमियोंको जलमें मौटाकर दृढताले मल लेवे, पश्चात सफेद चूरा, शीतल जन, कपूर और मिरच डाले इसको प्रपानक (प्रामका
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( ४२२ )
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
पत्रा) बहते हैं । यह श्रेष्ठ प्रपानक भीमसेनने निर्माण किया है। यह प्रपानक- तत्काल रुचिकारी, बलदायक और तुरन्त इन्द्रियोंको तृप्त करने बाला है । १३६ ।। १३७ ॥
अथ अम्लिकाफलपानकम् ।
अम्लिकायाः फलं पक्वं मर्दितं वारिणा दृढम् । शर्कराम रिचैर्मिश्रं लवंगेन्दुसुवासितम् ॥ १३८ ॥ अम्लिका फलसम्भूतं पानकं वातनाशनम् । पित्तश्लेष्मकरं किञ्चित्सुरुच्यं वह्निबोधनम् ॥ १३९॥
पक्की इमलीको जल में भिगोकर खूब मलले, उसमें सफेद बूरा, मिथ्व, लौंग, और कपूर आदि डालकर सुवासित करने, इसको फलिकामपानक ( इमलीका पन्ना ) कहते हैं, यह इमलीका पन्नावातविनाशक, पित्त तथा कफकारी, रुविकारक और अग्निवद्धक ★ ॥ १३८ ॥ १३९ ॥
निम्बुक फलपानकम् |
भागैकं निम्बुजं तोयं षड्भागं शर्करोदकम् । लवंगमरिचैर्मिश्रं पानं पानत्रमुत्तमम् ॥ १६० ॥ निम्बूफलभवं पानमत्यम्लं वातनाशनम् । ह्रिदीप्तिकरं रुच्यं समस्ताहारपाचकम् ॥ १४१ ॥
एक भाग नींबू के रस में छः भाग खांडकी पानी ( सबरत ) डाले पौर उसमें लोग तथा मिरच डाले, इसके नींबूपपानक ( नींबू का पन्ना ) कहते हैं। नींबूका पन्ना उत्तम, अग्निदीपन करनेवाला, रुचिकारक पौर सम्पूर्ण आहारको पचानेवाला है ॥ १४० ॥ १४१ ॥
धान्याकपानकम् ।
शिलायां साधु सम्पिष्टं धान्याकं वस्त्रगालितम् ।
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४२३ ) शकरोदकसंयुक्तं कर्पूरादिसुसंस्कृतम्। नूतने मृन्मये पात्र स्थितं पित्तहरं परम् ॥ १४२॥ धनियोंको शीलापर भली भांति पीसकर बमें छान लेवे उसमें बराका पानी डाले और कपरादिसे सुगंधित करे और उसको नवीन मट्टी के पात्र में रक्खे वह पन्ना अत्यन्त पित्तनाशक है ।। १४१ ।।
. अथ काजी।
(कांजीविधिषटकावसरे लिखितः)। कांजीकं रोचनं रुच्यं पाचनं वह्निदीपनम् । शूलाजीर्णविबन्ध कोष्ठशुद्धिकरं परम् । न भवेत्कांजिकं यत्र तत्र जालिम्प्रदीयते ॥ १४३॥ कांजी बनाने की विधि बडे बनाने के विषयमें लिख पाये हैं, कांजीका प्रपानक-रुचियुक्त, रुचिकारक, पाचक, अग्निको दीपन करनेवाला और शूल, अजीर्ण तथा मलबंधनाशक है और कोठेको अत्यन्त शुद्ध करनेवाला है। कांजी जहां न मिले वहां नीचे लिखी हुई जाली देवे ॥ १४३॥
अथ जालिः। आममाम्रफलं पिष्टं राजिकालवणान्वितम् । भृष्टहिंगुयुतं पूतं घोलितं जालिरुच्यते ॥ १०४ ॥ जालिहरति जिह्वायाः कुण्टत्व कण्ठशोधनी। मन्दं मन्दन्तु पीता सारोचनी वह्निबोधनी ॥१४॥ कच्ची अमियोंको पीसकर उसमें गई, संधानों और भुनी हुई हींग डालकर उसे पानी में घोल लेधे, उसको जाली कहते हैं। जाली-जीभकी जडताको नष्ट करती है तथा कण्ठको शुद्ध करती, यह जालो धीरे पीधे तो अत्यन्त रुचिकारी और अग्निवर्द्धक है ॥ १४४ ।। १४५ ॥
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( ४२४ )
भावकाशनिघण्टुः भा. टी.
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अथ तक्रम् (छाछ ) ।
तुर्याशेन जलेन संयुतमतिस्थूलं सदम्लं दधि प्रायो माहिषमम्बुकेन विमले मृद्भाजनेगालयेत् । भृष्टं हिंगु च जीरकञ्च लवणं राजीञ्च किञ्चिन्मितां पिष्टांतंत्रविमिश्रयद्भवति तत्तकं न कस्यप्रियम् १४६ तक्रं रुचिकरं वह्निदीपनं पाचनं परम् । उदरे ये गतास्तेषां नाशनं तृप्तिकारकम् ॥ १४७ ॥
अत्यन्त गाठे और खट्टे भैंसके दही को लेकर उसमें चौथा भाग जल डाले पश्चात् मृत्तिकाके पात्र में बसे छानलेवे फिर उसमें भुनी हींग, जीरा, नमक तथा किंचित राई इनको पीसपर मिला देवे तो वक्र (मट्ठा छाछ) तयार हो जाता है, यह छाछ किसको प्रिय नहीं है ? तक्र-रुचिकारी, अग्निको दीपन करनेवाला, अत्यन्त पाचन, पेटके सम्पूर्ण रोगों को नष्ट करनेवाला और तृप्तिकारक है । १४६ ॥ १४७ ॥
अथ दुग्धम् (दूध ) ।
विदाहीन्यन्नपानानि यानि भुंक्ते हि मानवः । तद्विदाहप्रशान्त्यर्थे भोजनान्ते पयः पिबेत् ॥ १४८॥ दुग्धस्य अपरे गुणा उक्ता एव दुग्धवर्गे ।
जो मनुष्य दाह करनेवाले अन्नपानका उपयोग करते हैं उनको दाहकी शांति करनेके लिये भोजन के अन्तमें दूध पीना चाहिये, दूधमें जो और गुण हैं वे दुग्धवर्गमें कहे हैं ॥ १४८ ॥
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अथ सक्तवः (सत्तू )
धान्यानि भ्राष्ट्रभृष्टानि यन्त्रपिष्टानि सक्तवः १४९ चावल जौ आदि धान्योंको भाडमें भुनाकर पिसवा लें उसको सत् कहते हैं ॥ १४९ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. 1
तत्र यवसक्तवः ।
यवजाः सक्तवः शीता दीपना लघवः सराः । कफपित्तहरा रूक्षा लेखनाश्च प्रकीर्तिताः ॥ १५० ॥ ते पीता बलदा वृष्या बृंहणा भेदनास्तथा । तर्पणा मधुरा रुच्याः परिणामे बलापहाः ॥ १५१ ॥ कफपित्तश्रमक्षुतडू विधिनेत्रामयापहाः । प्रशस्ता घर्मदाहाय्यग्यायामार्तशरीरिणाम्॥ १५२॥
( ४२५ )
