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696969696969696YRRY
16 आगमोद्धारकग्रन्थमालाया विशं रत्नम् ।
ॐ नमो जिनाय ।
आगमोद्धारक आचार्य प्रवरश्री-आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः । चिरन्तनाचार्यविरचितः स्वोपज्ञविवरणमण्डितः
प्रतयः ५०० ]
वीर संवत् २४८८
उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्यायः
गुरुतत्त्व प्रदीपः ।
गुरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलसमन्वितः
136
పిక్
संशोधक :
प. पू. गच्छाधिपति आचार्य श्रीमन्माणिक्य सागरसूरीश्वर शिष्यः शतावधानी मुनिलाभसागरः
1*1
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[मूल्य २-५०
वि. सं २०१८
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मीठाभाई कल्याणचंद पेढी कपडवंज (जि. खेडा)
卐
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द्रव्य सहायक
श्री जैन श्वे. मू. तपगच्छ संघ, इतवारी, नागपुर.
卐
-
मुद्रकछनालाल डी. शाह सर्वोदय प्रिंटिंग प्रेस, सुभाष रोड, नागपुर,
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55555555555555555555555
आगमोद्धारकग्रन्थमालाया विशं रत्नम् ।
ॐ नमो जिनाय ।
आगमोद्धारक-आचार्य प्रवरश्री-आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः । चिरन्तनाचार्यविरचितः स्वोपज्ञविवरणमण्डितः
उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्यायः
गुरुतत्त्व प्रदीपः।
गुरुतत्वव्यवस्थापनवादस्थल
समन्वितः
संशोधक : प. पू. गच्छाधिपति-आचार्य-श्रीमन्माणिक्यसागरसूरीश्वरशिष्यः
शतावधानी मुनिलाभसागरः
प्रतयः ५०० वीर संवत् २४८८
[मूल्य २-५० वि. सं २०१८
451445454545156145146147457467455:46145456457494545454555645645745
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प्रकाशकीय निवेदन ।
प. पू. गच्छाधिपति आ. श्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजी महाराज आदि ठाणां वि. सं. २०१० ना वर्षे कपडवंज शहेरमां मीठाभाई गुलालचन्दना उपाश्रये चातुर्मास बीराज्या हता । आ अवसरे तेओश्रीना पवित्र आशीर्वांदे आगमोद्धारक ग्रन्थमालानी स्थापना थएली हती. आ ग्रन्थमालाए त्यारबाद प्रकाशनोनी ठीकठीक प्रगति करी छे.
तेओश्रीनी पुण्यकृपाए आ उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरनाम "गुरुतत्त्वप्रदीप" नामना ग्रन्थने आगमोद्धारक ग्रन्थमालाना २० मा रत्नतरीके प्रगट करतां अमने बहु हर्षथाय छे.
__ आनी प्रेसकोपी स्वर्गस्थ गणिवर्यश्री चन्दनसागरजी महाराजजीए अने मुनिराजश्री सौभाग्यसागरजी महाराजजीए करेली छे तेमज आनें संशोधन प. पू. गच्छाधिपति आ. श्री. माणिक्यसागरसूरिजीनी पवित्रदृष्टिनीचे मुनिराजश्री लाभसागरजीए करेल छे. ते बदल तेओश्रीनी तेमज जेओए आना प्रकाशनमां द्रव्य तथा प्रति आपवानी सहाय करीछे ते बधानो आभार मानीए छीए
लि.
प्रकाशक
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किचिद् यक्तब्य । चिरन्तनाचार्यविरचित स्वोपज्ञ विवरणथी अलङकृत उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरनाम 'गुरुतत्त्वप्रदीप' नामनो ग्रन्थ 'गुरुतत्वव्यवस्थापनवादस्थल'सहित जिनागमना रसिक एवा बुधजनोना करकमलमा अर्पण करवामां आवे छे.
बीजा केटलाक पू. ग्रन्थकारनी जेम आ पू. ग्रन्थकारे पण पोतानु पुण्य नामादि जणावेल नथी परंतु पूज्यश्री जिनशासनना रागथी रंगायला तेमज सातिशय ज्ञानवंत हता ए वांचनारने सहज प्रतीत थाय तेम छे । सत्तासमय-पू. ग्रन्थकारना सत्तासमयसंबन्धमा पू. ग्रन्थ कार पोते आ ग्रन्थना
८ मा विश्रामना १४ मा 'एतत्तु क्षेमकीाद्य०' श्लोकमा जणावे छे, के-गुरुशिष्यना क्रमवालु आगमानुसार आ चारित्र आचार्यश्री विजयचन्द्रसरिजीना शिष्य आचार्यश्री क्षेमकीतिसूरिजी विगेरेमा छे. आ उपरथी आ पू. ग्रन्थकार आचार्यश्री क्षेमकीतिसूरिजीना समयमां थया छे ए सिद्ध थाय छे. आचार्यश्री क्षेमकीतिसूरिजीनो सत्तासमय विक्रमनी १४ मी शताब्दी छे तो
आ ग्रन्थकारनो सत्तासमय पण विक्रमनी १४ मी शताब्दी छे विषय-आमां स्वपक्ष तपगच्छन स्थापन अने दिगम्बर-पूनमीया आदि
परपक्षोनु आगम अने युक्तिपूर्वक मध्यस्थताथी निरसन
करवामां आव्यु छ. विशेष विषयानुक्रमथी जाणवो. प्रामाण्य-आ ग्रन्थना घणा श्लोको महोपाध्याय श्रीमद्धर्मसागरगणिवरे
पोतानां तत्त्वतरङ्गिणी,प्रवचनपरीक्षा विगरे ग्रंथोमा साक्षी तरीके
उद्धरेला छ. आ उपरथी आ ग्रन्थ- प्रामाण्य प्रतीत थाय छे. संशोधनमा शासनकण्टकोद्धारक गणिवर्यश्री हंससागरजी महाराजजीना शिष्यरत्न ज्योतिविद् मुनिराजश्री नरेद्रसागरजी महाराजजीए आ ग्रन्थनी स्वहस्तलिखित ४ बुको अमोने आपी हती. तथा एक प्रति श्रीहेमचन्द्राचार्यजनज्ञानमन्दिर पाटणनी साहित्यसंशोधननिष्णात विद्वद्वर्य मुनिराजश्री पुण्यविजयजी महाराजजी द्वारा अने बीजी एक प्रति महोपा. ध्याय श्री यशोविजयजी शास्त्रसंग्रह डभोईनी सुश्रावक मफतलालभाई द्वारा प्राप्त थइ हती.
तेना आधारे आ ग्रन्थन सावधानीथी संशोधन करवामां आव्युं छे. छता कोइ भूल रहेली जणाय तो सुज्ञोए सुधारी वांचq ए अभ्यर्थना । नागपुर अक्षयतृतीया
लि.- संशोधक
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गुरुतत्व प्रदीपस्य विषयानुक्रमः ।
विषय:
पृष्ठम्
२ मध्यस्थभेदनिरूपणम् ।
६ निश्चय व्यवहारनयाभ्यां उत्सूत्रम् ।
७ मिथ्यात्वनिरूपणम् ।
१४ निह नवसङख्याविचारः ।
१८ मुख्य- गौण मिथ्यात्वनिरूपणम् । २१ दिगम्बराणां कृत्रिममाद्यत्वम् । २२ श्वेताम्बराणामकृत्रिमाद्यत्वे प्रमाणम् । २३ दिगम्बर मुनीनामाहारशुद्धेरभावः । २४ सवस्त्रधर्मस्थापना | २८ प्रतिमाया अञ्चलकरणहेतुः । २९ नग्नत्वनिरासः ।
३१ जिनकल्पिकाचारः ।
३४ स्त्रीनिर्वाणस्थापना |
पृष्ठम्
६५ चतुर्दश्याः प्रामाण्यम् । ६८ चतुर्दश्या अस्वीकारे सिद्धान्ते वेधचतुष्कोत्पत्तिः ।
८ कुगुनिरूपणम् ।
१० पूर्णीमीय कौष्ट्रिकादि - बहिःस्थकुगुरू - ७५ सूत्रचूर्यादीनां गौणागमत्वम् ।
त्पत्तिकाल: ।
३७ केवलिभुक्तिस्थापना ।
४१ अणहिल्लपुरे जयसिंहनृपसभायां
विषयः
६३ तीर्थप्रामाण्यादि ।
८१ साधुप्रतिष्ठास्थापना ।
८२ कियतां पूर्णिमामतोत्सूत्राणां निराकरणं । औष्ट्रिकमतनिरासः । ८४ नारीजिनपूजानिषेधादिनिरासः । पूर्णिमामतनिरासः ।
९१ दिनान्तयाधिकतृतीयादिसामायिकग्रहणनिषेधनिरासः ।
९६ सामायिके श्रावकस्य मुखवस्त्रिका - रजोहरणस्थापना |
१०० श्री वर्धमानसूरिकृतं मुखपोतिका
स्थापनाकुलकम् ।
१०२ श्रावकप्रतिक्रमणस्थापना । १०९ त्रिस्तुतिकमतनिराकरणम् ।
दिगम्बरकुमुदचन्द्रेण सह वादे आचार्य - १०९ आचरणाया आगमत्वसिद्धिः ।
श्रीदेवसूरीणां विजयः ।
११२ सामाचारीस्थापना |
४४ श्वेताम्बराचार्याऽऽर्द्रगुप्तसूरिशिष्यस्य ११७ सिद्धपूजास्थापना |
यापनीयभवनम् ।
१२१ चतुर्थ कायोत्सर्गस्य
४५ हेतुवादस्थापना |
पुरातनत्वम् ।
५० चैत्यपाक्षिकमतम् ।
५३ चैत्यवास - वसतिपालकसंवत्सरः ।
१२८ सम्यग्दृष्टिदेवतापूजा । १२९ केवलवेषस्या पूज्यत्वम् । १३१ लोकव्यवहारः ।
५५ पूर्णिमीयकमतनिरसनम् ।
५९ पूर्णिमीयकानां गूर्जरदेशान्निष्कासनम् १३२ चारित्रस्थापना ।
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पृ. पं.
१ १३
४ ९
४
१०
१६
१८
१० कालाद्
सर्गशा
तोथी
५
५
१०
ه
१२
११
१२ १५
१२ १९
१३ ५
१४ १
१४ १
१६ १२
२० १२
२७ ८
२७ १९
22
अशुद्धम्
पिधानं
संङ्घे
३७ २१
३८ १७
૪૪ २३
४५ १
४५
६
४८ १२
सङ्घ
दुग्धं
स्परूप
सङ्घ
दग्ध
स्वरूप
काल
सर्गवशा
तीथी
मिनिवेशा भिनिवेशा
अमिधा
अभिवा
हिट्टी
छिट्ठी
इ ं
वत्व
णस्तु
दृष्टु
मर्यादा,
यत
२८ १२
३४ ८
स्पर्द्धा
३५. १२ नग्नां
३६ १४ दृत
३७ १७
कथ
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क्षधा
कारणं
यापनीक
तृतियो
वदता
अत्र
शुद्धिपत्रम्
शुद्धम् पृ. पं.
भिधानं ४८ १८
सङ्घे
५३ १३
५३ २३
५४
२३
५६
८
५८
५८
६१
११
६२
२०
६६ १६
६८ ४
इट्ठ
वत्वं
द्रष्टु
मर्यादा
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६८ १३
६९ ६
णोर्भक्तास्तु ७६ २१
८० १९
८४
२३
८५ १
८७
८८
९१ १७
९१
२३
९३ ६
९४ १०
३
यात
पद्ध
नग्नं
दृतं
कथं
6)
क्षुधा
कारण
यापनीयक ९५
तृतीयो
९५
वदत
९६ ३
अत
९८ १३
mom
૪
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अशुद्धम् शुद्धम्
पिः
पि
नाम्नां
द्वितीय
सोम
रूपं
न्याय
यका
भवि
पूर्णिम
चतुर्थ्यां
चतुर्विधा
जातिय
स महान् गुणः
पाक्षिक
त्सूत्र
श्रुता
द्यक्ता
भयाते
द्यक्तं
रैक
पन्न
भिय
कुञ्जा
दश:
क्त्व
द्रव
मुच्यते
नाम्ना
द्वितीय:
सोभ
रूपं
न्याया
यकानां
भावि
पूर्णिम
चतुर्थ्यां
चतुर्वेधा
जातीय
सा महा
पाक्षिकं
त्युग्र
श्रुताः
क्
भयात्ते
युक्तं
रेक
पतं
भय
कुज्जा
दश
क्त्वा
द्रव्य
मुच्येते
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पु.
पं.
१०० ६
१०१ १०
१०३ २४
१०४ ४
१०४
५
१०४ ७
१०९ १७
१०९
१९
११३ १०
११५ ६
११९ १५
१२३ १८
अशुद्धम्
तत्त
अतेण
षङ्
,,
"
"
अठ्ठ
आङ्च
दृ
सङघ
भूता आगामी
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शुद्धम्
तत्तं
अंतेण
षड्
पृ.
१२५
८
१२७ १५
१३६
१९
१३८ १
| १३८
८
| १३९
११
अटठा
१४० १९
आञ्च
१४० १५
द्र
१४२ ८
सङघ
१४२ २०
भूतां | १४९ २२ आगमो | १५२
२२
11
23
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"
पं.
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अशुद्धम्
बात्द्य
प्ररूपणा
सर्व
पङित
ब्रुवते
मुहू
ब्रुव
महु सिद्धान्तना सिद्धान्तान
वर्तते
विशेषो
दोश
शुद्धम
बाह्य
प्ररूपणारूप
सर्व
पङ्क्ती
नाण
मेमा
वेर्तेते
विशेषो
दोस
नाणा
मेवा
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। ॐ नमो जिनाय ।
- आगमोद्धारक-आचार्य श्री आनन्दसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः । चिरन्तनाचार्यविरचितः स्वोपज्ञविवरणमण्डितः
उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्यायः।
गुरुतत्यप्रदीपः। तीर्थनाथं नमस्कृत्य, स्तुत्वा च श्रुतदेवताम् ।
गुरुतत्त्वप्रदीपं तं, स्वोपज्ञं विवृणोम्यहम् ॥१॥ ग्रन्थप्रारम्भे विघ्नप्रशान्तये इष्टदेवतानमस्कारो विधीयते इति पारम्पर्याराधनाय इष्टदेवतानमस्कारपूर्व प्रस्थाभिधानं स्वप्रतिज्ञां च दर्शयन्नाह -
प्रणम्य श्रीमहावीर-मुत्सूत्रतिमिरच्छिदे ।
गुरुतत्त्वप्रदीपोऽयं, माध्यस्थ्यात् क्रियते मया ॥१॥ व्याख्या-स्पष्टः । नवरं-माध्यस्थ्यादिति ग्रस्थकृतः प्रतिज्ञायदेतद् गुरुतत्त्वप्रदीपामिधानं शास्त्रं, तद् रागद्वेषविरहितेन चेतसा मया विधीयमानमस्ति ।।१।।
अत्रोत्सूत्रप्रवृत्तस्सत्सूत्रानाभोगतः क्वचित् ।
पुनस्सूत्रे निमन्त्र्योऽहं, मातः ! शासनदेवते ! ॥२॥ व्याख्या - स्पष्ट: । नवरं - निमन्त्र्यः - आकारणीयः । भगवद्गम्भीरागमविषयविभागापरिज्ञानसमुत्थोत्सूत्रप्ररूपणभीरुतयेदं शासनदेवतासाहाय्यमभ्यर्थितम् ।।
___ अथ 'गुरुतत्त्वप्रदीपोऽयं माध्यस्थ्याम्मया क्रियते' इत्युक्तं, ततो मध्यस्थस्य भावो माध्यस्थ्यमिति व्युत्पत्तेमध्यस्थस्यव स्वरूपमाह
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गुरुतत्त्वप्रदीप:
यद् रागद्वेषयोर्मध्ये, तिष्ठतीत्युच्यते बुधैः ।
मध्यस्थस्स द्विधा तु स्याद्, मिथश्च बृहदन्तरः ॥३॥ व्याख्या-यद्-यस्मात् कारणात् रागद्वेषयोर्मध्ये-अन्तस्तिष्ठतिविद्यते इति-अनेन कारणेन, बुधैः - विद्वद्भिर्मध्यस्थ उच्यतेभण्यते, तु-पुनस्स मध्यस्थो द्विधा-वक्ष्यमाणनीत्या द्विप्रकारः,स्याद्भवेत् । मध्यस्थस्य द्वौ भेदौ स्यातामित्यर्थः । स द्विप्रकारः कथम्भूतो ? मिथः - परस्परं, बृहदन्तरो - मोक्षसंसारवत् महान्तरः ॥३॥ मध्यस्थस्य प्रथमभेदमाह
आद्यो न रागं न द्वेष, स्पृशेत् तत्त्वं विचिन्तयन् ।
उच्यतेऽतस्तयोर्मध्ये तवभावमये स्थितः ॥४॥ व्याख्या-आद्यः - प्रथममध्यस्थः, तत्त्वं-देवगुरुधर्मलक्षणं, विचिन्तयन्-विमृशन्, न रागं स्पृशेत् न द्वेषं स्पृशेत् । अतोअस्मात् कारणात्, तयो-रागद्वेषयोर्मध्ये-अन्तराले स्थित उच्यतेकथ्यते । कथम्भूते मध्ये ? तदभावमये-तयो रागद्वेषयोरभाव:असत्ता, तन्मयं-तद्रूपं यत्तस्मिन् रागद्वेषाऽसत्तारूपे इत्यर्थः । किमुक्तं भवति-वामदक्षिणयोः पार्श्वयोः स्थितौ रागद्वेषौ संत्यज्य अन्तराले स्थित एवासौ तत्त्वं विचिन्तयेदिति मध्यस्थो भण्यते ॥४॥ प्रथममध्यस्थस्यैव स्वरूपमाह
अतत्त्वविषमुत्सृज्य, तत्त्वामृतमसौ श्रयेत् । विवेकी शुक्लपक्षश्च, राजहंस इवामलः ॥५॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपः
Arunawwarkar
___ व्याख्या-पूर्वाद्धं स्पष्टुं । विवेचनं विवेकस्स विद्यते यस्यासौ विवेकी, तथा शुक्लपक्षः - सम्यग्दृष्टिरागमभाषया शुक्लपाक्षिको भण्यते । स राजहंस इव निर्मल: । सम्यग्दृष्टिपक्षे मलं-पापं, राजहंसोऽपि विषं-पानीयमुत्सृज्यामृतं दुग्धं श्रयेत्, सोऽपि विवेकी भवेत् शुक्लपक्षश्च-श्वेतपक्षः ॥५॥
मध्यस्थस्य द्वितीयभेदमाहद्वितीयो न त्यजेद् राग-द्वेषौ तत्त्वं विचिन्तयन् ।
उच्यतेऽतस्तयोर्मध्ये, तत्स्वरूपमये स्थितः ॥६॥ व्याख्या-स्पष्टः । नवरं-यत्रैव रागद्वेषौ तत्रैवास्याऽवस्थानमतस्तत्स्वरूपमये-रागद्वेषस्वरूपमये मध्ये स्थितोऽसौ भण्यते ।।६।।
अथ द्वितीयभेदस्वरूपमाहकुपक्षोऽयं विवेक्तुं न, क्षमः खिन्नो विलक्षधीः ।
मध्यस्थोऽहमिति क्लुप्त-विकल्पोऽतत्त्वमाश्रयेत् ॥७॥ व्याख्या-अयमसौ रागद्वेषमध्ये स्थितः कुपक्षः - पूर्णिमी. यकादिविवेक्तुं-तत्त्वाऽतत्त्वे पृथक्कर्तु, न क्षमो-न समर्थो भवेत् । अत एव खिन्न: - खेदमापन्नो, यत एव खिन्नस्तत एव विलक्षधीः, . विलक्षा-लक्षरहिता, धी बुद्धिर्यस्याःसौ विलक्षधीरतत्त्वं-पूर्णिमादेः चतुर्दश्यादेश्च सामाचारी आश्रयेत् । उभयाचारवान् भवेदित्यर्थः । कि विशिष्टो मध्यस्थो ? मध्यस्थोऽहमिति क्लुप्तविकल्पः । अहं मध्यस्थ इत्यमुना प्रकारेण वलप्तः - स्वचेतसि रचितो विकल्पस्सन्देहो येन सः। यतो लौकिको लोकोत्तरोवा मिथ्यादृष्टिविपरीतं विश्वस्वरूपं प्रवाहपतित एव श्रद्दधाति । प्रवाहाथयणं च सन्देह रूपमेव, यतोऽसौ निजमनसस्सन्देहे (हरूपमेव यतो) भाण्डगारिते एव लोकप्रवाहं तत्त्वबुद्धयाङगीकृत्य विश्वस्वरूपं विपर्ययाऽवबोधेन
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गुरुतत्त्वप्रदीप:
स्वचेतसि निश्चिनोति । अतो लोकप्रवाहस्य गतानुगतिकत्वेनातत्त्वरूपतया तदपेक्षो निश्चयोऽप्यस्य सन्देह एव, ऊहने सनि स्वचेतसि खुडवकनात् । कोमलवचसा युक्तिपृच्छायां किमपि न ज्ञायते इत्यस्यवोत्तरस्य दानात् । ततो मध्यस्थो हमित्यसावप्यभिप्रायोऽस्य सन्देहरूप एव। सम्यग्दृष्टे: पुनरन्तर्गतयुक्तिदृष्टिनिरीक्षितं विश्वस्वरूपं करतलमुक्ताफलवच्चेतसि प्रतिभाति । सम्यग्दृष्टि रपि कदाचित् किञ्चिद् वचनमपरीच्छन् कञ्चिदर्थमाश्रित्य भाण्डागरितसन्देहस्सन यथा जिनागमान्यतरवचनानि सत्यानि तथैतदपि वचनं सत्यमिति जिनागमान्यतरपरीष्टवचनानुलग्नो यत इदं सङधेन मतं ततो मयापि मतमिति सङधमार्गानुलग्नो चेत्यनेनैवाऽल्पावबोधेन तद्वचनं स्वचेतसि निश्चिनोति, जिनागमवचनप्रवाहस्ततो मार्गप्रवाहस्तयोस्तत्त्वरूपत्वेन तदा तदनुलग्नत्वमेवार्थमार्ग इत्यस्य निश्चयानिश् वय एवार्वाक, पुनःस निश्चयो यथाऽवस्थिततत्त्वस्य सङक्षेपावबोधो भण्यते, कालान्तरेण तदर्थमार्गपरिज्ञानेन भाण्डागारितसन्देहस्य व्यपगमात् ॥७॥
ननु मध्यस्थोऽहमिति क्लप्तविकल्पत्वादसौ कुपाक्षिकः चतुर्दशी-स्त्रीपूजा-मुखवस्त्रिका-चतुःस्तुतिप्रभृतितत्त्वाचारं तथा पूर्णिमा-स्त्रीअपूजा - अञ्चलसार्द्धपूणिमात्रिस्तुतिप्रभृत्यतत्त्वाचारमप्यादत्ते । ततोऽतत्त्वमाश्रयेदिति कथमुक्तमित्याशङकापरिहारायाह
तत्त्वातत्त्वे श्रमत्यस्मिन्नतत्त्वमुदितं ततः । यत एषकुसन्दिग्ध-दृष्टया पश्यति ते समे ॥८॥ व्याख्या-अस्मिन् कुपाक्षिके तत्त्वाऽतत्त्वे श्रयति-लोकोत्तरभद्रकतया तत्त्वं-कियन्तमपि तत्त्वाचार, अतत्त्वं-कियन्तमप्यतत्त्वा
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गुरुतत्त्वप्रदीपः
चारं चाश्रयति । ततः - तस्मात् कारणादतत्त्वमुदित-प्राक् श्लोके उक्तम् । यतो-यस्मात् कारणादेष-कुषाक्षिकः ते-तत्त्वातत्त्वे कुसन्दिग्धदृष्ट्या,कुत्सिता सन्दिग्धा-सन्देहमापन्ना या दृष्टिरन्तरङगलोचनं तया । अवलेपवतस्सन्देहो हि दुर्व्यपगमत्वात् कुत्सितो भवति। अतः कुसन्दिग्धेत्युक्तं । समे-तुल्ये सदृशस्वरूपे पश्यति । किमुक्तं भवति-तत्त्वमतत्त्वसदृशमतत्त्वं तत्त्वसदृशं पश्यतस्तस्य यथावस्थितस्वरूपानिरीक्षणे उभयमप्यतत्त्वमेव परिज्ञेयम् ।।८।।
अस्यैव स्वरूपमाह
तत्त्वे तत्त्वाविदग्धोऽपि, कुपक्षादवतार्यते । सुधीभिर्न तु तत्त्वांश-दुर्विदग्धोऽवलेपवान् ॥९॥
व्याख्या-आस्तां तत्त्वज्ञः पुमान्, तत्त्वाविदग्धोऽपि-तत्त्वाऽज्ञोऽपि, तत्त्वे-चतुर्दश्यादौ, कुपक्षात्-पूर्णिमादे:, सुधीभिः -- तत्त्वविद्भिरवतार्यते-आरोप्यते, तु-पुनस्तत्त्वांशदुर्विदग्धो-दुष्टश्चासौ विदग्धश्च दुर्विदग्धस्तत्त्वांशे दुर्विदग्धस्तत्त्वांशदुर्विदग्धो, न तत्त्वेऽ वतार्यते । किविशिष्टो ? अवलेपवान्-अवलेपसंयुक्तः। उक्तंच'अज्ञस्सुखमाराध्यः, सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदुग्धं, बझापि नरं न रञ्जयति' ॥१॥ ॥९॥
अस्यैव स्परूपमाह- ...
यद्यप्यसौ सशूकः स्यात्, तत्त्वे त्वात्माऽवलेपतः ।
तत्त्वमत्सरिणां पडक्ती, बभूव स्वामिनः पुरः ॥१०॥ व्याख्या-असौ तत्त्वांशदुर्विदग्धो, यद्यपि तत्त्वे सशूकः - सशङको, न तु सर्वथावज्ञाकारी स्याद्-भवेत्, तु-पुनरात्मावलेपतोनिजावलेपात् स्वामिनः पुरः- श्रीवीतरागप्रभोरग्रे, तत्त्वमत्सरिणां पङक्तौ-श्रेण्या बभूक । किमुक्तं भवति-अयं स्वामिविदितस्तत्त्व
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गुरुतत्त्वप्रदीपः
मत्सरी सञ्जातः, उभयोरपि हि कुमार्गात्यजनलक्षणः स्वभावस्समान एव भवति । ततस्तत्त्वांशदुर्विदग्धोऽपि तत्त्वमत्सर्येव गण्यते ॥१०॥
असौ हेमाचार्येण स्वामिनोऽग्रे तत्त्वमत्सरी स्थापितोऽतस्तदुक्तमेव दर्शयन्नाहसुनिश्चितं मत्सरिणो जनस्य, न नाथ ! मुद्रामतिशेरते ते । माध्यस्थमास्थाय परीक्षका ये मणौ च काचेच समानुबन्धाः॥११॥
व्याख्या-स्पष्टम् । नवरं-नातिशेरते-नातिकामन्ति, किन्तु मत्सरिण एव ते परिज्ञेयाः ॥११॥
ततस्तत्त्वामृतं सेव्य-माद्यमाध्यस्थलक्षितम् । स्वर्गापवर्गसौख्यानि, जायन्ते यत्प्रभावतः ॥१२॥ स्पष्टः । तत्त्वामृतं त्रिधा देव-गुरुधर्मप्रभेदतः । एतच्चोत्सूत्रसंयोगा-दतत्त्वविषमुच्यते ॥१३॥
व्याख्या-देवगुरुधर्माः पूर्णिमाधुत्सूत्ररहितास्तत्त्वमत्र ज्ञातव्याः। चतुर्दश्यादितत्त्वप्ररूपणासहितो देवो देवतत्त्वं, गुरुर्गुरुतत्त्वं धर्मो धर्मतत्त्वमिति मन्तव्यः । 'एतच्चे'त्यादि । एतच्च देवगुरुधर्मरूपं तत्त्वमुत्सूत्र-संपर्कादतत्त्वं भवति । ननु गुरुधर्मावुत्सूत्रवन्तौ भवेतां, पुनर्देबो वीतरागः कथमुत्सूत्रवान् भवेत् ? । उच्यतेकुपाक्षिकाणां स्वस्वोत्सूत्रप्ररूपकं भगवन्तं चिन्तयतां जल्पतां च तेषामपेक्षया भगवानप्युत्सूत्रवानभूदिति ॥१३॥
अथोत्सूत्रं सामान्यतो दर्शयन्नाह - निश्चयो नय उत्सूत्रं, शैथिल्यमपि मन्यते । सूत्रार्थस्यान्यथाऽख्यानं, व्यवहारनयः पुनः ॥१४॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपः
व्याख्या-निश्चयो नयः शैथिल्यमपि-श्लथत्वमपि उत्सूत्रं मन्यते । अत्र शास्त्रे अविरतसम्यग्दृष्टिश्रावकाणामविरतविभाग श्चोत्सूत्रतया निश्चयनयाभिप्रायेण सन्नपि न विवक्षितः । पार्श्वस्थादीनां तु श्लथत्वं नियमभङ्गरूपतयाऽत्यन्तदुर्गतिहेतुरिति भणित्वोत्सूत्रतया विवक्षितं परिज्ञेयं । शास्त्रस्यास्योत्सूत्रकन्दकुद्दाल इत्यपरनामत्वादन्तिमविश्रामे पार्श्वस्थादिश्लथत्वस्यैव निराकृतत्वात् । पुनर्व्यवहारनयः सूत्रार्थस्य-सिद्धान्तार्थस्य, अन्यथा-विपरीतमाख्यानंप्ररूपणं उत्सूत्रं मन्यते । इत्युभयरूपमप्युत्सूत्रं दर्शितं । उत्सूत्रं लोकोत्तरमिथ्यात्वं भण्यते ॥१४॥
लौकिकमिथ्यात्वादुत्तीर्णोऽपि जनोऽयं लोकोत्तरे मिथ्यात्वे पतितुकामः प्रथमं गुरुरूपे लोकोत्तरे मिथ्यात्वे पततीति दर्शयन्नाह
अविमूढोऽपि मिथ्यात्वे, लौकिकेऽसौ घनो जनः । लोकोत्तरे हि मिथ्यात्व-मोहे गुरुगते पतेत् ।।१५।।
व्याख्या-अत्र मिथ्यात्वं द्विविधं-लौकिकं लोकोत्तरं च । एकैको भेदस्त्रिधा देवगुरुधर्मभेदात् इति षड्विधमपि चतुर्की विवक्षितमन्यत्र, धर्मस्य देवगुरुप्रणीतत्वेन तयोरेवान्तर्भावः ।
यदाह-दुविहं लोइयमिच्छं, देवगयं गुरुगयं मुणेयव्वं । लोगुत्तरंपि दुविहं, देवगयं गुरुगयं चेव ।।१।।
चउभेयं मिच्छत्तं, तिविहं तिविहेण जो विवज्जेइ । अकलंकं सम्मत्तं,होइ फुडं निच्चलं तस्स ॥२॥ (दर्शनशुद्धि०)
असौ प्रत्यक्षोपलक्ष्यमाणोऽधुनातनो घनो-बहुतरस्तीर्थकरादिकालेऽल्पस्यैव लोकोत्तरे मिथ्यात्वे पतनात्ततोऽधुनातनस्य घनत्वमुक्तं जनो-लोको, लौकिके-लोकसम्बन्धिनि मिथ्यात्वेऽविमूढोऽपिलब्धलक्षोऽपि लोकोत्तरे हि-निश्चितं, मिथ्यात्वमोहे गुरुगते-गुरु सम्बन्धिनि पतेत् ॥१५॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपः
गुरुतत्त्वविमूढोऽत्र, मुह्यत्यपरतत्त्वयोः ।।
असौ जनस्ततः स्पष्टं, गुरुतत्त्वं प्रदर्श्यते ॥१६॥ व्याख्या-असौ जनः, अत्र गुरुगते मिथ्यात्वमोहनीये कर्मणि पतितः सन् गुरुतत्त्वविमूढो भवंति-गुरुतत्त्वे विशेषेण मूढो गुरुतत्त्वविमूढो, एवंविधस्सन्नपरतत्त्वयो:-देवतत्त्वधर्मतत्त्वयोरपि मुह्यति । जिनो देवस्सुसाधुर्मुरुजिनप्रणीतो धर्म इदं मम तत्त्वत्र. यमिति जिह्वयाङ्गीकारेऽपि मनसः स्वप्रत्ययेन मननाभावात कुगुरुमुखोद्गतस्य तत्त्वत्रयस्याभिधामात्रसाम्येऽपि तत्त्वाभासतया अतात्त्विकत्वात् । ततः तस्मात् कारणात् स्पष्ट-प्रकटं, गुरुतत्त्वं प्रदर्श्यते ।।१६।।
त्याज्यः कुगुरुसंसर्गो, गुरुतत्त्वेक्षणोन्मुखैः ।
पावस्थादिर्बहिःस्थश्च, कुगुरुर्दशधा मतः ॥१७॥ व्याख्या-स्पष्ट: । नवरं-पावस्थादिः पञ्चधा, यदाहपासत्थो ओसन्नो, होइ कुसीलो तहेव संसत्तो।
अहछंदो वि य एए, अवंदणिज्जा जिणमयंमि ॥१॥(प्रव.सा.) बहिःस्थोऽपि पञ्चधा, तं वक्ष्यतीत्युभयं दशधा ।
ननु पार्श्वस्थबहिःस्थयोरत्र किमन्तरं ?, पार्श्वस्थस्यापि वस्तुतो वस्त्वन्तराद्वहिर्भवनात् । उच्यते-जनेऽपि स्वकुटुम्बाढहिः पतितस्यापि कस्यचिदपाङक्तेयत्वास्पृश्यत्वाद्यदर्शनात् अपरस्य कस्यचिदपाङक्तेयत्वादिदर्शनाच्च । अत्र पार्श्वस्थः सङघाद्वेषात् सङघस्य पार्वे स्थातुं लभते । इदमागमोक्तं स्वकर्मनामाऽस्य ।
यदाह-सो पासत्थो दुविहो, सव्वे देसे अ होइ नायव्वो । सव्वंमि नाणदंसण-चरणाणं जो उ पासंमि ॥१॥(प्रव.सा.) स्पष्टं ।
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प्रथमो विश्रामः
नवरं-ज्ञानदर्शनचारित्राणि सङघः, तस्य पार्वे यः तिष्ठतीति गम्यते। पार्श्वस्थस्य क्वचिदुत्सूत्रप्ररूपकस्याप्यनवस्थितकोत्सूत्रत्वेन प्रवचनसार्मिकत्वेन विवक्षितत्वात् । बहिःस्थस्य पुनः सङघद्वेषादप्रेक्ष्यमुखत्वेन सङघस्य पार्वेऽवस्थानाभावः, प्रवचनसाधमिकत्वाभावादस्य ।
यदाह-दस ससिहागा सावय, पवयणसाहम्मिया न लिंगेण । लिंगेण य साहम्मिय,नो पवयेण निनवा सव्वे ।१।(पिण्डनि०)।१७।
श्रितोऽत्राद्यश्चतुर्भेदः, प्रायः शैथिल्यकारणम् ।
स्वच्छन्दबाह्यौ स्वाच्छन्ध-सङघबाह्यत्वकारणम् ॥१८॥ व्याख्या-अत्र पाश्वस्थादौ प्रथमे भेदपञ्चके आद्यश्चतुर्भेदः कुगुरुःपावस्थावसन्नकुशीलसंसक्तलक्षण:श्रितस्सन् प्रायो-बाहुल्येन, शैथिल्यकारणं-इलथत्वहेतुः । उत्सूत्रहेतु: स्तोकं भवति । एतद् व्याख्यानं व्यवहारनयमधिकृत्यावसातव्यं । निश्चयनयमधिकृत्य श्लथत्वस्याऽप्युत्सूत्रत्वात् । यतोऽसौ चतुर्भेदो घनतरं श्लथः, स्तोकमुत्सूत्रप्ररूपको भवति । ततोऽस्य संसर्गोऽपि चारित्रिणो बहुतर-इलथत्वहेतुरल्पं उत्सूत्रप्ररूपणाहेतुः स्यात् । स्वच्छन्दबाह्यौ, स्वच्छन्दो नाम यथाच्छन्दो, बाह्यस्सङघबाह्यस्तौ स्वाच्छन्द्यस्य सङघबाह्यत्वस्य च क्रमशः कारणं । प्राय इत्यत्रापि सम्बध्यते । यतो यथाच्छन्दसङ्घबाह्यौ गाढक्रियावपि त्यक्तचारित्रिगुरुकुलवा. सत्वेन षड्जीवनिकाय-रक्षणायामकुशलत्वात् किञ्चित् शिथिलौ स्यातां । ततो गाढक्रिययोरेतयोस्संसर्गश्चारित्रिणो घनतरं यथाच्छन्दत्वसङघबाह्यत्वहेतुः स्यात्, अल्पं च शिथिलताहेतुर्भवति ॥१८॥
संविग्नपाक्षिकाच्छेषः, शिथिलः स्वं परानपि । यथाच्छन्दो घनं बाह्योऽतिघनं पातयेत् भवे ॥१९॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
. व्याख्या-पूर्वोक्तचतुर्भेदशिथिलस्य मध्यात् कोऽपि शिथिलः कदाचित् शुद्धप्ररूपकत्वादिगुणालङकृतस्सन् संविग्नपाक्षिकः स्यात्। स च मोक्षपथपथिकत्वेन श्लाघ्यस्ततस्संविज्ञपाक्षिकात् शेषोव्यतिरिक्तः शिथिल: स्व-आत्मानं, परानपि-आत्मव्यतिरिक्तानपि, भवे-संमारे, पातयेत् । यथाच्छन्दो घनोत्सूत्रयुवतत्वात् घनं संसारे स्वं परानपि पातयेत् । बाह्यः - सङधबाह्यस्सङघावज्ञाकारकत्वादतिघनं-यथाच्छन्दादत्यर्थं स्वं परानपि संसारे पातयेत ॥१९।।
यः पूर्वं पञ्चधा बहिस्थ उक्तस्तं प्रदर्शयन्नाहएते स्वकर्मणा बाह्याः, पञ्चोत्सूत्रप्ररूपकाः । अभूवन दुःषमाकालान्, भ्रमोद्भामितचेतसः।।२०।। स्पष्टः । उक्तंच-' हुं नन्देन्द्रियरुद्रकालजनितः पक्षोऽस्ति राकाङिकतो,
वेदाभ्रारुणवर्ष औष्ट्रिकभवो विश्वार्ककालेऽञ्चलः । षट्यर्केषु च सार्धपौणिम इति व्योमेन्द्रियार्के पुनः,
काले त्रिस्तुतिको मतद्वयमयः पञ्चापि पक्षा अमी।२१॥ व्याख्या-स्पष्टम् । नवरं-मतद्वयमयः - अग्रपूरीयकतग्रपूरीयकमताभ्यां द्विप्रकारोऽपि त्रिस्तुतिक एक एवात्र गण्यते।।२१।।
अथ यथाच्छन्दनिनवयोरुत्सूत्रप्ररूपक इति नाम्नि समानेऽपि पृथक् भवनकारणभूतमुत्सूत्रस्यान्तरं दर्शयन्नेते पञ्चापि न यथाच्छन्दाः, किन्तु निह नवा इति दर्शJश्चाह
अनवस्थितकोत्सूत्र, यथाच्छन्दत्वमेषु न ।
तववस्थितकोत्सूत्रं, निह नवत्वमुपस्थितम् ॥२२।। व्याख्या-एषु पञ्चसु कुपाक्षिकेषु यथाच्छन्दत्वं न विद्यते। किं विशिष्टं ? अनवस्थितकोत्सूत्र-नवनवीनोत्सूत्रं । यथाच्छन्दो
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प्रथमो विश्रामः
ह्यबस्थितमेवोत्सूत्रं न जल्पति, किन्तु स्वच्छन्दवृत्त्या एकमुत्सूत्रं परियज्य अपगपरोत्सूत्राणि जल्पति । तथा यदुत्सूत्रं प्ररूपयति, तदपि कदाचित् सूत्रतया प्ररूपयति, तथा सामान्य जनेन ताडितः सन् स्वकीयोत्सूत्रं मुञ्चति वा न वा, पुनस्सङघताडितस्सन् स्वकीयोत्सूत्रं मुञ्चत्येव । ततोऽसौ सङघप्रत्यनीको न स्यात् । एवंविधस्प यथाच्छन्दलक्षणम्यादर्शनेन यथाच्छन्दत्वाभावादेषु निह नवत्वमुपस्थितं-बलादुपढौकितं । किविशिष्टं ?, अवस्थितकोत्सूत्रनिह नवेन यदुत्सूत्रं प्ररूपणाय प्राक् प्रारब्धं, तदुत्सूत्रं स्वाभिनिवेशं यावत् प्ररूपयति, मरणान्तेऽपि न परित्यजतीत्येतस्योत्सूत्रमवस्थितमेव भवति । सङ्घताडितस्सन् सङघं न मन्यते, अतोऽसौ सङघप्रत्यनीको भवति । एवंविधस्य निह नवलक्षणस्य दर्शनेन (अज्ञानात् क्रमसंसर्गभावे तीर्थत्यजनादर्शनेन) एते पञ्चापि निह नवा घटन्ते ॥२२॥
प्रकारान्तरेणामीषां निह नवत्वमाहत्यक्ततीर्था ह्यमी वाभि-निवेशानिह नवास्ततः ।
अज्ञानात्क्रमससर्ग-भावे तीर्थं त्यजन्ति न ॥२३॥ ध्याख्या- अमी पञ्चापि कुपक्षा अभिनिवेशात् त्यक्ततीर्था अभूवन् । ततः - तस्मात् कारणानिह नवाः शास्त्रेऽस्मिन् प्रोक्ताः । अभिनिवेशं विना हि अविच्छिन्नपरम्परायातं तीर्थं त्यक्तुं न शक्यते, किन्तु अभिनिवेशेनैव तीर्थं त्यज्यते, तीर्थत्यागाच्च गोष्ठामाहिलादिवत् एतेऽपि आभिनिवेशिकमिथ्यात्वोदये वर्तमानत्वात् निह नवा घटन्ते एव ।
ननु अज्ञानादपि तीर्थत्याजिनो घटन्ते, तत्कथमेते आभिनिवेशिकाः प्रोक्ता: ? । अत्रोच्यते-अज्ञानं द्विविधमेकमभिनिवेशसहितमपरमभिनिवेशरहितं । तत्राद्यमसाध्यव्याधिकल्पं, न कथमपि
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
विरमति । अतोऽत्राभिनिवेशरूपमेव तद्विवक्षितं । अथ कथमपि तद्विरतं तदा जानन्नपि स्वाभिनिवेशाङ्गीकृतं कुमार्गं न त्यजति । द्वितीयमज्ञानं तु साध्यव्याधिकल्पं । न च तच्चन्द्रप्रभसूर्यादीनां प्रथमकुपाक्षिकाणां दृश्यते । यतस्तदज्ञानवान् क्रमागतं संसर्गलग्नं वा कुमार्ग सन्मार्ग वाङ्गीकरोति । प्रतिबोधितस्सन् प्रायश्चित्तं गृह, पाति, कुमार्गं परित्यज्य सन्मार्गमेवाङ्गीकुरुते । ततो यदि तदज्ञानममीषां भवति, तस्मादज्ञानात्तीर्थस्य क्रमभावे संसर्गभावे चैते तीर्थं न त्यजन्ति । किमुक्तं भवति यद्यमीषां अज्ञानिनां चेतसि क्रमागतं प्रमाणमित्यभिप्रायोऽभूत् तदाऽमीषां क्रमागतं तीर्थमेवाभवत् । अथ यदि कथमप्येते एतावन्तः केनाभिप्रायेणेदृशं कुर्वन्त्यत एतदपि प्रमाणमित्यभिप्रायस्संसर्गशादमीषां चेतस्यभूत्, तत्तदा संसर्गोप्यमीषां तीर्थस्यैवाऽऽसीत् इत्युभयथापि तीर्थत्यजनममीषां नाभविष्यत् । यत्पुनस्तीर्थ त्य जनमभूत्ततस्तीर्थ त्यजनादभिनिवेशोऽ भिनिवेशान्निह नवत्वं घटतेऽमीषामिति । अत्र पूर्णिमीयकखरतरी तीर्थमध्यात् निःसृतत्वेन त्यक्ततोर्थावुक्तौ । शेषं मतत्रयं पूर्णिमीयका दिपक्षमध्यान्निःसृतत्वेन त्यक्तपूर्णिमीयकादिपक्षमपि तस्यैवापेक्षया पूर्णिमीयका दिपक्षस्य तीर्थ विवक्षितं ॥ २३ ॥
܀
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१२
यदि मदीय पक्षाsssर्ष कानामभिनिवेशान्निह नवत्वं ततोऽ मिनिवेशरहितस्य क्रमागतं संसर्गविलग्नं च पूर्णिमादिकं कुर्वाणस्य तत्त्वातत्त्वान्तरानभिज्ञस्य मम को मार्गः ? इति कुपाक्षिकाऽधुनातनशिष्यायां शिष्यस्य मार्ग दर्शयन् मार्गाऽनङ्गीकारे दोषं च दर्शयन्नाह -
अज्ञेऽनभिनिवेशे तु सधाज्ञा शिष्यधीगुणैः । लोकोत्तराऽऽभिग्रहिक - मिथ्यात्वाद्यन्यथा त्वयि ||२४||
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प्रथमो विश्राम:
व्याख्या-हे शिष्य ! हे अधुनातनकुपाक्षिक ? त्वयि अज्ञे चतुर्दश्यादिविचाराचतुरे अनभिनिवेशेऽभिनिवेशरहिते सङघाज्ञा अस्तु-भवतु । कैः कृ चा ? धीगुणर्बुद्धिगुणैः शुश्रूषाधैः,
यदाह- शुश्रूषा श्रवणं चैव, ग्रहणं धारणं तथा । ऊहापोहार्थविज्ञानं, तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः॥१॥ (अमिधानचिन्ता०) अयमत्रभाव: - यद्यागमप्रमाणेन चतुर्दश्यादितत्त्वं पूणिमाद्यतत्त्वं च त्वं विवेक्तुं न क्षमः, तथा यदि अभिनिवेशरहितोऽसि, ततो माध्यस्थ्यमास्थायाऽष्टभिर्धीगुणस्सङघपरम्परायातं सङघमुपलक्ष्य पूर्णिमाद्यतत्त्वं परित्यज्य सङघाज्ञामङ्गीकुरु । दुरुपलक्षलक्ष्याद् गम्भीरार्थादागमात् सङघाज्ञायास्सुखावबोधत्वात् । सङधाज्ञाया अपि चतुर्दश्यादिरूपत्वेन पूर्णिमाद्यतत्त्वत्यजनस्यानुमतत्वात् / किमुक्तं भवति-आगमान्तर्यत् तिष्ठतु तत् प्रमाणं, पुनरहं तं न जाने, अतः परम्परायातसङघावलग्नेन मया भवितव्यमिति चित्तपरिणामेन चतुर्दश्यादितत्त्वमङ्गीकुरु । यथावस्थिततत्त्वस्य सङक्षेपादवबोधस्तवेत्थं भवति । अन्यथा चतुर्दश्यादिरूपसङघाज्ञाङ्गीकाराभावे पूर्णिमाद्यङ्गीकारे लोकोत्तराऽऽभिग्रहिकमिथ्यात्वं, आदिशद्वात् लोकोत्तरसांशयिकमिथ्यात्वमपि त्वयि भवति, मिथ्यादृष्टिचेतसः प्रवाहपथलीनत्वेन सन्देहाविनाभावात् । मिथ्यात्वं हि पञ्चधा।
यदाह-आभिग्गहियमणभिग्गहियं तह अभिनिवेसियं चेव ।
संसइयमणाभोग, मिच्छत्तं पंचहा एयं ॥१।। (पञ्चसंग्रह.) न च तवाऽनाभोगिक मिथ्यात्वं । अनाभोगो हि द्विविध:- सर्वतो देशतश्च । तत्र सर्वस्मादनाभोगाद्यन्मिथ्यात्वं तदेकेन्द्रियादीनां विवक्षितम् । यद्देशतस्तस्य क्षणिकशङकावदतिचाररूपत्वेन सम्यग्दृष्टेरपि भवनात् ।
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यदाह- सम्मद्दिट्टी जीवो, उवइट्टं पवयणं तु सद्दहइ ।
सद्दहइ असब्भाव, अणभोगा गुरुनिओगा वा ॥ १ ॥ ( उत्तरा. निर्यु. ) तव तु चतुर्दश्यादिपूर्णिमाद्योराक्षेपस्य कर्णकोटरे समागच्छमानत्वादाभोगवत्त्वेन लोकोत्तराऽऽभिग्रहिकमिथ्यात्वादिति ॥ २४ ॥
वादिनोऽपि मिथो यूयं, कुपक्षास्सङघ मागताः । सर्वेप्यन्यायिनस्स्यात, तस्करा इव भूपतिम् ॥ २५ ॥
१४
व्याख्या - हे कुपक्षा ! हा ! यूयं तस्करा इव सङ्घं भूपतिमिव आगतास्सर्वेऽपि अन्यायिनः स्यात । किंविशिष्टा ? मिथ:- परस्परं, वादिनोऽपि । इह जगति उभयोर्वादिनोर्मध्यादेकेन वादिना न्यायिता अपरेणाऽन्यायिना भाव्यमिति शाश्वते भावे सत्यपि यूयमस्माकं मध्यात् को न्यायी कोयायीतिनिर्णयं याचनाय सङ्घभूपति समायातास्सन्तस्सर्वेऽप्यन्यायवन्त एव भवथ । सङ्घस्यागमा धनं छित्त्वा सदस्यैव मुखेन न्यायान्यायनिर्णयमिच्छतां भवतां युक्तमेवान्यायिभवनमित्यर्थः ॥ २५ ॥
मिथो वादाद् गता यूयं स्वयमेवाप्रमाणतां कण्टकः कण्टकेनैव, पट्टभक्तः क्रमस्त्विह ॥ २६ ॥ व्याख्या-स्पष्टः । नवरं - क्रमस्सङघक्रमोऽस्तु युष्माकं, यथा पट्टभक्तत्वं भवेत् ॥ २६॥
सूत्रोक्ता निहनवास्सप्त, तदाधिक्यकथा कथं ? I जमालिनाशमित्यादि - सूत्रतो लभ्यते श्रुते ॥२७॥
व्याख्या - ननु सूत्रोक्ताः - सिद्धान्तोक्ता निहनवास्सप्त प्रसिद्धाः 'सत्तेए नि नवा खलु' इत्यादिवचनात् । ततस्तेषां नि, नवानां आधिक्यकथा-समधिकवार्ता, कथं शास्त्रेऽस्मिन् श्रूयते ? |
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प्रथमो विश्रामः
अत्रैते पञ्च निह नवा: कथिताः । इत्थं द्वादश निह नवा भवन्त्यतः सिद्धान्तबाधा प्रकटैव स्यात् । उच्यते-जमालिनाशमित्यादिसूत्रतः
आयरियपरंपरएण आगयं जो उ छेअवुद्धीए । कोवेइ छेयवाई जमालिनासं स नासिहिति ॥१॥
(सूत्र० नियुक्तिः) सुगमा । नवरं-महावीरात्प्रभृति परम्परा, तदनु सङघेन यत्कृतं, तदपि तीर्थकर कृतमिव मन्तव्यं तस्य परम्परा वाऽऽचार्यपरम्परा इति सूत्रतः। श्रुते-सिद्धान्ते निह नवानामधिकवार्ता लभ्यते-प्र.प्यते । योऽप्याचार्य परम्परागतमतिकामति, सोऽपि निह नवः, सिद्धान्तोक्तसप्तभ्योऽधिको ज्ञातव्य इत्यर्थः । तत एते पञ्चाप्याचार्यपरम्परागतातिक्रमणात् सञ्जातनिह नवतया सिद्धान्तोक्ता निहनवा ज्ञातव्याः। तथा जमालिना प्रत्यक्षस्तीर्थकरो न मतः। तत आचार्यपरम्परासमागतघातकानां सूत्रे जमालिदृष्टान्तदानेन पञ्चाप्यते प्रत्यक्षतीर्थकरामननपातकयुतास्तत्सदृशाःसिद्धाः॥२७॥
जमालिस्तीर्थकृदूषी, यूयं तीर्थस्य दूषकाः । सामान्यतः पुनस्सूत्रे, यदुक्ता व्यक्तितो न च ॥२८॥ प्रसिद्ध निह नवत्वं तद्भवतां भुवि भावि न । न भावि बोटिकत्वं वा, व्यक्तिश्छिन्नश्रुतेऽस्ति वा ॥२९॥ भावि वा स्वल्पकालत्वमष्टोच्छ्वासनिषेधिवत् ।
ये सप्त स्वल्पकालाः स्युर्दृष्टान्तायापि ते श्रुते ॥३०॥ व्याख्या-हे कुपक्षाः ! जमालिस्तीर्थकृद्षी-प्रत्यक्षतीर्थकरदूषकः, यूयं तीर्थस्य-प्रत्यक्षसङघस्य दूषकाः । एवमनेनापि लक्षणेन यूयं जमालिसदृशा इत्यर्थः । पुनर्यत् सूत्रे-सिद्धान्ते, सामान्यतः 'आयरियपरंपरएणागयं' इत्यादिगाथया सामान्यवृत्त्या
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यूयमुक्ताः , न च व्यक्तित:-प्रत्येक पृथक् नामकथनलक्षणं व्यक्तिमाश्रित्य, यूयं सिद्धान्ते यन्नोवताः । ततो भवता प्रसिद्धनिह नवत्वं भुवि-पृथिव्यां न भावि । सूत्रोक्तव्यक्तनिह नवत्वे हि धनतरलोकानां प्रतीतेनिह नवस्य प्रसिद्धत्वं स्यात् । सत्येवं रतोकजनानां संसारे निमज्जनं भवति । पुनर्घनत रजनसंसारनिमज्जनस्वभावात् यौष्माकीणनिह नवस्य प्रसिद्धत्वाभवनभक्तिव्यतया सूत्रे व्यक्ति भवदित्यर्थः । वा-अथवा, भवतां बोटिकत्वं न भावि, यथा दिगम्बरः 'तो बोडियाण दिट्टी रहवीरपुरि समुप्पन्ना' (आव० नियु०) इत्यक्षराणि दृष्टवा सिद्धान्तस्सकलोऽपि न मतस्तथा यूयमपि निजनिह नवत्वं व्यक्तं सिद्धान्ते दृष्ट्वा सकलमपि सिद्धान्तं नामस्यत । ततो युष्माकं बोटिकत्वाभवन भवितव्यतया सूत्रे व्यक्तं निह नवत्वं नोक्तमित्यर्थः। वा-अथवा, छिन्नसूत्रे-त्रुटितसिद्धान्ते, व्यक्तिाष्माकीणनिह नवत्वस्य प्रकटताऽभूत्। अतो वर्तमानसिद्धान्ते व्यक्तिर्न दृश्यत इत्यर्थः । वा-अथवा, भवतां पञ्चानामपि स्वल्पकालत्वं भावि, अष्टोच्छ्वासनिषेधिवत् । यथा 'अरिहंतचेईयाण' मित्यादिकायोत्सर्गेऽष्टोच्छ्वास निषेधक मतं ललितविस्तरोवतं पूर्वमभवत्, पुनरधुनातनकालेऽग्रतोऽनागतं, तथा भवतामपि अग्रतो घनतरकालं भवितव्यं न घटते । अतः सिद्धान्ते यूयं व्यक्ता नोक्ता इत्यर्थः । ये सप्त जमाल्यादिनिह नवास्सूत्रे-सिद्धान्ते स्युर्व्यक्तास्तिष्ठन्ति । किंविशिष्टाः ? स्वल्पकाला अधुनातनकालं यावत्, तत्संतानागमनाभावात् । ते सप्त निह नवाः दृष्टान्तायापिदृष्टान्तार्थमपि सूत्रे उक्ताः ।।२८।२९।।३०॥
राका भ्रष्टौष्ट्रिकः किञ्चिभ्रष्टो द्वौ च कवोष्णको । फलशाकादिको चातः, स्वल्पकालस्य सम्भवः ।।३१॥
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प्रथमो विश्रामः
व्याख्या-राका-पूर्णिमा, भ्रष्टा पूर्णिमीयकात् सार्द्धपूर्णिमीयकाश्च सर्वेऽपि शिथिलीभूता इत्यर्थः । औष्ट्रिकः किञ्चिभ्रष्ट:पूर्णिमीयकानामपेक्षया खरतरः स्तोकं शिथिल: स्थित इत्यर्थः । द्वौ आञ्चलीयकत्रिस्तुतिको कवोष्णको-कवोष्णं-ईषदुष्णं, कं-पानीयं ययोस्तौ उष्णापनकजलादानात् (?) न केवलं कवोष्णको, ‘फलशाकादिको च' । फलशाकं आदिशब्दादन्यदपि क्रियाहीनत्वं तपोवच्चारित्रात् ययोस्तौ । मतान्तरं हि क्रियाबलेन वर्द्धते, ततः क्रियायाः शैथिल्यं भवतां । अतः - अस्मात् कारणात् स्वल्पकालस्य स्तोककालस्य, सम्भवो-घटना, युष्माकं दत्ताभिधानस्य राज्ञः काले पञ्चानामपि व्यवच्छेदो मन्यते इति ॥३१॥ .
