Book Title: Gyanpanchami
Author(s): Manek Bahen
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञान पंचमी. ज्ञानना श्राराधन माटेनी आ तिथिर्नु आराधन करनारना उपयोग माटे तेने लगतीअनेक बाबतोनोसंग्रह. checkskskeekickecked ज्ञानपंचमी तप करनारने भेट आपवा माटे तैयार कराषनार जिज्ञासु बहेन माणेक. शेठ जमनाभाइ भगुभाइना पत्नी. तेमनी आर्थिक सहायथी. तैयार करी छपावी प्रसिद्ध करनार श्री जैन धर्म प्रसारक सभा तरफथी शाा. कुवरजी आणंदजी-भावनगर. आवृत्ति २ जी. वीर संवत २४४० प्रत २००० . विक्रम संवत १९७०. मूल्य अमूल्य (फ्री.) . बुकनो सदुपयोग तेज मूल्य. SENSayDayDayDays Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VRANUSANSKANIASISEASKARMAKIKATRINSIRIKSSUERIORICKMAYA अमदावाद. श्री सत्यविजय प्रोन्टींग प्रेसमां शा. सांकळ चंद हरीलाले छाप्युं. XX*XXXS/N%%$%XXXXXXXXXXXXXXXXXXXYNANY Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ્વર્ગવાસી શેઠ મનસુખભાઈ ભગુભાઈ Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमावृत्तिनी प्रस्तावना. आवी नानी बुकनी प्रस्तावना लखवानी विशेष आवश्यकता होती नथी, परंतु आ बुक तैयार करवानुं कारण शाथी उत्पन्न थयु ते जणाववा माटे टुंकामा प्रस्तावना लखवानी जरुर छे. ___अमदावादानवासी उदारता, धैर्यता, गांभिर्यता, विचक्षणता अने धर्मचुस्तता विगेरे गुणोथी अलंकृत शेठ मनसुखभाइ मगुभाइ प्रस्तुत वर्षना मागशर वदि १२ से अकस्मात पंचत्व पामवाथी तेमनुं स्मरण दीर्घकाळ पर्यंत टकी रहे अने अन्य पण प्रबळ लाभ थाय एवी इच्छावाळा तेमना लघुबंधव शेठ जमनाभाइना मुशील अने अनेक गुण संपन्न पत्नी अ. सौ. बहेन माणेकबाए पोते करेला ज्ञान पंचमीना तपने प्रांते ते तप करनाराओमा ल्हाणी करवाना इरादाथी तेज तपनी पुष्टि करनार बुक छपाववा विचार कर्यो अने ते विचारने अनेक स्थानेथी पुष्टि मळतां अमारी सभाना प्रमुख मी. कुंवरजी आणंदजीने ते काम सोपवामां आप्यु. तेमणे प्रथम खरेखरी ज्ञानाचारनी ओळखाण थवा माटे श्री आचार प्रदीप ग्रंथमाथी ज्ञानाचार पुरता विभागर्नु भाषांतर करावी तेने सुधार्यु अने त्यार पछी ज्ञान पंचमीने लगती पूजा, चैत्यवंदन, स्तवन, स्तुति, सझाय विगेरेनो संग्रह करी, श्री विजयलक्ष्मी सूरिना करेला ज्ञानपंचमीना देव के जेना अर्थ साधारण बुद्धिवाळाने मुश्केल लागे तेवा छे ते लखी काढी विद्वान जैन बंधुओ पासे तपासरावी ते तैयार कर्या. पछी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते सर्व संग्रह आ बुकमा दाखल कर्यो. अने प्रारंभमां ते तप करवानो विधि अने अंतमा ते तपना प्रकार तथा उजमणानो विधि सविस्तर दाखल करवामां आव्यो. आ रीते आ बुक तैयार करवामां आवी छे. ज्ञान पंचमी सपर्नु आराधन करनार वरदत्त ने गुणमंजरीनी कथानु भाषांतर आ बुकमा आपवानी धारणा हती, परंतु ज्ञानपंचमीना मोटा स्तवना ते कथा आवी जती होवायी पुनरावर्तन न थवा माटे ते दाखल करवामां आवेल नथी. ___ आ बुक कद धार्या करतां मोडं थयुं छे, तेमज विलंब पण वधारे थयो छे; परंतु एक उपयोगी संग्रह तैयार थयेलो होवाथी ते ज्ञान पंचमी तप, आराधन करनारने अवश्य उपयोगी थइ पडशे एम खात्री थवाथी प्रसिद्ध कर्त्ताने तेमज तेमा उदार दीलथी द्रव्यनो व्यय करनारने संतोष प्राप्त थाय छे. आ बुक ज्ञानपंचमी तप करनारा भाइओ तथा बहेनोने शेठ जमनामाइ भगुभाइना पत्नी तरफथी भेट दाखल आपवा माटेज छपाववामां आवी छे. तेथी आ ज्ञानदानना पुन्यना भागी तेओ थयाछे, एटटुंज नहीं पण बुक वांचवाथी अनेक भव्य जीवो ए तप करवा उजमाळ यशे तेमा विपिशुद्ध ए तपनुं आराधन करशे एना पण ए पुन्यशाळी कारणिक थशे. आटखें जणावी आ टुंकी प्रस्तावना समाप्त करवामां आवे छे. . इत्यलम् विस्तरेण. भाद्रपद शुदि ५. ) श्री जैन धर्म प्रसारक सभा. सं. १९६१ नावनगर. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजी आवृत्तिनी प्रस्तावना. उदार दीलनां माणेक बहेन पासेथी प्रथमावृत्तिनी तमाम बुको थोडा वखतमांज भेट तरीके अपाइ गइ एटले तरतमांज बीजी एक हजार नकल छपाववा तेमणे इच्छा जणावी एटले मूल्यथी लेवा इ. च्छनारने पण आ बुकनो लाभ मळी शके तेटला माटे एक हजार नकल अमारी तरफथी वधारीने आ बीजी आवृत्तिनी बे हजार नकलो छपाववामां आवी छे. प्रथमावृत्ति करतां प्रारंभनां भागमा तो सहज अक्षर शुद्धिज करवामां आवी छे, परंतु प्रांते आवेला ज्ञानपंचमीना देववंदनना अर्थ आ आत्तिमा जे दाखल करवामां आवेला छे तेनी अंदर प्रथम करतां घणोज सुधारो वधारो करवामां आव्यो छे. एटलुं ज नहीं पण देववन्दनना अर्थ अने नोट तद्दन नवांज लखवामां आव्या छे. आ अत्युत्तम प्रयास 'पूज्यपाद अनेक सद्गुणालंकृत आचार्य श्रीवि. जयनेमिसरिना शिष्य पूज्यपाद पन्यासजी श्रीउदयविजयजी गणिए' कयों छे तेने माटे तेओ साहेबनो अंतःकरणथी आभार मानवामां आवे छे. एओ साहेबे मेळवेला ज्ञान- अने तेमने थयेला अपूर्व अनुभव बोधर्नु आमा किंचित् दिग्दर्शन कराव्युं छे. पाते मेळवेला ज्ञाननो आ प्रकारे अनेक जीवोने लाभ मळी शके छे. उत्तम मुनिमहाराजानु ए कर्तव्यज छे. पाशा छे के आबुक अनेक जीवोने उपकारक थशे. इत्यलम्. श्रावण शदि ५. ) श्री जैन धर्म प्रसारक सन्ना. सं. १९७० । जावनगर. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका. विषय. १ श्री ज्ञान पंचमी तप. २ तप करवानो विधि. ३ ज्ञानाचा ( श्री आचार प्रदीप ग्रंथमांथी) पृथ्वीपाळ राजानी कथा. पहेला काळाचारनुं स्वरूप. बीजा विनयाचार विषे. विनय उपर दृष्टांत. बृहत् कुमारीनी कथा.' त्रीजा बहुमानाचार विषे. बहुमान उपर वे निमित्तियामी कथा. चोथा उपधानाचार विषे. साधुओना योग विषे दृष्टांत. श्रावकोना उपधान विषे कथापांचमा अनिवाचार विषे. छठो सातमो ने आठमो ज्ञानांचार: श्री सिद्धसेन दीवाकरनुं दृष्टांत व्यंजनोने न्यून करवामां दृष्टांत. पृष्ठ. ३४ ३९ ४४ ४७ ५० ५२ ५७ ६८ '७० ७५ ७७ ७८ १०६. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) उपर कथा. व्यंजनने अधिक अर्थने अन्यथा करवा उपर दृष्टांत. ४. ज्ञानाष्टक - अर्थ युक्त. ( श्री यशोविजयजी कृत ) ५ ज्ञानाष्टक - अर्थ युक्त. ( श्री हरिभद्र सूरिकृत ) ६ श्री पंच ज्ञाननी पूजा. ( श्री रूपविजयजी कृत ) ७ श्रीविजयलक्ष्मी सूरिकृत वीशस्थानकनी पूजामांथी पूजा ३. १४५ ८ श्री आत्मारामजी महाराजकृत वीशस्थानकंनी पूजामांथी १३२ पूजा १०-१४८ ९ श्री यशोविजयजीकृत नवपदनी पूजामांथी ज्ञानपदनी पूजा. १५१ १० श्री पद्मविजयजी कृत १५२ ११ श्री आत्मारामजी कृत १२ पं. श्री गंभीरविजयजी कृत 99 १३ श्री वीरविजयजी कृत पीस्ताळीश आगमनी प्रज्ञापांथी पूजा ७ मीनुं गीत. १४ श्री ज्ञान पंचमीनुं चैत्यवंदन. १५ श्री ज्ञान पंचमीनुं स्तवन. 59 १६ श्री पंचमीनी स्तुति. १७ श्री ज्ञान पंचमीनुं लघु स्तवन. १८ श्री ज्ञान पंचमीनी संस्कृत स्तुति अर्थ सहित १९ श्री देवविजयजी कृत पांचमनी सझाय. २० श्री ज्ञान पंचमीनुं स्तवन ( समयसुंदरजी कृत) २१ श्री विजयलक्ष्मी सूरि कृत पांचपनी सझाय " १०७ ११४ १२१ १२४ "" १५४ १५५ ११७ १५८ १५९ १६८ १६८ १६९ १७३ १७ १८० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ ૨૦૨ (८) २२ श्री ज्ञानपंचमीना देववंदन. . २२ श्री ज्ञान पंचमीना देववंदनना अर्थ.. २३ उजमणानो विधि. २४ उजमणा निमित्ते मुख्य करवानां कार्यो. २५ उजमणामां मुकवानी वस्तुओ. २६ ज्ञान पंचमी तपना त्रण प्रकार. २३८ २३९ २४० २४४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ज्ञान पंचमीनो तप. " ज्ञानना " आराधन माटे एटले आत्मानो ज्ञानगुण जे अनादि काळथी झानावरणीय कर्मना संयोगे अवरायेलो छे तेने प्रगट करवा माटे अने ज्ञानवरणीय कर्मनो क्षय ( क्षयोपशम ) करवा माटे " ज्ञान पंचमी " नो तप अति उत्कृष्ट साधनभूत छे. ज्ञानना आराधन माटे शास्त्रकारे बीज, पांचम ने अग्यारश ए त्रण तिथिओ बतावी छे. परंतु तेमा मुख्यता पांचमनी छे. प्राये प्रवृत्ति पण पंचमी तप करवानी विशेष छे. आतप कोइपण वर्षना कार्तिक मासनी शुक्ल पंचमीथी शरु करवामां आवे छे आ पंचमी " सौभाग्य पंचमी "ना नामथी ओळखाय छे. ज्ञान मेळववाना उत्सुक श्रावक श्राविकाओ अन साधु साध्वीओ आ तप विशेषे करे छे. आ तप पांच वर्ष ने पांच मास पर्यंत करवानो छे. ते एकासणाथी, आयंबीलथी अथवा उपवासथी करवामां आवे छे. शारीरीक शक्तिवाळा तो पाये उपवा. सीज करे छे. बार मास उपवास न करी शके ते पण कार्तिक शुदि ५ मे तो अवश्य उपवास करे छे. अने ते दिवसे बनता सुधी चार के आठ पहोरनो पौषध पण करे छे. ए तपना आराधन माटे संपूर्ण विधि करवाना इच्छके नीचे प्रमाणे विधि दरेक मासनी शुक्ल पंचमीए करवो. तप करवानो विधि. १ एकासगुं, आयबील के उपवास ययाशक्ति करवो Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) २ बंने टंक प्रतिक्रमण कर. .. ३ त्रण काळ आठ स्तुति ने पांच शक्रस्तवादिवडे देव वांदवा.' ४ . बे टंक पडिलेहण करवी.२ ५. .त्रण काळ जिनपूजा करवी. तेमां प्रात:काळे वासक्षेपादिवडे, : मध्यान्हे अष्ट प्रकारी अने सायंकाळे धूप दिपादिडे करवी. ६ बे हजार जाप करवो. अर्थात् “ नमो नाणस्स" ए पदनी वीश नवकारवाळी एकाग्र चित्ते गणवी. ७ बने तो पौषध करवो अथवा दिवसनो धणो भाग ज्ञान ध्याना दिमां व्यतित करवो. ८ ज्ञान अने'ज्ञानीनी यथाशक्ति भक्ति करवी. ९ ज्ञाननो अभ्यास करवो अने तनी आशातना टाळवी. १० प्रभु पासे अथवा ज्ञान पासे पांच दीवटनो दीवो करवो. पांच स्वस्तिक करवां, यथाशक्ति फळ नैवेदादि पदार्थों पांच पांच चडाववा. . ११ पांच अथवा एकावन लोगस्सनो काउसग्ग करवो. ज्ञान पंचमीने दिवसे तो आ बघां वानां सविशेषे करवा. अर्थात् जिनेश्वरनी आंगी पूजादिवडे विशेष भक्ति करवी, फळ नैवेदादि विशेषे चढाववां, ज्ञान पंचमीना देव वांदवा,* तदंतर्गत एकावन ख १-२ देववंदनने पडिलेहणंनी विधि प्रसिद्ध होवाथी बताव. वामां आवेल नथी. . * ज्ञानपंचमीना देव अर्थ साथे आगळ आपवामां आव्या छे. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासमण देवां, ५१ लोगस्सनो काउसग्ग करवो, बनता सुधी पौषध अवश्य करवो; आखो दिवस ज्ञान ध्यानमांज व्यतित करवो. ज्ञानना बहुमान माटे योग्य स्थळे सुशोभित चंदरवा पुंठीआ विगेरे बंधावी ज्ञान पधरावQ अने अनेक भव्य जीवो दर्शन निमित्ते आवे तेवो आकर्षक देखाव करी ज्ञाननी भक्ति जयणापूर्वक करवी. ज्ञान समीपे गानतान करवू-करावं, ज्ञाननी पूजा भणाववी. इत्यादि करीने अनेक उत्तम जीवो ज्ञानना आराधनमा तत्पर थाय तेम करवू. .. आत्माना सर्व लक्षणोमां " ज्ञान" प्रथम पद धरावे छे, तेना वडेज आ जीव " चेतन" गगायेलो छे. ते लक्षण अथवा गुणने प्रकट करवा माटे जेम बने तेम वधारे प्रयास करवानी आवश्यकता छे. ते आवश्यकता सिद्ध करवा माटे आ नचे " ज्ञानाचार" नु-तेना आठ प्रकारनुं स्वरूप, तेनी उपरना दृष्टांत साथे प्रारंभमांज बताववामां आव्युं छे. ते लक्षपूर्वक दांची जवानी प्रार्थना छे. कारण के ते ध्या. नपूर्वक वाचवाथी ज्ञानना आराधनमा अवश्य तत्परता प्राप्त थायतेम छे. आ संबंधमां प्रारंभमां वधारे विस्तार करवानी जरुर नथी केमके नीचेना लेखनी अंदरज ते हकीकत विस्तारथी बताववामां आवेली छे. . ज्ञानाचार* . . . आ जगत्मा भव्य प्राणीओना चित्तने उत्तम रुचि उत्पन्न करनार श्रीमान् जैनमतने विषे सारभूत सम्पक आचार पांच प्रकारनो कह्यो छे* * आ विभाग श्री आच र प्रदिप ग्रंथमाथी लइने तेनुं भाषां. . तर करेलु छे. . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान, दर्शन, चरण (चारित्र), तप अने वीर्य. जो के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःवर्यवज्ञान अने केवळज्ञान, ए प्रमाणे ज्ञानना पांच भेद छे, तो पण अहीं काळ, विनय, विगेरे आठ प्रकारनो ज्ञानाचार कहेवामां आवशे, अने ते श्रुतज्ञानमाज संभवे छे, तेथी अहीं श्रुतज्ञान विषेज अधिकार छ, एम जाणवू. श्रुतज्ञानथीज बाकीनां ज्ञानो प्रकाश छ केमके श्रुतज्ञान प्राप्त थया पछीज प्राये बीजां ज्ञानो प्राप्त थाय छे. वळी एक अपेक्षाए केवळ ज्ञान करतां पण श्रुतज्ञानतुं अधिकपणुं छे. ( उत्कृष्टपणुं छे), ते विषे पिंडनियुक्तिमां को छे के-" ओघे करीने ( सामान्य रीते ) पिंडविशुद्धयादिक श्रुतज्ञानने विषे उपयोगवंत एटले के श्रुतने अनुसारे " आ कल्प्य छे, आ अकल्प्य छे" एवी रीते जाणता श्रुत ज्ञानी जो कोइ पण कारणथी अशुद्ध आहार लावे; तो पण केवळज्ञानी (केवळी) तेनो आहार करेछे. जो केवळी ते आहार ग्रहण न करे तो श्रुतज्ञान अप्रमाणिक थाय. कारण के छद्मस्थ साधु श्रुतज्ञानना बळे करीनेज शुद्ध आहारनी गवेषणा करी शके छे, ते सिवाय बीजी रीते करी शकता नथी. तेथी जो कदाच श्रुतज्ञानीए श्रुतने अनुसारे गवेषणा कर्या छतां पण “ अशुद्ध आहार आण्यो" एम कहोने केवळी तेनो आहार न करे, तो श्रुतउपर अविश्वास थाय, अने तेथी कोइ पण श्रुतनुं प्रमाण न करे. तथा श्रुतज्ञानना अप्रामाण्यथी सर्वत्र क्रियाना लोपनो ( अभावनो) प्रसंग आवे, केमके छद्मस्थाने श्रुतविना क्रियाकांडनुं ज्ञान शाथी करवू ? " तथा विशेषावश्यकमां पण कर्तुं छे के-" श्रुतज्ञान महर्द्धिक ( सौथी मोडं ) छे, अने Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यारपछी केवळज्ञान छे. कारण के श्रुतज्ञान पोतानो अने बीजां ज्ञानोनो विभाग करनार छे. अर्थात् श्रुतज्ञानथीज थुतज्ञान अने बीजा ज्ञानोनी समजण पडे छे. श्रुाज्ञान एटले द्वादशांगी संबंधी ज्ञान.. ज्ञानाचारना आठ भेद छे. ज्ञान आ भव अने परभवने विषे हितकारक छे, कारण के प्राये ज्ञानथीज इष्टकार्यनी सिद्धि थाय छे. ज्ञान विना विपरीत फळनी पण प्राप्ति थाय छ, अने ते सर्वजनने अनुभवसिद्ध छे. जेमके-भोजन, गमन, आच्छादन (पहेर), शयन, बेसबुं, बोलवू, थयेली वात कहेवी, स्नान, पान, गायन, विज्ञान ( कळा), दान, ग्रहण, निवास, प्रीति, वैर, स्वजनता, पिशुनता, सेवा (नोकरी), युद्ध, औषध, मंत्रसाधन, देवनी आराधना, थापण मूकवी विगेरे विश्वासनां कार्यो, तथा राज्यनो व्यपार ए विगेरे सर्व कार्योमां जो कदाच भावी ( थवाना ) अनर्थनुं ज्ञान होय तो तेमां मनुष्य शीरीते प्रवर्ते ? अने तेज अनर्थनी शंकावाळा भोजनादिकमां इष्ट सिद्धि थशे, एवं जो ज्ञान होय तो तेमां केम न प्रवर्ते ? कमु छ के.-" द्वेषादिक सर्व दोषो करतां पण अज्ञान ए मोटुं कष्ट छे, केमके अज्ञानथी आबरेलो जीव हित अथवा अहित पदार्थने जाणतो नथी. अने ज्ञान ए प्रयत्नविनानो प्रदीप ( दीवो) छे, निरंतर उदय पामेलो सूर्य छ, त्री@ लोचन छे अने चोरी न शकाय के हरण करी न शकाय तेवू धन छे," वळी कांछे के-" पापथी निवृत्ति, कुशळपक्षमा प्रवृत्ति अने विनयनी प्राप्ति ए त्रणे ज्ञानीज थाय छे. " तत्त्वने विषे श्रद्धा राखवा रुप जे दर्शनादिक, ते पण ज्ञानथीज प्राप्त थाय छे. केमके Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) आप्त विगेरेना उपदेशवडे ज्यां सुधी तत्त्वनुं ज्ञान न थाय त्यां सुधी तेनापर श्रद्धा शी रीते थइ शके ? ते विषे शास्त्रमां वहां छे के-"ज्ञानवडे पदार्थों जणाय छे, दर्शनवडे तेपर श्रद्धा थाय छे, चारित्रवडे तेनुं ग्रहण थाय छे, अने तपवडे शुद्ध थवाय छे. " तेथी करीनेज पांचे आचारोगां ज्ञानाचार सौथी प्रथम कहेवाय छे, अने त्यारपछी दर्शनाचार छे. दर्शनाचार होवाथीज प्राये चारित्र ग्रहण कराय छे, तेथ दर्शनाचारनी पछी चारित्राचार होय छे. चारित्र ग्रहण कर्या पछी कर्मनी निर्जरामाटे तपस्या करबी जोइए, माटे चारित्राचार पछी तपाचार कहेवाय छे. ज्ञानाचार आदि चारने विषे सर्व शक्तिए करीने यत्न करवो, परंतु एकेने विषे वीर्यने गोपवधुं नहीं, ए हेतुथी वीर्याचाने छेल्लो कहेलो छे. आथी ज्ञाननुं परम उपकारीपणुं सिद्ध थाय छे. ज्ञानमां पण श्रुतज्ञाननुं मुख्यपणुं होवाथी तना आराधन माटे सर्वशक्ति पूर्वक यत्न करतो. कं छे के-" जो कदाच आखा दिवसमा एकज पद भणी शकाय, अथवा पंदर दिवसमा अर्ध श्लोक ज भणी शकाय, तो पण जो ज्ञान शीखवानी इच्छा होय तो तेटलो उद्यम पण छोडको नहीं." सम्यग्दृष्टि ग्रहण करे सर्व कोइ शास्त्र श्रुतज्ञानज छे. कहां छे के - " व्याकरण, छंदस, अलंकार नाटक, काव्य, तर्क अने गणित विगेरे रूप श्रुतज्ञान सम्यग्दृष्टिना ग्रहण करवाथी पवित्र थयुं छतुं जयवंतु वर्ते छे. " सनग्र शास्त्रनी वात तो दूर रहो, परंतु एक श्लोक विगेरेनुं ज्ञान पण मोटा गुणने माटे थाय छे. कछु छे के - " जेम दोर Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डानी राश कुमार्गे चालता बळदने तथा चौकडं घोडाने सन्मार्गे लइ जाय छे, तेज प्रमाणे ज्ञान पण 'आम' नामना राजाने, 'मुंज' राजाने तथा ' यव ' नामना ऋषि विगेरेने सन्मार्गे लइ जनार थयु छे. " श्रुतज्ञान- आराधन करवाथी "पृथ्वीपाल" राजानी जेम तेज भवमा केवळज्ञान पण सुलभ थाय छे. तेनी कथा नीचे प्रमाणे- । पृथ्वीपाळ राजानी कथा. . " पृथ्वीपुर " नामना नगरमा समग्र पदार्थोनी परीक्षा करवामां विचक्षण अने तात्कालिक बुद्धिवाळो " पृथीपाल " नामे पृथ्वीपति (राजा) हतो. " धर्मथी इष्टनी प्राप्ति अने अधर्मथी अनिष्टनी प्राप्ति थाय छे. " आ प्रमाणेनां शास्त्रनां वाक्यनो जूदा जूदा दर्शनमा संवाद होवाथी ते राजाने शास्त्रो उपर बहुमान नहोतुं. कारण के ते राजा केटलाएक पुण्यवंत मनुष्योने निरंतर दारिद्र अने आधि व्याधिथी दुःखी थता जोतो हतो, तथा केटलाएक पुण्यरहित मनुष्योने साम्राज्यमुखने भोगवता जोतो हतो. ते चतुर राजा. एकदा ( रात्रे) नगरचर्चा जोवाने गुप्त वेष धारण करी फरतो फरतो कोइ विद्यामठ पासे आव्यो. त्यां तेणे पाठके बोलातो एक उज्वळ यशनी जेवो श्लोक सांभळयो-- "सर्वत्र सुप्रियाः सन्तः, सर्वत्र कुधियोऽधमाः।। सर्वत्र दुःखिनां दुःखं, सर्वत्र सुखिनां सुखम् ॥१॥" अर्थ--" सत्पुरुषो सर्वत्र अति प्रिय होय छे, अधम पुरुपो Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) सर्वत्र दुष्ट बुद्धिवाळा होय छे, दुःखी माणसोने सर्वत्र दुःख होय छे, अने सुखी माणसोने सर्वत्र सुख होय छे. " आ श्लोकमां कहेली बाबत सत्य छे के नहीं ? तेनी परीक्षा करवानी इच्छा थी ते राजाए बीजे दिवसे कृत्रिम कोप करीने एक घणा गुणोवडे प्रसिद्ध एवा महा सत्पुरुषने पोताना सेवको द्वारा बोलाव्यो, अने तेने कछु के-" हाथीनी जेम मदांध थयेला तारा पुत्रे मारी आपली आज्ञारूपी अर्गला (सांकळ ) ने मारा चर पुरुषना समक्ष वळथी तोडी नांखी छे. " आ प्रमाणे अत्यंत कृत्रिम कोप करीने दोषनो आरोप करी राजाए तेने तेना पुत्रसहित चोरनी जेम कारागृहमां नांख्यो. अने पोताना अति विश्वासु चर पुरुषोने गुप्त रीते तेमनी बातो सांभळवा माटे आज्ञा करी. पछी राजाए कपटथी पोताना शरीरमां अत्यंत व्याधि थयानुं प्रगट कर्यु. तेथी गुप्त चर पुरुषो पण परस्पर आ प्रमाण बोलवा लाग्या के - " आजे राजानुं शरीर आयुष्यन अंत समय जेवुं थयुं जणाय छे. आवा आकस्मिक महाव्याधिथी जीवितनी आशा क्यांथीज होय ? " आ प्रमाणे नजीकना चर पुरुषोथी थती वात सांभळीने स्वभावथीज परहितकांक्षी एवा ते पिता अने पुत्र महा शोक पाम्या, अने निझरणांनी जम चक्षुमांधी अने मूकवा लाग्या. पछी ते बंने परस्पर हृदयमा रहेली वातो करवा लाग्या के - " हा ! हा ! राजाना शरीरमां आ अकस्माव शुं थयुं ? गमे ते थयुं होय पण परिणामे आ राजानुं कांइ पण अद्दित न थाओ, जो के आ राजाए आपणने सहसात्कारे फोगट Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःखमा नांख्या छ, अने आ राजानुं मरण थयेथी आपणे जलदी छूटी शकीए खरा. कारण के नवो राजा राज्य मळवाथी समन केदीओने छोडी मूके छ अने केदीओने छोडया पछीज नवा राजाने अभिषेकोत्सव करवानो रीवान छे; ए सिवाय बीजी रीते आपणे छुटीए तेवु कोइ प्रकारे जणातुं नथी. वळी आज्ञाभंगनो आक्षेप करनार अने अत्यंत क्रोधायमान थयेलो आ राजा आपणने कोण जाणे केवी कदर्थना पमाडशे ? तेनी खबर पडती नथी. कहुं छे के-" राजाओनी आज्ञानो भंग, महा पुरुषना माननुं खंडन, अने ब्राह्मणनी वृत्ति ( जीविका )नो नाश, ए शस्त्रविनानो वध कहेवाय छे. " आ प्रमाणे होवा छतां पण जगत्ना जीवनरुप आ राजा चि. रकाळ सुधी जीवतो रहो. बीजा जीवन पण आनिष्ट चिंतवतुं योग्य नहीं, तो राजानु अनिष्ट शी रीते चितववालायक होय ? वळो आपणने जे आ दुःख प्राप्त थयु छे, ते तो आपणाज दुष्कर्मे थयेटु छे, तेमां आ राजानो काइपण दोष नथी. जो एम न होय तो आ हुंशीयार राजा परीक्षा कर्या विना आम केम करे ? को छ के-" सर्व जीवो पोताना पूर्वे करेलां कर्मोना फळविपाकने पामे छे; तेमां अपराध ( हानि ) अथवा गुण ( लाभ ) करवाने विषे बीजो तो निमित्तमात्र ज छे. " ज्यारे कर्म बळवान् होय छे त्यारे अचिंत्योज मर्मस्थानमा घा वागे छे. अने ते वखते प्राणनुं रक्षण करनार कोइपण यतुं नथी. तेमन काइ पण आधार के विचार पण काम आवता नथीः तथा आपणा कर्मना वशथी आपणुं जे थवान होय ते थाओ, परंतु आ राजानुं तो सर्वथा शुभन थाओ, एटलाथीज आपणने सर्व रीते संतोष छे.". Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) आ प्रमाणे ते पिता अने पुत्रनी परस्परनी वाताने गुप्तरीते सांभळनारा चर पुरुषोए तत्काळ आवीने राजा पासे स्पष्टरीते जाहेर करी. एटले राजा मनमा आनंदित थयो. पछी पुष्ट बुद्धिमान् अने तुष्ट थेयेला राजाए क्षणवार पछी पोताना शरीरनी सुखाकारी प्रगट करी. अने पेला बनेने घणा मानपूर्वक पोतानी पासे बोलाव्या. पछी निर्मळ बुद्धिवाळा राजाए कार्यनी व्यग्रताथी संभाळ लेतां विलंब थयार्नु जणावी तेमनो सत्कार करी तेमने रजा आपी, एटले ते बने हर्ष पामता पोताने घेर गया. आ सर्व शुभ स्वभावनुज फळ छे. श्लोकना पहेला पादनी आ प्रमाणे परीक्षा कर्या पछी राजाए बीजा पादनी परीक्षा करवानो आरंभ कर्यो. नगरना कोइक अति नीच प्रकृतिवाळा पिता पुत्रने कृत्रिम बहुमान आपीने मंत्री विगेरेथी पण अधिक मानवाला को. पछी एकदा प्रथमनी ज जेम राजाए पोतानी कृत्रिम तीव्र व्याधिने प्रगट करी, पोताना आयुष्यना अन्त्यनी स्थिति चरपुरुषो द्वारा तेमने जणाची. ते सांभळीने अधम स्वभाववाळा ते बन्ने पोतानी प्रकृतिने योग्य एवी वातो करवा लाग्या; केमके एकांत समये हृदयनो भाव प्रकट थाय छे. ते समय गुप्त रीते राखेला चर पुरुषो तेमनी वातो पण सांभळता हता. ते पिता तथा पुत्र आ प्रमाणे परस्पर बोलवा लाग्या-"आ राजा जो हमणांज मरे, तो आपणे आनंदथी अपुत्रीया राजाना समग्र साम्राज्यनो उपभोग करीए. राज्यमां आपणने कोण मानतुं नथी ? सर्व मामे छे अथवा कदाच कोइक नहीं माने, तो तेने तत्काल हणीने Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) पण आपणे राज्य करशं. नवा राजानी एवीज रीत होय छे. कदाच राज्य लेवाने आपणे समर्थ नहीं थइए, तो पण स्वेच्छाए राजार्नु सर्वस्व लुंटी लइने अंतःपुरनी राणीओ साथे अने नगरनी स्त्रीओ साथे मुखभोग तो सुखेथी भोगवशं. माटे आ राजानुं पोतानी मेळे ज मरण थाय छे, ते सारं छे; नहीं तो आपणे तेने मारवानी जरुर पडत. केमके राजगृहनी अंदर फरनारा आपणने शुं दुःसाध्य छ ?" आ प्रमाणे ते दुष्टबुद्धिवाळा दुष्टोनी पापिष्ट वातचित सांभळीने पेला गुप्त चर पुरुषोए ते वात राजानी पासे कही शकाय तेवी न होवा छतां पण गुप्तरीते जणावी. ते सांभळीने अत्यंत कोपथी कंपता जागृत न्यायवाळा ते राजाए तत्काळ ते बनेनो निग्रह को. राजाओने दुर्जननो तिरस्कार अने सज्जननी पूजा करवी उचितज छे. आ प्रमाणे बे पादनी परीक्षा करीने त्रीजा पादनी परीक्षा करवा माटे राजाए पोताना चरपुरुषाद्वारा जन्मथीज दारिद्यवडे दग्ध थयेला एक रांक भिक्षुकने बोलाव्यो. तेना हाथमा भिक्षा मागवालायक एक कपर ( ठीकरूं) तुं, तेणे कंथानी जेवा फाटेला जूना वस्त्रनो एक ककडो पहेरेलो हतो; चालतां टेको आपवा माटे लाकडीनो ककडो हाथमा हतो, तेनी गति स्खलित थती हंती, अने तेनुं शरीर अत्यं. त कृश हतुं. आवा ते भीखारीने जोइने राजाए तेने कह्यु के-" हे भिक्षुक ? तारा शरीरने अभ्यंग, मदन, उद्वर्तन, स्नान, भोजन, वस्त्र, शय्या अने आसन ए विगेरे इप्सित वस्तु आपवावडे हुँ तने सुखी करीश, तुं मारी पासे रहे अने सुखेथी मनुष्यने मळता सुखो भोगवः. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) आ भिक्षुकना वेषने छोडी दे अने बीजा उत्तम वेषने धारण कर तारा नसीबने पण फेरवी नाखीने हुँ तने पृथ्वीपति समान बनावी दइश, केमके कल्पवृक्षनी जेम हुँ प्रसन्न थयेथी तारे दुष्पाप्य शुं छे ?" आ प्रमाणे घणीरीते कह्या छतां पण ते प्रारब्धहीन भिक्षुक जरा पण विश्वास न पाम्यो, अने जेम मिथ्यात्वी प्राणी मिथ्यात्वनो त्याग न करे, तेम तेणे पोताना वेषनो त्याग कर्यो नहीं. ज्यारे राजपुरुषो तेने बळात्कारे वेष मूकाववा लाग्या, त्यारे तेने जाणे कोइए मार्यों होय तेम ते रोवा लाग्यो. ते जोइने राजाए तेने कह्यु के-" तारो वेष कायम राखीने पण तुं भोजनादिकवडे सुख भोगव." ते सांभणीने प्रसन्न थयेलो ते भिक्षुक जेम पहेला कषाय ( अनंतानुबंधी )ना उदयवाळो जीव (प्रथम पामेला) सर्व सम्यक्त्वने वमी नांखे, तेम प्रथम प्रेतनी जेम घणुं जम्यो, अने पछी तत्काळ ते सर्वनुं वमन कर्यु. कहुं छे के-" दैवतुं (कर्मवें ) उल्लंघन करीने जे कार्य करवामां आवे छे, ते फळीभूत थतुं नथी. चातक पक्षीए ग्रहण करेठे सरोवरनुं पाणी गळाना रंध्रद्वाराए बहार नीकळीज जाय छे." पछी राजाए सांयकाळे तेने 'फरीथी भोजन करावीने तांबूलादिक आप्या. ते वखते पण ते नारकीनी जेम पेटनी व्यथादिक दुःखने स्पष्टरीते भोगववा लाग्यो. ते व्याधिनो राजाए उपचार कराव्यो त्यारे अतिसार (झाडा ) ना च्याधिधी ते अत्यंत पीडायो, अने ते अतिसारनो उपचार कराव्यो त्यारे तत्काळ मृत्युने सूचन करनारा विमुचिका नामना व्याधिवडे पीडावा लाग्यो. आ प्रमाणे उत्तम राजाए यत्न कर्या छतां पण ते रक्त, Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३) अतिसार, तीव्रज्वर, पित्त, कफ अने वात विगेरेना व्याधिथी पीडायो, पण दैवथी हणायेलो ते जरा पण सुख पाम्यो नहीं. प्रांते जड बुद्धिवाळाने गुरु महाराजनी जेम राजाए तेने कोइ पण प्रकारे वि. विध प्रकारना दुष्कर उपायोवडे साजो को. 'उद्यमवडे शुं न थाय?' पृथ्वीपाल राजा तेने साजो थयेलो जोइ अत्यंत खुशी थयो. त्यारे अहंकार अने हुंकार करतो ते द्रमक एक दिवसे पोताना कृत्यथीकरायेला दुर्दैवथी प्रेरायो होय तेम विषवैद्यने घेर गयो.त्यां दवाओनी मेळवणीथी विषम थयेलं एक जातनुं विष तेनी दृष्टिए पडयु, एटले तरतज नष्ट बुद्धिवाळा ते द्रमके तेने सुंध्यु, सुंघवा मात्रथी पण ते विष पराधीनताने करनारुं हतुं तेथी ते वैद्ये तेने एकदम अटकाव्यो अने कयु के-" आ तें शुं कर्यु ? विचार्याविना जे काम करवू ते मरण. पर्यंत दुःखने देवावाळु थाय छे." एटले ते भिक्षुक बोल्यो के-"हे वैद्य ! जेम अनर्थथी अटकावे तेम आ सुगंधि पदार्थ सुंघता मने केम अटकावो छो ?" वैये कह्यु के-" हे मूर्ख! तीव्र विपाकथी गौरवताने पामेलं आ महाविष तें सुंध्यु, तेथी आ जन्ममां तो तारे सुखनो विनाश जथयो. आजथी पांचे इंद्रियोना विषयोने लगता पदार्थोमांथी एक पण इष्ट पदार्थ तारे सुखने माटे सेववो नहीं, अने जो सेवीश तो तत्काळ तारुं मरणज थशे. हवे तारे लू रसविनानुं अल्प भोजन करवू, जेवं तेवू पाणी पीवु, जीर्ण अने फाटेलां वस्त्रो पहेरवां, तथा भोगनो त्याग करवो, परीषह सहन करवा अने अनियमित व. स. ए विगेरे मुनिनी जेवी मर्यादावडे जो रहीश, तो तुं जीवतो Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) रहीश; अन्यथा जरुर मरण पामीश. जीवाना परिणामनी जेम औपधोना परिणामो पण घणा विचित्र होय छे. " आ प्रमाणे सांभळीने दीन चित्तवाळा ते द्रमके घणी मांदगीवाळा आतुर माणसनी जेम ते सर्व अंगीकार कर्यु. केमके ' मनुष्य मरणना भयथी दुष्कर एवं पण शुं नथी करतो ? सर्व करे छे.' पछी यतिना आचार प्रमाणे वर्त्तता ते द्रमकने राजादिके चारित्र ग्रहण करवा माटे घणुं काा छतां पण ते तुच्छ मनवाळाए यतिपणुं अंगीकार क नहीं. केमके यतिप तो महा सात्विक पुरुषोथीज साधी शकाय तेनुं छे. पूर्वे करेला श्लोकना वीजा पादना अर्थने जाणे सिद्ध करवा माटेज होय, तेम तेणे दीक्षा ग्रहण करी नहीं. कारण के प्रत्रज्या लेवाथी तो आगामी - काळे सुखनी प्राप्ति थाय छे. ते आ द्रमकने क्यांथी होय ? कां छे के - " तृणना संथारापर बेठेला, राग, द्वेष अने मोहरहित एवा श्रेष्ठ मुनि जे मुक्तिनी जेवं सुख पामे छे, ते सुखने चक्रवर्ती पण क्यांथी पामे ? " जो ते द्रमके धर्मबुद्धिथी आवुं कष्ट सहन करें होत तो कोण जाणे के उत्तम फळ पामत ? परंतु आवा पशुनी जींदगीमां सहन करवा पडे तेवा कष्टने आ संसारमां पडेला जीवो संसारमा रह्या सता खुशी थइने सहन करे छे, परंतु मुनिपशुं स्वीकारता नथी. ते महा आश्चर्य छे. आ प्रमाणे त्रीजा पादना अर्थनी परीक्षा करीने हवे चोथा पादमी परीक्षा करवा माटे तीव्र बुद्धिवाळा राजाए उपायनो विचार करतां आ प्रमाणे चिंतयुं के " मात्र परीक्षाने ज मांटे बीजा सुखी 1 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) माणसने शा माटे फोगट दुःख देवू ? माटे हुं पाते ज परदेशमा जइ ए पादनी परीक्षा करूं. " आ प्रमाणे विचारीने बीजेज दिवसे राजा राज्यनो भार मंत्रीने सौंपीने रात्रिने समय एकलो नगर बहार नीकळी गयो. मार्गे चालतां तेणे विचार कयों के-" मारा देशमा तो समग्र लोको मने जाणे छ, तथा सेवकनी जेम विशेष प्रकारे मारी भक्ति करशे, तेथी आ देश मुकी परदेश जq जोइए. परंतु जलदीथी दूर देश शी रीते जवाशे ? " आ प्रमाणेनी चिंताथी उद्वेग पोमलो राजा मार्गे चालतां थाकी जवाथी एक वडवृक्षनी तळे बेठो. ते वखते ते वृक्षपर रहेनार यक्षनेतेनी स्त्री यक्षिणीए कह्यु के-" है प्रिय! आपणा आश्रमनी नीचे बैठेलो आ अभ्यागत कोइ महान् पुरुष जणाय छे, तेथी ते तमारे मानवा-पूजवा योग्य छे. शास्त्रमा कह्यु छ के-"पोताने घेर चालीने आवेला सत्पुरुषतुं योग्य सन्मान करवू जोइए, ते दुःखमा आवी पडेल होय तो तेमाथी तेमनो सारी रीते उद्धार करवो जोइए, अने दुःखी प्राणीओपर दया करवी जोइए. आ प्रमाणेनो धर्म सर्व मतवाळाओने संमत छे." ते सांभळीने ते यक्षे प्रत्यक्ष थइने राजाने कां के-" हे सज्जन ! कहे, तारे | इष्ट छ ? जे तुं मागे ते आपवाने. हुँ कल्पवृक्षनी जेम समर्थ छ." ते सांभळी विस्मय पामेलो राजा बोल्यो के-" तमे कोण छो ? अने कये प्रकारे इष्ट वस्तुने आपवा समथ छो ? कारण के मनुष्योने तो अनेक प्रकारना वांछित होय छे, ते वात प्रसिद्ध छे. " त्यारे यक्ष बोल्यो के-"हुं मोटो देव छ, तथा मनोवांछिपने पूर्ण करवा समर्थ छु. केमके अमारे सर्व Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६), सिद्धिओ अने समृद्धिओ मनीन सिद्ध थाय छे. " ते सांभळीने राजाए कह्यु के-" हे देव ! तमे शा माटे जुटुं बोलो छो ? देवार्नु पण मनोवांछित सिद्ध थतुं नथी. देवो पण घणा दुःखी होय छे, केमके इया, विषाद, मद, क्रोध, मान अने लोभ इत्यादिवडे देवो पण दुःखी होय छे. तेओ बीजा पोताथी अधिक ऋद्धिवाळाथी पराभव पामे छे. माटे तेमने पण सुख क्याथी ? तेथी जो देवोथी पोतानुं वांछित पण सिद्ध थतुं नथी, तो ते वीजानुं शीरीते सिद्ध करशे ? माटे देवोथी पण अन्यनुं मनोवांछित सिद्ध करायज नहीं. शुं रंक माणस बाजाने राज्य आपी शके ? माटे हे देव! तपे विद्वान् थइने गर्वथी अथिलनी जेम आम केम बोलो छो ? सत्यवक्ता मनुष्य पण आईं असत्य बोलता नथी, तो तमे देव थइने केम बोलो छो ?" आ प्रमाणे राजाए तत्व अने युक्तिथी कां, ते सांभळीने चित्तमां चमत्कार पामेलो यक्ष बोल्यो के-" हे महापुरुष ! तें आ जे कडं ते सर्व सत्य छे. देवाने पण बीजानी जेम पूर्व करेला पोतपोताना पुण्यने अनुसारे ज कार्य सिद्धि थाय छे. तो पण देवनी शक्ति अचिंत्य छे. तेथी ते चितवेलुं कार्य करी शके छ. जेवू मुख मनुष्योथी साधी शकातुं नथी, तेवू सुख देवता शीघ्रताथी साधी शके छे, माटे तुं मारी पासे कांइ पण माग. तुं जे मागीश, ते माराथी अवश्य सिद्ध थशे, हुं ते सर्व तने आपी शकीश. केमके देवतुं दर्शन निष्फल होयज नहीं," आ प्रकारे सांभळीने ते देवर्नु वचन अत्यंत दृढ करवा माटे राजाए कह्यु के"हे देव ! जो तमारी इच्छा एमज होय तो हुं ज्यारे तमाएं स्मरण Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) करुं त्यारे तमे मारुं कार्य सिद्ध करमो." ते देवे तेनुं वचन अंगीकार कर्यु केमके जे पुण्यवंत होय छे, तेनुं कार्य अवर सिद्ध थाय छे, अने चिंतव्या करतां पण अधिक समृद्धि प्राप्त थाय छे, त्यार पछी हर्ष पामेलो राजा विचार करवा लाग्यो के-" अहीं पण हुं अधिक सुखी तो थयो, ते छतां पण परीक्षाने माटे हुँ परदेश गमन करूं." एम विचारीने ते राजाए याने कह्यु के-“हे देव ! मने हमणांज परदेशमा (दूर देशमां) पहोंचाडो." एटळे देवशक्तिथी ते राजा वायुनी पेठे क्षणवारमा परदेश पहोंच्यो. त्यां परम नीतिनां अवधिरुप कुशस्थळ नामर्नु नगर हतुं. ते नगरना समीपना उद्यानमां मुसाफर• नी जेम ते राजा गंधाता कोढीया पुरुष जेवू रुप धारण करीने बेठो. ते कुशस्थळ नगरमां चंद्रनी जेम लोकने आनंद करतो चंद्र नामे राजा राज्य करतो हतो. ते राजा नामवडे चंद्र छतां सूर्यनी जेम शत्रुना तेजनो नाश करतो हतो ए आश्चर्य छे. ते राजाने चंद्र जेवा मुखवाळी पियवचना अने प्रियवदना नामनी बे राणी भो हती, पहेली राणी गुणबडे अधिक हती, अने बीजी चंद्रना जेवा सुंदर मुखवाळी हती. पुत्रथीरहित एवी ते बन्ने स्त्रीओने अत्यंत भीतिना पात्रभूत एक एक पुत्री हती. तेमां पहेलीनुं नाम सुलोचना अने बीजीनुं नाम सुवदना हतुं. ते बन्ने पुत्रीओ सरखी उम्मरवाळी, सुंदर अने समान रुवाळी, गुणोवडे अत्यंत श्रेष्ठ अने पृथ्वीपर आवेली देवकन्याओज होय, तेवी शोभती हती. योग्य वये ते बन्नेने राजाए घणी कळाभो शीखवी. ज्यारे ते बने युवावस्था पामी, त्यारे एक Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) दिवस तेमनी माताओए तेमने विशेष आभूषणादिकवडे शणगारीने राजा पासे मोकली, सभामंडपमां बेठेला राजाए कमळ उपर हंसीओनी जेम तेमने पोताना उत्संग ( खोळा ) मां बेसाडी पछी प्रश्नोत्तर आदि अनेक प्रकारनी पृच्छा ओना ते बन्ने कन्याओए साक्षात् सरस्वतीनी जेम तत्काळ उत्तर आप्या. पछी राजानी आज्ञाथी मोटा मोटा पंडितोए पण तेमनी कळा कुशळतानी परीक्षा माटे अनेक प्रकारना प्रश्नो पुछया. ते दरेकना जवाबो पण ते बन्ने कन्याओए घणाज संतोषकारक आप्या, १ 6: त्यार पछी राजाए पोते बन्ने कन्याओने कहां के - " मारा प्रश्ननो जवाब तमे बेउ बराबर आपो के - कर्म (प्रारब्ध ) अने उपक्रम (उम ) ए मां मुख्य कोण ? पहेलुं के बीजं ? के ते बन्ने समान छे ? ते कहो. " त्यारे पहेली कन्या बोली के पराक्रमनी जेम सर्व स्थळे उपक्रमज ( उद्यमज ) फळ साधननुं कारण छे. उपक्रमविनानुं कर्म (प्रारब्ध) निष्फळ छे. भोजन, वस्त्र, धन उपार्जन, अन्यनुं वशीकरण, शत्रुनो नाश, विद्यानी प्राप्ति अने राज्यनो लाभ इत्यादि सर्व कार्य उद्यमीज सिद्ध थाय छे. कां छे के - " उद्यमवडज सर्व कार्य सिद्ध थाय छे, पण मनोरथोवडे सिद्ध थतां नथी, केमके सूतेला सिंहना मुखमा पोतानी मेळेज मृगलां प्रवेश करतां नथी. तेथी बिलाडीनी जेम निरंतर उद्यमज करवो. जेम के बिलाडो जन्मथीज तेनी पासे गाय १ आ स्थळे घणा प्रश्नोत्तरो विस्तारवाळा छे, पण ते शाना अभ्यासीनेज उपयोगी होवाथी अहीं लख्या नथी. जिज्ञासुए आचारप्रदीप प्रथमांथी ते वांची लेवा. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९ ) नथी तो पण हमेशां उद्यम करवाथी दूध पीए. छे. " ते सांभळीने बीजी कुमारी बोली के" कर्म (प्रारब्ध ) विना उद्यमनुं शं फल ? कांइज नही. जेम बीजविना खेती' करवानां सर्व उद्यम निफळ छे, तेम कर्मरूप वीजविनानो उद्यम निरर्थक छे. कर्तुं छे के" घणा उपायो कर्या छतां पण भाग्यविना तेनुं फळ प्राप्त थतुं नथी. केमके राहु अमृत पीवा जतां उलटो अंगरहित थइ गयो. वळी उन द्यमी माणसनो उद्यम पण कर्म विना फळीभूत थतो नथी. केमके“ बुद्धिः कर्मानुसारिणी - कर्मने अनुसरीनेंज बुद्धि प्रवर्ते छे, "एम ज्ञानी पुरुषोए कहुं छे. माटे उद्यमनु पण कारण होवाथी कर्मज प्रधान ( मुख्य ) छे. हे बहेन ! आ स्थळे तने हुं एक दृष्टांत कहुं छं ते तुं सांभळ- 46 कोइ वे पुरुषो वादविवाद करता राजानी पासे गया. तेमां एक कर्मनुं अने बीजो उद्यमनुं स्थापन करनार हतो राजाए तो ते बन्नेने जूठा पाडवा माटे चोरनी जेम कोइ कारागृह जेवा घरमां तरतज हुकम करीने तेमने नांख्या. ते घरमां गुप्त रीते सर्व भक्ष्य वस्तु रखावीने ते घरना द्वार बंध कर्या, अने ते नेने राजाए कहां के" हवे तमे बन्ने उद्यमनुं अथवा कर्मनुं फळ जुओ. तमारी इच्छाथी भोजन करो, अथवा इच्छाथी बहार नीकळो. " त्यार पछी उद्यमचादीए विचार कर्यो के - " कोइ बखत कर्म फळीभूत थाय छे, अने कोइ वखत उद्यम पण फळनुं कारण थाय छे. ए रीते सर्व वस्तुनी पण पोतपोताना समयने विषे सिद्धि रहेली छे. " आ प्रमाणे विश्वरा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) करीने काइक विलंब करी कर्मवादी प्रत्ये बोल्यो के-" हे भाइ ! होआपणे आ स्थळे शुं करवा योग्य छे, ते कहो." कर्मवादीए जवाब आप्यो के-" पोतानी मेळेज सौ सारा वानां थशे. सुखेथी बेसी रहो, अथवा सुखथी हरो फरो. परंतु हुं तो कभनेज प्रमाण करीश." पछी उद्यमवादी तेना वचननी अवगणना करीने उभो थइ विचार करवा लाग्यो के-"आ घरमां कांइ पण खावा योग्य वस्तु होय तो शोधी लउं." एम विचारीने ते खोवायेली वस्तुनी जेम घरमां चेतरफ जोचा लाग्यो. तेवामां ते ओरडामा उपराउपरी गोठवेलां हांल्लांनी उत्रेडमां जोतां वचला माटलामाथी वस्त्रना छेडाने खेचता वस्त्रमा वीटेला घणा घीवाळा, हर्षकारक, चार लाडु जोवामां आव्या. पछी “ हुं मारा उद्यमनुं फळ आ पुरुषने देखाडं." एम धारीने तेणे गणपतिनी आगळ जेम लाडु धरे तेम पेला कर्मवादीनी पासे ते लाडु भूक्या, अने बोल्यो के-" जुओ ! हाथे पगे पांगळा पुरुषनाज जेवं कर्म छे के नहीं ? केमके ते कर्मवडे पोतार्नु कांइ पण कार्य सिद्ध थतुं नथी. आ प्रत्यक्ष उद्यमनुंज मोठं फळ देखाय छे." ते सांभळीने कर्मवादी हसीने बोल्यो के-" तमे जे मोटा कष्टथी फळने प्राप्त कर्यु, ते मारी पासे लावीने मूक्युं, ते मारा कर्मनुज फळ छे, प्रसन्न थयेला मारा कर्मेज तमने पण आ उद्यम करवानी बुद्धि आपी छे. जो एम न होय, तो तुं पण मारी जेम बेसीज रह्यो होत. पण तने स्वस्थपणे बेसवा न दीधो, एज मारा कर्मर्नु पराक्रम जाण. माटे मारे तो कर्मज प्रधान छे, उद्योगादिक काइपण Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) प्रमाण नथी जिनेश्वरोने पण कर्मज अनंत सुख आपे छे, तथा दुःख पण आपे छे. " आ प्रमाणे तेना बोलबाथी उद्यमवादीए पण तेनी बातने अंगीकार करी. केमके जेनुं दृष्टांत प्रगटपणे जोयुं होय एका दाष्टीतिकने कोण न माने ! पछी भाइनी जेम बहेंचीने ते बन्ने जण लाडु जमवा लाग्यां. तेमां एक लाडुमाथी कर्मवादी अमूल्य रत्न पाम्यो. एक चित्तवाळो थइने जे जेनुं बहुमान करे छे ते तेने अवश्य फळनी प्राप्ति करी आपे छे. अने तेनापर देव, गुरु, धर्म, मंत्र, राजा अने शेठ विगैरेनी जेम ते प्रसन्न थाय छे. आ प्रमाणे प्रसन्न थवेला कर्मे कर्मवादीने रत्न आप्युं त्यारे समकित दर्शन प्राप्त थवाथी भव्य पुरुषनी जेम ते उद्यमवादी पण कर्मपक्षने विष दृढ बुद्धिवाळो थयो. इवे ते निर्जन स्थानमा ( घरमां ) ते रत्नवाळा मोदकनो योग शी रीते थयो, ते कहुं छं. केमके जे वात सारी रीते जाणवामां न आवै ते वात शल्यनी जेम हृदयमा खुंचे छे.(प्यारा) ते धरमां समृदिवाळोएक राजानो सेवक रहेतो हतो. तेनी स्त्रीए पोताना धणीथी छार्नु पोताना जमाइने आपयां माटे एक श्रेष्ठ रत्न एक मोदकमां नांखीने चार लाडु कर्या हता. ते मोदकोने एक वस्त्रना ककडामां बांधीने जीवितनी पेठे गुप्त रीते उत्रेडना वचला माटलामा मूक्या हता. अन्यदा कोइ निमित्तथी राजा ते सेवकपर कोप पाम्पो, तेथी तेने कुटुंबसहित ए घरमांथी काढी मूक्यो. केमके राजानुं मान तो स्वप्न जेवूज होय छे. ते वखते राजाथी भय पामेलो ते सेवक पोतानुं सर्वस्व तजीने कुटुंबसहित घरमाथी नीकळी गयो हतो. आ प्रकारे कर्मसंयोगे ते घरपां. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) मोदकमां नाखेला रत्ननो योग कर्मवादी पुरुषने प्राप्त थयो. अष्ट सर्व हकीकत राजाना जाणवामां आवी त्यारे ते चमत्कार पाम्पो, अने ते बन्नेने छोड़ी मूक्या. आ प्रमाणे कर्मवादी अने उद्यमवादी बने विवादरहित थइने अत्यंत सुखी थया माटे हे बहेन ! समग्र कार्यने साधनारुं कर्मज छे, एम तं पण अंगीकार कर, त्रण जगत्ना समग्र जीवो जेने आधीन छे एवं कर्म प्रधान छे.” ते सांभळीने प्रत्युत्तर देवामां असमर्थ परंतु छळकपटथी बोलवाना स्वभाववाळी मोटी बहेन बोली के - " जो सर्व कर्मनाज प्रसाद छे, तो तुंज बोल के तुं कोना प्रसादथी ( कृपाथी ) सुखीछे, अथबा मान पामे छे ? तथा आ समग्र लोको कोनी कृपाथी सुखीया छे ? " त्यारे नानी बहेन बोली के - " अंतःकरणमां कूडकपट राखीने केवळ मुखथी मीढुं मीटुं बोलवाथी शुं फळ छे ? सर्वने पोतपोताना कर्मना प्रभावथीज सुख दुःख प्राप्त थाय छे. जीवोने पुण्यनो उदय प्राप्त थाय त्यारे राजा तेमनापर प्रसन्न थाय छे; अने सर्व इष्ट वस्तु आपे छे. तथा पापनो उदय थाय त्यारे यमराजनी पेठे ते रोष पामे छे अने सर्व वस्तुनुं हरण पण करे छे. कां छे के - ' सर्व जीवो पूर्वे करेला कर्मनुंज विशेषे करीने फळ पामे छे. अपराधमां अथवा गुणमा (लाभमां के हानियां ) बीजो तो निमित्तमात्रज छे.' आ प्रमाणे नानी कुमारीनुं वचन सांभळीने मनमां क्रोध पामेलो राजा बोल्यो के - " हे दुष्टे ! हे दु:पंडिते ! तुं तारा कर्मनुं फळ तथा तारा वचननुं फळ तत्काळ जो. " एम कहीने राजाए पोताना सेवकनो Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) आज्ञा आपी के - " नगरमां चोतरफ शोध करी कोइ महादरिद्री, कोढीयो, भीखारी अने रांक पुरुष होय तेने बोलावी लावो. " पछी राजाना हुकमधी चारे तरफ शोध करवाने भमता राजसेवकोए नगरना उपवनमां रहेलो पेलो कोढीयो पुरुष (राजा) जोयो. अर्थात् पूर्वे वर्णन करेला अने देवतानी सहायथी कोढी तेमज दरिद्री थइने बेठेला पृथ्वीपाळ राजाने जोयो. पछी सेवकोए तेने कोइ पण प्रकारे समजावी महा प्रयत्नथी बंधिवाननी जेम राजा पासे लावी उभो राख्यो. ते वखते राजाए ते नानी कन्याने कां के" जो तुं कर्मनेज माने छे, तो तारा कर्मे आपेला आ कोढीया दरिद्री वर वर जेथी तूं केवी कृतार्थ थाय छे, ते अमे जोइशुं. " आ सर्व जाणीने लोकोमा हाहाकार थइ रह्यो, अने तेमनां हृदय कंपवा लाग्या. ते वखते पेलो कोढीयो पण सज्जनपणाने लीघे ते कन्याने परणवा माटे निषेध करवा लाग्यो. तो पण कर्मनेज प्रधान माननारी अत्यंत सच्चयुक्त एवी ते कन्याए पाणिग्रहणनी रीत प्रमाणे ते कोढीयानो हाथ ग्रहण कर्यो. ते वखते ते सभामां बेठेलो एक जोशी आ वरकन्यानो लग्न समय विचारी गुप्त रीते ( मनमां ) बोल्यो के - “ आ समये जेवुं शुभ लग्न वर्ते छे, तेवुं लग्न बार वरसे पण मळवु दुर्लभ छे. माटे आ स्त्री पुरुषने सर्वथा कोइ मोटा देव जेवुं अनुपम सुख प्राप्त थं जोइए ! एम अत्यारना लग्न बलथी जणाय छे. " ते वखते राजाना सख्त हुकमथी कोइथी कांइ पण बोली शकातुं नहोतुं एटले . सौ मौन रह्या. विवाह थया पछी तुरत राजाए ते कोढीया वरने आज्ञा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करी के-" आ कन्याने लइने तुं अहींथी जा, अने आनी पासे दासीनी जेम काम करावजे. " पछी जाणे तेणीए मोटी चोरी करी होय तेम तेणीने राजाए अति कोपथी कलु के-"आ वरनी साथे जीवित पर्यंत निर्वाह करजे, अने उत्तम सुख पामजे." ते सांभळीने साहसिक एवी ते कन्या पण "बहु सारं" एम नम्रताथी कहीने देवनी जेम ते वरनो हाथ झालीने पिताना घरमांथी तेनी लक्ष्मीनी जेम नीकळी गइ. राजाए निषेध करवाथी कोइ दासी पण तेणीनी साथे जइ शकी नहीं, अने राजाना कोपना भयथी अनिष्टनी जेमतेणीने कोइ बोलावी पण शक्युं नहीं. ते बखते केटलाक लोको राजाने दोष देवा लाग्या, केटलाएक ते कुंवरीने दोष देवा लाग्या, केटलाएक राजाना कोपनो दोष कहेवा लाग्या, केटलाएक प्रधानादिकनो दोष प्रगट करवा लाग्या, केटलाएक ते कन्याना गुरुनो दोष काढवा लाग्या, केटलाएक तेणीना मुग्धपणानो दोष काढवा लाग्या, केटलाएक तेणीना खराब ग्रहनो दोष कहेवा लाग्या अने केटलाएक धर्मीष्ट लोको तेणीना कर्मनोज दोष कहेवा लाग्या. . आ प्रमाणे नगरजनोनां नवां नवां वचनो सांभळती ते कन्या वे पतिनी साथे नगरनी बहार तेज उद्यानमा जइने जाणे जूदाज स्वादवाळी ( आनंदवाळी ) होय तेम विषाद ( खेद ) पाम्या विना तेनी साथेज रही. अने तेवा कोढीया वरनी पण जाणे कोइ श्रेष्ठ देवता होय तेम परम भीतिरसे करीने सेवा करवा लागी. 