जौके सत्तु -- शीतल, अग्निदीपक, हलके, दस्तावर, कफ तथा पिसनाथक, रूस और लेखन हैं। सत्तु प्रोंका पीना बलदायक, वृष्य, पुष्टि. कारक, मलभेदक, तृप्ति करनेवाला, मधुर, रुचिकारी, अन्तमें बलमाशक है। और कफ, पित्त, परिश्रम, भूख, प्यास, अण्डवृद्धि और नेत्ररोगको नष्ट करता है, जो पलीना, दाह तथा व्यायाम ( कसरत) करने से व्याकुल हैं, उन मनुष्योंको यह हितकारी है । १५०- १५२ ॥
अथ चणकयवसक्तवः ।
निस्तुषैश्चणकैर्भृष्टैस्तुर्याशैश्च यवैः कृताः । सक्तवः शर्करा सर्पिर्युक्ता ग्रीष्मेऽतिपूजिताः ॥ १५३ ॥
छिलके रहित भुने हुए चनोंके और चौथे भाग भुने हुए जौके सत्तु बनाकर उसमें बूरा और घी मिलाकर खाये ये ग्रीष्मऋतु में अत्यन्त हितकारी हैं ॥ १५३ ॥
शालिसक्तवः ।
सक्तवः शालिसम्भृता वह्निदा लघवो हिमाः । मधुरा ग्राहिणो रुच्याः पथ्याश्च बलशुक्रदाः १५४ ॥
शाली चावलोंके सातु-अग्निप्रदीपक, हलके, शीतल, मधुर, ग्राही, विकारी, पथ्य और बल तथा वीर्यवर्धक हैं ।। १५४ ।।
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(४२६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
अथ सामान्यपरिभाषा। न भुक्का न रदैश्छित्वा न निशायां न वा बहून् । न जलान्तरितानाद्भः सक्तू द्यान्न केवलान् १९५॥ पृथक्पानं पुननिमामिषं पयसा निशि । दंतच्छेदनमुष्णं च सप्त सक्तुषु वर्जयेत् ॥ १५६॥ सत्तू भोजन करनेके अनन्तर न खाय, दांतो से कुचलकर न खावे, रात्रिमें न खाय, अधेि न खाय, दो बार पानी डालकर न खाय, मौर केवल सातू न खाए । अलग पीग, एकबार जिसने खाये हो उसको दूसरी बार न देना, मांस के साथ और दूधके साथ, रात्रिमें, दांतोंसे कुचल कर अरगरम करके इस प्रकार सत्तू नहीं खाना चाहिये, ऐसे वर्जित हैं ॥ १५५ ॥ १५६ ॥
अथ धानाः ( बहुरी)। यवास्तु निस्तुषा भृष्टाः स्मृता धाना इति स्त्रियाम् । धानाः स्युदुजरा रूक्षास्तृपदा गुरवश्च ताः। तथा मेहकाच्छर्दिनाशिन्यः संप्रकीर्तिताः ॥१५७॥ भूतीरहित योंको भुनवा लेवे, उसको धाना (बहुरी) कहते हैं। बहुरी-बुर्जरी (कठिनताले पचे), भारी रूक्ष, तमा नगाने वाली और प्रमेह, कफ तथा वमननाशक है ॥ १५७ ॥
____ अथ लाजाः (खील )। . येषां स्युस्तण्डुलास्तानि धान्यानि सतुषाणि च । वृष्टानि स्फुटितान्याहुबजाइति मनीषिणः।।१५८॥ लाजाः स्युर्मधुराः शीता लघवो दीपनाश्च ते । स्वल्पमूत्रमला रूक्षा बल्याः पित्तकफच्छिदः । छzतीसारदाहास्रमेहमेदस्तृषापहाः ॥ १५९ ॥ जिसमें चावन निकलते हैं उन छिलके सहित धात्योंको भाड़में भुनाले
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४२७) उसको नाजा (खील) कहते हैं। खील-मधुर, शीतल, हलकी, अग्निप्रदीपक, मल तथा मूत्रको अल्प करनेवाली, रूक्ष बनदारक और पित्त, कफ, वमन, अतीसार, दाह, रक्तविकार प्रमेह, भेद तथा तानाशक हैं। १५८ ॥ १५९ ॥
अथ चिपिटाः (चिउड़ा )। शालयः सतुषा आर्द्रा भृष्टाअस्फुटिताश्च तत् । कुट्टिताश्चिपिटाः प्राकास्तेस्मृताः पृथुकाअपि१६० पृथुका गुरखोवातनाशनाः श्लेष्मला अपि । सक्षीरा बृंहणा वृष्या बल्या भिन्नमलाश्च ते॥१६॥ भसी सहित गीने शालि धान्यों को भूनकर विना खिले ही तत्काल कूट देवे कूटकर चिपटे हो जाते हैं तो उनको चिपिट और पृथुन कहते हैं। पृथुक (चिउड़ा) भरी, वातनाशक, कफकारक, खरी, पृष्टिकारक वृष्य, बलदायक और मलभेदक, (दस्त लानेवाले ) हैं । १६० ॥ १६१ ॥
अथ होला । अर्द्धपक्वैशमीधान्यैस्तृणभृष्टैश्च होलकः । होलकोऽल्पानिलो मेद कफदोषत्रयापहः । भवेद्योहोलको यस्य स च तत्तद्गुणो भवेत् ॥१६२॥ अधपके शमी धान्यों को तोड़कर भूनले उसको होला काते हैं । होळाअल्प वातकारक और मद तथा विदोषनाशक है । जिस धान्यके होने होय उसके गुण भी उन होलो में रहते हैं ॥ १६२ ॥
अथ उची ( उंबी)। मञ्जरीत्वपक्वा या यवगोधूमयोर्भवेत् । तृणानलेन संभृष्टा बुधैरूचीति सा स्मृता ॥१६३॥
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( ४२८ )
भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
ऊची कफप्रदा बल्या लघ्वी पित्तानिलापहा ॥ १६४॥ जौ अथवा गेहूं की अधपकी मंजरी (बाळ) लेकर तृणोंकी भाग में भूम मेसे, उसको ऊवी कहते हैं ऊची ( ऊँबी ) - कफकारक, बलदायक, हलकी और पित्त तथा वातनाशक है ।। १६३ ॥ १६४ ॥
अथ कुल्माषाः (घुघुरी ) । अर्धस्विन्नास्तु गोधूमा अन्येऽपि चणकादयः । कुल्माषा इति कथ्यन्ते शब्दशास्त्रेषु पंडितैः । कुल्माषा गुरवो रूक्षा वातला भिन्नवर्चसः ॥ १६५ ॥ गेहूँ अथवा वने आदिको अध सीजा कर लेवे उसको शब्दशास्त्र - विशारद कुल्माष (घुरी ) कहते हैं । कुल्माष ( घुघुरी) - भारी, रूखी, वातकारक और महभेदक है ॥ १६५ ॥
अथ तिलकुट्टम् ( तिलकुट ) ।
पललन्तु समाख्यातं सक्षवं तिलपिष्टकम् । पललंमलकृद् वृष्यं वातघ्नं कफपित्तकृत् । बृंहणं च गुरु स्निग्धं मूत्राधिक्य निवर्त्तकम् ॥ १६६॥
तिलोको कूटकर उसमें गुड आदि मिलावे उसको पलल (तिलकुट ) कहते हैं। तिलकुट - मलकारक, वृष्य, वातनाशक, कफ तथा पित्तकर्ता, पुष्टिदायक, भारी, चिकना, और मूत्रकी अधिकताको नष्ट करती है ॥ १६६ ॥
अथ तिलखलिः ( खल, पनि ) ।
तिलकुट्टन्तु पिण्याकं तथा तिलखलिः स्मृता । पिण्याको लेखनो रूक्षो विष्टम्भी दृष्टिदूषणः ॥ १६७॥