कुपक्षाणां स्वशक्त्यापि, व्रतं चारित्रमेव न ।
नाज्ञानकष्टमेवातः, क्रियेत्यभिहितं बुधः ॥३२॥ व्याख्या-कुपक्षाणां पञ्चानां स्वशक्त्यापि-आलस्यपरिहारेणाऽपि, व्रत-अनुष्ठानं चारित्रमेव नाज्ञानकष्टमिति न । अथवा अज्ञानकष्टमेव न, चारित्रमित्यपि न । कस्यचिदनुष्ठानस्य चारित्रानुयायित्वात् कस्यचिदनुष्ठानस्याज्ञानकष्टानुयायित्वात् । ततः किमित्याह-बुधैविद्वद्भिः क्रिया इति नाम अमीषामनुष्ठानस्य अभिहितं-दत्तम् ॥३२॥
पार्श्वस्थादेव॒ढा द्रव्य-लिडिगनो गृहिलिङिगनः । ।
कुलिङिगनश्च ज्ञातृत्वात्,तीव्रमिथ्यात्विनस्त्वमी ॥३३॥ व्याख्या-तावत् पार्श्वस्थादिः पञ्चविधोऽपि द्रव्यलिङ्गी भण्यते तथा गृहिलिङ्गिनः कुलिङ्गिनश्च तीव्रमिथ्यात्वी च । कस्मात् ? ज्ञातृत्वात्-जिनशासनावबोधात्, तु-पुनरमी पञ्च
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
१८
कुपाक्षिकाः पावस्थादिभ्यो दृढाः – अत्यर्थ, द्रव्यलिङ्गिनस्तीवमिथ्यात्विनश्च । अत्र पार्श्वस्थादिकुपाक्षिकयोरिदमीदृशं मिथ्यात्वमागमोक्तम् ।
यदाह-'सावज्जजोगपरिवज्जणाइ सव्वुत्तमो जइधम्मो' (उप० माला) इत्यादिगाथात्रयं । कस्मात् पार्श्वस्थादिभ्यः कुपाक्षिकाणां अत्यर्थं पातकित्वं ? ज्ञातृत्वात्-पावस्थादिभ्योऽत्यर्थं जैनागमाम्यसनेनात्यर्थमवबोधात् ।। उक्तं च-'अन्यलिङ्गकृतं पापं, जिनलिङ्गेन शुद्धयति ।
जिनलिङ्गकृतं पापं, वज्रलेपेन लिप्यते ॥१॥ ॥३३॥ जैनागमस्याश्रद्धानं, मुख्यमिथ्यात्वमुच्यते । श्रद्धानं गौणमिथ्यात्वं, मिथ्यादृष्टचोर्द्वयोरपि ॥३४॥ व्याख्या-स्पष्ट: । नवरं-द्वयोलौकिकलोकोत्तरयोः । न चात्रेदमाशङकनीयं यद् द्रव्यलिङ्गिमिथ्यादृष्टीनामल्पजैनागमपदाश्रद्धानेन मिथ्यात्वदेशो घनतरशेष (शेषा जैना) जैनागमश्रद्धानात् घनतरं शेष सम्यक्त्वं । यतः स्वल्पजैनागमश्रद्धानं लौकिकमिथ्यादृष्टीनामपि भवेत् । ततो यथा मिथ्यात्वपरिणामानाममीषां तन्मिथ्यात्वं तथोत्सूत्रपरिणामानां लोकोत्तरमिथ्यादृष्टीनामपि घनतरशेषजैनागमश्रद्धानं मिथ्यात्वं, सर्वजैनागमश्रद्धानस्यैव सम्यक्त्वभवनात् । यदाह-पयमक्खरंपि इक्कंपि, जो न रोएइ सुत्तनिद्दिनें ।
सेसं रोयंतो वि हु, मिच्छद्दिट्ठी मुणेयव्वो । १। ॥३४॥ स्वकल्पितमतस्थायि, जिनोक्तागमसम्मतेः । श्रद्धानमपि मिथ्यात्वं, गौणं तु देशदूषणात् ॥३५॥
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प्रथमो विश्रामः
व्याख्या-स्पष्ट: । नवरं-अत्र लौकिकलोकोत्तरमिथ्यादृष्टीनां जैनागमस्याश्रद्धानं मुख्यमिथ्यात्वं, श्रद्धानं च रुद्रावतारादिपोणिमीयकादि वीतरागप्ररूपितजैनागममननेन देशविसंवादात् गौणमिथ्यात्वं विवक्षितम् ।।३५।।
मुख्यमिथ्यात्वमेष्वल्प-मपि तालपुटं विषम् ।
असाध्यत्वात्तदुत्तीर्योदधि गोष्पदमज्जनम् ॥३६॥ व्याख्या-यद्यपि एषु-पञ्चसु कुपक्षेषु, मुख्यमिथ्यात्वं अल्पं, पुनस्तथापि तत्तालपुटविषं परिज्ञेयं । कस्मात् ? असाध्यत्वात्निकाचितत्वात् 'तदुत्तीर्ये'-त्यादि । घनतरं जिनशासनं यथावस्थितं विनिश्चित्य अत्पेषु स्थानेषु स्वाभिनिवेशादेरुत्सूत्रममुञ्चताममीषां समुद्रमुत्तीर्य गोपदिकायां निमग्ना इति लोकाभाणकोऽपि सत्योऽभवत् ॥३६॥
अनल्पं मुख्यमिथ्यात्वं, गृहिलिङिगकुलिङिगनाम् । यद्यपि स्यात् पुनस्साध्यं, वत्सनागविषं यथा ॥३७॥ स्पष्टः। मिथ्यात्वबन्धमाश्रित्य, लौकिकेभ्योऽधमा अमी ।
उत्तमाः पुनराश्रित्य, ग्रन्थिभेद क्रियाफले ॥३८॥ व्याख्या-अमी लोकोत्तरमिथ्यादृष्टयो मिथ्यात्वबन्धमाश्रित्य लौकिकमिथ्यादृष्टिभ्योऽधमाः। एतेभ्योऽमी तीव्रमिथ्यात्वं बध्नन्ति। अत एवाऽधमा इत्यर्थः ।
उक्तं च-'उस्सुत्तमायरंतो, बंघइ कम्मं सुचिक्कणं जीवो' । (उप०माला) ग्रन्थिभेदमाश्रित्य उत्तमत्वमाह-समानसङख्यलौकिक मिथ्यादृष्टीनामपेक्षया लोकोत्तरमिथ्यादृष्टीनां जिनवचनादेर्गाढतराभ्यासेनानुमोदनया बहूनां ग्रन्थिभेदस्य सम्भवात् । अत्र याऽपि
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
साऽपि समानसङख्या निजस्वेच्छया विधीयते । तत्रका प्रदर्श्यतेएकतो विंशतिलौकिका एकतो विंशतिर्लोकोत्तराश्च क्रियन्ते। ततो लौकिकविंशतेमध्ये स्तोका लोकोत्तरविंशतेमध्ये पुनर्घनतरा भिन्नग्रन्थयः प्राप्यन्ते इत्यर्थः । ग्रन्थिभेदाऽनन्तरं कथं मिथ्यात्वमित्याह-ग्रन्थिभेदं कृत्वा कर्षकस्य श्रीमहावीरदर्शनान्मिथ्यात्वपतनवत् द्रव्यलिङ्गिनामपि उत्सूत्रपरिणामात् पुनरपि मिथ्यात्वपतनं । अथ क्रियाफलमाश्रित्योत्तमत्वमाह-ब्रह्मलोकादूर्ध्वमपि प्रैवेयकं यावत् यतिलिङ्गमिथ्यादृष्टीनामुत्पादस्योक्तत्वात् ।।
अथ प्रसङ्गाऽऽयातं गृहिलिङिगनां स्वरूपमाह-तथा द्रव्यलिङिगभक्ता गृहिलिङिगनोऽपि मतान्तरमिदमिति ज्ञातकर्तारो लौकिकगृहिलिङिगकुलिङिगनोरपेक्षया तीव्रमिथ्यात्विनो मन्तव्याः। द्रव्यलिङिगचारित्रिणस्तु गहिलिङिगकुलिङिगनोरपेक्षया लोकोतरभद्र कतयाऽल्पमिथ्यात्विनो ज्ञातव्याः ॥३८॥
क्रियानुरागात् पञ्चते, श्रिता मध्यमबुद्धिभिः ।
गताऽऽगमानुगामित्वाननुगामित्ववीक्षणः ॥३९॥ व्याख्या-एते पञ्च कुपक्षा: क्रियानुरागान्मध्यमबुद्धिभिर्लोकः श्रिताः - आदृताः, किंविशिष्टै: ? गते'त्यादि । गतं-यातं, आगमविषये नुगामित्वाननुगामित्वयोर्वीक्षणं येषां तः । इदमनुष्ठानमागमानुयायि इदमनुष्ठानमागमाननुयायि चेत्येवंरूपविमर्शरहितैरित्यर्थः ॥३९॥ अस्यैवार्थस्य समर्थनाय प्रभुश्रीहरिभद्रसूरीणामुक्तं दर्शयन्नाहबालः पश्यति लिङगं, मध्यमबुद्धिविचारयति वृत्तम् । आगमतत्त्वं तु बुधः, परीक्षते सर्वयत्नेन ॥४०॥ (षोडशकं) स्पष्टः ।
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द्वितीयो विश्रामः
इति गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याये प्रथमविश्रामः समाप्तः इति गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याये
प्रथमविश्रामस्य विवरणम् ॥
द्वितीयो विश्रामः । दिगम्बराणां लोकप्रसिद्धस्याऽऽद्यत्वस्यालीककारणं दर्शयन्नाह
पूर्वमप्रावृतिः कार्य, श्रमणानां ततोऽभिधाः ।
तास्ता हलायुधे तर्केऽप्याद्या नग्ना अतो जने ॥१॥ व्याख्या-श्रमणानां-श्वेताम्बराणां, पूर्व-पुरा, कार्ये सति अप्रावृतिरप्रावारक आसीत् । कार्याभावे सर्वदेव निरावरणत्वात्, सावरणत्वे पार्श्वस्थत्वभवनात् । ‘बंधइ कडिपट्टयमकज्जे' (उप० माला) इतिवचनात् । ततः - तस्मात् कारणात् हलायुधे-भट्टहलायुधकृतायां नाममालायां तास्ता अभिधास्तानि तानि नामानि उक्तानि । यदाह-'नग्नाटो दिग्वासा:, क्षपणः श्रमणश्च जीवको जैनः।
आजीवो मलधारी, निर्ग्रन्थः कथ्यते सद्भिः ॥१॥ श्वेताम्बराणां शास्त्रेषु श्रमणनाम्नः श्वेताम्बरे प्रसिद्धत्वाद्य एव श्वेताम्बरः स एव नग्नाटादिः । श्वेताम्बरव्यतिरिक्तस्य नग्नाटादेरसम्भवात् । श्रमणानां कार्ये वस्त्रधारितया मलिनवस्त्रदर्शनेन मलधारिहेमसूरेरिव मलधारिनामभवनात् । देहमलस्य शयनीयादिसंसर्गतःप्रायो व्यपगमात् कार्याभावे च वस्त्रत्यागदर्शनेन नग्नाटादिनामभवनात् । श्वेताम्बराणां नग्नत्वस्य मुख्यत्वान्नग्नाटादिनामभवने विरोधाभावात् । हलायुधनाममालानुसारेण तर्केऽपि
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
तर्कग्रन्थेऽपि नग्नाटादि नाम प्रोक्तं । प्रमाणग्रन्थेषु जैनदर्शनाक्षेपे नग्नाटो दिगम्बरः क्षपणक इति नाम श्रूयते इत्यर्थः । अतोअस्मात् कारणात्, जने - लोके, नग्ना-दिगम्बराः पाखण्डिनोऽपि आद्या अभूवन् । जनैः प्रमाणग्रन्थानुसारेणाऽऽद्या इति नाम | प्रदत्तमित्यर्थः । दिगम्बराणां कृत्रिममाद्यत्वं सिद्धमिति ॥ १ ॥
प्राक् श्लोकोक्तस्य कृत्रिमाऽऽद्यत्वस्य स्थापकं प्रत्यक्षप्रमाणं दर्शयन् लोकाऽऽद्यत्वं चोत्थापयन्नाह -
२२
प्रमा शत्रुञ्जये भुक्तिः, स्थानं चैतत्तलाट्टिका । मिथ्यात्ववच्च लोकोक्त्या -ऽप्याद्यत्वे सत्पथो न ते ॥ २ ॥
व्याख्या - दिगम्बराणां कृत्रिमाऽऽद्यत्वे श्रीश्रमणसङ्घस्याकृत्रिमाऽऽद्यत्वे च श्रीशत्रुञ्जये तदुपलक्षिते श्री उज्जयन्ते च तच्छृङ्गत्वादस्य भुक्तिः - आयत्तता, प्रमा-प्रमाणं, अक्षरादिभ्योऽपि भुक्तेर्बलीयस्त्वात् । महातीर्थद्वयरयास्य बिम्बाञ्चलपुण्डरीकप्रतिमावेष करणवागदेरायत्ततया श्रीश्रमणसङ्घपादानामेवाद्यत्वं । न केवलं शत्रुञ्जये भुक्तिः प्रमा, स्थानं च नगराख्यं महास्थानं प्रमाणं, सकलजनपदप्रसिद्धाऽऽद्यत्वस्य । स्थानस्यास्य तालानिवेशे श्वेताम्बरीयप्रासादद्वयस्यैव भवनात् । नहि शालातालानिवेश विना स्थाननिवेश: । तालाशब्देन जिनभवनं लभ्यते ।
यदाह-' शाला तु ब्रह्मशाला स्यात्, ताला तु जिनमन्दिरम् । उभयोर्यत्र संयोगस्तद्धि स्थानं प्रकीर्तितम् ॥ १॥
किविशिष्टं स्थानं ?, 'एतत्तलाट्टिका' एतस्य महातीर्थस्य तलाट्टिका - तलहट्टिका । अस्मिन् महातीर्थे हि पञ्चाशद्योजनमूलविस्तृते चटितो ( तात् ) क्षितेः प्राक् स्थानस्यास्य तलहट्टिकात्वेन प्रसिद्धेस्सम्भवाच्च । परितोऽन्यत्र सर्वत्र समुद्रस्यैव निकटवत्तित्वात् ।
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द्वितीयो विश्रामः
"
अभ्युपगम्य वा ब्रूमः 'मिथ्यात्वे' त्यादि । चः समुच्चये । मिथ्यात्ववत्मिथ्यात्वमिव ते तव, आद्यत्वे सति लोकोक्त्याऽपि लोकवाक्येनाऽपि, न सत्पथः सन्मार्गो, विद्यते । किमुक्तं भवति यथा हरिहरब्रह्मप्रभृतिकं मिथ्यात्वं लोकेन सत्पथतयाङ्गीकृतं, तथा न त्वं । यदि लोकस्य चेतसि त्वदीयमाद्यत्वं विद्यते, ततः कथं लोकोऽयं त्वन्मार्गं नाङ्गीकुरुते ? गडरिकाप्रवाहेण त्वदाद्यत्वं वदतीत्यर्थः । अथवा यथा मिथ्यात्वस्य लोकोक्त्याऽप्याद्यत्वे सति सत्पथो नास्ति । तवाऽपि सम्मतमेतत्, तथा भवतोऽपि न सत्पथः । तद् वृथाऽऽद्यत्वाभिमानः । न ह्याद्यत्वमेव सत्पथत्वे हेतुः । य एव विचारे क्षोदक्षमस्स एव सत्पथ इति सिद्धमेतत् ||२||
अमीषां सत्पथाभावं दर्शयन्नाह -
,
पिण्डशुद्धिः कुतस्तेषां द्रव्यक्षेत्रादितोऽत्र यैः । त्यक्त्वा माधुकरीं वृत्ति, श्रितमेकत्र भोजनम् ||३|| व्याख्या - तेषां दिगम्बराणां, कुतः - कस्मात् पक्षात् ? न कुतश्चिदित्यर्थः । पिण्डशुद्धि:- आहारशुद्धिरत्र - जिनशासने, कस्मात् ? या प्रोक्ता इत्याह- द्रव्यक्षेत्रादितो द्रव्यक्षेत्र कालभावतः । यैर्नग्नाटैमधुकरीं वृत्ति- मधुकरस्येवानियतरूपां
२३
"
>
जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं णय पुप्फं किलामेइ, सो य पिणेइ अप्पयं' ||१|| ( दशवे ० ) इत्यादिसूत्रोक्तां त्यक्त्वा परित्यज्य एकत्र - एकस्मिन्नेव गृहे भोजनं श्रितं । एकस्मिन्नेव गृहे भुञ्जानानां कुलो द्रव्यस्य शुद्धि: ?, आधाकर्म पश्चात्कर्मादिदोषदूषितत्वात् । तथा कुतः क्षेत्रस्य शुद्धि: ?, भोक्तृलोचनाऽगोचरक्षेत्र स्थितवस्त्वानयने दातृपादोपमदितजन्तुसन्तानदोषदूषितत्वात् । तथा कुतः कालस्य शुद्धि: ?, उत्सर्गतो
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
२४
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दैगम्बरपिण्डमाश्रित्य सदा दूषितत्वात् । स कश्चित्कालो नास्ति यस्मिन्नसौ पिण्डः शुद्धो भवेदित्यर्थः । तथा कुतो भावस्य शुद्धिः ? भोक्तुः सम्पूर्णाहारग्रहणे निरपेक्षतया अल्पद्धि कस्य दातुराहारदाने सापेक्षतया उभयोरपि क्षुद्वेदनोपशमाभवनभयेन चाहारशुद्धयन्वेषणापरिणामाभावेन दूषितत्वात् । क्षुद्वेदनोपशमनाभवनभयस्य भाजनवादनेनापि सिद्धत्वात्। न च महद्धिकाऽऽवासे शुद्धेस्सम्भवः, सर्वत्र सर्वदा त्रिदण्डोत्कालितमुष्णोदकं सौवीरं च विना जलशुद्धेरभावात् । यतेराचीनान्तरालाल्पद्धिकगृहोल्लङघनं पुण्यान्तरायभवनेन महद्धिकाऽऽवासे गमनस्य महादोषदूषितत्वात् । तदित्थं यतिधर्मसाराहारशुद्धेरभावेन कुतोऽमीषां सत्पथः ? ॥३॥ सचेलधर्म स्थापयन्नाह
त्रस्तास्सुसङगतस्सङगे, हिले वान्ते च येऽपतन ।
वह न्यम्बु कुण्डिकापिच्छ-च्छात्रतृणपटादिके ॥४॥ व्याख्या-ये दिगम्बराः ‘सुसङगतः' सुष्ठुः - शोभनो, निरवद्यत्वेन यस्सङगश्चतुर्दशोपकरणरूपः परिग्रहस्तस्मात् अस्ता:नष्टाः, अपतन् । क्व ? सङगे, कथम्भूते ? हिंस्र-जन्तुघालकृति, वान्ते-सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानेन शास्त्रानुक्तत्वेन वोत्सृष्टे, कस्मिन् सङगे ? 'वन्हि' इत्यादि । वन्हिः-उपासककारितशकटिकाग्निः अम्बु-कमण्डलुजलं, कुण्डिका-कमण्डलुः, पिच्छं-निषिद्धत्रसाङगमयूरपिच्छनिष्पन्नपिच्छिका, छात्रा-ग्रासोपजीविन उपचारकाः, तृणपट्टः - सद्दरिका, आदिशब्दान्मठासनादिपरिग्रहः । तस्मिन्, 'निपानानष्टा धेनु: कूपे पतिते 'ति लोकाऽऽभाणकस्सत्यो विहित एभिरित्यर्थः ॥४॥
वयं परिग्रहस्यास्य प्रायश्चित्तं गृहीम इत्येभिः कृतमुत्तरमुत्थापयन्नाह
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द्वितीयो विश्काया
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प्रायश्चित्तं न ते सङगा-दस्माद्धङगस्सकृन्न यत् ।
नातिचारोऽपवादो न, सदा भडगो व्रतेष्वसौ ॥५॥ व्याख्या-ते-तव, असाध्यव्याधेः प्रतीकारवत् प्रायश्चित्तं न स्यात् । कुतः ? इत्याह-प्रायश्चित्तं हि सकृद्भङगस्य अतिचारस्य वाऽपवादस्य वा भवेत् । न तावत् तवाऽस्मात्सङात्-परिग्रहात् व्रतेषु सकृद्भङगः, स हि सकृदेकवारं व्रतभङगतोऽपुनःक्रियान्वितपरिणामस्य स्यात् । तथास्मात् सङगात् तव व्रतेष्वतिचारो न, स हि अनाभोगकृतो भङगाभङगरूपो वा स्यात् । तथा अस्मात् सङगाद् व्रतेष्वपवादो न, स हि गुरुलाघवालोचनया कदाचित्कारणे स्यात् । ततस्तव कुतः प्रायश्चित्तं ? केवलं व्रतेषु-पञ्चसु महावतेषु, असौ-प्रत्यक्षोपलक्षमाणस्सदा भङगः, अपुनःक्रियान्वितपरिणामाऽभावेनाहर्निशमासेवनात् । गुरुलाघवालोचनविरहितानामाभोगवतां सदा भग्नव्रतानां भवतां किं नाम प्रायश्चित्तं ? केवलं वृत्तभङगात् पातकमेवेत्यर्थः । अनाप्तोपदिष्टाऽशक्यानुष्ठानाङगीकारफलमेतत् ।।५।।
इत्थमशक्यानुष्ठानस्याङगीकारभङगौ तव बलादापन्नौ । ततो यतिधर्मपृष्ठलग्नत्वादुपासकधर्मस्यातस्त्वदुपासकस्य देशतस्तौ किं न स्यातां ? इति पृच्छतः श्राद्धस्य वृद्धत्वं दर्शयश्चाह
कि नाऽशक्यवताऽऽदान-भङगौ श्राद्धेऽनुगामिनि ? ।
व्रताऽभङगाद् भवद्भयोऽपि, वृद्धः श्राद्धःप्रसज्यते ॥६॥ व्याख्या-यदि युष्माभिस्सदा भङ्गोऽपि तत्त्वबुद्धयाऽङ्गीकृतः, ततोऽनुगामिनि पृष्ठलग्ने श्राद्धे-उपासके, अशक्यव्रताऽऽदानभङ्गो किं न स्याताम् ? अशक्यं कर्तुमशक्यं यद् व्रतं-नियमस्तस्यादानंग्रहणं भङ्गश्च । किमुक्तं भवति-अशक्तौ सत्यां उपवासादिप्रत्या
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
ख्यानं विधाय क्षुधाद्युदये भोजनादिकरणमुचितं तावकोपासकानाम् । न चैतदस्ति, ततः किमभूत् ? इत्याह श्राद्धो भवद्भूयोऽपि वृद्धः प्रसज्यते, कस्माद् ? व्रताभङ्गात् । श्राद्धानां यथा गृहीतव्रतपालनेन भग्नव्रतेभ्यो युष्मद्भूयो वृद्धत्वं युक्तमेव ॥ ६ ॥
'२६
अल्पाऽऽरम्भेभ्योऽस्मद्भ्यो बहु वारम्भाणां श्रावकाणां कथं वृद्धत्वं ? इति पराऽऽशङ्कां परप्रतिज्ञां चाक्षिपन्नाह -
त्वं च्युताविरतः स्वल्पा- रम्भोऽप्यग्रन्थताव्रते । मुदे प्रतिज्ञाऽऽघाऽऽत्व, चेत्तत्तेऽस्तु भवास्थितौ ॥७॥
ब्याख्या-त्वं स्वल्पारम्भोऽपि गृहस्येभ्यः 'च्युताविरत: ' च्युतचासो अविरतश्च पञ्चमहाव्रतरूपभूधरशिखराच्च्युतः पतितः, व्रतभङ्गानन्तरं कस्यचिन्नियमस्थानादानादविरतः । ततो देशविरतेभ्यः श्रावकेम्योऽगृहीतनियमोऽविरतः श्रावको जघन्यः । ततोऽपि भग्ननियमानन्तरं अगृहीतनियमत्वेनाविरतश्रावको जघन्यतरः । ततोऽपि भग्नपञ्चमहाव्रतानन्तरं भूमित्रयमपरित्यज्या गृहीतनियमत्वेन अविरतो जघन्यतमस्स एव च्युताविरतः । एवंरूपात्त्वत्तः श्रावको वृद्ध एव । तथा अग्रन्थताव्रते - सर्वसङ्गपरित्यागलक्षणे महाव्रते, आढया-गाढतरा, प्रतिज्ञा - तन्तुमात्रमपि परिग्रहं न धारयामीतिलक्षणा, आत्तैव- गृहीतव, न पालिता मुदे - हर्षाय ते तव विद्यते इति चेत्ततो भवास्थितौ संसारत्यागे गाढा प्रतिज्ञा संसारे क्षणमपि न स्थास्यामीतिलक्षणा अस्तु भवतु । किमुक्तं भवति - गाढप्रतिज्ञायाः पालनफलत्वात् । तव पुनर्निर्वहणाभावेपि गाढगृहीतप्रतिज्ञयैव प्रमोदस्ततोऽधुनैव मोक्षे यास्यामीति प्रतिज्ञामपि गृहाण | गाढत्वे प्रमोदजनकत्वे निरवधित्वादस्याः, तत्कालं न च मोक्षं यास्यसि ।
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द्वितीय विश्रामः
न च परिग्रहं विना स्थातुं शक्ष्यसि । बालग्रथिलप्रलपितमिव तव
वचनमिति ||७||
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अवाच्यं यदचिन्त्यं तत्, तच्चाद्रष्टव्यमेव तत् । अज्ञानाः पशुधर्मास्ते, सुस्त्रीणां वर्शयन्ति ये ॥ ८ ॥
}
व्याख्या - यत् पुरुष चिह, नप्रभृतिकं अवाच्यं - लिङ्गोपस्थादिकं प्रकटनाम्ना वक्तुमयोग्यं भवतोऽपि सम्मतत्वात्, तद् अचिन्त्यं - चेतसि चिन्तनायोग्यं विकारफलत्वात्तच्चिन्तनस्य । न केवलं तदचिन्त्यं, अद्रष्टव्यमेव दृष्टुमयोग्यं विकारफलत्वादेव ।
अत्राहुर्नग्नाटा:- अस्मल्लिङ्गदर्शनेन वनितानां चेतसि विकारो न स्यात् । असंवृतलिङ्गस्य वैरूप्यावलोकनेन गतभ्रमत्वात् ।
उक्तं च- ' संवृतान्येव रम्याणि शरीराणि मनांसि च ' । उच्यते - त्वल्लिङ्गदर्शनेन विरक्तवृद्धस्त्रीणां पुरुषाणां च चेतसि विकारो न स्यात् । यौवनमदनाऽऽक्रान्तवनितानां चेतसि विकारवृद्धेः, निरावरणयोषिति पुरुषविकारवन्निरावरणपुरुषेऽपि योषिद्विकारसम्भवात् 'नग्नां दृष्ट्वा श्रद्धा लग्ने' ति लोकाभाणकेन सकलविश्वानुभवतः सिद्धमेतत् । ततो ये नग्नाटा: पुलिङ्गंसुस्त्रीणां कुलस्त्रीणां दर्शयन्ति, ते अज्ञानाः पशुधर्मा अव सातव्याः । यथा पशवोऽसंवृतगुह्यास्तथैतेऽपि ॥८॥
,
--
अपास्ता यदि मर्यादा, द्रष्टव्याऽचिन्तनीययोः । अवाच्यस्य यथा नाम्ना, तदुच्चारो न किं मिथः ? ॥९॥ व्याख्या - यदि त्वदीये अद्रष्टव्यस्य अचिन्तनीयस्य च मर्यादा अपास्ता - निराकृता, अद्रष्टव्यमचिन्तनीयं च चेत् त्वदीयं लिङ्गं कुलस्त्रियः पश्यन्ति चिन्तयन्ति चेत्यर्थः । ततोऽवाच्यस्य त्वल्लि
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अगस्य यथा नाम्ना - लोकप्रसिद्धेन नामधेयेन, मिथ: - परस्परं, यतिस्त्रियोरुच्चारो- जल्पनं किं नाभूत् ? । गुह्येऽपि अद्रष्टव्यता:चिन्तनीयतयोर्मर्यादयोर्बलवत्त्वात् 1 सकललोकपालनीयत्वेन शास्त्रोक्तत्वेन च ।
उक्तं च- ' गुज्झोरुवयणकक्खोरु अंतरे तह थणंतरे दठ्ठे । साहरइतओ दिट्ठि, नय बंधई दिट्ठिए दिट्ठि || १ || ( उप० माला) तथा च - विषस्य विषयाणां च दूरमत्यन्तमन्तरं ।
२८
उपभुक्तं विषं हन्ति, विषयाः स्मरणादपि ॥२॥ नाममर्यादायास्तु अनियतत्वात् यदेकस्मिन् देशे गुह्यस्य नाम वक्तुं निषिद्धं, तदपरस्मिन् व्यवहृतं । तव (त) आद्य मर्यादायलोपे नाममर्यादापालनस्याकिञ्चित्करत्वात् ||९||
गुरुदेवमुखोत्कण्ठाऽऽयतैलिङगं धिगीक्ष्यते ।
अञ्चल स्पर्द्धया स्वामी, हो ! नग्नत्वाद् विडम्बितः ॥ १० ॥ व्याख्या - गुरुदेवयोर्मुखं वयं विलोकयिष्याम इत्युकण्ठया आयात र्जनैः । मठे देवगृहे च गुरुदेवयोलिङ्गं ईक्ष्यते - दृश्यते, धिगिति खेदे, महत्यविवेकितेयं । तथा स्वामी - वीतरागो, ही इति खेदे, नग्नत्वात् - नग्नप्रतिमाकरणेन विडम्बितः । कया ? अञ्चल - स्पर्द्धया । कथानक । दवसेयमेतत् । तच्चेदं - श्री उज्जयन्तसम्बन्धिदिगम्बरविवाद विजयानन्तरं श्रीसङ्घपादैः स्वबिम्बोपलक्षणार्थ पाश्चात्यानां विवादरक्षणाय च बिम्बेष्वञ्चलः कारितः । अञ्चल स्पर्द्धया बिम्बेषु दिगम्बरैलिङगस्य प्रकटावयवाश्चक्रिरे तद्दिनादूर्ध्वमुभयोरपि बिम्बानि सदृशान्येवाऽऽसन् ॥ १० ॥
शिवभूतिर्यथा सूत्रात्, नग्नत्वं शिश्रिये हठात् । सूत्रान्तरमनालोच्य न तथा पूर्णिमामपि ॥११॥
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द्वितीयो विश्रामः
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व्याख्या - शिवभूतिर्न ग्नाटमताकर्षकः प्रथमो नग्नाटो, यथायेन प्रकारेण सूत्रात्-सिद्धान्तान्नग्नत्वं शिश्रिये हठाद्-अभिनिवेशात् । असौ हि सिद्धान्ते जिनकल्पाऽऽचारं निशम्य गुरुगृहीतरत्नकम्बलाभिनिविष्टो गुरुमवादीत् कथमसौ जिनकल्पोऽधुना न विधीयते ? | गुरुराह - विच्छिन्नोऽधुना ।
1
२९
यतः - मणपरमोहिपुलाए, आहारगखवगउवसमे कप्पे । संजमतिय केवलसिज्ज्ञणा य जंबुमि वुच्छिन्ना ॥ १ ॥ ( विशेषाव ० ) इति गुरुक्तं सूत्रान्तरमनालोच्य 'यूयं निस्सत्वाः ततो व्यवच्छिन्न इति ब्रूथ | अहं तु जिनकल्पमङ्गीकरिष्ये' इत्युक्त्वा नग्नतां श्रितवान् । तथा तेन प्रकारेण चतुर्मासकपूर्णिमामप्यसौ न शिश्रिये, किन्तु सर्वदाऽऽदृतां चतुर्दशीमेव श्रितवान् । ततोऽनेन गुणेन चन्द्रप्रभाचार्यादसी अधिक इत्यर्थः । इति चतुर्दश्याः प्रामाण्यमुपदर्शितम् । यदि शिवभूत्याश्रितो जिनकल्पोऽप्रमाणं ततः चन्द्रप्रभाचार्यश्रिता पूर्णिमाप्यप्रमाणं ' आयरणा वि हु आणा' इति सूत्रान्तरमनालोच्य सूत्रदृष्टपूर्णिमायाः श्रितत्वात् ॥ ११॥
नग्नत्वं चित्तसामर्थ्या-दिति चेत्तद् भवत्वदः ।
वेश्यान्तस्तु कुलस्त्रीषु, पापाय स्वापवत् तव ॥ १२ ॥ व्याख्या–नग्नत्वमस्माकं 'चित्तसामर्थ्यात् ' नग्नत्वेन मदनपराभवसमर्थ मास्माकीनं मानसमुपलक्ष्यते इति चेत् । ततः तत्तस्मात् कारणाददो नग्नत्वं भवतां भवतु, तु-पुनर्वेश्यान्तःपण्याङ्गनानां मध्ये, नग्नो भवेत्यर्थः । किमित्याह यतस्तव नग्नत्वं कुलस्त्रीणां मध्ये पापाय क इव ?, स्वापवत् । यथा कुलस्त्रिया सममेकत्र शयनं निर्विकारमनसोऽपि तव लोकविरुद्धत्वात् स्त्रियो विकारहेतुत्वेन च पापाय तथा नग्नत्वमपि ॥ १२ ॥
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गुरुतत्त्वप्रदीप
शास्त्रकृता शास्त्रे मार्गः खरतर एव प्ररूपणीयो। यथा तमनुधावन्ति लोका: । अतस्तथाऽऽस्माकीनशास्त्रकृता शास्त्र नग्नत्वं प्ररूपितं, यथा वस्त्रादिपरिग्रहनिमग्नत्वेन यते: इलथत्वं न भवेदिति परोक्तमाक्षिपन्नाह
स्वच्छास्त्रमश्लथत्वाया-ऽवह न्यादिः कोऽपि कि न ते ? । किञ्चोक्तः श्रावकोऽशक्ते-नोक्तं शक्यं यतेः किमु ?॥१३॥
व्याख्या-यदि त्वच्छास्त्रं अश्लथत्वाय-खरतरत्वाय, ततः किं अवह न्यादिः - वह न्यम्बुकुण्डिकापिच्छच्छात्रतृणपटादिपरिग्रहविरहितस्ते-तव कोऽपि किं न विद्यते ? समग्रनग्नाटानां निर्वहणाभावतो बह न्यादिपरिग्रहनिमग्नत्वात् । तथा त्वच्छास्त्रे श्रावक:श्रावकधर्मः किमुक्तः ?, यतिधर्मापेक्षया श्रावकधर्मस्य श्लथत्वात् । श्रावकधर्मप्ररूपणया त्वच्छास्त्रकृतः प्रतिज्ञाभ्रष्टत्वात् । 'अशक्ते' रिति । यतिधर्मकरणशक्तेरभावात् श्रावकस्य शक्यः श्रावकधर्म उक्तः? इति चेत् । ततो यतेः शक्यं-शक्यानुष्ठानं किमु नोक्तं ? यो यतिधर्मः कर्तुं शक्यते, स कथं त्वच्छास्त्रकृता न प्ररूपितः ? इति ॥१३॥
विलग्नोऽग्निज्वलंस्तेऽसौ, शक्यस्यानुक्तितो ह्यतः ।
नाप्तस्त्वच्छास्त्रकृत्तन्मे-त्यभङगां नग्नतां श्रृणु ॥१४॥ व्याख्या-शक्यस्य-शक्यानुष्ठानस्य चतुर्दशोपकरणरूपस्यानुक्तितः - अप्ररूपणात्, हि-र्यस्मात् कारणात् असौ ज्वलनग्निःशकटिकाग्निः, . अम्बकुण्डिकापिच्छच्छात्रतृणपटादिपरिग्रहोऽपि हिंसाहेतुतया चारित्रज्वालनादग्निरेव परिज्ञेयोऽत्र, ते-तव, विलग्नः 'ज्वलन्नग्निविलग्न' इति लोकाऽभाणकोऽपि सत्यस्तवाऽभूदिति । अतो-अस्मात् कारणात् त्वच्छास्त्रकृत् 'नाप्तः' अशक्यानुष्ठानप्ररू
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द्वितीयो विश्रामः
पणया अज्ञानित्वेन शास्त्रकृतोऽनाप्तत्वमेवानुमीयते । तत-तस्मात् कारणात् हे नग्नाट ? मेऽपि-ममापि नग्नतां-नग्नताव्रतं, अभङगांव्रतभङगरहितां, श्रृणु ॥१४॥ ग्रन्थकारः स्वकीयामाप्तोपदिष्टां नग्नतां षड्भिः श्लोकैदर्शयन्नाह
कश्चित् पूर्णाधिकन्यून-नवपूर्वधरो मुनिः । स्वार्थायाऽऽश्रित्य तां गच्छेद्, गच्छात् सिंह इवैककः ॥१५॥
व्याख्या-कश्चिन्मुनिस्तां नग्नतां जिनकल्पोक्तां आश्रित्य गच्छेत् गच्छाद्-गच्छं परित्यज्य, किमर्थं ?, स्वार्थाय । किंविशिष्ट: ? 'पूर्णे'त्यादि । अधीतसम्पूर्णनवपूर्वोऽधीताधिकनवपूर्वःकिन्यूिनदशपूर्वधर इत्यर्थः, अधीतन्यूननवपूर्वः। इत्थमष्टपूर्वधरस्य दशपूर्वधरादेश्च जिनकल्पाऽऽश्रयणनिषेध उवतः । सिंह इव एककोऽद्वितीयः ।।१५।।
कायोत्सर्गः क्रियाकालं, विनाऽस्मिन् सप्तयामिकः । विहाराऽऽहारनीहारा-स्तृतीयप्रहरे दिवा ॥१६॥ व्याख्या-अस्मिन् जिनकल्पिके कायोत्सर्गः सप्तयामिको भवति । क्रियाकालं विना-प्रतिलेखनाकालं मुक्त्वा, अहोरात्रस्य मध्ये सप्त प्रहरान् कायोत्सर्गस्थित एवाऽऽस्तेऽसौ इत्यर्थः । तथाऽस्य महात्मनो दिवा-दिवसे, तृतीयप्रहरस्य मध्ये विहार आहारो नीहारश्च भवति ॥१६॥
खगाद्यवाञ्छितत्यज्य-मानभिक्षाग्रही च यः ।
अलाभे तु निराहारः, षण्मासानवतिष्ठते ॥१७॥ व्याख्या-यो महात्मा 'खगे'त्यादि। खगैः - पक्षिभिःकाकाद्यैरादिशब्दात् श्वानादिभिर्या अवाञ्छिता-अनभिलषिता,
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
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त्यज्यमाना च भिक्षा, तस्या ग्रहः - आदानं विद्यते यस्य स । उत्तरार्द्ध स्पष्टम् ॥१७॥
मार्गभेदी न सिहेऽपि, शीतवाताऽऽतपाजितः ।
सप्तोत्कृष्टत एकत्र, वसेयुमानिनो मिथः ॥१८॥ व्याख्या-पूर्वार्द्ध स्पष्टं । 'सप्ते'त्यादि । सप्त जिनकल्पिका उत्कृष्टत एकत्र स्थाने वसन्ति । तथास्वभावादेवाधिका एते न भवन्ति, इत्यल्पत्वममीषां निवेदितं । किविशिष्टाः ?, मिथः - परस्परं, मौनिनो-मौनमुद्रावलम्बिनः ।।१८।।
एवं समर्थे त्यक्तान्य-कार्येऽस्मिन्नग्नतां ददौ ।
प्रभावात् संवृतावाच्यः, स्वयं तु त्रिजगत्प्रभुः ॥१९॥
व्याख्या-स्पष्ट: । नवरं-समर्थे-जिनकल्पपालनक्षमे । त्यक्तगच्छादिकार्यत्वेन स्त्रीप्रचाराभावात् ।।१९॥
मुनेभिक्षागतस्याय-वाच्ये दृष्टिः क्वचिन्मिता । नृणां स्त्रीणां व्रजेद् या सा,ऽप्यदुष्टा शुभकालतः ॥२०॥
व्याख्या-मुनेजिनकल्पिकस्य भिक्षागतस्यापि अवाच्येलिङगे क्वचिन्मिता-स्तोका, नृणां स्त्रीणां या दृष्टिः व्रजेत्-गच्छेत्, सापि अदुष्टा-अविरोधिनी । कस्मात् ?, शुभकालतः । पूर्व हि कालस्वभावादेव पुरुषाणां चेतसि दिगम्बरलिङगदर्शने अधुनातनयतिलिङगदर्शने (अधुनातनयतिलिङगदेशादि) पुरुषद्वेषवन्न प्रायो द्वेषः । अन्यथा न्यायघण्टाग्लङकृतरामराज्यादेरसम्भवात् । न चाधुनातनविप्लुतस्त्रीरागवत् पुरातनकाले स्त्रीणां चेतसि प्रायो रागः । अन्यथा सीतादिमहासतीनामसम्भवात् ॥२०॥
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द्वितीयो विश्रामः
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ऋषीणां शीतवेदनोपशान्तये स्वयमेवोपस्थितानामुपासकानां शकटिकाग्निप्रज्वालने को नामास्माकं दोष: ? इति परोक्तमुत्थापयन्नाह
निमित्तताऽग्निवस्त्रे ते-ऽनुमतिश्चानिषेधतः ।
स्वेदान्मे वस्त्रयूकाश्चेत्, तत्तेऽप्यावृतिजन्तवः ।।२१।। व्याख्या-ते-तव, अग्निवस्त्रे-अग्निरेव शीतत्राणकारितया वस्त्रं अग्निवस्त्रं, तत्र निमित्तता-कारणभावोऽभूत् । त्वत्कारणेनोपासकैरग्निवस्त्रं कृतमित्यर्थः । तथा अनिषेधतोऽग्निवस्त्र ते-तवानुमतिर्बभूव । अप्रतिषिद्धमनुमतमिति विद्वत्प्रवादात् । चेद्-यदि, मे-मम स्वेदाद् वस्त्रे यूका भवन्तीति मन्यसे, ततस्तेऽपि-तवापि, आवृतिजन्तवः - अग्निवस्त्रतृणपटोत्थाः प्राणिनो भवन्ति ॥२१॥
यूकानां पालनं मे ते, जन्तूनां हिंसनं पुनः ।
श्रुतं छिन्नं न कि यूयं, श्रुतोद्धारोऽप्यसौ न किम् ? ।।२२।। व्याख्या-न तावत् सर्वेष्वपि वस्त्रेषु सर्वदैव यूकानां संसक्तिः। याः काश्चिदप्रशस्यवस्त्रेषु कस्यचिद् वायोर्वशतः स्वेदसंसर्गात् पतन्ति, तासां स्वापत्यवत् परिपालनेन मम दोषाऽभावः । ते-तव पुनरावृतिजन्तूनां हिंसनमेव । तद्यथा-अग्निवस्त्रे प्राणिहिंसा प्रकटव, तृणपटे तु प्रक्षालनादेः कुन्थुपनकादिवधः स्यात् । तदित्थं हिंसासक्तानां भवतां सर्वथैव व्रताभावः । नग्नाटानां श्रुताभावतोऽपि पाखण्डित्वं घटते। यतः- श्रुतं छिन्नं वदन्त्येते । वक्तव्यास्तहि-यदि यौष्माकीणे श्रुतं छिन्नं, ततः कथं यूयं न छिन्नाः ? यतः पाठकानामभावे श्रुतच्छेदसम्भवः, ततः प्रथमं युष्माकमेव छेदो घटते । तथा असो वर्तमानश्रुतोद्धारो यौष्माकीणे मते किं न छिन्नः ? । श्रुतरक्षणाशक्तौ श्रुतोद्धाररक्षणाशक्तेरपि सम्भवात् ।
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
श्रुत-श्रुतोद्धाररक्षणे समानोपायत्वात् । प्रकरणपठनप्रज्ञायां सिद्धान्तपठनप्रज्ञाया अपि भवनात् । तदेवं त्वदीये पाठकानां प्रकरणानांच दर्शनात् स्वल्पस्याऽपि सिद्धान्तस्याऽदर्शनाच्च प्रकरणानां स्वमतितल्लितत्वेन सङघबाह्यत्वमित्यर्थः ।।२२।।
इत्थं स्वकृपाणच्छिन्नवत् स्ववचनहते रेभिः श्रुतं न छिन्नमित्यलीकं कृतमुत्तरमुत्थापयन्नाह. . अतं निवेत्तते, शास्त्रे तल्लक्षणं न किम् ? ।
यस्प: तविक त्वं, सङधः श्वेताम्बरोऽभवत् ॥२३॥ व्याख्या-चेत्-यषि, स्वदीये श्रुतं न छिन्न-सिद्धान्तो विद्यते इत्यर्थः । (तत्) ततः ते-तव, तल्लक्षणं-किं न ? । केवलं स्वयम्भू-पुष्पदन्त-भूतबलिप्रभृतिसामान्यशास्त्रकारनामाङिकतान्येव शास्त्राणि दृश्यन्ते । कस्मिश्चिच्छास्त्रे न तीर्थकसदिप्रणीतत्वप्रसिद्धिश्रवणं, न च योगोदहनादिकम् । योगोद्वहन विना हि श्रुतश्रुतोद्धारयोरन्तराभवनात् । आस्तामविसंवादिताविलोकनादिविशेषलक्षणं, सामान्यलक्षणाऽभवनेऽपि श्रुतमस्तीति महालीकवादिनो भवतः किं सिद्धं ?; इत्याह-'सङघ'त्यादि । इत्थममुना प्रकारेण श्रुताऽभवनलक्षणेन त्वं सङघस्पर्धी-सङघबाह्योऽभवः । श्वेताम्बरः सङघोऽभवत्, समग्रश्रुतलक्षणाऽलङकृतस्य श्रुतस्याङ्गीकारात् । श्वेताम्बरसिद्धौ सिद्धस्सचेलधर्म इति ॥२३॥
अथ स्त्रीनिर्वाणं स्थापयन्नाहूनिशि पत्युविवा देव-गुर्वोलिङगस्य वर्शनात् ।
नोक्ता मुक्तिर्यतः स्त्रीणां, त्वदीये युक्तमेव तत् ॥२४॥ व्याख्या-स्पष्ट: । नवरं-लिङगदर्शने हि मिथ्यात्वं शिवलिङ्गदर्शनवत् । तथा रागोत्पत्तिः स्यादतो न मुक्तिः ।।२४।।
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द्वितीयो विश्रामः
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मूर्छा वस्त्राद् भवेत्ते चेद्, न स्त्रियास्तदतोऽपितम् । .