'सतीओनुं सत्व महा आश्चर्यकारक होय छे. ' पछी ते अयोग्य अने असमान Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२५) चुनाव जोवाने जाणे अशक्त होय एम सूर्य बीजा द्वीपमा जतो रह्यो( अस्त थयो. ) अने तेनी स्त्री संध्या पण सतीनी जेम ते सूर्यनी पाछळ गइ पछी ज्योर मिथ्यात्वना समूहनी जेम अंधकारनो समूह चोतरफ विस्तार पाम्यो त्यारे ते कन्याए पतिने भाटे सुंदर संथारो पाथरी आप्यो. तेमां सुखे सुतेला ते पतिए तेप्पीनी परीक्षा करवा माटे तेणीने कछु के- " हे भद्रे ! हा ! हा ! तूं आ मोटा दुःख समुद्रमां केम पडी ? प्रथम तो तें भोळीए आ अयुक्त कार्य कर्यु, त्यार पछी बीजुं अयुक्त कार्य में कर्यु अने राजाए तो बहुज अयुक्त कर्यु. केमके पिता थईने आवुं अयुक्त केम करी शकाय ? कहां छेके - ' कदाचित् अल्प मेमने लीधे छोरु तो कछोरु थाय, पण अत्यंत प्रेमवाळा मातापिता ( मावतर ) कुमातापिता ( कुमावतर ) केम थाय ?' पण हे सुंदरी ! हजु कांइ जतुं रां नथी अने कांइ बगडी गयुं नथी. हजु पण तुं स्वेच्छाथी ज्यां जं होय त्यां जा अने बीजा कोइ श्रेष्ठ वरने वर, तेथी तुं कृतार्थ थइश. अत्यारे कोई जोतुं पण नथी अने कोइ कांइ पूछतं पण नथी, माटे तुं इच्छा प्रमाणे जा. केमके लक्ष्मीने तथा हरणना सरखा नेत्रवाळी सुंदर स्त्रीओने सर्व स्थाने पोतानी मेळेज मान मळे छे. अत्यंत निंदवालायक पोतानो पण निर्वाह करवाने समर्थ नथी, तो तारो शी रीते थशे ? तेथी तारे अपवित्र वस्तुना जेम मारो करवो योग्य छे. " आ प्रमाणनां पतिनां वचनो सांभळीने माधुं हलाबती अने बे हाथ पोताना कानने ढांकती ते कन्या बोली के- 'हा ! एवा हुं मारो निर्वाह माराथी दूरथीन त्याग Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२६) नाथ ! दाहना हेतुरूप आवां अयोग्य वचन आप केम बोलो छो ? "ज्यारे अनंता पापनी राशि उदयमां आवे छे, त्यारे जीवने स्रीपणुं प्राप्त थाय छे, एम हे गौतम ! तमे सारी रीते जाणो." आ प्रमाणेना श्री महावीरस्वामीना वचनथी जणाय छे के स्त्रीनो जन्म अति अधम छे. तेमां पण जो कदाच शीलभ्रष्ट थयुं होय तो ते अत्यंत उच्छिष्ट अने अनिष्ट जाणवू. तेथी आ जन्ममां तो मारे तमारा चरणन शरणरूप छे. केमके स्त्रीओने पोताना कर्मे आपेलो पति देवतुल्य छ " आ प्रमाणे ते कन्याना दृढ निश्चयथी ते राजा चित्तमा चमत्कार अने हर्ष पामीने बोल्यो के-" हे भद्रे ! आ प्रमाणे तारा जन्मनो निर्वाह शी रीते थशे ? माटे हवे हुँ पण जो कोइपण प्रकारे दिव्य शरीरवाळो अने नवा यौवनवाळो याउं, तोज योग्य कहेवाय. केमके असमान योगने विषे रस क्याथी आवे ? " ए प्रमाणे कहीने देवशक्तिथी तरतज पोतानुं दिव्य रूप करीने देवनी जेम शोभता ते राजाए पोतानी मियाने आश्चर्य तथा हर्षयुक्त करी. ते जोड़ने “ हे स्वामी ! आ शुं ?" एम तेणी प्रश्न करे छे, तेटलामां तो तेज ठेकाणे तेगेन बनावेलुं देवविमानना जेवू मणिमय भवन जोयुं अने ते भवनमा एक दिव्य पलंगपर बेठेला पोताना पतिने जोया. ते वखते ते राजा छत्र चामर तथा नाटक करवामां तत्पर एवा देव तथा देवीओना समूहथी परिवरेला इंद्रना जेवो शोभतो हतो. ते सर्व जोइने-"शुं आ ने स्वाम छ ? के इन्द्रजाळ छे ? के मायाजाळ छे ? के मोहजाळ छे? आते शु छे ?" ए प्रमाणे विस्मय पामेली ते सुंदर मुखवाळी कन्याने राजाए Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) कह्यु के-" हे 'रतिना जेवी सुंदर प्रिया ! तुं तारा मनमा नाना प्रकारना संकल्प विकल्प करीश नहीं. मारापर देवता प्रसन्न थयेल छ, हुं राजा छ, अने तारा शुभ कर्मवडे अहीं आव्यो छ." त्यार पछी राजा पोतानुं सर्व चरित्र तेणीने कहीने बोल्यो के-" हे सुभगे (सारा भाग्यशाळी) ! तें जे कर्मने प्रमाणरूप कह्यु, तेज कर्म तारापर तुष्टमान थयुं छे. तारो पिता चंद्र राजा महा अज्ञानी छे अने मिथ्याआभिमानी छे, तेनुं फळ पण तुं प्रातःकाळे जोइश, ते तारी समृद्धि जोवाने अहीं आवशे." ते सांभळीने हर्षयी उल्लास पामेली ते कन्याए स्वामीना महिमाने माटे आखी रात्री दिव्य नृत्य कर्यु, के जे नृत्पथी इंद्रनुं हृदय पण चमत्कार पामे. __अहीं चंद्र राजाए " कोढीयाने पोतानी कन्या आपीने में मारा क्रोधनुं फळ देखाडयुं, हवे संतोषतुं फळ पण शीघ्र देखाहूं." ए प्रमाणे विचारीने गर्व पामेला राजाए देव समान रुपवाळा एक युवान राजकुमारने उत्सवसहित पहेली ( मोटी ) कन्या आपी.. तेज दिवसना रात्रीना बीजा । प्रहरमा उत्कृष्ट लग्न लइने सर्व समृ. दियी आखा शहेरमा विवाह महोत्सव आरंभ्यो. जगतना लोकोने हर्ष आपनार एवा ते उत्सववडे लग्न ( मुहूर्त ) समये घणी प्रशंसा अने उत्साहने पात्र एवो ते बनेनो विवाह थयो. त्यार पछी अशुभ कर्मना वशथी त्यां उग्र सर्प नीकळ्यो, ते त्रण भुवननो संहार करवामां अत्यंत भयंकर एवो जाणे बीजो यमराज होय तेवो देखातो १ कामदेवनी स्त्री रति. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २८ ) इतो तेने जोड़ने कल्पांतकाळना पवनथी समुद्रना कल्लोलनी जेम सर्वे जनो भयभीत थइने क्षोभ पाम्या. ते वखते भयथी संभ्रांत येलो वर पण जलदीथी उठीने फाळ भरतो नासवा लाग्यो तेवामां तेनो पग सर्पना शरीर परज आन्यो, तेथी रोष पामेलो सर्प तेने डस्यो. अने तरतज ते वर मरण पाम्पो. कां छे के - “ जूदी रीते कार्य करवा धायें होय, पण तेनुं परिणाम तो तेथी जूदुंज आवे छे. केमके कर्मने वश पडेला जीवोने एक क्षणमांज घणां विघ्नो आवे छे. " आवा समयमां आवुं अयोग्य ( अघटित ) थया छतां पण केटलाक मनुष्योने जरा पण वैराग्य थतो नथी. तेवा मनुष्योने धिक्कार छे. त्यारपछी दिव्य नाटकना ध्वनिने सांभळता राजा विगेरे सर्व • मनुष्यो अत्यंत शोकसमूहथी मुनिनी जेम मौन (स्तंभित ) थइ गया. तथा चित्तमां चमत्कार पामीने विचार करवा लाग्यो के - " आ अकस्मात् शुं थयुं ? आ असुरेंद्रना जेवी अथवा सुरेंद्रना जेवी ऋद्धि इती, तेमां आम अकस्मात् शुं बनी गयुं ? " आ प्रमाणे सर्व लोको चित्तमां शोकसाथे चमत्कार पाम्पा. प्रातःकाळे राजाए पोताना सेवकाने मोकलीने नानी कन्याना समाचार मंगाव्या. ते सेवकोए आवीने सर्व वृत्तांत यथार्थ कही बताव्यो. ते सांभळीने राजा अत्यंत बिस्मय, लज्जा अने आतुरताथी पराधीन थइ गयो पछी अनिष्ट वस्तुना भारनी जेम अभिमानना समूहनो त्याग करीने ते राजा पोतानी कन्यानुं सन्मान करवा तैयार थयो अने कर्मनुं प्रधानप मानवा लाग्यो. पछी चंद्रराजाए पोताना जमाइ पृथ्वीपाल राजाने Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्कार साथे शहरमा लावी विवाहनी रीतप्रमाणे बहुमानपूर्वक गृह.. द्रव्य विगेरे घणी वस्तुओनी पहेरामणी करी. बीजे दिवसे ते नगरना उद्यानां विशिष्ट ज्ञानी गुरु महाराज समवसर्या. तेने वांदवा माटे चंद्र राजा सर्व परिवारसहित गयो. गुरुने वादी यथास्थाने बेसी देशना सांभळी. देशनाने अंते अवसर जोइने राजाए पोतानी बन्ने कन्यानो पूर्वभव पुछयो, त्यारे ज्ञानी गुरु महाराज बोल्या के-" हे राजा ! तारी आबे कन्या पूर्वे “धन" अने "धनक" नामना बे श्रेष्टीनी "धनश्री" अने “धनप्रभा" नामनी चंद्रनी अने सूर्यनी स्त्री ज्योत्स्ना अने प्रभानी जेवी स्वजनोमां अत्यंत मानवालायक प्रियाओ हती. ते बन्ने जैनधर्ममा आसक्त हती, अने प्राये करीने पापना स्थानकोथी निवृत्ति पामेली हती. तेमन ज्ञाननुं आराधन करवामां निपुण अने उपधानादिकनुं बहुमान करनारी हती. परंतु तेमां पहेली जे धनश्री हती ते कृपण हती, तेथी धनादिकनो व्यय करवामां तेणीनुं हृदय दूमातुं हतुं. ते एटली बधी कृपण हती के मुनिओने पण भावथी दान देती नहीं. परंतु पोते कृपण होवाथी पोताने घेर जे कोइ मुनिराज आवता, तेमने घरना बीजा माणसो वहु आपी दे छ, माटे हुं मारे हाथेज आपुं" एम विचारी उठीने घणी भक्ति तथा आदर देखाडती, घरमा सारी वस्तु घणी छतां पण थोडी देखाडती, अने “जेम मुनिओने जरा पण दोष न लागे तेम थोडं पण शुद्ध एवं सुपात्र दान आपवाथी ते अनंत फळनु कारण थाय छे. " एम बोलती छती पासे रहेला वीजा माण Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३० ) सोने वारीने पोताने हाथेज मनना भावविना मुनिने जेवी तेवी तुच्छ वस्तु अत्यंत थोडी बहोरावती. कोइ वखते मुनि कांइ वस्तु लेवा आवे तो घरमां ते वस्तु होय छतां “ नथी" एम कहती. कदाच ते वस्तु मुनिनी दृष्टिए पडे तो कहेती के "आ वस्तु तो पारकी छे." अथवा कोइ वार ते वस्तु शुद्ध छतां " अशुद्ध छे " एम पण कहेती. आवी अदान बुद्धि ( दान न देवानी बुद्धि ) ने धिक्कार छे ! आ प्रमाणे ते श्राविकाए बीजां धर्म कार्य (प्रतिक्रमण, पौषध विगेरे बिना खर्चनां कार्य) मां तत्पर छतां पण कृपणपणाना दोषथी महा उग्र भोगांतराय कर्म बांध्युं. ' अहो ! निर्मळ एवा जैन धर्मने पामीने पण केटलाएक मूढ जीवो अयोग्य आचरणवडे आत्माने मलिन करे छे, ते अत्यंत खेदकारक छे.' हवे बीजी श्राविका जे धनप्रभा नामनी हती ते उदार चित्तवाळी हती. तेथी तेणीए शुद्ध भावथी सुपात्र दान आपवाचढे शुभ भोगना फळवालुं कर्म बांध्युं. कारण के जीवना परिणाम -विचित्र प्रकारना होय छे. अनुक्रमे आयुष्य पुर्ण थये ते बन्ने श्राविकाओ मरण पामीने स्वर्गमां देवपणे उत्पन्न थइ. परंतु तेमांनी पहेली धनश्री किल्बिषीया देवना विमानमां उत्पन्न थइ. त्यांथी आयुष्य पुर्ण थये चवीने ते बने देवो हे राजा ! तारा प्रेमना पात्ररूप आ वे कन्याओ रूपे उत्पन्न थयेळ छे. ते बन्नेने पोतपोताना कर्मना वशथी भोगनी प्राप्ति ने भोगनो नाश थयेळ छे." आ प्रमाणे बने कन्याओनो पूर्वभव सांभळीने राजाए गुरुने पूछयुं के - " हे स्वामी! मारी एक - शंका समाधान करो के कर्म अने उद्यम ए बेमां कथं प्रधान Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे ?" त्यारे ज्ञानी गुरु बोल्या के-" हे राजा ! ते बनेनुं प्राधान्य छे. केमके आ जगत्मा कोइ ठेकाणे जीव बळवान् थाय छे, अने कोइ ठेकाणे कर्म पण बळवान् थाय छे. कह्यु छ के- जीवने तथा कर्मने अनादि काळथी वैर बंधायलुं छे. तेमां जीवो खरेखर कर्मनेज वश छे, परंतु कोइक वखत कर्मों पण जीवने वश थाय छे. केमके कोइक ठेकाणे धारण करनार ( आधार बळवान् होय छे, अने कोइ ठेकाणे धारण करवालायक ( आधेय ) बस्तु बळवान् होय छे. जो के कर्म संसारमा भमता जीवोने अत्यंत दुःख आपे छे, तो पण धर्मनो उद्योग ते सर्व कमने पण हणी नाखे छे. अन्यथा अनंतानंत भवोवडे संचय करेला अनंतां कर्मोंने हणीने अनंता जीवो शाश्वता मोक्षने केम पामे ? कुकर्मने करनार " दृढमहारी " अने " चुलणी " उद्यमथीज मोक्षे गया छे, तथा " चिलातीपुत्र" अने " रोहणयक" विगेरे पण उद्यमथीज स्वर्गे गया छे. तेथी करीने धर्मार्थी पुरुषो अनिष्ट एवा उग्र कर्मना क्षयने माटे निरंतर उद्यम कयोज करे छे. आ रीते कोइ वखत उद्यम पण बळवान् थइ शके छे. कहुं छे के-"प्राणीओने सर्व कार्यमां हमेशां उद्यमनेज परमबंधु कहेलो छे, कारण के उद्यमावना मनुष्य मनोवांछितने मेळवी शकतो नथी." जो कदाच विविध प्रकारना उद्यमो कर्या छतां पण कार्य सिद न थाय, तो त्यां अवश्य तीव्र कर्मज भोगववालायक अने समर्थ छे एम जाणवू. वळी महावीरस्वामीनो नीच कुळमां अवतार. मल्लीनाय स्वामीन स्वीपणे उत्पन्न थQ, परीक्षित राजानुं मरण तथा नंदिपेण अवे Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३२) आर्द्रकुमारनी भ्रष्टता ए सर्व कर्मना वशथीज थयां छे कई छे के"ब्रह्मदत्तनो दृष्टिनो (नेत्रनो) नाश थयो, भरतचक्रीनो पराजय थयो, कृष्णना समग्र कुटुंबनो नाश थयो, छल्ला तीर्थ करना नीचे गोत्रमा अ. वतार थयो, मल्लीनाथने स्त्रीपणुं प्राप्त थयु. नारदर्नु पण निर्वाण ( मोक्ष ) थयु, अने विलातीपुत्रने प्रशमना परिणाम थया. आ तमाम बावतोमां कमे अने उद्यम ए बन्ने स्पर्धाए करीने तुल्य बळवाळा छता आ जगत्मां प्रगट रीते जयवंता वर्ते छे. " ____ आ प्रमाणे गुरुना मुखथी कर्म अने उद्यमनी समानता सांभळीने धर्ममा उद्यम करवानी बुद्धि जेने उत्पन्न थइ छ एवो चंद्र राजा दुष्ट कोने हणवा माटे तैयार थयो, पछी ते राजाए विधिपूर्वक पोताना जमाई पृथ्वीपालने पोतानुं राज्य सोपीने मोटी पुत्री तथा बन्ने राणीओसहित दीक्षा ग्रहण करी अने तेनुं आराधन करीने भति मोक्षे गयो. 'त्यार पछी पृथ्वीपाळ राजा चंद्रराजाना राज्यने स्वस्थ कराने इंद्रनी जेम मोटी ऋदिसहित पातानी स्त्रीने लइने पोताना नगरमां गयो. आ प्रमाणे पेला श्लोकना चोथा पादनी परीक्षा करवायी पृथ्वीपाल राजा शास्त्रोने विषे अत्यंत बहुमानवाळो थयो. अज्ञाननो नाश करवामां अस्त्रसमान शास्त्रोनुं आदरसहित श्रवण करतां ते राजानी बुद्धि धर्मर्नु आराधन करवामां तत्पर थइ. केमके ज्ञानथी शुं न संभवे ? सर्व संभवे. सर्व दर्शनीओना धर्मोने जोइ जोइने सारा रीते परीक्षा करवाथी जेना समान बीजो कोइ धर्म नथी एवा आईत Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) धर्मने तेणे अंगीकार कर्यो. अनुक्रमे जेन जेम तेनी धर्ममां परिणति वधवा लागी. तेम तेम श्रुतज्ञान उपर तेनुं बहुमान वृद्धि पामत्रा लाग्ं. शास्त्रनुं श्रवण करवामां अने तेनुं पठन पाठन करवामां ते राजाए एवं तल्लीनपं कर्तुं के जेथी प्रगट एवा सुंदर संगीतना रसमां पग तेरस (आनंद) रहित थयो. बहुश्रुत एवा साधुओने बहुमान आपीने, तथा तेमनो आश्रय लइने, तेमज शास्त्रो लखावत्र तथा ज्ञाननां उजमणां करवां इत्यादि कार्यो करीने तेणे श्रुतज्ञानतुं आराधन कर्यु. आ प्रमाणे पृथ्वीपाळ राजाए श्रुतनुं आराधन करवाथी दुःसाध्य एवा पण ज्ञानावरणीय कर्मना क्षयने साध्यो. एकदा ते राजा एकाग्र चित्ते श्रुतना अर्थनी अत्यंत भावना करतां मोक्षरूप महेलनी नीसरणी समान क्षपकश्रेणिपर आरुढ थयो. तेज बखते ते राजा लोकालोकने प्रकाश करनारुं केवळज्ञान पाम्यो, अने देवोए तेने मुनिनो वेष आप्यो पछी ते केवळी राजर्षिए पोतानाज अनुभवेला दृष्टांतने स्पष्ट रीते देशनामां कहीने घणा जीवोने श्रुतज्ञानना आराधनमां सावधान कर्या. पछी प्रतिबोध पमाडवालायक भव्य जीवोने पोताना इतिहासवडे प्रतिबोध पमाडीने चिरकाळ सुधी पृथ्वीपर विहार करी ते राजर्षि मोक्षपदने पाम्या. हे भव्य जीवो ! आ रीते श्रुतज्ञाननुं मात्र बहुमान करवाथी पण ते भवे केवळज्ञान तथा मोक्षरूप फळ मळे छे, एम जाणीने श्रुतज्ञाननुं आराधन करवामां अत्यंत मयत्नवाळा थाओ. ॥ इति श्रुताराने पृथ्वीपाल नृप कथा ॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रुतज्ञानतुं आराधन सम्यक् ( रुडे ) प्रकारे ज्ञानाचारना आचरणनी निपुणता होय तोज संभवे छे, अने ते ज्ञानाचार आठ प्रकारनो छे. ते विषे निशीथ सूत्रना भाष्यनी पीठीका विगेरेमां कहां छे के-"काळ, विनय, बहुमान, उपधान, अनिद्भव (नहीं गोपववं ते ), व्यंजन ( अक्षर ), अर्थ, ते बन्ने ( अक्षर अने अर्थ ), ए आठने विषे ज्ञानाचार आठ प्रकारनो छे... पहेला काळाचारनुं स्वरूप. ____ काळे एटले सूत्रनी पोरसीने विषे सूत्र भगवू अथवा गणवू, अने अर्थनी पोरसीमां अर्थ भणवो अथवा गणवो, अथवा उत्कालिक सूत्रो विगेरे भगवां गणवां. तेमां कालिक श्रुत एटले उत्तराध्ययन, आचारांग विगेरे सूत्रो दिवस अने रात्रीनी पहली तथा चोथी पोरसीने विषेज भणवा गणवानां छे. तथा उत्कालिक एटले दशवकालिक, दृष्टिवाद विगेरे सूत्रो तो सर्व पोरसीमां भणवा गणवा लायक छे. हवे कालिक तथा उत्कालिक ए बन्ने प्रकारनां सूत्रोनां अस्वाध्यायनो ( असझ्झायनो) काळ नानी बबे घडीनो छे. तेथी रात्री अने दिवसनी चार काळ वेळाओनो' ( भणवा गणवामां ) द. ररोज त्याग करवो. . श्री आचार प्रदीप ग्रंथनी अंदर मुनिराजने सूत्रो भणवामाटे आगममां कहेलो काळ बतावीने पछी अकाळ अहंकारादिकवडे भण १ आ चार काळ वेळाना संबंधमा आचार प्रदीपमा शास्त्रा. धारे केटलुक विवरण करेलुं छे. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चा गणवाथी आज्ञाभंग, ज्ञानाचारनी विराधना विगेरे दोषो सागवाथी. प्रायश्चित्त लेवानुं कर्तुं छे, तेमज अकाळे स्वाध्याय करवाथी प्रमत्तपणाने लीधे दुष्ट देवता पण तेने छळेछ, विगेरे कहुं छे. ते बाबत निशीथ भाष्यमां आ प्रमाणे कर्जा छे के-" पहेली अने छेल्ली संध्या समये, मध्याह्न समये अने अधरात्रि समये ए चार संध्याओ वखते जे मनुष्य स्वाध्याय करे छे, तेणे आज्ञादिकनी विराधना करी छ एम जाणवू." वळी ते संध्याओमां स्वाध्याय करवाथी लोकमा पण निंदा थाय छे (केमके लौकिक श्मस्त्रोमां पण संध्यासमये स्वाध्याय करवानो निषेध कर्यो छे. ) तथा संध्याने विषे गुह्यक-व्यंतरो विगेरे फरे छे. संध्या वखते स्वाध्याय नहि करवाथी आवश्यकनी उपयोग थइ शके छे. (प्रतिक्रमण थइ शके छे.) तथा स्वाध्याय करचाथी थाकी गयेलाने एटलो वखत विश्रांति पण मळे छे. जोके श्रुतनो उपयोग ( भणवु गणवू ) तथा तप-उपधान अत्यंत श्रेष्ठ कहेला छे, तोपण निषेध करेला काळे करवाथी ते कर्मबंधने माटे थाय छे. लौकिक शास्त्रमा पण काळवेळाए संध्यावंदन, वैश्वदेव, तर्पण, होम विगेरे शांतिकर्म करवानुंज कहुं छे, पण स्वाध्याय करवान कहुं नथी; केमके स्वाध्याय परमतत्वरुप होवायी दुष्ट समये तेनो निषेध करेलो छे. कहुं छे के-" संध्याकाळे आहार, मैथुन, निद्रा अने स्वाध्याय ए चार कर्मने विशेषे करीने वर्जवा केमके संध्याकाळे आहार करवाथी व्याधि उत्पन्न थाय छे, मैथुन करवाथी दुष्ट गर्भ उत्पन्न थाय छ, निद्रा करवाथी धननो नाश थाय छे अने स्वाध्याय Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) करवायी मरण थाय छे." आथी करीने संध्या समये स्वाध्याय करपाथी लोकमां "अहो ! आ जैनो पोतार्नु सर्वज्ञपुत्रपणुं प्रसिद्ध करेछे, परंतु संध्यासमये स्वाध्यायनो निषेध छे, एटलं पण जाणता नथी." ए रीते निंदा थाय छे. वळी संध्यासमये जो स्वाध्यायमा ज तत्पर रहे, तो साधुने प्रतिक्रमणादिक आवश्यक क्रियामां अने श्रावकोने देवपूजा, प्रतिक्रमण विगेरेमा उपयोग रहे नहीं. अने जो ते वखते स्वाध्याय करवानो न होय, तो ते आवश्यक क्रियामा उपयोग रहे, तथा निरंतर स्वाध्याय करवाथी खेद पामेलाने विश्रांति पण मळे, तेथी करीने श्रुतपाठादिक कहेले काळेज करवां युक्त छ.. कदाच कोइ विशेष कारणने लोधे काळनो अतिक्रम थाय, तो तेमां दोष नथी. ते प्रमाणे निशीथ सूत्रादिकमां अनुज्ञा आपेली छे. ___अहीं कोइने शंका थाय के-" जेम शुभ ध्यान मोशनुं कारण होवाथी सर्वकाळे करवानुं कर्तुं छे, तेम श्रुतज्ञान पण मोक्षनुं कारण होवाथी सर्वकाळे स्वाध्याय केम न कराय ? केमके जे मोक्षतुं कारण छे, तेनो काळ के अकाळ कांइ पण नथी." गुरु तेनो उत्तर आपे छे के"हे भद्र ! तारी शंका साची छे. परंतु जे शुभ ध्यान छे,ते सर्व क्रियामा रहेतुं छे, अने ते मानसिक छे, तेथी तेनावडे कोइपण धर्मक्रियाने बाध थतो नथी; पण उलटी सर्वे क्रियाओने पुष्टि मळे छे. तेथी शुभ ध्यानतुं सर्वकाळे करवापणुं घटे छे. अने श्रुतज्ञान तो भणवा-गणवा विगेरेवडे साध्य छे, माटे बे संध्याना आवश्यकादिकनी जेम नियमित समये ज उचित छे. कदाच सर्व काळे श्रुतज्ञानमुंज पठनादिक करवा Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३७) मां आवे, तो पुण्य क्रियाओने परस्पर बाध थाय; अने तेम थर्बु युक्त नयी. केमके सर्व पुण्य क्रियाओ परस्पर बाधारहितज करवानी कही छे. ते विषे श्रीओधनियुक्तिमां को छे के-"जिनशासनने विषे दुःखना क्षयनेमाटे प्रयोग करेलो (कहेलो) धर्मक्रियानो सर्व योग अन्योन्य बाधारहित असपत्न (कोइने बाधा यया विनाज) करवानो को छे." "मोक्षना कारणमां काळनो विभाग करवो अयोग्य छ " एवी शंका पण न करवी, केमके साधुओने आहार विहारादिक पण मोक्षनुंज कारण छे, छतां आगममां तेनो काळ विभाग कहेलो छे के"त्रीजी पोरसीमां भक्त पाननी गवेषणा करवी." कोई गुरु शिष्यने शिक्षा आपे छे के-“हे साधु ! तुं अकाळे गोचरी करे छे, काळने ओळखतो नथी अने आत्माने क्लेश पमाडे छे, तेथी देशनी पण निंदा करे छे." वळी निशीथचूर्णिमां आ प्रमाणे कर्तुं छे–“ ऋतुबद्धकाळे विहार करवो, पण वर्षाऋतुमां न करवो. अथवा दिवसे विहार करवो, पण रात्रे न करवो. अथवा दिवसे पण त्रीजी पोरसीए विहार न करवो, बाकीनी पोरसीमां करवो." लौकिक शास्त्रमा पण कर्तुं छे के-“ पहेला पहोरमां भोजन क. वू नहीं, अने बे पहोरने उल्लंघन करवा नहीं. कारण के पहेला 'पहोरमां भोजन करवाथी रसनी उत्पत्ति थाय छे, अने बे पहोर उल्लंथन करवाथी बलनो क्षय थाय छे." "ग्रीष्म अने हेमंत ऋतुना मळीने आठ मास मुधी भिक्षुए विहार करवो अने सर्व जीवोपरनी दयाने माटे वर्षाऋतुमा एकत्र निवास करवो." Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) वळी दानादिक पण योग्य अवसरे करवाथी विशेष फळवालुं थाय छे. कां छे के, “विहार करवायी श्रांत थयेलाने, व्याधिग्रस्तने, आगमना अभ्यासीने, लोच करेलाने तथा उत्तरपारणावाळाने आपेलुं दान अत्यंत फळदायक थाय छे. योग्य समये आपला दाननी किंमत करवाने कोइपण शक्तिमान नथी. अने तेज दान अयोग्य व खते आपीए तो ते ग्राह्य पण थतुं नथी. " कोई खीने पुरुष कहे छे के - " हे सुंदरी ! एक अंजलि ( चुल्लक ) प्रमाण पण जळ अवसरे आप्युं होय तो मूर्छा पामेलो माणस जीवे छे, परंतु मरी गया पछी सेंकडो घडा पाणी तेनापर नांखवाथी कांइ फळ थतुं नथी. " D. वळी खेती, वेपार अने सेवा विगेरे पण अवसरेज कर्या होय तो ते बहु फळदायक थाय छे, अकाळे करवाथी तेनुं फळ मळतुं नथी. कयुं छे के - "जेम समये करेलुं खेतीकर्म बहु फळवाळु थाय छे. तेज प्रमाणे सर्व क्रियाओ पोतपोताने काळेज करवी योग्य छे." वळी मंत्र, विद्या विगेरेनुं साधन पण कहेले समयेज करवाथी सिद्ध थाय छे, अन्यथा ते साधन अर्थनो हेतु थाय छे. तेथी करीने अवसरेज स्वाध्याय करवो, पण अकाळे न करवो. आ स्थळे छाश वेचनारीनुं दृष्टांत आ प्रमाणे छे- " मथुरा नग मां कोइ एक साधु प्रदोष संबंधी काळने विषे स्वाध्यायनी पोरसी पूरी थया छतां पण अनुपयोगने लोधे कालिक श्रुत भणता हता. ते जोइने 'आ साधुने कोइ दृष्ट देवता न छळो' एम विचारीने शासन देवता तेने बोध करवा माटे छाशनो घडो माथे लइने आभीरी Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३९) रूपे तेनी पासे छाश वेचा नीकळी. अने 'छाश ल्यो छाश' एम मोटे स्वरे बोलती वारंवार गमनागमन करवा लागी. तेथी ते साधुने स्वाध्यायमां विघ्न थवाथी तेणे कह्यु के-"शुं आ छाश वेचवानो समय छ ? " त्यारे ते आभीरी पण बोली के-"त्यारे शुं तमारे पण आ स्वाध्याय करवानो समय छे ? " ते सांभळीने साधुने उपयोग आव्यो, तेथी तेणे मिथ्यादुष्कृत आप्यु." ॥ इति प्रथमः कालाचारः ॥ बीजा विनयाचार विषे. विनय एटले-गुरु, ज्ञानवान् , ज्ञानना अभ्यासी, ज्ञान, ज्ञानना उपकरण ( पुस्तक, पाटुं, कागळ, पाटी, कवळी, ठवणी, सापडो, ओळीयु, टीपणुं तथा दफतर) ए विगेरेनी सर्व प्रकारनी आशातनानो त्याग करवो तथा तेमनी भक्ति विगरे यथायोग्य करवी ते. आशातनाना भेदो श्राद्धविधिनी वृत्तिथी जाणवा. अने गुरुनो तथा ज्ञानवान्नो विनय-प्रगटपणे उभुं थवू, आसन आपq, शय्या करी आपवी, हाथमाथी दांडो लइ लेवो, पग धोवा, पगचंपी करवी, वंदना करवी, आज्ञाप्रमाणे वर्तवू तथा शुश्रुषा ( सेवा) करवी-विगेरे जाणवो. ते विषे आगममा कयु छ के-“ उभा थ, हाथ जोडवा, आसन आपवू, भक्ति करवी, ए रीते भाव शुश्रूषा विनय कहेलोछे." तथा-" गुरुथी नीची पोतानी शय्या करवी, तथा गमन, स्थिति अने आसन पण गुरुथी नीचांज राखवां, शरीरने नमावी गुरुपादनी वं Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४०) दना करवी, तथा नीचा वळीने हाथ जोडवा." भाव शुश्रूषा एटळे गुरुना आदेशने सांभळवानी इच्छा अथवा गुरुनी सेवा. ए प्रमाणे श्रीउत्तराध्ययननी वृत्तिमा तेनी व्याख्या करी छे. अने दशवकालिक वृत्तिमा तो शुश्रूषाविनय दश प्रकारनो प्राकृत गाथावडे वर्णव्यो छ.-" सत्कार करवो १, अभ्युत्थान एटले उभा थq २, सन्मानमान आप, ३, आसनाभिग्रह-आसन देवानुं कहेवू ने देवू४, आसनानुप्रदान-अन्यत्र लइ जइने आसन पाथरी आपq ५, कृतिकर्मवंदना करवी ६, अंजलिग्रह-बे हाथ जोडवा ७, इंगित अनुसरणतेमना मननो अभिप्राय जाणीने ते प्रमाणे वर्तवू ८, गुरु बेठा होय त्यारे तेमनी सेवा करवी ९, तथा चालता होय त्यारे तेमनी पाछळ चालवू १०. आ दश प्रकारनो शुश्रूषाविनय कह्यो छे."अहीं सत्कार एटले स्तुति वंदनादिक करवू ते,सन्मान एटले वस्त्र पात्रादिकवडे पूजन करवु (आप) ते, आसनाभिग्रह एटले गुरु उभा होय त्यारे आदरपूर्वक आसन लावीने “ आ आसनपर पधारो" एम बोलवू ते, आसनानुपदान एटले ते स्थानेथी गुरु बीजे स्थाने जाय त्यारे तेमनुं आसन त्यां लइ जर्बु ते. आ प्रकारनो शुश्रूषाविनय उपचारविनयने विषे पण अंतर्गत थाय छे. श्रीदशवकालिक वृत्तिमा प्राक्तन गाथाओबडे उपचार विनयना सात प्रकार आ प्रमाणे कह्या छे.-" समीपे रहेवानी प्रार्थना एटले आदेशादिकनी इच्छाथी निरंतर गुरुनी समीपे बेसवु १, छंदोनुवर्तन एटले गुरुनी आज्ञाप्रमाणे वर्तवू २, कृतनी प्रतिक्रिया एटले “ भक्तपानादिवडे उपचार करवाथी गुरु प्रसन्न Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) थशे अने सूत्रादिक देवाए करीने प्रत्युपकार करशे, ए पण निर्जराज छे" एम धारीने गुरुने भक्तपानादिक आपवामां प्रयत्न करवो १, कारितनिमित्तकरण एटले श्रुतने ग्रहण करवा विगेरे कार्य कर, कांइपण निमित्त करीने विशेष प्रकारे विनयमां प्रवर्तनुं तथा सूत्रना अर्थनुं अनुष्ठान करखं ४, दुःखार्त गवेषण एटले व्याधि विगेरेथी पीडाता ग्लान साधुओने औषधादिक लावी आपीने उपकार करवो ५, देशकालज्ञान एटले अवसरनुं जाणवापणुं ६, तथा सर्व अर्थमा अनुमति एटले सर्व कार्यमां अनुकूळपणे वर्तं ७. ज्ञानना अभ्यासीओनो विनय करवो, तेमां सारां शोधेळां पुस्तको आपवा. सूत्र अने अर्थनी परिपाटी आपत्री, तथा आहार अने उपाश्रय विगेरेनो आश्रय आपवो; वळी श्रावकाए ज्ञाननो विनय करवो; तेमां उपधान विगेरे विधिवडे सूत्र अने अर्थनुं ग्रहण तथा अभ्यास करवो, विधिप्रमाणे बीजाने सूत्र तथा अर्थ आपवां, तेमां कहेला अर्थनी सारी रीते भावना भाववी, तेमां कह्याप्रमाणे सारी रीत अनुष्ठान करवुं. पोते पुस्तक लखवां अथवा बीजा पासे लखावत्रां, कपूर विगेरे सुगंधि वस्तुवडे ज्ञाननी पूजा करवी, ज्ञाननी आराधना माटे पंचमी विगेरे तपस्या करवी तथा तेनुं उद्यापन विधिपमाणे कर विगेरे. ते विषे कां छे के - " ज्ञानवाळो मनुष्य ज्ञान शीखे छे (अभ्यास करे छे), ज्ञानने गणे छे ( संभारे छे ), ज्ञानवडे समजीने योग्य कार्यों करेछे अने नवां कर्म बांधतो नथी. तेथी करीने ते ज्ञानना विनयचाळो थाय छे." तथा ज्ञानना उपकरणोनो विनय आ प्रमाणे कर 19 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) वो - नवां पुस्तको लखवां, लखाववां तथा शुद्ध कराववां; पुंठां, पोथी बंधन अने बांधवानी दोरी विगेरे साहित्यो उत्तम उत्तम (सारं सारां) एकठां करवां, तथा नाश पामतां पुस्तकोने लखावी लेवां, तेने शोधाववां तथा कपूर, हीरागळ ( रेशमी ) वस्त्र विगेरेवडे तेनुं पूजन करवुं विगेरे. शास्त्रमां कहां छे के - " त्रण जगत्ना सूर्यरुप सर्व जिनेश्वरो अस्त पाम्या छे, तेथी आधुनिक समयमां पुस्तकरूप दीवा - बडे पदार्थोंने विषे सारो प्रकाश पाडी शकाय छे." विनय ए लोकमां तथा लोकोत्तरमां सर्व ठेकाणे सर्व अर्थनी सिद्धिमां अवंध्य कारण छे. ते विषे कां छेके - " विनय लक्ष्मीने आपे छे, विनयवान् पुरुष यश अने कीर्त्तिने पामे छे. विनयरहित माणस कदापि पोताना कार्यनी सिद्धिने पामतो नथी. " लोकमां पण सेवको, शिष्यों, पुत्रो, बहुओ विगेरे सर्वे विनययीज पोताना स्वामीनी पदवी पामता जोवामां आवे छे अने विनय रहित एवा ते सेवको विगेरे विपरीत दशाने पामता पण जोवामां आवे छे. बळी गायो, भेंशो, बळदो, घोडाओ विगेरे पशुओ पण दुर्विनयने लीघे बंधन ताडनादिक कुशने पामता देखाय छे, अने तेओ जो विनयवान् होय तो क्लेश पाम्या बिना सुखे सुखे खावा पीवानुं तथा मान सत्कार पामता देखाय छे. वळी विद्या, विवेक, औदार्य, गांभीर्य, चातुर्य, धैर्य, प्रख्याति, प्रतिष्ठा विगेरे गुणोनुं मूळ कारण विनयज छे. केमके विनय होवाथीज ते ते गुणोनो संभव छे, अन्यथा नथी. कहुं छे के - " सर्व सुखनुं मूळ कारण क्षमा छे, सर्व दुःखोनुं मूळ कारण क्रोध छे, सर्व गुणानुं मूळ कारण विनय Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४३) छे अने सर्व अनर्थोनुं मूळ कारण लोभ छे." वळी धर्मनुं पण मूळ विनयज छे; कहुं छे के-"धर्मनुं मूळ विनय छे, विनयवंतज संयत (मुनि) थइ शके छे विनयरहित माणसने धर्म अने तप बंने क्यांथी होय ? नज होय." छठा अंगमां कहुं छे के, एक हजार परिव्राजकना परिवारमा मुख्य एवा व्यासना पुत्र शुकदेव नामना भट्टारके पोतानो शौचमूळ धर्म सौगंधिका नगरीना निवासी सुदर्शन शेठने ग्रहण कराव्यो हतो. तेथी ते शेठने प्रतिबोध करवामाटे हजार शिष्योना परिवारवाळा अने चौद पूर्वने धारण करनारा थावच्चापुत्र नामना श्री नेमिनाथना शिष्य आचार्य महाराजे ते नगरीमा आवीने ते शेठ प्रत्ये आ प्रमाणे कह्यु के-" हे सुदर्शन ! विनयमूळ धर्म कहेलो छ. अने ते विनय सर्व धातुओना मध्ये सुवर्णनी जेम प्राये शुभ प्रकृतिवाळानेजप्राप्त थाय छे. कहुं छे के-'कमळोमा सुगंध कोणे उत्पन्न करी छे ? शेरडीमा मधुरता ( मीठाश) कोणे उत्पन्न करी छे ? उत्तम जातीना हस्तीओने लीलापूर्वक गमन कोणे शीखव्युं छे ? तथा उच्च कुळमां जन्मेलाने विनय कोण शीखवे छ ? वळी हरणीओना नेत्रोमां अंजन कोण करे छ ? मोरना पीछां कोण चीत्रे छे ? कमळोने विषे पत्रनी रचना कोण करे छे ? तेमज उच्च कुळमां उत्पन्न थयेला पुरुषोने विनय कोण शिखवे छे ? अर्थात् ए सर्व स्वभावथीज सिद्ध छे.' वळी श्रुतज्ञानना अर्थी पुरुष विशेषे करीने गुर्वादिकनो विनय करवामा प्रवर्तQ. कर्जा छे के-" अग्निने स्पर्श करेला गुरुरूपी कुवामांथी ज्ञानरूपी अमृत जळ लेवा माटे मात्र एक विनयज पगना आवर्तनी धृष्टताने धारण करे छे." Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) · तथा-" विनयथी ज्ञान, ज्ञानथी दर्शन ( समकित ), दर्शनथी चारित्र अने चारित्रथी मोक्ष प्राप्त थाय छे, मोक्षमां निराबाध सुख छे. " -चळी विनयथी ग्रहण करेलुं श्रुत तत्काळ फळदायक थायछे, ते शिवायनुं फळदायक थतुं नथी. ते उपर दृष्टांत नीचे प्रमाणे: विनय उपर दृष्टांत. राजगृह नगरमां श्रेणिक राजाए एकदा श्री महावीर स्वामीना मुखथी चेलणा राणीना सतीपणानो निर्णय सांभळीने तेणीना गुणधी रंजीत थइ तेने कहां के - " हे प्रिया ! बीजी राणीओना करता केवो अधिक मनोहर प्रासाद हुं तारे माटे करावं ?" त्यारे चेलणाए कां के - " मारे माटे एकस्तंभवाळो प्रासाद करावी आपो.” राजाए विप्रासाद कराववा माटे अभयकुमारने आज्ञा करी. अभयकुमारे कारीगरोने आज्ञा करी. कारीगरो तेवा प्रासादने योग्य मोटा काष्टने अटवीमां परिभ्रमण करवा लाग्या. तेमणे सारा लक्षणवाळु, घणी छायावाकुं, आकाश सुधी उंचुं, पुष्प फळथी फळेलुं, मोटी मोटी शाखावा अने मोटा स्कंध ( थड ) वाळु एक वृक्ष दी. ते जोइने हर्ष पामेला कारीगरो विचार करवा लाग्या के, - "खरेखर आ वृक्ष देवताधिष्ठित हो जाइए. कां छे के - 'जेवुं तेनुं स्थान पण देवरहित होतुं नथी, तो पछी शुभ लक्षणवाळां मोटां वृक्ष तो देवताना वासरहित शेनाज होय ?' परंतु " आवा देवताधिष्ठित वृक्षनो छेद करस्वाथी आपणा स्वामीने ( राजाने ) कांइ विघ्न न थाओ." एम वि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारीने ते दिवसे ते वृक्षना अधिष्ठायक देवनी आराधनामाटे उपवास करीने तथा गंध, धूप अने पुष्पादिकवडे तेनी पूजा करीने कारीगरो पोतपोताने स्थानके गया. तेमनी भक्तिथी ते वृक्षना अधिष्ठायक देवे प्रसन्न थइने रात्रीए अभयकुमारने कयु के-" हुं सर्व ऋतुओना पुष्प फळवाळा वृक्षोथी सुशोभित, नंदनवननी जेवा उद्यानवडे अलंकृता अने चोतरफ किल्लावाळो एकस्तंभी प्रासाद करी आपीश, माटे मारा भुवननी उपर रहेला वृक्षने तमे छेदावशो नहीं." ते सांभळीने अभय-. कुमारे ते वात अंगीकार करी, एटले अचिंत्य शक्तिवाळा ते व्यंतर देवे तेवा प्रकारनो मासाद तरतज बनावी आप्यो. कहुं छे के:" वचनथी बंधायेला देवो किंकरथी पण अधिक सेवा करनारा थाय छे. " श्रेणिक राजा के जे एकला प्रासादनोज अर्थी हतो, ते आवा मकारना उद्यानथी सुशोभित प्रासादने जोइने दूध पीवानो आरंभ करता तेमां जेम साकर पडे तेम मानवा लाग्यो. पछी राजाना आदेशथी चेलणा राणी पद्म ( कमळ ) सरोवरमां मन थएली लक्ष्मीनी. जेम ते प्रासादमां रहीने निरंतर क्रिडा करवा लागी. एकदा ते नगरमा वसनारी एक मातंगी ( चंडाळनी स्त्री) ने अकाळे आम्रफळ खावानो दोहद थयो. तेथी तेणीए पोतानो पति के जे विद्यासिद्ध हतो तेने चेलणाना उद्यानमाथी आम्रफळ लाववा माटे अत्यंत आग्रहपूर्वक कहूं. ते मातंग श्रेणिक राजाथी अत्यंत भय पामतो हतो तो पण स्त्रीना आग्रहने लीधे 'अवनामिनी' नामनी विचावडे आम्रक्षनी शाखा नीचे नमावी इच्छाप्रमाणे आम्रफळो Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४६) लेइने पछी 'उन्नामिनी विद्यावडे शाखाने उंचे हती तेवी करी चोरनी जेम नाशीने घेर जतो रह्यो. कहुं छे के,न किं कुर्यान्न किं दद्यात्स्त्रीभिरभ्यर्थितो नरः । अनश्वा यत्र हेषन्ते शिरोऽपर्वणि मुंडितम् ॥ १॥ अर्थ-" स्त्रीए प्रार्थना करेलो पुरुष शुं न करे ? अने शुं न आपे ? स्त्रीने वश थयेल पुरुष गधेडो थइने हेपारव करे छे ( हणहणे छे, अने पर्व विना पण शिरमुंडन करावे छे." __आ श्लोक संबंधी कथा भोजप्रबंधमां छे, तेनो सार ए छे केभोजराजा तथा कालीदास कवि ए बन्ने एकज वेश्याउपर आसक्त हता. एक दिवस भोजराजाए देश्याने कह्यु के-" ज्यारे काळीदास तारी पासे आये, त्यारे तारे तेने कहेवु के-तमे दाढी मूछ मुंडावीने मारी साथे विलास करो." वेश्याए काळीदासने तेम करवा कहां, त्यारे काळीदासे तेज प्रमाणे कर्यु. पछी "आ काम भोजराजानुं छे" एम जाणीने काळीदासे ते वेश्याने कमु के-"ज्यारे भोजराजा आवे,त्यारे तारे तेने कहेवू के-“हुं तमारी उपर स्वारी करु,अने तमे गधेडानी जेम मारा घरमा भमता भमता हेषारव (घोडानी जेवो शब्द) करो, तो हुँ समारो संग करुं,नहींतो नहीं करूं."ते सांभळीने वेश्याए ते वात कबूल करी. त्यार पछी भोजराजा आव्यो, त्यारे तेणीए तेने कयु एटले तेणे १ पर्व पटले ग्रहण घिरे योग. ते दिवसे तीर्थ स्थाने दाढी मूसहित मुंडन कराववानो विधि लौकिक शासमां के .. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४७) ते प्रमाणे कयु. पछी बीजे दिवसे राजसभामां काळीदास माग्यो, त्यारे भोजराजाए कयु के-" कालिदास कविश्रेष्ठ ! कस्मिन् पर्वणि मुंडनम् (हे उत्तम कवि कालीदास ! कया पर्वमा तमे आ मुंडन कराव्यु ? )" ते सांभळीने काळीदासे कह्यु के-"अनश्वा यत्र हेषन्ते तस्मिन् पर्वाण मुंडनम्-जे पर्वमा गधेडा हेषारव करे छे, ते पर्वमों में मुंडन कराव्युं छे." इत्यादि. प्रातःकाळे चेलणा राणीए आम्रवृक्षपरथी फळ चुटायेला जोइने राजाने जणाव्युं. त्यारे राजाए अभयकुमार मंत्रीने दोलावीने कयु के"जेनी आवी शक्ति छे, ते अंतःपुरमा पण उपद्रव करी शके, माटे सात दिवसमा आ आम्रफळना चोरने प्रगट करजे (हाजर करजे); नहीं तो चोरना जेवो तारो दंड करवामां आवशे." ते सांभळीने अभयकुमारे राजानी आज्ञा स्वीकारी चोरनी शोध करवा मांडी. छेल्ले दिवसे कोइ ठेकाणे पौरलोकोनो मोटो समुदाय एकठो थयो हतो, त्यां अभयकुमारे पोतानी बुद्धिथी 'बृहत्कुमारीनी' कथा कहीने ते चोरने प्रगट कर्यो. ते कथा आप्रमाणे: बृहत्कुमारीनी कथा. वसंतपुरमां निर्धन "जीर्ण" शेठने "बृहदकुमारी " नामनी अत्यंत स्वरूपवाळी पुत्री हती. ते कुमारी हमेशा कामदेवनी पूजा करवा माटे उद्यानमाथी पुष्पोनी चोरी करती हती तेणीने एक दि. वसे माळीए पुष्प चोरतां जोइ पकडी. अने तेणीना स्वरूपथी मोह पामेला ते ज्यानपाळे भोगमाटे तेणीनी प्रार्थना करी. त्यारे ते बोली Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४८) के-"हुँ कुमारी छु, तेथी स्पर्श करवालायक नथी. कहुं छे के" रजस्वला, समान गोत्रवाळी, पोतानी जातथी उंची जातवाळी, पव्रज्या ( दीक्षा) लीधेली, तथा मित्र, राजा अने गुरुनी स्त्री-ए आठ स्त्रीओ गमन ( स्पर्श ) करवालायक नथी." त्यारे उद्यानपाळ बोल्यो के-" तुं जे वखते परणे तेज दिवसे प्रथम मारी पासे तारे आवq." कुमारीए ते वात स्वीकारी अने पोताने घेर गइ. पछी अ. नुक्रमे केटलेक काळे ते कुमारी परणी. रात्रे तेणीए पोतानी प्रतिज्ञा पोताना पतिने कही,त्यारे पतिए तेणीने सत्यवक्ता जाणी माळी पासे जवानी रजा आपी, एटले ते सुवर्ण अने रत्नना अलंकारो धारण करीने उद्यानपाळ पासे जवा चाली. मार्गमां चोरोए तेणीने रोकी. तेमनी पासे सत्य वात जाहेर करी अने “ पाछी वळतां तमे लुंटी लेजो" एम को, त्यारे तेओए तेणीने सत्य प्रतिज्ञावाळी जाणी तथा "पाछी आवशे त्यारे लुंटीशुं" एम धारी तेणीने रजा आपी. आगळ जतां क्षुधाथी कुश थयेला राक्षसे तेणीने रोकी. त्यां पण तेज रीते तेणीए सत्य वात कही एटले तेणे तेणीने छोडी दीधी. अने “पाछी आवशे त्यारे खाइ जइश" एम धारीने त्यांज बेठो. पछी ते स्त्री माळी पासे गइ. माळीए आश्चर्य पामीने तेणीने मातानी जेम नमस्कार करी मुक्त करी. पाछी वळतां राक्षसे अने चोरोए पण तेणीने छोडी दीधी. घेर आवी पतिनी पासे सर्व हकीकत सत्य रीते कही बतावी, थी पतिनी विशेषे मानीती थइ. आ प्रमाणे कथा कहीने अभयकुमारे सर्व माणसोने पूछयु के Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४९) " हे लोको ! आ चारमांना कोणे दुष्कर कार्य कर्यु कहेवाय ?" त्यारे केटलाक इयाळु पुरुषोए पतिने दुष्करकारी कह्यो, केटलाक क्षुधातुरोए राक्षसने दुष्करकारी कह्यो, जार पुरुषोए माळीने दुष्करकारी कह्यो, अने पेला आम्रफळ चोरनारा मातंगे चोरने दुष्करकारी कह्यो. तरतज अभयकुमारे तेने पकडयो अने पूछगुं, एटळे तेण सत्यवात कही दीधी. पछी अभयकुमार तेने राजानी पासे लइ गया. राजाए क्रोधथी तेनो वध करवानो हुकम कर्यो, त्यारे अभय कुमारे कयुं के "हे स्वामी ! आनी पासे बे अपूर्व विद्याओ छे ते तो तमे ग्रहण करो, पछी जेम योग्य लागे तेम करजो. कहुं छे केबालादपि हितं ग्राह्यममेध्यादपि काञ्चनम् । नीचादप्युत्तमा विद्यां स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि ॥१॥ ____ अर्थ-बाळक पासेथी पण हित वचन ग्रहण करवं, अपवित्र वस्तुमाथी पण सुवर्णने ग्रहण करवू, नीच माणस पासेथी पण विद्या शीखी लेबी, अने नीच कुळमाथी पण स्त्री रत्न लेवु." ते सांभळीने राजा सिंहासनपर बेठा बेठा मातंगने पोतानी सन्मुख नीचे बसाडीने तेनी पासेथी उन्नापिनी अने अवनामिनी नामनी विद्या शीखवा लाग्या. परंतु धणीवार गोखतां छतां पण हृदयमां जरा पण ते विद्या आरढ थइ नहीं, त्यारे श्रेणिक राजा तेनापर क्रोधायमान थया अने " अरे ! मारी साथे पण तुं कपट राखे छ" एम कहाँने तेनो तिरस्कार करवा लाग्या. ते वखते अभयकुमार रा. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५०) जाने कहां के - "हे देव ! विनयाविना विद्या फळीभूत थती नथी, माटे एने सिंहासनपर बेसाडीने आप हाथ जोडीने नीचे पृथ्वीपर बेसो. " ते सांभळीने राजाए पण “ प्रथम पोताना आत्माने विनयमां जोडवो जोइए, अने पछी विद्या शीखाय छे. कारण के जळथी लताभी जेम विनयथज विद्या वृद्धि पामे छे. " आ प्रमाणे नीतिशास्रनुं वचन संभारीने पोते विद्याना अर्थी होवाथी ते प्रमाणे कर्यु. एटले तरत ज ते बन्ने विद्याओ हृदयमां जाणे कोतराइ गइ होय तेम स्थिर थइ. पछी विद्यागुरु थवाथी ते चोरने राजाए मुक्त कर्यो, अने तेनो सत्कार कर्यो. माटे विनयपूर्वक ज श्रुतज्ञाननो अभ्यास करवो. ॥ इति द्वितीयो विनयाचारः ॥ :0: त्रीजा बहुमानाचार विषे. श्रुतज्ञानना अर्थी गुरुने विषे बहुमान धराव. बहुमान एटले अंतःकरणनी प्रीति. बहुमान होय तो ज गुरु विगेरेनी एकांतपणे छंदोनुवृत्ति - तेमनी इच्छानुसार वर्तणुक, तेमना गुणनुं ग्रहण, दोषं आच्छादन अने तेमना अभ्युदयनुं चितवन विगेरे थइ शके छे. गुर्वादिकने थोडुं पण दुःख होय, तो पोताना मनमां अत्यंत दुःख थाय छे, अने तेना अभ्युदयमां पोते अत्यंत हर्ष पामे छे, पहेलां जे विनयनुं स्वरूप कां ते ( विनय ) तो बाह्य उपचारथी भक्तिरुपे दृश्यमान थाय छे. तेवो विनय छतां पण बहुमान तो होय अथवा न पण होय. बहुमान विना घणा विनयथी पण शुं ? कारण के जीव बिना एकला देहथी शुं ? द्रव्य विना एकला घरथी शुं ? नाक विनाना मुख Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५१) वडे शुं ? दान विनाना फोगट मानवडे शुं ? गंधरहित पुष्पे करीने शुं ? रंग विनाना कुंकुमे करीने शुं ? जळरहित सरोवरे करीने शुं ! दान विनाना हस्ते करीने शुं ? मूर्ति विनाना देरासरे करीने शुं? तथा मध्य मणि विनाना हारे करीने शुं ? कांइ पण नहीं. तेथी वि. नय करतां बहुमाननुं अधिक प्राधान्य कहेलुं छे. अने तेटला ज माटे विनयाचारथी बहुमानाचारने जूदो कह्यो छे. श्रुतज्ञानना अर्थीए आ बन्ने आचारनो आश्रय करवो जोइए. ते विषे आगममां कयु छ के" श्रुतज्ञानना अर्थीए निद्रा अने विकथानो त्याग करीने, त्रण गुप्तिवडे गुप्त थइने, अने बे हाथ जोडीने भक्ति-बहुमानपूर्वक उपयोग राखी श्रुतनुं श्रवण करवू, उंचा प्रकारना विनयथी, हाथ जोडवाथी तथा गुरुनी इच्छानुसार वर्तन करवाथी आराधन करेला गुरुजन विविध प्रकारना श्रुतने तत्काळ आपे छे." विनय अने बहुमान ए बन्नेना चार भांगा थाय डे-कोइने गुरु प्रत्ये विनय होय छे, पण बहुमान होतुं नथी. श्रीनेमिजिन प्रत्ये कृष्ण वासुदेवना " पाळक" नामना पुत्रनी जेम १. कोइने गुरु प्रत्ये बहुमान होय छे, पण विनय होतो नथी. शांबकुमारनी जेम २. महावीर स्वामी प्रत्ये श्रीगौतमनी जेम कोइने ते बन्ने होय छे ३. अने कपिलादासी अने कालशौकरिक कसाइ विगेरेनी जेम कोइने बेमाथी एक पण होता नथी ४. बहुमान विना एकला घणा विनयथी पण ग्रहण करेली विद्या फळदायक थती नथी, अने बहुमान करवायी थोडा विनयवडे पण Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५२) फळदायक थाय छे. ते विष गौतमपृच्छामा कह्यु छे के-"जे माणस मिथ्या विनयवडे विद्या अथवा ज्ञानने ग्रहण करीने गुरुनी अवगणना करे छे, ते माणसनी विद्या तथा ज्ञान निष्फळ थाय छे. तथा विनयसहित अने गुण करीने युक्त एवो जे माणस गुरुनी पासे बहुमानपूर्वक विद्या ग्रहण करे छ, तेनी ते विद्या सत्वर सफळ थाय छे." बहुमान उपर बे निमित्तियानी कथा. कोइ एक सिद्धपुत्रनी पासे बे शिष्यो अभ्यास करता हता. बन्ने जणा विनय तथा भक्ति विगरे बराबर करता हता. परंतु ते बन्नेमांथी एकने गुरुने विषे बहुमान हतुं, अने बीजाने तेवू नहोतुं. ते बने अनुक्रमे अष्टांग निमित्त शीखीने हुंशीयार थया. एकदा ते बन्ने घास अने काष्ठ लेवा माटे वनमां गया. मार्गमां पगला जोइने एके कयु के" आगळ हाथी जाय छे. " त्यारे बीजो वोल्यो के-" हाथी जतो नथी, पण हाथणी जाय छे. ते पण डाबी आंखे काणी छे, तेनापर एक स्त्री अने एक पुरुष बेठेला छे, तेमां जे स्त्री छे ते गर्भिणी अने तरत प्रसववाना समयवाळी छे, तेणीए रातुं वस्त्र पहेरेलुं छे, तथा ते थोडी मुदतमां ज पुत्रने प्रसवशे." ते सांभळीने बीजो बोल्यो के-" हे भाइ ! केम आम दीठा-भाळ्या विना संबंधविनानुं बोले छे?" त्यारे ते बोल्यो के-" जे ज्ञान छे ते प्रतीति (खात्री) ना सारवाळु ज होय छे, तेथी मारी कहेली सर्व हकीकत आगळ जणाशे." पछी ते बन्ने केटलीक पृथ्वी आगळ गया, तेटलामा तेमणे ते ज प्रमाणे सर्व जोयु. तथा ते स्त्रीने प्रसवनो समय थयेलो होवाथी त्यां एक Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेलामओनी झुपडी करी हती अने तेमां ते स्त्री रहेली हती. तेथी सर्व वात तत्काळ मळती आवी. पछी ते बन्ने त्यो क्षणवार रह्या, तेटलामा तेणीए पुत्र प्रसव्यो, ते सर्व जोइने बीजो " आणे आ सर्व शी रीते जाण्यु ?" एम विचारीने आश्चर्य पाम्यो, तथा “ में कांड पण जाण्यु नहीं" एम विचारीने खेद पाम्यो. त्यांथी ते बन्ने चालता चालतां न. दीने किनारे गया. ते वखते एक वृद्ध स्त्री पाणी भरवा त्यां आवी. तेणीनो पुत्र परदेश गयो हतो. घणा दिवस थया छतां घेर आव्यो न होतो तेथी तेणीए ते बनेने पूछयु के-" मारो पुत्र क्यारे आवशे ?" आ प्रमाणे पूछतांज तेणीना मस्तकपरथी माटीनो घडो पडी गयो, अने भांगी गयो. ते वखते मंदबुद्धिवाळाए तेणीने कर्जा के-" कोइ प्रश्न पूछे तेज वखते जे कार्य नीपजे ते प्रश्ननो उत्तर थयो एम जाणवू, अथवा ते वखते जेवू कार्य थयुं होय तेना जेवो ज उत्तर थयो जाणवो, अथवा ते वखते जे रूपे कार्य थयु होय ते रूपेतेनो उत्तर जाणवो. ए प्रमाणे सदृशपणावडे सदृश उत्तर जाणवो; आ प्रमाणे निमित्तशास्त्रमा कहलुं छे, तेथी हे वृद्धा ! तारो पुत्र मृत्यु पाम्यो छ, एम जणाय छे." ते सांभळीने बीजो बुद्धिमान बोल्यो के.