तिलकुड, पिण्याक पर तिलखलि ये खलके संस्कृत नाम हैं । हिंदी -खल ०-खोल ।
तिलकी खल-ग्लानिकारक, रूक्ष, विरंभी और दृष्टिको दूषित करती
१६७ ॥
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
अथ तंदुल : ( चावल ) ।
तंडुलो मेहजन्तुघ्नः स नवस्त्वतिदुर्जरः ॥ १६८ ॥
इति श्रीभावप्रकाश निघण्टौ कृतान्नवर्गः ।
यावल-- प्रमेह तथा कृमिरोगको नष्ट करते हैं । जो चावल नवीन होयँ ने अत्यन्त दुर्जर हैं ।। १६८ ।।
इति श्रीभावप्रकाशे हरीतक्यादिनिघण्टौ भाषाटीकायां कृतान्नवर्गः समाप्तः ।
त्रिवसु नव चन्द्रेन्दे मध्याह्ने गुरुवासरे ज्येष्ठशुकस्य सप्तम्यां पूरितशिवशर्मणा ॥
( ४२९ )
दो० - संवत्त्रय वसु नव शशि, (१९८३) मध्य दिवस गुरुवार । ज्येष्ठ शुक्ल तिथि सप्तमी, लिखकर भले प्रकार ॥ १ ॥ हिन्दी भाषायुत कियो, अधिकारिन के हेत । शिवकी शिवपरकाशिका, दैशिक शब्द समेत ॥ २ ॥ प्रभु प्रार्थना ।
जगके वन उपवन के मालिक तुम्हें पूजने आया हूँ । तेरे आयुर्वेदिक वनका पुष्प भेटमें लाया हूँ ॥ ३ ॥ द्रव्य गुणों की केसर से पग पुष्प यह शोभित है । जगके हित अनहित कमोंसे शीत उष्ण हो क्षोभित है ॥ ४ ॥ इसका कुछ २ ज्ञान गुरुचरणोंसे प्रापित कर ईश्वर । शिवशर्मा वर मांगत है चित तव चरणोंमें घर ईश्वर ॥ ५ ॥ दो० - प्रथम भेट लाया प्रभो, लीजे भक्ति पछान ।
नित्य पुष्प लाया करूं, दीजे ऐसा ज्ञान ॥ ६ ॥ शिव शम्मकी प्रार्थना, विनय सहित महाराज । निस दिन आयुर्वेदेको, माने मनुज समाज ॥ ७ ॥
समाप्तश्चायं ग्रन्थः ।
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(१०)
भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. ।
अनेकार्थवर्गः।
दो अर्थवाले शब्द।
(१) अश्मंतक-अम्ललोणिका ( खट्टी नोनिया ), कोविदार ( कचनार) (२) कुलक-पटोल (परवल ) कुपी ( कुचला) (३) कोशातकी-महाकोशातकी (तुरई), राजकोशातकी ( गलकातोरई) (४) चुक्रिका-अम्लिका ( इमली , चाङ्गेरी ( अम्लले निया) (५) दीप्यक-यवानी ( अजवाइन), अजमोदा (अजमोद ). (६) मरुवक-फणिजक ( मरुआ ), पिण्डीतक (मैनफल ). (७) रुचक-सौवर्चल ( कालानमक), बीजपूरक ( विजौरा निम्बू) (८) लोणिका-लोणीशाक ( नोनिया शाक ), चांगेरी शाक ( चूका ). (९) वाहीक-कुंकुम (केशर), fगु ( होग). (१०) स्वादुकण्टक-गोक्षुर ( गोखरू), विकंकित (कटाई). . (११) अग्निमुखी-भल्लातकी ( भिलावा ), कुसुम्भ ( कुसुम्भा). (१२) अजशृगी-मेषगी ( मेढासिंगी), कर्कटगी ( काकडार्सिगी). (१३) प्रियंगु-फलिनी ( गोदी ) कंगू (कंगनी ). (१४) भृङ्ग-मृगराज (भांगग ), त्वक् (तज). (१५) मंगा-मजिष्टा (मजीठ ), लज्जालु ( लज्जालु ). (१६) अमोघा-विडंग ( वायविडंग ), पाटला (पाठल). . (१७) मोचा-कदली (केला), शाल्मलि (सेमल). (१८) कनटी-धनिका ( धनियाँ), मनशिला ( मैनशिला ). (१९) कुटन्नट-स्योनाक (टेंट ), कैवर्तिमुस्तक ( केवटीमोथा). (२०) घोटा-पूग ( सुपारी), बदरी (वेर). (२१) दन्तशठा-अम्लिका ( इमली ), चांगेरी ( चूका ). (२२) त्रिपुटा-त्रिवत् ( निसोत'), सूक्ष्मैला ( छोटी इलायची ).
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( २३ ) शटी - कर्पूर ( कचुर ), गन्धपलाशी ( गन्धपत्राशी ). (२४) दन्तशठ - जम्भीर ( जम्भीरी नीम्बू ) कपित्थ ( कत्था ). ( २५ ) अरुणा - मंजिष्ठा ( मजीठ ), अतिविषा ( तीस ). . (२६) कणा - पिप्पली ( पीतल ), जीरक ( जीरा ). (२७) तालपर्णी - मुसली ( मुसली) मुरा ( मुरा ). (२८) पीलुपर्णी - मूर्वा (मूर्वा) बिम्बी ( कन्दूरी ).
(२९) ब्राह्मी - भांग ( भारंगी), स्पृक्का ( श्रसवर्ग ). (३०) अपराजिता - विष्णुषान्ता ( कोयल ) ( शालपर्णी ). (३१) स्फोता - अपराजिता ( कोयल ), सावि ( सरबन ). ( ३२ ) पारावतपदी - ज्योतिष्मती ( मालकंगनी ), काकजंघा . ( ३३ ) शाब्दी - शाखा ( सविन ), जलपिप्पली ( जलपीपल ).
(३४) उग्रगग्धा - वचा ( वच ), यवानी ( अजवायन ). (३५) परिव्याध - कर्णिकार ( कनेर), जलवेतस ( जलवेत ). ( ३६ ) अञ्जन-स्रोतोंजन ( कालासुरमा ) सौवीर ( सफेदसुरमा ). ( ३७ ) अग्नि-चित्रक ( चीता ), भल्लातक ( भिलावे ). (३८) कृमिघ्न - विडंग ( वायविडंग ), हरिद्रा ( हलदी ). ( ३९ ) तेजन - शर ( सरपता ), वेणु ( वास ). (४०) तेजनी - तेजस्वती ( मालकंगनी ). मूर्वा.
( ४३१ )
( ४१ ) रोचना - गोरोचना ( गोलोचन ), रक्तोत्पल ( लाल कमल ) (४२) राजादन - क्षीरिका ( खिरनी), प्रियाल ( चिरौंजी ). (४३) शकुलादमी - कटुका, - (कुटकी), जलपिप्पली ( जलपीपल ). ( ४४ ) गोलोमी - श्वेतदुर्वा ( सफेद दूब ), बच्चा ( वच ).
(४५) पद्मा - पद्मचारिणी ( सरोजनी ) भाझी ( भारंगी ). (४६) श्यामा-सारिक ( सखिन ), प्रियंगु.
(४७) उत्तम त्रिफला, सर्वतोभद्रा ( गम्भारी वृक्ष ).
( ४८ ) धान्य- धान्यक ( धनियाँ ), शाल्यादि ( शाली चावल ). (४९) सहस्रवीर्ण - नीलदुर्वा (नीलीदूव ), महाशतावरी ( बडी शतावर ) (५०) सेथ्य - उशीर - (खस), लामज्जक,
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भावप्रकाश निघण्टुः भा. टी. ।
( ४३२ )
(५१) उदुंबर - जन्तुफल ( गूलर ), ताम्र ( ताभ्या ).