वस्त्रं त्वया ततो मुक्तिस्त्वं पुनर्लोकपापभाक् ॥२५॥
व्याख्या-अत्राहुर्नग्नाटाः - वस्त्रस्योपरि मूभिवनादस्मा• भिर्वस्त्रं परित्यक्तम् । उच्यते-चेद्-यदि, वरत्रात्-वस्त्रग्रहणात्, ते-तब, मूर्छा मोहो भवति । ततः स्त्रिया वस्त्रग्रहणे सति न मूर्छा स्यादिति बलात् सिद्धं । अत्र हेतुमाह-अतो-अस्मात् स्त्रीमोहा भवनलक्षणात् कारणात् त्वया स्त्रीणां वस्त्रं समर्पितम् । यदि त्वद्वत् स्त्रीणामपि वस्त्रेषु मूर्छा उदपश्यत, ततः परमकारुणिकः त्वं न स्त्रीणां वस्त्रमार्पयिष्यः । अतस्त्वद्वस्त्रार्पणेनैवास्माभिरित्यनुमितं-यत् स्त्रीणां मूर्छा नास्ति । ततो मूर्छाया अभावे स्त्रीणां मुक्तिरिति सिद्धं । मोहनीयकर्मण एवात्यर्थ मोक्षविघ्नभूतत्वात् ।
ननु अस्मदाप्तेन लोकव्यवहारतः स्त्रीणां वस्त्रमर्पितम् । उच्यते-लोके काश्चित् योगिन्यो नग्ना अपि प्रेक्ष्यन्ते, तद् व्यवहारेण त्वन्नारीणामपि कासाञ्चिन्नग्नत्वमुचितं । तथा तहि त्वदाप्तेन तवापि लोकव्यवहारेण वस्त्रं किं नापितम् ? । ततः त्वत्तः स्त्री निर्मोहा इति बलादापन्नं, त्वं पुनर्लोकपापभाक् । त्वां नग्नां निरीक्ष्य यदसम्बद्धजल्पनादि पापं जनो विदधाति, तस्य पापस्य हेतुत्वेन त्वं विभागवानभूरित्यर्थः । यदि तव समोहस्य लोकपापभाजश्च मुक्तिस्ततः स्त्रीणां विशेषतो मुक्तिरिति ॥२५।।
अमीषां लोकपापहेतुत्वं दर्शयन्नाहलिङगे त्वगिव वस्त्रं हि, न ते तापसवत्तव । भैक्षं मठादौ स्त्रीवों, वस्त्रं च गृहिभोजने ॥२६॥
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व्याख्या-हि-यस्मात् कारणात्, ते-तव लिङगे त्वगिव न वस्त्रं । त्वदीये हि यस्य लिङगे त्वग् न भवति, स लोकपापहेतुतया नग्नो न स्यात् । ततो यथा लिङगाऽऽवारिका त्वम् त्वयादृता, तथा वस्त्रं लिङगाऽऽवारकं किं नादृतम् ? । अतो लोकपापं तव दौकितं।
___ ननु जनेऽपि नग्नतापसनिरीक्षणेन आस्माकीननग्नत्वस्य लोकविरुद्धत्वाऽभवनतो लोकपापं न स्यात् । उच्यते-तापसवन्मया नग्नत्वमङ्गीकृतमिति प्रतिज्ञाया अपि च्युतो भवान् । यतस्तापसवत् तव भक्षं न । यथा तापसेन पञ्चग्रासिकाऽऽदृता, तथा न त्वयेत्यर्थः। गृहस्थगृहबहिःस्थस्यैव वृद्धस्त्रीकर्मकराद्यानीतभिक्षामाददानस्यास्य नग्नत्वदोषाल्पत्वात् । मठादौ स्त्रीवर्जनं । यथा तापसेन स्वकीये मठे देवगृहे च नग्नानां मध्ये स्त्रियस्समागच्छमाना निषिद्धास्तथा न त्वया । 'वस्त्रं च गृहिभोजने' यथा गृहस्थानां गृहे भुञानेन तापसेन वस्त्रपरिधानमादत, तथा न त्वया । ततस्तव लोकपातकमनिवारमेवेति ।।२६।।
तापसापेक्षया जैनो, लौकिकश्च पयो न ते । जीवत्वादिस्वरूपंक्यान्, मुक्तिः स्त्रीमा नृणामिव ॥२७॥
व्याख्या-ते-तव, तापसापेक्षया न जैनः पथो-मार्गः । वीतरागस्य भगवतस्तापसमाग्र्गाननुमन्तृत्वात् । तापसस्याप्यन्यतरमिथ्यात्वपापवन्नग्नत्वमिथ्यात्वपापभवनात् । न च तव लौकिक: पथो। भैक्षाद्यनङगीकारात् । इत्थमुभयभ्रष्टस्य तव लोकपातकानुलग्नधावनवत्त्वतो लघुकर्मणां स्त्रीणां मुक्तिरनुलग्नव धावति। तथा स्त्रीणां मुक्तिरस्ति । केषामिव ? नृणामिव-पुरुषाणामिव, यथा पुरुषाणां मुक्तिः, तथा स्त्रीणामपीत्यर्थः। कस्मात् ? जीवत्वा
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mmmmmmmmmmmmwwwwwwwwwwwwwwwwer दिस्वरूपैक्यात् - स्त्रीपुरुषयोर्जीवत्वभव्यत्वादिस्वभावानामेकरूपत्वात् । यदुक्तं यापनीयतन्त्रे-'नो खलु इत्थी अजीवे' इत्यादि ललितविस्तरातः परिज्ञेयम् ॥२७॥
सप्तम्यूळगतेश्चेन्न, तदेवं तीर्थकृत्यपि । बलदेवा महात्मानस्तथा मुक्ति व्रजन्ति किम् ? ॥२८॥ व्याख्या-सप्तम्युयंगतेः-सप्तमनरकपृथिव्यामगमनादुत्कृष्टरौद्रध्यानाभावात् शुक्लध्यानाऽभवनेन न स्त्रीणां मुक्तिरिति चेत् । ततस्तीर्थकृत्यपि-तीर्थकरेप्येवं न मुक्तिरित्यर्थः। पूर्वोक्ततद्धेतोरेव। उत्तरार्द्धं स्पष्टम् ॥२८॥
यथा जन्मादि वहप्यात्, परभॊक्तं सदाशिवे । त्वया स्त्रीत्वं तथा नाथे, जन्माचं किमुक्तं ततः? ॥२९॥
व्याख्या-परौकिकैम्मिथ्यादृष्टिभिस्सदाशिवे यथा वैरूप्यात्-विरूपप्रतिभासनात् । जन्मादि-जन्ममृत्युगर्भवासादि, नोक्तं । तथा त्वया नाथे-तीर्थकरे स्त्रीत्वं नोक्तम् । ततस्तीर्थकरे जन्माचं कि उक्तम् ? किमुक्तं भवति-पत्री निर्वाणनिषेधाभिनिवेशाभिप्रायवान् भवान् विरूपप्रतिभासनदूषणाकर्षणमिषात् तीर्थकरे स्त्रीत्वममन्वानो जन्ममरणादिकं विरूपप्रतिभासनसमानं कथ मन्यते ? । तथाविधकर्मणो विपाकात् जन्माद्यं इति चेत्, ततः स्त्रीत्वमप्यस्तु। ततः कर्मक्षयात् स्त्रिया निर्वाणं सिद्धमिति ॥२९।।
अथ केवलिभुक्ति स्थापयन्नाह
मतिज्ञानादिषु स्यान्चेत्, सधा होना कियत्यपि । ...... संपद्यते ततस्तस्या, अभावः केवले बलात् ॥३०॥ ... व्याख्या-चेद्-यदि, ' मतिज्ञानादिषु' मतिज्ञानि-श्रुतज्ञानिअवधिज्ञानि-मनःपर्यायज्ञानिषु, कियत्यपि-अल्पा घनतरा वा क्षुधा
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अज्ञानिभ्यो हीनैव स्यात् । ततस्तस्याः क्षुधाया अभाव : केवलेकेवलज्ञाने बलात् संपद्यते घटते । किमुक्तं भवति केवलज्ञानांशत्वान्मतिज्ञानादीनां केवलज्ञाने क्षुधाया अभावे मतिज्ञानादीना - मपि अंशतः क्षुधाया हीनत्वप्राप्ते र्न चैतदस्ति । केषाञ्चिन्मति - श्रुतज्ञानिनां अज्ञानिभ्योऽधिकतराहारग्रहणदर्शनात् । ततः सिद्धा केवलिनो भुक्तिरिति ॥ ३० ॥
कार्यं तिष्ठेदभिगृह्य, त्रिधोपादानकारणम् । तरौ नीरमिवाङ्गेऽन्न - मचिरस्थायि कारणम् ||३१|| व्याख्या - उपादानकारणं नाम परिणामिकारणं, तत् त्रिधा - अचिरस्थायि - चिरस्थायि - सदास्थायिभेदेन त्रिविधं सत् कार्यं अभिगृह्य अभिव्याप्य तिष्ठेत् । यत्र कार्यं तत्र स्वस्मिन् स्वस्मिन् कार्ये त्रिविधस्योपादानकारणस्यावश्यं भवनात् । तदभावे कार्यस्याप्यभावात् । उपादानकारणस्याद्यं भेदमाह-अङगे- शरीरेऽन्नं अचिरस्थायिकारणं भण्यते । किमिव ? तरौ नीरमिव । अत्र यद्यपि अन्नं जलं च सहकारिकारणं, पुनस्तथापि अत्यन्तविशेषकर्तृत्वेन उपादानरूपत्वादुपादानत्वेनैव विवक्षितम् । यथा परिणामिकारणं जलापगमतः कार्यभूतस्य द्रुमस्यापगमः स्यात्, परिणामिकारणाहारापगमतः कार्यभूतस्य देहस्याप्यपगमः स्यादित्यर्थः । अतो देहभृतः केवलिनो भुक्तिरेवेति भावः ॥३१॥
तथा
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३८
मृत्पिण्डाद्यं घटादौ यत्, तच्चिरस्थायि कारणम् । आत्मादिकं यद् ज्ञानादौ, तत् सवास्थायि कारणम् ॥३२॥ व्याख्या - मृत्पिण्डो घटे कारणं परिणामिकारणं । किंविशिष्टम् ? चिरस्थायि, चिरकालेन पर्यायान्तरभवनात् । आदिशब्दाद्दादि प्रतिमादि गृह्यते । यथा दारु परिणामिकारणं, तत्कार्यं
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द्वितीय विश्रामः
प्रतिमा । यत् आत्मा ज्ञाने कारणं परिणामिकारणं, तत्सदास्थायि, अनादिसंसिद्धत्वात् । आदिशब्दादाकाशाद्यवकाशादि । यथाऽऽकाशं परिणामिकारणं, अवकाशः कार्यम् ||३२||
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बहनो वाह्यबाह्यः स्यात्, मिस्नेहो दीपकोऽथ चेत् । बहू निः केवलिनोप्यस्तु, निराहारस्तदाऽऽत्तरः ॥ ३३॥ व्याख्या - दहनो वैश्वानरो दाह्यमिन्धनादि:, तेन ब्राह्मोविरहितः चेद्यदि स्याद्भवेत् ? । अथ निस्नेहस्तै लरहितो दीपको यदि भवेत् ? । तत् केवलिनोपि केवलज्ञानिनोप्यान्तरो वह निर्जठराग्निर्निराहारो - निर्भोजनोऽस्तु भवतु । नहि कार्यं परिणामिकारणात्सर्व्वथा भिन्नं, किन्तु सहकारिकारणसाहाय्येन परिणामिकारणस्य परिणामान्तरतया परिणतस्य कार्यत्वात् । ततो यथा परिणामिकारणस्य तैलस्य प्रदीपरूपकार्यतया परिणतस्याचिरस्थायित्वभावात् नूतनतैलपूरं विनावस्थानाभावः । तथा परिणामिकारणस्याऽऽहारस्यापि जठराग्निरूपतया परिणतस्याचिरस्थायित्वभावान्नूतनाहारपूरं विनाऽवस्थानाभावः ||३३||
पराभिप्रायमाशङ्क्य दूषयन्नाह
३९
शस्याङ्गभावान्नास्याग्नि- रन्तरित्यनृतं वचः ।
स्वच्छास्त्रे तैजसं हचुवतं स्याद्भवान्तर्भवश्च हि ॥ ३४ ॥
1
व्याख्या - अस्य केवलज्ञानिनोऽन्तः - उदरस्य मध्ये, अग्निर्नास्ति । कस्मात् ?, शस्याङगभावात् । शस्यं - प्रधानं, यदङ्गं - शरीरं, तस्य भावो - भवनं तस्मात् । उत्पन्ने केवलज्ञाने सप्तधातुपरावर्तन वज्रमयशरीरभवनादित्यर्थः । इति त्वदीयं वचोऽनृतं कूट, हिर्यस्मात् कारणात् त्वच्छास्त्रे तैजसं तैजसशरीरं, केवलिन उक्तम् । तैजसशरीरस्यैवाग्नित्वात् ।। तथा केवलज्ञानिनो
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
४० wwwwwww
भवान्तर्भवस्य मध्ये भवस्स्यात् । ही इति खेदे, केवलिनस्सप्तधातुपरावर्तेन वज्रमयशरीरभवनादेकस्य भवस्य मध्ये द्वितीयभवभवनाऽऽपत्तेस्सिद्धान्तविरोधतस्तव वचनमलीकमेवेति ॥३४॥
विभोरपि भवस्थस्य, सप्रतिद्वन्दि यत् सुखम् ।
सातासाते अपि स्तस्तद्, राज्यकण्टकवद् युते ॥३५॥ व्याख्या-विभोरपि-केवलज्ञानिनोपि, भवस्थस्य-संसारस्थितस्य, सुखं सप्रतिद्वन्द्वि विद्यते यत्-यस्मात् कारणात् । यदि विभोस्सुखं ततो दुःखेनावश्यं भवितव्यमेव । संसारे छायादेरातपादिवत् । समस्तवस्तूनां प्रतिद्वन्द्वि भवनात्ततो विभोस्सातासाते स्तः - सातवेदनीयासातवेदनीये अपि विद्यते इति सिद्धम् । किंविशिष्टे ? राज्यकण्टकवद्युते-राज्यकण्टकाविव मिलिते । यथा राज्ये "चौरचरटादिभिः कण्टकरवश्यं भवितव्यम् । तथा सातप्रतिस्पद्धिना असातेनाऽवश्यं भवितव्यम् ॥३५॥
प्रायोऽस्याल्पमसातं तु, न विरुद्धा क्षुधापि तत् ।
सर्वथाप्यसुखाभावे, मोक्षाभावः प्रसज्यते ॥३६॥ व्याख्या-तु-पुनः, प्रतापाद्यस्य भूपतेररुपकण्टकवत् अस्य केवलिनः प्रायो-बाहुल्येन, असातमल्पं भवेत् । ततः क्षुधापि न विरुद्धा, क्षुधाया अपि असातवेदनीयत्वात् । क्षुधामात्रं दुःखं केवलिनो भवत्येव । यतस्सर्वथाप्यसुखाभावे-दुःखस्याभवने मोक्षाभावो-मुक्तेरभवनं केवलिनः प्रसज्येत । समग्रदुःखक्षयस्यैव मोक्षत्वात् । यदि केवलिनो भवस्थस्य सतस्समग्रदुःखक्षयस्ततस्स एव मोक्षः, संसारपृथक्मोक्षस्याभवनात् । अतोऽल्पस्य दुःखस्य सिद्धी क्षुधासिद्धे«क्तिसिद्धिरिति ॥३६॥
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वितीयो विश्रामः
MAMAKARMA
इदं सभासदामन्त-स्समक्षं सिद्धचक्रिणः ।
देवाचार्येण (वर्येण) वस्त्रेण, पाषण्डं खण्डितं तदा ॥३७॥ ... व्याख्या-स्पष्टः । नवरं कथानकमुच्यते-किलानाशापल्या श्रीमणीयार संवेहि (वसही) पाश्चात्यपौषधशालायामवस्थितेषु श्री अरिष्टनेमिदेवगृहे व्याख्यानं विदधानेषु प्रभुश्रीदेवसूरिषु चतुरशीतिविजितवादिप्रतिमालडकृतहाटककटकमण्डितबामचरणो जालकुद्दालनिश्रेणीसंयुतः सुखासनश्रीकरितुरङगमदासदासेरकपदात्यादिभिर्देशाधिपतिरिव कुमुदचन्द्रनामा दिगम्बरो देशान्तरात् श्रीवासुपूज्यव्याख्यानदैगम्बरदेवगृहे समाजगाम । ततोऽसौ निजोपासकेभ्यः प्रभोर्व्याख्यानलब्धिं निशम्य सञ्जाताभिनिवेशो निजबन्दिजनोक्तकठोरवचनैरकोपं प्रभुं परिज्ञाय प्रभुनमस्कृतये स्वदेवगृहस्याग्रतो गच्छद्वतिनीजनमध्यादेकां वृद्धां व्रतिनी निजप्रेष्येणानाय्याऽऽत्मनः पुरतो बलादनर्तयत् । ततो हे निजगुरुकण्ठशोषपोषक ! शास्त्राभ्यासशासनपराभवसहनोपात्तपातक ! देवसूरे ! तव का दुर्गतिरिति दिगम्बरदेवगृहाऽऽयातवृद्धवतिनीवचनमाकर्ण्य तद्वृत्तान्तं परिज्ञायाऽनन्तसंसारपातभीतचेतसः प्रभुश्री देवसूरयः परित्यक्तान्यकर्तव्यास्सावधाना इदमवदन् हे महासति ! मा खेदं कृथाः। यद्यधुना स्वशक्ति न तोलयामि ततः शासनपराभवपातकं ममैवेति भणित्वा श्री अणहिल्लपुरसम्बन्धिश्री सजघपादानामनुमतिमादाय सिद्धचक्रवर्तिश्रीजयसिंहदेवसभायामावाभ्यां वादो विधेय इति प्रतिज्ञा दिगम्बरेण सममङ्गीचक्रुः । ततः प्रभुपादाः पूजिताऽहत्प्रतिमासन्मुखभवनादिशपुनः श्रीपत्तनमलंचक्रुः । दिगम्बरोप्योत्तीर्णसप्पधिशकुनान्यवधूय श्रीपत्तनमाजगाम । उभावपि तत्र राजसभायां सम्प्राप्ती । राजाप्युभयोरपि
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
स्वस्वशास्त्राभ्यसनाय षण्मासान् ददौ। ततः षण्मासान्ते वाददिनादर्वाक् दिने कदाचित्पराजयः स्यादिति शासनोड्डाहभयाऽऽ कुलितचेतसां निशि निद्रामलभमानानां प्रभूणां शासनदेवता साक्षाद् भूत्वेदमवदत्-यत्प्रभूणां विजयो भविष्यतीति खेदो न विधेयः । ततस्सुखस्वापात् प्रबुद्धाः प्रभाते प्रभवः कश्मीरादिदेशानीतसभासद्भिः शोभितां सिद्धचक्रवर्तिसभापतिसभामाजग्मुः । कुमुदचन्द्रोप्याजगाम । तत्र प्रभुप्रोक्ताशीर्वादकाव्यस्यान्ते 'जीयात्तद् जिनशासनमिति' । कुमुदचन्द्रोक्ताशीर्वादकाव्यस्यान्ते 'वाचस्ततो मुद्रिता' इति च श्रुत्वा सभापतिना सभ्यस्सम कृतदृष्टिसञ्चारेणाऽऽचार्यश्रीदेवसूरेविजयो भविष्यति, कुमुदचन्द्रो मुद्रितवाक् भविष्यतीति चेतसि निणितम् । तत्र तो द्विशतीत्रिशतीमितग्रन्थस्योपन्यासमाक्षेपं च मिथो विदधानौ सभासीनरनिमेषविलोचनै विस्मृतान्यकर्तव्य धमिरध्यानसंलीनश्चित्रलिखितरिव निःप्रकम्पैः स्वर्गादपि मनोरममिदमिति मन्वाननिरीक्षितौ नवनववचनवैचित्र्यादि विवदतोस्तयोर्मध्यात् प्रभुणा 'कोटीकोटि' रितीरिते शब्दे कुमुदचन्द्रेणोक्तं-आचार्य ! कोटीकोटिरिति कूटशब्दः कथं प्रयुज्यते ? । प्रभुराह-कोटीकोटि कोटिकोटि कोटाकोटिरिति शब्दत्रयजनकपाणिनिव्याकरणानभिज्ञेन भवता विमृश्य प्रोच्यताम् । कुमुदचन्द्रोप्यन्तर्गतमनाभोगोऽयं ममेति विचारयन् मुद्रितवचन एवाऽवतस्थौ । ततस्सभ्यरुक्तं-जितं देवाचार्येण । राजा प्राह-न वक्तव्यमिदमस्मत्कुतूहलहालाहलम् । सभ्य आह-देव ! जितकाशिनो वादिनो जयाऽदनि: सभासदां पक्चहत्यारूपं पातकं स्यात् । राजा प्राह-देशान्तरायातस्यास्य मुच्यतां क्षुण्णमिदमेकम् । सभ्य आह-एवमस्तु । राजा प्राहदिगम्बरचूडामणे ! कुमुदचन्द्र ! आचार्यकृतकेवलिभुक्तिस्त्री
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द्वितीयो विश्रामः
निर्वाणसचेलधर्मसम्बन्धिशेषोपन्यास आक्षिप्यतामस्मत्कुतूहलाय । कुमुदचन्द्रो निजखूण्णपतनलज्जया शून्यचित्तो विस्मृतोपन्यासो मौनावलम्ब एव स्थितवान् । राजा प्राह-कुमुदचन्द्र ! कटित्रे लिख्यतामुपन्यासः शिष्यभवनभयात् खटिकामनङगीकुर्वति कुमुदचन्द्रे सभ्येन लिखितः कटित्रे उपन्यासः फालस्खलितचित्रकाय इव खिन्नो विलक्षस्सतन्द्रः कुमुदचन्द्रश्चित्तास्वास्थ्यभावात्तं लिखितोपन्यासमुत्थापयितुमशक्नुवन्निदमाह-महान् वादी श्रीदेवाचार्य इत्यलं विवादेन । ततस्त्यक्तवामचरणकटकजालकुद्दालनिश्रेणि श्रीकरिको निश्रीकः पाश्चात्यद्वारा निःसृत्य गतः स्वदेशं कुमुदचन्द्रः । ततो राजा स्वधवलगृहे महोत्सवं नगरान्तमहतीं हट्ट शोभां च कारयित्वेदमवदत् । प्रभो ! जिह वान्युञ्छने द्वादश ग्रामा भवन्तु भवताम् । प्रभुराह-कुक्षिशम्बलानामस्माकं किं प्रयोजनं ग्रामैः ? । ततो महत्या शासनप्रभावनया प्रभुश्रीदेवसूरयः स्वोपाश्रयमलञ्चक्रुः ॥३७॥
अत्यन्तकुगुरुत्वेन, प्रस्तावात् प्रागमी स्मृताः ।
आर्द्रगुप्तस्य शिष्योऽ-स्थाद्यापनीयश्चतुर्दशीम् ॥३८॥ व्याख्या-अत्र शास्त्रे हि कुगुरुदशकोल्लिङगनायामनुल्लिडिगता अपि अमी दिगम्बराः, अतिकुगुरुतया प्रस्तावं भणित्वा प्राक्-प्रथम, स्मृताः- कथिताः । अथ यापनीयमतमाह-आर्द्रगुप्तस्य आर्द्रगुप्तसूरेः श्वेताम्बराचार्यस्य शिष्यः कश्चित् यापनीयो भूत्वा चतुर्दशी अस्थात्-न तत्याजेत्यर्थः ॥३८॥
यापनीयोऽपनीय स्वं, वस्त्रं नग्नाटनाटके । ततोऽपि क्षपणाऽऽभास-स्तस्थौ देशानुवृत्तितः ॥३९॥
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गुरुतस्वप्रदीपे
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___ व्याख्या-स्पष्ट: । नवरं-अपनीय-दग्ध्वा एतत् किं ? उच्यतेश्रूयते कर्णाटदेशे दिगम्बरभक्तो राजा श्वेताम्बरभक्ता राज्ञी अभूताम् । ततस्तत्र श्वेताम्बरदर्शनस्याभावादार्द्रगुप्ताचार्यस्य शिष्य आजगाम । आगता राज्ञी तद्वन्दनाय । दिगम्बराणां मध्ये समप्पितश्चतस्योपाश्रयः । दिगम्बररसहिष्णुतया अपवरकस्यान्तः स्थिते तस्मिन् वेश्यां दीपकं च प्रक्षिप्य पिहिते कपाटे। ततो वेश्यया हावभावभक्तपादिभिः प्रार्थितोऽसौ सम्भोगार्थ, भद्रे ! सति वेष न युज्यते सम्भोग आस्माकीनधर्मे। ततो . निजवेषं सन्दह्य किञ्चित्कालं कायोत्सर्गेण स्थित्वा त्वदीप्सितं पूरयिष्यामीत्युक्त्वा निजवेष सन्दह्य दीपके निरावरणः कायोत्सर्गेण तस्थौ । ततस्समायातौ दिगम्बराऽऽकारितो तत्र राज्ञीराजानौ । उद्घाटिते कपाटे राजा प्राह-भद्रे ! कथं त्वद्गुरोस्समीपे वेश्येयम् ?। राज्ञी प्राह-स्वामिन्नसौ यौष्माकीणो गुरुन्निरावरणत्वात् । राजा प्राह-सत्यमेतत् । प्रदत्ता हस्तताला तत्र जनपदेन । हारितं दिगम्बरैरिति प्रघोषो जज्ञे। ततः पारिते कायोत्सर्गे समप्पितं निजोत्तरीयं राज्ञा तस्य । ततस्स प्राह-ममोत्तरीयमेवास्तु, न चोलपट्टादि । यतो देशाचार समाचरतां स्खलना कुत्रापि न भवति ॥३९॥
वेषाय त्यज्यते देशो, वेषो वेशाय नो पुनः ।
इत्यमन्ता ह्यसौ संघ-बाह्यः सूत्रं पठन्नपि ॥४०॥ व्याख्या-स्पष्टः ।।
इति गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याये बोटिकयापनीकनिर्धाटना नाम द्वितीयविश्रामस्समाप्तः ॥२॥
इति गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याये द्वितीयविश्रामस्य विवरणम् ॥२॥
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तृतीयो विश्रामः
तृतियो विश्रामः कश्चित् कुपक्षो हेतुवादं न मन्यते । ततस्तं स्थापयन्नाहकुपक्षकारका ! हेतु-वादेन बवताधुना ।
प्राप्ता ह्यागमता हेतु-वावाऽप्तेरागमैरपि ॥१॥ व्याख्या-हे कुपक्षकारका ! अधुना-साम्प्रतं यूयं मया समं हेतुवादेन वदता, हि-यस्मात् कारणात्, आगमैरपि हेतुवादाऽऽप्ते:हेतुवादाडगीकारात् । आगमता प्राप्ता-आगमत्वं लब्धं, जिनागमानामपि हेतुवादयुक्तत्वादागमत्वमित्यर्थः । हेतुवादरहितानां लौकिकाऽऽगमानामनागमत्वात् ॥१॥
लोकवादे श्रितो हेतु-युष्माभिरपि पण्णितः । स्वविचारे निषिद्धः किं ?, निःशूकल्लौकिकरिव ॥२॥
व्याख्या-स्पष्टः । नवरं-यदाहुलौकिकाः -पुराणं मानवो धर्मस्साङगो वेदश्चिकित्सितम् । आज्ञासिद्धानि चत्वारि, हन्तव्यानि न हेतुभिः ॥१॥ प्रत्युक्तं प्रोच्यते-अस्ति वक्तव्यता काचिद्येनेदं न विचार्यते। निर्दोष काञ्चनं चेत्तत्परीक्षाया बिभेति किम् ?॥२॥ पूर्वार्द्धन लौकिकोक्तम् । उत्तरार्द्धन प्रत्युक्तं च प्रोच्यते
हेतुकान् बकवृत्तींश्च, वाङमात्रेणापि नार्चयेत् । हेतोः कुतोप्यसौ वाक् ते, हेतुकोऽभूस्त्वमप्यतः ॥१॥
अस्य व्याख्या-पूर्वार्द्ध स्पष्टम् । 'हेतो रित्यादि । अहो लौकिक ! कुतोऽपि हेतोः - कारणात् । असौ पूर्वार्दोक्ता, ते-तव वाग्-वाणी त्वयापि केनचित्कारणेन इदं पूर्वार्द्धमुक्तमित्यर्थः । अतो-अस्मात् कारणात् त्वमपि हेतूकोऽभूः । 'यच्चिन्त्यते परस्मिन् तत्समागच्छति गृहे' इति लोकाभाणकादपि तवैवाननीयत्वं जज्ञे इत्यर्थः ॥२॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
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अनाप्तार्थनिषेधार्थं, हेतुवादः श्रुते वृतिः (स्मृतः) । सुवर्णानां परीक्षायें, हेतुवादः कषोपलः ||३|| व्याख्या - स्पष्टः । नवरं - सुवर्णानां - शोभनाक्षराणामागमोक्तानामित्यर्थः । अन्यदपि यत् सुवर्णं - हेम तस्य कषोपले परीक्षा लभ्यते ॥३॥
४६
यत्किञ्चिदस्मिन् जगत्यस्ति, तत्सब्र्व्वं सहेतुकमिति विभणिषुस्तात्त्विकदृष्टान्तै र्हेतुं दर्शयन् कथं भवतां ज्ञानमुत्पन्नं यदस्मान्न प्रमाणीकुरुत ? इति परपृच्छायां अस्माकं तत्त्वज्ञानमुत्पन्नमित्युत्तरं दर्शयन्नाह
हेतुविचारे माध्यस्थ्यं, कुविचारे यथाऽऽग्रहः । तत्त्वज्ञाने विचारोपि, यथा ज्योतिषसंविदि ॥ ४ ॥
व्याख्या- विचारे युक्तौ कार्यरूपे माध्यस्थ्यं हेतु :- कारणं, मध्यस्थ चित्तपरिणामस्यैव विचारोत्पादात् । यथा आग्रहः कुवि - चारे हेतुः । आग्रहग्रस्तचेतसः कुविचारोत्पादात् । तत्वज्ञाने विचारो हेतुः । विचारक्षोदक्षमस्य चेतसस्तत्त्वज्ञानोत्पादात् । विचारक्षोदक्षमं चाऽऽस्माकीनं चित्तम् । ततोऽस्माकं तत्त्वज्ञानमुत्पन्नं, मतिज्ञानश्रुतज्ञानयोः संप्रत्यपि वर्तमानत्वात् इत्यनुक्तमपि परिज्ञेयम् । यथा ज्योतिषसंविदि - ज्योतिषज्ञाने विचारो हेतु:, सुविचा रितस्यैव ज्योतिषस्य मिलनात् ॥४॥
हेतुः स्यात्कुविचारोऽपि शास्त्रोक्तमात्रमेव वा । तत्त्वाप्रतीतौ चित्तस्य, ज्योतिषाऽमिलने यथा ॥५॥
व्याख्या - चित्तस्य तत्त्वाप्रतीती - तत्त्वस्य अप्रत्ययविषये कुविचारो हेतुः कारणम् । वा अथवा शास्त्रोक्तमात्रमेव
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तृतीयो विश्रामः
विचारणारहितं शास्त्रोक्तं हेतुः - कारणम् । देवतत्त्व - गुरुतत्त्वधर्मतत्त्वानां सन्देहः कुविचारपथस्थितात् चेतसः पूर्वापरविचारणारहितवचनमात्र निर्णीयमानत्वाद् वा भवतीत्यर्थः । सत्येनैवाऽयमात्मा रज्यते सकलजनपदप्रसिद्धमेतत् । अत्र कुविचार - शास्त्रोक्तमात्रे द्वे कारणे, चित्ततत्त्वाप्रतीतिरेकं कार्यम् । यथा ज्योतिषाऽ मिलने कुविचारशास्त्रोक्तमात्रे द्वे अपि हेतू स्याताम् । वराहमिहिरसम्बन्धिनः सुतविषयिज्योतिषस्य कुविचारितस्य मत्स्यविषयिज्योतिषस्य पूर्वापरविभागाविचारितस्य चाऽमिलनात् ||५||
हेतुर्द्रव्ये यथा साक्षाद्-भावात् द्रव्याणि सन्ति षट् । यवस्ति विश्वे विश्वस्मिन् स्यात् सहेतुकमेव तत् ॥ ६ ॥ व्याख्या - द्रव्ये - धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय - आकाशास्तिकाय - पुद्गलास्तिकाय - जीवास्तिकाय- कालरूपे, हेतुरस्ति । व्यक्तिमाह-यथा षट् द्रव्याणि सन्ति, कस्मात् ? साक्षाद्भावात् - प्रत्यक्षभवनात् । अत्र साक्षाद्भावो हेतुः । सत्तासाधनं कार्यम् । यद्यपि षट्स्वपि द्रव्येष्वनादिसंसिद्धत्वादुत्पत्तिमाश्रित्य निर्हेतुकत्वम् । पुनस्तत्रापि स्वरूपसाधनमाश्रित्य सहेतुकत्वम् । ततो यत्सिद्धं, तदाह - यदस्मिन् विश्वस्मिन् सकले, विश्वे - जगति स्यात्, तत् सर्व्वं सहेतुकमेव । ततो ये हेतुवादं न मन्यन्ते, ते ग्रथिला ज्ञातव्याः । निर्हेतुकचेष्टया समानत्वात् ||६||
"
न श्रूयते श्रुते त्वाद्यं श्रितं श्रुतधरैर्वरैः । हेतुयुक्तियुतं यत्तच्छिनागममतं मतम् ॥७॥
૪૭
व्याख्या - यदनुष्ठानं श्रुते - सिद्धान्ते वर्तमाने न श्रूयते, तुपुनराद्यं - चिरकालायातम् । तथा वरैः - प्रधानः, श्रुतधरैः श्रितम् । तथा हेतुयुक्तियुतम् । हेतु: - अन्वयव्यतिरेकलक्षणो, युक्ति:- उप
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गुरुतत्वप्रदीपे
पत्तिमात्रं ताभ्यां (युतं) संयुक्तं तदनुष्ठानं, छिन्नाऽऽगममतंत्रुटितसिद्धान्तमतम् । अत्राऽऽगमस्त्रिविध:- सूत्रतोऽर्थत आचरणातश्च । एकस्य कस्यचिदागमस्य मतमित्यर्थः ॥७॥
यस्य यत्राऽऽग्रहस्तत्र सयुक्ति नयतीति न । यनिनीषतिरुक्ताऽस्मिन् प्रस्तावेऽन्यत्र सूरिभिः ॥ ८ ॥
४८
व्याख्या- परः प्राह-यस्य यत्राऽऽग्रहस्स तत्र युक्ति नयति । उच्यते इति न । यद् - यस्मात् कारणात् सूरिभिराचार्यैरस्मिन्प्रस्तावे स्वगृहीताऽऽग्रहवक्तव्यतासम्बन्धिनि निनीषतिरुक्ता-' निनीषति' रिति क्रिया प्रोक्ता, न 'नयति 'रिति क्रिया प्रोक्ता । क्व ? अन्यत्र 'वक्ष्यमाणसुभाषिते' आग्रही युक्ति नेतुमिच्छति, पुनस्तस्याऽऽग्रहे युक्तिनं याति । आग्रहगमने युक्तेरयुक्तित्वात्, युक्त्ययुक्त्योरन्तरस्याभवनात् । अत्र एव महात्मभिनिनीषतिरुक्ता ॥ ८॥
उक्तं च- आग्रही बत निनीषति युक्ति, तत्र यत्र मतिरस्य निविष्टा । पक्षपातरहितस्य तु युक्ति-यंत्र तत्र मतिरेति निवेशम् ॥ ९ ॥
व्याख्या - स्पष्टः ॥
येषां चित्तेन हेतुः स्यात्, तेषामाभाति पातिनाम् । स्पष्टं त्रिजगदीशोपिः, भगवानिन्द्रजालिकः ॥१०॥
व्याख्या- येषां चित्ते हेतुर्न स्यात्तेषां पातिनां संसारपतनशीलानां चेतसि भगवान् वीतराग इन्द्रजालिक आभाति । किं विशिष्टः ? स्पष्टं प्रकटं यथा भवति, त्रिजगदीशोपि वीत रागत्वसर्वज्ञत्वादिगुणैस्त्रिजगन्नाथोपि । किमुक्तं भवति - त्रिजगन्नाथे वीतरागत्व सर्वज्ञत्वादिकं त्रिजगन्नाथ त्वहेतुमजानन्तः केचिद
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तृतीयो विश्रामः
भिनवोऽयमिन्द्रजालिको, यन्मन्त्राऽऽकृष्टा इन्द्रादयोपि देवा आगच्छन्तीति प्रत्यक्षतीर्थकरकालेऽपि वदन्ति । तत्तुल्या माधुनिका हेतुवाददूषका इति ॥१०॥
मागमेऽपि चिछेतु-दृष्टान्तो दृष्टिमागतौ ।
तदुक्त्या तत्र दोषश्च, हेतुवादः क्व ते गतः ? ॥११॥ व्याख्या-अत्र परः प्राह-आगमेऽपि-जैनागमेऽपि, क्वचिंदाज्ञासिद्धे वचने हेतुदृष्टान्तौ दृष्टि नागतो-न दृश्यते इत्यर्थः । तत्राज्ञासिद्ध वचने हेतुदृष्टान्तदानेन दोषभावात् । यदाह- जो हेउवायपक्खंमि हेउओ आगमंमि आगमिओ। .
सो ससमयपन्नवओ, सिद्धान्तविराहओ अन्नो ॥१॥ ततस्ते-तव हेतुवादः क्व गतः ? । इदं कुपाक्षिकोक्तमुपहासवाक्यम् ॥११॥ परोपहासवाक्यस्य सोपहासमुत्तरमाहू
उत्सूत्रसूत्रधारेण, सुसूत्रं सूत्रितं त्वया । यत्तत्र हेतुदृष्टान्तौ, दोषाय व्यावहारिको ॥१२॥ आगमिकौ तु तौ तत्र, न दोषाय च तद्यथा । सत्यमेतत् श्रुतोक्तत्वा-वन्य श्रुतोक्तसत्यवत् ॥१३॥युग्मम् ।।
व्याख्या-अहो कुपाक्षिक ! त्वया उत्सूत्रसूत्रधारेण सुसूत्रं सूत्रितम् । परोपहासोऽयम् । यद्-यस्मात् कारणात् तत्र-आशासि वचने, हेतुदृष्टान्तौ व्यावहारिको-लोकव्यवहारवर्तमानी प्रयुक्ती सन्तौ दोषाय, लोके तयोरसत्त्वाद् । तु-पुनस्तौ-हेतुवृष्टान्ती, आगमिको-आगमसम्बन्धिनौ प्रयुक्तौ सन्तो, तत्राऽऽज्ञासिद्ध वचने न दोषाय । कथं तौ स्यातां ?. इत्याह-सत्यमेतदाज्ञासिद्धं वचनं,
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
कस्माद्धेतोः ? श्रुतोक्तत्वात् । यद्यत् श्रुतोक्तं वचनं तत्तत्सत्यं । यथा अन्तराणि आत्मप्रत्ययसंविदितानि श्रुतोक्तानि वचनानि सत्यानि तथैतदप्याज्ञासिद्धं वचनं सत्य मेवेत्यर्थः ।। १२-१३ ।। युग्मम् ।।
५०
लोकशास्त्रेषु कुत्राप्युक्ते ऽन्यश्रुतोक्तसत्यवत् । दृष्टान्तोऽयं न दातव्य-स्तेष्वलीकं यतोऽखिलम् ॥१४॥
1
व्याख्या - लोकशास्त्रेषु - वेदस्मृतिपुराणादिषु, कुत्राप्युक्ते - कस्मिन्नपि वचने । अन्यश्रुतोक्तसत्यवद् । अयं दृष्टान्तः । उपलक्षणत्वात् श्रुतोक्तत्वादसौ हेतुश्च न दातव्यः । यतो- यस्मात् कारणात् तेषु शास्त्रेषु, अखिलं - समग्रं वचनं अलोकं कूटम् । हिंसादिसंसक्तपथोपदेशात्, नृशंसदुर्बुद्धिपरिग्रहाच्च । पूर्वापरार्थेषु विरोधसिद्धेश्च, अत एवासर्वविन्मूलतया प्रवृत्तेश्च । परीक्षाक्षोदक्षमानां वचनानां वचनत्वात् । अन्यथोन्मत्तप्रलपितानामपि प्रमाणत्वापत्तेः ।
तदेवं हेतुवादं संस्थाप्य प्रकृतमुच्यते । दिगम्बरमताऽनन्तरं सङ्घबाह्यं यापनीयकमतमुत्पन्नम् । ततो यापनीयकमतादनन्तरं चैत्यपाक्षिकास्समुत्पन्नाः ॥ १४॥
अतस्तन्मतं प्रकटयन्नाह -
निह नवोऽनुपधानी तु, बाह्यो नाऽऽद्य दिनेप्यभूत् । चैत्य स्थितौ बलिष्ठत्वात्, भ्रष्टत्वाच्चेति मन्यते ॥१५॥
*पाख्या - अनुपधानी चैत्यपालको निहूनवः । यदाहमलयगिरिरावश्यकवृत्तौ ' ससेए निह णवा खलु' इत्यत्र - 'खल शब्दोऽत्र विशेषणे, किं विशिनष्टि ?, ये उपधानादितपो न मन्यन्ते ते निहूनवा द्रष्टव्याः ' । आद्यदिने - प्रथमदिनेऽपि बाह्य नाभूत् । अतस्साम्प्रतमपि प्रकटं सघबाह्यो न दृश्यते । अत एक
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ततीयो विश्रामः
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पञ्चानां कुपाक्षिकाणां पङक्ती गणनया न विवक्षितः । प्रथमदिने किमर्थं सङ्घबाह्यो नाभूदिति हेतुद्वयमाह-चैत्यस्थितौ बलिष्ठत्वात्। सङघबाह्यानामिति मर्यादा-यच्चत्येषु स्वमेलापकेन चटितुं न लभन्ते । ततोऽमीषां चैत्यानि विवेकिभिः श्रावकैरात्मीयसामग्रीधशादनुमतानि । अतो निजमेलापकेन चैत्यचटनाय बलिष्ठत्वमभूत्। 'भ्रष्टत्वाच्च' चैत्याश्रयणादमीषां प्रथममेव भ्रष्टत्वमभूत् ।। क्रियाहीनमिदं मतान्तरमग्रतो वृद्धि न यास्यतीत्यभिप्रायेण सुविहितैः सङघबाह्यं न कृतम् । घटनायामिदमप्यायाति । 'इति' हेतुद्वयं मन्यते-सम्भाव्यते ॥१५॥
चैत्यपालादिकाऽत्यर्थ, निषेधं वीक्ष्य यः किल । महानिशीथं तत्याज, गोष्ठामाहिलकैतवात् ॥१६।।
व्याख्या-किलेति श्रूयते । यश्चैत्यपालको महानिशीथंमहानिशीथश्रुतं तत्याज 'चैत्या'दि । चैत्यपालकस्य अत्यर्थं निषेधंयदाह-से भयवं ! जे णं केइ साहू वा साहूणी वा निग्गंथे अणगारे दव्वत्थयं कुज्जा, से णं किमालविज्जा ? । गोयमा ! जे णं केइ साहू वा जाव दव्वत्थयं कुज्जा, से णं अजए इ वा असंजए इ वा अप्पवेरिए इ वा देवभोए इ वा देवच्चगे इ वा जाव णं उम्मग्गपइठिए इ वा दूरुज्झियसीले इ वा कुसीले इ वा सच्छंदयारिए इ वा आल वेज्जा' एवं रूपं, आदिशब्दाद् देवद्रव्यभक्षकस्य अत्यर्थ निषेधं वीक्ष्य-दृष्ट्वा । गोष्ठे'त्यादि । गोष्ठामाहिलस्य सप्तमनिह नवस्य, यत्कतवं-अनेन निह नवेन स्वप्रक्षेपकाणि प्रक्षिप्तानि, अतो वयं महानिशीथं न मन्यामहे इति लक्षणं मिषं, तस्मात् । तत्र 'हवइ मंगल' मिति भण्यते । तथाहि-महानिशीथे त्रिचतुर्थाध्ययनसूत्र'तहेव तयत्थाणुगामियं इक्कारसपयपरिच्छिन्नं तिआलावग
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
तित्तीसक्खरपरिमाणं । एसो पंच नमक्कारो, सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सब्बेसि, पढमं हवइ मंगलमिति यच्चूलंति अहिज्जंती' ति प्रकृतम् । तदेवं 'हवइ मंगल' मित्यस्य साक्षादाऽऽगमे भणितत्वात् प्रभुश्रीवस्त्रस्वामिप्रभृतिसुबहुश्रुत सुविहितसंविग्नपूर्वाचार्यसम्मतत्वाच्च ' पढमं हवाइ मंगल' मिति पाठेन अष्टषष्टि अक्षरप्रमाण एव नमस्कारः पठनीयः । 'होइ मंगल' मित्यस्य नमस्कारनिर्युक्ता - aft नमस्कारस्थापकान्यादृशबन्धानां मध्ये भणनात् केषांचिद् बन्धानां मध्ये 'होज्न भये हबड़' इति धातोरपि विद्यमानत्वात् । तत्र ' सव्वपावप्पणासणो' इत्यादेः ' अरिहंतनमोक्कारो' इत्यादिना समं सम्बद्धत्वात् । गोष्ठामाहिलेन स्वप्रक्षेपकैर्दूषितोऽयं महानिशीथ इति चेत् । तन्न, यदेतस्य त्वदभिहितस्य 'मुखमस्तीति वक्तव्यमिति मुक्त्वा न किमपि स्थापकं प्रमाणान्तरमाप्यते । वचनमात्रस्य सिद्धौ हि सर्व्वे सिद्धान्ता व्रतिभिरमीभिरेव स्वयंकृता इत्यपि लौकिक मिथ्यादृष्टिवाक्यप्रामाण्यमङ्गीकुरुते । तथाच महानिशीथं - ' एयं तु जं पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स वक्खाणं ( चूलिक) तं मया पबंधेणं अणंतगमपज्जवेहि सुत्तस्स य पिहृन्भूयाहि निज्जुत्तिभासचुन्नीहि जहेव अनंतनाणदंसणधरेहि तित्थय रेहि वक्खाणियं तहेव समासओ वक्खाणिज्जंतं आसि । अहन्नया कालपरिहाणिदोसेणं ताओ निज्जुत्तिभासचुन्नीओ बुच्छिन्नाओ । इओ अ वच्चतेणं कालसमएणं महद्विलद्धिपत्ते पयाणुसारी वयरसामी नाम दुवालसंग सुयहरे समुप्पन्ने । तेण एसो पंचमंगलमहासुयक्खंधस्स उद्धारो मूलसुत्तस्स मज्झे लिहिओ । मूलसुत्तं पुण सुत्तत्ताए गणहरेहिं अत्थत्ताए अरहंतेहिं भगवंतेहिं धम्मतित्थगरे हिं तिलपेयमहिएहि वीरजिभिदेहि पन्नवियंति एस बुड्ढसंपयाओ । इत्थ य जं ( जत्थ जत्थ) पयं परणाणुलग्गं सुत्तालावगं न
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तृतीयो विश्रामः
संबज्झइ तत्थ तत्थ सुयहरेहि कुलिहिअदोसो न दायव्वोत्ति । किन्तु जो सो एयस्स अचिन्तचिन्तामणिकप्पभूयस्स महानिसीहसुयक्खंघस्स पुव्वायरिसो आसी, तहिं चेव खंडाखंडी हिं उद्देहआइएहि ऊहिं पत्तगा परिसड़ियाँ तहवि अच्चंत सुमहत्या - इसयंति इमं महानिसीहसुयक्खंधं कसिणपवयणस्स परमसारभूयं . परं तत्तं सुमहत्यंति कलिऊणं पवयणवच्छल्लत्तणेणं बहुभव्वसत्तो वयारियति काउं तहा य आयहियट्ठाए आयरियहरिभद्देणं जं तत्थायरिसे दिट्ठ तं सव्वं समइए सोहिऊण लिहिअंति । अन्ने हिपि सिद्धसेनदिवाकर- वुड्ढवाई - जक्ख सेण - देवगुत्त - जसवद्धण - खमासमणसीस रविगुत्त- नेमिचंद - जिणदासगण - खवगसच्चसिरिपमुहे हिं जुगप्पहाणसुयहरेहि बहुमश्रियमिति ||१६||
५३
पश्चान्मत्योपधानानि
ययँरुत्थापनाऽऽवृता ।
मन्ये सुविहितास्ते ते, नाम्नां वसतिपालकाः ॥१७॥ व्याख्या - स्पष्ट: । नवरं - सुविहितानां श्रीमहावीरात् प्रभृति भवनं, चारित्रस्याविच्छिन्नत्वात् । ततोऽहं एवं मन्ये येयश्चैत्यपालकैः सुविहितानामन्तिके उत्थापना ( उपस्थापना) जगृहे, तेषां तेषां अपरत्यपाल के रूपहासबुद्धया वसतिपालका इति नाम प्रददे । यथा पूणिमीयकानामपेक्षया चतुर्दशीयकानां चतुर्दशीयका इति
नाम ॥१७॥
कालवौःस्थ्येऽर्कवेदेऽस्था-च्चैत्येषु प्रचुरो व्रती । पौषधोकसि वस्वभ्राभ्रकुभिः श्रूयतेत्विति ॥ १८ ॥
व्याख्या - स्पष्टः । नवरं - प्रथमश्चैत्यनिवाससंवत्सरः ( ४१२ ) | द्वितीय चैत्यनिवासिभिः सुविहितानां पार्श्वे गृहितोत्थापनायास्संवत्सर : ( १००८ ) ॥ १८॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
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कथं गृहित्वा गुरुणा, स्वहस्तेनेति ते श्रुते । द्वादशावर्तयद् भूति रित्थं वृष्टेति मन्यते ॥ १९ ॥
५४
त्वत्पक्षसम्भवे मुग्ध - चित्तशङका च मास्त्विति । अधुना ग्राह्यते माला, तनिजेनेति मन्यते ॥२०॥ युग्मम् ॥