-“हे भाइ ! एम न बोल. तेणीनो पुत्र घेर ज आव्यो छे." एम कहीने तेणे वृद्धाने कह्यु के-" हे वृद्धा ! तुं तारे घेर जलदी जा. तारो पुत्र घेर आची गयो छे. खोटी शंकामां पडीश नहीं." ते सांभळीने ते वृद्धा हर्ष पामीने तरत ज पोताने घेर गइ, तो त्यां पोतानो पुत्र आवेलो हतो तेने जोयो, अने मा तथा पुत्र स्नेहथी मळ्या. पछी ते बन्ने शिष्योजेटलामां गुरु पासे आव्या तेटलामा घणुं धन तथा धोतीयानो जोटो लइने Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५४ ) वृद्धा पण त्यां आवी, अने सत्य निमित्त कहेनारनो सत्कार कर्यो. जोने पेलो मंद बुद्धिवाळो शिष्य गुरुपर क्रोध करीने बोल्यो के" निरुपप ज्ञानवाळा अने सर्व जाणनारा आप जेवा गुरु पण विनयवंत एवा पोताना सरखा शिष्योमां पण जो आ प्रमाणे विद्या आपवामां अंतर राखे तो ते कोनी पासे कहें ? अने शुं कहे ? कोनी पासे आ उपालंभ आपको ? जो चंद्रमांथी पण अंगारानी दृष्टि थाय, सूर्यथकी पण अंधकारनी उत्पत्ति थाय, कल्पवृक्षथकी पण दारिद्र्यनी प्राप्ति थाय, चंदनवृक्षथी पण दुर्गंध नीकळे, अमृतथकी पण विषनो आवेश प्राप्त थाय, सज्जनथकी पण दुर्जनतानुं अधिकपशुं जणाय, सारा वैद्यथी पण उलटी व्याधिनी उत्पत्ति थाय अने जळकी पण जो अग्नि नीपजे तो तेमां कोने दोष देवो ? " ते सांभळीने गुरु बोल्या के - "हे शिष्य ! तुं शा माटे आम बोले छे ? में तने अने आने विद्या आपवामां अने शास्त्र शीखववामां कोइ वखत भेद राख्यो नथी. " पेलो शिष्य बोल्यो के-" त्यारे आणे मार्गमां हाथणी विगेरेनुं वृत्तांत शी रीते जाण्युं ? अने में केम न जाण्युं ? " गुरुए साचुं जाणी शकेला शिष्यने पूछयुं के - " हे सारी बुद्धिवाळा ! तें ते सर्व वृत्तांत शी रीते जाण्युं ?" त्यारे ते बोल्यो के-" हे गुरुजी ! आपना प्रसादथी तथा ते ते प्रकारनी निशानीओ जोवाथी में जाण्युं. ते आवी रीते के मार्गमां हाथणी मूतरेली हती, तेना रेला हाथी करतां जूदा आकारना होय छे तेथी में हाथणी जाय छे एम जाण्युं. मार्गमां मात्र दक्षिण (जमणी ) बाजुए ज कोइ कोइ ठेकाणे सूंढवडे घास लइ लइने तेणीए Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५५) भक्षण कर्यु हतुं, तेथी डाबी आंखे काणी छे, एम जाण्यु. मार्गमा उपर बेठेला स्त्री पुरुषे नीचे उतरीने कायिकी ( लघुशंका) करी हती, ते परथी तेनापर स्त्रीपुरुष बेठा छे, एम जाण्यु. जे स्त्री हती तेणे कायिकी करीने उठता बन्ने हाथे पृथ्वीपर थोभो (टेको) दीधो हतो, तेथी ते तरत प्रसववावाळी छे एम जाण्यु. कांटावाळानाना झाड उपर वस्त्रनो छेडो भरायो हशे, तेना राता तांतणा त्यां वळगेला हता, ते परथी ते स्त्रीए रातुं वस्त्र पहेर्यु छ एम जाण्यु. मार्गमां थोडीवार चाली हती, तेमां जमणा पगर्नु पगलं रेतीमां वधारे खुंची गयुं हतुं, ते परथी तेना गर्भमां पुत्र छ एटले पुत्रने प्रसवशे एम जाण्यु. वृद्धा स्त्रीनो पुत्र घेर आव्यो, ए वात में ए परथी जाणी के-जेम घडो पडीने फूटी गयो, ते पृथ्वी ( माटी )माथी उत्पन्न थयो अने पृथ्वीनी साथे मळी गयो, तेम आनो पुत्र पण आ वृद्धाथी उत्पन्न थयेलो छे, ते तेणीने मळवो जोइए, एम धारीने में घेर आब्यानुं कहां." ते सांभळीने तेनी अत्यंत तीक्ष्ण बुद्धिथी हर्ष पामेला गुरुए बीजा शिष्यने कह्यु के-" हे वत्स ! तुं मारे विषे विविध प्रकारनो विनय करतां छतां पण तारुं तेवा प्रकारचें मारा विषे बहुमान नथी, अने आ तो मारा प्रत्ये अत्यंत बहुमान धरावे छे, तेमज तेनी विनयवाळी बुद्धि छे, माटेसारी रीतना बहुमानयुक्त विनय होय, तो ज विद्या फळदायक थाय छे. तेथी आ बाबतमा मारो काइ पण दोष नयी." आ प्रमाणे घणो विनय छतां पण बहुमानवाळाने फळनी सिद्धि थइ अने बहुमान रहितने फळनी आसिद्धि थइ एम समजवु. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५६) हवे विनय थोडो छता पण बहुमाने करीने फळनी प्राप्ति थाय छे, तेपर दृष्टांत कहे छे. कोइ एक पर्वतमाथी पाणीना झरणा वहेता हता. ते ठेकाणे एक शिवनी मूर्ति प्रत्यक्ष प्रभाववाळी हती. तेनी कोइ एक ब्राह्मण हमेशां शुद्ध थइने चंदन पुष्पादिकवडे बहु भक्तिपूर्वक पूजा करतो हतो. अने एक भिल्ल एक हाथमां धनुष अने बाण राखीने, एक हाथमां बिलिपत्र लइने तथा मुखमां पाणी भरीने तेनी पूजा करवा आवतो. ते प्रथम करेली ब्राह्मणनी पूजाने पगवडे काढी नांखी. ने कोइ प्रकारनी बीजी पूजानी सामग्री विना मात्र मुखमां भरेला पाणीना कोगळावडे ते मूर्तिने नवरात्री तेनापर बिलिपत्र चडावतो,परंतु ते अंतःकरणना बहुमानथी पूजा करतो हतो. मूर्खपणाने लीधे योग्य प्रकारनो विनय करवानुं तेने ज्ञान नहोतुं. तोपण केवळ बहुमानथीज प्रसन्न थयेला शिव तेनी साथे हमेशां कुशळ प्रश्नादिक वार्ता करता हता. एक दिवस ते वृत्तांत पेला ब्राह्मणना जाणवामां आव्यु, त्यारे तेणे क्रोधथी शिवने उपालंभ दीधो के-" हे शिव ! तुं पण ते भिल्ल जेको ज जणाय छे. " त्यारे शिवे तेने को के-" ए भिल्ल मारापर अत्यंत अनुरागी छे तेनी तने काले सबारे खात्री थशे." ते सांभळीने ब्राह्मण तेनी अवगणना करीने घेर गयो. बीजे दिवसे प्रात:काळे शिव पोतानुं एक नेत्र काढी नाख्यु. थोडीवारे ब्राह्मण पूजा करा आव्यो, ते ते प्रमाणे जोइने कांइक खेद करीने उभो रह्यो. एटलामा पेलो भिल्ल आव्यो. तेणे पण शिवनुं एक नेत्र जोयुं नहीं. तेथी ते घणो ज खेद करवा लाग्यो, अने तरत ज भालावडे पोतार्नु Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५७) नेत्र काढीने ते शिवने अर्पण कयु. ते वखते शिवे प्रसन्न थइने तेने तेनु नेत्र पार्छ आप्यु, अने राज्य आप्यु. ___आ परथी एम समजवान छ के हृदयना बहुमानथी ज गुरु तथा देवो तुष्टमान थाय छे. जिनस्तुतिमा पण कछु छ के- हे प्रभु ! तमे आ आंखोवडे देखाता नथी, तथा महा पूजावडे पण आरापा कराता नथी, परंतु घणा भक्तिरागे करीने तथा आज्ञानुं पालन करवाबडे करीने ज प्रसन्न थाओ छो." ते भिल्लनु बहुमान जोइने ब्राह्मण चित्तमा चमत्कार पाम्यो. आ प्रमाणे बहुमान अने अबहुमाननुं फळ जाणीने विवेकी पुरुषे गुवोदिकनुं सारी रीते बहुमान करवामां यत्न करवो. ॥ इति तृतीयो बहुमानाचारः ॥ चोथा उपधानाचार विषे. श्रुतज्ञानना अर्थीए विधिप्रमाणे उपधान वहन करवा जोइए. तेषां उप' एटले समीपे, ' अधीयते ' एटले सूत्रादिक भणाय." ए शब्दार्थवड उपधान एटले श्रुतना आराधन माटे अमुक प्रकारनी शास्त्रविहित तपस्या विशेष. तेमा साधुओने आवश्यक विगेरे श्रुनना आराधनमाटे आगाढ अन अनागाढ योगरूप सिद्धान्तने अनुमारे पोतपोतानी सामाचारी प्रमाणे क्रिया जाणी. अने श्रावकोने माटे तो पंच परमेष्टि नमस्कार विगरे सूत्रना आराधन माटे श्री महानिशीय सूत्रमा कहेला छ उपधान प्रसिद्ध छे ते जागवा. जेम साधु पोने Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५८ ) योगनुं बहन कर्या विना सिद्धांतनुं वांचवं भणवं शुद्ध थतुं नथी, तेम उपधान तप कर्या विना श्रावकोने पण नमस्कार ( नवकार ) आदि सूत्रनुं भवं गणवं शुद्ध यतुं नथी. महानिशीथ सूत्रमां अकाल, अविनय, अबहुमान, अनुपधान विगेरे आठ प्रकारना ज्ञानकुशलमां अनुपधान नामना कुशलने घणा दोषवाळो को छे. तेमां आ प्रमाणेना अर्थवाळो आलावो छे- "हे गौतम ! आ आठ प्रकारना ज्ञानकुशीलमां जे कोइ माणस अनुपधाने करीने ( उपधान कर्या विना ) प्रशस्त ज्ञाननो अभ्यास करे अथवा करावे अथवा अभ्यास करता करावतानी अनुमोदना करे, तेमने महा पाप कर्मवाळा जाणवा. केमके तेओ प्रशस्त ज्ञाननी मोटी आशातना करे छे, एम जाणवुं. " गौतम गणधर पूछे छे - "हे भगवान् ! जो एम छे तो पंचमंगल ( नवकार) नुं उपधान शी रीते कराववुं ?" भगवान् जवाब आपे छे " - हे गौतम! प्रथम ज्ञान अने पछी दया. अने दयावडे सर्वे जगत्ना जीवोना प्राणरूप सत्त्वाने पोताना समान जोवा, ते दया विगेरे सर्वे ज्ञानथी ज प्रवर्ते छे. हे गौतम! जे विधिवडे पंचमंगळनुं उपधान कराववुं योग्य छे ते आ प्रमाणे- सारां एवां तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र, योग अने लग्न होय तथा चंद्रनुं बळ होय त्यारे जात्यादिक आठे मदनो त्याग करीने, तथा अत्यंत तीव्र श्रद्धा अने संवेग उत्पन्न थवाथी उल्लास पामता महा शुभ अध्यवसायने अनुसारे भक्ति अने बहुमानपूर्वक, तथा निदान ( नियाणा ) रहित, द्वादश भक्त (पांच उपवास) करीने, चैत्यालयमां जंतुरहित प्रदेशने विषे जइने नवा न Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५९ ) वा संवेगवडे उछळता अने अत्यंत गाढ, अचिंत्य तथा परम शुभ परिणाम उत्पन्न थवाथी उल्लास पामता दृढ अंतःकरणवाळा श्रावके पांचअध्ययन अने एक चूलाए करीने सहित तथा श्रेष्ठ एवा प्रवचन देवताए अधिष्ठित पंचमंगल रुप महा श्रुतस्कंधनुं पहेलुं अध्ययन के जे त्रण पदे करीने व्याप्त, एक आलावावाळु, सात अक्षरथी बनेलं, अनंत गम, पर्याय अने अर्थने साधनारुं तथा सर्वे महामंत्री अने प्रवर (उत्तम) विद्याओनां परम बीजरूप छे, ते (नमो अरिहंताणरूप) पहेलुं अध्ययन भणवं. ते दिवसे आचाम्ले ( आंबेळे ) करीने पारणं करवुं. ते ज प्रमाणे बीजे दीवसे बे पदे करीने व्याप्त, एक आलावावाळु अने पांच अक्षरवाळु 'नमो सिद्धाणं' बीजुं अध्ययन आचाम्ल करीने भणवु.. एज प्रमाणे पांच दिवस करीने पांच अध्ययन आचाम्ल करीने भणवा. पछी त्रण आलावावाळी अने तेत्रीश अक्षरवाळी " एसो पंच नमुक्कारो इत्यादि " चूलाने छठे सातमे अने आठमे दिवसे दररोज आचाम्ळ करीने भणवी, पछी अहमभक्त (त्रण उपवास ) करीने अनुज्ञा लइने आखो मंत्र अवधारवो. त्यार पछी इर्यापथिक सूत्र ( इरियावही ) भणवुं गौतम गणघर पूछे छे - "हे भगवान् ! ते इर्यापथिक सूत्र कइ विधिए भणवं ? " भगवान् जवाब आपे छे - " हे गौतम ! पंचमंगल महाश्रुतस्कंधनी ज जेम तेटलाज तपवडे इर्यापथिक सूत्र भणवुं. २ शक्रस्तव ( नमुथ्थुणं ) एक अहम अने बत्रीश आंबिलवडे भणवु. ३ अर्हतुस्तव (चैत्यस्तव - अरिहंतचे आणं ) एक उपवास अने त्रण आंबिलवडे भणवु. ४ चतु Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६०) विशति स्तव (लोगस्स) एक छठ, एक उपवास अने पचवीश आबिलवडे भगवं. ५ तथा ज्ञानस्तव (श्रुतस्तव ने सिद्धस्तव ) एक उपवास अने पांच आंबिळवडे भणं. ६" इस्यादि.* ___ उपर प्रमाणे उपधाननुं बहन कर्या पछी उत्तम एवं तिथि, करण, मुहूर्त, नक्षत्र, योग, लग्न अने चंद्रनुं बळ होय त्यारे शक्ति अनुसार जगदगुरु श्रीजिनेश्वरनी पूजा करीने तथा मुनिवर्गने प्रतिलाभीने गुरुसहित साधु, साध्वी, सा(मक अने बंधुवर्गने साये लइने वाजते गाजते प्रथम गामना चैत्योने वंदना करवी. त्यार पछी गुणवान् साधुओर्नु तथा साधर्मिक जनोनु पोतानी शक्तिममाणे प्रणाम विगेरे करवायी तथा सूक्ष्म, बहु मूल्यवाळां, कोमळ अने उज्वळ वस्त्र विगेरेयी महा सन्मान करवु. पछी गुरुए धर्मदेशना आपवी. पछी अत्यंत श्रदा अने संवेगवान् ते श्रावकने यावजीवनो अभिग्रह आपवो के “तारे आजथा आरंभीने जीवन पर्यंत त्रणे काळ दररोज चैत्यवंदना करवी (दर्शन पूजा करवी) विगेरे." पछी मंत्रेली गंध मुष्टिओ सातवार तेना मस्तकपर 'निथारगो भविजासी' 'तुं निस्तारक था' (संस.र ममुद्रनो पार पाम ) एम बोलतां गुरुए नाखवी. पछी चतुविध संघ पण तेना मस्तकपर गंध मुष्टिओ नांखवी त्यारपछी गुरुए जगद्गुरु श्रीजिनेश्वानी करेली पूजाना एक भागपाथी सुगंधवाळी, * आमां पेहेलु, बीजूं, चोथु ने छठं उपधान एक साथे वहन करवामां जावे छे, अने त्रीजुं ने पांव उपधान त्यार पछी जुदुं जुएं पण वहन करी शकाय छे. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं करमायेली अने उज्वळ ( श्वेत ) एवी पुष्पनी माळा ग्रहण करीने पोताना हाथवती तेना बन्ने खभापर आवी जाय तेम नाखवी, अने नाखतां नाखतां गुरुए तेना उपबृंहणादिक बोलवा. गौतमस्वामी पूछे छे “हे भगवान् ! ते उपबृंहणा शुं ?" भगवान् कहें छ-" हे गौतम ! पांच मंगळनी जेम सामायिक विगेरे समग्र श्रुतज्ञान तेने भणावq, अने ते विनय उपधानवडे भणाव. विशेष एटलु केभणवा इच्छनार श्रावकोए आठ प्रकारनो काळादिक ज्ञानाचार प्रयत्नपूर्वक पाळवो. न पाळे तो मोटी आशातना लागे. वळी द्वादशांग श्रुतज्ञान भणवा भणाववानो काळ रात्रि अने दिवसना प्रथम अने छेल्ला प्रहरनो छे, पण पंचमंगळ भणवा भणाववानो काळ तो आठे प्रहरनो छे. तथा पंचमंगळ ( नवकार ) सामायिक ली, होय अथवा न लीधुं होय तोपण भणाय छे, परंतु सामायिकादिक श्रुत तो आरंभ अने परिग्रहना त्यागपूर्वक यावज्जीव सामायिक उचरेठे होय तेनाथीज ( साधुथीज ) भणी शकाय छे, पण आरंभ अने परिग्रहधारी तथा जेणे सामायिक लीधुं नथी एवा श्रावकने भणवा योग्य नथी. पांच महा मंगळने आलावे आलावे ( दरेक आलावे ) आंबिल करवू, तथा शक्रस्तवादिकने विषे पण आंबिल कर. तेमज द्वादशांग श्रुतज्ञानना उद्देशना अध्ययनने विषे पण एज प्रमाणे आंबिल करवं. गौतमस्वामी पूछे छे “ हे भगवान् ! पंचमंगल महाश्रुतस्कंधन आ विनयोपधान आपे अत्यंत दुष्कर वह्यु. तेथी आ मोटी नियंत्रणा . १ हालमा रेशमनी गुंथेली माळा पहेराववामां आवे छे. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) - बाळ जीवोथी शी रीते बने !" भगवान् जवाब आपे छे के " हे गौतम ! जे कोइ माणस आ नियंत्रणाने न इच्छे एटले न करे, अने विनयोपधान कर्या विनाज पंचमंगलादिक श्रुनज्ञान भणे, अथवा भणावे, अथवा तेनी अनुमोदना करे, तेओ परस्पर एक बीजाने पापमा नांखे छे; तेमने धर्मनी प्रीतिवाळा कहेवा नहीं, तेओ गुरुनी आशातना करनारा जाणवा, तथा अतीत, अनागत अने वर्तमान तीर्थकरोनी अने श्रुतज्ञाननी आशातना करनारा जाणवा, तथा ते अनंत संसारसागरमा भ्रमण करे छे. केमके आ विनयोपधाननी चिरकाळनी नियंत्रणा छे. वळी हे गौतम! जे कोइ आ विधिप्रमाणे करे, जरा पण अतिचार लगाडे नहीं, अने यथोक्त विधान प्रमाणेज पंचमंगलादिक श्रुतज्ञाननुं विनयोपधान करे ते सूत्रनी हीलना करनारो नथी, तथा वारंवार भवमां भ्रमण करवारूप गर्भवासादिक अनेक कारनां दुःखोने पामतो नथी. अहीं विशेष एटयुं छे के - हे गौतम! जेओ बाळक छे तथा पुण्य पापने पण नहीं जाणनारा छे, तेओ पंचमंगल भणाववाने सर्वथा अयोग्य छे. तेओने पंचमंगल महाश्रुतस्कंधनो एक पण आलावो आपको ( शीखववो ) नहीं. केमके अनादिकाळ भवभ्रमण करवाथी उपार्जन करेलां अशुभ कर्मराशिने दहन करवा समर्थ एवा आ पंचमंगळने पामीने बाळजनो तेनुं सारी रीते आराधन करी शके नहीं, अने उलटा ते पंचमंगळने लघुता पमाडे. तेथी तेवा लोकोने केवळ धर्मकथा कहीनेज भक्तिवाळा करवा. पछी ज्यारे धर्मनी श्रद्धावाळा, दृढ धर्मवाळा तथा भक्तियुक्त थाय त्यारे आ प्रत्याख्या Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ननो निर्वाह करवामां ते समर्थ थाय अने ते प्रमाणे थयेल छे एम जाण्या पछी ज तेने आ विनयोपधान कराव. पछी उपधान वहन करनारने रात्रिभोजननु पण बे प्रकारे, प्रण प्रकारे, के चार प्रकारे ( दुविहार, तिविहार के चौविहारनी रीते) जेनी जेवी शक्ति होय ते प्रमाणे तेने प्रत्याख्यान करावQ. वळी हे गौतम ! पीस्तालीश नवकारशीवडे एक उपवास थाय छे. तथा चोवीश पोरसीवडे, बार पुरिमट्ठवडे, दश अपार्ध (अवठ्ठ) वडे, त्रण नीवी बडे, चार एकलठाणावडे, बे आंबीलवडे अने एक शुद्ध आंबीलवडे एक उपवास थाय छे. ( सांसारिक रौद्र ध्यान अने विकथा रहित तथा स्वाध्यायमां एकाग्र चित्तवाळानुं एक आंबील मासक्षपणथी पण वधी जाय छे. ) तेथी करीने ते प्रकारे अने ते रीते उपधानसंबंधी तप करे, पछी एनी गणत्री करीने ज्यारे एम जणाय के " हवे आटला तप उपधानथी ए पंचमंगळ भगवाने योग्य थयो छ " त्यारे गुरुर तेने भणाववो, अन्यथा भणावतो नहीं." ___ गौतम स्वामी प्रश्न करे छे के-" हे भगवान् ! घणा काळ सुधीनी आ क्रिया करतां जो कदाच वच्चे ज ते मृत्यु पामे, तो नमस्कार रहित ते शी रीते मुक्तिमार्ग साधी शके ?" भगवान् कहे छे के-“हे गौतम ! जे समययी तेणे सूत्रना आराधन निमित्ते अशठ भावी पोतानी शक्तिप्रमाणे यत्किंचित ( थोडो) पण आरंभ कयों छे, तेज समयथी तेने सूत्र तथा अर्थने भणेको जाणतो, केमके ते (श्रावक) पंचनमस्कार सूत्रने, अर्थने तथा ते बन्नेने अविधिए ग्रहण करे नहीं. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६४) परंतु तेवी रीते ज ग्रहण कर के जेथी भवांतरमां पण ते नाश पामे नहीं. एवा शुभ अध्यवसायपणाने लीधे ते आराधकज थाय. " फरीथी गौतम स्वामी भगवानने पूछे छे के-“हे भगवान ! बीजाने भणता सांभळीने ज जेओने श्रुतज्ञानावरणना क्षयोपशमने लीधेपंचमंगळ (नवकार ] कंठे थइ जाय छे, तेमने पण शुं तप उपधान करावq ?" भगवान् कहे छे-" हा, तेने पण कराक्वं." गौतम स्वामी पूछे छे. " हे भगवान् ! तेने शामाटे उपधान करावयूँ ?" भगवान् कहे छे"हे गौतम ! सुलभबोधिपणानी प्राप्तिने निमित्ते तेने पण उपधान कराव. ए प्रमाणे नहीं करनाराने ज्ञानकुशीलीया जाणवा." - अहीं कोइ शंका करे के-श्री आवश्यक सूत्रमा नमस्कारने सामायिकना अंग तरीके कहुं छे, अने महानिशीथमां महा श्रुनस्कंध तरीके कयुं छे. ते बन्ने शी रीते घटे ! एनो जवाब ए छे के-जेम आव. श्यक सूत्रना पहेला अध्ययननी नियुक्तिमां जूतुं वतावेखें सामायिक पहलु अध्ययन कहेवाय छे, अने तेज (सामायिक) प्रतिक्रमण नामना चोथा अध्ययनमा तेना एक देश (एक भाग) पणे देखाय छे. ए ज प्रमाणे नमस्कार पण ज्यारे सामायिकना आरंभमां बोलाय त्यारे तेने जूदं श्रुतस्कंघ जाणवू, वळी महानिशीथ सूत्र बीजां श्रुत करतां वधारे विशिष्ट छ एम जणाय छे. केमके तेना अगाढ योग छ, अने तेमा पीस्तालशि आंबील एक साथे करवामां आवे छे. तेथी बीजा योगोना तप करतां तेना योगनो तप अति दुष्कर छे, माटे तेनुं उत्कृष्टपणुं सि. द्ध थाय छे. आ (उत्कृष्टपणाना) कारणने लीधे पण जेओ महानिशी Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) अने प्रमाणिक मानता नथी, तेओनी शी गति थशे ? ते अमे जाणी शकता नथी. (अर्थात् घणीज माठी गति थवी जोइए.) केमके श्रुतनो अपलाप करवो ए महा मोठं पाप छे. मूढ बुद्धिबाळाए “महानिशीथ नामनुं सूत्र श्रुत कहेवाय के नहीं, एवो संदेह रहे छे" एम कदी पण कहेवू नहीं. केमके नंदिसूत्र अने पाक्षिकसूत्र विगरेमा "निसीहं महानिसीहं " ए प्रमाणे प्रत्यक्ष कमु छे. ( तेथी ते श्रुत छ, एम सिद्ध थाय छे. ) वळी "नंदिसूत्रादिक पण श्रुत गणाय के नहीं ? " एवी शंका करवी नहीं. कारण के एम कहेवाथी श्री आचारांग अने औपपातिक ( उववाइ ) विगेरे सूत्रो के जे हालना समयमा वर्तमान छ, तेमनुं पण नंदिसूत्रादिकमां श्रुतपणुं कहेलुं छे तेथी तेमने पण श्रुतरहितपणानो प्रसंग आवशे, ते निवारण करी शकाशे नहीं. अने ए प्रमाणे समीक्षा ( विचार ) कर्या विना भाषण करवावडे आशातना करनारा पुरुषोने जिनादिक देवने विषे पण जेम तेम प्रलाप करवामां बांधो आवशे नहीं. ( अर्थात् तेमने कोइ अटकावे तेम नथी.) आ प्रमाणे महानिशीथy प्रमाणपणुं सिद्ध थाय छे छतां जेओ अनंत संसारनां दुःसह दुःखोथी पण नहीं भय पामतां छतां केवळ कंदांग्रहने लीधे मोटा साहसने अंगीकार करीने महानिशीथने प्रमाणरूप न मानता होय, सेओने पण उपधान तप तो अंगीकार करवानुं छेज, कारण के चौद पूर्वधारी श्रीभद्रबाहु स्वामीए रचेला दशवकालिकनियुक्ति आदि ग्रंथोमां-" काले विणए बहुमाणे उवहाणे० ( काळ, विनय, बहुमान, उपधान," ए गाथामां उपधान प्रत्यक्ष रीते करवायूँ कहुं छे. समवा Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) "L यांग सूत्रमां पण उपासक दशांग सुत्रनुं स्वरूप वर्णववाना अधिकारमां साक्षात् श्रावकोने उपधान करवानुं हुं छे. ते आ प्रमाणे छे" श्रावकोना शील व्रत, विरति, गुण, प्रत्याख्यान, अने पौषधोप बासनो अंगीकार तथा श्रुतनो अभ्यास, तप, उपधान अने प्रतिमा वहेः बी ए सर्व कर्त्तव्यो छे. " वळी व्यवहारवृत्तिम पण कर्तुं छे केश्रुतग्रहण करवाने इच्छनार पुरुषे उपधान करं. " तेमज जेओ श्रावकोना उपधानने मानता नथी, तेओ साधुओना योगोद्रहनने केम माने छे ? कारण तेना विचार प्रमाणे श्रावकोनी जेम साधुओने पण योग वहन कर्या विनाज सूत्र भणवा विगेरेनी शुद्धि थइ जशे . तेथी कदाग्रहनी ग्रस्ततानो त्याग करीने तथा सिद्धांत मार्गना अनुया यी ( अनुसरवा ) पणानो अंगीकार करीने तेमां कह्या प्रमाणे श्रुतस्कंधना पठन पाठन विगेरे परिभाषासहित नमस्कारादिक सूत्रनी आराधनाना हेतुरूप उपधानने जिनेश्वरना वचनना प्रमाणथी प्रमाणपणे अंगीकार करवा. आ प्रमाणे महानिशीथमां उपधान तप कर्या विना नमस्कारादिक सूचना पठन पाठनादिकनो निषेध कर्यो छे, तोपण हालमां द्रव्य, क्षेत्र अने कालादिकनी अपेक्षावंडे लाभालाभनो विचार करीने आचरणावडे उपधान तप कर्या विना पण सूत्र पठनादिक करातुं देखाय छे. आचरणानुं लक्षण कल्पभाष्यमां आ प्रमाणे कां छे के“ कोइ उत्तम पुरुषे अशठ भाव करीने कोइ पण ठेकाणे कांइपण असावद्य ( निर्दोष) आचरण कर्यु होय, अने तेनो बीजाओर निषेध Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) कर्यो न होय, तथा घणाओने संमत होय, तो ते आचरणा कहेवाय छ. " आवी आचरणा जिनाज्ञा जेवीज जाणवी. ते बाबत भाष्यादिकमक छे के - " अशठ भावे आचरण करेलुं निर्दोष कार्य के जेने गीतार्थे निषेध्युं नथी, ते आचरणा पण जिनेश्वरनी आज्ञारूपज छे-आ प्रमाणे कहेतुं होवाथी मध्यस्थ पुरुषो ते आचरणाने बहुमान पूर्वक अंगीकार करे छे." आ प्रमाणे आचरणा छतां पण जेणे प्रथम नमस्कारादिक सूत्रानो अभ्यास कर्यो होय, तेणे पण योग्यता प्रमाणे तरतज यथाशक्ति तपे करीने एटले पौषध ग्रहणादिक विधिए करीने अवश्य उपधान वहन करवां. महानिशीथमां पण मुख्यपणे आंबिल अने उपवासरूप तप अने बीजे पदे एटले गौणपणे यथाशक्ति तप करवानुं पण कर्तुं छे. तथा “ शक्तितस्त्याग तपसी ( दान अने तप शक्तिप्रमाणे करवां ) " एवं वचन होवाथी तपमां कांइ बधारे आग्रह नथी. अने महानिशीथमां पौषध ग्रहणनी क्रिया साक्षात् कहेली नथी, तोपण जेम साधुने योगोद्वहनमां उत्कृष्ट क्रिया करवानुं प्रसिद्ध रीते क छे, ते प्रमाणे श्रावकोने पण उपधानने विषे उत्कृष्ट क्रिया करवानुं देखाय छे. ते उत्कृष्टपणं आरंभना सर्वथा त्याग विगेरे गुणे करीनेज थायछे. अने ते अनारंभादिक गुणो सम्यक् प्रकारे पौषधनो स्वीकार करवाथी ज प्राप्त थाय छे, अन्यथा थता नथी. घणा जुना प्रकरणोमां अने पूर्व आचार्योंए करेली अने परंपराथी चालती आवेली पोतपाताना गच्छनी सामाचारी विगेरेमां पण उपधानने विषे पौषध ग्रहण करवानुं साक्षात् कहेतुं छे. योग वहन करवानो विधि पण स्पष्ट रीते Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) तो सामाचारीओमा ज देखाय छे कोड सिद्धांतमा साक्षात् ( स्पष्ट वचनवडे) देखातो नथी. तेथी साधुना योगवहनना विधिनी जेम श्रावकोना उपधानोमां पण पौषध ग्रहण करवा विगेरेनो विधि प्रमाण करवा योग्य छे. आथी करीने एम सिद्ध ययुं के साधुओए तथा श्रावकोए बीजी सर्व तपस्याओ करतां प्रथम अवश्य कर्तव्यपणे करीने उपधान तप आरांधवा लायक छे. जे मनुष्यो आजीवीकाने माटे, गृहकार्यादिकनी अत्यंत व्यग्रताने लीधे अथवा प्रमाद विगैरे कारणने लीधे उपधाननुं वहन करता नथी, तेओने नवकार गणवा, देववंदन करवं, इर्यावही पंडिकमवा, प्रतिक्रमण कर विगेरे क्रियाओ जीवन पर्यंत कदापि शुद्ध थती नथी. अने भवांतरे पण तेमने ते क्रियाओनो लाभ मळवो असंभवित छ, केमके ज्ञानना विराधकोने ज्ञाननी दुर्लभता प्रतीत थाय छे. तेथी ज्ञानना आराधननी इच्छावाळाए उप-- धान विधिमा यथाशक्ति यत्न करवो. साधुओना उपधान [योग] विषे दृष्टांत. गंगा नदीने कांठे कोइ आचार्य घणा शिष्याने निरंतर भणाववाथी तथा तेमना प्रश्नोना उत्तर आपवाथी रात्रे पण विश्रांति पामता नहीं. तेथी पोतानी साथे ज दीक्षित थयेला पण थोडं भणेला पोताना भाइने स्वेच्छाए निद्रादिक सुखने भोगवता जोइने ज्ञान उपर आदर रहित थइ विश्राम लेवानी इच्छाथी स्वाध्यायने वखते पण अस्वाध्यायनो समय छे एम कहेवा लाग्या. ते ज्ञानातिचारनी आलोचना कर्या Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६९) विना मरण पामीने सौधर्म देवलोकमां देव थइ त्यांची चवी कोइ गामडामा आभीर (भरवाड ) ना कुळमा उत्पन्न थया. ते आभीर भोगादिकयी सुखी हतो. एकदा अत्यंत रूपवाळी पोतानी पुत्रीने गाडाना अग्र भागपर बेसाडीने ते घी वेचवा माटे कोइ नगर प्रत्ये चाल्यो. ते वखते तेनी साथे बीजा पण घणा जुवान आभीरो नगर प्रत्ये जता हता. तेओए मार्गमा ते कन्यागें अद्भुत रुप जोइ परवश बनी पोतपोतानां गाडां उन्मागें चलाव्यां, जेथी ते गाडा भांगी गया. रूपमां आसक्त थयेला पुरुषोने आ गाडां जेवी वस्तुनुं नुकशान कइ गणत्रीमा छे ? कांइज नथी. ते विषे परमऋषितुं बचन छे रूवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिवं अकालिअं पावइ से विणास; रागाउरे से अहवा पयंगे, आलोअलोले समुवेइ मच्चु ॥ अर्थ-जे पुरुष रूपने विषे अत्यंत आसक्ति पामे छे, ते अकाले मृत्युने पामे छे, कारण के आलोक (दीवा) ना रूपमां आसक्त थयेला पतंगीयाओ रागातुर थइने अकाळे मृत्युने पामे छे. पछी ते आमीरोए दुःखित थवाथी ते कन्यानुं "अशकटा" अने तेणीना पितार्नु " अशकटापिता" एवं नाम पाडयु. तेथी खेद पामीने वैराग्य उत्पन्न थवाथी तेणे पोतानी पुत्री कोइने परणावी दांधी अने पोते दीक्षा लीधी. पछी ते साधुए उत्तराध्ययनना त्रण अध्ययन सुधी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठीक अभ्यास कर्यो. चोथु असंखय नामनुं अध्ययन भणतां पूर्वना ज्ञानावरणीय कर्मनो उदय थवाथी चे आंबिल करी बे दिवस सुधी भण्या छतां पण एक पद मात्र पण हृदयमा रहुं नहीं. त्यारे गुरुए तेने कह्यु के-" हे साधु ! असंखय अध्ययननी अनुज्ञा करो." त्यारे तेणे पूछयु के-" आ भणवामां मुख्य विधि केवो छे ? " गुरुए कछु के-" ज्यां सुधी आ अध्ययन आवडे नहीं, त्यां सुधी आंबिल तप करवानो विधि छे." ते सांभळीने ते साधुए उत्साहथी ते प्रमाणे ज करवा मांडयु. एटले बार वर्ष सुधी आंबिल करीने तेणे मात्र बार वृत्तो (श्लोको) नो अभ्यास कर्यो, तेथी तेना ज्ञानावरणी कर्मनो क्षय थयो. पछी सुखे करीने ( अल्प यत्नथी ) बाकीनुं समग्र श्रुत ते. भण्या. तेथी साधुओए योगना विधिनुं सम्यक् प्रकारे आराधन करवू. हवे श्रावकोना उपधान विषे कथा. चंपापुरीमा आहेत धर्मनो परम भक्त " जिनदास" नामे श्रेष्ठी हतो. तेने "ऋषभदत्त" अने " अजितदत्त" नामे वे पुत्रो हता. तेमने पिताए बाल्यावस्थामाज नमस्कारादिक सूत्र भणाव्यां हता. पछी ज्यारे तेओ पौषध तपने योग्य थया त्यारे पिताए तेमने कह्यु के-" हे. वत्सो! सम्यकू प्रकारे सूत्रना आराधनने माटे चित्तना एकाग्रपणे उपधान तप वहन करो. कारण के-" शक्तिमान श्रद्धालु पुरुष अनुष्ठानने (क्रियाने) विधिपूर्वक सेवे छे (करे छे ) अने ते जो द्रव्यादिक Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७१) दोषी हणायेलो होय तोपण ते अनुष्ठाननो पक्ष करे छे. एटळे अनुष्ठाननीज पुष्टि कर्या करे छे. आसन्नसिद्धि जीवोने क्रिया करवाना परिणाम (भाव) सर्वदा होय छे. अभव्यने अने दुर्भव्य जीवोने अविधिने विषे भक्ति होय छे ने विधिनो त्याग होय छे एटले क्रियापर अरुचि होय छे."आ प्रमाणे सांभळीने कुशळ पुरुषोने विषे अग्रेसर अने लघु छतां पण बुद्धिए करीने मोटा एवा अजितदत्ते " भावतुं हतुं अन वैद्य को" एम मानीने आनंदथी नंदि (नांद मांडवा) विगेरे महोत्सवपूर्वक अपूर्व बहुमानसहित उपधान तपने मुख्य विधिवडेज वहन कयु. एनो मोटो भाइ तो सांसारिक मुखमां आसक्त हतो,तथा पौषध उपवास विगेरे क्रियाओगें दुष्करपणुं मानतो हतो, तेथी निर्लज्जतादि साहसने धारण करीने कहेतो के-"सूत्रो तो प्रथम ज अस्खलितपणे भण्या छीए, मोटे हवे फोगट दुष्कर तप करवा रूप क्लेशना आवेशनो आश्रय करवाथी शुं फळ छे?क छेके"अतिक्लेशेन ये त्वर्था धर्मस्थातिक्रमेण च । शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्थी मा भवन्तु मे ॥ ____ अर्थ-कोई नीतिज्ञ पुरुष कहे छ के-"जे अर्थों (द्रव्य) अति क्लेशथी प्राप्त थाय छ, तथा जे धर्मर्नु उल्लंघन करवाथी प्राप्त थाय छे, अने जे शत्रुओने नमन करवाथी प्राप्त थाय छे, ते अर्थों मने प्राप्त न थाओ.अर्थात् तेवा अर्थाने हुं इच्छतो नथी." आ प्रमाणे उपधाननो अनादर करवा अग्रेसर एवा ते ऋषभ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७२ ) " दत्तने कुशल एवा माता, पिता अने बंधु विगेरेए घणे प्रकारे प्रेरणा कर्या छतां पण जेम गळीयो बळद घूंसरीना भारने वहन न करे तेम तेणे उपधान वहन कर्यु नहीं. “ धर्मिष्ठोने पण प्रमादरुपी मदिरा . पानथी उत्पन्न थयेला मदनी अधिकताना आवेशनी पुष्टता थाय छे तेने धिकार छे, केमके सम्यक् प्रकारनी धर्मक्रियामां कुशळ छतां पण जाणे अग्निदग्ध थयेला होय तेम तेओ ते धर्मक्रियाना आराधन माटे उद्यमीज थता नथी." आ प्रमाणे ते ऋषभदत्ते उपधान नहीं वहन करवाने लीधे तथा तेनी अवगणना करवाने लीधे श्रावक धर्मनुं आराधन करतां छतां पण तीव्र ज्ञानावरणीय कर्म बांध्यं. पछी ते बने भाइओ श्रावक धर्मनुं आराधन करी सौधर्म देवलोकमा देबो थया. त्यांथी आयुष्य पूर्ण थये चवीने महाविदेह क्षेत्रमां महेभ्यना कुळां साथै जन्मेला वे पुत्रो थया. मोटानुं नाम " देवदत्त " अने बीजानुं " गुरुदत्त " पाड्युं ते बन्नेमा मोटो देवदत्त पूर्व कर्मना दोषधी बुद्धिरहित अने अत्यंत मूर्ख थयो, अने नानो गुरुदत्त अत्यंत बुद्धिमान अन डालो थयो. अनुक्रमे योग्य वय आवतां ते बन्नेने भणाववा माटे पिताए अध्यापकने सोप्या. तेमां मोटाने घणी महेनत कर्या छतां पण अत्यंत तपावेला पात्रपर जळना बिंदुनी जेम एक अक्षर मात्र पण हृदयमां आरुढ थयो नहीं. घणुं शुं कहेतुं ! पण अक्षगे वांचवा लखवा जेटलं पण ज्ञान थयुं नहीं. काष्ठना पुतळानी जैम तेने लेश मात्र पण आवडचुं नहीं. तेने माटे पिता विविध प्रकारनां औषध, जंत्र, तंत्र, मंत्र अने देवपश्वादिक उपायो कर्या, Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७३) तथा हमेशा प्रयत्नपूर्वक तेने भणाववा लाग्या, तोपण ते नवकार मंत्र नुं एक पण पद शीखी शक्यो नहीं. अने नानो गुरुदत्त तो हृदयना अभिप्रायने जाणवाथी बृहस्पतिनी जेम थोडा दिवसमांज सुखे करीने सकल शास्त्रसमुद्रनो पारगामी थई सर्व विद्वानोमां मुगटसमान थयो, अने अनुक्रमे ते सम्यक् प्रकारे श्राद्ध धर्मनी समग्र क्रियानुं जाणपणुं तथा उत्सर्ग अने अपवाद मार्गनुं जाणपणुं ए विगेरे गुणोए करीने जिनशासनने विषे अनुपम कुशळताने पाम्यो. " अहो ! ज्ञानना आराधन अने विराधननो कोइ (अलौकिक.) अनिर्वाच्य विपाकोदय छे." त्यार पछी ते बन्ने भाइओ लोकमां अनुक्रमे राहु अने सूर्यनी, लोढानी कडाह अने चंद्रनी, रात्री अने दिवसनी, अमावास्या अने पूर्णिमानी, अंगारा अने सुवर्णनी, धत्तूरो अने चंपक पुष्पनी, केरडो अने कल्पवृक्षनी, मेश अने दूधनी, काक अने कोयलनी, बग अने हंसनी, कलियुग अने सत्युगनी, दुर्जन अने सजननी तथा गर्दभ अने हाथीनी-विगेरे उपमाओने पाम्या. अहो ! सहोदरपणु छतां पण विष अने अमृतनी जेम ए बन्ने बच्चे मोडं अंतर पडद्यु. पछी दुर्दैवे करेला पंक्ति भेदे करीने चित्तना अत्यंत उद्वेगमां मग्न थयेलो देवदत्त अत्यंत दुःख ह एवा केवळ दुःखनेज चित्तमा धारण करवा लाग्यो. एकदा कोइ ज्ञानीने तेना पिताए तेनो प्राग्भव पूछ्यो, त्यारे ज्ञानीए यथार्थ पूर्व भव कह्यो. ते सांभळीने देवदत्त पोताना मनमा अत्यंत पश्चात्ताप करवा लाग्यो. पछी सुकृत करवामां ज एक चित्तचाळा थइने तेणे गुरुने का के-“हे भगान् ! माशं दुष्कर्मोनो क्षय Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) श्री रीते थाय ? ते कहो. " ज्ञानीए जवाब आप्यो के - " हे देवदत्त ! उपधानने वहन करनारा तथा नमस्कारादिक सूत्रोने भणनारानी अशभावथी विनय, आवर्जन, भोजन अने विश्रामणा विगेरेवढे सर्वप्रकारे भक्ति करीने तथा महर्षिनी जेम संलग्न ( उपराउपर ) उपवास, आंबिल विगेरे दुष्कर तप करीने तारा शरीरनुं शोषण करीश, तोज आ दुष्कर्मो क्षय थशे. अन्यथी थशे नहीं. ते विषे परमऋषितुं वचन छे के - " हे जीव ! पूर्व जन्ममां करेलां पापो तथा खराब (अविधिए ) आचरण करेली क्रियाओ के जेमनी आलोचना करी नथी तेनो वेदवाथीज (भोगववाथीज) क्षय थाय छे; भोगव्याविना तेनो क्षय थतो. नथी. परंतु तपस्यावडे ते कर्मनो क्षय थइ शके छे." वळी कां छे के“ नियाणाविना विधिपूर्वक करेली तपस्यानी शी प्रशंसा करीए ? के तपस्यावडे निकाचित कर्मोनो पण क्षय थाय छे. " आ प्रमाणे गुरुना मुखथी सांभळीने ते महेभ्यपुत्रे बाल्यावस्था होत्रा छतां तथा सर्वप्रकारे सुखी छतां गुरुमहाराजना कह्या प्रमाणे विनयादिक विशेषप्रकारे घणा वर्ष सुधी उत्साहसहित कर्या. तेथी घणा घुण जातिना जीवडाना समूहने योग्य कठिन लाकडानी जेम निविड ( गाढ ) एवं. पण तेनुं ज्ञानावरणीय कर्म धीमे धीमे ओलं थंयुं. त्यारपछी महानिशीथमां कहेला मुख्य विधिवडे सावधान मनथी उपधान वहन करीने से नमस्कारादिक सूत्रनो अभ्यास करवा लाग्यो. तेम करवाथी पूर्वभ वनां दुष्कर्मनो सर्वथा क्षय थयो एटले समग्र शास्त्रनो पारगामी थइ ते पण गुरुदत्तनी उपमाने पाम्यो. ते जोइने श्रद्धा उत्पन्न थवाथी प्राये Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७५) सर्वे श्रावको उपधान विधिनुं आराधन करवा लाग्या. पछी परम श्राषक एवा ते बन्ने बांधवोए एवी रीते ज्ञाननी आराधना करी के तेज भवमां द्रव्य दीक्षा अंगीकार को विना पण केवळज्ञान पामीने सिद्धि सौध उपर आरुढ थया, अर्थात् मोक्षे गया. __ आ प्रमाणे उपधाननी आराधना तथा अनाराधनानुं फळ सांभळीने ( जाणीने ) प्रमादनो त्याग करी तेनुं आराधन करवामां सम्यक् प्रकारे उद्यम करवो. ॥ इति श्राद्धोपधान विषये ज्ञातम् ॥ ॥ इति व्याख्यातश्चतुर्थ उपधानाचारः ॥ पांचमा अनिन्हवाचार विषे. श्रुतनो अभ्यास करीने पण गुरु तथा श्रुतादिकनो निन्हव (अपलाप) करवो नहीं. जेनी पासे अभ्यास को होय, ते [ गुरु] जो अप्रसिद्ध होय, तथा जाति अने श्रुतादिकथी रहित होय, तोपण तेने गुरु तरीकेज कहेवा. परंतु पोतानी गौरवताने माटे बीजा कोइ युगप्रधानादिक प्रसिद्धने गुरु तरीके कहेवा नहीं. तेमज जेटलुं श्रुत भण्या होइए तेटटुंज कहेवू, परंतु न्यूनाधिक कहेवू नहीं. केमके तेथी मृषा भाषण, चित्तनुं मलीनपणुं, ज्ञानातिचार विगेरे दोष प्राप्त थाय छे. गुरु विगेरेनो निन्हव करवामां मोठं पाप छे, ते विषे लोकमां पण कमु छे के, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) एकाक्षर प्रदातारं यो गुरुं नैव मन्यते । श्वानयोनि शतं गत्वा चांडालेष्वपि जायते ॥१॥ अर्थः – “जे माणस एक अक्षर पण आपनार गुरुने मानतो नथी, ते सो बार कूतरानी योनिमां उत्पन्न थइने चंडाळने विषे जन्मे छे." गुरुनो अपलाप करवा उपर संन्यासीनी कथा. कोइ एक विद्यावान हजाम विद्याना बळथी अस्त्रानी कोथळीने आकाशमां निराधार राखतो हतो. ते जोड़ने एक परिव्राजके ते विद्या लेवा माटे तेनी घणी सेवा करी, तेथी प्रसन्न थइने ते हजामे तेने विद्या आपी. पछी ते संन्यासी पोताना दंड कमंडलुने आकाशमां निराधार राखवाची स्थाने स्थाने लोकोथी पूजावा लाग्यो. एक दिवस राजाए संन्यासी भोजननुं आमंत्रण आपी पोताने घेर बोलावीने पूछ के - " तमारा गुरु कोण छे ? " संन्यासीए कछु के- “ मारा गुरु निरंतर हिमालयमां रहीने फळाहार करनार महा तपस्वी ऋषि छे." आ प्रमाणे बोलतांज तेनो त्रिदंड के जे आकाशमां निराधार हतो, ते उंचे उछाळेली लाकडीनी जेम आकाराथी खडखड शब्द करतो पृथ्वी पर पडा तथा लोकमां ते हांसी, अपमान विगेरेने पाम्पो. माटे कोइए पण कोइ प्रकारे गुरुनो निन्हव करवो नहीं. तेमां पण घणा धर्मामनुष्ये तो विलकुल निन्हव करवो नहीं. ॥ इति पञ्चमो अनिन्हवाचारः || Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) छट्टो, सातमो ने आठमो ज्ञानाचार. [ व्यंजन, अर्थ अने ते बन्ने] वळी श्रुत ज्ञानना अर्थीए व्यंजन ( अक्षर ) अने अर्थ तथा बन्नेवडे शुद्ध एवा सूत्रनो अभ्यास करवो. तेमां व्यंजन एटले अक्षर . अक्षरने अन्यथा करवामां तथा न्यूनाधिक करवामां अशुद्ध थवाने लीधे अनेक महादोषो, महा आशातनाओ अने सर्वज्ञनी आज्ञानो भंग विगेरे दोषो प्राप्त थाय छे. केमके व्यंजननो भेद (फेरफार) थवाथी अर्थनो भेद थाय छे, अर्थनो भेद थवाथी क्रियानो भेद थाय छे, क्रियानो भेद थवाथी मोक्षनो अभाव थाय छे, अने मोक्षनो अभाव थवाथी साधु तथा श्रावकने धर्मनुं आराधन, तपस्या, उपसर्गनुं सहन करवुं, ए विगेरे कष्ट - साध्य क्रियाओ पण निरर्थक थाय छे. तेमां सूत्रनुं अन्यथापणं करं. एटले प्राकृतने बदले संस्कृत करवुं ते, जेम " धर्मो मंगळमुत्कृष्टं (धर्म उत्कृष्ट मंगळरूप छे ) ?" अथवा तेना पदोने उलट सुलट बोलवां, जेमके “ पुण्णोकलाणमुक्कोसं ३. अथवा सूत्रमांना एक अक्षरने बदले बीजो अक्षर करवो, जेमके " धम्मो " ए धकारने स्थाने ककार विगेरे कोइ पण अक्षर बोलवो. ४. अथवा वर्णोने उलटा (छेलेथी ) बोलवा, जेमके "देवावि" ने बदले “विवादे" एम बोलवु ५. एज प्रमाणे अर्थने तथा व्यंजन अने अर्थ ए बन्नेने अन्यथा करवामां तथा न्यूनाधिक करवामां दोषो जाणी ठेवा. तेमां व्यंजनने अन्यथा करवामां " चैत्यवंदनादिक सूत्रो प्राकृत भाषामां छे, तेने हुं संस्कृत भाषा - Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७८) मां करूं." आटलं मात्र बोलवाथीज " सिद्धसेन दिवाकरने " पारीचिक प्रायश्चित प्राप्त ययुं हतुं. तेनुं दृष्टांत आ प्रमाणे श्री सिद्धसेन दीवाकरतुं दृष्टांत. विद्याधर गच्छमा " श्री पादलिप्त " सूरिनी परंपरा विषे "स्कं. दिल" नामना आचार्य संघना अनेक कार्यों करता करता गामे गाम विहार करतां गौड देशमां आव्या. त्यां " कोसल " नामना गामनो रहीश " मुकुंद " नामनो वृद्ध ब्राह्मण तेमने मळयो. ते ब्राह्मणे गुरु महाराज पासे आ प्रमाणे देशना सांभळी के-"विवेकी पुरुषे सर्वदा सम्यक् प्रकारे धर्मनुं आराधन करवू, अने वृद्धावस्थामा तो विशेष प्रकारे करवू, कयुं छे के,-- बालेऽस्ति यौवनाशा स्पृहयति तरुणोऽपि वृद्धभावं च। मृत्यूत्सङ्गगतोऽयं वृद्धः किमपेक्ष्य निर्धर्मा ॥ ___अर्थः-मनुष्य बाल्यावस्थामां युवावस्थानी आशाथी धर्मरहित होय छे, युवावस्थामा पण वृद्धावस्थाने चाहे छे (एटले “वृद्धावस्थामां धर्म करीश" एम धारीने युवावस्थामां पण धर्म करतो नथी.) परंतु मृत्युना उत्संग ( खोळा )मां गयेलो वृद्ध पुरुष कोनी अपेक्षा राखीने धर्म करतो नथी ? अर्थात् वृद्धावस्थामां तो अवश्य धर्ममांज प्रवर्त, जोइर. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७९) स्याच्छैशवे मातृमुखस्तारुण्ये तरुणीमुखः। वार्धके तु पुत्रमुखो मूढो नात्ममुखः कचित् ॥२॥ ____ अर्थ:-मनुष्य बाल्यावस्थामा माताने आधीन होय छे, युवावस्था मां स्त्रीने आधीन होय छे, अने वृद्धावस्थामां पुत्रने आधीन होय छे, परंतु मूढ प्राणी कोइपण वखत आत्माने आधीन एटले आत्म परायण होतो नथी. २" ___आ प्रमाणे देशना सांभळीने ते वृद्ध ब्राह्मणे आचार्य पासे वैराग्यथी दीक्षा लीधी. पछी विहारना अनुक्रमे ते गुरुनी साथे भृगुपुरमां (भरुचमां) आव्या. ते मुकुंद मुनि रात्रीए पण उंच स्वरे भणता हता, तेथी बीजा साधुओनी निद्रानो भंग थवाथी तेमने दुभाता जाणीने गुरुए तेने निषेध कर्यो के-“हे वत्स! रात्रीए नवकारवाळी गण. गत्रे उंचे स्वरे भणवाथी हिंसक पाणीओ जागृत थाय, अने तेथी अनर्थ दंड पण प्राप्त थाय. " आ प्रमाणे कह्या छतां पण ते वृद्ध मुनि उंचे स्वरेज घोषणा करता हता. त्यारे कोइ साधुए तेनो उपहास कों के-"शुं आ आटली क्यवाळा (वृद्ध) मुनि भणीने मुशळ (सांबेला) ने प्रफुल्लित करशे ?" ते सांभळीने वृद्ध मुनि खेद पामीने तरतज विद्याने माटे " नालिकेर वसति" नामना चैत्यमा रहेली महा प्रभाववाळी सरस्वती देवानी आराधना करवा लाग्या. एकवीश उपवासे देवी तुष्टमान थइ, अने प्रत्यक्ष दर्शन आपीने बोली के"हे मुनि ! तमने सर्व विद्या सिद्ध थाओ." पछी ते मुनि कोइने घेरथी मुशळ मागी लावीने चतुष्पथ (चौटा) मां आव्या. पछी Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८०) मुशळने मासुक जळवडे सिंचीने-छांटीने तत्काळ नव पल्लवित करी पुष्पवाळु क. अने बोल्या के- “ जे कहेता होय के -आ शुं मुशळने प्रफुक्लित करशे ! तेनुं निराकरण करवा माटे पत्र अन पुष्पवालुं करेलुं आ मुशळ हुं अहीं स्थापन करूं छु; हवे तमे जळकागडानुं शींगडुं इंद्र धनुष जेवडुं थयुं, अग्नि शीतळ थयो, अने वायु कंपरहित थयो इत्यादि जेने जेम रुचे तेम बोलो. आ हुं वृद्धपणामां वादी थयो हुँ,मारी साथ जेने बाद करवो होय ते आवो. " पछी तेणे एवा वादविवाद मोटा मोटा पंडित साथे कर्या के जेथी गरुडनुं नाम सांभळीने सर्पोनी जेम ते वृद्धवादीनुं नाम सांभळीनेज सर्व वादीओ नासी जवा लाग्या. ते मुनि वृद्धवादीना नामथी प्रसिद्ध थया. तेमने गुरुए पोताने स्थाने स्थापन कर्या. आ समये अवंतिनगरीमां "विक्रम" राजा राज्य करतो हतो. साविक विषे श्रेष्ठ अने परोपकारने विषे एकनिष्ठावाळो हतो. ते राजाने बे सुवर्णपुरुष सिद्ध थया हता, तेथी तेणे पृथ्वीना सर्व मनुष्योने ऋण रहित करी पोतानो संवत प्रवर्ताव्यो हतो. तेणे पोताना कोश [ खजाना ] ना अध्यक्षने आ प्रमाणे आज्ञा आपी हती के " हे कोशाधिपति ! जे कोइ दीन मनुष्यपर मारी दृष्टि पडे, तेने तारे एक हजार सोनामहोरो आपवी, जेनी साथे हुं कांइ पण भाषण करूं तेने दश हजार आपवी, जेनी वाणी सांभळीने हुं हसुं तेने एक लाख महोरो आपवी, अने जेनापर हुं प्रसन्न थाउं तेने एक करोड महोरो आपवी. ए प्रमाणे सर्वदा मारी आज्ञा छे. " आम विक्रम राजाए Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८१) कह्याविना पण आपवानी स्थिति ठरावी राखी हती. एकदा ते राजाए पीवा माटे पाणी माग्युं. ते वखते उचित बोलनार एक भाट बोल्यो के-" हे राजा ! तमारा मुखकमळमां सरस्वती रहेली छ, तमारो ओष्ठ सर्वदा 'शोण छे, काकुत्स्थ (रामचंद्र) ना पराक्रमनी स्मृति कराववामां चतुर एवो तमारो दक्षिण हाथ 'समुद्र छ, आ तमारी पासे रहेनारी वाहिनीओ एक क्षणवार पण तमारा समीपपणाने मूकती नथी, तथा तमारे स्वच्छ ( निर्मळ ) मानस छे, तो पण तमने पाणी पीवानी केम अभिलाषा थइ ? " आ प्रमाणे सांभळीने राजाए आठ करोड सोनामहोरो, त्राणुं तुला (मण) मोती, मदना गंधमां लुब्ध थयेला भभराओथी उद्धत थयेला पचास हाथीओ, लावण्यतानी वृद्धिथी दृष्टिना विस्तारवाळी एकसो वारांगनाओ ( स्त्रीओ ), आटलुं दान के जे पांडय राजाए विक्रम राजाने दंडमां आप्यु हतुं ते सर्व ते भाटने आपी दीधुं. आ विगेरे अनेक ते विक्रम राजामा दानकृत्यो प्रसिद्ध छे. ते विक्रम राजाना राज्यमां माननुं पात्र अने कात्यायन गोत्रनो अलंकार " देवर्षि" नामे ब्राह्मण रहेतो हतो. तेने “ देवश्री" नामनी पत्नी हती. तेमने “सिद्धसेन" नामनो पुत्र हतो. ते बुदिनो भंडार होवाथी आखा जगत्ने तृणसमान गणतो हतो. केमके मिथ्यात्वीओने गर्व प्रकृतिथीज सिद्ध होय छे. का छे के १ शोण नामनो द्रह-ओष्ठना पक्षे रातो. २ समुद्र पटले द. रियो-हाथ पक्षे मुद्रा-वींटी सहित. ३ नदी-बीजा पक्षे सेना. ४ मानस नामनुं सरोवर-बीजा पक्षे मन. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८२ ) वृश्चिको विषमात्रेणायुधं वहति कंटकम् | विषभारसहस्रेऽपि वासुकिर्नैव गर्वितः ॥ १ ॥ अर्थ-वींछी अल्पविषे करीने पण पोताना कांटाने उंचोज राखे छे. अने वासुकी नाग हज़ार भार विषने धारण करे छे, तो पण गर्विष्ठ थतो नथी. १. सिद्धसेने विद्याना गर्वथी " जे मने वादमां जीते तेनो हुं शिष्य था " एवी प्रतिज्ञा करी हती. तेणे एकदा वृद्धवादीनी कीर्त्ति सांभळी, ते नहीं सहन थवाथी सुखासनमां बेसी तेनी सन्मुख चाल्यो. ते समये वृद्धवादीए भृगुकच्छथी विहार कर्यो हतो, तेथी तेओ मार्गमांज मळ्या. परस्पर संभाषण थवाथी एक बीजानी ओळखाण पडी. पछी सिद्धसेने कां के - " वाद आपो." सूरि बोल्या के" भळे. परंतु अत्र भाग्ययोगे मळी शके तेवा सभ्यो ( मध्यस्थो ) नथी. तेमना विना जय पराजयनी व्यवस्था शी रीते थाय ? " ते सांभळीने वादमां उत्कंठित थयेला सिद्धसेने कर्तुं के - " आ गोवाळोज आपणा सभ्यो थाओ." गुरुए तेनुं वच्चन स्वीकार्य. अने गोवाळाने पासे बोलाव्या. पछी गुरुए तेने कहां के - " प्रथम तमे स्वेच्छाए बाद करो." त्यारे ते सिद्धसेने हर्ष पामीने उंचा स्वरथी चिरकाल सुधी न्यायशास्त्र अने व्याकरण शास्त्र विगेरेना विषयपर संस्कृत भाषामां उपराउपरी उपन्यास ( कोटी ) कर्या. अनुक्रमे तेनो बाद पूरो थयो, त्यारे गोवाळ बोल्या के-" आ तो कांइ पण जाणतो होय एम लागतुं नथी. केवळ उंचे स्वरे पोकार करीने कठोर वाणीवडे कर्णने पीडा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) करे छे. माटे हे वृद्ध ! तमे कांइक बोलो. " त्यारे बन्ने प्रकारे' समने जाणारा वृद्धवादी घींदणी जातिना छंदवडे नृत्यने निमित्ते उंचा ताल देवापूर्वक बोल्या के नवि मारिए नवि चोरिए, परदारागमण निवारिए । थवा थोवं दाइए, सरिंग टागटगि जाइए ॥ १ ॥ अर्थ - - कोइनी हिंसा करीए नहीं, कोइनुं कांइ पण चोरीए नहीं, परस्त्रीगमन करीए नहीं अने थे|डामाथी पण थोडं दान दइए, एटले धीमे धीमे स्वर्गे जाइए. कालो कंबल अणुणी चट्टु, छासे भरिउं दइअणि घट्टू । अइ वड चडिउं नीलइ झाडि, अवर कि सरगहासिंग निलाडि ॥ २ ॥ भावार्थ - काळी कापळी अने छाशमां रांधेली कणकीनी राबडी लाकडाना चाटवावडे जो कोइ मुनिने भावथी अपाय तो तेथी सर्व पापनो त्याग करीने उत्तम पुण्यवान् थवाय छे. ते विना बीजुं स्वर्गलक्ष्मीना ललाटरूप शुं छे ? कांइज नथी. २ आ प्रमाणे सूरि बोलता हता ते वखते तेना रागने अनुसारे नृत्य करता गोवाळो प्रसन्न थइने मोटेथी बोल्या के - " आ वृद्ध जीत्या, आ वृद्ध जीत्या. आ तो साक्षात् सर्वज्ञ छे. " ते सांभळीने सत्य प्रतिज्ञावाळा सिद्धसेने गर्व तजीने कछु के- “ हे पूज्य ! मने १ समय पटले सिद्धांत अने समय एटले वखत ( अवसर ) Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा आपो, हुं आपनो शिष्य छ. केमके वादमा सभ्योनी समक्ष मने आपे जीत्यो छे." ते सांभळीने बहुमानथी गुरु बोल्या के-" आ वादमां जय शेनो ? माटे आपणे मनोहर भृगुपुरमा घणा प्रमाणिक पुरुषोथी भरपुर अने प्रभाववाळी राजसभामा जइए. त्यांज आपणो वाद हो. " सिद्धसेने कह्यु के-" हुं समयनो अजाण छ. आप समयने जाणनार छो, अने जे समयने जाणे छे तेज सर्वज्ञ छे, माटे आपज जीत्या. मने जलदी दीक्षा आपो, अने प्रशम रसथी भरेला पोताना ( आपना) सिद्धांत मने भणावो." आ प्रकारे वोलता ते वादीने वृद्धवादीए तेज ठेकाणे दीक्षा आपी. ___ आ वृत्तांत जाणीने भृगुपुरना राजाए ते स्थाने " तालारस" नामनुं मोटुं गाम वसाव्यु, अने त्यां जनना चित्तने आल्हाद करनारं श्री ऋषभस्वामीनुं मोडं चैत्य कराव्यु. ते चैत्यमा श्री वृद्धवादीए प्रतिष्ठा करी. जैन मतनी ते वखते मोटी उन्नति थइ. सिद्धसेननु नाम दीक्षा समये “ कुमुदचंद्र " हतुं, अने सूरिपद समये "सिद्धसेनदिवाकर" एवं नाम प्रसिद्ध थयु. अपर अपर पूर्वधरोथी पूर्वमांरहेला श्रुतना अभ्यासवडे एवां नामो आपवामां आवे छे. कहुं छे के-" वादी, क्षमाश्रमण, दिवाकर अने वाचक ए सर्व शब्दो एक अर्थवाला छे. पूर्वगत सूत्रना अभ्यासथी ए शब्दो प्रवर्ते छे." स्वामी अने पाचक विगेरे शब्दोनी जेम दिवाकर एं पण सूरिनुंज पर्यायी नाम छे. सिद्धसेन दिवाकर जैनमतनो उद्योत करवाथी पोताना नामने सार्थक करता पृथ्वीपर विहार करवा लाग्या. अनुक्रमे तेओ उज्जयिनी Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) समीपे आव्या. एटले त्यांना सकळ संघे सन्मुख आवीने मोटा उत्सवपूर्वक तेमने नगरप्रवेश कराव्यो. मार्गमां चालतां बंदिजनो सर्वज्ञपुत्रना नामथी तेमनी बिरुदावळी बोळवा लाग्या. ते समये विक्रम राजा हाथी पर बेसी पोताना राजद्वारमाथी - नकिळेला चौटामां सूरिने सामा मळ्या. राजाए " आ सूरि सर्वज्ञपुत्र छे के नहीं ? " तेनी परीक्षा करवा माटे तेमने मनथीज वंदना करी, पण मस्तक नमायुं नहीं, तथा वचनथी पण कांड बोल्या नहीं. ते जाणीने समीपे आवी पहोंचेला सूरए ते राजाने 'धर्मलाभ ' एम मोटा शब्दवडे आशीर्वाद आप्यो. ते वखते राजा कांके - " हे सूरीश्वर ! अमने नमस्कार कर्या विना आपे धर्मलाभ केम आप्यो ? शुं आ धर्मलाभ नम्या विना पण सहेजे मळी शके तेवो (सोंघो) छे ? " त्यारे सूरि वोल्या के - " हे राजा ! आ आशीर्वाद कोटी चिंतामणि रत्नोवडे पण दुर्लभ छे. परंतु अमारी परीक्षा करवा माटे तमे मनथी वंदना करी, तेथी तमने धर्मलाभ आप्यो छे. " ते सांभळीने राजाए प्रसन्न थइ हस्तिपरथी नीचे उतरी सूरिने वंदना करी, अने एक करोड सोनामहोरो मंगावी तेमने भेट करी. गुरु निःसंग होवाथी ग्रहण करी नहीं. तेम राजाए पण दान तरीके कल्पेली होवाथी पाछी राखी नहीं. तेथी संघना आगेवानोए जीर्णोद्धारादिक शुभ कार्योमां तेनो उपयोग कर्यो. राजाना दाननी वहीम ( चोपडामां ) आ प्रमाणे लखाणुं के - "दूरथी उंचा हाथ करीने धर्मलाभनी आशीष आपता सिद्धसेन सूरिने राजाए करोड सोनामहोरो आपी. " Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ). पछी सूरि महाराज विहारना क्रमे विचित्र प्रकारना शिखरवाळा चित्रकूट (चितोड)मां आव्या. त्यां एक जुना चैत्यमा एक मोटो स्तंभ जोइने सूरिए एक पुरुषने पूछयु के-"आ स्तंभ शेनो छ ? अने तेमा शुं छे ? " त्यारे ते पुरुष बोल्यो के-"पूर्वना आचार्योए आ स्तंभमां रहस्य ( गुप्त) विद्यानां पुस्तको राखेला छे, तथा आ स्तंभ ते ते प्रकारनी औषधीओना योगथी जाणे वज्रनो बनाव्यो होय तेम अग्नि जळ विगेरेथी पण अभेद्य छे." ते सांभळीने निपुण एवा ते सूरिए ते स्तंभनो गंध लइने ते ते औषधिनो प्रतिकार करनारी सामी औषधिओ शोधीने तेनो रस ते स्तंभने लगाइयो, एटले ते स्तंभ पाका चभिडानी जेम विकास पाम्यो ( फाट्यो ). पछी तेमांथी एक पुस्तक छोडीने तेनुं प्रथम पानुं सूरि वांचवा लाग्या, तेमां पहेलीज लीटी वांचतां बे महा विद्याओ मळी आवी. पहेली सर्षप विद्या अने बीजी चूर्णना योगथी सुवर्ण करवानी विद्या. पहेली सर्षप विद्यानो एवो प्रभाव हतो के कार्य आवे छते जेटला सवना दाणा मंत्रीने जळाशयमां नांखे तेटला घोडेस्वारो वेंतालीश जातिना शस्त्रोसहित तेमाथी नीकळी परसैन्यनो नाश करीने पाछा अदृश्य थइ जाय, अने बाजी विद्या एवी हती के कोइ पण धातुनी साथे तेमां बतावेली वस्तुना चर्णनो योग करवाथी विना यत्ने जातिवंत सुवर्ण उत्पन्न थाय. आ वे विद्याने बराबर ग्रहण करीने सूरि जेवामां आगळ वाचवा जाय छे,. तेवामा शासनदेवताए ते पुस्तक अने ते पानुं तेनी पासेथी लइ ली, तथा पुरतव नो स्तंभ पण पथमनी जेवोज मजबुत बंध थइ गयो. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८७ ) ते वखते आकाशवाणी थइ के - " आवा प्रकारनां पूर्वमा रहेळां रहस्योने तमे लायक नथी माटे चपळता ( प्रयत्न ) करशो नहीं, अन्यथा जीवितनो संशय थशे. " ते सांभळीने सूरि भयने लीधे तेथी विरम्या. त्यार पछी सूरि विहारना क्रमे अपूर्व एवा पूर्व देशनी पृथ्वी ना नुपुरसमान " कर्मापुर " नामना नगरमा गया. त्यां "देवपाल" नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने सूरिए अमृततुल्य सुंदर देशनावडे प्रतिबोध माडीने परम श्रावक बनाव्यो. एकदा सीमाडाना राजाओ भेळा थइने तेनुं राज्य लेवा आव्या ते जोइने चित्तमां भय पामेला देवपाल राजाए गुरु पासे आवी सर्व वृत्तांत निवेदन क. ते सांभळी सूरिए विचार्य के - " आ राजा हजु दमणांज धर्म पाम्यो छे, तेना पासे सैन्य तथा द्रव्य घणुं अल्प छे, तथा अत्यारे अत्यंत दीनताने पाम्यो छे, तेथी आने धर्ममां स्थिर करवा माटे सहाय करवी योग्य छे. " एम विचारीने कार्यना जाण एवा सूरिए सुवर्णसिद्धिना योगथी अगण्य सुवर्ण बनावी आपी, सर्षप विद्याथी घोडेस्वारी उत्पन्न करी दइ, शत्रुओने त्रास पपाडये; तेथी अत्यंत प्रसन्न थइने देवपाल राजाए शत्रुओनुं सर्वस्व लूंटी लइ पोताना जयनो डंको वगडाव्यो. " अहो ! महात्मानी कृपानुं फळ निःसमि छे." त्यार पछी ते राजा सूरिनो अनन्य भक्त थयो, अने तेमने घणा आग्रहपूर्वक चिरकाळ सुधी पोताना नगरमांज राख्या. त्यां सूरि महाराज राजा विगेरेना आग्रहथी हमेशां सुखासनमां बेसी Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६८) नाना प्रकारनी विरुदावळी बोलनारा बंदिजनोवडे स्तुति कराता राजद्वारमा जवा आववा लाग्या. अने एम थवाथी परिवारसहित ते सूरि राजानो सत्कार अने अहंकार विगेरेवडे क्रियामां शिथिल थया. कह्यु छ केतांबूलं देहसत्कारः स्त्रीकथेन्द्रियपोषणम् । नृपसेवा दिवा निद्रा यतीनां पतनानि षट् ॥१॥ __ अर्थ-तांबुलनुं भक्षण, देहनो शणगार, स्त्रीनी कथा, इंद्रियोनी पुष्टि, राजानी सेवा ( राजानो परिचय ) अने दिवसनी निद्रा, ए छ मुनिओने पतन पामवानां स्थानो छे. १. वळी कयु छ के-" जे गुरु निश्चित थइने सुए छे तेना शिष्यो पण सुइ रहे छे. तेथी करीने मोक्षना मार्ग बंध थाय छे, अने श्रुतनी हीलना थाय छे. " केटलेक काळे वृद्धवादीए आ वात सांभळी त्यारे ते अत्यंत खेद पाम्या. एटले गीतार्थ साधुओने गच्छ भळाची सिद्धसेन सूरिने प्रतिबोध करवा माटे गुप्त रीते वेष बादलो करीने त्यां आव्या. अहीं ते वखते सुखासनमां बेसीने श्री सिद्धसेन राजसभामां जता हता. तेओ राजाने मान्य होवाथी नाना प्रकारनी कळा जाणनारा अनेक मनुष्यो पोतपोतानी भक्ति बताववा माटे ते सुखासनने थोडी थोडीवार पोतानो खभो देता हता. ते जोइने वृद्धवादीए पण पोतानो खभो आप्यो. ते वखते गर्वथी उद्धत मनवाळा सिद्धसेन आ प्रमाणे अ? श्लोक बोल्या केभूरिभारभराक्रान्तः स्कन्धोऽयं तव बाधति । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८९ ) " घणा भारना समूहथी दवायेलो आ तारो खभो बाधा ( पीडा ) पामे छे. " ते सांभळीने वृद्धवादी बोल्या न तथा बाधते स्कन्धो बाधतिधते यथा ॥१॥ " जवो बाघति' ए प्रयोग बाधा करे छे, तेवो आ स्कंध बाधा : पामतो नथी. " : आ प्रमाणे सांभळीने शंका पामेला सिद्धसेने विचार्य के - " मारा गुरु विना मारा वचनमां भूल कोण काढे ? माटे जरुर मारा गुरुज "होवा जोइए." एम विचारीने तरतज ते सुखासनमांथी नीचे उतरी गुरुने सारी रीते ओळखी अत्यंत लज्जा आववाथी ते गुरुना चरणकमळमां पडया (नम्या). ते वखते गुरुए पण तेने प्रतिबोध करवा माटे कांके - " हे वत्स ! आ गाथानी व्याख्या कर. "अणुफुल्लिअ फुल्ल म तोडहु, मन आरामा मोडडु | मणुकुसुमेहिं अच्चि निरंजणु, हिडह कांइ वणेण वणु ॥ १ ॥ गुरुनी अवज्ञा करवाथी बुद्धिनी जडता प्राप्त थवाने लीधे सिद्ध-सेन ते गाथानो अर्थ बराबर जाणी शक्या नहीं, तेथी तेणे कहां के १ तात्पर्य र छे के - बाधति ए अशुद्ध रूप छे, ते ठेकाणे बाधते रुप थवं जोइए. तथा वृद्धवादीए कह्यं के तमे बाधति रूप बोल्या ते जेवुं पीडा करे छे तेवो मारो स्कंध पीडा पामतो नर्थ, अर्थात् तमे अशुद्ध बोल्या तेज वधारे पीडाकारी छे. Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९० ) " हे गुरु ! आपज आ गाशनी व्याख्या करो." त्यारे वृद्धवादीए तेनी व्याख्या आ प्रमाणे करी. ___ "अल्प आयुष्यरूप जेने पुष्प छे ते 'अणुपुष्पिका' एटले मनुष्य शरीर, तेना पुष्पो एटले आयुष्यना खंडो, तेने तमे तोडो नहीं. तथा राजपूजाथी थयेला गर्वादिरूप आंकडीवडे आरामोने एटले आत्माने आधीन अने संतापर्नु हरण करनारा यम, नियम विगेरे रूप बगीचाने भांगो नहीं. तथा मन कुसुमोवडे एटले क्षमा, मार्दव, आर्जव अने संतोष विगेरे रूप पुष्पोवडे, निरंजननी एटले अहंकारना स्थानरूप जातिमदादि अंजन जेनां नाश पाम्यां छे एवा सिद्धिपदने पामेला निरंजन देवनी पूजा करो अर्थात् ध्यान करो. मोहादिक वृक्षोना समूहथी भयंकर एवा संसाररूपी एक वनथी बीजा वनमां शामाटे । परिभ्रमण करो छो?" बीजी व्याख्या-'अणु' एटले अल्प धान्य, तेनां 'पुष्पो' एटले फूलो अर्थात् अल्प विषयवाळु होवाथी 'अणुपुष्पी' एटळे मनुष्यशरीर तेनां पुष्पोने एटळे पांच महाव्रतो तथा अढार हजार शीलांगरूप पुष्पोने न तोडो. तेथी मन आरामनो एटले चित्तना विकल्प समूहनो नाश करो. तथा निरंजन एटले सिद्धिपदने पामेला वीतराग देवनी मन पूष्पोवडे पूजा करो अथवा म ने न बने निषेधवाची होवाथी गृहस्थोने उचित एवी देवपूजादिकने विष षट् जीव निकायनी विराधना थाय छे माटे तेमां उद्यम न करो. अर्थात् हे मुनि ! तमे कुसुमवडे प्रभुनी पूजा न करो ( मात्र मनवडे करो ); तथा मनवडे Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दवडे ( अर्थात् कीर्तिने माटे ) चेतनारहित होवाथी तथा भ्रमनो हेतु होवाथी मिथ्यात्वशास्त्रना समूहरूप वनमा ( अरण्यमा ) केम भ्रमण करो छो ? मिथ्यावादनो त्याग करी सत्य एवा तीर्थकरादिष्ट-तीर्थकरभाषित सिद्धांतने विष आदर करो... त्रीजो अर्थ-" अण्" ए धातुनो अर्थ-" शब्द करवो " थाय छे, तेथी 'अणु' एटले शब्द ते शब्दरूप जेनां पुष्पो होय ते 'अणुपुष्पा' एटले कीर्ति कहेवाय छे. ते कीर्तिनां पुष्पोने एटले सद्बोधनां वचनोने न तोडो, तथा मननी आरा एटले विंधवाना गुणने लीधे अध्यात्म संबंधी उपदेशो तेनुं मोटन न करो, एटले खराब व्याख्या करवाथी तेनो नाश न करो. तथा निरंजननी एटले रागादिक लेपरहित. एवा वीतराग देवनी सदगुरुना उपदेशरूप सुगंधी अने शीतळ एवा पुष्पोवडे पूजा करो. तथा वनना एटले संसारना इन एटले स्वामी जे परम सुखी होवाथी तीर्थकर, तेना वनमा एटले शब्दरूप सिद्धांतमां केम हीडो छो ? शा माटे भ्रांति पामो छो ? केमके ते सिद्धांत सत्य छे, तेथी तेमांज प्रीति राखो. __चोथो अर्थ-प्राकृत भाषामां अनेक अर्थ थवाथी एवो पणअर्थ थाय छे के-जेने फळो आव्यां नथी एवां पुष्पोने तोडो नहीं. एटले के योगरूपी कल्पक्षतुं मूळ यम नियम छे, ध्यानरूप तेनुं प्रकांड छ, समतारूप स्कंध छे, कवित्व, वक्तृत्व, यश, प्रताप, मारण, स्तंभन, उच्चाटन अने वशीकरणादिक सामर्थ्यरूपी पुष्पो छे, तथा केवळज्ञानरूपी फळ छे. हजु मात्र योगरूप कल्पवृक्षनां पुष्पोज आवेला छे, ते पुष्पो आगळपर केवळज्ञानरूप फळने उत्पन्न करवानां छे. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) -माटे हजु फळ आव्या पहेलां ते पृष्पोने तोडो नहीं. आरामरूपी पांच महाव्रतोने अथवा पाठांतरे रोप एटले पांच महाव्रतोरूप रोपाने भांगो नहीं. मनरूप पुष्पोवडे निरंजन जिनेश्वर देवनी पूजा करो, तथा एक वनथी बीजा वनमां केम भ्रमण करो छो ? एटले के राजसेवादिक विरस फळवाळां कष्टोने शा माटे अंगीकार करो छो ? आ प्रमाणे गुरुए करेली व्याख्या सांभळीने सिद्धसेनने अत्यंत पश्चात्ताप थयो, तेनुं मन अत्यंत संवेगने पाम्युं, तेथी पोताना प्रमादनी आलोयण ळइने राजानी रजा लइ तेणे गुरुनी साथे विहार कयों. अनुक्रमे वृद्धवादी स्वर्गे गया पछी एकदा सिद्धांतनी प्राकृत भा पा होवाथी अन्य दर्शनीओ हांसी करवा लाग्या, ते सांभळीने लज्जा पामेला सिद्धसेने ब्राह्मण जातिने ठीधे, बाल्यावस्थाथीज संस्कृतना अभ्यासी होवाने लीघे तथा कर्मना दोषने लीघे कांइक गर्विष्ठ थइने संघप्रत्येक के - " जो संघनी संपति होय तो हुं सर्वे सिद्धांताने संस्कृत भाषामां करूं के जेथी लोकमां उपहास न थाय. " आ प्रमाणे दोषयुक्त वाणी सांभळीने संघे कहां के “ अरे ! आवं अयोग्य वचन "म वोलो छो ? शुं जिनेश्वरो तथा गणधरो विगेरे संस्कृत भाषामां सिद्धांतो रचवाने समर्थ होता ? हताज; परंतु बालादिकना अनुग्रहने माटे अर्ध मागधरूिप प्राकृत भाषामा तेमणे सिद्धांतांनी रचना करेली छे. कां छे के बालस्त्रीमन्दमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः ||१|| Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९३ ) अर्थ — चारित्रनी इच्छावाळा बाळक, स्त्री, मंद बुद्धिबाळा अने मूर्ख माणसोना अनुग्रहने माटे तत्रज्ञ पुरुषोए सिद्धांतने प्राकृतमां रच्या छे. १. बुद्धिमान मुनिवरोने माटे चौद पूर्वो संस्कृतमांज रचेला संभळाय छे, माटे हे सूरि महाराज ! तमे आवा वचनमात्रथी पण जिनेश्वरादिकनी अत्यंत आशातना करी छे, तेने माटे जे प्रायश्चित्त शास्त्रमां होय ते विचारीने जलदी अंगीकार करो." आ प्रमाणे संघनी आज्ञा सांभळीने सूरिने सारी रीते पोतानी भूळ जणायाथी अत्यंत पश्चाताप थयो, अने ते बोल्या के - " विना विचारे बोलनार अने जिना - दिकनी आशातना करनार एवा मने धिक्कार छे. आ दोषने टाळवा माटे मने 'पाचिक प्रायश्चित्त प्राप्त थाय छे. जो के हालना समयमां तेवा प्रकारना संहनन आदि बळना अभावने लीधे आ पारांचिक प्रायश्चित्तनो व्युच्छेद थयो छे, तो पण वार वर्ष सुधी आ पारंचिक प्रायश्चित्तनुं हुं आचरण करीश, तेमां रजोहरण, मुखवत्रिका विगेरे जैन लिंगने गुप्त राखी, अवधूतनो वेष धारण करी, मौनने अंगीकार करी, दुष्कर तपस्या करवामां उद्यमवंत थइ, संयमना उपयोगमां सारी रीते युक्त रही, गुप्त वृत्तिथी पांडवोनी जेम बार वर्ष सुधी हुं विहार करतो फरीश. " एम कहीने ते सूरि संघनी आज्ञाथी गच्छवासनो त्याग करी माणसोना जाणवामां न आवे तेम विधिप्रमाणे गाम नगरादिकमां बिहार करतां सात वर्षे पूर्ण थये उज्जयिनी नगरीमां महाकाळ नामना १ दश प्रकारना प्रायश्चित्तमां आ सौथी छेल्लुं अने मोटुं छे. · Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९४ ) शिवनां चैत्यमां आव्या. त्यां शिवलिंग तरफ पोताना पग राखीने सूता. ते जोइने लोको तेने 'कोण छो ? ' विगेरे पूछवा लाग्या, परंतु तेणे कांइ पण जवाब आप्यो नहीं. त्यारे तेओए राजाने जणान्यु के" हे देव ! आपना महादेवना चैत्यमां कोइ परदेशी आवीने रह्यो छे, अने महादेवनी आशातना करे छे. ते बोलाव्या छतां बोलतो नथी, तथा महादेवने प्रणाम पण करते। नथी." ते सांभळीने विक्रम राजाए कौतुकथी त्यां आवी तेने कां के " हे अवधूत ! तमे कोण छो ?" तेणे जवाब आयो के - " हुं धार्मिक छं." राजाए कयुं के - "त्यारे केम अर्थथी तथा नामथी महादेवने प्रणाम करता नथी?" ते सांभळीने जिनमतनी उन्नति करवामां अत्यंत उत्सुक थयेला सूरि कांइक विचार करीने बोल्या के - " हे राजा ! ज्वरथी पीडायेलो माणस जेम मोदकनो स्वाद लइ शके नहीं, तेम आ तमारा देव अमारी वंदना के स्तुति सर्वथा सहन करी शके तेम नथी. " राजाए कहां के - " केम राजाए आवुं संबंधविनानुं बोलो छो ?" तेणे करूं के - " मारी स्तुति करवाथी कदाच आ प्रतिमाने कांइ पण उपद्रव थाय, अने तेथी तमारी अप्रसन्नता थाय एवी मारा मनमां शंका रहे छे. क - " कांइ शंका राखो नहीं. खुशीथी नमस्कार अने स्तुति करो.” सांभळीने सूरिए श्री वर्धमान स्वामीना गुणोथी गर्भित, सारी रचनावाळी अने महान् अर्थवाळी बत्रीश वत्रीशीवडे प्रथम स्तुति करी. पछी अधिष्ठायक देवनुं समीपपणुं होवाथी आ दुषमा समयम पण अनुपम प्रभाववाळा श्री पार्श्वनाथनी चुमाळीश श्लोकवाळा कल्या• ܕܪ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९५ ) णमंदीर स्तोत्रवडे स्तुति करवा मांडी. ते कल्याणमंदीरनुं अग्यारसुं वृत्त बोलती वखते अथवा कोइ ग्रंथना अभिप्राये पहेली बत्रीशीना पहेला काव्यना उच्चार वखतेज श्री धरणेंद्रनुं सानिध्य होवाथी प्रथम शिवलिंगमांथी घुमाडो नीकळवा मांड्यो, त्यार पछी अग्निनी मोटी ज्वाळा नीकळवा मांडी, ते समये सर्वे लोको परस्पर हस्तनी ताळीओ पूर्वक कोलाहल करता बोल्या के- “ खरेखर अत्यंत कोपरूपी काळाग्निथी भयंकर एवा आ महादेव पोताना त्रीजा नेत्रना अनिवडे आ जोगीने भस्मसात् करी नांखश. " त्यार पछी तडतड शब्द करतुं शिवलिंग फाटयुं, अने तेमांथी बीजळीना झबकारानी जेम प्रथम ज्योति (तेज) प्रगट थइ, अने पछी अनुपम एवी श्री पार्श्वनाथनी प्रतिमा प्रगट था. ते जोइ विस्मय पामेळा विक्रम राजाए पूछयूँ के - " हे महाभाग्यवान् ! कोइ वखत नहीं जोये एवं आ आश्चर्य शुं ? आ अपूर्व कया देव प्रगट थया ? " त्यारे गुरु बोल्या के-" त्रण जगत्ने सेववालायक, देवना पण देव, श्री धरणेंद्रे जेनी उपर अद्भुत फणारूप छत्रनो आडंबर कर्पो छे, एवा आ वीशमा तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ स्वामीनी प्रतिमा छे. आ देवाधिदेवज मारी स्तुति विगेरेने सहन करी शके छे. आ प्रतिमानो अहींथी प्रादुर्भाव शी रीते थयो ? ते वृत्तांत सांभळो. पूर्वे आज अवंती नगरीमां एक "भद्रा " नामनी शेठाणी रहेती हती. तेने “ अवंती सुकुमाल ” नामे पुत्र हतो. ते बत्रीश पत्नी ओना यौवनरूप सुगंधना सर्वस्वनुं आस्वादन करवामां भ्रमररूप हतो. तथा शालिभद्रनी जेम अत्यंत भोगरसना समुद्रपां निमग्न होवाथी अल्प • Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण गृहव्यापार करतो नहोतो, तेनी माता ज सर्व गृहचिंता करती हती. एकदा मौर्य वंशना अग्रेसर " संप्रति " राजाने प्रतिबोध करनार " श्री आर्यसुहस्ती" नामना आचार्य पोताना गच्छसहित विहारना क्रमे त्यां आव्या, अने भद्रानी अनुमतिथी तेणीना आवासनी पासेज वाहनशाळामा रह्या. एकदा प्रदोष समये सूरि महाराज " नलिनीगुल्म " नामनुं अध्ययन गणता हता. कर्णने रसायण समान ते अध्ययन सांभळतांज अत्यंत आनंद पामेलो भद्रानो पुत्र अवंतिसुकुमाल सात भूमिकाना प्रासादथी नीचे उतरीने गुरुनी वसतिना द्वार पासे आवी ने सांभळवा लाग्यो. तरतज तेने जातिस्मरण उत्पन्न थयु. एटले ते गुरु पासे आवी नमस्कार करीबोल्यो के-" हे भगवान् ! हुँ भद्रानो पुत्र छु. नलिनीगुल्म विमाननी अनुपम ऋद्धिनो में पूर्व भवे अनुभव कर्यो छे, ते सुख मने जातिस्मरण थवाथी याद आव्युं छे. तेथी संसारना मुखथी पराङ्मुख थइने हुं त्यांज जवाने अत्यंत उत्सुक थयो छ. हे भगवान् ! पूज्य एवा आप पण शुं नलिनीगुल्म विमानमांथी ज अत्रे आव्या छो ? केमके नहीं तो ते विमानतुं यथार्थ स्वरूप आप शी रीते जाणो?" ते सांभळीने गुरु बोल्या के-" सर्वज्ञे रचेला सिद्धांतना वचनथी अमे तेनुं स्वरूप जाणीए छीए." तेणे पूछयु के-"कया उपाय घडे ते विमान जलदी प्राप्त थाय ?" गुरु बोल्या-" चारित्र लेवाथी ते सुख प्राप्त थाय छे, परंतु तुं अत्यंत कोमळ छो अने चारित्र अत्यंत कठण छे. केमके लोढाना चणा चाववा सुकर छे, अग्निनो स्पर्श पण मुकर छे, परंतु जिनेश्वरे कहेठे चारित्र आतचाररहित पालन करवं Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९७ ) दुष्कर छे. वळी ते चारित्र पोताना स्वजनोनी अनुमति होय तोज देवाय छे. " ते सांभळीने ते अवंति सुकुमाळ सुर्योदय थया पहेलांज नलिनीगुल्म विमानमां जवा माटे अत्यंत उत्कंठित थयो, तेथी संयम ( चारित्र ) ग्रहण करवा सारु अत्यंत उत्सुक थइने पोतानी जातेज पंचमुष्टिलोच करी तेणे मुनिवेष धारण कर्यो. एटले सूरिए पण तेने विधि प्रमाणे दीक्षा आपी. पछी चारित्र तपना कष्टने सहन करवामां असमर्थ होवाथी सूरिनी आज्ञा लइ, शरीरनी वेदनाने नहीं गणतो, तक्षिण दर्शना अग्रभागवडे बने पग विधावाथी तेमांथी नीकळता लोहीवडे मार्गने कादववाळी करतो ते “ कंथेरिका कुडंग ” नामना स्मशानमां गयो, अने त्यां पादोपगम नामनुं अनशन अंगीकार करी ध्यानमग्न थइने रह्यो . तेना रुधिरना गंधथी आकर्षाने एक नवी प्रसूतिवाळी दुष्ट शियाळणी पोतानां बच्चासहित त्यां आवी. वाघणनी जेवी भयंकर मुखने धारण करती तथा राक्षसीनी जेवी भूखी थली ते तेनुं भक्षण करवा लागी. तेणीए तथा तेणीनां बच्चांए रात्रिना पहेला पहोरमां तेना वे पगर्नु भक्षण कर्यु, बीजा पहोरमां तेना साथळा सुधी भक्षण कर्यु अने श्रीजा पहोरमां तेनुं सघळं उदर भक्षण कर्यु, तोपण ते मुनि लेशमात्र पण कंपायमान थया नहीं. “अहो ! आटलं बधुं सुकुमाळपणुं ( कोमळपणुं ) छतां पण दुःसह महा व्यथा केवी रीते सहन करी ? अहो ! महा साहसिकोमां पण शिरोमणि एवा तेमने धन्य छे. " पछी रात्रीना चोथा पहोरे ते महासत्ववान् अवंतिसुकुमाल साधु काळधर्म पामीने नलिनीगुल्म विमानमां म ६ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९८) दिक देवपणे उत्पन्न थया. तेना साहसथी तुष्टमान थयेला देवोए तेज वखते तेना देहनो महिमा कर्यो. प्रात:काळे श्रुतना उपयोगथी गुरुए सर्व वृत्तांत जाणीने तेनी माता भद्राने तथा तेनी स्त्रीओने कहूं, त्यारे ते स्त्रीओ भद्रा मातासहित स्मशानमा गइ, अने घणो विलाप करी क्षिप्रा नदीने कांठे तेनुं औवंदहिक कर्म (अग्नि संस्कार ) कर्य. त्यार पछी वैराग्य रसथी भरेली भद्राए एक गर्भिणी वहुने घरमां राखी बीजी एकत्रीश बहुओ सहित दीक्षा लीधी. घेर रहेली गर्मिणी वहुए पुत्र प्रसव्यो. ते पुढे तेना पिता अवंति सुकुमालना मृत्युने ठेकाणे आ प्रासाद कराव्यो. पोताना पितानो अहीं महाकाळ (मृत्यु) थयो, तेथी आ प्रासादनुं नाम महाकाल पाडयुं, अने तेमां मोटा उ. त्सवपूर्वक श्रीपार्श्वनाथ परमात्मानी अनुपम प्रतिमा स्थापन करी. केटलाक काळ सुधी तो ते प्रतिमानी विधिपूर्वक पूजा थती रही. पछी काळक्रमे महादेवना भक्त ब्राह्मणोए अवसर पामीने ते प्रतिमाने पृथ्वीमां गुप्त करी ( भंडारी दइ) अकार्य करवामां तत्पर थइ अहीं महादेवनुं लिंग स्थापन कयें. हमणां मारी करेली स्तुति सांभळीने सावधान थयेला अधिष्ठायकना सांनिध्यबळथी आ श्रीपार्श्वनाथनी प्रतिमा शिवलिंग भेदीने प्रगट थइ. हे विक्रम राजा ! हवे सत्यासत्यनुं निरुपग तो पोतेज करो." आ प्रमाणे सुंदर अने मधुर वाणी सांभळीने विक्रम राजाने शुभ परिणाम थवाथी श्री जैनमतने विषे अत्यंत बहुमान उत्पन्न थयु, तेथी तेणे प्रसन्न थइने श्रीपार्श्वनाथनी प्रतिमाना पूजन माटे सो गाम आप्या. तथा तेणे योगीनी ( सूरिनी) अत्यंत Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९९ ) श्लाघा करतां कडं के-" अझे! आपनी जेवा महर्षि पृथ्वीपर कोण छ ? अहयो बहवः सन्ति भकभक्षणदक्षिणाः। एकः स एव शेषः स्याद्धरित्रीधरणक्षमः॥१॥ अर्थ-देडकांओनुं भक्षण करवामां चतुर एवा सो तो दुनीआमां धणा छे, परंतु पृथ्वीने धारण करवामां तो एक शेषनाग ज समर्थ छे. १. खेरैवोदयः श्लाध्यः कोऽन्येषामुदये ग्रहः । न तमांसि न तेजांति यस्मिन्नभ्युदिते सति ॥२॥ अर्थ-सूर्यनोज उदय लाघा करवा योग्य छे, बीना (तेजस्वी) ना उदयमां शो आग्रह ! कारण के सूर्यनो उदय थवाथी अंधकार तेमज बीजां तेजो बिलकुल रहेतां नथी. २. वळी आपनी कवित्वकळा पण असाधारण छे. केमके साकरनी जेवा मीठाशवाळां काव्यनां पदो उपरा उपरी कया कविना मुखथी नोकळतां नथी ? सर्वनां मुखमाथी नीकळे छे. तथा कोनी वाणीनो वैभव उत्तम रसने पुष्ट करतो नथी ? सर्वनो करे छे. परंतु जे कवि सुंदर पदो अने उत्तम रस ए बनेने अमृतना निझरणानी जेवा रसवडे तरंगित करे छे, तेवा कवि तो क्वचित् कोइकज होय छे. वळी कविनी वाणीमां अत्यंत मधुरता लागवी ए काइ सरखा अक्षरोनी Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१००) आत्ति (पास) वडे लागती नथी, परिचय ( अभ्यास) थी लागती नथी, तेमज शब्दनी व्युत्पत्तिथी के गुरुना सारा उपदेशथी पण ला. गती नथी, परंतु मोटा पुण्यना उदयथी सत्कविओनी वाणी पोतानी मेळेज मधुर लागे छे." आ प्रमाणे प्रशंसा करीने विक्रम राजा पोताने घेर गया. आवा प्रकारनी जिनशासननी उत्तम प्रभावनाथी आश्चर्य अने आनंद पामेला संघे सूरिना पारांचिक प्रायश्चित्तना बाकी रहेला पांच वर्षों माफ करीने तेने मोटा उत्सवपूर्वक पूर प्रवेश क.. रावी गच्छना नायक तरीके स्थापन का. ___ एकदा सिद्धसेन दिवाकर सूरि पोताना चरण कमळवडे पृथ्वीने पवित्र करता अनुक्रमे मालव देशमां “ ओंकार" नामना नगरमां गया. एकदा त्यांना संघे सूरिने विनंति करी के "हे भगवान् ! आ नगरना समीपे एक गाम छे, तेमां सुंदर नामनो क्षत्रिय राज्य करतो हतो. तेने बे स्त्रीओ हती. तेमां एके प्रथम पुत्री प्रसवी, तेथी तेणीने अत्यंत खेद थयो. कारणके तेणीनी शोक पण गर्भिणी हती, अने थोडा वखतमांज प्रसूति करनार हती. तेथी ते शोकने पुत्र थशे तो ते पतिने वधारे वहाली थशे, एम धारीने तेणीए स्त्री जातिने उचित एवी अत्यंत दुष्टताने लीधे घणुं द्रव्य आपी एक सूतिका (दाइ) ने कह्यु के-“ आ मारी शोक प्रसव समये तने बोलावशे, तेथी तुं प्रथमथीज कोइ ठेकाणेथी एक मृतक बाळक लावी राखजे, अने प्रसव वखते ते मृतक बाळकने बताची कहेजे के 'मुएलुं बाळक जन्म्यु छ.' एम कही प्रसवेला पुत्रने तुं पोतेज गुप्त रीते लइने दूर नांखी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०१ ) आवजे.' आप्रमाणे तेणीए प्रपंच कों, अने दैवयोगे तेमज थयुं अने ते सूतिका (दाइ) ए पण तेज प्रमाणे मुएलं बाळक बतावी जन्मेला पुत्रने दूर अरण्यमा मूकी दीघो. "प्राणीओना लोभने धिक्कार छे."पछी ते तरतना जन्मेला पुत्रने दूर नांख्या छतां पण पुण्यना बळथी तेनी कुळदेवीए गायतुं रूप धारण करी दूध पाइ उछेरीने एक वर्षनो कर्यो. पछी अहींथी नजीकना शिवालयना अधिकारी भरटके ( पूजारीए) तेने जोयो. एटले तेने लइने पोतानी दीक्षा आपी पोतानो शिष्य को. एकदा कान्यकुब्ज देशनो जन्मांध राजा श्रीपति (कृष्ण)नी जेम देशोने जीततो जीततो आ गामनी नजीक आवीने रह्यो. ते वखते रात्रिने समये महादेवे प्रत्यक्ष थइने नाना भरटकने कह्यु के-"तुं कान्यकुब्जना राजाने मारी पूजा, पुष्प अने जळ शेषा (पासादी) तरीके आपजे, तेथी ते अंधतानो त्याग करी सज्ज नेत्रवाळो ( देखतो) थशे." प्रातःकाळे तेण ते वृत्तांत पोताना गुरुने जगावीने तेनी आज्ञाथी पूजार्नु पुष्प अने जळ लइ स्कंधावार ( सैन्य )मां आवी राजाना प्रधानोने कह्यु के-'हे राजसेवको ! तमारा राजाने मारी पासे लावो, हुं तेने सूर्यविकासी कमळनी जेम प्रफुल्लित नेत्रवाळो करूं." ते सांभळीने प्रधानोए राजाने प्रेरणा करी, एटले ते तेनी पासे आव्यो. पछी ते ऋषिए आपेठे निर्माल्य बहुमानी लइने राजाए पोतानी आंखोपर राख्यु, के तरतज ते सज्ज नेत्रवाळो थयो. तेथी प्रसन्न थयेला राजाए तेने इनाममां सो गाम आप्यां, अने आज ठेकाणे आ मोटो शिवनो पासाद करावी आप्यो. हव ते भरटक ऋषि राजादिकने मान्य होवाथी Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०२ ) अहीं जिनालय करवा देतो नथी, केमके अहीं मिथ्याष्टिओनुं बळ वधारे छे. माटे आप एवो काइक यत्न करो के जेथी अहीं आशिवाल. यथी पण उंचं अने मनोहर जिनचैत्य करी शकाय. आ कार्यमा मात्र आप ज समर्थ छो, माटे आपने अमे विनंति करीए छीए." आ प्रमाणे श्रावकोनी विज्ञप्ति सांभळीने मुनीश्वर श्री सिद्धसेन सूरि विहार करी अवंति नगरीमा आव्या, अने नवा अद्भुत चार श्लोको बनावीने, हाथमा श्लोकनो कागळ राखी विक्रम राजाना महेलना द्वार पासे आवी द्वारपाळ मारफत एक श्लोक राजा पासे मोकल्यो. ते श्लोक आ प्रमाणे हतो: दिदृक्षुर्भिक्षुरायातस्तिष्ठति द्वारि वारितः । हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु ॥१॥ अर्थ-आपने जोवानी इच्छावाळो भिक्षु हस्तमां चार श्लोक राखीने द्वारपाले निषेध करवाथी बारणेज उभो छे, ते आवे के जाय ? ___ आ श्लोक सांभळीने राजाए आश्चर्य पामी तेना जवाबमा सामो श्लोक मोकल्यो के दीयतां दश लक्षाणि शासनानि चतुर्दश । हस्तन्यस्तचतुःश्लोक उतागच्छतु गच्छतु ॥१॥ अर्थ-आ भिक्षुकने दश लाख सोनामहोरो तथा चौद शासन, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) ( गाम) आपवामां आवे छे. हवे हाथमां चार श्लोको जेणे राखेला छे एवा ते भिक्षु मरजी होय तो आवे अने मरजी होय तो जाय. १. आ श्लोक सांभळीने कवींद्रे द्वारपाळ मारफत ज राजाने जणान्युं के–“हे राजा ! आ भिक्षुने आपना दर्शननीज इच्छा छे, द्रव्यनी इच्छा नथी." ते सांभळीने राजाए तेमने पोतानी पासे बोलाव्या, अने तेमने ओळख्या. तेथी सिंहासनपरथी उठीने बहुमानपूर्वक आग्रहथी तमने सिंहासनपर बेसाडी भक्तिपूर्वक राजाए कहां के - " हे पूज्य ! चिरकाळे केम देखाया ? " सूरि बोल्या के - " पृथ्वीने विषे सौधर्मेंद्र समान है राजा ! केवळ धर्मकार्यमा व्यग्र होवाने कीवेज अमे घणे काळे आव्या छीए. हे राजन् ! आ चार श्लोको सांभळो. - अपूर्वेयं धनुर्विद्या भवता शिक्षिता कुतः । मार्गणौघः समभ्येति गुणो याति दिगन्तरम् ॥१॥ अर्थ- हे राजा ! आप आ अलौकिक धनुर्विद्या क्यांथी शीख्या, के जेथी मार्गणनो समूह तमारी पासे आवे छे अने गुण दिशाओ मां जाय छे ? (तात्पर्य ए छे के- धनुर्विद्यायां मार्गण एटले बाणनो समूह दिशाओमां जवो जोइए, अने गुण एटले धनुष्नी दोरी (पणच ) पासे रहेवी जोइए. तेथी उलटं थवाथी अलौकिक धनुर्विद्या कही. परमार्थ एवो छे के मार्गण एटले भिक्षुकनो समूह पासे आवे छे अने गुण-कीर्त्ति दिशाओ मां जाय छे. एवो गूढ अभिप्राय छे. ) १. सरस्वती स्थिता वक्त्रे लक्ष्मीः करसरोरुहे । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०४) कीर्तिः किंकुपिता राजन् येन देशान्तरंगता॥२॥ अर्थ-हे राजा ! सरस्वती तमारा मुखमा रही छे, अने लक्ष्मी तमारा हस्तकमळमां रही छे; परंतु कीर्ति केम कोप पामी छे के जेथी ते देशांतरमा जती रही छे. २. सर्वदा सर्वदोऽसीति मिथ्या संस्तूयसे बुद्धैः । नारयो लेभिरे पृष्ठं न वक्षः परयोषितः ॥ ३ ॥ अर्थ-" हे राजा ! तमे सर्वदा सर्व वस्तु आपनार छो," ए प्रमाणे पंडितो तमारी स्तुनि करे छे, ते मिथ्या ( खोटी ) छे. केमके तमारा शत्रुओने तमे तमारी पीठ आपता नथी, अने परस्त्रीओने वक्षस्थळ आपता नथी. (तेथी तमे सर्व वस्तुना आपनार केम कहेवाओ ! अर्थात युद्धमा नाशीने तमे पीठ देखाडता नथी अने परस्त्रीओने आलिंगन करता नथी ए तमारामां मोटो गुण छे. ) ३. आहते तव निःस्वाने स्फुटितं रिपुहृद्घटैः । गलिते तत्वियाने राजंश्चित्रमिदं महत् ॥४॥ अर्थ-हे राजा!युद्धमां तमारो डंको हणावाथी (वागवाथी) शत्रुनां हृदयरूपी घडाओ फूटी जाय छे, अने तेमनी स्त्रीओना नेत्रमाथी पाणी नीकळे छे, ए मोडं आश्चर्य छे. ( अर्थात् डंको फूटवो जोइए, अने जे वस्तु फूटे तेमाथीन पाणी नीकळवू जोइए छतां अहीतो तेथी उलटुंज थाय छे त आश्चर्य छे.) ४. Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५) आ प्रमाणे अद्भुत चार श्लोको सांभळीने अत्यंत प्रसन्न थयेला विक्रम राजाए उंचा किंमती वस्त्रोथी भरेलो १, सुगंधि वस्तुना समूहथी भरेलो २, सोनामहोरोथी भरेलो ३, अने हार, अर्ध हार विगेरे अलंकारोथी भरेलो ४-एचा मोटा चार हाथीओ मंगावीने गुरुने कां के-" आ ग्रहण करो." गुरु बोल्या के-"आ अमारे कल्पे नहीं." फरीथी राजाए कह्यु के-" त्यारे आपनी इच्छामां आवे तेवा मारी पृथ्वीमांथी मोटा चार देशो ग्रहण करो." गुरु बोल्या-" ते पण हुं इच्छतो नथी." "त्यारे आपनी शी इच्छा छे ?" एम राजाना पूछवाथी सूरि बोल्या के-“हे राजा! ओंकार नामना पुरमा शिवालय छे, तेथी पण उंचो चार द्वारवाळो जैन प्रासाद करावो, अने परिवार सहित जाते त्यां आवीने प्रतिमानी स्थापना तथा प्रतिष्ठा संबंधी उस्कृष्ट महोत्सवो करो. ते सांभळीने पुण्यना अर्थी राजाए तेज प्रमाणे सर्व कर्यु. आ प्रमाणे जैन मतनी महा उन्नति थवाथी संघ अत्यंत हर्ष पाम्यो. अनुक्रमे सूरि दक्षिणमां " प्रतिष्ठान" ( पेंठ ) नामना पुरमा गया. त्यां पोताना आयुष्यनो अंत जाणीने अनशनादिक विधिवडे काळ करी स्वर्गलोकने पाम्या. आ वृत्तांत जणाववा माटे त्यांना संघे एक विद्वान् वक्ता भट्ट ( ब्राह्मण ) ने चित्रकूट (चितोड) मोकल्यो. ते भट्ट चित्रकूटमा जइने संघनी पासे वारंवार अर्थो श्लाक बोलचा लाग्यो के" इदानीं वादिखद्योता द्योतन्ते दक्षिणापथे।" Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०६ ) (हमणां दक्षिण देशमा वादीरूपी पतंगीआओ प्रकाश पाम्या छे). ते सांभळीने जेने सरस्वती प्रसन्न थयेली छे एवी " सिद्धा" नामनी सिद्धसेननी व्हेन बोली के" नूनमस्तंगतो वादी सिद्धसेनो दिवाकरः ॥१॥" (खरेखर सिद्धसेन नामना सूर्यनो अस्त थयो जणाय छे.) त्यारे ते भटे कहूं के-" हा, तेमज थयुं छे." ॥ इति व्यञ्जनानां अन्यथाकरणे सिद्धसेनप्रबन्धः ॥ व्यंजनोने न्यून करवामां दृष्टांत आ प्रमाणे एकदा " राजगृह" नगरमां " श्रीमहावीर " स्वामी समवसर्या. तेमने वंदना करवा माटे देवो, विद्याधरो, मनुष्यो तथा अभयकुमार सहित “श्रेणिक " राजा आव्या. भगवान्नी पासे धर्मदे. शना सांभळीने सर्व सभाजनो पाछा कळ्या ते वखते कोइक विद्याधरन आकाशगामी विद्यार्नु एक पद विस्मरण थयु, तयी करीने ते वारंवार आकाशमां थोडेक उंचे कूदीने पाछो पृथ्वीपर पडतो हतो. आ प्रमाणे थतुं जोइने श्रेणिक राजाए भगवान्ने पूछयु के-" हे स्वामी! आ खेचर (विद्याधर ) पांखविनाना पक्षीनी जेम आकाशमां उडी उडीने केम वारंवार नीचे पडे छ ? " त्यारे भगवाने तेने ( राजाने ) विद्याना पदनुं विस्मरण थयानो व्यतिकर (पृ. त्तांत ) कह्यो. ते सांभळीने अभयकुमारे ते खेचर पासे जइने का Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०७ ) के-" हे खेचर ! जो तमे मने तमारी समान विद्यावाळो करोतो तमारी विद्याना अक्षर ओळखीने हुं पूरा करी आ. " ते सांभळीने विद्याधेरे ते वात अंगीकार करी. अभयकुमारने पदानुसारी बुद्धि (लब्धि) होवाथी एक पदवडे अनेक पदोने जाणवानी शक्ति हती. तेथी ते विद्याना बाकीना अक्षरोने अनुसारे विस्मृत थयेला अक्षरने जाणीने तेणे ते खेचरने विद्या पूर्ण करी आपी. ते खेचर पण विद्या संपूर्ण थवाथी हर्षित थइ अभयकुमारने विद्यासाधननो उपाय बतावी पोताने स्थाने गयो. ॥ इति व्यञ्जनानां न्यूनत्वे कथा. ॥ व्यंजनने अधिक करवा उपर कथा. " पाटलीपुत्र " नगरमा नवमा" नंद" राजाने “ चाणाक्ये" प्रतिज्ञा करवाथी राज्यभ्रष्ट कर्यो, ते राज्यपर “ मयूरपोषक " गामना महत्तरनी दीकरीना पुत्र "चंद्रगुप्त" ने बेसाड्यो. तेने " बिंदुसार" नामे पुत्र थयो. तेणे तेनी पछी राज्य कर्यु. तेनी पछी तेनो पुत्र “ अशोकश्री" राजा थयो. तेणे पोताना "कुणाल " नामना पुत्रने बाल्यावस्थामा पण तेनापरना प्रेमने लीधे तेना पोषणने माटे "उज्जयिनी" नगरी आपी अने पोतानी पासे रहेवाथी तेनी अपर (ओरमान) माताओथी तेनो पराभव (अनिष्ट थशे एम धारीते कुमारने उज्जयिनीमाज राख्यो. अनुक्रमे प्रधानादिकथी पुष्पनी जेम लालन Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०८) पालन करातो ते कुमार आठ वर्षनो थयो त्यारे " कुमार अभ्यासने योग्य थयो छे" एम धारी राजाए प्रधानपर कागळ लख्यो. तेमा "अ. धीयतानः कुमारः" (अमारा कुमारने भणावजो) ए प्रमाणे स्पष्ट अक्षरो लख्या. तेवामां का शीघ्र कार्य आवी पडवाथी राजा अन्य कार्यमां व्यग्र थयो. तेटलामां कुणालनी अपरमाताए त्यां आवी ते कागळ वांची विचार्यु के-"कुणाल कुमार सारो विद्वान् थशे, एटले राजा तेने ज राज्य आपशे, मारा पुत्रने आपशे नहीं." एम विचारी कुणालनु अनिष्ट करवाना हेतुथी तेणीए तत्काळ अने माथे एक बिंदु ( अनुस्वार ) कयु. तेथी "अंधीयतानः कुमारः" ( अमारा कुमारने आंधळो करजो) एवं थयु. अहो ! मात्र एक बिंदुना वधारवाथी ज एकांत हितकारी अर्थनुं पण एकांत अहितकारीपणुं थयु. पछी थोडीवारे राजाए ते कागळ वांच्या विना ज बंध करीने (बीडीने ) मोकली दीघो. ते कागळ कोइ अनुचरे उज्जयिनी जइ प्रधानना हाथमा आप्यो, प्रधाने ते कागळ वांच्यो, अने तेमां लखेली हकीकत जाणी अत्यंत खेद पाम्पो. कागळनी हकीकत कहेवाने असमर्थ एवा प्रधाननां नेत्रमा अश्रु आब्यां एटले कुणाल कुमारे पाते ज ते कागळ वांच्यो. तेमां " अंधीयतान्नः कुमारः" एवा अक्षर जोइ अत्यंत उद्वेग पामी विचार करवा लाग्यो के-“ खरेखर में कांइपण पितानी आज्ञानो भंग कर्यों हशे, नहीं तो मारा एकांत हितने ज इच्छनार पिता आवी आज्ञा केप आपे ? माटे ने पितानी आज्ञानु उल्लंघन करे तेने दुष्ट पुत्र जागवो.” एम विचारी कुणाल कुपारे, प्रधानादिके राजानी Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञानो निर्णय करवा माटे थोडो वखत विलंब करवानुं बहु रीते कह्या छतां पण तत्काळ दुर्दैवना वशथी अग्निवडे तपावेली सळीवती पातानां बने नेत्रो आंज्यां ( फोडयां ). अहो ! महापुरुषोने पण विना विचार्यु कार्य महा अनर्थकारी थाय छे. कर्जा छे के-- सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् । वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव संपदः।। ___अर्थ-सहसा ( वगर विचारे ) कार्य करवू नहीं. केमके अविवेक ए परम (मोटी ) आपत्तिनुं स्थान छे. गुणोमां लुब्ध थयेली संपत्तिओ पोतानी मेळेज विचारीने कार्य करनाराने वरे छ. १. आवा खराब परिणामवाळा कार्यमां गुरुनी आज्ञाना आराधकने पण गुरुनी आज्ञा अयोग्य जणाती होय तो काळनो विलंब करवा एम शास्त्रमा कहेलं छे. अने तेवो विलंब करवो ते पण त्रण वखत आज्ञा थाय त्यां सुधीज पुरुषोने कल्याणकारी छे. कर्तुं छे के-- क्षणेन लभ्यते यामो यामेन लभ्यते दिनम् । दिनेन लभ्यते कालः कालात्कालो भविष्यति॥१॥ ___ अर्थ--क्षणनो विलंब करवाथी पहोरनो अवसर मळे छे, पहोरनो विलंब करवाथी दिवस मळे छे, दिवसनो विलंब करवाथी काल (रात्रीदिवस ) मळे छे, अने कालनो विलंब करवाथी बीजी काल मळे छे. १. Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११०) हालना समयमां इंग्रेजोना राज्यमां पण सर्व कार्योमा त्रण. वार आज्ञानी अपेक्षा राखवानी व्यवस्था छे.'