( ५२ ) ऐन्द्री - इन्द्रवारुणी ( इन्द्रायण ) इन्द्राणी ( सम्हालगत, बडी इलायची / (५३) कटंभरी - कटुका (कुटकी) इयोनाक ( अरलू ).
(५४) क्षार - यवक्षार ( जौखार ), स्वर्जिका ( सज्जीखार ). (५५) गान्धारी - दुरालभा ( धमाला ), गन्धपलाशी, (५६) चित्रा - इन्द्रवारुणी ( इन्द्रायन ) बृहन्ती ( बढी दन्ती ) (५७) तुण्डकेशी - कर्पासी (कपास), बिम्बा ( कुन्दरु ). (५८) धारा-- गुडूची ( गिलोय ), क्षीरकाकोली. (५९) वालपत्र - - खदिर (और). यवास ( जवासा ) . ( ६० ) वारि - - वालक ( नेत्रवाला ), उदक ( जल ). (६१) अंगारवल्ली - भांग ( भारंगी ), गुंजा ( रत्तक ). (६१) प्रमृणाल - उशीर (खस), लामज्जक. (६३) कुण्डली - गुडूची (गिलोय ), कोविदार ( कचनार ). (६४) गन्धफली -- प्रियंगु, चम्पककलिका ( चम्बेकी कलिया ). (६५) दीर्घ मूल--य -- यवास्त्र ( जवासा ) शालिपर्णी.
(६६) पुष्पकल -- कपित्थ ( केथ ). कूष्माण्ड ( पेठा ). ( ६७ ) पोटगल - नल ( नरसल ), कास (कांस ) (६८ ) यवफल · · कुटज ( इन्द्रजौ ), वंश ( वांस ), (६९) विश्वा-शुंठी ( सौठ ), अतिविषा ( अतीस ). ( ७० ) शीत शिव--सेन्धव ( सेन्धानमक ), मिश्रेया ( सौंफ ) (७१) कर्कश - कामित्य ( कबीला ) कासमर्द ( कसौन्दी ),
( ७२ ) चर्मकषा -- शीतल ( सीतला ), मांमरोहणी,
(७३) नन्दिवृक्ष - अश्वत्थभेद ( वेलिया पीपल ), गोमुखपत्रशास्त्र (सुन)
(७४) पय-क्षीर (दूध) उदक और (पानी)
(७५) स्पृहा दूर्वा ( दूब ) मांस रोहिणी ।
(७६) सिंही--बृहती ( कटेरी), वासा (असा )
(७७) कतक--विलवया ( विड़नमक ), निर्मलीफल, Aho : Shrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( ७८ ) कंटकाढय - कुब्जक ( कुजावृक्ष ), शाल्मलि ( सेमल ). (७९) यक्षधूप - सरल निर्यास ( सरलका गोन्द), राल.
( ४३३ )
(८०) द्राविडी - शटी ( कचूर ), सूक्ष्मैला ( छोटी इलायची ). (८१) हट्टविलासिनी - हरिद्रा ( हलदी ), नखी.
( ८२ ) तिलपर्ण - रक्तचन्दन ( लालचन्दन ), ग्रन्थिपर्ण ( गठिवन ).
( ८३ ) मधुर - जीवक, जीवनीयगण ( जीवक आदि दश औषधियें ). ( ८४ ) लोहद्रावणी - गण्डदूर्वा ( सफेदबूब ), अम्लवेतस ( अम्लवेत ).. (८५) नागिनी - ताम्बूली (पान ), नागपुष्पी ( नागदौन ).
(८६) मृदुरेचनी-त्रिवृत् ( निसोथ ), मार्कण्डिका ( भूईखखसा ). (८७) नट-श्योनाक ( टू ) अशोक ( अशोकवृक्ष ). (८८) वनस्पति-वट ( वरौटा ), नन्दिवृक्ष. (८९) मन्दार - श्वेतार्क ( सफेद श्राक), महानिम्ब.
(९०) अम्बुज - कमल ( उत्पल ), इज्जल : ( समुद्रफल ). (९१) कुमारी -घृतकुमारिका ( घीकुवार ), शतपत्री (गुलाब) ( ९२ ) वरतिक्तक-पाठा ( लताविशेष), पर्पट ( पित्तपापडा ).. (९३) चित्रक - पाठा ( लताविशेष ), अनलनामा ( चीता ), (९४) यज्ञिय - खदिर ( खैर ), पलाश ( डाक ).
( ९५ ) रक्तबीज - अरिष्टक ( रीठा ), कन्दुरी ( फलविशेष ). (९६) क्षार श्रेष्ठ - पलाश ( ढाक ), मोक्षक ( मोखा वृक्ष ). (९७) श्वेतपुष्प - वेतार्क ( सफेद श्राक ), इन्द्रवारुणी (इन्द्रायण ). (९८) तुवरी - सौराष्ट्री ( गोपीचन्दन ), आढकी (हर ). (९९) कुंभिका - पूगफला (सुपारी), वारिपर्णी ( जलकुम्भी ). (१००) राजपुत्रिका - रेणुका (रेणुका ), जाती (चमेली), ( १०१ ) रक्तपुष्प-रकार्क ( लाल क ), कन्दुरी.
( १०२ ) सप्तला - शातला ( सातला ), वासन्ती ( नूही ). (१०३) विषमुष्टिक - महानिश्व, विषतिन्दुक ( कुचलेका बृक्ष ).
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(४३४) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । (१०४) पतफला-स्वर्णवल्ली ( लताविशेष ), वच. (१०५) चन्द्रहासा-गुड्वी ( गिलोय ), लक्ष्मणा.
व्यर्थकवर्गः। (१) क्रमुक-पूग (सुपारी), तूद ( शहतूत ), पट्टिकालोध्रप ( पठाणी लोद , २) शुरक-कोकिलाक्ष ( तालमखाना), गोक्षुर ( गोखरू ) तिलकपुष्प ३) प्रियक-प्रियंगु, कदंव ( कदम ), असन (वीजेसार) ४) पृथ्वीका-कालाजाजी ( कलौंजी), वृहदेला ( बडी इलायची)
..
हिंगुपत्री
-
५) भृग-मजराज ( भांगरा ) त्वम् (तज), भ्रमर ( भौरा). ६) सौगंधिक-कहार ( लाल कमल ), कत्तृण, गन्धक. ७) अरिष्ट-निंब (नीम ), रसोन ( लसुन ), मद्य. ८) मर्की -कपिकच्छु ( काँच ), अपामार्ग (चिर्चिा ), करजी ( करज } ९) अम्बष्ठा-पाठा (पाढ ), चांगेरी ( चूका ) मोचिका ( माइया) १०) कृष्णा -पिप्पली, कलाजी ( कलौंजी), नीली (नील) ११) क्षीरिणी-दुग्धिका (दूधी ), क्षीरकाकोली, श्वेतशारिवा. १२) मधुपर्णी-गुडूची (गिलोय ), गंभारी, नीला (नील) १३) मण्डूकपर्ण-स्योनाक ( अर्च), मजिष्टा ( मजीठ) ब्रह्ममण्डूकी. २५) श्रीपर्णी-गंभारी, गणिकारिका ( गनियारी), कट्फल १५) अमृता-गुडूची (गिलोय ), हरीतकी ( हरड), धात्री ( आमले ) १६) अनन्ता-दुरालभा (घमासा), नीलदूर्वा ( नीलीडूब ), सांगली
..... (कलियारी)
१७) ऋप्यमोक्ता-अतिबला, महाशतावरी ( बढी सतावर ), कपि- .