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व्याख्या - ननु ते-तव, श्रुते - महानिशीथे गृहित्वा गुरुणा स्वहस्तेन 'गि यि गुरुणा सहत्थेन' इत्यक्षराणि कथं दृश्यन्ते ? गुरो: पुष्पमालाग्रहणे सावद्यत्वात् । उच्यते - इत्थं अमुना प्रकारेण, भूतिः - कल्याणं श्रेय इत्यर्थः । श्रीवीतरागैर्दृष्टा द्वादशावर्तवद् । यथा द्वादशावर्त वन्दन केऽस्थगितमुखस्य श्रेयो दृष्टं कथमपीत्थं बहुगुणमस्तीत्यर्थः । इति मन्यते - सम्भाव्यते । उत्सूत्र भीरूणां भाषासमितिरियम् । ननु यदीत्थं ततः कथं गुरुस्तां मालां स्वहस्तेन न गृह्णाति ? । उच्यते - त्वत्पक्ष सम्भवे त्वन्मतोत्पत्तौ पुष्पमालायाः सावद्यमिति प्ररूपणया मुग्धानां इदं कि सावद्यं निरवद्यं वा ? इति चित्तशङ्का - मनःसंदेहो, माऽस्तु इति कारणात् । अधुना - वर्तमानकाले, तन्निजेन तत्स्वजनस्य पार्श्वात् मालां ग्राह्यते इति मन्यते । महानिशीथस्य चूर्णेर्वृत्तेश्चाऽभावाद् आम्नायाऽ भावेपि सङ्घपरम्परायाः तत्त्वेन इदं घटते इत्यर्थः ।
"
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अत्र कश्चिद्भ्रान्तः - ' तणवेत्तमुंजकट्ठे भिडमयणमोरपिच्छ डुमयी | पोंडियदंते पत्ताइकरेधरे पिणद्धइ आणाई' ॥ १ ॥
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निशीथे अस्या गाथायाः 'पत्तमालियं वा पुप्फमालियं वा फलमालिये वा बीयमालियं वा' इति चूण्णिव्याख्याप्रमाणेन धर्म्ममालारोपणं दूषयन् अस्यैव व्याख्यानस्य मध्ये ' 'जे भिक्खू माउग्गामस्स पूअट्ठाए वा महिमट्ठाए वा सोमट्ठाए वा' इति संतिष्ठमानाक्षरैरेव हतो मन्तव्यः ॥। १९ - २० ॥ युग्मम् ॥
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चतुर्थो विश्रामः
इति गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याय उपधानस्थापनानामा तृतीयविश्रामः ॥३॥
इति गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याये तृतीयविश्रामस्य विवरणम् ॥३॥
चतुर्थ-विश्रामः । भेजे चन्द्रप्रभाचार्यो, गुरोः कस्याऽनुयोगतः ? ।
श्रुतोक्ताः पूणिमास्तिस्त्रः, श्रुतोक्ताचरणं त्यजन् ॥१॥ व्याख्या-चन्द्रप्रभाचार्यो-राकामताऽऽकर्षकश्चन्द्रप्रभसूरिनामा प्रथमाचार्यः, श्रुतोक्ता: - सिद्धान्ताऽऽख्यातास्तिस्रः पूणिमाः संवत्सरान्तः संजायमानचतुर्मासकत्रयस्य राकात्रयं, कस्य गुरोरनुयोगतोऽनुकूलप्राप्तेरर्थादेशादित्यर्थः । कारणे कार्योपचारात् । यथा तन्दुलान् वर्षति पर्जन्यः । नहि गुरोरनुकूलप्राप्ति विना सूत्रस्याऽ
देशः सम्भवति । अनुकूलत्वं गुरुयोगस्य सर्वसङघानुमत्या । भेजे-कस्य गुरोरनुकूलाऽऽदेशेन श्रितवानित्यर्थः । गुर्वादेशेन विना हि श्रुतविश्रुतैकाक्षरस्याप्यर्थसमर्थनमनौचितीमञ्चति । यतः श्रुतोक्तमात्रमेव न स्वार्थसाधनपटिष्ठं स्यात्, विशेषव्याख्यानरहितत्वात्तस्य । तस्य अनुयोगाऽऽत्तमेव विशेषव्याख्यानम् । यदागमः - जं जह सुत्ते भणियं, तहेव तं जइ वियालणा नत्थि । कि कालियाणुओगो, दिट्ठो दिठिप्पहाणेहिं ? ॥१॥ (भाष्यम्)
श्रीधर्मदासगणिरप्याह
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गुरुतत्त्व प्रदीपे
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नियगमविगप्पिअ - चितिएण सच्छंदबुद्धिरइएण । कत्तो पारतहियं, कीरइ गुरुअणुवएसेणं ॥१॥ सोसायरिअकमेण य, जणेण गहिआई सिप्पसत्थाइं । नज्जंति बहुविहाई, न चक्खुमित्ताणुसरिआई ॥ २ ॥ उक्तं च- छट्ठट्ठमदसमदुवालसहि मासद्धमासखमणेहिं । गुरुवयणं अकरंतो, अनंतसंसारिओ होई ॥१॥
५६
'
एवमाचार्यस्य श्रुतमात्रोक्ताङ्गीकाररूपं दूषणमभिधाय श्रुतोक्तत्यागरूपं दूषणान्तरमाह-'श्रुतोक्ताऽऽचरणं त्यजन् कस्य गुरोरनुयोगत इत्यत्रापि सम्बध्यते । कस्यादेशात् श्रुतोक्ताऽऽचरणा तेन त्यक्ता ? | आचरणा चतुर्मासकचतुर्दशी । तदीत्थं विशेषव्याख्यानं परिज्ञेयम् । श्रुतोक्तत्वं चतुर्मासकचतुर्दश्या अप्याढीकितम् । तदुल्लषने श्रुतोक्तोल्लङघनरूपं द्वितीयं दूषणमाविर्भवति ॥ १॥ श्रुतोक्तपूर्णिमा श्रुतोक्तचतुर्मासकचतुर्दशी हेयत्वोपादेयत्वापरिज्ञानद्वारेणाऽऽचार्यस्याऽस्य निर्गुरुत्वं प्रकटयन्नाह
यत्पूर्वोक्त परोक्तयोः, परोक्तो बलवान् विधिः । इति तेमात्र न ज्ञातं, गुरुस्तत्तस्य नाऽभवत् ॥२॥
व्याख्या - पूर्व-प्रथमं, उक्तो विधि: पूर्वोक्तो विधिः, परत:-- पश्चात् उक्तो विधि: परोक्तो विधिः, तयोर्मध्ये परोक्तो विधिर्बलवान् - प्रमाणं । स हि पूर्वोक्तविधिमप्रमाणिकृत्यैव तस्य स्थानेऽवतिष्ठते । सूत्रे चतुर्मासकप्रतिक्रमणं पूणिमायां विधेयमित्युक्तिः पूर्वोक्त विधिस्तस्य यत्वं, 'आचरणाप्यागम' इत्युक्तिः परोक्तो विधिस्तस्योपादेयत्वमित्येतत् तेनाचार्येणाऽत्र - पूर्णिमाङ्गीकारे यन्न ज्ञातं तत्तस्याऽऽचार्यस्य गुरुर्नाभूदित्यनुमीयते ॥ २ ॥
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चतुर्थो विश्रामः
गुरोरभ्युपगमे गुरोरेव दूषणं दर्शयन्नाह
गुरुस्तस्याऽभवच्चेत् तदुत्सूत्री प्रथमोऽस्तु सः। स्वसदृग् यदभून्नास्य, गुरोर्गुरुपरम्परा ॥३॥ व्याख्या-चेद्-यदि, तस्य चन्द्रप्रभसूरेर्गुरुरभवद्-आसीत्, तत्तस्य गुरुः प्रथमः-आद्यः, उत्सूत्री-पूर्णिमारूपोत्सूत्रप्ररूपकोऽस्तुभवतु । यद्-यस्मात् कारणादस्य चन्द्रप्रभसूरिसम्बन्धिनो गुरोर्गुरुपरम्परा श्रीमहावीरात् प्रभृति तं गुरुं मर्यादीकृत्य गुरुश्रेणिर्नाऽभवत् । किविशिष्टा ? स्वसदृक्-आत्मसदृशी पूर्णिमाप्रतिक्रमणकरणरूपेत्यर्थः ॥३॥
गुरोर्गुरुपरम्परासद्भावेऽन्यमतेष्वपि गुरुपरम्पराऽऽपद्यत इति दूषणं- तदभावे परम्पराच्छेदहेतुं च दर्शयन्नाह
गुरोः परम्पराऽऽसीच्चेत्, तत्साऽस्त्वन्यमतेष्वपि ।
नेति चेत्तन्न किं सर्व-मपि चेत्यादि पौणिमम् ॥४॥ व्याख्या-चेत्-यदि, गुरोश्चन्द्रप्रभसूरिसम्बन्धिनः परम्परागुरुश्रेणिरासीत्-अभूत् । ततस्सा परम्पराऽन्यमतेष्वपि-खरतर-सार्द्धपूणिमीयकाञ्चलिक-त्रिस्तुतिकेष्वपि, अस्तु-भवतु । पञ्चाप्यमूनि मतानि पाश्चात्यानि समग्रजनपदेष्विति प्रसिद्धी सत्यामपि एकस्य मतस्य गुरुपरम्परासद्भावजल्पने शेषमतेष्वपि परम्परा सद्भावजल्पनमापद्यते । आपद्यतां को नाम दोकः । इति चेत्ततो जिनशासनेनापरेण केनचिह्नवितव्यम् । यतो विनाम परस्परविरोधिनां मतानामारोपणे जिनत्वशासनत्वयोमानो भवति । भवतापि सार्द्धपूणिमाऽऽञ्चलिक-क्रिस्तुलितबमात्मनो मतादुत्पन्नमुच्यते । यद्येतद्वचनं सत्यत्वेन महामदभ्यर्थनयाऽऽत्मी
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
यमप्येकं वचनं सत्यत्वेनोररीक्रियतां यत् चन्द्रप्रभसूरिश्चतुर्दशीमध्यानिःसृत इति । अथेत्थं मन्यसे 'नेति चे'दित्यादि । अन्यमतेषु गुरुपरम्परा नासीत् । केवलमेकाकिन्येव गुरुपरम्परा चन्द्रप्रभसूरिसम्बन्धिनो गुरोरासीत् इति चेत् । तत्सर्वमपि-सकलमपि चैत्यप्रभृतिक, पूर्णिमासम्बन्धि किं न दृश्यते ? ।
___ नन्वेतानि चैत्यानि सर्वाण्यप्यास्माकीनानि पुनश्चतुर्दशीयकर्बलाद् गृहीतानि । उच्यते-सम्प्रत्यप्येवंविधा (ध) न्यायदर्शनतः पुरातनराजामात्यजनपदेषु विशिष्टन्यायश्रवणतश्च पूर्व परकीयचैत्यच्छेदनरूपस्यान्यायस्यासम्भव एवापद्यते । अथ पूणिमीयकाचारित्रित्वेन पूणिमापक्षश्रावकैः स्वगृहकार्यव्यग्रतया चतुर्दशीयकेषु चैत्यानि समप्पितानि । ततश्चत्येषु स्वयं धनिकत्वेन स्तुम मुदायेनागमनायते कथं न लभन्ते ? । अथान्यायिनं प्रतिवादिनमधिकृत्याङगीकारोपि प्रवर्तते इति न्यायनैतदप्यस्तु । पुनश्चतुर्दशीयकाः कुतः समुत्पन्नाः?न ज्ञायन्त इति चेत्, तर्हि समग्रासम्बद्धप्रलपितानां मूलशुद्धयन्वेषणे सति न ज्ञायते इत्येतदेवोत्तरमापद्यते ॥४॥
गुरुपरम्पराच्छेदस्यैव हेतुद्वयं दर्शयन्नाह
कि पत्तनमते चैत्य - शासने यूयमप्रमाः ? ।
देशात् पराऽऽर्हताऽऽचार्य-नृपाभ्यां ताडिताश्च कि?॥५॥
व्याख्या-यदि सा राकामतपरम्परा चन्द्रप्रभसूरिसम्बन्धिगुरोरग्रतोप्यासीत्, तदा 'चैत्यशासने' चैत्यं-धारापद्रेदेवगृहं, तत्र सन्तिष्ठमानं यत्त शासनं, तत्र किं यूयं अप्रमा-न प्रमाणम् ? किंविशिष्टे चैत्यशासने ? पत्तनमते-अणहिल्लपुरवास्तव्यपुरुषदत्तमतके, पत्तनस्याऽस्य निष्पेनस्य पञ्च वर्षशतानि सजातानि। तन्निवासिनां प्रधानपुरुषाणां नमानिःसृतराकामतपरिज्ञानेन शासनाक्षरेषु स्वह
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चतुर्थो विश्रामः
स्तमतकप्रदानसम्भवात् । एवं महाराजश्रीकर्णप्रतिपत्तौ पूर्णिणमीयका निःसृता इति श्रूयमाणवचनस्यैव प्रामाण्यात् । तथा 'देशादि 'ति गूर्जरदेशात्, पराऽऽहंताभ्यां आचार्यनृपाभ्यां-आचार्यश्रीहेमसूरि-राजाधिराजश्रीकुमारपालदेवाभ्यां, यूयं कथं ताडिताःनिष्कासिताः ? यथा शतमवध्यं सहस्रमदण्डयं तथा पुरातनमपि मतान्तरं समग्रदेशप्रसरणशीलतया कर्षयितुमशक्यं स्यात् । तथाकरणे च जनापवादप्रसङगात् । अत एवैताभ्यां दिगम्बराः स्वदेशान्न कर्षिताः । पराऽर्हतत्वेनाऽऽचार्यस्य निर्मत्सरत्वं दर्शितम् । नहि तस्य महात्मनः चारित्रपरेषु मत्सरः, अष्टमीचतुर्दश्योर्वादीन्द्राचार्यश्री देवसूरिप्रभृतिषु वन्दनपर्युपासनश्रवणात् । 'अन्यथा वदतां जै, वाचं त्वहह ! का गतिः' इत्यादि वचनोद्गारस्य जिनवचनभिन्नसप्तधातोराचार्यस्यास्य राकोत्सूत्रासहिष्णुतयव राकामतनि
र्धाटनात् ॥५॥ - परम्परायातश्रीसङघमध्ये निजमतसम्बन्धिसङघबाह्यत्वदर्शनात् वयं शिथिलै विशिष्टक्रियादर्शनासहिष्णुतया सङ्घबाह्याः कृता इति राकामतीयोक्तिमाक्षिपन् राकामतपरम्पराया अभावं दर्शयन्नाह
कृताः सङघेन बाह्याः कि, सङघः सङघो न सोऽन्यथा ।
सन्तानमखिलं चन्द्र-प्रभस्यैवाव्रतं च किम् ? ॥६॥ र व्याख्या-यदि युष्माकं परम्परा आसीत्, ततो यूयं कि चतुर्विधश्रीश्रमणसङधेन सङघबाह्याः कृताः ? न भ्रष्टैरेव । अक्षाथा-यदि सङघेन सङघबाह्या न कृताः, ततस्स सङघ एव न भानात, तस्य सङघस्य व्यवच्छेदप्रसंगात् । यदि तत्कालवर्ती सङघो नव्यनिःसृतराकामतमवलोक्य शक्ती सत्यां सङ्घबाह्यं न
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
कुर्यात्, तदा तदुत्सूत्रानुमतिपातकेन समग्र सङघोपि मिथ्यादृष्टिस्त्वन्मतप्रीतिमांश्च स्यात्, साम्प्रतं पृथक् स्थितस्य सङ्घस्याभावात् । दृश्यते च राकामतपृथक्स्थित एव परम्परागतश्चतुर्दareeroयया अखण्डचारित्रप्राकारः सङ्घसार्वभौमो भवन्निग्रहशिष्टपरिपालनधर्मतत्परः । 'सन्ताने 'त्यादि । पूर्वं पूणिमीयकेष्वेव सन्तिष्ठमानेषु बहूनामाचार्याणां सन्तानानि साम्प्रतं भवेयुः । न च तानि, केवलं चन्द्रप्रभसूरेरेव सन्तानं दृश्यते । यच्च केचिदात्मनां मध्ये समायातप्रस्तावे चन्द्रप्रभसूरिसन्तानिनः आत्मनः परस्परमिति वदन्तोपि मूलशुद्धयन्वेषणविचारे पृष्टाः सन्तो वयमन्यतरसन्तानिन इति वदन्ति । तत्ते वयमन्यतरपितृजाता इति गालि मात्मन्येव ददत उपेक्षणीयाः । 'सन्तानमव्रतं च किं' ता चन्द्रप्रभसूरेस्सन्तानं कथमचारित्रम् ? यतश्चारित्राविनाभाव्यंव तीर्थम् | तीर्थे प्रवर्तमाने सति यत्र तत्र गच्छे नियमेन चारित्र - भावात् । सन्तानचारित्रयोरदर्शनत एते सङ्घबाह्याः सङ्घान्नि:सृता इति बलादापन्नम् || ६ ||
न च चन्द्रप्रभसूरेश्चारित्रमासीत्, किन्तु क्रियामात्रम् । तदपि सन्तानस्य न विद्यते । ततो राकारक्तानां मृतमातृधायकेभ्योप्यधिकतरमज्ञानत्वं प्रदर्शयन्नाह
जीवन्मृताया वन्ध्यायाः, प्राच्याऽप्राच्याः स्तनन्धयाः | राकारकता न कि ? राका - सक्रियत्वाक्रियत्वतः ॥७, 1
व्याख्या- राकारक्ताः- पूणिमानुरागिणः पुरुषाः, वन्ध्याया: स्त्रियाः कथं न स्तनन्धया:- स्तनघायकाः ? अपि तु स्तनधाय एव । किंविशिष्टा: ? ' प्राच्याप्राच्याः प्राच्याश्चन्द्रप्रभसूरिका वर्तमानाः, अप्राच्याः सम्प्रतिकाले वर्तमानाः । कथम्भूताया
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चतुर्थो विश्रामः
वन्ध्यायाः ? जीवन्मृताया:-जीवन्त्याश्च मृतायाश्च । कस्मात् ?, 'राकासक्रियत्वाक्रियत्वतः' राकायाः क्रियायुक्तत्वात् अक्रियायुक्तत्वाच्च । किमुक्तं भवति-मोक्षरूपस्य फलस्यासाधकत्वेन पूणिमा वन्ध्येव वन्ध्या । सा च पूर्वं क्रियायुक्ततया जीवन्त्यासीत् । साम्प्रतं भ्रष्टत्वेन मृतेति भण्यते । तद्भक्ताः पुरुषा जीवन्मृतवन्ध्याधायका: परिज्ञेयाः। तावत्प्रथमं मतमातृधायको जघन्यस्तस्मादपि जीवद्वन्ध्याधायको जघन्यतरः, तत्तुल्याः पुगतना राकारक्तास्तस्मादपि मृतवन्ध्याधायको जघन्यतमः, तत्तुल्याश्चैतेऽधुनातना राकारक्ता द्रष्टव्याः ।।७।। - पुनरपि गुरोर्गुरुपरम्पराया एवाभावं विकल्पान्तरं वाऽऽवि
र्भावियन्नाह
कि बृहत्पडिक्तवल्लोके, किमाद्या च चतुर्दशी ? । कृता चे राकया तत्तल्लोपे लुप्तव पूर्णिमा ॥८॥
व्याख्या-रङकराजानौ बाल विद्वान्सौ च मर्यादीकृत्य समग्रलोकश्चतुर्दशी किं बृहत्पडिक्तवत् वृद्धस्वाजनकसदृशी मता (?) । यतः पूर्वं पूणिमायास्सद्भावे पूणिमामध्याच्चतुर्दश्या निस्सरणं घटते । ततोऽस्य लघुस्वाजनकपाङक्तेयत्ववत् (?) सङघबाह्यत्वं कथं न दृश्यते ?। चतुर्दशीयकानां बहुतरत्वात् इति चेत् । ततो बहुतरानुमतत्वेन " बहुमणुमयमेअमायरिअं" इति वचनातेषामेव सङघत्वम् । साम्प्रतं तपोवतां चारित्रदर्शनतो वसतिपालकानां सुविहितेत्याख्यादिना च पूर्व चतुर्दशीयकानां बहुतराणामपि चारित्रयुक्तत्वेन सङघत्वमेव । असङघत्वे हि नव्यनिःसृतत्वेन निह नवत्वात् तदा चतुर्दशीयकानां बहुतरत्वं न घटते, पुरातनापुरातननिह नवानां प्रथम मेकाकिनामेव भवनात्, द्रव्यक्षेत्रकाल
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
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भावशकुनादिनिरीक्षणगृहीतचारित्राणां शतसहस्र लक्षसङख्यातानामपि महात्मनां मध्यादेकस्यैव कस्यचिद्विप्रतिपत्तिसम्भवात्, तस्य सुकरं सङ्घबाह्यत्वम् । न चैतच्चतुर्दशीयकानां दृश्यते । ततोऽनादिसं सिद्धाश्चतुर्दशीयकाः, सिद्धान्ते चतुर्दशीषु पाक्षिकाणां दर्शनात् । तदेवमसत्यवचांसि ब्रुवद्भिः भवद्भिरेक एवायं श्लोकः
सत्यः कृतः ।
}
६२
यदाह - यथा यथा विचार्येत, विशीर्येत तथा तथा । असत्योक्तं बहीरम्यं नान्तः खरपुरीषवत् ॥ १॥ अतो युष्माकमेव सत्यरूपं सङ्घबाह्यत्वमधुनापि दृश्यते । तथा चतुर्दशी आद्या- प्रथमा, कथं श्रूयते ? सर्वः कोपि चतुर्दशीं प्रथमां, पूर्णिमां पाश्चात्यां मन्यते । न च मिथ्यादृष्टिप्रकल्पितप्रसिद्धिरपि सर्वथैवाप्रमाणम् । मिथ्यादृष्टिप्रकल्पितप्रसिद्धीनामपि रामायणादी रामलक्ष्मणपुरुषादिवद्देशतः प्रायः प्रामाण्यसंवादसिद्धेस्ततो जैनागमवत्समग्र जैन लोकप्रसिद्धिस्सर्वथा प्रमाणमेव । समग्र जैन लोकप्रसिद्धं चैतत् यत् पूणिमा पाश्चात्या | अतः सत्यमेवैतदिति । कुत्रापि लोकमध्ये त्वच्छास्त्रमध्ये च पूर्णिमामध्याच्चतुर्दशी निःसृतेति न श्रूयते । श्रूयते (च) कुपाक्षिकसप्ततिकुमतकुट्टनाचरणामहोदधिप्रभृतिशास्त्रेषु चतुर्दश्या मध्यात्पूणिमाया निस्सरणम् । 'कृतेत्यादि । चेद्यदि, पूर्व राकया चतुर्दशी कृता, सर्वेपि पूर्णिमयका एव चतुर्दशीयकाः स्थिता इति चेत्ततः 'तल्लोपे ' तस्याश्चतुर्दश्या लोपे-छेदे पूणिमा लुप्तैव छिन्नैव चन्द्रप्रभसूरिणा । पूर्णिमीयकैः कृतायाश्चतुर्दश्या उल्लङघने पूणिमीयका अप्युल्लअधिता भवन्ति । तद्वृथा पूर्णिमाङ्गीकाराभिमानः । यतस्त्वद्गुरु पूणिमीयक: चतुर्दशीयश्च । केवलं पूणिमाचतुर्दश्योविराधकः । वयं तु चतुर्दश्या आराधनेन पूर्णिमाया अप्याराधका एव स्मः ॥ ८ ॥
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चतुर्थो विश्राम:
यदा त्वद्गुरुणा राका, श्रिता तीर्थमभूत्तदा । नाभूत्कि तदभूच्चेत् त-तस्याऽऽज्ञां ही लुलोप सः ॥९॥
व्याख्या-त्वद्गुरुणा यदा-यस्मिन्काले, राका-पूर्णिमा श्रितागृहीता, तदा-तस्मिन् राजश्रीकर्णकाले, तीर्थ-सङघोऽभूत् किं न अभूद् ? इति विकल्पद्वयम् । यदि प्रथमो विकल्पस्तत्तीर्थमभूत् । ततो'ही' इति खेदे, तस्य तीर्थस्याऽऽज्ञामादेशं स चन्द्रप्रभसूरिनुलोपचिच्छेद । यतस्सन्तिष्ठमानतीर्थे तदा पूर्णिमाप्रवृत्ति सीत्ततः पूर्णिमाङ्गीकारे तीर्थाऽऽज्ञालोपः सुखेनाऽऽढौकितः ॥९॥
तन्नाभूच्चेत् तदेते कि, धर्म इत्यक्षरे यदि । तीर्थ ते त्वद्गुरुस्तीर्थकृन्न तत्कि हि तत्ततः ॥१०॥ व्याख्या-चेद्-यदि, तत्तीथं नाभूत्तदैते किं-कथं गुर्जरावनी धर्म इत्यक्षरद्वयं श्रूयते । अनार्यस्वरूपं ब्रुवद्भिर्भगवद्भिरित्थमुक्तं
पावा य चंडदंडा अणारिआ निग्घिणा निरणुकंपा ।
धम्मोत्ति अक्खराइं, जेसु न नज्जति सुमिणेवि ॥१॥ त्वद्गुरुश्चन्द्रप्रभसूरिस्तीर्थकरः किं न सञ्जातः ?, यतस्तीर्थकरं विना तीर्थमन्येन नोत्पाद्यते । त्वदीये तु पूणिमा तीर्थ । सा च चन्द्रप्रभसूरेरग्रतो व्यवच्छिन्ना आसीत् । ततः- तीर्थकराप्रकाशनात् पूर्णिमाया अतीर्थतैवेति ।।१०।। तीर्थप्रामाण्यं तीर्थाऽऽज्ञाभङ्गफलं च प्रदर्शयन्नाह
अनुसाघमिति ब्रूते, नमस्तीर्थाय तीर्थकृत् ।
यत्तत्तदाज्ञाऽवज्ञावा-ननन्तभवभाग भवेत् ॥११॥ व्याख्या-सङघं अनुलक्षीकृत्य यद्-यस्मात् कारणात् तीर्थकरो 'नमो तित्थस्स' इति ब्रूते-जल्पति । नहि तीर्थकर उत्सूत्रकारिणं नमस्कुरुते । तीर्थकृन्नमस्कृत्यैव सङघकृतस्यानुत्सूत्रत्वं
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सिद्धम् । तत्-तस्मात्कारणात्, तदाज्ञाऽवज्ञावान्-सङ घाज्ञावगणनायुक्तः पुमाननन्तसंसारभाग् जायते । सङ घाज्ञा च चतुर्मासकचतुर्दशी । तस्या उल्लङ्घने युक्तमेवानन्तसंसारित्वं तद्वताम् । उक्तंच- जो अवमन्नइ सङ, पावो थेपि माणमयलित्तो।
सो अप्पाणं बोलइ, दुक्खमहासागरे भीमे ॥१॥ सिरिसमणसंघासायणाइ पावंति जं दुहं जीवा ।
तं माहिउं समत्थो जइ परि भयवं जिणो होइ ।।२।। तीर्थकरनमस्कृत्या तीर्थस्य प्रामाण्ये सिद्धेपि प्रमाणान्तरमाह
अर्हदर्थोक्तिवत्सङघा-दिष्टं नोत्सूत्रां व्रजेत् ।।
नात एवोपसंहारो, वशवकालिकेऽभवत् ॥१२॥ व्याख्या-सङ धाऽऽदिष्ट-सङ घस्यादेश उत्सूत्रतां-उत्सूत्रभावं, न व्रजेत्-न गच्छेत्, सङघादेशस्तु चतुर्मासकचतुर्दशीरूपः, तस्य सूत्रतैव । यथाऽर्हतस्तीर्थकरस्याऽर्थोक्तिरर्थभाषणमुत्सूत्रभावं न गच्छेत्, तथा सङ्घस्यापि । तत्र प्रमाणमाह-' नात' इत्यादि। अत एव कारणाद् दशवकालिक सिद्धान्ते उपसंहार-उपसंहरणं पूर्वान्तः प्रक्षेपणं, नाऽभवत् । सूत्राक्षराणां प्रमाणेन अपश्चिमदशपूर्वधरस्य दशवकालिककरणमधिकृतम् । श्रीशय्यम्भवसूरिपादस्तु स्वसुताऽनुकम्पयाऽपवादपदमाश्रित्य श्रुताद् दशवकालिकमुद्धृतम्। दिवंगते सुते पूर्वधरस्याप्यस्य दशवैकालिकमग्रतः स्थापयितुं न प्राप्तिरभूत् । पुनर्भट्टारकश्रीसङ्घपादानामादेशेन श्रुतमिदमग्रतोपि स्थितम् ।१२।
सङघादेशे सूत्रतया सिद्ध कुपक्षरात्मन उक्तं सङ धत्वं चतुर्दश्या एवोपपद्यते इति प्रदर्शयन्नाह_ . आज्ञायुक्तोऽत्र सङघश्चेत्, साऽऽज्ञा सङघक्रमो भवेत् ।
चतुर्दश्यां स तद्वोऽस्थि-सङघातत्वमुपस्थितम् ॥१३॥
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चतुर्थो विश्रामः
व्याख्या-अत्र-अस्मिन् जिनशासने, आज्ञायुक्तो-वीतरागादेशसंयुक्तः, स सङधः । आज्ञायुक्तत्वमस्माकं, ततः सङ घत्वमपीति चेत्, ततः साऽऽज्ञा सङ्घक्रम एव भवेत् । य एव सङ घक्रमः स एव वीतरागादेशो । नहि भगवदादेशो निरालम्बः क्वचिद् ध्वनन्नुपलभ्यते । सङघक्रमाधारत्वात् तस्य । स च सङघक्रमश्चतुर्दश्येवाज्ञा। अतश्चतुर्दशीयकानामेव सङ्घत्वं, नान्येषां । एतावता वो-युष्माकमस्थिसंघातत्व-अस्थिसमूहत्वं, उपस्थितंढोकितम् । उक्तंच- 'एगो साहू एगा वि साहुणी सावओ अ सड्ढी वा। आणाजुसो संपो सेसो पुण बदिसंधाबो' ॥१॥१३॥
वयं चतुर्थी वर्षप्रतिक्रमणं समाचीर्णमिति भणित्वा न कुर्मः, किन्तु सूत्राक्षराणां प्रामाण्येन कुर्मः इति परोक्तमुत्थापयन् पर्युषणाकल्पचूर्णावपि विशेषव्याख्यानपरिज्ञयं चतुर्दश्याः प्रामाण्य प्रदर्शयन्नाह- . .
अर्वाक् पर्युषणं वासः, पञ्चकेषु न वार्षिकम् । .. पञ्चम्यां तु द्विधाप्येतच्चतुर्थ्यां चेन्मतं ततः ॥१४॥ चतुर्मासी चतुर्दश्यां, न कि चूर्णी न चेत् ततः । चतुर्थ्या अपि नानाप्तिश्चरितस्यानवावतः ॥१५॥ सङघाइता तु सङघानाऽऽ-घाटायात्रापि सा प्रमा। चतुर्दश्यपि सङघासा, वेधनाशाय यत् श्रुते ॥१६॥
त्रिभिविशेषकम् ।। व्याख्या-यत् सिद्धान्ते 'आरेणावि पज्जोसवेअब्वं' इत्यक्षरैः पर्युषणं अर्वाक्कथितम् । स वासो-वसनं गृहस्थाज्ञातवर्षाकाला वस्थानाभिग्रह इत्यर्थः । सोपिपूर्णिमा-पञ्चमी-दशमी-अमावास्यापर्यवसानेषु पञ्चकेषु भवति, न चतुर्थ्याम् । 'न वार्षिक' न सांवत्सरि
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गुरुतत्त्वप्रदीप
कानुष्ठानं । तथाकरणे पर्युषणस्य गृहस्थज्ञातताभवनात् वर्षप्रमाणबाधनाच्च । उक्तं च श्रीमुनिचन्द्रसूरिपादः- 'बारह मासह चउवीसह पासह' इत्यादिक: सांवत्सरिकक्षामणाधिकारे पाक्षिकचूादिनिरूपितः क्षामणाऽऽलापकः. सर्वसांवत्सरिकपर्वसु सत्यार्थो न स्यात् । अतएवाऽभिवद्धितसंवत्सरे विशतिदिनेषु प्राक् प्रवृत्ताधिकमासवशेन वर्षाकालस्वरूपे प्राय उपलब्धे यत् पर्युषणं तद् गृहस्थज्ञातं 'ठिआमो' त्ति भणनमात्रं, न सांवत्सरिकानुष्ठानं, श्री भद्रबाहुस्वामिपादस्तदनुष्ठानगन्धस्याप्यसूचितत्वात् । तु-पुनः, पञ्चम्यां भाद्रपदशुक्लपञ्चमीमाश्रित्य पर्मनं सिद्धान्त मधाषि-विप्रकारमपि, लोकज्ञातं 'ठिआमोतिभणनरूपं स्यात्, पर्युषणशब्दस्य पञ्चमीमाश्रित्य द्वयर्थत्वात् । चेद्-यदि, एतद्विप्रकारं त्वया चतुर्थ्यां सूत्राक्षराऽदृष्टमपि समाचीर्णत्वान्मतम् । अर्वाचीनपञ्चकेसु पर्युषणाकल्पकर्षणादिसूत्रोक्तविधिकरणाभावात् । अत्र किल यच्चतुर्थ्यां 'ठिआमो' त्तिभणनं कृतं सा सामाचारी अग्रेऽन्त्यपञ्चके पञ्चमी दिने द्विप्रकार. मपि मिलितमेव क्रियते। इत्यादि कारणात् सांवत्सरिकानुठानमपि यत् चतुर्थ्या कृतं सापि सामाचारी । इति चतुर्थ्यां द्विप्रकारमपि समाचीर्णम् । यद्यतन्न मतं, ततस्त्वया चतुर्दश्यां चतुर्मासी समाचीर्ण त्वात्किं न मता ? । एक समाचीणं मन्वानस्य अपरं समाचीर्णममन्वानस्य प्रकटैव तव भ्रान्तता। अथ चूणाचेत्-पर्युषणाकल्पचूणिमध्ये निशीथचूणिमध्ये च चतुर्दशी न दृष्टा, अतोस्माभिर्न मता इति चेत् । ततश्चूर्णी चतुर्थ्या अपि नाग्राप्तिांग्रतः करणस्य प्राप्तिः। यदाह पर्युषणाकल्पचूणिकार:
_ 'एवं चउत्थीवि जाता कारणिआ'। तथाह निशीथचूर्णिकार:'जुगप्पहाणेहिं चउत्थी कारणेणं पवत्तिआ, सा चेव अणुमया सव्वसाहूण' । ततः कालिकाचार्यस्य शालवाहनप्रार्थनालक्षणं कारणं
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चतुर्थी विश्रामः
तत्कालवर्तिनां सर्व्व साधूनां सञ्जातम् । युष्माकं किं कारणम् । चूणरक्षरेषु न तत्कुत्राप्युपलभ्यते । अथ चतुर्थी चरितानुवादः, स च विधिवादाविरोधी कारणोपात्तो वा पाश्चात्यानां प्रमाणम् । ततः कथं युष्माभिश्चतुर्थी क्रियते । तु-पुनः सा चतुर्थी सङ घादृतासङ्घाङगीकृता सती अत्रापि वर्णावपि प्रमा- प्रमाणं एवं चउत्थीवि जाता कारणिया' इति चूर्णिकारोक्ताक्षरेषु कारणं नाम सडधाज्ञाया आघाट इत्येतस्याप्यर्थस्य सङ्घादृतत्वेन चतुर्थी अग्रतोपि प्रमाणम् । नवपूर्वधारत्वेन युगप्रधानत्वेन वा कालिकाचार्यवृताया अस्याः प्रामाण्यं, गणधरादीनामपि शास्त्रकरणलब्धि मुक्त्वान्यत्र स्खलितस्यापि सम्भवात् । अन्यथा गौतमस्थूलभद्रा दिल्ल लितानामभावात् । अमीषां विमर्शकारिताया अप्यागमाक्षराणामपि संघादृतत्वेन प्रामाण्यात् । अन्यथा लौकिकशास्त्राक्षराणामपि प्रामाण्यप्रसङ्गात् । आगमाक्षराणामपि भङ्गपरावर्तादेः सुकरत्वेनैवास्याः प्रामाण्यमापनम् । किमर्थमग्रतः सङ्घादृता ? इत्याह- सङ्घाज्ञाघाटाय । इयं चतुर्थी सङघाज्ञाया आघाट इति पाश्चात्यानां ज्ञापनाय । पश्चादपि यत् किञ्चित् तत्कालवर्ती सङघो नूतनं वितनोति तदागमानुक्तमपि चतुर्थीवत् सङ्घाज्ञेति कृत्वा पाश्चात्यैरपि तत्कालवत सर्वसङ्घानुमत्या मन्तव्यमनुष्ठेयं च । अस्याघाटस्य प्रामाण्येनसङ्घाज्ञा केनापि नोल्लङघनीयेति मर्यादायै सङ्घेनादृतेत्यर्थः । ततो यथा पर्युषणपृष्ठलग्नं सांवत्सरिकप्रतिक्रमणं चूर्णे चतुर्थ्यामनुक्तमप्युक्तं मन्तव्यं । तथा सांवत्सरिकप्रतिक्रमणस्य पर्युषणेन समं एकदिवसभवनलक्षणसम्बन्धात् सांवत्सरिकप्रतिक्रमणपृष्ठलग्ना चतुर्मासिकचर्तुदश्यपि चूर्णावनुक्ताप्युक्तैव मन्तव्या । यद्यस्मात् कारणादेषापि सङघात्ता - सङघेन गृहीता, किमर्थं ? श्रुते - सिद्धान्ते,
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
वेधनाशाय - वेधानां वक्ष्यमाणलक्षणानां विनाशनार्थम् । चतुर्दश्यङगीकृति विना हि बहुतरस्थानेषु सिद्धान्ते विरोधो भवति ।। १४-१५-१६ ।। त्रिभिर्विशेषकम् ॥
६८
चतुर्दश्यङगीकारं विना सिद्धान्ते चतुविधानामुत्पत्ति दर्शयन्नाहस्यात् पञ्चाशविबाघातो, विनंतामेकजातितः । पाक्षिकादिविवास ऊंख्या - घातनाप्तिर्भवेत्तथा ॥ १७॥
व्याख्या - एतां चतुर्दशीं विना पञ्चाशददिवाघातः चतुर्मासकवार्षिकयोरन्तराले पञ्चाशदिवसानां विनाशः स्यात् भवेत्, पूणिमाङ्गीकारे एकोनपञ्चाशद् दिवसा भवन्तीत्यर्थः । इत्येकः सिद्धान्तवेधः । अथ वेपत्रिकमाह तथा 'पाक्षिकादि' इत्यादि । पाक्षिकस्य, आदिशब्दाच्चतुर्मासिकवार्षिकयोः ये दिवा - दिनास्तेषां सङख्या परिमाणं तस्या घातनं हननं, तस्याप्तिर्भवेत् जायते । कस्मात् ? एकजातितः-सजातियत्वात्, सजातियत्वं च पञ्चाशता समं पञ्चदशादेः । किमुक्तं भवति-पाक्षिकस्य पञ्चदश दिनाः, चतुर्मासकस्य विंशत्यधिकं शतं दिनाः, वार्षिकस्य षष्ट्यधिकानि त्रीणि, शतानि दिनाः । तेषु दिवसेष्वपूर्णष्वेवैतत् पर्वत्रयं प्रतिक्रामन् परोप्यनिवार: स्यात् । इति सूत्रे वेधत्रयमुत्पद्यते ॥ १७॥ अक्षरानुक्तचतुर्दश्यङगीकारेऽक्षरोक्त पूर्णिमात्यागे कथं नाम न सूत्रवेध : ? इति परर्न्यस्तं वेधं परिहरन्नाह
सदृशी नापि पञ्चम्याः पर्व्वत्वेन चतुर्ष्वपि । कायास्तु सदृक्प्रोक्ता, पव्वंत्वेन चतुर्दशी ||१८|| सदृग्दिनपरावर्ती, दिनस्तैन्याद् गुणाय तत् । पञ्चकानि प्रमेत्थं च सप्तत्यादिदिनान्यपि ।। १९ ।।
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चतुर्थो विश्रामः
womawwwwwww.
व्याख्या-अत्र चतुर्थी किल पर्वरूपतया पञ्चम्या असदृश्यपि पर्वतयाऽङगीकृता विद्यते। चतुर्दशी पुनश्चतुःपय॑न्तर्गतत्वादिना पूर्णिमायास्सदृशी । ततः पूर्णिमां परित्यज्य चतुर्दश्या ग्रहणे सदृशदिनपरावर्ती भवन्न दुष्टः । पूणिमाङगीकारे पुनरेकोनपञ्चाशदिवसेसु सञ्जायमानेषु पञ्चाशन्मध्यादेकस्य दिनस्य चौरिका भवति । • स महान् गुणः। जनेऽपि स्वामिनो भाण्डागारे हीनद्रव्यकरणे चौरिकादोषो लगति। पुनः सदृगदिनपरावर्तेन सदृग्दिन (दीनारादि) ग्रहणे दोषाभावस्सम्मतः इति चतुर्दशीस्वीकारे न सूत्रवेधः, केवलं गुणः । अथान्यानपि वेधानाऽऽह- 'इत्थं च चतुर्दशीस्वीकारे 'इत्थ य पणगं पणगं' इत्यादिसूत्रोक्तान्येकादश पञ्चकानि प्रमाणानि सञ्जायन्ते । अखण्डानामेव भवनात् । अन्यथैते एकादश वेधा भवन्तीति । तथा इअ सत्तरी जहन्ना' इत्यादि सूत्रोक्तानि 'सप्तत्यादिदिनात्यपि' प्रमाणानि जायन्ते सप्ततिरशीतिः पञ्चाशीतिनंवतिः शतं पञ्चोत्तरशतं दशोत्तरशतं पञ्चदशोत्तरशतं विशत्यधिक शतं दिवसानामखण्डने एकादशवेधानामभाव: चतुर्दश्या अस्वीकारे एतेप्येकादशवेधा भवन्तीत्यर्थः । सर्वेपि मीलिताः षड्विंशतिबंधा भवन्ति। तावदेते प्रकटं दृश्यमानास्सन्ति । ये केचिदन्ये प्रभुश्रीकालिकाचार्यपादः श्रुतवेधा दृष्टास्तपि चतुर्दश्या आराधने विलीना इति ॥१९॥ अत्रापि पञ्चाशत्स्थाने एकोनपञ्चाशदिवसास्सन्ति, ततो हीनदिनकरणादस्माकं न दोष इति राकामतमाक्षिपन् चूर्णेरक्षरेषु चतुर्दश्या अभावकारणं च प्रदर्शयन्नाह
एकोनत्रिशको रूढघा, त्रिशो मासोऽत्र गण्यते । क्षणः पर्युषणाकल्प-चूर्णी पर्युषणस्य यत् ॥२०॥ ततः प्रोक्ता चतुर्येव, यथा लघुकथास्वपि । । नोक्ताचार्यान्यचर्येव,सङक्षेपाच्च चतुर्दशी।२१।युग्मम्।
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
Arrowon
व्याख्या-यत् पूर्वमाषाढचतुर्मासक-पर्युषणयोरन्तराले एकोनपञ्चाशद्दिनानां स्थाने पञ्चाशदिवसा अर्हद्भट्टारकर्मण्यन्ते । सा तैः कृता रूढिरेव । यत्सामान्यविवक्षायां एकोनविंशको मासस्त्रिशो मासो गण्यते, विशेषविवक्षायां एकोनत्रिंश एकोनत्रिंश एव । तथा पर्युषणाकल्पचूर्णी पर्युषणस्य- पर्युषणकथनस्य, क्षण:प्रस्तावः, अन्यथा पर्युषणाकल्प इत्यस्य नाम्नोऽलीकत्वप्राप्तिः स्यात् । तथा (तः) चतुर्थी एकाकिनी उक्ता, न चतुर्दशी । यथा कालकाचार्य-लघुकथासु पर्युषणदिवसे इयं कथा कथनीयेति कारणात्पर्युषणस्यैव प्रस्तावः । ततश्चतुर्थ्यकाकिनी प्रोक्ता। तथाचूर्णिलघुकथयोः सडक्षेपरूपत्वाच्च चतुर्दशी न प्रोक्ता। केव ? आचार्यान्यचर्येव । यथा कालकाचार्यस्य अन्यतरा चर्या-कर्तव्यता । यथा कालिकाचार्येण पञ्चम्याश्चतुझं वार्षिकप्रतिक्रमणं समानीतमित्यादिरूपा चूर्णिलघुकथयोर्न प्रोक्ता तथा चतुर्दश्यपि न ।
'कत्थवि देसग्गहणं, कत्थवि भणंति निरवसेसाई । उक्कमकमजुत्ताई, सुत्ताण विचित्तभावाओ' ॥१॥
इति वचनात् ॥२०, २१॥ युग्मम् ॥
यदि कालिकाचार्येण कृता, ततः कथं कुत्रचिच्छास्त्रे न दृश्यते ? इति चतुर्मासकचतुर्दश्याः परोपन्यस्तं दूषणं शास्त्रानुक्तत्वेपि सङघपरम्पराऽऽयातत्त्वेन प्रध्वस्तमपि शास्त्रोक्तत्वेनापि प्रध्वंसयन् शास्त्रस्य प्रामाण्यं प्रदर्शयन्नाह
कथायां विधिवादस्तु, तदशेनादिवाक्यतः ।
प्रमाऽऽद्यत्वं सकल्पत्वा-याख्याने पुस्तकेपि च ॥२२॥ व्याख्या-कथायां-कालिकाऽऽचार्यबृहत्कथायां चतुर्थीचतुदश्योविधिवादः, तु-पुनरुवतः, न चूर्णिवच्चरितानुवादः । 'तव्वसेण य
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चतुर्थी विश्रामः
चाउम्मासिआणि चउदसीए आयरणा' इति वाक्यतः पाश्चात्यानामप्यादेशोऽभवत् । कथायां 'प्रमाद्यत्वं' प्रमात्वं प्रामाण्यम्, आद्यत्वं- अपाश्चात्यं च । कस्मात् ? सकल्पत्वात्-कल्पसख्युवतत्वात् । क्व ? व्याख्याने, न केवलं व्याख्याने, पुस्तकेपि (च)। एषा कथा कुपक्षेष्वपि पर्युषणाकल्पसहिता व्याख्यायते । समग्रेण्वाद्यपुस्तकेषु पर्युषणाकल्पसहिता दृश्यते च । न च किमपि पर्युषणाकल्पस्याऽऽद्यं पुस्तकं कथाविरहितं दृश्यते । अतो ज्ञायते यदा कल्पोऽयं पृथग्लिखितस्तदा कल्पपुस्तके कथा लिखिता । अतो यदि कल्पस्यास्य प्रामाण्यमाद्यत्वं च ततः कथाया अपि प्रामाण्यमाद्यत्वं च ||२२|| कमायाः परोपन्यस्तं पाश्चात्यमेवोत्थापयन्नाह -
Ap
सङघाच्चेत् तत्कथा चूर्णेः, प्राक् सूरिमनु यत्कथा । अल्पाद्धा पुस्तकन्यस्त - सिद्धान्तमनु चूर्णयः ॥ २३ ॥
व्याख्या - तावदियं कथा सङघाच्छिन्नसूत्राद्वा श्रुत्वा केनचित्पूर्वाचार्येण कृतेति घटते । ततो यदि सङ्घादियं कथा निष्पन्ना ततः चूर्णेः प्राक् - पर्युषणाकल्पचूर्णेः प्रथमं निष्पन्ना । कथमित्याह'यत्' यस्मात्कारणात् सूरि - कालकाचार्यं अनुलक्षीकृत्य इयं कथा सञ्जाता । किंविशिष्टा ? अल्पाद्धा - तुच्छकाला, सूरे: पश्चादल्पकालेन निष्पन्नेत्यर्थः । चूर्णयः पुनः पुस्तकन्यस्तसिद्धान्तंपुस्तक लिखितागमं अनुलक्षीकृत्य निष्पन्नाः ॥ २३॥
७१
ननु चूर्णेः पश्चात्कथाया निष्पन्नत्वं कथं न ? इत्याशङकापरिहारायाह
कथायां सूरिपित्रादि- विशेषा ये श्रुते न ते । यत्तत्कालातिदूरत्वा न स्मरन्त्यपि कस्यचित् ॥ २४ ॥
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व्याख्या - उक्तं च पञ्चमाङगे - 'जंबूदीवेण भन्ते ! दीवे भारहे वासे इसे ओप्पणीए देवाणुप्पिआणं पुब्वगए केवइअं कालं अणुसज्जिस्सइ । गोयमा ! जम्बूदीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए ममं पुव्वमए एगं वाससहस्सं अणुसज्जिरसइ' कालिकाचार्यस्य पश्चात् षट्सप्तशत वर्षोद्देशे सिद्धान्तः पुस्तके लिखितो घटते । तदनु चूर्णयो निष्पन्नास्तदनु च कथाया निप्पन्नत्वं बहुतरकाभवनान्न घटते । कथमित्याह यतः कथायां सूरे:- कालिकाचार्यस्य पित्रादिविशेषाः - मातृपितृनाम, आदिशद्वादन्येपि ये विशेषाः कथितास्सन्ति । ते श्रुते - सिद्धान्ते न दृश्यन्ते, केवलं सामान्यमात्रं दृश्यते । ततस्ते विशेषा अतिदूरतरकालेन कस्यापि कथाकर्तुर्न स्मरन्ति । अतः कालिकाचार्यस्य पश्चात्सार्द्धशतद्विशतादिवर्षोद्देशे कथाया निष्पन्नत्वं घटते ||२४|
-
नन् विशेषाणां कथंनकल्पितत्वं ? इत्याशङकापरिहारायाहअगोपाङ्गप्रकीर्णादि, यथा सङ्घापितं प्रमा । विशेषास्ते तथा सुरे-रन्यथाऽऽशातनाप्यलम् ॥ २५ ॥ व्याख्या - अङ्गान्युपाङ्गानि प्रकीर्णका नि, आदिशद्वान्निर्युक्तिभाष्यचूणिप्रभृति, सङ्घार्पितं - सङ्घपरम्पराऽऽयातं सत् चन्द्रप्रभसूरेर्यथा प्रमाणं बभूव तथा कालकाचार्यस्य ते पित्रादिविशेषाः सङङ्घपरम्पराऽऽयाता बलात्प्रमाणमभूवन् । अन्यथा सूरे:- कालिकाचार्यस्य सम्बन्धिनी आशातना अलं- अत्यर्थं, कथाकर्तुरन्यतरपित्रादिकथनेन भवति । अपि शब्दात्सङ्घपरम्परायातानां विशेषाणां अप्रामाण्ये सङ्घपरम्पराया असङ्घत्वभवनेन सङ्घव्यवच्छेदः स्यात् । व्यवच्छिन्ने सङ्घे नूतन सङघकरणं तीर्थंकरेणैव भवतीति भवद्भिरप्यभ्युपगतमास्ते । श्रीमहावीरस्वामिनः पश्चात् श्रीपद्मनाभस्वामिनं यावदन्तरालेऽन्यतरस्य तीर्थंकरस्यानुत्पादात् ।
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७२
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चतुर्थो विश्रामः
सङघेन त्ववश्यं भवितव्यम् । ततः सधपरम्पराऽध्यातायास्सकलानष्ठानप्ररूपणायास्सर्वसङघानमत्या प्रामाण्यमेव । अत एव ये राजाभात्यादि नगरपामादीनां कथाभिधानादिकं कल्पितं विदधति, ते यथाच्छन्दाः।
दरिअं व कप्पिअं वा, आहरणं दुविहमेव नायव्वं । अत्थस्स साहणट्ठा इंधणमिव ओअणट्ठाए ।।१।।
अत्र गाथायां यत्कल्पितं वेत्युक्तं तत्कल्पितमिदमिति यदुपलक्ष्यते तद्गृहीतं, न तु चरितसदृशम् ।।२५॥ चतुर्दश्याः कथायाश्च विशेषप्रामाण्यमाह- .