केमके तेवी व्यवस्थाने लीधे सारी रीते विचार करवा रूप गुण प्राप्त थाय छे. अथवा तो रामचंद्रनी जेम एकांत पिनानी आज्ञा प्रमाणे वर्तवामांज तत्पर, अत्यंत नम्रतावान् अने महासाहसिकना निधिसमान पुत्रनो पितानी आज्ञा पाळवामां शो दोष छ ? अत्यंत विस्मयथी ( हर्षथी) सर्व अंगमा उल्लास पामता रोमोद्गम ( रोमांच ) वडे गुरुनी आज्ञानुं अनुष्ठान महान् पुरुषोने पण वखाणवा लायकज छे; परंतु तेमां आज्ञा आपनार पितानोज दोष छे के जेथी अत्यंत कृाना पात्ररूप पुत्र उपर पण सारी रीते जोया वांच्या विना ज कागळ लखी मोकल्यो. अथवा नवा नवा अनेक कार्योमा व्यग्र रहेला पितानो पण शो दोष ? पुरुष रत्ननो नाश करनारी, तेवा प्रकारना कूट प्रपंचने रचनारी अने दुष्ट मतिवाळी अपरमातानो ज दोष छे. अथवा स्त्री जातिनी स्वभावथी ज दुष्टताने लीये, वगर विचारे ज कार्य करवापणाने लीधे अने पापमां ज तत्पर होवाने लीधे तथा अपरमाता निरंतर द्वेषवाळी ज होय छे अने तेणीनुं हृदय दुष्ट ज होय छे तेने लीधे तेमज पोताना पुत्रने राज्यप्राप्ति थाय तो ठीक तेवा विचाररूप लोभसागरनुं दुर्निवारपणुं होवाने लीधे तेणीए आ अकार्य कर्यु, तेमां शुं आश्चर्य ? कांइज नहीं. १ दरेक धारानु बील त्रणवार वंचाया पछी पसार थाय छे. कोइ पण वस्तुनुं वेचाण पण छेल्लावार प्रणवार बोल्या पछी करवामां आवे छे. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१११) त्यारे आ दोष कोने आपवो ? ते विषे निर्णय करे छे के-पूर्व करेला दुष्कृत्य (पापकर्म ) नो ज आ दोष छे, केमके पिताए तो प्राणथी पण वहाला एवा पुत्रने विद्या प्राप्त कराववानो ज उपक्रम (उद्योग) कर्यों हतो, परंतु तेने बदले परिणाममा जन्मपर्यंत बन्ने नेत्रनी अंधता प्राप्त थइ. कहुं छे केजं जेण कयं कम्मं पुत्वभवे इहभवे वसंतेणं । तं तेण वेइअचं निमित्तमित्तो परो होइ॥ २॥ ___अर्थ--पूर्व भवमां अथवा आ ( चालता) भवमा वसतां जेणे जे कर्म कर्यु छे, ते अवश्य तेणे भोगववानुं ज छ तेमां बीजो प्राणी तो निमित्तमात्र ज छे. २ धारिज्जइ इंतो जलनिही वि कल्लोलभिन्न कुलसेलो । न हु अन्न जम्म निम्मिअ सुहासुहो दिवपरिणामो॥२॥ ____ अर्थ--तरंगोए करीने मोटा कूळपर्वतने पण भेदनार एवा समुद्रने धारण करी शकाय ( अटकावी शकाय); परंतु पूर्व जन्ममा करेला शुभाशुभ कर्मना परिणाम अटकावी शकाता नथी. १ . पछी राजाए आ वृत्तांत सांभळीने विचार्यु के-" मने धिक्कार छे के में कूट लेख लखीने अ कार उपर अनुस्वार मूकवा रुप प्रमादवडे तात्र अग्निनी जेम आटलो बधो अनर्थ कर्यों ? अथवा उन्मादनी जेवो प्रमाद जीवने कया कया अनर्थ नथी पमाडतो? अने Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११२) कया कया मनोरथोनो नाश नथी करतो ? कयुं छे के,-- प्रमादः परम द्वेषी प्रमादः परमं विषम् । प्रमादो मुक्तिपूर्दस्युः प्रमादो नरकायनम् ॥ १॥ अर्थ--प्रमाद मोटो शत्रु छे, प्रमाद महा उत्कट विष छे, प्रमाद मुक्तिपुरानो चोर छे, अने प्रमाद नरकनुं स्थान छे. १ राज्यने योग्य एवा पुत्रनो आ प्रमाणे विनाश करवामां हेतुरूप अने संताननो नाश करवामां साक्षात् धूमकेतुरूप मने मूर्खने धिक्कार छे. हवे तो ते पुत्र प्राणथी पण अधिक प्रिय छतां चक्षुरहित होवाथी समग्र समृद्धिना सारभूत राज्यने अथवा युवराजपणाने केम लायक होय ? " आ प्रमाणे ते राजा खेद सहित हृदयमां वारंवार पश्चात्ताप करवा लाग्यो. पछी कुणाल कुमारने समृद्धिवाळु बीजुंगाम आप्यु. अने तेनी अपरमाताना पुत्रने उज्जयिनी आपी. अनुक्रमे ते समृद्धिवाळा गामने भोगवतां कुणाल कुमारनी " शरदश्री" नामनी पत्नीए विडूर पवर्तनी पृथ्वी वैडूर्य रत्नने प्रसवे तेम सारा लक्षणवाळा पुत्ररत्नने प्रसव्यो. ते वखते “हुं अपर मातानो मनोरथ व्यर्थ करूं, अने पोतानी मातानो मनोरथ सफळ करूं." एम विचारीने कुणाल कुमार राज्य लेवानी इच्छाथी पाटलीपुत्रमा जइ अनुपम गंधर्व कळाए करीने पुरना लोकोनुं रंजन करवा लाग्यो. तेनी अपूर्व कळा सांभळीने अशोकश्री राजाए तेने जवनिकामां राखीने गावानी आज्ञा करी. त्यारे ते पण सुंदर काव्यना प्रबंधवडे गातां गातां आ प्रमाणे बोल्यो. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११३) चंदगुत्तपपुत्तो उ बिंदुसारस्स नत्तुओ। असोगसिरिणो पुत्तो अंधो जाचइ कागणिं ॥१॥ ____ अर्थ-चंद्रगुप्तनो प्रपौत्र, बिंदुसारनो पौत्र अने अशोकश्रीनो पुत्र के जे अंध छे, ते काकणीनी याचना करे छे. १. ते सांभळीने राजाए बहु मानथी तेने पूछयु के-"तुं कोण छे ?" ते बोल्यो-" आपनी आज्ञानुं आराधन करवामां एकाग्र चित्तवाळो हुं आपनो पुत्र कुणाल छ, के जेणे पितानी आज्ञाथी पोताना पाणथी पण अधिक वहालां नेत्रो गुमाव्यां छे." ते सांभळीने राजा हर्ष पामी स्नेहसहित आखा शरीरे रोमांच रुप कंचुकने धारण करतो सतो ते कुमारने आलिंगन दइने बोल्यो के-" हुँ तारापर तुष्टमान छं. तारी इच्छा होय ते माग." ते बोल्यो के-" हुं काकणी माणु छ. बीजू कांइ मागतो नथी." राजाए कह्यु-" हे वत्स ! तुं महाबुद्धिमान छतां केम आq अत्यंत तुच्छ मागे छे ? " ते वखते प्रधानो बोल्या के-" हे राजा ! राजपुत्रोने काकणी शब्दे करीने गज्य कहेवाय छे." ते सांभळीने राजाए तेने कयु के-" हे वत्स ! नेत्ररहित तुं राज्य शी रीते करी शकीश ?" त्यारे ते बोल्यो के-“ पिताश्रीना प्रसादथी पिताश्रीने पवित्र लक्षणोना पात्ररूप पौत्र थयो छे, तेने माटे राज्य मागुं छं, मारे माटे मागतो नथी." ते सांभळीने अत्यंत हर्ष पामेला राजाए प्रेमसहित कुमारने पूछ\ के-" हे वत्स ! हर्षनां स्थानरूप ते पुत्र क्यारे जन्म्यो ? " कुमार बोल्यो के-" संप्रति एव ( हमणांज ). " ते सांभळीने अत्यंत प्रीतिना उल्लासथी Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११४) पराधीन थयेलो राजा “ संपति पुत्रो जातः ( हमणां पुत्र उत्पन्न थयो ) संप्रति पुत्रो जातः" एम वारंवार मोटेथी बोलवा लाग्यो. पछी ते पुत्र दश दिवसनो थयो त्यारे तेने उत्कृष्ट उत्सवपूर्वक त्यां अणावीने अत्यंत प्रमोदथी पूर्ण ययेला राजाए ते पुत्रनुं " संपति" नाम पाडी तेने राज्यपर स्थापन कर्यो. ते संप्रति राजा त्रण खंडनो भोगवनार थयो अने परम श्रावक थयो. तेणे " श्रीमुहस्ती " सूरिना उपदेशथी श्रीजिनमतना साम्राज्यने सर्व प्रकारे एक छत्ररूप कर्यु हतुं. ॥ इति व्यञ्जनाधिक्ये आख्यानकम् ॥ अर्थने अन्यथा करवामां विशेषे करीने पूर्वे कहेलाज दोषो जाणवा. ते उपर दृष्टांत नीचे प्रमाणे " शुक्तिमती" नामनी पुरीमा " श्रीमुनिसुव्रत " स्वामीना वंशमा उत्पन्न थयेलो " अभिचंद्र " राजा राज्य करतो हतो. तेने सत्यवादीपणाथी प्रसिद्ध थयेलो “वसु " नामे पुत्र हतो. ते गा. ममा परम श्रावक ( जैन धर्मी ) "कदंबक" नामना उपाध्याय रहेता हता. ते पोताना " पर्वत" नामना पुत्रने, राजपुत्र " वसु" ने अने " नारद " नामना एक विद्यार्थीने शास्त्राभ्यास करावता हता.एकदा अभ्यास करीने थाकी गयेला ते त्रणे विद्यार्थीओ रात्रे प्रासाद उपर सुइ गया हता. ते वखते आकाशमार्गे जता बे चारण मुनि परस्पर आ प्रमाणे बोल्या के-" आ त्रणे विद्यार्थीओमांथी एक विद्यार्थी स्वर्ग Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) जशे, अने बीजा बे नरके जशे . " ते वखते उपाध्याय जागता हता, तेणे आवृत्तांत सांभळीने खेद पामी विचार्य के - " मने धिकार छे के हुं भणावनार छतां मारा बे शिष्यो नरके जशे . " पछी प्रात:काळे "आ त्रणमांथी स्वर्गे कोण जशे ? अने नरके कोण जशे . ?" तेनो निर्णय करवा माटे तेनी परीक्षा करवा दरेकने एक एक लोटनो कुकडो आपीने कांके - " जे ठेकाणे कोइ पण न जुए तेवे गुप्त स्थाने आने मारीने लावो. " ते सांभळीने वसु अने पर्वत ए बने जणे जूद जूदी दिशामां निर्जन प्रदेशमां जइने ते कुकडाने हृण्यो अने नारद तो अत्यंत दूर शून्य स्थानमां गया छतां पण बुद्धिमान होवाथी विचार करवा लाग्यो के - " आ निर्जन स्थान छे, तो पण अहीं हूं देखें, देवो देखे छे, सिद्धो देखे छे तथा ज्ञानी पण देखे छे. जे स्थाने कोइ पण न देखे एवं स्थान तो आखा विश्वने विषे कोइ पण नथी, तेथी खरेखर आ कुकडो अवध्य छे ( वध करवा योग्य नथी). एवो गुरुनी वाणीनो अभिप्राय जणाय छे. स्वभावथीज परम दयाळु एवा. गुरुए जे अमने वध करवानो आदेश आप्पो छे, ते अमारी परीक्षा माटेज आयो जणाय छे. " पछी अनुक्रमे ते त्रणे शिष्योए आवी पोत पोतानुं वृत्तांत गुरुने निवेदन कर्यु. ते सांभळीने उपाध्याये "नार ज स्वर्गगामी छे. " एम निश्चय करीने तेने गौरवताथी आलिंगन कर्य, अने बीजा बन्नेनी निंदा करी. पछी तेज कारणथी उत्पन्न थयेळा वैराग्यथी उपाध्याये प्रव्रज्या ग्रहण करी. एटले तेना स्थान पर तेनो पुत्र पर्वतक बेठो. अनुक्रमे अभिचंद्र राजा पण दीक्षा कीधी, तेथी तेनी गादीए बसु राजा थयो. ते वसु राजा पोताना सत्यवादी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११६) पणाने प्रसिद्ध करवा माटे सत्य ज बोलतो हतो. एकदा कोइ शिकारी विंध्याचळना पर्वतमा शिकार करवा गयो. त्यां तेणे एक मृगपर तीर फेंक्यु. ते तीर वचमां ज स्खलना पाम्यु. ते जोइ आश्चर्य पापी ते शिकारी तीरनी पासे गयो. त्यां हस्तनो स्पर्श थवाथी " आ वच्चे स्फाटिकमणिनी मोटी शिला छे. " एम तेणे जा. ण्यु. पछी " आ शिला राजाने योग्य छ " एम विचारी तेणे वसु राजाने आ वात जणावी. राजाए ते शिला लइने तेने सारुं इनाम आप्यु पछी राजाए शिल्पीओ पासे गुप्त रीते ते शीलानीआसनवेदिका करावीने ते शिल्पीओने मारी नांख्या. पछी ते वेदिकाने पोताना सिं. हासननी नीचे स्थापन करी अने “ सत्यवादीपणाने लीधे तेनुं सिं. हासन आकाशमां निराधार रहे छे. " एवी पोतानी ख्याति सर्वत्र प्रसिद्ध करावी. ते प्रसिद्धिने लीधे वसु राजाने देवता सानिध्य करेछे एवा भयथी सर्वे राजाओ तेने आधीन थया. ___ एकदा पर्वतके पोताना शिव्योने भणावता “ अजैर्यष्टव्यं ( अज वडे यज्ञ करवो)" ए ऋग्वेदनी श्रुतिना व्याख्यानमां " अज एटले बकरावडे यज्ञ करवो" एवो अर्थ को. ते सांभळीने तेने मळवा आवेलो नारद के जे तेनी पासे बेठो हतो ते बोल्यो के-" हे भाइ! तुं आवो अर्थ न कर. केमके जे वाव्या छतां पण उगे नहीं ते 'अज' कहवाय छे, तेथी अहीं अज एटले त्रण वर्ष उपरांतनी डांगर (धान्य) लेवानी छे. आपणा गुरुए पण एमज कहुं छे. माटे धर्मोपदेष्टा गुरुने तथा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११७) धर्मप्रतिपादक श्रुतिने तुं अन्यथा न कर." आ प्रमाणे बहु कह्या छतां पण पर्वतके अभिमानथी पोतानो आग्रह मूक्यो नहीं. छेवटे तेमणे वाद करतां जीव्हानो छेद करवानी'सरत करी, अने वसु राजाने साक्षी कर्यो. ते सांभळीने पर्वतकनी माताए एकांतमा पुत्रने कह्यु के"हे पुत्र ! में पण तारा पिताने अज शब्दनो अर्थ त्रण वरसनुं धान्य छे एम कहेतां सांभळ्या छे, तेथी फोगट महा अनर्थकारी सरत शा माटे करे छे ? " ते सांभळीने ते बोल्यो के-"जे कर्यु ते कर्यु ज. हवे जेम घटे तेम उपाय करो." पछी पुत्रना मोहथी मोहित थयेली ते माताए पुत्रना हितने माटे वसुराजा पासे जइने तेने एकांतमां एवी रीते असरकारक कहुं के जेथी गुरुपत्नीना दाक्षिण्यने लइने तेणीना कहेवा प्रमाणे ज अर्थ करवानुं तेणे कबुल कयु. पछी प्रात:काळे ते बने सभामां जइ विवाद करवा लाग्या, अने तेना निराकरण माटे वसुराजाने पूछयु. ते वखते मोटा पापनो पण अनादर करीने राजाए खोटी साक्षी पूरी. अर्थात् अज शब्दनो अर्थ बकरो एम कर्यो. ते ज वखते देवताए तेने लात मारीने सिंहासन परथी पाडी दीधो. तरत ज ते मरीने नरके गयो. तेनी गादीए तेना पुत्रोने बेसाड्या. ते पण अनुक्रमे आठ पुत्रो देवताथी हणाया. केमके दैवी कोप दुःसह छे. तेना बे पुत्रो नाशी गया. पछी पुरना लोकोए पर्वतने धिक्कार आपी पुरमाथी काढी मूक्यो. तेने “ महाकाळ " नापना असुरे आश्रय आप्पो. . १ जे हारे तेनी जीव्हा कापवी एवी होड करी. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) 44 ते महाकाळनो संबंध एवो छे के - " अयोधन" नामना राजाए पोतानी पुत्रीनो स्वयंवर आरंभ्यो. ते वखते ते कन्यानी माताए कन्याने गुप्त रीते कां के - " मारा भाइनो पुत्र जे ' मधुपिंग 'छे, तेने तुं वरजे. केमके ते बहु रूपवान तथा गुणी छे. " आवात सर्व राजाओमा मुख्य एवा 99 सगर राजा गुप्तपणे सांभळनारी एक दूतीना मुखथी जाणीने पोताना पुरोहितने ते कन्याने परणवानो उपाय पूछयो. त्यारे कपट करवामां चतुर अने शीघ्रकवि एवा ते पुरोहिते तत्काळ नवी राजलक्षण संहिता बनावीने सभामां एवी रीते ते ग्रंथनुं व्याख्यान कर्यु के जेथी राजलक्षणोवडे सगर राजा उत्कृष्ट गणाय, अने मधुपिंग हीन गणाय ते सांभळीने सर्व राजाओवडे हांसी करातो मधुपिंग लज्जा पामीने सभामांथी जतो रह्यो, अने ते कन्याने सगर राजा परण्यो. पछी मधुपिंग क्रोधथी तप करीने महाकाळ नामनो असुर थयो. आ असुर अने पर्वतने त्रीजो " पिष्पलाद पण मळो हतो. ?? पिष्पलादनुं वृत्तांत एवं छे के - " सुलसा " अने " सुभद्रा " नामे वे परिवाजिकाओ जगप्रसिद्ध हती. तेमां मोटी सुलसा घणीज विद्वान हती, तेथी तेणीए पडह वगडाच्यो हतो के " जे कोइ मने वादमां जीते तेनी हुं शिष्या थाउं, अने जो ते मने न जीते तो ते मारो शिष्य थाय." आ प्रमाणे प्रतिज्ञा करीने फरतां कोइ वखत तेणीने " याज्ञवल्क्य " नामना परिव्राजक साथै वाद थयो. तेमां याज्ञवल्क्य - नो पराजय करी तेणीए तेने पोतानो शिष्य कर्यो. त्यार पछी अनुक्रमे घणा परिचय लीघे तेमनी अकार्यमां प्रवृत्ति थवाथी सुलसा Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११९) गर्भवती थइ. ते वात सुभद्राए जाणो, त्यारे तेणीए तेणीने अत्यंत उपालंभ आपी गुप्त राखी. अनुक्रमे तेणीने पुत्रप्रसव थयो, ते वखते सुभद्रा न जाणे तेम ते पुत्रने एक पीपळा नीचे मूकी ते बन्ने नाशी गयां. मातःकाळे तेमनां पगलाने अनुसारे तेमनी शोध करतां सुभद्राए पीपळा नीचे पुत्रने जोयो. ते पुत्र भूख्यो होवाने लीधे पीपळा, फळ पोतानी मेळे तेना मुखमां पडयुं हतुं तेने चाटतो हतो, तेथी तेनुं “ पिष्पलाद" एवं नाम पाडीने सुभद्राए पोताना आश्रममा राखी तेने वृद्धि पमाडयो. योग्य वयनो थयो त्यारे तेने भणाव्यो, तेथी ते घणो विद्वान थयो. एकदा तेणे पोतानी उत्पत्ति तथा मातपितानी वात सांभळी एटले ते अनार्ये मावाप पर द्वेष वहन करीने तेमनो वध करवा माटे अनार्य ग्रंथो रच्या. अने तेमां एवी प्ररुपणा करवा लाग्यो के-" राजाओए अश्वादिकनी शांति माटे अने स्वर्गादिकनी प्राप्ति माटे पशु, घोडा, हाथी अने मनुष्यादिक वडे यज्ञ करवो." ___ आ प्रमाणे तेनी पुरुषणा जाणीने महाकाळे विचार्यु के-"जो आ पर्वतक अने पिष्पलादनी प्ररुषणाथी राजाओ यज्ञमां हिंसा करवा प्रबर्ते तो तेओ मरीने नरके जाय, अने तेम थवाथी सगरादिक रा. जाओ साथे जे मारे वैर छे तेनो बदलो वळे." एम विचारीने महाकाळे ते बन्नेने कह्यु के-" तमो बन्ने यज्ञमां हिंसानी प्रवृत्ति करो, हुं सर्वत्र तमारूं सानिध्य करीश." एम कहीने महाकाळे पुर, ग्राम विमेरे सर्व ठेकाणे रोगनी उत्पत्ति करी. पछी ज्या ज्यां पर्वतक अने पिष्पले हिंसात्मक यज्ञ कराव्यो त्या त्यां ते असुरे रोगनी शांति करी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२०) अने यज्ञमा हणेला पशुओने देवता थइने विमानमां बेठेला प्रत्यक्ष दे. खाड्या. ते जोइने सर्वे सगर विगेरे गजाओ अत्यंत आदरवाळा थइ ते प्रमाणे यज्ञ करवा लाग्या. पछी निर्दय एवा ते बन्नेए धीमे धीमे मनुष्यनी हिंसा पण प्रवर्तावी. पछी महाकाळे मायावडे मोहित करीने स्त्रीसहित सगर राजानो यज्ञमां होम कराव्यो, तथा पिष्पले पण पोताना मात पिताने शोधीने तेमनो यज्ञमा होम को. केमके ते बनेनो आ कार्यने माटेज उद्योग हतो. आ प्रमाणे महा अनर्थना हेतुरूप अनार्य वेदोनी प्रवृत्ति थइ. आर्य वेदो तो चक्रीने त्यां हमेशां भोजन करता श्रावकोने भणवा माटे श्रीतीर्थकरनी स्तुतिमय अने श्राद्ध धर्मर्नु प्रतिपादन करनारा माणवक निधिमाथी उद्धरीने भरत चक्रवाए रचेला छे. ____ आ प्रमाणे अर्थने अन्यथा करवा पर पर्वतकनुं दृष्टांत छे. व्यं. जन अने अर्थ ए बनेने अन्यथा करवामां आ कथामां कहेला अनार्य वेदना रचनार तथा ते अनार्यवेदनी व्याख्या करनार पिष्पलादनुं दृष्टांत छे. अथवा " श्रीगुप्त" आचार्यना वे शिष्यो, नोजीवनी स्थापना करनार " त्रैराशिक रोहगुप्त " विगेरेनां दृष्टांतो छे ते अन्य ग्रंथोथी जाणी लेवा. ॥ इति षष्ठसप्तमाष्टमा ज्ञानाचाराः ॥ ॥ इत्यष्टविधो ज्ञानाचारः॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२१) श्रीमद्यशोविजयोपाध्यायकृत ज्ञानाष्टक ॥५॥ मज्जत्यज्ञ किलाज्ञाने, विष्टायामिव शूकरः॥ ज्ञानी निमज्जति ज्ञाने, पराल इव मानसे ॥१॥ निर्वाणपदमप्येकं, भाव्यते यन्मुहुर्मुहुः ॥ तदेव ज्ञानमुत्कृष्ट, निबंधो नास्ति भूयसा ॥ २ ॥ स्वभावलाभसंस्कार-कारणं (स्मरणं) ज्ञानमिष्यते ॥ ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्य-तथा चोक्तं महात्मना ॥३॥ वादांश्च प्रतिवादांश्च, वदंतोऽनिश्चितांस्तथा ॥ तत्त्वान्तं नैव गच्छंति, तिलपीलकवद्गतौ ।। ४॥ स्वद्रव्यगुणपर्याय-चर्या वयों परान्यथा ॥ इति दत्तात्मसंतुष्टि-मुष्टिज्ञानस्थितिर्मुनेः ॥ ५ ॥ अस्ति चेद् ग्रंथिभिज्ज्ञानं, किं चित्रैस्तंत्रयंत्रणैः ।। प्रदीपाः कोपज्युन्ते, तमोघ्नी दष्टिरेव चेत् ॥ ६ ॥ मिथ्यात्वशैलपक्षच्छिद्, ज्ञानदंभोलिशोभितः ॥ निर्भयः शक्रवद्योगी, नंदत्यानंदनंदने ॥ ७॥ पीयूषमसमुद्रोत्थं, रसायनमनौषधम् ।। अनन्यापेक्षमैश्वर्य, ज्ञानमाहुमनीषिणः ॥ ८॥ ॥ रहस्यार्थ ॥ १ निर्मल ज्ञानवडे वस्तु तत्वनो निर्धार करीने जे सदाचारने सेवे छे तेज मोहनो विनाश करी शके छे, माटे निर्मळ ज्ञान गुण आ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२२ ) दरवा शास्त्रकार आग्रहपूर्वक कहे छे. जेम भंड विष्टामां मग्न रहे छे तेम मूढ माणस अज्ञानमांज मग्न रहे छे, पण ज्ञानी पुरुष तो जेम हंस मानसजलमा मग्न रहे छे तेम निर्मल ज्ञानगुणमांज मग्न रहे छे. ज्ञानी पुरुष कदापि ज्ञानमां अरति धारतो नथी, अथवा ज्ञान ज तेनो खरो खोराक होवाथी ते तेने अत्यंत आदरथी सेवे छे. _२ जेनाथी राग द्वेषनो अत्यन्त क्षय थवा पूर्वक मोक्षपदनी प्राप्ति थइ शके एवा पण एक पदनो वारंवार अभ्यास करी तेमा तन्मय थर्बु तेज ज्ञान श्रेष्ठ छे. 'मारुष मातुष' जेवा एक पदथी पण कल्याण साधी शकाय छे. तेवाज वधारे पद होय तेनुं तो कहेबुंज शुं ? बाकी भारभूत एवा शुष्क ज्ञान मात्रथी कंइ कल्याण नथी. ३ जेथी स्वभाव निर्मळ थाय एटले आत्मपरिणति सुधरती जाय तेज ज्ञान कहेवाय छे, बाकीचें ज्ञान तो केवल बोजारूपज छे. आ संबंधमां योग दृष्ठि समुच्चयमां हरिभद्र सूरीजी बुद्धिना अन्धकार रूप नीचे प्रमाणे ज कहे छे. ४ पूर्वपक्ष उत्तर पक्ष रुप वाद प्रतिवाद करतां तथा अनिश्चित पदार्थोने वदतां थकां, जेम घांचीनो बळद गमे तेटलुं चाले तोपण तेनो अंत आवतो नी, तेम तत्त्वनो पार पामी शकातोज नथी. साध्य दृष्टिथी धर्मचर्चा करतां के नम्रपणे तत्त्व कथन के श्रवण करतां केवल हित प्राप्तिज थाय छे. माटे शुष्क वादविवाद तजीने केवळ तत्व खोजना करवी. ५ आत्मद्रव्यना गुण पर्यायनी पर्यालोचना करवीज श्रेष्ट छ, बीजी नकामी बाबतमा वखत गुमाववो युक्त नथी. आ प्रमाणे आत्म संतोष उत्पन्न करनार मुष्टिज्ञाननी स्थिति मुनिनी गणाय छे. मुष्ठि Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२३ ) झान संक्षिप्त छतां सर्वोत्तम छे, तेथी सर्व परभावथी विरमी मुनिः सहज स्वभावरमणी बने छे. ६ मिथ्यात्वने भेदी समकित प्राप्त करावे एवं सम्यग् ज्ञान जो प्रगट थाय तो ते सारभूत ज्ञान पामी बीजा शास्त्रपरिश्रमनुं कंइ प्रयोजन नथी. जो स्वभाविक दृष्टियी अंधकार दूर थंतो होय तो कृत्रिम दीवानुं शुं प्रयोजन छे ? साचो दीवो जेना घटमांज प्रगटयो छे तेने सहज स्वाभाविक प्रकाश मळ्याज करे छे. तेथी ते मिथ्यात्व अंधकारनो विनाश करी आनंदमग्नज रहे छे. सारभूत ज्ञान विना लाखो गमे क्लेशकारक शास्त्र विलोडणथी शुं वळवानुं ? चोखी दृष्टिवाळाने एक पण दीवो बस छे, अने अंध दृष्टिने हजारो दीवाथी पण उपकार थइ शकवानो नथी. सम्यग्ज्ञानवान् सम्यग् दर्शन या समकित रत्न - ना प्रभावथी दिव्यदृष्टिज कहेवाय छे. ७ मिथ्यात्व पर्वता पक्षाने छेदवा समर्थ ज्ञानरूप वज्रथी शोभित मुनि निर्भय छतां शक्र इंद्रनी पेरे आनंदनंदनमां विचरे छे. रत्नत्रयी मंडित मुनि निर्भय छतां सहजानन्दमां मस्त रहे छे. तेवा योगी पुरुषने संयममां अरति थवा पामतीज नथी. ८ प्राज्ञ पुरुषो कहे छे के ज्ञान समुद्रथी नहीं उत्पन्न थयेलुं अभिनव अमृत छे, औषध विनानुं अपूर्व रसायण छे अने बीजानी अपेक्षा विनानुं अथवा सर्वथी श्रेष्ट एवं अनुपम एैश्वर्य छे, भाग्यवंत भव्योज तेनो लाभ कई शके छे. भाग्यहीनने ते प्राप्त थइ शकतुंज: नथी. सौभागी भमरो तेनो मधुर रस पीवे छे अने दुर्भागी तेनाथी दूरज रहे छे. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) श्री हरिभद्रसूरिविरचितं ज्ञानाष्टकं ॥ ९ ॥ आठमा अष्टकमां कहेतुं भाव पञ्चख्खाण ज्ञान विशेष होते छते थाय छे माटे ते ज्ञान विशेषने देखाडता थका कहे छे.विषयप्रतिभासं चा- त्मपरिणतिमत्तथा ॥ तत्वसंवेदनं चैव, ज्ञानमाहुर्महर्षयः ॥ १ ॥ अर्थ – महान् ऋषिओ विषयप्रतिभास, आत्मपरिणतिमत् तथा तच्च संवेदन एवी रीते त्रण प्रकारनां ज्ञानो कहे छे. १. टीनो भावार्थ - विषय एटले कर्ण आदिक इंद्रिओना ज्ञानने गोचर एवा शब्दादिक, तेने जणावनाएं जे ज्ञान तेने “विक्यप्रतिभास " नामनुं ज्ञान जाणवुं. ( पण ते ओनी प्रवृत्तिमां तेथी उत्पन्न थतो जे आत्माना अर्थ अनर्थनो स्वभाव तेने जणावनाएं नहीं ) अर्थात् आलोक संबंधी अने परलोक संबंधी छद्मस्थ ज्ञानना विषयरूप एवा अर्थोमां प्रवृत्तिने विषे, आत्माना तात्विक अर्थ अने अनर्थना प्रतिभासथी जे शून्य ते " विषयप्रतिभास " ज्ञान जाणवुं ते ज्ञान मिपादृष्टिओने होय छ, तथा आत्माना क्रियाविशेषथी थइ शके एवो जे परिणाम ते जेमां जणाय छे तेने “ आत्मपरिणतिमत् " ज्ञान कहीए. (पण तेने अनुरूप एवी प्रवृत्ति निवृत्ति तेमां न होय) ते ज्ञान अविरति एवा सम्यग् दृष्टिभोने होय छे. तथा जेथी 'परमार्थ जणाय अर्थात् हेय अने उपादेय पदार्थोंथी निवृत्ति अने प्रवृत्ति Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२५) करनारु जे ज्ञान तेने " तत्त्व संवेदन" ज्ञान कहीए. ते ज्ञान शुद्ध चारित्रीओने हाय. एवी रीतना त्रणे ज्ञानो महा मुनिओए कहेला छे अने ते त्रणे मत्यादि विशेषज छे. ___हवे पहेला ज्ञान- स्वरूप कहे छेविषकंटकरत्नादौ, बालादिप्रतिभासवत् ॥ विषयप्रतिभासं स्यात्, तद्धेयत्वाद्यवेदकम् ॥२॥ ____ अर्थ-झेर, कांटा अने रत्नादिकोने विषे बाळकादिकनां जाण. पणानी पेठे हेयत्व आदिकनो निश्चय नहीं करावनारुं " विषयप्रतिभास" ज्ञान होय. २. ____टीकानो भावार्थ-विष एठले अतिविष वच्छनाग आदिक तथा कंटक एटळे बावळ आदिकना अवयवो (कांटाओ) विगरे हेय पदार्थों तथा रत्न एटले मरकत मणि आदिक बीजी उपादेय वस्तुओ तेने विषे बाल तथा अति मुग्धोनुं जे ज्ञान, तेना सरखं " विषय प्रतिभास" ज्ञान होय. हवे ते "विषयप्रतिभास" ज्ञान बाल आदिकना ज्ञान सर केम छ ? ते कहे छे के-ते ज्ञान, ज्ञेय विषयो, तजवापणुं, तथा उपेक्षवापणुं जणावी शकतुं नथी, अर्थात् बाल आदिकनुं ग्रहण करवापणुं ज्ञान, जेम विष आदिक विषयना रूप आदिकनेजजाणे छे,पण तेना हेयत्व आदिक धर्मने जाणतुं नथी, तेम जे ज्ञान ग्रंथीभेद जेओने नथी थएलो एवा बहुश्रुतोने पण (तेओना) मोहथी मलीन थएला मनपणाए करीने, अतत्वोनी हेयतानो, तथा तत्वोनी उपादेयतानो विचार कराववामां असमर्थ होय, अर्थात् तत्त्व अने अतत्वने तुल्य Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२६) जणावनालं, अथवा उलटी रीते जणावनारुं होय ते “ विषय प्रतिभास" ज्ञान कहेवाय. कर्जा छ के विसयपडिभासमित्तं, बालस्सेव खु रयणविसयंमि ॥ वयणाइएसु नाणं, सव्वथ्थाणाण मोणेयं ॥ १॥ हवे तेज ज्ञानने तेना चिन्ह आदिकथी देखाडता थका कहे छेनिरपेक्षप्रवृत्त्यादि, लिंगमेतदुदाहृतम् ॥ अज्ञानावरणापाय, महापायनिबंधनम् ॥ ३ ॥ __ अर्थ-(पाप संबंधी )शंका विनानी प्रवृति आदिक छे चिन्ह जेनु, तथा अज्ञानना आवरणनो नाश करनारं अने महा अपायना कारण रूप, ते " विषय प्रतिभास" ज्ञान कहेलं छे. ३. टीकानो भावार्थ-आ लोक अने परलोक संबंधी अपायोनी (दुष्ट कार्योनी ) जे शंका, ते जेमांथी गयेली छे एवं जे प्रवर्तनादिक ते छे चिन्ह जेनुं, तेने आप्तोए “ विषय प्रतिभास " ज्ञान कहलं छे. ते शाथी थाय ते कहे छे. “अज्ञान" केतां मिथ्यात्वना उदयथी दुषित एवा जे मति, श्रुत अने अवधि ज्ञान (विभंग ज्ञान) तेना आवरणनो छे क्षयोपशम जेमां एवं (मिथ्यादृष्टिओनु) जे मति, श्रुत अने अवधि ज्ञान (विभंग ज्ञान ) ते अज्ञानज छे. कर्तुं छे के अविसेसिया मइच्चिय, समदिहिस्स सा मइनाणं ॥ मइअन्नाणं मिच्छा-दिठिस्स सुयंपि एमेव ॥१॥ " सम्यग दृष्टिओनी जे बुद्धि ते 'मति ज्ञान ' छे अने मिथ्या Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२७ ) दृष्टिनी जे बुद्धि ते 'मति अज्ञान' छे. पण मतिर्मा कइ फेरफार नथी. श्रुत ज्ञान ने श्रुत अज्ञान माटे पण ए प्रमाणेज समजवुं." हवे ते " विषय प्रतिभास " ज्ञान शुंफळ आपे छे ? ते कहे छे. ते पोताने अने परने आलोक अने परलोक संबंधी महा अपायोना hai, महा कष्टोना कारणरूप थाय छे. केमके तत्त्वथी ते अज्ञानज छे, अने अज्ञान छे ते महा अपायनुं कारण छे. कहां छे केअज्ञानं खलु भो कष्ट, क्रोधादिभ्योऽपि सर्वोपायेभ्यः ॥ अर्थ हितमहितं वा न वेत्ति येनावृतो लोकः ॥ १ ॥ " अज्ञान छे ते, खरेखर क्रोधादिक सर्व अपायोथी पण कष्टकारी छे, केमके अज्ञानथी विंटाएलो माणस हित अथवा अहित कार्यने जाणी शकतो नथी. " हवे बीजा "आत्मपरिणतिमत्" ज्ञानतुं स्वरूप देखाडवा माटे कहे छे. पातादिपरतंत्रस्य तद्दोषादावसंशयम् ॥ अनर्थद्याप्तियुक्तं चा- त्मपरिणतिमन्मतम् ॥ ४ ॥ अर्थ - पतन आदिकथी परतंत्र थपला प्राणीने तेना दोषादिकने विषे संशय विनानुं तथा अनर्थ आदिकनी प्राप्तिवालुं " आत्मपरिणतिमत् " ज्ञान मानतुं छे. ४. टीकानो भावार्थ - " पातादिपरतंत्रस्य " केतां नीची अने ऊंची गति माटे परतंत्र थएला एटले विषय अने कषायादिके वश करेला प्राणीने, ते कषाय आदिकथी थता कर्मबंध अने दुर्गति आदिक Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२८ ) दोषमा अने (आदि शब्दथी ) अभ्युदय आदिक गुणमां जे संशय रहित ज्ञान थाय छे, तथा जे कर्म बंधन, दुगेति गमनरूपी अनर्थ, अने परंपराथी मलता मोक्षरूपी गुणनी प्राप्तिवालुं छे, तेने तन्त्वना जाणनारा ओए " आत्मपरिणतिमत् " ज्ञान मानेतुं छे. अहीं दृष्टांत नीचे प्रमाणे जाणं. अवळी चालना घोडा पर बेसवाथी परतंत्र थयेला स्वारने अंगभग तथा मरणादिक दोषमां तथा रुना समूहना कोमल स्पर्शादिक गुणमां संशय रहितपणुं थाय छे, तथा ते अंगभंगादिक अनर्थ, अने सुख स्पर्शादिक गुणनी प्राप्तिवाकुं छे, एम ते माने छे. हवे तेज आत्मपरिणतिमत् ज्ञाननुं लिंगादिकथी निरुपण करता थका कहे छे तथाविधप्रवृत्त्यादि - व्यंग्यं सदनुबंधि च ॥ ज्ञानावरणह्रासोत्थं, प्रायो वैराग्यकारणम् ॥ ५ ॥ अर्थ-तेवा प्रकारनी प्रवृत्ति आदिकथी प्रगट थनाएं, तथा शुभ अनुबंधवाळु तथा ज्ञानावरणादिकना नाशथी उत्पन्न थयेलं, अने प्राये करीने वैराग्यना कारणरूप ते " आत्मपरिणतिमत् " ज्ञान जाणं. ५. - टीकानो भावार्थ — तेवा प्रकारनी अहिंसादिकने विषे जे प्रवृत्ति आदिक ते थकी प्रगट थवारूप छे चिह्न जेनुं तथा परंपराथी मोक्षफळने देवारूप छे सदनुबंध जेनो, एवं ते आत्मपरिणतिमत् Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२९) ज्ञान छे हवे ते ज्ञान शुं हेतुवालु छे ते कहे छे. मति आदिक ज्ञाननुं जे आवरण, तेना क्षयोपशमथी उत्पन्न थयेटु ते ज्ञान छे, वळी ते ज्ञान तदनुबंधी शी रीते छे ? ते कहे छे के, ते ज्ञान प्राये करीने वैराग्य केतां उत्तम भावना, निमित्त छे. कमु छ के बालधूलिगृहक्रीडा-तुल्यास्यां भाति धीमताम् । । : तमाग्रंथिविभेदेन, भवचेष्टाखिलैव हि ॥५॥ " अज्ञानरुपी ग्रंथीना भेदथी बुद्धिमानोने आ भवनी, सघळी चेष्टा, वैराग्य भावना होते सते, बाळके करेला धूलीना घरनी रमत सरखी (विनश्वर) लागे छे." अहीं पाये करीने वैराग्यनुं जे कारण कहूं, ते राज्यादिक मेळववामा तत्पर थयेला एवा भरतादिकनी पेठे कषायनो उदय विशेष होते सते ते ज्ञान वैराग्यचं कारण न पण थाय तेम जणाववा माटे कयुं छे. हवे त्रीजु जे "तत्वसंवेदन" ज्ञान तेना प्रतिपादन माटे कहे छस्वस्थवृत्तेः प्रशांतस्य, तद्धेयत्वादि निश्चयम् । तत्वसंवेदनं सम्यग्, यथाशक्तिफलप्रदम् ॥ ६ ॥ अर्थ-स्वस्थ वृत्तिवाळा, तथा शांत एवा पुरुषने, वस्तुना हेयपणा आदिकमां निश्चयवाळु " तत्वसंवेदन" ज्ञान थाय छे. अने ते सारी रीते यथाशक्ति फळने देनारुं छे. ६.. टीकानो भावार्थ-आकुलता रहित छे वचन अने कायानां व्या. पारनुं वर्तवापणुं जेने तथा रागद्वेष आदिना उपशमवाळा एवा माणसने " तत्त्व संवेदन" ज्ञान थाय छे. हवे ते ज्ञान केबुं छे ? Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) वस्तुतत्वना हेयपणा, उपादेयपणा अने उपेक्षणीयपणानो छे निश्चय जेमां एवं छे. ए " तत्त्व संवेदन " ज्ञान सम्यक् प्रकारे पुरुषने, संघयण आदिकना सामर्थ्यने अनुसारे विरतिरूपी अनंतर फळ तथा परंपराए मोक्षफळने देनारुं छे. हवे ते ज्ञानना लिंगादिकने प्रतिपादन करता थका कहे छे न्याय्यादौ शुद्धवृत्यादि - गम्यमेतत्प्रकीर्तितम् । सज्ज्ञानावरणापायं महोदयनिबंधनम् ॥ ७ ॥ अर्थ- मोक्ष मार्ग आदिकने विषे शुद्ध प्रवृत्ति आदिथी जे अनुमान कराय छे, तेने तत्त्व संवेदन ज्ञान कहेलुं छे, तथा ते उत्तम ज्ञानना आवरणनो क्षयोपशम करनारुं अने मोक्षना कारण रूप छे. ७. टीकानो भावार्थ-नीति सहित एवा सम्यग् ज्ञान, दर्शन अने चारित्ररूप जे मोक्षमार्ग तेने विषे अतिचार रहित प्रवृत्ति आदिके करीने जे ज्ञाननी अनुमिति थाय छे, तेने ज्ञाननुं स्वरूप जा नाराओए " तत्त्वसंवेदन " ज्ञान कहेलुं छे; हवे ते ज्ञान केवा हेतु - बाळु छे ? ते कहे छे के, उत्तम एवं जे आभिनिबोधादिक ज्ञान, तेना आवरणना क्षयोपशमथी थनारुं अने निर्वाणना कारणरूप फळने देनारुं छे. आ अटकने संपूर्ण करता थका उपदेश कहे छेएतस्मिन् सततं यत्नः, कुग्रहत्यागतो भृशम् ॥ मार्गश्रद्धादिभावेन, कार्य आगमत्तत्परैः ॥ ८ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-आगमना वचनोमा तत्पर एवा माणसीए कदाग्रह तजीने उपर कहेला तत्त्वसंवेदन ज्ञानी, मोक्षमार्गमां श्रद्धादिक भावे करीने हमेशा खुब यत्न करवो. ८. . टीकानो भावार्थ-उपर कहेला तत्वसंवेदन ज्ञानमा हमेशा आदर करवो, केवी रीते करवो ? ते कहे छे के जेथी शास्त्रने बाध आवे एवा कदाग्रहने तजीने यत्न करवो; शावडे करवो ते कहे छे के, मोक्ष मार्गमां श्रद्धा, तेनुं ज्ञान, अने तेनी सेवनाथी यत्न करवो. हवे ते कोणे करवो ? ते कहे छे के, आतनां वचनमा तत्पर यएला एवा माणसोए करवो. नवमा ज्ञानाष्टक विवरण समाप्त. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११२) पंडित श्री रूपविजयजी कृत. श्री पंचज्ञाननी पूजा. __ पूजा १ ली. दुहा. सकल कुशल कमलावली, भाषक भाण समान; श्रीशंखेश्वर पासना, चरण नमी धरी ध्यान. कर्मतिमिरभर टाळवा, ज्ञान ते अभिनव सूरः . ज्ञानी ज्ञानबळे लहे, स्वपर स्वभाव पडूर. श्रद्धामूळ क्रिया कही, तेहy मूळ ते ज्ञान; तेहथी शिवमुख बहु जना, पाम्या धरी एक तान. ३ असंख्य भेद किरीयातणा, भाख्या श्री अरिहंत; ज्ञानमूळ सफळा सवे, पंच भेद तस तंत. मइ मुअ उहि मणपज्जवा, पंचम केवळ जाण; पूजा करतां तेहनी, लहीए पंचम नाण. जाणे केवळे केवळी, श्रुतथी करे वखाण; चउ मुंगा श्रुत बोलतुं, भाखे त्रिभुवनभाण. पंच ज्ञान अनुक्रमे लही, जेह थया अरिहंत; अष्टप्रकारे पूजता, लहाए ज्ञान अनंत. ढाल. झुमखडानी देशी. परमपुरुष परमातमारे, पुरसादाणि पास; जिनसर पूजीए. Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जि. (१३३ ) जळ चंदन कुसुमे करीरे, पूजो धरी उल्लास. जि० १ जास पसाये निरमळुरे, प्रगट होये मइनाण; जि० भेद अहावीश तेहनारे, समजो चतुर सुजाण. जि०२ द्रव्य क्षेत्र काळ भावथीरे, चउहा छ मइनाण; द्रव्यथा मइनाणी लहेरे, द्रव्य छक्क परिमाण. जि० ३ क्षेत्रथी लोकालोकनेरे, काळथी तिविहा काळ; जि० भावथी पांचे भावनेरे, जाणे आदेशे रसाळ. जि० १ जिन उत्तम मुखपद्मनीरे, वाणि सुणी लहे बोध; जि० शुद्ध चिदानंद रूपथीरे, करी निज आतमशोध. जि०५ काव्यम् अष्टाविंशतिधा मतिश्रुतमपि प्रोक्तं मनुसम्मितम् । षोढा चावधि रूपिद्रव्यविषय ज्ञानं निदानं श्रियाः ।। श्रीमनपर्यवसंज्ञिकं च द्विविधं कैवल्यमध्येतिकम् ।। ज्ञानं पंचविधं यजेह मनिशं सिद्धयंगनाराधनम् ॥ १॥ ॐनमो ज्ञानाय लोकालोकप्रकाशकाय, नवतत्त्वस्वरूपाय, अनंत द्रव्यगुणपर्यायमयाय, मति श्रुतावधिमनःपर्यव केवलज्ञानाय, जलं १, चंदनं २, पुष्पं ३, धूपं ४, दीपं ५, अक्षतं ६, नैवेद्यं ७, फळ ८ यजामहेस्वाहा ॥ आ काव्य तथा मंत्र दरेक पूजाए कहे. गीत (दुहा.) एक जीव अंगीकरी, छासठ सागर ठाण; अंतरमुहूर्त जघन्यथी, वरते थिर मइनाण. Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३४ ) ढाळ. (चंदजसा जिनराजिया, मनमोहनमेरे-ए देशी) श्री जिनराजनी पूजना,मनमोहन मेरे, करी थीर मन करी सारमन० धूप दीप अक्षत धरी, मन नैवेद्य फळ मनोहार. मन० १ श्रुतवासित (निश्रित) मतिजानना,मन० भेद अठ्ठावीश. जोयमन० अस्मुयनिस्सिय मइतणी, मन० चउहा बुद्धि होय. मन० २ श्रोत्र घ्राण रस फरसथीं, मन० व्यंजनावग्रह चार; मन० अथ्थुगह ईहा वळी, मन० अपाय धारणा सार. मन० ३ पंच इंद्री मन मेळतां, मन० चोवीश भेद सुहाय; मन अडविस भेद, उभय मळी, मन० भावे श्रीजिनराय. मन० ४ त्रणसें छत्रीश पण कह्या, मन० श्रुतनिश्रित मइ भेदः मन० श्री जिनवर सेवाथकी, मन० पाप ताप होय छेद. मन०५ समाकत मइ सुभ संपजे, मन० त्रण्ये एके काळ; मन० जिन उत्तम पद. पद्मनी, मन० सेवना रूप रसाळ. मन०६ इति श्रीमतिज्ञानपूजा. १ पूजा २ जी. दुहा. श्रुतअक्षर एकेकना, स्वपर भाग विचार; करतां पज्जवनी कही, राशि अनंती सार. सरधावंत सुसंयमी, गुरुकुळवासी साध; श्रुत अभ्यास करी भजे, तरे संसार अगाध. २ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (BPA) ढाळ. श्रु० १ श्रु० श्रु० २ [ नलिनावति विजये जयकारी. ] जिनवर जगगुरु जगज्यगारी, पूजो भावे नरनारी; श्रुतना अधिकारी. जिनवर भगते सरधा आवे, तेहथी श्रुतरस बहु पावेरे. छासठ सागर सुअथिति जाणो, एक जीव उकि प्रमाणोरे, अनादि अनंत प्रवाहथी जाणो, सेवो श्रुत अनुभव आणोरे च भेद सुअनाणना सार, भाखे जिनवर गणधाररे; अहवा वीश भेद पण जाणो, धिर सरघा हिअडे आणोरे अर्थथी श्री अरिहंते वखाणुं, सूत्रे गणधर विरचाणुरे ए श्रुत भावधर्म दातार, पूजी लहो भवजळ पाररे. श्रुतदायक जिनराजने ध्यावो, जीम अतिशय ज्ञानने पावेरे; श्रु० श्रुतफळ विरति विरतिफळ ध्यान, ध्याने लहे समयीक ज्ञानरे. श्रु० ५ खिमाविजय जिन उत्तमज्ञाने शिवसुंदरी बरे एकलानेरे: શ્રુ श्रु० ३ ध्रु० श्रु० ४ श्रु० श्री गुरु पदपद्मे दिल राखे, चिरूपविजय सुख चाखेरें. श्रु० ६ काव्य तथा मंत्र, पूर्ववत् बोळवां. गीत (दुहा. ) श्रुतथी सरधा थिर रहे, सरधाथी व्रत सार; व्रतथी शिवमुख पामीर, तिणे श्रुत जगदाधार, श्रुतविण जे किरिया करे, ते संसारनुं मूळ; श्रुतउपयोगे जे क्रिया, ते शिवपद अनुकूल. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११६) ढाळ. (मुने कांइक कामण कीघुरे, पाछा वळजो सामळीया; मारं चित्तडं चोरी लीधुं रे, पाछा० ए देशी.) तुमे आगम पूजा करजोरे, हो मनमान्या मोहनीया. तुमे भवसायरने तरजोरे ए आगम अमृतदरीओरे. ए तो स्याद्वाद रस भरीयोरे. मुअ अंग अनंग प्रकारेरे, तिम बद्ध अबद्ध विचारेरे; कालिक उत्कालिक जाणोरे, दोय भेद कहे जिनभाणोरे. अग्यार अंग मनरंगेरे, श्रुतं पूजो अधिक उमंगेरे वळी बार उपांग रसाळारे, पूजी लहो मंगळमाळारे. पयन्ना दश गुणखाणीरे, प्रत्येकबुद्ध मुनि वाणीरे; खट छेदसूत्र गुणभरीयारे, ए तो चरण करण गुण दरीयारे. मूळसूत्र चार अनुसरजोरे, Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) संसारसमुद्रने तरजोरे; नंदी ने अनुयोगद्वारोरे, पूजी लहो भवजळपारोरे. भावपूजा पंच प्रकारोरे, द्रव्यपूजा भेद अपारोरे; प्रभुवदनपद्मनी वाणीरे, चिद्रूप सुधारस खाणीरे. इति श्रुतज्ञानपूजा २. पूजा ३ जी. अवधिज्ञान आराधर्ता, करजो त्रिकरण जोग; भावविशुद्धि चित्त घरी, टाळो कर्मना रोग. त्रणज्ञानधर जिनवरा, त्रिभुवनने हितकार; पूजी पदकज तेहना, पापो भवजळवार. ២ हो. हो. ཡཐཡ हो. हो. ढाळ. [ घेर आवने नेम वरणागियारे - ए देशी ] हांरे वाला भावभगति मनमां घरी, जिन पूजा करो मन संवरीजीरे; भावे पूजोरे मनमोहना. होरे वाला खय उपशम भावे करी, परणति करो ज्ञानरसे भरी जीरे. भा१ ज्ञानी जिनराजीया, विलसे निज गुण सत्ता भरीजीरे; भा० अनुगामी पमुहा कहो, खट भेद ओहिना दिल धरीजीरे. जनम समे जिनराजने, चळे आसन सुरना थरहरीजीरे; भा० २ भा० Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१३८ ) चौसठ सुरपति अवधिए, जिन जनम्या कही जइ सुरगिरिजीरे.भा.३ रजत कनक ने रत्नना, कळशा खीरोदकथी भरीजीरे भा० न्हवण उच्छव जिननो करे, समकित गुण निर्मळता करीजीरे.भा०४ मिथ्यावर अवधि ले, जे पूजे जिन भगतेः खरीज़ीरे; भा० जिन उत्तम पद पद्मनी, पूजा चिद्रूपविजये. करीजीरे. भा०५ काव्य तथा मंत्र पूर्ववत् कहेवा. गीत ( दुह्म.) द्रव्य क्षेत्र काळ भावथी, उत्कृष्ट अवधिज्ञान; मनुज गतिमां पामीए, वधते शुचि प्रणिधान. लोकावधि अवधिलगे, पडिवाइ पण होय; तदुपरि अवधि जे होये, अपडिवाइ ते जोय. ढाळ. (मोहनवीरा मोकलोने मोसाळुरे--ए देशी) निर्मळ करी मन वच काया, छडि सवी ममता माया; परमातम ध्यान सुहाया, ओहिजिन पूजीए मनरंगे, जीमा रमीए समकित संगे. क्षेत्र काळथी ओहिनाणी, चउहा लहे वुढी ने हाणी इम कहे. जिन केवलनाणी. ओ०२ द्रव्यथी दुग बुढि वखाणी, भावथी खट् वृद्धि जाणी; समुदाइ चउहा. कहाणी. ओ०३ ___ ओ०१ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३९ ) जिनवर नाणी गुणरवाणी, पूजो मन उलट आणी; करीए जेम शिव पटसणी.... ओ०४ जिनवर उत्तम गुण माबो, प्रभुना. पद पा वधावा; जीम रूपविजय पद पसे.. ओ०५ इति श्री: अवधिज्ञानपूजा. पूजा ४ थी. अप्रमतः मुनिवर गुणी, निर्मळ. चारित्रवत: चढते संजम थानके, लहे मनपज्जक तंत. १ जिनवर जगगुरु जगधणी, जब संयम आहे सार; मणपज्जव तव उपजे, चोथु ज्ञान. उदार. २ ढाळ. (मन मोहनारे लोळ-ए देशी.) अप्रमत्त गुणगणमारे, मनमोहनारे कोलवर्तता श्री अरिहंतरे, जगसोहनारे लोल. संयमयण विशोधतारे, म० लहे मनपज्जव तंतरे. ज०१ ऋजुमति विYळमति तथारे, म० मणपज्जव दोय भेदरे ज० द्रव्य क्षेत्र काळ भावथीरे, म० चउहा कहे गतखेदरेः ज० २ सनि पणिदीना लहरे, म० मननतणा परजायरे नरक्षेत्र मणनाणथीरे, म० जाणे जे निरमायरे, ज०३ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४०) अढी अंगुल न्यूनाधिकारे, म० क्षेत्रथी जाणे दोयरे ज. ‘पल्य असंख्य भाग काळथीरे, म० गति आगति लहे सोयरे.ज० ४ खमण दमण गुणसागरे, म० जिन उत्तम महाराजरे; ज० तस पदपद्मने पूजतारे, म० लहो चिपसमाजरे. ज. ५ काव्य तथा मंत्र पूर्ववत् बोलवा. गीत (दुहा.) अलख असंग अभंग जस, जोगाराधन खास; संयमतणी विशुद्धता, करी तोडे भवपास. चरण करण गुणआगरा, सरधावंत सुधीर; मणपज्जवनाणी मुणि, नमता टळे भवपीर. ढाळ. ( अनेहारे गोकुल गोंदरेरे--ए देशी.) अनेहारे संयमठाण विशुद्धतारे, अप्रमत्त गुणठाण; फरसी पासप्रभु लगारे, मणपज्जव वरनाण. पूजा करो जिनराजनीरे-ए टेक. १ अनेहारे संजमठाण अनंतारे, उलंघी अहिठाण; फरसता शुद्ध संयम गुणेरे, ध्याये धर्मनुं झाण. . पू० २ अनेहारे आणा अपाय विपाकथीरे, संठाण विचय प्रकार; ध्याता ध्यान सोहामणुरे, साध्यपदे मनोहार. अनेहारे अप्रमत्तगुण भूमिकारे, आलंबन ग्रही चार; दशधा संयम पालतारे, भावदया भंडार. १०४ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४१ ) अनेहारे भावथकी मनोद्रव्यनारे, लहे परजाय अनंत; ... गुणश्रेणी पगयाळिएरे, नित चढता भगवंत. पू० १ अनेहारे खिमाविजय जिनराजनारे, उत्तम ए अवदात; तस पदपद्म पूजा करीरे, लहो चिद्रूप विख्यात. पू. ६ इति मनःपर्यवज्ञानपूजा ४. पूजा ५ मी. सकल विभाव उपाधिना, कारक घाति चार; क्षय करी केवळ पामिया, जिनवर जगदाधार. पूजो ध्यावो ध्यानमां, सोहंपद करो जाप; . चिदानंद पद संपजे, होय ध्येयपद आप. ढाळ. (चक्री भरत नरेसरुरे, सांभळी देशना तात; सलुणा-ए देशी.)) वीतराग परमातमारे, खीणमोहि अरीहंतः सलुणा. खपक श्रेणि अंगीकरीरे, करी घाति चउ अंत. स. पंचम ज्ञानने पूजीएरे, पंचम गति दातार. स. १. ए आंकणी. केवळ कमळाने वारे, केवळ दरीसण साथ; स० . लोकालोक प्रकाशतारे, जे थया त्रिभुवन नाथ. : स. २ चारे ज्ञानतणी प्रभारे, एहमां सयल समायः .. स० . तारा उडुर: ग्रह चंद्रनीरे, भा+ रविमा लय थाय., स० ३ नक्षत्र +कांति.. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स० स० (१४२) एक समे आरहा मुणेरे, खट द्रव्य गुण परजाय; स० अनंत विरजनी शक्तिएरे, व्यापकता ते ठराय. स० ४ ज्ञेय प्रमाणे ज्ञाननारे, अहवा छे परजाय, बृहत्कल्पना भाष्यमारे, कहे सोहम गणराय. स० ५ केवळज्ञानकळा भयोरे, जिन उत्तम महाराज तस पदपद्मनी पूजनारे, करतां चिद्रूपराज. स०६ काव्य तथा मंत्र पूर्ववत् कहेवा. गीत (दुहा.) शम१ दम २ उपरति३ नित करे, चोथी तितिक्षा४ सार; समाधान १ श्रदा ६ करी, कहे केवळ चिद् फार. परमज्योति पावनकरण, परमातम परधान; केवळज्ञान पूजा करी, पामो केवळज्ञान. ढाळ. (वारी जाउं श्री अरिहंतमी-ए देशी.) पूजा श्री अरिहंतनी, करीए धरीए एकतान, मोहन. नागकेतुपरे निरमली, पामो केवळज्ञान. मोहन पू० १ पूजकपूज्यनी पूजना, करता पूज्य से याय, मो० केवळकमळा पामीने, अजरामर पद छाय. मो० पू०.२ बंध सदय उदीरणा, सत्ता कर्म खपाय; . मो० सिद्ध बुद्ध परमातमा, अकळ असंग अमाय. मो० पू० ३ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ ) ज्ञानानंदी आतमा, पामी महोदय ठाय सादि अनंत सुख अनुभवे, वाच्य अगम्य कहाय. अनंत गुणी केवळी प्रभु, श्रीशंखेश्वर पास तस पदपद्म पूजन करी, लहो विद्रूप उल्लास. इति केवळज्ञान पुजा ५० मो० मो० पृ० ४ मो० मो० पू० ५ कळस. राग धनाश्री. पूजो जो रे भावे पंच ज्ञान मित पूजो; पंच ज्ञान पूजन सप घटमां, ओर न साधन दूजोरे. भवि० १ मइ सुअ ओहि ने मनपर्यन, केवळ पंचम जाणो; अठावीश चउदस खंट दुग इग, भेद प्रमाण बखाणोरे. ज्ञान आराधन साधन सिद्धिनुं, साधी कर्म खपाया; केवळ कमळा पामी अनंती, सिद्धिए सिद्ध सुहायारे. ज्ञान ज्ञानीनी सेवा करतां, चिर संचित अघ नाय; पुन्य महोदय कमळा विमळा, घटमां परगट थायरे. श्री विजयदेव सूरीश्वर पाटे, विजयसिंह सूरिराया; तास शिष्य श्री सत्यविजय गणि, संवेग मारग ध्यामारे. भ० ५ शिष्य कपूर खिमा जिन उत्तम, बिजयपदे सोझया; श्री गुरु पद्मविजय पदपंकज, नमतां श्रुत बहु पायारे. ऋषि गज दिग्गज चंद संवत्सर, ज्ञान भगति मन काया; नेमीश्वर कल्याणक दिवसे, मंचज्ञान गुणगायारे. भ० २ म० ३ भ० ४ भ० ६ भ० Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४४) तपगच्छ विजयादणेंद्र सूरीश्वर, दीपे तेज सवाया; तस राज्ये भविजन हितकाजे, रूपविजय गुणगायारे. भ० ८ काव्यम् . ज्ञानं स्यात् कुमतांधकारतरणिर्ज्ञानं जगल्लोचनं । ज्ञानं नीतितरंगिणीकुलगिरिज्ञानं कषायापहम् ।। ज्ञानं निवृतिवत्समंत्रममलं ज्ञानं मनःपावनं । ज्ञानं पंचविधं यजेहमनिशं स्वर्गापवर्गपदम् ॥ १॥ ॐ नमोज्ञानाय लोकालोकप्रकाशकाय० जलं १, चंदनं २, पुष्पं ३, धूपं ४, दीपं ५, अक्षतं६, नैवेद्यं, फलं ८ यजामहे स्वाहा. अथ विधि. एक पीठउपर पवित्रपणे कुंकुमना ५१ साथीया करीए, ते उपर अक्षत पुरीए, ते उपर नागरवेलनां पत्र एकेक मूकीए, ते उपर सो. पारी बदाम पैसो फल फूल नैवेद्य मूकीए, ५१ दीवा करीए, ५ माळीएर मूकीए; घी खांड सहित पंच गोलक थापीए,त्रिवेदिकापीठ. थापी स्वस्तिक करी अक्षत फल धरीए, पंचतीर्थीनी प्रतिमा थापीए, पछे स्नात्र भणावीए, पछी पूजा भणावीए, पहेली पूजाना २८ साथीआ, बीजीना १४, त्रीजीना ६, चोथीना २, पांचमीनो १ साथीओ नंदावर्तनो करीए. श्रीफळ मूकीए, एनी पांच पीठ थापीए. न होय तो एक मोटा पीठ उपर भेला ५ थापीए. : .: इति श्री पंचज्ञान पूजाविधि संपूर्ण. . गाथा ८९-ढाळो-११ श्लोक १५०. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४५ ) श्री विजयलक्ष्मीसूरिकृत वीशस्थानकनी पूजामांथी ॥ ज्ञानपद पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ अध्यात्म ज्ञाने करी, विघटे भव भ्रम भीति ॥ सत्य धर्म ते ज्ञान छे, नमो नमो ज्ञाननी रीति १ ॥ ॥ ढाळ ॥ अरणिक मुनिवर चाल्या गोचरी ॥ ए देशी || ज्ञानपद भजिये रे जगत गृहकरु, पांच एकावन भेदेरे || सम्यग ज्ञान जे जिनवर भाषियो, जडता जननी उच्छेदे रे || ॥ ज्ञान० ॥ १ ॥ ए आंकणी ॥ भक्षाभक्ष विवेचन परगडो, क्षीर नीर जेम हंसो रे ॥ भाग अनंतमो रे अक्षरनो सदा, अप्रतिपाति प्रकाश्यो रे। ज्ञा० ॥ २ ॥ मनथी न जाणे रे कुंभकरण विधि, तेहथी कुंभ किम थाशे रे ।। ज्ञान दयाथी रे प्रथम छे नियमा, सदसद्भाव विकासेरे || ज्ञा० ॥ ३ ॥ कंचन नाणं रे लोचनवंत कहे, अंधो अंध पलायरे || एकांतवादी तत्त्व पामे नहीं, स्याद्वाद रस समुदायरे ॥ ज्ञा० ॥ ४ ॥ ज्ञान भर्या भरतादिक भव तर्या, ज्ञान सकळ गुण मूळरे ॥ ॥६॥ ज्ञानी ज्ञानतणी परिणतिथकी, पामे भवजल कूलरे ॥ ज्ञा० ॥ ५ ॥ अल्पागम जइ उग्र विहार करे, विचरे उद्यमवंतरे ॥ उपदेशमालामा किरिया तेहनी, कायक्लेश तस हुंतरे ॥ ज्ञा० जयंत भूपो रे ज्ञान आराधतो, तीर्थकर पद पामेरे ॥ रवि शशी मेहपरे ज्ञान अनंत गुणी, सौभाग्यलक्ष्मी हितकामेरे ||ज्ञा० || ७ || ॥ इति ज्ञानपद पूजा अष्टमी ॥ ८ ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४६ ) || अभिनव ज्ञानपद पूजा || ॥ दोहा ॥ ज्ञानवृक्ष सेवो भविक, चारित्र समकित मूल । अजर अमर पद फल कहो, जिनवर पदवी फूल ॥ १ ॥ ॥ दाळ ॥ कोइलो पर्वत धुंधलोरे लोल ॥ ए देशी ॥ अभिनव ज्ञान भणो मुदारे लाल, मूकी प्रमाद विभाव रे; हुं वारी लाळ | बुद्धिना आठ गुण धारिये रे लाल, आठ दोषनो अभाव रे ।। हुं वारी लाल, प्रणमो पद अढारमुं रे लाल || ए आंकणी ॥ १ ॥ देशाराधक किरिया कहीरे लाल, सर्वाराधक ज्ञान रे ॥ हुं० ॥ मुहूर्तादिक किरिया करे रे लाल, निरंतर अनुभव ज्ञान रे। हुँ ०प्र० ॥२॥ ज्ञानरहित किरिया करे रे लाल, किरियारहित जे ज्ञान रे || हुं० ॥ अंतर खजुआ रवि जिश्यो रे लाल, षोडशकनी ए वाणरे । हुँ| | ०प्र० || ३ || छह अहमादिक तपे करी रे लाल, अज्ञानी जे शुद्ध रे ॥ हुं० ॥ तेहथी अनंत गुणी शुद्धतारे लाल, ज्ञानी प्रगटपणे लद्ध रे || हु०प्र० || ४ || राचे न जूठ किरिया करी रे लाल, ज्ञानवंत जुवो युक्ति रे ॥ हुं० ॥ जूठ साच आतमज्ञानथीरे लाल, परखे निज निज व्यक्ति रे ॥ हुं०प्र०॥५॥ पांच भेद छे ज्ञानना रे लाल, तेह आराधे जेह रे || हुं० ॥ सागरचंद परे प्रभु हुवेरे लाल, सौभाग्य लक्ष्मी गुणगेहरे | हुँ०म० ||६|| ॥ इति अभिनव ज्ञानपद पूजा अष्टादशी ॥ १८ ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४७ ) ॥ श्रुतपद पूजा ॥ ॥दोहा॥ वक्ता श्रोता योगयी, श्रुत अनुभव रस पीन ॥ ध्याता ध्येयनी एकता, जय जय श्रुत सुख लीन ॥ १॥ ॥ढाळ ॥ . अविनाशीनी सेजडीए रंग, लाग्यो मारी सजनी जीरे ॥ ए देशी ॥ श्रुतपद नमिये भावे भविया ! श्रुत छे जगत आधारजी ।। दुःसम रजनी समये साचो, श्रुत दीपक व्यवहार ॥ श्रुतपद नमियेजी ॥ए आंकणी ॥१॥ बत्रीश दोषरहित प्रभु आगम, आठ गुणे करी भरियुजी ॥ अर्थथी अरिहंतजीए प्रकाश्युं, सूत्रथी गणधर रचियुं ॥ श्रु० ॥२॥ गणधर प्रत्येकबुद्धे गुंथ्युं, श्रुतकेवली दश पूर्वीजी ।। सूत्र राजासम अर्थ प्रधान छ, अनुयोग चारनी ऊर्वी । श्रु०॥ ३ ॥ जेटला अक्षर श्रुतना भणावे, तेटला वर्ष हजारजी ॥ स्वर्गनां सुख अनंतां विलसे, पामे भवजल पार ॥ श्रु० ॥ ४ ॥ केवळथी वाचकता माटे, छे सुअनाण समत्थनी ॥ श्रुतज्ञानी श्रुतज्ञाने जाणे, केवली जेम पयत्थ ॥श्रु० ॥५॥ काल विनय प्रमुख छे अडविध, सूत्रे ज्ञानाचारजी ॥ श्रुतज्ञानीनो विनय न सेवे, तो थाये अतिचार ॥श्रु० ॥६॥ चउद भेदे श्रुत वीश भेद छ, सूत्र पिस्ताली भेदेजी ॥ रत्नचूड आराधतो अरिहा, सौभाग्य लक्ष्मी सुख वेदे॥ श्रु० ॥७॥ || इति श्रुतपद पूजा एकोनविंशतिः ॥१९॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४८ ) मुनिमहाराजश्री आत्मारामजीकृत वीशस्थानकनी पूजामांथी ॥ज्ञानपद पूजा ॥ ॥दोहा॥ निज स्वरुपके ज्ञानसें, परसंग संगत छार ॥ ज्ञान आराधक प्राणिया, ते उतरे भव पार ॥१॥ ॥ राग भैरवी-अजमेरी ताल-पंजाबी ठेको ॥ ॥ लागी लगन कहो केसें छूटे, प्राणजीवन प्रभु प्यारेसें॥ ए देशी।। ज्ञान सुहकर चिद्घन संगी, रंगी जिनमत सारे। रंगी० ॥ ज्ञान०१॥ पांच एकावन भेद ज्ञानके, जडता जगजन टारेमें ॥ जड०॥ज्ञान०२॥ भक्ष्य अभक्ष्य विवेचन कीनो, कुमति रंग सब डारेमें||कुम०ज्ञान०३॥ प्रथम ज्ञान ने पछी अहिंसा, करम कलंक निवारेमें ।।कर०॥ज्ञान०४॥ सदसद् भाव विकाशी ज्ञानी, दुर्नय पंथ विसारेमें ॥दुन०॥ज्ञान०५॥ अज्ञानीकी करणी एसी, अंक विना शून्य सारेमें ||अंक० ॥ज्ञान०६॥ मति श्रुत अवधि मनःपर्यव है, केवल सर्व उजारेमें ॥केव०॥ज्ञान०७॥ अज्ञानी वर्ष एक कोटिमें, करम निकंदन भारेमें ॥कर० ॥ज्ञान० ८॥ ज्ञानी श्वासोश्वास एकमें, इतने करम विदारेमें ॥इत० ॥ ज्ञान० ९॥ भरतेश्वर मरुदेवी माता, सिद्धि वरे दुःख जारेमें।।सि०॥ ज्ञान०१०॥ देशविराधक साराधक, भगवती वीर उजारेमें||भग० ॥ज्ञान० ११॥ जयंत नरेश्वर यह पद साधी, आतम जिनपद धारेमें।आत ज्ञान०१२॥ ॥ इति अष्टम पूजा ॥८॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४९) · ॥ अभिनव ज्ञानपद पूजा. ॥ ॥दोहा॥ ज्ञान अपूरव ग्रहण कर, जागे अनुभव रंग ।। कुमति जाल सब जारके, उछळे तत्व तरंग ॥ १ ॥ पद अढारमे पूजिये, मन धरि अधिक उमंग ॥ ज्ञान अपूरव जिन कहे, तज कुगुरुको संग ॥२॥ ॥राग बरवो-चाल ठूमरी-ताल ठूमरी ।। मन मोह्या जंगलकी हरणीने ॥ मन० ॥ ए देशी ।। भवि वंदो अपूर्व ज्ञान तरणीने ॥ भवि०॥ ए आंकणी ॥ कुमति घूक सब अंध हुये हे, भूले जडमति करणीने ॥भवि०॥१॥ ज्ञान अपूरव जबही प्रगटे, शुद्ध करे चित्त धरणीने. ॥भवि०॥२॥ नियुक्ति शुद्ध टीका चूर्णी, मूल भाष्य सुख भरणीने भवि०॥२॥ संप्रदाय अनुभव रस रंगे, कुमति कुपंथ विहरणीने ॥भवि०॥१॥ सद्गुरुकी ए तालिका नीकी, रतन संदुख उद्धरणीने ॥भकिना॥ इन विन अर्थ करे सो तस्कर, काल अनंता मरणीने ॥भवि०॥६॥ सम्मति कर्मग्रंथ रत्नाकर, छेद ग्रंथ दुःख हरणीने भवि०॥७॥ द्वादशार वही अंग उपांग, सप्तभंग शुद्ध वरणीने ॥भवि०॥॥ इत्यादिक भवि ज्ञान अपूरव, पठन करे धरे चरणीने भविशाला सागरचंदे जिनपद पायो, आतम शिक्षधू परणीने ॥भवि० ॥१०॥ ॥ इति अष्टादश पूजा ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५० ) ॥ श्रुत ज्ञानपद पूजा ॥ ॥ दोहा ॥ पाप ताप हरणको, चंदन सम श्रुतज्ञान || श्रुत अनुभव रस रांचीए, माचिये जिन गुण तान ॥ १ ॥ इगुणविश (१९) पद पूजीए, जिनवर वचन अभंग ॥ तीर्थकर पद भवि लहे, छार कुमतिको संग ॥ २ ॥ ढाळ. ॥ राग श्याम कल्याण || ॥ श्री० ॥१॥ श्री राधेराणी दे डारो ने, वांसरी हमारी ॥ श्री राधे० ॥ ए देशी श्री चिदानंद विडारोने, कुमति जो मेरी ॥ श्री० ॥ ए आंकणी ॥ दुषम कामें कुमति अंधेरो, प्रगट करे सब चोरी बत्तीस दोषरहित श्रुत वांचे, आठ गुणे करी जोरी अरिहंत गणधर भाषित नीको, श्रुत केवळी बल फोरी || श्री० ॥३॥ प्रत्येकबुद्ध दश पूरवधर, श्रुत हरे भवकोरी ॥ श्री० ॥२॥ आठ आचार जो कालादिक है, साधे करमकी चोरी चारोहि अनुयोग गुरुगम वांचे, टूट कुपंथकी दोरी चौद भेद श्रुत वीश भेद है, अंग पयन्ना कोरी रत्नचूड नृप ए पद सेवी, आतम जिनपद होरी ॥ इति एकोनविंशति पूजा ॥ १९ ॥ ॥ ॥ ॥ ॥ श्री० ॥४॥ ॥ श्री० ॥५॥ श्री० ॥ ६ ॥ M श्री ० ॥ श्री० ॥ ८ ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५१ ) श्री यशोविजयोपाध्यायादि विरचित नवपदनी पूजामांथी ॥ सम्यग् ज्ञानपद पूजा. ॥ ॥ काव्यं, इंद्रवज्रा वृत्तम् ॥ अन्नाण संमोह तमोहरस्स, नमो नमो नाण दिवायरस्स ॥ ॥ भुजंग प्रयात वृत्तम् ॥ होये जेहथी ज्ञान शुद्ध प्रबोधे, यथावर्ण नासे विचित्रावबोधे ॥ ते जाणीए वस्तु षड्द्रव्य भावा, न हुये वितत्था ( वाद ) नीजेच्छा स्वभावा ॥ १ ॥ होये पंच मत्यादि सुज्ञान भेदे, गुरूपास्तिथी योग्यता तेह वेदे ॥ बळी ज्ञेय हेय उपादेय रूप, रहे चित्तमां जेम ध्वांत प्रदीपे ॥ २ ॥ ॥ ढाल ॥ ॥ उलालानी देशी ॥ भव्य ! नमो गुण ज्ञानने, स्वपर प्रकाशक भावेजी ॥ परजाय धर्म अनंतता, भेदाभेद स्वभावेजी ॥ १ ॥ ॥ उलालो ॥ जे मुख्य परिणति, सकल ज्ञायक, बोधभाव विळच्छना ॥ मति आदि पंच, प्रकार निर्मल, सिद्धसाधन लच्छना ॥ स्याद्वाद संगी, तत्त्वरंगी, प्रथम भेदाभेदता ॥ सविकल्प ने, अविकल्प वस्तु, सकल संशय छेदता || २ || Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५२) ॥ श्रीपालना रासनी देशी ।। भक्षाऽभक्ष न जे विण लहिये, पेय अपेय विचार ॥ कृत्य अकृत्य न जे विण लहिये,ज्ञान ते सकल आधाररेभासि०३१॥ प्रथम ज्ञान ने पछे अहिंसा, श्री सिद्धांते भाख्यु ॥ ज्ञानने वंदो ज्ञान म निंदो, ज्ञानीए शिवमुख चाख्युरे।।मासि०३२॥ सकल क्रियानुं मूल जे श्रद्धा, तेहर्नु मूल जे कहिये । तेह ज्ञान नित नित वंदीजे,ते विण कहो किम रहियेरे।।भ०॥सि०३३॥ पंच ज्ञानमांहि जेह सदागम, स्वपर प्रकाशक जेह ।। दीपकपरे त्रिभुवन उपगारी,वली जिम रवि शशी मेहरे ॥भ०सि०३४॥ लोक उरध अध तिर्यग ज्योतिष, वैमानिक ने सिद्ध ॥ लोकालोक प्रगट सवि जेहथी, तेह ज्ञाने मुज शुद्धिरे ।। मासि०३५॥ ॥ढाल॥ ज्ञानावरणी जे कर्म छे, क्षयउपशम तस थायरे ॥ तो होये एहिज आतमा, ज्ञान अबोधता जायरे ॥ वीर० ॥८॥ ॥ इति सप्तम सम्यग्ज्ञानपद पूजा समाप्ता ॥ श्री पद्मविजयजीकृत नवपदजीनी पूजामांथी ॥ ज्ञानपद पूजा ॥ ॥दोहा॥ नाण स्वभाव जे जीवनो, स्वपर प्रकाशक जेह ॥ तेह नाण दीपक समुं, प्रणमो धर्म सनेह ॥ १॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ढाल ॥ १॥ नारायणानी देखी । जिम मधुकर मन मालतीरे ॥ ए. देशी॥ नाण पदाराधन करोरे, जिम लो निर्मळ नाणरे ॥ भविकजन ॥ श्रद्धा पण थीर तो रहेरे, जो नवतत्व विनाणरे ॥भवि०गाना||२॥ अज्ञानी करशे किश्युरे, शुं लहेशे पुण्य पापरे ॥ भवि०॥ पुण्य पाप नाणी लहेरे, करे निज निर्मळ आपरे । भविगाना० ॥२॥ प्रथम ज्ञान पछी दयारे, दशवकालिक वाणरे ॥ भवि० ॥ भेद एकावन तेहनारे, समजो चतुर सुजाणरे भविगाना०॥३॥ ॥दोहा॥ बहु कोडयो वरसे खपे, कर्म अज्ञाने जेह ॥ ज्ञानी श्वासोच्छ्वासमां, कमें खपावे तेह ॥ १॥ ॥ ढाल॥ ॥हो मतवाले साजना ॥ ए देशी॥ नाण नमो पद सातमे, जेहथी जाणे द्रव्यभाव ॥ मेरे लाल ॥ जाणे ज्ञान क्रिया वली, तिम चेतन ने जडभाव ॥ मेरे लाल ॥ ॥ नाण नमो० ॥ १॥ नरग सरग जाणे वली, जाणे वली मोक्ष संसार ॥ मे० ॥ हेय ज्ञेय उपोदय लहे, वली निश्चय ने व्यवहार ।। मे०॥ ना० ॥२॥ नाम ठवण द्रव्य भाव जे, वली सग नय ने सप्त भंग || मे०॥ जिनमुख पद्मद्रहथकी, लहो ज्ञान प्रवाह.सुगंग ॥ मे० ॥वा ॥३॥ ॥ इति सप्तम ज्ञानपद पूजा समाता ॥ . Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५४ ) मुनिराज श्री आत्मारामजीकृत नवपदजीनी पूजामांथी सम्यग् ज्ञान पद पूजा. ॥ दोहा ॥ मिथ्या मोह कुपंथ ही, अझ तिमिर करे दूर || निज पर सत्ता सहु कहे, ज्ञानहि निर्दल सूर ॥ १॥ ॥ राग भैरवी || लागी लगन कहो || यह चाल|| ज्ञान सुकर चिन संगी, सप्तभंगी मत सारेरे ॥ अंचली० ॥ शुद्ध ज्ञान मिथ्याच्च मिटेसें, ज्ञानावरण विडारेरे ॥ षड्द्रव्य नाना बोध स्वरूपे, निज इच्छा सब वारेरे ॥ ज्ञा० ॥ १ ॥ गुरु सेवायें योग्यता प्रगटे, हेय उपादेय कारेरे ॥ ज्ञेय अनंत स्वरूपे भासे, दीप तिमिर जिम टारेरे ॥ ज्ञा० ॥ २ ॥ नित्यानित्य नाश अविनाशी, भेदाभेद अभंगीरे ॥ ॥ ज्ञा० ॥ ३ ॥ एक अनेक रूपही अरूपी, स्याद्वाद नय संगीरे अर्पितानर्पित मुख्य गौणता, साधन सिद्ध बिरंगीरे ॥ बाच्यावाच्य सअंश निरंशी, आनंदघन दुःख रंगीरे ॥ ज्ञा० ॥ ४ ॥ विभाव स्वभावी शुद्ध स्वभावी, वीतराग जड संगीरे ॥ संशय सर्वही दूर निवारे, आतम समरस चंगीरे ॥ ज्ञा० ॥५॥ ॥ दोहा ॥ सूत्र संयुत सूचीवत्, कचवर पिंड मझार ॥ बिनसे नही तिम श्रुतयुत, पामे भवनो पार ॥ १ ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५५ ) ॥ कंकन खोल देउं महाराज ॥ यह चाल || सबमें ज्ञानवंत वडवीर, काटे सकल कर्मजंजीर ।। अंचली ।। भक्ष्याभक्ष्य न जे बिन जाने, गम्यागम्य नहिं पिछाने ॥ कार्याकार्य न जाने कीर ॥स०॥१॥ प्रथम ज्ञानही दया पिछाने, अज्ञानी सरसो नही जाने ॥ असे कहे सिद्धांते वीर ॥ स०॥२॥ श्रद्धा सकळ क्रियाका मूल, तिसका मूलही ज्ञान अमूळ ॥ सच्चा ज्ञान धरो मन धीर ॥स०॥३॥ पंच ज्ञानमें श्रुत प्रधान, स्वपर प्रकाशे तिमिर मिटान ॥ जगमें अति उपगारी हीर · ॥ स०॥४॥ लोकालोक प्रकाशनहारा, त्रिभुवन सिद्धराज सुखभारा ॥ सत् चिद् आत्मराम गंभीर ॥ स०॥५॥ इति सप्तमी पूजा. पन्यासजी श्री गंभीरविजयजीकृत नवपदजीनी पूजामांथी ज्ञानपदनी पूजा ७ मी. दुहा. निबिड अज्ञान तिमिर हरी, प्रकाशे षस्तु मात्र, नमो नमो ज्ञानदिनपति, उदयो दिन ने रात्र. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथोचित आवरण नाश जे, शुद्ध ज्ञान सुबोध, पद्रव्य ज्ञान प्रकाशवा, हेतु ज्ञान सुबोध. वितथवाद जेमां नहिं, न इच्छावाद बनाव; मति आदे पण ज्ञान ते, वंदे नित सदभाव. गुरु सेवी लहे योग्यता, निज घट देखे सदैव; ज्ञेय हेय उपादेय ते, तम गत घट ज्यु दीव. ॥ ढाळ १ ली.॥ राग धनाश्री. (भूत्यो भमत कहा वे अजान-ए चाल.) ज्ञानहि नमन बनावे सुज्ञान, ज्ञान० स्वपर भाव प्रकाशी दिखावे, पर्याय अनंत विधान. ज्ञा० १ भेदाभेद स्वभावनो ग्राही, परिणति मुख्य पिछान. ज्ञा० २ ज्ञापक सकळ पदारथ भाव, निर्मल पंचहि ज्ञान. ज्ञा०३ साधन साध्य उभय निरधारे, संशय तमहर भान. ज्ञा०४ स्याद्वादमय वस्तु जणावे, विशेष सामान्य विधान. ज्ञा०५ ॥ ढाळ २ जी ॥ (तुम चिद्घन चंद आनंद लाल, तोरे दरिसणकी बलीहारी-ए राग.) जिनज्ञान सकळ आधार सार, नमु नित नित बे कर जोरी. जि०१ भक्ष्य अभक्ष्य न जे विनु जाने, पेय अपेय न धारी. जि०२ कृत्य अकृत्य न देखे जे वीनु, देवगुरु शुद्धिकारी. जि०३ ज्ञान विना संजम नवि होवे, आगम बचन निहारी.. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५७ ) ज्ञानने वंदो ज्ञान म निंदो,(ज्ञानी) शिवमुखना अधिकारी. जि० ५ सकळ क्रियानुं मूळ छे श्रद्धा, (एतो) श्रद्धा मूळ विहारी. जि० ६ ते विनु केसें रहुं क्षण एक, (नमुं) भूतल मस्तक धारी. जि० ७ पंच ज्ञानमा जेह सदागम, स्वपर प्रकाशनकारी. जि०८ दीपक रवि शशि मेघपरे ते, जग जीवन उपगारी. जि. ९ लोक ऊर्ध्व अध तिर्यग् ज्योतिष, सुर शिव दर्पण धारी. जि० १० लोकालोक प्रगट सवि जेहथी, (तेह) आगमे शुद्धि अमारी जि० ११ ॥ढाळ ३ जी॥ राग कानडो ( अवसर बेहर बेहर नहीं आवे.-ए चाल.) चेतन ज्ञान स्वभाव ज्युं ध्यावे, चे० ज्ञानावरणी कर्म जीयाने, क्षय उपशम जो पावे. ज्ञान हुवे तब एही आतम, अबोधपणुं सवि जावे. वीर जिणंद वाणी रस पानी, सुजस महोदय पावे. चे०१ वृद्धि गंभीर वरे शिव कमळा, अमळ विपुळ सुख पावे. चे० ४ इति सप्तमी पूजा. पंडित श्री वीरविजयजीकत पीस्तालीश आगमनी पूजामांथी सातमी पूजानुं गीत. ॥राग वसंत फाग ॥ . . वीरकुमरनी वातडी, केने कहिये ।। ए दशी ॥ आगमनी आशातना नवि करिये, नवि करिये रे नवि करिये, श्रुत भक्तिं सदा अनुसरिये, शक्ति अनुसार ॥ आग ॥१॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५८ ) ज्ञान विराधक प्राणीया मति होना, ते तो परभव दुःखिया दीना ॥ भरे पेट ते पर आधीना, नीच कुल अवतार अंधा ठूला पांगुळा पिंडरोगी, जनम्या ने मातवियोगी || संताप घणो ने शोगी, योगी अवतार मूंगा ने वली बोबडा धनहीना, प्रिया पुत्र वियोगे लीना ॥ - मूरख अविवेके भीना, जाणे रणनुं रोझ -ज्ञानतणी आशातना करो दूरे, जिन भक्ति करो भरपूरे ॥ रहो श्री शुभवीर हजूरे, सुखमांहे मगन्न ॥ इति सप्तमी नैवेद्य पूजा समाप्ता ॥ ७ ॥ ।। आ० ॥ २ ॥ ॥ आ० ॥ ३ ॥ ॥ आ० ॥ ४ ॥ ॥ आ० ॥ ५ ॥ १ श्री ज्ञान पंचमीनुं चैत्यवंदन. त्रिगडे बेठा वीरजिन, भाखे भविजन आगे || त्रिकरणशुं त्रिहुं लोक जन, निसुणो मन रागे आराधो भलि भातसें, पांचम अजुवाली ॥ ज्ञान आराधन कारणे, एहज तिथि निहाली ज्ञान विना पशु सारिखा, जाणो एणे संसार ॥ ज्ञान आराधनथी लां, शिवपद सुख श्रीकार ज्ञान रहित क्रिया कही, काश कुसुम उपमान ।। लोकालोक प्रकाशकर, ज्ञान एक परधान ज्ञानी सासासासमें, करे कर्मनो खेह || पूर्व कोडी वरसां लगे, अज्ञाने करे तेह देश आराधक क्रिया कही, सर्व आराधक ज्ञान || ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ ॥ ३ ॥ 11 8 11 ॥५॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥६॥ ॥७॥ . (१५९ ) ज्ञानतणो महिमा घणो, अंग पांचमे भगवान . पंच मास लघु पंचमी, जावज्जीव उत्कृष्टि ।। पंच वरस पंच मासनी, पंचमी करो शुभदृष्टि एकावनही पंचनो ए, काउस्सग्ग लोगस्स केरो॥ उजमणुं करो भावशू, टाळो भव फेरो एणी पेरे पंचमी आराहीयेए, आणी भाव अपार ।। वरदत्त गुणमंजरी परे, रंगविजय लहो सार ।। इति श्री पंचमीनू चैत्यवंदन संपूर्ण. ॥८॥ ॥९॥ श्री ज्ञानपंचमी मोटुं स्तवन. पुण्य प्रशंसीये, ए देशी. सुत सिद्धारथ भूपनोरे, सिद्धारथ भगवान || बारह परखदा आगलेरे, भाखे श्री वर्द्धमानरे ॥ १ ॥ भवियण चित्त धरो, मन वच काय अमायोरे ॥ ज्ञान भगति करो ॥ ए आंकणी ॥ गुण अनंत आतमतणारे, मुख्यपणे तिहां दोय ॥ तेमां पण ज्ञानज वडुरे, जिणथी दंसग होयरे ॥ भ० ॥२॥ ज्ञाने चारित्र गुण वधेरे, ज्ञाने उद्योत सहाय ॥ ज्ञाने थिविरपणुं लेहेरे, आचारज उवझायरे ॥ भ० ॥३॥ ज्ञानी श्वासोश्वासमारे, कठिण करम करे नाश ॥ ... वन्हि जेम इंधण दहेरे, क्षणमा ज्योति प्रकाशरे ॥ भ० ॥ ४॥ प्रथम ज्ञान पछे दयारे, संवर मोह विनाश ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६० ) गुणठाण पगथालीयेरे, जेम चढे मोक्ष आवासोरे ॥ भ० ॥ ५ ॥ मइ सुअ ओहि मणपज्जवारे, पंचम केवलज्ञान ॥ चउ मुंगा श्रुत एक छेरे, स्वपर प्रकाश निदानरे ॥ भ० ॥ ६ ॥ तेहनां साधन जे कारे, पाटी पुस्तक आदि || लखे लखावे साचवेरे, धर्मी घरी अप्रमादोरे ॥ भ० ॥ ७ ॥ त्रिविध आशातना जे करेरे, भणतां करे अंतराय ॥ अंधा बेहेरा बोबडारे, मुंगा पांगुला थायरे 11 10 11 6 11 भणतां गणतां न आवडेरे, न मळे वल्लभ चीज ॥ गुणमंजरी वरदत्त परेरे, ज्ञान विराधन बीजरे ॥ भ० ॥ ९ ॥ प्रेमे पूछे परखदारे, प्रणमी जगगुरु पाय || गुणमंजरी वरदत्तनोरे, करो अधिकार पसायोरे ॥ भ० ||१०|| ANUAR ॥ ढाल बीजी. ॥ कपूर होये अति उजळोरे-ए देशी. जंबूद्वीपना भरतमारे, नयर पदमपुर खास || आजितसेन राजा तिहारे, राणी यशोमती तासरे. प्राणी ॥ आराधो वर ज्ञान, एहज मुक्ति निदानरे प्राणी० ॥ १ ॥ वरदत्त कुंबर तेहनोरे, विनयादिक गुणवंत ॥ पिताए भणवा मूकीओरे, आठ वरस जब हुंतरे ॥ प्रा० ||२|| पंडित यत्न करे घणोरे. छात्र भणावण हेत ॥ अक्षर एक न आवढेर, ग्रंथतणी शी चेतरे ॥ प्रा० ॥ ३ ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६१ ) ॥ प्रा० ॥ ५ ॥ ॥ प्रा० ॥ ६ ॥ कोढे व्यापी देहडीरे, राजा राणी सचिन ॥ श्रेष्ठी तेहीज नयरमारे, सिंहदास धनवंतरे कपूर तिलका गेहिनीरे, शीले शोभित अंग || गुणमंजरी तस बेटडीरे, मुंगी रोगे व्यंगरे सोळ वरसनी सा थइरे, पामी यौवन वेश ॥ दुर्भग पण परणे नहींरे, मात पिता घरे खेदरे तेणे अवसरे उद्यानमारे, विजयसेन गणधार ॥ ज्ञान रयण रयणायरुरे, चरण करण व्रतधाररे ॥ प्रा० ॥ ७ ॥ वनपाल भूपालनेरे, दधि वधाइ जाम ॥ चतुरंगी सेना सजीरे, वंदन जावे तामरे धर्मदेशना सांभलेरे, पुरजन सहित नरेश | विकसित नयण वदन मुदारे, नहि प्रमाद प्रवेशरे ॥ प्रा० || ९ || ज्ञान विराधन परभवेरे, मूरख पर आधीन || रोगे पीडया टळवळेरे, दीसे दुःखीया दीनरे ज्ञान सार संसारमारे, ज्ञान परम सुख हेत ॥ ज्ञान विना जग जीवडारे, न लहे तच्च संकेतरे ॥ प्रा० ॥ ११ ॥ श्रेष्ठ पूछे मुणींदनेरे, भाखो करुणावंत ॥ || $10 || 2 11 ॥ प्रा० ॥ १० ॥ गुणमंजरी मुज अंगजारे, कवण कर्म विरतंतरे ॥ प्रा० ॥ १२ ॥ ॥ ढाळ त्रीजी ॥ सुरती महिनानी देशी. घातकी खंडना भरतमां, खेटक नयर सुठाम | ॥ प्रा० ॥ ४ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६२ ) व्यवहारी जिनदेव छे, घरणी सुंदरी नाम अंगज पांच सोहामणा, पुत्री चतुरा चार ॥ पंडित पासे शीखवा, ताते मूक्या कुमार बाळ स्वभावे रमत करतां दहाडा जाय ॥ पंडित मारे त्यारे, मा आगल कहे आय सुंदरी शंखिणी शीखवे, भणवानुं नहीं काम || पंड्यो आवे तेडवा, तो तस हणजो ताम पाटी खडिया लेखण, बाळी कीधां राख ॥ शठने विद्या नवि रुचे, जेम करहाने द्राख पाडापरे महोटा थया, कन्या न दीये कोय | शेठ कहे सुण सुंदरी, ए तुज करणी जोय की भाखे भामिनी, बेटा बापना होय ॥ पुत्री होये मातनी, जाणे छे सौ कोय रे रे पापिणी सापिणी, सामा बोल म बोल || साळी कहे ताहरो, पापी बाप निटोल शेठे मारी सुंदरी, काल करी ततखेव || ए तुज बेटी उपनी, ज्ञान विराधन हेव मूर्छागत गुणमंजरी, जातिसमरण पामी ॥ ज्ञान दीवाकर साचो, गुरुने कहे शिर नामि शेठ कहे सुणो स्वामी, केम जाए ए रोग | गुरु कहे ज्ञान आराधो, साधो बंछित योग ॥ १ ॥ 113 11 ॥ ३ ॥ 11 8 11 “॥५॥ ॥ ६॥ 11911 ॥ ८ ॥ 119 11 ॥ १० ॥ ॥ ११ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६३ ) उज्वल पंचमी सेवो, पंच बरस पंच मास ॥ नमो नाणस्स गणणुं गणो, चोबिहार उपवास पूर उत्तर सन्मुख, जपिये दोय हजार || पुस्तक आगल ढोइए, धान्य फलादि उदार दीवो पंच दीवटतणो, साथिओ मंगल गेह ॥ पोसहमां न करी शके, तेणे विधि पारणे एह अथवा सौभाग्य पंचमी, उज्वळ कार्त्तिक मास || जावज्जीव लगे सेवीए, उजमणा विधि खास ॥ ढाळ चोथी ॥ ॥ १२ ॥ 11-23 #1 ॥ १४ ॥ ॥ १५ ॥ एकवीशानी देशी. ढाळ - पांच पोथीरे, ठवणी पाठां विटांगणां ॥ चाबखी दोरारे, पाटी पाटला वरतणां ॥ मसी कागल, कांबी खडिआ लेखणी || कवली डाबलीरे, चंदुआ झरमर पुंजणी ॥ १ ॥ चुटक - प्रासाद प्रतिगा तास भूषण, केसर चंदन डाबली ॥ वासकुंपी वालाकुंची, अंगलुहणा छावडी || ima थाली मंगल दीवो, आरति ने धषणां ॥ चरवला मुहपत्ति सामीवच्छल, नोकारवाली थापना ।। २ ।। ढाळ- ज्ञान दरिसणरे, चरणनां साधन जे ह्यां ॥ तप संयुतरे, गुणमंजरीए सदह्यां ॥ नृप पूछेरे, वरदत्त कुंअरने अंगरे । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६४) रोग उपनोरे, कवण करमना भंगरे त्रुटक-मुनिराज भाखे जंबुद्वीपे, भरत सिंहपुर गाम ए । व्यवहारी वसु तास नंदन, वसुसार वसुदेव नाम ए ॥ वनमाहे रमतां दोय बंधव, पुण्ययोगे गुरु मल्या ॥ वैराग्य पामी भोग वामी, धर्म धामी संचर्या ॥४॥ ढाल-लघु बांधवरे, गुणवंत गुरु पदवी लहे ॥ पणसय मुनिनेरे, सारण वारण नितु दिए ॥ कर्मयोगेरे, अशुभ उदय थयो अन्यदा ॥ संथारेरे, पोरिसी भणी पोढया यदा ब्रटक-सर्वघाति निदव्यापी, साधु मागे वायणा ॥ उंघमां अंतराय थाता, सूरि हुआ दूमणा ।। ज्ञान ऊपर द्वेष जाग्यो, लाग्यो मिथ्या भूतडो॥ पुण्य अमृत ढोली नांख्युं, भर्यो पापतणो घडो ॥६॥ ढाल-मन चिंतवेरे, कां मुज लाग्युं पापरे ॥ श्रुत अभ्यासोरे, तो एवडो संतापरे । मुज बांधवरे, भोयण सयण सुखे करे ।। मूरखनारे, आठ गुण मुख उच्चरे ॥७॥ अटक-बार वासर कोइ मुनिने, वायणा दीधी नहीं। अशुभ ध्याने आयु पूरी, भूप तुज नंदन सही ॥ ज्ञान विराधन मूढ जडपणुं, कोढनी वेदन लही ।। वृद्ध बांधव मान सरवर, हंसगति पाम्यो सही ॥८॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६५ ) ढाल-वरदत्तनेरे, जाति समरण उपन्यु । भव दीठोरे, गुरु प्रणमी कहे शुभ मनो॥ धन्य गुरुजीरे, ज्ञान जगत्रय दीवडो ॥ गुण अवगुणरे, भासन जे जग परवडो ॥९॥ त्रुटक-ज्ञानपावन सिद्धि साधन, ज्ञान कहो केम आवडे ।। गुरु कहे तपथी पाप नासे, टाढ जेम घन तावडे ॥ भूप पभणे पुत्रने प्रभु, तपनी शक्ति न एवडी ॥ गुरु कहे पंचमी तप आराधो, संपदा त्यो बेवडी ॥१०॥ ॥ ढाळ पांचमी ॥ ॥ मेंदी रंग लाग्यो-ए देशी ॥ सद्गुरु वयण सुधारसेरे, भेदी साते धात॥ तपशुं रंग लाग्यो । गुणमंजरी वरदत्तनोरे, नाठो रोग मिथ्यात ॥ त०॥ १ ॥ पंचमी तप महिमा घणोरे, प्रसों महीयलपांही ॥त० ॥ कन्या सहस सयंवरारे, वरदत्त परण्यो त्यांही ॥त० ॥ २॥ भूपे कीधो पाटवीरे, आप थयो मुनिभूप ॥ त०॥ भीम कांत गुणे करीरे, वरदत्त रवि शशि रूप ॥ त० ॥ ३ ॥ राजरमा रमणीतणारे, भोगवे भोग अखंड ॥ त०॥ वरसे वरसे उजवेरे, पंचमी तेज प्रचंड ॥ त० ॥४॥ भुक्तभोगी थया संजमीरे, पाले व्रत खटकाय ॥ त०॥ गुणमंजरी जिनचंद्रनेरे, परणावे निज ताय ॥ त०॥५॥ मुख विलसी थइ साधवीरे, वैजयंते दोय देव ॥ त०॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६६ ) वरदत्त पण उपनोरे, जिहां सीमंधर देव अमरसेन राजा घरेरे, गुणवंत नारी पेट लक्षण लक्षित रायनेरे, पुण्ये कीधो भेट सुरसेन राजा थयोरे, सो कन्या भरतार सीमंधर सामी कनेरे, सुणी पंचमी अधिकार तिहां पण ते तप आदर्युरे, लोकसहित भूपाळ दश हजार वरसां लगेरे, पाळे राज्य उदार चार महाव्रत चोंपशुरे, श्री जिनवरनी पास केवलधर मुक्ति गयारे, सादि अनंत निवास रमणी विजय शुभापुरीरे, जंबु विदेह मझार अमरसिंह महीपालनेरे, अमरावती घरनार वैजयंत थकी चवरे, गुणमंजरीनो जीव मानस सर जेम हंसलोरे, नाम धर्यु सुग्रीव वीशे वरसे राजवीरे, सहस चोरासी पुत्र लाख पूरव समता धरेरे, केवलज्ञान पवित्र पंचमी तप महिमा विषेरे, भाखे निज अधिकार जेणे जेहथी शिवपद लघुरे, तेने तस उपकार 11 2.7 BE↑ || करकंडुने करूं वंदना - ए देशी. चोवीस दंडक वारवा ॥ हुं वारी लाल || चोवीशमो जिनचंदरे || हुं वारी लाल || गट्यो प्राणत स्वर्गथी । ॥ त० ॥ ६ ॥ ॥ त० ॥ ॥ त० ॥ ७ ॥ ।। त० ॥ 11 10 11 6 11 ॥ त० ॥ ॥ त० ॥ ९ ॥ ॥ त० ॥ ॥ त० ॥ १० ॥ ॥ त० ॥ ११॥ ॥ त० ॥ ॥ त० ॥ ।। त० ।। १२ ।। ॥ त० ॥ ॥ तं० ॥१३॥ । त० ॥ ॥ त० ॥ १४ ॥ ॥ हुं० ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६७) त्रिशला उर सुखकंदरे ॥ ९० ॥ १॥ महावीरने करूं वंदना ॥ ९० ॥ ए आंकणी ॥ पंचमी गतिने साधवा ॥ हु० ॥ पंचम नाण विलासरे ॥ हुं० ॥ महानिशीथ सिद्धांतमा ॥ हुं० ॥ पंचमी तप प्रकाशरे ॥ ९० ॥२॥ अपराधी पण उद्धर्यो । हुं० ॥ चंडकोशिओ सापरे ॥हुं० ॥ यज्ञ करंता बांभणां ।। हुं० ॥ सरखा कीधा आपरे ॥ हुं० ॥३॥ देवानंदा ब्राह्मणी ।। हुं० ॥ रिखभदत्त वली विप्ररे ॥ हुं० ॥ ब्यासी दिवस संबंधी ।।हुं। कामित पूर्यो क्षिप्ररे ॥ हुं० ॥४॥ कर्म रोगने टालवा ॥ हुं० ॥ सवि औषधनो जाणरे ॥९० ॥ आदर्या में आशा धरी ।हुं०॥ मुज उपर हित आणरे ॥ हुं० ॥५॥ श्री विजयसिंह सूरीशनो ।। ९० ॥ सत्यविजय पन्यासरे ॥ हुं० ॥ शिष्य कपूरविजय कवि ।।हुं०।। चंदकिरण जस जासरे ॥हुं०॥६॥ पास पंचासरा सानिधे । हुं० ।। खिमाविजय गुरु नामरे ॥ हुं०॥ जिनविजय कहे मुज हजो ॥हुं०॥ पंचमी तप परिणामरे ।हुं०॥७॥ ॥कळश ॥ इम वीर लायक विश्वनायक, सिद्धिदायक संस्तव्यो । पंचमी तप संस्तवन टोडर, गुंथी जिनकंठे ठव्यो । पुण्य पाटण क्षेत्रमाहे, सत्तर त्राणुं संवत्सरे ॥ श्री पार्श्व जन्म कल्याण दिवसे, सकल भवि मंगल करे ॥११॥इति॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६८) श्री पंचमीनी स्तुति श्रावण शुदि दिन पंचमी ए, जनम्या नेमिजिणंद तो ॥ श्याम वरण तनु शोभतुं ए, मुख शारदको चंद तो ॥ सहस वरस प्रभु आउखु ए, ब्रह्मचारी भगवंत तो।। अष्ट करम हेले हणीए, पहोता मुक्ति महंत तो अष्टापद पर आदि जिन ए, पहोता मुक्ति मोझार तो ॥ वासुपूज्य चंपापुरी ए, नेम मुक्ति गिरनार तो ॥ पावापुरी नगरीमां वळी ए, श्री वीरतणुं निर्वाण तो।। समेतशिखर वीश सिद्ध हुआ ए, शिर वहुं तेहनी आण तो ॥ २ ॥ नेमिनाथ ज्ञानी हुआ ए, भाखे सार वचन तो ॥ जीवदया गुण वेलडीए, कीजे तास जतन तो। मृषा न बोलो मानवी ए, चोरी चित्त निवार तो॥ अनंत तीर्थकर एम कहे ए, परहरिए परनार तो ॥ ॥ ३ ॥ गोमेद नामे जक्ष भलो ए, देवी श्री अंबिका नाम तो ॥ शासन सानिध्य जे करे ए, करे वळी धमेनां काम तो॥ तपगच्छ नायक गुणनिलो ए, श्री विजयसेन सूरिराय तो ॥ रिषभदास पाय सेवा ए, रूफल करो अवतार तो॥ ॥ ४ ॥ इति श्री पंचमीनी स्तुति संपूर्ण. . श्री ज्ञानपंचमीनुं लधु स्तवन. पंचमी तप तमे करोरे प्राणी ! जेम पापो निर्मण नाणरे; पहेलुं ज्ञान ने पछी किरिया, नहीं कोई ज्ञान समानरे ॥ ५० ॥१॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६९ ) नंदीसूत्रमा ज्ञान वखाण्यु, ज्ञानना पंच प्रकार मति श्रुत अवधि ने मनपर्यव, केवळज्ञान श्रीकाररे ॥ ५० ॥२॥ मति अठ्ठावीश श्रुत चौद वीश, अवधी छ असंख्य प्रकाररे; दोय भेदे मनपर्यव दाख्युं, केवळ एक उदाररे ॥५०॥३॥ चंद्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा, जेहवो तेज आकाशरे; केवळज्ञान उद्योत भयो तव, लोकालोक प्रकाशरे ॥ ५० ॥ ४ ॥ पार्श्वनाथ पसाय करीने, पूरो मारा मनना उमेदरे; समयसुंदर कहे हुं पण मागु, ज्ञाननो पंचमो भेदरे ॥५०॥५॥ श्री ज्ञानपंचमीनी स्तुति. श्रीनमिः पंचरूपत्रिदशपतिकृतप्राज्यजन्माभिषेकचंचत्पंचाक्षमत्तद्विरदमदभिदा पंचवकोपमानः॥ निर्मुक्तः पंचदेह्याः परमसुखमयः प्रास्तकर्मप्रपंचः। कल्याणं पंचमीसत्तपसि वितनुतांपंचमज्ञानवान् वः॥१॥ ____ अर्थः- ( श्रीनेमिः के० ) श्रीनेमिनाथ भगवान, ( वः के० ) तमारा (पंचमी सत्तपसि के.) पंचपीना सारा तपने विषे (कल्याणं के० ) निर्विघ्नपणाने ( वितनुतां के० ) विस्तारो. हवे ते नेमिनाथ भगवान् केवा छ ? तोके (पंचरूप के०)पांचरूपे करीने(त्रिदशपतिके) देवताना पति एवा जे इंद्र तेणे ( कृत के०) कर्यो छे (माज्य जन्माभिषेकः के० महोटो अने उत्तम जन्माभिषेक जेमनो एवा, वली ते केवा Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७० ) छे? तो के ( चंचत् के० ) दीपता एवा ( पंचाक्ष ) पांच इंद्रियो रूप ( मत्तके०) मदोन्मत एवा (द्विरद के ० ) हस्ती तेना ( मदभिदाके० ) मद भेदवे करीने ( पंचवक्रोपमानः के० ) पंचवक्र जे सिंह तेनुं छे उपमान जेमने एवा छे, वली ते केवा छे ? तो के ( पंचदेह्याः के ० ) औदारिकादिक पांच शरीर ते थकी ( निर्मुक्त के० ) मुक्त थया एवा, वली केवा छे ? तो के ( परम के० ) उत्कृष्ट एटले अतींद्रिय एवा ( सुखमयः के०) सुखे करीने सहित, वळी केवा छे ? ( मास्त के ० ) प्रकर्षे करी टाळ्या छे ( कर्मप्रपंच: के०) कर्मना प्रपंच एटले विस्तार जेमणे एवा, वली ते केवा छे ? तो के ( पंचमज्ञानवान् के) पांचमुं ज्ञान जे केवळज्ञान तेणे करी युक्त छे ॥ १ ॥ संप्रीणन् सच्चकोरान् शिवतिलक समः कौशिकानंदमूर्तिः । पुण्याब्धिप्रीतिदायी सितरुचिखियः स्वीयगोभिस्तमांसि ॥ सांद्राणि ध्वंसमानः सकलकुवलयोल्लासमुच्चैश्वकार । ज्ञानं पुष्याजिनौघः सुतपसि भविनां पंचमीवासरस्य ॥२॥ अर्थः-- हवे जिनसमुदायने चंद्रनी समानतारूपे स्तवे छे. (सितरुचिरिव के० ) चंद्रमा सदृश एवो तथा ( शिव तिलकसमः के० ) शिव जे मोक्ष तेने विषे तिलक समान एवो ( यः के० ) जे (जिनौधः के ० ) जिनसमुदाय छे, ते ( भविनां के० ) भव्यजनोना ( पंचमी - वासरस्य के० ) पंचमी दिवसना (सुतपसि के० ) रुडा तपने विषे ( ज्ञानं के ० ) ज्ञान जे तेने ( पुष्यात् के० ) पुष्टिने करो. हवे ते जिन Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (.१७१ ) समुदायने चंद्र तुल्यता केवी रीते छे ? ते सर्व विशेषणोए करीने कहे छे. जेम चंद्र ( सच्चकोरान् के० ) उत्तम जे चकोर तेमने ( संपणिन् के० ) रुडे प्रकारे आनंद उत्पन्न करे छे, तेम ए श्री जिन समुदाय पण (सच्चकोरान् के० )सत्पुरुषरूप जे चकोरतेमने (संपणिन् के० ) सम्यक् प्रकारे हर्ष करे छे. वली जेम चंद्र ( कौशिकानंदमूर्तिः के०) घूवडने आनंददायक छे मूर्ति जेनी एवो छे, तेम ए जिनसमुदाय पण ( कौशिकानंदमूर्तिः के० ) इंद्रने आनंदरूप छ मूर्ति जेनी एवो छे, तथा जेम चंद्र ( पुण्याब्धि के० ) पुण्यकारक समुद्रने (प्रीतिदायी के०)प्रीतिदायक छे, तेम जिनौघ पण(पुण्याब्धि के०) पुण्यरूप जे समुद्र तेने (पीतिदायीके०)प्रीतिनो देनारो छे, तथा जेम चंद्र (स्वीय के०) पोतानां (गोभिःके०, किरणोए करी(सांद्राणि के०) गाढ एवां ( तमांसि के०) अंधकारोने ( ध्वंसमानः के० ) ध्वंस एटले नाश करनारो छे तेम जिनौघ पण ( सांद्राणि के०) गाढ एवा ( तमांसि के०) जीवोनां अज्ञान, तेमने (ध्वंसमानः के० ) ध्वंस एटळे नाश करनारो छे. तथा जेमचंद्र(सकल कुवलयोल्लास के०) समग्र कुवलय जे चंद्रविकासी कमलो, तेना वीकसितपणाने ( उच्चैः के० ) अत्यंत ( चकार के० ) करतो हवो, तेम ए जिनौष पण ( कुवलय के० ) पृथ्वीवलयना ( उल्लासं के० ) हर्षने ( चकार के० ) करतो हवो एवो छे, माटे तेने चंद्रमानी उपमा योग्य छे ।।२।। पीत्वा नानाभिधार्थामृतरसमसमं यांति यास्यति जग्मुर्जीवा यस्मादनेके विधिवदमरतां प्राज्यनिर्वाणपुर्याम् ॥ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७२ ) - यात्वा देवाधिदेवागमदशमसुधाकुंडमानंदहेतु- स्तत्पंचम्यास्तपस्युद्यतविशदधियां भाविनामस्तु नित्यम् ३ अर्थः- (देवाधिदेवागम के ० ) श्री वीतराग देव तेनो (आगमके०) -सिद्धांत रूप (दशम के ० ) दशमो एवो (सुधा कुंड के ० ) अमृत कुंड जे छे (तत् के० ) ते ( पंचम्याः के० ) ज्ञान पंचमीना ( तपसि के० ) तपने विषे ( उद्यत के०) उजमाल तथा ( विशदधियांके० ) निर्मल छे बुद्धि जेमनी एवा ( भाविनां के० ) भाविक भव्य जीवोने ( आनंद हेतु : के० ) आनंदना कारणभूत (नित्यं के० ) निरंतर ( अस्तु के० ) थाओ. हवे ते जिनागम रूप दशम सुधाकुंड केवो छे ? तोके ( नानाभिवार्थामृतरसं के० ) नाना प्रकारनां छे नाम जेमनां एवा जे अर्थो, ते रूप अमृत रस छे जेमा एवो छे तेने ( विधिवत् के० ) विधि प्रमाणे ( पीत्वा के० ) पान करीने ( असम के० ) निरुपम एवा सुखने ( यास्यति के० ) पामशे, (यांति के ० ) पामे छे, अने (जग्मुः के०) पामता हवा. ( यस्मात् के० ) जेनुं पान करवा थकी ( अनेके के ० ) अनेक एवा ( जीवाः के० ) जीवो जे छे ते ( प्राज्य के ० ) महोटी वी (निर्वाण पु० ) मोक्ष नगरीने विषे ( अमरतां के० ) अजरामरपणाने ( यात्वा के० ) पापीने स्वस्थ थाय छे. ॥ ३ ॥ स्वर्णालंकारवल्गन्मणिकिरणगणध्वस्तनित्यांधकारा । हुंकारा रावदूरीकृतसुकृतजनत्रात विघ्नप्रचारा ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७३ ) देवी श्री अंबिकाख्या जिनवरचरणां भोजभृंगीसमाना, पंचम्यन्हस्तपोर्थं वितरतु कुशलं धीमतां सावधान ॥४॥ अर्थः- ( श्रीअंबिकाख्या के० ) श्रीअंबिका छे नाम जेनुं एवी ( देवी के० ) देवी, ते ( सावधाना के ० ) सावधान एवी छती: धीमतां के० बुद्धिमान् एवा भविक जीवना ( पंचम्यन्हः के० ) पंचमीना दिवसना (तपोर्थ के ० ) तपने माटे ( कुशलं के० ) कुशल जे छे तेने ( वितरतु के० ) विस्तारो ते देवी केवी छे ? तो के ( स्वर्णालंकार के ० ) सुवर्णना जे अलंकार तेने विषे ( वल्गन्मणिकिरणगण के ० ) वलग्या एवा जे मणि तेनां किरणना जे गण, तेणे करी (ध्वस्तनित्यांधकारा के० ) टाल्यो छे निरंतर अंधकार जेणे, वली ते देवी केवी छे ? तो के ( हुंकारा के० ) हुंकारनो राव जे शब्द तेणे करी ( दूरीकृत के० ) दूर कर्या छे (सुकृतजनत्रात के०) सुकृतनो करनारो एत्रो जे जनसमूह तेना ( विघ्नप्रचारा के० ) विघ्नना प्रचार जेणे, वली ते केवी छे ? तो के ( जिनवरचरणांभोज के० ) श्रीवीतरागनां चरणरूप कमलने विषे ( भृंगीसमाना के० ) भ्रमरी समान छे. ॥ ४ ॥ श्री देवविजयजी कृत पांचमनी सझाय. चोपाइ सरसति सामिनी करो पसाय; सद्गुरुना हुं प्रणमुं पाय, पंचमी तप फल महिमा सुणो, जे करतां जग शोभा गणो. १ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७४ ) ज्ञान अथाह वधे वळी जेह, पंचमी गति पामे सुख सार, सोळ रोग तत्क्षण उपशमे, तिम ए तप छे रोगनो काळ, पंच वरस ने पंचज मास, अंते उजमणं कीजीए, उजमणा विण फळ ते नही, श्री वीजेरत्न तणो ए शिष, पंचम ज्ञान लहे भवी तेहः एह संसारनो पामे पार. ते काय जीम शितने दमे; जुओ वरदत्त गुणमंजरी बाळ करीए तप मनने उल्लास; पोते तपनुं फळ लीजीए. इम ए वाणी जिनवर कही; वाचक देवनी पूरो जगीश. पंचमीनुं स्तवन. ढाळ १ ली. प्रणभुं सद्गुरु पाय, निर्मळ ज्ञान उपाय; पंचमी तप भणुं ए, जनम सफल करूं ए. चोविशमो जिणचंद, केवळ ज्ञान दिणंद; त्रिगडे गहगह्यो ए, भवियणने कह्यो ए. ज्ञान वडो संसार, ज्ञान मुगति दातार; ज्ञान दीवो को ए, साचो सदह्यो ए. ज्ञान लोचन सुविकाश, लोकालोक प्रकाश; ज्ञान विना पठाए, नर जाणे किश्युं ए. अधिक आराधक जाण, भगवति सूत्र प्रमाण; ज्ञानी सर्वनुं' ए, किरिया देशनुं ए. १ ज्ञान सर्वाधिकः २ क्रिया देशाराधक. १. २. ३. ५. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७५ ) ज्ञानी श्वासोश्वास, करम करे जे नाश; नारकने सही ए, कोड वरसें कहीए. ज्ञान तो अधिकार, बोल्यो सूत्र मोझार; किरिया छे सही ए, क्षिण पाछे कहीए. किरिया सहित जो ज्ञान, हुवे तो अति परधान; सोनुं ने सुरंभ ए, शंख दुधे भर्यो ए. महानिशिथ मोझार, पंचमी अक्षर सार; भगवंत भाखिया ए, गणधर साखियो ए. ॥ ढाल २ जी. ॥ पंचमी तप विधि सांभळो, जिन पामो भवपारोरे; श्री अरिहंत इम उपदिसे, भवियणने हितकारोरे. मागशर माह फागुण भला, जेठ अशाड वैशाखोरे; इण खट मासे लीजीए, शुभ दिन सद्गुरु पासोरे. देव जुहारीए देहरे, गीतारथ गुरु वंदीरे; पोथी पूजो ज्ञाननी, शक्ति हो तो नंदी४रे. बेकर जोडी भाव, गुरुमुख करे उपवासोरे; पंचमी पडिकमणुं करे, भणे पंडित गुरु पासोरे. जिणदिन पंचमी तप करे, तिन दिन आरंभ टाळोरे; पंचमी स्तवन थुइ कहे, ब्रह्मचर्य पण पाळोरे. पंच मास लघु पंचमी, जावजीव उत्कृष्टिरे; पंच वरस पंच मासनी, पंचमी करो शुभ दृष्टिरे ३ सुगंध. ४ शक्ति होय तो नंदी मंडाववी. ६. १ ८. ܘܐ ܘܢ पं० ११ पं० १२ पं० १३ पं० १४ पं० १५ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७६ ) ढाळ ३ जी. ढाळ - हवे भवियण रे, पंचमी उजमणो सुणो; घर सारु रे, वारू वित्त खरचो घणो. ए अवसर रे, आवंता वळी दोहिलोः पुन्य योगे रे, धन पामंता सोहिलो. त्राटक - सोहिलो बळी धन पामंता, धरमकाज किहां वळी; पंचमी दिन गुरु पास आवी, कीजीए काउसग रळी. त्रण ज्ञान दर्शन चरण टीकी, देव पुस्तक पूजीए; थापना पहेली पूजी केशरे, सुगुरु सेवा कीजीए ॥ १६ ॥ ढाळ - सिद्धांत नीरे, पंच परत विटांगणा; पंच पाठां रे, मखमल सूत्र प्रमुख तणा. पंच दोरारे, लेखण पांच मिजासणा'; 'वासकुंपी रे, कांबी चारु वरतणा. टक - वरतणा वारु वळीय कवळी, पांच झोलमील र अति भली; थापनाचारज पांच ठवणी, मुहपत्ति पडिपाटली. पटसूत्र पाटी पंच कोथळी, पंच नवकारवाळिया; इपरे श्रावक करे पंचमी, उजमणो उजवाळीया ॥ १७ ॥ ढाळवळी देहरेरे, स्नात्र महोच्छव कीजीए; वित्त सारुरे, दान वळी तिहां दीजीए; प्रतिमानेरे, आगळ ढोवण ढोइए; १ वस्तु विशेष. २ बस्तु विशेष. Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७७) पूजानारे, जे जे उपगरण जोइए. त्रुटक - जोइए उपगरण देवपूजा, काज कळश भृंगार ए; आरती मंगळ थाळ दीवों, धुपधाणो सार ए; घनसार केशर अगर सुखड, अंगलुहणा दीस ए; पंच पंच सघळी वस्तु ढोवो, शक्तिश्यं पचवीश ए || १८ || ढाळ - पंचमीता रे, साहमी सरव जमाडीए; रातीजगेरे, गीत रसाळ गवाडीए; इण करणीरे, करता ज्ञान आराधीए; ज्ञान दरशनरे, उत्तम कारण साधीए. त्रुटक - साधीए मारग एणी करणी, ज्ञान लहीए निरमळो सुरलोक ने नरलोकमां है, ज्ञान निरमळ आगळो; अनुक्रमे केवळ ज्ञान पामी, शाश्वता सुख ते लहे; जे करे पंचमी तप अखंडित, वीर जिनवर इम कहे ॥ १९ ॥ कळश. इम पंचमी तप फळ प्ररूपक, वर्द्धमान जिणेसरो, में श्री अरिहंत भगवंत, अतुल वळ अलवेसरो; जयवंत श्री जिनचंद सूरि, सकळचंद नर्मसीओ, वांचनाचारज समयसुंदर, भगति भाव प्रशंसियो ||२०|| इति. १ पंचमी तप करनारा. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७८ ) श्री विजयलक्ष्मीसूरिकृत पाचमनी सझाय. ढाल १ ली. मारुं मन मोरे सुंदर शामळीयारे - ए देशी ॥ श्री वासुपूज्य जिनेसर वयणथीरे, रुपकुंभ वचनकुंभ मुनि दोय; रोहिणीमंदीर सुंदर आवियारे, नमी भव पूछे दंपती सोय. 11211 चउनाणी वयणे दंपति मोहियारे ॥ ए आंकणी ॥ राजा राणी निज स्रुत आउनुं रे, तपफळ नीज भवधारी संबंध; विनय करी पूछे महाराजने रे, चार स्रुताना भव परबंध || च० ||२|| रुपवती' शीलवती ने गुणवती, सरसती ४ ज्ञान कळा भंडार; जन्मथी रोग सोग दीठो नथी रे,कुण पुन्ये लीधोरे एह अवतार ॥ च० ॥ ३ ॥ ढाळ २ जी. वाल्हो मारो वाये छे वांसळी रे-ए देशी ॥ गुरु कहे वैताढ्य गिरिवरेरे, पुत्री विद्याधर चार; निज आयु ज्ञानीने पूछीयुंरे, करवा सफळ अवतार. अवधारो अम विनति रे ॥ ए आंकणी ॥१॥ थोडा आयुर्मा कारज धर्मनां रे, किम करीए मुनिराज; गुरु कहे धर्मना योग असंख्य छे रे, ज्ञानपंचमी तुम काज || अ० || २ | क्षिण अर्धे सवि अघ टळे रे, शुद्ध परिणामे साध्य कल्याणक नेवुं जिनतणां रे, पंचमी दिवसे आराध्य ॥ अ० ||३|| Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १७९) ढाळ ३ जी. जइने कहेजो मारा वालाजीरे-ए देशी ॥ चैत्र वदी पंचमी दिने, सुणो प्राणीजीरे, चविया चंद्रप्रभु स्वामी, लहि सुख ठाम अजित संभव अनंतजी, सु० चैत्र शुदी पंचमी शिवधाम, शुभ परिणाम. चैशाख वदी पंचमी दिने, संजम लीये कुंथुनाथ, बहु नर साथ; सु०. ज्येष्ट शुदी पंचमी वासरे, मुगति पाम्या धर्मनाथ, शिवपुर साथ. सु० ॥२॥ श्रावण शुदि पंचमी दिने, जनम्या नमी सुरंग, अति उछरंग; मागशर वदि पंचमी दिने, सुविधि जन्म मुख संग, पुन्य अभंग. सु० ॥३॥ कार्तिक वदी पंचमी दिने, संभव केवळ ज्ञान, करो बहु मान; दश क्षेत्रे नेतुं जिन सुणो, पंचमी दिनों कल्याण, सुखनां निधान... मु० ॥ ४ ॥ .... ढाळ ४ थी.... .... ... हारे मारे जोबनीयानो लटको दहाडा चारजो, नाणुंरे मळशे पण टाणुं नही मळेरे लोल. ए देशी॥ सु० Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८०) हारे मारे ज्ञानी गुरुना वयण सुणी हितकारजो, चार विद्याधरी पंचमी विधिए आचरेरे लोळ हारे मारे शासनदेव ने पंच ज्ञान मनोहारजो, टाळीरे आशातना देववंदन सदारे लोल. ॥१॥ हारे मारे तप पूरणथी उजमणानो भावजो, एहवे विद्युत् योगे सुर पदवी वारे लोल; हारे मारे धर्म मनोरथ आळस तजतां होयजो, धन्य ते आतम अविलंबे कारज कोरे लोल. ॥२॥ हां रे मारे देवथकी तुम कुक्षे लीयो अवतारजो, सांभळी रोहिणी ज्ञान आराधन फळ घणारे लोल; हारे मारे चार चतुरा विनय विवेके विचारजो, गुण केटला लखाये तुम पुत्रीतणारे लोल. ॥३॥ ढाळ ५ मी. __ आसणरा हो जोगी-ए देशी ॥ ज्ञानीना वयणथी चारे बहेनी, जातिसमरण पामीरे, ज्ञानी गुणवंता, जीजा भवमा धारणा कीधी, सिध्यां मननां कामो रे. ज्ञा० ॥१॥ श्री जिनमंदिर पंच मनोहर, पंच वरणा जिनपडिमारे; ज्ञा० जिनवर आगमने अनुसारे, करी उजमणानो महिमारे. ज्ञा० ॥२॥ पंचमी तिथि आराधन पंचम, केवळनाणी ते थाय रे; ज्ञा० श्रीविजयलक्ष्मीसूरि अनुभव नाणे,संघ सकळ सुखदायरे. ज्ञा० ॥३॥ इति श्री पांचमनी सझाय संपूर्ण. Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८१) ॥ अथ श्री ज्ञानपंचमीदेववंदन प्रारंभ ॥ ॥ तत्र प्रथम विधि ॥ प्रथम बाजोठ उपर ठवणी ने तेनी उपर रुमाल ढांकी ते उपर पांच पुस्तक मूकीने वासक्षेपथी ज्ञाननी पूजा करीए, बली पांच दीचेटनो दीवो करीए, ते जयणापूर्वक पुस्तकनी जमणी पासे स्थापीए अने धूपधाणुं डाबे पासे मुकीए, पुस्तक आगल पांच अथवा एकावन साथीया करी उपर श्रीफल तथा सोपारी मूकीए. यथाशक्ति ज्ञाननी द्रव्यपूजा करीए. पछी देव वांदीए अने सामायिक तथा पोसह मध्ये वासपूजाए पुस्तक पूजीने देव वांदीए, अथवा देहरा मध्ये बाजोठ त्रण उपराउपर मांडी ते उपर पांच जिनमूर्ति स्थापीए. तथा महा उत्सवथी स्नात्र भणावीए. प्रभु आगल जमणी तरफ पुस्तक मांडयुं होय तेनी पण वास प्रमुखे पूजा करीए. तथा उजमणुं मांडयुं होय तो तिहां पण यथाशक्ति जिनबिंब आगळ लघु स्नात्र भणावीने अथवा सत्तर भेदी पूजा भणावीने पछी श्री सौभाग्य पंचमीना देव चांदीए. हवे देव वांदवानो विधि कहे छे. प्रथम प्रतिमाजीनी जोगवाइ न होय तो स्थापनाचार्य समीपे अथवा नवकार पंचिंदियवडे स्थापना स्थापीने इरियावही पडिक्कमी, चार नवकारनो अथवा एक लोगस्सनो काउस्सग करी, प्रगट लोगस्स कही, खमासमण देइ, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् मतिज्ञान आराधनाथ चैत्यवंदन करूं ? एम कही, योगमुद्राए बेप्ती चैत्यवंदन करीए ते कहे छे. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८२ ) ॥ अथ श्री मतिज्ञाननुं चैत्यवंदन ॥ श्री सौभाग्य पंचमीतणो, सयळ दिवस शणगार । पांचे ज्ञानने पूजीए, थाय सफल अवतार ॥ सामायिक पोसह विषे, निरवद्य पूजा विचार । सुगंध चूर्णादिकथकी, ज्ञान ध्यान मनोहार || पूर्व दिशे उत्तर दिशे, पीठ रची त्रण सार । पंच वरण जिन बिंबने, स्थापीजे सुखकार ॥ १ ॥ पंच पंच वस्तु मेलवी, पूजा सामग्री जोग । पंच वरण कलशा भरी हरीए दुःख उपभोग ॥ यथाशक्ति पूजा करो, मतिज्ञानने काजे । पंच ज्ञानमां घूरे कां, श्रीजिन शासन राजे ॥ मति श्रुत विण होवे नहिए, अवधि प्रमुख महा ज्ञान । ते माटे मति धूरे कां, मति श्रुतमां मति मान ॥ २ ॥ क्षय उपशम आवरणनो, लब्धि होये सम काले । स्वाम्यादिकथी अभेद छे, पण मुख्य उपयोग काले || लक्षण भेदे भेद छे, कारण कारज योगे । मति साधन श्रुत साध्य छे, कंचन कलश संयोगे || परमातम परमेसरुए, सिद्ध सयल भगवान । मतिज्ञान पामी करी, केवल लक्ष्मी निधान ॥ ३॥ इतिचैत्यवंदन ॥ १ ॥ नमुथ्य० || जावंति● || नमोऽर्हत० ॥ कई स्तवन कही ते आ प्रमाणे Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८३) ॥ अथ स्तवन ॥ ॥ रसीयानी देशी ॥ प्रणमो पंचमी दिवसे ज्ञानने, गाजी जगमारे जेह ।। सुज्ञानी॥ शुभ उपयोगे क्षणमा निर्जरे, मिथ्या संचित खेह ॥मु०॥प्रण०१॥ संतपदादिक नव द्वारे करी, मति अनुयोग प्रकाश ||मु०॥ नय व्यवहारे आवरण क्षय करी, अज्ञानी ज्ञान उल्लास ।। सुप्रण०२॥ ज्ञानी ज्ञान लहे निश्चय कहे, दो नय प्रभुजीने सत्य ॥ मु०॥ अंतर मुहूर्त रहे उपयोगथी,ए सर्व प्राणीने नित्य सु०॥प्रण०३॥ लब्धि अंतर मुहूर्त लघुपणे, छाशठ सागर जिह ॥ सु०॥ अधीको नरभव बहुविध जविने, अंतर कदिये न दीठ ॥सु०॥प्रण०४॥ संप्रति समये एक बे पामता, होय अथवा नवि होय ।। मु०॥ क्षेत्र पल्योपम भाग असंख्यमां, प्रदेश माने बहु जोय ॥१०॥प्रण०६॥ मतिज्ञान पाम्या जीव असंख्य छे, कह्या पडिवाइ अनंत ॥सु०॥ सर्व आशातन वरजो ज्ञाननी, विजय लक्ष्मी लहो संत ।मु०॥प्रण०६॥ ॥ इति श्री मतिज्ञान स्तवन ॥ पछी जयवीयराय संपूर्ण कही, खमासमण दइ, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् श्रीमतिज्ञान आराधनार्थ करेमि काउस्सगं वंदणवत्तिआए० अने अन्नथ्य उससीएणं. कही एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काउस्सग्ग करी, पारी, नमोऽहत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वखाधुभ्यः कही थुई कहेवी. ते आ प्रमाणे: Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८४) ॥अथ थूइ॥ श्रीमतिज्ञाननी तत्त्व भेदथी, पर्याये करी व्याख्याजी । चविह द्रव्यादिकने जाणे, आदेशे करी दाख्यानी ॥ माने वस्तु धर्म अनंता, नहि अज्ञान विवक्षाजी। ते मतिज्ञानने वंदो पूजो, विजय लक्ष्मी गुणकांक्षाजी ॥१॥ पछी खमासमण दइ, उभा रही, मतिज्ञान संबंधी अठावीश गुण वर्णवा दुहा कहेवा. तेमां पीठिकाना दुहा लखीए छीए. ॥दुहा. ॥ श्री श्रुत देवी भगवती, जे ब्राह्मी लिपी रूप । प्रणमे जेहने गोयमा, हुं वंदु सुखरूप ज्ञेय अनंते ज्ञानना, भेद अनेक विलास ॥ तेहमां एकावन कहुं, आतम धर्म प्रकाश ॥२॥ खमासमण एक एकथी, स्तविये ज्ञान गुण एक ॥ एम एकावन दीजीये, खमासमण सुविवेक ॥३॥ श्री सौभाग्य पंचमी दिने, आराधो मतिज्ञान ॥ भेद अठावीश एहना, स्तवीये करी बहु मान ॥४॥ गुणना दुहा. इंद्रिय वस्तुपुगळा, मलवे अवसव नाण ॥ लोचन मन विणु अक्षने, व्यंजनावग्रह जाण ॥५॥ भाग असंख्य आषाल लघु, सास पहुत ठिइ जिह ।। मापकारी चउ इंद्रिया, अमाप्पकारी दुग दिठ ॥६॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४५) ॥ अथ खमासमणना दुहा॥ समकित श्रद्धावंतने, उपन्यो ज्ञान प्रकाश ।। प्रणमुं पदकज तेहना, भाव धरी उल्लास. ७. ॥ खमा० ॥१॥ ए दुहो गुण गुण दीठ कहेवो. नहीं वर्णादिक योजना, अर्थावग्रह होय ॥ नोइंद्रिय पंच इंद्रिये, वस्तु ग्रहण काइ जोय. ८. ॥ सम० ॥२॥ अन्वय व्यतिरेके करी, अंतर मुहूर्त प्रमाण ॥ पंचेंद्रिय मनथी होये, ईहा विचारणा ज्ञान. ९. ॥ सम० ॥३॥ . वर्णादिक निश्चय वसे, मुर नर एहिज वस्त ।। पंचेंद्रिय मनथी होये, भेद अपाय प्रशस्त. १०. ॥ सम० ॥ ४॥ निर्णीत वस्तु स्थिर आहे, कालांतर पण साच ॥ पंचेंद्रिय मनथी होये, धारणा अर्थ उवाच. ११. ॥ सम० ॥ ५ ॥ निश्चय वस्तु ग्रहे छते, संतत ध्यान प्रकाम ॥ अपायथी आधिके गुणे, अविच्युत धारणा ठाम.१२. ॥सम०॥६॥ अविच्युति स्मृति तणुं, कारज कारण जेह ॥ संख्य असंख्य कालज सुधी, वासना धारणा तेह.१३||सम॥७॥ पूर्वोत्तर दर्शन द्वय, वस्तु अप्राप्त एकत्व ॥ असंख्य काले ए तेह छे, जातिस्मरण तच. १४ ॥ सम० ॥४॥ वाजिन नाद लही आहे, ए तो दुंदुभि नाद ॥ अवग्रहादिक जाणे बहु, भेद ए मति आल्हाद.१५ ॥ सम० ॥९॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८६) देश सामान्ये वस्तु छे, ग्रहे तदपि सामान्य ॥ . शब्द ए नव नव जातिनो, ए अबहु मति मान १६॥सम०॥१०॥ एकज तुरियना नादमां, मधुर तरुणादिक जाति ॥ जाणे बहुविध धर्मशृं, क्षय उपशमनी भाति. १७ ॥ सम० ॥११॥ मधुरतादिक धर्ममां, ग्रहवो अल्प सुविचार ॥ अबहुविध मति भेदनो, कीधो अर्थ विस्तार.१८॥ सम० ॥१२॥ शीघ्रमेव जाणे सही, नवि होये बहु विलंब ॥ क्षिम भेद ए ज्ञाननो, जाणो मति अविलंब. १९॥ सम० ॥१३॥ बहु विचार करी जाणीए, ए आक्षिप्रह भेद ॥ क्षयोपशम विचित्रता, कहे महाज्ञानी संवेद. २०॥ सम० ॥१४॥ अनुमाने करी को ग्रहे, ध्वजथी जिनवर चैत्य ।। पूर्व प्रबंध संभालीने, निश्रित भेद संकेत. २१ ॥ सम० ॥१५॥ वाहिर चिन्ह ग्रहे नहीं, जाणे वस्तु विवेक । अनिश्रित भेद ए धारीए, आभिनिवोधिक टेक.२२ ।। सम०॥१६॥ निःसंदेह निश्चयपणे, जाणे वस्तु अधिकार ।। निश्चित अर्थ ए चिंतवो, मतिज्ञान प्रकार. २३ ॥ सम० ॥१७॥ एम होये वा अन्यथा, एम संदेहे जुत्त ॥ धरे अनिश्चित भावथी, वस्तु ग्रहण उपयुत्त. २४ ॥ सम० ॥१८॥ बहु प्रमुख भेदे ग्रह्यु, जिम एकदा तिम नित्य ॥ बुद्धि थाये जेहने, ए ध्रुव भेदतुं चित्त. २५ ।। सम० ॥ १९ ॥ बहु प्रमुख रूपे कदा, कदा अबह्वादिक रूप ॥ ए रीते जाणे तदा, भेद अध्रुव स्वरूप: २६ ॥ सम० ॥२०॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८७) अवग्रहादिक चउ भेदमा, जाणवा योग्य ते क्षेय ॥ ते चउ भेदे भाखीयो, द्रव्यादिकथी गणेय. २७ ॥ जाणे आदेशे करी, केटला पर्याय विसिह ॥ धर्मादिक सवि द्रव्यने, सामान्य विशेष गरिठ, २८ ॥ संम० ॥२१॥ सामान्यादेशे करी, लोकालोक स्वरूप ॥ . .. क्षेत्रथी जाणे सर्वने, तत्त्व प्रतीत अनुरूप. २९ ।। सम० ॥२२॥ अतीत अनागत वर्तना, अद्धा समय विशेष ॥ आदेशे जाणे सहु, वितथ नहीं लवलेश. ३० ॥ सम० ॥२३॥ भावथी सविहुं भावनो, जाणे भाग अनंत ।। उदयिकादिक भाव जे, पंच सामान्ये लहंत. ३१ ॥ सम० ॥२४॥ अश्रुतनिधीत जाणिये, मतिना चार प्रकार ॥ शीघ्र समय रोहापरे, अकल औत्पातिकी सार ३२॥ सम०॥२५॥ विनय करतां गुरुतणो, पामे मति विस्तार ॥ ते विनयिकी मति कही, सघला गुण सिरदार.३३॥ सम०॥२६॥ करतां कार्य अभ्यासथी, उपजे मति सुविचार ॥ ते बुद्धि कही कार्मिकी, नंदीसूत्र मोझार. ३४ ॥ सम० ॥२७॥ जे वयना परिपाकथी, लहे बुद्धि भरपूर ।। कमलवने महा हंसने, परिणामिकी ए सनूर. ३५॥ अडवीश बत्रीश दुग चउ, त्रणशे चालीश जेह ॥ दर्शनथी मति भेद ते, विजयलक्ष्मी गुण गेह. ३६।।सम० ॥ २८ ।। २७ मा ने ३५ मा दुहा वखते खमासमण न देवां. श्री मतिज्ञानना अष्टाविंशति भेद संपूर्ण. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८८ ) खमासमण दइने इच्छा० श्री श्रुतज्ञान आराधनाथ चैत्यवंदन करूं ? इच्छे कही चैत्यवंदन कहे, ते नीचे प्रमाणे॥ अथ द्वितीय श्री श्रुतज्ञान चैत्यवंदन ॥ ॥दोहा॥ श्री श्रुतज्ञानने नित्य नमो, स्वपर प्रकाशक जेह । जाणे देखे ज्ञानथी, श्रुतथी टाले संदेह ।। अनभिलाप्य अनंत भाव, वचन अगोचर दाख्या । तेहनो भाग अनंतमो, वचन पर्याये आख्या॥ चली कथनीय पदार्थनो ए, भाग अनंतमो जेह । चौदे पूरवमा रच्यो, गणधर गुण ससनेह ॥१॥ माहोमाहे पूरवधरा, अक्षर कामे सारिखा । छठाण वडीया भावथी, ते श्रुत मतिय विशेखा ॥ तेहिज माटे अनंतमे, भाग निबद्धा वाचा । समाकेत श्रुतना जाणीए, सर्व पदारथ साचा । । द्रव्य गुण पर्याये करीए, जाणे एक प्रदेश ।। जाणे ते सवि वस्तुने, नंदीसूत्र उपदेश ॥२॥ चोवीश जिनना जाणीए, चौद पूरवधर साध । नव शत तेत्रीश सहस छे, अठाणुं निरुपाय ॥ परमत एकांतवादीनां, शास्त्र सकल समुदाय । से समकितवंते ग्रह्या, अर्थ यथार्थज थाय ॥ अरिहंत श्रुतकेवली कहे ए, ज्ञानाचार चरित्त । श्रुत पंचमी आराधवा, विजयलक्ष्मी सूरि चित्त ॥३॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८९) इति चैत्यवंदन ॥ नमुथ्थु० ॥ जावंति० ॥ नमोऽर्हत० ॥ कही स्तवन कहीए ते आ प्रमाणे ॥अथ स्तवन.॥ ॥ हरीया मन लागो । ए देशी॥ श्री श्रुत चौद भेदे करी, वरणवे श्री जिनराज रे ॥ उपधानादि आचारथी, सेविये श्रुत महाराज रे । श्रुत शुं दिळ मान्यो ॥ दिल मान्योरे, मन मान्यो, प्रभु आगम मुखकार रे . ॥ श्रुत० ॥ ए आंकणी ॥१॥ एकादि अक्षर संयोगयी, असंयोगी अमंत रे ॥ स्वपर पर्याये एकाक्षरो, गुण पर्याय अनंत रे . श्रुल० ॥२॥ अक्षरनो अनंतमो, भाग उघाडो छे नित्य रे ।। ते तो अवराए नहीं, जीव सूक्ष्मनुं ए चित्त रे ॥ श्रुत० ॥३॥ इच्छे सांभलवा फरी पूछे, निसुणे ग्रहे विचारंत रे ॥ . निश्चय धारणा तिम करे, धीगुण आठ ए गणंत रे ॥श्रुत०॥४॥ वादी चौवीश जिनतणा, एक लाख छवीश हजार रे ॥ बशें सयल सभामांहे, प्रवचन महिमा अपार रे ॥श्रुत०॥५॥ भणे भणावे सिद्धांतने, लखे लखावे जेह रे ॥ तस अवतार वखाणीए, विजय लक्ष्मी गुण गेह रे ॥श्रुत०॥६॥ ॥ इति स्तवन ॥ .. पछी जयवीयराय कही खमासपण दइ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् श्री श्रुतज्ञान आराधनार्थं करोमि काउस्सगं ॥वंद०॥अन्न०॥ एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काउस्सग करी पारीने थोय कहेवी, ते कहे छे, Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९० ) ॥ अथ थुइ ॥ ॥ गोयम बोले ग्रंथ संभाली ।। ए देशी ॥ त्रिगडे बेशी श्री जिनभाण, बोले भाषा अमिय समाण, - मत अनेकांत प्रमाण ॥ . अरिहंत शासन सफरी सुखाण, चउ अनुयोग जिहां गुणखाण, आतम अनुभव ठाण ॥ सकळ पदारथ त्रिपदी जाण, जोजन भूमि पसरे वखाण, दोष बत्रीश परिहाण ॥ haoभाषित ते श्रुत नाण, विजयलक्ष्मी सूरि कहे बहुमान, चित्त धरजो ते सयाण ॥ १ ॥ इति स्तुति ॥ पछी खमासण दइ, उभा रही, श्रुतज्ञानना चौद गुण वर्णववाने अर्थे दोहा कहेवा ते लखे छे. ॥ दोहा ॥ बंदो श्रीश्रुतज्ञानने, भेद चतुर्दश बीश || तेहमां चउदश वरण, श्रुत केवळी श्रुत इश भेद अढार अकारना, एम सवि अक्षर मान ॥ लब्धि संज्ञा व्यंजन विधि, अक्षर श्रुत अवधान ॥ अथ पीठिका ॥ ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ पवयण श्रुत सिद्धांत ते, आगम समय वखाणी ॥ पूजो बहुविध रागथी, चरण कमल चित्त आणी. ३ ॥ १९॥खमा ० ॥ ए दोहो गुण गुण दीठ कहेवो ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९१) कर पल्लव चेष्टादिके, लखे अंतर्गत वाच ॥ 'एह अनक्षर श्रुततणो, अर्थ प्रकाशक साच, ४ ॥पव० ॥ २॥ संज्ञा जे दीहकालिकी, तेणे सन्निया जाण ॥ मन इंद्रिययी उपन्यु, संझी श्रुत अहिठाण. ५ ॥पव०॥३॥ मन रहित इंद्रियथकी, निपन्युं जेहने ज्ञान || क्षय उपशम आवरणथी, श्रुत असंही वखाण. ६ ॥ पव० ॥४॥ जे दर्शन दर्शन विना, दर्शन ते प्रतिपक्ष ॥ दर्शन दर्शन होय जिहां, ते दर्शन प्रत्यक्ष. ७॥ ललित त्रिभंगी भंगभर, नैगमादि नय भूर ॥ शुद्ध शुद्धतर वचनथी, समकित श्रुत वडनूर. ८॥ पव० ॥५॥ भंग जाल नर बाल मति, रचे विविध आयास ॥ तिहां दर्शन दर्शनतणो, नहीं निदर्शन भास. ९॥ सद् असद् वहेचण विना, ग्रहे एकांते पक्ष । ज्ञान फल पामे नहीं, ए मिथ्या श्रुत लक्ष. १० ॥ पव० ॥६॥ भरतादिक दश क्षेत्रमां, आदि सहित श्रुत धार । निज निज गणधर विरचियो, पामी प्रभु आधार. ११॥पव०॥७॥ दुप्पसह सूरीश्वर सुधी, वर्तशे श्रुत आचार ॥ एक जीवने आशरी, सादि सांत सुविचार. १२ ॥ पव०॥८॥ श्रुत अनादि द्रव्यनयथकी, शाश्वत भाव छ एह ॥ महाविदेहमा ते सदा, आगम रयण अछेह. १३. ॥ पव०॥९॥ अनेक जीवने आशरी, श्रुत छे अनादि अनंत ॥ द्रव्यादिक चउ भेदना, सादि अनादि विरतंत. १४ ॥पव० ॥१०॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरिखा पाठ छे सूत्रमां, ते श्रुत गमिक सिद्धांत ॥ माये दृष्टिवादमां, शोभित गुण अनेकांत. १५ ॥ पव० ॥ ११ ॥ सरिखा आलावा नहि, ते कालिक श्रुतवंत ।। अमाषिक श्रुत ए पूजीए, त्रिकरण योग हसंत.१६ ॥ पव० ॥१२॥ अढार हजार पदे करी, आचारांग वखाण ॥ ते आगल दुगुणा पदे, अंगपविष्ट सुअनाण.१७ ॥ पव० ॥ १३ ॥ बार उपांगह जेह छे, अंगबाहिर श्रुत तेह ॥ अनंगप्रविष्ट वखाणीए, श्रुत लक्ष्मी सूरि गेह. १८ ॥ पव० ॥१४॥ सातमा ने नवमा दुहा वखते खमासमण न देवा. ॥ इति श्रुत ज्ञान समाप्त ॥ ॥ अथ तृतीय श्री अवधि ज्ञान चैत्यवंदन ॥ खमासमण दइ, इच्छा० अवधिज्ञान आराधनाथ चैत्यवंदन करूं ? इच्छं कही चैत्यवंदन कहेवू ते नीचे प्रमाणे:-- अवधिज्ञान त्रीजुं कह्यु, प्रगटे आत्मप्रत्यक्ष । क्षय उपशम आवरणनो, नवि इंद्रिय आपेक्ष । देव निरय भव पामतां, होय तेहने अवश्य । श्रद्धावंत समय कहे, मिथ्यात विभंग वश्य ॥ नर तिरिय गुणथी लहे, शुभ परिणाम संयोग । काउस्सग्गमां मुनि हास्यथी, विघटयो ते उपयोग ॥ १ ॥ जघन्यथी जाणे जुए, रुपी द्रव्य अनंता । उत्कृष्टा सवि पुद्गला, मूर्ति वस्तु मुणंता ।। क्षेत्रथी लघु अंगुलतणो, भाग असंखित देखे । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९३ ) मां पुद्गल खंध जे, तेहने जाणे पेखे ॥ लोक प्रमाणे अलोकमांए, खंड असंख्य उठि । भाग असंख्य आवलितणो, अद्धा लघुपणे दीठ ॥ २ ॥ उत्सर्पिणी अवसर्पिणीए, अतीत अनागत अद्धा | अतिशय संख्यातिगपणे, सांभलो भाव प्रबंधा ॥ एक एक द्रव्यमां चार भाव, जघन्यथी ते निरखे । असंख्याता द्रव्य दीठ, पर्यव गुरुथी परखे || चार भेद संक्षेपथी ए, नंदीसूत्र प्रकाशे । विजयलक्ष्मी सूरि ते लहे, ज्ञान भक्ति सुविलासे ॥ ३ ॥ ॥ इति चैत्यवंदन समाप्त ॥ पछी नमुध्धुणं० ॥ जावंति० ॥ नमोऽर्हत् ॥ कही स्तवन कहे, ते कहे छे. ॥ अथ स्तवन ॥ ॥ कुंवर गंभारो नजरे देखतांजी |1 ए देशी ॥ पूजा पूजो अवधिज्ञानने प्राणिया रे, समकितवंतने ए गुण होय रे || सवि जिनवर ए ज्ञाने अवतरी रे, मानव महोदय जोय रे || पूजो० ॥ १ ॥ शिवराज ऋषि विपर्यय देखतो रे, द्वीप सागर सात सात रे । वीर पसाये दोष विभंग गयो रे, प्रगट्यो अवधि गुण विख्यात रे || पूजो गुरु स्थिति साधिक छासठ सागर रे, कोइने एक समय लघु जान रे । भेद असंख्य छे तरतम योगथी रे, विशेषावश्यकमां एह वखाण रे || पूजो चारशें एक लाख तेन्रीश सहस (१३३४०० ) छे रे, ओहि नाणी मुणींद रे || ० Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९४ ) ऋषभादिक चऊवीश जिणंदना रे, नमे प्रभुपद अरविंद रे || पूजो ० || ४ || अवधिज्ञानी आणंदने दीए रे, मिच्छामि दुक्कड गोयमस्वामि रे ॥ वरजो आशातन ज्ञान ज्ञानी तणी रे, विजयलक्ष्मी सुख धाम रे || पूजो ०||५|| ॥ इति अवधिज्ञान स्तवन ॥ पछी जयवीयराय कही खमासमण दइ, इच्छाकारेण संदिसह भगवन् अवधिज्ञान आराधनाथ करेमि काउस्सगं || वंदण० ॥ अन्नत्थ० || एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काउस्सग्ग करी पारीने थोय कवी ते नीचे प्रमाणे॥ अथ थुई ॥ ॥ शंखेश्वर साहिब जे समरे | ए देशी ॥ ओहि नाण सहित सवि जिनवर, चवी जननी कूखे अवतरु । जस नामे कहीए सुख तरु, सवि इति उपद्रव संहरु | हरि पाठक संशय संहरू, वीर महिमा ज्ञान गुणायरु । ते माटे प्रभुजी विश्वभरु, विजयांकित लक्ष्मी सुहंकरु ॥ १ ॥ ॥ इति स्तुति. ॥ पछी खमासमण दइ उभा रही अवधिज्ञानना गुण वर्णववाने दुहा कहेबा ते कहे छे. ॥ दुझ ॥ • असंख्य भेद अवधिता, षट् तेहमां सामान्य || क्षेत्र पनक़ लघुथी गुरु, लोक असंख्य प्रमाण ॥ १ ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोचनपरे साथे रहे, ते अनुगामिक धाम ॥. ..... छासठ सागर अधिक छ, एक जीव आशरी ठाम ॥२॥ उपन्यो अवधिज्ञाननो, गुण जेहने अविकार ॥ वंदना तेहने माहरी, श्वासमाहे सो वार. ३. ॥ १ ॥ ख० ॥ त्रीजो दुहो सर्व खमासमणे कहेवो. ।। जेह क्षेत्रे ओहि उपन्यु, तिहां रह्यो वस्तु देखंत ॥ थीर दीपकनी उपमा, अननुगामी लहंत. ४. ॥उप०॥२॥ख०॥ अंगुल असंख्येय भागथी, वधतुं लोक असंख्य ॥ लोकावधि परमावधि, वर्धमान गुण कंख्य. ५. |उप०॥शाख०॥ योग्य सामग्री अभावथी, हीयमान परिणाम ॥ अध अध पूरव योगथी, एहवो मननो काम. ६.॥उप०॥४॥ख०॥ संख्य असंख्य जोजन सुधी, उत्कृष्टो लोकांत ॥ देखी प्रतिपाती होये, पुद्गल द्रव्य एकांत. ७. उप०॥५॥ख०॥ एक प्रदेश अलोकनो, पेखे जे अवधि नाण॥ अपडिवाइ अनुक्रमे, आपे केवल नाण. ८.॥ ॥उप०॥६॥ख०॥ ॥ इति अवधि ज्ञान संपूर्ण ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९६) खमासपण दइ इच्छा० मनपर्यव ज्ञान आराधनार्थ चैत्यवंदन करुं ? इच्छं कही चैत्यंवदन कहेवू ते आ प्रमाणे॥ अथ चतुर्थ श्री मनःपर्यवज्ञान चैत्यवंदन ॥ श्रीमनपर्यव ज्ञान छे, गुण प्रत्ययी ए जाणा । . अप्रमादी ऋद्धिवंतने, होय सयंम गुणठाणो॥ कोइक चारित्रवंतने, चढते शुभ परिणामे । मनना भाव जाणे सही, साकार उपयोग ठामे ।। चिंतवता मनोद्रव्यना, जाणे खंध अनंता । आकाशे मनोवर्गणा, रह्या ते नवि मुणता ॥ १ ॥ संज्ञि पंचेंद्रिय प्राणीए, तनु योगे करी ग्रहीया । मनयोगे करी मनपणे, परिणमे ते द्रव्य मुणिया ॥ तिरछं माणस क्षेत्रमा, अढी द्वीप विलोके । तिछी लोकना मध्यथी, सहस जोयण अधोलोके ॥ उरध जाणे ज्योतिषी लगे, पलियनो भाग असंख्य । कालथी भाव थया थशे, अतीत अनागत संख्य ॥२॥ भावथी चिंतित द्रव्यना, असंख्य पर्याय जाणे । ऋजुमतिथी विपुलमति, अधिका भाव वखाणे ॥ मनना पुद्गल देखीने, अनुमाने ग्रहे साचुं । वितथपणुं पामे नहीं, ते ज्ञाने चित्तं राच्यु । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९७ ) अमूर्त भाव प्रगटपणे ए, जाणे श्री भगवंत । चरण कमल नमुं तेहना, विजय लक्ष्मी गुणवंत ॥ ३ ॥ इति चैत्यवंदन ॥ ॥ पछी नमुध्धुणं० ॥ कहीए ते आ प्रमाणे जावंति० ॥ नमोऽर्हत्० || कही स्तवन ॥ अथ स्तवन ॥ ॥ जोरेजी ॥ ए देशी ॥ जीरे मारे श्री जिनवर भगवान, अरिहंत निज निज ज्ञानथी | जीरेजी || जी० ॥ संयम समय जाणंत, तव लोकांतिक मानथी । जीरेजी ॥ १ ॥ जी० ॥ तीर्थ बर्तावो नाथ, इम कही प्रणमे ते सुरा ॥ जीरेजी ॥ जी० ॥ षट् अतिशयवंत दान, इने हरखे सुर नरा || जीरेजी ॥ २ ॥ जी० ॥ इण विध सावे अरिहंत, सर्व विरतिं जब उच्चरे ॥ जीरेजी ॥ जी० || मनःपर्यव तत्र नाण, निर्मल आतम अनुसरे || जीरेजी ॥ ३ ॥ जी० ॥ जेहने त्रिपुलपति तेह अप्रतिपातीपणे उपने ॥ जीरेजी ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९८) . जी० ॥ अप्रमादी ऋद्धिवंत, गुणठाणे गुण नीपजे ॥ जीरेजी ॥ ४ ॥ जी० ॥ एक लक्ष पीस्तालीस हजार, पांचशे एका' (१४१५९१ ) जाणीए || जीरेजी ॥ जी० ॥ मननाणी मुनिराज, चोवीश जिनना वखाणीए ॥ जीरेजी ॥५॥ जी० ॥ हुं वंदु धरी नेह, सवि संशय हर मनतणा ॥ जीरेजी ॥ जी० ॥ विजयलक्ष्मी शुभ भाव, अनुभव ज्ञानना गुण घणा ॥ जीरेजी ।। ६।। जी० ॥ ॥ इति मनःपर्यव ज्ञान स्तवन ।। पछी जयवीयराय कही, खमासमण दइ, इच्छाकारेण सं० ॥ मनापर्यव ज्ञान आराधनार्थ करोमि काउस्सगं ॥वंदणव० ॥ अन्नथ्य० ॥ एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काउस्सग्ग करी थोय कहवी ते आ प्रमाणे-- ॥ अथ थोय ॥ ॥ श्री शंखेश्वर पास जिनेश्वर ॥ ए देशी ॥ प्रभुजी सर्व सामायिक उचरे, सिद्ध नमी मदवारी जी ॥ छमस्थ अवस्था रहे छे जिहां लगे, योगासन तपधारीजी ।। चो) मनपर्यव तव पामे, मनुज लोक विस्तारी जी। ते प्रभुने प्रणमो भवि प्राणी, विजय लक्ष्मी सुखकारी जी ॥१॥ - ॥ इति स्तुति ।। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १९९ ) उभा रही मनः पर्यवज्ञानना गुण स्तववा पछी खमासमण दइ अर्थे दुहा कहेंवा ते आ प्रमाण ॥ अथ दुहा ॥ ॥ १ ॥ मनः पर्यव दुग भेदथी, संयम गुण लही शुद्ध ॥ भाव मनोगत संज्ञिना, जाणे प्रगट विशुद्ध घट ए पुरुषे धारीयो, इम सामान्य ग्रहंत || प्राये विशेष विमुख लहे, ऋजुमति मनह मुणंत ॥ २ ॥ ए गुण जेहने उपन्यो, सर्व विरति गुणठाण || प्रणमुं हिनथी तेहना, चरणकमल चित्त भाणखमा ० ॥ ३ ॥ १ ॥ ख ० ॥ नगर जाति कंचनतणो, धार्यो घर एह रूप ॥ इम विशेष मन जाणतो, त्रिपुलमति अनुरूप. ४. ॥ए गुण ० ॥२॥ ख ० ॥ ॥ इति मनः पर्यव ज्ञान संपूर्ण ॥ खमासमण दइ इच्छा० केवलज्ञान आराधनार्थं चैत्यवंदन करूं ? इच्छं कही चैत्यवंदन कहेवं ते आ प्रमाणे: ॥ अथ पंचम श्री केवलज्ञान चैत्यवंदन || श्रीजिन चडनाणी थइ, शुक्ल ध्यान अभ्यासे । अतिशय अतिशय आत्मरुप, क्षण क्षण प्रकासे ॥ निद्रा स्वम जागरदशा, ते सवि दूरे होवे । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२००) चोथी उजागर दशा, तेहनो अनुभव जोवे ॥ क्षपक श्रेणि आरोहियाए, अपूर्व शक्ति संयोगे । लही गुणठाणुं बारमुं, तुर्य कषाय वियोगे. ॥१॥ नाण सण आवरण मोह, अंतराय घन घाति । कर्म दुष्ट उच्छेदीने, थया परमातम जाति ॥ दोय धर्म सवि वस्तुना, समयांतर उपयोग । प्रथम विशेषपणे ग्रहे, बीजे सामान्य संयोग । सादि अनंत भांगे करी, दर्शन ज्ञान अनंत । गुणठाणुं लही तेरमुं, भाव जिणंद जयवंत. ॥२॥ मूल पयडीमां एक बंध, सत्ता उदये चार । उत्तर पयडीनो एक बंध, उदय रहे बायाल ।। सचा पंचाशीतणी, कर्म जेहवा रज्जु छार । मन वच काया योग जास, अविचळ अविकार ॥ सयोगी केवलीतणी ए, पामी दशाए विचरे । अक्षय केवलज्ञानना, विजय लक्ष्मी गुण उचरे ॥३॥ ॥ इति श्री केवल ज्ञान चैत्यवंदन ॥ पछी नमुथ्थुणं० ॥ जावंति० ॥ नमोऽर्हत् ॥ कही स्तवन कहेवू ते आ प्रमाणे ॥ अथ स्तवन ॥ ॥ कपूर होये अति ऊजलो रे ।। ए देशी॥ श्रीजिनवरने प्रगट थयुरे, क्षायिक भावे ज्ञान ।। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०१ ) दोष अढार अभावथी रे, गुण उपन्या ते प्रमाणरे ॥ भविया ! वंदो केवल ज्ञान ॥ १ ॥ पंचमी दिन गुण खाण रे || भविया बंदो० ॥ ए आंकणी ॥ अनामीना नामनो रे, किश्यो विशेष कहेवाय ॥ ए तो मध्यमा वैखरी रे, वचन उल्लेख ठराय रे ॥ ४० ॥ दो० ॥२॥ ध्यान टाणे प्रभु तुं होय रे, अलख अगोचर रूप || परापश्यंती पामीने रे, कांइ प्रमाणे मुनिभूपरे ॥ भ० || दो० ||३|| छती पर्याय जे ज्ञानना रे, ते तो नाव बदलाय ॥ ज्ञेयनी नवनवी वर्तना रे, समयमां सर्व जणाय रे ॥ ५० ॥ नंदो ० ॥४॥ बीजा ज्ञानतणी प्रभा रे, एहमां सर्व समाय ॥ रविप्रभाथी अधिक नहीं रे, नक्षत्र गण समुदाय रे ||४०|| नंदो० ||५|| गुण अनंता ज्ञाननारे, जाणे धन्य नर तेह || विजय लक्ष्मी सूरि ते लहे रे, ज्ञान महोदय गेह रे ||४०|| बंदो० ||६|| ॥ इति केवल ज्ञान स्तवन ॥ पछी जयवीयराय कही खमासमण दइ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् श्री केवलज्ञान आराधनार्थं करेमि काउस्सगं ॥ चंदणव ० || अन्नथ्य० || एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काउस्सग्ग करी नमोऽत्० कही थोय कहेवी ते आ प्रमाणे ॥ अथ थोय ॥ ॥ मह ऊठी वंदूं ॥ ए देशी ॥ छत्र त्रय चामर, तरु अशोक सुखकार । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०२) दिव्य ध्वनि दुंदुभि, भामंडल झलकार ॥ बरसे सुर कुसुमे, सिंहासन जिन सार । वंदे लक्ष्मी सूरि, केवल ज्ञान उदार ॥ १ ॥ ॥ इति स्तुति ॥ पछी खमासमण दइ उभा रही केवळज्ञानना गुण स्तववा दुहा कहेवा त आ प्रमाणे ॥ अथ दुहा.॥ बहिरातम त्यागे करी, अंतर आतम रूप ॥ 'अनुभवि जे परमातमा, भेद एकज चिद्रूप ॥१॥ पुरुषोत्तम परमेश्वरु, परमानंद उपयोग ! जाणे देखे सर्वने, स्वरूप रमण मुखभोग ॥२॥ गुण पर्याय अनंतता, जाणे सघला द्रव्य ।। काल त्रय वेदी जिणंद, भाषित भव्याभव्य ॥३॥ अलोक अनंतो लोकमां, थापे जेह समथ्य ।। आतम एक प्रदेशमां, वाय अनंत पसथ्य ॥४॥ केवल देसण नाणनो, चिदानंद घन तेज ॥ ज्ञान पंचमी दिन पूजीए, विजय लक्ष्मी शुभ हेज ||५||खमा०॥ प्रांते स्मासमण दइ अविधिआशातनानो मिच्छामी दुक्कड देवो. इति श्री विजयलक्ष्मी सूरिकृत, विधि सहित श्री ज्ञान पंचमी देववंदन समाप्त.॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०३) श्री सौभाग्यपंचमाना देववन्दनना अर्थ.॥ ॥ मतिज्ञानना चैत्यवन्दननो अर्थ ॥ श्री मौभाग्यपंचमीनो स्विम सर्व दिवसोमां अलंकार तुल्य छे. ते दिवसे पांच ज्ञाननी पूजा करीए के जेया जन्म सफल याय. ॥१॥ सामायिक तथा पोसहमां (देशावकाशिकमां पण) सारा गन्धवाला वासक्षेपादि चूर्ण वड निरवद्य पूनानो विचार जाणवो. तथा मनोहर ज्ञाननुं ध्यान कम्खु । २॥ पूर्व तथा उत्तर दिशामा प्रधान त्रण पीठ रचीने मुखकर्ता परमात्माना पचवर्ण विम्बने स्थापन करीए ॥ ३ ॥ पूजा सामग्रीने लायक पांचपांच वस्तुआ भेगी करी पंचवर्णना कलश भगदःखना उपभोगनो नाश करीए॥४मान ज्ञाननी प्राप्तिने माटे शक्ति अनुसार पूजा करीए, जे मतिज्ञान श्रीजिनशासमना राजा ( तीर्थकर प्रभु ) ए पंचज्ञानमा अग्रेसर कहेखें छ. ॥५॥ मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानविना अवधिज्ञान विगेरे मोटा ज्ञानो थतां नथी, ते कारणथी मतिज्ञान प्रथम कहुं छे, मति अने श्रुतमां पण मनिनुं प्रधानपणुं छे, ॥ ६ ॥ मतिश्रुतना आवरणनो क्षयोपशम तथा प्राप्ति समानकाले थाय छे. स्वामि आदिके करीने मतिश्रुतनो अभेद छे, पण मुख्यता उपयोगकाळमां होय छे. (जे वखते जे ज्ञान नो उपयोग वर्ते ते वरखते तेज मुख्य जाणवू ) ॥७॥ २लक्षण तथा ? स्वामी, काल, कारण, विषय, परोक्ष, २ आगळ दुहामां बतावशे ते लक्षण तथा भेदो. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०४) भेदोए करी तथा कारण कार्यना संबंधी ते बेनो भेद छे. कांचन अने कलशना सम्बन्धनी माफक मति साधन छे अने श्रुत साध्य छ। ८।। परमेश्वर परमात्मा सर्व सिद्ध भगवन्तो मतिज्ञान पामीने केवळ ल. क्ष्मीना भंडार थया छे. ॥ ९ ॥ ॥ मतिज्ञानना स्तवननो अर्थ, ॥ हे सुज्ञ भव्य माणीओ ! तमे पंचमीने दिवसे ज्ञानने नमस्कार करो के जे ज्ञान जगतमां गाजी रहुं छे, वली शुभ उपयोगमा रहेतां क्षणवारमां मिथ्यात्वथी संचित थयेली कर्मरज निर्जरी जाय छे ( आत्माथी छुटी पडे छे) ॥शा 'सत्पद प्ररूपणता विगेरे नव द्वा १ सत्पद प्ररूपणामां गति विगेरे वीश मार्गणाओए करी मतिरूपी सत्पदनी प्ररूपणा करवी. तेमां गतिमार्गणामां कयीकयी गतिओमां मनिज्ञान पामेला तथा पामता जीवो होय ? चारे गतिओमां मतिज्ञान पामेला जीवो होय, पामता जीवो कोइ वखत होय तथा कोइ वखत न हाय १ इन्द्रिय मार्गणाए पंचेंद्रियजीवो पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमाननी भजना जाणवी. विकलेन्द्रियो पूर्वप्रतिपन्न होय. ( सिद्धान्तकार ना मते, कार्मग्रन्थिकमते उभय पण न होय ) एकेन्द्रियोमा एके पण न होय २. कायमार्गणाए त्रमकायमा पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान भजना. पृथ्वीकायादिमा उभयाभाव ३. योगमार्गणाए समुदित त्रणे योगोमां पंचेन्द्रियनी माफक, मनोरहित वचनयोग विषे विकलेन्द्रियनी माफक, केवल काययोगमा उभयाभाव ४. वेदद्वारे त्रणेवेदोमां पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान भजना ५. कषायद्वारे अनन्तानुवन्धिमा Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०९) रवडे मनिज्ञाननी व्याख्यानो प्रकाश छे, व्यवहारनये ज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम करवाथी अज्ञानी जीवने ज्ञाननो उल्लास थाय छे ॥२॥ निश्चयनय कहे छे के ज्ञानी होय तेज ज्ञान पामे छे. भगवन्तोने तो बन्ने नयो सत्य छे. आ ज्ञान उपयोगथी सर्व प्राणीओने हमेशा अन्तर्मुहूर्त सुधी रहे छे. (सतत उपयोग अंतर्मुहर्तन रहे छे.)।॥ ३ ॥ उभयाभाव. बाकी त्रणमा पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान भजना ६. लेश्याद्वारे शुद्ध त्रणमां पंचेन्द्रियनी माफक, अशुद्ध त्रणमा पूर्वप्रतिपन्न होय, बीजा नहीं ७. सम्यक्त्व मार्गणाए व्यवहारनये पूर्वप्रतिपन्न होय पण प्रतिपद्यमान न होय, निश्चयनये उभय पण होय ८. ज्ञानद्वारे व्यवहारनये चार ज्ञानवालाओ पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान न होय. केवली उभय न होय. त्रण अज्ञानीओ प्रतिपद्यमान विवक्षितकाले होय पण पूर्व प्रतिपन न होय. निश्चयनये मति श्रुत अवधिज्ञानवाला प्रतिपन्न निश्चये होय, प्रतिपद्यमान पण विवक्षितकाळे होय. मनःपर्यायज्ञानी पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान नहीं. केवली तथा त्रण अज्ञानी उभय पण न होय ९. दर्शनद्वारे चक्षु अचक्षु दर्शन कब्धिवाला पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान भजना, अवधिदर्शनी प्रतिपन्न होय,प्रतिपद्यमान नही. केवलदर्शनी उभय पणन होय.१०.संयतद्वारे पूर्व प्रतिपन होय, प्रतिपद्यमान नही ११.उपयोगद्वारे साकारोपयोगी पूर्वप्रतिपन्न होय,प्रतिपद्यमान भजना. अनाकारोपयोगी प्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान न होय १२. आहारकद्वारे आहारक पूर्व प्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान भजना. अनाहारक पूर्वप्रतिपन्न होय, प्र. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०६ ) आ ज्ञाननी लब्धि जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त काल रहेछे अने उत्कृष्टथी छासठ सागरोपम अने मनुष्य भवो अधिक, एटलो काळ रहेछे. अने घणा प्रकारना जीवोनी अपेक्षाए अन्तर ( विरह ) कोइ दिवस पण होतो नयी ॥ १॥ ( जघन्यथी ) वर्तमान समये आज्ञान पामनारा तिपद्यमान नही १३. भाषकद्वारे भाषा लब्धिवाला प्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यान भजना १४. परित्तद्वारे प्रत्येक शरीरी प्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान भजना. साधारण उभय नही १५. पर्याप्तिद्वारे पर्याप्ता प्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान भजना. अपर्याप्ता पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान नही ११. सूक्ष्मद्वारे सूक्ष्म उभय नही. बादर प्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान भजना १७. संज्ञिद्वारे संज्ञि पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान भजना. असंज्ञि पूर्वप्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान नही. १८. भवसिद्धिकद्वारे भवसिद्धिको संज्ञि माफक,. अभवसिद्धिको उभयशून्य १९. चरमद्वारे चरम पूर्व प्रतिपन्न होय, प्रतिपद्यमान भजना. अचरम उभयशून्य २०.॥ इति सत्पदमरूपणा ॥१॥ द्रव्य प्रमाणमा प्रतिपद्यमान होय अथवा न होय, होय तो जघन्यथी एक बे अथवा त्रण, उत्कृष्टथी क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमा भाग प्रमाण प्रदेशराशि जेटला. प्रतिपन्न जीवो जघन्यथी पण क्षेत्रपल्योपमना असंख्यातमा भाग प्रमाण प्रदेश राशि जेटला, उत्कृष्टथी एथी विशेषाधिक ॥२॥ क्षेत्रद्वारे सर्व मतिज्ञानीओ लोकना असंख्यातमा भागमा रहेछे. एक जीव इलिकागतिए उपर अनुत्तर विमानमा जतो अथवा त्यांची आवतो चौदीया सात भागमा रहे छे. नीचे छठी पृथ्वीमा जतो अ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०७) जीवो एक बे होय अथवा न पण होय. अने उत्कृष्टा क्षेत्र पत्योपमना असंख्यातमा भागमा जेटला आकाशप्रदेशो होय तेटली संख्या ए जाणवा ॥ ५ ॥ मतिज्ञान पामेला जीवो असंख्याता छे, अने मतिज्ञानथी पडवाइ थयेला ( पडेला ) अनन्ता छ, माटे हे भव्यजीवो! ज्ञाननी सर्वप्रकारनी आशातनानो त्याग करो के जेथी विजयलभी मेलवो. ॥ ६ ॥ थवा त्यांची आवतो सातीया पांच भागमा रहे छे ॥ ३॥ स्पर्शनाद्वारे पूर्वोक्त क्षेत्रथी स्पर्शना वधारे होय ॥ ४ ॥ कालद्वारे उपयोग आश्रयी एक अथवा अनेक जीवोने अन्तर्मुहर्त काल, लब्धि आश्रयी. जघन्यथी अन्तर्मुहूर्त,उत्कृष्टथी छासठ सागरोपमथी वधारे. बे वार विजयादिमां अथवा त्रण वार अच्युत देवलोके जवाथी तेमां मनुष्य भवोनो काल वधारे जाणवो. नाना जीवाने अपेक्षी सर्व काल ॥ ५ ॥ अन्तरद्वारे एक जीवने आश्रयी जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त्तनु, उत्कृष्ट अपार्थ पुद्गल परावर्त, अनेक जीवोने आश्रयी अन्तर न होय ॥६॥ भागद्वारे मतिज्ञानीओ शेष ज्ञानी तथा अज्ञानीओना अनन्तमे भागे वत्तें छ. ॥ ७॥ भावद्वारे मतिज्ञानी क्षायोपशमिकभावे वर्ते छः ॥८॥ अल्पबहुत्वद्वारे सर्वथी थोडा मतिज्ञान पामता जीको, पामेळा जीवो जघन्यपदे पण असंख्येय गुणा, तेथी उत्कृष्टपदे विशेषाधिक ॥ ९॥.. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०८ ) ॥ मतिज्ञाननी स्तुतिनो अर्थ ॥ श्रीमतिज्ञानी तव भेद अने पर्याय शब्दोए करीने व्याख्या करी छे. ते मनिज्ञानी जीवो सामान्ये करी द्रव्यादि चार पदार्थोंने जाणे एम वधुं छे. तेओ वस्तुना अनन्ता धर्मोने निश्चये जाणे छे. मां अज्ञाननी विवक्षा करेली नथी. ते मतिज्ञाननी जो विजयलक्ष्मी रूप गुण प्राप्त करवानी अभिलाषा होय तो बन्दना तथा पूजना करो. ॥ १ ॥ ॥ श्री मतिज्ञानना दुहाना अर्थ. ॥ ( पीठिकाना दुहाना अर्थ. ) ४ श्री गौतमस्वामी महाराज भगवती आदि आगमाने विषे " नमो बंर्भाए लीविए " एवा शब्दोए करीने जेने नमस्कार करे छे. ते 'अ. १ तत्व - मतिज्ञाननुं लक्षण जे आगल दुहाना अर्थमां स्पष्ट ते बतावाश ते. २ भेदो - व्यञ्जनावग्रह विगेरे अठावीश, बत्रीश, अथवा चार बे, ३३६ ने ३४० छे. ३, पर्याय - मतिज्ञानना वीजा नामो ईहा, अपोह, विमर्श, मागेणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा-आ सर्व आभिनिवोधिक ज्ञानना पर्यायो छे. ४ हंसलिपी १, भूत० २, यक्ष० ३, राक्षस ० ४, उर्दु ० यवनी० ६, तुक० ७, कीरी० ८ द्राविडी ० ९, सिंधी० १०, माळवी० ११, नडी० १२, नागरी० १३, लाट० १५, नैमित्तिकी ० १६, चाणाक्यी० १७, मूलदेवी० १४, फारसी० १८. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २०९ ) दार प्रकारना संज्ञाक्षर ( लीपी ) स्वरूप भगवती ( पूज्य ) एकान्त सुखरूप श्री श्रुतदेवीने हुं बांदु हूं ॥ १ ॥ ' ज्ञेय ( जाणवालायक) पदार्थों अनन्ता होवाथी ज्ञानना पण अनेक ( अनन्त ) भेदो थाय छे. तेमांथी आत्माना धर्मने प्रकाश करनारा एकावन भेदोने हुं हुं ॥ २ ॥ एकेक गुणदीठ एकेक खमासमण दइने एकेका ज्ञानगुणनी स्तवना करीए. ए प्रमाणे रुडा विवेकसहित एकावन खमासमण दइ || ३ || श्री सौभाग्यपंचमी ( कार्त्तिकशुदी ५ ) ने दिवसे मतिज्ञाननी आराधना करो. ए मतिज्ञानना पूर्वोक्त एकावन भेदोमांना अठावीस भेदो छे, ते भेदोनी घणा मानपूर्वक स्तवना करीए ॥ ४ ॥ ॥ गुण संबंधी दुहाना अर्थ. ॥ श्रोत्रादि इन्द्रियो तथा शब्दादि पुद्गलो ते बनेनो संबंध थवाथी नेत्र तथा मन शिवायनी चार इन्द्रियो वडे जे प्रथम अव्यक्त ज्ञान थाय छे ते २ व्यञ्जनावग्रह जाणवुं ( आ दुहानी अंदर मतिज्ञानना चार भेदो बनाया छे, श्रोत्रेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह १ घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनाग्रह २ रसनेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह ३ स्पर्शनेन्द्रियव्यञ्जनवग्रह ४ ) || ५ || १ जगतना पदार्थमात्र त्रण प्रकारना हाय छे. १ ज्ञेय, २ हेय, ३ उपादेय. तेमां हेय अने उपादेयपणुं पण ज्ञानथी जाणेला पदार्थोमां ज होयछ माटे ते बन्ने पण ज्ञेय शब्द अंगीकार कराय छे. २ इन्द्रियो तथा पदार्थना संबंधवडे थवावालु पहेलुं जे पदार्थं ज्ञान ते, आ व्यंजनावग्रह मतिज्ञानना मूळ पांच भेदो पैकी प्रथम भेद छे. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१० ) · व्यञ्जनावग्रहनो जघन्य काल आवलिकानो असंख्यातमो भाग अने उत्कृष्ट काल बेथो नत्र श्वासोच्छ्वास प्रमाण छे. चक्षु तथा मनविनानी बाकीनी चार स्पर्शन, रसन, घ्राण, श्रोत्र इन्द्रियो माध्यकारी छे. (जे इन्द्रियोनो पोताथी जाणवालायक पदार्थनी सावे संयोगरूप संवन्ध यवाथी ज्ञान थाय ते प्राप्यकारी इन्द्रिय जाणवी ) चक्षु तथा मन एबे अप्राप्यकारी ज्ञानी पुरुषोए दीठेल छे. ( जे इन्द्रियथी पोताना विषयनी साथै संयोग थया विना ज्ञान थाय ते अप्राप्यकारी जाणवी ) || ६ || सम्यक् ( यथार्थ ) “ जं जिणेहिं पवेइयं तमेव सच्च णीसंकं " ( वीतरागजिनेश्वर भगवन्तोए जे बताब्यं तेज सत्य अने निःशंक छे) एवी भावनाथी पवित्र थयेली श्रद्धावाला जे जी - वोने ज्ञाननो प्रकाश उत्पन्न थयो छे ते पुरुषोना चरणकमलने भावपूर्वक उल्लास धारण करी हुं त्रिकरणयोगे नमस्कार करुं हुं ॥ ७ ॥ वर्ण गंध रस स्पर्शादिनो संबन्ध जे ज्ञानमां जणाय नहि पण व्यञ्जनावग्रस्थ वधारे स्पष्टताए 'आ कांइक छे' एटलुं वस्तुनुं ज्ञान पांच इन्द्रियों तथा ( इन्द्रिय नही पण इन्द्रिय समान ) छठा नोइन्द्रिय मनोद्वारा थाय ते ज्ञान अर्थावग्रह' कहेवाय छे ॥ ८ ॥ ( आ दुहानी अंदर मतिज्ञानना छ भेदो बनाव्या छे, १ सर्शेन्द्रिय अर्थावग्रह, २ जिह्वेन्द्रिय अर्थावग्रह, ३ घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, ४ चक्षुरिन्द्रिय १ वर्ण गन्ध रस स्पर्शनी भिन्नता शिवायनुं आ कांइक वस्तु छे एवं ज्ञान, आ मति ज्ञाननो बीजो भेद, आ ज्ञाननी स्थिति निश्वयथी एक समयनी छे अने व्यवहारथी अन्तर्मुहूर्त्तनी छे. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २११ ) अर्थावग्रह, ५ श्रवणेन्द्रिय अर्थावग्रह, ६ मानस अर्थावग्रह ) ॥ ८ ॥ अन्वय ( तेनी साथे व्याप्त ) तथा व्यतिरेक ( तेमां नहि रहेनारा ) धर्मनी विचारणा वडे अर्थावग्रहथी जाणेला पदार्थनुं अन्तर्मुहूर्त्तनी स्थितिवालुं पांच इन्द्रियो तथा मनोद्वाराए ज्ञान थाय ते 'ईहा विचा रणानामनुं ज्ञान जाणं - यत्सच्चे तत्सत्त्वमन्वयः । यदभावे तदभावो व्यतिरेकः - जे छते तेनुं सत्य होय ते अन्वय कहेवाय तथा जेना अभावधी तेनो अभाव होय ते व्यतिरेक कद्देवाय, जेम "स्था पुरुषो वा ?" आ प्रमाणे संशय थयापछी हाथ पग मुख विगेरे पुरुषना धर्म होवाथी आ पुरुष छे एम जणाय ते तेना अन्वय धर्म, तथा डाल बाका विगेरे स्थाणुना धर्म तेपां नहि होवाथी आ स्थाणु नथी ते तेना व्यतिरेक धर्म जाणवा, आ दुहानी अंदर मतिज्ञानना छ भेदो दर्शाव्या छे १ स्पर्शनेन्द्रियईहा, २ रसनेन्द्रियईहा, ३ घ्राणेन्द्रियईहा, ४ चक्षुरिन्द्रियईहा, ५ श्रवणेन्द्रियईहा, ६ मानसईहा ) ॥ ९ ॥ वर्णगन्धादिनो निश्चय थवाथी पांच इन्द्रिय तथा मनवडे आ देवता छे, मनुष्य छे, के अमुक वस्तु छे आवो उत्तम निश्चय थाय छे ते अपाय नामनो भेद समजवो. ( आ दुहायां पण मति१ आ धर्मो होवाथी आ पदार्थ छे तथा आ धर्षो नहि होवाथी आ पदार्थ नथी-एवी विचारणा रूप ज्ञान. आ मतिज्ञाननो त्रीजो भेद. २ आ वस्तु आज छे एवा निश्चयवायुं ज्ञान अपाय - ते मतिनो चोथो भेद छे. आनुं स्थितिमान अन्तर्मुहूर्त्तनुं छे. • Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१२) ज्ञानना छ भेदो दीव्या छे, १ स्पर्शनेन्द्रिय अपाय, २ रसनेन्द्रिय अपाय, ३ घ्राणेन्द्रिय अपाय, ४ चक्षुरिन्द्रिय अपाय, ५ श्रोत्रेन्द्रिय अपाय, ६ मानस अपाय )॥ १० ॥ निश्चय करेली वस्तुने स्थिर. ताए ग्रहण करवी. कालान्तरे पण सत्य जाणवी ते, पांच इन्द्रिय तथा मन थकी थनार ज्ञान' धारणा छे. आ प्रमाणे धारणानो अर्थ कहेवो. ( आ दुहामां मतिज्ञानना छ भेदो दर्शाव्या छ, १ स्पर्शनेन्द्रिय धारणा, २ जिह्वन्द्रिय धारणा, ३ घ्राणेन्द्रिय धारणा, ४ चक्षुरिन्द्रिय धारणा, ५ श्रवणेन्द्रिय धारणा, ६ मानस धारणा. अहीं सु. धीमां व्यञ्जनावग्रह ४, अर्थावग्रह ६, ईहा ६, अपाय ६, धारणा ६, एम अठावीश भेदोनुं वर्णन कयु. हवे तेना अवान्तर भेदो तथा बीजी रीतना मतिज्ञानना भेदो दर्शावे छे.) ॥ ११ ॥ पदार्थने निश्चयथी जाण्या पछी अपायथी अधिक गुणवाटु अतिशय निरन्तर जे, ते वस्तुनुं ध्यान ते अविच्युति धारणातुं स्थान छे ॥१२|| अविच्युति अने स्मृतिनुं जे कार्य अने कारण होय अर्थात् अविच्युतिनुं काय अने स्मृतिनुं कारण एवी संख्याता असंख्याता काल सुधीनी स्थितिवाली वासना नामनी धारणा जाणवी ॥ १३ ॥ पूर्वदर्शन तथा १ निश्चितवस्तुने लांबा काल सुधी अवधारवं, आ मतिनो पांचमो भेद, एनो काल संख्यातो अथवा असंख्यातो, अहीं सुधीमां स्पशेन्द्रियना ५, रसनेन्द्रियना ५, घ्राणेन्द्रियना ५, चक्षुरिन्द्रियना ४, श्रोत्रोन्द्रियना ५, मानसना ४, एम अठावीस भेद थया. २ धारणाना ३ भेदोमां पहेलो भेद. ३ धारणानो बीजो भेद, Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१३) उत्तर दर्शने करी सहित अप्राप्तवस्तुनी एकता जणावनालं असंख्याते काले पण आतेज वस्तु छे ( एम याद आपनारुं ) ए' जातिस्मरण ज्ञानतुं तत्त्व छे ( अर्थात् ते जातिस्मरण ज्ञान कहेवाय छे अने ते मतिज्ञानांतर्गत धारणानोज प्रकार छे ) ॥ १४ ॥ (बहु अबबादि बार भेदोनुं स्वरूप.) वाजिबनो नाद सांभलीने आ दुंदुभिनो शब्द छे इत्यादि (पृ. थक् पृथक् वाजितना शब्द ) अवग्रहादिथी जाणे ए मतिज्ञाननो 'बहु' नामनो आल्हादकारी भेद जाणवो, ॥ १५ ॥(बहु १ )। अंशसामान्ये करी वातु छे, तेमां पण जे सामान्यनेज जाणे, जुदी जुदी जातिना वाजितना शब्द जुदा न जागे ते 'अबहु' नामनो मतिज्ञाननो भेद जाणवो ।। १६ ॥ ( अबहु २)॥ एकज वाजिबना शब्दमा पण मधुर तरुण विगेरे जुदी जुड़ी जातिओने क्षयोपशमनी रचनाए करी जाणे ते 'बहुविध'नामनो मतिज्ञाननो भेद जाणवो.॥१७ (बहुविध ३ ॥ शब्दादिना मधुरता विगेरे धर्मोमां थोडो विचार जाणवो ( विशेष न जाणवू ) ते ' अबहुविध ' नामना मतिना प्रकारनो अर्थविस्तार जाणवो. ॥ १८ ॥ ( अबहुविध ४) ॥ घणो विलंब थया पिना तत्कालज जाणे ते मतिज्ञाननो 'क्षिप' भेद जाणवो अथवा तेने अविलम्ब मति जागवी. ॥ १९ ॥ ( क्षिप्र ५)॥ घणो विचार करीने वस्तु जाणे ते 'अक्षिप' भेद जाणवो. ( आ सर्व १ धारणांनो त्रीजो भेद. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१४) परस्पर विरुद्ध भेदोमा ) क्षयोपशमनी विचित्रतानो स्वभाव महा ज्ञानीओ कहे छे ॥ २० ॥ (आप ६)॥धना देखवाथी आ जिनेश्वर भगवाननु चैत्य छे ए प्रमाणे अनुमाने करी साध्यहेतुनुं ज्ञान थाय तथा पूर्वप्रबन्धो संभारीने जागे ते 'निश्रित' भेदनो विचार जाणवो ॥ २१ ॥ (निश्रित ७ )|| बहारनुं चिन्ह दीठा शिवाय पदार्थोनो विचार जाणे ते आभिनिबोधिक ज्ञाननो (मतिनो) 'आनश्रित' नामनो प्रधान भेद जाणवो ॥२२॥(अनिश्रित ८)॥ सन्देहरहित निश्चयपणाए करी वस्तुनो अधिकार जाणे ते 'निश्चित' नामना मतिज्ञानना भेदनो अर्थ जाणवो ॥ २३ ॥ (निश्चित ९)॥ वस्तु जाणवामा उपयुक्त जीव आम हशे के बीजी रीते हशे ? एम सन्देहे करोने युक्त अनिश्चित पणाथी जाणे ते 'अनिश्चित' भेद जाणवो. ॥२४॥ ( अनिश्चित १० )। बहु प्रमुखभेद करी जाण्या पछी जेम एक दिवस तेम हमेशा जे पुरुपने बुद्धि थाय-याद रहे ते 'ध्रुव' नामना मतिना भेदतुं रहस्य जाणवू ॥ २९ ॥ (ध्रुव ११)॥ कोइ वखत बहु विगेरे भेदे करी जाणे अने कोइ वखत अबहु विगेरे स्वरूपथी जाणे ए प्रमाणे ज्यारे जाणे त्यारे ते 'अध्रुव' भेदतुं स्वरूप जाणवू ॥ २६ ॥ (अध्रुव १२)॥ (द्रव्यादिक चार प्रकारोनुं स्वरूप ) अवग्रहादि चार भेदोमां (विषयभूत ) जाणवालायक ज्ञेय पदार्थो चार भेदे करी व ह्या छे, ते चार भेद द्रव्यादिकथी जाणवा. ॥ २७ ॥ तेमां द्रव्यथी आदेशे एट सामान्य प्रकारे करी सामान्य Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१५) विशेषनी मुख्यतावाला धर्मास्तिकायादिक सर्व द्रव्योने केटलाक पर्यायो सहित जाणे ॥२८॥(द्रव्यथी १)। क्षेत्रथी सामान्यप्रकारे तत्वप्रतीतिना अनुकूलपणाए करी सर्व लोकालोकना स्वरूपने जाणे ॥२९॥ (क्षेत्रथी २)। कालथी सामान्ये करी अतीत अनागनकाल अने. वर्तनाकालनो समयविशेष ते सर्वने जेमां लवलेश असत्यपणुं नथी तेवी रीते जाणे ॥ ३० ॥(कालथी ३)॥ भावथी सामान्ये करी सर्व पर्यायोनो अनन्तमो भाग जाणे अथवा सामान्यथी औदयिकादिक 'पांच भावोने जाणे ॥ ३१ ॥ ( भावथी ४)॥ (चार प्रकारनी बुद्धिनुं स्वरूप.) (श्रुतनिश्रित मतिज्ञानना अवग्रहादि तथा बहु अबह्वादिभेदो कह्या) हवे अभुतनिश्रित मतिज्ञानना चार भेदो छे ते कहे छे. तेमां पहेलो अवसरोचित रोहानी माफक कोइथी कली न शकाय एवो 'औत्पा. तिकी'नामनो भेद जाणवो.॥३२।। गुरुमहाराजानो सर्व गुणोमा अग्रेसर एवो विनय करवाथी जे मतिज्ञाननो विस्तार पामीए ते 'वैनयिकी' बुद्धि नामनो बीजो भेद जाणवो. आ बुद्धि सर्व गुणोमां शिरोमणि छ ॥३३॥ वारंवार कार्यनो अभ्यास करवाथी जे मतिज्ञाननो भलो विचार उद्भवे तेने नंदीसूत्रादिसूत्रोमा 'कार्मिकी' बुद्धि कही छे. ( आ त्रीजो १ औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक, . २ रोहकनुं दृष्टान्त प्रसिद्ध छे. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१६ ) भेद ) ॥३४॥ अवस्थानो परिपाक थवाथी कमलवनमा 'महा हंसनी माफक जे भरपुर बुद्धि पामे ते सतेज पारिणामिकी' बुद्धि जाणवी. १ कोइ सरोवरना कीनारे कमलना वनपा एक वृक्ष उपर हं. सोनुं टोळु रहेतुं हतुं, ते वृक्षना नीचे एक वेलडी उगी, ते वेलडी वृक्ष उपर चढवा लागी, त्यारे मोटा वृद्ध हंसे पुत्रपौत्रादिनो विनाश न थाय माटे पुत्रादिपरिवारने कह्यु के-'आ वेलडीने चांचथी तोडी नांखो, नहितो आपणुं मरण थशे.' त्यारे नाना तरुण वयना हंसो हांसी करता बोल्या-आ वृद्धने तो अहीं शाश्वत रहेवू लागे छे ? त्यारे वृद्ध चूप थइने बेशी रह्यो.अनुक्रमे वेलडी वधती वधती वृक्ष उपर चढी.एटले एक शीकारीए ते वेलडी- अवलंबन करी वृक्ष उपर चडीने जाल पाथरी. बहार गयेला हंसो आवीने बेठा एटले ते जालमा सपडाया. पछी तेमणे वृद्ध हंसने पुछयु के-' हवे कांइ जीववानो उपाय छे ? ' वृद्ध हंसे कहा, 'मैं प्रथमज कडं हतुं हवे काइ उपाय नथी ! ' छेवट बीजा हंसोए घणुं विनव्या त्यारे वृद्ध हंसे कह्यु के-' तमे सौ शब जेवा थइने पडी रहो, नहितो आ शीकारी डोक मरडीने मारी नांखशे.' सर्वे ते प्रमाणे रह्या. शीकारीए आवीने जोयुं एटले बधाने मरेला जोइ नीचे नांखी दीघा. एटले वृद्ध हंसे कह्यु हो उडी जाओ' एटले बधा उडी गया. आ दृष्टान्तमां वृद्ध हंसने अवस्थानी परिपक्वताथी वेल. डीथी मरण- ज्ञान, वेलडी तोडवी ए बचवानो उपाय, छेवटे मृतक जेवा रहेवाथी जीवननो उपाय-ए सर्व ज्ञान थयुं. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१७ ) ( आ चोथो भेद ) ||३५|| 'अठ्ठावीश बत्रीश बे चार अने "त्रणसेने चालीश आ प्रमाणे दर्शनथी एटले अपेक्षाथी जुदी जुदी रीते विचारवाथी मतिज्ञानना भेदो थाय छे. (सम्यक्त्वथी मतिज्ञान अनेमिथ्यात्व होय तो मतिअज्ञान) ते सर्व भेदो विजयलक्ष्मीरूप गुणना मन्दिर समान छे ।। ३६ । ॥ श्रुतज्ञानना चैत्यवंदननो अर्थ. ॥ " स्वपरने जे प्रकाश कर्त्ता छे ते श्रुतज्ञानने हमेशां नमस्कार करो. (मत्यादि) ज्ञानथी वस्तुने जाणे देखे छ तथा श्रुतज्ञानथी संशयो टले छे. ।। १ ।। वचनन विषयमां न आवे तेत्रा ( बोली न शकाय ) अनभिलाप्य अनंता भावो पदार्थोंमां रहेला छे, तेनो (अनमेलाप्पनो) अनंतमोभाग वचनपर्यायमां आवे तेवो ( अभिलाप्य भाव ) को छे || २ || वली कहेवा लायक ( अभिलाप्य ) पदार्थोनो अनन्तमो भाग गुणे करी स्नेह सहित गणधर महाराजाए चौद पूर्वमां गुंथ्यो ३ ॥ चौद पूर्वधर भगवन्तो परस्पर अक्षरज्ञाने करी सरवा छे ॥ १ अठावीश भेदो पूर्वे बताव्या ते जाणत्रा २ तेपां अश्रुतनिश्रित चार मेलवतां बत्रोश. ३ श्रुतनिश्रित अने अश्रुननित्रित एप बे भेदो. ४ द्रव्य क्षेत्र काळ भाव ए चार भेदो. ५ अठावीश भेदोने बहु अबहु आदि बार भेदे गुणतां ३३६ तेमां अश्रुतनिश्रित चार भेलवां ॥ ३४० ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१८) छे. पण भावथी ( पदार्थना ज्ञानथी ) 'छस्थान पतित होय छे ते मतिविशेषो श्रुतनाज प्रकारो छ । ४॥ तेन माटे अनन्तमे भागे वाणीमां गुंथायेल छ. समाकितसहित श्रुतज्ञानना कहेला सर्व पदार्थों सत्य जाणवा. ॥ ५॥ द्रव्यगुणपर्याये करी जे एक प्रदेशने जाणे छे ते सर्व प्रदेशने जाणे छे एवो नन्दीसूत्रनो उपदेश छे. ॥ ६ ॥ चोवीश जिनेश्वरना उपाधिथी विमुक्त थयेला चौद पूर्वधर साधुओ२३३९९८ छे. ।। ७ ।। एकान्त वस्तु कहेनारा परतीथिकोना जे सर्वशास्त्रसमूह ते समकितवन्त प्राणिर ग्रहण कर्ये छते सत्य अर्थवाला थाय छे, ॥ ८॥ जिनेश्वर महाराज तथा श्रुतकेवलिभगवन्तो ज्ञानाचारनुं च. रित्र कहे छे-तेनुं वर्णन करे छे तेथी श्रुतपंचमानुं आराधन करवा १ अनन्त भागाधिक १ असंख्येय भ.गाधिक २ संख्येयभा. गाधिक ३ संख्येयगुणाधिक ४ असंख्यगुणाधिक ५ अनन्तगुणाधिक ६. अथवा हानिना छ स्थान लेचा. २ ऋषभ० ४७५०, अनित० ३७२०, संभव० २१५०, अभिनन्दन० १५००, सुमति० २४००, पद्मपभ० २३००, सुपार्श्व. २०३०, चन्द्रमभ० २०००, सुविधि० १५००, शीतल० १४००,. श्रेयांस० १३००, वासुपूज्य० १२००, विमल० ११००, अननन. १०००, धर्म० ९००, शान्ति० ८००, कुन्थु० ६७०, अर० ६१०, मल्लि० ६६८, मुनिसुव्रत० ५००, नमि० ४५०, नेपि० ४००,. पार्श्व० ३५०, वर्धमान० ३००, कुल. १३९९८ चौदपूर्वी मुनि होय छे. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१९) विजयलक्ष्मीसूरि महाराजनुं चित्त थयुं छे. ॥ ९ ॥ . ॥श्रुतज्ञानना स्तवननो अर्थ ॥ श्रीतीर्थकर महाराजाए श्रुतज्ञान चौद प्रकारे वर्णव्युं छे, ते श्रुत ज्ञानरूपी महाराजानी' उपधान वहन करवा विगरे आचारोवडे सेवना करीए, श्रुतज्ञानने विषे मारुं दिल राची रो छे. सुखकर्ता परमात्माना आगममां दिल तथा चित्त राच्युं छे ॥१॥ एक विगेरे अक्षरोना संयोग करवाथी अकार संयोगी अनन्ता छे तेमन स्वपर पर्यायोए करीने एक अक्षर गुणपर्याय स्वरूपे अनन्तो छ ( जो के अक्षरो संख्याता छे, तो पण अक्षरोना वाच्य अभिधेयो तथा तेना धर्मो अनन्ता होवाथी अनन्ता संयोगो सिद्ध थाय छे)॥ २ ॥ अक्षरनो ( ज्ञाननो ) अनन्तमो भाग हमेशां उघाडो रहे छे, ते भाग तो अवरातोन नथी. सूक्ष्म जीवनुं ए ज्ञान छे ॥ ३॥ शुश्रूषा, (सांभलवानी इच्छा,) श्रवण करवू, फरी पुछवू, मनमा अवधारण करवू, ग्रहण कर, विचार, निश्चय करवो, धारण करी राख. बुद्धिना ए आठ गुण गणाय छे. ॥ ४॥ चोवीश तीर्थ करोना १२६२०० सर्व सभामा वादिआ छे. ( आ वादीओने कोइ पण वादमां जीती शके नहि ) ए प्रवचननो अपार महिमा छे. ।।५।। १ काल १ विनय २ बहुमान ३ उपधान ४ अनिन्हव ५ व्यंजन ६ अर्थ ७ तदुभय ८ . २ ऋषभना १२७५०, अजितना १२४००, संभवना १२००० अभिनन्दन ११०००, सुमति १०४५०, पद्मभु ९६००, सुपार्य Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२० ) जे प्राणीओ आगमने भणे छे, भणावे छे, लखे छे, लखावे छे, ते प्राणी ओना विजय लक्ष्मी रूप गुणना मन्दिर समान जन्मना व-खाण करीए ।। ६ ।। || श्रुतज्ञाननी स्तुतिनो अर्थ ॥ सूर्यसमान जिनेश्वर परमात्मा त्रिगडा उपर बेशी अमृतसमान वाणी बोले छे. अनेकान्त मत एन प्रमाण छे. आत्मानो अनुभव करवानुं स्थानक' चार अनुयोगरूपी गुणोनी खाण परमात्मा अरिहन्त प्रभुनुं शासन श्रेष्ठ वहाणसमान छे. सर्व पदार्थो त्रिपदीवडे जणावे छे. बत्रीश दोष? वर्जित परमात्मानी देशना योजन प्रमाण ८४००, चन्द्रप्रभ ७६००, सुविधि० ६०००, शीतल ५८००, श्रे. यांस० ५०००, वासुपूज्य ४२००, विमल ३६००, अनन्त० ३२०० धर्म २८००, शान्ति २४००, कुन्थु २०००, अर १५००; मल्लि १४००, मुनिसुव्रत १२००, नमि १०००, नेमि ८००, पार्श्व ६०० वर्धमान ४००, सर्व संख्या १२६२०० वादी मुनि होय छे. १ चरणकरणानुयोग १ द्रव्यानुयोग २ धर्मकथानुयोग ३ गणितानुयोग 8 २ प्रकृतिथी आ सर्व संसार छे अथवा आत्मा नथी विगेरे 'अलीक' १, वेदमां कथित हिंसा धर्मने माटे थाय विगेरेनी माफक · , उपघातजनक २, डित्यादिनी माफक निरर्थक ३, पूर्वापर Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२१ ) भूमिमां फैलावो पामे छे. केवलज्ञानी प्रभुए जे कथन कर्तुं ते श्रुतज्ञान, एम विजयलक्ष्मी सूरि बहु मान पूर्वक कहे छे हे सुजनो ! ते. श्रुतज्ञानने तमे धारण करजो. ॥ १ ॥ संबंध विनानुं ते' अपार्थक' ४, छळवाक्य विगेरे 'छल'५, द्रोहस्वभाव होय ते' हिल' ६, सारविनानुं ते 'निःसार' ७, अक्षरादि करीने अधिक ते' अधिक' ८, न्यून होय ते'ऊन '९, फरी फरी बोलं ते 'पुनरुक्त' १०, पूर्वाप रविरुद्ध ते 'व्याहत' ११, युक्तिरहित ते 'अयुक्त' १२, क्रमरहित ते'क्रमभिन्न' १३, वचन फेरफार ते 'वचन भिन्न १४, विभक्ति फेरफार ते 'विभ क्ति विभिन्न १५, लिङ्ग फेरफार ते 'लिङ्गभिन्न' १६, सिद्धान्तमां नही कहेलं ते 'अनभिहित' १७, छंदोभंग ते 'अपद' १८, वस्तुना स्वभावथी विपरीत बोलं ते 'स्वभावहीन' १९, प्रस्तुत बात छोडी अप्रस्तुत बातने लंबावी पछी प्रस्तुत कहेवी ते 'व्यवहित' २०, काल फेरफार ते 'कालदोष' २१, वाक्य पूर्त्तिविना वचमांथी पद तोडी नांखवं ते 'यतिदोष' २२, अलंकार विशेष शून्य ते ' छविदोष' २३, स्वसिद्धान्त विरुद्ध ते 'समयविरुद्ध' २४, हेतुशून्य ते 'वचन मात्र' २५, तात्पर्यथी अनिष्ट प्राप्ति थाय ते 'अर्थापत्तिदोष' २६, समास फेरफार ते 'असमासदोष २७, हीनाधिक उपमा करवी ते 'उपमादोष' २८, एक देशने संपूर्ण कहें ते' स्वरूपावयवदोष'२९, उद्देश्य पदोनी एकवाक्यता न थाय ते 'अनिर्देशदोष'३०, वस्तुपर्यायवाचि पदनी अर्थान्तर कल्पना ते 'पदार्थदोष' ३१, विपरीतसन्धि ते 'सन्धिदोष' ३२, आ प्रमाणेना ३२ दोष रहित. परमात्मानी देशना होय छे. ॥ · Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२२) ॥ श्री श्रुतज्ञानना दुहाना अर्थ.॥ ___ श्री श्रुतज्ञानने सर्वदा वन्दना करो के जेना चौद अथवा वीश भेदो छे. ते बन्नेमाथी हुं. चौद भेदोनुं वर्णन करुं छु. जे सर्व श्रुतना स्वामी ते श्रुतकेवलि कहेवाय छे.॥१॥ अकारना अढार' भेदो छे. तेज प्रमाणे सर्व अक्षरोना भेदो जाणवा. लब्धि, संज्ञा अने व्यञ्जन" एम त्रण प्रकारना अक्षरोने अक्षरश्रुत जाणवू ।।२॥(पहेलो भेद)। प्रवचन १ श्रुत २ सिद्धान्त ३ आगम ४ समय ५ ए सर्व जेना पर्यायी नाम छे एवा श्रुतज्ञानतुं व्याख्यान करीने तेमज तेना व्याख्यान करनारा श्रुतज्ञानीना चरणकमलोने चित्तमा लावीने घणा प्रकारना स्नेहथी तेनी पूजा करो. ॥३॥ हस्तरूपी लतानी चेष्टा (खोखारो उधरस उच्छासादि ) विगेरेए करी अन्तर्गत भाषा जणावे ए १ अकारना इस्व दीर्घ अने प्लुत एम त्रण भेदो छ, वली ते दरेकना उदात्त अनुदात्त अने स्वरित एम त्रण त्रण भेदो छे, एटले नव, ते नवने सानुनासिक निरनुनासिक एम बे भेदे गुणतां अढार भेदो जाणवा. ___२ पुस्तकमां लखेला अक्षरो वांचवाथी तथा मोठेथी बोलाता अक्षरो सांभलवाथी थतुं ज्ञान. ३ पूर्वे वर्णवेली अढार प्रकारनी लिपीरूपी अक्षरो. ४ वचन योगे करी मोठेथी बोलाता अक्षरो. ५ आ कर्मग्रंथ टीकानो मत छे, विशेषावश्यकादिकमां चेष्टामां श्रुतनुं लक्षण नहि होवाथी चेष्टाने श्रुतपणुं कहेता नथी. Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२३ ) अनक्षर श्रुतने प्रकाश करनारो सत्य अर्थ जाणवो. ए बीजं अनक्षर श्रुत ॥४॥ (बीजो भेद)।। जे दीर्घकालिकी नामनी संज्ञा छे तेणे करीने ( सहित ) संज्ञि जीवो जाणवा ते संज्ञि जीवो मन इन्द्रियथी उत्पन्न थयेला संज्ञिश्रुतना स्थानक जाणवां ॥ ५॥ ( त्रीजो भेद ) ॥ जे जीवोने मनोरहित इन्द्रियो मात्रथी तेने आवरण करनारा कर्मना क्षयोपशमवडे जे ज्ञान थाय ते असंज्ञिश्रुत जाणवू. ।। ६ ।। ( चोथो भेद ) ॥ जे सिद्धान्त सम्यक्त्व विनानो होय ते विपरीत सिद्धान्त जाणवो ने जे सिद्धान्तमा सम्यक्त्व होय ते प्रत्यक्ष (सत्य) सिद्धान्त जाणवो. ॥७॥ सुदर त्रिभंगीथी भरपूर घणा नैगमादि नयो जेमां छे. अने जे वचनथी शुद्ध शुद्धतर अतिशय तेजवालुं छे ते समाकतश्रुत जाणवू ॥ ८॥ ( पांचमो भेद )|| बालबुद्धि मनुष्यो अनेक प्रयत्नथी भंगजालो रचे तेमां सम्यग्दर्शनना दृष्टान्तनो ( देखावनो ) भास पण नथा. ॥ ९॥ सद्असदना विवेचन विना एकान्त पक्ष अंगीकार करे अने जे ( ज्ञानवालाओ ) ज्ञानतुं फल पामे नहि ते मिथ्याश्रुतर्नु स्वरूप जाणवू ॥१०॥ (छटो भेद )॥'पांच भरत तथा पांच ऐरचत ए दश क्षेत्रोमां आदिसहित (सादि) श्रुत जाणवू. (जे जे तीर्थकरतुं तीर्थ प्रवर्ततुं होय ) ते ते प्रभुनो आधार (त्रिपदी ) पामीने तेमना गणधरोए रचेलं ते श्रुत जाणवू ॥ ११ ॥( सातमो भेद)। १ त्रिभंगीनुं स्वरूप गीतार्थ गुरु महाराज पासेयी जाणवू. २ एक जंबुद्वीपनो, बे धातकी खंडना, अने बे पुष्कराधना, Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२४ ) दुष्पसह सूरीश्वर सुधी वर्त्तमान श्रुतज्ञाननो आचार प्रवर्त्तशे तेथी सान्त श्रुत जाणवुं. अथवा एक जीवने उद्देशीने पण श्रुतनुं सादि सान्नपणं होय छे तेथी सान्त जाणवुं ।। १२ ।। ( आठमो भेद )|| द्रव्यनयथी शाश्वत भावे वर्त्तनारुं श्रुत अनादि जाणवुं. ते ( शाश्वत भावे वर्त्तनारुं ) उत्तम आगमरूप रत्न महाविदेह क्षेत्रमां सदा काल वर्त्ते छे ॥ १३ ॥ ( नवमो भेद ) || अनेक जीवने अपेक्षी श्रुत अनादि अनन्त छे. ते अनादि अनंत श्रुत जाणं. द्रव्यादि' चार प्रकारे सादि सान्त अनादि अनन्त संबंधी वृत्तान्त समजो || १४ || ( दशमो भेद) || जे सूत्रमां सरखा पाठ ( आलावा) छे ते सिद्धान्त गर्मिक श्रुत जाणवुं अनेकान्त गुणे शोभित एवा पाठो घणं करीने दृष्टिवाद नामना बारमा अंगमां होय छे || १५ || (अगोयारमो भेद) || सरखा पाठ ( आलावा जेमां न होय ते अगमिक श्रुत जाणं. तेवा कालिक श्रुतवन्त महात्माओनी हे सज्जन पुरुषो ! १ द्रव्यथी एक जीवनी अपेक्षाए सम्यक्त्वनी प्राप्ति थवाथी सादिश्रुत जाणवं, अने मिथ्यात्व भवान्तर, केवलज्ञान, हानि, प्रमाद विगेरे कारणोथी ज्यारे ते नाश पामे त्वारे सान्तथुन जाणं. तथा अनेक जीवनी अपेक्षाए अनादि अनन्त जाणं ९. क्षेत्रथी भरत ऐ रवतनी अपेक्षाए सादिसान्त, अने विदेहनी अपेक्षाए अनादि अनन्त जाणं २. कालथी उत्सर्पिणी अवसर्पिणी कालनी अपेक्षाए सादिसान्त अने नो उत्सर्पिणी नोअवसर्पिणी कालनी अपेक्षाए अनादि अनन्त जाणवं. ३. भावथी भवसिद्धिकपणानी अपेक्षाए सादिसान्त अने अभव्यपणाने आश्री अनादि अनन्त जाणवुं. ४. Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२५ ) त्रिकरण योगथी अथवा त्रिकरण योगना हर्षोल्लासथी पूजा करीए. ||१६|| ( बारमो भेद ) |! अठार हजार पदे करीने युक्त आचाराङ्ग सूत्र वखाणीए. तेथी आगलना अगीयार अंगो बमणा बमणा पदोवाळा जाणवा. ते सर्व अंगप्रविष्ट श्रुतज्ञान छे. ॥। १७ ।। ( तेरमो भेद ) || जे बार उपाङ्गो छे ते अङ्गबाहिर श्रुत कहीए. तेना अनङ्गप्रविष्ट श्रुतरूपे वखाण करीए. (चौदमो भेद) ।। आ सव भेदो श्रुतरूपी लक्ष्मी देवीना मन्दिरतुल्य छे. ॥ १८ ॥ ॥ श्री अवधिज्ञानना चैत्यवन्दननो अर्थ ॥ अवधिज्ञान श्रीजुं कहेलं छे के जे अवधिज्ञानावरणीय कर्मनो क्षयोपशम थवाथी इन्द्रियोनी अपेक्षा विना आत्मप्रत्यक्षरूपे प्रकट थाय छे ॥ १ ॥ जे जीवो देव तथा नरकभवने प्राप्त करे छे तेओने तो अवधिज्ञान अवश्य थाय छे, तेमां श्रद्धावंत समकिती जीव अवधि ज्ञान पायेछे अने मिथ्यात्वथी तो विभंगज थाय छे. एटले मिथ्यात्वी विभंग ज्ञान पामे छे. || २ || मनुष्य अने तिर्यचना भवमां गुण (अध्यवसायनी निर्मलतारूप ) थी उत्तम परिणामना संयोगे जीव अवधिज्ञान पामे छे. ( गुणथी प्राप्त थयेला ) अवधिज्ञाननो उपयोग 'एक मुनिने १ एक मुनिने कायोत्सर्ग ध्यानमा अध्यवसायनी विशुद्धिथी तदावरणीय कर्मनो क्षयोपशम थवाने ळीधे अवधिज्ञान उत्पन्न थयुं, तेना प्रभावथी तेणे सौधर्मेन्द्रनी समाने साक्षात् जोई. त्यां रीसायेली इन्द्राणीने मनावता इन्द्रने जोइने तेमने हांसी आववाथी तदावरणीय कर्मनो उदय थतां अवधिज्ञान जतुं रहूं. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२६) काउसग्गमा हास्य आववाथी नाश पाम्यो हतो. ॥ ३॥ अवधिज्ञानी जघन्यथी अनन्ता रूपी द्रव्यने सामान्य विशेषोपयोगे जाणे देखे छे. उत्कृष्टथी सर्व मूर्त्तिवन्त पुद्गल वस्तुने जाणे छे ॥४॥ (द्रव्यथी.१)।। क्षेत्रथी जघन्यमा जघन्य अंगुलना असंख्यातमा भागने देखे ( एटले के) तेटला क्षेत्रमा जे पुद्गल स्कन्धो छे तेने जाणे अने देखे ॥५॥ उत्कृष्टथी ( चौदराज ) लोकना प्रमाण जेवडा अलोकमां असंख्याता खांडवा(भागो)देखे,(२)॥ कालथी जघन्यपणे आवलिकानो असंख्यातमो भाग देखे, ॥६॥ उत्कृष्टथी असंख्याती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी भूत भविष्यत् कालने जाणे देव,(३)॥ हवे भावनो विचार सांभलो.॥७॥ जघन्यथी एकेका द्रव्यमां चार (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श ) भावो (पर्यायो) देखे, उत्कृष्टथी प्रत्येक द्रव्यमा असंख्याता पर्यायो जाणे(४) ॥८॥ आ (द्रव्यथी, क्षेत्रथी, कालथी, भावथी) चार भेदो संक्षेपथी नन्दीसूत्र बतावे छे. जेओ ज्ञाननी भक्तिमा रमणता करे छे तेओ विजय लक्ष्मीरूप देवीने प्राप्त करे छे. ॥ ९॥ ॥श्री अवधिज्ञानना स्तवननो अर्थ. ॥ ... हे प्राणिओ ! तमे अवधिज्ञाननी पूजा करो, सम्पग्दृष्टि जीवोने आ गुण (अवधि) थाय छे, सर्व तीर्थंकरो आ ( अवधि ) ज्ञान सहित जन्म लइने मनुष्य भवसंबन्धी मोटा उदयने देखे छे. (पामे छे.)॥ १॥ (असंख्याता द्वीप समुद्र छतां ) सातज द्वीप अने सातज Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२७ ) समुद्र छे, आ प्रमाणे अवलुं देखनारा शिवराजर्षिनो विभंगदोष वीर प्रभुनी प्रसन्नताथी नाश पाम्यो अने प्रसिद्ध अवधिगुण प्रगट थयो. || २ || अवधिज्ञाननी उत्कृष्टी स्थिति कांइक अधिक छासठ सागरोपमनी जाणवी अने जघन्यथी कोइक जीवने आश्रीने एक समयनी जाणवी. ( अवधिज्ञानना क्षयोपशमनी तरतमताथी अथवा द्रव्यादिकनी ) विचित्रताना संबन्धथी तेना असंख्याता भेदो छ, ए संबन्धी विशेषावश्यकमां विशेष व्याख्यान करेलुं छे. ॥ ३ ॥ ऋषभदेव भगवान् विगेरे चोवीश तीर्थकरोना चरणकमलने जेओ नमस्कार करे छे तेवा अवधिज्ञानी मुनिवरोनी संख्या एकलाख तेत्री शहजारने चारसैनी छे, ॥ ४ ॥ अवधिज्ञानी आनन्द श्रावक ( वीरप्रभुना १० श्रमणोपासकोमा पहेला ) ने गौतमस्वामीजीए मिच्छामि दुकडं आप्यो हतो, (ते माटे) विजयलक्ष्मीरूप सुखना मन्दिर तुल्य ज्ञान अने ज्ञान चन्त प्राणीओनी आशातनानो त्याग करो ॥ ५ ॥ १ ऋषभ - १०००, अजित - ९४००, संभव - ९६००, अभिनन्दन - ९८००, सुमति - ११०००, पद्मप्रभ - १००००, सुपार्श्व - ९०००, चन्द्रप्रभ - ८०००, सुविधि - ८४००, शीतल - ७२००, श्रेयांस-६०००, वासुपूज्य - ५४००, विमल ४८००, अनन्त - ४३००, धर्म - ३६००, शान्ति - ३०००, कुंथु - २५००, अर - २६००, मल्लि - २२००, मुनिसुव्रत - १८००, नमि - १६००, नेमि - १५००, पार्श्व - १४००, वर्धमान २३००, कुल - १३३४०० अवधिज्ञानीनी संख्या छे, Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२८) ॥ श्री अवधिज्ञाननी स्तुतिनो अर्थ. ॥ सर्व तीर्थंकरो अवधिज्ञान सहित (देवादि भवमाथी) च्यवीने मातानी कुक्षीमां अवतार लेखे. जे प्रभुना नामे करी मुख वृक्षने प्राप्त करीए, अने जे प्रभु सर्व ईति ( अतिष्टि अनादृष्टयादि ) उपद्रवोने टालनारा छे तेमज इन्द्र तथा अध्यापकना संशयने दूर करनारा श्री वीरप्रभु महिमा तथा ज्ञानना आकर छे. तेज माटे ते वीरप्रभु विश्वना पालक तथा विजय सहित लक्ष्मी सुखने प्राप्त करावनारा छे. ॥ १॥ ॥ श्री अवधिज्ञानना दुहाना अर्थ ॥ अवधिज्ञानना असंख्य' भेदो छे तेमां सामान्ये करी छ भेदो छे, जघन्यथी अवधिज्ञानहुँ क्षेत्र सूक्ष्म पनकनी अवगाहना ( शरीर प्रमाण जेटलुं छे अने उत्कृष्टथी असंख्य लोक प्रमाण छे. ॥१॥ लोचननी माफक साथे रहेवू ते ' अनुगामिक' नामना अवधिज्ञाननु तेज छे. एक जीवने अपेक्षी उत्कृष्ट अवधिज्ञाननी स्थिति छासठ सागरोपमथी वधारे छे. ॥२॥ (पहेलो भेद )। नही विकार पामेलो (मिथ्यात्वकृत मालिन्य रहित) एवो अवधिज्ञाननो गुण जे जीवोने उत्पन्न थयो छे ते जीवोने एक श्वासमा सो वखत मारी वन्दना १ कालनी अपेक्षाए अथवा क्षेत्रनी अपेक्षाए, द्रव्य अथवा पर्यायनी अपेक्षाए अनन्ता भेदो पण छे. २ उपलक्षण सो पद छे तेथी हजार लक्ष कोटी असंख्य अने अनंतीवार वन्दना थाओ. Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२९) थाओ. ॥ ३ ॥ जे क्षेत्रमा अवधिज्ञान उत्पन्न थयुं होय तेटलाज क्षे. त्रमा रह्यो थको पदार्थो देखे ते अननुगामि अवधिवालो जाणवो, ते 'अननुगामी ' ज्ञान स्थिरदिवानी उपमाने पामे छे ॥ ४॥ (बीजो भेद )॥ अंगुलना असंख्यातमा भागथी अनुक्रमे वधतुं वधतुं असंख्य लोक प्रमाण वृद्धि पामे छे ते तथा लोकावधि परमावधि विगेरे 'वर्धमान' अवधिज्ञान कहेवाय छे. ते गुण वांछा उत्कट थवाथी थाय छे. ॥५॥ (जीजो भेद )॥ योग्य सामग्री न होवाने लीधे घटता परिणाम थवाश पूर्वप्राप्ति करतां नीचे नीचे घटतुं जाय ते 'हीयमान' अवधिज्ञान कहेवाय छे. ए मननुं कार्य छे. ॥ ६॥ ( चोथो भेद )। संख्याता असंख्याता योजन सुधी यावत् उत्कृष्ट लोकान्त सुधीना एकला पुद्गल द्रव्यो देखी (तेटलुं ज्ञान थइने पार्छ) पडिवाइ थाय ते 'प्रतिपाति' ज्ञान कहेवाय छे. ॥ ७ ॥ (पांचमो भेद )। जे अवधिज्ञान अलोकनो एक प्रदेश देखे ते 'अप्रतिपाति' कहेवाय छे. ते अवधिज्ञान अनुक्रमे केवल ज्ञान ( अवश्य ) आपे छे. ॥८॥ (छठो भेद)॥ ॥ श्री मनःपर्यवज्ञानना चैत्यवन्दननो अर्थ ॥ चतुर्थ श्रीमनःपयर्वज्ञान छे, गुणनिमित्ते थनारं ते ज्ञान अप्रमत्त ऋद्धिना निधान चारित्रधारी कोइक मुनिने शुभपरिणामनी Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३०) वृद्धि थवाथी संयम गुणठाणे (सातमे) होय छे. तेम जाणो. 'साकारोपयोगना स्थानक ते ज्ञानथी मनना पर्यायोने निश्चये करी जाणे छे, विचारणामां आवेला मनोद्रव्यना अनन्ता स्कन्धो जाणे छे पण (ग्रहण कर्या विनाना मात्र) आकाशमा रहेला मनोवगणाना द्रव्यने जाणता नथी ॥ १ ॥ २ ॥ ३ ।। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवे काय योगे ग्रहण करेला अने मनोयोगवडे मन पणे परिणमावेला मनोद्रव्य, मनःपर्यव ज्ञानी जाणे छे ॥ ४ ॥ मनुष्य क्षेत्रमा तीर्छ अढीद्वीप सुधी देखे छे, अधो लोकमा तिर्छालोकना मध्यभागी एक हजार योजन देखे छे, ॥ ५ ॥ ऊर्यलोकमा ज्योतिश्चक्र सुधी (९०० योजन ) जाणे छे. कालथी पत्योपमना असंख्यातमा भाग जेटला काळ सुधीना अतीत अनागत पदार्थोना पर्यायो जाणे छ. ॥ ६ ॥ भावथी चिन्तवेला द्रव्यना असंख्याता पर्यायो जाणे छे. ऋजुमति मन:पर्यव करतां विपुलमति मनःपर्यववालो वधारे भावो वर्णवे छे (जाणे छे.)॥७॥ (चिन्तववामां आवेला) मनना पुद्गलो जोइने अनुमाने करी सत्य पदार्थ (वात) ग्रहण करे छे, जे (मनःपर्यवज्ञान ) असत्यपणाने पामतुं नथी ते ज्ञानमां माझं मन आनन्द पाम्युं छे. ॥ ८ ॥ अरूपिपदार्थोंने प्रत्यक्षपणे ज्ञानादिलक्ष्मी वडे पूज्य एवा भगवंतो (जिनेश्वर) . १ मन:पर्यव संबन्धी दर्शन नथी. तेने प्रथमथी ज्ञानन थाय छे. २ द्रव्यथी मन: पर्यायना विषयतुं स्वरूप कहे छे. ३ क्षेत्रथी स्वरूप. Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३१) जाणे छे. विजयलक्ष्मी गुणना निधन एवा ते परमात्माना चरणकमलने हुं नमस्कार करु . ॥९॥ ॥ श्रीमनःपर्यवज्ञानना स्तवननो अर्थ ॥ श्रीजिनेश्वर अरिहंत भगवान पोतपोताना ज्ञान (अवधि ) थी संयमना अवसरने जाणे छे. ते वखत लोकान्तिक देवताओ आवी मानपूर्वक ' हे नाथ ! तीर्थ प्रवर्त्तावो' ए प्रमाणे कही प्रभुने नमस्कार करे छे. (पछी प्रभु ) छ 'अतिशयवाला वार्षिक दानने १ तीर्थकर महाराजा यद्यपि अनंत बलना धणी छे, तोपण भक्ति होवाने लीधे प्रभुने श्रम न थाय माटे, दान आपती वखते सौधर्मेन्द्र प्रभुना हाथमां द्रव्य आपे छे ॥ १॥ चोसठ इन्द्रो शिवाय बीजा देवोने दान लेता निवारवा माटे तथा लेनारना भाग्यमां जेवू होय तेवुज तेना मुखमांथी बोलाववा (प्रार्थना कराववा) माटे ईशानेन्द्र सुवर्णयष्टि लइ प्रभु पासे उभा रहे छे ।। २॥ प्रभुना हाथमा रहेला सोनयामां चमरेन्द्र अने बलीन्द्र लेनारनी इच्छानुसार न्यूनाधिकता करे छे एटले के याचकनी इच्छाथी (भाग्यथी) अधिक होय तो न्यून करे छे अने न्यून होय तो अधिक करे छे ॥शा भरतखंडमां उत्पन्न थयेला मनुष्योने बीजा भुवनपतिओ दान लेवा माटे दूर दूरथी खेंची लावे छे ॥ ४ ॥ दान लइ पाछा वलनार लोकोने व्यन्तर देवो निर्विघ्नपणे स्वस्वस्थाने पहोंचाडे छे ॥५॥ ज्योतिष्क देवो विद्याधरोने दाननो समय जणावे छे ॥ ६ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३२ ) ( आपे छे. ते दान ) लइने देवो तथा मनुष्यो हर्ष पाम छे. ॥ १ ॥ ॥ २ ॥ आ विधिए करी सर्व अरिहंत भगवन्तो ज्यारे सर्वविति ( चारित्र) उच्चार करे छे ते वखते निर्मल मनःपर्यवज्ञान तेमना आत्माने अनुसरे छे (पामे छे). || ३ || जे मुनिओने विपुलमतिमनः पर्यव ज्ञान उत्पन्न थाय छे ते अमतिपाती होय छे.आ चोथुं ज्ञान अप्रमत्त ऋद्धिवन्त गुणस्थानके जाणवुं ॥ ४ ॥ चोवीश जिनेश्वर भगवन्तना 'एकलाख पीसतालीश हजार पांचसे ने एकां मनः पर्यवज्ञानी मुनिराजोने जाणी तेमने वखाणीए || ५ || जे ज्ञान मनना सर्व संशयोनो नाश करे छे ते ज्ञानने हुं स्नेह धारण करीने वन्दन करुछु. विजयलक्ष्मी, कल्याणकारी भाव विगेरे अनुभव ज्ञानना अनेक गुणो छे. ॥ ६ ॥ १ ऋषभ - १२७५०, अजित - १२५००, संभव - १२१५०, अभिनंदन - ११६५०, सुमति - १०४५०, पद्मप्रभ - १०३००, सुपार्श्व - ९१५०, चंद्रप्रभ - ८०००, सुविधि - ७५००, शीतळ - ७५००, श्रेयांस - ६०००, वासुपूज्य - ६०००, विमल - ५५००, अनन्त५०००, धर्म - ४५००, शान्ति - ४०००, कुन्धु - ३३४०, अर - २५५१, मल्लि - १७५०, मुनिसुव्रत - ११००, नमि- १२५०, नेमि - १०००, पार्श्व - ७५०, वर्धमान - ५००, कुल - १४५५९१ मनःपर्यवज्ञानीओनी संख्या छे Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्री मनःपर्यवज्ञाननी स्तुतिनो अर्थ ॥ तीर्थकर प्रभु अभिमानने निवारण करी सिद्ध भगवन्तोने नमस्कार करी सर्वविरति सामायिकनो उच्चार करे छे, अने ज्यां सुधी छद्मस्थ अवस्था रहे छे त्यां सुधी योगासन अने तप धारण करे छे. ते वखते मनुष्यक्षेत्रमा विस्तार पामनारुं चोथु मनःपयव ज्ञान तेओ प्राप्त करे छे. विजयलक्ष्मी अने सुखने करनारा ते प्रभुने हे भव्यमाणि ! तमे नमस्कार करो. ॥ १ ॥ ॥श्री मनःपर्यवज्ञानना दुहानो अर्थ. ॥ संयम गुणनी शुद्धता पामवाथी थनारुं संज्ञि जीवना मनोगत पदार्थोने जे प्रकट रीते विशुद्धपणे जाणे छे ते मनःपर्यव ज्ञान कहेवाय. ते ज्ञान बे भेदे छे ॥ १॥ आ पुरुषे घडो चिन्तव्यो छे एम सामान्य धर्मे जाणे-घणुं करीने विशेष धर्मथी शून्य जाणे ते ऋजुपति मनःपर्यव जाणवू ॥२॥ (पहेलो भेद ) ॥ सर्वविरति गुणस्थानकने विषे आ (मनःपर्यव ज्ञानरूप) गुण जे मुनिओने उत्पन्न थयो छे ते मुनिओना चरणकमलने प्रेमथी मनमा धारण करीने हुं नमस्कार करुंछ. ॥३॥ अमुक नगरनो, अमुक जातिनो, सुवर्णनो, आवा स्वरूपवालो घट चिन्तव्यो छे, एम विशेष धर्मवाला मनने जाणे ते विपुलमतिनुं स्वरूप जाणवू ॥ १ ॥ (बीजो भेद )॥ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३४) ॥श्री केवलज्ञान संबंधी चैत्यवन्दननो अर्थ ॥ श्री जिनेश्वर प्रभु चार ज्ञानी थइ शुक्ल ध्यानना अभ्यासे करी अधिक अधिक आत्मस्वरूपने क्षणे क्षणे प्रकाशे छे. ॥ १ ॥'मु. षुप्ति (निद्रा), स्वम, अने जागृत ए त्रण दशा दूर थाय छे अने चोथी जे उज्जागर दशा तेहना अनुभवने जुए छे ॥ २ ॥ अपूर्व शक्तिना संबन्धथी क्षपक श्रेणिए चढी, चाथा ( संज्वलन ) कषायना वियोगे करी बारमुं ( क्षीणमोह , गुणठाणुं पामी, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय ने अन्तराय ए चार दुष्ट निबिड घातिकर्मनो क्षय करी, परमात्मजाति थया छे. ॥ ३ ॥ ४ ॥ सर्ववस्तुमां बे धर्म १ मिथ्यादृष्टि जीवोने अतिशय शयन करवारूप सुषुप्ति नामनी प्रथम अवस्था होय छे ॥१॥ शयनरूप बीजी स्वप्न अवस्था सम्यग्दृष्टि जीवोने होय छे ॥२॥अप्रमत्त मुनिने त्रीजी जागृत अवस्था होयछे।।३॥ अने चोथी उज्जागर दशा अनुभवनी वृद्धिथी आगल आगल चढतां यावत् सयोगि केवलि गुणठाणा सुधी होय छे. ॥४. प्रथमनी सुषुप्ति अवस्था मोह मूढ आत्माने थती होवा थी अनुभववन्त महात्माओने ते नथी होती, तेमज बीजी स्वप्न अने त्रीजी जागर दशाओ पण कल्पनामां गुंथायेला जीवोने उत्पन्न थती होवाथी कल्पना वर्जित अनुभवि महात्माओने होती नथी.मात्र अनुभव ज्ञानमां तो चोथी उज्जागर दशाज होय छे. कहुं छे के. नसुषुप्तिरमोहत्वान्नापि च स्वापजागरौ ॥ कल्पनाशिल्पविश्रान्तेस्तुर्या चानुभवे दशा ॥१॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३५ ) छे, तेनो प्रभुने समयान्तर उपयोग छे, ( तेथी ) पहेला समये विशेपपणे जाणे छे अने बीजे समये सामान्य धर्मनो सम्बन्ध होय छे. || ५ || सादि अनन्त भांगाए करी अनन्त दर्शन, ज्ञान अने तेरमुं गुणठाणं पामीने भावजिनेन्द्र जयवंता वर्ते छे || ६ || ( ते वखते ) कर्मनी मूळ (आठ) प्रकृतिमांनी एक ( वेदनीय) प्रकृतिनो बन्ध याय छे अने सत्ता तथा उदयमां चार ( वेदनीय, नाम, गोत्र ने आयु) प्रकृति होय छे. उत्तर प्रकृति १२०) मांथी एक (शाता) नो बन्ध होय छे, उदयमां (१२२ मांथी) बेताळीश प्रकृति रहे छे, ||७|| सत्ता ( १४८ मांथी ) पंचाशी प्रकृतिनी छे. ( ते वखते ) कर्म बाळेली दोरडीना छार जेवा होय छे. जे प्रभुना मन वचन कायाना योगो अचल तथा विकार रहित छे, तेओ सयोगि केवलिनी दशाने प्राप्त करी ते दशामां विचरे छे. केवलज्ञानना अक्षय विजय लक्ष्मीरूप गुणो कद्देवाय छे. ( अथवा विजयलक्ष्मी सूरि अक्षय केवल ज्ञानना गुणो कहे छे.) ॥ ८ ॥ ९॥ ॥ श्री केवलज्ञानना स्तवननो अर्थ ॥ श्री जिनेश्वर भगवंतने क्षायिकभावे प्रगट थयेलुं ज्ञान तथा 'अढार दोषनो नाश थवाथी उत्पन्न थया जे गुणो ते प्रमाण छे. १ हास्य, रति, अरति, भीति, जुगुप्सा, शोक, काम, मिथ्यात्व, अज्ञान, निद्रा, अविरति, दानान्तराय, लाभान्तराय, वीर्यान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय, राग, द्वेष, ए १८. अथवा अज्ञान, क्रोध, मद, मान, लोभ, माया, रति, अरति, निद्रा, शोक, अलीक, चौर्य, मत्सर, भय, प्राणिवध, प्रेम, क्रीडाप्रसंग, हास्य, ए १८ दोष जाणवा. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२३१) (यथार्थ छे) हे भव्यजीवो ! तमे केवलज्ञानने वन्दना करो. पंचमीनो दिवस गुणनी खाण छे. ॥ १॥ अनामी प्रभुना नाम संबंधी शो विशेष कहेवाय ? परंतु ते (विशेष) 'मध्यमा तथा वैखरी (भाषाना भेदो) वडे वचनना उल्लेखमा स्थापन करी शकाय. ॥ २ ।। हे प्रभु ! आप ध्यान अवसरे लक्ष्यमां न आवी शको तेवा अगोचर स्वरूप थाओछो, तोपण मुनिना राजा (योगि महात्माओ) परा तथा पश्यन्ती (भाषाना भेदो) पामीने तेनो काइक निश्चय करे छे. ॥ ३ ॥ ज्ञाननी विद्यमान जे सत्पर्यायो ते तो पलटाती नथी, परन्तु ज्ञेय ( विषय ) नी जुदी जुदी नव पुराणादि सर्व वर्तनाओ एक समयमां जणाय छे. ।। ४ ॥ बीजा (मत्यादि चार ) ज्ञाननी सर्व प्रभानो आ ज्ञानमा समावेश थइ जाय छे. केमके सूर्यना तेजथकी नक्षत्रादि ज्योतिष्चक्रनो समूह कांइ अधिक नथी ॥५॥ ज्ञानना अनन्ता गुण १ आ चार भाषानुं स्वरूप जुदा जुदा रूपे आ नीचे लखेल श्लोकोथी अन्य ग्रन्थोमा प्रतिपादन कर्यु छे.. वैखरी शक्तिनिष्पत्तिमध्यमा श्रुतिगोचरा ॥ द्योतितार्था तु पश्यन्ती सूक्ष्मा वागनपायिनी ॥ १ ॥ मूलाधारात् प्रथममुदितो यस्तु तारः पराख्यः । पश्चात्पश्यन्त्यथ हृदयगो बुद्धियुष्यमाख्यः॥ वके वैखर्यथ रुदिषोरस्य जन्तोः सुषुम्णा । बद्धस्तस्माद्भवति पवनप्रेरितो वर्णसङ्घः ॥ १॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३७) जे जाणे छे तेज धन्य पुरुष, ज्ञान अने महान् उदयना मन्दिर समान विजयलक्ष्मी देवीने प्राप्त करे छे. ॥६॥ ॥ श्री केवलज्ञाननी स्तुतिनो अर्थ. ॥ - त्रण छत्र, चापर, सुखकर्ता अशोकवृक्ष, देवध्वनि, दुंदभि (देव वाजित्र), तेजेकरी झलहळतुं भामंडल, देवकृतपुष्पनी दृष्टि अने सिंहासन ( ए आठ प्रधान प्रातिहार्यो )जिनेश्वर प्रभुना छे. तेज प्रभुना उदार केवलज्ञानने विजयलक्ष्मीसूरि वन्दना करे छे. ॥ १ ॥ ॥श्री केवळ ज्ञानसंबंधी दुहानो अर्थ. ॥ बहिरात्मपणानो त्याग करवाथी अन्तरात्म स्वरूपने अनुभवी.जे परमात्मा थाय छे तेमना ज्ञान स्वरूपनो एकज भेद छे. ॥१॥ पुरुषोमा उत्तम परमेश्वर स्वस्वभावनी रमणतानुं सुख भोगववारूप परमानन्द उपयोगे करी सर्व पदार्थोने विशेष धर्मे करी तथा सामान्य धर्मे करी जाणे छे. ॥ २ ॥ प्रतिपादन कर्यु छे भव्य तथा अभव्य. पणुं जेमणे एवा त्रिकाल स्वरूपने जाणनारा जिनेश्वर परमात्मा गुणपर्यायोना अनंतपणावाला सर्व द्रव्योने जाणे छे. ।। ३ ।। असंख्य प्रदेशी आत्माना एक प्रदेशमा पण, अनन्ता अलोकाकाशने उपाडीने लोकाकाशमा स्थापन करवाने समर्थ थवाय तेवू अनन्तु प्रशस्त वीर्य रहेखें छे. ॥ ४ ॥ कल्याणरूप विजयलक्ष्मीने प्राप्त करवा माटे ज्ञानपंचमीने दिवसे केवलदर्शन तथा केवलज्ञानना चिदानंद स्वरूप तेज:पुंजनी पूजा करीए ॥ ५ ॥ ॥ इति श्री विजयलक्ष्मीसूरिकृत ज्ञानपंचमीना देववंदननो अर्थ सपूर्ण.॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३८ ) ॥ उजमणानो विधि. ॥ कोइपण प्रकारना तप संबंधी फळनी वृद्धि माटे उद्यापन करवानी आवश्यकता छे. उद्यापन ( उजमणुं ) करवाथी तपनुं फळ वृद्धि पामे छे. अन्य दर्शनोमां पण तपनुं उद्यापन करवानी प्रवृत्ति छे. उजमणं तप पूर्ण थया पछी करवामां आवे छे तेमज तपना मध्यमां पण करी शकाय छे. तप पूर्ण थया पछी पण ज्यां सुधी उजमणं करवानी जोगवाइ प्राप्त न थाय त्यां सुधी केटलाक भव्यो तप करवानुं चालु राखे छे अने पहेली जोगवाइए अवश्य उजमणुं करे छे. उजमणुं करवामां सारां शक्तिवाळा - श्रीमंत गृहस्थ तो पोते एकलाज करे छे. अने ते प्रसंगे कोइपण तीर्थनी के समवसरणनी रचना करी अठ्ठाइ महोत्सव करे छे. अने स्वामीवात्सल्यादि पण पोतेज करे छे. बीजा सामान्य स्थितिवाळाओ ते प्रसंगनो लाभ लइने पोते करवा धारेला एक बे के पांच छोड तेनी साथेनी वस्तुओ सहित ते मंडपनी अंदरज पधरावे छे. उजमणुं करवामां मुख्य तो चंदरवो, पुठीयुं, तोरण ने रुमाल - अतलस, साटम, कीनखाब, लपेटो अथवा झीक चळक विगेरेना भरावीने कराववामां आवे छे. उपरांत बीजी जे जे वस्तुओ मुकवामां आवे छे तेमां ज्ञान, दर्शन ने चारित्रना उपकरणो मुकवामां आवे छे. तेनी अंदर जो ज्ञानना आराधन निमित्तनुं उजमणं होय छे तो ज्ञानना उपकरणों, दर्शनना आराधन निमित्तनुं होय तो दर्शनना उपकरणो अने चारित्रना आराधन निमित्तनुं होय तो चारित्रना उपकरणो Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __(२३९) विशेष मुकवामां आवे छे. दर्शन एटले समकित तेना आराधनमा प्रबळ कारणभूत जिनचैत्य ने जिनबिंब समजवा. एटले ते संबंधी उजमणामां देरासरमा वपराता उपकरणो विशेष मुकवा. ज्ञानपंचमीना उजमणामां छोड तेमज वस्तुओनी संख्या जघन्ये पांच, मध्यमे पचवीश ने उत्कृष्टे एकावन मुकवामां आवे छे. अथवा तो किंमतना प्रमाणमां वधारे किंमतवाळी पांच, मध्य किंमतवाळी पचवीश अने सामान्य किंमतवाळी एकावन मुकवामां आवे छे. ॥ उजमणा निमित्ते मुख्य करवाना कार्यो. ॥ १ पांच नवां चैत्यो कराववा. २ पांच पांच रत्ननी, सुवर्णनी, धातुनी, हीरानी, माणेकनी, मोतीनी, नीलमनी, परवाळानी, स्फटिकनी, आरसनी-एम उत्तम उत्तम अने किंमती वस्तुओनी प्रतिमाओ नवी भराववी. ३ पांच अंजनशलाकाओ कराववी. ४ पांच पोसहशाळाओ ( उपाश्रय ) कराववी. ५ पांच दीक्षा महोत्सव करवा. ६ पांच वढी दीक्षाना, पन्यास पदवीना अने आचार्य पदवीना महोत्सवो करवा. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४० ) ७ पांच वखत संघ काढी तीर्थयात्रा करवी - कराववी. ८ पांच महातीथानी यात्रा करवी. ९ पांच मोटा स्वामीवात्सल्य ( नवकारशी ) करवां. १० पांच जैन शास्त्रोनो अभ्यास करावनारी जैन विद्याशाळाओ स्थापवी. ११ पांच चैत्योपर ध्वजारोपण दंडकळशारोपण करवां. १२ श्री संघने ( श्रावक श्राविकाओने ) पहेरामणी करवी. १३ श्रीफळादि उत्तम उत्तम वस्तुओनी प्रभावनाओ करवी. उपर वतावेळी सर्व करणी श्रीमंत गृहस्थे तेमज राजा अने दीवान विगेरे जो ए तप करता होय तो तेमणे उजमणाना प्रसंगे करवानी आवश्यकता छे तेमज उजमणामां मुकवानी वस्तुओमां पण शक्ति अनुसार सोनानी, चांदीनी, जर्मन सील्वरनी तेमज अन्य धातुनी' वस्तुओ मुकवी; तेमज वस्त्रादि पण किंमत अनुसार कशधी, रेशमी तेमज सुतरु मुकवा. १ ॥ उजमणामां मुकवानी वस्तुओ. ॥ ( ज्ञाननां उपकरणो. ) १ पुस्तक ( जैन सिद्धातो, पंचांगी, ग्रंथो विगेरे लखाबीने मुकवा अथवा छपावेली उपयोगी बुको मुकवी. ) १ लोढानी कॉइपण वस्तु न मुकवी. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४१) २ ठवणी, (सोनानी, रूपानी, रसेली के चंदनादि काष्टनी करावषी) ३ कवळी', ४ सापडी, ५ सापडा, ६ लेखण,(कांठा, वत. रणा) ७ छरी, ८ कातर, ९ पुस्तक राखवाना डाबला, १० डाबली, ( नवकारवाळी राखवानी)११ खडीआ, १२ पाटी, (शास्त्री पांच कका लखेली) १३ चाबखी, (पाठांमां नाखवामां आवे छे ते)१४ कागळ, १५ कांबी, १६ स्लेट,१७ पेन्सील होल्डर विगेरे,१८ पाठा, ( भरेला अथवा सादा ) १९ पाटलीओ, २० पुस्तक बांध. वाना रूमालो. (दर्शनना उपकरणो.) १ सिद्धचक्र (सोनाना, रुपाना अथवा धातुना), २ अष्ट मंगाळक, ३ सिंहासन ( मोटा अथवा नाना) ४ बाजोठतुं त्रीगडं (त्रण त्रण नाना मोटा बाजोठ-रुपे के जर्मने मढेका, पातळना अथवा काष्टना रंगेला), ५ कळश,६ध्वजा,७छत्रना त्रीक रुपाना, ८ चाम्मर, ९ थाळ,१० रकाबी,११ खुमचा,१२ वाटका (केशर भरवाना प्याला), १३ बाटकी, १४ कळशा,१५ टबुडी,१६ फुलछाबडी, १७ धूपधाणा, १८ आरति, १९ मंगळदीवा, २० डाबडा. केशर भरवाना, २१ वासकुंपी ( धूप भरवाना डाबला), २२ दीवी, २३कंकावटी, २४ फानस,२५ त्रांबाकुडी,२६ नानी कुंडी, २७ आचमनी, २८ चमचा,२९ थाळी, ३० हांडा, ११ बोघटा, ३२ घंट, १३ झालर, ३४ घंटडी, ३५.बाजोठी, ३६ पाटला, ३७ दर्पण (काच), ३८ सिद्धचक्रना अने १ पुस्तक फरती वीटाव छ. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४२) चोवीशीना रंगीत गटाओ, ३९ पाटलुणा, ४० अंगलुहणा, ४१ वाळाकुंची, ४२ ओरशीआ, ४३ सुखडना ककहा, ४४ केशरना अने परासना पडीका, ४५ धूपना-अगरबत्तीना पडीका, ४६ डंडासण, ४७ मोरपीछी, ४८ पुंजणी, ४९ रेशमी सावरणी, ५० नरघां अथवा मृदंग, ५१ कांशी जोडा, ५२ उत्तम जातिना वाजीत्रो, १३ पुरुषने पहेरवाना पूजाना वस्त्रोनी जोड (धोतीयुं, उत्तरासण, रुमाल ), ५४ स्त्रीओना पूजाना वस्त्रो, ५५ कामढी, ५६ तोरण (गर्भगृहे बांधवाना-चांदी सोना विगेरेना), ५७ मुगट, कुंडल, बाजुबंध, कडली, सांकळां, कंदोरा, बीजोरा, कंठो [अंश], हार, कलगी विगेरे जिनबिंबना आभूषणो, ५८ चक्षु, तिलक, चांडला विगेरे, ५९ सोना चांदीना वरख,कटोरा, बाडलुं विगेरे, ६० हिंगळोकना पडीका (चारित्रनां उपकरणो.) साधु मुनिराजना उपयोगमां आवे तेवां-१ ओघा (पाठा, दशी, दांडी,निशीथीया,ओघारीया सहित तैयार करेला),२मुहपत्ति, ३ चोळपट्टा ४ कपडा, ५ खभे नाखवानी कामळी,६ओढवानी कामळी,७ झोळी, ८ पल्ला, ९ कटासणा (संथारीया),१० डांडा, ११ पात्रानी जोड, १२ तरपणी, १३ चेतना, १४ लोट ( मोटो काष्टनो पाणी भरवानो), १५ नानी सुपडी, १६ नानी पाटली,१७नानी चरवळी, १८ डंडासण ( पग लुंछवाना ने रात्रे वापरवाना), १९ स्थापनाचार्य, २० स्थापनाचार्यनी मुहपत्तिओ विगेरे, २१ गुच्छा, २२ वासक्षेपना वावटा, २३ दोरा विगेरे करवाना दोरा. १ तंबोळादि माटे राळ तैयार करवा. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४३ ) श्रावकना उपयोगमां आवे तेवां - १ चरवळा, २ मुहपत्ति ३ कटासणा, ४ नवकारवाळी (सोनानी, चांदीनी, परवाळानी, स्फटिकनी, अकलबेरनी, सुखडनी, सुतरनी, अगरनी, केरवानी, रुद्राक्षनी विगेरे.) ५ धोतीआ, ६ उत्तरासण, ७ घडी, ८ घडयाळ, ९ पांचपदनी टीप १० नवपदनी टीप, ११ देरे लइ जवाना वावटा, १२ झोरणी १३ नवकारवाळीनी खलेची. त्रणेना मिश्र उपकरणो. ज्ञाननी पाछळ, प्रभुनी पाछळ तेमज गुरुनी पाछळ बंधाय तेवा तेज तेनी साज कराववामां आवे छे तेवा उपकरणाने मिश्र उपक रणगणवामां आव्या छे. १ पुंठी, २ झरमर चंदुओ, ३ तोरण, ४ रुमाल. आ चार वानांनी साथेज पाठां, पाटली, वावटा, झोरणी, खलेची, कवळी, चाबखी, देरे लइ जवानी कोथळी विगेरे कराववामां आवे छे ने ठवणी बंधाववामां आवे छे. आ सघळी चीजोनी संख्या ज्ञानपंचमी तपना उजमणा माटे उपर जणावी छे. उपरांत नवपदनुं उजमणं होय तो नव नव, मौन अग्यारशनुं होय तो अग्यार अग्यार ने वीश स्थानक तपनुं होय तो वीश वीश, कर्मसूदन तपनुं होय तो आठ आठ अथवा चोसठ चोसठ एप्रमाणे समजवी. उजमणुं करवायी तपना फळनी वृद्धि थवा संबंधी श्री प्रवचन सारोद्धारादि ग्रंथोमां कहां छे तेमज श्री पद्मविजयजी महाराज नव पदनी पूजामां अने श्री वीरविजयजी चोसठ प्रकारी पूजाना कळशमां काव्या छे. माटे तपस्याने प्रांते अवश्य यथाशक्ति उजमणुं करं. Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (244) ज्ञानपंचमी तपना त्रण प्रकार. आ तप केटली मुदत सुधी करवो तेना प्रमाणने अंगे तेना त्रण प्रकार छ, लघु पंचमी तप, उत्कृष्ट पंचमी तप. 1 लघुपंचमी तप-आ तप पोस अने चैत्र मास वर्जीने बीजा कोइपण मासनी शुक्लपंचमीथी शरु करवो. अने दरेक मासना शुक्ल ने कृष्ण बने पक्षमा पंचमीने दिवसे उपवास करवो. ए प्रमाणे एक वर्ष पर्यंत 25 उपवास करवा. बीजी विधि अने उजमणुं विगेरे ज्ञानपंचमीना तप प्रमाणे करवू. 2 ज्ञानपंचमी तप-आ तप मागशर, माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ट अने अशाड ए छ मासमाथी कोइपण मासनी शुक्लपंचमीए ग्रहण करवो अने पांच वर्ष ने पांच मास पर्यंत करवो. एटले 65 उपवासे आ तप पूर्ण थाय छे. आ तपन प्राये विशेष करवामां आवे छे. ते. दर मासनी शुक्लपंचाएज करवामां आवे छे. तेनी विधि आ बुकना प्रारंभमांज लखवामां आवी छे. जो ए उपवासने दिवसे पोसह करवामां न आवे तो जिनभक्ति सविशेषे करवी. पंचज्ञाननी पूजा भणाववी. फळ नैवेद अनेक प्रकारना उत्तम उत्तम प्रभु पासे ढोवा अने पछी चैत्यवंदन स्तरनादि वडे भाव पुजा करवी. 3 उत्कृष्ट पंचमी तप-आ तप यावज्जिवित करवामां आवे छे. अने दरेक शुक्लपंचमीए उपवास करवामां आवे छे. तेनो विधि पूर्वे बताव्या प्रमाणेज छे.