__ कच्छु (क्रौंच) २८) भूतीक-भूनिंब (चिरायता), कत्तण, भूस्तृण. १९) कृष्णता-पाटली ( पाढ़ल ), प्रभारी माषपणी ( मसीवन ).
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी . !
(२०) जीवंती - गुडूची ( गिलोय ), शाक विशेष, वंदा ( वांदा) (२१) लता--सारिवा ( सरन ), प्रियंगु, ज्योतिष्मती (मालऋगुनी ) (२२) समुद्रांता - (दुरालभा घमासा) कर्पासी (कपास), स्क्का ( २३ ) हैमवती - हरीतकी ( हरड ) श्वेतवच ( सफेवच ) पीतदुग्धा सेहुंड (पीले दूधकी कटोरी )
8
( २४ ) अव्यथा - हरीतकी ( हरड़ ), महाश्रावणी ( मुंडी ), पद्मचारिणी ( कमलनी )
(१५) ग्रन्था -- वचा (वच ), गंधला (गंधपलासी ), शीकरंजी ( करज )
२६) ताम्रपुष्पी घातकी ( घायेके फूल ) पाटला (पाढल ), श्यामात्रि (निसौत )
(१७) वरदा -- सुवर्चला ( हुलहुल ), अश्वगंधा ( असगंध ) वाराही ( वाराहीकंद )
(४३५)
((२८) इक्षुगन्धा · काश ( कांस ), कोकिलाक्ष ( तालमखाना ) गोक्षुर ( गोखरू )
(२९) कालस्कन्ध -तमाल, तिंदुक ( तदु ), कालस-दिर ( बालाखेर) (३०) महौषध-- रसोन ( लसुन ), इंठी ( मोठ ). विव
(३१) मधु चौद्र (शहत ), पुष्परस, मय (दिग )
(३२) कपीतन- अम्रातक ( अंबाडा ) शिरीष ( मिरिम ) दभाण्ड
( ३३ ) मदन - पिण्डीतक ( सैनफल ) धतूर ( धतूरा ), सिम्थक (मोन )
( ३४ ) शत - वंश ( बांस ), दूर्वा ( खूब ) बचा
(· ३५) सहस्रवेधी - अम्लवेतस ( अम्लवेत ) मृगमद ( वस्तूरी ) हिंगु ( हींग )
( ३६ ) सदापुष्प- श्वेतार्क ( सफेद आक ) उतार्क ( साकाक ), कुन्द (कन्द )
( ३७ ) सुरभि -शलकी ( सलाई ), मुरा, एलवालुक (एल) (३८) लक्ष्मी - ऋद्धि, वृद्धि और शमी ( छोकग ) Aho! Shrutgyanam
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(१३६) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । (३९) कानानुसार्य-काीयक ( पीला चन्दन ), तगर, शैम्य (ही) () चपिय- चम्पक (चंपा), नागकेसर, पद्मकेमर ( कमलकेतर ) (१) नादेयी-गणकारिका (गनियारी ) जलजंबु ( जलजामन )
जलवेतस ( जलवेत ) (२) पाक्य-विड़ ( विडनोन ) सोवर्चल सोवर्चलनोन ( यवक्षार ),
(जोखार ) (४३) विशल्या-लांगली ( कलियारी ) गुडूबी ( गिलोय ) मधुदन्ती
__ (बोरीदन्ती) (४) इंद्रगु-कुंकुम ( कोह ), देवदारु ( देवदार ) कुटन (कुडा) (४५) काश्मीर-कुंकुम ( केसर ) पुष्करमूल (पोहकरमूत्र ) गंभारी (१६) गुंद-पटेरक, मुंज, शर (सरपता) (७) गुंद्रा-प्रियंगु, फलिनी, भद्रमुस्तक (भद्रमोषा) (८) बुक-शुक्तक, अम्लनेतस (अम्तवेतस ), वृक्षात्म (१९) पारिभद्र-निंब (नीम), पारिजात (फरहद ), देवदारु (५०) पतिदारु-हरिद्रा ( हलदी ), देवदारु सरल (५१) वीर-कुकुम ( कोह ), वीरण :( पीरणरण ), काकोली (५२) वीरतक-कुकुम ( कोह ), वीरण ( वीरसतृण ), शर ( शर्पता). (५३) मयूर-अपामार्ग (चिरचिटा ), अजमोदा, तुत्थ (नीलाथोथा) (५४) रक्तसार-रकचन्दम (बालचन्दन ), पतंग (पतंग ), खदिर ( खेर) (५५) परसुवर्चला ( हुलहुल ), अश्वगन्धा (असगन्ध ), वाराही
(बाराहीकन्द) (५६) वशिर-रकमार्ग ( लाल ) चिरचिटा ), गजपिप्पली, समुद्रलवण
(समुन्नोन ) (५७) सौधौर-जनभेद (सफेदपुरमा ), बदर (बेर ); संधानभेद
(कणीका नद) Aho ! Shrutgyanam
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी.। (४३७) (५८) बंजुल-अशोक, वेतस ( अमलवेत ), तिनिश (तिनिस) (५९) शिला-मनःशिल ( मनशिल ), शिलामतु ( शिलाजीत ),
गैरिक ( गेरू), (६०) सोमवल्ली-वाकुची ( बावची), गुडूची ( गिलोब), ब्रह्मी, (६१) अक्षीय-सौभांजन ( सहिंजना ), महानिब ( बकायन),
समुद्रलवण, (६३) धामार्गव-रक्तापामार्ग ( लालचिरचिटा ), राजकोशातही
(गलका तुरई), महाकोशातकी ( बडी तुरई). (६३) दुःस्पर्श-यवास ( जवासा), कपिकच्छु (कोच) कंटकारी
( कटेरी). (६४) पलाश-किंशुक ( ढाक !, गंधपलास, पत्र ( पत्रन ), (६५) कापी-मंमिष्ठा ( ममीठ ) वाकुची ( वावची ), श्यामत्रित
( काली निसोत), (६६) पलंकश-गुग्गुल, गोक्षुर ( गोखरू ), लाक्षा (लाख), (६७) मधुरमा-द्राक्षा ( दाख), मूर्वा, गंभारी, (६८) रसा-रसना, शल्यकी ( छल्लवृक्ष ) पाढा, (६९) श्रेयसी-हरीतकी ( हरड ), राना, गमपिप्पली, (७०) लोह-श्रय ( लोहा), कांस्य (कांसी ), अगरु ( अगर ), (१) साहा-मुद्रपर्णी ( बनमूग ), बलाभेद (कंदी), शतपत्री ( गुलान) (७२) सुवहा-रामा ( रायसन ), नाकुली ( नाकुलीकंद ), सिंदुबार
(संभालू ). (७३) कटिल्लक-कारवेल्लक ( करेला) रक्तपुनर्नवा, (तालविननपरा)
कृष्णवर्वरी ( काली तुलसी) (७४) मधूनिका-मूर्वा, यष्टि ( मलठ्ठी), मधूक ( मंहुश्रा ), (७५) वितुनक-धान्यक ( धनिया ), तुत्य ( नीलायोथा ), गोनद
(केवटी मोथा) ७६) देवी-मुक्का (असवर्ग ), मूर्वा, करकोटी ( ककोडा),
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(१३८) भावप्रकाशनिघण्टुः भा. टी. । (५७) सुध-शिरमल्ली ( घडी मौलसरी ), श्वेतार्क ( सफेद आक)
रोमक (पांशुलवण ), (८) गंडीr-शाकविशेष मंजिट ( मजीठ ), गण्डमूळ ( सफेद दूब ) १९) लगली-कलिहारी (लांगलीकन्द ), गजपिप्पली, नारिकेत
(न:रियल) ८) पिच्छिला-शिशिपा (शीशम ), शाल्मली (सिंबल), भूतक
(सोनापाठा ), (८१) महासहा-माषपर्णी ( बनमाष), अम्लातक ( वायापुष्प )
जक (कूज ), २) चंद्रिका-मेथी, चन्द्रशूल ( हालो), श्वेतकण्टकारी ( सफेदकटेरी )
___ चार अर्थोवाले शब्द । (१) श्वेतपुष्पा-इन्द्रवारुणी ( इन्द्रायन ), सिंदुबार ( संभालू ), श्वेतार्क
(सफेद भाक), सैरेयक (कटसरैया), ( कारवी-पृथ्वीका ( जी1 ), शतपुष्पा ( सौंफ), कालाजाजी
(कलोजी) अजमोदा ( अजमोद ). (३) अंबष्ट-पाठा (सोनापाठा) चांगेरी ( खटमीठी ) माचिका (माई)
यूयिका ( जूही).