चतुर्दशी प्रमा सघा-पितवाऽपि विना कथाम् । कथा त्वाऽऽचार्यचर्याऽऽद्य-दिनादत्ततो मता ॥२६॥
व्याख्या-पूर्वार्द्ध स्पष्टं । 'कथेत्यादि । कथा बन्धमाश्रित्या:रूपकालीना, अर्थाद्-अर्थमाश्रित्य तु-पुनः, कालकाचार्यस्य या चर्या-समाचारस्तस्या य आद्यदिनः-प्रथमदिवसस्तत्प्रति वर्तते । पर्युषणचतुर्थी-चतुर्मासकचतुर्दशीभवनदिनादारभ्य प्रघट्टकस्यास्य कस्मिश्चित्प्रस्तावे वार्ताभिः कथ्यमानत्वात् । तत आद्येति ज्ञात्वा मता। यतोऽधुनातनमपि युक्तियुक्तं शास्त्रं समग्रेण सधेन मन्यते । ततः पुरातनाया अस्याः कथाया उल्लङघनमनुचितमेव । यतस्त्वमप्यस्याः कथायाः पाश्चात्यषेति दूषणं जल्पन्न सि । ततो यदि पुनस्तवाप्याऽऽद्यत्वपरिज्ञानेऽस्यां रतिर्भवति । अतो मयाप्यत्रोपर्दाशतेति ॥२६॥ कथादूषकस्य तत्सम्मतमनन्तसंसारित्वमाह
अनन्तगुणवृद्धघाऽऽद्धया-स्त्वत्तश्चेत्पूर्वसूरयः । तत्तन्मतकथालोपे, युक्तोऽनन्तभवस्तव ॥२७॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
७४
व्याख्या-नन्वस्मिन् कालेऽस्मिन् क्षेत्रे भगवदुक्ताऽनन्तगुणहानिर्भवताऽप्यभिमता । ततः सा पश्चानुपूर्व्या चिन्तिता सत्यनन्तगुणवृद्धिर्भवेत्। सा चेत्थं पूर्वस्मिन् काले पूर्वाऽऽचार्याणामेवोपपन्ना। अतश्चेद्-यदि, पूर्वसूरयः-पूर्वाऽञ्चार्या अनन्तगुणवृद्धया आढ्या:समृद्धास्त्वत्तः-तव पार्वात् संसिद्धाः । ततस्तन्मतकथालोपे पूर्वाञ्चार्यसम्मतकालिकाचार्यकथाच्छेदे, तवाऽनन्तो भवः-संसारो, युक्तो-युक्तिमान् । अनन्तगुणवृद्धानामुल्लङघनेऽनन्तसंसारित्वं गणितानुसारेणैव समायाति ॥२७॥
सूत्रचूर्णे: सिद्धान्तोऽयमिति नामश्रवणात् गौणश्रुतत्वमजानता भ्रान्तचित्तेन चन्द्रप्रभसूरिणा कल्पचूर्णी चतुर्थ्या दर्शनाच्चतुर्दश्या अर्दर्शनाच्च यूयमकारणामेकामाचरणाध्यातां चतुर्थी मन्वाना द्वितीयामाचरणाभ्यातां चतुर्दशी कथं न मन्यध्वे ? इति पृष्टेन वयं सूत्राऽक्षरोक्तमेव मन्यामहे इति ब्रुवाणेन चतुर्थीमेव मन्वानेन सूत्रचूर्णीनां मुख्यवृत्त्याऽऽगमत्वं यत्प्रदत्तं तद्विघटयन् सूत्रचूर्णीनामेव गौणाऽऽगमत्वसूचनां दर्शयंश्चाह
चतुर्व्याख्याऽद्यभावेन, सामान्यस्य कृतावपि । सूत्रत्वं सूत्रचूर्णीनां, सूत्रव्याख्यानरूपतः ॥२८॥ व्याख्या-सूत्रचूर्णीनां यत् सूत्रत्वमुच्यते, तत् सूत्रव्याख्यानमेव यद्रूपं तस्माद् । अत एव तद्विरहे कर्मग्रन्थादिचूर्णीनां सूत्रत्वाभावः। क्व सति ? सामान्यस्य कृतावपि । न च गणधरादिकृतत्वं सूत्रचूर्णीनां । किं ? इत्याह-चतुर्व्याख्याऽऽद्य भावेन । सिद्धान्ते हि अपश्चिमदशपूर्वधरं यावच्चत्वारि द्रव्यानुयोगादिव्याख्यानान्यभूवन् । तेषां चूर्णीष्वदर्शनेन, आदिशब्दात् सप्तशतनयानां व्याख्यानाऽदर्शनेन चेत्यनुमीयते-यच्चूर्णयः केनचिद्गणधरादिव्यतिरिक्तेन
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चतुर्थी विश्रामः
सामान्येन कृताः । पुनरागम संलग्नव्याख्यानाऽऽधारभूतत्वेनाऽऽगमा इतिभयन्ते सूत्रचूर्णीनां तदि थं गौणाऽऽगमत्वसूचनेत्युक्तम् ||२८|| अथ सूत्रचूर्णीनां सूत्रवृत्तानां कालकाचार्य कथायाश्च सिद्धं गौणाऽऽयमत्वं प्रदर्शयन्नाह
एतास्वमिदं गौणं स्यात् तथा सूत्रवृत्तिषु । योगोद्वाहाविहीनं च कथायां सूत्रमार्गतः ॥ २९ ॥
७५
व्याख्या- 'एतासु ' सूत्रचूर्णीषु एवं अमुना सूत्रव्याख्यानरूपेण प्रकारेणेदं सूत्रत्वं गौणं- गौणरूपं स्याद् भवेत् । तद्वृथा मुख्यरूपाऽऽगमाऽक्षराऽङ्गीकाराऽभिमानोऽमृषु । तथा सूत्रवृत्तिष्वपि गौणरूपं सूत्रत्वं सूत्रव्याख्यानरूपतस्सिद्धम् । तथा कथायां योगो - हनं आदिशब्दादकालगुणनाऽनध्यायादि, तैर्हीनं सूत्रत्वं गौणरूप सिद्ध्यति । कस्मात् ? सूत्रमार्गतः - सिद्धान्तानुयायितया । किल कालकाचार्यचरितस्य सूचनामात्रस्य सिद्धान्ते उक्तत्वात् । ततस्तेन सविस्तरेणापि भवितव्यम् । तद्विस्तरस्य सङ्घ परम्परायातत्वेन गौणागमरूपस्य या आधारभूता कथा, तस्याः सूत्रानुयायित्वमुपपन्नमेव । सूत्र संलग्नव्याख्यानाभावेन तु योगोद्वह्नादिकमनुचितम् । पुनस्सूत्रचूणिसूत्रवृत्तिवदनुल्लङ्घनीयता समुचितैवेति ॥ २९ ॥
भङग्यन्तरेण परसम्मतं पूर्णिमाया बाह्यत्वमाह -
सप्रतिक्रमणा सघ - बाह्या स्यात् पञ्चमी यथा । सङ्घाऽऽज्ञाभङ्गगतो जाता, पूणिमाऽप्यधुना तथा ॥ ३० ॥
व्याख्या - स्पष्ट: । नवरं यथा कश्चित् साम्प्रतं पञ्चम्यां वार्षिकं प्रतिक्रमयन् युष्माभिरपि बाह्यः क्रियते, तथा यूयमस्माभिरपि सङ्घबाह्याः कृताः ॥ ३० ॥
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. गुरुतत्त्वप्रदीप
पूर्णिमायां पारणके परैः प्रदत्तं दूषणं परिहरन्, परेषां चतुर्दश्यामुत्तरपारणककरणे विलग्नं विशिष्टदूषणं दर्शयंश्चाह
उपवासश्चतुर्दश्यां, पूर्णिमायां तु न श्रुते ।
आद्या प्रायस्ततोऽप्यज्ञः, कृतवोत्तरपारणे ॥३१॥ व्याख्या-श्रुते-सिद्धान्ते, पाक्षिकोपवासश्चतुर्दश्यामुक्तः । उक्तं च महानिशीथे
'अट्ठमि-चउद्दसी-णागपञ्चमी-पज्जोसवणा-चाउम्मासिए चउत्थट्ठमछठे ण करेज्जा खवण' । ततो युक्तं पूर्णिमायां पारणकम् । तु-पुनः, पूर्णिमायां पाक्षिकोपवासो न प्रोक्तः । ततोऽध्यज्ञ:मूर्खः, प्रायो-बाहुल्येन, आद्या-चतुर्दशी पूर्णिमोपवासस्योत्तरपारणके कृता । महदूषणमेतदेतेषाम् ॥३१।।
चतुःपर्वीमध्ये पूर्णिमायामप्युक्ते उपवासे पाक्षिकं सिद्धमिति परोक्तमाक्षिपन्नाह
श्राद्धानां या चतुःपी, सा नवाऽऽलम्बनं यतेः ।
अनुश्राद्धं यतिर्यन, न तस्यामपि पाक्षिकम् ॥३२॥ व्याख्या-सिद्धान्ते अष्टमी-चतुर्दशी-पूणिमाऽमावास्यारूपा (या) चतुःपर्वी उक्ता, सा श्राद्धानां-श्रावकाणामेवोक्ता । अत एव यतेः-चारित्रिणश्चतुःपर्वी न पाक्षिकस्याऽऽलम्बनम् । यतः श्राद्धपृष्ठलग्नो न यतिः । यतिपृष्ठलग्नः श्राद्धः । तथा तस्यामपि-चतुःपामविपाक्षिक-पाक्षिकप्रतिक्रमणं, न सूत्र प्रोक्तं । केवलं पौषधव्रतमुना । इत्थमपि यत्पूर्णिमायां पाक्षिक स्थाप्यते, सा मूर्खेभ्योऽपि मूर्खता ॥३२।।
चतुर्दश्यां पाक्षिकस्य प्रामाग्यमाह
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चतुर्थो विश्रामः
७७
पाक्षिकत्वे चतुर्दश्याः, पाक्षिकीसप्ततिः प्रमा।
चन्द्रप्रभगुरुभ्रात-मुनिचन्द्रेण निर्मिता ॥३३।। व्याख्या-स्पष्ट: । किल राजश्रीकर्णवारके आचार्यश्रीचन्द्रप्रभसूरि-श्रीमुनिचन्द्रसूरि-श्रीमानदेवसूरि-श्रीशान्तिसूरिप्रभृतय एकगुरुशिष्याश्चारित्रिणोऽभूवन् । तेषां मध्ये प्रभुश्रीमुनिचन्द्रसूरीणां चारित्रं जनपददत्ताऽऽचाम्लीयकेत्याशीर्वादविषयमासीत् । तदानीमेक: श्रीधरनामा महद्धिकः श्राद्धो बहुवित्तव्ययेन जिनप्रतिमानां प्रतिष्ठा कारयितुमुद्यतः । तेन च संविग्नभावितेन वृद्धत्वात् श्रीचन्द्रप्रभाचार्य प्रति (उक्तं) भो पूज्या ! मदीयप्रतिष्ठाकृतये श्रीमुनिचन्द्रसूरीन् प्रत्याज्ञापयतेति । महानुपरोधः कृतः । ततोऽभिमानत्यागाऽक्षमेन चन्द्र प्रभसूरिणा तस्योत्सवस्य विध्वंसाय श्राद्धप्रतिष्ठा प्ररूपिता । एकाकीत्यसौ कारणे पततीत्यभिप्रायेण । अथान्येन केनचिन्मतिभेदेन द्वितीया पूर्णिमा प्ररूपिता। ततः श्रीसङधपादैरनेको युक्तिभिर्ज्ञापितोऽपि चन्द्रप्रभसूरिः स्वाभिनिवेशमत्यजन् सङघबाह्यः कृतः। श्रीमुनिचन्द्रसूरिपादैर्जनानुकम्पया चतुर्दश्यां पाक्षिकमिति सिद्धान्तरहस्यप्रकटनाय पाक्षिकसप्तत्यभिधानं प्रकरणं कृतम् । पाक्षिकस्य विचारविस्तरः पाक्षिकसप्ततिसत्कसूत्रवृत्तिभ्यामेव वसेयः । पाक्षिकसप्ततेमध्यात् पाक्षिकविचारो लेशतोऽत्राप्युपदश्यते । स चायं
विज्जाणं परिवाडी, पव्वे पव्वे अ दिन्ति आयरिआ । मासद्धमासिआणं, पव्वं पुण होइ मज्झं तु ॥१॥ पक्खस्स अट्ठमी खलु, मासस्स उ पक्खिअं मुणेअव्वं ।
सुत्तेवि अ चुण्णीए, पक्खिअं चउद्दसी भणिआ' ॥२॥ अत्र च साई गाथा व्यवहारसूत्रोक्ता । शेष मुत्तरार्द्धमाचार्योक्तम् । अस्य
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७८
व्याख्या-तद्यथा-'सुत्तेवित्ति । 'चउद्दसीग्गहो होइ कोइ' इत्यादौ व्यवहारसूत्रेऽपि । 'एअचुण्णीइ' एतच्चूर्णावपि-व्यवहारचूर्णावपि पाक्षिकं चतुर्दशी भणिता। उक्तं च व्यवहारचूी षष्ठोद्देशे पत्र ३३६ सङख्यपुस्तके २१० सम्बन्धिनि पत्र-विज्जाणं गाहा ॥ सव्वस्स विभासा । जं मज्झं गाहा । पक्ख पव्वस्स मज्झं, अट्ठमीबहलाईआ मासत्ति काउं मासस्स मज्झे पक्खि किन्हपक्खस्स चउद्दसीए विज्जासाहणोवयारो। आह-यद्येवं 'तेण एगरायग्गहणं कायव्वं । दुरायं तिरायं वेति न बत्तव्वं । अत उच्यते चा उद्द० ३६ गाहा कण्ठया। प्रसङगेन तृतीयखण्ड पत्र ३४६ वृत्तिव्याख्यानमपि दय॑ते
विज्जाणं परिवाडी पव्वे पव्वे अदिन्ति आयरिया । मासद्धमासिआणं पन्धं पुण होइ मज्झं तु ॥१॥ आचार्याः पर्वणि पर्वणि विद्यानां परिपाटीर्ददति । विद्याः परावर्तन्ते इति भावः । अथ पर्व किमुच्यते ?, तत आह-मासार्द्धमासयोर्मध्यं पुनः पर्व भवति । एतदेवाह
पक्खस्स अट्ठमी खलु मासस्स उ पक्खिअं मुणेअव्वं ।
अण्णपि होइ पव्वं, उवरागो चंदसूराणं ॥१॥ अर्द्धमासस्यपक्षात्मकस्य मध्यमष्टमी । सा खल पर्व । मासस्य मध्यं पाक्षिक पक्षेण निर्वृत्तं ज्ञातव्यं, तच्च कृष्णचतुर्दशीरूपमवसातव्यम् । तत्र प्रायो विद्यासाधनोपचारभावात् 'बहलादिका मासा' इति वचनाच्च । न केवलमेतदेव पर्व, किन्त्वन्यदपि पर्व भवति । यत्रोपरागो-ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः, एतेषु पर्वसु विद्यासाधनप्रवृत्तेः । यद्येवं तत एकरात्रग्रहणमेव कर्तव्यम् । तत आह
चाउद्दसीग्गहो होइ कोइ अहवा वि सोलसिग्गहणं ।
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चतुर्थो विश्रामः
बत्तं तु अणज्जन्ते होइ दुरायं तिरायं वा ॥१॥ कोऽपि विद्याया ग्रहश्चतुर्दश्यां भवति । अथवा षोडश्यां-शुक्लपक्षप्रतिपदि विद्याग्रहणं । किमुक्तं भवति-कोऽपि विद्याग्रहः चतुर्दश्यां कोपि प्रतिपदि क्रियते इत्येवं त्रिरात्रवसनमथवैकेन दिवसेन व्यक्तमज्ञायमाने विद्याग्रहणाय भवति द्विरात्रं त्रिरात्रं वा विष्वग्वसनमिति ॥३३॥
षष्ठस्याशक्तितः प्रायो, यत्प्रोक्ताऽस्यां चतुर्दशी । तत्कि षष्ठतपोऽस्माकं, चतुर्मास्यां प्रदीयते ॥३४॥
व्या०-स्पष्टः ।। पूणिमास्यां लोकानुलग्नः परैरुक्तपाक्षिकत्वमुत्थापयन्नाह
राका चेत्पाक्षिकं लोकात्, तद्दीपाल्यस्तु वार्षिकम् । नाऽऽगमोऽपि न लोकोऽप्य-भिनिवेशाऽस्थिरात्मनाम् ॥३५॥
व्याख्या-चेत्-यदि राका-पूर्णिमा, पाक्षिक लोकात्लोकप्रसिद्धर्भवद्भिरूपातं, ततो दीपाली-दीपोत्सवो, वार्षिकपर्युषणं भवतामस्तु । तदकरणेऽभिनिवेशेनाऽस्थिरात्मनां-अस्वस्थात्मनां युष्माकं सिद्धान्तोक्तं चतुर्दश्यां पाक्षिकं परित्यज्य लोकपष्ठलग्नतया पूर्णिमायां पाक्षिकं कुर्वतामागमो विनष्टः, दीपोत्सवे लोकोक्तं वर्ष त्यक्त्वा आगमोक्तं पञ्चम्यां वार्षिक मन्वानानां लोकोऽपि विनष्ट: ॥३५॥
कालकाऽऽर्यकथायां च, कथावल्यां च साऽभवत् । पाक्षिकारोपणाऽलीका, ही कुतश्चिदकोविदात् ॥३६॥ व्याख्या-कालकार्यकथायां-कालकाऽऽचार्यकथायां । तथा कथावल्यां-कथावलीग्रन्थे अलोका सा पाक्षिकारोपणा-कूटं पाक्षि
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कन्यसनं । कुतश्चिदनिर्दिष्टनाम्नोऽकोविदात् सिद्धान्ताऽनभिज्ञात् अभवत् । किमुक्तं भवति-कालकाऽऽचार्य कथासम्बन्धिपुरातनपुस्तिकासु 'तव्वसेण' य चउम्मासिआणि वि चउद्दसीए आयरियाणि' इत्यक्षरेषु सत्सु कस्याञ्चित्पुस्तिकायां सिद्धान्तार्थमजानता केनचिन्मतान्तरीयेण तव्वसेण य पक्खिआणि वि चउद्दसीए आयरियाणि' इत्यक्षराण्यागमविरुद्धानि प्रक्षिप्तानि । तथा कथावलीग्रन्थे 'पक्खि अपडिक्कमणत्थं अमावसाए उववासं काऊण' इत्यक्षराणि दृश्यन्ते,स ग्रन्थकारस्याऽनाभोगः कस्यचित् पाश्चात्यस्य प्रक्षेपो वा । पर्युषणाकल्पचूर्णी अमावास्यायां पोपवासस्यैव भणितत्वात् अस्याश्च तदुद्धारत्वात् ॥३६।।
ननु चन्द्रप्रभसूरेः प्रथममताऽऽकर्षकस्योत्सूत्रमस्तु पाश्चात्यानां तशिष्याणां कि दूषणं ? इत्याशङकां परिहरन्नाह
प्राच्यः कृतं ते नोत्सूत्रं, चेत्तत्पापं जनेऽपि न ।
प्रत्युतोग्रं जनोत्सूत्र-स्थैर्यात् प्राच्या ग्रहाच्च तत् ॥३७।। व्याख्या-अहो शिष्य ! चेद्-यदि, प्राच्य :-पूर्वपुरुषश्चन्द्रप्रभसूर्यादिभिः कृतं-विहितमुत्सूत्रम्, ते-तव उत्सूत्रं न भवेत् किन्तु सूत्रमेव, ततः पापं जनेपि न भवति, समग्रपारदारिकतादिचौर्यादिपातकान्तं । पूर्वपुरुष कृतत्वात् पाश्चात्यलोकस्य तत्तत्परदार गमनादिकं कुर्वतोऽपि पातक न जायते । अत्युत्सूत्रमाह-प्रत्युत तत् उत्सूत्रं उदंडं स्यात् । कस्माद् ? 'जनोत्सूत्रस्थैर्यात् प्राच्याऽऽग्रहाच्च' तथोत्सूत्रकरणेन जनस्यापि उत्सूत्रकरणप्रवृत्तौ स्थिरता स्यात् । अयमत्रभावः-चन्द्रप्रभसूरिणा प्रथमत आकृष्टं मतं यदि कोऽपि नाद्रियते, ततो न तत् सर्वजनप्रसिद्धं स्यात् । अतस्तदङगीकारकाणामेक एष प्रवृत्तिदोषः । प्राच्याः चन्द्रप्रभसूर्याद्यास्तेष्वाग्रहस्तस्मात्
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पर्यो मिश्रामः
८१
यदहमात्मीयान्नवं पूर्वपुरुषाणां कृसं-प्रमाणीकरिष्याम्यवेति 'द्विलीयो दोषः इति । दोषद्वयपुष्टिवरचन्द्रप्रभसूरैः परिवर्वात् तव गाढतस्खुत्सूत्रं बभूव ।।३७५ अथ यतिप्रतिष्ठां स्थापनाह
अलिण्डां कुरुते यत्ते, यतेशयतेयंतिः ।
तत्प्रयोः बैंक न सां? भाद्ध-प्रतिष्ठा न श्रुते यतः ॥३८॥ व्याख्या यद् यतिबस्त्री ते-तव, यतेतिनो, देशयतेः-श्रावकस्य प्रतिष्ठा-सविस्त्यारोपेश सम्यक्त्वारोपपारूपां. कुरुते-विदधाति, ततः प्रभो:-श्रीबीतरागप्रतिमाथास्तां प्रतिष्ठा-मन्त्रन्यासरूपां कथं न कुरुते ?। यतः श्राद्धप्रतिष्ठा कल व्यति श्रुते-सिद्धान्ते न विद्यते । * कोई साबओ पडिमापदायभं करे उकामो' इति श्राद्धप्रतिष्ठास्थापकं मुग्धविप्रतारणार्थं यदुच्यते, तदुत्सूत्रम् । यदेतच्चूणिवाक्यं कल्पग्रन्थे रथयात्राप्रस्ताव कोप श्रावको रथे प्रतिमायाः स्थापनमारोपणं कर्नुकाम इति सूचकं समस्ति । भवद्धिस्तु मन्त्रन्यासरूपायां प्रतिष्ठायां चोज्यते इत्युस्सूचमेच ॥३८॥ सिद्धान्ते अतिप्रतिष्ठासद्भावमाह
यतिप्रतिष्ठा सिद्धान्ते, पावलिप्तककल्पतः ।
उमास्वातिवाचकादिकल्पेभ्योऽपि तु सिद्ध यति ॥३९॥ च्याख्या-स्पष्टः । नवरं आदिशद्वात् हरिभद्रभूरि-आर्यसमुद्राचार्य-प्रचाकर-सिद्धसेनसूरिप्रभृतिभिः कृताप्रतिष्ठाकल्पग्रन्थात् सातव्या ॥३९॥ यतिप्रतिष्ठायास्स दृष्टान्तस्थापनामाह
यथामाऽऽचार्यमन्त्रस्य, सूत्रोक्तत्वं प्रसिद्धयति । तथा यतिप्रतिष्ठाया-स्त्वत्परीष्टं प्रमा न च ॥४०॥
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८२
व्याख्या-अत्र-अस्मिन् जिनशासने आचार्य मन्त्रो वर्तमानसिद्धान्ते अदृष्टोऽपि सूत्रतयाऽभ्युपगतः, तथा यतिप्रतिष्ठाऽप्यभ्युपगन्तव्या। तयोः छिन्नसूत्रे उक्तत्वात् । तथा अलीकशतैरपि निजोत्सूत्रं स्थापयितुमशक्यमिति चेतसि जानन्त आयासभग्नाश्च कुमाक्षिका 'अस्माभिरिति परीष्ट'मित्युत्तरं विदधति, तेषां प्रत्युत्तरं विधीयते-त्वत्परीष्टं-तव परिज्ञानं, न च प्रमाणं, किन्तु युक्तियुक्तं व व: प्रमाणं । स्वस्मिन् स्वस्मिन् परीष्टे सति पापवानपापवांश्च समग्रोऽप्ययं जनः प्रमाणपदवीमधिरोहति । ततो विनष्टा कृत्याकृत्य विचारणा । अतः सङधपरम्परापरीष्टमेव प्रमाणमित्यमीभिरङ्गीकृतान्युत्सूत्राणि सर्वाण्यस्मिन् शास्त्रेऽनुक्तान्यप्रमाणान्यभूवन् । कियतां तु तेषामपि निर्लोठनाय युक्तिमात्रमुपदर्शाते-त्रिभुवनगुरुबिम्बपुरतो न युक्ता स्थापना स्थापनाऽऽचार्यस्य । यतस्तीर्थकरे सर्वपदभणनात् । ततस्तद्विम्बेऽपि सर्वपदस्थापना कथं नाम न मन्यते ? । उक्तं च व्यवहारभाष्ये
आयरिअग्गहणेणं, तित्थयरो इत्थ होइ गहिओ अ । किं न भवइ आयरिओ, आयारं उवइसंतो अ ॥१॥ निदरिसणमित्थ जह खंदएण पुट्ठो अ गोयमो भयवं ।
केण तुहं सिट्ठति धम्मायरिएण पच्चाह ।।२।। विशेषावश्यकेप्युक्तम्
‘स जिणो जिणाइसयओ सो चेव गुरु गुरूवएसाओ।
करणाइ विणयणाओ सो चेव मओ उवज्झाओ' ।।१।। त्ति । आचाराङ्गचूर्णावप्युक्तं-'आयरिआ तित्थयरा' । इत्येकोत्सूत्रनिराकरणम् । प्रतिबिम्बं नव्यदीपतिभिरारात्रिकोत्तारणस्य पञ्चाऽमृतस्नात्र निषेधस्य सप्ततिशतपट्टादौ सर्वबिम्बस्नानिषेध
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चतुर्थी विश्रामः
स्य निराकरणं कुमतकुट्टनादव सेयम् । अनुचितं तीर्थंकर मातृपूजननमस्करणादिनिषेधनं श्रावकाणां । सोधर्मेन्द्रषट्पञ्चाशद्दिक्कुमारिकादिभिस्तीर्थकर मातुः कृतनमस्कारादिश्रवणात् इतिद्वितीयो - त्सूत्रस्य निराकरणम् । अनुचितं प्रत्याख्याने घनतरं व्युत्सृजामीति भणनम् । अन्त्यभणनेन सर्वत्र लब्धत्वात् पूर्वाचार्याणां तथा सम्मतत्वाच्च । इति तृतीयोत्सूत्रस्य निराकरणम् । अनुचितमाचार्य परम्पराऽऽगतशान्तिकस्य निषेधनं । समवसरणेपि क्षुद्रोपद्रवशान्तिकरबलिसमागमस्य श्रवणात् । इति चतुर्थोत्सूत्रस्य निराकरणम् ||४०||
८३
इतिश्री गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्र कन्दकुद्दालापरपर्याये राकामतनिरासो नाम चतुर्थविश्रामः ।
इति गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्र कन्दकुद्दालापरपर्याये चतुर्थविश्रामस्य विवरणम् ।
पञ्चमो विश्रामः ।
नाम्ना खरतरैमास - कल्प: छिन्नः प्ररूपितः । पश्यद्भिरपश्यद्भि - रहो ! उत्सूत्र साहसम् ॥ १॥
व्याख्या - नाम्ना, न क्रियया खरतरैः क्रियामाश्रित्य शिथिलैरित्यर्थः । मासकल्पः छिन्नो व्युच्छित्ति गतः प्ररूपितः । तपोवद्भिश्चारित्रिभिः क्रियमाणं मासकल्पं पश्यद्भिरप्यपश्यद्भिः । अहो ! महदुत्सूत्र साहसममीषां नित्यवासलम्पटानाम् ॥ १॥
:
जिनपूजा न नारीणां नाऽरीणामिव वार्यते । येस्तेषामन्तरायस्य फलं वक्तुं प्रभुः प्रभुः ॥२॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
व्याख्या - यः खरतरैर्नारीणां जिनपूजा न न काय्यंते, अपि तु वार्यते एक । केषामिव ? अरीणामिव शत्रूणामिक, तेषां खरतराणां अन्तरायफलां वक्तुं प्रभुः सर्वज्ञः प्रभुः समर्थः ॥ २ ॥
जिनाच तव्वती काचित् कदाचिद् यद् रजस्वला ।' अशक्यपरिहारं तत् कुत्सिताऽङमकुगन्धवत् ॥३॥ व्याख्या - जिनाची - जिनपूजां तन्वती काचित् स्वी यत्कदाचित् रजस्वला भवति, तत्- रजस्वलत्वभावनं, अशक्यपरिहारंपरिहर्तुमशक्यं तथा देहस्वभावात् कुत्सिता कुगन्धवत् । यथा स्वभावेन कुत्सितस्याङ्गस्यान्तर्गतः कुमन्त्रो बहिः प्रसरन् वाय न शक्यते, तथा रजस्वलत्वमपि । अतो यदि रजस्वलत्वभवने स्त्रीणां जिनानमनुचितं, ततः पुरुषाणामपि शरीरदुर्गन्धत्वाज्जि-नभवने गमनमप्यनुचितम् ॥३॥
1
यतो धौतेऽपि देहें स्व- गन्धबन्धो न सर्वथा ।' प्रत्युताऽचचनों रामा, संवृताङगी गुणाय तत् ||४|| व्याख्या - यतो- यस्मात् कारणाद धौतेपि प्रक्षालितेऽपि देहेशरीरे सर्वथा - सर्वप्रकारेण 'स्वगन्धबन्ध : ' स्वस्य - स्वकीयस्थ, गन्धस्य बन्धों - निषेधो न भवेत् । प्रक्षालितस्यापि देहस्य विसगन्धो न विरमतीत्यर्थः । ततः प्रत्युताऽचर्चिने - प्रतिमापूजायां, रामा - स्त्री संवृताङ्गी कबुत्तरीयकादिभिः पिहितदेहा गुणाय,, बिम्बे स्त्रीदेहगन्धस्य तथाविगमनाभावात् ॥४॥
किमाशातनमिध्यात्व-मिश्याद्युक्तात् प्रतारणम् । यत्पूर्वोक्तात्तर्ववेद- मगनाशुद्धि रोपणे ॥५॥ महासत्यो जिमाचयां, सुलीना विश्रुता श्रुते । तासां तु तत्र ते प्रायश्चित्तमाशातना ततः ॥ ६ ॥ युग्मम्
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पञ्चमों विश्राम:
Nriminimunwanteamirkarimnanmaramanawww
व्याख्या-आशातनं मिथ्यात्वं इत्याद्यक्ताद• आसाथण मिच्छत्तं, आसाथणवज्जणाउ सम्मत्तं ।
आसायणानिमित्तं कुब्वइ दोहं च संसारं॥१॥(उप० माला) इति वाक्य दर्शयित्वा कि प्रतारणं क्रियते ? स्त्रीणां बिम्बस्पर्श आशातना, आशातनया मिथ्यात्वमित्युक्त्वा जनोऽयं कथं प्रतार्यते ? यतः पूर्वोक्तात।
सुत्ते य इम भणिय, अपच्छित्तै य देइ पच्छित्तं ।
पच्छित्ते अइमत्तं आसायणा तस्स महई उ ॥१॥(उपमाला) इति वाक्यादिदं-आमायणमिच्छत्तं इत्यादि बावयां, तवैव लमति । क्व सति ? अङगनाशुद्धिरोपणे सति । त्वदीये हि स्त्रीण बिम्बस्पर्शात् प्रायश्चित्तमागच्छति । न च सिद्धान्ते तथा तदुक्तं । लत: स्त्रीणामप्रायश्चित्ते प्रायश्चित्तादानं कुर्वाणं त्वामेवाऽऽश्रित्या गाथाद्वयमिदं घटते । यतो महासत्यो-दवदन्तीप्रभावतीप्रभृतयो जिनार्चायां सुलीना: श्रुते-सिद्धान्ते, विश्रुता-विख्याताः । तासा तु-महासतीनां तऋ-बिम्बा यां, ते-तव मते प्रायश्चित्तमापचातेः ।' इत्यममुना प्रकारेण ततस्तत्र सिद्धान्तबाह्मस्याऽऽशातना बलादुपढौंकते ॥५॥६।। युग्मम् ॥ .
क्षपणा निपुणास्त्वत्तो, भान्ति भाषोमबादतः ।
स्त्रीणां जिनाळ मुक्तिन,यन्मुक्ति जिनार्चनम् ॥७॥ ___ व्याख्या-अहो खरतर ! त्वत्तस्तव पाश्वात् क्षपणा-दिगम्बरा निपुणा-दक्षा भान्ति । अत:-अस्माद् भाषोभयादेताभ्यां वक्ष्यमाणाभ्यां द्वाभ्यां भाषाभ्यां । तत्र क्षपणोक्तमाह-'स्त्रीणां जिनार्चा मुक्तिन' स्त्रीणां जिनार्चा बुध्यते पुनर्मुक्तिः न स्यात् । अथ खरतरोक्तमाह 'यन्मुक्तिन जिनार्चनम्' स्त्रीणां मुक्तिर्भवति पु जनार्चनं न बुध्यते । स्त्रीणां जिनार्चनान्मुक्तिर्भ
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गुरुतत्त्व प्रदीपे
विष्यत्यतो नास्माकमन्तरायमित्यभिप्रायेण क्षपणैजिनाचमनिषेधयद्भिः स्वाभिनिवेशेन पृथक्मतस्थापनाय मुक्तिनिषिद्धा । त्वया तु स्त्रीणां न मुक्तिरिदमुत्सूत्रमित्यभिप्रायेण स्त्रीमुक्ति मन्वानेनाऽऽशातनाभ्रान्त्या जिनार्चनं निषिद्धम् । ततोऽन्तरायाऽग्रह्णात्क्षपणानां त्वत्तो निपुणत्वमित्यर्थः ॥७॥
स्त्रियास्त्वदीये भावार्चा, न यतः कारणं विना । निषेधे द्रव्यतोऽर्चाया, निषेधो भावतोऽप्यभूत् ||८||
व्याख्या - त्वदीये स्त्रिया भ वार्चापि न बुध्यते । 'यतः कारणं विना' द्रव्यतोऽर्चाया- द्रव्यपूजाया निषेधे भावतोऽयर्चाया भावपूजाया अपि निषेधोऽभवत् ||८||
सुक्षेत्रं शासनाघाटो, बोधिदं चैत्यमत्र तत् । अनन्तोदितपापार्त्ता, अबलाः किं निराकृताः || ९ ||
८६
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स्पष्टः || ९ ||
देशनामदनोत्पन्ने, द्रव्यार्चायां यतेरपि । कारितानुमती तीर्थ-च्छेदो मास्त्विति कारणात् ॥ १० ॥
व्याख्या - यतेरप्यास्तां गृहस्थस्य, चारित्रिणोऽपि द्रव्यार्चायां देशनामदनोत्पन्ने कारितानुमती भवतः । देशनाया: कारितं, मोदनादनुमतिः । कर्तव्या जिनपूजेति देशनया जिनपूजायाः कारणम् । शोभनेयं जिनपूजेत्यनुमोदनयाऽनुभतिरित्यर्थः । कस्मात ?, 'तीर्थच्छेदो माऽस्तु इति कारणात्' यतेः कारणानुमती विना तीर्थच्छेदात् । इत्थं च चारित्रिणोऽपि विषयविभागेन जिनपूजनस्य कर्तव्ये समापन्ने सति सावद्यनिमग्नानां उदितानन्तपापराशीनां स्त्रीणां तन्निषेधने कथं तव जिह्वा वक्तुमुत्सहते ? इति ॥ १० ॥
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पञ्चमो विश्रामः'
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न स्त्रियास्ते यतोऽर्चायां, बाला वृद्धानुगो (गा ) नरे । निषेधोऽनुगो ज्ञाने तीर्थच्छेदस्तवेत्यभूत् ॥ ११ ॥
८७
व्याख्या - त्वदीये स्त्रियास्ते - कारितानुमती न स्याताम् । यतो बाला वृद्धानुगो (गा) बालस्त्री वृद्धस्त्रीपृष्ठलग्ना । नरेऽपि पूजाया निषेधोऽभूत् । यदि तरुणीनां स्त्रीणां ऋतुकालभवनभयाते पूजा निषेधस्ततो बालवृद्ध स्त्रीणामृतुकालासम्भवेऽपि कथं जिनपूजानिषेध: ?, स्त्रीजातित्वादितिचेत् । तर्हि पुरुषेऽपि सोऽस्तु मनुष्यजातित्वात् । अथ प्रवृत्तिदोषमालम्बनं कुरुषे । पुरुषेऽपि समानमेतत् । तदेवं पुरुषस्यापि जिनपूजनं दोषाय । तदनु स्त्रिया अपि तत्कारितानुमती दोषायैव । एवं स्त्रीणां पुरुषाणामनुगः- पूजानुलग्नो ज्ञानेऽपि निषेधः प्राप्नोति ज्ञानाऽध्ययने ऽप्याशातन। भवनात् । इत्यमुना प्रकारेण तीर्थच्छेदस्तवाऽभूत् । अत एव सङ्घबाह्यो भवानिति ॥ ११ ॥
यत् पाक्षिकं चतुर्द्दश्यां पञ्चम्यामिव वार्षिकम् । त्यक्त्वा राकाक्रमं सूत्रात्, मतं तत्किम नार्श्वनम् ? ॥१२॥
-
་
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व्याख्या - यत् त्वया सूत्रात सिद्धान्तात्पाक्षिकं - पाक्षिकप्रतिक्रमणं चतुर्द्दश्यां चतुर्द्दशीदिने मतं । किमिव ?, वार्षिक पञ्चम्यामिव । यथा वर्षप्रतिक्रमणं पञ्चमीदिने सूत्रात्त्वया मतम् । किं कृत्वा ?, राकाक्रमं त्यक्त्वा - पूर्णिमानुसारं परित्यज्य । यतः पूणिमीयकै: राकाक्रमोऽङ्गीकृतो । यदाहुस्ते - सिद्धान्ते चतुर्मासक पूणिमायां ततस्तदनुसारतः पाक्षिकमपि पूणिमायां घटते । उच्यते तर्हि तदनुसारतो वर्ष प्रतिक्रमणमपि पूणिमायामेव घटते न तस्य पञ्चम्यां । सूत्रोक्तत्वादिति चेत्, तहि चतुर्द्दश्यां पाक्षिक
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बुरुतत्त्वप्रदीपे
२.
स्थापि सूत्रोक्तत्वात् । एवंविधश्चासम्बद्धो राकाक्रमो यद्भबता स्यक्तस्तत्सुन्दरं विहितम् । अपरमपि सुन्दरं कर्तुं युक्तम् । ततस्त्वया सूत्रादर्चनं-स्त्रीयां जिनपूजनं किं न मत्तम् ? ३१२॥
सूर्वाशनाटयक्त कि, वर्तक्यो न जिनागणे ? ।
चैत्यानायतनं यत्त-अक्तं चामुण्डिकस्य च ॥१३॥ व्याख्या-ते-तव 'जिनाङ्गयो नर्तक्यः किं न भवन्ति !, सूर्याभनाटय वत्-श्री महावीरस्य पुरतः सूर्याभदेवकृतनाटकवत् । तथा बच्चैत्यं बनायत्तनम् । यत् सङवप्रतिष्ठितानि चैत्यानि अनायतनानि मन्यसे । तच्च क्तं तब चामुण्डिकस्य-चामुण्डाभक्तस्य । चामण्डामवनस्यैवाभ्यतनत्वात् । खरतरमताकर्षकेण जिनदत्ताबार्येण स्वमतवृद्धये आराध्य चामुण्डा परितोषमानीता। ततो जनेनाऽस्व चामुण्डिक इति नाम प्रदत्तम् ॥१३॥
जिनदत्तक्रियाकोश-च्छेदोऽयं यत्कृतस्ततः ।
सयोक्तिभीतितस्तेऽभू-दाराष्ट्र पलायनम् ।।१४।। .. व्याख्या-अहो खरतर ! यत त्वया अयं जिनदत्त क्रियाकोशच्छेदो। जिनेन दत्ता या क्रिया-बिम्बार्चन-मासकल्पादिका. सैव कोशो-भाण्डागारस्तस्य छेदः कृतः । अतस्सङघोक्तिभीतित:सङघजल्पनभयात्ते-तव उष्ट्रमारुह्य पलायनमभूत् । पाटितभाण्डागाराणां पलायनस्य युक्तत्वात् । अत्र श्लोकस्याऽद्यैश्चर्तुभिरक्षरमताकर्षकस्याऽचार्यस्य नाम गूढ मुक्तम् । जिनदत्ताऽऽचार्यो मां प्रभाते सङघो जल्पयिष्यतीति भयाद्रजन्यामेवोष्ट्र मारुह्य श्रीपत्तनाज्जावालपुरे प्रणश्य गतस्ततो जनेनौष्ट्रिक इति नाम प्रदत्तमस्य । तथाऽस्याचार्यस्य देवगृहसमुपविष्टस्य काचित् श्राविका जिनार्चनाय समायाता, तस्या अकस्मात् सञ्जातऋतुकालवशात् रुधिरं
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पञ्चमो विश्रामः
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देवगृहान्तभूमौ पतितं निरीक्ष्येतद्दिनादारभ्यानेन भ्रान्तचित्तेन धर्मबुद्ध्या पापमजानता । अन्यन्निवारितत्वादभिनिवेशपूरितेन देवगृहे स्त्री निषिद्धा ॥१४॥
करोषि श्रीमहावीरे, कथं कल्याणकानि षट् ? । यत्तेष्वेकमकल्याणं, विप्रनीचकुलत्वतः ॥१५॥ यच्च पर्युषणाकल्पे, नक्षत्राव षद् ततः । नक्षत्रानां तवाख्यानं सानि कल्याणकानि न ॥१६॥ कल्याणकानामावेशी-ऽवसातव्यः श्रुतान्तरात् । सर्वस्मिन्नपि सिद्धान्ते, पञ्चवैतानि सन्ति तु ॥१७॥ सूरिणा हरिभद्रेण, व्यक्तं पञ्चाशकेष्वपि । कल्याणकानि पञ्चव, प्रोक्तानि चरमे जिने ॥१८॥ किं ते मृतगुरोर्मूतिः, पूज्यते कुसुमाविभिः ? । ही यतस्संयताऽवस्था सावद्याऽनुचिता मता ॥१९॥ चतुर्गत्यन्तरेगाऽस्य, निवासो यत्ततोऽपि चेत् । साप्यवस्थाऽत्र पूनाहीं, कोऽप्यपूज्यस्ततोऽस्ति न ॥२०॥
एते स्पष्टाः ॥ इतिश्री गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याये औष्ट्रिकनिरासो नाम पञ्चमो विश्रामः ।।५।। - इतिश्रीगुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याये पाचमविश्रामस्म विवरणम् ।।५।।।।
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मुरुतत्त्वप्रदीपे
घाढो विश्रामः । कि षड्जीवनिकायेष्वप्यायरक्षितनाढयोः ।
बभूवाऽभिनिवेशो ? यत्समता द्विमिता मता ॥१॥ व्याख्या-यत् समता-सामायिकं, द्विर्मता-दिनस्य मध्ये द्विवेलमेवाऽदेयमिति मतम् । ततस्सामायिकाभावे गृहस्थैः षडजीवनिकायहिंसा विधेया; तप्ताऽयोगोलकल्पत्वासेषाम् । अतः किं आर्यरक्षितनाढयोसिसन्तस्सामायिकद्वयाधिकतृतीयादिसामायिकग्रहणनिषेधकयोः षड्जीवनिकायेषु अभिनिवेशोऽभूत् ? । यदेतयोः प्ररूपणाया एतेष्वेव वराकेष्वहितत्वेन विश्रान्तत्वात् । एतयोः कथानक-श्रूयते हि-बिउणपग्रामे राकामतानुरक्ता स्वकुटुम्बस्यः स्वजनस्वसाधर्मिकप्रवर्तिका विपुद्धिमती चक्षुर्विकला नादाभिधाना श्राविकाभवत् । अन्यदा तत्र राकामताऽऽचार्यः कश्चिदाययो। तदा स वन्दनार्थमागतं श्रावकश्राविकावर्ग धर्मसुखनिर्वहणोदन्तं पप्रच्छ । तेन वर्गणोक्तं नाढाप्रसादेन । ततस्सकोपेनाऽऽचार्यणोक्तं-केयं कीदृश्यत्र नाढा देवगुरुप्रसादेनेति कथं नोच्यते ? । सन्निशम्य नाढाप्यन्तः सामर्षाऽभवत् । ततो द्वादशावर्तवन्दनार्थमागतस्य तस्य वर्गस्य मध्यान्नाढाया एव भवितव्यतायोगेन मुखवस्त्रिका न प्रभूता। आचार्य ढामानम्लानाय नाढां विना दापितं वन्दनं । सत्श्रुवा राकामतविनिर्गताऽऽयर क्षितोपाध्यायस्तत्राजगाम । नाढापि वन्दनार्थमागता । उपाध्यायेनोक्तंनाढे ! नास्त्यागमे मुखवस्त्रिका श्राद्घानामितिप्ररूपणया त्वन्मानम्लानिकराचार्यानुरक्तश्राद्ध मुखवस्त्रिकात्याजनेन वयं तवामर्ष प्रमानपदवीनेष्यामः। देह्यस्माकमञ्चलेन द्वादशावर्तवन्दनकम् । दत्तं तया कुटुम्बैयापि तत् । तत्प्रभृति ताभ्यामञ्चलमतमातेने ॥१॥
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षष्ठो विश्रामः
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साम्याभावे हि हिंसा स्यात्, तयं समतामितिः । विश्वविश्वेन आदेशोऽभवत्तस्य विनाशतः ॥२॥ व्याख्या-हि-यस्मात्कारणात् साम्याऽभावे पारितसामायिकानन्तरं हिंसा स्यात् । ततो दिनान्तस्तृतीयं सामायिक नग्राह्यमिति प्ररूपणाकर्तुः षड्जीवनिकायष्वप्यभिनिवेशो बलाल्लभ्यते । तथा इयं समतामितिः । एषां साम्येयत्ता-दिनान्तस्सामायिकद्वयस्यैवाऽऽदानं 'विश्वविश्वेन आदेशो' विश्वस्य-समग्रस्य, विश्वस्य-जगतो, यदेनः-पापं तस्य कृते आदेश:-अहो लोकाः ! कुरुत यूयं पापानि यदृच्छया इत्यादेशोऽभवत् । तस्याः समतामितेविनाशतो-निधनात् । सामायिकद्वयमेव दिनान्तर्यामितिप्ररूपणया सामायिकद्वयंस्याप्यप्राप्तिभवनात् । कथमित्याह
यज्जिनः सर्वथा त्याज्ये, वस्तुन्युत्कोतिता मितिः । तन्मुक्तिर्मुक्तये चेत्य, नाशः साम्यमितेरभूत् ॥३॥ व्याख्या-यत्-यस्मात् कारणात् जिनै:-सर्वज्ञेस्सर्वथा-सर्वप्रकारेण त्याज्य-त्यजनाहे वस्तुनि मैथुनादौ, मिति:-परिमाणं, उत्कीर्तिता-कथिता । मैथुनादि सर्वथा त्यक्तुमक्षमो दिनान्तरैकवेलं द्विवेलं वा मैथुनादि मुत्कलं मोक्तव्यमधिकं नासेवनीर्यामत्युपदिश्यते । तथा तन्मुक्तिस्तस्या मितेर्मुक्तिर्मोचनं-अहमेकवेलमपि दिनान्तमैथुनं न करिष्यामीति निषेधो मक्तये-मोक्षायोपदिष्टः । इत्थममुना प्रकारेण साम्यमिते शोऽभूत् । द्विकालमेव सामायिकमादेयमिति प्ररूपणया सर्वथा त्याज्ये साम्ये यो द्विकालमपि साम्यं नादत्ते, तस्य' कर्मक्षय इति बलादापन्न । सत्येवं विश्वविश्वेन आदेशोप्यापद्यते ॥३॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
तृतीयादिवेलं दण्डकोच्चाररूपसामायिकग्रहणमयं विशिष्टानुष्ठानमस्माभिनिषिद्धं सदाकालं श्राद्धेन-प्रशान्तचित्तेन सर्वत्रापि बर्तितव्यमिति सामायिकरूपसामान्यानुष्ठानं म निषिद्धम् । शान्तचित्तत्वेन यतनापरत्वादहिंसाया अपि सम्भवेन विश्वविश्वेन आदेशस्यासम्भवादिति परकृतोपन्यासमुत्थापयन्नाह
शक्ती विशिष्टानुष्ठाने, यो निषेधो परेपि सः ।
अशक्तेरेव भेवोऽस्ति, यत्तयो पि रूपतः ॥४॥ व्याख्या-शक्ती सामर्थ्य सति, विशिष्टानुष्ठाने-उपवासदण्डकोच्चाररूपसामायिकादौ यो निषेधः क्रियते, स निषेधो परेपिएकाशनदण्डकोच्चाररहितसामायिकादौ सामान्यानुष्ठानेपि लगति। यतस्तयोविशेषानुष्ठानसामान्यानुष्ठानयोरशक्तेरेवभेदो- भिन्नताऽस्ति । अशक्तं पुरुषमाश्रित्यानुष्ठानभिन्नताऽभूत्, न रूपतोपिस्वरूपतोपि न । स्वरूपमाश्रित्याहारपरिहार-समपरिणामकारणादि स्वरूपमुभयोरप्यनुष्ठानयोत्सवृशमेव । तत एकस्य निषेधे परस्यापि निषेधः सम्भवेत् । ननु प्रभाते गृहीतसामायिके सकलोपि दिवसोऽस्तु तथा सन्ध्यायां गृहीते सामायिके सकलापि रजन्यस्तु को नाम वारयेत् । उच्यते-नेत्थं श्राद्धानां सर्वदेवेवंविधशक्तेरभावात् । असम्भवाभिधानादाप्तस्यानाप्तताप्रसङ्गाच्च । अतः शक्तौ सत्यां तृतीयचतुर्थाद्यपि सामायिकमादेयमिति सिद्धम् ॥४॥ - सत्यां सामग्रयां युक्त्या सिद्धमधिकसामायिकग्रहणमक्षरोक्त्यापि दर्शयन् एतदक्षरमोटनामुत्थापयंश्चाह
क्षणिकस्सन् श्रयेत् साम्यं, चूर्णावावश्यकस्य यत् । यद्यस्मिन्नप्युभौ कालौ, पञ्चस्वावस्यनेषु तत् ।।५।।
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षष्ठो विश्रामः
व्याख्या-यद्-यस्मात्कारणात् यदा क्षणः प्रस्ताव: सामग्री तदा श्रावकस्सन् सामायिक श्रयेत् इत्यावश्यकचूर्णावुक्तम् । 'जाहे खणिओ ताहे करेइ' इति वचनात् । प्रचुराण्यपि सामायिकानि दिनान्तरादेयानीति सिद्धम् । यदि अस्मिन्नपि सामायिके उभौ कालो त्वया प्ररूपितो प्रस्तावे सति सामायिकं ग्राह्यमिति भवतु . पुनस्सोपि प्रस्तावो दितान्तप्र्वेलोभियसम्बन्धी परिज्ञेयः । यद्युभयो
लयोः सामग्री न स्यात् । ततस्सामायिकशून्योपि दिवसः प्रयातु इति क्षणिकशब्दार्थः । अतः सत्यामपि सामग्रयां तृतीयवेलं न करणीयमितिचेत् । ततः पञ्चस्वावश्यकेषु चतुविशतिस्तववन्दनकप्रतिक्रमणककायोत्सर्गप्रत्याख्यानरूपेषु 'उभयकालं आवस्सयं करेद' इति वचनात् द्विवेलमेव करणं युज्यते । युष्माकमप्येतेषु द्विकालसख्याबाधनात् । इति स्ववचनविरोधरूपं मिथ्यात्वं लगति भवताम् ॥५॥
भवदीयेपि श्राद्धा उभयकालमेव प्रतिक्रमणं विदधति । ततः कथं न सामायिकमपीति परोपन्यस्ताऽऽशङकामाक्षिपन्नाह
न च तुल्यं प्रतिकाते प्रायश्चित्तमियं यतः ।
सर्वत्र नियतं तत्स्थात्, सान्यं तु बहुशः श्रुते ॥६॥ व्याख्या-म व सामायिक प्रतिक्रान्ते:-प्रतिक्रमणस्य तुल्यं यतो यस्मात्कारणादियं प्रतिक्रान्तिः प्रायश्चित्तं । तत्प्रायश्चितं सर्वत्र नियतं स्यात् । यस्मिन् पापे यावत् उभयकालं प्रायश्चित्तं श्रुतेऽभिहितम् । तावदेव कर्तव्यम् । स्वधिया हीनमधिकं वा कुर्बाणस्यामाभङ्गः । तदियं प्रतिक्रातिर्देवसिकरात्रिकातिचाराणां प्रायश्चित्तरूपा सूत्रे द्विकालं चोक्ता। अतो द्विकालमेव करणीया
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
हीनाधिका वा कृता दोषाय तु-पुनः, साम्यं-सामायिक, श्रुतेसिद्धान्ते बहुशो-दिनान्तरऽनेकवारं कर्तव्यमिति प्रोक्तम् । यदाह
'सामाइयंमिवि कए समणो इव सावओ हवइ जम्हा ।
एएण कारणेणं बहुशो सामाइयं कुज्जा' ॥१॥ प्रतिकातिवत् द्विवेलमेव साम्यमपि विधेयमित्यसदाग्रहो मुच्यताम् ।।६।। ___बहुशः शब्दसम्बन्धिनो व्याख्यानस्य परकृतमोटनमुत्थापयन् पौषधमितेर्दोष दर्शयंश्चाह
चेन्नैकवासरापेक्ष, तद्विकालं तथा न किम् ? । पौषधस्य मितौ साम्य-मितेर्दोषो विशेषतः ॥७॥ व्याख्या-चेत्-यदि, मैकवासरापेक्ष 'बहुसो सामाइयं कुर्जा' इत्येतद्वाक्यं एकदिवसापेक्षया न, किन्तु बहुदिवसापेक्षया । एकस्मिन् दिने सामायिकद्वयं कर्तव्यं, द्वितीयस्मिन् दिने सामायिकद्वयं, एवं तृतीय-चतुर्थादिदिनेष्वपि सर्वाण्यपि मीलितानि बहूनि भवन्ति । किमुक्तं भवति-एकस्मिन्नपि दिवसे प्रमादो न विधेयो । यथा यावज्जीवं बहूनि सामायिकानि भवन्तीति बहुशः शब्दस्य व्याख्या इति चेदागममोटना[प्रेक्ष्य मुख तत्-ततस्तथा-तेम प्रकारेण, द्विकालं किं न ? 'उभओ कालं आवस्सयं करेख' इति वचनादङ्गीकृतं द्विवेलं सामायिकं यावज्जीवापेक्षया कि न मन्यसे ? जन्मनो मध्ये सामायिकद्वयमेव कर्तव्यमित्यपि सिद्धान्तशत्रोर्भवतो व्याख्यानानुसारेण लभ्यते । तथा साम्यमितेः पार्वात् पौषधस्य मितौ-अप्टमी चतुर्दशीपूर्णिमाऽमावास्यादिषु पर्वस्वेव पौषधमादेयं, नान्येषु दिनेवितिलक्षणपोषधपरिमाणे सति, विशेषतो दोषो भवति । यतः सामायिकात् पौषधस्य बहुकलत्वेन मितावपि दोषबाहुल्यस्य सम्भवात् ।।७।।
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षष्ठो विश्राम:
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त्रिपौषधा विना पर्वकादशेऽङगे श्रुता दश । हिण्डौ च सप्ताहोरात्र-पौषधी विजयो नृपः ।।८॥
व्याख्या-एकादशेङगे दशः श्रावका: त्रिपौषधास्संलग्नपौषधत्रयोपेताः श्रुताः। पर्व-वार्षिक मुक्त्व, पर्युषणापर्वणि युष्माकर्मपि पौषधत्रयमाननादित्युक्तम् । तथा हिण्डो-वसुदेबहिण्डौ विजयो नृपः श्रीविजयो नाम राजा सप्ताहोरात्रपौषधी श्रूयते । ऐहिकार्थाःसप्तैते पौषधा इति परोपन्यस्तं दूषणमलीकमेव । पौषधेऽस्मिन् संवेगस्य भणनात् ।।८।।
घटाऽऽदानं मुखवस्त्रिकाऽनादानं च दूषयन्नाहगृहस्थभाजनं कुम्भः, किं यतेर्मुखवस्त्रिका । श्राद्धर्यद्यतिलिङगत्वात्, त्यक्ता साम्यं ततो न किम् ?॥९॥
व्याख्या-त्वदीये यतेवतिनः कुम्भो-घटः, किं दृश्यते ? कि, विशिष्टो ? गृहस्थभाजनं-गृहस्थोपकरणं, अप्रतिलेख्यत्वाऽप्रमायंत्वाभ्यां कुन्थुपनकादिविनाशेन हिंस्रत्वादेतदादानेन यतेरपि गार्हस्थ्यात् 'तुम्बे दारुमट्टे' इति वचनाद् यद् घटादानं तन्महामूढताविजृम्भितम् । यतो यतेरुत्सर्गतः तुम्बाऽऽदानं तुम्बाभावेऽपवादपदमाश्रित्य काष्टमयादानं काष्टमयाऽभावेऽपवादतो मृन्मयादानम् । अपवादस्योत्सर्गप्रवृत्त्यासेवनेन व्रतभङगात्कुतो भवतामनगारित्वम्? एतदूषण त्रिस्तुतिकादीनामपि समानम् । तथा त्वदीये यत् श्राद्धः-श्रावकैर्मुखवस्त्रिका यतिलिजगत्वात्-यतिलिङगमेतदितिकृत्वा त्यक्ता । ततस्साम्य-सामासिकं किं न त्यक्तं ?, सामायिकस्यापि अन्तरगयतिलिलमत्वात् ॥९॥
भारे न वेषः साम्यं तु, स्यात् सूत्रे तन तं विना । शिक्षाबलस्वाच्छिक्षा हि, यतिस्थद्रव्यभावयोः ॥१०॥ ..