बहुत अर्थोवाले शब्द। (१) पक्ष-सौवर्चल ( संचर नमक), विभीतक ( बहेडा), कर्षे ( एक तोला),
पदमाव (पदमाख ), रुद्राक्ष, शकट ( गाड़ी), इन्द्रिय,
भर पाशक ( फांसी ). (१) काम-काकमाची ( मकोह), काकोली, काकणंतिका ( लालरत्तक)
काकजंघा, काकनासा, काकोदुम्बरिका ( कठूमर ), और भक (कम्बा ). Aho ! Shrutgyanam :
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हरीतक्यादिनिघण्टुः भा. टी. ।
( ४३९ )
३) नाग--सर्प (सांप ) द्विरद (हाथी), मेष ( मिंढा, ) सीक्षक (सीता) नागकेसर, नागवल्ली ( नागरवेल ) और नागदन्ती.
( ४ ) रस-मांस: द्रव, इक्षुरस ( ईखका रस ), पारद ( पारा ), मधुरादि ( मधुर आदि छः रस ), बालरोग ( बचोका एक रोग ) विष. और नीर ( जल ).
इति श्रीवैद्यरत्न पण्डित गमप्रसादात्मजविद्यालंकार - शिवशवैद्यकृत- शिवप्रकाशिकाभाषायां न स्यादिनि अनेकार्थवर्गः समाप्तः ।
Hundit
Hin
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संस्कृत
पलूकम् ।
अष्फलम् ।
अबरोहकः ।
अंगभेदनम् ।
अर्द्धचन्द्रिका | अग्निः ।
दिपुष्पम् ।
अमृतफलम् ।
भवानी |
अश्वकर्णः ।
अजगंधा ।
श्राजम् ।
प्रारकम् ।
परिशिष्टनामानि ।
-x*x
ईश्वरम् ।
ईषद्रोलम् । उपोदिका ।
उरगः ।
उत्कटः ।
संस्कृत
उष्णपत्रिका |
ऋषिका ।
असगंध ऐशमूलम् ।
कुलस्थी
भाषा
भालू बुखारा बीइफल
काळी निसोथ कलहारी अजमोद नागकेसर
नासपाती
मीठी सौंफ
!
ईसबगोल छोटीजवैन
थूहरदूध
अंडू
धनिया
कर्णपूर :
नीलोत्पलम् ।
कपोतवका ।
कंदपालिका |
कभरा ।
कंचुकी ।
ककुंदर मेचकम् ।
कतिपाषाणः ।
काछी ।
चुंबक सौराष्ट्रका काली निसोत
कालपर्णी ।
संखियाकाण्डीला । (सेम) कोल शिबि
कालीसील
श्राहा ।
भाखुपाषाणम्
इत्कटा । सूक्ष्म पत्रिका दीर्घ लोहित कालमारिषः ।
यष्टिका धान्यविशेष वा कालावकरकः ।
ः ।
ओकण्ड |
कीलालः ।
पिल कुलिजरम् ।
ईसबगोल कुधी । पुदीना कुलिशम् ।
सीमा | कुरंगनी |
कठकटारा कुंभी ।
भाषा
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चाह
कसई
ईस मूळ
सिरशोक
नीलकमल
हुलहुल
प्राकंद सूरण
भद्राणिका
क्षीरवृक्ष
गोरक्षचाकुल्या
कालावाडा
सल्लकी र
चिरपोटी
कुचाई बीज
काउज बं०
मुद्रपर्णी
यवासवाका फळ
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संस्कृत
कुंदरुः ।
कुंदरुः । कूटर वाहिनी ।
कृष्णबीजम् ।
कमिष्नी ।
कोटिवल्कलम् ।
खगः ।
सोनामावखी
खंडिसकर्णम् । खारकोल कनफोडा
सोनामखी
कचरी चिभड
भहंगी
गंगाराईल बं०
*गमान् ।
गजचिर्भरम् ।'
गंधपर्णी ।
गंगापुत्रः ।
गंडीरः ।
गंगावती ।
गावडी ।
गांगेयी ।
गिलोडथम् ।
ग्रीष्मसुंदरम् ।
गुण्ठः ।
गुप्तस्नेहः ।
गोधावती । शौणाकम्
परिशिष्टनामान |
भाषा | संस्कृत
खोटी मस्तकी | चक्राकः । तीक्ष्णगंध वाहिनी ।
सफेद त्रिवी
चंडी ।
कालादाना
/
चतुरंगुलम् ।
चर्मचटा ।
डाली।
तमाकू चन्द्रलेखा ।
गुड़श्वकू यावटी ।
चांवषा ।
गीमाशाक
इंततृण
अकोल
नोहा लिया
शौणाल
अमलतासकी जड
अजिनपत्रा
* गरुडो माक्षिकापक्षी बृहद्धर्ण
स्मृता इति नाम मंजरीकारः ।
बेलकम ।
जतुका ।
जलजा ।
शमटशाक
वटगंबारी जुंगा ।
गरुडचूडामणि | जूनः ।
मुस्ता, मथुरा | ज्वालामरीचम् ।
गण्होट जोंगकम् ।
टंगा:
दिडिणिका
तरुणम् ।
तरङ्गः
ताम्रवल्ली ।
ताम्रकूटं ।
तिकं ।
तिक्ता ।
जामातृ ।
जीवंती ।
|
तिक्तका ।
austa त्वम् । Aho Shrutgyanam
( ४४१ )
भाषा
शलगम
लघुन, उल महिषी, भैंस
उमा औषधिभेद
वाकुची
कुंभाडु वा ब्रह्मी चौंकनामुन
गुवा कल्वकू
चामचिरैया
मधुयष्टी सूरवर्त
दौंडी व गुर्जर देशे
बृद्ध दाहक
ज्वार धान्य
लाल मिर्च
अगुर
राजग्राम्र
डिदैन
एरंड
मैनफ
चित्रकूट
तमाकू
चिरायता
कौर
हिंगोट
श्वेतबला
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( ४४२ ) भावप्रकाश (क) निघण्टु:
| संस्कृत
दारूसी ब प्रत्यकूपुष्पी
अतास
मँदा पचणम् ।
सकत
दारसूपण ।
द्विवन्नः ।
दी।
दीर्घ टपी ।
दूरमनम् ।
देवदः।
देवपुष्पी ।
देवद नो ।
धन्वजम् ।
धवला ।
धन्वन्तरीबीजम् ।
धावनी ।
ध्यानकम् ।
धन क्रः ।
धूम्रपत्रिका |
नदीनन ।
नख रअकः ।
नवनातम् ।
ताक्तम् ।
नागवि ।
नागार्जुनी ।
जोगा ।
निकुम्भः ।
निर्विध्नी ।
वयस्था ।
भाष
शामनता
लांग
जुबाह
देवहुली धीवातारी
जांगल मांसरस
नित्र पातालनृपतेः ।
पंःवतः ।
पाशी ।
पिडारकम् ।
श्वेतापर जिता
दांगट हेल
4:1
पाषाणजित ।
: ।
पुलहः
पुष् कर्म ।
पुरुष: ।
वाकुल्या पेरुकम् ।
गन्दा प्रौष्ठि हा ।
लाबान फणी ।
तमाकू फणिज्जकः ।
वल्मीकमृत्तिका
सैंध नमक वटपत्री ।
मेंहदी बहुपुत्रा |
नडियागन्धक पं० | बालपत्रम् ।
करञ्जबी व लांघ्रः । नागदनमा बृहत्पत्रम् । दुधी वृश्वीयम् ।
अपामार्ग
अपुठकण्डा
कुश, कास, शालि शर, इक्षु.
शोधालु फल
कुलत्थी
भाषा
Aho! Shrutgyanam
तांतिकं पुष्पकं तथा ।
·
स'सा
बॅगा मृतिका
वरणा
पेढरी
सुरदा नग
रौत
गुग्गुल
श्रमरूद
मच्छी
सफेद चन्दन
पहास पाषाणभेद
( जह ) यवासा
पठानी नोध:
१ (सौराष्ट्रा पार्वती मृत्स्ना तथा क्षुद्रदन्तः कांबोज पर्पटीति शब्द प्रकाशः ।
ब्रह्मचारिणों ( २ ) शोभांजनं च सौवीरं
क्षीरकाकोल
झाणा हस्तिद
सफेद इटलिट.
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________________
संस्कृत
बुश्चकाली ।
बोटा ।
बोलम् ।
भूनागः ।
भूषणम् ।
भूलता।
मयूरजंघा ।
महावृक्षम् ।
महाराष्ट्री |
महानुषदेवता |
मागफलम् ।
मारिषा ।
मालुकापत्रम् |
माही ।
वीरम् ।
भद्रः ।
भव्यम् ।
भद्रेोत्कटा
भारवाहिनी । ( बसमा ) नीकिनी । * वसुः ।
भून एका ।
मूँगफली वगहक्रांता ।
गण्डोग्रा वल्लूरम् ।
हडताल एण्डांगतानः ।
वह त्रिः ।
3
मोरट:
: ।
यज्ञतः ।
यमचिया ।
रक्तवीजा ।
परिशिष्टनामानि ।
राविहासकः
राजावर्तः ।
राजा ।
भाषा
बी छु। बूटी
अलम्बुषा
द्रजटा ।
फुनसत्व * रुधिरम् ।
देवदाह
।
जीवन्तो कर्मरंग रोहिणी ।
भादांवतक लक्ष्मी ।
संस्कृत
भरमन्तक
भतीस
पोहकरमूल
रावसो |
अरतु वराहः ।
थोक वकः ।
मरहट, वज्र 'ल्ली
शतावर वज्रकर्णम्
माजू वज्रीकंइः
माठा
अंकोट
सोमलता
कच्चीइमली
वाष्पिका।
वेत्राग्रम् |
शकारिः ।
शन कन्दः
1
शतता ।
शाकम् ।
शालिचः ।
( ४४३ )
भाषा
राई, सुरा
दूपरि
मेरी तांबा
नेमबीज
बडी धरणी
लोहा
धन्धक
लज्जासु
सुखामांस
Diar
श्वेतबला
मथुरा
सो भवनमक
हाडजोड
शाकरवन्दी
हिंगुपत्री चौलाई वंशसदृशा
कचनार
चर्मक षाकन्द
शतावरी
पटोक
शमठशाक
मूंगफली
हारसिंगार वस्तु ग्लेच्छाख्यमिति विश्वः गोविन्दमणि दोळा धगंधपाषाणः पामारिगष
राजपलांड को वसुरिति ।
Ano! Shrutgyanam
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________________
४४४ )
संस्कृत
शार्ङ्गष्टा ।
-श्यामा।
शावरकन्दः ।
श्यामकम् ।
शिखंडिनी ।
शीतपाकी ।
श्रहः ।
शुक्तिः
श्रीवासः ।
शुकमाता ।
शुठकम् ।
शूराह्ना ।
शृगाळ विना ।
शूकरी ।
षडंगः ।
सप्तना ।
सर्जकः ।
समनृपत्तिः । सीताफलम् । सुदर्शना ।
भाषा
अम्लवेत । प्रग्निझाड ।
भावप्रकाश ( हरीतक्यादि) निघण्टु :
भाषा
संस्कृत
करंजी सुगी ।
नीलनी | सुरभिः ।
x गलगल ।
लसुन स्पृकू । रोहिष स्नेहवृक्षम् ।
जूही रतियां स्थविरः ।
अतिबला | स्वरसः । सरलस्राव | सौगंधिकम् । भिनाजि + इरिः
teers | हंसपदी । महंगी
हम्वांगः 1.
सुखीमूली हिंस्रा ! क्षीरकाकोली हिंगपुत्रा । क्रोष्टुचित्रा हिंगपुत्री
सातमा
कोपान
भाषा
लाल सुहांजना
कुन्दरु
पृक्का
देवमा
शळेय
पन्हास
वृद्ध दारक यष्टिका |
राई
मखडा | त्रायमाणा| बालोयालता वा देवबळ
त्रिकत्रयम् । त्रिकटु त्रिफला त्रिमद
त्रिपादी ।
कीटमारिका
त्रुटि:
छोटी इलायची
अरइड ।
अनन्तमूळ
गुग्गुलु
थान कुनी जीवक
गुडकाकाय दींस
सुहांजना सरीफ
तानीवेल + इरिगुग्गुलुर्हरिरिद्रः ।
परिशिष्टभाषान मानि ।
संस्कृत
भाषा
* अम्लवेतसम् दीर्घजीवकम्
Aho! Shrutgyanam
काकादनी
हिंगुवती बाबांकली
घडकी
साल्यूं ।
चन्द्रशूरम्
अतारकीदवा | अंजरूदः गोस्तखोरा
संस्कृत
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________________
परिशिष्टनामानि ।
(४४५)
-
-
संस्कृत
अंहष।
करेले ।
भाषा
संस्कृत | भाषा अरंडोली।
एरंडवीजम् । कटैली। अंधाहुली। अवापुष्पी
कचर। अंगेथु
गणकारिका कछकप।
भिषग्माता कया। अंकोट।
दीर्घकालः कनगत्त। अंजरूत। नियास विशेष: कहारी। अंतर।
पुष्पसत्त्वम् कडाका। परमि।
बन्यकरीषम् आमी हल्दी। भानगंधी हरिदा कपास्या । भादों।
प्रादिका कपारपाठा। पाक कनपान। अर्कपत्रम् मलम् कचलून। पासी।
पासधम् कहुशवकन। पामीकाचिया। अम्जिकापीमम् |
|कस्स। आंधीकार। अपामार्गः
कसौदी। इंद्राणी।
इंद्रवारुणी
बेपेलो। उदपी ।
माषपर्णी
कारण। उमजिनी। ज्योतिष्मती
कालायक। ऊंदर।
मूपिम्
काञ्चनी। कलूंजी।
उपकुंची
किरमान। कठवर।
कपिस्थम्
किसोमा। कमगूगली। गुग्गमकणा
किरायता। कदुम्बर कठोडी। कपिस्थमज्जा
पीस। कबीटफल। कपिरणालम् कर पीनिया। पक्वकपुरम्
कुमेरपाठ।
कंटकारी
कर्चरम् कपिकच्छुः काकमाची
करंजम् लांगली
संथनम् कारवल्लीलता कासीधीजम्,
कुमारी काचनपणम् अवस्कलम् बीरणमूधम् कासमर्दम् रक्तमृतिका ज्योतिग्मती कृष्णाभ्रम् सपत्ता आरग्वधः पसिविशेष:
कैरातः पीयूषम
पाटली तांदनीजटा विषतिदुकाः
प्रतर।
कचिला। Aho! Shrutgyanam
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________________
( ४४६ )
भाषा
कुन्दरु ।
कूठ ।
कूट ।
कुचकी फली ।
वेली माहिली ।
केसुलका चुन ।
कोमल ।
कण्डीर ।
ख़त ।
खपरिया ।
खाप ।
गवार ।
गजपिप्पला !