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
व्याख्या-सूत्र-सिद्धान्ते, श्राद्धे-श्रावके वेषो न स्यात् तु पुनस्साम्यं तिष्ठति 'अतो मुखवस्त्रिका त्यक्ता इति चेत् ततस्सामायिक तं वेषं विना न भवेत् । यदि सूत्रे श्रावकस्य सामायिकं तिष्ठति ततो वेषोपि तिष्ठतीति भावः । कुतः ? शिक्षाव्रतत्वात्-शिक्षाव्रतानामन्तर्गतत्वेन शिक्षाव्रतनाम्नैव सिद्धं सवेषत्वं । हियस्मात् कारणात्, शिक्षा-शिक्षणमभ्यासो भण्यते । सा च यतिस्थद्रव्यभावयोर्यति सम्बन्धिनो द्रवस्य भावस्य च परिज्ञेयेत्यर्थः । द्रव्यं वेषधारित्वं, भावस्समतापरिणामः । अर्वाचीनावस्थेन श्रावकेनोभयमपि शिक्षणीयं पराचीनावस्थायां यतिरूपायामुभयेनापि कार्यत्वादिति सिद्धं सवेषत्वं सामायिकस्य ॥१०॥
शिक्षाक्तत्वेन सामायिकतदुपलक्षितपोषधयोरिव देशावकाशिकातिथिसंविभागयोः किं न मुखवस्त्रिकेति परोक्तस्य -समाधानं सूत्रान्तरेण मुखवस्त्रिकारजोहरणे च स्थापयन्नाह
द्रव्यं प्राधान्यतस्साम्य एवाल्पं शिक्षणं च यत् । रूप्पमाथुक्तितो द्रव्य-भावाभ्यां श्रमणेषु यत् ॥११॥ तसस्योपमया श्राद्ध, लिङगेद्वे देशतो यतः।
श्रामण्यं सर्वतो द्रव्यस्याभाबाबुपमापि न ॥१२॥ युग्मम् व्याख्या-श्रावकस्य साम्ये एव सति, न देशावकाशिका. तिथिसंविभागयोस्सतोद्रव्यं मुखवस्त्रिकारजोहरणे अतःकारमादागमे प्रोक्ते कारणमाह-प्राधान्यतः-सामायिकस्य प्रधानत्वात् । मुख्यानुष्ठाने हि परिनिष्ठिताभ्यासस्यानुलग्नसकलानुष्ठाने सुखेन सात्म्यभावात् स्थविरकल्पिजिनकल्पसम्बन्धिनस्सकलानुष्ठानस्य सर्वदैव ताभ्यां कार्यत्वात् । क्षणमप्येतयोरग्रहणे प्रायश्चित्ताऽऽगमनात् । द्वितीयं कारणमाह-तथा यत्-यस्मात्कारणात् शिक्षणमल्पं
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षष्ठो विश्रामः
भवेत् । शिक्षणानल्पत्वे शिक्षणनिष्पन्नत्वयोर्भेदाभावात् । अदान्तस्य पलायनात् । अत एवादिभूमिकस्य श्राद्धस्य साम्यमात्र एव मुखवस्त्रिकारजोहरणाभ्यसनम् । 'रूप्प'मित्यादि । यद्यस्मात्कारणात्, 'रूप्पमाद्यक्तितो' यदाह
'रूप्पं टकं विसमाहयक्खरं न वि य रूवओ छेओ ।
Pण्हपि समाओगे रूवो छेयत्तणमुवेइ ॥१॥ तथा 'रूप्पं पत्तंगबुहा टंक जे लिंङगधारिणो समणा। दव्वस्स य भावस्स य छेओं समणो समाओगे ॥२।। (आवश्यकनियुक्तिः) इति वचनात् ।। श्रमणो द्रव्यभावयोः समायोगे सति भवेत् । ततस्तस्मात्कारणात् । तस्य श्रमणस्य उपमयोपमानेन श्राद्ध-श्रावके द्रव्यस्य देशतो द्वे लिङगे-मुखवस्त्रिकारजोहरणे सिद्धयतः। किमुक्तं भवति-सिद्धान्ते श्रावके द्रव्याविनाभाविश्रमणोपमानदानेन द्रव्यदेशस्य सिद्धया द्रव्यदेशरूपं लिङगद्वयं सिद्धयति । किमित्याह-यतो-यस्मात्कारणात द्रव्यस्य सर्वत:-सर्वद्रव्ययुक्तत्वेन श्रामण्यं-श्रमणत्वं सिद्धान्ते उक्तम् । यः सर्वद्रव्ययुक्तस्स सिद्धान्ते श्रमगो विवक्षित इत्यर्थः । ततः सूत्रे श्रावकस्य सर्वद्रव्याभणनेन श्रमणोपमाभणनम् । तथा द्रव्यस्याभावात्-सिद्धान्ते श्रावकस्य द्रव्याभवनेन उपमापि-उपमानमपि न भवति, यदि सूत्रे श्रावकस्य द्रव्यमुक्तं न स्यात् । ततः श्रमणोपमाभणनेन देशत एव द्रव्यस्य सिद्धिरापद्यते ॥११॥१२॥
युग्मम् ॥ सामायिक कृते प्रोक्ता, श्रावके श्रमणोपमा।
भद्रबाहुस्वामिपावर, स्फुटमावश्यकागमे ॥१३॥ व्याख्या-स्पष्टः । नवरं यदाह-सामाइयम्मि वि कए समणो इव सावओ हवह जम्हा' ॥१३॥
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गुरुतत्वप्रदीप
वेषोऽशेषोपि नोक्तोऽस्या-नुमतित्वादकार्यतः ।
स यथा जिनकल्पस्य, विना कार्येण वार्यते ॥१४॥ व्याख्या-अस्य श्रावकस्य अशेषोपि-समग्रोपि वेषश्चतुर्दशोपकरणानि सति सामायिके सिद्धान्ते न उक्तो-न प्रोक्तानि । कुत? इत्याह-अनुमतित्वात् 'करतंपि अन्नं न समणुजाणामि' इत्यभणनात् । न केवलमनुमतिभावादकार्यतश्च-कार्याभावात् स समग्रोपि बेषो यथा-येन प्रकारेण जिनकल्पस्य-जिनकल्पिकस्य कार्येण विता वार्यते-निषिध्यते, तथा श्रावकस्यापि निषिद्धः । येषां जिनकल्पिकानां द्वादशभिरुपकरणैः कार्य न स्यात् ' आगमे तेषां मुखवस्त्रिकारजोहरणे एव प्रोक्ते । एतयोर्यतिलिङमार्थं जीवदयार्थं च यतेरवश्यंभावात् । तदेते देशयतेरपि युज्यते ।।१४।।
कथं वा देशचारित्रं, त्वदीये द्रव्यतो बत । मुच्यते ते किमात्ते चेत्, तदन्त्यप्रतिमः कथं? ॥१५॥
श्रुतोक्तत्वाविहाप्येवं, विद्या निर्गुरुका तु न । ज्ञातः शिवकुमारोक्ता-धर्थो मूढ! त्वया न यत् ॥१६॥युग्मम् ।
व्याख्या-आञ्चलिक! तावद्भगवता चारित्रं सर्वतो देशतश्चादिष्टम् । एक द्विधा । यत्सर्वतस्तदपि द्विधा-द्रव्यतो भावतश्च । एतदित्थं त्वयाप्यभ्युपगतमास्ते । तत एतदनुयायितया यत् देशतः तदपि द्रव्यतो भावत श्चेत्यापन्नम्। अतः त्वदीये बतेति खेदे । मुखस्त्रिकारजोहरणे विना देशचारित्रं द्रव्यतः कथं भवेत् ? । न कथञ्चिद्भवेदित्यर्थः । द्रव्यस्य लिङ्गधारित्वात् । परोक्तं विकल्पान्तरमाह- ते मुखवस्त्रिकारजोहरणे आत्तेत्वदीयश्रावकैहिते किं मुच्यते ? गृहितवेषस्य मोक्तुमनुचितत्वात्। इति चेत् । ततोऽन्त्यप्रतिमरेकादशीप्रतिमाधारकैस्ते आत्ते कथं मुच्यते ? | परः प्राह - श्रुतोक्तत्वात् ।
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षष्ठो विश्रामः ~~~~~~~~mammmonwwwmmmmmmmmmm उच्यते-इहाप्येवं । इहापि-अत्रापि एकादशीप्रतिमाव्यतिरिक्तश्रावकाणां मुखवस्त्रिकाग्रहणेपि एवं-श्रुतोक्तत्वात् । तु-पुनर्विद्या निर्गुरुका न भवति । लोकेपि प्रसिद्धमेतत-यत् गुरुं विना विद्या न भवेत्। ततः एकादशीप्रतिमाव्यतिरिक्तश्रावकाणामपि सूत्रे गृहितसामायिके मुखवस्त्रिकादिष्टाऽस्तीत्युपदेष्टा को नाम गुरुरहितानां भवतां भविता ? निर्गुरुत्वादेवाऽऽर्यरक्षितस्येति । यद्यस्मात्कारणाद् हे मूढ ! त्वया शिवकुमारोक्तस्य, आदिशब्दात् श्रीवर्द्धमानसूरिणा उक्तस्यार्थो न ज्ञातस्ततो निर्गुरुत्वं सुघटमेव । शिवकुमारकथानकमुच्यते
जाहे न कस्सइ वयणं करेइ ताहे संविग्मेण पउमरहेण रना सीलधणो दढधम्मो इन्भपुत्तो समणोबासओ सद्दावेऊण भणिओपुत्त ! शिवकुमारेण पवज्जाभिलासिणा अम्हेहिं अविसज्जिएण मोणं पडिवन्नं । संपय भुत्तुंपि न इच्छइ । तं जहा जाणसि तहा भोआवेहि । एवं करतेणं अम्हं जीवियं दिन्नति मणे ठविऊण घत्त (पुत्त) सुविदिन्नभूमिभागो सिवं असंकियं उक्सप्पसुत्ति । तओसो पणओ सामि ! करिस्स जं जुत्तं ति । उवगओ सिवकुमारसमीव निसीहिअं काऊण इरिआइ पडिक्कतो बारसावत्तं किइकम्म काऊणं पमज्जिऊण अणुजाणह मेत्ति आसणो। सिवकुमारेण चिंतिअ-एस इन्भपुत्तो अगारी साहुविणयं पउंजिऊण ठिओ। पुच्छामि ताव णं तेण भणिओ-इब्भपुत्त ! जो मया गुरुणो सागरदत्तस्स समीवे साहूहिं विणओ पउज्जमाणो दिठो सो तुमे पउत्तो। तं तुमे कहेहि कहं न विरुज्झइ ? दढधम्मेण भणिओ-कुमार ! आरहए पवयणे विणओ समणाणं सावआणं च सामन्नो जिणवयणं सच्चंति जा दिट्ठी सावि साहारणा समणा पुण महन्वयधरा अणुव्वइणो सावया ।
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इभ्यपुत्रसम्बन्धिनो विनयस्य साधुविनयदृष्टान्तदानेन साधुसम्बन्धिनो द्वादशावर्तवन्दनारूपस्य विनयस्य मुखवस्त्रिकायुक्तत्वेनेभ्यपुत्रस्यापि मुखवस्त्रिका सुलब्धैवेति । श्रीवर्धमानसूरिकृतं कुलकं यथा- मोहतिमिरोहसूरं नमिउं वीरं सुआणुसारेण ।
साहेमि अ मुहपत्ति सडढाणमणुग्गहत्थाए ।।१।। इह केवि समयतत्त अमुणंता सावगाण मुहपत्ति । पडिसेहंति जईणं उवगरणमिणंति काऊणं ॥२॥ एवं तु चीवराणि वि जुज्जति न सावगाण परिहेउं । जम्हा ताणि वि मज्झिमजिणसाहूवगरणभूआई ॥३॥ जं. वः अई कि फुसंतो पाए मुहणतएणं पच्छित्तं. पावइ कि पुण सरढो तपिः अनिअकप्पणामित्तः ॥ भिन्न विसयं खु तेसि पच्छित्तं भणियमागमे इहरा । दव्वत्थए वढ्तो जई व दूसिज्ज सड्ढोवि ।।५।। अह एगसाडिएणं उत्तरसंगेण वसहिमाईसु पाएण विसइ सड्ढो तम्हा वत्थंचलेणेव ।।६॥ सामाइयमाइयं संभवइ इमंपि आगमविरुद्धं । आवस्सगचुन्नीए जं सामाइयविही एवं ॥७॥ सामाइयं करितो सडढो कुंडलकिरीडमणिमुई। तंबोलपुप्फपंगुरणमाइ वोसिरइ सव्वंपि ॥८॥ सम्वे इय सत्तमंगे उवासगदसासु कुंडकोलिअगो। मुत्तूण उत्तरिज्जे पडिवन्नो पोसहवयंति ॥९॥ कंपिल्ले सावयकुंडकोलिओ निअअसोगवणिआए। गंतुं टुवइ सिलाए नाममुद्दत्तरिज्जं च ॥१०॥
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षष्ठो विधाम:
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वीरवरस्स भगवओ उवसंपज्जित्तु धम्मपन्नत्ति । विहरइ अ जाव सामी समोसढो तत्थ तं समयं ।।११।। लट्ठो अ इमीसे कहाइ सो हट्टतुट्ठओ हिअए । सेअं खलु मह सामी वंदित्ता तह नमंसित्ता ।।१२।। तत्तो पडिनिअत्तस्स पोसहं पारिअं च पेहित्ता । जह नाम कामदेवो तह थुव्वइ पज्जुवासेइ ॥१३॥ जंपिअ समए भणिों कडसामइओ गुरूण पासंमि । रयहरणमह निसिज्ज मग्गइ सड्ढो अह घरम्मि ॥१४॥ तो तस्स उवग्गहिअं रयहरणं तस्स असइ पुत्तस्स । अतेणं तु तहपिअ पुत्तं मुहपुत्तिआ नेआ ।।१५।। वासत्ताणावरिआ निक्कारण ठंति कज्जि जयणाए । हत्थत्यंगुलिसन्ना पुत्तंतरिआ व भासंति ॥१६॥ इअ आवस्सयगाहामज्झे पढिअस्स पुत्तिसहस्स । मुहपत्तिअत्ति अत्थो चुणीए वणितो जम्हा ॥१७॥ कन्हस्सट्ठारसमुणिसहस्सवंदणगवइयरे वितहि । भणिअमिमं वि असामी समोसढो निग्गओ राया ॥१८॥ सव्वेपि वंदिआ जाव बारसावत्तवंदणेणंति । किं बहुणा पंचविहाभिगमो नम्भासिओ तत्थ ॥१९।। तह पन्हावागरणे दसमंगे सावगाण मुहपत्ती । पडिच्चिअ ठाणतिगे वन्निज्जइ तस्थिम पढम ॥२०॥ दव्वकयं भावकयं दव्वकयं पुत्तियाइ इय सुत्ते । - मुहपुत्तियाइ दब्वेण सावगं किणइ साहुत्ति ।।२१।।
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
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अचिअत्तघरे गमणं अचियत्तघरंमि भत्तपाणं तु । वज्जेअव्वं सिज्जासंथारगपीढफलगं च ॥२२॥ वत्थं पत्तं कंबलमुहपुत्तीमाइ इय भवे बीअं । नवि वंदणाय नवि पूअणाय नहु माणणायंति ॥२३॥ मुहपुत्तिया नमुक्कार माभिया वियरणाइ रूवाइ । नवि पूअणाइ भिक्खं गवेसिअव्वं तु तइयमिणं ॥२४।। आवस्सगुवासगदस-पन्हावागरणपमुहसत्थेसु । वत्थंचलविरहेणं मुहपत्ती ठाविया एवं ।।२५।। इय समय-हेउजुत्तीहिं संगयं बहुमयं बहुजणाणं । अवहत्थिय मुहपत्ति जमन्नहा केवि पलवंति ।।२६॥ तं माहप्पं मोहस्स दुन्विलसियं च अभिनिवेसिस्स । दीहरसंसारफलाणमहव कम्माण परिणामो ॥२७॥ ता भो भव्वा ! चइऊण कुग्गहं अणुसरेह सुअमग्गं । सिरिवद्धमाणसूरीहिं संसियं जह महह सुक्खं ॥२८॥ इति मुखपोतिकास्थापनकुलकं समाप्तम् ।।१६।। अथ श्राद्धप्रतिक्रमणं स्थापयन्नाह
यत्प्रतिक्रमणं चेर्या-पथिकी ते न किं ततः। मिथ्यादुःकृतमेषा यत् तथा श्राद्धस्य नाऽऽगमे ॥१७॥
व्याख्या-यत्ते-तव, श्रावकाणां ईर्यापथिकी प्रतिक्रमणं कथिता । ततो मिथ्यादुःकृतमात्रमेव प्रतिक्रमणमुभयकालं त्वदीये श्रावकाणां कथं नोक्तं ? मिथ्यादुःकृतस्यापि पापशुद्धिहेतुत्वात् । दूषणं चाह-यद्यस्मात्कारणादेषा ईपिथिकी भवदीयः श्राद्धर्दैवसिकरात्रिकपापविशुद्धये यथा विधीयते तथा तेन प्रकारेणाऽऽगमे न दृश्यते । स्वमतिकल्पितमेतदिति भावनीयम् ॥१७॥
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तत् कुलालोऽकरोच्चेत्त - दिति कुत्र भुते श्रुतम् ? । अथवा केवली चेत् स, ततोप्यभिमतो न ते ॥ १८॥ व्याख्या - तत्प्रतिक्रमणं कुलाल:- कुम्भकारोऽकरोत्, इति चेत्तत इति कुम्भकारेण कृतं प्रतिक्रमणं इदं कुत्र - कस्मिन् श्रुतेसिद्धान्ते त्वया श्रुतं ? न क्वचिदित्यर्थः । अहं श्रुतोक्तमेव ब्रुवे इति तवाभिमतो ( मानो) पि प्रतिक्रमणमत्सरेण कथं कुत्रापि प्रोषितः । अथवा चेद्यदि स कुम्भकारः केवली - केवलज्ञानी स्यात् । ततोपि ते तव नाभिमतो - नाभीष्ट: । एतावता केवलज्ञा निकुम्भकारकृतमपि न मन्यसे इत्यर्थः ॥ १८ ॥
१०३
मूर्खेण केनचिदिदं प्रतिक्रमणं कृतमिति परोक्तमुत्थापयन्नाहप्रायश्चित्तमिवं यत्तन् न स्यावूनमथाधिकम् । नाभूतभवनं चास्य, तत्कुतः कृत्रिमाकृतिः ? ॥१९॥
1
व्याख्या- यद्यस्मात् कारणात् इदं प्रतिक्रमणं प्रायश्चितं विद्यते श्रावका तिचारसंशोधनरूपत्वात् । ततो न इदमूनमधिकं वा स्यात् । अस्य न अभूतभवनं । अभूतस्याविद्यमानस्य भवनंविद्यमानत्वम् । इदं प्रतिक्रमणरूपं प्रायश्चित्तं पुरा नाभूत् पश्चादभूदिति नेत्यर्थः । पापस्य वर्द्धमानप्रायश्चित्तस्य सर्वदा भवनात् । ततस्तस्मात्कारणात् कुतः पक्षादस्य प्रतिक्रमणस्य कृत्रिमाकृतिः ? मूर्खस्य कस्यचित्कृतत्वेन कृत्रिमा आकृतिराकारो यस्याः सा कृत्रिमाकृतिः । आगमोक्तत्वादस्य प्रतिक्रमणसूत्रं अपरानुष्ठानं च प्रतिक्रमणनाम्ना विवक्षितम् । ततो यन्नाम यत्र सम्भवति । तत्र तद्वक्तव्यमित्यत्र प्रतिक्रमण सूत्रमधिकृत्याह
तत्पाश्चात्यं श्रुते यश, संभवेदेतदेव तत् । षडविधांतस्थनामत्था - द्यतिपाक्षिकसूत्रवत् ॥२०॥
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गुरुतत्वप्रदीपे
१०४
WAKAM
व्याख्या-यद्यस्मात्कारणात् तत्प्रतिक्रमणसूत्रं श्रुते-सिद्धान्ते न दृश्यते । अतः पाश्चात्यं-पश्चाद्भवमिति चेत् । तत एतदेव वंदित्तु सम्वसिद्धे' इत्यादिरूपमेव प्रतिक्रमणसूत्र सिद्धान्तस्सम्भवेत्-घटेत, नान्यसिद्धान्तोक्तं 'कुतः ? इत्याह-षडविधान्तःस्थनामत्वात् । षडविघं यदावश्यक-सामाइयं च उविसत्थओ वंदणयं पडिक्कमणं काउस्सग्गो पच्चक्खाणमितिरूपं, तस्यान्तमध्ये स्थितं यन्नाम प्रतिक्रमणमिति तस्य भावस्तस्मात् । किमुक्तं भवति-पङविधस्य मध्ये प्रतिक्रमणमुक्तं । ततः केनचित प्रतिक्रमणसूत्रेण भवितव्यमेव । अस्य तु प्रतिक्रमणसूत्रमिति नाम ततस्तथा 'पडिक्कमणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिक्कमणेणं वयछिद्दाइ पिहेइ' इतिवचनात् । आलापकस्यास्य प्रतिक्रमणसूत्रस्यैवापेक्षत्वेनास्य व्रतच्छिद्रपिधानरूपत्वेन सिद्धान्तत्वसिद्धिः। यतिपाक्षिक सूत्रवत् । यथा यतिसम्बन्धि पाक्षिकसूत्रं पृथक् सूत्रे अदृश्यमानमपि सूत्रतया सिद्धं भवद्भिरभ्युपगतं तच्च । एतदपि प्रतिक्रमणसूत्रं सूत्रतया सिद्धयति॥२०॥
पाश्चात्यमित्यस्यादृष्टे-जन्नमित्यादिसूत्रतः ।
अनन्तगुणहानेश्च, श्राद्धे पश्चान्नवाखिलम् ॥२१॥ व्याख्या-पाश्चात्यस्याप्याचीर्णत्वेन सिद्धान्तत्वात्पुनः पाश्चात्यमेतदिति-अमुना प्रकारेणास्य प्रतिक्रमणस्य कस्मिंश्चित् शास्त्रेड दृष्ट रदर्शनात् । 'जन्न'मित्यादिसूत्रतः जणं इमं समणो वा समणी वा सावओ वा साविया वा तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तयज्झवसिए तदज्झवसाणे तदट्टोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए अन्नत्य य कत्थय मणं अकरेमाणे उभओकालं आवस्सयं करेइ ।
(अनुयोगद्वारसूत्रम् ) 'एतद्वृत्तिः-तपितकरणः' करणानितत्साधकतमानि देहरजोहरणमुखवस्त्रिकादीनि । तस्मिन्नावश्यके
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षष्ठो विश्रामः
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१०५
यथास्थान- न्यस्तोपकरण इत्यर्थः । तथाऽनन्तगुणहाने रनन्तगुणहानिः पाश्चात्यश्रावकाणां भवद्भिरप्यनुमता, पाश्चात्यानां प्रमादपरवशतया नूतन विशिष्टानुष्ठानकरणासम्भवात् । अनन्तगुणवृद्धपुरातनपुरुष कृतानुष्ठाने बहुमानतः पाश्चात्यानामपि करणोद्यमत्वसिद्धौ ततो विशिष्टानुष्ठानरूपस्यास्माकीनश्राद्धप्रतिक्रमणस्य सर्वदैव भवनसम्भव: यथा विधीयमानमखिलं - समग्रमपि प्रतिक्रमणानुष्ठानं न पश्चात् । श्रुतदैवतक्षेत्र देवतकायोत्सर्गादेराचीर्णत्वात् । शेषं पुरातनमिति ॥ २१ ॥
सारम्भाणां निरारम्भा -ऽऽलोचनालोचनीकृता । तद्विश्वस्ताऽनुलग्ना - कृपा कि ते गता बत ? ॥२२॥
V
व्याख्या - अहो आञ्चलिक ! यत् त्वया सारम्भाणां श्रावकाणां निरारम्भा - निरवद्या आलोचना - उभयकालप्रतिक्रमणरूपा आलोचनीकृता-चक्षुर्गोचरीकृता । ततस्ते तव किं कथं बतेति खेदे, विश्वस्ता- विश्वासमुपगता, अनुलग्ना :- पृष्ठलग्ना आर्त्ता:संसारदुःखपीडिता ये श्रावकास्तेषु या कृपा-दया साऽपि विध्वस्ता ||२२||
राजते राज्ञि चाऽज्ञेऽपि, यदाऽऽरात्रिकमत्र किं । लोकालोकविलोकेऽस्मिन्, प्रभावाऽऽभाति नोत्प्रभम् ॥२३॥
,
व्याख्या - अज्ञेऽपि मूर्खोऽपि राज्ञि नृपे यत् आरात्रिकं । अत्रास्यां पृथिव्यां राजते - शोभते । ततोऽस्मिन् प्रभो - वीतरागे उत्प्रभमर्ध्वप्रभमारात्रिकं किं नाऽऽभाति ? । अपित्वाभात्येव । किं विशिष्टे प्रभो ? लोकालोकविलोके । लोकश्च अलोकश्च लोकाऽ लोकौ तयोर्विलोको - दर्शनं यस्य तस्मिन् ॥ २३ ॥ अथवा....
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
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दीपप्रभा प्रभोरग्रे, धूपाङगारावगारिक ।
स्वजात्मा मङगलत्वाद्वा, किमु ही नाथ ! नामला ॥ २४ ॥
1
व्याख्या -.. | अथवा दीपप्रभा अमला-निर्मला न धूपाबगारात् ? प्रदीपस्योद्योतकत्वेन निर्मलत्वं सविशेषम् । ततः प्रभोः पुरतो धूपाङगारो यदि युष्माभिर्मुच्यते ततः प्रदीपः कथं नाम न मुच्यते । यदुक्तं श्रीहरिभद्रसूरिपादैः पूजाषोडशके-पञ्चोपचारयुक्ता काचित्वष्टोपचारयुक्ता स्यात् । ऋद्धिविशेषादन्या; प्रोक्ता सर्वोपचारेति ॥ १॥ तत्र च पञ्चोपचाराः कुसुमाक्षतगन्धधूपप्रदीपैर्भवन्ति । यतः प्रशमरती उमास्वातिवाचकेन भणितं - चैत्यायतन प्रस्थापनानि कृत्वा च शक्तितः प्रयत: । पूजाश्च गन्धमाल्या ऽधिवासधूपप्रदीपाद्याः || १ || आदिशब्दादक्षतादिग्रह इति तद्वृत्तिः । उक्तं च पूजापञ्चाशके - वरं गन्धधूव चक्खु क्खए हि कुसुमेहि प्रकरदीवेहिं । नेवज्जफलजलेहिं जिणपुआ अट्ठहा होइ ||१|| सब्बोचयारपुआ न्हवणच्चणवत्यभूसणाइहिं । फल.
•
१०६
•
अपक्वान्नाच्च पक्वान्नं, जात्याजात्यत्वतोऽथ कि । होनं यत्केवली भुङकुते, बोटिकैरप्यवारितं ॥ २५ ॥ व्याख्या- तातित्थंकरो धम्मं कहितो तुहिक्को भवइ । ताहे सो रायाई बलिहत्थगओ देवपरिवुडो तित्थगरं तिक्खुत्तो आहिणपयाहिणं काउं तित्थगरस्स पायमूले तं बलि निस्सरइ, तस्स अद्धपडियं देवा गिण्हंति, सेसस्स अद्धं अहिवती गेहति से पागयजयो गिण्हइ । तओ सित्थं जस्स मत्थए पड, तस्स पुब्बुप्फ्नो बाह्री उवसमझ अणुप्पन्ना रोगायका छम्मासा न उप्पज्जति । आवश्यक नियुक्तिचूर्णे असो बलेरालापक उक्तः । अथ निशीथ कूणिः - ताहे पभावई व्हाया कयकोउयमंगला सुविकल
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षष्ठो विश्रामः
वासपरिहाणपरिहिया बलिपुप्फवकडच्छ्यहत्या गया। तओ पभावइए सव्वं बलिमाइ काउं भणियं-देवाधिदेवो महावीरवद्धमाणसामी तस्स पडिमा कीरउत्ति पहराहिवाहिओ कुहाडो ॥२५॥
माङगल्येन फलं पुष्पाद, वानस्पत्येन वा कथम् ।
होनं स्नात्रोदकादग्रो-दकं सावधमद्य किम् ? ॥२६॥ व्याख्या-पुष्पात् फलं माङ्गल्यन-मङ्गलत्वेन, वा-अथवा वानस्पत्येन-वनस्पतिविकारत्वेन' कथं हीनं ? अपि तु न हीनं, समानमित्यर्थः । ततः प्रभौ पुष्पानामनिषेधे फलानामप्यनिषेध एवापद्यते । अतः फलनिषेधेऽपि महामूढतैव तव । तथा चावश्यकचूणिः- पत्त-पुप्फ-फल-बीय-मल्ल-गंध-वण जाव चुण्णवासंति'त्ति। तथा स्नात्रोदकादग्रोदकं अवयं-सावद्यं किमभूत् ? सङघपरम्पराऽऽयातत्वेन अल्पत्वेन च प्रभोः पुरतो ढौकितोदकस्याल्पसावद्यत्वात्। तनिषेधे प्रकटैव महामूर्खतेति ।।२६।।
यद् यद् बहुफलं तत् तन्, निषिद्ध धिगजानता।
सङघतीर्थकरौ सूत्रं, मिथो हेतुत्वतस्सदा ॥२७॥ व्याख्या-अहो आञ्चलिक !.यत् यत् पूर्वोक्तं बहुफलं तत् तत् त्वया निषिद्धम् । धिगिति खेदे। किविशिष्टेन त्वया ? अजानता, कि ? सूत्रं किं तत्सूत्रं ? सङघतीर्थकरौ, कस्मात् ? मिथो हेतुत्वतः । तीर्थात् तीर्थकरः, तीर्थकरात् तीर्थमिति बीजाङकुरवद् भवनेनोभयोरपि सिद्धान्ततामजानानेन सङघपरम्पराऽऽयातं तीर्थकरोक्तमिव अक्षरेषु दृष्टमदृष्टं वा छिन्नसूत्रोक्तत्वात् सूत्रानुयायित्वात् वा सर्वमपि प्रमाणमेवेत्यश्रद्धानेनाभिनिवेशतरलिताऽन्तःकरणेन बहुफलमेवाखिलं निषिद्धमिति ।।२७।।
स्थापनाचार्य स्थापयन्नाह
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
newmaraamar
तीर्थकृतिरहे यदव, बिम्बाऽऽलम्बनमागमे ।
गुरोरपि तथा नो चेन्, मिथ्यात्वं तदलक्षवत् ।।२८॥ व्या.-स्पष्टः । नवरं-अलक्षो-नौचित (त्र)कल्पितदेवताविशेषः॥२८॥
ग्रन्थविस्तरभीत्यान्य-दुत्सूत्रोत्खननं स्थितम् । श्रिता सुमतिसिंहेन, मिथ्यात्वं सार्द्धपौणिमा (में)॥२९।।
व्याख्या-स्पष्टः। नवरं-अन्यदुत्सूत्रोत्खननं कुमतकुट्टनादवसेयम् । तथा सुमतिसिंहसूरिः-सार्द्धपूणिमीयकमताऽऽकर्षक: प्रथमाचार्यः ॥२९॥
चतुर्वशी तत्प्रतिष्ठे, मिथ्यात्वं च ततः कथं ? ।
ताभ्यां कमात्प्रगृहीतं, स्थापितं चैत्यमर्च्यते ॥३०॥ व्याख्या-अहो सार्द्धपूर्णिमीयक ! चेत्-यदि, चतुर्दशी तत्प्रतिष्ठा .... । ब्दं शेषादानमुपपत्तित आगमतोऽपि । उक्तं च वसुदेवहिण्डिप्रथमखण्ड एकोनविंशतितमलम्भ-सयंपभा कन्ना अभिनंदण-जगनंदणचारणसमणसमोवे सुयधम्मा सम्मत्तं पडिवन्ना । अन्नया य पव्वदिवसे पोसहं अणुपालेऊण सिद्धायणकयपूआ पिउणो पासमागया। ताय ! सेसं गेण्हेत्ति। पणएण रण्णा पडिच्छिया सिरसित्ति । अथाऽस्य व्याख्या-स्वयंप्रभाभिधा कन्या खचरराज्ञः सुता। यदि पुनर्भद्रका स्यादित्याह-अभिनन्दन-जगन्नन्दननाम्नोश्चारणयोः समीपे श्रुतधर्मा सम्यक्त्वं प्रतिपन्ना। अन्यदा पर्वदिवसे पौषधमनुपाल्य तत्पारणके चैत्यं पूजयित्वा पितुः पार्वेगता जल्पति च यत् तात ! युगादिदेवस्य शेषां गृहाण । तेनापि राज्ञा प्रणतसिरसा गृहोता सा देवशेषेति । इत्येकोत्सूत्रनिराकरण । सीमनकगिरौ जिनायतने स्थितो वसुदेवः खेचरविमानपरिगतं गगनं निरीक्ष्य किमेतदिति ससम्भ्रममनिलयशसमाह । ततोऽनिलयशा
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षष्ठी विश्रामः
अपि तं प्रति ब्रुते-अद्येह जिनभवनानां वर्षमहोत्सव एकरात्रिक: सम्प्राप्तः । अन्योऽपि अत्राष्टाहिकामहोत्सवो भवति । अत्र च वसुदेवहिडि अक्षराणि एवं-तीए भणियं अज्जउत्त ! इत्थ विज्जा पढमधयणे भूमीए जिणाययणाणं सवत्सरुस्सवो एगराइओ संपत्तो। अन्नोवि य होइ महो इत्थ अठ्ठाहिया होइ महिम'त्ति । तथाऽस्याः प्रथमखण्डे भणितं तिन्नि महिमाउ कारेमाणा ते हरिसेण कालं गमंति'ति । व्याख्या चैत्रमासे एकोऽश्विन मासे द्वितीय इति शाश्वतावष्टाहिकामहिमानौ द्वौ ततीयोऽशाश्वतः पुनः सीमनगनगे कुर्वन्ति इति महिमात्रयं । तथा चागमः-दो सासय जत्ताओ तत्थेगा होइ चित्तमासंमि । अठ्ठाहियाउमहिमा बीया पुण अस्सिणे मासे ।।१।। ताहे चउमासियतियगे पज्जोसवणा तह य इय छक्कं । जिणजम्म-दिक्ख-केवल-निब्वाणा इसु असासइया॥२॥ उक्तं च वसुदेवहिंडितृतीयखंडे-अज्जअट्ठमीए आढवेऊण पंचनइसंगमे भयवओ संजयंतस्स नागरण्णो य अट्ठाहिया महामहिमा पवन्ना होहिइ । तत्थय दोहिवि विज्जाहरसेढीहि अवस्स मिलियब्वति । इति द्वितीयोत्सूत्रनिराकरणं । भरहेण निम्मविया अट्ठमहापाडिहेरसंजुत्ता । अट्ठवयंमि सेले... • • • • • ॥३०॥
इति श्री गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याये आङ चलिक-सार्द्धपौणिमानिरासो नाम षष्ठविश्रामः ।।६।।
.. सप्तमो विधामः ।
आगमिन्नागमस्साघ-कृतमाज्ञायुतत्वतः ।
क्रमाऽऽगतोऽधुना सङघ-स्तीर्थस्याऽन्तरमन्यथा ॥१|| व्याख्या-हे आगमिन् ! सङघेन कृतं-आचीर्णमागमो भण्यते । अस्य प्रामाण्यमाह-आज्ञायुतत्वतः ‘आणाजुत्तो सङघो' इति
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
११०
वचनात् सङघकृतस्याप्याज्ञायुक्तत्वाऽऽपत्तेः। अत एव सङघकृतस्याऽऽगमत्वाभवनेन सङघोऽपि न भवेत् । सङघस्य मिथ्यादृष्टित्वप्रसङ्गादिति सङघव्यवच्छेदः स्यात्, ततोऽसमञ्जसमेतत् । न कदाचिदिदं भूतं भवति भविष्यति । यत् सङघव्यतिरिक्तेनानेन जगता भवितव्यम् । तस्माद् यत् किञ्चित् सङघन कृतं, स आगम एवेति बलादापन्नम् । अधुना-वर्तमानकाले, क्रमाऽऽगतस्सर्वसङघानुगतक्रमेण य आगतस्स सङघो भवति । यतो व्यवच्छिन्ने सङघे सङघस्याभावात् सङघक्रमोऽपि न स्यात् ततस्तदा यस्तीर्थकरेण स्थापितस्स सङघो भवति । अन्यथा-अधुना क्रमागतसङघस्यासङघत्वे, तीर्थस्य-सङ्घस्याऽन्तरं-विवरं स्यात् । नच सिद्धान्ते सम्प्रतिकालमाश्रित्य तीर्थस्याऽन्तरमुक्तम् । न च सम्प्रति तीर्थाऽन्तरस्य लक्षणमस्मिन् क्षेत्रे दृश्यते । तीर्थविवरे हि'धर्म' इत्यक्षरद्वयस्याश्रवणात् नव्यतीर्थकरेण तीर्थस्य करणाच्च । न चैतदवेति क्रमाऽऽगत एव सङघोऽधुना सिद्धः।
यदाह-'जंबहीवेणं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं तित्थं केवइयं कालं अणुसज्जिसइ ? । गो०-जंबुदीवे दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए मम तित्थं एगवीसं वाससहस्साइं अणुसज्जिसइ ॥१॥
त्यजन्नाचरणां रोषात्, तत् त्यक्त्वाऽऽगममागमिन् ! ।
सा हि सङ्घकृता सूत्रेऽस्तीत्याज्ञाऽऽचरणापि च ॥२॥ व्याख्या-तत्-तस्मात् कारणात्, अहो आगमिन् ! त्वं आगमं त्यक्त्वा, किं कुर्वन् ? रोषात्-कोपादाचरणां त्यजन्, आचरणात्यागेन त्वया आगमोऽपि त्यक्तः। कथं ? इत्याह-हि यस्मात् कारणात् सा आचरणा सङघकृता, सङघकृतस्य आगमत्व
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सप्तमो विश्रामः
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1
सिद्धिः प्राक् श्लोके उक्ता । सूत्रोक्तमप्यागमत्वमाचरणाया दर्शयति सूत्रे - सिद्धान्ते, आचरणापि आज्ञा-आगमोऽस्ति - विद्यते । यदाह - 'आयरणा विहु आणा, अविरुद्धा चैव होइ आणत्ति । इहरा तित्थयरासायणत्ति तल्लक्खणं चेयं ॥ १ ॥ असढेण समाईनं, जं कत्थइ केणई असावज्जं । ननिवारियम हिंय, बहुमणुमयमेयमायरियं ॥ २ ॥ जो पुण तमेव मग्गं, दूसे उमपंडिओ सतक्काए । उम्मग्गं पडिवज्जइ, अकोवियप्पा जमालीव ॥३॥ बृहत्कल्पे ।। ||२|| प्राक् श्लोकसम्बन्धिविवरणोक्तस्यास्य गाथात्रिकस्य मध्यादाद्यगाथायां परैरुक्तं कूटव्याख्यानमप्रमाणीकुर्वन्नाह -
अविरुद्धा तोक्तेति व्याख्या चेत्सूत्रमेव तत् । गाथायामपिशब्दात्तु, भिन्नैवाऽऽचरणा श्रुतात् ॥३॥
१११
व्याख्या- चेद्यदि, गाथायां - आयरणा विहु आणा' इत्यादि गाथायां 'अविरुद्धा श्रुतोक्तेति' व्याख्यानमास्ते । 'अविरुद्धशब्दः ' सिद्धान्तोक्त इति परपर्यायेण व्याख्येय इत्यर्थः । तत आचरणा सूत्राक्षररूपैव सञ्जाता । न सूत्रानुयायिनी । तु-पुनः, अपिशब्दात् 'आयरणावि हु' इत्यत्र अपिशब्दत आचरणा श्रुतात्-सिद्धान्ताद्, भिन्नैव-पृथगेवाऽभूत् । अतोऽविरुद्धशब्दस्सूत्रानुयायीति व्याख्येयः । इत्थं आचरणा सूत्रानुयायिनी सिद्धा ||३||
2
तस्यां तल्लक्षणं चेदं गाथायां किं यतः श्रुते । लक्षणं नाशठेनादि, तत् कूटव्याख्यया कृतम् ॥ ४ ॥ व्याख्या - यदि आचरणा सिद्धान्तात् न पृथक् । ततस्तस्यां गाथायां 'आयरणा वि हु आणा' इत्यादिरूपायां, तल्लक्षणं चेदं
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'तल्लक्खणं चेयं' इत्यक्षराणि किमुक्तानि ? यतो-यस्मात् कारणात्, अशठेनादि लक्षणं 'असढेण समाइण्णं' इत्यादि प्राक लिखितगाथोवतं लक्षणं श्रुते सिद्धान्ते न स्यात् । सिद्धान्ते हि यद् वाक्यं अशठेन समाचीर्णं तदेव प्रमाणमिति लक्षणं न स्यात्, सिद्धान्तोक्त [स्योदाविनृपमारका दिभिरपि शठ ] समाचीर्णस्य प्रमाणत्वात् । 'जं कत्थइति । यत् कुत्रापि क्षेत्रे समाचीर्णं तदेव प्रमाणमित्यपि न स्यात् । सिद्धान्तोक्तस्य बहुतरेष्वपि क्षेत्रेषु समाचर्यमाणस्य प्रमाणत्वात् । 'केणई असावज्जं न निवारियमन्नेहि बहुमणुमय' मिति यद् वाक्यं केनचित् समाचीर्ण यच्चासावद्यं यच्चान्यैर्न निवारितं यच्च बहुमतं तदेव प्रमाणं इति लक्षणं सिद्धान्ते न स्यात्, सिद्धान्तोक्तस्य बहुगीतार्थसमाचीर्णत्वेन निःपापत्वेन च अन्यैरनिवारितत्वेन च बहवनुमतत्वेन च प्रमाणत्वात् । 'एयमायरियमिति । एतदाचरितं एतदाचरितस्यैव लक्षणमित्यर्थः । सूत्रादाचरितं पृथगेवेति । तत्-तस्मात् कारणात् कूटव्याख्यया- कूटेन व्याख्यानेन कृतं पर्याप्तम् । यतोऽनन्तसंसार परिभ्रमणमेव फलं कूटव्याख्यानस्य ॥४॥
सामाचारी स्थापन्नाह
उज्जयन्तादिगाथादि - सामाचारीपराङ्मुखः ।
यदि त्वमिव सङ्घः स्यात्, तीर्थच्छेदस्तदा भवेत् ॥५॥
११२
व्याख्या - यदि भगवान् सङ्घस्त्वमिव उज्जयन्तादिसामाचारीपराङ्मुखो भवेत् ।
उक्तं च- उज्जित से लसिहरे, दिक्खा नाणं निसीहिया जस्स । तं धम्मचक्कवट्टी, अरिनेमिं नम॑सामि ||१||
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सप्तमो विश्रामः
NARurvivon
इयं गाथा सामाचारी, आदिशब्दादन्यापि सामाचारी यथा त्वया त्यक्ता । तथा यदि सङघेनापि त्यज्यते । ततस्तदा तीर्थच्छेदो भवेत् । यतोऽशठाऽम्बिकाकृतत्वादियं सामाचारी ततो। यदि सामाचारी भणित्वा इमां गाथां सङघो नापठिष्यत् तदा तीर्थस्योज्जयन्तगिरेः छेदो-विनाशोऽभविष्यत् । दिगम्बराणां स्वीकारात् । तथा अन्यदपि चोलपट्टपरिधानादिकां सामाचारी भणित्वा यदि सङघो नाङ्गीकरोति तदा तीर्थस्य-सङघस्य च्छेदो भवति । तदनङ्गीकारे निर्वहणाशक्तः इत्येतत् तवाप्यनुभवसिद्धं । पुनस्तथापि स्वाभिनिवेशं यन्न मुञ्चसि । ततस्त्वं त्रिस्तुतिकः शासनच्छेदहेतुत्वेनास्पृश्योवक्तव्योऽदृष्टव्योसि । उज्जयन्ततीर्थप्रबन्धः कथानकादवसेयः। तस्य वृद्धसम्प्रदायःगजपुरनगरात धननामा श्रेष्ठी देवालयसङघालङकृतः श्रीरैवतकमहातर्थे समाजगाम । तत्र च भगवद्बिम्बस्य पूजां चकार । इतश्च महाराष्ट्रमण्डनमलयपुरागतबोटिकभक्तवरुणश्रेष्ठिना आभरणविभूषितं विभुं निरीक्ष्य कोपारुणचक्षुषा 'निम्रन्थोप्ययं भगवान् सग्रन्थः श्वेतपटभक्तैः कृतः' इति वदता च प्रक्षिप्ता भगवतः पूजा । ततो धनवरुणौ परस्परस्पर्द्धमानौ गिरिनगराभिधपुरे नृपाऽन्तिकमागतो। तत्र च तेन दुःखेन दुःखितस्य निशायां निद्रामलभमानस्य धनस्य श्रेष्ठिन: शासनदेवता भणत्येवं-धर्मिष्ठ श्रेष्ठिन् ! स्वमनसि मनागपि मा कार्षीर्दु :खमिदम् । यतश्वैत्यवन्दनामध्ये 'उज्जिन्तसेल' इत्यादि गाथां प्रक्षिप्य ध्रुवं जयं नृपसभायां तव दास्यामि । ततः सकलसङघसहितो धनश्रेष्ठी सम्यगदृष्टि देवतानां कायोत्सर्ग कृत्वा प्रहृष्टः सन् समागतो नृपान्तिकं, वरुणोऽपि । भणति च धनो-यदि वस्त्राभरणादिपूजां वयं कुर्मः, ततः किमेष तस्या विध्वंसनं कुरुते?। वरुणोप्याह-स्वतीर्थे
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मुरुतत्त्वप्रदीपे
११४
अविधि कस्यापि कर्तुं न ददामि । संशयमापन्नो नृपोऽपि ब्रूते-कस्यापीदं तीर्थमिति को वेत्ति ?। भणति धनश्रेष्ठी-यदाऽऽस्माकीनमेवेदं तीर्थ, चैत्यवन्दनामध्ये येनैषा गाथा ‘उज्जयन्ते 'त्यादिरूपानेध्यास्ते । यदि भवतां न प्रत्ययस्तत आस्माकीनसङघे आबालवृद्धः पाठयताम् । नृपो प्रत्ययनिमित्तं पवनगत्या करभिकया निजपुरुष प्रेष्य सिणवंल्लिग्रामात धनदेवश्रेष्ठिनो लघुपुत्रिकामाना'ययति । श्वेताम्बरदिगम्बरसमुदायस्य च समक्षं नृपेणोक्ता-किं नु बस्यविन्दनी वागच्छति । साप्याह-बाढम् । ततो वत्से ! झटित्येव तो कथय । साँप्यतिव्यक्तन स्वरेण सर्कला चैत्यवन्दनी 'पठति यविदिमी गार्थी 'उज्जितसेलसिहरे दिक्खा नाणं निसीहिया' इत्यादिकां । इति श्रुत्वा नृपो लोकश्च हर्षोच्छवसितमना इदं मणति-जयति श्वेतभिक्षुसङ्घस्तीर्थमिदं नूनमेतस्य । तत्प्रभृति इयं गार्थी पठ्यते चैत्यवन्दनामध्ये गीतार्थं रशठः पूर्वसूरिभिनं निषिद्धी । तथा इत्यपि मन्यते । 'चत्तारि अट्ठ दस' एषापि गाथास्मिन्नैव प्रबन्धे निष्पन्ना। एकस्यैव तीर्थस्य कथनं हि निराधार प्रतिभाति । ततः सत्कृत्य धनश्रेष्ठी विजितो राज्ञा । पुरपि उज्जयन्तै वस्त्राभरणकुसुमादिभिः पूजामवारितदानं चाष्टाहिकामहिमा (में) च विधि प्राप्तो गजपुरं नगरम् ॥५॥
सङघ एवाऽऽगमो यत्तत्, तन्मतो स्यास्त्वमागमी ।
स सद्धर्मो हि भेदी न, सर्वथा धर्मर्मिणोः ॥६॥ व्याख्या-यत्-यस्मात् कारणादही आगमिन् ! सङघ एवाऽऽगमतत्-तस्मात् कारणोत् तन्मतौ-तस्य सधस्य मतौ-मननै त्वं आगमी-आगमवान् स्थाः । कथं सङघ एवागमः ? इत्याहस-आगी, हि यस्मात् कारणात्, तद्धर्म:-तस्य सङघस्य धर्म:
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सप्तमो विश्रामः
स्वभावो विद्यते । ततस्सर्वथा सर्व प्रकारेण धर्मधर्मिणो भेदः पृथक्त्वं न विद्यते । वस्तुस्वभावाद् भिन्नाभिन्नरूपतैव । किमुक्तं भवति सङ्घपरम्पराऽऽगतस्य सङ्घस्य धर्मिणोगमने सङ्घधर्म आगमोऽपि त्वयाऽवगणितः । ततः आगमप्रध्वंसिनो भवतो वृषामिक इति नामोहनाभिमानः ||६||
पाश्चात्यो नं प्रमा चेत् तत् स त्वं सङधः पुनः प्रमा । सूत्रकर्त्रा निषिद्धापि चतुःपूर्वी बभूव तत् ।।७
११५
?
व्याख्या - इह किल त्रिस्तुतिक इति ब्रूते यदहं पाश्चात्यं किमपि न मन्ये । ततस्त्वं प्रति प्रोच्यते चेद्यदि, जिनशासन पाश्चात्यो न प्रमाणं ततस्स त्वं यत्तस्तावकीनस्थ मतस्याभ्ना निःसृतत्वात् पूर्वाचार्याणामपेक्षया त्वं पाश्चात्योऽत इत्थं त्वमेवाप्रमाणं बभूविथ । सङ्घः पुनः पाश्चात्योऽपि प्रमाणमेव । अत्रार्थे दृष्टान्तमाह-सूत्रे' त्यादि । सूत्रकर्त्रा सिद्धान्तका रेण श्रीभद्रबाहुस्वामिना सिद्धान्तप्रमाणेन स्थूलभद्रे चतुःपूर्वी निषिद्धापि पूर्व चतुष्टयं स्थूलभद्रस्य न दास्यामीति कृतेऽपि श्री सङ्घपादानामादेशेन तत्तस्मात् सङ्घप्रामाण्यभवनलक्षणात् कारणात् बभूव-स्थूलभद्रे दत्तेत्यर्थः । तीर्थकरवार के विद्यमान सङ्घस्यापेक्षया श्रीभद्रबाहुस्वामिवारके विद्यमानः सङ्घः पाश्चात्यस्तस्यापेक्षयाऽधुनातनस ऊधस्याप्यादेशः पाश्चात्यः । ततो यदि तस्मादेशः प्रमाणमतोऽधुनातनसङ्घस्याप्यादेशः प्रमाणमेव । अतः पूर्वधरंरप्यनुल्ल अधितं सङघादेशम कुर्वाणस्य तव ताम्रघटितं वा लोहघटितं वा कपालमाकाल विद्यते ॥७॥
मन्यसे चेन तं सामा- चारीचारी किमेकतः ॥ आचार्याद्देवभद्रात् किं ज्ञातं शीलगणादपि ॥८॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
व्याख्या-चेद्-यदि, त्वं तं पाश्चात्यं सङघं न मन्यसे । तत एकतः-एकस्मात् पक्षात्, न सर्वस्मात् पक्षात् । त्वं सामाचारीचारी कि-कथम: ? सामाचार्यां चारः-प्रवृत्तिर्यस्य स । काचित् सामाचारी कथमादृतेत्यर्थः । सामाचार्याः पाश्चात्यसङघकृतत्वात् । चित्ते वाचि च सर्वा सामाचारीममन्वानस्य क्रियया काञ्चित् कुर्वाणस्य तव नकरूपता-नैव साधुलक्षणम् । उक्तं च-यथा चित्तं तथा वाचो, यथा वाचस्तथा क्रियाः ।
. चित्ते वाचि क्रियायां च, साधूनामेकरूपता ॥१॥ त्रिस्तुतिकैरङ्गीकृतायास्सामाचार्या मध्यात् काचित् सामाचार्युपदिश्यते-'दो जक्खपडिमाओ दो नागपडिमाओ दो भूयपडिमाओ दो कुंडधारगपडिमाओ दो चामरधारगपडिमाओ एगा छत्तधारगपडिमा' आगमे शाश्वतबिम्बान्येवम्भूतान्युच्यन्ते । ततोऽमीषामनुसारेणाशाश्वतबिम्बान्यपि कर्तुमित्थमेवोचितानि । यदपराजितादिग्रन्थप्रमाणेन सूत्रधारघटितानि बिम्बान्यनुमन्यन्ते, सा सामाचारी. १, प्रतिमाया: वस्त्राञ्चलः २, श्रीसुपार्श्वस्य पञ्चफणानां घटनं ३, श्रीपार्श्वनाथस्य सप्तफणानां घटनं ४, प्रतिक्रमणे प्राक् चैत्यवन्दना ५, पर्युषणाकल्पस्य दिवा वाचना ६, सामायिके काष्टासनानां क्षमाश्रमणदानं ७, चोलपट्टपरिधानं ८, चोलपट्टे दोरकश्च ९, कल्पप्रावरणं १०, पात्रमात्रकयोरूवं त्रेपणकदोरकाद्यादानं ११, पात्रकमात्रकनन्दीभाजनेषु पानीयाप्रक्षेपणं १२, गच्छस्य मध्ये एकेन केनचिद् व्रतिना जाग्रता स्थातव्यमित्याद्यागममुल्लङघ्य सर्वेषां निद्रा १३, अक्षराणां प्रमाणेन सिद्धान्ते चत्वारोऽनुयोगास्सन्तीत्यागममुल्लङघ्य सिद्धान्ते एकंकानुयोगग्रहणं १४, गोचरचर्यायां सर्वोपकरणमनादाय गमनं १५, कम्बलसंलग्नदशिकामयरजोहरणाग्रहणं १६, रजोहरणे वस्त्रनिषिद्यायां दवरक
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सप्तमो विश्रामः
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बन्धनं १७, सूत्रार्थयोः पौरुषीद्वयेऽन्यस्वाध्यायपठनं १८, पुस्तकादीनां विहारेऽपि सह ग्रहणं १९, एताः सर्वा अपि सामाचार्यो भवतापि मताः । ततः कथ मन्यतराश्चतुर्मासकचतुर्दश्यादिका न मन्यन्ते । पूर्वापरविरोधो नाम दूषणमिदं तवेति । उत्तरार्द्ध स्पष्टम् । नवरं कथानकमुच्यते-किल पूर्णिमीयकानां मध्यात् द्वौ व्रतिनौ निःसृत्याऽञ्चलिकानां मध्ये समायाती। एभिस्तावाचार्यपदे देवभद्रसूरि-शीलगणसूरिनामानौ कृतौ । एकस्मिन् दिने महानिशायां द्वावप्येतावाचार्यावाञ्चलिकानां मध्याग्निर्गत्य श्रीशत्रुजयपरिसरे गतौ । तत्र भ्रान्तचित्ताः केचित् सप्ताष्टौ वतिनः एतयोराचार्ययोमिलिताः। मिलित्वा त्रिस्तुतिकमतं मण्डितम् विवेकिभिर्जनः हुण्डिकाभिः प्रतिबोध्यमानाभ्यामाचार्याभ्यां स्वाभिनिवेशो न त्यक्तः ।।८।। सिद्धपूजां स्थापयन्नाह
नाऽर्चा सिद्ध न सार्वे तत्, सिद्धाऽनन्तत्रयादितः ।
भरतोऽचीकरन्मुक्त-भ्रातृणां प्रतिमाश्च किं ? ॥९॥ व्याख्या-सिद्धे-मुक्ते, यदि अर्चा-पूजा न युज्यते, तत्तस्मात् ते तीर्थकरेपि पूजा न युज्यते । कस्मात् ? सिद्धानन्तत्रयादितः । सिद्धानां-मुक्तानां, अनन्तं त्रयं-अनन्तं ज्ञानमनन्तं दर्शनमनन्तं वीयं च, तीर्थकरे ह्येतत् त्रयमपि भवेत् , आदिशब्दात वीतरागत्वं तस्मात्। तथा भरतो-भरतश्चक्रवर्ती मुक्तभ्रातृणां प्रतिमा-मुक्तानां बान्धवानां बिम्बानि कथं अचीकरत-अकारयत् ? उक्तं चावश्यके श्रीभद्रबाहुस्वामिपादैः
थूभसय भाउआणं, चउव्वीसं चेव जिणहरे कासी । सव्वजिणाणं पडिमा, वनपमाणेहि नियएहिं ॥१॥
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पुरुतत्त्वप्रदीपे
एतच्चूणिः-भाउअसयस्स तत्थेव पडिमाओ कारवेइ । अप्पणो पडिमं पज्जुवासंतियं सयं च थूभाणं । एगं तित्थयरस्स अवसेसाणं एगुणस्स भाउअस यस्स । मा तत्थ कोइ अइगमिस्स इत्ति लोहमणुमा ठविआ जंताउत्ता (तद्वारपालका)। जेहिं तत्थ मणुआ अइगन्तुं न सक्कंतित्ति ॥९॥ सिद्धपूजासम्बन्धिन्यपराण्यप्युक्तानि दयन्ते । अत्र च वसुदेवहिण्डि:-"देविदेण य इमं इत्थ सव्ववण्णाइसयं जिणाययणं विरुवमसस्सिरीयं निरुवियं इत्थ नाभेयस्स भगवओ भाउणो य पडिमाउ ठविया सव्वकणगामईओ। चक्करयणं च । धम्मचक्कं । निधाइयं बाहिं । निविटुस्स य भद्दासणस्स उवरि रयणमंडवो कड़ ति । व्याख्या-निवेदयति वसुदेवपुरस्सरो हरिकूटपर्वते मदननामा कश्चित-यदेव ! निजसोदरे खचरचक्रिणि चित्रवेगे गतवति सति सिद्धिसौधं सौधर्मेन्द्रेण विचित्रमत्रेदं चैत्यं तदन्तश्च युगादिदेवप्रतिमा भ्रातृचित्रवेगप्रतिमा च स्थापितेति । अस्यैव सिद्धायतनस्य सम्बन्धे वसुदेवहिण्डिअक्षराणि । तत्थ य तिगुणाईयं पयाहिणं काउं वंदिऊण य बाहिं भत्तीए चेईयाणि एगओ वियत्ति । तत्र मदनमित्रकथिते हरिकूटपर्वते चैत्ये वसुदेवो गत्वा नत्वा त्रिप्रदक्षिणापूर्व चैत्यामि बहिः पश्यति महिमानं । उक्तं च.
आवश्यकचूणी मरदेवीस्वरूपं-भगवओ छत्साइछत्तं पिछतीए • चेव केवलनाणं उप्पन्नं । तं समयं च णं आउअं वेदं ( खुट्ट) सिद्धा। देवेहि य से पूया कया पढ मसिद्धोति काऊणं ।।९।।
जैन जनोऽपि मन्येत, चस्यप्रामाती हि तत् ।
प्रमात्र पुण्डरीको द्वा-धाचौ शत्रुजयस्थितौ ॥१०॥ व्याख्या-हि-यस्मात् कारणात,जनोऽपि-मिथ्यादृष्टिलोकोपि, चैत्यप्रामाण्यतो देवगृहाणां प्रामाण्येन, जैन-जिनशासनं मन्येत ।
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सप्तमो विश्रामः
११९
यदस्मिन धर्मे श्री शत्रुजयप्रभृतीन्येवंविधानि तीर्थामि नगरमहास्थानादिष्वेवंविधाः प्रासादाः दृश्यन्ते । तदसावपि धर्मोऽस्तीति जनेनापि मन्येत, तत्-तस्मात्कारणादत्र-सिद्धपूजावां, पुण्डरिकाःश्रीशत्रुञ्जये संतिष्ठमानपुण्डरीकप्रतिमा प्रमाणं ॥१०॥
पुष्पादिपूजात्यागो हि, स्याच्चरित्राचरित्रयोः । द्वयातीतप्रभोः पूजा-निषेधे धावनं मधा ॥११॥
व्या-हिर्यस्मात्कारणात् पुष्पादिपूजात्यागश्चारित्रस्य स्यात, चारित्रभङ्गात् । अचारित्रस्यापि स्यात, पूजाया अनधिकृतत्वात् । द्वयातीतप्रभो:-'सिद्धे नो चरिते नो अचरित्ते' इतिवचनात् चारित्राचारित्रमुक्तस्य सिद्धस्य पूजानिषेधे धावनं-त्वरितगमन, मुधाऽलीक क्रियते ॥१॥
राकौष्ट्रिको बहिः सघात, सार्धराकाञ्चलौ बहिः।
राकायाश्चाञ्चलाच्चासि, पूज्ये पूजा न ते ततः॥१२॥ व्याख्या-तावदविच्छन्नसङधे परम्पराऽऽयातस्य सङधस्य मध्यात् पूणिमीयकखरतरौ बाह्यावभूता । पूणिमीयकानां मध्यात् सार्धपूर्णिमीयकाऽञ्चलो बाह्यावभूतां । असि त्वं पूर्णिमीयकाऽञ्चलिकयोर्मध्यात बाह्योऽभूः । ततः-तस्मात्कारणात्ते-तव, पूज्ये पूजा नाभूत् । युक्तो हि पूज्यपूजाव्यतिक्रमो बाह्येभ्योऽपि बाह्यस्य तव ॥१२॥
आगमज्ञस्य चारित्र-चारिणो न तथा यथा । चमत्कृतिरधिष्ठातुस्तिष्ठेद्र पतिचेतसि ॥१३॥ (काले) ततोऽत्रापि सुरैस्तैस्तद्वर्तते जनमीशं ।
न तुर्योत्सर्गदानं यत्तत् ज्ञातं साधु साधु ते ॥१४॥ व्याख्या-भूपतिचेतसि-राज्ञश्चित्ते, चमत्कृतिश्चमत्कारस्तथा तेन प्रकारेणाऽऽगमज्ञस्य-आगमविदश्चारित्रचारिणश्चारित्रिणश्च
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
१२०
न तिष्ठेन्न भवेत् । यथा-येन प्रकारेणाधिष्ठायकस्य श्रीशङखेश्वरादिसम्बन्धिनो भवेत् । ततोत्रापि-तीर्थकरादिरहितेपि काले, तैस्सम्यग्दृष्टिभिस्सुरैज॑नं ईदृशं यथादृष्टं वर्तते । अधुनाधिष्ठायकभीतो हि राजाऽमात्यसामन्ताधिकारिकादिजिनशासनस्य प्रतिकूलतां न कुरुते । यत्तु तुर्योत्सर्गानं 'वेयावच्चगराण'मित्यादिकायोत्सर्गकरणं, त्वदीये न वर्तते तत्ते-तव ज्ञातमभिप्रायस्साधुसाधु इत्युपहसे ॥१३॥१४॥ युग्मम् ।
मम मङ्गलमित्यादे-यंबोधिस्सङघदेवतात् । तुर्योत्सर्गेण तत्सिद्धं, शासनस्येति वर्तनम् ॥१५।।
व्याख्या-स्पष्टः। नवरं-" मम मंगलमरिहंता" इत्यादि. गाथा ।।१५।।
स्वमिव स्वयमेवैते, पान्ति चेच्छासनं सुराः ।
कायोत्सर्गाः कृतास्ते ते, तत्कि सुकृतिभिः पुरा?॥१६॥ व्याख्या-चेद-यदि, एते-सुराः, शासनं स्वमिव-आत्मानमिव, स्वयमेव-कायोत्सर्गदानं विनैव, पान्ति-रक्षन्ति, तत्कि पुरा-पूर्व, ते ते सिद्धान्तप्रसिद्धाः कायोत्सर्गाः सुकृतिभिः-यक्षा-गोष्ठामाहिलादिसम्बन्धे सङघेन स्क्स्वकार्यसम्बन्धे महासतीसुभद्राप्रभृतिभिश्च कृताः ॥१६॥
मिथ्यात्वमत्रकान्ते हि, सामग्रयाः कार्यहेतुता ।
ते तदौचित्यसङकेता-वोहन्ते श्रावकादिवत् ।।१७॥ व्याख्या-हिर्यस्मात्कारणादत्र-जिनशासने, सर्वत्रकान्तेएकान्तपक्षे सति मिथ्यात्वं भवति । 'सामग्रयाः क र्यहेतुता' सामग्री विना कार्य किमपि न निष्पद्यते । अत्र स्ववासनयव सम्यग्दृष्टयो देवाः शासनकार्यं कुर्वन्तीति मननमित्येकान्तपक्षः ।
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सप्तमो विश्रामः
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वासनावतामपि सम्यगदृष्टिदेवानां कायोत्सर्गकरणौचित्यसङकेताभ्यां शासनकार्यकरणोद्यतः स्यादिति मननं सामग्रीपक्षः, तत्तस्मात् कारणात्ते देवा मौचित्यसङकेतौ ईहन्ते-स्पृहयन्ति, श्रावकादिवत् । यथा कस्मिंश्चिच्छासनकार्य प्रारब्धे श्रावकश्राविकादयोऽप्यौचित्यं सङकेतं च स्पृहयन्ति। औचित्यं नाम धर्मप्रवृत्तिनिर्वहणकुशलाऽलापादि । सङकेतो नाम शासनकार्यस्य शापनाभिज्ञानम् । श्रावकास्सम्यग्दृष्टयो देवाश्च देशविरतत्वादवि रतत्वाच्च प्रमादपरवशा औचित्यसङकेताभ्यामेव प्रोत्साहितास्सन्त सासनकार्ये प्रवर्तन्ते । औचित्यसङकेतरूपोष्यं तुर्योत्सर्गस्ततः कर्तव्य एवेति ।।१७।।
अनौचित्यान्मुवा सङघ-कायं कुर्यनं तेत्र यत् । असङकेतान्न जानन्ति, सङघकार्योद्भवं च यत् ॥१८॥ तेषां यक्षाकथासिद्धं, बलं शासनरक्षणे । तुर्योत्सर्गेण (ो न)यसत्ते, शासनोच्छेदपातकं ॥१९॥
युग्मम् । स्पष्टौ। विधीयते स्वयोत्सर्गों, यथा भवनदेवते।
ही शासनादे किम? तथा शासनदेवते ॥२०॥ व्याख्या-स्पष्टः। नवरं-प्रसङ्गागतमभिधीयते-सांवत्सरिकचतुर्मासकयोस्त्वदीयव्रतिभिः क्रियमाणक्षेत्रदेवताकायोत्सर्गवत् श्रीवास्वामिकृतपर्वतक्षेत्रदेवताकायोत्सर्गवच्च सङघकृतनित्यक्षेत्रदेवताकायोत्सर्गोऽप्यदुष्टः ॥२०॥
तुर्योत्सर्गः पर्वः कैश्चित, कार्यपि कदाप्यभूत् ।
आदेवाऽयमनोत्सर्गाशक्त्यादेस्त्वधना सदा ॥२१॥ व्याख्या-असौ तुर्योत्सर्गश्चतुर्थकायोत्सर्गः कार्ये सङघादिसम्बन्धिनि सति अग्रेपि-तीर्थकरकेवलिपूर्वधरादिकालेऽपि, कदापि
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गुरुतत्त्व प्रदीपे
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कस्मिंश्चित्प्रस्तावेऽभूत् कैः ? कैश्चित्पदेः "सासणदेवयाए करेमि काउस्सग्गं" इत्येवमादिभिः पदैरन्यतरैर्वा पदैरिछन्न सूत्रोक्तैरेव । माग्भूतभवनं कायोत्सर्गस्याऽस्य । यतस्सङ्घपादानां प्रवृत्तिर्नवीनापि नाss मविरोधिनी, किन्त्वागमानुयायिन्येव भवति । तु पुनरधुनावर्तमानकाले, सदा सर्वकालं चैत्यवन्दनाकृतसम्बद्धत्वात्प्रतिदिवसकरणीयत्वेन बभूव । कुतः कारणात् ?, आदेवाऽऽगमनोत्सर्गाशक्त्यादेः । आदेवाऽऽगमनं - शासनदेवताप्राप्ति यावत् या उत्सर्गस्य कायोत्सर्गस्य यशक्तिस्तस्याः । पूर्वं हि वज्रऋषभनाराचसंहननभावेन समुत्पन्ने
कार्ये देवतासमाममे सति कायोत्सर्गं पारयिष्यामीत्यभिग्रहग्रहणशक्तिस्सषपादानामासीत् । साम्प्रतं छेदपृष्टसंहननभावेन तथाविवशक्तेरभावादादिशब्दात्कालस्योपसर्गबहुलत्वान्निरतिशयत्वाच्च
१२२.