गडूंबा |
गिळवे । गुडहुल (गुलतुरी)
गोल काकडी ।
गंगेरणा ।
गुलशकरी ।
वव ।
भावप्रकाश ( हरीतक्यादि ) निघण्टु:
संस्कृत
चकवड ।
चन्दलेई ।
चारोली ।
चिंचरीविना ।
चिरपोटन ।
चिरभेटी ।
व लिवो ।
मुकुन्दः चूक |
कुष्ठम् छड ।
शाल्मली छोला ।
कपिः जलकुम्भी ।
बदलीसार जीयोपोता ।
पलाशपुष्पम्
विष्णुकांता
करवीरम्
उशीरम
खर्परम् प्रसारिणी
भाषा
कुमारी
बृहत्पप्पली
इन्द्रवारुणी नियोमृता च
जपाकुसुमम्
कुन कम्
नागवला
जाल ।
जीयो पोता ।
झाऊ ।
ठेश ।
डाभ ।
डोडां ।
तस्तुम्बा 1
ताल ।
तिलकंठी ।
तिळवाणी ।
तिंदुकी ।
झावुकः
अकोलम्
डासरया (डांसरा) । तितिडीकम्
दर्भम
सफलम्
इन्द्रवारुणी
तूण ।
तेवरसी ।
तोरुं ।
चव्यम् त्रायमाणा चक्रमर्दः सोमळता तंडुलीय: बहुला
उपकुची | दडगला ।
अपामार्गः | दात्यूणी ।
काकमाची धमाला ।
गुंजा धव ।
संस्कृत
वास्तुकलघनवहेरे ।
Shrutgrandm
चांगेरी
शिला पुष्पम्
चित्रकं, पलाशम्
वारिणः
पुत्रजीवः
पीलु
पुत्रजीव:
हरताळम्
विष्णुकांता
सूर्यभक्ता
सिंदुवृक्ष
तुणि
त्रिवृत
कोशातकी
देववला
द्रोणपुष्पी
लघुदन्ती
धन्ययासकः
धवः
-राजवृक्ष:
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________________
भाषा
धोली गूंद ।
नरमल !
नरव चूर ।
नखन्या ।
नागके
६२ ।
नागदौा ।
नादवाण । नागर बेल ।
नितांत |
निर्मली ।
नीलांच |
नेगड |
पत्रा है ।
पत्रज ।
पतंग |
पंचगंगुल ।
पठानील ध ।
पत्थरफोडी ।
पाउल ।
पटकडी ।
फूलफिरंग ।
फहिद ।
बाधापरो ।
बन्दा ।
टहल ।
भटी ।
बावची।
वांझक कोटी |
परिशिष्टभाषानामानि ।
संम्कन
धातकी नियमः बिजयालार ।
पोग्ला
मसखपरा ।
वैधमख :
विजाग (तुरंज) ।
: बद ·
नागपष्पम् बाल !
नागदमनी
जो ।
कर्णम
लसिरी ।
तांबूल ली
निपट
कत म
तगाप म्
कुचन्दनम्
viz:
श्वेतलधम्
पाषाणमदः
भ: षा
गरुन :
टर ।
निर्गुड हदी।
पद्माम
वृद्धदरुम
मरहना
मसूर ।
पहलोठी ।
वपु
लिकु :
मरटा ।
मंडुआ ।
मडूर |
गुनो।
पाटल'
स्फुटि प्रियंगः
पारिभद्रः मुकुन्द |
उनका।
माजू ।
मुर्ग ।
मुदमिंग |
प्रद्र ।
पैरल ।
चूत |
भाड़ी मोठ ।
अवल्गुजः प्रणश्म ।
sure कटी (मोरसिखा ।
Aho! Shrutgyanam
( ४०७ )
ਬਾਹਰ
वीजक
रक्त
अम्ल व मू वनमू
गः सम्
भूल
•
कुल:
कंकारी मसूरिका
3. छुयष्टी
मलायः
जखरं कम्
उपकुची
निगुंडी
को किट्टम
ज्योतिष्मती
द्रावणा
मावलम्
मधुलिका
कुष्ठम्
तत्र वृक्ष
निर्गुण्डी
मदनफलम्
तुत्थक मू
मरुष्टकम्
शामलं निर्णस मयूरशिखा
Page #490
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________________ (48) भावप्रकाश (हरीतश्यादि) निघण्टुः-प०ना० / মাখা संस्कृत भाषा मंस्कृत धुनकः घरी। रामा। एखापणों सिंघाडा। जायफलम् रान। शामनियांसासरीफा। सीताफनम् रांग / सिमा घण रुदन्ती। पबन्ती सिगी मोहरा। श्रृंगकम् रेवश्चीनी। पीतकाष्ठम सीधा। सैंधक्षम रोहीस। गंधणम् सस्या। * शशः नटजीरा। अपामार्गः सुफेददोब। श्वेतदूर्वा नारी। लज्जा श्वेतसर्ज। विनिमुफेदन पची। श्वेतववरी शतावरी मुफेदकण्डी। श्वेतकरवीरः सक्षिी / नाकुनी सफेंद खेरसार शुखादिरसारः सहदेई। महाबला सोम। पाखुपाषाणः सतोग्यूं। सप्तपर्णीमभाल। निर्गुण्डी सरकहा। मुखःसांटी। पुनधा सरपुंक्षा। प्लशिलोंचालून / सोवलम् मरिष। शालपणी हरफारही लवली साशन / मापपयोहारशृङ्गार। राविहासका संखाहुनी। शंखपुष्पी हुनहुल। सुषमा सूर्यभक्तः सामरा। शाकंभरीयम् | हिंगोरा। सामरा। पं: मृगः हिगुन / सांठा। इक्षुः हिंगोरा। इंगुदी साम्वोट। शाखोरम निउने। निकोचनम् सिरस। शिरीषम् सारक्षा। मरदाफलम् दाधशर्करा | गंगेकया। गोमेरुकीफलम इति परिशिष्टभाषानामानिसमामानि ! पुस्तक मिलनेका ठिकानाखेमराज श्रीकृष्णदास, गङ्गाविष्णु श्रीकृष्णदास, "श्रीबटेश्वर" कीम-प्रेस. "लक्ष्मीवेङ्कटेश्वर" स्टीम्-प्रेस बबई. कल्याण-बम्बई. Ahb! Shrutgyanam - इंगुदी सिखरणी। -