कार्यस्य सदव भवनेन अन्यतरस्मात् कुतश्चित्कारणाद्वा कायोत्सर्गस्यास्य सर्वकालकरणमाचीर्णं । सङ्घस्य प्रकटसाहाय्याकरणाद्देवतानामपि कालवैषम्येन प्रकटसाहाय्यकर्तव्याप्राप्तेः प्रच्छसाहाय्येन जिनशासनस्यैवंविधप्रवर्त्तनात् । ननु यदि कालवैषम्यं प्रमाणं ततः कालस्य सानुकूलतयैव शासनस्यैवंविधप्रवर्तनात् किं देवता साहाय्येन ? नैवं वाच्यं मिथ्यात्वभावात् । यतो यापि कालादीनां सानुकूलता सापि पुरुषदेवता साहाय्यमन्तरेणाकिञ्चित्क्ररी स्यात् । यदाह-कालसहावो नियई, पुष्वकयं पुरिसकारणेगता ।' मिच्छतं ते चेव उ, समासओ हुति सम्मत्तं ॥ १ ॥ [ सम्मति० ] ॥२१॥ असौ सङघकृतेस्सूत्र सङ्घ सूत्रकृतोर्यतः ।
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स्वयं भले त्यादौन, सूत्रेप्युक्तं मिथोऽन्तरम् ||२२|| व्याख्या - असौ चतुर्थ: कायोत्सर्गस्सूत्रमागमः परिज्ञेयः । कस्मात ?, सङ्घकृतेः - सङघेन कृतत्वात् यतो यस्मात्कारणात्, सङ्घसूत्रकृतो: सङ्घस्य सूत्रकृतः - सिद्धान्तकारस्य च मिथ:
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सप्तमो विश्रामः
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१२३
परस्परं, अन्तरं भगवता न प्रोक्तं । क्व ?, 'तीर्थं भदन्ते' स्यादौसूत्रे । यदाह - 'तित्यं भंते! तित्थं तित्थकरे तित्थं ? । गोयमा ! अरहा ताव नियमा तित्थकरे, तित्यं पुण चाउवण्णो समणसंघो पढमगणहरो बा' । [ भगवती ] ततस्सिद्धं “ वेयावच्चगराणं संतिगराणं सम्मछिट्टिसमाहिकराण" इति चतुर्णां पदानां सङ्घकृतत्वेन सूत्रत्वम् । प्रभुश्री हरिभद्रसूरिपादैर्ललितविस्तरायामेतेषां चतुर्णां पदानां व्याख्यानस्य पुरत ' इति वृद्धसम्प्रदाय' इत्युक्ताक्षराणामनुसारेण पञ्चाशकवृत्तौ चतुर्थी स्तुतिः किल अर्वाचीना' इति नवाङ्गवृत्तिकारोक्तानुसारेण च मयात्रेत्युक्तम् । यतो बाध्यबाधकयोर्बाधको विधिर्बलवान् । अत्र सिद्धान्तस्याक्षरमात्रमेव बाध्यः, वृद्ध सम्प्रदायो बाधकः, प्रमाणत्वेन महात्मनामनुल्लङ्घनीयत्वात्, वृद्धसम्प्रदायरूपतुर्योत्सर्गस्यास्य चतुर्णां पदानां नूतनकर्तव्ये अथवा पुरा सन्तिष्ठमानानामेव स्तुतित्रयेण समं संयोजने वृद्धसम्प्रदायत्वघटनात् । सिद्धमत्रानृल्लङघनीयत्वमिति ||२२||
"
तथास्वभावतस्सङघ - तीर्थकृत्कृतमागमः ।
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'सूत्रं गणधरे' त्याबौ, नातः प्रायोऽर्थतः स यत् ॥२३॥ व्याख्या- 'सङ्घतीर्थ कृत्कृत' सङ्घेन तीर्थकृता च यत्किञ्चिस्कृतं स आगामोभण्यते कस्मात् ?, तथा स्वभावतः सङ्घतीर्थकृतोर्जल्पनस्य यथावस्थितस्वरूपत्वेनानुत्सूत्र तयाऽऽगमभवनभावात् -सूत्र गणधरेत्यादौ "सुत्तं गणहरइयं तहेव पत्तेयबुद्धरइयं च । सुयकेवलिणा रइयं अभिनदसपूव्विणा रइयं ॥१॥ अस्मिन् सूत्रे यथा - तित्थगररइयं सुतं इति नोक्तं, तथा सङघरइयं सुतं इत्यपि नोक्तं । अतोऽस्मात्कारणात्, यद्यस्मात्कारणात् प्रायो- बाहुल्येन, 'सतीर्थकृत्कृत आगमोऽर्थस्वरूपो भवति । "अत्थं भासइ अरिहा" इति वचनात् " बहुमणुमयमेयमायरिय" मिति वचनाच्च । किमुक्तं
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
भवति - आगमो हि द्विविध:- सूत्ररूपोऽर्थरूपश्च । अस्यां गाथायां सूत्राऽऽगमकारिण एव प्रोक्ताः । अर्थाऽऽगमकारिणा हि सङ्घलीर्थकरी प्रायः । अतोऽस्यां गाथायामनुक्तत्वेऽपि तत्कृतस्यान्यस्यापि सूत्रत्व सिद्धेरसी तुर्योत्सर्ग स्त्रिपदीवद् बन्धरूपत्वेन सूत्रतया सिद्ध इति ॥२३॥ इयं ते त्रिस्तुतिव्यक्ति - राजगामाऽऽगमात्कुत: ? । त्वद्गुरुः प्राग् व्रतं भङ्क्त्वा, जग्राहोत्थापनां कुतः ? ||२४|| व्याख्या - अहो त्रिस्तुतिक ! भवान् अक्षरमात्ररुचिविद्यते । तत इयं त्रिस्तुतिव्यक्तिस्ते तव, कुतः कस्मात् आगमादाजगाम ? स्तुतित्रयस्य सामान्यमात्रं भवत्सम्मते आगमे तिष्ठति । यदाहनिस्सकडमनिस्सकडे वा चेईए सन्वहि थुई तिनि । बेलं व चेइयाणि # नाउं इक्किक्किया वावि ॥ १॥ तिनि बा कडढ़ई जाव ईओ तिसिलोईया | ताब तत्थं अणुन्नायं कारणेण परेण वि || २ || शेषा व्यक्तिः यथा त्वया विधीयमानास्ते, तथा कस्मिनागमे तिष्ठतीति विचार्यमास्ते । ईर्यापथिव्यामप्रतिक्रान्तायां न युक्तं ' सामायिकादानं । उक्तं च महानिशीथे - " गोअमा ! णं अडिक्कताए इरियावहियाए न कप्पइ किचिवि चिइवंदणसज्ज्ञायाइयं काउं" मूलावश्यकेप्युक्तं "इरियावहिया पडिक्कमिज्जइ, तओ चेइआई वंदिज्जंति" । चैत्यवन्दनाभणनेन समतापरिणामं विना श्रद्धादीनामनुत्पादेन, स्वाध्यायभणनेन पञ्चपरमेष्ठिरूपस्वाध्याय संयुक्तत्वेनादिशब्दभणनेन तज्जातीयत्वेन सामायिकस्य लब्धत्वात् । तथा शक्रस्तवस्यैकस्याः कस्याश्चिद्वाचनाया अनङ्गीकारे आममोल्लङ्घनं "जेअ अईआ सिद्धा" इत्याद्यऽपठतस्सधोल्लङ्घनं च तवाढौकितम् । इत्थं विचार्यमाणं " अरिहंतचे ईआणं" इत्याद्यपि सर्व्वं विशीर्यते । यक्तियक्तामाचार्यपरम्परां वयमपि
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सप्तमो विश्रामः
१२५ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm मन्यामहे इति चेत् , ततो युक्तियुक्तेयं चतुर्थी स्तुतिः। पुरापि कारणे कृता सम्प्रत्यपि कारणे क्रियमाणत्वादाचार्यपरम्पराऽध्याता च । अथ वयं निजगुरोः परम्परां मन्यामहे इतिचेत् । ततो 'ग्रामो नास्ति कुत: सीमा'" तव प्रथमं गुरुरेव न, कुतस्तस्य परम्परा । यतस्त्वद्गुरुः प्राक् व्रतं-राकाञ्चलरूपं, प्रथमं व्रतं भडकत्वा उत्थापनां त्रिस्तुतिरूपां कुतः-कस्मात् गुरोर्जग्राह । यतस्त्वद्गुर्वोः प्रथममताऽऽकर्षकयोदेवभद्रसूरिशीलगणसूर्योरन्यतरा गुणागुणविचारणा दूरतस्तिष्ठतु, बात्यवेषमात्रमपि न युक्तिपदवीमारोहति । यतः प्रथमं चन्द्रप्रभसूरिणा चतुर्दशीरूपं चारित्रं भग्नम् । ततस्तच्छिष्याज्ञा भग्नबतानामन्तिके त्वद्गुरुभ्यां वेष उपात्तः । ततस्साषि वेषकुप्रतिज्ञाञ्चलाऽऽदानेन भग्ना । ततस्सापि कुत्सिततराञ्चलप्रतिज्ञापि त्रिस्तुतिग्रहणेन भग्ना । तत एतयोस्त्वद्गुर्वोः का नाम परम्परा युक्तियुक्ता स्यात् ? ॥२४॥
भवान् मियो विरोधादि-शासनोडाहकृत्वमी। . तुर्यस्तुत्याऽधुनाऽऽचार्य-रानामात्याः प्रभावकाः ॥२५॥ व्याख्या-भवान् मिथ:-परस्परं, वतिनां मध्ये एकश्चतुईशीपक्षसङघो, द्वितीयस्त्वत्पक्षस्सअघबाह्मः, एवंविषविरोधः, आदिशब्दाल्लोकानां चेतसि परस्परमप्येते मत्सरिणः, क आराधक: को विराधकश्चेति शासनोड्डाहकारी चतुर्थस्तुतित्यागेन बभूव । इहलोके तवापि प्रत्यक्षमेतत् । परलोके विरुद्धमेतदित्यन्तरात्मना जानम्नपि स्वाभिनिवेशेन न मन्यसे इति भवद्वयं फलस्य प्रदर्शनं तव बभूव । तु-पुनरमी आचार्य राजामात्याः । आचार्या-नवाङ्गवृत्तिकारश्रीअभयदेवसूरि-वादीन्द्रश्रीदेवसूरि-राजगुरुश्रीहेमसूरिप्रभृतयो, राजानो-राजश्रीकुमारपालदेव-आचार्यश्रीजिनभद्रसूरिप्रतिबोधितजालन्धरदेशीयनगरकोट्टाख्यनगराधिपतिराजश्रीअपूर्वचन्द्र-तत्सुत
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
राजश्रीरूपचन्द्रप्रभृतयः, उक्तं च-'षट्भेदभाषाकविचक्रवर्ती, षटतर्क सम्पर्कविशुद्धबुद्धिः। अपूर्वचन्द्राख्यनरेन्द्रपूज्यो, भट्टारकः श्रीजिन भद्रसूरिः ॥१॥ अमात्या महं श्रीबाहडदेव महं श्रीवस्तुपालश्रीतेजपाल-साधुश्रीपेथड-साधुश्रीरत्नसिंहप्रभृतयोऽधुना-वर्तमानकाले, तुर्यस्तुत्या तुर्यस्तुतिबहुमानेन भं:श्रीवयजलप्रभृतयश्च शासनप्रभावका अभूवन् । इहलोके तवाप्येतेषामेवावदातानि प्रत्यक्षाणि । अमीषामवदातानुमोदना तु परलोकेऽपि तवाध्यक्ष इव बभूव इति चतुःस्तुतिकानां भवद्वयस्यापि फलस्य प्रदर्शनं तवाभूदिति । सूचनात् सूत्रस्येत्यत्र स्तुतिग्रहणेन कायोत्सर्गग्रहणमपि द्रष्टव्यम् । तथात्र स्तुतिशब्दो न नमस्कारवाचकः, अन्यत्रापि 'नत्वा स्तुत्वा पूजयित्वा स्नानं कृत्वा जिनेश्वर' इत्यादावस्य पृथक्त्वदर्शनात्, "आमूलालोलधूली" इत्यादिषु नम इत्यक्षराणामदर्शनाच्च ।।२५॥
देवतोपेक्षितः पूजा-निषेधाद्दण्ड एषसः ।
या चैत्मे चतुर्मेलो, युष्माकं स्वकुबुद्धितः ॥२६॥ व्याख्या-युष्माकं स एष सङधकृतो दण्डो दृश्यते । यत् चैत्येजिनभवने. युष्माकं चतुर्मेलश्चतुर्णा व्रतिव्रतिनीश्रावकश्राविकाणां मेलो-मिलनं, न भवति । कस्याः ? 'स्वकुबुद्धितः' । स्वस्याल्मनः, कुत्सिता बुद्धिस्तस्याः । सघाऽऽज्ञाभङ्गलक्षणया स्वकुबुद्धया हि कुपाक्षिका मिलितास्सन्तस्सङघाच्चैत्यप्रपाटी विधातुं न लभन्ते । किविशिष्टो दण्डो ?, देवतोपेक्षितो देवताया-शासन-देवतया उपेक्षितः । शासनदेवता हि प्रष्टा सती तां काञ्चित्सुमति ददाति यमा कस्मिंश्चिद्धर्मकार्य स्खलना न. स्यात्। कस्मात् ?, पूजानिषेधात् । पूजानिषेधरूपं दूषणं पञ्चानामपि कुपाक्षिकाणां समानं द्रष्टव्यम् । अन्यदपि दूषणं शास्त्रेऽस्मिन् यदेकत्र स्थान एकस्य कुपाक्षिकस्योक्त, तद्यथासम्भवं सर्वेषामपि योजनीयम् ।
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सप्तमो विश्रामः
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युष्माभिस्तस्याः पूजानिषेधः कृतस्तया युष्माकं स्वस्वामिनो भवने मिलितानां समागमनं निषिद्धम् । खरतरानाश्रित्य पूजानिषेधोवीतरागपूजा निषेधो द्रष्टव्यः । अन्यतरेषामपि भगवदाज्ञात्रतिकूलानां सम्यग्दृष्टयो देवा दण्डं कुर्वन्त्येव । अत्राप्यास्माकोना पूजा भगवत्प्रणीत साधमिवात्सल्येऽन्तर्भवति, तन्निषेधे भगवदाज्ञा निषिद्धेत्यभिप्रायेण न स्वपूजा तृष्णया । चतुर्णां कुपाक्षिकाणां सम्यग् - दृष्टिभिर्देवैर्दण्डो विहितः । स्वपूजातृष्णया हि सम्यक्त्वहानि: स्यात् । श्रावका अपि शासनव्यवस्थास्थापनायौचित्यसङ्केता वीहन्ते, न स्वाभिमानपूरणाय, तेषामित्यमेव श्रावकत्वं स्यात् ||२६||
J
यद्दद्यात् कुर्मात रुष्टा, न चपेटां तु देव्यदः । जनेऽप्युक्तं न धोस्तत्ते, सावें तीर्थे श्रुते गुरी ( ? ) ॥२७॥ स्पष्टः यश्चाविघ्नस्तवाऽन्यत्र स पापस्थैर्यकारणम् ।
वेवैः कृतश्चेत्ततेऽपि निह, नवास्त्वन्मतोद्भवाः ॥२८॥ व्याख्या - अन्यत्र लोकमध्ये यस्तवाऽविघ्नो विघ्नाभावो दृश्यते । स तव 'पापस्थैर्य कारणं' पापस्योत्सूत्रप्ररूपणास्य, स्थैर्यं - स्थिरता, तस्य कारणं हेतुस्ततः स विघ्न एंव मन्तव्यः । यतः पापकर्मणि प्रवृत्तानां यो विघ्नस्स पापकर्माकरणत्वेन परमार्थतो विघ्नाभाव एव मन्तव्यः । यदाह - 'शुभोदय वैकल्य-मपि पापेषु कर्मसु । [ वीतरागस्तव: ] चेद्यदि सः अविघ्नो देवैर्युष्माकं कृतः । यतो युष्माकमप्यविसंवादिस्वप्नान्तरादि श्रूयते, मासक्षपणनिर्वहणादि दृश्यते च । अतस्तैः कृता निर्विघ्नतापि घटते । तत्तेऽपि देवा निवास्त्वया ज्ञातव्यास्तेषां साहाय्यं सम्यक्त्वकारि न स्यात् । किविशिष्टास्ते ?, त्वन्मतोद्भवाः ये त्रिस्तुतिका विपद्य देवयोनिषूत्पद्यन्ते तेषामनुलग्नपूर्वभवसंस्कारेण ||२८||
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गुरुतत्वप्रदीपे
न विद्यादेवतार्चा चेतत्कि विद्याधरवरैः ? ।
कृताऽस्त्यऽविरतश्राद्ध-वात्सल्योत्थमषं च ते ॥२९॥ । व्याख्या-चेद्-यदि, विद्यादेवता-गौर्याद्याः षोडश । अपरेऽपि सम्यग्दृष्टयो देवास्तेषां अर्चा-पुष्पादिपूजा, न बुध्यते । ततः किं विद्याधरः-शतसहस्रलक्षसङख्यवरैस्सम्यग्दृष्टिभिः कृता? । न हि पुष्पजापादिविद्यासाधनोपचारं विना विद्याः सिध्यन्ति। अत एव सम्यग्दृष्टिश्रावकाणामपि ऐहिककार्यसिद्धिस्पृहया सम्यग्दृष्टिदेवत्तापूजनं समुचितं, तस्यास्तथाभवनेन तेषां प्राणिघातकारम्भाऽऽतिनिवृत्तेः, गृहस्थानामहिककार्यसिद्धिमन्तरेणाऽऽमुप्मिककार्यसिद्धेरप्यभावात् । यस्सूत्रे इहलोकाऽऽशंसानिषेधस्स परत्र धर्मफल. मनुष्यभवनाभिलाषनिषेधः प्रोक्तः । सम्यग्दृष्टिदेवतापूजानिषेधे श्रावकाणां स्वकार्यसिद्धेरभवनेनापि तव पातकं स्यात् । तथा अविरतत्वात्तेषां देवानां त्वया पूजा निषिध्यते, अतोऽविरताः श्राद्धाः-श्रावकाः श्रेणिकादयस्तेषां यदवात्सल्यं-वात्सल्याकरणं, तदुत्थं-तत्समुत्पन्न, अघ-पातकं तवाऽस्ति-विद्यते, किमुक्तं भवतिश्रेणिककृष्णादिसार्मिकाणां पुष्पमालाप्रक्षेपादिवात्सल्यनिषेधे यत्पातकं स्यात्तत्तवाप्याढौकितं । ऐहिककार्यसिद्धिस्पृहामन्तरेणापि शासनप्रभावकगुणादेव भगवतोऽनन्तगुणस्य पूजाया हीनतरपूजया सम्यग्दृष्टिदेवतानां पूज्यमानत्वादिस्थमाशयभेदेन तत्पूजनस्यापि साधर्मिकवात्सल्यवन्मुक्तिफलत्वात् ॥२९॥
अशुद्धा न तथा प्रोक्ता, तेषामविरतिर्यतः ।
रक्षाशक्त्याऽधिकत्वं च, ततो युक्तेयमाचिती ॥३०॥
इति गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याये आगमिकनिरासो नाम सप्तमविश्रामः ॥७॥
___ इति गुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याये सप्तमविश्रामस्य विवरणं ॥७॥
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अष्टमो विश्रामः
१२९
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RANDRA
अष्टमो विधामः। कश्चिन्मुग्धो वदत्येव-विचारः कोऽत्र लिङिगषु ? ।
राजशासनमृतत्तद्, युक्तियुक्तं न भाति नः ॥१॥ व्याख्या-कश्चित्सोमनीतिकृद्दिगम्बरो मुग्ध एवं वदति-अत्र लिङ्गिषु-दर्शनिषु को विचारः? कोपि विचारो न कर्तव्य इत्यर्थः । कस्यामिव?, राजशासनमृद्वत्-राजादेशमृत्तिकायामिव, यदाह: राजशासनमृत्तिकायामिव को नाम लिङ्गिविचारः । तदेतस्य मुग्धस्यापि वचो नोऽस्माकं युक्तियुक्तं न भाति-प्रतिभासते.॥शा दिगम्बरवचसः खण्डनव्याख्यानेन युक्ति दर्शयन्नाह
यतिर्यातप्रतिको हि, पतिता मृत्तिकाऽत्र तत् । राजाज्ञाऽस्यां विचारः को-सम्बिग्धत्वाद् बहिःकृतिः ॥२॥
व्याख्या-हि-र्यस्मात्कारणात् यतितिप्रतिज्ञो-भ्रष्टप्रतिज्ञः, पतिता मृत्तिका-मृतोऽत्र-जिनशासने, भण्यते । 'सावज्जं जोगं पच्चक्खामी'ति भणित्वा पुनस्सावद्या सेवनेन भ्रष्टप्रतिज्ञस्य पञ्चत्वाप्तिभणनं युक्तमेव, उवतं च-“वरं प्रविष्टं ज्वलिते हताशने, न चापि भग्न चिरसञ्चितं व्रत । बरं हि मृत्युस्सुविशुद्धकर्मणा, न चापि शीलस्खलितस्य जीवितं ॥१॥ ततोऽस्यांपतितमृत्तिकायां, राजाजा-राजशासन राज्ञस्त्रिभुवनाधिपस्य वीतरागस्यादेशो विद्यते । अतो बहिःकृतिर्गच्छावहिःकरणं, अस्यां को विचारो ? विचारो न कर्तव्य इत्यर्थः । कस्मादसन्दिग्धत्वात्सन्देहाभावात् भविचारितेनैव व्रतभ्रष्ठो व्रती गच्छाब्दहिः कर्तव्य एव । जनैरपि मतगोमहिष्यादि पतितमृत्तिके ति कृत्वा राजाज्ञया-. राजनिग्रहभयेन विचाराकसव्यतयव स्वगृहादहिः करणीयमिति दिगम्बरोक्तस्य गद्यस्य खण्डनया युक्तिमानर्थो लभ्यते ॥२॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
पूज्यत्वं यदि वेषे तत्किं नमन्ति न साधवः ?।
पूजनीये न भेदोऽस्ति, श्राद्धसाध्वोर्यतस्सदा ॥३॥ व्याख्या-यदि वेषे पूज्यत्वं-पूजनीयत्वं ततस्साधवश्चारित्रिणो वेषे किं न नमस्कुर्वन्ति ? यतस्सदा-सर्वदा, श्राद्धचारित्रिणोः पूजनीये वस्तुनि भेदः-पृथक्त्वं न अस्ति-विद्यते, यत् श्राद्धस्य पूजनीयं, तत्तत् साधोरपि पूजनीयं यदि । रजोहरणमुखबग्त्रिकादिमात्रमेव चारित्रव्यतिरिक्तमपि श्रावकस्य पूजनीयं ततःसाधोरपि पूजनीयमेव स्यात् ॥३॥
सांधवः प्रत्युत्तस्य, कुर्वन्त्याशातना सहा।
तद्रागं च न कुर्वन्ति, त्वदीये त्वन ! पूजनम् ॥४॥ व्याख्या-प्रत्युत साघव एतस्य वेषस्य सदा आशातनां परिधानादिना कुर्वन्ति । तथा तद्रागं-तस्य रागं न कुर्वन्ति । आशातनाकरणात् प्रशस्तस्यापि रागस्याकरणाच्च । वेषे साधूनामपूजनीयत्वमेवेत्यर्थः। तु-पुनः, हे अज्ञ-मूर्ख !, मुग्धश्राद्धस्य सम्बोधनमिदं । त्वदीये वेषस्य पूजनं । तवेत्थमेषा मुग्धतेव, न विवेकिता ॥४॥
P: कुलकमायातः, प्रमा चेत्तद्धियानया। योजितोपि मियात्वं, तच्चारित्री गुरुः प्रमा ॥५॥स्पष्टः।।
अज्ञानेन मया यं, साध्यसाध्योर्मनः कथं ? । व्यवहारनयस्तीर्थे, सचराचरलोकवत् ॥६॥ व्याख्या-पूर्वार्द्धन परपृच्छा। उच्यते-तीर्थे व्यवहारनयः प्रमाणं, यदाह-जइ जिणमयं पवज्जह, ता मा व्यवहारनिच्छयं भयह । ववहारन यच्छेए तित्थुच्छेओ मुणेयव्वो ॥१।। कस्मिन्निव ?, सचराचरलोकवत् । यथा सचराचरलोके व्यबहारनयः प्रमाणं, तथा सङधेऽपि ॥६॥
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सचराचरलोकव्यवहारमाह
तत्रापराधी यः स्यात् स, शुद्धचित्तोऽपि बाध्यते । निरागा दुष्टचित्तोऽपि मन्यतेऽज्ञातमानसः ॥७॥
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व्याख्या- तत्र-सचराचरलोके, योऽपराधी-प्रकटापराधी स्यात्, स शुद्धचित्तोऽपि केन कुकर्मणा दुःकृतमिदमहङकाराय हा ! किमेत'न्मया कृतमित्यादिपरिणामोऽपि बाध्यते निरागा- बाह्यवृत्त्या निरपराधो, दुष्टचित्तोपि खात्रखननाद्यमहं करिष्यामीत्यभिप्रायोपि अज्ञातमानसस्सन् मान्यते व्यवहारे मन्यते । तथा यतिरपि बाह्यषजीवनिकायवषकः शुद्धचित्तोप्यवन्दनीयः । बाह्यषड्जीवनिकायरक्षोऽशुद्धचित्तोपि वन्दनीयः । उभयोरपि चित्तयोर प्रत्यक्षत्वात् ॥७॥
दुः करत्वान्महात्मान्त-विक्रियस्सत्क्रियः कथम् ? | सहस्त्रेषु तथाथ स्यादेकः कोऽपि परेऽपि किम् ? ॥८॥
व्याख्या - महात्मा चारित्री, यदि अन्तविक्रियो दुष्टचित्तस्ततः कथं सत्क्रियो बहिश्चारित्री, बाह्यसत्क्रियादर्शने चित्तान्त: शुद्धपरिणामो लभ्यते इत्यर्थः । कथमित्याह- दुःकरं चारित्रं इति हेतोः । अथ सहस्रेषु सहस्राणां मध्ये, एकः कोऽपि उदायिनृपमारका दिसदृशः तथा दुष्टचित्तः स्यात्, ततः किं परेऽपि सर्वेऽपि दुष्टचित्ताः ? शेषाः शुद्धचित्ता एवेत्यर्थः । अतो बाह्यक्रियां निरीक्ष्य नमस्कर्तुः पुण्यमेवेति ||८||
चित्तशुद्धिस्तवाप्याऽऽस्ते, यदि कृत्ये कियत्यपि । सर्वेष्वपि हि कृत्येषु सिद्धा सा तन्महात्मनाम् ॥९॥ व्याख्या - अहो पार्श्वस्थ ! तवापि यदि कियत्यपि कृत्ये - अभक्ष्यभक्षणादिके चित्तशुद्धिरास्ते । उत्तरार्द्धं स्पष्टं ॥ ९ ॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
१३२
ine
क्षेत्रे यत्राऽऽगमस्तत्र, चारित्रं स्याद् यदुच्यते । - तीर्थ विना न निर्गन्ध-स्सूत्रार्थी तीर्थमागमे ॥१०॥
व्याख्या-अहो पार्श्वस्थ ! यत्र-यस्मिन् क्षेत्रे आगमस्तत्र चारित्रं स्यात् । अस्यां गूर्जरधरित्र्यां आगमो वर्तते । भवतोऽपि सम्मतमेतत् । तदत्रा वश्यं चारित्रेणापि भवितव्यमित्यर्थः। किमित्याह-यत् आगमे उच्यते-निर्ग्रन्थविना तीर्थं न भवति । यदाह-न विणा तित्थं नियंठेहिं नातित्था य नियंठया। छक्कायसंजमो जाव ताव अणुसज्जणा दुण्हं ॥शा तीर्थं सूत्रार्थो । तीर्थशब्देन सूत्रार्थो उच्यते । यदाह-सुयधम्मतित्थमग्गो पावयणं पवयणं च एगट्टा इति सूत्रार्थयो मानि, न वक्तव्यमेतत् त्वया, यदधुना चारित्रं कृतस्तिष्ठतीति ? ॥१०॥
श्रद्धानं ज्ञानहीनं न, न श्रद्धानं विनाऽऽगमः । जानश्रद्धानयोस्सिद्धिरेवं स्याद् गूर्जरावनौ ॥११॥
एष केषाञ्चिदादेश-स्ताभ्यां तीथं प्रवर्तते । छिन्नं चरित्रं तेषां तु, चत्वारो भारिकाः श्रुते ॥१२॥ युग्मम्
व्याख्या-श्रद्धानं-सम्यक्त्वं, ज्ञानहीनं न स्यात् । श्रद्धानं विना आगमो न भवति, श्रद्धानवद्भिरेवाऽऽगमस्य विस्तार्यमाणत्वात् । अतो गर्जरावनौ आगमदर्शनेन ज्ञानश्रद्धानयोस्सिद्धिर्भवत्सम्मता स्यात् । ततः केषाञ्चिदाचार्याणां एष आदेशो-यत्ताभ्यां-ज्ञानदर्शनाभ्यां तीर्थं प्रवर्तते । चारित्रं छिन्नं-त्रुटितं । तु-पुनस्तेषांमाचार्याणां श्रुते-सिद्धान्ते, चत्वारो भारिकाः प्रायश्चित्तं. उक्तम् । अधुना चारित्रं न वर्तते इति जल्पकस्य चत्वारो भारिकाः प्रायश्चित्तमायातीत्यर्थः । यदाह-केसिंचि य आएसो, दसणनाणेहि कट्टई तित्थं । वुच्छिन्नं तु चरितं, वयमाणे भारिया चउरो ॥११॥१२॥ युग्मम् ।
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अष्टमो विश्रामः
सिद्धं चारित्रमत्रेत्थं, लक्ष्यते चाऽऽलयादिना ।
आपनदर्शनेस्तत्तु, गुरुशिष्यक्रमं प्रमा ॥१३॥ व्याख्या-इत्थममुना प्रकारेण अत्र-गूर्जरावनौ, कुत्रापि चारित्रं तिष्ठतीति सामान्यतश्चारित्रं सिद्धं । अथास्योपलक्षणमाहतच्चारित्रं आलयादिना लक्ष्यते-उपलक्ष्यते, यदाह-'आलएणं विहारेणं, ठाणाचंकमणेण य । सक्को सुविहिओ नाउं, भासावेणइएण य' ॥१॥ तत् कैरुपलक्ष्यते ?, आपन्नदर्शनैः-प्राप्तसम्यक्त्वजीवैः । पार्श्वस्थादयः आलयादिबाह्यकरणं न मन्यन्ते । यदाह'आलएणं विहारेणं ठाणा चंकमणेण य । न सक्को सुविहिओ नाउं भासावेणइएण य ॥११॥ भरहो पसन्नचंदो, सब्भितरा बाहिरं उदाहरणं । दोसुप्पत्तिगुणकरं न तेसि बझं भवे करण' ॥२॥ प्रत्युक्तं च-पत्तेगबुद्धकरणे. चरणं नासंति जिणवरिंदाणं । आहच्चभावकहणे, पंचहि ठाणेहिं पासत्था ।।१॥ उम्मग्गदेसणाए चरणं नासंति जिणवरिंदाणं । वावण्णदंसणा खलु, न हुलब्भा तारिसा दर्छ ॥२॥ ( आवश्यकनियुवितः ) तु-पुनस्तथा चारित्रं 'गुरुशिष्यक्रम' गुरुणा-चारित्रिणा स्वहस्तेन दीक्षितः शिष्य एवंविधक्रमो यत्र, तत्प्रमा-प्रमाणं । एवं जिनबिम्ब स्थापनाचार्यादीनामेव, पुरतो मृहीतदीक्षाया गृहीतोत्थापनायाश्चाप्रामाण्यात् । तद्ग्राहकाणां क्रियापराणामपि अनवस्थितकोत्सूत्रतया देशतः पार्श्वस्थत्वाद्देशतस्सर्वतो यथाच्छन्दत्वात् अवस्थितकोत्सूत्रतया सङघबहिस्त्वात् . अमीषां मोक्षहेतुभाववृद्धरुपायस्याऽसत्त्वात्,यदाह'जो अखंडियचारित्तो, वयगणाउ जो उ गीयत्थो। तस्स सकासे दसण वयगहणं सोहिकरणं च ॥१॥ उक्तं चाष्टकेषु श्रीहरिभद्रसूरिपादै:--'अत एवागमज्ञोऽपि, दीक्षादानादिषु ध्रुवं । क्षमाश्रमणहस्तेने त्याह सर्वेषु कर्मसु ॥१॥ इदं तु यस्य नास्त्येव, स मोपायेऽपि वर्तते । भाववृद्धः स्वपरयोर्गुणाद्यज्ञस्य सा कुतः ?।।२॥ [ अष्टकम् ] ॥१३॥
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गुरुतत्त्वप्रदीपे
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एतत्तु क्षेमकीर्त्याद्ये व्बशठत्वाद्यथाऽऽगमम् ।
चेत्प्राग् ने भ्यस्तपोवडूम-स्तनाऽर्वाक् पद्मनाभतः ॥ १४॥ व्याख्या - एतद् गुरुशिष्यक्रमं चारित्रं क्षेमकीर्त्याद्येषु आचार्यश्री विजयचन्द्रसूरिशिष्याऽऽचार्यश्रीक्षेमकी तिसूरिप्रभृतिषु विशिष्टं यथागमं आगमानतिक्रमेण, कस्मात् ?, अशठत्वात् यथाशक्तिचर्यातः । एवमधुनाऽगमप्रमाणेन चारित्रं न वर्तते यत्केचिदिति वदन्ति तदुत्सूत्रमेव " असढो सव्वत्थ चारित्ती" इति वाक्यतः । अत्राहुः कुपाक्षिकाः- तपोवन्तोऽपि पश्चात्याः उच्यते एभ्यस्तपोवन य प्राक् पूर्वं चारित्रं नासीत् इतिचेत्, ततः पद्मनाभ तो भविष्यत्तीर्थकरात् अर्वाक् चारित्र न भवति, व्यवच्छिन्नस्य चारित्रस्य तीर्थकरे एवोत्पादात् दृश्यते च चारित्रं भवत्सम्मतं तपोवत्सु । अतस्त्रिभुवनगुरोः श्रीमहावीरात् गुरुशिष्य क्रमेणाऽऽगतमेतदेतेष्विति बलादापन्नम् ||१४|
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स्वावधि तच्च क्षेत्रेऽत्रा - प्रतोप्येभ्यो भविष्यति । स्तोकेष्वप्येषु चारित्रं वज्यदुः प्रसहादिवत् ||१५|| व्याख्या - तच्चारित्रं स्वावधि निजावधि यावत्, अत्रास्मिन् क्षेत्रे - गूर्जरावनिप्रभृतिके, अग्रतो एभ्यस्तपोवद्ध यो भविष्यति । य एभिस्तपोवद्भिर्दीक्षितास्त एव चारित्रिण इत्यर्थः । इति बलादापन्नं । एषु तपोवत्सु स्तोकेष्वपि तपोवत्सु चारित्रमरित । न चात्रेदमाशङ्कनीयं यत् अपरं सर्वमप्यचारित्रं, एकस्मिन्नेवास्मिन् गच्छे चारित्रमिति कथं घटते ? 'वज्र' 'त्यादि । यथा प्रभुश्रीवयस्वामिशिष्ये व वज्रसेने, एकस्मिन्नपि चारित्रं अभूत् । तथा यथा दुःप्रसहाऽऽचार्येऽल्पपरिवारेऽपि चारित्रं भविष्यति, तथैष्वपि स्तोकेषु चारित्रं सिद्धमिति ।। १५ ।।
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अष्टमो विश्रामः
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गत्या गतिमिते क्षेत्रेतान्यगच्छे हि नाऽऽप्यते ।
एभ्यो विशिष्टतेष्वेवा-शठत्वाप्तिर्बलात्ततः ॥१६॥ व्याख्या-अत्रास्मिन् क्षेत्रे गतिमिते-मालवक-देवगिरितिलङ्गप्रभृतिके, हि-यस्मात् कारणात, अन्यगच्छे-तपोवद्गच्छव्यतिरिक्ते, एभ्यस्तपोवद्भयो, विशिष्टता-दुःकरकारिता न दृश्यतेन श्रूयते । तत एष्वेव तपोवत्स्वेव बलात् अशठत्वाप्तिः ॥१६॥
अतिचारः कषायाधस्तः प्रमत्ताप्रमत्ततः। बकुशादिषु मिथ्येषु, द्विः प्रतिक्रमणाविनाः॥१७॥ व्याख्या-एषु तपोवत्सु 'बकुशादिषु' बकुशेषु आदिशब्दा, कुशीलेषु तैस्सज्वलन : कषायाः कषायः क्रोधः ॥१०॥
पुनर्घनातिचारत्वा-च्चारित्रं नोज्वलं यथा । वासो धनमलं धोतं, ब्रह्मलोकाविनष्वतः ॥१८॥ व्याख्या-यद्यप्येषु तपोवत्सु चारित्रं द्विः प्रतिक्रमणादिना शुद्धं स्यात् पुनस्तथापि घनातिचारत्वात् घना-निबिडा, घनतरा वा येतिचारास्तः परस्परममीषां कषायभावात् कुतश्चारित्रमिति ये वदन्ति । ते उत्सूत्रप्ररूपका ज्ञातव्याः । 'किं सक्का वुत्तुं जे, सरागधम्ममि कोइ अकसाओ । जो पुण धरिज्ज धणियं, दुव्वयणुज्जालिए स मुणी' ॥१॥ [उप० माला] इति वचनादपि बहिः कषायफलादर्शनेनामीषां चारित्रसिद्धिरेवेति ॥१८॥
..... केवलज्ञानिनं विना सन्देहव्यपोहकस्याभाव... वचने न दूषणं इति मुग्धजनोक्तं उत्थापयन्नाह
दुष्टाः कुपक्षाः केबल्य-भावेऽपि यज्जिननंतः ।
ज्ञानोत्तमश्रुतज्ञान-स्सङ्घसङधक्रमोस्त्यसौ ॥१९॥ व्याख्या-अहो मुग्ध ! केवलज्ञानिनोभावेऽपि अमी कुपक्षा दुष्टाः, अमीषां कुपक्षाणां निजपक्षाकर्षणाद्दषणाः ......... केलिभिनतो-नमस्कृतोऽसौ-प्रत्यक्षोपलक्ष्यमाणस्तपोवतां सङघो
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गरवस्वप्रदीपे
विद्यते। किंविशिष्ट: ? ज्ञानोत्तमश्रुतज्ञान:-आरितकत्वेनोत्तम यत् श्रुतज्ञानं तद्विद्यते यस्य म। ततोऽस्य सङघस्यानुगामित्वमेवामीषांम् । उक्तं चोत्तराध्ययनस्य दशमाध्ययने-“नहु जिणे अज्ज दीसइ बहुमय दीसइ मग्गदेसिए । संपइ नेयाउए पहे समयं गोयम! मा पमायए" ॥१॥ 'नह' नैव,जिमस्तीर्थकृदद्यारिमन्काले दृश्यते। यद्यपीति गम्यते । तथापि 'बहुमबसि पन्थाः। स च द्रव्यतो नगरादिमार्गो, भावतो ज्ञानदर्शनचारित्रात्मको मुक्तिमार्गः। स परिगृह्यते । स घृश्यते 'मग्गदेसिय'त्ति मार्यमाणस्वान्मार्गों मोक्षस्तस्य 'देसिय'त्ति सूत्रत्वाद्देश को मार्गदेशकः (नच) एवंविधोऽयमतीन्द्रियार्थदर्शिनं जिनं विना सम्भवतीत्यसन्दिग्धचेतसों भाविनोपि भव्या न प्रमादं विधास्यन्त्यत: (सम्प्रति) मयीति भाव: । नैयायिके-निश्चयमुक्त्याख्यलाभप्रयोजने, पथि समयमपि गौतम ! मा प्रमादी-रित्यं च व्याख्या सूत्रार्थः । अस्यामपि गाथायां तीर्थकरव्यवच्छेदे यो बहुमतो मार्गस्तस्मिन् प्रमादो न विधेय इत्युक्तं । ततस्तपोवन्मा मार्गस्यैव बहु, . . . . . इजइ असढभावं । तथा यदस्मिन्नपि काले एवंविधमेते यतन्ते, ततो लघुकर्माण एव । यदाह-"कल्याणसिद्धय साधीयान्, कलिरेव कषोपलः । विनाग्नि गन्धमहिमा, काकतुण्डस्य नैधते ॥१॥ [वीतरागस्तवः]
सर्वसिद्धान्तसन्मूल-राजमार्गप्रदर्शकः । गुरुतस्वप्रदीपोऽयं, कृतः शासनसोधभाक् ॥२०॥ कृतेप्यागमयुक्तिभ्यां, गोतासहितेपि यत् ।
अनाभोगादिहोत्सूत्र, तन्मिण्यावुःकृतं मम ॥२१॥
इति श्रीगुरुतत्त्वप्रदोपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याय चारित्रस्थापना नामाष्टमविश्रामः ॥८॥ ग्रं. २४६
इति श्रीगुरुतत्त्वप्रदीपे उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्याये चारित्रस्थापना नामाऽष्टमविश्रामस्य विवरणं सम्पूर्णमिति ग्रं. १९५२
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प्रशस्तिः
१३७
प्रशस्तिः ।
अयमुत्सूत्रकन्दकुद्दालापरपर्यायः गुरुतत्त्वप्रदीपनामा ग्रन्थः पत्तननगरे पं० श्रीविमलसागरगणि-पं० श्रीज्ञानविमलगणिविनयसागरगणि- विवेकविमलगणि-('घोघषिरित्यपरनामेति'-प्रसिद्धिः) भिर्यथादृष्टो यथावगतश्च जीर्णताडीयपुस्तकाल्लिपिकरणद्वारा त्वरितमुद्धृतः । तन्निदानं चेदं-नारदपुर्यां सर्वपण्डितशिरोमणीयमानमहोपाध्यायश्रीधर्मसागरगणिभिस्तत्त्वतरङ्गिणीनाम्नि प्रकरणे विरचिते खरतरतरर्वयं निह नवत्वेनात्र प्रकरणे प्रकीर्तिता इति स्वयमेव प्रलपद्भिः कलहायितमाकलय्य महोपाध्यायश्रीधर्मसागरगणिभिर्व्यचिन्ति-अयं वाग्विलासो दिव्यानुभावादेव प्रादुर्भूतः। ततः ठा० सदयवच्छगृहे विनयसागरगणयो जीर्णताडीयपुस्तकभाण्डागारशुद्धयर्थं नियोजिताः । तैश्च तत्र गत्वा श्री महावीरशासनं जयत्विति प्रतिज्ञां कृत्वा च श्रीविजयदानसूरीश्वर-श्री हीरविजयसूरीश्वरनाम्नी स्मरद्भिः स्वहस्तविन्यासे शासनदेवतापितमिव प्रथमत इदमेव पुस्तकमवाप्तं । तत एतत्पुस्तकप्रवर्तनभीत्या खरतरहच्छालिकलिङ्गिकाः प्रेरिताः। तैश्चास्माकीनं पुस्तकमेतत्त्वरितमर्षयत्वन्यथा महती. राढि (हानि) भविष्यतीति कलहायितम् । तत्तस्तस्य पश्चादर्पणाय त्वरितं संवत् १६०६ (१६.१६) वर्षे आश्विनसिकत्रयोदश्यां लिखितम् । पश्चात् तत्त्वतरङ्गिण्यामप्येतद्ग्रन्थोक्तानुसारेण सभ्याऽऽशङकानिराकरणकादः प्रकारान्तरेण विरचितस्तत्प्रकरणकर्तृभिरिति विद्धद्वरैरेतद्ग्रन्थे वाच्यमाने यत्पुण्यं ततप्रशस्तिलिपिकर्मकर्तुः सकलवाचकशेखरमहोपध्याय-श्रीधर्मसाहायणिचरणाम्भोजचञ्चरीकायमाण-विवेकविमलस्याप्यनुमोदनद्रिावस्विक्ति भद्रं ।। लिपेः कुत्रापि दौलक्ष्यात्, पत्राणां
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गुरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलम्
क्वाप्यलाभतः । पङिक्तनां चान्यथाबोधा-दङकानां क्वाप्यदर्शनात् ॥१॥ न्यूनितोप्युपकार्येष, शासनस्येति निश्चितं । तस्मात्प्रत्यन्तरं दृष्ट्वा, शुद्धीकार्यः सुधीश्वरैः ॥२॥ युग्मम्
॥ इति गुरुतत्त्वप्रदीपप्रशस्तिः समाप्ता ।।
ॐ नमः पाश्र्वनाथाय ।
गुरुतत्त्वव्यवस्थापनवावस्थलम् । इह केचिद् धर्माथिनोऽपि काश्चिद् गाथाः केषाञ्चित्पावेऽधीत्य तदध्ययनादेव दुर्दैववशाज्जातमतिविपर्यासा एवं ब्रूवतेसम्प्रति ये साधवः कालोचितयतनया यतमानाः दृश्यन्ते, तेऽपि न वन्द्याः । पासत्थो ओसन्नो, होइ कुसीलो तहेव संसत्तो । अहछंदोवि य एए, अवंदणिज्जा जिण मयंमि ॥१॥ इत्यावश्यके। असुइटाणे पडिआ, चंपकमाला न कीरए सीसे। पासत्थाईठाणेसु वट्टमाणा तह अपूज्जा ॥१॥ तत्रैव । पासत्थोसन्नकुसील-नीय-संसत्तजणमहाछंदं । नाऊण तं सुविहिआ सव्वपयत्तेण वज्जति ॥१॥ इत्युपदेशमालायां।अत्रोत्तरं-ननु साम्प्रतीना:साधवः भवता कि पार्श्वस्था उच्यन्तेऽवसन्ना वा किंवा कुशीला उत संसक्ताः यद्वा यथाच्छन्दाः?। तत्र यदि पावस्थास्तदा सर्वतो देशतो वा? । न तावत्सर्वतः,तल्लक्षणं हि श्रीआवश्यकसूत्र एवं-सो पासत्थो दुविहो सव्वे देसे य होइ नायव्वो । सम्वमि नाण-दसण-चरणाण जो उ पासंमि ॥१॥ वृद्धा अपि सल्लक्षणमेवमाहुः-समिहिमहाकम्मं जलफलकुसुमाइ सव्व सचित्तं । निच्चदुतिवारभोयण-विगइलवंगाई तंबोल ॥२॥ वत्थं दुप्पडिलेहियमपमाणसकन्नियं दुकूलाइ । सिज्जावाणहवाहण आउयतंबाइ पत्ताइ ॥२॥ सिरतुंड खुरमुंडं रयहरमुहपत्तिधारणं कज्जे
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गुरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलम्
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१३९
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एगागित्तभमणं सच्छंदं चिट्ठिअं गीअं ॥३॥ चेइअमठाइवासं, आरंभाई निच्चवासित्तं । देवाइदव्त्रभोगं जिणहरमालाइकारवणं || ४ || हाणुवट्टणभूसं ववहारं गंधसंग्रहं कीलं । गामकुलाइममत्तं थीनट्टं थीपसंगं च ॥५॥ इत्थीण परिग्गहो वावि इतिवा पाठ: । निरयगइहे उजोइस निमित्त-तेगिच्छ मंतजोगाइ । मिच्छाइरायसेवं नीयाणवि पावसा हिज्जं || ६ || सुविहियसाहुपओसं तप्पासे धम्मकज्जपडिसेहं । सासणपभावणाए मच्छरल उडाइकलिकरणं ॥ ७ ॥ ससोदराइफोडणं भट्टित्तलो हहेउ गिहिथुणणं । जिणपडिमाकयविक्क य उच्चाटण खुद्दकरणाइ ||८|| थोकरफासं बंभे संदेहकलंतरेण दाणं च। विक्कयसीसग्गाहणं नीयकुलरसावि दब्वेण ॥११५ सव्वावज्जपवत्तण- मुहूत्तदाणाइ सव्वलोयाणं । सालाइ गिरिवरे वा खज्जगपाणाइकरणाई ॥ १० ॥ जक्खाइगुत्तदेवयपूआ - आत्रणाइ मिच्छत्तं । सम्मत्ताइनिसेहं तेसि मूल्लेण वा दाणं ||११|| इय बहुहा सावज्जं जिणपडिकुट्टु च गरहिअं लोए । जे सेवंति कुकम्मं करति कारिति निद्धम्मा || १२ || इहपरलोअहयाणं सासणं जसघाईण कुदिट्ठीणं । कह जिणदंसण मेसि को वेसो किं च नमणाइ ||१३|| इत्यादि । नचैवंविधलक्षणा एव साम्प्रतिकसाधवः सर्वेऽपि । केषाञ्चित् सम्प्रत्यपि सर्वशक्त्या यतिक्रियासु यतमानानां यतीनां दर्शनात् । अथ देशतः पार्श्वस्थास्तहि वदन्तु तल्लक्षणं आह- देसंमि य पासत्यो सिज्जायरभिहड-रायपिंडं च । निययं च अग्गपि भुंजई निक्कारणे चेव || १|| कुलनिस्साए विहरइ ठवणकुलाणि य अकारणे विसइ । संख डिपलोअणाए गच्छइ तह संथवं कुणइ ||२|| इत्यावश्यकोक्तं प्रसिद्धमेव । ननु एतत् सर्वं समुदितं तल्लक्षणं, पृथक् २ बा ? । न तावत् पृथक् २, एवं हि श्रीस्थूलभद्रादीनामपि कोशागृहे स्थितौ चतुर्मासीं यावत्तद्गृह एवाहार
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गुरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलम्
ग्रहणेन शय्यातरपिण्डदोषाद्देशपार्श्वस्थत्वप्रसङ्गः । यदुक्तं श्री आवश्यकबृहद्वृत्तौ योगसङग्रहेषु-'थूलभद्दसामीवि तत्थेव गणियाघरे भिक्खं गिण्हइ त्ति । अथ समुदितमिति पक्षस्तहि साम्प्रतिकसाधुष्वपि केषुचिच्छय्यातराऽभ्याहतराजपिण्डग्रहणादिरूपसमुदिततल्लक्षणस्याऽभावात्कथं देशपार्श्वस्थत्वम् ? । अनया दिशाश्वसनादित्वमपि निषेध्यं, निग्गंथ-सिणायाणं पुलागसहियाण तिण्हवुच्छेओ। समणा ब उसकुसीला जा तित्थं ताव होहिंति ॥१॥ तेषां चावश्यंभाविनः प्रमादजनिता दोषलवाः । यतस्तेषां द्वे गुणस्थानके प्रमत्ताप्रमत्ताख्ये अन्तर्मुहर्त्तकालमाने । तत्र यदा अमत्तगुणस्थानके वर्तते तदा प्रमादसद्भावादश्वश्यम्भाविनः सूक्ष्मदोपलवाः सायोः, परं यावत् सप्तमप्रायश्चित्ताऽपराधमापद्यते, "सावत् स चारित्रवानेव । ततः परं न चारित्रं स्यात् । तथा चोक्तं'छेयस्स जाव दाणं तावयमेगंपि नो अइक्कमइ । एगं अइक्कमंतो अहक्कमे पंच मूलेण ॥१॥ इति । तदेवं बकुशकुशीलेषु नियमभाविनो दोषलवाः। यदि च तैर्वर्जनीयो यति: ग्यादवर्जनीयस्ततो नास्त्येव, तदभावे च तीर्थस्याप्यभावप्रसङ्ग इति । इय भावियपरमत्था, मज्जत्था नियगुरुं न मुंचंति । सव्वगुणसंपओग, अप्पाजमवि अपिच्छंता। ।१॥ इत्यादि धर्मरत्नवृत्तौ २६० पत्रे । किञ्च-, हे सौम्य ! किमेवं मुधा सम्यकसिाद्धान्तनाभिज्ञोऽपि पाश्वंस्थत्वादिदोषारोपेण साम्प्रतिकसाधून दूषयसि । यतः श्रोनिशीथेसंतगुणछायणा (गासणा). खलु, परपरिवाओ भ होइ अलियन। धम्मे य अबहुमाणो साहुपओसे य संसारो॥१॥ ततः शृणु सम्बक तत्त्वं मात्सर्यमपहाय यदि मोक्षार्थ्यसि-शास्त्रे पुलाकादयः पञ्च निग्रंन्धाः । तत्र बकुशकुशीलौ सर्वतीर्थकसणां तीर्थ यावत् प्रवर्तते । तल्लक्षण चेदं श्री भगवती २५ शत, षष्ठोद्देशकार्थ
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गुरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलम्
सङ्ग्रहियां श्री अभयदेवसूरिकृतपञ्चनिर्ग्रन्थ सङ्ग्रहिण्यां, तथाहिबउस सबलं कब्बुरमेगट्ट तमिह जस्स चारितं । अइआरपंकभावा बउसो होइ निग्गंथो || १ || उवगरणसरीरेसु स दुहा दुविहो होइ पंचविहो । आभोग अणाभोगे अस्संवुड संवुडे सुहुमे ॥२॥ जो उबगरणे बउसो सो धुवइ अपाउसे वि वत्थाई । इच्छइ य सलण्डयाई किंचि विभूसाइ भुंजइ य ||३|| तह पत्तदंडयाई घट्ट मट्ठ सिणेहकयतेयं । धारेइ विभूसाए बहुं च पत्थेइ उवगरणं ||४|| देहब उसो अकज्जे करचरणनहाइयं विभूसेइ । दुविहो बि इमो इsि इच्छ६ परिवारपभिईयं ||५|| पंडिच्चतवाइकयं जसं च पत्थेइ तंभि तुस्सइ य । सुहशीलो न य वाढ, जय अहोरसकिरिया || ६ || परिवारो अ असंजम अविवित्तो होइ किंचि एयस्स । घंसियपाओ तिल्लाइमसिणिओ कत्तरियकेसो ॥७॥ तह देससव्वछेयारिहेहि सबले हि संजुओ बउसो । मोहक्वयत्यमन्भुद्वियो य सुत्तंमि भणियं च ||८|| उवगरणदेहचुक्खा रिद्धिजसगारवासिआ निच्चं । बहु- सबलछेयजुत्ता निग्गंधा बाउसा भणिआ || ९ || आभोगे जाणतो करेइ दोसं अजाणमणभोगे । मूलुत्तरेहिं संवुड विवरी असंवुडो होइ ॥ १०॥ अच्छिमुहमज्जमाणो होइ अहासुहुमओ तहा बउसो । सीलं चरणं तं जस्स कुच्छि सो इह कुसीलो ||११|| पडिसेवणा कसाए दुहा कुसीलो दुहावि पंचविहो । नाणे दंसणचरणे तवे अ अहसुहमए वेव ॥ १२॥ इह नाणाइकुसीलो उarti (बी) होइ नाणपभिईए । अहसुहुमो पुण तुस्सइ एस तवसित्ति संसाए || १३|| जो नाणदंसणतचे अणुजुंजइ कोहमाणमायाहि । सो नाणाइकुसीलो कसायओ होइ नायनो ५१४ ।। चारितमि कुसीलो कसायओ जो पयच्छइ सावं । मणसा कोहाईए निसेवयं हो अहासुमो ॥ १५ ॥ अहवाऽवि कसाएहि नाणाईणं विराहओ
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गरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलम
१४२
जो य। सो नाणाइकुसीलो नेओ वक्खाणभेएणं ॥१६॥ मूलुत्तरगुणविसया पडिसेवासेवए पुलाए अ। उत्तरगुणेसु बउसो सेसा पडिसेवणारहिया ।।१७॥ अत्र मूलोत्तर-गुणविषया विराधना पुलाके प्रतिसेवनाकुशीले वा, उत्तरगुणविषया च बकुशें, शेषाः प्रतिसेवनारहिताः इति । श्रीमदुत्तराध्ययनबृहद्वत्तावपि ६ अध्ययनेध्यमर्थः सविस्तरमुक्तोऽस्ति । तथा तत्रैव बकुशो द्विविधः उपकरणबकुशः शरीरबकुशश्च। तत्रोपकरणाभिष्वक्तचित्तो विविधविचित्रमहाधनोपकरणपरिग्रहयुक्तः (बहु) विशषो (षयुक्तो) पकरणकाक्षायुक्तः नित्यं तत्प्रति (संस्) कारसेवी भिक्षुरुपकरणबकुशो भवति । -शरीराभिष्वक्तचित्तो विभूषार्थ तत्प्रति (संस्)कारसेवी शरीरबकुशः । प्रतिसेवनाकुशीलो मूलगुणान् अबिराधयन् उत्तरगुणेषु काञ्चिद्विराधनां प्रतिसेवते । प्रज्ञप्तिस्तु-बउसे णं पुच्छा, जाव णो मूलगुणपडिसेवए होज्ज (उत्तरगुणपडिसेवए हुज्जा) पडिसेवणाकुशीले जहा पुलाए । अत्र च यत्पुलाकादीनां मूलोत्तरगुणविराधकत्वेपि निर्ग्रन्थत्वमुक्तं, तज्जधन्यतरोत्कृष्टोस्कृष्टतरादिभेदतः संयमस्थानानामसङख्यतया तदात्मकया च चारित्रपरिणतेरिति भावनीयम् । इत्युत्तराध्ययन [६] बृहद्वृत्तौ । तस्मादलं पावस्थादिलक्षणगवेषणक्लेशेन, किन्तु कालोचितयतनया यतमानाः साधवो बकुशकुशीलत्वं न व्यभिचरन्तीति वन्द्या एव । यदुक्तं श्रीजिनवल्लभसूरिभिदिशकुलक्यां-'कालाइदोशओ जइवि कहवि दीसंति तारिसा न जई ।, सव्वस्थ तहवि नस्थित्ति न चेव कुज्जा अणासासं ॥१॥ व्याख्या-कालो दु:षमा, आदिर्यस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावादेः, स चासो दोषश्च कालादिदोषः । यद्यपिकथमपि क्वापीत्यर्थः। दृश्यन्ते न तादृशाः पूर्वमुनिसमा यतस्तथापि सर्वत्रापि कालोचितयतनायुवता अपि न सन्तीति नैवाऽनाश्वासम
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गुरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलम्
नास्था विधेया इति । यतः कुग्गहकलंकरहिया जहसत्ति जहागमं च जयमाणा । जेण विशुद्धचरित्तत्ति वुत्तमरिहंतसमयंमि ॥१॥ व्याख्या-कुग्रह आगमविषयोऽनुष्ठानविषयश्च, स एव कलङकोदोषस्तेन रहिता यथाशक्ति यथागमं च यतमाना येन कारणेन विशुद्धचारित्रा-विशुद्धचारित्रिण उक्ता अर्हत्समये-जिनागमे, इतिहेतोरि(1)दंयुगीनेष्वपि साधुषु यथाशक्त्याऽऽगमानुसारितयोद्यमवत्सु सर्वथैव साधुबुद्धिविधेयेत्यर्थः । तथा-सम्मत्त-नाण-चरणाणुवाइमाणाणुगं च जं जत्थ । जाणिज्ज गुणं तं तत्थ पूअए परमभत्तीए ॥१॥ अत्र नोदक: प्राह-यदि मूलगुणानां नाशे उत्तरगुणानामपि नाशः, उत्तरगुणानां च नाशे मूलगणानामपि 'जो चयइ उत्तरगुणे अचिरेण कि सो चयइ' इत्यादिवचनात् । तस्मान्नव मूलगुणास्सन्ति नाप्युत्तरगुणास्तस्मात्स संयतो नास्ति, यो मूलोत्तरगुणानामन्यतमं गुणं [न] प्रतिसेवते, अन्यतमगुणप्रतिसेवने च मूलद्वयानामपि मूलोत्तरगुणानामभावस्तेषामभावे च सामायिकादिसंयमाभावस्तदभावे च बकुशादिनिर्ग्रन्थानामभावः। ततः प्राप्त तीर्थमचारित्रमिति । सूरिराह-चोयग ! छक्कायाणं तु संजमो जाणुधावए ताव । मूलगुण उत्तरगुणा दोण्णवि अणुधावए ताव ॥१॥ व्याख्या-नोदक ! यावत् षट्जीवनिकायेषु संयमोऽनुधावतिअनुगच्छति प्रबन्धेन वर्तते, तावन्मूलगुणा उत्तरगुणाश्च द्वयेऽप्यतेऽनुधावन्ति-प्रबन्धेन वर्तन्ते इति । व्यवहारप्रथमोद्देशकेऽपि-इत्तरसामाइअ-छेयसंजमा तह दुवे नियंठा य.। बउसपडिसेवगा ता अणुसज्जते अ जा तित्थं ॥१॥ यावत्मूलगुणा उत्तरगुणाश्चानुधावन्ति, तावदित्वरसामायिक-छेदसंयमावनुधावतः, यावच्चेत्वरसामायिकछेदोपस्थापनसंयमी, तावद् द्वौ निर्ग्रन्थावनुधावतः । तद्यथा-बकुशः प्रतिसेवकश्च । तथाहि-यावन्मूलगुणप्रतिसेवना तावत्प्रतिसेवको,
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गुरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलम्
"
यावदुरारगुणप्रतिसेवना तावद्वकुशः । ततो यावतीर्थं तावद्वकुशाः प्रतिसेव काश्चानुषञ्जन्ति-अनुवर्तन्ते । ततो नाऽचरित्रं प्रसक्तं प्रवचनमिति व्यवहारवृत्तौ १ उद्देशके १४१ पत्रे । न च पार्श्वस्मादीनामपि सर्वथा वन्द्यत्वमागमे, कारणे जाते प्रकटप्रतिसेविनामपि वन्द्यत्वाभिधानात् । तदुक्तमावश्यके - 'मुक्कधुरा सं पागडसेवी चरणकरणपब्भट्ठे । लिगावसेसमित्तं जं कीरइ तं पुणो वुच्छं ॥ १॥ वायाइ नमक्कारो हत्थुस्सेहो अ सीसनमणं च । संपुच्छsaणं खोभवंदणं बंदणं वा वि ॥ २ ॥ एयाई अकुतो जहारिह अरिदेसिए मग्गे । न भवइ पबयणभत्ती अभत्तिमतादयो दोसा ॥३॥ नन्वेतत्साधूनाश्रित्य न तु श्राद्धानैवं, 'उप्पन्नकारणमि वंरणयं जो न कुज्ज दुविहं पि । पासत्थाईयाणं उग्घाया तस चारि ॥ इति श्राद्धजीतकल्पे श्राद्धानप्याश्रित्य भणनात् । ननु किं नाम कारणं ? येन श्राद्धोऽपि पार्श्वस्थादीन् बन्दते । उच्यतेज्ञानादिग्रहणरूपग्रहणशिक्षाऽऽवश्यक विध्यादिशिक्षणरूपासेवना शिक्षे कारणतयोक्ते एवागमे । यदुक्तं श्रीव्यवहारप्रथमोद्देशकान्ते - चोयइ से परिवार अकरमाणे भाणेइ वा सड्ढे । अविच्छित्तिकरस्सओ सुलभत्ती कुणह यूयं ॥ १॥ इत्यादि । एतद्व्याख्या - प्रथमतः ' से ' तस्याऽऽलोचनाऽर्हस्य परिवारं वैयावृत्यादिकमकुर्वन्तं चोदयति - शिक्षयति-यथा ग्रहणासेवनानिष्णात एष, तल: विनयवैया : वृत्त्यादिकं क्रियमाणं महानिर्जराहेतुरिति । एवमपि शिष्यमाणो यदि न करोति, ततस्तस्मिन्न कुर्वाण स्वयमाहारादीनुत्पादयति । स्वयं शुद्धं प्रायोग्यमाहारादिकं न लभते ततः श्राद्धान् भणतिप्रज्ञापयति, प्रज्ञाप्य च तेभ्योऽकल्पिकमपि यतनया सम्पादयति न च वाच्यं तस्यैवं कुर्वतः कथं न दोष: ?, यत आह- 'अव्बोच्छि तीत्यादि । अव्यवच्छित्तिकरणस्य पावर्कस्थादेः श्रुतभक्त्या हेतु
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गुरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलम्
भूततयाऽकल्पिकस्याप्याहारादेः श्रुतभक्त्या पूजां कुरुत यूयं, न च तत्र दोषः । इयमत्रभावना - यथा कारणे पार्श्वस्थादीनां समीपे सूत्रमर्थं च गृहणतोऽकल्पिकमप्याहारदिकं यतनया तदर्थं प्रतिसेवमानः शुद्धः ग्रहणशिक्षाया: क्रियमाणत्वादेवमालोचनार्हस्यापि निमित्तं प्रतिसेवमानः शुद्ध एव आसेवनाशिक्षायास्तत्समीपे क्रियमाणत्वादिति । उपदेशमालायामपि - 'सुग्गइमग्गपईवं नाणं दितस्स हुज्ज किमदेय' मिति । ननु 'आलावो संवासो' इत्यादि वचनात् यै: सहाऽऽलापाद्यपि त्यज्यते, तेषां पार्श्वे ज्ञानग्रहणाद्रि कथं युज्यते ? । उच्यते - यदि तेभ्योऽधिकगुणाः साधवो लभ्यन्ते, तदा न युज्यते एव तेषां पार्श्वे ज्ञानग्रहणादि । तदभावे तु तेषामपि पार्श्व ज्ञानग्रहणादि युक्तमेव, आगमप्रामाण्यात् । यदि हि यदर्थं द्वादशवर्षं सुगुरून् प्रतीक्षते, साप्यालोचना गुर्वभावे पार्श्वस्थादिपार्श्वे ग्राह्यतयोक्ता 'आयरियाइ संगच्छे संभोइअ इयरगीयपासत्था । सारूवी पच्छाकडदेवयपडिमा अरिहसिद्धे ॥ १ ॥ इत्यादि जीतकल्पवचनात् तदानीं प्रतिदिनविधेयाऽऽवश्यक विधिशिक्षणादि तत्पार्श्वे सुतरां कार्यं शुद्धचारित्र्यभावे । नन्वेवं पश्चात्कृतादीनामपि `वन्द्यत्वं स्यात् ? तेषां आलोचनाधिकारेऽधिकृतत्वात् तेषां
साधुवेषाभावात् । साधुवेषाभावे हि प्रत्येकबुद्धादिरपि न वन्द्यः स्यात् किं पुनरितरः । यदुक्तं श्रीपञ्चकल्पे- 'एयं तु दव्वलिंगं भावे समणत्तणं तु णायव्वं । को उ गुण दव्वलिंगे भण्णति इणमो सुणसु वोच्छं ॥ १ ॥ सक्कारवंदणनमंसणा य पूया कहणा य लिंगकप्पंमि । पत्तेयबुद्धमादी लिंगे छउमत्थतो गहणं ॥ २ ॥ वत्थासणसक्कारो वंदन अब्भट्ठाणं तु णायव्वं । पणिवायो तु नमसण संतगुणकित्तणा पूआ || ३ || दट्ठूण दव्वलिंगं कुव्वते ताणि इंदमादीवि । लिंगंमि अधिज्जते न नज्जत्ती एस विरओ त्ति ॥ ४ ॥
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पत्तेयबुद्ध जावओ गिहिलिंगी अहव अन्नलिंगीओ । देवावि ताण पूएति मा पूज्जं होहि ति कुलिंगं ॥५॥ ननु जीवे समागन्ने घोरवीर तवं चरे । अचयंतो इमे पंच सव्व कुज्जा निच्छयं ॥ १॥ कुसीलोसन्नपात्थे सछंदे सबले तहा। दिट्टीएवि इमे पंच गोयमा ! न निरिक्खए ।। २ ।। तथा-पंचेए सुमहापावे न वज्जिज्ज गोयमा ! | संलावाइ कुसीलेहि भमिही सुमइ जहा ॥ १ ॥ इति श्रीमहानिशीथे तेषां दर्शनमात्रमपि निषिध्यते, तत्कथं तेषां पार्श्व ज्ञानग्रहणादि युज्यते ? । सत्यं तेषां दर्शनमुत्सूत्रभाषिणामेव तत्रापि निषिद्धं, नान्येषां । यतः 'जो उस्सुत्तं भासइ सद्दहइ करेइ कारवे अन्नं । अणुमन्नेइ करतं मणसा वायाइ काणं || १ || मिच्छदिट्ठीनियमा सो सुविहियसाहुसावपि । परिहर णिज्जो जद्दंसणेवि तस्सेह पच्छित्तं ॥ २ ॥ श्रीमहानिशीथेऽपि तदधिकारेंतरा एताः सन्ति गाथा:- सव्वन्नुदेसियं मग्गं सव्वदुक्खपणासणं । सायागारवगुरुए अन्नहा भणिओ मुज्झए || १॥ पयमक्खरं पि जो एवं सब्वन्नुहि पुवेइयं । न रोइज्ज अन्नहा भासे मिच्छदिट्ठी स निच्छयं ॥२॥ एवं नाऊण नाऊण संसरिंग दरिसणालावसंथवं । संवासं व हियाकंखी सब्वाएहि वज्जए ||२|| इत्यादिकं च श्रीमहानिशीथे परिणामिकाणामपि परमसवेगजनकतया भयवाक्यान्येव प्रायो दृश्यन्ते । यथा - जे केइ अणुवहाणेणं सुयनाणमहीयंति जाव समणुजाणंति ते णं महापावकम्मा महतीं सुपसत्यनाणस्सासायणं कुव्वंति । तथा 'जेणं केई न इच्छिज्जा एवं नियंतणं, अविणओवहाणेण चैव पंचमंगलाइ सुअनाणमहिज्जति अज्झावेइ वा अज्झावयमाणस्स वा अन्नं पयाइ' से णं न भविज्जा पियधम्मे दढधम्मे भक्तिए । हीलिज्जा सुतं अत्थं तदुभयं हीलिज्जा गुरुं, आसाइज्जा अईया - नागयवट्टमाणे तित्थयरे, आसा इज्जा आयरिय उवज्झाय
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साहुणो जेणं आसाइज्जा सुअनाणमित्यादि तत्रैवा ३ ऽध्ययने पत्रे १४ । युष्माकमपि विनयोपधानवनादिविधिमविधाय पञ्चमङ्गलाassोयानानां महापापत्वेनाऽतीतानागतवर्त मानतीर्थंकराशातनाकारित्वेन चाऽद्रष्टव्यत्वमेव स्यादिति । ' यच्चिन्त्यते परस्मिंस्तदायाति स्वस्मिन्नि' तिन्याय एवोपढौकते । एवं च सति 'अन्नाणी वि 'हु गोवो आराहित्ता मओ नमोक्कारं । चपाए सिट्ठिसुओ सुदंसणो विस्सुओ जाओ || १ || इति भक्तपरिज्ञायाम् । इहलोगंमि तिदंडी सादिव्व माउलिंगवणमेव । परलोए चंडपिंगल - इंडियजक्खो अ दिट्ठता || २ || इत्यावश्यके चोक्तं कथं सङ्गच्छते ? | अनुपधानेनाऽपि नमस्कारपाठिनां सुगतिप्रतिपादनात् । किञ्च - श्रीमहानिशीथे स्वल्पेऽपि प्रमादे साधोः कुशीलत्वोक्तेः, तस्य च त (त्व) दभिसन्धिनाऽचारित्रित्वात् सर्वाऽऽगमोक्तं साधोः प्रमत्ताऽप्रमत्तरूपगुणस्थानकद्वयं कथं सङ्गच्छते ? । यदि च कुशीलादीनामेकान्तेनाचारित्रित्वं सम्मतं स्यात्तदा तत्रैव गणाधिपत्ययोग्य गुरुगुणानुक्त्वा 'उड्ढ पुच्छा गोयमा ! तओ परेणं उड्ढं हायमाणे कालसमए तत्थ णं जे केई छक्कायसमारंभविवज्जी से णं धन्ने पुन्ने वंदे पुज्जे नमसणिज्जे' इति पंचमाध्ययने षट्कायसमारंभविवजिनामपि कथं पूज्यत्वमवादि । तथा 'दंसणनाणचरितं तवविणयं जत्थ जत्तियं पासे । जिणपत्रत्तं भत्तीइ पूअए तं तहीं भावं ||१|| इति श्रीपंचकल्पेऽपि । अपि च-अवन्द्यमध्योवतकुशीलस्य निर्ग्रन्थमध्योक्तकुशीलस्य च लक्षणे विचार्यमाणे एकत्वमेव दृश्यते । तथाहिअवन्द्यकुशील : श्री आवश्यके ज्ञानदर्शनचारित्राचारविराधकभेदात्रिविध उक्तः । श्रीमहानिशीथे तु - 'अनेकहा कुसीले दंसणकुसीले चरितकुसीले वीरियकुसीले ' इति । निर्ग्रन्थमध्योक्तकुशीलस्य ज्ञानदर्शनचारित्रतपसां विराधको मनसा क्रोधाद्यासेवकश्च पञ्च
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धोक्तः । एवं ज्ञानदर्शनचारित्राणि विराधयन् कुशील इत्युच्यते इति तत्त्वतो द्वयोरपि लक्षणं एकमेव । श्रीमहानिशीथे च एवं अट्ठारसण्हं सोलंगसहस्साणं जो जत्थ पए पमत्ते भविज्जा, से णं तेणं पमायदोसेणं कुसीले जेए' इति सूक्ष्मविराधकस्याप्यश्वन्द्यकुशीलत्वोक्तेः बकुशकुशीलानां निर्ग्रन्थानामपि श्रीभगवत्यामुत्तरगुणस्थानविराधकत्वेनोक्तानां कथं नाऽवन्धकुशीलत्वं, तेषां च तथात्वे शासनोच्छेद एव । यतो यत्तीथं तत् श्रीवीरेण स्वयमेव प्रवर्तितं, यच्च समयमप्यव्यवच्छेदेन दुःप्रसहसूरिपर्यन्तं यावद् यास्यति, तत्तीथं नैव विना साधुभिः, ते (न)च तीर्थाऽभावे निर्ग्रन्था भवन्ति । यच्च कैश्चिदिष्यते-श्रावकैस्संविग्नसाधुपक्षपातिभिर्ज्ञानदर्शनचारित्रिभिरुपयास्यति, तत्पुनरनुपासितगुरोर्वचः । यतो नहि मूलबीजाभावे तदुत्तरकालभाविन्योऽकुंगद्यवस्थाः सम्भवन्ति । तथाहि-प्रथमं तावत् सर्वश्रेयोमूलकल्पो गुरुरन्वेषणीयः। ततस्तत् मुखविनिर्गतदेशनाश्रवणात् सञ्जातशुभपरिणाम: समुच्छलितजीववीर्यः समुदितसम्यक्त्वगुणादिग्रहबुद्धिः समागम्य गुरोः समीपे, नमस्कृत्य परमभक्त्या गुरोः पादपङ्कजं सम्यक्त्वसामायिकादि प्रतिपद्यते । यत उक्तं-'गुरुमूले सुअधम्मो संविग्गो इत्तरं व इअरं वा । वज्जित्तु तओ सम्मं वज्जेइ इमे अ अइआरे ।।१।। इय मिच्छाओ विरयंमि य संमओवगम्म भणइ गुरुपुरओ। अरहं' इत्यादि । आवश्यकेऽपि प्रत्याख्यानाऽध्ययने-'अहण्हं भंते ! तुम्हाणं समीवे मिच्छताओ पडिक्कमामि, सम्मत्तं उवसंपज्जामि' इत्यादिग्रन्थेन गुरुरेवाऽग्रतः कृतः । उपदेशमालायामपि-'कइयावि जिणवरिंदा' इति । न चैतत् क्वापि दृश्यते यथा श्रावस्तीर्थं यास्यतीति । एता युक्तयो दर्शनशुद्धौ पत्रे ३०२ । तस्मात् 'न विणा तित्थं नियंठेहि नातित्था य नियंठया। छक्कायसंजमो जाव,
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ताव अणुसज्जणा दुहं ॥ १ ॥ सव्वजिणाणं निच्चं बकुसकुसीले हि वट्टए तित्थं' इत्यादि मन्तव्यम् । ततः पार्श्वस्थादीनामेकान्तेनावन्द्यत्वाऽक्षराणि भयवाक्यतयैव स्वीकर्तव्यानि नमस्काराद्युपधानवत् । भयवाक्यं हि श्रुत्वा मन्दसंवेगोऽप्यतीव शुद्धः स्यात् । एवं च 'पासत्यो ओसन्नो कुसीलोसन्न० असुइठाणे' इत्यादि वाक्यानि भयवाक्यत्वेन पार्श्वस्थत्वादिकारणशय्या तरपिण्डादानादित्याजनपराणि पार्श्वस्थादिसंसर्ग निषेधपराणि च बोद्धव्यानि । नतु तेषां सर्वथा अवन्द्यख्यापनपराणि । यथाहि लोके दुर्विनीतं पुत्रादिकं प्रति एतस्य भोजनं न दातव्यमित्यादिवाक्यानि दुर्विनीतशिक्षापराणि, न तु भोजननिषेधपराणि । यतः - ' विहि-उज्जम - भय वण्णय - उस्सग्ग- ववाय - तदुभयगयाई । सुताई बहुविहाई समये गंभीरभावा ॥ १ ॥ तेसि विसयविभागं अमुणंतो नाणवरणकम्मुदया । मुज्झइ जीवो तत्तो सपरेसिमसग्गहं जणइ ||२|| त्ति धर्मरत्ने । किञ्च यदि पार्श्वस्थादिसङ्गति निषेधवाक्यानि न भयवावयतयाऽङ्गीक्रियते किन्तु विधिवाक्यतयैव तदानीमावश्यके श्री सम्यक्त्वदण्डके तदतीचारपञ्चके च परतीथिकानामालापान दानप्रसङ्गादिवर्जनवत् पार्श्वस्थादीनामेतद्वर्जनं कृतमभविष्यत् । चतुर्विधमिथ्यात्वे च लोकोत्तरगुरुगतमिथ्यात्वं 'दगपाणं पुप्फफलं अणेस णिज्जं हित्य किच्चाई | अजया पडि सेवंती जइवेसविडंबगा नवरं ॥ १ ॥ इति ( उप० ) गाथोक्तलक्षणसर्व पापस्थाद्यसंयतवन्दन एव सम्भाव्यते । न तु किञ्चिद्विराधकदेशपाश्वस्थादिवन्दने । यदुक्तं चैत्यवन्दना कुलके तदधिकारे 'जे लोगुत्त मलिंगा लिंगियदेहावि पुप्फतंबोलं । अहाकम्मं सव्वं जलं फलं चेव सच्चित्तं ॥१॥ भुजति थीपसंगं ववहारं गंथसंग्रहं भूसं । एगागितम्भमणं सच्छंद वंचि ( चिट्ठि) यं वयणं ॥२॥ चेइय-मठाइवासं वसहीसु वि निच्चमेव
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संठाणं। गेयं नियचरणाणं अव्वचाणं (ट्ठावणमवि) कणयकुसुमेहि ॥३॥ तिविहं तिविहेणेयं मिच्छत्तं जेहिं वज्जिअं दूर । निच्छयओ ते सड्ढा अन्ने उण नामओ चेव ।।४।। अतः ‘सेसा मिच्छादिट्ठी गिहिलिंग-कुलिंग-दवलिंगेहि' इत्यत्र द्रव्य लिङ्गिनोलन्तरोवतलक्षणा एव ग्राह्याः, नतु शय्यातरपिण्डादि-कियद्दोषदूषितदेशपार्श्वस्थाः । तेषां हि सातिचारचारित्रसद्भावेऽपि मिथ्यादृष्टित्वे प्रोच्यमाने महत्याशातना स्यात् । न चातिचारचारित्रित्वं तेषामसिद्धम् । यदुक्तं प्रवचनसारोद्धार वृत्तौ-'एतेषु पाश्वस्थं सर्वथैवाऽचारित्रिणं केचिन्मन्यन्ते, तत्तु युक्तं न प्रतिभाति । यतो यद्येकान्तेन पार्श्व. स्थोऽचारित्री स्यात्, तदा सर्वतो देशतश्चेति विकल्पद्वयकल्पनमसङ्गतं स्यात्, चारित्राभावस्थोभयत्रापि तुल्यत्वात् । तस्मात् ज्ञायते पावस्थस्य सातिचारचारित्रसत्तापि । यतो निशीथचूर्णावपि-'सत्थो अच्छइ सुत्तपोरिसिं अत्थपोरिसि वा (च) न करेइ दसणाइयारेसु वट्टइ, चारित्ते न वट्टइ, अइआरे वा न वज्जेइ। एवं सत्थो अच्छइ पासत्थो ति । एतावता चास्य न सर्वथा चारित्राऽभावोऽवसीयते इति प्रवचनसारोद्धारवृत्तौ । अत्र च निशीथचूर्णी'चारिते न वट्टइ' इति सर्वपाश्वस्थग्रहणं 'अइआरे न वज्जइ' इति वा देशपावस्थस्य ग्रहणं सम्भाव्यते । पावस्थं च केचिदचारित्रिणं मन्यन्ते इति वचनादवसन्नादीनां सुतरां चारित्रसद्भावो निर्णीयते । सर्वथा चारित्राऽभावे च तेषामागमोक्तं कारणजाते वन्द्यत्वमपि न सङ्गच्छते, तहि क्वापि महत्यपि कारणे परतीथिकानां वन्द्यत्वं सिद्धं तैः प्रतिपादितं । तथौघनिर्युक्तो- 'एस गमो पंचण्हवि नीयाईणं गिलाणपडिअरणे । फासुअकरणनिकायणकहणपडिक्कामणागमणं ॥१॥ इत्यत्र पार्श्वस्थादीनां ग्लानत्वे प्रतिजागरणं संविज्ञविहारं प्रत्यभ्युत्थितत्वे सति साधुना सङघाटक
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करणं च । नहि तेषां मिथ्यादृष्टित्वे सम्भवतीति । उपदेशमालायामपि - 'एगागी १ पासत्यो २ सच्छंदो ३ ठाणवासी ४ ओसन्नो ५ । दुगमाइसंजोगा जह बहुआ तह गुरू हुति' ॥ ३८७॥ गाथा । अत्र द्विकादियोगा गुरवो बहुदोषाः पदानां वृद्धया दोषवृद्धेः । 'गच्छगओ अणुओगी गुरुसेवी अनियओ य गुणा ( आ ) उत्तो । संजोएण पयाणं संजम आराहमा भणिआ' || ३८८ || अत्र गच्छगतो, न एकाकी । अनुयोगी, न पापर्वस्थः । गुरुसेवी, न स्वच्छन्दः । अनियतो, न नित्यवासी । ( गुणा ) आयुक्तो, नावसन्नः । अत्र पदानां वृद्धया गुणवृद्धि: । अत्र मच्छगतत्वादिपदचतुष्कयोगे ऽनुयोगित्वाऽऽयुक्तत्वयोरन्यतरस्यायोगे पार्श्वस्थत्वस्यावसन्नत्वस्याभावेऽपि संयमाऽऽराधकत्वं भणता भणितमेव पार्श्वस्थादीनामपि चारित्रित्वम् । तथा 'पासत्यासन्नकुसील संसत्तनीयवासीणं । जो कुणइ ममत्ताइ परिवारनिमित्त च ॥ १॥ तस्स इमं पच्छित्तं । अह पुण साहम्मित्ता संजमहेउं व उज्जमिस्सति वा । कुलगणसंघ गिलाणे तप्पिस्सति एव बुद्धी' | एवं ममत्तकरें परिवालणं अहवस्सवच्छलं । दढआलंबणचित्तो सुज्झति सम्वत्थ साहूतु । इति श्रीजीतकल्पभाष्ये पावस्थादीनां ममत्वादि ममायं परिवारो भविष्यति इत्यादिकारणैरेव निषिद्ध असाधर्मिकत्वादिकारणे तु अनुमतमेव । यच्च श्रीमहानिशीथ सुमतिश्राद्धस्यानन्तसंसारित्वमुक्तं तन्न कुशील संसर्गमात्रजनितं किन्तु नागिलनाम्ना भ्रात्रा प्रतिबोधनेऽपि शुद्धचारित्रसद्भावेऽपि तादृक्कुशीलनिद्वंषसपरिवारस्य सचित्तोदकपरिभोगादिबहुदोषदुष्टस्यैकान्त मिथ्यादृष्टेर भव्यस्य ज्येष्ठसाधोः पार्श्वे दीक्षाग्रहणेन 'जारिसओ तुमं अबुद्धिओ तारियो सोवि तित्थयरो' इति तीर्थंकराशातनाकारित्वेन च वेदितव्यम् । किञ्च यदि पार्श्वस्थादीनां लिङ्गधारित्वमेवेष्टं स्यात् तदाह - ' दगपाणं पुप्फफलं'
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इत्यादिना लिङगमात्रधारिणां लक्षणानि 'बायालमेसणाओ' इत्यादि ( उप० ) गाथासमुदाये नच पार्श्वस्थादिस्थानानि कुतः पृथक् २ प्रतिपादितानि । ततोऽयमाशयः 'दगपाणं पुप्फफलं' इत्यादिलक्षणभृतो द्रव्यलिङिगनोऽसंयताः एव । 'बायालमेसणाओ न रक्खइ' इत्यादि पार्श्वस्थादिस्थानानि तु पुनः २ सेवमानः पश्चात्तापमुक्तो गुरोः पुरस्तादनालोचयन् शनैः कियता कालेनाऽसंयतो भवति । न चायमर्थः स्वमनीषिकयोच्यते । यदुक्तं श्रीकल्पे तृतीयखण्डे - एसणदोसे सीआइ अणाणुतावी न चेव विअडेइ । णेव य करेइ सोधिन य बिरमइ कालओ भस्से' ॥ १॥ भत्र वृत्ति :- 'एषणादोषेषु 'सीदति' तद्दोषदुष्टं भक्त - पानं गृह्णातीत्यर्थः । पुरः कर्मादिदोषदुष्टाहारग्रहणेऽपि न पश्चात्तापवान्, 'न चैव विकटयति' गुरुणां पुरतः स्वदोषं न प्रकाशयति । गुरुदत्तं प्रायश्चित्तं वा न करोति । नैवाशुद्धाहारग्रहणाद् विरमति, एवं कुर्वन् कियता कालेन चारित्रात् परिभ्रश्येदिति । ततो 'गुणाहिए वंदणयं इत्यावश्यक - वचनप्रामाण्यात् कालोचितयतनया यतमाना यतयो गुणाधिकत्वात् श्राद्धानां वन्द्या एव । ननु न वयं सर्वथा साधूनामभावं बदाम, किन्तुमापावस्थादयो भूवन् मा तद्वन्दनदोषश्चाभूदिति न वन्दामहे । तहि जातं युष्माकमप्याषाढाचार्यशिष्य वदव्यक्तनिनवत्वम् । यथा भयं च पार्श्वस्थादिवन्दनदोषाद् गीयते तथा 'माणोअविणयखिसानीयागोय अबोहिभववुडडी । अनमंते छद्दोसा' इति साध्ववन्दनजनिताबोध्यादिदोषेभ्यः कस्मान्न भीयते ? । ततो मोक्षार्थिना सकल सङघ प्रमाणीकृतं मार्गमबगणय्य साम्प्रतमेमास्म - दादिष्टचरेणाग्राह्यनामधेयेन केनापि पुरुषापशब्देन साधूनामुपरि जातमत्सरेण निजकुमतिपरिकल्पितेषु वचनेषु मास्कंदिहि । यतः'नियगमइ विगप्पिअचितिएण सच्छंदबुद्धिरइएण । कत्तो पारत्तहियं
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कीरइ गुरुअणुवएसेणं' ॥१॥ उपदेशमालायां । तथा संसिज्जइ म अकिरियाहु दृसिज्झइ सकलसंघववहारो। कत्तो इतो वि पसी विमाणणाहं वि संघस्स ॥१॥ उप्पत्रसंसया जे सम्म पुच्छंति नेव गीयत्थे । चुक्कंति शुद्धमग्गा ते पल्लवगाहि पडियव्वा ।।२।। जो मोहकलुसियमणो कुणइ अदोसे वि दोससंकप्पं । सिम अप्पाणं वंचइ पेयावमगो वणिसुओ ब्व ॥३॥ अवसउणकप्पणाए सुंदरसउणो असुंदरं फलइ । इय सुंदरावि किरिया असुहफला मलिणहिमयस्सVIEइतिवृहद्भाष्यो। न च शासमे केवाञ्चिदोषान् दृष्ट्वा सर्वेकोसकोपरामारोपयितुं युक्तम् । यदुक्तं बृहन्नाके 'जो जिणसंघं होलह संघावयवस्स दुक्कयं दळं। सम्वजणहील. णिज्जो भवे भवे होइ सो जीवो ॥१॥ जइ कम्मवसा केइ असुहं सेवंति किमिह संघस्स । विट्टालिज्जद गंगा कयाइ कि कागसबरेहि ॥२॥ जो पुण संत्तासंते दोसे गोवेइ समणसंघस्स । विमलगसकित्तिकलिओ सो पावइ निम्बुई तुरियं ॥३॥जह कणरक्खणहेर्ड रक्खिज्जइ जत्तओ पलालंपि । सासणमालिन्नभया तहा कुसीलंपि मोविज्जा ॥४॥ इति । तथा ननु पावस्थादीनां वन्द्यत्वे 'पासत्यो ओसनो' इत्यादिवाक्यैः सह विरोषः । उभ्यते सर्व-देशपावस्थादीनां उक्तयुक्त्या वन्द्यत्वमवन्द्यत्वं चास्ति । आगमवाक्यानि भयवाक्यप्रमाणवाक्यत्वेन द्विधापि भवन्ति । यतः नाणाहिलो वरतरं हीणोवि हु पवयणं पभावंतो। नय दुक्करं करितो सुदवि अप्पागमो पुरियो ।।१।। उपदेशमालायाम् । नाणं मुह नाणं गुणेह नाणेस कुणउ किश्चाई । भकसंसारसमुई नाणेण विणा न उ तरइ ॥१॥ इत्यावश्यके । तथा 'दसणभट्ठो भट्ठो नहु भट्ठो होइ वरणमभट्ठो : सिति परणरहिया दंसणरहिया नःसिज्मंति'।। भक्तपरिजाप्रकीर्णका तबादसारसीहस्स य सेणियस्स, पेढालपुत्तस्स
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rannanna mim848
य सच्चइस्स । अणुत्तरा दसणसंपया तया, विणा चरित्तेणहरं गई गया' ||॥ इत्यावश्यके। तथा 'इय नाणचरणरहिओ सम्मदिट्ठीवि मुक्खदेसं तु। पाउणइ नेवे णाणाइसंजुओ चेव पाउणई' ॥१॥ इत्यावश्यके । 'नाणं च दंसणं चेव चरित्तं च तवो तहा। एस अग्गत्ति पन्नत्तो जिणेहि वरदंसीहिं' ॥१॥ उत्तराध्ययने । 'नाणं पयासगं सोहओ तवो संजमो अ गुतिकरो। तिण्हं पि समाओगे मुक्खो जिणसासणे भणिओ' ॥१॥ आवश्यके । इत्यादिषु जबचित् केवलस्य ज्ञानस्य, क्वचिदर्शनम्य, विचारित्रस्थ, मचित् शानदर्शनचारित्रतपसां मोक्षसायमा प्रतिपाद्यते । बार कश्चितिरोधः । न चापि मतिमतामत्र मतिमोहं कर्तुं युक्तः। मागमे हि कानिचित् एककांशग्राहकतया नयवाक्यानि भवन्ति, कानिचिच्च सम्पूर्भग्राहकतथा प्रमाणवाक्यानि । अत एवातिनिपुणपतीनामेव भगवदाज्ञाऽवगन्तुं शक्या। यदावश्यके-'झाइज्जा निरवज जिणाणमाणं जगप्पईवाणं । अनिपुणजणदुण्णेयं नय-भंगपमाण-गमगहणं ॥११॥ तथा - पुवावरेण परिभाविऊण सुत्तं पयासियवति । जं वयणपारतंतं एवं धम्मत्थिणो लिंगं ॥१॥ ततश्च पार्श्वस्थादीनां क्वचिदवन्धत्वमेव प्रतिपाद्यते, क्वचिच्चाऽवश्यकजीतकल्पादौ कारणे साधून श्राद्धांश्चाश्रित्य वन्द्यत्वं । जीवानशासनग्रन्थादौ तु किया जइ सावयाणं नमणं नो संमयं भवे एयं । पासत्याईयाणं तो कह उवएसमालाए ॥१॥ सिरिधम्मदासगणिणा न वारियं वारियं च अनसि । परतित्थियाण पणमण इन्चाई वयणओं पयर्ड ।।२।। संघेण पुणो माह जो विहिलो हुज्ज सो उनो वंदो। पासस्थाइसढाणं सध्वहा एस परमत्थो ॥३॥ इत्यादियुक्त्या श्राद्धानाश्रित्य निष्कारणेति मन्यत्वम् । तथोपदेशमालाकर्णिकावृत्तौ-'हीणस्स वि सुद्धपस्वगस्से ति बहुपासत्थः
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गुरुतत्त्वव्यवस्थापनबादस्थलम्
जणमिति च गाथा व्याख्यायां श्रार्द्धस्तु तेषामपि भक्ति रेव कर्तव्याक्षरैरिति निष्कारणमेव वन्द्यत्वं क्वचिच्चासंयतत्वं प्रतिपाद्यते । तदेषां सर्वेषां वाक्यानामयं भावो बहुश्रुतैरभिधीयतेसर्वपासत्थ- सर्वावसन्न- यथाच्छंदा बहुदोषत्वेनाऽवन्द्या भवन्तु । देशपार्श्व स्थादयस्तु तादृगपरशुद्ध चारित्र्यभावे प्रागुक्तयुक्तिभिचारित्रसत्ताया: प्रतिपादितत्वेन बकुशकुशीललक्षणान्तः पातित्वेन च प्रागुक्तज्ञानग्रहणादिकारणैश्च वन्द्या एव । उक्तमपि - 'पलए महागुणणं हवंति सेवाfरहा लघुगुणावि । अत्थमिए दिणनाहे अहिल - सइ जणो पईपि ||१|| गुरुगुणरहिओ अगुरु दट्ठव्वो मूलगुणविउत्तो जो नय गुणमित्तविहीणोत्थ चंडरुद्दो उदाहरणं ||२|| तथा श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रभाष्ये ३६५ गाथायामप्युक्तम्- किच समग्गगुणजुअं पत्तं पाविज्जए न दुसमाए। इयरंमिवि तो भती कायव्वा तंमि भणियं च ॥ १॥ पलए महागुणाणं ॥ २ ॥ भूरिगुणो विरलच्चिय इक्कगुणोविहु जणो न सव्वत्थ । निद्दोसाण वि भद्दं पसंसिमो थोवदोसे वि || ३ || दंसणनाणचरितं ० ||४|| श्रीमहानिशीथेऽपि पूर्वगुरुयोग्यगुणौघमुक्त्वा श्रीवीराद् द्विसहस्य - नन्तरं षट्कायारम्भवर्जी गुरुर्वन्द्यतयोक्तः । तदत्र रहस्यं यथा'वंतुच्चारंसुरागो ( रसरिच्छं ) मंसमिमंते' इत्यादि आधाकर्मणोऽतिनिन्द्यत्वप्रतिपादनेऽपि 'सोहंतो अ इमे तहा जइज्ज सव्वत्थ पणगहाणीए । उस्सग्गाववायविऊ जह चरणगुणा न हायंति' ॥ १ ॥ इत्यादिवचनात् पञ्चक- पञ्चकहान्यादियतनया देहयात्रार्थमाधाकर्म गृह णानोऽपि शुद्ध एव । एवं 'असुइट्ठाणे पडिया चंपकमाला न कीरए सीसे' इत्यादिवानाः पार्श्वस्थादीना सङगतिमात्रनिषेघेऽपि विशिष्टतम विशिष्टसाध्वयोगे क्रमेण तेभ्यो हीनतर - हीनतम गुणानामपि साधूनां वन्दनादि सङगत मेव । यद्वा साम्प्रतकालोचित -
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यतनया यतमानयतयः प्रमाद्यपि (दादि) पारवश्येन किञ्चित् २ विराधयन्ति अपि मोक्षार्थमुद्यताः प्रागुषतलक्षणबकुशकुशीलत्वं न व्यभिचरन्तीति तीर्थाऽधारत्वेन च निर्विवाद वन्दनीया एव । यतः 'अज्जवि तिन्नपइन्ना गरुयभरुब्वहणपच्चला लोए । दीसंति महापुरिसा अखंडिअसीलपन्भारा ॥१॥ अज्जवि तवसुसिअंगा तणुअकसाया जिइंदिया धीरा । दीसंति जए जइणो (म) वम्महहिययं वियारंता || २ || अज्जवि दयसंपन्ना छज्जीवनिकायसंजमुज्जुत्ता । दीसंति तवस्सिगणा विगहविरत्ता सुईजुत्ता ||३|| अज्जवि खतिपइट्टियाइं लवनियमसीलकलियाई । विरलाई समाए दीसंति सुसाहरयणाई ॥४॥ इय जाणिऊण एवं मा दोस समाइ दाऊणं । धम्मुज्जमं पमुच्चह अज्जवि धम्मो जय जय ||५|| ता तुलियनियबलाणं सत्तीई जहागमं जयंताणं । संपन्नच्चिय किरिया दुप्पसहंताण साहूणं ॥ ६ ॥ अस्या व्याख्या - तस्मात् कारणात् 'तुलिय'० व्यापारितनिजसामर्थ्येन यथाशक्त्योद्यमवतां सर्वथैवाऽमानुयायिनां सम्पूर्णेव परिपूर्णैव क्रिया, न पूर्वयतिभ्यो न्यूना, स्वसामर्थ्यतुलनायाः समानत्वात् सिद्धसुखसाधकत्वेनावन्ध्यफलत्वाच्च जम्बूस्वामिन आरम्य दुःप्रसहान्तं यावत् समयमात्रमपि व्यवच्छेदाऽभावेन सम्पूर्णेव क्रिया चरणकरणरूपा द्रष्टव्येति गाथार्थ: । दर्शनशुद्धौ । नच प्रायः प्रतिगच्छं सामाचारीणां भेद्रदर्शनान्न ज्ञायते का सत्या चेति तदकरणमेव वरमिति चिन्तयितुं युक्तम् । यदुक्तं श्रीभगवत्यां प्रथमशतके द्वितीयोद्देशके' अस्थि णं भंते ! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्म बेयंति ? | हंता अत्थिा कहण्णं भंते! समणा वि निग्गंथा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेयंति ?, गोयमा ! तेहि नाणंतरेहि दंसणंतरेहिं चरितंतरेहि लिंगंतरेहिं पवयणंतरेहि कप्पसरेहिं
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गुरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलम्
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मग्गंतरेहिं मयंतरेहिं भंगतरेहिं नियमंतरेहिं पमाणंतरेहिं संकिया कंखिया वितिगिच्छियाभेयसमावन्ना कलुससमावन्ना एवं खलु समणा निग्गंथा कंखामोहणिज्ज कम्मं वेयंति' । अत्र वृत्तौ मग्गंतरेहिं मयंतरेहिं इति पदद्वयव्याख्या-यथा मार्ग:-पूर्वपुरुषसमागता सामाचारी । तत्र केषाञ्चित् द्विश्चत्यवन्दना अनेकविधकायोत्सर्गकरणादिकावश्यकसामाचारी, तदन्येषां तु न तथेति । किमत्र तत्त्वं ? । समाधि:-गीतार्थाशठप्रवर्तिताऽसौ सर्वापि न विरुद्धा आचरितलक्षणोपेतत्वात् । आचरितलक्षणं चेदं-असढेण समाइग्नं जं कथइ केणई असावज्ज । न निवारियमन्ने हिं बहुमणुमयमेयमायरियं ॥१॥ तथा मत-समाने एवाऽऽगमे आचार्याणामभिप्रायविशेषः। तत्र सिद्धसेनदिवाकरो मन्यते-युगपत् केवलिनो ज्ञानं दर्शन च, अन्यथा तदावरणक्षयः निरर्थक. स्यात् । जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणस्तुभिन्नसमये ज्ञानदर्शने जीवस्वरूपत्वात् । यथा तदावरणक्षयोपशमे समानेऽपि क्रमेणैव मतिश्रुतोपयोगी, न चंकतरोपयोगे इतरक्षयोपशमाग्भावः। तत्क्षयोपशमस्योत्कृष्टतः षट्षष्टिसागरोपमप्रमाणत्वात्। अतः किं तत्त्वं ?। समाधिः-यदेव मतमागमानुपाति तदेव सत्यमिति मन्तव्यम्, इतरत् पुनरुपेक्षागीयम् । अथाबहुश्रुतेन नैतदवसातुं शक्यते, तदैवं भावनीयम्-आकार्षणां सम्प्रदायादिदोषादयं मतभेदो, जिनानां तु मतमेकमेवाविरुद्धं च, सगादिरहितत्वात् । आह च-- 'अणुवकयपराणुग्गह-परायणा जंजिणा जगप्पवरा । जियरागदोसमोहा य ननहावाहणो तेण: ॥१६॥ इति । तस्माद् व्यवहारतो यतमाना यतयो धर्माणिनां वन्द्या एव । यतः धज्जियं च बबहारं बुद्धहायरियं सया। तमायरंतो बवहारं गरिहं नाभिगच्छइ ॥१॥ उत्तराध्ययन [१] ववहारो वि हु बलवं जं छउमत्थंपि वंदए अरिहा । जा होइ अणांभिन्नो जाणतो धामयं एयं ॥१॥
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गुरुतत्वव्यवस्थापनवादस्थलम्
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श्रीratra | व्यवहारनयमनुसरत एव हि क्रमेण निश्चयशुद्धिप्राप्त्या निःश्रेयस प्राप्तिर्भवति । अत्र साधुस्थापनाविकारः संवेगरंगशालाग्रन्थगतस्तद्गाथाभिरेव लिख्यते यथा 'इत्थंतरमि सड्ढों ' इत्यादिर्ज्ञातव्यः । श्रीउमास्वातिविरचिते तत्त्वार्थभाष्ये 'पुलाकबकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका' इतिसूत्रं तद्व्याख्यारूपं भाष्यं तट्टीका च सविस्तरतो विलोक्या । केवल मणोहि - चोद्दस दस - नवपुत्री हि विरहिए इहि । सुद्धमसुद्धं चरणं, को जाणइ कस्स भावं वा ॥ १ ॥ बाहिरकरणेण समं अभितरियं करिति अमुणंता । गंना तं च भवे, विवज्जओ दिस्सए जेणं ||२|| जदि वा णिरतीचारा हवेज्ज तब्वज्जियाय सुझेज्जा । णयहोंति णिरतीचारसंघयणविईण दुबला ||३|| को वा तहा समत्यो जह तेहि कयं तु वीरपुरिसेहि । जहसत्ती पुण कीरइ जहा पइण्णा हवइ एवं || ४ || सव्वेसि एग चरणं सरणं मोआवगं दुहरायाणं । मा रागदोसवसगा अप्पणी सरणं पलीवेह | ५ || खयउवसमियमिस्संपि अ जिणकाले वि तिविहं भवे चरणं । मीसातोच्चिय पावति खय उवसमं च णण्णत्तो || ६ || निशीथभाष्ये बकुशकुशीलानां छेदयोग्यसबलचारित्रयुक्तत्वं पूर्वं प्रत्यपादि । यतः उवगरणदेहचुक्खा रिद्धी जसगारवा सिआ निच्चं । बहुसबलछेयजुत्ता निग्गंथा बाउला भणिया ॥ १ ॥ अत्रैकविंशशबलव्य ख्या सविस्तरा श्रीदशाश्रुतस्कन्धे सूत्रे तच्चूर्णे च विलोक्या । तथा यावत् सप्तमप्रायश्चित्तापत्तिर्न भवति, ताबच्चारित्रसत्ता । अयमर्थोऽपि तत्रैव प्रतिपादितोऽस्ति । प्रायश्चित्तानि दश यथा - 'आलोयण - पडिक्कमणे मीस - विवेगे तहा विउस्सगो । तव छेय-मूल- अणवद्वया य पारंचि चेव ॥१॥ व्याख्या - यत्प्रायश्चित्तं हस्तशतगमनाद्यालोचनमात्रेणैव शुद्धयति, तदालोचनप्रायश्चित्तं । यत् समितिविराधनादि यद् यदहिंसानुगतं श्लेष्म
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गुरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलम
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क्षेपादि च प्रतिक्रमणेन मिथ्यादुष्कृतेनैव शुद्धयति, न गुरुसमक्षमालोच्यते इति तत्प्रतिक्रमणं २। यत्तु गुरोः पुरः आलोच्यते तदादिष्टं प्रतिक्रामति मिथ्यादुष्कृतं च दत्ते तच्छब्दादिषु रागकरणमालोचनप्रतिक्रमणाहूं मिश्रम ३ । अनेषणीयत्यागाच्छुद्धिविवेकः ४ । दुःस्वप्ने उत्सर्गाच्छुद्धिः ५ । पृथ्वीसंघट्टादेस्तपसा शुद्धिः ६ । अशीत्युत्तरशतोपवासरूपेणोत्कृष्टतपसा शोधयितुमशक्यस्य मुनेः क्रियतेहोरात्रपञ्चकादिक्रमेण पर्यायच्छेदः । प्राणातिपाताद्यपराधेषु पुनर्वतारोपणं मूलं ८। करादिघातके न व्रतेषु स्थाप्यते तावद्यावनोत्कृष्टं तपश्चीणं, पश्चात् स्थाप्यते ९ । पाराञ्चितकमर्जयति स्वलिङगिनी-नृपभार्याद्यासेवयास त्वव्यक्तलिङगधारी कल्पिकवत् क्षेत्राहिः स्थाप्यते द्वादशवर्षाणि, यदि प्रभावनां करोति तदा शीघ्रमेव प्रवेश्यते गच्छे शुद्धत्वात् १०। एतेषु प्रायश्चित्तेषु यावदुत्कृष्टं सप्तमप्रायश्चित्तं सर्वच्छेदरूपं नापद्यते, तावत् स चारित्रसद्भावाद्वन्दनीय इति।
इति श्रीगुरुतत्त्वव्यवस्थापनवादस्थलम् (ग्रन्थ. ४००)
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सर्वोदय प्रिंटिंग प्रेस, गीता मंदिर, नागपुर.
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra dra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir #সেমীকাল্পমাধ্যলাে সঙ্গেলী 1. सर्वज्ञशतक सटीक महोपा. श्री धर्मसागरजीकृत पत्राकारे 3-00 2. सूत्र व्याख्यानविधिशतक बुकाकारे 2-00 3. धर्मसागरग्रंथसंग्रह 2-50 (श्रीमहावीरविज्ञप्तिद्वात्रिशिका षोडशरलोकी महावीरस्तोत्र) 4. औष्ट्रिकमतोत्सूत्रदीपिका बुकाकारे 1-00 5. तात्त्विकप्रश्नोत्तराणि आगमोद्धारककृत पत्राकारे 7-50 6. आगमोद्धारक कृतिसंदोह प्रथमविभाग 4-50 द्वितीयविभाग , 1-81 तृतीयविभाग 1-00 चतुर्थविभाग प्रेसमा 10. षोडशकजीपर आगमोद्धारकरीना व्याख्यानो भागबीजो अने आगमोद्धारकश्रीनी बेकृतिओ सानुवाद बुकाकारे 2-75 11. आगमोद्धारकचीनी श्रुतोपासना 12. कुलकसंदोह श्रीपूर्वाचार्यकृत 13. संदेहसमुच्चय श्रीज्ञानकलशसूरिनिर्मित 14. जैनस्तोत्रसंचय प्रथमविभाग 1-00 द्वितीयविभाग 1-50 16. गुरुतत्त्वप्रदीप (उत्सूत्रकन्दकुद्दालापरनाम) चिरन्तनाचार्य कृत , 2-00 17. जैनस्तोत्रसंचय तृतीयविभाग प्रेसमा प्रालिस्थानों 1. श्री जैनानन्दपुस्तकालय, सुरत गोपीपुरा। 2. श्री सरस्वती पुस्तकभण्डार, अमदावाद ठे. रतनपोल हाथीखाना। 2-50 0.75 0-75 For Private And Personal Use Only